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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला
[ देवनागरी]
दीघनिकाये
साधुविलासिनी
नाम
सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका
पठमो भागो
गन्थकारो महाथेरो आणाभिवंसधम्मसेनापति
विपश्यना विशोधन विन्यास
इगतपुरी १९९८
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धम्मगिरि - पालि- गन्थमाला - १० [देवनागरी]
दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है ।
प्रथम आवृत्ति : १९९८
ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां
मूल्य : अनमोल
यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं ।
सर्वाधिकार मुक्त | पुनर्मुद्रण का स्वागत है ।
इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं ।
ISBN 81-7414-059-X
यह ग्रंथ छट्ट संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है ।
इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज- सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ
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प्रकाशक :
विपश्यना विशोधनं विन्यास
धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र - ४२२४०३, भारत
फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स : (९१-२५५३) ८४१७६
सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक :
दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन
११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर. ओ. सी.
फोन : (८८६-२)२३९५-१९९८, फैक्स : (८८६-२) २३९१-३४१५
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā
[Devanāgari]
Dighanikāye Sādhuvilāsini
nāma Sīlakkhandhavagga-Abhinavatīkā
Pathamo Bhāgo
Ganthakāro Mahāthero Nānābhivamsadhammasenāpati
Devanāgari edition of the Pāli text of the Chattha Sangāyana
Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India
Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C.
Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā—10 [Devanāgari]
The Digha Nikāya and related literature is being published together in eleven volumes.
First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies
Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission.
ISBN 81-7414-059-X
This volume is prepared from the Pāli text of the Chattha Sangāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanāgari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India.
Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176
Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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प्रस्तुत ग्रंथ Present Text
संकेत-सूची
गन्थारम्भकथा
गन्थारम्भकथावण्णना
निदानकथावण्णना
पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
१. ब्रह्मजालसुत्तं
३१
३२
१२३
१२३
२०१
३१२
३२५
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना ३३२
३६०
३७३
३७६
३८१
३८५
३८५
असञ्जीनेवसञ्जीनासीवादवण्णना ३८९
३८९
३९३
परिब्बाजककथावण्णना
चूळसीलवण्णना मज्झिमसीलवण्णना
महासीलवण्णना
एकच्चसस्सतवादवण्णना
अन्तानन्तवादवण्णना अमराविक्खेपवादवण्णना
अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना
अपरन्तकप्पिकवादवण्णना
सञीवादवण्णना
उच्छेदवादवण्णना
दिट्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना
विसय-सूची
vr
२
5
परितस्सितविप्फन्दितवारवण्णना ४००
फस्सपच्चयवारवण्णना
४०२
दिट्टिगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना ४०३
४०९
४१६
विवट्टकथादिवण्णना
पकरणनयवण्णना
सोळसहारवण्णना
देसनाहारवण्णना
विचयहारवण्णना
युत्तिहारसंवण्णना
पदट्ठानहारवण्णना
लक्खणहारवण्णना
चतुब्यूहहारवण्णना
आवत्तहारवण्णना
विभत्तिहारवण्णा
परिवत्तनहारवण्णना
वेवचनहारवण्णना
पञ्ञत्तिहारवण्णना
ओतरणहारवण्णना
सोधनहारवण्णना
अधिट्ठानहारवण्णना
परिक्खारहारवण्णना
समारोपनहारवण्णना
पञ्चविधनयवण्णना नन्दियावट्टनयवण्णना
४२०
४२०
४२१
४२३
४२४
४२५
४२५
४२९
४२९
४३०
४३१
४३२
४३२
४३३
४३४
४३४
४३५
४३६
४३६
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तिपुक्खलनयवण्णना सीहविक्कीळितनयवण्णना
दिसालोचनअङ्कुसनयद्वयवण्णना
सासनपट्ठानवण्णना
४३६ | सद्दानुक्कमणिका ४३७ | गाथानुक्कमणिका
४३८ ४३९
[१]
[४३]
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चिरं तिद्वतु सद्धम्मो! चिरस्थायी हो सद्धर्म !
द्वेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यज्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति। अ०नि० १.२.२१, अधिकरणवम्ग
भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय
और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं।
...ये वो मया धम्मा अभिआ देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन व्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरद्वितिकं...।
दी०नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त
....जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर, बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...।
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प्रस्तुत ग्रंथ
दीघनिकाय साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसके सीलक्खन्धवग्ग में शील, समाधि तथा प्रज्ञा पर सरल ढंग से प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । व्यावहारिक जीवन में आगत वस्तुओं एवं घटनाओं से जुड़ी हुई उपमाओं के सहारे इसमें साधना के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है।
बुद्ध की देशना सरल तथा हृदयस्पर्शी हुआ करती थी। उनकी यह शैली व्याख्यात्मिका थी पर कभी कभी धर्म को सुबोध बनाने के लिये 'चूळनिद्देस' एवं 'महानिद्देस' जैसी अट्ठकथाओं का उन्होंने सृजन किया । प्रथम धर्मसंगीति में बुद्धवचन के संगायन के साथ इनका भी संगायन हुआ। तदनंतर उनके अन्य वचनों पर भी अट्ठकथाएं तैयार हुईं। जब स्थविर महेन्द्र बुद्ध वचन को लेकर श्रीलंका गये, तो वे अपने साथ इन अट्ठकथाओं को भी ले गये । श्रीलंकावासियों ने इन अट्ठकथाओं को सिंहली भाषा में सुरक्षित रखा । कालांतर में बुद्धघोष ने उनका पालि में पुनः परिवर्तन किया।
दीघनिकाय के अर्थों को प्रकाश में लाते हुए बुद्धघोष ने 'सुमङ्गलविलासिनी' नामक अट्ठकथा का प्रणयन किया । पुनः भदंत धम्मपाल ने उस पर 'लीनत्थप्पकासना' नामक टीका लिखी । अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में महाथेर जाणाभिवंसधम्मसेनापति द्वारा 'साधुविलासिनी' नामक अभिनवटीका की रचना की गयी । यह टीका प्रौढ, व्याख्यामूलक तथा धर्म के विभिन्न अंगों पर प्रकाशक रूप है। इसका मुद्रित संस्करण आपके सम्मुख है।
हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा।
निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास
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Dighanikaye
Sādhuvilāsini
nāma
Silakkhandhavagga-Abhinavaṭīkā
Pathamo Bhago
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Ciram Titthatu Saddhammo! May the Truth-based Dhamma Endure for A Long Time!
"Dveme, Bhikkhave, Dhamma saddhammassa thitiyā asammosāya anantaradhānāya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittańca padabyanjanam attho ca sunito. Sunikkhittassa, Bhikkbave,
padabyanjanassa atthopi sunayo hoti."
"There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaranavagga make the Truth-based Dhamma endure
...ye vo maya dhamma abhiññā desita, tattha sabbeheva sangamma samagamma atthena attham byanjanena byañjanam sangayitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciraṭṭhitikam... D. N. 3.177, Pāsādikasutta
for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation."
...the dhammas (truths) which I have taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time...
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Present Text
Sīlakkhandhavagga-Abhinavațīkā (vol. 1)
The Digha Nikāya is an important collection from the perspective of meditation practice. In the first book, the Silakkhandhavagga-pāli, there is a particular abundance of material related to sila, samādhi and pañña. Various aspects of practice have been elucidated by means of similes drawn from familiar objects and the everyday life of the times.
The Buddha's teachings were simple and endearing. His distinctive style was self-explanatory but, still, in order to make the Dhamma all the more lucid, he introduced the use of atthakathā (commentaries), such as the Cūļaniddesa and the Mahāniddesa. These were recited, along with the discourses of the Buddha, at the first Dhamma Council. In time the other atthakathā commenting on all his discourses came into being.
When Ven. Mahinda conveyed the words of the Buddha to Sri Lanka he also took the atthakatha with him. The Sinhalese monks preserved these atịhakathā in their own language. Later on, when they had been lost in India, Ven. Buddhaghosa was able to translate them back to Pāli.
Ven. Buddhaghosa composed the Sumangalavilāsini to clarify the meaning of the Digha Nikāya and Ven. Dhammapāla wrote a sub-commentary on Buddhaghosa's work, known as Linatthappakāsanā. Another sub-commentary on Buddhaghosa's work, named Sādhuvilāsini (Silakkhandhavagga-Abhinavatīkā), was written by Mahāthera Nāņābhivamsadhammasenāpati in the later half of the eighteenth century. It is profound and illustrative, throwing light on various aspects of the Dhamma. This is the book which is presented here.
We sincerely hope that this will provide immense benefit to practitioners of Vipassana as well as research scholars.
Director, Vipassana Research Institute,
Igatpuri, India.
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The Pali alphabets in Devanagari and Roman characters:
Vowels:
अ a
आ ā
इ i
ई
Consonants with Vowel अ (a):
क ka ख kha
ग ga
च ca
cha
ट
ta
tha
त
ta
थ tha
प
pa फ pha
य ya र ra ल la
व va
One nasal sound (niggahita): अं am Vowels in combination with consonants “k” and “kh” : (exceptions: रुru, रू rū)
के ke
क ka का kā kha खा khā
कि ki की ki fa khi
खी khi
खे
Conjunct-consonants:
क्क kka
ख्य khya
ग्व
gva
च्च
cca
ञ्च ñca
डु
dda
nya
tva
dva
nda
nha
bbha
mbha
yha
stra
hma
अ
ख
ण्य
त्व
द्व
न्द
424
न्ह
उभ
म्भ
यह
स्त्र
ट
१ 1
२ 2
छ
क्ख kkha
ख्व khva
nka
च्छ ccha
ञ्छncha
ddha
ज ja
3 da
द da
ब
ba
ण्ह nha
द्द dda
ध्य dhya
न्द्र ndra
प्प ppa
ब्य bya
可
ल्ल lla
स्र
sna
ह्य hya
३ 3
mma
84
घ gha
झ jha
dha
ध dha
भ bha
क्य kya
ग्ग gga
ण्ट
nkha
ज्ज
ञ्ज ñja
nta
त्त
tta
द्ध ddha
ध्व dhva
न्ध ndha
फppha bra
व्र
म्य mya
ल्य lya
स्य sya
ह्व hva
५5
17
उ u
स sa
ि
कु ku
खु
ङ. na
ञ ña
ण na
न
म ma
khu
६ 6
na
क्रkra
घggha क्य nkhya
ज्झ jjha झnjha
ण्ठ ntha
त्थ ttha
द्म dma
न्त
nta
न
nna
प्य pya
म्प mpa
म्ह mha
ल्ह lha
स्स
ssa
ha
ऊ
ह ha ळ la
कू kū खू khū
७ 7
एओ
e
क्ल kla ग्य gya
ङ्ग nga
ञ ñña
डtta
ण्ड nda
त्य tya
य dya
न्त्व
ntva
न्य nya
प्ल pla
म्फ mpha
48
य्य yya
व्ह vha
स्म
sma
khe
९ 9
को ko
खो kho
क्व kva
ग्र gra
ngha व्हñha
ttha
Uu nna
त्र tra
द्र dra
Ferntha न्व
nva
ब्ब bba
म्ब mba
व्य vya
स्त sta
स्व
sva
0 0
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Notes on the pronunciation of Pāli
Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brahmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pali was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation.
The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two consonants and one nasal sound (niggahita).
Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel):
a as the "a" in about
ā
- as the "a" in father
1 as the "i" in mint
- as the "ee" in see
as the "oo" in cool
-
u - as the "u" in put
e is pronounced as the "ay" in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, metta;
o is pronounced as the "o" in no, except before double consonants when it is pronounced slightly shorter: loka, photthabba.
i
ū
Consonants are pronounced mostly as in English.
g - as the "g" in get
C - soft like the "ch" in church
v a very soft -v- or -w
All aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath following the normal unaspirated sound.
th - not as in 'three'; rather 't' followed by 'h' (outbreath) ph- not as in 'photo'; rather 'p' followed by 'h' (outbreath)
The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the tongueturned back; and I is pronounced with the tongue retroflexed, almost a combined 'rl' sound.
The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue touching the upper front teeth.
The nasal sounds:
ǹ guttural nasal, like -ng- as in singer
-
ñas in Spanish señor
n with tongue retroflexed m- as in hung, ring
Double consonants are very frequent in Pali and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn- is like the English 'nn' in "unnecessary".
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संकेत-सूची
अ० नि० = अङ्गत्तरनिकाय अट्ठ० = अट्ठकथा अनु टी० = अनुटीका अप० = अपदान अभि० टी० = अभिनवटीका इतिवु० = इतिवृत्तक उदा० = उदान का० टी० = कङ्क्षावितरणी टीका कथाव०% कथावत्थु खु० नि० = खुद्दकनिकाय खु० पा० = खुद्दकपाठ चरिया० पि० = चरियापिटक चूळनि० = चूळनिद्देस चूळव० = चूळवग्ग जा० = जातक टी० = टीका थेरगा०-थेरगाथा थेरीगा० =थेरीगाथा दी० नि० = दीघनिकाय ध० प० = धम्मपद ध० स० = धम्मसङ्गणी धातु०-धातुकथा नेत्ति० = नेत्तिपकरण पटि० म० = पटिसम्भिदामग्ग
पट्ठा० = पट्टान परि० = परिवार पाचि० = पाचित्तिय पारा० = पाराजिक पु० टी० = पुराणटीका पु० प० = पुग्गलपत्ति पे० व० = पेतवत्थु पेटको० = पेटकोपदेस बु० ० = बुद्धवंस म०नि० = मज्झिमनिकाय महाव० = महावग्ग महानि० = महानिद्देस मि० प० = मिलिन्दपह मूल टी० = मूलटीका यम० = यमक वि० व० = विमानवत्थु वि० वि० टी० = विमतिविनोदनी टीका वि० सङ्ग० अट्ठ० = विनयसङ्गह अट्ठकथा विनय वि० टी० = विनयविनिच्छय टीका विभं० = विभङ्ग विसुद्धिः = विसुद्धिमग्ग सं० नि० = संयुत्तनिकाय सारस्थ० टी० = सारत्थदीपनी टीका सु० नि० = सुत्तनिपात
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दीघनिकाये
साधुविलासिनी
नाम
सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका
पठमो भागो
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।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।।
दीघनिकाये
सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका
गन्थारम्भकथा
यो देसेत्वान सद्धम्मं, गम्भीरं दुद्दसं वरं । दीघदस्सी चिरं कालं, पतिठ्ठापेसि सासनं ।।१।।
विनेय्यज्झासये छेकं, महामतिं महादयं । नत्वान तं ससद्धम्मगणं गारवभाजनं ।।२।।
सङ्गीतित्तयमारुळहा, दीघागमवरस्स या । संवण्णना या च तस्सा, वण्णना साधुवण्णिता ।।३।।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
आचरियधम्मपाल- त्थेरेनेवाभिसङ्घता । सम्मा निपुणगम्भीर - दुद्दसत्थप्पकासना । । ४ । ।
कामञ्च सा तथाभूता, परम्पराभता पन । पाठतो अत्थतो चापि, बहुप्पमादलेखना । । ५ । ।
सङ्क्षेपत्ता च सोतूहि, सम्मा आतुं सुदुक्करा । तस्मा सब्रह्मचारीनं, याचनं समनुस्सरं । । ६ । ।
यो' नेकसेतनागिन्दो, राजा नानारट्ठिस्सरो । सासनसोधने दळ्हं, सदा उस्साहमानसो । ।७।।
तं निस्साय “ममेसोपि, सत्थुसासनजोतने । अप्पेव नामुपत्थम्भो, भवेय्या "ति विचिन्तयं । । ८ । ।
वण्णनं आरभिस्सामि, साधिप्पायमहापयं । अत्थं तमुपनिस्साय, अञ्ञञ्चापि यथारहं ।।९।।
चक्काभिवुड्डिकामानं, धीरानं चित्ततोसनं । साधुविलासिनिं नाम, तं सुणाथ समाहिताति । । १० । ।
गन्थारम्भकथावण्णना
नानानयनिपुणगम्भीरविचित्रसिक्खत्तयसङ्गहस्स
बुद्धानुबुद्धसंवणितस्स
सद्धावह
गुणसम्पन्नस्स दीघागमवरस्स गम्भीरदुरनुबोधत्थदीपकं संवण्णनमिमं करोन्तो सकसमयसमयन्तरगहनज्झोगाहनसमत्थो महावेय्याकरणोयमाचरियो संवण्णनारम्भे रतनत्तयपणामपयोजनादिविधानानि करोन्तो पठमं ताव रतनत्तयपणामं कातुं "करुणासीतलहदय "न्ति आदिमाह । एत्थ च संवण्णनारम्भे रतनत्तयपणामकरणप्पयोजनं तत्थ तत्थ बहुधा पञ्चेन्ति आचरिया । तथा हि वण्णयन्ति -
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गन्थारम्भकथावण्णना
“संवण्णनारम्भे सत्थरि पणामकरणं धम्मस्स स्वाक्खातभावेन सत्थरि पसादजननत्थं, सत्थु च अवितथदेसनभावप्पकासनेन धम्मे पसादजननत्थं । तदुभयप्पसादा हि महतो अत्थस्स सिद्धि होती 'ति (ध० स० टी० १-१ ) ।
अथ वा “रतनत्तयपणामवचनं अत्तनो रतनत्तयप्पसादस्स विञ्ञापनत्थं, तं पन विञ्जूनं चित्ताराधनत्थं, तं अट्ठकथाय गाहणत्थं, तं सब्बसम्पत्तिनिप्फादनत्थ "न्ति । अथ वा “संवण्णनारम्भे रतनत्तयवन्दना संवण्णेतब्बस्स धम्मस्स पभवनिस्सयविसुद्धिपटिवेदनत्थं, तं पन धम्मसंवण्णा विञ्जूनं बहुमानुष्पादनत्थं, तं सम्मदेव तेसं उग्गहणधारणादिक्कमलद्धब्बाय सम्मापटिपत्तिया सब्बहितसुखनिप्फादनत्थ "न्ति । अथवा “मङ्गलभावतो, सब्बकिरियासु पुब्बकिच्चभावतो, पण्डितेहि समाचरितभावतो, आयतिं परेसं दिट्ठानुगतिआपज्जनतो च संवण्णनायं रतनत्तयपणामकिरिया ”ति । अथ वा “चतुगम्भीरभावयुत्तं धम्मविनयं संवण्णेतुकामस्स महासमुहं ओगाहन्तस्स विय पञ्ञवेय्यत्तियसमन्नागतस्सापि महन्तं भयं सम्भवति, भयक्खयावहञ्चेतं रतनत्तयगुणानुस्सरणजनितं पणामपूजाविधानं, ततो च संवण्णनायं रतनत्तयपणामकिरिया’ति । अथ वा " असत्थरिपि सत्थाभिनिवेसस्स लोकस्स यथाभूतं सत्र एव सम्मासम्बुद्धे सत्थुसम्भावनत्थं, असत्थरि च सत्थुसम्भावनपरिच्चजापनत्थं, ' तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं परियापुणित्वा अत्तनो दहती 'ति (पारा० १९५) च वुत्तदोसपरिहरणत्थं संवण्णनायं पणामकिरिया ''ति । अथ वा "बुद्धस्स भगवतो पणामविधानेन सम्मासम्बुद्धभावाधिगमाय बुद्धयानं पटिपज्जन्तानं उस्साहजननत्थं, सद्धम्मस्स च पणामविधानेन पच्चेकबुद्धभावाधिगमाय पच्चेकबुद्धयानं पटिपज्जन्तानं उस्साहजननत्थं, सङ्घस्स च पणामविधानेन परमत्थसङ्घभावाधिगमाय सावकयानं पटिपज्जन्तानं उस्साहजननत्थं संवण्णनायं पणामकिरिया "ति । अथ वा “मङ्गलादिकानि सत्थानि अनन्तरायानि, चिरट्टितिकानि बहुमतानि च भवन्तीति एवंलद्धिकानं चित्तपरितोसनत्थं संवण्णनायं पणामकिरिया”ति । अथ वा “सोतुजनानं यथावुत्तपणामेन अनन्तरायेन उग्गहणधारणादिनिप्फादनत्थं संवण्णनायं पणामकिरिया । सोतुजनानुग्गहमेव हि पधानं कत्वा आचरियेहि संवण्णनारम्भे थुतिपणामपरिदीपकानि वाक्यानि निक्खिपीयन्ति, इतरथा विप तं निक्खेपं कायमनोपणामेनेव यथाधिप्पेतप्पयोजनसिद्धितो किमेतेन गन्थगारवकरणेना''ति च एवमादिना । मयं पन इधाधिप्पेतमेव पयोजनं दस्सयिस्साम, तस्मा संवण्णनारम्भे रतनत्तयपणामकरणं यथापटिञ्ञातसंवण्णनाय अनन्तरायेन परिसमापनत्थन्ति वेदितब्बं । इदमेव च पयोजनं आचरियेन इधाधिप्पेतं । तथा हि वक्खति " इति मे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
पसन्नमतिनो...पे०... तस्सानुभावेना "ति । रतनत्तयपणामकरणहि यथापटिञ्ञातसंवण्णनाय अनन्तरायेन परिसमापनत्थं रतनत्तयपूजाय पञ्ञापाटवभावतो, ताय च पञ्ञापाटवं रागादिमलविधमनतो । वृत्तञ्हेतं -
" यस्मिं महानाम समये अरियसावको तथागतं अनुरसरति, नेवस्स तस्मिं समये रागपरिट्ठितं चित्तं होति न दोसपरियुट्ठितं चित्तं होति, न मोहपरियुट्ठितं चित्तं होति, उजुगतमेवस्स तस्मिं समये चित्तं होती "तिआदि (अ० नि० २.६.१०; अ० नि० ३.११.११) ।
तस्मा रतनत्तयपूजाय विक्खालितमलाय पञ्ञाय पाटवसिद्धि । अथ वा रतनत्तयपूजाय पञ्ञापदट्ठानसमाधिहेतुत्ता पञ्ञापाटवं । वृत्तहेतं
"उजुगतचित्तो खो पन महानाम अरियसावको लभति अत्थवेदं लभत धम्मवेदं, लभति धम्मोपसंहितं पामोज्जं, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदयति, सुखिनो चित्तं समाधियती 'ति (अ० नि० २.६.१०; अ० नि० ३.११.११) ।
समाधिस्स च पञ्ञाय पदट्ठानभावो " समाहितो यथाभूतं पजानातीति (सं० नि० २.३.५; ४.९९; ३.५.१०७१ नेत्ति० ४०; पेटको० ६६, मि० प० १४ ) वुत्तोयेव । ततो एवं पटुभूताय पञ्ञाय खेदमभिभुय्य पटिञ्ञातं संवण्णनं समापयिस्सति । तेन वृत्तं ‘“रतनत्तयपणामकरणञ्हि... पे०... पञ्ञापाटवभावतो 'ति । अथ वा रतनत्तयपूजाय आयुवण्णसुखबलवड्डनतो अनन्तरायेन परिसमापनं वेदितब्बं । रतनत्तयप आयुवण्णसुखबलानि वढन्ति । वुत्तहेतं -
"अभिवादनसीलिस्स, निच्चं वुड्डापचायिनो ।
चारो धम्मा वढन्ति, आयु वण्णो सुखं बल"न्ति । । ( ध० प० १०९ ) ।
ततो आयुवण्णसुखबलवुद्धिया होत्वेव कारियनिट्ठानन्ति वुत्तं " रतनत्तयपूजाय आयु... पे०... वेदितब्ब"न्ति । अथ वा रतनत्तयपूजाय पटिभानापरिहानावहत्ता अनन्तरायेन परिसमापनं वेदितब्बं । अपरिहानावहा हि रतनत्तयपूजा । वृत्तहेतं -
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गन्थारम्भकथावण्णना
“सत्तिमे भिक्खवे, अपरिहानीया धम्मा, कतमे सत्त ? सत्थुगारवता, धम्मगारवता, सङ्घगारवता, सिक्खागारवता, समाधिगारवता, कल्याणमित्तता, सोवचस्सता''ति (अ० नि० २.७.३४) ततो पटिभानापरिहानेन होत्वेव यथापटिञातपरिसमापनन्ति वुत्तं "रतनत्तय...पे०... वेदितब्ब"न्ति । अथ वा पसादवत्थूसु पूजाय पुजातिसयभावतो अनन्तरायेन परिसमापनं वेदितब्बं । पुञातिसया हि पसादवत्थूसु पूजा । वुत्तव्हेतं -
"पूजारहे पूजयतो, बुद्धे यदिव सावके । पपञ्चसमतिक्कन्ते, तिण्णसोकपरिद्दवे ।।
ते तादिसे पूजयतो, निब्बुते अकुतोभये । न सक्का पुनं सङ्खातुं, इमेत्तमपि केनची''ति ।। (खु० पा० १९६; अप० १.१०.२)।
पुञातिसयो च यथाधिप्पेतपरिसमापनुपायो । यथाह -
“एस देवमनुस्सानं, सब्बकामददो निधि । यं यदेवाभिपत्थेन्ति, सब्बमेतेन लब्भती''ति ।। (खु० पा० ८.१०) ।
उपायेसु च पटिपन्नस्स होत्वेव कारियनिट्ठानन्ति वुत्तं “पसादवत्थूसु...पे०... वेदितब्बन्ति । एवं रतनत्तयपूजा निरतिसयपुञक्खेत्तसम्बुद्धिया अपरिमेय्यप्पभावो पुञातिसयोति बहुविधन्तरायेपि लोकसन्निवासे अन्तरायनिबन्धनसकलसंकिलेसविद्धंसनाय पहोति, भयादिउपद्दवञ्च निवारेति । तस्मा सुवुत्तं “संवण्णनारम्भे रतनत्तयपणामकरणं यथापटिञातसंवण्णनाय अनन्तरायेन परिसमापनत्थन्ति वेदितब्बन्ति ।
__एवं पन सपयोजनं रतनत्तयपणामं कत्तुकामो बुद्धरतनमूलकत्ता सेसरतनानं पठमं तस्स पणामं कातुमाह - "करुणासीतलहदयं...पे०... गतिविमुत्त"न्ति । बुद्धरतनमूलकानि हि धम्मसङ्घरतनानि, तेसु च धम्मरतनमूलकं सङ्घरतनं, तथाभावो च “पुण्णचन्दो विय भगवा, चन्दकिरणनिकरो विय तेन देसितो धम्मो, चन्दकिरणसमुप्पादितपीणितो लोको विय सङ्घो''ति एवमादीहि अट्ठकथायमागतउपमाहि विभावेतब्बो। अथ वा सब्बसत्तानं अग्गोति कत्वा पठमं बुद्धो, तप्पभवतो, तदुपदेसिततो च तदनन्तरं धम्मो. तस्स धम्मस्स
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साधारणतो, तदासेवनतो च तदनन्तरं सङ्घो वुत्तो । “सब्बसत्तानं वा हिते विनियोजकोति कत्वा पठमं बुद्धो, सब्बसत्तहितत्ता तदनन्तरं धम्मो, हिताधिगमाय पटिपन्नो अधिगतहितो चाति कत्वा तदनन्तरं सङ्घो वुत्तो 'ति अट्टकथागतनयेन अनुपुब्बता वेदितब्बा |
बुद्धरतनपणामञ्च करोन्तो केवलपणामतो
थोमनापुब्बङ्गमोवसातिसयोति “करुणासीतलहदय 'न्तिआदिपदेहि थोमनापुब्बङ्गमतं दस्सेति । थोमनापुब्बङ्गमेन हि पणामेन सत्थु गुणातिसययोगो, ततो चस्स अनुत्तरवन्दनीयभावो, तेन च अत्तनो पणामस्स खेत्तङ्गतभावो, तेन चस्स खेत्तङ्गतस्स पणामस्स यथाधिप्पेतनिप्पत्तिहेतुभावो दस्सितीति । थोमनापुब्बङ्गमतञ्च दस्सेन्तो यस्सा संवण्णनं कत्तुकामो, सा सुत्तन्तदेसना करुणापञ्ञाप्पधानायेव, न विनयदेसना विय करुणाप्पधाना, नापि अभिधम्मदेसना विय पञ्ञाप्पधानाति तदुभयप्पधानमेव थोमनमारभति । एसा हि आचरियस्स पकति, यदिदं आरम्भानुरूपथोमना । तेनेव च विनयदेसनाय संवण्णनारम्भे “यो कप्पकोटीहि पि.... पे ०... महाकारुणिकस्स तस्सा "ति (पारा० अट्ठ० गन्थारम्भकथा) करुणाप्पधानं, अभिधम्मदेसनाय संवण्णनारम्भे " करुणा विय... पे०... यथारुची 'ति (ध० स० अट्ठ० १) पञ्ञाप्पधानञ्च थोमनमारद्धं । विनयदेसना हि आसयादिनिरपेक्खकेवलकरुणाय पाकतिकसत्तेनापि असोतब्बारहं सुणन्तो, अपुच्छितब्बारहं पुच्छन्तो, अवत्तब्बारहञ्च वदन्तो सिक्खापदं पञ्ञसीति करुणाप्पधाना । तथा हि उक्कंसपरियन्तगतहिरोत्तप्पोपि लोकियसाधुजनेहिपि परिहरितब्बानि “सिखरणी, सम्भिन्ना 'तिआदिवचनानि, (पारा० १८५) यथापराधञ्च गरहवचनानि महाकरुणासञ्चोदितमानसो महापरिसमज्झे अभासि, तंतंसिक्खापदपञत्ति कारणापेक्खाय च वेरञ्जादीसु सारीरिकं खेदमनुभोसि । तस्मा किञ्चापि भूमन्तरपच्चयाकारसमयन्तरकथानं विय विनयपञ्ञत्तियापि समुट्ठापिका पञ अनञ्ञसाधारणताय अतिसयक़िच्चवती, करुणाय किच्चं पन ततोपि अधिकन्ति विनयदेसनाय करुणाप्पधानता वृत्ता । करुणाव्यापाराधिकताय हि देसनाय करुणापधानता, अभिधम्मदेसना पन केवलपञ्ञप्पधाना परमत्थधम्मानं यथासभावपटिवेधसमत्थाय पञ्ञाय तत्थ सातिसयप्पवत्तितो । सुत्तन्तदेसना पन करुणापञ्ञाप्पधाना तेसं तेसं सत्तानं आसयानुसयाधिमुत्तिचरितादिभेदपरिच्छिन्दनसमत्थाय पञ्ञाय सत्तेसु च महाकरुणाय तत्थ सातिसयप्पवत्तितो । सुत्तन्तदेसनाय हि महाकरुणाय समापत्तिबहुलो विनेय्यसन्ताने तदज्झासयानुलोमेन गम्भीरमत्थपदं पतिट्ठपेसि । तस्मा आरम्भानुरूपं करुणापञ्ञप्पधानमेव थोमनं कतन्ति वेदितब्बं, अयमेत्थ समुदायत्थो ।
भगवा
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गन्थारम्भकथावण्णना
अयं पन अवयवत्थो - किरतीति करुणा, परदुक्खं विक्खिपति पच्चयवेकल्लकरणेन अपनेतीति अत्थो । दुक्खितेसु वा किरियति पसारियतीति करुणा। अथ वा किणातीति करुणा, परदुक्खे सति कारुणिकं हिंसति विबाधति, परदुक्खं वा विनासेतीति अत्थो । परदुक्खे सति साधूनं कम्पनं हदयखेदं करोतीति वा करुणा। अथ वा कमिति सुखं, तं रुन्धतीति करुणा। एसा हि परदुक्खापनयनकामतालक्खणा अत्तसुखनिरपेक्खताय कारुणिकानं सुखं रुन्धति विबन्धतीति, सब्बत्थ सद्दसत्थानुसारेन पदनिष्फत्ति वेदितब्बा । उण्हाभितत्तेहि सेवीयतीति सीतं, उण्हाभिसमनं । तं लाति गण्हातीति सीतलं, “चित्तं वा ते खिपिस्सामि, हदयं वा ते फालेस्सामी'ति (सं० नि० १.१.२४६; सु० नि० आळवकसुत्त) एत्थ उरो “हदयन्ति वुत्तं, “वक्कं हदयन्ति (म० नि० १.११०; २.११४; ३.१५४) एत्थ हदयवत्थु, “हदया हदयं मजे अज्ञाय तच्छती''ति (म० नि० १.६३) एत्थ चित्तं, इधापि चित्तमेव अब्भन्तरतुन हदयं । अत्तनो सभावं वा हरतीति हदयं, र-कारस्स द-कारं कत्वाति नेरुत्तिका। करुणाय सीतलं हदयमस्साति करुणासीतलहदयो, तं करुणासीतलहदयं।
कामञ्चेत्थ .. परेसं हितोपसंहारसुखादिअपरिहानिज्झानसभावताय, ब्यापादादीनं उजुविपच्चनीकताय च सत्तसन्तानगतसन्तापविच्छेदनाकारप्पवत्तिया मेत्तामुदितानम्पि चित्तसीतलभावकारणता उपलब्भति, तथापि परदुक्खापनयनाकारप्पवत्तिया परूपतापासहनरसा अविहिंसाभूता करुणाव विसेसेन भगवतो चित्तस्स चित्तपस्सद्धि विय सीतिभावनिमित्तन्ति तस्सायेव चित्तसीतलभावकारणता वुत्ता। करुणामुखेन वा मेत्तामुदितानम्पि हदयसीतलभावकारणता वुत्ताति दट्ठबं । न हि सब्बत्थ निरवसेसत्थो उपदिसीयति, पधानसहचरणाविनाभावादिनयेहिपि यथालब्भमानं गय्हमानत्ता। अपिचेत्थ तंसम्पयुत्तत्राणस्स छअसाधारणञाणपरियापन्नताय असाधारणञाणविसेसनिबन्धनभूता सातिसयं, निरवसेसञ्च सब्ब ताणं विय सविसयब्यापिताय महाकरुणाभावमुपगता अनञ्जसाधारणसातिसयभावप्पत्ता करुणाव हदयसीतलत्तहेतुभावेन वुत्ता । अथ वा सतिपि मेत्तामुदितानं परेसं हितोपसंहारसुखादिअपरिहानिज्झानसभावताय सातिसये हदयसीतलभावनिबन्धनत्ते सकलबुद्धगुणविसेसकारणताय तासम्पि कारणन्ति करुणाय एव हदयसीतलभावकारणता वुत्ता। करुणानिदाना हि सब्बेपि बुद्धगुणा । करुणानुभावनिब्बापियमानसंसारदुक्खसन्तापस्स हि भगवतो परदुक्खापनयनकामताय अनेकानिपि कप्पानमसङ्ख्येय्यानि अकिलन्तरूपस्सेव निरवसेसबुद्धकरधम्मसम्भरणनिरतस्स समधिगतधम्माधिपतेय्यस्स च सन्निहितेसुपि सत्तसङ्घातसमुपनीतहदयूपतापनिमित्तेसु न
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ईसकम्पि चित्तसीतिभावस्स अञथत्तमहोसीति । तीसु चेत्थ विकप्पेसु पठमे विकप्पे अविसेसभूता बुद्धभूमिगता, दुतिये तथेव महाकरुणाभावूपगता, ततिये पठमाभिनीहारतो पट्ठाय तीसुपि अवत्थासु पवत्ता भगवतो करुणा सङ्गहिताति दट्टब्बं ।
पजानातीति पञा, यथासभावं पकारेहि पटिविज्झतीति अत्थो। पञपेतीति वा पञ्जा, तं तदत्थं पाकटं करोतीति अत्थो। सायेव जेय्यावरणप्पहानतो पकारेहि धम्मसभावजोतनटेन पज्जोतोति पञापज्जोतो। पञवतो हि एकपल्लङ्केनपि निसिन्नस्स दससहस्सिलोकधातु एकपज्जोता होति । वुत्तव्हेतं भगवता "चत्तारोमे भिक्खवे, पज्जोता | कतमे चत्तारो ? चन्दपज्जोतो, सूरियपज्जोतो, अग्गिपज्जोतो, पापज्जोतो, इमे खो भिक्खवे, चत्तारो पज्जोता। एतदग्गं भिक्खवे, इमेसं चतुन्नं पज्जोतानं यदिदं पञापज्जोतो"ति (अ० नि० १.४.१४५)। तेन विहतो विसेसेन समुग्घाटितोति पञापज्जोतविहतो, विसेसता चेत्थ उपरि आवि भविस्सति । मुय्हन्ति तेन, सयं वा मुव्हति, मुव्हनमत्तमेव वा तन्ति मोहो, अविज्जा । स्वेव विसयसभावपटिच्छादनतो अन्धकारसरिक्खताय तमो वियाति मोहतमो। सतिपि तमसद्दस्स सदिसकप्पनमन्तरेन अविज्जावाचकत्ते मोहसद्दसन्निधानेन तब्बिसेसकतावेत्थ युत्ताति सदिसकप्पना । पञापज्जोतविहतो मोहतमो यस्साति पञापज्जोतविहतमोहतमो, तं पञापज्जोतविहतमोहतमं।
ननु च सब्बेसम्पि खीणासवानं पञ्जापज्जोतेन अविज्जन्धकारहतता सम्भवति, अथ कस्मा अञसाधारणाविसेसगुणेन भगवतो थोमना वुत्ताति? सवासनप्पहानेन अनञसाधारणविसेसतासम्भवतो। सब्बेसम्पि हि खीणासवानं पञापज्जोतहताविज्जन्धकारत्तेपि सति सद्धाधिमुत्तेहि विय दिट्ठिप्पत्तानं सावकपच्चेकबुद्धेहि सम्मासम्बुद्धानं सवासनप्पहानेन किलेसप्पहानस्स विसेसो विज्जतेवाति । अथ वा परोपदेसमन्तरेन अत्तनो सन्ताने अच्चन्तं अविज्जन्धकारविगमस्स निप्फादितत्ता (निब्बत्तितत्ता म० नि० टी० १.१), तत्थ च सब्बञ्जताय बलेसु च वसीभावस्स समधिगतत्ता, परसन्ततियञ्च धम्मदेसनातिसयानुभावेन सम्मदेव तस्स पवत्तितत्ता, भगवायेव विसेसतो पापज्जोतविहतमोहतमभावेन थोमेतब्बोति । इमस्मिञ्च अत्थविकप्पे पञापज्जोतपदेन ससन्तानगतमोहविधमना पटिवेधपञा चेव परसन्तानगतमोहविधमना देसनापञ्जा च सामञ्जनिद्देसेन, एकसेसनयेन वा सङ्गहिता । न तु पुरिमस्मिं अत्थविकप्पे विय पटिवेधपञ्जायेवाति वेदितब्बं ।
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अपरो नयो- भगवतो जाणस्स जेय्यपरियन्तिकत्ता सकलञय्यधम्मसभावावबोधनसमत्थेन अनावरणाणसङ्घातेन पञआपज्जोतेन सकल य्यधम्मसभावच्छादकमोहतमस्स विहतत्ता अनावरणबाणभूतेन अनञ्जसाधारणपञापज्जोतविहतमोहतमभावेन भगवतो थोमना वेदितब्बा। इमस्मिं पन अत्थविकप्पे मोहतमविधमनन्ते अधिगतत्ता अनावरणजाणं कारणूपचारेन सकसन्ताने मोहतमविधमनन्ति वेदितब्बं । अभिनीहारसम्पत्तिया सवासनप्पहानमेव हि किलेसानं जेय्यावरणप्पहानन्ति, परसन्ताने पन मोहतमविधमनस्स कारणभावतो फलूपचारेन अनावरणञाणमेव मोहतमविधमनन्ति वुच्चति । अनावरणजाणन्ति च सब्ब तञाणमेव, येन धम्मदेसनापच्चवेक्षणानि करोति । तदिदहि जाणद्वयं अत्थतो एकमेव | अनवसेससङ्घतासङ्खतसम्मुतिधम्मारम्मणताय सब्ब तञाणं तत्थावरणाभावतो निस्समचारमुपादाय अनावरणञाणन्ति, विसयप्पवत्तिमुखेन पन अजेहि असाधारणभावदस्सनत्थं द्विधा कत्वा छळासाधारणञाणभेदे वुत्तं ।।
किं पनेत्थ कारणं अविज्जासमुग्घातोयेवेको पहानसम्पत्तिवसेन भगवतो थोमनाय गय्हति, न पन सातिसयं निरवसेसकिलेसप्पहानन्ति ? वुच्चते - तप्पहानवचनेनेव हि तदेकट्ठताय सकलसंकिलेससमुग्घातस्स जोतितभावतो निरवसेसकिलेसप्पहानमेत्थ गम्हति । न हि सो संकिलेसो अत्थि, यो निरवसेसाविज्जासमुग्घातनेन न पहीयतीति । अथ वा सकलकुसलधम्मुप्पत्तिया, संसारनिवत्तिया च विज्जा विय निरवसेसाकुसलधम्मुप्पत्तिया, संसारप्पवत्तिया च अविज्जायेव पधानकारणन्ति तब्बिघातवचनेनेव सकलसंकिलेससमुग्घातवचनसिद्धितो सोयेवेको गव्हतीति । अथ वा सकलसंकिलेसधम्मानं मुद्धभूतत्ता अविज्जाय तं समुग्घातोयेवेको गम्हति । यथाह -
"अविज्जा मुद्धाति जानाहि, विज्जा मुद्धाधिपातिनी । सद्धासतिसमाधीहि, छन्दवीरियेन संयुता''ति ।। (सु० नि० १०३२; चूळ० नि० ५१)।
सनरामरलोकगरुन्ति एत्थ पन पठमपकतिया अविभागेन सत्तोपि नरोति वुच्चति, इध पन दुतियपकतिया मनुजपुरिसोयेव, इतरथा लोकसद्दस्स अवत्तब्बता सिया । “यथा हि पठमपकतिभूतो सत्तो इतराय पकतिया सेवेन पुरे उच्चट्ठाने सेति पवत्ततीति पुरिसोति वुच्चति, एवं जेट्ठभावं नेतीति नरोति । पुत्तभातुभूतोपि हि पुग्गलो मातुजेट्ठभगिनीनं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
पितुट्ठाने तिट्ठति, पगेव भत्तुभूतो इतरास"न्ति (वि० अट्ठ० ४३-४६) नावाविमानवण्णनायं वुत्तं । एकसेसप्पकप्पनेन पुथुवचनन्तविग्गहेन वा नरा, मरणं मरो, सो नत्थि येसन्ति अमरा, सह नरेहि, अमरेहि चाति सनरामरो। गरति उग्गच्छति उग्गतो पाकटो भवतीति गरु, गरसद्दो हि उग्गमे । अपिच पासाणच्छत्तं विय भारियढेन “गरू"ति वुच्चति ।
मातापिताचरियेसु, दुज्जरे अलहुम्हि च । महन्ते चुग्गते चेव, निछेकादिकरेसु च । तथा वण्णविसेसेसु, गरुसद्दो पवत्तति ।।
इध पन सब्बलोकाचरिये तथागते । केचि पन “गरु, गुरूति च द्विधा गहेत्वा भारियवाचकत्ते गरुसद्दो, आचरियवाचकत्ते तु गुरुसद्दो"ति वदन्ति, तं न गहेतब्बं । पाळिविसये हि सब्बेसम्पि यथावुत्तानमत्थानं वाचकत्ते गरुसद्दोयेविच्छितब्बो अकारस्स आकारभावेन “गारव"न्ति तद्धितन्तपदस्स सवुद्धिकस्स दस्सनतो। सक्कतभासाविसये पन गुरुसद्दोयेविच्छितब्बो उकारस्स बुद्धिभावेन अञथा तद्धितन्तपदस्स दस्सनतोति । सनरामरो च सो लोको चाति सनरामरलोको, तस्स गरूति तथा, तं सनरामरलोकगरूं। "सनरमरूलोकगरु"न्तिपि पठन्ति, तदपि अरियागाथत्ता वुत्तिलक्खणतो, अत्थतो च युत्तमेव । अत्थतो हि दीघायूकापि समाना यथापरिच्छेदं मरणसभावत्ता मरूति देवा वुच्चन्ति । एतेन देवमनुस्सानं विय तदवसिट्ठसत्तानम्पि यथारहं गुणविसेसावहताय भगवतो उपकारकतं दस्सेति । ननु चेत्थ देवमनुस्सा पधानभूता, अथ कस्मा तेसं अप्पधानता निद्दिसीयतीति ? अस्थतो पधानताय गहेतब्बत्ता । अओ हि सद्दक्कमो, अञ्जो अत्थक्कमोति सद्दक्कमानुसारेन पधानापधानभावो न चोदेतब्बो । एदिसेसु हि समासपदेसु पधानम्पि अप्पधानं विय निद्दिसीयति यथा तं "सराजिकाय परिसाया''ति, तस्मा सब्बत्थ अत्थतोव अधिप्पायो गवेसितब्बो, न ब्यञ्जनमत्तेन । यथाहु पोराणा -
“अत्थहि नाथो सरणं अवोच,
___न ब्यञ्जनं लोकहितो महेसि ।। तस्मा अकत्वा रतिमक्खरेसु,
अत्थे निवेसेय्य मति मतिमा''ति ।। (कङ्खा० पठमपाराजिककण्डवण्णना)।
अट्ठ०
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गन्थारम्भकथावण्णना
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कामञ्चेत्थ सत्तसङ्घारभाजनवसेन तिविधो लोको, गरुभावस्स पन अधिप्पेतत्ता गरुकरणसमत्थस्सेव युज्जनतो सत्तलोकवसेन अत्थो गहेतब्बो । सो हि लोकीयन्ति एत्थ पुञापुञानि, तब्बिपाको चाति लोको, दस्सनत्थे च लोकसद्दमिच्छन्ति सद्दविदू | अमरग्गहणेन चेत्थ उपपत्तिदेवा अधिप्पेता। अपरो नयो- समूहत्थो एत्थ लोकसद्दो समुदायवसेन लोकीयति पापीयतीति कत्वा । सह नरेहीति सनरा, तेयेव अमराति सनरामरा, तेसं लोको तथा, पुरिमनयेनेव योजेतब्बं । अमरसद्देन चेत्थ उपपत्तिदेवा विय विसुद्धिदेवापि सङ्गय्हन्ति । तेपि हि परमत्थतो मरणाभावतो अमरा। इमस्मिं पन
अत्थविकप्पे नरामरानमेव गहणं उक्कट्ठनिद्देसवसेन यथा “सत्था देवमनुस्सान''न्ति (दी० नि० १.१५७, २५५)। तथा हि सब्बानत्थपरिहानपुब्बङ्गमाय निरवसेसहितसुखविधानतप्पराय निरतिसयाय पयोगसम्पत्तिया, सदेवमनुस्साय पजाय अच्चन्तमुपकारिताय अपरिमितनिरुपमप्पभावगुणसमङ्गिताय च सब्बसत्तुत्तमो भगवा अपरिमाणास लोकधातस अपरिमाणानं सत्तानं उत्तममनसाधारणं गारवद्वानन्ति । कामञ्च इत्थीनम्पि तथाउपकारत्ता भगवा गरुयेव, पधानभूतं पन लोकं दस्सेतुं पुरिसलिङ्गेन वुत्तन्ति दट्ठब्बं । नेरुत्तिका पन अविसेसनिच्छितट्ठाने तथा निद्दिट्टमिच्छन्ति यथा “नरा नागा च गन्धब्बा, अभिवादेत्वान पक्कमुन्ति (अप० १.१.४८) । तथा चाहु
"नपुंसकेन लिङ्गेन, सद्दोदाहु पुमेन वा। निद्दिस्सतीति आतब्बमविसेसविनिच्छिते''ति ।।
वन्देति एत्थ पन -
वत्तमानाय पञ्चम्यं, सत्तम्यञ्च विभत्तियं । एतेसु तीसु ठानेसु, वन्देसद्दो पवत्तति ।।
इध पन वत्तमानायं अासमसम्भवतो। तत्थ च उत्तमपुरिसवसेनत्थो गहेतब्बो “अहं वन्दामी''ति । नमनथुतियत्थेसु च वन्दसद्दमिच्छन्ति आचरिया, तेन च सुगतपदं, नाथपदं वा अज्झाहरित्वा योजेतब्बं । सोभनं गतं गमनं एतस्साति सुगतो। गमनञ्चेत्थ कायगमनं, जाणगमनञ्च, कायगमनम्पि विनेय्यजनोपसङ्कमनं, पकतिगमनञ्चाति दुबिधं । भगवतो हि विनेय्यजनोपसङ्कमनं एकन्तेन तेसं हितसुखनिप्फादनतो सोभनं, तथा लक्खणानुब्यञ्जनपटिमण्डितरूपकायताय दुतविलम्बितखलितानुकड्डननिप्पीळनुक्कुटिक
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
कुटिलाकुलतादिदोसरहितमवहसितराजहंस वसभवारणमिगराजगमनं पकतिगमनञ्च, विमलविपुलकरुणासतिवीरियादिगुणविसेससहितम्पि आणगमनं अभिनीहारतो पट्ठाय याव महाबोधि, ताव निरवज्जताय सोभनमेवाति । अथ वा “ सयम्भूञाणेन सकलम्पि लोकं परिञ्ञाभिसमयवसेन परिजानन्तो सम्मा गतो अवगतोति सुगतो । यो हि गत्यत्थो, सो बुद्धयत्थो । यो च बुद्धयत्थो, सो गत्यत्थोति । तथा लोकसमुदयं पहानाभिसमयवसेन पजहन्तो अनुप्पत्तिधम्मतमापादेन्तो सम्मा गतो अतीतोति सुगतो । लोकनिरोधं सच्छिकिरियाभिसमयवसेन सम्मा गतो अधिगतोति सुगतो । लोकनिरोधगामिनिं पटिपदं भावनाभिसमयवसेन सम्मा गतो पटिपन्नोति सुगतो, अयञ्चत्थो 'सोतापत्तिमग्गेन ये किलेसा पहीना, ते किलेसे न पुनेति न पच्चेति न पच्चागच्छतीति ( महा० नि० ३८; चूळ० नि० २७) सुगतो"तिआदिना निद्देसनयेन विभावेतब्बो |
अपरो नयो- सुन्दरं सम्मासम्बोधिं निब्बानमेव वा गतो अधिगतोति सुगतो । भूतं तच्छं अत्थसंहितं यथारहं कालयुत्तमेव वाचं विनेय्यानं सम्मा गदतीति वा सुगतो, दकारस्स त-कारं कत्वा, तं सुगतं । पुञ्ञापुञ्ञकम्मेहि उपपज्जनवसेन गन्तब्बाति गतियो, उपपत्तिभवविसेसा । ता पन निरयादिभेदेन पञ्चविधा, सकलस्सापि भवगामिकम्मस्स अरियमग्गाधिगमेन अविपाकारहभावकरणेन निवत्तितत्ता पञ्चहिपि ताहि विसंयुत्त हुत्वा मुत्तोति गतिविमुत्तो । उद्धमुद्धभवगामिनो हि देवा तंतंकम्मविपाकदानकालानुरूपेन ततो ततो भवतो मुत्तापि मुत्तमत्ताव, न पन विसञ्ञगवसेन मुत्ता, गतिपरियापन्ना च तंतंभवगामिकम्मस्स अरियमग्गेन अनिवत्तितत्ता, न तथा भगवा | भगवा पन यथावुत्तप्पकारेन विसंयुत्तो हुत्वा मुत्तोति । तस्मा अनेन भगवतो कत्थचिपि गतिया अपरियापन्नतं दस्सेति । यतो च भगवा “देवातिदेवो 'ति वुच्चति । तेनेवाह -
“येन देवूपपत्यस्स, गन्धब्बो वा विहङ्गमो ।
यक्खत्तं येन गच्छेय्यं मनुस्सत्तञ्च अब्बजे ।
ते मय्हं आसवा खीणा, विद्धस्ता विनळीकता "ति ।। (अ० नि० १.४.३६) ।
तंतंगतिसंवत्तनकानञ्हि कम्मकिलेसानं महाबोधिमूलेयेव अग्गमग्गेन पहीनत्ता नत्थ भगवतो तंतंगतिपरियापन्नताति अच्चन्तमेव भगवा सब्बभवयोनिगतिविञ्ञाणट्ठितिसत्तावाससत्तनिकायेहि परिमुत्तोति । अथ वा कामं सउपादिसेसायपि निब्बानधातुया ताहि
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गन्थारम्भकथावण्णना
गतीहि विमुत्तो, एसा पन “पञापज्जोतविहतमोहतम"न्ति एत्थेवन्तोगधाति इमिना पदेन अनुपादिसेसाय निब्बानधातुयाव थोमेतीति दट्ठब् ।
____एत्थ पन अत्तहितसम्पत्तिपरहितपटिपत्तिवसेन द्वीहाकारेहि भगवतो थोमना कता होति। तेसु अनावरणञाणाधिगमो, सह वासनाय किलेसानमच्चन्तप्पहानं, अनुपादिसेसनिब्बानप्पत्ति च अत्तहितसम्पत्ति नाम, लाभसक्कारादिनिरपेक्खचित्तस्स पन सब्बदुक्खनिय्यानिकधम्मदेसनापयोगतो देवदत्तादीसुपि विरुद्धसत्तेसु निच्चं हितज्झासयता, विनीतब्बसत्तानं आणपरिपाककालागमनञ्च आसयतो परहितपटिपत्ति नाम । सा पन आसयपयोगतो दुविधा, परहितपटिपत्ति तिविधा च अत्तहितसम्पत्ति इमाय गाथाय यथारहं पकासिता होति । “करुणासीतलहदयन्ति हि एतेन आसयतो परहितपटिपत्ति, सम्मा गदनत्थेन सुगतसद्देन पयोगतो परहितपटिपत्ति । “पञापज्जोतविहतमोहतमं गतिविमुत्त"न्ति एतेहि, चतुसच्चपटिवेधत्थेन च सुगतसद्देन तिविधापि अत्तहितसम्पत्ति, अवसिट्टटेन पन तेन, “सनरामरलोकगरु"न्ति च एतेन सब्बापि अत्तहितसम्पत्ति, परहितपटिपत्ति च पकासिता होति ।
अथ वा हेतुफलसत्तूपकारवसेन तीहाकारेहि थोमना कता। तत्थ हेतु नाम महाकरुणासमायोगो, बोधिसम्भारसम्भरणञ्च, तदुभयम्पि पठमपदेन यथारुततो, सामत्थियतो च पकासितं । फलं पन जाणप्पहानआनुभावरूपकायसम्पदावसेन चतुब्बिधं । तत्थ सब्ब ताणपदट्ठानं मग्गआणं, तम्मूलकानि च दसबलादिाणानि जाणसम्पदा, सवासनसकलसंकिलेसानमच्चन्तमनुप्पादधम्मतापादनं पहानसम्पदा, यथिच्छितनिप्फादने आधिपच्चं आनुभावसम्पदा, सकललोकनयनाभिसेकभूता पन लक्खणानुब्यञ्जनपटिमण्डिता अत्तभावसम्पत्ति रूपकायसम्पदा । तासु आणप्पहानसम्पदा दुतियपदेन, सच्चपटिवेधत्थेन च सुगतसद्देन पकासिता, आनुभावसम्पदा ततियपदेन, रूपकायसम्पदा सोभनकायगमनत्थेन सुगतसद्देन लक्खणानुब्यञ्जनपारिपूरिया विना तदभावतो। यथावुत्ता दुविधापि परहितपटिपत्ति सत्तूपकारसम्पदा, सा पन सम्मा गदनत्थेन सुगतसद्देन पकासिताति वेदितब्बा।
अपिच इमाय गाथाय सम्मासम्बोधि तम्मूल - तप्पटिपत्तियादयो अनेके बुद्धगुणा आचरियेन पकासिता होन्ति । एसा हि आचरियानं पकति, यदिदं येन केनचि पकारेन अत्थन्तरविज्ञापनं । कथं ? “करुणासीतलहदय"न्ति हि एतेन सम्मासम्बोधिया मूलं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
दस्सेति । महाकरुणासञ्चोदितमानसो हि भगवा संसारपङ्कतो सत्तानं समुद्धरणत्थं कताभिनीहारो अनुपुब्बेन पारमियो पूरेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिमधिगतोति करुणा सम्मासम्बोधिया मूलं । “पञापज्जोतविहतमोहतम"न्ति एतेन सम्मासम्बोधिं दस्सेति । सब्बञ्जतञाणपदट्ठानहि अग्गमग्गाणं, अग्गमग्गजाणपदट्ठानञ्च सब्ब ताणं “सम्मासम्बोधी''ति वुच्चति । सम्मा गमनत्थेन सुगतसद्देन सम्मासम्बोधिया पटिपत्तिं दस्सेति लीनुद्धच्चपतिद्वानायूहनकामसुखत्तकिलमथानुयोगसस्सतुच्छेदाभिनिवेसादिअन्तद्वयरहिताय करुणापापरिग्गहिताय मज्झिमाय पटिपत्तिया पकासनतो, इतरेहि सम्मासम्बोधिया पधानाप्पधानप्पभेदं पयोजनं दस्सेति । संसारमहोघतो सत्तसन्तारणव्हेत्थ पधानं, तदमप्पधानं । तेसु च पधानेन पयोजनेन परहितपटिपत्तिं दस्सेति, इतरेन अत्तहितसम्पत्तिं, तदुभयेन च अत्तहितपटिपन्नादीसु चतूसु पुग्गलेसु भगवतो चतुत्थपुग्गलभावं पकासेति । तेन च अनुत्तरं दक्खिणेय्यभावं, उत्तमञ्च वन्दनीयभावं, अत्तनो च वन्दनाय खेत्तङ्गतभावं विभावेति ।
अपिच करुणाग्गहणेन लोकियेसु महग्गतभावप्पत्तासाधारणगुणदीपनतो सब्बलोकियगुणसम्पत्ति दस्सिता, पञाग्गहणेन सब्ब ताणपट्ठानमग्गजाणदीपनतो सब्बलोकुत्तरगुणसम्पत्ति । तदुभयग्गहणसिद्धो हि अत्थो “सनरामरलोकगरु'"न्तिआदिना विपञ्चीयतीति । करुणाग्गहणेन च निरुपक्किलेसमुपगमनं दस्सेति, पञ्जाग्गहणेन अपगमनं । तथा करुणाग्गहणेन लोकसमानुरूपं भगवतो पवत्तिं दस्सेति लोकवोहारविसयत्ता करुणाय, पञ्जाग्गहणेन लोकसमझाय अनतिधावनं । सभावानवबोधेन हि धम्मानं सभावं अतिधावित्वा सत्तादिपरामसनं होति । तथा करुणाग्गहणेन महाकरुणासमापत्तिविहारं दस्सेति, पञ्जाग्गहणेन तीसु कालेसु अप्पटिहताणं, चतुसच्चजाणं, चतुपटिसम्भिदाजाणं, चतुवेसारज्जजाणं, . करुणाग्गहणेन महाकरुणासमापत्तिञाणस्स गहितत्ता सेसासाधारणञाणानि, छ अभिञा, अट्ठसु परिसासु अकम्पनञआणानि, दस बलानि, चुद्दस बुद्धगुणा, सोळस आणचरिया, अट्ठारस बुद्धधम्मा, चतुचत्तारीस आणवत्थूनि, सत्तसत्तति आणवत्थूनीति एवमादीनं अनेकेसं पापभेदानं वसेन आणचारं दस्सेति । तथा करुणाग्गहणेन चरणसम्पत्तिं, पञ्जाग्गहणेन विज्जासम्पत्तिं । करुणाग्गहणेन अत्ताधिपतिता, पञ्जाग्गहणेन धम्माधिपतिता । करुणाग्गहणेन लोकनाथभावो, पाग्गहणेन अत्तनाथभावो । तथा करुणाग्गहणेन पुब्बकारीभावो, पञआग्गहणेन कतञ्जता । करुणाग्गहणेन अपरन्तपता, पञ्जाग्गहणेन अनत्तन्तपता। करुणाग्गहणेन वा बुद्धकरधम्मसिद्धि, पजाग्गहणेन बुद्धभावसिद्धि । तथा करुणाग्गहणेन परसन्तारणं,
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गन्थारम्भकथावण्णना
पञ्जाग्गहणेन अत्तसन्तारणं । तथा करुणाग्गहणेन सब्बसत्तेसु अनुग्गहचित्तता, पाग्गहणेन सब्बधम्मेसु विरत्तचित्तता दस्सिता होति सब्बेसञ्च बुद्धगुणानं करुणा आदि तन्निदानभावतो, पञआ परियोसानं ततो उत्तरि करणीयाभावतो। इति आदिपरियोसानदस्सनेन सब्बे बुद्धगुणा दस्सिता होन्ति । तथा करुणाग्गहणेन सीलक्खन्धपुब्बङ्गमो समाधिक्खन्धो दस्सितो होति । करुणानिदानहि सीलं ततो पाणातिपातादिविरतिप्पवत्तितो, सा च झानत्तयसम्पयोगिनीति, पञ्जावचनेन पञआक्खन्धो । सीलञ्च सब्बबुद्धगुणानं आदि, समाधि मझे, पञ्जा परियोसानन्ति एवम्पि आदिमज्झपरियोसानकल्याणा सब्बे बुद्धगुणा दस्सिता होन्ति नयतो दस्सितत्ता। एसो एव हि निरवसेसतो बुद्धगुणानं दस्सनुपायो, यदिदं नयग्गाहणं, अञथा को नाम समत्थो भगवतो गुणे अनुपदं निरवसेसतो दस्सेतुं । तेनेवाह -
"बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वणं,
कप्पम्पि चे अज्ञमभासमानो ।। खीयेथ कप्पो चिरदीघमन्तरे,
वण्णो न खीयेथ तथागतस्सा''ति ।।
तेनेव च आयस्मता सारिपुत्तत्थेरेनापि बुद्धगुणपरिच्छेदनं पति भगवता अनुयुत्तेन "नो हेतं भन्ते"ति पटिक्खिपित्वा “अपि च मे भन्ते धम्मन्वयो विदितो''ति सम्पसादनीयसुत्ते वुत्तं।
एवं सर्वोपेन सकलसब्ब गुणेहि भगवतो थोमनापुब्बङ्गमं पणामं कत्वा इदानि सद्धम्मस्सापि थोमनापुब्बङ्गमं पणामं करोन्तो "बुद्धोपी"तिआदिमाह । तत्थायं सह पदसम्बन्धेन सङ्घपत्थो - यथावुत्तविविधगुणगणसमन्नागतो बुद्धोपि यं अरियमग्गसङ्खातं धम्म, सह पुब्बभागपटिपत्तिधम्मेन वा अरियमग्गभूतं धम्मं भावेत्वा चेव यं फलनिब्बानसङ्खातं धम्मं, परियत्तिधम्मपटिपत्तिधम्मेहि वा सह फलनिब्बानभूतं धम्मं सच्छिकत्वा च सम्मासम्बोधिसङ्खातं बुद्धभावमुपगतो, वीतमलमनुत्तरं तं धम्मम्पि वन्देति ।
तत्थ बुद्धसद्दस्स ताव "बुज्झिता सच्चानीति बुद्धो। बोधेता पजायाति बुद्धो"तिआदिना निद्देसनयेन अत्थो वेदितब्बो । अथ वा अग्गमग्गजाणाधिगमेन सवासनाय सम्मोहनिद्दाय अच्चन्तविगमनतो, अपरिमितगुणगणालङ्कतसब्ब ताणप्पत्तिया
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
विकसितभावतो च बुद्धवाति बुद्धो जागरणविकसनत्थवसेन । अथ वा कस्सचिपि अय्यधम्मस्स अनवबुद्धस्स अभावेन अय्यविसेसस्स कम्मभावागहणतो कम्मवचनिच्छायाभावेन अवगमनत्थवसेन कत्तुनिद्देसोव लब्भति, तस्मा बुद्धवाति बुद्धोतिपि वत्तब्बो। पदेसग्गहणे हि असति गहेतब्बस्स निप्पदेसताव विज्ञायति यथा “दिक्खितो न ददाती"ति । एवञ्च कत्वा कम्मविसेसानपेक्खा कत्तरि एव बुद्धसद्दसिद्धि वेदितब्बा, अस्थतो पन पारमितापरिभावितो सयम्भुञाणेन सह वासनाय विहतविद्धस्तनिरवसेसकिलेसोमहाकरुणासब्ब ताणादिअपरिमेय्यगुणगणाधारो खन्धसन्तानो बुद्धो, यथाह -
"बुद्धोति यो सो भगवा सयम्भू अनाचरियको पुब्बे अननुस्सुतेसु धम्मेसु सामं सच्चानि अभिसम्बुज्झि, तत्थ च सब्ब तं पत्तो, बलेसु च वसीभावन्ति (महा० नि० १९२; चूळ० नि० ९७; पटि० म० १६१) ।
अपिसद्दो सम्भावने, तेन एवं गुणविसेसयुत्तो सोपि नाम भगवा ईदिसं धम्म भावेत्वा, सच्छिकत्वा च बुद्धभावमुपगतो, का नाम कथा अञ्जसं सावकादिभावमुपगमनेति धम्मे सम्भावनं दीपेति । बुद्धभावन्ति सम्मासम्बोधिं । येन हि निमित्तभूतेन सब्ब ताणपदट्ठानेन अग्गमग्गजाणेन, अग्गमग्गजाणपदट्ठानेन च सब्ब ताणेन भगवति “बुद्धो"ति नाम, तदारम्मणञ्च आणं पवत्तति, तमेविध "भावो''ति वुच्चति । भवन्ति बुद्धिसद्दा एतेनाति हि भावो। तथा हि वदन्ति -
"येन येन निमित्तेन, बुद्धि सदो च वत्तते । तंतंनिमित्तकं भावपच्चयेहि उदीरित"न्ति ।।
भावेत्वाति उप्पादेत्वा, वड्डत्वा वा । सच्छिकत्वाति पच्चक्खं कत्वा । चेव-सद्दो च-सद्दो च तदुभयत्थ समुच्चये। तेन हि सद्दद्वयेन न केवलं भगवा धम्मस्स भावनामत्तेन बुद्धभावमुपगतो, नापि सच्छिकिरियामत्तेन, अथ खो तदुभयेनेवाति समुच्चिनोति । उपगतोति पत्तो, अधिगतोति अत्थो । एतस्स "बुद्धभाव"न्ति पदेन सम्बन्धो । वीतमलन्ति एत्थ विरहवसेन एति पवत्ततीति वीतो, मलतो वीतो, वीतं वा मलं यस्साति वीतमलो, तं वीतमलं। “गतमल"न्तिपि पाठो दिस्सति, एवं सति सउपसग्गो विय अनुपसग्गोपि गतसद्दो विरहत्थवाचको वेदितब्बो धातूनमनेकत्थत्ता । गच्छति अपगच्छतीति हि गतो,
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गन्थारम्भकथावण्णना
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धम्मो । गतं वा मलं, पुरिमनयेन समासो। अनुत्तरन्ति उत्तरविरहितं । यथानुसिटुं पटिपज्जमाने अपायतो, संसारतो च अपतमाने कत्वा धारेतीति धम्मो, नवविधो लोकुत्तरधम्मो। तप्पकासनत्ता, सच्छिकिरियासम्मसनपरियायस्स च लब्भमानत्ता परियत्तिधम्मोपि इध सङ्गहितो । तथा हि “अभिधम्मनयसमुदं अधिगच्छि, तीणि पिटकानि सम्मसी"ति च अट्ठकथायं वुत्तं, तथा “यं धम्मं भावेत्वा सच्छिकत्वाति च वुत्तत्ता भावनासच्छिकिरियायोग्यताय बुद्धकरधम्मभूताहि पारमिताहि सह पुब्बभागअधिसीलसिक्खादयोपि इध सङ्गहिताति वेदितब्बा | तापि हि विगतपटिपक्खताय वीतमला, अनञसाधारणताय अनुत्तरा च । कथं पन ता भावेत्वा, सच्छिकत्वा च भगवा बुद्धभावमुपगतोति ? वुच्चते - सत्तानहि संसारवट्टदुक्खनिस्सरणाय [निस्सरणत्थाय (पण्णास टी०) निस्सरणे (कत्थचि)] कतमहाभिनीहारो महाकरुणाधिवासनपेसलज्झासयो पञ्जाविसेसपरियोदातनिम्मलानं दानदमसञमादीनं उत्तमधम्मानं कप्पानं सतसहस्साधिकानि चत्तारि असङ्ख्येय्यानि सक्कच्चं निरन्तरं निरवसेसं भावनासच्छिकिरियाहि कम्मादीसु अधिगतवसीभावो अच्छरियाचिन्तेय्यमहानुभावो अधिसीलाधिचित्तानं परमुक्कंसपारमिप्पत्तो भगवा पच्चयाकारे चतुवीसतिकोटिसतसहस्समुखेन महावजिरञाणं पेसेत्वा अनुत्तरं सम्मासम्बोधिसङ्घातं बुद्धभावमुपगतोति ।
इमाय पन गाथाय विज्जाविमुत्तिसम्पदादीहि अनेकेहि गुणेहि यथारहं सद्धम्म थोमेति । कथं ? एत्थ हि "भावेत्वा"ति एतेन विज्जासम्पदाय थोमेति, “सच्छिकत्वा"ति एतेन विमुत्तिसम्पदाय । तथा पठमेन झानसम्पदाय, दुतियेन विमोक्खसम्पदाय । पठमेन वा समाधिसम्पदाय, दुतियेन समापत्तिसम्पदाय । अथ वा पठमेन खयञाणभावेन, दुतियेन अनुप्पादआणभावेन । पठमेन वा विज्जूपमताय, दुतियेन वजिरूपमताय । पठमेन वा विरागसम्पत्तिया, दुतियेन निरोधसम्पत्तिया। तथा पठमेन निय्यानभावेन, दुतियेन निस्सरणभावेन । पठमेन वा हेतुभावेन, दुतियेन असङ्खतभावेन । पठमेन वा दस्सनभावेन, दुतियेन विवेकभावेन । पठमेन वा अधिपतिभावेन, दुतियेन अमतभावेन धम्मं थोमेति । अथ वा "यं धम्मं भावेत्वा बुद्धभावं उपगतो'ति एतेन स्वाक्खातताय धम्म थोमेति, “सच्छिकत्वा''ति एतेन सन्दिट्टिकताय। तथा पठमेन अकालिकताय, दुतियेन एहिपस्सिकताय । पठमेन वा ओपनेय्यिकताय, दुतियेन पच्चत्तंवेदितब्बताय । पठमेन वा सह पुब्बभागसीलादीहि सेक्खेहि सीलसमाधिपाक्खन्धेहि, दुतियेन सह असङ्खतधातुया असेक्खेहि धम्मं थोमेति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
"वीतमल''न्ति इमिना पन संकिलेसाभावदीपनेन विसुद्धताय धम्मं थोमेति, “अनुत्तर"न्ति एतेन अञस्स विसिट्ठस्स अभावदीपनेन परिपुण्णताय । पठमेन वा पहानसम्पदाय, दुतियेन सभावसम्पदाय । पठमेन वा भावनाफलयोग्यताय । भावनागुणेन हि सो संकिलेसमलसमुग्घातको, तस्मानेन भावनाकिरियाय फलमाह । दुतियेन सच्छिकिरियाफलयोग्यताय । तदुत्तरिकरणीयाभावतो हि अनञसाधारणताय अनुत्तरभावो सच्छिकिरियानिब्बत्तितो, तस्मानेन सच्छिकिरियाफलमाहाति ।
एवं सङ्केपेनेव सब्बसद्धम्मगुणेहि सद्धम्मस्सापि थोमनापुब्बङ्गमं पणामं कत्वा इदानि अरियसङ्घस्सापि थोमनापुब्बङ्गमं पणामं करोन्तो "सुगतस्स ओरसान"न्तिआदिमाह । तत्थ सुगतस्साति सम्बन्धनिद्देसो, “पुत्तान''न्ति एतेन सम्बज्झितब्बो । उरसि भवा, जाता, संवुद्धा वा ओरसा, अत्तजो खेत्तजो अन्तेवासिको दिन्नकोति चतुब्बिधेसु पुत्तेसु अत्तजा, तंसरिक्खताय पन अरियपुग्गला “ओरसा''ति वुच्चन्ति । यथा हि मनुस्सानं ओरसपुत्ता अत्तजातताय पितुसन्तकस्स दायज्जस्स विसेसभागिनो होन्ति, एवमेतेपि सद्धम्मसवनन्ते अरियाय जातिया जातताय भगवतो सन्तकस्स विमुत्तिसुखस्स धम्मरतनस्स च दायज्जस्स विसेसभागिनोति । अथ वा भगवतो धम्मदेसनानुभावेन अरियभूमिं ओक्कममाना,
ओक्कन्ता च अरियसावका भगवतो उरे वायामजनिताभिजातताय सदिसकप्पनमन्तरेन निप्परियायेनेव “ओरसा'ति वत्तब्बतमरहन्ति । तथा हि ते भगवता आसयानुसयचरियाधिमुत्तिआदिओलोकनेन, वज्जानुचिन्तनेन च हदये कत्वा वज्जतो निवारेत्वा अनवज्जे पतिट्ठापेन्तेन सीलादिधम्मसरीरपोसनेन संवड्ढापिता। यथाह भगवा इतिवृत्तके “अहमस्मि भिक्खवे ब्राह्मणो...पे०... तस्स मे तुम्हे पुत्ता ओरसा मुखतो जाता''तिआदि (इतिवु० १००)। ननु सावकदेसितापि देसना अरियभावावहाति ? सच्चं, सा पन तम्मूलिकत्ता, लक्खणादिविसेसाभावतो च “भगवतो धम्मदेसना" इच्चेव सङ्ख्यं गता, तस्मा भगवतो ओरसपुत्तभावोयेव तेसं वत्तब्बोति, एतेन चतुब्बिधेसु पुत्तेसु अरियसङ्घस्स अत्तजपुत्तभावं दस्सेति । अत्तनो कुलं पुनेन्ति सोधेन्ति, मातापितूनं वा हदयं पूरेन्तीति पुत्ता, अत्तजादयो। अरिया पन धम्मतन्तिविसोधनेन, धम्मानुधम्मपटिपत्तिया चित्ताराधनेन च तप्पटिभागताय भगवतो पुत्ता नाम, तेसं। तस्स “समूह''न्ति पदेन सम्बन्धो।
संकिलेसनिमित्तं हुत्वा गुणं मारेति विबाधतीति मारो, देवपुत्तमारो । सिनाति परे बन्धति एतायाति सेना, मारस्स सेना तथा, मारञ्च मारसेनञ्च मथेन्ति विलोथेन्तीति
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गन्थारम्भकथावण्णना
मारसेनमथना, तेसं । "मारमारसेनमथनान"न्ति हि वत्तब्बेपि एकदेससरूपेकसेसवसेन एवं वुत्तं । मारसद्दसन्निधानेन वा सेनासदेन मारसेना गहेतब्बा, गाथाबन्धवसेन चेत्थ रस्सो । "मारसेनमद्दनान"न्तिपि कत्थचि पाठो, सो अयुत्तोव अरियाजातिकत्ता इमिस्सा गाथाय । ननु च अरियसावकानं मग्गाधिगमसमये भगवतो विय तदन्तरायकरणत्थं देवपुत्तमारो वा मारसेना वा न अपसादेति, अथ कस्मा एवं वुत्तन्ति ? अपसादेतब्बभावकारणस्स विमथितत्ता । तेसहि अपसादेतब्बताय कारणे संकिलेसे विमथिते तेपि विमथिता नाम होन्तीति। अथ वा खन्धाभिसङ्घारमारानं विय देवपुत्तमारस्सापि गुणमारणे सहायभावूपगमनतो किलेसबलकायो इध “मारसेना"ति वुच्चति यथाह भगवा -
“कामा ते पठमा सेना, दुतिया अरति वुच्चति । ततिया खुप्पिपासा ते, चतुत्थी तण्हा पवुच्चति ।।
पञ्चमं थिनमिद्धं ते, छट्ठा भीरू पवुच्चति । सत्तमी विचिकिच्छा ते, मक्खो थम्भो ते अट्ठमो ।।
लाभो सिलोको सक्कारो,
मिच्छालद्धो च यो यसो । यो चत्तानं समुक्कंसे,
परे च अवजानति ।।
एसा नमुचि ते सेना, कण्हस्साभिप्पहारिनी ।
न नं असूरो जिनाति, जेत्वा च लभते सुख"न्ति ।। (सु० नि० ४३८; __महा० नि० २८; चूळ० नि० ४७)।।
सा च तेहि अरियसावकेहि दियड्डसहस्सभेदा, अनन्तभेदा वा किलेसवाहिनी सतिधम्मविचयवीरियसमथादिगुणपहरणीहि ओधिसो मथिता, विद्धंसिता, विहता च, तस्मा "मारसेनमथना''ति वुच्चन्ति। विलोथनञ्चेत्थ विद्धंसनं, विहननं वा । अपिच खन्धाभिसङ्घारमच्चुदेवपुत्तमारानं तेसं सहायभावूपगमनताय सेनासङ्घातस्स किलेसमारस्स च मथनतो “मारसेनमथना''तिपि अत्थो गहेतब्बो । एवञ्च सति पञ्चमारनिम्मथनभावेन अत्थो परिपुण्णो होति । अरियसावकापि हि समुदयप्पहानपरिञावसेन खन्धमारं,
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सहायवेकल्लकरणेन सब्बथा, अप्पवत्तिकरणेन च अभिसङ्घारमारं, बलविधमनविसयातिक्कमनवसेन मच्चुमार, देवपुत्तमारञ्च समुच्छेदप्पहानवसेन सब्बसो अप्पवत्तिकरणेन किलेसमारं मथेन्तीति, इमिना पन तेसं ओरसपुत्तभावे कारणं, तीसु पुत्तेसु च अनुजाततं दस्सेति । मारसेनमथनताय हि ते भगवतो ओरसपुत्ता, अनुजाता चाति।
अट्ठन्नन्ति गणनपरिच्छेदो, तेनसतिपि तेसं तंतंभेदेन अनेकसतसहस्ससङ्ख्याभेदे अरियभावकरमग्गफलधम्मभेदेन इमं गणनपरिच्छेदं नातिवत्तन्ति मग्गट्ठफलट्ठभावानतिवत्तनतोति दस्सेति | पि-सद्दो, अपि-सद्दो वा पदलीळादिना कारणेन अट्ठाने पयुत्तो, सो “अरियसङ्घ"न्ति एत्थ योजेतब्बो, तेन न केवलं बुद्धधम्मेयेव, अथ खो अरियसङ्घम्पीति सम्पिण्डेति । यदिपि अवयवविनिमुत्तो समुदायो नाम कोचि नत्थि अवयवं उपादाय समुदायस्स वत्तब्बत्ता, अविज्ञायमानसमुदायं पन विज्ञायमानसमुदायेन विसेसितुमरहतीति आह “अट्ठन्नम्पि समूह"न्ति, एतेन “अरियसङ्घ"न्ति एत्थ न येन केनचि सण्ठानादिना, कायसामग्गिया वा समुदायभावो, अपि तु मग्गट्ठफलट्ठभावेनेवाति विसेसेति । अवयवमेव सम्पिण्डेत्वा ऊहितब्बो वितक्केतब्बो, संऊहनितब्बो वा सङ्घटितब्बोति समूहो, सोयेव समोहो वचनसिलिट्ठतादिना । द्विधापि हि पाठो युज्जति । आरकत्ता किलेसेहि, अनये न इरियनतो, अये च इरियनतो अरिया निरुत्तिनयेन । अथ वा सदेवकेन लोकेन सरणन्ति अरणीयतो उपगन्तब्बतो, उपगतानञ्च तदत्थसिद्धितो अरिया, दिट्ठिसीलसामओन संहतो, समग्गं वा कम्मं समुदायवसेन समुपगतोति सङ्घो, अरियानं सङ्घो, अरियो च सो सङ्घो च यथावुत्तनयेनाति वा अरियसङ्घो, तं अरियसङ्घ । भगवतो अपरभागे बुद्धधम्मरतनानम्पि समधिगमो सङ्घरतनाधीनोति अरियसङ्घस्स बहूपकारतं दस्सेतुं इधेव "सिरसा वन्दे"ति वुत्तं । अवस्सञ्चायमत्थो सम्पटिच्छितब्बो विनयट्ठकथादीसुपि (पारा० अठ्ठ० गन्थारम्भकथा) तथा वुत्तत्ता । केचि पन पुरिमगाथासुपि तं पदमानेत्वा योजेन्ति, तदयुत्तमेव रतनत्तयस्स असाधारणगुणप्पकासनट्ठानत्ता, यथावुत्तकारणस्स च सब्बेसम्पि संवण्णनाकारानमधिप्पेतत्ताति ।
इमाय पन गाथाय अरियसङ्घस्स पभवसम्पदा पहानसम्पदादयो अनेके गुणा दस्सिता होन्ति । कथं ? "सुगतस्स ओरसानं पुत्तान"न्ति हि एतेन अरियसङ्घस्स पभवसम्पदं दस्सेति सम्मासम्बुद्धपभवतादीपनतो। “मारसेनमथनान"न्ति एतेन पहानसम्पदं सकलसंकिलेसप्पहानदीपनतो। “अठ्ठन्नम्पि समूह"न्ति एतेन आणसम्पदं
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गन्थारम्भकथावण्णना
मग्गट्ठफलट्ठभावदीपनतो। “अरियसङ्घन्ति एतेन सभावसम्पदं सब्बसङ्घानं अग्गभावदीपनतो। अथ वा “सुगतस्स ओरसानं पुत्तानन्ति अरियसङ्घस्स विसुद्धनिस्सयभावदीपनं। “मारसेनमथनान"न्ति सम्माउजुञायसामीचिपटिपन्नभावदीपनं । "अट्ठन्नम्पि समूह"न्ति आहुनेय्यादिभावदीपनं । “अरियसङ्घन्ति अनुत्तरपुञक्खेत्तभावदीपनं । तथा “सुगतस्स ओरसानं पुत्तान''न्ति एतेन अरियसङ्घस्स लोकुत्तरसरणगमनसब्भावं दस्सेति । लोकुत्तरसरणगमनेन हि ते भगवतो ओरसपुत्ता जाता । “मारसेनमथनानन्ति एतेन अभिनीहारसम्पदासिद्धं पुब्बभागसम्मापटिपत्तिं दस्सेति । कताभिनीहारा हि सम्मापटिपन्ना मारं, मारसेनं वा अभिविजिनन्ति । “अठ्ठन्नम्पि समूह"न्ति एतेन विद्धस्तविपक्खे सेक्खासेक्खधम्मे दस्सेति पुग्गलाधिट्टानेन मग्गफलधम्मानं दस्सितत्ता । “अरियसङ्घ"न्ति एतेन अग्गदक्खिणेय्यभावं दस्सेति अनुत्तरपुञक्खेत्तभावस्स दस्सितत्ता। सरणगमनञ्च सावकानं सब्बगुणस्स आदि, सपुब्बभागपटिपदा सेक्खा सीलक्खन्धादयो मज्झे, असेक्खा सीलक्खन्धादयो परियोसानन्तिआदिमज्झपरियोसानकल्याणा सोपतो सब्बेपि अरियसङ्घगुणा दस्सिता होन्तीति ।
___ एवं गाथात्तयेन सङ्घपतो सकलगुणसंकित्तनमुखेन रतनत्तयस्स पणामं कत्वा इदानि तं निपच्चकारं यथाधिप्पेतपयोजने परिणामेन्तो “इति मे"तिआदिमाह । तत्थ इति-सद्दो निदस्सने । तेन गाथात्तयेन यथावुत्तनयं निदस्सेति । मेति अत्तानं करणवचनेन कत्तुभावेन निद्दिसति । तस्स “यं पुझं मया लद्ध''न्ति पाठसेसेन सम्बन्धो, सम्पदाननिद्देसो वा एसो, "अत्थी"ति पाठसेसो, सामिनिद्देसो वा "यं मम पुलं वन्दनामय"न्ति । पसीदीयते पसन्ना, तादिसा मति पञा, चित्तं वा यस्साति पसन्नमति, अञपदलिङ्गप्पधानत्ता इमस्स समासपदस्स "पसन्नमतिनो"ति वुत्तं । रतिं नयति, जनेति, वहतीति वा रतनं, सत्तविधं, दसविधं वा रतनं, तमिव इमानीति नेरुत्तिका । सदिसकप्पनमञत्र पन यथावुत्तवचनत्थेनेव बुद्धादीनं रतनभावो युज्जति । तेसहि "इतिपि सो भगवा'तिआदिना (दी० नि० १.१५७, २५५) यथाभूतगुणे आवज्जन्तस्स अमताधिगमहेतुभूतं अनप्पकं पीतिपामोज्जं उप्पज्जति । यथाह
“यस्मिं महानाम समये अरियसावको तथागतं अनुस्सरति, नेवस्स तस्मिं समये रागपरियुट्टितं चित्तं होति, न दोस...पे०... न मोह...पे०... उजुगतमेवस्स तस्मिं समये चित्तं होति तथागतं आरब्भ । उजुगतचित्तो खो पन महानाम
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अरियसावको लभति अत्थवेदं लभति धम्मवेदं लभति धम्मूपसंहितं पामोज्जं, पमुदितस्स पीति जायती 'तिआदि (अ० नि० २.६.१०, ३.११.११) ।
चित्तीकतादिभावो वा रतनट्ठी । वृत्तहेतं अट्ठकथासु -
"चित्तीकतं महग्घञ्च, अतुलं दुल्लभदस्सनं ।
अनोमसत्तपरिभोगं, रतनं तेन वुच्चती 'ति । । ( खु० पा० अट्ठ० ६.३; उदान० अट्ठ० ४७; दी० नि० अट्ठ० २.३३; सु० नि० १.२२६; महा० नि० अट्ठ० १.२२६) ।
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चित्तीकतभावादयो च अनञ्ञसाधारणा सातिसयतो बुद्धादीसुयेव लब्भन्तीति । वित्थारो रतनसुत्तवण्णनायं (खु० पा० अट्ठ० ६.३; सु० नि० अट्ठ० १.२२६) गहेतब्बो । अयमत्थो पन निब्बचनत्थवसेन न वुत्तो, अथ केनाति चे ? लोके रतनसम्मतस्स वत्थुनो गरुकातब्बतादिअत्थवसेनाति सद्दविदू । साधूनञ्च रमनतो, संसारण्णवा च तरणतो, सुगतिनिब्बानञ्च नयनतो रतनं तुल्यत्थसमासवसेन, अलमतिपपञ्चेन । एकसेसपकप्पनेन, पुथुवचननिब्बचनेन वा रतनानि । तिण्णं समूहो, तीणि वा समाहटानि, तयो वा अवयवा अस्साति तयं, रतनानमेव तयं, नाञेसन्ति रतनत्तयं । अवयवविनिमुत्तस्स पन समुदायस्स अभावतो तीणि एव रतनानि तथा वुच्चन्ति न समुदायमत्तं, समुदायापेक्खाय पन एकवचनं कतं । वन्दीयते वन्दना, साव वन्दनामयं यथा “दानमयं सीलमय "न्ति ( दी० नि० ३.३०५; इतिवु० ६०; नेत्ति० ३३) । वन्दना चेत्थ कायवाचाचित्तेहि तिण्णं रतनानं गुणनिन्नता, थोमना वा । अपिच तस्सा चेतनाय सहजातादोपकारेको सद्धापञ्ञसतिवीरियादिसम्पयुत्तधम्मो वन्दना, ताय पकतन्ति वन्दनामयं यथा “सोवण्णमयं रूपियमयन्ति, अत्थतो पन यथावुत्तचेतनाव । रतनत्तये, रतनत्तयस्स वा वन्दनामयं रतनत्तयवन्दनामयं । पुज्जभवफलनिब्बत्तनतो पुत्रं निरुत्तिनयेन, अत्तनो कारकं, सन्तानं वा पुनाति विसोधेतीति पुञ्ञ, सकम्मकत्ता धातुस्स कारितवसेन अत्थविवरणं लब्भति, सद्दनिप्पत्ति पन सुद्धवसेनेवाति सद्दविदू ।
तंतंसम्पत्तिया विबन्धनवसेन सत्तसन्तानस्स अन्तरे वेमज्झे एति आगच्छतीति अन्तरायो, दिट्ठधम्मिकादिअनत्थो । पणामपयोजने वुत्तविधिना सुट्टु विहतो विद्धस्तो अन्तरायो अस्साति सुविहतन्तरायो । विहननञ्चेत्थ तदुप्पादकहेतुपरिहरणवसेन तेसं
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गन्थारम्भकथावण्णना
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अन्तरायानमनुष्पत्तिकरणन्ति दट्टब्बं । हुत्वाति पुब्बकालकिरिया, तस्स “अत्थं पकासयिस्सामी"ति एतेन सम्बन्धो । तस्साति यं-सद्देन उद्दिट्ठस्स वन्दनामयपुञस्स | आनुभावेनाति बलेन ।
"तेजो उस्साहमन्ता च, पभू सत्तीति पञ्चिमे । 'आनुभावो'ति वुच्चन्ति, ‘पभावो'ति च ते वदे''ति ।। -
वुत्तेसु हि अत्थेसु इध सत्तियं वत्तति । अनु पुनप्पुनं तंसमङ्गिं भावेति वड्डेतीति हि अनुभावो, सोयेव आनुभावोति उदानट्ठकथायं, अत्थतो पन यथालद्धसम्पत्तिनिमित्तकस्स पुरिमकम्मस्स बलानुप्पदानवससङ्खाता वन्दनामयपुञस्स सत्तियेव, सा च सुविहतन्तरायताय करणं, हेतु वा सम्भवति ।
एत्थ पन “पसन्नमतिनोति एतेन अत्तनो पसादसम्पत्तिं दस्सेति । "रतनत्तयवन्दनामयन्ति एतेन रतनत्तयस्स खेत्तभावसम्पत्तिं, ततो च तस्स पुचस्स अत्तनो पसादसम्पत्तिया, रतनत्तयस्स च खेत्तभावसम्पत्तियाति द्वीहि अङ्गेहि अत्थसंवण्णनाय उपघातकउपद्दवानं विहनने समत्थतं दीपेति । चतुरङ्गसम्पत्तिया दानचेतना विय हि द्वयङ्गसम्पत्तिया पणामचेतनापि अन्तरायविहननेन दिठ्ठधम्मिकाति ।
एवं रतनत्तयस्स निपच्चकारकरणे पयोजनं दस्सेत्वा इदानि यस्सा धम्मदेसनाय अत्थं संवण्णेतुकामो, तदपि संवण्णेतब्बधम्मभावेन दस्सेत्वा गुणाभित्थवनविसेसेन अभित्थवेतुं "दीघस्सा"तिआदिमाह । अयहि आचरियस्स पकति, यदिदं तंतंसंवण्णनासु आदितो तस्स तस्स संवण्णेतब्बधम्मस्स विसेसगुणकित्तनेन थोमना। तथा हि तेसु तेसु पपञ्चसूदनीसारस्थपकासनीमनोरथपूरणीअट्ठसालिनीआदीसु यथाक्कम “परवादमथनस्स, जाणप्पभेदजननस्स, धम्मकथिकपुङ्गवानं विचित्तपटिभानजननस्स,
तस्स गम्भीरञाणेहि, ओगाळहस्स अभिण्हसो । नानानयविचित्तस्स, अभिधम्मस्स आदितो''ति ।। आदिना -
थोमना कता। तत्थ दीघस्साति दीघनामकस्स। दीघसुत्तङ्कितस्साति दीघेहि अभिआयतवचनप्पबन्धवन्तेहि सुत्तेहि लक्खितस्स, अनेन “दीघो"ति अयं इमस्स
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आगमस्स अत्थानुगता समञाति दस्सेति । ननु च सुत्तानियेव आगमो, कथं सो तेहि अङ्कीयतीति ? सच्चमेतं परमत्थतो, पञत्तितो पन सुत्तानि उपादाय आगमभावस्स पञत्तत्ता अवयवेहि सुत्तेहि अवयवीभूतो आगमो अङ्कीयति । यथेव हि अत्थब्यञ्जनसमुदाये "सुत्त"न्ति वोहारो, एवं सुत्तसमुदाये आगमवोहारोति । पटिच्चसमुप्पादादिनिपुणत्थभावतो निपुणस्स। आगच्छन्ति अत्तत्थपरत्थादयो एत्थ, एतेन, एतस्माति वा आगमो, उत्तमटेन, पत्थनीयढेन च सो वरोति आगमवरो। अपिच आगमसम्मतेहि बाहिरकपवेदितेहि भारतपुराणकथानरसीहपुराणकथादीहि वरोतिपि आगमवरो, तस्स । बुद्धानमनुबुद्धा बुद्धानुबुद्धा, बुद्धानं सच्चपटिवेधं अनुगम्म पटिविद्धसच्चा अग्गसावकादयो अरिया, तेहि अत्थसंवण्णनावसेन, गुणसंवण्णनावसेन च संवण्णितोति तथा। अथ वा बुद्धा च अनुबुद्धा च, तेहि संवण्णितो यथावुत्तनयेनाति तथा, तस्स । सम्मासम्बुद्धेनेव हि तिण्णम्पि पिटकानं अत्थसंवण्णनाक्कमो भासितो, ततो परं सङ्गायनादिवसेन सावकेहीति आचरिया वदन्ति । वुत्तञ्च मज्झिमागमट्ठकथाय उपालिसुत्तवण्णनायं “वेय्याकरणस्साति वित्थारेत्वा अत्थदीपकस्स । भगवता हि अब्याकतं तन्तिपदं नाम नत्थि, सब्बेसंयेव अत्थो कथितो"ति (म० नि० अट्ठ० ३.७६) । सद्धावहगुणस्साति बुद्धादीसु पसादावहगुणस्स । ननु च सब्बम्पि बुद्धवचनं तेपिटकं सद्धावहगुणमेव, अथ कस्मा अयमञसाधारणगुणेन थोमितोति ? सातिसयतो इमस्स तग्गुणसम्पन्नत्ता। अयहि आगमो ब्रह्मजालादीसु सीलदिट्ठादीनं अनवसेसनिद्देसादिवसेन, महापदानादीसु (दी० नि० २.३) पुरिमबुद्धानम्पि गुणनिद्देसादिवसेन, पाथिकसुत्तादीसु (दी० नि० ३.१.४) तित्थिये महित्वा अप्पटिवत्तियसीहनादनदनादिवसेन, अनुत्तरियसुत्तादीसु विसेसतो बुद्धगुणविभावनेन रतनत्तये सातिसयं सद्धं आवहतीति ।
__एवं संवण्णेतब्बधम्मस्स अभित्थवनम्पि कत्वा इदानि संवण्णनाय सम्पति वक्खमानाय आगमनविसुद्धिं दस्सेतुं "अत्थप्पकासनत्थ"न्तिआदिमाह। इमाय हि गाथाय सङ्गीतित्तयमारुळहदीघागमट्ठकथातोव सीहळभासामत्तं विना अयं वक्खमानसंवण्णना आगता, नाचतो, तदेव कारणं कत्वा वत्तब्बा, नाञ्जन्ति अत्तनो संवण्णनाय आगमनविसुद्धिं दस्सेति । अपरो नयो - परमनिपुणगम्भीरं बुद्धविसयमागमवरं अत्तनो बलेनेव वण्णयिस्सामीति अञ्जेहि वत्तुम्पि असक्कूणेय्यत्ता संवण्णनानिस्सयं दस्सेतुमाह "अत्थप्पकासनत्थ"न्तिआदि। इमाय हि पुब्बाचरियानुभावं निस्सायेव तस्स अत्थं वण्णयिस्सामीति अत्तनो संवण्णनानिस्सयं दस्सेति । तत्थ अत्थप्पकासनत्थ"न्ति पाठत्थो, सभावत्थो, ञय्यत्थो, पाठानुरूपत्थो, तदनुरूपत्थो, सावसेसत्थो, निवरसेसत्थो, नीतत्थो,
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गन्थारम्भकथावण्णना
अनेकप्पकारस्स
वा ।
नेय्यत्थोति आदिना अत्थस्स पकासनत्थाय, पकासनाय गाथाबन्धसम्पत्तिया द्विभावो । अत्यो कथीयति एतायाति अत्थकथा, सायेव अट्ठकथा त्थकारस्स ट्ठ-कारं कत्वा यथा “दुक्खस्स पीळनट्ठो ति (पटि० म० १.१७; २.८), अयञ्च ससञ्ञोगविधि अरियाजातिभावतो । अक्खरचिन्तकापि हि " तथानंट्ठ युग”न्ति लक्खणं वत्वा इदमेवुदाहरन्ति ।
याय'त्थमभिवण्णेन्ति, ब्यञ्जनत्थपदानुगं । निदानवत्थुसम्बन्धं, एसा अट्ठकथा मता ।।
आदितोति आदिम्हि पठमसङ्गीतियं । छळभिञ्जताय परमेन चित्तवसीभावेन समन्नागतत्ता, झानादीसु पञ्चवसिता सब्भावतो च वसिनो, थेरा महाकस्सपादयो, तेसं स हि पञ्चहि । या सङ्गीताति या अट्ठकथा अत्थं पकासेतुं युत्तट्ठाने " अयमेतस्स अत्थो, अयमेतस्स अत्थो'ति सङ्गहेत्वा वृत्ता । अनुसङ्गीता च पच्छापीति न केवलं पठमसङ्गीतियमेव, अथ खो पच्छा दुतियततियसङ्गीतीसुपि । न च पञ्चहि वसिसहि आदितो सङ्गीतायेव, अपि तु यसत्थेरादीहि अनुसङ्गीता चाति सह समुच्चयेन अत्थो वेदितब्बो। समुच्चयद्वयहि पच्चेकं किरियाकालं समुच्चिनोति ।
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अथ पोराणट्ठकथाय विज्जमानाय किमेताय अधुना पुन कताय संवण्णनात पुनरुत्तिया, निरत्थकताय च दोसं समनुस्सरित्वा तं परिहरन्तो “सीहळदीप "न्तिआदिमाह । तं परिहरणेनेव हि इमिस्सा संवण्णनाय निमित्तं दस्सेति । तत्थ सीहं लाति गण्हातीति सीहलो ल-कारस्स ळ - कारं कत्वा यथा “गरुळी 'ति । तस्मिं वंसे आदिपुरिसो सीहकुमारो, तब्बंसजाता पन तम्बपण्णिदीपे खत्तिया, सब्बेपि च जना तद्धितवसेन, सदिसवोहारेन वा सीहळा, तेसं निवासदीपोपि तद्धितवसेन, ठानीनामेन वा "सीहळो" ति वेदितब्बो । जलमज्झे दिप्पति, द्विधा वा आपो एत्थ सन्दतीति दिपो, सोयेव दीपो, भेदापेक्खाय तेसं दीपोति तथा । पनसद्दो अरुचिसंसूचने, तेन कामञ्च सा सङ्गीतित्तयमारुळ्हा, तथापि पुन एवंभूताति अरुचियभावं संसूचेति । तदत्थसम्बन्धताय पन पुरिमगाथाय " कामञ्च सङ्गीता अनुसङ्गीता चाति सानुग्गहत्थयोजना सम्भवति । अञ्ञत्थापि हि तथा दिस्सतीति । आभताति जम्बुदीपतो आनीता । अथाति सङ्गीतिकालतो पच्छा, एवं सति आभतपदेन सम्बन्ध । अथाति वा महामहिन्दत्थेरेनाभतकालतो पच्छा, एवं सति ठपितपदेन सम्बन्धो । सा हि धम्मसङ्गाहकत्थेरेहि पठमं तीणि पिटकानि सङ्गयित्वा तस्स अत्थसंवण्णनानुरूपेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
वाचनामग्गं आरोपितत्ता तिस्सो सङ्गीतियो आरुळ्हायेव, ततो पच्छा च महामहिन्दत्थेरेन तम्बपण्णिदीपमाभता, पच्छा पन तम्बपण्णियेहि महाथेरेहि निकायन्तरलद्धिसङ्करपरिहरणत्थं सीहळभासाय ठपिताति । आचरियधम्मपालत्थेरो पन पच्छिमसम्बन्धमेव दुद्दसत्ता पकासेति । तथा "दीपवासीनमत्थाया"ति इदम्पि "ठपिता''ति च "अपनेत्वा आरोपेन्तो''ति च एतेहि पदेहि सम्बज्झितब्बं । एकपदम्पि हि आवुत्तियादिनयेहि अनेकत्थसम्बन्धमुपगच्छति । पुरिमसम्बन्धेन चेत्थ सीहळदीपवासीनमत्थाय निकायन्तरलद्धिसङ्करपरिहरणेन सीहळभासाय ठपिताति तम्बपण्णियत्थेरेहि ठपनपयोजनं दस्सेति । पच्छिमसम्बन्धेन पन इमाय संवण्णनाय जम्बुदीपवासीनं, अञ्जदीपवासीनञ्च अत्थाय सीहळभासापनयनस्स, तन्तिनयानुच्छविकभासारोपनस्स च पयोजनन्ति । महाइस्सरियत्ता महिन्दोति राजकुमारकाले नाम, पच्छा पन गुणमहन्तताय महामहिन्दोति वुच्चति । सीहळभासा नाम अनेकक्खरेहि एकत्थस्सापि वोहरणतो परेसं वोहरितुं अतिदुक्करा कञ्चुकसदिसा सीहळानं समुदाचिण्णा भासा।
एवं होतु पोराणट्ठकथाय, अधुना करियमाना पन अट्ठकथा कथं करीयतीति अनुयोगे सति इमिस्सा अट्ठकथाय करणप्पकारं दस्सेतुमाह "अपनेत्वाना"तिआदि । तत्थ ततो मूलट्ठकथातो सीहळभासं अपनेत्वा पोत्थके अनारोपितभावेन निरङ्करित्वाति सम्बन्धो, एतेन अयं वक्खमाना अट्ठकथा सङ्गीतित्तयमारोपिताय मूलट्ठकथाय सीहळभासापनयनमत्तमझत्र अत्थतो संसन्दति चेव समेति च यथा “गङ्गोदकेन यमुनोदक''न्ति दस्सेति । "मनोरम" मिच्चादीनि “भास"न्ति एतस्स सभावनिरुत्तिभावदीपकानि विसेसनानि । सभावनिरुत्तिभावेन हि पण्डितानं मनं रमयतीति मनोरमा। तनोति अत्थमेताय, तनीयति वा अत्थवसेन विवरीयति, वट्टतो वा सत्ते तारेति, नानात्थविसयं वा कडं तरन्ति एतायाति तन्ति, पाळि। तस्सा नयसङ्घाताय गतिया छविं छायं अनुगताति तन्तिनयानुच्छविका। असभावनिरुत्तिभासन्तरसंकिण्णदोसविरहितताय विगतदोसा, तादिसं सभावनिरुत्तिभूतं -
“सा मागधी मूलभासा, नरा याया'दिकप्पिका । ब्रह्मानो चस्सुतालापा, सम्बुद्धा चापि भासरे''ति ।। -
वुत्तं पाळिगतिभासं पोत्थके लिखनवसेन आरोपेन्तोति अत्थो, इमिना सद्ददोसाभावमाह |
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गन्थारम्भकथावण्णना
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समयं अविलोमेन्तोति सिद्धन्तमविरोधेन्तो, इमिना पन अत्थदोसाभावमाह । अविरुद्धत्ता एव हि ते थेरवादापि इध पकासयिस्सन्ति । केसं पन समयन्ति आह "थेरान"न्तिआदि, एतेन राहुलाचरियादीनं जेतवनवासीअभयगिरिवासीनिकायानं समयं निवत्तेति । थिरेहि सीलसुतझानविमुत्तिसङ्खातेहि गुणेहि समन्नागताति थेरा। यथाह "चत्तारोमे भिक्खवे थेरकरणा धम्मा । कतमे चत्तारो ? इध भिक्खवे भिक्खु सीलवा होती''तिआदि (अ० नि० १.४.२२)। अपिच सच्चधम्मादीहि थिरकरणेहि समन्नागतत्ता थेरा। यथाह धम्मराजाधम्मपदे -
“यम्हि सच्चञ्च धम्मो च, अहिंसा संयमो दमो । स वे वन्तमलो धीरो, 'थेरो'इति पवुच्चती'ति ।। (ध० प० २६०)।
तेसं। महाकस्सपत्थेरादीहि आगता आचरियपरम्परा थेरवंसो, तप्परियापन्ना हुत्वा आगमाधिगमसम्पन्नत्ता पापज्जोतेन तस्स समुज्जलनतो तं पकारेन दीपेन्ति, तस्मिं वा पदीपसदिसाति थेरवंसपदिपा। विविधेन आकारेन निच्छीयतीति विनिच्छयो, गण्ठिट्टानेसु खीलमद्दनाकारेन पवत्ता विमतिच्छेदनीकथा, सुटु निपुणो सण्हो विनिच्छयो एतेसन्ति सुनिपुणविनिच्छया। अथ वा विनिच्छिनोतीति विनिच्छयो, यथावुत्तविसयं आणं, सुटु निपुणो छेको विनिच्छयो एतेसन्ति सुनिपुणविनिच्छया। महामेघवने ठितो विहारो महाविहारो, यो सत्थु महाबोधिना विरोचति, तस्मिं वसनसीला महाविहारवासिनो, तादिसानं समयं अविलोमेन्तोति अत्थो, एतेन महाकस्सपादिथेरपरम्परागतो, ततोयेव अविपरितो सण्हसुखुमो विनिच्छयोति महाविहारवासीनं समयस्स पमाणभूततं पुग्गलाधिट्ठानवसेन दस्सेति ।
हित्वा पुनप्पुनभतमत्थन्ति एकत्थ वुतम्पि पुन अञत्थ आभतमत्थं पुनरुत्तिभावतो, गन्थगरुकभावतो च चजित्वा तस्स आगमवरस्स अत्थं पकासयिस्सामीति अत्थो ।
एवं करणप्पकारम्पि दस्सेत्वा “दीपवासीनमत्थाया''ति वुत्तप्पयोजनतो अचम्पि संवण्णनाय पयोजनं दस्सेतुं "सुजनस्स चा"तिआदिमाह । तत्थ सुजनस्स चाति च-सद्दो समुच्चयत्थो, तेन न केवलं जम्बुदीपवासीनमेव अत्थाय, अथ खो साधुजनतोसनत्थञ्चाति समुच्चिनोति । तेनेव च तम्बपण्णिदीपवासीनम्पि अत्थायाति अयमत्थो सिद्धो होति उग्गहणादिसुकरताय तेसम्पि बहूपकारत्ता । चिरहितत्थञ्चाति एत्थापि च-सद्दो न केवलं तदुभयत्थमेव, अपि तु तिविधस्सापि सासनधम्मस्स, परियत्तिधम्मस्स वा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
पञ्चवस्ससहस्सपरिमाणं चिरकालं ठितत्थञ्चाति समुच्चयत्थमेव दस्सेति । परियत्तिधम्मस्स हि ठितिया पटिपत्तिधम्मपटिवेधधम्मानम्पिठति होति तस्सेव तेसं मूलभावतो। परियत्तिधम्मो पन सुनिक्खित्तेन पदब्यञ्जनेन, तदत्थेन च चिरं सम्मा पतिट्टाति, संवण्णनाय च पदब्यञ्जनं अविपरीतं सुनिक्खित्तं, तदत्थोपि अविपरीतो सुनिक्खित्तो होति, तस्मा संवण्णनाय अविपरीतस्स पदब्यञ्जनस्स, तदत्थस्स च सुनिक्खित्तस्स उपायभावमुपादाय वुत्तं “चिरहितत्थञ्च धम्मस्सा"ति । वुत्तज्हेतं भगवता -
_ "द्वेमे भिक्खवे धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति । कतमे द्वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदब्यञ्जनं, अत्थो च सुनीतो, इमे खो...पे०... संवत्तन्ती"तिआदि (अ० नि० १.२.२१) ।
एवं पयोजनम्पि दस्सेत्वा वक्खमानाय संवण्णनाय महत्तपरिच्चागेन गन्थगरुकभावं परिहरितुमाह "सीलकथा"तिआदि । तथा हि वुत्तं “न तं विचरयिस्सामी'ति । अपरो नयो- यदट्ठकथं कत्तुकामो, तदेकदेसभावेन विसुद्धिमग्गो गहेतब्बोति कथिकानं उपदेसं करोन्तो तत्थ विचारितधम्मे उद्देसवसेन दस्सेतुमाह "सीलकथा"तिआदि । तत्थ सीलकथाति चारित्तवारित्तादिवसेन सीलवित्थारकथा। धुतधम्माति पिण्डपातिकङ्गादयो तेरस किलेसधुननकधम्मा। कम्मट्ठानानीति भावनासङ्घातस्स योगकम्मस्स पवत्तिट्ठानत्ता कम्मट्ठाननामानि धम्मजातानि । तानि पन पाळियमागतानि अट्ठतिं सेव न गहेतब्बानि, अथ खो अट्ठकथायमागतानिपि द्वेति आपेतुं "सब्बानिपी"ति वुत्तं । चरि याविधानसहितोति रागचरितादीनं सभावादिविधानेन सह पवत्तो, इदं पन "झानसमापत्तिवित्थारो"ति इमस्स विसेसनं । एत्थ च रूपावचरज्झानानि झानं, अरूपावचरज्झानानि समापत्ति। तदुभयम्पि वा पटिलद्धमत्तं झानं, समापज्जनवसीभावप्पत्तं समापत्ति। अपिच तदपि उभयं झानमेव, फलसमापत्तिनिरोधसमापत्तियो पन समापत्ति, तासं वित्थारोति अत्थो।
लोकियलोकुत्तरभेदानं छन्नम्पि अभिञानं गहणत्थं "सब्बा च अभिजायो"ति वुत्तं । आणविभङ्गादीसु (विभं० ७५१) आगतनयेन एकविधादिना भेदेन पञाय सङ्कलयित्वा सम्पिण्डेत्वा, गणेत्वा वा विनिच्छयनं पञ्जासङ्कलनविनिच्छयो। अरियानीति बुद्धादीहि अरियेहि पटिविज्झितब्बत्ता, अरियभावसाधकत्ता वा अरियानि उत्तरपदलोपेन । अवितथभावेन वा अरणीयत्ता, अवगन्तब्बत्ता अरियानि, “सच्चानी''तिमस्स विसेसनं ।
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गन्थारम्भकथावण्णना
हेतादिपच्चयधम्मानं हेतुपच्चयादिभावेन पच्चयुप्पन्नधम्मानमुपकारकता पच्चयाकारो, तस्स देसना तथा, पटिच्चसमुप्पादकथाति अत्थो । सा पन निकायन्तरलद्धिसङ्कररहितताय सुट्ठ परिसुद्धा, घनविनिब्भोगस्स च सुदुक्करताय निपुणा, एकत्तादिनयसहिता च तत्थ विचारिताति आह "सुपरिसुद्धनिपुणनया"ति । पदत्तयम्पि हेतं पच्चयाकारदेसनाय विसेसनं । पटिसम्भिदादीसु आगतनयं अविस्सज्जित्वाव विचारितत्ता अविमुत्तो तन्तिमग्गो यस्साति अविमुत्ततन्ति मग्गा। मग्गोति चेत्थ पाळिसङ्घातो उपायो तंतदत्थानं अवबोधस्स, सच्चपटिवेधस्स वा उपायभावतो । पबन्धो वा दीघभावेन पकतिमग्गसदिसत्ता, इदं पन "विपस्सना, भावना"ति पदद्वयस्स विसेसनं ।
इति पन सब्बन्ति एत्थ इति-सद्दो परिसमापने यथाउद्दिवउद्देसस्स परिनिट्टितत्ता, एत्तकं सब्बन्ति अत्थो । पनाति वचनालङ्कारमत्तं विसुं अत्थाभावतो । पदत्थसंकिण्णस्स, वत्तब्बस्स च अवुत्तस्स अवसेसस्स अभावतो सुविज्ञेय्यभावेन सुपरिसुद्धं, “सब्बन्ति इमिना सम्बन्धो, भावनपुंसकं वा एतं "वुत्तन्ति इमिना सम्बज्झनतो। भिय्योति अतिरेकं, अतिवित्थारन्ति अत्थो, एतेन पदस्थमत्तमेव विचारयिस्सामीति दस्सेति । एतं सब्बं इध अट्ठकथाय न विचारयिस्सामि पुनरुत्तिभावतो, गन्थगरुकभावतो चाति अधिप्पायो । विचरयिस्सामीति च गाथाभावतो न वुद्धिभावोति दट्ठब्बं ।
__ एवम्पि एस विसुद्धिमग्गो आगमानमत्थं न पकासेय्य, अथ सब्बोपेसो इध विचारितब्बोयेवाति चोदनाय तथा अविचारणस्स एकन्तकारणं निद्धारेत्वा तं परिहरन्तो "मझे विसुद्धिमग्गो"तिआदिमाह । तत्थ मज्झेति खुद्दकतो अछेसं चतुन्नम्पि आगमानं अब्भन्तरे । हि-सद्दो कारणे, तेन यथावुत्तं कारणं जोतेति । तत्थाति तेसु चतूसु आगमेसु । यथाभासितन्ति भगवता यं यं देसितं, देसितानुरूपं वा। अपि च संवण्णकेहि संवण्णनावसेन यं यं भासितं, भासितानुरूपन्तिपि अत्थो । इच्चेवाति एत्थ इति-सद्देन यथावुत्तं कारणं निदस्सेति, इमिनाव कारणेन, इदमेव वा कारणं मनसि सन्निधायाति अत्थो। कतोति एत्थापि “विसुद्धिमग्गो एसा''ति पदं कम्मभावेन सम्बज्झति आवुत्तियादिनयेनाति दट्ठब्बं । तम्पीति तं विसुद्धिमग्गम्पि आणेन गहेत्वान । एतायाति सुमङ्गलविलासिनिया नाम एताय अट्ठकथाय | एत्थ च “मज्झे ठत्वा"ति एतेन मज्झत्तभावदीपनेन विसेसतो चतुन्नम्पि आगमानं साधारणट्ठकथा विसुद्धिमग्गो, न सुमङ्गलविलासिनीआदयो विय असाधारणट्ठकथाति दस्सेति। अविसेसतो पन विनयाभिधम्मानम्पि यथारहं साधारणट्ठकथा होतियेव, तेहि सम्मिस्सताय च तदवसेसस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
खुद्दकागमस्स विसेसतो साधारणा समानापि तं ठपेत्वा चतुन्नमेव आगमानं साधारणात्वेव वुत्ताति ।
इति सोळसगाथावण्णना।
गन्थारम्भकथावण्णना निद्विता।
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निदानकथावण्णना
एवं यथावुत्तेन विविधेन नयेन पणामादिकं पकरणारम्भविधानं कत्वा इदानि विभागवन्तानं सभावविभावनं विभागदस्सनवसेनेव सुविभावितं, सुविञापितञ्च होतीति पठमं ताव वग्गसुत्तवसेन विभागं दस्सेतुं "तत्थ दीघागमो नामा"तिआदिमाह । तत्थ तत्थाति “दीघस्स आगमवरस्स अत्थं पकासयिस्सामी"ति यदिदं वुत्तं, तस्मिं वचने । “यस्स अत्थं पकासयिस्सामीति पटिञातं, सो दीघागमो नाम वग्गसुत्तवसेन एवं वेदितब्बो, एवं विभागोति वा अत्थो । अथ वा तत्थाति “दीघागमनिस्सित''न्ति यं वुत्तं, एतस्मिं वचने । यो दीघागमो वुत्तो, सो दीघागमो नाम वग्गसुत्तवसेन । एवं विभजितब्बो, एदिसोति वा अत्थो । “दीघस्सा"तिआदिना हि वुत्तं दूरवचनं तं-सद्देन पटिनिद्दिसति विय “दीघागमनिस्सित''न्ति वुत्तं आसन्नवचनम्पि तं-सद्देन पटिनिद्दिसति अत्तनो बुद्धियं परम्मुखं विय परिवत्तमानं हुत्वा पवत्तनतो। एदिसेसु हि ठानेसु अत्तनो बुद्धियं सम्मुखं वा परम्मुखं वा परिवत्तमानं यथा तथा वा पटिनिद्दिसितुं वट्टति सद्दमत्तपटिनिद्देसेन अत्थस्साविरोधनतो। वग्गसुत्तादीनं निब्बचनं परतो आवि भविस्सति । तयो वग्गा यस्साति तिवग्गो। चतुत्तिंस सुत्तानि एत्थ सङ्गय्हन्ति, तेसं वा सङ्गहो गणना एत्थाति चतुत्तिंससुत्तसङ्गहो।
. अत्तनो संवण्णनाय पठमसङ्गीतियं निक्खित्तानुक्कमेनेव पवत्तभावं दस्सेतुं "तस्स...पे०... निदानमादी"ति वुत्तं । आदिभावो हेत्थ सङ्गीतिक्कमेनेव वेदितब्बो । कस्मा पन चतूसु आगमेसु दीघागमो पठमं सङ्गीतो, तत्थ च सीलक्खन्धवग्गो पठमं निक्खित्तो, तस्मिञ्च ब्रह्मजालसुतं, तत्थापि निदानन्ति ? नायमनुयोगो कत्थचिपि न पवत्तति सब्बत्थेव वचनक्कममत्तं पटिच्च अनुयुजितब्बतो । अपिच सद्धावहगुणत्ता दीघागमोव पठमं सङ्गीतो । सद्धा हि कुसलधम्मानं बीजं । यथाह "सद्धा बीजं तपो वुट्ठी''ति (सं० नि० १.२.१९७; सु० नि० ७७)। सद्धावहगुणता चस्स हेट्ठा दस्सितायेव । किञ्च भिय्यो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
कतिपयसुत्तसङ्गहताय चेव अप्पपरिमाणताय च उग्गहणधारणादिसुखतो पठमं सङ्गीतो । तथा हेस चतुत्तिंससुत्तसङ्गहो, चतुसट्ठिभाणवारपरिमाणो च। सीलकथाबाहुल्लतो. पन सीलक्खन्धवग्गो पठमं निक्खित्तो । सीलहि सासनस्स आदि सीलपतिट्ठानत्ता सब्बगुणानं । तेनेवाह "तस्मा तिह त्वं भिक्खु आदिमेव विसोधेहि कुसलेसु धम्मेसु । को चादि कुसलानं धम्मानं? सीलञ्च सुविसुद्ध"न्तिआदि (सं० नि० ३.५.४६९) । सीलक्खन्धकथाबाहुल्लतो हि सो “सीलक्खन्धवग्गो''ति वुत्तो । दिट्ठिविनिवेठनकथाभावतो पन सुत्तन्तपिटकस्स निरवसेसदिट्ठिविभजनं ब्रह्मजालसुत्तं पठमं निक्खित्तन्ति वेदितब्बं | तेपिटके हि बुद्धवचने ब्रह्मजालसदिसं दिट्ठिगतानि निग्गुम्बं निज्जट कत्वा विभत्तसुत्तं नत्थि | निदानं पन पठमसङ्गीतियं महाकस्सपत्थेरेन पुढेन आयस्मता आनन्देन देसकालादिनिदस्सनत्थं पठमं निक्खित्तन्ति । तेनाह "ब्रह्मजालस्सापी"तिआदि । तत्थ च "आयस्मता"तिआदिना देसकं नियमेति, पठमसङ्गीतिकालेति पन कालन्ति, अयमत्थो उपरि आवि भविस्सति ।
पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
__ इदानि “पठममहासङ्गीतिकाले"ति वचनप्पसङ्गेन तं पठममहासङ्गीतिं दस्सेन्तो, यस्सं वा पठममहासङ्गीतियं निक्खित्तानुक्कमेन संवण्णनं कत्तुकामत्ता तं विभावेन्तो तस्सा तन्तिया आरुळ्हायपि इध वचने कारणं दस्सेतुं “पठममहासङ्गीति नाम चेसा"तिआदिमाह । एत्थ हि किञ्चापि...पे०... मारुळ्हाति एतेन ननु सा सङ्गीतिक्खन्धके तन्तिमारुळहा, कस्मा इध पुन वुत्ता, यदि च वुत्ता अस्स निरत्थकता, गन्थगरुता च सियाति चोदनालेसं दस्सेति । “निदान...पे०... वेदितब्बा"ति पन एतेन निदानकोसल्लत्थभावतो यथावुत्तदोसता न सियाति विसेसकारणदस्सनेन परिहरति । “पठममहासङ्गीति नाम चेसा''ति एत्थ च-सद्दो ईदिसेसु ठानेसु वत्तब्बसम्पिण्डनत्थो । तेन हि पठममहासङ्गीतिकाले वुत्तं निदानञ्च आदि, एसा च पठममहासङ्गीति नाम एवं वेदितब्बाति इममत्थं सम्पिण्डेति । उपञ्जासत्थो वा च-सद्दो, उपञ्जासोति च वाक्यारम्भो वुच्चति । एसा हि गन्थकारानं पकति, यदिदं किञ्चि वत्वा पुन अपरं वत्तुमारभन्तानं च-सद्दपयोगो। यं पन वजिरबुद्धित्थेरेन वुत्तं "एत्थ च-सद्दो अतिरेकत्थो, तेन अञापि अत्थीति दीपेती"ति (वजिर टी० बाहिरनिदानकथावण्णना), तदयुत्तमेव । न हेत्थ च-सद्देन तदत्थो विज्ञायति । यदि चेत्थ तदत्थदस्सनत्थमेव च-कारो अधिप्पेतो सिया, एवं सति सो न कत्तब्बोयेव पठमसद्देनेव अञ्जासं दुतियादिसङ्गीतीनम्पि अत्थिभावस्स दस्सितत्ता। दुतियादिमुपादाय हि
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
पठमसद्दपयोगो दीघादिमुपादाय रस्सादिसद्दपयोगो विय । यथापच्चयं तत्थ तत्थ देसितत्ता, पञत्तत्ता च विप्पकिण्णानं धम्मविनयानं सङ्गहेत्वा गायनं कथनं सङ्गीति, एतेन तं तं सिक्खापदानं, तंतंसुत्तानञ्च आदिपरियोसानेसु, अन्तरन्तरा च सम्बन्धवसेन ठपितं सङ्गीतिकारकवचनं सङ्गहितं होति । महाविसयत्ता, पूजितत्ता च महती सङ्गीति महासङ्गीति, पठमा महासङ्गीति पठममहासङ्गीति। किञ्चापीति अनुग्गहत्थो, तेन पाळियम्पि सा सङ्गीतिमारुळहावाति अनुग्गरं करोति, एवम्पि तत्थारुळहमत्तेन इध सोतूनं निदानकोसल्लं न होतीति पन-सद्देन अरुचियत्थं दस्सेति । निददाति देसनं देसकालादिवसेन अविदितं विदितं कत्वा निदस्सेतीति निदानं, तस्मिं कोसल्लं, तदत्थायाति अत्थो।।
इदानि तं वित्थारेत्वा दस्सेतुं "धम्मचक्कपवत्तनही"तिआदि वुत्तं । तत्थ सत्तानं दस्सनानुत्तरियसरणादिपटिलाभहेतुभूतासु विज्जमानासुपि अञासु भगवतो किरियासु "बुद्धो बोधेय्य"न्ति (बु० वं० अट्ठ० अब्भन्तरनिदान १; च० पि० अट्ठ० पकिण्णककथा; उदान अट्ठ० १८) पटिञाय अनुलोमनतो विनेय्यानं मग्गफलुप्पत्तिहेतुभूता किरियाव निप्परियायेन बुद्धकिच्चं नामाति तं सरूपतो दस्सेतुं "धम्मचक्कप्पवत्तनहि...पे०... विनयना"ति वुत्तं । धम्मचक्कप्पवत्तनतो पन पुब्बभागे भगवता भासितं सुणन्तानम्पि वासनाभागियमेव जातं, न सेक्खभागियं, न निब्बेधभागियं तपुस्सभल्लिकानं सरणदानं विय। एसा हि धम्मता, तस्मा तमेव मरियादभावेन वुत्तन्ति वेदितब्बं । सद्धिन्द्रियादि धम्मोयेव पवत्तनतुन चक्कन्ति धम्मचक्कं। अथ वा चक्कन्ति आणा, धम्मतो अनपेतत्ता धम्मञ्च तं चक्कञ्चाति धम्मचक्कं । धम्मेन आयेन चक्कन्तिपि धम्मचक्कं । वुत्तहि पटिसम्भिदायं
"धम्मञ्च पवत्तेति चक्कञ्चाति धम्मचक्कं । चक्कञ्च पवत्तेति धम्मञ्चाति धम्मचक्कं, धम्मेन पवत्तेतीति धम्मचक्कं, धम्मचरियाय पवत्तेतीति धम्मचक्क"न्तिआदि (पटि० म० २.४०, ४१)।
तस्स पवत्तनं तथा । पवत्तनन्ति च पवत्तयमानं, पवत्तितन्ति पच्चुप्पन्नातीतवसेन द्विधा अत्थो। यं सन्धाय अट्ठकथासु वुत्तं "धम्मचक्कपवत्तनसुत्तन्तं देसेन्तो धम्मचक्कं पवत्तेति नाम, अासिकोण्डञ्जत्थेरस्स मग्गफलाधिगततो पट्ठाय पवत्तितं नामा"ति (सं० नि० अट्ठ० ३.५.१०८१-१०८८; पटि० म० अट्ठ० २.२.४०)। इध पन पच्चुप्पन्नवसेनेव अत्थो युत्तो । यावाति परिच्छेदत्थे निपातो, सुभद्दस्स नाम परिब्बाजकस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
विनयनं अन्तोपरिच्छेदं कत्वाति अभिविधिवसेन अत्थो वेदितब्बो। तहि भगवा परिनिब्बानमञ्चे निपन्नोयेव विनेसीति । कतं परिनिट्ठापितं बुद्धकिच्चं येनाति तथा, तस्मिं । कतबुद्धकिच्चे भगवति लोकनाथे परिनिब्बुतेति सम्बन्धो, एतेन बुद्धकत्तब्बस्स किच्चस्स कस्सचिपि असेसितभावं दीपेति । ततोयेव हि भगवा परिनिब्बुतोति । ननु च सावकेहि विनीतापि विनेय्या भगवतायेव विनीता नाम । तथा हि सावकभासितं सुत्तं "बुद्धभासित"न्ति वुच्चति । सावकविनेय्या च न ताव विनीता, तस्मा "कतबुद्धकिच्चे"ति न वत्तब्बन्ति ? नायं दोसो तेसं विनयनुपायस्स सावकेसु ठपितत्ता । तेनेवाह -
“न तावाहं पापिम परिनिब्बायिस्सामि, याव मे भिक्खू न सावका भविस्सन्ति वियत्ता विनीता विसारदा बहुस्सुता धम्मधरा...पे०... उप्पन्नं परप्पवादं सह धम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सपाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ती"तिआदि (दी० नि० २.१६८; उदा० ५१)।
“कुसिनाराय''न्तिआदिना भगवतो परिनिब्बुतदेसकालविसेसवचनं “अपरिनिब्बुतो भगवा''ति गाहस्स मिच्छाभावदस्सनत्थं, लोके जातसंवद्धादिभावदस्सनत्थञ्च । तथा हि मनुस्सभावस्स सुपाकटकरणत्थं महाबोधिसत्ता चरिमभवे दारपरिग्गहादीनिपि करोन्तीति । कुसिनारायन्ति एवं नामके नगरे । तहि नगरं कुसहत्थं पुरिसं दस्सनट्ठाने मापितत्ता "कुसिनार'"न्ति वुच्चति, समीपत्थे चेतं भुम्मं । उपवत्तने मल्लानं सालवनेति तस्स नगरस्स उपवत्तनभूते मल्लराजूनं सालवने । तहि सालवनं नगरं पविसितुकामा उय्यानतो उपच्च वत्तन्ति गच्छन्ति एतेनाति उपवत्तनं। यथा हि अनुराधपुरस्स दक्खिणपच्छिमदिसायं थूपारामो, एवं तं उय्यानं कुसिनाराय दक्खिणपच्छिमदिसायं होति । यथा च थूपारामतो दक्खिणद्वारेन नगरं पविसनमग्गो पाचीनमुखो गन्त्वा उत्तरेन निवत्तति, एवं उय्यानतो सालपन्ति पाचीनमुखा गन्त्वा उत्तरेन निवत्ता, तस्मा तं "उपवत्तन''न्ति वुच्चति । अपरे पन “तं सालवनमुपगन्त्वा मित्तसुहज्जे अपलोकेत्वा निवत्तनतो उपवत्तनन्ति पाकटं जातं किरा''ति वदन्ति । यमकसालानमन्तरेति यमकसालानं वेमज्झे । तत्थ किर भगवतो पञत्तस्स परिनिब्बानमञ्चस्स सीसभागे एका सालपन्ति होति, पादभागे एका | तत्रापि एको तरुणसालो सीसभागस्स आसन्नो होति, एको पादभागस्स। तस्मा “यमकसालानमन्तरे''ति वुत्तं । अपिच “यमकसाला नाम मूलक्खन्धविटपपत्तेहि अञमचं संसिब्बेत्वा ठितसाला''तिपि महाअट्ठकथायं वुत्तं । मा इति चन्दो वुच्चति तस्स गतिया
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
दिवसस्स मिनितब्बतो, तदा सब्बकलापारिपूरिया पुण्णो एव माति पुण्णमा। सद्दविदू पन "मो सिवो चन्दिमा चेवा"ति वुत्तं सक्कतभासानयं गहेत्वा ओकारन्तम्पि चन्दिमवाचक म-सद्दमिच्छन्ति । विसाखाय युत्तो पुण्णमा यत्थाति विसाखापुण्णमो, सोयेव दिवसो तथा, तस्मिं । पच्चूसति तिमिरं विनासेतीति पच्चूसो, पति पुब्बो उस सद्दो रुजायन्ति हि नेरुत्तिका, सोयेव समयोति रत्तिया पच्छिमयामपरियापन्नो कालविसेसो वुच्चति, तस्मिं । विसाखापुण्णमदिवसे ईदिसे रत्तिया पच्छिमसमयेति वुत्तं होति ।।
उपादीयते कम्मकिलेसेहीति उपादि, विपाकक्खन्धा, कटत्ता च रूपं । सो पन उपादि किलेसाभिसङ्घारमारनिम्मथने अनोस्सट्ठो, इध खन्धमच्चुमारनिम्मथने ओस्सट्ठोन सेसितो, तस्मा नत्थि एतिस्सा उपादिसङ्घातो सेसो, उपादिस्स वा सेसोति कत्वा "अनुपादिसेसा"ति वुच्चति । निब्बानधातूति चेत्थ निब्बुतिमत्तं अधिप्पेतं, निब्बानञ्च तं सभावधारणतो धातु चाति कत्वा। निब्बुतिया हि कारणपरियायेन असङ्घतधातु तथा वुच्चति । इत्थम्भूतलक्खणे चायं करणनिद्देसो। अनुपादिसेसतासङ्खातं इमं पकारं भूतस्स पत्तस्स परिनिब्बुतस्स भगवतो लक्खणे निब्बानधातुसङ्घाते अत्थे ततियाति वुत्तं होति । ननु च "अनुपादिसेसाया''ति निब्बानधातुयाव विसेसनं होति, न परिनिब्बुतस्स भगवतो, अथ कस्मा तं भगवा पत्तोति वुत्तोति ? निब्बानधातुया सहचरणतो । तंसहचरणेन हि भगवापि अनुपादिसेसभावं पत्तोति वुच्चति । अथ वा अनुपादिसेसभावसङ्घातं इमं पकारं पत्ताय निब्बानधातुया लक्खणे सञ्जाननकिरियाय ततियातिपि वत्तुं युज्जति । अनुपादिसेसाय निब्बानधातुयाति च अनुपादिसेसनिब्बानधातु हुत्वाति अत्थो । “ऊनपञ्चबन्धनेन पत्तेना''ति (पारा० ६१२)। एत्थ हि ऊनपञ्चबन्धनपत्तो हुत्वाति अत्थं वदन्ति । अपिच निब्बानधातुया अनुपादिसेसाय अनुपादिसेसा हुत्वा भूतायातिपि युज्जति । वुत्तव्हि उदानट्ठकथाय नन्दसुत्तवण्णनायं “उपड्डुल्लिखितेहि केसेहीति इत्थम्भूतलक्खणे करणवचनं विप्पकतुल्लिखितेहि केसेहि उपलक्खिताति अत्थो"ति (उदा० अट्ठ० २२) एसनयो ईदिसेसु । धातुभाजनदिवसेति जेट्टमासस्स सुक्कपक्खपञ्चमीदिवसं सन्धाय वुत्तं, तञ्च न “सन्निपतितान''न्ति एतस्स विसेसनं, “उस्साहं जनेसी''ति एतस्स पन विसेसनं "धातुभाजनदिवसे भिक्खून उस्साहं जनेसी'ति उस्साहजननस्स कालवसेन भिन्नाधिकरणविसेसनभावतो। धातुभाजनदिवसतो हि पुरिमतरदिवसेसुपि भिक्खू सन्निपतिताति । अथ वा "सन्निपतितान"न्ति इदं कायसामग्गिवसेन सन्निपतनमेव सन्धाय वुत्तं, न समागमनमत्तेन । तस्मा “धातुभाजनदिवसे''ति इदं “सन्निपतितान"न्ति एतस्स विसेसनं सम्भवति, इदञ्च भिक्खून उस्साहं जनेसीति एत्थ “भिक्खून"न्ति एतेनपि
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सम्बज्झनीयं । सङ्घस्स थेरो सङ्घत्थेरो। सो पन सङ्घो किं परिमाणोति आह "सत्तन्नं भिक्खुसतसहस्सान"न्ति । सङ्घसद्देन हि अविज्ञायमानस्स परिमाणस्स विज्ञापनत्थमेवेतं पुन वुत्तं । सद्दविदू पन वदन्ति -
“समासो च तद्धितो च, वाक्यत्थेसु विसेसका। पसिद्धियन्तु सामनं, तेलं सुगतचीवरं ।।
तस्मा नाममत्तभूतस्स सङ्घत्थेरस्स विसेसनत्थमेवेतं पुन वुत्तन्ति, निच्चसापेक्खताय च एदिसेसु समासो यथा “देवदत्तस्स गरुकुल"न्ति । निच्चसापेक्खता चेत्थ सङ्घसद्दस्स भिक्खुसतसहस्ससई सापेक्खत्तेपि अञपदन्तराभावेन वाक्ये विय. अपेक्खितब्बत्थस्स गमकत्ता । “सत्तन्नं भिक्खुसतसहस्सान'"न्ति हि एतस्स सङ्घसद्दे अवयवीभावेन सम्बन्धो, तस्सापि सामिभावेन थेरसद्देति । “सत्तन्नं भिक्खुसतसहस्सान"न्ति च गणपामोक्खभिक्खूयेव सन्धाय वुत्तं । तदा हि सन्निपतिता भिक्खू एत्तकाति गणनपथमतिक्कन्ता। तथा हि वेळुवगामे वेदनाविक्खम्भनतो पट्ठाय “नचिरेनेव भगवा परिनिब्बायिस्सती''ति सुत्वा ततो ततो आगतेसु भिक्खूसु एकभिक्खुपि पक्कन्तो नाम नत्थि । यथाहु
“सत्तसतसहस्सानि, तेसु पामोक्खभिक्खवो । थेरो महाकस्सपोव, सङ्घत्थेरो तदा अहू'ति ।।
आयस्मा महाकस्सपो अनुस्सरन्तो मञ्चमानो चिन्तयन्तो हुत्वा उस्साहं जनेसि, अनुस्सरन्तो मञमानो चिन्तयन्तो आयस्मा महाकस्सपो उस्साहं जनेसीति वा सम्बन्धो । महन्तेहि सीलक्खन्धादीहि समन्नागतत्ता महन्तो कस्सपोति महाकस्सपो। अपिच "महाकस्सपो"ति उरुवेलकस्सपो नदीकस्सपो गयाकस्सपो कुमारकस्सपोति इमे खुद्दानुखुद्दके थेरे उपादाय वुच्चति । कस्मा पनायस्मा महाकस्सपो उस्साहं जनेसीति अनुयोगे सति तं कारणं विभावेन्तो आह "सत्ताहपरिनिब्बुते"तिआदि । सत्त अहानि समाहटानि सत्ताहं। सत्ताहं परिनिब्बुतस्स अस्साति तथा यथा “अचिरपक्कन्तो, मासजातो"ति, अन्तत्थअञपदसमासोयं, तस्मिं । भगवतो परिनिब्बानदिवसतो पट्टाय सत्ताहे वीतिवत्तेति वुत्तं होति, एतस्स "वुत्तवचन''न्ति पदेन सम्बन्धो, तथा "सुभद्देन वुड्डपब्बजितेना"ति एतस्सपि । तत्थ सुभद्दोति तस्स नाममत्तं, वुड्डकाले पन पब्बजितत्ता "वुड्डपब्बजितेना"ति वुत्तं, एतेन सुभद्दपरिब्बाजकादीहि तं विसेसं करोति । “अलं
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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आवुसो"तिआदिना तेन वुत्तवचनं निदस्सेति । सो हि सत्ताहपरिनिब्बुते भगवति आयस्मता महाकस्सपत्थेरेन सद्धिं पावाय कुसिनारं अद्धानमग्गपटिपन्नेसु पञ्चमत्तेसु भिक्खुसतेसु अवीतरागे भिक्खू अन्तरामग्गे दिट्ठआजीवकस्स सन्तिका भगवतो परिनिब्बानं सुत्वा पत्तचीवरानि छड्डत्वा बाहा पग्गव्हं नानप्पकारं परिदेवन्ते दिस्वा एवमाह।
कस्मा पन सो एवमाहाति ? भगवति आघातेन । अयं किरेसो खन्धके आगते आतुमावत्थुस्मिं (महा० व० ३०३) नहापितपुब्बको वुड्डपब्बजितो भगवति कुसिनारतो निक्खमित्वा अड्डतेळसेहि भिक्खुसतेहि सद्धिं आतुमं गच्छन्ते “भगवा आगच्छती''ति सुत्वा “आगतकालेयागुदानं करिस्सामीति सामणेरभूमियं ठिते द्वे पुत्ते एतदवोच "भगवा किर ताता आतुमं आगच्छति महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं अड्डतेळसेहि भिक्खुसतेहि, गच्छथ तुम्हे ताता, खुरभण्डं आदाय नाळिया वा पसिब्बकेन वा अनुघरकं आहिण्डथ, लोणम्पि तेलम्पि तण्डुलम्पि खादनीयम्पि संहरथ, भगवतो आगतस्स यागुदानं करिस्सामी"ति । ते तथा अकंसु । अथ भगवति आतुमं आगन्त्वा भुसागारकं पविढे सुभद्दो सायन्हसमयं गामद्वारं गत्वा मनुस्से आमन्तेत्वा "हत्थकम्ममत्तं मे देथा"ति हत्थकम्मं याचित्वा “किं भन्ते करोमा"ति वुत्ते “इदञ्चिदञ्च गण्हथा"ति सब्बूपकरणानि गाहापेत्वा विहारे उद्धनानि कारेत्वा एकं काळकं कासावं निवासेत्वा तादिसमेव पारुपित्वा “इदं करोथ, इदं करोथा'"ति सब्बरत्तिं विचारेन्तो सतसहस्सं विस्सज्जेत्वा भोज्जयागुञ्च मधुगोळकञ्च पटियादापेसि । भोज्जयागु नाम भुञ्जित्वा पातब्बयागु, तत्थ सप्पिमधुफाणितमच्छमंसपुप्फफलरसादि यं किञ्चि खादनीयं नाम अत्थि, तं सब्बं पविसति । कीळितुकामानं सीसमक्खनयोग्गा होति सुगन्धगन्धा ।
अथ भगवा कालस्सेव सरीरपटिजग्गनं कत्वा भिक्खुसङ्घपरिवुतो पिण्डाय चरितुं आतुमाभिमुखो पायासि । अथ तस्स आरोचेसुं "भगवा पिण्डाय गामं पविसति, तया कस्स यागु पटियादिता''ति । सो यथानिवत्थपारुतेहेव तेहि काळककासावेहि एकेन हत्थेन दब्बिञ्च कटच्छुञ्च गहेत्वा ब्रह्मा विय दक्खिणं जाणुमण्डलं भूमियं पतिठ्ठपेत्वा वन्दित्वा “पटिग्गण्हातु मे भन्ते भगवा यागु"न्ति आह । ततो “जानन्तापि तथागता पुच्छन्तीति खन्धके (महा० व० ३०४) आगतनयेन भगवा पुच्छित्वा च सुत्वा च तं वुड्डपब्बजितं विगरहित्वा तस्मिं वत्थुस्मिं अकप्पियसमादानसिक्खापदं, खुरभण्डपरिहरणसिक्खापदञ्चाति द्वे सिक्खापदानि पञपेत्वा “अनेककप्पकोटियो भिक्खवे भोजनं परियेसन्तेहेव
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वीतिनामिता, इदं पन तुम्हाकं अकप्पियं, अधम्मेन उप्पन्नं भोजनं इमं परिभुजित्वा अनेकानि अत्तभावसहस्सानि अपायेस्वेव निब्बत्तिस्सन्ति, अपेथ मा गण्हथा''ति वत्वा भिक्खाचाराभिमुखो अगमासि, एकभिक्खुनापि न किञ्चि गहितं । सुभद्दो अनत्तमनो हुत्वा “अयं सब्बं जानामी''ति आहिण्डति, सचे न गहेतुकामो पेसेत्वा आरोचेतब्बं अस्स, पक्काहारो नाम सब्बचिरं तिद्वन्तो सत्ताहमत्तं तिडेय्य, इदञ्च मम यावजीवं परियत्तं अस्स, सब्बं तेन नासितं, अहितकामो अयं मम्ह"न्ति भगवति आघातं बन्धित्वा दसबले धरमाने किञ्चि वत्तुं नासक्खि । एवं किरस्स अहोसि “अयं उच्चा कुला पब्बजितो महापुरिसो, सचे किञ्चि धरन्तस्स वक्खामि, ममंयेव सन्तज्जेस्सती''ति ।
स्वायं अज्ज महाकस्सपत्थेरेन सद्धिं गच्छन्तो “परिनिब्बुतो. भगवा"ति सुत्वा लद्धस्सासो विय हठ्ठतुट्ठो एवमाह । थेरो पन तं सुत्वा हदये. पहारं विय, मत्थके पतितसुक्खासनिं विय (सुक्खासनि विय दी० नि० अट्ठ० ३.२३२) मञि, धम्मसंवेगो चस्स उप्पज्जि “सत्ताहमत्तपरिनिब्बुतो भगवा, अज्जापिस्स सुवण्णवण्णं सरीरं धरतियेव, दुक्खेन भगवता आराधितसासने नाम एवं लहुं महन्तं पापं कसट कण्टको उप्पन्नो, अलं खो पनेस पापो वड्डमानो अञपि एवरूपे सहाये लभित्वा सासनं ओसक्कापेतु"न्ति ।
ततो थेरो चिन्तेसि "सचे खो पनाहं इमं महल्लकं इधेव पिलोतिकं निवासेत्वा छारिकाय ओकिरापेत्वा नीहरापेस्सामि, मनुस्सा 'समणस्स गोतमस्स सरीरे धरमानेयेव सावका विवदन्तीति अम्हाकं दोसं दस्सेस्सन्ति, अधिवासेमि ताव । भगवता हि देसितधम्मो असङ्गहितपुप्फरासिसदिसो, तत्थ यथा वातेन पहटपुप्फानि यतो वा ततो वा गच्छन्ति, एवमेव एवरूपानं वसेन गच्छन्ते गच्छन्ते काले विनये एकं द्वे सिक्खापदानि नस्सिस्सन्ति, सुत्ते एको द्वे पञ्हावारा नस्सिस्सन्ति, अभिधम्मे एकं द्वे भूमन्तरानि नस्सिस्सन्ति, एवं अनुक्कमेन मूले नढे पिसाचसदिसा भविस्साम, तस्मा धम्मविनयसङ्गहं करिस्सामि, एवं सति दळहसुत्तेन सङ्गहितपुप्फानि विय अयं धम्मविनयो निच्चलो भविस्सति । एतदत्थहि भगवा मय्हं तीणि गावुतानि पच्चुग्गमनं अकासि, तीहि
ओवादेहि (सं० नि० १.२.१४९, १५०, १५१) उपसम्पदं अकासि, कायतो चीवरपरिवत्तनं अकासि, आकासे पाणिं चालेत्वा चन्दोपमपटिपदं कथेन्तो मझेव सक्खिं कत्वा कथेसि, तिक्खत्तुं सकलसासनरतनं पटिच्छापेसि, मादिसे भिक्खुम्हि तिठ्ठमाने अयं पापो सासने वड्डिं मा अलत्थ, याव अधम्मो न दिप्पति, धम्मो न पटिबाहिय्यति, अविनयो न दिप्पति, विनयो न पटिबाहिय्यति, अधम्मवादिनो न बलवन्तो होन्ति,
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
धम्मवादिनो न दुब्बला होन्ति, अविनयवादिनो न बलवन्तो होन्ति, विनयवादिनो न दुब्बला होन्ति, ताव धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायिस्सामि, ततो भिक्खू अत्तनो अत्तनो पहोनकं गहेत्वा कप्पियाकप्पिये कथेस्सन्ति, अथायं पापो सयमेव निग्गहं पापुणिस्सति, पुन सीसं उक्खिपितुं न सक्खिस्सति, सासनं इद्धञ्चेव फीत्तञ्च भविस्सती''ति चिन्तेत्वा सो “एवं नाम मय्हं चित्तं उप्पन्न''न्ति कस्सचिपि अनारोचेत्वा भिक्खुसद्धं समस्सासेत्वा अथ पच्छा धातुभाजनदिवसे धम्मविनयसङ्गायनत्थं भिक्खूनं उस्साहं जनेसि । तेन वुत्तं "आयस्मा महाकस्सपो सत्ताहपरिनिब्बुते...पे०... धम्मविनयसङ्गायनत्थं भिक्खूनं उस्साहं जनेसी''ति ।
तत्थ अलन्ति पटिक्खेपवचनं, न युत्तन्ति अत्थो । आवुसोति परिदेवन्ते भिक्खू आलपति । मा सोचित्थाति चित्ते उप्पन्नबलवसोकेन मा सोकमकत्थ । मा परिदेविस्थाति वाचाय मा विलापमकत्थ । “परिदेवनं विलापोति हि वुत्तं । असोचनादीनं कारणमाह "सुमुत्ता"तिआदिना। तेन महासमणेनाति निस्सक्के करणवचनं, स्मावचनस्स वा नाब्यप्पदेसो । “उपद्दता"ति पदे पन कत्तरि ततियावसेन सम्बन्धो । उभयापेक्खऽहेतं पदं । उपद्दता च होमाति तंकालापेक्खवत्तमानवचनं, “तदा"ति सेसो। अतीतत्थे वा वत्तमानवचनं, अहुम्हाति अत्थो । अनुस्सरन्तो धम्मसंवेगवसेनेव, न पन कोधादिवसेन । धम्मसभावचिन्तावसेन हि पवत्तं सहोत्तप्पत्राणं धम्मसंवेगो । वुत्तहेतं -
“सब्बसङ्घतधम्मेसु, ओत्तप्पाकारसण्ठितं । आणमोहितभारानं, धम्मसंवेगसञ्जित"न्ति ।। १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना)।
(सारत्थ
टी०
अझं उस्साहजननकारणं दस्सेतुं "ईदिसस्सा"तिआदि वुत्तं । तत्थ ईदिसस्स च सङ्घसन्निपातस्साति सत्तसतसहस्सगणपामोक्खत्थेरप्पमुखगणनपथातिक्कन्तसङ्घसन्निपातं सन्धाय वदति । "ठानं खो पनेतं विज्जती"तिआदिनापि अझं कारणं दस्सेति । तिट्ठति एत्थ फलं तदायत्तवुत्तितायाति ठानं, हेतु । खोति अवधारणे। पनाति वचनालङ्कारे, एतं ठानं विज्जतेव, नो न विज्जतीति अत्थो। किं पन तन्ति आह “यं पापभिक्खू"तिआदि । यन्ति निपातमत्तं, कारणनिद्देसो वा, येन ठानेन अन्तरधापेय्यु, तदेतं ठानं विज्जतियेवाति । पापेन लामकेन इच्छावचरेन समन्नागता भिक्खू पापभिक्खू। अतीतो सत्था एत्थ, एतस्साति वा अतीतसत्थुकं यथा “बहुकत्तुको''ति । पधानं वचनं पावचनं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
पा-सद्दो चेत्थ निपातो “पा एव वुत्यस्सा''तिआदीसु विय । उपसग्गपदं वा एतं, दीघं कत्वा पन तथा वुत्तं यथा “पावदती"तिपि वदन्ति । पक्खन्ति अलज्जिपक्खं । “याव चा"तिआदिना सङ्गीतिया सासनचिरट्ठितिकभावे कारणं, साधकञ्च दस्सेति । "तस्मा"ति हि पदमज्झाहरित्वा “सङ्गायेय्य"न्ति पदेन सम्बन्धनीयं ।
तत्थ याव च धम्मविनयो तिद्वतीति यत्तकं कालं धम्मो च विनयो च लज्जिपुग्गलेसु तिट्ठति । परिनिब्बानमञ्चके निपन्नेन भगवता महापरिनिब्बानसुत्ते (दी० नि० २.२१६) वुत्तं सन्धाय "वुत्तहेत"न्तिआदिमाह । हि-सद्दो आगमवसेन दळिहजोतको । देसितो पञत्तोति धम्मोपि देसितो चेव पञ्जत्तो च। सुत्ताभिधम्मसङ्गहितस्स हि धम्मस्स अतिसज्जनं पबोधनं देसना, तस्सेव पकारतो आपनं विनेय्यसन्ताने ठपनं पञापनं | विनयोपि देसितो चेव पञ्जत्तो च। विनयतन्तिसङ्गहितस्स हि अत्थस्स अतिसज्जनं पबोधनं देसना, तस्सेव पकारतो ज्ञापनं असङ्करतो ठपनं पापनं, तस्मा कम्मद्वयम्पि किरियाद्वयेन सम्बज्झनं युज्जतीति वेदितब्बं ।
सोति सो धम्मो च विनयो च। ममच्चयेनाति मम अच्चयकाले । “भुम्मत्थे करणनिद्देसो"ति हि अक्खरचिन्तका वदन्ति । हेत्वत्थे वा करणवचनं, मम अच्चयहेतु तुम्हाकं सत्था नाम भविस्सतीति अत्थो । वुत्तहि महापरिनिब्बानसुत्तवण्णनायं “मयि परिनिब्बुते तुम्हाकं सत्थुकिच्चं साधेस्सती"ति (दी० नि० अट्ठ० २.२१६) । लक्खणवचनव्हेत्थ हेत्वत्थसाधकं यथा “नेत्ते उजु गते सती"ति (अ० नि० १.४.७०; नेत्ति० १०.९०, ९३) । इदं वुत्तं होति - मया वो ठितेनेव "इदं लहुकं, इदं गरुकं, इदं सतेकिच्छं, इदं अतेकिच्छं, इदं लोकवज्जं, इदं पण्णत्तिवज्ज, अयं आपत्ति पुग्गलस्स सन्तिके वुठ्ठाति, अयं गणस्स, अयं सङ्घस्स सन्तिके वुढाती''ति सत्तन्नं आपत्तिक्खन्धानं अवीतिक्कमनीयतावसेन ओतिण्णवत्थुस्मिं सखन्धकपरिवारो उभतोविभङ्गो महाविनयो नाम देसितो, तं सकलम्पि विनयपिटकं मयि परिनिब्बुते तुम्हाकं सत्थुकिच्चं साधेस्सति “इदं वो कत्तब्ध, इदं वो न कत्तब्ब''न्ति कत्तब्बाकत्तब्बस्स विभागेन अनुसासनतो। ठितेनेव च मया “इमे चत्तारो सतिपट्ठाना, चत्तारो सम्मप्पधाना, चत्तारो इद्धिपादा, पञ्चिन्द्रियानि, पञ्च बलानि, सत्त बोज्झङ्गा, अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो"ति तेन तेन विनेय्यानं अज्झासयानुरूपेन पकारेन इमे सत्ततिंस बोधिपक्खियधम्मे विभजित्वा विभजित्वा सुत्तन्तपिटकं देसितं, तं सकलम्पि सुत्तन्तपिटकं मयि परिनिब्बुते तुम्हाकं सत्थुकिच्चं साधेस्सति तंतंचरियानुरूपं सम्मापटिपत्तिया अनुसासनतो, ठितेनेव च मया
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
"इमे पञ्चक्खन्धा (दी० नि० अट्ठ० २.२१६), द्वादसायतनानि, अट्ठारस धातुयो, चत्तारि सच्चानि, बावीसतिन्द्रियानि, नव हेतू, चत्तारो आहारा, सत्त फस्सा, सत्त वेदना, सत्त सा, सत्त चेतना, सत्त चित्तानि । तत्रापि एत्तका धम्मा कामावचरा, एत्तका रूपावचरा, एत्तका अरूपावचरा, एत्तका परियापन्ना, एत्तका अपरियापन्ना, एत्तका लोकिया, एत्तका लोकुत्तरा"ति इमे धम्मे विभजित्वा विभजित्वा अभिधम्मपिटकं देसितं, तं सकलम्पि अभिधम्मपिटकं मयि परिनिब्बुते तुम्हाकं सत्थुकिच्चं साधेस्सति खन्धादिविभागेन जायमानं चतुसच्चसम्बोधावहत्ता। इति सब्बम्पेतं अभिसम्बोधितो याव परिनिब्बाना पञ्चचत्तालीस वस्सानि भासितं लपितं "तीणि पिटकानि, पञ्च निकाया, नवङ्गानि, चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानी"ति एवं महप्पभेदं होति । इमानि चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानि तिट्ठन्ति, अहं एकोव परिनिब्बायिस्सामि, अहञ्च पनिदानि एकोव ओवदामि अनुसासामि, मयि परिनिब्बुते इमानि चतुरासीति बुद्धसहस्सानि तुम्हे ओवदिस्सन्ति अनुसास्सिन्ति ओवादानुसासनकिच्चस्स निप्फादनतोति ।
सासनन्ति परियत्तिपटिपत्तिपटिवेधवसेन तिविधम्पि सासनं, निप्परियायतो पन सत्ततिंस बोधिपक्खियधम्मा । अद्धानं गमितुमलन्ति अद्धनियं, अद्धानगामि अद्धानक्खमन्ति अत्थो । चिरं ठिति एतस्साति चिरद्वितिकं। इदं वुत्तं होति - येन पकारेन इदं सासनं अद्धनियं, ततोयेव च चिरट्ठितिकं भवेय्य, तेन पकारेन धम्मञ्च विनयञ्च यदि पनाह सङ्गायेय्यं, साधु वताति ।
इदानि सम्मासम्बुद्धेन अत्तनो कतं अनुग्गहविसेसं समनुस्सरित्वा चिन्तनाकारम्पि दस्सेन्तो “यञ्चाहं भगवता"तिआदिमाह । तत्थ “यञ्चाहन्ति एतस्स “अनुग्गहितो, पसंसितो'"ति एतेहि सम्बन्धो । यन्ति यस्मा, किरियापरामसनं वा एतं, तेन “अनुग्गहितो, पसंसितो''ति एत्थ अनुग्गहणं, पसंसनञ्च परामसति । “धारेस्ससी"तिआदिकं पन वचनं भगवा अञ्जतरस्मिं रुक्खमूले महाकस्सपत्थेरेन पञ्जत्तसङ्घाटियं निसिन्नो तं सङ्घाटिं पदुमपुप्फवण्णेन पाणिना अन्तन्तेन परामसन्तो आह । वुत्तज्हेतं कस्सपसंयुत्ते (सं० नि० १.२.१५४) महाकस्सपत्थेरेनेव आनन्दत्थेरं आमन्तेत्वा कथेन्तेन -
“अथ खो आवुसो भगवा मग्गा ओक्कम्म येन अञ्जतरं रुक्खमूलं तेनुपसङ्कमि, अथ ख्वाहं आवुसो पटपिलोतिकानं सङ्घाटिं चतुग्गुणं पञ्जपेत्वा भगवन्तं एतदवोचं 'इध भन्ते भगवा निसीदतु, यं ममस्स दीघरत्तं हिताय
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
सुखाया'ति । निसीदि खो आवुसो भगवा पञ्ञत्ते आसने, निसज्ज खो मं आवुसो भगवा एतदवोच 'मुदुका खो त्यायं कस्सप पटपिलोतिकानं सङ्घाटी'ति । पटिग्गहातु मे भन्ते भगवा पटपिलोतिकानं सङ्घाटिं अनुकम्पं उपादायाति । धारेस्ससि पन मे त्वं कस्सप साणानि पंसुकूलानि निब्बसनानीति । धारेस्सामहं भन्ते भगवतो साणानि पंसुकूलानि निब्बसनानीति । सो ख्वाहं आवुसो पटपिलोतिकानं सङ्घाटिं भगवतो पादासिं, अहं पन भगवतो साणानि पंसुकूलानि निब्बसनानि पटिपज्जिन्ति (सं० नि० १.२.१५४) ।
तत्थ मुदुका खो त्यायन्ति मुदुका खो ते अयं । कस्मा पन भगवा एवमाहाति ? थेरेन सह चीवरं परिवत्तेतुकामताय । कस्मा परिवत्तेतुकामो जातोति ? थेरं अत्तनो ठाने ठपेतुकामताय । किं सारिपुत्तमोग्गल्लाना नत्थीति ? अस्थि एवं पनस्स अहोसि “इमे न चिरं ठस्सन्ति, ‘कस्सपो पन वीसवस्ससतायुको, सो मयि परिनिब्बुते सत्तपण्णिगुहायं वसित्वा धम्मविनयसङ्गहं कत्वा मम सासनं पञ्चवस्ससहस्सपरिमाणकालं पवत्तनकं करिस्सती”ति अत्तनो नं ठाने ठपेसि, एवं भिक्खू कस्सपस्स सुस्सुसितब्बं मञ्ञिस्सन्तीति तस्मा एवमाह । थेरो पन यस्मा चीवरस्स वा पत्तस्स वा वण्णे कथिते " इमं तुम्हे गण्हथा "ति वचनं चारित्तमेव, तस्मा “ पटिग्गण्हातु मे भन्ते भगवा 'ति आह ।
धारेस्ससि पन मे त्वं कस्सपाति कस्सप त्वं इमानि परिभोगजिण्णानि पंसुकूलानि पारुपितुं सक्खिस्ससीति वदति । तञ्च खो न कायबलं सन्धाय, पटिपत्तिपूरणं पन सन्धाय एवमाह । अयञ्हेत्थ अधिप्पायो - अहं इमं चीवरं पुण्णं नाम दासिं पारुपित्वा आमकसुसाने छड्डतं सुसानं पविसित्वा तुम्बमत्तेहि पाणकेहि सम्परिकिण्णं ते पाणके विधुनित्वा महाअरियवंसे ठत्वा अग्गहेसिं, तस्स मे इमं चीवरं गहितदिवसे दससहस्सचक्कवाळे महापथवी महाविरवं विरवमाना कम्पित्थ आकासं तटतटायि, चक्कवाळे देवता साधुकारं अदंसु, इमं चीवरं गण्हन्तेन भिक्खुना जातिपंसुकूलिकेन जाति आरञ्ञिकेन जातिएकासनिकेन जातिसपदानचारिकेन भवितुं वट्टति, त्वं इमस्स चीवरस्स अनुच्छविकं कातुं सक्खिस्ससीति । थेरोपि अत्तना पञ्चन्नं हत्थीनं बलं धारेति, सो तं अतक्कयित्वा “अहमेतं पटिपत्तिं पूरेस्सामी 'ति उस्साहेन सुगतचीवरस्स अनुच्छविकं कातुकामो “ धारेस्सामहं भन्ते 'ति आह । पटिपज्जिन्ति पटिपन्नोसिं । एवं पन
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
चीवरपरिवत्तनं कत्वा थेरेन पारुपितचीवरं भगवा पारुपि, सत्थु चीवरं थेरो । तस्मिं समये महापथवी उदकपरियन्तं कत्वा उन्नदन्ती कम्पित्थ ।
साणानि पंसुकूलानीति मतकळेवरं परिवेठेत्वा छड्डितानि तुम्बमत्ते किमी पप्फोटेत्वा गहितानि साणवाकमयानि पंसुकूलचीवरानि। निब्बसनानीति निद्वितवसनकिच्चानि, परिभोगजिण्णानीति अत्थो । एत्थ च किञ्चापि एकमेव तं चीवरं, अनेकावयवत्ता पन बहुवचनं कतन्ति मज्झिमगण्ठिपदे वुत्तं । चीवरे साधारणपरिभोगेनाति एत्थ अत्तना साधारणपरिभोगेनाति अत्थस्स विझायमानत्ता, विज्ञायमानत्थस्स च सद्दस्स पयोगे कामाचारत्ता “अत्तना''ति न वुत्तं । “धारेस्ससि पन मे त्वं कस्सप साणानि पंसुकूलानी"ति (सं० नि० १.२.१५४) हि वुत्तत्ता “अत्तनाव साधारणपरिभोगेना'ति विज्ञायति, नागेन । न हि केवलं सद्दतोयेव सब्बत्थ अत्थनिच्छयो, अत्थपकरणादिनापि येभुय्येन अत्थस्स नियमितत्ता। आचरियधम्मपालत्थेरेन पनेत्थ एवं वुत्तं “चीवरे साधारणपरिभोगेनाति एत्थ 'अत्तना समसमट्ठपनेना'ति इध वुत्तं अत्तना - सद्दमानेत्वा 'चीवरे अत्तना साधारणपरिभोगेना'ति योजेतब् ।
यस्स येन हि सम्बन्धो, दूरट्ठम्पि च तस्स तं । अत्थतो ह्यसमानानं, आसन्नत्तमकारणन्ति ।।
अथ वा भगवता चीवरे साधारणपरिभोगेन भगवता अनुग्गहितोति योजनीयं । एकस्सापि हि करणनिद्देसस्स सहादियोगकत्तुत्थजोतकत्तसम्भवतो''ति । समानं धारणमेतस्साति साधारणो, तादिसो परिभोगोति साधारणपरिभोगो, तेन । साधारणपरिभोगेन च समसमट्ठपनेन च अनुग्गहितोति सम्बन्धो ।
इदानि
“अहं भिक्खवे, यावदे आकङ्खामि विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरामि, कस्सपोपि भिक्खवे यावदे आकङ्घति विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरती"तिआदिना (सं० नि० १.२.१५२) -
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नवानुपुब्बविहारछळभिञ्ञापभेदे उत्तरिमनुस्सधम्मे अत्तना समसमट्ठपनत्थाय भगवता वृत्तं कस्सपसंयुत्ते (सं० नि० १.२.१५१) आगतं पाळिमिमं पेय्यालमुखेन, आदिग्ग सङ्क्षिपित्वा दस्सेन्तो आह "अहं भिक्खवे "तिआदि ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
तत्थ यावदेति यावदेव यत्तकं कालं आकङ्क्षामि तत्तकं कालं विहरामीति अत्थो । ततोयेव हि मज्झिमगण्ठिपदे, चूळगण्ठिपदे च " यावदेति यावदेवाति वृत्तं होती ति लिखितं । संयुत्तट्ठकथायम्पि " यावदे आकङ्क्षामीति यावदेव इच्छामी" ति (सं० नि० अट्ठ० १.२.१५२) अत्थो वुत्तो । तथा हि तत्थ लीनत्थपकासनियं आचरियधम्मपालत्थेरेन " यावदेवाति इमिना समानत्थं 'यावदे 'ति इदं पद "न्ति वृत्तं । पोत्थकेसु पन कत्थचि “ यावदेवा'ति अयमेव पाठो दिस्सति । अपि च यावदेति यत्तकं समापत्तिविहारं विहरितुं आकङ्क्षामि तत्तकं समापत्तिविहारं विहरामीति समापत्तिट्ठाने, यत्तकं अभिञावोहारं वोहरितुं आकङ्क्षामि तत्तकं अभिज्ञावोहारं वोहरामीति अभिज्ञाठाने च सह पाठसेसेन अत्थो वेदितब्बो । आचरियधम्मपालत्थेरेनापि तदेवत्थं यथालाभनयेन दस्सेतुं “यत्तके समापत्तिविहारे, अभिज्ञावोहारे वा आकङ्क्षन्तो विहारामि चेव वोहरामि च, तथा कस्सपोपीति अत्थो”ति वृत्तं । अपरे पन " यावदेति यं पठमज्झानं आकङ्क्षामि तं पठमज्झानं उपसम्पज्ज विहारामी 'तिआदिना समापत्तिट्ठाने, इद्विविधाभिञ्ञठाने च अज्झाहरितस्स त- सद्दस्स कम्मवसेन 'यं दिब्बसोतं आकङ्क्षामि तेन दिब्बसोतेन सद्दे सुणामी 'तिआदिना सेसाभिञ्ञठाने करणवसेन योजना वत्तब्बा "ति वदन्ति । विविच्चेव कामेहीति एत्थ एव-सद्दो नियमत्थो, उभयत्थ योजेतब्बो । यमेत्थ वत्तब्बं, तदुपरि आवि भविस्सति ।
"
नवानुपुब्बविहारछळभिञ्ञप्पभेदेति एत्थ नवानुपुब्बविहारा नाम अनुपरिपाटिया समापज्जितब्बत्ता एवंसञ्ञिता निरोधसमापत्तिया सह अट्ठ समापत्तियो । छळभिञ्ञा नाम आसवक्खयञाणेन सह पञ्चाभिञ्ञायो । कत्थचि पोत्थके चेत्थ आदिसद्दो दिस्सति । सो अनधिप्पेतो यथावुत्ताय पाळिया गहेतब्बस्स अत्थस्स अनवसेसत्ता । मनुस्सेसु, मनुस्सानं वा उत्तरिभूतानं, उत्तरीनं वा मनुस्सानं झायीनञ्चेव अरियानञ्च धम्मोति उत्तरिमनुस्सधम्मो, मनुस्सधम्मा वा उत्तरीति उत्तरिमनुस्सधम्मो । दस कुसलकम्मपथा चेत्थ विना भावनामनसिकारेन पकतियाव मनुस्सेहि निब्बत्तेतब्बतो, मनुस्सत्तभावावहनतो च मनुस्सधम्मो नाम, ततो उत्तरि पन झानादि उत्तरिमनुस्सधम्मोति वेदितब्बो । समसमट्ठपनेनाति “अहं यत्तकं कालं यत्तके वा समापत्तिविहारे, यत्तका अभिज्ञायो च
"
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
वळञ्जेमि, तथा कस्सपोपी 'ति एवं समसमं कत्वा ठपनेन । अनेकट्ठानेसु ठपनं, कस्सचिपि उत्तरमनुस्सधम्मस्स असे भावेन एकन्तसमट्ठनं वा सन्धाय “समसमट्ठपनेना "ति वुत्तं इदञ्च नवानुपुब्बविहारछळभिञाभावसामञ्ञेन पसंसामत्तन्ति दट्ठब्बं । न हि आयस्मा महाकस्सपो भगवा विय देवसिकं चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससङ्ख्या समापत्तियो समापज्जति, यमकपाटिहारियादिवसेन च अभिज्ञायो वळञ्जेतीति । एत्थ च उत्तरिमनुस्सधम्मे अत्तना समसमट्ठपनेनाति इदं निदस्सनमत्तन्ति वेदितब्बं । तथा हि
" ओवद कस्सप भिक्खू, करोहि कस्सप भिक्खूनं धम्मिं कथं, अहं वा कस्सप भिक्खू ओवदेय्यं, त्वं वा । अहं वा कस्सप भिक्खूनं धम्मिं कथं करेय्यं, त्वं वा "ति
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एवम्पि अत्तना समसमट्ठपनमकासियेवाति ।
तथाति रूपूपसंहारो यथा अनुग्गहितो, तथा पसंसितोति । आकासे पाणि चात्वाति भगवता अत्तनोयेव पाणि आकासे चालेत्वा कुलेसु अलग्गचित्तताय चेव करणभूताय पसंसितोति सम्बन्धो । अलग्गचित्ततायाति वा आधारे भुम्मं, आकासे पाणिं चालेत्वा कुलूपकस्स भिक्खुनो अलग्गचित्तताय कुलेसु अलग्गनचित्तेन भवितुं युत्तताय चेव मञ्ञेव सक्खिं कत्वा पसंसितोति अत्थो । यथाह -
“अथ खो भगवा आकासे पाणिं चालेसि सेय्यथापि भिक्खवे, अयं आकासे पाणि न सज्जति न गय्हति न बज्झति, एवमेव खो भिक्खवे यस्स कस्सचि भिक्खुनो कुलानि उपसङ्कमतो कुलेसु चित्तं न सज्जति न गय्हति न बज्झति 'लभन्तु लाभकामा, पुञ्ञकामा करोन्तु पुञ्ञानी 'ति । यथा सकेन लाभेन अत्तमनो होति सुमनो, एवं परेसं लाभेन अत्तमनो होति सुमनो । एवरूपो खो भिक्खवे भिक्खु अरहति कुलानि उपसङ्कमितुं । करसपरस भिक्खवे कुलानि उपसङ्कम कुलेसु चित्तं न सज्जति न गय्हति न बज्झति 'लभन्तु लाभकामा, पुञ्ञकामा करोन्तु पुञ्ञानी'ति । यथा सकेन लाभेन अत्तमनो होति सुमनो, एवं परेसं लाभेन अत्तमनो होति सुमनो 'ति (सं० नि० १.२.१४६) ।
तत्थ आकासे पाणिं चालेसीति नीले गगनन्तरे यमकविज्जुकं सञ्चालयमानो विय
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हेट्ठाभागे, उपरिभागे, उभतो च पस्सेसु पाणिं सञ्चालेसि, इदञ्च पन तेपिटके बुद्धवचने असम्भिन्नपदं नाम | अत्तमनोति सकमनो, न दोमनस्सेन पच्छिन्दित्वा गहितमनो । सुमनोति तुट्ठमनो, इदानि यो हीनाधिमुत्तिको मिच्छापटिपन्नो एवं वदेय्य " सम्मासम्बुद्धो ‘अलग्गचित्तताय आकासे चालितपाणूपमा कुलानि उपसङ्कमथा' ति वदन्तो अट्ठाने ठपेति, असय्हभारं आरोपेति, यं न सक्का कातुं तं कारेही "ति, तस्स वादपथं पच्छिन्दित्वा “सक्का च खो एवं कातुं, अत्थि एवरूपो भिक्खू'ति आयस्मन्तं महाकस्सपत्थरमेव सक्खिं कत्वा दस्सेन्तो “कस्सपस्स भिक्खवे "तिआदिमाह ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
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अञ्ञम्पि पसंसनमाह “ चन्दोपमपटिपदाय चा "ति, चन्दपटिभागाय पटिपदाय च करणभूताय पसंसितो, तस्सं वा आधारभूताय मञ्ञेव सक्खिं कत्वा पसंसितोति अत्थो ।
यथाह
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“चन्दूपमा भिक्खवे कुलानि उपसङ्कमथ अपकस्सेव कार्य, अपकस्स चित्तं निच्चनवका कुलेसु अप्पगब्भा । सेय्यथापि भिक्खवे पुरिसो जरुदपानं वा ओलोकेय्य पब्बतविसमं वा नदीविदुग्गं वा अपकस्सेव कार्य, अपकस्स चित्तं, एवमेव खो भिक्खवे चन्दूपमा कुलानि उपसङ्कमथ अपकस्सेव कार्य, अपकस्स चित्तं निच्चनवका कुलेसु अप्पगब्भा । कस्सपो भिक्खवे चन्दूपमो कुलानि उपसङ्कमति अपकस्सेव कार्य, अपकस्स चित्तं निच्चनवको कुलेसु अप्पगब्भो "ति (सं० नि० १.२.१४६) ।
तत्थ चन्दूपमाति चन्दसदिसा हुत्वा । किं परिमण्डलताय सदिसाति ? नो, अपिच खो यथा चन्दो गगनतलं पक्खन्दमानो न केनचि सद्धिं सन्थवं वा सिनेहं वा आलयं वा निकन्तिं वा पत्थनं वा परियुट्ठानं वा करोति, न च न होति महाजनस्स पियो मनापो, तुम्हेपि एवं केनचि सद्धिं सन्थवादीनं अकरणेन बहुजनस्स पिया मनापा चन्दूपमा हुत्वा खत्तियकुलादीनि चत्तारि कुलानि उपसङ्कमथाति अत्थो । अपिच यथा चन्दो अन्धकारं विधमति, आलोकं फरति, एवं किलेसन्धकारविधमनेन, आणालोकफरणेन च चन्दूपमा हुत्वाति एवमादीहिपि नयेहि अत्थो दट्टब्बो |
अपकस्सेव कार्य, अपकस्स चित्तन्ति तेनेव सन्थवादीनमकरणेन कायञ्च चित्तञ्च अपकस्सित्वा, अकड्ढित्वा अपनेत्वाति अत्थो । निच्चनवत निच्चं नविकाव,
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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आगन्तुकसदिसा एव हुत्वाति अत्थो । आगन्तुको हि पटिपाटिया सम्पत्तगेहं पविसित्वा सचे नं घरसामिका दिस्वा “अम्हाकं पुत्तभातरोपि विप्पवासगता एवं विचरिसूति अनुकम्पमाना निसीदापेत्वा भोजेन्ति, भुत्तमत्तोयेव “तुम्हाकं भाजनं गण्हथा''ति उद्याय पक्कमति, न तेहि सद्धिं सन्थवं वा करोति, किच्चकरणीयानि वा संविदहति, एवं तुम्हेपि पटिपाटिया सम्पत्तघरं पविसित्वा यं इरियापथेसु पसन्ना मनुस्सा देन्ति, तं गहेत्वा पच्छिन्नसन्थवा तेसं किच्चकरणीये अब्यावटा हुत्वा निक्खमथाति दीपेति । अप्पगम्भाति न पगब्भा, अट्ठानेन कायपागब्भियेन, चतुट्ठानेन वचीपागब्भियेन, अनेकट्ठानेन मनोपागब्भियेन च विरहिता कुलानि उपसङ्कमथाति अत्थो । ।
जरुदपानन्ति जिण्णकूपं । पब्बतविसमन्ति पब्बते विसमं पपातट्टानं । नदीविदुग्गन्ति नदिया विदुग्गं छिन्नतटट्ठानं । एवमेव खोति एत्थ इदं ओपम्मसंसन्दनं - जरुदपानादयो विय हि चत्तारि कुलानि, ओलोकनपुरिसो विय भिक्खु, यथा पन अनपकट्ठकायचित्तो तानि ओलोकेन्तो पुरिसो तत्थ पतति, एवं अरक्खितेहि कायादीहि कुलानि उपसङ्कमन्तो भिक्खु कुलेसु बज्झति, ततो नानप्पकारं सीलपादभञ्जनादिकं अनत्थं पापुणाति । यथा पन अपकट्टकायचित्तो पुरिसो तत्थ न पतति, एवं रक्खितेनेव कायेन, रक्खिताय वाचाय, रक्खितेहि चित्तेहि, सूपट्टिताय सतिया अपकट्ठकायचित्तो हुत्वा कुलानि उपसङ्कमन्तो भिक्खु कुलेसु न बज्झति, अथस्स सीलसद्धासमाधिपञ्जासङ्खातानि पादहत्थकुच्छिसीसानि न भञ्जन्ति, रागकण्टकादयो न विज्झन्ति, सुखितो येनकामं अगतपुब्बं निब्बानदिसं गच्छति, एवरूपो अयं महाकस्सपोति हीनाधिमुत्तिकस्स मिच्छापटिपन्नस्स वादपथपच्छिन्दनत्थं महाकस्सपत्थेरं एव सक्खिं कत्वा दस्सेन्तो “कस्सपो भिक्खवे"तिआदिमाहाति । एवम्पेत्थ अत्थमिच्छन्तिअलग्गचित्ततासङ्घाताय चन्दोपमपटिपदाय करणभूताय पसंसितो, तस्सं वा आधारभूताय म व सक्खिं कत्वा पसंसितोति, एवं सति चेव-सद्दो, च-सद्दो च न पयुज्जितब्बो द्विन्नं पदानं तुल्याधिकरणत्ता, अयमेव अत्थो पाठो च युत्ततरो विय दिस्सति परिनिब्बानसुत्तवण्णनायं “आकासे पाणिं चालेत्वा चन्दूपमं पटिपदं कथेन्तो मं कायसक्खिं कत्वा कथेसी'ति (दी० नि० अट्ठ० २.२३२) वुत्तत्ताति ।
तस्स किमनं आणण्यं भविस्सति, अञत्र धम्मविनयसङ्गायनाति अधिप्पायो । तत्थ तस्साति यं-सद्दस्स कारणनिदस्सने "तस्मा"ति अज्झाहरित्वा तस्स मेति अत्थो, किरियापरामसने पन तस्स अनुग्गहणस्स, पसंसनस्स चाति । पोत्थकेसुपि कत्थचि "तस्स मे"ति पाठो दिस्सति, एवं सति किरियापरामसने “तस्सा''ति अपरं पदमज्झाहरितब्बं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
नत्थि इणं यस्साति अणणो, तस्स भावो आणण्यं । धम्मविनयसङ्गायनं ठपेत्वा अञ्ञ किं नाम तस्स इणविरहितत्तं भविस्सति, न भविस्सति एवाति अत्थो । “ननु मं भगवा’तिआदिना वुत्तमेवत्थं उपमावसेन विभावेति । सककवचइस्सरियानुष्पदानेनाति एत्थ कवचो नाम उरच्छदो, येन उरो छादीयते, तस्स च चीवरनिदस्सनेन गहणं, इस्सरियस्स पन अभिञ्ञसमापत्तिनिदस्सनेनाति दट्ठब्बं । कुलवंसप्पतिट्ठापकन्ति कुलवंसस्स कुलपवेणिया पतिट्ठापकं । "मे" ति पदस्स निच्चसापेक्खत्ता सद्धम्मवंसप्पतिट्ठापकोति समासो । इदं वृत्तं होति - सत्तुसङ्घनिम्मद्दनेन अत्तनो कुलवंसप्पतिट्ठापनत्थं सककवचइस्सरियानुप्पदानेन कुलवंसप्पतिट्ठापकं पुत्तं राजा विय भगवापि मं दीघदस्सी " सद्धम्मवसप्पतिट्ठापको मे अयं भविस्सती "ति मन्त्वा सासनपच्चत्थिकगणनिम्मद्दनेन सद्धम्मवंसप्पतिट्ठापनत्थं चीवरदानसमसमट्ठपनसङ्घातेन इमिना असाधारणानुग्गहेन अनुग्गहेसि ननु, इमाय च उळाराय पसंसाय पसंसि ननूति । इति चिन्तयन्तोति एत्थ इतिसद्देन " अन्तरधापेय्युं, सङ्गायेय्यं, किमञ्ञ आणण्यं भविस्सती 'ति वचनपुब्बङ्गमं, “ठानं खो पनेतं विज्जती' तिआदि वाक्यत्तयं निदस्सेति ।
इदान यथावुत्तमत्थं सङ्गीतिक्खन्धकपाळिया साधेन्तो आह " यथाहा "तिआदि । तत्थ यथाहाति किं आह, मया वुत्तस्स अत्थस्स साधकं किं आहाति वृत्तं होति । यथा वा येन पकारेन मया वुत्तं, तथा तेन पकारेन पाळियम्पि आहाति अत्थो । यथा वा यं वचनं पाळियं आह, तथा तेन वचनेन मया वृत्तवचनं संसन्दति चेव समेति च यथा तं गङ्गोदकेन यमुनोदकन्तिपि वत्तब्बो पाळिया साधनत्थं उदाहरितभावस्स पच्चक्खतो विञ्ञायमानत्ता, विञ्ञायमानत्थस्स च सद्दस्स पयोगे कामाचारत्ता । अधिप्पायविभावनत्था हि अत्थयोजना । यथा वा येन पकारेन धम्मविनयसङ्गायनत्थं भिक्खून उत्साहं जनेसि, तथा तेन पकारेन पाळियम्पि आहाति अत्थो । एवमीदिसेसु ।
एक मिदाहन्ति एत्थ इदन्ति निपातमत्तं । एकं समयन्ति च भुम्मत्थे उपयोगवचनं, एकस्मिं समयेति अत्थो । पावायाति पावानगरतो, तत्थ पिण्डाय चरित्वा " कुसिनारं गमिस्सामी’'ति अद्धानमग्गप्पटिपन्नोति वुत्तं होति । अद्धानमग्गोति च दीघमग्गो वुच्चति, दीघपरियायो हेत्थ अद्धानसद्दो । महताति गुणमहत्तेनपि सङ्ख्यामहत्तेनपि महता । “पञ्चमत्तेही "तिआदिना सङ्ख्यामहत्तं दस्सेति, मत्तसद्दो च पमाणवचनो “भोजने मत्तता" तिआदीसु (अ० नि० १.३.१६) विय । “धम्मविनयसङ्गायनत्थं उस्साहं जनेसी "ति एतस्सत्थस्स साधनत्थं आहता " अथ खो" तिआदिका पाळि यथावुत्तमत्थं न
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
साधेति । न हेत्थ उस्साहजननप्पकारो आगतोति चोदनं परिहरितुमाह "सब्बं सुभद्दकण्डं वित्थारतो वेदितब्ब"न्ति । एवम्पेसा चोदना तदवत्थायेवाति वुत्तं "ततो परं आहा"तिआदि । अपिच यथावुत्तत्थसाधिका पाळि महतराति गन्थगरुतापरिहरणत्थं मज्झे पेय्यालमुखेन आदिअन्तमेव पाळिं दस्सेन्तो "सब्बं सुभद्दकण्डं वित्थारतो वेदितब्ब"न्ति आह । तेन हि “अथ ख्वाहं आवुसो मग्गा ओक्कम्म अञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदी''ति (चूळ० व० ४३७) वुत्तपाळितो पट्ठाय "यं न इच्छिस्साम, न तं करिस्सामा"ति (चूळ० व० ४३७) वुत्तपाळिपरियोसानं सुभद्दकण्डं दस्सेति ।
"ततो पर"न्तिआदिना पन तदवसेसं “हन्द मयं आवुसो''तिआदिकं उस्साहजननप्पकारदस्सनपाळिं। तस्मा ततो परं आहाति एत्थ सुभद्दकण्डतो परं उस्साहजननप्पकारदस्सनवचनमाहाति अत्थो वेदितब्बो । महागण्ठिपदेपि हि सोयेवत्थो वुत्तो । आचरियसारिपुत्तत्थेरेनापि (सारत्थ टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) तथेव अधिप्पेतो । आचरियधम्मपालत्थेरेन पन “ततो परन्ति ततो भिक्खूनं उस्साहजननतो परतो"ति (दी० नि० टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वुत्तं, तदेतं विचारेतब् हेट्ठा उस्साहजननप्पकारस्स पाळियं अवुत्तत्ता। अयमेव हि उस्साहजननप्पकारो यदिदं “हन्द मयं आवुसो धम्मञ्च विनयञ्च सङ्गायेय्याम, पुरे अधम्मो दिप्पती''तिआदि । यदि पन सुभद्दकण्डमेव उस्साहजननहेतुभूतस्स सुभद्देन वुत्तवचनस्स पकासनत्ता उस्साहजननन्ति वदेय्य, नत्थेवेत्थ विचारेतब्बताति । पुरे अधम्मो दिप्पतीति एत्थ अधम्मो नाम दसकुसलकम्मपथपटिपक्खभूतो अधम्मो | धम्मविनयसङ्गायनत्थं उस्साहजननप्पसङ्गत्ता वा तदसङ्गायनहेतुको दोसगणोपि सम्भवति, “अधम्मवादिनो बलवन्तो होन्ति, धम्मवादिनो दुब्बला होन्तीति वुत्तत्ता सीलविपत्तिआदिहेतुको पापिच्छतादिदोसगणो अधम्मोतिपि वदन्ति । पुरे दिप्पतीति अपि नाम दिप्पति । संसयत्थे हि पुरे-सद्दो । अथ वा याव अधम्मो धम्म पटिबाहितुं समत्थो होति, ततो पुरेतरमेवाति अत्थो । आसन्ने हि अनधिप्पेते अयं पुरे-सद्दो । दिपतीति दिप्पिस्सति, पुरे-सद्दयोगेन हि अनागतत्थे अयं वत्तमानपयोगो यथा "पुरा वस्सति देवो''ति । तथा हि वुत्तं -
"अनागते सन्निच्छये, तथातीते चिरतने | कालद्वयेपि कवीहि, पुरेसद्दो पयुज्जते"ति || बाहिरनिदानकथावण्णना) ।
(वजिर
टी०
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
“पुरेयावपुरायोगे, निच्चं वा करहि कदा | लच्छायमपि किं वुत्ते, वत्तमाना भविस्सती "ति च ।।
केचि पनेत्थ एवं वण्णयन्ति पुरेति पच्छा अनागते, यथा अद्धानं गच्छन्तस्स गन्तब्बमग्गो “पुरे "ति वुच्चति, तथा इधापि मग्गगमननयेन अनागतकालो “पुरे”ति वुच्चतीति । एवं सति तंकालापेक्खाय चेत्थ वत्तमानपयोगी सम्भवति । धम्मो पटिबाहिय्यतीति एत्थापि पुरे - सद्देन योजेत्वा वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो, तथा धम्मोप अधम्मविपरीतवसेन, इतो परम्पि एसेव नयो । अविनयोति पहानविनयसंवरविनयानं पटिपक्खभूतो अविनयो । विनयवादिनो दुब्बला होन्तीति एवं इति सद्देन पाठो, सो " ततो परं आहा "ति एत्थ आह- सद्देन सम्बज्झितब्बो |
तेन हीति उय्योजनत्थे निपातो । उच्चिनने उय्योजेन्ता हि महाकस्सपत्थरं एवमाहंसु “भिक्खू उच्चिनतू”ति, सङ्गीतिया अनुरूपे भिक्खू उच्चिनित्वा उपधारेत्वा हातू अत्थो । " सकल... पे०.... परिग्गहेसी 'ति एतेन सुक्खविपस्सकखीणासवपरियन्तानं यथावुत्तपुग्गलानं सतिपि आगमाधिगमसम्भवे सह पटिसम्भिदाहि पन तेविज्जादिगुणयुत्तनं आगमाधिगमसम्पत्तिया उक्कंसगतत्ता सङ्गीतिया बहूपकारतं दस्सेति । सकलं सुत्तगेय्यादिकं नवङ्गं एत्थ, एतस्साति वा सकलनवङ्गं, सत्थु भगवतो सासनं सत्थुसासनं सासीयति एतेनाति कत्वा, तदेव सत्थुसासनन्ति सकलनवङ्गसत्थुसासनं । नव वा सुत्तगेय्यादीनि अङ्गानि एत्थ, एतस्साति वा नवङ्गं, तमेव सत्थुसासनं, तञ्च सकलमेव न एकदेसन्ति तथा । अत्थकामेन परियापुणितब्बा सिक्खितब्बा, दिट्ठधम्मिकादिपुरिसत्थं वा निप्फादेतुं परित्ता समत्थाति परियत्ति, तीणि पिटकानि, सकलनवङ्गसत्थुसासनसङ्घाता परियत्ति तं धारेतीति तथा, तादिसेति अत्थो । पुथुज्जन... पे०... सुक्खविपस्सकखीणासवभिक्खुति एत्थ -
1
“ दुवे पुथुज्जना वुत्ता, बुद्धेनादिच्चबन्धुना ।
अन्धो पुथुज्जनो एको, कल्याणेको पुथुज्जनो 'ति । । ( दी० नि० अट्ठ० १.७; म० नि० अट्ठ० १.२; सं० नि० अट्ठ० २.६१; अ० नि० अट्ठ० १.५१; चूळ० नि० अट्ठ० ८८; पटि० म० अट्ठ० २.१३० ) । -
वुत्तेसु कल्याणपुथुज्जनाव अधिप्पेता सद्दन्तरसन्निधानेनपि अत्थविसेसस्स विञ्ञतब्बत्ता ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
समथभावनासिनेहाभावेन सुक्खा लूखा असिनिद्धा विपस्सना एतेसन्ति सुक्खविपस्सका, तेयेव खीणासवाति तथा । "भिक्खू''ति पन सब्बत्थ योजेतब्बं । वुत्तहि -
“यञ्चत्थवतो सद्देकसेसतो वापि सुय्यते । तं सम्बज्झते पच्चेकं, यथालाभं कदाचिपी''ति ।।
तिपिटकसब्बपरियत्तिप्पभेदधरेति एत्थ तिण्णं पिटकानं समाहारो तिपिटकं, तंसवातं नवङ्गादिवसेन अनेकभेदभिन्नं सब् परियत्तिप्पभेदं धारेन्तीति तथा, तादिसे । अनु अनु तं समङ्गिनं भावेति वड्डेतीति अनुभावो, सोयेव आनुभावो, पभावो, महन्तो आनुभावो येसं ते महानुभावा। “एतदग्गं भिक्खवे"ति भगवता वुत्तवचनमुपादाय पवत्तत्ता “एतदग्गन्ति पदं अनुकरणजनामं नाम यथा “येवापनक"न्ति, तब्बसेन वुत्तट्ठानन्तरमिध एतदग्गं, तमारोपितेति अत्थो। एतदग्गं एसो भिक्खु अग्गोति वा आरोपितेपि वट्टति । तदनारोपितापि अवसेसगुणसम्पन्नत्ता उच्चिनिता तत्थ सन्तीति दस्सेतुं “येभुय्येना"ति वुत्तं । तिस्सो विज्जा तेविज्जा, ता आदि येसं छळभिज्ञादीनन्ति तेविज्जादयो, ते भेदा अनेकप्पकारा येसन्ति तेविज्जादिभेदा। अथ वा तिस्सो विज्जा अस्स खीणासवस्साति तेविज्जो, सो आदि येसं छळभिञादीनन्ति तेविज्जादयो, तेयेव भेदा येसन्ति तेविज्जादिभेदा। तेविज्जछळभिञादिवसेन अनेकभेदभिन्ने खीणासवभिक्खूयेवाति वुत्तं होति । ये सन्धाय वुत्तन्ति ये भिक्खू सन्धाय इदं “अथ खो''तिआदिवचनं सङ्गीतिक्खन्धके वुत्तं । इमिना किञ्चापि पाळियं अविसेसतोव वुत्तं, तथापि विसेसेन यथावुत्तखीणासवभिक्खूयेव सन्धाय वुत्तन्ति पाळिया संसन्दनं करोति ।
ननु च सकलनवङ्गसत्थुसासनपरियत्तिधरा खीणासवा अनेकसता, अनेकसहस्सा च, कस्मा थेरो एकेनूनमकासीति चोदनं उद्धरित्वा विसेसकारणदस्सनेन तं परिहरितुं "किस्स पना"तिआदि वुत्तं । तत्थ किस्साति कस्मा । पक्खन्तरजोतको पन-सहो । ओकासकरणथन्ति
ओकासकरणनिमित्तं ओकासकरणहेतु । अत्थ-सद्दो हि “छणत्थञ्च नगरतो निक्खमित्वा मिस्सकपब्बतं अभिरुहतू''तिआदीसु विय कारणवचनो, “किस्स हेतू"तिआदीसु (म० नि० १.२३८) विय च हेत्वत्थे पच्चत्तवचनं । तथा हि वण्णयन्ति “छणत्थन्ति छणनिमित्तं छणहेतूति अत्थो"ति । एवञ्च सति पुच्छासभागताविस्सज्जनाय होति, एस नयो ईदिसेसु ।
कस्मा पनस्स ओकासमकासीति आह "तेना"तिआदि । हि-सद्दो कारणत्थे । “सो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
हायस्मा"तिआदिना “सहापि विनापि न सक्का''ति वुत्तवचने पच्चेकं कारणं दस्सेति । केचि पन “तमत्थं विवरती''ति वदन्ति, तदयुत्तं “तस्मा''ति कारणवचनदस्सनतो । "तस्मा'"तिआदिना हि कारणदस्सनट्ठाने कारणजोतकोयेव हि-सद्दो । सञ्जाणमत्तजोतका साखाभङ्गोपमा हि निपाताति, एवमीदिसेसु । सिक्खतीति सेक्खो, सिक्खनं वा सिक्खा, सायेव तस्स सीलन्ति सेक्खो। सो हि अपरियोसितसिक्खत्ता, तदधिमुत्तत्ता च एकन्तेन सिक्खनसीलो, न असेक्खो विय परिनिट्टितसिक्खो तत्थ पटिप्पस्सद्धस्साहो, नापि विस्सट्ठसिक्खो पचुरजनो विय तत्थ अनधिमुत्तो, कितवसेन विय च तद्धितवसेनिध तप्पकतियत्थो गम्हति यथा “कारुणिको"ति। अथ वा अरियाय जातिया तीसुपि सिक्खासु जातो, तत्थ वा भवोति सेक्खो। अपिच इक्खति एतायाति इक्खा, मग्गफलसम्मादिट्ठि, सह इक्खायाति सेक्खो। उपरिमग्गत्तयकिच्चस्स अपरियोसितत्ता सह करणीयेनाति सकरणीयो। अस्साति अनेन, “अप्पच्चक्खं नामा''ति एतेन सम्बन्धो । अस्साति वा “नत्थी'ति एत्थ किरियापटिग्गहकवचनं । पगुणप्पवत्तिभावतो अप्पच्चक्खं नाम नत्थि । विनयट्ठकथायं पन “असम्मुखा पटिग्गहितं नाम नत्थी''ति (पारा० अट्ठ० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वुत्तं, तं "द्वे सहस्सानि भिक्खुतो''ति वुत्तम्पि भगवतो सन्तिके पटिग्गहितमेव नामाति कत्वा वुत्तं । तथा हि सावकभासितम्पि सुत्तं "बुद्धभासित"न्ति वुच्चतीति ।
“यथाहा"तिआदिना आयस्मता आनन्देन वुत्तगाथमेव साधकभावेन दस्सेति । अयहि गाथा गोपकमोग्गल्लानेन नाम ब्राह्मणेन "बुद्धसासने त्वं बहुस्सुतोति पाकटो, कित्तका. धम्मा ते सत्थारा भासिता, तया च धारिता''ति पुच्छितेन तस्स पटिवचनं देन्तेन आयस्मता आनन्देनेव गोपकमोग्गल्लानसुत्ते, अत्तनो गुणदस्सनवसेन वा थेरगाथायम्पि भासिता । तत्थायं सोपत्थो - बुद्धतो सत्थु सन्तिका द्वासीतिधम्मक्खन्धसहस्सानि अहं गण्हिं अधिगण्डिं, द्वेधम्मक्खन्धसहस्सानि भिक्खुतो धम्मसेनापतिआदीनं भिक्खूनं सन्तिका गण्डिं। ये धम्मा मे जिव्हाग्गे, हदये वा पवत्तिनो पगुणा वाचुग्गता, ते धम्मा तदुभयं सम्पिण्डेत्वा चतुरासीतिधम्मक्खन्धसहस्सानीति । केचि पन “येमेति एत्थ 'ये इमे'ति पदच्छेदं कत्वा ये इमे धम्मा बुद्धस्स, भिक्खूनञ्च पवत्तिनो पवत्तिता, तेसु धम्मेसु बुद्धतो द्वासीति सहस्सानि अहं गण्डिं, द्वे सहस्सानि भिक्खुतो गण्हिं, एवं चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानी"ति सम्बन्धं वदन्ति, अयञ्च सम्बन्धो “एत्तकायेव धम्मक्खन्धा'"ति सन्निट्ठानस्स अविज्ञायमानत्ता केचिवादो नाम कतो ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
___ "सहापि न सक्का'"ति वत्तब्बहेतुतो “विनापि न सक्का"ति वत्तब्बहेतुयेव बलवतरो सङ्गीतिया बहुकारत्ता। तस्मा तत्थ चोदनं दस्सेत्वा परिहरितुं “यदि एव"न्तिआदि वुत्तं । तत्थ यदि एवन्ति एवं विना यदि न सक्का, तथा सतीति अत्थो । सेक्खोपि समानोति सेक्खपुग्गलो समानोपि। मान-सद्दो हेत्थ लक्खणे । बहुकारत्ताति बहूपकारत्ता। उपकारवचनो हि कार-सद्दो “अप्पकम्पि कतं कारं, पुनं होति महप्फल'"न्तिआदीसु विय। अस्साति भवेय्य । अथ-सद्दो पुच्छायं । पञ्हे “अथ त्वं केन वण्णेना''ति हि पयोगमुदाहरन्ति । “एवं सन्ते"ति पन अत्थो वत्तब्बो । परूपवादविवज्जनतोति यथावुत्तकारणं अजानन्तानं परेसं आरोपितउपवादतो विवज्जितुकामत्ता। तं विवरति "थेरो ही"तिआदिना। अतिविय विस्सत्थोति अतिरेकं विस्सासिको । केन विज्ञायतीति आह "तथा ही"तिआदि । दळहीकरणं वा एतं वचनं । "वुत्तहि, तथा हि इच्चेते दळहीकरणत्थे''ति हि वदन्ति सद्दविदू । नन्ति आनन्दत्थेरं । "ओवदती"ति इमिना सम्बन्धो । आनन्दत्थेरस्स येभुय्येन नवकाय परिसाय विब्भमने महाकस्सपत्थेरो “न वायं कुमारको मत्तमञासी'ति (सं० नि० २.१५४) आह । तथा हि परिनिब्बते भगवति महाकस्सपत्थेरो भगवतो परिनिब्बाने सन्निपतितस्स भिक्खुसङ्घस्स मज्झे निसीदित्वा धम्मविनयसङ्गायनत्थं पञ्चसते भिक्खू उच्चिनित्वा "राजगहे आवुसो वस्सं वसन्ता धम्मविनयं सङ्गायिस्साम, तुम्हे पुरे वस्सूपनायिकाय अत्तनो अत्तनो पलिबोधं पच्छिन्दित्वा राजगहे सन्निपतथा'ति वत्वा अत्तना राजगहं गतो ।
आनन्दत्थेरोपि भगवतो पत्तचीवरमादाय महाजनं सापेन्तो सावत्थिं गन्त्वा ततो निक्खम्म राजगहं गच्छन्तो दक्खिणागिरिस्मिं चारिकं चरि। तस्मिं समये आनन्दत्थेरस्स तिंसमत्ता सद्धिविहारिका येभुय्येन कुमारका एकवस्सिकदुवस्सिकभिक्खू चेव अनुपसम्पन्ना च विब्भमिंसु । कस्मा पनेते पब्बजिता, कस्मा च विब्भमिंसूति ? तेसं किर मातापितरो चिन्तेसुं “आनन्दत्थेरो सत्थुविस्सासिको अट्ठ वरे याचित्वा उपट्ठहति, इच्छितिच्छितट्टानं सत्थारं गहेत्वा गन्तुं सक्कोति, अम्हाकं दारके एतस्स सन्तिके पब्बजेय्याम, एवं सो सत्थारं गहेत्वा आगमिस्सति, तस्मिं आगते मयं महासक्कारं कातुं लभिस्सामा"ति । इमिना ताव कारणेन नेसं आतका ते पब्बाजेसुं, सत्थरि पन परिनिब्बते तेसं सा पत्थना उपच्छिन्ना, अथ ने एकदिवसेनेव उप्पब्बाजेसुं । अथ आनन्दत्थेरं दक्खिणागिरिस्मिं चारिक चरित्वा राजगहमागतं दिस्वा महाकस्सपत्थेरो एवमाहाति । वुत्तव्हेतं कस्सपसंयुत्ते
“अथ किञ्चरहि त्वं आवुसो आनन्द इमेहि नवेहि भिक्खूहि इन्द्रियेसु
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अगुत्तद्वारेहि भोजने अमत्तहि जागरियं अननुयुत्तेहि सद्धिं चारिकं चरसि, सस्सघातं मने चरसि, कुलूपघातं मजे चरसि, ओलुज्जति खो ते आवुसो आनन्द परिसा, पलुज्जन्ति खो ते आवुसो नवप्पाया, न वायं कुमारको मत्तमासीति ।
अपि मे भन्ते कस्सप सिरस्मिं पलितानि जातानि, अथ च पन मयं अज्जापि आयस्मतो महाकस्सपस्स कुमारकवादा न मुच्चामाति । तथा हि पन त्वं आवुसो आनन्द इमेहि नवेहि भिक्खूहि इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारेहि भोजने अमत्तहि जागरियं अननुयुत्तेहि सद्धिं चारिकं चरसि, सस्सघातं मजे चरसि, कुलूपघातं मचे चरसि, ओलुज्जति खो ते आवुसो आनन्द परिसा, पलुज्जन्ति खो ते आवुसो नवप्पाया, न वायं कुमारको मत्तमञासी''ति (सं० नि० २.१५४) ।
तत्थ सस्सघातं मजे चरसीति सस्सं घातेन्तो विय आहिण्डसि । कुलूपघातं मझे चरसीति कुलानि उपघातेन्तो विय आहिण्डसि। ओलुज्जतीति पलुज्जति भिज्जति । पलुज्जन्ति खो ते आवुसो नवप्पायाति आवुसो आनन्द एते तुम्हं पायेन येभुय्येन नवका एकवस्सिकदुवस्सिकदहरा चेव सामणेरा च पलुज्जन्ति । न वायं कुमारको मत्तमज्ञासीति अयं कुमारको अत्तनो पमाणं न वत जानातीति थेरं तज्जेन्तो आह । कुमारकवादा न मुच्चामाति कुमारकवादतो न मुच्चाम । तथा हि पन त्वन्ति इदमस्स एवं वत्तब्बताय कारणदस्सनत्थं वुत्तं । अयञ्हेत्थ अधिप्पायो - यस्मा त्वं इमेहि नवेहि इन्द्रियसंवरविरहितेहि भोजने अमत्तफ़ेहि सद्धिं विचरसि, तस्मा कुमारकेहि सद्धिं विचरन्तो “कुमारको"ति वत्तब्बतं अरहसीति ।
न वायं कुमारको मत्तमञासीति एत्थ वा-सद्दो पदपूरणे । वा-सद्दो हि उपमानसमुच्चयसंसयविस्सग्गविकप्पपदपूरणादीसु बहूसु अत्थेसु दिस्सति । तथा हेस “पण्डितो वापि तेन सो''तिआदीसु (ध० प० ६३) उपमाने दिस्सति, सदिसभावेति अत्थो । “तं वापि धीरा मुनि वेदयन्ती"तिआदीसु (सु० नि० २१३) समुच्चये। “के वा इमे कस्स वा'तिआदीसु (पारा० २९६) संसये । “अयं वा इमेसं समणब्राह्मणानं सब्बबालो सब्बमूळ्हो"तिआदीसु (दी० नि० १८१) ववस्सग्गे । “ये हि केचि भिक्खवे समणा वा ब्राह्मणा वा''तिआदीसुपि (म० नि० १.१७०; सं० नि० १.२.१३) विकप्पे । “न वाहं पण्णं भुञ्जामि, न हेतं मय्ह भोजन''न्तिआदीसु पदपूरणे । इधापि
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
पदपूरणे दट्ठब्बो । तेनेव च आचरियधम्मपालत्थेरेन वा-सद्दस्स अत्थुद्धारं करोन्तेन वुत्तं “न वायं कुमारको मत्तमञासी''तिआदीसु पदपूरणे''ति । संयुत्तट्ठकथायम्पि इदमेव वुत्तं “न वायं कुमारको मत्तमञासीति अयं कुमारको अत्तनो पमाणं न वत जानासीति थेरं तज्जेन्तो आहा'ति (सं० नि० अट्ठ० २.१५४)। एत्थापि “वता''ति वचनसिलिट्ठताय वुत्तं । “न वाय"न्ति एतस्स वा “न वे अय"न्ति पदच्छेदं कत्वा वे-सदस्सत्थं दस्सेन्तेन "वता"ति वुत्तं । तथा हि वे-सद्दस्स एकंसत्थभावे तदेव पाळिं पयोगं कत्वा उदाहरन्ति नेरुत्तिका। वजिरबुद्धित्थेरो पन एवं वदति "न वायन्ति एत्थ च वाति विभासा, अञासिपि न अञासिपी"ति, (वजिर टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) तं तस्स मतिमत्तं संयुत्तट्ठकथाय तथा अवुत्तत्ता । इदमेकं परूपवादसम्भवकारणं “तत्थ केची''तिआदिना सम्बज्झितब्बं ।
अझम्पि कारणमाह "सक्यकुलप्पसुतो चायस्मा"ति । साकियकुले जातो, साकियकुलभावेन वा पाकटो च आयस्मा आनन्दो | तत्थ...पे०... उपवदेय्युन्ति सम्बन्धो | अञम्पि कारणं वदति "तथागतस्स भाता चूळपितुपुत्तो"ति । भाताति चेत्थ कनिट्ठभाता चूळपितुपुत्तभावेन, न पन वयसा सहजातभावतो ।
"सुद्धोदनो धोतोदनो, सक्कसुक्कामितोदना । अमिता पालिता चाति, इमे पञ्च इमा दुवे"ति ।।
वुत्तेसु हि सब्बकनिट्ठस्स अमितोदनसक्कस्स पुत्तो आयस्मा आनन्दो। वुत्तहि मनोरथपूरणियं
"कप्पसतसहस्सं पन दानं ददमानो अम्हाकं बोधिसत्तेन सद्धिं तुसितपुरे निब्बत्तित्वा ततो चुतो अमितोदनसक्कस्स गेहे निब्बत्ति, अथस्स सब्बे आतके आनन्दिते पमोदिते करोन्तो जातोति ‘आनन्दो'त्वेव नाममकंसू'ति ।
तथायेव वुत्तं पपञ्चसूदनियम्पि
“अञ्चे पन वदन्ति - नायस्मा आनन्दो भगवता सहजातो, वयसा च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
चूळपितुपुत् च भगवतो कनिभातायेव । तथा एकनिपातवण्णनायं सहजातगणने सो न वुतो 'ति ।
यं
सति ।
बुच्चति, तं गब्बं । तत्थाति तस्मिं विस्सत्थादिभावे अतिविस्सत्थसक्यकुलप्पसुततथागतभातुभावतोति वृत्तं होति । भावेनभावलक्खणे हि क त्वत्थ सम्पज्जति । तथा हि आचरियधम्मपालत्थेरेन नेत्तिट्ठकथायं “ गुन्नञ्चे तरमानान "न्ति गाथावण्णनायं वृत्तं -
" सब्बा ता जिम्हं गच्छन्तीति सब्बा ता गावियो कुटिलमेव गच्छन्ति, कस्मा ? नेत्ते जिम्हगते सति नेत्ते कुटिलं गते सति, नेत्तस्स कुटिलं गतत्ताति अत्थो 'ति ।
हि मनोरथपूरणियं
उदानट्ठकथायम्पि “इति इमस्मिं सति इदं होती 'ति सुत्तपदवण्णनायं " हेतु अत्थता भुम्मवचनस्स कारणस्स भावेन तदविनाभावी फलस्स भावो लक्खीयतीति वेदितब्बा "ति (उदा० अट्ठ० १.१) । तत्थाति वा निमित्तभूते विस्सत्थादिम्हीति अत्थो, तस्मिं उच्चिननेतिपि वदन्ति । छन्दागमनं वियाति एत्थ छन्दा आगमनं वियाति पदच्छेदो । छन्दाति च हेतुम्हि निस्सक्कवचनं, छन्देन आगमनं पवत्तनं वियाति अत्थो, छन्देन अकत्तब्बकरणमिवाति वुत्तं होति, छन्दं वा आगच्छति सम्पयोगवसेनाति छन्दागमनं, तथा पवत्तो अपायगमनीयो अकुसलचित्तुप्पादो | अथ वा अननुरूपं गमनं अगमनं । छन्देन अगमनं छन्दागमनं, छन्देन सिनेहेन अननुरूपं गमनं पवत्तनं विय अकत्तब्बकरणं वियाति वृत्तं होति । असेक्खभूता पटिसम्भिदा, तं पत्ताति तथा, असेक्खा च ते पटिसम्भिदाप्पत्ता चाति वा तथा, तादिसे । सेक्खपटिसम्भिदाप्पत्तन्ति एत्थापि एस नयो । परिवज्जेन्तोति हेत्वत्थे अन्तसद्दो, परिवज्जनहेतूति अत्थो । अनुमतियाति अनुञ्ञाय, याचनायाति वुत्तं होति ।
“ किञ्चापि सेक्खो "ति इदं असेक्खानंयेव उच्चिनितत्ता वुत्तं, न सेक्खानं अगतिगमनसम्भवेन । पठममग्गेनेव हि चत्तारि अगतिगमनानि पहीयन्ति, तस्मा किञ्चापि सेक्खो, तथापि थेरो आयस्मन्तं आनन्दं उच्चिनतूति सम्बन्धो । न पन किञ्चापि सेक्खो, तथापि अभब्बो अगतिं गन्तुन्ति । " अभब्बो "तिआदिना पन धम्मसङ्गीतिया तस्स अरहभावं दस्सेन्तो विज्जमानगुणे कथेति, तेन सङ्गीतिया धम्मविनयविनिच्छ्ये सम्पत्ते छन्दादिवसेन
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
अञथा अकथेत्वा यथाभूतमेव कथेस्सतीति दस्सेति । न गन्तब्बा, अननुरूपा वा गतीति अगति, तं । परियत्तोति अधिगतो उग्गहितो।
"एव"न्तिआदिना सन्निट्ठानगणनं दस्सेति । उच्चिनितेनाति उच्चिनित्वा गहितेन | अपिच एवं...पे०... उच्चिनीति निगमनं, "तेनायस्मता"तिआदि पन सन्निट्ठानगणनदस्सनन्तिपि वदन्ति ।
एवं सङ्गायकविचिननप्पकारं दस्सेत्वा अझम्पि सङ्गायनत्थं देसविचिननादिप्पकारं दस्सेन्तो “अथ खो"तिआदिमाह । तत्थ एतदहोसीति एतं परिवितक्कनं अहोसि । नु-सद्देन हि परिवितक्कनं दस्सेति । राजगहन्ति “राजगहसामन्तं गहेत्वा वुत्त"न्ति गण्ठिपदेसु वदन्ति । गावो चरन्ति एत्थाति गोचरो, गुन्नं चरणट्ठानं, सो वियाति गोचरो, भिक्खून चरणट्ठानं, महन्तो सो अस्स, एत्थाति वा महागोचरं । अट्ठारसन्नं महाविहारानम्पि अत्थिताय पहूतसेनासनं।
__थावरकम्मन्ति चिरट्ठायिकम्मं । विसभागपुग्गलो सुभद्दसदिसो । उक्कोटेय्याति निवारेय्य । इति-सद्दो इदमत्थे, इमिना मनसिकारेन हेतुभूतेन एतदहोसीति अत्थो । गरुभावजननत्थं अत्तिदुतियेन कम्मेन सङ्घ सावेसि, न अपलोकनञत्तिकम्ममत्तेनाति अधिप्पायो।
कदा पनायं कताति आह "अयं पना"तिआदि। एवं कतभावो च इमाय गणनाय विज्ञायतीति दस्सेति "भगवा ही"तिआदिना। अथाति अनन्तरत्थे निपातो, परिनिब्बानन्तरमेवाति अत्थो । सत्ताहन्ति हि परिनिब्बानदिवसम्पि सङ्गण्हित्वा वुत्तं । अस्साति भगवतो, “सरीर''न्ति इमिना सम्बन्धो । संवेगवत्थु कित्तेत्वा कित्तेत्वा अनिच्चतापटिसञ्जुत्तानि गीतानि गायित्वा पूजावसेन कीळनतो सुन्दरं कीळनदिवसा साधुकीळनदिवसा नाम, सपरहितसाधनतुन वा साधूति वुत्तानं सप्पुरिसानं संवेगवत्थु कित्तेत्वा कित्तेत्वा कीळनदिवसातिपि युज्जति । इमस्मिञ्च पुरिमसत्ताहे एकदेसेनेव साधुकीळनमकंसु । विसेसतो पन धातुपूजादिवसेसुयेव । तथा हि वुत्तं महापरिनिब्बानसुत्तट्ठकथायं (दी० नि० अट्ठ० २.२३५) -
"इतो पुरिमेसु हि द्वीसु सत्ताहेसु ते भिक्खू सङ्घस्स ठाननिसज्जोकासं करोन्ता खादनीयं भोजनीयं संविदहन्ता साधुकीळिकाय ओकासं न लभिंसु, ततो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
नेसं अहोसि 'इमं सत्ताहं साधुकीळितं कीळिस्साम, ठानं खो पनेतं विज्जति, अम्हाकं पमत्तभावं गत्वा कोचिदेव आगन्त्वा धातुयो गण्हेय्य, तस्मा आरक्खं ठपेत्वा कीळिस्सामा 'ति, तेन ते एवमकंसू 'ति ।
तथापि ते धातुपूजायपि कतत्ता धातुपूजादिवसा नाम । इमेयेव विसेसेन भगवति कत्तब्बस्स अञ्ञस्स अभावतो एकदेसेन कतम्पि साधुकीळनं उपादाय “साधुकीळनदिवसा "ति पाकटा. जाताति आह “ एवं सत्ताहं साधुकीळनदिवसा नाम अहेसु "न्ति ।
चितकायाति वीससतरतनुच्चाय चन्दनदारुचितकाय, पधानकिच्चवसेनेव च सत्ताहं चितकायं अग्गिना झायीति वुत्तं । न हि अच्चन्तसंयोगवसेन निरन्तरं सत्ताहमेव अग्गिना झायि तत्थ पच्छिमदिवसेयेव झायितत्ता तस्मा सत्ताहस्मिन्ति अत्थो वेदितब्बो । पुरिमपच्छिमानञ्हि द्विन्नं सत्ताहानमन्तरे सत्ताहे यत्थ कत्थचिपि दिवसे झायमाने सति " सत्ताहे झायी " ति वत्तुं युज्जति । यथाह
-
" तेन खो पन समयेन चत्तारो मल्लपामोक्खा सीसं न्हाता अहतानि वत्थानि निवत्था 'मयं भगवतो चितकं आळिम्पेस्सामा ति न सक्कोन्ति आळिम्पेतु' 'न्तिआदि ( दी० नि० २.२३३) ।
सत्तिपञ्जरं कत्वाति सत्तिखग्गादिहत्थे हि पुरिसेहि मल्लराजूनं भगवतो धातु आरक्खकरणं उपलक्खणवसेनाह । सत्तिहत्था पुरिसा हि सत्तियो यथा “कुन्ता पचरन्ती' 'ति, ताहि समन्ततो रक्खापनवसेन पञ्जरपटिभागत्ता सत्तिपञ्जरं । सन्धागारं नाम राजूनं एका महासाला । उय्योगकालादीसु हि राजानो तत्थ ठत्वा " एत्तका पुरतो गच्छन्तु, एत्तका पच्छतो, एत्तका उभोहि पस्सेहि, एत्तका हत्थीसु अभिरुहन्तु, का अस्सेसु, एत्तका रथेसू "ति एवं सन्धिं करोन्ति मरियादं बन्धन्ति, तस्मा तं ठानं " सन्धागार "न्ति वुच्चति । अपिच उयोगट्ठानो आगन्त्वापि याव गेहेसु अल्लगोमयपरिभण्डादीनि करोन्ति, ताव द्वे तीणि दिवसानि राजानो तत्थ सन्थम्भन्ति विस्समन्ति परिस्सयं विनोदेन्तीतिपि सन्धागारं, राजूनं वा सह अत्थानुसासनं अगारन्तिपि सन्धागारं ह-कारस्स ध-कारं, अनुसरागमञ्च कत्वा, यस्मा वा राजानो तत्थ सन्निपतित्वा “इमस्मिं काले कसितुं वट्टति, इमस्मिं काले वपितु "न्ति एवमादिना नयेन घरावासकिच्चानि सम्मन्तयन्ति, तस्मा छिन्नविच्छिन्नं घरावासं तत्थ सन्धारेन्तीतिपि सन्धागारं ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
विसाखपुण्णमितो पट्ठाय याव विसाखमासस्स अमावासी, ताव सोळस दिवसा सीहळवोहारवसेन गहितत्ता, जेट्टमूलमासस्स सुक्कपक्खे च पञ्च दिवसाति आह “इति एकवीसति दिवसा गता"ति । तत्थ चरिमदिवसेयेव धातुयो भाजयिंसु, तस्मिंयेव च दिवसे अयं कम्मवाचा कता। तेन वुत्तं "जेट्ठमूलसुक्कपक्खपञ्चमिय"न्तिआदि । तत्थ जेट्टनक्खत्तं वा मूलनक्खत्तं वा तस्स मासस्स पुण्णमियं चन्देन युत्तं, तस्मा सो मासो "जेटमूलमासो''ति वुच्चति । अनाचारन्ति हेट्ठा वुत्तं अनाचारं ।
यदि एवं कस्मा विनयट्ठकथायं, (पारा० अट्ठ० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) मङ्गलसुत्तट्ठकथायञ्च (खु० पा० अट्ठ० मङ्गलसुत्तवण्णना) “सत्तसु साधुकीळनदिवसेसु, सत्तसु च धातुपूजादिवसेसु वीतिवत्तेसूति वुत्तन्ति ? सत्तसु धातुपूजादिवसेसु गहितेसु तदविनाभावतो मज्झे चितकाय झायनसत्ताहम्पि गहितमेवाति कत्वा विसुं न वुत्तं विय दिस्सति । यदि एवं कस्मा “अड्डमासो अतिक्कन्तो, दियड्ढमासो सेसो"ति च वुत्तन्ति ? नायं दोसो। अप्पकहि ऊनमधिकं वा गणनूपगं न होति, तस्मा अप्पकेन अधिकोपि समुदायो अनधिको विय होतीति कत्वा अड्डमासतो अधिकेपि पञ्चदिवसे “अड्डमासो अतिक्कन्तो''ति वुत्तं द्वासीतिखन्धकवत्तानं कत्थचि “असीति खन्धकवत्तानी''ति वचनं विय, तथा अप्पकेन ऊनोपि समुदायो अनूनो विय होतीति कत्वा दियड्डमासतो ऊनेपि पञ्चदिवसे “दियड्ढमासो सेसो''ति वुत्तं सतिपट्टानविभङ्गट्ठकथायं (विभं० ३५६) छमासतो ऊनेपि अड्डमासे "छमासं सज्झायो कातब्बो''ति वचनं विय, अञथा अट्ठकथानं अञ्जमञविरोधो सिया । अपिच दीघभाणकानं मतेन तिण्णं सत्ताहानं वसेन “एकवीसति दिवसा गता''ति इध वुत्तं । विनयसुत्तनिपातखुद्दकपाठट्ठकथासु पन खुद्दकभाणकानं मतेन एकमेव झायनदिवसं कत्वा तदवसेसानं द्विन्नं सत्ताहानं वसेन “अड्डमासो अतिक्कन्तो, दियड्डमासो सेसो"ति च वुत्तं । पठमबुद्धवचनादीसु विय तं तं भाणकानं मतेन अट्ठकथासुपि वचनभेदो होतीति गहेतब्बं । एवम्पेत्थ वदन्ति – परिनिब्बानदिवसतो पट्ठाय आदिम्हि चत्तारो साधुकीळनदिवसायेव, ततो परं तयो साधुकीळनदिवसा चेव चितकझायनदिवसा च, ततो परं एको चितकझायनदिवसोयेव, ततो परं तयो चितकझायनदिवसा चेव धातुपूजादिवसा च, ततो परं चत्तारो धातुपूजादिवसायेव, इति तं तं किच्चानुरूपगणनवसेन तीणि सत्ताहानि परिपूरेन्ति, अगहितग्गहणेन पन अड्डमासोव होति । “एकवीसति दिवसा गता''ति इध वुत्तवचनञ्च तं तं किच्चानुरूपगणनेनेव । एवहि चतूसुपि अट्ठकथासु वुत्तवचनं समेतीति विचारेत्वा गहेतब्बं । वजिरबुद्धित्थेरेन पन वुत्तं “अड्डमासो अतिक्कन्तोति एत्थ एको दिवसो नट्ठो, सो पाटिपददिवसो,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
कोलाहलदिवसो नाम सो, तस्मा इध न गहितोति, ( वजिर टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) तं न सुन्दरं परिनिब्बानसुत्तन्तपाळियं (दी० नि० २.२२७ ) पाटिपददिवसतोयेव पट्ठाय सत्ताहस्स वुत्तत्ता, अट्ठकथायञ्च परिनिब्बानदिवसेन सद्धिं तिण्णं सत्ताहानं गणितत्ता । तथा हि परिनिब्बानदिवसेन सद्धिं तिण्णं सत्ताहानं गणनेनेव मूलसुक्क पक्खपञ्चमी एकवीसतिमो दिवसो होति ।
चत्तालीस दिवसात जेट्ठमूलसुक्कपक्खछट्ठदिवसतो याव आसळही पुण्णमी, ताव गणत्वा वुत्तं । एत्थन्तरेति चत्तालीसदिवसब्भन्तरे । रोगो एव रोगपलिबोधो । आचरियुपज्झायेसु कत्तब्बकिच्चमेव आचरियुपज्झायपलिबोधो, तथा मातापितुपलिबोधो । यथाधिप्पेतं अत्थं, कम्मं वा परिबुन्धेति उपरोधेति पवत्तितुं न देतीति पलिबोधो र-कारस्स ल-कारं कत्वा । तं पलिबोधं छिन्दित्वा तं करणीयं करोति सङ्ग्राहकेन छिन्दितब्बं तं सब्बं पलिबोधं छिन्दित्वा धम्मविनयसङ्गायनसङ्घातं तदेव करणीयं करोतु ।
अपि महाथेराति अनुरुद्धथेरादयो । सोकसल्लसमप्पितन्ति सोकसङ्घातेन सल्लेन अनुपविट्टं पटिविद्धं । असमुच्छिन्न अविज्जातण्हानुसयत्ता अविज्जातण्हाभिसङ्घातेन कम्मुना भवयोनिगतिट्ठितिसत्तावासेसु खन्धपञ्चकसङ्घातं अत्तभावं जनेति अभिनिब्बत्तेतीति जनो । किलेसे जनेति, अजनि, जनिस्सतीति वा जनो, महन्तो जनो तथा तं । आगतागतन्ति आगतमागतं यथा “एकेको "ति । एत्थ सिया - " थेरो अत्तनो पञ्चसताय परिसाय परिवृत्तो राजगहं गतो, अञ्ञपि महाथेरा अत्तनो अत्तनो परिवारे गहेत्वा सोकसल्लसमप्पितं महाजनं अस्सासेतुकामा तं तं दिसं पक्कन्ता" ति इध वृत्तवचनं समन्तपासादिकाय ‘“महाकस्सपत्थेरो 'राजगहं आवुसो गच्छामा ति उपङ्कं भिक्खुसङ्घ गहेत्वा एकं मग्गं गतो, अनुरुद्धत्थेरोपि उपडुं गहेत्वा एकं मग्गं गतो 'ति (पारा० अट्ठ० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वुत्तवचनञ्च अञ्ञमञ्ञ विरुद्धं होति । इध हि महाकस्सपत्थेरादयो अत्तनो अत्तनो परिवारभिक्खूहियेव सद्धिं तं तं दिसं गताति अत्यो आपज्जति, तत्थ पन महाकस्सपत्थेरअनुरुद्ध थेरायेव पच्चेकमुपसङ्घन सद्धिं एकेकं मग्गं गताति ? वुच्चते - तदुभयम्पि हि वचनं न विरुज्झति अत्थतो संसन्दनत्ता । इध हि निरवसेसेन थेरानं पच्चेकगमनवचनमेव तत्थ नयवसेन दस्सेति, इध अत्तनो अत्तनो परिसाय गमनवचनञ्च तत्थ उपड्डसङ्खेन सद्धिं गमनवचनेन । उपडसङ्घोति हि सकसकपरिसाभूतो भिक्खुगणो गय्हति उपढसद्दस्स असमेपि भागे पवत्तत्ता । यदि हि सन्निपतिते सङ्घे उपढसङ्खेन सद्धिन्ति अत्थं गण्हेय्य, तदा सङ्घस्स गणनपथमतीतत्ता न
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
युज्जतेव, यदि च सङ्गायनत्थं उच्चिनितानं पञ्चन्नं भिक्खुसतानं मज्झे उपड्ढसचेन सद्धिन्ति अत्थं गण्हेय्य, एवम्पि तेसं गणपामोक्खानंयेव उच्चिनितत्ता न युज्जतेव । पच्चेकगणिनो हेते । वुत्तहि " सत्तसतसहस्सानि, तेसु पामोक्खभिक्खवो "ति, इति अत्थतो संसन्दनत्ता तदेतं उभयम्पि वचनं अञ्ञमञ्ञ न विरुज्झतीति । तंतंभाणकानं मतेनेवं वुत्तन्तिपि वदन्ति ।
"अपरिनिब्बुतस्स भगवतो 'ति आदिना योजेब्बं । पत्तचीवरमादायाति एत्थ चतुमहाराजदत्तियसेलमयपत्तं, सुगतचीवरञ्च गण्हित्वाति अत्थो । सोयेव हि पत्तो भगवता सदा परिभुत्तो । वृत्तञ्हि समचित्तपटिपदासुत्तट्ठकथायं "वरसंयुत्थानुसारेन अतिरेकवीसतिवस्सकालेपि तस्सेव परिभुत्तभावं दीपेतुकामेन पातोव सरीरपटिजग्गनं कत्वा सुनिवत्थनिवासनो सुगतचीवरं पारुपित्वा सेलमयपत्तमादाय भिक्खुसङ्घपरिवुतो दक्खिणद्वारे नगरं पविसित्वा पिण्डाय चरन्तो 'ति (अ० नि० अट्ठ० २.३७) गन्धमालादयो नेसं हत्थेति गन्धमालादिहत्था ।
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तत्रात तिस्सं सावत्थियं । सुदन्ति निपातमत्तं । अनिच्चतादिपटिसंयुत्तायाति “सब्बे सङ्घारा अनिच्चा’तिआदिना ( ध० प० २७७) अनिच्चसभावपटिसत्ताय । धम्मेन युत्ता, धम्मस्स वा पतिरूपाति धम्मी, तादिसाय । सञ्ञपेत्वाति सुट्टु जानापेत्वा, समस्तासेत्वाति वृत्तं होति । वसितगन्धकुटिन्ति निच्चसापेक्खत्ता समासो । परिभोगचेतियभावतो “गन्धकुटि वन्दित्वा’”ति वुत्तं। ‘“वन्दित्वा "ति च " विवरित्वा "ति एत्थ पुब्बकालकिरिया । तथा हि आचरियसारिपुत्तत्थेरेन वुत्तं " गन्धकुटिया द्वारं विवरित्वाति परिभोगचेतियभावतो गन्धकुटिं वन्दित्वा गन्धकुटिया द्वारं विवरीति वेदितब्बन्ति ( सारत्थ० टी० १. पठममहासङ्गीतिकथा) मिलाता माला, सायेव कचवरं, मिलातं वा मालासङ्घातं कचवरं तथा । अतिहरित्वाति पठमं ठपितट्ठानमभिमुखं हरित्वा । यथाठाने ठपेत्वाति पठमं ठपितट्ठानं अनतिक्कमित्वा यथाठितट्ठानेयेव ठपेत्वा । भगवतो ठितकाले करणीयं वत्तं सब्बमकासीति सेनासने कत्तब्बवत्तं सन्धाय वृत्तं । कुरुमानो चाति तं सब्बं वत्तं करोन्ती च । लक्खणे हि अयं मान-सद्दो | न्हानकोट्ठकस्स सम्मज्जनञ्च तस्मिं उदकस्स उपट्ठापनञ्च तानि आदीनि येसं धम्मदेसनाओवादादीनन्ति तथा, तेसं कालेसूति अत्थो । सीहस्स मिगराजस्स सेय्या सीहसेय्या, तद्धितवसेन, सदिसवोहारेन वा भगवतो सेय्यापि "सीहसेय्या "ति वुच्चति । तेजुस्सदइरियापथत्ता उत्तमसेय्या वा, यं सन्धाय वुत्तं "अथ खो भगवा दक्खिन पस्सेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
सीहसेय्यं कप्पेसि पादे पादं अच्चाधाय सतो सम्पजानो"ति, (दी० नि० २.१९८) तं । कप्पनकालो करणकालो ननूति योजेतब् ।
___ "यथा त"न्तिआदिना यथावुत्तमत्थं उपमाय आवि करोति । तत्थ यथा अोपि भगवतो...पे०... पतिट्ठितपेमो चेव अखीणासवो च अनेकेसु...पे०... उपकारसञ्जनितचित्तमद्दवो च अकासि, एवं आयस्मापि आनन्दो भगवतो गुण...पे०... मद्दवो च हुत्वा अकासीति योजना। तन्ति निपातमत्तं । अपिच एतेन तथाकरणहेतुं दस्सेति, यथा अञपि यथावुत्तसभावा अकंसु, तथा आयस्मापि आनन्दो भगवतो...पे०... पतिहितपेमत्ता चेव अखीणासवत्ता च अनेकेसु...पे०... उपकारसञ्जनितचित्तमद्दवत्ता चाति हेतुअत्थस्स लब्भमानत्ता। हेतुगब्भानि हि एतानि पदानि तदत्थस्सेव तथाकरणहेतुभावतो । धनपालदमन, (चूळ० व० ३४२) सुवण्णकक्कट, (जा० १.५.९४) चूळहंस (जा० १.१५.१३३) -महाहंसजातकादीहि (जा० २.२१.८९) चेत्थ विभावेतब्बो । गुणानं गणो, सोयेव अमतनिप्फादकरससदिसताय अमतरसो। तं जाननपकतितायाति पतिद्वितपदे हेतु । उपकार...पे०... मद्दवोति उपकारपुब्बभावेन सम्माजनितचित्तमुदुको । एवम्पि सो इमिना कारणेन अधिवासेसीति दस्सेन्तो "तमेन"न्तिआदिमाह । तत्थ तमेनन्ति तं आयस्मन्तं आनन्दं । एत-सद्दो हि पदालङ्कारमत्तं । अयहि सद्दपकति, यदिदं द्वीसु सब्बनामेसु पुब्बपदस्सेव अत्थपदता । संवेजेसीति “ननु भगवता पटिकच्चेव अक्खातं 'सब्बेहेव पियेहि मनापेहि नानाभावो विनाभावो'तिआदिना (दी० नि० २.१८३; सं० नि० ३.५.३७९; अ० नि० ३.१०.४८) संवेगं जनेसी''ति (दी० नि० टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) आचरियधम्मपालत्थेरेन वुत्तं, एवं सति “भन्ते...पे०... अस्सासेस्सथाति पठमं वत्वा''ति सह पाठसेसेन योजना अस्स | यथारुततो पन आद्यत्थेन इति-सद्देन “एवमादिना संवेजेसी''ति योजनापि युज्जतेव । येन केनचि हि वचनेन संवेगं जनेसि, तं सब्बम्पि संवेजनस्स करणं सम्भवतीति । सन्थम्भित्वाति परिदेवनादिविरहेन अत्तानं पटिबन्धेत्वा पतिट्ठापेत्वा । उस्सनधातुकन्ति उपचितपित्तसेम्हादिदोसं । पित्तसेम्हवातवसेन हि तिस्सो धातुयो इध भेसज्जकरणयोग्यताय अधिप्पेता, या “दोसा, मला''ति च लोके वुच्चन्ति, पथवी आपो तेजो वायो आकासोति च भेदेन पच्चेकं पञ्चविधा । वुत्तहि -
"वायुपित्तकफा दोसा, धातवो च मला तथा । तत्थापि पञ्चधाख्याता, पच्चेकं देहधारणा ।।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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सरीरदूसना दोसा, मलीनकरणा मला । धारणा धातवो ते तु, इत्थमन्वत्थसञका''ति ।।
समस्सासेतुन्ति सन्तप्पेतुं । देवताय संवेजितदिवसतो, जेतवनविहारं पविट्ठदिवसतो वा दुतियदिवसे। विरिच्चति एतेनाति विरेचनं, ओसधपरिभावितं खीरमेव विरेचनं तथा । यं सन्धायाति यं भेसज्जपानं सन्धाय | अङ्गपच्चङ्गेन सोभतीति सुभो, मनुनो अपच्चं मानवो, न-कारस्स पन ण-कारे कते माणवो। मनूति हि पठमकप्पिककाले मनुस्सानं मातापितुट्टाने ठितो पुरिसो, यो सासने “महासम्मतराजा''ति वुत्तो। सो हि सकललोकस्स हितं मनभि जानातीति मनूति वुच्चति । एवम्पेत्थ वदन्ति "दन्तज नकारसहितो मानवसद्दो सब्बसत्तसाधारणवचनो, मुद्धज ण-कारसहितो पन माणवसद्दो कुच्छितमूळहापच्चवचनो'ति । चूळकम्मविभङ्गसुत्तट्ठकथायम्पि (म० नि० अट्ठ० ४.२८९) हि मुद्धज ण-कारसहितस्सेव माणवसद्दस्स अत्थो वण्णितो। तट्टीकायम्पि "यं अपच्चं कुच्छितं मूळ्हं वा, तत्थ लोके माणववोहारो, येभुय्येन च सत्ता दहरकाले मूळहधातुका होन्तीति तस्सेवत्थो पकासितो'"ति वदन्ति आचरिया । अञ्जत्थ च वीसतिवस्सब्भन्तरो युवा माणवो, इध पन तब्बोहारेन महल्लकोपि । वुत्तहि चूळकम्मविभङ्गसुत्तवण्णनायं “माणवोति पन तं तरुणकाले वोहरिंसु, सो महल्लककालेपि तेनेव वोहारेन वोहरीयती''ति, (म० नि० अट्ठ० ४.२८९) सुभनामकेन लद्धमाणववोहारेनाति अत्थो । सो पन “सत्था परिनिब्बुतो, आनन्दत्थेरो किरस्स पत्तचीवरमादाय आगतो, महाजनो तं दस्सनाय उपसङ्कमती''ति सुत्वा "विहारं खो पन गन्त्वा महाजनमज्झे न सक्का सुखेन पटिसन्थारं वा कातुं, धम्मकथं वा सोतुं, गेहमागतंयेव नं दिस्वा सुखेन पटिसन्थारं करिस्सामि, एका च मे कवा अत्थि, तम्पि नं पुच्छिस्सामी''ति चिन्तेत्वा एकं माणवकं पेसेसि, तं सन्धायाह "पहितं माणवक"न्ति खुद्दके चेत्थ कपच्चयो। एतदवोचाति एतं “अकालो''तिआदिकं वचनं आनन्दत्थेरो अवोच।
अकालोति अज्ज गन्तुं अयुत्तकालो। कस्माति चे "अस्थि मे"तिआदिमाह । भेसज्जमत्ताति अप्पकं भेसज्जं । अप्पत्थो हेत्थ मत्तासद्दो “मत्ता सुखपरिच्चागा"तिआदीसु (ध० प० २९०) विय। पीताति पिविता । स्वेपीति एत्थ “अपि-सद्दो अपेक्खो मन्ता नुञ्जाया"ति (वजिर टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वजिरबुद्धित्थेरेन वुत्तं । अयं पन तस्साधिप्पायो – “अप्पेव नामा''ति संसयमत्ते वुत्ते अनुज्ञातभावो न सिद्धो, तस्मा तं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
साधनत्थं "अपी''ति वुत्तं, तेन इममत्थं दीपेति “अप्पेव नाम स्वे मयं उपसङ्कमेय्याम, उपसङ्कमितुं पटिबला समाना उपसङ्कमिस्साम चा''ति ।
दुतियदिवसेति खीरविरेचनपीतदिवसतो. दुतियदिवसे। चेतकत्थेरेनाति चेतियरडे जातत्ता चेतकोति एवं लद्धनामेन थेरेन | पच्छासमणेनाति पच्छानुगतेन समणेन । सहत्थे चेतं करणवचनं । सुभेन माणवेन पुट्ठोति “येसु धम्मेसु भवं गोतमो इमं लोकं पतिठ्ठपेसि, ते तस्स अच्चयेन नट्ठा नु खो, धरन्ति नु खो, सचे धरन्ति, भवं (नत्थि दी० नि० अट्ठ० १.४४८) आनन्दो जानिस्सति, हन्द नं पुच्छामी''ति एवं चिन्तेत्वा “येसं सो भवं गोतमो धम्मानं वण्णवादी अहोसि, यत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसि, कतमेसानं खो भो आनन्द धम्मानं सो भवं गोतमो वण्णवादी अहोसी''तिआदिना (दी० नि० १.४४८) पुट्ठो, अथस्स थेरो तीणि पिटकानि सीलक्खन्धादीहि तीहि खन्धेहि सङ्गहेत्वा दस्सेन्तो “तिण्णं खो माणव खन्धानं सो भगवा वण्णवादी"तिआदिना (दी० नि० १.४४९) इध सीलक्खन्धवग्गे दसमं सुत्तमभासि, तं सन्धायाह "इमस्मिं...पे०... मभासी"ति ।
खण्डन्ति छिन्नं । फुल्लन्ति भिन्नं, सेवालाहिछत्तकादिविकस्सनं वा, तेसं पटिसङ्खरणं सम्मा पाकतिककरणं, अभिनवपटिकरणन्ति वुत्तं होति । उपकट्ठायाति आसन्नाय | वस्सं उपनेन्ति उपगच्छन्ति एत्थाति वस्सूपनायिका, वस्सूपगतकालो, ताय | सङ्गीतिपाळियं (चूळ० व० ४४०) सामझेन वुत्तम्पि वचनं एवं गतेयेव सन्धाय वुत्तन्ति संसन्देतुं साधेतुं वा आह "एवज्ही"तिआदि ।
राजगहं परिवारेत्वाति बहिनगरे ठितभावेन वुत्तं । छहितपतितउक्लापाति छड्डिता च पतिता च उक्लापा च । इदं वुत्तं होति - भगवतो परिनिब्बानट्टानं गच्छन्तेहि भिक्खूहि छड्डिता विस्सठ्ठा, ततोयेव च उपचिकादीहि खादितत्ता इतो चितो च पतिता, सम्मज्जनाभावेन आकिण्णकचवरत्ता उक्लापा चाति । तदेवत्थं "भगवतो ही"तिआदिना विभावेति । अवकुथि पूतिभावमगमासीति उक्लापो थ-कारस्स ल-कारं कत्वा, उज्झिट्ठो वा कलापोसमूहोति उक्लापो, वण्णसङ्गमनवसेनेवं वुत्तं यथा “उपक्लेसो, स्नेहो' - इच्चादि, तेन युत्ताति तथा । परिच्छेदवसेन वेणीयन्ति दिस्सन्तीति परिवेणा। कुरुमानाति कत्तुकामा । सेनासनवत्तानं पञ्जत्तत्ता, सेनासनक्खन्धके च सेनासनपटिबद्धानं बहूनम्पि वचनानं वुत्तत्ता सेनासनपटिसङ्खरणम्पि तस्स पूजायेव नामाति आह "भगवतो वचनपूजनत्थ"न्ति । पठमं
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
मासन्ति वस्सानस्स पठमं मासं । अच्चन्तसंयोगे चेतं उपयोगवचनं । “तित्थियवादपरिमोचनत्थञ्चा "ति वुत्तमत्थं पाकटं कातुं " तित्थिया ही " तिआदि वृत्तं ।
यन्ति कतिकवत्तकरणं । एदिसेसु हि ठानेसु यं सद्दो तं सद्दानपेक्खो तेनेव अत्थस्स परिपुण्णत्ता । यं वा कतिकवत्तं सन्धाय " अथ खो"तिआदि वृत्तं तदेव मयापि वृत्तन्ति अत्थो । एस नयो ईदिसेसु भगवता ... पे०... वण्णितन्ति सेनासनवत्तं पञ्ञपेन्तेन सेनासनक्खन्धके (चूळ व० ३०८) च सेनासनपटिबद्धवचनं कथेन्तेन वण्णितं । सङ्गायिस्सामाति एत्थ इति - सद्दस्स "वृत्तं अहोसी" ति च उभयत्थ सम्बन्धो, एकस्स वा इति- सद्दस्स लोपो ।
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दुतियदिवसेति एवं चिन्तितदिवसतो दुतियदिवसे, सो च खो वस्सूपनायिकदिवसतो दुतियदिवसोव । थेरा हि आसहिपुण्णमितो पाटिपददिवसेयेव सन्निपतित्वा वस्समुपगन्त्वा एवं चिन्तेसुन्ति । राजद्वारेति राजगेहद्वारे । हत्थकम्मन्ति हत्थकिरियं, हत्थकम्मस्स करणन्ति वृत्तं होति । पटिवेदेसुन्ति जानापेसुं । विसट्ठाति निरासङ्कचित्ता । आणायेव अप्पटिहतवृत्तिया पवत्तनट्ठेन चक्कन्ति आणाचक्कं । तथा धम्मोयेव चक्कन्ति धम्मचक्कं तं पनिध देसनाञाणपटिवेधञाणवसेन दुविधम्पि युज्जति तदुभ सङ्गीतिया पवत्तनतो । “धम्मचक्कन्ति चेतं देसनाञाणस्सापि नामं, पटिवेधञाणस्सापीति (सं० नि० अट्ठ० २.३.७८) हि अट्ठकथासु वृत्तं । सन्निसज्जद्वानन्ति सन्निपतित्वा निसीदनट्ठानं । सत्त पण्णानि यस्साति सत्तपण्णी, यो “छत्तपण्णो, विसमच्छदो" तिपि वुच्चति, तस्स जातगुहद्वारेति अत्थो ।
विस्सकम्पुनाति सक्कस्स देवानमिन्दस्स कम्माकम्मविधायकं देवपुत्तं सन्धायाह । सुविभत्तभित्तिथम्भसोपानन्ति एत्थ सुविभत्तपदस्स द्वन्दतो पुब्बे सुय्यमानत्ता सब्बेहि द्वन्दपदेहि सम्बन्धो, तथा " नानाविध... पे०... विचित्त "न्तिआदीसुपि । राजभवनविभूतिन्ति राजभवनसम्पत्तिं, राजभवनसोभं वा । अवहसन्तमिवाति अवहासं कुरुमानं विय । सिरियाति सोभासङ्घाताय लक्खिया । निकेतनमिवाति वसनट्ठानमिव, “जलन्तमिवा" तिपि पाठो । एकस्मिंयेव पानीयतित्थे निपतन्ता पक्खिनो विय सब्बेसम्पि जनानं चक्खूनि मण्डपेयेव निपतन्तीति वुत्तं “एकनिपात...पे०... विहङ्गान "न्ति । नयनविहङ्गानन्ति नयनसङ्घातविहङ्गानं । लोकरामणेय्यकमिव सम्पिण्डितन्ति यदि लोके विज्जमानं रामणेय्यकं सब्बमेव आनेत्वा एकत्थ सम्पिण्डितं सिया, तं वियाति वृत्तं होति, यं यं वा लोके रमितुमरहति, तं सब्बं
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सम्पिण्डितमिवातिपि अत्थो । दट्ठब्बसारमण्डन्ति फेग्गुरहितं सारं विय, कसटविनिमुत्तं पसन्नं विय च दट्टुमरहरूपेसु सारभूतं, पसन्नभूतञ्च । अपिच दट्ठब्बो दस्सनीयो सारभूतो विसिट्ठतरो मण्डो मण्डनं अलङ्कारो एतस्साति दट्टब्बसारमण्डो, तं । मण्डं सूरियरस्मिं पाति निवारेति, सब्बे वा जनानं मण्डं पसन्नं पाति रक्खति, मण्डनमलङ्कारं वा पाति पिवति अलङ्करितुं युत्तभावेनाति मण्डपो, तं ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
कुसुमदामानि च तानि ओलम्बकानि चेति कुसुमदामोलम्बकानि । विसेसनस्स चेत्थ परनिपातो यथा “अग्याहितो 'ति । विविधानियेव कुसुमदामोलम्बकानि तथा, तानि विनिग्गलन्तं. विसेसेन वमेन्तं निक्खामेन्तमिव चारु सोभनं वितानं एत्थाति तथा । कुट्टेन हितो समं कतोति कुट्टिमो, कोट्टिमो वा, तादिसोयेव मणीति मणिकोट्टिमो, नानारतनेहि विचित्तो मणिकोट्टिमो, तस्स तलं तथा । अथ वा मणियो कोट्टेत्वा कततलत्ता मणिकोट्टेन निफत्तन्ति मणिकोट्टिमं तमेव तलं, नानारतनविचित्तं मणिकोट्टिमतलं तथा । तमिव च नानापुप्फूपहारविचित्तं सुपरिनिट्ठितभूमिकम्पन्ति सम्बन्धो । पुप्फपूजा पुप्फूपहारो। एत्थ हि नानारतनविचित्तग्गहणं नानापुप्फूपहारविचित्ततायनिदस्सनं, मणिकोट्टिमतलग्गहणं सुपरिनिट्ठितभूमिकम्मतायाति दट्ठब्बं । नन्ति मण्डपं । ब्रह्मविमानसदिसन्ति भावनपुंसकं, यथा ब्रह्मविमानं सोभति, तथा अलङ्कारित्वाति अत्थो । विसेसेन मानेतब्बन्ति विमानं । सद्दविदू पन "विहे आकासे मायन्ति गच्छन्ति देवा येनाति विमान "न्ति वदन्ति । विसेसेन वा सुचरितकम्मुना मीयति निम्मीयतीति विमानं, वीति वा सकुणो वुच्चति, तं सण्ठानेन मीयति निम्मीत विमानन्ति आदिनापि वत्तब्बो । विमानट्ठकथायं पन “एकयोजनद्वियोजनादिभावेन पमाणविसेसयुत्तताय, सोभातिसययोगेन च विसेसतो माननीयताय विमान”न्ति (वि० व० अट्ठ० गन्थारम्भकथा) वृत्तं । नत्थि अग्घमेतेसन्ति अनग्घानि, अपरिमाणग्घानि अग्घितुमसक्कुणेय्यानीति वुत्तं होति । पतिरूपं, पच्चेकं वा अत्थरितब्बानीति पच्चत्थरणानि, तेस सतानि तथा । उत्तराभिमुखन्ति उत्तरदिसाभिमुखं । धम्मपि सत्थायेव सत्थुकिच्चनिप्फादनतोति वुत्तं “बुद्धस्स भगवतो आसनारहं धम्मासनं पञ्ञत्वा "ति । यथाह “यो खो... पे० ममच्चयेन सत्था 'तिआदि, (दी० नि० २.२१६) तथागतप्पवेदितधम्मदेसकस्स वा सत्थुकिच्चावहत्ता तथारूपे आसने निसीदितुमरहतीति दस्सेतुम्पि एवं वृत्तं । आसनारहन्ति निसीदनारहं । धम्मासनन्ति धम्मदेसकासनं, धम्मं वा कथेतुं युत्तासनं । दन्तखचितन्ति दन्तेहि खचितं, हत्थिदन्तेहि कतन्ति वुत्तं होति । " दन्तो नाम हत्थिदन्तो वुच्चती 'ति हि वृत्तं । एत्थाति एतस्मिं धम्मासने । मम किच्चन्ति मम कम्मं, मया वा करणीयं ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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इदानि आयस्मतो आनन्दस्स असेक्खभूमिसमापज्जनं दस्सेन्तो "तस्मिञ्च पना"तिआदिमाह । तत्थ तस्मिञ्च पन दिवसेति तथा रञा आरोचापितदिवसे, सावणमासस्स काळपक्खचतुत्थदिवसेति वुत्तं होति । अनत्थजननतो विससङ्कासताय किलेसो विसं, तस्स खीणासवभावतो अञथाभावसङ्खाता सत्ति गन्धो। तथा हि सो भगवतो परिनिब्बानादीसु विलापादिमकासि । अपिच विसजननकपुप्फादिगन्धपटिभागताय नानाविधदुक्खहेतुकिरियाजननको किलेसोव "विसगन्धो"ति वुच्चति । तथा हि सो “विसं हरतीति विसत्तिका, विसमूलाति विसत्तिका, विसफलाति विसत्तिका, विसपरिभोगाति विसत्तिका''तिआदिना (महा० नि० ३) वुत्तोति । अपिच विस्सगन्धो नाम विरूपो मंसादिगन्धो, तंसदिसताय पन किलेसो । “विस्ससद्दो हि विरूपे''ति (ध० स० टी० ६२४) अभिधम्मटीकायं वुत्तं। अद्धाति एकंसतो। संवेगन्ति धम्मसंवेगं । “ओहितभारान''न्ति हि येभुय्येन, पधानेन च वुत्तं । एदिसेसु पन ठानेसु तद सम्पि धम्मसंवेगोयेव अधिप्पेतो। तथा हि "संवेगो नाम सहोत्तप्पं जाणं, सो तस्सा भगवतो दस्सने उप्पज्जी''ति (वि० व० अट्ठ० ८३८) रज्जुमालाविमानवण्णनायं वुत्तं, सा च तदा अविञातसासना अनागतफलाति । इतरथा हि चित्तुत्रासवसेन दोसोयेव संवेगोति आपज्जति, एवञ्च सति सो तस्स असेक्खभूमिसमापज्जनस्स एकंसकारणं न सिया । एवमभूतो च सो इध न वत्तब्बोयेवाति अलमतिपपञ्चेन । तेनाति तस्मा स्वे सङ्घसन्निपातस्स वत्तमानत्ता, सेक्खसकरणीयत्ता वा । ते न युत्तन्ति तव न युत्तं, तया वा सन्निपातं गन्तुं न पतिरूपं ।
मेतन्ति मम एतं गमनं । वाहन्ति यो अहं, यन्ति वा किरियापरामसनं, तेन "गच्छेय्य"न्ति एत्थ गमनकिरियं परामसति, किरियापरामसनस्स च यं तं-सद्दस्स अयं पकति, यदिदं नपुंसकलिङ्गेन, एकवचनेन च योग्यता तथायेव तत्थ तत्थ दस्सनतो । किरियाय हि सभावतो नपुंसकत्तमेकत्तञ्च इच्छन्ति सद्दविदू । आवज्जेसीति उपनामेसि | मुत्ताति मुच्चिता। अप्पत्तञ्चाति अगतञ्च, बिम्बोहने न ताव ठपितन्ति वुत्तं होति । एतस्मिं अन्तरेति एत्थन्तरे, इमिना पदद्वयेन दस्सितकालानं वेमज्झक्खणे, तथादस्सितकालद्वयस्स वा विवरेति वुत्तं होति ।
"कारणे चेव चित्ते च, खणस्मिं विवरेपि च । वेमज्झादीसु अत्थेसु 'अन्तराति रवो गतो''ति ।।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
हि वुत्तं । अनुपादायाति तण्हादिविवसेन कञ्चि धम्मं अग्गहेत्वा, येहि वा किलेसेहि मुच्चति, तेसं लेसमत्तम्पि अग्गहेत्वा । आसवेहीति भवतो आ भवग्गं, धम्मतो च आ गोत्रभुं सवनतो पवत्तनतो आसवसञ्जितेहि किलेसेहि। उपलक्खणवचनमत्तञ्चेतं । तदेकद्वताय हि सब्बेहिपि किलेसेहि सब्बेहिपि पापधम्मेहि चित्तं विमुच्चतियेव । चित्तं विमुच्चीति चित्तं अरहत्तमग्गक्खणे आसवेहि विमुच्चमानं हुत्वा अरहत्तफलक्खणे विमुच्चि । तदत्थं विवरति “अयही"तिआदिना। चङ्कमेनाति चङ्कमनकिरियाय। विसेसन्ति अत्तना लद्धमग्गफलतो विसेसमग्गफलं । विवट्ट्पनिस्सयभूतं कतं उपचितं पुलं येनाति कतपुञो, अरहत्ताधिगमाय कताधिकारोति अत्थो। पधानमनुयुजाति वीरियमनुयुजाहि, अरहत्तसमापत्तिया अनुयोगं करोहीति वुत्तं होति । होहिसीति भविस्ससि । कथादोसोति कथाय दोसो वितथभावो । अच्चारद्धन्ति अतिविय आरद्धं । उद्धच्चायाति उद्धतभावाय । हन्दाति वोस्सग्गवचनं । तेन हि अधुनायेव योजेमि, न पनाहं पपञ्चं करोमीति वोस्सग्गं करोति । वीरियसमतं योजेमीति चङ्कमनवीरियस्स अधिमत्तत्ता तस्स हापनवसेन समाधिना समतापादनेन वीरियस्स समतं समभावं योजेमि, वीरियेन वा समथसङ्घातं समाधि योजेमीतिपि अत्थो । द्विधापि हि पाठो दिस्सति । विस्समिस्सामीति अस्ससिस्सामि । इदानि तस्स विसेसतो पसंसनारहभावं दस्सेतुं "तेना"तिआदि . वुत्तं । तेनाति चतुइरियापथविरहितताकारणेन । “अनिपन्नो"तिआदीनि पच्चुप्पन्नवचनानेव । परिनिब्बुतोपि सो आकासेयेव परिनिब्बायि । तस्मा थेरस्स किलेसपरिनिब्बानं, खन्धपरिनिब्बानञ्च विसेसेन पसंसारहं अच्छरियब्भुतमेवाति ।
दुतियदिवसेति थेरेन अरहत्तपत्तदिवसतो दुतियदिवसे । पञ्चमियन्ति तिथीपेक्खाय वुत्तं, "दुतियदिवसे''ति इमिना तुल्याधिकरणं । भिन्नलिङ्गम्पि हि तुल्यत्थपदं दिस्सति यथा “गुणो पमाणं, वीसति चित्तानि" इच्चादि । काळपक्खस्साति सावणमासकाळपक्खस्स । पठमहि मासं खण्डफुल्लपटिसङ्घरणमकंसु, पठममासभावो च मज्झिमप्पदेसवोहारेन । तत्थ हि पुरिमपुण्णमितो याव अपरा पुण्णमी, ताव एको मासोति वोहरन्ति । ततो तीणि दिवसानि राजा मण्डपमकासि, ततो दुतियदिवसे थेरो अरहत्तं सच्छाकासि, ततियदिवसे पन सन्निपतित्वा थेरा सङ्गीतिमकंसु, तस्मा आसळ्हिमासकाळपक्खपाटिपदतो याव सावणमासकाळपखपञ्चमी, ताव पञ्चदिवसाधिको एकमासो होति । समानोति उप्पज्जमानो। हद्वतुट्ठचित्तोति अतिविय सोमनस्सचित्तो, पामोज्जेन वा हट्ठचित्तो पीतिया तुट्ठचित्तो । एकंसन्ति एकस्मिं अंसे, वामंसेति अत्थो । तथा हि वङ्गीससुत्तवण्णनायं वुत्तं -
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
"एकंसं चीवरन्ति एत्थ पुन सण्ठापनवसेन एवं वुत्तं, एकंसन्ति च वामंसं पारुपित्वा ठितस्सेतं अधिवचनं । यतो यथा वामसं पारुपित्वा ठितं होति, तथा चीवरं कत्वाति एवमस्सत्थो वेदितब्बो''ति (सु० नि० अट्ठ० २.३४५)।
बन्ध...पे०... वियाति वण्टतो पवुत्तसुपरिपक्कतालफलमिव । पण्डु...पे०... वियाति सितपीतपभायुत्तपण्डुरोमजकम्बले ठपितो जातिमा मणि विय, जातिवचनेन चेत्थ कुत्तिम निवत्तेति । समुग्गतपुण्णचन्दो वियाति जुण्हपक्खपन्नरसुपोसथे समुग्गतो सोळसकलापरिपुण्णो चन्दो विय । बाला...पे०... वियाति तरुणसूरियपभासम्फस्सेन फुल्लितसुवण्णवण्णपरागगब्भं सतपत्तपद्धं विय । “पिञ्जरसद्दो हि हेमवण्णपरियायो"ति (सारत्थ टी० १.२२) सारथदीपनियं वुत्तो । परियोदातेनाति पभस्सरेन । सप्पभेनाति वण्णप्पभाय, सीलप्पभाय च समन्नागतेन । सस्सिरिकेनाति सरीरसोभग्गादिसङ्घाताय सिरिया अतिविय सिरिमता । मुखवरेनाति यथावुत्तसोभासमलङ्कतत्ता उत्तममुखेन । कामं "अहमस्मि अरहत्तं पत्तो''ति नारोचेसि, तथारूपाय पन उत्तमलीळाय गमनतो पस्सन्ता सब्बेपि तमत्थं जानन्ति, तस्मा आरोचेन्तो विय होतीति आह “अत्तनो अरहत्तप्पत्तिं आरोचयमानो विय अगमासी'ति ।
किमत्थं पनायं एवमारोचयमानो विय अगमासीति ? वुच्चते- सो हि “अत्तुपनायिकं अकत्वा अञब्याकरणं भगवता संवण्णित"न्ति मनसि करित्वा "सेक्खताय धम्मविनयसङ्गीतिया गहेतुमयुत्तम्पि बहुस्सुतत्ता गण्हिस्सामा"ति निसिन्नानं थेरानं अरहत्तप्पत्तिविजाननेन सोमनस्सुप्पादनत्थं, “अप्पमत्तो होही"ति भगवता दिन्नओवादस्स च सफलतादीपनत्थं एवमारोचयमानो विय अगमासीति । आयस्मतो महाकस्सपस्स एतदहोसि समसमठ्ठपनादिना यथावुत्तकारणेन सत्थुकप्पत्ता | धरेय्याति विज्जमानो भवेय्य । “सोभति वत ते आवुसो आनन्द अरहत्तसमधिगमता''तिआदिना साधुकारमदासि। अयमिध दीघभाणकानं वादो। खुद्दकभाणकेसु च सुत्तनिपातखुद्दकपाठभाणकानं वादोतिपि युज्जति तदट्ठकथासुपि तथा वुत्तत्ता ।
मज्झिमं निकायं भणन्ति सीलेनाति मज्झिमभाणका, तप्पगुणा आचरिया । यथावुड्डन्ति वुड्डपटिपाटिं, तदनतिक्कमित्वा वा। तत्थाति तस्मिं भिक्खुसङ्के । आनन्दस्स एतमासनन्ति सम्बन्धो । तस्मिं समयेति तस्मिं एवंकथनसमये । थेरो चिन्तेसि “कुहिं गतो''ति पुच्छन्तानं अत्तानं दस्सेन्ते अतिविय पाकटभावेन भविस्समानत्ता, अयम्पि मज्झिमभाणकेस्वेव एकच्चानं वादो, तस्मा इतिपि एके वदन्तीति सम्बन्धो । आकासेन आगन्त्वा अत्तनो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
आसनेयेव अत्तानं दस्सेसीतिपि तेसमेव एकच्चे वदन्ति । पुल्लिङ्गविसये हि “एके"ति वुत्ते सब्बत्थ “एकच्चे"ति अत्थो वेदितब्बो । तीसुपि चेत्थ वादेसु तेसं तेसं भाणकानं तेन तेनाकारेन आगतमत्तं ठपेत्वा विसुं विसुं वचने अझं विसेसकारणं नत्थि । सत्तमासं कताय हि धम्मविनयसङ्गीतिया कदाचि पकतियाव, कदाचि पथवियं निमुज्जित्वा, कदाचि आकासेन आगतत्ता तं तदागमनमुपादाय तथा तथा वदन्ति । अपिच सङ्गीतिया आदिदिवसेयेव पठमं पकतिया आगन्त्वा ततो परं आकासमब्भुग्गन्त्वा परिसं पत्तकाले ततो ओतरित्वा भिक्खुपन्तिं अपीळेन्तो पथवियं निमुज्जित्वा आसने अत्तानं दस्सेसीतिपि वदन्ति । यथा वा तथा वा आगच्छतु, आगमनाकारमत्तं न पमाणं, आगन्त्वा गतकाले आयस्मतो महाकस्सपस्स साधुकारदानमेव पमाणं सत्थारा दातब्बसाधुकारदानेनेव अरहत्तप्पत्तिया अञसम्पि ज्ञापितत्ता, भगवति धरमाने पटिग्गहेतब्बाय च पसंसाय थेरस्स पटिग्गहितत्ता । तस्मा तमत्थं दस्सेन्तो “यथा वा"तिआदिमाह । सब्बत्थापीति सब्बेसुपि तीसु वादेसु ।
भिक्खू आमन्तेसीति भिक्खू आलपीति अयमेत्थ अत्थो, अञत्र पन आपनेपि दिस्सति यथा “आमन्तयामि वो भिक्खवे, (दी० नि० २.२१८) पटिवेदयामि वो भिक्खवे''ति (अ० नि० २.७.७२) पक्कोसनेपि दिस्सति यथा “एहि त्वं भिक्खु मम वचनेन सारिपुत्तं आमन्तेही"ति (अ० नि० ३.९.११) आलपनेपि दिस्सति यथा “तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि 'भिक्खवो'ति", (सं० नि० १.२४९) इधापि आलपनेति सारत्थदीपनियं (सारत्थ टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वुत्तं । आलपनमत्तस्स पन अभावतो “किं पठमं सनायामातिआदिना वुत्तेन विज्ञापियमानत्थन्तरेन च सहचरणतो आपनेव वट्टति, तस्मा आमन्तेसीति पटिवेदेसि विज्ञापेसीति अत्थो वत्तब्बो । “तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि . 'भिक्खवो'ति, 'भद्दन्ते'ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसु"न्तिआदीसु (सं० नि० १.१.२४९) हि आलपनमत्तमेव दिस्सति, न विज्ञापियमानत्थन्तरं, तं पन “भूतपुब्बं भिक्खवे"तिआदिना (सं० नि० १.१.२४९) पच्चेकमेव आरद्धं । तस्मा तादिसेस्वेव आलपने वट्टतीति नो तक्को। सद्दविदू पन वदन्ति “आमन्तयित्वा देविन्दो, विस्सकम्मं महिद्धिक'न्तिआदीसु (चरि० पि० १०७) विय मन्तसद्दो गुत्तभासने । तस्मा 'आमन्तेसी'ति एतस्स सम्मन्तयीति अत्थो"ति । "आवुसो"तिआदि आमन्तनाकारदीपनं । धम्मं वा विनयं वाति एत्थ वा-सद्दो विकप्पने, तेन “किमेकं तेसु पठमं सनायामा"ति दस्सेति । कस्मा आयूति आह "विनये ठिते"तिआदि । “यस्मा, तस्मा''ति च अज्झाहरित्वा योजेतब्बं । तस्माति ताय
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
आयुसरिक्खताय । धुरन्ति जेठ्ठकं । नो नष्पहोतीति पहोतियेव । द्विपटिसेधो हि सह अतिसयेन पकत्यत्थदीपको ।
एतदग्गन्ति एसो अग्गो । लिङ्गविपल्लासेन हि अयं निद्देसो । यदिदन्ति च यो अयं, यदिदं खन्धपञ्चकन्ति वा योजेतब्बं । एवहि सति “एतदग्ग"न्ति यथारुतलिङ्गमेव । “यदिद"न्ति पदस्स च अयं सभावो, या तस्स तस्स अत्थस्स वत्तब्बस्स लिङ्गानुरूपेन “यो अय"न्ति वा "या अय''न्ति वा “यं इद"न्ति वा योजेतब्बता तथायेवस्स तत्थ तत्थ दस्सितत्ता । भिक्खूनं विनयधरानन्ति निद्धारणछट्ठीनिद्देसो ।
अत्तनाव अत्तानं सम्मन्नीति सयमेव अत्तानं सम्मतं अकासि । “अत्तना"ति हि इदं ततियाविसेसनं भवति, तञ्च परेहि सम्मन्ननं निवत्तेति, "अत्तना'"ति वा अयं विभत्यन्तपतिरूपको अब्ययसद्दो । केचि पन “लिङ्गत्थे ततिया अभिहितकत्तुभावतो''ति वदन्ति । तदयुत्तमेव “थेरो"ति कत्तुनो विज्जमानत्ता। विस्सज्जनत्थाय अत्तनाव अत्तानं सम्मन्नीति योजेतब्बं । पुच्छधातुस्स द्विकम्मिकत्ता “उपालिं विनय"न्ति कम्मद्वयं वुत्तं ।
बीजनिं गहेत्वाति एत्थ बीजनीगहणं धम्मकथिकानं धम्मताति वेदितब्बं । ताय हि धम्मकथिकानं परिसाय हत्थकुक्कुच्चमुखविकारादि पटिच्छादीयति । भगवा च धम्मकथिकानं धम्मतादस्सनत्थमेव विचित्रबीजनिं गण्हाति । अञथा हि सब्बस्सपि लोकस्स अलङ्कारभूतं परमुक्कंसगतसिक्खासंयमानं बुद्धानं मुखचन्दमण्डलं पटिच्छादेतब्बं न सिया । “पठमं आवुसो उपालि पाराजिकं कत्थ पञत्तन्ति कस्मा वुत्तं, ननु तस्स सङ्गीतिया पुरिमकाले पठमभावो न युत्तोति ? नो न युत्तो भगवता पञत्तानुक्कमेन, पातिमोक्खुद्देसानुक्कमेन च पठमभावस्स सिद्धत्ता। येभुय्येन हि तीणि पिटकानि भगवतो धरमानकाले ठितानुक्कमेनेव सङ्गीतानि, विसेसतो विनयाभिधम्मपिटकानीति दट्ठबं । किस्मिं वत्थुस्मिन्ति, मेथुनधम्मेति च निमित्तत्थे भुम्मवचनं । “कत्थ पञत्त"न्तिआदिना दस्सितेन सह तदवसिट्टम्पि सङ्गहेत्वा दस्सेतुं "वत्थुम्पि पुच्छी"तिआदि वुत्तं ।
सङ्गीतिकारकवचनसम्मिस्सं वा नु खो, सुद्धं वा बुद्धवचनन्ति आसङ्कापरिहरणत्थं, यथासङ्गीतस्सेव पमाणभावं दस्सनत्थञ्च पुच्छं समुद्धरित्वा विस्सज्जेन्तो "किं पनेत्था"तिआदिमाह । एत्थ पठमपाराजिकेति एतिस्सं तथासङ्गीताय पठमपाराजिकपाळियं । तेनेवाह "न हि तथागता एकब्यञ्जनम्पि निरत्थकं वदन्ती''ति। अपनेतब्बन्ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अतिरेकभावेन निरत्थकताय, वितथभावेन वा अयुत्तताय छड्डतब्बवचनं । पक्खिपितब्बन्ति असम्पुण्णताय उपनेतब्बवचनं । कस्माति आह “न ही"तिआदि । सावकानं पन देवतानं वा भासितेति भगवतो पुच्छाथोमनादिवसेन भासितं सन्धायाह । सब्बत्थापीति भगवतो सावकानं देवतानञ्च भासितेपि । तं पन पक्खिपनं सम्बन्धवचनमत्तस्सेव, न सभावायुत्तिया अत्थस्साति दस्सेति "किं पन त"न्तिआदिना सम्बन्धवचनमत्तन्ति पुब्बापरसम्बन्धवचनमेव । इदं पठमपाराजिकन्ति ववत्थपेत्वा ठपेसुं इमिनाव वाचनामग्गेन उग्गहणधारणादिकिच्चनिप्फादनत्थं, तदत्थमेव च गणसज्झायमकंसु "तेन...पे०... विहरती"ति | सज्झायारम्भकालेयेव पथवी अकम्पित्थाति वदन्ति, तदिदं पन पथवीकम्पनं थेरानं धम्मसज्झायानुभावेनाति ज्ञापेतुं “साधुकारं ददमाना विया"ति वुत्तं । उदकपरियन्तन्ति पथवीसन्धारकउदकपरियन्तं । तस्मिहि चलितेयेव सापि चलति, एतेन च पदेसपथवीकम्पनं निवत्तेति ।
किञ्चापि पाळियं गणना नत्थि, सङ्गीतिमारोपितानि पन एत्तकानेवाति दीपेतुं "पञ्चसत्तति सिक्खापदानी"ति वुत्तं "पुरिमनयेनेवा"ति एतेन साधुकारं ददमाना वियाति अत्थमाह । न केवलं सिक्खापदकण्डविभङ्गनियमेनेव, अथ खो पमाणनियमेनापीति दस्सेतुं "चतुसट्ठिभाणवारा'ति वुत्तं । एत्थ च भाणवारोति
“अट्ठक्खरा एकपदं, एकगाथा चतुप्पदं । गाथा चेका मतो गन्थो, गन्थो बात्तिंसतक्खरो ।।
बात्तिंसक्खरगन्थानं, पञ्जासद्विसतं पन | भाणवारो मतो एको, स्वठ्ठक्खरसहस्सको'ति ।।
एवं अट्ठक्खरसहस्सपरिमाणो पाठो वुच्चति । भणितब्बो वारो यस्साति हि भाणवारो, एकेन सज्झायनमग्गेन कथेतब्बवारोति अत्थो । खन्धकन्ति महावग्गचूळवग्गं । खन्धानं समूहतो, पकासनतो वा खन्धकोति हि वुच्चति, खन्धाति चेत्थ पब्बज्जूपसम्पदादिविनयकम्मसङ्खाता, चारित्तवारित्तसिक्खापदसङ्खाता च पञत्तियो अधिप्पेता । पब्बज्जादीनि हि भगवता पञत्तत्ता पत्तियोति वुच्चन्ति । पञत्तियञ्च खन्धसद्दी दिस्सति “दारुक्खन्धो, (अ० नि० २.६.४१) अग्गिक्खन्धो, (अ० नि० २.७.७२) उदकक्खन्धो''तिआदीसु (अ० नि० २.५.४५, ६.३७) विय । अपिच
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
भागरासठ्ठतापि युज्जतियेव तासं पञत्तीनं भागतो, रासितो च विभत्तत्ता, तं पन विनयपिटकं भाणकेहि रक्खितं गोपितं सङ्गहारुळहनयेनेव चिरकालं अनस्समानं हुत्वा पतिठ्ठहिस्सतीति आयस्मन्तं उपालित्थेरं पटिच्छापेसुं “आवुसो इमं तुम्हं निस्सितके वाचेही"ति ।
धम्म सङ्गायितुकामोति सुत्तन्ताभिधम्मसङ्गीति कत्तुकामो “धम्मो च विनयो च देसितो पञ्जत्तो''तिआदीसु (दी० नि० २.२१६) विय पारिसेसनयेन धम्मसद्दस्स सुत्तन्ताभिधम्मेस्वेव पवत्तनतो । अयमत्थो उपरि आवि भविस्सति ।
सचं आपेसीति एत्थ हेट्ठा वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो। कतरं आवुसो पिटकन्ति विनयावसेसेसु द्वीसु पिटकेसु कतरं पिटकं । विनयाभिधम्मानम्पि खुद्दकसङ्गीतिपरियापन्नत्ता तमन्तरेन वुत्तं "सुत्तन्तपिटके चतस्सो सङ्गीतियो"ति । सङ्गीतियोति च सङ्गायनकाले दीघादिवसेन विसुं विसुं नियमेत्वा सङ्गय्हमानत्ता निकायाव वुच्चन्ति। तेनाह "दीघसङ्गीति"न्तिआदि । सुत्तानेव सम्पिण्डेत्वा वग्गकरणवसेन तयो वग्गा, नाञानीति दस्सेतुं "चतुत्तिंस सुत्तानि तयो वग्गा"ति वुत्तं । तस्मा चतुत्तिसं सुत्तानि तयो वग्गा होन्ति, सुत्तानि वा चतुत्तिंस, तेसं वग्गकरणवसेन तयो वग्गा, तेसु तीसु वग्गेसूति योजेतब्बं । “ब्रह्मजालसुत्तं नाम अत्थि, तं पठमं सनायामा"ति वुत्ते कस्माति चोदनासम्भवतो "तिविधसीलालङ्कत"न्तिआदिमाह। हेतुगब्भानि हि एतानि । चूळमज्झिममहासीलवसेन तिविधस्सापि सीलस्स पकासनत्ता तेन अलङ्कतं विभूसितं तथा नानाविधे मिच्छाजीवभूते कुहनलपनादयो विद्धंसेतीति नानाविधमिच्छाजीवकुहनलपनादिविद्धंसनं। तत्थ कुहनाति कुहायना, पच्चयपटिसेवनसामन्तजप्पनइरियापथसन्निस्सितसङ्खातेन तिविधेन वत्थुना विम्हापनाति अत्थो । लपनाति विहारं आगते मनुस्से दिस्वा "किमत्थाय भोन्तो आगता, किं भिक्खू निमन्तेतुं । यदि एवं गच्छथ, अहं पच्छतो भिक्खू गहेत्वा आगच्छामी"ति एवमादिना भासना | आदिसद्देन पुप्फदानादयो, नेमित्तिकतादयो च सङ्गण्हाति । अपिचेत्थ मिच्छाजीवसद्देन कुहनलपनाहि सेसं अनेसनं गण्हाति । आदिसद्देन पन तदवसेसं महिच्छतादिकं दुस्सिल्यन्ति दट्ठब् । द्वासट्ठि दिट्ठियो एव पलिवेठनटेन जालसरिक्खताय जालं, तस्स विनिवेठनं अपलिवेठकरणं तथा ।
अन्तरा च भन्ते राजगहं अन्तरा च नालन्दन्ति एत्थ अन्तरासद्दो विवरे “अपिचायं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
भिक्खवे तपोदाद्विन्नं महानिरयानं अन्तरिकाय आगच्छती''तिआदीसु (पारा० २३१) विय । तस्मा राजगहस्स च नाळन्दस्स च विवरेति अत्थो दट्ठब्बो। अन्तरासद्देन पन युत्तत्ता उपयोगवचनं कतं । ईदिसेसु ठानेसु अक्खरचिन्तका “अन्तरा गामञ्च नदिञ्च याती''ति एवं एकमेव अन्तरासदं पयुज्जन्ति, सो दुतियपदेनपि योजेतब्बो होति । अयोजियमाने हि उपयोगवचनं न पापुणाति सामिवचनस्स पसङ्गे अन्तरासद्दयोगेन उपयोगवचनस्स इच्छितत्ता। तत्थ रञो कीळनत्थं पटिभानचित्तविचित्रअगारमकंसु, तं "राजागारक''न्ति वुच्चति, तस्मिं । अम्बलट्टिकाति रो उय्यानं । तस्स किर द्वारसमीपे तरुणो अम्बरुक्खो अत्थि, तं “अम्बलठ्ठिका''ति वदन्ति, तस्स समीपे पवत्तत्ता उय्यानम्पि “अम्बलट्ठिका" त्वेव सङ्ख्यं गतं यथा “वरुणनगर''न्ति, तस्मा अम्बलठ्ठिकायं नाम उय्याने राजागारकेति अत्थो । अविञ्जायमानस्स हि विज्ञापनत्थं एतं आधारद्वयं वुत्तं राजागारमेतस्साति वा राजागारकं, उय्यानं, राजागारवति अम्बलट्ठिकायं नाम उय्यानेति अत्थो । भिन्नलिङ्गम्पि हि विसेसनपदमत्थी''ति केचि वदन्ति, एवं सति राजागारं आधारो न सिया । "राजागारकेति एवंनामके उय्याने अभिरमनारहं किर राजागारम्पि । तत्थ, यस्स वसेनेतं एवं नामं लभती''ति (वजिर टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वजिरबुद्धित्थेरो | एवं सति “अम्बलट्ठिकाय"न्ति आसन्नतरुणम्बरुक्खेन विसेसेत्वा “राजागारके''ति उय्यानमेव नामवसेन वुत्तन्ति अत्थो आपज्जति, तथा च वुत्तदोसोव सिया। सुप्पियञ्च परिब्बाजकन्ति सुप्पियं नाम सञ्चयस्स अन्तेवासिं छन्नपरिब्बाजकञ्च | ब्रह्मदत्तञ्च माणवन्ति एत्थ तरुणो “माणवो''ति वुत्तो “अम्बट्ठो माणवो, अङ्गको माणवो"तिआदीसु (दी० नि० १.२५९, २११) विय, तस्मा ब्रह्मदत्तं नाम तरुणपुरिसञ्च आरब्भाति अत्थो । वण्णावण्णेति पसंसाय चेव गरहाय च । अथ वा गुणो वण्णो, अगुणो अवण्णो, तेसं भासनं उत्तरपदलोपेन तथा वुत्तं यथा “रूपभवो रूप'"न्ति ।
"ततो पर"न्तिआदिम्हि अयं वचनक्कमो- सामञफलं पनावुसो आनन्द कत्थ भासितन्ति ? राजगहे भन्ते जीवकम्बवनेति । केन सद्धिन्ति ? अजातसत्तुना वेदेहिपुत्तेन सद्धिन्ति । अथ खो आयस्मा महाकस्सपो आयस्मन्तं आनन्दं सामञफलस्स निदानम्पि पुच्छि, पुग्गलम्पि पुच्छीति । एत्थ हि "कं आरब्भा''ति अवत्वा “केन सद्धि"न्ति वत्तब्बं । कस्माति चे? न भगवता एव एतं सुत्तं भासितं, रञापि “यथा नु खो इमानि पुथुसिप्पायतनानी''तिआदिना (दी० नि० १.१६३) किञ्चि किञ्चि वुत्तमत्थि, तस्मा एवमेव वत्तब्बन्ति । इमिनाव नयेन सब्बत्थ “कं आरब्भा'ति वा “केन सद्धिन्ति वा यथारहं वत्वा सङ्गीतिमकासीति दट्ठब्बं । तन्तिन्ति सुत्तवग्गसमुदायवसेन ववत्थितं पाळिं ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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एवञ्च कत्वा “तिवग्गसङ्गहं चतुत्तिंससुत्तपटिमण्डित"न्ति वचनं उपपन्नं होति । परिहरथाति उग्गहणवाचनादिवसेन धारेथ । ततो अनन्तरं सङ्गायित्वाति सम्बन्धो ।
“धम्मसङ्गहो चा"तिआदिना समासो। एवं संवण्णितं पोराणकेहीति अत्थो । एतेन "महाधम्महदयेन, महाधातुकथाय वा सद्धिं सत्तप्पकरणं अभिधम्मपिटकं नामा''ति वुत्तं वितण्डवादिमतं पटिक्खिपित्वा “कथावत्थुनाव सद्धि"न्ति वुत्तं समानवादिमतं दस्सेति । सण्हञाणस्स, सण्हाणवन्तानं वा विसयभावतो सुखुमत्राणगोचरं।
चूळनिद्देसमहानिद्देसवसेन दुविधोपि निद्देसो। जातकादिके खुद्दकनिकायपरियापन्ने, येभुय्येन च धम्मनिद्देसभूते तादिसे अभिधम्मपिटकेव सङ्गण्हितुं युत्तं, न पन दीघनिकायादिप्पकारे सुत्तन्तपिटके, नापि पचत्तिनिद्देसभूते विनयपिटकेति दीघभाणका जातकादीनं अभिधम्मपिटके सङ्गहं वदन्ति । चरियापिटकबुद्धवंसानञ्चेत्थ अग्गहणं जातकगतिकत्ता, नेत्तिपेटकोपदेसादीनञ्च निद्देसपटिसम्भिदामग्गगतिकत्ता। मज्झिमभाणका पन अट्टप्पत्तिवसेन देसितानं जातकादीनं यथानुलोमदेसनाभावतो तादिसे सुत्तन्तपिटके सङ्गहो युत्तो, न पन सभावधम्मनिद्देसभूते यथाधम्मसासने अभिधम्मपिटके, नापि पञत्तिनिद्देसभूते यथापराधसासने विनयपिटकेति जातकादीनं सुत्तन्तपिटकपरियापन्नतं वदन्ति । युत्तमेत्थ विचारेत्वा गहेतब्बं ।
एवं निमित्तपयोजनकालदेसकारककरणप्पकारेहि पठमं सङ्गीतिं दस्सेत्वा इदानि तत्थ ववत्थापितेसु धम्मविनयेसु नानप्पकारकोसल्लत्थं एकविधादिभेदं दस्सेतुं "एवमेत"न्तिआदिमाह। तत्थ “एव"न्ति इमिना एतसद्देन परामसितब्बं यथावुत्तसङ्गीतिप्पकारं निदस्सेति । “यही"तिआदि वित्थारो। अनुत्तरं सम्मासम्बोधिन्ति अनावरणञाणपदट्ठानं मग्गजाणं, मग्गाणपदट्ठानञ्च अनावरणञाणं। एत्थन्तरेति अभिसम्बुज्झनस्स, परिनिब्बायनस्स च विवरे । तदेतं पञ्चचत्तालीस वस्सानीति कालवसेन नियमेति । पच्चवेक्खन्तेन वाति उदानादिवसेन पवत्तधम्म सन्धायाह । यं वचनं वुत्तं, सब्बं तन्ति सम्बन्धो । किं पनेतन्ति आह "विमुत्तिरसमेवा"ति, न तदारसन्ति वुत्तं होति । विमुच्चित्थाति विमुत्ति, रसितब्बं अस्सादेतब्बन्ति रसं, विमुत्तिसङ्खातं रसमेतस्साति विमुत्तिरसं, अरहत्तफलस्सादन्ति अत्थो । अयं आचरियसारिपुत्तत्थेरस्स मति (सारत्थ टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना)। आचरियधम्मपालत्थेरो पन तं केचिवादं कत्वा इममत्थमाह “विमुच्चति विमुच्चित्थाति विमुत्ति, यथारहं मग्गो फलञ्च । रसन्ति गुणो, सम्पत्तिकिच्चं
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वा, वृत्तनयेन समासो । विमुत्तानिसंसं, विमुत्तिसम्पत्तिकं वा मग्गफलनिप्फादनतो, विमुत्तिकिच्चं वा किलेसानमच्चन्तविमुत्तिसम्पादनतोति अत्थो 'ति (दी० नि० टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) । अङ्गुत्तरट्ठकथायं पन “ अत्थरसस्सादीसु अत्थरसो नाम चत्तारि सामञ्ञफलानि, धम्मरसो नाम चत्तारो मग्गा, विमुत्तिरसो नाम अमतनिब्बान' 'न्ति (अ० नि० अट्ठ० १.१.३३५) वृत्तं ।
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका - १
किञ्चापि अविसेसेन सब्बम्पि बुद्धवचनं किलेसविनयनेन बिनयो, यथानुसिहं पटिपज्जमाने अपायपतनादितो धारणेन धम्मो च होति, तथापि इधाधिप्पेतेयेव धम्मविनये वत्तिच्छावसेन सरूपतो निद्धारेतुं “ तत्थ विनयपिटक "न्तिआदिमाह । अवसेसं बुद्धवचनं धम्म खन्धादिवसेन सभावधम्मदेसनाबाहुल्लतो | अथ वा यदिपि विनयो च धम्मोयेव परियत्तियादिभावतो, तथापि विनयसद्दसन्निधाने भिन्नाधिकरणभावेन पयुत्तो धम्मसद्दो विनयतन्ति विपरीतं तन्तिमेव दीपेति यथा “पुञ्ञञाणसम्भारा, गोबलीबद्द "न्ति । पयोगवसेन तं दस्सेन्तेन " तेनेवाहा "ति आदि वृत्तं । येन विनय... पे०... धम्मो, तेनेव सं तथाभावं सङ्गीतिक्खन्धके (चूळ० व० ३४७) आहाति अत्थो ।
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'अनेकजातिसंसार "न्ति अयं गाथा भगवता अत्तनो सब्बञ्जुतञ्ञणपदट्ठानं अरहत्तप्पत्तिं पच्चवेक्खन्तेन एकूनवीसतिमस्स पच्चवेक्खणञाणस्स अनन्तरं भासिता, तस्मा “पठमबुद्धवचन "न्ति वृत्ता । इदं किर सब्बबुद्धेहि अविजहितं उदानं । अयमस्स सङ्घेपत्थो – अहं इमस्स अत्तभावसङ्घातस्स गेहस्स कारकं तण्हावड्डुकिं गवेसन्तो येन आणेन तं दट्टु सक्का, तस्स बोधित्राणस्सत्थाय दीपङ्करपादमूले कताभिनीहारो एत्तकं कालं अनेकजातिसंसारं अनेकजातिसतसहस्ससङ्ख्यं संसारवट्टं अनिब्बिसं अनिब्बिसन्तो तं जणं अविन्दन्तो अलभन्तोयेव सन्धाविस्सं संसरिं । यस्मा जराव्याधिमरणमिस्सताय जाति नामेसा पुनपुनं उपगन्तुं दुक्खा, न च सा तस्मिं अदिट्ठे निवत्तति, तस्मा तं गवेसन्तो सन्धाविस्सन्ति अत्थो । इदानि भो अत्तभावसङ्घातस्स गेहस्स कारक तण्हावड्डकि त्वं मया सब्बञ्जुतञ्ञाणं पटिविज्झन्तेन दिट्ठो असि । पुन इमं अत्तभावसङ्घातं मम गेहं न काहसि न करिस्ससि । तव सब्बा अवसेसकिलेस फासुका मया भग्गा भञ्जिता । इमस्स तया कतस्स अत्तभावसङ्घातस्स गेहस्स कूटं अविज्जासङ्घातं कण्णिकमण्डलं विसङ्घतं विद्धंसितं । इदानि मम चित्तं विसङ्घारं निब्बानं आरम्मणकरणवसेन गतं अनुपविट्टं । अहञ्च तहानं खय सङ्घातं अरहत्तमग्गं, अरहत्तफलं वा अज्झगा अधिगतो पत्तोस्मीति । गण्टिपदेसु पन
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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विसङ्घारगतं चित्तमेव तण्हानं अधिगतन्ति अत्थो वुत्तो ।
खयसङ्घातं
अरहत्तमग्गं, अरहत्तफलं वा
अज्झगा
“सन्धाविस्स"न्ति एत्थ च “गाथायमतीतत्थे इमिस्स"न्ति नेरुत्तिका । "तंकालवचनिच्छायमतीतेपि भविस्सन्ती'ति केचि । पुनप्पुनन्ति अभिण्हत्थे निपातो । पातब्बा रक्खितब्बाति फासु प-कारस्स फ-कारं कत्वा, फुसितब्बाति वा फासु, सायेव फासुका। अज्झगाति च “अज्जतनियमात्तमि वा अं वा"ति वदन्ति । यदि पन चित्तमेव कत्ता, तदा परोक्खायेव । अन्तोजप्पनवसेन किर भगवा “अनेकजातिसंसार''न्ति गाथाद्वयमाह, तस्मा एसा मनसा पवत्तितधम्मानमादि । “यदा हवे पातुभवन्ति धम्मा'"ति अयं पन वाचाय पवत्तितधम्मानन्ति वदन्ति ।
केचीति खन्धकभाणका । पठमं वुत्तो पन धम्मपदभाणकानं वादो । यदा...पे०... धम्माति एत्थ निदस्सनत्थो, आद्यत्थो च इति-सद्दो लुत्तनिद्दिट्ठो। निदस्सनेन हि मरियादवचनेन विना पदत्थविपल्लासकारिनाव अत्थो परिपुण्णो न होति । तत्थ आद्यत्थमेव इति-सदं गहेत्वा इति-सद्दो आदिअत्थो, “तेन आतापिनो...पे०... सहेतुधम्म'न्तिआदिगाथात्तयं सङ्गण्हाती"ति (सारत्थ टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) आचरियसारिपुत्तत्थेरेन वुत्तं । खन्धकेति महावग्गे । उदानगाथन्ति जातिया एकवचनं, तत्थापि वा पठमगाथमेव गहेत्वा वुत्तन्ति वेदितब्बं ।
एत्थ च खन्धकमाणका एवं वदन्ति “धम्मपदभाणकानं गाथा मनसाव देसितत्ता तदा महतो जनस्स उपकाराय नाहोसि, अम्हाकं पन गाथा वचीभेदं कत्वा देसितत्ता तदा सुणन्तानं देवब्रह्मानं उपकाराय अहोसि, तस्मा इदमेव पठमबुद्धवचन"न्ति | धम्मपदभाणका पन "देसनाय जनस्स उपकारानपकारभावो पठमभावे लक्खणं न होति. भगवता मनसा पठमं देसितत्ता इदमेव पठमबुद्धवचन"न्ति वदन्ति । तस्मा उभयम्पि उभयथा युज्जतीति वेदितब्बं । ननु च यदि “अनेकजातिसंसार"न्ति गाथा मनसाव देसिता, अथ कस्मा धम्मपदट्ठकथायं “अनेकजातिसंसार'न्ति इमं धम्मदेसनं सत्था बोधिरुक्खमूले निसिन्नो उदानवसेन उदानेत्वा अपरभागे आनन्दत्थेरेन पुट्ठो कथेसी"ति (ध० प० अट्ठ० २.१५२ उदानवत्थु) वुत्तन्ति ? अथवसेन तथायेव गहेतब्बत्ता । तत्थापि हि मनसा उदानेत्वाति अत्थोयेव गहेतब्बो । देसना विय हि उदानम्पि मनसा उदानं, वचसा उदानन्ति द्विधा विज्ञायति । यदि चायं वचसा उदानं सिया, उदानपाळियमारुळहा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
भवेय्य, तस्मा उदानपाळियमनारुळहभावोयेव वचसा अनुदानेत्वा मनसा उदानभावे कारणन्ति दट्ठब्बं । " पाटिपददिवसे "ति इदं "सब्बञ्ञभावप्पत्तस्सा" ति एतेन न सम्बज्झितब्बं, “पच्चवेक्खन्तस्स उप्पन्ना "ति एतेन पन सम्बज्झितब्बं । विसाखपुण्णमायमेव हि भगवा पच्चूससमये सब्बञ्जतं पत्तो । लोकियसमये पन एवम्पि सम्बज्झनं भवति, तथापि नेस सासनसमयोति न गहेतब्बं । सोमनस्समेव सोमनस्समयं यथा “दानमयं, सीलमय "न्ति, (दी० नि० ३.३०५; इतिवु० ६०; नेत्ति० ३४) तंसम्पत्तञानाति अत्थो । सोमनस्सेन वा सहजातादिसत्तिया पकतं, तादिसेन आणेनातिपि वट्टति ।
हन्दाति चोदनत्थे निपातो । इस सम्पादेथाति हि चोदेति । आमन्तयामीति पटिवेदयामि, बोधेमीति अत्थो । बोति पन " आमन्तयामी" ति एतस्स कम्मपदं । " आमन्तनत्थे दुतियायेव न चतुत्थी'ति हि वत्वा तमेवुदाहरन्ति अक्खरचिन्तका । वयधम्माति अनिच्चलक्खणमुखेन सङ्घारानं दुक्खानत्तलक्खणम्पि विभावेति “यदनिच्चं, तं दुक्खं । यं दुक्खं तदनत्ता" ति (सं० नि० २.२.१५, ४५, ७६, ७७; २.३.१, ४; पटि० म० २.१०) वचनतो । लक्खणत्तयविभावननयेनेव च तदारम्मणं विपस्सनं दस्सेन्तो सब्बतित्थियानं अविसयभूतं बुद्धावेणिकं चतुसच्चकम्मट्ठानाधिट्ठानं अविपरीतं निब्बानगामिनिपटिपदं पकासेतीति दट्ठब्बं । इदानि तत्थ सम्मापटिपत्तियं नियोजेति "अप्पमादेन सम्पादेथाति, चतुसच्चकम्मट्ठानाधिट्ठानाय अविपरीतनिब्बानगामिनिपटिपदाय अप्पमादेन सम्पादेथाति अत्थो । अपिच " वयधम्मा सङ्घारा "ति एतेन सङ्क्षेपेन संवेजेत्वा "अप्पमादेन सम्पादेथा "ति सङ्क्षेपेनेव निरवसेसं सम्मापटिपत्तिं दस्सेति । अप्पमादपदहि सिक्खत्तयसङ्गहितं केवलपरिपुण्णं सासनं परियादियित्वा तिट्ठति, सिक्खत्तयसङ्गहिताय केवलपरिपुण्णाय सासनसङ्घाताय सम्मापटिपत्तिया अप्पमादेन सम्पादेथाति अत्थो । उभिन्नमन्तरेति द्विन्नं वचनानमन्तराळे वेमज्झे । एत्थ हि कालवता कालोपि निदस्सितो तदविनाभावित्ताति वेदितब्बो |
ताय
सुत्तन्तपिटकन्ति एत्थ सुत्तमेव सुत्तन्तं यथा “कम्मन्तं, वनन्त "न्ति । सङ्गीतञ्च असङ्गीतञ्चाति सब्बसरूपमाह । “असङ्गीतन्ति च सङ्गीतिक्खन्धककथावत्थुप्पकरणादि । केचि पन ' सुभसुत्तं (दी० नि० १.४४४) पठमसङ्गीतियमसङ्गीत न्ति वदन्ति तं न युज्जति । पठमसङ्गीतितो पुरेतरमेव हि आयस्मता आनन्दत्थेरेन जेतवने विहरन्तेन सुभस्स माणवस्स भासित "न्ति (दी० नि० टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) आचरियधम्मपालत्थेरेन वृत्तं । सुभसुत्तं पन " एवं मे सुत्तं एकं समयं आयस्मा आनन्दो सावत्थियं विहरति जेतवने
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
अनाथपिण्डिकस्स आरामे अचिरपरिनिब्बुते भगवती''तिआदिना (दी० नि० १.४४४) आगतं । तत्थ “एवं मे सुत''न्तिआदिवचनं पठमसङ्गीतियं आयस्मता आनन्दत्थेरेनेव वत्तुं युत्तरूपं न होति । न हि आनन्दत्थेरो सयमेव सुभसुत्तं देसेत्वा “एवं मे सुत"न्तिआदीनि वदति । एवं पन वत्तब् सिया “एकमिदाहं भन्ते समयं सावत्थियं विहरामि जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे''तिआदि। तस्मा दुतियततियसङ्गीतिकारकेहि “एवं मे सुत''न्तिआदिना सुभसुत्तं सङ्गीतिमारोपितं विय दिस्सति । अथाचरियधम्मपालत्थेरस्स एवमधिप्पायो सिया “आनन्दत्थेरेनेव वुत्तम्पि सुभसुत्तं पठमसङ्गीतिमारोपेत्वा तन्तिं ठपेतुकामेहि महाकस्सपत्थेरादीहि अञ्जसु सुत्तेसु आगतनयेनेव ‘एवं मे सुत'न्तिआदिना तन्ति ठपिता''ति । एवं सति युज्जेय्य । अथ वा आयस्मा आनन्दो सुभसुत्तं सयं देसेन्तोपि सामञफलादीसु भगवता देसितनयेनेव देसेसीति भगवतो सम्मुखा लद्धनये ठत्वा देसितत्ता भगवता देसितं धम्मं अत्तनि अदहन्तो “एवं मे सुत''न्तिआदिमाहाति एवमधिप्पायेपि सति युज्जतेव । “अनुसङ्गीतञ्चा"तिपि पाठो । दुतियततियसङ्गीतीसु पुन सङ्गीतञ्चाति अत्थवसेन निन्नानाकरणमेव । समोधानेत्वा विनयपिटकं नाम वेदितब्बं, सुत्त...पे०... अभिधम्मपिटकं नाम वेदितब्बन्ति योजना ।
___ भिक्खुभिक्खुनीपातिमोक्खवसेन उभयानि पातिमोक्खानि। भिक्खुभिक्खुनीविभङ्गवसेन द्वे विभङ्गा। महावग्गचूळवग्गेसु आगता द्वावीसति खन्धका। पच्चेकं सोळसहि वारेहि उपलक्खितत्ता सोळस परिवाराति वुत्तं । परिवारपाळियहि महाविभङ्गे सोळस वारा, भिक्खुनीविभङ्गे सोळस वारा चाति बात्तिंस वारा आगता। पोत्थकेसु पन कत्थचि “परिवारा''ति एत्तकमेव दिस्सति, बहूसु पन पोत्थकेसु विनयट्ठकथायं, अभिधम्मट्ठकथायञ्च "सोळस परिवारा''ति एवमेव दिस्समानत्ता अयम्पि पाठो न सक्का पटिबाहितुन्ति तस्सेवत्थो वुत्तो। "इती"ति यथावुत्तं बुद्धवचनं निदस्सेत्वा "इद"न्ति तं परामसति । इति-सद्दो वा इदमत्थे, इदन्ति वचनसिलिट्ठतामत्तं, इति इदन्ति वा परियायद्वयं इदमत्थेयेव वत्तति “इदानेतरहि विज्जती''तिआदीसु विय । एस नयो ईदिसेसु । ब्रह्मजालादीनि चतुत्तिंस सुत्तानि सङ्गय्हन्ति एत्थ, एतेन वा, तेसं वा सङ्गहो गणना एतस्साति ब्रह्मजालादिचतुत्तिंससुत्तसङ्गहो। एवमितरेसुपि । हेट्ठा वुत्तेसु दीघभाणकमज्झिमभाणकानं वादेसु मज्झिमभाणकान व वादस्स युत्ततरत्ता खुद्दकपाठादयोपि सुत्तन्तपिटकेयेव सङ्गहेत्वा दस्सेन्तो "खुद्दक...पे०... सुत्तन्तपिटकं नामा"ति आह । तत्थ “सुणाथ भावितत्तानं, गाथा अत्थूपनायिकाति (थेर० गा० निदानगाथा) वुत्तत्ता “थेरगाथा थेरीगाथा''ति च पाठो युत्तो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
एवं सरूपतो पिटकत्तयं नियमेत्वा इदानि निब्बचनं दस्सेतुं " तत्था " तिआदि वृत्तं । तत्थाति तेसु तिब्बिधेसु पिटकेसु । विविधविसेसनयत्ताति विविधनयत्ता, विसेसनयत्ता च । विनयनतोति विनयनभावतो, भावप्पधाननिद्देसोयं, भावलोपो वा, इतरथा दब्बमेव पधानं सिया, तथा च सति विनयनतागुणसमङ्गिना विनयदब्बेनेव हेतुभूतेन विनयोति अक्खातो, न पन विनयनतागुणेनाति अनधिप्पेतत्थप्पसङ्गो भवेय्य । अयं नयो एदिसेसु । विनीयते वा विनयनं, ततोति अत्थो । अयं विनयोति अत्थपञ्ञत्तिभूतो सञ्जीसङ्घातो अयं तन्ति विनयो । विनयोति अक्खातोति सद्दपञ्ञत्तिभूतो सञ्ञसङ्घातो विनयो नामाति कथितो । अत्थपञ्ञत्तिया हि नामपञ्ञत्तिविभावनं निब्बचनन्ति ।
इदानि इमिस्सा गाथाय अत्थं विभावेन्तो आह " विविधा ही " ति आदि । “विविध एत्थ नया, तस्मा विविधनयत्ता विनयोति अक्खातो' 'तिआदिना योजेतब्बं । विविधत्तं सरूपतो दस्सेति " पञ्चविधा "तिआदिना, तथा विसेसत्तम्पि " दळ्हीकम्मा" ति आदिना । लोकवज्जेसु सिक्खापदेसु दळ्हीकम्मपयोजना, पण्णत्तिवज्जेसु सिथिलकरणपयोजना । सञ्ञमवेलं अभिभवित्वा पवत्तो आचारो अज्झाचारो, वीतिक्कमो, काये, वाचाय च पवत्तो सो, तस्स निसेधनं तथा तेन तथानिसेधनमेव परियायेन कायवाचाविनयनं नामाति दस्सेति । " तस्मा "ति वत्वा तस्सानेकधा परामसनमाह “ विविधनयत्ता'' तिआदि । यथावुत्ता च गाथा ईदिसस्स निब्बचनस्स पकासनत्थं वुत्ताति दस्सेतुं " तेना "तिआदि वृत्तं । तेनाति विविधनयत्तादिहेतुना करणभूतेनाति वदन्ति । अपिच “विविधा ही तिआदिवाक्यस्स यथावुत्तस्स गुणं दस्सेन्तो " तेना" तिआदिमाहातिपि सम्बन्धं वदन्ति । एवं सति तेनाति विविधनयत्तादिना हेतुभूतेनाति अत्थो । अथ वा यथावुत्तवचनमेव सन्धाय पोराणेहि अयं गाथा वृत्ताति संसदेतुं " तेना" तिआदि वृत्तन्तिपि वदन्ति, दुतियनये विय " तेनाति पदस्स अत्थो । एतन्ति गाथावचनं । एतस्साति विनयसद्दस्स, “वचनत्था ''ति पदेन सम्बन्धो । " वचनस्स अत्थो "ति हि सम्बन्धे वुत्तेपि तस्स वचनसामञ्ञतो विसेसं दस्सेतुं " एतस्ता "ति पुन वृत्तं । नेरुत्तिका पन समासतद्धितेसु सिद्धे सामञ्ञत्ता, नामसद्दत्ता च एदिसेसु सद्दन्तरेन विसेसितभावं इच्छन्ति ।
“ अत्थान "न्ति पदं “ सूचनतो... पे०... सुत्ताणा "ति पदेहि यथारहं कम्मसम्बन्धवसेन योजेतब्बं । तमत्थं विवरति “तही "ति आदिना । अत्तत्थपरत्थादिभेदे अत्थेति यो तं सुत्तं सज्झायति, सुणाति, वाचेति, चिन्तेति, देसेति च सुत्तेन सङ्गहितो सीलादिअत्थो तस्सपि होति, तेन परस्स साधेतब्बतो परस्सपीति तदुभयं तं सुतं सूचेति दीपेति, तथा
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
दिट्ठधम्मिकसम्परायिकत्थे लोकियलोकुत्तरत्थे चाति एवमादिभेदे अत्थे आदि-सद्देन सङ्गण्हाति । अत्थसदो चायं हितपरियायो, न भासितत्थवचनो । यदि सिया, सुत्तं अत्तनोपि भासितत्थं सूचेति, परस्सपीति अयमनधिप्पेतत्थो वुत्तो सिया । सुत्तेन हि यो अत्थो पकासितो, सो तस्सेव पकासकस्स सुत्तस्स होति, तस्मा न तेन परत्थो सूचितो, तेन सूचेतब्बस्स परत्थस्स निवत्तेतब्बस्स अभावा अत्तत्थग्गहणञ्च न कत्तब्बं । अत्तत्थपरत्थविनिमुत्तस्स भासितत्थस्स अभावा आदिग्गहणञ्च न कत्तब्, तस्मा यथावुत्तस्स हितपरियायस्स अत्थस्स सुत्ते असम्भवतो सुत्ताधारस्स पुग्गलस्स वसेन अत्तत्थपरत्था वुत्ता।
अथ वा सुत्तं अनपेक्खित्वा ये अत्तत्थादयो अत्थप्पभेदा “न ह'ञदत्थ स्थि पसंसलाभा'"ति एतस्स पदस्स निद्देसे (पहा० नि० ६३) वुत्ता “अत्तत्थो, परत्थो, उभयत्थो, दिट्ठधम्मिको अत्थो, सम्परायिको अत्थो, उत्तानो अत्थो, गम्भीरो अत्थो, गूळ्हो अत्थो, पटिच्छन्नो अत्थो, नेय्यो अत्थो, नीतो अत्थो, अनवज्जो अत्थो, निक्किलेसो अत्थो, वोदानो अत्थो, परमत्थो"ति, (महा० नि० ६३) ते अत्थप्पभेदे सूचेतीति अत्थो गहेतब्बो । किञ्चापि हि सुत्तनिरपेक्खं अत्तत्थादयो वुत्ता सुत्तत्थभावेन अनिद्दिद्वत्ता, तेसु पन एकोपि अत्थप्पभेदो सुत्तेन दीपेतब्बतं नातिवत्ततीति । इमस्मिञ्च अत्थविकप्पे अत्थसद्दो भासितत्थपरियायोपि होति । एत्थ हि पुरिमका पञ्च अत्थप्पभेदा हितपरियाया, ततो परे छ भासितत्थप्पभेदा, पच्छिमका चत्तारो उभयसभावा । तत्थ सुविओय्यताय विभावेन अनगाधभावो उत्तानो। दुरधिगमताय विभावेन अगाधभावो गम्भीरो। अविवटो गूळ्हो। मूलुदकादयो विय पंसुना अक्खरसन्निवेसादिना तिरोहितो पटिच्छन्नो। निद्धारेत्वा आपेतब्बो नेय्यो। यथारुतवसेन वेदितब्बो नीतो। अनवज्जनिक्किलेसवोदाना परियायवसेन वुत्ता, कुसलविपाककिरियाधम्मवसेन वा यथाक्कमं योजेतब्बा। परमत्थो निब्बानं, धम्मानं अविपरीतसभावो एव वा ।
अथ वा “अत्तना च अप्पिच्छो होती"ति अत्तत्थं, “अप्पिच्छकथञ्च परेसं कत्ता होती"ति परत्थं सूचेति । एवं “अत्तना च पाणातिपाता पटिविरतो होति, परञ्च पाणातिपाता वेरमणिया समादपेती''तिआदिसुत्तानि (अ० नि० १.४.९९, २६५) योजेतब्बानि । अपरे पन “यथासभावं भासितं अत्तत्थं, पूरणकस्सपादीनमञतित्थियानं समयभूतं परत्थं सूचेति, सुत्तेन वा सङ्गहितं अत्तत्थं, सुत्तानुलोमभूतं परत्थं, सुत्तन्तनयभूतं वा अत्तत्थं, विनयाभिधम्मनयभूतं परत्थं सूचेती"तिपि वदन्ति । विनयाभिधम्मेहि च विसेसेत्वा सुत्तसद्दस्स अत्थो वत्तब्बो, तस्मा वेनेय्यज्झासयवसप्पवत्ताय देसनाय सातिसयं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अत्तहितपरहितादीनि पकासितानि होन्ति तप्पधानभावतो, न पन आणाधम्मसभाववसप्पवत्तायाति इदमेव " अत्थानं सूचनतो सुत्तन्ति वृत्तं । सूच- सद्दस्स चेत्थ रस्सो । " एवञ्च कत्वा एत्तकं तस्स भगवतो सुत्तागतं सुत्तपरियापन्नन्ति (पाचि० ६५५, १२४२) च सकवादे पञ्च सुत्तसतानी 'ति (अट्ठ० सा० निदानकथा, कथा० व० अट्ठ० निदानकथा) च एवमादीसु सुत्तसद्दो उपचरितोति गहेतब्बो 'ति ( सारत्थ टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) आचरियसारिपुत्तत्थेरेन वुत्तं । अञ्ञे पन यथावुत्तसदिसेनेव निब्बचनेन सुत्तसद्दस्स विनयाभिधम्मानम्पि वाचकत्तं वदन्ति ।
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सुत्ते च आणाधम्मसभावो वेनेय्यज्झासयमनुवत्तति, न विनयाभिधम्मेसु विय यज्झायो आणाधम्मसभावे, तस्मा वेनेय्यानं एकन्तहितपटिलाभसंवत्तनिका सुत्तन्तदेसनाति आह “सुबुत्ता चेत्थ अत्था "तिआदि । " एकन्तहितपटिलाभसंवत्तनिका सुत्तन्तदेसना' ति इदम्पि वेनेय्यानं हितसम्पादने सुत्तन्तदेसनाय तप्परभावमेव सन्धाय वृत्तं । तप्परभावो च वेनेय्यज्झासयानुलोमतो दट्ठब्बो । तेनेवाह “ वेनेय्यज्झासयानुलोमेन वुत्तत्ता'ति । एतेन च हेतुना ननु विनयाभिधम्मापि सुवुत्ता, अथ कस्मा इदमेव एवं वुत्तन्ति अनुयोगं परिहरति ।
अनुपुब्बसिक्खादिवसेन कालन्तरेन अत्थाभिनिप्फत्तिं दस्सेतुं “सस्समिव फल "न्ति वृत्तं । इदं वृत्तं होति - यथा सस्सं नाम वपनरोपनादिक्खणेयेव फलं न पसवति, अनुपुब्बजग्गनादिवसेन कालन्तरेनेव पसवति, तथा इदम्पि सवनधारणादिक्खणेयेव अत्थे न पसवति, अनुपुब्बसिक्खादिवसेन कालन्तरेनेव पसवतीति । पसवतीति च फलति, अभिनिप्फादेतीति अत्थो । अभिनिप्फादनमेव हि फलनं । उपायसमङ्गीनञ्ञेव अत्थाभिनिष्फत्तिं दस्सेन्तो " धेनु विय खीर "न्ति आह । अयमेत्थ अधिप्पायो - यथा धेनु नाम का जातवच्छा थनं गत्वा दुहतं उपायवन्तानमेव खीरं पग्घरापेति, न अकाले अजातवच्छा। कालेपि वा विसाणादिकं गत्वा दुहतं अनुपायवन्तानं, तथा इदम्पि निस्सरणादिना सवनधारणादीनि कुरुतं उपायवन्तानमेव सीलादिअत्थे पग्घरापेति, न अलगद्दूपमाय सवनधारणादीनि कुरुतं अनुपायवन्तानन्ति । यदिपि “सूदती 'ति तस्स घरति सिञ्चतीति अत्थो, तथापि सकम्मिकधातुत्ता पग्घरापेतीति कारितवसेन अत्थोत्तो यथा “तरती 'ति एतस्स निपातेतीति अत्थो 'ति । " सुत्ताणा" ति एतस्स अत्थमाह “सुड्डु च ने तायती 'ति । नेति अत्थे ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
सुत्तसभागन्ति सुत्तसदिसं । तब्भावं दस्सेति “यथा ही "तिआदिना । तच्छकानं सुत्तन्ति वड्डुकीनं काळसुत्तं । पमाणं होति तदनुसारेन तच्छनतो । इदं वुत्तं होति - यथा काळसुत् पसारेत्वा सञ्ञणे कते गहेतब्बं, विस्सज्जेतब्बञ्च पञ्ञायति, तस्मा तं तच्छकानं पमाणं होति, एवं विवादेसु उप्पन्नेसु सुत्ते आनीतमत्ते " इदं गहेतब्बं, इदं विस्सज्जेतब्ब"न्ति पाकटत्ता विवादो वूपसम्मति, तस्मा एतं विञ्जूनं पमाणन्ति । इदानि अञ्ञथापि सुत्तसभागतं विभावेन्तो " यथा चा" तिआदिमाह । सुत्तेनाति पुप्फावुतेन येन केनचि थिरसुत्तेन । सङ्गहितानीति सुट्टु, समं वा गहितानि, आवुतानीति अत्थो । न विकिरियन्तीति इतो चितो च विप्पकिण्णाभावमाह, न विद्धंसीयन्तीति छेज्जभेज्जाभावं । अयमेत्थाधिप्पायो यथा थिरसुत्तेन सङ्ग्रहितानि पुप्फानि वातेन न विकिरियन्ति न विद्धंसीयन्ति, एवं सुत्न सङ्गह अत्था मिच्छावादेन न विकिरियन्ति न विद्धंसीयन्तीति । वेनेय्यज्झासयवसप्पवत्ताय च देसनाय अत्तत्थपरत्थादीनं सातिसयप्पकासनतो आणाधम्मसभावेहि विनयाभिधम्मेहि विसेसेत्वा इमस्सेव सुत्तसभागता वुत्ता " तेना "तिआदीसु वृत्तनयानुसारेन सम्बन्धी चेव अत्थो च यथारहं वत्तब्बो । एत्थ च " सुत्तन्तपिटक "न्ति हेट्ठा वुत्तेपि अन्तसद्दस्स अवचनं तस्स विसुं अत्थाभावदस्सनत्थं तब्भाववृत्तितो । सहयोगस्स हि सद्दस्स अवचनेन सेसता तस्स तुल्याधिकरणतं, अनत्थकतं वा आपेति ।
यन्ति एस निपातो कारणे, येनाति अत्थो । एत्थ अभिधम्मे वुढिमन्तो धम्मा येन वुत्ता, तेन अभिधम्मो नाम अक्खातोति पच्चेकं योजेतब्बं । अभि-सद्दस्स अत्थवसेनायं पभेदोति तस्स तदत्थप्पवत्ततादस्सनेन तमत्थं साधेन्तो " अयही " ति आदिमाह । अभि- सद्दो कमनकिरियाय वुड्विभावसङ्घातमतिरेकत्थं दीपेतीति वुत्तं “अभिक्कमन्तीतिआदीसु वुड्डियं आगतो 'ति । अभिज्ञाताति अड्डचन्दादिना केनचि सञ्ञाणेन आता, पञ्ञाता पाकटाति वृत्तं होति । अड्डचन्दादिभावो हि रत्तिया उपलक्खणवसेन पञ्ञाणं होति " यस्मा अड्डो, तस्मा अट्ठमी । यस्मा ऊनो, तस्मा चातुद्दसी । यस्मा पुण्णो, तस्मा पन्नरसी 'ति । अभिलक्खिताति एत्थापि अयमेवत्थो वेदितब्बो, इदं पन मूलपण्णासके भयभेरवसुत्ते (म० नि० १.३४) अभिलक्खितसद्दपरियायो अभिञातसद्दोति आह " अभिञाता अभिलक्खिताति आदीसु लक्खणे "ति । यज्जेवं लक्खितसद्दस्सेव लक्खणत्थदीपनतो अभि- सद्दो अनत्थकोव सियाति ? नेवं दट्ठब्बं तस्सापि तदत्थजोतनतो । वाचकसद्दसन्निधाने हि उपसग्गनिपाता तदत्थजोतकमत्ताति लक्खितसद्देन वाचकभावेन पकासितस्स लक्खणत्थस्सेव जोतकभावेन पकासनतो अभि- सद्दोपि लक्खणे पवत्ततीति वुत्तोति दट्ठब्बं । राजाभिराजाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
परेहि राजूहि पूजितुमरहो राजा । पूजितेति पूजारहे । इदं पन सुत्तनिपाते सेलसुते ( सु० नि० ५५३ आदयो) ।
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अभिधम्मेति " सुपिनन्तेन
सुक्कविसट्ठिया अनापत्तिभावेपि अकुसलचेतना उपलब्भती "तिआदिना ( सारत्थ टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) विनयपञ्ञत्तिया सङ्करविरहिते धम्मे । पुब्बापरविरोधाभावेन यथावुत्तधम्मानमेव अञ्ञमञ्ञसङ्करविरहतो अञ्ञमञ्ञसङ्करविरहिते धम्मेतिपि वदन्ति । "पाणातिपातो अकुसल "न्ति (म० नि० २.१९२) एवमादीसु वा मरणाधिप्पायस्स जीवितिन्द्रियुपच्छेदकपयोगसमुट्ठापिका चेतना अकुसलो, न पाणसङ्घातजीवितिन्द्रियस्स उपच्छेदसङ्घातो अतिपातो । तथा "अदिन्नस्स परसन्तकस्स आदानसङ्घाता विञ्ञत्ति अब्याकतो धम्मो, तंविञ्ञत्तिसमुट्ठापिका थेय्यचेतना अकुसलो धम्मो "ति एवमादिनापि अञ्ञमञ्ञसङ्करविरहिते धम्मेति अत्थो वेदितब्बो । अभिविनयेति एत्थ पन " जातरूपरजतं न पटिग्गहेतब्बन्ति वदन्तो विनये विनेति नाम । एत्थ च “एवं पटिग्गण्हतो पाचित्तियं, एवं पन दुक्कट' "न्ति वदन्तो अभिविनये विि नामाति वदन्ति । तस्मा जातरूपरजतं परसन्तकं थेय्यचित्तेन गण्हन्तस्स यथावत्युं पाराजिकथुल्लच्चयदुक्कटेसु अञ्ञतरं, भण्डागारिकसीसेन गण्हन्तस्स पाचित्तियं, अत्तनो अत्थाय गण्हन्तस्स निस्सग्गियं पाचित्तियं, केवलं लोलताय गण्हन्तस्स अनामासदुक्कटं, रूपियछड्डुकसम्मतस्स अनापत्तीति एवं अञ्ञमञ्ञसङ्करविरहिते विनयेपि पटिबलो विनेतुन्ति अत्थो दट्ठब्बी । एवं पन परिच्छिन्नतं सरूपतो सङ्क्षेपेनेव दस्सेन्तो “ अञ्ञमञ्ञ... पे०... होती "ति आह ।
अभिक्कन्तेनाति एत्थ कन्तिया अधिकत्तं अभि- सद्दो दीपेतीति वुत्तं " अधिके "ति । ननु च “अभिक्कमन्ती 'ति एत्थ अभि- सद्दो कमनकिरियाय वुड्ढिभावं अतिरेकत्तं दीपेति, " अभिञ्ञाता अभिलक्खिता "ति एत्थ आणलक्खणकिरियानं सुपाकटतं विसेसं, " अभिक्कन्तेना "ति एत्थ कन्तिया अधिकत्तं विसिट्टभावं दीपेतीति इदं ताव युत्तं किरियाविसेसकत्ता उपसग्गस्स । " पादयो किरियायोगे उपसग्गा' 'ति हि सद्दसत्थे वृत्तं । “अभिराजा, अभिविनये" ति पन पूजितपरिच्छिन्नेसु राजविनयेसु अभि-सद्दो वत्ततीति कथमेतं युज्जेय्य । न हि असत्ववाची सद्दी सत्ववाचको सम्भवतीति ? नत्थि अत्र दोसो पूजनपरिच्छेदनकिरियानम्पि दीपनतो, ताहि च किरियाहि यत्तेसु राजविनयेसुपि पवत्तत्ता । अभिपूजितो राजाति हि अत्थेन किरियाकारकसम्बन्धं निमित्तं कत्वा कम्मसाधनभूतं राजदब्बं अभि-सद्द पधानतो वदति, पूजनकिरियं पन अप्पधानतो । तथा अभिपरिच्छिन्नो
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
विनयोति अत्थेन किरियाकारकसम्बन्धं निमित्तं कत्वा कम्मसाधनभूतं विनयदब्बं अभि-सद्दो पधानतो वदति, परिच्छिन्दनकिरियं पन अप्पधानतो । तस्मा अतिमालादीसु अति-सद्दो विय अभि-सद्दो एत्थ सह साधनेन किरियं वदतीति अभिराजअभिविनयसद्दा सोपसग्गाव सिद्धा। एवं अभिधम्मसद्देपि अभिसद्दो सह साधनेन वुड्डियादिकिरियं वदतीति अयमत्थो दस्सितोति वेदितब्बं ।
होतु अभि-सद्दो यथावुत्तेसु अत्थेसु, तप्पयोगेन पन धम्मसद्देन दीपिता वुड्डिमन्तादयो धम्मा एत्थ वुत्ता न भवेय्युं, कथं अयमत्थो युज्जेय्याति अनुयोगे सति तं परिहरन्तो "एत्थ चा"तिआदिमाह । तत्थ एत्थाति एतस्मिं अभिधम्मे । उपन्यासे च-सहो । भावेतीति चित्तस्स वड्डनं वुत्तं, फरित्वाति आरम्मणस्स वड्डनं, तस्मा ताहि भावनाफरणवुड्डीहि वुड्डिमन्तोपि धम्मा वुत्ताति अत्थो । आरम्मणादीहीति आरम्मणसम्पयुत्तकम्मद्वारपटिपदादीहि । एकन्ततो लोकुत्तरधम्मान व पूजारहत्ता "सेक्खा धम्मा"तिआदिना तेयेव पूजिताति दस्सिता । “पूजारहा"ति एतेन कत्तादिसाधनं, अतीतादिकालं, सक्कुणेय्यत्थं वा निवत्तेति । पूजितब्बायेव हि धम्मा कालविसेसनियमरहिता पूजारहा एत्थ वुत्ताति अधिप्पायो दस्सितो । सभावपरिच्छिन्नत्ताति फुसनादिसभावेन परिच्छिन्नत्ता। कामावचरेहि महन्तभावतो महग्गता धम्मा अधिका, ततोपि उत्तरविरहतो अनुत्तरा धम्माति दस्सेति “महग्गता"तिआदिना । तेनाति “वुड्डिमन्तो"तिआदिना वचनेन करणभूतेन, हेतुभूतेन वा ।
यं पनेत्थाति एतेसु विनयादीसु तीसु अञमञविसिट्टेसु यं अविसिटुं समानं, तं पिटकन्ति अत्थो। विनयादयो हि तयो सद्दा अझमञासाधारणत्ता विसिट्ठा नाम, पिटकसद्दो पन तेहि तीहिपि साधारणत्ता “अविसिट्ठो"ति वुच्चति । परियत्तिन्भाजनत्थतोति परियापुणितब्बत्थपतिट्ठानत्थेहि करणभूतेहि, विसेसनभूतेहि वा । अपिच परियत्तिब्भाजनत्थतो परियत्तिभाजनत्थन्ति आहूति अत्थो दट्टब्बो। पच्चत्तत्थे हि तो-सद्दो इति-सद्देन निद्दिसितब्बत्ता । इतिना निद्दिसितब्बे हि तो- सद्दमिच्छन्ति नेरुत्तिका यथा “अनिच्चतो दुक्खतो अनत्ततो विपस्सन्तीति (पट्ठ० १.१.४०६, ४०८, ४११) एतेन परियापुणितब्बतो, तंतदत्थानं भाजनतो च पिटकं नामाति दस्सेति । अनिष्फन्नपाटिपदिकपदहेतं । सद्दविदू पन “पिट सद्दसङ्घाटेसूति वत्वा इध वुत्तमेव पयोगमुदाहरन्ति, तस्मा तेसं मतेन पिटीयति सद्दीयति परियापुणीयतीति पिटकं, पिटीयति वा सङ्घाटीयति तंतदत्थो एत्थाति पिटकन्ति निब्बचनं कातब्बं । "तेना"तिआदिना समासं दस्सेति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
मा पिटकसम्पदानेनाति कालामसुत्ते, (अ० नि० १.३.६६) साळहसुत्ते (अ० नि० १.३.६७) च आगतं पाळिमाह । तदट्ठकथायञ्च “अम्हाकं पिटकतन्तिया सद्धिं समेतीति मा गण्हित्था''ति (अ० नि० अट्ठ० २.३.६६) अत्थो वुत्तो। आचरियसारिपुत्तत्थेरेन पन “पाळिसम्पदानवसेन मा गण्हथा''ति (सारत्थ टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वुत्तं । कुदालपिटकमादायाति कुदालञ्च पिटकञ्च आदाय । कु वुच्चति पथवी, तस्सा दालनतो विदालनतो अयोमयउपकरणविसेसो कुदालं नाम । तेसं तेसं वत्थूनं भाजनभावतो तालपण्णवेत्तलतादीहि कतो भाजनविसेसो पिटकं नाम । इदं पन मूलपण्णासके ककचूपमसुत्ते (म० नि० १.२२७)।
"तेन...पे०... ञय्या'"ति गाथापदं उल्लिङ्गत्वा "तेना"तिआदिना विवरति । सब्बादीहि सब्बनामेहि वुत्तस्स वा लिङ्गमादियते, वुच्चमानस्स वा, इध पन वत्तिच्छाय वुत्तस्सेवाति कत्वा “विनयो च सो पिटकञ्चा"ति वुत्तं । “यथावुत्तेनेव नयेना"ति इमिना “एवं दुविधत्थेन...पे०... कत्वा''ति च “परियत्तिभावतो, तस्स तस्स अत्थस्स भाजनतो चा"ति च वुत्तं सब्बमतिदिसति । तयोपीति एत्थ अपिसद्दो, पि-सद्दो वा अवयवसम्पिण्डनत्थो । “अपी"ति अवत्वा “पी"ति वदन्तो हि अपि-सद्दो विय पि-सद्दोपि विसुं निपातो अत्थीति दस्सेति ।
कथेतब्बानं अत्थानं देसकायत्तेन आणादिविधिना अतिसज्जनं पबोधनं देसना। सासितब्बपुग्गलगतेन यथापराधादिसासितब्बभावेन अनुसासनं विनयनं सासनं। कथेतब्बस्स संवरासंवरादिनो अत्थस्स कथनं वचनपटिबद्धताकरणं कथा, इदं वुत्तं होति- देसितारं भगवन्तमपेक्खित्वा देसना, सासितब्बपुग्गलवसेन सासनं, कथेतब्बस्स अत्थस्स वसेन कथाति एवमिमेसं नानाकरणं वेदितब्बन्ति । एस्थ च किञ्चापि देसनादयो देसेतब्बादिनिरपेक्खा न होन्ति, आणादयो पन विसेसतो देसकादिअधीनाति तं तं विसेसयोगवसेन देसनादीनं भेदो वुत्तो। यथा हि आणाविधानं विसेसतो आणारहाधीनं तत्थ कोसल्लयोगतो, एवं वोहारपरमत्थविधानानि च विधायकाधीनानीति आणादिविधिनो देसकायत्तता वुत्ता । अपराधज्झासयानुरूपं विय च धम्मानुरूपम्पि सासनं विसेसतो, तथा विनेतब्बपुग्गलापेक्खन्ति सासितब्बपुग्गलवसेन सासनं वुत्तं । संवरासंवरनामरूपानं विय च विनिब्बेठेतब्बाय दिट्ठिया कथनं सति वाचावत्थुस्मिं, नासतीति विसेसतो तदधीनं, तस्मा कथेतब्बस्स अत्थस्स वसेन कथा वुत्ता । होन्ति चेत्थ -
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
"देसकस्स वसेनेत्थ, देसना पिटकत्तयं । सासितब्बवसेनेतं, सासनन्ति पवुच्चति ।।
कथेतब्बस्स अत्थस्स, वसेनापि कथाति च | देसनासासनकथा-भेदम्पेवं पकासये"ति ।।
पदत्तयम्पेतं समोधानेत्वा तासं भेदोति कत्वा भेदसद्दो विसुं विसुं योजेतब्बो द्वन्दपदतो परं सुय्यमानत्ता “देसनाभेदं, सासनभेदं, कथाभेदञ्च यथारहं परिदीपये"ति । भेदन्ति च नानत्तं, विसेसं वा। तेसु पिटकेसु । सिक्खा च पहानञ्च गम्भीरभावो च, तञ्च यथारहं परिदीपये।
__ दुतियगाथाय परियत्तिभेदं परियापुणनस्स पकारं, विसेसञ्च विभावये। यहिं विनयादिके पिटके। यं सम्पत्तिं, विपत्तिञ्च यथा भिक्खु पापुणाति, तथा तम्पि सब्बं तहिं विभावयेति सम्बन्धो । अथ वा यं परियत्तिभेदं सम्पत्ति, विपत्तिञ्च यहिं यथा भिक्खु पापुणाति, तथा तम्पि सब् तहिं विभावयेति योजेतब्बं । यथाति च येहि उपारम्भादिहेतुपरियापुणनादिप्पकारेहि, उपारम्भनिस्सरणधम्मकोसरक्खणहेतुपरियापुणनं सुप्पटिपत्तिदुप्पटिपत्तीति एतेहि पकारेहीति वुत्तं होति । सन्तेसुपि च अजेसु तथा पापुणन्तेसु जेट्ठसेट्ठासन्नसदासन्निहितभावतो, यथानुसिटुं सम्मापटिपज्जनेन धम्माधिठ्ठानभावतो च भिक्खूति वुत्तं ।
तत्राति तासु गाथासु । अयन्ति अधुना वक्खमाना कथा । परिदीपनाति समन्ततो पकासना, किञ्चिमत्तम्पि असेसेत्वा विभजनाति वुत्तं होति । विभावनाति एवं परिदीपनायपि सति गूळ्हं पटिच्छन्नमकत्वा सोतूनं सुविज्ञेय्यभावेन आविभावना । सङ्केपेन परिदीपना, वित्थारेन विभावनातिपि वदन्ति । अपिच एतं पदद्वयं हेट्ठा वृत्तानुरूपतो कथितं, अत्थतो पन एकमेव । तस्मा परिदीपना पठमगाथाय, विभावना दुतियगाथायाति योजेतब्बं । च-सद्देन उभयत्थं अञमङ समुच्चेति । कस्मा, वुच्चन्तीति आह "एत्थ ही"तिआदि । हीति कारणे निपातो “अक्खरविपत्तियं ही"तिआदीसु विय। यस्मा, कस्माति वा अत्थो । आणं पणेतुं [ठपेतुं (सारत्थ टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना)] अरहतीति आणारहो, सम्मासम्बुद्धत्ता, महाकारुणिकताय च अविपरीतहितोपदेसकभावेन पमाणवचनत्ता आणारहेन भगवताति अत्थो। वोहारपरमत्थधम्मानम्पि तत्थ सब्भावतो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
“आणाबाहुल्लतो"ति वुत्तं, तेन येभुय्यनयं दस्सेति । इतो परेसुपि एसेव नयो । विसेसेन सत्तानं मनं अवहरतीति वोहारो, पञत्ति, तस्मिं कुसलो, तेन ।
पचुरो बहुलो अपराधो दोसो वीतिक्कमो येसं ते पचुरापराधा, सेय्यसकत्थेरादयो । यथापराधन्ति दोसानुरूपं । “अनेकज्झासया"तिआदीसु आसयोव अज्झासयो, सो अत्थतो दिट्ठि, आणञ्च, पभेदतो पन चतुब्बिधो होति । वुत्तञ्च -
“सस्सतुच्छेददिट्ठी च, खन्ति चेवानुलोमिका । यथाभूतञ्च यं आणं, एतं आसयसद्दित''न्ति ।।
तत्थ सब्बदिट्ठीनं सस्सतुच्छेददिट्ठीहि सङ्गहितत्ता सब्बेपि दिविगतिका सत्ता इमा एव द्वे दिट्ठियो सन्निस्सिता । यथाह "द्वयनिस्सितो खो पनायं कच्चान लोको येभुय्येन अत्थितञ्च नत्थितञ्चा''ति, (सं० नि० १.२.१५) अत्थिताति हि सस्सतग्गाहो अधिप्पेतो, नत्थिताति उच्छेदग्गाहो । अयं ताव वट्टनिस्सितानं पुथुज्जनानं आसयो। विवट्टनिस्सितानं पन सुद्धसत्तानं अनुलोमिका खन्ति, यथाभूतञाणन्ति दुविधो आसयो । तत्थ च अनुलोमिका खन्ति विपस्सनाजाणं । यथाभूतज्ञाणं पन कम्मसकताजाणं | चतुब्बिधो पेसो आसयन्ति सत्ता एत्थ निवसन्ति, चित्तं वा आगम्म सेति एत्थाति आसयो मिगासयो विय । यथा मिगो गोचराय गन्त्वापि पच्चागन्त्वा तत्थेव वनगहने सयतीति तं तस्स "आसयो''ति वुच्चति, तथा चित्तं अञथापि पवत्तित्वा यत्थ पच्चागम्म सेति, तस्स सो "आसयो''ति । कामरागादयो सत्त अनुसया। मूसिकविसं विय कारणलाभे उप्पज्जमानारहा अनागता, अतीता, पच्चुप्पन्ना च तंसभावत्ता तथा वुच्चन्ति । न हि धम्मानं कालभेदेन सभावभेदोति । चरियाति रागचरियादिका छ मूलचरिया, अन्तरभेदेन अनेकविधा, संसग्गवसेन पन तेसट्टि होन्ति । अथ वा चरियाति सुचरितदुच्चरितवसेन दुविधं चरितं । तहि विभङ्गे चरितनिद्देसे निद्दिष्टुं ।
"अधिमुत्ति नाम 'अज्जेव पब्बजिस्सामि, अज्जेव अरहत्तं गण्हिस्सामी'तिआदिना तन्निन्नभावेन पवत्तमानं सन्निट्ठान"न्ति (सारत्थ टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) गण्ठिपदेसु वुत्तं । आचरियधम्मपालत्थरेन पन “अधिमुत्ति नाम सत्तानं पुब्बचरियवसेन अभिरुचि, सा दुविधा हीनपणीतभेदेना'ति (दी० नि० टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वुत्तं । तथा हि याय हीनाधिमुत्तिका सत्ता हीनाधिमुत्तिकेयेव सत्ते सेवन्ति, पणीताधिमुत्तिका
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
पणीताधिमुत्तिकेयेव । सचे हि आचरियुपज्झाया सीलवन्तो न होन्ति, सद्धिविहारिका सीलवन्तो, ते अत्तनो आचरियुपज्झायेपि न उपसङ्कमन्ति, अत्तना सदिसे सारुप्पभिक्खूयेव उपसङ्कमन्ति । सचे आचरियुपज्झाया सारुप्पभिक्खू, इतरे असारुप्पा, तेपि न आचरियुपज्झाये उपसङ्कमन्ति, अत्तना सदिसे असारुप्पभिक्खूयेव उपसङ्कमन्ति । धातुसंयुत्तवसेन (सं० नि० १.२.८५ आदयो) चेस अत्थो दीपेतब्बो । एवमयं हीनाधिमुत्तिकादीनं अञ्जमझो पसेवनादिनियमिता अभिरुचि अज्झासयधातु “अधिमुत्ती"ति वेदितब्बा। अनेका अज्झासयादयो ते येसं अत्थि, अनेका वा अज्झासयादयो येसन्ति तथा यथा “बहुकत्तुको, बहुनदिको'ति । यथानुलोमन्ति अज्झासयादीनं अनुलोमं अनतिक्कम्म, ये ये वा अज्झासयादयो अनुलोमा, तेहि तेहीति अत्थो । आसयादीनं अनुलोमस्स वा अनुरूपन्तिपि वदन्ति । घनविनिब्भोगाभावतो दिट्ठिमानतण्हावसेन “अहं मम सन्तक"न्ति एवं पवत्तसचिनो। यथाधम्मन्ति “नत्थेत्थ अत्ता, अत्तनियं वा, केवलं धम्ममत्तमेवेत"न्ति एवमादिना धम्मसभावानुरूपन्ति अत्थो ।
संवरणं संवरो, कायवाचाहि अवीतिक्कमो । महन्तो संवरो असंवरो। वुड्डिअत्थो हि अयं अ-कारो यथा “असेक्खा धम्मा"ति (ध० स० तिकमातिका २१) तंयोगताय च खुद्दको संवरो पारिसेसादिनयेन संवरो, तस्मा खुद्दको, महन्तो च संवरोति अत्थो । तेनाह "संवरा संवरो"तिआदि । दिद्विविनिवेठनाति दिट्ठिया विमोचनं, अत्थतो पन तस्स उजुविपच्चनिका सम्मादिट्ठिआदयो धम्मा। तथा चाह "द्वासट्ठिदिद्विपटिपक्खभूता"ति । नामस्स, रूपस्स, नामरूपस्स च परिच्छिन्दनं नामरूपपरिच्छेदो, सो पन "रागादिपटिपक्खभूतो"ति वचनतो तथापवत्तमेव जाणं ।
"तीसुपी"तिआदिना अपरड़े विवरति । तीसुपि तासं वचनसम्भवतो "विसेसेना"ति वुत्तं । तदेतं सब्बत्थ योजेतब्बं । तत्र “यायं अधिसीलसिक्खा, अयं इमस्मिं अत्थे अधिप्पेता सिक्खा"ति वचनतो आह "विनयपिटके अधिसीलसिक्खा"ति । सुत्तन्तपाळियं “विविच्चेव कामेही"तिआदिना (दी० नि० १.२२६; सं० नि० १.१५२; अ० नि० १.४.१२३) समाधिदेसनाबाहुल्लतो "सुत्तन्त पिटके अधिचित्तसिक्खा"ति वुत्तं । नामरूपपरिच्छेदस्स अधिपञापदट्ठानतो, अधिपाय च अत्थाय तदवसेसनामरूपधम्मकथनतो आह "अभिधम्मपिटके अधिपसिक्खा"ति ।
किलेसानन्ति संक्लेसधम्मानं, कम्मकिलेसानं
वा, उभयापेक्खञ्चेतं
“यो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
कायवचीद्वारेहि किलेसानं वीतिक्कमो, तस्स पहानं, तस्स पटिपक्खत्ता"ति च । "वीतिक्कमोति अयं “पटिपक्ख''न्ति भावयोगे सम्बन्धो, “सीलस्सा''ति पन भावपच्चये। एवं सब्बत्थ । अनुसयवसेन सन्ताने अनुवत्तन्ता किलेसा कारणलाभे परियुट्टितापि सीलभेदभयवसेन वीतिक्कमितुं न लभन्तीति आह "वीतिक्कमपटिपक्खत्ता सीलस्सा'ति । ओकासादानवसेन किलेसानं चित्ते कुसलप्पवत्तिं परियादियित्वा उट्ठानं परियुट्ठानं, तस्स पहानं, चित्तसन्ताने उप्पत्तिवसेन किलेसानं परियुट्ठानस्स पहानन्ति वुत्तं होति । “किलेसान'"न्ति हि अधिकारो, तं पन परियुट्ठानप्पहानं चित्तसमादहनवसेन भवतीति आह "परियुट्ठानपटिपक्खत्ता समाधिस्सा"ति । अप्पहीनभावेन सन्ताने अनु अनु सयनका अनुरूपकारणलाभे उप्पज्जनारहा थामगता कामरागादयो सत्त किलेसा अनुसया, तेसं पहानं, ते पन सब्बसो अरियमग्गपञ्जाय पहीयन्तीति आह "अनुसयपटिपक्खत्ता पाया"ति ।
दीपालोकेन विय तमस्स दानादिपुञ्जकिरियवत्थुगतेन तेन तेन कुसलङ्गेन तस्स तस्स अकुसलस्स पहानं तदङ्गप्पहानं। इध पन अधिसीलसिक्खाय वुत्तट्ठानत्ता तेन तेन सुसील्यङ्गेन तस्स तस्स दुस्सील्यङ्गस्स पहानं “तदङ्गप्पहान''न्ति गहेतब्बं । उपचारप्पनाभेदेन समाधिना पवत्तिनिवारणेन घटप्पहारेन विय जलतले सेवालस्स तेसं तेसं नीवरणादिधम्मानं विक्खम्भनवसेन पहानं विक्खम्भनप्पहानं। चतुन्नं अरियमग्गानं भावितत्ता तं तं मग्गवतो सन्ताने समुदयपक्खिकस्स किलेसगणस्स अच्चन्तमप्पवत्तिसङ्घात समुच्छिन्दनवसेन पहानं समुच्छेदप्पहानं। दुहु चरितं, संकिलेसेहि वा दूसितं चरितं दुच्चरितं। तदेव यत्थ उप्पन्न, तं सन्तानं सम्मा किलिसति विबाधति, उपतापेति चाति संकिलेसो, तस्स पहानं । कायवचीदुच्चरितवसेन पवत्तसंकिलेसस्स तदङ्गवसेन पहानं वुत्तं सीलस्स दुच्चरितपटिपक्खत्ता। सिक्खत्तयानुसारेन हि अत्थो वेदितब्बो। तसतीति तण्हा, साव वुत्तनयेन संकिलेसो, तस्स विक्खम्भनवसेन पहानं वुत्तं समाधिस्स कामच्छन्दपटिपक्खत्ता । दिहियेव यथावुत्तनयेन संकिलेसो, तस्स समुच्छेदवसेन पहानं वुत्तं पाय अत्तादिविनिमुत्तसभाव धम्मप्पकासनतो ।
एकमेकस्मिञ्चेत्थाति एतेसु तीसु पिटकेसु एकमेकस्मिं पिटके, च सदो वाक्यारम्भे, पक्खन्तरे वा। पि सद्दो, अपि-सद्दो वा अवयवसम्पिण्डने, तेन न केवलं चतुब्बिधस्सेव गम्भीरभावो, अथ खो पच्चेकं तदवयवानम्पीति सम्पिण्डनं करोति । एस नयो ईदिसेसु | इदानि ते सरूपतो दस्सेतुं "तत्था"तिआदि वुत्तं । तत्थ तन्तीति पाळि । सा हि उक्कट्ठानं
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
सीलादिअत्थानं बोधनतो, सभावनिरुत्तिभावतो, बुद्धादीहि भासितत्ता च पकट्ठानं वचनानं आळि पन्तीति "पाळी"ति वुच्चति ।
इध पन विनयगण्ठिपदकारादीनं सद्दवादीनं मतेन पुब्बे ववत्थापिता परमत्थसद्दप्पबन्धभूता तन्ति धम्मो नाम । इति-सदो हि नामत्थे, “धम्मो''ति वा वुच्चति । तस्सायेवाति तस्सा यथावुत्ताय एव तन्तिया अत्थो । मनसा ववत्थापितायाति उग्गहणधारणादिवसप्पवत्तेन मनसा पुब्बे ववत्थापिताय यथावुत्ताय परमत्थसद्दप्पबन्धभूताय तस्सा तन्तिया । देसनाति पच्छा परेसमवबोधनत्थं देसनासङ्खाता परमत्थसद्दप्पबन्धभूता तन्तियेव । अपिच यथावुत्ततन्ति सङ्घातसद्दसमुट्ठापको चित्तुप्पादो देसना। तन्तिया, तन्तिअत्थस्स चाति यथावुत्ताय दुविधायपि तन्तिया, तदत्थस्स च यथाभूतावबोधोति अत्थो वेदितब्बो । ते हि भगवता वुच्चमानस्स अत्थस्स, वोहारस्स च दीपको सद्दोयेव तन्ति नामाति वदन्ति । तेसं पन वादे धम्मस्सापि सद्दसभावत्ता धम्मदेसनानं को विसेसोति चे ? तेसं तेसं अत्थानं बोधकभावेन ज्ञातो, उग्गहणादिवसेन च पुब्बे ववत्थापितो परमत्थसद्दप्पबन्धो धम्मो, पच्छा परेसं अवबोधनत्थं पवत्तितो तं तदत्थप्पकासको सद्दो देसनाति अयमिमेसं विसेसोति । अथ वा यथावुत्तसद्दसमुट्ठापको चित्तुप्पादो देसना देसीयति समुट्ठापीयति सद्दो एतेनाति कत्वा मुसावादादयो विय तत्थापि हि मुसावादादिसमुट्ठापिका चेतना मुसावादादिसद्देहि वोहरीयतीति । किञ्चापि अक्खरावलिभूतो पञत्तिसद्दोयेव अत्थस्स जापको, तथापि मूलकारणभावतो “अक्खरसञ्जातो''तिआदीसु विय तस्सायेव अत्थोति परमत्थसद्दोयेव अत्थस्स आपकभावेन वुत्तोति दट्ठब्बं । “तस्सा तन्तिया देसना''ति च सदिसवोहारेन वुत्तं यथा “उप्पन्ना च कुसलाधम्मा भिय्योभावाय वेपुल्लाय संवत्तन्तीति ।
__ अभिधम्मगण्ठिपदकारादीनं पन पण्णत्तिवादीनं मतेन सम्मुतिपरमत्थभेदस्स अत्थस्स अनुरूपवाचकभावेन परमत्थसद्देसु एकन्तेन भगवता मनसा ववत्थापिता नामपञ्जत्तिपबन्धभूता तन्ति धम्मो नाम, "धम्मोति वा वुच्चति । तस्सायेवाति तस्सा नामपञत्तिभूताय तन्तिया एव अत्थो । मनसा ववत्थापितायाति सम्मुतिपरमत्थभेदस्स अत्थस्सानुरूपवाचकभावेन परमत्थसद्देसु भगवता मनसा ववत्थापिताय नामपण्णत्तिपबन्धभूताय तस्सा तन्तिया। देसनाति परेसं पबोधनेन अतिसज्जना वाचाय पकासना वचीभेदभूता परमत्थसद्दप्पबन्धसङ्खाता तन्ति । तन्तिया, तन्तिअत्थस्स चाति यथावुत्ताय दुबिधायपि तन्तिया, तदत्थस्स च यथाभूतावबोधोति अत्थो । ते हि एवं वदन्ति- सभावस्थस्स, सभाववोहारस्स च अनुरूपवसेनेव भगवता मनसा ववत्थापिता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
पण्णत्ति इध "तन्ती"ति वुच्चति । यदि च सद्दवादीनं मतेन सद्दोयेव इध तन्ति नाम सिया। तन्तिया, देसनाय च नानत्तेन भवितब्, मनसा ववत्थापिताय च तन्तिया वचीभेदकरणमत्तं ठपेत्वा देसनाय नानत्तं नत्थि | तथा हि देसनं दस्सेन्तेन मनसा ववत्थापिताय तन्तिया देसनाति वचीभेदकरणमत्तं विना तन्तिया सह देसनाय अनञता वुत्ता। तथा च उपरि “देसनाति पञत्तीति वुत्तत्ता देसनाय अनञभावेन तन्तियापि पण्णत्तिभावो कथितो होति ।।
अपिच यदि तन्तिया अञ्जायेव देसना सिया, "तन्तिया च तन्तिअत्थस्स च देसनाय च यथाभूतावबोधोति वत्तब्बं सिया। एवं पन अवत्वा "तन्तिया च तन्तिअत्थस्स च यथाभूतावबोधो"ति वुत्तत्ता तन्तिया, देसनाय च अनञभावो दस्सितो होति । एवञ्च कत्वा उपरि “देसना नाम पञत्ती"ति दस्सेन्तेन देसनाय अनञभावतो तन्तिया पण्णत्तिभावो कथितो होतीति । तदुभयम्पि पन परमत्थतो सद्दोयेव परमत्थविनिमुत्ताय सम्मुतिया अभावा, इममेव च नयं गहेत्वा केचि आचरिया “धम्मो च देसना च परमत्थतो सद्दो एवा"ति वोहरन्ति, तेपि अनुपवज्जायेव । यथा कामावचरपटिसन्धिविपाका “परित्तारम्मणा"ति वुच्चन्ति, एवं सम्पदमिदं दट्टब्बं । न हि कामावचरपटिसन्धिविपाका “निब्बत्तितपरमत्थविसयायेवा"ति सक्का वत्तुं इत्थिपुरिसादिआकारपरिवितक्कपुब्बकानं रागादिअकुसलानं, मेत्तादिकुसलानञ्च आरम्मणं गहेत्वापि समुप्पज्जनतो। परमत्थधम्ममूलकत्ता पनस्स परिकप्पस्स परमत्थविसयता सक्का पञपेतुं, एवमिधापि दट्ठब्बन्ति च । एवम्पि पण्णत्तिवादीनं मतं होतु, सद्दवादीनं मतेपि धम्मदेसनानं नानत्तं वुत्तनयेनेव आचरियधम्मपालत्थेरा दीहि पकासितन्ति । होति चेत्थ -
"सदो धम्मो देसना च, इच्चाहु अपरे गरू। धम्मो पण्णत्ति सद्दो तु, देसना वाति चापरे''ति ।।
तीसुपि चेतेसु एते धम्मत्थदेसनापटिवेधाति एत्थ तन्तिअत्थो, तन्तिदेसना, तन्तिअत्थपटिवेधो चाति इमे तयो तन्तिविसया होन्तीति विनयपिटकादीनं अत्थदेसनापटिवेधाधारभावो युत्तो, पिटकानि पन तन्तियेवाति तेसं धम्माधारभावो कथं युज्जेय्याति ? तन्तिसमुदायस्स अवयवतन्तिया आधारभावतो। समुदायो हि अवयवस्स परिकप्पनामत्तसिद्धेन आधारभावेन वुच्चति यथा “रुक्खे साखा"ति । एत्थ च धम्मादीनं दुक्खोगाहभावतो तेहि धम्मादीहि विनयादयो गम्भीराति विनयादीनम्पि चतुब्बिधो
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पठपमहासङ्गीतिकथावण्णना
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गम्भीरभावो वुत्तोयेव, तस्मा धम्मादयो एव दुक्खोगाहत्ता गम्भीरा, न विनयादयोति न चोदेतब्बमेतं समुखेन, विसयविसयीमुखेन च विनयादीनञ्जव गम्भीरभावस्स वुत्तत्ता । धम्मो हि विनयादयो एव अभिन्नत्ता। तेसं विसयो अत्थो वाचकभूतानं तेसमेव वाच्चभावतो, विसयिनो देसनापटिवेधा धम्मत्थविसयभावतोति। तत्थ पटिवेधस्स दुक्करभावतो धम्मत्थानं, देसनाञाणस्स दुक्करभावतो देसनाय च दुक्खोगाहभावो वेदितब्बो, पटिवेधस्स पन उप्पादेतुं असक्कूणेय्यत्ता, तब्बिसयाणप्पत्तिया च दुक्करभावतो दुक्खोगाहता वेदितब्बा | धम्मत्थदेसनानं गम्भीरभावतो तव्विसयो पटिवेधोपि गम्भीरो यथा तं गम्भीरस्स उदकस्स पमाणग्गहणे दीघेन पमाणेन भवितब्बं, एवंसम्पदमिदन्ति (वजिर टी० पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वजिरबुद्धित्थेरो। पिटकावयवानं धम्मादीनं वुच्चमानो गम्भीरभावो तंसमुदायस्स पिटकस्सापि वुत्तोयेव, तस्मा तथा न चोदेतब्बन्तिपि वदन्ति, विचारेतब्बमेतं सब्बेसम्पि तेसं पिटकावयवासम्भवतो । महासमुद्दो दुक्खोगाहो, अलब्भनेय्यपतिट्ठो विय चाति सम्बन्धो। अत्थवसा हि विभत्तिवचनलिङ्गपरिणामोति। दुक्खेन ओगय्हन्ति, दुक्खो वा ओगाहो अन्तो पविसनमेतेसूति दुक्खोगाहा। न लभितब्बोति अलब्भनीयो, सोयेव अलब्भनेय्यो, लभीयते वा लब्भनं, तं नारहतीति अलन्भनेय्यो। पतिद्वहन्ति एत्थ ओकासेति पतिट्टो, पतिगृहनं वा पतिट्ठो, अलब्भनेय्यो सो येसु ते अलन्भनेय्यपतिहा। एकदेसेन ओगाहन्तेहिपि मन्दबुद्धीहि पतिठ्ठा लढे न सक्कायेवाति दस्सेतुं एतं पुन वुत्तं । "एव"न्तिआदि निगमनं ।
इदानि हेतुहेतुफलादीनम्पि वसेन गम्भीरभावं दस्सेन्तो "अपरो नयो"तिआदिमाह । तत्थ हेतूति पच्चयो । सो च अत्तनो फलं दहति विदहतीति धम्मो द-कारस्स ध-कारं कत्वा । धम्मसद्दस्स चेत्थ हेतुपरियायता कथं विचायतीति आह "वुत्तव्हेत"न्तिआदि । वुत्तं पटिसम्भिदाविभङ्गे (विभं० ७१८)। ननु च "हेतुम्हि आणं धम्मपटिसम्भिदा''ति एतेन वचनेन धम्मस्स हेतुभावो कथं विज्ञायतीति ? “धम्मपटिसम्भिदा"ति एतस्स समासपदस्स अवयवपदत्थं दस्सेन्तेन "हेतुम्हि आणन्ति वुत्तत्ता। "धम्मे पटिसम्भिदा धम्मपटिसम्भिदा"ति एत्थ हि "धम्मे"ति एतस्स अत्थं दस्सेन्तेन "हेतुम्ही''ति वुत्तं, “पटिसम्भिदा'ति एतस्स अत्थं दस्सेन्तेन "आण"न्ति । तस्मा हेतुधम्मसद्दा एकत्था, आणपटिसम्भिदा सद्दा चाति इममत्थं वदन्तेन साधितो धम्मस्स हेतुभावोति । तथा "हेतुफले आणं अत्थपटिसम्भिदा"ति एतेन वचनेन साधितो अत्थस्स हेतुफलभावोति दट्ठब्बो । हेतुनो फलं हेतुफलं, तञ्च हेतुअनुसारेन अरीयति अधिगमीयतीति अत्थोति वुच्चति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
सनात पञ्ञत्तीति एत्थ सद्दवादीनं वादे अत्थब्यञ्जनका अविपरीताभिलापधम्मनिरुत्तिभूता परमत्थसद्दप्पबन्धसङ्घाता तन्ति “देसना "ति वुच्चति, देसना नामाति वा अत्थो। देसीयति अत्थो एतायाति हि देसना । पकारेन आपीयति अत्थो एताय, पकारतो वा आपेतीति पञ्ञत्ति । तमेव सरूपतो दस्सेतुं “ यथाधम्मं धम्माभिलापोति अधिप्पायो''ति वृत्तं । यथाधम्मन्ति एत्थ पन धम्मसद्दी हेतुं, हेतुफलञ्च सब्बं सङ्गहाति । सभाववाचको हेस धम्मसद्दो, न परियत्तिहेतुआदिवाचको, तस्मा यो यो अविज्जासङ्घारादिधम्मो, तस्मिं तस्मिन्ति अत्थो । तेसं तेसं अविज्जासङ्घारादिधम्मानं अनुरूपं वा यथाधम्मं | देसनापि हि पटिवेधो विय अविपरीतसविसयविभावनतो धम्मानुरूपं पवत्तति, ततोयेव च अविपरीताभिलापोति वुच्चति । धम्माभिलापोति हि अत्थब्यञ्जनको अविपरीताभिलापो धम्मनिरुत्तिभूतो तन्तिसङ्घातो परमत्थसद्दप्पबन्धो । सो हि अभिप्पि उच्चारयतीति अभिलापो, धम्मो अविपरीतो सभावभूतो अभिलापो धम्माभिलापोति वुच्चति, एतेन " तत्र धम्मनिरुत्ताभिलापे जाणं निरुत्तिपटिसम्भिदा "ति (विभं० ७१८) एत्थ वुत्तं धम्मनिरुत्तिं दस्सेति सद्दसभावत्ता देसनाय । तथा हि निरुत्तिपटिसम्भिदाय परित्तारम्मणादिभावो पटिसम्भिदाविभङ्गपाळियं (विभं० ७१८) वुत्तो । तदट्ठकथाय च “तं सभावनिरुत्तिं सद्दं आरम्मणं कत्वा' 'तिआदिना (विभं० अट्ठ० ७१८) तस्सा सद्दारम्मणता दस्सिता । “इमस्स अत्थस्स अयं सद्दो वाचको "ति हि वचनवचनत्थे ववत्थपेत्वा तं तं वचनत्थविभावनवसेन पवत्तितो सद्दो "देसना "ति वुच्चति । " अधिप्पायो" ति एतेन ‘“देसनाति पञ्ञत्ती”ति एतं वचनं धम्मनिरुत्ताभिलापं सन्धाय वुत्तं न ततो विनिमुत्तं पञ्ञत्तिं सन्धायाति दस्सेति अनेकधा अत्थसम्भवे अत्तना अधिप्पेतत्थस्सेव त्तत्ताति अयं सद्दवादीनं वादतो विनिच्छयो ।
पञ्ञत्तिवादीनं वादे पन सम्मुतिपरमत्थभेदस्स अत्थस्सानुरूपवाचकभावेन परमत्थसद्देसु भगवता मनसा ववत्थापिता तन्तिसङ्घाता नामपञ्ञत्ति देसना नाम, "देसना "ति वा वुच्चतीति अत्थो । तदेव मूलकारणभूतस्स सद्दस्स दस्सनवसेन कारणूपचारेन दस्सेतुं “ यथाधम्मं धम्माभिलापोति अधिप्पायो"ति वृत्तं । किञ्चापि हि “धम्माभिलापो 'ति एत्थ अभिलप्पति उच्चारीयतीति अभिलापोति सो वुच्चति, न पण्णत्ति, तथापि सद्दे वच्चमा तदनुरूपं वोहारं गहेत्वा तेन वोहारेन दीपितस्स अत्थन्स जाननतो सद्दे कथिते तदनुरूपा पण्णत्तिपि कारणूपचारेन कथितायेव होति । अपिच " धम्माभिलापोति अत्थो 'ति अवत्वा ‘“धम्माभिलापोति अधिप्पायो ति वृत्तत्ता देसना नाम सद्दो न होतीति दीपितमेव । तेन हि अधिप्पायमत्तमेव मूलकारणसद्दवसेन कथितं, न इध गहेतब्बो “देसना "ति एतस्स
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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अत्थोति अयं पञत्तिवादीनं वादतो विनिच्छयो । अत्थन्तरमाह “अनुलोम...पे०... कथन"न्ति, एतेन हेट्ठा वुत्तं देसनासमुट्ठापकं चित्तुप्पादं दस्सेति । कथीयति अत्थो एतेनाति हि कथनं। आदिसद्देन नीतनेय्यादिका पाळिगतियो, एकत्तादिनन्दियावत्तादिका पाळिनिस्सिता च नया सङ्गहिता।
सयमेव पटिविज्झति, एतेन वा पटिविज्झन्तीति पटिवेधो, आणं। तदेव अभिसमेति, एतेन वा अभिसमेन्तीति अभिसमयोतिपि वुच्चति । इदानि तं पटिवेधं अभिसमयप्पभेदतो, अभिसमयाकारतो, आरम्मणतो, सभावतो च पाकटं कातुं “सो चा'तिआदि वुत्तं । तत्थ हि लोकियलोकुत्तरोति पभेदतो, विसयतो, असम्मोहतोति आकारतो, धम्मेसु, अत्थेसु, पञत्तीसूति आरम्मणतो, अत्थानुरूपं, धम्मानुरूपं, पञत्तिपथानुरूपन्ति सभावतो च पाकटं करोति । तत्थ विसयतो अत्यादिअनुरूपं धम्मादीसु अवबोधो नाम अविज्जादिधम्मारम्मणो, सङ्घारादिअत्थारम्मणो, तदुभयपापनारम्मणो च लोकियो अभिसमयो। असम्मोहतो अत्थादिअनुरूपं धम्मादीसु अवबोधो नाम निब्बानारम्मणो मग्गसम्पयुत्तो यथावुत्तधम्मत्थपञत्तीसु सम्मोहविद्धंसनो लोकुत्तरो अभिसमयो। तथा हि "अयं हेतु, इदमस्स फलं, अयं तदुभयानुरूपो वोहारो'"ति एवं आरम्मणकरणवसेन लोकियाणं विसयतो पटिविज्झति, लोकुत्तरआणं पन तेसु हेतुहेतुफलादीसु सम्मोहस्सत्राणेन समुच्छिन्नत्ता असम्मोहतो पटिविज्झति । लोकुत्तरो पन पटिवेधो विसयतो निब्बानस्स, असम्मोहतो च इतरस्सातिपि वदन्ति एके ।
___ अत्थानुरूपं धम्मसूति “अविज्जा हेतु, सङ्घारा हेतुसमुप्पन्ना, सङ्घारे उप्पादेति अविज्जा"ति एवं कारियानुरूपं कारणेसूति अत्थो। अथ वा "पुञाभिसङ्खारअपुञाभिसङ्खारआनेजाभिसङ्खारेसु तीसु अपुञाभिसङ्घारस्स अविज्जा सम्पयुत्तपच्चयो, इतरेसं यथानुरूप''न्तिआदिना कारियानुरूपं कारणेसु पटिवेधोतिपि अत्थो । धम्मानुरूपं अत्थेसूति “अविज्जापच्चया सङ्खारा"तिआदिना (म० नि० ३.१२६; सं० नि० १.२.१; उदि० १; विभं० २२५) कारणानुरूपं कारियेसु । छब्बिधाय पञत्तिया पथो पञत्तिपथो, तस्स अनुरूपं तथा, पञ्जत्तिया वुच्चमानधम्मानुरूपं पञत्तीसु अवबोधोति अत्थो । अभिसमयतो अञम्पि पटिवेधत्थं दस्सेतुं “तेस"न्तिआदिमाह । पटिविज्झीयतीति पटिवेधोति हि तंतंरूपादिधम्मानं अविपरीतसभावो वुच्चति । तत्थ तत्थाति तस्मिं तस्मिं पिटके, पाळिपदेसे वा । सलक्खणसङ्घातोति रुप्पननमनफुसनादिसकसकलक्खणसङ्घातो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
___ यथावुत्तेहि धम्मादीहि पिटकानं गम्भीरभावं दस्सेतुं “इदानी"तिआदिमाह । धम्मजातन्ति कारणप्पभेदो, कारणमेव वा । अत्थजातन्ति कारियप्पभेदो, कारियमेव वा। या चायं देसनाति सम्बन्धो | तदत्थविजाननवसेन अभिमुखो होति । यो चेत्थाति यो एतासु तं तं पिटकागतासु धम्मत्थदेसनासु पटिवेधो, यो च एतेसु पिटकेसु तेसं तेसं धम्मानं अविपरीतसभावोति अत्थो । सम्भरितब्बतो कुसलमेव सम्भारो, सो सम्मा अनुपचितो येहि ते अनुपचितकुसलसम्भारा, ततोव दुप्पजेहि, निप्प हीति अत्थो। न हि पञ्जवतो, पञाय वा दुटुभावो दूसितभावो च सम्भवतीति निप्पञत्तायेव दुप्पा यथा "दुस्सीलो'"ति (अ० नि० २.५.२१३; ३.१०.७५; पारा० २९५; ध० प० ३०८)। एत्थ च अविज्जासङ्खारादीनं धम्मत्थानं दुप्पटिविज्झताय दुक्खोगाहता, तेसं पञापनस्स दुक्करभावतो तंदेसनाय, अभिसमयसङ्घातस्स पटिवेधस्स उप्पादनविसयीकरणानं असक्कुणेय्यत्ता, अविपरीतसभावसङ्घातस्स पटिवेधस्स दुब्बिञ्जय्यताय दुक्खोगाहता वेदितब्बा | एवम्पीति पि-सद्दो पुब्बे वुत्तं पकारन्तरं सम्पिण्डेति । एवं पठमगाथाय अनूनं परिपुण्णं परिदीपितत्थभावं दस्सेन्तो "एत्तावता"तिआदिमाह । “सिद्धे हि सत्यारम्भो अत्थन्तरविज्ञापनाय वा होति, नियमाय वा"ति इमिना पुनारम्भवचनेन अनूनं परिपुण्णं परिदीपितत्थभावं दस्सेति । एत्तावताति परिच्छेदत्थे निपातो, एत्तकेन वचनक्कमेनाति अत्थो । एतं वा परिमाणं यस्साति एत्तावं, तेन, एतपरिमाणवता सद्दत्थक्कमेनाति अत्थो। “सद्दे हि वुत्ते तदत्थोपि वुत्तोयेव नामा"ति वदन्ति । वुत्तो संवण्णितो अत्थो यस्साति वुत्तत्था।
HEALTH
__एत्थाति एतिस्सा गाथाय | एवं अत्थो, विनिच्छयोति वा सेसो । तीसु पिटकेसूति एत्थ “एकेकस्मि''न्ति अधिकारतो, पकरणतो वा वेदितब्बं । “एकमेकस्मिञ्चेत्था''ति (दी० नि० अट्ठ० १. पठममहासङ्गीतिकथा) हि हेट्ठा वुत्तं । अथ वा वत्तिच्छानुपुब्बिकत्ता सद्दपटिपत्तिया निद्धारणमिध अवत्तुकामेन आधारोयेव वुत्तो । न चेत्थ चोदेतब्बं "तीसुयेव पिटकेसु तिविधो परियत्तिभेदो दब्बो सिया"ति समुदायवसेन वुत्तस्सापि वाक्यस्स अवयवाधिप्पायसम्भवतो। दिस्सति हि अवयववाक्यनिष्फत्ति "ब्राह्मणादयो भुञ्जन्तू''तिआदीसु, तस्मा अलमतिपपञ्चेन । यथा अत्थो न विरुज्झति, तथायेव गहेतब्बोति । एवं सब्बत्थ | परियत्तिभेदोति परियापुणनं परियत्ति। परियापुणनवाचको हेत्थ परियत्तिसद्दो, न पन पाळिपरियायो, तस्मा परियापुणनप्पकारोति अत्थो । अथ वा तीहि पकारेहि परियापुणितब्बा पाळियो एव "परियत्ती"ति वुच्चन्ति। तथा चेव अभिधम्मट्ठकथाय सीहळगण्ठिपदे वुत्तन्ति वदन्ति । एवम्पि हि अलगद्दपमापरियापुणनयोगतो "अलगद्दूपमा परियत्ती''ति पाळिपि सक्का वत्तुं। एवञ्च कत्वा “दुग्गहिता
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
उपारम्भादिहेतु परियापुटा अलगद्दूपमा "ति परतो निद्देसवचनम्पि उपपन्नं होति । तत्थ हि पाळियेव “दुग्गहिता, परियापुटा ति च वत्तुं युत्ता ।
अलगद्दो अलगद्दग्गहणं उपमा एतिस्साति अलगद्दूपमा । अलगद्दस्स गहणञ्हेत्थ अलगद्दसद्देन वुत्तन्ति दट्ठब्बं । आपूपिकोति एत्थ आपूप- सद्देन आपूपखादनं विय, वेणिकोति एत्थ वीणासद्देन वीणावादनग्गहणं विय च । अलगद्दग्गहणेन हि परियत्ति उपमीयति, न अलगद्देन । “ अलगद्दग्गहणूपमा "ति वा वत्तब्बे मज्झेपदलोपं कत्वा " अलगद्दूपमा "ति वुत्तं "ओट्ठमुखो "तिआदीसु विय। अलगद्दोति च आसीविसो वुच्चति । गदोति हि विसस्स नामं, तञ्च तस्स अलं परिपुण्णं अत्थि, तस्मा अलं परियत्तो परिपुण्णो गदो अस्साति अलगद्दो अनुनासिकलोपं, द-कारागमञ्च कत्वा, अलं वा जीवितहरणे समत्थो गदो यस्साति अलगद्दो वृत्तनयेन । वट्टदुक्खतो निस्सरणं अथो पयोजनमेतिस्साति निस्सरणत्था । भण्डागारे नियुत्तो भण्डागारिको, राजरतनानुपालको, सो वियाति तथा, धम्मरतनानुपालको खीणासवो । अञ्ञमत्थमनपेक्खित्वा भण्डागारिकस्सेव सतो परियत्ति भण्डागारिकपरियत्ति ।
दुग्गहिताति दुट्टु गहिता । तदेव सरूपतो नियमेतुं “ उपारम्भादिहेतु परियापुटात उपारम्भइतिवादप्पमोक्खादिहेतु उग्गहिताि अत्थो । लाभसक्कारादिहेतु
आह,
परियापुणनम्पि एत्थेव सङ्गहितन्ति दट्ठब्बं । वुत्तहेतं अलगद्दसुत्तट्ठकथायं -
“यो बुद्धवचनं उग्गहेत्वा ' एवं चीवरादीनि वा लभिस्सामि, चतुपरिसमज्झे वा मं जानिस्सन्ती 'ति लाभसक्कारहेतु परियापुणाति, तस्स सा परियत्ति अलगद्दपरियत्ति नाम । एवं परियापुणनतो हि बुद्धवचनं अपरियापुणित्वा निद्दक्कमनं वरतर "न्ति (म० नि० अट्ठ० २.२३९) ।
ननु च अलगद्दग्गहणूपमा परियत्ति सुग्गहितापि परियत्ति “अलगद्दूपमा ति वत्तुं पाळियं वुत्तत्ता । वुत्तहेतं -
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'अलगद्दूपमा "ति वुच्चति एवञ्च सति वट्टति तत्थापि अलगद्दग्गहणस्स उपमाभावेन
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“सेय्यथापि भिक्खवे, पुरिसो अलगद्दत्थिको अलगद्दगवेसी अलगद्दपरियेसनं चरमानो, सो परसेय्य महन्तं अलगद्दं, तमेनं अजपदेन दण्डेन सुनिग्गहितं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
निग्गण्हेय्य, अजपदेन दण्डेन सुनिग्गहितं निग्गहित्वा गीवाय सुग्गहितं गण्हेय्य । किञ्चापि सो भिक्खवे, अलगद्दो तस्स पुरिसस्स हत्थं वा बाहं वा अञ्ञतरं वा अङ्गपच्चङ्गं भोगेहि पलिवेठेय्य । अथ खो सो नेव ततोनिदानं मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्खं। तं किस्स हेतु, सुग्गहितत्ता भिक्खवे, अलगद्दस्स । एवमेव खो भिक्खवे, इधेकच्चे कुलपुत्ता धम्मं परियापुणन्ति सुत्तं गेय्यन्तिआदि (म० नि० १.२३९) ।
तस्मा इध दुग्गहिता एव परियत्ति अलगद्दूपमाति अयं विसेसो कुतो विज्ञायति, येन दुग्गहिता उपारम्भादिहेतु परियापुटा “ अलगद्दूपमा ' 'ति वुच्चतीति ? सच्चमेतं, इदं पन पारिसेसञायेन वुत्तन्ति दट्ठब्बं । तथा हि निस्सरणत्थभण्डागारिकपरियत्तीनं विसुं गहितत्ता पारिसेसतो अलगद्दस्स दुग्गहणूपमायेव परियत्ति “ अलगद्दूपमा "ति विञ्ञायति । अलगद्दस्स सुग्गहणूपमा हि परियत्ति निस्सरणत्था वा होति, भण्डागारिकपरियत्ति वा । तस्मा सुवुत्तमेतं " दुग्गहिता... पे०... परियत्ती 'ति । इदानि तमत्थं पाळिया साधेन्तो “ "यं सन्धाया”तिआदिमाह । तत्थ यन्ति यं परियत्तिदुग्गहणं । मज्झिमनिकाये मूलपण्णासके अलगद्दसुत्ते (म० नि० १.२३९ ) भगवता वुत्तं ।
अलगद्दत्थिकोति आसीविसेन, आसीविसं वा अत्थिको, अलगद्दं गवेसति परियेसति सीलेनाति अलगद्दगवेसी । अलगद्दपरियेसनं चरमानोति आसीविसपरियेसनत्थं चरमानो । तदत्थे हेतं पच्चत्तवचनं, उपयोगवचनं वा, अलगद्दपरियेसनट्ठानं वा चरमानो। अलगद्दं परियेसन्ति एत्थाति हि अलगद्दपरियेसनं । तमेनन्ति तं अलगद्दं । भोगेति सरीरे । “भोगो तु फणिनो तनू'ति हि वृत्तं । भुजीयति कुटिलं करीयतीति भोगो । तस्साति पुरिसस्स । हत्थे वा बाहाय वाति सम्बन्धो । मणिबन्धतो पट्ठाय याव अग्गनखा हत्थो । सद्धिं अग्गबाहाय अवसेसा बाहा, कत्थचि पन कप्परतो पट्ठाय याव अग्गनखा " हत्थो "ति वुत्तं बाहाय विसुं अनागतत्ता । वुत्तलक्खणं हत्थञ्च बाहञ्च ठपेत्वा अवसेसं सरीरं अङ्गपच्चङ्गं । ततोनिदानन्ति तन्निदानं तंकारणाति अत्थो । तं हत्थादीसु डंसनं निदानं कारणं एतस्साति “तन्निदान”न्ति हि वत्तब्बे " ततोनिदान "न्ति पुरिमपदे पच्चत्तत्थे सिक्कवचनं कत्वा, तस्स च लोपमकत्वा निद्देसो, हेत्वत्थे च पच्चत्तवचनं । कारणत्थे निपातपदमेतन्तिपि वदन्ति । अपिच “ततोनिदान "न्ति एतं " मरणं वा मरणमत्तं वा दुक्खन्ति एत्थ वृत्तनयेन विसेसनं । तं किस्स हेतूति यं वुत्तं हत्थादीसु डंसनं, तन्निदानञ्च
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
मरणादिउपगमनं, तं किस्स हेतु केन कारणेनाति चे? तस्स पुरिसस्स अलगद्दस्स दुग्गहितत्ता।
___इधाति इमस्मिं सासने । मोघपुरिसाति गुणसाररहितताय तुच्छपुरिसा । धम्मन्ति पाळिधम्मं | परियापुणन्तीति उग्गण्हन्ति, सज्झायन्ति चेव वाचुग्गतं करोन्ता धारेन्ति चाति वुत्तं होति । “धम्म'न्ति सामञतो वुत्तमेव सरूपेन दस्सेति "सुत्त"न्तिआदिना। न हि सुत्तादिनवङ्गतो अञो धम्मो नाम अस्थि । तथा हि वुत्तं “तेसं धम्मान"न्ति । अत्थन्ति चेत्थ सम्बन्धीनिद्देसो एसो, अत्थन्ति च यथाभूतं भासितत्थं, पयोजनत्थञ्च सामञ्जनिद्देसेन, एकसेसनयेन वा वुत्तं । यहि पदं सुतिसामञ्जन अनेकधा अत्थं दीपेति, तं सामञनिद्देसेन, एकसेसनयेन वाति सब्बत्थ वेदितब्बं । न उपपरिक्खन्तीति न परिग्गण्हन्ति न विचारेन्ति। इक्खसद्दस्स हि दस्सनङ्केसु इध दस्सनमेव अत्थो, तस्स च परिग्गण्हनचक्खुलोचनेसु परिग्गण्हनमेव, तञ्च विचारणा परियादानवसेन दुब्बिधेसु विचारणायेव, सा च वीमंसायेव, न विचारो, वीमंसा च नामेसा भासितत्थवीमंसा, पयोजनत्थवीमंसा चाति इध दुब्बिधाव अधिप्पेता, तासु “इमस्मिं ठाने सीलं कथितं, इमस्मिं समाधि, इमस्मिं पञ्जा, मयञ्च तं पूरेस्सामा"ति एवं भासितत्थवीमंसञ्चेव “सीलं समाधिस्स कारणं, समाधि विपस्सनाया"तिआदिना पयोजनत्थवीमंसञ्च न करोन्तीति अत्थो । अनुपपरिक्खतन्ति अनुपपरिक्खन्तानं तेसं मोघपुरिसानं । न निज्झानक्खमन्तीति निज्झानं निस्सेसेन पेक्खनं पझं न खमन्ति। झे-सहो हि इध पेक्खनेयेव, न चिन्तनझापनेसु, तञ्च आणपेक्खनमेव, न चक्खुपेक्खनं, आरम्मणूपनिज्झानमेव वा, न लक्खणूपनिज्झानं, तस्मा पञाय दिस्वा रोचेत्वा गहेतब्बा न होन्तीति अधिप्पायो वेदितब्बो। निस्सेसेन झायते पेक्खतेति हि निज्झानं। सन्धिवसेन अनुस्वारलोपो निज्झानक्खमन्तीति, “निज्झानं खमन्ती"तिपि पाठो, तेन इममत्थं दीपेति “तेसं पञ्चाय अत्थस्स अनुपपरिक्खनतो ते धम्मा न उपट्ठहन्ति, इमस्मिं ठाने सीलं, समाधि, विपस्सना, मग्गो, वढें, विवढें कथितन्ति एवं जानितुं न सक्का होन्ती"ति।
उपारम्भानिसंसा चेवाति परेसं वादे दोसारोपनानिसंसा च हुत्वा । भुसो आरम्भनहि परेसं वादे दोसारोपनं उपारम्भो, परियत्तिं निस्साय परवम्भनन्ति वुत्तं होति । तथा हेस "परवज्जानुपनयनलक्खणो''ति वुत्तो । इति वादप्पमोक्खानिसंसा चाति इति एवं एताय परियत्तिया वादप्पमोक्खानिसंसा अत्तनो उपरि परेहि आरोपितस्स वादस्स निग्गहस्स अत्ततो, सकवादतो वा पमोक्खपयोजना च हुत्वा । इति सद्दो इदमत्थे, तेन
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“परियापुणन्ती''ति एत्थ परियापुणनं परामसति । वदन्ति निग्गण्हन्ति एतेनाति वादो, दोसो, पमुच्चनं, पमुच्चापनं वा पमोक्खो, अत्तनो उपरि आरोपितस्स पमोक्खो आनिसंसो येसं तथा । आरोपितवादो हि “वादो"ति वुत्तो यथा “देवेन दत्तो दत्तो''ति । वादोति वा उपवादोनिन्दा यथावुत्तनयेनेव समासो । इदं वुत्तं होति - परेहि सकवादे दोसे आरोपिते, निन्दाय वा आरोपिताय तं दोसं, निन्दं वा एवञ्च एवञ्च मोचेस्सामाति इमिना च कारणेन परियापुणन्तीति । अथ वा सो सो वादो इति वादो इति-सद्दस्स सह विच्छाय त-सद्दत्थे पवत्तत्ता। इतिवादस पमोक्खो यथावुत्तनयेन, सो आनिसंसो येसं तथा, तं तं वादपमोचनानिसंसा हुत्वाति अत्थो । यस्स चत्थायाति यस्स च सीलादिपूरणस्स, मग्गफलनिब्बानभूतस्स वा अनुपादाविमोक्खस्स अत्थाय । अभेदेपि भेदवोहारो एसो यथा “पटिमाय सरीर'"न्ति, भेद्यभेदकं वा एतं यथा “कथिनस्सत्थाय आभतं दुस्स"न्ति । "तञ्चस्स अत्थ"न्ति हि वुत्तं । च-सद्दो अवधारणे, तेन तदत्थाय एव परियापुणनं सम्भवति, नाञत्थायाति विनिच्छिनोति । धम्म परियापुणन्तीति हि जातिआचारवसेन दुविधापि कुलपुत्ता ञायेन धम्म परियापुणन्तीति अत्थो । तञ्चस्स अत्थं नानुभोन्तीति अस्स धम्मस्स सीलादिपूरणसङ्खातं, मग्गफलनिब्बानभूतं वा अनुपादाविमोक्खसङ्खातं अत्थं एते दुग्गहितगाहिनो नानुभोन्ति न विन्दन्तियेव |
अपरो नयो - यस्स उपारम्भस्स, इतिवादप्पमोक्खस्स वा अत्थाय ये मोघपुरिसा धम्म परियापुणन्ति, ते परेहि “अयमत्थो न होती"ति वुत्ते दुग्गहितत्तायेव “तदत्थोव होती''ति पटिपादनक्खमा न होन्ति, तस्मा परस्स वादे उपारम्भं आरोपेतुं अत्तनो वादं पमोचेतुञ्च असक्कोन्तापि तं अत्थं नानुभोन्ति च न विन्दन्तियेवाति एवम्पेत्थ अत्थो दट्ठब्बो। इधापि हि च-सद्दो अवधारणत्योव । “तेस"न्तिआदीसु तेसं ते धम्मा दुग्गहितत्ता उपारम्भमानदब्बमक्खपलासादिहेतुभावेन दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय संवत्तन्तीति अत्थो । दुग्गहिताति हि हेतुगब्भवचनं । तेनाह “दुग्गहितत्ता भिक्खवे, धम्मान''न्ति (म० नि० १.२३८)। एत्थ च कारणे फलवोहारवसेन "ते धम्मा अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ती'ति वुत्तं यथा “घतमायु, दधि बल''न्ति । तथा हि किञ्चापि न ते धम्मा अहिताय दुक्खाय संवत्तन्ति, तथापि वुत्तनयेन परियापुणन्तानं सज्झायनकाले, विवादकाले च तम्मूलकानं उपारम्भादीनं अनेकेसं अकुसलानं उप्पत्तिसम्भवतो “ते...पे०... संवत्तन्ती''ति वुच्चति । तं किस्स हेतूति एत्थ तन्ति यथावुत्तस्सत्थस्स अननुभवनं, तेसञ्च धम्मानं अहिताय दुक्खाय संवत्तनं परामसति। किस्साति सामिवचनं हेत्वत्थे, तथा हेतूति पच्चत्तवचनञ्च ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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या पनाति एत्थ किरिया पाळिवसेन वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो । तत्थ किरियापक्खे या सुग्गहिताति अभेदेपि भेदवोहारो “चारिकं पक्कमति, चारिकं चरमानो''तिआदीसु (दी० नि० १.२५४, ३००) विय । तदेवत्थं विवरति "सीलक्खन्धादी"तिआदिना, आदिसद्देन चेत्थ समाधिविपस्सनादीनं सङ्गहो । यो हि बुद्धवचनं उग्गण्हित्वा सीलस्स आगतवाने सीलं पूरेत्वा, समाधिनो आगतट्टाने समाधिं गब्भं गण्हापेत्वा, विपस्सनाय आगतट्ठाने विपस्सनं पट्टपेत्वा, मग्गफलानं आगतवाने “मग्गं भावेस्सामि, फलं सच्छिकरिस्सामी"ति उग्गण्हाति, तस्सेव सा परियत्ति निस्सरणत्था नाम होति । यन्ति यं परियत्तिसुग्गहणं । वुत्तं अलगद्दसुत्ते । दीघरतं हिताय सुखाय संवत्तन्तीति सीलादीनं आगतट्ठाने सीलादीनि पूरेन्तानम्पि अरहत्तं पत्वा परिसमज्झे धम्मं देसेत्वा धम्मदेसनाय पसन्नेहि उपनीते चत्तारो पच्चये परिभुञ्जन्तानम्पि परेसं वादे सहधम्मेन उपारम्भं आरोपेन्तानम्पि सकवादतो परेहि आरोपितदोसं परिहरन्तानम्पि दीघरत्तं हिताय सुखाय संवत्तन्तीति अत्थो। तथा हि न केवलं सुग्गहितपरियत्तिं निस्साय मग्गभावनाफलसच्छिकिरियादीनियेव, अपि तु परवादनिग्गहसकवादपतिठ्ठापनानिपि इज्झन्ति । तथा च वुत्तं परिनिब्बानसुत्ता दीसु “उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा सप्पाटिहारियं धम्मं देसेस्सन्ती'तिआदि (दी० नि० २.६८)।
यं पनाति एत्थापि वुत्तनयेन दुविधेन अत्थो। दुक्खपरिजानेन परिञातक्खन्धो। समुदयप्पहानेन पहीनकिलेसो। पटिविद्धारहत्तफलताय पटिविद्धाकुप्पो। अकुप्पन्ति च अरहत्तफलस्सेतं नाम । सतिपि हि चत्तुन्नं मग्गानं, चतुन्नञ्च फलानं अविनस्सनभावे सत्तन्नं सेक्खानं सकसकनामपरिच्चागेन उपरूपरि नामन्तरप्पत्तितो तेसं मग्गफलाति “अकुप्पामिति न वुच्चन्ति । अरहा पन सब्बदापि अरहायेव नामाति तस्सेव फलं पुग्गलनामवसेन “अकुप्प"न्ति वुत्तं, इमिना च इममत्थं दस्सेति “खीणासवस्सेव परियत्ति भण्डागारिकपरियत्ति नामा''ति । तस्स हि अपरिञातं, अप्पहीनं अभावितं, असच्छिकतं वा नत्थि, तस्मा सो बुद्धवचनं परियापुणन्तोपि तन्तिधारको पवेणीपालको वंसानुरक्खकोव हुत्वा परियापुणाति, तेनेवाह "पवेणीपालनत्थाया"तिआदि । पवेणी चेत्थ धम्मसन्तति धम्मस्स अविच्छेदेन पवत्ति । बुद्धस्स भगवतो वंसोति च यथावृत्तपवेणीयेव ।
ननु च यदि पवेणीपालनत्थाय बुद्धवचनस्स परियापुणनं भण्डागारिकपरियत्ति, अथ कस्मा “खीणासवो"ति विसेसेत्वा वुत्तं । एकच्चस्स हि पुथुज्जनस्सापि अयं नयो लब्भति । तथा हि एकच्चो पुथुज्जनो भिक्खु छातकभयादिना गन्थधुरेसु एकस्मिं ठाने
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
वसितुमसक्कोन्तेसु सयं भिक्खाचारेन अतिकिलममानो “अतिमधुरं बुद्धवचनं मा नस्सतु, तन्तिं धारेस्सामि, वंसं ठपेस्सामि, पवेणिं पालेस्सामी''ति परियापुणाति । तस्मा तस्सापि परियत्ति भण्डागारिकपरियत्ति नाम कस्मा न होतीति ? वुच्चते- एवं सन्तेपि हि पुथुज्जनस्स परियत्ति भण्डागारिकपरियत्ति नाम न होति । किञ्चापि हि पुथुज्जनो “पवेणिं पालेस्सामी''ति अज्झासयेन परियापुणाति, अत्तनो पन भवकन्तारतो अवितिण्णत्ता तस्स सा परियत्ति निस्सरणत्थायेव नाम होति, तस्मा पुथुज्जनस्स परियत्ति अलगढुपमा वा होति, निस्सरणत्था वा। सत्तनं सेक्खानं निस्सरणत्थाव। खीणासवानं भण्डागारिकपरियत्तियेवाति वेदितब्बं । खीणासवो हि भण्डागारिक सदिसत्ता "भण्डागारिको'"ति वच्चति । यथा हि भण्डागारिको अलङ्कारभण्डं पटिसामेत्वा पसाधनकाले तदुपियं अलङ्कारभण्डं रञो उपनामेत्वा तं अलङ्करोति, एवं खीणासवोपि धम्मरतनभण्डं सम्पटिच्छित्वा मोक्खाधिगमाय भब्बरूपे सहेतुके सत्ते पस्सित्वा तदनुरूपं धम्मदेसनं वड्वेत्वा मग्गङ्गबोज्झङ्गादिसङ्घातेन लोकुत्तरेन अलङ्कारेन अलङ्करोतीति ।
एवं तिस्सो परियत्तियो विभजित्वा इदानि तीसुपि पिटकेसु यथारहं सम्पत्तिविपत्तियो निद्धारेत्वा विभजन्तो “विनये पना''तिआदिमाह । “सीलसम्पदं निस्साय तिस्सो विज्जा पापुणाती"तिआदीसु यस्मा सीलं विसुज्झमानं सतिसम्पजाबलेन, कम्मस्सकतााणबलेन च संकिलेसमलतो विसुज्झति, पारिपूरिञ्च गच्छति, तस्मा सीलसम्पदा सिज्झमाना उपनिस्सयसम्पत्तिभावेन सतिबलं, आणबलञ्च पच्चुपट्ठपेतीति तस्सा विज्जत्तयूपनिस्सयता वेदितब्बा सभागहेतुसम्पादनतो। सतिबलेन हि पुब्बेनिवासविज्जासिद्धि | सम्पजञ्जबलेन सब्बकिच्चेसु सुदिट्ठकारितापरिचयेन चुतूपपातञाणानुबद्धाय दुतियविज्जाय सिद्धि । वीतिक्कमाभावेन संकिलेसप्पहानसब्भावतो विवट्ट्पनिस्सयतावसेन अज्झासयसुद्धिया ततियविज्जासिद्धि। पुरेतरसिद्धानं समाधिपञानं पारिपूरि विना सीलस्स आसवक्खयञाणूपनिस्सयता सुक्खविपस्सकखीणासवेहि दीपेतब्बा। “समाहितो यथाभूतं पजानाती"ति (सं० नि० २.३.५; ३.५.१०७१; नेत्ति० ४०; मि० प० १४) वचनतो समाधिसम्पदा छळभिज्ञताय उपनिस्सयो । “योगा वे जायते भूरीति (ध० प० २८२) वचनतो पुब्बयोगेन गरुवासदेसभासाकोसल्लउग्गहणपरिपुच्छादीहि च परिभाविता पञ्जासम्पदा पटिसम्भिदाप्पभेदस्स उपनिस्सयो । एत्थ च “सीलसम्पदं निस्साया''ति वुत्तत्ता यस्स समाधिविजम्भनभूता अनवसेसा छ अभिज्ञा न इज्झन्ति, तस्स उक्कट्ठपरिच्छेदवसेन न समाधिसम्पदा अस्थीति सतिपि विज्जानं अभिजेकदेसभावे सीलसम्पदासमूदागता एव तिस्सो विज्जा गहिता, यथा च पञ्जासम्पदासमुदागता चतस्सो पटिसम्भिदा
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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उपनिस्सयसम्पन्नस्स मग्गेनेव इज्झन्ति मग्गक्खणेयेव तासं पटिलद्धत्ता। एवं सीलसम्पदासमुदागता तिस्सो विज्जा, समाधिसम्पदासमुदागता च छ अभिज्ञा उपनिस्सयसम्पन्नस्स मग्गेनेव इज्झन्तीति मग्गाधिगमेनेव तासं अधिगमो वेदितब्बो । पच्चेकबुद्धानं, सम्मासम्बुद्धानञ्च पच्चेकबोधिसम्मासम्बोधिसमधिगमसदिसा हि इमेसं अरियानं इमे विसेसाधिगमाति ।
तासंयेव च तत्थ पभेदवचनतोति एत्थ “तासंयेवा'"ति अवधारणं पापुणितब्बानं छळभिञाचतुपटिसम्भिदानं विनये पभेदवचनाभावं सन्धाय वुत्तं । वेरञ्जकण्डे (पारा० १२) हि तिस्सो विज्जाव विभत्ताति । चसद्देन समुच्चिननञ्च तासं एत्थ एकदेसवचनं सन्धाय वुत्तं अभिञापटिसम्भिदानम्पि एकदेसानं तत्थ वुत्तत्ता । दुतिये “तासंयेवा"ति अवधारणं चतस्सो पटिसम्भिदा अपेक्खित्वा कतं, न तिस्सो विज्जा । ता हि छसु अभिञासु अन्तोगधत्ता सुत्ते विभत्तायेवाति । च-सद्देन च पटिसम्भिदानमेकदेसवचनं समुच्चिनोति । ततिये “तासञ्चा”ति च-सद्देन सेसानम्पि तत्थ अस्थिभावं दीपेति । अभिधम्मे हि तिस्सो विज्जा, छ अभिञा, चतस्सो च पटिसम्भिदा वुत्तायेव । पटिसम्भिदानं पन अञत्थ पभेदवचनाभावं, तत्थेव च सम्मा विभत्तभावं दीपेतुकामो हेट्ठा वुत्तनयेन अवधारणमकत्वा "तत्थेवा''ति परिवत्तेत्वा अवधारणं ठपेति । “अभिधम्मे पन तिस्सो विज्जा, छ अभिञा, चतस्सो च पटिसम्भिदा अछे च सम्मप्पधानादयो गुणविसेसा विभत्ता। किञ्चापि विभत्ता, विसेसतो पन पाजातिकत्ता चतस्सोव पटिसम्भिदा पापुणातीति दस्सनत्थं 'तासञ्च तत्थेवा'ति अवधारणविपल्लासो कतो"ति वजिरबुद्धित्थेरो। “एव"न्तिआदि निगमनं ।
सुखो सम्फस्सो एतेसन्ति सुखसम्फस्सानि, अनुञातानियेव तादिसानि अत्थरणपावुरणादीनि, तेसं फस्ससामञतो सुखो वा सम्फस्सो तथा, अनुज्ञातो सो येसन्ति अनुज्ञातसुखसम्फस्सानि, तादिसानि अत्थरणपावुरणादीनि तेसं फस्सेन समानताय । उपादिनकफस्सो इत्थिफस्सो, मेथुनधम्मोयेव | वुत्तं अरिटेन नाम गद्धबाधिपुब्बेन भिक्खुना (म० नि० २३४; पाचि० ४१७)। सो हि बहुस्सुतो धम्मकथिको कम्मकिलेसविपाकउपवादआणावीतिक्कमवसेन पञ्चविधेसु अन्तरायिकेसु आणावीतिक्कमन्तरायिकं न जानाति, सेसन्तरायिकेयेव जानाति, तस्मा सो रहोगतो एवं चिन्तेसि “इमे अगारिका पञ्च कामगुणे परिभुञ्जन्ता सोतापन्नापि सकदागामिनोपि अनागामिनोपि होन्ति, भिक्खूपि मनापिकानि चक्खुवि य्यानि रूपानि पस्सन्ति...पे०...
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
कायविनेय्ये फोट्ठब्बे फुसन्ति, मुदुकानि अत्थरणपावुरणानि परिभुञ्जन्ति, एतं सब्बम्पि वट्टति, कस्मा इत्थीनंयेव रूपसद्दगन्धरसफोठुब्बा न वट्टन्ति, एतेपि वट्टन्तियेवा"ति अनवज्जेन पच्चयपरिभोगरसेन सावज्ज कामगुणपरिभोगरसं संसन्दित्वा सछन्दरागपरिभोगञ्च निच्छन्दरागपरिभोगञ्च एकं कत्वा थुल्लवाकेहि सद्धिं अतिसुखुमसुत्तं घटेन्तो विय, सासपेन सद्धिं सिनेरुनो सदिसतं उपसंहरन्तो विय च पापकं दिट्ठिगतं उप्पादेत्वा "किं भगवता महासमुदं बन्धन्तेन विय महता उस्साहेन पठमपाराजिकं पञत्तं, नत्थि एत्थ दोसो'ति सब्ब ताणेन सद्धिं पटिविरुज्झन्तो वेसारज्जाणं पटिबाहन्तो अरियमग्गे खाणुकण्टकादीनि पक्खिपन्तो “मेथुनधम्मे दोसो नत्थी''ति जिनचक्के पहारमदासि, तेनाह "तथाह"न्तिआदि ।
अनतिक्कमनत्थेन अन्तराये नियुत्ता, अन्तरायं वा फलं अरहन्ति, अन्तरायस्स वा करणसीलाति अन्तरायिका, सग्गमोक्खानं अन्तरायकराति वुत्तं होति। ते च कम्मकिलेसविपाकउपवादआणावीतिक्कमवसेन पञ्चविधा। वित्थारो अरिट्ठसिक्खापदवण्णनादीसु (पाचि० अट्ठ० ४१७) गहेतब्बो । अयं पनेत्थ पदस्थसम्बन्धोये इमे धम्मा अन्तरायिका इति भगवता वुत्ता देसिता चेव पञत्ता च, ते धम्मे पटिसेवतो पटिसेवन्तस्स यथा येन पकारेन ते धम्मा अन्तरायाय सग्गमोक्खानं अन्तरायकरणत्थं नालं समत्था न होन्ति, तथा तेन पकारेन अहं भगवता देसितं धम्म आजानामीति । ततो दुस्सीलभावं पापुणातीति ततो अनवज्जसञिभावहेतुतो वीतिक्कमित्वा दुस्सीलभावं पापुणाति ।
चत्तारो...पे०...आदीसूति एत्थ आदि-सद्देन -
"चत्तारोमे भिक्खवे, पुग्गला सन्तो संविज्जमाना लोकस्मिं । कतमे चत्तारो ? अत्तहिताय पटिपन्नों नो परहिताय, परहिताय पटिपन्नो नो अत्तहिताय, नेवत्तहिताय पटिपन्नो नो परहिताय, अत्तहिताय चेव पटिपन्नो परहिताय च...पे०... इमे खो भिक्खवे...पे०... लोकस्मि'"न्ति (अ० नि० ४.९६)
“अयं
एवमादिना पुग्गलदेसनापटिसञ्जुत्तसुत्तन्तपाठिं निदस्सेति । अधिप्पायन्ति पुग्गलदेसनावोहारवसेन, न परमत्थतो"ति एवं भगवतो अधिप्पायं । वुत्तहि -
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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"दुवे सच्चानि अक्खासि, सम्बुद्धो वदतं वरो । सम्मुतिं परमत्थञ्च, ततियं नूपलब्भति ।।
सङ्केतवचनं सच्चं, लोकसम्मुतिकारणा । परमत्थवचनं सच्चं, धम्मानं भूतकारणा ।।
तस्मा वोहारकुसलस्स, लोकनाथस्स सत्थुनो । सम्मुतिं वोहरन्तस्स, मुसावादो न जायतीति ।। (म० नि० अठ्ठ० १.५७; अ० नि० अट्ठ० १.१.१७०; इतिवु० अट्ठ० २४)।
न हि लोकसम्मुतिं बुद्धा भगवन्तो विजहन्ति, लोकसमझाय लोकनिरुत्तिया लोकाभिलापे ठितायेव धम्मं देसेन्ति । अपिच “हिरोत्तप्पदीपनत्थं, कम्मस्सकतादीपनत्थ"न्ति (म० नि० अट्ठ० १.५७; अ० नि० अट्ठ० १.१.२०२; इतिवू० अट्ठ० २४; कथा० व० अनु० टी० १) एवमादीहिपि अट्ठहि कारणेहि भगवा पुग्गलकथं कथेती"ति एवं अधिप्पायमजानन्तो। अयमत्थो उपरि आवि भविस्सति । दुग्गहितं गण्हातीति "तथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि, यथा तदेविदं विज्ञाणं सन्धावति संसरति अनञ्ज"न्तिआदिना (म० नि० १.१४४) दुग्गहितं कत्वा गण्हाति, विपरीतं गण्हातीति वुत्तं होति । दुग्गहितन्ति हि भावनपुंसकनिद्देसो किरियायविसेसनभावेन नपुंसकलिङ्गेन निद्दिसितब्बत्ता। अयहि भावनपुंसकपदस्स पकति, यदिदं नपुंसकलिङ्गेन निद्दिसितब्बत्ता, भावप्पट्ठानता, सकम्माकम्मकिरियानुयोगं पच्चत्तोपयोगवचनता च । तेन वुत्तं “दुग्गहितं कत्वा"ति । यन्ति दुग्गहितगाहं । मज्झिमनिकाये मूलपण्णासके महातण्हासङ्घयसुत्ते (म० नि० १.१४४) तथावादीनं साधिनामकं केवट्टपुत्तं भिक्खं आरब्भ भगवता वुत्तं। अत्तना दुग्गहितेन धम्मेनाति पाठसेसो, मिच्छासभावेनाति अत्थो । अथ वा दुग्गहणं दुग्गहितं, अत्तनाति च सामिअत्थे करणवचनं, विभत्तियन्तपतिरूपकं वा अव्ययपदं, तस्मा अत्तनो दुग्गहणेन विपरीतगाहेनाति अत्यो। अभाचिक्खतीति अब्भक्खानं करोति । अत्तनो कुसलमूलानि खनन्तो अत्तानं खनति नाम । ततोति दुग्गहितभावहेतुतो ।
धम्मचिन्तन्ति धम्मसभावविचारं। अतिधावन्तोति ठातब्बमरियादायं अट्ठत्वा “चित्तुप्पादमत्तेनपि दानं होति, सयमेव चित्तं अत्तनो आरम्मणं होति, सब्बम्पि चित्तं सभावधम्मारम्मणमेव होती''ति च एवमादिना अतिक्कमित्वा पवत्तयमानो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
चिन्तेतुमसक्कुणेय्यानि, अनरहरूपानि वा अचिन्तेय्यानि नाम, तानि दस्सेन्तो "वुत्तहेत"न्तिआदिमाह । तत्थ अचिन्तेय्यानीति तेसं सभावदस्सनं । न चिन्तेतब्बानीति तत्थ कत्तब्बकिच्चदस्सनं । "यानी"तिआदि तस्स हेतुदस्सनं । यानि चिन्तेन्तो उम्मादस्स चित्तक्खेपस्स, विघातस्स विहेसस्स च भागी अस्स, अचिन्तेय्यानि इमानि चत्तारि न चिन्तेतब्बानि, इमानि वा चत्तारि अचिन्तेय्यानि नाम न चिन्तेतब्बानि, यानि वा...पे०... अस्स, तस्मा न चिन्तेतब्बानि अचिन्तेतब्बभूतानि इमानि चत्तारि अचिन्तेय्यानि नामाति योजना । इति-सद्देन पन -
"कतमानि चत्तारि? बुद्धानं भिक्खवे बुद्धविसयो अचिन्तेय्यो न चिन्तेतब्बो, यं चिन्तेन्तो उम्मादस्स विघातस्स भागी अस्स । झायिस्स भिक्खवे झानविसयो अचिन्तेय्यो...पे०... कम्मविपाको भिक्खवे अचिन्तेय्यो...पे०... लोकचिन्ता भिक्खवे अचिन्तेय्या...पे०... इमानि...पे०... अस्सा"ति (अ० नि० ४.७७)
चतुरङ्गुत्तरे वुत्तं अचिन्तेय्यसुत्तं आदि कत्वा सबं अचिन्तेय्यभावदीपकं पाळिं सङ्गण्हाति । कामं अचिन्तेय्यानि छ असाधारणञाणादीनि, तानि पन अनुस्सरन्तस्स कुसलुप्पत्तिहेतुभावतो चिन्तेतब्बानि, इमानि पन एवं न होन्ति अफलभावतो, तस्मा न चिन्तेतब्बानि । “दुस्सील्य...पे०... पभेद"न्ति इमिना विपत्तिं सरूपतो दस्सेति । “कथं ? पिटकवसेना''तिआदिवचनसम्बज्झनेन पुब्बापरसम्बन्धं दस्सेन्तो "एवं नानप्पकारतो"तिआदिमाह। पुब्बापरसम्बन्धविरहितहि वचनं ब्याकुलं । सोतूनञ्च अत्थविज्ञापकं न होति, पुब्बापरञ्जूनमेव च तथाविचारितवचनं विसयो । यथाह -
"पुब्बापरञ्जू अत्थञ्जू, निरुत्तिपदकोविदो । सुग्गहीतञ्च गण्हाति, अत्थञ्चो' पपरिक्खती''ति ।। (थेर० गा० १०३१)।
तेसन्ति पिटकानं । एतन्ति बुद्धवचनं ।
सीलक्खन्धवग्गमहावग्गपाथिकवग्गसङ्घातेहि तीहि वग्गेहि सङ्गहो एतेसन्ति तिवग्गसङ्गहानि। गाथाय पन यस्स निकायस्स सुत्तगणनतो चतुत्तिंसेव सुत्तन्ता। वग्गसङ्गहवसेन तयो वग्गा अस्स सङ्गहस्साति तिवग्गो सङ्गहो। पठमो एस निकायो
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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दीघनिकायोति अनुलोमिको अपच्चनीको, अत्थानुलोमनतो अत्थानुलोमनामिको वा, अन्वत्थनामोति अत्थो । तत्थ “तिवग्गो सङ्गहो''ति एतं “यस्सा"ति अन्तरिकेपि समासोयेव होति, न वाक्यन्ति दट्टब्बं "नवं पन भिक्खुना चीवरलाभेना"ति (पाचि० ३६८) एत्थ "नवंचीवरलाभेना"ति पदं विय । तथा हि अट्ठकथाचरिया वण्णयन्ति “अलब्भीति लभो, लभो एव लाभो । किं अलब्भि ? चीवरं । कीदिसं? नवं, इति 'नवचीवरलाभेना'ति वत्तब्बे अनुनासिकलोपं अकत्वा 'नवंचीवरलाभेना'ति वुत्तं, पटिलद्धनवचीवरेनाति अत्थो । मज्झे ठितपदद्वये पनाति निपातो । भिक्खुनाति येन लद्धं, तस्स निदस्सन''न्ति (पाचि० अट्ठ० ३६८)। इधापि सद्दतो, अत्थतो च वाक्ये युत्तियाअभावतो समासोयेव सम्भवति । “तिवग्गो''ति पदहि “सङ्गहो”ति एत्थ यदि करणं, एवं सति करणवचनन्तमेव सिया । यदि च पदद्वयमेतं तुल्याधिकरणं, तथा च सति नपुंसकलिङ्गमेव सिया “तिलोक"न्तिआदिपदं विय। तथा “तिवग्गो"ति एतस्स “सङ्गहो''ति पदमन्तरेन अञत्थासम्बन्धो न सम्भवति, तत्थ च तादिसेन वाक्येन सम्बज्झनं न युत्तं, तस्मा समानेपि पदन्तरन्तरिके सद्दत्थाविरोधभावोयेव समासताकारणन्ति समासो एव युत्तो । तयो वग्गा अस्स सङ्गहस्साति हि तिवग्गोसङ्गहो अकारस्स ओकारादेसं, ओकारागमं वा कत्वा यथा “सत्ताहपरिनिब्बतो, अचिरपक्कन्तो, मासजातो"तिआदि, अस्स सङ्गहस्साति च सङ्गहितस्स अस्स निकायस्साति अत्थो । अपरे पन “तयो वग्गा यस्साति कत्वा 'सङ्गहोति पदेन तुल्याधिकरणमेव सम्भवति, सङ्गहोति च गणना । टीकाचरियेहि (सारत्थ टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) पन 'तयो वग्गा अस्स सङ्गहस्सा'ति पदद्वयस्स तुल्याधिकरणतायेव दस्सिता'"ति वदन्ति, तदयुत्तमेव सङ्ख्यासङ्ख्येय्यानं मिस्सकत्ता, अपाकटत्ता च।
अत्थानुलोमिकत्तं विभावेतुमाह "कस्मा"तिआदि । गुणोपचारेन, तद्धितवसेन वा दीघ-सद्देन दीघप्पमाणानि सुत्तानियेव गहितानि, निकायसद्दो च रुळिहवसेन समूहनिवासत्थेसु वत्ततीति दस्सेति "दीघप्पमाणान"न्तिआदिना। सङ्केतसिद्धत्ता वचनीयवाचकानं पयोगतो तदत्थेसु तस्स सङ्केतसिद्धतं आपेन्तो "नाह"न्तिआदिमाह । एकनिकायम्पीति एकसमूहम्पि । एवं चित्तन्ति एवं विचित्तं । यथयिदन्ति यथा इमे तिरच्छानगता पाणा | पोणिका, चिक्खल्लिका च खत्तिया, तेसं निवासो "पोणिकनिकायो चिक्खल्लिकनिकायो"ति वुच्चति । एत्थाति निकायसद्दस्स समूहनिवासानं वाचकभावे । साधकानीति अधिप्पेतस्सत्थस्स साधनतो उदाहरणानि वुच्चन्ति । “समानीतानी''ति पाठसेसेन चेतस्स सम्बन्धो, सक्खीनि वा यथावुत्तनयेन साधकानि | यहि निद्धारेत्वा अधिप्पेतत्थं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
साधेन्ति, तं "सक्खी''ति वदन्ति । तथा हि मनोरथपूरणियं वुत्तं “पञ्चगरुजातकं (जा० १.१.१३२) पन सक्खिभावत्थाय आहरित्वा कथेतब्बन्ति (अ० नि० अट्ठ० १.१.५) सासनतोति सासनपयोगतो, सासने वा । लोकतोति लोकियपयोगतो, लोके वा। इदं पन पिटकत्तये न विज्जति, तस्मा एवं वुत्तन्ति वदन्ति । एत्थ च पठममुदाहरणं सासनतो साधकवचनं, दुतियं लोकतोति दट्टब्बं ।
मूलपरियाय वग्गादिवसेन पञ्चदसवग्गसङ्गहानि । अड्डेन दुतियं दिय९, तदेव सतं, एकसतं, पञ्जास च सुत्तानीति वुत्तं होति । यत्थाति यस्मिं निकाये । पञ्चदसवग्गपरिग्गहोति पञ्चदसहि वग्गेहि परिग्गहितो सङ्गहितो।
संयुज्जन्ति एत्थाति संयुत्तं, केसं संयुत्तं ? सुत्तवग्गानं । यथा हि ब्यञ्जनसमुदाये पदं, पदसमुदाये च वाक्यं, वाक्यसमुदाये सुत्तं, सुत्तसमुदाये वग्गोति समझा, एवं वग्गसमुदाये संयुत्तसमझा। देवताय पुच्छितेन कथितसुत्तवग्गादीनं संयुत्तत्ता देवतासंयुत्तादिभावो, (सं० नि० १.१.१) तेनाह "देवतासंयुत्तादिवसेना"तिआदि । “सुत्तन्तानं सहस्सानि सत्त सुत्तसतानि चा''ति पाठे सुत्तन्तानं सत्त सहस्सानि, सत्त सुत्तसतानि चाति योजेतब्बं । “सत्त सुत्तसहस्सानि, सत्त सुत्तसतानि चा"तिपि पाठो । संयुत्तसङ्गहोति संयुत्तनिकायस्स सङ्गहो गणना ।
एकेकेहि अङ्गेहि उपरूपरि उत्तरो अधिको एत्थाति अङ्गुत्तरोति आह "एकेकअङ्गातिरेकवसेना'तिआदि । तत्थ हि एकेकतो पट्ठाय याव एकादस अङ्गानि कथितानि । अङ्गन्ति च धम्मकोट्ठासो ।
पुब्बेति सुत्तन्तपिटकनिद्देसे । वुत्तमेव पकारन्तरेन सजिपित्वा अविसेसेत्वा दस्सेतुं "ठपेत्वा"तिआदि वुत्तं । "सकलं विनयपिटक"न्तिआदिना वुत्तमेव हि इमिना पकारन्तरेन सङ्खिपित्वा दस्सेति । अपिच यथावुत्ततो अवसिटुं यं किञ्चि भगवता दिन्ननये ठत्वा देसितं, भगवता च अनुमोदितं नेत्तिपेटकोपदेसादिकं, तं सब्बम्पि एत्थेव परियापन्नन्ति अनवसेसपरियादानवसेन दस्सेतुं एवं वुत्तन्तिपि दट्टब्बं । सिद्धेपि हि सति आरम्भो अत्थन्तरविज्ञापनाय वा होति, नियमाय वाति । एत्थ च यथा “दीघप्पमाणान''न्तिआदि वुत्तं, एवं "खुद्दकप्पमाणान"न्तिआदिमवत्वा सरूपस्सेव कथनं विनयाभिधम्मादीनं दीघप्पमाणानम्पि तदन्तोगधतायाति दट्ठब्, तेन च विज्ञायति "न सब्बत्थ
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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खुद्दकपरियापन्नेसु तस्स अन्वत्थसमझता, दीघनिकायादिसभावविपरीतभावसामझेन पन कत्थचि तब्बोहारता''ति । तदअन्ति तेहि चतूहि निकायेहि अनं, अवसेसन्ति अत्थो ।
नवप्पभेदन्ति एत्थ कथं पनेतं नवप्पभेदं होति । तथा हि नवहि अङ्गेहि ववत्थितेहि अञमञसङ्कररहितेहि भवितब्बं, तथा च सति असुत्तसभावानेव गेय्यङ्गादीनि सियुं, अथ सुत्तसभावानेव गेय्यङ्गादीनि, एवं सति सुत्तन्ति विसुं सुत्तङ्गमेव न सिया, एवं सन्ते अट्टङ्गं सासनन्ति आपज्जति । अपिच “सगाथकं सुत्तं गेय्यं, निग्गाथकं सुत्तं वेय्याकरण"न्ति (दी० नि० अट्ठ०, पारा० अट्ठ० पठममहासङ्गीतिकथा) अट्ठकथायं वुत्तं । सुत्तञ्च नाम सगाथकं वा सिया, निग्गाथकं वा, तस्मा अङ्गद्वयेनेव तदुभयं सङ्गहितन्ति तदुभयविनिमुत्तं सुत्तं उदानादिविसेससारहितं नत्थि, यं सुत्तङ्गं सिया, अथापि कथञ्चि विसुं सुत्तमं सिया, मङ्गलसुत्तादीनं (खु० पा० १; सु० नि० २६१) सुत्तङ्गसङ्गहो न सिया गाथाभावतो धम्मपदादीनं विय । गेय्यङ्गसङ्गहो वा सिया सगाथकत्ता सगाथावग्गस्स विय । तथा उभतोविभङ्गादीसु सगाथकप्पदेसानन्ति ? वुच्चते -
सुत्तन्ति सामञविधि, विसेसविधयो परे । सनिमित्ता निरुळहत्ता, सहताञ्जेन नाचतो ।। (दी० नि० टी० १.पठममहासङ्गीतिकथा)।
यथावुत्तस्स दोसस्स, नत्थि एत्थावगाहणं । तस्मा असङ्करंयेव, नवङ्गं सत्थुसासनं ।। १.पठममहासङ्गीतिकथा)।
(सारथ
टी०
सब्बस्सापि हि बुद्धवचनस्स सुत्तन्ति अयं सामञविधि । तथा हि “एत्तकं तस्स भगवतो सुत्तागतं सुत्तपरियापनं, (पाचि० अट्ठ० ६५५, १२४२) सावत्थिया सुत्तविभङ्गे, (चूळ० व० ४५६) सकवादे पञ्च सुत्तसतानी"तिआदि (ध० स० अट्ठ० निदानकथा) वचनतो विनयाभिधम्मपरियत्ति विसेसेसुपि सुत्तवोहारो दिस्सति । तेनेव च आयस्मा महाकच्चायनो नेत्तियं आह "नवविधसुत्तन्तपरियेट्टी"ति (नेत्ति० सङ्गहवारवण्णना) तत्थ हि सुत्तादिवसेन नवङ्गस्स सासनस्स परियेट्ठि परियेसना अत्थविचारणा “नवविध सुत्तन्तपरियेट्टी"ति वुत्ता। तदेकदेसेसु पन परे गेय्यादयो सनिमित्ता विसेसविधयो तेन तेन निमित्तेन पतिट्ठिता। तथा हि गेय्यस्स सगाथकत्तं तब्भावनिमित्तं । लोकेपि हि ससिलोकं सगाथकं चुण्णियगन्थं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका १
"गेय्य''न्ति वदन्ति, गाथाविरहे पन सति पुच्छं कत्वा विस्सज्जनभावो वेय्याकरणस्स तब्भावनिमित्तं । पुच्छाविस्सज्जनहि “ब्याकरण"न्ति वुच्चति, ब्याकरणमेव वेय्याकरणं । एवं सन्ते सगाथकादीनम्पि पुच्छं कत्वा विस्सज्जनवसेन पवत्तानं वेय्याकरणभावो आपज्जतीति ? नापज्जति गेय्यादिसञ्जानं अनोकासभावतो। सओकासविधितो हि अनोकासविधि बलवा । अपिच “गाथाविरहे सती"ति विसेसितत्ता । यथाधिप्पेतस्स हि अत्थस्स अनधिप्पेततो ब्यवच्छेदकं विसेसनं । तथा हि धम्मपदादीसु केवलगाथाबन्धेसु, सगाथकत्तेपि सोमनस्ससाणमयिकगाथापटिस त्तेसु, “वुत्तं हेत''न्तिआदिवचन सम्बन्धेसु, अब्भुतधम्मपटिसंयुत्तेसु च सुत्तविसेसेसु यथाक्कम गाथाउदानइतिवृत्तक अब्भुतधम्मसञ्जा पतिट्ठिता। एत्थ हि सतिपि सञआन्तरनिमित्तयोगे अनोकाससञानं बलवभावेनेव गाथादिसञा पतिहिता, तथा सतिपि गाथाबन्धभावे भगवतो अतीतासु जातीसु चरियानुभावप्पकासकेसु जातकसम्रा पतिहिता, सतिपि पहाविस्सज्जनभावे, सगाथकत्ते च केसुचि सुत्तन्तेसु वेदस्स लभापनतो वेदल्लसम्रा पतिट्ठिता, एवं तेन तेन सगाथकत्तादिना निमित्तेन तेसु तेसु सुत्तविसेसेसु गेय्यादिसञा पतिट्ठिताति विसेसविधयो सुत्तङ्गतो परे गेय्यादयो, यं पनेत्थ गेय्यङ्गादिनिमित्तरहितं, तं सुत्तङ्गमेव विसेससञ्जापरिहारेन सामञ्जसञाय पवत्तनतो। ननु च एवं सन्तेपि सगाथकं सुत्तं गेय्यं, निग्गाथकं सुत्तं वेय्याकरणन्ति तदुभयविनिमुत्तस्स सुत्तस्स अभावतो विसुं सुत्तङ्गमेव न सियाति चोदना तदवत्था एवाति ? न तदवत्था सोधितत्ता । सोधितहि पुब्बे गाथाविरहे सति पुच्छाविस्सज्जनभावो वेव्याकरणस्स तब्भावनिमित्तन्ति |
यञ्च वुत्तं “गाथाभावतो मङ्गलसुत्तादीनं (खु० पा० १; सु० नि० २६१) सुत्तङ्गसङ्गहो न सिया''ति, तम्पि न, निरुळहत्ता । निरुळहो हि मङ्गलसुत्तादीनं सुत्तभावो । न हि तानि धम्मपदबुद्धवंसादयो विय गाथाभावेन सञितानि, अथ खो सुत्तभावेनेव । तेनेव हि अठ्ठकथायं “सुत्तनामक"न्ति नामग्गहणं कतं । यञ्च पन वुत्तं “सगाथकत्ता गेय्यङ्गसङ्गहो वा सिया'ति, तम्पि नत्थि। कस्माति चे ? यस्मा सहताजेन, तस्मा | सहभावो हि नाम अत्ततो अजेन होति । सह गाथाहीति च सगाथकं, न च मङ्गलसुत्तादीसु गाथाविनिमुत्तो कोचि सुत्तपदेसो अत्थि, यो “सह गाथाही''ति वुच्चेय्य, ननु च गाथासमुदायो तदेकदेसाहि गाथाहि अञो होति, यस्स वसेन “सह गाथाही"ति सक्का वत्तुन्ति ? तं न । न हि अवयवविनिमुत्तो समुदायो नाम कोचि अत्थि, यो तदेकदेसेहि सह भवेय्य । कत्थचि पन “दीघसुत्तङ्कितस्सा'"तिआदीसु समुदायेकदेसानं विभागवचनं वोहारमत्तं पति परियायवचनमेव, अयञ्च निप्परियायेन
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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पभेदविभागदस्सनकथाति । यम्पि वुत्तं “उभतोविभङ्गादीसु सगाथकप्पदेसानं गेय्यङ्गसङ्गहो सिया"ति, तम्पि न, अञतो। अञआयेव हि ता गाथा जातकादिपरियापन्नत्ता । तादिसायेव हि कारणानुरूपेन तत्थ देसिता, अतो न ताहि उभतोविभङ्गादीनं गेय्यङ्गभावोति । एवं सुत्तादिनवङ्गानं अञमञसङ्कराभावो वेदितब्बोति ।
इदानि एतानि नवङ्गानि विभजित्वा दस्सेन्तो "तत्था"तिआदिमाह । निद्देसो नाम सुत्तनिपाते -
"कामं कामयमानस्स, तस्स चे तं समिज्झति । अद्धा पीतिमनो होति, लद्धा मच्चो यदिच्छती"तिआदिना ।। (सु० नि० ७७२)।
आगतस्स अट्ठकवग्गस्स;
"केनस्सु निवुतो लोको, (इच्चायस्मा अजितो) ।
केनस्सु न पकासति । किस्साभिलेपनं ब्रूसि,
किंसु तस्स महब्भय''न्तिआदिना ।। (सु० नि० १०३८)।
आगतस्स पारायनवग्गस्स;
“सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं,
___ अविहेठयं अञतरम्पि तेसं । न पुत्तमिच्छेय्य कुतो सहायं,
एको चरे खग्गविसाणकप्पोतिआदिना ।। (सु० नि० ३५)।
आगतस्स खग्गविसाणसुत्तस्स च अत्थविभागवसेन सत्थुकप्पेन आयस्मता धम्मसेनापतिसारिपुत्तत्थेरेन कतो निद्देसो, यो “महानिदृसो, चूळनिद्देसो''ति वुच्चति । एवमिध निद्देसस्स सुत्तङ्गसङ्गहो भदन्तबुद्धधोसाचरियेन दस्सितो, तथा अञत्थापि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
विनयट्ठकथादीसु, आचरियधम्मपालत्थेरेनापि नेत्तिप्पकरणट्ठकथायं । अपरे पन निद्देसस्स गाथावेय्याकरणङ्गेसु द्वीसु सङ्ग्रहं वदन्ति । वुत्तऱ्हेतं निद्देसट्ठकथायं उपसेनत्थेरेन
“सो पनेस विनयपिटकं... पे०... अभिधम्मपिटकन्ति तीसु पिटकेसु सुत्तन्तपिटकपरियापन्नो, दीघनिकायो...पे०... खुद्दकनिकायोति पञ्चसु निकायेसु खुद्दकमहानिकायपरियापन्नो, सुत्तं ...पे०... वेदल्लन्ति नवसु सत्थुसासनङ्गेसु यथासम्भवं गाथङ्गवेय्याकरणङ्गद्वयसङ्गहितो " ति ( महानि० अट्ठ० गन्थारम्भकथा) ।
एत्थ ताव कत्थचि पुच्छाविस्सज्जनसब्भावतो निद्देसेकदेसस्स वेय्याकरणङ्गसङ्गहो युज्जतु, अगाथाभावतो गाथङ्गसङ्गहो कथं युज्जेय्याति वीमंसितब्बमेतं । धम्मापदादीनं विय हि केवलं गाथाबन्धभावो गाथङ्गस्स तब्भावनिमित्तं । धम्मपदादीसु हि केवलं गाथाबन्धेसु गाथासमञ्ञा पतिट्ठिता, निद्देसे च न कोचि केवलो गाथाबन्दप्पदेसो उपलब्भति । सम्मासम्बुद्धेन भासितानंयेव हि अट्ठकवग्गादिसङ्गहितानं गाथानं निद्देसमत्तं धम्मसेनापतिना कतं । अत्थविभजनत्थं आनीतापि हि ता अट्ठकवग्गादिसङ्गहिता निद्दिसितब्बा मूलगाथायो सुत्तनिपातपरियापन्नत्ता अञ्ञायेवाति न निद्देससङ्ख्यं गच्छन्ति उभतोविभङ्गादीसु आगतापि तं वोहारमलभमाना जातकादिपरियापन्ना गाथायो विय, तस्मा कारणन्तरमेत्थ गवेसितब्बं, युत्तरं वा गतब्बं ।
नालकसुत्तं नाम धम्मचक्कप्पवत्तित दिवसतो सत्तमे दिवसे नालकत्थेरस्स "मोनेय्यं ते उपञ्ञिस्स”न्तिआदिना (सु० नि० ७०६) भगवता भासितं मोनेय्य पटिपदापरिदीपकं सुत्तं । तुवट्टकसुतं नाम महासमयसुत्तन्तदेसनाय सन्निपतितेसु देवेसु “का नु खो अरहत्तप्पत्तिया पटिपत्ती 'ति उप्पन्नचित्तानं एकच्चानं देवतानं तमत्थं पकासेतुं निम्मितबुद्धेन अत्तानं पुच्छापेत्वा "मूलं पपञ्चसङ्घाया ''तिआदिना (सु० नि० ९२२) भगवता भासितं सुतं । एवमिध सुत्तनिपाते आगतानं मङ्गलसुत्तादीनं सुत्तङ्गसङ्गहो दस्सितो, तत्थेव आगतानं असुत्तनामिकानं सुद्धिकगाथानं गाथङ्गसङ्गहञ्च दस्सयिस्सति, एवं सति सुत्तनिपातट्ठकथारम्भे
"गाथासतसमाकिण्णो, गेय्यब्याकरणङ्कितो ।
कस्मा सुत्तनिपातोति, सङ्घमेस गतोति चे 'ति । । (सु० नि० अट्ठ० १. गन्थारम्भकथा) |
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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सकलस्सापि सुत्तनिपातस्स गेय्यवेय्याकरणङ्गसङ्गहो कस्मा चोदितोति ? नायं विरोधो । केवलन्हि तत्थ चोदकेन सगाथकत्तं, कत्थचि पुच्छाविस्सज्जनत्तञ्च गहेत्वा चोदनामत्तं कतं, अञथा सुत्तनिपाते निग्गाथकस्स सुत्तस्सेव अभावतो वेय्याकरणङ्गसङ्गहो न चोदेतब्बो सिया, तस्मा चोदकस्स वचनमेतं अप्पमाणन्ति इध, अञासु च विनयट्ठकथादीसु वुत्तनयेनेव तस्स सुत्तङ्गगाथङ्गसङ्गहो दस्सितोति । सुत्तन्ति चुण्णियसुत्तं । विसेसेनाति रासिभावेन ठितं सन्धायाह । सगाथावग्गो गेय्यन्ति सम्बन्धो ।
“अट्ठहि अङ्गेहि असङ्गहितं नाम पटिसम्भिदादी"ति तीसुपि किर गण्ठिपदेसु वुत्तं । अपरे पन पटिसम्भिदामग्गस्स गेय्यवेय्याकरणङ्गद्वयसङ्गहं वदन्ति । वुत्तव्हेतं तदट्ठकथायं "नवसु सत्थुसासनङ्गेसु यथासम्भवं गेय्यवेय्याकरणङ्गद्वयसङ्गहित"न्ति (पटि० म० अट्ठ० १.गन्थारम्भकथा), एत्थापि गेय्यङ्गसङ्गहितभावो वुत्तनयेन वीमंसितब्बो । नो सुत्तनामिकाति असुत्तनामिका सङ्गीतिकाले सुत्तसमझाय अपञाता । “सुद्धिकगाथा नाम वत्थुगाथा"ति तीसुपि किर गण्ठिपदेसु वुत्तं, वत्थुगाथाति च पारायनवग्गस्स निदानमारोपेन्तेन आयस्मता आनन्दत्थेरेन सङ्गीतिकाले वुत्ता छप्पास गाथायो, नालकसुत्तस्स निदानमारोपेन्तेन तेनेव तदा वुत्ता वीसतिमत्ता गाथायो च वुच्चन्ति। सुत्तनिपातट्ठकथायं (सु० नि० अट्ठ० २.६८५) पन “परिनिब्बुते भगवति सङ्गीतिं करोन्तेनायस्मता महाकस्सपेन तमेव मोनेय्यपटिपदं पुट्ठो आयस्मा आनन्दो येन, यदा च समादपितो नालकत्थेरो भगवन्तं पूच्छि, तं सब्बं पाकटं कत्वा दस्सेतुकामो 'आनन्दजाते'तिआदिका (सु० नि० ६८४) वीसति वत्थुगाथायो वत्वा विस्सज्जेसि, तं सब्बम्पि 'नालकसुत्तन्ति वुच्चती"ति आगतत्ता नालकसुत्तस्स वत्थुगाथायो नालकसुत्तग्गहणेनेव गहिताति पारायनवग्गस्स वत्थुगाथायो इध सुद्धिकगाथाति गहेतब् । तत्थेव च पारायनवग्गे अजितमाणवकादीनं सोळसन्नं ब्राह्मणानं पुच्छागाथा, भगवतो विस्सज्जनगाथा च पाळियं सुत्तनामेन अवत्वा 'अजितमाणवकपुच्छा, तिस्समेत्तेय्यमाणवकपुच्छा''तिआदिना (सु० नि० १०३८) आगतत्ता, चुण्णियगन्थे हि असम्मिस्सत्ता च "नो सुत्तनामिका सुद्धिकगाथा नामा''ति वत्तुं वट्टति ।
"सोमनस्साणमयिकगाथापटिसंयुत्ता"ति एतेन उदानटेन उदानन्ति अन्वत्थसञ्जतं दस्सेति (उदान अट्ठ० गन्थारम्भकथा) किमिदं उदानं नाम ? पीतिवेगसमुट्ठापितो उदाहारो | यथा हि यं तेलादि मिनितब्बवत्थु मानं गहेतुं न सक्कोति, विस्सन्दित्वा गच्छति, तं “अवसेसको"ति वुच्चति । यञ्च जलं तळाकं गहेतुं न सक्कोति, अज्झोत्थरित्वा गच्छति, तं “महोघोति वुच्चति, एवमेव यं पीतिवेगसमुट्ठापितं वितक्कविष्फारं अन्तोहदयं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
सन्धारेतुं न सक्कोति, सो अधिको हुत्वा अन्तो असण्ठहित्वा बहि वचीद्वारेन निक्खन्तो पटिग्गाहकनिरपेक्खो उदाहारविसेसो "उदान"न्ति वुच्चति (उदान अट्ठ० गन्थारम्भकथा) "उद मोदे कीळायञ्चा"ति हि अक्खरचिन्तका वदन्ति, इदञ्च येभुय्येन वुत्तं धम्मसंवेगवसेन उदितस्सापि “सचे भायथ दुक्खस्सा"तिआदिउदानस्स (उदा० ४४) उदानपाळियं आगतत्ता, तथा 'गाथापटिसंयुत्ता''ति इदम्पि येभुय्येनेव “अस्थि भिक्खवे, तदायतनं, यत्थ नेव पथवी, न आपो"तिआदिकस्स (उदा० ७१) चुण्णियवाक्यवसेन उदितस्सापि तत्थ आगतत्ता। ननु च उदानं नाम पीतिसोमनस्ससमुट्टापितो, धम्मसंवेगसमुट्ठापितो वा धम्मपटिग्गाहकनिरपेक्खो गाथाबन्धवसेन, चुण्णियवाक्यवसेन च पवत्तो उदाहारो, तथा चेव सब्बत्थ आगतं, इध कस्मा "भिक्खवे"ति आमन्तनं वृत्तन्ति ? तेसं भिक्खनं सापनत्थं एव. न पटिग्गाहककरणत्थं । निब्बानपटिसंयत्तहि भगवा धम्म देसेत्वा निब्बानगुणानुस्सरणेन उप्पन्नपीतिसोमनस्सेन उदानं उदानेन्तो “अयं निब्बानधम्मो कथमपच्चयो उपलब्भती''ति तेसं भिक्खूनं चेतोपरिवितक्कमञाय तेसं तमत्थं आपेतुकामेन “तदायतन'"न्ति वुत्तं, न पन एकन्ततो ते पटिग्गाहके कत्वाति वेदितब्बन्ति ।
तयिदं सब्ब बुद्धभासितं पच्चेकबुद्धभासितं सावकभासितन्ति तिब्बिधं होति । तत्थ पच्चेकबुद्धभासितं -
“सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं, अविहेठयं अञ्जतरम्पि तेस''न्ति ।। आदिना (सु० नि० ३५)
खग्गविसाणसुत्ते आगतं । सावकभासितम्पि --
"सब्बो रागो पहीनो मे,
सब्बो दोसो समूहतो । सब्बो मे विहतो मोहो,
सीतिभूतोस्मि निब्बुतो"ति ।। आदिना (थेरगा० ७९) -
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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थेरगाथासु,
"कायेन संवुता आसिं, वाचाय उद चेतसा । समूलं तण्हमब्बुव्ह, सीतिभूताम्हि निब्बुता''ति ।। (थेरीगा० १५)।
थेरीगाथासु च आगतं । अञ्जानिपि सक्कादीहि देवेहि भासितानि “अहो दानं परमदानं, कस्सपे सुप्पतिद्वित"न्तिआदीनि (उदा० २७)। सोणदण्डब्राह्मणादीहि मनुस्सेहि च भासितानि “नमो तस्स भगवतो''तिआदीनि (दी० नि० २.३७१; म० नि० १.२९०; २.२९०, ३५७; सं० नि० ११८७; १.२.३८; अ० नि० २.५.१९४) तिस्सो सङ्गीतियो आरुळहानि उदानानि सन्ति एव, तानि सब्बानिपि इध न अधिप्पेतानि । यं पन सम्मासम्बुद्धेन सामं आहच्चभासितं जिनवचनभूतं, तदेव धम्मसङ्गाहकेहि “उदान"न्ति सङ्गीतं, तदेव च सन्धाय भगवता परियत्तिधम्मं नवधा विभजित्वा उद्दिसन्तेन "उदान"न्ति वुत्तं । या पन “अनेकजातिसंसार''न्तिआदिका (ध० प० १५३) गाथा भगवता बोधिमूले उदानवसेन पवत्तिता, अनेकसतसहस्सानं सम्मासम्बुद्धानं उदानभूता च, ता अपरभागे धम्मभण्डागारिकस्स भगवता देसितत्ता धम्मसङ्गाहकेहि उदानपाळियं सङ्गहं अनारोपेत्वा धम्मपदे सङ्गहिता, यञ्च “अञासि वत भो कोण्डञो अञासि वत भो कोण्डञो''ति (सं० नि० ३.५.१०८१; महा० व० १७; पटि० म० २.३०) उदानवचनं दससहस्सिलोकधातुया देवमनुस्सानं पवेदनसमत्थनिग्घोसविप्फारं भगवता भासितं, तदपि पठमबोधियं सब्बेसं एव भिक्खून सम्मापटिपत्तिपच्चवेक्खणहेतुकं "आराधयिंसु वत मं भिक्खू एकं समय"न्तिआदिवचनं (म० नि० १.२२५) विय धम्मचक्कप्पवत्तनसुत्तन्तदेसनापरियोसाने अत्तनापि अधिगतधम्मेकदेसस्स यथादेसितस्स अरियमग्गस्स सब्बपठमं सावकेसु थेरेन अधिगतत्ता अत्तनो परिस्समस्स सफलभावपच्चवेक्खणहेतुतं पीतिसोमनस्सजनितं उदाहारमत्तं, न पन “यदा हवे पातुभवन्ति धम्मा"तिआदिवचनं विय (महा० व० १; उदा० १) पवत्तिया, निवत्तिया वा पकासनन्ति धम्मसङ्गाहकेहि उदानपाळियं न सङ्गीतन्ति दट्ठब्बं । उदानपाळियं पन अट्ठसु वग्गेसु दस दस कत्वा असीतियेव सुत्तन्ता सङ्गीता । तथा हि तदट्ठकथायं वुत्तं -
"असीतियेव सुत्तन्ता, वग्गा अट्ठ समासतो''ति । (उदा० गन्थारम्भकथा)।
अट्ठ०
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
इध पन " द्वेअसीति सुत्तन्ता "ति वुत्तं तं उदानपाळिया न समेति, तस्मा 'असीति सुत्तन्ता' 'ति पाठेन भवितब्बं । अपिच न केवलं इधेव, अथ खो असु (वि० अट्ठ० १. पठममहासङ्गीतिकथा) विनयाभिधम्मट्ठकथासु (ध० सं० निदानकथा) तथायेव वुत्तत्ता “अप्पकं पन ऊनमधिकं वा गणनूपगं न होती 'ति परियायेन अनेकंसेन वुत्तं सिया । यथा वा तथा वा अनुमानेन गणनमेव हि तत्थ तत्थ ऊनाधिकसङ्ख्या, इतरथा तायेव न सियुन्तिपि वदन्ति, पच्छा पमादलेखवचनं वा एतं ।
वुत्तहेतं भगवताति आदिनयप्पवत्ताति एत्थ आदिसद्देन “वुत्तहेतं भगवता, वुत्तमरहताति मे सुतं । एकधम्मं भिक्खवे, पजहथ, अहं वो पाटिभोगो अनागामिताय । कतमं एकधम्मं ? लोभं भिक्खवे, एकधम्मं पजहथ, अहं वो पाटिभोगो अनागामिताया’ति (इतिवु० १) एवमादिना एकदुकतिकचतुक्कनिपातवसेन वुत्तं द्वादसुत्तरसतसुत्तसमूहं सङ्गण्हाति । तथा हि इतिवृत्तकपाळियमेव उदानगाथाहि द्वादसुत्तरसतसुत्तानि गणेत्वा सङ्गीतानि, तदट्ठकथायम्पि (इतिवु० अट्ठ० निदानवण्णना) तथायेव वृत्तं । तस्मा “द्वादसुत्तरसतसुत्तन्ता” इच्चेव पाठेन भवितब्बं, यथावुत्तनयेन वा अनेकंसतो वुत्तन्तिपि वत्तुं सक्का, तथापि ईदिसे ठाने पमाणं दस्सेन्तेन याथावतोव नियमेत्वा दस्सेतब्बन्ति “दसुत्तरसतसुत्तन्ता'ति इदं पच्छा पमादलेखमेवाति गहेतब्बन्ति वदन्ति । इति एवं भगवता वृत्तं इतिवृत्तं । इतिवृत्तन्ति सङ्गीतं इतिवृत्तकं । रुळ्हिनामं वा एतं यथा “येवापनकं, नतुम्हाकवग्गो "ति, वुत्तञ्हेतं भगवता वुत्तमरहताति मे सुतन्ति निदानवचनेन सङ्गीतं यथावुत्तसुत्तसमूहं
जातं भूतं पुरावुत्थं भगवतो पुब्बचरितं कायति कथेति पकासेति एतेनाति जातकं, तं पन इमानीति दस्सेतुं " अपण्णकजातकादीनी "तिआदिमाह । तत्थ “ पञ्ञासाधिकानि पञ्चजातकसतानी" ति इदं अप्पकं पन ऊनमधिकं वा गणनूपगं न होतीति कत्वा अनेकंसेन, वोहारसुखतामत्तेन च वुत्तं । एकंसतो हि सत्तचत्तालीसाधिकानियेव यथावुत्तगणनतो तीहि ऊनत्ता । तथा हि एकनिपाते पञ्ञाससतं, दुकनिपाते सतं, तिकनिपाते पञ्ञास, तथा चतुक्कनिपाते, पञ्चकनिपाते पञ्चवीस, छक्कनिपाते वीस, सत्तनिपाते एकवीस, अट्ठनिपाते दस, नवनिपाते द्वादस, दसनिपाते सोळस, एकादसनिपाते नव, द्वादसनिपाते दस, तथा तेरसनिपाते, पकिण्णकनिपाते तेरस, वीसतिनिपाते चुद्दस, तिंसनिपाते दस, चत्तालीसनिपाते पञ्च, पण्णासनिपाते तीणि,
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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सट्ठिनिपाते द्वे, तथा सत्ततिनिपाते, असीतिनिपाते पञ्च, महानिपाते दसाति सत्तचत्तालीसाधिकानेव पञ्च जातकसतानि सङ्गीतानीति ।
अब्भुतो धम्मो सभावो वुत्तो यत्थाति अन्भुतधम्म, तं पनिदन्ति आह "चत्तारोमे"तिआदि । आदिसद्देन चेत्थ -
"चत्तारोमे भिक्खवे, अच्छरिया अब्भुता धम्मा आनन्दे । कतमे चत्तारो ? सचे भिक्खवे, भिक्खुपरिसा आनन्दं दस्सनाय उपसङ्कमति, दस्सनेनपि सा अत्तमना होति । तत्र चे आनन्दो, धम्मं भासति, भासितेनपि सा अत्तमना होति, अतित्ताव भिक्खवे भिक्खुपरिसा होति, अथ आनन्दो तुण्ही भवति । सचे भिक्खवे, भिक्खुनीपरिसा...पे०... उपासकपरिसा...पे०... उपासिका - परिसा...पे०... तुण्ही भवति । इमे खो भिक्खवे...पे०... आनन्दे"ति (अ० नि० ४.१२९)
एवमादिनयप्पवत्तं तत्थ तत्थ भासितं सब्बम्पि अच्छरियब्भुतधम्मपटिसंयुत्तं सुत्तन्तं सङ्गण्हाति ।
चूळवेदल्लादीसु (म० नि० १.४६०) विसाखेन नाम उपासकेन पुट्ठाय धम्मदिन्नाय नाम भिक्खुनिया भासितं सुत्तं चूळवेदल्लं नाम | महाकोट्टिकत्थेरेन पुच्छितेन आयस्मता सारिपुत्तत्थेरेन भासितं महावेदल्लं (म० नि० १.४४९) नाम | सम्मादिद्विसुत्तम्पि (म० नि० १.८९) भिक्खूहि पुढेन तेनेव भासितं, एतानि मज्झिमनिकायपरियापन्नानि । सक्कपहं (दी० नि० २.३४४) पन सक्केन पुट्ठो भगवा अभासि, तं दीघनिकायपरियापन्नं । महापुण्णमसुत्तं (म० नि० ३.८५) पन तदहुपोसथे पन्नरसे पुण्णमाय रत्तिया अञतरेन भिक्खुना पुढेन भगवता भासितं, तं मज्झिमनिकायपरियापन्नं । एवमादयो सब्बेपि तत्थ तत्थागता वेदञ्च तुट्ठिञ्च लद्धा लद्धा पुच्छितसुत्तन्ता “वेदल्ल"न्ति वेदितब्बं । वेदन्ति आणं । तुट्ठिन्ति यथाभासितधम्मदेसनं विदित्वा “साधु अय्ये साधावुसो"तिआदिना अब्भनुमोदनवसप्पवत्तं पीतिसोमनस्सं । लद्धा लद्धाति लभित्वा लभित्वा, पुनप्पुनं लभित्वाति वुत्तं होति, एतेन वेदसद्दो जाणे, सोमनस्से च एकसेसनयेन, सामञ्जनिद्देसेन वा पवत्तति, वेदम्हि निस्सितं तस्स लभापनवसेनाति वेदल्लन्ति च दस्सेति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
एवं अङ्गवसेन सकलम्पि बुद्धवचनं विभजित्वा इदानि धम्मक्खन्धवसेन विभजितुकामो "कथ"न्तिआदिमाह । तत्थ धम्मक्खन्धवसेनाति धम्मरासिवसेन | "बासीती"ति अयं गाथा वुत्तत्थाव । एवं परिदीपितधम्मक्खन्धवसेनाति गोपकमोग्गल्लानेन नाम ब्राह्मणेन पुढेन गोपकमोग्गल्लानसुत्ते (म० नि० ३.७९) अत्तनो गुणप्पकासनत्थं वा थेरगाथायं (थेर० गा० १०१७ आदयो) आयस्मता आनन्दत्थेरेन समन्ततो दीपितधम्मक्खन्धवसेन इमिना एवं तेन अपरिदीपितापि धम्मक्खन्धा सन्तीति पकासेति, तस्मा कथावत्थुप्पकरण माधुरियसुत्तादीनं (म० नि० २.३१७) विमानवत्थादीसु केसञ्चि गाथानञ्च वसेन चतुरासीतिसहस्सतोपि धम्मक्खन्धानं अधिकता वेदितब्बा ।
एत्थ च सुभसुत्तं (दी० नि० १.४४४), गोपकमोग्गल्लानसुत्तञ्च परिनिब्बुते भगवति आनन्दत्थेरेन भासितत्ता चतुरासीतिधम्मक्खन्धसहस्सेसु अन्तोगधं होति, न होतीति ? पटिसम्भिदागण्ठिपदे ताव इदं वुत्तं “सयं वुत्तधम्मक्खन्धानम्पि भिक्खुतो गहितेयेव सङ्गहेत्वा एवमाहाति दट्ठब्ब''न्ति, भगवता पन दिन्ननये ठत्वा भासितत्ता "सयं वृत्तम्पि चेतं सुत्तद्वयं भगवतो गहितेयेव सङ्गहेत्वा वुत्तन्ति एवम्पि वत्तुं युत्ततरं विय दिस्सति । भगवता हि दिन्ननये ठत्वा सावका धम्म देसेन्ति, तेनेव सावकभासितम्पि कथावत्थादिकं बुद्धभासितं नाम जातं, ततोयेव च अत्तना भासितम्पि सुभसुत्तादिकं सङ्गीतिमारोपेन्तेन आयस्मता आनन्दत्थेरेन “एवं मे सुत''न्ति वुत्तं ।
एकानुसन्धिकं सुत्तं सतिपट्टानादि । सतिपट्ठानसुत्तहि “एकायनो अयं भिक्खवे, मग्गो सत्तानं विसुद्धिया"तिआदिना (दी० नि० २.३७३; म० नि० १.१०६; सं० नि० ३.३६७-३८४) चत्तारो सतिपट्ठाने आरभित्वा तेसंयेव विभागदस्सनवसेन पवत्तत्ता “एकानुसन्धिक''न्ति वुच्चति । अनेकानुसन्धिकं परिनिब्बानसुत्तादि (दी० नि० २.१३१ आदयो) परिनिब्बानसुत्तहि नानाठानेसु नानाधम्मदेसनानं वसेन पवत्तत्ता "अनेकानुसन्धिक''न्ति वुच्चति ।
“कति छिन्दे कति जहे, कति चुत्तरि भावये । कति सङ्गातिगो भिक्खु, ‘ओघतिण्णो'ति वुच्चती''ति ।। (सं० नि० १.५)।
एवमादिना पञ्हापुच्छनं गाथाबन्धेसु एको धम्मक्खन्धो ।
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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“पञ्च छिन्दे पञ्च जहे, पञ्च चुत्तरि भावये ।। पञ्च सङ्गातिगो भिक्खु, 'ओघतिण्णोति वुच्चती''ति ।। (सं० नि० १.५)।
एवमादिना च विस्सज्जनं एको धम्मक्खन्धो ।
तिकदुकभाजनं धम्मसङ्गणियं निक्खेपकण्डअट्ठकथाकण्डवसेन गहेतब्बं । तस्मा यं कुसलत्तिकमातिकापदस्स (ध० स० १) विभजनवसेन निक्खेपकण्डे वुत्तं -
“कतमे धम्मा कुसला ? तीणि कुसलमूलानि...पे०... इमे धम्मा कुसला । कतमे धम्मा अकुसला ? तीणि अकुसलमूलानि...पे०... इमे धम्मा अकुसला | कतमे धम्मा अब्याकता" ? कुसलाकुसलानं धम्मानं विपाका...पे०... इमे धम्मा अब्याकता''ति, (ध० स० १८७)
अयमेको धम्मक्खन्धो । एस नयो सेसत्तिकदुकपदविभजनेसुपि । यदपि अट्ठकथाकण्डे
वुत्तं
“कतमे धम्मा कुसला ? चतूसु भूमीसु कुसलं । इमे धम्मा कुसला । कतमे धम्मा अकुसला ? द्वादस अकुसलचित्तुप्पादा । इमे धम्मा अकुसला । कतमे धम्मा अब्याकता ? चतूसु भूमीसु विपाको तीसु भूमीसु किरियाब्याकतं रूपञ्च निब्बानञ्च । इमे धम्मा अब्याकता"ति, (ध० स० १३८६)
अयं कुसलत्तिकमातिकापदस्स विभजनवसेन पवत्तो एको धम्मक्खन्धो । एस नयो सेसेसुपि। चित्तवारभाजनं पन चित्तुप्पादकण्ड वसेन (ध० स० १) गहेतब्बं । यहि तत्थ वुत्तं कुसलचित्तविभजनत्थं -
"कतमे धम्मा कुसला ? यस्मिं समये कामावचरं कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति सोमनस्ससहगतं जाणसम्पयुत्तं रूपारम्मणं वा...पे०... तस्मिं समये फस्सो होति...पे०... अविक्खेपो होती"ति, (ध० स० १)
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
____ अयमेको धम्मक्खन्धो । एवं सेसचित्तवारविभजनेसु । एको धम्मक्खन्धोति (एकमेको धम्मक्खन्धो छळ अट्ठ०) च एकेको धम्मक्खन्धोति अत्थो । “एकमेकं तिकदुकभाजनं, एकमेकं चित्तवारभाजन"न्ति च वचनतो हि “एकेको''ति अवुत्तेपि अयमत्थो सामत्थियतो विझायमानोव होति ।
वत्थु नाम सुदिन्नकण्डादि। मातिका नाम “यो पन भिक्खु भिक्खूनं सिक्खासाजीवसमापन्नो''तिआदिना (पारा० ४४) तस्मिं तस्मिं अज्झाचारे पञत्तं उद्देस सिक्खापदं । पदभाजनियन्ति तस्स तस्स सिक्खापदस्स “यो पनाति यो यादिसो''तिआदि (पारा० ४५) नयप्पवत्तं पदविभजनं । अन्तरापत्तीति “पटिलातं उक्खिपति, आपत्ति दुक्कटस्सा''ति (पाचि० ३५५) एवमादिना सिक्खापदन्तरेसु पञ्चत्ता आपत्ति । आपत्तीति तंतंसिक्खापदानुरूपं वुत्तो तिकच्छेदमुत्तो आपत्तिवारो। अनापत्तीति “अनापत्ति अजानन्तस्स असादियन्तस्स खित्तचित्तस्स वेदनादृस्स आदिकम्मिकस्सा''तिआदि (पारा० ६६) नयप्पवत्तो अनापत्तिवारो। तिकच्छेदोति “दसाहातिक्कन्ते अतिक्कन्तसञ्जी निस्सग्गियं पाचित्तियं, दसाहातिक्कन्ते वेमतिको...पे०... दसाहातिक्कन्ते अनतिक्कन्तसञ्जी निस्सग्गियं पाचित्तिय"न्ति (पारा० ४६८). एवमादिनयप्पवत्तो तिकपाचित्तिय-तिक-दुक्कटादिभेदो तिकपरिच्छेदो । तत्थाति तेसु वत्थुमातिकादीसु ।
एवं अनेकनयसमलङ्कतं सङ्गीतिप्पकारं दस्सेत्वा “अयं धम्मो, अयं विनयो...पे०... इमानि चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानी"ति बुद्धवचनं धम्मविनयादिभेदेन ववत्थपेत्वा सङ्गायन्तेन महाकस्सपप्पमुखेन वसीगणेन अनेकच्छरियपातुभावपटिमण्डिताय सङ्गीतिया इमस्स दीघागमस्स धम्मभावो, मज्झिमबुद्धवचनादिभावो च ववत्थापितोति दस्सेन्तो "एवमेत"न्तिआदिमाह । साधारणवचनेन दस्सितेपि हि “यदत्थं संवण्णेतुं इदमारभति, सोयेव पधानवसेन दस्सितो''ति आचरियेहि अयं सम्बन्धो वुत्तो | अपरो नयो - हेट्ठा वुत्तेसु एकविधादिभेदभिन्नेसु पकारेसु धम्मविनयादिभावो सङ्गीतिकारके हेव सङ्गीतिकाले ववत्थापितो, न पच्छा कप्पनमत्तसिद्धोति दस्सेन्तो "एवमेत"न्तिआदिमाहातिपि वत्तब्बो । न केवलं यथावुत्तप्पकारमेव ववत्थापेत्वा सङ्गीतं, अथ खो अचम्पीति दस्सेति “न केवलञ्चा"तिआदिना । उदानसङ्गहो नाम पठमपाराजिकादीसु आगतानं विनीतवत्थुआदीनं सोपतो सङ्गहदस्सनवसेन धम्मसङ्गाहकेहि ठपिता
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पठममहासङ्गीतिकथावण्णना
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"मक्कटी वज्जिपुत्ता च, गिही नग्गो च तित्थिया । दारिकुप्पलवण्णा च, ब्यञ्जनेहि परे दुवे''ति ।। आदिका (पारा० ६६)।
गाथायो । वुच्चमानस्स हि वुत्तस्स वा अत्थस्स विप्पकिण्णभावेन पवत्तितुं अदत्वा उद्धं दानं रक्खणं उदानं, सङ्गहवचनन्ति अत्थो । सीलक्खन्धवग्गमूलपरियायवग्गादिवसेन वग्गसङ्गहो। वग्गोति हि धम्मसङ्गाहकेहेव कता सुतसमुदायस्स समझा। उत्तरिमनुस्सपेय्यालनीलपेय्यालादिवसेन पेय्यालसङ्गहो। पातुं रक्खितुं, वित्थारितुं वा अलन्ति हि पेय्यालं, सङ्खिपित्वा दस्सनवचनं । अङ्गुत्तरनिकायादीसु निपातसङ्गहो, गाथङ्गादिवसेन निपातनं । समुदायकरणज्हि निपातो। देवतासंयुत्तादिवसेन (सं० नि० १.१) संयुत्तसङ्गहो। वग्गसमुदाये एव धम्मसङ्गाहकेहि कता संयुत्तसमझा। मूलपण्णासकादिवसेन पण्णाससङ्गहो, पचास पचास सुत्तानि गणेत्वा सङ्गहोति वुत्तं होति । आदिसद्देन तस्सं तस्सं पाळियं दिस्समानं सङ्गीतिकारकवचनं सङ्गण्हाति । उदानसङ्गह...पे०... पण्णाससङ्गहादीहि अनेकविधं तथा । सत्तहि मासेहीति किरियापवग्गे ततिया “एकाहेनेव बाराणसिं पायासि । नवहि मासेहि विहारं निट्ठापेसी'तिआदीसु विय। किरियाय आसुं परिनिट्ठापनहि किरियापवग्गो।
तदा अनेकच्छरियपातुभावदस्सनेन साधूनं पसादजननत्थमाह “सङ्गीतिपरियोसाने चस्सा"तिआदि । अस्स बुद्धवचनस्स सङ्गीतिपरियोसाने सञ्जातप्पमोदा विय, साधुकारं ददमाना विय च सङ्कम्पि...पे०... पातुरहेसुन्ति सम्बन्धो । वियाति हि उभयत्थ योजेतब्बं । पवत्तने, पवत्तनाय वा समत्थं पवत्तनसमत्थं । उदकपरियन्तन्तिपथवीसन्धारकउदकपरियोसानं कत्वा, सह तेन उदकेन, तं वा उदकं आहच्चाति वुत्तं होति, तेन एकदेसकम्पनं निवारेति । सङ्कम्पीति उद्धं उद्धं गच्छन्ती सुट्ठ कम्पि | सम्पकम्पीति उद्धमधो च गच्छन्ती सम्मा पकारेन कम्पि । सम्पवेधीति चतूसु दिसासु गच्छन्ती सुटु भिय्यो पवेधि । एवं एतेन पदत्तयेन छप्पकारं पथवीचलनं दस्सेति । अथ वा पुरथिमतो, पच्छिमतो च उन्नमनओनमनवसेन सङ्कम्पि। उत्तरतो, दक्खिणतो च उन्नमनओनमनवसेन सम्पकम्पि। मज्झिमतो, परियन्ततो च उन्नमनओनमनवसेन सम्पवेधि। एवम्पि छप्पकारं पथवीचलनं दस्सेति, यं सन्धाय अट्ठकथासु वुत्तं --
"पुरत्थिमतो उन्नमति पच्छिमतो ओनमति, पच्छिमतो उन्नमति पुरथिमतो ओनमति, उत्तरतो उन्नमति दक्खिणतो ओनमति, दक्खिणतो उन्नमति उत्तरतो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
ओनमति, मज्झिमतो उन्नमति परियन्ततो ओनमति, परियन्ततो उन्नमति मज्झिमतो ओनमतीति एवं छप्पकारं...पे०... अकम्पित्था''ति (बु० वं० अट्ठ० ७१)।
अच्छरं पहरितुं युत्तानि अच्छरियानि, पुप्फवस्सचेलुक्खेपादीनि अञ्जायपि सा समञाय पाकटाति दस्सेन्तो आह "या लोके"तिआदि । या पठममहासङ्गीति धम्मसङ्गाहकेहि महाकस्सपादीहि पञ्चहि सतेहि येन कता सङ्गीता, तेन पञ्च सतानि एतिस्साति “पञ्चसता"ति च थेरेहेव कतत्ता थेरा महाकस्सपादयो एतिस्सा, थेरेहि वा कताति "थेरिका"ति च लोके पवुच्चति, अयं पठममहासङ्गीति नामाति सम्बन्धो ।
एवं पठममहासङ्गीति दस्सेत्वा यदत्थं सा इध दस्सिता, इदानि तं निदानं निगमनवसेन दस्सेन्तो “इमिस्सा"तिआदिमाह | आदिनिकायस्साति सुत्तन्तपिटकपरियापन्नेसु पञ्चसु निकायेसु आदिभूतस्स दीघनिकायस्स। खुद्दकपरियापन्नो हि विनयो पठमं सङ्गीतो। तथा हि वुत्तं "सुत्तन्त पिटके"ति। तेनाति तथावुत्तत्ता, इमिना यथावुत्तपठममहासङ्गीतियं तथावचनमेव सन्धाय मया हेट्ठा एवं वुत्तन्ति पुब्बापरसम्बन्धं, यथावुत्तवित्थारवचनस्स वा गुणं दस्सेतीति ।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्जावेय्यत्तियजननाय अज्जवमद्दवसोरच्चसद्धासतिधितिबुद्धिखन्ति वीरियादिधम्मसमङ्गिना साट्ठकथे पिटकत्तये असङ्गासंहीरविसारदाणचारिना अनेकप्पभेदसकसमयसमयन्तरगहनज्झोगाहिना महागणिना महावेय्याकरणेन आणाभिवंसधम्मसेनापतिनामथेरेन महाधम्मराजाधिराजगरुना कताय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया बाहिरनिदानवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
निदानकथावण्णना निद्विता।
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१. ब्रह्मजालसुत्तं
परिब्बाजककथावण्णना
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१. एत्तावता च परमसण्हसुखुमगम्भीरदुद्दसानेकविधनयसमलङ्कतं ब्रह्मजालस्स साधारणतो बाहिरनिदानं दस्सेत्वा इदानि अब्भन्तरनिदानं संवण्णेन्तो अत्थाधिगमस्स सुनिक्खित्तपदमूलकत्ता, सुनिक्खित्तपदभावस्स च 'इदमेव "न्ति सभावविभावनेन पदविभागेन साधेतब्बत्ता पठमं ताव पदविभागं दस्सेतुं “ तत्थ एव "न्तिआदिमाह । पदविभागेन हि “इदं नाम एतं पद" न्ति विजाननेन तंतंपदानुरूपं लिङ्गविभत्ति वचन कालपयोगादिकं सम्मापतिट्ठापनतो यथावुत्तस्स पदस्स सुनिक्खित्तता होति, ताय च अत्थस्स समधिगमियता। यथाह “सुनिक्खित्तस्स भिक्खवे - पदब्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयोहोती 'तिआदि । अपिच सम्बन्धतो, पदतो, पदविभागतो, पदत्थती अनुयोगतो, परिहारतो चाति छहाकारेहि अत्थवण्णना कातब्बा । तत्थ सम्बन्धो नाम देसनासम्बन्धी, यं लोकिया ‘“उम्मुग्घातो’तिपि वदन्ति, सो पन पाळिया निदानपाळिवसेन, निदानपाळिया च सङ्गीतिवसेन वेदितब्बो । पठममहासङ्गीतिं दस्सेन्तेन हि निदानपाळिया सम्बन्धी दस्सितो, तस्मा पदादिवसेनेव संवण्णनं करोन्तो " एवं "न्तिआदिमाह । एत्थ च " एवन्ति निपातपदन्तिआदिना पदतो, पदविभागतो च संवण्णनं करोति पदानं तब्बिसेसानञ्च दस्सितत्ता । पदविभागोति हि पदानं विसेसोयेव अधिप्पेतो, न पदविग्गहो । पदानि च पदविभागो च पदविभागो । अथ वा पदविभागो च पदविग्गहो च पदविभागोति एकसेसवसेन पदपदविग्गहापि पदविभागसद्देन वुत्ताति दट्ठब्बं । पदविग्गहतो पन “भिक्खूनं सङ्घी "तिआदिना उपरि संवण्णनं करिस्सति, तथा पदत्थानुयोगपरिहारेहिपि । एवन्ति एत्थ लुत्तनिइिति सद्दो आदिअत्थो अन्तरासद्द च सद्दादीनम्पि सङ्गहितत्ता, नयग्गहणेन वा ते गहिता । तेनाह “मेतिआदीनि नामपदानी 'ति । इतरथा हि अन्तरासद्दं च सद्दादीनम्पि निपातभावो वत्तब्बो सिया । मेतिआदीनीति एत्थ पन आदि-सद्देन याव
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१२४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
पटिसद्दो, ताव तदवसिट्ठायेव सदा सङ्गहिता। पटीति उपसग्गपदं पतिसद्दस्स कारियभावतो।
इदानि अत्थुद्धारक्कमेन पदत्थतो संवण्णनं करोन्तो “अत्थतो पना"तिआदिमाह । इमस्मिं पन ठाने सोतूनं संवण्णनानयकोसल्लत्थं संवण्णनाप्पकारा वत्तब्बा । कथं ?
एकनाळिका कथा च, चतुरस्सा तथापि च । निसिन्नवत्तिका चेव, तिधा संवण्णनं वदे ।।
तत्थ पाळिं वत्वा एकेकपदस्स अत्थकथनं एकाय नाळिया मिनितसदिसत्ता, एकेकं वा पदं नाळं मूलं, एकमेकं पदं वा नाळिका अत्यनिग्गमनमग्गो एतिस्साति कत्वा एकनाळिका नाम । पटिपक्खं दस्सेत्वा, पटिपक्खस्स च उपमं दस्सेत्वा, सपखं दस्सेत्वा, सपक्खस्स च उपमं दस्सेत्वा, कथनं चतूहि भागेहि वुत्तत्ता, चत्तारो वा रस्सा सल्लक्खणूपाया एतिस्साति कत्वा चतुरस्सा नाम, विसभागधम्मवसेनेव परियोसानं गन्त्वा पुन सभागधम्मवसेनेव परियोसानगमनं निसीदापेत्वा पतिट्ठापेत्वा आवत्तनयुत्तत्ता, नियमतो वा निसिन्नस्स आरद्धस्स वत्तो संवत्तो एतिस्साति कत्वा निसिनवत्तिका नाम, यथारद्धस्स अत्थस्स विसुं विसुं परियोसानापि नियुत्ताति वुत्तं होति, सोदाहरणा पन कथा अङ्गुत्तरट्ठकथाय तट्टीकायं एकादसनिपाते गोपालकसुत्तवण्णनातो गहेतब्बा ।
भेदकथा तत्वकथा, परियायकथापि च । इति अत्थक्कमे विद्वा, तिधा संवण्णनं वदे ।।
तत्थ पकतिआदिविचारणा भेदकथा यथा “बुज्झतीति बुद्धो"तिआदि । सरूपविचारणा तत्वकथा यथा “बुद्धोति यो सो भगवा सयम्भू अनाचरियको"तिआदि (महानि० १९२; चूळ० नि० ९७; पटि० म० १.१६१)। वेवचनविचारणा परियायकथा यथा “बुद्धो भगवा सब्बञ्जू लोकनायको"तिआदि (नेत्ति० ३८ वेवचनाहारविभङ्गनिस्सितो पाळि) ।
पयोजनञ्च पिण्डत्थो, अनुसन्धि च चोदना । परिहारो च सब्बत्थ, पञ्चधा वण्णनं वदे ।।
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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तत्थ पयोजनं नाम देसनाफलं, तं पन सुतमयजाणादि । पिण्डत्थो नाम विप्पकिण्णस्स अत्थस्स सुविजाननत्थं सम्पिण्डेत्वा कथनं । अनुसन्धि नाम पुच्छानुसन्धादि । चोदना नाम यथावुत्तस्स वचनस्स विरोधिकथनं । परिहारो नाम तस्स अविरोधिकथनं ।।
उम्मुग्घातो पदञ्चेव, पदत्थो पदविग्गहो । चालना पच्चुपट्टानं, छधा संवण्णनं पठममहासङ्गीतिवण्णना)।
वदे ।।
(वजिर
टी०
तत्थ अज्झत्तिकादिनिदानं उम्मुग्घातो। “एवमिद"न्ति नानाविधेन पदविसेसताकथनं पदं, सद्दत्थाधिप्पायत्थादि पदत्थो। अनेकधा निब्बचनं पदविग्गहो। चालना नाम चोदना । पच्चुपट्टानं परिहारो।
समुट्ठानं पदत्थो च, भावानुवादविधयो । विरोधो परिहारो च, निगमनन्ति अठ्ठधा ।।
तत्थ समुट्ठानन्ति अज्झत्तिकादिनिदानं । पदत्योति अधिप्पेतानधिप्पेतादिवसेन अनेकधा पदस्स अत्थो । भावोति अधिप्पायो । अनुवादविधयोति पठमवचनं विधि, तदाविकरणवसेन पच्छा वचनं अनुवादो, विसेसनविसेस्यानं वा विधानुवाद समझा। विरोधोति अत्थनिच्छयनत्थं चोदना । परिहारोति तस्सा सोधना। निगमनन्ति अनुसन्धिया अनुरूपं अप्पना।
आदितो तस्स निदानं, वत्तब्बं तप्पयोजनं । पिण्डत्थो चेव पदत्थो, सम्बन्धो अधिप्पायको । चोदना सोधना चेति, अट्ठधा वण्णनं वदे ।।
तत्थ सम्बन्धो नाम पुब्बापरसम्बन्धो, यो “अनुसन्धी''ति वुच्चति । सेसा वुत्तत्थाव, एवमादिना तत्थ तत्थागते संवण्णनाप्पकारे ञत्वा सब्बत्थ यथारहं विचेतब्बाति ।
एवमनेकत्थप्पभेदता पयोगतोव आतब्बाति तब्बसेन तं समत्थेतुं "तथा हेसा"तिआदि वुत्तं । अथ वा अयं सद्दो इमस्सत्थस्स वाचकोति सङ्केतववत्थितायेव सहा तं तदत्थस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
वाचका, सङ्केतो च नाम पयोगवसेन सिद्धोति दस्सेतुम्पि इदं वुत्तन्ति दट्ठब् । एवमीदिसेसु । ननु च
“यथापि पुप्फरासिम्हा, कयिरा मालागुणे बहू ।। एवं जातेन मच्चेन, कत्तब्बं कुसलं बहुन्ति ।। (ध० प० ५३) ।
एत्थ एवं-सद्देन उपमाकारस्सेव वुत्तत्ता आकारत्थोयेव एवं-सद्दो सियाति ? न, विसेससब्भावतो। “एवं ब्या खो''तिआदीसु (म० नि० २३४, ३९६) हि
आकारमत्तवाचकोयेव आकारत्थोति अधिप्पेतो, न पन आकारविसेसवाचको। एत्थ हि किञ्चापि पुप्फरासिसदिसतो मनुस्सूपपत्ति सप्पुरिसूपनिस्सय सद्धम्मसवन योनिसोमनसिकारभोगसम्पत्तिआदिदानादिपुञ्जकिरियाहेतुसमुदायतो सोभासुगन्धतादिगुणयोगेन मालागुणसदिसियो बहुका पुञ्जकिरिया मरितब्बसभावताय मच्चेन सत्तेन कत्तब्बाति अत्थस्स जोतितत्ता पुप्फरासिमालागुणाव उपमा नाम उपमीयति एतायाति कत्वा, तेसं उपमाकारो च यथासद्देन अनियमतो जोतितो, तस्मा "एवं-सद्दो नियमतो उपमाकारनिगमनत्थो"ति वत्तुं युत्तं, तथापि सो उपमाकारो नियमियमानो अस्थतो उपमाव होति निस्सयभूतं तमन्तरेन निस्सितभूतस्स उपमाकारस्स अलब्भमानत्ताति अधिप्पायेनाह "उपमायं आगतो"ति । अथ वा उपमीयनं सदिसीकरणन्ति कत्वा पुष्फरासिमालागुणेहि सदिसभावसङ्खातो उपमाकारोयेव उपमा नाम । “सद्धम्मत्तं सियोपमा'"ति हि वुत्तं, तस्मा आकारमत्तवाचकोव आकारत्थो एवं-सद्दो । उपमासङ्घातआकारविसेसवाचको पन उपमात्थोयेवाति वुत्तं "उपमायं आगतो''ति ।
तथा “एवं इमिना आकारेन अभिक्कमितब्बन्तिआदिना उपदिसियमानाय समणसारुप्पाय आकप्पसम्पत्तिया उपदिसनाकारोपि अत्थतो उपदेसोयेवाति आह "एवं...पे०... उपदेसे''ति । एवमेतन्ति एत्थ पन भगवता यथावुत्तमत्थं अविपरीततो जानन्तेहि कतं तत्थ संविज्जमानगुणानं पकारेहि हंसनं उदग्गताकरणं सम्पहंसनं। तत्थ सम्पहंसनाकारोपि अत्थतो सम्पहंसनमेवाति वुत्तं "सम्पहंसनेति । एवमेव पनायन्ति एत्थ च दोसविभावनेन गारव्हवचनं गरहणं, तदाकारोपि अत्थतो गरहणं नाम, तस्मा “गरहणे"ति वुत्तं । सो चेत्थ गरहणाकारो “वसली''तिआदिद्मसनसद्दसन्निधानतो एवं-सद्देन पकासितोति विज्ञायति, यथा चेत्थ एवं उपमाकारादयोपि उपमादिवसेन वुत्तानं पुप्फरासिआदिसद्दानं सन्निधानतोति दट्ठब्बं । जोतकमत्ता हि निपाताति । एवमेवाति च अधुना भासिताकारेनेव ।
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
अयं वसलगुणयोगतो वसली काळकण्णी यस्मिं वा तस्मिं वा ठाने भासतीति सम्बन्धो । एवं भन्तेति साधु भन्ते, सुट्टु भन्तेति वुत्तं होति । एत्थ पन धम्मस्स साधुकं सवनमनसिकारे सन्नियोजितेहि भिक्खूहि तत्थ अत्तनो ठितभावस्स पटिजाननमेव वचनसम्पटिग्गहो, तदाकारोप अत्थतो वचनसम्पटिग्गहोयेव नाम, तेनाह
" वचनसम्पटिग्गहे "ति ।
एवं ब्या खोति एवं विय खो । एवं खोति हि इमेसं पदानमन्तरे वियसद्दस्स ब्यापदेसोति नेरुत्तिका “व-कारस्स, ब- कारं, य-कारसंयोगञ्च कत्वा दीघवसेन पदसिद्धी'' तिपि वदन्ति । आकारेति आकारमत्ते । अप्पाबाधन्ति विसभागवेदनाभावं । अप्पातङ्कन्ति किच्छजीवितकररोगाभावं । लहुट्ठानन्ति निग्गेलञ्जताय लहुतायुत्तं उट्ठानं । बलन्ति कायबलं । फासुविहारन्ति चतूसु इरियापथेसु सुखविहारं । वित्थारो दसम सुभसुत्तट्ठकथाय मेव (दी० नि० अट्ठ० १.४४५) आवि भविस्सति । एवञ्च वदेहीति यथाहं वदामि, एवम्पि समणं आनन्दं वदेहि । “साधु किर भव" न्तिआदिकं इदानि वत्तब्बवचनं, सो च वदनाकारो इध एवं सद्देन निदस्सीयतीति वुत्तं " निदस्सने " ति । कालामाति कालामगोत्तसम्बन्धे जने आलपति । “इमे...पे०... वा ̈ति यं मया वृत्तं तं किं मञ्ञथाति अत्थो । समत्ताति परिपूरिता । समादिन्नाति समादियिता । संवत्तन्ति वा नो वा संवन्ति एत्थ वचनद्वये कथं वो तुम्हाकं मति होतीति योजेतब्बं । एवं नोति एवमेव अम्हाकं मति एत्थ होति, अम्हाकमेत्थ मति होति येवातिपि अत्थो । एत्थ च तेसं यथावुत्तधम्मानं अहितदुक्खावहभावे सन्निट्ठानजननत्थं अनुमतिग्गहणवसेन “संवत्तन्ति नो वा, कथं वो एत्थ होती "ति पुच्छाय कताय " एवं नो एत्थ होती 'ति वृत्तत्ता तदाकारसन्निट्ठानं एवं सद्देन विभावितं, सो च तेसं धम्मानं अहिताय दुक्खाय संवत्तनाकारो नियमियमानो अत्थतो अवधारणमेवाति वुत्तं " अवधारणे "ति । आकारत्थमञ्ञत्र सब्बत्थ वुत्तनयेन चोदना, सोधना च वेदितब्बा ।
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आदिसद्देन चेत्थ इदमत्थपुच्छापरिमाणादिअत्थानं सङ्ग्रहो दट्ठब्बी । तथा हि “ एवंगतानि, एवंविधो, एवमाकारो" ति च आदीसु इदमत्थे, गतविधाकारसद्दा पन पकारपरियाया । गतविधयुत्ताकारसद्दे हि लोकिया पकारत्थे वदन्ति । " एवं सु ते सुहाता सुविलित्ता कप्पितकेसमस्सू आमुत्तमणिकुण्डलाभरणा ओदातवत्थवसना पञ्चहि कामगुणेहि समप्पा समङ्गीभूता परिचारेन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियकोति ? नो हिदं भो गोतमा 'तिआदीसु ( दी० नि० १.२८६) पुच्छायं । “एवं लहुपरिवत्तं, (अ० नि०
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
१.१.४८) एवमायुपरियन्तो 'ति ( पारा० १२) च आदीसु परिमाणे । एत्थापि “सुन्हाता सुविलित्ता'तिआदिवचनं पुच्छा, लहुपरिवत्तं, आयूनं पमाणञ्च परिमाणं, तदाकारोपि अत्थतो पुच्छा च परिमाणञ्च नाम, तस्मा एतेसु पुच्छत्थो, परिमाणत्थो च एवंसद्दो वेदितब्बोति । इध पन सो कतमेसु भवति, सब्बत्थ वा, अनियमतो पदेसे वाति चोदनाय " स्वायमिधा "तिआदि वृत्तं ।
ननु एकस्मिंयेव अत्थे सिया, कस्मा तीसुपीति च होतु तिब्बिधेसु अत्थेसु, केन किमत्थं दीपेतीति च अनुयोगं परिहरन्तो " तत्था "तिआदिमाह । तत्थाति तेसु तीसु अत्थे | एकत्तनानत्तअब्यापारएवंधम्मतासङ्घाता, नन्दियावत्ततिपुक्खलसीहविक्कीतिअङ्कुसदिसालोचनसङ्घाता वा आधारादिभेदवसेन नानाविधा नया नानानया, पाळिगतियो वा नया, ता च पञ्ञत्तिअनुपञ्ञत्ति आदिवसेन, सङ्क्षेपवित्थारादिवसेन, संकिलेसभागियादिलोकियादितदुभयवोमिस्सकादिवसेन, कुसलादिवसेन, खन्धादिवसेन, सङ्ग्रहादिवसेन, समयविमुत्तादिवसेन, ठपनादिवसेन, कुसलमूलादिवसेन, तिकपट्ठानादिवसेन च पिटकत्तयानुरूपं नानाप्पकाराति नानानया । तेहि निपुणं सण्हं सुखुमं तथा । आसयोव अज्झासयो, ते च सस्सतादिभेदेन, तत्थ च अप्परजक्खतादिवसेन अनेका, अत्तज्झासयादयो एव वा समुट्ठानमुप्पत्तिहेतु एतस्साति तथा उपनेतब्बाभावतो अत्थब्यञ्जने हि सम्पन्नं परिपुण्णं तथा । अपिच सङ्कासनपकासनविवरणविभजनउत्तानीकरणपञ्ञत्तिवसेन छहि अत्थपदेहि, अक्खरपदब्यञ्जनआकारनिरुत्तिनिद्देसवसेन छहि ब्यञ्जनपदेहि च सम्पन्नं समन्नागतं तथा । अथ वा विञ्जूनं हदयङ्गमतो, सवने अतित्तिजननतो, ब्यञ्जनरसवसेन परमगम्भीरभावतो, विचारणे अतित्तिजननतो, अत्थरसवसेन च सम्पन्नं सादुरसं तथा ।
( १.१.१-१)
पाटिहारियपदस्स वचनत्थं “पटिपक्खहरणतो रागादिकिलेसापनयनतो पाटिहारियन्ति वदन्ति । भगवतो पन परिपक्खा रागादयो न सन्ति ये हरितब्बा बोधिमूलेयेव सवासनसकलसंकिलेसानं पहीनत्ता । पुथुज्जनानम्पि च विगतूपक्किलेसे अट्ठगुणसमन्नागते चित्ते हतपटिपक्खे सतियेव इद्धिविधं पवत्तति, तस्मा पुथुज्जनेसु पवत्तवोहारेनपि न सक्का इध " पाटिहारियन्ति वत्तुं सचे पन महाकारुणिकस्स भगवतो वेनेय्यगताव किलेसा पटिपक्खा संसारपङ्कनिमुग्गस्स सत्तनिकायस्स समुद्धरितुकामतो, तस्मा तेसं वेनेय्यगतकिलेससङ्घातानं परिपक्खानं हरणतो पाटिहारियन्ति वुत्तं अस्स, एवं सति युत्तमेतं ।
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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अथ वा भगवतो सासनस्स पटिपक्खा तित्थिया, तेसं तित्थियभूतानं पटिपक्खानं हरणतो पाटिहारियन्तिपि युज्जति । कामञ्चेत्थ तित्थिया हरितब्बा नास्सु, तेसं पन सन्तानगतदिट्ठिहरणवसेन दिटिप्पकासने असमत्थताकारणेन च इद्धिआदेसनानुसासनीसङ्खातेहि तीहिपि पाटिहारियेहि ते हरिता अपनीता नाम होन्ति । पटीति वा अयं सद्दो “पच्छा''ति एतस्स अत्थं बोधेति “तस्मिं पटिपविठ्ठम्हि, अञ्जो आगञ्छि ब्राह्मणो''तिआदीसु (सु० नि० ९८५; चूळनि० ४) विय, तस्मा समाहिते चित्ते विगतूपक्लेसे कतकिच्चेन पच्छा हरितब्बं पवत्तेतब्बन्ति पटिहारियं, तदेव दीघवसेन, सकत्थवुत्तिपच्चयवसेन वा पाटिहारियं, अत्तनो वा उपक्लेसेसु चतुत्थज्झानमग्गेहि हरितेसु पच्छा तदओसं हरणं पाटिहारियं वुत्तनयेन । इद्धिआदेसनानुसासनियो हि विगतूपक्लेसेन, कतकिच्चेन च सत्तहितत्थं पुन पवत्तेतब्बा, हतेसु च अत्तनो उपक्लेसेसु परसत्तानं उपक्लेसहरणानि च होन्तीति तदुभयम्पि निब्बचनं युज्जति ।
अपिच यथावुत्तेहि निब्बचनेहि इद्धिआदेसनानुसासनीसङ्घातो समुदायो पटिहारियं नाम । एकेकं पन तस्मिं भवं “पाटिहारियन्ति वुच्चति विसेसत्थजोतकपच्चयन्तरेन सद्दरचनाविसेससम्भवतों, पटिहारियं वा चतुत्थज्झानं, मग्गो च पटिपक्खहरणतो, तत्थ जातं, तस्मिं वा निमित्तभूते, ततो वा आगतन्ति पाटिहारियं । विचित्रा हि तद्धितवुत्ति । तस्स पन इद्धिआदेसनानुसासनीभेदेन, विसयभेदेन च बहुविधस्स भगवतो देसनाय लब्भमानत्ता "विविधपाटिहारियन्ति वुत्तं । भगवा हि कदाचि इद्धिवसेनापि देसनं करोति निम्मितबुद्धेन सह पुच्छाविस्सज्जनादीसु, कदाचि आदेसनावसेनापि आमगन्धब्राह्मणस्स धम्मदेसनादीसु (सु० नि० अट्ठ० १.२४१), येभुय्येन पन अनुसासनिया । अनुसासनीपाटिहारियहि बुद्धानं सततं धम्मदेसना। इति तंतंदेसनाकारेन अनेकविधपाटिहारियता देसनाय लब्भति । अयमत्थो उपरि एकादसमस्स केवट्टसुत्तस्स वण्णनाय (दी० नि० अठ्ठ० १.४८१) आवि भविस्सति । अथ वा तस्स विविधस्सापि पाटिहारियस्स भगवतो देसनाय संसूचनतो "विविधपाटिहारियन्ति वुत्तं, अनेकविधपाटिहारियदस्सनन्ति अत्थो।।
धम्मनिरुत्तियाव भगवति धम्मं देसेन्ते सब्बेसं सुणन्तानं नानाभासितानं तंतंभासानुरूपतो देसना सोतपथमागच्छतीति आह "सब्ब...पे०... मागच्छन्त"न्ति । सोतमेव सोतपथो, सवनं वा सोतं, तस्स पथो तथा, सोतद्वारन्ति अत्थो । सब्बाकारेनाति यथादेसिताकारेन । को समत्थो विज्ञातुं, असमत्थोयेव, तस्माति पाठसेसो । पनाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
एकंसत्थे, तेन सद्धासतिधितिवीरियादिबलसङ्घातेन सब्बथामेन एकंसेनेव सोतुकामतासङ्घातकुसलच्छन्दस्स जननं दस्सेति । जनेत्वापीति एत्थ पि-सद्दो, अपि-सद्दो वा सम्भावनत्थो “बुद्धोपि बुद्धभावं भावेत्वा'तिआदीसु (दी० नि० अट्ट १; म० नि० अट्ठ० १; सं० नि० अठ्ठ० १; अ० नि० अट्ठ १.पठमगन्थारम्भकथा) विय, तेन “सब्बथामेन एकंसेनेव सोतुकामतं जनेत्वापि नाम एकेनाकारेन सुतं, किमङ्गं पन अञथा''ति तथासुते धम्मे सम्भावनं करोति । केचि पन “एदिसेसु गरहत्थो"ति वदन्ति, तदयुत्तमेव गरहत्थस्स अविज्जमानत्ता, विज्जमानत्थस्सेव च उपसग्गनिपातानं जोतकत्ता। "नानानयनिपुणन्तिआदिना हि सब्बप्पकारेन सोतुमसक्कूणेय्यभावेन धम्मस्स इध सम्भावनमेव करोति, तस्मा “अपि दिब्बेसु कामेसु, रतिं सो नाधिगच्छती"तिआदीसुयेव (ध० प० १८७) गरहत्थसम्भवेसु गरहत्थो वेदितब्बोति । अपि-सद्दो च ईदिसेसु ठानेसु निपातोयेव, न उपसग्गो। तथा हि “अपि-सद्दो च निपातपक्खिको कातब्बो, यत्थ किरियावाचकतो पुब्बो न होती"ति अक्खरचिन्तका वदन्ति । मयापीति एत्थ पन न केवलं मयाव, अथ खो अञहिपि तथारूपेहीति सम्पिण्डनत्थो गहेतब्बो ।
सामं भवतीति सयम्भू, अनाचरियको । न मयं इदं सच्छिकतन्ति एत्थ पन “न अत्तनो आणेनेव अत्तना सच्छिकत''न्ति पकरणतो अत्थो विज्ञायति । सामञवचनस्सापि हि सम्पयोगविप्पयोगसहचरणविरोधसद्दन्तरसन्निधानलिङ्गओचित्यकालदेसपकरणादिवसेन विसेसत्थग्गहणं सम्भवति । एवं सब्बत्थ । परिमोचेन्तोति “पुन चपरं भिक्खवे, इधेकच्चो पापभिक्खु तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं परियापुणित्वा अत्तनो दहतीति (पारा० १९५) वुत्तदोसतो परिमोचापनहेतु । हेत्वत्थे हि अन्त-सद्दो “असम्बुधं बुद्धनिसेवित''न्तिआदीसु (वि० अट्ठ० १.गन्थारम्भकथा) विय । इमस्स सुत्तस्स संवण्णनाप्पकारविचारणेन अत्तनो आणस्स पच्चक्खतं सन्धाय "इदानि वत्तब्ब"न्ति वुत्तं । एसा हि संवण्णनाकारानं पकति, यदिदं संवण्णेतब्बधम्मे सब्बत्थ “अयमिमस्स अत्थो, एवमिध संवण्णयिस्सामी''ति पुरेतरमेव संवण्णनाप्पकारविचारणा।
एतदग्गपदस्सत्थो वुत्तोव । "बहुस्सुतान"न्तिआदीसु पन अजेपि थेरा बहुस्सुता, सतिमन्तो, गतिमन्तो, धितिमन्तो, उपट्ठाका च अत्थि, अयं पनायस्मा बुद्धवचनं गण्हन्तो दसबलस्स सासने भण्डागारिकपरियत्तियं ठत्वा गहि, तस्मा बहुस्सुतानं अग्गो नाम जातो । इमस्स च थेरस्स बुद्धवचनं उग्गहेत्वा धारणसति अझेहि थेरेहि बलवतरा अहोसि, तस्मा सतिमन्तानं अग्गो नाम जातो। अयमेवायस्मा एकपदे ठत्वा
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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सट्ठिपदसहस्सानि गण्हन्तो सत्थारा कथितनियामेन सब्बपदानि जानाति, तस्मा गतिमन्तानं अग्गो नाम जातो। तस्सेव चायस्मतो बुद्धवचनं उग्गण्हनवीरियं, सज्झायनवीरियञ्च अ हि असदिसं अहोसि, तस्मा धितिमन्तानं अग्गो नाम जातो । तथागतं उपद्रुहन्तो चेस न अ सं उपट्ठाकभिक्खून उपट्टहनाकारेन उपट्टहति । अञपि हि तथागतं उपट्टहिंसु, न च पन बुद्धानं मनं गहेत्वा उपट्ठहितुं सक्कोन्ति, अयं पन थेरो उपट्टाकट्टानं लद्धदिवसतो पट्ठाय आरद्धवीरियो हुत्वा तथागतस्स मनं गहेत्वा उपट्टहि, तस्मा उपट्ठाकानं अग्गो नाम जातो । अत्थकुसलोति भासितत्थे, पयोजनत्थे च छेको । धम्मोति पाळिधम्मो, नानाविधो वा हेतु । ब्यञ्जनन्ति अक्खरं अत्थस्स ब्यञ्जनतो । पदेन हि ब्यञ्जितोपि अत्थो अक्खरमूलकत्ता पदस्स “अक्खरेन ब्यजितो''ति वुच्चति । अत्थस्स वियञ्जनतो वा वाक्यम्पि इध ब्यञ्जनं नाम । वाक्येन हि अत्थो परिपुण्णं ब्यञ्जीयति, यतो “ब्यञ्जनेहि विवरती"ति आयस्मता महाकच्चायनत्थेरेन वुत्तं । निरुत्तीति निब्बचनं, पञ्चविधा वा निरुत्तिनया । तेसम्पि हि सद्दरचनाविसेसेन अत्याधिगमहेतुतो इध गहणं युज्जति । पुब्बापरं नाम पुब्बापरानुसन्धि, सुत्तस्स वा पुब्बभागेन अपरभागस्स संसन्दनं । भगवता च पञ्चविधएतदग्गट्ठानेन धम्मसेनापतिना च पञ्चविधकोसल्लेन पसठ्ठभावानुरूपन्ति सम्बन्धो । धारणबलन्ति धारणसङ्खातं बलं, धारणे वा बलं, उभयत्थापि धारेतुं सामत्थियन्ति वुत्तं होति । दस्सेन्तो हुत्वा, दस्सनहेतूतिपि अत्थो । तञ्च खो अत्थतो वा ब्यञ्जनतो वा अनूनमनधिकन्ति अवधारणफलमाह । न अञथा दट्टब्बन्ति पन निवत्तेतब्बत्थं । न अज्ञथाति च भगवतो सम्मखा सताकारतो न अञथा. न पन भगवता देसिताकारतो। अचिन्तेय्यानुभावा हि भगवतो देसना, एवञ्च कत्वा “सब्बप्पकारेन को समत्थो विज्ञातु"न्ति हेट्ठा वृत्तवचनं समत्थितं होति, इतरथा भगवता देसिताकारेनेव सोतुं समत्थत्ता तदेतं न वत्तब्बं सिया । यथावुत्तेन पन अत्थेन धारणबलदस्सनञ्च न विरुज्झति सुताकाराविरुज्झनवसेन धारणस्स अधिप्पेतत्ता, अञथा भगवता देसिताकारेनेव धारितुं समत्थनतो हेट्ठा वुत्तवचनेन विरुज्झेय्य । न हेत्थ द्विन्नं अत्थानं अत्थन्तरतापरिहारो युत्तो तेसं द्विन्नम्पि अत्थानं सुतभावदीपनेन एकविसयत्ता, इतरथा थेरो भगवतो देसनाय सब्बथा पटिग्गहणे पच्छिमत्थवसेन समत्थो, पुरिमत्थवसेन च असमत्थोति आपज्जेय्याति।
“यो परो न होति, सो अत्ता'"ति वुत्ताय नियकज्झत्तसङ्घाताय सन्ततिया पवत्तनको तिविधोपि मे-सद्दो, तस्मा किञ्चापि नियकज्झत्तसन्ततिवसेन एकस्मिं येवत्थे मे-सदो दिस्सति, तथापि करणसम्पदानसामिनिद्देसवसेन विज्जमानविभत्तिभेदं सन्धाय वुत्तं "तीसु अत्थेसु दिस्सती"ति, तीसु विभत्तियत्थेसु अत्तना सञ्जत्तविभत्तितो दिस्सतीति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
अत्थो । गाथाभिगीतन्ति गाथाय अभिगीतं अभिमुखं गायितं । अभोजनेय्यन्ति भोजनं कातुमनरहरूपं । अभिगीतपदस्स कत्तुपेक्खत्ता मयाति अत्थो । एवं सेसेसुपि यथारहं । सुतसद्दस्स कम्मभावसाधनवसेन द्वाधिप्पायिकपदत्ता यथायोगं "मया सुत''न्ति च “मम सुत''न्ति च अत्थद्वये युज्जति ।
किञ्चापि उपसग्गो किरियं विसेसेति, जोतकमत्तभावतो पन सतिपि तस्मिं सुतसद्दोयेव तं तं अत्थं वदतीति अनुपसग्गस्स सुतसद्दस्स अत्थुद्धारे सउपसग्गस्स गहणं न विरुज्झतीति आह "सउपसग्गो च अनुपसग्गो चा"ति । अस्साति सुतसद्दस्स | उपसग्गवसेनपि धातुसद्दो विसेसत्थवाचको यथा “अनुभवति पराभवती"ति वुत्तं "गच्छन्तोति अत्थो"ति । तथा अनुपसग्गोपि धातुसद्दो सउपसग्गो विय विसेसत्थवाचकोति आह "विस्सुतधम्मस्साति अत्थो"ति । एवमीदिसेसु । सोतविनेय्यन्ति सोतद्वारनिस्सितेन विज्ञाणेन विज्ञातब्, ससम्भारकथा वा एसा, सोतद्वारेन विञातब्बन्ति अत्थो । सोतद्वारानुसारविज्ञआतधरोति सोतद्वारानुसारेन मनोविज्ञाणेन विज्ञातधम्मधरो। न हि सोतद्वारनिस्सितविज्ञाणमत्तेन धम्मो विज्ञायति, अथ खो तदनुसारमनोविज्ञआणेनेव, सुतधरोति च तथा विज्ञातधम्मधरो वुत्तो, तस्मा तदत्थोयेव सम्भवतीति एवं वुत्तं । कम्मभावसाधनानि सुतसद्दे सम्भवन्तीति दस्सेतुं "इध पना"तिआदिमाह । पुब्बापरपदसम्बन्धवसेन अत्थस्स उपपन्नता, अनुपपन्नता च विज्ञायति, तस्मा सुतसहस्सेव वसेन अयमत्थो “उपपन्नो, अनुपपन्नोति वा न विञातब्बोति चोदनाय पुब्बापरपदसम्बन्धवसेन एतदत्थस्स उपपन्नतं दस्सेतुं “मे-सहस्स ही"तिआदि वुत्तं । मयाति अत्थे सतीति कत्तुत्थे करणनिद्देसवसेन मयाति अत्थे वत्तब्बे सति, यदा मे-सद्दस्स कत्तुवसेन करणनिद्देसो, तदाति वुत्तं होति । ममाति अत्थे सतीति सम्बन्धीयत्थे सामिनिद्देसवसेन ममाति अत्थे वत्तब्बे सति, यदा सम्बन्धवसेन सामि निद्देसो, तदाति वुत्तं होति ।
एवं सद्दतो आतब्बमत्थं विज्ञापेत्वा इदानि तेहि दस्सेतब्बमत्थं निदस्सेन्तो "एवमेतेसू"तिआदिमाह । सुतसद्दसन्निधाने पयुत्तेन एवं-सद्देन सवनकिरियाजोतकेनेव भवितब्बं विज्जमानत्थस्स जोतकमत्तत्ता निपातानन्ति वुत्तं "एवन्ति सोतविज्ञाणादिविज्ञाणकिच्चनिदस्सन"न्ति। सवनाय एव हि आकारो, निदस्सनं, अवधारणम्पि, तस्मा यथावुत्तो एवं-सद्दस्स तिविधोपि अत्थो सवनकिरियाजोतकभावेन इधाधिप्पेतोति । आदि-सद्देन चेत्थ सम्पटिच्छनादीनं सोतद्वारिकविज्ञाणानं, तदभिनिपातानञ्च
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परिब्बाजककथावण्णना
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मनोद्वारिक विज्ञाणानं गहणं वेदितब्, यतो सोतद्वारानुसारविज्ञातत्थे इध सुतसद्दोति वुत्तो । अवधारणफलत्ता सद्दपयोगस्स सब्बम्पि वाक्यं अन्तोगधावधारणं, तस्मा "सुत"न्ति एतस्स सुतमेवाति अयमत्थो लब्भतीति आह "अस्सवनभावपटिक्खेपतो"ति । एतेन हि वचनेन अवधारणेन निराकतं दस्सेति । यथा पन यं सुतं सुतमेवाति नियमेतब्बं, तथा च तं सुतं सम्मा सुतं होतीति अवधारणफलं दस्सेतुं वुत्तं "अनूनाधिकाविपरीतग्गहणनिदस्सनन्ति । अथ वा सद्दन्तरत्थापोहनवसेन सद्दो अत्थं वदति, तस्मा "सुत"न्ति एतस्स असुतं न होतीति अयमत्थो लब्भतीति सन्धाय "अस्सवनभावपटिक्खेपतो"ति वुत्तं, इमिना दिट्ठादिनिवत्तनं करोति दिट्ठादीनं “असुत''न्ति सद्दन्तरत्थभावेन निवत्तेतब्बत्ता । इदं वुत्तं होति - न इदं मया अत्तनो आणेन दिटुं, न च सयम्भुजाणेन सच्छिकतं, अथ खो सुतं, तञ्च खो सुतं सम्मदेवाति । तदेव सम्मा सुतभावं सन्धायाह "अनूना...पे०... दस्सन"न्ति । होति चेत्थ -
“एवादिसत्तिया चेव, अञत्थापोहनेन च । द्विधा सद्दो अत्यन्तरं, निवत्तेति यथारह"न्ति ।।
अपिच अवधारणत्थे एवं सद्दे अयमत्थयोजना करीयतीति तदपेक्खस्स सुतसद्दस्स सावधारणत्थो वृत्तो "अस्सवनभावपटिक्खेपतो"ति, तदवधारणफलं दस्सेति "अन...पे०... दस्सन"न्ति इमिना। सवन-सद्दो चेत्थ भावसद्देन योगतो कम्मसाधनो वेदितब्बो "सुय्यतीति । अनूनाधिकताय भगवतो सम्मुखा सुताकारतो अविपरीतं, अविपरीतस्स वा सुत्तस्स गहणं, तस्स निदस्सनं तथा, इति सवनहेतु सुणन्तपुग्गलसवनविसेसवसेन अयं योजना कता।
एवं पदत्तयस्स एकेन पकारेन अत्थयोजनं दस्सेत्वा इदानि पकारन्तरेनापि तं दस्सेतुं "तथा"तिआदि वुत्तं । तत्थ तस्साति या भगवतो सम्मुखा धम्मस्सवनाकारेन पवत्ता मनोद्वारिकविज्ञाणवीथि, तस्सा | सा हि नानाप्पकारेन आरम्मणे पवत्तितुं समत्था, न सोतद्वारिक विज्ञाणवीथि एकारम्मणेयेव पवत्तनतो, तथा चेव वुत्तं "सोतद्वारानुसारेना"ति । तेन हि सोतद्वारिकविञाणवीथि निवत्तति । नानप्पकारेनाति वक्खमानेन अनेकविहितेन ब्यञ्जनत्थग्गहणाकारसङ्खातेन नानाविधेन आकारेन, एतेन इमिस्सा योजनाय आकारत्थो एवं-सद्दो गहितोति दस्सेति । पवत्तिभावप्पकासनन्ति पवत्तिया अस्थिभावप्पकासनं । यस्मिं पकारे वुत्तप्पकारा विज्ञाणवीथि नानप्पकारेन पवत्ता, तदेव आरम्मणं सन्धाय
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
"धम्मप्पकासनन्ति वुत्तं, न पन सुतसद्दस्स धम्मत्थं, तेन वुत्तं “अयं धम्मो सुतो"ति । तस्सा हि विज्ञाणवीथिया आरम्मणमेव “अयं धम्मो सुतो''ति वुच्चति । तञ्च नियमियमानं यथावुत्ताय विज्ञाणवीथिया आरम्मणभूतं सुत्तमेव । अयज्हेत्थातिआदि वुत्तस्सेवत्थस्स पाकटीकरणं । तप्पाकटीकरणत्थो हेत्थ हि-सद्दो। विज्ञाणवीथिया करणभूताय मया न अखं कतं, इदं पन आरम्मणं कतं। किं पन तन्ति चे? अयं धम्मो सुतोति । अयं पनेत्थाधिप्पायो – आकारत्थे एवं-सद्दे “एकेनाकारेना"ति यो आकारो वुत्तो, सो अत्थतो सोतद्वारानुसारविज्ञाणवीथिया नानप्पकारेन आरम्मणे पवत्तिभावोयेव, तेन च तदारम्मणभूतस्स धम्मस्सेव सवनं कतं, न अञ्जन्ति । एवं सवनकिरियाय करणकत्तुकम्मविसेसो इमिस्सा योजनाय दस्सितो ।
अञ्जम्पि योजनमाह "तथा"तिआदिना । निदस्सनत्थं एवं-सदं गहेत्वा निदस्सनेन च निदस्सितब्बस्साविनाभावतो "एवन्ति निदस्सितब्बप्पकासन"न्ति वुत्तं । इमिना हि तदविनाभावतो एवंसद्देन सकलम्पि सुत्तं पच्चामट्ठन्ति दस्सेति, सुतसद्दस्स किरियापरत्ता, सवनकिरियाय च साधारणविज्ञाणप्पबन्धपटिबद्धत्ता तस्मिञ्च विचाणप्पबन्धे पुग्गलवोहारोति वुत्तं "पुग्गलकिच्चप्पकासन"न्ति । साधारणविज्ञाणप्पबन्धो हि पण्णत्तिया इध पुग्गलो नाम, सवनकिरिया पन तस्स किच्चं नाम । न हि पुग्गलवोहाररहिते धम्मप्पबन्धे सवनकिरिया लब्भति वोहारविसयत्ता तस्सा किरियायाति दट्टब्बं । "इद"न्तिआदि पिण्डत्थदस्सनं मयाति यथावुत्तविञाणप्पबन्धसङ्घातपुग्गलभूतेन मया । सुतन्ति सवनकिरियासङ्घातेन पुग्गलकिच्चेन योजितं, इमिस्सा पन योजनाय पुग्गलब्यापारविसयस्स पुग्गलस्स, पुग्गलब्यापारस्स च निदस्सनं कतन्ति दट्टब् ।
___ आकारत्थमेव एवं सदं . गहेत्वा पुरिमयोजनाय अञथापि अत्थयोजनं दस्सेतुं "तथा"तिआदि वुत्तं । चित्तसन्तानस्साति यथावुत्तविज्ञाणप्पबन्धस्स । नानाकारप्पवत्तियाति नानप्पकारेन आरम्मणे पवत्तिया । नानप्पकारं अत्थब्यञ्जनस्स गहणं, नानप्पकारस्स वा अत्थब्यञ्जनस्स गहणं तथा, ततोयेव सा “आकारपञत्ती"ति वुत्ताति तदेवत्थं समत्थेति "एवन्ति ही"तिआदिना। आकारपञत्तीति च उपादापत्तियेव, धम्मानं पन पवत्तिआकारमुपादाय पञत्तत्ता तदाय उपादापञ्जत्तिया विसेसनत्थं “आकारपञत्ती"ति वुत्ता विसयनिद्देसोति उप्पत्तिट्ठाननिद्देसो । सोतब्बभूतो हि धम्मो सवनकिरियाकत्तुभूतस्स पुग्गलस्स सवनकिरियावसेन पवत्तिट्ठानं किरियाय कत्तुकम्मठ्ठत्ता तब्बसेन च तदाधारस्सापि दब्बस्स आधारभावस्स इच्छितत्ता, इध पन किरियाय कत्तुपवत्तिट्ठानभावो इच्छितोति
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
कम्ममेव आधारवसेन वुत्तं, तेनाह " कत्तु विसयग्गहणसन्निट्ठान "न्ति, आरम्मणमेव वा विसयो। आरम्मणञ्हि तदारम्मणिकस्स पवत्तिट्ठानं । एवम्पि हि अत्थो सुविज्ञेय्यतरो होति । यथावुत्तवचने पिण्डत्थं दस्सेतुं " एत्तावता "तिआदि वृत्तं । एत्तावता एत्तकेन यथावत्तत्थेन पदत्तयेन, कतं होतीति सम्बन्धो । नानाकारप्पवत्तेनाति नानप्पकारेन आरम्मणे पवत्तेन । चित्तसन्तानेनाति यथावुत्तविञ्ञाणवीथिसङ्घातेन चित्तप्पबन्धेन । गहणसद्दे चेतं करणं । चित्तसन्तानविनिमुत्तस्स कस्सचि कत्तु परमत्थतो अभावेपि सद्दवोहारेन बुद्धिपरिकप्पितभेदवचनिच्छाय चित्तसन्तानतो अञ्ञमिव तंसमङ्गि कत्वा अभेदेपि भेदवोहारेन "चित्तसन्तानेन तंसमङ्गिनो" ति वृत्तं । वोहारविसयो सो नेकन्तपरमत्थिकोति (कारकरूपसिद्धियं यो काति सहेतुसुतं पस्सितब्बं) सवनकिरियाविसयोपि सोतब्बधम्मो सवनकिरियावसेन पवत्तचित्तसन्तानस्स इध परमत्थतो कत्तुभावतो तस्स विसयोयेवाति वृत्तं " कत्तु विसयग्गहणसन्निट्ठान "न्ति ।
अपिच सवनवसेन चित्तप्पवत्तिया एव सवनकिरियाभावतो तंवसेन तदञ्ञनामरूपधम्मसमुदायभूतस्स तंकिरियाकत्तु च विसयो होतीति कत्वा तथा वृत्तं । इदं वृत्तं होति - पुरिमनये सवनकिरिया, तक्कत्ता च परमत्थतो तथापवत्तचित्तसन्तानमेव, तस्मा किरियाविसयोपि " कत्तु विसयो ति वुत्तो । पच्छिमनये पन तथापवत्तचित्तसन्तानं किरिया, तदञ्ञधम्मसमुदायो पन कत्ता, तस्मा कामं एकन्ततो किरियाविसयोयेवेस धम्मो, तथापि किरियावसेन " तब्बन्तकत्तु विसयो "ति वृत्तोति । तंसमङ्गिनोति तेन चित्तसन्तानेन समङ्गिनो | कत्तूति कत्तारस्स । विसयोति आरम्मणवसेन पवत्तिट्ठानं, आरम्मणमेव वा । सुताकारस्स च थेरस्स सम्मा निच्छितभावतो “गहणसन्निट्टान 'न्ति वुत्तं ।
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अपरो नयो - यस्स... पे०... आकारपञ्ञत्तीति आकारत्थेन एवं सद्देन योजनं कत्वा तदेव अवधारणत्थम्पि गहेत्वा इमस्मिंयेव नये योजेतुं " गहणं कतं" इच्चेव अवत्वा “गहणसन्निट्ठानं कत" न्ति वुत्तन्ति दट्ठब्बं । अवधारणेन हि सन्निट्ठानमिधाधिप्पेतं, तस्मा " एत्तावता " तिआदिना अवधारणत्थम्पि एवं सद्दं गत्वा अयमेव योजना कताति दस्सेतीति वेदितब्बं, इमिस्सा पन योजनाय गहणाकारगाहकतब्बिसयविसेसनिदस्सनं कतन्ति दट्ठब्बं ।
अञ्ञम्पि योजनमाह " अथ वा "तिआदिना । पुब्बे अत्तना सुतानं नानाविहितानं सुत्तसङ्घातानं अत्थब्यञ्जनानं उपधारितरूपस्स आकारस्स निदस्सनस्स, अवधारणस्स वा पकासनसभावो एवं सद्दोति तदाकारादिभूतस्स पुग्गलपञ्ञत्तिया
उपधारणस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
उपादानभूतधम्मप्पबन्धब्यापारताय "पुग्गलकिच्चनिद्देसोति वुत्तं अत्तना सुतानव्हि अत्थब्यञ्जनानं पुन उपधारणं आकारादित्तयं, तञ्च एवं-सद्दस्स अत्थो । सो पन यं धम्मप्पबन्धं उपादाय पुग्गलपञत्ति पवत्ता, तस्स ब्यापारभूतं किच्चमेव, तस्मा एवं-सद्देन पुग्गलकिच्चं निद्दिसीयतीति । कामं सवनकिरिया पुग्गलब्यापारोपि अविसेसेन, तथापि विसेसतो विज्ञाणब्यापारोवाति वुत्तं "विज्ञाणकिच्चनिदेसो"ति । तथा हि पुग्गलवादीनम्पि सवनकिरिया विज्ञाणनिरपेक्खा नत्थि सवनादीनं विसेसतो विज्ञाणब्यापारभावेन इच्छितत्ता। मेति सद्दप्पवत्तिया एकन्तेनेव सत्तविसयत्ता, विज्ञाणकिच्चस्स च सत्तविञाणानमभेदकरणवसेन तत्थेव समोदहितब्बतो “उभयकिच्चयुत्तपुग्गलनिदेसो"ति वुत्तं । “अयन्तिआदि तप्पाकटीकरणं । एत्थ हि सवनकिच्चविज्ञाणसमङ्गिनाति एवं-सद्देन निद्दिष्टुं पुग्गलकिच्चं सन्धाय वुत्तं, तं पन पुग्गलस्स सवनकिच्चविज्ञाणसमझीभावेन पुग्गलकिच्चं नामाति दस्सेतुं “पुग्गलकिच्चसमङ्गिना'"ति अवत्वा "सवनकिच्चविज्ञाणसमङ्गिना"ति आह, तस्मा “पुग्गलकिच्च"न्ति निद्दिट्ठसवनकिच्चवता विज्ञाणेन समङ्गिनाति अत्थो । विज्ञाणवसेन, लद्धसवनकिच्चवोहारेनाति च सुतसद्देन निद्दिष्टं विज्ञआणकिच्चं सन्धाय वुत्तं । सवनमेव किच्चं यस्साति तथा । सवनकिच्चन्ति वोहारो सवनकिच्चवोहारो, लद्धो सो येनाति तथा । लद्धसवनकिच्चवोहारेन विज्ञाणसङ्घातेन वसेन सामत्थियेनाति अत्थो । अयं पन सम्बन्धो- सवनकिच्चविञाणसमङ्गिना पुग्गलेन मया लद्धसवनकिच्चवोहारेन विज्ञाणवसेन करणभूतेन सुतन्ति ।
अपिच "एव"न्ति सद्दस्सत्थो अविज्जमानपञत्ति, "सुत"न्ति सदस्सत्थो विज्जमानपञत्ति, तस्मा ते तथारूपपञत्ति उपादानभूतपुग्गलब्यापारभावेनेव दस्सेन्तो आह "एवन्ति पुग्गलकिच्चनिद्देसो। सुतन्ति विज्ञाणकिच्चनिद्देसो"ति । न हि परमत्थतोयेव नियमियमाने सति पुग्गलकिच्चविचाणकिच्चवसेन अयं विभागो लब्भतीति । इमिस्सा पन योजनाय कत्तुब्यापारकरणब्यापारकत्तुनिद्देसो कतोति वेदितब्बो।
सब्बस्सापि सद्दाधिगमनीयस्स अत्थस्स पञ्जत्तिमुखेनेव पटिपज्जितब्बत्ता, सब्बासञ्च पञत्तीनं विज्जमानादिवसेन छसु पञ्जत्तिभेदेसु अन्तोगधत्ता तासु “एव"न्तिआदीनं पञ्जत्तीनं सरूपं निद्धारेत्वा दस्सेन्तो "एवन्ति चा"तिआदिमाह। तत्थ "एव''न्ति च "मे"ति च वुच्चमानस्स अत्थस्स आकारादिभूतस्स धम्मानं असल्लक्खणभावतो अविज्जमानपञत्तिभावोति आह "सच्चिकट्टपरमत्थवसेन अविज्जमानपञत्ती"ति । सच्चिकट्ठपरमत्थवसेनाति च भूतत्थउत्तमत्थवसेनाति अत्थो। इदं वुत्तं होति- यो
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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मायामरीचिआदयो विय अभूतत्थो, अनुस्सवादीहि गहेतब्बो विय अनुत्तमत्थो च न होति, सो रूपसद्दादिसभावो, रुप्पनानुभवनादिसभावो वा अत्थो “सच्चिकट्ठो, परमत्थो''ति च वुच्चति, “एवं मे"ति पदानं पन अत्थो अभूतत्ता, अनुत्तमत्ता च न तथा वुच्चति, तस्मा भूतत्थउत्तमत्थसङ्घातेन सच्चिकट्टपरमत्थवसेन विसेसनभूतेन अविज्जमानपञत्तियेवाति । एतेन च विसेसनेन बालजनेहि “अत्थी''ति परिकप्पितं पञत्तिमत्तं निवत्तेति । तदेवत्थं पाकटं करोति, हेतुना वा साधेति "किज्हेत्थ त"न्तिआदिना | यं धम्मजातं, अत्थजातं वा “एव"न्ति वा “मेति वा निद्देसं लभेथ, तं एत्थ रूपफस्सादिधम्मसमुदाये, “एवं मे"ति पदानं वा अत्थे । परमत्थतो न अत्थीति योजना | रूपफस्सादिभावेन निद्दिट्ठो परमत्थतो एत्थ अत्थेव, “एवं मे"ति पन निद्दिट्टो नत्थीति अधिप्पायो । सुतन्ति पन सहायतनं सन्धायाह "विज्जमानपञत्ती"ति । “सच्चिकठ्ठपरमत्थवसेना"ति चेत्थ अधिकारो। “यही"तिआदि तप्पाकटीकरणं, हेतुदस्सनं वा । यं तं सद्दायतनं सोतेन सोतद्वारेन, तन्निस्सितविज्ञाणेन वा उपलद्धं अधिगमितब्बन्ति अत्थो। तेन हि सद्दायतनमिध गहितं कम्मसाधनेनाति दस्सेति ।
एवं अट्ठकथानयेन पञत्तिसरूपं निद्धारेत्वा इदानि अट्ठकथामुत्तकेनापि नयेन वुत्तेसु छसु पञत्तिभेदेसु “एव'"न्तिआदीनं पञ्जत्तीनं सरूपं निद्धारेन्तो "तथा"तिआदिमाह । उपादापत्ति आदयो हि पोराणट्ठकथातो मुत्ता सङ्गहकारेनेव आचरियेन वुत्ता। वित्थारो अभिधम्मट्ठकथाय गहेतब्बो । तं तन्ति तं तं धम्मजातं, सोतपथमागते धम्मे उपादाय तेसं उपधारिताकारनिदस्सनावधारणस्स पच्चामसनवसेन एवन्ति च ससन्ततिपरियापन्ने खन्धे उपादाय मेति च वत्तब्बत्ताति अत्थो । रूपवेदनादिभेदेहि धम्मे उपादाय निस्साय कारणं कत्वा पञत्ति उपादापत्ति यथा “तानि तानि अङ्गानि उपादाय रथो गेहं, ते ते रूपरसादयो उपादाय घटो पटो, चन्दिमसूरियपरिवत्तादयो उपादाय कालो दिसा'तिआदि । पञपेतब्बढेन चेसा पञ्जत्ति नाम, न पञापनद्वैन । या पन तस्स अत्थस्स पापना, अयं अविज्जमानपञ्जत्तियेव । दिट्ठादीनि उपनिधाय वत्तब्बतोति दिट्ठमुतविञाते उपनिधाय उपत्थम्भं कत्वा अपेक्खित्वा वत्तब्बत्ता । दिट्ठादिसभावविरहिते सद्दायतने वत्तमानोपि हि सुतवोहारो “दुतियं ततिय''न्तिआदिको विय पठमादीनि दिट्ठमुतविज्ञाते अपेक्खित्वा पवत्तो "उपनिधापञ्जती"ति वुच्चते। सा पनेसा अनेकविधा तदापेक्खूपनिधा हत्थगतूपनिधा सम्पयुत्तूपनिधासमारोपितूपनिधा अविदूरगतूपनिधा पटिभागूपनिधा तब्बहुलूपनिधातब्बिसिष्टूपनिधा"तिआदिना। तासु अयं “दुतियं ततियन्तिआदिका विय पठमादीनं दिट्ठादीनं अञमञमपेक्खित्वा वुत्तत्ता तदअपेक्खूपनिधापत्ति नाम ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
एवं पञ्ञत्तियापि अत्थाधिगमनीयतासङ्घातं दस्सेतब्बत्थं दस्सेत्वा इदानि सहसामत्थियेन दीपेतब्बमत्थं निद्धारेत्वा दीपेन्तो “ एत्थ चा "तिआदिमाह । एत्थाति एतस्मिं वचनत्तये । च-सद्दो उपन्यासो अत्थन्तरं आरभितुकामेन योजितत्ता । “सुत "न्ति वुत्ते असुतं न होतीति पकासितोयमत्थो, तस्मा तथा सुत - सद्देन पकासिता अत्तना पटिविद्धसुत्तस्स पकारविसेसा " एव"न्ति थेरेन पच्चामट्ठाति तेन एवं सद्देन असम्मोहो दीपितो नाम, तेनाह “ एवन्ति वचनेन असम्मोहं दीपेती "ति । असम्मोहन्ति च यथासुते सुत्ते असम्मोहं । तदेव युत्तिया, ब्यतिरेकेन च समत्थेहि " न ही "तिआदिना वक्खमानञ्च सुत्तं नानप्पकारं दुप्पटिविद्धञ्च । एवं नानप्पकारे दुप्पटिविद्धे सुत्ते कथं सम्मूळहो नानप्पकारपटिवेधसमत्थो भविस्सति । इमाय युत्तिया इमिना च ब्यतिरेकेन थेरस्स तत्थ असम्मूळहभावसङ्घातो दीपेतब्बो अत्थो विञ्ञयतीति वृत्तं होति । एवमीदिसेसु यथारहं । भगवतो सम्मुखा सुताकारस्स याथावतो उपरि थेरेन दस्सियमानत्ता " सुत्तस्स असम्मोसं दीपेती" ति वृत्तं । कालन्तरेनाति सुतकालतो अपरेन कालेन । यस्स... पे०... पटिजानाति, थेरस्स पन सुवण्णभाजने पक्खित्तसीहवसा विय अनस्समानं असम्मुट्टं तिट्ठति, तस्मा सो एवं पटिजानातीति वुत्तं होति । एवं दीपितेन पन अत्थेन किं पकासितन्ति आह " इच्चस्सा "तिआदि । तत्थ इच्चस्साति इति अस्स, तस्मा असम्मोहस्स, असम्मोसस्स च दीपितत्ता अस्स थेरस्सपञ्ञसिद्धीतिआदिना सम्बन्धो । असम्मोहेनाति सम्मोहाभावेन । पञ्ञावज्जितसमाधिआदिधम्मजातेन तंसम्पयुत्ताय पञ्ञाय सिद्धि सहजातादिसत्तिया सिज्झनतो। सम्मोहपटिपक्खेन वा पञ्ञसङ्घातेन धम्मजातेन । सवनकालसम्भूताय ह पञ्ञाय तदुत्तरिकालपञ्जासिद्धि उपनिस्सयादिकोटिया सिझनतो । इतरत्थापि यथारहं नयो तब्बो |
एवं पकासितेन पन अत्थेन किं विभावितन्ति आह " तत्था "तिआदि । तत्थाति सु दुब्बिधे धम्मेसु । ब्यञ्जनानं पटिविज्झितब्बो आकारो नातिगम्भीरो, यथासुतधारणमेव तत्थ करणीयं तस्मा तत्थ सतिया ब्यापारो अधिको पञ्ञा पन गुणीभूताति वुत्तं “पञ्ञापुब्बङ्गमाया'' तिआदि । पञ्ञाय पुब्बङ्गमा पञ्ञापुब्बङ्गमाति हि निब्बचनं, पुब्बङ्गमता चेत्थ पधानभावो “मनोपुब्बङ्गमा धम्मा" तिआदीसु ( ध० प० १) विय । अपिच यथा चक्खुविञ्ञाणादीसु आवज्जनादयो पुब्बङ्गमा समानापि तदारम्मणस्स अविजाननतो अप्पधानभूता, एवं पुब्बङ्गमायपि अप्पधानत्ते सति पञ्ञापुब्बङ्गमा एतिस्साति निब्बचनम्पि युज्जति । पुब्बङ्गमता चेत्थ पुरेचारिभावो । इति सहजातपुब्बङ्गमो पुरेजातपुब्बङ्गमोति दुविधोपि पुब्बङ्गमो इध सम्भवति, यथा चेत्थ एवं सति "पुब्बङ्गमाया'' ति एत्थापि
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परिब्बाजककथावण्णना
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यथासम्भवमेस नयो वेदितब्बो । एवं विभावितेन समत्थतावचनेन किमनुभावितन्ति आह "तदुभयसमत्थतायोगेना"तिआदि । तत्थ अत्थब्यञ्जनसम्पन्नस्साति अत्थब्यञ्जनेन परिपुण्णस्स, सङ्कासनादीहि वा छहि अत्थपदेहि, अक्खरादीहि च छहि ब्यञ्जनपदेहि समन्नागतस्स, अत्थब्यञ्जनसङ्खातेन वा रसेन सादुरसस्स । परियत्तिधम्मोयेव नवलोकुत्तररतनसन्निधानतो सत्तविधस्स, दसविधस्स वा रतनस्स सन्निधानो कोसो वियाति धम्मकोसो, तथा धम्मभण्डागारो, तत्थ नियुत्तोति धम्मभण्डागारिको। अथ वा नानाराजभण्डरक्खको भण्डागारिको वियाति भण्डागारिको, धम्मस्स अनुरक्खको भण्डागारिकोति तमेव सदिसताकारणदस्सनेन विसेसेत्वा "धम्मभण्डागारिको"ति वुत्तो । यथाह -
"बहुस्सुतो धम्मधरो, सब्बपाठी च सासने । आनन्दो नाम नामेन, धम्मारक्खो तवं मुने'ति ।। (अप० १.५४२) ।
अञथापि दीपेतब्बमत्थं दीपेति “अपरो नयो"तिआदिना, एवं सद्देन वुच्चमानानं आकारनिदस्सनावधारणत्थानं अविपरीतसद्धम्मविसयत्ता तब्बिसयेहि तेहि अत्थेहि योनिसो मनसिकारस्स दीपनं युत्तन्ति वुत्तं “योनि...पे०... दीपेती"ति । "अयोनिसो"तिआदिना ब्यतिरेकेन सापकहेतुदस्सनं । तत्थ कत्थचि हि-सदो दिस्सति, सो कारणे, कस्माति अत्थो, इमिना वचनेनेव योनिसो मनसिकरोतो नानप्पकारपटिवेधसम्भवतो अग्गि विय धूमेन कारियेन कारणभूतो सो विज्ञायतीति तदन्वयम्पि अत्थापत्तिया दस्सेति । एस नयो सब्बत्थ यथारहं । “ब्रह्मजालं आवुसो कत्थ भासित"न्तिआदि पुच्छावसेन अधुना पकरणप्पत्तस्स वक्खमानस्स सुत्तस्स “सुत"न्ति पदेन वुच्चमानं भगवतो सम्मुखा सवनं समाधानमन्तरेन न सम्भवतीति कत्वा वुत्तं "अविक्खेपं दीपेती"ति । "विक्खित्तचित्तस्सा"तिआदिना ब्यतिरेककारणेन आपकहेतुं दस्सेत्वा तदेव समत्थेति "तथा ही"तिआदिना । सब्बसम्पत्तियाति सब्बेन अत्थब्यञ्जनदेसकपयोजनादिना सम्पत्तिया । किं इमिना पकासितन्ति आह “योनिसो मनसिकारेन चेत्था"तिआदि । एत्थाति एतस्मिं धम्मद्वये । “न हि विक्खित्तचित्तो''तिआदिना कारणभूतेन अविक्खेपेन, सप्पुरिसूपनिस्सयेन च फलभूतस्स सद्धम्मस्सवनस्स सिद्धिया एव समत्थनं वुत्तं, अविक्खेपेन पन सप्पुरिसूपनिस्सयस्स सिद्धिया समत्थनं न वुत्तं । कस्माति चे ? विक्खित्तचित्तानं सप्पुरिसे पयिरुपासनाभावस्स अत्थतो सिद्धत्ता । अत्थवसेनेव हि सो पाकटोति न वुत्तो।
एत्थाह - यथा योनिसो मनसिकारेन फलभूतेन अत्तसम्मापणिधिपुब्बेकतपुञतानं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
कारणभूतानं सिद्धि वुत्ता तदविनाभावतो, एवं अविक्खेपेन फलभूतेन सद्धम्मस्सवनसप्पुरिसूपनिस्सयानं कारणभूतानं सिद्धि वत्तब्बा सिया अस्सुतवतो, सप्पुरिसूपनिस्सयविरहितस्स च तदभावतो। एवं सन्तेपि “न हि विक्खित्तचित्तो"तिआदिसमत्थनवचनेन अविक्खेपेन, सप्पुरिसूपनिस्सयेन च कारणभूतेन सद्धम्मस्सवनस्सेव फलभूतस्स सिद्धि वुत्ता, कस्मा पनेवं वुत्ताति? वुच्चतेअधिप्पायन्तरसम्भवतो हि तथा सिद्धि वुत्ता। अयं पनेत्थाधिप्पायो - सद्धम्मस्सवनसप्पुरिसूपनिस्सया न एकन्तेन अविक्खेपस्स कारणं बाहिरकारणत्ता, अविक्खेपो पन सप्पुरिसूपनिस्सयो विय सद्धम्मस्सवनस्स एकन्तकारणं अज्झत्तिककारणत्ता, तस्मा एकन्तकारणे होन्ते किमत्थिया अनेकन्तकारणं पति फलभावपरिकप्पनाति तथायेवेतस्स सिद्धि वुत्ताति । एत्थ च पठमं फलेन कारणस्स सिद्धिदस्सनं नदीपूरेन विय उपरि वुट्ठिसब्भावस्स, दुतियं कारणेन फलस्स सिद्धिदस्सनं एकन्तवस्सिना विय मेघवुट्ठानेन वुट्ठिपवत्तिया ।
“अपरो नयो"तिआदिना अञथापि दीपेतब्बत्थमाह, यस्मा न होतीति सम्बन्धो । एवन्ति...पे०... नानाकारनिद्देसोति हेट्ठा वृत्तं, सो च आकारोति सोतद्वारानुसारविज्ञाणवीथिसङ्घातस्स चित्तसन्तानस्स नानाकारेन आरम्मणे पवत्तिया नानत्थब्यञ्जनग्गहणसङ्घातो सो भगवतो वचनस्स अत्थब्यञ्जनप्पभेदपरिच्छेदवसेन सकलसासनसम्पत्तिओगाहनाकारो | एवं भद्दकोति निरवसेसपरहितपारिपूरिभावकारणत्ता एवं यथावुत्तेन नानत्थब्यञ्जनग्गहणेन सुन्दरो सेट्ठो, समासपदं वा एतं एवं ईदिसो भद्दो यस्साति कत्वा । न पणिहितो अप्पणिहितो, सम्मा अप्पणि हितो अत्ता यस्साति तथा, तस्स । पच्छिमचक्कद्वयसम्पत्तिन्ति अत्तसम्मापणिधिपुब्बेकतपुञतासङ्घातगुणद्वयसम्पत्तिं । गुणस्सेव हि अपरापरवुत्तिया पवत्तनतुन चक्कभावो । चरन्ति वा एतेन सत्ता सम्पत्तिभवं, सम्पत्तिभवेसूति वा चक्कं। यं सन्धाय वुत्तं “चत्तारिमानि भिक्खवे, चक्कानि, येहि समन्नागतानं देवमनुस्सानं चतुचक्कं वत्तती"तिआदि (अ० नि० १.४.३१) पच्छिमभावो चेत्थ देसनाक्कमवसेनेव। पुरिमचक्कद्वयसम्पत्तिन्ति पतिरूपदेसवाससप्पुरिसूपनिस्सयसङ्घातगुणद्वयसम्पत्तिं । सेसं वुत्तनयमेव | तस्माति पुरिमकारणं पुरिमस्सेवाति इध कारणमाह "न ही"तिआदिना।
तेन किं पकासितन्ति आह "इच्चस्सा"तिआदि । इति इमाय चतुचक्कसम्पत्तिया कारणभूताय । अस्स थेरस्स। पच्छिमचक्कद्वयसिद्धियाति पच्छिमचक्कद्वयस्स अस्थिभावेन
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
सिद्धिया । आसयसुद्धीति विपस्सनाञाणसङ्घाताय अनुलोमिकखन्तिया, कम्मस्सकताञाणमग्गञाणसङ्घातस्स यथाभूतत्राणस्स चाति दुविधस्सापि आसयस्स असुद्धिहेतुभूतानं किलेसानं दूरीभावेन सुद्धि । तदेव हि द्वयं विवट्टनिस्सितानं सुद्धसत्तानं आसयो । सम्मापणिहितत्तो हि पुब्बे च कतपुञ्ञ सुद्धासयो होति । तथा हि वृत्तं " सम्मापणिहितं चित्तं, सेय्यसो नं ततो करे’ति, (ध० प० ४३) “कतपुञ्ञोसि त्वं आनन्द, पधानमनुयुञ्ज खिप्पं होहिसि अनासवो 'ति (दी० नि० २.२०७) च । केचि पन " कत्तुकम्यताछन्दो आसयोति वदन्ति, तदयुत्तमेव " ताय च आसयसुद्धिया अधिगमब्यत्तिसिद्धी 'ति वचनेन विरोधतो । एवम्पि मग्गञाणसङ्घातस्स आसयस्स सुद्धि न युत्ता ताय अधिगमब्यत्तिसिद्धिया अवत्तब्बतोति ? नो न युत्तो पुरिमस्स मग्गस्स, पच्छिमानं मग्गानं, फलानञ्च कारणभावतो । पयोगसुद्धीति योनिसोमनसिकारपुब्बङ्गमस्स धम्मस्सवनपयोगस्स विसदभावेन सुद्धि, सब्बस वा कायवचीपयोगस्स निद्दोसभावेन सुद्धि । पतिरूपदेसवासी, हि सप्पुरिससेवी च यथावुत्तविसुद्धपयोगो होति । तथाविसुद्धेन योनिसोमनसिकारपुब्बङ्गमेन धम्मस्सवनपयोगेन, विप्पटिसाराभावावहेन च कायवचीपयोगेन अविक्खित्तचित्तो परियत्तियं विसारदो होति, तथाभूतो च थेरो, तेन विञ्ञायति पुरिमचक्कद्वयसिद्धिया रस्स पयोगसुद्धि सिद्धावाति । तेन किं विभावितन्ति आह "ताय चा" तिआदि । अधिगमब्यत्तिसिद्धीति पटिवेधसङ्घाते अधिगमे छेकभावसिद्धि । अधिगमेतब्बतो हि पटिविज्झितब्बतो पटिवेधो “अधिगमो "ति अट्ठकथासु वुत्तो, आगमोति च परियत्ति आगच्छन्ति अत्तत्थपरत्थादयो एतेन, आभुसो वा गमितब्बो ञातब्बोति कत्वा ।
तेन किमनुभावितन्ति आह " इतीतिआदि । इतीति एवं वृत्तनयेन तस्मा सिद्धत्ताति वा कारणनिद्देसो । वचनन्ति निदानवचनं लोकतो, धम्मतो च सिद्धाय उपमाय तमत्थं जपेतुं “अरुणुग्गं विया "तिआदिमाह । “उपमाय मिधेकच्चे, अत्थं जानन्ति पण्डिता "ति (जा० २.१९.२४) हि वुत्तं । अरुणोति सूरियस्स उदयतो पुब्बभागे उट्ठितरंसि, तस्स उग्गं उग्गमनं उदयतो उदयन्तस्स उदयावासमुग्गच्छतो सूरियस्स पुब्बङ्गमं पुरेचरं भवितुं अरहति वियाति सम्बन्धो । इदं वुत्तं होति - आगमाधिगमब्यत्तिया ईदिसस्स थेरस्स वुत्तनिदानवचनं भगवतो वचनस्स पुब्बङ्गमं भवितुमरहति, निदानभावं गतं होती इदमत्थजातं अनुभावितन्ति ।
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इदानि अपरम्पि पुब्बे वुत्तस्स असम्मोहासम्मोससङ्घातस्स दीपेतब्बस्सत्थस्स दीपकेहि एवं सद्द सुत-सहि पकासेतब्बमत्थं पकासेन्तो “ अपरो नयो" तिआदिमाह । तत्थ हि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
“नानप्पकारपटिवेधदीपकेन, सोतब्बप्पभेदपटिवेधदीपकेना "ति च इमिना तेहि सद्देहि पुब्बे दीपितं असम्मोहासम्मोससङ्घातं दीपेतब्बत्थमाह असम्मोहेन नानप्पकारपटिवेधस्स, असम्मोसेन च सोतब्बप्पभेदपटिवेधस्स सिज्झनतो । “अत्तनो "तिआदीहि पन पकासेतब्बत्थं । तेन त्तं आचरियधम्मपालत्थेरेन "नानप्पकारपटिवेधदीपकेनाति आदिना एवं सद्द सुत - सद्दानं थेरस्स अत्थब्यञ्जनेसु असम्मोहासम्मोसदीपनतो चतुपटिसम्भिदावसेन अत्थयोजनं दस्सेती " ति ( दी० नि० टी० १.१ ) । हेतुगब्भञ्चेतं पदद्वयं नानप्पकारपटिवेधसङ्घातस्स, सोतब्बप्पभेदपटिवेधसङ्घातस्स च दीपेतब्बत्थस्स दीपकत्ताति वुत्तं होति । सन्तस्स विज्जमानस्स भावो सब्भावो, अत्थपटिभानपटिसम्भिदाहि सम्पत्तिया सब्भावो तथा । " सम्भवन्तिपि पाठो, सम्भवनं सम्भवो, अत्थपटिभानपटिसम्भिदासम्पत्तीनं सम्भवो तथा । एवं इतरत्थापि । " सोतब्बप्प भेदपटिवेधदीपकेना "ति एतेन पन अयं सुत- सद्दो एवं सद्दसन्निधानतो, वक्खमानापेक्खाय वा सामञ्ञेनेव वुत्तेपि सोतब्बधम्मविसेसं आमसतीति दस्सेति । एत्थ च सोतब्बधम्मसङ्घाताय पाळिया निदस्सेतब्बानं भासितत्थपयोजनत्थानं, तीसु च आणेसु नानप्पकारभावतो तब्भावपटिवेधदीपकेन एवं सद्देन अत्थपटिभानपटिसम्भिदासम्पत्तिसब्भावदीपनं युत्तं, सोतब्बधम्मस्स पन अत्थाधिगमहेतुतो, तंवसेन च तदवसेसहेतुप्पभेदस्स गहितत्ता, निरुत्तिभावतो च सोतब्बप्पभेददीपकेन सुतसद्देन धम्मनिरुत्तिपटिसम्भिदासम्पत्तिसब्भावदीपनं यत्तन्ति वेदितब्बं । तदेवत्थहि जपेतुं “असम्मोहदीपकेन, असम्मोसदीपकेना' ति च अवत्वा तथा वृत्तन्ति ।
पवत्तञाणस्स
"
एवं असम्मोहासम्मोससङ्घातस्स दीपेतब्बस्सत्थस्स दीपकेहि एवं सद्द सुत - सहि पकासेतब्बमत्थं पकासेत्वा इदानि योनिसोमनसिकाराविक्खेपसङ्घातस्स दीपेतब्बस्सत्थस्स दीपकेहिपि तेहि पकासेतब्बमत्थं पकासेन्तो “ एवन्ति चा "तिआदिमाह । तत्थ हि " एवन्ति... पे०... भासमानो, सुतन्ति इदं... पे०... भासमानो" ति च इमिना तेहि सद्देहि पुब्बे दीपितं योनिसोमनसिकाराविक्खेपसङ्घातं दीपेतब्बत्थमाह, “ एते मया "तिआदीहि पन पकासेतब्बत्थं सवनयोगदीपकन्ति च अविक्खेपवसेन सवनयोगस्स सिज्झनतो तदेव सन्धायाह । तथा हि आचरियधम्मपालत्थेरेन वुत्तं “सवनधारणवचीपरिचरिया परियत्तिधम्मानं विसेसेन सोतावधारणपटिबद्धाति ते अविक्खेपदीपकेन सुतसद्देन योजेत्वा" ति ( दी० नि० टी० १.१) । मनोदट्ठीह परियत्तिधम्मानं अनुपेक्खनसुप्पटिवेधा विसेसतो मनसिकारपटिबद्धा, तस्मा तद्दीपकवचनेनेव एते मया धम्मा मनसानुपेक्खिता दिट्टिया सुप्पटिविद्धाति इममत्थं पकासेतीति वुत्तं " एवन्ति च... पे०... दीपेती 'ति तथ परियत्तिधम्मा | मनसानुपेक्खिताति “इध सीलं कथितं इध समाधि, इध पञ्ञा, एत्तकाव
( १.१.१-१)
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
एत्थ अनुसन्धयो’'तिआदिभेदेन मनसा अनुपेक्खिता । दिट्ठिया सुद्धा निज्झानक्खन्तिसङ्घाताय आतपरिञ्ञासङ्घाताय वा दिट्टिया तत्थ वृत्तरूपारूपधम्मे " इति रूपं, एत्तकं रूप "न्तिआदिना सुट्टु ववत्थापेत्वा पटिविद्धा ।
"
सवनधारणवचीपरिचरिया च परियत्तिधम्मानं विसेसेन सोतावधारणपटिबद्धा, तस्मा तद्दीपकवचनेनेव बहू मया धम्मा सुता धाता वचसा परिचिताति इममत्थं पकातीति वृत्तं " सुतन्ति इदं... पे०... दीपेती 'ति । तत्थ सुताति सोतद्वारानुसारेन विञ्ञता । धाताति सुवण्णभाजने पक्खित्तसीहवसा विय मनसि सुप्पतिट्ठितभावसाधनेन उपधारिता । वचसा परिचिताति पगुणतासम्पादनेन वाचाय परिचिता सज्झायिता । इदानि पकासेतब्बत्थद्वयदीपकेन यथावत्तद्दद्वयेन विभावेतब्बमत्थं विभावेन्तो “ तदुभयेनपी "तिआदिमाह । तत्थ तदुभयेनाति पुरिमनये, पच्छिमनये च यथावुत्तस्स पकासेतब्बस्सत्थस्स पकासकेन तेन दुब्बिधेन सहेन । अत्थब्यञ्जनपारिपूरिं दीपेन्तोति आदरजननस्स कारणवचनं । तदेव कारणं व्यतिरेकेन विवरति युत्तिया वा दहं करोति “अत्थब्यञ्जनपरिपुण्णही "तिआदिना । असुणन्तोति चेत्थ लक्खणे, हेतुम्हि वा अन्त - सहो । महता हिताति महन्ततो हितस्मा । परिबाहिरोति सब्बतो भागेन बाहिरो ।
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एतेन पन विभावेतब्बत्थदीपकेन सद्दद्वयेन अनुभावेतब्बत्थमनुभावेन्तो “ एवं मे सुतन्ति इमिना "तिआदिमाह । पुब्बे विसुं विसुं अत्थे योजितायेव एते सद्दा इध एकस्सेवानुभावत्थस्स अनुभावकभावेन गहिताति आपेतुं " सकलेना "ति वृत्तं । कामञ्च मेसद्दो इमस्मिं ठाने पुब्बेन योजितो, तदपेक्खानं पन एवं सद्द सुत - सद्दानं सहचरणतो, अविनाभावतो च तथा वुत्तन्ति दट्ठब्बं । तथागतप्पवेदितन्ति तथागतेन पकारतो विदितं, भासितं वा । अत्तनो अदहन्तोति अत्तनि “ ममेद "न्ति अट्ठपेन्तो । भुम्मत्थे चेतं सामिवचनं । असप्पुरिसभूमिन्ति असप्पुरिसविसयं, सो च अत्थतो अपकतञ्जुतासङ्घाता “इधेकच्चो पापभिक्खु तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं परियापुणित्वा अत्तनो दहती " ति ( पारा० १९५ ) एवं महाचोरदीपकेन भगवता वुत्ता अनरियवोहारावत्था, तथा चाह " तथागत... पे०... अदहन्तो 'ति । चेत्थ सेसो । तथा सावकत्तं परिजानन्तोति सप्पुरिसभूमिओक्कमनसरूपकथनं । ननु च आनन्दत्थेरस्स "ममेतं वचन "न्ति अधिमानस्स, महाकस्सपत्थेरादीनञ्च तदासङ्काय अभावतो असप्पुरिसभूमिसमतिक्कमादिवचनं निरत्थकं सियाति ? नयिदमेवं “एवं सुतन्ति वदन्तेन अयम्पि अत्थो अनुभावितोति अत्थस्सेव दस्सनतो । तेन हि अनुभावेतब्बमत्थंयेव तथा दस्सेति, न पन आनन्दत्थेरस्स अधिमानस्स,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
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महाकस्सपत्थेरादीनञ्च तदासङ्काय सम्भवन्ति निट्ठमेत्थ गन्तब्बं । केचि पन “देवतानं परिवितक्कापेक्खं तथावचनं, तस्मा एदिसी चोदना अनवकासा"ति वदन्ति । तस्मिं किर समये एकच्चानं देवतानं एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि “भगवा च परिनिब्बुतो, अयञ्चायस्मा आनन्दो देसनाकुसलो, इदानि धम्मं देसेति, सक्यकुलप्पसुतो तथागतस्स भाता, चूळपितुपुत्तो च, किं नु खो सो सयं सच्छिकतं धम्मं देसेति, उदाहु भगवतोयेव वचनं यथासुत''न्ति, तेसमेव चेतोपरिवितक्कमञाय तदभिपरिहरणत्थं असप्पुरिसभूमिसमतिक्कमनादिअत्थो अनुभावितोति । सायेव यथावुत्ता अनरियवोहारावत्था असद्धम्मो, तदवत्थानोक्कमनसङ्खाता च सावकत्तपटिजानना सद्धम्मो। एवं सति परियायन्तरेन पुरिमत्थमेव दस्सेतीति गहेतब्बं । अपिच कुहनलपनादिवसेन पवत्तो अकुसलरासि असद्धम्मो, तब्बिरहितभावो च सद्धम्मो। "केवल"न्तिआदिनापि वुत्तस्सेवत्थस्स परियायन्तरेन दस्सनं, यथावुत्ताय अनरियवोहारावत्थाय परिमोचेति। सावकत्तं पटिजाननेन सत्यारं अपदिसतीति अत्थो। अपिच सत्थुकप्पादिकिरियतो अत्तानं परिमोचेति तक्किरियासङ्काय सम्भवतो । “सत्थु भगवतोयेव वचनं मयासुत"न्ति सत्थारं अपदिसतीति अत्यन्तरमनुभावनं होति । "जिनवचन"न्तिआदिपि परियायन्तरदस्सनं, अत्थन्तरमनुभावनमेव वा । अप्पेतीति निदस्सेति । दिठ्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थेसु यथारहं सत्ते नेतीति नेत्ति, धम्मोयेव नेत्ति तथा । वुत्तनयेन चेत्थ उभयथा अधिप्पायो वेदितब्बो ।
अपरम्प अनुभावेतब्बमत्थमनुभावेति “अपिचा''तिआदिना। तत्थ उप्पादितभावतन्ति देसनावसेन पवत्तितभावं | पुरिमवचनं विवरन्तोति भगवता देसितवसेन पुरिमतरं संविज्जमानं भगवता वचनमेव उत्तानिं करोन्तो, इदं वचनन्ति सम्बन्धो। चतूहि वेसारज्जाणेहि विसारदस्स, विसारदहेतुभूतचतुवेसारज्जञाणसम्पन्नस्स वा । दसञाणबलधरस्स । सम्मासम्बुद्धभावसङ्खाते उत्तमट्ठाने ठितस्स, उसभस्स इदन्ति वा अत्थेन आसभसङ्खाते अकम्पनसभावभूते ठाने ठितस्स । “एवमेव खो भिक्खवे, यदा तथागतो लोके उप्पज्जति...पे०... सो धम्मं देसेती''तिआदिना (अ० नि० १.४.३३) सीहोपमसुत्तादीसु आगतेन अनेकनयेन सीहनादनदिनो। सब्बसत्तेसु, सब्बसत्तानं वा उत्तमस्स । न चेत्थ निद्धारणलक्खणाभावतो निद्धारणवसेन समासो। सब्बत्थ हि सक्कतगन्थेसु, सासनगन्थेसु च एवमेव वुत्तं । धम्मेन सत्तानमिस्सरस्स । धम्मस्सेव इस्सरस्स तदुप्पादनवसेनातिपि वदन्ति । सेसपदद्वयं तस्सेवत्थस्स परियायन्तरदीपनं । धम्मेन लोकस्स पदीपमिव भूतस्स, तदुप्पादकभावेन वा धम्मसङ्घातपदीपसम्पन्नस्स । “धम्मकायोति भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचन"न्ति (दी० नि० ३.११८) हि वुत्तं । धम्मेन लोकपटिसरणभूतस्स,
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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धम्मसङ्घातेन वा पटिसरणेन सम्पन्नस्स । “यंनूनाहं...पे०... तमेव धम्मं सक्कत्वा गरुं कत्वा मानेत्वा पूजेत्वा उपनिस्साय विहरेय्य''न्ति (अ० नि० १.४.२१; सं० नि० १.१.१७३) हि वुत्तं । सद्धिन्द्रियादिसद्धम्मसङ्घातस्स वरचक्कस्स पवत्तिनो, सद्धम्मानमेतस्स वा आणाचक्कवरस्स पवत्तिनो सम्मासम्बुद्धस्स तस्स भगवतो इदं वचनं सम्मुखाव मया पटिग्गहितन्ति योजेतब्बं । व्यञ्जनेति पदसमुदायभूते वाक्ये । कङ्खा वा विमति वाति एत्थ दळहतरं निविट्ठा विचिकिच्छा कवा। नातिसंसप्पनं मतिभेदमत्तं विमति। सम्मुखा पटिग्गहितमिदं मयाति तथा अकत्तब्बभावकारणवचनं । अत्तना उप्पादितभावं अप्पटिजानन्तो पुरिमवचनं विवरन्तोति पन अस्सद्धियविनासनस्स, सद्धासम्पदमुप्पादनस्स च कारणवचनं । "तेनेत"न्तिआदिना यथावुत्तमेवत्थं उदानवसेन दस्सेति ।
"एवं मे सुत"न्ति एवं वदन्तो गोतमगोत्तस्स सम्मासम्बुद्धस्स सावको, गोतमगोत्तसम्बन्धो वा सावको आयस्मा आनन्दो भगवता भासितभावस्स, सम्मुखा पटिग्गहितभावस्स च सूचनतो, तथासूचनेनेव च खलितदुन्निरुत्तादिगहणदोसाभावस्स सिज्झनतो सासने अस्सद्धं विनासयति, सद्धं वड्डेतीति अत्थो। एत्थ च पञ्चमादयो तिस्सो अत्थयोजना आकारादिअत्थेसु अग्गहितविसेसमेव एवं-सदं गहेत्वा दस्सिता, ततो परा तिस्सो आकारत्थमेव एवं सदं गहेत्वा विभाविता, पच्छिमा पन तिस्सो यथाक्कम आकारत्थं, निदस्सनत्थं, अवधारणस्थञ्च एवं-सदं गहेत्वा योजिताति दट्ठब्बं । होन्ति चेत्थ -
"दस्सनं दीपनञ्चापि, पकासनं विभावनं । अनुभावनमिच्चत्थो, किरियायोगेन पञ्चधा ।।
दस्सितो परम्पराय, सिद्धो नेकत्थवुत्तिया । एवं मे सुतमिच्चेत्थ, पदत्तये नयञ्जना'ति ।।
एक-सद्दो पन अझसेट्ठासहायसङ्ख्यादीसु दिस्सति । तथा हेस “सस्सतो अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं मोघमञन्ति इत्थेके अभिवदन्ती''तिआदीसु (म० नि० ३.२७) अञ्जत्थे दिस्सति, “चेतसो एकोदिभाव"न्तिआदीसु (दी० नि० १.२२८; पारा० ११) सेट्टे, “एकोवूपकट्ठो''तिआदीसु (दी० नि० १.४०५; दी० नि० २.२१५; म० नि० १.८०; सं० नि० २.३.६३; विभं० ४.४४५) असहाये, “एकोव खो भिक्खवे, खणो च समयो च ब्रह्मचरियवासाया''तिआदीसु (अ० नि० ३.८.२९) सङ्ख्यायं, इधापि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
सङ्ख्यायमेवाति दस्सेन्तो आह “एकन्ति गणनपरिच्छेदनिहेसो"ति (इतिवु० अट्ठ० १; दी० नि० टी० १.परिब्बाजककथावण्णना) एकोयेवेस समयो, न द्वे वा तयो वाति ऊनाधिकाभावेन गणनस्स परिच्छेदनिद्देसो एकन्ति अयं सद्दोति अत्थो, तेन कस्स परिच्छिन्दनन्ति अनुयोगे सति "समय"न्ति वुत्तन्ति दस्सेन्तो आह "समयन्ति परिच्छिन्ननिद्देसो"ति । एवं परिच्छेदपरिच्छिन्नवसेन वुत्तेपि “अयं नाम समयो''ति सरूपतो अनियमितत्ता अनियमितवचनमेवाति दस्सेति “एकं...पे०.... दीपन"न्ति इमिना ।
इदानि समयसद्दस्स अनेकत्थवुत्तितं अत्थुद्धारवसेन दस्सेत्वा इधाधिप्पेतमत्थं नियमेन्तो "तत्था"तिआदिमाह । तत्थाति तस्मिं “एकं समय"न्ति पदद्वये, समभिनिविठ्ठो समय सद्दोति सम्बन्धो । न पन दिस्सतीति तेस्वेकस्मिंयेव अत्थे इध पवत्तनतो। समवायेति पच्चयसामग्गियं, कारणसमवायेति अत्थो । खणेति ओकासे । हेतुविट्ठीसूति हेतुम्हि चेव लद्धियञ्च । अस्साति समयसद्दस्स । कालञ्च समयञ्च उपादायाति एत्थ कालो नाम उपसङ्कमनस्स युत्तकालो। समयो नाम तस्सेव पच्चयसामग्गी, अत्थतो पन तदनुरूपसरीरबलञ्चेव तप्पच्चयपरिस्सयाभावो च । उपादानं नाम ज्ञाणेन तेसं गहणं, तस्मा यथावुत्तं कालञ्च समयञ्च पाय गहेत्वा उपधारेत्वाति अत्थो । इदं वुत्तं होति - सचे अम्हाकं स्वे गमनस्स युत्तकालो भविस्सति, काये बलमत्ता च फरिस्सति, गमनपच्चया च अञ्जो अफासुविहारो न भविस्सति, अथेतं कालञ्च गमनकारणसमवायसवातं समयञ्च उपधारेत्वा अप्पेव नाम स्वेपि आगच्छेय्यामाति । खणोति ओकासो। तथागतुप्पादादिको हि मग्गब्रह्मचरियस्स ओकासो तप्पच्चयपटिलाभहेतुत्ता। खणो एव च समयो । यो "खणो'"ति च “समयो'"ति च वुच्चति, सो एकोवाति अधिप्पायो । दियड्ढो मासो सेसो गिम्हानं उण्हसमयो। वस्सानस्स पठमो मासो परिळाहसमयो। महासमयोति महासमूहो । समासो वा एस, ब्यासो वा । पवुटुं वनं पवनं, तस्मिं, कपिलवत्थुसामन्ते महावनसङ्खाते वनसण्डेति अत्थो। समयोपि खोति एत्थ समयोति सिक्खापदपूरणस्स हेतु | भद्दालीति तस्स भिक्खुस्स नामं । इदं वुत्तं होति - तया भद्दालि पटिविज्झितब्बयुत्तकं एकं कारणं अत्थि, तम्पि ते न पटिविद्धं न सल्लक्खितन्ति । किं तं कारणन्ति आह "भगवापि खो"तिआदि |
__ "उग्गहमानो"तिआदीसु मानोति तस्स परिब्बाजकस्स पकतिनाम, किञ्चि किञ्चि पन सिप्पं उग्गहेतुं समत्थताय “उग्गहमानो''ति नं सञ्जानन्ति, तस्मा “उग्गहमानो"ति वुच्चति । समणमुण्डिकस्स पुत्तो समणमुण्डिकापुत्तो। सो किर देवदत्तस्स उपट्ठाको । समयं
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( १.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
दिट्ठि पकारेन वदन्ति एत्थाति समयप्पवादको, तस्मिं, दिट्ठिप्पवादकेति अत्थो । तस्मिं किर ठा चङ्कीतारुक्खपोक्खरसातिप्पभूतयो ब्राह्मणा, निगण्ठाचेलकपरिब्बाजकादयो च पब्बजिता सन्निपतित्वा अत्तनो अत्तनो समयं पकारेन वदन्ति कथेन्ति दीपेन्ति, तस्मा सो आरामो ‘“समयप्पवादको "ति वुच्चति । स्वेव तिन्दुकाचीरसङ्घाताय तिम्बरूसकरुक्खपन्तिया परिक्खित्तत्ता “तिन्दुकाचीरो" ति वुच्चति । एका साला एत्थाति एकसालको । यस्मा पत्थ पठमं एका साला अहोसि, पच्छा पन महापुञ्ञ पोट्टपादपरिब्बाजकं निस्साय बहू साला कता, तस्मा तमेव पठमं कतं एकं सालं उपादाय लद्धपुब्बनामवसेन " एकसालको 'ति वुच्चति । मल्लिकाय नाम पसेनदिरञ्ञो देविया उय्यानभूतो सो पुप्फफलसच्छन्नो आरामो, तेन वृत्तं " मल्लिकाय आरामेति । पटिवसतीति तस्मिं फासुताय वसति ।
दिट्ठे धम्मेति पच्चक्खे अत्तभावे । अत्थोति वुड्ढि । कम्मकिलेसवसेन सम्परेतब्बतो सम्मा पापुणितब्बतो सम्परायो, परलोको, तत्थ नियुत्तो सम्परायिको, परलोकत्थो । अत्थाभिसमयाति यथावुत्तउभयत्थसङ्घातहितपटिलाभा । सम्परायिकोपि हि अत्थो कारणस्स निप्पन्नत्ता पटिलद्धो नाम होतीति तं अत्थद्वयमेकतो कत्वा “ अत्थाभिसमया "ति वृत्तं । धिया पञ्ञाय तंतदत्थे राति गण्हाति, धी वा पञ्ञा एतस्सत्थीति धीरो । पण्डा वुच्चति पञ्ञा । सा हि सुखमेसुपि अत्थेसु पडति गच्छति, दुक्खादीनं वा पीळनादिआकारं जानातीति पण्डा । ताय इतो गतोति पण्डितो । अथ वा इता सञ्जाता पण्डा एतस्स, पडति वा आणगतिया गच्छतीति पण्डितो । सम्मा मानाभिसमयाति मानस्स सम्मा पहानेन । सम्माति चेत्थ अग्गमग्गञाणेन समुच्छेदप्पहानं वृत्तं । अन्तन्ति अवसानं । पीळनं तंसमङ्गिनो हिंसनं अविप्फारिताकरणं । तदेव अत्थो तथा त्थ- कारस्स ट्ठ-कारं कत्वा । समेच्च पच्चयेहि कतभावो सङ्घतट्ठो । दुक्खदुक्खतादिवसेन सन्तापनं परिदहनं सन्तापट्ठो । जराय, मरणेन चाति द्विधा विपरिणामेतब्बो विपरिणामट्ठो । अभिसमेतब्बो पटिविज्झितब्बो अभिसमयट्टो, पीळनादीनियेव । तानि हि अभिसमेतब्बभावेन एकीभावमुपनेत्वा “अभिसमयट्ठो "ति वृत्तानि । अभिसमयस्स वा पटिवेधस्स अत्थो गोचरो अभिसमयट्ठोति तानियेव तब्बिसयभावूपगमन - सामञ्ञतो एकत्तेन वृत्तानि । एत्थ च उपसग्गानं जोतकमत्तत्ता तस्स तस्स अत्थस्स वाचको समयसद्दो एवाति समयसद्दस्स अत्थुद्धारेपि सउपसग्गो अभिसमयो वृत्तो ।
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तेसु पन अत्थेसु अयं वचनत्थो - सहकारीकारणवसेन सन्निज्झं समेति समवेतीति समयो, समवायो। समेति समागच्छति मग्गब्रह्मचरियमेत्थ तदाधारपुग्गलवसेनाति समयो, खणो । समेन्ति एत्थ एतेन वा संगच्छन्ति धम्मा, सत्ता वा सहजातादीहि, उप्पादादहि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
चाति समयो, कालो। धम्मप्पवत्तिमत्तताय हि अत्थतो अभूतोपि कालो धम्मप्पवत्तिया अधिकरणं, करणं विय च परिकप्पनामत्तसिद्धेन रूपेन वोहरीयति | समं, सम्मा वा अवयवानं अयनं पवत्ति अवठ्ठानन्ति समयो, समूहो यथा “समुदायो''ति । अवयवानं सहावट्ठानमेव हि समूहो, न पन अवयवविनिमुत्तो समूहो नाम कोचि परमत्थतो अस्थि । पच्चयन्तरसमागमे एति फलं उप्पज्जति, पवत्तति वा एतस्माति समयो, हेतु यथा "समुदयो'ति । सो हि पच्चयन्तरसमागमनेनेव अत्तनो फलं उप्पादट्ठितिसमङ्गीभावं करोति । समेति संयोजनभावतो सम्बन्धो हुत्वा एति अत्तनो विसये पवत्तति, दळहग्गणभावतो वा तंस त्ता सत्ता अयन्ति एतेन यथाभिनिवेसं पवत्तन्तीति समयो, दिट्ठि। दिट्ठिसंयोजनेन हि सत्ता अतिविय बज्झन्ति । समिति सङ्गति समोधानं समयो, पटिलाभो । समस्स निरोधस्स यानं पापुणनं, सम्मा वा यानं अपगमो अप्पवत्ति समयो, पहानं । अभिमुखं आणेन सम्मा एतब्बो अभिगन्तब्बोति अभिसमयो, धम्मानं अविपरीतो सभावो । अभिमुखभावेन तं तं सभावं सम्मा एति गच्छति बुज्झतीति अभिसमयो, धम्मानंयथाभूतसभावावबोधो ।
ननु च अत्थमत्तं यथाधिप्पेतं पति सद्दा अभिनिविसन्तीति न एकेन सद्देन अनेके अत्था अभिधीयन्ति, अथ कस्मा इध समयसद्दस्स अनेकधा अत्थो वुत्तोति ? सच्चमेतं सद्दविसेसे अपेक्खिते सद्दविसेसे हि अपेक्खिते न एकेन सद्देन अनेकत्थाभिधानं सम्भवति । न हि यो कालादिअत्थो समय-सद्दो, सोयेव समूहादिअत्थं वदति । एत्थ पन तेसं तेसमत्थानं समयसद्दवचनीयतासामञ्जमुपादाय अनेकत्थता समय-सद्दस्स वुत्ताति । एवं सब्बत्थ अत्थुद्धारे । होति चेत्थ -
“सामञवचनीयतं, उपादाय अनेकधा । अत्थं वदे न हि सद्दो, एको नेकत्थको सिया'ति ।।
समवायादिअत्थानं इध असम्भवतो, कालस्सेव च अपदिसितब्बत्ता "इध पनस्स कालो अत्थो"ति वुत्तं । देसदेसकादीनं विय हि कालस्स निदानभावेन अधिप्पेतत्ता सोपि इध अपदिसीयति । 'इमिना कीदिसं कालं दीपेतीति आह "तेना"तिआदि । तेनाति कालत्थेन समय-सद्देन । अड्डमासो पक्खवसेन वुत्तो, पुब्बण्हादिको दिवसभागवसेन, पठमयामादिको पहारवसेन | आदि सद्देन खणलयादयो सङ्गहिता, अनियमितवसेन एकं कालं दीपेतीति अत्थो ।
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
कस्मा पनेत्थ अनियमितवसेन कालो निद्दिट्ठो, न उतुसंवच्छरादिना नियमितवसेनाति आह " तत्थ किञ्चापीतिआदि । किञ्चापि पञ्ञाय विदितं सुववत्थापितं, तथापीति सम्बन्धो । वचसा धारेतुं वा सयं उद्दिसितुं वा परेन उद्दिसापेतुं वा न सक्का नानप्पकारभावतो बहु च वत्तब्बं होति याव कालप्पभेदो, ताव वत्तब्बत्ता । " एकं समयन्ति वुत्ते पन न सो कालप्पभेदो अत्थि, यो एत्थानन्तोगधो सियाति दस्सेति " एकेनेव पदेन तमत्थं समोधानेत्वा"ति इमिना । एवं लोकियसम्मतकालवसेन समयत्थं दस्सेत्वा इदानि सासने पाकटकालवसेन समयत्थं दस्सेतुं “ये वा इमे "तिआदि वृत्तं अपिच उतुसंवच्छरादिवसेन नियमं अकत्वा समयसस्स वचने अयम्पि गुणो द्धोयेवाति दस्सेन्तो “ये वा इमे " तिआदिमाह । सामञ्ञजोतना हि विसेसे अवतिट्ठति तस्सा विसेसपरिहारविसयत्ता | तत्थ ये इमे समयाति सम्बन्धो । भगवतो मातुकुच्छिओक्कमनकालो चेत्थ गब्भोक्कन्तिसमयो । चत्तारि निमित्तानि पस्सित्वा संवेजनकालो संवेगसमयो । छब्बस्सानि सम्बोधिसमधिगमाय चरियकालो दुक्करकारिकसमयो । देवसिकं झानफलसमापत्तीहि वीतिनामनकालो दिट्ठधम्मसुखविहारसमयो, विसेसतो पन सत्तसत्ताहानि झानसमापत्तिवळञ्जनकालो । पञ्चचत्तालीसवस्सानि तंतंधम्मदेसनाकालो देसनासमयो । आदि- यमकपाटिहारियसमयादयो सङ्गण्हाति । दससहस्सिलोकधातुपकम्पनओभासपातुभावादीहि पाकटा । “एकं समय "न्ति वुत्ते तदपि समया सन्तीति अत्थापत्तितो तेसु समयेसु इध देसनासमयसङ्घातो समयविसेसो “एकं समयन्ति वृत्तोति दीपेतीति अधिप्पायो ।
कास
यथावत्तप्पभेदेसुयेव समयेसु एकदेसं पकारन्तरेहि सङ्गहेत्वा दस्सेतुं “यो चाय”न्तिआदि वृत्तं । तत्थ हि ञाणकिच्चसमयो, अत्तहितपटिपत्तिसमयो च दिट्ठधम्मसुखविहारसमयो ।
अरियतुण्हीभावसमयो
अभिसम्बोधिसमयोयेव । करुणाकिच्चपरहितपटिपत्तिधम्मिकथासमयो देसनासमयो, तस्मा तेसु वुत्तप्पभेदेसु समये एकदेसोव पकारन्तरेन दस्सितोति दट्टब्बं । " सन्निपतितानं वो भिक्खवे द्वयं करणीयं धम्मी कथा वा अरियो वा तुम्हीभावो "ति (उदा० १२) वुत्तसमये सन्धाय “सन्निपतितानं करणीयद्वयसमयेसू " ति वुत्तं । तेसुपि समयेसूति करुणाकिच्चपरहितपटिपत्तिधम्मिकथादेसनासमयेसुपि । अञ्ञतरं समयं सन्धाय “ एकं समय "न्ति वुत्तं अत्थतो अभेदत्ता ।
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अथ विभुम्मवचनेन च करणवचनेन च निद्देसमकत्वा इध उपयोगवचनेन निद्देसपयोजनं निद्धारेतुकामो परम्मुखेन चोदनं समुट्ठति " कस्मा पनेत्था "तिआदिना ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
एत्थाति “एकं समय"न्ति इमस्मिं पदे, करणवचनेन निद्देसो कतो यथाति सम्बन्धो । भवन्ति एत्थाति भुम्मं, ओकासो, तत्थ पवत्तं वचनं विभत्ति भुम्मवचनं। करोति किरियमभिनिप्फादेभि एतेनाति करणं, किरियानिप्फत्तिकारणं | उपयुज्जितब्बो किरियायाति उपयोगो, कम्म, तत्थ वचनं तथा । "तत्था"तिआदिना यथावुत्तचोदनं परिहरति । तत्थाति तेसु अभिधम्मतदञसुत्तपदविनयेसु । तथाति भुम्मवचनकरणवचनेहि अत्थसम्भवतो चाति योजेतब्बं, अधिकरणभावेनभावलक्खणस्थानं, हेतुकरणत्थानञ्च सम्भवतोति अत्थो। इधाति इधस्मिं सुत्तपदे । अञथाति उपयोगवचनेन। अत्थसम्भवतोति अच्चन्तसंयोगत्थस्स सम्भवतो।
"तत्थ ही"तिआदि तब्बिवरणं। इतोति “एकं समय"न्ति सुत्तपदतो । अधिकरणथोति आधारत्थो। भवनं भावो, किरिया, किरियाय किरियन्तरलक्खणं भावेनभावलक्खणं, तदेवत्थो तथा । केन समयत्थेन इदं अत्थद्वयं सम्भवतीति अनुयोगे सति तदत्थद्वयसम्भवानुरूपेन समयत्थेन, तं दळ्हं करोन्तो "अधिकरणही"तिआदिमाह । पदत्थतोयेव हि यथावुत्तमत्थद्वयं सिद्धं, विभत्ति पन जोतकमत्ता । तत्थ कालसङ्खातो, कालसद्दस्स वा अत्थो यस्साति कालत्थो। समूहसङ्घातो, ‘समूहसद्दस्स वा अत्थो यस्साति समूहत्थो, को सो ? समयो । इदं वुत्तं होति - कालत्थो, समूहत्थो च समयो तत्थ अभिधम्मे वुत्तानं फस्सादिधम्मानं अधिकरणं आधारोति, यस्मिं काले, धम्मपुजे वा कामावचरं कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति, तस्मिंयेव काले, धम्मपुजे वा फस्सादयोपि होन्तीति अयहि तत्थ अत्थो । ननु चायं उपादापत्तिमत्तो कालो, वोहारमत्तो च समूहो, सो कथं अधिकरणं सिया तत्थ वुत्तधम्मानन्ति ? नायं दोसो | यथा हि कालो सयं परमत्थतो अविज्जमानोपि सभावधम्मपरिच्छिन्नत्ता आधारभावेन पञातो, सभावधम्मपरिच्छिन्नो च तङ्खणप्पवत्तानं ततो पुब्बे, परतो च अभावतो “पुब्बण्हेजातो, सायन्हे आगच्छती"तिआदीसु, समूहो च अवयवविनिमुत्तो विसुं अविज्जमानोपि कप्पनामत्तसिद्धत्ता अवयवानं आधारभावेन पापीयति “रुक्खे साखा, यवरासियं पत्तसम्भूतो"तिआदीसु, एवमिधापि सभावधम्मपरिच्छिन्नत्ता, कप्पनामत्तसिद्धत्ता च तदुभयं तत्थ वुत्तधम्मानं अधिकरणभावेन पापीयतीति ।
"खणसमवायहेतुसङ्घातस्सा"तिआदि भावेनभावलक्खणत्थसम्भवदस्सनं । तत्थ खणो नाम अट्ठक्खणविनिमुत्तो नवमो बुद्धप्पादक्खणो, यानि वा पनेतानि “चत्तारिमानि भिक्खवे, चक्कानि, येहि समन्नागतानं देवमुस्सानं चतुचक्कं पवत्तती''ति (अ० नि० १.४.३१)
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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एत्थ पतिरूपदेसवासो सप्पुरिसूपनिस्सयो अत्तसम्मापणीधि पुब्बेकतपुञताति चत्तारि चक्कानि वुत्तानि, तानि एकज्झं कत्वा ओकासटेन “खणो''ति वेदितब्बानि | तानि हि कुसलुप्पत्तिया ओकासभूतानि । समवायो नाम "चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति चक्खुविज्ञाण''न्तिआदिना (म० नि० १.२०४; ३.४२१, ४२५, ४२६; सं० नि० १.२.४३, ४४; सं० नि० २.३.६०; कथा० व० ४६५, ४६७) निद्दिट्टा चक्खुविाणादिसाधारणफलनिप्फादकत्तेन सण्ठिता चक्खुरूपादिपच्चयसामग्गी । चक्षुरूपादीनहि चक्खुविज्ञाणादि साधारणफलं । हेतु नाम योनिसोमनसिकारादिजनकहेतु । यथावुत्तस्स खणसवातस्स, समवायसङ्घातस्स, हेतुसङ्घातस्स च समयस्स सत्तासङ्घातेन भावेन तेसं फस्सादीनं धम्मानं सत्तासङ्घातो भावो लक्खीयति विज्ञायतीति अत्थो। इदं वुत्तं होति- यथा “गावीसु दुव्हमानासु गतो, दुद्धासु आगतो"ति एत्थ दोहनकिरियाय गमनकिरिया लक्खीयति, एवमिधापि यथावुत्तस्स समयस्स सत्ताकिरियाय चित्तस्स उप्पादकिरिया, फस्सादीनं भवनकिरिया च लक्खीयतीति । ननु चेत्थ सत्ताकिरिया अविज्जमानाव, कथं ताय लक्खीयतीति ? सच्चं, तथापि “यस्मिं समयेति च वृत्ते सतीति अयमत्थो विज्ञायमानो एवहोति अञ्जकिरियासम्बन्धाभावे पदत्थस्स सत्ताविरहाभावतो, तस्मा अत्थतो गम्यमानाय ताय सत्ताकिरियाय लक्खीयतीति । अयहि तत्थ अत्थो - यस्मिं यथावुत्ते खणे, पच्चयसमवाये, हेतुम्हि वा सति कामावचरं कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति, तस्मिंयेव खणे, पच्चयसमवाये, हेतुम्हि वा सति फस्सादयोपि होन्तीति । अयं पन अत्थो अभिधम्मेयेव (अट्ठ० सा० कामावचरकुसलपदभाजनीये) निदस्सनवसेन वुत्तो, यथारहमेस नयो अ सुपि सुत्तपदेसूति । तस्माति अधिकरणत्थस्स, भावेनभावलक्खणत्थस्स च सम्भवतो। तदत्थजोतनत्थन्ति तदुभयत्थस्स समयसद्दत्थभावेन विज्जमानस्सेव भुम्मवचनवसेन दीपनत्थं । विभत्तियो हि पदीपो विय वत्थुनो विज्जमानस्सेव अत्थस्स जोतकाति, अयमत्थो सद्दसत्येसु पाकटोयेव ।
हेतुअत्थो, करणत्यो च सम्भवतीति “अन्नेन वसति, विज्जाय वसती"तिआदीसु विय हेतुअत्थो, “फरसुना छिन्दति, कुदालेन खणती"तिआदीसु विय करणत्थो च सम्भवति । कथं पन सम्भवतीति आह “यो हि सो"तिआदि । विनये (पारा० २०) आगतसिक्खापदपञत्तियाचनवत्थुवसेन थेरं मरियाद कत्वा "सारिपुत्तादीहिपि दुविज्ञेय्योति वुत्तं । तेन समयेन हेतुभूतेन करणभूतेनाति एत्थ पन तंतंवत्थुवीतिक्कमोव सिक्खापदपञत्तिया हेतु चेव करणञ्च । तथा हि यदा भगवा सिक्खापदपञत्तिया पठममेव तेसं तेसं तत्थ तत्थ सिक्खापदपञत्तिहेतुभूतं तं तं वीतिक्कम अपेक्खमानो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
विहरति, तदा तं तं वीतिक्कम अपेक्खित्वा तदत्थं वसतीति सिद्धो वत्थुवीतिक्कमस्स सिक्खापदपञत्तिहेतुभावो “अन्नेनवसती''तिआदीसु अन्नमपेक्खित्वा तदत्थं वसतीतिआदिना कारणेन अन्नादीनं हेतुभावो विय। सिक्खापदपञ्जत्तिकाले पन तेनेव पुब्बसिद्धेन वीतिक्कमेन सिक्खापदं पञपेति, तस्मा सिक्खापदपञत्तिया साधकतमत्ता करणभावोपि वीतिक्कमस्सेव सिद्धो “असिना छिन्दती''तिआदीसु असिना छिन्दनकिरियं साधेतीतिआदिना कारणेन असिआदीनं करणभावो विय। एवं सन्तेपि वीतिक्कम अपेक्खमानो तेनेव सद्धिं तन्निस्सितम्पि कालं अपेक्खित्वा विहरतीति कालस्सापि इध हेतुभावो वुत्तो, सिक्खापदं पझपेन्तो च तं तं वीतिक्कमकालं अनतिक्कमित्वा तेनेव कालेन सिक्खापदं पञपेतीति वीतिक्कमनिस्सयस्स कालस्सापि करणभावो वुत्तो, तस्मा इमिना परियायेन कालस्सापि हेतुभावो, करणभावो च लब्भतीति वुत्तं “तेन समयेन हेतुभूतेन करणभूतेना''ति, निप्परियायेन पन वीतिक्कमोयेव हेतुभूतो, करणभूतो च । सो हि वीतिक्कमक्खणे हेतु हुत्वा पच्छा सिक्खापदपञापनक्खणे करणम्पि होतीति । सिक्खापदानि पञापयन्तोति वीतिक्कमं पुच्छित्वा भिक्खुसङ्घ सन्निपातापेत्वा ओतिण्णवत्थु तं पुग्गलं पटिपुच्छित्वा, विगरहित्वा च तं तं वत्थुओतिण्णकालं अनतिक्कमित्वा तेनेव कालेन करणभूतेन सिक्खापदानि पञपेन्तो। सिक्खापदपञत्तिहेतुञ्च अपेक्खमानोति ततियपाराजिकादीसु (पारा० १६२) विय सिक्खापदपञत्तिया हेतुभूतं तं तं वत्थुवीतिक्कमसमयं अपेक्खमानो तेन समयेन हेतुभूतेन भगवा तत्थ तत्थ विहासीति अत्थो।
"सिक्खापदानि पञापयन्तो, सिक्खापदपञत्तिहेतुञ्च अपेक्खमानो'"ति इदं यथाक्कमं करणभावस्स, हेतुभावस्स च समत्थनवचनं, तस्मा तदनुरूपं “तेनसमयेन करणभूतेन हेतुभूतेनाति एवं वत्तब्बेपि पठमं “हेतुभूतेना''ति उप्पटिपाटिवचनं तत्थ हेतुभावस्स सातिसयमधिप्पेतत्ता वुत्तन्ति वेदितब्बं । “भगवा हि वेरजायं विहरन्तो धम्मसेनापतित्थेरस्स सिक्खापदपञत्तियाचनहेतुभूतं परिवितक्कसमयं अपेक्खमानो तेन समयेन हेतुभूतेन विहासीति तीसुपि किर गण्ठिपदेसु वुत्तं । “किं पनेत्थ युत्तिचिन्ताय, आचरियस्स इध कमवचनिच्छा नत्थीति एवमेतं गहेतब्बं - अञासुपि हि अट्ठकथासु अयमेव अनुक्कमो वुत्तो, न च तासु ‘तेन समयेन वेरज्जायं विहरती'ति विनयपाळिपदे हेतुअत्थस्सेव सातिसयं अधिप्पेतभावदीपनत्थं वुत्तो अविसयत्ता, सिक्खापदानि पञापयन्तो हेतुभूतेन, करणभूतेन च समयेन विहासि, सिक्खापदपञत्तिहेतुञ्च अपेक्खमानो हेतुभूतेन समयेन विहासीति एवमेत्थ यथालाभं सम्बन्धभावतो एवं वुत्तो''तिपि वदन्ति ।
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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तस्माति यथावुत्तस्स दुविधस्सापि अत्थस्स सम्भवतो। तदत्थजोतनत्थन्ति वुत्तनयेन करणवचनेन तदुभयत्थस्स जोतनत्थं । तत्थाति तस्मिं विनये । एत्थ च सिक्खापदपञत्तिया एव वीतिक्कमसमयस्स साधकतमत्ता तस्स करणभावे “सिक्खापदानि पञापयन्तो''ति अज्झाहरितपदेन सम्बन्धो, हेतुभावे पन तदपेक्खनमत्तत्ता “विहरती"ति पदेनेवाति दट्ठब्बं । तथायेव हि वुत्तं "तेन समयेन हेतुभूतेन, करणभूतेन च सिक्खापदानि पञापयन्तो, सिक्खापदपञत्तिहेतुञ्च अपेक्खमानो भगवा तत्थ तत्थ विहासी"ति । करणहि किरियत्थं, न हेतु विय किरियाकारणं । हेतु पन किरियाकारणं, न करणं विय किरियत्थोति ।
"इध पना"तिआदिना उपयोगवचनस्स अच्चन्तसंयोगत्थसम्भवदस्सनं, अच्चन्तमेव दब्बगुणकिरियाहि संयोगो अच्चन्तसंयोगो, निरन्तरमेव तेहि संयुत्तभावोति वुत्तं होति । सोयेवत्थो तथा । एवंजातिकेति एवंसभावे । कथं सम्भवतीति आह “यही"तिआदि । अच्चन्तमेवाति आरब्भतो पट्ठाय याव देसनानिट्ठानं, ताव एकंसमेव, निरन्तरमेवाति अत्थो । करुणाविहारेनाति परहितपटिपत्तिसङ्घातेन करुणाविहारेन । तथा हि करुणानिदानत्ता देसनाय इध परहितपटिपत्ति "करुणाविहारो'"ति वुत्ता, न पन करुणासमापत्तिविहारो। न हि देसनाकाले देसेतब्बधम्मविसयस्स देसनाञाणस्स सत्तविसयाय महाकरुणाय सहुप्पत्ति सम्भवति भिन्नविसयत्ता, तस्मा करुणाय पवत्तो विहारोति कत्वा परहितपटिपत्तिविहारो इध "करुणाविहारो"ति वेदितब्बो । तस्माति अच्चन्तसंयोगत्थसम्भवतो। तदत्थजोतनत्थन्ति वुत्तनयेन उपयोगविभत्तिया तदत्थस्स जोतनत्थं उपयोगनिद्देसो कतो यथा “मासं सज्झायति, दिवसं भुञ्जतीति । तेनाति येन कारणेन अभिधम्मे, इतो अझेसु च सुत्तपदेसु भुम्मवचनस्स अधिकरणत्थो, भावेनभावलक्खणत्थो च, विनये करणवचनस्स हेतुअत्थो, करणत्थो च इध उपयोगवचनस्स अच्चन्तसंयोगत्थो सम्भवति, तेनाति अत्थो । एतन्ति यथा वुत्तस्सत्थस्स सङ्गहगाथापदं अञत्राति अभिधम्मे इतो अझेसु सुत्तपदेसु, विनये च । समयोति समयसद्दो । सद्देयेव हि विभत्तिपरा भवतिअत्थे असम्भवतो । सोति स्वेव समयसदो ।
एवं अत्तनो मतिं दस्सेत्वा इदानि पोराणाचरियमतिं दस्सेतुं "पोराणा पना"तिआदि वुत्तं । पोराणाति च पुरिमा अट्ठकथाचरिया। "तस्मिं समये''ति वा...पे०... “एकं समयन्ति वा एस भेदोति सम्बन्धो। अभिलापमत्तभेदोति वचनमत्तेन भेदो विसेसो, न पन अत्थेन, तेनाह "सब्बत्थ भुम्ममेवत्थो"ति, सब्बेसुपि अत्थतो आधारो एव अत्थोति वुत्तं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
होति । इमिना च वचनेन सुत्तविनयेसु विभत्तिविपरिणामो कतो, भुम्मत्थे वा उपयोगकरणविभत्तियो सिद्धाति दस्सेति । " तस्मा "तिआदिना ते मतिदस्सने गुणमाह ।
वृत्तं
गरुक तब्ब
भारियट्ठेन गरु । तदेवत्थं सङ्केततो समत्थेति "गरुं ही "तिआदिना सङ्केतविसयो हि सद्दो तंववत्थितोयेव चेस अत्थबोधकोति । गरुन्ति गरुकातब्बं जनं । " लोके " ति इमिना न केवलं सासनेयेव, लोकेपि गरुकातब्बट्टेन भगवाति सङ्केतसिद्धीति दस्सेति । यदि भगवा, अथ अयमेव सातिसयं भगवा नामाति दस्सेन्तो "अयञ्चा”तिआदिमाह । तथा हि लोकनाथो अपरिमितनिरुपमप्पभावसीलादिगुणविसेससमङ्गिताय, सब्बानत्थपरिहारपुब्बङ्गमाय निरवसेसहितसुखविधानतप्पराय निरतिसयाय पयोगसम्पत्तिया सदेवमनुस्साय पजाय अच्चन्तुपकारिताय च अपरिमाणासु लोकधातूसु अपरिमाणानं सत्तानं उत्तमं गारवट्ठानन्ति । न केवलं लोकेयेव, अथ खो सासनेपीति दस्सेति "पोराणेही "ति आदिना, पोराहीति च अट्ठकथाचरियेहीति अत्थो । सेट्ठवाचकवचनम्पि सेट्ठगुणसहचरणतो सेट्ठमेवाति वुत्तं “भगवाति वचनं से "न्ति । वुच्चि अत्थो, एतेनाति हि वचनं, सद्दो। अथ वा वुच्चतीति वचनं, अत्थो, तस्मा यो "भगवा "ति वचनेन वचनीयो अत्थो, सो सेट्ठोति अत्थो । भगवाति वचनमुत्तमन्ति एत्थापि एसेव नयो । गारवयुत्तोति गरुभावयुत्तो गरुगुणयोगत्ता, सातिसयं वा गरुकरणारहताय गारवयुत्तो, गारवारहोति अत्थो । येन कारणत्तयेन सो तथागतो गरु भारियट्ठेन, तेन "भगवा "ति वुच्चतीति सम्बन्धो । गरुताकारणदस्सनतं पदत्तयं । “सिप्पादिसिक्खापकापि गरूयेव नाम होन्ति, न च गारवयुत्ता, अयं पन तादिसो न होति, तस्मा गरूति कत्वा 'गारवयुत्तो 'ति वुत्त”न्ति केचि । एवं सति तदेतं विसेसनपदमत्तं, पुरिमपदद्वयमेव कारणदस्सनं सिया ।
अपिचाति अत्थन्तरविकप्पत्थे निपातो, अपरो नयोति अत्थो । तत्थ -
"वण्णगमो वण्णविपरियायो,
द्वे चापरे वण्णविकारनासा ।
धातूनमत्थातिसयेन योगो,
( १.१.१-१)
तदुच्चते पञ्चविधा निरुत्ती 'ति । । -
निरुत्तिलक्खणं गहेत्वा, “पिसोदरादीनि यथोपदिट्ठन्ति वुत्तसद्दनयेन वा
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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पिसोदरादिआकतिगणपक्खेपलक्खणं गहेत्वा लोकिय लोकुत्तरसुखाभिनिब्बत्तकं सीलादिपारप्पत्तं भाग्यमस्स अत्थीति “भाग्यवा''ति वत्तब्बे “भगवा''ति वुत्तन्ति आह "भाग्यवा"ति । तथा अनेकभेदभिन्नकिलेससतसहस्सानि, सङ्घपतो वा पञ्चमारे अभञ्जीति "भग्गवा''ति वत्तब्बे "भगवा''ति वुत्तन्ति दस्सेति "भग्गवा"ति इमिना । लोके च भगसद्दो इस्सरियधम्मयससिरीकामपयत्तेसु छसु धम्मेसु पवत्तति, ते च भगसङ्खाता धम्मा अस्स सन्तीति भगवाति अत्थं दस्सेतुं "युत्तो भगेहि चा"ति वुत्तं । कुसलादीहि अनेकभेदेहि सब्बधम्मे विभजि विभजित्वा विवरित्वा देसेसीति “विभत्तवा''ति वत्तब्बे "भगवा"ति वुत्तन्ति आह "विभत्तवाति । दिब्बब्रह्मअरियविहारे, कायचित्तउपधिविवेके, सुञतानिमित्ताप्पणिहितविमोक्खे, अजे च लोकियलोकुत्तरे उत्तरिमनुस्सधम्मे भजि सेवि बहुलमकासीति “भत्तवाति वत्तब्बे “भगवा''ति वुत्तन्ति दस्सेति "भत्तवा"ति इमिना । तीसु भवेसु तण्हासङ्घातं गमनमनेन वन्तं वमितन्ति “भवेसु वन्तगमनो''ति वत्तब्बे भवसद्दतो भ-कारं गमनसद्दतो ग-कारं वन्तसद्दतो व-कारं आदाय, तस्स च दीर्घ कत्वा वण्णविपरियायेन “भगवा''ति वुत्तन्ति दस्सेतुं "वन्तगमनो भवेसू"ति वुत्तं । “यतो भाग्यवा, ततो भगवा"तिआदिना पच्चेकं योजेतब्बं । अस्स पदस्साति “भगवा''ति पदस्स । वित्थारत्योति वित्थारभूतो अत्थो । “सो चा"तिआदिना गन्थमहत्तं परिहरति । वुत्तोयेव, न पन इध पन वत्तब्बो विसुद्धिमग्गस्स इमिस्सा अट्ठकथाय एकदेसभावतोति अधिप्पायो।
अपिच भगे वनि, वमीति वा भगवा। सो हि भगे सीलादिगुणे वनि भजि सेवि, ते वा भगसङ्खाते सीलादिगुणे विनेय्यसन्तानेसु “कथं नु खो उप्पज्जेय्यु"न्ति वनि याचि पत्थयि, एवं भगे वनीति भगवा, भगे वा सिरिं, इस्सरियं, यसञ्च वमि खेळपिण्डं विय छड्डयि । तथा हि भगवा हत्थगतं चक्कवत्तिसिरिं, चतुदीपिस्सरियं, चक्कवत्तिसम्पत्तिसन्निस्सयञ्च सत्तरतनसमुज्जलं यसं अनपेक्खो छड्डयि | अथ वा भानि नाम नक्खत्तानि, तेहि समं गच्छन्ति पवत्तन्तीति भगा आकारस्स रस्सं कत्वा, सिनेरुयुगन्धरादिगता भाजनलोकसोभा । ता भगा वमि तप्पटिबद्धछन्दरागप्पहानेन पजहि, एवं भगे वमीति भगवाति एवमादीहि तत्थ तत्थागतनयेहि चस्स अत्थो वत्तब्बो, अम्हेहि पन सो गन्थभीरुजनानुग्गहणत्थं, गन्थगरुतापरिहरणत्थञ्च अज्झुपेक्खितोति ।
एवमेतेसं अवयवत्थं दस्सेत्वा इदानि समुदायत्थं दस्सेन्तो पुरिमपदत्तयस्स समुदायत्थेन वुत्तावसेसेन तेसमत्थानं पटियोगिताय तेनापि सह दस्सेतुं "एत्तावता"तिआदिमाह ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
I
एतावताति एतस्स " एवं मे सुत "न्ति वचनेन " एकं समयं भगवा" तिवचनेनाति इमेहि सम्बन्धो । एत्थाति एतस्मिं निदानवचने । यथासुतं धम्मं देसेन्तोति एत्थ अन्त-सद्द हेतु अत्थो । तथादेसितत्ता हि पच्चक्खं करोति नाम । एस नयो अपरत्थापि । “यो खो आनन्द, मया धम्मो च...पे०... सत्था "ति वचनतो धम्मस्स सत्थुभावपरियायो विज्जतेवाति कत्वा “धम्मसरीरं पच्चक्खं करोतीति वृत्तं । धम्मकायन्ति हि भगवतो सम्बन्धीभूतं धम्मसङ्घातं कायन्ति अत्थो । तथा च वृत्तं " धम्मकायोति भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचन "न्ति । तं पन किमत्थियन्ति आह " तेना "तिआदि । तेनाति च तादिसेन पच्चक्खकरणेनाति अत्थो । इदं अधुना वक्खमानसुत्तं पावचनं पकट्ठे उत्तमं बुद्धस्स भगवतो वचनं नाम । तस्मा तुम्हाकं अतिक्कन्तसत्थुकं अतीतसत्थुकभावो न होतीति अत्थो । भावप्पधानो हि अयं निद्देसो, भावलोपो वा, इतरथा पावचनमेव अनतिक्कन्तसत्थुकं, सत्थुअदस्सनेन पन उक्कण्ठितस्स जनस्स अतिक्कन्तसत्थुकभावोति अत्थो आपज्जेय्य, एवञ्च सति " अयं वो सत्थाति सत्थुअदस्सनेन उक्कण्ठितं जनं समस्सासेती” तिवचनेन सह विरोधो भवेय्याति वदन्ति। इदं पावचनं सत्थुकिच्चनिप्फादनेन न अतीतसत्थुकन्ति पन अत्थो । सत्त छट्ठी, समासपदं वा एतं सत्थुअदस्सनेनाति । उक्कण्ठनं उक्कण्ठो, किच्छजीविता। "कठ किच्छजीवने "ति हि वदन्ति । तमितो पत्तोति उक्कण्ठितो, अनभिरतिया वा पीळितो विक्खित्तचित्तो हुत्वा सीसं उक्खिपित्वा उद्धं कण्ठं कत्वा इतो चितो च ओलोकेन्तो आहिण्डति, विहरति चाति उक्कण्ठितो निरुत्तिनयेन, तं उक्कण्ठितं । सद्दसामत्थियाधिगतमत्तो चेस, वोहारतो पन अनभिरतिया पीळितन्ति अत्थो । एस नयो सब्बत्थ | समस्तासेतीति अस्सासं जनेति ।
तस्मिं समयेति इमस्स सुत्तस्स सङ्गीतिसमये । कामं विज्जमानेपि भगवति एवं वत्तुमरहति, इध पन अविज्जमानेयेव तस्मिं एवं वदति, तस्मा सन्धायभासितवसेन तदत्थं दस्सेतीति आह " अविज्जमानभावं दस्सेन्तो 'ति । परिनिब्बानन्ति अनुपादिसेसनिब्बानधातुवसेन खन्धपरिनिब्बानं । तेनाति तथासाधनेन । एवंविधस्साति एवंपकारस्स, एवंसभावस्सातिपि अत्थो । नाम - सद्दो गरहायं निपातो "अत्थि नाम आनन्द थेरं भिक्खु विहेसियमानं अज्झुपेक्खिस्सथा 'तिआदीसु (अ० नि० २.५.१९६६) विय, तेन एदिसो अपि भगवा परिनिब्बुतो, का नाम कथा अञ्ञसन्ति गरहत्थं जोतेति अरियधम्मस्साति अरियानं धम्मस्स, अरियभूतस्स वा धम्मस्स । दसविधस्स कायबलस्स, आणबलस्स च वसेन दसबलधरो । वजिरस्स नाम मणिविसेसस्स सङ्घातो समूहो एकग्घनो, तेन समानो कायो यस्साति तथा । इदं वुत्तं होति - यथा वजिरसङ्घातो नाम न अञ्ञेन
(१.१.१-१)
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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मणिना वा पासाणेन वा भेज्जो, अपि तु सोयेव अखं मणिं वा पासाणं वा भिन्दति । तेनेव वुत्तं “वजिरस्स नत्थि कोचि अभेज्जो मणि वा पासाणो वा'"ति, एवं भगवापि केनचि अभेज्जसरीरो। न हि भगवतो रूपकाये केनचि अन्तरायो कातुं सक्काति । नामसद्दस्स गरहाजोतकत्ता पि-सद्दो सम्पिण्डनजोतको "न केवलं भगवायेव, अथ खो अजेपी"ति । एत्थ च एवंगुणसमन्नागतत्ता अपरिनिब्बुतसभावेन भवितुं युत्तोपि एस परिनिब्बुतो एवाति पकरणानुरूपमत्थं दस्सेतुं “एव"न्तिआदि वुत्तन्ति दट्टब्बं | आसा पत्थना केन जनेतब्बा, न जनेतब्बा एवाति अत्थो । “अहं चिरं जीविं, चिरं जीवामि, चिरं जीविस्सामि, सुखं जीविं, सुखं जीवामि, सुखं जीविस्सामी"ति मज्जनवसेन उप्पन्नो मानो जीवितमदो नाम, तेन मत्तो पमत्तो तथा । संवेजेतीति संवेगं जनेति, ततोयेव अस्स जनस्स सद्धम्मे उस्साहं जनेति । संवेजनहि उस्साहहेतु “संविग्गो योनिसो पदहतीति वचनतो।
देसनासम्पत्तिं निद्दिसति वक्खमानस्स सकलसुत्तस्स "एव''न्ति निदस्सनतो । सावकसम्पत्तिन्ति सुणन्तपुग्गलसम्पत्तिं निद्दिसति पटिसम्भिदाप्पत्तेन पञ्चसु ठानेसु भगवता एतदग्गे ठपितेन, पञ्चसु च कोसल्लेसु आयस्मता धम्मसेनापतिना पसंसितेन मया महासावकेन सुतं, तञ्च खो सयमेव सुतं न अनुस्सुतं, न च परम्पराभतन्ति अत्थस्स दीपनतो। कालसम्पत्तिं निद्दिसति भगवातिसदसन्निधाने पयुत्तस्स समयसद्दस्स बुद्धप्पादपटिमण्डित-समय-भाव-दीपनतो । बुद्धप्पादपरमा हि कालसम्पदा । तेनेतं वुच्चति -
"कप्पकसायकलियुगे, बुद्धप्पादो अहो महच्छरियं । हुतवहमज्झे जातं, समुदितमकरन्दमरविन्दन्ति ।। (दी० नि० टी० १.१; सं० नि० टी० १.१)।
तस्सायमत्थो- कप्पसङ्घातकालसञ्चयस्स लेखनवसेन पवत्ते कलियुगसङ्घाते सकराजसम्मते वस्सादिसमूहे जातो बुद्धप्पादखणसङ्खातो दिनसमूहो अन्धस्स पब्बतारोहनमिव कदाचि पवत्तनतुन, अच्छरं पहरितुं युत्तढेन च महच्छरियं होति । किमिव जातन्ति चे ? हुतवहसङ्घातस्स पावकस्स मज्झे सम्मा उदितमधुमन्तं अरविन्दसखातं वारिजमिव जातन्ति । देसकसम्पत्तिं निद्दिसति गुणविसिठ्ठसत्तुत्तमगारवाधिवचनतो ।
एवं पदछक्कस्स पदानुक्कमेन नानप्पकारतो अत्थवण्णनं कत्वा इदानि “अन्तरा च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
राजगह'"न्तिआदीनं पदानमत्थवण्णनं करोन्तो “ अन्तरा चा "तिआदिमाह । अन्तरा च राजहं अन्तरा च नालन्दन्ति एत्थ समभिनिविट्ठो अन्तरा - सद्दो दिस्सति सामञ्ञवचनीयत्थमपेक्खित्वा पकरणादिसामत्थियादिगतत्थमन्तरेनाति अत्थो । एवं पनस्स नानत्थभावो पयोगतो अवगमीयतीति दस्सेति " तदन्तर "न्तिआदिना । तत्थ तदन्तरन्ति तं कारणं । मञ्च तञ्च मन्तेन्ति, किमन्तरं किं कारणन्ति अत्थो । विज्जन्तरिकायाति विज्जुनिच्छरणक्खणे । धोवन्ती इत्थी अद्दसाति सम्बन्धो । अन्तरतोति हदये । कोपाति चित्तकालुस्सियकरणतो चित्तपकोपा रागादयो । अन्तरा वोसानन्ति आरम्भनिष्पत्तीनं वेमज्झे परियोसानं आपादि । अपिचाति तथापि, एवं पभवसम्पन्नपीति अत्थो । द्विनं महानिरयानन्ति लोहकुम्भीनिरये सन्धायाह । अन्तरिकायाति अन्तरेन । राजगहनगरं किर आविज्झित्वा महापेतलोको । तत्थ द्विनं महालोहकुम्भीनिरयानं अन्तरेन अयं तपोदा नदी आगच्छति, तस्मा सा कुथिता सन्दतीति । स्वायमिध विवरे पवत्तति तदसमसम्भवतो । एत्थ च " तदन्तरं को जानेय्य, (अ० नि० २.६.४४, ३.१०.७५) एतेसं अन्तरा कप्पा, गणनातो असमिया, (बु० वं० २८.९) अन्तरन्तरा कथं ओपातेती' तिआदीसु (म० नि० २.४२६; पहा० व० ६६; चूळ० व० ३७६) विय कारणवेमज्झेसु वत्तमाना अन्तरासद्दायेव उदाहरितब्बा सियुं, न पन चित्तखणविवरेसु वत्तमाना अन्तरिक अन्तरसद्दा | अन्तरासद्दस्स हि अयमत्थुद्धारोति । अयं पनेत्थाधिप्पायो सिया - येसु अत्थेसु अन्तरिकसद्दो, अन्तरसद्दो च पवत्तति, तेसु अन्तरासद्दोपीति समानत्थत्ता अन्तरासद्दत्थे वत्तमानो अन्तरिकसद्दो, अन्तरसद्दो, च उदाहटोति । अथ वा अन्तरासद्दोयेव “यस्सन्तरतो "ति (उदा० २०) एत्थ गाथाबन्धसुखत्थं रस्सं कत्वा वृत्तो -
“यस्सन्तरतो न सन्ति कोपा,
इतिभवाभवतञ्च वीतिवत्तो ।
तं विगतभयं सुखिं असोकं,
देवा नानुभवन्ति दस्सनाया "ति । । (उदा० २०)।
हि अयं उदाने भद्दियसुत्ते गाथा । सोयेव इक-सद्देन सकत्थपवत्तेन पदं वड्डेत्वा " अन्तरिकाया' 'ति च वृत्तो, तस्मा उदाहरणोदाहरितब्बानमेत्थ विरोधाभावो वेदितब्बोति । किमत्थं अत्थविसेसनियमो कतोति आह “ तस्मा "तिआदि । ननु चेत्थ उपयोगवचनमेव, अथ कस्मा सम्बन्धीयत्थो वुत्तो, सम्बन्धीयत्थे वा कस्मा उपयोगवचनं कतन्ति अनुयोगसम्भवतो तं परिहरितुं “अन्तरासद्देन पना" तिआदि वृत्तं, तेन सम्बन्धीयत्थे
(१.१.१-१)
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
सामिवचनप्पसङ्गे सद्दन्तरयोगेन लद्धमिदं उपयोगवचनन्ति दस्सेति, न केवलं सासनेव, लोकेपि एवमेविदं लद्धन्ति दस्सेन्तो “ ईदिसेसु चा 'तिआदिमाह । विसेसयोगतादस्सनमुखेन हि अयमत्थोपि दस्सितो । एकेनपि अन्तरा - सद्देन युत्तत्ता द्वे उपयोगवचनानि कातब्बानि । द्वीहि पन योगे का कथाति अत्थस्स सिज्झनतो । अक्खरं चिन्तेन्ति लिङ्गविभत्तियादीहीति अक्खरचिन्तका, सद्दविदू । अक्खर सद्देन चेत्थ तम्मूलकानि पदादीनिपि गहेतब्बानि । यदिपि सद्दतो एकमेव युज्जन्ति, अत्थतो पन सो द्विक्खत्तुं योजेतब्बो एकस्सापि पदस्स आवृत्तियादिनयेन अनेकधा सम्पज्जनतोति दस्सेति “दुतियपदेनपी "तिआदिना । को पन दोसो अयोजितेति आह " अयोजियमाने उपयोगवचनं न पापुणातीति । दुतियपदं न पाणातीति अत्थो सद्दन्तरयोगवसा सद्देयेव सामिवचनप्पस उपयोगविभत्तिया इच्छितत्ता । सद्दाधिकारो हि विभत्तिपयोगो ।
अद्धान- सद्दो दीघपरियायोति आह " दीघमग्गन्ति । कित्तावता पन सो दीघो नाम तदत्थभूतोति चोदनमपनेति "अद्धानगमनसमयस्स ही "तिआदिना । अद्धानगमनसमयस्स विभङ्गेति गणभोजनसिक्खापदादीसु अद्धानगमनसमयसद्दस्स पदभाजनीयभूते विभङ्गे (पाचि० २१७) । अड्ढयोजनम्पि अद्धानमग्गो, पगेव तदुत्तरि । अड्डमेव योजनस्स अड्ढयोजनं, द्विगात्तं । इध पन चतुगावुतप्पमाणं योजनमेव, तस्मा “अद्धानमग्गपटिपन्नोति वदतीति अधिप्पायो ।
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महन्तसद्दो उत्तमत्थो, बह्वत्थो च इधाधिप्पेतोति आह “महता "तिआदि । गुणमहत्तेनाति अप्पिच्छतादिगुणमहन्तभावेन । सङ्ख्यामहत्तेनाति गणनमहन्तभावेन । तदेवत्थं समत्थेति "सो ही "तिआदिना । सो भिक्खुसङ्घोति इध आगतो तदा परिवारभूतो भिक्खुसङ्घो । महाति उत्तमो । वाक्येपि हि तमिच्छन्ति पयोगवसा । अप्पिच्छताति निल्लोभता सद्दो चेत्थ सावसेसो, अत्थो पन निरवसेसो । न हि " अप्पलोभताति अभित्थवितुमरहती 'ति अट्ठकथासु वृत्तं । मज्झिमागमटीकाकारो पन आचरियधम्मपालत्थेरो एवमाह " अप्पसद्दस्स परित्तपरियायं मनसि कत्वा 'ब्यञ्जनं सावसेसं वियाति (महा० नि० अट्ठ० ८५) अट्ठकथायं वृत्तं । अप्पसद्दो पनेत्थ 'अभावत्थो' तिपि सक्का विञ्ञातुं 'अप्पाबाधतञ्चसञ्जानामी 'तिआदी सु (म० नि० १.२२५) वियाति । सङ्ख्यायपि महाति गणनायपि बहु अहोसि, संवण्णेब्बपदस्स छेदनम होतीति “भिक्खुसङ्घो" ति पदावत्थिकन्तवचनवसेन तदपरामसित्वा "तेन भिक्खुसङ्खेनाति पुन वाक्यावत्थिकन्तवचनवसेन संवण्णेतब्बपदेन सदिसीकरणं । एसा हि संवण्णनकानं पकति, यदिदं विभत्तियानपेक्खावसेन यथारहं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
संवण्णेतब्बपदत्थं संवण्णेत्वा पुन तत्थ विज्जमानविभत्तिवसेन परिवत्तेत्वा निक्खिपनन्ति । दिट्ठिसीलसामञ्जेन संहतत्ता सङ्घोति इममत्थं विभावेन्तो आह "दिद्विसीलसामञ्जसङ्घातेन समणगणेना"ति । एत्थ पन “यायं दिट्ठि अरिया निय्यानिका निय्याति तक्करस्स सम्मा दुक्खक्खयाय, तथारूपाय दिट्ठिया दिट्ठिसामञ्जगतो विहरतीति (दी० नि० ३.३२४, ३५६; म० नि० १.४९२; ३.५४; परि० २७४) एवं वुत्ताय दिट्ठिया । “यानि तानि सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विझुप्पसत्थानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानि, तथारूपेसु सीलेसु सीलसामञ्जगतो विहरती''ति (दी० नि० ३.३२३; म० नि० १.४९२, ३.५४; अ० नि० २.६.११; परि० २७४) एवं वुत्तानञ्च सीलानं सामझेन सङ्घातो सङ्घटितो समेतोति दिद्विसीलसामञसङ्घातो, समणगणो, दिविसीलसामनेन संहतोति वुत्तं होति । “दिद्विसीलसामञसङ्घाटसङ्घातेना" तिपि पाठो। तथा सङ्घातेन कतितेनाति अत्थो । तथा हि दिट्ठिसीलादीनं नियतसभावत्ता सोतापन्नापि अञमझें दिविसीलसामनेन संहता, पगेव सकदागामिआदयो, तथा च वुत्तं “नियतो सम्बोधिपरायणो''ति, (सं० नि० १.२.४१, ३.५.१९८, १००४) “अट्ठानमेतं भिक्खवे, अनवकासो, यं दिट्ठिसम्पन्नो पुग्गलो सञ्चिच्चपाणं जीविता वोरोपेय्य, नेतं ठानं विज्जतीति च आदि । अरियपुग्गलस्स हि यत्थ कत्थचि दूरे ठितापि अत्तनो गुणसामग्गिया संहततायेव, “तथारूपाय दिठ्ठिया दिट्ठिसामञ्जगतो विहरति, (म० नि० १.४९२) तथारूपेसु सीलेसु सीलसामागतो विहरती"ति (म० नि० १.४९२) वचनतो पन पुथुज्जनानम्पि दिट्ठिसीलसामनेन संहतभावो लब्भतियेव । सद्धिं-सद्दो एकतोति अत्थे निपातो । पञ्च...पे०... मत्तानीति पञ्च-सद्देन मत्तसई सङ्खिपित्वा बाहिरत्थसमासो वुत्तो । एतेसन्ति भिक्खुसतानं । पुन पञ्च मत्ता पमाणाति ब्यासो, निकारलोपो चेत्थ नपुंसकलिङ्गत्ता।
सुप्पियोति तस्स नाममेव, न गुणादि । न केवलं भिक्खुसङ्घन सद्धिं भगवायेव, अथ खो सुप्पियोपि परिब्बाजको ब्रह्मदत्तेन माणवेन सद्धिन्ति पुग्गलं सम्पिण्डेति, तञ्च खो मग्गपटिपन्नसभागताय एव, न सीलाचारादिसभागतायाति वुत्तं "पि-कारो"तिआदि । सुखुच्चारणवसेन पुब्बापरपदानं सम्बन्धमत्तकरभावं सन्धाय "पदसन्धिकरो"ति वुत्तं, न पन सरब्यञ्जनादिसन्धिभावं, तेनाह "ब्यञ्जनसिलिट्टतावसेन वुत्तो"ति, एतेन पदपूरणमत्तन्ति दस्सेति । अपिच अवधारणत्थोपि खो-सद्दो युत्तो “अस्सोसि खो वेरजो ब्राह्मणो"तिआदीसु (पारा० १) विय, तेन अद्धानमग्गपटिपन्नो अहोसियेव, नास्स मग्गपटिपत्तिया कोचि अन्तरायो अहोसीति अयमत्थो दीपितो होति । सञ्जयस्साति
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( १.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
राजगहवासिनो सञ्जयनामस्स परिब्बाजकस्स, यस्स सन्तिके पठमं उपतिस्सकोलितापि पब्बजिंसु छन्नपरिब्बाजकोव, न अचेलकपरिब्बाजको । “यदा, तदा " ति च एतेन समकालमेव अद्धानमग्गपटिपन्नतं दस्सेति । अतीतकालत्थो पाळियं होतिसद्दो योगविभागेन, तंकालापेक्खाय वा एवं वुत्तं, तदा होतीति अत्थो ।
अन्तेति समीपे। वसतीति वत्तपटिवत्तादिकरणवसेन सब्बिरियापथसाधारणवचनं, अवचरतीति वुत्तं होति, तेनेवाह “समीपचारो सन्तिकावचरो सिस्सो ”ति । चोदिता देवदूतेहीति दहरकुमारो जराजिण्णसत्तो गिलानो कम्मकारणा, कम्मकारणिका वा मतसत्तोति इमेहि पञ्चहि देवदूतेहि चोदिता ओवदिता संवेगं उप्पादिता समानापि । ते हि देवा विय दूता, विसुद्धिदेवानं वा दूताति देवदूता । हीनकायूपगाति अपायकायमुपगता । नरसङ्घाता ते माणवाति सम्बन्धो । सामञ्ञवसेन चेत्थ सत्तो " माणवो "ति वुत्तो, इतरे पन विसेसवसेन । पकरणाधिगतो हेस अत्थुद्धारोति । कतकम्मेहीति कतचोरकम्मेहि । तरुणोति सोळसवस्सतो पट्ठाय पत्तवीसतिवस्सो, उदानट्ठकथायहि “सत्ता जातदिवसतो पट्ठाय याव पञ्चदसवस्सका, ताव 'कुमारका, बाला'ति च वुच्चन्ति । ततो परं वीसतिवस्सानि 'युवानो 'ति' (उदा० अट्ठ० ४४) वृत्तं । तरुणी, माणवो, युवाति च अत्थतो एकं लोकिया पन " द्वादसवस्सतो पट्ठाय याव जरमप्पत्ती, ताव तरुणो" तिपि वदन्ति ।
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तेसु वा द्वीसु जनेसूति निद्धारणे भुम्मं । यो वा " एकं समय "न्ति पुब्बे अधिगतो कालो, तस्स पटिनिद्देसो तत्राति यहि समयं भगवा अन्तरा राजगहञ्च नाळन्दञ्च अद्धानमग्गपटिपन्नो, तस्मिंयेव समये सुप्पियोपि तं अद्धानमग्गं पटिपन्नो अवण्णं भासति, ब्रह्मदत्तो च वण्णं भासतीति । निपातमत्तन्ति एत्थ मत्तसद्देन विसेसत्थाभावतो पदपूरणत्तं दस्सेति । मधुपिण्डिकपरियायोति मधुपिण्डिकदेसना नाम इति नं सुत्तन्तं धारेहि, राजञ्ञति पायासिराजञ्ञनामकं राजानमालपति । परियायति परिवत्ततीति परियायो, वारो । परियायेति देसेतब्बमत्थं पटिपादेतीति परियायो, देसना । परियायति अत्तनो फलं पटिग्गहेत्वा पवत्ततीति परियायो, कारणं । अनेकसद्देनेव अनेकविधेनाति अत्थो विञ्ञायति अधिप्पायमत्तेनाति आह " अनेकविधेना" ति । कारणञ्चेत्थ कारणपतिरूपकमेव, न एकंसकारणं अवण्णकारणस्स अभूतत्ता, तस्मा कारणेनाति कारणपतिरूपकेनाति अत्थो । तथा हि वक्खति " अकारणमेव 'कारण'न्ति वत्वा" ति ( दी० नि० अट्ठ०१.१) । जातिवसेनिदं बह्वत्थे एकवचनन्ति दस्सेति “बहूही "तिआदिना ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
"अवण्णविरहितस्स असमानवण्णसमन्त्रागतस्सपी"ति वक्खमानकारणस्स अकारणभावहेतुदस्सनत्थं वुत्तं, दोसविरहितस्सपि असदिसगुणसमन्नागतस्सापीति अत्थो । बुद्धस्स भगवतो अवण्णं दोसं निन्दन्ति सम्बन्धो। “यं लोके"तिआदिना अरसरूपनिब्भोगअकिरियवादउच्छेदवादजेगुच्छीवेनयिकतपस्सीअपगब्भभावानं कारणपतिरूपकं दस्सेति । तस्माति हि एतं “अरसरूपो...पे०... अपगब्भो''ति इमेहि पदेहि सम्बन्धितब्बं । इदं वुत्तं होति - लोकसम्मतो अभिवादनपच्चुट्ठानअञ्जलीकम्मसामीचिकम्मआसनाभिनिमन्तनसङ्खातो सामग्गीरसो समणस्स गोतमस्स नत्थि, तस्मा सो सामग्गीरससङ्घातेन रसेन असम्पन्नसभावो, तेन सामग्गीरससङ्खातेन परिभोगेन असमन्नागतो। तस्स अकत्तब्बतावादो, उच्छिज्जितब्बतावादो च, तं सब्बं गूथं विय मण्डनजातियो पुरिसो जेगुच्छी। तस्स विनासको सोव तदकरणतो विनेतब्बो । तदकरणेन वयोवुड्ढे तापेति तदाचारविरहितताय वा कपणपुरिसो। तदकरणेन देवलोकगब्भतो अपगतो, तदकरणतो वा सो हीनगब्भो चाति एवं तदेव अभिवादनादिअकरणं अरसरूपतादीनं कारणपतिरूपकं दट्टब्बं । “नत्थि...पे०... विसेसो"ति एतस्स पन "सुन्दरिकाय नाम परिब्बाजिकाय मरणानवबोधो, संसारस्स आदिकोटिया अपञ्जायनपटिञा, ठपनीयपुच्छाय अब्याकतवत्थुव्याकरण"न्ति एवमादीनि कारणपतिरूपकानि निद्धारितब्बानि, तथा "तक्कपरियाहतं समणो...पे०... सयम्पटिभान"न्ति एतस्स “अनाचरियकेन सामं पटिवेधेन तत्थ तत्थ तथा तथा धम्मदेसना, कत्थचि परेसं पटिपुच्छाकथनं, महामोग्गल्लानादीहि आरोचितनयेनेव ब्याकरण"न्ति एवमादीनि, “समणो...पे०... न अग्गपुग्गलो"ति एतेसं पन “सब्बधम्मानं कमेनेव अनवबोधो, लोकन्तस्स अजाननं, अत्तना इच्छिततपचाराभावो"ति एवमादीनि । झानविमोक्खादि हेट्ठा वुत्तनयेन उत्तरिमनुस्सधम्मो। अरियं विसुद्धं, उत्तमं वा आणसङ्घातं दस्सनं, अलं किलेसविद्धंसनसमत्थं अरियाणदस्सनं एत्थ, एतस्साति वा अलमरियाणदस्सनो। स्वेव विसेसो तथा । अरियाणदस्सनमेव वा विसेसं वुत्तनयेन अलं परियत्तं यस्स, यस्मिन्ति वा अलमरियजाणदस्सनविसेसो, उत्तरिमनुस्सधम्मोव । तक्कपरियाहतन्ति कप्पनामत्तेन समन्ततो आहरितं, वितक्केन वा परिघटितं । वीमंसानुचरितन्ति वीमंसनाय पुनप्पुनं परिमज्जितं । सयम्पटिभानन्ति सयमेव अत्तनो विभूतं, तादिसं धम्मन्ति सम्बन्धो । अकारणन्ति अयुत्तं अनुपपत्तिं । कारणपदे चेतं विसेसनं । न हि अरसरूपतादयो दोसा भगवति संविज्जन्ति, धम्मस सु च दुरक्खातदुप्पटिपन्नादयो अकारणन्ति वा युत्तिकारणरहितं अत्तना पटिञामत्तं । पकतिकम्मपदञ्चेतं । इमस्मिञ्च अत्थे कारणं वत्वाति एत्थ कारणं इवाति इव-सहत्थो रूपकनयेन योजेतब्बो
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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पतिरूपककारणस्स अधिप्पेतत्ता। तथा तथाति जातिवुड्डानमनभिवादनादिना तेन तेन आकारेन । वण्णसहस्स गुणपसंसासु पवत्तनतो यथाक्कम “अवण्णं दोसं निन्दन्ति वुत्तं ।
दुरक्खातोति दुटुमाक्खातो, तथा दुप्पटिवेदितो। वट्टतो निय्यातीति निय्यानं, तदेव निय्यानिको, ततो वा निय्यानं निस्सरणं, तत्थ नियुत्तोति निय्यानिको। वट्टतो वा निय्यातीति निय्यानिको य-कारस्स क-कारं, ई-कारस्स च रस्सं कत्वा । “अनीय-सद्दो हि बहुला कत्तुअभिधायको"ति सद्दविदू वदन्ति, न निय्यानिको तथा । संसारदुक्खस्स अनुपसमसंवत्तनिको वुत्तनयेन। पच्चनीकपटिपदन्ति सम्मापटिपत्तिया विरुद्धपटिपदं । अननुलोमपटिपदन्ति सप्पुरिसानं अननुलोमपटिपदं। अधम्मानुलोमपटिपदन्ति लोकुत्तरधम्मस्स अननुलोमपटिपदं । कस्मा पनेत्थ “अवण्णं भासति, वण्णं भासती"ति च वत्तमानकालनिद्देसो कतो, ननु सङ्गीतिकालतो सो अवण्णवण्णानं भासनकालो अतीतोति ? सच्चमेतं, “अद्धानमग्गपटिपन्नो होती"ति एत्थ होति-सद्दो विय अतीतकालत्थत्ता पन भासति-सद्दस्स एवं वुत्तन्ति दट्ठब् । अथ वा यस्मिं काले तेहि अवण्णो वण्णो च भासीयति, तमपेक्खित्वा एवं वुत्तं, एवञ्च कत्वा “तत्रा''ति पदस्स कालपटिनिद्देसविकप्पनं अट्ठकथायं अवुत्तम्पि सुपपन्नं होति ।
“सुप्पियस्स पन...पे०... भासती''ति पाळिया सम्बन्धदस्सनं “अन्तेवासी पनस्सा"तिआदिवचनं । अपरामसितबं अरियूपवादकम्म, तथा अनक्कमितबं। स्वायन्ति सो आचरियो। असिधारन्ति असिना तिखिणभागं । ककचदन्त पन्तियन्ति खन्धककचस्स दन्तसङ्घाताय विसमपन्तिया । हत्थेन वा पादेन वा येन केनचि वा अङ्गपच्चङ्गेन पहरित्वा कीळमानो विय। अक्खिकण्णकोससङ्खातठ्ठानवसेन तीहि पकारेहि भिन्नो मदो यस्साति पभिन्नमदो, तं । अवण्णं भासमानोति अवण्णं भासनहेतु । हेतुअत्थो हि अयं मान-सद्दो । न अयो वुड्डि अनयो। सोयेव ब्यसनं, अतिरेकब्यसनन्ति अत्थो, तं पापुणिस्सति एकन्तमहासावज्जत्ता रतनत्तयोपवादस्स । तेनेवाह -
“यो निन्दियं पसंसति,
तं वा निन्दति यो पसंसियो । विचिनाति मुखेन सो कलिं,
कलिना तेन सुखं न विन्दती''ति ।। (सु० नि० ६६३; सं नि० १.१८०-१८१; नेत्ति० ९२) ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
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'अम्हाकं आचरियो" तिआदिना ब्रह्मदत्तस्स संवेगुप्पत्तिं, अत्तनो आचरिये च कारुञ्ञप्पवत्तिं दस्सेत्वा किञ्चापि अन्तेवासिना आचरियस्स अनुकूलेन भवितब्बं, अयं पन पण्डितजातिकत्ता न ईदिसेसु ठानेसु तमनुवत्ततीति इदानिस्स कम्मस्सकताञाणप्पवत्तिं दस्सेन्तो “ आचरिये खो पनाति आदिमाह । हलाहलन्ति तङ्खणञ्ञेव मारणकं विसं । हनतीति हि हलो न-कारस्स ल-कारं कत्वा, हलानम्पि विसेसो हलो हलाहलो मज्झेदीघवसेन, एतेन च अञ्ञ अट्ठविधे विसे निवत्तेति । वृत्तञ्च -
“पुमे पण्डे च काकोल, काळकूटहलाहला । सरोत्थिकोसुङ्किके यो, ब्रह्मपुत्तो पदीपनो । दारदो वच्छनाभो च, विसभेदा इमे नवा” TL
खरोदकन्ति चण्डसोतोदकं । " खारोदक "न्तिपि पाठो, अतिलोणताय तित्तोदकन्ति अत्थो । नरकपपातन्ति चोरपपातं । माणवकाति अत्तानमेव ओवदितुं आलपति “समयोपि खो ते भद्दालि अप्पटिविद्धो अहोसी" तिआदीसु (म० नि० २.१३५) विय । “कम्मस्सका" ति कम्ममेव अत्तसन्तकभावं वत्वा तदेव विवरति “अत्तनो कम्मानुरूपमेव गतिं गच्छन्ती”तिआदिना । योनिसोति उपायेन जायेन । उम्मुज्जित्वाति आचरियो विय अयोनिसो अरियूपवादे अनिम्मुज्जन्तो योनिसो अरियूपवादतो उम्मुज्जित्वा, उद्धं हुवा अत्थो । मद्दमानोति मद्दन्तो भिन्दन्तो । एकंसकारणमेव इध कारणन्ति दस्सेतुकामेन " सम्मा" ति वृत्तं । " यथा तन्तिआदिना तस्स समारद्धभावं दस्सेति, तन्ति च निपातमत्तं । इदं वुत्तं होति - यथा अञ्ञो पण्डितसभावो जाति आचारवसेन कुलपुत्तो अनेकपरियायेन तिण्णं रतनानं वण्णं भासितुमारभति, तथा अयम्पि आरद्धो, तञ्च खो अपि नामायमाचरियो एत्तकेनापि रतनत्तयावण्णभासतो ओरमेय्याति ।
( १.१.१-१)
सप्पराजवण्णन्ति अहिराजवण्णं । वण्णपोक्खरतायाति वण्णसुन्दरताय, वण्णसरीरेन वा । वारिजं कमलं न पहरामि न भञ्जामि, आरा दूरतोव उपसिङ्घामीति अत्थो । अथाति एवं सन्तेपि । गन्धत्थेनोति गन्धचोरो । सञ्जूळ्हाति गन्धिता बन्धिता । गहपतीति उपालिगहपतिं नाटपुत्तस्स आलपनं । एत्थ च वण्णितब्बो “अयमीदिसो 'ति पकासेतब्बोति वण्णो, सण्ठानं । वण्णीयति असङ्करतो ववत्थापीयतीति वण्णो, जाति । वण्णेति विकारमापज्जमानं हदयङ्गतभावं पकासेतीति वण्णो, रूपायतनं । वण्णीयति फलमेतेन यथासभावतो विभावीयतीति वण्णो, कारणं । वण्णीयति अप्पमहन्तादिवसेन पमीयतीति
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
वण्णो, पमाणं । वण्णीयति पसंसीयतीति वण्णो, गुणो । वण्णनं गुणसंकित्तनं वण्णो, पसंसा। एवं तत्थ तत्थ वण्णसद्दस्सुप्पत्ति वेदितब्बा । आदिसद्देन जातरूपपुळिनक्खरादयो सङ्गण्हाति । “इध गुणोपि पसंसापीति वुत्तमेव समत्थेति “अयं किरा" तिआदिना । किराति चेत्थ अनुस्सवनत्थे, पदपूरणमत्ते वा । गुणूपसहितन्ति गुणोपसञ्जतं । “गुणूपसहितं पसंसन्ति पन वदन्ती पसंसाय एव गुणभासनं सिद्धं तस्सा तदविनाभावतो, तस्मा इदमत्थद्वयं युज्जतीति द
कथं भासतीति आह " तत्था " तिआदि । एको च सो पुग्गलो चाति एकपुग्गलो । केनट्ठेन एकपुग्गलो ? असदिसट्ठेन, गुणविसिट्ठट्ठेन, असमसमट्ठेन च । सो हि पठमाभिनीहारकाले दसन्नं पारमीनं परिपाटिया आवज्जनं आदिं कत्वा बोधिसम्भारसम्भरणगुणेहि चेव बुद्धगुणेहि च सेसमहाजनेन असदिसो । ये चस्स गुणा, तेपि अञ्ञसत्तानं गुणेहि विसिट्ठा, पुरिमका च सम्मासम्बुद्धा सब्बसत्तेहि असमा, तेहि पन अयमेवेको रूपकायनामकायेहि समो । लोकेति सत्तलोके । " उप्पज्जमानो उप्पज्जती "ति पन इदं उभयम्पि विप्पकतवचनमेव उप्पादकिरियाय वत्तमानकालिकत्ता । उप्पज्जमानो बहुजनहिताय उप्पज्जति, न अञ्ञेन कारणेनाति एवं पनेत्थ अत्थो वेदितब्बो | लक्खणे हेस मान- सद्दो, एवरूपञ्चेत्थ लक्खणं न सक्का अञ्ञेन सद्दलक्खणेन पटिबाहितुं । अपिच उप्पज्जमानो नाम, उप्पज्जति नाम, उप्पन्नो नामाति अयमेत्थ भेदो वेदितब्बो । एस हि दीपङ्करपादमूलतो पट्ठाय याव अनागामिफलं, ताव उप्पज्जमानो नाम, अरहत्तमग्गक्खणे उप्पज्जति नाम, अरहत्तफलक्खणे उप्पन्नो नाम । बुद्धानहि सावकानं विय न पटिपाटिया इद्धिविधत्राणादीनि उप्पज्जन्ति, सहेव पन अरहत्तमग्गेन सकलोपि सब्बञ्ञगुणरासि आगतोव नाम होति, तस्मा निब्बत्तसब्बकिच्चत्ता अरहत्तफलक्खणे उप्पन्नो नाम, तदनिब्बत्तत्ता तदञ्ञक्खणे यथारहं “उप्पज्जमानो उप्पज्जति" च्चेव वुच्चति । इमस्मिम्पि सुत्ते अरहत्तफलक्खणंयेव सन्धाय “उप्पज्जतीति वुत्तं । अतीतकालिकस्सापि वत्तमानपयोगस्स कत्थचि दिट्ठत्ता उप्पन्नो होतीति अयञ्हेत्थ अत्थो । एवं सति " उप्पज्जमानो 'ति चेत्थ मान- सद्दो सामत्थियत्थो । यावता सामत्थियेन महाबोधिसत्तानं चरिमभवे उप्पत्ति इच्छितब्बा, तावता सामत्थियेन बोधिसम्भारभूतेन परिपुण्णेन समन्नागतो हुत्वाति अत्थो । तथासामत्थिययोगेन हि उप्पज्जमानो नामाति सब्बसत्तेहि असमो, असमेहि पुरिमबुद्धेहेव समो मज्झे भिन्नसुवण्ण निक्खं विय निब्बिसिट्टो, “एकपुग्गलो " ति चेतस्स विसेसनं । आलयसङ्घातं तहं समुग्घातेति समुच्छिन्दतीति आलयसमुग्घातो । वट्टं उपच्छिन्दतीति बट्टुपच्छेदो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
पहोन्तेनाति सक्कोन्तेन । “पञ्चनिकाये"ति वत्वापि अनेकावयवत्ता तेसं न एत्तकेन सब्बथा परियादानन्ति "नवङ्गं सत्थुसासनं चतुरासीति धम्मक्खन्धसहस्सानी"ति वुत्तं । अतित्थेनाति अनोतरणट्ठानेन । न वत्तब्बो अपरिमाणवण्णत्ता बुद्धादीनं, निरवसेसानञ्च तेसं इध पकासनेन पाळिसंवण्णनाय एव सम्पज्जनतो, चित्तसम्पहंसनकम्मट्ठानसम्पज्जनवसेन च सफलत्ता। थामो वेदितब्बो सब्बथामेन पकासितत्ता। किं पन सो तथा ओगाहेत्वा भासतीति आह । "ब्रह्मदत्तो पना"तिआदि । अनुक्कमेन पुनप्पुनं वा सवनं अनुस्सवो, परम्परसवनं। आदि-सद्देन आकारपरिवितक्कदिट्ठिनिज्झानक्खन्तियो सङ्गण्हाति । तत्थ “सुन्दरमिदं कारण''न्ति एवं सयमेव कारणपरिवितक्कनं आकारपरिवितक्को। अत्तनो दिट्ठिया निज्झायित्वा खमनं रुच्चनं दिविनिज्झानक्खन्तीति अट्ठकथासु वुत्तं, तेहियेव सम्बन्धितेनाति अत्थो । मत्त-सद्दो हेत्थ विसेसनिवत्तिअत्थो, तेन यथावुत्तं कारणं निवत्तेति । अत्तनो थामेनाति अत्तनो आणबलेनेव, न पन बुद्धादीनं गुणानुरूपन्ति अधिप्पायो । असङ्ख्येय्यापरिमेय्यप्पभेदा हि बुद्धादीनं गुणा | वुत्तव्हेतं
"बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वण्णं,
___ कप्पम्पि चे अञमभासमानो । खीयेथ कप्पो चिरदीघमन्तरे
__वण्णो न खीयेथ तथागतस्सा'ति ।। (दी० नि० अट्ठ० १.३०४; ३.१४१; म० नि० अट्ठ० २.४२५; उदा० अट्ठ० ५३; बु० वं० अट्ठ० ४.१; अप० अट्ट० २.९१; चरियापटिक अट्ट० ९, ३२९)।
इधापि वक्खति “अप्पमत्तकं खो पनेत''न्तिआदि ।
इति सद्दो निदस्सनत्थो वुत्तप्पकारं निदस्सेति । ह-कारो निपातमत्तन्ति आह "एवं ते"ति । अञमञस्सा'ति इदं रुळ्हिपदं “एको एकाया''ति (पारा० ४४४, ४५२) पदं वियाति दस्सेन्तो “अञोअञस्सा"ति रुळ्हिपदेनेव विवरति। "उजुमेवा"ति सावधारणसमासतं वत्वा तेन निवत्तेतब्बत्थं आह "ईसकम्पि अपरिहरित्वा"ति, थोकतरम्पि अविरज्झित्वाति अत्थो। कथन्ति आह “आचरियेन ही"तिआदि । पुब्बे एकवारमिव अवण्णवण्णभासने निद्दिष्टेपि “उजुविपच्चनीकवादा''ति (दी० नि० १.१) वुत्तत्ता
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
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अनेकवारमेव ते एवं भासन्तीति वेदितब्बन्ति दस्सेतुं "पुन इतरो अवणं इतरो वण्ण"न्ति वुत्तं । तेन हि विसद्दस्स विविधत्थतं समत्थेति । सारफलकेति सारदारुफलके, उत्तमफलके वा। विसरुक्खआणिन्ति विसदारुमयपटाणिं । इरियापथानुबन्धनेन अनुबन्धा होन्ति, न सम्मापटिपत्तिअनुबन्धनेन ।
सीसानुलोकिनोति सीसेन अनुलोकिनो, सीसं उक्खिपित्वा मग्गानुक्कमेन ओलोकयमानाति अत्थो । तस्मिं कालेति यम्हि संवच्छरे, उतुम्हि, मासे, पक्खे वा भगवा तं अद्धानमग्गं पटिपन्नो, तस्मिं काले । तेन हि अनियमतो संवच्छरउतुमासड्डमासाव निद्दिसिता "तं दिवस"न्ति दिवसस्स विसुं निद्दिद्वत्ता, मुहुत्तादीनञ्च दिवसपरियापन्नतो । "तं अद्धानं पटिपन्नो"ति चेत्थ आधारवचनतं । तेनेव हि किरियाविच्छेददस्सनवसेन "राजगहे पिण्डाय चरतीति सह पुब्बकालकिरियाहि वत्तमाननिद्देसो कतो, इतरथा तस्मिं काले राजगहे पिण्डाय चरति, तं अद्धानमग्गञ्च पटिपन्नोति अनधिप्पेतत्थो आपज्जेय्य । न हि असमानविसया किरिया एकाधारा सम्भवन्ति, या चेत्थ अधिप्पेता अद्धानपटिपज्जनकिरिया, सा च अनियमिता न युत्ताति | राजगहपरिवत्तकेसूति राजगह परिवत्तेत्वा ठितेसु । “अञतरस्मि"न्ति इमिना तेसु भगवतो अनिबद्धवासं दस्सेति । सोति एवं राजगहे वसमानो सो भगवा। पिण्डाय चरणेनपि हि तत्थ पटिबद्धभाववचनतो सन्निवासत्तमेव दस्सेति । यदि पन “पिण्डाय चरमानो सो भगवा"ति पच्चामसेय्य, यथावुत्तोव अनधिप्पेतत्थो आपज्जेय्याति । तं दिवसन्ति यं दिवसं अद्धानमग्गं पटिपन्नो, तं दिवस । तं अद्धानं पटिपन्नोति एत्थ अच्चन्तसंयोगवचनमेतं । भत्तभुञ्जनतो पच्छा पच्छाभत्तं, तस्मिं पच्छाभत्तसमये । पिण्डपातपटिक्कन्तोति यत्थ पिण्डपातत्थाय चरित्वा भुञ्जन्ति, ततो अपक्कन्तो। तं अद्धानं पटिपन्नोति “नाळन्दायं वेनेय्यानं विविधहितसुखनिष्फत्तिं आकङ्खमानो इमिस्सा अट्ठप्पत्तिया तिविधसीलालङ्कतं नानाविधकुहनलपनादिमिच्छाजीवविद्धंसनं द्वासट्ठिदिट्ठिजालविनिवेठनं दससहस्सिलोकधातुपकम्पनं ब्रह्मजालसुत्तं देसेस्सामी''ति तं यथावुत्तं दीघमग्गं पटिपन्नो, इदं पन कारणं पकरणतोव पाकटन्ति न वुत्तं । एत्तावता “कस्मा पन भगवा तं अद्धानं पटिपन्नो'"ति चोदना विसोधिता होति।
इदानि इतरम्पि चोदनं विसोधितुं "सुप्पियोपी"ति वुत्तं । तस्मिं काले, तं दिवसं अनुबन्धोति च वुत्तनयेन सम्बन्धो । पातो असितब्बोति पातरासो, सो भुत्तो येनाति भुत्तपातरासो। इच्चेवाति एवमेव मनसि सन्निधाय, न पन “भगवन्तं, भिक्खुसङ्घञ्च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धिस्सामी''ति। तेन वुत्तं "भगवतो तं मग्गं पटिपन्नभावं अजानन्तोवा"ति, तथा अजानन्तो एव हुत्वा अनुबन्धोति अत्थो । न हि सो भगवन्तं दट्ठमेव इच्छति, तेनाह "सचे पन जानेय्य, नानुबन्धेय्या'ति । एत्तावता “कस्मा च सुप्पियो अनुबन्धो''ति चोदना विसोधिता होति । “सो"तिआदिना अपरम्प चोदनं विसोधेति । कदाचि पन भगवा अञ्जतरवेसेनेव गच्छति अङ्गलिमालदमनपक्कसातिअभिग्गमनादीसु, कदाचि बुद्धसिरिया, इधापि ईदिसाय बुद्धसिरियाति दस्सेतुं “बुद्धसिरिया सोभमान"न्तिआदि वुत्तं । सिरीति चेत्थ सरीरसोभग्गादिसम्पत्ति, तदेव उपमावसेन दस्सेति "रत्तकम्बलपरिक्खित्तमिवा"तिआदिना । गच्छतीति जङ्गमो यथा “चङ्कमो"ति । चञ्चलमानो गच्छन्तो गिरि, तादिसस्स कनकगिरिनो सिखरमिवाति अत्थो।
"तस्मिं किरा"तिआदि तब्बिवरणं, पाळियं अदस्सितत्ता, पोराणट्ठकथायञ्च अनागतत्ता अनुस्सवसिद्धा अयं कथाति दस्सेतुं “किरा"ति वुत्तन्ति वदन्ति, तथा वा होतु अञथा वा, अत्तना अदिटुं, असुतं, अमुतञ्च अनुस्सवमेवाति दट्ठब् । नीलपीतलोहितोदातमजिठ्ठपभस्सरवसेन छब्बण्णा। समन्ताति समन्ततो दसहि दिसाहि | असीतिहत्थप्पमाणेति तेसं रस्मीनं पकतिया पवत्तिट्टानवसेन वुत्तं, तस्मा समन्ततो, उपरि च पच्चेकं असीतिहत्थमत्ते पदेसे पकतियाव घनीभूता रस्मियो तिद्वन्तीति दट्ठब्, विनयटीकायं पन "तायेव ब्यामप्पभा नाम । यतो छब्बण्णा रस्मियो तळाकतो मातिका विय दससु दिसासु धावन्ति, सा यस्मा ब्याममत्ता विय खायति, तस्मा ब्यामप्पभाति वुच्चती''ति वुत्तं, (विमति० टी० १.१६) सङ्गीतिसुत्तवण्णनायं पन वक्खति "पुरथिमकायतो सुवण्णवण्णा रस्मि उट्ठहित्वा असीतिहत्थं ठानं गण्हाति । पच्छिमकायतो। दक्खिणहत्थतो । वामहत्थतो सुवण्णवण्णा रस्मि उट्ठहित्वा असीतिहत्थं ठानं गण्हाति । उपरि केसन्ततो पट्टाय सब्बकेसावटेहि मोरगीववण्णा रस्मि उट्ठहित्वा गगनतले असीतिहत्थं ठानं गण्हाति । हेट्ठा पादतलेहि पवाळवण्णा रस्मि उट्ठहित्वा घनपथवियं असीतिहत्थं ठानं गण्हाति । एवं समन्ता असीतिहत्थमत्तं ठानं छब्बण्णा बुद्धरस्मियो विज्जोतमाना विप्फन्दमाना विधावन्तीति (दी० नि० अट्ठ० ३.२९९) केचि पन अञथापि परिकप्पनामत्तेन वदन्ति, तं न गहेतब्बं तथा अञ्जत्थ अनागतत्ता, अयुत्तत्ता च । तासं पन बुद्धरस्मीनं तदा अनिग्गूहितभावदस्सनत्थं "तस्मिं किर समये''ति वुत्तं । पक्कुसातिअभिग्गमनादीसु विय हि तदा तासं निग्गूहने किञ्चि कारणं नत्थि । आधावन्तीति अभिमुखं दिसं धावन्ति । विधावन्तीति विविधा हुत्वा विदिसं धावन्ति ।
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(१.१.१-१)
परिब्बाजककथावण्णना
तस्मिं वनन्तरे दिस्समानाकारेन तासं रस्मीनं सोभा विज्ञायतीति आह "रतनावेळा"तिआदि । रतनावेळा नाम रतनमयवटंसकं मुद्धं अवति रक्खतीति हि अवेळा, आवेळा वा, मुद्धमाला । उक्का नाम या सजोतिभूता, तासं सतं, निपतनं निपातो, तस्स निपातो, तेन समाकुलं तथा । पिसितब्बत्ता पिढें, चीनदेसे जातं पिटुं चीनपिटुं, रत्तचुण्णं, यं "सिन्दूरो"तिपि वुच्चति, चीनपिट्ठमेव चुण्णं । वायुनो वेगेन इतो चितो च खित्तं तन्ति तथा । इन्दस्स धनु लोकसङ्केतवसेनाति इन्दधनु, सूरियरस्मिवसेन गगने पञ्जायमानाकारविसेसो । कुटिलं अचिरट्ठायित्ता विरूपं हुत्वा जवति धावतीति विज्जु, सायेव लता तंसदिसभावेनाति तथा, वायुवेगतो वलाहकघट्टनेनेव जातरस्मि । तायति अविजहनवसेन आकासं पालेतीति तारा, गणसद्दो पच्चेकं योजेतब्बो। तस्स पभा तथा । विप्फुरितविच्छरितमिवाति आभाय विविधं फरमानं, विज्जोतयमानं विय च । वनस्स अन्तरं विवरं वनन्तरं, भगवता पत्तपत्तवनप्पदेसन्ति वुत्तं होति ।
असीतिया अनुब्यञ्जनेहि तम्बनखतादीहि अनुरञ्जितं तथा । कमलं पदुमपुण्डरीकानि, अवसेसं नीलरत्तसेतभेदं सरोरुहं उप्पलं, इति पञ्चविधा पङ्कजजाति परिग्गहिता होति । विकसितं फुल्लितं तदुभयं यस्स सरस्स तथा । सब्बेन पकारेन परितो समन्ततो फुल्लति विकसतीति सब्बपालिफुल्लं अ-कारस्स आ-कारं, र-कारस्स च ल-कारं कत्वा यथा “पालिभद्दो''ति, तारानं मरीचि पभा, ताय विकसितं विज्जोतितं तथा । ब्यामप्पभाय परिक्खेपो परिमण्डलो, तेन विलासिनी सोभिनी तथा । महापुरिसलक्खणानि अचमपटिबद्धत्ता मालाकारेनेव ठितानीति वुत्तं "वत्तिंसवरलक्खणमाला"ति । द्वत्तिंसचन्दादीनं माला केनचि गन्थेत्वा पटिपाटिया च ठपिताति न वत्तब्बा "यदि सिया''ति परिकप्पनामत्तेन हि "गन्थेत्वा ठपितद्वत्तिंसचन्दमालाया"तिआदि वुत्तं । परिकप्पोपमा हेसा, लोकेपि च दिस्सति ।
"मयेव मुखसोभास्से, त्यलमिन्दुविकत्थना । यतोम्बुजेपि सात्थीति, परिकप्पोपमा अय''न्ति ।।
द्वत्तिंसचन्दमालाय सिरिं अत्तनो सिरिया अभिभवन्ती इवाति सम्बन्धो । एस नयो सेसेसुपि ।
एवं भगवतो तदा सोभं दस्सेत्वा इदानि भिक्खुसङ्घस्सापि सोभं दस्सेन्तो “तञ्च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१-१)
पना"तिआदिमाह । चतुब्बिधाय अप्पिच्छताय अप्पिच्छा। द्वादसहि सन्तोसेहि सन्तुट्ठा । तिविधेन विवेकेन पविवित्ता। राजराजमहामत्तादीहि असंसट्ठा। दुप्पटिपत्तिकानं चोदका। पापे अकुसले गरहिनो परेसं हितपटिपत्तिया वत्तारो। परेसञ्च वचनक्खमा। विमुत्तित्राणदस्सनं नाम पच्चवेक्खणजाणं। "तेस"न्तिआदिना तदभिसम्बन्धेन भगवतो सोभं दस्सेति । रत्तपदुमानं सण्डो समूहो वनं, तस्स मज्झे गता तथा । "रत्तं पदुमं, सेतं पुण्डरीक"न्ति पत्तनियममन्तरेन तथा वुत्तं, पत्तनियमेन पन सतपत्तं पदुमं, ऊनकसतपत्तं पुण्डरीकं । पवाळं विद्दमो, तेन कताय वेदिकाय परिक्खित्तो विय । मिगपक्खीनम्पीति पि-सद्दो, अपिसद्दो वा सम्भावनायं, तेनाह "पगेव देवमनुस्सान"न्ति । महाथेराति महासावके सन्धायाह । सुरञ्जितभावेन ईसकं कण्हवण्णताय मेघवण्णं। एकंसं करित्वाति एकंसपारुपनवसेन वामसे करित्वा । कत्तरस्स जिण्णस्स आलम्बनो दण्डो कत्तरदण्डो, बाहुल्लवसेनायं समझा। सुवम्मं नाम सोभणुरच्छदो, तेन वम्मिता सन्नद्धाति सुवम्मवम्मिता, इदं तेसं पंसुकूलधारणनिदस्सनं । येसं कुच्छिगतं सब्बम्पि तिणपलासादि गन्धजातमेव होति, ते गन्धहत्थिनो नाम, ये “हेमवता"तिपि वुच्चन्ति, तेसम्पि थेरानं सीलादिगुणगन्धताय तंसदिसता। अन्तोजटाबहिजटासङ्घाताय तण्हाजटाय विजटितभावतो विजटितजटा। तण्हाबन्धनाय छिन्नत्ता छिन्नबन्धना। "सो"तिआदि यथावृत्तवचनस्स गुणदस्सनं । अनुबुद्धेहीति बुद्धानमनुबुद्धेहि । तेपि हि एकदेसेन भगवता पटिविद्धपटिभागेनेव चत्तारि सच्चानि बुज्झन्ति । पत्तपरिवारितन्ति पुप्फदलेन परिवारितं । कं वुच्चति कमलादि, तस्मिं सरति विराजतीति केसरं, किञ्जक्खो। कण्णे करीयतीति कणिका। कण्णालङ्कारो, तंसदिसण्ठानताय कणिका, बीजकोसो। छन्नं हंसकुलानं सेट्ठो धतरट्ठो हंसराजा विय, हारितो नाम महाब्रह्मा विय ।
एवं गच्छन्तं भगवन्तं, भिक्खू च दिस्वा अत्तनो परिसं ओलोकेसीति सम्बन्धो । काजदण्डकेति काजसङ्खाते भारावहदण्डके, काजस्मिं वा भारलग्गितदण्डके। खुद्दकं पीठं पीठकं । मूले, अग्गे च तिधा कतो दण्डो तिदण्डो। मोरहत्थको मोरपिञ्छं। खुद्दकं पसिब्बं पसिब्बकं। कुण्डिका कमण्डलु । सा हि कं उदकं उदेति पसवेति, रक्खतीति वा कुण्डिका निरुत्तिनयेन । गहितं ओमकतो लुज्जितं, विविधं लुज्जितञ्च पीठक...पे०... कुण्डिकादिअनेकपरिक्खारसङ्खातं भारं भरति वहतीति गहित...पे०... भारभरिता। इतीति निदस्सनत्थो । एवन्ति इदमत्थो । एवं इदं वचनमादि यस्स वचनस्स तथा, तदेव निरत्थकं वचनं यस्साति एवमादिनिरत्थकवचना। मुखं एतस्स अत्थीति मुखरा, सब्बेपि मुखवन्ता एव, अयं पन फरुसाभिलापमुखवती, तस्मा एवं वुत्तं । निन्दायहि अयं रपच्चयो ।
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(१.१.२-२)
परिब्बाजककथावण्णना
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मुखेन वा अमनापं कम्मं राति गण्हातीति मुखरा। विविधा किण्णा वाचा यस्साति विकिण्णवाचा। तस्साति सुप्पियस्स परिब्बाजकस्स । तन्ति यथावुत्तप्पकारं परिसं ।
इदानीति तस्स तथारूपाय परिसाय दस्सनक्खणे | पनाति अरुचिसंसूचनत्थो, तथापीति अत्थो । लाभ...पे०... हानिया चेव हेतुभूताय । कथं हानीति आह "अञतित्थियानही"तिआदि । निस्सिरीकतन्ति निसोभतं, अयमत्थो मोरजातकादीहिपि दीपेतब्बो। “उपतिस्सकोलितानञ्चा"तिआदिना पक्खहानिताय वित्थारो। आयस्मतो सारिपुत्तस्स, महामोग्गल्लानस्स च भगवतो सन्तिके पब्बज्जं सन्धाय "तेसु पन पक्कन्तेसू"ति वुत्तं । तेसं पब्बजितकालेयेव अड्डतेय्यसतं परिब्बाजकपरिसा पब्बजि, ततो परम्प तदनुपब्बजिता परिब्बाजकपरिसा अपरिमाणाति दस्सेति "सापि तेसं परिसा भिन्ना"ति इमिना । याय कायचि हि परिब्बाजकपरिसाय पब्बजिताय तस्स परिसा भिन्नायेव नाम समानगणताति तथा वुत्तं । “इमेही"तिआदिना लाभपक्खहानि निगमनवसेन दस्सेति । उसूयसङ्घातस्स विसस्स उग्गारो उग्गिलनं उसूयविसुग्गारो, तं । एत्थ च “यस्मा पनेसा''तिआदिनाव "कस्मा च सो रतनत्तयस्स अवण्णं भासती''ति चोदनं विसोधेति, "सचे"तिआदिकं पन सब्बम्पि तप्परिवारवचनमेवाति तेहिपि सा विसोधितायेव नाम । भगवतो विरोधानुनयाभाववीमंसनत्थं एते अवण्णं वण्णं भासन्ति । “मारेन अन्वाविट्ठा एवं भासन्ती"ति च केचि वदन्ति, तदयुत्तमेव अट्ठकथाय उजुविपच्चनीकत्ता । पाकटोयेवायमत्थोति ।
२. यस्मा अत्थङ्गतो सूरियो, तस्मा अकालो दानि गन्तुन्ति सम्बन्धो ।
अम्बलविकाति सामीपिकवोहारो यथा “वरुणनगरं, गोदागामो''ति आह "तस्स किरा"तिआदि । तरुणपरियायो लट्टिका-सद्दो रुक्खविसये यथा “महावनं अज्झोगाहेत्वा बेलुवलट्ठिकाय मूले दिवाविहारं निसीदी"तिआदीसूति दस्सेति" "तरुणम्बरुक्खो"ति इमिना । केचि पन “अम्बलट्ठिका नाम वुत्तनयेन एको गामो'"ति वदन्ति, तेसं मते अम्बलट्ठिकायन्ति समीपत्थे भुम्मवचनं । छायूदकसम्पन्नन्ति छायाय चेव उदकेन च सम्पन्नं । मञ्जुसाति पेळा । पटिभानचित्तविचित्तन्ति इत्थिपुरिससञोगादिना पटिभानचित्तेन विचित्तं, एतेन रो अगारं, तदेव राजागारकन्ति दस्सेति । राजागारकं नाम वेस्सवणमहाराजस्स देवायतनन्ति एके।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३-३)
बहुपरिस्सयोति बहुपद्दवो। केहीति वुत्तं “चोरे'हिपी''तिआदि। हन्दाति वचनवोस्सग्गत्थे निपातो, तदानुभावतो निप्परिस्सयत्थाय इदानि उपगन्त्वा स्वे गमिस्सामीति अधिप्पायो । “सद्धिं अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेना" तिच्चेव सीहळट्ठकथायं वुत्तं, तञ्च खो पाळिआरुळहवसेनेव, न पन तदा सुप्पियस्स परिसाय अभावतोति इममत्थं दस्सेतुं "सद्धिं अत्तनो परिसाया"ति इध वुत्तं । कस्मा पनेत्थ ब्रह्मदत्तोयेव पाळियमारुळहो, न पन तदवसेसा सुप्पियस्स परिसाति ? देसनानधीनभावेन पयोजनाभावतो । यथा चेतं, एवं अझम्पि एदिसं पयोजनाभावतो सङ्गीतिकारकेहि न सङ्गीतन्ति दट्ठब्बं । केचि पन “पाळियं वुत्त'"न्ति आधारं वत्वा तदेतं न सीहळट्ठकथानयदस्सनं, पालियं वुत्तभावदस्सनमेवा'ति" वदन्ति, तं न युज्जति । पाळिआरुळहवसेनेव पाळियं वुत्तन्ति अधिप्पेतत्थस्स आपज्जनतो। तस्मा यथावुत्तनयेनेव अत्थो गहेतब्बोति । "वुत्तन्ति वा अम्हेहिपि इध वत्तब्बन्ति अत्थो । एवहि तदा अज्ञायपि परिसाय विज्जमानभावदस्सनत्थं एवं वुत्तं, पाळियमारुळ्हवसेन पन अञथापि इध वत्तब्बन्ति अधिप्पायो युत्तो''ति वदन्ति ।
इदानि “तत्रापि सुदन्तिआदिपाळिया सम्बन्धं दस्सेतुं "एवं वासं उपगतो पना"तिआदि वुत्तं । परिवारेत्वा निसिन्नो होतीति सम्बन्धो । कुच्छितं कत्तब्बन्ति कुकतं, तस्स भावो कुक्कुच्चं, कुच्छितकिरिया, इतो चितो च चञ्चलनन्ति अत्थो, हत्थस्स कुक्कुच्चं तथा । “सा ही"तिआदिना तथाभूतताय कारणं दस्सेति । निवातेति वातविरहितठ्ठाने । यथावुत्तदोसाभावेन निच्चला। तं विभूतिन्ति तादिसं सोभं । विप्पलपन्तीति सतिवोस्सग्गवसेन विविधा लपन्ति । निल्लालितजिव्हाति इतो चितो च निक्खन्तजिव्हा । काकच्छमानाति काकानं सद्दसदिसं सदं कुरुमाना | घरुघरुपस्सासिनोति घरुघरुइति सदं जनेत्वा पस्ससन्ता। इस्सावसेनाति यथावुत्तेहि द्वीहि कारणेहि उसूयनवसेन। "सबं वत्तब्ब"न्ति इमिना “आदिपेय्यालनयोय"न्ति दस्सेति ।
३. सम्मा पहोन्ति तं तं कम्मन्ति सम्पहुला, बहवो, तेनाह "बहुकान"न्ति । सब्बन्तिमेन परिच्छेदेन चतुवग्गसङ्घनेव विनयकम्मस्स कत्तब्बत्ता "विनयपरियायेना"तिआदि वुत्तं । तयो जनाति चेस उपलक्खणनिद्देसो द्विन्नम्पि सम्पहुलत्ता । तत्थ तत्थ तथायेवागतत्ता "सुत्तन्तपरियायेना"तिआदिमाह । तं तं पाळिया आगतवोहारवसेन हि अयं भेदो । तयो जना तयो एव नाम, ततो पट्ठाय उत्तरि चतुपञ्चजनादिका सम्पहुलाति अत्थो । ततोति चायं मरियादावधि । मण्डलमाळोति अनेकत्थपवत्ता समझा, इध पन ईदिसाय एवाति
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(१.१.३-३)
परिब्बाजककथावण्णना
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नियमेन्तो आह "कत्थची"तिआदि । कण्णिका वुच्चति कूटं। हंसवट्टकच्छन्नेनाति हंसमण्डलाकारछन्नेन । तदेव छन्नं अञ्जत्थ "सुपण्णवङ्कच्छदनन्ति वुत्तं । कूटेन युत्तो
अगारो, सोयेव सालाति कूटागारसाला। थम्भपन्तिं परिक्खिपित्वाति थम्भमालं परिवारेत्वा, परिमण्डलाकारेन थम्भपन्तिं कत्वाति वुत्तं होति । उपट्टानसाला नाम पयिरुपासनसाला । यत्थ उपट्टानमत्तं करोन्ति, न एकरत्तदिरत्तादिवसेन निसीदनं, इध पन तथा कता निसीदनसालायेवाति दस्सेति “इध पना"तिआदिना । तेनेव पाळियं “सन्निपतितान' न्त्वेव अवत्वा “सन्निसिन्नान"न्तिपि वुत्तं । मानितब्बोति माळो, मीयति पमीयतीति वा माळो। मण्डलाकारेन पटिच्छन्नो माळोति मण्डलमाळो, अनेककोणवन्तो पटिस्सयविसेसो । "सनिसिन्नान"न्ति निसज्जनवसेन वुत्तं, निसज्जनवसेन वा "सन्निसिन्नान"न्ति संवण्णेतब्बपदमज्झाहरित्वा सम्बन्धो। इमिना निसीदनइरियापथं, कायसामग्गीवसेन च समोधानं सन्धाय पदद्वयमेतं वुत्तन्ति दस्सेति । सङ्खिया बुच्चति कथा सम्मा खियनतो कथनतो | कथाधम्मोति कथासभावो, उपपरिक्खा विधीति केचि ।।
“अच्छरिय"न्तिआदि तस्स रूपदस्सनन्ति आह "कतमो पन सो"तिआदि । सोति कथाधम्मो । “नीयतीति नयो, अत्थो, सद्दसत्थं अनुगतो नयो सद्दनयो"ति (दी० नि० टी० १.३) आचरियधम्मपालत्थेरेन वुत्तं । नीयति अत्थो एतेनाति वा नयो, उपायो, सद्दसत्थे आगतो नयो अत्थगहणूपायो सद्दनयो। तत्थ हि अनभिण्हवुत्तिके अच्छरिय-सद्दो इच्छितो रुळ्हिवसेन । तेनेवाह “अन्धस्स पब्बतारोहणं विया"तिआदि । तस्स हि तदारोहणं न निच्चं, कदाचियेव सिया, एवमिदम्पि। अच्छरायोग्गं अच्छरियं निरुत्तिनयेन योग्गसद्दस्स लोपतो, तद्धितवसेन वा णियपच्चयस्स विचित्रवुत्तितो, सो पन पोराणट्ठकथायमेव आगतत्ता "अट्ठकथानयो"ति वुत्तो। पुब्बे अभूतन्ति अभूतपुबं, एतेन न भूतं अभूतन्ति निब्बचनं, भूत-सद्दस्स च अतीतत्थं दस्सेति । यावञ्चिदन्ति सन्धिवसेन निग्गहितागमोति आह "याव च इद"न्ति, एतस्स च "सुप्पटिविदिता''ति एतेन सम्बन्धो । याव च यत्तकं इदं अयं नानाधिमुत्तिकता सुप्पटिविदिता, तं "एत्तकमेवा''ति न सक्का अम्हेहि पटिविज्झितुं, अक्खातुञ्चाति सपाठसेसत्थो । तेनेवाह "तेन सुष्पटिविदितताय अप्पमेय्यतं दस्सेती"ति ।
"भगवता''तिआदीहि पदेहि समानाधिकरणभावेन वुत्तत्ता तेनाति एत्थ त-सद्दो सकत्थपटिनिद्देसो, तस्मा येन अभिसम्बुद्धभावेन भगवा पकतो समानो सुपाकटो नाम होति, तदभिसम्बुद्धभावं सद्धिं आगमनपटिपदाय तस्स अत्थभावेन दस्सेन्तो “यो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३-३)
सो"तिआदिमाह । न हेत्थ सो पुब्बे वुत्तो अत्थि, यो अत्थो तेहि थेरेहि त-सद्देन परामसितब्बो भवेय्य । तस्मा यथावुत्तगुणसङ्घातं सकत्थंयेवेस पधानभावेन परामसतीति दट्ठब्बं । अनुत्तरं सम्मासम्बोधिन्ति अग्गमग्गजाणपदट्टानं अनावरणजाणं, अनावरणञाणपदट्ठानञ्च अग्गमग्गजाणं । तदुभयहि सम्मा अविपरीतं सयमेव बुज्झति, सम्मा वा पसट्ठा सुन्दरं बुज्झतीति सम्मासम्बोधि। सा पन बुद्धानं सब्बगुणसम्पत्तिं देति अभिसेको विय रञो सब्बलोकिस्सरियभावं, तस्मा “अनुत्तरा सम्मासम्बोधी''ति वुच्चति । अभिसम्बुद्धोति अब्भासि पटिविज्झि, तेन तादिसेन भगवताति अत्थो। सतिपि आणदस्सनानं इध पञ्जावेवचनभावे तेन तेन विसेसेन नेसं विसयविसेसप्पवत्तिं दस्सेन्तो "तेसं तेसं सत्तान"न्तिआदिमाह । एत्थ हि पठममत्थं असाधारणजाणवसेन दस्सेति । आसयानुसयजाणेन जानता सब्ब तानावरणञाणेहि पस्सताति अत्थो ।
दुतियं विज्जत्तयवसेन । पुब्बेनिवासादीहीति पुब्बेनिवासासवक्खयजाणेहि। ततियं अभिञानावरणञाणवसेन । अभिज्ञापरियापन्नेपि “तीहि विजाही"ति तासं रासिभेददस्सनत्थं वुत्तं । अनावरणजाणसङ्घातेन समन्तचक्खुना पस्सताति अत्थो । चतुत्थं सब्ब तञाणमंसचक्खुवसेन | पञ्जायाति सब्बञ्जतञाणेन । कुट्टस्स भित्तिया तिरो परं, अन्तो वा, तदादीसु गतानि । अतिविसुद्धेनाति अतिविय विसुद्धेन पञ्चवण्णसमन्नागतेन सुनीलपासादिकअक्खिलोमसमलङ्कतेन रत्तिञ्चेव दिवा च समन्ता योजनं पस्सन्तेन मंसचक्खुना। पञ्चमं पटिवेधदेसनाजाणवसेन । “अत्तहितसाधिकाया"ति एकंसतो वुत्तं, परियायतो पनेसा परहितसाधिकापि होति । ताय हि धम्मसभावपटिच्छादककिलेससमुग्घाताय देसनात्राणादि सम्भवति। पटिवेधपञआयाति अरियमग्गपञ्जाय। विपस्सनासहगतो समाधि पदट्ठानं आसन्नकारणमेतिस्साति समाधिपदट्ठाना, ताय। देसनापञआयाति देसनाकिच्चनिप्फादकेन सब्ब ताणेन । अरीनन्ति किलेसारीनं, पञ्चमारानं वा, सासनपच्चत्थिकानं वा अञतित्थियानं । तेसं हननं पाटिहारियेहि अभिभवनं अप्पटिभानताकरणं, अज्झुपेक्खनञ्च मज्झिमपण्णासके पञ्चमवग्गे सङ्गीतं चकीसुत्तञ्चेत्थ (म० नि० २.४२२) निदस्सनं, एतेन अरयो हता अनेनाति निरुत्तिनयेन पदसिद्धिमाह । अतो नावचनस्स ताब्यप्पदेसो महाविसयेनाति दट्ठब्बं । अपिच अरयो हनतीति अन्तसद्देन पदसिद्धि, इकारस्स च अकारो । पच्चयादीनं सम्पदानभूतानं, तेसं वा पटिग्गहणं, पटिग्गहितुं वा अरहतीति अरहन्ति दस्सेति "पच्चयादीनञ्च अरहत्ता"ति इमिना । सम्माति अविपरीतं । सामञ्चाति सयमेव, अपरनेय्यो हुत्वाति वुत्तं होति । कथं पनेत्थ “सब्बधम्मान"न्ति अयं विसेसो लब्भतीति ?
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(१.१.३-३)
परिब्बाजककथावण्णना
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सामञजोतनाय विसेसे अवठ्ठानतो, विसेसत्थिना च विसेसस्स अनुपयोजेतब्बतो यज्जेवं "धम्मान"न्ति विसेसोवानुपयोजितो सिया, कस्मा सब्बधम्मानन्ति अयमत्थो अनुपयोजीयतीति ? एकदेसस्स अग्गहणतो। पदेसग्गहणे हि असति गहेतब्बस्स निप्पदेसता विचायति यथा “दिक्खितो न ददाती"ति, एस नयो ईदिसेसु ।
इदानि च चतूहि पदेहि चतुवेसारज्जवसेन अत्तना अधिप्पेततरं छ?मत्थं दस्सेतुं "अन्तरायिकधम्मे वा"तिआदि वुत्तं । तथा हि तदेव निगमनं करोति “एव"न्तिआदिना । तत्थ अन्तरायकरधम्मत्राणेन जानता, निय्यानिकधम्मत्राणेन पस्सता, आसवक्खयजाणेन अरहता, सब्ब ताणेन सम्मासम्बुद्धेनाति यथाक्कम योजेतब्बं । अनत्थचरणेन किलेसा एव अरयोति किलेसारयो, तेसं किलेसारीनं। एत्थाह - यस्स आणस्स वसेन सम्मा सामञ्च सब्बधम्मानं बुद्धत्ता भगवा सम्मासम्बुद्धो नाम जातो, किं पनिदं जाणं सब्बधम्मानं बुज्झनवसेन पवत्तमानं सकिंयेव सब्बस्मिं विसये पवत्तति, उदाहु कमेनाति । किञ्चेत्थ - यदि ताव सकिंयेव सब्बस्मिं विसये पवत्तति, एवं सति अतीतानागतपच्चूप्पन्नअज्झत्तबहिद्धादिभेदभिन्नानं सङ्खतधम्मानं, असङ्घतसम्मुतिधम्मानञ्च एकझं उपट्ठाने दूरतो चित्तपटं पेक्खन्तस्स विय पटिभागेनावबोधो न सिया, तथा च सति "सब्बे धम्मा अनत्ता"ति (अ० नि० १.३.१३७; ध० प० २७९; महा० नि० २७; चूळ० नि० ८, १०, नेत्ति० ५) विपस्सन्तानं अनत्ताकारेन विय सब्बे धम्मा अनिरूपितरूपेन भगवतो आणविसया होन्तीति आपज्जति | येपि “सब्बजेय्यधम्मानं ठितिलक्खणविसयं विकप्परहितं सब्बकालं बुद्धानं जाणं पवत्तति, तेन ते ‘सब्बविदू'ति वुच्चन्ति । एवञ्च कत्वा
'गच्छं समाहितो नागो, ठितो नागो समाहितो । सेय्यं समाहितो नागो, निसिन्नोपि समाहितो'ति ।। (अ० नि० २.६.४३)।
इदम्पि सब्बदा आणप्पवत्तिदीपकं अङ्गुत्तरागमे नागोपमसुत्तवचनं सुवुत्तं नाम होती"ति वदन्ति, तेसम्पि वादे वुत्तदोसा नातिवत्ति । ठितिलक्खणारम्मणताय च अतीतानागतधम्मानं तदभावतो एकदेसविसयमेव भगवतो आणं सिया, तस्मा सकिओव सब्बस्मिं विसये आणं पवत्ततीति न युज्जति । अथ कमेन सब्बस्मिम्पि विसये आणं पवत्तति, एवम्पि न युज्जति । न हि जातिभूमिसभावादिवसेन, दिसादेसकालादिवसेन च अनेकभेदभिन्ने जेय्ये
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३-३)
कमेन गव्हमाने तस्स अनवसेसपटिवेधो सम्भवति अपरियन्तभावतो ज्ञेय्यस्स । ये पन “अत्थस्स अविसंवादनतो ज्ञेय्यस्स एकदेसं पच्चक्खं कत्वा सेसेपि एवन्ति अधिमुच्चित्वा ववत्थापनेन सब्बञ्जू नाम भगवा जातो, तञ्च आणं न अनुमानिकं नाम संसयाभावतो । संसयानुबद्धज्हि आणं लोके अनुमानिक''न्ति वदन्ति, तेसम्पि तं न युत्तमेव । सब्बस्स हि अप्पच्चक्खभावे अत्थाविसंवादनेन जेय्यस्स एकदेसं पच्चक्खं कत्वा सेसेपि एवन्ति अधिमुच्चित्वा ववत्थापनस्सेव असम्भवतो तथा असक्कुणेय्यत्ता च। यहि सेसं, तदपच्चक्खमेव, अथ तम्पि पच्चक्खं, तस्स सेसभावो एव न सिया, अपरियन्तभावतो जेय्यस्स तथाववत्थितुमेव न सक्काति? सब्बमेतं अकारणं । कस्मा ? अविसयविचारणभावतो । वुत्तव्हेतं भगवता “बुद्धानं भिक्खवे, बुद्धविसयो अचिन्तेय्यो न चिन्तेतब्बो, यं चिन्तेन्तो उम्मादस्स विघातस्स भागी अस्सा"ति (अ० नि० १.४.७७) इदं पनेत्थ सन्निट्ठानं - यं किञ्चि भगवता आतुं इच्छितं, सकलमेकदेसो वा, तत्थ तत्थ अप्पटिहतवुत्तिताय पच्चक्खतो जाणं पवत्तति निच्चसमाधानञ्च विक्खेपाभावतो, आतुं इच्छितस्स च सकलस्स अविसयभावे तस्स आकङ्खापटिबद्धवुत्तिता न सिया, एकन्तेनेव सा इच्छितब्बा, सब्बे धम्मा बुद्धस्स भगवतो आवज्जनपटिबद्धा आकङ्खापटिबद्धा मनसिकारपटिबद्धा चित्तुप्पादपटिबद्धाति (महा० नि० ६९, १५६; चूळ० नि० ८५; पटि० म० ३.५) वचनतो। अतीतानागतविसयम्पि भगवतो आणं अनुमानागमतक्कगहणविरहितत्ता पच्चक्खमेव ।
ननु च एतस्मिम्पि पक्खे यदा सकलं जातुं इच्छितं, तदा सकिंयेव सकलविसयताय अनिरूपितरूपेन भगवतो आणं पवत्तेय्याति वुत्तदोसा नातिवत्तियेवाति ? न, तस्स विसोधितत्ता। विसोधितो हि सो बुद्धविसयो अचिन्तेय्योति । अञथा पचुरजनञाणसमानवुत्तिताय बुद्धानं भगवन्तानं ञाणस्स अचिन्तेय्यता न सिया, तस्मा सकलधम्मारम्मणम्पि तं एकधम्मारम्मणं विय सुववत्थापितेयेव ते धम्मे कत्वा पवत्ततीति इदमेत्थ अचिन्तेय्यं, “यावतकं नेय्यं, तावतकं आणं । यावतकं आणं, तावतकं नेय्यं । नेय्यपरियन्तिकं आणं, आणपरियन्तिकं नेय्यं । नेय्यं अतिक्कमित्वा आणं नप्पवत्तति, आणं अतिक्कमित्वा नेय्यपथो नत्थि। अञमञ्जपरियन्तट्ठायिनो ते धम्मा, यथा द्विन्नं समुग्गपटलानं सम्मा फुसितानं हेट्ठिमं समुग्गपटलं उपरिमं नातिवत्तति, उपरिमं समुग्गपटलं हेट्ठिमं नातिवत्तति । अञमञ्चपरियन्तट्ठायिनो, एवमेव बुद्धस्स भगवतो नेय्यञ्च जाणञ्च अञमञ्जपरियन्तट्ठायिनो...पे०... ते धम्मा"ति (महा० नि० ६९, १५६; चूळ० नि० ८५; पटि० म० ३.५) एवमेकज्झं, विसुं, सकिं, कमेन वा
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(१.१.३-३)
परिब्बाजककथावण्णना
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इच्छानुरूपं पवत्तस्स तस्स आणस्स वसेन सम्मा सामञ्च सब्बधम्मानं बुद्धत्ता भगवा सम्मासम्बुद्धो नाम जातोति ।
अयं पनेत्थ अट्ठकथामुत्तको नयो- ठानाठानादीनि छब्बिसयानि छहि आणेहि जानता, यथाकम्मूपगे सत्ते चुतूपपातदिब्बचक्खुजाणेहि पस्सता, सवासनानमासवानं आसवक्खयत्राणेन खीणत्ता अरहता, झानादिधम्मे संकिलेसवोदानवसेन सामयेव अविपरीतावबोधतो सम्मासम्बुद्धेन, एवं दसबलाणवसेन चतूहाकारेहि थोमितेन । अपिच तीसु कालेसु अप्पटिहताणताय जानता, तिण्णम्पि कम्मानं आणानुपरिवत्तितो निसम्मकारिताय पस्सता, दवादीनं छन्नमभावसाधिकाय पहानसम्पदाय अरहता, छन्दादीनं छन्नमहानिहेतुभूताय अपरिक्खयपटिभानसाधिकाय सब्बञ्जताय सम्मासम्बुद्धेन, एवं अट्ठारसावेणिकबुद्धधम्मवसेन (दी० नि० अट्ट० ३.३०५) चतूहाकारेहि थोमितेनाति एवमादिना तेसं तेसं आणदस्सनपहानबोधनत्थेहि सङ्गहितानं बुद्धगुणानं वसेन योजना कातब्बाति ।
चतुवेसारज्जं सन्धाय "चतूहाकारेही"ति वुत्तं । “थोमितेना"ति एतेन इमेसं "भगवता"ति पदस्स विसेसनतं दस्सेति । यदिपि हीनपणीतभेदेन दुविधाव अधिमुत्ति पाळियं वुत्ता, पवत्तिआकारवसेन पन अनेकभेदभिन्नावाति आह "नानाधिमुत्तिकता"ति | सा पन अधिमुत्ति अज्झासयधातुयेव, तदपि तथा तथा दस्सनं, खमनं, रोचनञ्चाति अत्थं विज्ञापेति “नानज्झासयता"ति इमिना। तथा हि वक्खति “नानाधिमुत्तिकता नानज्झासयता नानादिटिकता नानक्खन्तिता नानारुचिता''ति । “यावञ्चिदन्ति एतस्स "सुप्पटिविदिता''ति इमिना सम्बन्धो । तत्थ च इदन्ति पदपूरणमत्तं, "नानाधिमुत्तिकता"ति एतेन वा पदेन समानाधिकरणं, तस्सत्थो पन पाकटोयेवाति आह “याव च सुटु पटिविदिता"ति।
__ "या च अय"न्तिआदिना धातुसंयुत्तपाळिं दस्सेन्तो तदेव संयुत्तं मनसि करित्वा तेसं अवण्णवण्णभासनेन सद्धिं घटेत्वा थेरानमयं सङ्घियधम्मो उदपादीति दस्सेति । अतो अस्स भगवतो धातुसंयुत्तदेसनानयेन तासं सुप्पटिविदितभावं समत्थनवसेन दस्सेतुं “अयं ही"तिआदिमाहाति अत्थो दट्टब्बो। सुप्पटिविदितभावसमत्थनहि “अयं ही"तिआदिवचनं । तत्थ या अयं नानाधिमुत्तिकता...पे०... रुचिताति सम्बन्धो । धातुसोति अज्झासयधातुया । संसन्दन्तीति सम्बन्धेन्ति विस्सासेन्ति। समेन्तीति सम्मा, सह वा भवन्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३-३)
"हीनाधिमुत्तिका'तिआदि तथाभावविभावनं । अतीतम्पि अद्धानन्ति अतीतस्मिं काले, अच्चन्तसंयोगे वा एतं उपयोगवचनं । नानाधिमुत्तिकता-पदस्स नानज्झासयताति अत्थवचनं । नानादिट्ठि...पे०... रुचिताति तस्स सरूपदस्सनं । सस्सतादिलद्धिवसेन नानादिविकता। पापाचारकल्याणाचारादिपकतिवसेन नानक्खन्तिता | पापिच्छाअप्पिच्छादिवसेन नानारुचिता । नाळियाति तुम्बेन, आळहकेन वा । तुलायाति मानेन | नानाधिमुत्तिकताजाणन्ति चेत्थ सब्बञ्जतञाणमेव अधिप्पेतं, न दसबलञाणन्ति आह "सब्ब तञाणेना"ति । एवं आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.३) वुत्तं, अभिधम्मट्ठकथायं, दसबलसुत्तट्ठकथासु (म० नि० अट्ठ० १.१४९; अ० नि० अट्ट० ३.१०.२१; विभं० अट्ठ० ८३१) च एवमागतं ।
परवादी पनाह “दसबलञाणं नाम पाटियेक्कं नत्थि, सब्ब ताणस्सेवायं पभेदो''ति, तं तथा न दट्ठब्बं । अञमेव हि दसबलजाणं, अञ्ज सब्ब ताणं ।. दसबलञाणहि सककिच्चमेव जानाति, सब्बञ्जतञ्जाणं पन तम्पि ततो अवसेसम्पि जानाति। दसबलञाणेसु हि पठमं कारणाकारणमेव जानाति, दुतियं कम्मन्तरविपाकन्तरमेव, ततियं कम्मपरिच्छेदमेव, चतुत्थं धातुनानत्तकारणमेव, पञ्चमं सत्तानमज्झासयाधिमुत्तिमेव, छठें इन्द्रियानं तिक्खमुदुभावमेव, सत्तमं झानादीहि सद्धिं तेसं संकिलेसादिमेव, अट्ठमं पुब्बेनिवुत्थक्खन्धसन्ततिमेव, नवमं सत्तानं चुतिपटिसन्धिमेव, दसमं सच्चपरिच्छेदमेव, सब्ब ताणं पन एतेहि जानितब्बञ्च ततो उत्तरिञ्च जानाति, एतेसं पन किच्चं न सब्बं करोति । तहि झानं हुत्वा अप्पेतुं न सक्कोति, इद्धि हुत्वा विकुब्बितुं न सक्कोति, मग्गो हुत्वा किलेसे खेपेतुं न सक्कोति । अपिच परवादी एवं पुच्छितब्बो “दसबलञाणं नाम एतं सवितक्कसविचारं अवितक्कविचारमत्तं अवितक्कअविचारं, कामावचरं रूपावचरं अरूपावचरं, लोकियं लोकुत्तरन्ति । जानन्तो पटिपाटिया सत्त आणानि “सवितक्कसविचारानी''ति वक्खति, ततो परानि द्वे "अवितक्कअविचारानी''ति वक्खति, आसवक्खयाणं “सिया सवितक्कसविचारं, सिया अवितक्कविचारमत्तं, सिया अवितक्कअविचार"न्ति वक्खति, तथा पटिपाटिया सत्त कामावचरानि, ततो परं द्वे रूपावचरानि, अवसाने एकं “लोकुत्तरन्ति वक्खति, सब्ब तञाणं पन सवितक्कसविचारमेव, कामावचरमेव, लोकियमेवाति । इति अञदेव दसबलजाणं. अझं सब्बतञआणन्ति, तस्मा पञ्चमबलञाणसङ्घातेन नानाधिमुत्तिकतााणेन च सब्ब तज्ञाणेन च विदिताति अत्थो वेदितब्बो । च-कारोपि हि पोत्थकेसु दिस्सति । साति यथावुत्ता नानाधिमुत्तिकता। "वेपि नामा"तिआदिना
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(१.१.४-४)
परिब्बाजककथावण्णना
यथावुत्तसुत्तस्सत्थं सङ्क्षेपेन दस्सेत्वा “इमेसु चापी'' तिआदिना तस्स सङ्घियधम्मस्स तदभिसम्बन्धतं आवि करोति । इति ह मेति एत्थ एवंसद्दत्थे इति सद्दो, ह-कारो निपातमत्तं, आगमो वा । सन्धिवसेन इकारलोपो, अकारादेसो वाति दस्सेति “ एवं इमे "ति इमिना ।
४. “ विदित्वा "ति एत्थ पकतियत्थभूता विजाननकिरिया सामञ्जेन अभेदवतीपि समाना तंतंकरणयोग्यताय अनेकप्पभेदाति दस्सेतुं " भगवा ही "तिआदि वृत्तं । वत्थूनीति घरवत्थूनि । “सब्बञ्जुतञान दिस्वा अञ्ञासीति च वोहारवचनमत्तमेतं । न दस्सनतो अञ्ञ जाननं नाम नत्थि । तदिदं जाणं आवज्जनपटिबद्धं आकङ्क्षापटिबद्धं मनसिकारपटिबद्धं चित्तुप्पादपटिबद्धं हुत्वा पवत्तति । किं नाम करोन्तो भगवा तेन आणेन आवज्जनादिपटिबद्धेन अञ्ञासीति सोतूनमत्थस्स सुविञ्ञपनत्थं परम्मुखा विय चोदनं समुट्ठापेति " किं करोन्तो अञ्ञासी "ति इमिना, पच्छिमयामकिच्चं करोन्तो तं ञाणं आवज्जनादिपटिबद्धं हुत्वा तेन तथा अञ्ञासीति वुत्तं होति । सामञ्ञस्मिं सति विसेसवचनं सात्थकं सियाति अनुयोगेनाह “ किच्चञ्चनामेत "न्तिआदि । अरहत्तमग्गेन समुग्धातं कतं तस्स समुट्ठापक किलेससमुग्घाटनेन, यतो “नत्थि अब्यावटमनो' 'ति अट्ठारससु बुद्धधम्मेसु वुच्चति । निरत्थको चित्तसमुदाचारो नत्थीति हेत्थ अत्थो । एवम्पि वृत्तानुयोगो तदवत्थोयेवाति चोदनमपनेति "तं पञ्चविध "न्तिआदिना । तत्थ पुरिमकिच्चद्वयं दिवसभागवसेन, इतरत्तयं रत्तिभागवसेन गहेतब्बं तथायेव वक्खमानत्ता ।
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“उपट्ठाकानुग्गहणत्थं, सरीरफासुकत्थञ्चा "ति एतेन
अनेककप्पसमुपचितपुञ्ञसम्भारजनितं भगवतो मुखवरं दुग्गन्धादिदोसं नाम नत्थि, तदुभयत्थमेव पन मुखधोवनादीनि करोतीति दस्सेति । सब्बोपि हि बुद्धानं कायो बाहिरब्भन्तरेहि मलेहि अनुपक्किलिट्ठो सुधोतमणि विय होति । विवित्तासनेति फलसमापत्तीनमनुरूपे विवेकानुब्रूहनासने । वीतिनामेत्वाति फलसमापत्तीहि वीतिनामनं वृत्तं तम्पि न विवेकनिन्नताय, परेसञ्च दिट्ठानुगति आपज्जनत्थं । सुरत्तदुपट्टे अन्तरवासकं विहारनिवासनपरिवत्तनवसेन निवासेत्वा विज्जुलतासदिसं कायबन्धनं बन्धित्वा मेघवण्णं सुगतचीवरं पारुपित्वा सेलमयपत्तं आदायाति अधिप्पायो । तथायेव हि तत्थ तत्थ वृत्तो । “कदाचि एकको "तिआदि तेसं ते सं विनेय्यानं विनयनानुकूलं भगवतो उपसङ्कमनदस्सनं । गामं वा निगमं वाति एत्थ वा-सद्दो विकप्पनत्थो, तेन नगरम्पि विकप्पेति । यथारुचि वत्तमानेहि अनेकेहि पाटिहारियेहि पविसतीति सम्बन्धी |
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.४-४)
"सेय्यथिद"न्तिआदिना पच्छिमपक्खं वित्थारेति । सेय्यथिदन्ति च तं कतमन्ति अत्थे निपातो, इदं वा सप्पाटिहीरपविसनं कतमन्तिपि वति । मुदुगतवाताति मुदुभूता, मुदुभावेन वा गता वाता। उदकफुसितानीति उदकबिन्दूनि । मुञ्चन्ताति ओसिञ्चन्ता । रेणुं वूपसमेत्वाति रजं सन्निसीदापेत्वा उपरि वितानं हुत्वा तिद्वन्ति चण्ड-वातातप-हिमपातादिहरणेन वितानकिच्चनिप्फादकत्ता, ततो ततो हिमवन्तादीसु पुप्फूपगरुक्खतो उपसंहरित्वाति अत्थस्स विज्ञायमानत्ता तथा न वुत्तं । समभागकरणमत्तेन ओनमन्ति, उन्नमन्ति च, ततोयेव पादनिक्खेपसमये समाव भूमि होति । निदस्सनमत्तञ्चेतं सक्खरकथलकण्टकसङ्घकललादिअपगमनस्सापि सम्भवतो, तञ्च सुप्पतिट्टितपादतालक्खणस्स निस्सन्दफलं, न इद्धिनिम्मानं । पदुमपुप्फानि वाति एत्थ वा-सद्दो विकप्पनत्थो, तेन “यदि यथावुत्तनयेन समा भूमि होति, एवं सति तानि न पटिग्गण्हन्ति, तथा पन असतियेव पटिग्गण्हन्तीति भगवतो यथारुचि पवत्तनं दस्सेति । सब्बदाव भगवतो गमनं पठमं दक्खिणपादुद्धरणसङ्घातानुब्यञ्जनपटिमण्डितन्ति आह "उपितमत्ते दक्खिणपादे''ति । बुद्धानं सब्बदक्खिणताय तथा वुत्तन्ति आचरियधम्मपालत्थेरो, (दी० नि० टी० १.४) आचरियसारिपुत्तत्थेरो (अ० नि० अट्ठ० १.५३) च वदति, सब्बेसं उत्तमताय एवं वुत्तन्ति अत्थो। एवं सति उत्तमपुरिसानं तथापकतितायाति आपज्जति । ठपितमत्ते निक्खमित्वा धावन्तीति सम्बन्धो । इदञ्च यावदेव विनेय्यजनविनयनत्थं सत्थु पाटिहारियन्ति तेसं दस्सनट्ठानं सन्धाय वुत्तं । “छब्बण्णरस्मियो"ति वत्वापि "सुवण्णरसपिञ्जरानि विया'ति वचनं भगवतो सरीरे पीताभाय येभुय्यतायाति दट्टब् । "रस-सद्दो चेत्थ उदकपरियायो, पिज्जर-सद्दो हेमवण्णपरियायो, सुवण्णजलधारा विय सुवण्णवण्णानीति अत्थो”ति (सारस्थ टी० १.बुद्धाचिण्णकथा.२२) सारत्थदीपनियं वुत्तं । पासादकूटागारादीनि तेसु तेसु गामनिगमादीसु संविज्जमानानि अलङ्करोन्तियो हुत्वा ।
"तथा"तिआदिना सयमेव धम्मतावसेन तेसं सद्दकरणं दस्सेति । तदा कायं उपगच्छन्तीति कायूपगानि, न यत्थ कत्थचि ठितानि । “अन्तरवीथि"न्ति इमिना भगवतो पिण्डाय गमनानुरूपवीथिं दस्सेति । न हि भगवा लोलुप्पचारपिण्डचारिको विय यत्थ कत्थचि गच्छति । ये पठमं गता, ये वा तदनुच्छविकं पिण्डपातं दातुं समत्था, ते भगवतोपि पत्तं गण्हन्तीति वेदितब्बं । पटिमानेन्तीति पतिस्समानसा पूजेन्ति, भगवन्तं वा पटिमानापेन्ति पटिमानन्तं करोन्ति । वोहारमत्तञ्चेतं, भगवतो पन अपटिमानना नाम नत्थि । चित्तसन्तानानीति अतीते, एतरहि च पवत्तचित्तसन्तानानि । यथा केचि अरहत्ते पतिठ्ठहन्ति, तथा धम्म देसेतीति सम्बन्धो । केचि पब्बजित्वाति च अरहत्तसमापन्नानं
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(१.१.४-४)
परिब्बाजककथावण्णना
१८१
पब्बज्जास पगतदस्सनत्थं, न पन गिहीनं अरहत्तसमापन्नतापटिक्खेपनत्थं । अयहि अरहत्तप्पत्तानं गिहीनं सभावो, या तदहेव पब्बज्जा वा, कालं किरियावाति । तथा हि वुत्तं आयस्मता नागसेनत्थेरेन “विसमं महाराज, गिहिलिङ्गं, विसमे लिङ्गे लिङ्गदुब्बलताय अरहत्तं पत्तो गिही तस्मिंयेव दिवसे पब्बजति वा परिनिब्बायति वा नेसो महाराज, दोसो अरहत्तस्स, गिहिलिङ्गस्सेवेसो दोसो यदिदं लिङ्गदुब्बलता''ति (मि० प० ५.२.२) सब्बं वत्तबं । एत्थ च सप्पाटिहीरप्पवेसनसम्बन्धेनेव महाजनानुग्गहणं दस्सितं, अप्पाटिहीरप्पवेसनेन च पन “ते सुनिवत्था सुपारुता"तिआदिवचनं यथारहं सम्बन्धित्वा महाजनानुग्गहणं अत्थतो विभावेतबं होति । तम्पि हि पुरेभत्तकिच्चमेवाति । उपट्ठानसाला चेत्थ मण्डलमाळो। तत्थ गन्त्वा मण्डलमाळेति इध पाठो लिखितो । “गन्धमण्डलमाळे''तिपि (अ० नि० अट्ठ० १.५३) मनोरथपूरणिया दिस्सति, तट्टीकायञ्च “चतुज्जातियगन्धेन परिभण्डे मण्डलमाळे"ति वुत्तं । गन्धकुटिं पविसतीति च पविसनकिरियासम्बन्धताय, तस्समीपताय च वुत्तं, तस्मा पविसितुं गच्छतीति अत्थो दट्ठब्बो, न पन अन्तो तिद्वतीति । एवहि “अथ खो भगवा''तिआदिवचनं (दी० नि० १.४) सूपपन्नं होति ।
अथ खोति एवं गन्धकटिं पविसितं गमनकाले । उपटानेति समीपपदेसे । “पादे पक्खालेत्वा पादपीठे ठत्वा भिक्खुसझं ओवदती"ति एत्थ पादे पक्खालेन्तोव पादपीठे तिट्ठन्तो ओवदतीति वेदितब्बं । एतदत्थंयेव हि भिक्खूनं भत्तकिच्चपरियोसानं आगमयमानो निसीदि। दुल्लभा सम्पत्तीति सतिपि मनुस्सत्तपटिलाभे पतिरूपदेसवासइन्द्रियावेकल्लसद्धापटिलाभादयो सम्पत्तिसङ्घाता गुणा दुल्लभाति अत्थो । पोत्थकेसु पन “दुल्लभा सद्धासम्पत्तीति पाठो दिस्सति, सो अयुत्तोव । तत्थाति तस्मिं पादपीठे ठत्वा ओवदनकाले, तेसु वा भिक्खूसु, रत्तिया वसनं ठानं रत्तिहानं, तथा दिवाठानं । "केची"तिआदि तबिवरणं । चातुमहाराजिकभवनन्ति चातुमहाराजिकदेवलोके सुझविमानानि सन्धाय वुत्तं । एस नयो तावतिसभवनादीसुपि। ततो भगवा गन्धकुटिं पविसित्वा पच्छाभत्तं तयो भागे कत्वा पठमभागे सचे आकङ्क्षति, दक्खिणेन पस्सेन सीहसेय्यं कप्पेति, सचे नाकङ्घति, बुद्धाचिण्णं फलसमापत्तिं समापज्जति, अथ यथाकालपरिच्छेदं ततो वुट्ठहित्वा दुतियभागे पच्छिमयामस्स ततियकोट्ठासे विय लोकं वोलोकेति वेनेय्यानं आणपरिपाकं पस्सितुं, तेनाह "सचे आकसती"तिआदि । सीहसेय्यन्तिआदीनमत्थो हेट्ठा वुत्तोव । यहि अपुब्बं पदं अनुत्तानं, तदेव वण्णयिस्साम । सम्मा अस्सासितब्बोति गाहापनवसेन उपत्थम्भितब्बोति समस्सासितो। तादिसो कायो यस्साति तथा । धम्मस्सवनत्थं सनिपतति। तस्सा परिसाय चित्ताचारं ञत्वा कतभावं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.४-४)
सन्धायाह "सम्पत्तपरिसायअनुरूपेन पाटिहारियेना"ति । यत्थ धम्म सह भासन्ति, सा धम्मसभा नाम | कालयुत्तन्ति “इमिस्सा वेलाय इमस्स एवं वत्तब्बन्ति तंतंकालानुरूपं । समययुत्तन्ति तस्सेव वेवचनं, अटुप्पत्तिअनुरूपं वा समययुत्तं । अथ वा समययुत्तन्ति हेतुदाहरणेहि युत्तं । कालेन सापदेसहि भगवा धम्म देसेति। कालं विदित्वा परिसं उय्योजेति, न याव समन्धकारा धम्मं देसेतीति अधिप्पायो । “समयं विदित्वा परिसं उय्योजेसी"तिपि कत्थचि परियायवचनपाठो दिस्सति, सो पच्छा पमादलिखितो ।
गत्तानीति कायोयेव अनेकावयवत्ता वुत्तो। "उतुं गण्हापेती"ति इमिना उतुगण्हापनत्थमेव ओसिञ्चनं, न पन मलविक्खालनत्थन्ति दस्सेति । न हि भगवतो काये रजोजल्लं उपलिम्पतीति । चतज्जातिकेन गन्धेन परिभाविता कटी गन्धकटी। तस्सा परिवेणं तथा। फलसमापत्तीहि मुहुत्तं पटिसल्लीनो। ततो ततोति अत्तनो अत्तनो रत्तिहानदिवाठानतो, उपगन्त्वा, समीपे वा ठानं उपट्टानं, भजनं सेवनन्ति अत्थो । तत्थाति तस्मिं निसीदनहाने, पुरिमयामे वा, तेसु वा भिक्खूसु ।
पञ्हाकथनादिवसेन अधिप्पायं सम्पादेन्तो “दससहस्सिलोकधातू"ति एवं अवत्वा तस्सा अनेकावयवसङ्गहणत्थं "सकलदससहस्सिलोकधातू"ति वुत्तं । पुरेभत्तपच्छाभत्तपुरिमयामेसु मनुस्सपरिसाबाहुल्लतो ओकासं अलभित्वा इदानि मज्झिमयामेयेव ओकासं लभमाना, भगवता वा कतोकासताय ओकासं लभमानाति अधिप्पायो । कीदिसं पन पुच्छन्तीति आह "यथाभिसङ्घतं अन्तमसो चतुरक्खरम्पी"ति । यथाभिसङ्घतन्ति अभिसङ्घतानुरूपं, तदनतिक्कम्म वा, एतेन यथा तथा अत्तनो पटिभानानुरूपं पुच्छन्तीति दस्सेति ।
पच्छाभत्तकालस्स तीसु भागेसु पठमभागे सीहसेय्याकप्पनं एकन्तं न होतीति आह "पुरेभत्ततो पट्ठाय निसज्जाय पीळितस्स सरीरस्सा"ति । तेनेव हि पुब्बे “सचे आकङ्घती"ति तदा सीहसेय्याकप्पनस्स अनिबद्धता विभाविता। किलासुभावो किलमथो । सरीरस्स किलासुभावमोचनत्थं चङ्कमेन वीतिनामेति सीहसेय्यं कप्पेतीति सम्बन्धो। बुद्धचक्खुनाति आसयानुसयइन्द्रियपरोपरियत्तञाणसङ्घातेन पञ्चमछट्टबलभूतेन बुद्धचक्खुना। तेन हि लोकवोलोकनबाहुल्लताय तं “बुद्धचक्खू''ति वुच्चति, इदञ्च पच्छिमयामे भगवतो बहुलं आचिण्णवसेन वुत्तं । अप्पेकदा अवसिट्टबलञाणेहि, सब्ब तञाणेनेव च भगवा तमत्थं साधेति ।
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(१.१.४-४)
परिब्बाजककथावण्णना
१८३
“पच्छिमयामकिच्चं करोन्तो अञासी''ति पुब्बे वुत्तमत्थं समत्थेन्तो "तस्मिं पन दिवसे"तिआदिमाह । बुद्धानं भगवन्तानं यत्थ कत्थचि वसन्तानं इदं पञ्चविधं किच्चं अविजहितमेव होति सब्बकालं सुप्पतिट्टितसतिसम्पजञत्ता, तस्मा तदहेपि तदविजहनभावदस्सनत्थं इध पञ्चविधकिच्चपयोजनन्ति दट्ठब्बं । चङ्कमन्ति तत्थ चङ्कमनानुरूपट्टानं । चङ्कममानो अज्ञासीति योजेतब्बं । पुब्बे वुत्ते अत्थद्वये पच्छिमत्थ व गहेत्वा "सब्ब तज्ञाणं आरब्भा"ति वुत्तं । पुरिमत्थो हि पकरणाधिगतत्ता सुविनेय्योति ।
“अथ खो भगवा तेसं भिक्खूनं इमं सङ्घियधम्मं विदित्वा येन मण्डलमाळो, तेनुपसङ्कमी''ति अयं सावसेसपाठो, तस्मा एतं विदित्वा, एवं चिन्तेत्वा च उपसङ्कमीति अत्थो वेदितब्बोति दस्सेतुं “ञत्वा च पनस्सा"तिआदि वुत्तं । तत्थ अस्स एतदहोसीति अस्स भगवतो एतं परिवितक्कनं, एसो वा चेतसो परिवितक्को अहोसि, लिङ्गविपल्लासोयं “एतदग्ग"न्तिआदीसु (अ० नि० १.१८८ आदयो) विय । सब्ब ताणकिच्वं न सब्बथा पाकटं। निरन्तरन्ति अनुपुब्बारोचनवसेन निब्बिवरं, यथाभासितस्स वा आरोचनवसेन निब्बिसेसं । भावनपुंसकञ्चेतं । तं अटुप्पत्तिं कत्वाति तं यथारोचितं वचनं इमस्स सुत्तस्स उप्पत्तिकारणं कत्वा, इमस्स वा सुत्तस्स देसनाय उप्पन्नं कारणं कत्वातिपि अत्थो । अत्थ-सद्दो चेत्थ कारणे, तेन इमस्स सुत्तस्स अट्ठप्पत्तिकं निक्खेपं दस्सेति । द्वासट्ठिया ठानेसूति द्वासहिदिट्ठिगतट्टानेसु | अप्पटिवत्तियन्ति समणेन वा ब्राह्मणेन वा देवेन वा मारेन वा ब्रह्मना वा केनचि वा लोकस्मिं अनिवत्तियं । सीहनादं नदन्तोति सेठ्ठनादसङ्खातं अभीतनादं नदन्तो। यं पन लोकिया वदन्ति -
“उत्तरस्मिं पदे ब्यग्यपुङ्गवीसभकुञ्जरा । सीहसलनागाद्या, पुमे सेठ्ठत्थगोचरा''ति ।।
तं येभुय्यवसेनाति दट्ठब्बं । सीहनादसदिसं वा नादं नदन्तो। अयमत्थो सीहनादसुत्तेन (अ० नि० २.६.६४; ३.१०.२१) दीपेतब्बो। यथा वा केसरो मिगराजा सहनतो, हननतो, च “सीहो''ति वुच्चति, एवं तथागतोपि लोकधम्मानं सहनतो, परप्पवादानं हननतो च “सीहो"ति वच्चति । तस्मा सीहस्स तथागतस्स नादं नदन्तोतिपि अत्थो दट्ठब्बो। यथा हि सीहो सीहबलेन समन्नागतो सब्बत्थ विसारदो विगतलोमहंसो सीहनादं नदति, एवं तथागतसीहोपि तथागतबलेहि समन्नागतो अट्टसु परिसासु विसारदो विगतलोमहंसो “इमे दिट्टिट्ठाना''तिआदिना नयेन नानाविधदेसनाविलाससम्पन्नं सीहनादं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
वण
नदति । यं सन्धाय वृत्तं 'सीहोति खो भिक्खवे, तथागतस्सेतं अधिवचनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स । यं खो भिक्खवे, तथागतो परिसाय धम्मं देसेति, इदमस्स होति सीहनादस्मि"न्ति (अ० नि० ३.१०.२१) । “ इमे दिट्ठट्ठाना "तिआदिका हि इध वक्खमानदेसनायेव सीहनादो । तेसं " वेदनापच्चया तण्हा "तिआदिना वक्खमाननयेन पच्चयाकारस्स समोधानम्पि वेदितब्बं । सिनेरुं... पे०... विय चाति उपमाद्वयेन ब्रह्मजालदेसनाय अनञ्ञसाधारणत्ता सुदुक्कतं दस्सेति । सुवण्णमयपहरणोपकरणविसेसेन । रतननिकूटेन विय अगारं अरहत्तनिकूटेन ब्रह्मजालसुत्तन्तं निपेन्तो, निकूटेनाति च निट्ठानगतेन अच्चुग्गतकूटेनाति अत्थो । अरहत्तफलपरियोसानत्ता सब्बगुणानं तदेव सब्बेसं उत्तरितरन्ति वृत्तं । पुरिमो पन मे सद्दो देसनापेक्खोति परिनिब्बुतस्सापि मे सा देसना अपरभागे पञ्चवस्ससहस्सानीति अत्थो युत्तो। सवनउग्गहणधारणवाचनादिवसेन परिचयं करोन्ते, तथा च पटिपन्ने निब्बानं सम्पापिका भविस्सतीति अधिप्पायो ।
इदञ्च
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यदग्गेन येनाति करणनिद्देसो, तदग्गेन तेना तिपि दट्ठब्बं । एतन्ति " येन तेना "ति एतं पदद्वयं । तत्थाति हि तस्मिं मण्डलमाळेति अत्थो । येनाति वा भुम्मत्थे करणवचनं । तेनाति पन उपयोगत्थे । तस्मा तत्थाति तं मण्डलमाळन्तिपि वदन्ति । उपसङ्कमीति च उपसङ्कमन्तोति अत्थो पच्चुप्पन्नकालस्स अधिप्पेतत्ता, तदुपसङ्कमनस्स पन अतीतभावस्स सूचनतो “उपसङ्कमी”ति तक्कालापेक्खनवसेन अतीतपयोगो तो एवहि "उपसङ्कमित्वा"ति वचनं सूपपन्नं होति । इतरथा द्विन्नपि वचनानं अतीतकालिकत्ता तथावत्तब्बमेव न सिया । उपसङ्कमनस्स च गमनं, उपगमनञ्चाति द्विधा अत्थो, इध पन गमनमेव। सम्पत्तुकामताय हि यं किञ्चि ठानं गच्छन्तो तं तं पदेसातिक्कमनवसेन “तं ठानं उपसङ्कमि उपसङ्कमन्तो 'ति वत्तब्बतं लभति, तेनाह “ तत्थ गतो "ति, तेन उपगमनत्थं निवत्तेति । यहि ठानं पत्तुमिच्छन्तो गच्छति, तं पत्ततायेव “उपगमन "न्ति वुच्चति । यमेत्थ न संवण्णितं " उपसङ्कमित्वा" ति पदं, तं उपसङ्कमनपरियोसानदीपनं । अथ वा गतोति उपगतो। अनुपसग्गोपि हि सद्दी सउपसग्गो विय अत्थन्तरं वदति सउपसग्गोपि अनुपसग्गो वियाति । अतो " उपसङ्कमित्वा"ति पदस्स एवं उपगतो ततो आसन्नतरं भिक्खूनं समीपसङ्घातं पञ्हं वा कथेतुं, धम्मं वा देसेतुं सक्कुणेय्यट्ठानं उपगन्त्वाति अत्थो वेदितब्बो । अपिच येनाति हेतुम्हि करणवचनं । येन कारणेन भगवता सो मण्डलमाळो उपसङ्कमितब्बो, तेन कारणेन उपसङ्कमीति अत्थो । कारणं पन " इमे भिक्खू' तिआदिना अट्ठकथायं वुत्तमेव ।
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(१.१.४-४)
परिब्बाजककथावण्णना
१८५
पञत्ते आसने निसीदीति एत्थ केनिदं पञत्तन्ति अनुयोगे सति भिक्खूहीति दस्सेतुं "बुद्धकाले किरा"तिआदिमाह । तत्थ बुद्धकालेति धरमानस्स भगवतो काले । विसेसन्ति यथालद्धतो उत्तरि झानमग्गफलं । अथाति संसयत्थे निपातो, यदि पस्सतीति अत्थो । वितक्कयमानं नं भिक्खुन्ति सम्बन्धो, तथा ततो पस्सनहेतु दस्सेत्वा, ओवदित्वाति च । अनमतग्गेति अनादिमति । आकासं उप्पतित्वाति आकासे उग्गन्त्वा । ईदिसेसु हि भुम्मत्थो एव युज्जतीति उदानट्ठकथायं वुत्तं । भारोति तङ्खणेयेव भगवतो अनुच्छविकासनस्स दुल्लभत्ता गरुकम्मं । फलकन्ति निसीदनत्थाय कतं फलं । कट्ठकन्ति निसीदनयोग्यं फलकतो अजं दारुक्खन्धं । सङ्कड्डित्वाति संहरित्वा । तत्थाति पुराणपण्णेसु, केवलं तेसु एव निसीदितुमननुच्छविकत्ता तथा वुत्तं, तत्थाति वा तेसु पीठादीसु । एवं सति सङ्कड्डित्वा पञपेन्तीति अत्थवसा विभत्तिं विपरिणामेत्वा सम्बन्धो । पप्फोटेत्वाति यथाठितं रजोजल्लादिसंकिण्णमननुरूपन्ति तब्बिसोधनत्थं सञ्चालेत्वा । “अम्हाकं ईदिसा कथा अञतरिस्सा देसनाय कारणं भवितुं युत्ता, अवस्सं भगवा आगमिस्सती"ति ञत्वा यथानिसीदनं सन्धाय एवं वुत्तं । एत्थ च “इधागतो समणो वा ब्राह्मणो वा तावकालिकं गण्हित्वा परिभुञ्जतू"ति रञा ठपितं, तेन च आगतकाले परिभुत्तं आसनं रञो निसीदनासनन्ति वेदितब्बं । न हि तथा अट्ठपितं भिक्खूहि परिभुजितुं, भगवतो च पञपेतुं वट्टति । तस्मा तादिसं रञो निसीदनासनं पाळियं कथितन्ति दस्सेतुं "तं सन्धाया"तिआदि वुत्तं । अधिमुत्तित्राणन्ति च सत्तानं नानाधिमुत्तिकतारम्मणं सब्ब ताणं, बलञाणञ्च, वुत्तोवायमत्थो ।
"निसज्जा"ति इदं निसीदनपरियोसानदीपनन्ति दस्सेति “एव"न्तिआदिना। “तेसं भिक्खूनं इमे सङ्घियधम्मं विदित्वाति वुत्तत्ता जानन्तोयेव पुच्छीति अयमत्थो सिद्धोति
आह "जानन्तोयेवा"ति । असति कथावत्थुम्हि तदनुरूपा उपरूपरि वत्तब्बा विसेसकथा न समूपब्रूहतीति कथासमुट्ठापनत्थं पुच्छनं वेदितब्बं । नु इति पुच्छनत्थे । अस-सद्दो पवत्तनत्थेति वुत्तं "कतमाय नु...पे०... भवथा"ति । एत्थाति एतस्मिं ठाने सन्धिवसेन उकारस्स ओकारादेसोव, न पठमाय पाळिया अत्थतो विसेसोति दस्सेति "तस्सापि पुरिमोयेव अत्थो"ति इमिना । पुरिमोयेवत्थोति च “कतमाय नु भवथा''ति एवं वुत्तो अत्थो ।
“का च पनाति एत्थ च-सद्दो ब्यतिरेके “यो च बुद्धञ्च धम्मञ्च, सङ्घञ्च सरणं गतो"तिआदीसु विय । ब्यतिरेको च नाम पुब्बे वुत्तत्थापेक्खको विसेसातिरेकत्थो, सो च तं पुब्बे यथापुच्छिताय कथाय वक्खमानं विप्पकतभावसङ्खातं ब्यतिरेकत्थं जोतेति । पन-सद्दो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.४-४)
वचनालङ्कारो । तादिसो पन अत्थो सद्दसत्थतोव सुविज्ञेय्योति कत्वा तदजेसमेव अत्थं दस्सेतुं “अन्तराकथाति कम्मट्ठान...पे०... कथा"तिआदिमाह । कम्मट्ठानमनसिकारउद्देसपरिपुच्छादयो समणकरणीयभूताति अन्तरासद्देन अपेक्खिते करणीयविसेसे सम्बन्धापादानभावेन वत्तब्बे तेसमेव वत्तब्बरूपत्ता "कम्मट्ठानमनसिकारउद्देसपरिपुच्छादीन"न्ति वुत्तं । याय हि कथाय ते भिक्खू सन्निसिन्ना, सा एव अन्तराकथा विप्पकता विसेसेन पुन पुच्छीयति, न तदने कम्मट्ठानमनसिकारउद्देसपरिपुच्छादयोति । अन्तरासद्दस्स अञत्थमाह "अञ्जा, एका"ति च। परियायवचनञ्हेतं पदद्वयं । यस्मा अञ्जत्थे अयं अन्तरासद्दो “भूमन्तरं, समयन्तर''न्तिआदीसु विय । तस्मा “कम्मट्ठानमनसिकारउद्देसपरिपुच्छादीन''न्ति निस्सक्कत्थे सामिवचनं दट्ठब्बं । वेमज्झे वा अन्तरासद्दो, सा पन तेसं वेमज्झभूतत्ता अजायेव, तेहि च असम्मिस्सत्ता विसुं एकायेवाति अधिप्पायं दस्सेतुं “अञा, एका"ति च वुत्तं । पकारेन करणं पकतो, ततो विगता, विगतं वा पकतं यस्साति विप्पकता, अपरिनिट्ठिता । सिखन्ति परियोसानं । अयं पन तदभिसम्बन्धवसेन उत्तरि कथेतुकम्यतापुच्छा, तं सन्धायाह "नाह''न्तिआदि । कथाभङ्गत्थन्ति कथाय भञ्जनत्थं । अत्थतो आपन्नत्ता सब्ब पवारणं पवारेति। अनिय्यानिकत्ता सग्गमोक्खमग्गानं तिरच्छानभूता कथा तिरच्छानकथा। तिरच्छानभूताति च तिरोकरणभूता, विबन्धनभूताति अत्थो। आदि-सद्देन चेत्थ चोरमहामत्तसेनाभयकथादिकं अनेकविहितं निरत्थककथं सङ्गण्हाति । अयं कथा एवाति अन्तोगधावधारणतं, अञत्थापोहनं वा सन्धाय चेतं वुत्तं । अथाति तस्सा अविप्पकतकालेयेव | "तं नो"तिआदिना अन्थतो आपन्नमाह । एस नयो ईदिसेसु । ननु च तेहि भिक्खूहि सा कथा “इति ह मे''तिआदिना यथाधिप्पायं निट्ठापितायेवाति ? न निट्ठापिता भगवतो उपसङ्कमनेन उपच्छिन्नत्ता। यदि हि भगवा तस्मिं खणे न उपसङ्कमेय्य, भिय्योपि तप्पटिबद्धायेव तथा पवत्तेय्युं, भगवतो उपसङ्कमनेन पन न पवत्तेसुं, तेनेवाह "अयं नो...पे०... अनुष्पत्तो"ति ।
इदानि निदानस्स, निदानवण्णताय वा परिनिद्वितभावं दस्सेन्तो तस्स भगवतो वचनस्सानुकूलभावम्पि समत्थेतुं “एत्तावता"तिआदिमाह । एत्तावताति हि एत्तकेन “एवं मे सुत''न्तिआदिवचनक्कमेन यं निदानं भासितन्ति वा एत्तकेन “तत्थ एवन्ति निपातपद''न्तिआदिवचनक्कमेन अथवण्णना समत्ताति वा द्विधा अत्थो दट्ठब्बो । "कमल...पे०... सलिलाया''तिआदिना पन तस्स निदानस्स भगवतो वचनस्सानुकूलभावं दीपेति । तत्थ कमलकुवलयुज्जलविमलसाधुरससलिलायाति कमलसङ्खातेहि
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(१.१.४-४)
परिब्बाजककथावण्णना
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पदुमपुण्डरीकसेतुप्पलरत्तुप्पलेहि चेव कुवलयसङ्घातेन नीलुप्पलेन च उज्जलविमलसाधुरससलिलवतिया। निम्मलसिलातलरचनविलाससोभितरतनसोपानन्ति निम्मलेन सिलातलेन रचनाय विलासेन लीलाय सोभितरतनसोपानवन्तं, निम्मलसिलातलेन वा रचनविलासेन, सुसङ्घतकिरियासोभेन च सोभितरतनसोपानं, विलाससोभितसद्देहि वा अतिविय सोभितभावो वुत्तो। विप्पकिण्णमुत्तातलसदिसवालुकाचुण्णपण्डरभूमिभागन्ति विविधेन पकिण्णाय मुत्ताय तलसदिसानं वालुकानं चुण्णेहि पण्डरवण्णभूमिभागवन्तं । सुविभत्तभित्तिविचित्रवेदिकापरिक्खित्तस्साति सुटु विभत्ताहि भित्तीहि विचित्रस्स, वेदिकाहि परिक्खित्तस्स च । उच्चतरेन नक्खत्तपथं आकासं फुसितुकामताय विय, विजम्भितसद्देन चेतस्स सम्बन्धो । विजम्भितसमुस्सयस्साति विक्कीळनसमूहवन्तस्स । दन्तमयसण्हमुदुफलककञ्चनलताविनद्धमणिगणप्पभासमुदयुज्जलसोभन्ति दन्तमये अतिविय सिनिद्धफलके कञ्चनमयाहि लताहि विनद्धानं मणीनं गणप्पभासमुदायेन समुज्जलसोभासम्पन्न । सुवण्णवलयनुपुरादिसट्टनसहसम्मिस्सितकथितहसितमधुरस्सरगेहजनविचरितस्साति सुवण्णमयनियुरपादकटकादीनं अञमधे सङ्घट्टनेन जनितसद्देहि सम्मिस्सितकथितसरहसितसरसङ्घातेन मधुरस्सरेन सम्पन्नानं गेहनिवासीनं नरनारीनं विचरितहानभूतस्स । उळारिस्सरियविभवसोभितस्साति उळारतासम्पन्नजनइस्सरियसम्पन्नजनविभवसम्पन्नजनेहि, तन्निवासीनं वा नरनारीनं उत्तमाधिपच्चभोगेहि सोभितस्स । सुवण्णरजतमणिमुत्तापवाळादिजुतिविस्सरविज्जोतितसुष्पतिद्वितविसाल द्वारबाहन्ति सुवण्णरजतनानामणिमुत्तापवाळादीनं जुतीहि पभस्सरविज्जोतितसुप्पतिहितवित्थतद्वारबाहं ।
तिविधसीलादिदस्सनवसेन बुद्धस्स गुणानुभावं सम्मा सूचेतीति बुद्धगुणानुभावसंसूचकं, तस्स । कालो च देसो च देसको च वत्थु च परिसा च, तासं अपदेसेन निदस्सनेन पटिमण्डितं तथा ।
किमत्थं पनेत्थ धम्मविनयसङ्गहे करियमाने निदानवचनं वुत्तं, ननु भगवता भासितवचनस्सेव साहो कातब्बोति ? वुच्चते - देसनाय ठितिअसम्मोससद्धेय्यभावसम्पादनत्थं । कालदेसदेसकवत्थुपरिसापदेसेहि उपनिबन्धित्वा ठपिता हि देसना चिरट्ठितिका होति, असम्मोसधम्मा, सद्धेय्या च देसकालवत्थुहेतुनिमित्तेहि उपनिबन्धो विय वोहारविनिच्छयो, तेनेव चायस्मता महाकरसपेन "ब्रह्मजालं आवुसो आनन्द कत्थ भासित''न्तिआदिना (चूळ० व० ४३९) देसादिपुच्छासु कतासु तासं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
विस्सज्जनं करोन्तेन धम्मभण्डागारिकेन आयस्मता आनन्दत्थेरेन निदानं भासितन्ति तदेविधापि वृत्तं "कालदेसदेसकवत्थुपरिसापदेसपटिमण्डितं निदान "न्ति ।
सब्बत्थ
अपिच सत्थुसम्पत्तिपकासनत्थं निदानवचनं । तथागतस्स हि भगवतो पुब्ब- रचनानुमानागम-तक्काभावतो सम्मासम्बुद्धत्तसिद्धि । सम्मासम्बुद्धभावेन हिस्स पुरेतरं रचनाय, “एवम्पि नाम भवेय्या "ति अनुमानस्स, आगमन्तरं निस्साय परिवितक्कस्स च अभावो अप्पटिहतञाणचारताय एकप्पमाणत्ता धम्मे । तथा आचरियमुट्ठिधम्ममच्छरियसासनसावकानुरोधभावतो खीणासवत्तसिद्धि । खीणासवताय ह आचरियमुट्ठिआदीनमभावो, विसुद्धा च परानुग्गहप्पवत्ति । इति देसकसंकिलेसभूतानं दिट्ठिसीलसम्पत्तिदूसकानं अविज्जातण्हानं अभावसंसूचकेहि, आणप्पहानसम्पदाभिब्यञ्जनकेहि च सम्बुद्धविसुद्धभावेहि पुरिमवेसारज्जद्वयसिद्धि । ततोयेव च अन्तरायिकनिय्यानिके सु सम्मोहाभावसिद्धितो पच्छिमवेसारज्जद्वयसिद्धीति भगवतो चतुवेसारज्जसमन्नागमो, अत्तहितपरहितपटिपत्ति च निदानवचनेन पकासिता होति सम्पत्तपरिसाय अज्झासयानुरूपं ठानुप्पत्तिकपटिभानेन धम्मदेसनादीपनतो, "जानता पस्सता 'तिआदिवचनतो च तेन वृत्तं “सत्थुसम्पत्तिपकासनत्थं निदानवचन "न्ति ।
अपिच सासनसम्पत्तिपकासनत्थं निदानवचनं । ञाणकरुणापरिग्गहितसब्बकिरियस्स हि भगवतो नत्थि निरत्थिका पवत्ति, अत्तहितत्था वा, तस्मा परेसंयेव हिताय पवत्तसब्बकिरियस्स सम्मासम्बुद्धस्स सकलम्पि कायवचीमनोकम्मं यथापवत्तं वच्चमानं दिट्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थेहि यथारहं सत्तानं अनुसासनट्ठेन सासनं, न कब्बरचना । तयिदं सत्थु चरितं कालदेसदेसकवत्थुपरिसापदेसेहि सद्धिं तत्थ तत्थ निदानवचनेहि यथासम्भवं पकासीयति । अथ वा सत्थुनो पमाणभावप्पकासनेन सासनस्स पमाणभावप्पकासनत्थं निदानवचनं, तञ्चस्स पमाणभावदस्सनं "भगवा "ति इमिना तथागतस्स गुणविसिट्ठसब्बसत्तुत्तमभावदीपनेन चेव "जानता पस्सता" तिआदिना आसयानुसयञाणादिपयोगदीपनेन च विभावितं होति इदमेत्थ निदांनवचनपयोजनस्स मुखमत्तनिदस्सनं । को हि समत्थो बुद्धानुबुद्धेन धम्मभण्डागारिकेन भासितस्स निदान पयोजनानि निरवसेसतो विभावितुन्ति । होन्ति चेत्थ --
“देसनाचिरट्ठितत्थं, असम्मोसाय भासितं । सद्धाय चापि निदानं, वेदेहेन यसस्सिना । ।
(१.१.४-४)
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(१.१.५-५)
परिब्बाजककथावण्णना
१८९
सत्थुसम्पत्तिया चेव, सासनसम्पदाय च । तस्स पमाणभावस्स, दस्सनत्थम्पि भासित"न्ति ।।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्जावेय्यत्तियजननाय अज्जवमद्दवसोरच्चसद्धासतिधितिबुद्धिखन्तिवीरियादिधम्मसमङ्गिना साट्ठकथे पिटकत्तये असङ्गासंहीरविसारदञाणचारिना अनेकप्पभेदसकसमयसमयन्तरगहनज्झोगाहिना
महागणिना
महावेय्याकरणेन आणाभिवंसधम्मसेनापतिनामथेरेन महाधम्मराजाधिराजगरुना कताय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया अब्भन्तरनिदानवण्णनाय लीनत्थपकासना ।
निदानवण्णना निद्विता।
५. एवं अब्भन्तरनिदानसंवण्णनं कत्वा इदानि यथानिक्खित्तस्स सुत्तस्स संवण्णनं करोन्तो अनुपुब्बाविरोधिनी संवण्णना कमानतिक्कमनेन ब्याकुलदोसप्पहायिनी, विझूनञ्च चित्ताराधिनी, आगतभारो च अवस्सं आवहितब्बोति संवण्णकस्स सम्पत्तभारावहनेन पण्डिताचारसमतिक्कमाभावविभाविनी, तस्मा तदाविकरणसाधकं संवण्णनोकासविचारणं कातुमाह "इदानी"तिआदि । निक्खित्तस्साति देसितस्स, “देसना निक्खेपो"ति हि एतं अस्थतो भिन्नम्पि सरूपतो एकमेव, देसनापि हि देसेतब्बस्स सीलादिअत्थस्स वेनेय्यसन्तानेसु निक्खिपनतो “निक्खेपो''ति वुच्चति । ननु सुत्तमेव संवण्णीयतीति आह "सा पनेसा"तिआदि । इदं वुत्तं होति- सुत्तनिक्खेपं विचारेत्वा वुच्चमाना संवण्णना “अयं देसना एवंसमुट्ठाना"ति सुत्तस्स सम्मदेव निदानपरिज्झानेन तब्बण्णनाय सुविधेय्यत्ता पाकटा होति, तस्मा तदेव साधारणतो पठमं विचारयिस्सामाति । या हि सा कथा सुत्तत्थसंवण्णनापाकटकारिनी, सा सब्बापि संवण्णकेन वत्तब्बा । तदत्थविजाननुपायत्ता च सा परियायेन संवण्णनायेवाति । इध पन तस्मिं विचारिते यस्सा अटुप्पत्तिया इदं सुत्तं निक्खित्तं, तस्सा विभागवसेन “ममं वा भिक्खवे'तिआदिना, (दी० नि० १.५) "अप्पमत्तकं खो पनेत''न्तिआदिना, (दी० नि० १.७) “अस्थि भिक्खवे''तिआदिना (दी० नि० १.२८) च वुत्तानं सुत्तपदेसानं संवण्णना वुच्चमाना तंतंअनुसन्धिदस्सनसुखताय सुविनेय्याति दट्ठब् । तत्थ यथा अनेकसतअनेकसहस्सभेदानिपि सुत्तन्तानि संकिलेसभागियादिसासनपट्ठाननयेन सोळसविधभावं नातिवत्तन्ति, एवं अत्तज्झासयादि-सुत्त-निक्खेपवसेन चतुब्बिधभावन्ति आह "चत्तारो सुत्तनिक्खेपा''ति । ननु
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.५-५)
संसग्गभेदोपि सम्भवति, अथ कस्मा “चत्तारो सुत्तनिवखेपा''ति वुत्तन्ति ? संसग्गभेदस्स सब्बत्थ अलब्भमानत्ता। अत्तज्झासयस्स, हि अट्ठप्पत्तिया च परज्झासयपुच्छावसिकेहि सद्धिं संसग्गभेदो सम्भवति । “अत्तज्झासयो च परज्झासयो च. अत्तज्झासयो च पच्छावसिको च, अत्तज्झासयो च परज्झासयो च पुच्छावसिको च, अझुप्पत्तिको च परज्झासयो च अट्ठप्पत्तिको च पुच्छावसिको च, अट्ठप्पत्तिको च परज्झासयो च पुच्छावसिको चा"ति अज्झासयपुच्छानुसन्धिसब्भावतो । अत्तज्झासयट्ठप्पत्तीनं पन अञमधे संसग्गो नत्थि, तस्मा निरवसेसं पत्थारनयेन संसग्गभेदस्स अलब्भनतो एवं वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।
अथ वा अट्ठप्पत्तिया अत्तज्झासयेनपि सिया संसग्गभेदो, तदन्तोगधत्ता पन संसग्गवसेन वुत्तानं सेसनिक्खेपानं मूलनिक्खेपेयेव सन्धाय “चत्तारो सुत्तनिक्खेपा'ति वुत्तं । इमस्मिं पन अत्थविकप्पे यथारहं एककदुकतिकचतुकवसेन सासनपट्ठाननयेन सुत्तनिक्खेपा वत्तब्बाति नयमत्तं दस्सेतीति वेदितब्बं । तत्रायं वचनत्थो - निक्खिपनं कथनं निक्खेपो, सुत्तस्स निक्खेपो सुत्तनिक्खेपो, सुत्तदेसनाति अत्थो । निक्खिपीयतीति वा निक्खेपो, सुत्तमेव निक्खेपो सुत्तनिक्खेपो। अत्तनो अज्झासयो अत्तज्झासयो, सो अस्स अस्थि कारणवसेनाति अत्तज्झासयो, अत्तनो अज्झासयो वा एतस्स यथावुत्तनयेनाति अत्तज्झासयो। परज्झासयेपि एसेव नयो । पुच्छाय वसो पुच्छावसो, सो एतस्स अस्थि यथावुत्तनयेनाति पुच्छावसिको। अरणीयतो अवगन्तब्बतो अत्थो वुच्चति सुत्तदेसनाय वत्थु, तस्स उप्पत्ति अत्थुप्पत्ति, सा एव अटुप्पत्ति त्थ-कारस्स ठु-कारं कत्वा, सा एतस्स अस्थि वुत्तनयेनाति अटुप्पत्तिको। अपिच निक्खिपीयति सुत्तमेतेनाति निक्खेपो, अत्तज्झासयादिसुत्तदेसनाकारणमेव । एतस्मिं पन अत्थविकप्पे अत्तनो अज्झासयो अत्तज्झासयो। परेसं अज्झासयो परज्झासयो। पुच्छीयतीति पुच्छा, पुच्छितब्बो अत्थो । तस्सा पुच्छाय वसेन पवत्तं धम्मपटिग्गाहकानं वचनं पुच्छावसिकं । तदेव निक्खेपसद्दापेक्खाय पुल्लिङ्गवसेन वुत्तं "पुच्छावसिको"ति । वुत्तनयेन अट्ठप्पत्तियेव अट्ठप्पत्तिकोति एवं अत्थो दट्ठब्बो।
एत्थ च परेसं इन्द्रियपरिपाकादिकारणं निरपेक्खित्वा अत्तनो अज्झासयेनेव धम्मतन्तिठपनत्थं पवत्तितदेसनत्ता अत्तज्झासयस्स विसुं निक्खेपभावो युत्तो । तेनेव वक्खति “अत्तनो अज्झासयेनेव कथेती"ति (दी० नि० अट्ठ० १.५)। परज्झासयपुच्छावसिकानं पन परेसं अज्झासयपुच्छानं देसनानिमित्तभूतानं उप्पत्तियं पवत्तत्ता कथं अट्ठप्पत्तिके अनवरोधो सिया, पुच्छावसिकट्ठप्पत्तिकानं वा परज्झासयानुरोधेन पवत्तितदेसनत्ता कथं
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(१.१.५-५)
परिब्बाजककथावण्णना
परझासये अनवरोधो सियाति न चोदेतब्बमेतं । परेसहि अभिनीहारपरिपुच्छादिविनिमुत्तस्सेव सुत्तदेसनाकारणुप्पादस्स अट्टप्पत्तिवसेन गहितत्ता परज्झासयपुच्छावसिकानं विसुं गहणं । तथा हि धम्मदायादसुत्तादीनं (म० नि० १.२९) आमिसुप्पादादिदेसनानिमित्तं “अट्ठप्पत्ती''ति वुच्चति । परेसं पुच्छं विना अज्झासयमेव निमित्तं कत्वा देसितो परज्झासयो। पुच्छावसेन देसितो पुच्छावसिकोति पाकटोवायमत्थो ।
अनज्झिट्ठोति पुच्छादिना अनज्झेसितो अयाचितो, अत्तनो अज्झासयेनेव कथेति धम्मतन्तिठपनत्थन्ति अधिप्पायो । हारोति आवळि यथा “मुत्ताहारो'"ति, स्वेव हारको, सम्मप्पधानसुत्तन्तानं हारको तथा । अनुपुब्बेन हि संयुत्तके निद्दिवानं सम्मप्पधानपटिसंयुत्तानं सुत्तन्तानं आवळि "सम्मप्पधानसुत्तन्तहारको"ति वुच्चति, तथा इद्धिपादहारकादि । इद्धिपादइन्द्रियबलबोज्झङ्गमग्गङ्गसुत्तन्तहारकोति पुब्बपदेसु परपदलोपो, द्वन्दगब्भसमासो वा एसो, पेय्यालनिद्देसो वा । तेसन्ति यथावुत्तसुत्तानं ।
परिपक्काति परिणता । विमुत्तिपरिपाचनीयाति अरहत्तफलं परिपाचेन्ता सद्धिन्द्रियादयो धम्मा । खयेति खयनत्थं, खयकारणभूताय वा धम्मदेसनाय | अज्झासयन्ति अधिमुत्तिं । खन्तिन्ति दिविनिज्झानक्खन्तिं । मनन्ति चित्तं । अभिनीहारन्ति पणिधानं । बुज्झनभावन्ति बुज्झनसभावं, बुज्झनाकारं वा। अवेक्खित्वाति पच्चवेक्खित्वा, अपेक्खित्वा वा ।
चत्तारो वण्णाति चत्तारि कुलानि, चत्तारो वा रूपादिपमाणा सत्ता। महाराजानोति चत्तारो महाराजानो देवा । वुच्चन्ति किं, पञ्चुपादानक्खन्धा किन्ति अत्थो ।
कस्माति आह “अटुप्पत्तियं ही'तिआदि । वण्णावण्णेति निमित्ते भुम्मं, वण्णसद्देन चेत्थ “अच्छरियं आवुसो'"तिआदिना (दी० नि० १.४) भिक्खुसङ्घन वुत्तोपि वण्णो सङ्गहितो। तम्पि हि अट्टप्पत्तिं कत्वा "अस्थि भिक्खवे अछे धम्मा"तिआदिना (दी० नि० १.२८) उपरि देसनं आरभिस्सति । तदेव विवरति “आचरियो"तिआदिना । “ममं वा भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्यु"न्ति इमिस्सा देसनाय ब्रह्मदत्तेन वुत्तं वण्णं अट्ठप्पत्तिं कत्वा देसितत्ता आह “अन्तेवासी वण्ण"न्ति । इदानि पाळिया सम्बन्धं दस्सेतुं "इती"तिआदि वुत्तं । देसनाकुसलोति "इमिस्सा अट्ठप्पत्तिया अयं देसना सम्भवती"ति देसनाय कुसलो, एतेन पकरणानुगुणं भगवतो थोमनमकासि । एसा हि संवण्णनकानं पकति, यदिदं तत्थ तत्थ पकरणाधिगतगुणेन भगवतो थोमना। वा-सद्दो चेत्थ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.५-५)
उपमानसमुच्चयसंसयवचनवोस्सग्गपदपूरणसदिसविकप्पादीसु बहूस्वत्थेसु दिस्सति । तथा हेस “पण्डितोवापि तेन सो''तिआदीसु उपमाने दिस्सति, सदिसभावेति अत्थो । “तं वापि धीरा मुनिं पवेदयन्ती"तिआदीसु (सु० नि०२१३) समुच्चये । “के वा इमे कस्स वा"तिआदीसु (पारा० २९६) संसये । “अयं वा (अयञ्च) (दी० नि० १.१८१) इमेसं समणब्राह्मणानं सब्बबालो सब्बमूळ्हो"तिआदीसु (दी० नि० १.१८१) वचनवोस्सग्गे | “न वायं कुमारको मत्तमासी"तिआदीसु (सं० नि० १.२.१५४) पदपूरणे । “मधुं वा मञ्जति बालो, याव पापं न पच्चती''तिआदीसु (ध० प० ६९) सदिसे । “ये हि केचि भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा''तिआदीसु (म० नि० १.१७०; सं० नि० ३.५.१०९२) विकप्पे। इधापि विकप्पेयेव । मम वा धम्मस्स वा सङ्घस्स वाति विविधा विसुं विकप्पनस्स जोतकत्ताति आह "वा-सद्दो विकप्पनत्थो"ति । पर-सद्दो पन अत्थेव अञत्थो “अहञ्चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्यु"न्तिआदीसु (दी० नि० २.६४; म० नि० १.२८१; २.३३७; महा० व० ७, ८) अत्थि अधिकत्थो "इन्द्रियपरोपरियत्त'न्तिआदीसु (विभं० ८१४; अ० नि० ३.१०.२१; म० नि० १.१४८; पटि० म० १.६८; १.१११) अत्थि पच्छाभागत्थो “परतो आगमिस्सती''तिआदीसु। अस्थि पच्चनीकत्थो “उप्पन्नं परप्पवादं सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गहेत्वा''तिआदीसु (दी० नि० २.१६८; सं० नि० ३.५.८२२; अं० नि० ८.७०; उदा० ५१) इधापि पच्चनीकत्थोति दस्सेति “पटिविरुद्धा सत्ता"ति इमिना। सासनस्स पच्चनीकभूता पच्चत्थिका सत्ताति अत्थो। त-सद्दो परेति वुत्तमत्थं अवण्णभासनकिरियाविसिटुं परामसतीति वुत्तं "ये अवण्णं वदन्ति, तेसू'ति ।
ननु तेसं आघातो नत्थि गुणमहत्तत्ता, अथ कस्मा एवं वुत्तन्ति चोदनालेसं दस्सेत्वा तदपनेति "किञ्चापी"तिआदिना । किञ्चापि नत्थि, अथ खो तथापीति अत्थो । ईदिसेसुपीति एत्थ पि सद्दो सम्भावनत्थो, तेन रतनत्तयनिमित्तम्पि अकुसलचित्तं न उप्पादेतब्बं, पगेव वट्टामिसलोकामिसनिमित्तन्ति सम्भावेति । परियत्तिधम्मोयेव सद्धम्मनयनतुन नेत्तीति धम्मनेत्ति। आहनतीति आभुसो घट्टेति, हिंसति वा, विबाधति, उपतापेति चाति अत्थो । कत्थचि “एत्था''ति पाठो दिस्सति, सो पच्छालिखितो पोराणपाठानुगताय टीकाय विरोधत्ता, अत्थयुत्तिया च अभावतो । यदिपि दोमनस्सादयो च आहनन्ति, कोपेयेव पनायं निरुळहोति दस्सेति "कोपस्सेतं अधिवचन"न्ति इमिना । अवयवत्थञ्हि दस्सेत्वा तत्थ परियायेन अत्थं दस्सेन्तो एवमाह । अधिवचनन्ति च अधिकिच्च पवत्तं वचनं, पसिद्धं वा वचनं, नामन्ति अत्थो । एवमितरेसुपि । एत्थ च सभावधम्मतो अञस्स कत्तुअभावजोतनत्थं
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( १.१.५-५)
परिब्बाजककथावण्णना
" आहनती 'ति कत्तुत्थे आघातसद्दं दस्सेति । आहनति एतेन, आहननमत्तं वा आघातोति करणभावत्थापि सम्भवन्तियेव । "अप्पतीता "ति एतस्सत्थो " अतुट्ठा असोमनस्सिका "ति वुत्तो, इदं पन पाकटपरियायेन अपच्चयसद्दस्स निब्बचनदस्सनं, तम्मुखेन पन न पच्चेति तेनाति अप्पच्चयोति कातब्बं । अभिराधयतीति साधयति । एत्थाति एतेसु तीसु पदेसु । द्वीहीति आघातअनभिरद्धिपदेहि । एकेनाति अपच्चयपदेन । एत्तकेसु गहितेसु सम्पत्ता अग्गहिता सियुं, न च सक्का तेपि अग्गहितुं एकुप्पादादिसभावत्ताति चोदनं विसोधेतुं “तेस "न्तिआदि वुत्तं, तेसन्ति यथावुत्तानं सङ्घारक्खन्धवेदनाक्खन्धेकदेसानं । सेसानन्ति सञ्ञाविञ्ञणावसिट्ठसङ्घारक्खन्धेकदेसानं । करणन्ति उप्पादनं । आघातादीनहि पवत्तिया पच्चयसमवायनं इध "करण "न्ति वुत्तं तं पन अत्थतो उप्पादनमेव । तदनुप्पादनह सन्धाय पाळियं "न करणीयात वृत्तं । पटिक्खित्तमेव यथारहं एकुप्पादनिरोधारम्मणवत्थुभावतो ।
तत्थाति तस्मिं मनोपदोसे । “तेसु अवण्णभासकेसू" ति इमिना आधारत्थे भुम्मं दस्सेति। निमित्तत्थे, भावलक्खणे वा एतं भुम्मन्ति आह " तस्मिं वा अवणेति । न अगुणो, निन्दा वा कोपदोमनस्सानं आधारो सम्भवति तब्भासकायत्तत्ता तेसं । अस्सथाति सत्तमिया रूपं चे-सद्दयोगेन परिकप्पनविसयत्ताति दस्सेति " भवेय्याथा "ति इमिना । “भवेय्याथ चे, यदि भवेय्याथा' ति च वदन्तो 'यथाक्कमं पुब्बापरयोगिनो एते सद्दा 'ति ञपेती”ति वदन्ति । " कुपिता कोपेन अनत्तमना दोमनस्सेना "ति इमिना " एवं पठमेन नयेना''तिआदिना वुत्तवचनं अत्थन्तराभावदस्सनेन समत्थेति । " तुम्हाक "न्ति इमिना समानत्थो " तुम्ह "न्ति एको सद्दो " अम्हाक "न्ति इमिना समानत्थो " अम्ह "न्ति सद्दो विय यथा “ तस्मा हि अम्हं दहरा न मीयरे "ति ( जा० १.९३) आह “ तुम्हाकंयेवा" ति । अत्थवसा लिङ्गविपरियायोति कत्वा “ताय च अनत्तमनताया" ति वृत्तं । " अन्तरायो” ति वुत्ते समणधम्मविसेसानन्ति अत्थस्स पकरणतो विञ्ञायमानत्ता, विञ्ञायमानत्थस्स च सद्दस्स पयोगे कामचारत्ता " पठमज्झानादीनं अन्तरायो" ति वृत्तं । एत्थ च " अन्तरायो” ति इदं मनोपदोसस्स अकरणीयताय कारणवचनं । यस्मा तुम्हाकमेव तेन कोपादिना पठमज्झानादीनमन्तरायो भवेय्य, तस्मा ते कोपादिपरियायेन वुत्ता आघातादयो न करणीयाति अधिप्पायो, तेन " नाहं सब्बञ्जू" ति इस्सरभावेन तुम्हे ततो निवारेमि, अथ खो इमिनाव कारणेनाति दस्सेति । तं पन कारणवचनं यस्मा आदीनवविभावनं होति, तस्मा “आदीनवं दस्सेन्तो " ति हेट्ठा वुत्तन्ति दट्ठब्बं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.५-५)
___ सो पन मनोपदोसो न केवलं कालन्तरभाविनोयेव हितसुखस्स अन्तरायकरो, अथ खो तङ्क्षणपवत्तनारहस्सपि हितसुखस्स अन्तरायकरोति मनोपदोसे आदीनवं दळहतरं कत्वा दस्सेतुं “अपि नू"तिआदिमाहातिपि सम्बन्धो वत्तब्बो | परेसन्ति ये अत्ततो अने, तेसन्ति अत्थो, न पन “परे अवण्णं भासेय्यु"न्तिआदीसु विय पटिविरुद्धसत्तानन्ति आह "येसं केसच्ची"ति। तदेवत्थं समत्थेति “कुपितो ही"तिआदिना। पाळियं सुभासितदुब्भासितवचनजाननम्पि तदत्थजाननेनेव सिद्धन्ति आह "सुभासितदुभासितस्स अत्थ"न्ति ।
अन्धंतमन्ति अन्धभावकरं तमं, अतिविय वा तमं । यं नरं सहते अभिभवति, तस्स अन्धतमन्ति सम्बन्धो । यन्ति वा भुम्मत्थे पच्चत्तवचनं, यस्मिं काले सहते, तदा अन्धतमं होतीति अत्थो, कारणनिद्देसो वा, येन कारणेन सहते, तेन अन्धतमन्ति । एवं सति यंतं सद्दानं निच्चसम्बन्धत्ता “यदा''ति अज्झाहरितब्बं । किरियापरामसनं वा एतं, “कोधो सहते''ति यदेतं कोधस्स अभिभवनं वुत्तं, एतं अन्धतमन्ति । ततो च कुद्धो अत्थं न जानाति, कुद्धो धम्मं न पस्सतीति योजेतब्बं । अत्थं धम्मन्ति पाळिअत्थं, पाळिधम्मञ्च । चित्तप्पकोपनोति चित्तस्स पकतिभावविजहनेन पदूसको । अन्तरतोति. अब्भन्तरतो, चित्ततो वा कोधवसेन भयं जातं । तन्ति तथासभावं कोधं, कोधस्स वा अनत्थजननादिप्पकारं ।
सब्बत्थापीति सब्बेसुपि पठमतियततियनयेसु । “अवण्णे पटिपज्जितब्बाकार"न्ति अधिकारो । अवण्णभासकानमविसयत्ता "तत्राति पदस्स तस्मिं अवण्णेति अत्थोव दस्सितो। अभूतन्ति कत्तुभूतं वचनं, यं वचनं अभूतं होतीति अत्थो । अभूततोति पन अभूतताकिरियाव भावप्पधानत्ता, भावलोपत्ता चाति दस्सेति "अभूतभावेनेवा"ति इमिना । "इतिपेत''न्तिआदि निब्बेठनाकारनिदस्सनन्ति दस्सेतुं “कथ"न्तिआदि वुत्तं । तत्राति तस्मिं वचने । योजनाति अधिप्पायपयोजना । तुण्हीति अभासनत्थे निपातो, भावनपुंसको चेस । "इतिपेतं अभूत"न्ति वत्वा "यं तुम्हेही"तिआदिना तदत्थं विवरति । इमिनापीति पि-सद्देन अनेकविधं कारणं सम्पिण्डेति। कारणसरूपमाह "सब्ब येवा"तिआदिना । एव-सद्दो तीसुपि पदेसु योजेतब्बो, सब्ब भावतो न असब्बञ्जू, स्वाक्खातत्ता न दुरक्खातो, सुप्पटिपन्नत्ता न दुप्पटिपन्नोति इमिनापि कारणेन निब्बेठेतब्बन्ति वुत्तं होति । “कस्मा पन सब्बञ्जू'तिआदिपटिचोदनायपि तंकारणदस्सनेन निब्बेठेतब्बमेवाति आह "तत्र इदञ्चिदञ्च कारण"न्ति । तत्राति तेसु सब्ब तादीसु । इदञ्च इदञ्च कारणन्ति अनेकविधेन कारणानुकारणं दस्सेत्वा “न सब्बञ्जू''तिआदिवचनं निब्बेठेतब्बन्ति अत्थो। तत्रिदं
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(१.१.५-५)
परिब्बाजककथावण्णना
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कारणं - सब्बञ्जू एव अम्हाकं सत्था अविपरीतधम्मदेसनत्ता। स्वाक्खातो एव धम्मो एकन्तनिय्यानिकत्ता। सुप्पटिपन्नो एव सङ्घो संकिलेसरहितत्ताति । कारणानुकारणदस्सनम्पेत्थ असब्बञ्जतादिवचन-निब्बेठनमेव तथादस्सनस्स तेसम्पि कारणभावतोति दट्ठब्बं । कारणकारणम्पि हि “कारण"न्त्वेव वुच्चति, पतिठ्ठानपतिवानम्पि “पतिट्ठान"न्त्वेव यथा "तिणेहि भत्तं सिनिद्धं, पासादे धम्ममज्झायतीति । दुतियं पदन्ति “अतच्छ''न्ति पदं । पठमस्स पदस्साति “अभूत''न्ति पदस्स । चतुत्थन्ति “न च पनेतं अम्हेसु संविज्जती"ति पदं । ततियस्साति “नत्थि चेतं अम्हेसू"ति पदस्स । विविधमेकत्थेयेव पवत्तं वचनं विवचनं, तदेव वेवचनं, वचनन्ति वा अत्थो सद्देन वचनीयत्ता "भगवाति वचनं सेटुं, भगवाति वचनमुत्तम''न्तिआदीसु (दी० नि० अट्ठ० १.१ म० नि० अट्ठ० १.१; अ० नि० १.रूपादिवग्गवण्णना; पारा० अट्ठ० १.१) विय । नानासभावतो विगतं वचनं यस्साति वेवचनं वुत्तनयेन, परियायवचनन्ति अत्थो ।
एत्थाह - कस्मा पनेत्थ परियायवचनं वुत्तं, ननु एकेकपदवसेनेव अधिप्पेतो अत्थो सिद्धो, एवं सिद्धे सति किमेते तेन परियायवचनेन । तदेतहि गन्थगारवादिअनेकदोसकरं, यदि च तं वत्तब्बं सिया, तदेव वुत्तं अस्स, न तदञ्जन्ति ? वुच्चते - देसनाकाले, हि आयतिञ्च कस्सचि कथञ्चि तदत्थपटिवेधनत्थं परियायवचनं वुत्तं । देसनापटिग्गाहकेसु हि यो तेसं परियायवचनानं यं पुब्बे सङ्केतं करोति “इदमिमस्सत्थस्स वचन"न्ति, तस्स तेनेव तदत्थपटिवेधो होति । अपिच तस्मिं खणे विक्खित्तचित्तानं अञविहितानं विपरियायानं अञ्जन परियायेन तदत्थावबोधनत्थम्पि परियायवचनं वुत्तं । यहि ये न सुणन्ति, तप्परिहायनवसेन तेसं सब्बथा परिपुण्णस्स यथावुत्तस्स अत्थस्स अनवबोधो सिया, परियायवचने पन वुत्ते तब्बसेन परिपुण्णमत्थावबोधो होति । अथ वा मन्दबुद्धीनं पुनप्पुनं तदत्थलक्खणेन असम्मोहनत्थं परियायवचनं वुत्तं । मन्दबुद्धीनहि एकेनेव पदेन एकत्थस्स सल्लक्खणेन सम्मोहो होति, अनेकेन परियायेन पन एकत्थस्स सल्लक्खणेन तथासम्मोहो न होति अनेकप्पवत्तिनिमित्तेन एकत्थेयेव पवत्तसद्देन यथाधिप्पेतस्स अत्थस्स निच्छितत्ता ।
अपरो नयो- “अनेकेपि अत्था समानब्यञ्जना होन्ती"ति या अत्थन्तरपरिकप्पना सिया, तस्सा परिवज्जनत्थम्पि परियायवचनं वुत्तन्ति वेदितब्बं । अनेकेसम्पि हि अत्थानं एकपदवचनीयतावसेन समानब्यञ्जनत्ता यथावुत्तस्स पदस्स "अयमत्थो नु खो अधिप्पेतो, उदाहु अयमत्थोवा''ति पवत्तं सोतूनमत्थन्तरपरिकप्पनं वेवचनं अञमजं भेदकवसेन परिवज्जेति । वुत्तञ्च -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
"नेकत्थवुत्तिया सद्दो, न विसेसत्थञापको | परियायेन युत्तो तु, परियायो च भेदको 'ति । ।
सुखसिद्धं होति । अथ वा सम्मासम्बुद्धस्स अत्तनो
अपरो नयो- अनञ्ञस्सापि परियायवचनस्स वचने अनेकाहि ताहि ताहि नामपञ्ञत्तीहि तेसं तेसं अत्थानं पञ्ञापनत्थम्पि परियायवचनं वत्तब्बं होति । तथा हि परियावचने वुत्ते 'इमस्सत्थस्स इदमिदम्पि नामन्ति सोतूनं अनेकधा नामपञ्ञत्तिविजाननं । ततो च तंतंपञ्ञत्तिकोसल्लं होति सेय्यथापि निघण्टुसत्थे परिचयतं । अपिच धम्मकथिकानं तन्तिअत्थुपनिबन्धनपरावबोधनानं सुखसिद्धियापि परियायवचनं । तब्बचनेन हि धम्मदेसकानं तन्तिअत्थस्स अत्तनो चित्ते उपनिबन्धनेन ठपनेन परेसं सोतूनमवबोधनं धम्मनिरुत्तिपटिसम्भिदासम्पत्तिया विभावनत्थं वेनेय्यानञ्च तत्थ बीजवापनत्थं परियायवचनं भगवा निद्दिसति । तदसम्पत्तिकस्स हि तथावचनं न सम्भवति । तेन च परियायवचनेन यथासुतेन तस्सं धम्मनिरुत्तिपटिसम्भिदासम्पत्तियं तप्परिचरणेन, तदञ्ञसुचरितसमुपब्रूहनेन च पुञ्ञसङ्घातस्स बीजस्स वपनं सम्भवति । को हि ईदिसाय सम्पत्तिया विञ्ञायमानाय तदेतं नाभिपत्थेय्याति, किं वा बहुना । यस्सा धम्मधातुया सुप्पटिविद्धत्ता सम्मासम्बुद्धो यथा सब्बस्मिं अत्थे अप्पटिहतञाणचारो, तथा सब्बस्मिं सद्दवोहारेति एकम्पि अत्थं अनेकेहि परियायेहि बोधेति, नत्थि तत्थ दन्धायितत्तं वित्थारितत्तं, नापि धम्मदेसनाय हानि, आवेणिको चायं बुद्धधम्मो । सब्बञ्जतञ्जणस्स हि सुप्पटिविदितभावेन पटिसम्भिदाञाणेहि विय तेनपि आणेन अत्थे, धम्मे, निरुत्तिया च अप्पटिहतवुत्तिताय बुद्धलीळाय एकम्पि अत्यं अनेकेहि परियायेहि बोधेति, न पन तस्मिं सद्दवोहारे, तथाबोधने वा मन्दभावो सम्माबोधनस्स साधनत्ता, न च तेन अत्थस्स वित्थारभावो एकस्सेवत्थस्स देसेतब्बस्स सुब्बिजाननकारणत्ता, नापि तब्बचनेन धम्मदेसनाहानि तस्स देसनासम्पत्तिभावतो । तस्मा सात्थकं परियायवचनं, न चापि तं गन्धगारवादि अनेकदोसकरन्ति दट्ठब्बं । यं पtतं वृत्तं “यदि च तं वत्तब्बं सिया, तदेव वुत्तं अस्स, न तदञ्ञ "न्ति, तम्पि न युत्तं पयोजनन्तरसम्भवतो । तदेव हि अवत्वा तदञ्ञस्स वचनेन देसनाक्खणे समाहितचित्तानम्पि सम्मदेव पटिग्गण्हन्तानं तंतंपदन्तोगधपवत्तिनिमित्तमारब्भ तदत्थाधिगमो होति, इतरथा तस्मिंयेव पदे पुनप्पुनं वुत्ते तेसं तदत्थानधिगतता सियाति । होन्ति चेत्थ -
"येन केनचि अत्थस्स, बोधाय अञ्ञसद्दतो । विक्खित्तकमनानम्पि, परियायकथा कता ।।
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(१.१.६-६)
परिब्बाजककथावण्णना
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मन्दानञ्च अमूळ्हत्थं, अत्थन्तरनिसेधया । तंतनामनिरुळहत्थं, परियायकथा कता ।।
देसकानं सुकरत्थं, तन्तिअत्थावबोधने । धम्मनिरुत्तिबोधत्थं,परियायकथा कता ।।
वेनेय्यानं तत्थ बीजवापनत्थञ्च अत्तनो । धम्मधातया लीळाय. परियायकथा कता ।।
तदेव तु अवत्वान, तद हि पबोधनं । सम्मापटिग्गण्हन्तानं, अत्थाधिगमाय कतन्ति ।।
इदं पन निब्बेठनं ईदिसेयेव, न सब्बत्थ कातब्बन्ति दस्सेन्तो "इदञ्चा"तिआदिमाह । तत्थ अवण्णेयेवाति कारणपतिरूपं वत्वा, अवत्वा वा दोसपतिठ्ठापनवसेन निन्दाय एव । न सब्बत्थाति न केवलं अक्कोसनह्युसनवम्भनादीसु सब्बत्थ निब्बेठनं कातब्बन्ति अत्थो। तदेवत्थं "यदि ही"तिआदिना पाकटं करोति । "सासङ्कनीयो होती''ति वुत्तं तथानिब्बेठेतब्बताय कारणमेव "तस्मा"ति पटिनिद्दिसति । "ओट्ठोसी"तिआदि “न सब्बत्था"ति एतस्स विवरणं । जातिनामगोत्तकम्मसिप्पआबाध लिङ्ग किलेस आपत्ति अक्कोसनसङ्खातेहि दसहि अक्कोसवत्थूहि । अधिवासनमेव खन्ति, न दिट्टिनिज्झानक्खमनादयोति अधिवासनखन्ति।
६. एवं अवण्णभूमिया संवण्णनं कत्वा इदानि वण्णभूमियापि संवण्णनं कातुमाह "एव"न्तिआदि । तत्थ अवण्णभूमियन्ति अवण्णप्पकासनट्ठाने । तादिलक्खणन्ति एत्थ “पञ्चहाकारेहि तादी इट्ठानिटे तादी, चत्तावीति तादी, तिण्णावीति तादी, मुत्तावीति तादी, तंनिद्देसा तादी''ति (महा० नि० ३८) निद्देसनयेन पञ्चसु अत्थेसु इध पठमेनत्थेन तादी। तत्रायं निद्देसो -
कथं अरहा इट्ठानिढे तादी, अरहा लाभेपि तादी, अलाभेपि तादी, यसेपि, अयसेपि, पसंसायपि, निन्दायपि, सुखेपि, दुक्खेपि तादी, एकञ्चे बाहं गन्धेन लिम्पेय्युं, एकञ्चे बाहं वासिया तच्छेय्युं, अमुस्मिं नत्थि रागो, अमुस्मिं नत्थि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
पटिघो, अनुनयपटिघविप्पहीनो उग्घाटिनिग्घाटिवीतिवत्तो, अनुरोधविरोधसमतिक्कन्तो, एवं अरहा इट्ठानिटे तादीति (महा० नि० ३८)।
वचनत्थो पन तमिव दिस्सतीति तादी, इट्ठमिव अनिट्ठम्पि पस्सतीति अत्थो। तस्स लक्खणं तादिलक्खणं, इठ्ठानिढेसु समपेक्खनसभावो । अथ वा तमिव दिस्सते तादी, सो एव सभावो, तदेव लक्खणं तादिलक्खणन्ति । वण्णभूमियं तादिलक्खणं दस्सेतुन्ति सम्बन्धो । पर-सद्दो अञत्थेति आह “ये केची"तिआदि । आनन्दन्ति भुसं पमोदन्ति तंसमङ्गिनो सत्ता एतेनाति आनन्दसद्दस्स करणत्थतं दस्सेति । सोभनमनो सुमनो, चित्तं, सोभनं वा मनो यस्साति सुमनो, तंसमङ्गीपुग्गलो। ननु च चित्तवाचकभावे सति चेतसिकसुखस्स भावत्थता युत्ता, पुग्गलवाचकभावे पन चित्तमेव भावत्थो सिया, न चेतसिकसुखं, सुमनसद्दस्स दब्बनिमित्तं पति पवत्तत्ता यथा “दण्डित्तं सिखित्त''न्तिआदीति? सच्चमेतं दब्बे अपेक्खिते, इध पन तदनपेक्खित्वा तेन दब्बेन युत्तं मूलनिमित्तभूतं चेतसिकसुखमेव अपेक्खित्वा सुमनसद्दो पवत्तो, तस्मा एत्थापि चेतसिकसुखमेव भावत्यो सम्भवति, तेनाह "चेतसिकसुखस्सेतं अधिवचन"न्ति । एतेन हि वचनेन तदञचेतसिकानम्पि चित्तपटिबद्धत्ता, चित्तकिरियत्ता च यथासम्भवं सोमनस्सभावो आपज्जतीति चोदनं नापज्जतेव रुळ्हिसद्दत्ता तस्स यथा “पङ्कज"न्ति परिहरति । उब्बिलयतीति उब्बिलं, भिन्दति पुरिमावत्थाय विसेसं आपज्जतीति अत्थो। तदेव उब्बिलावितं पच्चयन्तरागमादिवसेन । उद्धं पलवतीति वा उब्बिलावितं अकारानं इकारं, आकारञ्च कत्वा, चित्तमेव “चेतसो''ति वुत्तत्ता। तद्धिते पन सिद्धे तं अब्यतिरित्तं तस्मिं पदे वचनीयस्स सामञभावतो, तस्स वा सद्दस्स नामपदत्ता, तस्मा कस्साति सम्बन्धीविसेसानुयोगे “चेतसो''ति वुत्तन्ति दस्सेतुं “कस्सा"तिआदि वुत्तं । एस नयो ईदिसेसु । याय उप्पन्नाय कायचित्तं वातपूरितभस्ता विय उद्घमायनाकारप्पत्तं होति तस्सा गेहसिताय ओदग्यपीतिया एतं अधिवचनन्ति सरूपं दस्सेति "उद्धच्चावहाया"तिआदिना । उद्धच्चावहायाति उद्धतभावावहाय । उप्पिलापेति चित्तं उप्पिलावितं करोतीति उब्बिलापना, सा एव पीति, तस्सा। खन्धवसेन धम्मविसेसत्तं आह "इधापी"तिआदिना । अवण्णभूमिमपेक्खाय अपि-सद्दो “अयम्पि पाराजिको"तिआदीसु (वि० १.८९, ९१, १६७, १७१, १९५, १९७) विय, इध च किञ्चापि तेसं भिक्खूनं उब्बिलावितमेव नत्थि, अथ खो आयतिं कुलपुत्तानं एदिसेसुपि ठानेसु अकुसलुप्पत्तिं पटिसेधेन्तो धम्मनेत्तिं ठपेतीति । द्वीहि पदेहि सङ्घारक्खन्धो, एकेन वेदनाक्खन्धो वुत्तोति एत्थापि “तेसं वसेन सेसानं सम्पयुत्तधम्मानं करणं पटिक्खित्तमेवा"ति च अट्ठकथायं वुत्तनयेन सक्का
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(१.१.६-६)
परिब्बाजककथावण्णना
विज्ञातुन्ति न वुत्तं । “पि-सद्दो सम्भावनत्थो"तिआदिना वुत्तनयेन चेत्थ अत्थो यथासम्भवं वेदितब्बो।
तुम्हंयेवस्स तेन अन्तरायोति एत्थापि “अन्तरायो"ति इदं “उब्बिलावितत्तस्स अकरणीयताकारणवचन"तिआदिना हेट्ठा अवण्णपक्खे अम्हेहि वुत्तनयानुसारेन अत्थो दट्टब्बो। एत्थ च “आनन्दिनो उब्बिलाविता"ति दीपितं पीतिमेव गहेत्वा "तेन उब्बिलावितत्तेना"ति वचनं सोमनस्सरहिताय पीतिया अभावतो तब्बचनेनेव “सुमना"ति दीपितं सोमनस्सम्पि सिद्धमेवाति कत्वा वुत्तं । अथ वा सोमनस्सस्स अन्तरायकरता पाकटा, न तथा पीतियाति एवं वुत्तन्ति दट्टब्बं । कस्मा पनेतन्ति यथावुत्तं अत्थं अविभागतो मनसि कत्वा चोदेति । आचरियो “सच्च"न्ति तमत्थं पटिजानित्वा "तं पना"तिआदिना विभज्जब्याकरणवसेन परिहरति ।
तत्थ एतन्ति आनन्दादीनमकरणीयतावचनं, ननु भगवता वण्णितन्ति सम्बन्धो । बुद्धोति कित्तयन्तस्साति “बुद्धो"ति वचनं गुणानुस्सरणवसेन कथेन्तस्स साधुजनस्स । कसिणेनाति कसिणताय सकलभावेन । जम्बुदीपस्साति चेतस्स अवयवभावेन सम्बन्धीवचनं । अपरे पन "जम्बुदीपस्साति करणवचनत्थे सामिवचन''ति वदन्ति, तेसं मतेन कसिणजम्बुदीपसद्दानं समानाधिकरणभावो दट्टब्बो, करणवचनञ्च निस्सक्कत्थे । पगेव एकदेसतो पनाति अपि-सद्दो सम्भावने । आदि-सद्देन चेत्थ -
“मा सोचि उदायि, आनन्दो अवीतरागो कालं करेय्य, तेन चित्तप्पसादेन सत्तक्खत्तुं देवरज्जं कारेय्य, सत्तक्खत्तुं इमस्मिंयेव जम्बुदीपे महारज्जं कारेय्य, अपिच उदायि आनन्दो दिवेव धम्मे परिनिब्बायिस्सती''तिआदिसुत्तं (अ० नि० १.३.८१)
सङ्गहितं । तन्ति सुत्तन्तरे वुत्तं पीतिसोमनस्सं । नेक्खम्मस्सितन्ति कामतो निक्खमने कुसलधम्मे निस्सितं । इधाति इमस्मिं सुत्ते। गेहस्सितन्ति गेहवासीनं समुदाचिण्णतो गेहसङ्खाते कामगुणे निस्सितं । कस्मा तदेविधाधिप्पेतन्ति आह "इदही"तिआदि | “आयस्मतो छन्नस्स उप्पन्नसदिस"न्ति वुत्तमत्थं पाकटं कातुं, समत्थेतुं वा "तेनेवा"तिआदि वुत्तं । विसेसं निब्बत्तेतुं नासक्खि भगवति, धम्मे च पवत्तगेहस्सितपेमताय । परिनिब्बानकालेति परिनिब्बानासन्नकाले भगवता पञ्जत्तेन तज्जितोति वा सम्बन्धो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.६-६)
परिनिब्बानकालेति वा भगवतो परिनिब्बुतकाले सङ्घन तज्जितो निब्बत्तेतीति वा सम्बन्धो । ब्रह्मदण्डेनाति “भिक्खूहि इत्थन्नामो नेव वत्तब्बो, न ओवदितब्बो, नानुसासितब्बो''ति (चूळ० व० ४४५) कतेन ब्रह्मदण्डेन । तज्जितोति संवेजितो। तस्माति यस्मा गेहस्सितपीतिसोमनस्सं झानादीनं अन्तरायकर, तस्मा । वुत्तहेतं भगवता सक्कपञ्चसुत्ते "सोमनस्संपाहं देवानमिन्द, दुविधेन वदामि सेवितब्बम्पि असेवितब्बम्पी"ति (दी० नि० २.३५९)।
"अयही"तिआदिना तदेवत्थं कारणतो समत्थेति। रागसहितत्ता हि सा अन्तरायकराति । एत्थ पन “इदहि रागसहितं पीतिसोमनस्स"न्ति वत्तब् सिया, तथापि पीतिग्गहणेन सोमनस्सम्पि गहितमेव होति सोमनस्सरहिताय पीतिया अभावतोति हेट्ठा वुत्तनयेन पीतियेव गहिता। अपिच सेवितब्बासेवितब्बविभागस्स सुत्ते वचनतो सोमनस्सस्स पाकटो अन्तरायकरभावो, न तथा पीतियाति सायेव रागसहितत्थेन विसेसेत्वा वुत्ता। अवण्णभूमिया सद्धिं सम्बन्धित्वा पाकटं कातुं "लोभो चा"तिआदि वुत्तं । कोधसदिसोवाति अवण्णभूमियं वुत्तकोधसदिसो एव। "लुद्धो"तिआदिगाथानं "कुद्धो"तिआदिगाथासु वुत्तनयेन अत्थो दट्ठब्बो।
"ममं वा भिक्खवे परे वण्णं भासेय्यु, धम्मस्स वा वण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा वण्णं भासेय्युं, तत्र चे तुम्हे अस्सथ आनन्दिनो सुमना उब्बिलाविता, अपि नु तुम्हे परेसं सुभासितदुब्भासितं आजानेय्याथाति ? नो हेतं भन्ते''ति अयं ततियवारो नाम अवण्णभूमियं वुत्तनयवसेन ततियवारट्ठाने नीहरितब्बत्ता, सो देसनाकाले तेन वारेन बोधेतब्बपुग्गलाभावतो देसनाय अनागतोपि तदत्थसम्भवतो अत्थतो आगतोयेव। यथा तं वित्थारवसेन कथावत्थुप्पकरणन्ति दस्सेतुं "ततियवारो पना"तिआदि वुत्तं, एतेन संवण्णनाकाले तथाबुज्झनकसत्तानं वसेन सो वारो आनेत्वा संवण्णेतब्बोति दस्सेति | "यथेव ही"तिआदिना तदेवत्थसम्भवं विभावेति । कुद्धो अत्थं न जानाति यथेवाति सम्बन्धो ।
पटिपज्जितब्बाकारदस्सनवारेति यथावुत्तं ततियवारं उपादाय वत्तब्बे चतुत्थवारे । "तुम्हाकं सत्था''ति वचनतो पभुति याव "इमिनापि कारणेन तच्छन्ति वचनं, ताव योजना। "सो हि भगवा"तिआदि तब्बिवरणं । तत्थ इतिपीति इमिनापि कारणेन । वित्थारो विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १२३ आदयो) “अनापत्ति उपसम्पन्नस्स भूतं
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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आरोचेती''ति (पाचि० ७७) वुत्तेपि सभागानमेव आरोचनं युत्तन्ति आह "सभागानं भिक्खू येव पटिजानितब्ब"न्ति । तेयेव हि तस्स अत्थकामा, सद्धेय्यवचनत्तञ्च मञन्ति, ततो च “सासनस्स अमोघता दीपिता होती"ति वुत्तत्थसमत्थनं सिया । "एवज्ही"तिआदि कारणवचनं । पापिच्छता चेव परिवज्जिता, कत्तुभूता वा सा, होतीति सम्बन्धो । अमोघताति निय्यानिकभावेन अतुच्छता। वुत्तनयेनाति "तत्र तुम्हेहीति तस्मिं वण्णे तुम्हेही"तिआदिना चेव “दुतियं पदं पठमस्स पदस्स, चतुत्थञ्च ततियस्स वेवचन"न्तिआदिना च वुत्तनयेन ।
चूळसीलवण्णना ७. को अनुसन्धीति पुच्छा “ननु एत्तकेनेव यथावुत्तेहि अवण्णवण्णेहि सम्बन्धा देसनामत्थकं पत्ता"ति अनुयोगसम्भवतो कता | वण्णेन च अवण्णेन चाति तदुभयपदेन । अत्थनिद्देसो विय हि सद्दनिद्देसोपीति अक्खरचिन्तका | अथ वा तथाभासनस्स कारणत्ता, कोट्ठासत्ता च "पदेही"ति वुत्तं । अवण्णेन च वण्णेन चाति पन अगुणगुणवसेन, निन्दापसंसावसेन च सरूपदस्सनं । "निवत्तो अमूलकताय विस्सज्जेतब्बताभावतो''ति (दी० नि० टी० १.७) आचरियधम्मपालत्थेरेन वुत्तं । तं वित्थारेत्वा देसनाय बोधेतब्बपुग्गलाभावतो एत्तकाव सा युत्तरूपाति भगवतो अज्झासयेनेव अदेसनाभावेन निवत्तो, यथा तं वण्णभूमियं ततियवारोतिपि दट्ठब् | तथा बोधेतब्बपुग्गलसम्भवेन विस्सज्जेतब्बताय अधिगतभावतो अनुवत्ततियेव। इतिपेतं भूतन्ति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो तदुपरिपि अनुवत्तकत्ता, तेन वक्खति "इध पनातिआदि । एत्तावता अयं वण्णानुसन्धीति दस्सेत्वा दुविधेसु पन तेसु वण्णेसु ब्रह्मदत्तस्स वण्णानुसन्धीति दस्सेन्तो “सो पना"तिआदिमाह । उपरि सुञतापकासने अनुसन्धिं दस्सेस्सति “अस्थि भिक्खवे"तिआदिना (दी० नि० १.२८)।
___ एवं पुच्छाविस्सज्जनामुखेन समुदायत्थतं वत्वा इदानि अवयवत्थतं दस्सेति "तत्था"तिआदिना | अप्पमेव परितो समन्ततो खण्डितत्ता परित्तं नामाति आह "अप्पमत्तकन्ति परित्तस्स नाम"न्ति । मत्ता बुच्चति पमाणं मीयते परिमीयतेति कत्वा । समासन्तककारेन अप्पमत्तकं यथा “बहुपुत्तको"ति, एवं ओरमत्तकेपि । एतेनेव "अप्पा मत्ता अप्पमत्ता, सा एतस्साति अप्पमत्तक"न्तिआदिना कपच्चयस्स सात्थकतम्पि दस्सेति अत्थतो अभिन्नत्ता । मत्तकसद्दस्स अनत्थकभावतो सीलमेव सीलमत्तकं। अनत्थकभावोति च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
सकत्थता पुरिमपदत्थेयेव पवत्तनतो। न हि सदा केवलं अनत्थका भवन्तीति अक्खरचिन्तका | ननु च भगवतो पारमितानुभावेन निरत्थकमेकक्खरम्पि मुखवरं नारोहति, सकलञ्च परियत्तिसासनं पदे पदे चतुसच्चप्पकासनन्ति वुत्तं, कथं तस्स अनत्थकता सम्भवतीति? सच्चं, तम्पि पदन्तराभिहितस्स अत्थस्स विसेसनवसेन तदभिहितं अत्थं वदति एव, सो पन अत्थो विनापि तेन पदन्तरेनेव सक्का विज्ञातुन्ति अनत्थकमिच्चेव वुत्तन्ति । ननु अवोचुम्ह "अनत्थकभावो...पे०... पवत्तनतो''ति । अपिच विनेय्यज्झासयानुरूपवसेन भगवतो देसना पवत्तति, विनेय्या च अनादिमतिसंसारे लोकियेसुयेव सद्देसु परिभावितचित्ता, लोके च असतिपि अत्थन्तरावबोधे वाचासिलिट्ठतादिवसेन सद्दपयोगो दिस्सति “लब्भति पलब्भति, खजति निखजति, आगच्छति पच्चागच्छती"तिआदिना । तथापरिचितानञ्च तथाविधेनेव सद्दपयोगेन अत्थावगमो सुखो होतीति अनत्थकसद्दपयोगो वुत्तोति । एवं सब्बत्थ | होति चेत्थ -
“पदन्तरवचनीय-स्सत्थस्स विसेसनाय । बोधनाय विनेय्यानं, तथानत्थपदं वदे''ति ।।
अथ वा सीलमत्तकन्ति एत्थ मत्त-सद्दो विसेसनिवत्तिअत्थो “अवितक्कविचारमत्ता धम्मा (ध० स० तिकमातिका) मनोमत्ता धातु मनोधातू"ति (ध० स० मूल टी० ४९९) च आदीसु विय । “अप्पमत्तकं ओरमत्तक"न्ति पदद्वयेन सामञतो वुत्तोयेव हि अत्थो "सीलमत्तक"न्ति पदेन विसेसतो वुत्तो, तेन च सीलं एव सीलमत्तं, तदेव सीलमत्तकन्ति निब्बचनं कातब्बन्ति दस्सेतुं "सीलमेव सीलमत्तक"न्ति वुत्तं ।
अयं पन अट्ठकथामुत्तको नयो- ओरमत्तकन्ति एत्थ ओरन्ति अपारभागो “ओरतो भोगं (महा० व० ६६) ओरं पार'"न्तिआदीसु विय । अथ वा हेट्ठाअत्थो ओरसद्दो ओरं आगमनाय ये पच्चया, ते ओरम्भागियानि संयोजनानीतिआदीसु विय। सीलहि समाधिपञ्जायो अपेक्खित्वा अपारभागे, हेट्ठाभागे च होति, उभयत्थापि “ओरे पवत्तं मत्तं यस्सा''तिआदिना विग्गहो। सीलमत्तकन्ति एत्थापि मत्तसद्दो अमहत्थवाचको "भेसज्जमत्ता''तिआदीसु विय । अथ वा सीलेपि तदेकदेसस्सेव सङ्गहणत्थं अमहत्थवाचको एत्थ मत्तसद्दो वुत्तो। तथा हि इन्द्रियसंवरपच्चयसन्निस्सितसीलानि इध देसनं अनारुळहानि । कस्माति चे? यस्मा तानि पातिमोक्खसंवरआजीवपारिसुद्धिसीलानि विय न
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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सब्बपुथुज्जनेसु पाकटानीति | मत्तन्ति चेत्थ विसेसनिवत्तिअत्थे नपुंसकलिङ्गं । पमाणप्पकत्थेसु पन “मत्त'न्ति वा “मत्ता"ति वा नपुंसकित्थिलिङ्गं ।
"इदं वुत्तं होती"तिआदिना सह योजनाय पिण्डत्थं दस्सेति । येन सीलेन वदेय्य, एतं सीलमत्तकं नामाति सम्बन्धो । “वणं वदामीति उस्साहं कत्वापी"ति इदं “वण्णं वदमानो"ति एतस्स विवरणं । एतेन हि “एकपुग्गलो भिक्खवे, लोके उप्पज्जमानो उप्पज्जती"तिआदीसु (अ० नि० १.१.१७०) विय मानसद्दस्स सामत्थियत्थतं दस्सेति । "उस्साहं कुरुमानो''ति अवत्वा "कत्वा"ति च वचनं त्वादिपच्चयन्तपदानमिव मानन्तपच्चयन्तपदानम्पि परकिरियापेक्खमेवाति दस्सनत्थं । "तत्थ सिया"तिआदिना सन्धायभासितमत्थं अजानित्वा नीतत्थमेव गहेत्वा सुत्तन्तरविरोधितं मञमानस्स कस्सचि ईदिसी चोदना सियाति दस्सेति । तत्थाति तस्मिं “अप्पमत्तकं खो पनेत"न्तिआदिवचने (दी० नि० १.७)। कम्मट्ठानभावने युञ्जति सीलेनाति योगी, तस्स ।
अलङ्करणं विभूसनं अलङ्कारो, पसाधनकिरिया । अलं करोति एतेनेवाति वा अलङ्कारो, कुण्डलादिपसाधनं । मण्डीयते मण्डनं, ऊनट्ठानपूरणं । मण्डीयति एतेनाति वा मण्डनं, मुखचुण्णादिऊनपूरणोपकरणं । इध पन सदिसवोहारेन, तद्धितवसेन वा सीलमेव तथा वुत्तं । मण्डनेति मण्डनहेतु, मण्डनकिरियानिमित्तं गतोति अत्थो । अथ वा मण्डति सीलेनाति मण्डनो, मण्डनजातिको पुरिसो। बहुम्हि चेतं जात्यापेक्खाय एकवचनं । उब्बाहनत्थेपि हि एकवचनमिच्छन्ति केचि, तदयुत्तमेव सद्दसत्थे अनागतत्ता, अत्थयुत्तिया च अभावतो। कथहि एकवचननिद्दिद्वतो उब्बाहनकरणं युत्तं सिया एकस्मिं येवत्थे उब्बाहितब्बस्स अञस्सत्थस्स अभावतो। तस्मा विपल्लासवसेन बह्वत्थे इदं एकवचनं दट्ठबं, मण्डनसीलेसूति अत्थो । आचरियधम्मपालत्थेरेनपि हि अयमेविध विनिच्छयो (दी० नि० टी० १.७) वुत्तो। अग्गतन्ति उत्तमभावं ।
अस्सं भविस्सामीति आकङ्घय्याति सम्बन्धो । अस्साति भवेय्य । परिपूरकारीति चेत्थ इति सद्दो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन सकलम्पि सीलथोमनसुत्तं दस्सेति ।
किकीव अण्डन्ति एत्थापि तदत्थेन इति-सद्देन –
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
"किकीव अण्डं चमरीव वालधिं,
पियंव पुत्तं नयनंव एककं । तथेव सीलं अनुरक्खमाना,
सुपेसला होथ सदा सगारवा'ति ।। (विसुद्धि० १.१९)।
गाथं सङ्गण्हाति । “पुप्फगन्धो"ति वत्वा तदेकदेसेन दस्सेतुं "न चन्दन"न्तिआदि वुत्तं । चन्दनं तगरं मल्लिकाति हि तंसहचरणतो तेसं गन्धोव वुत्तो । पुष्फगन्धोति च पुप्फञ्च तदवसेसो गन्धो चाति अत्थो। तगरमल्लिकाहि वा अवसिट्ठो “पुप्फगन्धोति वुत्तो । सतञ्च गन्धोति एत्थ सीलमेव सदिसवोहारेन वा तद्धितवसेन वा गन्धो । सीलनिबन्धनो वा थुतिघोसो वुत्तनयेन “गन्धो''ति अधिप्पेतो । सीलहि कित्तिया निमित्तं । यथाह “सीलवतो कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छती''ति (दी० नि० २.१५०; ३.३१६; अ० नि० २.५.२१३; महा० व० ७८५; उदा० ७६) । सप्पुरिसो पवायति पकारेहि गन्धति तस्स गन्धूपगरुक्खपटिभागत्ता।
वस्सिकीति सुमनपुप्फं, “वस्सिक"न्तिपि पाठो, तदत्थोव । गन्धा एव गन्धजाता, गन्धप्पकारा वा । वायन्ति यदिदं, उत्तमो गन्धो वातीति सम्बन्धो ।
सम्मदचा विमुत्तानन्ति सम्मा अज्ञाय जानित्वा, अग्गमग्गेन वा विमुत्तानं । मग्गं न विन्दतीति कारणं न लभति, न जानाति वा ।
"सीले पतिवाया"ति गाथाय पटिसन्धिपाय सपञ्जओ आतापी वीरियवा पारिहारिकपाय निपको नरसङ्घातो भिक्खु सीले पतिट्ठाय चित्तं तप्पधानेन वुत्तं समाधि भावयं भावयन्तो भावनाहेतु तथा पशं विपस्सनञ्च इमं अन्तोजटाबहिजटासङ्घातं जटं विजटये विजटेय्य विजटितुं समत्थेय्याति स पत्थो ।
पथविं निस्सायाति पथविं रसग्गहणवसेन निस्साय, सीलस्मिं पन परिपूरणवसेन निस्साय पतिट्टानं दट्ठब्बं ।
अप्पकमहन्तताय पारापारादि विय उपनिधापत्तिभावतो अञमचे उपनिधाय आहाति विस्सज्जेतुं “उपरि गुणे उपनिधाया"ति वुत्तं । सीलव्हीति एत्थ हि-सद्दो कारणत्थो,
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(१.१.७-७)
तेनिदं कारणं दस्सेति " यस्मा सीलं किञ्चापि पतिट्ठाभावेन समाधिस्स बहूपकारं, पभावादिगुणविसेसे पनस्स उपनिधाय कलम्पि भागं न उपेति, तथा समाधि च पञ्ञाया" ति । तेनेवाह " तस्मा "तिआदि । न पापुणातीति गुणसमभावेन न सम्पापुणाति, न समेतीति वृत्तं होति । उपरिमन्ति समाधिप । उपनिधायाति उपत्थम्भं कत्वा । तञ्हि तादिसाय पञ्ञत्तिया उपत्थम्भनं होति । हेट्ठिमन्ति सीलसमाधिद्वयं ।
(
'कथ" न्तिआदि वित्थारवचनं । कण्डम्बमूलिकपाटिहारियकथनञ्चेत्थ यथाकथञ्चिपि सीलस्स समाधिमपापुणतासिद्धियेविधाधिप्पेताति पाकटतरपाटिहारियभावेन, निदरसननयेन चाति दट्ठब्बं । “अभि... पे०... तित्थियमद्दन "न्ति इदं पन तस्स यमकपाटिहारियस्स सुपाकटभावदस्सनत्थं, अञ्जेहि बोधिमूले ञातिसमागमादीसु च कतपाटिहारियेहि विसेसदस्सनत्थञ्च वुत्तं । सम्बोधितो हि अट्ठमेपि दिवसे देवतानं “बुद्धो वा नो वा ति उप्पन्नकङ्क्षाविधमनत्थं आकासे रतनचङ्कमं मापेत्वा चङ्कमन्तो पाटिहारियं अकासि, ततो दुतियसंवच्छरे कुलनगरगतो कपिलवत्थुपुरे निग्रोधारामे जातीनं समागमेपि सं मानमदप्पहानत्थं यमकपाटिहारियं अकासि । तत्थ अभिसम्बोधितोति अभिसम्बुज्झनकालतो । सावत्थिनगरद्वारेति सावत्थिनगरस्स दक्खिणद्वारे । कण्डम्बरुक्खमूलेति कण्डेन नाम पसेनदिरञ उय्यानपालेन रोपितत्ता कण्डम्बनामकस्स रुक्खस्स मूले | यमकपाटिहारियकरणत्थाय भगवतो चित्ते उप्पन्ने “ तदनुच्छविकं ठानं इच्छितब्ब"न्ति रतनमण्डपादि सक्केन देवरञ्ञा आणत्तेन विस्सकम्मुना कतन्ति वदन्ति केचि । भगवा निम्मितन्ति अपरे । अट्ठकथासु पन अनेकासु “सक्केन देवानमिन्देन आणापितेन विस्सकम्मदेवपुत्तेन मण्डपो कतो, चङ्कमो पन भगवता निम्मितो 'ति वृत्तं । दिब्बसेतच्छत्ते देवताहि धारियमानेति अत्थो विञ्ञायति अञ्ञसमसम्भवतो । “द्वादसयोजनाय परिसाया "ति इदं चतूसु दिसासु पच्चेकं द्वादसयोजनं मनुस्स परिसं सन्धाय वुत्तं । तदा किर दससहस्सिलोकधातुतो चक्कवाळगब्भं परिपूरेत्वा देवब्रह्मानोपि सन्निपतिंसु । यो कोचि एवरूपं पाटिहारियं कातुं समत्थो चे, सो आगच्छतूति चोदनासदिसत्ता वुत्तं “अत्तादानपरिदीपन "न्ति । अत्तादानञ्हि अनुयोगो परिपक्खस्स अत्तस्स आदानं गहणन्ति कत्वा । तित्थियमद्दनन्ति “पाटिहारियं करिस्सामा "ति कुहायनवसेन पुब्बे उट्ठितानं तित्थियानं मद्दनं, तञ्च तथा कातुं असमत्थतासम्पादनमेव । तदेतं पदद्वयं " यमकपाटिहारियन्ति एतेन सम्बन्धितब्बं । राजगहसेट्टिनो चन्दनघटिकुप्पत्तितो पट्ठाय सब्बमेव चेत्थ वत्तब्बं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
उपरिमकायतोतिआदि पटिसम्भिदामग्गे (पटि० म० १.११६) आगतनयदस्सनं, तेन वुत्तं “इतिआदिनयप्पवत्त"न्ति, “सब्बं वित्थारेतब्ब"न्ति च । तत्थायं पाळिसेसो
"हेट्ठिमकायतो अग्गिखन्धो पवत्तति, उपरिमकायतो उदकधारा पवत्तति । पुरथिमकायतो अग्गि, पच्छिमकायतो उदकं । पच्छिमकायतो अग्गि, पुरथिमकायतो उदकं । दक्खिणअक्खितो अग्गि, वामअक्खितो उदकं । वामअक्खितो अग्गि, दक्खिणअक्खितो उदकं । दक्खिणकण्णसोततो अग्गि, वामकण्णसोततो उदकं । वामकण्णसोततो अग्गि, दक्खिणकण्णसोततो उदकं । दक्खिणनासिकासोततो अग्गि, वामनासिकासोततो उदकं । वामनासिकासोततो अग्गि , दक्खिणनासिकासोततो उदकं। दक्खिणअंसकटतो अग्गि, वामअंसकटतो उदकं । वामअंसकूटतो अग्गि, दक्खिणअंसकूटतो उदकं । दक्खिणहत्थतो अग्गि, वामहत्थतो उदकं । वामहत्थतो अग्गि, दक्खिणहत्थतो उदकं । दक्खिणपस्सतो अग्गि, वामपस्सतो उदकं । वामपस्सतो अग्गि, दक्षिणपस्सतो उदकं । दक्खिणपादतो अग्गि, वामपादतो उदकं । वामपादतो अग्गि, दक्खिणपादतो उदकं । अङ्गुलगुलेहि अग्गि, अङ्गुलन्तरिकाहि उदकं । अङ्गुलन्तरिकाहि अग्गि, अङ्गुलगुलेहि उदकं । एकेकलोमतो अग्गि, एकेकलोमतो उदकं । लोमकूपतो लोमकूपतो अग्गिक्खन्धो पवत्तति, लोमकूपतो लोमकूपतो उदकधारा पवत्तती''ति ।।
अट्ठकथायं पन “एकेकलोमकूपतो" इच्चेव (पटिसं० अट्ठ० २.१.११६) आगतं ।
छत्रं वण्णानन्ति एत्थापि नीलानं पीतकानं लोहितकानं ओदातानं मञ्जिट्टानं पभस्सरानन्ति अयं सब्बोपि पाळिसेसो पेय्यालनयेन, आदि-सद्देन च दस्सितो । एत्थ च छन्नं वण्णानं उब्बाहनभूतानं यमका यमका वण्णा पवत्तन्तीति पाठसेसेन सम्बन्धो, तेन वक्खति “दुतिया दुतिया रस्मियो'"तिआदि । तत्थ हि तासं यमकं यमकं पवत्तनाकारेन सह आवज्जनपरिकम्माधिट्ठानानं विसुं पवत्ति दस्सिता । केचि पन “छन्नं वण्णान''न्ति एतस्स “अग्गिक्खन्धो उदकधारा''ति पुरिमेहि पदेहि सम्बन्धं वदन्ति, तदयुत्तमेव अग्गिक्खन्धउदकधारानं अत्थाय तेजोकसिणवायोकसिणानं समापज्जनस्स वक्खमानत्ता | छन्नं वण्णानं छब्बण्णा पवत्तन्तीति कत्तुवसेन वा सम्बन्धो यथा “एकस्स चेपि भिक्खुनो न पटिभासेय्य तं भिक्खुनि अपसादेतु"न्ति (पाचि० ५५८)। कत्तुकम्मेसु हि बहुला सामिवचनं आख्यातपयोगेपि इच्छन्ति नेरुत्तिका |
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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एवं पाळिनयेन यमकपाटिहारियं दस्सेत्वा इदानि तं अट्ठकथानयेन विवरन्तो पच्चासत्तिनयेन “छन्नं वण्णान''न्ति पदमेव पठमं विवरितुं "तस्सा"तिआदिमाह । तत्थ तस्साति भगवतो। "सुवण्णवण्णा रस्मियो"ति इदं तासं पीताभानं येभुय्यताय वुत्तं, छब्बण्णाहि रस्मीहि अलङ्करणकालो वियाति अत्थो । तापि हि चक्कवाळगब्भतो उग्गन्त्वा ब्रह्मलोकमाहच्च पटिनिवत्तित्वा चक्कवाळमुखवट्टिमेव गण्हिंसु। एकचक्कवाळगब्भं वङ्कगोपानसिकं विय बोधिघरं अहोसि एकालोकं । दुतिया दुतिया रस्मियोति पुरिमपुरिमतो पच्छा पच्छा निक्खन्ता रस्मियो । कस्मा सदिसाकारवसेन “विया''ति वचनं वुत्तन्ति आह "दिनञ्चा"तिआदि । दिनञ्च चित्तानं एकक्खणे पवत्ति नाम नत्थि, येहि ता एवं सियुं, तथापि इमिना कारणद्वयेन एवमेव खायन्तीति अधिप्पायो । भवङ्गपरिवासस्साति भवङ्गवसेन परिवसनस्स, भवङ्गसङ्घातस्स परिवसनस्स वा, भवङ्गपतनस्साति वुत्तं होति । आचिण्णवसितायाति आवज्जनसमापज्जनादीहि पञ्चहाकारेहि समाचिण्णपरिचयताय । ननु च एकस्सापि चित्तस्स पवत्तिया द्वे किस्सो रस्मियोपि सम्भवेय्युन्ति अनुयोगमपनेति "तस्सा तस्सा पन रस्मिया"तिआदिना। चित्तवारनानत्ता आवज्जनपरिकम्मचित्तानि, कसिणनानत्ता अधिट्ठानचित्तवारानिपि विसुं विसुंयेव पवत्तन्ति । आवज्जनावसाने तिक्खत्तुं पवत्तजवनानि परिकम्मनामेनेव इध वुत्तानि ।
कथन्ति आह "नीलरस्मिअत्थाय ही"तिआदि । “मजिठ्ठरस्मिअत्थाय लोहितकसिणं, पभस्सररस्मिअत्थाय पीतकसिण"न्ति इदं लोहितपीतरस्मीनं कारणेयेव वुत्ते सिद्धन्ति न वुत्तं । तासमेव हि मजिठ्ठपभस्सररस्मियो विसेसपभेदभूताति । "अग्गिक्खन्धत्थाया"तिआदिना
"उपरिमकायतो"तिआदीनं
विवरणं । अग्गिक्खन्धउदकक्खन्धापि अझमझअसम्मिस्सा याव ब्रह्मलोका उग्गन्त्वा चक्कवाळमुखवट्टियं पतिंस, तं दिवसं पन सत्था यो यो यस्मिं यस्मिं धम्मे च पाटिहारिये च पसन्नो, तस्स तस्स अज्झासयवसेन तं तं धम्मञ्च कथेसि, पाटिहारियञ्च दस्सेसि, एवं धम्मे भासियमाने, पाटिहारिये च करियमाने महाजनो धम्माभिसमयो अहोसि । तस्मिञ्च समागमे अत्तनो मनं गहेत्वा पहं पुच्छितुं समत्थं अदिस्वा निम्मितं बुद्धं मापेसि, तेन पुच्छितं पञ्हं सत्था विस्सज्जेसि । सत्थारा पुच्छितं पहं सो विस्सज्जेसि, सत्थु चङ्कमनकाले निम्मितो ठानादीसु अञ्जतरं कप्पेसि, तस्स चङ्कमनकाले सत्था ठानादीसु अञ्चतरं कप्पेसीति एतमत्थं दस्सेतुं "सत्था चङ्कमती"तिआदि वुत्तं । "सब्बं वित्थारेतब्ब"न्ति एतेन “सत्था तिट्टति, निम्मितो चङ्कमति वा निसीदति वा सेय्यं वा कप्पेती"तिआदिना (पटि० म० १.११६) चतूसु इरियापथेसु एकेकमूलका सत्थुपक्खे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
चत्तारो, निम्मितपक्खे चत्तारोति सब्बे अट्ठ वारा वित्थारेत्वा वत्तब्बाति दस्सेति । यस्मा सीलं समाधिस्स पतिट्ठामत्तमेव हुत्वा निवत्तति, समाधियेव तत्थ पतिट्ठाय यथावुत्तं सब्बं पाटिहारियकिच्चं पवत्तेति, तस्मा तदेतं समाधिकिच्चमेवाति वुत्तं "एत्थ एकम्पी"तिआदि ।
___"यं पना"तिआदिना समाधिस्स पञमपापुणता विभाविता, यं पन पटिविज्झि, इदं पटिविज्झनं पाकिच्चन्ति अत्थो। तं अनुक्कमतो दस्सेति "भगवा"तिआदिना । "कप्पसतसहस्साधिकानि चत्तारि असङ्ख्येय्यानी"ति इदं दीपङ्करपादमूले कतपठमाभिनीहारतो पट्ठाय वुत्तं, ततो पुब्बेपि यत्तकेन तस्मिं भवे इच्छन्तो सावकबोधिं पत्तुं सक्कुणेय्य, तत्तकं पुञ्जसम्भारं समुपचिनीति वेदितब्बं । ततोयेव हि "मनुस्सत्तं लिङ्गसम्पत्ति, हेतु सत्थारदस्सन''न्तिआदिना (बु० वं० ५९) वुत्तेसु अठ्ठधम्मेसु हेतुसम्पन्नता अहोसि । केचि पन मनोपणिधानवचीपणिधानवसेन अनेकधा असङ्ख्येय्यपरिच्छेदं कत्वा पुब्बसम्भारं वदन्ति, तदयुत्तमेव सङ्गहारुळहासु अट्ठकथासु तथा अवुत्तत्ता। तासु हि यथावुत्तनयेन पठमाभिनीहारतो पुब्बे हेतुसम्पन्नतायेव दस्सिता। एकूनतिंसवस्सकाले निक्खम्म पब्बजित्वाति सम्बन्धो । चक्करतनारहपुञ्जवन्तताय बोधिसत्तो चक्कवत्तिसिरिसम्पन्नोति तस्स निवासभवनं "चक्कवत्तिसिरिनिवासभूत"न्ति वुत्तं । भवनाति रम्मसुरम्मसुभसङ्खाता निकेतना । पधानयोगन्ति दुक्करचरियाय उत्तमवीरियानुयोगं ।
उरुवेलायं किर सेनानिगमे कटम्बिकस्स धीता सुजाता नाम दारिका वयप्पत्ता नेरञ्जराय तीरे निग्रोधमूले पत्थनमकासि “सचाहं समजातिकं कुलघरं गन्त्वा पठमगब्भे पुत्तं लभिस्सामि, खीरपायासेन बलिकम्मं करिस्सामी"ति, (म० नि० अट्ठ० २.२८४; जा० अट्ठ० १.अविदूरे निदानकथा) तस्सा सा पत्थना समिज्झि । सा सत्त धेनुयो लट्ठिवने खादापेत्वा तासम्पि धीतरो गावियो लद्धा तथेव खादापेत्वा पुन तासम्पि धीतरो तथेवाति सत्तपुत्तिनत्तिपनत्तिपरम्परागताहि धेनूहि खीरं गहेत्वा खीरपायासं पचितुमारभि । तस्मिं खणे महाब्रह्मा तियोजनिकं सेतच्छत्तं उपरि धारेसि, सक्को देवराजा अग्गिं उज्जालेसि, सकललोके विज्जमानरसं देवता पक्खिपिंसु, पायासं दक्खिणावढं हुत्वा पचति, तं सा सुवण्णपातिया सतसहस्सग्घनिकाय सहेव बोधिसत्तस्स दत्वा पक्कामि । अथ बोधिसत्तो तं गहेत्वा नेरञ्जराय तीरे सुप्पतिट्टिते नाम तित्थे एकतालट्ठिप्पमाणे एकूनपासपिण्डे करोन्तो परिभुञ्जि, तं सन्धाय वुत्तं "विसाखापुण्णमायं उरुवेलगामे सुजाताय विनं पक्खित्तदिब्बोजं मधुपायासं परिभुञ्जित्वा"ति । तत्थ सुजातायाति आयस्मतो यसत्थेरस्स मातुभूताय पच्छा सरणगमनट्ठाने एतदग्गप्पत्ताय सुजाताय नाम सेट्ठिभरियाय ।
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चूळसीलवण्णना
अङ्गमङ्गानुसारिनो रसस्स सारो उपत्थम्भबलकरो भूतनिस्सितो एको विसेसो ओजा नाम, सा दिवि भवा पक्खित्ता एत्थाति पक्खित्तदिब्बोजो, तं । पातब्बो च सो असितब्बो चाति पायासो, रसं कत्वा पिवितुं, आलोपं कत्वा च भुञ्जितुं युत्तो भोजनविसेसो, मधुना सित्तो पायासो मधुपायासो, तं ।
ततो नेरञ्जराय तीरे महासालवने नानासमापत्तीहि दिवाविहारस्स कतत्ता " सायन्हसमये "तिआदि वृत्तं । वित्थारो तत्थ तत्थ गहेतब्बो । दक्खिणुत्तरेनाति दिवाविहारतो बोधिया पविसनमग्गं सन्धायाह, उजुकं दक्खिणुत्तरगतेन देवताहि अलङ्क तेन मग्गेनाति अत्थो । एवम्पि वदन्ति “दक्खिणुत्तरेनाति दक्खिणपच्छिमुत्तरेन आदि अवसानगहणेन मज्झिमस्सापि गहितत्ता, तथा लुत्तपयोगस्स च दस्सनतो । एवहि सति ‘दक्खिणपच्छिमुत्तरदिसाभागेन बोधिमण्डं पविसित्वा तिट्ठतीति ( जा० अट्ठ० १. अविदूरे निदानकथा) जातकनिदाने वृत्तवचनेन समेती 'ति । दक्खिणदिसतो गन्तब्बो उत्तरदिसाभागो दक्खिणुत्तरो, तेन पविसित्वाति अपरे । केचि पन " उत्तरसद्दो चेत्थ मग्गवाचको । यदि हि दिसावाचको भवेय्य, 'दक्खिणुत्तराया'ति वदेय्या "ति, तं न " उत्तरेन नदी सीदा, गम्भीरा दुरतिक्कमा’तिआदिना दिसावाचकस्सापि एनयोगस्स दस्सनतो, उत्तरसद्दस्स च मग्गवाचकस्स अनागतत्ता । अपिच दिसाभागं सन्धाय एवं वृत्तं । दिसाभागोपि हि दिसा एवाति। अथ अन्तरामग्गे सोत्थियेन नाम तिहारकब्राह्मणेन दिन्ना अट्ठ कुसतिणमुट्ठियो गहेत्वा असितञ्चनगिरिसङ्कासं सब्बबोधिसत्तानमस्सासजननट्टाने समाविरुळ्हं बोधिया मण्डनभूतं बोधिमण्डमुपगन्त्वा तिक्खत्तुं पदक्खिणं कत्वा दक्खिणदिसाभागे अट्ठासि, सो पन पदेसो पदुमिनिपत्ते उदकबिन्दु विय पकम्पित्थ ततो पच्छिमदिसाभागं, उत्तरदिसाभागञ्च गन्त्वा तिट्ठन्तेपि महापुरिसे तथेव ते अकम्पिंसु, ततो " नायं सब्बोपि पदेसो मम गुणं सन्धारेतुं समत्थो' ति पुरत्थिमदिसाभागमगमासि, तत्थ पल्लङ्कप्पमाणं निच्चलमहोसि, तस्सेव च निप्परियायेन बोधिमण्डसमञ्ञ, महापुरिसो “इदं किलेसविद्धंसनट्ठान' 'न्ति सन्निट्ठानं कत्वा पुब्बुत्तरदिसाभागे ठितो तत्थ अकम्पनप्पदेसे तानि तिणानि अग्गे गत्वा सञ्चालेसि, तावदेव चुद्दसहत्थो पल्लो अहोसि, तानिपि तिणानि विचित्ताकारेन तूलिकाय लेखा गहितानि विय अहेसुं । सो तत्थ तिसन्धिपल्लङ्कं आभुजित्वा चतुरङ्गसमन्नागतं मेत्ताकम्मट्ठानं पुब्बङ्गमं कत्वा चतुरङ्गिकं वीरियं अधिट्ठहित्वा निसीदि, तमत्थं सङ्क्षिपित्वा दस्सेन्तो "बोधिमण्डं पविसित्वा" ति आदिमाह ।
तत्थ बोधि वुच्चति अरहत्तमग्गञाणं, सब्बञ्जतञ्जाणञ्च सा मण्डति थामगतताय
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
पसीदति एत्थाति बोधिमण्डो, निप्परियायेन यथावुत्तप्पदेसो, परियायेन पन इध दुमराजा । तथा हि आचरियानन्दत्थेरेन वुत्तं "बोधिमण्डसद्दोपठमाभिसम्बुद्धट्ठाने एव दट्टब्बो, न यत्थ कत्थचि बोधिरुक्खस्स पतिट्ठितट्ठाने''ति, तं ।
मारविजयसब्ब ताणपटिलाभादीहि भगवन्तं अस्सासेतीति अस्सत्थो। आपुब्बहि साससई अनुसिट्ठितोसनेसु इच्छन्ति, यं तु लोके “चलदलो, कुञ्जरासनो” तिपि वदन्ति । अच्चुग्गतभावेन, अजेय्यभूमिसीसगतभावेन, सकलसब्ब गुणपटिलाभट्ठानविरुळहभावेन च दुमानं राजाति दुमराजा, अस्सत्थो च सो दुमराजा चाति अस्सत्थदुमराजा तं। द्विन्नं ऊरुजाणुसन्धीनं, ऊरुमूलकटिसन्धिस्स च वसेन तयो सन्धयो, सण्ठानवसेन वा तयो कोणा यस्साति तिसन्धि, स्वेव पल्लङ्को ऊरुबद्धासनं परिसमन्ततो अङ्कनं आसनन्ति अत्थेन र-कारस्स ल-कारं, द्विभावञ्च कत्वा, तीहि वा सन्धीहि लक्खितो पल्लङ्को तिसन्धिपल्लङ्को, तं | आभुजित्वाति आबन्धित्वा, उभो पादे समञ्छिते कत्वाति वुत्तं होति । वित्थारो सामञफलसुत्तवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.२१६) आगमिस्सति । अत्ता, मित्तो, मज्झत्तो, वेरीति चतूसुपि समप्पवत्तनवसेन चतुरङ्गसमन्त्रागतं मेत्ताकम्मट्टानं । "चतुरङ्गसमन्नागत''न्ति इदं पन “वीरियाधिट्टान"न्ति एतेनापि योजेतब्बं । तम्पि हि
कामं तचो च न्हारु च अट्ठि च अवसिस्सतु, उपसुस्सतु सरीरे मंसलोहितं, यं तं पुरिसथामेन पुरिसवीरियेन पुरिसपरक्कमेन पत्तब्बं, न तं अपापुणित्वा वीरियस्स सण्ठानं भविस्सती''ति (म० नि० २.१८४; सं० नि० १.२६६; अ० नि० १.३.५१; अ० नि० ३.८.१३; महा० नि० १७, १९६)
वुत्तनयेन चतुरङ्गसमन्नागतमेव ।
चुद्दस हत्था वित्थतप्पमाणभावेन यस्साति चुद्दसहत्थो। परिसमन्ततो अङ्कीयते लक्खीयते परिच्छेदवसेनाति पल्लङ्को र-कारस्स ल-कारं, तस्स च द्वित्तं कत्वा । अपिच "इदं किलेसविद्धंसनट्ठान'"न्ति अट्ठकथासु वचनतो पल्लं किलेसविद्धंसनं करोति एत्थाति पल्लङ्को निग्गहितागमवसेन, अलुत्तसमासवसेन वा, चुद्दसहत्थो च सो पल्लङ्को च, स्वेव उत्तमढेन पत्थनीयढेन च वरोति चुद्दसहत्थपल्लङ्कवरो, तत्थ गतो पवत्तो निसिन्नो तथा | चुद्दसहत्थता चेत्थ वित्थारवसेन गहेतब्बा । तानियेव हि तिणानि अपरिमितपुञानुभावतो चुद्दसहत्थवित्थतपल्लङ्कभावेन पवत्तानि, न च तानि अट्ठमुट्ठिप्पमाणानि चुद्दसहत्थअच्चुग्गतानि
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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सम्भवन्ति । ततोयेव च इध “तिणसन्थरं सन्थरित्वा''ति वुत्तं, धम्मपदट्ठकथादीसु च "तिणानि सन्थरित्वा...पे०... पुरथिमाभिमुखो निसीदित्वाति (ध० अट्ठ० १.सारिपुत्थेरवण्णना; ध० सं० अट्ठ० १.निदानकथा)। अञत्थ च “तिणासने चुद्दसहत्थसम्मते"ति। केचि पन “अच्चुग्गतभावेनेव चुद्दसहत्थो"ति यथा तथा परिकप्पनावसेन वदन्ति, तं न गहेतब्बं यथावुत्तेन कारणेन, साधकेन च विरुद्धत्ता | कामञ्च मनोरथपूरणिया चतुरङ्गुत्तरवण्णनाय "तिक्खत्तुं बोधिं पदक्खिणं कत्वा बोधिमण्डं आरुयह चुद्दसहत्थुब्बेधे ठाने तिणसन्थरं सन्थरित्वा चतुरङ्गवीरियं अधिट्ठाय निसिन्नकालतो''ति (अ० नि० अट्ठ० २.४.३३) पाठो दिस्सति, तथापि तत्थ उब्बेधसद्दो वित्थारवाचकोति वेदितब्बो, यथा “तिरियं सोळसुब्बेधो, उद्धमाहु सहस्सधा"ति (जा० १.३.४०) महापनादजातके। तथा हि तदट्ठकथायं वुत्तं “तिरियं सोळसुब्बेधोति वित्थारतो सोळसकण्डपातवित्थारो अहोसी''ति (जातक अट्ठ० २-३०२ पिढे)। अञथा हि आकासेयेव उक्खिपित्वा तिणसन्थरणं कतं, न अचलपदेसेति अत्थो आपज्जेय्य सन्थरणकिरियाधारभावतो तस्स, सो चत्थो अनधिप्पेतो अञत्थ अनागतत्ताति ।
रजतक्खन्धं पिडितो कत्वा वियाति सम्बन्धो | अत्थन्ति पच्छिमपब्बतं । मारबलन्ति मारं, मारबलञ्च, मारस्स वा सामत्थियं । पुब्बेनिवासन्ति पुब्बे निवुत्थक्खन्धं । दिब्बचक्खुन्ति दिब्बचक्खुजाणं । “किच्छं वतायं लोको आपन्नो"तिआदिना (दी० नि० २.५७; सं० नि० १.२.४) जरामरणमुखेन पच्चयाकारे जाणं ओतारेत्वा । आनापानचतुत्थज्झानन्ति एत्थापि “सब्बबुद्धानं आचिण्ण''न्ति विभत्तिविपरिणामं कत्वा योजेतब्बं । तम्पि हि बुद्धानमाचिण्णमेवाति वदन्ति । पादकं कत्वाति कारणं, पतिद्वानं वा कत्वा । “विपस्सनं वड्डत्वाति छत्तिंसकोटिसतसहस्समुखेन आसवक्खयञाणसङ्घातमहावजिरञाणगब्भं गण्हापनवसेन विपस्सनं भावेत्वा । सब्बञ्जतञाणाधिगमाय अनुपदधम्मविपस्सनावसेन अनेकाकारवोकारे सङ्खारे सम्मसतो छत्तिंसकोटिसतसहस्समुखेन पवत्तं विपस्सनाञाणम्पि हि “महावजिरजाण''न्ति वुच्चति, चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससङ्ख्याय देवसिकं वळञ्जनकसमापत्तीनं पुरेचरानुचरजागम्पि। इध पन मग्गजाणमेव, विसेसतो च अग्गमग्गजाणं, तस्मा तस्सेव विपस्सनागभभावो वेदितब्बोति । सब्बबुद्धगुणेति सब्बञ्जतादिनिरवसेसबुद्धगुणे । तस्सा पादकं कत्वा समाधि निवत्तोति वुत्तं "इदमस्स पाकिच्च"न्ति । अस्साति भगवतो ।
"तत्थ पथा हत्थे "तिआदिना उपमाय पाकटीकरणं । हत्थेति हत्थपसते, करपुटे वा ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
पातियन्ति सरावके । घटेति उदकहरणघटे | द्वत्तिंसदोणगण्हनप्पमाणं कुण्डं कोलम्बो। ततो महतरा चाटि। ततोपि महती महाकुम्भी। सोण्डी कुसोभो। नदीभागो कन्दरो। चक्कवाळपादेसु समुद्दो चक्कवाळमहासमुद्दो। सिनेरुपादके महासमुद्देति सीदन्तरसमुदं सन्धायाह । “पातिय"न्तिआदिनापि तदेवत्थं पकारन्तरेन विभावेति । परित्तं होति यथाति सम्बन्धो । यस्सा पाळिया अत्थविभावनत्थाय या संवण्णना वुत्ता, तदेव तस्सा गुणभावेन दस्सेतुं “तेनाहा"तिआदि वुत्तं । एवं सब्बत्थ । ।
"दुवे पुथुज्जना"तिआदि पुथुज्जनेसु लब्भमानविभागदस्सनत्थमेव वुत्तं, न पन मूलपरियायसंवण्णनादीसु (म० नि० अट्ठ० १.२) विय पुथुज्जनविसेसनिद्धारणत्थं निरवसेसपुथुज्जनस्सेव इध अधिप्पेतत्ता । सब्बोपि हि पुथुज्जनो भगवतो उपरिगुणे विभावेतुं न सक्कोति, तिठ्ठतु ताव पुथुज्जनो, अरियसावकपच्चेकबुद्धानम्पि अविसया एव बुद्धगुणा। तथा हि वक्खति “सोतापन्नो''तिआदि (दी० नि० अट्ठ० १.७) । गोत्तसम्बन्धताय आदिच्चस्स सूरियदेवपुत्तस्स बन्धूति आदिच्चबन्धु, तेन वुत्तं निद्देसे -
__ “आदिच्चो वुच्चति सूरियो। सूरियो गोतमो गोत्तेन, भगवापि गोतमो गोत्तेन, भगवा सूरियस्स गोत्तञातको गोत्तबन्धु, तस्मा बुद्धो आदिच्चबन्धू"ति (महा० नि० १५०; चूळ० नि० ९९) ।
सद्दविदू पन “बुद्धस्सादिच्चबन्धुना'"ति पाठमिच्छन्ति । आदिच्चस्स बन्धुना गोत्तेन समानो गोत्तसङ्घातो बन्धु यस्स, बुद्धो च सो आदिच्चबन्धु चाति कत्वा । यस्मा पन खन्धकथादिकोसल्लेनापि उपक्किलेसानुपक्किलेसानं जाननहेतुभूतं बाहुसच्चं होति, यथाह -
"कित्तावता नु खो भन्ते बहुस्सुतो होतीति ? यतो खो भिक्खु खन्धकुसलो होति । धातु...पे०... आयतन...पे०... पटिच्चसमुप्पादकुसलो होति, एत्तावता खो भिक्खु बहुस्सुतो होती"ति ।
तस्मा “यस्स खन्धधातुआयतनादीसू"तिआदि वुत्तं । आदि-सद्देन चेत्थ याव पटिच्चसमुप्पादा सङ्गण्हाति । तत्थ वाचुग्गतकरणं उग्गहो। अत्थस्स परिपुच्छनं परिपुच्छा। अट्ठकथावसेन अत्थस्स सोतद्वारपटिबद्धताकरणं सवनं। ब्यञ्जनत्थानं सुनिक्खेपसुनयनेन धम्मस्स परिहरणं धारणं । एवं सुतधातपरिचितानं वितक्कनं मनसानुपेक्खनं पच्चवेक्षणं ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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एवं पभेदं दस्सेत्वा वचनत्थम्पि दस्सेति "दुविधो"तिआदिना । पुथूनन्ति अनेकविधानं किलेसादीनं । पुथुज्जनन्तोगधत्ताति बहूनं जनानं अब्भन्तरे समवरोधभावतो पुथुज्जनोति सम्बन्धो । पुथुचायं जनोति पुथु एव विसुंयेव अयं सङ्ख्यं गतो। इतीति तस्मा पुथुज्जनोति सम्बन्धो । एवं गाथाबन्धेन सर्वोपतो दस्सितमत्थं "सो ही'तिआदिना विवरति । "नानप्पकारान"न्ति इमिना पुथु-सद्दो इध बह्वत्थोति दस्सेति ।
__ आदि-सद्देन सङ्गहितमत्थं, तदत्थस्स च साधकं अम्बसेचनगरुसिनाननयेन निद्देसपाळिया दस्सेन्तो “यथाहा"तिआदिमाह । अविहता सक्कायदिट्ठियो, पुथु बहुका ता एतेसन्ति पुथुअविहतसक्कायदिविका, एतेन अविहतत्ता पुथु सक्कायदिट्ठियो जनेन्ति, पुथूहि वा सक्कायदिट्ठीहि जनिताति अत्थं दस्सेति । अविहतत्थमेव वा जनसद्दो वदति, तस्मा पुथु सक्कायदिट्ठियो जनेन्ति न विहनन्ति, जना वा अविहता पुथु सक्कायदिट्ठियो एतेसन्ति अत्थं दस्सेतीतिपि वट्टति, विसेसनपरनिपातनञ्चेत्थ दट्ठबं यथा “अग्याहितो"ति । "पुथु सत्थारानं मुखुल्लोकिका"ति एतेन पुथु बहवो जना सत्थारो एतेसन्ति निब्बचनं दस्सितं । पुथु सब्बगतीहि अबुट्ठिताति एत्थ पन कम्मकिलेसेहि जनेतब्बा, जायन्ति वा सत्ता एत्थाति जना, गतियो, पुथु सब्बा एव जना गतियो एतेसन्ति वचनत्थो । “पुथु नानाभिसङ्घारे अभिसङ्घरोन्ती"ति एतेन च जायन्ति एतेहि सत्ताति जना, पुञाभिसङ्खारादयो, पुथु नानाविधा जना सङ्घारा एतेसं विज्जन्ति, पुथु वा नानाभिसङ्खारे जनेन्ति अभिसङ्घरोन्तीति अत्थमाह। ततो परं पन "पुथु नानाओघेहि वुय्हन्ती"तिआदिअत्थत्तयं जनेन्ति एतेहि सत्ताति जना, कामोघादयो, रागसन्तापादयो, रागपरिळाहादयो च, सब्बेपि वा किलेसपरिळाहा । पुथु नानप्पकारा ते एतेसं विज्जन्ति, तेहि वा जनेन्ति वुल्हन्ति, सन्तापेन्ति, परिडहन्ति चाति निब्बचनं दस्सेतुं वुत्तं । “रत्ता गिद्धा"तिआदि परियायवचनं ।
अपि च रत्ताति वत्थं विय रङ्गजातेन चित्तस्स विपरिणामकरेन छन्दरागेन रत्ता । गिद्धाति अभिकङ्घनसभावेन अभिगिज्झनेन गिद्धा। गथिताति गन्थिता विय दुम्मोचनीयभावेन तत्थ पटिबद्धा। मुच्छिताति किलेसाविसनवसेन विसञीभूता विय अनञ्जकिच्चमोहं समापन्ना। अज्झोसनाति अनासाधारणे विय कत्वा गिलित्वा परिनिट्ठपेत्वा ठिता। लग्गाति गावो कण्टके विय आसत्ता, महापलिपे वा पतनेन नासिकग्गपलिपन्नपुरिसो विय उद्धरितुमसक्कुणेय्यभावेन निमुग्गा । लग्गिताति मक्कटालेपेन विय मक्कटो पञ्चन्नं इन्द्रियानं वसेन आसङ्गिता, पलिबुद्धाति सम्बद्धा, उपद्दता वाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अयमत्थो अङ्गुत्तरटीकायं (अ० नि० अट्ट० १.५१) वुत्तो। एतेन जायतीति जनो, “रागो गेधो”ति एवमादिको, पुथु नानाविधो जनो रागादिको एतेसं, पुथूसु वा पञ्चसु कामगुणेसु जना रत्ता गिद्धा...पे०... पलिबुद्धाति अत्थं दस्सेति ।
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'आवुता" तिआदिपि परियायवचनमेव । अपिच “ 'आवुताति आवरिता । निवुताि निवारिता । ओफुताति पलिगुण्ठिता, परियोनद्धा वा । पिहिताति पिदहिता । पटिच्छन्नाति छादिता । पटिकुज्जिताति हेट्ठामुखजाता "ति तत्थेव (अ० नि० अट्ठ० १.५१) वृत्तं । एत्थ च जनेन्ति एतेहीति जना, नीवरणा, पुथु नानाविधा जना नीवरणा एतेसं, पुथूहि वा नीवरहि जना आता...पे०... पटिकुज्जिताति निब्बचनं दस्सेति । पुथूसु नीचधम्मसमाचारेसु जायति, पुथूनं वा अब्भन्तरे जनो अन्तोगधो, पुथु वा बहुको जनोति अत्थं दस्सेति "पुथून "न्तिआदिना, एतेन च ततियपादं विवरति, समत्थेति वा । " पुथुवा "तिआदिना पन चतुत्थपादं । पुथु विसंसट्ठो एव जनो पुथुज्जनोति अयहेत्थ वचनत्थो ।
येहि गुणविसेसेहि निमित्तभूतेहि भगवति " तथागतो 'ति अयं समञ्ञा पवत्ता, तं दस्सनत्थं "अट्ठहि कारणेहि भगवा तथागतो "तिआदि वृत्तं । एकोपि हि सद्दो अनेकपवत्तिनिमित्तमधिकिच्च अनेकधा अत्थप्पकासको, भगवतो च सब्बेपि नामसद्दा अनेक गुणनेमित्तिकायेव । यथाह -
"असङ्घयेय्यानि नामानि सगुणेन महेसिनो |
गुणेन नाममुद्धेय्यं, अपि नामसहस्सतो 'ति । । (ध० सं० अट्ठ० ५७; पटि० म० अट्ठ० १.७६; दी० नि० टी०
(१.१.७-७)
कानि पन तानीति अनुयोगे सति पठमं तस्सरूपं सङ्क्षेपतो उद्दिसित्वा " कथ"न्तिआदिना निद्दिसति । तथा आगतोत एत्थ आकारनियमनवसेन ओपम्मसम्पटिपादनत्थो तथा सद्दो । सामञ्ञजोतनाय विसेसावट्ठानतो, विसेसत्थिना च सामञ्ञसद्दस्सापि विसेसत्थेयेव अनुपयुज्जितब्बतो पटिपदागमनत्थो आगत सद्दो दट्ठब्बो, न ञणगमनत्थो तथलक्खणं आगतो 'तिआदीसु (दी० नि० अट्ठ० १.७; म० नि० अट्ठ० १.१२; सं० नि० अट्ठ० २.३.७८; अ० नि० अट्ठ० १.१७०; थेर० गा० अट्ठ० १.४३; इतिवु० अट्ठ० ३८; पटि० म० अट्ठ० १.३७ बु० वं० अट्ठ० २; महा०
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१३१३, उदा०
१.४१३) ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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नि० अट्ठ० १४) विय, नापि कायगमनादि अत्थो “आगतो खो महासमणो, मागधानं गिरिब्बजन्तिआदीसु (महा० व० ५३) विय । तत्थ यस्स आकारस्स नियमनवसेन ओपम्मसम्पटिपादनत्थो तथा-सद्दो, तदाकारं करुणापधानत्ता तस्स महाकरुणामुखेन पुरिमबुद्धानं आगमनपटिपदाय उदाहरणवसेन सामञतो दस्सेन्तो “यथा सब्बलोके"तिआदिमाह । यंतं-सद्दानं एकन्तसम्बन्धभावतो चेत्थ तथा सद्दस्सत्थदस्सने यथा सद्देन अत्थो विभावितो । तदेव वित्थारेति “यथा विपस्सी भगवा"तिआदिना, विपस्सीआदीनञ्चेत्थ छन्नं सम्मासम्बुद्धानं महापदानसुत्तादीसु (दी० नि० २.४) सम्पहुलनिद्देसेन (दी० नि० अट्ठ० २.सम्बहुलपरिच्छेदवण्णना) सुपाकटत्ता, आसन्नत्ता च तेसं वसेन तं पटिपदं दस्सेतीति दट्टब् । आगतो यथा, तथा आगतोति सब्बत्र सम्बन्धो । “किं वुत्तं होती"तिआदिनापि तदेव पटिनिद्दिसति । तत्थ येन अभिनीहारेनाति मनुस्सत्तलिङ्गसम्पत्तिहेतुसत्थारदस्सनपब्बज्जागुणसम्पत्तिअधिकारछन्दानं वसेन अट्ठङ्गसमन्नागतेन महापणिधानेन । सब्बेसहि बुद्धानं पठमपणिधानं इमिनाव नीहारेन समिज्झति । अभिनीहारोति चेत्थ मूलपणिधानस्सेतं अधिवचनन्ति दट्ठब्बं ।
एवं महाभिनीहारवसेन “तथागतो"ति पदस्स अत्थं दस्सेत्वा इदानि पारमीपूरणवसेनपि दस्सेतुं “अथ वा"तिआदिमाह। “एत्थ च सुत्तन्तिकानं महाबोधियानपटिपदाय कोसल्लजननत्थं पारमीसु अयं वित्थारकथा''तिआदिना
आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.७) या पारमीसु विनिच्छयकथा वुत्ता, किञ्चापि सा अम्हेहि इध वुच्चमाना गन्थवित्थारकरा विय भविस्सति, यस्मा पनायं संवण्णना एतिस्सं पच्छा पमादलेखविसोधनवसेन, तदवसेसत्थपरियादानवसेन च पवत्ता, तस्मा सापि पारमीकथा इध वत्तब्बायेवाति ततो चेव चरियापिटकट्ठकथातो च आहरित्वा यथारहं गाथाबन्धेहि समलङ्करित्वा अत्थमधिप्पायञ्च विसोधयमाना भविस्सति । कथं ?
का पनेता पारमियो, केनटेन कतीविधा । को च तासं कमो कानि, लक्खणादीनि सब्बथा ।।
को पच्चयो, संकिलेसो, वोदानं पटिपक्खको । पटिपत्तिविभागो च, सङ्गहो सम्पदा तथा ।।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवम्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
कित्तकेन सम्पादनं, आनिसंसो च किं फलं । पहमेतं विस्सज्जित्वा, भविस्सति विनिच्छयो ।।
तत्रिदं विस्सज्जनं -
का पनेता पारमियोति
तण्हामानादिमञत्र, उपायकुसलेन या । आणेन परिग्गहिता, पारमी सा विभाविता ।।
तण्हामानादिना हि अनुपहता करुणूपायकोसल्लपरिग्गहिता दानादयो गुणसङ्खाता एता किरिया “पारमी"ति विभाविता ।
केनटेन पारमियोति -
परमो उत्तमढेन, तस्सायं पारमी तथा । कम्मं भावोति दानादि, तद्धिततो तिधा मता ।।
पूरेति मवति परे, परं मज्जति मयति । मुनाति मिनोति तथा, मिनातीति वा परमो । ।
पारे मज्जति सोधेति, मवति मयतीति वा । मायेति तं वा मुनाति, मिनोति मिनाति तथा ।।
पारमीति महासत्तो, वृत्तानुसारतो पन । तद्धितत्थत्तयेनेव, पारमीति अयं मता ।।
दानसीलादिगुणविसेसयोगेन हि सत्तुत्तमताय महाबोधिसत्तो परमो, तस्स अयं, भावो, कम्मन्ति वा पारमी, दानादिकिरिया । अथ वा परति पूरेतीति परमो निरुत्तिनयेन, दानादिगुणानं पूरको, पालको च बोधिसत्तो, परमस्स अयं, भावो, कम्मं वा पारमी।
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( १.१.७७)
चूळसीलवण्णना
अपिच परे सत्ते मवति अत्तनि बन्धति गुणविसेसयोगेन, परं वा अतिरेकं मज्जति संकिलेसमलतो, परं वा सेट्टं निब्बानं विसेसेन मयति गच्छति, परं वा लोकं पमाणभूतेन आणविसेसेन इधलोकमिव मुनाति परिच्छिन्दति परं वा अतिविय सीलादिगुणगणं अत्तनो सन्ताने मिनोति पक्खिपति परं वा अत्तभूततो धम्मकायतो अञ्ञ, पटिपक्खं वा तदनत्थकरं किलेसचोरगणं मिनाति हिंसतीति परमो, महासत्तो, “परमस्स अय"न्तिआदिना वृत्तनयेन पारमी । पारे वा निब्बाने मज्जति सुज्झति, सत्ते च सोधेति, तत्थ वा सत्ते मवति बन्धति योजेति तं वा मयति गच्छति, सत्ते च मायेति गमेति, तं वा याथावती मुनाति परिच्छिन्दति, तत्थ वा सत्ते मिनोति पक्खिपति, तत्थ वा सत्तानं किलेसारिं मिनाति हिंसतीति पारमी, महासत्तो, "तस्स अयन्तिआदिना दानादिकिरियाव पारमीति । इमिना नयेन पारमीनं वचनत्थो वेदितब्बो ।
कतिविधाति सङ्क्षेपतो दसविधा, ता पन बुद्धवंसपाळियं (बु० वं० १. ७६ ) सरूपतो आगतायेव । यथाह “ विचिनन्तो तदादक्खिं, पठमं दानपारमिन्तिआदि (बु० वं० २.११६) । यथा चाह -
“कति नु खो भन्ते बुद्धकारका धम्माति ? दस खो सारिपुत्त बुद्धकारका धम्मा, कतमे दस ? दानं खो सारिपुत्त बुद्धकारको धम्मो सीलं नेक्खम्मं पञ्ञा वीरियं खन्ति सच्चं अधिट्ठानं मेत्ता उपेक्खा बुद्धकारको धम्मो, इमे खो सारिपुत्त दस बुद्धकारका धम्माति । इदमवोच भगवा, इदं वत्वान सुगतो अथापरं एतदवोच
सत्था -
'दानं सीलञ्च नेक्खम्मं, पञ्ञवीरियेन पञ्चमं ।
खन्तिसच्चमधिट्ठानं, मेत्तुपेक्खाति ते दसा 'ति" ।। ( बु० वं० १. ७६ ) ।
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केचि पन "छब्बिधा" ति वदन्ति तं एतासं सङ्ग्रहवसेन वृत्तं । सो पन सङ्गहो परतो आवि भविस्सति ।
कोच तासं कमोति एत्थ कमो नाम देसनाक्कमो सो च पठमसमादानहेतुको, समादानं पविचयहेतुकं, इति यथा आदिम्हि पठमाभिनीहारकाले पविचिता, समादिन्ना च,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
तथा देसिता । यथाह "विचिनन्तो तदादक्खिं, पठमं दानपारमि"न्तिआदि (बु० वं० २.११६) तेनेतं वुच्चति -
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" पठमं समादानता - वसेनायं कमो रुतो ।
अथ वा अञ्ञमञ्ञस्स, बहूपकारतोपि चा "ति । ।
पञ्ञा
तत्थ हि दानं सीलस्स बहूपकारं सुकरञ्चाति तं आदिम्हि वृत्तं । दानं पन सीलपरिग्गहितं महप्फलं होति महानिसंसन्ति दानानन्तरं सीलं वुत्तं । सीलं नेक्खम्मपरिग्गहितं...पे०.... क्खम्मं पञ्ञापरिग्गहितं ... पे०... वीरियपरिग्गहिता...पे०... वीरियं खन्तिपरिग्गहितं ... पे०... खन्ति सच्चपरिग्गहिता...पे०... सच्चं अधिट्ठानपरिग्गहितं...पे०... अधिट्ठानं मेत्तापरिग्गहितं...पे०... मत्ता उपेक्खापरिग्गहिता महफ्फला होति महानिसंसाति मेत्तानन्तरं उपेक्खा वृत्ता । उपेक्खा पन करुणापरिग्गहिता, करुणा च उपेक्खापरिग्गहिताति वेदितब्बा । कथं पन महाकारुणिका बोधिसत्ता सत्तेसु उपेक्खका होन्तीति ? उपेक्खितब्बयुत्तकेसु कञ्चि कालं उपेक्खका होन्ति, न पन सब्बत्थ, सब्बदा चाति केचि । अपरे पन न च सत्तेसु उपेक्खका, सत्तकतेसु पन विप्पकारेसु उपेक्खका होन्तीति, इदमेवेत्थ युत्तं ।
अपरो नयो -
सब्बसाधारणतादि-कारणेहिपि ईरितं ।
दानं आदिम्हि सेसा तु, पुरिमेपि अपेक्खका ।।
पचुरजनेसुपि हि पवत्तिया सब्बसत्तसाधारणत्ता, अप्पफलत्ता, सुकरत्ता च दानं आदिम्हि वुत्तं। सीलेन दायकपटिग्गाहकसुद्धितो परानुग्गहं वत्वा परपीळानिवत्तिवचनतो, किरियधम्मं वत्वा अकिरियधम्मवचनतो, भोगसम्पत्तिहेतुं वत्वा भवसम्पत्तिहेतुवचनतो च दानस्सानन्तरं सीलं वृत्तं । नेक्खम्मेन सीलसम्पत्तिसिद्धितो, कायवचीसुचरितं वत्वा मनोसुचरितवचनतो, विसुद्धसीलस्स सुखेनेव झानसमिज्झनतो, कम्मापराधप्पहानेन पयोगसुद्धिं वत्वा किलेसापराधप्पहानेन आसयसुद्धिवचनतो, वीतिक्कमप्पहाने ठितस्स परियुट्ठानप्पहानवचनतो च सीलस्सानन्तरं नेक्खम्मं वृत्तं । पञ्ञाय क्खम्मस्स सिद्धिपरिसुद्धितो, झानाभावे पञ्ञाभाववचनतो । समाधिपदट्ठाना ह पञ्ञा,
( १.१.७-७)
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
पञ्ञापच्चुपट्टानो च समाधि । समथनिमित्तं वत्वा उपेक्खानिमित्तवचनतो, परहितज्ज्ञानेन परहितकरणूपायकोसल्लवचनतो च नेक्खम्मस्सानन्तरं पञ्ञा वृत्ता । वीरियारम्भेन पञ्ञकिच्चसिद्धितो, सत्तसुञ्ञताधम्मनिज्झानक्खन्तिं वत्वा सत्तहिताय आरम्भस्स अच्छरियतावचनतो, उपेक्खानिमित्तं वत्वा पग्गहनिमित्तवचनतो, निसम्मकारितं वत्वा उट्ठानवचनतो च। निसम्मकारिनो हि उट्ठानं फलविसेसमावहतीति पञ्ञायानन्तरं वीरियं वृत्तं ।
वीरियेन तितिक्खासिद्धितो । वीरियवा हि आरद्धवीरियत्ता सत्तसङ्घारेहि उपनीतं दुक्खं अभिभुय्य विहरति । वीरियस्स तितिक्खालङ्कारभावतो । वीरियवतो हि तितिक्खा सोभति । पग्गहनिमित्तं वत्वा समथनिमित्तवचनतो, अच्चारम्भेन उद्धच्चदोसप्पहानवचनतो । धम्मनिज्झानक्खन्तिया हि उद्धच्चदोसो पहीयति । वीरियवतो सातच्चकरणवचनतो । खन्तिबहुलो हि अनुद्धतो सातच्चकारी होति । अप्पमादवतो परहितकिरियारम्भे पच्चुपकारतण्हाभाववचनतो । याथावतो धम्मनिज्झाने हि सति तहा न होति । परहितारम्भे परमेपि परकतदुक्खसहनतावचनतो च वीरियस्सानन्तरं खन्ति वृत्ता । सच्चे खन्तिया चिराधिट्ठानतो, अपकारिनो अपकारखन्तिं वत्वा तदुपकारकरणे अविसंवादवचनतो, खन्तिया अपवादवाचाविकम्पनेन भूतवादिताय अविजहनवचनतो, सत्तसुञ्ञताधम्म-निज्झानक्खन्तिं वत्वा तदुपब्रूहितञाणसच्चस्स वचनतो च खन्तियानन्तरं सच्चं वृत्तं । अधिट्ठानेन सच्चसिद्धितो । अचलाधिट्ठानस्स हि विरति सिज्झति । अविसंवादितं वत्वा तत्थ अचलभाववचनतो । सच्चसन्धो हि दानादीसु पटिञ्ञानुरूपं निच्चलो पवत्तति । ञाणसच्चं वत्वा सम्भारेसु पवत्तिनिट्ठापनवचनतो । यथाभूतञाणवाहि बोधिसम्भारेसु अधिट्ठाति, ते च निट्टापेति । परिपक्खेहि अकम्पियभावतो च सच्चस्सानन्तरं अधिट्ठानं वृत्तं । मेत्ताय परहितकरणसमादानाधिट्ठानसिद्धितो, अधिट्ठानं वत्वा हि तूपसंहारवचनतो । बोधिसम्भारे हि अधितिट्ठमानो मेत्ताविहारी होति । अचलाधिट्ठानस्स समादानाविकोपनेन समादानसम्भवतो च अधिट्ठानस्सानन्तरं मेत्ता वृत्ता । उपेक्खाय त्ताविद्धितो, सत्तेसु हितूपसंहारं वत्वा तदपराधेसु उदासीनतावचनतो, मेत्ताभावनं वत्वा तन्निस्सन्दभावनावचनतो, “हितकामसत्तेपि उपेक्खको ति अच्छरियगुणतावचनतो च मेत्तायानन्तरं उपेक्खा वृत्ताति एवमेतासं कमो वेदितब्बो ।
कान लक्खणादीनि सब्बथाति एत्थ पन अविसेसेन -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
परेसमनुग्गहणं, लक्खणन्ति पवुच्चति । उपकारो अकम्पो च, रसो हितेसितापि च ।।
बुद्धत्तं पच्चुपट्टानं, दया आणं पवुच्चति । पदट्ठानन्ति तासन्तु, पच्चेकं तानि भेदतो ।।
सब्बापि हि पारमियो परानुग्गहलक्खणा, परेसं उपकारकरणरसा, अविकम्पनरसा वा, हितेसितापच्चुपट्टाना, बुद्धत्तपच्चुपट्टाना वा, महाकरुणापदट्टाना, करुणूपायकोसल्लपदट्ठाना वा ।
विसेसेन पन यस्मा करुणूपायकोसल्लपरिग्गहिता अत्तुपकरणपरिच्चागचेतना दानपारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितं कायवचीसुचरितं अत्थतो अकत्तब्बविरति, कत्तब्बकरणचेतनादयो च सीलपारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो आदीनवदस्सनपुब्बङ्गमो कामभवेहि निक्खमनचित्तुप्पादो नेक्खम्मपारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो धम्मानं सामञविसेसलक्खणावबोधो पञापारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो कायचित्तेहि परहितारम्भो वीरियपारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो सत्तसङ्खारापराधसहनसङ्खातो अदोसप्पधानो तदाकारप्पवत्तो चित्तुप्पादो खन्तिपारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितं विरतिचेतनादिभेदं अविसंवादनं सच्चपारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो अचलसमादानाधिठ्ठानसङ्घातो तदाकारप्पवत्तो चित्तुप्पादो अधिट्ठानपारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहितो लोकस्स हितसुखूपसंहारो अत्थतो अब्यापादो मेत्तापारमी। करुणूपायकोसल्लपरिग्गहिता अनुनयपटिघविद्धंसनसङ्खाता इट्ठानिढेसु सत्तसङ्खारेसु समप्पवत्ति उपेक्खापारमी।
तस्मा परिच्चागलक्खणं दानं, देय्यधम्मे लोभविद्धंसनरसं, अनासत्तिपच्चुपट्टानं, भवविभवसम्पत्तिपच्चुपट्टानं वा, परिच्चजितब्बवत्थुपदट्टानं । सीलनलक्खणं सीलं, समाधानलक्खणं, पतिट्ठानलक्खणं वाति वुत्तं होति । दुस्सील्यविद्धंसनरसं, अनवज्जरसं वा, सोचेय्यपच्चुपट्टानं, हिरोत्तप्पपदट्टानं । कामतो, भवतो च निक्खमनलक्खणं नेक्खम्मं, तदादीनवविभावनरसं, ततोयेव विमुखभावपच्चुपट्टानं, संवेगपदट्ठानं । यथासभावपटिवेधलक्खणा पञ्जा, अक्खलितपटिवेधलक्खणा वा कुसलिस्सासखित्तउसुपटिवेधो विय, विसयोभासनरसा पदीपो विय, असम्मोहपच्चुपट्टाना अरञ्जगतसुदेसको विय,
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
समाधिपदट्ठाना, चतुसच्चपदट्ठाना वा। उस्साह लक्खणं असंसीदनपच्चुपट्ठानं, वीरियारम्भवत्थुपदट्ठानं, संवेगपदट्ठानं वा ।
मेत्ता,
खमनलक्खणा खन्ति, इट्ठानिट्ठसहनरसा, अधिवासनपच्चुपट्ठाना, अविरोधपच्चुपट्ठाना वा, यथाभूतदस्सनपदट्ठाना । अविसंवादन लक्खणं सच्चं, याथावविभावनरसं, साधुतापच्चुपट्ठानं, सोरच्चपदट्ठानं । बोधिसम्भारेसु अधिट्ठानलक्खणं अधिट्ठानं, तेसं पटिपक्खाभिभवनरसं, तत्थ अचलतापच्चुपट्ठानं, बोधिसम्भारपदट्ठानं । हिताकारप्पवत्तिलक्खणा हि तूपसंहाररसा, आघातविनयनरसा वा, सोम्मभावपच्चुपट्ठाना, सत्तानं मनापभावदस्सनपदट्ठाना । मज्झत्ताकारप्पवत्तिलक्खणा उपेक्खा, पटिघानुनयवूपसमपच्चुपट्ठाना,
अभिनीहारो च तासं, दया ञाणञ्च पच्चयो । उस्साहुम्मङ्गवत्थानं, हिताचारादयो तथा । ।
समभावदस्सनरसा,
कम्मस्सकतापच्चवेक्खणपदट्ठाना । एत्थ चकरुणूपायकोसल्लपरिग्गहितता दानादीनं परिच्चागादिलक्खणस्स विसेसनभावेन वत्तब्बा, यतो तानि पारमीसङ्ख्यं लभन्ति । न हि सम्मासम्बोधियादिपत्थनमञ्ञत्र अकरुणूपायकोसल्लपरिग्गहितानि वट्टगामीनि दानादीनि पारमीसङ्ख्यं लभन्तीति ।
को पच्चयोति -
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वीरियं,
221
"
अभिनीहारो ताव पारमीनं सब्बासम्पि पच्चयो । यो हि अयं “ मनुस्सत्तं लिङ्गसम्पत्ती' 'तिआदि (बु० वं० २.५९) अट्ठधम्मसमोधानसम्पादितो “तिण्णो तारेय्यं मुत्तो मोचेय्यं, बुद्धो बोधेय्यं सुद्धो सोधेय्यं, दन्तो दमेय्यं, सन्तो समेय्यं, अस्सत्थो अस्सासेय्यं, परिनिब्बतो परिनिब्बापेय्यन्तिआदिना पवत्तो अभिनीहारो, सो अविसेसेन सब्बपारमीनं पच्चयो। तप्पवत्तिया हि उद्धं पारमीनं पविचयुपट्ठानसमादानाधिट्ठाननिप्फत्तियो महापुरिसानं सम्भवन्ति, अभिनीहारो च नामेस अत्थतो भेसमङ्गानं समोधानेन तथापवत्तो चित्तुप्पादो, "अहो वताहं अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झेय्यं, सब्बसत्तानं हितसुखं निप्फादेय्य'न्तिआदिपत्थनासङ्घातो अचिन्तेय्यं बुद्धभूमि, अपरिमाणं लोकहितञ्च आरम्भ पवत्तिया सब्बबुद्धकारकधम्ममूलभूतो परमभद्दको परमकल्याणो अपरिमेय्यप्पभावो पुञविसेसोति दट्ठब्बो |
उपत्थम्भनरसं,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
तस्स च उप्पत्तिया सहेव महापुरिसो महाबोधियानपटिपत्तिं ओतिण्णो नाम होति, नियतभावसमधिगमनतो, ततो च अनिवत्तनसभावतो “बोधिसत्तो 'ति समञ्ञ लभति, सब्बभागेन सम्मासम्बोधियं सम्मासत्तमानसता, बोधिसम्भारे सिक्खासमत्थता चस्स सन्तिट्ठति । यथावुत्ताभिनीहारसमिज्झनेन हि महापुरिसा सब्बञ्जतञ्ञाणाधिगमनपुब्बलिङ्गेन सयम्भुञणेन सम्मदेव सब्बपारमियो विचिनित्वा समादाय अनुक्कमेन परिपूरेन्ति, यथा तं कतमहाभिनीहारो सुमेधपण्डितो । यथाह -
“हन्द बुद्धकरे धम्मे, विचिनामि इतो चितो ।
उद्धं अधो दस दिसा, यावता धम्मधातुया ।
विचिनन्तो तदा दक्खिं, पठमं दानपारमि "न्ति । । (बु० वं० २.११५, ११६)।–
(१.१.७-७)
वित्थारो । लक्खणादितो पनेस सम्मदेव सम्मासम्बोधिपणिधानलक्खणो, “अहो वताहं अनुत्तरं सम्मासम्बोधिं अभिसम्बुज्झेय्यं, सब्बसत्तानं हितसुखं निप्फादेय्यन्तिआदिपत्थनारसो, बोधिसम्भारहेतुभावपच्चुपट्टानो, महाकरुणापदट्ठानो, उपनिस्सयसम्पत्तिपदट्ठानो वा ।
तस्स पन अभिनीहारस्स चत्तारो पच्चया, चत्तारो हेतू, चत्तारि च बलानि वेदब्बानि । तत्थ कतमे चत्तारो पच्चया महाभिनीहाराय ? इध महापुरिसो पस्सति तथागतं महता बुद्धानुभावेन अच्छरियब्भुतं पाटिहारियं करोन्तं, तस्स तं निस्साय तं आरम्मणं कत्वा महाबोधियं चित्तं सन्तिट्ठति " महानुभावा वतायं धम्मधातु, यस्सा सुप्पटिविद्धत्ता भगवा एवं अच्छरियब्भुतधम्मो, अचिन्तेय्यानुभावो चा "ति, सो तमेव महानुभावदस्सनं निस्साय तं पच्चयं कत्वा सम्बोधियं अधिमुच्चन्तो तत्थ चित्तं ठपेति, अयं पठमो पच्चयो महाभिनीहाराय |
न हेव खो पस्सति तथागतस्स यथावृत्तं महानुभावतं, अपिच खो सुणाति “दो च एदिसो च भगवा 'ति, सो तं निस्साय तं पच्चयं कत्वा सम्बोधियं अधिमुच्चन्तो तत्थ चित्तं ठपेति, अयं दुतियो पच्चयो महाभिनीहाराय ।
न हेव खो पस्सति तथागतस्स यथावृत्तं महानुभावतं, नापि तं परतो सुणाति, अपिच खो तथागतस्स धम्मं देसेन्तस्स “दसबलसमन्नागतो भिक्खवे, तथागतो' 'तिआदिना
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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(सं० नि० १.२.२१) बुद्धानुभावपटिसंयुत्तं धम्मं सुणाति, सो तं निस्साय...पे०... अयं ततियो पच्चयो महाभिनीहाराय ।
न हेव खो पस्सति तथागतस्स यथावुत्तं महानुभावतं, नापि तं परतो सुणाति, नापि तथागतस्स धम्मं सुणाति, अपिच खो उळारज्झासयो कल्याणाधिमुत्तिको “अहमेतं बुद्धवंसं बुद्धतन्तिं बुद्धपवेणिं बुद्दधम्मतं परिपालेस्सामी''ति यावदेव धम्म व सक्करोन्तो गरुं करोन्तो मानेन्तो पूजेन्तो धम्मं अपचयमानो तं निस्साय...पे०... ठपेति, अयं चतुत्थो पच्चयो महाभिनीहारायाति ।
कतमे चत्तारो हेतू महाभिनीहाराय ? इध महापुरिसो पकतिया उपनिस्सयसम्पन्नो होति पुरिमकेसु बुद्धेसु कताधिकारो, अयं पठमो हेतु महाभिनीहाराय । पुन चपरं महापुरिसो पकतियापि करुणाज्झासयो होति करुणाधिमुत्तो सत्तानं दुक्खं अपनेतुकामो, अपिच अत्तनो कायञ्च जीवितञ्च परिच्चजि, अयं दुतियो हेतु महाभिनीहाराय । पुन चपरं महापुरिसो सकलतोपि वट्टदुक्खतो सत्तहिताय दुक्करचरियतो सुचिरम्पि कालं घटेन्तो वायमन्तो अनिधिबन्नो होति अनुत्रासी, याव इच्छितत्थनिप्फत्ति, अयं ततियो हेतु महाभिनीहाराय । पुन चपरं महापुरिसो कल्याणमित्तसन्निस्सितो होति, यो अहिततो नं निवारेति, हिते पतिद्वापेति, अयं चतुत्थो हेतु महाभिनीहाराय ।
तत्रायं महापुरिसस्स उपनिस्सयसम्पदा - एकन्तेनेवस्स यथा अज्झासयो सम्बोधिनिन्नो होति सम्बोधिपोणो सम्बोधिपब्भारो, तथा सत्तानं हितचरियाय, यतो अनेन पुरिमबुद्धानं सन्तिके सम्बोधिया पणिधानं कतं होति मनसा, वाचाय च “अहम्पि एदिसो सम्मासम्बुद्धो हुत्वा सम्मदेव सत्तानं हितसुखं निप्फादेय्य"न्ति । एवं सम्पन्नूपनिस्सयस्स पनस्स इमानि उपनिस्सयसम्पत्तिया लिङ्गानि सम्भवन्ति, येहि समन्नागतस्स सावकबोधिसत्तेहि, पच्चेकबोधिसत्तेहि च महाविसेसो महन्तं नानाकरणं पञ्चायति इन्द्रियतो, पटिपत्तितो, कोसल्लतो च । इध हि उपनिस्सयसम्पन्नो महापुरिसो यथा विसदिन्द्रियो होति विसदाणो, न तथा इतरे। परहिताय पटिपन्नो होति, नो अत्तहिताय । तथा हि सो यथा बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं पटिपज्जि, न तथा इतरे, तत्थ च कोसल्लं आवहति ठानुप्पत्तिकपटिभानेन, ठानाठानकुसलताय च।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
तथा महापुरिसो पकतिया दानज्झासयो होति दानाभिरतो, सति देय्यधम्मे देतियेव, न दानतो सङ्कोचं आपज्जति, सततं समितं संविभागसीलो होति, पमुदितोव देति आदरजातो, न उदासीनचित्तो, महन्तम्पि दानं दत्वा नेव दानेन सन्तुट्ठो होति, पगेव अप्पं । परेसञ्च उस्साहं जनेन्तो दाने वण्णं भासति, दानपटिसंयुत्तं धम्मकथं करोति, अझे च परेसं देन्ते दिस्वा अत्तमनो होति, भयट्ठानेसु च परेसं अभयं देतीति एवमादीनि दानज्झासयस्स महापुरिसस्स दानपारमिया लिङ्गानि ।
तथा पाणातिपातादीहि पापधम्मेहि हिरीयति ओत्तप्पति, सत्तानं अविहेठनजातिको होति, सोरतो सुखसीलो असठो अमायावी उजुजातिको सुब्बचो सोवचस्सकरणीयेहि धम्मेहि समन्नागतो मुदुजातिको अथद्धो अनतिमानी, परसन्तकं नादियति अन्तमसो तिणसलाकमुपादाय, अत्तनो हत्थे निक्खित्तं इणं वा गहेत्वा परं न विसंवादेति, परस्मिं वा अत्तनो सन्तके ब्यामूळ्हे, विस्सरिते वा तं सापेत्वा पटिपादेति यथा तं न परहत्थगतं होति, अलोलुप्पो होति, परपरिग्गहितेसु पापकं चित्तम्पि न उप्पादेति, इत्थिब्यसनादीनि दूरतो परिवज्जेति, सच्चवादी सच्चसन्धो भिन्नानं सन्धाता सहितानं अनुप्पदाता पियवादी मिहितपुब्बङ्गमो पुब्बभासी अत्थवादी धम्मवादी अनभिज्झालु अब्यापन्नचित्तो अविपरीतदस्सनो कम्मस्सकताञाणेन, सच्चानुलोमिकञाणेन च, कतञ्जू कतवेदी वुड्डापचायी सुविसुद्धाजीवो धम्मकामो, परेसम्पि धम्मे समादपेता सब्बेन सब्बं अकिच्चतो सत्ते निवारेता किच्चेसु पतिठ्ठपेता अत्तना च तत्थ किच्चे योगं आपज्जिता, कत्वा वा पन सयं अकत्तबं सीघ व ततो पटिविरतो होतीति एवमादीनि सीलज्झासयस्स महापूरिसस्स सीलपारमिया लिङ्गानि ।
तथा मन्दकिलेसो होति मन्दनीवरणो पविवेकज्झासयो अविखेपबहुलो, न तस्स पापका वितक्का चित्तमन्वास्सवन्ति, विवेकगतस्स चस्स अप्पकसिरेनेव चित्तं समाधियति, अमित्तपक्खेपि तुवटं मेत्तचित्तता सन्तिट्ठति, पगेव इतरस्मिं, सतिमा च होति चिरकतम्पि चिरभासितम्पि सुसरिता अनुस्सरिता, मेधावी च होति धम्मोजपञाय समन्नागतो, निपको च होति तासु तासु इतिकत्तब्बतासु, आरद्धवीरियो च होति सत्तानं हितकिरियासु, खन्तिबलसमन्नागतो च होति सब्बसहो, अचलाधिट्ठानो च होति दळहसमादानो, अज्झुपेक्खको च होति उपेक्खाठानीयेसु धम्मेसूति एवमादीनि महापुरिसस्स नेक्खम्मज्झासयादीनं वसेन नेक्खम्मपारमियादीनं लिङ्गानि वेदितब्बानि ।
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( १.१.७७)
चूळसीलवण्णना
एवमेतेहि बोधिसम्भारलिङ्गेहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स यं वृत्तं " महाभिनीहाराय कल्याणमित्तसन्निस्सयो हेतू"ति, तत्रिदं सङ्क्षेपतो कल्याणमित्तलक्खणं - इध कल्याणमित्तो सद्धासम्पन्नो होति सीलसम्पन्नो सुतसम्पन्नो चागवीरियसतिसमाधिपञ्ञसम्पन्नो । तत्थ सद्धासम्पत्तिया सद्दहति तथागतस्स बोधि कम्मं, कम्मफलञ्च तेन सम्मासम्बोधिया हेतुभूतं सत्तेसु हितेसितं न परिच्चजति । सीलसम्पत्तिया सत्तानं पियो होति मनापो गरु भावनीयो चोदको पापगरहिको वत्ता वचनक्खमो । सुतसम्पत्तिया सत्तानं हितसुखावहं गम्भीरं धम्मकथं कत्ता होति । चागसम्पत्तिया अप्पिच्छो होति समाहितो सन्तुट्ठो पविवित्तो असंस । वीरियसम्पत्तिया आरद्धवीरियो होति सत्तानं हितंपटिपत्तिया । सतिसम्पत्तिया उपट्ठितस्सती होति अनवज्जेसु धम्मेसु । समाधिसम्पत्तिया अविक्खित्तो होति समाहितचित्तो । पञ्ञसम्पत्तिया अविपरीतं पजानाति । सो सतिया कुसलानं धम्मानं गतियो समन्वेसमानो पञ्ञाय सत्तानं हिताहितं यथाभूतं जानित्वा समाधिना तत्थ एकग्गचित्तो हुत्वा वीरियेन अहिता सत्ते निसेधेत्वा हिते नियोजेति । तेनाह -
“पियो गरु भावनीयो, वत्ता च वचनक्खमो ।
गम्भीरञ्च कथं कत्ता, नो चट्टाने नियोजको" ति ।। (अ० नि० ७.३७; नेत्ति० ११३) ।
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एवं गुणसमन्नागतंव कल्याणमित्तं उपनिस्साय महापुरिसो अत्तनो उपनिस्सयसम्पत्तिं सम्मदेव परियोदपेति । सुविसुद्धासयपयोगोव हुत्वा चतूहि बलेहि समन्नागतो नचिरेनेव अट्ठङ्गे समोधानेत्वा महाभिनीहारं करोन्तो बोधिसत्तभावे पतिट्टहति अनिवत्तिधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो ।
तस्सिमानि चत्तारि बलानि अज्झत्तिकबलं या सम्मासम्बोधियं अत्तसन्निस्सया धम्मगारवेन अभिरुचि एकन्तनिन्नज्झासयता, याय महापुरिसो अत्ताधिपतिलज्जासन्निस्सयो, अभिनीहारसम्पन्नो च हुत्वा पारमियो पूरेत्वा सम्मासम्बोधिं पापुणाति । बाहिरबलं या सम्मासम्बोधियं परसन्निस्सया अभिरुचि एकन्तनिन्नज्झासयता, या महापुरिसो लोकाधिपतिओत्तप्पनसन्निस्सयो, अभिनीहारसम्पन्नो च हुत्वा पारमियो पूरेत्वा सम्मासम्बोधि पाणाति । उपनिस्सयबलं या सम्मासम्बोधियं उपनिस्सयसम्पत्तिया अभिरुचि एकन्तनिन्नज्झासयता, याय महापुरिसो तिक्खिन्द्रियो, विसदधातुको, सतिसन्निस्सयो, अभिनीहारसम्पन्नो च हुत्वा पारमियो पूरेत्वा सम्मासम्बोधिं पापुणाति । पयोगबलं या
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका १
(१.१.७-७)
सम्मासम्बोधिया तज्जा पयोगसम्पदा सक्कच्चकारिता सातच्चकारिता, याय महापुरिसो विसुद्धपयोगो, निरन्तरकारी, अभिनीहारसम्पन्नो च हुत्वा पारमियो पूरेत्वा सम्मासम्बोधिं पापुणाति । एवमयं चतूहि पच्चयेहि, चतूहि हेतूहि, चतूहि च बलेहि सम्पन्नसमुदागमो अट्ठङ्गसमोधानसम्पादितो अभिनीहारो पारमीनं पच्चयो होति मूलकारणभावतो ।
यस्स च पवत्तिया महापुरिसे चत्तारो अच्छरिया अब्भुता धम्मा पतिठ्ठहन्ति, सब्बं सत्तनिकायं अत्तनो ओरसपुत्तं विय पियचित्तेन परिग्गण्हाति, न चस्स चित्तं पुन संकिलेसवसेन संकिलिस्सति, सत्तानं हितसुखावहो चस्स अज्झासयो, पयोगो च होति, अत्तनो च बुद्धकारकधम्मा उपरूपरि वड्डन्ति, परिपच्चन्ति च, यतो महापुरिसो उळारतरेन पुञाभिसन्देन कुसलाभिसन्देन पवड्डिया [पवत्तिया (चरि० पि० अठ्ठ० पकिण्णककथा)] पच्चयेन सुखस्साहारेन समन्नागतो सत्तानं दक्खिणेय्यो उत्तमं गारवट्ठानं, असदिसं पुञक्खेत्तञ्च होति । एवमनेकगुणो अनेकानिसंसो महाभिनीहारो पारमीनं पच्चयोति वेदितब्बो।
यथा च महाभिनीहारो, एवं महाकरुणा, उपायकोसल्लञ्च । तत्थ उपायकोसल्लं नाम दानादीनं बोधिसम्भारभावस्स निमित्तभूता पञ्जा, याहि महाकरुणूपायकोसल्लताहि महापुरिसानं अत्तसुखनिरपेक्खता, निरन्तरं परसुखकरणपसुतता, सुदुक्करेहि महाबोधिसत्तचरितेहि विसादाभावो, पसादसंवुद्धिदस्सनसवनानुस्सरणावत्थासुपि सत्तानं हितसुखपटिलाभहेतुभावो च सम्पज्जति । तथा हि तस्स पचाय बुद्धभावसिद्धि, करुणाय बुद्धकम्मसिद्धि। पआय सयं तरति, करुणाय परे तारेति । पञाय परदुक्खं परिजानाति, करुणाय परदुक्खपटिकारं आरभति । पञआय दुक्खं निबिन्दति, करुणाय दुक्खं सम्पटिच्छति । पाय निब्बानाभिमुखो होति, करुणाय तं न पापुणाति । तथा करुणाय संसाराभिमुखो होति, पञाय तत्र नाभिरमति । पञ्जाय सब्बत्थ विरज्जति, करुणानुगतत्ता न च न सब्बेसमनुग्गहाय पवत्तो, करुणाय सब्बेपि अनुकम्पति, पञानुगतत्ता न च न सब्बत्थ विरत्तचित्तो । पञ्जाय अहंकारममंकाराभावो, करुणाय आलसियदीनताभावो ।
तथा पञ्जाकरुणाहि यथाक्कम अत्तनाथपरनाथता, धीरवीरभावो, अनत्तन्तपापरन्तपता, अत्तहितपरहितनिष्फत्ति, निब्भयाभीसनकभावो, धम्माधिपतिलोकाधिपतिता, कत पुब्बकारिभावो, मोहतण्हाविगमो, विज्जाचरणसिद्धि, बलवेसारज्जनिप्फत्तीति
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(१.१.७-७)
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सब्बस्सापि पारमिताफलस्स विसेसेन उपायभावतो पञा करुणा पारमीनं पच्चयो । इदं पन द्वयं पारमीनं विय पणिधानस्सापि पच्चयो ।
तथा उस्साहउम्मङ्गअवत्थानहितचरिया च पारमीनं पच्चयोति वेदितब्बो। या च बुद्धभावस्स उप्पत्तिट्टानताय "बुद्धभूमियो"ति वुच्चन्ति । तत्थ उस्साहो नाम बोधिसम्भारानं अब्भुस्साहनवीरियं । उम्मङ्गो नाम बोधिसम्भारेसु उपायकोसल्लभूता पञ्जा । अवत्थानं नाम अधिट्टानं, अचलाधिट्ठानता । हितचरिया नाम मेत्ताभावना, करुणाभावना च । यथाह -
“कति पन भन्ते, बुद्धभूमियोति ? चतस्सो खो सारिपुत्त, बुद्धभूमियो । कतमा चतस्सो ? उस्साहो च होति वीरियं, उम्मङ्गो च होति पञआभावना, अवत्थानञ्च होति अधिट्टानं, हितचरिया च होति मेत्ताभावना । इमा खो सारिपुत्त, चतस्सो बुद्धभूमियो''ति (सु० नि० अट्ठ० १.३४)।
तथा नेक्खम्मपविवेकअलोभादोसामोहनिस्सरणप्पभेदा च छ अज्झासया। वुत्तज्हेतं -
“नेक्खम्मज्झासया च बोधिसत्ता कामेसु, घरावासे च दोसदस्साविनो, पविवेकज्झासया च बोधिसत्ता सङ्गणिकाय दोसदस्साविनो। अलोभ...पे०... लोभे...पे०... अदोस...पे०... दोसे...पे०... अमोह...पे०... मोहे...पे०... निस्सरण...पे०... सब्बभवेसु दोसदस्साविनो''ति (सु० नि० अठ्ठ० १.३४; विसुद्धि० १.४९)।
तस्मा एते च छ अज्झासयापि पारमीनं पच्चयाति वेदितब्बा । न हि लोभादीसु आदीनवदस्सनेन, अलोभादीनं अधिकभावेन च विना दानादिपारमियो सम्भवन्ति । अलोभादीनहि अधिकभावेन परिच्चागादिनिन्नचित्तता, अलोभज्झासयादिता चाति, यथा चेते, एवं दानज्झासयतादयोपि । यथाह -
“कति पन भन्ते बोधाय चरन्तान बोधिसत्तानं अज्झासयाति ? दस खो सारिपुत्त, बोधाय चरन्तानं बोधिसत्तानं अज्झासया । कतमे दस ? दानज्झासया सारिपुत्त, बोधिसत्ता मच्छेरे दोसदस्साविनो। सील...पे०... असंवरे...पे०... नेक्खम्म...पे०... कामेसु...पे०... यथाभूतञाण...पे०... विचिकिच्छाय।...पे०...
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
वीरिय... पे०... कोसज्जे...पे०... खन्ति...पे०... अक्खन्तियं...पे०... सच्च...पे०... विसंवादने...पे०... अधिट्ठान... पे०... अनधिद्वाने...पे..... मेत्ता... पे०... ब्यापादे...पे०... उपेक्खा...पे०... सुखदुक्खेसु आदीनवदस्साविनो 'ति ।
एतेसु हि मच्छेर असंवरकामविचिकिच्छाकोसज्ज अक्खन्तिविसंवादन अनधिट्ठानब्यापादसुखदुक्खसङ्घातेसु आदीनवदरसनपुब्बङ्गमा दानादिनिन्नचित्ततासङ्घाता दानज्झासयतादयो दानादिपारमीनं निब्बत्तिया पच्चयो । तथा अपरिच्चागपरिच्चागादीसु यथाक्कमं आदीनवानिसंसपच्चवेक्खणम्पि दानादिपारमीनं पच्चयो होति ।
(१.१.७-७)
तत्रायं पच्चवेक्खणाविधि खेत्तवत्थुहिरञ्ञसुवण्णगोमहिं सदासीदासपुत्तदारादिपरिग्गहब्यासत्तचित्तानं सत्तानं खेत्तादीनं वत्थुकामभावेन बहुपत्थनीयभावतो, राजचोरादिसाधारणभावतो, विवादाधिट्ठानतो, सपत्तकरणतो, निस्सारतो, पटिलाभपरिपालनेसु परविहेठनहेतुभावतो, विनासनिमित्तञ्चसोकादि अनेकविहितब्यसनावहतो तदासत्तिनिदानञ्च मच्छेरमलपरियुट्ठितचित्तानं अपायूपपत्तिहेतुभावतोति एवं विविधविपुलानत्थावहानि परिग्गहितवत्थूनि नाम, तेसं परिच्चागोयेवेको सोत्थिभावोति परिच्चागे अप्पमादो करणीयो ।
अपिच ‘“याचको याचमानो अत्तनो गुहस्स आचिक्खनतो मय्हं विस्सासिको 'ति च "पहाय गमनीयं अत्तनो सन्तकं गहेत्वा परलोकं याहीतिउपदिसनतो मय्हं उपदेसको "ति च “आदित्ते विय अगारे मरणग्गिना आदित्ते लोके ततो मय्हं सन्तकस्स अपहरणतो अपवाहकसहायो" ति च " अपवाहितस्स चस्स अज्झापननिक्खेपट्टानभूतो "ति च “दानसङ्घाते कल्याणकम्मस्मिं सहायभावतो, सब्बसम्पत्तीनं अग्गभूताय परमदुल्लभाय बुद्धभूमिया सम्पत्तिहेतुभावतो च परमो कल्याणमित्तो 'ति च पच्चवेक्खितब्बं ।
तथा “उळारे कम्मनि अनेनाहं सम्भावितो, तस्मा सा सम्भावना अवितथा कातब्बा "ति च “एकन्तभेदिताय जीवितस्स आयाचितेनापि मया दातब्बं, पगेव याचितेना" ति च “उळारज्झासयेहि गवेसित्वापि दातब्बो, [दातब्बतो (च० पि० अट्ट० पकिण्णककथावण्णना)] सयमेवागतो मम पुनाति च "याचकस्स दानापदेसेन मय्हमेवायमनुग्गहो” ति च " अहं विय अयं सब्बोपि लोको मया अनुग्गहेतब्बो "ति च “असति याचके कथं मय्हं दानपारमी पूरेय्या'ति च " याचकानमेवत्थाय मया सब्ब परिग्गहेतब्बो’”ति च ‘“अयाचित्वापि मं मम सन्तकं याचका कदा सयमेव गण्हेय्यु "न्ति
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च “कथमहं याचकानं पियो चस्सं मनापो"ति च “कथं वा ते मय्हं पिया चस्सु मनापा''ति च "कथं वाहं ददमानो दत्वापि च अत्तमनो अस्सं पमुदितो पीतिसोमनस्सजातो''ति च “कथं वा मे याचका भवेय्युं, उळारो च दानज्झासयो"ति च "कथं वाहमयाचितो एव याचकानं हदयमझाय ददेय्य''न्ति “सति धने, याचके च अपरिच्चागो महती मय्हं वञ्चना''ति च “कथमहं अत्तनो अङ्गानि, जीवितञ्चापि परिच्चजेय्यन्ति च चागनिन्नता उपट्ठपेतब्बा।।
अपिच “अत्थो नामायं निरपेक्खं दायकमनुगच्छति यथा तं निरपेक्खं खेपकं किटको"ति अत्थे निरपेक्खताय चित्तं उप्पादेतब्बं । याचमानो पन यदि पियपुग्गलो होति "पियो मं याचती"ति सोमनस्सं उप्पादेतब्। अथ उदासीनपुग्गलो होति “अयं मं याचमानो अद्धा इमिना परिच्चागेन मित्तो होती"ति सोमनस्सं उप्पादेतब् । ददन्तो हि याचकानं पियो होतीति । अथ पन वेरीपुग्गलो याचति, “पच्चत्थिको मं याचति, अयं मं याचमानो अद्धा इमिना परिच्चागेन वेरीपि पियो मित्तो होती''ति विसेसतो सोमनस्सं उप्पादेतब्बं । एवं पियपुग्गले विय मज्झत्तवेरीपुग्गलेसुपि मेत्तापुब्बङ्गमं करुणं उपट्ठपेत्वाव दातब्बं ।
सचे पनस्स चिरकालं परिभावितत्ता लोभस्स देय्यधम्मविसया लोभधम्मा उप्पज्जेय्यु, तेन बोधिसत्तपटिझेन इति पटिसञ्चिक्खितब्बं “ननु तया सप्पुरिस सम्बोधाय अभिनीहारं करोन्तेन सब्बसत्तानमुपकाराय अयं कायो निस्सट्ठो, तप्परिच्चागमयञ्च पुञ्ज, तत्थ नाम ते बाहिरेपि वत्थुस्मिं अभिसङ्गप्पवत्ति हत्थिसिनानसदिसी होति, तस्मा तया न कत्थचि अभिसङ्गो उप्पादेतब्बो। सेय्यथापि नाम महतो भेसज्जरुक्खस्स तिठ्ठतो मूलं मूलत्थिका हरन्ति, पपटिकं, तचं, खन्धं, विटपं, साखं, पलासं, पुर्फ, फलं फलत्थिका हरन्ति, न तस्स रुक्खस्स ‘महं सन्तकं एते हरन्ती'ति वितक्कसमुदाचारो होति, एवमेव सब्बलोकहिताय उस्सुक्कमापज्जन्तेन मया महादुक्खे अकत के निच्चासुचिम्हि काये परेसं उपकाराय विनियुज्जमाने अणुमत्तोपि मिच्छावितक्को न उप्पादेतब्बो । को वा एत्थ विसेसो अज्झत्तिकबाहिरेसु महाभूतेसु एकन्तभेदनविकिरणविद्धंसनधम्मेसु । केवलं पन सम्मोहविजम्भितमेतं, यदिदं ‘एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ता'ति अभिनिवेसो, तस्मा बाहिरेसु महाभूतेसु विय अज्झत्तिकेसुपि करचरणनयनादीसु, मंसादीसु च अनपेक्खेन हुत्वा तं तदस्थिका हरन्तूति निस्सट्ठचित्तेन भवितब्ब''न्ति। एवं पटिसञ्चिक्खतो चस्स सम्बोधाय पहितत्तस्स कायजीवितेसु निरपेक्खस्स अप्पकसिरेनेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका १
(१.१.७-७)
कायवचीमनोकम्मानि सुविसुद्धानि होन्ति, सो विसुद्धकायवचीमनोकम्मन्तो विसुद्धाजीवो आयपटिपत्तियं ठितो आयापायुपायकोसल्लसमन्नागमेन भिय्योसो मत्ताय देय्यधम्मपरिच्चागेन, अभयदानसद्धम्मदानेहि च सब्बसत्ते अनुग्गण्हितुं समत्थो होति, अयं ताव दानपारमियं पच्चवेक्खणानयो ।
सीलपारमियं पन एवं पच्चवेक्खितब्बं - “इदहि सीलं नाम गङ्गोदकादीहि विसोधेतुं असक्कुणेय्यस्स दोसमलस्स विक्खालनजलं, हरिचन्दनादीहि विनेतुं असक्कुणेय्यस्स रागादिपरिळाहस्स विनयनं, मुत्ताहारमकुटकुण्डलादीहि पचुरजनालङ्कारेहि असाधारणो साधूनमलङ्कारविसेसो, सब्बदिसावायनको अतिकित्तिमो [सब्बदिसावायनतो अकित्तिमो (च० पि० अट्ठ० पकिण्णककथावण्णना; दी० नि० टी० १.७)] सब्बकालानुरूपो च सुरभिगन्धो, खत्तियमहासालादीहि, देवताहि च वन्दनीयादिभावावहनतो परमो वसीकरणमन्तो, चातुमहाराजिकादिदेवलोकारोहणसोपानपन्ति, झानाभिञानं अधिगमूपायो, निब्बानमहानगरस्स सम्पापकमग्गो, सावकबोधिपच्चेकबोधिसम्मासम्बोधीनं पतिट्ठानभूमि, यं यं वा पनिच्छितं पत्थितं, तस्स तस्स समिज्झनूपायभावतो चिन्तामणिकप्परुक्खादिके च अतिसेति । वुत्त हेतं भगवता “इज्झति भिक्खवे, सीलवतो चेतोपणिधि विसुद्धत्ता''ति (दी० नि० ३.३३७; सं० नि० २.४.३५२; अ० नि० ३.८.३५)। अपरम्प वुत्तं "आकठ्ठय्य चे भिक्खवे, भिक्खु सब्रह्मचारीनं पियो च अस्सं मनापो च गरु च भावनीयो चाति, सीलेस्वेवस्स परिपूरकारी"तिआदि (म० नि० १.६५)। तथा "अविप्पटिसारत्थानि खो आनन्द कुसलानि सीलानी"ति, (अ० नि० ३.१०.१; ११.१) “पञ्चिमे गहपतयो, आनिसंसा सीलवतो सीलसम्पदाया"तिआदिसुत्तानञ्च (दी० नि० २.१५०; अ० नि० २.५.२१३; उदा० ७६; महा० व० ३८५) वसेन सीलगुणा पच्चवेक्खितब्बा । तथा अग्गिक्खन्धोपमसुत्तादीनं (अ० नि० २.७.७२) वसेन सीलविरहे आदीनवा ।
अपिच पीतिसोमनस्सनिमित्ततो, अत्तानुवादपरानुवाददण्डदुग्गतिभयाभावतो, विहि पासंसभावतो, अविप्पटिसारहेतुतो, परमसोत्थिट्ठानतो, कुलसापतेय्याधिपतेय्यजीवितरूपट्ठानबन्धुमित्तसम्पत्तीनं अतिसयनतो च सीलं पच्चवेक्खितब्बं । सीलवतो हि अत्तनो सीलसम्पदाहेतु महन्तं पीतिसोमनस्सं उप्पज्जति “कतं वत मया कुसलं, कतं कल्याणं, कतं भीरुत्ताण''न्ति ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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तथा सीलवतो अत्ता न उपवदति, न च परे विषे, दण्डदुग्गतिभयानञ्च सम्भवोयेव नत्थि, “सीलवा पुरिसपुग्गलो कल्याणधम्मोति विझूनं पासंसो च होति । तथा सीलवतो य्वायं “कतं वत मया पापं, कतं लुई, कतं किब्बिस''न्ति दस्सीलस्स विप्पटिसारो उप्पज्जति, सो न होति। सीलञ्च नामेतं अप्पमादाधिट्ठानतो, भोगब्यसनादिपरिहारमुखेन महतो अत्थस्स साधनतो, मङ्गलभावतो, परमं सोत्थिट्टानं । निहीनजच्चोपि सीलवा खत्तियमहासालादीनं पूजनीयो होतीति कुलसम्पत्तिं अतिसेति सीलसम्पदा, “तं किं मञ्जसि महाराज, इध ते अस्स दासो कम्मकरो''तिआदि (दी० नि० १.१८३) वक्खमानसामञ्जसुत्तवचनञ्चेत्थ साधकं, चोरादीहि असाधारणतो, परलोकानुगमनतो, महप्फलभावतो, समथादिगुणाधिट्ठानतो च बाहिरधनं सापतेय्यं अतिसेति सीलं । परमस्स चित्तिस्सरियस्स अधिट्ठानभावतो खत्तियादीनमिस्सरियं अतिसेति सीलं । सीलनिमित्तहि तंतसत्तनिकायेसु सत्तानमिस्सरियं, वस्ससतादिदीघप्पमाणतो च जीविततो एकाहम्पि सीलवतो जीवितस्स विसिठ्ठतावचनतो, सतिपि जीविते सिक्खानिक्खिपनस्स मरणतावचनतो च सीलं जीविततो विसिट्ठतरं। वेरीनम्पि मनुञभावावहनतो, जरारोगविपत्तीहि अनभिभवनीयतो च रूपसम्पत्तिं अतिसेति सीलं । पासादहम्मियादिट्ठानप्पभेदे राजयुवराजसेनापतिआदिठानविसेसे च सुखविसेसाधिट्ठानभावतो अतिसेति सीलं। सभावसिनिः सन्तिकावचरेपि बन्धुजने, मित्तजने च एकन्तहितसम्पादनतो, परलोकानुगमनतो च अतिसेति सीलं । “न तं माता पिता कयिरा''तिआदि (ध० प० ४३) वचनञ्चेत्थ साधकं । तथा हथिअस्सरथपत्तिबलकायेहि, मन्तागदसोत्थानपयोगेहि च दुरारक्खानमनाथानं अत्ताधीनतो, अनपराधीनतो, महाविसयतो च आरक्खभावेन सीलमेव विसिट्टतरं । तेनेवाह “धम्मो हवे रक्खति धम्मचारि"न्तिआदि (थेर० गा० ३०३; जा० १.१०.१०२) । एवमनेकगुणसमन्नागतं सीलन्ति पच्चवेक्खन्तस्स अपरिपुण्णा चेव सीलसम्पदा पारिपूरिं गच्छति, अपरिसुद्धा च पारिसुद्धिं ।
सचे पनस्स दीघरत्तं परिचयेन सीलपटिपक्खधम्मा दोसादयो अन्तरन्तरा उप्पज्जेय्यु, तेन बोधिसत्तपटिओन एवं पटिसञ्चिक्खितब्बं “ननु तया बोधाय पणिधानं कतं, सीलवेकल्लेन च न सक्का न च सुकरा लोकियापि सम्पत्तियो पापुणितुं, पगेव लोकुत्तरा''ति। सब्बसम्पत्तीनमग्गभूताय सम्मासम्बोधिया अधिट्ठानभूतेन सीलेन परमुक्कंसगतेन भवितब्बं, तस्मा “किकीव अण्ड'"न्तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.७; विसुद्धि० १.१९) वुत्तनयेन सम्मदेव सीलं रक्खन्तेन सुट्ट तया पेसलेन भवितब्बं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अपिच तया धम्मदेसनाय यानत्तये सत्तानमवतारणपरिपाचनानि कातब्बानि, सीलवेकल्लस्स च वचनं न पच्चेतब्बं होति, असप्पायाहारविचारस्स विय वेज्जस्स तिकिच्छनं, तस्मा "कथाहं सद्धेय्यो हुत्वा सत्तानमवतारणपरिपाचनानि करेय्यन्ति सभावपरिसुद्धसीलेन भवितब्बं । किञ्च झानादिगुणविसेसयोगेन मे सत्तानमुपकारकरणसमत्थता, पञ्ञापारमीआदिपरिपूरणञ्च झानादयो गुणा च सीलपारि सुद्धिं विना न सम्भवन्तीति सम्मदेव सीलं सोधेतब्बं ।
तथा " सम्बाधो घरावासी रजोपथो 'तिआदिना (दी० नि० १.१११; म० नि० १.२९१, ३७१; २.१०, ३.१३, २१८; सं० नि० १.२.१५४; ३.५.१००२; अ० नि० ३.१०.९९; नेत्ति० ९४) घरावासे, “अट्टिकङ्कलूपमा कामा 'तिआदिना (म० नि० १.२३४; २.४२; पाचि० ४१७; चूळ० नि० १४७) " मातापि पुत्तेन विवदती 'तिआदिना (म० नि० १.१६८) च कामेसु, “सेय्यथापि पुरिसो इणं आदाय कम्मन् पयोजेय्या "तिआदिना (म० नि० १.४२६) कामच्छन्दादी आदीनवदस्सनपुब्बङ्गमा, वुत्तविपरियायेन "अब्भोकासो पब्बज्जा' 'तिआदिना (दी० नि० १.१९१, ३९८; म० नि० १.२९१, ३७१; २.१०; ३.१३, २१८, सं० नि० १.२९१; सं० नि० ३.५.१००२, अ० नि० ३.१०.९९ नेत्ति० ९८ ) पब्बज्जादीसु आनिसंसापटिसङ्घावसेन नेक्खम्मपारमियं पच्चवेक्खणा कातब्बा । अयमेत्थ सङ्क्षेपो, वित्थारो पन दुक्खक्खन्धआसिविसोपमसुत्तादि (म० नि० १.१६३, १७५, सं० नि० २.४.२३८) वसेन वेदितब्बो ।
(१.१.७-७)
तथा “पञ्ञाय विना दानादयो धम्मा न विसुज्झन्ति, यथासकं ब्यापारसमत्था च न होन्ती 'ति पञ्ञाय गुणा मनसि कातब्बा । यथेव हि जीवितेन विना सरीरयन्तं न सोभति, न च अत्तनो किरियासु पटिपत्तिसमत्थं होति । यथा च चक्खादीनि इन्द्रियानि विञ्ञणेन विना यथासकं विसयेसु किच्चं कातुं नप्पहोन्ति एवं सद्धादीनि इन्द्रियानि पञ्ञाय विना सककिच्चपटिपत्तियमसमत्थानीति परिच्चागादिपटिपत्तियं पञ्ञ पधानकारणं । उम्मीलितपञ्ञाचक्खुका हि महासत्ता बोधिसत्ता अत्तनो अङ्गपच्चङ्गानिपि दत्वा अनत्तुक्कंसका, अपरवम्भका च होन्ति, भेसज्जरुक्खा विय विकप्परहिता कालत्तयेपि सोमनस्सजाता । पञ्ञवसेन हि उपायकोसल्लयोगतो परिच्चागो परहितपवत्तिया दानपारमिभावं उपेति । अत्तत्थहि दानं मुद्धसदिसं [ वुद्धिसदिसं ( दी० नि० टी० १.७)] होति ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
२३३
तथा पञ्जाय अभावेन तण्हादिसंकिलेसावियोगतो सीलस्स विसुद्धियेव न सम्भवति, कुतो सब्ब गुणाधिट्ठानभावो । पञवा एव च घरावासे कामगुणेसु संसारे च आदीनवं, पब्बज्जाय झानसमापत्तियं निब्बाने च आनिसंसं सुटु सल्लक्खेन्तो पब्बजित्वा झानसमापत्तियो निब्बत्तेत्वा निब्बाननिन्नो, परे च तत्थ पतिठ्ठपेति ।
वीरियञ्च पञ्जारहितं यथिच्छितमत्थं न साधेति दुरारम्भभावतो। अनारम्भोयेव हि दुरारम्भतो सेय्यो, पञ्जासहितेन पन वीरियेन न किञ्चि दुरधिगमं उपायपटिपत्तितो। तथा पञ्चवा एव परापकारादीनमधिवासकजातियो होति, न दुप्पो । पञ्जाविरहितस्स च परेहि उपनीता अपकारा खन्तिया पटिपक्खमेव अनुब्रूहेन्ति । पञवतो पन ते खन्तिसम्पत्तिया अनुब्रूहनवसेन अस्सा थिरभावाय संवत्तन्ति । पञवा एव तीणिपि सच्चानि तेसं कारणानि पटिपक्खे च यथाभूतं जानित्वा परेसं अविसंवादको होति । तथा पञ्जाबलेन अत्तानमुपत्थम्भेत्वा धितिसम्पदाय सब्बपारमीसु अचलसमादानाधिट्टानो होति । पञवा एव च पियमज्झत्तवेरिविभागमकत्वा सब्बत्थ हितूपसंहारकुसलो होति । तथा पञावसेन लाभालाभादिलोकधम्मसन्निपाते निबिकारताय मज्झत्तो होति । एवं सब्बासं पारमीनं पाव पारिसुद्धिहेतूति पागुणा पच्चवेक्खितब्बा ।
__अपिच पाय विना न दस्सनसम्पत्ति, अन्तरेन च दिट्ठिसम्पदं न सीलसम्पदा, सीलदिट्ठिसम्पदारहितस्स च न समाधिसम्पदा, असमाहितेन च न सक्का अत्तहितमत्तम्पि साधेतुं, पगेव उक्कंसगतं परहितन्ति । “ननु तया परहिताय पटिपन्नेन सक्कच्चं पापारिसुद्धिया आयोगो करणीयो"ति बोधिसत्तेन अत्ता ओवदितब्बो। पञ्जानुभावेन हि महासत्तो चतुरधिट्ठानाधिट्टितो चतूहि सङ्गहवत्थूहि लोकं अनुग्गण्हन्तो सत्ते निय्यानमग्गे अवतारेति, इन्द्रियानि च नेसं परिपाचेति । तथा पञ्जाबलेन खन्धायतनादीसु पविचयबहुलो पवत्तिनिवत्तियो याथावतो परिजानन्तो दानादयो गुणविसेसे निब्बेधभागियभावं नयन्तो बोधिसत्तसिक्खाय परिपूरकारी होतीति एवमादिना अनेकाकारवोकारे पञागुणे ववत्थपेत्वा पापारमी अनुब्रूहेतब्बा।
तथा दिस्समानपारानिपि लोकियानि कम्मानि निहीनवीरियेन पापुणितुमसक्कुणेय्यानि, अगणितखेदेन पन आरद्धवीरियेन दुरधिगमं नाम नत्थि । निहीनवीरियो हि "संसारमहोघतो सब्बसत्ते सन्तारेस्सामी"ति आरभितुमेव न सक्कुणोति । मज्झिमो पन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका १
(१.१.७-७)
आरभित्वान अन्तरावोसानमापज्जति । उक्कट्ठवीरियो पन अत्तसुखनिरपेक्खो आरभित्वा पारमधिगच्छतीति वीरियसम्पत्ति पच्चवेक्खितब्बा ।
अपिच “यस्स अत्तनो एव संसारपङ्कतो समुद्धरणत्थमारम्भो, तस्सापि वीरियस्स सिथिलभावेन मनोरथानं मत्थकप्पत्ति न सक्का सम्भावेतुं, पगेव सदेवकस्स लोकस्स समुद्धरणत्थं कताभिनीहारेना''ति च "रागादीनं दोसगणानं मत्तमहानागानमिव दुन्निवारणभावतो, तन्निदानानञ्च कम्मसमादानानं उक्खित्तासिकवधकसदिसभावतो, तन्निमित्तानञ्च दुग्गतीनं सब्बदा विवटमुखभावतो, तत्थ नियोजकानञ्च पापमित्तानं सदा सन्निहितभावतो, तदोवादकारिताय च वसलस्स पुथुज्जनभावस्स सति सम्भवे युत्तं सयमेव संसारदुक्खतो निस्सरितु'न्ति च “मिच्छावितक्का वीरियानुभावेन दूरी भवन्तीति च “यदि पन सम्बोधिं अत्ताधीनेन वीरियेन सक्का समधिगन्तुं, किमेत्थ दुक्कर'"न्ति च एवमादिना नयेन वीरियगुणा पच्चवेक्खितब्बा ।
तथा “खन्ति नामायं निरवसेसगुणपटिपक्खस्स कोधस्स विधमनतो गुणसम्पादने साधूनं अप्पटिहतमायुधं, पराभिभवने समत्थानमलङ्कारो, समणब्राह्मणानं बलसम्पदा, कोधग्गिविनयना उदकधारा, कल्याणकित्तिसद्दस्स सञ्जातिदेसो, पापपुग्गलानं वचीविसवूपसमकरो मन्तागदो, संवरे ठितानं परमा धीरपकति, गम्भीरासयताय सागरो, दोसमहासागरस्स वेला, अपायद्वारस्स पिधानकवाटं देवब्रह्मलोकानं आरोहणसोपानं, सब्बगुणानमधिवासभूमि, उत्तमा कायवचीमनोविसुद्धी"ति मनसि कातब्बं । अपिच “एते सत्ता खन्तिसम्पत्तिया अभावतो इधलोके तपन्ति, परलोके च तपनीयधम्मानुयोगतो''ति च "यदिपि परापकारनिमित्तं दुक्खं उप्पज्जति, तस्स पन दुक्खस्स खेत्तभूतो अत्तभावो, बीजभूतञ्च कम्मं मयाव अभिसङ्खत''न्ति च “तस्स च दुक्खस्स आणण्यकरणमेत''न्ति च “अपकारके असति कथं मय्हं खन्तिसम्पदा सम्भवतीति च “यदिपायं एतरहि अपकारको, अयं नाम पुब्बे अनेन मय्हं उपकारो कतो'ति च “अपकारो एव वा खन्तिनिमित्तताय उपकारो'"ति च “सब्बेपिमे सत्ता मय्हं पुत्तसदिसा, पुत्तकतापराधेसु च को कुज्झिस्सती''ति च “येन कोधभूतावेसेन अयं मय्हं अपरज्झति, स्वायं कोधभूतावेसो मया विनेतब्बो''ति च “येन अपकारेन इदं महं दुक्खं उप्पन्नं, तस्स अहम्पि निमित्त''न्ति च “येहि धम्मेहि अपकारो कतो, यत्थ च कतो, सब्बेपि ते तस्मिंयेव खणे निरुद्धा, कस्सिदानि केन कोपो कातब्बो'ति च “अनत्तताय सब्बधम्मानं को कस्स अपरज्झती''ति च पच्चवेक्खन्तेन खन्तिसम्पदा ब्रूहेतब्बा ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
२३५
__ यदि पनस्स दीघरत्तं परिचयेन परापकारनिमित्तको कोधो चित्तं परियादाय तितुय्य, तेन इति पटिसञ्चिक्खितब्बं "खन्ति नामेसा परापकारस्स पटिपक्खपटिपत्तीनं पच्चुपकारकारण''न्ति च “अपकारो च मय्हं दुक्खुप्पादनेन दुक्खुपनिसाय सद्धाय, सब्बलोके अनभिरतिसञाय च पच्चयो"ति च "इन्द्रियपकतिरेसा, यदिदं इट्ठानिट्ठविसयसमायोगो, तत्थ अनिट्ठविसयसमायोगो महं न सियाति तं कुतेत्थ लब्भा''ति च "कोधवसिको सत्तो कोधेन उम्मत्तो विक्खित्तचित्तो, तत्थ किं पच्चपकारेना''ति च “सब्बेपिमे सत्ता सम्मासम्बुद्धेन ओरसपुत्ता विय परिपालिता, तस्मा न तत्थ मया चित्तकोपो कातब्बो''ति च “अपराधके च सति गुणे गुणवति मया कोपो न कातब्बो''ति च "असति गुणे कस्सचिपि गुणस्साभावतो विसेसेन करुणायितब्बो'ति च "कोपेन मय्हं गुणयसा निहीयन्ती"ति च “कुज्झनेन मय्हं दुब्बण्णदुक्खसेय्यादयो सपत्तकन्ता आगच्छन्ती"ति च “कोधो च नामायं सब्बदुक्खाहितकारको सब्बसुखहितविनासको बलवा पच्चत्थिको''ति च “सति च खन्तिया न कोचि पच्चत्थिको''ति च “अपराधकेन अपराधनिमित्तं यं दुक्खं आयतिं लद्धब्बं, सति च खन्तिया मय्हं तदभावो''ति च “चिन्तेन्तेन, कुज्झन्तेन च मया पच्चत्थिकोयेव अनुवत्तितो''ति च "कोधे च मया खन्तिया अभिभूते तस्स दासभूतो पच्चत्थिको सम्मदेव अभिभूतो''ति च “कोधनिमित्तं खन्तिगुणपरिच्चागो मय्हं न युत्तो''ति च “सति च कोधे गुणविरोधपच्चनीकधम्मे कथं मे सीलादिधम्मा पारिपूरिं गच्छेय्युं, असति च तेसु कथाहं सत्तानं उपकारबहुलो पटिञानुरूपं उत्तमं सम्पत्तिं पापुणिस्सामी''ति च "खन्तिया च सति बहिद्धा विक्खेपाभावतो समाहितस्स सब्बे सङ्घारा अनिच्चतो दुक्खतो सब्बे धम्मा अनत्ततो निब्बानं असङ्खतामतसन्तपणीततादिभावतो निज्झानं खमन्ति, 'बुद्धधम्मा च अचिन्तेय्यापरिमेय्यप्पभवा'ति', ततो च “अनुलोमिकखन्तियं ठितो 'केवला इमे अत्तत्तनियभावरहिता धम्ममत्ता यथासकं पच्चयेहि उप्पज्जन्ति विनस्सन्ति, न कुतोचि आगच्छन्ति, न कुहिञ्चि गच्छन्ति, न च कत्थचि पतिट्ठिता, न चेत्थ कोचि कस्सचि ब्यापारो'ति अहंकारममंकारानधिट्ठानता निज्झानं खमति, येन बोधिसत्तो बोधिया नियतो अनावत्तिधम्मो होती''ति एवमादिना खन्तिपारमिया पच्चवेक्खणा वेदितब्बा ।
तथा “सच्चेन विना सीलादीनमसम्भवतो, पटिञानुरूपपटिपत्तिया अभावतो, सच्चधम्मातिक्कमे च सब्बपापधम्मानं समोसरणभावतो, असच्चसन्धस्स अप्पच्चयिकभावतो, आयतिञ्च अनादेय्यवचनतावहनतो, सम्पन्नसच्चस्स सब्बगुणाधिट्ठानभावतो, सच्चाधिट्ठानेन सब्बसम्बोधिसम्भारानं भारान पाारसुद्धपारिपूरिसमन्वायतो,
पारिसुद्धिपारिपूरिसमन्वायतो, सभावधम्माविसंवादनेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
सब्बबोधिसम्भारकिच्चकरणतो, बोधिसत्तपटिपत्तिया सच्चपारमिया सम्पत्तियो पच्चवेक्खितब्बा ।
च परिनिप्फत्तितो''तिआदिना
तथा “दानादीसु दळहसमादानं, तप्पटिपक्खसन्निपाते च नेसं अचलाधिट्टानं, तत्थ च धीरवीरभावं विना न दानादिसम्भारा सम्बोधिनिमित्ता सम्भवन्ती"तिआदिना अधिटानगुणा पच्चवेक्खितब्बा।
तथा “अत्तहितमत्ते अवतिद्वन्तेनापि सत्तेसु हितचित्ततं विना न सक्का इधलोकपरलोकसम्पत्तियो पापुणितुं, पगेव सब्बसत्ते निब्बानसम्पत्तियं पतिट्ठापेतुकामेना''ति च “पच्छा सब्बसत्तानं लोकुत्तरसम्पत्तिमाकजन्तेन इदानि लोकियसम्पत्तिमाकडा युत्तरूपा'ति च “इदानि आसयमत्तेन परेसं हितसुखूपसंहारं कातुमसक्कोन्तो कदा पयोगेन तं साधयिस्सामी''ति च "इदानि मया हितसुखूपसंहारेन संवद्धिता पच्छा धम्मसंविभागसहाया मय्हं भविस्सन्तीति च “एतेहि विना न मय्हं बोधिसम्भारा सम्भवन्ति, तस्मा सब्बबुद्धगुणविभूतिनिष्फत्तिकारणत्ता मय्हं एते परमं पुञक्खेत्तं अनुत्तरं कुसलायतनं उत्तमं गारवट्ठान''न्ति च “सविसेसं सब्बेसुपि सत्तेसु हितज्झासयता पच्चुपट्टपेतब्बा, किञ्च करुणाधिट्ठानतोपि सब्बसत्तेसु मेत्ता अनुब्रूहेतब्बा । विमरियादीकतेन हि चेतसा सत्तेसु हितसुखूपसंहारनिरतस्स तेसं अहितदुक्खापनयनकामता बलवती उप्पज्जति दळ्हमूला, करुणा च सब्बेसं बुद्धकारकधम्मानं आदि चरणं पतिट्ठा मूलं मुखं पमुख"न्ति एवमादिना मेत्तागुणा पच्चवेक्खितब्बा ।
___ तथा “उपेक्खाय अभावे सत्तेहि कता विप्पकारा चित्तस्स विकारं उप्पादेय्युं, सति च चित्तविकारे दानादिसम्भारानं सम्भवो एव नत्थी''ति च "मेत्तासिनेहेन सिनेहिते चित्ते उपेक्खाय विना सम्भारानं पारिसुद्धि न होती''ति च "अनुपेक्खको सङ्घारेसु पुञ्जसम्भारं, तब्बिपाकञ्च सत्तहितत्थं परिणामेतुं न सक्कोती''ति च उपेक्खाय अभावे देय्यधम्मपटिग्गाहकानं विभागमकत्वा परिच्चजितुं न सक्कोती"ति च "उपेक्खारहितेन जीवितपरिक्खारानं, जीवितस्स वा अन्तरायं अमनसिकरित्वा सीलविसोधनं कातुं न सक्का'"ति च तथा “उपेक्खावसेन अरतिरतिसहस्सेव नेक्खम्मबलसिद्धितो, उपपत्तितो इक्खनवसेनेव सब्बसम्भारकिच्चनिप्फत्तितो, अच्चारद्धवीरियस्स अनुपेक्खने पधानकिच्चाकरणतो, उपेक्खतो एव तितिक्खानिज्झानसम्भवतो, उपेक्खावसेन सत्तसङ्खारानं अविसंवादनतो, लोकधम्मानं अज्झुपेक्खनेन समादिन्नधम्मेसु अचलाधिट्ठानसिद्धितो,
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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परापकारादीसु अनाभोगवसेनेव मेत्ताविहारनिप्फत्तितोति सब्बसम्बोधिसम्भारानं समादानाधिट्ठानपारिपूरिनिष्फत्तियो उपेक्खानुभावेन सम्पज्जन्ती"ति एवमादिना नयेन उपेक्खापारमी पच्चवेक्खितब्बा। एवं अपरिच्चागपरिच्चागादीसु यथाक्कम आदीनवानिसंसपच्चवेक्खणा दानादिपारमीनं पच्चयोति दट्टब्बं ।
तथा सपरिक्खारा पञ्चदस चरणधम्मा पञ्च च अभिजायो । तत्थ चरणधम्मा नाम सीलसंवरो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता, भोजने मत्तञ्जता जागरियानुयोगो, सत्त सद्धम्मा, चत्तारि झानानि च । तेसु सीलादीनं चतुन्नं तेरसपि धुतङ्गधम्मा, अप्पिच्छतादयो च परिक्खारा । सद्धम्मेसु सद्धाय बुद्धधम्मसङ्घसीलचागदेवतुपसमानुस्सति लूखपुग्गलपरिवज्जना, सिनिद्धपुग्गलसेवना, सम्पसादनीयधम्मपच्चवेक्खणा, तदधिमुत्तता च परिक्खारा । हिरोत्तप्पानं अकुसलादीनवपच्चवेक्खणा, अपायादीनवपच्चवेक्खणा, कुसलधम्मपत्थम्भभावपच्चवेक्खणा, हिरोत्तप्परहितपुग्गलपरिवज्जना, हिरोत्तप्पसम्पन्नपुग्गलसेवना, तदधिमुत्तता च | बाहुसच्चस्स पुब्बयोगो, परिपुच्छकभावो, सद्धम्माभियोगो, अनवज्जविज्जावानादिपरिचयो, परिपक्किन्द्रियता, किलेसदूरीभावो, अप्पस्सुतपुग्गलपरिवज्जना बहुस्सुतपुग्गलसेवना, तदधिमुत्तता च। वीरियस्स अपायभयपच्चवेक्खणा, गमनवीथिपच्चवेक्खणा, धम्ममहत्तपच्चवेक्खणा, थिनमिद्धविनोदना, कुसीतपुग्गलपरिवज्जना, आरद्धवीरियपुग्गलसेवना, सम्मप्पधानपच्चवेक्खणा, तदधिमुत्तता च । सतिया सतिसम्पजञ्ज, मुट्ठस्सतिपुग्गलपरिवज्जना उपट्ठितस्सतिपुग्गलसेवना, तदधिमुत्तता च। पञाय परिपुच्छकभावो, वत्थुविसदकिरिया, इन्द्रियसमत्तपटिपादना, दुप्पञ्जपुग्गलपरिवज्जना, पञवन्तपुग्गलसेवना, गम्भीरञाणचरियसुत्तन्तपच्चवेक्खणा, धम्ममहत्तपच्चवेक्खणा, तदधिमुत्तता च | चतुन्नं झानानं सीलादिचतुक्कं, अट्ठतिसाय आरम्मणेसु पुब्बभागभावना, आवज्जनादिवसीभावकरणञ्च परिक्खारा ।।
तत्थ सीलादीहि पयोगसुद्धिया सत्तानं अभयदाने, आसयसुद्धिया आमिसदाने, उभयसुद्धिया धम्मदाने समत्थोहोतीतिआदिना चरणादीनं दानादिसम्भारपच्चयता यथारहं निद्धारेतब्बा । अतिवित्थारभयेन पन मयं न वित्थारयिम्ह । तथा सम्पत्तिचक्कादयोपि दानादीनं पच्चयोति वेदितब्बा ।
को संकिलेसोति एत्थ -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
तण्हादीहि परामट्ठ-भावो तासं किलिस्सनं । सामञतो विसेसेन, यथारहं विकप्पता ।।
अविसेसेन हि तण्हादीहि परामट्ठभावो पारमीनं संकिलेसो। विसेसेन पन देय्यधम्मपटिग्गाहकविकप्पा दानपारमिया संकिलेसो। सत्तकालविकप्पा सीलपारमिया । कामभवतदुपसमेसु अभिरतिअनभिरतिविकप्पा नेक्खम्मपारमिया । “अहं ममा''ति विकप्पा पञापारमिया। लीनुद्धच्चविकप्पा वीरियपारमिया। अत्तपरविकप्पा खन्तिपारमिया । अदिट्ठादीसु दिट्ठादिविकप्पा सच्चपारमिया । बोधिसम्भारतब्बिपक्खेसु दोसगुणविकप्पा अधिट्ठानपारमिया । हिताहितविकप्पा मेत्तापारमिया । इट्ठानिट्ठविकप्पा उपेक्खापारमिया संकिलेसोति वेदितब्बो ।
किं वोदानन्ति
तण्हादीहि अघातता, रहितता विकप्पानं । वोदानन्ति विजानिया, सब्बासमेव तासम्पि ।।
अनुपघाता हि तण्हा मान दिट्टि कोधु पनाह मक्ख पलास इस्सामच्छरिय माया साठेय्य थम्भ सारम्भ मद पमादादीहि किलेसेहि देय्यपटिग्गाहकविकप्पादिरहिता च दानादिपारमियो परिसुद्धा पभस्सरा भवन्तीति ।
को पटिपक्खोति -
अकुसला किलेसा च, पटिपक्खा अभेदतो । भेदतो पन पुब्बेपि, वुत्ता मच्छरियादयो ।।
अविसेसेन हि सब्बेपि अकुसला धम्मा, सब्बेपि किलेसा च एतासं पटिपक्खा । विसेसेन पन पुब्बे वुत्ता मच्छरियादयोति वेदितब्बा | अपिच देय्यपटिग्गाहकदानफलेसु अलोभादोसामोहगुणयोगतो लोभदोसमोहपटिपखं दानं, कायादिदोसत्तयवङ्कापगमतो लोभादिपटिपक्खं सीलं, कामसुखपरूपघातअत्तकिलमथपरिवज्जनतो दोसत्तयपटिपखं नेक्खम्म, लोभादीनं अन्धीकरणतो, आणस्स च अनन्धीकरणतो लोभादिपटिपक्खा पञ्जा,
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(१.१.७-७)
चूळसीलवणना
अलीनानुद्धतञायारम्भवसेन लोभादिपटिपक्खं वीरियं, इट्ठानिट्ठसुञतानं खमनतो लोभादिपटिपक्खा खन्ति, सतिपि परेसं उपकारे, अपकारे च यथाभूतप्पवत्तिया लोभादिपटिपक्खं सच्चं, लोकधम्मे अभिभुय्य यथासमादिन्नेसु सम्भारेसु अचलनतो लोभादिपरिपक्खं अधिट्ठानं, नीवरणविवेकतो लोभादिपटिपक्खा मेत्ता, इट्ठानिट्ठेसु अनुनयपटिघविद्धंसनतो, समप्पवत्तितो च लोभादिपटिपक्खा उपेक्खाति दट्टब्बं ।
का पटिपत्तीति
दानाकारादयो एव, उप्पादिता अनेकधा । पटिपत्तीति विञ्ञेय्या, पारमीपूरणक्कमे ।।
दानपारमिया हि ताव सुखूपकरणसरीरजीवितपरिच्चागेन, भयापनयनेन, धम्मोपदेसेन च बहुधा सत्तानं अनुग्गहकरणं पटिपत्ति । तत्थ आमिसदानं अभयदानं धम्मदानन्ति दातब्बवत्थुवसेन तिविधं दानं । तेसु बोधिसत्तस्स दातब्बवत्थु अज्झत्तिकं, बाहिरन्ति दुविधं । तत्थ बाहिरं अन्नं पानं वत्थं यानं माला गन्धं विलेपनं सेय्या आवसथं पदीपेय्यन्ति दसविधं । अन्नादीनं खादनीयभोजनीयादिविभागेन अनेकविधञ्च । तथा रूपारम्मणं याव धम्मारम्मणन्ति आरम्मणतो छब्बिधं । रूपारम्मणादीनञ्च नीलादिविभागेन अनेकविधं । तथा मणिकनकरजतमुत्तापवाळादिखेत्तवत्थुआरामादि दासीदासगोमहिंसादिनानाविधवत्थूपकरणवसेन
अनेकविधं ।
तत्थ महापुरिसो बाहिरं वत्युं देन्तो “यो येन अस्थिको, तं तस्सेव देति । देन्तो च तस्स अस्थिको ति सयमेव जानन्तो अयाचितोपि देति, पगेव याचितो । मुत्तचागो देति, नो अमुत्तचागो । परियत्तं देति, नो अपरियत्तं । सति देव्यधम्मे पच्चुपकारसन्निस्सितो न देति, असति देय्यधम्मे, परियत्ते च संविभागारहं विभजति । न च देति परूपघातावहं सत्थविसमज्जादिकं, नापि कीळनकं, यं अनत्थुपसंहितं, पमादावहञ्च न च गिलानस्स याचकस्स पानभोजनादिअसप्पायं, पमाणरहितं वा देति, पमाणयुत्तं पन सप्पायमेव देति ।
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,
तथा याचितो गहट्टानं गहट्ठानुच्छविकं देति पब्बजितानं पब्बजितानुच्छविकं देति । मातापितरो ञातिसालोहिता मित्तामच्चा पुत्तदारदासकम्मकराति एतेसु कस्सचि पीळं अजनेन्तो देति, न च उळारं देय्यधम्मं पटिजानित्वा लूखं देति, न च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
लाभसक्कारसिलोकसन्निस्सितो देति, न च पच्चुपकारसन्निस्सितो देति, न च फलपाटिकङ्घी देति अत्र सम्मासम्बोधिया, न च याचितो, देय्यधम्मं वा जिगुच्छन्तो देति, न च असञतानं याचकानं अक्कोसकपरिभासकानम्पि अपविद्धा दानं देति, अञदत्थु पसन्नचित्तो अनुकम्पन्तो सक्कच्चमेव देति, न च कोतूहलमङ्गलिको हुत्वा देति, कम्मफलमेव पन सद्दहन्तो देति, नापि याचके पयिरुपासनादीहि संकिलमेत्वा देति, अपरिकिलमेन्तो एव पन देति, न च परेसं वञ्चनाधिप्पायो, भेदाधिप्पायो वा दानं देति, असंकिलिट्ठचित्तोव देति, नापि फरुसवाचो भाकुटिकमुखो दानं देति, पियवादी च पन पुब्बभासी मिहितसितवचनो हुत्वा देति, यस्मिं चे देय्यधम्मे उळारमनुताय वा चिरपरिचयेन वा गेधसभावताय वा लोभधम्मो अधिमत्तो होति, जानन्तो बोधिसत्तो तं खिप्पमेव पटिविनोदयित्वा याचके परियेसेत्वापि देति, यञ्च देय्यवत्थु परित्तं, याचकोपि पच्चुपट्टितो, तं अचिन्तेत्वा अपि अत्तानं धावित्वा देन्तो याचकं सम्मानेति यथा तं अकित्तिपण्डितो, न च महापुरिसो अत्तनो पुत्तदारदासकम्मकरपोरिसे याचितो ते असञापिते दोमनस्सप्पत्ते याचकानं देति, सम्मदेव पन सापिते सोमनस्सप्पत्ते देति, देन्तो च यक्खरक्खसपिसाचादीनं वा मनुस्सानं वा कुरूरकम्मन्तानं जानन्तो न देति, तथा रज्जम्पि तादिसानं न देति, ये लोकस्स अहिताय दुक्खाय अनत्थाय पटिपज्जन्ति, ये पन धम्मिका धम्मेन लोकं पालेन्ति, तेसं रज्जदानं देति । एवं ताव बाहिरदाने पटिपत्ति वेदितब्बा ।
अज्झत्तिकदानम्पि द्वीहाकारेहि वेदितब्बं । कथं? यथा नाम कोचि पुरिसो घासच्छादनहेतु अत्तानं परस्स निस्सज्जति, विधेय्यभावं उपगच्छति दासब्यं, एवमेव महापुरिसो सम्बोधिहेतु निरामिसचित्तो सत्तानं अनुत्तरं हितसुखं इच्छन्तो अत्तनो दानपारमिं परिपूरेतुकामो अत्तानं परस्स निस्सज्जति, विधेय्यभावं उपगच्छति यथाकामकरणीयतं, करचरणनयनादिअङ्गपच्चङ्गं तेन तेन अस्थिकानं अकम्पितो अलीनो अनुप्पदेति, न तत्थ सज्जति, न सङ्कोचं आपज्जति यथा तं बाहिरवत्थुस्मिं । तथा हि महापुरिसो द्वीहाकारेहि बाहिरवत्थु परिच्चजति यथासुखं परिभोगाय वा याचकानं, तेसं मनोरथं पूरेन्तो अत्तनो वसीभावाय वा । तत्थ सब्बेन सब्बं मुत्तचागो एवमाह “निस्सङ्गभावेनाहं सम्बोधिं पापुणिस्सामी"ति, एवं अज्झत्तिकवत्थुस्मिम्पि वेदितब्बं ।
तत्थ यं अज्झत्तिकवत्थु दिय्यमानं याचकस्स एकन्तेनेव हिताय संवत्तति, तं देति, न इतरं । न च महापुरिसो मारस्स, मारकायिकानं वा देवतानं विहिंसाधिप्पायानं अत्तनो
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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अत्तभावं, अङ्गपच्चङ्गानि वा जानमानो देति “मा तेसं अनत्थो अहोसी''ति । यथा च मारकायिकानं, एवं तेहि अन्वाविट्ठानम्पि न देति, नापि उम्मत्तकानं, इतरेसं पन याचियमानो समनन्तरमेव देति तादिसाय याचनाय दुल्लभभावतो, तादिसस्स च दानस्स दुक्करभावतो।
अभयदानं पन राजतो चोरतो अग्गितो उदकतो वेरीपुग्गलतो सीहब्यग्घादिवाळमिगतो नागयक्खरक्खसपिसाचादितो सत्तानं भये पच्चुपट्टिते ततो परित्ताणभावेन दातब्बं ।
धम्मदानं पन असंकिलिट्ठचित्तस्स अविपरीतधम्मदेसना। ओपायिको हि तस्स उपदेसो दिट्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थवसेन, येन सासने अनोतिण्णानं अवतारणं ओतिण्णानं परिपाचनं । तत्थायं नयो - सोपतो ताव दानकथा सीलकथा सग्गकथा कामानं आदीनवो संकिलेसो ओकारो च नेक्खम्मे आनिसंसो। वित्थारतो पन सावकबोधियं अधिमुत्तचित्तानं सरणगमनं, सीलसंवरो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारता, भोजने मत्तञ्जता, जागरियानुयोगो, सत्त सद्धम्मा, अट्ठतिसाय आरम्मणेसु कम्मकरणवसेन समथानुयोगो, रूपमुखादीसु विपस्सनाभिनिवेसेसु यथारहं अभिनिवेसनमुखेन विपस्सनानुयोगो, तथा विसुद्धिपटिपदाय सम्मत्तगहणं, तिस्सो विज्जा, छ अभिञा, चतस्सो पटिसम्भिदा, सावकबोधीति एतेसं गुणसंकित्तनवसेन यथारहं तत्थ तत्थ पतिठ्ठापना, परियोदपना च । तथा पच्चेकबोधियं, सम्मासम्बोधियञ्च अधिमुत्तचित्तानं यथारहं दानादिपारमीनं सभावसरसलक्खणादिसंकित्तनमुखेन तीसुपि अवत्थाभेदेसु तेसं बुद्धानं महानुभावताविभावनेन यानद्वये पतिट्ठापना, परियोदपना च । एवं महापुरिसो सत्तानं धम्मदानं देति ।
तथा महापुरिसो आमिसदानं देन्तो “इमिनाहं दानेन सत्तानं आयुवण्णसुखबलपटिभानादिसम्पत्तिञ्च रमणीयं अग्गफलसम्पत्तिञ्च निप्फादेय्य''न्ति अनं देति, तथा सत्तानं कामकिलेसपिपासवूपसमाय पानं देति, तथा सुवण्णवण्णताय, हिरोत्तप्पालङ्कारस्स च निष्फत्तिया वत्थानि देति, तथा इद्धिविधस्स चेव निब्बानसुखस्स च निप्फत्तिया यानं देति, तथा सीलगन्धनिप्फत्तिया गन्धं देति, तथा बुद्धगुणसोभानिप्फत्तिया मालाविलेपनं देति, तथा बोधिमण्डासननिप्फत्तिया आसनं देति, तथागतसेय्यनिष्फत्तिया सेय्यं देति, सरणभावनिप्फत्तिया आवसथं देति, पञ्चचक्खुपटिलाभाय पदीपेय्यं देति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
ब्यामप्पभानिष्फत्तिया रूपदानं देति, ब्रह्मस्सरनिप्फत्तिया सद्ददानं देति, सब्बलोकस्स पियभावाय रसदानं देति, बुद्धसुखुमालभावाय फोटुब्बदानं देति, अजरामरणभावाय भेसज्जदानं देति, किलेसदासब्यविमोचनत्थं दासानं भुजिस्सतादानं देति, सद्धम्माभिरतिया अनवज्जखिड्डारतिहेतुदानं देति, सब्बेपि सत्ते अरियाय जातिया अत्तनो पुत्तभावूपनयनाय पुत्तदानं देति, सकलस्सापि लोकस्स पतिभावूपगमनाय दारदानं देति, सुभलक्खणसम्पत्तिया सुवण्णमणिमुत्तापवाळादिदानं, अनुब्यञ्जनसम्पत्तिया नानाविधविभूसनदानं, सद्धम्मकोसाधिगमाय वित्तकोसदानं, धम्मराजभावाय रज्जदानं, दानादिसम्पत्तिया आरामुय्यानादिवनदानं, चक्कङ्कितेहि पादेहि बोधिमण्डूपसङ्कमनाय चरणदानं, चतुरोघनित्थरणे सत्तानं सद्धम्महत्थदानत्थं हत्थदानं, सद्धिन्द्रियादिपटिलाभाय कण्णनासादिदानं, समन्तचक्खुपटिलाभाय चक्खुदानं, “दस्सनसवनानुस्सरणपारिचरियादीसु सब्बकालं सब्बसत्तानं हितसुखावहो सब्बलोकेन च उपजीवितब्बो मे कायो भवेय्या''ति मंसलोहितादिदानं । “सब्बलोकुत्तमो भवेय्य"न्ति उत्तमङ्गदानं देति।
एवं ददन्तो च न अनेसनाय देति, न परोपघातेन, न भयेन, न लज्जाय, न दक्खिणेय्यरोसनेन, न पणीते सति लूखं, न अत्तुक्कंसनेन, न परवम्भनेन, न फलाभिकवाय, न याचकजिगुच्छाय, न अचित्तीकारेन, अथ खो सक्कच्चं देति, सहत्थेन देति, कालेन देति, चित्तिं कत्वा देति, अविभागेन देति, तीसु कालेसु सोमनस्सिको देति, ततो एव च दत्वा न पच्छानुतापी होति, न पटिग्गाहकवसेन मानावमानं करोति, पटिग्गाहकानं पियसमुदाचारो होति वदञ्जू याचयोगो सपरिवारदायको । अन्नदानहि देन्तो "तं सपरिवारं कत्वा दस्सामी"ति वत्थादीहि सद्धिं देति, तथा वत्थदानं देन्तो "तं सपरिवारं कत्वा दस्सामी''ति अन्नादीहि सद्धिं देति । पानदानादीसुपि एसेव नयो, तथा रूपदानं देन्तो इतरारम्मणानिपि तस्स परिवारं कत्वा देति, एवं सेसेसुपि ।
तत्थ रूपदानं नाम नीलपीतलोहितोदातादिवण्णादीसु पुप्फवत्थधातूसु अञ्जतरं लभित्वा रूपवसेन आभुजित्वा “रूपदानं दस्सामि, रूपदानं मय्ह''न्ति चिन्तेत्वा तादिसे दक्खिणेय्ये दानं पतिट्ठापेति, एतं रूपदानं नाम ।
सद्ददानं पन भेरीसद्दादिवसेन वेदितब्बं । तत्थ सदं कन्दमूलानि विय उप्पाटेत्वा, नीलुप्पलहत्थकं विय च हत्थे ठपेत्वा दातुं न सक्कोति, सवत्थुकं पन कत्वा ददन्तो सद्ददानं देति नाम, तस्मा यदा “सद्ददानं दस्सामी''ति भेरीमुदिङ्गादीसु अञ्जतरेन तूरियेन
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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तिण्णं रतनानं उपहारं करोति, कारेति च, “सद्ददानं दस्सामि, सद्ददानं मे''ति भेरीआदीनि ठपापेति, धम्मकथिकानं पन सद्दभेसज्जं, तेलफाणितादीनि च देति, धम्मस्सवनं घोसेति, सरभञ्ज भणति, धम्मकथं कथेति, उपनिसिन्नकथं, अनुमोदनकथञ्च करोति, कारेति च, तदा सद्ददानं नाम होति ।
तथा मूलगन्धादीसु अञतरं रजनीयं गन्धवत्थु, पिसितमेव वा गन्धं यं किञ्चि लभित्वा गन्धवसेन आभुजित्वा “गन्धदानं दस्सामि, गन्धदानं मय्हन्ति बुद्धरतनादीनं पूजं करोति, कारेति च, गन्धपूजनत्थाय अगरुचन्दनादिके गन्धवत्थुके परिच्चजति, इदं गन्धदानं ।
तथा मूलरसादीसु यं किञ्चि रजनीयं रसवत्थु लभित्वा रसवसेन आभुजित्वा "रसदानं दस्सामि, रसदानं मव्ह"न्ति दक्खिणेय्यानं देति, रसवत्थुमेव वा अझं गवादिकं परिच्चजति, इदं रसदानं।
तथा फोट्टब्बदानं मञ्चपीठादिवसेन, अत्थरणपावुरणादिवसेन च वेदितब्बं । यदा हि मञ्चपीठभिसिबिब्बोहनादिकं, निवासनपारुपनादिकं वा सुखसम्फस्सं रजनीयं अनवज्ज फोट्टब्बवत्थु लभित्वा फोठुब्बवसेन आभुजित्वा “फोट्ठब्बदानं दस्सामि, फोट्ठब्बदानं मव्ह''न्ति दक्खिणेय्यानं देति । यथावुत्तं फोटुब्बवत्थु लभित्वा परिच्चजति, एतं फोटब्बदानं ।
धम्मदानं पन धम्मारम्मणस्स अधिप्पेतत्ता ओजापानजीवितवसेन वेदितब्बं । ओजादीसु हि अञ्जतरं रजनीयं धम्मवत्थु लभित्वा धम्मारम्मणवसेन आभुजित्वा “धम्मदानं दस्सामि, धम्मदानं मय्ह"न्ति सप्पिनवनीतादि ओजदानं देति, अम्बपानादिअट्ठविधं पानदानं देति, जीवितदानन्ति आभुजित्वा सलाकभत्तपक्खिकभत्तादीनि देति । अफासुकभावेन अभिभूतानं ब्याधिकानं वेज्जं पट्टपेति, जालं फालापेति, कुमीनं विद्धंसापेति, सकुणपञ्जरं विद्धंसापेति, बन्धनेन बद्धानं सत्तानं बन्धनमोक्खं कारेति, माघातभेरिं चरापेति, अानिपि सत्तानं जीवितपरित्ताणत्थं एवरूपानि कम्मानि करोति, कारापेति च, इदं धम्मदानं नाम।
सब्बम्पेतं यथावुत्तदानसम्पदं सकललोकहितसुखाय परिणामेति अत्तनो च अकुप्पाय विमुत्तिया अपरिक्खयस्स छन्दस्स अपरिक्खयस्स वीरियस्स अपरिक्खयस्स समाधिस्स अपरिक्खयस्स पटिभानस्स अपरिक्खयस्स झानस्स अपरिक्खयाय सम्मासम्बोधिया
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
परिणामेति, इमञ्च दानपारमिं पटिपज्जन्तेन महासत्तेन जीविते अनिच्चसञ्जा पच्चुपट्टपेतब्बा। तथा भोगेसु, बहुसाधारणता च नेसं मनसि कातब्बा, सत्तेसु च महाकरुणा सततं समितं पच्चुपट्टपेतब्बा। एवहि भोगेहि गहेतब्बसारं गण्हन्तो आदित्ततो विय अगारतो सब्बं सापतेय्यं, अत्तानञ्च बहि नीहरन्तो न किञ्चि सेसेति, न कत्थचि विभागं करोति, अञदत्थु निरपेक्खो निस्सज्जति एव । अयं ताव दानपारमिया पटिपत्तिक्कमो।
सीलपारमिया पन अयं पटिपत्तिक्कमो - यस्मा सब्बञ्जसीलालङ्कारेहि सत्ते अलङ्करितुकामेन महापुरिसेन आदितो अत्तनो एव ताव सीलं विसोधेतब्बं । तत्थ चतूहाकारेहि सीलं विसुज्झति अज्झासयविसुद्धितो, समादानतो, अवीतिक्कमनतो, सति वीतिक्कमे पुन पाकटीकरणतो च । विसुद्धासयताय हि एकच्चो अत्ताधिपति हुत्वा पापजिगुच्छनसभावो अज्झत्तं हिरिधम्म पच्चुपट्टपेत्वा सुपरिसुद्धसमाचारो होति, तथा परतो समादाने सति एकच्चो लोकाधिपति हुत्वा पापतो उत्तसन्तो ओत्तप्पधम्मं पच्चुपट्ठपेत्वा सुपरिसुद्धसमाचारो होति, इति उभयथापि एते अवीतिक्कमनतो सीले पतिठ्ठहन्ति । अथ च पन कदाचि सतिसम्मोसेन सीलस्स खण्डादिभावो सिया, ताययेव यथावुत्ताय हिरोत्तप्पसम्पत्तिया खिप्पमेव नं वुढानादिना पटिपाकतिकं करोन्तीति ।
तयिदं सीलं वारित्तं चारित्तन्ति दुविधं । तत्थायं बोधिसत्तस्स वारित्तसीले पटिपत्तिक्कमो - तेन सब्बसत्तेसु तथा दयापन्नचित्तेन भवितब्बं, यथा सुपिनन्तेनपि न आघातो उप्पज्जेय्य, परूपकरणविरतताय परसन्तको अलगद्दो विय न परामसितब्बो । सचे पब्बजितो होति, अब्रह्मचरियतोपि आराचारी होति सत्तविधमेथुनसंयोगविरतो, पगेव परदारगमनतो । गहठ्ठो समानो परेसं दारेसु सदा पापकं चित्तम्पि न उप्पादेति | कथेन्तो सच्चं हितं पियं परिमितमेव च कालेन धम्मिं कथं भासिता होति । सब्बत्थ अनभिज्झालु, अब्यापन्नचित्तो, अविपरीतदस्सनो कम्मस्सकताजाणेन च समन्नागतो। समग्गतेसु सम्मापटिपन्नेसु निविट्ठसद्धो होति निविठ्ठपेमोति।
इति चतुरापायवट्टदुक्खानं पथभूतेहि अकुसलकम्मपथेहि, अकुसलधम्मेहि च ओरमित्वा सग्गमोक्खानं पथभूतेसु कुसलकम्मपथेसु, कुसलधम्मेसु च पतिट्ठितस्स महापुरिसस्स परिसुद्धासयपयोगतो यथाभिपत्थिता सत्तानं हितसुखूपसहिता मनोरथा सीघं सीघं अभिनिष्फज्जन्ति, पारमियो परिपूरेन्ति । एवंभूतो हि अयं । तत्थ हिंसानिवत्तिया
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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सब्बसत्तानं अभयदानं देति, अप्पकसिरेनेव मेत्ताभावनं सम्पादेति, एकादस मेत्तानिससे अधिगच्छति, अप्पाबाधो होति अप्पातङ्को, दीघायुको सुखबहुलो, लक्खणविसेसे पापुणाति, दोसवासनञ्च समुच्छिन्दति । तथा अदिन्नादाननिवत्तिया चोरादीहि असाधारणे भोगे अधिगच्छति, परेहि अनासङ्कनीयो, पियो, मनापो, विस्सासनीयो, भवसम्पत्तीसु अलग्गचित्तो परिच्चागसीलो, लोभवासनञ्च समुच्छिन्दति । अब्रह्मचरियनिवत्तिया अलोभो होति सन्तकायचित्तो, सत्तानं पियो होति मनापो अपरिसङ्कनीयो, कल्याणो चस्स कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छति, अलग्गचित्तो होति मातुगामेसु अलुद्धासयो, नेक्खम्मबहुलो, लक्खणविसेसे अधिगच्छति, लोभवासनञ्च समुच्छिन्दति ।
मुसावादनिवत्तिया सत्तानं पमाणभूतो होति पच्चयिको थेतो आदेय्यवचनो देवतानं पियो मनापो सुरभिगन्धमुखो असद्धम्मारक्खितकायवचीसमाचारो, लक्खणविसेसे अधिगच्छति, किलेसवासनञ्च समुच्छिन्दति । पेसुञनिवत्तिया परूपक्कमेहि अभेज्जकायो होति अभेज्जपरिवारो, सद्धम्मे च अभेज्जनकसद्धो, दळहमित्तो भवन्तरपरिचितानम्पि सत्तानं एकन्तपियो, असंकिलेसबहुलो । फरुसवाचानिवत्तिया सत्तानं पियो होति मनापो सुखसीलो मधुरवचनो सम्भावनीयो, अट्टङ्गसमन्नागतो चस्स सरो निब्बत्तति । सम्फप्पलापनिवत्तिया सत्तानं पियो होति मनापो, गरुभावनीयो च, आदेय्यवचनो परिमितालापो, महेसक्खो च होति महानुभावो, ठानुप्पत्तिकेन पटिभानेन पहाब्याकरणकुसलो, बुद्धभूमियञ्च एकाय एव वाचाय अनेकभासानं सत्तानं अनेकेसं पञ्हानं ब्याकरणसमत्थो होति ।
अनभिज्झालुताय अकिच्छलाभी होति, उळारेसु च भोगेसु रुचिं पटिलभति, खत्तियमहासालादीनं सम्मतो होति, पच्चत्थिकेहि अनभिभवनीयो, इन्द्रियवेकल्लं न पापुणाति, अप्पटिपुग्गलो च होति । अब्यापादेन पियदस्सनो होति सत्तानं सम्भावनीयो, परहिताभिनन्दिताय च सत्ते अप्पकसिरेनेव पसादेति, अलूखसभावो च होति मेत्ताविहारी, महेसक्खो च होति महानुभावो। मिच्छादस्सनाभावेन कल्याणे सहाये पटिलभति, सीसच्छेदं पापुणन्तोपि पापकम्मं न करोति, कम्मस्सकतादस्सनतो अकोतूहलमङ्गलिको च होति, सद्धम्मे चस्स सद्धा पतिहिता होति मूलजाता, सद्दहति च तथागतानं बोधिं, समयन्तरेसु नाभिरमति उक्कारट्ठाने राजहंसो विय, लक्खणत्तयविजानने कुसलो होति, अन्ते च अनावरणाणलाभी, याव च बोधिं न पापुणाति, ताव तस्मिं तस्मिं सत्तनिकाये उक्कढुक्कट्ठी होति, उळारुळारसम्पत्तियो पापुणाति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
“इति हिदं सीलं नाम सब्बसम्पत्तीनं अधिट्ठानं, सब्बबुद्धगुणानं पभवभूमि, सब्बबुद्धकारकधम्मानं आदि चरणं कारणं मुखं पमुख''न्ति बहुमानं उप्पादेत्वा कायवचीसंयमे, इन्द्रियदमने, आजीवपारिसुद्धियं, पच्चयपरिभोगे च सतिसम्पजञबलेन अप्पमत्तो होति, लाभसक्कारसिलोकं उक्खित्तासिकपच्चत्थिकं विय सल्लक्खेत्वा “किकीव अण्ड''न्तिआदिना (विसुद्धि १.७; दी० नि० अट्ठ० १.७) वुत्तनयेन सक्कच्चं सीलं सम्पादेतब्बं । अयं ताव वारित्तसीले पटिपत्तिक्कमो ।
चारित्तसीले पन पटिपत्ति एवं वेदितब्बा - इध बोधिसत्तो कल्याणमित्तानं गरुडानियानं अभिवादनं पच्चुट्टानं अञ्जलिकम्मं सामीचिकम्मं कालेन कालं कत्ता होति, तथा तेसं कालेन कालं उपट्टानं कत्ता होति, गिलानानं कायवेय्यावटिकं, वाचाय पुच्छनञ्च कत्ता होति, सुभासितपदानि सुत्वा साधुकारं कत्ता होति, गुणवन्तानं गुणे वण्णेता, परेसं अपकारे खन्ता, उपकारे अनुस्सरिता, पुञानि अनुमोदिता, अत्तनो पुञानि सम्मासम्बोधिया परिणामेता, सब्बकालं अप्पमादविहारी कुसलेसु धम्मेसु, सति च अच्चये अच्चयतो दिस्वा तादिसानं सहधम्मिकानं यथाभूतं आवि कत्ता, उत्तरिञ्च सम्मापटिपत्तिं सम्मदेव परिपूरेता ।
तथा अत्तनो अनुरूपासु अत्थूपसंहितासु सत्तानं इतिकत्तब्बतापुरेक्खारो अनलसो सहायभावं उपगच्छति । उप्पन्नेसु च सत्तानं ब्याधिआदिदुक्खेसु यथारहं पतिकारविधायको, आतिभोगादिब्यसनपतितेसु सोकपनोदनो, उल्लुम्पनसभावावट्ठितो हुत्वा निग्गहारहानं धम्मेनेव निग्गण्हनको यावदेव अकुसला वुढापेत्वा कुसले पतिट्ठापनाय, पग्गहारहानं धम्मेनेव परगण्हनको । यानि पुरिमकानं महाबोधिसत्तानं उळारतमानि परमदुक्करानि अचिन्तेय्यानुभावानि सत्तानं एकन्तहितसुखावहानि चरितानि, येहि नेसं बोधिसम्भारा सम्मदेव परिपाकं अगमिंस, तानि सुत्वा अनुब्बिग्गो अनुत्रासो "तेपि महापुरिसा मनुस्सा एव, अनुक्कमेन पन सिक्खापारिपूरिया भावितत्ता तादिसाय उळारतमाय आनभावसम्पत्तिया बोधिसम्भारेस उक्कंसपारमिप्पत्ता अहेसं. तस्मा मयापि सीलादिसिक्खासु सम्मदेव तथा पटिपज्जितब्बं, याय पटिपत्तिया अहम्पि अनुक्कमेन सिक्खं परिपूरेत्वा एकन्ततो पदं अनुपापुणिस्सामी''ति सद्धापुरेचारिकं वीरियं अविस्सज्जन्तो सम्मदेव सीलेसु परिपूरकारी होति ।
तथा पटिच्छन्नकल्याणो होति विवटापराधो, अप्पिच्छो सन्तुट्ठो पविवित्तो असंसट्ठो
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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दुक्खसहो अविपरीतदस्सनजातिको अनुद्धतो अनुन्नळो अचपलो अमुखरो अविकिण्णवाचो संवुतिन्द्रियो सन्तमानसो कुहनादिमिच्छाजीवविरहितो आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु, आरद्धवीरियो पहितत्तो काये च जीविते च निरपेक्खो, अप्पमत्तकम्पि काये, जीविते वा अपेक्खं नाधिवासेति पजहति विनोदेति, पगेव अधिमत्तं । सब्बेपि दुस्सील्यहेतुभूते कोधुपनाहादिके किलेसुपक्किलेसे पजहति विनोदेति, अप्पमत्तकेन विसेसाधिगमेन अपरितुट्ठो होति, न सङ्कोचं आपज्जति, उपरूपरिविसेसाधिगमाय वायमति ।
येन यथालद्धा सम्पत्ति हानभागिया वा ठितिभागिया वा न होति, तथा महापुरिसो अन्धानं परिणायको होति, मग्गं आचिक्खति, बधिरानं हत्थमुद्दाय सनं देति, अत्थमनुग्गाहेति, तथा मूगानं । पीठसप्पिकानं पीठं देति, वाहेति वा । अस्सद्धानं सद्धापटिलाभाय वायमति, कुसीतानं उस्साहजननाय, मुट्ठस्सतीनं सतिसमायोगाय । विब्भन्तत्तानं समाधिसम्पदाय, दुप्पानं पञआधिगमाय वायमति । कामच्छन्दपरियुट्टितानं कामच्छन्दपटिविनोदनाय वायमति । ब्यापादथिनमिद्धउद्धच्चकुक्कुच्चविचिकिच्छापरियुट्ठितानं विचिकिच्छाविनोदनाय वायमति । कामवितक्कादिपकतानं कामवितक्कादिमिच्छावितक्कविनोदनाय वायमति । पुब्बकारीनं सत्तानं कतञ्जतं निस्साय पुब्बभासी पियवादी सङ्गाहको सदिसेन, अधिकेन वा पच्चुपकारे सम्मानेता होति ।
आपदासु सहायकिच्चं अनुतिट्ठति, तेसं तेसञ्च सत्तानं पकति, सभावञ्च परिजानित्वा येहि यथा संवसितब्बं होति, तेहि तथा संवसति । येसु च यथा पटिपज्जितब होति, तेसु तथा पटिपज्जति । तञ्च खो अकुसलतो वुढापेत्वा कुसले पतिट्ठापनवसेन, न अञथा। परचित्तानुरक्खणा हि बोधिसत्तानं यावदेव कुसलाभिवड्डिया । तथा हितज्झासयेनापि परो न साहसितब्बो, न भण्डितब्बो, न मङ्कुभावमापादेतब्बो, न परस्स कुक्कुच्चं उप्पादेतब्, न निग्गहटाने चोदेतब्बो, न नीचतरं पटिपन्नस्स अत्ता उच्चतरे ठपेतब्बो, न च परेसु सब्बेन सब्बं असेविना भवितब्बं, न अतिसेविना, न अकालसेविना भवितब् ।
___ युत्ते पन सत्ते देसकालानुरूपं सेवति, न च परेसं पुरतो पियेपि गरहति, अप्पिये वा पसंसति, न अधिट्ठाय विस्सासी होति, न धम्मिकं उपनिमन्तनं पटिक्खिपति, न पञत्तिं उपगच्छति, नाधिकं पटिग्गण्हाति, सद्धासम्पन्ने सद्धानिसकथाय सम्पहंसेति,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
सीलसुतचागपञ्जासम्पन्ने पञानिसंसकथाय सम्पहंसेति। सचे पन बोधिसत्तो अभिज्ञाबलप्पत्तो होति, पमादापन्ने सत्ते अभिभाबलेन यथारहं निरयादिके दस्सेन्तो संवेजेत्वा अस्सद्धादिके सद्धादीसु पतिट्ठापेति, सासने ओतारेति, सद्धादिगुणसम्पन्ने परिपाचेति । एवमस्स महापुरिसस्स चारित्तभूतो अपरिमाणो पुञाभिसन्दो कुसलाभिसन्दो उपरूपरि अभिवड्डतीति वेदितब्बं ।
अपिच या सा "किं सीलं, केनटेन सील''न्तिआदिना पुच्छं कत्वा "पाणातिपातादीहि विरमन्तस्स, वत्तपटिपत्तिं वा पूरेन्तस्स चेतनादयो धम्मा सील''न्तिआदिना नयेन नानप्पकारतो सीलस्स वित्थारकथा विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.६) वुत्ता, सा सब्बापि इध आहरित्वा वत्तब्बा । केवलन्हि तत्थ सावकबोधिसत्तवसेन सीलकथा आगता, इध महाबोधिसत्तवसेन करुणूपायकोसल्लपुब्बङ्गमं कत्वा वत्तब्बाति अयमेव विसेसो । यतो इदं सीलं महापुरिसो यथा न अत्तनो दुग्गतियं परिकिलेसविमुत्तिया, सुगतियम्पि न रज्जसम्पत्तिया, न चक्कवत्ती, न देव, न सक्क, न मार, न ब्रह्मसम्पत्तिया परिणामेति, तथा न अत्तनो तेविज्जताय, न छळभिज्ञताय, न चतुपटिसम्भिदाधिगमाय, न सावकबोधिया, न पच्चेकबोधिया परिणामेति, अथ खो सब्ब भावेन सब्बसत्तानं अनुत्तरसीलालङ्कारसम्पादनत्थमेव परिणामेतीति अयं सीलपारमिया पटिपत्तिक्कमो।
तथा यस्मा करुणूपायकोसल्लपरिग्गहिता आदीनवदस्सनपुब्बङ्गमा कामेहि च भवेहि च निक्खमनवसेन पवत्ता कुसलचित्तुप्पत्ति नेक्खम्मपारमी, तस्मा सकलसंकिलेसनिवासनट्ठानताय, पुत्तदारादीहि महासम्बाधताय, कसिवाणिज्जादिनानाविधकम्मन्ताधिट्ठानब्याकुलताय च घरावासस्स नेक्खम्मसुखादीनं अनोकासतं, कामानञ्च "सत्थधारालग्गमधुबिन्दु विय च कदली विय च अवलेय्हमानपरित्तस्सादविपुलानत्थानुबन्धा''ति च विज्जुलतोभासेन गहेतब्बं नच्चं विय परित्तकालूपलब्भा, उम्मत्तकालङ्कारो विय विपरीतसाय अनुभवितब्बा, करीसावच्छादनमुखं विय पटिकारभूता, उदके तेमितङ्गुलिया निसारुदकपानं विय अतित्तिकरा, छातज्झत्तभोजनं विय साबाधा, बलिसामिसं विय ब्यासनुपनिपातकारणा, (ब्यसनसन्निपातकारणा -- दी० नि० टी० १.७) अग्गिसन्तापो विय कालत्तयेपि दुक्खुप्पत्तिहेतुभूता, मक्कटालेपो विय बन्धननिमित्ता, घातकावच्छादनकिमालयो विय अनत्थच्छादना, सपत्तगामवासो विय भयट्ठानभूता, पच्चत्थिकपोसको विय किलेसमारादीनं आमिसभूता, छणसम्पत्तियो विय विपरिणामदुक्खा,
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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कोटरग्गि विय अन्तोदाहका, पुराणकूपावलम्बबीरणमधुपिण्डं विय अनेकादीनवा, लोणूदकपानं विय पिपासाहेतुभूता, सुरामेरयं विय नीचजनसेविता, अप्पस्सादताय अट्ठिकङ्कलूपमा''तिआदिना च नयेन आदीनवं सल्लक्खेत्वा तब्बिपरियायेन नेक्खम्मे आनिसंसं पस्सन्तेन नेक्खम्मपविवेकउपसमसुखादीसु निन्नपोणपब्भारचित्तेन नेक्खम्मपारमियं पटिपज्जितब्बं ।
यस्मा पन नेक्खम्म पब्बज्जामूलकं, तस्मा पब्बज्जा ताव अनुट्टातब्बा । पब्बज्जमनुतिद्वन्तेन महासत्तेन असति बुद्धप्पादे कम्मवादीनं किरियवादीनं तापसपरिब्बाजकानं पब्बज्जा अनुट्ठातब्बा | उप्पन्नेसु पन सम्मासम्बुद्धेसु तेसं सासने एव पब्बजितब्बं । पब्बजित्वा च यथावुत्ते सीले पतिहितेन तस्सा एव सीलपारमिया वोदापनत्थं धुतगुणा समादातब्बा। समादिन्नधुतधम्मा हि महापुरिसा सम्मदेव ते परिहरन्ता अप्पिच्छासन्तुट्ठसल्लेखपविवेकअसंसग्गवीरियारम्भसुभरतादिगुणसलिलविक्खालितकिलेसमलताय अनवज्जसीलवतगुणपरिसुद्धसमाचारा पोराणे अरियवंसत्तये पतिट्ठिता चतुत्थं भावनारामतासङ्खातं अरियवंसं गन्तुं चत्तारीसाय आरम्मणेसु यथारहं उपचारप्पनाभेदं झानं उपसम्पज्ज विहरन्ति । एवहिस्स सम्मदेव नेक्खम्मपारमी पारिपूरिता होति । इमस्मिं पन ठाने तेरसहि धुतधम्मेहि सद्धिं दस कसिणानि दसासुभानि दसानुस्सतियो चत्तारो ब्रह्मविहारा चत्तारो आरुप्पा एका सञा एकं ववत्थानन्ति चत्तारीस समाधिभावनाकम्मट्ठानानि, भावनाविधानञ्च वित्थारतो वत्तब्बानि, तं पनेतं सब् यस्मा विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि १.२२, ४७) सब्बाकारतो वित्थारेत्वा वुत्तं, तस्मा तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । केवलहि तत्थ सावकबोधिसत्तस्स वसेन वुत्तं, इध महाबोधिसत्तस्स वसेन करुणूपायकोसल्लपुब्बङ्गमं कत्वा वत्तब्बन्ति अयमेव विसेसो । एवमेत्थ नेक्खम्मपारमिया पटिपत्तिक्कमो वेदितब्बो ।
तथा पञापारमिं सम्पादेतुकामेन यस्मा पञ्जा आलोको विय अन्धकारेन मोहेन सह न वत्तति, तस्मा मोहकारणानि ताव बोधिसत्तेन परिवज्जेतब्बानि । तत्थिमानि मोहकारणानि-अरति तन्दी विजम्भिता आलसियं गणसङ्गणिकारामता निद्दासीलता अनिच्छयसीलता आणस्मिं अकुतूहलता मिच्छाधिमानो अपरिपुच्छकता. कायस्स नसम्मापरिहारो असमाहितचित्तता दुप्पानं पुग्गलानं सेवना पञ्जवन्तानं अपयिरुपासना अत्तपरिभवो मिच्छाविकप्पो विपरीताभिनिवेसो कायदळहीबहुलता असंवेगसीलता पञ्च नीवरणानि, सङ्घपतो येवापनधम्मे आसेवतो अनुप्पन्ना पञ्जा नुप्पज्जति, उप्पन्ना
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
परिहायति, इति इमानि मोहकारणानि, तानि परिवज्जन्तेन बाहुसच्चे, झानादीसु च योगो करणीयो।
तत्थायं बाहुसच्चस्स विसयविभागो- पञ्चक्खन्धा द्वादसायतनानि अट्ठारस धातुयो चत्तारि सच्चानि बावीसतिन्द्रियानि द्वादसपदिको पटिच्चसमुप्पादो, तथा सतिपट्टानादयो कुसलादिधम्मप्पभेदा च, यानि च लोके अनवज्जानि विज्जावानानि, यो च सत्तानं हितसुखविधाननयो ब्याकरणविसेसो। इति एवं पकारं सकलमेव सुतविसयं उपायकोसल्लपुब्बङ्गमाय पञ्जाय, सतिया, वीरियेन च साधुकं उग्गहणसवनधारणपरिचयपरिपुच्छाहि ओगाहेत्वा तत्थ च परेसं पतिठ्ठापनेन सुतमया पञ्जा निब्बत्तेतब्बा, तथा सत्तानं इतिकत्तब्बतासु ठानुप्पत्तिका पटिभानभूता, आयापायउपायकोसल्लभूता च पञ्जा हितेसितं निस्साय तत्थ तत्थ यथारहं पवत्तेतब्बा, तथा खन्धादीनं सभावधम्मानं आकारपरितक्कनमुखेन चेव निज्झानं खमापेन्तेन च चिन्तामया पञ्जा निब्बत्तेतब्बा ।
खन्धादीनंयेव पन सलक्खणसामञलक्खणपरिग्गहणवसेन लोकियपरिज निब्बत्तेन्तेन पुब्बभागभावनापञा सम्पादेतब्बा | एवहि “नामरूपमत्तमिदं, यथारहं पच्चयेहि उप्पज्जति चेव निरुज्झति च, न एत्थ कोचि कत्ता वा कारेता वा, हुत्वा अभावढेन अनिच्चं, उदयब्बयपटिपीळनटेन दुक्खं, अवसवत्तनटेन अनत्ता"ति अज्झत्तिकधम्मे, बाहिरकधम्मे च निब्बिसेसं परिजानन्तो तत्थ आसङ्गं पजहन्तो, परे च तत्थ तं पजहापेन्तो केवलं करुणावसेनेव याव न बुद्धगुणा हत्थतलं आगच्छन्ति, ताव यानत्तये सत्ते अवतारणपरिपाचनेहि पतिट्टापेन्तो, झानविमोक्खसमाधिसमापत्तियो, अभिआयो च लोकियवसीभावं पापेन्तो पाय मत्थकं पापुणाति ।
तत्थ याचिमा इद्धिविधजाणं दिब्बसोतधातुजाणं चेतोपरियजाणं पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं दिब्बचक्खुञाणं यथाकम्मूपगाणं अनागतंसजाणन्ति सपरिभण्डा पञ्चलोकियाभिञासङ्खाता भावनापञ्जा, या च खन्धायतनधातुइन्द्रियसच्चपटिच्चसमुप्पादादिभेदेसु चतुभूमकेसु धम्मसु उग्गहपरिपुच्छावसेन जाणपरिचयं कत्वा सीलविसुद्धि चित्तविसुद्धीति मूलभूतासु इमासु द्वीसु विसुद्धीसु पतिट्ठाय दिट्ठिविसुद्धि कङ्घावितरणविसुद्धि मग्गामग्गजाणदस्सनविसुद्धि पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि आणदस्सनविसुद्धीति सरीरभूता इमा पञ्च विसुद्धियो सम्पादेन्तेन भावेतब्बा
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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लोकियलोकुत्तरभेदा भावनापा, तासं सम्पादनविधानं यस्मा "तत्थ ‘एकोपि हुत्वा बहुधा होती तिआदिकं इद्धिविकुब्बनं कातुकामेन आदिकम्मिकेन योगिना''तिआदिना, (विसुद्धि० २.३६५) “खन्धाति पञ्छ खन्धा रूपक्खन्धो वेदनाक्खन्धो साक्खन्धो सङ्घारक्खन्धो विचाणक्खन्धो''तिआदिना (विसुद्धि २.४३१) च विसयविसयिविभागेन (विसयविभागेन - च० पि० अट्ठ० पकिण्णककथा) सद्धिं विसुद्धिमग्गे सब्बाकारतो वित्थारेत्वा वुत्तं, तस्मा तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । केवलहि तत्थ सावकबोधिसत्तस्स वसेन पञा आगता, इध महाबोधिसत्तस्स वसेन करुणूपायकोसल्लपुब्बङ्गमं कत्वा वत्तब्बा । आणदस्सनविसुद्धिं अपापेत्वा पटिपदाजाणदस्सनविसुद्धियंयेव विपस्सना ठपेतब्बाति अयमेव विसेसोति । एवमेत्थ पञापारमिया पटिपत्तिक्कमो वेदितब्बो ।
तथा यस्मा सम्मासम्बोधिया कताभिनीहारेन महासत्तेन पारमीपरिपूरणत्थं सब्बकालं युत्तप्पयुत्तेन भवितब् आबद्धपरिकरणेन, तस्मा कालेन कालं “को नु खो अज्ज मया पुञ्जसम्भारो, आणसम्भारो वा उपचितो, किं वा मया परहितं कतन्ति दिवसे दिवसे पच्चवेक्खन्तेन सत्तहितत्थं उस्साहो करणीयो, सब्बेसम्पि सत्तानं उपकाराय अत्तनो परिग्गहभूतं वत्थु, कायं, जीवितञ्च निरपेक्खनचित्तेन ओस्सज्जितबं, यं किञ्चि कम्म करोति कायेन, वाचाय वा, तं सब्बं सम्बोधियं निन्नचित्तेनेव कातब्बं, बोधिया परिणामेतब्बं, उळारेहि, इत्तरेहि च कामेहि विनिवत्तचित्तेनेव भवितब्बं, सब्बासु च इतिकत्तब्बतासु उपायकोसल्लं पच्चुपट्ठपेत्वा पटिपज्जितब् ।
तस्मिं तस्मिञ्च सत्तहिते आरद्धवीरियेन भवितब्बं इठ्ठानिट्ठादिसब्बसहेन अविसंवादिना। सब्बेपि सत्ता अनोधिसो मेत्ताय, करुणाय च फरितब्बा । या काचि सत्तानं दुक्खुप्पत्ति, सब्बा सा अत्तनि पाटिकङ्कितब्बा। सब्बेसञ्च सत्तानं पुझं अब्भनुमोदितब्, बुद्धानं महन्तता महानुभावता अभिण्हं पच्चवेक्खितब्बा, यञ्च किञ्चि कम्मं करोति कायेन, वाचाय वा, तं सब्बं बोधिचित्तपुब्बङ्गमं कातब्बं । इमिना हि उपायेन दानादीसु युत्तप्पयुत्तस्स थामवतो दळहपरक्कमस्स महासत्तस्स बोधिसत्तस्स अपरिमेय्यो पुञसम्भारो, आणसम्भारो च दिवसे दिवसे उपचीयति ।
अपिच सत्तानं परिभोगत्थं, परिपालनत्थञ्च अत्तनो सरीरं, जीवितञ्च परिच्चजित्वा खुप्पिपाससीतुण्हवातातपादिदुक्खपतिकारो परियेसितब्बो च उप्पादेतब्बो च, यञ्च यथावुत्तदुक्खपतिकारजं सुखं अत्तना पटिलभति, तथा रमणीयेसु
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
आरामुय्यानपासादतळाकादीसु, अरञ्ञायतनेसु च कायचित्तसन्तापाभावेन अभिनिब्बुतत्ता अत्तना सुखं पटिलभति, यञ्च सुणाति “बुद्धानुबुद्धपच्चेकबुद्धा, महाबोधिसत्त क्खम्मपटिपत्तियं ठिताति च “दिट्ठधम्मिक सुखविहारभूतं ईदिसं नाम झानसमापत्तिसुखमनुभवन्तीति च तं सब्बं सत्तेसु अनोधिसो उपसंहरति । अयं ताव नयो असमाहितभूमियं पतिट्ठितस्स ।
समाहितभूमियं पन पतिट्ठितो अत्तना यथानुभूतं विसेसाधिगमनिब्बत्तं पीतं, पस्सद्धि, सुखं समाधिं यथाभूतत्राणञ्च सत्तेसु अधिमुच्चन्तो उपसंहरति परिणामेति, तथा महत संसारदुक्खे, तस्स च निमित्तभूते किलेसाभिसङ्खारदुक्खे निमुग्गं सत्तनिकायं दिस्वा तत्रापि खादनछेदनभेदनसेदनपिसनहिंसनअग्गिसन्तापादिजनिता दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना निरन्तरं चिरकालं वेदयन्ते नरके, अञ्ञमञ्ञ कुज्झनसन्तासनविसोधनहिंसनपराधीनतादीहि महादुक्खं अनुभवन्ते तिरच्छानगते, जोतिमालाकुलसरीरे खुप्पिपासवातातपादीहि डव्ह माने, विसुस्समाने च वन्तखेळादिआहारे, उद्धबाहु विरवन्ते निज्झामतहिकादिके महादुक्खं वेदयमाने पेते च परियेट्ठिमूलकं महन्तं अनयब्यसनं पापुणन्ते हत्थच्छेदादिकरणयोगेन दुब्बण्णदुद्दसिकदलिद्दादिभावेन खुप्पिपासादिआबाधयोगेन बलवन्तेहि अभिभवनीयतो, परेसं वहनतो, पराधीनतो च नरके, पेते, तिरच्छानगते च अतिसयन्ते अपायदुक्खनिब्बिसे दुक्खमनुभवन्ते मनुस्से च तथा विसयपरिभोगविक्खित्तचित्तताय रागादिपरिळाहेन डहमाने वातवेगसमुट्ठितजालासमिद्धसुक्खकट्ठसन्निपाते अग्गिक्खन्धे विय अनुपसन्तपरिळाहवुत्तिके अनुपसन्तनिहतपराधीने ( अनिहतपराधीने दी० नि० टी० १.७) कामावचरदेवे च महता वायामेन विदूरमाकासं विगाहितसकुन्ता विय, बलवता दूरे पाणिना खित्तसरा विय च “सतिपि चिरप्पवत्तियं अनच्चन्तिकताय पातपरियोसाना अनतिक्कन्तजातिजरामरणा एवा”ति रूपावचरारूपावचरदेवे च पस्सन्तेन महन्तं संवेगं पच्चुपट्टापेत्वा मेत्ताय, करुणाय च अनोधिसो सत्ता फरितब्बा । एवं कायेन, वाचाय मनसा च बोधिसम्भारे निरन्तरं उपचिनन्तेन यथा पारमियो परिपूरेन्ति, एवं सक्कच्चकारिना सातच्चकारिना अनोलीनवृत्तिना उस्साहो पवत्तेतब्बो, वीरियपारमी परिपूरेतब्बा ।
""
अपिच 'अचिन्तेय्यापरिमेय्यविपुलोळारविमलनिरुपमनिरुपक्किलेसगुणगणनिचयनिदानभूतस्स बुद्धभावस्स उस्सक्कित्वा सम्पहंसनयोग्गं वीरियं नाम अचिन्तेय्यानुभावमेव, यं न पचुरजना सोतुम्पि सक्कुणन्ति, पगेव पटिपज्जितुं । तथा हि तिविधा अभिनीहारचित्तुप्पत्ति, चतस्सो बुद्धभूमियो, (सु० नि० अट्ठ० १.३४) चत्तारि
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सङ्गहवत्थूनि, (दी० नि० ३.२१०; अ० नि० १.४.३२) करुणेकरसता, बुद्धधम्मेसु सच्छिकरणेन विसेसप्पच्चयो, निज्झानक्खन्ति, सब्बधम्मेसु निरुपलेपो, सब्बसत्तेसु पियपुत्तसञा, संसारदुक्खेहि अपरिखेदो, सब्बदेय्यधम्मपरिच्चागो, तेन च निरतिमानता, अधिसीलादिअधिट्ठानं, तत्थ च अचञ्चलता, कुसलकिरियासु पीतिपामोज्जता, विवेकनिन्नचित्तता, झानानुयोगो, अनवज्जधम्मेसु अतित्तियता, यथासुतस्स धम्मस्स परेसं हितज्झासयेन देसनाय आरम्भदळ्हता. धीरवीरभावो. परापवादपरापकारेस विकाराभावो. सच्चाधिट्टानं, समापत्तीसु वसीभावो, अभिज्ञासु बलप्पत्ति, लक्खणत्तयावबोधो, सतिपट्टानादीसु अभियोगेन लोकुत्तरमग्गसम्भारसम्भरणं, नवलोकुत्तरावक्कन्तीति एवमादिका सब्बापि बोधिसम्भारपटिपत्ति वीरियानुभावेनेव समिज्झतीति अभिनीहारतो याव महाबोधि अनोस्सज्जन्तेन सक्कच्चं निरन्तरं वीरियं यथा उपरूपरि विसेसावहं होति, एवं सम्पादेतब्बं । सम्पज्जमाने च यथावुत्ते वीरिये, खन्तिसच्चाधिट्ठानादयो च दानसीलादयो च सब्बेपि बोधिसम्भारा तदधीनवुत्तिताय सम्पन्ना एव होन्तीतिखन्तिआदीसुपि इमिनाव नयेन पटिपत्ति वेदितब्बा।
इति सत्तानं सुखूपकरणपरिच्चागेन बहुधानुग्गहकरणं दानेन पटिपत्ति, सीलेन तेसं जीवितसापतेय्यदाररक्खाभेदपियहितवचनाविहिंसादिकरणानि, नेक्खम्मेन तेसं आमिसपटिग्गहणधम्मदानादिना अनेकविधा हितचरिया, पञआय तेसं हितकरणूपायकोसल्लं, वीरियेन तत्थ उस्साहारम्भअसंहीरकरणानि, खन्तिया तदपराधसहनं, सच्चेन नेसं अवञ्चनतदुपकारकिरियासमादानाविसंवादनादि, अधिट्टानेन तदुपकरणे अनत्थसम्पातेपि अचलनं, मेत्ताय नेसं हितसुखानुचिन्तनं, उपेक्खाय नेसं उपकारापकारेसु विकारानापत्तीति एवं अपरिमाणे सत्ते आरब्भ अनुकम्पितसब्बसत्तस्स बोधिसत्तस्स पुथुज्जनेहि असाधारणो अपरिमाणो पुञञाणसम्भारुपचयो एत्थ पटिपत्तीति वेदितब् । यो चेतासं पच्चयो वुत्तो, तत्थ च सक्कच्चं सम्पादनं ।
को विभागोति -
सामञ्जभेदतो एता, दसविधा विभागतो। तिधा हुत्वान पच्चेकं, समतिसविधा समं ।।
दस पारमियो दस उपपारमियो दस परमत्थपारमियोति हि समतिंस पारमियो । तत्थ
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'कताभिनीहारस्स बोधिसत्तस्स परहितकरणाभिनिन्नासयपयोगस्स कण्हधम्मवोकिण्णा सुक्का धम्मा पारमियो, तेहि अवोकिण्णा सुक्का धम्मा उपपारमियो, अकण्हा असुक्का धम्मा परमत्थपारमियो’ति केचि। “समुदागमनकालेसु पूरियमाना पारमियो, बोधिसत्तभूमियं पुण्णा उपपारमियो, बुद्धभूमियं सब्बाकारपरिपुण्णा परमत्थपारमियो । बोधिसत्तभूमियं वा परहितकरणतो पारमियो, अत्तहितकरणतो उपपारमियो, बुद्धभूमियं बलवेसारज्जसमधिगमेन उभयहितपरिपूरणतो परमत्थपारमियोति एवं आदिमज्झपरियोसानेसु पणिधानारम्भपरिनिट्ठानेसु तेसं विभागो" ति अपरे । “दोसुपसमकरुणापकतिकानं भवसुखविमुत्तिसुखपरमसुखप्पत्तानं पुञ्ञ्जूपचयभेदतो तब्बिभागो"ति अञ्ञ ।
"लज्जासतिमानापस्सयानं
तारिततरिततारयितूनं
लोकुत्तरधम्माधिपतीनं अनुबुद्धपच्चेकबुद्धसम्मासम्बुद्धानं
सीलसमाधिपञगरुकानं पारमीउपपारमीपरमत्थपारमीहि बोधित्तयप्पत्तितो यथावुत्तविभागो" ति केचि । “ चित्तपणिधितो याव वचीपणिधि, ताव पवत्ता सम्भारा पारमियो, वचीपणिधितो याव कायपणिधि, ताव पवत्ता उपपारमियो, कायपणिधितो पभुति परमत्थपारमियो" ति अपरे । अञ्ञे पन " परपुञ्ञनुमोदनवसेन पवत्ता सम्भारा पारमियो, परेसं कारापनवसेन पवत्ता उपपारमियो, सयं करणवसेन पवत्ता परमत्थपारमियो"ति वदन्ति । तथा " भवसुखावहो पुञ्ञञाणसम्भारो पारमी, अत्तनो निब्बानसुखावहो उपपारमी, परेसं तदुभयसुखावहो परमत्थपारमी " ति एके ।
( १.१.७-७)
पुत्तदारधनादिउपकरणपरिच्चागो पन दानपारमी, अत्तनो अङ्गपरिच्चागो दानउपपारमी, अत्तनो जीवितपरिच्चागो दानपरमत्थपारमी । तथा पुत्तदारादिकस्स तिविधस्सापि हेतु अवीतिक्कमनवसेन तिस्सो सीलपारमियो, तेसु एव तिविधेसु वत्थूसु आलयं उपच्छिन्दित्वा निक्खमनवसेन तिस्सो नेक्खम्मपारमियो, उपकरणअङ्गजीविततण्हं समूहनित्वा सत्तानं हिताहितविनिच्छयकरणवसेन तिस्सो पञ्ञापारमियो, यथावुत्तभेदानं परिच्चागादीनं वायमनवसेन तिस्सो वीरियपारमियो, उपकरणअङ्गजीवितन्तरायकरानं खमनवसेन तिस्सो खन्तिपारमियो, उपकरणअङ्गजीवितहेतु सच्चापरिच्चागवसेन तिस्सो सच्चपारमियो, दानादिपारमियो अकुप्पाधिट्ठानवसेनेव समिज्झन्तीति उपकरणादिविनासेपि अचलाधिट्ठानवसेन तिस्सो अधिट्ठानपारमियो, उपकरणादिविघातकेसुपि सत्तेसु मेत्ताय अविजहनवसेन तिस्सो मेत्तापारमियो, यथावुत्तवत्थुत्तयस्स उपकारापकारेसु सत्तसङ्घारेसु मज्झत्ततापटिलाभवसेन तिस्सो उपेक्खापारमियोति एवमादिना एतासं विभागो वेदितब्बो ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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को सङ्गहोति एत्थ पन
यथा विभागतो तिस-विधा सङ्गहतो दस । छप्पकाराव एतासु, युगळादीहि साधये ।।
यथा हि एसा विभागतो तिसविधापि दानपारमिआदिभावतो दसविधा, एवं दानसीलखन्तिवीरियझानपञ्जासभावेन छब्बिधा । एतासु हि नेक्खम्मपारमी सीलपारमिया सङ्गहिता तस्सा पब्बज्जाभावे | नीवरणविवेकभावे पन झानपारमिया, कुसलधम्मभावे छहिपि सङ्गहिता, सच्चपारमी सीलपारमिया एकदेसा एव वचीसच्चविरतिसच्चपक्खे । आणसच्चपक्खे पन पञापारमिया सङ्गहिता, मेत्तापारमी झानपारमिया एव, उपेक्खापारमी झानपञापारमीहि, अधिट्ठानपारमी सब्बाहिपि सङ्गहिताति ।
एतेसञ्च दानादीनं छन्नं गुणानं अञमञ्जसम्बन्धानं पञ्चदस युगळादीनि पञ्चदस युगळादिसाधकानि होन्ति । सेय्यथिदं ? दानसीलयुगळेन परहिताहितानं करणाकरणयुगळसिद्धि, दानखन्तियुगळेन अलोभादोसयुगळसिद्धि, दानवीरिययुगळेन चागसुतयुगळसिद्धि, दानझानयुगळेन कामदोसप्पहानयुगळसिद्धि, दानपञ्जायुगळेन अरिययानधुरयुगळसिद्धि, सीलखन्तिद्वयेन पयोगासयसुद्धद्वयसिद्धि, सीलवीरियद्वयेन भावनाद्वयसिद्धि, सीलझानद्वयेन दुस्सील्यपरियुट्ठानप्पहानद्वयसिद्धि, सीलपजाद्वयेन दानद्वयसिद्धि, खन्तिवीरियद्वयेन खमातेजद्वयसिद्धि, खन्तिझानदुकेन विरोधानुरोधप्पहानदुकसिद्धि, खन्तिपञादुकेन सुझताखन्तिपटिवेधदुकसिद्धि, वीरियझानदुकेन पग्गहाविखेपदुकसिद्धि, वीरियपादुकेन सरणदुकसिद्धि, झानपञ्जादुकेन यानदुकसिद्धि। दानसीलखन्तितिकेन लोभदोसमोहप्पहानतिकसिद्धि, दानसीलवीरियतिकेन भोगजीवितकायसारादानतिकसिद्धि, दानसीलझानतिकेन पुञ्जकिरियवत्थुतिकसिद्धि, दानसीलपातिकेन आमिसाभयधम्मदानतिकसिद्धीति एवं इतरेहिपि तिकेहि, चतुक्कादीहि च यथासम्भवं तिकानि, चतुक्कादीनि च योजेतब्बानि ।
एवं छब्बिधानम्पि पन इमासं पारमीनं चतूहि अधिट्ठानेहि सङ्गहो वेदितब्बो । सब्बपारमीनं समूहसङ्गहतो हि चत्तारि अधिट्टानानि । सेय्यथिदं ? सच्चाधिट्टानं, चागाधिट्ठानं, उपसमाधिट्ठानं, पञआधिछानन्ति । तत्थ अधितिकृति एतेन, एत्थ वा अधितिकृति, अधिट्ठानमत्तमेव वा तन्ति अधिट्टानं, सच्चञ्च तं अधिट्ठानञ्च, सच्चस्स वा अधिट्टानं,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
सच्चं वा अधिट्ठानमेतस्साति सच्चाधिट्टानं। एवं सेसेसुपि । तत्थ अविसेसतो ताव कताभिनीहारस्स अनुकम्पितसब्बसत्तस्स महासत्तस्स पटिआनुरूपं सब्बपारमीपरिग्गहतो सच्चाधिद्वानं, तेसं पटिपक्खपरिच्चागतो चागाधिद्वानं, सब्बपारमितागुणेहि उपसमनतो उपसमाधिट्टानं। तेहि एव परहितेसु उपायकोसल्लतो पज्ञाधिट्टानं।
विसेसतो पन “याचकानं जनानं अविसंवादेत्वा दस्सामी''ति पटिजाननतो, पटिञ्च अविसंवादेत्वा दानतो, दानं अविसंवादेत्वा अनुमोदनतो, मच्छरियादिपटिपक्खपरिच्चागतो, देय्यपटिग्गाहकदानदेय्यधम्मक्खयेसु लोभदोसमोहभयवूपसमनतो, यथारहं यथाकालं यथाविधानञ्च दानतो, पञ्जुत्तरतो च कुसलधम्मानं चतुरधिट्ठानपदट्टानं दानं । तथा संवरसमादानस्स अवीतिक्कमनतो, दुस्सील्यपरिच्चागतो, दुच्चरितवूपसमनतो, पञ्जुत्तरतो च चतुरधिट्ठानपदट्ठानं सीलं। यथापटिझं खमनतो, कतापराधविकप्पपरिच्चागतो, कोधपरियुट्ठानवूपसमनतो, पञ्जुत्तरतो च चतुरधिट्ठानपदट्ठानाखन्ति। पटिञानुरूपं परहितकरणतो, विसयपरिच्चागतो, अकुसलवूपसमनतो, पछुत्तरतो च चतुरधिट्ठानपदट्ठानं वीरियं । पटिञानुरूपं लोकहितानुचिन्तनतो, नीवरणपरिच्चागतो, चित्तवूपसमनतो, पञ्जत्तरतो च चतुरधिट्ठानपदट्टानं झानं । यथापटिनं परहितूपायकोसल्लतो, अनुपायकिरियपरिच्चागतो, मोहजपरिळाहवूपसमनतो, सब्ब तापटिलाभतो च चतुरधिट्ठानपदट्ठाना पञ्जा।
तत्थ श्रेय्यपटिनुविधानेहि सच्चाधिट्ठानं, वत्थुकामकिलेसकामपरिच्चागेहि चागाधिट्ठानं, दोसदुक्खवूपसमेहि उपसमाधिट्ठानं, अनुबोधपटिवेधेहि पञ्जाधिट्टानं । तिविधसच्चपरिग्गहितं दोसत्तयविरोधि सच्चाधिट्टानं, तिविधचागपरिग्गहितं दोसत्तयविरोधि चागाधिट्ठानं, तिविधवूपसमपरिग्गहितं दोसत्तयविरोधि उपसमाधिट्ठानं, तिविधञाणपरिग्गहितं दोसत्तयविरोधि पञ्जाधिट्टानं । सच्चाधिट्ठानपरिग्गहितानि चागूपसमपञ्जाधिट्टानानि अविसंवादनतो, पटिञानुविधानतो च । चागाधिट्ठानपरिग्गहितानि सच्चूपसमपाधिट्ठानानि पटिपक्खपरिच्चागतो, सब्बपरिच्चागफलत्ता च । उपसमाधिट्ठानपरिग्गहितानि सच्चचागपञाधिट्ठानानि किलेसपरिळाहूपसमनतो, कम्मपरिळाहूपसमनतो च । पाधिट्टानपरिग्गहितानि सच्चचागूपसमाधिट्टानानि आणपुब्बङ्गमतो, आणानुपरिवत्तनतो चाति एवं सब्बापि पारमियो सच्चप्पभाविता चागपरिब्यञ्जिता उपसमोपब्रूहिता पञ्जापरिसुद्धा | सच्चहि एतासं जनकहेतु, चागो पटिग्गाहकहेतु, उपसमो परिबुद्धिहेतु पञा पारिसुद्धिहेतु । तथा आदिम्हि सच्चाधिट्ठानं सच्चपटिञत्ता, मज्झे चागाधिट्टानं
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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कतपणिधानस्स परहिताय अत्तपरिच्चागतो, अन्ते उपसमाधिट्टानं सब्बूपसमपरियोसानत्ता । आदिमज्झपरियोसानेसु पञआधिट्टानं तस्मिं सति सम्भवतो, असति असम्भवतो, यथापटिञञ्च सम्भवतो।
__ तत्थ महापुरिसा सततं अत्तहितपरहितकरेहि गरुपियभावकरेहि सच्चचागाधिट्ठानेहि गिहिभूता आमिसदानेन परे अनुग्गण्हन्ति । तथा अत्तहितपरहितकरेहि, गरुपियभावकरेहि, उपसमपचाधिट्टानेहि च पब्बजितभूता धम्मदानेन परे अनुग्गण्हन्ति ।
तत्थ अन्तिमभवे बोधिसत्तस्स चतुरधिट्टानपरिपूरणं । परिपुण्णचतुरधिट्ठानस्स हि चरिमकभवूपपत्तीति एके। तत्रापि हि गब्भावक्कन्तिअभिनिक्खमनेसु पञ्जाधिट्ठानसमुदागमेन सतो सम्पजानो सच्चाधिट्ठानपारिपूरिया सम्पतिजातो उत्तराभिमुखो सत्तपदवीतिहारेन गन्त्वा सब्बा दिसा ओलोकेत्वा सच्चानुपरिवत्तिना वचसा “अग्गोहमस्मि लोकस्स, जेट्ठोहमस्मि लोकस्स, सेट्ठोहमस्मि लोकस्सा''ति (दी० नि० २.३१; म० नि० ३.२०७) तिक्खत्तुं सीहनादं नदि, उपसमाधिट्ठानसमुदागमेन जिण्णातुरमतपब्बजितदस्साविनो चतुधम्मप्पदेसकोविदस्स योब्बनारोग्यजीवितसम्पत्तिमदानं उपसमो, चागाधिट्ठानसमुदागमेन महतो आतिपरिवट्टस्स, हत्थगतस्स च चक्कवत्तिरज्जस्स अनपेक्खपरिच्चागोति ।
दुतिये ठाने अभिसम्बोधियं चतुरधिट्ठानपरिपूरणन्ति केचि । तत्थ हि यथापटिओं सच्चाधिट्ठानसमुदागमेन चतुत्रं अरियसच्चानं अभिसमयो । ततो हि सच्चाधिट्टानं परिपुण्णं । चागाधिट्टानसमुदागमेन सब्बकिलेसुपक्किलेसपरिच्चागो। ततो हि चागाधिट्टानं परिपुण्णं । उपसमाधिट्ठानसमुदागमेन परम्पसमसम्पत्ति । ततो हि उपसमाधिट्ठानं परिपुण्णं । पाधिट्ठानसमुदागमेन अनावरणञाणपटिलाभो । ततो हि पाधिट्टानं परिपुण्णन्ति, तं असिद्धं अभिसम्बोधियापि परमत्थभावतो ।
ततिये ठाने धम्मचक्कप्पवत्तने चतुरधिट्ठानं परिपुण्णन्ति अछे। तत्थ हि सच्चाधिट्ठानसमुदागतस्स द्वादसहि आकारेहि अरियसच्चदेसनाय सच्चाधिट्टानं परिपुण्णं, चागाधिट्ठानसमुदागतस्स सद्धम्ममहायागकरणेन चागाधिट्टानं परिपुण्णं, उपसमाधिट्ठानसमुदागतस्स सयं उपसन्तस्स परेसं उपसमनेन उपसमाधिट्टानं परिपुण्णं,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
पाधिट्ठानसमुदागतस्स विनेय्यानं आसयादिपरिजाननेन पञआधिट्टानं परिपुण्णन्ति, तदपि असिद्ध अपरियोसितत्ता बुद्धकिच्चस्स ।
चतुत्थे ठाने परिनिब्बाने चतुरधिट्टानं परिपुण्णन्ति अपरे । तत्र हि परिनिब्बुतत्ता परमत्थसच्चसम्पत्तिया सच्चाधिट्ठानपरिपूरणं, सब्बूपधिपटिनिस्सग्गेन चागाधिट्टानपरिपूरणं, सब्बसङ्घारूपसमेन उपसमाधिट्टानपरिपूरणं, पञापयोजनपरिनिब्बानेन पञ्चाधिट्ठानपरिपूरणन्ति ।
तत्र . महापुरिसस्स विसेसेन मेत्ताखेत्ते अभिजातियं सच्चाधिट्ठानसमुदागतस्स सच्चाधिट्ठानपरिपूरणमभिब्यत्तं, विसेसेन करुणाखेत्ते अभिसम्बोधियं पञाधिट्ठानसमुदागतस्स पञ्जाधिट्टानपरिपूरणमभिब्यत्तं, विसेसेन मुदिताखेत्ते धम्मचक्कप्पवत्तने चागाधिट्टानसमुदागतस्स चागाधिट्ठानपरिपूरणमभिब्यत्तं, विसेसेन उपेक्खाखेत्ते परिनिब्बाने उपसमाधिट्ठानसमुदागतस्स उपसमाधिट्ठानपरिपूरणमभिब्यत्तन्ति दट्ठब्बं ।
तत्रापि सच्चाधिट्ठानसमुदागतस्स संवासेन सीलं वेदितब्बं, चागाधिट्ठानसमुदागतस्स संवोहारेन सोचेय्यं वेदितब्ब, उपसमाधिट्टानसमुदागतस्स आपदासु थामो वेदितब्बो, पाधिट्ठानसमुदागतस्स साकच्छाय पञ्जा वेदितब्बा। एवं सीलाजीवचित्तदिट्ठिविसुद्धियो वेदितब्बा। तथा सच्चाधिट्ठानसमुदागमेन दोसागतिं न गच्छति अविसंवादनतो, चागाधिट्ठानसमुदागमेन छन्दागतिं न गच्छति अनभिसङ्गतो, उपसमाधिट्ठानसमुदागमेन भयागतिं न गच्छति अनुपरोधतो, पञ्जाधिट्ठानसमुदागमेन मोहागतिं न गच्छति यथाभूतावबोधतो।
तथा पठमेन अदुट्ठो अधिवासेति, दुतियेन अलुद्धो पटिसेवति, ततियेन अभीतो परिवज्जेति, चतुत्थेन असंमूळ्हो विनोदेति । पठमेन नेक्खम्मसुखुप्पत्ति, इतरेहि पविवेकउपसमसम्बोधिसुखुप्पत्तियो होन्ति । तथा विवेकजपीतिसुखसमाधिजपीतिसुखअपीतिजकायसुख सतिपारिसुद्धिजउपेक्खासुखुप्पत्तियो एतेहि चतूहि यथाक्कमं होन्तीति । एवमनेकगुणानुबन्धेहि चतूहि अधिट्ठानेहि सब्बपारमिसमूहसनहो वेदितब्बो । यथा च चतूहि अधिट्टानेहि सब्बपारमिसङ्गहो, एवं करुणापाहिपीति दट्ठब्बं । सब्बोपि हि बोधिसम्भारो करुणापाहि सङ्गहितो | करुणापापरिग्गहिता हि दानादिगुणा महाबोधिसम्भारा भवन्ति बुद्धत्तसिद्धिपरियोसानाति । एवमेतासं सङ्गहो वेदितब्बो ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
२५९
को सम्पादनूपायोति -
सब्बासं पन तासम्पि, उपायोति सम्पादने । अवेकल्लादयो अत्त-निय्यातनादयो मता ।।
सकलस्सापि हि पुजादिसम्भारस्स सम्मासम्बोधिं उद्दिस्स अनवसेससम्भरणं अवेकल्लकारितायोगेन, तत्थ च सक्कच्चकारिता आदरबहुमानयोगेन, सातच्चकारिता निरन्तरपयोगेन, चिरकालादियोगो च अन्तरा अवोसानापज्जनेनाति । तं पनस्स कालपरिमाणं परतो आवि भविस्सति । इति चतुरङ्गयोगो एतासं पारमीनं सम्पादनूपायो ।
तथा महासत्तेन बोधाय पटिपज्जन्तेन सम्मासम्बोधाय बुद्धानं पुरेतरमेव अत्ता निय्यातेतब्बो “इमाहं अत्तभावं बुद्धानं निय्यातेमी''ति । तं तं परिग्गहवत्थुञ्च पटिलाभतो पुरेतरमेव दानमुखे निस्सज्जितब्बं “यं किञ्चि महं उप्पज्जनकं जीवितपरिक्खारजातं, तं सब् सति याचके दस्सामि, तेसं पन दिन्नावसेसं एव मया परिभुञ्जितब्ब"न्ति ।
एवहिस्स सम्मदेव परिच्चागाय कते चित्ताभिसङ्खारे यं उप्पज्जति परिग्गहवत्थु अविचाणकं, सविज्ञाणकं वा, तत्थ ये इमे पुब्बे दाने अकतपरिचयो, परिग्गहवत्थुस्स परित्तभावो, उळारमनुञता, परिक्खयचिन्ताति चत्तारो दानविनिबन्धा। तेसु यदा महाबोधिसत्तस्स संविज्जमानेसु देय्यधम्मेसु, पच्चुपट्ठिते च याचकजने दाने चित्तं न पक्खन्दति न कमति, तेन निट्ठमेत्थ गन्तब्बं “अद्धाहं दाने पुब्बे अकतपरिचयो, तेन में एतरहि दातुकम्यता चित्ते न सण्ठाती"ति । सो “एवं मे इतो परं दानाभिरतं चित्तं भविस्सति, हन्दाहं इतो पट्ठाय दानं दस्सामि, ननु मया पटिकच्चेव परिग्गहवत्थु याचकानं परिच्चत्त"न्ति दानं देति मुत्तचागो पयतपाणि वोस्सग्गरतो याचयोगो दानसंविभागरतो। एवं महासत्तस्स पठमो दानविनिबन्धो हतो होति विहतो समुच्छिन्नो ।
तथा महासत्तो देय्यधम्मस्स परित्तभावे सति पच्चयवेकल्ले इति पटिसञ्चिक्खति "अहं खो पुब्बे अदानसीलताय एतरहि एवं पच्चयवेकल्लो जातो, तस्मा इदानि मया परित्तेन वा हीनेन वा यथालद्धेन देय्यधम्मेन अत्तानं पीळेत्वापि दानमेव दातब्बं, येनाहं आयतिम्पि दानपारमिं मत्थकं पापेस्सामी"ति सो इतरीतरेन दानं देति मुत्तचागो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
पयतपाणि वोस्सग्गरतो याचयोगो दानसंविभागरतो। एवं महासत्तस्स दुतियो दानविनिबन्धो हतो होति विहतो समुच्छिन्नो ।
तथा महासत्तो देय्यधम्मस्स उळारमनुञताय अदातुकम्यताचित्ते उप्पज्जमाने इति पटिसञ्चिक्खति "ननु तया सप्पुरिस उळारतमा सब्बसेट्ठा सम्मासम्बोधि अभिपत्थिता, तस्मा तदत्थं तया उळारमनुजे एव देय्यधम्मे दातुं युत्तरूप"न्ति । सो उळारं, मनुञञ्च दानं देति मुत्तचागो पयतपाणि वोस्सग्गरतो याचयोगो दानसंविभागरतो। एवं महापुरिसस्स ततियो दानविनिबन्धो हतो होति विहतो समुच्छिन्नो ।
तथा महासत्तो दानं देन्तो यदा देय्यधम्मस्स परिक्खयं पस्सति, सो इति पटिसञ्चिक्खति “अयं खो भोगानं सभावो, यदिदं खयधम्मता. वयधम्मता, अपिच मे पुब्बे तादिसस्स दानस्स अकतत्ता एवं भोगानं परिक्खयो दिस्सति, हन्दाहं यथालद्धेन देय्यधम्मेन परित्तेन वा, विपुलेन वा दानमेव ददेय्यं, येनाहं आयतिं दानपारमिया मत्थकं पापुणिस्सामी'ति । सो यथालद्धेन दानं देति मुत्तचागो पयतपाणि वोस्सग्गरतो याचयोगो दानसंविभागरतो। एवं महासत्तस्स चतुत्थो दानविनिबन्धो हतो होति विहतो समुच्छिन्नो । एवं ये ये दानपारमिया विनिबन्धभूता अनत्था, तेसं तेसं यथारहं पच्चवेक्खित्वा पटिविनोदनं उपायो । यथा च दानपारमिया, एवं सीलपारमिआदीसुपि दट्ठब् ।
अपिच यं महासत्तस्स बुद्धानं अत्तसन्निय्यातनं, तं सम्मदेव सब्बपारमीनं सम्पादनूपायो, बुद्धानञ्च अत्तानं निय्यातेत्वा ठितो महापुरिसो तत्थ तत्थ बोधिसम्भारपारिपूरिया घटेन्तो वायमन्तो सरीरस्स, सुखूपकरणानञ्च उपच्छेदकेसु दुस्सहेसुपि किच्चेसु (किच्छेसु च० पि० अट्ठ० पकिण्णककथा) दुरभिसम्भवेसुपि सत्तसङ्खारसमुपनीतेसु अनत्थेसु तिब्बेसु पाणहरेसु “अयं मया अत्तभावो बुद्धानं परिच्चत्तो, यं वा तं वा एत्थ होतू"ति तन्निमित्तं न कम्पति न वेधति ईसकम्पि अञथत्तं न गच्छति, कुसलारम्भे अञदत्थु अचलाधिट्ठानो च होति, एवं अत्तसन्निय्यातनम्पि एतासं सम्पादनूपायो ।
अपिच समासतो कताभिनीहारस्स अत्तनि सिनेहस्स परियादानं, (परिसोसनं च० पि० अठ्ठ० पकिण्णककथा) परेसु च सिनेहस्स परिवड्डनं एतासं सम्पादनूपायो । सम्मासम्बोधिसमधिगमाय हि कतमहापणिधानस्स महासत्तस्स याथावतो परिजाननेन सब्बेसु
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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धम्मेसु अनुपलित्तस्स अत्तनि सिनेहो परिक्खयं परियादानं गच्छति, महाकरुणासमायोगवसेन (समासेवनेन च० पि० अट्ठ० पकिण्णककथा) पन पियपुत्ते विय सब्बसत्ते सम्पस्समानस्स तेसु मेत्ताकरुणासिनेहो परिवड्वति, ततो च तं तदावत्थानुरूपं अत्तपरसन्तानेसु लोभदोसमोहविगमेन विदूरीकतमच्छरियादिबोधिसम्भारपटिपक्खो महापुरिसो दानपियवचनअत्थचरिया समानत्ततासङ्खातेहि चतूहि सङ्गहवत्थूहि (दी० नि० ३.३१३; अ० नि० १.४.३२) चतुरधिट्ठानानुगतेहि अच्चन्तं जनस्स सङ्गहकरणेन उपरि यानत्तये अवतारणं, परिपाचनञ्च करोति ।
महासत्तानहि महाकरुणा, महापञा च दानेन अलङ्कता, दानं पियवचनेन, पियवचनं अत्थचरियाय, अत्थचरिया समानत्तताय अलङ्कता, सङ्गहिता च । तेसहि सब्बेपि सत्ते अत्तना निब्बिसेसे कत्वा बोधिसम्भारेसु पटिपज्जन्तानं सब्बत्थ समानसुखदुक्खताय समानत्ततासिद्धि। बुद्धभूतानम्पि च तेहेव चतूहि सङ्गहवत्थूहि चतुरधिट्ठानेन परिपूरिताभिबुद्धेहि जनस्स अच्चन्तिकसङ्गहकरणेन अभिविनयनं सिज्झति । दानहि सम्मासम्बुद्धानं चागाधिट्ठानेन परिपूरिताभिबुद्धं । पियवचनं सच्चाधिट्ठानेन, अत्थचरिया पचाधिट्टानेन, समानत्तता उपसमाधिट्ठानेन परिपूरिताभिबुद्धा। तथागतानहि सब्बसावकपच्चेकबुद्धेहि समानत्तता परिनिब्बाने । तत्र हि नेसं अविसेसतो एकीभावो । तेनेवाह “नत्थि विमुत्तिया नानत्त''ति । होन्ति चेत्थ -
"सच्चो चागी उपसन्तो, पञवा अनुकम्पको । सम्भतसब्बसम्भारो, कं नामत्थं न साधये ।।
महाकारुणिको सत्था, हितेसी च उपेक्खको। निरपेक्खो च सब्बत्थ, अहो अच्छरियो जिनो ।।
विरत्तो सब्बधम्मेसु, सत्तेसु च उपेक्खको । सदा सत्तहिते युत्तो, अहो अच्छरियो जिनो ।।
सब्बदा सब्बसत्तानं, हिताय च सुखाय च । उय्युत्तो अकिलासू च, अहो अच्छरियो जिनो''ति ।। (च० पि० अट्ठ० पकिण्णककथा)।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
कित्तकेन कालेन सम्पादनन्ति -
पाधिकादिभेदेन, उग्घाटित आदिना । तिण्णम्पि बोधिसत्तानं, वसा कालो तिधा मतो ।।
हेट्ठिमेन हि ताव परिच्छेदेन चत्तारि असङ्ख्येय्यानि, महाकप्पानं सतसहस्सञ्च, मज्झिमेन अट्ठ असङ्ख्येय्यानि, महाकप्पानं सतसहस्सञ्च, उपरिमेन पन सोळस असङ्ख्येय्यानि, महाकप्पानं सतसहस्सञ्च । एते च भेदा यथाक्कम पञ्जाधिकसद्धाधिकवीरियाधिकवसेन वेदितब्बा | पञआधिकानहि सद्धा मन्दा होति, पञ्जा तिक्खा । सद्धाधिकानं पञा मज्झिमा होति । वीरियाधिकानं पञ्जा मन्दा । पञानुभावेन च सम्मासम्बोधि अभिगन्तब्बाति (सु० नि० अट्ठ० १.३४ अत्थतो समान) अट्ठकथायं
वुत्तं ।
___ अपरे पन “वीरियस्स तिक्खमज्झिममुदुभावेन बोधिसत्तानं अयं कालविभागो''ति वदन्ति, अविसेसेन पन विमुत्तिपरिपाचनीयानं धम्मानं तिक्खमज्झिममुदुभावेन यथावुत्तकालभेदेन बोधिसम्भारा तेसं पारिपूरिं गच्छन्तीति तयोपेते कालभेदा युत्तातिपि वदन्ति । एवं तिविधा हि बोधिसत्ता अभिनीहारक्खणे भवन्ति एको उग्घटितपे, एको विपञ्चितपे, एको नेय्योति । तेसु यो उग्घटितञ्जू, सो सम्मासम्बुद्धस्स सम्मुखा चतुप्पदगाथं सुणन्तो गाथाय ततियपदे अपरियोसिते एव छहि अभिज्ञाहि सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं अधिगन्तुं समत्थुपनिस्सयो होति, सचे सावकबोधियं अधिमुत्तो सिया ।
दुतियो भगवतो सम्मुखा चतुप्पदगाथं सुणन्तो अपरियोसिते एव गाथाय चतुत्थपदे छहि अभिचाहि अरहत्तं अधिगन्तुं समथुपनिस्सयो होति, यदि सावकबोधियं अधिमुत्तो सिया।
___ इतरो पन भगवतो सम्मुखा चतुप्पदगाथं सुत्वा परियोसिताय गाथाय छहि अभिज्ञाहि अरहत्तं अधिगन्तुं समत्थुपनिस्सयो होति।
तयोपेते विना कालभेदेन कताभिनीहारा, बुद्धानं सन्तिके लद्धब्याकरणा च
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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अनुक्कमेन पारमियो पूरेन्ता यथाक्कम यथावुत्तभेदेन कालेन सम्मासम्बोधिं पापुणन्ति । तेसु तेसु पन कालभेदेसु अपरिपुण्णेसु ते ते महासत्ता दिवसे दिवसे वेस्सन्तरदानसदिसं महादानं देन्तापि तदनुरूपे सीलादिसब्बपारमिधम्मे आचिनन्तापि पञ्च महापरिच्चागे परिच्चजन्तापि आतत्थचरियं लोकत्थचरियं बुद्धत्थचरियं परमकोटिं पापेन्तापि अन्तराव सम्मासम्बुद्धा भविस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति । कस्मा ? जाणस्स अपरिपच्चनतो, बुद्धकारकधम्मानञ्च अपरिनिट्ठानतो। परिच्छिन्नकालनिष्पादितं विय हि सस्सं यथावुत्तकालपरिच्छेदेन परिनिष्फादिता सम्मासम्बोधि तदन्तरा पन सब्बुस्साहेन वायमन्तेनापि न सक्का अधिगन्तुन्ति पारमिपारिपूरि यथावुत्तकालविसेसेन सम्पज्जतीति वेदितब् ।
को आनिसंसोति -
ये ते कताभिनीहारानं बोधिसत्तानं --
"एवं सब्बङ्गसम्पन्ना, बोधिया नियता नरा । संसरं दीघमद्धानं, कप्पकोटिसतेहिपि ।।
अवीचिम्हि नुप्पज्जन्ति, तथा लोकन्तरेसु च । निज्झामतण्हा खुप्पिपासा, न होन्ति कालकञ्चिका ।। (कालकञ्चिका च० पि० अट्ठ० पकिण्णककथा)।
न होन्ति खुद्दका पाणा, उपपज्जन्तापि दुग्गतिं । जायमाना मनुस्सेसु, जच्चन्धा न भवन्ति ते ।।
सोतवेकल्लता नत्थि, न भवन्ति मूगपक्खिका | इत्थिभावं न गच्छन्ति, उभतोब्यञ्जनपण्डका ।।
न भवन्ति परियापन्ना, बोधिया नियता नरा । मुत्ता आनन्तरिकेहि, सब्बत्थ सुद्धगोचरा ।।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
मिच्छादिट्ठि न सेवन्ति, कम्मकिरियदस्सना । वसमानापि सग्गेसु, अस नुपपज्जरे । ।
सुद्धावासेसु देवेसु, हेतु नाम न विज्जति । नेक्खम्मनिन्ना सप्पुरिसा, विसंयुत्ता भवाभवे । चरन्ति लोकत्थचरियायो, पूरेन्ति सब्बपारमी" ति ।। (अट्ठ० सा० निदानकथा; च० पि० पकिण्णककथ; अप० अट्ठ० १. दूरेनिदानकथ; जा० अट्ठ० १. दूरेनिदानकथा; बु० वं० अट्ठ० २७. दूरेनिदानकथा) ।
एवं संवण्णिता आनिसंसा, ये च “सतो सम्पजानो आनन्द बोधिसत्तो तुसिता काया चवित्वा मातुकुच्छिं ओक्कमती”तिआदिना (म० नि० ३. २०४) सोळस अच्छरियब्भुतधम्मप्पकारा, ये च "सीतं व्यपगतं होति, उण्हञ्च वूपसमती' तिआदिना, ( खु० नि० ४-३१३ पिट्ठे) "जायमाने खो सारिपुत्त, बोधिसत्ते अयं दससहस्सिलोकधातु सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधती' 'तिआदिना च द्वत्तिंस पुब्बनिमित्तप्पकारा, ये वा पनञ्ञेपि बोधिसत्तानं अधिप्पायसमिज्झनं, कम्मादीसु च वसिभावोति एवमादयो तत्थ तथ जातकबुद्धवंसादीसु दस्सितप्पकारा आनिसंसा, ते सब्बेपि एतासं आनिसंसा, तथा यथानिदस्सितभेदा अलोभादोसादिगुणयुगळादयो चाति वेदितब्बा ।
(१.१.७-७)
अपिच यस्मा बोधिसत्तो अभिनीहारतो पट्ठाय सब्बसत्तानं पितुसमो होति हितेसिताय, दक्खिणेय्यको गरु भावनीयो परमञ्च पुञ्ञक्खेत्तं होति गुणविसेसयोगेन, येभुय्येन च मनुस्सानं पियो होति, अमनुस्सानं पियो होति, देवताहि अनुपालीयति, मेत्ताकरुणापरिभावितसन्तानताय वाळमिगादीहि च अनभिभवनीयो होति, यस्मिं यस्मिञ्च सत्तनिकाये पच्चाजायति, तस्मिं तस्मिं उळारेन वण्णेन उळारेन यसेन उळारेन सुखेन उळारेन बलेन उळारेन आधिपतेय्येन अञ्जे सत्ते अभिभवति पुञ्ञविसेसयोगतो ।
अप्पाबाधो होति अप्पातङ्को, सुविसुद्धा चस्स सद्धा होति सुविसदा, सुविसुद्धं वीरियं, सति समाधि पञ्ञा सुविसदा, मन्दकिलेसो होति मन्ददरथो मन्दपरिळाहो, किलेसानं मन्दभावेनेव सुब्बचो होति पदक्खिणग्गाही, खमो होति सोरतो, सखिलो होत पटिसन्धारकुसलो, अकोधनो होति अनुपनाही, अमक्खी होति अपळासी, अनिस्की होत अमच्छरी, असठो होति अमायावी, अथद्धो होति अनतिमानी, असारद्धो होति
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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अप्पमत्तो, परतो उपतापसहो होति परेसं अनुपतापी, यस्मिञ्च गामखेत्ते पटिवसति, तत्थ सत्तानं भयादयो उपद्दवा येभुय्येन अनुप्पन्ना नुप्पज्जन्ति, उप्पन्ना च वूपसमन्ति, येसु च अपायेसु उप्पज्जति, न तत्थ पचुरजनो विय दुक्खेन अधिमत्तं पीळीयति, भिय्योसो मत्ताय संवेगभयमापज्जति । तस्मा महापुरिसस्स यथारहं तस्मिं तस्मिं भवे लब्भमाना एते सत्तानं पितुसमतादक्खिणेय्यतादयो गुणविसेसा आनिसंसाति वेदितब्बा ।
तथा आयुसम्पदा रूपसम्पदा कुलसम्पदा इस्सरियसम्पदा आदेय्यवचनता महानुभावताति एतेपि महापुरिसस्स पारमीनं आनिसंसाति वेदितब्बा । तत्थ आयुसम्पदा नाम तस्सं तस्सं उपपत्तियं दीघायुकता चिरट्ठितिकता, ताय यथारद्धानि कुसलसमादानानि परियोसापेति, बहुञ्च कुसलं उपचिनोति । रूपसम्पदा नाम अभिरूपता दस्सनीयता पासादिकता, ताय रूपप्पमाणानं सत्तानं पसादावहो होति सम्भावनीयो । कुलसम्पदा नाम उळारेसु कुलेसु अभिनिब्बत्ति, ताय [जातिमदादिमदसत्तानम्पि (मदमत्तानम्पि च० पि० अट्ठ० पकिण्णककथा)] उपसङ्कमनीयो होति पयिरुपासनीयो, तेन ते निब्बिसेवने करोन्ति । इस्सरियसम्पदा नाम महाविभवता, महेसक्खता, महापरिवारता च, ताहि सङ्गहितब्बे चतूहि सङ्गहवत्थूहि (दी० नि० ३.३१३; अ० नि० १.२५६) सङ्गहितुं, निग्गहेतब्बे धम्मेन निग्गहेतुञ्च समत्थो होति । आदेय्यवचनता नाम सद्धेय्यता पच्चयिकता, ताय सत्तानं पमाणभूतो होति, अलङ्घनीया चस्स आणा होति । महानुभावता नाम पभावमहन्तता, ताय परेहि न अभिभुय्यति, सयमेव पन परे अञदत्थु अभिभवति धम्मेन, समेन, यथाभूतगुणेहि च, एवमेतेसं आयुसम्पदादयो महापुरिसस्स पारमीनं आनिसंसा, सयञ्च अपरिमाणस्स पुञ्जसम्भारस्स परिवुद्धिहेतुभूता यानत्तये सत्तानं अवतारणस्स परिपाचनस्स कारणभूताति वेदितब्बा ।
किं फलन्ति
सम्मासम्बुद्धता तासं, जञा फलं समासतो। वित्थारतो अनन्ताप-मेय्या गुणगणा मता ।।
__ समासतो हि ताव सम्मासम्बुद्धभावो एतासं फलं । वित्थारतो पन बात्तिंसमहापुरिसलक्खण (दी० नि० २.३३ आदयो; ३.१९८; म० नि० २.३८६) असीतानुब्यञ्जन, ब्यामप्पभादिअनेकगुणगणसमुज्जलरूपकायसम्पत्तिअधिवाना दसबल- (म०
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
नि० १.४.८; अ० नि० ३.१०.२१) चतुवेसारज्ज- (अ० नि० १.४.८) छअसाधारणञाणअट्ठारसावेणिकबुद्धधम्म- (दी० नि० अट्ठ० ३.३०५;) पभुतिअनन्तापरिमाणगुणसमुदयोपसोभिनी धम्मकायसिरी, यावता पन बुद्धगुणा ये अनेकेहिप कप्पेहि सम्मासम्बुद्धेनापि वाचाय परियोसापेतुं न सक्का, इदमेव तासं फलं । वुत्तञ्चेतं भगवता -
“बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वण्णं,
कप्पम्प चे अञ्ञमभासमानो ।
खीयेथ कप्पो चिरदीघमन्तरे,
वण्णो न खीयेथ तथागतस्सा" ति । । (दी० नि० अट्ठ० १.३०४; ३.१४१; उदा० अट्ठ० ५३; च० पि० अट्ठ० निदानकथा, पकिण्णककथा)
(१.१.७-७)
एवमेत्थ पारमीसु पकिण्णककथा वेदितब्बा |
एवं यथावुत्ताय पटिपदाय यथावुत्तविभागानं पारमीनं पूरितभावं सन्धायाह “ समतिस पारमियो पूरेत्वा" ति । सतिपि महापरिच्चागानं दानपारमिभावे परिच्चागविसेसभावदस्सनत्थं, विसेससम्भारतादस्सनत्थं, सुदुक्करभावदस्सनत्थञ्च तेसं विसुं गहणं, ततोयेव च अङ्गपरिच्चागतो नयनपरिच्चागस्स, परिग्गहपरिच्चागभावसामञ्ञपि धनरज्जपरिच्चागतो पुत्तदारपरिच्चागस्स विसुं गहणं कतं, तथायेव आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.७) वुत्तं । आचरियसारिपुत्तत्थेरेनपि अङ्गुत्तरटीकायं, (अ० नि० टी० १. एकपुग्गलवग्गस्स पठमे) कत्थचि पन पुत्तदारपरिच्चागे विसुं कत्वा नयनपरिच्चागमञ्ञत्र जीवितपरिच्चागं वा पक्खिपित्वा रज्जपरिच्चागमञ्ञत्र पञ्च महापरिच्चागे वदन्ति ।
गतपच्चागतिकवत्तसङ्घाताय (दी० नि० अट्ठ० १.९; म० नि० अट्ठ० १.१०.९; सं० नि० अट्ठ० ३.५.३६८; विभं० अट्ठ० ५२३; सु० नि० अट्ठ० १.१.३५) पुब्बभागपटिपदाय सद्धिं अभिञ्ञसमापत्तिनिप्फादनं पुब्बयोगो । दानादीव सातिसयपटिपत्तिनिप्फादनं पुब्बचरिया । या वा चरियापिटकसङ्गहिता, सा पुब्बचरिया । केचि पन " अभिनीहारो पुब्बयोगो । दानादिपटिपत्ति वा कायविवेकवसेन एकचरिया वा ब्र वदन्ति । दानादीनञ्चेव अप्पिच्छतादीनञ्च संसारनिब्बाने
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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आदीनवानिसंसानञ्च विभावनवसेन, सत्तानं बोधित्तये पतिट्ठापनपरिपाचनवसेन च पवत्ता कथा धम्मक्खानं । जातीनमत्थस्स चरिया सातत्थचरिया, सापि करुणायनवसेनेव । आदिसद्देन लोकत्थचरियादयो सङ्गण्हाति । कम्मस्सकताञाणवसेन, अनवज्जकम्मायतनसिप्पायतनविज्जाटानपरिचयवसेन, खन्धायतनादिपरिचयवसेन, लक्खणत्तयतीरणवसेन च आणचारो बुद्धिचरिया, सा पनत्थतो पञापारमीयेव, जाणसम्भारदस्सनत्थं पन विसुं गहणं । कोटिन्ति परियन्तं उक्कंसं। तथा अम्हाकम्पि भगवा आगतोति एत्थापि “दानपारमिं पूरेत्वा''तिआदिना सम्बन्धो ।
एवं पारमिपूरणवसेन "तथा आगतो"ति पदस्सत्थं दस्सेत्वा इदानि बोधिपक्खियधम्मवसेनपि दस्सेन्तो “चत्तारो सतिपट्ठाने"तिआदिमाह। तत्थ सतिपट्टानादिग्गहणेन आगमनपटिपदं मत्थकं पापेत्वा दस्सेति मग्गफलपक्खिकान व गहेतब्बत्ता, विपस्सनासङ्गहिता एव वा सतिपट्टानादयो दट्ठब्बा पुब्बभागपटिपदाय गहणतो। भावेत्वाति उप्पादेत्वा । ब्रूहेत्वाति वड्वेत्वा । एत्थ च "येन अभिनीहारेना''तिआदिना आगमनपटिपदायआदिं दस्सेति, “दानपारमिं पूरेत्वा''तिआदिना मज्झे, “चत्तारो सतिपट्टाने"तिआदिना परियोसानं । तस्मा “आगतो"ति वुत्तस्स आगमनस्स कारणभूतपटिपदाविसेसदस्सनंयेव तिण्णं नयानं विसेसोति दट्टब्बं । इदानि यथावुत्तेन अत्थयोजनत्तयेन सिद्ध पठमकारणमेव गाथाबन्धवसेन दस्सेतुं “यथेवा"तिआदि वुत्तं । तत्थ इधलोकम्हि विपस्सिआदयो मुनयो सब्ब भावं यथावुत्तेन कारणत्तयेन आगता यथेव, तथा पञ्चहि चक्खूहि चक्खुमा अयं सक्यमुनिपि येन कारणेन आगतो, तेनेस तथागतो नाम वुच्चतीति योजना।
सम्पतिजातोति मनुस्सानं हत्थतो मुच्चित्वा मुहुत्तजातो, न पन मातुकुच्छितो निक्खन्तमत्तो मातुकुच्छितो निक्खन्तमत्तहि महासत्तं पठमं ब्रह्मानो सुवण्णजालेन पटिग्गण्हिंसु, तेसं हत्थतो चत्तारो महाराजानो अजिनप्पवेणिया, तेसं हत्थतो मनुस्सा दुकूलचुम्बटकेन पटिग्गव्हिंसु, “मनुस्सानं हत्थतो मुच्चित्वा पथवियं पतिद्वितो''ति (दी० नि० अठ्ठ० २.३१) वक्खति । “कथञ्चा"तिआदि वित्थारदस्सनं । यथाह भगवा महापदानदेसनायं । सेतम्हि छत्तेति दिब्बसेतच्छत्ते । अनुहीरमानेति धारियमाने । "अनुधारियमाने"तिपि इदानि पाठो। “एत्थ च छत्तग्गहणेनेव खग्गदीनि पञ्च ककुधभण्डानिपि गहितानेवाति दट्ठब्बं । खग्गतालवण्टमोरहत्थकवालबीजनीउण्हीसपट्टापि हि छत्तेन सह तदा उपट्टिता अहेसुं। छत्तादीनियेव च तदा पायिंसु, न
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
छत्तादिगाहका''ति (दी० नि० टी० १.७) आचरियधम्मपालत्थेरेन वुत्तं, आचरियसारिपुत्तत्थेरेनापि अङ्गुत्तरटीकायं (अ० नि० टी० १.एकपुग्गलवग्गस्स पठमे) एवं सति तालवण्टादीनम्पि ककुधभण्डसमझा। अपिच खग्गादीनि ककुधभण्डानि, तदानिपि तालवण्टादीनि तदा उपट्टितानीति अधिप्पायेन तथा वुत्तं ।
सब्बा च दिसाति दस दिसा | अनुविलोकेतीति पुञानुभावेन लोकविवरणपाटिहारिये जाते पञ्जायमानं दससहस्सिलोकधातुं मंसचक्खुनाव ओलोकेतीति अत्थो। नयिदं सब्बदिसानुविलोकनं सत्तपदवीतिहारुत्तरकालं पठममेवानुविलोकनतो। महासत्तो हि मनुस्सानं हत्थतो मुच्चित्वा पुरथिमं दिसं ओलोकेसि । तत्थ देवमनुस्सा गन्धमालादीहि पूजयमाना “महापुरिस इध तुम्हेहि सदिसोपि नत्थि, कुतो तया उत्तरितरो''ति आहेसु | एवं चतस्सो दिसा चतस्सो अनुदिसा हेट्ठा उपरीति सब्बा दिसाअनुविलोकेत्वा सब्बत्थ अत्तना सदिसमदिस्वा “अयं उत्तरा दिसा"ति सत्तपदवीतिहारेन अगमासीति आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.७) आचरियसारिपुत्तत्थेरेन (अ० नि० टी० १.एकपुग्गलवग्गस्स पठमे) च वुत्तं । महापदानसुत्तट्ठकथायम्पि (दी० नि० अठ्ठ० २.३१) एवमेव वण्णितं। तस्मा सत्तपदवीतिहारतो पठमं सब्बदिसानुविलोकनं कत्वा सत्तपदवीतिहारेन गन्त्वा तदुपरि आसभिं वाचं भासतीति दट्ठब्बं । इध, पन अज्ञासु च अट्ठकथासु समेहि पादेहि पतिद्वहनतो पट्ठाय याव आसभीवाचाभासनं ताव यथाक्कम एव पुब्बनिमित्तभावं विभावेन्तो “सत्तमपदूपरि ठत्वा सब्बदिसानुविलोकनं सब्ब तानावरणञाणपटिलाभस्सा'"तिआदीनि वदति, एवम्पि यथा न विरुज्झति, तथा एव अत्थो गहेतब्बो । “सत्तमपदूपरि ठत्वा''ति च पाठो पच्छा पमादलेखवसेन एदिसेन वचनक्कमेन महापदानट्ठकथायमदिस्समानत्ताति। आसभिन्ति उत्तमं, अकम्पनिकं वा, निब्भयन्ति अत्थो । उसभस्स इदन्ति हि आसमं, सूरभावो, तेन युत्तत्ता पनायं वाचा “आसभी"ति वुच्चति । अग्गोति सब्बपठमो। जेट्ठो, सेट्ठोति च तस्सेव वेवचनं । सद्दत्थमत्ततो पन अग्गोति गुणेहि सब्बपधानो । जेहोति गुणवसेनेव सब्बेसं वुद्धतमो, गुणेहि महल्लकतमोति वुत्तं होति । सेट्ठोति गुणवसेनेव सब्बेसं पसठ्ठतमो | लोकस्साति विभत्तावधिभूते निस्सक्कत्थे सामिवचनं । अयमन्तिमा जाति, नत्थि दानि पुनभवोति इमस्मिं अत्तभावे पत्तब्बं अरहत्तं ब्याकासि तब्बसेनेव पुनब्भवाभावतो।।
इदानि तथागमनं सम्भावेन्तो "तञ्चस्सा"तिआदिमाह। पुब्बनिमित्तभावेन तथं अवितथन्ति सम्बन्धो । विसेसाधिगमानन्ति गुणविसेसाधिगमानं । तदेवत्थं वित्थारतो दस्सेति
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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"यही"तिआदिना। तत्थ यन्ति किरियापरामसनं, तेन “पतिठ्ठही''ति एत्थ पकतियत्थंपतिछानकिरियं परामसति । इदमस्साति इदं पतिठ्ठहनं अस्स भगवतो । पटिलाभसद्दे सामिनिद्देसो चेस, कत्तुनिद्देसो वा। पुब्बनिमित्तन्ति तप्पटिलाभसङ्घातस्स आयतिं उप्पज्जमानकस्स हितस्स पठमं पवत्तं सञ्जाननकारणं। भगवतो हि अच्छरियब्भुतगुणविसेसाधिगमने पञ्च महासुपिनादयो विय एतानि सञ्जानननिमित्तानि पातुभवन्ति, यथा तं लोके पुजवन्तानं पुञफलविसेसाधिगमनेति ।
सब्बलोकुत्तरभावस्साति सब्बलोकानमुत्तमभावस्स, सब्बलोकातिक्कमनभावस्स वा । सत्त पदानि सत्तपदं, तस्स वीतिहारो विसेसेन अतिहरणं सत्तपदवीतिहारो, सत्तपदनिक्खेपोति अत्थो । सो पन समगमने द्विन्नं पदानमन्तरे मुट्ठिरतनमत्तन्ति वुत्तं ।
“अनेकसाखञ्च सहस्समण्डलं,
छत्तं मरू धारयुमन्तलिक्खे । सुवण्णदण्डा वीतिपतन्ति चामरा,
न दिस्सरे चामरछत्तगाहका''ति ।। (सु० नि० ६९३)।
सुत्तनिपाते नाळकसुत्ते आयस्मता आनन्दत्थेरेन वुत्तं निदानगाथापदं सन्धाय "सुवण्णदण्डा वीतिपतन्ति चामराति एत्था"ति वुत्तं । एत्थाति हि एतस्मिं गाथापदेति अत्थो । महापदानसुत्ते अनागतत्ता पन चामरुक्खेपस्स तथा वचनं दट्ठब्बं । तत्थ आगतानुसारेन हि इध पुब्बनिमित्तभावं वदति, चमरो नाम मिगविसेसो । यस्स वालेन राजककुधभूतं वालबीजनिं करोन्ति, तस्स अयन्ति चामरी। तस्सा उक्खेपो तथा, वुत्तो सोति वुत्तचामरुक्खेपो। अरहत्तविमुत्तिवरविमलसेतच्छत्तपटिलाभस्साति अरहत्तफलसमापत्तिसङ्घातवरविमलसेतच्छत्तपटिलाभस्स। सत्तमपदूपरीति एत्थ पद-सद्दो पदवळञ्जनवाचको, तस्मा सत्तमस्स पदवळञ्जनस्स उपरीति अत्थो । सब्ब ताणमेव सब्बत्थ अप्पटिहतचारताय अनावरणन्ति आह "सब्ब तानावरणञाणपटिलाभस्सा"ति । तथा अयं भगवा...पे०... पुब्बनिमित्तभावनाति एत्थ “यही"तिआदि अधिकारत्ता, गम्यमानत्ता च न वुत्तं, एतेन च अभिजातियं धम्मतावसेन उप्पज्जनकविसेसा सब्बबोधिसत्तानं साधारणाति दस्सेति । पारमितानिस्सन्दा हि ते।
पोराणाति अट्ठकथाचरिया। गवम्पति उसभो समेहि पादेहि वसूनं रतनानं धारणतो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
वसुन्दरसङ्घातं भूमि फुसी यथा, तथा मनुस्सानं हत्थतो मुच्चित्वा मुहुत्तजातो सो गोतमो समेहि पादेहि वसुन्धरं फुसीति अत्थो। विक्कमीति अगमासि । सत्त पदानीति सत्तपदवळञ्जनट्ठानानि । अच्चन्तसंयोगे चेतं उपयोगवचनं, सत्तपदवारेहीति वा करणत्थो उत्तरपदलोपवसेन दट्टब्बो। मरूति देवा यथामरियादं मरणसभावतो। समाति विलोकनसमताय समा सदिसियो। महापुरिसो हि यथा एकं दिसं विलोकेसि, एवं सेसदिसापि, न कत्थचि विलोकने विनिबन्धो तस्स अहोसि, समाति वा विलोकेतुं युत्ताति अत्थो। न हि तदा बोधिसत्तस्स विरूपबीभच्छविसमरूपानि विलोकेतुमयुत्तानि दिसासु उपट्टहन्ति, विस्सट्ठमञ्जूविज्ञेय्यादिवसेन अट्ठङ्गुपेतं गिरं अब्भुदीरयि पब्बतमुद्धनिहितो सीहो यथा अभिनदीति अत्थो ।
एवं कायगमनत्थेन गतसद्देन तथागतसदं निद्दिसित्वा इदानि आणगमनत्थेन निद्दिसितुं “अथ वा"तिआदिमाह । तत्थ “यथा विपस्सी भगवा''तिआदीसुपि “नेक्खम्मेन कामच्छन्दं पहाया'तिआदिना योजेतब्बं । नेक्खम्मेनाति अलोभपधानेन कुसलचित्तुप्पादेन । कुसला हि धम्मा इध नेक्खम्म तेसं सब्बेसम्पि कामच्छन्दपटिपक्खत्ता, न पब्बज्जादयो एव । "पठमज्झानेना''तिपि वदन्ति केचि, तदयुत्तमेव पठमज्झानस्स पुब्बभागपटिपदाय एव इध इच्छितत्ता । पहायाति पजहित्वा । गतोति उत्तरिविसेसं आणगमनेन पटिपन्नो । पहायाति वा पहानहेतु, पहाने वा सति । हेतुलक्खणत्थेसु हि अयं त्वा-सद्दो “सक्को हुत्वा निब्बत्ती''तिआदीसु (दी० नि० अट्ठ० २.३५५) विय । कामच्छन्दादिप्पहानहेतुकञ्च “गतो''ति एत्थ वुत्तं अवबोधसङ्घातं, पटिपत्तिसङ्घातं वा गमनं कामच्छन्दादिप्पहानेन च तं लक्खीयति, एस नयो “पदालेत्वा"तिआदीसुपि । अब्यापादेनाति मेत्ताय । आलोकसञआयाति विभूतं कत्वा मनसिकारेन उपट्ठितालोकसञ्जाननेन । अविक्खेपेनाति समाधिना । धम्मववत्थानेनाति कुसलादिधम्मानं याथावनिच्छयेन, सप्पच्चयनामरूपववत्थानेनातिपि वदन्ति ।
एवं कामच्छन्दादिनीवरणप्पहानेन “अभिज्झं लोके पहाया''तिआदिना वुत्ताय पठमज्झानस्स पुब्बभागपटिपदाय भगवतो आणगमनविसिटुं तथागतभावं दस्सेत्वा इदानि सह उपायेन अट्ठहि समापत्तीहि, अट्ठारसहि च महाविपस्सनाहि तं दस्सेतुं "आणेना"तिआदिमाह । नामरूपपरिग्गहकङ्घावितरणानहि विनिबन्धभूतस्स मोहस्स दूरीकरणेन आतपरिञायं ठितस्स अनिच्चसञादयो सिज्झन्ति, तस्मा अविज्जापदालनं विपस्सनाय उपायो । तथा झानसमापत्तीसु अभिरतिनिमित्तेन पामोज्जेन, तत्थ अनभिरतिया विनोदिताय झानादीनं समधिगमोति समापत्तिया अरतिविनोदनं उपायो ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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समापत्तिविपस्सनानुक्कमेन पन उपरि वक्खमाननयेन निद्दिसितब्बेपि नीवरणसभावाय अविज्जाय हेट्ठा कामच्छन्दादिवसेन दस्सितनीवरणेसुपि सङ्गहदस्सनत्थं उप्पटिपाटिनिद्देसो दट्टब्बो ।
समापत्तिविहारपवेसननिबन्धनेन नीवरणानि कवाटसदिसानीति आह "नीवरणकवाटं उग्घाटेत्वा"ति। “रत्तिं अनुवितक्केत्वा अनुविचारेत्वा दिवा कम्मन्ते पयोजेती"ति मज्झिमागमवरे मूलपण्णासके वम्मिकसुत्ते (म० नि० १.२४९) वुत्तट्ठाने विय वितक्कविचारा वूपसमा [धूमायना (दी० नि० टी० १.७)] अधिप्पेताति सन्धाय "वितक्कविचारधूमं वूपसमेत्वा"ति वुत्तं, वितक्कविचारसङ्घातं धूमं वूपसमेत्वाति अत्थो । “वितक्कविचार''मिच्चेव अधुना पाठो, सो न पोराणो आचरियधम्मपालत्थेरेन, आचरियसारिपुत्तत्थेरेन च यथावुत्तपाठस्सेव उद्धतत्ता। विराजेत्वाति जिगुच्छित्वा, समतिक्कमित्वा वा । तदुभयत्थो हेस “पीतिया च विरागा''तिआदीसु (दी० नि० १.७; म० नि० ३.१५५; पारा० ११; विभं० ६२५) विय । कामं पठमज्झानूपचारे एव दुक्खं, चतुत्थज्झानूपचारे एव च सुखं पहीयति, अतिसयप्पहानं पन सन्धायाह "चतुत्थज्झानेन सुखदुक्खं पहाया"ति ।।
रूपसञ्जाति सञासीसेन रूपावचरज्झानानि चेव तदारम्मणानि च वुत्तानि । रूपावचरज्झानम्पि हि “रूप"न्ति वुच्चति उत्तरपदलोपेन “रूपी रूपानि पस्सती"तिआदीसु (ध० सं० २४८) तस्स आरम्मणम्पि कसिणरूपं पुरिमपदलोपेन "बहिद्धा रूपानि पस्सति सुवण्णदुब्बण्णानी"तिआदीसु (ध० सं० २२३ आदयो) तस्मा इध रूपे रूपज्झाने तंसहगता सञा रूपसञ्जाति एवं सञासीसेन रूपावचरज्झानानि वुत्तानि, रूपं सभा अस्साति रूपसनं, रूपसञ्जासमन्नागतन्ति वुत्तं होति । एवं पथवीकसिणादिभेदस्स तदारम्मणस्स चेतं अधिवचनन्ति वेदितब् । पटिघसज्ञाति चक्खादीनं वत्थूनं, रूपादीनं आरम्मणानञ्च पटिघातेन पटिहननेन विसयिविसयसमोधानेन समुप्पन्ना द्विपञ्चविञआणसहगता सञ्जा। नानत्तसज्ञाति अट्ठ कामावचरकुसलसञ्जा, द्वादस अकुसलसञ्जा, एकादस कामावचरकुसलविपाकसा , द्वे अकुसलविपाकसा , एकादस कामावचरकिरियसञ्जाति एतासं चतुचत्तालीससञानमेतं अधिवचनं । एता हि यस्मा रूपसद्दादिभेदे नानत्ते नानासभावे गोचरे पवत्तन्ति, यस्मा च नानत्ता नानासभावा अञ्चमधे असदिसा, तस्मा “नानत्तसञ्जा'ति वुच्चन्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
अनिच्चस्स, अनिच्चन्ति वा अनुपस्सना अनिच्चानुपस्सना, तेभूमकधम्मानं अनिच्चतं गहेत्वा पवत्ताय विपस्सनायेतं नामं। निच्चसञ्जन्ति सङ्कतधम्मे “निच्चा सस्सता ति पवत्तमिच्छासनं, सञासीसेन चेत्थ दिविचित्तानम्पि गहणं दट्ठब्बं । एस नयो इतो परेसुपि । निब्बिदानुपस्सनायाति सङ्खारेसु निबिन्दनाकारेन पवत्ताय अनुपस्सनाय । नन्दिन्ति सप्पीतिकतण्हं । विरागानुपस्सनायाति सङ्खारेसु विरज्जनाकारेन पवत्ताय अनुपस्सनाय । निरोधानुपस्सनायाति सङ्खारानं निरोधस्स अनुपस्सनाय, “ते सङ्घारा निरुज्झन्तियेव, आयतिं समुदयवसेन न उप्पज्जन्ती'ति एवं वा अनुपस्सना निरोधानुपस्सना। तेनेवाह “निरोधानुपस्सनाय निरोधेति, नो समुदेतीति । मुञ्चितुकम्यता हि अयं बलप्पत्ताति । पटिनिस्सज्जनाकारेन पवत्ता अनुपस्सना पटिनिस्सग्गानुपस्सना। पटिसङ्घासन्तिट्टना हि अयं । आदानन्ति निच्चादिवसेन गहणं। सन्ततिसमूहकिच्चारम्मणानं वसेन एकत्तग्गहणं घनसञ्जा। आयूहनं अभिसङ्खरणं । अवत्थाविसेसापत्ति विपरिणामो। धुवसञ्जन्ति थिरभावग्गहणसझं। निमित्तन्ति समूहादिघनवसेन सकिच्चपरिच्छेदताय सङ्घारानं सविग्गहतं । पणिधिन्ति रागादिपणिधिं | सा पनत्थतो तण्हावसेन सङ्खारेसु निन्नता ।
अभिनिवेसन्ति अत्तानुदिष्टुिं । अनिच्चादिवसेन सब्बधम्मतीरणं अधिपञ्जाधम्मविपस्सना । सारादानाभिनिविसेन्ति असारे सारग्गहणविपल्लासं । इस्सरकुत्तादिवसेन लोको समुप्पन्नोति अभिनिवेसो सम्मोहाभिनिवेसो नाम। केचि पन “अहोसिं नु खो अहमतीतमद्धान'न्तिआदिना पवत्तसंसयापत्ति सम्मोहाभिनिवेसो"ति वदन्ति । सङ्खारेसु लेणताणभावग्गहणं आलयाभिनिवेसो। “आलयरता आलयसमुदिता''ति (दी० नि० २.६४; म० नि० १.२८१; २.३३७; महा० व० ७, ८) वचनतो आलयो वुच्चति तण्हा, सायेव चक्खादीसु, रूपादीसु च अभिनिवेसवसेन पवत्तिया आलयाभिनिवेसोति केचि । "एवंविधा सङ्घारा पटिनिस्सज्जीयन्ती'ति पवत्तञाणं पटिसङ्खानुपस्सना। वट्टतो विगतत्ता विवर्ल्ड, निब्बानं, तत्थ आरम्मणकरणसङ्घातेन अनुपस्सनेन पवत्तिया विवट्टानुपस्सना, गोत्रभु । संयोगाभिनिवेसन्ति संयुज्जनवसेन सङ्घारेसु अभिनिविसनं । दिद्वेकडेति दिट्ठिया सहजातेकडे, पहानेकटे च । ओळारिकेति उपरिमग्गवज्झे किलेसे अपेक्खित्वा वुत्तं, अञथा दस्सनपहातब्बा च दुतियमग्गवज्झेहिपि ओळारिकाति तेसम्पि तब्बचनीयता सिया । अणुसहगतेति अणुभूते। तब्भाववुत्तिको हि एत्थ सहगतसद्दो। इदं पन हेट्ठिममग्गवज्झे अपेक्खित्वा वुत्तं। सब्बकिलेसेति अवसिट्ठसब्बकिलेसे। न हि पठमादिमग्गेहि पहीना किलेसा पुन पहीयन्ति । सब्बसद्दो चेत्थ सप्पदेसविसयो “सब्बे तसन्ति दण्डस्सा''तिआदीसु विय (ध० प० १२९)।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
२७३
कक्खळतं कठिनभावो। पग्घरणं द्रवभावो। लोकियवायुना भस्तस्स विय येन तंतंकलापस्स उखुमायनं, थम्भभावो वा, तं वित्थम्भनं। विज्जमानेपि कलापन्तरभूतानं कलापन्तरभूतेहि फुट्ठभावे तंतंभूतविवित्तता रूपपरियन्तो आकासोति येसं यो परिच्छेदो, तेहि सो असम्फुट्ठोव, अञथा भूतानं परिच्छेदभावो न सिया ब्यापितभावापत्तितो। यस्मिं कलापे भूतानं परिच्छेदो, तेहि तत्थ असम्फुट्ठभावो असम्फुट्ठलक्खणं, तेनाह भगवा आकासधातुनिद्देसे “असम्फुट्ठो चतूहि महाभूतेही''ति (ध० सं० ६३७) ।
विरोधिपच्चयसन्निपाते विसदिसुप्पत्ति रुप्पनं। चेतनापधानत्ता सङ्खारक्खन्धधम्मानं चेतनावसेनेतं वुत्तं "सङ्घारानं अभिसङ्घरणलक्खण"न्ति । तथा हि सुत्तन्तभाजनिये सङ्घारक्खन्धविभङ्गे “चक्खुसम्फस्सजा चेतना"तिआदिना (विभं० १२) चेतनाव विभत्ता। अभिसङ्खारलक्खणा च चेतना। यथाह “तत्थ कतमो पुञाभिसङ्खारो, कुसला चेतना''तिआदि (विभं० २२६) सम्पयुत्तधम्मानं आरम्मणे ठपनं अभिनिरोपनं । आरम्मणानमनुबन्धनं अनुमज्जनं। सविप्फारिकता फरणं। अधिमुच्चनं सद्दहनं अधिमोक्खो। अस्सद्धियेति अस्सद्धियहेतु । निमित्तत्थे चेतं भुम्मं । एस नयो कोसज्जादीसुपि । कायचित्तपरिळाहूपसमो वूपसमलक्खणं। लीनुद्धच्चरहिते अधिचित्ते वत्तमाने पग्गहनिग्गहसम्पहंसनेसु अब्यावटताय अज्झुपेक्खनं पटिसङ्खानं पक्खपातुपच्छेदतो।।
__मुसावादादीनं विसंवादनादिकिच्चताय लूखानं अपरिग्गाहकानं पटिपक्खभावतो परिग्गाहकसभावा सम्मावाचा सिनिद्धभावतो सम्पयुत्तधम्मे, सम्मावाचापच्चयसुभासितं सोतारञ्च पुग्गलं परिग्गण्हातीति सा परिग्गहलक्खणा। कायिककिरिया किञ्चि कत्तब्बं समुट्ठापेति, सयञ्च समुट्ठानं घटनं होतीति सम्माकम्मन्तसङ्खाता विरति समुट्ठानलक्खणाति दट्ठब्बा, सम्पयुत्तधम्मानं वा उक्खिपनं समुट्ठानं कायिककिरियाय भारुक्खिपनं विय । जीवमानस्स सत्तस्स, सम्पयुत्तधम्मानं वा जीवितिन्द्रियवुत्तिया, आजीवस्सेव वा सुद्धि वोदानं।
___ “सङ्घारा'"ति इध चेतना अधिप्पेता, न पन “सङ्घारा सङ्घारक्खन्धो"तिआदीसु (ध० स० ५८३, ९८५; विभं० १, २०, ५२) विय समपञासचेतसिकाति वुत्तं “सङ्घारानं चेतनालक्खण"न्ति । अविज्जापच्चया हि पुञाभिसङ्खारादिकाव चेतना । आरम्मणाभिमुखभावो नमनं। आयतनं पवत्तनं । सळायतनवसेन हि चित्तचेतसिकानं पवत्ति । तण्हाय हेतुलक्खणति एत्थ वट्टस्स जनकहेतुभावो तण्हाय हेतुलक्खणं, मग्गस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
पन वक्खमानस्स निब्बानसम्पापकत्तन्ति अयमेतेसं विसेसो । आरम्मणस्स गहणलक्षणं । पुन उप्पत्तिया आयूहनलक्खणं। सत्तजीवतो सुझतालक्खणं। पदहनं उस्साहनं । इज्झनं सम्पत्ति । वट्टतो निस्सरणं निय्यानं। अविपरीतभावो तथलक्खणं। अञमञानतिवत्तनं एकरसो, अनूनाधिकभावोव । युगनद्धा नाम समथविपस्सना अञमञोपकारताय युगळवसेन बन्धितब्बतो । “सद्धापञ्ञा पग्गहाविक्खेपा"तिपि वदन्ति । चित्तविसुद्धि नाम समाधि । दिद्विविसुद्धि नाम पञ्जा। खयोति किलेसक्खयो मग्गो, तस्मिं पवत्तस्स सम्मादिविसङ्घातस्स आणस्स समुच्छेदनलक्खणं। किलेसानमनुप्पादपरियोसानताय अनुप्पादो, फलं । किलेसवूपसमो पस्सद्धि। छन्दस्साति कत्तुकामताछन्दस्स | पतिठ्ठाभावो मूललक्खणं । आरम्मणपटिपादकताय सम्पयुत्त-धम्मानमुप्पत्तिहेतुता समुट्ठापनलक्खणं। विसयादिसन्निपातेन गहेतब्बाकारो समोधानं। या “सङ्गती''ति वुच्चति “तिण्णं सङ्गति फस्सो''तिआदीसु । समं, सम्मा वा ओदहन्ति सम्पिण्डिता भवन्ति सम्पयुत्तधम्मा अनेनातिपि समोधानं, फस्सो, तब्भावो समोधानलक्खणं। समोसरन्ति सन्निपतन्ति एत्थाति समोसरणं, वेदना । ताय हि विना अप्पवत्तमाना सम्पयुत्तधम्मा वेदनानुभवननिमित्तं समोसटा विय होन्तीति एवं वुत्तं, तब्भावो समोसरणलक्खणं। पासादादीसु गोपानसीनं कूटं विय सम्पयुत्तधम्मानं पामोक्खभावो पमुखलक्खणं। सतिया सब्बत्थकत्ता सम्पयुत्तानं अधिपतिभावो आधिपतेय्यलक्खणं। ततो सम्पयुत्तधम्मतो, तेसं वा सम्पयुत्तधम्मानं उत्तरि पधानं ततुत्तरि, तब्भावो ततुत्तरियलक्खणं। पञ्जत्तरा हि कुसला धम्मा। विमुत्तीति फलं किलेसेहि विमुच्चित्थाति कत्वा । तं पन सीलादिगुणसारस्स परमुक्कंसभावेन सारं। ततो उत्तरि धम्मस्साभावतो परियोसानं। अयञ्च लक्खणविभागो छधातुपञ्चझानङ्गादिवसेन तंतंसुत्तपदानुसारेन पोराणट्ठकथायमागतनयेन वुत्तोति दट्ठब्बं । तथा हि पुब्बे वुत्तोपि कोचि धम्मो परियायन्तरप्पकासनत्थं पुन दस्सितो। ततो एव च “छन्दमूलका धम्मा मनसिकारसमुट्ठाना फस्ससमोधाना वेदनासमोसरणा''ति “पञ्जत्तरा कुसला धम्मा''ति, "विमुत्तिसारमिदं ब्रह्मचरिय"न्ति, “निब्बानोगधहि आवुसो ब्रह्मचरियं निब्बानपरियोसान"न्ति [सं० नि० ३.३.५१२ (अत्थतो समान)] च सुत्तपदानं वसेन छन्दस्स मूललक्खण''न्तिआदि वुत्तं । तेसं तेसं धम्मानं तथं अवितथं लक्खणं आगतोति अत्थं दस्सेति “एव"न्तिआदिना। तं पन गमनं इध जाणगमनमेवाति वुत्तं "बाणगतिया"ति । सतिपि गतसद्दस्स अवबोधनत्थभावे आणगमनत्थेनेवेसो सिद्धोति न वुत्तो । आ सद्दस्स चेत्थ गतसद्दानुवत्तिमत्तमेव । तेनाह “पत्तो अनुष्पत्तो''ति ।
अविपरीतसभावत्ता
"तथधम्मा
नाम
चत्तारि
अरियसच्चानी'ति
वुत्तं ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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अविपरीतसभावतो तथानि। अमुसासभावतो अवितथानि। अञाकाररहिततो अनशथानि । सच्चसंयुत्तादीसु आगतं परिपुण्णसच्चचतुक्ककथं सन्धाय “इति वित्थारो"ति आह । "तस्मा"ति वत्वा तदपरामसितब्बमेव दस्सेति "तथानं अभिसम्बुद्धत्ता"ति इमिना। एस नयो ईदिसेसु ।
एवं सच्चवसेन चतुत्थकारणं दस्सेत्वा इदानि पच्चयपच्चयुप्पन्नभावेन अविपरीतसभावत्ता तथभूतानं पटिच्चसमुप्पादङ्गानं वसेनापि दस्सेन्तो "अपिचा"तिआदिमाह । तत्थ जातिपच्चयसम्भूतसमुदागतद्योति जातिपच्चया सम्भूतं हुत्वा सहितस्स अत्तनो पच्चयानुरूपस्स उद्धं उद्धं आगतसभावो, अनुपवत्तट्ठोति अत्थो। अथ वा सम्भूतट्ठो च समुदागत8ो च सम्भूतसमुदागतट्ठो पुब्बपदे उत्तरपदलोपवसेन | समाहारद्वन्देपि हि पुल्लिङ्गमिच्छन्ति नेरुत्तिका | न चेत्थ जातितो जरामरणं न होति, न च जाति विना अञतो होतीति जातिपच्चयसम्भूतहो। इत्थमेव जातितो समुदागच्छतीति जाति पच्चयसमुदागतट्ठो। इदं वुत्तं होति - या या जाति यथा यथा पच्चयो होति, तदनुरूपं पातुभूतसभावोति । पच्चयपक्खे पन अविज्जाय सङ्घारानं पच्चयट्ठोति एत्थ न अविज्जा सङ्घारानं पच्चयो न होति, न च अविज्जं विना सङ्घारा उप्पज्जन्ति । या या अविज्जा येसं येसं सङ्घारानं यथा यथा पच्चयो होति, अयं अविज्जा सङ्खारानं पच्चयट्ठो पच्चयसभावोति अत्थो । तथानं धम्मानन्ति पच्चयाकारधम्मानं । “सुगतो"तिआदीसु (पारा० १) विय गमुसद्दस्स बुद्धियत्थतं सन्धाय “अभिसम्बुद्धत्ता"ति वुत्तं, न जाणगमनत्थं । गतिबुद्धियत्था हि सद्दा अञम परियाया । तस्मा “अभिसम्बुद्धत्थो हेत्थ गतसद्दो"ति अधिकारो, गम्यमानत्ता वा न पयुत्तो ।
यं रूपारम्मणं नाम अत्थि, तं भगवा जानाति पस्सतीति सम्बन्धो । सदेवके...पे०... पजायाति आधारो “अत्थी'"ति पदेति पुन अपरिमाणासु लोकधातूसूति तंनिवाससत्तापेक्खाय, आपाथगमनापेक्खाय वा वुत्तं । तेन भगवता विभज्जमानं तं रूपायतनं तथमेव होतीति योजेतब्बं । तथावितथभावे कारणमाह "एवं जानता पस्सता"ति । सब्बाकारतो ञातत्ता पस्सितत्ताति हि हेत्वन्तोगधमेतं पदद्वयं । इट्टानिट्ठादिवसेनाति एत्थ आदि-सद्देन मज्झत्तं सङ्गण्हाति । तथा अतीतानागतपच्चुप्पन्नपरित्तअज्झत्तबहिद्धातदुभयादिभेदम्पि । लब्भमानकपदवसेनाति “रूपायतनं दिटुं सद्दायतनं सुतं गन्धायतनं रसायतनं फोट्ठब्बायतनं मुतं सब्बं रूपं मनसा विज्ञात'"न्ति (ध० सं० ९६६) वचनतो दिठ्ठपदञ्च विञातपदञ्च रूपारम्मणे लब्भति । रूपारम्मणं इटुं अनिलु मज्झत्तं परित्तं अतीतं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
अनागतं पच्चुप्पन्नं अज्झत्तं बहिद्धा दिलृ विज्ञातं रूपं रूपायतनं रूपधातु वण्णनिभा सनिदस्सनं सप्पटिघं नीलं पीतकन्ति एवमादीहि अनेकेहि नामेहि। "इट्ठानिट्ठादिवसेना''तिआदिना हि अनेकनामभावं सरूपतो निदस्सेति । तेरसहि वारेहीति धम्मसङ्गणियं रूपकण्डे (ध० सं० ६१५) आगते तेरस निद्देसवारे सन्धायाह । एकेकस्मिं वारे चेत्थ चतुन्नं चतुन्नं ववत्थापननयानं बसेन "द्विपासाय नयेही"ति वुत्तं । तथमेवाति यथावुत्तेन जाननेन अप्पटिवत्तियदेसनताय, यथावुत्तेन च पस्सनेन अविपरीतदस्सिताय सच्चमेव। तमत्थं चतुरङ्गुत्तरे काळकारामसुत्तेन (अ० नि० १.४.२४) साधेन्तो "वुत्तञ्चेत"न्तिआदिमाह । च-सद्दो चेत्थ दळहीकरणजोतको, तेन यथावुत्तस्सत्थस्स दळ्हीकरणं जोतेति, सम्पिण्डनत्थो वा अट्ठानपयुत्तो, न केवलं मया एव, अथ खो भगवतापीति | अनुविचरितन्ति परिचरितं । जानामि अभञासिन्ति पच्चुप्पन्नातीतकालेसु आणप्पवत्तिदस्सनेन अनागतेपि आणप्पवत्ति दस्सितायेव नयतो दस्सितत्ता। विदित-सद्दो पन अनामढकालविसेसो कालत्तयसाधारणत्ता “दिटुं सुत्तं मुत"न्तिआदीसु (दी० नि० ३.१८७; म० नि० १.७; सं नि० २.२०८; अ० नि० १.४.२३; पटि० म० १.१२१) विय, पाकटं कत्वा आतन्ति अत्थो, इमिना चेतं दस्सेति “अञ्चे जानन्तियेव, मया पन पाकटं कत्वा विदित"न्ति । भगवता हि इमेहि पदेहि सब्ब भूमि नाम कथिता । न उपट्ठासीति तं छद्वारिकमारम्मणं तण्हाय वा दिट्ठिया वा तथागतो अत्तत्तनियवसेन न उपट्ठासि न उपगच्छति, इमिना पन पदेन खीणासवभूमि कथिता । यथा रूपारम्मणादयो धम्मा यसभावा, यंपकारा च, तथा ते धम्मे तंसभावे तंपकारे गमति पस्सति जानातीति तथागतोति इममत्थं सन्धाय "तथदस्सीअत्थे"ति वुत्तं । अनेकत्था हि धातुसद्दा । केचि पन निरुत्तिनयेन, पिसोदरादिगणपक्खेपेन (पारा० अट्ठ० १; विसुद्धि १.१४२) वा दस्सी-सद्दलोपं, आगत-सद्दस्स चागम कत्वा “तथागतो''ति पदसिद्धिमत्थ वण्णेन्ति, तदयुत्तमेव विज्जमानपदं छड्डत्वा अविज्जमानपदस्स गहणतो। वुत्तञ्च बुद्धवंसट्ठकथायं
"तथाकारेन यो धम्मे, जानाति अनुपस्सति । तथदस्सीति सम्बुद्धो, तस्मा वुत्तो तथागतो''ति ।। (बु० वं० अट्ठ० रतनचङ्कमनकण्डवण्णना)।
एत्थ “अनुपस्सती"ति आगतसद्दत्थं वत्वा तदिदं त्राणपस्सनमेवाति दस्सेतुं "जानाती"ति, सद्दाधिगतमत्थं पन विभावेतुं “तथदस्सी"ति च वुत्तं ।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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यं रत्तिन्ति यस्स रत्तियं, अच्चन्तसंयोगे वा एतं उपयोगवचनं रत्तेकदेसभूतस्स अभिसम्बुज्झनक्खणस्स अच्चन्तसंयोगत्ता, सकलापि वा एसा रत्ति अभिसम्बोधाय पदहनकालत्ता परियायेन अच्चन्तसंयोगभूताति दट्ठब्बं । पथवीपुक्खलनिरुत्तरभूमिसीसगतत्ता न पराजितो अञहि एत्थाति अपराजितो, स्वेव पल्लङ्कोति अपराजितपल्लङ्को, तस्मिं । तिण्णंमारानन्ति किलेसाभिसङ्खारदेवपुत्तमारानं, इदञ्च निप्परियायतो वुत्तं, परियायतो पन हेट्ठा वुत्तनयेन पञ्चन्नम्पि मारानं मद्दनं वेदितब्बं । मत्थकन्ति सामत्थियसङ्घातं सीसं । एत्थन्तरेति उभिन्नं रत्तीनमन्तरे । “पठमबोधियापी"तिआदिना पञ्चचत्तालीसवस्सपरिमाणकालमेव अन्तोगधभेदेन नियमेत्वा विसेसेति । तासु पन वीसतिवस्सपरिच्छिन्ना पठमबोधीति विनयगण्ठिपदे वुत्तं, तञ्च तदट्ठकथायमेव “भगवतो हि पठमबोधियं वीसतिवस्सन्तरे निबद्धुपट्ठाको नाम नत्थी''ति (पारा० अट्ठ० १.१६) कथितत्ता पठमबोधि नाम वीसतिवस्सानीति गहेत्वा वुत्तं । आचरियधम्मपालत्थेरेन पन “पञ्चचत्तालीसाय वस्सेसु आदितो पन्नरस वस्सानि पठमबोधी"ति वुत्तं, एवञ्च सति मज्झे पन्नरस वस्सानि मज्झिमबोधि, अन्ते पन्नरस वस्सानि पच्छिमबोधीति तिण्णं बोधीनं समप्पमाणता सिया, तम्पि युत्तं । पन्नरसतिकेन हि पञ्चचत्तालीसवस्सानि परिपूरेन्ति । अट्ठकथायं पन पन्नरसवस्सप्पमाणाय पठमबोधिया वीसतिवस्सेसुयेव अन्तोगधत्ता “पठमबोधियं वीसतिवस्सन्तरे''ति वुत्तन्ति एवम्पि सक्का विज्ञातुं । "यं सुत्तन्तिआदिना सम्बन्धो ।
निद्दोसताय अनुपवज्जं अनुपवदनीयं । पक्खिपितब्बाभावेन अनूनं। अपनेतब्बाभावेन अनधिकं। अत्थब्यञ्जनादिसम्पत्तिया सब्बाकारपरिपुण्णं। निम्मदनहेतु निम्मदनं । वालग्गमत्तम्पीति वालधिलोमस्स कोटिप्पमाणम्पि । अवक्खलितन्ति विराधितं मुसा भणितं । एकमुदिकायाति एकराजलञ्छनेन । एकनाळियाति एकाळ्हकेन, एकतुम्बेन वा । एकतुलायाति एकमानेन । "तथमेवा"ति वुत्तमेवत्थं नो अञथाति ब्यतिरेकतो दस्सेति, तेन यदत्थं भासितं, एकन्तेन तदत्थनिप्फादनतो यथा भासितं भगवता, तथायेवाति अविपरीतदेसनतं दस्सेति । “गदत्थो"ति एतेन तथं गदति भासतीति तथागतो द-कारस्स त-कारं, निरुत्तिनयेन च आकारागमं कत्वा, धातुसद्दानुगतेन वा आकारेनाति निब्बचनं दस्सेति ।
एवं “सुगतो''तिआदीसु (पारा० १) विय धातुसद्दनिप्फत्तिपरिकप्पेन निरुत्तिं दस्सेत्वा बाहिरत्थसमासेनपि दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । आगदनन्ति सब्बहितनिप्फादनतो भुसं कथनं वचनं, तब्भावमत्तो वा आ-सद्दो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
तथा गतमस्साति तथागतो। यथा वाचाय गतं पवत्ति, तथा कायस्स, यथा वा कायस्स गतं पवत्ति, तथा वाचाय अस्स, तस्मा तथागतोति अत्थो । तदेव निब्बचनं दस्सेतुं "भगवतो"तिआदिमाह । तत्थ हि “गतो पवत्तो, गता पवत्ता"ति च एतेन कायवचीकिरियानं अञमञानुलोमनवचनिच्छाय कायस्स, वाचाय च पवत्ति इध गतसद्देन कथिताति दस्सेति, “एवंभूतस्सा"तिआदिना बाहिरत्थसमासं, “यथा तथा"ति एतेन यंतं सद्दानं अव्यभिचारितसम्बन्धताय “तथा''ति वुत्ते “यथा''ति अयमत्थो उपट्टितोयेव होतीति तथासदत्थं, “वादी कारी"ति एतेन पवत्तिसरूपं, "भगवतो ही"ति एतेन यथावादीतथाकारितादिकारणन्ति । “एवंभूतस्सा"ति यथावादीतथाकारितादिना पकारेन पवत्तस्स, इमं पकारं वा पत्तस्स । इतीति वुत्तप्पकारं निद्दिसति । यस्मा पनेत्थ गत-सद्दो वाचाय पवत्तिम्पि दस्सेति, तस्मा कामं तथावादिताय तथागतोति अयम्पि अत्थो सिद्धो होति, सो पन पुब्बे पकारन्तरेन दस्सितोति पारिसेसनयेन तथाकारिताअत्थमेव दस्सेतुं "एवं तथाकारिताय तथागतो"ति वुत्तं । वुत्तञ्च -
“यथा वाचा गता यस्स,
तथा कायो गतो यतो । यथा कायो तथा वाचा,
ततो सत्था तथागतो''ति ।।
भवग्गं परियन्तं कत्वाति सम्बन्धो । यं पनेके वदन्ति “तिरियं विय उपरि, अधो च सन्ति अपरिमाणा लोकधातुयो''ति, तेसं तं पटिसेधेतुं एवं वुत्तन्ति दट्ठब्बं । विमुत्तियाति फलेन । विमुत्तित्राणदस्सनेनाति पच्चवेक्खणाणसङ्घातेन दस्सनेन । तुलोति सदिसो । पमाणन्ति मिननकारणं । परे अभिभवति गुणेन अज्झोत्थरति अधिको भवतीति अभिभू । परेहि न अभिभूतो अज्झोत्थटोति अनभिभूतो। अञदत्थूति एकंसवचने निपातो । दस्सनवसेन दसो, सब्बं पस्सतीति अत्थो । परे अत्तनो वसं वत्तेतीति वसवत्ती।
“अभिभवनटेन तथागतो''ति अयं न सद्दतो लब्भति, सद्दतो पन एवन्ति दस्सेतुं "तत्रेव"न्तिआदि वुत्तं । तत्थ अगदोति दिब्बागदो अगं रोगं दाति अवखण्डति, नत्थि वा गदो रोगो एतेनाति कत्वा, तस्सदिसटेन इध देसनाविलासस्स, पुञ्जुस्सयस्स च अगदता लब्भतीति आह “अगदो विया"ति | याय धम्मधातुया देसनाविजम्भनप्पत्ता, सा देसनाविलासो। धम्मधातूति च सब्ब ताणमेव । तेन हि धम्मानमाकारभेदं ञत्वा
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( १.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
तदनुरूपं देसनं नियामेति । देसनाविलासोयेव देसनाविलासमयो यथा " दानमयं सीलमय "न्ति (दी० नि० ३.३०५; इतिवु० ६०; नेत्ति० ३४) अधुना पन पोत्थकेसु बहूसुपि मय- सद्दो न दिस्सति । पुञ्जुस्सयोति उस्सनं, अतिरेकं वा आणादिसम्भारभूतं पुञ्जं । “तेना" तिआदि ओपम्मसम्पादनं । तेनाति च तदुभयेन देसनाविलासेन चेव पुञ्ञस्सयेन च सो भगवा अभिभवतीति सम्बन्धो । “इती "तिआदिना बाहिरत्थसमासं दस्सेति। सब्बलोकाभिभवनेन तथो, न अञ्ञथाति वृत्तं होति ।
तथाय गतोति पुरिमसच्चत्तयं सन्धायाह, तथं गतोति पन पच्छिमसच्चं । चतुसच्चानुक्कमेन चेत्थ गत- सद्दस्स अत्थचतुक्कं वृत्तं । वाचकसद्दसन्निधाने उपसग्गनिपातानं तदत्थजोतनभावेन पवत्तनतो गत-सद्दोयेव अनुपसग्गो अवगतत्थं, अतीतत्थञ्च व दस्सेति "अवगतो अतीतो " ति इमिना |
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तथाय
" तत्था "तिआदि तब्बिवरणं । लोकन्ति दुक्खसच्चभूतं लोकं । तीरणपरिञ्ञायाति योजेतब्बं । लोकनिरोधगामिनिं पटिपदन्ति अरियमग्गं, न पन अभिसम्बुज्झनमत्तं । तत्थ कत्तब्बकिच्चम्पि कतमेवाति दस्सेतुं “लोकस्मा तथागतो विसंयुत्तो" तिआदिना सच्चचतुक्केपि दुतियपक्खं वुत्तं, अभिसम्बुज्झनहेतुं वा एते हि दस्सेति । ततोयेव हि तानि अभिसम्बुद्धोति । “यं भिक्खवे, सदेवकस्स लोकस्स समारकस्स सब्रह्मकस्स सस्समणब्राह्मणिया पजाय सदेवमनुस्साय दिट्टं सुतं मुतं विञ्ञातं पत्तं परियेसितं अनुविचरितं मनसा, सब्बं तं तथागतेन अभिसम्बुद्धं, तस्मा तथागतोति वुच्चतीति (अ० नि० १.४.२३) अङ्गुत्तरागमे चतुक्कनिपाते आगतं पाळिमिमं पेय्यालमुखेन दस्सेति, तञ्च अत्थसम्बन्धताय एव न इमस्सत्थस्स साधताय । सा पेय्यालनिद्दिट्ठा पाळि तथदस्सिता अत्थस्स साधिकाति । "तस्सपि एवं अत्थो वेदितब्बो "ति इमिना साध्यसाधकसंसन्दनं करोति । " इदम्पि चा "तिआदिना तथागतपदस्स महाविसयतं, अट्ठविधस्सापि यथावुत्तकारणस्स निदरसनमत्तञ्च दस्सेति । तत्थ इदन्ति अतिव्यासरूपेन वृत्तं अट्ठविधं कारणं, पि- सद्दो, अपि- सद्दो वा सम्भावने " इत्थम्पि मुखमत्तमेव, पगेव अञ्ञथा ''ति । तथागतभावदीपनेति तथागतनामदीपने । गुणेन हि भगवा तथागतो नाम, नामेन च भगवति तथागत - सद्दोति । " असङ्घयेय्यानि नामानि सगुणेन महेसिनो' 'तिआदि (उदा० अट्ठ० ३०६; पटि० म० अट्ठ० १.२७७) हि वृत्तं । अप्पमादपदं विय सकलकुसलधम्मपटिपत्तिया सब्बबुद्धगुणानं तथागतपदं सङ्ग्राहकन्ति दस्सेतुं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
"सब्बाकारेना"तिआदिमाह । वण्णेय्याति परिकप्पवचनमेतं “वण्णेय्य वा, न वा वण्णेय्या''ति । वुत्तञ्च -
"बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वणं,
कप्पम्पि चे अझमभासमानो । खीयेथ कप्पो चिरदीघमन्तरे,
वण्णो न खीयेथ तथागतस्सा''ति ।। (दी० नि० अट्ठ० १.३०४; ३.१४१; उदा० अट्ठ० ५२; अप० अट्ठ० २.७.२०; बु० वं० अट्ठ० कोण्डञबुद्धवंसवण्णना; चरि० पि० पकिण्णककथा)।
समत्थने वा एतं “सो इमं विजटये जट''न्तिआदीसु (सं० नि० १.२.२३) वियातिपि वदन्ति केचि ।
अयं पनेत्थ अट्ठकथामुत्तको नयो - अभिनीहारतो पट्ठाय याव सम्मासम्बोधि,एत्थन्तरे महाबोधियानपटिपत्तिया हानट्टानसंकिलेसनिवत्तीनं अभावतो यथापणिधानं तथागतो अभिनीहारानुरूपं पटिपन्नोति तथागतो। अथ वा महिद्धिकताय, पटिसम्भिदानं उक्कंसाधिगमेन अनावरणजाणताय च कत्थचिपि पटिघाताभावतो यथारुचि, तथा कायवचीचित्तानं गतानि गमनानि पवत्तियो एतस्साति तथागतो। अपिच यस्मा लोके विधयुत्तगतपकारसद्दा समानत्था दिस्सन्ति, तस्मा यथा विधा विपस्सिआदयो भगवन्तो निखिलसब्ब गुणसमङ्गिताय, अयम्पि भगवा तथा विधोति तथागतो, यथा युत्ता च ते भगवन्तो वुत्तनयेन, अयम्पि भगवा तथा युत्तोति तथागतो। अपरो नयो-यस्मा सच्चं तच्छं तथन्ति आणस्सेतं अधिवचनं, तस्मा तथेन आणेन आगतोति तथागतोति ।
"पहाय कामादिमले यथा गता,
समाधिाणेहि विपस्सिआदयो । महेसिनो सक्यमुनी जुतिन्धरो,
तथा गतो तेन तथागतो मतो ।।
तथञ्च धातायतनादिलक्खणं,
सभावसामञविभागभेदतो।
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(१.१.७-७)
चूळसीलवण्णना
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सयम्भुञाणेन जिनो समागतो,
तथागतो वुच्चति सक्यपुङ्गवो ।।
तथानि सच्चानि समन्तचक्खुना,
तथा इदप्पच्चयता च सब्बसो । अनञ्जनेय्येन यतो विभाविता,
याथावतो तेन जिनो तथागतो।।
अनेकभेदासुपि लोकधातूसु,
___ जिनस्स रूपायतनादिगोचरे । विचित्तभेदे तथमेव दस्सनं,
तथागतो तेन समन्तलोचनो ।।
यतो च धम्मं तथमेव भासति,
करोति वाचायनुलोममत्तनो । गुणेहि लोकं अभिभुय्यिरीयति,
___तथागतो तेनपि लोकनायको ।।
यथाभिनीहारमतो यथारुचि,
पवत्तवाचातनुचित्तभावतो । यथाविधा येन पुरा महेसिनो,
तथाविधो तेन जिनो तथागतो।।
यथा च युत्ता सुगता पुरातना,
तथाव युत्तो तथञाणतो च सो। समागतो तेन समन्तलोचनो,
तथागतो वुच्चति सक्यपुङ्गवो"ति ।। (इतिवु० अट्ठ० ३८ थोकं विसदिसं)।
सङ्गहगाथा।
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२८२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७-७)
"कतमञ्च तं भिक्खवे''ति अयं कस्स पुच्छाति आह "येना"तिआदि । एवं सामञतो यथावुत्तस्स सीलमत्तकस्स पुच्छाभावं दस्सेत्वा इदानि पुछाविसेसभावञापनत्थं महानिदेसे (महा० नि० १५०) आगता सब्बाव पुच्छा अत्थुद्धारवसेन दस्सेति "तत्थ पुच्छा नामा"तिआदिना। तत्थ तत्थाति "तं कतमन्ति पुच्छती"ति एत्थ यदेतं सामञतो पुच्छावचनं वुत्तं, तस्मिं ।
पकतियाति अत्तनो धम्मताय, सयमेवाति वृत्तं होति । लक्खणन्ति यो कोचि आतुमिच्छितो सभावो । अज्ञातन्ति दस्सनादिविसेसयुत्तेन, इतरेन वा येन केनचिपि आणेन अज्ञातं । अवत्थाविसेसानि हि जाणदस्सनतुलनतीरणानि । अदिट्ठन्ति दस्सनभूतेन आणेन पच्चक्खमिव अदिटुं । अतुलितन्ति “एत्तकमेतन्ति तुलनभूतेन अतुलितं । अतीरितन्ति “एवमेविद''न्ति तीरणभूतेन अकतजाणकिरियासमापनं । अविभूतन्ति आणस्स अपाकटभूतं । अविभावितन्ति आणेन अपाकटकतं । तस्साति यथावुत्तलक्खणस्स । अदिटुं जोतीयति पकासीयति एतायाति अदिट्ठजोतना। संसन्दनत्थायाति साकच्छावसेन विनिच्छयकरणत्थाय । संसन्दनहि साकच्छावसेन विनिच्छयकरणं । दिटुं संसन्दीयति एतायाति दिट्ठसंसन्दना। "संसयपक्खन्दो"तिआदीसु दळहतरंनिविट्ठा विचिकिच्छा संसयो । नातिसंसप्पनमतिभेदमत्तं विमति। ततोपि अप्पतरं “एवं नु खो, न नु खो"तिआदिना द्विधा विय पवत्तं द्वेव्हकं । द्विधा एलति कम्पति चित्तमेतेनाति हि ढेव्हकं हपच्चयं, सकत्थवुत्तिकपच्चयञ्च कत्वा, तेन जातो, तं वा जातं यस्साति वेव्हकजातो। विमति छिज्जति एतायाति विमतिच्छेदना। अनत्तलक्खणसुत्तादीसु (सं० नि० २.३.५९) आगतं खन्धपञ्चकपटिसंयुत्तं पुच्छं सन्धायाह "सब् वत्तब्ब"न्ति । अनुमतिया पुच्छा अनुमतिपुच्छा। "तं किं मञथ भिक्खवे"तिआदिपुच्छाय हि “का तुम्हाकं अनुमतीति अनुमति पुच्छिता होति । कथेतुकम्यताति कथेतुकामताय । “अजाणता आपज्जती"तिआदीसु (पारा० २९५) विय हि एत्थ य-कारलोपो, करणत्थे वा पच्चत्तवचनं, कथेतुकम्यताय वा पुच्छा कथेतुकम्यतापुच्छातिपि वट्टति । अत्थतो पन सब्बापि तथा पवत्तवचनं, तदुप्पादको वा चित्तुप्पादोति वेदितब् ।
यदत्थं पनायं निद्देसनयो आहरितो, तस्स पुच्छाविसेसभावस्स आपनत्थं "इमासू"तिआदिमाह । चित्ताभोगो समन्नाहारो। भुसं, समन्ततो च संसप्पना कङ्खा आसप्पना, परिसप्पना च। सब्बा कङ्घा छिन्ना सब्ब ताणपदट्ठानेन अग्गमग्गेन समुच्छिन्दनतो । परेसं अनुमतिया, कथेतुकम्यताय च धम्मदेसनासम्भवतो, तथा एव तत्थ
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(१.१.८-८)
चूळसीलवण्णना
२८३
तत्थ दिठुत्ता च वुत्तं “अवसेसा पन द्वे पुच्छा बुद्धानं अत्थी'ति । या पनेता “सत्ताधिट्ठाना पुच्छा धम्माधिवाना पुच्छा एकाधिट्ठाना पुच्छा अनेकाधिट्ठाना पुच्छा''तिआदिना अपरापि अनेकधा पुच्छायो निद्देसे आगता, ता सब्बापि निद्धारेत्वा इध अविचयनं “अलं एत्तावताव, अत्थिकेहि पन इमिना नयेन निद्धारेत्वा विचेतब्बा'"ति नयदानस्स सिज्झनतोति दट्ठब्बं ।
८. पुच्छा च नामेसा विस्सज्जनाय सतियेव युत्तरूपाति चोदनाय "इदानी"तिआदि वुत्तं । अतिपातनं अतिपातो। अति-सद्दो चेत्थ अतिरेकत्थो । सीघभावो एव च अतिरेकता, तस्मा सरसेनेव पतनसभावस्स अन्तरा एव अतिरेकं पातनं, सणिकं पतितुं अदत्वा सीघं पातनन्ति अत्थो, अभिभवनत्थो वा, अतिक्कम्म सत्थादीहि अभिभवित्वा पातनन्ति वुत्तं होति, वोहारवचनमेतं “अतिपातो"ति । अत्थतो पन पकरणादिवसेनाधिगतत्ता पाणवधो पाणघातोति वुत्तं होतीति अधिप्पायो। वोहारतोति पञत्तितो। सत्तोति खन्धसन्तानो । तत्थ हि सत्तपञत्ति । वुत्तञ्च -
"यथा हि अङ्गसम्भारा, होति सद्दो रथो इति । एवं खन्धेसु सन्तेसु, होति सत्तोति सम्मुती''ति ।। (सं० नि० १.१.१७१) ।
जीवितिन्द्रियन्ति रूपारूपजीवितिन्द्रियं । रूपजीवितिन्द्रिये हि विकोपिते इतरम्पि तंसम्बन्धताय विनस्सति । कस्मा पनेत्थ “पाणस्स अतिपातो"ति, “पाणोति चेत्थ वोहारतो सत्तो''ति च एकवचननिद्देसो कतो, ननु निरवसेसानं पाणानं अतिपाततो विरति इध अधिप्पेता । तथा हि वक्खति “सब्बपाणभूतहितानुकम्पीति सब्बे पाणभूते"तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.७) बहुवचननिद्देसन्ति ? सच्चमेतं, पाणभावसामञ्जेन पनेत्थ एकवचननिद्देसो कतो, तत्थ पन सब्बसद्दसन्निधानेन पुथुत्तं सुविञ्जायमानमेवाति सामञ्जनि(समकत्वा भेदवचनिच्छावसेन बहुवचननिद्देसो कतो। किञ्च भिय्यो - सामञतो संवरसमादानं, तब्बिसेसतो संवरभेदोति इमस्स विसेसस्स ञापनत्थम्पि अयं वचनभेदो कतोति वेदितब्बो । “पाणस्स अतिपातो"तिआदि हि संवरभेददस्सनं । “सब्बे पाणभूते"तिआदि पन संवरसमादानदस्सनन्ति। सद्दविदू पन "ईदिसेसु ठानेसु जातिदब्बापेक्खवसेन वचनभेदमत्तं, अत्थतो समान"न्ति वदन्ति ।
तस्मिं पन पाणेति यथावुत्ते दुब्बिधेपि पाणे । पाणसचिनोति पाणसञ्जासमङ्गिनो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.८-८)
पुग्गलस्स । याय पन चेतनाय पवत्तमानस्स जीवितिन्द्रियस्स निस्सयभूतेसु महाभूतेसु उपक्कमकरणहेतु महाभूतपच्चया उप्पज्जनकमहाभूता नुप्पज्जिस्सन्ति, सा तादिसपयोगसमुट्ठापिका
चेतना पाणातिपातोति
आह "जीवितिन्द्रियुपच्छेदकउपक्कमसमुट्ठापिका"ति, जीवितिन्द्रियुपच्छेदकस्स कायवचीपयोगस्स तन्निस्सयेसु महाभूतेसु समुट्ठापिकाति अत्थो । लद्भुपक्कमानि हि भूतानि पुरिमभूतानि विय न विसदानि, तस्मा समानजातियानं भूतानं कारणानि न होन्तीति तेसुयेव उपक्कमे कते ततो परानं असति अन्तराये उप्पज्जमानानं भूतानं, तन्निस्सितस्स च जीवितिन्द्रियस्स उपच्छेदो होति । “कायवचीद्वारान"न्ति एतेन वितण्डवादिमतं मनोद्वारे पवत्ताय वधकचेतनाय पाणातिपातभावं पटिक्खिपति ।
पयोगवत्थुमहन्ततादीहि महासावज्जता तेहि पच्चयेहि उप्पज्जमानाय चेतनाय बलवभावतो वेदितब्बा। एकस्सापि हि पयोगस्स सहसा निप्फादनवसेन, किच्चसाधिकाय बहुक्खत्तुं पवत्तजवनेहि लद्धासेवनाय च सन्निट्ठापकचेतनाय वसेन पयोगस्स महन्तभावो । सतिपि कदाचि खुद्दके चेव महन्ते च पाणे पयोगस्स समभावे महन्तं हनन्तस्स चेतना तिब्बतरा उप्पज्जतीति वत्थुस्स महन्तभावो । इति उभयम्पेतं चेतनाय बलवभावेनेव होति । सतिपि च पयोगवत्थूनं अमहन्तभावे हन्तब्बस्स गुणमहत्तेनपि तत्थ पवत्तउपकारचेतना विय खेत्तविसेसनिप्फत्तिया अपकारचेतनापि बलवती, तिब्बतरा च उप्पज्जतीति तस्सा महासावज्जता दट्ठब्बा । तेनाह "गुणवन्तेसू"तिआदि । “किलेसान"न्तिआदिना पन सतिपि पयोगवत्थुगुणानं अमहन्तभावे किलेसुपक्कमानं मुदुतिब्बताय चेतनाय दुब्बलबलवभाववसेन अप्पसावज्जमहासावज्जभावो वेदितब्बोति दस्सेति ।
सम्भरीयन्ति सहरीयन्ति एतेहीति सम्भारा, अङ्गानि । तेसु पाणसञिता, वधकचित्तञ्च पुब्बभागियानिपि होन्ति । उपक्कमो पन वधकचेतनासमुट्ठापितो सहजातोव । पञ्चसम्भारवती पन पाणातिपातचेतनाति सा पञ्चसम्भारविनिमुत्ता दट्ठब्बा | एस नयो अदिन्नादानादीसुपि ।
एत्थाह -- खणे खणे निरुज्झनसभावेसु सङ्घारेसु को हन्ति, को वा हाति, यदि चित्तचेतसिकसन्तानो, एवं सो अनुपतापनछेदनभेदनादिवसेन न विकोपनसमत्थो, नापि विकोपनीयो, अथ रूपसन्तानो, एवम्पि सो अचेतनताय कट्ठकलिङ्गरूपमोति न तत्थ छेदनादिना पाणातिपातो लब्भति यथा मतसरीरे । पयोगोपि पाणातिपातस्स
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(१.१.८-८)
चूळसीलवण्णना
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पहरणप्पकारादिअतीतेसु वा सङ्खारेसु भवेय्य, अनागतेसु वा पच्चुप्पन्नेसु वा । तत्थ न ताव अतीतानागतेसु सम्भवति तेसं अभावतो। पच्चुप्पन्नेसु च सङ्घारानं खणिकत्ता सरसेनेव निरुज्झनसभावताय विनासाभिमुखेसु निप्पयोजनो एव पयोगो सिया । विनासस्स च कारणरहितत्ता न पहरणप्पकारादिपयोगहेतुकं मरणं, निरीहकताय च सङ्घारानं कस्स सो पयोगो, खणिकत्ता वधाधिप्पायसमकालभिज्जनकस्स किरियापरियोसानकालानवट्ठानतो कस्स वा पाणातिपातकम्मबद्धोति ?
वुच्चते- वधकचेतनासहितो सङ्घारानं पुञ्जो सत्तसङ्घातो हन्ति, तेन पवत्तितवधप्पयोगनिमित्तापगतुस्माविज्ञाणजीवितिन्द्रियो मतवोहारप्पवत्तिनिबन्धनो यथावुत्तवधप्पयोगाकरणे उप्पज्जनारहो रूपारूपधम्मसमूहो हाति, केवलो वा चित्तचेतसिकसन्तानो, वधप्पयोगाविसयभावेपि तस्स पञ्चवोकारभवे रूपसन्तानाधीनवुत्तिताय रूपसन्ताने परेन पयोजितजीवितिन्द्रियुपच्छेदकपयोगवसेन तन्निब्बत्तिविबन्धकविसदिसरूपुप्पत्तिया विहते विच्छेदो होतीति न पाणातिपातस्स असम्भवो, नापि अहेतुको पाणातिपातो, न च पयोगो निप्पयोजनो पच्चुप्पन्नेसु सङ्घारेसु कतपयोगवसेन तदनन्तरं उप्पज्जनारहस्स सङ्घारकलापस्स तथाअनुप्पत्तितो, खणिकानं सङ्घारानं खणिकमरणस्स इध मरणभावेन अनधिप्पेतत्ता सन्ततिमरणस्स च यथावुत्तनयेन सहेतुकभावतो न अहेतुकं मरणं, न च कत्तुरहितो पाणातिपातप्पयोगो निरीहकेसुपि सङ्खारेसु सन्निहिततामत्तेन उपकारकेसु अत्तनो अत्तनो अनुरूपफलुप्पादननियतेसु कारणेसु कत्तुवोहारसिद्धितो यथा "पदीपो पकासेति, निसाकरो चन्दिमा"ति, न च केवलस्स वधाधिप्पायसहभुनो चित्तचेतसिककलापस्स पाणातिपातो इच्छितो सन्तानवसेन अवट्ठितस्सेव पटिजाननतो, सन्तानवसेन पवत्तमानानञ्च पदीपादीनं अत्तकिरियासिद्धि दिस्सतीति अत्थेव पाणातिपातेन कम्मबद्धोति । अयञ्च विचारो अदिन्नादानादीसुपि यथासम्भवं विभावेतब्बो ।
साहथिकोति सयं मारेन्तस्स कायेन वा कायपटिबद्धेन वा पहरणं । आणत्तिकोति अधे आणापेन्तस्स "एवं विज्झित्वा वा पहरित्वा वा मारेही''ति आणापनं । निस्सग्गियोति दूरे ठितं मारेतुकामस्स कायेन वा कायपटिबद्धन वा उसुयन्तपासाणादीनं निस्सज्जनं । थावरोति असञ्चारिमेन उपकरणेन मारेतुकामस्स ओपातापस्सेनउपनिक्खिपनं, भेसज्जसंविधानञ्च । विज्जामयोति मारणत्थं मन्तपरिजप्पनं आथब्बणिकादीनं विय । आथब्बणिका हि आथब्बणं पयोजेन्ति नगरे वा रुद्ध सङ्गामे वा पच्युपट्टिते पटिसेनाय पच्चत्थिकेसु पच्चामित्तेसु ईतिं उप्पादेन्ति उपद्दवं उप्पादेन्ति रोगं उप्पादेन्ति पज्जरकं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.८-८)
उप्पादेन्ति सूचिकं उप्पादेन्ति विसूचिकं करोन्ति पक्खन्दियं करोन्ति । विज्जाधरा च विज्जं परिवत्तेत्वा नगरे वा रुद्धे...पे०... पक्खन्दियं करोन्ति । इद्धिमयोति कम्मविपाकजिद्धिमयो दाठाकोटनादीनि विय । पितुरो किर सीहळनरिन्दस्स दाठाकोटनेन चूळसुमनकुटुम्बियस्स मरणं होति । "इमस्मिं पनत्थे"तिआदिना गन्थगारवं परिहरित्वा तस्स अनूनभावम्पि करोति "अस्थिकेही"तिआदिना। इध अवुत्तोपि हि एस अत्थो अतिदिसनेन वुत्तो विय अनूनो परिपुण्णोति।
दुस्सीलस्स भावो दुस्सील्यं, यथावुत्ता चेतना। “पहाया''ति एत्थ त्वा-सद्दो पुब्बकालेति आह “पहीनकालतो पट्ठाया"ति, हेतुअत्थतं वा सन्धाय एवं वुत्तं । एतेन हि पहानहेतुका इधाधिप्पेता समुच्छेदनिका विरतीति दस्सेति । कम्मक्खयाणेन हि पाणातिपातदुस्सील्यस्स पहीनत्ता भगवा अच्चन्तमेव ततो पटिविरतोति वुच्चति समुच्छेदवसेन पहानविरतीनमधिप्पेतत्ता। किञ्चापि “पहाय पटिविरतो"ति पदेहि वुत्तानं पहानविरमणानं पुरिमपच्छिमकालता नत्थि, मग्गधम्मानं पन सम्मादिट्ठिआदीनं, पच्चयभूतानं सम्मावाचादीनञ्च पच्चयुप्पन्नभूतानं पच्चयपच्चयुप्पन्नभावे अपेक्खिते सहजातानम्पि पच्चयपच्चयुप्पन्नभावेन गहणं पुरिमपच्छिमभावेन विय होति । पच्चयो हि पुरिमतरं पच्चयसत्तिया ठितो, ततो परं पच्चयुप्पन्नं पच्चयसत्तिं पटिच्च पवत्तति, तस्मा गहणप्पवत्तिआकारवसेन सहजातादिपच्चयभूतेसु सम्मादिट्ठिआदीसु पहायकधम्मसु पहानकिरियाय पुरिमकालवोहारो, तप्पच्चयुप्पन्नासु च विरतीसु विरमणकिरियाय अपरकालवोहारो सम्भवति । तस्मा “सम्मादिट्ठिआदीहि पाणातिपातं पहाय सम्मावाचादीहि पाणातिपाता पटिविरतो''ति पाळियं अत्थो दट्ठब्बो ।
__ अयं पनेत्थ अट्ठकथामुत्तको नयो- पहानं समुच्छेदवसेन विरतिपटिप्पस्सद्धिवसेन योजेतब्बा, तस्मा मग्गेन पाणातिपातं पहाय फलेन पाणातिपाता पटिविरतोति अत्थो । अपिच पाणो अतिपातीयति एतेनाति पाणातिपातो, पाणघातहेतुभूतो धम्मसमूहो । को पनेसो ? अहिरिकानोत्तप्पदोसमोहविहिंसादयो किलेसा । ते हि भगवा अरियमग्गेन पहाय समुग्घाटेत्वा पाणातिपातदुस्सील्यतो अच्चन्तमेव पटिविरतो किलेसेसु पहीनेसु तन्निमित्तकम्मस्स अनुप्पज्जनतो, तस्मा मग्गेन पाणातिपातं यथावुत्तकिलेसं पहाय तेनेव पाणातिपाता दुस्सील्यचेतना पटिविरतोति अत्थो। एस नयो “अदिन्नादानं पहाया"तिआदीसुपि।
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(१.१.८-८)
चूळसीलवण्णना
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ओरतो विरतोति परियायवचनमेतं, पति-विसद्दानं वा पच्चेकं योजेतब्बतो तथा वुत्तं । ओरतोति हि अवरतो अभिमुखं रतो, तेन उजुकं विरमणवसेन सातिसयतं दस्सेति । पटिरतस्स चेतं अत्थवचनं । विरतोति विसेसेन रतो, तेन सह वासनाय विरमणभावं, उभयेन पन समुच्छेदविरतिभावं विभावेति । एव-सद्दो पन तस्सा विरतिया कालादिवसेन अपरियन्ततं दस्सेतुं वुत्तो। सो उभयत्थ योजेतब्बो। यथा हि अचे समादिन्नविरतिकापि अनवहितचित्तताय लाभजीवितादिहेतु समादानं भिन्नन्ति, न एवं भगवा, सब्बसो पहीनपाणातिपातत्ता पनेस अच्चन्तविरतो एवाति। "नत्थि तस्सा"तिआदिना एव-सद्देन दस्सितं यथावुत्तमत्थं निवत्तेतब्बत्थवसेन समत्थेति । तत्थ वीतिक्कमिस्सामीति उप्पज्जनका धम्माति सह पाठसेसेन सम्बन्धो । ते पन अनवज्जधम्मेहि वोकिण्णा अन्तरन्तरा उप्पज्जनका दुब्बला सावज्जा धम्मा, यस्मा च “कायवचीपयोगं उपलभित्वा इमस्स किलेसा उप्पन्ना''ति विझुना सक्का ज्ञातुं, तस्मा ते इमिनाव परियायेन "चक्खुसोतविज्ञेय्या"ति वुत्ता, न पन चक्खुसोतविज्ञाणारम्मणत्ता । अतो ससम्भारकथाय चक्खुसोतेहि, तन्निस्सितविज्ञाणेहि वा कायिकवाचसिकपयोगमुपलभित्वा मनोविज्ञाणेन विनेय्याति अत्थो दट्ठब्बो। कायिकाति कायेन कता पाणातिपातादिनिप्फादका बलवन्तो अकुसला । “काळका' तिपि टीकायं उद्धतपाठो, कण्हपक्खिका बलवन्तो अकुसलाति अत्थो । “इमिनावा''तिआदिना नयदानं करोति, तञ्च खो “अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो''तिआदिपदेसु ।
___पापे समेतीति समणो, गोतमसमझा, तेन गोत्तेनसम्बन्धो गोतमोति अत्थं सन्धाय "समणोति भगवा"तिआदि वुत्तं । गोत्तवसेन लद्धवोहारोति सम्बन्धो। ब्रह्मदत्तेन भासितवण्णानुसन्धिया इमिस्सा देसनाय पवत्तनतो, तेन च भिक्खुसङ्घवण्णस्सापि भासितत्ता भिक्खुसङ्घवण्णोपि वुत्तनयेन देसितब्बो, सो न देसितो। किं सो पाणातिपाता पटिविरतभावो भिक्खुसङ्घस्स न विज्जतीति अनुयोगमपनेन्तो “न केवलञ्चा"तिआदिमाह । एवं सति कस्मा न देसितोति पुनानुयोगं परिहरति "देसना पना"तिआदिना । एवन्ति एवमेव ।
एत्थायमधिप्पायो –“अस्थि भिक्खवे, अछे च धम्मा'तिआदिना अनञसाधारणे बुद्धगुणे आरब्भ उपरि देसनं वड्ढेतुकामो भगवा आदितो पट्ठाय “तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्या'"तिआदिना बुद्धगुणवसेनेव देसनं आरभि, न भिक्खुसङ्घगुणवसेनापि । एसा हि भगवतो देसनाय पकति, यदिदं एकरसेनेव देसनं दस्सेतुं लब्भमानस्सापि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.८-८)
कस्सचि अग्गहणं । तथा हि रूपकण्डे दुकादीसु, तन्निद्देसेसु च हदयवत्थु न गहितं । इतरवत्थूहि असमानगतिकत्ता देसनाभेदो होतीति । यथा हि चक्खुविज्ञाणादीनि एकन्ततो चक्खादिनिस्सयानि, न एवं मनोविज्ञाणं एकन्तेन हदयवत्थुनिस्सयं आरुप्पे तदभावतो, निस्सयनिस्सितवसेन च वत्थुदुकादिदेसना पवत्ता “अत्थि रूपं चक्खुविज्ञाणस्स वत्थु, अस्थि रूपं न चक्खुविज्ञाणस्स वत्थू"तिआदिना । यम्पि मनोविज्ञाणं एकन्ततो हदयवत्थुनिस्सयं, तस्स वसेन "अस्थि रूपं मनोविज्ञाणस्स वत्थू'तिआदिना दुकादीसु वुच्चमानेसुपि न तदनुरूपा आरम्मणदुकादयो सम्भवन्ति । न हि “अस्थि रूपं मनोविज्ञाणस्स आरम्मणं, अस्थि रूपं न मनोविज्ञाणस्स आरम्मण''न्ति सक्का वत्तुं तदनारम्मणरूपस्साभावतोति वत्थारम्मणदुका भिन्नगतिका सियु, तस्मा न एकरसा देसना भवेय्याति न वुत्तं, तथा निक्खेपकण्डे चित्तुप्पादविभागेन विसुं अवुच्चमानत्ता अवितक्कअविचारपदविस्सज्जने “विचारो चा"ति वत्तुं न सक्काति आवितक्कविचारमत्तपदविस्सजने लब्भमानोपि वितक्को न उद्धतो। अञथा हि “वितक्को चा"ति वत्तब्बं सिया, एवमेविधापि भिक्खुसङ्घगुणो न देसितोति । कामं सद्दतो एवं न देसितो, अत्थतो पन ब्रह्मदत्तेन भासितवण्णस्स अनुसन्धिदस्सनवसेन इमिस्सा देसनाय आरद्धत्ता दीपेतुं वट्टतीति आह "अत्थं पना"तिआदि ।
तत्थायं दीपना- “पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो समणस्स गोतमस्स सावकसङ्घो निहितदण्डो निहितसत्थो''ति वित्थारेतब्बं । ननु धम्मस्सापि वण्णो ब्रह्मदत्तेन भासितोति ? सच्चं भासितो, सो पन सम्मासम्बुद्धपभवत्ता, अरियसङ्घाधारत्ता च धम्मस्स धम्मानुभावसिद्धत्ता च तेसं, तदुभयवण्णदीपनेनेव दीपितोति विसुं न उद्धतो । सद्धम्मानुभावेनेव हि भगवा, भिक्खुसङ्घी च पाणातिपातादिप्पहानसमत्थो होति । अत्थापत्तिवसेन परविहेठनस्स परिवज्जितभावदीपनत्थं दण्डसत्थानं निक्खेपवचन्ति आह "परूपघातत्थाया"तिआदि । अवत्तनतोति अपवत्तनतो, असञ्चरणतो वा । निक्खित्तो दण्डो येनाति निक्खित्तदण्डो। तथा निक्खित्तसत्थो। मज्झिमस्स पुरिसस्स चतुहत्थप्पमाणो चेत्थ दण्डो। तदवसेसो मुग्गरखग्गादयो सत्थं, तेन वुत्तं "एत्थ चा"तिआदि । विहेठनभावतोति विहिं सनभावतो, एतेन ससति हिंसति अनेनाति सत्थन्ति अत्थं दस्सेति । "परूपघातत्थाया"तिआदिना आपन्नमत्थं विवरितुं "यं पना"तिआदि वुत्तं । कतरो जिण्णो, तस्स, तेनवा आलम्बितो दण्डो कत्तरदण्डो। दन्तसोधनं कातुं योग्गं कटुं दन्तकहूं, न पन दन्तसोधनक8 | "दन्तकट्ठवासिं वा"तिपि पाठो, दन्तकठ्ठच्छेदनकवासिन्ति अत्थो। खुद्दकं
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चूळसीलवण्णना
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नखच्छेदनादिकिच्चनिप्फादकं सत्थं पिप्फलिकं। इदं पन भिक्खुसङ्घाधीनवचनं । "भिक्खुसङ्घवसेनपि दीपेतुं वट्टती"ति वुत्तता तस्सापि एकदेसेन दीपनत्थं वुत्तं ।
लज्जा-सद्दी हिरिअत्योति आह "पापजिगुच्छनलक्खणाया'ति । धम्मगरुताय हि बुद्धानं, धम्मस्स च अत्ताधीनत्ता अत्ताधिपतिभूता लज्जाव वुत्ता, न लोकाधिपतिभूतं
ओत्तप्पं । अपिच "लज्जी''ति एत्थ वुत्तलज्जाय ओत्तप्पम्पि वुत्तमेव, तस्मा लज्जाति हिरिओत्तप्पानमधिवचनं दट्ठब्बं । न हि पापजिगुच्छनं पापुत्तासनरहितं, पापभयं वा अलज्जनं नाम अत्थीति । “दयं मेत्तचित्ततं आपन्नो''ति कस्मा वुत्तं, ननु दया-सद्दो "दयापन्नो''तिआदीसु करुणायपि वत्ततीति ? सच्चमेतं, अयं पन दयासद्दो अनुरक्खणत्थं अन्तोनीतं कत्वा पवत्तमानो मेत्ताय, करुणाय च पवत्ततीति इध मेत्ताय पवत्तमानो वुत्तो करुणाय, वक्खमानत्ता । मिदति सिनेहतीति मेत्ता, सा एतस्स अत्थीति मेत्तं, मेत्तं चित्तं एतस्साति मेत्तचित्तो, मेत्ताय सम्पयुत्तं चित्तं एतस्साति वा, तस्स भावो मेत्तचित्तता मेत्ता एव मूलभूतेन तन्निमित्तेन पुग्गलस्मिं बुद्धिया, सद्दस्स च पवत्तनतो ।
"पाणभूतेति पाणजाते"ति वुत्तं । एवं सति पाणो भूतो येसन्ति पाणभूताति निब्बचनं कत्तब् । अथ वा जीवितिन्द्रियसमङ्गिताय पाणसङ्खाते तंतंकम्मानुरूपं पवत्तनतो भूतनामके सत्तेति अत्थो। अनुकम्पकोति करुणायनको । यस्मा पन मेत्ता करुणाय विसेसपच्चयो होति, तस्मा पुरिमपदत्थभूता मेत्ता एव पच्चयभावेन "ताय एव दयापन्नताया"ति वुत्ता । इमिना हि पदेन करुणाय गहिताय येहि धम्मेहि पाणातिपाता पटिविरति सम्पज्जति, तेहि लज्जामेत्ताकरुणाहि समङ्गिभावो यथाक्कमं पदत्तयेन दस्सितो । परदुक्खापनयनकामतापि हि हितानुकम्पनमेवाति अवस्सं अयमत्थो सम्पटिच्छितब्बोति । इमाय पाळिया, संवण्णनाय च तस्सा विरतिया सत्तवसेन अपरियन्ततं दस्सेति ।
विहरतीति एत्थ वि-सद्दो विच्छिन्दनत्थे, हर-सद्दो नयनत्थे, नयनञ्च नामेतं इध पवत्तनं, यापनं, पालनं वाति आह "इरियति यति यापेति पालेती"ति | यपेति यापेतीति चेत्थ परियायवचनं । तस्मा यथावुत्तप्पकारो हुत्वा एकस्मिं इरियापथे उप्पन्नं दुक्खं अञ्जन इरियापथेन विच्छिन्दित्वा हरति पवत्तेति, अत्तभावं वा यापेति पालेतीति अत्थो वेदितब्बो । इति वा हीति एत्थ हि-सद्दो वचनसिलिट्ठतामत्ते कस्सचिपि तेन जोतितत्थस्स अभावतो । तेनाह "एवं वा भिक्खवे"ति | विसुं कप्पनमेव अत्थो विकप्पत्थोति सो अनेकभिन्नेसुयेव
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अत्थेसु लब्भति, अनेकभेदा च अत्था उपरिवक्खमाना एवाति वुत्तं " उपरि अदिन्ना ...पे०... अपेक्खित्वा "ति । " एवन्तिआदि गन्थगारवपरिहरणं, नयदानं वा ।
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इदानि सपिण्डनत्थं दस्सेन्तो " अयं पनेत्था "तिआदिमाह । तत्थ न हनतीति न हिंसति । न घातेतीति न वधति । तत्थाति पाणातिपाते । समनुज्ञति सन्तुट्ठो | अहो वत रेति भोन्तो एकसतो अच्छरियाति अत्थो । आचारसीलमत्तकन्ति साधुजनाचारमत्तकं, मत्तसद्दो चेत्थ विसेसनिवत्तिअत्थो, तेन इन्द्रियसंवरादिगुणेहिपि लोकियपुथुज्जनो तथागतस्स वणं वत्तुं न सक्कोतीति दस्सेति । तथा हि इन्द्रियसंवरपच्चयपरिभोगसीलानि इध न विभत्तानि । एव- सद्दो पदपूरणमत्तं मत्त सद्देन वा यथावुत्तत्थस्सावधारणं करोति, एव-सद्देन आचारसीलमेव वत्तुं सक्कोतीति सन्निट्ठानं । एवमीदिसेसु । " इति वा हि भिक्खवे पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्या" ति वचनसामत्थियेनेव तदुत्तरि गुणं वत्तुं न सक्खिस्सति । “तं वो उपरि वक्खामी "ति च अत्थस्सापज्जनतो तथापन्नमत्थं दस्सेतुं “ उपरि असाधारणभाव "न्तिआदि वृत्तं । " न केवलञ्चा "तिआदिना पुग्गल विवेचनेन पन “पुथुज्जनो”ति इदं निदस्सनमत्तन्ति दस्सितं । “ इतो पर "न्तिआदिना गन्थगारवं परिहरति । पुब्बे वुत्तं पदं पुब्बपदं, न पुब्बपदं तथा, न पुब्बं वा अपुब्बं, तमेव पदं तथा ।
सद्दन्तरयोगेन धातूनमत्थविसेसवाचकत्ता " आदान "न्ति एतस्स गहणन्ति अत्थो दट्ठब्बो, तेनाह “हरण' "न्तिआदि । परस्साति अत्तसन्तकतो परभूतस्स सन्तकस्स, यो वा अत्ततो अञ्ञो, सो पुग्गलो परो नाम, तस्स इदं परन्तिपि युज्जति, “ परसंहरण "न्तिपि पाठो, सं- सद्दो चेत्थ धनत्थो, परसन्तकहरणन्ति वृत्तं होति । थेनो वुच्चति चोरो, तस्स भावो थेय्यं, चोरकम्मं । चोरिकाति चोरस्स किरिया । तदत्थं विवरति " तत्था "ति आदिना । तत्थाति “आदिन्नादान "न्ति पदे । परपरिग्गहितमेव एत्थ अदिन्नं, न पन दन्तपोणसिक्खापदे विय अप्पटिग्गहितकं अत्तसन्तकन्ति अधिप्पायो । “यत्थ परो "तिआदि उभयत्थ सम्बन्धो आवुत्तियादिनयेन । तस्मा " तं परपरिग्गहितं नाम, तस्मिं परपरिग्गहिते 'ति च योजेतब्बं । यथाकामं करोतीति यथाकामकारी, तस्स भावो यथाकामकरिता, तं । तथारुचिकरणं आपज्जन्तोति अत्थो । ससन्तकत्ता अदण्डारहो धनदण्डराजदण्डवसेन । अनुपवज्जो च चोदनासारणादिवसेन । तं परपरिग्गहितं आदियति एतेनाति तदादायको, स्वेव उपक्कमो, तं समुट्ठापेतीति तदादायकउपक्कमसमुट्ठापिका । थेय्या एव चेतना थेय्यचेतना । खुद्दकता अप्पग्घतादिवसेन हीने । महन्ततामहग्घतादिवसेन पणीते । कस्मा ? वत्थुहीनतायात गम्यमानत्ता न वुत्तं, हीने हीनगुणानं सन्तके च चेतना दुब्बला, पणीते, पणीतगुणानं
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सन्तके च बलवतीति हेट्ठा वुत्तनयेन तेहि कारणेहि अप्पसावज्जमहासावज्जता वेदितब्बा । आचरिया पन हीनपणीततो खुद्दकमहन्ते विसुं गहेत्वा "इधापि खुद्दके परसन्तके अप्पसावज्जं, महन्ते महासावज्जं | कस्मा ? पयोगमहन्तताय । वत्थुगुणानं पन समभावे सति किलेसानमुपक्कमानञ्च मुदुताय अप्पसावज्ज, तिब्बताय महासावज्जन्ति अयम्पि नयो योजेतब्बो'ति वदन्ति ।
___साहत्थिकादयोति एत्थ परसन्तकस्स सहत्था गहणं साहत्थिको। अझे आणापेत्वा गहणं आणत्तिको। अन्तोसुङ्कघाते ठितेन बहिसुङ्कघातं पातेत्वा गहणं निस्सग्गियो। “असुकं भण्डं यदा सक्कोसि, तदा अवहरा"ति अत्थसाधकावहारनिप्फादकेन, आणापनेन वा, यदा कदाचि परसन्तकविनासकेन सप्पितेलकुम्भिआदीसु दुकूलसाटकचम्मखण्डादिपक्खिपनादिना वा गहणं थावरो। मन्तपरिजप्पनेन गहणं विज्जामयो। विना मन्तेन, कायवचीपयोगेहि तादिसइद्धियोगेन परसन्तकस्स आकड्ढनं इद्धिमयो। कायवचीपयोगेसु हि सन्तेसुयेव इद्धिमयो अवहरणपयोगो होति, नो असन्तेसु । तथा हि वुत्तं “अनापत्ति भिक्खवे, इद्धिमस्स इद्धिविसये''ति (पारा० १५९), ते च खो पयोगा यथानुरूपं पवत्ताति सम्बन्धो । तेसं पन पयोगानं सब्बेसं सब्बत्थ अवहारेसु असम्भवतो “यथानुरूप"न्ति वुत्तं ।
सन्धिच्छेदादीनि कत्वा अदिस्समानेन वा, कूटमानकूटकहापणादीहि वञ्चनेन वा, अवहरणं थेय्यावहारो। पसव्ह बलसा अभिभुय्य सन्तज्जेत्वा, भयं दस्सेत्वा वा अवहरणं पसरहावहारो। परभण्डं पटिच्छादेत्वा अवहरणं पटिच्छन्नावहारो। भण्डोकासपरिकप्पवसेन परिकप्पेत्वा अवहरणं परिकप्पावहारो। कुसं सङ्कामेत्वा अवहरणं कुसावहारो। इति-सद्देन चेत्थ आदिअत्थेन, निदस्सननयेन वा अवसेसा चत्तारो पञ्चकापि गहिताति वेदितब्बं । पञ्चन्नहि पञ्चकानं समोधानभूता पञ्चवीसति अवहारा सब्बेपि अदिन्नादानमेव, अवित्तिया वा अरियाय वित्तिया वा दिन्नमेवाति अत्थो । “दिनादायी"ति इदं पयोगतो परिसुद्धभावदस्सनं । “दिनपाटिकवी''ति इदं पन आसयतोति आह “चित्तेना"तिआदि ।
अथेनेनाति एत्थ अ-सद्दो न-सद्दस्स कारियो, अ-सद्दो वा एको निपातो न-सद्दत्थोति दस्सेतुं "न थेनेना'ति वुत्तं । पाळियं दिस्समानवाक्यावत्थिकविभत्तियन्तपटिरूपकताकरणेन सद्धिं समासदस्सनमेतं । पकरणाधिगते पन अत्थे विवेचियमाने इध अथेनतोयेव सुचिभूतता अधिगमीयति अदिन्नादानाधिकारत्ताति आह “अथेनत्तायेव सुचिभूतेना"ति तेन
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हेतालङ्कारवचनमेतन्ति दस्सेति । आहितो अहंमानो एत्थाति अत्ता, अत्तभावो । भगवतो पन सो रुळ्हिया यथा तं निच्छन्दरागेसु सत्तवोहारो । अदति वा संसारदुक्खन्ति अत्ता, तेनाह "अत्तभावेना"ति। पदत्तयेपि इत्थम्भूतलक्खणे करणवचनन्ति ज्ञापेतुं “अथेनं...पे०... कत्वा"ति वुत्तं । अथेनेन अत्तना अथेनत्ता हुत्वा सुचिभूतेन अत्तना सुचिभूतत्ता हुत्वा विहरतीतिपि अत्थो ।
सेसन्ति “पहाय पटिविरतो"ति एवमादिकं । तहि पुब्बे वुत्तनयं । किञ्चापि नयिध सिक्खापदवोहारेन विरति वुत्ता, इतो अञ्जसु पन सुत्तपदेसेसु, विनयाभिधम्मेसु च पवत्तवोहारेन विरतियो, चेतना च अधिसीलसिक्खानमधिट्ठानभावतो, तेसमञ्जतरकोट्ठासभावतो च “सिक्खापदन्त्वेव वत्तब्बाति आह "पठमसिक्खापदे"ति । कामञ्चेत्थ “लज्जी दयापन्नो''ति न वुत्तं, अधिकारवसेन, पन अत्थतो च वुत्तमेवाति वेदितब्बं । यथा हि लज्जादयो पाणातिपातप्पहानस्स विसेसपच्चयो, एवं अदिन्नादानप्पहानस्सापीति । एस नयो इतो परेसुपि । अथ वा सुचिभूतेनाति हिरोत्तप्पादिसमन्नागमनं, अहिरिकादीनञ्च पहानं वुत्तमेवाति "लज्जी दयापन्नोति न
वुत्तं ।
__ ब्रह्म-सद्दो इध सेट्ठवाचको, अब्रह्मानं निहीनानं, अब्रह्म वा निहीनं चरियं वुत्ति अब्रह्मचरियं, मेथुनधम्मो । ब्रह्म सेटु आचारन्ति मेथुनविरतिं । न आचरतीति अनाचारी, [आराचारी (दी० नि० १.८)] तदाचारविरहितोति अत्थो, तेनाह “अब्रह्मचरियतो दूरचारी"ति । दूरो मेथुनसङ्खातो आचारो, सो विरहेन यस्सत्थीति दूरचारी, मेथुनधम्मतो वा दूरो हत्वा तब्बिरतिं आचरतीति दूरचारीतिपि वट्टति । मिथुनानं रागपरियट्टानेन सदिसानं उभिन्नं अयं मेथुनोति अत्थं दस्सेति "रागपरियुट्ठानवसेना"तिआदिना। असतं धम्मो आचारोति असद्धम्मो, तस्मा । अभेदवोहारेन गामसद्देनेव गामवासिनो गहिताति वुत्तं "गामवासीन"न्ति, गामे वसतं धम्मोतिपि युज्जति । “दूरचारी"ति चेत्थ वचनतो, पाळियं वा “मेथुना' त्वेव अवत्वा “गामधम्मा'"तिपि वुत्तत्ता
___ "इध ब्राह्मण, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा सम्मा ब्रह्मचारी पटिजानमानो न हेव खो मातुगामेन सद्धिं द्वयंद्वयसमापत्तिं समापज्जति, अपिच खो मातुगामस्स उच्छादनपरिमद्दनन्हापनसम्बाहनं सादियति, सो तं अस्सादेति, तं निकामेति, तेन च वित्तिं आपज्जति, इदम्पि खो ब्राह्मण ब्रह्मचरियस्स खण्डम्पि
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चूळसीलवण्णना
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छिद्दम्पि सबलम्पि कम्मासम्पि, अयं वुच्चति ब्राह्मण अपरिसुद्धं ब्रह्मचरियं चरति संयुत्तो मेथुनेन संयोगेन, न परिमुच्चति जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, न परिमुच्चति दुक्खस्माति वदामि ।
पुन चपरं...पे०... नपि मातुगामस्स उच्छादनपरिमन्दनन्हापनसम्बाहनं सादियति, अपिच खो मातुगामेन सद्धिं सञ्जग्घति संकीळति संकेलायति...पे०... नपि मातुगामेन सद्धिं सञ्जग्घति संकीळति संकेलायति, अपिच खो मातुगामस्स चक्खुना चर्पा उपनिज्झायति पेक्खति...पे०... नपि मातुगामस्स चक्खुना चक्खं उपनिज्झायति पेक्खति, अपिच खो मातुगामस्स सदं सुणाति तिरोकुटुं वा तिरोपाकारं वा हसन्तिया वा भणन्तिया वा गायन्तिया वा रोदन्तिया वा...पे०... नपि मातुगामस्स सदं सुणाति तिरोकुटुं वा तिरोपाकारं वा हसन्तिया वा भणन्तिया वा गायन्तिया वा रोदन्तिया वा, अपिच खो यानिस्स तानि पुब्बे मातुगामेन सद्धिं हसितलपितकीळितानि, तानि अनुस्सरति...पे०... नपि यानिस्स तानि पुब्बे मातुगामेन सद्धिं हसितलपितकीळितानि, तानि अनुस्सरति, अपिच खो पस्सति गहपतिं वा गहपतिपुत्तं वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितं समङ्गिभूतं परिचारयमानं...पे०... नपि पस्सति गहपतिं वा गहपतिपुत्तं वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितं समङ्गिभूतं परिचारयमानं, अपिच खो अञ्जतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति “इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवचतरो वा''ति । सो तं अस्सादेति, तं निकामेति, तेन च वित्तिं आपज्जति । इदम्पि खो ब्राह्मण ब्रह्मचरियस्स खण्डम्पि छिद्दम्पि सबलम्पि कम्मासम्पि । अयं वुच्चति ब्राह्मण, अपरिसुद्धं ब्रह्मचरियं चरति संयुत्तो मेथुनेन संयोगेन, न परिमुच्चति जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, न परिमुच्चति दुक्खस्माति वदामी''ति (अ० नि० २.७.५०)
अङ्गुत्तरागमे सत्तकनिपाते जाणुसोणिसुत्ते आगता सत्तविधमेथुनसंयोगापि पटिविरति दस्सिताति दट्टब्बा। इधापि असद्धम्मसेवनाधिप्पायेन कायद्वारप्पवत्ता मग्गेनमग्गपटिपत्तिसमुट्ठापिका चेतना अब्रह्मचरियं । पञ्चसिक्खापदक्कमे मिच्छाचारे पन अगमनीयट्ठानवीतिक्कमचेतना यथावुत्ता कामेसु मिच्छाचारोति योजेतब्बं ।
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तत्थ अगमनीयट्ठानं नाम पुरिसानं ताव मातुरक्खितादयो दस, धनक्कीतादयो दसाति वीसति इथियो । इत्थीसु पन दसन्नं धनक्कीतादीनं, सारक्खसपरिदण्डानञ्च वसेन द्वादसन्नं अशे पुरिसा । ये पनेके वदन्ति “चत्तारो कामेसु मिच्छाचारा अकालो, अदेसो, अनङ्गो, अधम्मो चा"ति, ते विप्पटिपत्तिमत्तं पति परिकप्पेत्वा वदन्ति । न हि सागमनीयट्ठाने पवत्ता विप्पटिपत्ति मिच्छाचारो नाम सम्भवति । सा पनेसा दुविधापि विप्पटिपत्ति गुणविरहिते अप्पसावज्जा, गुणसम्पन्ने महासावज्जा । गुणरहितेपि च अभिभवित्वा विप्पटिपत्ति महासावज्जा, उभिन्नं समानच्छन्दभावे अप्पसावज्जा, समानच्छन्दभावेपि किलेसानं, उपक्कमानञ्च मुदुताय अप्पसावज्जा, तिब्बताय महासावज्जाति वेदितब्बं ।
तस्स पन अब्रह्मचरियस्स द्वे सम्भारा सेवेतुकामताचित्तं, मग्गेनमग्गपटिपत्तीति । मिच्छाचारस्स पन चत्तारो सम्भारा अगमनीयवत्थु, तस्मिं सेवनचित्तं, सेवनापयोगो, मग्गेनमग्गपटिपत्तिअधिवासनन्ति एवं अट्ठकथासु “चत्तारो सम्भारा''ति (ध० स० अकुसलकम्मपथकथा; म० नि० अट्ठ० १.१.८९; सं० नि० अट्ठ० २.१०९-१११) वुत्तत्ता अभिभवित्वा वीतिक्कमने मग्गेनमग्गपटिपत्तिअधिवासने सतिपि पुरिमुप्पन्नसेवनाभिसन्धिपयोगाभावतो अभिभुय्यमानस्स मिच्छाचारो न होतीति वदन्ति केचि । सेवनचित्ते सति पयोगाभावो न पमाणं इत्थिया सेवनपयोगस्स येभुय्येन अभावतो, पुरिसस्सेव येभुय्येन सेवनपयोगी होतीति इत्थिया पुरेतरं सेवनचित्तं उपट्ठपेत्वा निसिन्नाय [निपन्नाय (ध० स० अनु टी० कम्मकथावण्णना)] मिच्छाचारो न सियाति आपज्जति । तस्मा पुरिसस्स वसेन उक्कंसतो “चत्तारो सम्भारा''ति वुत्तं । अञथा हि इत्थिया पुरिसकिच्चकरणकाले पुरिसस्सापि सेवनापयोगाभावतो मिच्छाचारो न सियाति वदन्ति एके।
इदं पनेत्थ सन्निट्ठानं - अत्तनो रुचिया पवत्तितस्स सेवनापयोगेनेव सेवनचित्ततासिद्धितो अगमनीयवत्थु, सेवनापयोगो, मग्गेनमग्गपटिपत्तिअधिवासनन्ति तयो, बलक्कारेन पवत्तितस्स पुरिमुप्पन्नसेवनाभिसन्धिपयोगाभावतो अगमनीयवत्थु, तस्मिं सेवनचित्तं, मग्गेनमग्गपटिपत्तिअधिवासनन्ति तयो, अनवसेसग्गहणेन पन वुत्तनयेन चत्तारोति, तम्पि केचियेव वदन्ति, वीमंसित्वा गहेतब्बन्ति अभिधम्मानुटीकार्य (ध० स० अनु टी० अकुसलकम्मपथकथावण्णना) वुत्तं । एको पयोगो साहत्थिकोव ।
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चूळसीलवण्णना
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९. मुसाति ततियन्तो, दुतियन्तो वा निपातो मिच्छापरियायो, किरियापधानोति आह “विसंवादनपुरेक्खारस्सा"तिआदि । पुरे करणं पुरेक्खारो, विसंवादनस्स पुरेक्खारो यस्साति तथा, तस्स कम्मपथप्पत्तमेव दस्सेतुं “अत्थभञ्जनको"ति वुत्तं, परस्स हितविनासकोति अत्थो । मुसावादो पन ससन्तकस्स अदातुकामताय, हसाधिप्पायेन च भवति । वचसा कता वायामप्पधाना किरिया वचीपयोगो। तथा कायेन कता कायपयोगो। विसंवादनाधिप्पायो पुब्बभागक्खणे, तङ्खणे च। वुत्तहि “पुब्बेवस्स होति 'मुसा भणिस्स'न्ति, भणन्तस्स होति 'मुसा भणामी'ति' (पारा० २००; पाचि० ४) एतदेव हि द्वयं अङ्गभूतं । इतरं “भणितस्स होति 'मुसा मया भणित'न्ति" (पारा० २००; पाचि० ४) वुत्तं पन होतु वा, मा वा, अकारणमेतं । अस्साति विसंवादकस्स । "चेतना''ति एतेन सम्बन्धो । विसं वादेति एतेनाति विसंवादनं, तदेव कायवचीपयोगो, तं समुट्ठापेतीति तथा, इमिना मुसासङ्घातेन कायवचीपयोगेन, मुसासङ्घातं वा कायवचीपयोगं वदति विज्ञापेति, समुट्ठापेति वा एतेनाति मुसावादोति अत्थमाह । “वादो''ति वुत्ते विसंवादनचित्तं, तज्जो वायामो, परस्स तदत्थविजाननन्ति लक्खणत्तयं विभावितमेव होति ।
"अतथं वत्थु"न्ति लक्खणं पन अविभावितमेव मुसा-सद्दस्स पयोगसङ्घातकिरियावाचकत्ता। तस्मा इध नये लक्खणस्स अब्यापितताय, मुसा-सद्दस्स च विसंवादितब्बत्थवाचकतासम्भवतो परिपुण्णं कत्वा मुसावादलक्खणं दस्सेतुं “अपरो नयो"तिआदि वुत्तं । लक्खणतोति सभावतो । तथाति तेन तथाकारेन | कायवचीविज्ञत्तियो समुट्ठापेतीति विज्ञत्तिसमुट्ठापिका। इमस्मिं पन नये मुसा वत्थु वदीयति वुच्चति एतेनाति मुसावादोति निब्बचनं दट्ठब्बं । “सो यमत्थ"न्तिआदिना कम्मपथप्पत्तस्स वत्थुवसेन अप्पसावज्जमहासावज्जभावमाह । यस्स अत्थं भजति, तस्स अप्पगुणताय अप्पसावज्जो, महागुणताय महासावज्जोति अदिन्नादाने विय गुणवसेनापि योजेतब्बं । किलेसानं मदतिब्बतावसेनापि अप्पसावज्जमहासावज्जता लब्भतियेव ।
"अपिचा"तिआदिना मुसावादसामञस्सापि अप्पसावज्जमहासावज्जभावं दस्सेति । अत्तनो सन्तकं अदातुकामतायाति, हि हसाधिप्पायेनाति च मुसावादसामञतो वुत्तं । उभयत्थापि च विसंवादनपुरेक्खारेनेव मुसावादो, न पन वचनमत्तेन । तत्थ पन चेतना बलवती न होतीति अप्पसावज्जता वुत्ता। नदी मजेति नदी विय । अप्पताय ऊनस्स अत्थस्स पूरणवसेन पवत्ता कथा पूरणकथा, बहुतरभावेन वुत्तकथाति वुत्तं होति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.९-९)
तेनाकारेन जातो तज्जो, तस्स विसंवादनस्स अनुरूपोति अत्थो। वायामोति वायामसीसेन पयोगमाह । वीरियप्पधाना हि कायिकवाचसिककिरिया इध अधिप्पेता, न वायाममत्तं । विसंवादनाधिप्पायेन पयोगे कतेपि अपरेन तस्मिं अत्थे अविज्ञाते विसंवादनस्स असिज्झनतो परस्स तदत्थविजाननम्पि एकसम्भारभावेन वुत्तं । केचि पन "अभूतवचनं, विसंवादनचित्तं, परस्स तदत्थविजानन"न्ति तयो सम्भारे वदन्ति । कायिकोव साहत्थिकोति कोचि मओय्याति तं निवारणत्थं "सो कायेन वा"तिआदि वुत्तं । ताय चे किरियाय परो तमत्थं जानातीति तङ्खणे वा दन्धताय विचारेत्वा पच्छा वा जाननं सन्धाय वुत्तं। अयन्ति विसंवादको । किरियसमुट्ठापिकचेतनाक्खणेयेवाति कायिकवाचसिककिरियसमुट्ठापिकाय चेतनाय पवत्तक्खणे एव । मुसावादकम्मुना बज्झतीति विसंवादनचेतनासङ्घातेन मुसावादकम्मुना सम्बन्धीयति, अल्लीयतीति वा अत्थो । सचेपि दन्धताय विचारेत्वा पच्छा चिरेनापि परो तदत्थं जानाति, सन्निट्ठापकचेतनाय निब्बत्तत्ता तङ्खणेयेव बज्झतीति वुत्तं होति ।
"एको पयोगो साहत्थिकोवा"ति इदं पोराणट्ठकथासु आगतनयेन वुत्तन्ति इध सङ्गहट्ठकथाय सङ्गहकारस्स अत्तनो मतिभेदं दस्सेतुं “यस्मा पना"तिआदि वुत्तं । तत्थ "यथा...पे०... तथा"ति एतेन साहत्थिको विय आणत्तिकादयोपि गहेतब्बा, अग्गहणे कारणं नत्थि परस्स विसंवादनभावेन तस्सदिसत्ताति दस्सेति, "इदमस्स...पे०... आणापेन्तोपी"ति आणत्तिकस्स गहणे कारणं, "पण्णं...पे०... निस्सज्जन्तोपी"ति निस्सग्गियस्स, “अयमत्थो...पे०... ठपेन्तोपी"ति थावरस्स। यस्मा विसंवादेतीति सब्बत्थ सम्बन्धो । पण्णं लिखित्वाति तालादीनं पण्णं अक्खरेन लिखित्वा, पण्णन्ति वा भुम्मत्थे उपयोगवचनं । तेन वुत्तं “तिरोकुट्टादीसूति [कुड्डादीसु (दी० नि० अट्ठ० १.८)] पण्णे अक्खरं लेखनिया लिखित्वाति. अत्थो । वीमंसित्वा गहेतब्बाति अत्तनोमतिया सब्बदुब्बलत्ता अनत्तुक्कंसनेन वुत्तं । किञ्हेत्थ विचारेतब्बकारणं अस्थि सयमेव विचारितत्ता ।
सच्चन्ति वचीसच्चं, सच्चेन सच्चन्ति पुरिमेन वचीसच्चेन पच्छिमं वचीसच्चं । पच्चयवसेन धातुपदन्तलोपं सन्धाय "सन्दहती"ति वुत्तं । सद्दविदू पन -
“विपुब्बो धा करोत्यत्थे, अभिपुब्बो तु भासने । न्यासंपुब्बो यथायोगं, न्यासारोपनसन्धिसूति ।। -
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(१.१.९-९)
चूळसीलवण्णना
धा-सद्दमेव घटनत्थे पठन्ति । तस्मा परियायवसेन " सन्दहती "ति वुत्तन्तिपि दट्ठब्बं । तदधिप्पायं दस्सेति "न अन्तरन्तरा " ति आदिना । “यो ही "तिआदि तब्बिवरणं । अन्तरितत्ताति अन्तरा परिच्छिन्नत्ता । न तादिसोति न एवंवदनसभावो । जीवितहेतुपि, पगेव अञ्ञहेतूति अपि सद्दो सम्भावनत्थो ।
" सच्चतो थेततो "तिआदीसु (म० नि० १.१९ ) विय थेत - सद्दो थिरपरियायो, थिरभावो च सच्चवादिताधिकारत्ता कथावसेन वेदितब्बोति आह “ थिरकथोति अत्थो "ति । थितस्स भावोति हि येतो, थिरभावो, तेन युत्तत्ता पुग्गलो इध येतो नाम । हलिद्दीति सुवण्णवण्णकन्दनिप्फत्तको गच्छविसेसो । थुसो नाम धञ्ञत्तचो, धञ्ञपलासो च । कुम्भण्डन्ति महाफलो सूपसम्पादको लताविसेसो । इन्दखीलो नाम गम्भीरनेमो एसिकाम्भो । यथा हलिद्दिरागादयो अनवट्ठितसभावताय न ठिता, एवं न ठिता कथा एतस्साति नतिकथ [नथिरकथो ( दी० नि० अट्ठ० १.८ ) ] यथा पासाणलेखादयो अवट्ठितसभावताय ठिता, एवं ठिता कथा एतस्साति ठितकथोति [ थिरकथो ( दी० नि० अट्ठ० १.८)] हलिद्दिरागादयो यथा कथाय उपमायो होन्ति, एवं योजेतब्बं । कथाय हि एता उपमायोति ।
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पत्तिसङ्घा सद्धा अयति पवत्तति त्यात पच्चयिकोति आह " पत्तियायितब्बको "ति । पत्तिया अयितब्बा पवत्तेतब्बाति पत्तियायितब्बा य-कारागमेन, वाचा सा एतस्साति पत्तियायितब्बको, तेनाह “सद्धायितब्बको "ति । तदेवत्थं ब्यतिरेकेन, अन्वयेन च दस्सेतुं " एकच्चो ही "तिआदि वृत्तं । वत्तब्बतं आपज्जति विसंवादनतो । इतरपक्खे च अविसंवादनतोति अधिप्पायो । “लोक "न्ति एतेन “लोकस्सा" ति एत्थ कम्मत्थे छट्ठीति दस्सेति ।
सतिपि पच्चेकं पाठक्कमे अञ्ञासु अभिधम्मट्ठकथा दीसु (ध० स० अट्ठ० अकुसलकम्मपथकथा; म० नि० १.८९ ) संवण्णनाक्कमेन तिष्णम्पि पदानं एकत्थसंवण्णनं कातुं “याय वाचाया" ति आदिमाह, याय वाचाय करोतीति सम्बन्धो । परस्साति यं भिन्दितुं तं वाचं भासति, तस्स । च- सद्दो अट्ठानपयुत्तो, सो द्वन्दगब्भभावं जोतेतुं कम्मद्वये पयुज्जितब्बो । सुञ्ञभावन्ति पियविरहितताय रित्तभावं । साति यथावत्ता सहसभावा वाचा, एतेन पियञ्च सुञ्ञञ्च पियसुञ्ञ, तं करोति एतायाति पिसुणा निरुत्तिनयेनाति वचनत्थं दस्सेति, पिसतीति वा पिसुणा, समग्गे सत्ते अवयवभूते वग्गभिन्ने करोतीति अत्थो ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.९-९)
फरुसन्ति सिनेहाभावेन लूखं । सयम्पि फरुसाति दोमनस्ससमुट्टितत्ता सभावेन सयम्पि कक्कसा | फरुससभावतो नेव कण्णसुखा। अत्थविपन्नताय न हदयङ्गमा। एत्थ पन पठमनये फरुसं करोतीति वचनत्थेन वा फलूपचारेन वा वाचाय फरुससद्दप्पवत्ति वेदितब्बा । दुतियनये मम्मच्छेदवसेन पवत्तिया एकन्तनिठुरताय रुळ्हिसद्दवसेन सभावेन, कारणूपचारेन वा वाचाय फरुससद्दप्पवत्ति दट्ठब्बा ।
येनाति पलापसङ्घातेन निरत्थकवचनेन । सम्फन्ति "स"न्ति वुत्तं सुखं, हितञ्च फलति पहरति विनासेतीति अत्थेन “सम्फ''न्ति लद्धनाम अत्तनो, परेसञ्च अनुपकारकं यं किञ्चि अत्थं, तेनाह “निरत्थक"न्ति, इमिना सम्र्फ पलपति एतेनाति सम्फप्पलापोति वचनत्थं दस्सेति ।
"तेस"न्तिआदिना चेतनाय फलवोहारेन पिसुणादिसद्दप्पवत्ति वुत्ता। "सा एवा"तिआदिना पन चेतनाय पवत्तिपरिकप्पनाय हेतुं विभावेति। तत्थ "पहाया"तिआदिवचनसन्निधानतो तस्सायेव च पहातब्बता युत्तितो अधिप्पेताति अत्थो ।
तत्थाति तासु पिसुणवाचादीसु। संकिलिट्ठचित्तस्साति लोभेन, दोसेन वा विबाधितचित्तस्स, उपतापितचित्तस्स वा, दूसितचित्तस्साति वुत्तं होति, "चेतना"ति एतेन सम्बन्धो । येन सह परेसं भेदाय वदति, तस्स अत्तनो पियकम्यतायाति अत्थो । चेतना पिसुणवाचा नाम पिसुणं वदन्ति एतायाति कत्वा । समासविसये हि मुख्यवसेन अत्थो गहेतब्बो, ब्यासविसये उपचारवसेनाति दट्ठब्बं । यस्स यतो भेदं करोति, तेसु अभिन्नेसु अप्पसावज्जं, भिन्नेसु महासावज्जं । तथा किलेसानं मुदुतिब्बताविसेसेसुपि योजेतब्बं ।
यस्स पेसुधे उपसंहरति, सो भिज्जतु वा, मा वा, तस्स तदत्थविज्ञापनमेव पमाणन्ति आह "तस्स तदत्थविजानन"न्ति । भेदपुरेक्खारतापियकम्यतानमेकेकपक्खिपनेन चत्तारो । कम्मपथप्पत्ति पन भिन्ने एव । इमेसन्ति अनियमताय परम्मुखापवत्तानम्पि अत्तनो बुद्धियं परिवत्तमाने सन्धाय वुत्तन्ति दस्सेतुं “येस"न्तिआदिमाह । इतोति इध पदेसे, वुत्तानं येसं सन्तिके सुतन्ति योजेतब्बं ।
___ "दिन्न''न्ति निदस्सनवचनं बहूनम्पि सन्धानतो । “मित्तान"न्तिआदि "सन्धान"न्ति एत्थ कम्म, तेन पाळियं “भिन्नान"न्ति एतस्स कम्मभावं दस्सेति । सन्धानकरणञ्च नाम
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(१.१.९-९)
चूळसीलवण्णना
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तेसमनुरूपकरणमेवाति वुत्तं "अनुकत्ता"ति । अनुप्पदाताति अनुबलप्पदाता, अनुवत्तनवसेन वा पदाता। कस्स पन अनुबलप्पदानं, अनुवत्तनञ्चाति ? “सहितानन्ति वुत्तत्ता सन्धानस्साति विज्ञायतीति आह "सन्धानानुप्पदाता"ति । यस्मा पन अनुबलवसेन, अनुवत्तनवसेन च सन्धानस्स पदानं आदानं, रक्खणं वा दळहीकरणं होति, तस्मा वुत्तं "दव्हीकम्मं कत्ता'ति । आरमन्ति एत्थाति आरामो। रमितब्बट्टानं समग्गोति हि तदधिट्ठानानं वसेन तब्बिसेसनता वुत्ता। “समग्गे''तिपि पठन्ति, तदयुत्तं "यत्था"तिआदिवचनेन विरुद्धत्ता । यस्मा पन आकारेन विनापि अयमत्थो लब्भति, तस्मा "अयमेवेत्थ अत्थो"ति वुत्तं समग्गेसूति समग्गभूतेसु जनकायेसु, तेनाह "ते पहाया"तिआदि । तप्पकतियत्थोपि कत्तुअत्थोवाति दस्सेति "नन्दती"ति इमिना । तप्पकतियत्थेन हि “दिस्वापि सुत्वापी"ति वचनं सुपपन्नं होति । समग्गे करोति एतायाति समग्गकरणी। सायेव वाचा, तं भासिताति अत्थमाह "या वाचा"तिआदिना । ताय वाचाय समग्गकरणं नाम । “सुखा सङ्घस्स सामग्गी, समग्गानं तपो सुखो''तिआदिना (ध० प० १९४) समग्गानिसंसदस्सनमेवाति वुत्तं “सामग्गिगुणपरिदीपिकमेवाति । इतरन्ति तब्बिपरीतं भेदनिकं वाचं ।
मम्मानीति दुट्ठारूनि, तस्सदिसताय पन इध अक्कोसवत्थूनि “मम्मानीति वुच्चन्ति । यथा हि दुट्ठारूसु येन केनचि वत्थुना घटितेसु चित्तं अधिमत्तं दुक्खप्पत्तं होति, तथा तेसु दससुजातिआदीसु अक्कोसवत्थूसु फरुसवाचाय फुसितमत्तेसूति । तथा हि वुत्तं “मम्मानि विय मम्मानि, येसु फरुसवाचाय छुपितमत्तेसु दुट्ठारूसु विय घट्टितेसु चित्तं अधिमत्तं दुक्खप्पत्तं होति, कानि पन तानि ? जातिआदीनि अक्कोसवत्थूनीति (दी० नि० टी० १.९) “यस्स सरीरप्पदेसस्स सत्थादिपटिहनेन भुसं रुज्जनं, सो मम्मं नाम | इध पन यस्स चित्तस्स फरुसवाचावसेन दोमनस्ससङ्खातं भुसं रुज्जनं, तं मम्मं वियाति मम्म''न्ति अपरे । तानि मम्मानि छिज्जन्ति भिज्जन्ति येनाति मम्मच्छेदको, स्वेव कायवचीपयोगो, तानि समुट्ठापेतीति तथा । एकन्तफरुसचेतना फरुसा वाचा फरुसं वदन्ति एतायाति कत्वा । “फरुसचेतना" इच्चेव अवत्वा "एकन्तफरुसचेतना"ति वचनं दुट्ठचित्तताय एव फरुसचेतना अधिप्पेता, न पन सवनफरुसतामत्तेनाति आपनत्थं। तस्साति एकन्तफरुसचेतनाय एव । आविभावत्थन्ति फरुसवाचाभावस्स पाकटकरणत्थं । तस्साति वा एकन्तफरुसचेतनाय एव, फरुसवाचाभावस्साति अत्थो । तथेवाति मातुवुत्ताकारेनेव, उहासि अनुबन्धितुन्ति अत्थो । सच्चकिरियन्ति यं “चण्डा तं महिंसी अनुबन्धतू''ति वचनं मुखेन कथेसि, तं मातुचित्ते नत्थि, तस्मा "तं मा होतु, यं पन उप्पलपत्तम्पि मय्ह उपरि न
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.९-९)
पततू"ति कारणं चित्तेन चिन्तेसि, तदेव मातुचित्ते अत्थि, तस्मा “तमेव होतू''ति सच्चकरणं, कत्तब्बसच्चं वा । तत्थेवाति उट्ठानट्ठानेयेव । बद्धा वियाति योत्तादिना परिबन्धि विय । एवं मम्मच्छेदकोति एत्थ सवनफरुसतामत्तेन मम्मच्छेदकता वेदितब्बा ।
पयोगोति वचीपयोगो। चित्तसण्हतायाति एकन्तफरुसचेतनाय अभावमाह । ततोयेव हि फरुसवाचा न होति कम्मपथप्पत्ता, कम्मभावं पन न सक्का वारेतुन्ति दट्ठब्बं । "मातापितरो ही"तिआदिनापि तदेवत्थं समत्थेति । एवं ब्यतिरेकवसेन चेतनाफरुसताय फरुसवाचाभावं साधेत्वा इदानि तमेव अन्वयवसेन साधेतुं “यथा"तिआदि वुत्तं । अफरुसा वाचा न होति फरुसा वाचा होतियेवाति अत्थो साति फरुसवाचा | यन्ति पुग्गलं ।
एत्थापि कम्मपथभावं अप्पत्ता अप्पसावज्जा, इतरा महासावज्जा । तथा किलेसानं मुदुतिब्बताभेदेपि योजेतब्बं । केचि पन “यं उद्दिस्स फरुसवाचा पयुज्जति, तस्स सम्मुखायेव सीसं एती''ति वदन्ति, एके पन “परम्मुखापि फरुसवाचा होतियेवा''ति । तत्थायमधिप्पायो युत्तो सिया, सम्मुखा पयोगे अगारवादीनं बलवभावतो सिया चेतना बलवती, परस्स च तदत्थविजाननं, न तथा परम्मुखा । यथा पन अक्कोसिते मते आळहने कता खमना उपवादन्तरायं निवत्तेति, एवं परम्मुखा पयुत्तापि फरुसवाचा होतियेवाति सक्का आतुन्ति, तस्मा उभयत्थापि फरुसवाचा सम्भवतीति दट्ठब्बं । तथा हि परस्स तदत्थविजाननमञत्र तयोव तस्सा सम्भारा अट्ठकथासु वुत्ताति । कुपितचित्तन्ति अक्कोसनाधिप्पायेनेव वुत्तं, न पन मरणाधिप्पायेन । मरणाधिप्पायेन हि सति चित्तकोपे अत्थसिद्धिया. तदभावे च यथारहं पाणातिपातब्यापादाव होन्ति ।
एलं वुच्चति दोसो इलति चित्तं, पुग्गलो वा कम्पति एतेनाति कत्वा । एत्थाति -
"नेलङ्गो सेतपच्छादो, एकारो वत्तती रथो । अनीघं पस्स आयन्तं, छिन्नसोतं अबन्धन'न्ति ।। (सं० नि० २.४.३४७; उदा० ६५; पेटको० २५)।
इमिस्सा उदानगाथाय । सीलव्हेत्थ निद्दोसताय “नेल''न्ति वुत्तं । तेनेवाह चित्तो गहपति आयस्मता कामभूथेरेन पुट्ठो संयुत्तागमवरे सळायतनवग्गे “नेलङ्गन्ति खो भन्ते सीलानमेतं अधिवचन"न्ति (सं० नि० २.४.३४७) वाचा नाम सद्दसभावा
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(१.१.९-९)
सवण्णा
तं तदत्थनिबन्धनाति सादुरससदिसत्ता मधुरमेव ब्यञ्जनं, अत्थो च तब्भावतोति अत्थमेव सन्धाय ब्यञ्जनमधुरताय, अत्थमधुरताया" ति च वृत्तं । विसेसनपरनिपातोपि हि लोके दिस्सति “अग्याहितो' तिआदीसु । अपिच अवयवापेक्खने सति “मधुरं ब्यञ्जनं यस्सा''तिआदिना वत्तब्बो । सुखाति सुखकरणी, सुखहेतूति वृत्तं होति । कण्णसूलन्ति कण्णसङ्कं । कण्णसद्देन चेत्थ सोतविञ्ञणपटिबद्धतदनुवत्तका विञ्ञाणवीथियो गहिता । वोहारकथा हेसा सुत्तन्तदेसना, तस्सा वण्णना च, तथा चेव वुत्तं " सकलसरीरे कोपं, पेम"न्ति च । न हि हदयवत्थुनिस्सितो कोपो, पेमो च सकलसरीरे वत्तति । एस नयो ईदिसेसु । सुखेन चित्तं पविसति यथावुत्तकारणद्वयेनाति अत्थो, अलुत्तसमासो चेस यथा "अमतङ्गतो" ति । पुरेति गुणपारिपुरे, तेनाह “ गुणपरिपुण्णताया "ति । पुरे संवड्डा पोरी, तादिसा नारी वियाति वाचापि पोरीति अत्थमाह “पुरे "तिआदिना । सुकुमाराति सुतरुणा । उपमेय्यपक्खे पन अफरुसताय मुदुकभावो एव सुकुमारता । पुरस्साति एत्थ पुर- सद्दो तन्निवासीवाचको सहचरणवसेन "गामो आगतो"तिआदीसु विय, वाह “ नगरवासीन "न्ति । एसाति तंसम्बन्धीनिसा वाचा । एवरूपी कथाति अत्थत्तयेन पकासिता कथा | कन्ताति कामिता तुट्ठा यथा “पक्कन्तोति, मान- सद्दस्स वा अन्तब्यप्पदेसो, कामियमानाति अत्थो । यथा “अनापत्ति असमनुभासन्तस्सा" ति ( पारा० ४१६, ४३०, ४४१) मनं अप्पेति वड्ढेतीति मनापा, तेन वुत्तं "चित्तबुड्डिकरा "ति । तथाकारिनीति अथ अतो बहुनो जनस्साति इध सम्बन्धे सामिवचनं, न तु पुरिमस्मिं विय कत्तरि ।
कामं हि वत्तुमिच्छितो अत्यो सम्भवति, सो पन अफलत्ता भासितत्थपरियायेन अत्थोयेव नाम न होतीति आह "अनत्थविञ्ञापिका "ति । अपिच पयोजनत्थाभावतो अनत्था, वाचा, तं विञ्ञापिकातिपि वट्टति । अकुसलचेतना सम्फप्पलापो सम्फे पलपन्ति एतायाति कत्वा । आसेवनं भावनं बहुलीकरणं । यं जनं गाहापयितुं पवत्तितो, तेन अग्गहिते अप्पसावज्जो, गहिते महासावज्जो । किलेसानं मुदुतिब्बतावसेनापि योजेतब्बा । भारतनामकानं भातुकराजूनं युद्धकथा, दसगिरियक्खेन सीताय नाम देविया आहरणकथा, रामरञ्ञा पच्चाहरणकथा, यथा तं अधुना बाहिरकेहि परिचयिता सक्कटभासाय गण्ठिता रामपुराणभारतपुराणादिकथाति, एवमादिका निरत्थककथा सम्फप्पलापोति वुत्तं “भारत...पे०... पुरेक्खारता "ति ।
अप्पसावज्जमहासावज्जता
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" कालवादी' तिआदि सम्फप्पलापा पटिविरतस्स पटिपत्तिसन्दस्सनं यथा “पाणातिपाता पटिविरतो”तिआदि (दी० नि० १.८, १९४) पाणातिपातप्पहानस्स पटिपत्तिदस्सनं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
"पाणातिपातं पहाय विहरतीति हि वुत्ते कथं पाणातिपातप्पहानं होतीति अपेक्खासम्भवतो “पाणातिपाता पटिविरतो होती 'ति वृत्तं । सा पन विरति कथन्ति आह "निहितदण्डो निहित सत्थो 'ति । तञ्च दण्डसत्थनिधानं कथन्ति वृत्तं " लज्जी "तिआदि । एवं उत्तरुत्तरं पुरिमस्स पुरिमस्स उपायसन्दस्सनं । तथा अदिन्नादानादीसुपि यथासम्भवं योजेब्बं । तेन वुत्तं " कालवादीतिआदि सम्फप्पलापा पटिविरतस्स पटिपत्तिसन्दस्सन "न्ति । अत्थसंहितापि हि वाचा अयुत्तकालपयोगेन अत्थावहा न सियाति अनत्थविञ्ञापनभावं अनुलोमेति, तस्मा सम्फप्पलापं पजहन्तेन अकालवादिता परिवज्जेतब्बाति दस्सेतुं " कालवादी "ति वृत्तं । काले वदन्तेनापि उभयत्थ असाधनतो अभूतं परिवज्जेतब्बन्ति आह “भूतवादी 'ति । भूतञ्च वदन्तेन यं इधलोकपरलोकहितसम्पादनकं, तदेव वत्तब्बन्ति वुत्तं " अत्थवादी "ति । अत्थं वदन्तेनापि न लोकियधम्मनिस्सितमेव वत्तब्बं, अथ खो लोकुत्तरधम्मनिस्सितम्पीति आह “धम्मवादी 'ति । यथा च अत्थो लोकुत्तरधम्मनिस्सितो होति, तथा दस्सनत्थं “विनयवादी "ति वृत्तं ।
पातिमोक्खसंवरो, सतिञाणखन्तिवीरियसंवरोति हि पञ्चन्नं संवरविनयानं तदङ्गप्पहानं, विक्खम्भनसमुच्छेदपटिप्पस्सद्धिनिस्सरणप्पहानन्ति पञ्चन्नं पहानविनयानञ्च वसेन वुच्चमानो अत्थो निब्बानाधिगमहेतुभावतो लोकुत्तरधम्मसन्निस्सितो होति । एवं गुणविसेसयुत्तो च अत्थो वुच्चमानो देसनाकोसल्ले सति सोभति किच्चकरो च होति, नाञ्ञथाति दस्सेतुं “निधानवतिं वाचं भासिता " ति वृत्तं । इदानि तमेव देसनाकोसल्लं विभावेतुं “कालेना”तिआदिमाह । अज्झासयट्टुप्पत्तीनं, पुच्छाय च वसेन ओतिण्णे देसनाविसये एकंसादिब्याकरणविभागं सल्लक्खेत्वा ठपनाहेतुदाहरणसंसन्दनानि तंतंकालानुरूपं विभावेन्तिया परिमितपरिच्छिन्नरूपाय गम्भीरुदानपहूतत्थवित्थारसङ्गाहिय देसनाय परे यथाज्झासयं परमत्थसिद्धियं पतिट्ठापेन्तो " देसनाकुसलो 'ति वुच्चतीति एवमेत्थापि अत्थयोजना वेदितब्बा ।
(१.१.९-९)
वत्तब्बयुत्तकालन्ति वत्तब्बवचनस्स अनुरूपकालं, तत्थ वायुज्जितब्बकालं । सभाववसेनेव भूतताति आह “ सभावमेवा" ति । अत्थं वदतीति अत्थवादी । अत्थवदनञ्च तन्निस्सितवाचाकथनमेवाति अधिप्पायेन वुत्तं “दिट्ठधम्मिकसम्परायिकत्थसन्निस्सितमेव कत्वा''ति । धम्मवादी”तिआदीसुपि एसेव नयो ।
निधेति सन्निधानं करोति एत्थाति निधानं । उपनोकासो । “ठानवतीति वुत्ते तस्मिं
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( १.१.१०-१०)
चूळसीलवण्णना
ठाने ठपेतुं युत्तातिपि अत्यो सम्भवतीति आह " हृदये "तिआदि । निधानवतीपि वाचा कालयुत्ताव अत्थावहा, तस्मा “ कालेनाति इदं "निधानवतिं” वाचं भासिता "ति एतस्सापेक्खवचनन्ति दस्सेति " एवरूपि "न्तिआदिना । इच्छितत्थनिब्बत्तनत्थं अपदिसितब्बो, अपदिसीयति वा इच्छितत्थो अनेनाति अपदेसो, उपमा, हेतुदाहरणादिकारणं वा, तेन सह वत्ततीति सापदेसा, वाचा, तेनाह “सउपमं सकारणन्ति अत्थो "ति । परिच्छेदं दस्सेत्वाति यावता परियोसानं सम्भवति तावता मरियादं दस्सेत्वा तेन वुत्तं "यथा...पे.... भासती'ति । सिखमप्पत्ता हि कथा अत्थावहा नाम न होति । अत्थसंहितन्ति एत्थ अत्थसद्दो भासितत्थपरियायोति वृत्तं " अनेकेहिपी "तिआदि । भासितत्थो च नाम सद्दानुसारेन अधिगतो सब्बोप पकत्यत्थपच्चयत्थभावत्थादिको, ततोयेव भगवतो वचनं एकगाथापदम्पि सङ्क्षेपवित्थारादिएकत्तादिनन्दियावत्तादिनयेहि अनेकेहिपि निद्धारणक्खमताय परियादातुमसक्कुणेय्यं अत्थमावहतीति । एवं अत्थसामञ्ञतो संवण्णेत्वा इच्छितत्थविसेसतोपि संवण्णेतुं “यं वा”तिआदिमाह । अत्थवादिना वत्तुमिच्छितत्थोयेव हि इध गहितो । ननु सब्बेसम्पि वचनं अत्तना इच्छितत्थसहितंयेव, किमेत्थ वत्तब्बं अत्थीति अन्तोलीनचोदनं परिसोधेति “न अञ्ञ"न्तिआदिना । अञ्ञमत्थं पठमं निक्खिपित्वा अननुसन्धिवसेन पच्छा अञ्ञमत्थं न भासति । यथानिक्खित्तानुसन्धिवसेनेव परियोसापेत्वा कथेतीति अधिप्पायो ।
भगवा
१०. एवं परिपाटिया सत्तमूलसिक्खापदानि विभजित्वा सतिपि अभिज्झादिप्पहानस्स संवरसीलसङ्गहे उपरिगुणसङ्गहतो, लोकियपुथुज्जनाविसयतो च उत्तरिदेसनाय सङ्गहितुं तं परिहरित्वा पचुरजनपाकटं आचारसीलमेव विभजन्तो “बीजगामभूतगामसमारम्भा 'तिआदिमाहाति पाळियं सम्बन्धो वत्तब्बो । तत्थ विजायन्ति विरुहन्ति एतेहीति बीजानि । पच्चयन्तरसमवाये सदिसफलुप्पत्तिया विसेसकारणभावतो विरुहनसमत्थानं सारफलादीनमेतं अधिवचनं । भवन्ति, अहुवुन्ति चाति भूता, जायन्ति वड्डन्ति जाता, वड्ढिता चाति अत्थो । वड्डमानकानं वड्ढित्वा, ठितानञ्च रुक्खगच्छादीनं यथाक्कममधिवचनं। विरुळ्हमूला हि नीलभावं आपज्जन्ता तरुणरुक्खगच्छा जायन्ति वड्ढन्तीति वुच्चन्ति । वड्ढित्वा ठिता महन्ता रुक्खगच्छा जाता वड्ढिताति । गामोति समूहो, सो च सुद्धट्ठकधम्मरासि, बीजानं भूतानञ्च तथाद्धसमञ्ञानं अट्ठधम्मानं गामो, तेयेव वा गामोति तथा । अवयवविनिमुत्तस्स हि समुदायस्स अभावतो दुविधेनापि अत्थेन तेयेव तिणरुक्खलतादयो गय्हन्ति ।
अपिच भूमियं पतिट्ठहित्वा हरितभावमापन्ना रुक्खगच्छादयो देवता परिग्गय्हन्ति,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१०-१०)
तस्मा भूतानं निवासनट्ठानताय गामोति भूतगामोतिपि वदन्ति, ते सरूपतो दस्सेतुं "मूलबीज"न्तिआदिमाह। मूलमेव बीजं मूलबीजं। सेसेसुपि अयं नयो। फलुबीजन्ति पब्बबीजं । पच्चयन्तरसमवाये सदिसफलुप्पत्तिया विसेसकारणभावतो विरुहनसमत्थे सारफले निरुळहो बीज-सद्दो तदत्थसिद्धिया मूलादीसुपि केसुचि पवत्ततीति मूलादितो निवत्तनत्थं एकेन बीज-सद्देन विसेसेत्वा "बीजबीज"न्ति वुत्तं यथा “रूपंरूपं, दुक्खदुक्ख"न्ति च । नीलतिणरुक्खादिकस्साति अल्लतिणस्स चेव अल्लरुक्खादिकस्स च। आदि-सद्देन ओसधिगच्छलतादयो वेदितब्बा। समारम्भो इध विकोपनं, तञ्च छेदनादियेवाति वुत्तं "छेदनभेदनपचनादिभावेना"ति । ननु च रुक्खादयो चित्तरहितताय न जीवा, चित्तरहितता च परिप्फन्दनाभावतो, छिन्ने विरुहनतो, विसदिसजातिकभावतो, चतुयोनिअपरियापन्नतो च वेदितब्बा । वुड्डि पन पवाळसिलालवणादीनम्पि विज्जतीति न तेसं जीवताभावे कारणं । विसयग्गहणञ्च नेसं परिकप्पनामत्तं सुपनं विय चिञ्चादीनं, तथा कटुकम्बिलासादिना दोहळादयो। तत्थ कस्मा बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरति इच्छिताति? समणसारुप्पतो, तन्निस्सितसत्तानुकम्पनतो च । तेनेवाह आळवकानं रुक्खच्छेदनादिवत्थूसु "जीवसञिनो हि मोघपुरिसा मनुस्सा रुक्खस्मि''न्तिआदि (पारा० ८९)।
एकं भत्तं एकभत्तं, तमस्स अस्थि एकस्मिं दिवसे एकवारमेव भुञ्जनतोति एकभत्तिको। तयिदं एकभत्तं कदा भुजितब्बन्ति सन्धाय वुत्तं “पातरासभत्त"न्तिआदि, द्वीसु भत्तेसु पातरासभत्तं सन्धायाहाति अधिप्पायो। पातो असितब्बन्ति पातरासं। सायं असितब्बन्ति सायमासं, तदेव भत्तं तथा । एक-सद्दो चेत्थ मज्झन्हिककालपरिच्छेदभावेन पयुत्तो, न तदन्तोगधवारभावेनाति दस्सेति "तस्मा"तिआदिना ।
रत्तिया भोजनं उत्तरपदलोपतो रत्तिसद्देन वुत्तं, तद्धितवसेन वा तथायेवाधिप्पायसम्भवतो, तेनाह "रत्तिया'तिआदि । अरुणुग्गमनतो पट्ठाय याव मज्झन्हिका अयं बुद्धादीनं अरियानं आचिण्णसमाचिण्णो भोजनस्स कालो नाम, तदञो विकालो। तत्थ दुतियपदेन रत्तिभोजनस्स पटिक्खित्तत्ता अपरन्होव इध विकालोति पारिसेसनयेन ततियपदस्स अत्थं दीपेतुं “अतिक्कन्ते मज्झन्हिके"तिआदि वुत्तं । भावसाधनो चेत्थ भोजनसद्दो अज्झोहरणत्थवाचकोति दीपेति "याव सूरियत्थङ्गमना भोजन"न्ति इमिना । कस्स पन तदज्झोहरणन्ति ? यामकालिकादीनमनुज्ञातत्ता, विकालभोजनसद्दस्स च यावकालिकज्झोहरणेयेव निरुळहत्ता “यावकालिकस्सा"ति वियति । अयं पनेत्थ अट्ठकथावसेसो आचरियानं नयो- भुजितब्बढेन भोजनं, यागुभत्तादि सब्बं
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(१.१.१०-१०)
चूळसीलवण्णना
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यावकालिकवत्थु । यथा च "रत्तूपरतो''ति एत्थ रत्तिभोजनं रत्तिसद्देन वुच्चति, एवमेत्थ भोजनज्झोहरणं भोजनसद्देन । विकाले भोजनं विकालभोजनं, ततो विकालभोजना। विकाले यावकालिकवत्थुस्स अज्झोहरणाति अत्थोति । ईदिसा गुणविभूति न बुद्धकालेयेवाति आह "अनोमानदीतीरे"तिआदि । अयं पन पाळियं अनुसन्धिक्कमो- एकस्मिं दिवसे एकवारमेव भुञ्जनतो “एकभत्तिको"ति वुत्ते रत्तिभोजनोपि सियाति तन्निवारणथं "रत्तूपरतो"ति वुत्तं । एवं सति सायन्हभोजीपि एकभत्तिको सियाति तदासङ्कानिवत्तनत्थं "विरतो विकालभोजना"ति वुत्तन्ति ।
सङ्घपतो “सब्बपापस्स अकरण''न्तिआदि (दी० नि० २.९०; ध० प० १८३; नेत्ति० ३०, ५०, ११६, १२४) नयप्पवत्तं भगवतो सासनं सछन्दरागप्पवत्तितो नच्चादीनं दस्सनं नानुलोमेतीति आह "सासनस्स अननुलोमत्ता"ति । विसुचति सासनं विज्झति अननुलोमिकभावेनाति विसूकं, पटिविरुद्धन्ति वुत्तं होति । तत्र उपमं दस्सेति “पटाणीभूत"न्ति इमिना, पटाणीसङ्घातं कीलं विय भूतन्ति अत्थो । “विसूक"न्ति एतस्स पटाणीभूतन्ति अत्थमाहातिपि वदन्ति । अत्तना पयोजियमानं, परेहि पयोजापियमानञ्च नच्चं नच्चभावसामञतो पाळियं एकेनेव नच्चसद्देन सामञनिद्देसनयेन गहितं, एकसेसनयेन वा। तथा गीतवादितसद्देहि गायनगायापनवादनवादापनानीति आह "नच्चननच्चापनादिवसेना'ति । सुद्धहेतुताजोतनवसेन हि द्वाधिप्पायिका एते सद्दा । नच्चञ्च गीतञ्च वादितञ्च विसूकदस्सनञ्च नच्चगीतवादितविसूकदस्सनं, समाहारवसेनेत्थ एकत्तं । अट्ठकथायं पन यथापाठं वाक्यावत्थिकन्तवचनेन सह समुच्चयसमासदस्सनत्थं "नच्चा चा"तिआदि वुत्तं । एवं सब्बत्थ ईदिसेसु । (दस्सनविसये मयूरनच्चादिपटिक्खिपनेन नच्चापनविसयेपि पटिक्खिपनं दट्टब्बं) "नच्चादीनि ही"तिआदिना यथावुत्तत्थसमत्थनं । दस्सनेन चेत्थ सवनम्पि सङ्गहितं विरूपेकसेसनयेन, यथासकं वा विसयस्स आलोचनसभावताय पञ्चन्नं विज्ञाणानं सवनकिरियायपि दस्सनसङ्केपसम्भवतो "दस्सना" इच्चेव वुत्तं । तेनेवाह “पञ्चहि विज्ञाणेहि न किञ्चि धम्म पटिजानाति अझत्र अतिनिपातमत्ता''ति ।
"विसूकभूता दस्सना चा"ति एतेन अविसूकभूतस्स पन गीतस्स सवनं कदाचि वट्टतीति दस्सेति । तथा हि वुत्तं परमत्थजोतिकाय खुद्दकपाठट्ठकथाय “धम्मूपसंहितम्पिचेत्थ गीतं न वट्टति, गीतूपसंहितो पन धम्मो वट्टती"ति (खु० पा० अट्ठ० पच्छिमपञ्चसिक्खापदवण्णना) कत्थचि पन न-कारविपरियायेन पाठो दिस्सति । उभयत्थापि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१०-१०)
च गीतो चे धम्मानुलोमत्थपटिसंयुत्तोपि न वट्टति, धम्मो चे गीतसद्दपटिसंयुत्तोपि वट्टतीति अधिप्पायो वेदितब्बो । “न भिक्खवे, गीतस्सरेन धम्मो गायितब्बो, यो गायेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा"ति (चूळ० व० १४९) हि देसनाय एव पटिक्खेपो, न सवनाय । इमस्स च सिक्खापदस्स विसुं पञआपनतो विझायति “गीतस्सरेन देसितोपि धम्मो न गीतो''ति । यञ्च सक्कपञ्हसुत्तवण्णनायं सेवितब्बासेवितब्बसदं निद्धरन्तेन “यं पन अत्थनिस्सितं धम्मनिस्सितं कुम्भदासिगीतम्पि सुणन्तस्स पसादो वा उप्पज्जति, निब्बिदा वा सण्ठाति, एवरूपो सद्दो सेवितब्बो'ति (दी० नि० अट्ठ० २.३६५) वुत्तं, तं असमादानसिक्खापदस्स सेवितब्बतामत्तपरियायेन वुत्तं । समादानसिक्खापदस्स हि एवरूपं सुणन्तस्स सिक्खापदसंवरं भिज्जति गीतसद्दभावतोति वेदितब्बं । तथा हि विनयट्ठकथासु वुत्तं “गीतन्ति नटादीनं वा गीतं होतु, अरियानं परिनिब्बानकाले रतनत्तयगुणूपसंहितं साधुकीळनगीतं वा, असंयतभिक्खूनं धम्मभाणकगीतं वा, अन्तमसो दन्तगीतम्पि, यं “गायिस्सामा''ति पुब्बभागे ओकूजितं करोन्ति, सब्बमेतं गीतं नामा''ति (पाचि० अट्ठ० ८३५; वि० सङ्ग० अट्ठ० ३४.२५)।
___ किञ्चापि माला-सद्दो लोके बद्धपुप्फवाचको, सासने पन रुळ्हिया अबद्धपुप्फेसुपि वट्टति, तस्मा यं किञ्चि पुष्पं बद्धमबद्धं वा, तं सब्बं "माला" त्वेव दट्ठब्बन्ति आह "यं किञ्चि पुप्फ"न्ति । “यं किञ्चि गन्ध'"न्ति चेत्थ वासचुण्णधूपादिकं विलेपनतो अनं यं किञ्चि गन्धजातं। वुत्तत्थं विय हि वुच्चमानत्थमन्तरेनापि सद्दो अत्थविसेसवाचको | छविरागकरणन्ति विलेपनेन छविया रञ्जनत्थं पिसित्वा पटियत्तं यं किञ्चि गन्धचुण्णं । पिळन्धनं धारणं। ऊनट्ठानपूरणं मण्डनं। गन्धवसेन, छविरागवसेन च सादियनं विभूसनं । तदेवत्थं पुग्गलाधिट्ठानेन दीपेति "तत्थ पिळन्धन्तो"तिआदिना । तथा चेव मज्झिमट्ठकथायम्पि (म० नि० अट्ठ० ३.१४७) वुत्तं, परमत्थजोतिकायं पन खुद्दकपाठट्ठकथायं “मालादीसु धारणादीनि यथासङ्ख्यं योजेतब्बानी''ति (खु० पा० अट्ठ० पच्छिमपञ्चसिक्खापदवण्णना) एत्तकमेव वुत्तं । तत्थापि योजेन्तेन यथावुत्तनयेनेव योजेतब्बानि । किं पनेतं कारणन्ति आह “याया"तिआदि । याय दुस्सील्यचेतनाय करोति, सा इध कारणं। “ततो पटिविरतो''ति हि उभयत्थ सम्बन्धितब्बं, एतेनेव “माला...पे०... विभूसनानं ठानं, माला...पे०... विभूसनानेव वा ठान''न्ति समासम्पि दस्सेति । तदाकारप्पवत्तो चेतनादिधम्मोयेव हि धारणादिकिरिया। तत्थ च चेतनासम्पयुत्तधम्मानं कारणं सहजातादोपकारकतो, पधानतो च । “चेतयित्वा कम्मं करोति कायेन वाचाय मनसा''ति
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चूळसीलवण्णना
( अ० नि० २.६.६३) हि वृत्तं । धारणादिभूता एव च चेतना ठानन्ति । ठान -सद्दो पच्चेकं योजेतब्बो द्वन्दपदतो सुय्यमानत्ता ।
(१.१.१०-१०)
उच्चाति उच्चसद्देन अकारन्तेन समानत्थं आकारन्तं एकं सद्दन्तरं अच्चुग्गतवाचकन्ति आह " पमाणातिक्कन्त "न्ति । सेति एत्थाति सयनं, मञ्चादि । समणसारुप्परहितत्ता, गहट्ठेहि च सम्मत्ता अकप्पियपच्चत्थरणं " महासयन "न्ति इधाधिप्पेतन्ति दस्सेतुं
" अकप्पियत्थरण "न्ति वृत्तं । निसीदनं पनेत्थ सयनेनेव सहितन्ति दट्ठब्बं । यस्मा पन आधारे परिक्खित्ते तदाधारकिरियापि पटिक्खित्ताव होति, तस्मा “उच्चासयनमहासयना” इच्चेव वृत्तं । अत्थतो पन तदुपभोगभूतनिसज्जानिपज्जनेहि विरति दस्सिताति वेदितब्बं । अथ वा "उच्चासयनमहासयना "ति एस निद्देसो एकसेसनयेन यथा "नामरूपपच्चया सळायतन "न्ति (म० नि० ३.१२६; सं० नि० १.२.१; उदा० १) एतस्मिम्पि विकप्पे आसनपुब्बकत्ता सयनकिरियाय सयनग्गहणेनेव आसनम्पि गहितन्ति वेदितब्बं । किरियावाचकआसनसयनसद्दलोपतो उत्तरपदलोपनिद्देसोतिपि विनयटीकायं (विमति टी० २.१०६) वृत्तं ।
जातमेव रूपमस्स न विप्पकारन्ति जातरूपं, सत्थुवण्णं । रञ्जीयति सेतवण्णताय, रञ्जन्ति वा एत्थ सत्ताति रजतं यथा “नेसं पदक्कन्त "न्ति । " चत्तारो वीहयो गुञ्जा, द्वे गुञ्जा मासको भवेति वुत्तलक्खणेन वीसतिमासको नीलकहापणी वा दुद्रदामकादिको वा तंतंदेसवोहारानुरूपं कतो कहापणो । लोहादीहि कतो लोहमासकादिको । ये वोहारं गच्छन्तीति परियादानवचनं । वोहारन्ति च कयविक्कयवसेन सब्बोहारं । अञ्जेहि गाहापने, उपनिक्खित्तसादियने च पटिग्गहणत्थो लब्भतीति आह "न उग्गण्हापेति न उपनिक्खित्तं सादियतीति । अथ वा तिविधं पटिग्गहणं कायेन वाचाय मनसा । तत्थ कायेन पटिग्गहणं उग्गहणं । वाचाय पटिग्गहणं उग्गहापनं । मनसा पटिग्गहणं सादियनं । तिविधम्पेतं पटिग्गहणं सामञ्ञनिद्देसेन, एकसेसनयेन वा गहेत्वा पटिग्गहणाति तन्ति आह ‘“नेव नं उग्गण्हाती' तिआदि । एस नयो आमकधञ्ञपटिग्गहणाति आदीसुपि ।
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नीवारादिउपधञ्ञस्स सालियादिमूलधञ्ञन्तोगधत्ता “सत्तविधस्सापीति वृत्तं । सट्ठिदिनपरिपाको सुकधञ्ञविसेसो सालि नाम सलीयते सीलाघतेति कत्वा । दब्बगुणपकासे
पन -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१०-१०)
“अथ धकं तिधा सालि-सट्ठिकवीहिभेदतो । सालयो हेमन्ता तत्र, सट्ठिका गिम्हजा अपि । वीहयो त्वासळ्हाख्याता, वस्सकालसमुब्भ वा''ति ।। -
वुत्तं । वहति, ब्रहेति वा सत्तानं जीवितन्ति वीहि, सस्सं । युवितब्बो मिस्सितब्बोति यवो। सो हि अतिलूखताय अजेन मिस्सेत्वा परिभुञ्जीयति | गुधति परिवेधति पलिबुद्धतीति गोधूमो, यं “मिलक्खभोजन''न्तिपि वदन्ति । सोभनत्ता कमनीयभावं गच्छतीति कङ्गु, अतिसुखुमधझविसेसो। वरीयति अतिलूखताय निवारीयति, खुद्दापटिविनयनतो वा भजीयतीति वरको। कोरं रुधिरं दूसतीति कुद्रूसको, वण्णसङ्कमनेन यो “गोवड्डनोतिपि वुच्चति । तानि सत्तपि सप्पभेदा निधाने पोसने साधुत्तेन “धञानी''ति वुच्चन्ति । "न केवलञ्चा"तिआदिना सम्पटिच्छनं, परामसनञ्च इध पटिग्गहणसद्देन वुत्तन्ति दस्सेति । एवमीदिसेसु । “अनुजानामि भिक्खवे, वसानि भेसज्जानि अच्छवसं मच्छवसं सुसुकावसं सूकरवसं गद्रभवस"न्ति (महा० व० २६२) वुत्तत्ता इदं पञ्चविधम्पि भेसज्जं ओदिस्स अनुञातं नाम । तस्स पन “काले पटिग्गहित''न्ति वुत्तत्ता पटिग्गहणं वट्टतीति आह "अञत्र ओदिस्स अनुज्ञाता"ति । मंस-सद्देन मच्छानम्पि मंसं गहितं एवाति दस्सेतुं "आमकमंसमच्छान"न्ति वुत्तं, तिकोटिपरिसुद्धं मच्छमंसं अनुज्ञातं अदिटुं, असुतं, अपरिसङ्कितन्ति वा पयोगस्स दस्सनतो विरूपेकसेसनयो दस्सितो अनेनाति वेदितब्बं ।
कामं लोकिया
"अट्ठवस्सा भवे गोरी, दसवस्सा तु कञका । सम्पत्ते द्वादसवस्से, कुमारीतिभिधीयते''ति ।। -
वदन्ति । इध पन पुरिसन्तरगतागतवसेन इत्थिकुमारिकाभेदोति आह "इत्थीति पुरिसन्तरगता"तिआदि । दासिदासवसेनेवाति दासिदासवोहारवसेनेव । एवं वुत्तेति तादिसेन कप्पियवचनेन वुत्ते । विनयट्ठकथासु आगतविनिच्छयं सन्धाय “विनयवसेना"ति वुत्तं । सो कुटिकारसिक्खापदवण्णनादीसु (पारा० अट्ट० ३६४) गहेतब्बो ।
बीजं खिपन्ति एत्थ, खित्तं वा बीजं तायतीति खेत्तं, केदारोति आह “यस्मिं पुब्बणं रुहती"ति । अपरण्णस्स पुब्बे पवत्तमन्नं पुब्बण्णं न-कारस्स ण-कारं कत्वा,
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( १.१.१०-१०)
चूळसीलवण्णना
सालिआदि । वसन्ति पतिहन्ति अपरण्णानि एत्थाति वत्थूति अत्थं दस्सेति "वत्थु नामा 'तिआदिना । पुब्बण्णस्स अपरं पवत्तमन्नं अपरण्णं वुत्तनयेन । एवं अट्ठकथानयानुरूपं अत्थं दस्सेत्वा इदानि " खेत्तं नाम यत्थ पुब्बण्णं वा अपरण्णं वा जायती 'ति (पारा० १०४) वुत्तविनयपाळिनयानुरूपम्पि अत्थं दस्सेन्तो " यत्थ वा "तिआदिमाह । तदत्थायात खेत्तत्थाय । अकत भूमिभागोति अपरिसङ्घतो तदुद्देसिको भूमिभागो । “खेत्तवत्थु सीसेना "तिआदिना निदस्सनमत्तमेतन्ति दस्सेति । आदि-सद्देन पोक्खरणीकूपादयो सङ्गहिता ।
दूतस्स इदं दूतेन वा कातुमरहतीति दूतेय्यं । पण्णन्ति लेखसासनं । सासनन्ति मुखसासनं । घरा घरन्ति अञ्ञस्मा घरा अञ्ञ घरं । खुद्दकगमनन्ति दूतेय्यगमनतो अप्पतरगमनं, अनद्धानगमनं रस्सगमनन्ति अत्थो । तदुभयेसं अनुयुञ्जनं अनुयोगोत आह " तदुभयकरण "न्ति । तस्माति तदुभयकरणस्सेव अनुयोगभावतो ।
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कयनं कयो, परम्परा गत्वा अत्तनो धनस्स दानं । की - सद्दहि दब्बविनिमये पठन्ति विक्कयनं विक्कयो, पठममेव अत्तनो धनस्स परेसं दानन्ति वदन्ति । सारत्थदीपनियादीसु पन " कय" न्ति परभण्डस्स गहणं । विक्कयन्ति अत्तनो भण्डस्स दान "न्ति ( सारत्थ टी० २.५९४) वृत्तं । तदेव “ कयितञ्च होति परभण्डं अत्तनो हत्थगतं करोन्तेन, विक्कीतञ्च अत्तनो भण्डं परहत्थगतं करोन्तेना "ति (पारा० अट्ठ० ५१५) विनयट्ठकथावचनेन समेति । वञ्चनं मायाकरणं, पटिभानकरणवसेन उपायकुसलताय परसन्तकग्गहणन्ति वृत्तं होति । तुला नाम याय तुलीयति पमीयति, ताय कूटं “ तुलाकूट "न्ति वुच्चति । तं पन करोन्तो तुलाय रूपअङ्गगहणाकारपरिच्छन्नसण्ठानवसेन करोतीति चतुब्बिधता वृत्ता । अत्तना गहेतब्बं भण्डं पच्छाभागे, परेसं दातब्बं पुब्बभागे कत्वा मिनेन्तीति आह " गण्हन्तो पच्छाभागे "तिआदि । अक्कमति निप्पीळति, पुब्बभागे अक्कमतीति सम्बन्धो । मूले रज्जुन्ति तुलाय मूले योजितं रज्जुं । तथा अग्गे । तन्ति अयणं ।
कनति दिब्बतीति कंसो, सुवण्णरजतादिमया भोजनपानपत्ता । इध पन सोवण्णमये पानपत्तेति आह “सुवण्णपाती "ति । ताय वञ्चनन्ति निकतिवसेन वञ्चनं । “पतिरूपकं दस्सेत्वां परसन्तकगहणहि निकति, पटिभानकरणवसेन पन उपायकुसलताय वञ्चन "न्ति निकतिवञ्चनं भेदतो कण्हजातकट्ठकथादीसु ( जा० अट्ठ० ४.१०.१९; दी० नि० अट्ठ० १.१०; म० नि० अट्ठ० २.१४९; सं० नि० अट्ठ० ३.५.११६५; अ० नि० अट्ठ०
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१०-१०)
२.४.१९८ अत्थतो समान) वुत्तं, इध पन तदुभयम्पि “वञ्चन''मिच्चेव । "कथ"न्तिआदिना हि पतिरूपकं दस्सेत्वा परसन्तकगहणमेव विभावेति । समग्घतरन्ति तासं पातीनं अञमजे समकं अग्घविसेसं । पासाणेति भूताभूतभावसञ्जाननके पासाणे । घंसनेनेव सुवण्णभावसञापनं सिद्धन्ति “घंसित्वा"त्वेव वुत्तं ।
हदयन्ति नाळिआदिमिननभाजनानं अब्भन्तरं, तस्मिं भेदो छिद्दकरणं हदयभेदो। तिलादीनं नाळिआदीहि मिननकाले उस्सापिता सिखायेव सिखा, तस्सा भेदो हापनं सिखाभेदो।
रज्जुया भेदो विसमकरणं रज्जुभेदो। तानीति सप्पितेलादीनि । अन्तोभाजनेति पठमं निक्खित्तभाजने । उस्सापेत्वाति उग्गमापेत्वा, उद्धं रासिं कत्वाति वुत्तं होति । छिन्दन्तोति अपनेन्तो।
कत्तब्बकम्मतो उद्धं कोटनं पटिहननं उक्कोटनं। अभूतकारीनं लञ्जग्गहणं, न पन पुन कम्माय उक्कोटनमत्तन्ति आह "अस्सामिके...पे०... गहण"न्ति । उपायेहीति कारणपतिरूपकेहि । तत्राति तस्मिं वञ्चने । “वत्थु"न्ति अवत्वा "एकं वत्थु"न्ति वदन्तो अञ्जानिपि अस्थि बहूनीति दस्सेति । अञ्जानिपि हि ससवत्थुआदीनि तत्थ तत्थ वृत्तानि । मिगन्ति महन्तं मिगं । तेन हीति मिगग्गहणे उय्योजनं, येन वा कारणेन “मिगं मे देही"ति आह, तेन कारणेनाति अत्थो। हि सहो निपातमत्तं । योगवसेनाति विज्जाजप्पनादिपयोगवसेन। मायावसेनाति मन्तजप्पनं विना अभूतस्सापि भूताकारसज्ञापनाय चक्खुमोहनमायाय वसेन। याय हि अमणिआदयोपि मणिआदिआकारेन दिस्सन्ति । पामङ्गो नाम कुलाचारयुत्तो आभरणविसेसो, यं लोके "यज्ञोपवित्त"न्ति वदन्ति | वक्कलित्थेरापदानेपि वुत्तं -
“पस्सथेतं माणवकं, पीतमट्ठनिवासनं । हेमयज्ञोपवित्तङ्ग, जननेत्तमनोहरन्ति ।। (अप० २.५४.४०) ।
तदट्ठकथायम्पि "पीतमट्ठनिवासनन्ति सिलिट्ठसुवण्णवण्णवत्थे निवत्थन्ति अत्थो । हेमयज्ञोपवित्तङ्गन्ति सुवण्णपामङ्गलग्गितगत्तन्ति अत्थो"ति (अप० अट्ठ० २.५४.४०) सवनं सठनं सावि, अनुजुकता, तेनाह "कुटिलयोगो"ति, जिम्हतायोगोति अत्थो ।
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(१.१.१०-१०)
चूळसीलवण्णना
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"एतेसंयेवा"तिआदिना तुल्याधिकरणतं दस्सेति । "तस्मा"तिआदि लद्धगुणदस्सनं । ये पन चतुन्नम्पि पदानं भिन्नाधिकरणतं वदन्ति, तेसं वादमाह “केची"तिआदिना। तत्थ "केची"ति सारसमासकारका आचरिया, उत्तरविहारवासिनो च, तेसं तं न युत्तं वञ्चनेन सङ्गहितस्सेव पुन गहितत्ताति दस्सेति "तं पनातिआदिना ।
मारणन्ति मुट्ठिपहारकसाताळनादीहि हिंसनं विहेठनं सन्धाय वुत्तं, न तु पाणातिपातं । विहेठनत्थेपि हि वध-सद्दो दिस्सति “अत्तानं वधित्वा वधित्वा रोदेय्या''तिआदीसु (पाचि० ८८०) मारण-सद्दोपि इध विहेठनेयेव वत्ततीति दट्ठब्बो । केचि पन “पुब्बे पाणातिपातं पहाया'तिआदीसु सयंकारो, इध परंकारोति वदन्ति, तं न सक्का तथा वत्तुं “कायवचीपयोगसमुट्ठापिका चेतना, छ पयोगा''ति च वुत्तत्ता । यथा हि अप्पटिग्गाहभावसाम पि सति पब्बजितेहि अप्पटिग्गहितब्बवत्थुविसेसभावसन्दस्सनत्थं इत्थिकुमारिदासिदासादयो विभागेन वुत्ता। यथा च परसन्तकस्स हरणभावतो अदिन्नादानभावसामओपि सति तुलाकूटादयो अदिन्नादानविसेसभावसन्दस्सनत्थं विभागेन वुत्ता, न एवं पाणातिपातपरियायस्स वधस्स पुन गहणे पयोजनं अस्थि तथाविभजितब्बस्साभावतो, तस्मा यथावुत्तोयेवत्थो सुन्दरतरोति ।
विपरामोसोति विसेसेन समन्ततो भुसं मोसापनं मुम्हनकरणं, थेननं वा। थेय्यं चोरिका मोसोति हि परियायो। सो कारणवसेन दुविधोति आह "हिमविपरामोसो"तिआदि । मुसन्तीति चोरेन्ति, मोसेन्ति वा मुव्हनं करोन्ति, मोसेत्वा तेसं सन्तकं गण्हन्तीति वुत्तं होति । यन्ति च तस्सा किरियाय परामसनं । मग्गप्पटिपन्नं जनन्ति परपक्खेपि अधिकारो | आलोपनं विलुम्पनं आलोपो। सहसा करणं सहसाकारो। सहसा पवत्तिता साहसिका, साव किरिया तथा ।
एत्तावताति “पाणातिपातं पहाया"तिआदिना “सहसाकारा पटिविरतो''ति परियोसानेन एतप्परिमाणेन पाठेन । अन्तरभेदं अग्गहेत्वा पाळियं यथारुतमागतवसेनेव छब्बीसतिसिक्खापदसङ्गहमेतं सीलं येभुय्येन सिक्खापदानमविभत्तत्ता चूळसीलं नामाति अत्थो। देसनावसेन हि इध चूळमज्झिमादिभावो वेदितब्बो, न धम्मवसेन । तथा हि इधसङित्तेन उद्दिट्टानं सिक्खापदानं अविभत्तानं विभजनवसेन मज्झिमसीलदेसना पवत्ता, तेनेवाह "मज्झिमसीलं वित्थारेन्तो"ति ।
चूळसीलवण्णना निट्ठिता।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
मज्झिमसीलवण्णना
११. “यथा वा पनेके भोन्तो 'ति आदिदेसनाय सम्बन्धमाह “ इदानी' "तिआदिना । तत्थायमट्ठकथामुत्तको नयो - यथाति ओपम्मत्थे निपातो । वाति विकप्पनत्थे, तेन इममत्थं विकप्पेति “उस्साहं कत्वा मम वण्णं वदमानोपि पुथुज्जनो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो "तिआदिना परानुद्देसिकनयेन वा सब्बथापि आचारसीलमत्तमेव वदेय्य, न तदुत्तरं । “यथापनेके भोन्तो समणब्राह्मणभावं परिजानमाना, परेहि च तथा सम्भावियमाना तदनुरूपपटिपत्तिं अजाननतो, असमत्थनतो च न अभिसम्भुणन्ति, न एवमयं । अयं पन समणो गोतमो सब्बथापि समणसारुप्पपटिपत्तिं पूरेसियेवा "ति एवं अञ्ञद्देसिकनयेन वा सब्बथापि आचारसीलमत्तमेव वदेय्य न तदुत्तरिन्ति । पनाति वचनालङ्कारे विकप्पनत्थेनेव उपन्यासादिअत्थस्स सिज्झनतो । एकेति अञ्ञे । “एकच्चे" तिपि वदन्ति । भोन्तोति साधूनं पियसमुदाहारो । साधवो हि परे “भोन्तो 'ति वा “देवानं पिया "ति वा "आयस्मन्तो "ति वा समालपन्ति । समणब्राह्मणाति यं किञ्चि पब्बज्जं उपगतताय समणा । जातिमत्तेन च ब्राह्मणाति ।
सद्धा नाम इध चतुब्बिसु ठासूति आह "कम्मञ्चा" तिआदि । कम्मकम्मफलसम्बन्धेनेव इधलोकपरलोकसद्दहनं दट्टब्बं “एत्थ कम्मं विपच्चति, कम्मफलञ्च अनुभवितब्ब’न्ति। तदत्थं व्यतिरेकतो जपेति " अयं मे" तिआदिना । पटिकरिस्सी पच्चुपकारं करिस्सति । तदेव समत्थेतुं “ एवंदिन्नानि ही "तिआदिमाह । देसनासीसमत्तं पधानं कत्वा निदस्सनतो। तेन चतुब्बिधम्पि पच्चयं निदस्सेतीति वुत्तं “अत्थतो पनाति आदि ।
( १.१.११-११)
" सेय्यथिद "न्ति अयं सद्दो " सो कतमो "ति अत्थे एको निपातो, निपातसमुदायो वा, तेन च बीजगामभूतगामसमारम्भपदे सद्दक्कमेन अप्पधानभूतोपि बीजगामभूतगामी विभज्जितब्बट्ठाने पधानभूतो विय पटिनिद्दिसीयति । अञ्ञो हि सद्दक्कमो अञ्ञो अत्थक्कमति आह " कतमो सो गामभूतगाम" | तस्मिञ्हि विभत्ते तब्बिसयसमारम्भोपि विभत्तोव होति । इममत्थञ्हि दस्सेतुं “यस्स समारम्भं अनुयुत्ता विहरन्तीति वुत्तं । तेनेव च पाळियं “ मूलबीज "न्तिआदिना सो निद्दिट्ठोति । मूलमेव बीजं मूलबीजं, मूलं बीजं एतस्सातिपि मूलबीजन्ति इध द्विधा अत्थो । सेसपदेसुपि एसेव नयो । अतो न चोदेतब्बमेतं "कस्मा पनेत्थ बीजगामभूतगामं पुच्छित्वा बीजगामो एव विभत्तो”ति । तत्थ हि पठमेन अत्थेन बीजगामो निद्दिट्ठो, दुतियेन भूतगामो, दुविधोपेस
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(१.१.१२-१२)
मज्झिमसीलवण्णना
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सामञ्जनिद्देसेन वा मूलबीजञ्च मूलबीजञ्च मूलबीजन्ति एकसेसनयेन वा निद्दिवोति वेदितब्बो, तेनेव वक्खति "सब्बव्हेत"न्तिआदि। अतीव विसति भेसज्जपयोगेसूति अतिविसं, अतिविसा वा, या “महोसध"न्तिपि वुच्चति कच्छकोति काळकच्छको, यं "पिलक्खो"तिपि वदन्ति । कपित्थनोति अम्बिलङ्कुरफलो सेतरुक्खो। सो हि कम्पति चलतीति कपिथनो थनपच्चयेन, कपीति वा मक्कटो, तस्स थनसदिसं फलं यस्साति कपित्थनो। “कपित्थनोति पिप्पलिरुक्खो"ति (विसुद्धि० टी० १.१०८) हि विसुद्धिमग्गटीकायं वुत्तं । फळुबीजं नाम पब्बबीजं । अज्जकन्ति सेतपण्णासं । फणिज्जकन्ति समीरणं । हिरिवेरन्ति वारं । पच्चयन्तरसमवाये सदिसफलुप्पत्तिया विसेसकारणभावतो विरुहनसमत्थे सारफले निरुळहो बीजसद्दोति दस्सेति “विरुहनसमत्थमेवा"ति इमिना । इतरहि अबीजसङ्ख्यं गतं, तञ्च खो रुक्खतो वियोजितमेव । अवियोजितं पन तथा वा होतु, अञथा वा “भूतगामो"त्वेव वुच्चति यथावुत्तेन दुतियढेन । विनया (पाचि० ९१) नुरूपतो तेसं विसेसं दस्सेति "तत्था"तिआदिना। यमेत्थ वत्तब्बं, तं हेट्ठा वुत्तमेव ।
१२. सन्निधानं सन्निधि, ताय करीयतेति सन्निधिकारो, अन्नपानादि । एवं कार-सद्दस्स कम्मत्थतं सन्धाय “सन्निधिकारपरिभोग"न्ति वुत्तं । अयमपरो नयो -- यथा “आचयं गामिनो"ति वत्तब्बे अनुनासिकलोपेन “आचयगामिनो''ति (ध० स० १०) निद्देसो कतो, एवमिधापि “सन्निधिकारं परिभोगन्ति वत्तब्बे अनुनासिकलोपेन “सन्निधिकारपरिभोग"न्ति वुत्तं, सन्निधिं कत्वा परिभोगन्ति अत्थो। विनयवसेनाति विनयागताचारवसेन । विनयागताचारो हि उत्तरलोपेन “विनयो"ति वुत्तो, कायवाचानं वा विनयनं विनयो । सुत्तन्तनयपटिपत्तिया विसुं गहितत्ता विनयाचारोयेव इध लब्भति । सम्मा किलेसे लिखतीति सल्लेखोति च विनयाचारस्स विसुं गहितत्ता सुत्तन्तनयपटिपत्ति एव । पटिग्गहितन्ति कायेन वा कायपटिबद्धेन वा पटिग्गहितं । अपरज्जूति अपरस्मि दिवसे | दत्वाति परिवत्तनवसेन दत्वा । ठपापेत्वाति च अत्तनो सन्तककरणेन ठपापेत्वा । तेसम्पि सन्तकं विस्सासग्गाहादिवसेन परिभुजितुं वट्टति । सुत्तन्तनयवसेन सल्लेखो एव न होति ।
यानि च तेसं अनुलोमानीति एत्थ सानुलोमधञरसं, मधुकपुप्फरसं, पक्कडाकरसञ्च ठपेत्वा अवसेसा सब्बेपि फलपुप्फपत्तरसा अनुलोमपानानीति दट्ठब्, यथापरिच्छेदकालं अनधिट्ठितं अविकप्पितन्ति अत्थो ।
सन्निधीयतेति
सन्निधि,
वत्थमेव ।
परियायति
कप्पीयतीति
परियायो,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१२-१२)
कप्पियवाचानुसारेन पटिपत्ति, तस्स कथाति परियायकथा। तब्बिपरीतो निप्परियायो, कप्पियम्पि अनुपग्गम्म सन्तुट्ठिवसेन पटिपत्ति, परियाय-सद्दो वा कारणे, तस्मा कप्पियकारणवसेन वुत्ता कथा परियायकथा। तदपि अवत्वा सन्तुढिवसेन वुत्ता निप्परियायो। "सचे"तिआदि अञस्स दानाकारदस्सनं । पाळिया उद्दिसनं उद्देसो। अत्थस्स पुच्छा परिपुच्छन। “अदातुं न वट्टती"ति इमिना अदाने सल्लेखकोपनं दस्सेति । अप्पहोन्तेति कातुं अप्पहोनके सति । पच्चासायाति चीवरपटिलाभासाय। अनुज्ञातकालेति अनत्थते कथिने एको पच्छिमकत्तिकमासो, अत्थते कथिने पच्छिमकत्तिकमासेन सह हेमन्तिका चत्तारो मासा, पिट्ठिसमये यो कोचि एको मासोति एवं ततियकथिनसिक्खापदादीसु अनुञातसमये । सुत्तन्ति चीवरसिब्बनसुत्तं । विनयकम्मं कत्वाति मूलचीवरं परिक्खारचोळं अधिट्ठहित्वा पच्चासाचीवरमेव मूलचीवरं कत्वा ठपेतब्बं, तं पुन मासपरिहारं लभति, एतेन उपायेन याव इच्छति, ताव अचमनं मूलचीवरं कत्वा ठपेतुं लब्भतीति वुत्तनयेन, विकप्पनावसेन वा विनयकम्मं कत्वा । कस्मा न वट्टतीति आह “सनिधि च होति सल्लेखञ्च कोपेती"ति ।
उपरि मण्डपसदिसं पदरच्छन्नं, सब्बपलिगुण्ठिमं वा छादेत्वा कतं वह। उभोसु पस्सेसु सुवण्णरजतादिमया गोपानसियो दत्वा गरुळपक्खकनयेन कता सन्दमानिता। फलकादिना कतं पीठकयानं सिविका। अन्तोलिकासङ्खाता पटपोटलिका पाटङ्की । “एकभिक्खुस्स ही"तिआदि तदत्थस्स समथनं । अरञत्थायाति अरञ्जगमनत्थाय । धोतपादकत्थायाति धोवितपादानमनुरक्खणत्थाय । संहनितब्बा बन्धितब्बाति सकाटा, उपाहनायेव सङ्घाटा तथा, युगळभूता उपाहनाति अत्थो । अञस्स दातब्बाति एत्थ वुत्तनयेन दानं वेदितब्बं ।
मञ्चोति निदस्सनमत्तं । सब्बेपि हि पीठभिसादयो निसीदनसयनयोग्गा गहेतब्बा तेसुपि तथापटिपज्जितब्बतो ।
आबाधपच्चया एव अत्तना परिभुञ्जितब्बा गन्धा वट्टन्तीति दस्सेति "कण्डुकच्छुछविदोसादिआबाधे सती"ति इमिना । “लक्खणे हि सति हेतुत्थोपि कत्थचि सम्भवती"ति हेट्ठा वुत्तोयेव । तत्थ कण्डूति खज्जु । कच्छूति वितच्छिका। छविदोसोति किलासादि । आहरापेत्वाति आतिपवारिततो भिक्खाचारवत्तेन वा न येन केनचि वा आकारेन हरापेत्वा । भेसज्जपच्चयेहि गिलानस्स वित्तिपि वट्टति । “अनुजानामि
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(१.१.१२-१२)
मज्झिमसीलवण्णना
भिक्खवे, गन्धं गत्वा कवाटे पञ्चङ्गुलिकं दातुं पुप्फं गहेत्वा विहारे एकमन्तं निक्खिपितु "न्ति (चूळव० २६४) वचनतो " द्वारे " तिआदि वृत्तं । घरधूपनं विहारवासना, चेतियघरवासना वा । आदि- सद्देन चेतियपटिमापूजादीनि सङ्गण्हाति ।
किलेसेहि आमसितब्बतो आमिसं यं किञ्चि उपभोगारहं वत्थु, तस्मा यथावुत्तानम्पि पसङ्गं निवारेतुं “वृत्तावसेसं दट्ठब्ब"न्ति आह, पारिसेसनयतो गहितत्ता वृत्तावसेसं दट्ठब्बन्ति अधिप्पायो । किं पनेतन्ति वुत्तं “ सेय्यथिद "न्तिआदि । तथारूपे कालेति गामं पविसितुं दुक्करादिकाले । वल्लूरोति सुक्खमंसं । भाजन - सद्दो सप्पितेलगुळसद्देहि योजेतब्बो तदविनाभावित्ता । कालस्सेवाति पगेव । उदककद्दमेति उदके च कद्दमे च । निमित्ते चेतं भुम्मं, भावलक्खणे वा । अच्छथाति निसीदथ । भुञ्जन्तस्सेवाति भुञ्जतो एव भिक्खुनो, सम्पदानवचनं, अनादरत्थे वा सामिवचनं । किरियन्तरावच्छेदनयोगेन हेत्थ अनादरता । गीवायामकन्ति भावनपुंसकवचनं, गीवं आयमेत्वा आयतं कत्वाति अत्थो, यथा वा भुत्ते अतिभुत्तताय गीवा आयमितब्बा होति, तथातिपि वट्टति । चतुमासम्पीति वस्सानस्स चत्तारो मासेपि । कुटुम्बं वुच्चति धनं तदस्सत्थीति कुटुम्बिको, मुण्डो च सो कुटुम्बिको चाति मुण्डकुटुम्बिको, तस्स जीविकं तथा, तं कत्वा जीवतीति अत्थो । नयदस्सनमत्तञ्चेतं आमिसपदेन दस्सितानं सन्निधिवत्थूनन्ति दट्ठब्बं |
तब्बिरहितं समणपटिपत्तिं दस्सेन्तो “भिक्खुनो पना "तिआदिमाह । तत्थ "गुळपिण्डो तालपक्कप्पमाणन्ति सारत्थदीपनियं वृत्तं । चतुभागमत्तन्ति कुटुम्बमत्तन्ति वृत्तं । “एका तण्डुलनाळी "ति वुत्तत्ता पन तस्सा चतुभागो एकपत्थोति वदन्ति । वृत्तञ्च -
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“कुडुवो पसतो एको, पत्थो ते चतुरो सियुं । आळहको चतुरो पत्था, दोणं वा चतुराळहक”न्ति । ।
कस्माति वृत्तं " ते ही "तिआदि । आहरापेत्वापि उपेतुं वट्टति, पगेव यथालद्धं । “अफासुककाले "तिआदिना सुद्धचित्तेन ठपितस्स परिभोगो सल्लेखं न कोपेतीति दस्सेति । सम्मुतिकुटिकादयो चतस्सो, अवासागारभूतेन वा उपोसथागारादिना सह पञ्चकुटियो सन्धाय “कप्पियकुटिय’"न्तिआदि वृत्तं । सन्निधि नाम नत्थि तत्थ अन्तोत्थअन्तोपक्कस्स अनुञ्ञतत्ता । “तथागतस्सा" तिआदिना अधिकारानुरूपं अत्थं पयोजेति । पिलोतिकखण्डन्ति जिण्णचोळखण्डं |
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
१३. “ गीवं पसारेत्वा" ति एतेन सयमेव आपाथगमने दोसो नत्थीति दस्सेति । एत्तकम्पीति विनिच्छयविचारणा वत्थुकित्तनम्पि । पयोजनमत्तमेवाति पदत्थयोजनमत्तमेव । यस्स पन पदस्स वित्थारकथं विना न सक्का अत्थो विञ्ञातुं तत्थ वित्थारकथापि पदत्थसङ्ग्रहमेव गच्छति ।
कुतूहलवसेन पेक्खितब्बतो पेक्खं, नटसत्थविधिना पयोगो । नटसमूहेन पन जनसमूहे कत्तब्बवसेन "नटसम्मज्जन्ति वुत्तं । जनानं सम्मद्दे समूहे कतन्ति हि सम्मज्जं । सारसमासे पन "पेक्खामह' "न्तिपि वदन्ति, “सम्मज्जदस्सनुस्सव "न्ति तेसं मते अत्थो । भारतनामकानं द्वेभातुकराजूनं रामरञो च युज्झनादिकं तप्पसुतेहि आचिक्खितब्बतो अक्खानं । गन्तुम्पि न वट्टति, पगेव तं सोतुं । पाणिना ताळितब्बं सरं पाणिस्सरन्ति आह " कंसताळ" न्ति, लोहमयो तूरियजातिविसेसो कंसो, लोहमयपत्तो वा, तस्स ताळनसद्दन्ति अत्थो । पाणीनं ताळनसरन्ति अत्थं सन्धाय पाणिताळन्तिपि वदन्ति । घनसङ्घातानं तूरियविसेसानं ताळनं घनताळं नाम, दण्डमयसम्मताळं सिलातलाकताळं वा । मन्तेनाति भूताविसनमन्तेन । एकेति सारसमासाचरिया, उत्तरविहारवासिनो च यथा चेत्थ, एवमितो परेसुपि “एके" ति आगतट्ठानेसु । ते किर दीघनिकायस्सत्थविसेसवादिनो । चतुरस्स अम्बणकताळं रुक्खसारदण्डादीसु येन केनचि चतुरस्सअम्बणं कत्वा चतूसु पस्सेसु धम्मेन ओनद्धित्वा वादितभण्डस्स ताळनं । तहि एकादसदोणप्पमाणमानविसेससण्ठानत्ता “अम्बणक "न्ति वुच्चति, बिम्बिसकन्तिपि तस्सेव नामं । तथा कुम्भसण्ठानताय कुम्भो, घटोयेव वा, तस्स धुननन्ति खुद्दकभाणका । अब्भोक्किरणं रङ्गबलिकरणं । ते हि नच्चट्ठाने देवतानं बलिकरणं नाम कत्वा कीळन्ति, यं " नन्दी " तिपि वुच्चति । इत्थिपुरिससंयोगादिकिलेसजनकं पटिभानचित्तं सोभनकरणतो सोभनकरं नाम । " सोभनघरक "न्ति सारसमासे वृत्तं । चण्डाय अलन्ति चण्डालं, अयोगुळकीळा । चण्डाला नाम हीनजातिका सुनखमंसभोजिनो, तेसं इदन्ति चण्डालं । साणे उदकेन तेमेत्वा अञ्ञमञ्ञ आकोटनकीळा साणधोवनकीळा । वंसेन कतं कीळनं वंसन्ति आह " वेळु उस्सापेत्वा कीळन "न्ति ।
नाम
( १.१.१२-१२)
निखणित्वाति भूमियं निखातं कत्वा । नक्खत्तकालेति नक्खत्तयोगछणकाले । तमत्थं अङ्गुत्तरा दसकनिपातपाळिया (अ० नि० १०.१०६) साधेन्तो "वृत्तम्पिचेत "न्तिआदिमाह । तत्थाति तस्मिं अट्ठिधोवने । इन्दजालेनाति अद्विधोवनमन्तं परिजप्त्वा यथा परे अट्ठीनियेव पस्सन्ति, न मंसादीनि एवं मंसादीनमन्तरधापनमायाय ।
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(१.१.१४-१४)
मज्झिमसीलवण्णना
३१७
इन्दस्स जालमिव हि पटिच्छादितुं समत्थनतो “इन्दजाल"न्ति माया वुच्चति इन्दचापादयो विय । अट्ठिधोवनन्ति अट्ठिधोवनकीळा ।
हत्थिआदीहि सद्धिं युज्झितुन्ति हथिआदीसु अभिरुहित्वा अओहि सद्धिं युज्झनं, हत्थिआदीहि च सद्धिं सयमेव युज्झनं सन्धाय वुत्तं, हथिआदीहि सद्धिं अजेहि युज्झितुं, सयं वा युज्झितुन्ति हि अत्थो । तेति हत्थिआदयो । अञमचं मथेन्ति विलोथेन्तीति मल्ला, बाहुयुद्धकारका, तेसं युद्धं । सम्पहारोति सङ्गामो । बलस्स सेनाय अग्गं गणनकोट्ठासं करोन्ति एत्थाति बलग्गं, “एत्तका हत्थी, एत्तका अस्सा"तिआदिना बलगणनट्ठानं। सेनं वियूहन्ति एत्थ विभजित्वा ठपेन्ति, सेनाय वा एत्थ ब्यूहनं विन्यासोति सेनाब्यूहो, "इतो हत्थी होन्तु, इतो अस्सा होन्तू'तिआदिना युद्धत्थं चतुरङ्गबलाय सेनाय देसविसेसेसु विचारणट्टानं, तं पन भेदतो सकटब्यूहादिवसेन। आदि-सद्देन चक्कपदुमब्यूहानं दण्डभोगमण्डलासंहतब्यूहानञ्च गहणं, “तयो हत्थी पच्छिमं हत्थानीकं, तयो अस्सा पच्छिमं अस्सानीकं, तयो रथा पच्छिमं रथानीकं, चत्तारो पुरिसा सरहत्था पत्ती पच्छिमं पत्तानीक"न्ति (पाचि० ३२४ उय्योधिकसिक्खापदे) कण्डविद्धसिक्खापदस्स पदभाजनं सन्धाय "तयो...पे०...आदिना नयेन वुत्तस्सा"ति आह । तञ्च खो "द्वादसपुरिसो हत्थी, तिपुरिसो अस्सो, चतुपुरिसो रथो, चत्तारो पुरिसा सरहत्था पत्तीति (पाचि० ३१४ उय्युत्तसेनासिक्खापदे) वुत्तलक्खणतो हथिआदिगणनेनाति दट्टब्बं, एतेन च “छ हत्थिनियो, एको च हत्थी इदमेक"न्ति (महा० व० अट्ठ० २४५) चम्मक्खन्धकवण्णनायं वुत्तमनीकं पटिक्खिपति ।
१४. कारणं नाम फलस्स ठानन्ति वुत्तं “पमादो...पे०... ठान"न्ति । पदानीति सारीआदीनं पतिट्ठानानि | अट्ठापदन्ति सजाय दीघता | “अट्ठपद"न्तिपि पठन्ति । दसपदं नाम द्वीहि पन्तीति वीसतिया पदेहि कीळनजूतं । अट्ठपददसपदेसूति अट्ठपददसपदफलकेसु । आकासेयेव कीळनन्ति “अयं सारी असुकपदं मया नीता, अयं असुकपद"न्ति केवलं मुखेनेव वदन्तानं आकासेयेव जूतस्स कीळनं । नानापथमण्डलन्ति अनेकविहितसारीमग्गपरिवर्ल्ड । परिहरितब्बन्ति सारियो परिहरितुं युत्तकं । इतो चितो च सरन्ति परिवत्तन्तीति सारियो, येन केनचि कतानि अक्खबीजानि । तत्थाति तासु सारीसु, तस्मिं वा अपनयनुपनयने । जूतखलिकेति जूतमण्डले । “जूतफलके"तिपि अधुना पाठो । पासकं वुच्चति छसु पस्सेसु एकेकं याव छक्कं दस्सेत्वा कतकीळनकं, तं वड्वेत्वा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४-१४)
यथालद्धं एककादिवसेन सारियो अपनेन्तो, उपनेन्तो च कीळन्ति, पसति अठ्ठपदादीसु बाधति, फुसति चाति हि पासको, चतुब्बीसतिविधो अक्खो। यं सन्धाय वुत्तं -
"अट्ठकं मालिकं वुत्तं, सावट्टञ्च छकं मतं । चतुक्कं बहुलं जेव्यं, द्वि बिन्दुसन्तिभद्रकं । चतुवीसति आया च, मुनिन्देन पकासिता''ति ।।
तेन कीळनमिध पासककीळनं। घटनं पहरणं, तेन कीळा घटिकाति आह "दीघदण्डकेना"तिआदि । घटेन कुम्भेन कीळा घटिकाति एके। मजिट्ठिकाय वाति मजिविसङ्घातस्स योजनवल्लिरुक्खस्स सारं गहेत्वा पक्ककसावं सन्धाय वदति । सित्थोदकेन वाति [पिट्ठोदकेन वा (अट्ठकथायं)] च पक्कमधुसित्थोदकं । सलाकहत्थन्ति तालहीरादीनं कलापस्सेतं अधिवचनं । बहूसु सलाकासु विसेसरहितं एकं सलाकं गहेत्वा तासु पक्खिपित्वा पुन त व उद्धरन्ता सलाकहत्थेन कीळन्तीति केचि । गुळकीळाति गुळफलकीळा, येन केनचि वा कतगुळकीळा । पण्णेन वंसाकारेन कता नाळिका पण्णनाळिका, तेनेवाह "तंधमन्ता"ति । खुद्दके क-पच्चयोति दस्सेति "खुद्दकनङ्गल''न्ति इमिना । हत्थपादानं मोक्खेन मोचनेन चयति परिवत्तति एतायाति मोक्खचिका, तेनाह "आकासे वा"तिआदि । परिब्भमनत्तायेव तं चक्कं नामाति दस्सेतुं “परिन्भमनचक्क"न्ति
वुत्तं ।
पण्णेन कता नाळि पण्णनाळि, इमिना पत्ताळहकपदद्वयस्स यथाक्कम परियायं दस्सेति । तेन कता पन कीळा पत्ताळ्हकाति वुत्तं "ताया"तिआदि । खुद्दको रथो रथको क-सद्दस्स खुद्दकत्थवचनतो । एस नयो सेसपदेसुपि । आकासे वा यं आपेति, तस्स पिट्ठियं वा यथा वा तथा वा अक्खरं लिखित्वा “एवमिद"न्ति जाननेन कीळा अक्खरिका, पुच्छन्तस्स मुखागतं अक्खरं गहेत्वा नट्ठमुत्तिलाभादिजाननकीळातिपि वदन्ति । वज्ज-सद्दो अपराधत्थोति आह "यथावज्जं नामा"तिआदि । वादितानुरूपं नच्चनं, गायनं वा यथावज्जन्तिपि वदन्ति । “एवं कते जयो भविस्सति, एवं कते पराजयो"ति जयपराजयं पुरक्खत्वा पयोगकरणवसेन परिहारपथादीनम्पि जूतप्पमादट्ठानभावो वेदितब्बो, पङ्गचीरादीहि च वंसादीहि कत्तब्बा किच्चसिद्धि, असिद्धि चाति जयपराजयावहो पयोगो वुत्तो, यथावज्जन्ति च काणादीहि सदिसाकारदस्सनेहि जयपराजयवसेन जूतकीळिकभावेन वुत्तं ।
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(१.१.१५-१५)
मज्झिमसीलवण्णना
३१९
सब्बेपि हेते जोतेन्ति पकासेन्ति एतेहि तप्पयोगिका जयपराजयवसेन, जवन्ति च गच्छन्ति जयपराजयं एतेहीति वा अत्थेन जूतसद्दवचनीयतं नातिवत्तन्ति ।
१५. पमाणातिक्कन्तासनन्ति “अट्टङ्गुलपादकं कारेतब्बं सुगतङ्गुलेना''ति वुत्तप्पमाणतो अतिक्कन्तासनं । कम्मवसेन पयोजनतो “अनुयुत्ता विहरन्तीति पदं अपेक्खित्वा"ति वुत्तं । वाळरूपानीति आहरिमानि सीहब्यग्घादिवाळरूपानि । वुत्तहि भिक्खुनिविभने “पल्लङ्को नाम आहरिमेहि वाळेहि कतो''ति (पाचि० ९८४) “अकप्पियरूपाकुलो अकप्पियमञ्चो पल्लङ्को''ति सारसमासे वुत्तं । दीघलोमको महाकोजवोति चतुरङ्गुलाधिकलोमो काळवण्णो महाकोजवो। कुवुच्चति पथवी, तस्सं जवति सोभनवित्थटवसेनाति कोजवो। "चतुरङ्गुलाधिकानि किर तस्स लोमानी"ति वचनतो चतुरङ्गुलतो हेट्ठा वट्टतीति वदन्ति । उद्दलोमी एकन्तलोमीति विसेसदस्सनमेतं, तस्मा यदि तासु न पविसति, वट्टतीति गहेतब्बं । वानविचित्तन्ति भित्तिच्छदादिआकारेन वानेन सिब्बनेन विचित्रं । उण्णामयत्थरणन्ति मिगलोमपकतमत्थरणं । सेतत्थरणोति धवलत्थरणो। सीतस्थिकेहि सेवितब्बत्ता सेतत्थरणो, "बहुमुदुलोमको"तिपि वदन्ति । घनपुष्फकोति सब्बथा पुप्फाकारसम्पन्नो । “उण्णामयत्थरणोति उण्णामयो लोहितत्थरणो''ति (सारत्थ टी० २५८) सारत्थदीपनियं वुत्तं । आमलकपत्ताकाराहि पुप्फपन्तीहि येभुय्यतो कतत्ता आमलकपत्तोतिपि वुच्चति।
तिण्णं तूलानन्ति रुक्खतूललतातूलपोटकीतूलसङ्घातानं तिण्णं तूलानं । उदितं द्वीसु लोमं दसा यस्साति उद्दलोमी इ-कारस्स अकारं, त-कारस्स लोपं, द्विभावञ्च कत्वा । एकस्मिं अन्ते लोमं दसा यस्साति एकन्तलोमी। उभयत्थ केचीति सारसमासाचरिया, उत्तरविहारवासिनो च । तेसं वादे पन उदितमेकतो उग्गतं लोममयं पुष्फ यस्साति उद्दलोमी वुत्तनयेन । उभतो अन्ततो एकं सदिसं लोममयं पुष्फ यस्साति एकन्तलोमीति वचनत्थो। विनयट्ठकथायं पन “उद्दलोमीति एकतो उग्गतलोमं उण्णामयत्थरणं । 'उद्धलोमी'तिपि पाठो। एकन्तलोमीति उभतो उग्गतलोमं उण्णामयत्थरण"न्ति (महा० व० अट्ठ० २५४) वुत्तं, नाममत्तमेस विसेसो । अत्थतो पन अग्गहितावसेसो अट्ठकथाद्वयेपि नत्थीति दट्टब्बो।
कोसेय्यञ्च कट्टिस्सञ्च कट्टिस्सानि विरूपेकसेसवसेन । तेहि पकतमत्थरणं कट्टिस्सं । एतदेवत्थं दस्सेतुं "कोसेय्यकट्टिस्समयपच्चत्थरण"न्ति वुत्तं, कोसेय्यसुत्तानमन्तरन्तरं सुवण्णमयसुत्तानि पवेसेत्वा वीतमत्थरणन्ति वुत्तं होति । सुवण्णसुत्तं किर “कट्टिस्सं,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१५-१५)
कस्सट"न्ति च वदन्ति । तेनेव “कोसेय्यकस्सटमय''न्ति आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.१५) वुत्तं । कट्टिस्सं नाम वाकविसेसोतिपि वदन्ति । रतनपरिसिब्बितन्ति रतनेहि संसिब्बितं, सुवण्णलित्तन्ति केचि । सुद्धकोसेय्यन्ति रतनपरिसिब्बनरहितं । विनयेति विनयट्ठकथं, विनयपरियायं वा सन्धाय वुत्तं । इध हि सुत्तन्तिकपरियाये “ठपेत्वा तूलिकं सब्बानेव गोनकादीनि रतनपरिसिब्बितानि वट्टन्ती"ति वुत्तं । विनयपरियायं पन पत्वा गरुके ठातब्बत्ता सुद्धकोसेय्यमेव वट्टति, नेतरानीति विनिच्छयो वेदितब्बो, सुत्तन्तिकपरियाये पन रतनपरिसिब्बनरहितापि तूलिका न वट्टति, इतरानि वट्टन्ति, सचेपि तानि रतनपरिसिब्बितानि, भूमत्थरणवसेन यथानुरूपं मञ्चपीठादीसु च उपनेतुं वन्तीति । सुत्तन्तदेसनाय गहट्ठानम्पि वसेन वुत्तत्ता तेसं सगण्हनत्थं "ठपेत्वा...पे०... न वट्टन्तीति वुत्त"न्ति अपरे । दीघनिकायट्ठकथायन्ति कत्थचि पाठो, पोराणदीघनिकायट्ठकथायन्ति अत्थो । नच्चयोग्गन्ति नच्चितुं पहोनकं । करोन्ति एत्थ नच्चन्ति कुत्तकं, तं पन उद्दलोमीएकन्तलोमीविसेसमेव । वुत्तञ्च -
"द्विदसेकदसान्युद्द-लोमीएकन्तलोमिनो । तदेव सोळसित्थीनं, नच्चयोग्गहि कुत्तक''न्ति ।।
__ हत्थिनो पिट्ठियं अत्थरं हत्थत्थरं। एवं सेसपदेसुपि। अजिनचम्मेहीति अजिनमिगचम्मेहि, तानि किर चम्मानि सुखुमतरानि, तस्मा दुपट्टतिपट्टानि कत्वा सिब्बन्ति । तेन वुत्तं “अजिनप्पवेणी''ति, उपरूपरि ठपेत्वा सिब्बनवसेन हि सन्ततिभूता "पवेणी"ति वुच्चति । कदलीमिगोति मञ्जाराकारमिगो, तस्स धम्मेन कतं पवरपच्चत्थरणं तथा । "तं किरा"तिआदि तदाकारदस्सनं, तस्मा सुद्धमेव कदलीमिगचम्मं वट्टतीति वदन्ति । उत्तरं उपरिभागं छादेतीति उत्तरच्छदो, वितानं । तम्पि लोहितमेव इधाधिप्पेतन्ति आह "रत्तवितानेना"ति । “यं वत्तति, तं सउत्तरच्छेद''न्ति एत्थ सेसो, संसिब्बितभावेन सद्धिं वत्ततीति अत्थो। रत्तवितानेस च कासावं वट्टति, कसम्भादिरत्तमेव न वट्टति, तञ्च खो सब्बरत्तमेव । यं पन नानावण्णं वानचित्तं वा लेपचित्तं वा, तं वट्टति | पच्चत्थरणस्सेव पधानत्ता तप्पटिबद्धं सेतवितानम्पि न वट्टतीति वुत्तं । उभतोति उभयत्थ मञ्चस्स सीसभागे, पादभागे चाति अत्थो । एत्थापि सउत्तरच्छदे विय विनिच्छयो । पदुमवण्णं वाति नातिरत्तं सन्धायाह । विचित्रं वाति पन सब्बथा कप्पियत्ता वुत्तं, न पन उभतो उपधानेसु अकप्पियत्ता। न हि लोहितक-सद्दो चित्ते वट्टति । पटलिकग्गहणेनेव चित्तकस्सापि अत्थरणस्स सङ्गहेतब्बप्पसङ्गतो। सचे पमाणयुत्तन्ति वुत्तमेवत्थं ब्यतिरेकतो
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(१.१.१६-१६)
मज्झिमसीलवण्णना
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समत्थेतुं आह "महाउपधानं पन पटिक्खित्त"न्ति । महाउपधानन्ति च पमाणातिक्कन्तं उपधानं । सीसप्पमाणमेव हि तस्स पमाणं । वुत्तञ्च “अनुजानामि भिक्खवे, सीसप्पमाणं बिब्बोहनं कातु"न्ति (चूळ० व० २९७) सीसप्पमाणञ्च नाम यस्स वित्थारतो तीसु कण्णेसु द्विन्नं कण्णानं अन्तरं मिनियमानं विदत्थि चेव चतुरङ्गुलञ्च होति । बिब्बोहनस्स मज्झट्ठानं तिरियतो मुट्ठिरतनं होति, दीघतो पन दियड्वरतनं वा द्विरतनं वा । तं पन अकप्पियत्तायेव पटिक्खित्तं, न तु उच्चासयनमहासयनपरियापन्नत्ता। ढेपीति सीसूपधानं, पादूपधानञ्च । पच्चत्थरणं दत्वाति पच्चत्थरणं कत्वा अत्थरित्वाति अत्थो, इदञ्च गिलानमेव सन्धाय वुत्तं। तेनाह सेनासनक्खन्धकवण्णनायं “अगिलानस्सापि सीसूपधानञ्च पादूपधानञ्चाति द्वयमेव वट्टति । गिलानस्स बिब्बोहनानि सन्थरित्वा उपरि पच्चत्थरणं कत्वा निपज्जितुम्पि वट्टती"ति (चूळ० व० अट्ठ० २९७) वुत्तनयेनेवाति विनये भगवता वुत्तनयेनेव । कथं पन वुत्तन्ति आह "वुत्त हेत"न्तिआदि । यथा अठ्ठङ्गुलपादकं होति, एवं आसन्दिया पादच्छिन्दनं वेदितब्बं । पल्लङ्कस्स पन आहरिमानि वाळरूपानि आहरित्वा पुन अप्पटिबद्धताकारणम्पि भेदनमेव । विजटेत्वाति जटं निब्बेधेत्वा । बिब्बोहनं कातुन्ति तानि विजटिततूलानि अन्तो पक्खिपित्वा बिब्बोहनं कातुं ।
१६. "मातुकुच्छितो निक्खन्तदारकान"न्ति एतेन अण्डजजलाबुजानमेव गहणं, मातुकुच्छितो निक्खन्तत्ताति च कारणं दस्सेति, तेनेवायमत्थो सिज्झति “अनेकदिवसानि अन्तोसयनहेतु एस गन्धोति । उच्छादेन्ति उब्बट्टेन्ति। सण्ठानसम्पादनत्यन्ति सुसण्ठानतासम्पादनत्थं । परिमद्दन्तीति समन्ततो मद्दन्ति ।
तेसंयेव दारकानन्ति पुञवन्तानमेव दारकानं । तेसमेव हि पकरणानुरूपताय गहणं । महामल्लानन्ति महतं बाहुयुद्धकारकानं । आदासो नाम मण्डनकपकतिकानं मनुस्सानं अत्तनो मुखछायापस्सनत्थं कंसलोहादीहि कतो भण्डविसेसो । तादिसं सन्धाय "यं किञ्चि...पे०... न वदृती"ति वुत्तं । अलङ्कारञ्जनमेव न भेसज्जञ्जनं । मण्डनानुयोगस्स हि अधिप्पेतत्ता तमिधानधिप्पेतं । लोके माला-सद्दो बद्धमालायमेव “माला माल्यं पुप्फदामे''ति वचनतो। सासने पन सुद्धपुप्फेसुपि निरुळहोति आह “अबद्धमाला वा"ति । काळपीळकादीनन्ति काळवण्णपीळकादीनं। मत्तिककक्कन्ति ओसधेहि अभिसङ्घतं योगमत्तिकाचुण्णं । देन्तीति विलेपेन्ति । चलितेति विकारापज्जनवसेन चलनं पत्ते, कुपितेति अत्थो । तेनाति सासपकक्केन । दोसेति काळपीळकादीनं हेतुभूते लोहितदोसे । खादितेति अपनयनवसेन खादिते । सन्निसिन्नेति तादिसे दुट्ठलोहिते परिक्खीणे । मुखचुण्णकेनाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१७-१७)
मुखविलेपनेन । चुण्णेन्तीति विलिम्पेन्ति । तं सब्बन्ति मत्तिकाकक्कसासपतिलहलिद्दिकक्कदानसङ्खातं मुखचुण्णं, मुखविलेपनञ्च न वट्टति । अत्थानुक्कमसम्भवतो हि अयं पदद्वयस्स वण्णना । मुखचुण्णसङ्खातं मुखविलेपनन्ति वा पदद्वयस्स तुल्याधिकरणवसेन अत्थविभावना।
हत्थबन्धन्ति हत्थे बन्धितब्बमाभरणं, तं पन सङ्घकपालादयोति आह "हत्थे"तिआदि । सङ्खो एव कपालं तथा । “अपरे"तिआदिना यथाक्कम “सिखाबन्ध''न्तिआदि पदानमत्थं संवण्णेति । तत्थ सिखन्ति चूळं । चीरकं नाम येन चूळाय थिरकरणत्थं, सोभनत्थञ्च विज्झति । मुत्ताय, मुत्ता एव वा लता मुत्तालता, मुत्तावळि । दण्डो नाम चतुहत्थोति वुत्तं "चतुहत्थदण्डं वा"ति । अलङ्कृतदण्डकन्ति पन ततो ओमकं रथयट्ठिआदिकं सन्धायाह । भेसज्जनाळिकन्ति भेसज्जतुम्बं । पत्तादिओलम्बनं वामसेयेव अचिण्णन्ति वुत्तं “वामपस्से ओलग्गित"न्ति । कण्णिका नाम कूटं, ताय च रतनेन च परिक्खित्तो कोसो यस्स तथा । पञ्चवण्णसुत्तसिब्बितन्ति नीलपीतलोहितोदातमञ्जिवसेन पञ्चवण्णेहि सुत्तेहि सिब्बितं तिविधम्पि छत्तं । रतनमत्तायामं चतुरङ्गुलवित्थतन्ति तेसं परिचयनियामेन वा नलाटे बन्धितुं पहोनकप्पमाणेन वा वुत्तं । "केसन्तपरिच्छेदं दस्सेत्वा"ति एतेन तदनज्झोत्थरणवसेन बन्धनाकारं दस्सेति । मेघमुखेति अब्भन्तरे । “मणि"न्ति इदं सिरोमणिं सन्धाय वुत्तन्ति आह "चूळामणि"न्ति, चूळायं मणिन्ति अत्थो । चमरस्स अयं चामरो, स्वेव वालो, तेन कता बीजनी चामरवालबीजनी। अञ्जासं पन मकसबीजनीवाकमयबीजनीउसीरमयबीजनीमोरपिञ्छमयबीजनीनं, विधूपनतालवण्टानञ्च कप्पियत्ता तस्सायेव गहणं दट्टब् ।
१७. दुग्गतितो, संसारतो च निय्याति एतेनाति निय्यानं, सग्गमग्गो, मोक्खमग्गो च । तं निय्यानमरहति, तस्मिं वा निय्याने नियुत्ता, तं वा निय्यानं फलभूतं एतिस्साति निय्यानिका, वचीदुच्चरितकिलेसतो निय्यातीति वा निय्यानिका ई-कारस्स रस्सत्तं, यकारस्स च क-कारं कत्वा । अनीय-सद्दो हि बहुला कत्वत्थाभिधायको। चेतनाय सद्धिं सम्फप्पलापविरति इध अधिप्पेता । तप्पटिपक्खतो अनिय्यानिका, सम्फप्पलापो, तस्सा भावो अनिय्यानिकत्तं, तस्मा अनिय्यानिकत्ता। तिरच्छानभूताति तिरोकरणभूता विबन्धनभूता । सोपि नामाति एत्थ नाम-सद्दो गरहायं । कम्मट्ठानभावेति अनिच्चतापटिसंयुत्तत्ता चतुसच्चकम्मट्ठानभावे । कामस्सादवसेनाति कामसङ्खातअस्सादवसेन | सह अत्थेनाति सात्थकं, हितपटिसंयुत्तन्ति अत्थो । उपाहनाति यानकथासम्बन्धं सन्धाय वुत्तं । सुटु निवेसितब्बोति सुनिविट्ठो। तथा दुन्निविट्ठो। गाम-सद्देन गामवासी जनोपि गहितोति आह "असुकगामवासिनो"तिआदि ।
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(१.१.१७-१७)
मज्झिमसीलवण्णना
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सूरकथाति एत्थ सूर-सद्दो वीरवाचकोति दस्सेति "सूरो अहोसी"ति इमिना | विसिखा नाम मग्गसन्निवेसो, इध पन विसिखागहणेन तन्निवासिनोपि गहिता “सब्बो गामो आगतो"तिआदीसु विय, तेनेवाह "सद्धा पसन्ना"तिआदि ।
कुम्भस्स ठानं नाम उदकट्ठानन्ति वुत्तं "उदकट्ठानकथा'ति । उदकतित्थकथातिपि वुच्चति तत्थेव समवरोधतो । अपिच कुम्भस्स करणट्ठानं कुम्भट्टानं। तदपदेसेन पन कुम्भदासियो वुत्ताति दस्सेति “कुम्भदासिकथा वा"ति इमिना । पुब्बे पेता कालङ्कताति पुब्बपेता। “पेतो परेतो कालङ्कतो''ति हि परियायवचनं । हेट्ठा वुत्तनयमतिदिसितुं "तत्था"तिआदि वुत्तं ।
__ पुरिमपच्छिमकथाहि विमुत्ताति इधागताहि पुरिमाहि, पच्छिमाहि च कथाहि विमुत्ता । नानासभावाति अत्त-सदस्स सभावपरियायभावमाह | असुकेन नामाति पजापतिना ब्रह्मना, इस्सरेन वा | उप्पत्तिठितिसम्भारादिवसेन लोकं अक्खायति एतायाति लोकक्खायिका, सा पन लोकायतसमझे वितण्डसत्थे निस्सिता सल्लापकथाति दस्सेति "लोकायतवितण्डसल्लापकथा"ति इमिना । लोका बालजना आयतन्ति एत्थ उस्सहन्ति वादस्सादेनाति लोकायतं, लोको वा हितं न यतति न ईहति तेनाति लोकायतं। तहि गन्थं निस्साय सत्ता पुञ्जकिरियाय चित्तम्पि न उप्पादेन्ति । अञमञविरुद्धं, सग्गमोक्खविरुद्धं वा कथं तनोन्ति एत्थाति वितण्डो, विरुद्धेन वा वाददण्डेन ताळेन्ति एत्थ वादिनोति वितण्डो, सब्बत्थ निरुत्तिनयेन पदसिद्धि ।
सागरदेवेन खतोति एत्थ सागररञ्जो पुत्तेहि खतोतिपि वदन्ति | विज्जति पवेदनहेतुभूता मुद्धा यस्साति समुद्दो ध-कारस्स द-कारं कत्वा, सह-सद्दो चेत्थ विज्जमानत्थवाचको “सलोमकोसपखको"तिआदीसु विय । भवोति वुद्धि भवति वड्डतीति कत्वा। विभवोति हानि तब्बिरहतो। द्वन्दतो पुब्बे सुय्यमानो इतिसद्दो पच्चेकं योजेतब्बोति आह "इति भवो इति अभवो"ति । यं वा तं वाति यं किञ्चि, अथ तं अनियमन्ति अत्थो । अभूतहि अनियमत्थं सह विकप्पेन यंतं-सद्देहि दीपेन्ति आचरिया । अपिच भवोति सस्सतो। अभवोति उच्छेदो। भवोति वा कामसुखं । अभवोति अत्तकिलमथो।
इति इमाय छब्बिधाय इतिभवाभवकथाय सद्धिं बात्तिंस तिरच्छानकथा नाम होन्ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
अथ वा पाळियं सरूपतो अनागतापि अरञ्ञपब्बतनदीदीपकथा इति - सद्देन सङ्गत्वा बत्तिंस तिरच्छानकथाति वुच्चन्ति । पाळियहि " इति वा "ति एत्थ इति सद्दो पकारत्थो, वा- सद्दो विकप्पनत्थो । इदं वुत्तं होति “ एवंपकारं इतो अञ्ञ वा तादिसं निरत्थककथं अनुयुत्ता विहरन्ती”ति, आदित्थो वा -सो इति वा इति एवरूपा ‘“नच्चगीतवादितविसूकदस्सना पटिविरतो 'तिआदीसु (दी० नि० १.१०, १६४; म० नि० १.२९३, ४११, २.११, ४१८; ३.१४, १०२; अ० नि० ३.१०.९९) विय, इति एवमादिं अञ्ञम्पि तादिसं कथमनुयुत्ता विहरन्तीति अत्थो ।
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१८. विरुद्धस्स गहणं विग्गहो, सो येसन्ति विग्गाहिका, तेसं तथा, विरुद्धं वा गण्हाति एतायाति विग्गाहिका, सायेव कथा तथा । सारम्भकथाति उपारम्भकथा । सहितन्ति पुब्बापराविरुद्धं । ततोयेव सिलिट्टं । तं पन अत्थकारणयुत्ततायाति दस्सेतुं " अत्थयुत्तं कारणयुत्तन्ति अत्थो' ति वृत्तं । तन्ति वचनं । परिवत्तित्वा ठितं सपत्तगतो असमत्थो योधो विय न किञ्चि जानासि किन्तु सयमेव पराजेसीति अधिप्पायो । वादो दोसोति परियायवचनं । तथा चर विचराति । तत्थ तत्थाति तस्मिं तस्मिं आचरियकुले | निब्बेधेहीति मया रोपितं वादं विस्सज्जेहि ।
( १.१.१८-२० )
१९. दूतस्स कम्मं दूतेय्यं, तस्स कथा तथा तस्सं । इध, अमुत्राति उपयोगत्थे भुम्मवचनं तेनाह “ असुकं नाम ठान "न्ति । वित्थारतो विनिच्छयो विनयट्ठकथायं (पारा० अट्ठ० ४३६-४३७) वुत्तोति सङ्क्षेपतो इध दस्सेतुं “सङ्क्षेपतो पनाति आदि वृत्तं । गिहिसासनन्ति यथावुत्तविपरीतं सासनं । असन्ति गिहीनञेव ।
२०. तिविधेनाति सामन्तजप्पनइरियापथसन्निस्सितपच्चयपटिसेवनभेदतो तिविधेन । विम्हापयन्तीति "अयमच्छरियपुरिसो"ति अत्तनि परेसं विम्हयं सम्पहंसनं अच्छरियं उप्पादेन्ति । विपुब्बहि म्हि सद्दं सम्पहंसने वदन्ति सद्दविदू । सम्पहंसनाकारो च अच्छरियं । लपन्तीति अत्तानं वा दायकं वा उक्खिपित्वा यथा सो किञ्चि ददाति, एवं उक्काचेत्वा उक्खिपनवसेन दीपेत्वा कथेन्ति । निमित्तं सीलमेतेसन्ति नेमित्तिकाति तद्धितवसेन तस्सीलत्थो यथा “पंसुकूलिको ति ( महा० नि० ५२) अपिच निमित्तेन वदन्ति, निमित्तं वा करोन्तीति नेमित्तिका । निमित्तन्ति च परेसं पच्चयदानसञ्जुप्पादकं कायवचीकम्मं वुच्चति । निप्पेसो निप्पिसनं चुण्णं विय करणं । निप्पिसन्तीति वा निप्पेसा, निप्पेसायेव निप्पेसिका, निप्पिसनं वा निप्पेसो, तं करोन्तीतिपि निप्पेसिका । निप्पेसो च
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( १.१.२१-२१)
महासीलवण्णना
नाम भटपुरिसो विय लाभसक्कारत्थं अक्कोसनखुंसनुप्पण्डनपरपिट्ठिमंसिकता । लाभेन लाभन्ति इतो लाभेन अमुत्र लाभं । निजिगीसन्ति मग्गन्ति परियेसन्तीति परियायवचनं । कुहकादयो सद्दा कुहानादीनि निमित्तं कत्वा तंसमङ्गिपुग्गलेसु पवत्ताति आह " कुहना... पे०... अधिवचन "न्ति । अट्ठकथञ्चाति तंतंपाळिसंवण्णनाभूतं पोराणट्ठकथञ्च ।
मज्झिमसीलवण्णना निट्ठिता ।
महासीलवण्णना
२१. अङ्गानि आरब्भ पवत्तत्ता अङ्गसहचरितं सत्थं " अङ्ग "न्ति वृत्तं उत्तरपदलोपेन वा । निमित्तन्ति एत्थापि एसेव नयो, तेनाह “ हत्थपादादीसू "तिआदि । केचि पन " अङ्गन्ति अङ्गविकारं परेसं अङ्गविकारदस्सनेनापि लाभालाभादिविजानन "न्ति वदन्ति । निमित्तसत्थन्ति निमित्तेन सञ्जाननप्पकारदीपकं सत्थं, तं वत्थुना विभावेतुं “ पण्डुराजा" तिआदिमाह । पण्डुराजाति च " दक्खिणारामाधिपति" इच्चेव वृत्तं । सीहळदीपे दक्खिणारामनामकस्स सङ्घारामस्स कारकोति वदन्ति । “दक्खिणमधुराधिपती 'ति च कत्थचि लिखितं, दक्खिणमधुरनगरस्स अधिपतीति अत्थो । मुत्तायोति मुत्तिका । मुट्ठियाति हत्थमुद्दाय । घरगोलिकायाति सरबुना । सो “मुत्ता"ति सञ्ञानिमित्तेनाह, सङ्ख्यानिमित्तेन पन
" तिस्सो ”ति ।
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" महन्तान "न्ति एतेन अप्पकं निमित्तमेव, महन्तं पन उप्पादोति निमित्तुप्पादानं विसेसं दस्सेति । उप्पतितन्ति उप्पतनं । सुभासुभफलं पकासेन्तो उप्पज्जति गच्छतीति उप्पादो, उप्पातोपि, सुभासुभसूचिका भूतविकति । सो हि धूमो विय अग्गिस्स कम्मफलस्स पकासनमत्तमेव करोति, न तु तमुप्पादेतीति । इदन्ति इदं नाम फलं । एवन्ति इमिना नाम आकारेन । आदिसन्तीति निद्दिसन्ति । पुब्बण्हसमयेति कालवसेन । इदं नामाि वत्थुवसेन वदति । यो वसभं, कुञ्जरं, पासादं, पब्बतं वा आरुळहमत्तानं सुपिने परसति, तस्स ‘“इदं नाम फल 'न्तिआदिना हि वत्थुकित्तनं होति । सुपिनकन्ति सुपिनसत्थं । अङ्गसम्पत्तिविपत्तिदस्सनमत्तेन "अङ्ग "न्ति वुत्तं, इध पन महानुभावतादिनिप्फादकलक्खणविसेसदस्सनेन 'लक्खण "न्ति अयमेतेसं विसेसो, तेनाह
पुब्बे
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.२१-२१)
"इमिना लक्खणेना"तिआदि। लक्खणन्ति हि अङ्गपच्चङ्गेसु दिस्समानाकारविसेसं सत्तिसिरिवच्छगदापासादादिकमधिप्पेतं तं तं फलं लक्खीयति अनेनाति कत्वा, सत्थं पन तप्पकासनतो लक्खणं। आहतेति पुराणे। अनाहतेति नवे । अहतेति पन पाठे वुत्तविपरियायेन अत्थो। इतो पट्ठायाति देवरक्खसमनुस्सादिभेदेन यथाफलं परिकप्पितेन विविधवत्थभागे इतो वा एत्तो वा सञ्छिन्ने इदं नाम भोगादिफलं होति । एवरूपेन दारुनाति पलाससिरिफलादिदारुना, तथा दब्बिया । यदि दब्बिहोमादीनिपि अग्गिहोमानेव, अथ कस्मा विसुं वुत्तानीति आह "एवरूपाया"तिआदि। दब्बिहोमादीनि होमोपकरणादिविसेसेहि फलविसेसदस्सनवसेन वुत्तानि, अग्गिहोमं पन वुत्तावसेससाधनवसेन वुत्तन्ति अधिप्पायो । तेनाह “दबिहोमादीनी''तिआदि ।
कुण्डकोति तण्डुलखण्डं, तिलस्स इदन्ति तेलं, समासतद्धितपदानि पसिद्धेसु सामञभूतानीति विसेसकरणत्थं “तिलतेलादिक"न्ति वुत्तं । पक्खिपनन्ति पक्खिपनत्थं । “पक्खिपनविज्ज''न्तिपि पाठो, पक्खिपनहेतुभूतं विज्जन्ति अत्थो । दक्षिणक्खकजण्णुलोहितादीहीति दक्खिणक्खकलोहितदक्खिणजण्णुलोहितादीहि । “पुब्बे"तिआदिना अङ्गअङ्गविज्जानं विसेसदस्सनेन पुनरुत्तभावमपनेति । अङ्गुलर्हि दिस्वाति अङ्गलिभूतं, अङ्गलिया वा जातं अहिँ पस्सित्वा, अङ्गुलिच्छविमत्तं अपस्सित्वा तदट्ठिविपस्सनवसेनेव व्याकरोन्तीति वुत्तं होति । “अङ्गलट्ठिन्ति सरीर''न्ति (दी० नि० टी० १.२१) पन आचरियधम्मपालत्थेरेन वुत्तं, एवं सति अङ्गपच्चङ्गानं विरुहनभावेन लट्ठिसदिसत्ता सरीरमेव अङ्गलट्ठीति विज्ञायति । कुलपुत्तोति जातिकुलपुत्तो, आचारकुलपुत्तो च। दिस्वापीति एत्थ अपि-सद्दो अदिस्वापीति सम्पिण्डनत्थो । अन्भिनो सत्थं अन्भेय्यं । मासुरक्खेन कतो गन्थो मासुरक्खो । राजूहि परिभूत्तं सत्थं राजसत्थं। सब्बानिपेतानि खत्तविज्जापकरणानि । सिवसद्दो सन्तिअत्थोति आह “सन्तिकरणविज्जा"ति, उपसग्गूपसमनविज्जाति अत्थो । सिवासद्दमेव रस्सं कत्वा एवमहाति सन्धाय "सिङ्गालरुतविज्जा"ति वदन्ति, सिङ्गालानं रुते सुभासुभसञ्जाननविज्जाति अत्थो। "भूतवेज्जमन्तोति भूतवसीकरणमन्तो। भूरिघरेति अन्तोपथवियं कतघरे, मत्तिकामयघरे वा। “भूरिविज्जा सस्सबुद्धिकरणविज्जा''ति सारसमासे। सप्पाव्हायनविज्जाति सप्पागमनविज्जा । विसवन्तमेव वाति विसवमानमेव वा। भावनिद्देसस्स हि मान-सद्दस्स अन्तब्यप्पदेसो | याय करोन्ति, सा विसविज्जाति योजना । “विसतन्त्रमेव वा''तिपि पाठो । एवं सति सरूपदस्सनं होति, विसविचारणगन्थोयेवाति अत्थो । तन्त्रन्ति हि गन्थस्स परसमञा। सपक्खकअपक्खकद्विपदचतुष्पदानन्ति पिङ्गलमक्खिकादिसपक्खकघरगोलिकादिअपक्खकदेवमनुस्सचङ्गोरादिद्विपदककण्टससजम्बुकादि
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(१.१.२२-२४)
महासीलवण्णना
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-चतुप्पदानं । रुतं वस्सितं । गतं गमनं, एतेन "सकुणविज्जा"ति इध मिगसद्दस्स लोपं, निदस्सनमत्तं वा दस्सेति । सकुणत्राणन्ति सकुणवसेन सुभासुभफलस्स जाननं । ननु सकुणविज्जाय एव वायसविज्जापविठ्ठाति आह "तं विसु व सत्थ"न्ति । तंतंपकासकसत्थानुरूपवसेन हि इध तस्स तस्स वचनन्ति दट्टब्बं ।
परिपक्कगतभावो अत्तभावस्स, जीवितकालस्स च वसेन गहेतब्बोति दस्सेति "इदानी"तिआदिना। आदिट्ठञानन्ति आदिसितब्बस्स आणं । सररक्खणन्ति सरतो अत्तानं, अत्ततो वा सरस्स रक्खणं । “सब्बसाहिक"न्ति इमिना मिग-सद्दस्स सब्बसकुणचतुष्पदेसु पवत्तिं दस्सेति, एकसेसनिद्देसो वा एस चतुप्पदेस्वेव मिग-सद्दस्स निरुळहत्ता । सब्बेसम्पि सकुणचतुष्पदानं रुतजाननसत्थस्स मिगचक्कसमझा, यथा तं सुभासुभजाननप्पकारे सब्बतो भद्रं चक्कादिसमञाति आह “सब्ब...०... वुत्त"न्ति ।
२२. “सामिनो"तिआदि पसट्ठापसठ्ठकारणवचनं । लक्खणन्ति तेसं लक्खणप्पकासकसत्थं । पारिसेसनयेन अवसेसं आवुधं। “यम्हि कुले''तिआदिना इमस्मि ठाने तथाजाननहेतु एव सेसं लक्खणन्ति दस्सेति । अयं विसेसोति “लक्खण''न्ति हेट्ठा वुत्ता लक्खणतो विसेसो । तदत्थाविकरणत्थं "इदञ्चेत्थ वत्थू"ति वुत्तं अग्गिं धममानन्ति अग्गिं मुखवातेन जालेन्तं । मक्खेसीति विनासेति । पिळन्धनकण्णिकायाति कण्णालङ्कारस्स । गेहकणिकायाति गेहकूटस्स, एतेन एकसेसनयं, सामञनिद्देसं वा उपेतं । कच्छपलक्खणन्ति कुम्मलक्खणं । सब्बचतुप्पदानन्ति मिग-सद्दस्स चतुप्पदवाचकत्तमाह ।।
२३. असुकदिवसेति दुतियाततियादितिथिवसेन वुत्तं । असुकनक्खत्तेनाति अस्सयुजभरणीकत्तिकारोहणीआदिनक्खत्तयोगवसेन । विष्पवुत्थानन्ति विप्पवसितानं सदेसतो निक्खन्तानं । उपसङ्कमनं उपयानं। अपयानं पटिक्कमनं । दुतियपदेपीति “बाहिरानं रञ्ज...पे०... भविस्सतीति वुत्ते दुतियवाक्येपि । “अब्भन्तरानं रअं जयोतिआदीहि द्वीहि वाक्येहि वुत्ता जयपराजया पाकटायेव ।
२४. राहूति राहु नाम असुरिस्सरो असुरराजा। तथा हि महासमयसुत्ते असुरनिकाये
वुत्तं -
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.२४-२४)
"सतञ्च बलिप्त्तानं, सब्बे वेरोचनामका । सन्नम्हित्वा बलिसेनं, राहुभद्दमुपागमु"न्ति ।। (दी० नि० २.३३९) ।
तस्स चन्दिमसूरियानं गहणं संयुत्तनिकाये चन्दिमसुत्तसूरियसुत्तेहि दीपेतब्बं । इति-सद्दो चेत्थ आदिअत्थो “चन्दग्गाहादयो'"ति वुत्तत्ता, तेन सूरियग्गाहनक्खत्तग्गाहा सङ्गय्हन्ति । तस्मा चन्दिमसूरियानमिव नक्खत्तानम्पि राहुना गहणं वेदितब्बं । ततो एव हि “अपि चा"तिआदिना नक्खत्तगाहे दुतियनयो वुत्तो । अङ्गारकादिगाहसमायोगोपीति अग्गहितग्गहणेन अङ्गारकससिपुत्तसूरगरुसुक्करविसुतकेतुसङ्घातानं गाहानं समायोगो अपि नक्खत्तगाहोयेव सह पयोगेन गहणतो। सहपयोगोपि हि वेदसमयेन गहणन्ति वुच्चति । उक्कानं पतनन्ति उक्कोभासानं पतनं । वातसङ्घातेसु हि वेगेन अचमनं सङ्घट्टेन्तेसु दीपिकोभासो विय ओभासो उप्पज्जित्वा आकासतो पतति, तत्रायं उक्कापातवोहारो। जोतिसत्थेपि वुत्तं -
"महासिखा च सुक्खग्गा-रत्तानिलसिखोज्जला । पोरिसी च पमाणेन, उक्का नानाविधा मता''ति ।।
दिसाकालुसियन्ति दिसासु खोभनं, तं सरूपतो दस्सेति “अग्गिसिखधूमसिखादीहि आकुलभावो विया"ति इमिना, अग्गिसिखधूमसिखादीनं बहुधा पातुभावो एव दिसादाहो नामाति वुत्तं होति । तदेव “धूमकेतू''ति लोकिया वदन्ति । वुत्तञ्च जोतिसत्थे -
“केतु विय सिखावती, जोति उप्पातरूपिनी''ति ।
सुक्खवलाहकगज्जनन्ति वुट्ठिमन्तरेन वायुवेगचलितस्स वलाहकस्स नदनं । यं लोकिया "निघातो''ति वदन्ति । वुत्तञ्च जोतिसत्थे --
"यदान्तलिक्खे बलवा, मारुतो मारुताहतो । पतत्यधो स नीघातो, जायते वायुसम्भवो''ति ।।
उदयनन्ति लग्गनमायूहनं ।
“यदोदेति तदा लगनं, रासीनमन्वयं कमा''ति
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(१.१.२५-२६)
हि वृत्तं । अत्थङ्गमनम्पि ततो सत्तमरासिप्पमाणवसेन वेदितब्बं । अब्भा धूमो रजो राहूति इमेहि चतूहि कारणेहि अविसुद्धता । तब्बिनिमुत्तता वोदानं । वृत्तञ्च " चत्तारोमे भिक्खवे, चन्दिमसूरियानं उपक्किलेसा, येहि उपक्किलेसेहि उपक्किलिट्ठा चन्दिमसूरिया न तपन्ति न भासन्ति न विरोचन्ति । कतमे चत्तारो ? अब्भा भिक्खवे, चन्दिमसूरियानं उपक्किलेसा, येन... पे० धूमो पे०. रजो... पे०... राहु भिक्खवे... पे० ... इमे खो... पे०... न विरोचन्ती 'ति (अ० नि० १.४.५० ) ।
महासीलवण्णना
२५. देवस्साति मेघस्स । धारानुपवेच्छनं वस्सनं । अवग्गाहोति धाराय अवग्गहणं दुग्गहणं, तेनाह " वस्सविबन्धो 'ति । हत्थमुद्दाति हत्थेन अधिप्पेतविञ्ञापनं तं पन अङ्गुलिसङ्कोचनेन गणनायेवाति आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.२१) वृत्तं । आचरियसारिपुत्तत्थेरेन पन " हत्थमुद्दा नाम अङ्गुलिपब्बेसु सञ्ञ ठपेत्वा गणना" ति दस्सिता । गणना वुच्चति अच्छिद्दकगणना परिसेसजायेन सा पन पादसिकमिलक्खकादयो विय ‘“एकं द्वे’तिआदिना नवन्तविधिना निरन्तरगणनाति वेदितब्बा । समूहनं सङ्कलनं विसुं उप्पादनं अपनयनं पटुप्पादनं [सटुप्पादनं (अट्ठकथायं ) ] “सदुप्पादन "न्तिपि पठन्ति, सम्मा उप्पादनन्ति अत्थो । आदि-सद्देन वोकलनभागहारादिके सङ्गण्हाति । तत्थ वोकलनं विसुं समूहकरणं, वोमिस्सनन्ति अत्थो । भागकरणं भागो । भुञ्जनं विभजनं हारो । साति यथावत्ता पिण्डगणना दिस्वाति एत्थ दिट्ठमत्तेन गणेत्वाति अत्थो गहेतब्बो ।
पटिभानकवीति एत्थ अङ्गुत्तरागमे (अ० नि० १.४.२३१) वुत्तानन्ति सेसो, कवीनं कब्यकरणन्ति सम्बन्धो, एतेन कवीहि कतं, कवीनं वा इदं कावेय्यन्ति अत्थं दस्सेति । “ अत्तनो चिन्तावसेना "तिआदि तेसं सभावदस्सनं । तथा हि वत्थं, अनुसन्धिञ्च सयमेव चिरेन चिन्तेत्वा करणवसेन चिन्ताकवि वेदितब्बो । किञ्चि सुत्वा सुतेन असुतं अनुसन्धेत्वा करणवसेन सुतकवि, किञ्चि अत्थं उपधारेत्वा तस्स सङ्क्षिपनवित्थारणादिवसेन अत्थकवि, यं किञ्चि परेन कतं कब्बं वा नाटकं वा दिस्वा तंसदिसमेव अञ्ञ अत्तनो ठानुप्पत्तिकपटिभानेन करणवसेन पटिभानकवीति । तन्ति तमत्थं । तप्पटिभागन्ति तेन दिट्ठेन सदिसं । “कत्तब्ब”न्ति एत्थ विसेसनं, “ करिस्सामी "ति एत्थ वा भावनपुंसकं । ठानुष्पत्तिकपटिभानवसेनाति कारणानुरूपं पवत्तनकञाणवसेन । जीविकत्थायात पकरणाधिगतवसेनेव वृत्तं । कवीनं इदन्ति कव्यं यं " गीत "न्ति वुच्चति ।
२६. परिग्गहभावेन दारिकाय गण्हनं आवाहनं । तथा दानं विवाहनं । इध पन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.२६-२६)
तथाकरणस्स उत्तरपदलोपेन निद्देसो, हेतुगब्भवसेन वा, तेनाह "इमस्स दारकस्सा"तिआदि । इतीति एवंहोन्तेसु, एवंभावतो वा । उद्यानन्ति खेत्तादितो उप्पन्नमायं । इणन्ति धनवड्डनत्थं परस्स दिन्नं परियुदञ्चनं । पुब्बे परिच्छिन्नकाले असम्पत्तेपि उद्धरितमिणं उद्यानं, यथापरिच्छिन्नकाले पन सम्पत्ते इणन्ति केचि, तदयुत्तमेव इणगहणेनेव सिज्झनतो । परेसं दिन्नं इणं वा धनन्ति सम्बन्धो। थावरन्ति चिरट्ठितिकं। देसन्तरे दिगुणतिगुणादिगहणवसेन भण्डप्पयोजनं पयोगो। तत्थ वा अञ्जत्थ वा यथाकालपरिच्छेदं वड्डिगहणवसेन पयोजनं उद्धारो। “भण्डमूलरहितानं वाणिजं कत्वा एत्तकेन उदयेन सह मूलं देथा'ति धनदानं पयोगो, तावकालिकदानं उद्धारो"तिपि वदन्ति । अज्ज पयोजितं दिगुणं चतुगुणं होतीति यदि अज्ज पयोजितं भण्डं, एवं अपरज्ज दिगुणं, अज्ज चतुगुणं होतीति अत्थो । सुभस्स, सुभेन वा गमनं पवत्तनं सुभगो, तस्स करणं सुभगकरणं, तं पन पियमनापस्स, सस्सिरीकस्स वा करणमेवाति आह "पियमनापकरण"न्तिआदि । सस्सिरीककरणन्ति सरीरसोभग्गकरणं । विलीनस्साति पतिठ्ठहित्वापि परिपक्कमपापुणित्वा विलोपस्स । तथा परिपक्कभावेन अद्वितस्स। परियायवचनमेतं पदचतुक्कं । भेसज्जदानन्ति गब्भसण्ठापनभेसज्जस्स दानं । तीहि कारणेहीति एत्थ वातेन, पाणकेहि वा गब्भे विनस्सन्ते न पुरिमकम्मुना ओकासो कतो, तप्पच्चया एव कम्मं विपच्चति, सयमेव पन कम्मुना ओकासे कते न एकन्तेन वाता, पाणका वा अपेक्खितब्बाति कम्मस्स विसुं कारणभावो वुत्तोति दट्ठब्बं । विनयट्ठकथायं (वि० अट्ठ० २.१८५) पन वातेन पाणकेहि वा गब्भो विनस्सन्तो कम्मं विना न विनस्सतीति अधिप्पायेन तमझात्र द्वीहि कारणेहीति वुत्तं । निब्बापनीयन्ति उपसमकरं | पटिकम्मन्ति यथा ते न खादन्ति, तथा पटिकरणं ।
बन्धकरणन्ति यथा जिं चालेतुं न सक्कोति, एवं अनालोळितकरणं । परिवत्तनत्थन्ति आवुधादिना सह उक्खित्तहत्थानं अञ्जत्थ परिवत्तनत्थं, अत्तना गोपितहाने अखिपेत्वा परत्थ खिपनत्थन्ति वुत्तं होति । खिपतीति च अञत्थ खिपतीति अत्थो । विनिच्छयट्ठानेति अड्डविनिच्छयट्ठाने । इच्छितत्थस्स देवताय कण्णे कथनवसेन जप्पनं कण्णजप्पनन्ति च वदन्ति । देवतं ओतारेत्वाति एत्थ मन्तजप्पनेन देवताय ओतारणं । जीविकत्थायाति यथा पारिचरियं कत्वा जीवितवुत्ति होति, तथा जीवितवुत्तिकरणत्थाय | आदिच्चपारिचरियाति करमालाहि पूजं कत्वा सकलदिवसं आदिच्चाभिमुखावट्ठानेन आदिच्चस्स परिचरणं । "तथेवा"ति इमिना "जीविकत्थाया''ति पदमाकड्वति । सिरिव्हायनन्ति ई-कारतो अकारलोपेन सन्धिनिद्देसो, तेनाह "सिरिया अव्हायन"न्ति । "सिरेना"ति पन ठानवसेन
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(१.१.२७-२७)
महासीलवण्णना
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अव्हायनाकारं दस्सेति । ये तु अ-कारतो अ-कारस्स लोपं कत्वा "सिरव्हायन"न्ति पठन्ति, तेसं पाठे अयमत्थो “मन्तं जप्पेत्वा सिरसा इच्छितस्स अत्थस्स अव्हायन''न्ति ।
२७. देवद्वानन्ति देवायतनं । उपहारन्ति पूजं । समिद्धिकालेति आयाचितस्स अत्थस्स सिद्धकाले । सन्तिपटिस्सवकम्मन्ति देवतायाचनाय या सन्ति पटिकत्तब्बा, तस्सा पटिस्सवकरणं । सन्तीति चेत्थ मन्तजप्पनेन पूजाकरणं, ताय सन्तिया आयाचनप्पयोगोति अत्थो । तस्मिन्ति यं “सचे मे इदं नाम समिज्झिस्सती''ति वुत्तं, तस्मिं पटिस्सवफलभूते यथाभिपत्थितकम्मस्मिं । तस्साति यो “पणिधी''ति च वुत्तो, तस्स पटिस्सवस्स | यथापटिस्सवहि उपहारे कते पणिधिआयाचना कता निय्यातिता होतीति । गहितमन्तस्साति उग्गहितमन्तस्स । पयोगकरणन्ति उपचारकम्मकरणं । इतीति कारणत्थे निपातो, तेन वस्सवोस्स-सद्दानं पुरिसपण्डकेसु पवत्तिं कारणभावेन दस्सेति, पण्डकतो विसेसेन असति भवतीति वस्सो। पुरिसलिङ्गतो विरहेन अवअसति हीळितो हुत्वा भवतीति वोस्तो। विसेसो रागस्सवो यस्साति वस्सो। विगतो रागस्सवो यस्साति वोस्सोति निरुत्तिनयेन पदसिद्धीतिपि वदन्ति । वस्सकरणं तदनुरूपभेसज्जेन । वोस्सकरणं पन उद्धतबीजतादिनापि, तेनेव जातकट्ठकथायं “वोस्सवराति उद्धतबीजा ओरोधपालका"ति वुत्तं । अच्छन्दिकभावमत्तन्ति इत्थिया अकामभावमत्तं । लिङ्गन्ति पुरिसनिमित्तं ।।
वत्थुबलिकम्मकरणन्ति घरवत्थुस्मिं बलिकम्मस्स करणं, तं पन उपद्दवपटिबाहनत्थं, वड्डनत्थञ्च करोन्ति, मन्तजप्पनेन अत्तनो, अ सञ्च मुखसुद्धिकरणं। तेसन्ति अञसं । योगन्ति भेसज्जपयोगं । वमनन्ति पच्छिन्दनं । उद्धंविरेचनन्ति वमनभेदमेव "उद्धं दोसानं नीहरण"न्ति वुत्तत्ता। विरेचनन्ति पकतिविरेचनमेव । अधोविरेचनन्ति सुद्धवत्थिकसाववत्थिआदिवस्थिकिरिया “अधो दोसानं नीहरण''न्ति वुत्तत्ता। अथो वमनं उग्गिरणमेव, उद्धंविरेचनं दोसनीहरणं । तथा विरेचनं विरेकोव, अधोविरेचनं दोसनीहरणन्ति अयमेतेसं विसेसो पाकटो होति । दोसानन्ति च पित्तादिदोसानन्ति अत्थो । सेम्हनीहरणादि सिरोविरेचनं। कण्णबन्धनत्थन्ति छिन्नकण्णानं सङ्घटनत्थं । वणहरणथन्ति अरुपनयनत्थं । अक्खितप्पनतेलन्ति अक्खीसु उसुमस्स नीहरणतेलं । येन अक्खिम्हि अञ्जिते उण्हं उसुमं निक्खमति । यं नासिकाय गण्हीयति, तं नत्थु। पटलानीति अक्खिपटलानि | नीहरणसमत्थन्ति अपनयनसमत्थं । खारजनन्ति खारकमञ्जनं । सीतमेव सच्चं निरुत्तिनयेन, तस्स कारणं अञ्जनं सच्चजनन्ति आह "सीतलभेसज्जजन"न्ति । सलाकवेज्जकम्मन्ति अक्खिरोगवेज्जकम्मं । सलाकसदिसत्ता सलाकसङ्घातस्स अक्खिरोगस्स
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.२८-२८)
वेज्जकम्मन्ति हि सालाकियं । इदं पन वुत्तावसेसस्स अक्खिरोगपटिकम्मस्स सङ्गहणत्थं वुत्तं "तप्पनादयोपि हि सालाकियानेवा''ति । पटिविद्धस्स सलाकस्स निक्खमनत्थं वेज्जकम्म सलाकवेज्जकम्मन्ति केचि, तं पन सल्लकत्तियपदेनेव सङ्गहितन्ति दट्ठब्बं ।
सल्लस्स पटिविद्धस्स कत्तनं उब्बाहनं सल्लकत्तं, तदत्थाय वेज्जकम्म सल्लकत्तवेज्जकम्मं । कुमारं भरतीति कुमारभतो, तस्स भावो कोमारभच्चं, कुमारो एव वा कोमारो, भतनं भच्चं, तस्स भच्चं तथा, तदभिनिप्फादकं वेज्जकम्मन्ति अत्थो । मूलानि पधानानि रोगूपसमने समत्थानि भेसज्जानि मूलभेसज्जानि, मूलानं वा ब्याधीनं भेसज्जानि तथा । मूलानुबन्धवसेन हि दुविधो ब्याधि । तत्र मूलब्याधिम्हि तिकिच्छिते येभुय्येन इतरं वूपसमति, तेनाह "कायतिकिच्छतं दस्सेती"तिआदि । तत्थ कायतिकिच्छतन्ति मूलभावतो सरीरभूतेहि भेसज्जेहि, सरीरभूतानं वा रोगानं तिकिच्छकभावं। खारादीनीति खारोदकादीनि । तदनुरूपे वणेति वूपसमितस्स मूलब्याधिनो अनुच्छविके अरुम्हि । तेसन्ति मूलभेसज्जानं । अपनयनं अपहरणं, तेहि अतिकिच्छनन्ति वुत्तं होति । इदञ्च कोमारभच्चसल्लकत्तसालाकियादिविसेसभूतानं तन्तीनं पुब्बे वुत्तत्ता पारिसेसवसेन वुत्तं, तस्मा तदवसेसाय तन्तिया इध सङ्गहो दट्ठब्बो, सब्बानि चेतानि आजीवहेतुकानियेव इधाधिप्पेतानि "मिच्छाजीवेन जीविकं कप्पेन्तीति (दी० नि० १.२१) वृत्तत्ता । यं पन तत्थ तत्थ पाळियं “इति वा''ति वुत्तं । तत्थ इती-ति पकारत्थे निपातो, वा-ति विकप्पनत्थे । इदं वत्तं होति - इमिना पकारेन. इतो अजेन वाति । तेन यानि इतो बाहिरकपब्बजिता सिप्पायतनविज्जाट्ठानादीनि जीविकोपायभूतानि आजीविकपकता उपजीवन्ति, तेसं परिग्गहो कतोति वेदितब् ।
महासीलवण्णना निद्विता ।
पुबन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना २८. इदानि सुञतापकासनवारस्सत्थं वण्णेन्तो अनुसन्धिं पकासेतुं "एव"न्तिआदिमाह । तत्थ वुत्तवण्णस्साति सहत्थे छट्ठिवचनं, सामिअत्थे वा अनुसन्धि-सदस्स भावकम्मवसेन किरियादेसनासु पवत्तनतो। भिक्खुसङ्ग्रेन वुत्तवण्णस्साति "यावञ्चिदं तेन
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(१.१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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भगवता"तिआदिना वुत्तवण्णस्स । तत्र पाळियं अयं सम्बन्धो-- न भिक्खवे, एत्तका एव बुद्धगुणा ये तुम्हाकं पाकटा, अपाकटा पन “अत्थि भिक्खवे, अञ्ज धम्मा''ति वित्थारो | “इमे दिट्ठिद्वाना एवं गहिता''तिआदिना सस्सतादिदिट्टिवानानं यथागहिताकारस्स सुञभावप्पकासनतो, “तञ्च पजाननं न परामसती"ति सीलादीनञ्च अपरामसनीयभावदीपनेन निच्चसारादिविरहप्पकासनतो, यासु वेदनासु अवीतरागताय बाहिरानं एतानि दिट्टिविबन्धकानि सम्भवन्ति, तासं पच्चयभूतानञ्च सम्मोहादीनं वेदककारकसभावाभावदस्सनमुखेन सब्बधम्मानं अत्तत्तनियताविरहदीपनतो, अनुपादापरिनिब्बानदीपनतो च अयं देसना सुञताविभावनप्पधानाति आह "सुञतापकासनं आरभी"ति।।
परियत्तीति विनयादिभेदभिन्ना मनसा ववत्थापिता तन्ति । देसनाति तस्सा तन्तिया मनसा ववत्थापिताय विभावना, यथाधम्मं धम्माभिलापभूता वा पापना, अनुलोमादिवसेन वा कथनन्ति परियत्तिदेसनानं विसेसो पुब्बेयेव ववत्थापितोति इममत्थं सन्धाय "देसनाय, परियत्तिय"न्ति च वुत्तं । एवमादीसूति एत्थ आदि-सद्देन सच्चसभावसमाधिपापकतिपुञआपत्तित्रेय्यादयो सङ्गय्हन्ति । तथा हि अयं धम्म-सद्दो "चतुन्नं भिक्खवे, धम्मानं अननुबोधा"तिआदीसु (अ० नि० १.४.१) सच्चे पवत्तति, "कुसला धम्मा अकुसला धम्मा''तिआदीसु (ध० स० तिकमातिका १) सभावे, “एवंधम्मा ते भगवन्तो अहेसु"न्तिआदीसु (दी० नि० २.१३, ९४, १४५; ३.१४२; म० नि० ३.१६७; सं० नि० ३.५.३७८) समाधिम्हि, “सच्चं धम्मो धिति चागो, स वे पेच्च न सोचति''तिआदीसु (सं० नि० १.१.२४६; सु० नि० १९०) पञ्जायं, “जातिधम्मानं भिक्खवे, सत्तानं एवं इच्छा उप्पज्जती"तिआदीसु (म० नि० १.१३१; ३.३७३; पटि० म० १.३३) पकतियं, “धम्मो सुचिण्णो सुखमावहाती''तिआदीसु (सु० नि० १८४; थेरगा० ३०३; जा० १.१०.१०२; १५.३८५) पुजे, “चत्तारो पाराजिका धम्मा''तिआदीसु (पारा० २३३) आपत्तियं, “सब्बे धम्मा सब्बाकारेन बुद्धस्स भगवतो आणमुखे आपाथमागच्छन्ती"तिआदीसु (महानि० १५६; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.५) ओय्ये पवत्तति । धम्मा होन्तीति सत्तजीवतो सुञा धम्ममत्ता होन्तीति अत्थो । किमत्थियं गुणे पवत्तनन्ति आह "तस्मा"तिआदि ।
मकसतुण्डसूचियाति सूचिमुखमक्खिकाय तुण्डसङ्घाताय सूचिया। अलब्भनेय्यपतिट्ठो वियाति सम्बन्धो । अञत्र तथागताति ठपेत्वा तथागतं । "दुइसा"ति पदेनेव तेसं धम्मानं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.२८-२८)
दुक्खोगाहता पकासिताति “अलब्भनेय्यपतिद्वा" इच्चेव वुत्तं । लभितब्बाति लब्भनीया, सा एव लन्भनेय्या, लभीयते वा लब्भनं, तमरहतीति लब्भनेय्या, न लब्भनेय्या अलब्भनेय्या, पतिद्वहन्ति एत्थाति पतिट्ठा, पतिद्वहनं वा पतिट्ठा, अलब्भनेय्या पतिठ्ठा एत्थाति अलन्भनेय्यपतिट्ठा । इदं वुत्तं होति - सचे कोचि अत्तनो पमाणं अजानन्तो आणेन ते धम्मे ओगाहितुं उस्साहं करेय्य, तस्स तं आणं अप्पति?मेव मकसतुण्डसूचि विय महासमुद्देति | ओगाहितुमसक्कुणेय्यताय “एत्तका एते ईदिसा वा"ति ते पस्सितुं न सक्काति वुत्तं “गम्भीरत्ता एव दुद्दसा"ति | ये पन ठमेव न सक्का, तेसं ओगाहित्वा अनु अनु बुज्झने कथा एव नत्थीति आह "दुद्दसत्ता एव दुरनुबोधाति । सब्बकिलेसपरिळाहपटिप्पस्सद्धिसङ्घातअग्गफलमत्थके समुप्पन्नता, पुरेचरानुचरवसेन निब्बुतसब्बकिलेसपरिळाहसमापत्तिसमोकिण्णत्ता च निब्बुतसब्बपरिळाहा। तब्भावतो सन्ताति अत्थो । सन्तारम्मणानि मग्गफलनिब्बानानि अनुपसन्तसभावानं किलेसानं, सङ्घारानञ्च अभावतो ।
अथ वा कसिणुग्घाटिमाकासतब्बिसयविज्ञाणानं अनन्तभावो विय सुसमूहतविक्खेपताय निच्चसमाहितस्स मनसिकारस्स वसेन तदारम्मणधम्मानं सन्तभावो वेदितब्बो। अविरज्झित्वा निमित्तपटिवेधो विय इस्सासानं अविरज्झित्वा धम्मानं यथाभूतसभावावबोधो सादुरसो महारसोव होतीति आह “अतित्तिकरणद्वेना''ति, अतप्पनकरणसभावेनाति अत्थो। सोहिच्चं तित्ति तप्पनन्ति हि परियायो । अतित्तिकरणद्वेनाति पत्थेत्वा सादुरसकरणद्वेनातिपि अत्थं वदन्ति । पटिवेधप्पत्तानं तेसु च बुद्धानमेव सब्बाकारेन विसयभावूपगमनतो न तक्कबुद्धिया गोचराति आह "उत्तमञाणविसयत्ता'तिआदि । निपुणाति जेय्येसु तिक्खप्पवत्तिया छेका । यस्मा पन सो छेकभावो आरम्मणे अप्पटिहतवुत्तिताय, सुखुमओय्यग्गहणसमत्थताय च सुपाकटो होति, तस्मा वुत्तं “सण्हसुखुमसभावत्ता''ति । पण्डितेहियेवाति अवधारणं समत्थेतुं “बालानं अविसयत्ता"ति आह ।
अयं अट्ठकथानयतो अपरो नयो - विनयपण्णत्तिआदिगम्भीरनेय्यविभावनतो गम्भीरा। कदाचियेव असङ्ख्येय्ये महाकप्पे अतिक्कमित्वापि दुल्लभदस्सनताय दुद्दसा। दस्सनञ्चेत्थ पञाचक्खुवसेनेव वेदितब्बं । धम्मन्वयसङ्घातस्स अनुबोधस्स कस्सचिदेव सम्भवतो दुरनुबोधा। सन्तसभावतो, वेनेय्यानञ्च सब्बगुणसम्पदानं परियोसानत्ता सन्ता। अत्तनो पच्चयेहि पधानभावं नीतताय पणीता। समधिगतसच्चलक्खणताय अतक्केहि पुग्गलेहि, अतक्केन वा आणेन अवचरितब्बतो अतक्कावचरा। निपुणं, निपुणे वा अत्थे
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(१.१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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सच्चपच्चयाकारादिवसेन विभावनतो निपुणा। लोके अग्गपण्डितेन सम्मासम्बुद्धन वेदितब्बतो पकासितब्बतो पण्डितवेदनीया ।
अनावरणञाणपटिलाभतो हि भगवा “सब्बविदूहमस्मि, (म० नि० १.१७८; २.३४२; ध० प० ३५३; महाव० ११) दसबलसमन्नागतो भिक्खवे, तथागतो''तिआदिना (सं० नि० १.२.२१, २.२२) अत्तनो सब्बञ्जतादिगुणे पकासेसि, तेनेवाह "सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेती"ति । सयं-सद्देन, निद्धारितावधारणेन वा निवत्तेतब्बमत्थं दस्सेतुं "अनञ्जनेय्यो हुत्वा"ति वुत्तं, अछेहि अबोधितो हुत्वाति अत्थो । अभिज्ञाति य-कारलोपो "अजाणता आपज्जती"तिआदीसु (परि० २९६) वियाति दस्सेति “अभिविसिटेन आणेना"ति इमिना । अपिच "सयं अभिज्ञा"ति पदस्स अनञ्जनेय्यो हुत्वाति अत्थवचनं, "सच्छिकत्वाति पदस्स पन सयमेव...पे०... कत्वाति । सयं-सद्दा हि सच्छिकत्वाति एत्थापि सम्बज्झितब्बो । अभिविसिटेन आणेनाति च तस्स हेतुवचनं, करणवचनं वा ।
तत्थ किञ्चापि सब्ब ताणं फलनिब्बानानि विय सच्छिकातब्बसभावं न होति, आसवक्खयाणे पन अधिगते अधिगतमेव होति, तस्मा तस्स पच्चक्खकरणं सच्छिकिरियाति आह “अभिविसिटेन आणेन पच्चक्खं कत्वा'ति । हेतुअत्थे चेतं करणवचनं, अग्गमग्गजाणसङ्घातस्स अभिविसिठ्ठजाणस्साधिगमहेतूति अत्थो । अभिविसिट्ठाणन्ति वा पच्चवेक्खणाजाणे अधिप्पेते करणत्थे करणवचनम्पि युज्जतेव । पवेदनञ्चेत्थ अञाविसयानं सच्चादीनं देसनाकिच्चसाधनतो, "एकोम्हि सम्मासम्बुद्धो"तिआदिना (महाव० ११; कथाव० ४०५) पटिजाननतो च वेदितब्बं । गुणधम्मेहीति गुणसङ्खातेहि धम्मेहि । यथाभूतमेव यथाभुच्चं सकत्थे ण्यपच्चयवसेन ।
वदमानाति एत्थ सत्तिअत्थो मानसद्दो यथा “एकपुग्गलो भिक्खवे, लोके उप्पज्जमानो उप्पज्जती''ति, (अ० नि० १.१.१७०; कथाव० ४०५) तस्मा वत्तुं उस्साहं करोन्तोति अत्थो । एवंभूता हि वत्तुकामा नाम होन्ति, तेनाह "तथागतस्सा"तिआदि । सावसेसं वदन्तापि विपरीतवदन्ता विय सम्मा वदन्तीति न वत्तब्बाति यथा सम्मा वदन्ति, तथा दस्सेतुं “अहापेत्वा"तिआदि वुत्तं । तेन हि अनवसेसवदनमेव सम्मा वदनन्ति दस्सेति । "वत्तुं सक्कुणेय्यु"न्ति इमिना च "वदेय्यु"न्ति एतस्स समत्थनत्थभावमाह यथा “सो इमं विजटये जट''न्ति (सं० नि० १.१.२३; पेटको० २२; मि० प० १.१.९) ये एवं भगवता थोमिता, ते धम्मा कतमेति योजना। “अत्थि भिक्खवे, अजेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.२८-२८)
धम्मा"तिआदिपाळिया “सब्ब ताण"न्ति वुत्तवचनस्स विरोधिभावं चोदेन्तो “यदि एव"न्तिआदिमाह । तत्थ यदि एवन्ति एवं “सब्ब ताण"न्ति वुत्तवचनं यदि सियाति अत्थो । बहुवचननिद्देसोति “अत्थि भिक्खवे''तिआदीनि सन्धाय वुत्तं । अत्थि-सद्दोपि हि इध बहुवचनोयेव “अस्थि खीरा, अस्थि गावो"तिआदीसु विय निपातभावस्सेव इच्छितत्ता । यदिपि तदिदं जाणं एकमेव सभावतो, तथापि सम्पयोगतो, आरम्मणतो च पुथुवचनप्पयोगमरहतीति विस्सज्जेति "पुथुचित्त...पे०... रम्मणतो"ति इमिना । पुथुचित्तसमायोगतोति पुथूहि चित्तेहि सम्पयोगतो। पुथूनि आरम्मणानि एतस्साति पुथुआरम्मणं, तब्भावतो सब्बारम्मणत्ताति वुत्तं होति ।
अपिच पुथु आरम्मणं आरम्मणमेतस्साति पुथुआरम्मणारम्मणन्ति एतस्मिं अत्थे "ओट्ठमुखो, कामावचरन्तिआदीसु विय एकस्स आरम्मणसद्दस्स लोपं कत्वा "पुथुआरम्मणतो"ति वुत्तं, तेनस्स पुथुआणकिच्चसाधकत्तं दस्सेति । तथा हेतं आणं तीसु कालेसु अप्पटिहतञाणं, चतुयोनिपरिच्छेदकजाणं, पञ्चगतिपरिच्छेदकाणं, छसु असाधारणञाणेसु सेसासाधारणञाणानि, सत्तारियपुग्गलविभावनकआणं, अट्ठसु परिसासु अकम्पनजाणं, नवसत्तावासपरिजाननजाणं, दसबलञआणन्ति एवमादीनं अनेकसतसहस्सभेदानं आणानं यथासम्भवं किच्चं साधेति, तेसं आरम्मणभूतानं अनेकेसम्पि धम्मानं तदारम्मणभावतोति दट्ठब्। “तही"तिआदि यथाक्कम तब्बिवरणं । "यथाहा"तिआदिना पटिसम्भिदामग्गपाळिं साधकभावेन दस्सेति । तत्थाति अतीतधम्मे | एकवारवसेन पुथुआरम्मणभावं निवत्तेत्वा अनेकवारवसेन कमप्पवत्तिया तं दस्सेतुं "पुनप्पुनं उप्पत्तिवसेना"ति वुत्तं । कमेनापि हि सब्ब तञाणं विसयेसु पवत्तति, न तथा सकिंयेव । यथा बाहिरका वदन्ति “सकिंयेव सब्बञ्जू सब् जानाति, न कमेना"ति ।
यदि एवं अचिन्तेय्यापरिमेय्यप्पभेदस्स जेय्यस्स परिच्छेदवता एकेन आणेन निरवसेसतो कथं पटिवेधोति, को वा एवमाह “परिच्छेदवन्तं सब्ब ताण"न्ति । अपरिच्छेदहि तं आणं त्रेय्यमिव । वुत्तव्हेतं “यावतकं आणं, तावतकं त्रेय्यं । यावतकं अय्यं, तावतकं आण"न्ति (महानि० ६९, १५६; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.५ अधिप्पायस्थमेव गहितं विय दिस्सति) एवम्पि जातिभूमिसभावादिवसेन, दिसादेसकालादिवसेन च अनेकभेदभिन्ने अय्ये कमेन गव्हमाने अनवसेसपटिवेधो न सम्भवतियेवाति ? नयिदमेवं । यहि किञ्चि भगवता आतुमिच्छितं सकलमेकदेसो वा, तत्थ अप्पटिहतचारिताय पच्चक्खतो आणं पवत्तति । विक्खेपाभावतो च भगवा सब्बकालं
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(१.१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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समाहितोति ज्ञातुमिच्छितस्स पच्चक्खभावो न सक्का निवारेतुं । वुत्तहि “आकङ्खापटिबद्धं बुद्धस्स भगवतो आण''न्तिआदि, (महानि० ६९, १५६; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.५) ननु चेत्थ दूरतो चित्तपटं पस्सन्तानं विय, “सब्बे धम्मा अनत्ता"ति विपस्सन्तानं विय च अनेकधम्मावबोधकाले अनिरूपितरूपेन भगवतो आणं पवत्ततीति गहेतब्बन्ति ? न गहेतब्बं अचिन्तेय्यानुभावताय बुद्धञाणस्स | तेनेवाह "बुद्धविसयो अचिन्तेय्यो''ति, (अ० नि० १.४.७७) इदं पनेत्थ सन्निट्ठानं- सब्बाकारेन सब्बधम्मावबोधनसमत्थस्स आकङ्खापटिबद्धवुत्तिनो अनावरणजाणस्स पटिलाभेन भगवा सन्तानेन सब्बधम्मपटिवेधसमत्थो अहोसि सब्बनेय्यावरणस्स पहानतो, तस्मा सब्बञ्जू, न सकिंयेव सब्बधम्मावबोधतो यथासन्तानेन सब्बस्स इन्धनस्स दहनसमत्थताय पावको “सब्बभूति वुच्चतीति ।
कामञ्चायमत्थो पुब्बे वित्थारितोयेव, पकारन्तरेन पन सोतुजनानुग्गहकामताय, इमिस्सा च पोराणसंवण्णनाविसोधनवसेन पवत्तत्ता पुन विभावितोति न चेत्थ पुनरुत्तिदोसो परियेसितब्बो, एवमीदिसेसु । एत्थ च किञ्चापि भगवतो दसबलादिजाणानिपि अनञसाधारणानि, सब्बदेसविसयत्ता पन तेसं आणानं न तेहि बुद्धगुणा अहापेत्वा गहिता नाम होन्ति । सब्ब ताणस्स पन निप्पदेसविसयत्ता तस्मिं गहिते सब्बेपि बुद्धगुणा गहिता एव नाम होन्ति, तस्मा पाळिअत्थानुसारेन तदेव आणं गहितन्ति वेदितब्बं । पाळियम्पि हि “येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वणं सम्मा वदमाना वदेय्यु"न्ति तमेव पकासितं तमन्तरेन अञस्स निप्पदेसविसयस्स अभावतो, निप्पदेसविसयेनेव च यथाभुच्चं सम्मा वदनसम्भवतोति ।
अछुवाति एत्थ एव-सद्दो सन्निट्ठापनत्थोति दस्सेतुं “अञवाति इदं पनेत्थ ववत्थापनवचन"न्ति वुत्तं, ववत्थापनवचनन्ति च सन्निट्ठापनवचनन्ति अत्थो, सन्निट्ठापनञ्च अवधारणमेव । कथन्ति आह “अञवा"तिआदि । “न पाणातिपाता वेरमणिआदयो"ति इमिना अवधारणेन निवत्तितं दस्सेति । अयञ्च एव-सद्दो अनियतदेसताय च-सद्दो विय यत्थ वुत्तो, ततो अञत्थापि वचनिच्छावसेन उपतिकृतीति आह “गम्भीरावा"तिआदि । इति-सद्देन च आदिअत्थेन दुद्दसाव न सुदसा, दुरनुबोधाव न सुरनुबोधा, सन्ताव न दरथा, पणीताव न हीना, अतक्कावचराव न तक्कावचरा, निपुणाव न लूखा, पण्डितवेदनीयाव न बालवेदनीयाति निवत्तितं दस्सेति । सब्बपदेहीति याव “पण्डितवेदनीया''ति इदं पदं, ताव सब्बपदेहि।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
एवं निवत्तेतब्बतं युत्तिया दळहीकरोन्तो “सावकपारमिञाण "न्तिआदिमाह । तत्थ सावकपारमित्राणन्ति सावकानं दानादिपारमिपारिपूरिया निप्फन्नं विज्जत्तयछळभिञाचतुपटिसम्भिदाभेदं जाणं, तथा पच्चेकबुद्धानं पच्चेकबोधित्राणं । ततोति सावकपारमिञाणतो । तत्थाति सावकपारमिञाणे | ततोपीति अनन्तरनिद्दितो पच्चेकबोधिञाणतोपि । अपि सद्देन, पि-सद्देन वा को पन वादो सावकपारमिञाणतोति सम्भावेति। तत्थापीति पच्चेकबोधिञाणेपि । इतो पनाति सब्बञ्तञ्ञाणतो पन, तस्मा एत्थ सब्बञ्ञतञ्ञाणे ववत्थानं लब्भतीति अधिप्पायो । गम्भीरेसु विसेसा, गम्भीरानं वा विसेसेन गम्भीरा । अयञ्च गम्भीरो अयञ्च गम्भीरो इमे इमेसं विसेसेन गम्भीराति वा गम्भीरतरा । तरसद्देनेवेत्थ ब्यवच्छेदनं सिद्धं ।
एत्थाय योजना - किञ्चापि सावकपारमित्राणं हेट्ठिमं हेट्ठिमं सेक्खञाणं पुथुज्जनञाणञ्च उपादाय गम्भीरं, पच्चेकबोधित्राणं पन उपादाय न तथा गम्भीरन्ति “गम्भीरमेवा’”ति न सक्का ब्यवच्छिज्जितुं, तथा पच्चेकबोधित्राणम्पि यथावुत्तं आणमुपादाय गम्भीरं, सब्बञ्जतञणं पन उपादाय न एवं गम्भीरन्ति “ गम्भीरमेवा' "ति न सक्का ब्यवच्छिज्जितुं, तस्मा तत्थ ववत्थानं न लब्भति । सब्बञ्जतञाणधम्मा पन सावकपारमिञाणादीनमिव किञ्चि उपादाय गम्भीराभावाभावतो “गम्भीरा एवा" ति ववत्थानं लब्भतीति । यथा चेत्थ ववत्थानं दस्सितं एवं सावकपारमित्राणं दुद्दसं । " पच्चेकबोधित्राणं पन ततो दुद्दसतरन्ति तत्थ ववत्थानं नत्थी' 'तिआदिना ववत्थानसम्भवो नेतब्बो, तेनेवाह “ तथा दुद्दसाव... पे०... वेदितब्ब "न्ति ।
( १.१.२८-२८)
पुच्छाविस्सज्जनन्तिपि पाठो, तस्सा पुच्छाय विस्सज्जनन्ति अत्थो । एतन्ति यथावृत्तं विस्सज्जनवचनं । एवन्ति इमिना दिट्ठीनं विभजनाकारेन । एत्थायमधिप्पायो - भवतु व निरवसेसबुद्धगुणविभावनुपायभावतो सब्बञ्जतञाणमेव एकम्पि पुथुनिस्सयारम्मणञाणकिच्चसिद्धिया “अत्थि भिक्खवे, अञ्ञेव धम्मा" तिआदिना (दी० नि० १.१८) बहुवचनेन उद्दिट्टं, तस्स पन विस्सज्जनं सच्चपच्चयाकारादिविसयविसेसवसेन अनञ्ञसाधारणेन विभजननयेन अनारभित्वा सनिस्सयानं दिट्ठिगतानं विभजननयेन कस्मा आरद्धन्ति ? तत्थ यथा सच्चपच्चयाकारादीनं विभजनं अनञ्ञसाधारणं सब्बञ्ज्ञाणस्सेव विसयो, एवं निरवसेसदिट्ठिगतविभजनम्पीति दस्सेतुं “बुद्धानञ्ही "तिआदि आरद्धं, तत्थ ठानानीति कारणानि । गज्जितं महन्तं होतीति देसेतब्बस्स अत्थस्स अनेकविधताय, दुब्बिय्यताय च नानानयेहि पवत्तमानं देसनागज्जितं महन्तं विपुलं, बहुप्पभेदञ्च
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(१.१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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होति । आणं अनुपविसतीति ततो एव च देसनाञआणं देसेतब्बधम्मे विभागसो कुरुमानं अनुपविसति, ते अनुपविसित्वा ठितं विय होतीति अत्थो ।
बुद्धञाणस्स महन्तभावो पायतीति एवंविधस्स नाम धम्मस्स देसकं, पटिवेधकञ्चाति बुद्धानं देसनाञाणस्स, पटिवेधाणस्स च उळारभावो पाकटो होति । देसना गम्भीरा होतीति सभावेन गम्भीरानं तेसं चतुब्बिधानम्पि देसना देसेतब्बवसेन गम्भीराव होति, सा पन बुद्धानं देसना सब्बत्थ, सब्बदा च यानत्तयमुखेनेवाति वुत्तं "तिलक्खणाहता सुञतापटिसंयुत्ता"ति, तीहि लक्खणेहि आहता, अत्तत्तनियतो सुञभावपटिसञ्जुत्ता चाति अत्थो। एत्थ च किञ्चापि “सब्बं वचीकम्मं बुद्धस्स भगवतो ज्ञाणपुब्बङ्गमं आणानुपरिवत्ती"ति (महानि० ६९, १५६; चूळनि० ८५; पटि० म० ३.५; नेत्ति० १५) वचनतो सब्बापि भगवतो देसना आणरहिता नाम नत्थि, समसमपरक्कमनवसेन सीहसमानवुत्तिताय च सब्बत्थ समानुस्साहप्पवत्ति, देसेतब्बधम्मवसेन पन देसना विसेसतो आणेन अनुपविठ्ठा, गम्भीरतरा च होतीति दट्ठब् ।
कथं पन विनयपण्णत्तिं पत्वा देसना तिलक्खणाहता, सुञतापटिसञ्जत्ता च होति, ननु तत्थ विनयपण्णत्तिमत्तमेवाति ? न तत्थ विनयपण्णत्तिमत्तमेव । तत्थापि हि सन्निसिन्नपरिसाय अज्झासयानुरूपं पवत्तमाना देसना सङ्खारानं अनिच्चतादिविभाविनी सब्बधम्मानं अत्तत्तनियता, सुञभावप्पकासिनी च होति, तेनेवाह “अनेकपरियायेन धम्मि कथं कत्वा"तिआदि । विनयपत्तिन्ति विनयस्स पञआपनं । ञ कारस्स पन एण-कारे कते विनयपण्णत्तिन्तिपि पाठो। भूमन्तरन्ति धम्मानं अवत्थाविसेसञ्च ठानविसेसञ्च । भवन्ति धम्मा एत्थाति भूमीति हि अवत्थाविसेसो, ठानञ्च वुच्चति । तत्थ अवत्थाविसेसो सतिआदिधम्मानं सतिपट्ठानिन्द्रियबलबोज्झङ्गमग्गङ्गादिभेदो “वच्छो, दम्मो, बलीबद्दो''ति आदयो विय । ठानविसेसो कामावचरादिभेदो । पच्चयाकार-सद्दस्स अत्थो हेट्ठा वुत्तोयेव । समयन्तरन्ति दिट्ठिविसेसं, नानाविहिता दिट्ठियोति अत्थो, अञसमयं वा, बाहिरकसमयन्ति वुत्तं होति । विनयपत्तिं पत्वा महन्तं गज्जितं होतीतिआदिना सम्बन्धो । तस्माति यस्मा गज्जितं महन्तं...पे०... पटिसंयुत्ता, तस्मा । छेज्जगामिनीति अतेकिच्छगामिनी ।
एवं ओतिण्णे वत्थुस्मिन्ति यथावृत्तनयेन लहुकगरुकादिवसेन तदनुरूपे वत्थुम्हि ओतरन्ते । यं सिक्खापदपञआपनं नाम अत्थि, तत्थाति सम्बन्धो । थामोति आणसामत्थियं । बलन्ति अकम्पनसङ्खातो वीरभावो। थामो बलन्ति वा सामत्थियवचनमेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.२८-२८)
पच्चवेक्खणादेसनाजाणवसेन योजेतब्बं । पच्चवेक्खणाञाणपुब्बङ्गमहि देसनाञाणं । एसाति सिक्खापदपञापनमेव वुच्चमानपदमपेक्खित्वा पुल्लिङ्गेन निद्दिसति, एसो सिक्खापदपज्ञापनसङ्घातो विसयो अझेसं अविसयोति अत्थो। इतीति तथाविसयाविसयभावस्स हेतुभावेन पटिनिद्देसवचनं, निदस्सनत्थो वा इति-सद्दो, तेन “इदं लहुकं, इदं गरुक"न्तिआदिनयं निद्दिसति । एवमपरत्थापि यथासम्भवं ।
यदिपि कायानुपस्सनादिवसेन सतिपट्टानादयो सुत्तन्तपिटके (दी० नि० २.३७४; म० नि० १.१०७) विभत्ता, तथापि सुत्तन्तभाजनीयादिवसेन अभिधम्मेयेव ते विसेसतो विभत्ताति आह "इमे चत्तारो सतिपट्ठाना...पे०... अभिधम्मपिटकं विभजित्वा"ति । तत्थ सत्त फस्साति सत्तविाणधातुसम्पयोगवसेन वुत्तं । तथा “सत्त वेदना'तिआदिपि । लोकुत्तरा धम्मा नामाति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन वुत्तावसेसं अभिधम्मे आगतं धम्मानं विभजितब्बाकारं सङ्गण्हाति । चतुवीसतिसमन्तपट्टानानि एत्थाति चतुवीसतिसमन्तपट्ठानन्ति बाहिरत्थसमासो । “अभिधम्मपिटक"न्ति एतस्स हि इदं विसेसनं । एत्थ च पच्चयनयं अग्गहेत्वा धम्मवसेनेव समन्तपट्टानस्स चतुवीसतिविधता वुत्ता । यथाह -
“तिकञ्च पट्ठानवरं दुकुत्तमं,
दुकतिकञ्चेव तिकदुकञ्च । तिकतिकञ्चेव दुकदुकञ्च,
__ छ अनुलोमम्हि नया सुगम्भीरा...पे०... छ पच्चनीयम्हि...पे०... अनुलोमपच्चनीयम्हि...पे०...
पच्चनीयानुलोमम्हि नया सुगम्भीरा'ति ।। १.१.४१ (क), ४४(ख), ४८(ग), ५२ (घ)] |
[पट्ठ०
एवं धम्मवसेन चतुवीसतिभेदेसु तिकपट्टानादीसु एकेकं पच्चयनयेन अनुलोमादिवसेन चतुब्बिधं होतीति छन्नवुतिसमन्तपट्ठानानि । तत्थ पन धम्मानुलोमे तिकपट्ठाने कुसलत्तिके पटिच्चवारे पच्चयानुलोमे हेतुमूलके हेतुपच्चयवसेन एकूनपञ्जास पुच्छानया सत्त विस्सज्जननयातिआदिना दस्सियमाना अनन्तभेदा नयाति आह "अनन्तनय"न्ति ।
नवहाकारेहीति उप्पादादीहि नवहि पच्चयाकारेहि । तं सरूपतो दस्सेतुं “उप्पादो हुत्वा"तिआदि वुत्तं । तत्थ उप्पज्जति एतस्मा फलन्ति उप्पादो, फलुप्पत्तिया कारणभावो ।
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(१.१.२८-२८)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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सति च अविज्जाय सङ्घारा उप्पज्जन्ति, नासति । तस्मा अविज्जा सङ्घारानं उप्पादो हुत्वा पच्चयो होति, तथा पवत्तति धरति एतस्मिं फलन्ति पवत्तं। निमीयति फलमेतस्मिन्ति निमित्तं। (निददाति फलं अत्तनो पच्चयुप्पन्नं एतेनाति निदानं ।) (एत्थन्तरे अट्ठकथाय न समेति) आयूहति फलं अत्तनो पच्चयुप्पन्नुप्पत्तिया घटेति एतेनाति आयूहनं। संयुज्जति फलं अत्तनो पच्चयुप्पन्नेन एतस्मिन्ति संयोगो। यत्थ सयं उप्पज्जति, तं पलिबुद्धति फलमेतेनाति पलिबोधो। पच्चयन्तरसमवाये सति फलमुदयति एतेनाति समुदयो। हिनोति कारणभावं गच्छतीति हेतु। अविज्जाय हि सति सङ्घारा पवत्तन्ति, धरन्ति च, ते अविज्जाय सति अत्तनो फलं (निददन्ति) (पटि० म० १.४५; दी० नि० टी० १.२८ पस्सितब्ब) भवादीसु खिपन्ति, आयूहन्ति अत्तनो फलुप्पत्तिया घटेन्ति, अत्तनो फलेन संयुज्जन्ति, यस्मिं सन्ताने सयं उप्पन्ना तं पलिबुद्धन्ति, पच्चयन्तरसमवाये उदयन्ति उप्पज्जन्ति, हिनोति च सङ्खारानं कारणभावं गच्छति, तस्मा अविज्जा सङ्खारानं पवत्तं हुत्वा...पे०... पच्चयो हुत्वा पच्चयो होति । एवं अविज्जाय सङ्खारानं कारणभावूपगमनविसेसा उप्पादादयो वेदितब्बा । सङ्खारादीनं विज्ञाणादीसुपि एसेव नयो ।
तमत्थं पटिसम्भिदामग्गपाळिया साधेन्तेन "यथाहा'तिआदि वुत्तं। तत्थ तिट्ठति एतेनाति ठिति, पच्चयो, उप्पादो एव ठिति उप्पादट्ठिति। एवं सेसेसुपि । यस्मा पन “आसवसमुदया अविज्जासमुदयो”ति (म० नि० १.१०३) वुत्तत्ता आसवाव अविज्जाय पच्चयो, तस्मा वुत्तं "उभोपेते धम्मा “पच्चयसमुप्पन्ना"ति, अविज्जा च सङ्घारा च उभोपेते धम्मा पच्चयतो एव समुप्पन्ना, न विना पच्चयेनाति अत्थो। पच्चयपरिग्गहे पाति सङ्घारानं, अविज्जाय च उप्पादादिके पच्चयाकारे परिच्छिन्दित्वा गहणवसेन पवत्ता पञा। धम्मद्वितित्राणन्ति पच्चयुप्पन्नधम्मानं पच्चयभावतो धम्मट्ठितिसङ्खाते पटिच्चसमुप्पादे आणं । “द्वादस पटिच्चसमुप्पादा”ति वचनतो हि द्वादस पच्चया एव पटिच्चसमुप्पादो। अयञ्च नयो न पच्चुप्पन्ने एव, अथ खो अतीतानागतेसुपि, न च अविज्जाय एव सङ्खारेसु, अथ खो सङ्घारादीनं विज्ञाणादीसुपि लब्भतीति परिपुण्णं कत्वा पच्चयाकारस्स विभत्तभावं दस्सेतुं “अतीतम्पि अद्धान"न्तिआदि पाळिमाहरि। पट्टाने (पट्ठ० १.१) पन दस्सिता हेतादिपच्चयाएवेत्थ उप्पादादिपच्चयाकारेहि गहिताति तेपि यथासम्भवं नीहरित्वा योजेतब्बा। अतिवित्थारभयेन पन न योजयिम्ह, अत्थिकेहि च विसुद्धिमग्गादितो (विसुद्धि० २.५९४) गहेतब्बा ।
तस्स तस्स धम्मस्साति सङ्घारादिपच्चयुप्पन्नधम्मस्स । तथा तथा पच्चयभावेनाति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
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उप्पादादिहेतादिपच्चयसत्तिया । कम्मकिलेसविपाकवसेन तीणि वट्टानि यस्साति अतीतपच्चुप्पन्नानागतवसेन तयो अद्धा काला एतसात हेतुफलफलहेतुहेतुफलवसेन तयो सन्धयो एतस्साति तिसन्धि । सङ्क्षिप्पन्ति एत्थ अविज्जादयो, विञ्ञाणादयो चाति सङ्क्षेपा, हेतु, विपाको च । अथ वा हेतु विपाकोति सङ्क्षिप्पन्तीति सङ्क्षेपा । अविज्जादयो, विञ्ञाणादयो च कोट्ठासपरियायो वा सङ्क्षेपसद्दो । अतीतहेतुसङ्क्षेपादिवसेन चत्तारो सङ्क्षेपा यस्साति चतुसङ्क्षेपं । सरूपतो अवुत्तापि तस्मिं तस्मिं सङ्क्षेपे आकिरीयन्ति अविज्जासङ्कारादिग्गहणेहि पकासीयन्तीति आकारा, अतीतहेतुआदीनं पकारा । ते सङ्क्षेपे पञ्च पञ्च कत्वा वीसति आकारा एतस्साति वीसताकारं ।
खत्तियादिभेदेन अनेकभेदभिन्नापि सस्सतवादिनो जातिसतसहस्सानुस्सरणादिकस्स अभिनिवेसहेतुनो वसेन चत्तारोव होन्ति न ततो उद्धं, अधो वाति सस्सतवादीनं परिमाणपरिच्छेदस्स अनञविसयतं दस्सेतुं " चत्तारो जना” तिआदिमाह । एस नयो इतरेसुपि । तत्थ चत्तारो जनाति चत्तारो जनसमूहाति अत्थो गहेतब्बो तेसु एकेकस्सापि अनेकप्पभेदतो। तेति द्वासट्ठिदिट्ठिगतवादिनो । इदं निस्सायाति इदप्पच्चयताय सम्मा अग्गहणं । तत्थापि च हेतुफलभावेन सम्बन्धानं धम्मानं सन्ततिघनस्स अभेदितत्ता परमत्थतो विज्जमानम्पि भेदनिबन्धनं नानत्तनयं अनुपधारेत्वा गहितं एकत्तग्गहणं निस्साय । इदं गहन्तीति इदं सस्सतग्गहणं अभिनिविस्स वोहरन्ति, इमिना नयेन एकच्चसस्सतवादादयोपि यथासम्भवं योजेत्वा वत्तब्बा । भिन्दित्वाति 'आतप्पमन्वाया'तिआदिना विभजित्वा, “तयिदं भिक्खवे तथागतो पजानातीतिआदिना ( दी० नि० १.३६) वा विधमित्वा । निज्जयन्ति अनोनद्धं । निगुम्बन्ति अनावुटं । अपिच वेळुआदीनं हेडपरियसंसिब्बनट्टेन जटा । कुसादीनं ओवरणट्ठेन गुम्बो । तस्सदिसताय दिट्टिगतानं ब्याकुला पाकटता "जटा, गुम्बो "ति च वुच्चति, दिट्ठिजटाविजटनेन, दिगुम्बविवरणेन च निज्जटं निगुम्बं कत्वाति अत्थो ।
( १.१.२९-२९)
तिवट्टं । तियद्धं ।
" तस्मा "तिआदिना बुद्धगुणे आरम्भ देसनाय समुट्ठितत्ता सब्बञ्जतणं उद्दिसित्वा देसनाकुसलो भगवा समयन्तरं विग्गहणवसेन सब्बञ्जतञ्ञाणमेव विस्सज्जेतीति दस्सेति ।
२९. अत्थि परियायो सन्ति सद्दो, सो च संविज्जन्तिपरियायो, संविज्जमानता च आणेन उपलब्भमानताति आह "सन्ती " तिआदि । संविज्जमानपरिदीपनेन पन " सन्ती "ति इमिना पदेन तेस दिट्टिगतिकानं विज्जमानताय अविच्छिन्नतं ततो च नेसं मिच्छागाहतो
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(१.१.२९-२९)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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सिथिलकरणविवेचनेहि अत्तनो देसनाय किच्चकारितं, अवितथतञ्च दीपेति धम्मराजा । अत्थीति च सन्तिपदेन समानत्थो पुथुवचनविसयो एको निपातो “अस्थि इमस्मिं काये केसा'तिआदीसु (दी० नि० २.३७७; म० नि० १.११०; ३.१५४; सं० नि० २.४.१२७) विय। आलपनवचनन्ति बुद्धालपनवचनं। भगवायेव हि "भिक्खवे, भिक्खवो''ति च आलपति, न सावका। सावका पन “आवुसो, आयस्मा''तिआदिसम्बन्धनेनेव । “एके''ति वुत्ते एकच्चेति अत्थो एव सङ्ख्यावाचकस्स एकसद्दस्स नियतेकवचनत्ता, न समितबहितपापताय . समणब्राह्मणाति आह "पब्बज्जूपगतभावेना"तिआदि । तथा वा होन्तु, अञथा वा, सम्मुतिमत्तेनेव इधाधिप्पेताति दस्सेति "लोकेना"तिआदिना । सस्सतादिवसेन पुब्बन्तं कप्पेन्तीति पुबन्तकप्पिका। यस्मा पन तेसं पुब्बन्तं पुरिमसिद्धेहि तण्हादिट्ठिकप्पेहि कप्पेत्वा आसेवनबलवताय, विचित्रवुत्तिताय च विकप्पेत्वा अपरभागसिद्धेहि अभिनिवेसभूतेहि तण्हादिट्ठिगाहेहि गण्हन्ति अभिनिविसन्ति परामसन्ति, तस्मा वुत्तं "पुबन्तं कप्पेत्वा विकप्पेत्वा गण्हन्ती"ति । पुरिमभागपछिमभागसिद्धानं वा तण्हाउपादानानं वसेन यथाक्कम कप्पनगहणानि वेदितब्बानि । तण्हापच्चया हि उपादानं सम्भवति । पहुतपसंसानिन्दातिसयसंसग्गनिच्चयोगादिविसयेसु इध निच्चयोगवसेन विज्जमानत्थो सम्भवतीति वुत्तं "पुब्बन्त कप्पो वा"तिआदि वुत्तञ्च -
“पहुते च पसंसायं, निन्दायञ्चातिसयने । निच्चयोगे च संसग्गे, होन्तिमे मन्तुआदयो''ति ।।
कोट्ठासेसति एत्थ कोट्ठासादीसूति अत्थो वेदितब्बो आदि-सबलोपेन, निदस्सननयेन च वुत्तत्ता । पदपूरणसमीपउम्मग्गादीसुपि हि अन्त-सद्दो दिस्सति । तथा हि "इच ताव सुत्तन्ते वा गाथायो वा अभिधम्मं वा परियापुणस्सु, (पाचि० ४४२) सुत्तन्ते ओकासं कारापेत्वा''तिआदीसु (पाचि० १२२१) च पदपूरणे अन्त-सद्दो वत्तति, "गामन्तसेनासन'"न्तिआदीसु (विसुद्धि० १.३१) समीपे, “कामसुखल्लिकानुयोगो एको अन्तो, अत्थीति खो कच्चान अयमेको अन्तो"तिआदीसु (सं० नि० १.२५८; सं० नि० २.११०) च उम्मग्गेति।
अन्तपूरोति महाअन्तअन्तगुणेहि पूरो । “सा हरितन्तं वा पन्थन्तं वाति (म० नि० १.३०४) मज्झिमनिकाये महाहत्थिपदोपमसुत्तन्तपाळि। तत्थ साति तेजोधातु । हरितन्तन्ति
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.२९-२९)
हरिततिणरुक्खमरियादं । पन्थन्तन्ति मग्गमरियादं । आगम्म अनाहारा निब्बायतीति सेसो । “अन्तमिदं भिक्खवे, जीविकानं यदिदं पिण्डोल्य"न्ति (सं० नि० २.३.८०; इतिवु० ९१) पिण्डियालोपसुत्तन्तपाळि । तत्थ पिण्डं उलति गवसतीति पिण्डोलो, पिण्डाचारिको, तस्स भावो पिण्डोल्यं, पिण्डचरणेन जीविकताति अत्थो । एसेवाति सब्बपच्चयसङ्खयभूतो निब्बानधम्मो एव, तेनाह "सब्ब...पे०... वुच्चती"ति । एतेन सब्बपच्चयसङ्ख्यनतो असङ्खतं निब्बानं सङ्खतभूतस्स वट्टदुक्खस्स परभागं परियोसानभूतं, तस्मा एत्थ परभागोव अत्थो युत्तोति दस्सेति । सक्कायोति सक्कायगाहो ।
कप्पोति लेसो। कप्पकतेनाति तिण्णं दुब्बण्णकरणानं अञतरदुब्बण्णकतेन | आदिसद्देन चेत्थ कप्प-सद्दो महाकप्पसमन्तभावकिलेसकामवितक्ककालपञत्तिसदिसभावादीसुपि वत्ततीति दस्सेति । तथा हेस “चत्तारिमानि भिक्खवे, कप्पस्स असङ्ख्येय्यानी''तिआदीसु (अ० नि० १.४.१५६) महाकप्पे वत्तति, “केवलकप्पं वेळुवनं ओभासेत्वा''तिआदीसु (सं० नि० १.९४) समन्तभावे, “सङ्कप्पो कामो रागो कामो सङ्कप्परागो कामो''तिआदीसु (महानि० १; चूळनि० ८) किलेसकामे, “तक्को वितक्को सङ्कप्पो''तिआदीसु वितक्के, "येन सुदं निच्चकप्पं विहरामी''तिआदीसु (म० नि० १.३८७). काले, "इच्चायस्मा कप्पो"तिआदीसु (सु० नि० १०१८) पचत्तियं, “सत्थुकप्पेन वत किर भो सावकेन सद्धिं मन्तयमाना न जानिम्हा'तिआदीसु (म० नि० १.२६०) सदिसभावेति ।
तण्हादिट्ठीसु पवत्तिं महानिदेसपाळिया (महानि० २८) साधेन्तो "वुत्तम्पि चेत"न्तिआदिमाह । तत्थ उद्दानतोति सङ्खपतो। "तस्मा"तिआदि यथावुत्ताय अत्थवण्णनाय गुणवचनं । तण्हादिट्टिवसेनाति उपनिस्सयसहजातभूताय अभिनन्दनसङ्खाताय तण्हाय चेव सस्सतादिआकारेन अभिनिविसन्तस्स मिच्छागाहस्स च वसेन । पुब्बे निवुत्थधम्मविसयाय कप्पनाय इध अधिप्पेतत्ता अतीतकालवाचकोयेव पुब्ब-सद्दो, न पन “मनोपुब्बङ्गमा धम्मा'"तिआदीसु विय पधानादिवाचको, रूपादिखन्धविनिमुत्तस्स कप्पनवत्थुनो अभावा अन्तसद्दो च कोट्ठासवाचको, न पन अब्भन्तरादिवाचकोति दस्सेतुं “अतीतं खन्धकोद्वास"न्ति वुत्तं । कप्पेत्वाति च तस्मिं पुब्बन्ते तण्हायनाभिनिवेसनानं समत्थनं परिनिट्ठापनमाह । ठिताति तस्सा लद्धिया अविजहनं, पुब्बन्तमेव अनुगता दिट्टि तेसमत्थीति योजना । अत्थिता, अनुगतता च नाम पुनप्पुनं पवत्तियाति दस्सेति “पुनप्पुनं उप्पज्जनवसेना"ति इमिना । "ते एव''न्तिआदिना "पुब्बन्तं आरब्भा"तिआदिपाळिया अत्थं संवण्णेति । तत्थ आरम्भाति आलम्बित्वा । विसयो हि तस्सा दिट्ठिया पुब्बन्तो । विसयभावतो हेस तस्सा
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( १.१.३०-३०)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
आगमनट्ठानं, आरम्मणपच्चयो चाति वुत्तं " आगम्म पटिच्चा" ति । तदेतं असं पतिट्ठापनदस्सनन्ति आह " अञ्ञम्पि जनं दिट्टिगतितं करोन्ता " ति ।
अधिवचनपथानीति [अधिवचनपअदानि (अट्ठकथायं ) ] रुळ्हिमत्तेन पञ्ञत्तिपथानि । दासादीसु हि सिरिवड्डकादिसद्दा विय वचनमत्तमेव अधिकारं कत्वा पवत्तिया तथा पण्णत्तियेव अधिवचनं, सा च वोहारस्स पथोति । अथ वा अधि- सद्दो उपरिभागे, वुच्चतीति वचनं । अधि उपरिभागे वचनं अधिवचनं । उपादानियभूतानं रूपादीनं [उपादाभूतरूपादीनं (दी० नि० टी० १.२९)] उपरि पञ्ञपियमाना उपादापञ्ञत्ति, तस्मा पञ्ञत्तिदीपकपथानीति अत्थो दट्ठब्बो । पञ्ञत्तिमत्तहेतं वुच्चति, यदिदं " अत्ता, लोको 'ति च, न रूपवेदनादयो विय परमत्थोति । अधिमुत्ति- सद्दो चेत्थ अधिवचन - संद्देन समानत्थो ‘“निरुत्तिपथो 'तिआदीसु (ध० स० १०७ दुकमातिका) विय उत्तिसहस्स वचनपरियायत्ता । “भूतं अत्थ "न्तिआदिना पन भूतसभावतो अतिरेकं । तमतिधावित्वा वा मुच्चन्तीति अधिमुत्तियो, तासं पथानि तद्दीपकत्ताति अत्थं दस्सेति, अधिकं वा सस्सतादिकं मुच्चन्तीति अधिमुत्तियो । अधिकञ्हि सस्सतादि, पकतिआदि, दब्बादि, जीवादि, कायादिञ्च अभूतं अत्थं सभावधम्मेसु अज्झारोपेत्वा दिट्ठियो पवत्तन्ति ।
३०. अभिवदन्तीति “इदमेव सच्चं, मोघमञ्ञ"न्ति अभिनिविसित्वा वदन्ति । "अयमेव धम्मो, नायं धम्मो 'तिआदिना अभिभवित्वापि वदन्ति । अभिवदनकिरियाय अज्जापि अविच्छेदभावदस्सनत्थं वत्तमानवचनं कतन्ति अयमेत्थ पाळिवण्णना । कथेतुकम्यताय हेतुभूताय पुच्छित्वाति सम्बन्धो । मिच्छा पस्सतीति दिट्ठि, दिट्ठि एव दिट्ठगतं “मुत्तगतं, (अ० नि० ३.९.११) सङ्घारगत "न्तिआदीसु ( महानि० ४१) विय गत- सद्दस्स तब्भाववुत्तितो, गन्तब्बाभावतो वा दिट्ठिया गतमत्तन्ति दिट्ठिगतं । दिट्ठिया गहणमत्तमेव, नत्थञ्जं अवगन्तब्बन्ति अत्थो, दिट्ठिपकारो वा दिट्ठिगतं । लोकिया हि विधयुत्तगतपकारसद्दे समानत्थे इच्छन्ति | एकस्मिंयेव खन्धे “ अत्ता "ति च "लोको "ति च गहणविसेसं उपादाय पञ्ञापनं होतीति आह " रूपादीसु अञ्ञतरं अत्ताति च लोकोति च गहेत्वा "ति । अमरं निच्चं धुवन्ति सस्सतवेवचनानि, मरणाभावेन वा अमरं । उप्पादाभावेन सब्बदापि अत्थिताय निच्चं । थिरट्ठेन विकाराभावेन धुवं । “यथाहा " तिआदिना महानिद्देस पटिसम्भिदामग्गपाळीहि यथावुत्तमत्थं विभावेति । तत्थ “रूपं गत्वा "ति पाठसेसेन सम्बन्धो । अयं पनत्थो - "रूपं अत्ततो समनुपस्सति । वेदनं, सञ्ञ, सङ्घारे, विञ्ञाणं अत्ततो समनुपस्सती 'ति इमिस्सा पञ्चविधाय सक्कायदिट्ठिया वसेन वुत्तो, "रूपवन्तं अत्तान' न्तिआदिकाय पन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३१-३१)
पञ्चदसविधायपि तदवसेसाय सक्कायदिट्ठिया वसेन चत्तारो खन्धे “अत्ता"ति गहेत्वा तदञो “लोको'ति पञपेन्तीति अयम्पि अत्थो लब्भतेव । तथा एकं खन्धं “अत्ता'"ति गहेत्वा अझो अत्तनो उपभोगभूतो "लोको"ति च । ससन्ततिपतिते खन्धे “अत्ता"ति गहेत्वा तदो परसन्ततिपतितो “लोको''ति च पञपेतीति एवम्पेत्थ अत्थो दट्टब्बो । एत्थाह - “सस्सतो वादो एतेस''न्ति कस्मा हेट्ठा वुत्तं, ननु तेसं अत्ता च लोको च सस्सतोति अधिप्पेतो, न वादोति ? सच्चमेतं, सस्सतसहचरितताय पन वादोपि सस्सतोति वुत्तो यथा “कुन्ता पचरन्ती"ति, सस्सतो इति वादो एतेसन्ति वा तत्थ इति-सद्दलोपो दट्ठब्बो | सस्सतं वदन्ति “इदमेव सच्चं, मोघमञ्जन्ति अभिनिविस्स वोहरन्तीति सस्सतवादा तिपि युज्जति ।
३१. आतापनभावेनाति विबाधनस्स भावेन, विबाधनद्वेन वा । पहानञ्चेत्थ विबाधनं । पदहनवसेनाति समादहनवसेन । समादहनं पन कोसज्जपक्खे पतितुमदत्वा चित्तस्स उस्साहनं । यथा समाधि विसेसभागियतं पापुणाति, एवं वीरियस्स बहुलीकरणं अनुयोगो। इति पदत्तयेन वीरियमेव वुत्तन्ति आह "एवं तिप्पभेदं वीरिय"न्ति | यथाक्कमहिह तीहि पदेहि उपचारप्पनाचित्तपरिदमनवीरियानि दस्सेति । न पमज्जति एतेनाति अप्पमादो, सतिया अविप्पवासो । सो पन सतिपट्ठाना चत्तारो खन्धा एव । सम्मा उपायेन मनसि करोति कम्मट्ठानमेतेनाति सम्मामनसिकारो, सो पन जाणमेव, न आरम्मणवीथिजवनपटिपादका, तेनाह "अस्थतो जाण"न्ति। पथमनसिकारोति कारणमनसिकारो। तदेवत्थं समत्थेति “यस्मिही"तिआदिना। तत्थ यस्मिं मनसिकारेति कम्मट्ठानमनसिकरणूपायभूते जाणसङ्खाते मनसिकारे। "इमस्मिं ठाने"ति इमिना सद्दन्तरसम्पयोगादिना विय पकरणवसेनापि सद्दो विसेसविसयोति दीपेति । वीरियञ्चाति यथावुत्तेहि तीहि पदेहि वुत्तं तिप्पभेदं वीरियञ्च । एत्थाति “आतप्प...पे०... मनसिकारमन्वाया''ति इमस्मिं पाठे, सीलविसुद्धिया सद्धिं चतुन्नं रूपावचरज्झानानं अधिगमनपटिपदा इध वत्तब्बा, सा पन विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.४०१) वित्थारतो वुत्ताति आह "सोपत्थो"ति। तथाजातिकन्ति तथासभावं, एतेन चुद्दसविधेहि चित्तपरिदमनेहि रूपावचरचतुत्थज्झानस्स पगुणतापादनेन दमिततं दस्सेति । चेतसो समाधि चेतोसमाधि, सो पन अट्ठङ्गसमन्नागतरूपावचरचतुत्थज्झानस्सेव समाधि | यथा-सद्दो "येना"ति अत्थे निपातोति आह "येन समाधिना"ति ।
विजम्भनभूतेहि लोकियाभिञासङ्खातेहि झानानुभावेहि सम्पन्नोति झानानुभावसम्पन्नो।
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(१.१.३१-३१)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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सो दिद्विगतिको एवं वदतीति वत्तमानवचनं, तथावदनस्स अविच्छेदभावेन सब्बकालिकतादस्सनत्थन्ति वेदितब्बं । अनियमिते हि कालविसेसे विप्पकतकालवचनन्ति । वनति याचति पुत्तन्ति वझा झ-पच्चयं, न-कारस्स च निग्गहितं कत्वा, वधति पुत्तं, फलं वा हनतीतिपि वझा सपच्चयघ्य-कारस्स झ-कारं, निग्गहितागमञ्च कत्वा । सा विय कस्सचि फलस्स अजनेनाति वझो, तेनाह "वझपसू"तिआदि । एवं पदत्थवता इमिना कीदिसं सामत्थियत्थं दस्सेतीति अन्तोलीनचोदनं परिहरितुं "एतेना"तिआदिमाह | झानलाभिस्स विसेसेन झानधम्मा आपाथमागच्छन्ति, तम्मुखेन पन सेसधम्मापीति इममत्थं सन्धाय "झानादीन"न्ति वुत्तं । रूपादिजनकभावन्ति रूपादीनं जनकसामत्थियं । पटिक्खिपतीति "नयिमे किञ्चि जनेन्ती"ति पटिक्खिपति | कस्माति चे? सति हि जनकभावे रूपादिधम्मानं विय, सुखादिधम्मानं विय च पच्चयायत्तवृत्तिताय उप्पादवन्तता विज्ञायति, उप्पादे च सति अवस्संभावी निरोधोति अनवकासाव निच्चता सिया, तस्मा तं पटिक्खिपतीति ।
ठितोति निच्चलं पतिहितो, कूटट्ठ-सदोयेव वा लोके अच्चन्तं निच्चे निरूळ्हो दट्ठब्बो | तिकृतीति ठायी, एसिका च सा ठायी चाति एसिकट्ठायी, विसेसनपरनिपातो चेस, तस्मा गम्भीरनेमो निच्चलट्ठितिको इन्दखीलो वियाति अत्थो, तेनाह "यथा"तिआदि । "कूटट्ठो"ति इमिना चेत्थ अनिच्चताभावमाह । “एसिकट्ठायी ठितो''ति इमिना पन यथा एसिका वातप्पहारादीहि न चलति, एवं न केनचि विकारमापज्जतीति विकाराभावं, विकारोपि अत्थतो विनासोयेवाति वुत्तं "उभयेनापि लोकस्स विनासाभावं दस्सेती"ति |
एवमट्ठकथावादं दस्सेत्वा इदानि केचिवादं दस्सेतुं “केचि पना"तिआदि वुत्तं । मुजतोति [मुजे (अट्ठकथाय)] मुञ्जतिणतो । ईसिकाति कळीरो | यदिदं अत्तसङ्खातं धम्मजातं जायतीति वुच्चति, तं सत्तिरूपवसेन पुब्बे विज्जमानमेव ब्यत्तिरूपवसेन निक्खमति, अभिब्यत्तिं गच्छतीति अत्थो। “विज्जमानमेवा'"ति हि एतेन कारणे फलस्स अस्थिभावदस्सनेन ब्यत्तिरूपवसेन अभिब्यत्तिवादं दस्सेति | सालिगब्भे संविज्जमानं सालिसीसं विय हि सत्तिरूपं, तदभिनिक्खन्तं विय ब्यत्तिरूपन्ति । कथं पन सत्तिरूपवसेन विज्जमानोयेव पुब्बे अनभिब्यत्तो ब्यत्तिरूपवसेन अभिब्यत्तिं गच्छतीति ? यथा अन्धकारेन पटिच्छन्नो घटो आलोकेन अभिब्यत्तिं गच्छति, एवमयम्पीति ।
इदमेत्थ विचारेतब्बं - किं करोन्तो आलोको घटं पकासेतीति वुच्चति, यदि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३१-३१)
घटविसयं बुद्धिं करोन्तो पकासेति, अनुप्पन्नाय एव बुद्धिया उप्पत्तिदीपनतो अभिब्यत्तिवादो हायति । अथ घटविसयाय बुद्धिया आवरणभूतं अन्धकारं विधमन्तो पकासेति, एवम्पि अभिब्यत्तिवादो हायतेव । सति हि घटविसयाय बुद्धिया कथं अन्धकारो तस्सा आवरणं होतीति । यथा च घटस्स अभिब्यत्ति न युज्जति, एवं दिविगतिकपरिकप्पितस्स अत्तनोपि अभिब्यत्ति न युज्जतियेव । तत्थापि हि यदि इन्द्रियविसयादिसन्निपातेन अनुप्पन्ना एव बुद्धि उप्पन्ना, उप्पत्तिवचनेनेव अभिब्यत्तिवादो हायति अभिब्यत्तिमत्तमतिक्कम्म अनुप्पन्नाय एव बुद्धिया उप्पत्तिदीपनतो। तथा सस्सतवादोपि तेनेव कारणेन । अथ बुद्धिप्पवत्तिया आवरणभूतस्स अन्धकारट्ठानियस्स मोहस्स विधमनेन बुद्धि उप्पन्ना । एवम्पि सति अत्थविसयाय बुद्धिया कथं मोहो तस्सा आवरणं होतीति, हायतेव अभिब्यत्तिवादो, किञ्च भिय्यो- भेदसब्भावतोपि अभिब्यत्तिवादो हायति । न हि अभिब्यञ्जनकानं चन्दिमसूरियमणिपदीपादीनं भेदेन अभिब्यजितब्बानं घटादीनं भेदो होति, होति च विसयभेदेन बुद्धिभेदो यथाविसयं बुद्धिया सम्भवतीति भिय्योपि अभिब्यत्ति न युज्जतियेव, न चेत्थ विज्जमानताभिब्यत्तिवसेन वुत्तिकप्पना युत्ता विज्जमानताभिब्यत्तिकिरियासङ्घाताय वुत्तिया वुत्तिमतो च अनञथानुजाननतो। अनायेव हि तथा वुत्तिसङ्खाता किरिया तब्बन्तवत्थुतो, यथा फस्सादीहि फुसनादिभावो, तस्मा वुत्तिमतो अनचाय एव विज्जमानताभिब्यत्तिसङ्घाताय वुत्तिया परिकप्पितो केसञ्चि अभिब्यत्तिवादो न युत्तो एवाति । ये पन “ईसिकट्ठायी ठितो"ति पठित्वा यथावुत्तमत्थमिच्छन्ति, ते तदिदं कारणभावेन गहेत्वा "ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्तीति पदेहि अत्थसम्बन्धम्पि करोन्ति, न अट्ठकथायमिव असम्बन्धन्ति दस्सेन्तो “यस्मा चा"तिआदिमाह । ते च सत्ता सन्धावन्तीति एत्थ ये इध मनुस्सभावेन अवट्ठिता, तेयेव देवभावादिउपगमनेन इतो अञत्थ गच्छन्तीति अत्थो । अञथा कतस्स कम्मस्स विनासो, अकतस्स च अब्भागमो आपज्जेय्याति अधिप्पायो ।
अपरापरन्ति अपरस्मा भवा अपरं भवं, अपरमपरं वा, पुनप्पुनन्ति अत्थो । "चवन्ती"ति पदमुल्लिङ्गेत्वा "एवं सङ्ख्यं गच्छन्ती"ति अत्थं विवरति, अत्तनो तथागहितस्स निच्चसभावत्ता न चुतूपपत्तियो । सब्बब्यापिताय नापि सन्धावनसंसरणानि, धम्मानंयेव पन पवत्तिविसेसेन एवं सङ्ख्यं गच्छन्ति एवं वोहरीयन्तीति अधिप्पायो। एतेन “अवट्टितसभावस्स अत्तनो, धम्मिनो च धम्ममत्तं उप्पज्जति चेव विनस्सति चा"ति इमं विपरिणामवादं दस्सेति । यं पनेत्थ वत्तब्बं, तं इमिस्सं सस्सतवादविचारणायमेव
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(१.१.३१-३१)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवपणना
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"एवंगतिका'"ति पदत्थविभावने वक्खाम । इदानि अट्ठकथायं वुत्तं असम्बन्धमत्तं दस्सेतुं "अट्ठकथायं पना"तिआदि वुत्तं । सन्धावन्तीतिआदिना वचनेन अत्तनो वादं भिन्दति विनासेति सन्धावनादिवचनसिद्धाय अनिच्चताय पुब्बे अत्तना पटिञातस्स सस्सतवादस्स विरुद्धभावतोति अत्थो । “दिद्विगतिकस्सा"तिआदि तदत्थसमत्थनं । न निबद्धन्ति न थिरं । “सन्धावन्ती"तिआदिवचनं, सस्सतवादञ्च सन्धाय "सुन्दरम्प असुन्दरम्प होतियेवा"ति वुत्तं । सब्बदा सरन्ति पवत्तन्तीति सस्सतियो र-कारस्स स-कारं, द्विभावञ्च कत्वा, पथवीसिनेरुचन्दिमसूरिया, सस्सतीहि समं सदिसं तथा, भावनपुंसकवचनञ्चेतं । “अत्ता च लोको चाति हि कत्तुअधिकारो। सस्सतिसमन्ति वा लिङ्गब्यत्तयेन कत्तुनिद्देसो । सस्सतिसमो अत्ता च लोको च अस्थि एवाति अत्थो, इति-सद्दो चेत्थ पदपूरणमत्तं । एव-सद्दस्स हि ए-कारे परे इति-सद्दे इ-कारस्स व-कारमिच्छन्ति सद्दविदू । सस्सतिसमन्ति सस्सतं थावरं निच्चकालन्तिपि अत्थो, सस्सतिसम-सद्दस्स सस्सतपदेन समानत्थतं सन्धाय टीकायं (दी० नि० टी० १.३१) वुत्तो ।
__ हेतुं दस्सेन्तोति येसं “सस्सतो"ति अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेति, तेसं हेतुं दस्सेन्तो अयं दिट्ठिगतिको आहाति सम्बन्धो । न हि अत्तनो दिट्ठिया पच्चक्खकतमत्थं अत्तनोयेव साधेति, अत्तनो पन पच्चक्खकतेन अत्थेन अत्तनो अप्पच्चक्खभूतम्पि अत्थं साधेति, अत्तना च यथानिच्छितं अत्थं परेपि विज्ञापेति, न अनिच्छितं, इदं पन हेतुदस्सनं एतेसु अनेकेसु जातिसतसहस्सेसु एकोवायं मे अत्ता च लोको च अनुस्सरणसम्भवतो । यो हि यमत्थं अनुभवति, सो एव तं अनुस्सरति, न अञो। न हि अञ्जन अनुभूतमत्थं अञ्जो अनुस्सरितुं सक्कोति यथा तं बुद्धरक्खितेन अनुभूतं धम्मरक्खितो । यथा चेतासु, एवं इतो पुरिमतरासुपि जातीसु, तस्मा “सस्सतो मे अत्ता च लोको च, यथा च मे, एवं अञसम्पि सत्तानं सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति सस्सतवसेन दिविगहणं पक्खन्दन्तो दिविगतिको परेपि तत्थ पतिठ्ठपेति । पाळियं पन "अनेकविहितानि अधिमुत्तिपथानि अभिवदन्ति, सो एवमाहा"ति वचनतो परानुगाहापनवसेन इध हेतुदस्सनं अधिप्पेतन्ति विज्ञायति । एतन्ति अत्तनो च लोकस्स च सस्सतभावं । “न केवल"न्तिआदि अत्थतो आपन्नदस्सनं । ठान-सद्दो कारणे, तञ्च खो इध पुब्बेनिवासानुस्सतियेवाति आह "इद"न्तिआदि । कारणञ्च नामेतं तिविधं सम्पापकं निब्बत्तकं आपकन्ति । तत्थ अरियमग्गो निब्बानस्स सम्पापककारणं, बीजं अङ्कुरस्स निब्बत्तककारणं, पच्चयुप्पन्नतादयो अनिच्चतादीनं आपककारणं, इधापि आपककारणमेव अधिप्पेतं । जापको हि अत्थो जापेतब्बत्थविसयस्स जाणस्स हेतुभावतो कारणं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३२-३३-३४)
तदायत्तवृत्तिताय तं आणं तिट्ठति एत्थाति ठानं, वसति तं आणमेत्थ तिद्वतीति "वत्थू"ति च वुच्चति । तथा हि भगवता वत्थु-सद्देन उद्दिसित्वापि ठान-सद्देन निद्दिठ्ठन्ति ।
३२-३३. दुतियततियवारानं पठमवारतो विसेसो नत्थि ठपेत्वा कालभेदन्ति आह "उपरि वारद्वयेपि एसेव नयो"ति । तदेतं कालभेदं यथापाळिं दस्सेतुं “केवलही"तिआदि वुत्तं । इतरेन दुतियततियवारा याव दससंवट्टविवट्टकप्पा, याव चत्तालीससंवट्टविवट्टकप्पा च अनुस्सरणवसेन वुत्ताति अधिप्पायो । यदेवं कस्मा सस्सतवादो चतुधा विभत्तो, ननु तिधा कालभेदमकत्वा अधिच्चसमुप्पत्तिकवादो विय दुविधेनेव विभजितब्बो सियाति चोदनं सोधेतुं “मन्दषज्ञो ही"तिआदिमाह । मन्दपञादीनं तिण्णं पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणलाभीनं वसेन तिधा कालभेदं कत्वा तक्कनेन सह चतुधा विभत्तोति अधिप्पायो। ननु च अनुस्सवादिवसेन तक्किकानं विय मन्दप आदीनम्पि विसेसलाभीनं हीनादिवसेन अनेकभेदसम्भवतो बहुधा भेदो सिया, अथ कस्मा सब्बेपि विसेसलाभिनो तयो एव रासी कत्वा वुत्ताति ? उक्कठ्ठपरिच्छेदेन दस्सेतुकामत्ता। तीसु हि रासीसु ये हीनमज्झिमपञ्जा, ते वुत्तपरिच्छेदतो ऊनकमेव अनुस्सरन्ति । ये पन उक्कट्ठपञ्जा, ते वुत्तपरिच्छेदं अतिक्कमित्वा नानुस्सरन्तीति तत्थ तत्थ उक्कट्ठपरिच्छेदेन दस्सेतुकामतो अनेकजातिसतसहस्सदसचत्तारीससंवट्टविवट्टानुस्सरणवसेन तयो एव रासी कत्वा वुत्ताति । न ततो उद्धन्ति यथावुत्तकालत्तयतो, चत्तारीससंवट्टविवट्टकप्पतो वा उद्धं नानुस्सरति, कस्मा ? दुब्बलपञत्ता। तेसहि नामरूपपरिच्छेदविरहतो दुब्बला पञ्जा होतीति अट्ठकथासु वुत्तं ।
३४. तप्पकतियत्तोपि कत्तुत्थोयेवाति आह "तक्कयती"ति । तप्पकतियत्तत्ता एव हि दुतियनयोपि उपपन्नो होति । तत्थ तक्कयतीति ऊहयति, सस्सतादिआकारेन तस्मिं तस्मिं आरम्मणे चित्तं अभिनिरोपयतीति अत्थो । तक्कोति आकोटनलक्खणो, विनिच्छयलक्खणो वा दिट्टिट्ठानभूतो वितक्को। तेन तेन परियायेन तक्कनं सन्धाय "तक्केत्वा वितक्केवा"ति वुत्तं वीमंसाय समन्नागतोति अत्थवचनमत्तं । निब्बचनं पन तक्किपदे विय द्विधा वत्तब्बं । वीमंसा नाम विचारणा, सा च दुविधा पञ्जा चेव पञ्जापतिरूपिका च । इध पन पञआपतिरूपिकाव, सा चत्थतो लोभसहगतचित्तुप्पादो, मिच्छाभिनिवेससङ्घातो वा अयोनिसोमनसिकारो । पुब्बभागे वा मिच्छादस्सनभूतं दिट्ठिविप्फन्दितं, तदेतमत्थत्तयं दस्सेतुं "तुलना रुचना खमना"ति वुत्तं । "तुलयित्वा''तिआदीसुपि यथाक्कम "लोभसहगतचित्तुप्पादेना''तिआदिना योजेतब्बं | समन्ततो, पुनप्पुनं वा आहननं परियाहतं,
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(१.१.३४-३४)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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तं पन वितक्कस्स आरम्मणं ऊहनमेव, भावनपुंसकञ्चेतं पदन्ति दस्सेति "तेन तेन परियायेन तक्केत्वा"ति इमिना। परियायेनाति च कारणेनाति अत्थो । वुत्तप्पकारायाति तिधा वुत्तप्पभेदाय । अनुविचरितन्ति अनुपवत्तितं, वीमंसानुगतेन वा विचारेन अनुमज्जितं । तदनुगतधम्मकिच्चम्पि हि पधानधम्मे आरोपेत्वा तथा वुच्चति । पटिभाति दिस्सतीति पटिभानं, यथासमाहिताकारविसेसविभावको दिट्ठिगतसम्पयुत्तचित्तुप्पादो, ततो जातन्ति पटिभानं, तथा पञ्जायनं, सयं अत्तनो पटिभानं सयंपटिभानं, तेनेवाह “अत्तनो पटिभानमत्तसञ्जात"न्ति । मत्त सद्देन चेत्थ विसेसाधिगमादयो निवत्तेति । अनामढकालवचने वत्तमानवसेनेव अत्थनिद्देसो उपपन्नोति आह "एवं वदती"ति ।
पाळियं "तक्की होति वीमंसी"ति सामचनिइसेन, एकसेसेन वा वुत्तं तक्कीभेदं विभजन्तो "तत्थ चतुब्बिधो"तिआदिमाह। परेहि पुन सवनं अनुस्सुति, सा यस्सायं अनुस्सुतिको। पुरिमं अनुभूतपुब्बं जातिं सरतीति जातिस्सरो। लब्भतेति लाभो, यं किञ्चि अत्तना पटिलद्धं रूपादि, सुखादि च, न पन झानादिविसेसो, तेनेवाह पाळियं “सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुविचरितं सयंपटिभानं एवमाहा''ति । अट्ठकथायम्पि वुत्तं “अत्तनो पटिभानमत्तसञ्जात"न्ति । आचरियधम्मपालत्थेरोपि वदति “मत्त-सद्देन विसेसाधिगमादयो निवत्तेती''ति (दी० नि० टी० १.३४) सो एतस्साति लाभी। सुद्धेन पुरिमेहि असम्मिस्सेन, सुद्धं वा तक्कनं सुद्धतक्को, सो यस्सायं सुद्धतक्किको। तेन हीति उय्योजनत्थे निपातो, तेन तथा वेस्सन्तररोव भगवति समानेति दिविग्गाहं उय्योजेति । लाभितायाति रूपादिसुखादिलाभीभावतो। “अनागतेपि एवं भविस्सती"ति इदं लाभीतक्किनो एवम्पि सम्भवतीति सम्भवदस्सनवसेन इधाधिप्पेतं तक्कनं सन्धाय वुत्तं । अनागतंसतक्कनेनेव हि सस्सतग्गाही भवति । “अतीतेपि एवं अहोसी"ति इदं पन अनागतंसतक्कनस्स उपनिस्सयनिदस्सनमत्तं । सो हि “यथा मे इदानि अत्ता सुखी होति, एवं अतीतेपीति पठमं अतीतंसानुतक्कनं उपनिस्साय अनागतेपि एवं भविस्सती"ति तक्कयन्तो दिद्धिं गण्हाति । "एवं सति इदं होती"ति इमिना अनिच्चेसु भावेसु अओ करोति, अञ्जो पटिसंवेदेतीति दोसो आपज्जति, तथा च सति कतस्स विनासो अकतस्स च अज्झागमो सिया। निच्चेस पन भावेस अओ करोति. अओ पटिसंवेदेतीति दोसो नापज्जति । एवञ्च सति कतस्स अविनासो, अकतस्स च अनज्झागमो सियाति तक्किकस्स युत्तिगवेसनाकारं दस्सेति ।
तक्कमत्तेनेवाति सुद्धतक्कनेनेव। मत्त सद्देन हि आगमादीनं, अनुस्सवादीनञ्च
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अभावं दस्सेति । “ननु च विसेसलाभिनोपि सस्सतवादिनो विसेसाधिगमहेतु अनेकेसु जातिसतसहस्सेसु, दससु संवट्टविवट्टेसु, चत्तालीसाय च संवट्टविवट्टेसु यथानुभूतं अत्तनो सन्तानं, तप्पटिबद्धञ्च धम्मजातं " अत्ता, लोको "ति च अनुस्सरित्वा ततो पुरिमतरासुपि जातीसु तथाभूतस्स अत्थितानुवितक्कनमुखेन अनागतेपि एवं भविस्सतीति अत्तो भविस्समानानुतक्कनं, सब्बेसम्पि सत्तानं तथाभावानुतक्कनञ्च कत्वा सस्सताभिनिवेसिनो जाता, एवञ्च सति सब्बोपि सस्सतवादी अनुस्सुतिकजातिस्सरलाभीतक्किका विय अत्तनो उपलद्धवत्थुनिमित्तेन तक्कनेन पवत्तवादत्ता तक्कीपक्खेयेव तिट्ठेय्य, तथा च सति विसेसभेदरहितत्ता एकोवायं सस्सतवादो ववत्थितो भवेय्य, अवस्सञ्च वृत्तप्पकारं तक्कनमिच्छ्रितब्बं, अञ्ञथा विसेसलाभी सस्सतवादी एकच्चसस्सतिकपक्खं, अधिच्चसमुप्पन्निकपक्खं वा भजेय्याति ? न खो पनेतं एवं दट्ठब्बं । विसेसलाभीनञ्हि खन्धसन्तानस्स दीघदीघतरं दीघतमकालानुस्सरणं सस्सतग्गाहस्स असाधारणकारणं । तथा हि “अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि । इमिनामहं एतं जानामीति अनुस्सरणमेव पधानकारणभावेन दस्सितं । यं पन तस्स "इमिनामहं एतं जानामीति पवत्तं तक्कनं, न तं इध पधानं अनुस्सरणं पटिच्च तस्स अपधानभावतो, पधानकारणेन च असाधारणेन निद्देसो सासने, लोकेपि च निरुळ्हो यथा “ चक्खुविञ्ञाणं यवङ्कुरो "तिआदि ।
एवं पनायं देसना पधानकारणविभाविनी, तस्मा सतिपि अनुस्सवादिवसेन, तक्किकानं हीनादिवसेन च मन्दपञादीनं विसेसलाभीनं बहुधा भेदे अञ्ञतरभेदसङ्ग्रहवसेन भगवता चत्तारिट्ठानानि विभजित्वा ववत्थिता सस्सतवादानं चतुब्बिधता । न हि इध सावसेसं धम्मं देसेति धम्मराजाति । यदेवं अनुस्सुतिकादीसुपि अनुस्सवादीनं पधानभावो आपज्जतीति ? न तेसं अञ्ञाय सच्छिकिरियाय अभावेन तक्कपधानत्ता, “पधानकारणेन च असाधारणेन निद्देसो सासने, लोकेपि च निरुळ्हो "ति वृत्तोवायमत्थोति । अथवा विसेसाधिगमनिमित्तरहितस्स तक्कनस्स सस्सतग्गाहे विसुं कारणभावदस्सनत्थं विसेसाधिगमो विसुं सस्सतग्गाहकारणभावेन वत्तब्बो, सो च मन्दमज्झिमतिक्खपञ्ञवसेन तिविधोति तिधा विभजित्वा सब्बतक्किनो च तक्कीभावसामञ्ञतो एकज्झं गहेत्वा चतुधा एव ववत्थापितो सस्सतवादो भगवताति ।
( १.१.३५-३५)
३५. “अञ्ञतरेना”ति एतस्स अत्थं दस्सेतुं “एकेना "ति वृत्तं । अट्ठानपयुत्तस्स पन वा-सद्दस्स अनियमत्थतं सन्धायाह " द्वीहि वा तीहि वा "ति, तेन चतूसु वत्थूसु यथारहमेकच्चं एकच्चस्स पञ्ञपने सहकारीकारणन्ति दस्सेति ।
"हिद्धा
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(१.१.३५-३५)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
३५३
बाह्यत्थवाचको कत्तुनिद्दिट्ठो निपातोति दस्सेतुं “बही"तिआदि वुत्तं । एत्थाह - किं पनेतानि वत्थूनि अत्तनो अभिनिवेसस्स हेतु, उदाहु परेसं पतिठ्ठापनस्साति । किञ्चेत्थ, यदि ताव अत्तनो अभिनिवेसस्स हेतु, अथ कस्मा अनुस्सरणतक्कनानियेव गहितानि, न सञ्जाविपल्लासादयो। तथा हि विपरीतसञ्जाअयोनिसोमनसिकारअसप्पुरिसूपनिस्सयअसद्धम्मस्सवनादीनिपि दिट्ठिया पवत्तनढेन दिट्ठिट्ठानानि । अथ पन परेसं पतिठ्ठापनस्स हेतु, अनुस्सरणहेतुभूतो अधिगमो विय, तक्कनपरियेट्ठिभूता युत्ति विय च आगमोपि वत्थुभावेन वत्तब्बो, उभयथापि च यथावुत्तस्स अवसेसकारणस्स सम्भवतो “नत्थि इतो बहिद्धा''ति वचनं न युज्जतेवाति ? नो न युज्जति, कस्मा ? अभिनिवेसपक्खे ताव अयं दिद्विगतिको असप्पुरिसूपनिस्सयअसद्धम्मस्सवनेहि अयोनिसो उम्मुज्जित्वा विपल्लाससञो रूपादिधम्मानं खणे खणे भिज्जनसभावस्स अनवबोधतो धम्मयुत्तिं अतिधावन्तो एकत्तनयं मिच्छा गहेत्वा यथावुत्तानुस्सरणतक्कनेहि खन्धेसु “सस्सतो अत्ता च लोको चा''ति (दी० नि० ३१) अभिनिवेसं उपनेसि, इति आसन्नकारणत्ता, पधानकारणत्ता च तग्गहणेनेव च इतरेसम्पि गहितत्ता अनुस्सरणतक्कनानियेव इध गहितानि । पतिट्ठापनपक्खे पन आगमोपि युत्तियमेव ठितो विसेसेन निरागमानं बाहिरकानं तक्कग्गाहिभावतो, तस्मा अनुस्सरणतक्कनानियेव सस्सतग्गाहस्स वत्थुभावेन गहितानि ।
किञ्च भिय्यो - दुविधं परमत्थधम्मानं लक्खणं सभावलक्खणं, सामञ्जलक्खणञ्च । तत्थ सभावलक्खणावबोधो पच्चक्खजाणं, सामञ्जलक्खणावबोधो अनुमानजाणं । आगमो च सुतमयाय पचाय साधनतो अनुमानजाणमेव आवहति, सुतानं पन धम्मानं आकारपरिवितक्कनेन निज्झानक्खन्तियं ठितो चिन्तामयपजे निब्बत्तेत्वा अनुक्कमेन भावनाय पच्चक्खाणं अधिगच्छतीति एवं आगमोपि तक्कनविसयं नातिक्कमति, तस्मा चेस तक्कग्गहणेन गहितोवाति वेदितब्बो। सो अट्ठकथायं अनुस्सुतितक्कग्गहणेन विभावितो, एवं अनुस्सरणतक्कनेहि असङ्गहितस्स अवसिट्ठस्स कारणस्स असम्भवतो युत्तमेविदं “नत्थि इतो बहिद्धा''ति वचनन्ति वेदितब्बं । “अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ती"ति, (दी० नि० १.२९) "सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्तीति (दी० नि० १.३०) च वचनतो पन पतिठ्ठापनवत्थूनियेव इध देसितानि तंदेसनाय एव अभिनिवेसस्सापि सिज्झनतो । अनेकभेदेसु हि देसितेसु यस्मिं देसिते तद पि देसिता सिद्धा होन्ति, तमेव देसेतीति दट्ठबं । अभिनिवेसपतिट्ठापनेसु च अभिनिवेसे देसितेपि पतिट्ठापनं न सिज्झति अभिनिवेसस्स पतिट्ठापने अनियमतो । अभिनिवेसिनोपि हि केचि
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३५४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३६-३६)
पतिवापेन्ति, केचि न पतिवापेन्ति । पतिट्ठापने पन देसिते अभिनिवेसोपि सिज्झति पतिट्ठापनस्स अभिनिवेसे नियमतो। यो हि यत्थ परे पतिट्ठापेति, सोपि तमभिनिविसतीति ।
३६. तयिदन्ति एत्थ त सद्देन “सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ती''ति एतस्स परामसनन्ति आह "तं इदं चतुब्बिधम्पि दिट्ठिगत"न्ति । ततोति तस्मा पकारतो जाननत्ता । परमवज्जताय अनेकविहितानं अनत्थानं कारणभावतो दिट्ठियो एव ठाना दिद्विद्वाना। यथाह "मिच्छादिविपरमाहं भिक्खवे, वज्जं वदामी''ति तदेवत्थं सन्धाय “दिट्ठियोव दिद्विद्वाना"ति वुत्तं । दिट्ठीनं कारणम्पि दिद्विद्वानमेव दिट्टीनं उप्पादाय समुट्ठानद्वैन । “यथाहा"तिआदि पटिसम्भिदापाळिया (पटि० म० १.१२४) साधनं । तत्थ खन्धापि दिद्विद्वानं आरम्मणद्वैन । वुत्तहि “रूपं अत्ततो समनुपस्सती''तिआदि, (सं० नि० २.३.८१) अविज्जापि उपनिस्सयादिभावेन । यथाह "अस्सुतवा भिक्खवे, पुथुज्जनो अरियानं अदस्सावी अरियधम्मस्स अकोविदो''तिआदि (म० नि० १.२; पटि० म० १.१३१) फस्सोपि फुसित्वा गहणूपायढेन । तथा हि वुत्तं “तदपि फस्सपच्चया (दी० नि० १.११८) फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्ती''ति (दी० नि० १.१४४) सज्ञापि आकारमत्तग्गहणद्वैन । वुत्तव्हेतं "सानिदाना हि पपञ्चसङ्खा''ति (सु० नि० ८८०; महा० नि० १०९) पथविं पथवितो सञ्जत्वा''ति (म० नि० १.२) च आदि । वितक्कोपि आकारपरिवितक्कनटेन । तेन वुत्तं “तक्कञ्च दिट्ठीसु पकप्पयित्वा, सच्चं मुसाति द्वयधम्ममाहू'ति, (सु० नि० ८९२; महानि० १२१) "तक्की होति वीमंसी''ति (दी० नि० १.३४) च आदि । अयोनिसो मनसिकारोपि अकुसलानं साधारणकारणटेन । तेनाह "तस्स एवं अयोनिसो मनसि करोतो छन्नं दिट्ठीनं अञ्जतरा दिट्ठि उप्पज्जति । अस्थि मे अत्ता'ति वा अस्स सच्चतो थेततो दिट्ठिउप्पज्जती''तिआदि (म० नि० १.१९) पापमित्तोपि दिट्ठानुगति आपज्जनद्वैन । वुत्तम्पि च “बाहिरं भिक्खवे, अङ्गन्ति करित्वा नाञ्चं एकङ्गम्पि समनुपस्स्सामि, यं एवं महतो अनत्थाय संवत्तति, यथयिदं भिक्खवे, पापमित्तता''तिआदि (अ० नि० १.१.११०) परतोघोसोपि दुरक्खातधम्मस्सवनढेन । तथा चेव वुत्तं “द्वेमे भिक्खवे, पच्चया मिच्छादिट्ठिया उप्पादाय । कतमे द्वे ? परतो च घोसो, अयोनिसो च मनसिकारो''तिआदि (अ० नि० २.१२६) परेहि सुता, देसिता वा देसना परतोघोसो।
"खन्धा हेतू"तिआदिपाळि तदत्थविभाविनी | तत्थ जनकटेन हेतु, उपत्थम्भकटेन पच्चयो। उपादायाति उपादियित्वा, पटिच्चाति अत्थो । “उप्पादाया"तिपि पाठो,
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(१.१.३६-३६)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
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उप्पज्जनायाति अत्थो। समुट्ठाति एतेनाति समुट्ठानं, खन्धादयो एव । इध पन समुट्ठानभावोयेव समुट्ठान-सद्देन वुत्तो भावलोपत्ता, भावप्पधानत्ता च | आदिना सकसन्ताने । पवत्तिता सपरसन्तानेसु। पर-सद्दो अभिण्हत्थोति वुत्तं "पुनप्पुन"न्ति । परिनिट्ठापिताति "इदमेव दस्सनं सच्चं, अञ्ज पन मोघं तुच्छं मुसा"ति अभिनिवेसस्स परियोसानं मत्थकं पापिताति अत्थो । आरम्मणवसेनाति अट्ठसु दिट्ठिट्ठानेसु खन्धे सन्धायाह । पवत्तनवसेनाति अविज्जाफस्ससावितक्कायोनिसोमनसिकारे । आसेवनवसेनाति पापमित्तपरतोघोसे | यदिपि सरूपत्थवसेन वेवचनं, सङ्केतत्थवसेन पन एवं वत्तब्बोति दस्सेतुं "एवंविधपरलोका"ति वुत्तं । येन केनचि हि विसेसनेनेव वेवचनं सात्थकं सिया। परलोको च कम्मवसेन अभिमुखो सम्परेति गच्छति पवत्तति एत्थाति अभिसम्परायोति वुच्चति । “इति खो आनन्द, कुसलानि सीलानि अनुपुब्बेन अग्गाय परेन्ती''तिआदीसु (अ० नि० ३.१०.२) विय हि चुरादिगणवसेन पर-सदं गतियमिच्छन्ति सद्दविदू, अयमेत्थ अट्ठकथातो अपरो नयो।
___ एवंगतिकाति एवंगमना एवंनिट्ठा, एवमनुयुञ्जनेन भिज्जननस्सनपरियोसानाति अत्थो । गति-सद्दो चेत्थ “येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेव गतियो भवन्ती''तिआदीसु (दी० नि० १.२५८; २.३३, ३५; ३.१९९, २००; म० नि० २.३८४, ३९७) विय निट्ठानत्थो। इदं वुत्तं होति - इमे दिट्ठिसङ्घाता दिहिवाना एवं परमत्थतो असन्तं अत्तानं, सस्सतभावञ्च तस्मिं अज्झारोपेत्वा गहिता, परामट्ठा च समाना बाललपनायेव हुत्वा याव पण्डिता न समनुयुञ्जन्ति, ताव गच्छन्ति, पातुभवन्ति च, पण्डितेहि समनुयुजियमाना पन अनवट्ठितवत्थुका अविमद्दक्खमा सूरियुग्गमने उस्सावबिन्दू विय, खज्जोपनका विय च भिज्जन्ति, विनस्सन्ति चाति ।
तत्थायं अनुयुञ्जने सङ्घपकथा – यदि हि परेहि कप्पितो अत्ता लोको वा सस्सतो सिया, तस्स निब्बिकारताय पुरिमरूपाविजहनतो कस्सचि विसेसाधानस्स कातुमसक्कुणेय्यताय अहिततो निवत्तनत्थं, हिते च पटिपज्जनत्थं उपदेसो एव सस्सतवादिनो निप्पयोजनो सिया, कथं वा तेन सो उपदेसो पवत्तीयति विकाराभावतो । एवञ्च सति परिकप्पितस्स अत्तनो अजटाकासस्स विय दानादिकिरिया, हिंसादिकिरिया च न सम्भवति, तथा सुखस्स, दुक्खस्स च अनुभवननिबन्धो एव सस्सतवादिनो न युज्जति कम्मबद्धाभावतो । जातिआदीनञ्च असम्भवतो विमोक्खो न भवेय्य, अथ पन धम्ममत्तं तस्स उप्पज्जति चेव विनस्सति च, यस्स वसेनायं किरियादिवोहारोति वदेय्य,
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३६-३६)
एवम्पि पुरिमरूपाविजहनेन अवद्वितस्स अत्तनो धम्ममत्तन्ति न सक्का सम्भावेतुं, ते वा पनस्स धम्मा अवत्थाभूता, तस्मा तस्स उप्पन्ना अछे वा सियुं अनजे वा, यदि अझे, न ताहि अवत्थाहि तस्स उप्पन्नाहिपि कोचि विसेसो अत्थि, याहि करोति पटिसंवेदेति चवति उप्पज्जति चाति इच्छितं, एवञ्च धम्मकप्पनापि निरत्थका सिया, तस्मा तदवत्थो एव यथावुत्तदोसो, अथान , उप्पादविनासवन्तीहि अवत्थाहि अनञस्स अत्तनो तासं विय उप्पादविनाससब्भावतो कुतो भवेय्य निच्चतावकासो, तासम्पि वा अत्तनो विय निच्चतापवत्ति, तस्मा बन्धविमोक्खानं असम्भवो एवाति न युज्जतियेव सस्सतवादो, न चेत्थ कोचि वादी धम्मानं सस्सतभावे परिसुदं युत्तिं वत्तुं समत्थो भवेय्य, युत्तिरहितञ्च वचनं न पण्डितानं चित्तं आराधेति, तेनावोचुम्ह "याव पण्डिता न समनुयुञ्जन्ति, ताव गच्छन्ति, पातुभवन्ति चा'ति ।
सकारणं सगतिकन्ति एत्थ सह-सद्दो विज्जमानत्थो “सलोमको सपक्खको''तिआदीसु विय, न पन समवायत्थो च-सद्देन "तयिदं भिक्खवे, तथागतो पजानाती''ति वुत्तस्स दिट्ठिगतस्स समुच्चिनितत्ता, “तञ्च तथागतो पजानाती''ति इमिना च कारणगतीनमेव पजाननभावेन वुत्तत्ता । इदं वुत्तं होति - तयिदं भिक्खवे, कारणवन्तं गतिवन्तं दिट्ठिगतं तथागतो पजानाति, न केवलञ्च तदेव, अथ खो तस्स कारणगतिसङ्खातं तञ्च सब्बन्ति । "ततो...पे०... पजानाती"ति वुत्तवाक्यस्स अत्थं वुत्तनयेन संवण्णेति "ततो चा"तिआदिना। सब्ब तञाणस्सेविध विभजनन्ति पकरणानुरूपमत्थं आह "सब्बञ्जतञाणञ्चा"ति, तस्मिं वा वुत्ते तदधिट्ठानतो आसवक्खयाणं, तदविनाभावतो वा सब्बम्पि दसबलादित्राणं गहितमेवातिपि तदेव वुत्तं ।
एवंविधन्ति “सीलञ्चा''तिआदिना एवंवुत्तप्पकारं । पजानन्तोपीति एत्थ पि-सद्देन, अपि-सद्देन वा "तञ्चा"ति वुत्त च-सद्दस्स सम्भावनत्थभावं दस्सेति, तेन ततो दिट्टिगततो उत्तरितरं सारभूतं सीलादिगुणविसेसम्पि तथागतो नाभिनिविसति, को पन वादो वट्टामिसेति सम्भावेति । "अह"न्ति दिट्टिमानवसेन परामसनाकारदस्सनं । पजानामीति एत्थ इति-सद्देन पकारत्थेन, निदस्सनत्थेन वा । “मम"न्ति तण्हावसेन परामसनाकारं दस्सेति । तण्हादिद्विमानपरामासवसेनाति तण्हादिट्टिमानसङ्घातपरामासवसेन । धम्मसभावमतिक्कमित्वा “अहं मम''न्ति परतो अभूततो आमसनं परामासो, तण्हादयो एव । न हि तं अत्थि, यं खन्धेसु “अह"न्ति वा “मम''न्ति वा गहेतब्बं सिया, अपरामसतो अपरामसन्तस्स अस्स तथागतस्स निब्बुति विदिताति सम्बन्धो । “अपरामसतो"ति चेदं निब्बुतिपवेदनाय
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(१.१.३६-३६)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
३५७
(निब्बुतिवेदनस्स दी० नि० टी० १.३६) हेतुगब्भविसेसनं । “विदिता"ति पदमपेक्खित्वा कत्तरि सामिवचनं । अपरामसतो परामासरहितपटिपत्तिहेतु अस्स तथागतस्स कत्तुभूतस्स निब्बुति असङ्घतधातु विदिता, अधिगताति वा अत्थो । “अपरामसतो"ति हेदं हेतुम्हि निस्सक्कवचनं ।
"अपरामासपच्चया"ति पच्चत्त व पवेदनाय कारणदस्सनं । अस्साति कत्तारं वत्वापि पच्चत्तओवाति विसेसदस्सनत्थं पुन कत्तुवचनन्ति आह "सयमेव अत्तनायेवा"ति । सयं, अत्तनाति वा भावनपुंसकं । निपातपदव्हेतं । “अपरामसतो'"ति वचनतो परामासानमेव निब्बुति इध देसिता, तंदेसनाय एव तद सम्पि निब्बुतिया सिज्झनतोति दस्सेति "तेसं परामासकिलेसान"न्ति इमिना, परामाससङ्घातानं किलेसानन्ति अत्थो । अपिच कामं “अपरामसतो"ति वचनतो परामासानमेव निब्बुति इध देसिताति विञआयति, तंदेसनाय पन तदवसेसानम्पि किलेसानं निब्बुति देसिता नाम भवति पहानेकट्ठतादिभावतो, तस्मा तेसम्पि निब्बुति निद्धारेत्वा दस्सेतब्बाति वुत्तं “तेसं परामासकिलेसान"न्ति, तण्हादिट्ठिमानसङ्घातानं परामासानं, तद सञ्च किलेसानन्ति अत्थो । गोबलीबद्दनयो हेस । निब्बुतीति च निब्बायनभूता असङ्घतधातु, तञ्च भगवा बोधिमूलेयेव पत्तो, तस्मा सा पच्चत्त व विदिताति ।
यथापटिपन्नेनाति येन पटिपन्नेन । तप्पटिपत्तिं दस्सेतुं "तासंयेव...पे०... आदिमाहा"ति अनुसन्धिदस्सनं । कस्मा पन वेदनानओव कम्मट्ठानमाचिक्खतीति आह "यासू"तिआदि, इमिना देसनाविलासं दस्सेति । देसनाविलासप्पत्तो हि भगवा देसनाकुसलो खन्धायतनादिवसेन अनेकविधासु चतुसच्चदेसनासु सम्भवन्तीसुपि दिट्टिगतिका वेदनासु मिच्छापटिपत्तिया दिट्ठिगहनं पक्खन्दाति दस्सनत्थं तथापक्खन्दनमूलभूता वेदनायेव परिञाभूमिभावेन उद्धरतीति । इधाति इमस्मिं वादे । एवं एत्थातिपि। कम्मट्ठानन्ति चतुसच्चकम्मट्ठानं । एत्थ हि वेदनागहणेन गहिता पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खसच्चं । वेदनानं समुदयग्गहणेन गहितो अविज्जासमुदयो समुदयसच्चं, अत्थङ्गमनिस्सरणपरियायेहि निरोधसच्चं, “यथाभूतं विदित्वा"ति एतेन मग्गसच्चन्ति एवं चत्तारि सच्चानि वेदितब्बानि । “यथाभूतं विदित्वाति इदं विभज्जब्याकरणत्थपदन्ति तदत्थं विभज्ज दस्सेतुं "तत्था'"तिआदि वुत्तं । विसेसतो हि “अविज्जासमुदया वेदनासमुदयो"तिआदिलक्खणानं वसेन समुदयादीसु अत्थो यथारहं विभज्ज दस्सेतब्बो। अविसेसतो पन वेदनाय समुदयादीनि विपस्सनापञ्जाय आरम्मणपटिवेधवसेन, मग्गपञआय असम्मोहपटिवेधवसेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३६-३६)
जानित्वा पटिविज्झित्वाति अत्थो । पच्चयसमुदयद्वेनाति “इमस्मिं सति इदं होति, इमस्सुप्पादा इदं उप्पज्जती''ति (म० नि० १.४०४; सं० नि० १.२.२१; उदा० १) वुत्तलक्खणेन अविज्जादीनं पच्चयानं उप्पादेन चेव मग्गेन असमुग्घाटेन च । याव हि मग्गेन न समुग्घाटीयति, ताव पच्चयोति वुच्चति । निब्बत्तिलक्खणन्ति उप्पादलक्खणं, जातिन्ति अत्थो । पञ्चनं लक्खणानन्ति एत्थ च चतुन्नम्पि पच्चयानं उप्पादलक्खणमेव अग्गहेत्वा पच्चयलक्खणम्पि गहेतब्बं समुदयं पटिच्च तेसं यथारहं उपकारकत्ता। तथा चेव संवण्णितं "मग्गेन असमुग्घाटेन चा"ति | पच्चयनिरोधद्वेनाति “इमस्मिं निरुद्धे इदं निरुद्धं होति, इमस्स निरोधा इदं निरुज्झती"ति (म० नि० १.४०६; उदा० ३; सं० नि० १.२.४१) वुत्तलक्खणेन अविज्जादीनं पच्चयानं निरोधेन चेव मग्गेन समुग्घाटेन च। विपरिणामलक्खणन्ति निरोधलक्खणं, भङ्गन्ति अत्थो । वयन्ति निरोधं । यन्ति यस्मा पच्चयभावसङ्घातहेतुतो। वेदनं पटिच्चाति पुरिमुप्पन्नं आरम्मणादिपच्चयभूतं वेदनं लभित्वा । सुखं सोमनस्सन्ति सुखञ्चेव सोमनस्सञ्च । अयन्ति पुरिमवेदनाय यथारहं पच्छिमुप्पन्नानं सुखसोमनस्सानं पच्चयभावो । अस्सादो नाम अस्सादितब्बोति कत्वा ।
अपरो नयो- यन्ति सुखं, सोमनस्सञ्च । अयन्ति च नपुंसकलिङ्गेन निद्दिष्टं सुखसोमनस्समेव अस्सादपदमपेक्खित्वा पुल्लिङ्गेन निद्दिसीयति, इमस्मिं पन विकप्पे सुखसोमनस्सानं उप्पादोयेव तेहि उप्पादवन्तेहि निद्दिट्टो, सत्तिया, सत्तिमतो च अभिन्नत्ता । न हि सुखसोमनस्समन्तरेन तेसं उप्पादो लब्भति । इति पुरिमवेदनं पटिच्च सुखसोमनस्सुप्पादोपि पुरिमवेदनाय अस्सादो नाम अस्सादीयतेति कत्वा । अयज्हेत्थ स पत्थो- पुरिममुप्पन्नं वेदनं आरब्भ सोमनस्सुप्पत्तियं यो पुरिमवेदनाय पच्चयभावसङ्घातो अस्सादेतब्बाकारो, सोमनस्सस्स वा उप्पादसङ्घातो तदस्सादनाकारो, अयं पुरिमवेदनाय अस्सादोति । कथं पन वेदनं आरब्भ सुखं उप्पज्जति, ननु फोटब्बारम्मणन्ति ? चेतसिकसुखस्सेव आरब्भ पवत्तियमधिप्पेतत्ता नायं दोसो । आरब्भ पवत्तियहि विसेसनमेव सोमनस्सग्गहणं सोमनस्सं सुखन्ति यथा “रुक्खो सीसपा"ति अपच्चयवसेन उप्पत्तियं पन कायिकसुखम्पि अस्सादोयेव, यथालाभकथा वा एसाति दट्ठब्बं ।
“या वेदना अनिच्चा"तिआदिना सत्तिमता सत्ति निदस्सिता। तत्रायमत्थो - या वेदना हुत्वा अभावढेन अनिच्चा, उदयब्बयपटिपीळनटेन दुक्खा, जराय, मरणेन चाति द्विधा विपरिणामेतब्बठून विपरिणामधम्मा। तस्सा एवंभूताय अयं
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(१.१.३६-३६)
पुब्बन्तकप्पिकसस्सतवादवण्णना
३५९
अनिच्चदुक्खविपरिणामभावो वेदनाय सब्बायपिआदीनवोति । आदीनं परमकारुजं वाति पवत्तति एतस्माति हि आदीनवो। अपिचआदीनं अतिविय कपणं पवत्तनढेन कपणमनुस्सो आदीनवो, अयम्पि एवंसभावोति तथा वुच्चति । सत्तिमता हि सत्ति अभिन्ना तदविनाभावतो।
एत्थ च “अनिच्चा"ति इमिना सङ्खारदुक्खतावसेन उपेक्खावेदनाय, सब्बासु वा वेदनासुआदीनवमाह, "दुक्खा"ति इमिना दुक्खदुक्खतावसेनदुक्खवेदनाय, "विपरिणामधम्मा"ति इमिना विपरिणामदुक्खतावसेन सुखवेदनाय । अविसेसेन वा तीणिपि पदानि तिस्सन्नम्पि वेदनानं वसेन योजेतब्बानि । छन्दरागविनयोति छन्दसङ्खातरागविनयनं विनासो । “अत्थवसा लिङ्गविभत्तिविपरिणामोति वचनतो यं छन्दरागप्पहानन्ति योजेतब्बं । परियायवचनमेविदं पदद्वयं । यथाभूतं विदित्वाति मग्गस्स वुत्तत्ता मग्गनिब्बानवसेन वा यथाक्कम योजनापि वति । वेदनायाति निस्सक्कवचनं । निस्सरणन्ति नेक्खम्मं । याव हि वेदनापटिबद्धं छन्दरागं नप्पजहति, तावायं पुरिसो वेदनाय अल्लीनोयेव होति । यदा पन तं छन्दरागं पजहति, तदायं पुरिसो वेदनाय निस्सटो विसंयुत्तो होति, तस्मा छन्दरागप्पहानं वेदनाय निस्सरणं वुत्तं । तब्बचनेन पन वेदनासहजातनिस्सयारम्मणभूता रूपारूपधम्मा गहिता एव होन्तीतिपि पञ्चहि उपादानक्खन्धेहि निस्सरणवचनं सिद्धमेव । वेदनासीसेन हि देसना आगता, तत्थ पन कारणं हेट्ठा वुत्तमेव । लक्खणहारवसेनापि अयमत्थो विभावेतब्बो । वुत्तहि आयस्मता महाकच्चानत्थेरेन
"वुत्तम्हि एकधम्मे, ये धम्मा एकलक्खणा केचि ।। वुत्ता भवन्ति सब्बो, सो हारो लक्खणो नामा'ति ।। (नेत्ति० ४८५) ।
कामुपादानमूलकत्ता सेसुपादानानं पहीने च कामुपादाने उपादानसेसाभावतो “विगतछन्दरागताय अनुपादानो"ति वुत्तं, एतेन "अनुपादाविमुत्तो"ति एतस्सत्थं सङ्केपेन दस्सेति । इदं वुत्तं होति - विगतछन्दरागताय अनुपादानो, अनुपादानत्ता च अनुपादाविमुत्तोति । तमत्थं वित्थारेतुं, समत्थेतुं वा “यस्मिन्तिआदि वुत्तं । तत्थ यस्मिं उपादानेति सेसुपादानमूलभूते कामुपादाने । तस्साति कामुपादानस्स । अनुपादियित्वाति छन्दरागवसेन अनादियित्वा, एतेन “अनुपादाविमुत्तो''ति पदस्स य-कारलोपेन समासभावं, ब्यासभावं वा दस्सेति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
३७. “ इमे खो" तिआदि यथापुट्ठस्स धम्मस्स विस्सज्जितभावेन निगमनवचनं, ‘“पजानाती’”ति वुत्तपजाननमेव च इम-सन निद्दिट्ठन्ति दस्सेतुं “ये ते "तिआदिमाह । ये ते सब्बञ्ज्ञणधम्मे... पे०... अपुच्छिं, येहि सब्बञ्जतञ्ञाणधम्मेहि...पे०... वदेय्युं, तञ्च... पे०... पजानातीति एवं निद्दिट्ठा इमे सब्बञ्जतञ्ञाणधम्मा गम्भीरा... पे०... पण्डितवेदनीया चाति वेदितब्बाति योजना । " एव "न्तिआदि पिण्डत्थदस्सनं । तत्थ किञ्चापि ‘“अनुपादाविमुत्तो भिक्खवे, तथागतो 'ति इमिना अग्गमग्गफलुप्पत्तिं दस्सेति, "वेदनानं, समुदयञ्चा' 'तिआदिना च चतुसच्चकम्मट्ठानं । तथापि यस्सा धमधतुया प्पटिविद्धत्ता इमं दिट्ठिगतं सकारणं सगतिकं पभेदतो विभजितुं समत्थो होति, तस्सा पदट्ठानेन चेव सद्धिं पुब्बभागपटिपदाय उप्पत्तिभूमिया च तदेव पाकटतरं कत्तुकामो धम्मराजा एवं दस्सेतीति वुत्तं " तदेव निय्यातित "न्ति, निगमितं निट्ठापितन्ति अत्थो । अन्तराति पुच्छितविस्सज्जितधम्मदस्सनवचनानमन्तरा दिट्ठियो विभत्ता तस्स पजाननाकारदस्सनवसेनाति अत्थो ।
सु
पठमभाणवारवण्णनाय लीनत्थप्पकासना ।
एकच्चसस्सतवादवण्णना
३८. “एकच्चसस्सतिका’ति तद्धितपदं समासपदेन विभावेतुं " एकच्चसस्सतवादा" ति वृत्तं । सत्तेसु, सङ्घारेसु च एकच्चं सस्सतमेतस्साति एकच्चसस्सतो, वादो, सो एतेसन्ति एकच्चसस्सतिका तद्धितवसेन, समासवसेन पन एकच्चसस्सतो वादो एतेसन्ति एकच्चसस्सतवादा। एस नयो एकच्च असस्सतिकपदेपि । ननु च " एकच्चसस्सतिका "ति वुत्ते तदञ्ञेसं एकच्चअसस्सतिकभावसन्निट्ठानं सिद्धमेवाति ? सच्चं अत्थतो, सद्दतो पन असिद्धमेव तस्मा सद्दतो पाकटतरं कत्वा दस्सेतुं तथा वृत्तं । न हि इध सावसेसं कत्वा धम्मं देसेति धम्मस्सामी । "इस्सरो निच्चो, अञ्ञ सत्ता अनिच्चा "ति एवंपवत्तवादा सत्तेकच्चसस्सतिका सेय्यथापि इस्सरवादा । तथा "निच्चो ब्रह्मा, अञ्ञे अनिच्चा”ति एवंपवत्तवादापि । “परमाणवो निच्चा, द्विअणुकादयो अनिच्चाति (विसिसिकदस्सने सत्तमपरिच्छेदे पठमकण्डे पस्सितब्बं) एवंपवत्तवादा सङ्घारेकच्चसस्सतिका सेय्यथापि काणादा । तथा "चक्खादयो अनिच्चा, विञ्ञाणं निच्चन्ति (न्यायदस्सने,
(१.१.३७-३८)
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(१.१.३८-३८)
एकच्चसस्सतवादवण्णना
विसेसिकदस्सने च पस्सितब्ब) एवंपवत्तवादापि । इधाति “एकच्चसस्सतिका"ति इमस्मिं पदे, इमिस्सा वा देसनाय | गहिताति वुत्ता, देसितब्बभावेन वा देसनाञाणेन समादिन्ना तथा चेव देसितत्ता। तथा हि इध पूरिमका तयो वादा सत्तवसेन, चतत्थो सङ्खारवसेन देसितो | "सकारेकच्चसस्सतिका"ति इदं पन तेहि सस्सतभावेन गव्हमानानं धम्मानं याथावसभावदस्सनवसेन वुत्तं, न पन एकच्चसस्सतिकमतदस्सनवसेन। तस्स हि सस्सताभिमतं असङ्घतमेवाति लद्धि । तेनेवाह पाळियं “चित्तन्ति वा...पे०... ठस्सती"ति । न हि यस्स सभावस्स पच्चयेहि अभिसङ्घतभावं पटिजानाति, तस्सेव निच्चधुवादिभावो अनुम्मत्तकेन सक्का पटिजानितुं, एतेन च "उप्पादवयधुवतायुत्ता सभावा सिया निच्चा, सिया अनिच्चा, सिया न वत्तब्बा''तिआदिना (दी० नि० टी० १.३८) पवत्तसत्तभङ्गवादस्स अयुत्तता विभाविता होति।।
तत्रायं अयुत्तताविभावना -- यदि हि “येन सभावेन यो धम्मो अस्थीति वुच्चति, तेनेव सभावेन सो धम्मो नत्थी'"ति वुच्चेय्य, सिया अनेकन्तवादो। अथ अञ्जेन, न सिया अनेकन्तवादो । न चेत्थ देसन्तरादिसम्बन्धभावो युत्तो वत्तुं तस्स सब्बलोकसिद्धत्ता, विवादाभावतो च। ये पन वदन्ति “यथा सुवण्णघटेन मकुटे कते घटभावो नस्सति, मकुटभावो उप्पज्जति, सुवण्णभावो तिद्वतियेव, एवं सब्बसभावानं कोचि धम्मो नस्सति, कोचि धम्मो उप्पज्जति, सभावो एव तिकृती"ति । ते वत्तब्बा "किं तं सुवण्णं, यं घटे, मकुटे च अवट्टितं, यदि रूपादि, सो सद्दो विय अनिच्चो। अथ रूपादिसमूहो सम्मुतिमत्तं, न तस्स अत्थिता वा नत्थिता वा निच्चता वा लब्भती''ति, तस्मा अनेकन्तवादो न सिया । धम्मानञ्च धम्मिनो अञथानञथा च पवत्तियं दोसो वुत्तोयेव सस्सतवादविचारणायं । तस्मा सो तत्थ वुत्तनयेन वेदितब्बो। अपिच न निच्चानिच्चनवत्तब्बरूपो अत्ता, लोको च परमत्थतो विज्जमानतापरिजाननतो यथा निच्चादीनं अञतरं रूपं, यथा वा दीपादयो । न हि रूपादीनं उदयब्बयसभावानं निच्चानिच्चनवत्तब्बसभावता सक्का विज्ञातुं, जीवस्स च निच्चादीसु अञ्जतरं रूपं सियाति, एवं सत्तभङ्गो विय सेसभङ्गानम्पि असम्भवोयेवाति सत्तभङ्गवादस्स अयुत्तता वेदितब्बा (दी० नि० टी० १.३८)।
ननु च “एकच्चे धम्मा सस्सता, एकच्चे असस्सता''ति एतस्मिं वादे चक्खादीनं असस्सतभावसन्निट्ठानं यथासभावावबोधो एव, अथ एवंवादीनं कथं मिच्छादस्सनं सियाति, को वा एवमाह "चक्खादीनं असस्सतभावसन्निट्ठानं मिच्छादस्सन"न्ति ? असस्सतेसुयेव
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.३८-३८)
पन केसञ्चि धम्मानं सस्सतभावसन्निट्ठानं इध मिच्छादस्सनन्ति गहेतब्बं, तेन पन एकवादे पवत्तमानेन चक्खादीनं असस्सतभावावबोधो विदूसितो संसट्ठभावतो विससंसट्ठो विय सप्पिपिण्डो, ततो च तस्स सकिच्चकरणासमत्थताय सम्मादस्सनपक्खे ठपेतब्बतं नारहतीति । असस्सतभावेन निच्छितापि वा चक्खुआदयो समारोपितजीवसभावा एव दिद्विगतिकेहि गव्हन्तीति तदवबोधस्स मिच्छादस्सनभावो न सक्का निवारेतुं । तेनेवाह पाळियं “चक्टुं इतिपि...पे०... कायो इतिपि अयं अत्ता'"तिआदि । एवञ्च कत्वा असङ्घताय, सङ्घताय च धातुया वसेन यथाक्कम “एकच्चे धम्मा सस्सता, एकच्चे असस्सता"ति एवंपवत्तो विभज्जवादोपि एकच्चसस्सतवादोयेव भवेय्याति एवम्पकारा चोदना . अनवकासा होति अविपरीतधम्मसभावपटिपत्तिभावतो । अविपरीतधम्मसभावपटिपत्तियेव हेस वुत्तनयेन असंसठ्ठत्ता, अनारोपितजीवसभावत्ता च ।
एत्थाह - पुरिमस्मिम्पिसस्सतवादे असस्सतानं धम्मानं “सस्सता''ति गहणं विसेसतो मिच्छादस्सनं भवति। सस्सतानं पन “सस्सता''ति गाहो न मिच्छादस्सनं यथासभावग्गाहभावतो । एवञ्च सति इमस्स वादस्स वादन्तरता न वत्तब्बा, इध विय पुरिमेपि एकच्चेस्वेव धम्मेसु सस्सतग्गाहसम्भवतोति, वत्तब्बायेव असस्सतेस्वेव “केचिदेव धम्मा सस्सता, केचि असस्सता'ति परिकप्पनावसेन गहेतब्बधम्मेसु विभागप्पवत्तिया इमस्स वादस्स दस्सितत्ता । ननु च एकदेसस्स समुदायन्तोगधत्ता अयं सप्पदेससस्सतग्गाहो पुरिमस्मिं निप्पदेससस्सतग्गाहे समोधानं गच्छेय्याती ? तथापि न सक्का वत्तुं वादी तब्बिसयविसेसवसेन वादद्वयस्स पवत्तत्ता। अञ्जे एव हि दिट्ठिगतिका “सब्बे धम्मा सस्सता''ति अभिनिविट्ठा, अछे “एकच्चेव सस्सता, एकच्चे असस्सता"ति । सङ्घारानं अनवसेसपरियादानं, एकदेसपरिग्गहो च वादद्वयस्स परिब्यत्तोयेव । किञ्च भिय्यो - अनेकविधसमुस्सये, एकविधसमुस्सये च खन्धपबन्धेन अभिनिवेसभावतो तथा न सक्का वत्तुं । चतुब्बिधोपि हि सस्सतवादी जातिविसेसवसेन नानाविधरूपकायसन्निस्सये एव अरूपधम्मपुजे सस्सताभिनिवेसी जातो अभिजाणेन, अनुस्सवादीहि च रूपकायभेदगहणतो। तथा च वुत्तं “ततो चुतो अमुत्र उदपादि"न्ति, (दी० नि० १.२४४; म० नि० १.१४८; पारा० १२) "चवन्ति उपपज्जन्ती''ति (दी० नि० १.२५५; म० नि० १.१४८; पारा० १२) च आदि। विसेसलाभी पन एकच्चसस्सतिको अनुपधारितभेदसमुस्सये धम्मपबन्धे सस्सताकारगहणेन अभिनिवेसं जनेसि एकभवपरियापन्नखन्धसन्तानविसयत्ता तदभिनिवेसस्स । तथा हि तीसुपि वादेसु "तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरती''ति एत्तकमेव वुत्तं। तक्कीनं पन
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( १.१.३९-३९)
उभिन्नम्पि सुपाकटोयेवाति ।
एकच्चसस्सतवादवण्णना
सस्सतेकच्चसस्सतवादीनं
सस्सताभिनिवेसविसेसो
66.
३९. संवट्टट्ठायीविवट्टविवट्टट्ठायीसङ्घातानं तिण्णम्पि असङ्घयेय्यकप्पानमतिक्कमेन पुन संवट्टनतो, अद्धा - सद्दस्स च कालपरियायत्ता एवं वुत्तन्ति आह 'दीघस्सा "तिआदि । अतिक्कम्म अयनं पवत्तनं अच्चयो । अनेकत्थत्ता धातूनं, उपसग्गवसेन च अत्थविसेसवाचकत्ता संसद्देन युत्तो वट्ट- सद्दो विनासवाचीति वुत्तं "विनस्सती "ति, बतु- सद्दो वा गतियमेव । सङ्घयत्थजोतकेन पन सं- सद्देन युत्तत्ता तदत्थसम्बन्धनेन विनासत्थो लब्भतीति दस्सेति “विनस्सती 'ति इमिना । सङ्घयवसेन वत्ततीति हि सद्दतो अत्थो, त-कारस्स चेत्थ ट-कारादेसो। विपत्तिकरमहामेघसमुप्पत्तित्तो हि पट्ठाय याव अणुसहगतोपि सङ्घारो न होति ताव लोको संवट्टतीति वुच्चति । पाळियं लोकोति पथवीआदिभाजनलोको अधिप्पेतो तदवसेसस्स बाहुल्लतो, तदेव सन्धाय “येभुय्येना' 'ति वुत्तन्ति दस्सेति “ये"तिआदिना उपरिब्रह्मलोकेसूति आभस्सरभूमितो उपरिभूमीसु। अग्गिना कप्पवुट्ठानहि इधाधिप्पेतं, तेनेवाह पाळियं “आभस्सरसंवत्तनिका होन्ती 'ति । कस्मा तदेव वुत्तन्ति चे ? तस्सेव बहुलं पवत्तनतो । अयहि वारनियमो -
“सत्तसत्तग्गिना वारा, अट्ठमे अट्ठमे दका । चतुसट्ठि यदा पुण्णा, (अभिधम्मत्थविभावनीटीकायपञ्चमपरिच्छेदवण्णनायम्पि) ।
वायुवरो
३६३
रूपारूपधम्मविसयताय
363
आरुप्पेसु वाति एत्थ विकप्पनत्थेन वा सद्देन संवट्टमानलोकधातूहि अञ्ञलोकधातूसु वाति विकप्पेति। न हि सब्बे अपायसत्ता तदा रूपारूपभवेसु उप्पज्जन्तीति का विज्ञातुं अपायेसु दीघतरायुकानं मनुस्सलोकूपपत्तिया असम्भवतो, मनुस्सलोकूपपत्तिञ्च विना तदा तेसं तत्रूपपत्तिया अनुपपत्तितो । नियतमिच्छादिट्टिकोपि हि संवट्ठमाने कप्पे निरयतो न मुच्चति, पिट्ठिचक्कवाळेयेव निब्बत्ततीति अट्ठकथासु (अ० नि० अट्ठ १.३११) वृत्तं । सतिपि सब्बसत्तानं पुञ्ञपुञ्ञाभिसङ्घारमनसा निब्बत्तभावे बाहिरपच्चयेहि विना मनसाव निब्बत्तत्ता रूपावचरसत्ता एव " मनोमया " ति वुच्चन्ति न पन बाहिरपच्चयपटियत्ता तदञेति दस्सेतुं “मनेन निब्बत्तत्ता मनोमया "ति आह । यदेवं कामावचरसत्तानम्पि ओपपातिकानं मनोमयभावो आपज्जतीति ? नापज्जति, अधिचित्तभूतेन अतिसयमनसा निब्बत्तसत्तेसुयेव मनोमयवोहारतोति दस्सेन्तेन झान- सद्देन
सिया "ति । ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.४०-४०)
विसेसेत्वा "झानमनेना"ति वत्तं । एवम्पि अरूपावचरसत्तानं मनोमयभावो आपज्जतीति ? न तत्थ बाहिरपच्चयेहि निब्बत्तेतब्बतासङ्काय अभावेन मनसा एव निब्बत्ताति अवधारणासम्भवतो । निरुळहोवायं लोके मनोमयवोहारो रूपावचरसत्तेसु । तथा हि अन्नमयो पानमयो मनोमयो आनन्दमयो विज्ञाणमयोति पञ्चधा अत्तानं वेदवादिनो परिकप्पेन्ति । उच्छेदवादेपि वक्खति “दिब्बो रूपी मनोमयो''ति, (दी० नि० १.८७) ते पन झानानुभावतो पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचराति आह “पीति तेस"न्तिआदि, तेसं अत्तनोव पभा अत्थीति अत्थो। सोभना वा ठायी सभा एतेसन्ति सुभट्ठायिनोतिपि युज्जति । उक्कंसेनाति आभस्सरे सन्धाय वुत्तं । परित्ताभाप्पमाणाभा पन द्वे, चत्तारो च कप्पे तिट्ठन्ति । अट्ठ कप्पेति चतुन्नमसङ्खयेय्यकप्पानं समुदायभूते अट्ठ महाकप्पे ।
४०. विनासवाचीयेव वट्ट-सद्दो पटिसेधजोतकेन उपसग्गेन युत्तत्ता सण्ठाहनत्थञापकोति आह "सण्ठाती'ति, अनेकत्थत्ता वा धातूनं निब्बत्तति, वड्डतीति वा अत्थो। सम्पत्तिमहामेघसमुष्पत्तितो हि पट्ठाय पथवीसन्धारकुदकतंसन्धारकवायुआदीनं समुप्पत्तिवसेन याव चन्दिमसूरियानं पातुभावो, ताव लोको विवट्टतीति वुच्चति । पकतियाति सभावेन, तस्स "सुञ''न्ति इमिना सम्बन्धो। तथासुञताय कारणमाह "निब्बत्तसत्तानं नत्थिताया'ति । पुरिमतरं अञसं सत्तानमनुप्पन्नत्ताति भावो, तेन यथा एकच्चानि विमानानि तत्थ निब्बत्तसत्तानं छड्डितत्ता सुञानि, न एवमिदन्ति दस्सेति ।
__ अपरो नयो- सककम्मस्स पठमं करणं पकति, ताय निब्बत्तसत्तानन्ति सम्बन्धो, तेन यथा एतस्स अत्तनो कम्मबलेन पठमं निब्बत्ति, न एवं अञ्जेसं तस्स पुरिमतरं, समानकाले वा निब्बत्ति अस्थि, तथा निब्बत्तसत्तानं नत्थिताय सुझमिदन्ति दस्सेति | ब्रह्मपारिसज्जब्रह्मपुरोहितमहाब्रह्मानो इध ब्रह्मकायिका, तेसं निवासताय भूमिपि "ब्रह्मकायिका"ति वुत्ता, ब्रह्मकायिकभूमीति पन पाठेब्रह्मकायिकानं सम्बन्धिनी भूमीति अत्थो । कत्ता सयं कारको। कारेता परेसं आणापको। विसुद्धिमग्गे पुब्बेनिवाससाणकथायं (विसुद्धि० २.४०८) वुत्तनयेन, एतेन निब्बत्तक्कम कम्मपच्चयउतुसमुट्ठानभावे च कारणं दस्सेति । कम्मं उपनिस्सयभावेन पच्चयो एतिस्साति कम्मपच्चया। अथ वा तत्थ निब्बत्तसत्तानं विपच्चनककम्मस्स सहकारीकारकभावतो कम्मस्स पच्चयाति कम्मपच्चया। उतु समुट्ठानमेतिस्साति उतुसमुट्ठाना। "कम्मपच्चयउतुसमुट्ठाना''तिपि समासवसेन पाठो कम्मसहायो पच्चयो, वुत्तनयेन वा कम्मस्स सहायभूतो पच्चयोति कम्मपच्चयो, सो एव उतु तथा, सोव समुट्ठानमेतिस्साति कम्मपच्चयउतुसमुठ्ठाना। रतनभूमीति
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(१.१.४०-४०)
एकच्चसस्सतवादवण्णना
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उक्कंसगतपुञकम्मानुभावतो रतनभूता भूमि, न केवलं भूमियेव, अथ खो तप्परिवारापीति आह "पकती"तिआदि । पकतिनिब्बत्तहानेति पुरिमकप्पेसु पुरिमकानं निब्बत्तट्ठाने । एत्थाति "ब्रह्मविमान"न्ति वुत्ताय ब्रह्मकायिकभूमिया । सामञ्जविसेसवसेन चेतं आधारद्वयं । कथं पणीताय दुतियज्झानभूमिया ठितानं हीनाय पठमज्झानभूमिया उपपत्ति होतीति आह “अथ सत्तान"न्तिआदि, निकन्तिवसेन पठमज्झानं भावेत्वाति वृत्तं होति, पकतिया सभावेन निकन्ति तण्हा उप्पज्जतीति सम्बन्धो। वसितढानेति वुत्थपुब्बट्ठाने । ततो ओतरन्तीति उपपत्तिवसेन दुतियज्झानभूमितो पठमज्झानभूमि अपसक्कन्ति, गच्छन्तीति अत्थो । अप्पायुकेति यं उळारपुञकम्मं कतं, तस्स उपज्जनारहविपाकपबन्धतो अप्पपरिमाणायुके । तस्स देवलोकस्साति तस्मिं देवलोके, निस्सयवसेन वा सम्बन्धनिद्देसो। आयुष्पमाणेनेवाति परमायुप्पमाणेनेव । परित्तन्ति अप्पकं । अन्तराव चवन्तीति राजकोट्ठागारे पक्खित्ततण्डुलनाळि विय पुञक्खया हुत्वा सककम्मप्पमाणेन तस्स देवलोकस्स परमायुअन्तरा एव चवन्ति ।।
किं पनेतं परमायु नाम, कथं वा तं परिच्छिन्नप्पमाणन्ति ? वुच्चते - यो तेसं तेसं सत्तानं तस्मिं तस्मिं भवविसेसे विपाकप्पबन्धस्स ठितिकालनियमो पुरिमसिद्धभवपत्थनूपनिस्सयवसेन सरीरावयववण्णसण्ठानप्पमाणादिविसेसा विय तंतंगतिनिकायादीसु येभुय्येन नियतपरिच्छेदो होति, गब्भसेय्यककामावचरदेवरूपावचरसत्तानं सुक्कसोणितादिउतुभोजनादिउतुआदिपच्चयुप्पन्नपच्चयूपत्थम्भितो च, सो आयुहेतुकत्ता कारणूपचारेन आयु, उक्कंसपरिच्छेदवसेन परमायूति च बुच्चति । यथासकं खणमत्तावट्ठायीनम्पि हि अत्तना सहजातानं रूपारूपधम्मानं ठपनाकारवुत्तिताय पवत्तकानि रूपारूपजीवितिन्द्रियानि न केवलं नेसं खणट्ठितिया एव कारणभावेन अनुपालकानि, अथ खो याव भङ्गुपच्छेदा [भवङ्गुपच्छेदा (दी० नि० टी० १.४०)] अनुपबन्धस्स अविच्छेदहेतुभावेनापि । तस्मा चेस आयुहेतुकोयेव, तं पन देवानं, नेरयिकानञ्च येभुय्येन नियतपरिच्छेदं, उत्तरकुरुकानं पन एकन्तनियतपरिच्छेदमेव । अवसिट्ठमनुस्सपेततिरच्छानगतानं पन चिरट्ठितिसंवत्तनिककम्मबहुले काले तंकम्मसहितसन्तानजनितसुक्कसोणितपच्चयानं, तम्मूलकानञ्च चन्दिमसूरियसमविसमपरिवत्तनादिजनितउतुआहारादिसमविसमपच्चयानं वसेन चिराचिरकालताय अनियतपरिच्छेदं, तस्स च यथा पुरिमसिद्धभवपत्थनावसेन तंतंगतिनिकायादीसु वण्णसण्ठानादिविसेसनियमो सिद्धो, दस्सनानुस्सवादीहि तथायेव आदितो गहणसिद्धिया, एवं तासु तासु उपपत्तीसु
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
निब्बत्तसत्तानं येभुय्येन समप्पमाणं ठितिकालं दस्सनानुरसवेहि लभित्वा तं परमतं अज्झोसाय पवत्तितभवपत्थनावसेन आदितो परिच्छेदनियमो वेदितब्बो ।
यस्मा पन कम्मं तासु तासु उपपत्तीसु यथा तंतंउपपत्तिनिस्सितवण्णादिनिब्बत्तने समत्थं, एवं नियतायुपरिच्छेदासु उपपत्तीसु परिच्छेदातिक्कमेन विपाकनिब्बत्तने समत्थं न होति, तस्मा वुत्तं “आयुप्पमाणेनेव चवन्ती 'ति । यस्मा पन उपत्थम्भकपच्चयसहायेहि अनुपालकपच्चयेहि उपादिन्नकक्खन्धानं पवत्तेतब्बाकारो अत्थतो परमायुकस्स होति यथावुत्तपरिच्छेदानतिक्कमनतो, तस्मा सतिपि कम्मावसेसे ठानं न सम्भवति, तेन वुत्तं " अत्तनो पुञ्ञबलेन ठातुं न सक्कोन्ती 'ति । "आयुक्खया वा पुञ्ञक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा" ति वचनतो पनेत्थ कामावचरदेवानं विय ब्रह्मकायिकानम्पि येभुय्येनेव नियतायुपरिच्छेदभावो वेदितब्बो । तथा हि देवलोकतो देवपुत्ता आयुक्खयेन पुञ्ञक्खयेन आहारक्खयेन कोपेनाति चतूहि कारणेहि चवन्तीति अट्ठकथासु (ध० प० अट्ठ० १. अप्पमादवग्गे) वुत्तं । कप्पं वा उपकप्पं वाति एत्थ असङ्ख्येय्यकप्पो अधिप्पेतो, सो च तथारूपो कालोयेव, वा- सद्दो पन कप्पस्स ततियभागं वा ततो ऊनमधिकं वाति विकप्पनत्थो ।
( १.१.४१-४१)
४१. अनभिरतीति एककविहारेन अनभिरमणसङ्घाता अञ्ञेहि समागमिच्छायेव । तत्थ 'एककस्स दीघरतं निवसितत्ता" ति पाळियं वचनतोति वृत्तं " अपरस्सापी "तिआदि । एवमन्वयमत्थं दस्सेत्वा ननु उक्कण्ठितापि सियाति चोदनासोधनवसेन ब्यतिरेकं दस्सेति “या पना”तिआदिना । पियवत्थुविरहेन, पियवत्थु अलाभेन वा चित्तविग्घातो उक्कण्ठिता, सा पनत्थतो दोमनस्सचित्तुप्पादोव, तेनाह “पटिघसम्पयुत्ता" ति । सा ब्रह्मलोके नत्थि झानानुभावपहीनत्ता । तण्हादिट्ठिसङ्घाता चित्तस्स पुरिमावत्थाय उब्बिज्जना फन्दना एव इध परितस्सना । सा हि दीघरत्तं झानरतिया ठितस्स यथावुत्तानभिरतिनिमित्तं उप्पन्ना “अहं मम "न्ति गहणस्स च कारणभूता । तेन वक्खति “तण्हातस्स नापि दिट्ठितस्सनापि वट्टती 'ति (दी० नि० अट्ठ० १.४१ ) ननु वुत्तं अत्युद्धारे इमंयेव पाळिं नीहरित्वा "अहो वत अपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्यन्ति अयं तण्हातस्सना नामा' 'ति ? सच्चं, तं पन दिट्ठितस्सनाय विसुं उदाहरणं दस्सेन्तेन तण्हातस्सनमेव ततो निद्धारेत्वा वुत्तं, न पन एत्थ दिट्ठितस्सनाय अलब्भमानत्ताति न दोसो । इदानि समानसद्दवचनीयानं अत्थानमुद्धरणं कत्वा इधाधिप्पेतं विभावेतुं “सा पनेसा 'तिआदिमाह । पटिघसङ्घातो चित्तुत्रासो एव तासतस्सना । एवमञ्ञत्थापि यथारहं । " जातिं पटिच्चा "तिआदि विभङ्गपाळि, (विभं० ९२१)
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(१.१.४२-४२)
एकच्चसस्सतवादवण्णना
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तत्रायमत्थकथा - जाति पटिच्च भयन्ति जातिपच्चया उप्पन्नभयं । भयानकन्ति आकारनिद्देसो। छम्भितत्तन्ति भयवसेन गत्तकम्पो, विसेसतो हदयमंसचलनं । लोमहंसोति लोमानं हंसनं, भित्तियं नागदन्तानमिव उद्धग्गभावो, इमिना पदद्वयेन किच्चतो भयं दस्सेत्वा पुन चेतसो उत्रासोति सभावतो दस्सितन्ति । टीकायं पन “भयानकन्ति भेरवारम्मणनिमित्तं बलवभयं, तेन सरीरस्स थद्धभावो छम्भितत्त"न्ति (दी० नि० टी० १.४१) वुत्तं, अनेनेव भयन्ति एत्थ खुद्दकभयं दस्सितं, इति एत्थ पयोगे अयं तस्सनाति एवं सब्बत्थ अत्थो । परितस्सितविष्फन्दितमेवाति एत्थ “दिट्ठिसङ्खातेन चेव तण्हासङ्घातेन च परितस्सितेन विप्फन्दितमेव चलितमेव कम्पितमेवा''ति (दी० नि० अट्ठ० १.१०५-११७) अट्ठकथायमत्थं वक्खति । तेन विज्ञायति लब्भमानम्पि तण्हातस्सनमन्तरेन दिद्वितस्सनायेव निहटाति । "तेपी"तिआदि सीहोपमसुत्तन्तपाळि (अ० नि० १.४.३३) तत्थ तेपीति दीघायुका देवापि। भयन्ति भङ्गानुपस्सनापरिचिण्णन्ते सब्बसङ्खारतो भायनवसेन उप्पन्नं भयत्राणं । संवेगन्ति सहोत्तप्पाणं, ओत्तप्पमेव वा । सन्तासन्ति आदीनवनिब्बिदानुपस्सनाहि सङ्खारेहि सन्तासनत्राणं । उपपत्तिवसेनाति पटिसन्धिवसेनेव ।
___ सहब्यतन्ति सहायभावमिच्छेव सद्दतो अत्थो सहब्य-सद्दस्स सहायत्थे पवत्तनतो । सो हि सह ब्यायति पवत्तति, दोसं वा पटिच्छादेतीति सहब्योति वुच्चति, तस्स भावो सहव्यता। सहायभावो पन सहभावोयेव नामाति अधिप्पायतो अत्थं दस्सेतुं "सहभाव"न्ति वुत्तं । ससाधनसमवायत्थो वा सह-सद्दो अधिकिच्चपदे अधिसद्दो विय, तस्मा सह एकतो वत्तमानस्स भावो सहव्यं यथा “दासब्यन्ति तदेव सहब्यता, सकत्थवुत्तिवसेन इममेवत्थं सन्धायाह "सहभाव"न्ति । अपिच सह वाति पवत्ततीति सहवो, तस्स भावो सहव्यं यथा “वीरस्स भावो वीरिय''न्ति, तदेव सहब्यताति एवं विमानट्ठकथायं (वि० व० अट्ठ० १७२) वुत्तं, तस्मा तदत्थं दस्सेतुं एवं वुत्तन्तिपि दट्टब् ।
४२. इमे सत्ते अभिभवित्वाति सेसो । अभिभवना चेत्थ पापसभावेन जेट्ठभावेन "ते सत्ते अभिभवित्वा ठितो''ति अत्तनो मञ्जनायेवाति वुत्तं "जेट्ठकोहमस्मी"ति । अञदत्थूति दस्सने अन्तरायाभाववचनेन, दसोति एत्थ दस्सनेय्यविसेसपरिग्गहाभावेन च अनावरणदस्सावितं पटिजानातीति आह "सब्बं पस्सामीति अत्थो"ति । दस्सनेय्यविसेसस्स हि पदेसभूतस्स अग्गहणे सति गहेतब्बस्स निप्पदेसता विझायति यथा “दिक्खितो न ददाती''ति, देय्यधम्मविसेसस्स चेत्थ पदेसभूतस्स अग्गहणतो पब्बजितो सब्बम्पि न ददातीति गहेतब्बस्स देय्यधम्मस्स निप्पदेसता विझायति । एवमीदिसेसु । वसे वत्तेमीति
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दीघनिका सीक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
बसवत्ती। अहं-सद्दयोगतो हि सब्बत्थ अम्हयोगेन वचनत्थो । सत्तभाजनभूतस्स लोकस्स निम्माता चाति सम्बन्धो । “पथवी "तिआदि चेत्थ भाजनलोकवसेन अधिप्पायकथनं । सजिताति रचिता, विभजिता वा तेनाह " त्वं खत्तियो नामा" तिआदि । चिण्णवसितायाति समाचिण्णपञ्चविधवसिभावतो । तत्थाति भूतभब्येसु । अन्तोवत्थिम्हीति अन्तोगब्भासये । पठमचित्तक्खणेति पटिसन्धिचित्तक्खणे । दुतियतोति पठमभवङ्गचित्तक्खणतो । पठमइरिया येन पटिसन्धिं गण्हाति, तस्मिं इरियापथे । इति अतीतवसेन, भूत - सद्दस्स वत्तमानवसेन च भब्य-सद्दस्स अत्थो दस्सितो । टीकायं (दी० नि० टी० १.४२) पन भब्य - सद्दत्थो अनागतवसेनापि वृत्तो। अहेसुन्ति हि भूता । भवन्ति, भविस्सन्ति चाति भब्या तब्बानीया विय ण्यपच्चयस्स कत्तरिपि पवत्तनतो ।
"
“ इस्सरो कत्ता निम्माता "ति वत्वापि पुन “मया इमे सत्ता निम्मिता" ति वचनं किमत्थियन्ति आह " इदानि कारणवसेना [ कारणतो ( अट्ठकथायं) ] "तिआदि, कारणवसेन साधेतुकामताय पटिञ्ञाकरणत्थन्ति वत्तं होति । ननु चेस ब्रह्मा अनवट्ठितदसत्ता पुथुज्जनस्स पुरिमतरजातिपरिचितम्पि कम्मस्सकताञाणं विस्सज्जेत्वा विकुब्बनिद्धिवसेन चित्तुप्पादमत्तपटिबद्धेन सत्तनिम्मानेन विपल्लट्ठो “ मया इमे सत्ता निम्मिता' 'तिआदिना इस्सरकुत्तदस्सनं पक्खन्दमानो अभिनिविसनवसेन पतिट्ठितो, न पन पतिट्ठापनवसेन । अथ कस्मा कारणवसेन साधेतुकामो पटिञ्ञ करोतीति वुत्तन्ति ? न चेवं दट्ठब्बं । तेसम्पि हि " एवं होती "तिआदिना पच्छा उप्पज्जन्तानम्पि तथा अभिनिवेसस्स वक्खमानत्ता परेसं पतिट्ठापनक्कमेनेव तस्स सो अभिनिवेसो जातो, न तु अभिनिविसनमत्तेन तस्मा एवं वुत्तन्ति दट्ठब्बं । तेनेवाह "तं किस्स हेतू 'तिआदि । पाळियं मनसो पणिधीति मनसो पत्थना, तथा चित्तुप्पत्तिमत्तमेवाति वृत्तं होति ।
"6
इत्थभावन्ति इदप्पकारभावं । यस्मा पन सो पकारो ब्रह्मत्तभावोयेविधाधिप्पेतो, तस्मा 'ब्रह्मभाव" न्ति वृत्तं । अयं पकारो इत्थं, तस्स भावो इत्थत्तन्ति हि निब्बचनं । केवलन्ति कम्मस्सकताञाणेन असम्मिस्सं सुद्धं । मञ्ञनामत्तेनेवाति दिट्ठिमञ्ञनामत्तेनेव, न अधिमानवसेन । वङ्कछिद्देन वङ्कआणी विय ओनमित्वा वङ्कलद्धिकेन वङ्कलद्धिका ओनमित्वा तस्सेव ब्रह्म॒नो पादमूलं गच्छन्ति, तंपक्खका भवन्तीति अत्थो । ननु च देवानं उपपत्तिसमनन्तरं “इमाय नाम गतिया चवित्वा इमिना नाम कम्मुना इधूपपन्ना "ति पच्चवेक्खणा होति, अथ कस्मा तेसं एवं मञ्ञना सियाति ? पुरिमजातीसु कम्मंस्सकताञाणे सम्मदेव निविट्ठज्झासयानमेव तथापच्चवेक्खणाय पवत्तितो । तादिसानमेव
(१.१.४२-४२)
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(१.१.४३-४५)
एकच्चसस्सतवादवण्णना
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हि तथापच्चवेक्षणा सम्भवति, सा च खो येभुय्यवसेन, इमे पन पुरिमासुपि जातीसु इस्सरकुत्तदिट्ठिवसेन निबद्धाभिनिवेसा एवमेव मञ्जमाना अहेसुन्ति । तथा हि पाळियं वुत्तं "इमिना मय"न्तिआदि ।
४३. ईसति अभिभवतीति ईसो, महन्तो ईसो महेसो, सुप्पतिट्ठितमहेसताय परेहि "महेसो' इति अक्खायतीति महेसक्खो, महेसक्खानं अतिसयेन महेसक्खोति महेसक्खतरोति वचनत्थो। सो पन महेसक्खतरभावो आधिपतेय्यपरिवारसम्पत्तिया कारणभूताय विज्ञायतीति वुत्तं "इस्सरियपरिवारवसेन महायसतरो'ति ।
४४. किं पनेतं कारणन्ति अनुयोगेनाह "सो ततो"तिआदि, तेन "इत्यत्तं आगच्छती''ति वुत्तं इधागमनमेव कारणन्ति दस्सेति । इधेव आगच्छतीति इमस्मिं मनुस्सलोके एव पटिसन्धिवसेन आगच्छति । एतन्ति “ठानं खो पनेतं भिक्खवे, विज्जती"ति वचनं । पाळियं यं अज्ञतरो सत्तोति एत्थ यन्ति निपातमत्तं, कारणत्थे वा एस निपातो, हेतुम्हि वा पच्चत्तनिद्देसो, येन ठानेनाति अत्थो, किरियापरामसनं वा एतं । "इत्थत्तं आगच्छती''ति एत्थ यदेतं इत्थत्तस्स आगमनसङ्खातं ठानं, तदेतं विज्जतीति अत्थो । एस न सो पब्बजति, चेतोसमाधिं फुसति, पुब्बेनिवासं अनुस्सतीति एतेसुपि पदेसु । "ठानं खो पनेतं भिक्खवे, विज्जति, यं अञतरो सत्तो''ति हि इमानि पदानि “पब्बजती"तिआदीहिपि पदेहि पच्चेकं योजेतब्बानि । न गच्छतीति अगारं, गेहं, अगारस्स हितं आगारियं, कसिगोरक्खादिकम्म, तमेत्थ नत्थीति अनागारियं, पब्बज्जा, तेनाह "अगारस्मा"तिआदि। प-सद्देन विसिट्ठो वज-सद्दो उपसङ्कमनेति वुत्तं "उपगच्छती'ति । परन्ति पच्छा, अतिसयं वा, अझं पुब्बेनिवासन्तिपि अत्थो। “न सरतीति वुत्तेयेव अयमत्थो आपज्जतीति दस्सेति “सरितु"न्तिआदिना । अपस्सन्तोति पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणेन अपस्सनहेतु, पस्सितुं असक्कोन्तो हुत्वातिपि वट्टति । मान-सद्दो विय हि अन्त-सद्दो इध सामत्थियत्थो । सदाभावतोति सब्बदा विज्जमानत्ता । जरावसेनापीति एत्थ पि-सद्देन मरणवसेनापीति सम्पिण्डेति ।
४५. खिड्डापदोसिनोति कत्तुवसेन पदसिद्धि, खिड्डापदोसिकाति पन सकत्थवुत्तिवसेन, सद्दमनपेक्खित्वा पन अत्थमेव दस्सेतुं "खिड्डाया"तिआदि वुत्तं । “खिड्डापदोसका'"ति वा वत्तब्बे इ-कारागमवसेन एवं वुत्तं । पदुस्सनं वा पदोसो, खिड्डाय पदोसो खिड्डापदोसो, सो एतेसन्ति खिड्डापदोसिका। “पदूसिकातिपि पाठिं लिखन्ती"ति अञनिकायिकानं पमादलेखतं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
दस्सेति। महाविहारवासीनिकायिकानहि वाचनामग्गवसेन अयं संवण्णना पवत्ता । अपिच तेन पोत्थकारुळ्हकाले पमादलेखं दस्सेति । तम्पि हि पदत्थसोधनाय अट्ठकथाय सोधितनियामेनेव गहेतब्बं, तेनाह “सा अट्ठकथायं नत्थी "ति । वेलं अतिक्कन्तं अतिवेलं, तं । भावनपुंसकञ्चेतं, तेनाह " अतिचिरन्ति, आहारूपभोगकालं अतिक्कमित्वात तं होति । रतिधम्म - सद्दो हस्सखिड्डा - सद्देहि पच्चेकं योजेतब्बो “हस्सखिड्डासु रतिधम्मो रमणसभावो'ति । हसनं हस्सो, केळिहस्सो । खेडनं कीळनं खिड्डा, कायिकवाचसिककीळा | अनुयोगवसेन तंसमापन्नाति दस्सेन्तो आह “हस्सरतिधम्मञ्चेवा' "तिआदि । कीळा येसं ते केळिनो, तेसं हस्सो तथा । कीळाहस्सपयोगेन उप्पज्जनकसुखञ्चेत्थ केळिहस्ससुखं । तदवसिट्ठकीळापयोगेन उप्पज्जनकं कायिकवाचसिककीळासुखं ।
" ते किरा "तिआदि वित्थारदस्सनं । किर - सद्दो हेत्थ वित्थारजोतकोयेव, न तु अनुस्सवनारुचियादिजोतको तथायेव पाळियं, अट्ठकथासु च वुत्तत्ता । सिरिविभवेनाति सरीरसोभग्गादिसिरिया, परिवारादिसम्पत्तिया च । नक्खत्तन्ति छणं । येभुय्येन हि नक्खत्तयोगेन कतत्ता तथायोगो वा होतु, मा वा, नक्खत्तमिच्चेव वुच्चति । आहार एत्थ को देवानमाहारो, का च तेसमाहारवेलाति ? सब्बेसम्पि कामावचरदेवानं सुधाहारो । द्वादसपापधम्मविग्घातेन हि सुखस्स धारणतो देवानं भोजनं “ सुधा "ति वुच्चति । सा पन सेता सङ्घपमा अतुल्यदस्सना सुचि सुगन्धा पियरूपा । यं सन्धाय सुधाभोजनजातके वुत्तं -
“सद्धूपमं सेत 'मतुल्यदस्सनं,
सुचिं सुगन्धं पियरूप 'मब्भुतं । अदिट्ठपुब्बं मम जातु चक्खुभि,
का देवता पाणिसु किं सुधो दही 'ति । । ( जा० २.२१.२२७)।
" भुत्ता च सा द्वादसहन्ति पापके,
खुद्द पिपासं अरतिं दरक्लमं ।
( १.१.४५-४५)
को धूपनाहञ्च विवादपेसुणं,
सी तन्दिञ्च रसुत्तमं इदन्ति २.२१.२२९) ।
सा च हेट्टिमेहि हेट्ठिमेहि उपरिमानं उपरिमानं पणीततमा होति तं यथासकं
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च ।।
(जा०
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(१.१.४५-४५)
एकच्चसस्सतवादवण्णना
परिमितदिवसवसेन दिवसे दिवसे भुञ्जन्ति । केचि पन वदन्ति “बिळारपदप्पमाणं सुधाहारं ते भुञ्जन्ति, सो जिव्हाय ठपितमत्तो याव केसग्गनखग्गा काय फरति, यथासकं गणितदिवसवसेन सत्त दिवसे यापनसमत्थो होती 'ति । केचिवादे पनेत्थ बिळारपद - सद्दो सुवण्णसङ्घातस्स सङ्ख्याविसेसस्स वाचको । पमाणतो पन उदुम्बरफलप्पमाणं, यं पाणितलं कबळग्गहन्तिपि वुच्चति । वृत्तहि मधुकोसे -
" पाणिरक्खो पिचु चापि सुवण्णकमुदुम्बरं । बिळारपदकं पाणि-तलं तं कबळग्गह "न्ति । ।
" निरन्तरं खादन्तापि पिवन्तापी "ति इदं परिकप्पनावसेन वुत्तं न पन एवं नियमवसेन तथा खादनपिवनानमनियमभावतो । कम्मजते जस्स बलवभावो उळारपुञ्ञनिब्बत्तत्ता, उळारगरुसिनिद्धसुधाहारजीरणतो च । करजकायस्स मन्दभावो पन सुखुमालभावतो । तेनेव हि भगवा इन्दसालगुहायं पकतिपथवियं पतिठ्ठातुं असक्कोन्तं सक्कं देवराजानं “ओळारिकं कायं अधिट्ठेही 'ति अवोच । मनुस्सानं पन कम्मजतेजस् मन्दभावो, करजकायस्स बलवभावो च वृत्तविपरीतेन वेदितब्बो । करजकायोति एत्थ को वुच्चति सरीरं, तत्थ पवत्तो । रजो करजो, किं तं ? सुक्कसोणितं । तहि "रागो रजो न च पन रेणु वुच्चती "ति ( महानि० २०९ चूळनि० ७४) एवं वुत्तरागरजफलत्ता सरीरवाचकेन क- सद्देन विसेसेत्वा कारणवोहारेन "करजो "ति वुच्चति । तेन सुक्कसोणितसङ्घातेन करजेन सम्भूतो कायो करजकायोति आचरिया । तथा हि कायो मातापेत्तिकसम्भवोति वुत्तो । महाअस्सपूरसुत्तन्तटीकायं पन " करीयति गब्भासये खिपीयतीति करो, सम्भवो, करतो जातोति करजो, मातापेत्तिकसम्भवोति अत्थो । मातु आदीनं सण्ठापनवसेन करतो हत्थतो जातोति करजोति अपरे । उभयथापि करजकायन्ति चतुसन्ततिरूपमाहा "ति वृत्तं । करोति पुत्ते निब्बत्तेतीति करो, सुक्कसोणितं, तेन जातो करजोतिपि वदन्ति । तथा असम्भूतोपि च देवादीनं कायो तब्बोहारेन “करजकायो”ति वुच्चति यथा “पूतिकायो, जरसिङ्गालो 'ति । तेसन्ति मनुस्सानं । अच्छयागु नाम पसन्ना अकसटा यागु । वत्थुन्ति करजकायं । एकं आहारवेलन्ति एकदिवसमत्तं, केसञ्चि मतेन पन सत्ताहं ।
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एवं अन्वयतो ब्यतिरेकतो च दस्सेत्वा उपमावसेनपि तमाविकरोन्तो “यथा नामा'तिआदिमाह । तत्तपासाणेति अच्चुण्हपासाणे । रत्तसेतपदुमतो अवसिद्धं उप्पलं ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.४७-४८-४७-४८)
अट्ठकथायन्ति महाअट्ठकथायं । अविसेसेनाति “देवान''न्ति अविसेसेन, देवानं कम्मजतेजो बलवा होति, करजं मन्दन्ति वा कम्मजतेजकरजकायानं बलवमन्दतासङ्घात कारणसामनेन । तदेतहि कारणं सब्बेसम्पि देवानं समानमेव, तस्मा सब्बेपि देवा गहेतब्बाति वुत्तं होति । कबळीकारभूतं सुधाहारं उपनिस्साय जीवन्तीति कबळीकाराहारूपजीविनो। केचीति अभयगिरिवासिनो। “खिड्डापदुस्सनमत्तेनेव हेते खिड्डापदोसिकाति वुत्ता"ति अयं पाठो "तेयेव चवन्तीति वेदितब्बा"ति एतस्सानन्तरे पठितब्बो तदनुसन्धिकत्ता । अयञ्हेत्थानुसन्धि - यदि सब्बेपि एवं करोन्ता कामावचरदेवा चवेय्युं, अथ कस्मा “खिड्डापदोसिका'"ति नामविसेसेन भगवता वुत्ताति? विचारणाय एवमाहाति, एतेन इममत्थं दस्सेति “सब्बेपि देवा एवं चवन्तापि खिड्डाय पदुस्सनसभावमत्तं पति नामविसेसेन तथा वुत्ता''ति । यदेके वदेय्युं “केचिवादपतिद्वापकोयं पाठो''ति, तदयुत्तमेव इति-सद्दन्तरिकत्ता, अन्ते च तस्स अविज्जमानत्ता । अत्थिकेहि पन तस्स केचिवादसमवरोधनं अन्ते इतिसद्दो योजेतब्बोति ।
४७-४८. मनोपदोसिनोति कत्तुवसेन पदसिद्धि, मनोपदोसिकाति च सकत्थवुत्तिवसेन, अत्थमत्तं पन दस्सेतुं "मनेना"तिआदि वुत्तं । “मनोपदोसका"ति वा वत्तब्बे इ-कारागमवसेन एवं वुत्तं । मनेनाति इस्सापकतत्ता पदुद्वेन मनसा । अपरो नयो - उसूयनवसेन मनसा पदोसो मनोपदोसो, विनासभूतो सो एतेसमत्थीति मनोपदोसिकाति । "ते अञमचम्हि पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता ते देवा तम्हा काया चवन्तीति वचनतो "एते चातुमहाराजिका"ति आह । मनेन पदुस्सनमत्तेनेव हेते मनोपदोसिकाति वुत्ता। "तेसु किरा"तिआदि वित्थारो । रथेन वीथिं पटिपज्जतीति उपलक्खणमत्तं अञहि अञत्थापि पटिपज्जनसम्भवतो। एतन्ति अत्तनो सम्पत्तिं । उद्धमातो वियाति पीतिया करणभूताय उन्नतो विय । भिज्जमानो वियाति ताय भिज्जन्तो विय, पीतिया वा कत्तुभूताय भञ्जितो विय । कुद्धा नाम सुविजानना होन्ति, तस्मा कुद्धभावमस्स ञत्वाति अत्थो।।
अकुद्धो रक्खतीति कुद्धस्स सो कोधो इतरस्मिं अकुज्झन्ते अनुपादानो चेव एकवारमत्तं उप्पत्तिया अनासेवनो च हुत्वा चावेतुं न सक्कोति, उदकन्तं पत्वा अग्गि विय निब्बायति, तस्मा अकुद्धो इतरं चवनतो रक्खति । उभोसु पन कुद्धेसु भिय्यो भिय्यो अञमञम्हि परिवड्ढनवसेन तिखिणसमुदाचारो निस्सयदहनरसो कोधो उप्पज्जमानो हदयवत्थु निदहन्तो अच्चन्तसुखुमालकरजकार्य विनासेति, ततो सकलोपि अत्तभावो
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(१.१.४९-५२-५३)
अन्तानन्तवादवण्णना
अन्तरधायति, तमत्थं दस्सेतुमाह “ उभोसु पना "तिआदि । तथा चाह पाळियं "ते अञ्ञमञ्ञम्हि पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता ते देवा तम्हा काया चवन्ती 'ति । एकस्स कोधो इतरस्स पच्चयो होति, तस्सपि कोधो इतरस्स पच्चयो होतीति एत्थ कोधस्स भिय्यो भिय्यो परिवड्डनाय एव पच्चयभावो वेदितब्बो, न चवनाय निस्सयदहनरसेन अत्तनोयेव कोधेन हदयवत्थं निदहन्तेन अच्चन्तसुखुमालस्स करजकायस्स चवनतो । कन्दन्तानंयेव ओरोधानन्ति अनादरत्थे सामिवचनं । अयमेत्थ धम्मताति अयं तेसं करजकायमन्दताय, तथाउप्पज्जनकस्स च कोधस्स बलवताय ठानसो चवनभावो एतेसु देवेसु रूपारूपधम्मानं धम्मनियामो सभावोति अत्थो ।
४९-५२. चक्खादीनं भेदं पस्सतीति विरोधिपच्चयसन्निपाते विकारापत्तिदस्सनतो, अन्ते च अदस्सनूपगमनतो विनासं पस्सति ओळारिकत्ता रूपधम्मभेदस्स । पच्चयं दत्वाति अनन्तरपच्चयादिवसेन पच्चयसत्तिं दत्वा पच्चयो हुत्वाति वुत्तं होति, तस्मा न पस्ती सम्बन्धो, बलवतरम्पि समानं इमिना कारणेन न पस्सतीति अधिप्पायो । बलवतरन्ति च चित्तस्स हुतरभेदं सन्धाय वुत्तं । तथा हि एकस्मिं रूपे धरन्तेयेव सोळस चित्तानि भिज्जन्ति । चित्तस्स भेदं न पस्सतीति एत्थ खणे खणे भिज्जन्तम्पि चित्तं परस्स अनन्तरपच्चयभावेनेव भिज्जति, तस्मा पुरिमचित्तस्स अभावं परिच्छात्वा वि पच्छिमचित्तस्स उप्पत्तितो भावपक्खो बलवतरो पाकटोव होति, न अभावपक्खोति इदं कारणं दस्सेतुं "चित्तं पना 'तिआदि वृत्तन्ति दट्ठब्बं । अयञ्चत्थो अलाभचक्कनिदस्सनेन दीपेतब्बो । यस्मा पन तक्कीवादी नानत्तनयस्स दुरवधानताय, एकत्तनयस्स च मिच्छागहितत्ता “यदेविदं विञ्ञाणं सब्बदापि एवरूपेन पवत्तति, अयं मे अत्ता निच्चो 'तिआदिना अभिनिवेस जनेसि, तस्मा तमत्थं "सो तं अपस्सन्तो "तिआदिना सह उपमाय विभावेति ।
अन्तानन्तवादवण्णना
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५३.
अन्तानन्तसहचरितो वादो अन्तानन्तो यथा “कुन्ता पचरन्ती "ति, अन्तानन्तसन्निस्सयो वा यथा " मञ्चा उक्कुट्ठि करोन्तीति, सो एतेसन्ति अन्तानन्तिकाति अत्थं दस्सेतुं “अन्तानन्तवादा "ति वृत्तं । वृत्तनयेन अन्तानन्तसहचरितो, तन्निस्सयो वा, अन्तानन्तेसु वा पवत्तो वादो एतेसन्ति अन्तानन्तवादा । इदानि “अन्तवा अयं लोको 'तिआदिना वक्खमानपाठानुरूपं अत्थं विभजन्तो “अन्तं वा 'तिआदिमाह । अम
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३७४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.५३-५३)
गच्छति भावो ओसानमत्थाति हि अन्तो, मरियादा, तप्पटिसेधनेन अनन्तो। अन्तो च अनन्तो च अन्तानन्तो च नेवन्तनानन्तो च अन्तानन्तो त्वेव वुत्तो सामञनिद्देसेन, एकसेसेनवा "नामरूपपच्चया सळायतन"न्तिआदीसु (म० नि० ३.१२६; सं० नि० १.२.१; उदा० १) विय । चतुत्थपदहेत्थ ततियपदेन समानत्थन्ति अन्तानन्तपदेनेव यथावुत्तनयद्वयेन चतुधा अत्थो विझायति | कस्स पनायं अन्तानन्तोति ? लोकीयति संसारनिस्सरणत्थिकेहि दिट्ठिगतिकेहि अवपस्सीयति, लोकियन्ति वा एत्थ तेहि पुञापुञानि, तब्बिपाको चाति “लोको''ति सङ्ख्यं गतस्स अत्तनो। तेनाह पाळियं “अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ती''ति । को पनेसो अत्ताति? झानविसयभूतं कसिणनिमित्तं । अयहि दिह्रिगतिको पटिभागनिमित्तं चक्कवाळपरियन्तं, अपरियन्तं वा वड्डनवसेन, तदनुस्सवादिवसेन च तत्थ लोकसञ्जी विहरति, तथा च अट्ठकथायं वक्खति "तं 'लोको'ति गहेत्वा"ति (दी० नि० अट्ठ० १.५४-६०) केचि पन वदन्ति “झानं, तंसम्पयुत्तधम्मा च इध अत्ता, लोकोति च गहिता''ति, तं अट्ठकथाय न समेति ।
एत्थाह - युत्तं ताव पुरिमानं तिण्णम्पि वादीनं अन्तानन्तिकत्तं अन्तञ्च अनन्तञ्च अन्तानन्तञ्च आरब्भ पवत्तवादत्ता, पच्छिमस्स पन तक्किकस्स तदुभयपटिसेधनवसेन पवत्तवादत्ता कथं अन्तानन्तिकत्तन्ति ? तदुभयपटिसेधनवसेन पवत्तवादत्ता एव । अन्तानन्तपटिसेधनवादोपि हि सो अन्तानन्तविसयोयेव तमारब्भ पवत्तत्ता । एतदत्थमेव हि सन्धाय अट्ठकथायं “अन्तं वा अन्तन्तं वा अन्तानन्तं वा नेवन्तानानन्तं वा आरम्भ पवत्तवादा"ति वुत्तं । अथ वा यथा ततियवादे देसपभेदवसेन एकस्सेव लोकस्स अन्तवता, अनन्तवता च सम्भवति, एवमेत्थ तक्कीवादेपि कालपभेदवसेन एकस्सेव तदुभयसम्भवतो अञमअपटिसेधेन तदुभयञ्जव वुच्चति, द्विन्नम्पि च पटिसेधानं परियुदासता । कथं ? अन्तवन्तपटिसेधेन हि अनन्तवा वुच्चति, अनन्तवन्तपटिसेधेन च अन्तवा । द्विपटिसेधो हि पकतियत्थञापको। इति पटिसेधनवसेन अन्तानन्तसङ्घातस्स उभयस्स वुत्तत्ता युत्तोयेव तब्बिसयस्स पच्छिमस्सापि अन्तानन्तिकभावोति । यदेवं सो अन्तानन्तिकवादभावतो ततियवादसमवरोधेयेव सियाति ? न, कालपभेदस्स अधिप्पेतत्ता। देसपभेदवसेन हि अन्तानन्तिको ततियवादी विय पच्छिमोपि तक्किको कालपभेदवसेन अन्तानन्तिको होति । कथं ? यस्मा अयं लोकसञितो अत्ता अनन्तो कदा चि सक्खिदिट्ठोति अधिगतविसेसेहि महेसीहि अनुसुय्यति, तस्मा नेवन्तवा । यस्मा पनायं अन्तवा कदाचि, सक्खिदिट्ठोति तेहियेव अनुसुय्यति, तस्मा नानन्तवाति । अयं तक्किको अवड्डितभावपुब्बकत्ता पटिभागनिमित्तानं वड्डितभावस्स उभयथा लब्भमानस्स परिकप्पितस्स अत्तनो
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(१.१.५३-५३)
अन्तानन्तवादवण्णना
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अप्पच्चक्खकारिताय अनुस्सवादिमत्ते ठत्वा वडितकालवसेन “नेवन्तवा''ति पटिक्खिपति, अवड्डितकालवसेन पन “नानन्तवा''ति, न पन अन्ततानन्ततानं अच्चन्तमभावेन यथा तं "नेवसञ्जानासा''ति । यथा चानुस्सुतिकतक्किनो, एवं जातिस्सरतक्किआदीनम्पि वसेन यथासम्भवं योजेतब् ।
केचि पन यदि पनायं अत्ता अन्तवा, एवं सति दूरदेसे उपपज्जनानुस्सरणादिकिच्चनिब्बत्ति न सिया । अथ अनन्तवा, एवञ्च इध ठितस्सेव देवलोकनिरयादीसु सुखदुक्खानुभवनं सिया । सचे पन अन्तवा चेव अनन्तवा च, एवम्पि तदुभयदोससमायोगो सिया । तस्मा “अन्तवा, अनन्तवा''ति च अब्याकरणीयो अत्ताति एवं तक्कनवसेन चतुत्थवादप्पवत्तिं वण्णेन्ति | यदि पनेस वुत्तनयेन अन्तानन्तिको भवेय्य, अथ कस्मा “ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु 'अन्तवा अयं लोको परिवटुमो ति, तेसं मुसा"तिआदिना (दी० नि० १.५७) तस्स पुरिमवादत्तयपटिक्खेपो वुत्तोति ? पुरिमवादत्तयस्स तेन यथाधिप्पेतप्पकारविलक्खणभावतो । तेनेव हि कारणेन तथा पटिक्खेपो वुत्तो, न पन तस्स अन्तानन्तिकत्ताभावेन, न च परियन्तरहितदिट्ठिवाचाहि पटिक्खेपेन, अवस्सञ्चेतं एवमेव आतब्बं । अञथा हेस अमराविक्खेपपक्ख व भजेय्य चतुत्थवादो । न हि अन्तताअनन्ततातदुभयविनिमुत्तो अत्तनो पकारो अत्थि, तक्कीवादी च युत्तिमग्गकोयेव । कालभेदवसेन च एकस्मिम्पि लोके तदुभयं नो न युज्जतीति । भवतु ताव पच्छिमवादीद्वयस्स अन्तानन्तिकभावो युत्तो अन्तानन्तानं वसेन उभयविसयत्ता तेसं वादस्स । कथं पन पुरिमवादीद्वयस्स पच्चेकं अन्तानन्तिकभावो युत्तो सिया एकेकविसयत्ता तेसं वादस्साति ? वुच्चते - समुदाये पवत्तमान-सद्दस्स अवयवेपि उपचारवुत्तितो । समुदितेसु हि अन्तानन्तवादीसु पवत्तमानो अन्तानन्ति क-सद्दो तत्थ निरुळहताय तदवयवेसुपि पच्चेकं अन्तानन्तिकवादीसु पवत्तति यथा “अरूपज्झानेसु पच्चेकं अट्ठविमोक्खपरियायो", यथा च "लोके सत्तासयो''ति । अथ वा अभिनिवेसतो पुरिमकाले पवत्तवितक्कवसेन अयं तत्थ वोहारो कतो। तेसहि दिट्ठिगतिकानं तथारूपचेतोसमाधिसमधिगमतो पुब्बकाले “अन्तवा नु खो अयं लोको, उदाहु अनन्तवा''ति उभयाकारावलम्बिनो वितक्कस्स वसेन निरुळहो अन्तानन्तिकभावो पच्छा विसेसलाभेन तेसु अन्तानन्तवादेसु एकस्सेव वादस्स सङ्गहे उप्पन्नेपि पुरिमसिद्धरुळ्हिया वोहारीयति यथा “सब्बे सत्ता मरणधम्मा'तिआदीसु (सं० नि० १.१.१३३) अरहति सत्तपरियायो, यथा च भवन्तरगतेपि मण्डूकादिवोहारोति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.५४-६०-६२)
५४-६०. पटिभागनिमित्तवड्डनाय हेट्ठा, उपरि, तिरियञ्च चक्कवाळपरियन्तगतागतवसेन अन्तानन्तभावोति दस्सेतुं "पटिभागनिमित्त"न्तिआदि वुत्तं । तन्ति पटिभागनिमित्तं । उद्धमधो अवड्डत्वा तिरियं वड्ढत्वाति एत्थापि "चक्कवाळपरियन्तं कत्वाति अधिकारवसेन योजेतब्बं । वुत्तनयेनाति "तक्कयतीति तक्की''तिआदिना (दी० नि० अठ्ठ० १.३४) सद्दतो, "चतुब्बिधो तक्की''तिआदिना (दी० नि० अठ्ठ० १.३४) अत्थतो च सस्सतवादे वृत्तनयेन। दिवपुब्बानुसारेनाति दस्सनभूतेन विज्ञआणेन उपलद्धपुब्बस्स अन्तवन्तादिनो अनुस्सरणेन, एवञ्च कत्वा अनुस्सुतितक्कीसुद्धतक्कीनम्पि इध सङ्गहो सिद्धो होति । अथ वा दिट्ठग्गहणेनेव "नच्चगीतवादितविसूकदस्सना''तिआदीसु (दी० नि० १.१०, १९४) विय सुतादीनम्पि गहितभावो वेदितब्बो । “अन्तवा"तिआदिना इच्छितस्स अत्तनो सब्बदाभावपरामसनवसेनेव इमेसं वादानं पवत्तनतो सस्सतदिह्रिसङ्गहो दट्टब्बो । तथा हि वक्खति “सत्तेव उच्छेददिट्ठियो, सेसा सस्सतदिट्ठियो''ति (दी० नि० अट्ट० १.९७, ९८)।
अमराविक्खेपवादवण्णना
६१. न मरतीति “एवमेवाति सन्निट्ठानाभावेन न उपच्छिज्जति, अनेकन्तिकायेव होतीति वुत्तं होति । परियन्तरहिताति ओसानविगता, अनिट्ठङ्गताति अत्थो। विविधोति “एवम्पि मे नो"तिआदिना नानप्पकारो। खेपोति सकवादेन परवादानं खिपनं । को पनेसो अमराविक्खेपोति ? तथापवत्तो दिट्टिप्पधानो तादिसाय वाचाय समुट्ठापको चित्तुप्पादोयेव । अमराय दिट्ठिया, वाचाय च विक्खिपन्ति, विविधमपनेन्तीति वा अमराविक्खेपिनो, तेयेव “अमराविक्खेपिका''तिपि युज्जति । “मच्छजाति" च्चेव अवत्वा "एका"ति वदन्तो मच्छजातिविसेसो एसोति दस्सेति । इतो चितो च सन्धावति एकस्मिं सभावे अनवट्ठानतो । यथा गाहं न उपगच्छति, तथा सन्धावनतो, एतेन अमराय विक्खेपो तथा, सो वियाति अमराविक्खेपोति अत्थमाह “सा उम्मुज्जननिमुज्जनादिवसेना"तिआदिना विक्खेपपदत्थेन उपमितत्ता । अयमेव हि अत्थो आचरियसारिपुत्तत्थेरेनापि सारत्थदीपनियं (सारत्थ टी० १.ततियसङ्गीतिकथावण्णना) वुत्तो । अमरा विय विक्खेपो अमराविक्खेपोति केचि । अथ वा अमरा विय विक्खिपन्तीति अमराविक्खेपिनो, तेयेव अमराविक्खेपिका ।
टी०
६२. विक्खेपवादिनो उत्तरिमनुस्सधम्मे, अब्याकतधम्मे च (अकुसलधम्मपि दी० नि० १.६२) सभावभेदवसेन पटिविज्झितुं आणं नत्थीति कुसलाकुसलपदानं
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(१.१.६३-६३)
अमराविक्खेपवादवण्णना
अत्थो तो ।
विघातो विहेसा
कुसलाकुसलकम्मपथवसेनेव कायिकदुक्खं "विप्पटिसारुप्पत्तिया "ति दोमनस्सस्स हेतुभावेन वचनतो, तेनाह “दुक्खं भवेय्या "ति । मुसावादेति निमित्ते भुम्मवचनं, निस्सक्कत्थे वा । मुसावादहेतु, मुसावादतो वा ओत्तप्पेन चेव हिरिया चाति अत्थो । कीदिसं अमराविक्खेपमापज्जतीति आह " अपरियन्तविक्खेप "न्ति, तेन अमरासदिसविक्खेपसङ्घातं दुतियनयं निवत्तेति । यथावुत्ते हि नयद्वये पठमनयवसेनायमत्थो दस्सितो, दुतियनयवसेन पन अमरासदिसविक्खेपं दस्सेतुं " इदं कुसलन्ति पुट्ठो” तिआदिवचनं वक्खति ।
" एवन्ति
" एवन्तिपि मे नो" ति यं तया पुट्ठे, तं एवन्तिपि मे लद्धि नो होतीति अत्थो । एवं सब्बत्थ यथारहं । अनियमितविक्खेपोति सस्सतादीसु एकस्मिम्पि पकारे अट्ठत्वा विक्खेपकरणं, परवादिना यस्मिं किस्मिञ्चि पकारे पुच्छिते तस्स पटिक्खेपविक्खेपोति वृत्तं होति । अथ वा अपरियन्तविक्खेपदस्सनंयेव अट्ठकथायं कतं “एवन्तिपि मे नोति अनियमितविक्खेपो’’तिआदिना, “इदं कुसलन्ति वा अकुसलन्ति वा पुट्ठोतिआदिना च । मे नोतिआदिना हि अनियमेत्वा, नियमेत्वा च सस्सतेकच्चसस्सतुच्छेदतक्कीवादानं पटिसेधनेन तं तं वादं पटिक्खिपतेव अपरियन्तविक्खेपवादत्ता । “अमराविक्खेपिनोति दस्सेत्वा अत्तना पन अनवट्ठितवादत्ता न किस्मिञ्चि पक्खे अवतिट्ठतीति इममत्थं दस्सेतुं “ सयं पन इदं... पे०... न ब्याकरोती 'ति आह । इदानि कुसलादीनं अब्याकरणेन तदेव अनवट्ठानं विभावेति “इदं कुसलन्ति पुट्ठोतिआदिना । तेनेवाह “एकस्मिम्पि पक्खे न तिट्ठतीति । किं नो नोति ते लद्धीति नेव न होतीति तव लद्धि होति किन्ति अत्थो । नो नोतिपि मे नोति नेव न होतीतिपि मे लद्धि नो होति ।
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६३. अत्तनो पण्डितभावविसयानञ्ञेव रागादीनं वसेन योजनं कातुं “अजानन्तोपी''तिआदिमाह । सहसाति अनुपधारेत्वा वेगेन । “भद्रमुखाति पण्डितानं समुदाचिण्णमालपनं, सुन्दरमुखाति अत्थो । तत्थाति तस्मिं ब्याकरणे, निमित्ते चेतं भुम्मं । छन्दरागपदानं समानत्थभावेपि विकप्पनजोतकेन वा सद्देन योग्यत्ता गोबलीबद्दादिनयेन भिन्नत्थताव युत्ताति आह “ छन्दो दुब्बलरागो, रागो बलवरागो" ति । दोसपटिघेसुपि एसेव नयो । एत्तकम्पि नामाति एत्थ अपि सद्दो सम्पिण्डने वत्तति, नाम - सद्दो गरहायं । न केवलं इतो उत्तरितरमेव, अथ खो एत्तकम्पि न जानामि नाम, पगेव तदुत्तरिजाननेति अत्थो । परेहि कतसक्कारसमानविसयानं पन रागादीनं वसेन अयं योजना - कुसलाकुसलं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.६४-६४)
यथाभूतं अपजानन्तोपि येसमहं समवायेन कुसलमेव “कुसल''न्ति, अकुसलमेव "अकुसल''न्ति च ब्याकरेय्यं, तेसु तथा ब्याकरणहेतु “अहो वत रे पण्डितो"ति सक्कारसम्मानं करोन्तेसु मम छन्दो वा रागो वा अस्साति। दोसपटियेसुपि वुत्तविपरियायेन योजेतब्बं । "तं ममस्स उपादानं, सो ममस्स विघातो''ति इदं अभिधम्मनयेन (ध० स० १२१९ आदयो) यथालाभवचनं यथासम्भवं योजेतब्बन्ति आह "छन्दरागद्वय"न्तिआदि । तण्हादिट्ठियो एव हि “उपादान''न्ति अभिधम्मे वुत्ता (ध० स० १२१९ आदयो) इदानि सुत्तन्तनयेन अविसेसयोजनं दस्सेति “उभयम्पि वा"तिआदिना । सुत्तन्ते हि दोसोपि “उपादानन्ति वुत्तो “कोधुपादानविनिबन्धा विघातं आपज्जन्ती''तिआदीसु (दी० नि० टी० १.६३) "उभयम्पी"ति च अत्थतो वुत्तं, न सद्दतो चतुन्नम्पि सद्दानमत्थद्वयवाचकत्ता । दळ्हग्गहणन्ति अमुञ्चनग्गहणं । पटिघोपि हि आरम्मणं न मुञ्चति उपनाहादिवसेन पवत्तनतो, लोभस्सेव उपादानभावेन पाकटत्ता दोसस्सापि उपादानभावं दस्सेतुं इदं वुत्तं । विहननं विहिंसनं विबाधनं । रागोपि हि परिळाहवसेन सारद्धवुत्तिताय निस्सयं विहनति । “रागो ही"तिआदिना रागदोसानं उपादानभावे विसेसदस्सनमुखेन तदत्थसमत्थनं । विनासेतुकामताय आरम्मणं गण्हातीति सम्बन्धो । इतीति तस्मा गहणविहननतो ।
६४. पडति सभावधम्मे जानाति, यथासभावं वा गच्छतीति पण्डा, सा येसं ते पण्डिताति अत्थं दस्सेति “पण्डिच्चेना"तिआदिना | पण्डितस्स भावो पण्डिच्चं, पञ्जा । येन हि धम्मेन पवत्तिनिमित्तभूतेन युत्तो “पण्डितो"ति वुच्चति, सोयेव धम्मो पण्डिच्चं। तेन सुतचिन्तामयपञ्जा वुत्ता तासमेव विसयभावतो । समापत्तिलाभिनो हि भावनामयपञ्जा । “निपुणा'"ति इमिना पन कम्मनिब्बत्तं पटिसन्धिपञासङ्खातं साभाविकणं वुत्तन्ति आह "सण्हसुखुमबुद्धिनो"ति । अत्थन्तरन्ति अत्थनानत्तं, अत्थमेव वा । "विज्ञातपरप्पवादा'ति एतेन कत-सद्दस्स किरियासामञवाचकत्ता “कतविज्जो'"तिआदीसु विय कत-सद्दो आणानुयुत्ततं वदतीति दस्सेति । “कतवादपरिचया"ति एतेन पन “कतसिप्पो''तिआदीसु विय समुदाचिण्णवादतं । उभिन्नमन्तरा पन समुच्चयद्वयेन सामञनिद्देसं, एकसेसं वाति दट्टब् । वालवेधीनं रूपं सभावो विय रूपमेतेसन्ति वालवेधिरूपाति आह "वालवेधिधनुग्गहसदिसा''ति । सतधा भिन्नस्स वालग्गस्स अंसुकोटिवेधकधनुग्गहसदिसाति अत्थो । तादिसोयेव हि "वालवेधी"ति अधिप्पेतो। मञ-सद्दो उपमाजोतकोति वुत्तं "भिन्दन्ता विया"ति। पञ्जागतेनाति पापभेदेन, पञआय एव वा। समनुयुञ्जना लद्धिया पुच्छा। समनुगाहना तंकारणस्साति दस्सेति "किं कुसल"न्तिआदिना ।
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(१.१.६५-६६-६५-६६)
अमराविखेपवादवण्णना
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समनुभासनापि ओवादवसेन समनुयुञ्जनायेवाति आह "समनुयुञ्जय्यु"न्ति। “न सम्पायेय्य''न्ति एत्थ द-कारस्स य-कारादेसतं, एय्य-सद्दस्स च सामत्थियत्थतं दस्सेतुं “न सम्पादेय्य"न्तिआदि वुत्तं ।
६५-६६. मन्दा अतिक्खा पञ्जा यस्साति मन्दपञो, तेनाह “अपञस्सेवेतं नाम''न्ति । “मोहमूहो''ति वत्तब्बे ह-कारलोपेन "मोमूहो"ति वुत्तं, तञ्च अतिसयत्थदीपकं परियायद्वयस्स अतिरेकत्थभावतोति यथा “पदट्ठान''न्ति वुत्तं “अतिसम्मूळ्हो'ति । सिद्धे हि सति पुनारम्भो नियमाय वा होति, अत्थन्तरविज्ञापनाय वा । यथा पुब्बे कम्मुना आगतो, तथा इधापीति तथागतो, सत्तो। एत्थ च कामं पुरिमानम्पि तिण्णं कुसलादिधम्मसभावानवबोधतो अत्थेव मन्दभावो, तेसं पन अत्तनो कुसलादिधम्मानवबोधस्स अवबोधनतो विसेसो अत्थीति | पच्छिमोयेव तदभावतो मन्दमोमूहभावेन वुत्तो। ननु च पच्छिमस्सापि अत्तनो धम्मानवबोधस्स अवबोधो अस्थियेव “अत्थि परो लोको'ति इति चे मे अस्स, 'अस्थि परो लोकोति इति ते नं ब्याकरेय्यं, एवन्तिपि मे नो''तिआदिवचनतोति ? किञ्चापि अस्थि, न पन तस्स पुरिमानं विय अपरिञातधम्मब्याकरणनिमित्तमुसावादादिभायनजिगुच्छनाकारो अस्थि, अथ खो महामूळहोयेवाति तथावेस वुत्तो। अथ वा “एवन्तिपि मे नो''तिआदिना पुच्छाय विखेपकरणत्थं "अस्थि परो लोको"ति इति चे मं पुच्छसीति पुच्छाठपनमेव तेन दस्सीयति, न अत्तनो धम्मानवबोधावबोधोति अयमेव विसेसेन “मन्दो मोमूहो''ति वुत्तो । तेनेव हि तथावादीनं सञ्चयं बेलट्ठपुत्तं आरब्भ “अयञ्च इमेसं समणब्राह्मणानं सब्बबालो सब्बमूळ्हो''ति (दी० नि० १.१८१) वुत्तं । तत्थ “अस्थि परो लोको'ति सस्सतदस्सनवसेन, सम्मादिट्ठिवसेन वा पुच्छा | यदि हि दिह्रिगतिको सस्सतदस्सनवसेन पुच्छेय्य, यदि च सम्मादिट्ठिको सम्मादस्सनवसेनाति द्विधापि अत्थो वट्टति । “नत्थि परो लोको''ति नत्थिकदस्सनवसेन, सम्मादिट्ठिवसेन वा, “अस्थि च नत्थि च परो लोको''ति उच्छेददस्सनवसेन, सम्मादिट्ठिवसेन वा, “नेवत्थि न नत्थि परो लोको"ति वुत्तपकारत्तयपटिक्खेपे सति पकारन्तरस्स असम्भवतो अत्थितानस्थिताहि न वत्तब्बाकारो परो लोकोति विक्खेप व पुरक्खारेन, सम्मादिट्ठिवसेन वा पुच्छा। सेसचतुक्कत्तयेपि वुत्तनयानुसारेन अत्थो वेदितब्बो। पुझसङ्खारत्तिको विय हि कायसङ्घारत्तिकेन पुरिमचतुक्कसङ्गहितो एव अत्थो सेसचतुक्कत्तयेन सत्तपरामासपुञादिसफलताचोदनानयेन (अत्तपरामासपुञादिफलताचोदनानयेन दी० नि० टी० १.६५, ६६) सङ्गहितो । एत्थ हि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
ततियचतुक्केन पुञ्ञादिकम्मसफलताय, सेसचतुक्कत्तयेन च सत्तपरामासताय चोदनानयो तट्ठब्बं ।
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अमराविक्खेपिको पन सस्सतादीनं अत्तनो अरुच्चनताय सब्बत्थ “एवन्तिपि मे नो' 'तिआदिना विक्खेपञ्ञेव करोति । तत्थ “ एवन्तिपि मे नो"तिआदि तत्थ तत्थ पुच्छिताकारपटिसेधनवसेन विक्खेपाकारदस्सनं । कस्मा पन विक्खेपवादिनो पटिक्खेपोव सब्बथ वुत्त । ननु विक्खेपपक्खस्स " एवमेव "न्ति अनुजाननम्पि विक्खेपपक्खे अवट्ठानतो युत्तरूपं सियाति ? न तत्थापि तस्स सम्मूळहत्ता, पटिक्खेपवसेनेव च विक्खेपवादस्स पवत्तनतो । तथा हि सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो रज्ञा अजातसत्तुना सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो परलोकत्थितादीनं पटिसेधनमुखेनेव विक्खेपं ब्याकासि ।
"
एत्थाह – ननु चायं सब्बोपि अमराविक्खेपिको कुसलादयो धम्मे, परलोकत्थितादीनि च यथाभूतं अनवबुज्झमानो तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठो पुच्छाय विक्खेपनमत्तं आपज्जति, अथ तस्स कथं दिट्ठिगतिकभावो सिया । न हि अवत्तुकामस्स विय पुच्छितत्थमजानन्तस्स विक्खेपकरणमत्तेन दिट्ठिगतिकता युत्ताति ? वुच्चते- न हेव खो पुच्छाय
(१.१.६५-६६-६५-६६ )
विक्खेपकरणमत्तेन तस्स दिट्ठगतिकता, अथ खो मिच्छाभिनिवेसवसेन । सस्सताभिनिवेसवसेन हि मिच्छाभिनिविट्ठोयेव पुग्गलो मन्दबुद्धिताय कुसलादिधम्मे, परलोकत्थितादीनि च याथावतो अप्पटिबुज्झमानो अत्तना अविञ्ञातस्स अत्थस्स परं विज्ञापेतुमसक्कुणेय्यताय मुसावादभयेन च विक्खेपमापज्जतीति । तथा हि वक्खति “यासं सत्तेव उच्छेददिट्ठियो, सेसा सस्सतदिट्ठियो "ति ( दी० नि० अट्ठ० १.९७, ९८) अथ वा पुञ्ञपापानं, तब्बिपाकानञ्च अनवबोधेन, असद्दहनेन च तब्बिसयाय पुच्छाय विक्खेपकरणमेव सुन्दरन्ति खन्तिं रुचिं उप्पादेत्वा अभिनिविसन्तस्स उप्पन्ना विसुंयेवेसा एका दिट्ठि सत्तभङ्गदिट्ठि वियाति दट्ठब्बं । तथा च वृत्तं " परियन्तरहिता दिट्ठिगतिकस्स दिट्ठि चेव वाचा" चाति (दी० नि० अट्ठ० १.६१ ) | यं पनेतं वृत्तं “इमेपि चत्तारो पुब्बे पवत्तधम्मानुसारेनेव दिट्ठिया गहितत्ता पुब्बन्तकप्पिकेसु पविट्ठा "ति, तदेतस्स अमराविक्खेपवादस्स सस्सतदिट्ठिसङ्गहवसेनेव वृत्तं । कथं पनस्स सस्सतदिट्ठिसङ्गहोति ? उच्छेदवसेन अनभिनिवेसनतो । नत्थि हि कोचि धम्मानं यथाभूतवेदी विवादबहुलता लोकस्स । " एवमेव "न्ति पन सद्दन्तरेन धम्मनिज्झानना अनादिकालिका लोके, तस्मा सस्सतलेसस्स एत्थ लब्भनतो सस्सतदिट्टिया एतस्स सङ्गहो दट्ठब्बो ।
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(१.१.६७-६८-७३)
अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना
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अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना
६७. अधिच्च यदिच्छकं यं किञ्चि कारणं कस्सचि बुद्धिपुब् विना समुप्पन्नोति अत्तलोकसञ्जितानं खन्धानं अधिच्चुप्पत्तिआकारारम्मणदस्सनं अधिच्चसमुप्पन्नं तदाकारसन्निस्सयेनेव पवत्तितो, तदाकारसहचरिततो च यथा “मञ्चा घोसन्ति, कुन्ता पचरन्ती"ति, अधिच्चसमुप्पन्नदस्सनं वा अन्तपदलोपेन अधिच्चसमुप्पनं यथा “रूपभवो रूप''न्ति, इममत्थं सन्धाय "अधिच्चसमुप्पनो"तिआदि वुत्तं । अकारणसमुप्पन्नन्ति कारणमन्तरेन यदिच्छकं समुप्पन्नं ।
६८-७३. असञसत्ताति एत्थ एतं असञ्जावचनन्ति अत्थो । देसनासीसन्ति देसनाय जेट्टकं पधानभावेन गहितत्ता, तेन सनं धुरं कत्वा भगवता अयं देसना कता, न पन तत्थ अक्षेसं अरूपधम्मानम्पि अत्थितायाति दस्सेति, तेनेवाह “अचित्तुप्पादा"तिआदि । भगवा हि यथा लोकुत्तरधम्म देसेन्तो समाधिं, पखं वा धुरं कत्वा देसेति, एवं लोकियधम्म देसेन्तो चित्तं, सनं वा । तत्थ “यस्मिं समये लोकुत्तरं झानं भावेति, (ध० स० २७७) पञ्चङ्गिको सम्मासमाधि (दी० नि० ३.३५५) पञ्चत्राणिको सम्मासमाधि, (दी० नि० ३.३५५; विभं० ८०४) पञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ती'ति, तथा “यस्मिं समये कामावचरं कुसलं चित्तं उप्पन्नं होति, (ध० स० १) किं चित्तो त्वं भिक्खु (पारा० १४६, १८०) मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, (ध० प० १; नेत्ति० ९०; पेटको० ८३, ८४) सन्ति भिक्खवे, सत्ता नानत्तकाया नानत्तसचिनो, (दी० नि० ३.३३२, ३४१, ३५७; अ० नि० २.७.४४; अ० नि० ३.९.२४; चूळनि० ८३) नेवसञानासञआयतन"न्ति (दी० नि० ३.३५८) च एवमादीनि सुत्तानि एतस्सत्थस्स साधकानि। तित्थं वुच्चति मिच्छालद्धि तत्थेव बाहुल्लेन परिब्भमनतो तरन्ति बाला एत्थाति कत्वा, तदेव अनप्पकानमनत्थानं तित्थियानञ्च सञ्जातिदेसटेन, निवासढेन वा आयतनन्ति तित्थायतनं, तस्मिं, अञतित्थियसमयेति अत्थो। तित्थिया हि उपपत्तिविसेसे विमुत्तिसञिनो, सञ्जाविरागाविरागेसु आदीनवानिसंसदस्साविनो च हुत्वा असञसमापत्तिं निब्बत्तेत्वा अक्खणभूमियं उपपज्जन्ति, न सासनिका, तेन वुत्तं "एकच्चो तित्थायतने पब्बजित्वा"ति । वायोकसिणे परिकम्मं कत्वाति चतुत्थे भूतकसिणे पठमादीनि तीणि झानानि निब्बत्तेत्वा ततियज्झाने चिण्णवसी हुत्वा ततो वुट्ठाय चतुत्थज्झानाधिगमाय परिकम्मं कत्वा, तेनेवाह "चतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा"ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.६८-७३-६८-७३)
कस्मा पनेत्थ वायोकसिणेयेव परिकम्मं वुत्तन्ति ? वुच्चते- यथेव हि रूपपटिभागभूतेसु कसिणविसेसेसु रूपविभावनेन रूपविरागभावनासङ्घातो अरूपसमापत्तिविसेसो सच्छिकरीयति, एवं अपरिब्यत्तविग्गहताय अरूपपटिभागभूते कसिणविसेसे अरूपविभावनेन अरूपविरागभावनासङ्घातो रूपसमापत्तिविसेसो अधिगमीयति, तस्मा एत्थ “सा रोगो सा गण्डो"तिआदिना, (म० नि० ३.२४) "धि चित्तं, धिब्बते तं चित्त''न्तिआदिना (दी० नि० टी० १.६८-७३) च नयेन अरूपपवत्तिया आदीनवदस्सनेन, तदभावे च सन्तपणीतभावसन्निट्ठानेन रूपसमापत्तिया अभिसङ्घरणं, रूपविरागभावना पन सद्धिं उपचारेन अरूपसमापत्तियो विसेसेन पठमारुप्पज्झानं । यदि एवं “परिच्छिन्नाकासकसिणेपी''ति वत्तब्बं । तस्सापि हि अरूपपटिभागता लब्भतीति ? वत्तब्बमेवेतं केसञ्चि, अवचनं पन पुब्बाचरियेहि अग्गहितभावेन । यथा हि रूपविरागभावना विरज्जनीयधम्मभावमत्ते परिनिबिन्दा (विरज्जनीयधम्म भावमत्तेन परिनिप्फन्ना दी० नि० टी० १.६-७३) विरज्जनीयधम्मपटिभागभूते च विसयविसेसे पातुभवति, एवं अरूपविरागभावनापीति वुच्चमाने न कोचि विरोधो । तित्थियेहेव पन तस्सा समापत्तिया पटिपज्जितब्बताय, तेसञ्च विसयपदेसनिमित्तस्सेव तस्स झानस्स पटिपत्तितो तं कारणं पस्सन्तेहि पुब्बाचरियेहि चतुत्थेयेव भूतकसिणे अरूपविरागभावनापरिकम्मं वुत्तन्ति दट्टब्बं । किञ्च भिय्यो- वण्णकसिणेसु विय पुरिमभूतकसिणत्तयेपि वण्णपटिच्छायाव पण्णत्तिआरम्मणं झानस्स लोकवोहारानुरोधेनेव पवत्तितो, एवञ्च कत्वा विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.९६) पथवीकसिणस्स आदासचन्दमण्डलूपमावचनञ्च समत्थितं होति । चतुत्थे पन भूतकसिणे भूतपटिच्छाया एव झानस्स गोचरभावं गच्छतीति तस्सेव अरूपपटिभागता युत्ता, तस्मा वायोकसिणेयेव परिकम्मं वुत्तन्ति वेदितब्बं ।।
कथं पस्सतीति आह "चित्ते सती"तिआदि। सन्तोति निब्बुतो, दिठ्ठधम्मनिब्बानमेतन्ति वुत्तं होति । कालं कत्वाति मरणं कत्वा, यो वा मनुस्सलोके जीवनकालो उपत्थम्भकपच्चयेहि करीयति, तं करित्वातिपि अत्थो। असञसत्तेसु निब्बत्ततीति असञ्जसत्तसङ्खाते सत्तनिकाये रूपपटिसन्धिवसेनेव उपपज्जति, अञ्जसु वा चक्कवाळेसु तस्सा भूमिया अत्थिताय अनेकविधभावं सन्धाय पुथुवचननिद्देसोतिपि दट्ठब्बं । इधेवाति पञ्चवोकारभवेयेव । तत्थाति असञीभवे ! यदि रूपक्खन्धमत्तमेव असञीभवे पातुभवति, कथं अरूपसन्निस्सयेन विना तत्थ रूपं पवत्तति, ननु सिया अरूपसन्निस्सितायेव रूपक्खन्धस्स उप्पत्ति इधेव पञ्चवोकारभवे तथा उप्पत्तिया
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(१.१.६८-७३-६८-७३)
अधिच्चसमुप्पन्नवादवण्णना
३८३
अदस्सनतोति ? नायमनुयोगो अञत्थापि अप्पविट्ठो, कथं पन रूपसन्निस्सयेन विना अरूपधातुया अरूपं पवत्ततीति । इदम्पि हि तेन समानजातियमेव । कस्मा ? इधेव अदस्सनतो, कथञ्च कबळीकाराहारेन विना रूपधातुया रूपं पवत्ततीति । इदम्पि च तंसभावमेव, किं कारणा ? इध अदस्सनतोयेव । इति अञत्थापि तथा पवत्तिदस्सनतो, किमेतेन अञनिदस्सनेन इधेव अनुयोगेन। अपिच यथा यस्स चित्तसन्तानस्स निब्बत्तिकारणं रूपे अविगततण्हं, तस्स सह रूपेन सम्भवतो रूपं निस्साय पवत्ति रूपसापेक्खताय कारणस्स । यस्स पन निब्बत्तिकारणं रूपे विगततण्हं, तस्स विना रूपेन पवत्ति रूपनिरपेक्खताय कारणस्स, एवं यस्स रूपप्पबन्धस्स निब्बत्तिकारणं अरूपे विगततण्हं, तस्स विना अरूपेन पवत्ति अरूपनिरपेक्खताय कारणस्स, एवं भावनाबलाभावतो पञ्चवोकारभवे रूपारूपसम्भवो विय, भावनाबलेन चतुवोकारभवे अरूपस्सेव सम्भवो विय च । असञीभवेपि भावनाबलेन रूपस्सेव सम्भवो दट्टब्बोति |
कथं पन तत्थ केवलो रूपप्पबन्धो पच्चुप्पन्नपच्चयरहितो चिरकालं पवत्ततीति पच्चेतब्बं, कित्तकं वा कालं पवत्ततीति चोदनं मनसि कत्वा “यथा नामा"तिआदिमाह | तेन न केवलं इध चेव अञत्थ च वुत्तो आगमोयेव एतदत्थञापने, अथ खो अयं पनेत्थ युत्तीति दस्सेति । जियावेगुक्खित्तोति धनुजियाय वेगेन खिपितो। झानवेगो नाम झानानुभावो फलदाने समत्थता | तत्तकमेव कालन्ति उक्कंसतो पञ्च महाकप्पसतानि । तिद्वन्तीति यथानिब्बत्तइरियापथमेव चित्तकम्मरूपकसदिसा हुत्वा तिट्ठन्ति । झानवेगेति असञ्जसमापत्तिपरिक्खित्ते चतुत्थज्झानकम्मवेगे, पञ्चमज्झानकम्मवेगे वा । अन्तरधायतीति पच्चयनिरोधेन निरुज्झति न पवत्तति । इधाति कामावचरभवेति अत्थो अञत्थ तेसमनुप्पत्तितो । पटिसन्धिसञ्जाति पटिसन्धिचित्तुप्पादोयेव सञासीसेन वुत्तो। कथं पन अनेककप्पसतमतिक्कमेन चिरनिरुद्धतो विज्ञाणतो इध विज्ञाणमुप्पज्जति । न हि निरुद्ध चक्खुपसादे चक्खुविज्ञाणमुप्पज्जमानं दिट्ठन्ति ? नयिदमेकन्ततो दट्ठब्बं । निरुद्धम्पि हि चित्तं समानजातिकस्स अन्तरा अनुप्पज्जनतो समनन्तरपच्चयमत्तं होतियेव, न बीजं | बीजं पन कम्ममेव, तस्मा कम्मतो बीजभूततो आरम्मणादीहि पच्चयेहि असञीभवतो चुतानं कामधातुया उपपत्तिविज्ञाणं होतियेव, तेनाह "इध पटिसन्धिसञ्जा उप्पज्जती"ति । एत्थ च यथा नाम उतुनियामेन पुप्फग्गहणे नियतकालानं रुक्खानं विदारणसङ्खाते वेखे दिन्ने वेखबलेन अनियमता होति पुप्फग्गहणस्स, एवमेव पञ्चवोकारभवे अविप्पयोगेन वत्तमानेसु रूपारूपधम्मेसु रूपारूपविरागभावनासङ्घाते वेखे दिन्ने तस्स समापत्तिवेखबलस्स
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३८४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
अनुरूपतो अरूपभवे, असञ्ञभवे च यथाक्कमं रूपरहिता, अरूपरहिता च खन्धानं पवत्ति होतीति वेदितब्बं ।
कस्मा पनेत्थ पुन सञ्ञप्पादा च पन " ते देवा तम्हा काया चवन्तीति सपादो तेसं चवनस्स कारणभावेन वुत्तो, “सञ्ञप्पादा"ति वचनं वा किमत्थदन्ति चोदनाय " यस्मा पना" तिआदिमाह । इध पटिसन्धिसञ्जुप्पादेन तेसं चवनस्स पञ्चायतो आपकहेतुभावेन वुत्तो, “सञ्ञ्जुप्पादा" ति वचनं वा तेसं चवनस्स पञ्ञायनभावदरसनन्ति अधिप्पायो । “सञ्जुप्पादा' 'ति हि एतस्स सञ्जुप्पादेन हेतुभूतेन चवन्ति, सञ्जुप्पादावा उप्पादसञ्ञा ते देवाति सम्बन्धो । सन्तभावायाति निब्बानाय | ननु चेत्थ जातिसतसहस्सदससंवट्टादीनमत्थके, तदब्भन्तरे वा पवत्ताय असनूपपत्तिया वसेन लाभीअधिच्चसमुप्पन्निकवादोपि लाभीसस्सतवादो विय अनेकभेदो सम्भवतीति ? सच्चमेव, अनन्तरत्ता पन आसन्नाय असञ्जूपपत्तिया वसेन लाभीअधिच्चसमुप्पन्निकवादो नयदस्सनवसेन एकोव दस्सितोति दट्ठब्बं । अथ वा सस्सतदिट्ठिसङ्गहतो अधिच्चसमुप्पन्निकवादस्स सस्सतवादे आगतो सब्बोपि देसनानयो यथासम्भवं अधिच्चसमुप्पन्निकवादेपि तब्बति इमस्स विसेसस्स दस्सनत्थं भगवता लाभीअधिच्चसमुप्पन्निकवादो अविभजित्वा दस्सितो, अवस्सञ्चस्स सस्सतदिट्ठिसङ्गहो इच्छितब्बो संकिलेसपक्खे सत्तानमज्झासयस्स सस्सतुच्छेदवसेनेव दुविधत्ता, तेसु च उच्छेदप्पसङ्गाभावतो | तथा हि अट्ठकथायं आसय - सद्दस्स अत्युद्धारवसेन वुत्तं " सस्सतुच्छेददिट्ठि चा "ति, तथा च वक्खति “यासं सत्तेव उच्छेददिट्ठियो, सेसा सरसतदिट्ठियो"ति (दी० नि० अट्ठ० १.९७, ९८ ) ।
(१.१.६८-७३-६८-७३)
ननु च अधिच्चसमुप्पन्निकवादस्स सस्सतदिट्ठिसङ्गहो न युत्तो " अहञ्हि पुब्बे नाहोसि"न्तिआदिवसेन पवत्तनतो अपुब्बसत्तपातुभावगाहकत्ता । सस्सतदिट्ठि पन अत्तनो, लोकस्स च सदाभावगाहिनी " अत्थित्वेव सस्सतिसमन्ति पवत्तनतोति ? नो न युत्तो अनागतकोटिअदस्सनेन सस्सतग्गाहसमवरोधत्ता । यदिपि हि अयं वादो "सोम्हि एतरहि अहुत्वा सन्तताय परिणतो " ति ( दी० नि० १.६८) अत्तनो, लोकस्स च अतीतकोटिपरामसनवसेन पवत्तो, तथापि वत्तमानकालतो पट्ठाय न तेसं कत्थचि अनागते परियन्तं पस्सति, विसेसेन च पच्चुप्पन्नानागतकालेसु अपरियन्तदस्सनपभावितो सस्सतवादो, यथाह “ सस्सतिसमं तथेव ठस्सती 'ति ( दी० नि० १.३१ अत्थतो समानं ) यदेवं सिया इमस्स च वादस्स, सस्सतवादादीनञ्च पुब्बन्तकप्पिकेसु सङ्गहो न युक्त्तोयेव
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(१.१.७४-७५)
अपरन्तकप्पिकवादवण्णना
३८५
अनागतकालपरामसनवसेन पवत्तत्ताति ? युत्तो एव समुदागमस्स अतीतकोट्ठासिकत्ता । तथा हि नेसं समुदागमो अतीतंसपुब्बेनिवाससाणेहि, तप्पतिरूपकानुस्सवादिपभावितेहि च तक्कनेहि सङ्गहितोति, तथा चेव संवण्णितं । अथ वा सब्बत्थ अप्पटिहतञाणचारेन धम्मस्सामिना निरवसेसतो अगति, गतिञ्च यथाभूतं सयं अभिजा सच्छिकत्वा पवेदिता एता दिट्ठियो, तस्मा यावतिका दिट्ठियो भगवता देसिता, यथा च देसिता, तावतिका तथा चेव सन्निट्ठानतो सम्पटिच्छितब्बा, न चेत्थ युत्तिविचारणा कातब्बा बुद्धविसयत्ता । अचिन्तेय्यो हि बुद्धानं बुद्धविसयो, तथा च वक्खति “तत्थ न एकन्तेन कारणं परियेसितब्ब"न्ति (दी० नि० अट्ठ० १.७८-८२)।
दुतियभाणवारवण्णना निहिता ।
अपरन्तकप्पिकवादवण्णना ७४. “अपरन्तेजाणं (ध० स० १०६७), अपरन्तानुदिट्ठिनो''तिआदीसु (दी० नि० १.७४) विय अपरन्त-सद्दानं यथाक्कम अनागतकालकोट्ठासवाचकतं सन्धायाह "अनागतकोट्ठाससङ्घात"न्ति। “पुब्बन्तं कप्पेत्वा''तिआदीसु वुत्तनयेन "अपरन्तं कप्पेत्वा"तिआदीसुपि अत्थो वेदितब्बो । विसेसमत्तमेव चेत्थ वक्खाम ।
सञ्जीवादवण्णना
७५. आघातना उद्धन्ति उद्धमाघातनं, मरणतो उद्धं पवत्तो अत्ताति अत्थो । "उद्धमाघातन''न्ति पवत्तो वादो उद्धमाघातनो सहचरणवसेन, तद्धितवसेन च, अन्तलोपनिद्देसो वा एस । सो एतेसन्ति उद्धमाघातनिका। एवं सद्दतो निप्फनं अत्थतो एव दस्सेतुं "उद्धमाघातना अत्तानं बदन्ती"ति वुत्तं, आघातना उद्धं उपरिभूतं अत्तभावन्ति अत्थो। ते हि दिह्रिगतिका “उद्धं मरणतो अत्ता निबिकारो"ति वदन्ति । "सो एतेस"न्तिआदिना अस्सत्थियत्थं दस्सेति यथा “बुद्धमस्स अत्थीति बुद्धो''ति । अयं अट्ठकथातो अपरो नयो- सञीति पवत्तो वादो सञी सहचरणादिनयेन, सञी वादो एतेसन्ति सञ्जीवादा समासवसेन । सञ्जीवादो एव वादो एतेसन्ति हि अत्थो ।
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३८६
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७६-७७-७६-७७)
७६-७७. रूपी अत्ताति एत्थ कसिणरूपं “अत्ता"ति कस्मा वुत्तं, ननु रूपविनिमुत्तेन अत्तना भवितब्बं “रूपमस्स अत्थी''ति वुत्ते साय विय रूपस्सापि अत्तनियत्ता । न हि "सञी अत्ता''ति एत्थ सञ्जा एव अत्ता, अथ खो “सचा अस्स अत्थी''ति अत्थेन अत्तनियाव, तथा च वुत्तं "तत्थ पवत्तसञञ्चस्स 'सञ्जा'ति गहेत्वा"ति ? न खो पनेतमेवं दट्ठब्बं “रूपमस्स अत्थीति रूपी''ति, अथ खो "रुप्पनसीलो रूपी"ति | रुप्पनञ्चेत्थ रूपसरिक्खताय कसिणरूपस्स वड्डितावड्डितकालवसेन विसेसापत्ति । सा हि “नत्थी''ति न सक्का वत्तुं परित्तविपुलतादिविसेससब्भावतो । यदेवं सिया “रुप्पनसीलो रूपी"ति, अथ इमस्स वादस्स सस्सतदिह्रिसङ्गहो न युज्जति रुप्पनसीलस्स भेदसब्भावतोति ? युज्जतेव कायभेदतो उद्धं परिकप्पितस्स अत्तनो निब्बिकारताय तेन अधिप्पेतत्ता। तथा हि वृत्तं "अरोगो परं मरणा"ति । अथ वा "रूपमस्स अत्थीति रूपी"ति वुत्तेपि न कोचि दोसो कप्पनासिद्धेन भेदेन अभेदस्सापि निद्देसदस्सनतो यथा “सिलापुत्तकस्स सरीर''न्ति ।
अपिच अवयववसेन अवयविनो तथानिद्देसनिदस्सनतो यथा “काये कायानुपस्सी''ति, (सं० नि० ३.५.३९०) रुप्पनं वा रूपं, रूपसभावो, तदस्स अत्थीति रूपी, अत्ता “रूपिनो धम्मा''तिआदीसु (ध० स० ११.दुकमातिका) विय, एवञ्च कत्वा अत्तनो रूपसभावत्ता “रूपी अत्ता"ति वचनं आयागतमेवाति वुत्तं “कसिणरूपं अत्ता"ति। "गहेत्वा"ति एतेन चेतस्स सम्बन्धो । तत्थाति कसिणरूपे । अस्साति परिकप्पितस्स अत्तनो, आजीवकादयो तक्कमत्तेन पञपेन्ति वियाति अत्थो । आजीवका हि तक्किकायेव, न लाभिनो । नियतवादिताय हि कम्मफलपटिक्खेपतो नत्थि तेसं झानसमापत्तिलाभो। तथा हिकण्हाभिजातिआदीसु काळकादिरूपं “अत्ता'"ति एकच्चे आजीवका पटिजानन्ति । पुरिमनयेन चेत्थ लाभीनं दस्सेति, पच्छिमनयेन पन तक्किकं । एवमीदिसेसु । रोग-सद्दो भङ्गपरियायो भङ्गस्सापि रुज्जनभावतो, एवञ्च कत्वा अरोगसद्दस्स निच्चपरियायता उपपन्ना होति, तेनाह "निच्चो"ति। रोग-सद्दो वा ब्याधिपरियायो । अरोगोति पन रोगरहिततासीसेन निब्बिकारताय निच्चतं दिट्टिगतिको पटिजानातीति दस्सेतुं "निच्चो"ति वुत्तं । कसिणुग्घाटिमाकासपठमारुप्पविञाणनत्थिभावाकिञ्चचायतनानि यथारहमरूपसमापत्तिनिमित्तं नाम । निम्बपण्णे तप्परिमाणो तित्तकरसो विय सरीरप्परिमाणो अरूपी अत्ता सरीरे तिकृतीति तक्कमत्तेनेव निगण्ठा “अरूपी अत्ता सञ्जी''ति पञपेन्तीति आह "निगण्ठादयो विया'ति ।
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(१.१.७६-७७-७६-७७)
सञ्जीवादवण्णना
३८७
ततिया पनाति “रूपी च अरूपी च अत्ता''ति लद्धि । मिस्सकगाहवसेनाति रूपारूपसमापत्तीनं यथावुत्तानि निमित्तानि एकज्झं कत्वा एकोव “अत्ता'ति, तत्थ पवत्तसञञ्चस्स “सञ्जा'"ति गहणवसेन । अयहि दिट्ठिगतिको रूपारूपसमापत्तिलाभी तासं निमित्तं रूपभावेन, अरूपभावेन च “अत्ता''ति गहेत्वा “रूपी च अरूपी चाति अभिनिवेसं जनेसि अथेतवादिनो विय, तक्कमत्तेनेव वा रूपारूपधम्मानं मिस्सकगहणवसेन "रूपी च अरूपी च अत्ता''ति अभिनिविस्स अट्ठासि । चतुत्थाति "नेव अरूपी च नारूपी च अत्ता''ति लद्धि। तक्कगाहेनेवाति सङ्खारसेससुखुमभावप्पत्तधम्मा विय अच्चन्तसुखुमभावप्पत्तिया सकिच्चसाधनासमत्थताय खम्भकुच्छि [थम्भकुट्ट (दी० नि० टी० १७६-७७)] हत्थपादादिसङ्घातो विय नेव रूपी, रूपसभावानतिवत्तनतो न च अरूपीति एवं पवत्ततक्कगाहेनेव ।
अयं अट्ठकथामुत्तको नयो- नेवरूपी नारूपीति एत्थ हि अन्तानन्तिकचतुत्थवादे विय अचमपटिक्खेपवसेन अत्थो वेदितब्बो। सतिपि च ततियवादेन इमस्स समानत्थभावे तत्थ देसकालभेदवसेन विय इध कालवत्थुभेदवसेन ततियचतुत्थवादानं विसेसो दट्ठब्बो । कालभेदवसेन हि इध ततियवादस्स पवत्ति रूपारूपनिमित्तानं सहअनुपट्ठानतो । चतुत्थवादस्स पन वत्थुभेदवसेन पवत्ति रूपारूपधम्मसमूहभावतोति । दुतियचतुक्कं अन्तानन्तिकवादे वुत्तनयेन वेदितब्बं सब्बथा सद्दत्थतो समानत्थत्ता | यं पनेत्थ वत्तब्बं, तम्पि “अमति गच्छति भावो ओसानमेत्था'तिआदिना अम्हेहि वुत्तमेव, केवलं पन तत्थ पुब्बन्तकप्पनावसेन पवत्तो, इध अपरन्तकप्पनावसेनाति अयं विसेसो पाकटोयेव । कामञ्च नानत्तसञी अत्ताति अयम्पि वादो समापन्नकवसेन लब्भति। अट्ठसमापत्तिलाभिनो दिद्विगतिकस्स वसेन सञ्जाभेदसम्भवतो। तथापि समापत्तियं एकरूपेनेव साय उपट्ठानतो लाभीवसेन एकत्तसञ्जिता सातिसयं युत्ताति आह "समापन्नकवसेन एकत्तसञ्जी"ति । एकसमापत्तिलाभिनो एव वा वसेन अत्थो वेदितब्बो। सतिपि च समापत्तिभेदतो सञाभेदसम्भवे बहिद्धा पुथुत्तारम्मणेयेव सञानानत्तस्स ओळारिकस्स सम्भवतो तक्कीवसेनेव नानत्तसञ्जितं दस्सेतुं “असमापनकवसेन नानत्तसञ्जी"ति वुत्तं । परित्तकसिणवसेनाति अवड्डितत्ता अप्पककसिणवसेन, कसिणग्गहणञ्चेत्थ सजाय विसयदस्सनं । विसयवसेन हि सञाय परित्तता, इमिना च सतिपि सञ्जाविनिमुत्तधम्मे "सञ्जायेव अत्ता"ति वदतीति दस्सेति । एस नयो विपुलकसिणवसेनाति एत्थापि । एवञ्च कत्वा अन्तानन्तिकवादे चेव इध च अन्तानन्तचतुक्के पठमदुतियवादेसु सद्दत्थमत्ततो समानेसुपि सभावतो तेहि द्वीहि वादेहि इमेसं द्विन्नं वादानं विसेसो सिद्धो होति,
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३८८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.७६-७७-७६-७७)
अञथा वुत्तप्पकारेसु वादेसु सतिपि पुब्बन्तापरन्तकप्पनभेदमत्तेन केहिचि विसेसे केहिचि अविसेसोयेव सियाति ।
अयं पन अट्ठकथामुत्तको नयो- “अङ्गुट्टप्पमाणो अत्ता, अणुमत्तो अत्ता"तिआदिलद्धिवसेन परित्तो च सो सञी चाति परित्तसञ्जी कापिलकाणादपभुतयो [कपिलकणादादयो (दी० नि० टी० १.७६-७७)] विय। अत्तनो सब्बगतभावपटिजाननवसेन अप्पमाणो च सो सञी चाति अप्पमाणसञ्जीति ।
दिब्बचक्खुपरिभण्डत्ता यथाकम्मूपगाणस्स दिब्बचक्खुपभावजनितेन यथाकम्मूपगाणेन दिस्समानापि सत्तानं सुखादिसमङ्गिता दिब्बचक्खुनाव दिट्ठा नामाति आह "दिब्बेन चक्खुना"तिआदि। चतुक्कनयं, पञ्चकनयञ्च सन्धाय तिकचतुक्कज्झानभूमिय"न्ति वुत्तं । दिद्विगतिकविसयासु हि पञ्चवोकारझानभूमीसु वेहप्फलभूमि ठपेत्वा अवसेसा यथारहं चतुक्कनये तिकज्झानस्स, पञ्चकनये च चतुक्कज्झानस्स विपाकट्ठानत्ता तिकचतुक्कज्झानभूमियो नाम । सुद्धावासा पन तेसमविसया। निब्बत्तमानन्ति उप्पज्जमानं । ननु च “एकन्तसुखी अत्ता''तिआदिना पवत्तवादानं अपरन्तदिट्ठिभावतो “निब्बत्तमानं दिस्वाति पच्चुप्पन्नवचनं अनुपपन्नमेव सिया | अनागतविसया हि एते वादाति ? उपपन्नमेव अनागतस्स एकन्तसुखीभावादिकस्स पकप्पनाय पच्चुप्पन्ननिब्बत्तिदस्सनेन अधिप्पेतत्ता। तेनेवाह “निब्बत्तमानं दिस्वा 'एकन्तसुखी'ति गण्हाती"ति । एत्थ च तस्सं तस्सं भूमियं बाहुल्लेन सुखादिसहितधम्मप्पवत्तिदस्सनं पटिच्च तेसं “एकन्तसुखी"तिआदिगहणतो तदनुरूपायेव भूमि वृत्ताति दगुब्बं । सहन्तराभिसम्बन्धवसेन विय हि अत्थपकरणादिवसेनपि अत्थविसेसो लब्भति। “एकन्तसुखी"तिआदीसु च एकन्तभावो बहुलं पवत्तिमत्तं पति पयुत्तो । तथापवत्तिमत्तदस्सनेन तेसं एवं गहणतो। अथ वा हत्थिदस्सकअन्धा विय दिद्विगतिका यं यदेव पस्सन्ति, तं तदेव अभिनिविस्स वोहरन्ति । वुत्तज्हेतं भगवता उदाने “अतित्थिया भिक्खवे, परिब्बाजका अन्धा अचक्खुका''तिआदि, (उदा० ५५) तस्मा अलमेत्थ युत्तिमग्गनाति । “दिब्बेन चक्खुना दिस्वाति वुत्तमत्थं समत्थेतुं "विसेसतो ही"तिआदि वुत्तं ।
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(१.१.७८-८३-८४)
असञीनेवसञीनासञ्जीवादवण्णना
३८९
असञीनेवसञीनासञ्जीवादवण्णना ७८-८३. अथ न कोचि विसेसो अत्थीति चोदनं सोधेति "केवलही"तिआदिना । "असञ्जी''ति च "नेवसजीनासजी''ति च गण्हन्तानं ता दिट्ठियोति सम्बन्धो । कारणन्ति विसेसकारणं, दिट्ठिसमुदागमकारणं वा । सतिपि किञ्चि कारणपरियेसनसम्भवे दिद्विगतिकवादानं अनादरियभावं दस्सेतुं "न एकन्तेन कारणं परियेसितब्ब"न्ति वुत्तं । कस्माति आह "दिद्विगतिकस्सा"तिआदि, एतेन परियेसनक्खमाभावतोति अपरियेसितब्बकारणं दस्सेति । इदं वुत्तं होति - असञ्जीवादे असञीभवे निब्बत्तसत्तवसेन पवत्तो पठमवादो, “सधे अत्ततो समनुपस्सती"ति एत्थ वुत्तनयेन सख्येव “अत्ता'ति गहेत्वा तस्स किञ्चनभावेन ठिताय अञाय सञ्जाय अभावतो "असञ्जी''ति पवत्तो दुतियवादो, तथा सञाय सह रूपधम्मे, सब्बे एव वा रूपारूपधम्मे “अत्ता"ति गहेत्वा पवत्तो ततियवादो, तक्कगाहवसेनेव चतुत्थवादो पवत्तो ।
दुतियचतुक्केपि कसिणरूपस्स असञ्जाननसभावताय असञीति कत्वा अन्तानन्तिकवादे वुत्तनयेन चत्तारो विकप्पा पवत्ता। नेवसञ्जीनासञ्जीवादे पन नेवसजीनासञीभवे निब्बत्तसत्तस्सेव चुतिपटिसन्धीसु, सब्बत्थ वा पटुसाकिच्चं कातुं असमत्थाय सुखुमाय सञ्जाय अस्थिभावपटिजाननवसेन पठमवादो, असञ्जीवादे वुत्तनयेन सुखुमाय सञाय वसेन, सञ्जाननसभावतापटिजाननवसेन च दुतियवादादयो पवत्ताति । एवं केनचि पकारेन सतिपि कारणपरियेसनसम्भवे दिट्ठिगतिकवादानं परियेसनक्खमाभावतो आदरं कत्वा महुस्साहेन तेसं कारणं न परियेसितब्बन्ति । एतेसं पन सञीअसञ्जीनेवसञीनासजीवादानं सस्सतदिह्रिसङ्गहो “अरोगो परं मरणा''ति वचनतो पाकटोयेव ।
उच्छेदवादवण्णना ८४. अविज्जमानस्स विनासासम्भवतो अस्थिभावहेतुको उच्छेदोति दस्सेतुं विज्जमानवाचकेन सन्त-सद्देन "सतो"ति पाळियं वुत्तन्ति आह "विज्जमानस्सा"ति । विज्जमानतापयुत्तो चेस दिह्रिगतिकवादविसयो सत्तोयेव इध अधिप्पेतोति दस्सनत्थं पाळियं "सत्तस्सा"ति वुत्तं, तेन इममत्थं दस्सेति - यथा हेतुफलभावेन पवत्तमानानं सभावधम्मानं सतिपि एकसन्तानपरियापन्नानं भिन्नसन्ततिपतितेहि विसेसे हेतुफलभूतानं परमत्थतो
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३९०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.८४-८४)
भिन्नसभावत्ता भिन्नसन्तानपतितानं विय अच्चन्तं भेदसन्निट्ठानेन नानत्तनयस्स मिच्छागहणं उच्छेदाभिनिवेसस्स कारणं, एवं हेतुफलभूतानं विज्जमानेपि सभावभेदे एकसन्ततिपरियापन्नताय एकत्तनयेन अच्चन्तमभेदगहणम्पि कारणमेवाति । सन्तानवसेन हि पवत्तमानेसु खन्धेसु घनविनिब्भोगाभावेन तेसं इध सत्तगाहो, सत्तस्स च अत्थिभावगाहहेतुको उच्छेदवादो, अनुपुब्बनिरोधवसेन पन निरन्तरविनासो इध “उच्छेदो''ति अधिप्पेतो यावायं अत्ता उच्छिज्जमानो भवति, तावायं विज्जतियेवाति गहणतोति आह "उपच्छेद"न्ति । उ-सद्दो हि उप-सद्दपरियायो, सो च उपसङ्कमनत्थो, उपसङ्कमनञ्चेत्थ अनुपुब्बमुप्पज्जित्वा अपरापरं निरोधवसेन निरन्तरता । अपिच पुनानुप्पज्जमानवसेन निरुदयविनासोयेव उच्छेदो नाम यथावुत्तनयेन गहणतोति आह “उपच्छेद"न्ति । उ-सद्दो, हि उप-सद्दो च एत्थ उपरिभागत्थो । निरुद्धतो परभागो च इध उपरिभागोति वुच्चति ।
निरन्तरवसेन, निरुदयवसेन वा विसेसेन नासो विनासो, सो पन मंसचक्खुपञाचक्खून दस्सनपथातिक्कमनतो अदस्सनमेवाति आह “अदस्सन"न्ति । अदस्सने हि नास-सद्दो लोके निरुळहो “द्वे चापरे वण्णविकारनासा''तिआदीसु (कासिका ६-३-१०९ सुत्तं पस्सितब्ब) विय । भावविगमन्ति सभावापगमं । यथाधम्मं भवनं भावोति हि अत्थेन इध भाव-सद्दो सभाववाचको । यो पन निरन्तरं निरुदयविनासवसेन उच्छिज्जति, सो अत्तनो सभावेन ठातुमसक्कुणेय्यताय "भावापगमो"ति वुच्चति । "तत्था"तिआदिना उच्छेदवादस्स यथापाठं समुदागमं निदस्सनमत्तेन दस्सेति, तेन वक्खति "तथा च अञथा च विकप्पेत्वावा''ति । तत्थाति “सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्तीति वचने । लाभीति दिब्बचक्खुञाणलाभी। तदवसेसलाभी चेव सब्बसो अलाभी च इध अपरन्तकप्पिकट्ठाने “अलाभी" त्वेव वुच्चति ।
चुतिन्ति सेक्खपुथुज्जनानम्पि चुतिमेव । एस नयो चुतिमत्तमेवाति एत्थापि । उपपत्तिं अपस्सन्तोति दटुं समत्थेपि सति अनोलोकनवसेन अपस्सन्तो। न उपपातन्ति पुब्बयोगाभावेन, परिकम्माकरणेन वा उपपत्तिं दटुं न सक्कोति, एवञ्च कत्वा नयद्वये विसेसो पाकटो होति । को परलोकं जानाति, न जानातियेवाति नथिकवादवसेन उच्छेदं गण्हातीति सह पाठसेसेन सम्बन्धो, नथिकवादवसेन महामूळहभावेनेव “इतो अञो परलोको अत्थी''ति अनवबोधनतो इमं दिहिँ गण्हातीति अधिप्पायो । “एत्तकोयेव विसयो, य्वायं इन्द्रियगोचरो''ति अत्तनो धीतुया हत्थग्गण्हनकराजा विय कामसुखाभिरत्ततायपि गण्हातीति आह "कामसुखगिद्धताय वा'ति । वण्टतो पतितपण्णानं वण्टेन
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(१.१.८४-८४)
उच्छेदवादवण्णना
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अपटिसन्धिकभावं सन्धाय “न पुन विरुहन्ती"ति वुत्तं । एवमेव सत्ताति यथा पण्डुपलासो बन्धना पवुत्तो पुन न पटिसन्धीयति, एवमेव सब्बेपि सत्ता अप्पटिसन्धिका मरणपरियोसाना अपोनोब्भविका अप्पटिसन्धिकमरणमेव निगच्छन्तीति अत्थो । उदकपुब्बुळकूपमा हि सत्ता पुन अनुप्पज्जमानतोति तस्स लद्धि । तथाति “लाभी अनुस्सरन्तो"तिआदिना [अरहतो (अट्ठ)] निदस्सनवसेन वृत्तप्पकारेन । अञ्जथाति तक्कनस्स अनेकप्पकारसम्भवतो ततो अञ्जनपि पकारेन । लाभिनोपि चुतितो उद्धं उपपातस्स अदस्सनमत्तं पति तक्कनेनेव इमा दिट्टियो उप्पज्जन्तीति वुत्तं "विकप्पेत्वावा"ति । तथा च विकप्पेत्वाव उप्पन्ना अञथा च विकप्पेत्वाव उप्पन्नाति हि सम्बन्धो । तत्थ "द्वे जना''तिआदिना उच्छेदग्गाहकप्पभेददस्सनेन इममत्थं दस्सेति । यथा अमराविक्खेपिकवादा एकन्तअलाभीवसेनेव देसिता, यथा च उद्धमाघातनिकसञ्जीवादे चतुत्थचतुक्के सञ्जीवादा एकन्तलाभीवसेनेव देसिता, नयिमे। इमे पन सस्सतेकच्चसस्सतवादादयो विय लाभीअलाभीवसेनेव देसिताति। यदेवं कस्मा सस्सतवादादीसु विय लाभीवसेन, तक्कीवसेन च पच्चेकं देसनमकत्वा सस्सतवादादिदेसनाहि अञथा इध देसना कताति ? वुच्चते- देसनाविलासप्पत्तितो । देसनाविलासप्पत्ता हि बुद्धा भगवन्तो, ते वेनेय्यज्झासयानुरूपं विविधेनाकारेन धम्म देसेन्ति, न अञथा । यदि हि इधापि च तथादेसनाय निबन्धनभूतो वेनेय्यज्झासयो भवेय्य, तथारूपमेव भगवा वदेय्य, कथं ? "इध भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय...पे०... यथा समाहिते चित्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति, सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन अरहतो चुतिचित्तं पस्सति, पुथूनं वा परसत्तानं, न हेव खो तदुद्धं उपपत्तिं । सो एवमाह ‘यतो खो भो अयं अत्ता रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो कायस्स भदो उच्छिज्जति विनस्सति, न होति परं मरणा'तिआदिना" विसेसलाभिनो, तक्किनो च विसु कत्वा । यस्मा पन तथादेसनाय निबन्धनभूतो वेनेय्यज्झासयो न इध भवति, तस्मा देसनाविलासेन वेनेय्यज्झासयानरूपं सस्सतवादादिदेसनाहि अञथायेवायं देसना कताति दगुब्बं ।
अथ वा सस्सतेकच्चसस्सतवादादीसु विय न इध तक्कीवादतो विसेसलाभीवादो भिन्नाकारो, अथ खो समानप्पकारताय समानाकारोयेवाति इमस्स विसेसस्स पकासनत्थं अयमुच्छेदवादो भगवता पुरिमवादेहि विसिट्ठाकारभावेन देसितो। सम्भवति हि इध तक्किनोपि अनुस्सवादिवसेन अधिगमवतो विय अभिनिवेसो | अपिच न इमा दिट्ठियो भगवता अनागते एवंभावीवसेन देसिता, नापि एवमेते भवेय्युन्ति परिकप्पनावसेन, अथ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.८५-८७)
खो यथा यथा दिविगतिकेहि “इदमेव सच्चं, मोघमञ्जन्ति (म० नि० २.१८७, २०३, ४२७; ३.२७, २८; उदा० ५५) मञिता, तथा तथायेव इमे दिट्ठिगता यथाभुच्चं सब्ब तञाणेन परिच्छिन्दित्वा पकासिता, येहि गम्भीरादिप्पकारा अपुथुज्जनगोचरा बुद्धधम्मा पकासन्ति, येसञ्च परिकित्तनेन तथागता सम्मदेव थोमिता होन्ति ।
अपरो नयो- यथा उच्छेदवादीहि दिह्रिगतिकेहि उत्तरुत्तरभवदस्सीहि अपरभवदस्सीनं तेसं वादपटिसेधवसेन सकसकवादा पतिठ्ठापिता, तथायेवायं देसना कताति पुरिमदेसनाहि इमिस्सा देसनाय पवत्तिभेदो न चोदेतब्बो, एवञ्च कत्वा अरूपभवभेदवसेन उच्छेदवादो चतुधा विभजित्वा विय कामरूपभवभेदवसेनापि अनेकधा विभजित्वायेव वत्तब्बो, एवं सति भगवता वुत्तसत्तकतो बहुतरभेदो उच्छेदवादो आपज्जतीति, अथ वा पच्चेकं कामरूपभवभेदवसेन विय अरूपभववसेनापि न विभजित्वा वत्तब्बो, एवम्पि सति भगवता वुत्तसत्तकतो अप्पतरभेदोव उच्छेदवादो आपज्जतीति च एवंपकारापि चोदना अनवकासा एव होति । दिह्रिगतिकानहि यथाभिमतं देसना पवत्ताति ।
८५. मातापितूनं एतन्ति तंसम्बन्धनतो एतं मातापितूनं सन्तकन्ति अत्थो । सुक्कसोणितन्ति पितु सुक्कं, मातु सोणितञ्च, उभिन्नं वा सुक्कसङ्घातं सोणितं । मातापेत्तिकेति निमित्ते चेतं भुम्मं । इतीति इमेहि तीहि पदेहि । “रूपकायवसेना''ति अवत्वा "रूपकायसीसेना"ति वदन्तो अरूपम्पि तेसं “अत्ता'"ति गहणं आपेति । इमिना पकारेन इत्थन्ति आह "एवमेके"ति । एवं-सद्दो हेत्थ इदमत्थो, इमिना पकारेनाति अत्थो । एकेति एकच्चे, अञ्जे वा।
८६. मनुस्सानं पुब्बे गहितत्ता, अजेसञ्च असम्भवतो "कामावचरो'"ति एत्थ छकामावचरदेवपरियापन्नोति अत्थो । कबळीकारो चेत्थ यथावुत्तसुधाहारो ।
८७. झानमनेन निब्बत्तोति एत्थ यं वत्तब्, तं हेट्ठा वुत्तमेव । महावयवो अङ्गो, तत्थ विसुं पवत्तो पच्चङ्गो, सब्बेहि अङ्गपच्चङ्गेहि युत्तो तथा । तेसन्ति चक्खुसोतिन्द्रियानं । इतरेसन्ति घानजिव्हाकायिन्द्रियानं । तेसम्पि इन्द्रियानं सण्ठानं पुरिसवेसवसेनेव वेदितब्बं । तथा हि अट्ठकथासु वुत्तं “समानेपि तत्थ उभयलिङ्गाभावे पुरिससण्ठानाव तत्थ ब्रह्मानो, न इत्थिसण्ठाना''ति ।
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(१.१.८८-९२-९३)
दिठ्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना
३९३
८८-९२. आकासानञ्चायतन-सद्दो इध भवेयेवाति आह "आकासानञ्चायतनभवन्ति। एत्थाह - युत्तं ताव पुरिमेसु तीसु वादेसु "कायस्स भेदा"ति वत्तुं पञ्चवोकारभवपरियापन्नं अत्तभावमारब्भ पवत्तत्ता तेसं वादानं, चतुवोकारभवपरियापन्नं पन अत्तभावं निस्साय पवत्तेसु चतुत्थादीसु चतूसु वादेसु कस्मा "कायस्स भेदा"ति वुत्तं । न हि अरूपीनं कायो विज्जति । यो भेदोति वुच्चेय्याति ? सच्चमेतं, रूपत्तभावे पन पवत्तवोहारेनेव दिट्टिगतिको अरूपत्तभावेपि कायवोहारं आरोपेत्वा एवमाह । लोकस्मिहि दिस्सति अञत्थभूतोपि वोहारो तदञ्जत्थसमारोपितो यथा तं “ससविसाणं, खं पुप्फ"न्ति । यथा च दिह्रिगतिका दिट्ठियो पञपेन्ति, तथायेव भगवापि देसेतीति । अपिच नामकायभावतो फस्सादिधम्मसमूहभूते अरूपत्तभावे कायनिद्देसो दट्ठब्बो । समूहटेनपि हि “कायो"ति वुच्चति "हत्थिकायो अस्सकायो"तिआदीसु विय । एत्थ च कामावचरदेवत्तभावादिनिरवसेसविभवपतिट्ठापकानं दुतियादिवादानं अपरन्तकप्पिकभावो युत्तो होतु अनागतद्धविसयत्ता तेसं वादानं, कथं पन दिट्ठिगतिकस्स पच्चक्खभूतमनुस्सत्तभावापगमपतिट्ठापकस्स पठमवादस्स अपरन्तकप्पिकभावो युज्जेय्य पच्चुप्पन्नद्धविसयत्ता तस्स वादस्स । दुतियवादादीनहि पुरिमपुरिमवादसङ्गहितस्सेव अत्तनो अनागते तदुत्तरिभवूपपन्नस्स समुच्छेदबोधनतो युज्जति अपरन्तकप्पिकता, तथा चेव वृत्तं "नो च खो भो अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होती"तिआदि (दी० नि० १.८५) यं पन तत्थ वुत्तं “अस्थि खो भो अञो अत्ता"ति, (दी० नि० १.८७) तं मनुस्सत्तभावादिहेट्ठिमत्तभावविसेसापेक्खाय वुत्तं, न सब्बथा अञभावतो । पठमवादस्स पन अनागते तदुत्तरिभवूपपन्नस्स अत्तनो समुच्छेदबोधनाभावतो, “अत्थि खो भो अञो अत्ता''ति एत्थ अञभावेन अग्गहणतो च न युज्जतेव अपरन्तकप्पिकताति ? नो न युज्जति इधलोकपरियापन्नत्तेपि पठमवादविसयस्स अनागतकालिकस्सेव तेन अधिप्पेतत्ता । पठमवादिनापि हि इधलोकपरियापन्नस्स अत्तनो परं मरणा उच्छेदो अनागतकालवसेनेव अधिप्पेतो, तस्मा चस्स अपरन्तकप्पिकताय न कोचि विरोधोति ।
दिदुधम्मनिब्बानवादवण्णना
९३. आणेन दट्ठब्बोति दिट्ठो, दिट्ठो च सो सभावढेन धम्मो चाति दिट्ठधम्मो, दस्सनभूतेन आणेन उपलद्धसभावोति अत्थो । सो पन अक्खानमिन्द्रियानं अभिमुखीभूतो विसयोयेवाति वुत्तं “पच्चक्खधम्मो वुच्चती"ति। तत्थ यो अनिन्द्रियविसयो, सोपि सुपाकटभावेन इन्द्रियविसयो विय होतीति कत्वा तथा वुत्तन्ति दट्टब्बं, तेनेवाह "तत्थ
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.९४-९५)
तत्थ पटिलद्धत्तभावस्सेतं अधिवचन"न्ति, तस्मिं तस्मिं भवे यथाकम्मं पटिलभितब्बत्तभावस्स वाचकं पदं, नामन्ति वा अत्थो । निब्बानञ्चेत्थ दुक्खवूपसमनमेव, न अग्गफलं, न च असङ्घतधातु तेसमविसयत्ताति आह "दुक्खवूपसमन"न्ति । दिठ्ठधम्मनिब्बाने पवत्तो वादो एतेसन्ति दिट्ठधम्मनिब्बानवादातिपि युज्जति ।
९४. कामनीयत्ता कामा च ते अनेकावयवानं समूहभावतो सत्तानञ्च बन्धनतो गुणा चाति कामगुणाति अत्थं सन्धायाह "मनापियरूपादीही'तिआदि। याव फोट्ठब्बारम्मणञ्चेत्थ आदि-सद्देन सङ्गण्हाति । सुट्ठ अप्पितोति सम्मा ठपितो । ठपना चेत्थ अल्लीयनाति आह “अल्लीनो"ति | परितो तत्थ तत्थ कामगुणेसु यथासकं इन्द्रियानि चारेति गोचरं गण्हापेतीति अत्थं दस्सेतुं "तेसू"तिआदि वुत्तं, तेनाह "इतो चितो च उपनेती"ति । परि सद्दविसिट्ठो वा इध चर-सद्दो कीळायन्ति वुत्तं "पलळती"तिआदि [लळति (अट्ठकथायं)] । पलळतीति हि पकारेन लळति, विलासं करोतीति अत्थो । “एत्थ चा"तिआदिना उत्तमकामगुणिकानमेव दिट्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्तीति दस्सेति । मन्धातुमहाराजवसवत्तीदेवराजकामगुणा हि उत्तमताय निदस्सिता, कस्माति आह "एवरूपे"तिआदि।
९५. अञ्जथाभावाति कारणे निस्सक्कवचनं । वुत्तनयेनाति सुत्तपदेसु देसितनयेन, एतेन सोकादीनमुप्पज्जनाकारं दस्सेति । आतिभोगरोगसीलदिट्ठिब्यसनेहि फुट्ठस्स चेतसो अब्भन्तरं निज्झायनं सोचनं अन्तोनिज्झायनं, तदेव लक्खणमेतस्साति अन्तोनिज्झायनलक्खणो। तस्मिं सोके समुट्ठानहेतुभूते निस्सितं तन्निस्सितं। भुसं विलपनं लालप्पनं, तन्निस्सितमेव लालप्पनं, तदेव लक्खणमस्साति तनिस्सितलालप्पनलक्खणो। पसादसङ्घाते काये निस्सितस्स दुक्खसहगतकायविज्ञाणस्स पटिपीळनं कायपटिपीळनं, ससम्भारकथनं वा एतं यथा “धनुना विज्झती"ति तदुपनिस्सयस्स वा अनिट्ठरूपस्स पच्छा पवत्तनतो "रूपकायस्स पटिपीळन''न्तिपि वट्टति । पटिघसम्पयुत्तस्स मनसो विहेसनं मनोविघातं। तदेव लक्खणमस्साति सब्बत्थ योजेतब्बं । आतिब्यसनादिना फुट्ठस्स परिदेवनायपि असक्कुणन्तस्स अन्तोगतसोकसमुट्ठितो भुसो आयासो उपायासो। सो पन चेतसो अप्पसन्नाकारो एवाति आह "विसादलक्खणोति । सादनं पसादनं सादो, पसन्नता। अनुपसग्गोपि हि सद्दो सउपसग्गो विय यथावुत्तस्स अत्थस्स बोधको यथा "गोत्रभू''ति । एवं सब्बत्थ । ततो विगमनं विसादो, अप्पसन्नभावो ।
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(१.१.९६-९८)
दिधम्मनिब्बानवादवण्णना
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९६. वितक्कनं वितक्कितं, तं पनत्थतो वितक्कोव, तथा विचारितन्ति एत्थापि, तेन वुत्तं "अभिनिरोपनवसेन पवत्तो वितक्को"तिआदि । एतेनाति वितक्कविचारे परामसित्वा करणनिद्देसो, हेतुनिद्देसो वा। तेनेतमत्थं दीपेति “खोभकरसभावत्ता वितक्कविचारानं तंसहितम्पि झानं तेहि सउप्पीळनं विय होती"ति, तेनाह "सकण्टकं [भकण्डकं (अट्ठकथायं)] विय खायती"ति । ओळारिकभावो हि वितक्कविचारसङ्घातेन कण्टकेन सह पवत्तकथा । कण्टकसहितभावो च सउप्पीळनता एव, लोके हि सकण्टकं फरुसकं ओळारिकन्ति वदन्ति ।
__९७. पीतिगतं पीतियेव “दिट्ठिगत''न्तिआदीसु (ध० स० ३८१; महानि० १२) विय गत-सद्दस्स तब्भाववुत्तितो। अयहि संवण्णकानं पकति, यदिदं अनत्थकपदं, तुल्याधिकरणपदञ्च ठपेत्वा अत्थवण्णना । तथा हि तत्थ तत्थ दिस्सति । “योपनाति यो यादिसो, (पारा० ४५) निब्बानधातूति निब्बायनमत्त'न्ति च आदि । याय निमित्तभूताय उब्बिलावनपीतिया उप्पन्नाय चित्तं उब्बिलावितं नाम, सायेव उब्बिलावितत्तं भाववाचकस्स निमित्ते पवत्तनतो। इति पीतिया उप्पन्नाय एव चित्तस्स उब्बिलावनतो तस्स उब्बिलावितभावो पीतिया कतो नामाति आह "उब्बिलभावकरण"न्ति ।
९८. आभुजनं मनसिकरणं आभोगो। सम्मा अनुक्कमेन, पुनप्पुनं वा आरम्मणस्स आहारो समनाहारो। अयं पन टीकायं (दी० नि० टी० १.९८) वुत्तनयो- चित्तस्स आभुग्गभावो आरम्मणे अभिनतभावो आभोगो। सुखेन हि चित्तं आरम्मणे अभिनतं होति, न दुक्खेन विय अपनतं, नापि अदुक्खमसुखेन विय अनभिनतं, अनपनतञ्चाति । एत्थ च "मनुञभोजनादीसु खुप्पिपासादिअभिभूतस्स विय कामेहि विवेचियमानस्स उपादारम्मणपत्थनाविसेसतो अभिवड्डति, मनुञभोजनं भुत्ताविनो विय पन उळारकामरसस्स यावदत्थं निचितस्स सहितस्स भुत्तकामताय कामेसु पातब्यता न होति, विसयानभिगिद्धनतो विसयेहि दुम्मोचियेहि जलूका विय सयमेव मुच्चती''ति च अयोनिसो उम्मुज्जित्वा कामगुणसन्तप्पितताय संसारदुक्खवूपसमं ब्याकासि पठमवादी । कामादीनं आदीनवदस्सिताय, पठमादिझानसुखस्स सन्तभावदस्सिताय च पठमादिझानसुखतित्तिया संसारदुक्खुपच्छेदं ब्याकंसु दुतियादिवादिनो। इधापि उच्छेदवादेव वुत्तप्पकारो विचारो यथासम्भवं आनेत्वा वत्तब्बो। अयं पनेत्थ विसेसो- एकस्मिम्पि अत्तभावे पञ्च वादा लब्भन्ति । पठमवादे यदि कामगुणसमप्पितो अत्ता, एवं सो दिट्ठधम्मनिब्बानप्पत्तो। दुतियादिवादेसु यदि पठमवादसङ्गहितो सोयेव अत्ता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१ (१.१.१००-१०४-१००-१०४)
पठमज्झानादिसमङ्गी, एवं सति दिट्ठधम्मनिब्बानप्पत्तोति । तेनेव हि उच्छेदवादे विय इध पाळियं “अञो अत्ता"ति अञ्जग्गहणं न कतं । कथं पन अच्चन्तनिब्बानपञापकस्स अत्तनो दिठ्ठधम्मनिब्बानवादस्स सस्सतदिट्ठिया सङ्गहो, न उच्छेददिट्ठियाति ? तंतंसुखविसेससमङ्गितापटिलद्धेन बन्धविमोक्खेन सुद्धस्स अत्तनो सकरूपेनेव अवट्ठानदीपनतो। तेसहि तथापटिलद्धेन कम्मबन्धविमोक्खेन सुद्धो हुत्वा दिट्ठधम्मनिब्बानप्पत्तो अत्ता सकरूपेनेव अवठ्ठासीति लद्धि । तथा हि पाळियं “एत्तावता खो भो अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती''ति सस्सतभावञापकच्छायाय एव तेसं वाददस्सनं कतन्ति ।
"एत्तावता"तिआदिना पाळियत्थसम्पिण्डनं । तत्थ यासन्ति यथावुत्तानं दिट्टीनं अनियमनिद्देसवचनं । तस्स इमा द्वासट्ठि दिट्टियो कथिताति नियमनं, नियतानपेक्खवचनं वा एतं “यं सन्धाय वुत्त''न्ति आगतठ्ठाने विय । सेसाति पञ्चपञास दिट्ठियो। तासु अन्तानन्तिकवादादीनं सस्सतदिह्रिसङ्गहभावो तत्थ तत्थ पकासितोयेव । किं पनेत्थ कारणं, पुब्बन्तापरन्ता एव दिट्टाभिनिवेसस्स विसयभावेन दस्सिता, न पन तदुभयमेकज्झन्ति ? असम्भवो एवेत्थ कारणं । न हि पुब्बन्तापरन्तेसु विय तदुभयविनिमुत्ते मज्झन्ते दिट्ठिकप्पना सम्भवति तदुभयन्तरमत्तेन इत्तरकालत्ता। अथ पन पच्चुप्पन्नत्तभावो तदुभयवेमज्झं, एवं सति दिट्ठिकप्पनाक्खमो तस्स उभयसभावो पुब्बन्तापरन्तेसुयेव अन्तोगधोति कथं तदुभयमेकज्झं अदस्सितं सिया । अथ वा पुब्बन्तापरन्तवन्तताय "पुब्बन्तापरन्तो''ति मज्झन्तो वुच्चति, सोपि “पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका चा"ति उपरि वदन्तेन भगवता पुब्बन्तापरन्तेहि विसु कत्वा वुत्तोयेवाति दट्टब्बो। अट्ठकथायम्पि “सब्बेपि ते पुब्बन्तापरन्तकप्पिके'"ति एतेन सामञनिद्देसेन, एकसेसेन वा सङ्गहितोति वेदितब्बं । अञथा हि सङ्कड्डित्वा वुत्तवचनस्स निरवसेससङ्कडनाभावतो अनत्थकता आपज्जेय्याति । के पन ते पुब्बन्तापरन्तकप्पिकाति ? ये अन्तानन्तिका हुत्वा दिठ्ठधम्मनिब्बानवादाति एवमादिना उभयसम्बन्धाभिनिवेसिनो वेदितब्बा।
१००-१०४. “इदानी"तिआदिना अप्पनावचनद्वयस्स विसेसं दस्सेति। तत्थ एकज्झन्ति रासिकरणत्थे निपातो। एकधा करोतीति एकज्झन्तिपि नेरुत्तिका, भावनपुंसकञ्चेतं । इति-सद्दो इदमत्थो, इमिना पकारेन पुच्छित्वा विस्सज्जेसीति अत्थो ।
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(१.१.१००-१०४-१००-१०४)
दिट्ठधम्मनिब्बानवादवण्णना
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अज्झासयन्ति सस्सतुच्छेदवसेन दिट्ठिज्झासयं । तदुभयवसेन हि सत्तानं संकिलेसपक्खे दुविधो अज्झासयो । तथा हि वुत्तं -
“सस्सतुच्छेददिट्ठि च, खन्ति चेवानुलोमिका । यथाभूतञ्च यं आणं, एतं आसयसद्दित"न्ति ।। (विसुद्धि० टी० १.१३६; दी० नि० टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना; सारत्थ टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना, वेरज्जकण्डवण्णना; विमति टी० १.वेरञ्जकण्डवण्णनापि पस्सितब्बं)।
तञ्च भगवा अपरिमाणासु लोकधातूसु अपरिमाणानं सत्तानं अपरिमाणे एव जेय्यविसेसे उप्पज्जनवसेन अनेकभेदभिन्नम्पि "चत्तारो जना सस्सतवादा''तिआदिना द्वासट्ठिया पभेदेहि सङ्गण्हनवसेन सब्ब तञाणेन परिच्छिन्दित्वा दस्सेन्तो पमाणभूताय तुलाय धारयमानो विय होतीति आह "तुलाय तुलयन्तो विया"ति । तथा हि वक्खति “अन्तोजालीकता''तिआदि (दी० नि० अट्ठ० १.१४६) “सिनेरुपादतो वालुकं उद्धरन्तो विया"ति पन एतेन सब्ब ताणतो अञस्स आणस्स इमिस्सा देसनाय असक्कुणेय्यतं दस्सेति परमगम्भीरतावचनतो ।
एत्थ च “सब्बे ते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि, एतेसं वा अञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धाति वचनतो, पुब्बन्तकप्पिकादित्तयविनिमुत्तस्स च कस्सचि दिट्ठिगतिकस्स अभावतो यानि तानि सामञफलादिसुत्तन्तरेसु वुत्तप्पकारानि अकिरियाहेतुकनथिकवादादीनि, यानि च इस्सरपकतिपजापतिपुरिसकालसभावनियतियदिच्छावादादिप्पभेदानि दिट्ठिगतानि (विसुद्धि० १.१६०-१६२; विभं० अनु टी० २.१९४-१९५ वाक्यखन्धेसु पस्सितब्ब) बहिद्धापि दिस्समानानि, तेसं एत्थेव सङ्गहतो अन्तोगधता वेदितब्बा । कथं ? अकिरियवादो ताव "वझो कूटट्ठो"तिआदिना किरियाभावदीपनतो सस्सतवादे अन्तोगधो, तथा “सत्तिमे काया"तिआदि (दी० नि० १.१७४) नयप्पवत्तो पकुधवादो, “नत्थि हेतु नत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाया''तिआदि (दी० नि० १.१६८) नयप्पवत्तो अहेतुकवादो च अधिच्चसमुप्पन्नवादे । “नत्थि परो लोको'तिआदि (दी० नि० १.१७१) नयप्पवत्तो नत्थिकवादो उच्छेदवादे | तथा हि तत्थ “कायस्स भेदा उच्छिज्जती''तिआदि (दी० नि० १.८५) वुत्तं । पठमेन आदि-सद्देन निगण्ठवादादयो सङ्गहिता ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१ (१.१.१००-१०४-१००-१०४)
यदिपि पाळियं (दी० नि० १.१७७) नाटपुत्तवादभावेन चातुयामसंवरो आगतो, तथापि सत्तवतातिक्कमेन विक्खेपवादिताय नाटपुत्तवादोपि सञ्चयवादो विय अमराविक्खेपवादेसु अन्तोगधो । “तं जीवं तं सरीरं, अझं जीवं अधे सरीर''न्ति (दी० नि० १.३७७; म० नि० २.१२२: सं० नि० १.२.३५) एवंपकारा वादा पन "रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा'"तिआदिवादेस सङ्गहं गच्छन्ति । "होति तथागतो परं मरणा, अस्थि सत्ता ओपपातिका''ति एवंपकारा सस्सतवादे । “न होति तथागतो परं मरणा, नत्थि सत्ता ओपपातिका"ति एवंपकारा उच्छेदवादे । “होति च न होति च तथागतो परं मरणा, अत्थि च नत्थि च सत्ता ओपपातिका'"ति एवंपकारा एकच्चसस्सतवादे । “नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, नेवत्थि न नस्थि सत्ता
ओपपातिका''ति एवंपकारा अमराविक्खेपवादे । इस्सरपकतिपजापतिपुरिसकालवादा एकच्चसस्सतवादे । कणादवादो, सभावनियतियदिच्छावादा च अधिच्चसमुप्पन्नवादे सङ्गहं गच्छन्ति । इमिना नयेन सुत्तन्तरेसु, बहिद्धा च अतित्थियसमये दिस्समानानं दिट्ठिगतानं इमासुयेव द्वासट्ठिया दिट्ठीसु अन्तोगधता वेदितब्बा । ते पन तत्थ तत्थागतनयेन वुच्चमाना गन्थवित्थारकरा, अतित्थे च पक्खन्दनमिव होतीति न वित्थारयिम्ह । इध पाळियं अत्थविचारणाय अट्ठकथायं अनुत्तानत्थपकासनमेव हि अम्हाकं भारोति ।
"एवमयं यथानुसन्धिवसेन देसना आगता''ति वचनप्पसङ्गेन सुत्तस्सानुसन्धयो विभजितुं "तयो ही"तिआदिमाह । अत्यन्तरनिसेधनत्थहि विसेसनिद्धारणं । तत्थ अनुसन्धनं अनुसन्धि, सम्बन्धमत्तं, यं देसनाय कारणढेन “समुट्ठान''न्तिपि वुच्चति । पुच्छादयो हि देसनाय बाहिरकारणं तदनुरूपेन देसनापवत्तनतो। तंसम्बन्धोपि तन्निस्सितत्ता कारणमेव । अब्भन्तरकारणं पन महाकरुणादेसनात्राणादयो । अयमत्थो उपरि आवि भविस्सति । पुच्छाय कतो अनुसन्धि पुच्छानुसन्धि, पुच्छं अनुसन्धिं कत्वा देसितत्ता सुत्तस्स सम्बन्धो पुच्छाय कतो नाम होति । पुच्छासङ्घातो अनुसन्धि पुच्छानुसन्धीतिपि युज्जति । पुच्छानिस्सितेन हि अनुसन्धिना तन्निस्सयभूता पुच्छापि गहिताति । अथ वा अनुसन्धहतीति अनुसन्धि, पुच्छासङ्घातो अनुसन्धि एतस्साति पुच्छानुसन्धि, तंतंसुत्तपदेसो । पुच्छाय वा अनुसन्धीयतीति पुच्छानुसन्धि, पुच्छं वचनसम्बन्धं कत्वा देसितो तंसमुट्ठानिको तंतंसुत्तपदेसोव । अज्झासयानुसन्धिम्हिपि एसेव नयो । अनुसन्धीयतीति अनुसन्धि, यो यो अनुसन्धि, अनुसन्धिनो अनुरूपं वा यथानुसन्धि ।
पुच्छाय, अज्झासयेन च अननुसन्धिको आदिम्हि देसितधम्मस्स अनुरूपधम्मवसेन वा
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(१.१.१००-१०४-१००-१०४)
दिधम्मनिब्बानवादवण्णना
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तप्पटिपक्खधम्मवसेन वा पवत्तो उपरिसुत्तपदेसो । तथा हि सो “येन पन धम्मेन...पे०... ककचूपमा आगता''तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० १.१००-१०४) अट्ठकथायं वुत्तो, यथापाकिमयं विभागोति दस्सेति "तत्था"तिआदिना। तत्थ “एवं वुत्ते नन्दो गोपालको भगवन्तं एतदवोचा''ति पठन्ति, तं न सुन्दरं सुत्ते तथा अभावतो । “एवं वुत्ते नन्दगोपालकसुत्ते भगवन्तं एतदवोचा''ति पन पठितब्बं तस्मिं सुत्ते “अञ्जतरो भिक्खु भगवन्तं एतदवोचा'ति अत्थस्स उपपत्तितो। इदहि संयुत्तागमवरे सळायतनवग्गे सङ्गीतसुत्तं । गङ्गाय वुरहमानं दारुक्खन्धं उपमं कत्वा सद्धापब्बजिते कुलपुत्ते देसिते नन्दो गोपालको “अहमिमं पटिपत्तिं पूरेस्सामी"ति भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, उपसम्पदञ्च गहेत्वा तथापटिपज्जमानो नचिरस्सेव अरहत्तं पत्तो। तस्मा “नन्दगोपालकसुत्त"न्ति पञायित्थ । “किं नु खो भन्ते"तिआदीनि पन अञतरोयेव भिक्खु अवोच । वुत्तहि तत्थ “एवं वुत्ते अञतरो भिक्खु भगवन्तं एतदवोच 'किं नु खो भन्ते, ओरिमं तीर'न्तिआदि।
तत्रायमत्थो - एवं वुत्तेति “सचे खो भिक्खवे, दारुक्खन्धो न ओरिमं तीरं उपगच्छती''तिआदिना गङ्गाय वुरहमानं दारुक्खन्धं उपमं कत्वा सद्धापब्बजिते कुलपुत्ते देसिते । भगवन्तं एतदवोचाति अनुसन्धिकुसलताय "किं नु खो भन्ते''तिआदिवचनमवोच । तथागतो हि “इमिस्सं परिसति निसिन्नो अनुसन्धि कुसलो अत्थि, सो मं पहं पुच्छिस्सती"ति एत्तकेनेव देसनं निट्ठापेसि । ओरिमं तीरन्ति ओरिमभूतं तीरं । तथा पारिमं तीरन्ति । मज्झे संसीदोति वेमज्झे संसीदनं निम्मुज्जनं । थले उस्सादोति जलमज्झे उद्विते थलस्मिं उस्सारितो आरुळहो । मनुस्सग्गाहोति मनुस्सानं सम्बन्धीभूतानं, मनुस्सेहि वा गहणं । तथा अमनुस्सग्गाहोति आवट्टग्गाहोति उदकावट्टेन गहणं । अन्तोपूतीति वक्कहदयादीसु अपूतिकस्सापि गुणानं पूतिभावेन अब्भन्तरपूतीति ।
“अथ खो अञ्जतरस्स भिक्खुनो"तिआदि मज्झिमागमवरे उपरिपण्णासके महापुण्णमसुत्तं (म० नि० ३.८८-९०) तत्रायमत्थो- इति किराति एत्थ किर-सद्दो अरुचियं, तेन भगवतो यथादेसिताय अत्तसुञताय अत्तनो अरुचियभावं दीपेति । भोति धम्मालपनं, अम्भो सभावधम्माति अत्थो । यदि रूपं अनत्ता...पे०... विज्ञाणं अनत्ता । एवं सतीति सपाठसेसयोजना। अनत्तकतानीति अत्तना न कतानि, अनत्तभूतेहि वा खन्धेहि कतानि । कमत्तानं फुसिस्सन्तीति कीदिसमत्तभावं फुसिस्सन्ति । असति अत्तनि खन्धानञ्च खणिकत्ता तानि कम्मानि कं नाम अत्तानं अत्तनो फलेन फुसिस्सन्ति, को
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१ (१.१.१०५-११७-१०५-११७)
कम्मफलं पटिसंवेदिस्सतीति वुत्तं होति । तस्स भिक्खुनो चेतोपरिवितक्कं अत्तनो चेतसा चेतो - परियञाणसम्पयुत्तेन सब्बञ्जतञ्ञाणसम्पयुत्तेन वा अञ्ञाय जानित्वाति सम्बन्धो ।
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अविद्वाति सुतादिविरहेन अरियधम्मस्स अकोविदताय अपण्डितो । विद्वा पण्डिताधिवचनं विदति जानातीति कत्वा । अविज्जागतोति अविज्जाय उपगतो, अरियधम्मे अविनीतताय अप्पहीनाविज्जोति अत्थो । तण्हाधिपतेय्येन चेतसाति " यदि अहं नाम कोचि नत्थि, एवं सति मया कतस्स कम्मस्स फलं को पटिसंवेदेति, सति पन तस्मिं सिया कम्मफलूपभोगो’'ति तण्हाधिपतितो आगतेन अत्तवादुपादानसहगतेन चेतसा । अतिधावितब्बन्ति अतिक्कमित्वा धावितब्बं । इदं वुत्तं होति - खणिकत्तेपि सङ्घारानं यस्मिं सन्ताने कम्मं कतं, तत्थेव फलूपपत्तितो धम्मपुञ्जमत्तस्सेव सिद्धे कम्मफलसम्बन्धे एकत्तनयं मिच्छा गहेत्वा एकेन कारकवेदकभूतेन भवितब्बं, अञ्ञथा कम्मकम्मफलानमसम्बन्धो सियाति अत्तत्तनियसुञ्ञतापकासनं सत्थुसासनं अतिक्कमितब्बं मञ्ञेय्याति । इदानि अनतिधावितब्बतं विभावेतुं "तं किं मञ्ञथा" तिआदिमाह ।
उपरि देसनाति देसनासमुट्ठानधम्मदीपिकाय हेट्ठिमदेसनाय उपरि पवत्तिता देसना । देसनासमुट्ठानधम्मस्स अनुरूपपटिपक्खधम्मप्पकासनवसेन दुविधेसु यथानुसन्धीसु अनुरूपधम्मप्पकासनवसेन यथानुसन्धिदस्सनमेतं " उपरि छ अभिज्ञा आगता "ति । तदवसे पन सब्बम्पि पटिपक्खधम्मप्पकासनवसेन । मज्झिमागमवरे मूलपण्णासकेयेव चेतानि सुत्तानि । किलेसेनाति “लोभो चित्तस्स उपक्किलेसो "तिआदिना किलेसवसेन । भण्डनेनाति विवादेन । अक्खन्तियाति कोपेन । ककचूपमाति खरपन्तिउपमा । इमस्मिम्पीति पि-सद्दो अपेक्खायं “ अयम्पि पाराजिको "तिआदीसु (वि० १.७२-७३, १६७, १७१, १९५, १९७) विय, सम्पिण्डने वा तेन यथा वत्थसुत्तादीसु परिपक्खधम्मप्पकासनवसेन यथानुसन्धि, एवं इमस्मिम्पि ब्रह्मजालेति अपेक्खनं, सम्पिण्डनं वा करोति । तथा हि निच्चसारादिपञ्ञपकानं दिट्ठिगतानं वसेन उट्ठितायं देसना निच्चसारादिसुञ्ञतापकासनेन निट्ठापिताति। ‘“तेना”तिआदिना यथावुत्तसंवण्णनाय गुणं दस्सेति ।
"
परितस्सितविप्फन्दितवारवण्णना
१०५-११७. मरियादविभागदस्सनत्थन्ति दिट्ठिगतिकानं तण्हादिट्ठिपरामासस्स तथागतानं जाननपस्सनेन, सस्सतादिमिच्छादस्सनस्स च सम्मादस्सनेन सङ्कराभाव-विभागप्पकासनत्थं ।
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(१.१.१०५-११७-१०५-११७)
परितस्सितविप्फन्दितवारवण्णना
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तण्हादिठ्ठिपरामासोयेव तेसं, न तु तथागतानमिव यथाभूतं जाननपस्सनं । तण्हादिट्ठिविप्फन्दनमेवेतं मिच्छादस्सनवेदयितं, न तु सोतापन्नस्स सम्मादस्सनवेदयितमिव निच्चलन्ति च हि इमाय देसनाय मरियादविभागं दस्सेति । तेन वक्खति “येन दिट्ठिअस्सादेन...पे०... तं वेदयित"न्ति, “दिट्ठिसङ्खातेन चेव...पे०... दस्सेती"ति च । "तदपी"ति वुत्तत्ता येन सोमनस्सजाता पञपेन्तीति अत्थो लब्भतीति दस्सेतुं "येना"तिआदि वुत्तं । सामत्थियतो हि अवगतत्थस्सेवेत्थ त-सद्देन परामसनं । दिट्ठिअस्सादेनाति दिट्ठिया पच्चयभूतेन अस्सादेन | "दिद्विसुखेना"तिआदि तस्सेव वेवचनं । अजानन्तानं अपस्सन्तानं तेसं भवन्तानं समणब्राह्मणानं तदपि वेदयितं तण्हागतानं वेदयितन्ति सम्बन्धो।
"यथाभूतधम्मानं सभाव"न्ति च अविसेसेन वृत्तं । न हि सङ्घतधम्मसभावं अजाननमत्तेन मिच्छा अभिनिविसन्ति । सामञजोतना च विसेसे अवतिठ्ठति । तस्मायमेत्थ विसेसयोजना कातब्बा – “सस्सतो अत्ता च लोको चा"ति इदं दिट्ठिट्टानं एवंगहितं एवंपरामटुं एवंगतिकं होति एवंअभिसम्परायन्ति यथाभूतमजानन्तानं अपस्सन्तानं अथ वा यस्मिं वेदयिते अवीततण्हताय एवंदिट्टिगतं उपादीयति, तं वेदयितं समुदयअत्थङ्गमादितो यथाभूतमजानन्तानं अपस्सन्तानन्ति । एवं विसेसयोजनाय हि यथा अनावरणञाणसमन्तचक्खूहि तथागतानं यथाभूतमेत्थ जाननं, पस्सनञ्च होति, न एवं दिह्रिगतिकानं, अथ खो तेसं तण्हादिट्टिपरामासोयेवाति इममत्थं इमाय देसनाय दस्सेतीति पाकटं होति । एवम्पि चायं देसना मरियादविभागदस्सनत्थं जाता।
वेदयितन्ति “सस्सतो अत्ता च लोको चा''ति (दी० नि० १.३१) दिट्ठिपञापनवसेन पवत्तं दिट्ठिस्सादसुखपरियायेन वुत्तं, तदपि अनुभवनं । तण्हागतानन्ति तण्हाय उपगतानं, पवत्तानं वा तदेव वुत्तिनयेन विवरति "केवलं...पे०... वेदयित"न्ति । तञ्च खो पनेतन्ति च यथावुत्तं वेदयितमेव पच्चामसति, तेनेतं दीपेति- "तदपि वेदयितं तण्हागतानं वेदयितमेवा''ति वच्छिन्दित्वा “तदपि वेदयितं परितस्सितविप्फन्दितमेवा'"ति पुन सम्बन्धो कातब्बोति । तदपि ताव न सम्पापुणातीति हेट्ठिमपरिच्छेदेन मरियादविभागं दस्सेतुं "न सोतापन्नस्स दस्सनमिव निचल"न्ति वुत्तं । दस्सनन्ति च सम्मादस्सनसुखं, मग्गफलसुखन्ति वुत्तं होति । कुतो चायमत्थो लब्भतीति एव-सद्दसामत्थियतो । “परितस्सितविप्फन्दितमेवाति हि वुत्तेन मग्गफलसुखं विय अविष्फन्दितं हुत्वा एकरूपे अवतिकृति, अथ खो तं वट्टामिसभूतं दिद्वितण्हासल्लानुविद्धताय सउप्पीळत्ता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
विप्फन्दितमेवाति अत्थो आपन्नो होति, तेनेवाह “परितस्सितेना "तिआदि । अयमेत्थ अट्ठकथामुत्तको ससम्बन्धनयो ।
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एवं विसेसकारणतो द्वासट्ठि दिट्टिगतानि विभजित्वा इदानि अविसेसकारणतो तानि दस्सेतुं " तत्र भिक्खवे "तिआदिका देसना आरद्धा । सब्बेसञ्हि दिट्ठिगतानं वेदना, अविज्जा, तण्हा च अविसिट्ठकारणं । तत्थ तदपीति “सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ती”ति एत्थ यदेतं "सरसतो अत्ता च लोको चाति पञ्ञापनहेतुभूतं सुखादिभेदं
तिविधम्पि वेदयितं, तदपि यथाक्कमं दुक्खसल्लानिच्चतो, अविसेसेन
समुदयत्थङ्गमस्सादादीनवनिस्सरणतो वा यथाभूतमजानन्तानं अपस्सन्तानं होति, ततो एव च सुखादिपत्थनासम्भवतो, तण्हाय च उपगतत्ता तण्हागतानं तहापरितस्सितेन दिट्ठिविप्फन्दितमेव दिट्ठिचलनमेव । "असति अत्तनि को वेदनं अनुभवतीति कायवचीद्वारेसु दिट्ठिया चोपनप्पत्तिमत्तमेव, न पन दिट्ठिया पञ्ञपेतब्बो कोचि धम्मो सस्सतो अत्थीति अधिप्पायोति । एकच्चसस्सतादीसुपि एस नयो ।
फस्सपच्चयवारवण्णना
११८. परम्परपच्चयदस्सनत्थन्ति यं दिट्ठिया मूलकारणं, तस्सापि कारणं, पुन तस्सपि कारणन्ति एवं पच्चयपरम्परदस्सनत्थं । येन हि तण्हापरितस्सितेन एतानि दिट्ठिगतानि
(१.१.११८-१३१)
पवत्तन्ति, तस्स वेदयितं पच्चयो, वेदयितापि फस्सो पच्चयोति एवं
पच्चयपरम्परविभाविनी अयं देसना । किमत्थियं पन पच्चयपरम्परदस्सनन्ति चे ? अत्थन्तरविञ्ञापनत्थं । तेन हि यथा दिट्ठिसङ्घातो पञ्ञापनधम्मो, तप्पच्चयधम्मा च यथासकं पच्चयवसेनेव उप्पज्जन्ति, न पच्चयेहि विना, एवं पञ्ञपेतब्बधम्मापि रूपवेदनादयो, न एत्थ कोचि सस्सतो अत्ता वा लोको वाति एवमत्थन्तरं विञ्ञापितं होति । तण्हादिट्ठिपरिफन्दितं तदपि वेदयितं दिट्ठिकारणभूताय तण्हाय पच्चयभूतं फस्सपच्चया होतीति अत्थो ।
१३१. तस्स पच्चयस्साति तस्स फस्ससङ्घातस्स पच्चयस्स । दिट्ठिवेदयिते दिट्ठिया पच्चयभूते वेदयिते, फस्सपधानेहि अत्तनो पच्चयेहि निप्फादेतब्बे । साधेतब्बे चेतं भुम्मं । बलवभावदस्सनत्थन्ति बलवकारणभावदस्सनत्थं । तथा हि विनापि चक्खादिवत्थूहि, सम्पयुत्तधम्मेहि च केहिचि वेदना उप्पज्जति, न पन कदाचिपि फस्सेन विना, तस्मा
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(१.१.१४४-१४४)
दिद्विगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना
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फस्सो वेदनाय बलवकारणं । न केवलं वेदनाय एव, अथ खो सेससम्पयुत्तधम्मानम्पि । सन्निहितोपि हि विसयो सचे चित्तुप्पादो फुसनाकारविरहितो होति, न तस्स आरम्मणपच्चयो भवतीति फस्सो सब्बेसम्पि सम्पयुत्तधम्मानं विसेसपच्चयो। तथा हि भगवता धम्मसङ्गणीपकरणे चित्तुप्पादं विभजन्तेन “फस्सो होती"ति फस्सस्सेव पठममुद्धरणं कतं, वेदनाय पन सातिसयमधिट्ठानपच्चयो एव । “पटिसंवेदिस्सन्ती''ति वुत्तत्ता "तदपी''ति एत्थाधिकारोति आह "तं वेदयित"न्ति । गम्यमानत्थस्स वा-सद्दस्स पयोगं पति कामचारत्ता, लोपत्ता, सेसत्तापि च एस न पयुत्तो । एवमीदिसेसु । होति चेत्थ -
“गम्यमानाधिकारतो, लोपतो सेसतो चाति । कारणेहि चतूहिपि, न कत्थचि रवो युत्तो''ति ।।
“यथा ही'तिआदिना फस्सस्स बलवकारणतादस्सनेन तदत्थं समत्थेति । तत्थ पततोति पतन्तस्स । थूणाति उपत्थम्भकदारुस्सेतं अधिवचनं ।
दिद्विगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना १४४. किञ्चापि इमस्मिं ठाने पाळियं वेदयितमनागतं, हेट्ठा पन तीसुपि वारेसु अधिकतत्ता, उपरि च “फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्ती"ति वक्खमानत्ता वेदयितमेवेत्थ पधानन्ति आह "सब्बदिद्विवेदयितानि सम्पिण्डेती"ति । “येपि तेति तत्थ तत्थ आगतस्स च पिसद्दस्स अत्थं सन्धाय “सम्पिण्डेती"ति वुत्तं । ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा...पे०... सब्बेपि ते छहि फस्सायतनेहि फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्तीति हि वेदयितकिरियावसेन तंतंदिह्रिगतिकानं सम्पिण्डितत्ता वेदयितसम्पिण्डनमेव जातं । सब्बम्पि हि वाक्यं किरियापधानन्ति । उपरि फस्से पक्खिपनत्थायाति “छहि फस्सायतनेही''ति वुत्ते उपरि फस्से पक्खिपनत्थं, पक्खिपनञ्चेत्थ वेदयितस्स फस्सपच्चयतादस्सनमेव । “छहि फस्सायतनेहि फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्ती''ति इमिना हि छहि अज्झत्तिकायतनेहि छळारम्मणपटिसंवेदनं एकन्ततो छफस्सहेतुकमेवाति दस्सितं होति, तेन वुत्तं "सब्बे ते"तिआदि ।
कम्बोजोति एवंनामकं रहूं। तथा दक्षिणापथो। "सजातिवाने"ति इमिना सजायन्ति एत्थाति अधिकरणत्थो सञ्जाति-सद्दोति दस्सेति । एवं समोसरण सद्दो । आयतनसदोपि तदुभयत्थे । आयतनेति समोसरणभूते चतुमहापथे । नन्ति महानिग्रोधरुक्खं । इदहि
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अङ्गुत्तरागमे पञ्चनिपाते सद्धानिसंससुत्तपदं । तत्थ च सेय्यथापि भिक्खवे सुभूमियं चतुमहापथे महानिग्रोधो समन्ता पक्खीनं पटिसरणं होती 'ति (अ० नि० २.५.३८) तन्निद्देसो वृत्तो । सति सतिआयतनेति सतिसङ्घाते कारणे विज्जमाने, तत्र तत्रेव सक्खितब्बतं पापुणातीति अत्थो । आयतन्ति एत्थ फलानि तदायत्तवृत्तिताय पवत्तन्ति, आयभूतं वा अत्तनो फलं तनोति पवत्तेतीति आयतनं, कारणं । सम्मन्तीति उपसम्मन्ति अस्सासं जनेन्ति । आयतन - सद्दो अञ्ञेसु विय न एत्थ अत्थन्तरावबोधकोति आह ‘“पण्णत्तिमत्ते”ति, तथा तथा पञ्ञत्तिमत्तेति अत्थो । रुक्खगच्छसमूहे पण्णत्तमत्ते हि अरञ्ञवोहारो, अरञमेव च अरञ्ञायतनन्ति । अत्थत्तयेपीति एत्थ पि-सद्देन आकरनिवासाधिट्ठानत्थे सम्पिण्डेति । “हिरञ्ञायतनं सुवण्णायतन' 'न्तिआदीसु हि आकरे, "इस्सरायतनं वासुदेवायतन "न्तिआदीसु निवासे, “कम्मायतनं सिप्पायतन "न्तिआदीसु अधिट्ठाने पवत्तति, निस्सयेति अत्थो ।
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आयतन्ति एत्थ आकरोन्ति, निवसन्ति, अधिट्ठहन्तीति यथाक्कमं वचनत्थो । चक्खादी च फस्सादयो आकिण्णा, तानि च संवासो, अधिट्ठानञ्च निस्सयपच्चयभावतो। तस्मा तदेतम्पि अत्थत्तयमिध युज्जतियेव । कथं युज्जतीति आह ‘“चक्खादीसु ही”तिआदि । फस्सो वेदना सञ्ञा चेतना चित्तन्ति इमे फस्सपञ्चमका धम्मा उपलक्खणवसेन वुत्ता असम्पि तंसम्पयुत्तधम्मानं आयतनभावतो, पधानवसेन वा । तथा हि चित्तुप्पादं विभजन्तेन भगवता तेयेव “फस्सो होति, वेदना, सञ्ञा, चेतना, चित्तं होती 'ति पठमं विभत्ता । सञ्जायन्ति तन्निस्सयारम्मणभावेन तत्थेव उप्पत्तितो । समोसरन्ति तत्थ तत्थ वत्थुद्वारारम्मणभावेन समोसरणतो । तानि च नेसं कारणं तेसमभावे अभावतो । अयं पन यथावुत्तो सञ्जातिदेसादिअत्थो रुळ्हिवसेनेव तत्थ तत्थ निरुळ्हताय एव पवत्तत्ताति आचरियआनन्दत्थेरेन वुत्तं । अयं पन पदत्थविवरणमुखेन पवत्तो अत्थो - आयतनतो, आयानं तननतो, आयतस्स च नयनतो आयतनं । चक्खादी हि नंतंद्वारारम्मणा चित्तचेतसिका धम्मा सेन सेन अनुभवनादिकिच्चेन आयतन्ति उट्ठहन्ति घटेन्ति वायमन्ति, आयभूते च धम्मे एतानि तनोन्ति वित्थारेन्ति, आयतञ्च संसारदुक्खं नयन्ति पवत्तेन्तीति। इति इमिना नयेनाति एत्थ आदिअत्थेन इति सद्देन "सोतं पटिच्चा "तिआदिपाळिं सङ्गण्हाति ।
तत्थ
तिण्णन्ति
चक्खुपसादरूपारम्मणचक्खुविञणादीनं तिण्णं विसयिन्द्रियविञणानं। तेसं समागमनभावेन गहेतब्बतो " फस्सो सङ्गती 'ति वृत्त । तथा
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दिद्विगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना
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हि सो “सन्निपातपच्चुपट्ठानो"ति वुच्चति । इमिना नयेन आरोपेत्वाति सम्बन्धो। तेन इममत्थं दस्सेति - यथा “चक्प टिच्च...पे०... फस्सो''ति (म० नि० १.२०४; ३.४२१, ४२५, ४२६; सं० नि० १.२.४३, ४५; २.४.६१; कथाव० ४६५) एतस्मिं सुत्ते विज्जमानेसुपि सञ्जादीसु सम्पयुत्तधम्मेसु वेदनाय पधानकारणभावदस्सनत्थं फस्ससीसेन देसना कता, एवमिधापि “फस्सपच्चया वेदना''तिआदिना फस्सं आदि कत्वा अपरन्तपटिसन्धानेन पच्चयपरम्परं दस्सेतुं “छहि फस्सायतनेही"ति च "फुस्स फुस्सा"ति च फस्ससीसेन देसना कताति । फस्सायतनादीनीति आदि-सद्देन “फुस्स फुस्सा''ति वचनं सङ्गण्हाति ।
"किञ्चापी"तिआदिना सद्दमत्ततो चोदनालेसं दस्सेत्वा "तथापी"तिआदिना अत्थतो तं परिहरति । न आयतनानि फुसन्ति रूपानमनारम्मणभावतो। फस्सो अरूपधम्मो विसमानो एकदेसेन आरम्मणं अनल्लियमानोपि फुसनाकारेन पवत्तो फुसन्तो विय होतीति आह "फस्सोव तं तं आरम्मणं फुसती"ति । तेनेव सो “फुसनलक्खणो, सङ्घट्टनरसो''ति च वुच्चति । “छहि फस्सायतनेहि फुस्स फुस्सा''ति अफुसनकिच्चानिपि निस्सितवोहारेन फुसनकिच्चानि कत्वा दस्सनमेव फस्से उपनिक्खिपनं नाम यथा “मञ्चा घोसन्ती'"ति । उपनिक्खिपित्वाति हि फुसनकिच्चारोपनवसेन फस्सस्मिं पवेसेत्वाति अत्थो । फस्सगतिकानि कत्वा फस्सुपचारं आरोपेत्वाति वुत्तं होति । उपचारो नाम वोहारमत्तं, न तेन अत्थसिद्धि अतंसभावतो। अत्थसिज्झनको पन तंसभावोयेव अत्थो गहेतब्बोति दस्सेतुं "तस्मा"तिआदिमाह । यथाहु
"अत्यहि नाथो सरणं अवोच, न ब्यञ्जनं लोकहितो महेसी''ति ।।
अत्तनो पच्चयभूतानं छन्नं फस्सानं वसेन चक्खुसम्फस्सजा याव मनोसम्फस्सजाति सङ्खपतो छब्बिधं सन्धाय "छफस्सायतनसम्भवा वेदना"ति वुत्तं । वित्थारतो पन -
“फस्सतो छब्बिधापेता, उपविचारभेदतो। तिधा निस्सिततो द्वीहि, तिधा कालेन वड्डिता''ति ।। -
अट्ठसतपरियाये वुत्तनयेन अट्ठसतप्पभेदा । महाविहारवासिनो चेत्थ यथा विआणं नामरूपं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
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सळायतनं, एवं फस्सं, वेदनञ्च पच्चयपच्चयुप्पन्नम्पि ससन्ततिपरियापन्नं दीपेन्तो विपाकमेव इच्छन्ति, अछे पन यथा तथा वा पच्चयभावो सति न सक्का वज्जेतुन्ति सब्बमेव इच्छन्ति । साति यथावुत्तप्पभेदा वेदना । रूपतण्हादिभेदायाति "सेट्ठिपुत्तो ब्राह्मणपुत्तो''ति पितुनामवसेन विय आरम्मणनामवसेन वुत्ताय रूपतण्हा याव धम्मतण्हाति सङ्केपतो छब्बिधाय । वित्थारतो पन -
“रूपतण्हादिका काम-तण्हादीहि तिधा पुन । सन्तानतो द्विधा काल-भेदेन गुणिता सियु"न्ति ।। -
एवं वुत्तअट्ठसतप्पभेदाय । उपनिस्सयकोटियाति उपनिस्सयसीसेन । कस्मा पनेत्थ उपनिस्सयपच्चयोव उद्धटो, ननु सुखा वेदना, अदुक्खमसुखा च तण्हाय आरम्मणमत्तआरम्मणाधिपतिआरम्मणूपनिस्सयपकतूपनिस्सयवसेन चतुधा पच्चयो, दुक्खा च आरम्मणमत्तपकतूपनिस्सयवसेन द्विधाति ? सच्चमेतं, उपनिस्सये एव पन तं सब्बम्पि अन्तोगधन्ति एवमुद्धटो। युत्तं ताव आरम्मणूपनिस्सयस्स उपनिस्सयसामञतो उपनिस्सये अन्तोगधता, कथं पन आरम्मणमत्तआरम्मणाधिपतीनं तत्थ अन्तोगधभावो सियाति ? तेसम्पि आरम्मणसामञ्जतो आरम्मपनिस्सयेन सङ्गहितत्ता आरम्मपनिस्सयवसमोधानभूतेव उपनिस्सये एव अन्तोगधता होति । एतदत्थमेव हि सन्धाय “उपनिस्सयेना'"ति अवत्वा "उपनिस्सयकोटिया''ति वुत्तं । सिद्धे हि सत्यारम्भो नियमाय वा होति अत्यन्तरविज्ञापनाय वाति । एवमीदिसेसु ।
चतुब्बिधस्साति कामुपादानं याव अत्तवादुपादानन्ति चतुब्बिधस्स । ननु च तण्हाव कामुपादानं, कथं सायेव । तस्स पच्चयो सियाति? सच्चं, पुरिमतण्हाय पन उपनिस्सयपच्चयेन पच्छिमतण्हाय दळहभावतो पुरिमायेव तण्हा पच्छिमाय पच्चयो भवति । तण्हादळहत्तमेव हि “कामुपादानं उपायासो उपकट्ठा'तिआदीसु विय उप सद्दस्स दळ्हत्थे पवत्तनतो। अपिच दुब्बला तण्हा तण्हायेव, बलवती तण्हा कामुपादानं । अथ वा अपत्तविसयपत्थना तण्हा तमसि चोरानं हत्थपसारणं विय, सम्पत्तविसयग्गहणं कामुपादानं चोरानं हत्थगतभण्डग्गहणं विय। अप्पिच्छतापटिपक्खा तण्हा । सन्तुट्ठितापटिपक्खं कामुपादानं । परियेसनदुक्खमूलं तण्हा, आरक्खदुक्खमूलं कामुपादानं । अयम्पि तेसं विसेसो केचिवादवसेन आचरियधम्मपालत्थेरेन (दी० नि० टी० १.१४४) दस्सितो पुरिमनयस्सेव विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.१४४) सकवादभावेन वुत्तत्ता ।
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दिह्रिगतिकाधिट्ठानवट्टकथावण्णना
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असहजातस्स उपादानस्स उपनिस्सयकोटिया, सहजातस्स पन सहजातकोटियाति यथालाभमत्थो गहेतब्बो। तत्थ असहजाता अनन्तरनिरुद्धा अनन्तरसमनन्तर अनन्तरूपनिस्सयनत्थिविगतासेवनपच्चयेहि छधा पच्चयो। आरम्मणभूता पन आरम्मणमत्तआरम्मणाधिपतिआरम्मणूपनिस्सयेहि तिधा, तं सब्बम्पि वुत्तनयेन उपनिस्सयेनेव सङ्गहेत्वा "उपनिस्सयकोटिया"ति वुत्तं । यस्मा च तण्हाय रूपादीनि अस्सादेत्वा कामेसु पातब्यतं आपज्जति, तस्मा तण्हा कामुपादानस्स उपनिस्सयकोटिया पच्चयो। तथा रूपादिभेदे सम्मूळ्हो “नत्थि दिन्न'"न्तिआदिना (दी० नि० १.१७१; म० नि० १.४४५; २.९४-९५, २२५; ३.९१, ११६, १३६; सं० नि० २.३.२१०; अ० नि० ३.१०.१७६, २१७; ध० स० १२२१; विभं० ९०७, ९२५, ९७१) मिच्छादस्सनं, संसारतो मुच्चितुकामो असुद्धिमग्गे सुद्धिमग्गपरामसनं, खन्धेसु अत्तत्तनियगाहभूतं सक्कायदस्सनञ्च गण्हाति । तस्मा इतरेसम्पि तिण्णं तण्हा उपनिस्सयकोटिया पच्चयोति दट्टब् । सहजाता पन सहजातअञमञनिस्सयसम्पयुत्तअत्थिअविगतहेतुवसेन सत्तधा सहजातानं पच्चयो । तम्पि सब्बं सहजातपच्चयेनेव सङ्गहेत्वा "सहजातकोटिया"ति वुत्तं ।
भवस्साति कम्मभवस्स चेव उपपत्तिभवस्स च। तत्थ चेतनादिसङ्घातं सब्बं भवगामिकम्मं कम्मभवो। कामभवादिनवविधो उपपत्तिभवो। तेसु उपपत्तिभवस्स चतुब्बिधम्पि उपादानं उपपत्तिभवहेतुभूतस्स कम्मभवस्स कारणभावतो, तस्स च सहायभावूपगमनतो पकतूपनिस्सयवसेन पच्चयो। कम्मारम्मणकरणकाले पन कम्मसहजातमुपादानं उपपत्तिभवस्स आरम्मणवसेन पच्चयो । कम्मभवस्स पन सहजातस्स सहजातमुपादानं सहजातअञमञनिस्सयसम्पयुत्तअत्थिअविगतवसेन चेव हेतुमग्गवसेन च अनेकधा पच्चयो। असहजातस्स पन अनन्तरस्स असहजातमुपादानं अनन्तरसमनन्तरअनन्तरूपनिस्सयनत्थिविगतासेवनवसेन, इतरस्स च नानन्तरस्स पकतूपनिस्सयवसेन, सम्मसनादिकालेसु आरम्मणादिवसेन च पच्चयो । तत्थ अनन्तरादिके उपनिस्सयपच्चये, सहजातादिके च सहजातपच्चये पक्खिपित्वा तथाति वुत्तं, रूपूपहारत्थो वा हेस अनुकड्ढनत्थो वा । तेन हि उपनिस्सयकोटिया चेव सहजातकोटिया चाति अत्थं दस्सेति ।
__ भवो जातियाति एत्थ भवोति कम्मभवो अधिप्पेतो। सो हि जातिया पच्चयो, न उपपत्तिभवो । जातियेव हि उपपत्तिभवोति, सा च पठमाभिनिब्बत्तखन्धा । तेन वुत्तं "जातीति पनेत्थ सविकारा पञ्चक्खन्धा दट्ठब्बा"ति, तेनायं चोदना निवत्तिता “ननु
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४४-१४४)
जातिपि भवोयेव, कथं सो जातिया पच्चयो''ति, कथं पनेतं जानितब्बं “कम्मभवो जातिया पच्चयो''ति चे? बाहिरपच्चयसमत्तेपि कम्मवसेनेव हीनपणीतादिविसेसदस्सनतो । यथाह भगवा “कम्मं सत्ते विभजति यदिदं हीनपणीतताया"ति (म० नि० ३.२८९) सविकाराति निब्बत्तिविकारेन सविकारा, न अजेहि, ते च अत्थतो उपपत्तिभवोयेव, सो एव च तस्स कारणं भवितुमयुत्तो तण्हाय कामुपादानस्स पच्चयभावे विय पुरिमपच्छिमादिविसेसानमसम्भवतो, तस्मा कम्मभवोयेव उपपत्तिभवसङ्घाताय जातिया कम्मपच्चयेन चेव पकतूपनिस्सयपच्चयेन च पच्चयोति अत्थं दस्सेतुं “कम्मपच्चयं उपनिस्सयेनेव सङ्गहेत्वा उपनिस्सयकोटिया पच्चयो''ति वुत्तं । यस्मा पन जातिया सति जरामरणं, जरामरणादिना फुट्ठस्स च बालस्स सोकादयो सम्भवन्ति, नासति, तस्मा जातिजरामरणादीनं उपनिस्सयवसेन पच्चयोति आह "जाति...पे०... पच्चयो"ति वित्थारतो अत्थविनिच्छयस्स अकतत्ता, सहजातूपनिस्सयसीसेनेव पच्चयविचारणाय च, दस्सितत्ता, अङ्गादिविधानस्स च अनामठ्ठत्ता "अयमेत्थ सबैपो"तिआदि वुत्तं । महाविसयत्ता पटिच्चसमुप्पादविचारणाय निरवसेसा अयं कुतो लद्धब्बाति चोदनमपनेति “वित्थारतो"तिआदिना। "इध पनस्सा''तिआदिना पाळियम्पि पटिच्चसमुप्पादकथा एकदेसेनेव कथिताति दस्सेति । तत्थ इधाति इमस्मिं ब्रह्मजाले । अस्साति पटिच्चसमुप्पादस्स। पयोजनमत्तमेवाति दिट्ठिया कारणभूतवेदनावसेन एकदेसमत्तं पयोजनमेव । “मत्तमेवा''ति हि अवधारणत्थे परियायवचनं "अप्पं वस्ससतं आयु, इदानेतरहि विज्जती''तिआदीसु विय अञमञत्थावबोधनवसेन सपयोजनत्ता, मत्त-सद्दो वा पमाणे, पयोजनसङ्खातं पमाणमेव, न तदुत्तरीति अत्थो । “मत्त-सद्दो अवधारणे एव-सद्दो सन्निट्ठाने''तिपि वदन्ति । एवं सब्बत्थ । होति चेत्थ -
"मत्तमेवाति एकत्थं, मत्तपदं पमाणके । मत्तावधारणे वा, सन्निट्ठानम्हि चेतर'"न्ति ।।
एकदेसेनेविध पाळियं कथितत्ता पटिच्चसमुप्पादस्स तथा कथने सद्धिं उदाहरणेन कारणं दस्सेन्तो "भगवा ही"तिआदिमाह । तेन इममधिप्पायं दस्सेति “वट्टकथं कथेन्तो भगवा अविज्जा तण्हा-दिट्ठीनमञ्जतरसीसेन कथेसि, तेसु इध दिविसीसेनेव कथेन्तो वेदनाय दिट्ठिया बलवकारणत्ता वेदनामूलकं एकदेसमेव पटिच्चसमुप्पादं कथेसी''ति । एतानि च मुत्तानि अङ्गुत्तरनिकाये दसनिपाते (अ० नि० ३.१०.६१ वाक्यखन्धे) तत्थ पुरिमकोटि न पञायतीति असुकस्स नाम सम्मासम्बुद्धस्स, चक्कवत्तिनो वा काले अविज्जा उप्पन्ना, न
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(१.१.१४५-१४५)
विवट्टकथादिवण्णना
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ततो पुब्बेति एवं अविज्जाय पुरिमो आदिमरियादो अप्पटिहतस्स मम सब्ब ताणस्सापि न पचायति तता मरियादस्स अविज्जमानत्ताति अत्थो । एवञ्चेतन्ति इमिना मरियादाभावेन अयं अविज्जा कामं वुच्चति । अथ च पनाति एवं कालनियमेन मरियादाभावेन वुच्चमानापि । इदप्पच्चयाति इमस्मा पञ्चनीवरणसङ्घातपच्चया अविज्जा सम्भवतीति एवं धम्मनियामेन अविज्जाय कोटि पञ्जायतीति अत्थो । “को चाहारो अविज्जाय, ‘पञ्च नीवरणा' तिस्स वचनीय''न्ति (अ० नि० ३.१०.६१) हि तत्थेव वुत्तं, टीकायं पन “आसवपच्चया''ति (दी० नि० टी० १.१४४) आह, तं उदाहरणसुत्तेन न समेति । अयं पच्चयो इदप्पच्चयो म-कारस्स द-कारादेसवसेन । सद्दविदू पन "ईदिसस्स पयोगस्स दिस्सनतो इद-सद्दोयेव पकतीति वदन्ति, अयुत्तमेवेतं वण्णविकारादिवसेन नानापयोगस्स दिस्समानत्ता । यथा हि वण्णविकारेन “अमू"ति वुत्तेपि “असू"ति दिस्सति, “इमेसूति वुत्तेपि “एसूति, एवमिधापि वण्णविकारो च वाक्ये विय समासेपि लब्भतेव यथा “जानिपति तुदम्पती"ति। किमेत्थ वत्तब्द, पभिन्नपटिसम्भिदेन आयस्मता महाकच्चायनत्थेरेन वुत्तमेव पमाणन्ति दट्टब्बं ।।
भवतण्हायाति भवसओजनभूताय तण्हाय । इदप्पच्चयाति इमस्मा अविज्जापच्चया । "को चाहारो भवतण्हाय, 'अविज्जा' तिस्स वचनीय"न्ति हि वुत्तं । भवदिट्ठियाति सस्सतदिट्ठिया । इदप्पच्चयाति इध पन वेदनापच्चयात्वेव अत्थो । ननु दिट्ठियो एव कथेतब्बा, किमत्थियं पन पटिच्चसमुप्पादकथनन्ति अनुयोगेनाह "तेना"तिआदि । इदं वुत्तं होति- अनुलोमेन पटिच्चसमुप्पादकथा नाम वट्टकथा, तं कथनेनेव भगवा एते दिट्ठिगतिका याविदं मिच्छादस्सनं न पटिनिस्सज्जन्ति, ताव इमिना पच्चयपरम्परेन वट्टेयेव निमुज्जन्तीति दस्सेसीति । इतो भवादितो। एत्थ भवादीसु । एस नयो सेसपदद्वयेपि । इमिना अपरियन्तं अपरापरुप्पत्तिं दस्सेति । विपन्नहाति विविधेन नासिता ।
विवट्टकथादिवण्णना १४५. दिद्विगतिकाधिट्ठानन्ति दिद्विगतिकानं मिच्छागाहदस्सनवसेन अधिट्ठानभूतं, दिट्ठिगतिकवसेन पुग्गलाधिट्ठानन्ति वुत्तं होति । पुग्गलाधिट्ठानधम्मदेसना हेसा । युत्तयोगभिक्खुअधिद्वानन्ति युत्तयोगानं भिक्खूनमधिट्ठानभूतं, भिक्खुवसेन पुग्गलाधिट्ठानन्ति वुत्तं होति । विवट्टन्ति वट्टतो विगतं । "येही"तिआदिना दिट्टिगतिकानं मिच्छादस्सनस्स कारणभूताय वेदनाय पच्चयभूतं हेट्ठा वुत्तमेव फस्सायतनमिध गहितं देसनाकुसलेन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
भगवताति दस्सेति । वेदनाकम्मट्ठानेति "वेदनानं समुदय "न्तिआदिकं इमं पाळिं सन्धाय वृत्तं । किञ्चित्तमेव विसेसोति आह " यथा पना "तिआदि । तन्ति “फस्ससमुदया, फस्सनिरोधा "ति वुत्तं कारणं । “आहारसमुदया "तिआदीसु कबळीकारो आहारो वेदितब्बो । सो हि "कबळीकारो आहारो इमस्स कायस्स आहारपच्चयेन पच्चयो ति ( पट्ठा० ४२९) पट्टा वचनतो कम्मसमुट्ठानानम्पि चक्खादीनं उपत्थम्भकपच्चयो होतियेव । “नामरूपसमुदया’’तिआदीसु वेदनादिक्खन्धत्तयमेव नामं । ननु च "नामरूपपच्चया सळायतन' "न्ति वचनतो सब्बेसु छसु फस्सायतनेसु " नामरूपसमुदया नामरूपनिरोधा” इच्चेव वत्तब्बं, अथ कस्मा चक्खायतनादीसु " आहारसमुदया आहारनिरोधा "ति वुत्तन्ति ? सच्चमेतं अविसेसेन, इध पन एवम्पि चक्खादीसु सम्भवतीति विसेसतो दस्सेतुं तथा तिब्बं ।
४१०
उत्तरितरजाननेनेव दिट्ठगतस्स जाननम्पि सिद्धन्ति कत्वा पाळियमनागतेपि "दिट्ठिञ्च जानातीति वुत्तं । सीलसमाधिपञ्ञायो लोकियलोकुत्तरमिस्सका, विमुत्ति पन इद हेट्टिमा फलसमापत्तियो “याव अरहत्ता" तिअग्गफलस्स विसुं वचनतो । पच्चक्खानुमानेन चेत्थ पजानना, तेनेवाह “बहुस्सुतो गन्थधरो भिक्खु जानातीतिआदि, यथालाभं वा योजेतब्बं । देसना पनाति एत्थ पन - सद्दो अरुचियत्थो, तेनिमं दीपेति -- यदिपि अनागामिआदयो यथाभूतं पजानन्ति, तथापि अरहतो उक्कंसगतिविजाननवसेन देसना अरहत्तनिकूटेन निट्ठापिताति । सुवण्णगेहो विय रतनमयकण्णिकाय देसना अरहत्तकण्णिकाय निट्ठापिताति अत्थो । एत्थ च “ यतो खो... पे०... पजानातीति एतेन धम्मस्स निय्यानिकभावेन सद्धिं सङ्घस्स सुप्पटिपत्तिं दस्सेति, तेनेव अट्ठकथायं “ को एवं जानातीति ? खीणासवो जानाति, याव आरद्धविपस्सको जानातीति परिपुण्णं कत्वा भिक्खुसङ्घो दस्सितो, तेन यदेतं हेट्ठा वुत्तं “भिक्खुसङ्घवसेनापि दीपेतु"न्ति, (दी० नि० अट्ठ० १.८) तं यथारुतवसेनेव दीपितं होतीति दट्टब्बं ।
१४६. " देसनाजालविमुत्तो दिट्टिगतिको नाम नत्थी' त दस्सनं देसनाय केवलपरिपुण्णतं ञपेतुन्ति वेदितब्बं । अन्तो जालस्साति अन्तोजालं, दब्बपवेसनवसेन अन्तोजाले अकतापि तन्निस्सितवादप्पवेसनवसेन कताति अन्तोजालीकता, अन्तो जालस्स तिट्ठन्तीति वा अन्तोजाला, दब्बवसेन अनन्तोजालापि तन्निस्सितवादवसेन अन्तोजाला कताति अन्तोजालीकता । अभूततब्भावे करासभूयोगे विकारवाचकतो ईपच्चयो, अन्तसरस्स वा ईकारादेसोति सद्दविदू यथा “धवलीकारो, कबळीकारो "ति, (सं० नि० १.१.१८१ )
( १.१.१४६-१४६)
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(१.१.१४७-१४७)
विवट्टकथादिवण्णना
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इममत्थं दस्सेतुं “इमस्सा"तिआदि वुत्तं । निस्सिता अवसिताव हुत्वा उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्तीति अत्थो । मान-सद्दो चेत्थ भावेनभावलक्खणत्थो अप्पहीनेन उम्मुज्जनभावेन पुन उम्मुज्जनभावस्स लक्खितत्ता, तथा “ओसीदन्ता"तिआदीसुपि अन्त-सद्दो । उम्मुज्जनेनेव अवुत्तस्सापि निमुज्जनस्स गहणन्ति दस्सेति “ओसीदन्ता"तिआदिना। तत्थ अपायूपपत्तिवसेन अधो ओसीदनं, सम्पत्तिभववसेन उद्धमुग्गमनं । तथा परित्तभूमिमहग्गतभूमिवसेन, दिट्ठिया
ओलीनतातिधावनवसेन, पुब्बन्तानुदिट्ठिअपरन्तानुदिट्ठिवसेन च यथाक्कमं योजेतब्बं । परियापनाति अन्तोगधा । तब्भावो च तदाबद्धेनाति वुत्तं "एतेन आबद्धा"ति। “न हेत्था"तिआदिना यथावुत्तपाळिया आपन्नत्थं दस्सेति ।।
इदानि उपमासंसन्दनमाह "केवट्टो विया"तिआदिना । के उदके वट्टति परिचरतीति केवट्टो, मच्छबन्धो । कामं केवट्टन्तेवासीपि पाळियं वुत्तो, सो पन तदनुगतिकोवाति तथा वुत्तं । दससहस्सिलोकधातूति जातिक्खेत्तं सन्धायाह तत्थेव पटिवेधसम्भवतो, अ सञ्च तग्गहणेनेव गहितत्ता। अञ्जत्थापि हि दिट्ठिगतिका एत्थ परियापन्ना अन्तोजालीकताव । ओळारिकाति पाकटभावेन थूला । तस्साति परित्तोदकस्स ।
१४७. “सब्बदिट्ठीनं सङ्गहितत्ता"ति एतेन वादसङ्गहणेन पुग्गलसङ्गहोति दस्सेति । अत्तनो...पे०... दस्सेन्तोति देसनाकुसलताय यथावुत्तेसु दिट्ठिगतिकानं उम्मुज्जननिमुज्जनट्ठानभूतेसु कत्थचिपि भवादीसु अत्तनो अनवरोधभावं दस्सेन्तो । नयन्तीति सत्ते इच्छितट्ठानमावहन्ति, तं पन तथाआकड्डनवसेनाति आह “गीवाया"तिआदि । "नेत्तिसदिसताया"ति इमिना सदिसवोहारं, उपमातद्धितं वा दस्सेति । “सा ही"तिआदि सदिसताविभावना | गीवायाति एत्थ महाजनानन्ति सम्बन्धीनिद्देसो नेतीति एत्थापि कम्मभावेन सम्बज्झितब्बो नी-सद्दस्स द्विकम्मिकत्ता, आख्यातपयोगे च बहुलं सामिवचनस्स कत्तुकम्मत्थजोतकत्ता | अस्साति अनेन भगवता, सा भवनेत्ति उच्छिन्नाति सम्बन्धो । पुन अप्पटिसन्धिकभावाति सामत्थियत्थमाह। जीवितपरियादाने वुत्तेयेव हि पुन अप्पटिसन्धिकभावो वुत्तो नाम तस्सेव अदस्सनस्स पधानकारणत्ता । "न दक्खन्ती"ति एत्थ अनागतवचनवसेन पदसिद्धि "यत्र हि नाम सावको एवरूपं अस्सति वा दक्खति वा सखिं वा करिस्सती"तिआदीसु (पारा० २२८; सं० नि० १.२.२०२) वियाति दस्सेति "न दक्खिस्सन्ती"ति इमिना । किं वुत्तं होतीति आह "अपण्णत्तिकभाव गमिस्सन्ती"ति । अपण्णत्तिकभावन्ति च धरमानकपण्णत्तिया एव अपण्णत्तिकभावं, अतीतपण्णत्तिया पन
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४८-१४८)
तथागतपण्णत्ति याव सासनन्तरधाना, ततो उद्धम्पि अञबुद्धप्पादेसु पवत्तति एव यथा अधुना विपस्सिआदीनं । तथा हि वक्खति “वोहारमत्तमेव भविस्सती"ति (दी० नि० अट्ठ० १.१४७) पञाय चेत्थ पण्णादेसोति नेरुत्तिका ।
कायोति अत्तभावो, यो रूपारूपधम्मसमूहो। एवहिस्स अम्बरुक्खसदिसता, तदवयवानञ्च रूपक्खन्धचक्खायतनचक्खुधातादीनं अम्बपक्कसदिसता युज्जति । तन्ति कायं । पञ्चपक्कद्वादसपक्कअट्ठारसपक्कपरिमाणाति पञ्चपक्कपरिमाणा एका, द्वादसपक्कपरिमाणा एका, अट्ठारसपक्कपरिमाणा एकाति तिविधा पक्कम्बफलपिण्डी विय । पिण्डो एतस्साति पिण्डी, थवको | तदन्वयानीति वण्टानुगतानि, तेनाह "तंयेव वण्डं अनुगतानी"ति।
मण्डूककण्टकविससम्फस्सन्ति विसवन्तस्स भेकविसेसस्स कण्टकेन, तदजेन च विसेन सम्फस्सं, मण्डूककण्टके विज्जमानस्स विसस्स सम्फस्सं वा । सकण्टको जलचारी सत्तो इध मण्डूको नाम, यो “पासाणकच्छपो''ति वोहरन्ति, तस्स नङ्गुढे अग्गकोटियं ठितो कण्टकोतिपि वदन्ति । एकं विसमच्छकण्टकन्तिपि एके । किराति अनुस्सवनत्थे निपातो। एत्थ च वण्टच्छेदे वण्टूपनिबन्धानं अम्बपक्कानं अम्बरुक्खतो विच्छेदो विय भवनेत्तिच्छेदे तदुपनिबन्धानं खन्धादीनं सन्तानतो विच्छेदोति एत्तावताव पाळियमागतं ओपम्म, तदवसेसं पन अत्थतो लद्धमेवाति दट्ठब् ।
१४८. बुद्धबलन्ति बुद्धानं आणबलं । कथितसुत्तस्स नामाति एत्थ नाम-सद्दो सम्भावने निपातो, तेन “एवम्पि नाम कथितसुत्तस्सा"ति वुत्तनयेन सुत्तस्स गुणं सम्भावेति । हन्दाति वोस्सग्गत्थे । तेन हि अधुनाव गण्हापेस्सामि । न पपञ्चं करिस्सामीति वोस्सग्गं करोति ।
धम्मपरियायेति धम्मदेसनासङ्घाताय पाळिया। इधत्थोति दिठ्ठधम्महितं । परत्योति सम्परायहितं, तदुभयत्थो वा । भासितत्थोपि युज्जति "धम्मजाल''न्ति एत्थ तन्तिधम्मस्स गहितत्ता । इहाति इध सासने । नन्ति निपातमत्तं "न नं सुतो समणो गोतमो"तिआदीसु विय। तन्ति धम्माति पाळिधम्मा। सब्बेन सबं सङ्गण्हनतो अत्थसङ्घातं जालमत्थाति अत्थजालं। तथा धम्मजालं ब्रह्मजालं दिविजालन्ति एत्थापि । सङ्गामं विजिनाति एतेनाति सङ्गामविजयो, सङ्गामो चेत्थ पञ्चहि मारेहि समागमनं अभियुज्झनन्ति आह "देवपुत्तमारम्पी"तिआदि। अत्थसम्पत्तिया हि अत्थजालं। ब्यञ्जनसम्पत्तिया,
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(१.१.१४९-१४९)
विवट्टकथादिवण्णना
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सीलादिअनवज्जधम्मनिद्देसतो च धम्मजालं। सेट्ठद्वेन ब्रह्मभूतानं मग्गफलनिब्बानानं विभत्तत्ता ब्रह्मजालं। दिट्टिविवेचनमुखेन सुञतापकासनेन सम्मादिट्ठिया विभत्तत्ता दिविजालं। तित्थियवादनिम्मद्दनुपायत्ता अनुत्तरो सङ्गामविजयोति एवम्पेत्थ अत्थयोजना वेदितब्बा।
निदानावसानतोति “अथ भगवा अनुप्पत्तो"ति वचनसङ्खातनिदानपरियोसानतो । मरियादावधिवचनव्हेतं । अपिच निदानावसानतोति निदानपरियोसाने वुत्तत्ता निदानावसानभूततो “ममं वा भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्यु"न्तिआदि (दी० नि० १.५, ६) वचनतो। आभिविधिअवधिवचनव्हेतं । इदञ्च "अवोचा"ति किरियासम्बन्धनेन वुत्तं । “निदानेन आदिकल्याण''न्ति वचनतो पन निदानम्पि निगमनं विय सुत्तपरियापन्नमेव । अलब्भ...पे०... गम्भीरन्ति सब्ब ताणस्स विसेसनं ।
१४९. यथा अनत्तमना अत्तनो अनत्थचरताय परमना वेरिमना नाम होन्ति, यथाह धम्मराजा धम्मपदे, उदाने च -
"दिसो दिसं यं तं कयिरा, वेरी वा पन वेरिनं । मिच्छापणिहितं चित्तं, पापियो नं ततो करे''ति ।। (ध० प० ४२; उदा० ३३)।
न एवमिमे अनत्तमना, इमे पन अत्तनो अत्थचरताय अत्तमना नाम होन्तीति आह "सकमना"ति | सकमनता च पीतिया गहितचित्तत्ताति दस्सेति "बुद्धगताया"तिआदिना ।
अयं पन अट्ठकथातो अपरो नयो- अत्तमनाति समत्तमना, इमाय देसनाय परिपुण्णमनसङ्कप्पाति अत्थो । देसनाविलासो देसनाय विजम्भनं, तञ्च देसनाकिच्चनिप्फादकं सब्ब ताणमेव । करवीकस्स रुतमिव मञ्जुमधुरस्सरो यस्साति करवीकरुतमजू, तेन | अमताभिसेकसदिसेनाति कायचित्तदरथवूपसमकं सब्बसम्भाराभिसङ्खतं उदकं दीघायुकतासंवत्तनतो अमतं नाम । तेनाभिसेकसदिसेन । ब्रह्मनो सरो विय अट्ठङ्गसमन्नागतो सरो यस्सातिब्रह्मस्सरो, तेन । अभिनन्दतीति तण्हायति, तेनाह "तण्हायम्पि आगतो"ति । अनेकत्थत्ता धातूनं अभिनन्दन्तीति उपगच्छन्ति सेवन्तीति अत्थोति आह “उपगमनेपी"ति ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
तथा अभिनन्दन्तीति सम्पटिच्छन्तीति अत्थमाह "सम्पटिच्छनेपी"ति । अभिनन्दित्वाति वुत्तोयेवत्थो “अनुमोदित्वा"ति इमिना पकासितोति सन्धाय "अनुमोदनेपी"ति वुत्तं ।
इममेवत्थं गाथाबन्धवसेन दस्सेतुं "सुभासित"न्तिआदिमाह । तत्थ सद्दतो सुभासितं, अत्थतो सुलपितं। सीलप्पकासनेन वा सुभासितं, सुञतापकासनेन सुलपितं । दिट्ठिविभजनेन वा सुभासितं, तन्निब्बेधकसब्ब ताणविभजनेन सुलपितं। एवं अवण्णवण्णनिसेधनादीहिपि इध दस्सितप्पकारेहि योजेतब्बं । तादिनोति इट्ठानिढेसु समपेक्खनादीहि पञ्चहि कारणेहि तादिभूतस्स । इमस्स पदस्स वित्थारो “इट्ठानिटे तादी, चत्तावीति तादी, वन्तावीति तादी''तिआदिना (महानि० ३८) महानिद्देसे वुत्तो, सो उपरि अट्ठकथायम्पि आविभविस्सति । किञ्चापि “कतमञ्च तं भिक्खवे''तिआदिना (दी० नि० १.७) तत्थ तत्थ पवत्ताय कथेतुकम्यतापुच्छाय विस्सज्जनवसेन वुत्तत्ता इदं सुत्तं वेय्याकरणं नाम भवति । ब्याकरणमेव हि वेय्याकरणं, तथापि पुच्छाविस्सज्जनावसेन पवत्तं सुत्तं सगाथकं चे, गेय्यं नाम भवति । निग्गाथकं, चे अङ्गन्तरहेतुरहितञ्च, वेय्याकरणं नाम । इति पुच्छाविस्सज्जनावसेन पवत्तस्सापि गेय्यसाधारणतो, अङ्गन्तरहेतुरहितस्स च निग्गाथकभावस्सेव अनञसाधारणतो पुच्छाविस्सज्जनभावमनपेक्खित्वा निग्गाथकभावमेव वेय्याकरणहेतुताय दस्सेन्तो "निग्गाथकत्ता हि इदं वेय्याकरण"न्ति आह ।
कस्माति चोदनं सोधेति "भञ्जमानेति हि वुत्त"न्ति इमिना । उभयसम्बन्धपदहेतं हेट्ठा, उपरि च सम्बज्झनतो । इदं वुत्तं होति - "भञ्जमाने''ति वत्तमानकालवसेन वुत्तत्ता न केवलं सुत्तपरियोसानेयेव, अथ खो द्वासट्ठिया ठानेसु अकम्पित्थाति वेदितब्बाति । यदेवं सकलेपि इमस्मिं सुत्ते भञ्जमाने अकम्पित्थाति अत्थोयेव सम्भवति, न पन तस्स तस्स दिट्ठिगतस्स परियोसाने परियोसानेति अत्थोति ? नायमनुयोगो कत्थचिपि न पविसति सम्भवमत्तेनेव अनुयुञ्जनतो, अयं पन अत्थो न सम्भवमत्तेनेव वुत्तो, अथ खो देसनाकाले कम्पनाकारेनेव आचरियपरम्पराभतेन । तेनेव हि आकारेनायमत्थो सङ्गीतिमारुळहो, तथारुळहनयेनेव च सहकारेन वुत्तोति निट्ठमेत्थ गन्तब्बं, इतरथा अतक्कावचरस्स इमस्सत्थस्स तक्कपरियाहतकथनं अनुपपन्नं सियाति । एवमीदिसेसु | "धातुक्खोभेना"तिआदीसु अत्थो महापरिनिब्बानसुत्तवण्णनाय (दी० नि० अट्ठ० २.१७१) गहेतब्बो।
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(१.१.१४९-१४९)
विवट्टकथादिवण्णना
४१५
अपरेसुपीति एत्थ पि सद्देन पारमिपविचयनं सम्पिण्डेति । वुत्तहि बुद्धवंसे -
"इमे धम्मे सम्मसतो, सभावसरसलक्खणे । धम्मतेजेन वसुधा, दससहस्सी पकम्पथा''ति ।। (बु० वं० १६६) ।
तथा सासनपतिद्वानन्तरधानादयोपि। तत्थ सासनपतिद्वाने ताव भगवतो वेळुवनपटिग्गहणे, महामहिन्दत्थेरस्स महामेघवनपटिग्गहणे, महाअरिहत्थेरस्स विनयपिटकसज्झायनेति एवमादीसु सासनस्स मूलानि ओतिण्णानीति पीतिवसं गता नच्चन्ता विय अयं महापथवी कम्पित्थ । सासनन्तरधाने पन “अहो ईदिसस्स सद्धम्मस्स अन्तरधान''न्ति दोमनस्सप्पत्ता विय यथा तं कस्सपस्स भगवतो सासनन्तरधाने । वुत्तज्हेतमपदाने
"तदायं पथवी सब्बा, अचला सा चलाचला।। सागरो च ससोकोव, विनदी करुणं गिर''न्ति ।। (अप० २.५४.१३१) ।
बोधिमण्डूपसङ्कमनेति विसाखापुण्णमदिवसे पठमं बोधिमण्डूपसङ्कमने । पंसुकूलग्गहणेति पुण्णं नाम दासिं पारुपित्वा आमकसुसाने छड्डितस्स साणमयपंसुकूलस्स तुम्बमत्ते पाणे विधुनित्वा महाअरियवंसे ठत्वा गहणे । पंसुकूलधोवनेति तस्सेव पंसुकूलस्स धोवने । काळकारामसुत्तं (अ० नि० १.४.२४) अङ्गुत्तरागमे चतुक्कनिपाते । गोतमकसुत्तम्पि (अ० नि० १.३.१७६) तत्थेव तिकनिपाते। वीरियबलेनाति महाभिनिक्खमने चक्कवत्तिसिरिपरिच्चागहेतुभूतवीरियप्पभावेन | बोधिमण्डूपसङ्कमने -
"कामं तचो च न्हारु च, अट्ठि च अवसिस्सतु । उपसुस्सतु निस्सेसं, सरीरे मंसलोहित"न्ति ।। (म० नि० २.१८४; सं० नि० १.२.२२, २३७; अ० नि० १.२.५; ३.८.१३; महानि० १९६; अविदूरेनिदानकथा)।
वुत्तचतुरङ्गसमन्नागतवीरियानुभावेनाति यथारहमत्थो वेदितब्बो। अच्छरियवेगाभिहताति विम्हयावहकिरियानुभावघट्टिता। पंसुकूलधोवने भगवतो पुञतेजेनाति वदन्ति । पंसुकूलग्गहणे यथा अच्छरियवेगाभिहताति युत्तं विय दिस्सति, तं पन कदाचि पवत्तत्ता
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
"अकालकम्पनेना"ति वुत्तं । वेस्सन्तरजातके (जा० २.२२.१६५५) पन पारमीपूरणपुञतेजेन अनेकक्खत्तुं कम्पितत्ता अकालकम्पनं नाम भवति । सक्खिनिदस्सने कथेतब्बस्स अत्थस्सानुरूपतो सक्खि विय भवतीति वुत्तं “सखिभावेना"ति यथा तं मारविजयकाले (जा० अट्ठ० १.अविदूरेनिदानकथा)। साधुकारदानेनाति पकरणानुरूपवसेन वुत्तं यथा तं धम्मचक्कप्पवत्तनसङ्गीतिकालादीसु (सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १३; पटि० म० ३.३०१)।
"न केवल"न्तिआदिना अनेकत्थपथवीकम्पनदस्सनमुखेन इमस्स सुत्तस्स महानुभावतायेव दस्सिता । तत्थ जोतिवनेति नन्दवने । तहि सासनस्स आणालोकसङ्घाताय जोतिया पातुभूतट्ठानत्ता जोतिवनन्ति वुच्चतीति विनयसंवण्णनायं वुत्तं । धम्मन्ति अनमतग्गसुत्तादिधम्मं । पाचीनअम्बलटिकट्ठानन्ति पाचीनदिसाभागे तरुणम्बरुक्खेन लक्खितट्ठानं ।
एवन्ति भगवता देसितकालादीसु पथवीकम्पनमतिदिसति । अनेकसोति अनेकधा । सयम्भुना देसितस्स ब्रह्मजालस्स यस्स सुत्तसेट्ठस्साति योजना । इधाति इमस्मिं सासने । योनिसोति मिच्छादिटिप्पहानसम्मादिट्ठिसमादानादिना आयेन उपायेन पटिपज्जन्तूति अत्थो । अयं तावेत्थ अट्ठकथाय लीनत्थविभावना ।
पकरणनयवण्णना
"इतो परं आचरिय-धम्मपालेन या कता । समुट्ठानादिहारादि-विविधत्थविभावना ।।
न सा अम्हेहुपेक्खेय्या, अयहि तब्बिसोधना । तस्मा तम्पि पवक्खाम, सोतूनं आणवुड्डिया ।।
अयहि पकरणनयेन पाळिया अत्थवण्णना- पकरणनयोति च तम्बपण्णिभासाय वण्णनानयो। “नेत्तिपेटकप्पकरणे धम्मकथिकानं योजनानयोतिपि वदन्ती"ति अभिधम्मटीकायं वुत्तं । यस्मा पनायं देसनाय समुट्ठानपयोजनभाजनेसु, पिण्डत्थेसु च पठम निद्धारितेसु सुकरा, होति सुविओय्या च, तस्मा -
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(१.१.१४९-१४९)
पकरणनयवण्णना
४१७
समुट्ठानं पयोजनं, भाजनञ्चापि पिण्डत्थं । .. निद्धारेत्वान पण्डितो, ततो हारादयो संसे ।।
तत्थ समुट्ठानं नाम देसनानिदानं, तं साधारणमसाधारणन्ति दुविधं, तथा साधारणम्पि अज्झत्तिकबाहिरतो । तत्थ साधारणं अज्झत्तिकसमुट्ठानं नाम भगवतो महाकरुणा। ताय हि समुस्साहितस्स लोकनाथस्स वेनेय्यानं धम्मदेसनाय चित्तं उदपादि, तं सन्धाय वुत्तं "सत्तेसु कारुतं पटिच्च बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेसी''तिआदि । एत्थ च तिविधावत्थायपि महाकरुणाय सङ्गहो दट्ठब्बो यावदेव सद्धम्मदेसनाहत्थदानेहि संसारमहोघतो सत्तसन्तारणत्थं तदुप्पत्तितो। यथा च महाकरुणा, एवं सब्बञ्जतञाणदसबलञाणादयोपि देसनाय साधारणमज्झत्तिकसमुट्ठानं नाम । सब्बञ्हि जेय्यधम्म तेसं देसेतब्बाकारं, सत्तानं आसयानुसयादिकञ्च याथावतो जानन्तो भगवा ठानाहानादीसु कोसल्लेन वेनेय्यज्झासयानुरूपं विचित्रनयदेसनं पवत्तेसि। बाहिरं पन साधारणसमुट्ठानं दससहस्सिमहाब्रह्मपरिवारस्स सहम्पतिब्रह्मनो अज्झेसनं । तदज्झेसनहि पति धम्मगम्भीरतापच्चवेक्खणाजनितं अप्पोस्सुक्कतं पटिप्पस्सम्भेत्वा धम्मस्सामी धम्मदेसनाय उस्साहजातो अहोसि ।
असाधारणम्पि अज्झत्तिकबाहिरतो दुविधमेव । तत्थ अज्झत्तिकं याय महाकरुणाय, येन च देसनाञाणेन इदं सुत्तं पवत्तितं, तदुभयमेव । सामावत्थाय हि साधारणम्पि समानं महाकरुणादिविसेसावत्थाय असाधारणं भवति, बाहिरं पन असाधारणसमुट्ठानं वण्णावण्णभणनन्ति अट्ठकथायं वुत्तं । अपिच निन्दापसंसासु सत्तानं वेनेय्याघातानन्दादिभावमनापत्ति । तत्थ च अनादीनवदस्सनं बाहिरमसाधारणसमुट्ठानमेव, तथा निन्दापसंसासु पटिपज्जनक्कमस्स, पसंसाविसयस्स च खुद्दकादिवसेन अनेकविधस्स सीलस्स, सब्ब ताणस्स च सस्सतादिदिट्ठिट्टाने, तदुत्तरि च अप्पटिहतचारताय, तथागतस्स च कत्थचिपि भवादीसु अपरियापन्नताय सत्तानमनवबोधोपि बाहिरमसाधारणसमुट्ठानं ।
पयोजनम्पि साधारणासाधारणतो दुविधं । तत्थ साधारणं अनुपादापरिनिब्बानं विमुत्तिरसत्ता सब्बायपि भगवतो देसनाय, तेनेवाह “एतदत्था कथा, एतदत्था मन्तना"तिआदि (परि० ३६६) असाधारणं पन बाहिरसमुट्ठानतो विपरियायेन वेदितब्बं । निन्दापसंसासु हि सत्तानन्वेनेय्याघातानन्दादिभावप्पत्तिआदिकं इमिस्सा देसनाय फलभूतं
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
कारणभावेन इमं देसनं पयोजेति । फलहि तदुप्पादकसत्तिया कारणं पयोजेति नाम फले सतियेव ताय सत्तिया कारणभावप्पत्तितो । अथ वा यथावुत्तं फलं इमाय देसनाय भगवन्तं पयोजेतीति आचरियसारिपुत्तत्थेरेन वुत्तं । यहि देसनाय साधेतब् फलं, तं आकङ्कितब्बत्ता देसनाय देसकं पयोजेति नाम | अपिच कुहनलपनादिनानाविधमिच्छाजीवविद्धंसनं, द्वासहिदिट्ठिजालविनिवेठनं, दिट्ठिसीसेन पच्चयाकारविभावनं, छफस्सायतनवसेन चतुसच्चकम्मट्ठाननिद्देसो, सब्बदिट्ठिगतानं अनवसेसपरियादानं, अत्तनो अनुपादापरिनिब्बानदीपनञ्च पयोजनमेव ।
भाजनं पन देसनाधिट्ठानं । ये हि वण्णावण्णनिमित्तअनुरोधविरोधवन्तचित्ता कुहनादिविविधमिच्छाजीवनिरता सस्सतादिदिट्ठिपङ्कनिमुग्गा सीलक्खन्धादीसु अपरिपूरकारिनो अबुद्धगुणविसेससाणा वेनेय्या, ते इमिस्सा देसनाय भाजनं ।
पिण्डत्थो पन इध लब्भमानपदेहि, समुदायेन च सुत्तपदेन यथासम्भवं सङ्गहितो अत्थो । आघातादीनं अकरणीयतावचनेन हि दस्सितं पटिञानुरूपं समणसञाय नियोजनं, तथा खन्तिसोरच्चानुट्ठानं, ब्रह्मविहारभावनानुयोगो, . सद्धापञ्जासमायोगो, सतिसम्पजाधिट्टानं, पटिसङ्खानभावनाबलसिद्धि, परियुट्ठानानुसयप्पहानं, उभयहितपटिपत्ति, लोकधम्मेहि अनुपलेपो च
पाणातिपातादीहि पटिविरतिवचनेन दस्सिता सीलविसुद्धि, ताय च हिरोत्तप्पसम्पत्ति, मेत्ताकरुणासमङ्गिता, वीतिक्कमप्पहानं, तदङ्गप्पहानं, दुच्चरितसंकिलेसप्पहानं, विरतित्तयसिद्धि, पियमनापगरुभावनीयतानिप्फत्ति, लाभसक्कारसिलोकसमुदागमो, समथविपस्सनानं अधिट्ठानभावो, अकुसलमूलतनुकरणं, कुसलमूलरोपनं, उभयानत्थदूरीकरणं, परिसासु विसारदता, अप्पमादविहारो, परेहि दुप्पधंसियता, अविप्पटिसारादिसमङ्गिता च -
“गम्भीरा''तिआदिवचनेहि दस्सितं गम्भीरधम्मविभावनं, अलब्भनेय्यपतिठ्ठता, कप्पानमसङ्ख्येय्येनापि दुल्लभपातुभावता, सुखुमेनपि आणेन पच्चक्खतो पटिविज्झितुमसक्कुणेय्यता, धम्मन्वयसङ्खातेन अनुमानजाणेनापि दुरधिगमनीयता, पस्सद्धसब्बदरथता, सन्तधम्मविभावनं, सोभनपरियोसानता, अतित्तिकरभावो, पधानभावप्पत्ति, यथाभूतञाणगोचरता, सुखुमसभावता, महापाविभावना च । दिह्रिदीपकपदेहि दस्सिता समासतो सस्सतउच्छेददिट्ठियो लीनतातिधावनविभावनं,
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(१.१.१४९-१४९)
पकरणनयवण्णना
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उभयविनिबन्धनिद्देसो, मिच्छाभिनिवेसकित्तनं, कुम्मग्गपटिपत्तिप्पकासनं, विपरियेसग्गाहञापन, परामासपरिग्गहो, पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिपतिठ्ठापना, भवविभवदिट्ठिविभागा, तण्हाविज्जापवत्ति, अन्तवानन्तवादिट्ठिनिद्देसो, अन्तद्वयावतारणं, आसवोघयोगकिलेसगन्थसंयोजनुपादानविसेसविभजनञ्च -
___तथा “वेदनानं समुदय''न्तिआदिवचनेहि दस्सिता चतुन्नमरियसच्चानं अनुबोधपटिबोधसिद्धि, विक्खम्भनसमुच्छेदप्पहानं तहाविज्जाविगमो, सद्धम्मट्ठितिनिमित्तपरिग्गहो, आगमाधिगमसम्पत्ति, उभयहितपटिपत्ति, तिविधपचापरिग्गहो, सतिसम्पजञानुट्ठानं, सद्धापञ्जासमायोगो, वीरियसमतानुयोजनं, समथविपस्सनानिष्फत्ति च
___“अजानतं अपस्सत''न्ति पदेहि दस्सिता अविज्जासिद्धि, तथा “तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दित''न्ति पदेहि तहासिद्धि, तदुभयेन च नीवरणसञोजनद्वयसिद्धि, अनमतग्गसंसारवट्टानुपच्छेदो, पुब्बन्ताहरणापरन्तानुसन्धानानि, अतीतपच्चुप्पन्नकालवसेन हेतुविभागो, अविज्जातण्हानं अञमञानतिवत्तनं, अञमञ्जूपकारिता, पाविमुत्तिचेतोविमुत्तीनं पटिपक्खनिद्देसो च -
"तदपि फस्सपच्चया"ति पदेन दस्सिता सस्सतादिपञापनस्स पच्चयाधीनवुत्तिता, तेन च धम्मानं निच्चतापटिसेधो, अनिच्चतापतिट्ठापनं, परमत्थतो कारकादिपटिक्खेपो, एवंधम्मतानिदेसो, सुञतापकासनं समत्थनिरीह पच्चयलक्खणविभावनञ्च -
"उच्छिन्नभवनेत्तिको''तिआदिना दस्सिता भगवतो पहानसम्पत्ति, विज्जाविमुत्तिवसीभावो, सिक्खत्तयनिप्फत्ति, निब्बानधातुद्वयविभागो, चतुरधिट्ठानपरिपूरणं, भवयोनिआदीसु अपरियापन्नता च -
सकलेन पन सुत्तपदेन दस्सितो इठ्ठानिटेसु भगवतो तादिभावो, तत्थ च परेसं पतिट्ठापनं, कुसलधम्मानं आदिभूतधम्मद्वयनिद्देसो सिक्खत्तयूपदेसो, अत्तन्तपादिपुग्गलचतुक्कसिद्धि, कण्हकण्हविपाकादिकम्मचतुक्कविभागो, चतुरप्पमञाविसयनिद्देसो, समुदयत्थङ्गमादिपञ्चकस्स यथाभूतावबोधो, छसारणीयधम्मविभावना, दसनाथकरधम्मपतिठ्ठापनन्ति एवमादयो यथासम्भवं सङ्गहेत्वा दस्सेतब्बा अत्था पिण्डत्थो ।
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४२०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
सोळसहारवण्णना
देसनाहारवण्णना
इदानि नेत्तिया, पेटकोपदेसे च वुत्तनयवसेन हारादीनं निद्धारणं । तत्थ “अत्ता, लोको"ति च दिट्ठिया अधिट्ठानभावेन, वेदनाफस्सायतनादिमुखेन च गहितेसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु तण्हावज्जिता पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खसच्चं। तण्हा समुदयसच्चं। तं पन “परितस्सनागहणेन तण्हागतान''न्ति, "वेदनापच्चया तण्हा"ति च पदेहि समुदयग्गहणेनञ्च पाळियं सरूपेन गहितमेव । अयं ताव सुत्तन्तनयो ।
अभिधम्मे पन विभङ्गप्पकरणे आगतनयेन आघातानन्दादिवचनेहि, "आतप्पमन्वाया''तिआदिपदेहि, चित्तपदोसवचनेन, सब्बदिट्ठिगतिकपदेहि, कुसलाकुसलग्गहणेन, भवग्गहणेन, सोकादिग्गहणेन, दिठ्ठिग्गहणेन, तत्थ तत्थ समुदयग्गहणेन चाति सङ्केपतो सब्बलोकियकुसलाकुसलधम्मविभावनपदेहि गहिता धम्मकिलेसा समुदयसच्चं। तदुभयेसमप्पवत्ति निरोधसच्चं। तस्स पन तत्थ तत्थ वेदनानं अत्थङ्गमनिस्सरणपरियायेहि पच्चत्तं निब्बुतिवचनेन, अनुपादाविमुत्तिवचनेन च पाळियं गहणं वेदितब् । निरोधपजानना पटिपदा मग्गसच्चं। तस्सपि तत्थ तत्थ वेदनानं समुदयादीनि यथाभूतपटिवेधनापदेसेन छन्नं फस्सायतनानं समुदयादीनि यथाभूतपजाननपरियायेन, भवनेत्तिया उच्छेदवचनेन च गहणं वेदितब्बं ।।
तत्थ समुदयेन अस्सादो, दुक्खेन आदीनवो, मग्गनिरोधेहि निस्सरणन्ति एवं चतुसच्चवसेन, यानि पाळियं सरूपेनेव आगतानि अस्सादादीनवनिस्सरणानि, तेसञ्च वसेन इध अस्सादादयो वेदितब्बा । वेनेय्यानं तादिभावापत्तिआदि फलं। यहि देसनाय साधेतब् हेट्ठा वुत्तं पयोजनं । तदेव फलन्ति वुत्तोवायमत्थो । तदत्थव्हि इदं सुत्तं भगवता देसितं । आघातादीनमकरणीयता, आघातादिफलस्स च अनञसन्तानभाविता निन्दापसंसासु यथासभावं पटिजानननिब्बेठनानीति एवं तंतंपयोजनाधिगमहेतु उपायो। आघातादीनं करणपटिसेधनादिअपदेसेन अत्थकामेहि ततो चित्तं साधुकं रक्खितब्बन्ति अयं आणारहस्स धम्मराजस्स आणत्तीति । अयं अस्सादादीनवनिस्सरणफलूपायाणत्तिवसेन छब्बिधधम्मसन्दस्सनलक्खणोदेसनाहारो नाम । वुत्तञ्च -
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(१.१.१४९-१४९)
विचयहारवण्णना
४२१
"अस्सादादीनवता, निस्सरणम्पि च फलं उपायो च । आणत्ती च भगवतो, योगीनं देसनाहारो"ति ।।
विचयहारवण्णना
कप्पनाभावेपि वोहारवसेन, अनुवादवसेन च “मम''न्ति वुत्तं । नियमाभावतो विकप्पनत्थं वाग्गहणं । तंगुणसमङ्गिताय, अभिमुखीकरणाय च “भिक्खवे''ति आमन्तनं । अञभावतो, पटिविरुद्धभावतो च “परे''ति वुत्तं, वण्णपटिपक्खतो, अवण्णनीयतो च "अवण्ण''न्ति, ब्यत्तिवसेन, वित्थारवसेन च "भासेय्यु"न्ति, धारणसभावतो, अधम्मपटिपक्खतो च "धम्मस्सा'"ति, दिट्ठिसीलेहि संहतभावतो, किलेसानं सङ्घातकरणतो च “सङ्घस्सा''ति, वुत्तपटिनिद्देसतो, वचनुपन्यासतो च “तत्रा''ति, सम्मुखीभावतो, पुथुभावतो च “तुम्हेही''ति, चित्तस्स हननतो, आरम्मणाभिघाततो च “आघातो''ति, आरम्मणे सङ्कोचवुत्तिया अनभिमुखताय, अतुट्ठाकारताय च "अप्पच्चयो''ति, आरम्मणचिन्तनतो, निस्सयतो च "चेतसो"ति, अत्थस्स असाधनतो, अनु अनु अनत्थसाधनतो च “अनभिरद्धी"ति, कारणानरहत्ता, सत्थुसासने
ठितेहि कातुमसक्कुणेय्यत्ता च “न करणीया"ति वुत्तं । एवं तस्मिं तस्मिं अधिप्पेतत्थे पवत्ततानिदस्सनेन, अत्थसो च -
ममन्ति सामिनिद्दिढ़ सब्बनामपदं । वाति विकप्पननिद्दिटुं निपातपदं । भिक्खवेति आलपननिद्दिठं नामपदं । परेति कत्तुनिद्दिष्टुं नामपदं । अवण्णन्ति कम्मनिद्दिष्टुं नामपदं । भासेय्युन्ति किरियानिद्दिठं आख्यातपदं । धम्मस्स, सङ्घस्साति च सामिनिद्दिष्टुं नामपदं । तत्राति आधारनिद्दिष्टुं सब्बनामपदं । तुम्हेहीति कत्तुनिद्दिष्टुं सब्बनामपदं । न इति पटिसेधनिद्दिटुं निपातपदं । आघातो, अप्पच्चयो, अनभिरद्धीति च कम्मनिद्दिठं नामपदं । चेतसोति सामिनिद्दिष्टुं नामपदं । करणीयाति किरियानिद्दिष्टुं नामपदन्ति । एवं तस्स तस्स पदस्स विसेसतानिदस्सनेन, ब्यञ्जनसो च विचयनं पदविचयो। अतिवित्थारभयेन पन सक्कायेव अट्ठकथं, तस्सा च लीनत्थविभावनं अनुगन्त्वा अयमत्थो विजुना विभावेतुन्ति न वित्थारयिम्ह ।
"तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, अपि नु तुम्हे परेसं सुभासितं
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४२२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
दुब्भासितं आजानेय्याथा"ति अयं अनुमतिपुच्छा। सत्ताधिट्ठाना, अनेकाधिट्ठाना, परमत्थविसया, पच्चुप्पन्नविसयाति एवं सब्बत्थ यथासम्भवं पुच्छाविचयनं पुच्छाविचयो। “नो हेतं भन्ते''ति इदं विस्सज्जनं एकंसब्याकरणं, निरवसेस, सउत्तरं, लोकियन्ति एवं सब्बस्सापि विस्सज्जनस्स यथारहं विचयनं विस्सज्जनाविचयो।
“ममं वा भिक्खवे परे अवण्णं भासेय्यु...पे०... न चेतसो अनभिरद्धि करणीया'"ति इमाय पठमदेसनाय “ममं वा...पे०... तुम्हंयेवस्स तेन अन्तरायो''ति अयं दुतियदेसना संसन्दति । कस्मा ? पठमाय मनोपदोसं निवारेत्वा दुतियाय तत्थादीनवस्स दस्सितत्ता। तथा इमाय दुतियदेसनाय "ममं वा...पे०... अपि नु तुम्हे परेसं सुभासितं दुब्भासितं आजानेय्याथा''ति अयं ततियदेसना संसन्दति । कस्मा ? दुतियाय तत्थादीनवं दस्सेत्वा ततियाय वचनत्थसल्लक्खणमत्तेपि असमत्थभावस्स दस्सितत्ता। तथा इमाय ततियदेसनाय "ममं वा...पे०... न च पनेतं अम्हेसु संविज्जती''ति अयं चतुत्थदेसना संसन्दति । कस्मा ? ततियाय मनोपदोसं सब्बथा निवारेत्वा चतुत्थाय अवण्णट्ठाने पटिपज्जितब्बाकारस्स दस्सितत्ताति इमिना नयेन पुब्बेन अपरं संसन्दित्वा विचयनं पुब्बापरविचयो। अस्सादविचयादयो वुत्तनयाव । तेसं लक्खणसन्दस्सनमत्तमेव हेत्थ विसेसो ।
__ “अपि नु तुम्हे परेसं सुभासितं दुब्भासितं आजानेय्याथा''ति इमाय पुच्छाय “नो हेतं भन्ते''ति अयं विस्सज्जना समेति । कुपितो हि नेव बुद्धपच्चेकबुद्धअरियसावकानं न मातापितूनं न पच्चत्थिकानं सुभासितदुब्भासितस्स अत्थं आजानाति । “कतमञ्च तं भिक्खवे, अप्पमत्तकं...पे०... तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्या''ति इमाय पुच्छाय "पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो"तिआदिका अयं विस्सज्जना समेति । भगवा हि अनुत्तरेन पाणातिपातविरमणादिगुणेन समन्नागतो, तञ्च खो समाधिं, पञञ्च उपनिधाय अप्पमत्तकं ओरमत्तकं सीलमत्तकं । “कतमे च ते भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा''तिआदिकाय पुच्छाय “सन्ति भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका"तिआदिका विस्सज्जना समेति । सब्ब ताणगुणा हि अञत्र तथागता अञ्जेसं आणेन अलब्भनेय्यपतिद्वत्ता गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीयाति इमिना नयेन विस्सज्जनाय पुच्छानुरूपताविचयनमेव इध सङ्गहगाथाय अभावतो अनुगीतिविचयोति । अयं पदपञ्हादिएकादसधम्मविचयनलक्खणो विचयहारो नाम । वुत्तञ्च “यं पुच्छितञ्च विस्सज्जितञ्चा''तिआदि (नेत्ति० ४.२)।
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(१.१.१४९-१४९)
युत्तिहारसंवण्णना
४२३
युत्तिहारसंवण्णना ममन्ति सामिनिद्देसो युज्जति सभावनिरुत्तिया तथापयोगदिस्सनतो, अवण्णस्स च तदपेक्खत्ता। वाति विकप्पनत्थनिद्देसो युज्जति नेपातिकानमनेकत्थत्ता, एत्थ च नियमाभावतो । भिक्खवेति आमन्तननिद्देसो युज्जति तदत्थेयेव एतस्स पयोगस्स दिस्सनतो, देसकस्स च पटिग्गाहकापेक्खतोति एवमादिना ब्यञ्जनतो च -
सब्बेन सब्बं आघातादीनमकरणं तादिभावाय संवत्ततीति युज्जति इट्ठानिढेसु समप्पवत्तिसब्भावतो। यस्मिं सन्ताने आघातादयो उप्पन्ना, तन्निमित्तका अन्तराया तस्सेव सम्पत्तिविबन्धाय संवत्तन्तीति युज्जति कम्मानं सन्तानन्तरेसु असङ्कमनतो । चित्तमभिभवित्वा उप्पन्ना आघातादयो सुभासितदुब्भासितसल्लक्खणेपि असमत्थताय संवत्तन्तीति युज्जति कोधलोभानं अन्धतमसभावतो। पाणातिपातादिदुस्सील्यतो वेरमणी सब्बसत्तानं पामोज्जपासंसाय संवत्ततीति युज्जति सीलसम्पत्तिया महतो कित्तिसद्दस्स अब्भुग्गतत्ता । गम्भीरतादिविसेसयुत्तेन गुणेन तथागतस्स वण्णना एकदेसभूतापि सकलसब्ब गुणग्गहणाय संवत्ततीति युज्जति अनञसाधारणत्ता। तज्जाअयोनिसोमनसिकारपरिक्खतानि अधिगमतक्कनानि सस्सतवादादिअभिनिवेसाय संवत्तन्तीति युज्जति कप्पनजालस्स असमुग्घाटितत्ता। वेदनादीनं अनवबोधेन वेदनापच्चया तण्हा वड्डतीति युज्जति अस्सादानुपस्सनासब्भावतो, सति च वेदयितभावे (वेदयितरागे (दी० नि० टी० १.१४९) तत्थ अत्तत्तनियगाहो, सस्सतादिगाहो च विपरिप्फन्दतीति युज्जति कारणस्स सन्निहितत्ता। तण्हापच्चया हि उपादानं सम्भवति । सस्सतादिवादे पञपेन्तानं, तदनुच्छविकञ्च वेदनं वेदयन्तानं फस्सो हेतूति युज्जति विसयिन्द्रियविज्ञाणसङ्गतिया विना तदभावतो । छफस्सायतननिमित्तं वट्टस्स अनुपच्छेदोति युज्जति तत्थ अविज्जातण्हानं अप्पहीनत्ता। छन्नं फस्सायतनानं समुदयस्थङ्गमादिपजानना सब्बदिट्ठिगतिकसचं अतिच्च तिद्वतीति युज्जति चतुसच्चपटिवेधभावतो। इमाहियेव द्वासट्ठिया सब्बदिट्ठिगतानं अन्तोजालीकतभावोति युज्जति अकिरियवादादीनं, इस्सरवादादीनञ्च तदन्तोगधत्ता, तथा चेव हेट्ठा संवण्णितं । उच्छिन्नभवनेत्तिको तथागतस्स कायोति युज्जति भगवतो अभिनीहारसम्पत्तिया चतूसु सतिपट्टानेसु ठत्वा सत्तन्नं बोज्झङ्गानं यथाभूतं भावितत्ता । कायस्स भेदा परिनिब्बुतं न दक्खन्तीति युज्जति अनुपादिसेसनिब्बानप्पत्तियं रूपादीसु कस्सचिपि अनवसेसतोति इमिना नयेन अत्थतो च सुत्ते ब्यञ्जनत्थानं
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४२४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
युत्तिताविभावनलक्खणो युत्तिहारो नाम यथाह “सब्बेसं हारानं, या भूमी''तिआदि (नेत्ति० ४.३)।
पदट्ठानहारवण्णना
वण्णारहावण्णदुब्बण्णतानादेय्यवचनतादि विपत्तीनं
पदट्ठानं । वण्णारहवण्णसुब्बण्णतासद्धेय्यवचनतादि सम्पत्तीनं पदट्ठानं । तथा आघातादयो निरयादिदुक्खस्स पदट्ठानं । आघातादीनमकरणं सग्गसम्पत्तियादिसब्बसम्पत्तीनं पदट्ठानं । पाणातिपातादिपटिविरति अरियस्स सीलक्खन्धस्स पदट्ठानं, अरियो सीलक्खन्धो अरियस्स समाधिक्खन्धस्स पदट्ठानं । अरियो समाधिक्खन्धो अरियस्स पाक्खन्धस्स पदट्टानं । गम्भीरतादिविसेसयुत्तं भगवतो पटिवेधप्पकारजाणं देसनाञाणस्स पदट्टानं । देसनाजाणं वेनेय्यानं सकलवट्टदुक्खनिस्सरणस्स पदट्टानं । सब्बायपि दिट्ठिया दिलृपादानभावतो सा यथारहं नवविधस्सपि भवस्स पदट्टानं । भवो जातिया । जाति जरामरणस्स, सोकादीनञ्च पदट्ठानं । वेदनानं यथाभूतं समुदयत्थङ्गमादिपटिवेधना चतुन्नं अरियसच्चानं अनुबोधपटिवेधो होति । तत्थ अनुबोधो पटिवेधस्स पदट्ठानं । पटिवेधो चतुबिधस्स सामञफलस्स पदट्टानं । "अजानतं अपस्सत"न्ति अविज्जागहणं। तत्थ अविज्जा सङ्घारानं पदहानं, सङ्खारा विज्ञाणस्स । याव वेदना तण्हाय पट्टानन्ति नेत्वा तेसं "वेदनापच्चया तण्हा"तिआदिना पाळियमागतनयेन सम्बज्झितब्बं । “तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दित"न्ति एत्थ तण्हा उपादानस्स पदट्ठानं । “तदपि फस्सपच्चया"ति एत्थ सस्सतादिपञापनं परेसं मिच्छाभिनिवेसस्स पदट्ठानं । मिच्छाभिनिवेसो सद्धम्मस्सवनसप्पुरिसूपनिस्सययोनिसोमनसिकारधम्मानुधम्मपटिपत्तीहि विमुखताय असद्धम्मस्सवनादीनञ्च पदट्ठानं । “अञत्र फस्सा''तिआदीसु फस्सो वेदनाय पदट्ठानं । छ फस्सायतनानि फस्सस्स, सकलस्स च वट्टदुक्खस्स पदट्टानं । छन्नं फस्सायतनानं यथाभूतं समुदयादिपजाननं निब्बिदाय पदट्ठानं, निब्बिदा विरागस्सातिआदिना याव अनुपादापरिनिब्बानं नेतब्बं । भगवतो भवनेत्तिसमुच्छेदो सब्बञ्जताय पदट्टानं, तथा अनुपादापरिनिब्बानस्स चाति । अयं सुत्ते आगतधम्मानं पदट्ठानधम्मा, तेसञ्च पदट्ठानधम्माति यथासम्भवं पदट्ठानधम्मनिद्धारणलक्खणो पदट्ठानहारो नाम । वुत्तहि “धम्मं देसेति जिनो, तस्स च धम्मस्स यं पदट्ठान"न्तिआदि (नेत्ति० ४.४)।
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(१.१.१४९-१४९)
लक्खणहारवण्णना
४२५
लक्खणहारवण्णना
आघातादिग्गहणेन कोधूपनाहमक्खपलासइस्सामच्छरियसारम्भपरवम्भनादीनं सङ्गहो पटिघचित्तुप्पादपरियापन्नताय एकलक्खणत्ता । आनन्दादिग्गहणेन अभिज्झाविसमलोभमानातिमानमदप्पमादानं सङ्गहो लोभचित्तुप्पादपरियापन्नताय एकलक्खणत्ता । तथा आघातग्गहणेन अवसिट्ठगन्थनीवरणानं सङ्गहो कायगन्थनीवरणलक्खणेन एकलक्खणत्ता। आनन्दग्गहणेन फस्सादीनं सङ्गहो सङ्खारक्खन्धलक्खणेन एकलक्खणत्ता। सीलग्गहणेन अधिचित्ताधिपासिक्खानं सङ्गहो सिक्खालक्खणेन एकलक्खणत्ता। दिट्ठिग्गहणेन अवसिठ्ठउपादानानं सङ्गहो उपादानलक्खणेन एकलक्खणत्ता। “वेदनान"न्ति एत्थ वेदनाग्गहणेन अवसिट्ठउपादानखन्धानं सङ्गहो उपादानक्खन्धलक्खणेन एकलक्खणत्ता । तथा धम्मायतनधम्मधातुपरियापन्नवेदनाग्गहणेन सम्मसनुपगानं सब्बेसम्पि आयतनानं, धातूनञ्च सङ्गहो आयतनलक्खणेन, धातुलक्खणेन च एकलक्खणत्ता । “अजानतं अपस्सत"न्ति एत्थ अविज्जाग्गहणेन हेतुआसवोघयोगनीवरणादीनं सङ्गहो हेतादिलक्खणेन एकलक्खणत्ता, तथा "तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दित"न्ति एत्थ तण्हाग्गहणेनपि । “तदपि फस्सपच्चया"ति एत्थ फस्सग्गहणेन सञासङ्खारविज्ञाणानं सङ्गहो विपल्लासहेतुभावेन, खन्धलक्खणेन च एकलक्खणत्ता। छफस्सायतनग्गहणेन अवसिठ्ठखन्धायतनधातिन्द्रियादीनं सङ्गहो फस्सुप्पत्तिनिमित्तताय, सम्मसनीयभावेन च एकलक्खणत्ता। भवनेत्तिग्गहणेन अविज्जादीनं संकिलेसधम्मानं सङ्गहो वट्टहेतुभावेन एकलक्खणत्ताति । अयं सुत्ते अनागतेपि धम्मे एकलक्खणतादिना आगते विय निद्धारणलक्खणो लक्खणहारो नाम । तथा हि वुत्तं "वुत्तम्हि एकधम्मे, ये धम्मा एकलक्खणा''तिआदि (नेत्ति० ४.५) ।
चतुब्यूहहारवण्णना
ममन्ति अनेरुत्तपदं, तथा वाति च। भिक्खनसीला भिक्खू | परेन्तिविरुद्धभावमुपगच्छन्तीति परा, अञ्जत्थे पनेतं अनेरुत्तपदन्ति एवमादिना नेसत्तं, तं पन “एव"न्तिआदिनिदानपदानं, “ममन्तिआदिपाळिपदानञ्च अट्ठकथावसेन, तस्सा लीनत्थविभावनीवसेन च सुविञ्जय्यत्ता अतिवित्थारभयेन न वित्थारयिम्ह । ये ते निन्दापसंसाहि सम्माकम्पितचेतसा मिच्छाजीवतो अनोरता सस्सतादिमिच्छाभिनिवेसिनो सीलादिधम्मक्खन्धेसु अप्पतिट्ठिता सम्मासम्बुद्धगुणरसस्सादविमुखा वेनेय्या, ते कथं नु खो
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
यथावुत्तदोसविनिमुत्ता सम्मापटिपत्तिया उभयहितपरा भवेय्युन्ति अयमेत्थ भगवतो अधिप्पायो। एवमधिप्पेता पुग्गला, देसनाभाजनट्ठाने च दस्सिता इमिस्सा देसनाय निदानं ।
पुब्बापरानुसन्धि पन पदसन्धिपदत्थनिद्देसनिखेपसुत्तदेसनासन्धिवसेन छब्बिधा। तत्थ "ममन्ति एतस्स “अवण्ण''न्ति इमिना सम्बन्धोतिआदिना पदस्स पदन्तरेन सम्बन्धो पदसन्धि। “मम"न्ति वुत्तस्स भगवतो “अवण्ण''न्ति वुत्तेन परेहि उपवदितेन अगुणेनसम्बन्धोतिआदिना पदत्थस्स पदत्थन्तरेन सम्बन्धो पदत्थसन्धि। “ममं वा भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्यु"न्तिआदिदेसना सुप्पियेन परिब्बाजकेन वुत्तअवण्णानुसन्धिवसेन पवत्ता । “ममं वा भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्यु"न्तिआदिदेसना ब्रह्मदत्तेन माणवेन वुत्तवण्णानुसन्धिवसेन पवत्ता । “अस्थि भिक्खवे, अ व धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा''तिआदिदेसना भिक्खूहि वुत्तवण्णानुसन्धिवसेन पवत्ताति एवं नानानुसन्धिकस्स सुत्तस्स तंतदनुसन्धीहि, एकानुसन्धिकस्स च पुब्बापरभागेहि सम्बन्धो निद्देससन्धि । निक्खेपसन्धि पन चतुबिधसुत्तनिक्खेपवसेन । सुत्तसन्धि च तिविधसुत्तानुसन्धिवसेन अट्ठकथायं एव विचारिता, अम्हेहि च पुब्बे संवण्णिता । एकिस्सा देसनाय देसनान्तरेहि सद्धिं संसन्दनं देसनासन्धि, सा पनेवं वेदितब्बा – “ममं वा भिक्खवे...पे०... न चेतसो अनभिरद्धि करणीया"ति अयं देसना “उभतोदण्डकेन चेपि भिक्खवे, ककचेन चोरा ओचरका अङ्गमङ्गानि ओकन्तेय्यु, तत्रपि यो मनो पदूसेञ्च, न मे सो तेन सासनकरो''ति (म० नि० १.२३२) इमाय देसनाय सद्धिं संसन्दति । "तुम्हयेवस्स तेन अनन्तरायोति अयं “कम्मस्सका माणव सत्ता कम्मदायादा कम्मयोनी कम्मबन्धू कम्मपटिसरणा कम्मं सत्ते विभजति, यदिदं हीनपणीतताया"ति (म० नि० ३.२८९२९७) इमाय, “अपि नु तुम्हे...पे०... आजानेय्याथा''ति अयं -
"कुद्धो अत्थं न जानाति, कुद्धो धम्मं न पस्सति । अन्धं तमं तदा होति, यं कोधो सहते नर"न्ति ।। (अ० नि० ७.६४; महानि० ५, १५६, १९५)।
इमाय, “ममं वा भिक्खवे, परे वण्णं...पे०... न चेतसो उब्बिलावितत्तं करणीय"न्ति अयं “धम्मापि वो भिक्खवे, पहातब्बा, पगेव अधम्मा"ति, (म० नि० १.२४०) “कुल्लूपमं वो भिक्खवे, धम्मं देसेस्सामि नित्थरणत्थाय, नो गहणत्थाया''ति (म० नि० १.२४०) च इमाय, “तत्र चे तुम्हे...पे०... तुम्हयेवस्स तेन अन्तरायो''ति अयं -
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(१.१.१४९-१४९)
चतुब्यूहहारवण्णना
“लुद्धो अत्थं न जानाति, लुद्धो धम्मं न पस्सति ।
अन्धं तमं तदा होति, यं लोभो सहते नर "न्ति । । ( इतिवु० ८८; महानि० ५, १५६; चूळनि० १२८) च -
"L
'कामन्धा जालसञ्छन्ना, तण्हाछदनछादिता ।
पमत्तबन्धुनाबद्धा, मच्छाव कुमीनामुखे । जरामरणमन्वेन्ति, वच्छो खीरपकोव मातर "न्ति । । (उदा० ६४; नेत्ति० २७, ९०; पेटको० १४ ) च -
इमाय, "अप्पमत्तकं खो पनेतं सीलमत्तक "न्ति अयं “ विविच्चेव कामेहि... पे०... पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति, अयम्पि खो ब्राह्मण यज्ञो पुरिमेहि यज्ञेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा " ति ( दी० नि० १.३५३ ) इमाय पठमज्झानस्स सीलतो महप्फलमहानिसंसतरतावचनेन झानतो सीलस्स अप्पफलअप्पानिसंसतरभावदीपनतो ।
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"पाणातिपातं पहाया”तिआदिदेसना “समणो खलु भो गोतमो सीलवा अरियसीलेन समन्नागतो 'ति आदिदेसनाय, ( दी० नि० १.३०४) "अञ्ञेव धम्मा गम्भीरा 'तिआदिदेसना " अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुरनुबोधो 'तिआदिदेसनाय, ( दी० नि० २.६७, म० नि० १.२८१; २.३३७; सं० नि० १.१७२; म० व० ७, ८) गम्भीरतादिविसेसयुत्तधम्मपटिवेधेन हि जणस्स गम्भीरादिभावो विञ्ञायति ।
“सन्ति भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका ''तिआदिदेसना “सन्ति भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका...पे०... अभिवदन्ति सस्सतो अत्ता च लोको च इदमेव सच्चं, मोघमञ्ञन्ति इत्थेके अभिवदन्ति, असस्सतो, सस्सतो च असस्सतो
"
च, नेवसस्सतो च नासस्सतो च, अन्तवा, अनन्तवा, अन्तवा च अनन्तवा च, नेवन्तवा च नानन्तवा च अत्ता च लोको च, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति इत्थेके अभिवदन्ती’’तिआदिदेसनाय (म० नि० ३.२७) ।
तथा “सन्ति भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका 'तिआदिदेसना "सन्ति
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४२८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
भिक्खवे...पे०... अभिवदन्ति सञ्जी अत्ता होति अरोगो परं मरणा । इत्थेके अभिवदन्ति असञी, सञी च असञी च, नेवसञी च नासञी च अत्ता होति अरोगो परं मरणा । इत्थेके अभिवदन्ति सतो वा पन सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्ति, दिट्ठधम्मनिब्बानं वा पनेके अभिवदन्ती"न्तिआदिदेसनाय, (म० नि० ३.२१) “वेदनानं समुदयञ्च...पे०... तथागतो''तिआदिदेसना "तदिदं सङ्घतं ओळारिकं, अस्थि खो पन सङ्खारानं निरोधो, अत्थेतन्ति इति विदित्वा तस्स निस्सरणदस्सावी तथागतो तदुपातिवत्तो''तिआदिदेसनाय, (म० नि० ३.२९) “तदपि तेसं...पे०... विप्फन्दितमेवा''ति अयं “इदं तेसं वत अञ्जत्रेव सद्धाय अञत्र रुचिया अञत्र अनुस्सवा अञत्र आकारपरिवितक्का अञत्र दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया पच्चत्तंयेव आणं भविस्सति परिसुद्धं परियोदातन्ति नेतं ठानं विज्जति । पच्चत्तं खो पन भिक्खवे, आणे असति परिसुद्धे परियोदाते यदपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा तत्थ आणभावमत्तमेव परियोदापेन्ति, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं उपादानमक्खायती"तिआदिदेसनाय, (सं० नि० २.४३) “तदपि फस्सपच्चया"ति अयं “चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति चक्खुविाणं, तिण्णं सङ्गति फस्सो, फस्सपच्चया वेदना, वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादान''न्ति, (सं० नि० १.२.४५) “छन्दमूलका इमे आवुसो धम्मा मनसिकारसमुट्ठाना फस्ससमोधाना वेदनासमोसरणा'ति (परियेसितब्ब) च आदिदेसनाय, “यतो खो भिक्खवे, भिक्खु छन्नं फस्सायतनानन्तिआदिदेसना “यतो खो भिक्खवे, भिक्खु नेव वेदनं अत्ततो समनुपस्सति, न सलं, न सङ्खारे, न विजाणं अत्ततो समनुपस्सति, सो एवं असमनुपस्सन्तो न किञ्चि लोके उपादियति, अनुपादियं न परितस्सति, अपरितस्सं पच्चत्तंयेव परिनिब्बायती"तिआदिदेसनाय, “सब्बेते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि अन्तोजालीकता''तिआदिदेसना “ये हि केचि भिक्खवे...पे०... अभिवदन्ति, सब्बेते इमानेव पञ्च कायानि अभिवदन्ति एतेसं वा अञतर''न्तिआदिदेसनाय, (म० नि० ३.२६) "कायस्स भेदा...पे०... देवमनुस्सा''ति अयं -
“अच्ची यथा वातवेगेन खित्ता, (उपसिवाति भगवा)
अत्थं पलेति न उपेति सङ्ख । एवं मुनी नामकाया विमुत्तो,
अत्थं पलेति न उपेति सङ्घ"न्ति ।। (सु० नि० १०८०) -
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(१.१.१४९-१४९)
आवत्तहारवण्णना
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आदिदेसनाय सद्धिं संसन्दतीति । अयं नेरुत्तमधिप्पायदेसनानिदानपुब्बापरानुसन्धीनं चतुन्नं विभावनलक्खणो चतुब्यूहहारो नाम । वुत्तम्पि चेतं “नेरुत्तमधिप्पायो''तिआदि (नेत्ति० ४.६)।
आवत्तहारवण्णना आघातादीनमकरणीयतावचनेन खन्तिसोरच्चानुट्ठानं । तत्थ खन्तिया सद्धापञापरापकारदुक्खसहगतानं सङ्गहो, तथा सोरच्चेन सीलस्स । सद्धादिग्गहणेन च सद्धिन्द्रियादिसकलबोधिपक्खियधम्मा आवत्तन्ति । सीलग्गहणेन अविप्पटिसारादयो सब्बेपि सीलानिसंसधम्मा आवत्तन्ति । पाणातिपातादीहि पटिविरतिवचनेन अप्पमादविहारो, तेन सकलं सासनब्रह्मचरियं आवत्तति । गम्भीरतादिविसेसयुत्तधम्मग्गहणेन महाबोधिपकित्तनं । अनावरणञाणपदट्ठानहि आसवक्खयाणं, आसवक्खयाणपदट्ठानञ्च अनावरणजाणं महाबोधीति वुच्चति, तेन दसबलादयो सब्बे बुद्धगुणा आवत्तन्ति । सस्सतादिदिहिग्गहणेन तण्हाविज्जानं सङ्गहो, ताहि अनमतग्गं संसारवटें आवत्तति । वेदनानं यथाभूतं समुदयादिपटिवेधनेन भगवतो परिझात्तयविसुद्धि, ताय पञापारमिमुखेन सब्बापि पारमियो आवत्तन्ति। “अजानतं अपस्सत''न्ति एत्थ अविज्जाग्गहणेन अयोनिसोमनसिकारपरिग्गहो, तेन च नव अयोनिसोमनसिकारमूलका धम्मा आवत्तन्ति । "तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दित"न्ति एत्थ तण्हाग्गहणेन नव तण्हामूलका धम्मा आवत्तन्ति । “तदपि फस्सपच्चया''तिआदि सस्सतादिपञापनस्स पच्चयाधीनवुत्तिदस्सनं, तेन अनिच्चतादिलक्खणत्तयं आवत्तति । छन्नं फस्सायतनानं यथाभूतं पजाननेन विमुत्तिसम्पदानिदृसो, तेन सत्तपि विसुद्धियो आवत्तन्ति । “उच्छिन्नभवनेत्तिको तथागतस्स कायो"ति तण्हापहानं वुत्तं, तेन भगवतो सकलसंकिलेसप्पहानं आवत्ततीति अयं देसनाय गहितधम्मानं सभागविसभागधम्मवसेन आवत्तनलक्खणो आवत्तहारो नाम । यथाह “एकम्हि पदट्ठाने, परियेसति सेसकं पदट्ठान''न्तिआदि (नेत्ति० ४.७)।
विभत्तिहारवण्णना
आघातानन्दादयो अकुसला धम्मा, तेसं अयोनिसोमनसिकारादि पदहानं । येहि पन धम्मेहि आघातानन्दादीनं अकरणं अप्पवत्ति, ते अब्यापादादयो कुसला धम्मा, तेसं योनिसोमनसिकारादि पदट्ठानं । तेसु आघातादयोकामावचराव, अब्यापादादयो चतुभूमका,
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४३०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
तथा पाणातिपातादीहि पटिविरति कुसला वा अब्याकता वा, तस्सा हिरोत्तप्पादयो धम्मा पदट्ठानं । तत्थ कुसला सिया कामावचरा, सिया लोकुत्तरा। अब्याकता लोकुत्तराव । "अस्थि भिक्खवे, अ व धम्मा गम्भीरा''ति वुत्तधम्मा सिया कुसला, सिया अब्याकता । तत्थ कुसलानं वुढानगामिनिविपस्सना पदट्टानं । अब्याकतानं मग्गधम्मा, विपस्सना, आवज्जना वा पदट्ठानं । तेसु कुसला लोकुत्तराव, अब्याकता सिया कामावचरा, सिया लोकुत्तरा, सब्बापि दिट्ठियो अकुसलाव कामावचराव, तासं अविसेसेन मिच्छाभिनिवेसे अयोनिसोमनसिकारो पदट्ठानं । विसेसतो पन सन्ततिघनविनिब्भोगाभावतो एकत्तनयस्स मिच्छागाहो अतीतजातिअनुस्सरणतक्कसहितो सस्सतदिट्ठिया पदट्टानं । हेतुफलभावेन सम्बन्धभावस्स अग्गहणतो नानत्तनयस्स मिच्छागाहो तज्जासमन्नाहारसहितो उच्छेददिट्ठिया पदट्ठानं । एवं सेसदिट्ठीनम्पि यथासम्भवं वत्तब्बं ।
___"वेदनान"न्ति एत्थ वेदना सिया कुसला, सिया अकुसला, सिया अब्याकता, सिया कामावचरा, सिया रूपावचरा, सिया अरूपावचरा, तासं फस्सो पदट्टानं । वेदनानं यथाभूतं वेदनानं समृदयादिपटिवेधनं मग्गजाणं, अनुपादाविमत्ति च फलञाणं, तेसं “अव धम्मा गम्भीरा'"ति एत्थ वुत्तनयेन धम्मादिविभागो नेतब्बो । “अजानतं अपस्सत''न्तिआदीसु अविज्जातण्हा अकुसला कामावचरा, तासु अविज्जाय आसवा, अयोनिसोमनसिकारो एव वा पदट्ठानं । तण्हाय संयोजनियेसु धम्मेसु अस्साददस्सनं पदट्ठानं । “तदपि फस्सपच्चया'"ति एत्थ फस्सस्स वेदनाय विय धम्मादिविभागो वेदितब्बो । इमिना नयेन फस्सायतनादीनम्पि यथारहं धम्मादिविभागो नेतब्बोति अयं संकिलेसधम्मे, वोदानधम्मे च साधारणासाधारणतो, पदट्ठानतो, भूमितो च विभजनलक्खणो विभत्तिहारो नाम | यथाह "धम्मञ्च पदट्ठानं, भूमिञ्च विभज्जते अयं हारो"तिआदि (नेत्ति० ४.८)।
परिवत्तनहारवण्णना
आघातादीनमकरणं खन्तिसोरच्चानि अनुब्रूहेत्वा पटिसङ्खानभावनाबलसिद्धिया उभयहितपटिपत्तिमावहति । आघातादयो पन पवत्तियमाना दुब्बण्णतं, दुक्खसेय्यं, भोगहानि, अकित्तिं, परेहि दुरुपसङ्कमनतञ्च निप्फादेन्ता निरयादीसु महादुक्खमावहन्ति । पाणातिपातादिपटिविरति अविप्पटिसारादिकल्याणं परम्परमावहति । पाणातिपातादि पन विप्पटिसारादिअकल्याणं परम्परमावहति । गम्भीरतादिविसेसयुत्तं आणं वेनेय्यानं यथारहं विज्जाभिञादिगुणविसेसमावहति सब्ब य्यस्स यथासभावावबोधतो। तथा
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( १.१.१४९ - १४९)
वेवचनहारवण्णना
गम्भीरतादिविसेसरहितं पन जाणं जेय्येसु साधारणभावतो यथावुत्तगुणविसेसं नावहति । सब्बापि चेता दिट्ठियो यथारहं सस्सतुच्छेदभावतो अन्तद्वयभूता सक्कायतीरं नातिवत्तन्ति अनिय्यानिकसभावत्ता । सम्मादिट्ठि पन सपरिक्खारा मज्झिमपटिपदाभूता सक्कायतीरमतिक्कम्म पारं गच्छति नय्यानिकसभावत्ता | वेदनानं यथाभूतं समुदयादिपटिवेधना अनुपादाविमुत्तिमावहति मग्गभावतो । वेदनानं यथाभूतं समुदयादिअसम्पटिवेधो संसारचारकावरोधमावहति सङ्घारानं पच्चयभावतो । वेदयितसभावपटिच्छादको सम्मोहो तदभिनन्दनमावहति, यथाभूतावबोधो पन तत्थ निब्बेधं, विरागञ्च आवहति । मिच्छाभिनिवेसे अयोनिसोमनसिकारसंहिता तण्हा अनेकविहितं दिट्ठिजालं पसारेति । यथावुत्ततण्हासमुच्छेदो पठममग्गो तं दिट्ठिजालं सङ्कोचेति । सस्सतवादादिपञ्ञापनस्स फस्सो पच्चयो असति फस्से तदभावतो । दिट्ठिबन्धनबद्धानं फस्सायतनादीनमनिरोधनेन फरसादिअनिरोधो संसारदुक्खस्स अनिवत्तियेव याथावतो फस्सायतनादिपरिञा सब्बदिट्ठिदस्सनानि अतिवत्तति, तेसं पन तथा अपरिञ दिट्ठिदस्सनं नातिवत्तति। भवनेत्तिसमुच्छेदो आयतिं अत्तभावस्स अनिब्बत्तिया संवत्तति, असमुच्छिन्नाय भवनेत्तिया अनागते भवप्पबन्धो परिवत्ततियेवाति अयं सुत्ते निद्दिट्ठानं धम्मानं पटिपक्खतो परिवत्तनलक्खणो परिवत्तनहारो नाम । किमाह "कुसलाकुसले धम्मे, निद्दि भाविते पहीने चा" तिआदि ।
वेवचनहारवण्णना
" ममं मम मे "ति परियायवचनं । 'वा यदि चा "ति परियायवचनं । “भिक्खवे समणा तपस्सिनो "ति परियायवचनं । “परे अञ्ञ पटिविरुद्धा" ति... पे० नं । "अवण्णं अकित्तिं निन्दं” ति...पे०... नं । " भासेय्युं भणेय्युं कथेय्युं" ति...पे०... नं । “धम्मस्स विनयस्स सत्थुसासनस्सा" ति...पे०... नं । “सङ्घस्स समूहस्स गणस्सा ” ति...पे०... नं। “तत्र तत्थ तेसू" ति... पे०... नं । " तुम्हेहि वो भवन्तेही " ति...पे०... नं । “आघातो दोसो ब्यापादो” ति...पे०... नं “ अप्पच्चयो दोमनस्सं चेतसिकदुक्खं " ति...पे०... नं। “चेतसो चित्तस्स मनसो” ति... पे०... नं । “ अनभिरद्धि ब्यापत्ति मनोपदोसो” ति...पे०... नं । “न नो अ मा" ति... पे०... नं । “करणीया उप्पादेतब्बा पवत्तेतब्बा''ति परियायवचनं । इमिना नयेन सब्बपदेसु वेवचनं वत्तब्बन्ति अयं तस्स तस्स अत्थस्स तंतंपरियायसद्दयोजनालक्खणो वेवचनहारो नाम । वुत्तहेतं "वेवचनानि बहूनि तु, सुत्ते वृत्तानि एकधम्मस्सा' 'तिआदि (नेत्ति० ४.१०) ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
पञत्तिहारवण्णना
आघातो वत्थुवसेन दसविधेन, एकूनवीसतिविधेन वा पञत्तो। अपच्चयो उपविचारवसेन छधा पञ्जत्तो । आनन्दो पीतिआदिवसेन वेवचनेन नवधा पञत्तो । पीति सामञतो पन खुद्दिकादिवसेन पञ्चधा पञत्तो । सोमनस्सं 'उपविचारवसेन छधा, सीलं वारित्तचारित्तादिवसेन अनेकधा, गम्भीरतादिविसेसयुत्तं जाणं चित्तुप्पादवसेन चतुधा, द्वादसधा वा, विसयभेदतो अनेकधा च, दिट्ठिसस्सतादिवसेन द्वासट्ठिया भेदेहि, तदन्तोगधविभागेन अनेकधा च, वेदना छधा, अट्ठसतधा, अनेकधा च, तस्सा समुदयो पञ्चधा, तथा अत्थङ्गमोपि, अस्सादो दुविधेन, आदीनवो तिविधेन, निस्सरणं एकधा, चतुधा च, अनुपादाविमुत्ति दुविधेन, “अजानतं अपस्सत''न्ति वुत्ता अविज्जा विसयभेदेन चतुधा, अट्ठधा च, “तण्हागतान"न्तिआदिना वुत्ता तण्हा छधा, अट्ठसतधा, अनेकधा च, फस्सो निस्सयवसेन छधा, उपादानं चतुधा, भवो द्विधा, अनेकधा च, जाति वेवचनवसेन छधा, तथा जरा सत्तधा, मरणं अट्ठधा, नवधा च, सोको पञ्चधा, परिदेवो छधा, दुक्खं चतुधा, तथा दोमनस्सं, उपायासो चतुधा पञ्जत्तोति अयं पभेदपञ्जत्ति, समूहपञत्ति च ।
“समुदयो होती"ति पभवपत्ति , “यथाभूतं पजानाती"ति दुक्खस्स परिञापञ्जत्ति, समुदयस्स पहानपञत्ति, निरोधस्स सच्छिकिरियापञ्जत्ति, मग्गस्स भावनापत्ति । “अन्तोजालीकता''तिआदिसब्बदिट्ठीनं सङ्गहपञत्ति । "उच्छिन्नभवनेत्तिको"तिआदि दुविधेन परिनिब्बानपञ्जत्तीति एवं आघातादीनं पभवपत्तिपरिञापञत्तिआदिवसेन । तथा “आघातो"ति ब्यापादस्स वेवचनपत्ति । "अप्पच्चयो''ति दोमनस्सस्सवेवचनपञत्तीतिआदिवसेन च पञत्तिभेदो विभज्जितब्बोति अयं एकेकस्स धम्मस्स अनेकाहि पञ्जत्तीहि पञपेतब्बाकारविभावनलक्खणो पञत्तिहारो नाम, तेन वुत्तं “एकं भगवा धम्मं, पण्णत्तीहि विविधाहि देसेती"तिआदि (नेत्ति० ४.११)।
ओतरणहारवण्णना
आघातग्गहणेन सङ्घारक्खन्धसङ्गहो, तथा अनभिरद्धिग्गहणेन । अप्पच्चयग्गहणेन वेदनाक्खन्धसङ्गहोति इदं खन्धमुखेन ओतरणं । तथा आघातादिग्गहणेन धम्मायतनं, धम्मधातु, दुक्खसच्चं, समुदयसच्चं वा गहितन्ति इदं आयतनमुखेन, धातुमुखेन, सच्चमुखेन च
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(१.१.१४९-१४९)
सोधनहारवण्णना
४३३
ओतरणं। तथा आघातादीनं सहजाता अविज्जा हेतुसहजातअञमञनिस्सयसम्पयुत्तअत्थिअविगतपच्चयेहि पच्चयो, असहजाता पन अनन्तरनिरुद्धा अनन्तरसमनन्तरअनन्तरूपनिस्सयनत्थिविगतासेवनपच्चयेहि पच्चयो। अननन्तरा पन उपनिस्सयवसेनेव पच्चयो। तण्हाउपादानादि फस्सादीनम्पि तेसं सहजातानं, असहजातानञ्च यथारहं पच्चयभावो वत्तब्बो । कोचि पनेत्थ अधिपतिवसेन, कोचि कम्मवसेन, कोचि आहारवसेन, कोचि इन्द्रियवसेन, कोचि झानवसेन कोचि मग्गवसेनापि पच्चयोति अयम्पि विसेसो वेदितब्बोति इदं पटिच्चसमुप्पादमुखेन ओतरणं। इमिनाव नयेन आनन्दादीनम्पि खन्धादिमुखेन ओतरणं विभावेतब्बं ।
तथा सीलं पाणातिपातादीहि विरतिचेतना, अब्यापादादिचेतसिकधम्मा च, पाणातिपातादयो चेतनाव, तेसं, तदुपकारकधम्मानञ्च लज्जादयादीनं सङ्घारक्खन्धधम्मायतनादीसु सङ्गहतो पुरिमनयेनेव खन्धादिमुखेन ओतरणं विभावेतब्बं । एस नयो आणदिद्विवेदनाअविज्जातण्हादिग्गहणेसुपि। निस्सरणानुपादाविमुत्तिग्गहणेसु पन असङ्घतधातुवसेनपि धातुमुखेन ओतरणं विभावेतब्बं, तथा “वेदनानं...पे०... अनुपादाविमुत्तो''ति एतेन भगवतो सीलादयो पञ्चधम्मक्खन्धा, सतिपट्ठानादयो च बोधिपक्खियधम्मा पकासिता होन्तीति तंमुखेनपि ओतरणं वेदितब्बं । “तदपि फस्सपच्चया"ति सस्सतादिपञापनस्स पच्चयाधीनवुत्तितादीपनेन अनिच्चतामुखेन ओतरणं, तथा एवंधम्मताय पटिच्चसमुप्पादमुखेन ओतरणं। अनिच्चस्स दुक्खानत्तभावतो अप्पणिहितमुखेन, सुञतामुखेन च ओतरणं। सेसपदेसुपि एसेव नयो। अयं पटिच्चसमुप्पादादिमुखेहि सुत्तत्थस्स ओतरणलक्खणो ओतरणहारो नाम । तथा हि वुत्तं “यो च पटिच्चुप्पादो, इन्द्रियखन्धा च धातुआयतना''तिआदि (नेत्ति० ४.१२) ।
सोधनहारवण्णना
___ममं वा भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्यु"न्ति आरम्भो । “धम्मस्स वा अवण्णं भासेव्यु सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्यु"न्ति पदसुद्धि, नो आरम्भसुद्धि । “तत्र तुम्हेहि न आघातो, न अप्पच्चयो, न चेतसो अनभिरद्धि करणीया''ति पदसुद्धि चेव आरम्भसुद्धि च । दुतियनयादीसुपि एसेव नयो, तथा “अप्पमत्तकं खो पनेत''न्तिआदि आरम्भो । "कतम"न्तिआदि पुच्छा । “पाणातिपातं पहाया''तिआदि पदसुद्धि, नो आरम्भसुद्धि । नो च पुच्छासुद्धि । “इदं खो"तिआदि पुच्छासुद्धि चेव पदसुद्धि च, आरम्भसुद्धि ।
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४३४
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
तथा “अस्थि भिक्खवे''तिआदि आरम्भो । “कतमे च ते''तिआदि पुच्छा । “सन्ति भिक्खवे''तिआदि आरम्भो । “किमागम्मा"तिआदि आरम्भपुच्छा । “यथा समाहिते''तिआदि पदसुद्धि, नो आरम्भसुद्धि, नो च पुच्छासुद्धि । “इमे खो''तिआदि पदसुद्धि चेव पुच्छासुद्धि च आरम्भसुद्धि च । इमिना नयेन सब्बत्थ आरम्भादयो वेदितब्बा । अयं पदारम्भानं सोधितासोधितभावविचारणलक्खणो सोधनहारो नाम, 'वुत्तम्पि च “विस्सज्जितम्हि पञ्हे, गाथायं पुच्छितायमारब्भा"तिआदि (नेत्ति० ४.१३) ।
अधिट्ठानहारवण्णना
___ "अवण्ण"न्ति सामञतो अधिट्टानं । तमविकप्पेत्वा विसेसवचनं “ममं वा"ति । धम्मस्स वा सङ्घस्स वाति पक्खेपि एस नयो । तथा “सील"न्ति सामञतो अधिट्टानं । तमविकप्पेत्वा विसेसवचनं “पाणातिपाता पटिविरतो'तिआदि । “अञ्चेव धम्मा"तिआदि सामञतो अधिट्टानं, तमविकप्पेत्वा विसेसवचनं "तयिदं भिक्खवे, तथागतो पजानाती"तिआदि, तथा “पुब्बन्तकप्पिका''तिआदि सामञतो अधिट्टानं । तमविकप्पेत्वा विसेसवचनं “सस्सतवादा"तिआदि । इमिना नयेन सब्बत्थ यथादेसितमेव सामञविसेसा निद्धारेतब्बा। अयं सुत्तागतानं धम्मानं अविकप्पनावसेन यथादेसितमेव सामञविसेसनिद्धारणलक्खणो अधिट्ठानहारो नाम, यथाह “एकत्तताय धम्मा, येपि च वेमत्तताय निद्दिवा''तिआदि (नेत्ति० ४.१४) ।
परिक्खारहारवण्णना आघातादीनं “अनत्थं मे अचरी'तिआदीनि (ध० स० १२३७; विभं० ९०९) एकूनवीसति आघातवत्थूनि हेतु। आनन्दादीनं आरम्मणाभिसिनेहो हेतु। सीलस्स हिरिओत्तप्पं, अप्पिच्छतादयो च हेतु । “गम्भीरा''तिआदिना वुत्तधम्मस्स सब्बापि पारमियो हेतु। विसेसेन पञापारमी। दिट्ठीनं असप्पुरिसूपनिस्सयो, असद्धम्मस्सवनं मिच्छाभिनिवेसेन अयोनिसोमनसिकारो च अविसेसेन हेतु । विसेसेन पन सस्सतवादादीनं अतीतजातिअनुस्सरणादि हेतु | वेदनानं अविज्जा, तण्हा, कम्मादिफस्सो च हेतु । अनुपादाविमुत्तिया अरियमग्गो हेतु। अाणस्स अयोनिसोमनसिकारो हेतु । तण्हाय संयोजनियेसु अस्सादानुपस्सना हेतु । फस्सम्स सळायतनानि हेतु । सळायतनस्स नामरूपं हेतु । भवनेत्तिसमुच्छेदस्स विसुद्धिभावना हेतूति अयं परिक्खारसवाते हेतुपच्चये
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(१.१.१४९-१४९)
समारोपनहारवण्णना
निद्धारेत्वा संवण्णनालक्खणो परिक्खारहारो नाम, तेन वुत्तं "ये धम्मा यं धम्मं, जनयन्तिप्पच्चया परम्परतो "तिआदि ।
समारोपनहारवण्णना
चस्स
आघातादीनमकरणीयतावचनेन खन्तिसम्पदा दस्सिता होति । "अप्पमत्तकं खो पनेत "न्तिआदिना सोरच्चसम्पदा । " अत्थि भिक्खवे "तिआदिना आणसम्पदा । " अपरामसतो पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता 'ति, “वेदनानं... पे०... यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो 'ति च एतेहि समाधिसम्पदाय सद्धिं विज्जाविमुत्तिवसीभावसम्पदा दस्सिता । तत्थ खन्तिसम्पदा पटिसङ्घानबलसिद्धितो सोरच्चसम्पदाय पदट्ठानं, सोरच्चसम्पदा पन अत्थतो सीलमेव, सीलं समाधिसम्पदाय पदट्ठानं । समाधि आणसम्पदाय पदट्ठानन्ति अयं पदट्ठानसमारोपना ।
४३५
पाणातिपातादीहि पटिविरतिवचनं सीलस्स परियायविभागदस्सनं । सस्सतवादादिविभागदस्सनं पन दिट्ठिया परियायवचनन्ति अयं वेवचनसमारोपना ।
सीलेन वीतिक्कमप्पहानं, तदङ्गप्पहानं, दुच्चरितसंकिलेसप्पहानञ्च सिज्झति । समाधिना परियुट्ठानप्पहानं, विक्खम्भनप्पहानं, तण्हासंकिलेसप्पहानञ्च सिज्झति । पञ्ञाय दिट्ठिसंकिलेसप्पहानं, समुच्छेदप्पहानं, अनुसयप्पहानञ्च सिज्झतीति अयं पहानसमारोपना ।
सीलादिधम्मक्खन्धेहि समथविपस्सनाभावनापारिपूरिं गच्छति पहानत्तयसिद्धितोति अयं भावनासमारोपना । अयं आगतधम्मानं पदट्ठानवेवचनपहानभावनासमारोपनविचारणलक्खणो समारोपनहारो नाम । वृत्तहेतं " ये धम्मा यं मूला, ये चेकत्था पकासिता मुनिना 'तिआदि, (नेत्ति० ४.१६) अयं सोळसहारयोजना |
सोळसहारवण्णना निट्ठिता ।
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका- १
पञ्चविधनयवण्णना
नन्दियावट्टनयवण्णना
आघातादीनमकरणवचनेन तण्हाविज्जासङ्कोचो दस्सितो । सति हि अत्तत्तनियवत्थूसु सिनेहे, सम्मोहे च " अनत्थं मे अचरी ”तिआदिना आघातो जायति, नासति । तथा “पाणातिपाता पटिविरतो "तिआदिवचनेहि "पच्चत्तव निब्बुति विदिता, अनुपादाविमुत्तो, छन्नं फस्सायतनानं...पे० यथाभूतं पजानातीतिआदिवचनेहि च तण्हाविज्जानं अच्चन्तप्पहानं दस्सितं होति । तासं पन पुब्बन्तकप्पिकादिपदेहि, “अजानतं अपस्सत"न्तिआदिपदेहि च सरूपतोपि दस्सितानं तण्हाविज्जानं रूपधम्मा, अरूपधम्मा च अधिट्ठानं । यथाक्कमं समथो च विपस्सना च पटिपक्खो, तेसं पन चेतोविमुत्ति, पञ्ञाविमुत्ति च फलं । तत्थ तण्हा समुदयसच्चं, तण्हाविज्जा वा तदधिट्ठानभूता रूपारूपधम्मा दुक्खसच्चं, तेसमप्पवत्ति निरोधसच्चं निरोधपजानना समथविपस्सना मग्गसच्चन्ति एवं चतुसच्चयोजना वेदितब्बा |
,
हाग्गहन चेत्थ
मायासाठेय्यमानातिमानमदपमादपापिच्छतापापमित्तताअहिरिकानोत्तप्पादिवसेन सब्बोपि अकुसलपक्खो नेतब्बो । तथा अविज्जाग्गहणेनपि विपरीतमनसिकारकोधुपनाहमक्खपळासइस्सामच्छरियसारम्भ दोवचस्ता भवदिट्ठिविभवदिट्ठादिवसेन । विपरिया पन अमाया असाठेय्यादिवसेन, अविपरीतमनसिकारादिवसेन च सब्बोपि कुसलपक्खो नेतब्बो । तथा समथपक्खियानं सद्धिन्द्रियादीनं, विपस्सनापक्खियानञ्च अनिच्चसञ्ञादीनं वसेनाति अयं तण्हाविज्जाहि संकिलेसपक्खं सुत्तत्थं समथविपस्सनाहि च वोदानपक्खं चतुसच्चयोजनमुखेन नयनलक्खणस्स नन्दियावट्टनयस्स भूमि । वुत्तञ्हि “ तहञ्च अविज्जम्पि च, समथेन विपस्सनाय यो नेती "तिआदि ।
( १.१.१४९-१४९)
तिपुक्खलनयवण्णना
आघातादीनमकरणवचनेन अदोससिद्धि, तथा पाणातिपातफरुसवाचाहि पटिविरतिवचनेनापि । आनन्दादीनमकरणवचनेन पन अलोभसिद्धि, तथा अब्रह्मचरियतो पटिविरतिवचनेनापि। अदिन्नादानादीहि पन पटिविरतिवचनेन तदुभयसिद्धि । “तयिदं
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(१.१.१४९-१४९)
सीहविक्कीळितनयवण्णना
४३७
भिक्खवे, तथागतो पजानाती''तिआदिना अमोहसिद्धि । इति तीहि अकुसलमूलेहि गहितेहि तप्पटिपक्खतो आघातादीनमकरणवचनेन च तीणि कुसलमूलानि सिद्धानियेव होन्ति । तत्थ तीहि अकुसलमूलेहि तिविधदुच्चरितसंकिलेसमलविसमाकुसलसञ्जावितक्कपञ्चादिवसेन सब्बोपि अकुसलपक्खो वित्थारेतब्बो। तथा तीहि कुसलमूलेहि तिविधसुचरितवोदानसमकुसलसावितक्कपञासद्धम्मसमाधिविमोक्खमुखविमोक्खादिवसेन सब्बोपि कुसलपक्खो विभावेतब्बो।
एत्थ चायं सच्चयोजना - लोभो समुदयसच्चं, सब्बानि वा कुसलाकुसलमूलानि, तेहि पन निब्बत्ता तेसमधिट्टानगोचरभूता उपादानक्खन्धा दुक्खसच्चं, तेसमप्पवत्ति निरोधसच्चं, निरोधपजानना विमोक्खादिका मग्गसच्चन्ति । अयं अकुसलमूलेहि संकिलेसपक्खं, कुसलमूलेहि च वोदानपक्खं चतुसच्चयोजनमुखेन नयनलक्खणस्स तिपुक्खलनयस्स भूमि । तथा हि वुत्तं -
“यो अकुसले समूलेहि, नेति कुसले च कुसलमूलेही''तिआदि ।। (नेत्ति० ४.१८)।
सीहविक्कीळितनयवण्णना
आघातानन्दादीनमकरण-वचनेन सतिसिद्धि। मिच्छाजीवापटिविरतिवचनेन वीरियसिद्धि। वीरियेन हि कामब्यापादविहिंसावितक्के विनोदेति, वीरियसाधनञ्च आजीवपारिसुद्धिसीलन्ति । पाणातिपातादीहि पटिविरतिवचनेन सतिसिद्धि । सतिया हि सावज्जानवज्जो दिट्ठो होति। तत्थ च आदीनवानिसंसे सल्लक्खेत्वा सावज्जं पहाय अनवज्जं समादाय वत्तति । तथा हि सा "निय्यातनपच्चुपट्ठानाति वुच्चति । "तयिदं भिक्खवे, तथागतो पजानाती"तिआदिना समाधिपञ्जासिद्धि । पञ्चवा हि यथाभूतावबोधो समाहितो च यथाभूतं पजानातीति ।
तथा “निच्चो धुवो"तिआदिना अनिच्चे “निच्च''न्ति विपल्लासो, “अरोगो परं मरणा, एकन्तसुखी अत्ता, दिठ्ठधम्मनिब्बानप्पत्तो''ति च एवमादीहि असुखे "सुख''न्ति विपल्लासो । “पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो"तिआदिना असुभे “सुभ'"न्ति विपल्लासो । सब्बेहेव दिट्ठिप्पकासनपदेहि अनत्तनि “अत्ता'"ति विपल्लासोति एवमेत्थ चत्तारो विपल्लासा
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दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
(१.१.१४९-१४९)
सिद्धा होन्ति, तेसं पटिपक्खतो चत्तारि सतिपट्ठानानि सिद्धानेव । तत्थ चतूहि यथावुत्तेहि इन्द्रियेहि चत्तारो पुग्गला निद्दिसितब्बा। कथं दुविधो हि तण्हाचरितो मुदिन्द्रियो तिक्खिन्द्रियोति, तथा दिठ्ठिचरितोपि । तेसु पठमो असुभे "सुभन्ति विपल्लत्थदिट्ठिको सतिबलेन यथाभूतं कायसभावं सल्लक्खेत्वा सम्मत्तनियामं ओक्कमति। दुतियो असुखे "सुख''न्ति विपल्लत्थदिट्ठिको “उप्पन्नं कामवितक्कं नाधिवासेती"तिआदिना (म० नि० १.२६; अ० नि० १.४.१४; २.६.५८) वुत्तेन वीरियसंवरसङ्घातेन वीरियबलेन तं विपल्लासं विधमति । ततियो अनिच्चे “निच्च"न्ति विपल्लत्थदिट्ठिको समाधिबलेन समाहितभावतो सङ्घारानं खणिकभावं यथाभूतं पटिविज्झति। चतुत्थो सन्ततिसमूहकिच्चारम्मणघनविचित्तत्ता फस्सादिधम्मपुञ्जमत्ते अनत्तनि “अत्ता''ति विपल्लत्थदिट्ठिको चतुकोटिकसुञतामनसिकारेन तं मिच्छाभिनिवेसं विद्धंसेति । चतूहि चेत्थ विपल्लासेहि चतुरासवोघयोगगन्थअगतितण्हुप्पादुपादानसत्तविाणद्वितिअपरिञादिवसेन सब्बोपि अकुसलपक्खो नेतब्बो। तथा चतूहि सतिपट्ठानेहि चतुब्बिधझानविहाराधिट्ठानसुखभागियधम्मअप्पमञासम्मप्पधानइद्धिपादादिवसेन सब्बोपि वोदानपक्खो नेतब्बो ।
एत्थ चायं सच्चयोजना - सुभसञासुखसजाहि, चतूहिपि वा विपल्लासेहि समुदयसच्चं, तेसमधिट्ठानारम्मणभूता पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खसच्चं, तेसमप्पवत्ति निरोधसच्चं, निरोधपजानना सतिपट्ठानादिका मग्गसच्चन्ति । अयं विपल्लासेहि संकिलेसपक्खं, सद्धिन्द्रियादीहि वोदानपक्खं चतुसच्चयोजनमुखेन नयनलक्खणस्स सीहविक्कीळितनयस्स भूमि, यथाह “यो नेति विपल्लासेहि, किलेसे इन्द्रियेहि सद्धम्मे''तिआदि (नेत्ति० ४.१९)।
दिसालोचनअङ्गुसनयद्वयवण्णना इति तिण्णं अत्यनयानं सिद्धिया वोहारनयद्वयम्पि सिद्धमेव होति । तथा हि अत्थनयत्तयदिसाभूतधम्मानं समालोचनमेव दिसालोचननयो। तेसं समानयनमेव अङ्गुसनयो। तस्मा यथावुत्तनयेन अत्यनयानं दिसाभूतधम्मसमालोकननयनवसेन तम्पि नयद्वयं योजेतब्बन्ति, तेन वुत्तं “वेय्याकरणेसु हि ये, कुसलाकुसला"तिआदि (नेत्ति० ४.२०) । अयं पञ्चनययोजना।
पञ्चविधनयवण्णना निद्विता ।
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(१.१.१४९-१४९)
सासनपट्ठानवण्णना
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सासनपट्ठानवण्णना
इदं पन सुत्तं सोळसविधे सासनपट्ठाने संकिलेसवासनासेक्खभागियं तण्हादिठ्ठादिसंकिलेसानं सीलादिपुञ्जकिरियस्स, असेक्खसीलादिक्खन्धस्स च विभत्तत्ता, संकिलेसवासनानिब्बेधासेक्खभागियमेव वा यथावुत्तत्थानं सेक्खसीलक्खन्धादिकस्स च विभत्तत्ता । अट्ठवीसतिविधे पन सासनपट्टाने लोकियलोकुत्तरं सत्तधम्माधिट्टानं आणजेय्यं दस्सनभावनं सकवचनपरवचनं विस्सज्जनीयाविस्सज्जनीयं कम्मविपाकं कुसलाकुसलं अनुञातपटिक्खित्तं भवो च लोकियलोकुत्तरादीनमत्थानं इध विभत्तत्ताति। अयं सासनपट्टानयोजना।
पकरणनयवण्णना निहिता।
इति सुमङ्गलविलासिनिया दीघनिकायट्ठकथाय परमसुखुमगम्भीरदुरनुबोधत्थपरिदीपनाय सुविमलविपुलपञ्जावेय्यत्तियजननाय अज्जवमद्दवसोरच्चसद्धासतिधितिबुद्धिखन्तिवीरियादिधम्मसमङ्गिना साट्ठकथे पिटकत्तये असङ्गासंहीरविसारदाणचारिना अनेकप्पभेदसकसमयसमयन्तरगहनज्झोगाहिना
महागणिना
महावेय्याकरणेन जाणाभिवंसधम्मसेनापतिनामथेरेन महाधम्मराजाधिराजगरुना कताय साधुविलासिनिया नाम लीनत्थपकासनिया ब्रह्मजालसुत्तवण्णनाय लीनत्थविभावना ।
ब्रह्मजालसुत्तवण्णना निहिता।
पठमो भागो निद्वितो।
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सद्दानुक्कमणिका
अकतभूमिभागोति-३०९ अकत्तब्बतावादो-१६२ अकत्तब्बभावकारणवचनं -१४५ अकप्पियसमादानसिक्खापदं-३७ अकम्पनजाणानि-१४ अकारणन्ति-१६२ अकारणभावहेतुदस्सनत्थं-१६२ अ-कारो-८९ अकालोति-६३ अकिच्छलाभी-२४५ अकुतूहलता-२४९ अकुप्पामिति-१०१ अकुसलकम्मपथेहि-२४४ अकुसलचित्तुप्पादो-५६ अकुसलचेतना-८४, ३०१ अकुसलधम्मेहि -२४४ अकुसलन्ति - ८४, ३७७, ३७८ अकुसलविपाकसञ्जा-२७१ अकुसलाति--२८७ अक्खणभूमियं-३८१ अक्खन्तियाति-४०० अक्खरिका -३१८ अक्खलितपटिवेधलक्खणा - २२० अक्खातोति-८०,८३ अक्खानमिन्द्रियानं-३९३
अक्खानं-३१६ अक्खितप्पनतेलन्ति-३३१ अक्खिरोगवेज्जकम-३३१ अखीणासवो-६२ अगदोति-२७८ अगारं-१७१,१८४, ३६९ अग्गतन्ति-२०३ अग्गपुग्गलोति-१६२ अग्गफलसम्पत्तिञ्च-२४१ अग्गफलं-३९४ अग्गिक्खन्धउदकक्खन्धापि-२०७ अग्गिक्खन्धो-७२,२०६ अग्गिसिखधूमसिखादीनं -३२८ अग्गिहोम-३२६ अग्गोति-५,५१, २६८ अङ्गअङ्गविज्जानं-३२६ अङ्गन्ति-१०८,३२५, ३५४ अङ्गसम्पत्तिविपत्तिदस्सनमत्तेन-३२५ अङ्गुट्टप्पमाणो-३८८ अङ्गत्तरटीकायं-२१४, २६६,२६८ अङ्गुत्तरट्ठकथायं -७६ अङ्गुत्तरनिकाये- ४०८ अङ्गुलिमालदमनपक्कुसातिअभिग्गमनादीसु-१६८ अचलसमादानाधिट्टानो-२३३ अचलाधिट्ठानो-२२४,२६० अचित्तुप्पादातिआदि -३८१ अचिन्तेय्यानीति-१०६ अचिन्तेय्योति-१७६,३३७
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[२]
अच्चन्तसंयोगत्थसम्भवदस्सनं - १५३ अच्चन्तसुखुमभावप्पत्तिया - ३८७ अच्चन्तसुखुमालकरजकायं - ३७३ अच्चयो - ३६३
अच्चारद्धन्ति - ६८
अच्छथाति
१- ३१५
अच्छन्दिकभावमत्तन्ति- - ३३१ अच्छयागु - ३७१
अच्छरियब्भुतधम्मपटिसंयुत्तं - ११७ अच्छरियब्भुतधम्मो - २२२ अच्छरियवेगाभिहताति -
- ४१५
अच्छरियानि - १२२
अच्छरियं - १७३, १९१, ३२४
अजितमाणवकपुच्छा - ११३ अजिनचम्मेहीति - ३२० अज्जकन्ति - ३१३
अज्झगाति - ७७
अज्झत्तिकधम्मे - २५० अज्झत्तिकबलं -
5- २२५
अज्झत्तिकसमुट्ठानं – ४१७ अज्झाचारो - ८०
अज्झासयन्ति - १९१, ३९७ अज्झासयसुद्धिया - १०२ अज्झासयानुसन्धिम्हिपि - ३९८
अज्झोसन्नाति - २१३
अञ्जलिकम्मं - २४६
अञ्ञतरभेदसङ्ग्रहवसेन - ३५२
अञ्ञतित्थिया - ३८८
अञ्ञतित्थियानं - १७४ अञ्ञदत्थूति - २७८, ३६७ अञ्ञातन्ति - २८२
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
अञ्ञासिकोण्डञ्ञत्थेरस्स - ३३
अट्ठक्खणविनिमुत्तो- १५० अट्ठङ्गसमन्नागतरूपावचरचतुत्थज्झानस्सेव - ३४६
अट्ठङ्गसमोधानसम्पादितो - २२६ अट्ठधम्मसमोधानसम्पादितो - २२१
2
अट्ठविमोक्खपरियायो - ३७५ अट्ठसमापत्तिलाभिनो अट्ठापदन्ति - ३१७
- ३८७
अट्ठारसपक्कपरिमाणा - ४१२ अट्ठारसावेणिकबुद्धधम्मवसेन - १७७ अट्ठिधोवनन्ति - ३१७ अट्ठकथायन्ति - अड्ढयोजनम्पि - १५९ अणुसहगतेति - २७२ अण्डन्ति - २०३
- ३७२
अतक्कावचरा - ३३४, ४२२ अतित्थेनाति - १६६ अतिधावितब्बन्ति - ४०० अतिपाततो - २८३ अतिविसुद्धेनाति - १७४ अतिविसं - ३१३
अतिवेलं - ३७०
अति - सद्दो - ८५, २८३ अतिसुखुमसुत्तं - १०४ अतीतसत्थुकन्ति - १५६ अतीतानागतधम्मानं - १७५
अतीतोति - १२, १६३, २७९ अतीतंसपुब्बेनिवासत्राणेहि - ३८५ अतुलितन्ति - २८२
अत्थकुसलोति - १३१
अत्थक्कमोति - १०,३१२
अत्थचतुक्कं - २७९
अत्थचरिया - २६१
अत्थजालं - ४१२,४१३
अत्थञू - १०६ अत्थपञ्ञत्तिया - ८०
अत्थपटिसम्भिदाति - ९३
अत्थबोधकोति - १५४
अत्थवादीति - ३०२ अत्थवेदं - ४, २२ अत्थसिद्धिया - ३००
[ अ - अ ]
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[अ-अ]
सद्दानुक्कमणिका
[३]
अस्थि-सद्दोपि - ३३६
२७१,३००,३२५, ३९४ अथुद्धारोति-१६१
अधि-सद्दो - ३४५ अत्तकिरियासिद्धि-२८५
अधिसीलसिक्खाति-८९ अत्तपरिच्चागतो-२५७
अधिसीलसिक्खानमधिट्ठानभावतो- २९२ अत्तभावन्ति -३८५
अधोविरेचनन्ति-३३१ अत्तमनोति-४६
अनग्घानि-६६ अत्तसम्मापणीधि-१५१
अनञथानि- २७५ अत्तसुञताय - ३९९
अनत्था- २६०,३०१ अत्तहिताय-१०४, २२३
अनतकतानीति-३९९ अत्ताति-१३१, २२९, ३४५, ३४६, ३५४, ३७४, अनधिकं-२७७
३७५, ३८५, ३८६, ३८७, ३८९, ३९२, ३९३, अननुभवनं-१०० ३९६,४३७, ४३८
अननुलोमपटिपदन्ति- १६३ अत्तादानपरिदीपनन्ति-२०५
अनन्तरसमनन्तरअनन्तरूपनिस्सयनस्थिविगतासेवनअत्तुपकरणपरिच्चागचेतना - २२०
पच्चयेहि-४०७, ४३३ अदण्डारहो-२९०
अनन्तवाति-३७५ अदिन्नादानं-२८६, २८७
अनपकट्ठकायचित्तो-४७ अद्धनियं-४१
अनभिभूतो-२७८ अद्धाति-६७
अनयो-१६३ अधम्माति-४२६
अनवज्जसीलवतगुणपरिसुद्धसमाचारा- २४९ अधम्मो-३८,४९,२९४
अनवट्टितचित्तताय-२८७ अधिकरणत्थोति-१५०
अनवसेसपटिवेधो-१७६,३३६ अधिचित्तसिखाति-८९
अनागामिफलं-१६५ अधिच्चसमुप्पन्नवादे-३९७,३९८
अनागारियं-३६९ अधिच्चसमुप्पन्न-३८१
अनाचारी-२९२ अधिट्ठानपारमी-२२०,२५५
अनाथपिण्डिकस्स-७९ अधिवानं-२१७, २१८, २१९, २२१, २२७, २३९, | अनादरियभावं-३८९ २४६, २५५, ४३४,४३६
अनावत्तिधम्मो-२३५ अधिपाधम्मविपस्सना-२७२
अनावरणञाणपटिलाभो-२५७ अधिपतीति-३२५
अनावरणाणं -९,७५,१७४, ४२९ अधिप्पेतविज्ञापनं-३२९
अनावरणन्ति-२६९ अधिमुत्तचित्तानं-२४१
अनासत्तिपच्चुपट्टानं - २२० अधिमुत्तित्राणन्ति-१८५
अनाहतेति-३२६ अधिमुत्तियो-३४५
अनिच्चतादिलक्खणत्तयं - ४२९ अधिमुत्ति-सद्दो-३४५
अनिच्चतापतिट्ठापनं-४१९ अधिमोक्खो-२७३
अनिच्चदुक्खविपरिणामभावो-३५९ अधिवचनन्ति-१४४, १५६, १९२, १९८, २१५, अनिच्चन्ति-२७२
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[४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[अ-अ]
-
अनिच्चसञ्जा-२४४
अनुरुद्धत्येरोपि-६० अनिच्चानुपस्सना-२७२
अनुरूपधम्मप्पकासनवसेन- ४०० अनिन्द्रियविसयो-३९३
अनुरूपफलुप्पादननियतेसु-२८५ अनिब्बिसं-७६
अनुरूपोति-२९६ अनिवत्तिधम्मो-२२५
अनुविचरितन्ति-२७६, ३५१ अनुकम्पकोति- २८९
अनुसन्धि-१२४,१२५,३९८,३९९ अनुजानामि-३०८, ३१४,३२१
अनुसन्धिदस्सनं-३५७ अनुतकालेति--३१४
अनुसन्धीति - १२५,२०१ अनुजातभावो-६३
अनुसयप्पहानञ्च -४३५ अनुत्तरो-४१३
अनुसया-८८,९० अनुत्तरं-१४, १७, ७५, १७४, २२१, २२२, २३६, | अनुसासनीपाटिहारियहि-१२९ २४०
अनुस्सवो-१६६ अनुनयपटिघविप्पहीनो-१९८
अनुस्सुतिको - ३५१ अनुपक्किलिट्ठो-१७९
अनूनं - ९६,२७७ अनुपदधम्मविपस्सनावसेन-२११
अनेकच्छरियपातुभावदस्सनेन - १२१ अनुपपरिक्खतन्ति- ९९
अनेकजातिसंसारन्ति-७६,७७ अनुपवज्ज- २७७
अनेकत्थपथवीकम्पनदस्सनमुखेन - ४१६ अनुपस्सतीति-२७६
अनेरुत्तपदन्ति- ४२५ अनुपस्सनाय-२७२
अन्तताअनन्ततातदुभयविनिमुत्तो-३७५ अनुपादापरिनिब्बानं-४१७,४२४
अन्तपूरोति-३४३ अनुपादायाति-६८
अन्तरतोति-१५८, १९४ अनुपादाविमुत्ति-४३०,४३२
अन्तरधानन्ति-४१५ अनुपादाविमुत्तोति-३५९, ४३३, ४३५
अन्तरधायतीति-३८३ अनुपादियित्वाति - ३५९
अन्तरायिकधम्मे - १७५ अनुपादिसेसनिब्बानधातु-३५
अन्तरायिका-१०४ अनुप्पदाताति-२९९
अन्तरायोति- १९३,१९९,४२२,४२६ अनुप्पादो-२७४
अन्तरिकायाति-१५८ अनुबुद्धेहीति- १७०
अन्तरितत्ताति-२९७ अनुबोधपटिबोधसिद्धि-४१९
अन्तलिक्खचराति-३६४ अनुबोधपटिवेधो-४२४
अन्त-सद्दो-१३०, १४३, १५६, ३४३, ३४४, ३६९, अनुब्यञ्जनसम्पत्तिया-२४२
४११ अनुभवतीति -- ४०२
अन्तानन्तवादाति -३७३ अनुमज्जनं-२७३
अन्तानन्ति-३७५ अनुमानजाणं-३५३
अन्तानन्तिकाति-३७३ अनुयोगोति-३०९
अन्तानन्तोति-३७४ अनुराधपुरस्स-३४
अन्तेति--१६१
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________________
[अ-अ]
सद्दानुक्कमणिका
अन्तोजटाबहिजटासङ्घातं-२०४ अन्तोजालीकता-४१० अन्तोजालं- ४१० अन्तोनिज्झायनलक्खणो-३९४ अन्तोनिज्झायनं -३९४ अन्तोपूतीति-३९९ अन्तोभाजनेति-३१० अन्तोवत्थिम्हीति-३६८ अन्तोहदयं-११३ अन्तं-३७४ अन्धतमसभावतो-४२३ अन्नदानहि-२४२ अन्नमयो-३६४ अपकट्ठकायचित्तो-४७ अपकस्स-४६ अपण्डितो-४०० अपदेसो--३०३ अपनयनसमत्थं-३३१ अपनयनं-३२९, ३३२ अपनेतब्बन्ति-७१ अपयिरुपासना-२४९ अपरज्जूति -३१३ अपरन्तकप्पिकताति-३९३ अपरन्तकप्पिका-३९६ अपराजितपल्लङ्को-२७७ अपराजितो-२७७ अपरामसतोति-३५७ अपरिमितपुञानुभावतो-२१० अपरियन्तविक्खेपन्ति-३७७ अपरिसुद्ध-२९३ अपरिहानीया-५ अपायगमनीयो-५६ अपायभयपच्चवेक्खणा-२३७ अपायादीनवपच्चवेक्खणा-२३७ अपुब्बं - १८१, २९० अपोनोब्भविका-३९१
अप्पगब्भोति-४६ अप्पच्चयोति-१९३,४२१, ४३२ अप्पटिपुग्गलो - २४५ अप्पटिसन्धिकभावाति-४११ अप्पत्तञ्चाति-६७ अप्पनावचनद्वयस्स-३९६ अप्पमत्तकन्ति-२०१ अप्पमाणसञ्जीति-३८८ अप्पमादविहारी-२४६ अप्पमादो-२२८, ३४६ अप्पाटिहीरप्पवेसनेन-१८१ अप्पातन्ति-१२७ अप्पाबाधन्ति-१२७ अप्पायुकेति-३६५ अप्पिच्छताति-- १५९ अप्पितोति-३९४ अप्पेति-३०१ अफरुसा--३०० अबुद्धगुणविसेससाणा-४१८ अब्भाचिक्खतीति-१०५ अब्भुतधम्मसञ्जा-११० अब्भुतधर्म-११७ अब्भेय्यं -३२६ अब्भोक्किरणं-३१६ अब्याकतधम्मे-३७६ अब्यापन्नचित्तो-२२४, २४४ अब्यापादादिचेतसिकधम्मा-४३३ अब्यापादेन-२४५ अब्रह्मचरियं-२९२, २९३ अभयगिरिवासिनो-३७२ अभयदानं-२३९, २४१, २४५ अभिज्ञाता-८४ अभिजाति-३३५ अभिज्ञापटिसम्भिदानम्पि-१०३ अभिजायोति-२८ अभिधम्मटीकायं-६७,४१६
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________________
[६]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[अ-अ]
अभिधम्मट्ठकथाय-९६१३७ अभिधम्मनयेन-३७८ अभिधम्मपिटके-७५,८९ अभिधम्मसद्देपि-८५ अभिधम्मानुटीकायं-२९४ अभिनतभावो-३९५ अभिनन्दतीति-४१३ अभिनन्दन्तीति-४१३,४१४ अभिनिवेसन्ति-२७२ अभिनीहारचित्तुप्पत्ति-२५२ अभिभू-२७८ अभिलापोति-९४ अभिवादनसीलिस्स-४ अभिसङ्घारलक्खणा - २७३ अभि-सद्दो-८३, ८४,८५ अभिसम्परायोति-३५५ अभिसम्बुद्धोति-१७४,२७९ अभिसम्बोधितोति -२०५ अभूतपुब्ब-१७३ अभोजनेय्यन्ति-१३२ अमतनिब्बानन्ति-७६ अमतरसो-६२ अमराविक्खेपवादे -३९८ अमराविक्खेपिका - ३७६ अमरं-३४५ अमायावी-२२४, २६४ अमोघता-२०१ अम्बट्ठो-७४ अम्बरुक्खो-७४ अम्बलट्टिकाति-७४,१७१ अयोनिसोमनसिकारमूलका-४२९ अयोनिसोमनसिकारो-३५०,४३०,४३४ अरहता-१७५,१७७ अरहत्तफलक्खणे-६८,१६५ अरहत्तफलं-७६, ७७, १९१ अरहत्तसमापत्तिया -६८
अरहन्ति-१०४,१७४ अरियजाणदस्सनं-१६२ अरियधम्मस्साति-१५६ अरियमग्गपञआय-९०,१७४ अरियमग्गो-३४९,४३४ अरियसङ्घ-२० अरियसच्चानीति-२७४ अरियसीलेन-४२७ अरिया-१८, २०, २४,१६० अरियानीति-२८ अरीनन्ति-१७४ अरोगो-३८६, ३८९,३९८,४२८,४३७ अरोगोति-३८६ अरूपज्झानेसु-३७५ अरूपधम्मपुजे-३६२ अरूपधम्मो-४०५ अरूपधातुया -३८३ अरूपविरागभावनापीति-३८२ अरूपविरागभावनासङ्घातो-३८२ अरूपसमापत्तियो-३८२ अरूपावचरज्झानानि-२८ अलगद्दत्थिकोति-९८ अलगद्दसुत्ते- ९८, १०१ अलगद्दोति-९७ अलग्गचित्तो-२४५ अलङ्कतदण्डकन्ति-३२२ अलङ्करोतीति-१०२ अलडभनेय्यपतिट्ठा-९३,३३४ अलब्भनेय्यो-९३ अलमरियाणदस्सनो-१६२ अलोभादोसयुगळसिद्धि-२५५ अलोभादोसामोहगुणयोगतो-२३८ अवक्खलितन्ति-२७७ अवग्गाहोति-३२९ अवण्णभूमियन्ति-१९७ अवण्णेयेवाति-१९७
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________________
[आ-आ]
सद्दानुक्कमणिका
अवधारणफलं-१३३ अवधारणविपल्लासो-१०३ अवबोधोति-९५ अवसिट्ठउपादानक्खन्धानं-४२५ अवसिट्ठगन्थनीवरणानं-४२५ अवसिट्ठबलजाणेहि-१८२ अवहसन्तमिवाति-६५ । अविखेपेनाति-२७० अविगततण्हं-३८३ अविच्छेदभावेन -३४७ अविज्जागतोति - ४०० अविज्जातण्हा-४३० अविज्जाति-९५ अविज्जापच्चया– ९५, २७३, ४०९ अविज्जासमुदयोति-३४१ अवितक्कअविचारन्ति– १७८ अवितक्कविचारमत्तं - १७८ अवितथानि-२७५ अविद्वाति-४०० अविनयोति-५० अविपरीतनिब्बानगामिनिपटिपदाय-७८ अविलोमेन्तोति-२७ अविसुद्धता- ३२९ अविसंवादनलक्खणं- २२१ अवीततण्हताय -४०१ अवीतरागो-१९९ अवीतिक्कमो -८९ असङ्खतधातु-३५, ३५७, ३९४ असञीति-३८९ असति-१६,१७५, १८५, २२८,२३४,२३५,२३९,
२४९, २५७, २८४, ३३१, ३९९, ४०२, ४२८,
४३१ असत्ववाची-८४ अ-सद्दो-२९१ असद्धम्मस्सवनं - ४३४ असद्धम्मो-१४४,२९२
असप्पुरिसभूमिन्ति- १४३ असमा-१६५ असमाहितभूमियं - २५२ असम्मोहतोति-९५ असिधारन्ति-१६३ असुद्धिमग्गे -४०७ असेक्खा -२१,५६, ८९ असेक्खो -५२ असंकिलिट्ठचित्तस्स-२४१ असंवरो-८९ अस्सत्थदुमराजा-२१० अस्सत्थो-२१०,२२१ अस्ससिस्सामि-६८ अस्साददस्सनं-४३० अस्सादानुपस्सना-४३४ अस्सादोति-३५८ अहिरिकानोत्तप्पदोसमोहविहिंसादयो-२८६ अहेतुकवादो-३९७
आ
आकारपरिवितक्को-१६६ आकासानञ्चायतन-सद्दो-३९३ आकासानञ्चायतनभवन्ति-३९३ आकासोति-६२,२७३ आगदनन्ति-२७७ आगमवरो-२४ आगमो-२४,१७९, ३५३ आघातविनयनरसा-२२१ आचयगामिनोति-३१३ आचरियआनन्दत्थेरेन-४०४ आचरियधम्मपालत्थेरो-२६,७५,१५९,१८० आचरियसारिपुत्तत्थेरो-१८० आचरियुपज्झायपलिबोधो-६० आचारगोचरसम्पन्नो-२४७ आचारसीलमत्तकन्ति -२९०
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________________
[८]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[आ-आ]
आचारोति-२९२ आचिण्णवसितायाति-२०७ आजीवपारिसुद्धियं - २४६ आणण्यं-४७,४८ आणत्तिकोति-२८५ आणाचक्कं -६५ आणाधम्मसभावे-८२ आणाबाहुल्लतोति - ८८ आणारहो-८७ आतापी-२०४ आदानन्ति-२७२,२९० आदिकल्याणन्ति-४१३ आदिच्चपारिचरियाति-३३० आदिच्चबन्धूति-२१२ आदिट्ठञानन्तिआदिसितब्बस्स- ३२७ आदितो-२३, २५,१२५, २४४, २७७, २८७,३६५,
३६६ आदिदेसनाय-४२८,४२९ आधारोति-१५० आधावन्तीति- १६८ आधिपतेय्यलक्खणं-२७४ आनन्दत्थेरेन-७७,७८,११३,११८,१८८,२६९। आनन्दत्थेरो-५३,६३,७९ । आनन्दो-५५, ६२, ६४, ७८, ७९, ११३, ११७,
१३९,१४४,१४५, १९९,४३२ . आनिसंसाति-२६५ आनुभावसम्पत्तिया-२४६ आनुभावो-५१ आभस्सरकाया-३६६ आभुजित्वाति-२१० आभोगो-३९५ आमन्तयामीति-७८ आमन्तेसीति-७० आमिसदानं-२३९, २४१ आमिसपटिग्गहणधम्मदानादिना -२५३ आमिसं-३१५
आयतनन्ति-३८१ आयतनलक्खणेन-४२५ आयस्मन्तोति-३१२ आयुवण्णसुखबलवड्डनतो-४ आयूहन्ति-३४१ आरक्खदुक्खमूलं - ४०६ आरद्धविपस्सको-४१० आरद्धवीरियो-१३१, २२४, २२५, २४७ आरम्मणचिन्तनतो-४२१ आरम्मणन्ति-२८८ आरम्मणवीथिजवनपटिपादका-३४६ आराचारी-२४४ आरामो- १४७, २९९ आरोपितवादो-१०० आलयरता-२७२ आलयो-२७२ आलोकसआयाति-२७० आलोपो-३११ आवज्जनपटिबद्धं-१७९ आवज्जनपरिकम्मचित्तानि - २०७ आवज्जनपरिकम्माधिट्ठानानं-२०६ आवज्जेसीति-६७ आवट्टग्गाहोति-३९९ आवरणभूतं -३४८ आवाहनं-३२९ आविभावत्थन्ति-२९९ आवुताति-२१४ आवेळा-१६९ आ-सद्दो-२७७ आसनन्ति-२१० आसनारहं -६६ आसभिन्ति -२६८ आसभं-२६८ आसयन्ति-८८ आसयसुद्धिया-१४१, २३७ आसयानुसयजाणेन-१७४
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________________
[इ-उ]
सद्दानुक्कमणिका
इस्सावसेनाति-१७२
आसवक्खयाणं-१७८,३५६ आसवेहि-६८ आसेवनं -३०१ आहतेति-३२६ आहरणकथा-३०१ आहारनिरोधाति-४१० आहारन्ति-३७०
ईसिकाति-३४७ ईसो-३६९
इक्खा-५२ इज्झन्तीति-१०३ इणन्ति-३३० इतिपीति-२०० इतिवुत्तकं- ११६ इतिवृत्तन्ति-११६ इतीति-७९,१४१,१७०,२१३,२७८,३३०,३३१,
३४०,३७८,३९२ इत्यत्तं --३६६,३६९ इत्थभावन्ति-३६८ इत्थिफस्सो - १०३ इत्थीति-३०८ इदप्पच्चयाति-४०९ इद्धिआदेसनानुसासनियो-१२९ इद्धिमयोति - २८६ इद्धिविधाणं-२५० इधत्थोति-४१२ इन्दखीलो-२९७,३४७ इन्दजालन्ति-३१७ इन्दजालेनाति-३१६ इन्दधनु-१६९ इन्द्रियखन्धा-४३३ इन्द्रियगोचरोति -३९० इमस्सुप्पादा-३५८ इस्सरपकतिपजापतिपुरिसकालवादा-३९८ इस्सरवादा-३६०
उक्कण्ठिता-३६६ उक्कण्ठितं-१५६ उक्का-१६९, ३२८ उक्कोटनं-३१० उक्कोटेय्याति-५७ उक्लापो-६४ उग्गहो-२१२ उग्घटितञ्जू - २६२ उच्चासयनमहासयनाति-३०७ उच्छादेन्ति-३२१ उच्छिज्जितब्बतावादो-१६२ उच्छेददिट्ठियाति -३९६ उच्छेदवादो-३९०, ३९२ उच्छेदोति-३८९,३९० उजुगतचित्तो-२१ उजुविपच्चनीकवादाति-१६६ उद्यानन्ति-३३० उट्ठासि-२९९ उण्णामयत्थरणन्ति-३१९ उण्हसमयो - १४६ उतुसमुट्ठाना-३६४ उत्तमवीरियानुयोगं- २०८ उत्तरच्छदो-३२० उत्तराभिमुखन्ति -६६ उत्तरिमनुस्सधम्मोति -४४ उत्तानो-८१ उदककद्दमेति-३१५
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________________
[१०]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[उ-उ]
उदकपरियन्तन्ति -७२,१२१ उदकफुसितानीति-१८० उदपादीति-१७७ उदयनन्ति-३२८ उदयब्बयसभावानं-३६१ उदानगाथन्ति-७७ उदानन्ति-७७,११३,११४,११५ उदानवचनं-११५ उदासीनचित्तो-२२४ उदासीनपुग्गलो-२२९ उद्दलोमीति-३१९ उद्दानतोति-३४४ उद्देसो-३१४ उद्धच्चावहायाति-१९८ उद्धमाघातनन्ति-३८५ उद्धमाघातनिकसञ्जीवादे-३९१ उद्धमाघातनिका-३८५ उद्धारो-३३० उद्धमातो-३७२ उद्धंविरेचनन्ति-३३१ उपकट्ठायाति-६४ उपकरणअङ्गजीविततण्हं-२५४ उपकारवचनो-५३ उपक्कमो-२८४, २९० उपक्किलेसा-३२९ उपगतो-१७२, १८४,४०० उपचारकम्मकरणं-३३१ उपचारप्पनाभेदेन – ९० उपट्ठानसाला - १७३, १८१ उपट्ठासि-२७६ उपड्वसङ्घोति-६० उपत्थम्भनरसं-२२१ उपनिधापञत्तिभावतो- २०४ उपनिधाय -१३७, २०४,२०५, ४२२ उपपत्तिवसेनाति-३६७ उपपत्तिविज्ञाणं-३८३
उपपरिक्खन्तीति - ९९ उपयोगवचनन्ति-१५९ उपयोगो-१५० उपरिमकायतो-२०६ उपरिमन्ति-२०५ उपवत्तनन्ति-३४ उप-सद्दो-३९० उपसमाधिट्ठानसमुदागतस्स-२५७,२५८ उपसमाधिवानं-२५५,२५६,२५७ उपसमो-२५६,२५७ उपादानक्खन्धेसु - ४२० उपादानन्ति-३७८, ४२८ उपादापञत्ति-१३७, ३४५ उपादि-३५ उपादिन्नकफस्सो-१०३ उपायकोसल्लं-- २२६, २५१ उपायासो- ३९४,४०६,४३२ उपायेहीति-३१० उपायोति-२५९ उपारम्भो- ९९ उपालि-७१ उपालित्थेरं-७३ उपेक्खकोति-२१९ उपेक्खाति-२३९ उपेक्खानिमित्तं -२१९ उपेक्खापारमियोति - २५४ उपेक्खापारमी-२२०, २३७,२५५ उपेक्खावेदनाय-३५९ उप्पतितन्ति-३२५ उप्पन्नचित्तानं-११२ उप्पन्नपीतिसोमनस्सेन-११४ उप्पलं- १६९,३७२ उप्पादट्ठिति-३४१ उप्पादलक्खणं-३५८ उप्पादसञ्जा-३८४ उप्पादोति --३२५
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________________
[ए-क]
सद्दानुक्कमणिका
[११]
उब्बिलभावकरणन्ति-३९५ उब्बिलयतीति-१९८ उब्बिलापना-१९८ उब्बिलावितं- १९८,३९५ उभतोविभङ्गो-४० उभयसुद्धिया-२३७ उम्मीलितपञाचक्खुका -२३२ उम्मुज्जननिमुज्जनट्ठानभूतेसु-४११ उम्मुज्जित्वाति-१६४ उरुवेलकस्सपो-३६ उरुवेलगामे -२०८ उरुवेलायं-२०८ उस्सन्नधातुकन्ति-६२ उस्सादोति-३९९ उस्साहलक्खणं- २२१ उळारपुञकम्म-३६५
एकसालकोति-१४७ एकानुसन्धिकन्ति-११८ एकायाति-१६६ एकीभावो-२६१ एकेति-७०,३१२,३१६, ३४३, ३९२ एकंसन्ति-६८, ६९ एत्तावं -९६ एवंअभिसम्परायन्ति --४०१ एवंगतिकाति-३४९, ३५५ एवंजातिकेति-१५३ एवंभूतस्साति-२७८ एसिकट्ठायी-३४७
ओ
ओजा-२०९ ओत्तप्पधम्म-२४४ ओपपातिकाति-३९८ ओरतो-२०२, २८७ ओरतोति-२८७ ओरन्ति-२०२ ओरमत्तकन्ति-२०२ ओरसा-१८ ओलुज्जतीति-५४ ओळारिकन्ति-३९५ ओळारिकेति-२७२
एकग्गचित्तो-२२५ एकचरिया - २६६ एकच्चसस्सतवादाति-३६० एकच्चसस्सतिकाति-३६०,३६१ एकज्झन्ति-३९६ एकतुलायाति-२७७ एकत्तसञ्जीति-३८७ एकनाळिका-१२४ एकनाळियाति-२७७ एकन्तफरुसचेतनाति-२९९ एकन्तभेदनविकिरणविद्धंसनधम्मेसु-२२९ एकन्तलोमीति-३१९ एकन्तसुखीति-३८८ एकपुग्गलोति-१६५ एकभत्तिकोति-३०५ एकमुद्दिकायाति - २७७ एकरसो-२७४
ककचदन्त-१६३ ककचूपमसुत्ते-८६ ककचूपमाति-४०० कक्खळत्तं-२७३ कङ्क्षावितरणविसुद्धि-२५० कङ्गु-३०८ कच्छकोति-३१३
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[१२]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[क-का
कच्छपलक्खणन्ति-३२७ कच्छूति-३१४ कट्टिस्सं-३१९, ३२० कणादवादो-३९८ कण्डम्बरुक्खमूलेति-२०५ कण्डूति-३१४ कण्णजप्पनन्ति-३३० कण्णबन्धनत्थन्ति-३३१ कण्णसूलन्ति-३०१ कण्णिका-१७०,१७३,३२२ कतकम्मेहीति-१६१ कत ता-१४ कतञ्जू - २२४ कतपाटिहारियेहि-२०५ कतपुओ-६८, १४१ कतबुद्धकिच्चेति-३४ कत्तरदण्डो-१७०, २८८ कत-सद्दो-३७८ कत्ताति-२९९ कत्तुकामो-५, ६,२८,७३, ३६० कत्तुवोहारसिद्धितो-२८५ कथनन्ति-९५,३३३ कथाति-८६,८७,१५९,१६८,३०१,३१४ कथादोसोति-६८ कथाधम्मोति- १७३ कथावत्थुप्पकरणन्ति- २०० कथेतुकम्यतापुच्छातिपि-२८२ कदलीमिगोति-३२० कन्ताति-३०१ कन्दरो-२१२ कपित्थनोति-३१३ कपिथनो-३१३ कपीति-३१३ कप्पकतेनाति-३४४ कप्पेत्वाति-३४४ कप्पोति-३४४
कप्पं-३६६ कब्यं-३२९ कमलं-१६४,१६९ कम्बोजोति-४०३ कम्मकिरियदस्सना - २६४ कम्मक्खयाणेन-२८६ कम्मजतेजो-३७२ कम्मट्ठानन्ति -३५७ कम्मदायादा-४२६ कम्मद्वयं-७१ कम्मपच्चयउतुसमुट्ठानातिपि-३६४ कम्मपच्चया-३६४ कम्मपटिसरणा-४२६ कम्मबन्धू-४२६ कम्मभवो-४०७,४०८ कम्मयोनी-४२६ कम्मवाचा-५९ कम्मविपाको-१०६ कम्मसमुट्ठानानम्पि-४१० कम्मस्सकताञाणे-३६८ कम्मस्सकाति-१६४ कयो-३०९ करजकायोति-३७१ करजोति-३७१ करणसीलाति-१०४ . . करणं - २३, ६२, १०७, १३५, १४८, १५०, १५३,
१८६, १९८, २९५, ३११, ३२४, ३३०, ३३१,
३६४ करुणा-६,७,८,१४,१५, २१८,२२७,२३६ करुणाकिच्चपरहितपटिपत्तिधम्मिकथासमयो-१४९ करुणाखेत्ते -२५८ करुणाधिट्ठानतोपि-२३६ करुणाभावना-२२७ करुणाविहारोति-१५३ करुणासीतलहदयन्ति-१३ कलापोसमूहोति -६४
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________________
[क-क]
सद्दानुक्कमणिका
[१३]
कल्याणधम्मोति-२३१ कल्याणमित्तलक्खणं-२२५ कल्याणमित्तोति-२२८ कसिगोरक्खादिकम्म-३६९ कसिणनिमित्तं-३७४ । कस्सपसंयुत्ते - ४१, ४४, ५३ कस्सपोति-३६ क-सद्दो- ३७५ कहापणो-३०७ काकच्छमानाति-१७२ काजदण्डकेति-१७० काम-तण्हादीहि-४०६ कामगुणपरिभोगरसं-१०४ कामगुणाति -३९४ कामच्छन्दादिनीवरणप्पहानेन - २७० कामन्धा-४२७ कामरागादयो- ८८, ९० कामसुखल्लिकानुयोगो - ३४३ कामावचरकिरियसाति-२७१ कामावचरकुसलसञ्जा-२७१ कामावचरदेवा-३७२ कामावचरपटिसन्धिविपाका - ९२ कामावचरोति-३९२ कामुपादाने-३५९ कामोघादयो-२१३ कायचित्तं - १९८ कायतिकिच्छतन्ति-३३२ कायन्ति-१५६ कायपटिपीळनं-३९४ कायपयोगो-२९५ कायबलं-४२,१२७ कायवचीचित्तानं-२८० कायवचीपयोगो - २९५, २९९ कायवचीवित्तियो-२९५ कायसक्खिं - ४७ कायानुपस्सीति-३८६
कायिकदुक्खं-३७७ कायिकवाचसिककीळासुखं-३७० कायिकाति-२८७ कायूपगानि- १८० कारणभूतवेदनावसेन - ४०८ कारेता-२५०, ३६४ कारुणिकोति-५२ कालत्थो-१५० कालभेदन्ति-३५० काल-भेदेन-४०६ कालवादीति-३०२ कालसम्पदा-१५७ कालामसुत्ते-८६ कावेय्यन्ति-३२९ काळपक्खस्साति-६८ किच्चसिद्धि-३१८ किरियधम्म-२१८ किरियवादीनं-२४९ किलन्तकाया-३७२, ३७३ किन्तचित्ता-३७२, ३७३ किलेसक्खयो-२७४ किलेसवूपसमो-२७४ किलेसानन्ति-८९, ९०, ३५७ किलेसारीनं-१७४, १७५ कुकतं-१७२ कुक्कुच्चं - १७२, २४७ कुच्छितकिरिया-१७२ कुटिलयोगोति - ३१० कुटुम्बिको-३१५ कुट्टस्स-१७४ कुट्टिमो-६६ कुण्डकोति-३२६ कुण्डिका- १७० कुत्तकन्ति-३२० कुदालपिटकमादायाति-८६ कुदालं-८६
13
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________________
[१४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[ख - ग]
कुद्रूसको-३०८ कुमारभतो-३३२ कुम्भो-३१६ कुरुमानाति-६४ कुलपुत्तोति-३२६ कुलवंसप्पतिठ्ठापकन्ति-४८ कुलूपघातं-५४ कुसलकम्मपथा-४४ कुसलकिरियासु-२५३ कुसलचित्तविभजनत्थं - ११९ कुसलचित्तुप्पत्ति-२४८ कुसल-धम्मभावे-२५५ कुसलधम्मानं -३१,२५६,४१९ कुसलन्ति-३७७,३७८ कुसलमूलानि - १०५, ४३७ कुसलविपाककिरियाधम्मवसेन-८१ कुसावहारो-२९१ कुसिनारन्ति-३४ कुसोभो - २१२ कुहनाति-७३ कूटागारसाला-१७३ केदारोति-३०८ केवट्टो-४११ केवलपरिपुण्णं-७८ केसरं-१७० केलिनो-३७० कोजवो-३१९ कोण्डोति-११५ कोधनिमित्तं-२३५ कोपाति-१५८ कोमारभच्चं-३३२ कोलम्बो-२१२
खणेति-१४६ खण्डन्ति-६४ खन्तिपारमी-२२० खन्तिसम्पत्तिया-२३३,२३४ खन्धकन्ति-७२ खन्धकुसलो-२१२ खन्धपरिनिब्बानं-१५६ खमनलक्खणा-२२१ खयधम्मता-२६० खयोति-२७४ खरोदकन्ति-१६४ खादितेति-३२१ खारजनन्ति-३३१ खिड्डा-३७० खिड्डापदोसिकाति-३६९, ३७२ खिपतीति-३३० खीणासवभावतो-६७ खीणासवभूमि-२७६ । खीणासवाति-५१ खीणासवोति-१०१ खुद्दकगमनन्ति-३०९ खुद्दकनिकायोति-११२ खुद्दकपाठट्टकथाय-३०६ खेत्तं -३०८, ३०९ खेपोति-३७६
गङ्गाय-३९९ गण्हिं-५२ गतियो-१२, २१३, २२५, ३५५ गतिविमुत्तो-१२ गतोति -६०, ६७, ६९, ११२, १४७, १८४, २०३,
२७०,२७९ गतं-११,१७,७४,७६, १४१, २७८,३१३, ३२७ गत्तानीति-१८२
खणट्ठितिया-३६५
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________________
[घ-च]
सद्दानुक्कमणिका
___ [१५]
गोत्तञातको - २१२ गोत्तबन्धु-२१२ गोत्तसम्बन्धताय-२१२ गोत्रभूति -३९४ गोधूमो-३०८ गोपकमोग्गल्लानसुत्ते-५२, ११८
गथिताति-२१३ गन्थगरुकभावं-२८ गन्थधरो-४१० गन्थिता - १६४,२१३ गन्धकुटी-१८२ गन्धजाता-२०४ गन्धमालादिहत्था -६१ गन्धोति - २०४,३२१ गमनवीथिपच्चवेक्खणा - २३७ गम्भीरधम्मविभावनं-४१८ गम्भीरभावो-८७,९०,९३ गम्भीराति-९२,३३८,४३० गम्भीरो-८१,९३, ३३८, ४२७ गरहणं-१२६ गरु-१०,१५४,२२५, २३०,२६४ गरुकम्म-१८५ गरुकुलन्ति-३६ गरूति-१०,१५४ गहितधम्मानं-४२९ गहितमन्तस्साति-३३१ गाथाभिगीतन्ति-१३२ गामधम्मातिपि-२९२ गामवासीनन्ति - २९२ गामोति - १७१,३०३,३०४ गारवयुत्तोति-१५४ गिद्धाति-२१३ गिरि-१६८ गीतन्ति-३०६,३२९ गीवायामकन्ति-३१५ गुणधम्मेहीति- ३३५ गुणूपसहितन्ति - १६५ गुळकीळाति -३१८ गूळ्हो-८१ गोचरभावं-३८२ गोचरो-५७, १४७ गोतमोति - २८७
घटिकाति-३१८ घटेति-२१२, ३४१ घनताळं -३१६ घनपथवियं-१६८ घनपुष्फकोति-३१९ घनसञ्जा-२७२ घनीभूता-१६८ घरगोलिकायाति-३२५ घरावासकिच्चानि-५८ घरुघरुपस्सासिनोति-१७२ घातेतीति-२९० घानजिव्हाकायिन्द्रियानं-३९२
चक्कवत्तिनो-४०८ चक्कवाळमहासमुद्दो- २१२ चक्खुदानं - २४२ चक्खुपसादरूपारम्मणचक्खुविवाणादीनं-४०४ चक्खुसम्फस्सजा- २७३, ४०५ चक्खुसोतिन्द्रियानं -३९२ चङ्कमेनाति-६८ चण्डालं -३१६ चतुत्थज्झानमग्गेहि -१२९ चतुत्थज्झानं-१२९,३८१ चतुत्थदेसना-४२२ चतुत्थपुग्गलभावं-१४
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________________
[१६]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
- ५८
चितकायाति चित्तचेतसिककलापस्स - २८५ चित्तचेतसिकानं - २७३ चित्तन्ति १-४६, १०७, ३६१, ४०४ चित्तपटिबद्धत्ता - १९८ चित्तविकारे - २३६
चतुत्थो - २२३, २६०, ३६१, ४३८ चतुत्तिंससुत्तसङ्गहो - ३१, ३२ चतुन्नमरियसच्चानं – ४१९ चतुपटिसम्भिदाञाणं - १४ चतुपुरिसो - ३१७ चतुयोनिपरिच्छेदकत्राणं - ३३६ चतुरङ्गयोगो - २५९ चतुरङ्गवीरियं - २११ चतुरधिट्ठानपरिपूरणन्ति - २५७ चतुरधिट्ठानं - २५७, २५८ चतुरस्सा - १२४ चतुरासीतिधम्मक्खन्धसहस्सेसु - ११८ चतुवेसारज्जञाणं - १४ चतुसङ्क्षेपं – ३४२ चतुसच्चकम्मट्ठानं - ३५७, ३६० चतुसच्चत्राणं - १४ चतुसच्चपटिवेधभावतो - ४२३ चत्तालीससंवट्टविवट्टकप्पा - ३५० चन्दिमाति - २८५
चित्तविसुद्धीति - २५० चित्तवूपसमनतो – २५६ चित्तसहतायाति - ३०० चित्ताभिसङ्घारे – २५९ चित्तुत्रासो - ३६६ चित्तुप्पादोति - २८२ चित्तुप्पादं -- ९५, ४०३, ४०४ चिन्तामयपञ्ञ - ३५३ चिन्तामया - २५०
H
चिन्तेति - ८० चिरट्ठायिकम्मं - ५७
चन्दूपमाति - ४६
चिरट्टितिकं - ४१, ३३० चीनदेसे - १६९ चीनपिट्ठ - १६९ चीवरन्ति - ६९ चुन्तीति – ३२२
चरणधम्मा- २३७
चलितेति – ३२१
च -सद्दो- १६, २७, ३२, ४७, ९०, १००, १३८, १८५, चुतिचित्तं - ३९१
२७६, २७, ३३७ चागवीरियसतिसमाधिपञासम्पन्न - २२५
चुतिन्ति - ३९० चुतूपपातदिब्बचक्खुञणेहि - १७७ चुद्दसहत्थोति - २११
चागसुतयुगळसिद्धि - २५५
चूळकम्मविभङ्ग - ६३ चूळनिद्देसोति - १११ चेतकत्थेरेनाति - ६४
चागाधिट्ठानपरिपूरणं - २५८ चाटि - २१२ चातुमहाराजिकाति - ३७२ चातुयामसंवरो - ३९८ चामरवालबीजनी - - ३२२ चामरी - २६९
चामरो - ३२२ चारित्तसीले - २४६ चिक्खल्लिका- १०७ चिण्णवसितायाति - ३६८
चेतकोति - ६४ चेतनाति - २९५, २९८ चेतनाफरुसताय - ३०० चेतनालक्खणन्ति - २७३ चेतनासम्पयुत्तधम्मानं - ३०६ चेतसाति - ४०० चेतसिकदुक्खं – ४३१
16
[च-च]
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________________
[छ-झ]
सद्दानुक्कमणिका
[१७]
चेतसिकसुखं - १९८ चेतोपरियाणं-२५० चेतोविमुत्ति-४३६ चेतोसमाधि-३४६ चोदिता-१६१ चोरकम्म-२९०
छकामावचरदेवपरियापन्नोति-३९२ छड्डितपतितउक्लापाति-६४ छन्दमूलका– २७४,४२८ छन्दरागप्पहानन्ति-३५९ छन्दागमनं -५६ छन्दो-३७७,३७८ छब्बण्णरस्मियोति-१८० छब्बिधधम्मसन्दस्सनलक्खणो-४२० छम्भितत्तन्ति-३६७ छविदोसोति-३१४ छविरागकरणन्ति-३०६ छळभिञाचतुपटिसम्भिदानं-१०३ छायूदकसम्पन्नन्ति - १७१ छिन्दन्तोति-३१० छज्जगामिनीति-३३९
जातरूपं-३०७ जातिक्खेत्तं -४११ जातिधम्मानं-३३३ जातिपच्चया-२७५,३६७ जातिस्सरो-३५१ जातीति - ४०७ जानता-१७४, १७५, १७७, १८८, २७५ जाननपस्सनं-४०१ जानातीति-५४, ६३, १४७, २७६, २९६, ४००,
४१० जालं-७३, २४३ जिनचक्के-१०४ जिनोति-२६१ जियावेगुक्खित्तोति -३८३ जिव्हाग्गे-५२ जीवकम्बवनेति-७४ जीवन्तीति-३७२ जीवसञ्जिनो-३०४ जीविकत्थायाति-३२९,३३० जीवितमदो-१५७ जीवितिन्द्रियन्ति - २८३ जुतिन्धरो-२८० जूतखलिकेति-३१७ जूतप्पमादट्ठानभावो-३१८ जेट्ठनक्खत्तं-५९ जेट्ठमूलसुक्कपक्खपञ्चमी-६० जेतवनविहारं-६३ जोतिवनेति-४१६
जनकटेन - ३५४ जनाति - १७२, ३४२ जनोति - २१३, २१४ जम्बुदीपवासीनमेव-२७ जसदपानन्ति-४७ जागरियानुयोगो - २३७, २४१ जाणुसोणिसुत्ते-२९३ जातकबुद्धवंसादीसु-२६४ जातरूपरजतं - ८४
झान-सद्देन-३६३ झानानुभावतो-३६४ झानानुभावसम्पन्नो - ३४६ झानानुयोगो-२५३ झे-सद्दो - ९९
17
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________________
[१८]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[ञ-त]
तण्हाति-४२० तण्हादिविपरिफन्दितं-४०२
तण्हापरितस्सितेन – ४०२ आणदस्सनविसुद्धीति- २५०
तण्हामूलका-४२९ आणबलं-४१२
तण्हासिद्धि-४१९ आणसच्चं-२१९
ततियपाराजिकादीसु-१५२ जाणसम्पदाय-४३५
ततियविज्जासिद्धि-१०२ आणं-१६, २७,६७,७६, ८८,८९,९३, ९४, ९५, | ततुत्तरि - २७४
११७, १७५, १७६, १७९, २११, २२०, ३२७, | तथाणतो-२८१ ३३४, ३३६, ३३७, ३३८, ३३९, ३४१. ३५०, तथधम्मा-२७४ ३७६,३९७,४२८,४३०,४३१,४३२
तथलक्खणं-२१४,२७४ आतपरिञायं-२७०
तथागत-सद्दोति-२७९ आयपटिपत्तियं-२३०
तथागतप्पवेदितं-३,१३०,१४३ जेय्यधर्म -४१७
तथागतो-१४४, १५४, १८४, २६७, २७६, २७७,
२७८, २७९, २८०, २८१, ३४२, ३५६, ३७९,
३९८, ३९९,४२८,४३४,४३७
तथागतोति-२१४, २१५, २७६, २७८, २७९, २८०, टीकायं-२८७, ३४९, ३६७,३६८,३९५,४०९
३६० तथाजातिकन्ति-३४६ तथानि - २७५,२८१
तदङ्गप्पहानन्ति-९० ठानन्ति-३०६,३०७, ३१७, ३२४
तदादायको-२९० ठानाठानकुसलताय-२२३
तद्धितपदं -३६० ठानानीति-३३८
तन्ति-८, २६, ३९, ६२, ७५, ७९, ८०, ९१, ९२, ठायी-३४७, ३६४
९४, १००, १३४, १३७, १६४, १६९, १७१, ठिताति- २५२, ३४४
१९४, १९९, २५५, ३०९, ३२४, ३२९, ३३३, ठिति-२८, ४१, ३४१
३७६,४१०,४१२ तन्तिदेसना - ९२ तन्तिनयानुच्छविका-२६
तन्तिं-७९, १०२ तक्कपरियाहतं-१६२, ३५१
तपनीयधम्मानुयोगतोति-२३४ तक्की-३५१, ३५४
तम्बपण्णिदीपवासीनम्पि-२७ तक्कीवादी-३७३,३७५
तरुणसूरियपभासम्फस्सेन -६९ तज्जितोति-१९९, २००
तरुणोति-१६१ तण्हागतानन्ति-४०१,४२०
तादिलक्खणन्ति-१९७,१९८ तण्हाजटाय-१७०
तादिसइद्धियोगेन-२९१
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________________
[ध-द]
तादीति - १९७, १९८ तारा -- १६९
तासतस्सना - ३६६
तिकचतुक्कज्झानभूमियन्ति - ३८८
तिकोटिपरिसुद्धं - ३०८
तिक्खिन्द्रियो – २२५ तितिक्खासिद्धितो - २१९ तित्थायतनं - ३८१
तित्थियवादनिम्मद्दनुपायत्ता - ४१३
तिदण्डो - १७०
तिपिटकं - ५१
तिम्बरूसकरुक्खपन्तिया - १४७
तियद्धं - ३४२
तिरच्छानभूताति - १८६, ३२२
तिरो - १७४
तिरोकरणभूता - १८६, ३२२४
तिरोकुट्ट - २९३
तिवग्गसङ्गहानि - १०६ तिवग्गोति
-- १०७
तिवट्टं - ३४२ तिविधपञ्ञापरिग्गहो - ४१९
तिसन्धि - २१०, ३४२ तिसन्धिपल्लङ्को - तीरणपरिञयाति - २७९
- २१०
चित्-६८
तुही भावोति - १४९ तुलायाति - १७८ तुलोति - २७८ तुवट्टकसुतं - ११२ भूमकधम्मानं - २७२ तेलं - ३६, ३२६
विज्जा - ५१ विज्जादिभेदा - ५१ तंसमङ्गिनो -- १४७, १९८ तंसमङ्गीपुग्गलो – १९८
सद्दानुक्कमणिका
थ
थम्भपन्तिं - १७३ थामोति - ३३९
थावरकम्मन्ति - ५७
थावरन्ति - ३३०
थावरोति - २८५
थावरं - ३४९
थेत - २४५, २९७
थेय्यचित्तेन - ८४ थेय्यचेतना - ८४, २९० थेय्यावहारो - २९१
19
थेय्यं - २९०, ३११
थेरानं - ६०, ६९, ७२, १७० थेरिकाति - १२२
थेरोति - ७१
द
दक्खिणुत्तरेनाति – २०९ दक्खित्त - २०९ दब्बसारमण्डो - ६६ दन्तकट्ठे - २८८
दन्तखचितन्ति - ६६
दयापन्नचित्तेन - २४४ दया - सद्दो- २८९
दसञाणबलधरस्स - १४४
दसपदं - ३१७
दसबलत्राणन्ति - १७८, ३३६ दसबलधरो - १५६
दससहस्सिलोकधातुपकम्पनं - १६७ दसवट्टविवट्टकप्पा - ३५०
दसोति - ३६७
दस्सनपहातब्बा - २७२
दहग्गहणन्ति - ३७८
[१९]
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________________
[२०]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
दळहीकम्म-२९९ दानउपपारमी-२५४ दानपरमत्थपारमी - २५४ दानपारमी-२२०, २२८, २५४ दानसीलखन्तिवीरियझानपञासभावेन -२५५ दिट्ठधम्मनिब्बानवादाति-३९६ दिट्ठधम्मनिब्बानं-३९४,४२८ दिट्ठधम्मसुखविहारसमयो-१४९ दिट्ठधम्मिको-८१ दिदृधम्मो-३९३ दिट्ठिगतन्ति-३५४ दिह्रिगतिकाधिट्टानन्ति-४०९ दिट्ठिजालन्ति-४१२ दिट्टिटानाति-३५४ दिट्टितण्हासल्लानुविद्धताय-४०१ दिट्ठिमानतण्हावसेन-८९ दिट्ठिविनिवेठनाति-८९ दिविविष्फन्दितमेव - ४०२ दिट्ठिविसुद्धि- २५०, २७४ दिट्ठिवेदयिते-४०२ दिट्ठिसम्पन्नो-१६० दिट्ठिसीलसामञ्चसङ्घातो-१६० दिट्ठिसीलादीनं-१६० दिट्ठिसंकिलेसप्पहानं-४३५ दिद्वेकडेति- २७२ दिप्पतीति-४९ दिब्बचक्खुञाणलाभी - ३९० दिब्बचक्खुन्ति-२११ दिब्बब्रह्मअरियविहारे - १५५ दिब्बसोतधातुजाणं - २५० दियडू - १०८ दिवाविहारं-१७१ दिसाकालुसियन्ति-३२८ दिसादाहो-३२८ दीघनिकायट्ठकथायन्ति-३२० दीघनिकायोति-१०७
दीघमग्गन्ति-१५९ दीघसुत्तङ्कितस्सातिआदीसु-११० दीपको --५१ दीपो-२५ दुक्खक्खयाय-१६० दुक्खन्ति-९८ दुक्खसहगतकायविज्ञाणस्स-३९४ दुक्खोगाहो-९३ दुग्गहिताति-९७,१०० दुच्चरितसंकिलेसप्पहानं-४१८ दुच्चरितं - ९० दुतियज्झानभूमिया - ३६५ दुतियसंवच्छरे -२०५ दुद्दसाति-३३३,३३४ दुप्प हि - ९६ दुमराजा-२१० दुरक्खातोति - १६३ दुरनुबोधाति-३३४ दुविधोति-३११ दुस्सील्यचेतना-२८६ दूतेय्यं -३०९, ३२४ दूरचारीति-२९२ देन्तीति -३२१ देय्यधम्म-२३९,२४० देवट्ठानन्ति-३३१ देवस्साति-३२९ देवोति-४९ देसना-१८,२९,४०,७७, ८६, ८७,९१, ९२, ९४,
१२९, १३१, १६१, १८४, १८७, १८९, १९१, २०२, २८७, २८८, ३३३, ३३९, ३५२, ३५४, ३५९, ३८१, ३९१, ३९२, ३९८, ४००, ४०१,
४०२, ४०५, ४१०, ४२६ देसनाजालविमुत्तो-४१० देसनाधिट्टानं - ४१८ देसनासीसन्ति-३८१ देहधारणा-६२
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________________
[ध-ध]
सद्दानुक्कमणिका
[२१]
दोमनस्सचित्तुप्पादोव-३६६ दोमनस्ससमुट्ठितत्ता - २९८ दोसनीहरणन्ति-३३१ दोसानन्ति-३३१ दोसेति-३२१ दोहनकिरियाय-१५१ द्रवभावो-२७३ द्वादसपापधम्मविग्घातेन-३७० द्वादसायतनानि - ४१, २५० द्वेळहकजातो-२८२
धतरट्ठो--१७० धम्मकथिको - १०३ धम्मकथं-६३,२२४,२२५,२४३ धम्मकामो-२२४ धम्मकायन्ति-१५६ धम्मकोसो-१३९ धम्मक्खन्धाति-५२ धम्मचक्कन्ति-६५ धम्मचिन्तन्ति-१०५ धम्मजालन्ति -४१२ धम्मट्ठितित्राणन्ति-३४१ धम्मतण्हाति-४०६ धम्मतेजेन-४१५ धम्मदेसना-१८,१२९,१६२ धम्मधातूति-२७८ धम्मनियामो-३७३ धम्मनिरुत्तिं- ९४ धम्मन्ति-९९,१६२,१९४,४१६ धम्मभण्डागारिकस्स-११५ धम्मभण्डागारिको-१३९ धम्मभाणकगीतं-३०६ धम्मरक्खितो--३४९ धम्मरतनानुपालको - ९७
धम्मराजाति-३५२ धम्मवादीति--३०२ धम्मविनयसङ्गायनाति-४७ धम्मविनयसङ्गीतिया-६९,७० धम्मवेदं - ४,२२ धम्मसङ्गणीपकरणे-४०३ धम्मसद्दो-७६,९४ धम्म-सद्दो-३३३ धम्मसरीरं-- १५६ धम्मसेनापतिसारिपुत्तत्थेरेन-१११ धम्मसंवेगं-६७ धम्मस्सवनं-२४३ धम्मस्साभावतो-२७४ धम्मानुभावसिद्धत्ता-२८८ धम्माभिलापोति-९४ धम्मायतनधम्मधातुपरियापन्नवेदनाग्गहणेन - ४२५ धम्मासनन्ति-६६ धम्मिकं-२४७ धम्मी-६१,१४९ धम्मूपसंहितम्पि-३०५ धम्मो-५,६,१७,३८,४०,५०,७३,७६,८४,९१,
९२, ९३, ९४, ९९, ११७, १२०, १३२, १३४, १३५, १५६, १९५, २१७, २३१, २७४, २९२, ३०५, ३०६, ३३३, ३४५, ३६१, ३७८, ३९३,
४०२,४२७ धम्मोजपचाय-२२४ धाताति-१४३ धातुलक्खणेन-४२५ धातुसोति-१७७ धारणबलन्ति-१३१ धारणं-२१२,३०६ धारानुप्पवेच्छनं-३२९ धितिमन्तो-१३० धीरो-२७,१४७ धुतङ्गधम्मा-२३७ धुतधम्माति-२८
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[२२]
धुननन्ति - ३१६ धुवन्ति - ३४५ धुवसञ्ञन्ति - २७२ धूमकेतूति - ३२८
न
नक्खत्तन्ति - ३७० नक्खत्तयोगछणकाले - ३१६
नक्खत्तयोगेन - ३७० नच्चयोग्गन्ति - ३२० नठितकथो - २९७ नत्थिकवादो नत्थु - ३३१
- ३९७
नदीविदुग्गन्ति – ४७ नन्दिन्ति - २७२ नयनविहङ्गानन्ति - ६५
नयन्तीति - ४११ नयोति - १५४, ३५० नरकपपातन्ति - १६४ नवङ्गं - - ५०, १०९, १६६ नागसेनत्थेरेन - १८१
नाटपुत्तवादोपि - ३९८
नानत्तसञ्ञति - २७१
नानत्तसञीति - ३८७ नानाओघेहि - २१३ नानाधिमुत्तिकताञाणन्ति - १७८
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
नानानया - १२८
नानापथमण्डलन्ति - ३१७
नामन्ति - १९२, १९६, २०१, ३७९, ३९४
नामरूपनिरोधा - ४१०
नामरूपपरिच्छेदो - ८९
नामरूपसमुदया- ४१०
नाम - सद्दो- १५६, ३२२, ३७७, ४१२ नालकत्थेरो - ११३ नालकसुत्तन्ति - ११३
नाळियाति - १७८ निकायसद्दो
- १०७
निक्खमनचित्तुप्पादो - २२० निक्खमनलक्खणं - २२०
निक्खित्तदण्डो - २८८
निखणित्वाति - ३१६
निगण्ठादयो - ३८६
निम्बन्ति - ३४२
निग्रोधमूले- - २०८
निग्रोधारामे - २०५
निच्चनवकाति - ४६
निच्चसञ्ञन्ति - २७२
निच्चोति - ३८६
निच्चं - ४, १३, ४६, ५०, १७३,३४५ निच्छन्दरागेसु – २९२
निज्जटन्ति - ३४२
निज्झानं - ९९, २३५, २५०
निज्झामतण्हा - २६३
निदानं - ३२, ३३, ९८, १२२, १२५, १८६, १८८,
३४१, ४२६
निद्दासीलता - २४९ निद्धारणलक्खणो - ४२५ निधानं - ३०२
निधेति - ३०२
नित्रपोणपब्भारचित्तेन - २४९
निपातोति - ३४६, ३५३
निपुणस्स - २४
निपुणाति - ३३४, ३७८ निप्परियायो - ३१४
निप्पेसिका - ३२४ निप्पेसो - ३२४ निब्बत्तिलक्खणन्ति - ३५८ निब्बसनानीति - ४२, ४३ निब्बानगामिनिपटिपदं - ७८ निब्बानधम्मो - ११४,३४४ निब्बानधातुद्वयविभागो - ४१९
22
[न-न]
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[२३]
निस्सिरीकतन्ति-१७१ नीतो -८१ नीलरस्मिअत्थाय-२०७ नीवरणसओजनद्वयसिद्धि-४१९ नीवरणानि-२४९,२७१ नीहरणसमत्यन्ति-३३१ नेक्खम्मपारमियं-२३२, २४९ नेक्खम्मस्सितन्ति-१९९ नेक्खम्मेनाति-२७० नेत्ति-१४४ नेत्तिट्ठकथायं - ५६ नेमित्तिका-३२४ नेय्योति-२६२ नेवसञानासचायतनन्ति -३८१ नेवसजीनासजीवादे -३८९
निब्बानधातुयाति-३५ निब्बानमहानगरस्स-२३० निब्बानसुखस्स-२४१ निब्बानारम्मणो - ९५ निब्बापनीयन्ति-३३० निब्बिदानुपस्सनायाति-२७२ निब्बुति-३५७,४३५,४३६ निब्बुतिपवेदनाय-३५७ निब्बेठनं-१९७ निमित्तन्ति-२३४,२७२, ३२४, ३२५ निमित्तपटिवेधो-३३४ निमित्तसत्थन्ति-३२५ निम्माताति-३६८ निम्मितबुद्धेन - ११२, १२९ नियतपरिच्छेदो-३६५ निय्यानिकधम्मत्राणेन-१७५ निय्यानिका -१६०, ३२२ निय्यानिको-१६३ निय्यानं-१६३, २७४, ३२२ निरामिसचित्तो-२४० निरोधलक्खणं-३५८ निरोधसच्चं-३५७,४२०,४३६,४३७, ४३८ निरोधसमापत्तिया -४४ निरोधानुपस्सनायाति-२७२ निरोधोति-३४७ निरुज्झतीति -३५८ निरुत्तिपटिसम्भिदाति-९४ निरुत्तिलक्खणं-१५४ निरुत्तिं-२७७ निल्लालितजिव्हाति - १७२ निवत्तेतीति-३५१ निवुताति -२१४ निसिन्नवत्तिका- १२४ निस्सग्गियोति-२८५ निस्सरणत्था - ९७,९८,१०१,१०२ निस्सरणं- ९७, १६३, २७४, ३५९, ४३२
पकतिपथवियं-३७१ पकतीति-४०९ पकतूपनिस्सयवसेन-४०७ पकासिताति-१३, ३१८,३३४ पकुधवादो-३९७ पक्खित्तदिब्बोजो-२०९ पक्खिपनं-७२ पक्खिपितब्बन्ति-७२ पग्गव्हं-३७ पग्घरणं-२७३ पग्घरापेतीति-८२ पचुरापराधा-८८ पच्चक्खजाणं-३५३ पच्चक्खधम्मो-३९३ पच्चङ्गो-३९२ पच्चत्थरणानि-६६ पच्चनीकपटिपदन्ति-१६३ पच्चयाकारो-२९
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________________
[२४]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[प-प]
पच्चयिकोति-२९७ पच्चयुप्पन्नधम्मानं-३४१ पच्चयोति-२२१, २२६, २२७, २३५, २३७, ३५८,
३६४,४०२, ४०७,४०८, ४१०,४३३ पच्चवेक्खणाञाणे-३३५ पच्चवेक्खणं-२१२ पच्चासायाति-३१४ पच्चुपट्टानं - १२५, २२० पच्चूसो-३५ पच्चेकबुद्धभासितं - ११४ पच्चेकबोधिजाणं-३३८ पच्छानुतापी- २४२ पच्छाभत्तं-१६७,१८१ पच्छासमणेनाति-६४ पच्छिमचित्तस्स-३७३ पच्छिमतण्हाय-४०६ पच्छिमबोधीति-२७७ पजानातीति-४,८,१०२,३५६, ३६०,४१०,४३२,
४३७ पञ्चक्खन्धा - ४१,२५०,४०७ पञ्चगतिपरिच्छेदकजाणं-३३६ पञ्चगरुजातकं-१०८ पञ्चचक्खुपटिलाभाय-२४१ पञ्चत्राणिको-३८१ पञ्चधम्मक्खन्धा-४३३ पञ्चनीवरणसङ्घातपच्चया-४०९ . पञ्चपक्कपरिमाणा - ४१२ पञ्चलोकियाभिञासङ्खाता - २५० पञ्चविधएतदग्गट्ठानेन-१३१ पञ्चविधकिच्चपयोजनन्ति-१८३ पञ्चवोकारझानभूमीसु-३८८ पञ्च-सद्देन - १६० पञ्चसिक्खापदक्कमे-२९३ पञ्चाभिजायो-४४ पञ्चिन्द्रियानि-४० पञ्चुपादानक्खन्धा-१९१,३५७,४२०,४३८
पञत्ति-८८, ९४,१३७ पञत्तिमत्त हेतं -३४५ पत्तियोति-७२ पञवा-२३३, २६१,४३७ पञआक्खन्धो-१५ पागुणे-२३३ पञाति-३४१ पाधिकसद्धाधिकवीरियाधिकवसेन - २६२ पञानुभावेन - २३३, २६२ पञापच्चुपट्टानो-२१९ पापज्जोतविहतमोहतमन्ति -१३,१४ पञापदट्ठानसमाधिहेतुत्ता-४ पआपनधम्मो-४०२ पचापरिसुद्धा-२५६ पञापारमी-२२०,२३३,४३४ पापारिसुद्धिया-२३३ पञ्जाबलेन-२३३ पआभावना -२२७ । पञाविमुत्ति-४३६ पञाविमुत्तिचेतोविमुत्तीनं-४१९ पासङ्कलनविनिच्छयो-२८ पञ्जासम्पदा - १०२ पटलानीति-३३१ पटाणीभूतन्ति-३०५ पटिकम्मन्ति-३३० पटिकरिस्सतीति-३१२ पटिकुज्जिताति-२१४ पटिग्गहितं - ५२, ३१३ पटिघसाति-२७१ पटिच्छन्नाति - २१४ पटिच्छन्नावहारो-२९१ पटिच्छन्नो-८१,१७३, ३४७ पटिजानातीति-१३८,३६७,३८६ पटिनिस्सग्गानुपस्सना - २७२ पटिपज्जिन्ति-४२ पटिपत्तिधम्मपटिवेधधम्मानम्पि-२८
24
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
__[२५]
पटिपत्तीति-११२, २३९, २५३ पटिपदन्ति-२७९ पटिपदाञाणदस्सनविसुद्धि-२५० पटिभागनिमित्तं-३७४, ३७६ पटिभानचित्तविचित्तन्ति-१७१ पटिभानचित्तं -३१६ पटिभानं - ३५१ पटिमानेन्तीति-१८० पटिवसतीति-१४७ पटिविरतभावो - २८७ पटिवेदेसुन्ति-६५ पटिवेधपञायाति-१७४ पटिवेधोति – ९५,३३६ पटिवेधं-९५ पटिसङ्घरणं-६४ पटिसङ्खानुपस्सना - २७२ पटिसन्धिचित्तक्खणे-३६८ पटिसन्धिसञाति-३८३ पटिसम्भिदाति-९३ पटिसम्भिदामग्गे-२०६ पटिसम्भिदाविभङ्गे-९३ पटिसंवेदेतीति-३५१ पटुप्पादनं-३२९ पठमचित्तक्खणेति-३६८ पठमज्झानभूमिया-३६५ पठमज्झानं - ४४, ३६५ पठमपाराजिकन्ति-७२ पठमबुद्धवचनन्ति-७६,७७ पठमबोधीति-२७७ पठमभवङ्गचित्तक्खणतो-३६८ पठममग्गो-४३१ पठममहासङ्गीतियं -३२ पठमवचनं - १२५ पठमारुप्पज्झानं-३८२ पठमं झानं-४३,४२७ पणिधिन्ति-२७२
पणिधीति-३३१,३६८ पणीता-३३४,४२२ पण्डा-१४७, ३७८ पण्डिच्चं-३७८ पण्डितवेदनीयाति-३३७,४२२ पण्डितोति-३७८ पण्णनाळि-३१८ पण्णनाळिका-३१८ पण्णं -५४, २९६ पतिट्ठाति-२८ पतिट्ठानलक्खणं-२२० पतिट्ठो-९३ पतिरूपदेसवासो-१५१ पत्तपरिवारितन्ति - १७० पत्तियायितब्बा -२९७ पथवीकम्पनं-७२ पथवीचलनं-१२१ पदट्ठानधम्माति-४२४ पदविभागोति-१२३ पदहनं-२७४ पदानीति-२७०, ३१७ पदुट्ठचित्ता-३७२, ३७३ पदुमपुप्फानि-१८० पदोसो-३६९, ३७२ पधानधम्मे -३५१ पधानमनुयुजाति-६८ पधानयोगन्ति-२०८ पन्थन्तन्ति-३४४ पपञ्चसूदनियम्पि-५५ पब्बतविसमन्ति-४७ पभिन्नमदो-१६३ पभेदपत्ति -४३२ पमुखलक्खणं - २७४ पमोक्खो-१०० पयोगसुद्धिं-२१८ पयोगोति-३००
25
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________________
[२६]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[प-प]
परतोघोसो-३५४ परत्थोति - ४१२ परमकल्याणो-२२१ परमत्थजोतिकाय-३०५ परमत्थपारमियोति-२५३,२५४ परमत्थवचनं-१०५ परमत्थोति-८१,१३७,३४५ परमदिट्ठधम्मनिब्बानं-३९६ परमो-२१६, २१७, २२८, २३० परलोकानुगमनतो- २३१ परस्स-८०,१००, २४०, २४७, २९५, २९६, ३००,
३३०, ३७३ परहितज्झानेन-२१९ परामसतीति-१७४, १९२, ३३३ परामासो-३५६ परिकप्पावहारो-२९१ परिकिलेसविमुत्तिया - २४८ परिचिताति-१४३ परिच्चागलक्खणं-२२० परिच्चागसीलो-२४५ परिच्चागो-२३२ परिच्छेदभावो-२७३ परिजातक्खन्धो-१०१ परिञात्तयविसुद्धि -- ४२९ परितस्सना-३६६ परित्तन्ति-३६५ परित्तभावो-२५९ परित्तसञ्जी-३८८ परिदेविस्थाति-३९ परिनिब्बानकालेति- १९९, २०० परिनिब्बानपञत्तीति-४३२ परिनिब्बानसुत्तन्तपाळियं-६० परिनिब्बानं-३७ परिनिब्बुतोति-३४ परिपुच्छनं-२१२, ३१४ परिपुच्छा - २१२
परिपुण्णति-२८६ परिमद्दन्तीति-३२१ परियत्ति-५०,९६, ९७,९८,१०१,१०२,१४१ परियत्तिधम्मपटिपत्तिधम्मेहि-१५ परियत्तिधम्मो . २८ परियत्तिभाननत्थन्ति-८५ परियत्तिभेदोति-९६ परियत्तोति -५७ परियन्तरहिताति-३७६ परियापन्नाति-४११ परियापुणन्ति-९८,१०० परियायकथा- १२४,१९६,१९७, ३१४ परियायो-१६१, १९६, ३११,३१३,३३४, ३४२ परियाहतं-३५१ परियुट्ठानं-४६, ९० परियोदातेनाति-६९ परिवटुमोति-३७५ परिवत्तनलक्खणो-४३१ .. परिवितक्को - १४४, १८३ परिवेणा --६४ परिसुद्धभावदस्सनं - २९१ परिहरणति-७५ परिहरितब्बन्ति-३१७ परिळाहसमयो-१४६ परं-२४, ४९, ५०, ५९, ७०, ८७, १६१, १७४,
१७८, २१३, २१६, २१७, २२४, २५९, २८६, ३६२, ३८०, ३८६, ३८९, ३९१, ३९३, ३९८,
४२८,४३७ पलळतीति-३९४ पलिबुद्धतीति-३०८ पलिबुद्धाति-२१३, २१४ पलिबोधो.. ६०,३४१ पल्लङ्कोति- २७७, ३१९ पवत्तधम्भ-७५ पवत्तनं.-३३, ५६,१८०, २७३, २८९, ३३०, ३६३ पवत्तसचिनो-८९
26
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________________
[ प - प]
पवत्तितधम्मानन्ति - ७७
पापकम्मं - २४५
पवत्तं - ३९, १५०, १९०, १९२, १९५, २०२, २११, पापधम्मेहि - ६८,२२४
२६९, २८२, ३४१, ३५२, ४०१, ४१४
पविवेकज्झासयो - २२४
पवेणीति - ३२०
पसन्नचित्तो - २४०
पसन्ना- २१, ४७, ३७१
पसव्हावहारो - २९१
पसाधनकिरिया - २०३
पसिब्बकं - १७०
पसेनदिरञ्ञ - १४७, २०५
पस्सताति - १७४, २७५ पस्सद्धकायो - ४ पस्सद्धि - पहानपञ्ञत्ति - ४३२
- २७४
पहानसम्पदा - १३
पहोन्तेनाति – १६६
पाचीन अम्बलट्ठिकट्ठानन्ति - ४१६
पाटवसिद्धि – ४
पाटिहारियकिच्चं - २०८
पाटिहारियन्ति - १२८, १२९, १८०
पाणघातहेतुभूतो - २८६
पाणभूतेति - २८९ पाणसङ्घातजीवितिन्द्रियस्स - ८४
पाणसञ्ञिनोति – २८३ पाणातिपातकम्मबद्धोति - २८५
पाणातिपातचेतनाति - २८४ पाणातिपातदुस्सील्यतो - २८६
पाणातिपातोति - २८४
पाणिस्सरन्ति - ३१६
पातरासो - १६७
पातरासं
- ३०४
पातिमोक्खसंवरआजीवपारिसुद्धिसीलानि - २०२
पातिमोक्खानि - ७९
पातियन्ति - २१२ पादकं - २११
सद्दानुक्कमणिका
पापभिक्खु - १३०, १४३ पायासो - २०९
27
पारमिताफलस्स - २२७
पारमीकथा - २१५ पारायनवग्गे - ११३ पारिसुद्धिं - २३१
पावचनं - ३९, १५६
पासको - ३१८ पासाणेति - ३१०
पाळिधम्मो - १३१
पाळिधम्मं - ९९
पाळीति - ९१ पिटकन्ति - ७३, ८५
पिटको - ८५
पिटकं - ७३, ८५, ८६
पिट्ठ - १६९ पिण्डोलो - ३४४
पिण्डोल्यन्ति - ३४४
पिण्डं - ३४४ पिप्पलिरुक्खोति - ३१३
पियपुग्गलो- २२९ पियमनापकरणन्तिआदि - ३३० पियवादी - २२४, २४०, २४७ पिलोतिकखण्डन्ति - ३१५
पिसुणवाचा - २९८
पिसुणा - २९७
पिहिताति - २१४
पीताति - ६३ पीतिभक्खा - ३६४
पुग्गलवोहारोति - १३४ पुग्गलाधिट्ठानधम्मदेसना - ४०९ पुच्छासुद्धि - ४३३, ४३४
पुञ्ञकिरिया – १२६ पुञ्ञक्खया - ३६५, ३६६
[२७]
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________________
[२८]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[फ-ब
पंसुकूलधोवनेति-४१५
पुञ्ज-५, २१, २२, ५३, ६८,२२९, २५१, २७९ पुण्डरीकन्ति-१७० पुण्णमा-३५ पुण्णो-३५, ८३ पुत्ता- १८ पुथु-सद्दो- २१३ पुथुज्जनजाणञ्च -३३८ पुनब्भवोति-२६८ पुप्फगन्धोति-२०४ पुष्फपूजा-६६ पुप्फूपहारो-६६ पुब्बन्तकप्पिका-३४३,३९६ पुब्बन्तापरन्तकप्पिकाति-३९६ पुब्बपदं - २९० पुब्बपेता-३२३ पुब्बभागभावनापा-२५० पुब्बेनिवाससाणकथायं-३६४ पुब्बेनिवासन्ति-२११ पुब्बेनिवासविज्जासिद्धि-१०२ पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं- २५० पुरिमवचनं --१४४, १४५ पुरिमवेदनं-३५८ पुरिमसिद्धरुळ्हिया - ३७५ पुरिसो-४६, ४७, ६३, ९७, १६२, २०३, २३२,
२४०, ३५९ पुरे-९,४९, ५३, २९५, ३०१ पुरेक्खारो - २९५ पुरे-सदो-४९ पूजारहाति-८५ पूजितेति-८४ पूरणकथा- २९५ पेक्खनं- ९९ पेय्यालं- १२१ पोणिकनिकायो-१०७ पोराणाति- १५३, २६९ पोरीति-३०१
फणिज्जकन्ति-३१३ फरणं-- २७३ फरित्वाति-८५ फरुसन्ति-२९८ फलञाणं-४३० फलन्ति - ८२, २६५, ३४०, ३४१, ४२० फस्सनिरोधाति-४१० फस्सपच्चयाति-४१९, ४२४, ४२५, ४२८, ४३०,
४३३ फस्ससमुदया- ४१० फळुबीजन्ति-३०४ फासुका -७६,७७ फासुविहारन्ति - १२७ फुसनलक्खणो-४०५ फुसिस्सन्तीति -३९९ फोटब्बारम्मणन्ति -३५८
बन्धकरणन्ति-३३० बलन्ति-४,१००,१२७,३३९ बलवतीति-२९१ बलिकम्मं - २०८ बहुपरिस्सयोति-१७२ बहुस्सुतोति- ५२ बावीसतिन्द्रियानि-४१,२५० बाहिरकधम्मे-२५० बाहिरबलं - २२५ बीजगामभूतगामसमारम्भा-३०४ बीजनी-३२२ बुद्धकरधम्मसिद्धि-१४ बुद्धकारकधम्मा-२२६
28
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________________
[भ-भ]
बुद्धगुणपरिच्छेदनं - १५ बुद्धगुणानं - १५, १७७ बुद्धचक्खुनाति - १८२ बुद्धचक्खुति - १८२
बुद्धत्तपच्चुपट्ठाना - २२०
बुद्धधम्मा - १४, २३५, ३९२
बुद्धबलन्ति - ४१२
बुद्धभूमिं - २२१
बुद्धरस्मियो - १६८
बुद्धलीळाय - १९६
बुद्धवचनन्ति - ७१
बुद्धसिरियाति - १६८ बुद्धानुबुद्धा - २४ बुद्धानुभावपटिसंयुक्तं - २२३
बुद्धिचरिया - २६७ बुद्धुप्पादक्खणी - १५०
बुद्धपादो - १५७ बुद्धेनादिच्चबन्धुना - ५०
बुद्धोति - १६, १२४, १९९, ३८५
बेलट्ठपुत्तो - ३८०
बोझङ्गा - ४०
बोधि - २०९
बोधिपक्खियधम्मा- ४१४३३
बोधिमण्डो - २१० बोधिरुक्खमूले - ७७ बोधिसत्तभूमियं - २५४
बोधिसत्तोति – २२२
ब्यञ्जनन्ति - १३१
ब्यसनं - १६३ ब्यामप्पभाति - १६८ ब्यासनुपनिपातकारणा - २४८ ब्रह्मकायिकभूमिया - ३६५
ब्रह्मकायिकभूमीति - ३६४ ब्रह्मकायिकाति - ३६४
ब्रह्मचरियन्ति - २७४ ब्रह्मचारी - २९२
सद्दानुक्कमणिका
ब्रह्मजालं - १३९, १८७, ४१२, ४१३
ब्रह्मदत्तो - १६१, १६६ ब्रह्म-सद्दी - २९२
ब्रह्मनो - ३६८, ४१३ ब्रूहेत्वाति - २६७
29
भ
भगवाति - ३४, ३८, ४२, १५४, १५५, १६७, १८८,
१९५, २२२ भग्गवाति - १५५
भग्गा - ७६ भङ्गन्ति - ३५८ भङ्गपरियायो - ३८६
भङ्गानुपस्सनापरिचिण्णन्ते - ३६७ भङ्गुच्छेदा
१- ३६५
भण्डनेनाति - ४००
भण्डागारिकपरियत्तियं- - १३० भण्डागारिकोति - १०२, १३९
भद्दियसुते - १५८
भयत्राणं - ३६७
भयन्ति - ३६७
भयभेरवसुत्ते - ८३
भवगामिकम्मं - ४०७
भवङ्गपतनस्साति - २०७
भवतण्हायाति - ४०९ भवोति - ५२, ३२३, ४०७
भागो - ३२९, ४३९ भारतनामकानं - ३०१, ३१६
भावनापञ्जा २५०, २५१ भावविगमन्ति - ३९० भावेतीति - ८५ भावेत्वाति
१- १६, १७, २६७, ३६५ भावोति - १६, १२५, २१६, २९७, ३९० भिक्खुसङ्घोति - १५९
भिक्खुति - ४६, ५१, ८७
[२९]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[३०]
भुत्तपातरासो - १६७ भुसागारकं - ३७ भूतवादीति १- ३०२ भूतवेज्जमन्तोति - ३२६
भूता - ३०३, ३६८
भूमन्तरन्ति - ३३९
भूरिघरेति - ३२६ भेदं - २९८, ३७३ भेसज्जकरणयोग्यताय - ६२
भेसज्जदानन्ति - ३३० भेसज्जनाळिकन्ति - ३२२ भेसज्जपयोगं -
- ३३१
भेसज्जपानं - ६३
भेसज्जरुक्खा - २३२
भोगो - ९८
भोजन - सद्दो - ३०४
भोजनन्ति - ३०४ भोज्यागु - ३७
मक्खेसीति - ३२७ मग्गञाणं - १३, ७५, ४३०
मग्गधम्मा
४३०
मग्गनिरोधेहि - ४२०
मग्गपटिपत्तिया - १६०
मग्गफलसम्मादिट्ठि – ५२
मग्गफलसुखन्ति - ४०१
मग्गसच्चन्ति - ३५७, ४३६, ४३७, ४३८ मग्गामग्गञाणदस्सनविसुद्धि - २५० मग्गेनमग्गपटिपत्तिसमुट्ठापिका - २९३ मग्गोति - २९,४० मच्छेरमलपरियुट्ठितचित्तानं - २२८ मज्झिमपटिपदाभूता – ४३१
मज्झिमबोधि - २७७ मज्झिमभाणका – ६९, ७५
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
मज्झिमसीलदेसना - ३११
मज्झिमागमवरे - २७१, ३९९, ४०० मञ्जिट्टपभस्सररस्मियो - २०७
30
मञ्जुसाति - १७१ मञ्ञनामत्तेनेवाति – ३६८ म- सद्दो- ३७८ मणिकोट्टिमं - ६६
मण्डनेति - २०३
मण्डनं - ६६, २०३, ३०६
मण्डपो - ६६, २०५
मण्डलमाळोति - १७२
मत्थकन्ति - २७७ मत्तिककक्कन्ति – ३२१
मद्दमानोति - १६४
मधुकपुप्फरसं - ३१३
मधुपायास - २०९
मनापाति - २२९
मनुस्सग्गाहोति - ३९९
मनुस्सधम्मो - ४४
मनूति - ६३ मनेनाति - ३७२
मनोपदोसिकाति - ३७२
मनोपुब्बङ्गमा - १३८, ३४४, ३८१
मनोमयाति - ३६३
मनोविघातं -- ३९४
मन्तजप्पनं - ३१०
मन्तसद्दो- ७०
मन्तेनाति - ३१६ मन्दपञ्ञो - ३५०, ३७९ ममच्चयेनाति - ४० मम्मच्छेदकोति - ३०० मरूति - १०, २७०
मल्लपामोक्खा - ५८
मल्ला - ३१७ महाउपधानन्ति - ३२१ महाकच्चायनो - १०९
[म-म]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[म - म]
सद्दानुक्कमणिका
[३१]
महाकरुणासमापत्तित्राणस्स-१४ महाकस्सपत्थेरो-५३,६० महाकस्सपोति-३६, ४७ महाकारुणिको-२६१ महाकुम्भी-२१२ महागोचरं -५७ महाति-१५९ महाथेराति-६०,१७० महादानं-२६३ महानिग्रोधो-४०४ महापञ्जा-२६१ महापथवी-४२,४३,४१५ महापदानसुत्ते - २६९ महापनादजातके - २११ महापरिनिब्बानसुत्ते-४० महापुरिसलक्खणानि-१६९ : महाबोधीति-४२९ महावजिरजाणन्ति-२११ महाविपस्सनाहि-२७० महाविहारवासिनो-२७,४०५ महाविहारो-२७ महासङ्गीति-३३ महेसक्खतरोति-३६९ महेसक्खोति-३६९ महोघोति- ११३ मातुचित्ते-२९९, ३०० मानवो-६३ मानोति - १४६ मायावसेनाति-३१० मारणन्ति-३११ मारबलन्ति-२११ मारसेनमथना-१९ मारसेनमद्दनानन्तिपि-१९ मारो-१८ मासुरक्खो -३२६ माळोति-१७३
मिच्छाचारोति-२९३ मिच्छादिट्ठिया-३५४ मिच्छावितक्को-२२९ मुखचुण्णकेनाति-३२१ मुखरा-१७०, १७१ मुखवरेनाति-६९ मुखविलेपनन्ति-३२२ मुखसुद्धिकरणं-३३१ मुच्छिताति-२१३ मुञ्चन्ताति-१८० मुञ्जतोति -३४७ मुट्ठियाति-३२५ मुण्डकुटुम्बिको - ३१५ मुत्ताति-६७, ३२५ मुत्तायोति-३२५ मुत्तालता-३२२ मुदुगतवाताति-१८० मुसन्तीति-३११ मुसावादकम्मुना-२९६ मुसावादलक्खणं-२९५ मुसावादोति-२९५ मूलनक्खत्तं-५९ मूलबीजन्ति-३१२,३१३ मूलब्याधिनो-३३२ मूलभेसज्जानि- ३३२ मूललक्खणन्तिआदि-२७४ मेघमुखेति - ३२२ मेघवण्णं-१७०, १७९ मेतन्ति-६७ मेत्तचित्तो-२८९ मेत्ताकम्मट्ठानं-२०९, २१० मेत्ताखेत्ते -२५८ मेत्तापारमी-२२०, २५५ मेत्ताभावना-२२७ मेत्ताविहारी-२१९, २४५ मेथुनधम्मो - २९२
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________________
[३२]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[य-र]
योगवसेनाति -३१० योगी-२०३ योनिसोति-१६४,४१६ योनिसोमनसिकारादि-४२९
मेथुनविरतिं-२९२ मोक्खचिका-३१८ मोघपुरिसाति-९९ मोनेय्यपटिपदं-११३ मोहतहाविगमो-२२६ मोहतमो-८ मंसचक्खुना-१७४ मंसचक्खुपञाचक्खून-३९० मंसादिगन्धो-६७
यथाकामकारी-२९० यथाधम्मन्ति-८९९४ यथानुलोमन्ति-८९ यथानुसन्धि-३९८४०० यथापराधन्ति -८८ यथाभासितन्ति -२९ यथाभूतत्राणन्ति-८८ यथाभूतत्राणं -८८ यथाभूतदस्सनपदट्ठाना - २२१ यथाभूतपटिवेधनापदेसेन-४२० यथाभूतवेदी-३८० यथावुड्डन्ति -६९ यथावुत्तकालभेदेन -२६२ यथासभावपटिवेधलक्खणा-२२० । यथासभा-८,८१,३७८,४२० यमकपाटिहारियन्ति -२०५ यवो-३०८ याचयोगो-२४२, २५९, २६० यावदे - ४३, ४४ युगनद्धा-२७४ युत्तयोगभिक्खुअधिट्ठानन्ति -४०९ युद्धकथा-३०१ योगकम्मस्स-२८ योगन्ति-३३१
रजतं-३०७ रज्जुभेदो- ३१० रतनपरिसिब्बितन्ति-३२० रतनावेळातिआदि-१६९ रतनं -२१, २२ रतिधम्मो-३७० रत्ताति-२१३ रत्तिट्ठानं-१८१ रम्मसुरम्मसुभसङ्ख्याता - २०८ रसं-७५, २०९ रस्मियोति-२०७ राजगहन्ति-५७ राजद्वारेति-६५ राजभवनविभूतिन्ति-६५ राजसत्थं - ३२६ राजागारकन्ति-७४,१७१ राजाभिराजाति-८३ राहु-३२७, ३२९ रुक्खमूले -४१,४९ रुतं-३२७ रुप्पनसीलो-३८६ रूपकाये-१५७ रूपक्खन्धचक्खायतनचक्खुधातादीनं - ४१२ रूपजीवितिन्द्रिये-२८३ रूपज्झाने-२७१ रूपतण्हा-४०६ रूपधम्मभेदस्स-३७३ रूपसच-२७१ रूपारूपजीवितिन्द्रियानि-३६५
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________________
[ल-व]
सद्दानुक्कमणिका
[३३]
लोमहंसोति-३६७
रूपारूपधम्मसमूहो-२८५,४१२ रूपावचरचतुत्थज्झानस्स-३४६ रूपीति-३८६
लक्खणं-२५,७७,१६५, १९८, २७४, २९५, ३२६,
३५३ लग्गाति-२१३ लद्धाति-११७ लपनाति-७३ लपन्ति-१७२ लब्भनेय्या - ३३४ लहुट्ठानन्ति-१२७ लाभीति-३९० लाभीसस्सतवादो - ३८४ . लाभो- १९, १०७, ३५१ लालप्पनं -३९४ लिङ्गन्ति-३३१ लिङ्गविपल्लासेन-७१ । लीनत्थपकासनियं-४४ लेपचित्तं - ३२० लोकधम्मेहि-४१८ लोकन्ति - २७९, २९७ लोकहितो-१०,४०५ लोकायतं -३२३ लोकियजाणं-९५ लोकियधम्म-३८१ लोकियपुथुज्जनो-२९० लोकुत्तरञाणं - ९५ लोकुत्तरधम्म-३८१ लोकुत्तरन्ति-१७८ लोभदोसमोहपटिपक्खं-२३८ लोभधम्मो-२४० लोभविद्धंसनरसं-२२० लोभसहगतचित्तुप्पादो-३५०
वचनं -३९,४१, ४२, ४८,५३, ५९, ६०,६१, ६३,
६४,७५, ९४, १०६, १२५, १४४,१४५, १५०, १५४, १५६, १७०, १८०, १८३, १८४, १९०, १९२, १९४, १९५, १९९, २००, २०३, २०७, २३२, २६९, २७७, २९९, ३०३, ३२४, ३४५,
३५३,३५६, ३६८,३६९,३८४, ३८६,४०५ वचीपयोगो-२९५, ३०० वजिरबुद्धित्थेरो-५५,७४,९३,१०३ वञ्चनन्ति -३०९ वञ्चनाति-२२९ वट्टपच्छेदो-१६५ वड्वेत्वाति-२११, ३७६ वणहरणथन्ति-३३१ वण्णपोक्खरतायाति -१६४ वण्णवादी-६४ वण्णावण्णेति -७४, १९१ वण्णितन्ति-६५,१९९ वण्णो-४, १५, ७४, १६३, १६४, १६५, १६६,
१९१,२६६,२८०,२८८ वत्थुबलिकम्मकरणन्ति-३३१ वधकचेतनाय-२८४ वनन्तरं-१६९ वन्दनीयभावं-१४ वन्देति-११, १५, २० वमनन्ति-३३१ वयधम्माति-७८ वरको-३०८ वरुणनगरन्ति-७४ वल्लूरोति -३१५ वसवत्ती-२७८,३६८ वसितट्टानेति-३६५ वसिनो-२५
33
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________________
[३४]
वसूपनायिका - ६४ वस्सो - ३३१ वादोति - - १००, २९५, ३४६ वानचित्तं - ३२० वानविचित्तन्ति - ३१९
वायोकसिणे - ३८१
वारिजं - १६४ वालग्गमत्तम्पीति - २७७
वालबीजनिं - २६९
वालवेधिरूपाति - ३७८
वाळरूपानीति - ३१९ विकालभोजनाति - ३०५ विकालभोजनं - ३०५
विकिण्णवाचा - १७१
विक्कमीति - २७०
विक्कयो - ३०९
विक्खम्भनप्पहानं - ९०, ४३५
विक्खित्तचित्तो - १५६, २३५
विगततण्हं - ३८३
विगतदोसा- २६ विगतलोमहंसो - १८३ विग्गहो - २०२, ३२४
विग्गाहिका - ३२४
विघातोति - ३७८ विचयनं ४२१, ४२२
विचिकिच्छाय - २२७ विजटये- २०४, २८०, ३३५ विजटितजटा - १७०
विजटेत्वाति - ३२१
विज्जमानगुणे - ५६ विज्जाचरणसिद्धि - २२६
विज्जाधरा - २८६
विज्जामयोति - २८५
विज्जासम्पत्तिं - १४ विज्जु - १६९ विञ्ञाणवीथि - १३३
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
विञ्ञाणं - १०५, ३४५, ३६०, ३७३, ३९९, ४०५,
४२८ विञ्ञातधम्मधरो - १३२
विञ्ञू - २३१ वितक्कविचारे - ३९५
वितक्कितं - ३९५
वितण्डो - ३२३ वित्थम्भनं - २७३
विद्वाति- ४००
विधावन्तीति - १६८
विनयकम्मं - ३१४
विनयगण्ठिपदे - २७७
विनयटीकायं - १६८, ३०७ विनयधरानन्ति - ७१
विनयनतोति - ८०
विनयनं - ३४, ८०, ८६, २३०, ३१३ विनयपञ्ञत्तिन्ति- ३३९ विनयाभिधम्मपरियत्ति - १०९
विनासो - ३४८, ३५१, ३५९, ३९० विनिच्छयट्ठानेति - ३३० विनिच्छयोति - २७, ९६
विपरामोसोति - ३११
विपरिणामधम्माति - ३५९
विपरिणामलक्खणन्ति - ३५८
विपस्सना - २९, ५१, ९९, २५१, ४३०, ४३६ विपस्सनागभभावो - २११
विपस्सनाञाणं - ८८
विपस्सनानुयोगो - २४१
विपस्सनापाय - ३५८
विपस्सनासहगतो- १७४
विपस्सनं - ७८, १०१, २११
[व-व]
विपस्सन्तीति - ८५
विपस्सी - २१५, २७० विपाकक्खन्धा - ३५ विपाकोति - ३४२ विपुलकसिणवसेनाति - ३८७
34
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ व-व]
सद्दानुक्कमणिका
विभागपुग्गलो - ५७ विसरुक्ख आणिन्ति - १६७
विसाखापुण्णमो - ३५ विसादो - ३९४ विसिट्ठभावं - ८४ विसुद्धपयोगो - २२६ विसुद्धिभावना - ४३४ विसुद्धिमग्गे - २००, २४८, २४९, २५१, ३४६, ३६४,
विप्पलपन्तीति - १७२ विबाधितचित्तस्स - २९८ विभङ्गपाळि - ३६६ विभत्यन्तपतिरूपको - ७१ विभत्तिपयोगो - १५९ विभत्तिविपरिणामो - १५४ विभावनलक्खणो - ४२९ विभूसनं - २०३, ३०६ विमतिच्छेदना - २८२ विमानन्ति - ६६ विमुत्ति - ७५, ४१० विमुत्तित्राणदरसनं - १७० विमुत्तियाति - २७८ विमुत्तिरसो - ७६ विमुत्तिर- ७५ विमुत्तिसञ्ञिनो - ३८१ विमोक्खो - ३५५ विम्हापयन्तीति - ३२४
३८२, ४०६ विसूकभूता - ३०५ विसेसमग्गफलं – ६८ विसंवादनचित्तं - २९५, २९६ विसंवादनं – २९५ विस्सकम्मुनाति - ६५ विस्सगन्धो - ६७
||
विस्सट्ठसिक्खो - ५२ विस्सत्योति - ५३ विस्समिस्सामीति - ६८
विरतिचेतना – ४३३ विरतोति - २८७ विरत्तचित्तो - २२६ विरागानुपस्सनायाति - २७२
विहनन्ति - २१३ विहारोति - १५३ विहेठनभावतोति - २८८
वीतमलं - १६ वीतिनामेत्वाति - १७९ वीमंसा - ९९, ३५०
विराजेत्वाति - २७१ विरेचनन्ति - ३३१ विलीनस्साति- ३३० विवट्टन्ति विवट्टानुपस्सना - २७२ विवाहनं - ३२९ विवित्तासनेति - १७९
- ४०९
वीमंसानुचरितन्ति - १६२ वीरियपारमी- २२०, २५२ वीरियबलेनाति - ४१५ वीरियसम्पत्ति - २३४ वीसताकारं - र - ३४२ वीहि - ३०८
वुत्तधम्मानन्ति - १५०
विवेकजं – ४३ विसगन्धोति - ६७ विसङ्घतं - ७६ विसङ्घारगतं – ७७ विसट्टाति - ६५ विसदत्राणो - २२३ विसदिन्द्रियो - २२३
वुद्धभावोति - २९ वूपसमलक्खणं - २७३ वेदनाकम्मट्ठानेति – ४१० वेदनाक्खन्धो - १९८,२५१ वेदनाट्टस्स - १२०
[३५]
35
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________________
[३६]
वेदनाति - ४०५ वेदनानन्ति – ४२५, ४३०
वेदनापच्चया - १८४, ४२०, ४२३, ४२४, ४२८
वेदनापटिबद्धं - ३५९ वेदनाफस्सायतनादिमुखेन - ४२०
वेदनामूलकं - ४०८
वेदनाविक्खम्भनतो – ३६
-
वेदनासमुदयोति आदिलक्खणानं - ३५७
वेदनासमोसरणाति - २७४, ४२८ वेदनासहजातनिस्सयारम्मणभूता - ३५९
वेदनासीसेन - ३५९ वेदयितन्ति - ४०१, ४०३
वेदल्लसञ्ञा - ११०
वेदवादिनो - ३६४
वेदसद्दो- ११७
वैय्याकरणन्ति - १०९, ११०, ४१४
वेरीपुग्गलो- २२९
वेस्सन्तरजातके - ४१६
वोकलनं - ३२९
वोदानधम्मे – ४३०
वोस्सोति - ३३१
वोहरन्ति - ६८, ९२, ३४२, ३८८, ४१२
वोहारोति - ९५
वंसन्ति - ३१६ वसोति
- १०१
स
सकम्माकम्मकिरियानुयोगं - १०५
सकरणीयो - ५२ सकलकुसलधम्मपटिपत्तिया सकलनवङ्गं – ५०
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका-१
सकलसासनरतनं - ३८ सकुणञाणन्ति - ३२७ सक्कपञ्हसुत्ते - २०० सक्कायदिट्ठियो – २१३
- २७९
36
सक्कायोति - - ३४४ सक्खिभावेनाति – ४१६
सक्खीति - १०८ सक्यमुनी - २८०
सग्गकथा - २४१ सङ्कप्परागो – ३४४
सङ्कम्पि - १२१
सङ्कलनं - ३२९
सङ्घतट्ठो - १४७ सङ्घतधम्मे – २७२ सङ्घारक्खन्धो - १९८, २५१ सङ्घियधम्मो – १७७
-- ८३
सङ्क्षेपा -- ३४२ सङ्ग्रहितानीति सङ्ग्रामविजयोति - ४१३ सङ्गीति - ३३
सङ्गीतिकाले - ११३, १२० सङ्गीतिपाळियं - ६४
सङ्गीतियोति - ७३
सङ्घाटा - ३१४
सङ्घो - ६, २०, ३६, १९५ सङ्घोति - ५, १६० सच्चकिरियन्ति - २९९ सच्चचागपञ्ञाधिट्ठानानि - २५६ सच्चञ्जनन्ति - ३३१
सच्चधम्मातिक्कमे - २३५
[ स स ]
सच्चपारमी- २२०, २५५ सच्चवादी- २२४
सच्चं - १८, १०५, १४५, १५१, २०२, २१७, २१८,
२१९, २२१, २३९, २४४, २५६, २८०, २८८, ३३१, ३३३, ३४५, ३४६, ३५४, ३५५, ३६०, ३६६, ३९२, ४०६, ४२७
सच्छिकत्वाति - १६, १७, ३३५ सच्छिकिरियाति - ३३५ सजिताति - ३६८ सञ्चयवादो - ३९८
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________________
[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[३७]
सञ्चयो-३८० सञ्चयं-३७९ सजाननकिरियाय-३५ सञआक्खन्धो-२५१ सञ्जाति-३८६,३८७ साविनिमुत्तधम्मे-३८७ सञ्जीवादा-३८५, ३९१ सञ्जप्पादाति-३८४ सतिआयतनेति-४०४ सतिपट्ठानविभङ्गट्ठकथायं-५९ सतिपारिसुद्धिजउपेक्खासुखुप्पत्तियो-२५८ सतिबलं- १०२ सतिसम्पजञबलेन-१०२,२४६ सतिसम्पजाधिट्टानं-४१८ सतिसम्पजनं-२३७ सतिसम्मोसेन-२४४ सतीति-४०, ५३, ११०, १३२, १५१, ३१४, ३९९ सतोति-३८९ सत्थाति-१५६,२०० सत्थं-२८८,२८९,३२५,३२६ सत्तपञत्ति-२८३ सत्तपण्णिगुहायं-४२ सत्तपण्णी-६५ सत्तपदं - २६९ सत्तपरियायो-३७५ सत्तभङ्गदिट्ठि-३८० सत्तविज्ञाणधातुसम्पयोगवसेन-३४० सत्तवोहारो-२९२ सत्ताहं -३६, ५८, ३७१ सत्तिपञ्जरं-५८ सत्तो-९,१६१, २३५, ३७९, ४१२ सदाभावतोति-३६९ सद्दनयोति- १७३ सद्धम्मसवन - १२६ सद्धम्मो-१४४ सद्धम्म-१,१७
सद्धापञ्जा-२७४ सद्धापञ्जासमायोगो-४१८, ४१९ सद्धापटिलाभाय - २४७ सद्धासम्पत्तीति - १८१ सद्धासम्पन्नो-२२५ सनरामरलोकगरुन्तिआदिना-१४ सनरामरलोकगरूं-१० सनरामरा-११ सन्तकन्ति-८९,३९२ सन्तकायचित्तो-२४५ सन्तभावायाति-३८४ सन्ताति-३३४ सन्तापट्टो-१४७ सन्तारम्मणानि-३३४ सन्तासन्ति-३६७ सन्तोति-३८२ सन्थम्भित्वाति-६२ सन्धागारन्ति -५८ सन्धाविस्सन्ति-७६,७७ सन्निधि-३१३,३१४,३१५ सन्निधिकारो-३१३ सन्निसज्जट्ठानन्ति-६५ सन्निसिन्नेति-३२१ सपो -२०४ सप्पभेनाति-६९ सप्पराजवण्णन्ति-१६४ सप्पाटिहारियं-१०१ सप्पाव्हायनविज्जाति- ३२६ सप्पीतिकतण्हं-२७२ सब्बञ्जतञाणे-३३८ सब्बञ्जतचाणं-७,९,१४,७६, १७८,१८३,१८५,
३३५,३३६, ३३८,३४२ सब्बतिस्थियानं-७८ सब्बदेय्यधम्मपरिच्चागो-- २५३ सब्बधम्मतीरणं - २७२ सब्बधम्मानन्ति-१७४,१७५
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________________
[३८]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[स-स]
सब्बपारमीति- २६४ सब्बपालिफुल्लं-१६९ सब्बबुद्धकारकधम्मानं - २४६ सब्बबुद्धगुणेति-२११ सब्बमूळ्होति-३७९ सब्बलोकहिताय -२२९ सब्बलोकियगुणसम्पत्ति-१४ सब्भावतो-२५,८७ सभावधम्माति-३९९ सभावनिरुत्तिं-९४ समग्गेसूति-२९९ समग्यतरन्ति-३१० समणोति- २८७ समत्ताति-१२७, १८६ समथविपस्सनाभावनापारिपूरिं-४३५ समथानुयोगो-२४१ समनुञोति - २९० समन्तचक्खुना-१७४,२८१ समन्ताति-१६८ समन्नाहारो-२८२, ३९५ समयप्पवादकोति-१४७ समवायेति-१४६ समस्सासितो-१८१ समस्सासेतुन्ति-६३ समा-१८०,२७० समादिन्नाति-१२७ समाधानलक्खणं-२२० समाधिक्खन्धो-१५४२४ समाधिञाणेहि-२८० समाधिनाति-३४६ समाधिपञ्च-२०५ समाधिपदट्ठाना - १७४,२१८,२२१ समाधियतीति-४ समाधिसम्पदा - १०२,२३३ समानत्ततासिद्धि-२६१ समापत्तियो-४४,४५
समाहितचित्तो-२२५ समिद्धिकालेति-३३१ समुच्छेदनलक्खणं-२७४ समुच्छेदप्पहानं-९०,१४७,४३५ समुट्ठानलक्खणाति-२७३ समुट्ठानं-१२५, २७३,३५५,४१७ समुदयसच्चं-३५७, ४२०, ४३२, ४३६, ४३७, ४३८ समुदयोति-१४८ समुदायोति-१४८ समूहत्थो-११,१५० समूहो -२०, २२, १४८, १५०, १५६, १७०, ३०३ समेन्तीति-१७७ समो-१६५ समोधानलक्खणं-२७४ समोधानं-१४८, १७३, २७४, ३६२ सम्पकम्पीति- १२१ सम्पजज्ञबलेन-१०२ सम्पजानो -- २५७, २६४ सम्पजानोति-६२ सम्पत्तिकिच्चं-७५ सम्पयुत्तधम्मा-२७४ सम्परायो-१४७ सम्पवेधीति-१२१ सम्पहारोति-३१७ सम्फप्पलापोति-२९८,३०१ सम्फस्सो-१०३ सम्बुद्धो-१०५, २७६ सम्बोधिपरायणोति-१६० सम्भवतोति - १५०, ३४८ सम्भारा-२५४,२८४,२९४,३०० सम्भारो-९६ सम्मज्जं-३१६ सम्मन्तीति-४०४ सम्माकम्पितचेतसा-४२५ सम्मादिट्ठि-४३१ सम्मापटिपत्तिया-३,४०,७८,१६३, ४२६
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[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[३९]
सम्मामनसिकारो-३४६ सम्मावाचा-२७३ सम्मासमाधि-३८१ सम्मासम्बुद्धो-४६, १७५, १७७,१९६, २२३ सम्मासम्बोधि-१३,१७४,२६०,२६२,२६३,२८० सम्मासम्बोधीति-१४,१७४ सम्मोहो - १९५, ४३१ सयम्भू-१६,१२४, १३० सयंपटिभानं-३५१ सयंपभा-३६४ सररक्खणन्ति-३२७ सलोमको - ३५६ सल्लकत्तवेज्जकर्म-३३२ सल्लकत्तं-३३२ सल्लेखोति-३१३ सवनं-१२९,१३४,१३९,१६६,२१२,३०५,३१०,
३५१ सविकाराति -४०८ सवितक्कसविचारं-१७८ सस्सघातं -५४ सस्सतउच्छेददिट्टियो-४१८ सस्सतदिट्ठियोति -३७६, ३८०, ३८४ सस्सतवादा-३४६ सस्सतियो-३४९ सस्सतिसमन्ति-३४९, ३८४ सस्सतोति- ३४६, ३४९ सस्सिरिकेनाति-६९ सस्सिरीककरणन्ति-३३० सहब्यताति-३६७ सहब्योति-३६७ सहब्यं-३६७ सहवो-३६७ सहसाकारो-३११ सहसाति-३७७ सहितन्ति-३२४ सहोत्तप्पाणं-३९,३६७
सळायतनन्ति -३०७,४१० साणधोवनकीळा -३१६ साणानि-४२,४३ सात्थकं-१७९,१९६,३२२,३५५ सादो-३९४ साधकवचनं-१०८ साधारणपरिभोगो-४३ सापदेसा-३०३. सामणेरभूमियं-३७ सायमासं-३०४ सारफलकेति-१६७ सारभूतो-६६ सारिपुत्तत्थेरेन - ११७ सारियो -३१७, ३१८ सालाकियं-३३२ सावकपारमिञाणन्ति-३३८ सावकबोधिं-२०८ सावत्थिनगरद्वारेति-२०५ सावि-३१० सासनं -१,३८,३९,४१, ४२,५०,७८, ८६, १८८,
३०५, ३२४ साहत्थिकोति-२८५,२९६ सिक्खतीति-५२ सिक्खाति-८९ सिखन्ति-१८६, ३२२ सिखाभेदो-३१० सिद्धोति-१२६, १८५, २७४ सिरिया-६९, १६९, ३३० सिरिविभवेनाति-३७० सिरिव्हायनन्ति-३३० सिरोविरेचनं-३३१ सिविका-३१४ सीतलं-७ सीलकथाति-२८ सीलगुणा-२३० सीलथोमनसुत्तं - २०३
30
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[४०]
दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका-१
[स-स]
सीलनलक्खणं - २२० सीलन्ति - ५२, २३१, ४३४ सीलपारमी-२२० सीलपारिसुद्धिं - २३२ सीलमत्तकन्ति-२०२,४२७ सीलविसुद्धि-२५०, ४१८ सीलसमाधिपायो-४१० सीलसम्पत्तिसिद्धितो--२१८ सीलसम्पदा- १०२, २३१, २३३ सीलसंवरो-२३७, २४१ सीलेनाति-६९, ९८, २०३ सीसानुलोकिनोति-१६७ सीहसेय्या-६१ सीहळगण्ठिपदे - ९६ सीहळदीपे-३२५ सीहोति-१८३, १८४ सुक्कसोणितन्ति-३९२ सुक्खवलाहकगज्जनन्ति-३२८ सुक्खविपस्सकखीणासवभिक्खूति-५० सुक्खविपस्सका-५१ सुखकरणी-३०१ सुखन्ति-१९, ३५८,४३७, ४३८ सुखवेदनाय-३५९ सुखसम्फस्सानि- १०३ सुखसीलो-२२४, २४५ सुखाति-३०१ सुगतसद्देन - १३, १४ सुगतो-११, १२, २१७ सुगम्भीराति-३४० सुचरितकम्मुना – ६६ सुञतापकासनं-३३३, ४१९ सुञतालक्खणं-२७४ सुचन्ति-३६४ सुञभावन्ति - २९७ सुतचिन्तामयपञ्जा-३७८ सुतधरोति-१३२
सुता-१४३, ३५४ सुत्तन्तदेसनाति-८२ सुत्तन्तनयपटिपत्ति-३१३ सुत्तन्ताभिधम्मसङ्गीति-७३ सुत्तं - ३४,५२,७४,७८,८०,८१,९८,१०८,१०९,
११०, ११२, ११७, ११८, १३४, १३८, १८९,
२७६, ३९०,४१४, ४१७,४२०,४३९ सुत्तेन-८०,८१, ८३ सुद्धकोसेय्यन्ति -३२० सुद्धचित्तेन-३१५ सुद्धतक्को -३५१ सुद्धावासा - ३८८ सुद्धि-१४१,२७३ सुनिविट्ठो-३२२ सुपरिसुद्धनिपुणनयाति-२९ सुपरिसुद्धसमाचारो-२४४ सुपरिसुद्धं - २९ सुपिनकन्ति-३२५ सुभगकरणं-३३० सुभद्दोति-३६ सुभासितं-४१४, ४२१,४२२ सुभो - ६३ सुमनपुष्पं - २०४ सुमनोति-४५,४६ सुरभिगन्धो-२३० सुलपितं-४१४ सुविसुद्धा --२६४ सेक्खाणं-३३८ सेक्खपुग्गलो - ५३ सेक्खोति-५६ सेतत्थरणोति-३१९ सेतरुक्खो -३१३ सेना - १८, १९ सेनाब्यूहो-३१७ सेय्यथापि- ४५,४६,१२७,१९६,२२९,२३२,३६०,
४०४
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[ह-ह]
सद्दानुक्कमणिका
[४१]
सेवनचित्तं-२९४ सोकसल्लसमप्पितन्ति-६० सोतद्वारन्ति-१२९ सोतपथो-१२९ सोतविजेय्यन्ति-१३२ सोतापन्नस्स- ४०१ सोमनस्सचित्तो-६८ सोमनस्सन्ति-३५८ सोरच्चसम्पदा-४३५ सोवण्णमये-३०९ संकिलिट्ठचित्तस्साति-२९८ संकिलेसधम्मे-४३० संकिलेसमलतो-१०२, २१७ संकिलेसो-९,९०,२१५, २३८,२४१ संयोगो-१५३, ३४१ संयोजनभावतो-१४८ संवण्णनालक्खणो-४३५ . संवरभेदोति-२८३ संवरसीलसङ्गहे-३०३ संवरो-८९ संविभागसीलो-२२४ संवुतिन्द्रियो - २४७ संवेगन्ति-६७,३६७ संवेजेतीति-१५७ संवेजेसीति-६२ संसन्दति-२६,४८, ४२२,४२६ संसरन्ति-३४८ संसारदुक्खन्ति-२९२ संसीदोति-३९९ स्वायन्ति-१६३
हत्थतलं-२५० हत्थत्थरं-३२० हत्थबन्धन्ति-३२२ हत्थमुद्दाति -३२९ हत्थेति-६१,२११ हदयङ्गमा-२९८ हदयन्ति-७,३१० हदयभेदो-३१० हदयमंसचलनं- ३६७ हदयवत्थु-७,२८८ हदयवत्थुनिस्सयं-२८८ हनतीति-१६४, १७४, २९० हरितन्तन्ति-३४३ हलाहलन्ति-१६४ हलिद्दीति-२९७ हस्सो-३७० हानभागिया-२४७ हारो-३२९, ३५९ हिरिओत्तप्पं - ४३४ हिरिधर्म-२४४ हिरिवेरन्ति-३१३ हीनमज्झिमपञ्जा-३५० हेट्ठिमन्ति-२०५ हेतुफलं- ९३ हेतुमूलके-३४० हेतूति - ९३, ९८, १००, २२५, ४२३, ४३४ हंसराजा-१७० हंसवट्टकच्छन्नेनाति-१७३
hc
हट्ठतुट्ठचित्तोति -६८ हत्थकम्मन्ति-६५ हत्थकिरियं-६५
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गाथानुक्कमणिका
इमे धम्मे सम्मसतो - ४१५
उत्तरस्मिं पदे ब्यग्घपुङ्गवोसभकुञ्जरा -१८३ उम्मुग्घातो पदञ्चेव-१२५
अकुसला किलेसा च-२३८ अच्ची यथा वातवेगेन खित्ता-४२८ अट्ठकं मालिकं वुत्तं -३१८ अट्ठक्खरा एकपदं -७२ अट्ठवस्सा भवे गोरी-३०८ अत्यहि नाथो सरणं अवोच-१०, ४०५ अथ धचंतिधा सालि-सट्ठिकवीहिभेदतो-३०८ अनागते सन्निच्छये - ४९ अनेकभेदासुपि लोकधातूसु - २८१ अनेकसाखञ्च सहस्समण्डलं-२६९ अभिनीहारो च तासं-२२१ अभिवादनसीलिस्स -४ अविज्जा मुद्धाति जानाहि-९ अवीचिम्हि नुप्पज्जन्ति-२६३ असत्येय्यानि नामानि-२१४ अस्सादादीनवता-४२१
एकनाळिका कथा च - १२४ एवादिसत्तिया चेव-१३३ एवं सब्बङ्गसम्पन्ना- २६३ एस देवमनुस्सानं-५ एसा नमुचि ते सेना-१९
आ
कति छिन्द कति जहे-११८ कथेतब्बस्सअस्थस्स-८७ कप्पकसायकलियुगे-१५७ का पनेता पारमियो-२१५ कामञ्च सा तथाभूता-२ कामन्धा जालसञ्छन्ना-४२७ कामा ते पठमा सेना-१९ कामं कामयमानस्स-१११ कामं तचो च न्हारु च-४१५ कायेन संवुता आसिं-११५
आचरियधम्मपाल-त्थेरेनेवाभिसङ्खता-२ आदितो तस्स निदानं - १२५
इतो परं आचरियधम्मपालेन या कता-४१६
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[४४]
दीघनिकायेसीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका
[ग-प]
कारणे चेव चित्ते च-६७ किकीव अण्डं चमरीव वालधिं-२०४ कित्तकेन सम्पादनं - २१६ कुडुवो पसतो एको-३१५ कुद्धो अत्थं न जानाति-४२६ केनस्सु निवुतो लोको - १११ को पच्चयो-२१५
दस्सनं दीपनञ्चापि-१४५ दस्सितो परम्पराय - १४५ दानाकारादयो एव-२३९ दानं सीलञ्च नेक्खम्म-२१७ दिसो दिसं यं तं कयिरा--४१३ दुवे पुथुज्जना वुत्ता-५० दुवे सच्चानि अक्खासि-१०५ देसकस्स वसेनेत्थ -८७ देसकानं सुकरत्थं - १९७ देसनाचिरहितत्थं - १८८ . द्विदसेकदसान्युद्द-लोमीएकन्तलोमिनो -३२०
गच्छं समाहितो नागो-१७५ गम्यमानाधिकारतो-४०३ गाथासतसमाकिण्णो-११२
चक्काभिवुड्डिकामानं-२ चित्तीकतं महग्घञ्च-२२
नपुंसकेन लिङ्गेन-११ । न भवन्ति परियापन्ना-२६३ न सा अम्हेहुपेक्खेय्या-४१६ न होन्ति खुद्दका पाणा- २६३ नेकत्थवुत्तिया सद्दो- १९६ नेलङ्गो सेतपच्छादो-३००
तण्हादीहि अघातता-२३८ तण्हादीहि परामट्ठ-भावो तासं किलिस्सनं-२३८ तण्हामानादिमझत्र-२१६ तथञ्चधातायतनादिलक्खणं-२८० तथाकारेन यो धम्मे-२७६ तथानि सच्चानि समन्तचक्खुना-२८१ तदायं पथवी सब्बा-४१५ तदेव तु अवत्वान-१९७ तस्मा वोहारकुसलस्स-१०५ तस्स गम्भीरजाणेहि-२३ तिकञ्च पट्ठानवरं दुकुत्तमं -३४० ते तादिसे पूजयतो-५ तेजो उस्साहमन्ता च-२३ तं निस्साय ममेसोपि-२
पञ्चमं थिनमिद्धं ते-१९ पञ्च छिन्दे पञ्च जहे-११९ पचाधिकादिभेदेन - २६२ पठमं समादानता-वसेनायं कमो रुतो-२१८ पदन्तरवचनीय-स्सत्थस्स विसेसनाय-२०२ पयोजनञ्च पिण्डत्थो-१२४ परमो उत्तमढेन-२१६ परेसमनुग्गहणं-- २२० पस्सथेतं माणवकं-३१०
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[फ-ल]
गाथानुक्कमणिका
महासिखा च सुक्खग्गा-रत्तानिलसिखोज्जला-३२८ मातापिताचरियेसु-१० मिच्छादिहिँ न सेवन्ति-२६४
य
पहाय कामादिमले यथा गता-२८० पहुते च पसंसायं-३४३ पाणिरक्खो पिचु चापि-३७१ पारमीति महासत्तो-२१६ पारे मज्जति सोधेति-२१६ पियो गरु भावनीयो -२२५ पुब्बापरले अत्थञ्जू-१०६ पुमे पण्डे च काकोल – १६४ पुरेयावपुरायोगे-५० पूजारहे पूजयतो-५ पूरेति मवति परे -२१६
फस्सतो छब्बिधापेता-४०५
यञ्चत्थवतो सद्देकसेसतो वापि सुय्यते - ५१ यतो च धम्मं तथमेव भासति- २८१ यथा च युत्ता सुगता पुरातना-२८१ यथा वाचा गता यस्स-२७८ यथा विभागतो तिस-विधा सङ्गहतो दस-२५५ यथा हि अङ्गसम्भारा-२८३ यथापि पुप्फरासिम्हा-१२६ यथाभिनीहारमतो यथारुचि-२८१ यथावुत्तस्स दोसस्स --१०९ यदान्तलिक्खे बलवा - ३२८ यम्हि सच्चञ्च धम्मो च-२७ यस्सन्तरतो न सन्ति कोपा-१५८ यस्स येन हि सम्बन्धो-४३ यायत्थमभिवण्णेन्ति-२५ येन केनचि अत्थस्स- १९६ येन देवूपपत्यस्स-१२ येन येन निमित्तेन-१६ यो अकुसले समूलेहि-४३७ यो देसेत्वान सद्धम्म-१ यो निन्दियं पसंसति-१६३ यो नेकसेतनागिन्दो-२
बहुस्सुतोधम्मधरो-१३९ बात्तिंसक्खरगन्थानं-७२ बुद्धोपि बुद्धस्स भणेय्य वण्णं - १५, १६६, २६६,
२८० बुद्धत्तं पच्चुपट्टानं-२२०
भुत्ता च सा द्वादसहन्ति पापके-३७० भेदकथा तत्वकथा-१२४
रूपतण्हादिका काम-तण्हादीहि तिधा पुन -४०६
मक्कटी वज्जिपुत्ता च-१२१ मत्तमेवाति एकत्थं-४०८ मन्दानञ्च अमूळ्हत्थं - १९७ मयेव मुखसोभास्से-१६९ महाकारुणिको सत्था-२६१
लाभो सिलोको सक्कारो-१९
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[४६]
दीघनिकायेसीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका
[व-ह]
लुद्धो अत्थं न जानाति-४२७
सम्मासम्बुद्धता तासं - २६५
वण्णगमो वण्णविपरियायो - १५४ वण्णनं आरभिस्सामि-२ वत्तमानाय पञ्चम्यं-११ वायुपित्तकफा दोसा-६२ विनेय्यज्झासये छेकं-१ विपुब्बो धा करोत्यत्थे -२९६ विरत्तो सब्बधम्मेसु -२६१ वुत्तम्हि एकधम्मे-३५९ वेनेय्यानं तत्थ बीजवापनत्थञ्च अत्तनो-१९७
सरीरदूसना दोसा-६३ सस्सतुच्छेददिट्टि च-३९७ सस्सतुच्छेददिठ्ठी च-८८ सा मागधी मूलभासा - २६ सामनभेदतो एता-२५३ सामञवचनीयतं-१४८ सुत्तन्ति सामञविधि-१०९ सुद्धावासेसु देवेसु-२६४ सुद्धोदनो धोतोदनो-५५ सोतवेकल्लता नत्थि-२६३
हन्द बुद्धकरे धम्मे-२२२
सङ्केतवचनं सच्चं-१०५ सञ्जूपमं सेत'मतुल्यदस्सनं-३७० सङ्केपत्ता च सोतूहि-२ सङ्गीतित्तयमारुळहा-१ सच्चो चागी उपसन्तो-२६१ सतञ्च बलिपुत्तानं-३२८ सत्थुसम्पत्तिया चेव-१८९ सत्तसतसहस्सानि-३६ सत्तसत्तग्गिना वारा-३६३ सद्दो धम्मो देसना च-९२ सब्बदा सब्बसत्तानं-२६१ सब्बसङ्घतधम्मेसु-३९ सब्बसाधारणतादि-कारणेहिपि ईरितं-२१८ सब्बासं पन तासम्पि-२५९ सब्बेसु भूतेसु निधाय दण्डं- १११, ११४ सब्बो रागो पहीनो मे-११४ समासो च तद्धितो च-३६ समुट्ठानं पदस्थो च-१२५ समुट्ठानं पयोजनं-४१७
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May the merits and virtues earned by the donors and selfless workers of Vipassana Research Institute, Igatpuri
be shared by all beings.
May all those who come in contact with
the Buddha Dhamma through this meritorious deed put the Dhamma into practice and attain the best
fruits of the Dhamma.
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DEDICATION OF MERIT M****AXONM«6«»-KNOVO*****
May the merit and virtue
accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above,
and relieve the suffering of those on the three paths below.
May those who see or hear of these efforts
generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma,
and finally be reborn together in
the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA
Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198 , Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw
Printed in Taiwan 1998 , 1200 copies
IN046-2010
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DATION
KOLE
೧೧ ಗಂಡಾಂತರ ರ್ಪ ತಿ ತಿಂಗಳು ಕಾಣಸಿಗn | 114 Poor, 55 Hang Chow Scarped. See 1. apei, Taiwan, 5.0.C. ನಾಡ ರ್ಗಾ 5 for cತಾ B 5 ಕಾರ ೧ ಚಾಣ
1995, 2250 copies IND45-2010
ISSN 81-7414-059-7%