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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्रीमद्भगवद्धरणं भूतबलिदन्ताचार्येध्यो नमः ।
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सिद्धांत-सूत्र समन्वय
[ षटखण्डागम-सिद्धान्त रहस्य समझने की तालिका ]
ग्रन्थ- रचयिता - विद्यावारिधि, बादीम केसरी, न्यायालङ्कार, धर्मवीर श्री० पं० मक्खनलालजी शास्त्री 'तिलक' मोरेना (वालियर स्टेट)
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ERARIJERREEEEEEEEEEERELESE
श्रीः
। सिद्धात सूत्र समन्वय
RIGIENEMIERRINTERNETRAINRITERATEHRENDRA PATWIREATREETEEHEHER
श्रीमान सेठ वंशीलाल गङ्गाराम, काशलीवाल, नादगांव।
तथा
BREATER ErasaATTERNE FERRENADRIEKHEREMETERINETRIEW WINTERELY
श्रीमान सेठ गुलाबचन्द खेमचन्दशाह,
सांगली के प्रदत्त द्रव्य वारा मुद्रित ।
सम्पादक-- श्रीमान पं० रामप्रसाद जी शास्त्री, बम्बई ।
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प्रथमवार
प्रथमवार]
वीर सं० २४७३
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स्वाध्याय
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प्रकाशक
दिगम्बर जैन पञ्चायत बम्बई, [वहारमन्न मृनचन्द, चन्द हुकमचन्द धारा)
अजितकुमार शास्त्री, प्रोप्रा- अब लङ्क प्रैस मुलतान शहर
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प्रस्तावना
अधिकार और उद्दार इस पटखएडागम सिद्ध शास्त्रको परमागम कहा जाता है, गोमट्टमार बादि भनेक शाखोइ.पटवण्डागम का उल्लेख परमागम के नाम में ही किया गया है। यह सिद्वांत शामा अंगैकदेशज्ञाता गायों द्वारा रचा गया है पत: अन्य शास्त्रों में यह अपनी विशिष्टता प्रसारणा रखता है। इसी लिये इसा पढ़ने पढ़ानेका परिकार स्यों को नहीं है, किन्तु वीतराग मनिगण हो इसके पढ़ने के अधिकारी हैं। यह बात अनेक शाखों में स्पष्ट को गई है। गृहस्थों को नो विशेष रूप से प्रथमानुयोग एवं परणानुयोगके शाख और श्रावकाचार प्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये, उनका ममधिक उपयोग और कन्या उन्होंस हो सकता है। हमने इस सम्बन्ध में एक छोटा मा ट्रेक्ट भी
"सद्ध न शास्त्र और इनके अध्ययन का अधिकार" इस नाम म लिश है जो छप भी चुका है, उसमें अनेक प्रमाणों में यह सिद्ध किया गया है कि गृहस्थों को इस सिद्धान्तशास्त्र के पढ़ने का अधिकार नह है। उसी सम्बन्ध में एक विस्तात ट्रैक्ट भी हम
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लिखना चाहते थे, सामग्री का संग्रह भी हमने किया था परन्तु उसका उपयोग न देखकर उसमें शक्ति व्यय करना फिर व्यर्थ
समझा ।
हमारी यह इच्छा अवश्य थी कि इन मन्त्रोंका जीर्णोद्धार ह और उनकी हस्तलिखियां मुख्य मुख्य स्थानों में सुरक्षिन रक्खी जांय | परन्तु 'वह मुद्रित कराये जाकर बनले बिक्री को जांय' हम इसके सबंधा विरोधी हैं । जब तक परमागन-निवांत शाख ताडपत्रों में लिखे हुये मूडनिद्रा में विराजमान थे, तब तक उनका आदर, विनय भक्ति और महत्व तथा उनके दर्शन को अभिलाषा समाज के प्रत्येक व्यक्ति में समधिक पाई जाती थी, परन्तु जब से उनका मुद्रण होकर उनकी बिको हुई है तब से उनका चादर विनय भक्ति और महत्व उतना नहीं रहा है, प्रत्युत प्रवाशय के विपरीत साधनाओं का साधन वह परमागम बना लिया गया है, इसलिये आज भलेही उसका प्रचार हुआ है परन्तु लाभ और दिल के स्थान में हानि हो अभी तक अधिक प्रतीत हुई है । जैसा कि वर्तमान विवाद और आन्दालन से प्रसिद्ध है। हमारे तीन ट्रक्ट
सिद्धांतशास्त्र में सिद्धांत विपरीत समावेश देख कर हमें ट्रैक्ट लिखने पढ़े हैं। एक तो वह जिसका उल्लेख ऊपर दिया जा चुका है। दूसरा वह जो "दिगम्बर जैन सिद्धांत दर्पण (प्रथमभाग )" के नाम से बम्बई की दिगम्बर जैन पंचायत द्वारा छपा कर प्रसिद्ध किया गया है। जिसमें द्रव्यस्रीमुक्ति, सबस्रमुक्ति
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और केजी कानाहार इन तीनों बातोंका सप्रमाण एवं-युक्तियुक्त बण्डन है। और तीसरा ट्रैक्ट यह प्रत्यक्षा में पाठकों के सामने है।
सिद्धांतशास्त्र का अवलोकन बहुत समय पहले जब हम जेनविद्री (श्रवण बेलगोला) होते हुए मृाविद्री गये थे तब वशं के पूज्य भट्टारक महोदय जी ने हमें बड़े स्नेह और भार के साथ उन ताइपत्रों में लिखे हुए सिद्धान शास्त्रों के दर्शन कराये थे। पूर दीपकों से उनका भारती की गई थी। उस समय हमें बहुत ही पान आया था और उनके शनों से हमने रत्नों की प्रतिमाओं के दर्शन के समान हो अपने को सौभाग्यशाली समझाया। फिर भाज से ई वर्ष पहिले जब परम पूज्ज पाचार्य शांतिसागर जी महाराज ने अपने सम्स्त रिव्य मुनि संव सहित बारामती में चातुमास किया था सबसगोय धर्मवीर दानवीर सेउराव जी सखाराम दोसी के साथ हम भी महागज और उनके दर्शन के लिये वहां गये थे। उस समय परम पूज्य पाचाय म:गज ने सिद्धांत शाम को सुनाने का मादेश हमें लिया था। ता करीब पौन माह रहकर महाराज और संघ के समक्ष हस्त लिखित मूल पति पर से (उस समय (सिद्धांत शाख मुद्रित नहीं हुये थे अतः उनका हिन्दी अर्थ भी अनुवादित नहीं था) प्रतिदिन तः और मम्यान में करीब १०.१२ पत्रों का अर्थ बोर भाशय हम महाराज के ममन्त निवेशन करते थे। वह प्रन्याशय सुनाना हमारा परम गुरु के समक्ष एक
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विष्य के नाते क्षयोष राम की परीक्ष देना था। विशेष कठिन स्पन पर जहां हम रुककर पंक्ति का प्रथं विचारते थे वो कुशाप्रबुद्धि, सिद्धन रहस्य पाचार्य महाराज स्वयं उस प्रकरण गत भाव का सटीकरण करते थे। वह बाचा और भी कुछ ममय तक चलता परन्तु मुनि विहार में रुकावट भा जाने में हैदराबाद निामम्टेट) धर्म खाते के मिनिष्टर से मिलने के जिये जाने वाले दक्षिण प्रांगेय जैन डेप्युटेशन में हमें भी जाना पड़ा पतः वह सिद्धांत बापन हमारा वहीं रुक गया । मस्। __जप गृस्यों को मिल शास्त्र पढ़ने का अधिकार नहीं तम यह वापन कसा ? ऐसो राक्ष का उठना सहन है और वह बात समाचार पत्रों द्वारा उठाई भो गई है। और यह किसी अंरा में टोक भी की जा सकती है । पर इस सम्बन्ध में हमारा कहना यह है कि हमारा वाचन हमारा पत्र खाध्याय या पठन पाठन नहीं था, किन्तु परम गुरु भाचार्य महारामधादेश का पालन मात्र था। जिसे ९० अपवाद वा विशेष परिस्थिति कहा जा माता है। सर्व साधारण बोग बन्यबों के समान प्रतिदिन Bाचाय में सिद्धांत शास्त्र को भी रखते हैं अथवा शाख समा उसका प्रवचन करते हैं सब पठन पाठन बहलाता है ऐसा पठन पाठन सिद्धांत शाबब गृहस्थों के अधिषर से हो प्रकार निषिद्ध है जिस प्रकार कि सर्वसाधारणसमत खुले रूप में क्षुलक को देशलग्न अथवा बमोटो हटाकर न रहने का निषेध है।
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परन्तु वह अपवाद तो दूसरी बात थी परमगुरु का मातापजिन मात्र था अब तो हमको इस पटखण्डागम सिद्धांत शाब की पयात अवलोकन एवं मनन करना पड़ा है। यह विशेष परिस्थिति पहली परिस्थिति से सर्वथा विभिन्न है। यह स्वतन्त्र लान है, फिर भी दिगम्बर के एवं सिद्धांत के घातक समावेश एवं वैसी समझों को दूर करने के लिये हमें बिना इच्छा के भी इन सिद्धांत शास्त्रों का अवलोकन करना पड़ा है। अन्यथा परमागम के अध्ययन की हमारी अभिलाषा नहीं है अपना क्षयोपशम दृढ़ श्राद्धिक एवं सद्भावना पूर्ण होना चाहिये फिर बिना सब प्रन्थों के अध्ययन के भी समधिक बोध एवं परिज्ञान किया जा सकता है । अध्ययन तो एक निमित्त मात्र है ऐसी हमारी धारणा है। हमने यह भी अनुभव किया है कि सिद्धांत शास्त्र बहुत गम्भीर है उनमें एक विषय पर अनेक कोटियां प्रश्नोतर रूप में उठाई गई हैं उन सबों के परिणाम तक नहीं पहुंच कर अनेक विद्वान एवं हिन्दी भाषा भाषो मध्य की कोटियों तक ही वस्तुस्थिति समझ लेते हैं । उस प्रकार का दुरुयोग भी उनकी पूर्ण जानकारी के बिना हो जाता है । अतः अनधिकृत विषय में अधिकार करना हिव कारक नहीं है मर्यादित नीति और प्रवृत्ति ही उपादेय एवं कल्याणकारी होती है। इस बात पर समाज को ध्यान देना चाहिये ।
- बुद्धि का सदुपयोग -
महर्षियों ने भिन्न २ अनेक शास्त्रों की रचना एक एक विषय
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को लेकर की है। प्रतिपाद्य विषय बहुत हैं और वे विनर शाहों में वर्णित हैं। हमने समस्त शाखों को देखा भी नहीं है। फिर तपः प्रभाव से उत्पन्न निर्मन सूदम क्षयोपशम के धारी महर्षियों के द्वारा रचे हुये शाखों का प्रतिपाय विषय अत्यन्त गहन और गम्भीर है, और हमारी जानकारी बहुत छोटी और स्थान है। ऐसी अवस्था में हमारा कर्तव्य है कि हम उन शास्त्रों के रहस्य को समझने में अपनी बुद्धि को सन शास्त्रों के वाक्य और पदों कीमोर ही लगावें। अर्शन ग्रन्थाशय के अनुसार ही बुद्धि का झुगाव हमें करना चाहिये। इसके विपरीत अपनी बुद्धि को भोर उन शाखों के पर-वाक्यों को कभी नहीं खींचना चाहिये । हमारी बुद्धि में जो नंगा है वही ठीक है ऐसा समझ कर उन शास्त्रों के भाशयोभपनी समझ के अनुसार जगाने का प्रयत्न करी नह! करना चाहिये । यही बुद्धि का सदुपयोग है।
जब हम इस बात का अनुभव करते हैं कि जिन भगवत्कुम. कुन्द स्वामी का स्थान वर्तमान में सर्वोपरि माना जाता है। जिन की बाम्नाय के आधार पर दिगम्बर जैन धर्म का वर्तमान अभ्युदय माना जाता है जैसा कि प्रतिदिन शास्त्र प्रवचन में बोला जाता है
मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणो।
मंगलं कुन्दकुमायो जैनधर्मोस्तु मंगलम ! से महान दिमाज पाचार्य शिरोमणि भगवत्कुन्दन स्वामी बाके एक देश माता भी नहीं थे । ऐसी अवस्था में हमारा मन
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हिप गणना में आ सकता है? सिर भी हम लोग अपने पाण्डित्य का घमण्ड करें और जनता के समक्ष दोरवाणी अथवा वोर उपदेश कहकर अपनी समझ के अनुसार ऐसा इतिहास उपस्थित करें मो शाखों के पाशय से सर्वथा विपरीत है तो वह वास्तव में विद्वत्ता नहीं है, और न ग्राह्य है। किन्तु अपनी तुच्छ बुद्धि का केवल दुरुपयोग एवं जनता का प्रतारण मात्र है।
माजकल समाज में कतिग्य संस्थायें एवं विद्वान ऐसे भी हैं जो अपनी समझ के अनुसार भानुमानिक (अनाजिया) इतिहास लिखकर प्रन्य कर्ता-भाचार्यों के समय भादि का निर्णय देने
और मागे पीछे के भाचार्यों में किन्ही को प्रामाणिक किन्हीं को अप्रामाणिक ठहराने में हो लगे हुए हैं। इस प्रकार को कल्पना पूर्ण खोज को वे लोग अपनी समझ से एक बड़ा पाविष्कार समझते हैं।
इसी प्रकार भाजपा पद्धति भी बन पड़ी है कि केवल १०. पृष्ठ का तो मूल एवं पटोय है, उसके साथ १५० पृष्ठों को भूमिका जोदकर उसे प्रसिद्ध किया जाता है इस भूमिका में ग्रंथ और प्रथकतो भाषायों की ऐसी समालोचना की जाती जिससे पंध और उसके रचयिता-पाचायों की मान्यता एवं प्रामाणिकता में सन्देह तथा भ्रम स्पन्न होता रहे।
जिन वीतराग महर्षियों ने गृहस्यों के कल्याण की प्रचुर भावना से उन अन्यों की रचना की है, उनके उस महान् उपकार और कृतज्ञता का प्रतिफल पाज इस प्रकार विपरीत रूप में दिया
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मारहा। यह देखकर हमें बहुत खेद होता है। इस प्रकार के पारिहत्य प्राशंन से समाज हित के बदले उसका तथा अपना माहित ही होता है। और जैन धर्म प्रचार स्थान में उपका हास एवं विपर्यास ही होता है।
ओ जैनधर्म अनादिधन से घभी तक युग-प्रवर्तक तीर्थकर, गणधर, प्राचार्य, प्रत्याचार्य परंपरा से अविच्छिन्न रूप में चला मारा है। और जिसका वस्तु स्वरूप प्रतिपादक, सहेतुक अकाट्य सिद्धान्त जीवमात्र के कल्याण का पथ प्रदर्शक और पूर्वापर विरुद्ध समधर्म में उत्त. विकृतियां न्युनिसि के ही चिन समझना चाहिये। अस्तु ।
हमने अपने पूर्व पुण्योदय से जिनवाणी के दो प्रक्षरों का बोध प्राप्त किया है उसका उपयोग भागमानुकूल सरलता से तत्व पहण और पर प्रतिपादन रूप में करना चाहिये यही बुद्धि का सदुपयोग और ऐसा सद्भाव धारण करने में ही स्व-पर कल्याण है। भाशा हमारे इस नम्र निवेदन पर संस्कृत पाठी तथा भांगलभाषा-पाठी सभी विद्वान ध्यान देंगे। श्रदेय धर्मरस्न पण्डित नानारामजी शास्त्री का
मामार या माशीर्वाद इस ग्रन्थ लिखने के पहले हमने इस सम्बन्ध में जितने नोट किये थे उन्हें लेकर हम अपने कई भाई साहेब भोमान धर्मरत्न पूज्य पं० लालाराम जी शास्त्री महोदय के पास गये थे। कों ने हमारे सभी नोटों को ध्यान से देखा, और कई बाते हमें
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श्रीमान शीलान जी गंगाराम काशनावाल गाव (नामिक)
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बाई, साथ ही मां ने यह बात बड़े पाश्वयं के माथ कहो कि 'जोत्रकाण्ड और कर्मकाण्डसमचा गोम्मटमार व्यवेदक निरूपण से भरा हुआ है. और पटवण्डागम-सिद्धांत शास्र में कहीं भी इम्यवेतका बगान नहीं है ऐमा ये समझदार विद्वान भी कहते हैं। यह बहुत ही पाश्चर्य की बात है। प्रस्तु।
अनेक गोर संस्कृत शास्त्रों का अनुवाद करने के कारण श्रद्धेय शाधी जी का जसा पसागरण एवं परिपक्व बढा चढा शासीय अनुभव है और जैसे वे समाज प्रतिष्ठित उद्भट त्रिवान हैं. उसी प्रकार उन्हें पागम ए धमे रक्षण को भी नमरिक चिना रहती है। प्रोफेसर माहेब क मन्तव्यों सता व 3 कतिकी हानि समझते हैं परनु सिद्धांत सूत्र में "सम्जद" पद जुइ जान एवं उसके ताम्रपत्र में स्थायी हो जाने से वे बागम में परीत्य पाने सं समाज भर का पहिन समझते हैं, इसका उन्हें अधिक खंद है। इस लिये जिस प्रकार "दिगम्बर जैन सिद्धांत दर्पण प्रथम भाग,, नामक ट्रैक्ट के लिखने के लिये हमें श्रादेश दिया था। इसी भान्ति यह ग्रंथ भी उन्हीं के आदेश का परिणाम है। अन्यथा हम दोनों में से एक भी ट्रैक्ट के लिखने में सफल नहीं हो पाते, कारण कि अष्ट महस्री, प्रमेय मत मार्तण्ड राजवातिकालंकार पचाध्यायी इन ग्रन्थों के अध्यापन तथा संस्था एव समाज सम्बन्धी दूसरे २ अनेक कार्या के प्राधिक्य से हमें थोड़ा भी अवकाश नहीं है। फिर भी भाई साहब की प्रेरणा से हमने दिन में तो नियत कार्य किये हैं, रात्रि में दो दो बजे से
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उठ कर इन दें कटों को लिखा है। इस प्रावश्यक कार्य मम्पादन के लिये हम पूज्य भाई माहब का प्रामार मानने को अपेक्षा का शुभाशीवाद चाहते हैं। इस ग्रन्यपर प्राचार्य महाराज तथा कमेटी का
मन्तोष और प्रस्ताव
सहायक महानुभाव सेठ बंशीलाल जो नादगांव तथा संठ गुलाबचन्द जी इस कार्तिक (श्री बीर निर्माण सम्पन २४७३) की अष्टाका में परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ प्राचार्य शनिमाग। जी महाराज और मुनिराज ननिसागर जी तथा मुनिराज धर्मसागर जी महाराज के दर्शनार्थ हम कवलाना (नासिका गये थे, इसी समय वहां पर "श्री प्राचार्य शान्तिसागर जिनवाणी जाणी. द्वार कमेटी" का वार्षिक उत्सव भी हुमा था। परम पूज्य प्राचार्य महाराज, दोनों मुनिराज और उक्त कमेटी के समक्ष हमने अपनी यह सिद्धान-सूत्र-समन्वय" नामक प्रधरपना लिखित रूपमें वहीं पर पदी थी। विवाद कोटि में पाये हुये 'संजद' शन्न के विषय में परम पूज्य प्राचार्य महाराज और कमेटी को भी बहुत चिन्ता थी कमेटी इस सम्बन्ध में भरना उत्तरदायित्व भी समझती है। कारण कमेटी में सभी विचारशील धार्मिक महानुभाव है। हमारी इस रपना को बराबर तीन दिन तक बहुत ध्यान से सुन कर भाचार्य महाराज तथा सबों ने बहुत ह और सन्तोष प्रगट
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किया। भागरा के प्रख्यात श्रीमान सेठ मगनलाल जी पाटणी मादि अन्य महानुभाव भी उपस्थित थे। कमेटी ने अपने अधिवेशन में कोल्हापुर पट्टाधीश श्रीमान पूज्य भट्टारक जिनसेन स्वामी की नायकता में इस बाशय का एक प्रस्ताव सर्वमतसे पास किया कि इस प्रन्य रचना के प्रसिद्ध होने के पीछे दो माह में भावपक्षी विद्वान अपना अभिप्राय सिद्ध करें। फिर यह कमेटी परम पूज्य श्री १०८ पाचाये शान्तिसागर जी महाराज के आदेशानुसार सजद पद सम्बन्धी अपना निर्णय घोषित कर देगी। अस्तु ।
जिनवाणी जीणोद्धारको प्रबन्धक और दृष्ट कमेटी के सुयोग्य सदस्य श्रीमान सेठ वशीलान जी गाराम काशलीवाल, नादगांव (मासिक) निवासां, तथा श्रीमान सेठ गुलाबचन जी खेमचन्द जी सांगली (कोल्हापुर स्टेट) निवासी भी हैं। इन दोनों महानुभावों ने इस अन्य को संजद पद सम्बन्धी विवाद को दूर करने वाला एवं अत्युपयोगी समझकर कर स्वयं यह इच्छा प्रगट की कि इस पन्थ को ५०० प्रति छपाई जावें और उनकी छपाई तथा कागज में जो खर्च होगा वह हमारी भोर से होगा। तदनुसार यह प्रय उक्त दोनों महानुभावों के द्रव्य से प्रकाशित हो रहा है।
दोनों ही महानुभाव देव शाख गुरु भक्त है। दृढ़ धामिक है। धर्म सम्बन्धी किसी प्रकार का विनय और विरोध दोनों ही सहन करने वाले नहीं हैं। दोनों ही समाज प्रतिष्ठित और नक्षाधीश है। श्री सेठ वंशीलाल जी काशलीलाला महाराष्ट्र प्रांत के प्रख्यात 'नगर सेठ' कहे जाते हैं। उनकी नादगांव में दो कपास
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की गिरनी भी चल रही हैं। नादगांव म्यूनिमालिटी के चेयरमैन भी पाप बहुत वर्षों तक रह चुके हैं। वहां के सरकारी व नगर के कार्यों में प्रधान रूप से बुलाये जाते हैं । धवल सिद्धांत त म्रपत्र लिपि के जिय मापन ११०१) ३० प्रदान किये हैं। नादव के
शान जिन मन्दिर में एक वैती और मानस्तम्भ बनवाने का सङ्कल्प नाप कर चुके हैं इस कार्य में करीब २१०००) २० नगाना चाहते हैं। श्री० सेठ गुलाबचन्द जी शाह सांगली के प्रसिद्ध व्यापारी हैं। जिन दिनों भा० दि. जैन महासभा के मुखपत्र जैन गरट के सम्पादक और सं० सम्पादक के नाते श्रीमान श्रद्धय धर्मरत्न पं० लालाराम जी शास्त्री व हम पर डंफीमेशन (फौजदारी) केश बम्बई ऐसेम्बली के मम्बर सेठ बालचन्द रामचन्द जी एम० ए० ने दायर किया था, उस समय इन्हीं भी० सेठ गलाबचन्द शाह ने केवल धमे पक्ष की रक्षा के उद्देश्य से अपना बहुत बदा हुमा व्यापार छोड़कर बलगांव में करीब दमाह रहकर हमें हर प्रकार की सहायता दी थी, वकीलों को परामर्श देना साक्षियों को तयार करना, मादि सभी कार्यो में वे हमारे सहायक रहे थे। यह उनकी धर्म को लगन का ही परिणाम है। जिस प्रभार हम दोनों भाइयों ने अपने व्यापार की हानि उठाकर और भनेक कष्टों की कुछ भी परवा नहीं करके केवल धर्मपक्ष की रक्षा के उद्देश्य से निष्पवृत्ति से यह धर्म सेवा को थी उसी प्रकार शोलापुर, कोल्हापुर, पूना मादि (दक्षिण प्रान) के प्रसिद्ध २ कोट्याधीश महानुभावों ने भी धर्म चिंता से अपनी शक्ति इस
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देश में लगाई थी। भारत भर के समाज की आंखें की उस कश की ओर लगी हुई थीं। जिस देश में बम्बई ऐस्म्बली के भू० पृ० अर्थ सभ्य (फाइनेंस मिनिष्टर) और कोल्हापुर दीवान श्री माननीय लट्ठे महोदय, फर्यादी ( विपक्ष) के वकील थे उस बड़े भारी केश में पूर्ण सफलता के साथ हमारी विजय होने में उक्त सभो महानुभाव और खासकर श्री० सेठ गुलाबचन्छ जी शाह सांगली का अथक प्रयत्न ही साधक था । सांगली राज्य के चेम्बर आफ कामर्स के प्रेसीडेण्ट पद पर रहकर श्री० सेठ गुलाबचन्द्र जी शाह ने वहां के व्यापारीवर्ग में पर्याप्त माकर्षण किया है। वहां की व्यापार सम्बन्धी उलझनों को भाप बड़े चातुर्य से दूर कर देते हैं । श्री० शांतिसागर अनाथाश्रम सेडवाल ६. श्राप दृष्ट कमेटी के मन्त्री हैं। धवल सिद्धांत ताम्रपत्र लिपि के लिये आपने अपनी भोर से ५०००) और अपनी सौ० धमरत्नी श्री श्रीर से १०००) रु० दिया है। दक्षिण उत्तर के समस्त सिद्ध क्षेत्र व अतिशय क्षेत्रों की आप दो बार यात्रा भी कर चुके हैं। आपके ४ पुत्र हैं जो सभी योग्य है ।
श्री० सेठ बंशीलाल जी नादगांव और श्री० सेठ गुलाबचन्द जी सांगली दोनों ही अनेक धार्मिक कार्यों में दान करते हैं। श्री० गोपाल दि० जैन सिद्धांत विद्यालय मोरेना (ग्वालियर स्टेट) के धौव्य फण्ड में दोनों ने १००१) १००१) ६० प्रदान किये हैं। दोनों हो इस प्रख्यात सस्था के सुयोग्य सदस्य हैं। इस ग्रन्थ प्रकाशन में भी उन्हों ने द्रव्य लगाया है, इतने निमित्त से ही हम उनकी
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१४ प्रशंसा नहीं करते है किन्तु उक्त दोनों महानुभाव सदैव धर्म की चिता रखने वाले और धर्म कामों में अपना योग दन वाले हैं। स्वयं धर्म निष्ठ हे प्रतिदिन पंचामृताभिषेक करके ही भोजन करते हैं. यह धर्म लगन ही एक ऐसा विशेष हेतु है जिससे उनके प्रति हमारा विशेष भादर और स्नेह है। तथा उनका हमारे प्रति है। दिगम्बरत्व और सिद्धांत शाख परमागम को अक्षुण्ण रक्षा की सदिच्छा से उन्होंने इस सिद्धांत सूत्र समन्वय' प्रन्थ क प्रकाशन में सहायता दो है, तदर्थ दोनों महानुभावों को धन्यवाद देते हैं।
-माननीय बम्बई पञ्चायतइस प्रसङ्ग में हम बम्बई की धर्म परायण पञ्चायत और उम
अध्यक्ष महोदय का पाभार माने बिना भी नहीं रह सकते हैं। यदि बम्बई पंचायत इस कार्य में अपनी पुरी शक्ति नहीं लगातो तो समाज में सिद्धांत विपरीत भ्रम स्थायी रूपसे स्थान पा लेता। बम्बई पञ्चायत के विशेष प्रयत्न भोर शान्ति पूर्ण वैधानिक भान्दोलन एवं शास्त्रीय ठोस प्रचार से उस भ्रमका बीज भी प्रब ठार नहीं सकता है। जिस प्रकार दिगम्बर जैन सिद्धांत दर्पण प्रथम भाग, द्वितीय भाग, तृतीय भाग, इन बड़े २ तीनों ट्रैक्टोंका प्रकाशन बम्बई पञ्चायत ने कराया है, उसी प्रकार इस "सिद्धांत सूत्र समाय" पन्थका प्रकाशन भी दिगम्बरजैन पंचायत की बोरसे ही हो रहा है। इसके लिये हम बम्बई पञ्चायत को भूरि भूरि धन्यवाद देते हैं।
माखनलाल शास्त्री "तिलक"
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समर्पण
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श्री शान्तिमागर जगद्गुरु मारमारी, श्री वीतराग पटवर्जित लिंगधारी । भाचार्य साधुगण पूजित, विश्वकीर्ति, भक्त्या नमामि तपतेज सुदिव्य मूर्ति || सिद्धांत सूत्र अरु पूर्ण श्रुताधिकारी, श्री संयमाधिपति भव्य भवाब्धितारी | मेगं विशुद्ध रचना यह भेंट लीजे, सिद्धांत रक्षण तथा च कृतार्थ कीजे ।!
श्रीमद्विश्ववन्द्य, लोकहितङ्कर, अनेक उद्भटविद्वान तपस्त्री श्रावार्य माधु शिष्य समूह परिवेष्टित, चारित्र चक्रवर्ती पूज्य पाद श्री १०८ आचार्य शिरोमणि श्री शांतिसागर जी महाराज के कर कमलों में यह प्रत्य-रचना पूर्ण भक्ति पौर श्रद्धांजनिक साथ समर्पित है ।
चरणोपासक - मक्खनलाल शास्त्री
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अन्य रचयिता का परिचय श्रीमान न्यायानगर, विणा वारिधि, वादीम केसरी, धमीर परिडत मक्खनलाल जी शास्त्री से सारा जैन समाज भलो भान्ति परिचित है। भापकी विद्वत्ता प्रविष्ठा और प्रभाव समाज में प्रख्यात है माप हमेशा से ही जैन संस्कृति की रक्षा एव उसका प्रचार करने में अप्रसर रहे हैं। आप सायं सच्चे धमात्मा हैं। इस समय भाप द्वितीय प्रतिमाधारी श्रावक है।
पार्ष-मार्गानुक्सानी मापने सर्वदा जैन संस्कृति का प्रचार किया है, यही कारण है कि भापको सुधार वादियों के साथ प्रनंक बडे २ संघर्ष नने पड़े हैं, जो उन सघर्षों में मापने धर्म रक्षा के सिपाय और किसी को कुछ भी. परवा नहीं की। इसलिये भाप सदैव सफल हुये हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन समाज में जबर भी साम जिक या धार्मिक विचार धारामों में मत भर होने से संघर्ष हुमा है, तभी मापने हमेशा अपना दृष्टिकोण पार्ष-मार्गानुकूल ही रखा और पार्ष विरुद्ध प्रचार का स्ट कर सामना एवं विरोध किया है। भाप श्री भारतवर्षीय दि० जैन महासभा के प्रमुख सदस्यों में एक है, पाप महासभा के प्रमुला पत्र जैन गजट के अनेकों वर्ष सम्पादक रहे हैं। आपके सम्पादन काल में जैन गजट बहुत भन्नति पथ पर था वर्तमान में भी पाप जैन पोषक के सम्पादक है। अन्तर्जातर विवाह, Rawat विवाद स्पस्पशेखोप इन धर्म विरुद्ध बातों का मापने हमेसासेवी विरोध किया है।
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श्रीमान धर्मपरायण सेट गुलाबचंदजी खेमचंद शाह नांगलेकर, सांगली (कोल्हापुर)
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इस ग्रन्थ की २५० प्रतियों आप के द्रव्य से प्रकाशित
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आज जिन जातियों में उक्त प्रथायें प्रचलित हैं, उनमें ऐसी कोई भी जाति नहीं है, जो धार्मिक एवं आर्थिकदृष्टि से बढ़ी चढ़ी हो, प्रत्युत वे जातियां अध: पतन की ओर जा रही हैं ।
इसी प्रकार समय २ पर आपने जो अपने विचार समाज के सामने रक्खे हैं, वे सभी शस्त्रीय एवं अकाट्य युक्तियाँ से युक्त रहे हैं ।
आपने पत्र बाध्यायी राजवार्तिक तथा पुरुषार्थ सिदुष्युपाय इन सैद्धान्तिक प्रन्थों की विस्तृत एवं गम्भीर टीकायें की हैं। जो कि विदुरसमाज में अतोत्र गौरव के साथ मान्य समझी गई हैं। देहली में चार्य-समाजियों के साथ लगातार छह दिन तक शास्त्रार्थ करके आपने महत्वपूर्ण विजय प्राप्त की है। उसी के सम्मान स्वरूप आपको जैन समाज ने "वादोभ केसरी" पश्वी से विभूषित किया है। आज से करीब २० वर्ष पहिले आपने श्री गो० दि० जैन सिद्धांत विद्यालय मोरेनाको उस हालत में संभाला था, जब कि इस विद्यालय का कोई धनी धोरी हो नहीं दीखता था आपसी दलबन्दी के कारण विद्यालय के कार्यकर्ता अध्यापक वर्ग विद्यालय से चले गये थे ।
उच्च पदाधिकारी योग्य संचालक के नहीं मिलने के कारण विद्यालय के चलाने में अतीव कठिनाई महसूस कर रहे थे उस कठिन समय में आपने आकर विद्यालय की बागडोर अपने हाथ में की थी, और विद्यालय को आर्थिक सकुट से दूर कर विद्यालय के ध्येयके अनुकूल ही अभी तक बराबर विद्यालयको भाप चला
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रहे हैं। बीच में इसमें अनेक मगढ़े और विघ्न सबा बावायें भी खड़ी की गई, पान्तु उन सब बड़ी से बड़ी टक्करों से बचा कर विद्यालय को उच्च धार्मिक प्रादर्श के साथ बापने चखाया है। यह पापको ही अनोखी विशेषता है। जो कि अनेक विकट सटों के आने परमी पाप सबको अपने सर झेखते हुए निर्मी कता और दृढ़ता के साथ कार्य में संलग्न रह रहे हैं। वर्तमान में विद्यालय का प्रबन्ध व पढ़ाई प्रादि सभी बातें बड़े अच्छे रूस में चल रही हैं ग्वालियर दरबार से भी विद्यालयको १००) माहवार मिल रहा है। यह सब पापके सतत प्रयत्न का ही परिणाम।
कई वर्षों तक भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा परीनालय के मन्त्री भी भाप रहे हैं। मापके मन्त्रित्व कालमें परोक्षालयने थोड ही समय में अच्छी उन्नति कर दिखाई थी। ___ गवालियर स्टंट में भी आपका अच्छा सम्मान है, भामरेरीमजिस्ट्रेट के पद पर पाप बहुत वर्षों तकरा चुके हैं। वर्तमान में पाप ग्वालियर गवर्नमेंट की डिस्ट्रिक्ट मोकाफ कमेटी के मैपर हैं। दोनों कमों के उपलक्ष्य में आपको श्रीमान हिज हाइनेस ग्वालियर दरबार की भोर से पोशाकें भेट में पाप्त हुई है।
वंश परिचय पाप चावली (घागरा) निवासी स्वर्गीय श्रीमान बाल तोतारामजी के सुपुत्र है, माना जो गांव के अत्यन्त प्रतिष्ठित धामिक सज्जन पुरुष थे उनके बह पुत्रों में सबसे बडे पुत्राला रामलाल जी थे जो बाल ब्रह्मचारी रहे, ५५ वर्षी मायुमें
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उनका अन्त हो गया।
उनके वर्तमान पुत्रों में सबसे बड़े जाना मिळून लाल जी है। होंने मनीगढ में ५० छालाल जो से संस्कृत का अध्ययन किया था वे भी बहुत धार्मिक है।
सनसे बोटे श्रीमान धर्मरत्न पं० लालाराम जी शास्त्री हैं, बापने भनेको संस्कृत के उनचकोटि के ग्रंथों की भाषा टीकायें बनाई है। मादि पुराण की समीक्षा की परीक्षा भादि ट्रैक्ट भी लिखे हैं जिनका समाज ने पुरा भारर किया है । तथा भक्तामर शतद्वयी नामक संस्कृत ग्रन्थ की बड़ी सुनसार स्वतन्त्र रचनाभी मापने को है। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के सहायक महामन्त्री पद पर भी पाप अनेक वर्षों रहे हैं. जैनगजट के सम्पादक भी पाप रह चुके हैं। पाप समाज में लभ-प्रतिष्ट व उदट विद्वान हैं और प्रत्यन्त धामिक हैं पाप द्वितीय प्रतिमाधारी श्रावक हैं, इस समय माप मैंनपुरी में अपने कुटुम्बियों के साथ यते हुने वहीं व्यापार करते हैं।
-प्राचार्य सुधर्म सागर जी महाराजश्रीमान परमपुज्य विद्वद्वंधपाद श्री १०८ भाचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज उक धर्मरत्न जी के लघु भ्राता थे, प्राचार्य महाराज ने संघ के समस्त मुनिराजों को संस्कृत का अध्ययन कराया था, सुधर्म श्रावकाचार सुधर्म ध्यान प्रदीप, चतुर्विशिका इन महान मंस्कृत ग्रंथों की कई हजार श्लोकों में रचना की है। बसमाजहिलिये परम मापन भूत। महाराज ने
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अपने विहार में धर्मापदेश द्वाग जगत का महान उपकार मिया है भाप श्रुतज्ञानी महान विद्वान एवं विशिष्ट तपोनिष्ठ वीतराग महर्षि थे लिखते हुए हर्ष होता है कि ऐसे साधुरत्न इसी वंश में उत्पन्न हुए। इनकी गृहस्थ अवस्थाके सुपुत्र पायुर्वेदाचार्य पं० जयकुमार जीव शास्त्री नागौर (मारवाड) में स्वतन्त्र व्यवसाय करते हैं।
इनस छोटे भाई श्रीमान पण्डित मक्खनलाल जी शात्री हैं और उनसे छोटे भाई श्रीमान वाबू श्रीला ज जी जौहरी हैं जो सकुटुम्ब जयपुर में जवाहरात का व्यापार करते हैं और बहुत धार्मिक तथा प्रामाणिक पुरुष हैं। इस प्रकार पद्मावतीपुरवाल जाति के पवित्र गौरव का रखने वाला यह समस्त परिवार कट्टर धार्मिक और विद्वान है। इस दृढ धार्मिक, चारित्र-नि, विद्वान कुटुम्ब का परिचय लिखते हुये मुझे बहुत प्रसन्नता होती।
ग्रन्थ परिचय षटखण्डागम जैन तत्व एवं जैन वाङमय की वर्तमान में जड़ है, अथवा यह कहना चाहिये कि जीव तत्व और कर्म सिद्धांत ब यह सिद्धांत शाल भदुत भण्डार है। इसमें सन्देह नहीं कि इस के पठन-पाठन का अधिकार सर्व साधारण को नहीं है। केवल मुनि सम्प्रदाय को हो इसके पठन-पाठन का अधिकार है। इसी माशय को लेकर परिडत जी ने सिद्धांत शास्त्र के मुद्रण विक्रय पौर गृहस्यों द्वारा उसके पठन-पाठन का विरोध किया। इन का यह सुझाव मागमानुकून ही है। जबसे उक अन्धों का
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प्रकाशन हुआ है, तभी से दिगम्बर जैन धर्म को मुख्य र मान्यताभों को अनावश्यक एवं प्रामाणिक सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाने लगा।
वर्तमान में दिगम्बर जैन विद्वानों में तीन प्रकार की विचार धारायें हैं, प्रायः तीनों प्रकार के विचार वाले विद्वान अपनी २ मान्यतामों का पाधार षटखण्डागम को बतलाते हैं, कुछ लोगों का विचार है कि श्रीमुक्ति सवनमुक्ति तथा केबली कबलाहार दिगम्बर जैनागम से भी सिद्ध होते हैं और इसमें षटखण्डागम * सत्संख्याक्षेत्रमशन-कालांतर-भावाल्प-बहुत्व प्ररूपणामों में मानुषी के चौदह गुणस्थानों का वर्णन प्रमाण में देते हैं, परन्तु पांचवें गुणस्थान से ऊपर कौन सी मानुषी ली गई है, तथा दिगम्बर जैन बाचार्य परम्परा ने कौन सी मानुषी के चौदह गुणस्थान बताये हैं। दिगम्बर जैन धर्म की ऐतिहासिक सामग्री एवं पुरातत्व सामग्री में क्या कहीं पर द्रव्यत्री के मोक्ष का बल्लेख मिलता है ? अथवा कहीं पर कोई मुक्त व्यत्री को मूर्ति उपलब्ध है ? इत्यादि बातों पर विचार करने से यह स्थूल बुद्धि वालों को भी सरलता से प्रतीत हो जाता है कि जहां पर मानुषियों के छठे भादि गुणस्थानों का वर्णन है वह सब भाव को अपेक्षा से ही है, न कि द्रव्यापेक्षा से। __दूसरी प्रकार की विचार धारा वाले वे लोग हैं जो द्रव्यसी की दीक्षा, तथा मुक्ति का निषेष तो करते हैं और पटरएडागम में बताये गये, मानुषी के चौदह गुणस्थानों को भाव की अपेक्षा से
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बताते हैं। इसी भाधार पर पटखएडागम के प्रथम भाग (जीवस्थान सत्यरूपणा) में १३वं सत्र में (जिसमें मानुषियों की पर्याप्त अवस्था कौन २ से गुणस्थानों में होती है इसका वर्णन है) संजद पर है, ऐसा कहते हैं, न्यायालङ्कार ५० मक्खनलाल जी शास्त्री का एवं उनके सहयोगी विद्वानों का यह कहना है, कि ६३वां सत्र योग मार्गणा और पयोति प्रकरण का है अतः बह द्रव्यवेद का ही प्रतिपादक है, इसलिये उसमें संजद पद किसी प्रकार नहीं हो सकता है, इसी मुत्रस यत्रियों के मादि के पांच गुणस्थान ही सिद्ध होते हैं। यह बात सूत्रकार के मत स्पष्ट हो जाती है।
गोम्मटसार में भी मानुषियों के चौदह गुणस्थानों का कथन है। और इस शास्त्र का काफी समय से जैन समाज में पठनपाठन हो रहा है। परन्तु कभी किसी को यह कहने का साहस नहीं हुमा हैं कि 'दिगम्बर जैनागम ग्रन्थों में भी श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार द्रव्यत्रियों को मुक्ति का विधान है' और न किसी ने बाज तक यही कहा है कि इसमें द्रव्यवेद का वर्णन नहीं है। इसका एक मात्र कारण यह है कि उसी गोम्मटसार प्रन्थ में त्रियों के उत्तम सहनन का निषेध किया गया है, और यह गोम्मटसार अन्य पटखएडागम से ही बनाया गया है, पण्डित जी ने अपने इस गम्भीर प्रन्थ में युक्ति और मागम प्रमाणों से हो यह सिद्ध किया है कि एवं सत्र में संजद पद नहीं हो सकता है, वह बकाया है। विद्वानों को उनके इस सप्रमाण रहस्य पूर्ण कथन पर मनन करना चाहिये।
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. -न्यायापार जी का नवीन दृष्टिकोण
न्यायानर जी ने इस प्रन्थ में मादि की चार मागणामों को लेकर एक ऐसा नवीन दृष्टिकोण प्रगट किया है जो षटखएडागम सिद्धांत शाब के द्रव्यवेद वर्णन का स्फुट रूप से परिचय करा देता है धवल सिद्धांत के पहले सूत्र से लेकर १०० सूत्रों पर्यत जो क्रमबद्ध वर्णन द्रव्यवेद की मुख्यता से उनों ने बताया है वह एक सिद्धांत शास्त्र के रहस्य को समझने के लिये अपूर्व कुजी है। मैं समझता हूं कि यह बात भाववेद मानने वाले विद्वानों के ध्यान में नहीं पाई होगो ? यदि भाई होती तो वे इस परखएडागम सिद्धांत शाखको पवेद के कथन से सर्वथा शून्य और केवल एक भाववेद का ही अंरा वर्णन करने वाला अधूरा नहीं बनाते? पर वे इस नवीन दृष्टिकोण को ध्यान पूर्वक पढ़ेंगे तो मुझे पाशा है कि वे पूर्ण रूप से उससे महमत हो जायगे। इसी प्रकार पानापाविकार में पर्यात पर्याप्त की मुख्यता से वर्णन है और उसमें भाववेद द्रव्यवेद दोनों का ही सम्गवेश हो जावा है। तथा सत्रों में द्रव्यवेद का नाम क्यों नहीं लिया गया है। फिर भी उसका कवन अवश्यम्भावी है, ये दोनों बातें भी बहुत अच्छे रूप में इस प्रन्थ में प्रगट की गई है। इन सब नवीन दृष्टिकोणों से तथा गम्भीर और स्फुट विवेचन से न्यायालहर जी की गवेषणा पूर्ण असाधारण विच और सिद्धांतमर्मज्ञता का परिचय भली भांति हो जाता है।
दिगम्बर जैनधर्म की अक्षुल्य रक्षा बनी रहे यही पवित्र
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उद्देश्य श्रीमान न्यायासकार जी का इस विद्वत्ता पूर्ण प्रम के लिखने का है, इसके लिये मैं पण्डित जी को भूरि २ प्रशंसा करता हूं, इन कृतियों केलिये समाज उनका सदैव कृतज्ञ रहेगा। .
रामप्रसाद जैन शास्त्री, स्थान-दि. जैन मदिर, सम्पादक-दि० जैन सिद्धांत दपण, भूलेश्वर कामवादेवी बंबई, (दि. जैन पंचायत बम्बई) १-१-१९४७।
प्रकाशक के दो शब्द अभी दिगम्बर जैन सिद्धांत दर्पण के तीनों भाग बम्बई की दिगम्बर जैन पंचायत ने ही अपने व्यय से छपाकर सर्वत्र विना मूल्य भेजे हैं। इस महत्व पूर्ण प्रन्थ को भी बम्बई पंचायत हो अपाना चाहती थी परन्तु कबलाना में नादगांव निवासी श्रीमान सेठ बंशीलाल जी काशलीवान तथा सांगली निवासी श्रीमान सेठ गुलाबचंद जी शाह ने अन्य के विषय को संयत पर निर्णायक समझकर इसे प्रत्युपयोगी समझा और बहुत सन्तोष व्यक्त किया दोनों महानुभावों की इच्छा थी कि वह प्रन्य हमारे द्रव्य से छपा पर बांटा जाय। बम्बई पंचायत ने उन दोनों भीमानों को सदिच्छा को स्वीकार किया है। २४०-२५० प्रति दोनों सजनों के द्रव्य से बाई गई है। इस धर्म प्रेम पूर्ण सहायता के लिये पचायत एक दोनों महानुभावों को बहुत धन्यवाद देती है। हम समझते हैं कि जिस सिद्धांत रक्षण के सदुरेश्य से बम्बई पंचायत
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ने इस संजद पद सम्बन्धी विवाद को दूर करने के लिये अपनी शक्ति लगाई है और पूर्ण चिना रखी है उपकी सफल समाप्ति श्रीमान विद्वदर पं० रामप्रसाद जी शास्त्री, पज्य श्री क्षुल्लक मृरिसि जी के सहेतुक लेखों म तथा इस "सिद्धांत सूत्र समन्वय" अन्य द्वारा अवश्य हो जायगी एसी श्राशा है। इस अपूर्व खोज के माथ लिम्वे गये गम्भीर प्रन्थ निमाण के लिये बम्बई पंचायत श्रीमान विद्यावारिध वादोभ केसगे न्यायालङ्कार पं० मम्वनलाल जी शास्त्री की अतीव कृतज्ञ रहेंगी।
सुन्दरलाल जैन,
अध्यक्ष दि० जैन पंचायत बम्बई । (प्रतिनिधि-रायबहादुर सेट जुहारुमल मूल चन्द जी)
मुद्रक के दो वाक्य धवला के ६६वें सूत्रमें 'सनद' पद न होने के विषय में विद्वान लेखक महोदय ने जो इस पुस्तक द्वारा स्पष्टीकरण किया है हमारी उससे पूर्ण सहमति है।
इस पुस्तक के छापने में संशोधन, छपाई तथा सफाई कह यथाशक्य सावधानी से ध्यान रखा गया है किन्तु टाइप पुराना अतएव घिसा हुआ होने के कारण अनेक स्थानों पर मात्रायें रेफ मादि स्पष्ट नहीं छप सके हैं। नये टाइप का यशसमय प्रन करन का भगीरथ प्रयत्न किया गया किन्तु सफलता न मिलसको । पुस्तक की आवश्यकता बहुत शीघ्र थी अतः उस पुराने वाहप स
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हो पुस्तक छापनी पड़ो। इस विवशता को पाठक महानुभाव ध्या में न रखकर छपाई की अनिवार्य त्रुटि को समालोचना का विषय न बनावेंग ऐसी माशा है।
-अजितकुमार जैन शास्त्री। पो:-प्रकलप्रेस, चूड़ी सराय मुलतान शहर ।
मावश्यक निवेदन इस महत्व पूर्ण प्रन्य को ध्यान से पढ़ें। मनन करने के पीछे प्रन्थ के सम्बन्ध में जैसी भी भापकी सम्मति हो निम्न लिखित पते पर शीघ्र ही भेजने की अवश्य कृपा करें।
श्रीमान विद्यावारिधि न्यायानद्वार
पं. मक्खनलाल जी जैन शास्त्रो, प्रिंसिपलः-श्री. गो. दि० जैन सिद्धांत विद्यालय,
मोरेना (ग्वालियर स्टेट) निवेदक:-रामप्रसाद जी जैन शास्त्री, (दिगम्बर जैन पंचायत बम्बई की भोर से)
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श्रीमान विद्यावा वादी शग न्यायालदार समोर
पं. मकवन लाल जी शास्त्री
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मूत्र समन्वय पन्य के रायना श्राप
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श्री वर्धमानाय नमः सिद्धान्त सत्र समन्वय ( सिद्धान्त शास-रहस्य समझने की तालिका (कुंजी) ट् खण्डागम रहस्य और संजद पद
पर विचार
महंत मासि यत्थंगमहरदेवेहि मंस्थियं सर्व
पणमामि भतिजुत्तं सुदणाणमहोत्रयं सिरसा ॥ महसिदान्नमस्कृत्य सरिसाश्च भावतः ।
जिनागममनुस्मृत्य प्रबन्धं रचयाम्यहम् ।
श्रीमत्परम पूज्य भाचार्य परपेण से पढ़कर भाचार्य भूतबली पुष्पदन्त ने षट् खण्डागम सिद्धान्त शाखों की रचना की और उन्होंने तथा समस्त पाचार्य एव मुनिराजों ने मिलकर इस सिद्वान्त शात्रों को समाप्ति होने पर जेष्ठ शकला चमी के दिन इनकी पूजा की थी तभी से उस पंचमी का नाम प्रत पंचमी प्रवित होगया है। लिखित शास्त्र पहले नहीं थे तपंचमी से हि पने यह कहना तो ठीक नहीं है, भूत पूजा (सिद्धान्त शास्त्र की
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पूजा ) से प्रतपंचमी नाम पड़ा है। रे शास्त्र सिद्धनत शास्त्र, उनकी रचना अंग-शास्त्रों के एकदेश माता पाचार्यों द्वारा की गई , अतः उन शास्त्रों के पढ़ने का अधिकार गृहस्थ को नहीं है। ऐसा हम अपने ट्रेक्ट में प्रति कर चुके हैं, जब से उनका मुद्रण होकर गृहस्थों द्वार। पठन-पाठन चालू हुमा है, सभीसे ऐसी अनेक बातें विवाद कोटि में पा चुकी हैं, जिनसे दिगम्बर जैन धर्म का मून घात होने की पूरी संभावना है।
अनधिकृत विषय में अधिकार करने का ही यह दुष्परिणाम सामने वा चुकी कि 'एमोकार मन्त्र सादि, द्रव्य स्त्री उसी पयाय से मान जाने को अधिकारिणी है, सबस्त्र मोक्ष हो सकती है। केवली भगवान कबज्ञाहार करते हैं। ये सब बात उक्त पदखएडागम सिद्धान्त शास्त्र मादि के प्रमाण बताकर प्रगटकी गह, परन्तु गह इन सिवान्त शास्त्रों का पूरा र दुरुपयोग किया गया
और उन बन्दनीय सिमान्त शास्त्रों के नाम से समाज को धोखा दिया गया है। उन शास्त्रों में कोई ऐसी बात सबंधा नहीं पाई जा सकती है जिसस दिगम्बर धर्म में बाग उपस्थित हो । बता समाज के विशिष्ट विद्वानों ने इन सब बातों सपने लेखों व ट्रेक्टों द्वारा सप्रमाण निरसन कर दिया है। वर्तमान के बीच रागी महर्षियों ने भी अपना अभिमद प्रसिद्ध कराया है। हमने भी उन बातों के साबन में एक विस्तृत ट्रैक्ट लिलाव ट्रैक्ट और अभिमत धर्म-परायण दि.जैन बम्बई पंचायत ने
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(२)
बहुत पान और दूर व्यय के साथ मुद्रित कराकर सर्वत्र भेज दिये हैं। ये सब बातें समाज के सामने पाचुका है अतः उनपर कुछ भी लिखना व्यर्थ ।।
परस्तु वहां पर विचारणीय शत यह है कि मेरा जान जोकमत "शेतार मार दिगम्बर दोनों सम्मायों में कोई मौखिक (लास-मून भूत ) भंद नही, द्रव्य स्त्री मोक्ष जा सस्तीबादि बातें शेताम्बर मानते हैं हिगार शस्त्र भी इसी बात को स्वीकार करते " उसके प्रमाण में ये बासे पाचीन शास्त्र इन्ही पट खसाग सिद्धान्त शास्त्रों को मापार बताते , नका कहनाक"धवन सिद्धान्त के ६३ सूत्र में संयत पर होना चाहिये और वह सब इन्य स्त्रो के हो गुणस्थानों का प्रतिपादक, बस उस संयत पद विशिष्ट सूत्र से द्रव्य स्त्री २१४ गुणस्थान सिकहो जाते हैं।" इस कथन को पुष्टि में प्रोफेसर साहब ने उस सूत्र में संयत पद जोड़ने की बहुत इच्छा की बी परन्तु संशोधक विद्वानों में विवाद खड़ा हो जाने से ये सूत्र में तो संभव पर नहीं जोड़ सके किंतु उस सूत्र के हिन्दी अनुवाद में भोंने संबद पोड़ाही दिया । जो सिद्धाना शास्त्र भोर दिगम्बर जैन धर्म के सर्वथा विपरीत है। इन्हीं प्रोफेसर साहेब ने इस युग पाचार्य प्रमुख स्थानो कन्द को इसलिये मप्रमाण पाया कि पाने बारा रचित शास्त्रों में व्यस्त्री
पांच गुणस्तान से ऊपर के संयत गुणस्थान नहीं बताते हैं। मो.सोसारको समझोई निराधार एवं हेराम्य
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निरगल बात से कोई भी विद्वान सहमत नहीं है।
दूसरा पक्ष अब एक पक्ष सम्ग के विद्वानों में ऐसा भी खड़ा होगा? कि जो यह कहता है कि 'षट् माण्डागम १३ सूत्र में संजर पर इस लिये होना चाहिये कि वह मूत्र द्रव्य बी का कथन करने बाबा नहीं है किंतु भाव बोका निरूपको और भाव वेद मोरे १४ गुणस्थान बताये गये हैं। इसके विरुद्ध समाज के कुछ मनुभवी विद्वानों एवं पूज्य स्यागियों का ऐसा कानात बां सत्र भाव वेद निरूपक नहीं किंतु द्रव्य त्री काही निरूपको मतः उसमें सजद पर नहीं हो सकता है उसमें सजद पर जोर देने से द्रव्यको को मोक्ष एवं श्वेताम्बर मान्यता सह सिखरो गी। तथा श्री षट् सएडागम सिदान्त शास्त्र भी उसी श्वेताम्बर मान्यता का साधक होनेसे उसी सम्प्रदाय का समझा जायगा।
इस प्रकार विद्वानों में समापन पर विचार न होरहा था, इसी बीच में वान पत्र निमारक कमेटी द्वारा नियुक्त किये गये संशोषक पं० वापरजी शास्त्री ने उस तान पत्र में संबद परस सूत्र में खुदवा समा। इस कवि से बो श्वेताम्बर मान्यता दी बह दिगम्बर शाब में पब स्थायी बन चुको भविष्य में कवि से दिगम्बर जैनधर्म पर पूरा भावात एवं दिगम्बर शाखों परठापाव समझना चाहिये। पं० खापन जीको प्रयोधन के सिवा ऐसा कोई अधिकार नहीं था कि इस fara
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(2)
शाख को दिगम्बर धर्म के विपरीत साधना का आधार बना डालें और जब विद्वानों एवं स्यागियों में विचार विमर्ष हो रहा है तब तक तो उन्हें सजा पर जोड़ने का साहस कदापि करना उचित नहीं था ।
जिस समय प्रो० हीरा लाल जी ने केवल हिंदी अर्थ में सव्यत पत्र जोड़ कर छपा दिया था तब प० व शीधर जी (शोल पुर) ने यहां तक लिखा था कि इन छपे हुए सिद्धान्त शाखों को गङ्गा के गहरे जल बहुत कुण्ड में डुबा देना चाहिये, और
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प्रो० हीरालाल जी द्वारा उस सब्जद पद के हिंदी अर्थ में जुड़ा ने से ये शब्द भी उन्होंने लिखे थे कि " ऐसा भारी अनर्थ देवा
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कर जिस मनुष्य की आंखों में खून नहीं उतरता है वह मनुष्य 'नहीं' पाठक विचार करें कि कितनी भयङ्कर बात प० बन्शी पर जी ने उस समय सज्जद पद को हिन्दी अनुवाद में जोड़ देने पर कही थी, परन्तु विचारे प्रो० सा० ने तो डरते डरते उस प को केवल हिन्दी में हो ओडा है, किन्तु प० बन्शी पर जी के छोटे भाई १० खूब चन्द जी ने तो मूख सूत्र में ही सब्जद पर को जोड़ कर तांबे के पत्र में खुदवा डाला है, जब वे ही पं० बन्शी घर जी अपने छोटे भाई द्वारा इस कृति को देखकर उल्टा कहने ★ लगे हैं, जो समाज के प्रौढ़ विद्वान इस संयत शब्द से दिगम्बर धर्म के सिद्धान्त का घात समझ कर उस सार पद को निकलना-ना चाहते हैं, उन विद्वानों को १० बन्शीधर जी मिध्यादृडि चोर महाशरी बिक रहे हैं। हमें ऐसी निरंकु लेखनी एवं
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किसी पाचावरा पहान्ध मोहित बुद्धि पर खेद और पाश्चर्य होता है जहां कि दिगम्बर सिन आगम की रक्षा की कुछ भी परवा नहीं है। ऐसे विद्वानों का उत्तर देना भी व्यर्थ है जो प्रन्याशय के विरुद्ध निराधार, उल्टा सीधा चाहे जैसा अपना मत ठोंकते हैं। हमारा मत तो यह है कि प्रत्येक विद्वान एवं विवेकी पुरुष को अपना रेश्य सरुवा बोर दृढ़ बनाना चाहिये. जिस बागम के माधार पर हमारी धार्मिक मर्यादाएँ एवं निदोष बचट्य सिद्धान्त सदा से बक्षुण्ण चने आ रहे हैं उस पागम में अपनी भाषांता मानमर्यादा एवं अपनी समझ सूझकेष्टि कोण से कभी कोई परिवर्तन करने की दुर्भावना नहीं करना चाहिये । मागम के एमक्षर का परिवर्तन (घटाना या बढ़ाना) भी महान् पाप। पागम के विचार में जन समुदाय एवं बहुमत ब भी कोई मूल्य नहीं है।
जिन दिनों चर्चासागर प्रन्थ को कुछ बन्धुषों द्वारा प्रमासपोषित किया गया था, उस समय हमें बहुत खेद हुमाया क्योंकि पर्चा सागर एक संग्रह प्रन्थ है, उस में गोम्मट सार, राबवार्तिक, मूलाधार पूजासार, भादि पुराण मादि शाकों के प्रमाय दिये गये हैं बताये सब अप्रमाण ठारते हैं, इसलिए समन समुश्य भीर बिरसमाज बहुमत को विस्त रेखबर भी हमने कोई विमाननी की, और उन महान शास्त्रों के सर बसससार" पर्चा सागर पर शामीय प्रमाण, इस नाम पएकदैन्ट लिसा बाबो बम्बई समाज द्वारा मुद्रित हो
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सर्वत्र भेजा गया । उस समय हमारे पास समाज के ४-५ कक्षधारों के पत्र आये थे कि एक ट्रैक्ट को आप अपने नाम से नहीं निकालें अन्यथा राय बहादुर बाला हुलास राय जी जैसे तेरह कथ शुद्धाम्नाय वाले महानुभावों में जो विशेष प्रतिष्ठा आप की है वह नहीं रहेगी, उत्तर में हमने यही लिखा था कि हमारी प्रतिष्ठा हे चाहे नहीं रहे, किन्तु आगमकी पूर्ण प्रतिष्ठा अक्षुल्या रहनी चाहिये । हमारे नाम से निकलने में उस ट्रैक्ट का अधिक उपयोग हो सकेगा। जहां प्राचार्य वचनों को प्रमाण ठस कर उनकी प्रतिष्ठा मन की आ रही है वहां हमारी प्रतिष्ठा क्या रहती है और उसका क्या मुल्य है ? भी० राय बहादर लाला हुलास राय जी आदि सभी सज्जनों का वैसा हो धार्मिक वात्सल्य हमारे साथ बाज भी है जैसा कि उस ट्रैक्ट निकलने से पहले था । प्रत्युत चर्चा सागर के रहस्य और महत्व को समाज अब सम्झ चुका है। अस्तु
आज भी उसी प्रकार का प्रसङ्ग मा गया है, सार पद का उस सिद्धान्त शास्त्र के मूल सूत्र में जुड जाना और उस का ताम्र पत्र जैसी चिरकाल तक स्थायी प्रति में खुद जाना भारी अनथ और चिन्ता की बात है। कारण; उस के द्वारा द्रव्य श्री को उसी पयोग से मोक्ष सिद्ध होती है यह तो स्पष्ट निश्चित है ही, साथ में सब मुक्ति, हीन सहमन मुक्ति, बाह्य अशुद्धि में भी मुक्ति शादि के भी निपट और मुक्ति प्राप्तिकी सम्भावना होना सहज होगी। एक अनर्थ दूसरे अनर्थ का साधन बन जाता है । वैसी
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पशा में परम शुख्मुिनि धर्म एवं मोक्ष पात्रना, बिना बात के भी सर्वत्र लिने खगेगी अपवा वास्तव में कहीं भी नही रहेगी बेखब मनपस सिन्द के सूत्र में सखद पद जोग देने से होने वाले हैं। फिर तो सिदान्त शाब भी दिगम्बराचार्यों को सम्पति नही मानी जायगी। अतः इस सिद्धान्त विषात की पिता सेहोहम को दिगम्बर जेन सिदान्त दर्पण (प्रथम भाग) नाम का ट्रेक्ट लिखना पड़ा था जो कि मुद्रित होकर सर्वत्र भेवा जा चुकीबोर माज इस ट्रैक्ट को लिखने के लिये भी वाय होना पड़ा है। श्री मान पूज्य शुल्लक सूरि सिंह जी महाराज श्री मान विवर १० राम प्रसाद जी शास्त्री भी इसी चिंता वश लेख पईक्ट लिखने में प्रयत्नशीबान चुके हैं। और इसी चिंता बरा बम्बई की धर्मपरायण पसायत एवं वहां के प्रमुख कार्यकर्ता श्री. सेठ निरखननास जी, सेठ चांदमल जी वक्शी सेठ सुन्दर बाल जी अध्यक्ष पचायत प्रतिनिधि राय बहादर सेठ जुहार मल मुख पद जी सेठ ननसुलाल जी काला, सेठ परमेष्ठी पास बीमादि महानुभावहाय से लगे हुए है, कों ने मोर बम्बई पापत ने इन समस्त विशाल ट्रैक्टों के छपाने में और उभय पक्ष
विनों को बुलाकर लिखित विचार ( शाखार्थ ) कराने में मानसिक, शारीरिक एवं पार्थिक सब प्रकार की कि सगाई, इसके लिये इन सबों का जितना पामार माना जाय सपबोड़ है। अधिक लिखना व्यर्थ है इसी सब्जद पद की चिन्ता में पान्य, चारित्रमावर्ती, परमपूज्य श्री १०८ मा शान्तिसागर
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जी महाराज भी विशेष चिन्तित हो गये हैं, जो कि आगम रक्षा की दृष्टि से प्रत्येक सम्यक्स्व-शाली धमोत्मा का कर्तव्य है। जिन को इस सजद पर के हटाने को चिंता नहीं है उन को दृष्टि में फिर तो श्वेताम्बर और दिगम्बर मतों में भी कोई मौलिक भेद प्रतीत नहीं होगा जैसे कि प्रो० हीरा जाजा जी को दृष्टि में नहीं है।
यहां पर इतना स्पष्ट कर देना भी आवश्यक समझते हैं कि जितने भी भाव-पक्षी (जो सजद पद सूत्र में रखना चाहते हैं ) विज्ञान हैं, वे सभी द्रव्य स्त्री को मोक्ष होना सर्वथा नहीं मानते हैं, और न वे श्वेताम्बर मत को मान्यता से सहमत हैं, उनका कहना है कि सूत्र में संयत पद द्रव्य वेद की अपेक्षा से नहीं किन्तु भाव भेद की अपेक्षा से रख लेना चाहिए। परन्तु उनका कहना इस लिये ठीक नहीं है कि जो भाव वेद की अपेक्षा वे लगाते हैं। वह उस सूत्र में घटित नहीं होती है । वह सूत्र तो केवल द्रव्य स्त्री के ही गुणस्थानों का प्ररूपक है, वहां संयत पत्र का जुड़ना दिगम्बर सिद्धान्त का विघातक है, आगम का सबंधा लोपक है। वे जो गोमट्टसार की गाथाओं का प्रमाण देते हैं ते सब गाथाएँ भी द्रव्य निपरूक हैं। वे उन्हें भी भाव निरूपक बताते हैं। परन्तु तैसा उनका कहना मूल ग्रन्थ और टीका ग्रन्थ दोनों से सर्वथा बाधित है। यह बात ऐसी नहीं कि जो लम्बे चौड़ प्रमाण शून्य लेख लिखे जाने से अथवा गुणस्थान मार्गेणा अनुयोग, चूर्णिसूत्र
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उच्चारणसूत्र मादि सैद्धान्तिक पदों का नामोल्लेख के प्रदर्शन करने मात्र से यों ही विवाद में बनी रहे। विचारकोटि में भाने पर सबों को समझ में ण जायगी । और उस तस्व के अनेक विशेषज्ञ जो हिंदी भाषा द्वारा गोमट्टसार का मर्म समझते हैं वे भी सब अच्छी तरह समझ लेंगे जो निर्णी. बात है वह भन्य. था कभी नही हो सकती । श्रीपं० पन्नालाल जी सोनी, श्री० ० फूल चन्द जी शास्त्री प्रति विद्वान इन गोमट्टसारादि शाखों के जाता है, फिर भी उनके, प्रन्याशय के विरुद्ध लेख देखकर हमें कहना पड़ता कि या तो वे पत्र पक्ष-माह में पड़ कर निष्पक्षता और पागम की भी परवा नहीं कर रहे हैं, और समझते हुए भी अन्यथा प्रतिपादन कर रहे हैं, अथवा यदि एनों ने गोमट्टसार और सिद्धान्त शास्त्रों को केवल भाव भदानरूपक ही सममा
तो उन्हें पुनः उन ग्रन्थों के पन्नम्तत्व को गवेषणात्मक बुक से अपने दृष्टिकोण को बदल कर मनन करना चाहिये । हम ऐसा लिख कर उन पर कोई भाक्षेप करना नहीं चाहते हैं. परन्तु प्रन्थों की स्पा कथनी को देखते हुए और उसके विरुद्ध सक विद्वानों का कथन देखते हुए उपयुकदो हो विकल्प हो सकते हैं मतः पाप का सर्वथा अभिवाय नहीं होने पर भी हमें बस्तु स्थिति वश इसना विलना भनिच्छा होते हुए भी मावश्यक हो गया है। इसलिये वे हमें क्षमा करें।
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(११)
संजद पद पर विचार
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धवल सिद्धान्त शाख के ६३ में सूत्र में संजद पद नहीं है क्यों कि वह सूत्र द्रव्य स्त्री के हो गुणस्थानों का प्रतिपादक है। परन्तु भावपक्षी सभी विनून एक मन से यह बात कहते हैं कि समस्य पद खण्डागम में कहीं भी द्रव्य वेद का वर्णन नहीं है, सर्वत्र भावभेद का ही बने है। द्रव्य स्त्री के कितने गुणस्थान होते हैं ? यह बात दूसरे प्रन्थों से जानी जासकती है, इस सिद्धान्त शाख से दो केवल भाववेद में संभव जो गुणस्थान हैं उन्हीं का वर्णन है । १० पन्नालाल जी सोनी० फूलचन्द जी शाखी १० जिनदास जी न्याय तीथे, माहिसभी भावपक्षी विद्वान सबस मुख्य बात यही बताते हैं कि समूचा सिद्धांत भाव निरूपक है, द्रव्य निरुपक
वह नही है।
सब्जद पद को ६३ वे सूत्र में रखने के पक्ष में भाववेदी विद्वानों के चार प्रख्यात हेतु इस प्रकार हैं
१ - समूचे सिद्धान्त शाख में ( षट् खण्डागम में ) सर्वत्र भाव वेद का ही पर्याग है, व्ब वेद का उसमें और गोमट्टसार में कहीं भी नहीं है ?
२- प्रज्ञापाधिकार में भी सर्वत्र भाव-वेद का ही वचन है क्योंकि उसमें मानुषी के चोदह गुणस्थान बताये गये हैं ?
३ - यदि पटू खण्डागम में द्रव्य बंद का वर्णन होता तो सूत्रों
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(१२) में इस का उल्लेख पाया जाता, परन्तु सूत्रों में द्रव्य वेद के नाम से कोई भी कहीं नल्लेख नहीं पाया जाता है। अतः षटू खण्डागमसिद्धान्त शाब में द्रव्य वेद का कथन सर्वथा नहीं?
४-टीकाकारों ने जो द्रव्य वेद का निरूपण किया है वह मूल कथन से विरुद्ध है, उन्हों ने भून को है। __ ये चार हेतु प्रधान है जो सम्जद पद के रखने में दिये जाते
इन चारों बातों के उत्तर में जो हम षट् खण्डागम शाख के भनेक सूत्रों और धवला के प्रमणों से यह सिद्ध करेंगे कि
त सिद्धान्त शाम में और गोमट्टसार में द्रव्य भेद का भी मुख्यता से वर्णन है और भाव वेद के प्रकरण में भावभेद का वर्णन है।
उपयुक बातों के उत्तर में हम जो प्रमाण देंगे उन्हे समझने के लिये हम यहां पर पार तालिकाएं देते हैं, उन तालिकाओं (कुंजी) से षट् खण्डागम की कथन पद्धति, प्रकरणगत सम्बन्ध और क्रमबद्ध विवेचन का परिखान पाठकों को अच्छी तरह से जावेगा। पट खण्डागम के रहस्य को समझने के लिये
चार तालिकाएं (कुञ्जी) पार वालिकाएं हमने बह रसोकों में बना दी इस
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गुणसंयमपयोलियोगालापाच मार्गणाः । प्रपिताः यथापात्रं द्रव्यभावप्रवेदिभिः ॥शा गत्या साधं पियांतिः योगः कायश्च यत्र है। द्रव्यरदस्तु तत्र स्याभावश्चान्यत्र केवलम ॥२॥ पर्याप्तालापसामान्याऽपर्याप्तालापकाखयः । भोपादेशेषु भान द्रव्येणापि यथायथम ॥३॥ मागेरणासु च यो वेदो मोहकर्मोदयेन सः । सूत्रेषु द्रव्य वेदस्य नामोल्लेखम्ततः कथम ॥५॥ गत्यादिमार्गणामध्ये गुणस्थानसमन्वयः। देहापयाविना न स्याद द्रव्य वेदः स एव । सूत्राशयानुरूपेण धवलाायां तथैव च। गोमट्टसारेष सर्वत्र द्रव्यवेता पितः। ॥६॥
(रचयिता-मक्खननान शास्त्री) इनमें पाले जोक का गह अर्थ है कि
गुणस्थान, संयम, पाप्ति, योग, पालाप, मोर मागेणाएं ये सब द्रव्य और भाव विधान के विशेषज्ञों (पाचार्यों ) ने द्रव्य शरीरकी पात्रता के अनुसार ही प्ररूपण की है। मानवारों गतियों में सा जहां शरीर होगा, जैसी पर्याप्त (चौर मा. बांति) होगी, जैसा बांग-काययोग या मिश्रकाय होगा और वैवामानाप-यांत, विपर्यास, सामान्य-होगा उसी के अनुसार
गुलम्मान और संयम रह सकेंगे। इसी सिद्धान्त को लेकर
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(१४) प्राचार्यों ने पट खण्डागम में मार्गणामों और प्रासापों में गुणस्थानों का समन्वय किया है।
दृपर श्लोक का अर्थ यह है कि
जहां पर गतियों का कथन पयाहियों के सम्बन्ध से कहा गया है वहां पर द्रव्य वद के कथन की प्रधानता समझना चाहिये इसी प्रकार जहां तक योग मागंणा, और काय का कथन है वहां तक निश्चय सं द्रव्य वेद के कथन का ही प्राधान्य है। और जहां पर गति के साथ पर्याप्त का सम्बन्ध नहीं है तथा योग बोर काय मागणाका भी कथन पयाप्त के साथ नहीं है वहां कवल भाववेद के कथन की ही प्रधानता समझनी चाहिये । ___ इन दो श्लाको स पट खण्डागम के समरूण। रूप अनुयोग द्वार का विवेचन बताया गया है जो धवल सिद्धान्त के प्रथम भाग में श्रादि के १०० सूत्रां तक किया गया है।
इस कथन सं-सर्वथा भाववेद हो पद खण्डागम में सर्वत्र कहा गया है उसमें द्रव्यवेद का वर्णन कहीं नहीं है इस वक्तव्य पौर समझ का पूर्ण निरसन हो जाता है। तीसरे श्लोक का अर्थ यह कि
पालाप के प्राचार्यों ने तीन भेद बताये है १-पयोत. २अपर्याप्त ३-सामान्य। इनमें अपर्याप्तालाप के निवृत्यपर्याप्तक और नब्ध्यपर्यातक ऐस दो भेद हो जाते हैं। इस अपेक्षा से पालाप के भेद हैं। बस, मागणा, गुणस्थान, को वीस रुपया रूप से इन्हीं चार भेदों में योजना (समन्वय) की गई है।समें
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(१५) यथा संभव शबवेद और द्रव्यवेर दोनों की विवक्षा से वर्णन किया गया है।
इस श्लोक से यह बात प्रगट को गई है कि मानापों में पर्याप्त अपर्याय और सामान्य इन तोन बातों की प्रधानता से कथन । उनमें जहां तक जो संभव गुणस्थान उपयोग पर्याप्त प्राण धादि हो सकते हैं वे सह ग्रहण कर लिये जाते हैं, उस पहण में कहीं द्रव्य वेद की विवक्षा पानाती है, कही पर भाववेद की भा जागी
इस कथन सं वह शंका और समझ दूर हो जाती है जोकि यह कहा जाता है कि "बालापों में भाववेद'का ही सर्वत्र वर्णन मानुषी के चौदह गुणस्थान बतलाये गये है" वह शव इस नये नहीं हो सकती है कि पालापों में ही मानुषी की पर्यात अवस्था में पहला दूसरा य दो गुणस्थान बताये गये हैं, भाव की अपेक्षा ही होता ना सयोग गुणस्थान भी बताया जाता । मता सर्वत्र मालापों में भाववेद का हो कथन है यह कहना प्रसङ्गत एवं ग्रन्थाधार स विरुद्ध है।
चौथे श्लोक का अर्थ यह कि___ मागणामों में एक वेद मार्गणा भी है, वहां मोहनीय कर्म का भेद नोकषाय-जनित परिणाम रूप ही वेद लिया गया है। और कहींगर-गुणस्थान मार्गणामों में द्रव्यवेद का ग्रहण नहीं है फिर षट खण्डागम सूत्रों में द्रव्य-वेद का नामोल्लेख करके कान से किया जासकता १ अर्थात एडागम में गण
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बाम बीर मार्गणाओं काही योग्य समन्वय बसाया गया है। सन में द्रव्यवेद कहीं पर पाया नहीं है। इस निये प्रतिशत कम गईन पति में द्रष्यवेदों का नामोल्लेख किया नहीं जा सकता है।
इस कथन से-पट बण्डागम में यदि द्रव्यवेद का प्रथम होमो स्त्रों में व्यबरे का उन्लेख होता-इस शंका और समझ का निरसन हो जाता है।
फिर वह शंका और पड़ जाती है कि जब द्रव्यवेद का सूत्रों में नामोल्लेख नहीं है तब उसकी विवक्षा से उन में कथन भी
स भाववेद विवक्षा संही कथन इस शंका का निरसनांचवें नाक से किया गया है।
पांच कोक का अर्थ है
गति, इन्द्रिय काय योग हन मागणामों में ओ गुणस्थानों का समन्वय बताया गया वह द्रव्य शरीरों के माधार से ही बवाचा गया है। बिना द्रव्य शरीरों की विवक्षा किये यह मायन का ही नहीं सकता है और द्रव्य शरीर हो य बेद का अपर पर्याय द्रव्य शरीर और दृष्य दोनों का एकही । इस से यह बात सिद्ध हो जाती है कि दम्पवेद का सत्रों में नामो मोरी होने पर भी सन यान पारित नि में पाबन गर्भित हो पाता।मत एव व्योरी विद्यापति भार बोगों के मन में की गई।
पठे शखोकन वर्षलेकि.. बोपगोबाचार सबभाराय है सीमनुसार
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(१७)
धवला कार ने लाटोका में तथा गोमट्टसारकार तथा गोमट्टसार के टीका-कार ने भी सर्वत्र द्रव्य-वेद का भी निरुपण किया है । जो विद्वान यह कहते हैं कि 'टीकाकारों ने मूल ग्रन्थ में जो द्रव्य वेदादि को बातें नहीं है वे स्वयं अपनी समझ से लिख दो है अथवा उन्होंने भुत की है' ऐसी मिथ्या बातों का निरसन इस श्लोक से हो जाना है। क्योंकि टीकाकारों ने जो भी अपनी टोकाओं में सूत्र अथवा गाय का विशद अर्थ किया है वह सूत्र एवं गाथा के आशय के अनुसार ही किया है।
बस इन्हीं तालिकाओं के आधार पर पटखण्डागम, गोमट्टसार तथा उनकी टीकाओं को समझने की यदि जिज्ञासा और ग्रन्थ के अनुकूल समझने का प्रयत्न किया जायगा तो भाववेद चोर द्रव्यवेद दोनों का कथन इन शास्त्रों में प्रतोत होगा । हम मागे इस ट्रेंक्ट में इन्हीं बातों का बहुत विस्तृत स्पष्टोकरण पटखण्डागम के अनेक सूत्रों एवं गोमट्टपार की अनेक गाथाओं तथा उनकी टाकाओं द्वारा करते हैं ।
बट् खण्डागम के बवला प्रथम खण्ड में वर्णन क्रम क्या है ?
पट खण्डागम के जीवस्थान-सत्प्ररूपणा नामक पवला के प्रथम खण्ड में किस बात का बोन है। और वह वर्णन प्रारंभ से लेकर अंत तक किस क्रम से प्रन्धकार-धाचार्य भूतबली पुष्पदन्त ने किया है, सबसे पहले इसी बात पर लद देना चाहिये
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साथ ही विशेष लक्ष्य सत्ता के पार में बनाये गये मन. भून जीव विशिष्ट-शरीरों को पात्रता के अनुसार गुणस्थान विचार, और प्रादि की चार मारणामों द्वारा मिनिष्ट कथन पर देना चाहिये। फिर सिद्धान्त शास्त्र का रहस्य ममझ में सहज पा जायगा। उसी को हम यह बताते हैं
१४ मार्गणाओं और १४ गुणस्थानों में किस २ मार्गणा में कौन • गुणग्थान संभव हो सकते हैं, बस यही बात पटखण्डागम की धवला टीका के प्रथम खण्ड में घटत की गई है। कर्मों के उदय उपशम क्षय क्षयोपशम और योग के द्वारा उत्पन्न होने वाले जीवों के भावों का नाम गुणस्थान है तथा कर्मोदय-जनित जीव की अवस्था का नाम मारणा है। किन र अवाथाओं में कौन २ स भाव जीव के हो सकते हैं, बस इसी को मागंणामों में गुणस्थानों का संघटन कहते हैं। यही बात धवल सिद्धान्त के प्रथमखण्ड में बताई गई है।
यहां पर इतना विशेष समझ लेना चाहिये कि चौदह मागंणामों में प्रादि की ४ मार्गणाएं जीव के शरीर से ही सम्बन्ध रखती है इसलिये गति, इन्द्रिय, काय पौर योग इन चार मार्ग. णामों में द्रव्य वेद के साथ हो गुणस्थान बताये गये हैं।
जैसे गति मागेणा में चारों गतियों के जीवों का वर्णन है, उसमें नारकी तिर्यच मनुष्य और देव इन चारों शरीर पर्यावों का समावेश है।
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इन्द्रिय मार्गेणा में एकेन्द्रिय द्रोन्द्रिय श्रादि इन्द्रिय सम्बन्धी शरीर रचना का कथन हैं ।
काय मार्गणा में भौहारिक वैकियिक आदि शररों का कथन है, योग मार्गणा में श्रदारिक काय योग आदारिक मिश्र काय योग, क्रियिक काय योग वैक्रियिक मिश्र काय योग आदि विवेचन द्वारा शरीर की पूर्णता और अपूर्णता के साथ योगों का कथन है। इन्हीं भिन्न २ द्रव्य शरीर के साथ गुगास्थान बताये गये हैं । परन्तु इल से आगे वेद मागणा में नो कषाय के उदय स्वरूप वेदो में गुणस्थान बताये गये हैं, वहां पर द्रव्य शशेर के वर्णन का कोई कारण नहीं है । इसी प्रकार कषाय मार्गया में कपायोदय विशिष्ट जीव में गुणम्थान बताये गये हैं, वहां पर भी द्रव्य शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं है ज्ञान मार्गणा में भी क्रय शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं है वहां पर भिन्न २ ज्ञानो में गुणस्थान बनाये गये हैं; इस प्रकार वेद, कषाय, ज्ञान, आदि मार्गाओं में गुणस्थानो का कथन भाव की अपेक्षा से हैं वहां पर द्रव्य शरीर का सम्बन्ध नहीं है। किन्तु आदि की चार मार्गणाओं का कथन मुख्य रूप से द्रव्य शरीर का ही विशेषक है अतः वहां तक भावछेद की कुछ भी प्रधानता नहीं है, केवल द्रव्यवेद की ही प्रधानता है ।
इसी बात का स्पष्टीकरण षट्म्मण्डागम की जीवस्थान सत्प्ररूपणा के प्रथम खण्ड धवल सिद्धांत के अनुयोग द्वारों से
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(२०) हम करते हैं
धवल सिद्धांत में जिन मार्गणाओं में गुणस्थानों को घटित किया गया है वह पाठ अनुयोग द्वारों से किया गया। वे पाठ अनुयोग द्वार ये है
१-सत्प्ररूपणा २-द्रव्य प्रमाणानुगम ३-क्षेत्रानुगम-स्पर्शनानुगम ५. पालानुगम ६-अन्तरागम ७-भावानुर.म.रुपबहुत्वानुगम।
इन पाठों का वर्णन कम से ही किया गया है, उनमें सबसे पहिले सत्प्ररूपणा अनुयोग द्वार है उसका अर्थ धवनाकारने वस्तु के अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाली प्ररूपणा को सत्प्ररूपणा बताया है। जैसा कि
'पस्थित पुण संत अस्थित्तस्सय तदेवपरिमाणं।' इस गाथा द्वारा स्पष्ट किया है। जैसाकि-सत्सत्वमित्यर्थः कथमन्तीवितभावत्वात । इस विवेचन द्वारा धवलाकार ने स्पष्ट किया है इसका अर्थ यह है कि सत्प्ररूपणा में सत् का अर्थ वस्तु की सत्ता है। क्योंकि वस्तु की सत्ता में भाव अन्तभून रहता है। इससे स्पष्ट
कि-सत्परूपणा अनुयोगद्वार जीवों के द्रव्य शरीर का प्रतिपादन करता है, द्रव्य के बिना भाव का समावेश नहीं हो सकता है। जिस वस्तु के मूल अस्तित्व का बोध हो जाता है उस वसु की संख्या का परिमाण द्रव्य प्रमाणानुगम द्वारा बताया गया है ये दोनों अनुयोग द्वार मूल द्रव्य के अस्तित्व और उसकी सख्या
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को बताते हैं। आगे के अनुयोग द्वार उस वस्तु के क्षेत्र, स्पर्श, काल आदि का बोध कराते हैं । धवल सिद्धांत के क्रमवर्ती विवेचन को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि धवन सितांत में पहले द्रव्यवेद विशिष्ट शरीरों का निरूपण किया गया है और नन्ही द्रव्य शरीर विशिष्ट जीवों की गणना बनाई गई है। बिना मूल भूत द्रव्यवेद के निरूपण किये, भाववेद का निरूपण नहीं हो सकता है और उसी प्रकार का निरूपण धवल शास्त्र में किया गया है।
इस प्रकरण में धवन सिद्धांत में पहले चौदह गुणस्थानों के निरूपक सूत्र हैं, उनके पीछे १४ मार्गणामों का कथन सूत्रों द्वारा किया गया है, इस कथन में द्रव्यवेद के सिवा भाववेद का कुछ भी वर्णन नहीं है । भागे उन १४ मार्गणामों में गुणस्थान पटित किये गये हैं, वे गुणस्थान उन मार्गणाओं में उसी रूप से पटत किये गये हैं जहां जो द्रव्य शरीर में हो सकते हैं। और भागे की वेद मागणा, कषाय मागेणा, ज्ञानमार्गणा मादि मार्गणामों में केवल प्रात्मीय भावों का (वैभाविक और स्वाभाविक) ही सम्बन्ध होने से चौदह गुणस्थानों का समावेश किया गया है। पाचार्य भूतबली पुष्पदन्त ने सत्यरूपणा रूप अनुयोग द्वार को ही शेष और आदेश अर्थात मार्गणा और गुणस्थान इन यो कोटियों में विभक्त कर दिया है। और समूचे ग्रन्थ में मार्गणाभों को बाधार बनाकर गुणस्थानों को यथा सम्भव रूप से
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(२२)
घटित किया है जैसा कि-संत परूण दारा दुवितो णिदेसो मोघेण प्रादेसेण च। (सत्र ८ पृष्ठ ८० धवना)
इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि सपहरणा अनुयोग द्वार द्रव्य शरोर निरूपण करना। क्योंकि भात्रवेद द्रव्यापित है। द्रव्य शरीर को छोड़कर भाववेद का निरूपण अशक्य है।
इन्ही सब बातों का खुलासा हम षट खण्डागम धवल सिद्धांत के भनेक सत्रों का प्रमाण देकर यहां करते हैं
भादेसेण दियाणुवादेण भत्यि णिरयगदी निरिक्वादो मणुरक्षगदी देवगदी सिद्धगदी चेदि ।
(सूत्र २४ पृष्ठ १०१ धवला) अर्थात मार्गणामों के कथन को विवा से पहिले गति मागंणा में चारों गतियों का सामान्य कथन है नरक गति तिर्यचगति मनुष्यगति देवगति और सिद्धांत ये पांच गतियां सुत्रकार बताते हैं। इन में मन्तिम सिद्धगति को छोड़कर बाको चारों ही गतियों का निरूपण शरीर सम्बन्ध से है । इसके आगे के २५वें सूत्र से लेकर २ सूत्र तक चारों गतियों में सामान्य रूप से गुणस्थान पटित किये गये हैं तथा सूत्र २६ से लेकर सूत्र ३९ तक पारों गतियों के गुणस्थानों का कुछ विशेष सम विषम वर्णन है गतिमार्गणा में तिर्यवर्गात में पांच गुणस्थान कहे हैं सूत्र यह है
तिरिक्सा पंचसु ठाणेसु पत्थि मिच्छाही, सासण
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सम्माइट्टी सम्मामिच्छाइट्ठी पसंद सम्माइठ्ठी संजनासंजवाति (सूत्र २६ पृ० १०४ धवल सिद्धांत) अर्थ सुगम है। इस सूत्र को धवला को पढ़िये
कथं पुनरसंयत-सम्पदृष्टीनामसत्वमिति न तत्राऽसंयतसम्यग्दृष्टीना मुत्पत्तेरसवात तत्कुतोवगम्यत इतिचेत छसुहेटिमासु पुढवीए जोइसिवण के वरण सव्व इस्टोसु णेदेसु समुपजह सम्माटोदु जो जीवो। प्रत्यार्षात। (पृ० १०५ धवला)
इस धवला टीका का स्पष्ट अर्थ यह है कि-तिर्यचिनियों के अपया: काल में असंयत सम्यष्टि जीवों का प्रभाव वैसे माना जा सकता है ? इस शंका के उत्तर में कहा जाता है कि नहीं, यह शंका ठीक नहीं क्योंकि तिर्योचनियों में भसयत सम्यग्दृष्टियों को उत्पत्ति नहीं होती है इसलिये उनके अपर्यातकाल में चोथा गुणस्थान नहीं पाया जायाहै। यह कैसे जाना जाता है?
उत्तर-जो सम्यग्दृष्टिजीव होता है वह प्रथम पृथिवीको और कर नीचे को छह पृथिवियों में, ज्योतिपो, व्यन्तर और भवनवासी देवों में और सब प्रकार की खियों में उत्पन्न नहीं होता। इस पार्षवचन से जाना जाता है। यहां पर उत्पत्ति का कथन है।
और देवियां मानुषी तथा तिचिनी तीनों (सब) प्रकार की बियों का स्पष्ट कथन है यह द्रव्य स्त्री वेद का स्पष्ट कथन है। यह अर्थ वाक्य है।
इसके आगे इन्द्रियानुवाद की अपेक्षा वर्णन है पहास
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.(२४) प्रकार है
इंदियाणुवादे पस्थि एइंदिया वीइंदिया तोइंदीया चदुरि. दिया पंचिंदिया किंदिया चेदि ।
(सूत्र ३३ पृष्ठ ११६ धवला) इसका अर्थ सुगम है। यहां पर हम इतना कह देना भावश्यक समझते हैं कि उसी सूत्र का हम विशेष खुलासा करेंगे जो सुगम नहीं होगा। और उन्हीं सूत्रों को प्रमाण में देंगे जिनसे प्रकृत विषय द्रव्य शरीर सिद्धि की उपयुक्तता और स्पष्टता विशेष रूप से होगी, यद्यपि सभी सूत्र योग मार्गणा तक द्रव्य शरीर के ही प्रतिपादक हैं परन्तु सभी सूत्रों को प्रमाण में रखने से यह लेख बहुत अधिक बढ़ जायगा । उसी भय से हम सभी सूत्रों का प्रमाण नहीं देंगे। हां जिन्हें कुछ भी संदेह होवे षटखएडागम को निकालकर देख लेवें । मस्तु ।
ऊपर के सूत्र में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीवों का कथन सर्वथा द्रव्य शरीर काही निरूपक है । भाववेद को विवक्षा तक नहीं है। इसका खुलासा देखिये___ एइंदिया विहा वादरा सुहमा। बादरा दुविहा पजता प. पजचा सुहुमा दुविहा पजत्ता अपजत्ता ।
(सूत्र ३४ पृष्ठ १२५ धवना) पर्य सुगम।। ये एकेन्द्रिय जीवों के बादर सूक्ष्म पर्याप्त पौर परर्यात केवल न्यवेद अथवा द्रव्य शरीर की अपेक्षा से
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(२५)
ही किये गये हैं। यहां पर भाववेद का कोई उल्लेख नहीं है । धवला टोपा में इस बात का पूर्ण खुलासा है । परन्तु सूत्र ही स्पष्ट कहता है", तब धवला का उद्धरण देना अनुयोगी और लेख को बढ़ाने का साधक होगा । अतः छोड़ा जाता है।
इसके भागे—
वीइंडिया दुबिहा पज्जन्त्ता अपज्जता, सीइंडिया दुबिदा पज्जन्ता अपज्जन्त्ता । चतुरि दिया दुबिहा पज्जता भपज्जता । पंबिंदिया दुबिहा सरणी घसरणी । सरणी दुबिद्दा पज्जता भपज्जता । असरणी दुविधा पज्जत्ता अपज्जता चेदि ।
(सूत्र ३५ पष्ठ १२६ घबला)
अर्थ सुगम है
ये सभी भेद द्रव्य शरीर के ही हैं। भाव पक्षी सभी विद्वान इस षटखण्डागम सिद्धांत शास्त्र को समूचा भाववेद का ही कथन करने वाला बताते हैं और विद्वत्समाज को भी भ्रम में डालने का प्रयास करते हैं वे भय नेत्र स्थोलकर इन सूत्रों को ध्यान से पढ़ लेवें। इन सूत्रों में भाववेद की गन्ध भी नहीं है। केवल द्रव्य शरीर के हो प्रतिपादक हैं।
इसके आगे उन्हीं एकेन्द्रियादि जीवों में गुणस्थान बताये हैं । जो सुगम और निर्विवाद हैं। यहां उनका उल्लेख करना पर्थ है ।
इसके आगे काय मागंणा को भी ध्यान से पढ़ें कायावादेख
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(२६)
अस्थि पुदविकाइया, भाउकाइया, ते उकाड्या, बालकाइया, वणफिइकाइया तलकाइया अकाइया चेदि ।
(सूत्र ३६ १४ १३२ धवला)
अर्थ सुगम और स्पष्ट है
-
ये सभी भेद द्रव्य शरीर के ही हैं। भाववेद का नाम भी
यहां नहीं है।
इसके आगे
CSE
पुढविकाश्या दुविधा वादा सुहमा | वादरा दुबिधा पज्जत्ता पत्ता सुहमा दुविधा पज्जत्ता अपज्जत्ता मादि ।
(सूत्र ०-४११४१३४- १३५)
अर्थ
सुगम है
यह लम्बा सूत्र है और पथिवीकाय आदि से लेकर बनस्पतिकाय पर्यंत साधारण शरीर, प्रत्येक शरीर, सूक्ष्म बादर पर्याप्त, अपर्याप्त आदि भेदों का विवेचन करता है। दूसरा ४१वां सूत्र भी इन्हीं भेदों का विवेचक है। यह विवेचन भी सब द्रव्यवेद का हो है ।
आगे इन्हीं पृथिवी काय और नस कार्यों में गुणस्थान बताये गये है जो सुगम और स्पष्ट एवं निर्जिवाद हैं । जिन्हें देखना हो ये ४३ सुत्र से ४५ सूत्र तक धवल सिद्धांत को देखें ।
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(२७)
६३२ स्त्रका मुख्य विषय योगमार्गणा है। - संयताद सूत्र में सर्वथा असंभव है।
भवक्रम से वर्णन करते हुए योग मार्गणा का विवेचन करते हैं, उसी बोग मार्गगा के भीतर १३वां सूत्र है। मौर वह द्रव्यखी के स्वरूप का ही निरूपक है। क्रमबद्ध प्रकरण को पक्षमोह शून्य सद्बुद्धि और ध्यान से पढ़ने से यह बात साधारण जानकार भी समझ लेंगे कि यह कथन द्रव्य शरीर का ही निरूपक है। क्रम पूर्वक विवेचन करने से ही समझमें पासकेगा इसलिये कुछ सूत्र क्रम से हम यहां रखते हैं के १३वां सूत्र कहेंगे। ___ जोगाणुवादेण अस्थि मण जोगी, वचि जोगो, काय जोगी चदि।
(सूत्र ४७ पष्ठ १३६ धवल) अर्थ सुगम
धवलाकार ने द्रव्य मन और भाव मन के विवेचन से यह पष्ट कर दिया है कि यह सब कथन द्रव्य शरीर का है।
इसके मागे मनोयोग के सत्य असत्य मावि चार भेदों का और उनमें सम्भावित गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। उसी प्रकार मागे के सूत्रों में वचन योग के भेदों और गुणस्थानों का वर्णन है। ५६वे सूत्र में शंख के समान धवन और हस्त प्रमाण माहारक शरीर वर्णन है। यह द्रव्य शरीर का विधायी स्पष्ट कथन है।
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(२८) उसके भागे षटखण्डागम धवनविदांत के सूत्र १६ से लेकर सत्र १०० तक काययोग भोर मिश्र काययोगों के भेद मोर ननमें सम्भव गुणस्थानों का वर्णन है। जो कि पुद्गल विपाको नामा नामकर्म के उदय से मन वचन काय वर्गणामों में से किसी एक वर्गणा के अवलम्बन से कम नोकर्म खींचने के लिये ओ मात्मप्रदेशों का हलन चलन होता है वो योग है जैसा कि पबला में कहा है। वह हलन चलन भावोर में पशक्य है। काययोग और मिश्र काययोग के सम्बन्ध सेहमी सूत्रों में वह पर्याप्तियों का भी वर्णन है जो द्रव्यवेद में ही घटित है। भाववेद में उनका घटित होना शक्य नहीं है। इससे स्पष्ट रूप से सभी समझ लगे कियां सूत्र द्रव्य श्री केही गुणस्थानों का विधायक है। वह भाववेद का सर्वथा विधायक नहीं है। अत: उस सूत्र में सञ्जद पद सर्वथा नहीं है यह नि:संशय एवं निश्चित सिद्धांत है। इसी मूल बात का निर्णय योग मागणा के सूत्रों का प्रमाण देकर और पर्यानियों के प्ररूपक सूत्रों का प्रमाण देकर हम स्पष्टता से कर देते हैं
कम्मइय कायजोगो विमाहगइ समावरणाणं केवलोणं वा. समुग्पावगदाणं। (सत्र ६० १४ १४६ धवन सिद्धांत)
पति-कार्माण काययोग विरगति में रहने वाले चारों गतियों के जीवों के होता है और केवली भगवान के समस्त अवस्था में होता है। इस विमागवि के कथन से स्पष्ट सिडी
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(11) कि यह वर्णन द्रव्य शरीर का ही है।
भागे इन्हीं मागंणामों में गुणस्थान पटित किये गयेहैं। यहां विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसी काययोगके निरूपण में प्राचार्य भूतबली पुष्पदन्त ने पर्याप्तियों का सम्बन्ध बताया है जैसा कि सूत्र हैकायजोगो पजत्तण वि अस्थि, अपनत्ताण विपत्थि।
(सत्र ६६ पष्ठ १५५ धवन) अर्थ सुगम है
इती सूत्र को धवज्ञा टीका में प्राचार्य वीरसेन स्वामी जिखते हैं कि
पर्याहस्यैव पते योगाः भवन्ति, एते चोभयोरिति वचनमारण्य पर्याप्ति-विषयजात-संशयस्य शिष्यस्य सन्देदापोहनाथ. मुत्तरसूत्राएयभाणात 'छ पजत्तीमा छ भपजत्तोत्रो।'
(मत्र ७० पष्ठ १५६ धवल सिद्धांत) यहां पर प्राचार्य वीरसन ने पर्याप्तियों का विधायक सत्र देखकर यह भूमिका प्रगट की है कि ये योग पर्याप्त जीव के ही होते हैं और ये योग पर्याप्त अपर्याप्त जीवों के होते हैं। इस सूत्र निर्दिष्ट वचन को सुनकर शिष्य को पर्याप्तियों के विषय में संशय खड़ा हो गया, उसी संशय के दूर करने के लिये प्राचार्य भूतबनि पुष्पदन्त ने पर्याप्तियों के विधायक सूत्र कहे है- सूत्र में बह पर्याप्तियां भोर बहभपर्याप्तियां बनाई गई है। पर्याप्ति के
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(३०) लक्षण को स्पष्ट करते हुए पवनाकार कहते हैं कि
माहार-शरोरेभियोच्छवासनिःश्वास-भाषामनसां निष्पत्तिः पर्वामिताच षट् भवन्ति ।
अर्थात माहार, शरीर, इंद्रिय, उच्छवासनि:श्वास, भाषा पौर मन इन छहकी उत्पत्ति होना ही पयोति है ये पर्याप्तयां छह होती है। इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि यह पर्याप्तियों का वर्णन और उनमें गुणस्थानों का समन्वय द्रव्य शरीर से हो सम्बन्ध रखता है। भाववेद में इन पर्याप्तियों की उत्पत्ति का कोई सम्बन्ध नहीं है। हां पूर्ण शरीर और अपूर्ण शरीर क सम्बन्ध से भाववेद भी भाधार माधेय रूप से घटित किया जाता है परन्तु इन पयोतियों का मूल द्रव्य शरीर की उत्पत्ति और प्राप्ति है। अतः इन पर्याप्तियों के सम्बन्ध से जो भागे के सूत्रों में कथन है वह सब द्रव्य शरीर का हो है इसका भी स्पष्टीकरण नीचे के सूत्रों से होता हैपरिणमिच्छाइटिप्पलि जाव भसंजद सम्माहित । सूत्र ७१ पंच पजतोमो पंच अपञ्जतीयो सूत्र ७२ । बोहनियमडि जाव अस रिण पचिदियात्ति। सूत्र ७३ पत्तारि पजत्तीभो पत्तारि पब्बतीयो। सूत्र ७४ एइंपियाणं सूत्र ७५ (पृष्ठ १५६-१५७ धवल)
अर्थ-बह सभी-छहों पर्यामियां संझी मिध्यादृष्टि गुणस्थान तक होती है। पथा द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर मी पंचेन्द्रिय
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(३१)
जीवों पयंत मन को छोड़कर शेष पांच पर्याप्तियां होती है। तथा भाषा और मन इन दो पर्याप्तियों को छोड़कर बाकी चार पर्याप्रियां न्द्रिय जीवों के होती है। इन सबों के जैसे नियन पर्याप्तियां होती हैं वैसे ही प्रायोपियां भी होती हैं।
इन छह पर्याजियों की समाप्ति चौथे गुणस्थान तक ही भूतल पुग्दन्त ने बताई है। इसका खुलासा धवलाकार ने अनेक शङ्कायें उठाकर यह कर दिया है कि चौथे गुणस्थान से ऊपर पर्यायां इसलिये नहीं मानी गई हैं कि उनकी समाप्ति चौये तक ही हो जाती है अर्थात चौथे गुणस्थान तक ही जम्म मरण होता है इसी बात की पुष्टि में यह बात भी कही गई कि सम्यक मथ्याष्टि तीसरे गुणस्थान में भी ये पर्याप्तियां नहीं होती है क्योंकि उस गुणस्थान में अपर्याप्तकाल नहीं है पर्थात तीसरे मिश्र गुणस्थान में जीवों का मरण नहीं होता है। इस कथन से यह मष्ट है कि यह पर्याजियों का विधान और विवेचन द्रव्य शरीर से ही सम्बन्ध रखता है। __ यदि द्रव्य शरीर और जन्म मरण से सम्बन्ध इन पर्याप्तियों का नहीं माना जावे तो चौथे गुणस्थान तक ही सूत्रकार ७१ सूत्र द्वाग इनकी समाप्ति नहीं बताते किन्तु १३३ गुणस्थानतक बताते । इसी प्रकार संधीजीव तक मनको छोड़कर पांच गैर एकेन्द्रिय जीव में भाषा और मन दोनों का प्रभाव बताकर केवल पार पर्याप्तियों का विधान सूत्रकार ने किया। इससे भी स्पष्ट कि
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(३२)
यह विवेचन द्रव्य शरीर से ही सम्बन्ध रखता है। क्योंकि प्रसंसोजोव के मन और एकेन्द्रिय जीव के भाषा की उत्पत्ति नहीं होती है।
इस प्रकार सरकार ने योगों के बीच में सम्बन्ध - प्राप्त पर्याप्तियों का स्वरूप और उनका एकेन्द्रियादि जीवों के भिन्न २ द्रव्य शरीरों के साथ सम्बन्ध एवं गुणस्थानों का निरूपण करके उनी भौदारिकादि काययोगों को पर्याप्तियों और अपर्याप्तयों में घटायावह इस प्रकार है
पोरालिय कायजोगो पजताणं मोरालिय मिम्स काय बोगो अपजत्ताणं।
सूत्र ७६ बेब्बिय कायजोगो पजत्ताणं वेत्रिय मिस्स काय जोगो अपज्जत्ताणं ।
सत्र ७७ पाहार कायबोगो पजत्ताणं पाहार मिस्स काय जोगो पपजताएं।
सूत्र ७
(पृष्ठ १५८-१५६ धवन) अर्थ सुगम और स्पष्ट है। इन सूत्रों की व्याख्या में धवलाबर ने यह बात स्पष्ट करती है कि जबतक शरीर पर्याति निष्पा नहीं हो पाती तब तक जीव अपर्याय (निर्वृत्यपर्याप्तक) कहा जाता है। इससे स्पष्ट किया सबकान द्रव्य शरीर की रचना और उसकी पूर्णता से सम्प
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' (३५) इसी प्रकार बैफियिक मिश्र में अपर्याप्त अवस्था बताकर अपर्याप्त अवस्था में कार्माण काययोग भी बताया गया। यह बात भी शरोरोपत्ति से ही सम्बन्ध रखती है। .
पाहार शरीर के सम्बन्ध में तो धवलाकार ने और भी स्पष्ट किया है किमाहारशरीरोत्थापक: पर्याप्तः संयतत्वान्यथानुपपत्तेः।
(धवला पृष्ठ १५६). अर्थात अाहार शरीर को उत्पन्न करने वाला साधु पर्याप्तक ही होता है। अन्यथा उसके संयतपना नहीं बन सकता है इसका तात्पर्य यह है कि प्रौदारिक शरीर की रचना तो उसके पूर्ण हो. चुकी है, नहीं तो उसके संयम कैसे बनेगा। केवल माहारक शरीर की रचना अपूर्ण होने से उस अपयांत कहा गया है। इस से औदारिक द्रव्य शरीर को ही माधार मानकर माहारक शरीर की अपर्याप्ति का विधान सूत्रकार ने किया है। यह बात खुलासा हो जाती है। इसी सम्बन्ध में धवलाकार ने यह भी कहा कि.
भवावसी पर्याप्तका भौदारिकशरीरगतषटपर्याप्त्यपेक्ष्या, माहारशरीरगतपर्याप्तिनिष्पत्यभावापेक्षया स्वपर्याप्तकोऽसौ। .
. (पृष्ठ १५५) अर्थान- प्रौदारिक शरीरगत षटपर्याप्तियों की पूर्णता की, अपेक्षा तो वह छठे गुणस्थानवर्ती साधु पर्याप्तक ही है, किन्तु. माहार शरीर गत गर्यालयों को पूरा नहीं होनेसे वह अपर्याप्त
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(१४)
वहां पर धषवाकार ने-“सारिक शरीरगव पटपयामि और माहार शरीर गवति " इन पदों को रखकर यह मा कर दिया है कि या बोग मोर पयामि सम्बन्धी साम्य शरीर अथवा द्रव्गवेद से ही सम्बन्ध रखा है। माबोबसेस का कोई सम्बन्ध ममी है। और यहां पर बाद की अपेक्षा कोई विचार भी नहीं किया गया है।
इस मागे ही योग और पारियों के समन्बय को घटित के जगदुबारक अंगैकदेश साता भाचार्य भूतल पुषइस भगवान पोतियों के साथ गतिमादि मार्गणामों में गुणस्थानों समन्वय दिखाते हैं।
रहया मिलाइडिपसंमद सम्माइडिहाणे सिया पत्रगा सिया अपजायगा। (सत्र ७८ पृष्ठ १६०पवल)
अर्थ सुगम - इस सूत्र द्वारा नारठियों की मां अवस्था में मिथ्याटि और संबत सम्यम्दृष्टि-पहला और पौषा ऐसे दो गुणत्वान बताये है। पहला चो ठीक ही है परन्तु पौवा गुणवान पास अवस्था में प्रथम नरक की अपेक्षा से हा गया है। बोंकि सम्पति मकर सम्पदर्शन के साथ पहले नरकाको सोपहपावसभी जैन बिव्यमान जानना होगा का
सअषिकामाखरेच वर्ष और बाली
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सपना है। यहां पर भी विचार करने रसोई कि नरकियों प्रामनरको सभ्यास सहित सति लक्ष्य करके ही यह वां मत्र कहा गया मतावर प्रतिपादक। जैसा कि-समस्त पीछे के सूत्रों द्वारा एवं पर्याप्ति अपर्याप्ति निरूपण के मरण द्वारा हमने स्पष्ट किया है। इसी का और भी स्पष्टीकरण इससे भागे के सूत्र में देखिये। मासएस माइढि सम्मामिछाइडिटणे शियमा पजना। r
(सूत्र ८० पृष्ठ १६० पवन सिद्धांत) अर्थ-बाकियों में दूसरा और तीसरा (पासादन और मिष) गुणस्थान नियम से पर्याप्त अवस्था में ही होता है। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए पवनाकार पष्ट रूप से कहते हैं कि
नारकाः निष्पमस्टपर्याप्तयः संतःताभ्यां गुणाभ्यां परिणमन्ते नापर्यानावस्यायाम् । किमिति तत्र तो नोसते इति चेत्तयो स्ववोचिनिमितपरिणामामावात सोप किमिति पोर्नस्थादितिचेन् । स्वाभाब्यात । बाराणामग्नि सम्बन्धादरममावाबमुगवानां पुनर्भस्मनि समुत्म्यमानानां मपर्याप्ताबायां गुणश्यस्य सत्याविरोधानियमेन पर्याप्त इति न पटते इति चेन, तेषां मरणाभावात भावे वा-न ते वनोपयो "णिरवाशे रयिया बडिर समाया हो पिरयदि जादि णो देवजादि निरिक्सा गरि मगुस्समलिंब आदि" इत्यनेनाण निषित्त्वात् । वायुषोऽजमाने मिस्मायामामेवा नियमाचेन तेवामपमुल्योरवस्यात् । भस्मबाप.
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(३६) मुपगतदेहानां तेषां कथं पुनमरण मिति चेन्न देहविकारस्याssयुर्विबिस्यनिमित्तत्वात। अन्यथा वालावस्थातः प्राप्त यौवनस्यापि मरणप्रससाता
(पृष्ठ १६०-१६१ धवल सिद्धांत) अर्थ-जिन नारकियों की छह पर्याप्ति पूर्ण हो जाती हैं बेही नारकी इन दूसरे और तीसरे दो गुणस्थानों के साथ पारणमन करते हैं। अपर्याप्त भवस्था में नहीं। 'उपयुक्त दो गुणस्थान नारकियों को पर्याप्त अवस्था में क्यों नहीं होते ? इस शहर के उत्तर में प्राचार्य कहते हैं कि उनकी अपर्याप्त प्रास्था में उक्त दो गुणस्थानों के निमित्त भूत परिणाम नहीं हो पाते हैं। फिर शङ्का होती है कि वसं परिणाम भपयांत भवस्था में उनसे क्यों नहीं हो पाते हैं ?
उत्तर-वस्तु स्वभाव ही ऐसा। फिर शङ्का होती है कि नारकी भग्नि के सम्बन्ध से भस्म हो जाते हैं और उसी भस्म में से अपन हो जाते हैं सी अवस्था में पर्याप्त अवस्था में भी उनके एक दो गुणस्थान हो सकते इसमें क्या विरोधहै अथान बेपन मादि से नष्ट एवं अग्नि में जलाने से उनका शरीर नष्ट हो जाता। फिर में उन्हीं भस्म मादि अवयवों में उत्सम हो जाते है इसलिये उनकी अपर्याप्त अवस्था में एक दो गुणस्थान हो सकते हैं इसमें कोई बाधा प्रतीत नहीं होती फिर जो यह पा सत्र में कही गई है कि दुसरे तीसरे गुणस्थान में नारी नियमावे
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(३७) पर्याप्त ही होते है सो कैसे घटेगी? पर्याप्त अवस्था का नियम कैसे बनेगा?
उत्तर-यह शंका ठीक नहीं। क्योंकि छेदन भेदन होने एवं अग्नि चादि में जला देने बादि से भी नाकयों का मरण नहीं होता है। यदि उनका मरण हो जाय तो वे फिर वहां (नरक में) उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। कारण; ऐसा पागम है कि जिनकी पायु पूर्ण हो जाती है ऐसे नारकी नरक गति से निकल कर फिर नरक गति में पेश नहीं होते हैं। उसी प्रकार वे मरकर देवगति को भी नहीं जाते हैं किन्तु नरक से निकलकर वे तियंच मोर मनुष्यति में ही उत्पन्न होते हैं इस भार्ष कथन से नारको जीवों का नरक से निकज्ञकर पुनः सोधा नरक में उत्पन्न होना निषिद्ध है। ___ फिर शंका-पायु के अन्त में ही मरने वाले नारकियों के लिये हो सूत्र में कहा गया नियम लागू होना चाहिये।
उत्तर-नहीं, क्योंकि नारकी जीवों को अपमृत्यु (भकाल. मरण) नहीं होती है। नाकियों का छदन भेदन अग्निमें जलाने मादि से बीच में मरण नहीं होता है किन्तु भायु के समाप्त होने पर ही उनका मरण होता है।
फिर शंका-नारकियोंका शरीर अग्नि में सर्वथा जला दिया जाता है वैसी भवस्थामें उनका मरण फिर कैसे कसा आता
पर-बह मरण नहीं है किन्तु उनके शरीर का केबल
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(३३)
विकार मात्र है। वह भायु की व्युच्छित (नाश) होने में निमित्त नहीं है। यदि बीच २ के शरीर विकार को ही मरण मान लिया जाय नो फिर जिसने बाल्यावस्था को पूरा करके यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया है उसका भी भरण कहा जाना चाहिए ? भन मरण तो आयु की समाप्ति में ही होता है।
इस समस्त कथन से यह बात भली भांति सिद्ध हो जाती है कि दूसरे तीसरे गुणस्थान जो नाकियों की पर्याप्त अवस्था में ही सूत्रकार भगवत भूतल पुष्पदन्त रे सूत्र ८० में बताये हैं वे नाकियों के द्रव्य शरीर की हा मुख्यता से बताये हैं। इस सूत्र के अन्नस्तत्व का धवलाकार ने सवथा स्पष्ट कर दिया है कि नाकियों का शरीर बीच २ में अग्नि से जला दिया भो जाता है तो भी वह मरण नहीं है और न व उनकी अपयाप्त अवस्था है। क्योंकि उस शरीर के जन जाने पर भी नाराकयों की मायु समाप्त न होने से उनका मरण नहीं होता है। इसलिये वे पर्याप्त हो रहते हैं। इस प्रकार यह पर्याप्त अपर्याप्त अवस्था का समन्वय नारकियों के द्रव्य शरीर से ही सम्बन्ध रखता है। और उसी पर्याप्त द्रव्य शरीर को मुख्यता से नाकियों के उक्त दो गुणस्थानों का सद्भाव सूत्रकार ने बताया है। __ यदि यहां पर भाववेद को मुख्यता अथवा उसक विरेचन होता तो उस वेद की मुख्यता से ही सत्रकार विवेचन करते, परन्तु उन्हों ने भावों की प्रधानता से यहां विवेचन सर्वथा नहीं
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(३६)
किया है किन्तु नाकियों के द्रव्य शरीर में और उनकी पर्याप्त अवस्था में सम्भव होने वाले गुणस्थानों का उल्लेख किया है। इसी प्रकरण में पर्याप्तियों के साथ गान मारणा में ६३ वां सूत्र है। अतः जैसे यहां पर नारकियों के द्रव्यशर र (द्रव्य वेद) की मुख्यता से सम्भव गुणस्थानों का प्रतिपादन सूत्रकार ने पिया। ठीक इसी प्रकार भागे के ८१ से लेकर ६ प्रादि सूत्र में भी किया है। वहां भी पर्याप्त अपयाप्त अवस्था से सम्बन्धित द्रव्यवेद की मुख्यता से मम्भव गुणस्थानों का वर्णन है।
विद्वानोंको क्रमपति, प्रकरण और संबंध ममन्वय का विचार करके ही अन्य का रहस्य समझना चहिये । “समस्त षटम्बएडागम भाववेद का ही निरूपक है, द्रध्यवेद का इसमें कहीं भी वर्णन नहीं है वह प्रन्यांतरों से समझना चाहिये" ऐसा एक अोर से सभी भावपक्षी विद्वान् भरने लम्ब र लेखों में लिख रहे हैं सो वे क्या समझकर ऐसा लिखते हैं ? हमें तो उनके वैसे लेख और प्रन्याशय के समझने पर पाश्चर्य होता है। ऊपर जा कुछ भी विवेचन हमने सूत्रों और व्याख्या के माधार किया है उसपर उन विद्वानों का होष्ट देना चाहिये भोर पन्थानुरूप ही समझने के लिये बुद्धि को उपयुक्त बनाना चाहिये। पक्ष मोह में पड़कर भगवान भूताल पुष्पदन्त ने इन धवलादि सिद्धांत शास्त्रों में किसी बात को बोड़ा नहीं है। उन्होंने द्रव्य शरीर की पात्रता के भाधार पर ही सम्भव गुणस्थान का समन्वय किया है। इसलिये
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(४०)
यह कहना कि द्रव्यवेद का कथन इस पटखएडागम में नहीं है उसे प्रन्यांतर से समझना चाहिये सिद्धांत शाब को अधूरा बताने के साथ वस्तु तत्व का अपनाप करना भी है। क्योंकि द्रव्यवेद का वर्णन हो सरसरूपण अनुयोग द्वार में किया गया है जिसका कि दिग्दर्शन हमने अनेक सूत्रों के प्रमाणों से यह कराया है। उस समस्त कथन का भाव-पक्षी विद्वानों के निरूपण से लोप ही हो जाता है अथवा विपरीत कथन सिद्ध होता है। मनसा वचसा कायेन परम वंदनीय इन सिद्धांत शाखों के मा. शयानुमार ही उन्हें वस्तु तत्व का विचार करना चाहिये ऐसा प्रसंगापात्त उनसे हमारा निवेदन है।
भागे भी सिद्धांत शास्त्र सर्राण के अनुसार पोतियों में गुणस्थानों के साथ चारों गतियों में द्रव्यवेद अथवा द्रव्य शरीर का ही सम्बन्ध है। यह बात आगे के १०० सूत्रों तक तक कि पर्यालयों के साथ गति-नि गुणस्थानों का विवेचन बराबर इसी रूप में है। १००३ सूत्र के बाद वेद मागेणा का प्रारम्भ १०१ सूत्र से होता है। उस वेद मार्गणा से लेकर मागे की कथायादि मार्गणामों में द्रव्य शरीर को मुख्यता नहीं रहती है। अतः उन सबों में भारवेद का विवेचन है। उस भाववेद प्रकरण में मानुषियों के नो और चोरह गुणस्थान का समावेश किया गया है, इस सिद्धांत सर्राण को समझकर ही विद्वानों को प्रकस विषय (सबत पद के विवाद) को सरल बुद्धि से हटा देने में
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.(४१) हो सिद्धांत शाखों का वास्तविक विनय, बन्तु स्वरूप एवं समाज हित समझना चाहिये । प्रस्तु
अब मागे के सूत्रों पर दृष्टि डालियेविदियादि जाव सत्समार पुढधीये णेरइया मिच्छाइट्टिटाणे सिया पन्जता सिया प्राग्जत्ता ।
(सूत्र ८२ पृष्ठ १५२ धवला) अर्थ-दूसरे नरक से लेकर सात नरक तक नारकी मिध्यादृष्टि पहले गुणस्थान को अपर्याप्त अवस्था में भी धारण करते है । पर्याप्त में भी करते हैं।
इस सूत्र की व्याख्या में धवनाकार कहते हैंअवस्तनोष षटसु पृथिवोत्र मिथ्यादृष्टीनामुत्पत्तेः सत्वात् ।
(पृष्ठ १०२ धवना) अर्थात-पहली पथ्वी को छोड़कर बाकी नीचे की बों पृथिवियों में मिध्यादृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं माः वहां परदूसरे से सातवें नरक तक के नारकियों की पर्याप्त अपर्याप्त दोनों भवस्थानों में पहला गुणस्थान होता है। यहां पर भी द्रव्यवेद (नारक शरीर) के माधार पर ही गुणधान का निरूपण किया गया है।
भागे के सूत्र में और भी सष्ट किया गया है। देखिये
सासण सम्माइटि सम्मामिच्छाइट्टि पसंजदसम्माइटिहाणे णियमा पञ्चता। (सूत्र ३ पृष्ठ १६२ धवल सिद्धांत)
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(४२) पर्थ सुगम हैइस सूत्र को उत्थानिका में धवलाकार कहते हैं
शेषगुणस्थानानां तत्र सत्वं क्व च न भवेदिति जातारेकस्य भव्यस्यारेका निरसनाथमाह ।
(पृष्ठ १६२) अर्थ-उन पृवियों के किन २ नारकियों में (किन र द्रव्य शरीरों में) शेष गुणस्थान पाये जाते हैं और किनर नारक शरीरों में वे नहीं पाये जाते हैं इस शङ्का को दूर करने के लिये ही यह ८३ वां सूत्र कहा जाता है । इम उत्थानिका के शब्दों पर 'वेषणा करने एवं भाव पर लक्ष्य देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गुणस्थानों का सम्भव, द्रव्य शरीर पर ही निर्भर है और उसका मूल बोज पर्याप्ति अपर्याप्त हैं।
तिरिक्खा मिच्छाइटिसासणसम्माइटिअसं जदसम्माठिाणे सिया पजत्ता सिया अपजत्ता।
(सूत्र८४ पृष्ठ १६३ धवल) अर्थ सुगम
परन्तु यहां पर तियंवों के जो अपर्याप्त अवस्था में भी चौथा गुणस्थान सूत्र में बताया गया है वह विर्यचों के द्रव्य शरीर भाधार पर हा बताया गया है इस सूत्र का स्पष्टीकरण धवनाकार ने इस प्रकार किया है__ भवतु नाम मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां तिया पर्याप्तापर्याप्वयोः सत्वं तयोस्तोत्पत्स्यविरोधात सम्यग्दृष्यस्तु पुनमें
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(४३) त्पद्यन्ते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति १ न विरोधः, मायास्याप्रामाण्यपसकात । क्षायिकसम्यग्दृष्टि सेवितनीर्थकरः पितसप्तप्रकृतिः कथं तिर्यक्षु दुःखभूयम्सूत्पद्यते इतिचंन्न तिरश्च नारकेभ्यो दुःखाधिक्याभावात । नारबपि सम्यग्दृष्टया नोत्पत्स्यन्ते इति चेन्न तेषां तत्रोत्पत्तितिपारकार्षापलम्मात ।
पृष्ठ १६३ धवला) अर्थ-मिथ्याष्टि और सासादन, इन दो गुणस्थानों की सत्ता भने ही तिथंचों की पयाप्त पार पपात अवस्था में बनी रहे क्योंकि तियचों की पयाप्त प्राप्ति अवस्था में इन दो गुणस्थानों के होने में कोई बाधा नहीं पाती है। परम सम्पष्टि जीव तो तिर्यचों में उसन्न नहीं होते हैं क्योंकि तिर्यचों की अपर्याप्त अवस्था के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है ? इस शह के उत्तर में धवनाकार कहते हैं कि तियचों को पर्याप्त अवस्था के साथ मा सम्यमशन का विरोध नहीं है, यदि विरोध होता तो ऊपर जो श्वां सूत्र है इस आपको मप्रमाणता ठहरेगी, क्योंकि नियंचों को अश्याप्त अवस्था में भी इस सूत्र में चौथा गुणस्थान बताया गया है।
शङ्का-जिसने तीर्थकर की सेवा की है और जिसने सात प्रकृतियों का क्षय किया है (प्रतिपन) ऐसा ज्ञायिक सम्यग्दृष्टिजीव अधिक दुःख भोगने वाले तियों में कैसे पनहो सकता?
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(४४) उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि तिर्यनों में नारकियों से अधिक दुःख नहीं है।
फिर शका-जब नारकियों में अधिक दुःख है तो उन नारकियों में भी सम्यग्दृष्टि जीव नहीं हो सकेंगे ?
उत्तर-यह भी शंका ठीक नहीं है क्योंकि नारकियों में भी सम्यग्दर्शन होता है। ऐसा प्रतिपादन करनेवाला माघे सूत्र प्रमाण में पाया जाता है मादि।
इस उपयुक्त सूत्र को व्याख्या से श्री धवलाकार ने यह बहुत खुलासा कर दिया है कि तिर्यबों के अपर्याप्त शरीर में सम्यक. दर्शन क्यों हो सकता है उसका समाधान भो मागे को याख्या द्वारा यह कर दिया है कि जिस जीव ने सम्यग्दर्शन के प्रहण करने के पहले मिथ्याष्टि अवस्था में तिर्यच भायु और नरक भायु का बन्ध कर लिया। उस जीव की तिथंच शरीर में भी उत्पत्ति होने में कोई बाधा नहीं है लेख बढ़ जाने के भय से हम बहुत सावर्णन छोड़ते जाते हैं। इसी लिये भागे को व्याख्या हमने नहीं निखो है। जो चाहें वे उक्त पृष्ठ पर अवता से देख सकते हैं।
हम इस सब निरूपण से यह बताना चाहते हैं कि गुणस्थानों की सम्भावना एवं समा जीवों के द्रव्य शरीर से हो सम्बन्धित है। और द्रव्य शरीर वही लिया जायगा जिस कि सत्र में उल्लेखो। तिर्यच शरीर में अपार पास्या में
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(४५)
सम्यग्दर्शन के साथ जीव किस प्रकार उत्पन्न होता है ? इस बात का इतना लम्बा विचार और हेतुवाद केवल नियेच के द्रव्यशरीर की पात्रता पर ही किया गया है। यहां पर चौथे गुणस्थान के सम्भावित शरीर के कथन की मुख्यता बताई गई है, इस बात श्री सिद्धि सूत्र में पड़े हुये अपर्याप्त पद से की गई है। अतः इस समस्त प्रकरण में पर्याप्त अपर्याप्त पद भाववेद का विधान नहीं बरते हैं किन्तु द्रव्य शरीर का ही करते हैं यह निर्विवाद निर्णय सूत्रकार का है। भाव – पक्षियों को निष्पक्षदृष्टि से सूत्राशय को व्याख्या के आधार पर समझ लेना चाहिये ।
और भी खुलासा देखिये -
सम्मामिच्छाइट्ठि संजदासंजन्द्र ऐ णियमा पज्जत्ता । (सूत्र ८५ पृष्ठ १६३ धवल सिद्धांत)
अर्थ
सुगम है।
इस सूत्र की व्याख्या करते हुये धवलाकार ने यह बात सप्रमाण स्पष्ट कर दी है कि सूत्र में जो तियेचों के पांचवां गुणस्थान बताया गया है वह पर्याप्त अवस्था में ही क्यों बताया गया है, पर्याप्त अवस्था में क्यों नही बताया गया ? व्याख्या इस प्रकार है
मनुष्याः मिध्यादृष्टवस्थायां बद्धतिर्यगाथुषः पश्चात् सम्यग्दशैनेन सहाचा प्रत्याख्यानाः क्षपितसप्तप्रकृतयस्तियुक्षु किन्नोत्पते? इति चेत् किचातोऽप्रत्याख्यानगुणस्य तिर्यगपर्याप्तष सत्या
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पचित न, देवगतिव्यतिरिकगवित्रपसम्ममायुषोपरिवाना. मणुगोपादानबुलयनुत्पतेः नका
परिवि खेत्ताई भागबंधे विहोरसम्मतं । अणुवर महबदाई प नहा देवागं मोत।
(गोम्मटसार कर्मकांड गाथा नं० १६५)
__ (धवला पृष्ठ १६३) अर्थ-जिन मनुष्यों ने मिथ्याष्टि भावस्था में तिर्यच मायु का बन्ध कर लिया। पीछे सभ्यर्शन के साथ देश संयम को भी प्रा कर लिया। ऐसे मनुष्य यदि सात प्रकृतियों का क्षय
मरण करें तो रतियंचों में क्यों उत्पन्न नहीं होंगे वैसी अवस्था में उन तियेचा अपयांत अवस्था में देश संयम अर्थात पौष गुणस्थान भी पाया जायगा ? शाके उत्तर में भवनाकार कहते हैं- कि नहीं पाया जाता क्योंकि देवगति को होकर शेष तीन गति सम्बन्धी पायु बम्प युक्त जीवों के अणुप्रोग्रहण करने को बुरी नहीं होती। इसके प्रमाण में पवनाकार ने गोम्मटसार कर्मकांड की गाथा का प्रमाण भो दिवाकिनारों गतियों को वायु के बंध जाने पर भी सम्यम्द. शन हो सकता है परन्तु देवाय बर को छोड़कर शेष तीनों गति सम्मान्धी पायुषन्ध होने पर या जीव पणुब पोर महास कोण नीर साहै।
इस कान से दो बातों का खुमासा हो जाता है एक बार
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कि पर्याप्त अपर्याप्त पदों का सम्बन्धवल द्रव्यशरीर से ।
और उनी पर्याप्त अपर्याप्त द्रव्य शरीर (व्यवेद) साप गुणस्थानों को घटित किया गया। यहां तक बताया गया कि जिस जीव के देवायु का बन्ध नहीं हुवा या उस पर्याय में नही होगा अथवा शेष तीन मायुषों में से किसी भी भायु का बन्ध हो चुकाो तो इस जीव को उस पर्याय में अरणवत और महावत नहीं हो सकते हैं। यह बात ज्य शरीर की पात्रता सं कितना गहरा विनामाको सम्बन्ध रखती। यह बात पाठक विद्वान मच्छी तरह समझ ले।
दूसरी बात धवलाकार को व्याख्या से और गोम्मतसार कर्मकांड की गाथा का उन्ही के द्वारा प्रमाण देने में यह भी अच्छी तरह सिम हो जाती है कि इस पालि भपर्याप्ति प्रकरण में जैसा इस पटखएडागम सिद्धांत शाब का ध्यवेद की मुख्यता का कथन है साली गोम्मटसार का भी कथन द्रव्यरेद की मुख्यता का। धवनाकार ने गोम्मटसार का प्रमाण देकर दोनों शाखों का एक रूप में ही प्रतिपादन स्पट कर दिया है। भावपक्षी विद्वान अपने नखी में पटसएडागम के १३६ सूत्र का विचार करने के लिये पटखएडागम माणों को छोड़ चुके हैं लोग प्रायः बहुभाग प्रमाण गोम्मटसार ही दे रहे है और यह पता रहे किगोम्मटसार जैसे भाववेद का निरूपण करताहै। से पटकरागम भी भाववेद का निरूपण करहै। परन्तु
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(४८) ऐसा उनका कहना प्रन्याशय विस्त। इस बात को हम पट. खरडागम से वो यहां बता रहे है, भागे गोम्मटमार के प्रमाणों से भी बतायंगे कि वह भी द्रव्यवेद का निरूपण करता है। और पटवण्डागम तथा गोम्मटसार दोनों च कथन एक रूप मेंहै। जैसा कि ऊपर के प्रमाण से धवलाकार ने स्पष्ट कर दिया है।
अब यहां पर तिर्यच योनिमती (तिर्यच व्यत्री) का सूत्र लिखते हैं
परिदिय तिरिक्सा जोणिणीसुमिच्छाडि सासणसम्माट. ठाणे सिया पत्तियामो सिया अपजत्तियामो।
(मूत्र ८७ पृष्ठ १६४ पवन) अर्थ सुगम । इस सूत्र का स्पष्टीकरण करते हुये धवलाकार निखते हैं कि
सासाइनो नारकवि सियदपि नासादीति वा द्वयोः साधम्यांमावतो दृष्टांतानुपपत्तेः।
(पृष्ठ १६४ धवला) अथ-सासाइन गुणवान बाला जीव मरकर जिस प्रकार मारकियों में सम नही होता है, उसी प्रकार तिबंगों में भी स्प नहीं होना चाहिये ?
तर-यह शब ठीक नहीं है, बरण नारसी पोर नियों पर्य नहीं पाया आता। इसलिये नारकियों
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(४३)
नियंत्रों में लागू नहीं होता है ।
इस व्याख्या से धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि सामाइन गुणस्थान नाकियों के अपर्याप्त द्रव्य शरीर में नहीं हो सकता है किन्तु तिर्यचों के द्रव्य शरीर में अपर्याप्त अवस्था में भी हो सकता है। अपर्याप्त अवस्था का स्वरूप सर्वत्र जीव के मरने जीने से ही बन सकता है। अतः जहां भी अपर्याप्त और पर्याप्त विशेपण होंगे वहां सर्वत्र द्रव्य शरीर का ही ग्रहण होगा। यह निश्चित है और प्रकृत में तो खुलासा सूत्र और व्याख्या से स्पष्ट किया ही जा रहा है।
सम्मामिच्द्वाइट्टि अस जश्सम्माट्ठ सजदा संप्रदाये बिमा पजातियाचो । (सूत्र ८८१४१६४ धवला)
अर्थ-योनिमती तियेच सभ्य मिध्यादृष्टि असंयत सम्यक्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्त ही होते ह। इसी का खुलासा धत्रलाकार करते हैंकुतः तत्रैवासा मुस्पतेरभावात् ।
(पृष्ठ १६४ धनला
अर्थ- उपयुक्त तीन गुणस्थान तिथेच योनिक्धी (द्रव्यखी) कं पर्याप्त अवस्था में ही क्यों होते हैं ? अर्थात अपर्याप्त व्यवस्था में क्यों नहीं होते ? इसका उतर पाचार्य देते हैं किन युक्त गुणस्थानों वाला ब्रोब मरकर योनिमती विर्यषों में उत्पन्न नहीं होता है। इस कथन से यह बात सिद्ध हो जाती है कि यहां पर पर्याप्त अपर्याप्त प्रकरण में गुणस्थानों का
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सद्भाव द्रव्य शरीर से ही सम्बन्ध रखता है। यहां पर भाववेद की कोई मुख्यता नहीं है। पर्याप्त अपर्याप्त तो शरीर रचना को पूर्णता अपूर्णता है वह भागवेद में घटित हो ही नहीं सकती है यही वर्णन हमने अनेक सूत्रों एवं उनकी धवल टोका से स्पष्ट किया है।
मनुष्यगति और ६ ३ वें सूत्र पर विचार
जिस प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त के सम्बन्ध से नरकगति दियंचगति का वर्णन किया गया है उसी प्रकार यहां पर सूत्र क्रमबद्ध एवं प्रकरणगत मनुष्यगति का वर्णन भी पथाप्ति अपर्याप्त से सम्बन्धित गुणग्थानों के सद्भाव से किया जाता है
मनुस्सा मिच्छाइट्ठि साससम्माट्ठ असं जर सम्माई छुट्टा सिया पत्ता सिया अपत्ता ।
(सूत्र ८६ पृष्ठ १६५ धवल)
सम्मा मिश्रा इट्टि - पंजा संज- संजट्ट से यमा पत्रता । (सूत्र ६० पृष्ठ १६५ धवल)
ये दोनों सूत्र मनुष्यों के पर्याप्त अपर्याप्त संबधी गुणस्थानों का कथन करते हैं। इनमें पहले सूत्र द्वारा यह बताया गया है कि मिध्यादृष्टि सासादन और असंयत सभ्यम्टष्टि इन दोनों गुणस्थानों में मनुष्य अपर्याप्त भी हो सकते हैं और पर्याप्त भी हो सकते हैं । दूसरे सूत्र में यह बताया गया है कि सम्बमिध्यादृष्टि, संबता -
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(११) संसौर संगत गुरास्थानों में मनुरुप नियम से पर्याप्त ही होते है।
इस द्वितीय सूत्र की व्याख्या पवनाकार ने इस प्रकार की
भवतु सर्वेषामेतेषां पर्याप्तत्व माहारशरीरमुत्थापयतां प्रमत्ता. नामनिष्पमाहारगतषटपर्याप्तीनाम । न पर्याप्तकमोत्यापेक्षया पर्याप्तापदेशः दुश्यसत्वाविशेषतोऽसंयतसम्यग्दृष्टीनामपि भार्यातत्वस्याभावापचेः । न प सयमोत्सत्यवस्थापेक्षया तदवस्थायां प्रमत्तस्य पर्याप्तस्य पर्याप्तस्वं घटते असंयतसम्यग्दृशवपि तासगाविति नैष दोषः।
(पृष्ठ १६५) अर्थ- यदि सूत्र में बनाये गये सभी गुणस्थान बालों को पयोतपना प्राप्त होता है तो होमो। परन्तु जिनकी बाहारक शरोर सम्पन्धो छह पर्याप्तियां पूर्ण नहीं हुई है ऐसे माहारक शरोर को उत्तम करनेवाले प्रमत्त गुणस्थानवी जीवों के पर्यात. पना नहीं बन सकता है। यदि पर्याप्त नामकर्म के लय की अपेक्षा पाहारक शरीर को खत्म करने वाले प्रमत्त संयत्रों को पर्याप्तक कहा जाने सो भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि पर्याप्त कर्म का
जय प्रमच संयतों के समान पसंया सम्यग्दृष्टियों के भी निपुंस्यपर्याय माया में पाया जाता है इलिये वहां पर भी अपर्याप्तपने बमभाव मानना पड़ेगा। संयम की उत्पचिप भास्था की अपेक्षा प्रमय संयत के बाहारक को अपर्याप्त अवस्था में पर्याप्तपना बन जाता है यदि ऐसा कहा जाय सो भी
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ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार असयत सम्यग्दृष्टियों के भी अपर्याप्त अवस्था में (सम्यग्दर्शन को अपेक्षा) पर्याप्तपने का सामा जायगा १
उत्तर-यह कोई दोप नहीं है क्योंकि द्रव्यार्थिक नय के अवलम्बन की अपेक्षा प्रमत्त संयतों को आहारक शरीर सम्बन्धी बह पर्याप्तियों के पूर्ण नहीं होने पर भी पयाप्त कहा है।
भावपक्षी विद्वान ध्यान से ऊपर की पंक्तियों को पढ़कर विचार करें। __ यहां पर जो व्याख्या धवलाकार ने की है वह इतनी स्पष्ट है कि भाववेद पक्षबालों का शक्ता एव सन्देह के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता है। बहुत सुन्दर हेतुपूर्ण विवेचन है छठे गुणग्थान में मुनि पर्याप्त हैं क्योंकि उनके पौधारिक शरीर पूर्ण हो चुच है इसलिये वहां पर पर्याप्त अवस्था में संयम का सद्भाव बताया गया। परन्तु बठे गुणस्थान में उसी प्राहार वर्गणा से बनने वाला बाहारक शरीर जबतक पूर्ण नहीं है तब तक मुनि को पर्याप्त कैसे कहा जायगा और वहां संयम कैसे होगा ? इसके उत्तर में पर्याप्त नामकर्म का उदय एवं व्यार्थिक नय का भव. लम्बन मादिकाकर जो समाधान किया गया है उससे भलीभांति सिड होता है कि संयत गुणस्थान पटपयाप्तियों को पूर्णता करने वाले मनुष्य के द्रव्य शरीर के माधार से ही कहा गया है। इसी लिये हमने इतनी व्याख्या लिखकर इस प्रकरण का दिगर्शन
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करावा है। इसमा खुलासा बिरेचन होने पर भी यो पटसारखागम के समस्त प्रकरण चौर समाव करन को भारत की अपेक्षा बातेहै और द्रव्यद (म्बशरीर) की मुख्याचा निषेध करतो.
होने इस प्रकार को एक पर्याप्ति कार्यानि सम्बम्धी गुणस्थान पवन को पढ़ा और समझा भी है या नहीं? सूत्रों के अभिभाव से त्या विस्त उनके धन पर मारपये होता है। एवं मणुस्स पजत्ता। (सन १ पृ. १६६ धवन)
मर्थ-जैसा सामान्य मनुष्य के लिये विधान किया गया। साही पर्याप्त मनुष्य के लिये समझना चाहिये। इस सूत्रकी
याख्या में कहा गया कि. कई तस्य पर्याप्तत्वं ! न द्रव्याकिनगण्यात मोदनः पच्चत इस्यत्र यया तन्दुवानामेवोदनव्यपदेशस्तवाऽपर्याप्तवावा
यामप्यत्र पर्याप्तव्यबहारोन विध्यते इति। पर्याप्वनामको. . दयापेक्षया का पर्याप्तना। .
बर्थ-जिसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई से पर्याप्तक से कहा जाएगा!
उत्तर-यह ठीक नहीं है क्योंकि द्रव्याधिक नय की · अपेक्षा इसके भी पर्याप्तपना बन जाता है जिस प्रकार भात पक रहा ऐसा करने से बालों को भात काबा उसी प्रभार जिसके सभी पत्तियां पूर्ण होने वाली है ऐसे जीव के अपर्याप्त पापा में भी नित्यपप्तिकावस्था में मी) अप्पिनेच
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व्यवहार होता है। अथवा पर्याप्त नामकर्म के उदय की अपेक्षा से उन जीवों के पर्याप्तपना समझ लेना चाहिये। ___ यहां पर पर्याप्त नामकर्म के पदय से जिसके छहों पर्याप्तियां पूर्ण हो चुकी हैं उसी मनुष्य को पर्याप्त मनुष्य कहा गया है, इससे यह बात मुगमता से हर एक की समझ में भा जाती कि पर्याप्त मनुष्यों में गुणगानों का कथन द्रव्य शरीर की मुग्यता मही किया गया है। जिस प्रकार पर्याप्त पोर अश्याल के सम्बन्धसे यह कथन है मसी पकार माग के सूत्रों में भी समझना चाहिये।
मानुषी (द्रव्यत्री) के गुपस्थान मसिणीम मिच्छाडि सासणसम्माइलिटाणे सिया पञ्जसियामो सिया अपज्जत्तियानो ।
(सूत्र ६२ पृ० १६६ धवनाम) अर्थ-मानुपियों (व्यत्रियों) में मिथ्याष्टि और सासादन ये दो गुणस्थान पयांम अवस्था में भी होते है और अपर्याप्त अवस्था में भी होते हैं।
इस १२और इसके भागे के १३ वें सत्र को कुछ विद्वानों ने विवादस्य बना लिया इन दोनों सत्रों में बताये गये मामुनियों के गुणवानों को द्रव्यत्रीकन बता कर भावी पाते। परन्तु उनका कहना पर्याप्ति पर्याप्त सम्मान
गये समस्त पूर्व सूत्रों के कान से और इस सूत्र मनसे
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भी सर्वधा विरुद्ध है। इसी बात का खुलासा यहां पर इन सूत्र की धवला टीका से करते हैं:
पत्रापि पूर्ववपर्यासानां पर्याप्तव्यवहारः प्रवर्तयितव्यः । अथास्यादिस्ययं निपातः कपब्दियस्मिनर्थ वसंते। तेन स्यामा पर्याप्तनामकोश्यारीनिष्पत्यपेक्षया रास्याद. पर्याप्ताः शरीरानिष्पस्यपेक्षया इति वक्तव्यम । सुगमभन्या ।
अर्थ-यहां पर भी पहले के समान निर्ष स्पपर्याप्तकों में पर्यापने का व्यवहार कर लेना चाहिये। अथवा 'स्यात्' पर निपात कञ्चन अर्थ में पाता है। इस स्याम (सिया) परके अनुसार वे कथंचिन पर्याप्त होती है। क्योंकि पर्याप्त नाम फर्म के समय की अपेक्षा से अथवा शरीर पानि की पूर्णता की अपेक्षा से वे बियां श्याप्त की जाती हैं। तथा व्यक्ति परांत भी होती है। शरीर पर्याप्ति की पूर्णता की अपेक्षा समपर्याप्त हावी है। __यहां पर धावार ने "अत्रापि पूर्षत"ये पर देकर यह बताया कि निसाकार पहले सूत्रों में पर्याप्ति अपर्याप्ति के सम्बम्ब से ममुम्यों की पटपर्याप्तियों की पूर्णता-बोर अपूर्णता का और उन अवस्थामों में प्राप्त होने वाले गुणस्थानों का वर्णन किया है ठीक वैसा ही वर्णन यहां परभी किया जातामह सिहोता. किस १३ सूत्र में भी उसी प्रकार व्यापार बकवन है जैसा किले के सूत्रों में मनुष्य तिर्यन प्रादि।
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कहा गया है।
यहां पर द्रव्य शरीर किस का लिया जाय ? यह शंका खड़ी होती है क्योंकि भावपक्षी विद्वान कहते है कि यहां पर द्रव्य शरीर तो मनुष्य (पुरुष) का है और भावत्री ली जाती है।
इस के उत्तर में इतना समाधान पर्याप्त है कि जिसका इस सूत्र में विधान है उसी का द्रव्य शरीर लिया जाता है। इस सूत्र में मनुष्य का वर्णन तो नहीं है। उसका वर्णन तो सूत्र १ E0, ६१न तीन सूत्रों में कहा जा चुका है यहां पर इस सत्र में मानुषी का ही वर्णन है इस लिये उसी का द्रव्य शरीर लिया जायगा। और भाव का यह प्रकरण ही नहीं है क्योकि पर्याप्ति भपयाप्ति के सम्बन्ध से द्रव्य शरीर की निष्पत्ति अनिष्पत्ति की ! मुख्यता से ही स्मात कथन इस प्रकार से कहा गया है। अतः जो विद्वान इस सत्र को भावली का विधायक बताते हैं और द्रव्यत्री का विधायक इस सूत्र को नहीं मानते हैं वे इस प्रकरण पर पर्याप्ति अपर्याप्ति के स्वरूप पर, सम्बन्ध समन्वय पर, और धवलाकार के स्फुट विवेचन पर मनन करें। पूर्व संक्रमबद्ध निरूपण किस प्रकार किया गया है, इस बात पर पूरा ध्यान देव
पहले के सभी सूत्रों में द्रव्य शरीर को यथानुरूप पात्रता के भाधार पर ही संभावित .एस्थान बताये गये हैं। इस सूत्रकी धवला टीका से भी यही बात सिद्ध होती है कि यह र रकी पाही विधान करता है। यदि पत्री वा विधायक यह सत्र ।
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नहीं माना जावे और भावली का विधायक माना जाने तो फिर पर्याप्त नाम कर्म के उदय की अपेक्षा और शरीर निष्पति को अपेक्षा से पर्याप्तता का उल्लेख धवलाकार ने जो स्पष्ट किया है वह पैसे घटित होगा ? क्योंकि भावो की विवक्षा वो मानवेद के उदयकी अपेक्षा से अर्थात नोकषाय स्त्रीवेद के उदय की अपेक्षा से हो सकती है। परन्तु यहां तो पर्याप्त नाम कर्म का उदय मौर शरीर पर्याप्त की अपेक्षा की गई है। अतः निर्विवाद रूप से यह बात सिद्ध हो जाती है कि यह सूत्र : व्यस्त्रोका हो विधायक है
हठात् विवाद में डाला गय
?
& ३ वां सूत्र और उसकी धवला टीका का
स्पष्टीकरण
सम्मामिच्छाई द्वि-बसंजरसम्माइटि-संजदासंजदट्ठाणे लिब
मा खिया ।
(सूत्र १३ पुत्र १६६ धवल सिद्धांत )
अर्थ - सम्यम्मध्यादृष्टि, असंयत सम्यम्टष्टि, संयतासंयत इन तीन गुणस्थानों में मानुषी ( द्रव्यस्त्री ) नियम से पर्याप्त ही होती है।
अर्थात तीसरा, चौथा, और पांचवां गुणस्थान द्रव्यस्त्री की पर्याप्त अवस्था में ही हो सकते हैं। पहले ६२ वे सूत्र में द्रव्यखी
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की पर्याप्त अवस्था में और अपर्याप्त अवस्था में पहला और दूसरा या दो गुणस्थान बताये गये हैं। उसी स्त्र से इस सूत्र में मानुषी को अनुवृत्ति मातो। १२ सूत्र में इयत्री को अपर्याप्त अवस्या के गुणस्थानों का वर्णन है और इस ६३ वें सत्र में उसी द्रव्यम्रो की पयात भवस्था में होने वाले गुणस्थानों का वर्णन है। इस ६३ वें सूत्र में पड़े हुये 'पियमा पवियो' नियम और यात प्राथा इन दो मोर पूरा मान मोर ध्यान करना चाहिये क्योंकि ये दो पद ही इस सूत्र में ऐसे हैं जिनसे द्रव्यखी का पक्षण हो सकता है।
पर्याप्ति शन्द पट पानि भोर शरीर रचना की पूर्णता का विधान करता है। इससे द्रव्य शरीर की सिद्धि होती है। नियम शब्द व्यत्रो की पर्यात रवस्था में उक्त गुणस्थानों को प्राप्ति को बाधता को सूचित करता है। मानुषी शनको अनु. वृत्ति ऊपर २ वें सूत्र से बाती है, उससे यह सिद्ध होता है कि वह द्रव्य शरीर जो पाराम से अनिवार्य सिद्ध होता है ध्यत्री का लिया गया। “१२ और १३ सूत्रों में जो पर्याप्ति तथा भपति पदों से द्रव्य शरीर लिया गया है वाय मनुष्य का मान लिया जाय तो क्या बापा १ इस शंका समाधान हम २३सबबिषन में कर चुके हैं यहां पर और भी सर कर देते है कि मनुष्य (पुरुष) द्रव्य शरीर का निरूपण कर १०,११ इन तीन सूत्रों में डिया जा चुका है। वहां उन सूत्रों में
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भी पर्याप्ति अपर्याप्ति पर पड़े हुए हैं। उन पदों से सन मनुष्यों के द्रव्य शरीरसी पूर्णता अपूर्णता का ग्रहण और उन अवस्वानों में सम्व त गुणस्थानोंका विधान बताया जा चुका है।
पहा १२ और ६३६ सत्रों में मानुषो के साथ पर्याप्ति मपबांति पद जुड़े हुए है इस लिये इन सूत्रों द्वारा पर्याप्त नाम कम के सदय तथा षट पत्तियों एवं शरीररचनाको पुरता अपूर्णता का सम्बन्ध और समन्बय मानुषी के साथ ही होगा, मनुष्य के साय नहीं हो सकता है।
मानुषी का वाच्यार्य "मानुषी शब्द मावली में भी माता और द्रव्यत्री में भी पाता है।" मानुषी शब्द के दोनों ही वाच्यार्य होते हैं। इस बात को सभी भाव पक्षी विद्वान स्वीकार करते हैं। परन्तु इन १२ और ३ ३ सत्रों में मानुपी शन का वाच्य-अर्थ केवल द्रव्यत्री ही लिया गया है, क्योंकि मानुषी १६ के साथ पर्याप्ति अपर्याप्ति पद भी जुड़े हुए हैं, वे द्रव्य शरीर की रचना पोर उसकी पूर्णता अपूर्णता के हो विधायक है क्योंकि यह योगमार्गणा का प्रकरण है बता द्रव्य शरीर को छोड़ कर मावस्त्री का पहण नही होता है, और द्रव्य मनुष्य का विधान सत्र ८t, t०, ११ इन तीन सत्रों द्वारा किया जा चुका है मतः इन १२.६३ वें सत्रों में भनुष्य द्रव्य शरीर के साथ भावली का महण कदापि सिद्ध नहीं हो सकता है। इस लिये सब प्रकार से एक सूत्रों के पदों पर
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दृष्टि देने से यह बात भने प्रभार निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि ६२ और ६३वे सूत्र द्रव्य बोके ही विधायक हैं। द्रव्य मनुष्य के साथ मात्र त्री को करना इन सूत्रों में नहों की जा सकती है।
बब ६३वां सूत्र यत्रो का ही विधान करता है उसमें 'सनद' पद का निवेश करना सिद्धांतसे विपरीती। बतः यह माटरूप से मिट हो चुका है कि वे सत्र में 'मम' पर का: सर्वथा अभाव है। वहां मंयत पर किसी प्रकार जोश नहीं जा समता है। यह बात सूत्रगत पदों से ही सिद्ध हो जाती है। तथा उसी के अनुरूप धवना टीका से भी वही बात सिद्ध होती है। उसका दिग्दर्शन धवना के प्रमाणों द्वारा हम यही माते हैं___ "हुए डावरियां खीषु सम्यग्दृश्यः त्रिोत्पयन्त इतिचेन, नोत्पयन्ते । कुतोवमीयते ? भस्मादेव पार्शत । अस्मादेवार्षात द्रव्यमाणा निवृत्तिः सिद्ध्येदिति चेत्र सवासस्वारपत्याख्यानगुखवितानां संयमानुपपत्तेः मावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्ध इवित, न तासां भावसंयमोस्ति भावाऽसंयमाविनाभाविवसायपादानाम्यथानुपपत्तेः । कथं पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानीति चेन भावात्रीविशिष्ट-मनुष्यगतो वत्सत्वाविरोधात । भाववेदो बादर
वाघोपर्यतीति न वत्र चतुर्दश गुणस्थानानां संभव इतिचेन्न पत्रस्व प्रापावाभावात् । गविस्तु प्रधाना न सा पाराविनस्पति देदवशेषखायां गतौ न तानि संभवन्तीति चेम विनष्टषि विशेषणे
पारेख वन्यपरेशमादपानमनुष्यगतो वत्सत्याविरोधात
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मनुष्याअर्याप्तवपर्याप्तिप्रतिपक्षामावतः सुगमस्थान सत्र बत्तव्य मति "।
पृष्ठ १६६-१६७ पबला) ___ उपर वे सूत्र की समस्त धवमा का उद्धरण दिया गया है यहां पर हम नीचे प्रत्येक पक्ति का शब्दशः अर्थ लिखते हैं और उस अर्थ के नीचे (विशेष) शन द्वारा उसका खुलासा अपनी भोर से करते है
हुरडावसरियां सीपु सम्यग्दृष्टयः किमोत्पद्यन्ते इतिचेतनोत्पद्यन्ते।
अर्थ-हुण्डावसर्पिणी में खियों में सम्यग्दष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? इस शंका के उत्तर में प्राचार्य कहते हैं किनहीं उत्पन्न होते हैं।
विशेष-यहां पर कोई दिगम्बर मतानुयायी शङ्का करता कि जिस प्रकार हुएडावसर्पिणी ग्रन में तीर्थकर मादिनाथ भगवान के पुत्रियां पैदा हुई हैं, पटखएडविजयी भरत चक्रवर्ती की भी विजय (हार) हुई है, उसी प्रकार इस हुरडावसर्पिणी कान में द्रबिपों में भी सम्यग्दष्टि जीव पैदा हो सकते हैं इसमें स्या बाधा ? उत्तर में भाचार्य कहते हैं कि यह शहा ठीक नहीं है क्योंकि इस हुरडावसर्पिणी काल में भी द्रव्यस्त्रियों में सम्यगदृष्टि जीव पैदा नहीं हो सकते हैं। यहां पर इतना समझ लेना चाहिये कि धवनाकार ने मानुषी के स्थान में स्त्रीषु' पद दिया। उससे द्रव्यची काही ग्रहण होता है। दूसरे-सभ्यस्व सहित
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बीरमरकर द्रव्य श्री में नहीं जाता है इसलिये ऊपर की शा और समाधान से भी दव्यस्त्री का ही ग्रहण होता है।
कुतोवसीयते । अस्मादेवाऽऽर्षान। अर्थ-का-यह बात कहां से जानी जाती है ? उत्तर-सीमा से जानी जाती है। विशेष-इस ६३वें सत्र में fणयमा पसियानो' यह स्पष्ट वाक्य है, इसी वाक्य सं यह सिद्ध होता है कि सम्यक्दर्शन की प्राप्ति द्रव्यत्री की पर्याप्त अवस्था में ही नियम से होती है। यदि सम्यग्दर्शन को साथ लेकर जीव द्रव्यत्री में पैदा हो जाताहो तो फिर इस सूत्र में जो चौथा गुण स्थान नियमले पयाप्त अवस्था में ही होता।' ऐसा प्राचार्य नहीं कहते, इसलिये इस सूत्र रूप भार्ष स हो सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि मरकर द्रव्य श्री में पैदा नहीं होता है।
भस्मादेव पार्षात व्यत्रीणां निवृत्तः सिद्धयन इतिचेत्र सबासस्त्वान. अप्रत्याख्यानगुणस्थितानां संयमानुपपत्तेः।
अर्थ-श-सीमा से द्रव्यक्षियों के मोह भी सिद्ध होगी
उत्तर-यह शहा भी नही हो सकती, क्योंकि बस सहित होनेसे असंयम (दशसयम) गुण,थान में ठहरी हुई उन नियों के संयम दा नही होता है। विशेष-शशकार का यह कहना है कि सम्यदर्शन मोक्ष का
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कारण है और द्रव्यषियों के इस सत्र में सम्यग्दर्शन के साथ देश संयम भी बताया गया है। जब उस द्रव्यमी को पर्याप्त अवस्था में सम्यग्दर्शन और देश संयम भी हो सकता है वा भागे के गुणस्थान भोर मोक्ष भो उसके हो सकती है? इस शो उत्तर में प्राचार्य कहते हैं कि यह शश भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य स्त्री वस्त्र सहित रहती है इसलिये वह अप्रत्याख्यान (अप्सयत-देश संयत) गुणस्थान तक ही रहती है, ऐसी भारपा में उसके संयम (बटा गुणस्थान) वैदा नहीं हो सकता है। ___ यहां पर शंभकार ने द्रव्य बी पर काकर शंका उठाई है,
और उत्तर देते समय प्राचार्य ने भी द्रव्यत्री मानकर हो उत्तर दिया है। क्योंकि वस्त्रसहित होने से द्रव्यत्री के संपम नहीं हो सकता है, वह प्रसंयम गुणस्थान तक ही रहती है यह व्यन
न्य स्त्री के लिये ही हो सकता है। भावसी की अपेक्षा यदि १३चे सूत्र में होती तो उत्तर में भाचार्य 'वस्त्र सहित और अप्रत्याख्यान गुणस्थित' ऐसे पद कदापि नहीं दे सकते थे। भाव खी के तो वस्त्र का कोई सम्बन्ध नहीं है और इसके तो गुणस्थान तक होते हैं। और १४ गुणस्थान तथा मोक्ष तक इसी शाम में बताई गई है। इससे सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि शव को द्रव्य त्री का नाम लेकर ही की गई है, उचर भी भाचार्य ने द्रव्यबी का ग्रहण मानकर ही दिया है।
यदि १३२ सूत्र में 'सनद' पहरोता वो उत्तर में मानायें
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'म सहित होना, मसंयम गुणस्थान में रहना और संयम का अस्प नहीं होना' ये तीन हेतु किसी प्रकार नहीं दे सकते थे क्योंकि जब सूत्र में संयम पद मान लिया जाता है तब ऊपर कहे गये दोनों हेतु नहीं बन सकते हैं। संयम अवस्था में न तो व महितपना है। और न पसंयमपना कहा जा सकता है तथा सूत्र में संयम पद जब बताया जाता है। तब संयम उन मानुषियों के नहीं हो सकता है। यह उत्तर नहीं दिया जा सकता है। संयम पर के रहते हुये संयम उन मानुषियों के नहीं हो सकता है ऐसा खना पूर्वापर विरुद्ध ठहरता है। भाववेद वादियों को इस राक्ष समाधान एवं धवला के उत्तर में कहे गये पदों पर ध्यान पूर्वक विचार करना चाहिये।
भाव-पक्षी विद्वान यह कहते हैं कि यदि सूत्र में सञ्जद पर नहीं होता तो फिर इसी सूत्र से द्रव्य त्रियों के मोक्ष हो सकती है ऐसी शक किस प्रकार उठाई जाती ? भावपक्षी विद्वानों की इस तर्कपा के उत्तर में यह समझ लेना चाहिये कि शहा यह मानकर, उठाई गई है कि जब द्रव्यस्त्रियों के पर्याप्त अवस्था में सम्यग्दर्शन
और देशयम भी हो जाता है तो फिर पर्याप्त मनुष्य के समान उनके मोक्ष भी हो सकती है भाग के संयम गुण स्थान मी हो सकेंगे। यदि सूत्र में संजद पद होता तब तो फिर शव उठने के लिये कोई स्थान ही नहीं था जैसे मनुष्य की अपेक्षा से कहे गये १०-११वें सूत्र में पर्याप्प अवस्था में 'संजद' पर दिया गया है
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वहाँ १४ गुणस्थान और मोक्ष होने को कोई शंका नहीं उठाई गई है क्योंकि संयम पद से यह बात मुतगं सिद्ध है। उसी प्रकार यदि ६३वे सूत्र में भी संयम पद होता तो फिर १४ गुणस्थान
और माक्ष का होना सुतरां सिद्ध था, शंका उठाने का फिर कोई कारण हो नहीं था। सूत्र में संयम पद नहीं। और द्रव्यत्री के पर्याप्त अवस्था में सम्यग्दर्शन और देश सयम तक बताये गये हैं तभी शंका उठाई गई है जैस पर्याप्त अनाथामें उसके सम्यग्दर्शन
और देश सयम भी हो जाता है तो भाग के गुगास्थान भी हो जायंगे और मोच भी हो जायगी ?'
फिर शका तो कसी भी की जा सकती है उत्तर पर भी तो ध्यान देना चाहिये। यदि सूत्र में संगम पद होता तो उत्तर में यह बात कहने के लिये थोड़ा भी स्थान नहीं था कि 'वस्त्र सहित होने से तथा असंयम गुणस्थान में ही रहने से संयम को उत्पत्ति नहीं हो सकती।' जब सूत्र में संयमपद माना जाता है तब 'सयम नहीं हो सकता।' ऐसा सूत्र-विरुद्ध कथन धवनाकार उत्तर में कैसे कर सकते थे ? कभी नहीं कर सकते थे। अतः स्पष्ट सिद्ध है कि ६३वां सूत्र भाववेद की अपेक्षा में नहीं है किन्तु द्रव्य लो वेद की प्रधानता से ही कहा गया है अतः उसमें मयम पद किसी प्रकार भी मिद्ध नहीं हो सकता है। धवलाकार के उत्तर का ध्यान में देने स १३ वे सूत्र में 'संज" पद के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं हो सकती है। आग और भी खुलासा देखिये
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भावमंयमस्तामां सवाससामपि अविरुद्ध इतिचेन, न तासां भावसय मोहित भावाऽसयमाविना मात्रिवस्त्राद्यपादान्यथाऽनुपपत्तेः अर्थ- शंका उन मानुषियों के वन्त्र सहित रहने पर भी भव रूयमत्र होने में तो कोई विरोध नहीं है ?
उत्तर-ऐसी भी शवा ठीक नहीं है, उनके भाव संयम भी नहीं है। क्योंकि भाव असंयम का अविभावी बाद का ग्रहण है, वह ग्रहण फिर अन्यथा नहीं उत्पन्न होगा ।
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विशेशकाकार ने यह शंका उठाई है कि यदि द्रव्यस्त्रियों के वस्त्र रहते हैं तो मी अवस्था में उनके द्रव्य सयम (नग्नता-दिगम्बर मुनि रूप) नहीं हो सकता है तो मत हो । परन्तु भावसंयम तो उनके वस्त्रधारण करने पर भी हो सकता है, क्योंकि वह तो श्रात्मा का परिणाम है वह हो जायगा । इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि यह बात भी नहीं है बत्र धारण करने पर उन खियों के भाव संयम भी नहीं हो सकता है। क्योंकि भाव संयम का विरोधी वरू ग्रहण है। वह वस्त्र रूयों कपास रहता है | इसलिये उनके असयम भाव ही रहता है । संयम भाव नहीं हो सकता है । श्रथान बिना वस्त्रों का परित्याग किये छठा गुणस्थान नहीं हो सकता हैं
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यहां पर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ६३ वें सूत्र में जिन मानुषियों का कथन है वे वस्त्र सहित हैं, इस लिये उनके द्रव्यलायन और भाव संयम दोनों ही नहीं होते हैं। इस स्पष्ट खुलासा
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से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे मानुषियां द्रव्यस्त्रियां ही हैं। यदि भावखी का प्रकरण और कथन होता तो वस्त्र सहितपना उनके कंसे कहा जाता, जबकि भावी नोत्रं गुणस्थान तक रहता है और यदि ६३ वें सूत्र में संयम पर होता तो धाचार्य यर उत्तर कदापि नहीं दे सकते थे कि उन स्त्रियों के द्रव्य संयम भी नहीं है और भावसयम भी नहीं है ।
दूसरे - यदि सूत्र में सयम पद होता तो 'द्रव्यंस्त्रियों के इसी सूत्र से मोक्ष हो जायगी' इसके उत्तर में आचार्य यह कहे बिना नहीं रहते कि यहां पर भावत्री का प्रकरण है. भावही की अपेक्षा रहने से स्त्रियों की मोक्ष का प्रश्न खड़ा ही नहीं होता । परन्तु श्राचार्य ने ऐसा उत्तर कहीं भी इस धवला में नहीं दिया है। प्रत्युत यह वार २ कहा है कि स्त्रियां सहित रहती हैं इसलिये उनके द्रव्य सयम और भाव सयम कोई सयम नहीं हो सकता है इससे यह बात स्पष्ट खुलासा हो जाती है कि यह ६३ सूत्र की मानुषी क्रयखा है और इसलिये सूत्र में संयम पद का सर्वथा निषेध आचार्य ने किया है। उसका मूल हेतु यह है कि यह योग मार्गणा - औदारिक काययोग का कथन है, श्रदारिक काययोग में पर्यात अवस्था रहती है। इसलिये द्रव्यखां का ही ग्रहण इस सूत्र में अनिवार्य सिद्ध होता है। अतः संयम पद सूत्र में सर्वधा असम्भव है I इस सब कथन को स्पष्ट देखते हुये भी भावपक्षी विद्वानों का सूत्र में संयम पद बताना आश्चर्य में डालता है
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कथं पुनस्तामु चतुदश गुणस्थानानीतिचेन, भावत्रीविशिष्ट मनुष्यगतो तत्मत्वाऽविरोधान ।
अर्थ-शका - उन खियों में फिर चौदह गुणस्थान कैसे बताये गये हैं?
उत्तर-यह शंका भी ठीक नहीं है, भावस्त्रो विशिष्ट मनुष्यगति में ननक सत्व का विरोध ।
विशेप-शंकाकार ने यह शंका की है कि जब मार (पाचार्य) खियों को वस महित होने से द्रव्यसंयम और भावसंयम दोनों का उनमें प्रभाव बताते हो तब उनके इस शास्त्र में जहां पर चौदह गुगास्थान बताये गये हैं वे कैस बनेंग? उत्तर में प्राचाय कहते है कि जहां पर स्त्रियों के चौदह गुणस्थान बताये गये हैं। वह भाव स्त्री विशिष्ट मनुष्यगति की अपेक्षा से बताये गये हैं। भावली सहित मनुष्यात में चौदह गुणस्थान होने में कोई विरोध नहीं पा सकता है। ___ यहां पर यह समझ लेना चाहिये कि जैसे ऊपर की शंका और समाधान में दो बार "मम्मादेव भाषांन" इसी पाप से अयान 'इसी सूत्र सं' ऐसा उल्लेख किया गया है वैसा उल्लेख इस चौदह गुणस्थान बताने वाली शंका में भोर समाधान में नहीं किया गया है। यदि सूत्र में संजद पद होता तो शकाकार अवश्य कहता कि संजद पद रहने से इसी ६३वे सूत्र में चौदह गुणस्थान फिर कैसे बताये गये हैं। परन्तु ऐसी शंका नहीं की गई है,
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उत्तर में भी इस पुत्र का कोई उल्लेख नहीं है। यह शंका एक सम्बन्धित-पाशंका रूप में सामान्य शंका है जो इस सूत्र से कोई सम्बन्ध नहीं रखती। इस प्रकार को आशंका भो तभी हुई है जबकि इस भाषे (मूत्र) में दोनों संयमों का सर्वथा प्रशव बता. पर स्त्रियों के बनधारण भोर असंयम गुणस्थान बताया गया। वैसी दशा में ही यह शंका की गई है फिर जहां पर खियों के १४ गुणस्थान कहे गये हैं वे किस दृष्टि से कहे गये है ? इस शका के समाधान से भी सिद्ध हो जाता है कि यह १३वां सूत्र द्रव्यत्री का प्रतिपादक है । भावत्री के प्रकरण (वेदानुवाद बादि) में ही चौदह गणस्थान कह गये हैं इस सूत्र में तो योग मागंणा और पर्याप्ति सम्बध का प्रकरण होने से द्रव्यत्री का हो कथन है और इसीलिये इस इवें सूत्र में पांच गुणस्थान बताये गये हैं। यदि सूत्र में सजत पद होता तो जैसे वेदानुवाद भादि भाग के सूत्रों में सर्वत्र मणुस्सातिवेदा मिच्छाटिप्पहुड जाव अाणट्टिति । (सूत्र १०८) यानो मिश्याष्टिस लेकर वेंगुणस्थान तक' ऐसा कथन किया। वहां प्रभृति कापर न गुणस्थान सर्वत्र बताये गये हैं वैसे इस सत्र में भी प्रभृति कहकर बता देते। परन्तु यहां पर वैसा कथन नहीं किया गया। जहां प्रभृति शब्द से नो गुणस्थानों का कथन है वहां पर चौदह गुणस्थानों को कोई शंका भी नहीं उठाई गई।
यहां पर ६३वं सूत्र में यदि सजद पद होता तो फिर चौदह गुणस्थान जहां बताये गये हैं वे कैसे बनेंगे ऐसो शंका का कोई
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कारण ही नहीं था। क्योंकि सनद पद के रहने से चौदह गुणस्थानों का हाना सुतरां सिद्ध था।
भाववेदी वादरकपायानोपर्यम्तीति न तत्र चतुर्दश गुणस्थानानां मम्भव इतिचेन्न पत्र वेदस्य प्रधान्याभावान गतिस्तु प्रधाना, न सा पागद विनयात ।
अर्थ-शङ्का-भाववेद तो बादर कपाय से ऊपर नहीं रहता है इमलिय वहां पर चौदह गुणस्थानों का सम्भवपना नहीं हो सकता है?
उत्तर-यह शङ्का भी ठीक नहीं है, यहां पर वेद की प्रधानता नहीं है। गति तो प्रधान है वह चौदह गुणस्थान में पहले नष्ट नहीं होती है।
विशेष-शङ्काकार का यह कहना है कि जब भाववेद की अपेक्षा सं चौदह गुणस्थान बताये गये हैं एसा कहते हो तो भाव वेद तो वायर कपाय-तौब गुणस्थान तक ही रहता है। वेद तो नौवें गुणस्थान के संवेदभाग में ही नष्ट हो जाता है फिर भावली के चौदह गुणस्थान कसे घटित होंग? इसके उत्तर में प्राचार्य कहते हैं कि जहां पर भावत्री के चौदह गुणस्थान बताये गये हैं वहां पर वेद की प्रधानता नहीं है किन्तु गति की प्रधानता है। मनुष्यगति चादह गुणस्थान तक बनी रहती है उसी अपेक्षासे १४ गुणस्थान कहे गये हैं।
वेदविशेषणायां गतो न तानि सम्भवतीतिचन्न विनप्टेपि विश
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पणे उपचारेण तद्व्य देशमादधानमनुष्यगतौ तत्सत्वाऽविरोधात । अर्थ - शङ्का - बंद विशेषण सहित गति में तो चौदह गुणस्थान नहीं हो सकते हैं ?
उत्तर - यः शङ्का भी ठीक नहीं, विशेषण के न होने पर भी उपचार से उसी व्यवहार को धारणा करने वाली मनुष्य गति में चीदह गुणस्थानों की सत्ता का कोई विरोध नहीं है ।
विशेष - शङ्काकार का यह कहना है कि जब भावत्रीवेद नौवें गुगास्थान में ही नष्ट हो जाता है तब भावबंद की अपेक्षा से भी चौदह गुणस्थान कैसे बनेंगे ? उत्तर में आचार्य कहते हैं कि यद्यपि नष्ट हो गया है फिर भी वेद के साथ रहने वाला मनुष्यगति तो है ही है। इसलिये जो मनुष्यगति नौब गुणस्थान तक बंद सठिन थी वही मनुष्यगति वेद नष्ट होने पर भी अब भी है, इसलिये (ग्यारहवें बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में कषाय
नष्ट होने पर भी योग के सद्भाव में उपचार से कही गई लेश्या के समान) बंद रहित मनुष्यगति में भी चोदह गुणस्थान कहे गये 항 । व भूतपूर्व नय की अपेक्षा स उपचार से भाववेद की अपेक्षा से कह गये हैं।
मनुष्यापर्याप्तिवपर्याप्तिप्रतिपक्षाभावत: सुगमस्थात न तत्र
वक्तव्यमस्ति ।
अर्थ - अपर्याप्त मनुष्यों में अपर्याप्ति के प्रतिपक्ष का अभाव
होने से सुगम है, इस लिये वहां पर कुछ वक्तव्य नहीं है ।
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विशेष-मनुष्यों के पर्याप्त मनुष्य, सामान्य मनुष्य, मानुषी और अपर्याप्त मनुष्य, इन चार भदों में अन्त के अपर्याप्त मनुष्यों को छोड़ कर शेष तीन भदों में विशेष वक्तव्य इस लिये है कि वहां पर्याप्ति का प्रतिपक्षी निवृत्यपर्याप्त है। परन्तु मनुष्य के ध्यपर्याप्तक भद में उसका कोई प्रतिपक्षी नहीं है। अत: उस सम्बन्ध में कोई विशेष वक्तव्य भी नहीं है।
इस नब्ब्यपयाप्तक के कथन से भी कंवल द्रव्य वेद का ही कथन सिद्ध होता है, क्योंकि उसमें भानवेद की अपेक्षा स कथन बनता ही नहीं है।
बस ३ वें सूत्र में पड़े हुये पदों का और धवनाकार का पूरा अभिप्राय हमने यहां लिख दिया है। अर्थ में धवला की पंक्तियों का ठीक शब्दार्थ किया है और जहां विशेष शब्द है वहां हमने उसी धवला के शब्दार्थ को विशेषरूप स सष्ट किया है। कोई शब्द या वाक्य हमने ऐसा नहीं लिखा है जा सूत्र और धवला के पाक्यों से विरुद्ध हो। प्रन्य और उसके अभिप्राय के विरुद्ध एक अक्षर लिखने को भी हम असभ्य अपराध एवं शाल का प्रवर्णवादात्मक सब से बदकर पाप समझते हैं। इस विवेचन से पाठक एवं भावपक्षी विद्वान शाख-मर्मस्पर्शी बुद्धि सगवेषणा पूर्वक विचार करें कि सूत्र ६३वें में "संज" पद जोड़ने की किसी प्रकार भी गुजायश हो सकती है क्या ? उत्तर में पूर्वापर कमति निरूपण, सूत्र एवं धवना के पदों पर विचार करनेसे वे
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यहो नि। सिद्ध फलिनार्थ निकालेंगे कि वे सत्र में किसी प्रकार की संयत पद के जोड़ने की सम्भावना नहीं हैं। क्योंकि वह सूत्र पनि यत्रो के हो गुणस्थानों का प्रतिपादक है। इन सूत्रों को भाववेद विधायक मानने में
-अनेक मनिवार्य दोषभावपक्षी विद्वान इन सूत्रों को भाववेद विधायक ही मानते हैं उनके वैसा मानने में नीचे लिव अनेक ऐसे दीप उत्पन्न होते हैं, जो दूर नहीं किये जा सकते हैं, उन्हीं का दिग्दर्शन हम यहां कराते हैं।
षदम्बएडागम के धवल सिद्धांत का वां सूत्र अर्याम मनुष्य के लिये कहा गया है, उसके द्वारा प्रयाप्त मनुष्य के पहना दुसरा और चौथा ये तोन गुणस्थान बताये गये हैं, परन्तु सभी भावपनो विद्वान उप मूत्र का भो भावद वाला ही बनाते हैं, अत: उनके कथनानुसार भावमनुष्य का ही विधायक ८६वां सूत्र ठहरता है। ऐसी अवस्था में उस व्यत्री शरीर पर भाव पुरुष वेद का विधायक भी माना जा सकता है। ऐसा मानने से द्रव्य जी की अपर्याप्त अवस्था में भी सम्यग्दर्शन सहित उत्पत्ति सिद्ध होती है। यदि यह कहा जाय कि ८ सूत्र भाववेद से भी पुरुष. बंद का विधायक है और न्यवेद भी इस सत्र में द्रव्य पुरुष हो मानना चाहिये, जैसा कि श्री फूलचन्द जी शास्त्री अपने लेख में लिखते हैं कि- "सो मालूम नहीं पड़ता कि पण्डित जी (हम)
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एसा क्यों लिखते हैं, यदि यह जीव भाव और द्रव्य दोनों से पुरुष रहे तो इसमें क्या मापत्ति है ?"
इसके उत्तर में हमारा यह समाधान है कि हमें उसमें भी कोई आपत्ति नहीं कि भाववेद और व्यवेद दोनों पुरुषवेद रहें परन्तु वस्तु विचार की दृष्टि से अन्धकार वहां तक विचार कर सूत्र एवं शाख रचना करते हैं जहां तक कोई व्यभिचार, दोष नहीं पा सके । इस वें सूत्रमें भाववेद पुरुष का ग्रहण तो माना जायगा क्योंकि मनुष्य-पुरुष की विवक्षा का विधायक सूत्र है परन्तु वह द्रव्य से भी मनुष्य (पुरुष) ही होगा. ऐसा मानने में कोन सा प्रमाण अनिवार्य हो जाता है। जबकि भाववेद पक्ष में विषम भी द्रव्य शरीर होता है। तब द्रव्य खो शरीर और भाववेद मनुष्य मानने में भी कोई रुकावट किसी प्रमाण से नहीं पाती है। वैसी दशा में द्रव्य बो की अपर्याप्त भवस्था में भी चौथा गुणस्थान सिद्ध होगा इस बात का समाधान भाववेदी विद्वान क्या दे सकते हैं। ___ भाववेदी विद्वानों के मत और कहने के अनुसार यदि दवें सुत्र को भाववेद और द्रव्यवेद दोनों से पुरुग्वेद का निरूपक ही माना आयगा तो उसकी अपर्याप्त अवस्था में सयोग केवनीतेरहवां गुणस्थान भी सिद्ध होगा। जिस प्रकार पालापाविचार में अपर्याप्त मानुषी के पहला दूसरा और तेरहवां ये तीन गुणस्थान बताये गये हैं उसी प्रकार यहां पर भी होंगे। भाववेद का बन उनके मन से दोनों स्थानों में समान है।
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भावदो विद्वान अपर्याप्ति का अर्थ जन्मकाल में होने वाली शरीररचना अथवा सरीर निष्पत्ति रूप अर्थ तो मानते नहीं है। यदि अपांति का पर्थ वे शरीर को अपूर्णता करते हैं तब तो
व सूत्र से रव्य शरीर अथवा द्रव्यवेद को ही सिद्धि होगी। क्योंकि यहां पर वेद मागंणा का कथन तो नहीं है जो कि नोकषाय जनित भाववेद रूप हो किन्तु शरीर नामकर्म, बांगोपांग नामक चोर पर्याप्त नामकर्म के उदय से होने वाली शरीर निष्पत्ति का
धन। वह द्रव्यवेद की विवक्षा में ही घटेगा। भोर जिस प्रकार इस सूत्र द्वारा व्यवेद माना जायगा तो ६२-६३ सूत्रों द्वारा भी द्रव्यत्री का कथन मानना पड़ेगा । परन्तु जब क वे लोग सर्वत्र भाववेद मानते हैं तब इस वें सूत्र में अपर्याप्त मनुष्य के सयोग कंवली गुणस्थान भी अनिवार्य सिद्ध होगा। क्योंकि समुद्घात की अपेक्षाले भौगरिक मिश्र और कार्माण काययोगमें अपर्याय अवस्था मानी गई। मत: वहां पर तेरहवां गुणस्थान भी सिटहोगा। परन्तु सूत्र में पहला दुसरा भोर पोथा, ये तीन गुणस्थान ही अपर्याप्त मनुष्य के बताये गये है १ सो कैसे? इसका समापन भाववेद-वादी विद्वान क्या करते है ? सो पष्ट करें।
दूसरी बात हम उनसे यह भी पूछना चाहते हैं कि एकेन्द्रिय द्वीमिय स लेकर पंचेन्द्रिय तक सर्वत्र नित्यपर्याप्तक कामर्थ वे क्या करते हैं। पटखएडागम में सर्वत्र (१०० सूत्रों तक) शरीर की अनिचि (शरीर रचना को अपूर्णता) अर्थ किया
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गया है। इस वह मानते हैं या नहीं ? यदि मानते हैं तो वेदमार्गण का कथन नहीं होने पर भी वेद की विवक्षा में उन्हें उस सूत्र को द्रव्य मनुष्य का विधायक मानना पड़ेगा। यदि वैसा वे नहीं मानने हैं नो क्या वे धवन सिद्धांत के शरीर निष्पत्ति-मनिष्पत्ति रूप, पयामि अपर्याप्ति के अर्थ का प्रत्यक्ष-अपलार करनेवाले नहीं ठहरेंग: अवश्य ठरेंगे। इसका भी स्वनासा करें। ___ जब सत्र वे भाववेद की ही मुख्यता मानते हैं तब उनके मत से योग मार्गणा में पर्याप्ति अपयामि का अर्थ क्या होगा ? यह बात भी वे खुलासा करने की कृपा करें। साथ ही यह भी खुलासा कर कि वेद मार्गगा का प्रकरण नहीं होने पर मनुष्य या मानुषी को विवक्षा में उनकी पयांत बयान अवस्था में नियत निर्दिष्ट गुणस्थानों का सङ्गठन कैसे होगा?
हमी प्रकार वां सत्र पर्याप्त मनुष्य का विधायक है। और बा गुणस्थान का विधान करता है। वह भी भाववेदी विद्वानों के मत से भाववेद मनुष्य काही विधायक है तब वहां पर भी यही दोष पाता है कि भाववेदी पुरुष भार द्रव्यही शरीर माना जाय तो चैन बाधक ? कोई नहीं। वैसी अवस्था में द्रव्यत्रो के एक सूत्र से पौदह गुणस्थान नियम से सिद्ध होंगे। यदि कोई प्रमाण उस बात को रोकने वाला हो तो भावपक्षी विद्वान सबस पहले वे ही प्रमाण प्रसिड करें हम उन पर विचार करेंगे। इस १० सत्र में भी यदि भाव और द्रव्यद दोनों हो समान हों पर्वात् एकहों तो इसमें भी हमें कोई पाप नहीं बैसा भी हो सकता
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है परन्तु ऐसा ही हो और ठगद बोकेर तथा भाववेद पुरुषवेद ऐसा विषम वेद नहीं हो सके इसमें भी क्या बाधक प्रमाण है? जबकि भाववेद 'पायेण समा कहि विसमा' इस गोम्मटसार की गाथा के अनुसार विषम भो होता।
इसी प्रकार २६ सत्र में मानुषी का विधान अपर्याप्त अवस्था का है उसमें दो गुणस्थान पहला और दूसरा बताया गया है। वहां पर भाववेद खोदे ना मानना ही पड़गा क्योंकि मानुषी का यथन है। परन्तु भाववंद और नोवेद होने पर भी वहां द्रव्य इंच पुरुषद भी हो सकता है इसमें भी कोई बाधा नहीं है। बसी दशा में १२वें सूत्र द्वारा भावदी गानुपी चौर व्यवंदी पुरुष के भपयाप्त अवस्था में दो गुणस्थान ही नहीं होंगे किन्तु तीसरा असंयत सम्याट नाम का चौथा गुणस्थान भी होगा उस कोन रोक सकता है ? उसी प्रकार भावबंद स्त्रीचंद को अपर्याप्त अवस्था में प्रयोग केवली गुणस्थान भी अनिवार्य सिद्ध होगा। फिर इस मूत्र में दो ही गुणस्थान क्यों कहे गये हैं ? इस पर भावबंदी विद्वानों को पूर्ण विचार करना चाहिये। ____ यहां पर भाववेदी विद्वानों का यह उत्तर है कि लोबेर का समय चौथे गुणस्थान में नहीं होता है इसके लिये वे गोम्मटसार कर्मकांड की अनेक गाथामों का प्रमाण देते हैं कि अपर्याप्त अवस्था में चौथे गुणस्थान में बोवेद का उपय नहीं होता है, इस की व्युछित्ति दूसरे सासादन गुणस्थान में ही हो जाती है। यह काना उनका मधूरा पूरा नहीं है। वे एक अश अपने प्रयोजन
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सिद्धि का प्रगट कर रहे हैं दूसरे को छिपा रहे हैं। दूसरा अंश यह कि चौथे गुणस्थान वाला सम्यमशेन को साथ लेकर द्रव्य स्त्री पर्याय में नहीं पैदा होता है। इसीलिये उसके द्रव्यत्री के अपर्याप्त अवस्था में चौथा गुणस्थान नहीं होता है, प्रमाण देखिये
भयदापुराणे हि थी सढोवि य घम्मणारय मुच्चा। थी सढयद कमसा णाणु ऊ चरित तिरुणाणू।
(गोम्मटसार कम० गाथा २८७ पृ० ४१३) इस गाथा की व्याख्या में यह स्पष्ट किया गया है
निवृत्यपयाप्तासं यते स्त्रीवेदादयो नहि, असंयतस्य स्त्रीनाऽनुत्पत्तः । पंढवदास्यापि च नहि, पंढत्वेनापि तस्यानुत्पत्तः ।
नुत्पत्तेः भयमुत्सर्गविधिः प्रायटनरकायुस्तियङमनुष्ययोः सम्यक्त्वेन समं घमायामुत्पत्ति सम्मवान तेन असंयते स्त्रीवादिनि पतुणों, पंढवेदिनि त्रयाणां चानुपूर्वीणां उदयोनास्ति ।
(गो० कमे० पृ० ४१३-४१४ टीका) इस गाथा की वृत्ति का अर्थ पण्डित-प्रवर टोडरमल जी ने इस प्रकार किया है
"निवृत्ति-अपर्याप्तक मसंयत गुणस्थान विर्षेनीवेद का उदय नाही, जाते असंयत मरि स्त्री नाही उपजे हैं। बहुरि धर्मा नरक बिना नपुसकबंद का भी उदय नाही, जातें पूर्व नरकायु गांधी होह ऐसे विर्यच वा मनुष्य सम्यत्व सहित मरि घमा नरक विष ही उपजे है। याही ते असंयत विर्षे बोवेदी वो चारों
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मानुपूर्त का उदय नाहीं । नपुसक के नरक बिना तीन भानुपूर्वो का सदय नाही"
इस कथन से इस बात के समझ में कोई सन्देह किसी को भी नहीं हो सकता है कि यह सब कथन द्रव्यत्रो और द्रव्यनपुसक का है। बहुत ही पुष्ट एवं अकाट्य प्रमाण यह दिया गया कि चौथ गुणस्थान में पारों भानुपूर्वी का उदय त्रीवेदी के नी।। मानुपूर्वी का पय विग्रह गति में ही होता है। क्योंकि यह क्षेत्र विपाकी प्रकृति है। और सम्यग्दर्शन सहित जीव मरकर द्रव्यत्री पर्याय में जाता नहीं है प्रतः किसी भी पानुपूर्वी का उदय वहां नहीं होता है। परन्तु पहले नरक में, सम्पर्शन सहित मरकर जाता है अतः यहां नरकानुपूर्वो का तो उदय होता है शेष तीन भानुपूर्वी का उदय नहीं होता है। इस कथन सं स्पष्ट है कि भपर्याप्त भवस्था में जन्म मरण एवं भानुपूर्वी का अनुदय होने सं द्रव्यत्री का हो ग्रहण ऊपर को गाथा और टीका सं होता।
परन्तु ६२वें सूत्रको यदि भाव वेदका ही निरूपक माना जाता। तो वहां जन्म मरण एवं मानुपूर्वी अनुदय मादि का तो कोई सम्बन्ध नहीं। फिर भाववेद बी के अपर्याप्त अवस्था में बोया गुणस्थान होने में कोई बाधा नहीं है जहां द्रव्य वेद पुरुष हो और भाववेद तो हो वहां अपर्याप्त माथा में चौथा गुणस्थान नहीं होता ऐसा कोई प्रमाण हो तो उपस्थित करना चाहिये । गोम्मटसार के जितने भी प्रमाण--साणे थी वेद छिदी, मादि इस सो अपर्याप्त के प्रकरण में दिये जाते हैं वे गे सब ब्रम्पको
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पर्याय में उत्पन्न नहीं होने की अपेक्षा से हैं। फिर यह बात भी विचित्र है कि भार्याप्त मानुस का वियतो सब सा उसका ग्रहण नहीं कर शरीर को अपूर्णता द्रव्य पुरुष को बताई जाय ? यह कौन मा हंन है? जहां जिसको अपर्याप्त होगी वहां उमा का अपर्याप्त शरीर लिया जायगा। यदि यह कहा जाय कि भाव खी गैर व्यबी दानों रूपही १२वें सत्र को मानेंगे तो भी द्रव्य. खी का कथन सिद्ध होता है। यह कहना भी प्रमाण शून्य है कि द्रव्यवेद पुरुष का हाने पर भी चौथं गुणस्थान में अपर्याप्त अवस्था में भावत्री वेद का उदय नहीं होता है। जबकि भावत्री वेद के उदय में नोवां गुणस्थान होता है तब चौथा होने में क्या बाधकना? हो तो भावपक्षी विद्वान प्रगट करें ! अतः इस कथन से सिद्ध है कि वां सूत्र द्रव्यत्री का ही प्रतिपादक है । गोम्मटसार की उपयुक्त २८७ गाथा सं यह भी सिद्ध है कि गोम्मटसार भी द्रव्यवेद अथवा द्रव्य शरीर का विधान करता है। यह निर्विवाद बात है और प्रत्यक्ष है।
-भाववेद मानने से ६३२ सत्र में दोषइसी प्रकार ६३वें सत्र को यदि भाववेद का ही प्रतिपादक माना जायगा तो जैसे पर्याप्त अवस्था में भावत्री वेद के साथ द्रव्य पुरुष वेद हो मकता, वैसे द्रव्यत्री वेद भी हो सकता। १५ सूत्र में भाव और द्रव्य समवे भी माना जा सकता है। देसी अवस्था में सूत्र ६३वें में 'सञ्जद' पद जोड़ने से द्रव्य मी के चोदा गुणस्थान सिद्ध होंगे, उसका निरसन भावपक्षी विद्वान
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क्या कर सकते हैं १३पलिये उपयुक्त सभी सूत्र पर्याप्त अपर्याप्ति के साथ गुणस्थानों का विधान होने से द्रव्यद ही विधायको, १२-१३ सूत्र भी द्रव्यत्री केही विधायक हैं। बसा सिद्धांत-सिन निर्णय मानने से न तो 'संयत' पद जोड़ा जा सकता है और न उपयुक्त दूषण हो पा सकते हैं। ६३वां सूत्र द्रव्यवेदका ही क्यों है ? भाववेद क्यों नहीं ?
वें सत्र में जो मानुषी पद वह मानुषी द्रव्यमोहीनी जाती है। भावत्री नहीं ली जा सकती है इसका एक मूल-खास इंतु यही भावपक्षी विद्वानों को समझ लेना चाहिये कि यहां पर वेद मागणा का प्रकरण नहीं है जिसमें भायर कप नोकाय के उदय जनित भाव परिणाम लिया जाय । किन्तु यहां पर भादारिक काययोग व पर्याप्ति का प्रकरण होनेसे मांगोपांग नामकर्म शरीर नामक गतिनामकर्म एवं निर्माण प्रादि नामको उदय सं बनने वाला द्रव्यत्री का शरीर ही नियम स लिया जाता है। यह बात इस ३ सूत्र में भोर १२ भादि पहलके सूत्रों में भावपक्षी विद्वानों को ध्यान में रखकर ही विचार करना चाहिये।
वारपत्र प्रति में 'सञ्जद' शब्द इसी व सत्र में 'सर' पद ताइपत्र प्रति में बताया जाता है, इस सम्बन्ध में अधिक विचार की पावश्यकता नहीं है, हम होवन दो बातें इस सम्बन्ध में कह देना पर्याप्त समझते हैं। पहली बात तो यह है कि यदि वादपत्र की प्रतियों में 'सनद' पद
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होता तो बहुन खोज के साथ संशोधन पूर्वक नकल की गई कागजकी प्रतियों में भी वह पद अवश्य पाया जाना परन्तु वहां वह नहीं है। पृज्य क्षुल्लक मूरिलिइ जी ने मूबिद्री जाकर सभी प्रतियां देवी हैं, उनका कहना है कि, मूल प्रति में तो 'सञ्जद' शब्द नहीं था उसके भनेक पत्र नष्ट हो चुके हैं, दूसरी प्रति में 'मञ्जद' के पहले 'ट' भी जुड़ा हुआ है, तीसरी प्रति में 'सञ्जद' शब्द पाया जाता है। इस प्रकार अशुद्ध एवं मत्र प्रानयों में 'सञ्जद' शब्द का उल्लेख नहीं मिलने में प्रन्थावार भी उसका भस्तित्व निर्णीत नहीं है। फिर यदि ताड़पत्र को किसी प्रति में वह मिलता भा? तो वह लेख की भूल सं लिखा गया है यहां मानना पड़ेगा, अन्यथा जो सूत्रों में द्रव्य प्रकरण बताया गया है
और साथ ही सूत्र में 'सञ्जद' पद मानने से अनेक सूत्रों में उपयुक्त दोष बताये हैं, वे सब उपस्थित होंगे और अंग सिद्धांत के एक देश ज्ञाता भाचार्य भूतबलि पुष्पदंत की कृति भी अधूरी एवं दुषित ठहरंगी जो कि उनके सिद्धांत पारङ्गत एवं प्रतल स्पर्शी शान समुद्र को देखत हुय असम्भव है। ताड़पत्र की प्रति में 'सञ्जद' पद के सद्भावके सम्बन्ध में प्रसङ्ग वश इतना लिखना ही हमने पयांत समझा है।
इस पागके सूत्रों में पर्याप्ति भपयाप्ति के सम्बन्धसे देवगति के गुणस्थानों का कथन है । वह कथन ७ सूत्रों में है । १००वें सूत्र में उसकी समाप्ति है। उन सब सूत्रों एवं उनकी धवला टीकाका उद्धरण देने तथा उन सबों का अर्थ करने से यह लेख बहुत बढ़
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जायगा इसलिये, हम उन सब सूत्रों को छोड़ देते हैं। परन्तु इतना समझ लेना चाहिये कि देवगति के सामान्य और विशेष कथन में जहां पर्याप्त भपयोति में सम्भव गुणस्थानों का सूत्रकार पोर धवलाकार ने कथन किया है वहां सर्वत्र विषहगति, कार्मण शरीर मरण, उनि माद के विवेचन से यह स्पष्ट कर दिया है कि वह सब कथन भी द्रव्य शरीर से हो सम्बन्ध रखता है। पाठकगण ! एव भावपक्षी विज्ञान चाहें तो सूत्र १५ से लेकर सूत्र १०० तक सात सूत्रों एवं उनको धवल टीका को मुद्रिन अन्य में पढ़ लेवें, उदाहरणार्थ एक सूत्र हम यहां देते हैं। सम्मामिच्छाइट्टिाणे णियमा पजत्ता।
(सूत्र ६६ पृष्ठ १६८ धवल सिद्धांत) अर्थ मुगम है। इसको धवला टोका में यह स्पष्ट किया गया है। कि कथं ? तेनगुणेन सह तेषां मग्णाभावान अपयांप्रकालेऽपि सम्यमिथ्यात्वगुणस्योत्पत्तेरभावान । इसका अर्थ यह है कि देव तीसरे गुण. स्थान में नियम सं पर्याप्त है, यह क्यों ? इमक उत्तर में कहते हैं कि तीतर गुणस्थान में मरण नहीं होता है। तथा अपर्याप्त काल में भी इस गुणस्थान की उत्पत्ति नहीं होती है. यहां पर सर्वत्र गुणस्थानों का कथन जन्म मरण और पर्याप्त द्रव्य शरीर के भाधार पर ही कहा गया है । इसके सिवा षटखएडागम के 14वें सूत्र को धवना में 'सनत्कुमारादुपरि न बियः समुत्पद्यन्त सौधर्मादाविव तदुत्पत्त्यप्रतिपादान वत्र सीणामभाव कथं तेषां देवा
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नामनुपशांततत्संतापानां सुरुमितिचेन्न तहकीका सौषमकल्पोपपत्ते:
(पृ० १६६ धवला) र्थ-सनत्कुमार स्वर्ग से लेकर ऊपर बियां उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि सौधर्म और ईशान स्वर्ग में देवांगनामो के उत्पन्न होने का जिस प्रकार कथन किया गया है. उस प्रकार भागे के स्त्रों में उनकी उत्पत्ति का कथन नहीं किया गया है इसलिये वहां बियों के प्रभाव रहने पर जिन को सम्मन्धी ताप शांत नहीं हुमा है ऐसे देवों के उन बिना सुख कसे हो सकता है ? उत्तर--नही क्योंकि सनत्कुमार भादि कल्प सम्बन्धी त्रियों की सौवर्म भोर ईशान स्वर्ग में उत्पत्ति होती है।
इस धवला के कथन से यह 'द्रव्यात्रियोंकाही कथन है भावश्री का किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता है। यह बात स्पष्ट कर दी गई है। फिर पाश्चर्य है कि 'समूचे षटखण्डागम में भाववेद का कथन है, द्रव्यवेर का नहीं है। यह बात सभी भावपक्षी विद्वान अपने लेखों में बड़े जोर से लिख रहे हैं? क्या उनकी दनि स्पष्ट प्रमाणों पर नहीं गई है ? इसके पहले तिचिनी के प्रकरण में 'सम्ब हत्यीसु' ऐसा मार्ष पाठ देकर भी धवनाकार ने
कर दिया है कि देबिया, मानुषियां और नियगिनियां इन तीनों प्रकार की द्रव्यात्रियों की उत्पत्ति का बह विधान है जैसा कि घबना पृष्ठ १०५ में लिखा है। हम पीछे उसका उद्धरण हे चुके हैं।
फिर इसी पवना में देवों और देवांगनामों के परसर प्रवी.
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चार का बर्णन भी किया गया है। यथा
सनत्कुमार महेन्द्रयोः स्पर्शप्रभीचाराः तत्रतन देवा देवांगनास्पशनमात्रादेव परां प्रीतिमुपलभन्ते इतियाबम् तथा देव्योपि । (धवला पृ १६६ )
अर्थात सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो स्वर्गो में स्वश प्रथीचार है। उन स्त्रर्गों के देव देवांगनाओं के स्पर्श करने मात्र से चयन्न प्रोति को पात्र हो जाते हैं उसी प्रकार देत्रियों भी उन देवों के स्पर्शमात्र से भी प्राप्त हो जाती हैं ।
यह सच द्रव्यवेद का बिलकुज खुलासा वर्णन है । द्रव्यपुल्लिंग द्रव्यकीनिंग के बिना क्या स्पर्श सम्भव है ? अतः इस द्रव्यवेद ष्ट विधान का भी भावपक्षी विद्वान सर्वथा निषेध एवं नोप कैसे कर रहे हैं ? सो बहुत आश्चर्य की बात है ।
- मूल बात -
श्री पटखण्डागम के जी प्रस्थान सत्प्ररूपणा द्वार में जो गति, इन्द्रिय, काय और योग इन चार मार्गणात्रों में गुणस्थानों का कथन है। वह सब द्रववेद अथवा द्रव्यशीर के ही भाश्रित है, उसी प्रकार पर्याप्ति और अपर्याप्त के साथ गुथस्थानों का कथन भी द्रव्यवेद अथवा द्रव्यशरीर के आश्रित हैं। क्योंकि पटपर्याप्रियों की पूर्णता और अपूरणता का स्वरूप द्रव्य शरीर रचना सिवा दूसरा नहीं हो सकता है, इसलिये सूत्रकार आचार्य भूतबलि पुष्पदन्नने तथा धवकाकार आचार्य वीरसेन ने उक्त चारों मार्गणाओं एवं पर्याप्तियों अपर्याप्तियों में जो गुणस्थानों की
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सम्भावना और सद्भाव बताया है, वह इम्यवेद अथवा द्रव्यशरीर को मुख्यता से ही बताया है। वहां भाववेद की अपेक्षा से कोई कथन नहीं है। बस यही मूल बात भावपक्षी विद्वानों को समझ लेना चाहिये, इस समझ लेनेपर फिर '६३वां सूत्र द्रव्यत्री का ही विधान करता है। और देसी अवस्था में उस सूत्र में 'सञ्जद' पद नहीं हो सकता है । अन्यथा द्रव्यत्री के चौदह गुणस्थान और मोक्ष की प्रानि होना भी सिद्ध होगा, जो कि होन संहनन एवं वस्त्रादि का सद्भाव होने से सर्वथा असम्भव है। ये सब बातें भी उनकी समझ में सहज श्रा नायगी, इसी मूल बात का दिखाने क लिये हमने उन चारा मार्गणामों में और पर्याप्तियों में गुणस्थानों का दिग्दर्शन इस लेख (ट्रैक्ट) में कराया है। केवल ६३वे सूत्रका विवेचन कर देने से विशेष स्पष्टीकरण नहीं होता, और संयत पद की बात विवादमें डाल दी जाती । अतः न उद्धरणों के देनेस लेख अवश्य बढ़ गया है परन्तु अब संयतपद के विषय में विवाद का थोड़ा भी स्थान नहीं रहा है।
१००वे सूत्र में इस द्रव्य शरीर अथवा द्रव्यवेद के विधायक योग निरूपण और पर्याप्तियों के कथन को समाप्त करते हुये धवलाकार स्वयं स्पष्ट करते हैं
एवं योगनिरूपणावसर एव चतसृषु गतिषुपर्याप्तापर्याप्तकालविशिष्टासु सकलगुणस्थानानामभिहितमस्तित्वम् । शेषमागणामु भयमय किनिति नाभिधीयते इतिचेत नोच्यते, अनेनैव गतार्थस्वात गतिचतुष्टयव्यतिरिक्तमार्गणाभावात् ।
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(पृष्ठ १७० धवला) अर्थ-इस प्रकार योग मार्गणा के निरूपण करने के अवसर पर ही पर्याप्त और अपर्याप्तकाल युक्त चारों गतियों में सम्पूर्ण गुणस्थानों की सत्ता बता दी गई है।
शहा-बाकी को (जो वेद क.पाय भादि मागेणामों का पागे विवेचन करेंगे उन) मार्गणाओं में यह विषय (पानि अपर्याप्ति के सम्बन्ध से) क्यों नहीं कहा जाता है?
उत्तर-दलिय नहीं कहा जाता है कि इसी कथन से सर्वत्र गता हो गया है। क्योंकि पारों गतियों को छोड़कर भौर कोई मागगायें नहीं है।
इस प्रकरण समाप्ति के कथन सं धवलाकार ने यह बात सिद्ध कर दी है कि भाग की वेद कषायादि मार्गणाओं में पर्याप्तियों
और अपयामियों के सम्बन्ध में गुणस्थानों का विवेचन नहीं किया है । अतएव इन वेदादि मार्गणामों में द्रव्यशरीर का वर्णन नहीं है किन्तु भाववेद का हो वर्णन है। और भाववेद का कथन होने से उन मार्गणामों में भावसो की विवक्षा में चौदह गुणस्थान बताये गये हैं । धवलाकार के इस कथनसे और पयाप्ति अपर्याप्ति सं सम्बन्धित गुणस्थानों के विधायक सूत्रों के कथन से यह बात सिद्ध हो गई कि पटखएडागम सिद्धांत शास्त्र में केवल भाववेर काही कथन नहीं है जैसा कि भाववेद-वादी विद्वान बना रहे हैं किन्तु उस में चार मार्गणामों एवं पर्याप्त प्राप्ति के विवेचन तक द्रव्यवंद काही मुख्य रूप से कथन है और उस प्रकरण के
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පුදු
समाप्त होने पर बेदादि मार्गाओं में भाववेद की मुख्यता से ही
कथन है ।
वेदादि मार्गणाओं में केवल भाववेद ही क्यों लिया गया है ?
उसका भी मुख्य हेतु यह है कि वेद मार्गदा में नोकषाय रूप कर्मोदय में गुणभ्थान बताये गये हैं। कषाय मागंणा में कषायोदय जनित कर्मक्ष्य में गुणस्थान बताये गये हैं, ज्ञान मार्गणा में मतिज्ञानादि (आवरण कर्म भेदों में) में गुरुस्थान बताये गये हैं, इसी प्रकार संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्यक्त्व सहित्व आहारस्व इन सभी मार्गणाओं के विवेचन में १०१ सूत्र से लेकर १७७ तक ७७ सूत्रों में और उन सूत्रों की धवला टीका में कहीं भी पर्याप्त अपयाप्ति, शरीर रचना, आदि का उल्लेख नहीं है । पाठक और भाववेदी विद्वान प्रन्थ निकालकर मछी तरह देख लेवें यही कारण है कि वे वेदादि मार्गणाएँ भात्रों की ही प्रतिपादक हैं द्रव्य शरीर का उनमें कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये उन वेदादि मार्गणामों में मानुषियों के नव मौर चौदह गुणस्थान बताये गये हैं ।
इतना स्पष्ट विवेचन करने के पीछे अब हम उन वेखादि माग - णाओं के विधायक सूत्रों और उनकी धवला टीका का उद्धरण देना व्यर्थ समझते हैं । जिन्हें कुछ भी माशङ्का हो वे प्रन्थ सोल कर प्रत्येक सूत्र को और भवला टीका को देख लेखें ।
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- भावपची विद्वानों के लेखों का उत्तरयद्यपि हमने ऊपर भी पटखण्डागम जीवस्थान - सल. रूपण - धवल सिद्धांत के अनेक सूत्र और धवला के उद्धरण देकर यह बात निविवाद एवं निरूप में सिद्ध कर दी है कि एक सिद्धांत शास्त्र में द्रव्यवेद का भी बन है। और हमें सूत्र में द्रव्य का काही कथन है अतः उस सूत्र में 'संजद' पद जोड़ने से द्रव्य की के चौदह गुणस्थान सिद्ध होंगे, तथा उसी भव से उसके मोक्ष भी सिद्ध होगी । अतः उस सूत्र में 'सकुद' पद सबैथा नहीं हो सकता
। इस विशद एवं सप्रमाण कथन से उन समस्त विद्वानों की सब प्रकार की शङ्काओं का समाधान भले प्रकार हो जाता है ज कि इस पटखण्डागम सिद्धांत शास्त्र को केवल भाववेद का हो निरूपक बताते हैं तथा उसे द्रव्यवेद का निरूपक सबंधा नहीं बताते हैं उन्होंने जितने भी प्रमाण गोम्मटसार आदि के भाववेद की पुष्टि के लिये दिये हैं वे सब द्रव्यवेद विधायक प्रमाण हैं । उन प्रमाणों से हमारे कथन की ही पुष्टि होती है। और यह कभी त्रिकाल में भी नहीं हो सकता है कि घटखण्डागम के विरुद्ध गोम्मटसार का विवेचन हो। क्योंकि गोम्मटसार भी तो श्री षटखण्डागम के आधार पर ही उसका संक्षिप्त सार है । भावपक्षी विद्वान उस गोम्मटसार के भी समस्त कथन में द्रव्यवेद का अभाव बताते हुये केवल भाववेद का प्रतिपादक उसे बताते हैं सो उनका यह कहना भी गोम्मटसार के कथन को देखते हुये प्रत्यक्ष बाधित है । मदः उनके लेखों का उत्तर हमारे विधान से सुतरां हो
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जाता है। अब मनग देना व्यर्थ प्रतीत होता है। और हमारा लेख भी बहुत बढ़ जायागा। फिर भी उनके सन्तोष के लिये एवं पाठकों की जानकारी के लिये भावपक्षी विद्वानों की उन्हीं बातों का उत्तर यहां देते हैं जो खास २ हैं और विषय को स्पर्श करती हैं।
भावपक्षी विद्वानों में चार विद्वानों के लेख हमारे देखने में पाये हैं, भी० ५० पनालाल जी सोनी, पं० फूलचन्द जी शाखी, ५० जिनदास जी न्यायतीर्थ, और पं. बंशीधर जी सोनापुर । इनमें न्या पतीर्थ पं० जिनदास जी के लेख का सप्रमाण और महेतुक उत्तर हम जैन बोधक के सम्पादक के नाते उसमें दे चुके है। मागे के उनके लेखों में काई विशेष बात नहीं है । ६० बंशीधर जी नेखों का उत्तर देना व्यर्थ है, उसका हेतु हम इस लेख मं पहले लिख चुके हैं, उसके सिवा उनके लेख सार शून्प, हेतु. शून्य एवं सम्बन रहते हैं। प्रतः पहले के दो विद्वानों के लेखों को मुख्य २ बातों का सक्षित उत्तर यहां दिया जाता है।
श्री. पं० पमालान जी सोनी महोदय का एक लेख तो मदनगज किशनगढ़ से निकलने वाले खण्डेलवान जैन हितेच्छुके ता. १६ अगस्त १९४६ मा में पूरा छपा है । उस लेख का बहुभाग कजेवर तो मनुष्य गति के वर्णन, आठ अनुयोग द्वार, पदय उदीरण सत्व भाविषय, मनुष्य के चार भेद, द्रव्य सी और मानुषी (भावसी) के गुणस्थानों में भेद, धादि नियमित बातों के नामल्लेख से ही भरा हुमाहै। वह एक चौबीसठाणा जैसी
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पर्चा है, वह कोई शङ्का का विषय नहीं है। और हमारा उस कथन से कोई मतभेद भी नहीं है। हां, उन्होंने जो सत संख्या पादि पाठ अनुयोगों का नाम लेकर मनुष्यगति के चारों भेदों में चौदह गुणस्थान बताये हैं सो यह बात बनकी पटखण्डागम सिद्धांत शासन से कुछ भवों तक विरुद्ध पड़ती है, क्योंकि उक्त सिद्धांत शास में प्रतिपादित पाठ अनुयोगद्वार में जो सत्मरूपणा नाम का पहला अनुयोग द्वार उसके अनुसार जोगति, इन्द्रिय काय और योग इन आदि की चार मार्गणाओं में तथा इसी योग मार्गणा से सम्बन्धित पर्याप्ति अपर्याप्तियों में गुणस्थानों का समन्वय बताया गया है वह द्रव्यवेद अथवा द्रव्यशरीर की मुख्यता से बताया गया है । वहां पर सत्प्ररूपणा मनुयोग द्वार से पर्याप्त मानुषी के पांच गुणस्थान ही बताये गये है, चौदह नहीं बताये गये हैं, और न चौदह गुणस्थान उक्त चार मार्गणामों में तथा पर्याप्त अवस्था में मानुषी के सिद्ध ही हो सकते हैं जैसाकि हम अपने लेख में स्पष्ट कर चुके हैं, फिर जो सन द्वार से जो मानुषी के चौदह गुणस्थान सोनी जी ने बिना किसी प्रमाण के अनुयोगों का नामोल्लेख करते हुये एक पक्ति में कार डाले हैं वह उनका कथन बागम विरुद्ध पड़ता है। इसी प्रकार उन्होंने भागे चलकर १३वें सूत्र के सअद पद रहित और सञ्जर पर सहित, ये दो विकल्प उठाकर मानुषी के चौदह गुणस्थान बताते हुये उस सूत्र में सञ्जद पद की पुष्टि की। वह भी सिद्धांव शाब से विरुद्ध है। यह बात हमने अपने पूर्व लेख में बहुत स्पष्ट कर दी है कि सत्र
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सरणी निर्दिष्ट पर्याप्त विधान से १३ सूत्र में संयत पद सिद्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि वह द्रव्यत्री काही प्रतिपादक उक्त कम विधान से सिद्ध होता है। ___ १२ और ६३ सूत्रों में पाये हुये पयांत अपर्याप्त पदों की व्याख्या करते हुये सोनी जी स्वयं लिखते हैं-"इसलिये इन दो गुणस्थानों में मनुष्याणयां पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों तरह की की गई है। यह ख्यान रहे कि गर्भ में पाने पर अन्तमुहूर्त
पश्चात शरीर पर्या'त के पूर्ण हो जाने पर पर्याप्तक तो जीव हो जाता है परन्तु उसका शरीर सात महीने में माठ महीने में और नौ महीने में पूर्ण होता है।"
इसकेमागे दोंने गर्भस्राव, पात और जन्मका स्वरूप निरूपण किया है। इसके मागे लिखा है कि "तीनों अवस्थामों में बह जीप चाहे मनुष्य हो चाहे मनुष्यणी हो पयांतक होता है." इस कथन से यह बात उन्हीं के द्वारा सिद्ध हो जाती है कि १२
और ३ सत्रों में जो पर्याप्तक और पर्याप्त पर मानुषियों के साथ बगे हुये हैं वे उन मानुषियों को द्रव्यत्री सिद्ध करते है, न किभावसी। क्योंकि गर्भ में पाना भोर मन्तमुहूर्त में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होना चादि सभी बातें मानुषियों के द्रव्य शरीर कोही विधायक हैं।
पागे सोनी जी ने इसी सम्बन्ध में यह बात की है कि सूत्र में संयत पद नहीं माना जाता है वो बोके पांच गुणस्थान हो सिद्ध होंगे। परन्तु मानुषी चौरा गुणस्थान भी बताये है
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संबत पद सूत्र में देने से सिद्ध हो जाते हैं।
इसके लिये हमारा यह समाधान है कि इस सत्र में पर्याप्तक पद के निर्देश से मानुषी से द्रव्य सीब हो.प्राण है। अन्यथा आपकी व्याख्या- 'गर्भ और अन्तर्मुहूर्त में शरीर की पूर्णता की कैसे बनेगी और द्रव्य शरीर के कारण पांच गुणस्थान ही स्त्री के इस सूत्र द्वारा मानना ठीक है। संयत पर देना यहां पर द्रव्य स्त्री का मोत साधक होगा। परन्तु भागे वेदादि मागेणामों में जहां योग और पर्याप्तियों का सम्बन्ध नहीं है तथा केवन भौयिक भावों का हो गुणस्थानों के साथ समन्धय किया गया है वहां पर मानुषी के (भावत्री) के चौदह गुणस्थान बताये हो गये हैं उनमें कोई किसी को विरोध नहीं है। और वहां पर उन सत्रों में ही भनिवृत्ति करण एवं प्रयोग केवली पर पड़े ये हैं, इसलिये यहां ६३ सूत्र में संयत पर जोड़े बिना भाव मानुषी चौदह गुणस्थान केसे सिद्ध होंगे। ऐसी मारा करना भी व्यर्थ ठहरती है। यहां यदि उन सूत्रों में भयोग केवली मादि पद नहीं होते तो फिर कहां से अनुचि मानेगी ऐसी शश भी होती। यदि एवं सूत्र में संयत पर दिया जायगा तो यह भारी दोष अवश्य पावेगा कि द्रव्यत्री के गुणस्थानों का पटखएडागम में कोई सत्र नहीं रहेगा। जो कि सिद्धांत शासके अधूरेपन सूबा होगा। और अंगे-देशमावा भूतबनि पुष्पाजीमी का मो योजक होगा फिर पर्याप्ति अपर्याप्त पदों का निवेशही संयत पद का सम सूत्र में सर्वथा वाधक है। भवा पहला पाठही
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१४
टीक है । संयत पद विशिष्ट पाठ उस सूत्र में सिद्ध नहीं होता है।
मागे चलकर सोनीजी ने द्रव्यानुगम का यह प्रमाण दिया है
मसिणीसु सासणसम्माटिप्पहुडि जाव भजोग केवजित्ति दव्यरमाणेण फेवडिया-संखेजा। द्रव्य प्रमाणानुगम ।
इस प्रमाण से उन्होंने मानुषियों के प्रयोग केवलो तक १५ गुणस्थान होने का प्रमाण दिया है। सो ठीक है, इसमें हमें कोई विरोध नहीं है, कारण यहां पर्यानियों का सम्बन्ध और प्रकरण नहीं है पता भावली को अपेक्षा का कथन है। सूत्र में 'मजोगकेहित्ति' पाठ है अतः बिना पूर्व की अनुवृत्ति के सत्र से ही भावली के पौदह गुणस्थान बताये गये हैं।
इस प्रकार उन्होंने क्षेत्रानुगम का-'मणुसगदीए मणुसमणुस पजतमासणीसु मिच्छाइट्टियाडि जाव पजोगकेवली देवड़िखेत्ते ? लोगस्स असंखेजदिभागे।' यह प्रमाण भी दिया है उससे भी मानुषी के चौदह गुणस्थान बताये हैं, सो यहां पर भी हमारा वही उत्तर है। सूत्रकार ने भारत्रो की अपेक्षा से यहां भी पयोगी पयत गुणस्थान क्षेत्र की अपेक्षा बताये हैं। इसमें हमें क्या भापति हो सस्ती है। जबकि शरीर रचना की निष्पत्ति रहित भाव मानुषी का यह कथन है।
सोनी जो के इस द्रव्य प्रमाणानुगम प्रमाण के प्रसा में कहें इतना और बता देना चाहते हैं कि उस द्रव्य प्रमाणानुगम द्वार में भी पटसरडागम सिद्धांत शाम में द्रव्य मनुष्य द्रलियां मादि की संख्या बताई। प्रमाण के लिये एक यो सत्रों बाबा
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६५
उद्धरण देना पर्याप्त है।
मगुरूस रज्जत्तेसु मिरुलाइट्ठि दब्वपमाणेण केवडिया, कोडाकोडाकोडी उबरि कोडाकोडाकोडी हेहदोरणं वग्गाण सतरं बग्गाणं हेो ।
(सूत्र ४५ पृष्ठ १२७) पटखण्डागम जीवस्थान द्रव्यप्रमाणानुगम
इस सूत्र द्वारा पर्याप्त मनुष्यों में से मिध्यादृष्टि मनुष्यों की सख्या द्रव्य प्रमाण से बताई गई है । इसी सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने पर्याप्त मनुष्यों की संख्या वही बताई है जो गो-म्मटसार जीवकांड में उनतीस अङ्क प्रमाण द्रव्य मनुष्यों की बनाई गई है। उसी में से ऊपर के गुणस्थान बालों की संख्या घटाकर मिध्यादृष्टियों की संख्या बताई गई है। मनुष्य पर्याप्त और संख्या का उल्लेख सूत्र में दिया गया है । गोम्मटसार जीवकांड की गाथा १५६ और १५७ द्वारा
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सेढो हुई अंगुल मादिम तदियपदभाजिदे गूणा । सामण्ण मणुसरासी पंचमक दिवसमा पुरणा ॥
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(इस गाथा में) पर्याप्त मनुष्यों की संख्या बताई गई है। यही प्रमाण धवलाकार ने ऊपर के सूत्र की व्याख्या में इस रूप से दिया है
बेरूत्रस्थ पंचमनग्गेण बट्टमवां गुणिदे मनुस्स पज्जत्तरासी होदि आदि । (पृष्ठ १२० भदक्षा) इसके अनुसार धवलाकार ने पृष्ठ १२६ में - ७६२२८१६२५
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१४२६४३३७५६३५४३६५०३३६ यह २६ अङ्क प्रमाण पर्याप्त मनुष्यों की संख्या बताई है। और यही राशि गोम्मटसार को एक १५४ गाथा में बताई गई है। दोनों का पाठक मिलान कर लेवें । यह संख्या द्रव्य मनुष्यों की है। ___ इस प्रकार गोम्मटसार और पटखण्डागम दोनों ही द्रव्य मनुष्यों की संख्या बताते हैं। द्रव्यस्त्रियों की संख्या भी इसीप्रकार दोनों में समान बताई गई है उसे भी देखिये
पजत्तमणुस्साणं तिचउत्तो माणुसीण परिमाणं । सामण्णा पुण्णूण। मणुव अपजत्तगा होति ॥
अर्थ-पर्याप्त मनुष्यों का जितना प्रमाण है उसमें तीन चौपाई (३) द्रव्यत्रियों का प्रमाण है। इस गाथा में जो मानुषी पद है वह द्रव्यली काही वाचक है। इस गाथा की टीका में स्पष्ट निखा हुमा यथा
पर्याप्तमनुष्यराशेः त्रिचतुर्थभागो मानुषीणां द्रव्यस्त्रीणां परिमाणं भवति।
गो०जी० टीका पृष्ठ ३८४ इस टीका में मानुषीणा पद बागे द्रव्यस्त्रीणां पद संस्कृत टीकाकार ने स्पष्ट दिया है। उसका हिन्दी अर्थ पण्डित प्रवर टोडरमल जी ने इस प्रकार किया है
पर्याप्त मनुष्यनि का प्रमाण कसा वात्र च्यारि भाग कीजिये बामें वोन भाग प्रमाण मनुष्यणी द्रव्यत्री जाननी।
(गो०जी० टीका पृष्ठ ३८४)
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जो द्रव्यात्रियों का प्रमाण फार गोम्मटसार द्वारा बताया गया है वही प्रमाण द्रव्यखियों का षट वएडागम के द्रव्य प्रमाणानुगम में बताया गया है देखिये
मणुसिणीसु मिच्छाइद्विदचपमाणेण केवडिया ? कोडा-- कोहाकोडोरा उपरि कोडाकोडाकोडोरा हेदो छाई बगाण मुरि सतएह बग्गाण हेतृदो।
(सूत्र ४८ पृष्ठ १३०)
षटखण्डागम द्रव्यानुगम एत्तस्त सुत्तस्स वाखाणं मणुसपजत्त सुत्तवक्खाणेण तुल्ल ।
इसक आगे जो मानुपियों की संख्या धवनाकार ने सूत्र निर्दिष्ट कोडाकोडी आदि पदों के अनुसार बताई है वह वही है जो गोम्मटसार में द्रव्यत्रियों की बताई गई है। इसी प्रकार सम्बट्टसिद्धिविमाणवासिदेवा दवपमाणण कडिया संग्वेजा।
(सूत्र ७३ पृष्ठ १४३ धवल) इस सूत्र में सर्वार्थ सिद्धि के देवों का संख्या बताई गई है। वह द्रव्य शरीरी देवों की है। इसी सूत्र के नीचे व्याख्या में पवनाकार लिखते हैं
मणुसिणो रासोदो विउणमेत्ता हति ।
इसका अर्थ है कि सर्वार्थसिद्धि के देव मनुपिणियों के प्रमाण से ति गुनेहें यहॉपर मानुषी द्रव्य स्त्री का वावक है । गाम्मटसारमें. समसगगुणपडिवएणे सगसगरासीसु प्रमणिदे वामा।
(गाथा ४१ पृ१ १०१३)
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इस गाथा की टीका में संस्कृत टीका के आधार पर-६० टोडरमल जी लिखते हैं कि
बहुरि सर्वार्थ सिद्धि विखें अहमिद्र स असंयत हो हैं ते द्रव्यत्री मनुषिणी तिन ते तिगुण वा कोई प्राचार्य के मत कर सात गुण हैं। पटखण्डागम और गोम्मटसार दोनों में द्रव्य कथन है और एक रूप है।
-गोम्मटसार मी द्रव्यवेद का विधायक हैइसी प्रकार गोम्मटसार में गति आदि प्रत्येक मार्गणा के कथन के अंत में जो उस मार्गणा वाले जीवों की संख्या बताई है वह द्रव्यवेद अथवा जीवों के द्रव्य शरीर को अपेक्षा से ही बताई है। जिन्हें इस हमारे कथन में सन्देह हो वे गोम्मटसार जीवकांड निकालकर देख लेवें । लेख बढ़ जाने के भय से यहां प्रमाण नहीं दिये जाते हैं।
इसी प्रकार षटखण्डागम के द्रव्य प्रमाणानुगम में द्रध्यजीवों की संख्या बताई है। भाववेद वादी विद्वान अपने लेखों में एक मत होकर यह बात कह रहे हैं कि षटखण्डागम सिद्धांत शासन
और गोम्मटसार दोनों में द्रव्यवेद का कथन नहीं है भारवेद का ही कथन उन दोनों में है। परन्तु यह बात प्रत्यक्ष बाधित है। हम उपर स्पष्ट कर चुके हैं, और भी देखिये
इंदियाणुवादेण एइंदिया वादरा सुहुमा पजत्ता भपजता दश्च पमाणेण केवडिया भणंता।
(सूत्र ७४ पृ० १५३)
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धवल द्रव्य प्रमाणानुगम तथा च
बेईदिय तेइंदिय परिदिया तस्सेव पजत्ता अपजत्ता दधपमाणेण के वडिगा असंखेजा।
(सूत्र ७७ पृष्ठ १५५)
धवल द्रव्य प्रमाणानुगम प्रथं दोनों सूत्रों का सुगम।। सूत्र की व्याख्या में धवलाकार लिखते हैं
एत्य अपनत्तवयणण अपञ्चत्तणाम कम्मोदयसहिद जीवाघेतवा । अएणहा पजत्तणाम कम्मोदय सहिदणबत्ति भरजत्ता वि अपजत्त वयणण गहणप्पसंगादी । एवं पजत्ता इतिवृत्ते पज्जतणाम कम्मोदय सहिद जीवा घेत्तवा भएणहा पज्जवणाम कम्मोदय सहिद णिव्यत्ति अपज्जत्ताणं गहणाणुवत्तादा।
विति चरिदियत्ति बुत्तं वीइंदिय तीइंदिय परिदिय जादिणाम कम्मोदय सहिदजीवाणं गहणं ।
(पृष्ठ १५६ धवना) अर्थ-यहां पर सूत्र ७७ में आये हुये अपयांत वचन से पपयाप्त नामकमे के उदय से युक्त जीवों को ग्रहण करना चाहिये अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त नित्यपयाप्तक जीवों का भी अपर्याप्त इस वचन से ग्रहण प्राप्त हो जायगा । इसीप्रकार पर्याप्त ऐसा कहने से पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त जीवों का महण करना चाहिये अन्यथा प्रर्याप्तनामकर्मके उदयसे युक्त नित्य
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१००
पर्याप्तक जीवों का ग्रहण नहीं होगा।
दीद्रिय, त्रीद्रिय और चतुरिद्रिय ऐसे जो सूत्र में पद हैं उनसे द्वींद्रिय माति. श्रीयिजाति और चरिद्रियजाति नामकर्म के उदय संयुक्त जीवों का ग्रहण करना चाहिये। ___ यहां पर जब सर्वत्र नामकर्म के उदय से रचे गये द्रव्य शरीर
और जाति नामक के उदय से रची गई द्रव्यन्द्रियों का जीदों में विधान किया है तब इतना सह विवेचन होने पर भी 'पटम्बएडागम में केवल भाववेद का ही कथन है दुव्यवेद का कथन प्रन्यांतरों से देखो' ऐसा जो भावपक्षी विद्वान कहते हैं वह क्या इस षटखण्डागम के ही कथन से सर्वथा विपरीत नहीं ठहरता है ? अवश्य ठहरता है। यहां पर तो भाववेद का कोई विकल्प हो खड़ा नहीं होता है। केवल द्रव्यशरीरी जीवों की संख्या द्रव्यप्रमाणानुगम हार से बताई गई है। सोनी जी प्रभृति विज्ञान विचार करें। सोनी जी ने द्रव्यप्रमाणानुगम का प्रमाण अपने लेख में दिया है इसीलिये प्रसङ्गवश हमें उक्त प्रकरण में इतना खुनासा और भी करना पड़ा।
सभी मनुयोग द्वारों में द्रव्यवेद भी कहा गया है।
जिस प्रकार ऊपर सत्प्ररूपणा और द्रव्यमाणानुगम इन दो अनुयोग द्वार में द्रव्यवेद का स्फुट कथन है। इसी प्रकार अन्य सभी अनुयोग द्वारों में भी द्रव्यवेद का वर्णन है। उनमें से केवल बोड़े से उद्धरण हम यहां देते हैं
भाइसेण गदियाणुवादेण पिरयगदीये ऐरएएसु मिला
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इद्विपडि जाव असंजद सम्माइटिति केवडि खेत्ते लोगस्स असंखज्जाद भागे।
(सूत्र ५ पृष्ठ २८ क्षेत्रानुगम) इदियाणुवादेण एदिया बादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता केहि खेत्ते, सबनोगे।
__ (सूत्र १ पृ० ५१ क्षेत्रप्रमाणानुगम) कायाणुवादेण पुढविकाया पाउकाथिया, ते उकाइया, बाउकायया बादरपुढविकाइया आदि (यह सूत्र बहुत लम्बा है)
(सूत्र २२ पृष्ठ ४४ क्षेत्रानुगम) भत्रणवासिय वाण चतर जादिसिगदेवेसु मिच्चाइट्टि सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तंगोसिदं । लोगस्स असंखेदिभागो।
(सूत्र ४६ पृष्ठ ११४ र्शनानुगम) बीइंदिय तीइंदिय परिदिय तम्सेव पज्जत्त प्रपत्तएहि कंवडियखतं फोसिंद नोगस असंखेदिभागो।
(सूत्र ५८ पृष्ठ १२१ स्पशानुगम द्वार) मणुस्म अपजना केवचिरं कालादो होति पाणजी पडुब जहरणेण खुद्दाश्वग्गहणं।
(सूत्र ८३ पृष्ठ ११० कामानुगम वार) सम्वसिद्धि विमाएवासियदेवेसु भसंजदसम्माट्ठी केवचिरं कालादोहोति पाणाजीव पडुन सम्बदा ।
(सूत्र १०५ पृष्ठ१४ कालानुगम द्वारा)
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१०२
एकजीवं पडुन जहएण मुक्कसेण तेत्तीसं सागरोवमाणि ।
(१०६ सूत्र पृष्ठ १६४ कालानुगम द्वार) कायाणुवादेण पुढधिकाइनो णामकध भवदि ?
(सूत्र १८) पुढविकाइयणामाए उदएए.
सूत्र १६ पृष्ठ ३५ स्वामित्वानुगम) भाउकाईनो णाम कथं भवति ?
सूत्र आउकाइय णामाए उदएण
सूत्र २१ तेउकाई प्रोणाम कधं भवदि ?
सूत्र २२ तेसकाइय णामाए उदएण
सूत्र २३ बाउकाईयो णाम कधं भवदि ?
सूत्र २४ वाउकाइय णामाए उदएण
सूत्र २५ (पृष्ठ ३६ स्वामित्वानुगम द्वार) माणद पाणद पारण अच्छुद कल्पवासिय देवाणमंतरं केवचिरं कालादोहोदि?
सूत्र २४ जहएणण मासपुधत्तं
(२५ सूत्र पृ०६७ अन्तरानुगम द्वार) वणादिकाइय णिगोदजीव वादरसुहम पज्जत भपज्जत्ताण मन्तरं केवषिरं कालादो होदि ?
(सूत्र ५० पृष्ठ १०१ अन्तरानुगम द्वार) जहएणेण खुद्दाभवग्गहणं।
(सत्र ५१ पृष्ठ १०२ अन्तरानुगम द्वार)
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१०३
इंदियात्रा देण एइंदिया वादरा सुहुमा पज्जत्ता अपजत्ता
यिमा अस्थि ।
(सुत्र ७ पृष्ठ १२० भङ्ग विचयानुगम) वेदिय तेईदिय चउरिदिय पचिदिय पज्जत्ता पत्ता खियमा
अस्थि ।
त्योवा मगुस्सा
गोरइया असखेज गुणा
देवा असंखेज गुणा सव्त्रत्थोवा मणुस्सिरणीश्रो
मरुमा असंखेज्ज गुणा
इंदिया वा देण सव्वत्थोवा पंचिदिया
चरिं दिया बिसेसाहिया
तींदिया विसेसाहिया
बीइन्दिया विसेसाहियाँ
पाणावरणीयं
सरणावरणीयं
बेदणीयं
मोहणीयं
सूत्र ८ पृ० १२० भङ्ग विचयानुगम द्वार)
सूत्र २
सूत्र ३
सूत्र ४
सूत्र ८
सूत्र ६
सूत्र १६
सूत्र १७
सूत्र १८
सूत्र १६ पृष्ठ २६२
(अल्पबहुत्वानुगम द्वार)
भार
पामं
सूत्र ५
सूत्र ६
सूत्र ७
सूत्र ८
सूत्र ६
सूत्र १०
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गोदं
सत्र ११ अंतरायं चेदि
सत्र १२ णाणावरणीयस्स कम्मरस पंचपयडीमो सूत्र १३
(०५-६ जीवस्थान चूलिका) मणुसा मणुस पत्ता मिच्छाही संखेन्जवासा इसा । मणुसा मणुसहि कालगद समाणादि गदीमो गच्छति ?
(सूत्र १४१ चूलिका) पचारि गोमो गच्छेति णिरयगई तिरिक्खनई मणुसगई. देवगई चेदि ।
(सत्र १५२ पृष्ठ २३४ चूलिय) गिरसेप्स मच्छता सब हिरयेसु गच्छति। १४३ सूत्र विरक्खेसु गच्छत्ता सब तिरिक्खेसु गच्छति। १४४ सूत्र मणुसेसु गच्छचा सन्ध मणुस्सेसु गच्छति। १४५ सत्र
देवेसु गच्छंता भवणवासिप्पड जाव णवगेवजबिमाणबासिय देवेसु गच्छति।
(१४६ सूत्र पृष्ठ २३५ विध) इन समस्त सूत्रों को धवला टोका में और भी स्पष्ट किया गया है। इन सब उसरणों का उल्लेख करने से बहुत बढ़ जायगा। संक्षेप से मिग २ अनुयोग द्वारों के सूत्र वहां दिये गये हैं। इन सत्रों से द्रव्यदेव एवं द्रम्ब शरीर का सहविरोचन पाय पास है। भाववेदी विद्वान सभी अनुयोग घरों को मारनेर निस्तकही पाते हैं। बारपर्व है।
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१०५
सोनी जी ने जो र!जवातिक का प्रमाण दिया है वह भी उनके अभीष्टको सिद्ध नहीं कर सकता है, कारण खियों के साथ पर्याप्त शेष जोड़कर बारिक में चौदह गुणस्थान बताये जाते तब ती उनका कहना अवश्य विचारणीय होता परन्तु इस एक ही वाक्य में 'भाव लिंगापेक्षा द्रव्य लिंगापेक्षेण तु न यानि ये दो पद पड़ हुये हैं जो विषय को स्पष्ट करते हुये पर्याशेषको द्रव्यपुरुष के साथ ही जोड़ने में समर्थ हैं। राजवातिककार ने तो एक ही वाक्य में भाव और द्रव्य दोनों का कथन इतना स्पष्ट कर दिया है कि उसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं हो सकता है। उन्होंन जीव कोपर्यात अवस्था के स्त्री भाववेद में चौदह गुणस्थान और और प्रति पीपेक्षा से अदि के पांच गुणस्थान स्पष्ट रूप से बना दिये हैं। फिर भावपक्षी विद्वान किस व्यक्त एवं अति बात का लक्ष्य कर इस राजवार्तिक के प्रमाण को भाववेद की सिद्धि में उपस्थित करते हैं सो समझ में नहीं जाता ? श्री राजवानिककार ने और भी क्रयस्त्रीबंद की पुष्टि आगे के वावग द्वारा राष्ट रूप से करदी है देखिये
अपर्याप्त
भये सम्ययत्वेन सह स्त्रीजननाभावात् ।
इसका यह अर्थ हैं कि मानुषी की अपर्याप्त अवस्था में शाद के दो गुणस्थान ही होते हैं क्योंकि स्म्यग्दर्शन के साथ ही पर्याय में जीव पैदा नहीं होता हैं। यहां पर की पर्याय में जब पैदा होने का निषेध किया गया है तब मानुषी शब्द का अर्थ
रूप से द्रव्यस्त्री ही राजवार्तिककार ने
अपर्याप्त अवस्था में बत
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१.६ दिया है। अतः भावपक्ष की सिद्धि के लिये राजवार्तिक का कथन अनुपयोगी है।
सोमी जी ने राजार्तिक की पंक्ति का अर्थ अपने पक्ष की. सिद्धि के लिये, मनः कलिगत भी किया है जैसा कि वे लिखते हैं"यहां भाष्य में पर्याप्त मात्र मानुषियों में चौदह गुणग्थानों को सत्ता कही गई है और अपर्याप्त भार मानुपियों में दो गुणस्थानों की।"
यहां पर 'अपर्याप्त भाव मानुषियों में दो गुणस्थानों की' इम में 'भाव' पद उन्हों ने अधिक जोड़ दिया है जो भाष्य में नहीं है चोर विपरीत पर्थ का साधक होता है। राजवार्तिक के वाक्य में 'अपर्याप्तिकासु' केवल इतना ही पद है उसमें भाव पद नहीं है। किन्तु 'बी जननाभावान' इस वाक्य स राजाककारने द्रव्यवंद बाली बी का हो ग्रहण किया है। भाववेद स्त्री का जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु सोनी जी ने अर्थ में व्यवेद स्त्री को तो बोर ही दिया है और भाववेद स्त्री का उल्लेख शक्य न होनेपर भी उसका उल्लेख अपने मन से किया है। इसी प्रकार भाष्य में देवन 'अपांतिकासु' पद है परन्तु सोनी जी ने उसके अर्थ में दोनों ही प्रकार की अपर्याप्त मानुषियों में भाग के दो गुणस्थान होते हैं। ऐसा दोनों ही प्रकार की' पद मनः कहिपत जोड़ दिया है। जो उचित नहीं है।
सूत्र में बोन्होंने 'परमादेवार्षात द्रव्यमीण नितिः सियत काकर संजर पाकी माशझा ठाई है उसका समाधान
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हम इसी लेख में पहले कर चुके हैं। भावानुगम द्वार का उल्लेख कर को मानुषी के साथ संजद पद दिया गया है यह भावसोका बोधक है परन्तु ६२ ६३व सूत्रों में भौदारिक और प्रौदारिक मिश्र काययोग तथा तदन्तर्गत पर्याति अपर्याप्ति का प्राण है, इन्ही के सम्बन्ध से उन दोनों सूत्रों का कथन है इसलिये वहां पर द्रव्य स्त्री वेद का ही प्रहण होने से सनद पद का ग्रहण नहीं हो सकता है।
भागे सोनी जी ने एक हास्योत्पादक भाशा उठाई है वे लिखते है..
"०६३ की मनुपिणियां केवल दुव्यस्त्रियां हैं थोड़ी देर के लिये ऐसा भी मान लें पर जिन सूत्रों में मानुपिणियों के चौदह गुणस्थानों में द्रव्य प्रमाण, चौदह गुणस्थानों में क्षेत्र, स्पर्श, काल, अल्पबहुत्व कहे गये हैं वे मनुपिणियां द्रव्यखियां हैं या नहीं, यदि हैं तो उनके भी मुक्ति होगी। यदि वे द्रव्याखयां नहीं है तो १३३ सूत्र को मनुषिणियां द्रव्यत्रियां ही हैं यह कैसे ? न्याय तो सर्वत्र एक सा होना चाहिये।"
यह एक विचित्र शङ्का और तकंणा है, उत्तर में हम कहते हैं कि-प्रसंकी तिर्यच के मन नहीं होता है परन्तु संझी तिर्यच के मन होता है। ऐसा क्यों ? अथवा भव्य मनुष्य को मोक्ष आ समता भव्य नहीं जा सकता है ऐसा क्यों ? जातिकाच पद संखो प्रसंझी दोनों जगह है। और मनुष्य पद भी मध्य अभव्य दोनों जगह है फिर इतना बड़ा भेद क्यों? न्याय तो
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१० दोनों जगह ममान होना चाहिये, मोनो जी हमारी इस तर्कणा
प्राशङ्का का जो उत्ता दे वहीं उन्हें पाने समाधान के लिये समझना चाहिये । कपूर एक सा होने पर भी व्यक्तियों की छोटो बड़ी प्रवाया और उनके इरादे (पंशा) में भंद होने में भित्र २ धारामों के आधार पर कम याना सजा दी जाती है । एक सङ्गीन कोगदारी मुकदमें में छह माह की सजा और २००) २० जुर्माना करने का एक साथ संकण्ड जप का अधिकार होने पर भी इमने भी प्रनिटी में दा श्राराधियों को कन ज्यादा सजा स्वयं दी है और ऊपर कन्या पालय सं रह किये जाने पर भी हमारा लिया हुआ यि (पंजा) हाई काट से बहाल (मान्य) रहा। प्रतः पात्रतानुसार हा न्याय होता है। यदि सत्र एक सा न्याय मान लिया जाय तर ता 'अन्यर नारो चौपट राजा, टका सेर भानो टका सेर खाना बाना हाल हो जायगा। इजिये सोनी जी की बात का यही सन यान है कि जहां जैसा पात्र और विधान है वहां सा हो पाए करना चाहिय । हरब-वे सूत्रों में अपात पर्यात के समय से त्रियों के द्रव्य शरीर का हो ग्रहण होता है। अन्यत्र जांत्रियों के चौदह गुणस्थान बनाये गये हैं वहां कवल भावत्रियों का पक्षण होता है। वांबियोंक साथ पर्याप्ति प्रायाति का सम्बन्ध नहीं है। बस इसीलिये सर्वत्र इतुवाद सहित यथोषित न्यायका पूर्ण विधान है।
भागे सोनी जी ने बिना किसी प्रमाण के कहा है कि पटखरडागम में भाषदेदों को प्रधानता है म्यवेद तो भागमांतरों के
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१०६ बल से जाना जाता है। इन सब बातों का परिपूर्ण एवं सपमाण समबान हम इसी ट्रक में पहले अच्छी तरह कर चुके हैं। यहां विष्ट-पेपण करना व्यर्थ है।
भाग निगाव वनय वेदाचे नादि चागोअहि' इस प्रमाग से बताया है कि द्रव्यत्रियों और नपुसको वालों के वस्त्रादि का त्याग नहीं है, उसके बिना संयम होता नहीं है प्रा. अर्थात से यह बात भागमांतरों से जानी जातो है कि छठे प्रादि मयत स्थानों में एक द्रव्य पुरुावेद हो । परन्तु मानी जी को रात समझ लेनी चाहिये । कि यहां पर अर्थापत्त और भागनांतर में जानने की कोई आवश्यकता नही है।
मी पागम में यात्रियों के संयतासयत तक ही गुणस्थान बताये गये हैं उनके सयत गुणस्थान नहीं है. इसीलिये तो वन त्याग का मभाव हेतु दिया गया है। इस स्फुट कथन में भागमांतर से जानने की क्या बात है. ? हां ६२ सूत्र में सनद पर जोड़ देने से ही प्रन्य विषयांम और भागमांतर से जानने आदि की अनेक मिध्यामंझटें और बस्नु वैयरीत्य पैदा हुये बिना नहीं रहेगा। तथा ६३३ मृत्र में सञ्जद पद की सत्ता स्वीकार कर लेने पर निकट भविष्य में ऐसा साहित्य प्रसार होगा जो श्वेतांबरों दिगम्बर के मौमिक भदों को मेटकर सिद्धांत-विघात किये बिना नहीं रहेगा इस बात को सोनी जी प्रभृति विद्वानों को ध्यान में नाना चाहिए। . बस १६ गत १६४६ के खण्डेलवान जैन हितेच्छ में छपे
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हुये सोनी जी के लेख का उत्तर ऊपर दिया जा चुका है। अब उनके उक्त पत्र के १६ सितम्बर और १ अक्टूबर के लेखों का संक्षिप्त उत्तर यहां दिया जाता है जो कि हमको ध्यान दिन्नाकर उन्होंने लिखे हैं। ___ सोनी जी ने लिखा है कि- "गत्यंतर का या मनुष्यगति का ही कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भारती द्रव्य मनुष्यो में उत्पन होवा हो तभी उसके पर्याप्त अवस्था में चौथा पसंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान हो सकता है अन्यथा नहीं।"
इसके लिये वे नीचे प्रमाण देते हैं-जेसि भावों इत्थि वेदोदबं पुण पुरिस वेदो तेवि जीवा संजमं परिवति दवित्यिवेदा सजमण पडियजति सचेलत्तादो । भावित्थि वेदाणं दवेण पुदाणं पि संनदाणं णाहाररिद्धि समुपदि दवभावेण पुरिस. वेदाणमेव समुपजदि । धवल ।
इन पंक्तियों का अर्थ सोनी जी ने किया है। यहां हम तो यह राव उनसे पूछते हैं कि उपर तो पाप अपर्याप्त अवस्था में भाव बी और द्रव्य पुरुष में सभ्यग्दृष्टि के उत्पन्न होने का निषेष करते है और उसके प्रमाण में जो धवल को पंकि मापने दी है उससे भाहारकश्चद्धि का निषेप होता है, न कि भावनी द्रव्यपुरुष में सम्पष्टिके मरकर पैदा होनेका । बात दूसरी और प्रमाण दुसरा यह वो मनुषित एवं प्राय है। भाव जीवेद के सदय में द्रव्य पुरुष संयमो अवस्था में छठे गुपस्थान में माहारकद्धि नहीं होती है यह तो इसलिये ठीक है, कि बठे गुणस्थान में स्थूल
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प्रमाद रहता है वहां भावसी वेद के उमय में मुनियों के भावों में कुछ मलिनता मा जाती है. मतः माहारकद्धि नहीं पैदा होती पान जब द्रव्य मनुष्य के अपर्याप्त अवस्था में चौथा गुणस्थान होता है इस अवस्था में भावली वेद का उदय उसमें क्या बाबा दे सकता है? जबकि भावस्रो वेद के उदय में वां गुणाधाम तक हो जाता है। यदि भावत्री वेदी द्रव्य मनुष्य की अपर्याप्त प्रवाया में सम्यग्दृष्टि के उत्पन्न होने का कही पर निषेध हो तो कृपा कर बताइये, ऊपर जा प्रमाण मापने दिया। उससे तो संयम और भाहारकऋद्धि का ही निबंध सिद्ध होता है।
भागबानी जी ने मनुपिणी भी भावनी होती है इसके सित करने केजिये धवल का यह प्रमाण दिया है
भणुमिणीमु पसञ्जदसम्माट्ठीणं उपवादो त्यि पमत्तेतेमा. हार माग्यादा स्थि।
धवन की इन पंक्तियो का अर्थ उन्हों ने यह किया है किभावमानुषो के प्रमत्त गुणस्थान में तेजः समुद्घात भौर माहारक समुद्रात का निषेध किया गया है उन्हीं में पसंयत सम्यग्दृष्टियों के उपपाद समुद्घात का निषेध किया गगा है यदि मोनी जी के पर्थानुसार यही माना जाय कि द्रव्य पुरुष भावत्री की अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टि पैदा नहीं होता है, तो फलतः यह अर्थ भी सिद्ध होगा कि द्रव्यत्री भावपुरुष के तो अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टि पैदा होता है। अब सर्वत्र भाववत की मुख्यवा से ही कपन है तो व्यत्री को भपयांत अवस्था में पटखएडागम से
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यह अर्थ प्रन्थ के सङ्गत नहीं है किन्तु माहार समुद्वातका सम्बन्ध जोड़कर भानुमानिक (अंदाजियां) है। वास्तविक अर्थ ऊपर की धवला का यही टोक है कि उन्य मानुषियों में श्रमं यत सम्यकहटियों का उपपाद नहीं होता है। और भावमान पियों में ते. समुद्घात तथा माहारक समुद्रात प्रमत्त गुणस्थान में नही होता है। ऊपर का वाक्य द्रव्यत्रियों के लिय और नीचे का वार भावरियों के लिये है। ऐसा अर्थ हो ठीक है इसके दो हेतु है एक तो यह कि वाक्य में उपदो पत्थि यह पद है, इसका अश जन्म है। जन्म द्रव्य वेद मही सम्भव है, भाववेद में सवा असम्भव है। यह वात सर्वथा हेतु संगत और न्य सङ्गत ना है कि मानुपी में ता उपपाद का निषेध किया जाय और बिना किसी पद और वाक्य के उसका अर्थ यमनुष्य में लिया जाय। मतः उपर धवला का धवल वाक्य व्यही के लिये ही है । इसका दूसरा हेतु यह है कि उस ऊपर के वाक्य के बाद पमत्ते तेजाहार समुग्यादा स्थि' इस दूसरे वाक्य में पमत्ते' यह पद धवलाकार ने दिया है इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह कथन भाववेद की अपेक्षा से है और पहलो पंक्ति का कथन व्यवेद को अपेक्षा से है। यदि दोनों वाक्यों का अर्थ भावली ही किया जाता तो फिर धवलाकार पमत्ते पर क्यों देते १ भालापाधिकार में सर्वत्र यथायोग्य एवं यथा सम्भव सम्बन्ध समन्वय करने के लिये सर्वत्र ब्यवेद और भाववेद को अपेक्षा से वर्णन किया गया है। यदि सोनी जी दोनों वाक्यों का भावली ही ठीक समझते हैं तो
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वे ऐसा कोई प्रमाण उपस्थित करें जिसे 'भावत्री वेद-विशिष्ट द्रव्य पुरुष को अपर्याप्त अवस्था में सम्पष्टिीव मरगर नही आत है। यह बात सिद्ध हो । ऐसा प्रमाण उन्होंने या दूसरे विद्वानों ने बाज तक एक भी नी बताया है जितने भी प्रमाण गोम्मट मार के वे प्रगट कर रहे है वे सब द्रध्यकी को अपर्याप्त समस्या में सायष्टि के नही होने के है हमने जो अर्थ किया। उसके लिये हम यहां प्रमाण भी देते हैं
त्य सयवेदो इत्थीवेदो एउमाथि दुग पुव्वत्त पुरण जोगग बदुसु हाणेसु जाणेजो।
(गो० २.० गा०१७ पृ०६५६) इसकी सांकृत टीका में लिया है-'बयत कायकमिभकारणयोगयोः श्रीविदो नास्ति, प्रयतस्य कीडवनुपः पुनः असंयतीदारिक-मिश्रयोगे प्रमत्ताहारकारच सोपंढवेवी नसा इति शासव्यम'। इस माथा और संस्कृत टीका से यह बात सर्वथा खुलासा हो जाती है कि चौथे गुए स्थान में क्रियिक मिझ और कार्माण योग में जीवेद का उदय नही। क्योंकि पसंयद मरकर की में या नहीं होता। चोर बयत के मौवारिक मिभ योग में तथा प्रमत्त के माहारक और बाहार मिश्र योग में की और नपुसक वेदों का उदय नहीं है। इस कथन से हमारायन स्पर हो जाता और सोनी जी का कथन मय से विस्त पड़ता है।
'मनुषणीनां भी भावनियां होती है। ऐसा जो सोनी जी जगह २ बवाते हैं सो ऐसा वोहम भी मानते हैं। मानुषी राम
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भावती और द्रव्यत्रीरोनों में भावा है। जहां शरण हो बहामा अलगाया जाता है।
भागे पसार सोनी जी गोम्मटसार जीवकांड की-मोरालपाते और मिले सासबसम्मे इन दो गाथाबोंब प्रमाण देकर यह बता रहे हैं कि बोवेर पोरन सकवे के जय वाने असंयन सम्पष्टि में प्रोदारिक मिश्र काययोग नहीं होता। किन्तु वह वेद के उज्य में ही होता है। सी यह पौरारिक मिम योग का कथन तो द्रव्यत्री को अपना से ही बन सकता है । उनका प्रमाण ही उनके मानव्य का बारक है। भागे उन्होंने प्राकृत पञ्च सह का प्रमाण देकर वही बात दुहराई है कि ये गुणस्थान में भौतारिक मित्र योग में सीवर का उत्य नहीं है बन पुका पी.दय है । सो इस बात में भापत्ति किसको है? यह सोनी जी काममाण भी स्वयं उनके मन्तव्य का घातक है । क्योंकि उन सब प्रमाणों से 'द्रव्यती की अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टि मरकर अपम नहीं होता यही बात सिद्ध होती है, न कि बोनी बीरे मनाम्पानुसार भाखोसिदि । भारती कालो बन्म मरण ही नही कर सीट से भौगरिक मिश्रयोग कसे बनेगा इसे सोनीपोहाय मो, बदि में हमारे कान में शहोमो गो
मार विशेषणों से विचार लेवें। भागे प्रभाब भी काठगोल
सदापुरोगीकोवि समगाए। बोसंहपरेमसो गायक परिमविरवाए।
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गाथा २७ गो० म० इस गाथा का प्रमाण देकर मोनी जी ने बताया कि पसंयस सम्यग्दृष्टि की अपर्याप्त अवस्था में बीवेर काय नही।
और पहले नरक को बोड़कर नसावेद का भी समय नही। . सोनी जी के इन प्रमाणों को देखकर में २० सामान जी दृनीकृत हिजन बोधक का स्मरण हो गया है, उसमें हमोंने जितने प्रमाण सचित्त पुष्प फल पूजन, सरपर्चन पाहिले निध में दिये हैं वे सब प्रमाण सवित्त पुष्प फल पूजन मादि के साधक है।हमें पारपर्य होता है कि होने व प्रमाण क्यों दिये। उन्होंने प्रमाण तो नन बम्तुषों के साधक दिये हैं, परन्तु अथै सन का उन्होंने उल्टा किया।जोकि सन प्रमाणों से सईया विपरीत पड़ता है। ऐसे ही प्रमाण भीमान पामान जी सोनी दे रहे हैं। वे भावीकी सिद्धि चाहते हैं, उनके दिये हुये प्रमाण द्रव्य. कीय विकारते हैं। लोगोम्सार की गाथा का अर्थ संकून टीका और परित प्रबर टोबरमा बी. हिन्दी अनुवादमें पाठक पद ले।हम उपयुक गाथा का खुलास मय रोका और ६० टोडरमन बी के हिन्दी अनुवाद सहित इस ट्रेक्ट में पाले बिख चुरे हैम: यहां अधिक ब नहीं
भागे सोनीबीने गोम्मटसार जी के पासपाधिकार का प्रमाण देकर यह पाया 'मनुपिकी ये प्रस्थान में एक पर्याप्त मात्रापागवामी विकिर
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सिद्धांत इसी बात को पुष्ट करता है कि गत्यंतर का सम्यग्दृष्टि जीव अपने साय बीवे! का अपनी लाता है । इसनिये अपर्याप्ताला: नहीं होता है, वे प्रमाण देने हैं
मृसो, मणु तिये मणुपिणि भापनि पजते ।
मोनी जी के इस प्रमा. सेती यही बात सिद्र होती है किसा ही मरकर का सार में न जाता है । इसलिये प्राजागविकार के आयु बना ये चीर गुणवान में द्रव्यसी के एक पर्यातनाप ही प्राचार्य नेनिकन सिद्धांत चकी ने बताया है।
इस गाया की टोका में लिखा है कि 'तथापि योनिनदसंयंत पर्यावालाप एवं योनिमोनां पंचरगुपस्थानादुरगननासभात प्रितीयोपशमसम्यम्वं नास्ति।
(गो० जी० गाथा वही सोनी जी के दिये हुये प्रमाण की.१४ पृ१ ११५३ टीका)
टीकाकार लिम्बने हैं कि-मान्यादि तीन प्रकार के मनुष्यों केदह गुणस्नान होते हैं। पर वो भी योनिमती मनुष्य (स्यबी) के पसंयन में एक पयांशालापही होता है, तथा योनि. मनी पांचवे गुणस्थान से कार नहीं जातो इसजिये उसके हितो. योपशम सम्मान नहीं होता है। यह सब यजी काही विचार
है। इस बात का और भी खुलासा इसी बाजागविबर को .१२वी गाथा से हो जाता है। बा--
परिव जोणिशिको पुरषो सेसेवि पुरणोदु ।
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गो. जो० भालापाधिकार गाथा ७१७
पृष्ठ ११५२ टीका इस गाथा की संस्कृत व हिन्दी टीका में स्पष्ट लिखा कि'योनिमसंयते पर्याप्तालाप एवं बद्धायुकस्यापि सम्यग्दृष्टेःखीरयोरनुत्पत्तेः' यह कथन नियंच को की अपेक्षा से है। फिर भी माजी के समान है । और द्रव्यत्री का निरूरक है क्योंकि मायुचा कर लेने पर भी सम्यम्हष्टि कात्री और छह प्रविधियों में पंतानहीं होता है। यह इंतु दिया है, आगे सानो जा ने अपर्यानिकासु भाये सम्यस्त्वेन सह बीजनाभावात" यह राजवार्तिक का प्रमाण 'भाववेद बोवेद के उदय में द्रव्य मनुष्य के मादि के दो
गुणग्धान होते हैं। इस बात की सिद्धि में दिया परभु यह प्रमाण भी सोनी जी क मन्तव्य के विरुद्ध करबो के गुणस्थाना का हो विधान करता है, यहां पर कीद के उदय की बात भी पालकदेव ने नहीं लिखा है किन्तु सम्यक्त्व के साथ की पयाय में जन्म नहीं होता है ऐसा स्पष्ट लिखा है। इन प्रमाणों को देते हुये
सोनी जी लिखते हैं "इसनिये भावकी व्य मनुष्य के भोप. याप्त बवस्था में पहला और दूसर। ये दोको गुणस्थान होते है
यह बात सोनी जी उपर के प्रमाणों से सिद्ध करना चाहते हैं, परन्तु वे सब ही अपर्याप्त अवस्था को सिद्ध करते हैं और सी अवस्था में सम्यम् लेने का निषेध करते हैं। यह बात हम बहुत स्पट कर चुके हैं।
मागे सोनी बी ने हमसे प्रश्न किया है कि "मायके और
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मनुष्यात क्या चीज है। यदि वह, भावकी द्रव्य मनुष्य है । तो इस कथन और उसके गुणस्थानों का उल्लेख जब द्रव्यपुरुष में माती आयगा फिर यह शहा समाधान क्या प्राकाश में उड़ती हुई विडिया के लिये हुमा१" इस प्रश्न के सर में इतना करना ही पर्वात है कि यदि द्रव्य पुरुष के साथ येवल भावकी का है। समान्यता ना तो पृथक र वर्णन मोर का समाधान नहीं करना पड़ता उसी में पन्त भूत हो जाता। परन्तु वहां तो दृश्यपर साब कमी भावपुरुष कभी भावनी, कभी भाव नपुसक ऐसे तीन विकल्प बने हुये है. इसमय उनको भित्र २ शिक्षा से मित्र निरूपण करना पागों को भावश्यक होगया। परन्तु १२-१३ सत्रों में बहीन विकल्प नहीं है हालीवेक जय की अपेक्षा है। यदि वहां उन सूत्रों को भाववेद-प्रधान माना जायगा तो दृष्य पुरुष साथ प्राण होगा. पोर -६०-६१ सों में मिल जायगा यह शापादयस्थ राताहै।
भागे सोनी की ने हमसे दूसरा प्रश्न किया। वह एक विचारबीचकोटि बोलते हैं कि "परित जी! जिनका शरोर गिifcakो -.-१सत्र में मा गये और जिन का शरीर बोम्बा १२-१३ सत्र में हो गई पतः
पापा से किसमें प्रविश जिनब शरीरaanifa और नafaat सिविलोमोचिन विशेष है। वाटसरगमकार की गती वेनर
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इमोत्तर में संक्षेप में हम इतना लिखनाही पर्याय समझते किवाचायों ने जिस प्रकार पुरुष और स्त्रीवेरको प्रधानता से निबरसत्रों द्वारा स्पष्ट विदेषन किया है वैसा विवेचन नपुसद की प्रधानता से नहीं किया है। इसका मुख्य हेतु वह प्रतीत होता है कि जिस प्रकार पुरा और बीद बाबा लिंग चौर यानि नियत पिन सर्वजन सिख है और प्रत्यक्षा है। इस प्रारमसम्र का कोई नियत चिकित दम्ब रूप नहीं पाया जाता है क्योंकि एकद्रिय से लेकर दिय जीवों तक सभी नपुसकश है। वृक्ष बनस्पतियों में तथा एन्द्रिय से लेकर पीली जीरों में कोई नियत माकार नहीं है इसजिये नियत पिन नहीं होने से नपुंसकवेद की प्रधानता से वर्णन करना पशम्यो । जहां भाषद और द्रव्योग में एक नियत शरीर रूप है वहां नकों का कथन सूत्र द्वारा किया है। संख्या भी गिनाई गई है गैस नाव्यों की। मनुष्यों में पुरुष मोसमान कोपकमियम विन व्यक्त नहाने से द्रव्य नपुसकोत्र पृषक निदेशकों द्वारा नहीं किया गया है। पटसरसगम कार की गवतो वो सम्भव नही। बर्तमान इन विद्वानों की समझ की कमी और बहुत भारी गाती बश्य है जो महान् भाषायों की एक टीकाकारों को गलती समझ लेते हैं।
पागे सोनी जी ने सत्र में संवा शम शेना नावे सम्म में पाला
टीयों पर आपोह किया है, हम संपत राम के विषय में प वन इसी क्यो बोसों
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पर कर चुके है अतः जहां सब बातों का समाधान किया गया है। अब यहां पुनः लिखना अनुपयोगी होगा ।
श्रीमान् पं० कुलचन्द जी शास्त्री के लेख का उत्तर
।
जैन सन्देश - ० २२ अगस्त १६४६ के हू मे श्रीमान ५० फूल बन्द जी शास्त्री महोदय का लेख है। इस लेख में गोम्मटसार कर्मकांड की गाथाओं का प्रमाण देकर यहां सिद्ध किया गया है कि द्रव्य मनुष्य के भी भाव श्रीवेद का उदय हो तो भी उस द के उदय के साथ और मिश्र में चौथा गुणस्थान उसके नहीं होता है। इसकी सिद्धि में "साथी वेदविदी, मर्यादेशादेज दुभ 'सात छिदा भयदेवणिज, "इन गाथाओं का प्रमाण उन्होंने दिया है परन्तु ये प्रमाण द्रव्यकी के ही सम्बन्ध से हैं, सम्यग् जीव मरकर सम्यग्दर्शन के साथ अपर्याप्त अवस्था में द्रव्यखी.. नहीं होता है, इसी पी सिद्धि के विधायक ये गोम्मटसार कर्मकांड के प्रमाण है । यह बात की० पं० पन्नालाल जी सोनी के लेखों के उत्तर में पीछे ही स्पष्ट कर चुके हैं, उसी को पुनः यहां लिखना पिपेषण ये होगा। इन प्राणो से यह बात या सिद्ध नहीं होती है कि भाषकी वेद विधि द्रव्य मनुष्य की अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दृष्टि जोव पैदा नहीं होता है। ऐसा कोई पद हो तो उक शाको जो प्रगट करें। हम तो कीवेनानुत्पन्नत्यात कोल्लेन अन्नाभोवात् इत्यादि प्रमाणों से और चारो धानुपूवियों के अनुदय होने में स्पष्ट पर हुई है कि० ३६ हाये द्रव्यस्त्री के ही सम्बन्ध से है। मदः हमने जो चाप ६२-६३
′
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१२१ ht-10-1१ सत्रों में अपने लेखों में पाई पालो । सपकोई समाधान भावपकी रिद्वानों कीबोर से नही मारे।
शाखीमी ने जो यह बात fematसे पटसरसागम पायाभूत मासिभी सैनिक अन्यों में बाधार्मिकम्पों में मनुरिती राम का प्रयोग बोवेद के जय को अपेक्षा से किया गया हे मूल प्रमों में को में अध्ययन विवक्षितीनही साद पर यावां सब भी भावलोकभपेशा से ही निमित हुपा है।"
इन पायो के उत्तर में हम इतना शास्त्री जी से पूछते हैं कि 'मूल मन्थों में सर्वत्र भावी लिया जाता है म्यवेद नही लिया जाता। यह बात मापने किस मापार से कही कोई प्रमाण वो देना चाहिये । जो प्रमाण गोम्मटसार दिया है सब व्यसीहो विपादक म्षा उनका सपान करें कि इस हेतु सके द्रव्य नहीं कि भाववेक है। बिना प्रमाण
मापकी बात मान्य नहीं हो सकता है। इस विपरीत हम इस ट्रैक्ट में पटखएडागम गोम्मटसार मोर रामवासिक के प्रमाणों से वह बात भली भांति सिद्ध कर चुके हैं कि स्त्रीवर शादि वेदों का संघटन द्रव्यशरीरों में ही किया गया है। द्रव्य शरीरों को पर्याप्तता, अपर्याप्तवा भाषार परी गुणस्थानों का बवासम्भव समन्बय किया गया है। इस ट्रैक्ट पाने से मार पर्व सरहकोण को समझ लेंगे। मापने चोर दुसरे ममी भावपकी विशनों ने सरहकोण को समझानीया पणमोह में पहर समझ भी भ्रम पैदा कियारहवासमा
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बोगी मानें । मूल प्रन्य और टीका मन्यों के प्रमाणों को देखते हुये और उनके विरुद्ध पाप बोगों का वक्तव्य पढ़ते हुये हमें इतना पटु सत्य लिखना पड़ा है इसलिये पार लोग हमें क्षा' करें। हमारा इरादा पाप पर या दूसरे विद्वानों पर पाक्षेप करने का सर्वथा नकिन्तु बस्तुस्थिति बताने का है । १२-६३ सत्र और ८१.६०-६१ ये सब सूत्र भावापी मुख्यता नहीं रखते है किन्तु वे पवेत अथवा व्यशरीर की मुख्यता रखते हैं और द्रव्य शरीर भी वहां की निया जाता है जहां जिस वे की अपेक्षा से कथन है । ऐसा नहीं है कि कथन तो मानुषी की और द्रव्य शरीर मनुष्य का लिया जाय। जिस का कथन है उसी को अपर्याप्त पर्याप्त अवस्था और दृष्य शरीर ग्रहण करना सिद्धांत.. विवि है। इसी बात की सिदि हम उन सत्रों की व्याख्या और प्रकरण में अनेक प्रमाणों से सष्ट कर चुके हैं।
मागे ६० फूलपाको शास्त्री ने धवन के 5वें सत्रा प्रमाण देकर यह बताया है कि वहां पर स्त्रीवेद विशिष्ट तियंचों का पहरा है । प्रमाण यह हैस्त्रीविशिषि विशेषगतिपादनार्थमाह'
घबमा १४३२७ इतना विकर वे निखाते है कि इसी के समान सा सूत्र ही पाले मनुष्यों के सम्बन्ध में है, व्याधियों के समान्य
रात्री जी से हम यह पूछते हैं कि उपरोषपना पति
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से होवेर विशिष्ति और सारे समान ११ सत्रगत मानुपी भावस्त्री ही है, इम्बत्री नहीं है वह पास भाप किस भाधार से करते है स्त्रीवेद विशिE तो हम भी मानते हैं इसमें क्या विरोधी? परनु सन स्त्रीवेद विशिष्ट वासों का द्रव्यावर सोने की दिव्यपुरुष शरीर इसी सिल वो बाप नहीं कर सके हैं इसके विपरीत हम तो यह सिद्ध पा चुके हैं कि वे स्त्रीबंद-विशिष्ट कोष व्यस्त्री र पाते हो । गोदारिक मिम एवं पर्यात अपर्याप्त सम्बन्धित होनेसे वहां इन स्त्रीवेद बालों का द्रव्य पुरुष शरीर नहीं माना जा सकता है।
बीरसेन स्वामी ने मानापाधिकार में मानुषी के अपर्याप्त अवस्था में चौथा गुणस्थान नहीं बताया है यह को मापन लिखना है वह भी हमें मान्य है किन्तु पाप से भावखी वेर कहते है हम व्यस्त्री वेदी प्राधार से संबताते हैं। मापने अपनी बात को सिद्धि में कोई प्रमाण एवं देख नहीं दिया है, हम सप्रमाण सिट कर चुके हैं।
मागे मापने को गोम्मटसार के पालापाधिकार का मुखोई मणुसनिए'-यह प्रमाण देकर मनुष्यणी के ये गुणस्थान में एक पर्याप्त पालाप को बताया है वो ठीक में इस बागम में कोई विरोध नहीं है परन्तु भाप को सार्थ वापसी करते हैं बर मागम-विरुद्ध पाता है उसका भय 'प्रयसी' भी है प्रमाण को सोनी जी ने दिया है उपका चरम
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महेक उपर कर चुके हैं अतः फिर दुाराना व्यर्थ है।
माखापाधिकार के सम्बन्ध में एक बात का हम ध्यान दिला देना चाहते हैं कि बौदहमार्गणा, चौदागुणस्थान, वह पर्याप्ति परा प्राण, नगर संज्ञायें और उपयोग न बीसों रूग्णाबी का पषा सम्भव परस्पर समन्वय ती मानापाधिकार में किया
आवाहै। इस लिये वहां पर दम्य गैर भाव रूप से भित्र २ विवहा नहीं जाती फितु या सम्मन ज. तक जो प्रम्य चौर भाव रूप में बन सकता है वहां तक उन सबको सहा कर गिनाया जाता है । इसलिये मानापारिकार में बी वर के साथ चोदा गुणस्थान भी बताये गये हैं और साथ की बीवर पपयांत पालाप में तीथे गुणस्थान निषेध भी कर दिया है वह चौथा गुणस्थान लीवर के पर्याप्त में तो
हो सकता है । इसी से द्रव्यकी के गुणस्थानों ब परि
हो जाता है। पालापाविर पृथक २ विवेपन नही परसा उसका नाम ही भामाप है । इसलिये बोवेद के साथ पर्याप्त समस्या में भारद से सम्भव होने वाले पौरह गुणस्थान भी इसमें पवा दिये गये हैं।
और भी विशेष बात यह है कि पालाप सोनकहे गये है स सामान्य, दूसरा पर्याप्त, तीसरा अपर्याप्त । इसमें अपर्वात मासापके दो भर पिये गये है। सभी पापों साब गुणस्थान, मार्गणा, पाण, संसा, पयोग चाहि पटाये गये है। जैसा कि
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मामएणं पत्रसमस चेदि तिरिक्ष माला दुझियमात्र नही मियत पेरि।
(गो० जी० गाws) अथ पर किया जा चुका है। इन भेो मापार पर बालाप बेदों की अपेक्षा से पृषक २ द्रव्य श्री द्रव्य पुरुष में गुरुसन बिरान से नहीं कहे जाते हैं जिससे कि द्रव्य बी. पांच गुणशान बगये जाते। जैसा कि भारवेदी परिश्तों का भामापाधिकार के नामोल्लम्ब से प्रभाकिया जाता है। किन्तु पयांत मनुष्य के सम्बन्ध के साथ वहां तक गुणस्थान सकते
सब गिनाये जाते हैं। इसीलिये सोवेद केलय में पर्याप्त मनुष्य के १४ गुणस्थान बनाये गये हैं। भाववेद की दृष्टि से भी
भी १४ गुणस्थान गिनाये गये हैं। भामापाधिकार की इस कुशी को - पर्याप्त अपर्याप्त और सामान्य मतीनों विषया को-समझनेने से फिर कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता है। जैसेमागणामों में बादि की चार मागंणायें मोर योगमन्वय यह पर्याप्तियां द्रव्य शरीर को ही निरूपको यह बात समझ लेने पर १२.३२ सूत्रों और संया पाकेषभावका निर्णीत सिवंत समझ में था बाता है ठीक उसी प्रकार मातापाधिकार को उपयुक कुत्री को ध्यान में लेने से व्यसो पांच गुणस्थान क्यों नहीं कहे गये, भावना के १४ गुणवान क्यों बनाये गये। ये सब प्रान फिर नीते हैं।
'पासापाधिकार द्वारा भावकी सिलिनी रेस
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१२६ भावपक्षी विद्वान बराबर लिख रहे हैं परन्तु भालापाधिकार से दोनों वेदों का सनाव सिद्ध होता है देखियेमसिणि पमतविरदे माहारदुगंतु णथि णियमेण ।
(गो० जी० गाथा ७१५ पृष्ठ ११५४) इसका अर्थ संस्कृत टीका में इस प्रकार लिखा है
"द्रव्यपुरुष--भावनी-माप्रमविरते पाहारकतदंगोपांगनामोदयः नियमेन नास्ति ।"
तथा प-भावमानुष्यां चतुर्दश गुणस्थानानि द्रव्यमानुप्यां पति शासध्यम।
इसका हिन्दी अर्थ २० टोडरमन जी ने इस प्रकार किया है दृष्य पुरुष और भावसो ऐसा मनुष्य प्रमत्तविरत गुणस्थान होइ ताके बाहारक पर माहारक मांगोपांग नामकर्म का उमय नियम करि नाही है।
बहुरि भाव मनुषिणी वि चौदह गुणग्यान द्रव्य मनुष्यणी विषे पांच ही गुणस्थान है। संस्कृत टीकाकार और परिणत प्रबर टोडरमल जी को इसने महान पन्य की टीका बनाने का पूर्णाषिकार सिद्धांत रास्यता के नाते प्राप्त या सभी समोंने मूल गाथाघों की संस्कृत हिन्दी व्याख्या की है। इसलिये मोने रोकायें 'मूल प्रन्य को बिना समझे प्रन्याशय विरामी है। ऐसो पात जो कोई करते हैं वे हमारी समझ से वस्तु स्वरूप का अपलाप करने का विकास करते हैं। मूल में और रीका. मों में कोई भेद नहीं है। जिन्हें भेद प्रतीत होता। वह उनकी
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१२७ समारोका ही दोषमस्तु । इस पालापाधिकारसे भी भाव बेद निरूपण के साथ हव्य की सिद्धि भी हो जाती है। परि
मेर की सिद्धि नहीं होती तो बोदेव के सरप में और परिने नरक को बोरकर शेष नरकों के नपुसकरे के उदय में अपर्याप्त भामाप में चौथे गुणस्थान का प्रभाव और उनके पांतालाप में ही समाप कैसे बताया जाता १ पत: पालापाधिकार से सबंया भाववेकी सिद्धि कहनाभविकार बिकती। यदि'मानाधिकार में भावर काही कान है, म्यर का नहीं है। ऐसा माना जाय तो नीचे जिला शेष भाताहै- सत्यरूग्णा-अनुयोग द्वार वा मासाप में श्री की भपयांत पवाया में मिध्याव और सामा दन ये दोहो गुणस्थान बताये गये हैं जैसा कि प्रमाण हैविवेर मपजत्ताणं भएणमाणे भास्थ वे गुणकृष्णामि ।
___ (पृष्ठ १३७ पवन सिखांत) यदि भानापाधिकार में द्रव्यवेद का पर.न नहीं तो खीर को अपर्याप्त अवस्था में मिध्वात्व सासादन पोर सयोगवनी ऐसे तीन गुणस्थान पबलाकार बताते जैसा कि उन्होंने गतिमाप में बताया है यथावासिंचव अपनत्तार्ण भएणमाणे अस्थि तिरिण गुणहाणाणि।
(पृष्ठ २५८ धवन सिद्धांत) ऐसा भेद क्यों जबकि सर्वत्र भावर कातीवन है।इस लिये यह समझ लेना चाहिये कि वासापों में पर्याप्त अपर्याप्त विधान की ही मुख्यता है उनमें सम्मा गुणस्थान द्रव्य और मार
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दोनों रूप से बनाये गये है । वस्तु ।
पं० फूलचन्द जी शास्त्री का यह भी कहना है कि 'द्रव्य मो बदल जाता है परन्तु भागवेद नहीं बदलता,' साथ ही वे यह भी मिलते हैं 'द्रम्यस्त्री के मुक्ति जाने की चर्चा कुछ शताब्दियों से ही चल पड़ी है। तभी से टीका और उत्तर कालवर्ती ग्रन्थों में द्रव्यवेदों का भी उल्लेख किया जाने लगा है'।
शास्त्र जी ने इन बातों की सिद्धि में कोई आगम प्रमाण नहीं दिया है। अतः ऐसी बाजकल की इतिहासी खोज के समान अटकतपच्चू की बातों का उत्तर देना हम अनावश्यक समझते हैं । पार्थ विपर्यास नहीं हो, इसके लिये दो शब्द कह देना ही पान समझते है कि यदि द्रव्यवेष बदल जाता है वो गोम्मटसार, राजहार्दिक आदि सभी प्रन्थों में जो जन्म से लेकर बस भव के चम समय तक दव्यवेद एक ही बताया गया है और भावदेद का परिवर्तन बताया गया है वह सब कथन एवं वे सब शस्त्र इस को के सामने मिथ्या ही ठहरेंगे। जैसा कि लिखा है
भवप्रथमसमयमादिकृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंत द्रव्यपुरुषोभवति तथा भवप्रथम समयमारिं कृत्वा वनचरमसमयपर्यंतं द्रव्बती भवति ।
(गो० जी० पृष्ठ २६१)
यह टीका गोम्मटसार को 'सामोद वेस बन्दे पायेय समाकविसमा'। इस गाथा को है। इसी प्रकार अन्यत्र भी है। भागोपांग नामकर्म के उदय से होने वाला शरीर विशिष्ट चिन्ह
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है। वह शरीर का ही एक उशंग , वह बाल जाता है यह प्रशस्य बात है। भले ही अंगुली आदि के समान वह भी काटा जा सकता है परन्तु योद बदल नही सकता, इस मम्स में एक प्रसिद्ध उदाहरगा जो फनटग निवासी श्रीमान मंठ तिलकचंद वगाव शाह कोनने मयं अपन॥ श्राग्वांग रचा है हमें अभी कवलाना में इम टूट का मुनात ममय बताया है उसे हम पहt प्रगट कर देने हैं-कोरेगांव (शोलापुर) में एक गोदावरी नाम को वामगा कन्या थी. उसका एक बर क माथ विवाह हा गया तब अनेक विकल्प बड़े होने में घर वालों ने जांच कराई, मालम हुमा कि उसके कोई चिम नहीं है किन्तु एक दिन है जिसमे लघु-शा होती है। डाक्टर में पापरेशन कराया गया, ऊपर की स्वचा निकाल जाने में इसके पुरुषगि प्रगट हा गया। फिर उस गोदावरी का नाम गोपालराव पड़ा। भोर किमी कन्या के साथ उसका विवाह भी हो गया है. वह भी मौजूद है।
पं० फूलपन जी शास्त्री के मन में तो उमका व्यजिंग बरन गया समझना चाहिये। गोदावरी में गोपालगव नाम भी बदल गया है। परन्तु बात हम विपरीत है ! बाम्नव में निग नहीं बरला है, पुरुषलिंग उत्पत्ति से हो था परन्तु रचना विशेष से ऊपर स्वचामा जाने में वह व्यनिग लिग हुमा था । भापरेशन (नीरा जगने से होने बह दम्याचमा प्रगट हो गया। __ जिन्हें सन्देह होवे कोरेगांव बाकर उस मोपालराव को अभी देख सकते है। इसी प्रकार के निमित्तों से पात्रकल द्रव्यबेर
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बदलने की बात भी कही जाने लगी है । परन्तु ये सब भीतरी खोज- शून्य एवं बम् शून्य भ्रामक बाते हैं। असम्भव कभी सम्भव नहीं हो सकता। गर्भ से पहले अनेक नामकमों का उदय शुरू हो जाता है। कहीं के अनुसार शरीर रचनभ्यं होती है।' द्रव्यवेद चलने की थियोनी सुनकर डारविन की वियोरी के समान ही उपस्थित विद्वानों को वहां बहुत हंसी बाई यो अस्तु । भाववेद संचारी भाव है उसे वे नहीं बदलने वाला बताते हैं जबकि नोकपाय कर्मदिय जनित वैभाविक भाव सदैव बदलता रहता है।
इसीप्रकार द्रव्यखी की मुक्ति की चर्चा अभी कुछ समय से ही बताई जाती है यह बात भी दिगम्बर जैनागम से सर्वथा बाधित है । कारण जब क द्रव्य पुरुष और द्रव्यखी मनादि से चले जाते हैं, द्रव्यस्त्रीक उत्तम संहनन नहीं होता है यह बात भी अनादि से ४ तब उसको मुक्ति का निषेध बनाइ-सिद्ध एवं सर्वश प्रतिपादित है ।
आगे पं० फू. चंद जी शास्त्री लिखते हैं कि "यदि कोई प्रश्न करे कि "जीवकांड से द्रव्यस्त्री की मुक्ति का निषेध बतायो वो आप क्या करेंगे ? बात यह है कि मूल प्रन्थों में भागवेद की अपेक्षा से ही विवेचन किया जाता है।"
इसके उत्तर में यह बात है कि गोम्मटसार एक ग्रन्थ है उसके दो भाग है। १- पूर्वभाग २- उत्तर भाग । जीवकांड और कर्मकांड ऐसे कोई दो ग्रन्थ नहीं है। द्रव्यश्री की मुक्ति का निषेध
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कर्मर की इस नीचे की गाथा हो जाता है
अन्तिमतियाणणस्पुरको पुकम्मभूमिमहिला । बारिमतिगमहणणं णस्थिस्य जि ॥
गो० १० गा० ३२ इस गापा पनुपार कर्मभूमिको व्यत्रियों पक्षिम तीन संहननों का ही उपय होना, प्रादि के तीन सहनन उनके नहीं होते है । ऐसा जिनेय ने कहा है।
इस गोम्मटसार के प्रमाण में तीन बान सिद्ध होती है। १-इम्यसी मोक्ष नही जा सकती। २-गोमटमार में भारत का
कथन है यह बात बारित हो जाती है। क्योंकि हम गाथा में द्रव्यमी महिना परस्पष्ट उल्लेख मिलता है।३ उच्यत्री की मुक्ति के निषेध कथन को अनादिता मिद्ध होता है। काकि श्री नेमिन्द्र सिद्धांत कार्ती कहते हैं कि व्यको पादिर तीन संहनन नहीं होते हैं या बान जिनेन्द्रव ने कही है। और मुक्ति की प्राप्ति उत्तम संहनन ही होती सा सूत्र हैअचमसंहननायकापषितानियो ध्यानमाहूतान (तस्वार्थसत्र) शुक्न ध्यान उत्तम संहनन वालों की ही होता है और शुक्न ध्यान
विना मुकि नही हो सकती है। यषियों उत्तम संहनन होने बसथा निपेय है । इसीलिये सवेश प्रतिपादित परमरा से मागम में दम्ब बी को मुक्ति का निपंध है।
इससे एक ही मूब अन्य गोम्मटसार में द्रव्यत्री के मोड जाने पनिष सिद्ध होता है। जैसे वस्त्रार्थ सूत्र दरामयाब
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में मोक्ष तत्व का वर्णन है। यहां पर यह प्रश्न करना व्यर्थ होगा कि तस्वार्थ सूत्र के छठ अध्याय में कोई संबर निर्जरा और मोक्ष तस का विधान बनाने का सही ? उत्तर में यही कहना होगा कि तस्वार्थ सूत्र में उक्त तीनों का स्वरूप अवश्य है। इसी प्रकार गाम्मटसार एक मृत पाय है उसमें द्रव्यही को मोक्ष का निषेध पाया जाता है। जायकांड पूण अन्य नही है वह उसका एक भाग है। दाना मिना पूर्ण अन्य होता है।
भाग शामी जी एवं दूसरे विद्वान (भावपक्षी) कहते हैं कि यी पांच गुणम्यान होते हैं यह बात चरणानुयोग का विषय है इसनिय चरणानयोग मानों में उसे समझ लेना चाहिये पटावएडागम कर गानुयोग शाम है अतः उसमें द्रव्यखी के पांच गुणस्थ नाका वगन नहीं है।
इन विद्वानों का ऐसा कहना केवल इसनिय है कि ६३ सूत्र में संयत शब्द जुड़ा हुभा रहना चाहिय क्योंकि उसके हट जाने से हाल के पांच गुणास्थान इसी सत्र से सिद्ध हो जाते हैं . मल अपापाय भूनान पुन का कथन और पटबहागम शाख अधूरा एवं भनेक सूत्रों में दोषाधायक ममझा जावे, परन्तु उनकी पास रह जानी चाहिये । हम पूछते हैं कि द्रव्यनी के पांच गुणस्थान परणानयोग शास्त्रों से कस जाने जा सकते हैं ? उन शासों में तो ना , नकि सायक भावभव, मुनियमहास, परमारियाग पतीनागििनरूपण व्रतों के भव प्रभंट मादि बाठों को वर्णन पाया जाता है, 'गृहमध्यनुगाराणा पारिवाति
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रज्ञांग। इस भाषाय समन्तम स्वामी विधान से सुमि । फिर नियंत्रों के पांच गुणस्थान, नारकियों के पार गुणस्थान देवों पार गुणम्यान और इनको अपर्यात भवस्था गुणस्थान तो परखएरागम से जाने जाय और बा जामना करणानुयोग का पिगममझा जाय, मनुष्य के वा गुणस्थानों का जानना भी इसी पटम्बर डागमस मिड हो जाय, वन व्यतीक पांच गुणस्थान को इस पटबाडागम में नहीं जाने जांय, और बल द्रव्यबीके गुणम्यान ही चरगानगीग का विषय बताया जाय, बाकी तीनों गनियो र गुयान करगानुयोग का विषय माना जाय भीर वह पटवएडागम में ही जाना जाय ! यह काई संहतुक एवं शाम सम्मन यान तो नहीं है, केवल संयत पर जुस बने लिये तु शुन्य तकणा मात्र है। अन्यथा वे विान प्रकट को कि केवल दम्याची ही गुणस्थान चरणानुयोगका विषय क्यों १ बाकी गनियों के गुणस्थान उस विषय क्यों नहीं ? केवल दृष्यसी के गुणम्पानों का करणानुयोग से निषेध कर हमें तो मा विदित । कि पापलांग भी यात्री को मोक्ष का साक्षात पात्र, हीन संहनन में भी बनाना चाहते हैं । आपका बमा भाव नहीं होने पर भी पापका यह परणानुयोग का विधान ही दव्य श्री के लिये मांग का विधान कर रहा है। यदि पार भावही के साये हुये पोस गुणस्थानों को एक बार चरणानुयोग का विषय कह देखें तो कम मे कम यह युति नो पाप दे सकेंगे कि कोदह गुणस्थान वास्तव में तो पुरुषकही ति है। श्री वा मासा परक कमोदय मात्र
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हैं। परनु कसी के पांच गुणस्शन करणानुयोग से विहित है। वे उसके बाविक बस्नुभूत है। अतः उनका विधान पखण्डागम में अवश्य है।
इस प्रकार श्रीमान पं० फूलचर जी शास्त्री महोदय के लेखों का भी समाधान हो चुका।
ये सभी भावपक्षी विद्वान व मत्र में संजद पर का रहना भावश्यक बताते हैं, भार इसी के जिय पटवण्डागम सिद्धांत के सूत्रों का अर्थ बरल रद हैं हम उनसे यह पूछने हैं कि ६३वां सूत्र जब बौदारिक काययोग मागेणा का है ना वह भावली का प्रतिपारक किस प्रकार हो सकता है ? कि भावली ती नोकषाय खोदके उदय में ही हो सकती है, वह बात वेद मागणा में सिद्ध होगी। यहां तो पौरिक काययोग मार्गणा का प्रकरण है और उसीरे साथ पर्यानि नामकर्म के समय में होने वाली षटपर्यानियों की पूर्णता का समनाय है। इस मा में मानुषी को शिक्षा में सिवा दुव्यर के भाव को मुख्य शिक्षा मा कैसे सकती है? यदि यहीं पर भावली के को मुख्य विवक्षा मान की जाय तो फिर वेदमागणा में वेदानुवाद क्या कथन होगा १ पटसएडागम पवन सिद्धांत वानुवाद प्रकरण के सूत्रों को देखिये उनमें कहीं भी "पजता पत्रता' ये पर नहीं है। इसलिये सत्र १०१ से
कर पागेसामानणामों का कथन भाषा की प्रधानता से है। दम्प शरीर के प्राण कारण योग और पर्याप्ति मुख्य पान नहीं है। परन्तु सत्र में तो बौशारिक काययोग
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१३५ और पनि का प्रकरण होने से मानुषी के द्रव्य शरीर काही मस्य ग्रहण है। और इसी के साथ गुणस्थानों का समन्वय अतः ६३वे सूत्र में संयत का प्रहण किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता है। हमारे इस सहेतुक रिवन पर उक्त विद्वानों को निपट से शांतिपूर्वक विचार करना चाहिये।
द्रव्य वेद का क्रमबद्ध उन्लेख क्यों नहीं? भावपक्षी सो विद्वान एक मत में यह बात लिख है कि 'गोमटमार और पटबEITR सिद्धांत शारू में सब भाषकेर काही वणन है, इन शाखांम दृश्योर का उल्लेख कही भी न
यहागम सत्रों में चार गोम्मटमार को गाथानों में ज्यने का वर्णन कहीं भी नहीं मिलता है इसमें यह बात लिहता
कि उक्त प्रों में मय वर्णन भाव का ही किया गया। ऐसा साकी विद्वानों का प्रत्येक लेख में मुख्य हेतु से कहना।।
परन्तु उनका यह कहना इन प्रयों के अन्त मनन से ही अन्यथा एमा नहीं करते।
इस सम्बा में पहली बात तो हम याममा देना चाहते हैं कि पटवएडागम करायता पापाय प्रमुख भूतानि पुष्मन्त ने मवंत्र जितना भी विवेचन किया है बाक्रम पद्धति से ही किय है। बिना किसी निश्चित कम विधान ऐसे महान शाबों की महत्व पूर्ण रचना नहीं बन सकती है। उन्होंने बीसलपणामों काहीरन शाबों में प्रतिपादन किया है। उनमें भी गया और गुषस्थान रे को मुख्य है। सामायिक और माविक
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१३६ भावों का विवेचन उन्होंने गुणस्थानों द्वारा बताया है और जीव को शरीर मादि वाध प्रवस्था गति इंद्रिय, काययोग और तदन्तग्स पयाप्ति भादि इन मागणामों द्वारा बतायी। और इन्ही मागणा और गुणस्थानों का प्राधाराधेय सम्बन्ध से परस्पर समन्वय किया है। बस इसी क्रम से सामान्य विशेष रूप से सत्र विवेपन उन परम वीतरागी अंगदेश मानी महर्षियों ने किया।
अब विधार यह कर लेना चाहिये कि चौदह मागंगा श्री में द्रव्यबंद कहां पर पाया है सो भावपकी विद्वान बतावे ? नामां. लख से व्यवंद का वर्णन चौदह मागणामों में कहीं भी नहीं पाया है। यदि यह कहा जाय कि बंद मागणाना पाई है उममें द्रव्यवंद का वर्णन क्यों नहीं किया गया? तो इसके उत्तर में यह समझ लेना चाहिये कि वेद मागेणा नापाय पुरद वंद नपुसकवेद मय से होती है जैसा कि सत्र वर्णन है। उसमें द्रव्यवेद को कोई विषक्षा हो नहीं है। मनः इन प्रन्यों में भावबंद की विवक्षा और उसका उल्लेख तो मिलता। द्रव्यवेद का उल्लेख चोर विवक्षा कहने का मार्गणामों में कोई विधान नहीं है। अतः कमक्क विरेचन से बाहर होने से सत्रों में उसका उल्लेख पाचायों ने गुणस्थानों में घटित नहीं किया है : किन्तु द्रव्य वेद से होने पासो ब्यवस्था और उस व्यवस्था से सम्पन्न रखने वाले गुणसानों ने भाषायों ने बोर दिया है सो पात भी नहीं है, द्रव्यदेव अस्वल्प गति में, इन्द्रियों में, काय में, बोग में और पर्वाति में
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या जाता है।
इसी प्रकार नामकर्म के भों में भी द्रव्यों स उल्लेख व्यवेद के नाम से नहीं है परनामम्मे के पांगोशंग, निर्माण, शरीर इनके विशिष्ट भदों और उनमय में होने बाली नोर्माण वगंणामों से होने वाली शरीर रचना में एम. बेर गर्षित होते हैं। इसलिये द्रव्यों का स्वतन्त्र उल्लेख मार्गमामा के क्रम विधान में नहीं माने से नहीं किया है। पानु गति, इंद्रिय, काय और योग मार्गणामों के बनगत व्यवेद पा जाता है।
इन पटसएसगम और गोम्मटसार शाखों में जो गुणस्थानों का समाय किया गया है वह गति मादि मागणामों के द्वारा जीवों में द्रव्य शरीरों में ही किया गया है। और द्रव्य शरीर द्रव्य की पुरुषों के रूप में पाया जाता। पत: द्रव्यवेद का प्राण अवश्यंभावी स्वत:हो जाता है।
यदि द्रव्यदेदों अथवा द्रव्यशोरों का सत्यभर विक्षित नहीं होतो फिर गुणस्थानों की नियत मर्यादा अमुक गति में, पमुक योग और अमुक पनि अपर्याति में इसने गुणस्थान होते हैं अथवा अमुक गुणस्थान अमुक गति में, अमुक योग में, अमुक अवस्था (पर्याप्त अपांत) में नहीं होते हैं यह बात से fea हो सकती है। गुणस्थानों का समाय इव्य शरीरों को लेकर गत्वाविवाधार से कहा गया है इसजिये द्रव्यदोंबप्राय विना न मोड किये गति और शरीर सम्बन्धी
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जाता है।
इसी का खुलासा हम गोम्मटसार की वे मार्गण. की एक लियों से यहां कर देते है
पुरिसिरिछसंढवेदोदयेण पुरिलिच्छि सहयोभावे। णामोदयेण दवे पाएण समाविसमा ॥
(गो० जी० गाथा २७१ पृ०५६१ टीका) पथ-पुरुष की नपुंसक उदय से पुरुष की नपुसकभाव होता है। और नामका के उमय से पुरुष की नपुंसक ये द्रव्य वेद
त है। प्रायः य भाववेद भोर म्यवर समान होते हैं भयान जो द्रव्यदलाता है वही भार हाता है पोर कबीर पर विषम भी होते हैं। द्रध्यबंद दुसरा भोर भाववंद दूसरा ऐसा भी होता है।
इस उपर की गाथा में ही द्रव्यवेद का पE उन्लेखमा गया है। भावपक्षी विज्ञान का यह कहना कि सर्वत्र भाववा काही बनी इस मूल मन्य से सबंषा बाधित हो जाता है । इसी गाया की संस्कृत टीका इस प्रकार है।
पुण्सीडास्यत्रिवेदानां पारित्रमोहभेदनोपावावोन एवेन भावे वित्परिणाम यथासंस्य पुरुषा को पटरच जीवो भवति । निर्माणनामकमोदययुच्चंगोपांगनामकक्रोिपोदवेन द्रव्ये पुलद्रव्ययविशेषे पुनः भोपडप भवति ।
इन पक्षियों में भावयेत बरेद दोनों बसारिया गाह इस रूप में किया गया। पुरावेर और
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नपुंसक रूप चारित्र मोहनीय के भेद हारूप नोकपाय कर्म के उदय में जो पुरुष खी नपुसकरून मामा के भाव होते हैं उन्हो को पुवेद खोबे नपुंसक वेद कहा जाता है। यह तो भाववेद का कथन है। द्रव्यवेद का इस प्रकार है-निर्माण नामकर्म के उपब भांगोपांग नामकर्म विशेष के उदय से पुल पर्याय विशेष
जो द्रव्य शरीर है वही पुरुष बी नपुंसक द्रव्यवेद रूप कहलाता है
1
यह तीनों का स्त्ररूप द्रव्य भाववेद रूप से कहा गया है प्रत्येक का इस प्रकार है
पुवेदोश्वेन श्रियामभिलाष मैथुन झाकांतो जीव: भात्रपुरुषो भवति । पु'वेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदय-युक्तांगोपांगनाम कर्मो यत्रशेन श्मश्रुकूचंशिश्नादि-निगांकित शरीरविशिष्टशे जीवो भवप्रथमसमयमादि कृत्वा चरम-समयपर्यतं द्रव्यपुरुषो भवि ।
B
अर्थात- पुरुष बेद कर्म के उदयसे निर्माण नाम कर्म के उदय से युक्त मांगोपांग नाम कर्मोदय के बशसे जो जीव का मूछें दाढ़ी लिंगादिक चिन्ह सहित द्रव्यशरोर है वही द्रव्यपुरुष कहा जाता है और वह द्रव्यपुरुष जन्म से लेकर मरण पर्यन्त तक रहता है।
इसी प्रकार भागस्त्री द्रव्यकी, भावनपुंसक द्रव्यनपुंसकके भिन्न भिन्न बस गोम्मटसारकार ने और टीकाकार ने इसी प्रकरण में बताये है परन्तु लेस बढ़ने के भय से एक पुरुषवेद का भाव और द्रव्यवेद हमने यहां उद्धृत किया है।
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१४० इससे यह सिद्ध होता है कि व्यवेद कोई शरीर से भिन्न पदार्थ नहीं है। बो शरीरनाम मांगोपांग नामकमै निर्माण
मे मादि के उन्य से जीव के शरीर की रचना होती है जिसमें गतिकम का उदय गी प्रधान कारण है। वही द्रव्यशरीर जीव काय वेद कहा जाता है।
अतः गति मार्गणा में पौरारिक काय योग और पर्यात साथ जहां गुणस्थानों का समन्वय रिया जाता है वहां वह द्रव्यशरीर अथवा द्रव्यवेद के साथ ऐसा समझना चाहिये। परन्तु जैसे भाववेद का उल्लेख है से द्रव्यवेद का नहीं। क्योंकि बेर मार्गणा में नोकषायोदय रहता है। द्रव्य किसी मागंदा म नी है और वह किसी नाम की में भी नहीं है। अत एव उसकी विवक्षा शास्त्रकारों ने नहीं की है। परनु उसका प्राण, सम्बन्ध चौर समन्वय अधिनाभावी है।
पटखण्डागम और गोम्मटसार में द्रव्यर के कपन को समझने के लिये यही एक पन्तस्तत्व अथवा कुजीहै।
इसके सिवा द्रव्यवेद का खुलासा वर्णन भी गोम्मटसार मन में यह बात भी हम बता चुके हैं। एक दोसरण यहां पर भी देते हैपीपुसंसरोरं जाणं शोकम दसकमंतु।
(गो०. ७६ पृष्ठ ६७) नोवेव का नोकमे कीठय शरीर, पुरुषका मोक्मे द्रव्य पुरुष शरीर है। नपुसकवेदानोमनपुंसक बशरीर।
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यह गोम्मटसार मूब गावा दम्बरबविधान करती है। पम्तिमतिय संहणणग्रमो पुण कम्मभूमिमहिनाणं ।
(गो००० गा० ३२ १२ २५ टी०) स्मभूमि की महिलामों (द्रव्याखयों) नवीन संहनन होते हैं। यह भी द्रव्यको बस्ट कथन ।। मूब प्रय है। और भी देखिये
पाहारयजोगा चमक होति एक समम्मि । पाहारमिस्सोगा सत्तावीसा दुस्सं ।।
(गो० जी० गा० २७० १ ५८४) एक समय में सस्कृष्ट हल में ४ मारकर योग पाने हो सकते हैं तथा पाहारक मित्रकाय वालों की सण्या एक समय में २७ होती है।
यह कथन छठे गुणस्थानवी माहारक प्रयोग धारण करने वाले व्यशरीर धारक मुनियों को। इस गाया में भाव परी गम्बभी नहीं चल द्रव्यशरीर काही कवन है। बार भी
गेमिया खलु संढा परिये तिणि होति संमुखा। संता सुरभोगभुमा पुलिची बेगा ।
(गोजी. गा० १३१४२१४ टी.) नारसन नपुसक ही होते है। मनुष्य नियंत्रों में तीनों पाते हैं। सम्मन और नपुसकती होते है। देव और मोगभूमि के बीच होनी और पुरुषवेशही होते है। यहां पर द्रव्य मोर भावदेवदोनों लिये गये है। शेष सालिका
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है कि 'द्रव्यतो भावसश्व । अर्थात कर्मभूमि के मनुष्य दिय बोंको छोड़ कर बाकी के जोड़ों के वेद भागवेद एक ही है द्रव्यवेद के जिये तो टोका प्रमाण है परन्तु केवल भाववेद के लिये भात्रबादियों के पास क्या प्रमाण है ? और भी
साहिय ससहसमेकं वारं को सूयमेक मेक्कंच | जोयण सदस्सीह पम्मे वियते महामं ॥ (गो ०जी० ना० ६५ पृ. २१७ टो०)
कमल, हीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय महामत्स्य इन जीवों के शरीर को अवगाहना से कुछ अधिक एक हजार योजन की अवगाहना कमल की, द्वीद्रियशंख की बारह योजन, चींटियों की श्रीन्द्रियों में तीन कोस की, चौन्द्रिय में भ्रमर की एक योजन परियों में महामत्स्य की अवगाहना एक हजार योजन लम्बी
। इसी प्रकार मांगे अन्य जीवों के शरीर को अवगाहना बसाई गई है। यह सब द्रव्य शरीर का ही मिरूपण है। भाव का कुछ नहीं है। चोर भी
पोतजरायुजचण्ड अजीवाणं गम्भदेवणिश्याणम् ।
उपपाद सेवाएं समुच्छ्रयायं तु विषिष्ठम् ॥ (गो० जी० गा० ६४ )
इस गाथा में स्वेदज, जरायुज अण्डज, देवनारकी, और बाकी समस्त संसारी जीवों का गर्भ, उपपाद और सम्मृष्टन जन्म बताया गया है। यह सब द्रव्यशरीर का ही वर्णन है। भाव का नहीं है। इसी प्रकार
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कुम्मुणस जोणीये इस गाथा में किस योनि में धेन जीव पैदा होते हैं यह पाया गया है ये सब कथन इम्यके की मुख्यता रखता। पज्जतमणुस्साणं तिपरत्यो माणुसीण परिमाणम् ।
(गो० औष० गा० १५) . इस गाषा में यह बताया गया है कि जिसनी पर्याप्त मनुष्यों की राशि उस में तीन चौथाई लिया है। टीकाकार ने मानुषी का बथै द्रव्यत्री ही किया है। लिखा 'मानुपीए ध्यत्रीणामिति ।' इससे बहुत सार है कि गोम्मटसार मन में व्यवेद का कथन भी।
इसी प्रकार प्रत्येक मागंणामों के द्रव्य शरीर धारी नीबों की संख्या बताई गई है। इन सब प्रकरणों के कथन से यह पास भले प्रकार सिहो जाती है। कि गोम्मटसार या पटसएडागम में द्रव्य भावदोनों का कथन है। केवल भारत का कथन बताना प्रन्य के एक भाग का ही कहा जायगा। अषवा वह मयन अन्य विरुद्ध ठहरेगा। क्योकि एक दोनों में ट्रम्यवेरकी और भ.पवेद की पाविधान है। गोम्मटसार इसी सिद्धांत शास्त्र का संपिप्त सार है।
गोम्मटसार अन्य की भूमिका में यह बात निसीईक जब चामुण्डाय भाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत पक्रवर्ती परण निकट पहुंचेथे तबरेवाचार्य महाराज सिद्धांत शास्त्र पाण्याव कर रहे थे, उन्होंने चामुणको रेखते ही हसियद शाम
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१४४ वा कर लिया जब चामुएशराय ने पूछा कि महाराज ऐसा क्यों किया मैं भी तो इस शास्त्र के रास्य को जानना चाहता हूँ तब प्राचार्य महाराज ने कहा कि इस सिद्धांत शास्त्र को वीतराग महर्षि ही पढ़ सकते है गृहस्थों को इसके पढ़ने का अधिकार नह है। जब पामुएडराय की अभिलाषा उसके विषय को जानने की दुई तो सिद्धांत चक्रवर्ती भाचार्य नेमिचन्द्र ने उन सिद्धांत शास को संक्षिप्त सार लेकर गोम्मटसार प्रन्थ की रचना की। 'गोम्मट' पामुखराय का अपर नाम है। उस गोम्मट के लिये जो सार सो गोम्मटसार ऐसा यथानुगुण नाम भी उनमोने रख दिया। इसलिये जब गोम्मटसार अन्य उसी पटवण्डागम सिद्धांत का सार। तब गोम्मटसार में तो सर्वत्र द्रव्योद एवं द्रव्य शरीरों। वर्णन पाया जाय परन्तु जिस सिद्धांत शास्त्र से यह सार निया गया है उसमें द्रव्यवेष बद्री भी कथन नहीं बताया जाय और वह प्रन्यांतरों से जाना जाय यह बात किसी बुद्धिमान की समझ में पाने योग्य है।
-टोकाकार और टीकापन्यों पर भसम मारोप
इन भावपकी विद्वानों के लेखों में यह बात भी हमारे देखने में बाई, किमल प्रन्यों में व्यवेद और भाबर वेदो भेर नहीं मिलते हैं, जब से सी मुकिका विधान द्रव्यही परक किया जाने लगा है सब से दोबा प्रन्यों में या वर बसवती पन्नों में द्रम्पवेदों का भी उल्लेख किया जाने लगा है। हमात पं. आपन बी विनंत शासो महोदय ने शिका। सोनी जी
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महोदय तो यहां तक लिखते हैं कि "व्यखियां किनकी मुख्यता से गोम्मटसार के टीकाकारों ने 'म्यस्त्रीणां वा म्यमनुरोणां' ऐसा अर्थ लिख दिया है एतावता गोम्मटसार 1 प्रकरणक गाथा
पञतमसाणं तिपत्थो माणुसीण परिमाणे। के होते हुये भी द्रव्य प्रकरण नहीं है. और इस वजह से नही धवला का प्रकरण द्रव्य प्रकरण है."
मागे सोनी जी का मिलना कितना अधिक कार प्राश ९ का विरुद्ध है इसे 'द लोनिय___ "गोम्मटसार मृल में भी मनुष्यणी पर है, सूत्र में भी मनुपिणी पर है. सूत्र टीकाकार बासन स्वामी मनुष्यणी को मानुपिणी की लिखते हैं, यात्री या यमनुष्यणी नती निखते, किन्नु गाम्ममार के टीकाकार मनुनिणी को रुपनी द्रव्यमनुपिणी ऐसा जिखते हैं। यह न नो विरोध है और न ही इस एक सम्म
छ धवला का प्रकरण ही द्रव्य प्रकरण है।" मोनी भी ने इन पंनियों को लिम्बसार मुल प्रभ्यों में और रीकाकारों में पसार विरोध दिखलाया. इतना ही नी मोने गोम्मटसा के टीकाकार को मूल मन्थ समिर टीका करने यानं ठहरा दिया है यह टीकाकार पर बहुत भहा, १६ माक्षेप है। सोनो की विद्वान हैं तो बहुत समझ कर मयारित वात बना चाहिये । सोनी भी यहां तक किते है कि "टीकाकार यस्थी इस एक शम के पोछपवला का प्रकरण दृष्य प्रकरण
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नहीं हो सकता है." उन्हें समझना चाहिये कि यह सिद्धांत है एक बात में हो तो उल्टा सीधा हो जाता है। द्रव्य श्री इस एक बात में की तो द्रव्यस्त्रियों की साक्षात मोन प्राप्ति रुक जाती है। इस एक पानी परवा नहीं की जाय तो वे भी उसी पर्याय से मोक्ष जा सकती है? भाप भी तो 'सञ्जद' इस एक बात को रखना चाहते हैं। राम एक बात में ही तो काली को मोक्ष सिद्ध हो सकती है। एक ब त ता लम्बा है एक 'न' और एक अनुस्वार में भी उल्टा ली जाता है। फिर बाप तो यहां तक भी लिखते हैं कि
गोम्मटमार का वेद माणा नाम का प्रकरण भी - प्रकरण में यह भी भाव पारण गोम्मटसार में ग्रामोदयेण एवं इन सात अक्षरों के fhar बंदों का सामान्य और विशेष सारूप भाववेदों से सम्बन्धित" इन 'णामोदयेण दध्वं' सान बहरों का भापकी समझ में कोई मूल्य ही नहीं मालूम होता। ये सात पर मूमप्रन्यो , टीका ही नहीं। फिर भी भाप पांख मोवर बड़े साहस से कह रहे हैं कि गाम्मटसार सारी भावों से ही सम्बन्धित है ? पापको इस बात पर बहुत मार्ग पारपर्य होता है मूलाध में पाये हुय पों को देखते हुये भी उन पर कोई विचार नहीं करना प्रत्युत उनसे विपरीत खल भाषाही एक बात समृचे अन्य में बताना और साव मार मात्र कहकर उन विधान का निषेध कर देना, हमारी समझ से ऐसी बात सोनी भीको शोमा नती देवी।। पेसा बने से समसामन्य सबिप्रमाणता एव अमान्यता
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ठहरती है। फिर इसी गोम्मटसार मूल इन्य में 'थो पुसटसरी'
गैर कम्मभूमि महिलाण' मादि अनेक विधान द्रग्वेद के लिये स्पष्ट माये हैं, क्या उन सबों पर पानी फेर कर सोमी जी केवल भाववेद भाव ही गोम्मटसार भर में बताना चाहते हैं जो कि मूल प्रन्य से भी सर्वथा बाधित है ? वे मार्गणा भाव प्रकरण इसमें हमें कोई विरोध नहीं है परन्त गोम्मटसार के कर्ता बाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने व्यवंद का भी विधान मोम्मटसार में किया। मोंने बहुत सा कथन व्यवेद के प्राधार पर भी मागणामों में किया है। यह ग्रन्थ सेट है।
-असीम पक्षपातमागे चलकर सोनी जी स्वयं लिखते हैं
"मतासमझलीजिये धवला का और मोम्मटसार का प्रकरण एक ही है वह द्रव्य प्रकरण नहीं है दोनों के ही प्रकरण भाव. प्रकरण है। पवना में और गोम्मटसार टीकामों में विरोध भी नहीहै।"
इन दायों से पाठक 2 #प से समझ लेंगे कि यहां पर सोनी जी धवला टाका में और गोम्मटसार टीका में कोई विरोध नहीं बताते हैं। और दोनों का एक ही प्रकरण बताते हैं। परन्नु पाठकों को उनकी इस शर्त पर पूरा ध्यान देना चाहिये कि दोनों में भाव प्रकरण हो, द्रव्य प्रकरण नहीं। तभी दोनों में कोई विरोध नहीं है। ऐसा करते हैं। यदि दम्ब प्रकरण गोमरसार में टीकाकर ने लिखा दिया। या मानुषी का अर्थ
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भोंने 'ध्यक्षीणां' भारि हासे निखाहै तो गोम्मटसार टोपकार का कथन मूल गोम्मटसार से भी विरुद्ध मोर धवला से भी विरुद्ध है। इस पक्षपात की भी कोई भाव प्रकरण मानने पर दोनों में चोर मन में भी कोई विरोध नहीं किन्तु द्रव्य प्रकरण मानने पर पृगविराध। विपित्री पूर्वापर विरुद्ध साधन एवं समर्थन:
परनु गाम्नटनार मृल में की और उसकी वीक में भी डव्य • far एवं यत्री अदि का विधान स्पष्ट लिant जंसा कि इम ऊपर उद्धरण देकर खुलासा कर चुक हैं। सो अवस्था में सोनी जी लखानुसार मन में भी पटखण्डागम से विशेष
रंगा। और टीकाकार का भी धवला से विरोध ठहरंगा। पर पटखएडागम गोम्मटसार बार धवला टीका तथा गोमटसार
का, इन सबों में कहीं कोई विरोध नहीं है, प्रकरणों में यथास्थान भोर यथासम्भव भयर मार भाव का निकरण भी सबों में
। धवलाकार ने यदि मानुपी का अर्थ मानुपी ही लिखा और गोमटसार के टीकाकार ने मानुषी का अर्थ द्रव्यबी भी निखा? तोगेनों में कोई विरोध नही । । यदि धवनाकार उस प्रकरण में भाव मानुषी जित देते या द्रव्यमानुषी का निषेध कर देते तर तो वास्तव में विरोध ठहरवा सो कहीं नहीं है। जहां जेसा प्रकरण
बांसा द्रश्य या मालिका गया। इसी प्रकार गोम्नटसार मन में जहां व्यस्त्री राम नहीं भी लिखा और टीमकार ने जिस दिया है वो भी प्रकरण गत बड़ी अर्थ है। टीकाकार
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ने मृतक सष्टीकरण ही किया है। यही समझना चाहिये। अपनी बात की सिद्धि के लिए महान शाखों में और उनके रयिता सिद्धांत रहस्य साधिकार टीकाकारों में विरोध बताना बहुत बड़ी भून और सर्वथा अनुचित है।
पागे मोनी जी स्त्रियों की संख्या को अय स्वीकार भी करते है-- __"तथा दुव्यस्त्रियां अधिक हैं और भावनियां बहुत ही थोड़ी है इस बात को (पाहेण ममा का विममा) यह गोम्मटसार को गाथा कहती है, उमजिये अधिक को मुग्यता को लेकर गोम्मटसार के टीकाकारों ने द्रव्यस्त्रीणां या द्रव्यमनुष्य स्त्रोणां ऐसा बर्ष लिख दिया है, तावता गोम्मटमार का प्रकरण उक्त गाथा के होते हुये भी द्रव्य प्रकरण नहीं है।"
इन पक्तियों द्वारा मानुषियों की संख्या द्रव्यस्त्रियों की संख्या है ऐसा सोनी जी ने स्वीकार भी किया और उमझ लिये गाम्मटसार मूल गाथा का (पाहण समाविसमा) यह भी दिया है और इसी के मृत के अनुसार टीकाकार ने इन्यत्री ज्यमनुष्यही लिखा है यह भी ठीक बताया है। इतनी सप्रमाण और सहेतुक व्यकी की मान्यता को प्रगट करते हुये भी सोनी की यहयं भी लिखते हैं कि "सावता गोम्मटसार काकरण एक गाथा के होते हुये भी द्रव्य प्रकरण नहीं है" हमको उनके इस गार पक्षात पूर्ण परसर विरुद्ध कथन पर मारपयं होगा। क्यों ५०ी , अब गाथा बता सी और उसी के अनुसार
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टीकाकार ने द्रव्यकी या द्रव्यमनुष्यणी लिखा है तो फिर भी उसके होते हुये भाप उस प्रकरण को द्रव्य प्रकरण क्यों नहीं मानोगे ? क्या यह कोई बच्चों की बात चीत है कि 'हम तो नहीं मानेंगे' यह शाखों के प्रमाण की बात है। इसी पर द्रव्यकी को मोक्ष का निषेध एवं वस्तु निर्णय होता है। इसी की मान्यता में सम्यग्दर्शन की आत्मस्थ गवेषणा की जाती है। इसी की मन्यत' धमान्यता में मुक्ति व संसार कारणों का भाव होता है
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- टीकाकारों की प्रामाणिकता और महता
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जिन टीकाकारों ने पटखण्डागम सिद्धांत शास्त्र, गोम्मटसार जीवकांड तथा गोम्मटसार कर्मकांड जैस सिद्धांत रहस्य से परिपूर्ण जीवस्थान, कर्मप्रकृति प्ररूपक महान गम्भीर एवं अत्यंत गहन प्रत्यों की साधिकार टीकायें की हैं उनकी प्रामाणिकता और महत्ता कितनी और कैसी है इसी बात का दिग्दर्शन करा देना भी आवश्यक हो गया है । भगवद्वीरसेन स्वामी ने षटख एडागम सूत्रों की टीका की है उनकी प्रामाणिकता और महत्ता अगाध है, उनके विषय में सोनी जी का कोई भी आक्षेप नहीं है । परन्तु गोम्पटसार के टीकाकारों पर अवश्य आक्षेप है, इसजिये उनके विषय में थोड़ा सा दिग्दर्शन यहां कराया जाता है। गोम्मटसार के चार टीकाकार है- पहले टीकाकार श्रीमत चामुण्डरायो, दूसरे केशववर्णी, तीसरे माचार्य अभयचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती, और चौथे पावडर टोडरमल जी ।
चावतराव जी आचार्य नेमिष सिद्धांत चक्रवर्ती के
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सामान पट्टशिष्य थे। प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत पक्रवर्ती ने जब गोम्मटसार की रचना की थी तभी उनके सामने ही उनके शिष्य चामुंडराय ने इस गोम्मटमार की टोका कर्णाटक वृत्तिरीयो, यह टीका पनोंने अपने गुरु मन पन्ध गोम्मटसार के रयिता भाषायें नेमिषन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती को दिखाकर उनसे पास भी करा ली होगी यह निश्चित है। तभी तो गोम्मटसार की रचना क अंत में प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत पवती ने यह गाथा लिलो है।
गोमहमुत्तनिहण गोम्मटरायेण जा कयादमी सोमो चिरकाल एमेण य वीरम हो ।
(गो०० गा०६७२) अर्थ-गोम्मटसार अन्य के गाथा सूत्र लिखने के समय जिस गोमटराय ने (चामुबाराय ने) देशी भाषा कर्णाटक वृति बनाई है वह और मार्तण्ड नाम से प्रसिद्ध चामुण्डराय पिरकाम तक जयवंत रहो। ___ यह १७२वी गाथा गोम्मटसार की सबसे खीर को गाया इसमें च.मुंबराय की टीका का उल्लेख कर प्राचार्य ने मिषन सिद्धांत चक्रवर्ती ने उन्हें वीर मार्तण नाम से पुकारकर चिराग जीने का भावपूण भाशीर्वाद दिया है। इससे पहली पांच गावागों में भी प्राचार्य महाराज ने चामुण्डराय के महान गुणों को और उनके समुद्र तुल्य ज्ञान की भूरि २ प्रशंसा की है। इससे यह पात सहज हर एक की समझ में माने योग्य है कि पापाय
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नेमिचन्द्र सिद्धांत पावर्ती ने चामुगएराय की समस्त टीकाको अवश्य ध्यान से देखा होगा। और यह भी परिचय मिलता है कि मितमा मूल अन्य प्राचार्य महाराज बनाते होंगे उनीही उसकी टीका चामुबाराय बना देते होंगे। और वह तिदिन प्राचार्य महाराजको रष्टि में पाती होगी। इसका प्रमाण यही है कि पाचार्य महाराज ने उस कर्णाटक वृत्ति टीका को देखकर की गोम्मटसार को समाप्ति में मुण्डरायी उस टीका का उल्लेख करमशान दिया। इससे बहुत स्पष्ट हो जात है कि मूल न्य का जो अभिप्राय है उसी को चामुण्डराय ने बुलामा करा है। यदि उनकी टोका मूल प्रथ से विरुद्ध होती और भाचार्य महाराज का अभिप्राय मानुषी पद का अर्थ भावलो होता और चामुंडराय जी, टीका में द्रव्यकी करते तो बाचा नेमिचन्द्र सिद्धांत पक्रवर्ती से पाश्य सुधरवा देते। इतनी ही न विन्तु भाचार्य महाराज से निर्णय करके ही उन्हों ने हर एक बात नही होगी। क्योंकि चामुंडराय जी कोई स्वतन्त्र टोकाकार नहीं थे बिन्तु मा. महाराज के शिष्य थे अत: जो मूलपन्योटीशासी हप में टीशहै। तथा उस टोपा से केशववर्णी ने सात टीका बनाई है। बागमुण्डराय की कर्णाटीवृत्ति की संस्कन टोका
रापीहत) अनुवाद है तब उसको भी वही प्रामाणिकता है गोवामुंडराय की टीम की है। तीसरी संस्कृत टीका मायोपिनी नाम की वह श्रीमत अभयपन सिद्धांत काही की पाई है। इस कारपिता श्रीअभयपद्रवी fasia
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चक्रवर्ती थे और उनको टोका भी केशब वर्णों की टीका से मिलनी है। टीकाकारों के इस परिचय से यह बात हरष्ट हो आती है कि मूल प्रम्प कौर उसकी टीका में कोई अन्तर नहीं है, चौथी टीका पण्डित प्रबर टोडरमल जी की हिन्दी अनुवाद रूप है। उन्होंने
रुस्कृत टीका का ही हिन्दी अनुवाद किया है इसलिये उसमें भ कोई विशेष सम्भव नहीं है। इसके सिया एक बात यह भी है कि ये सभी टीकाकार महा विद्वान थे। सिद्धांत शास्त्रों के पूरा पार थे। और जिन शास्त्रों की उन्होंने टोका रबी है उनके अतस्तस्य को मनन कर चुके थे तो उनकी टीका करने के वे अधिकारी बने थे। जहां मानुषी शब्द का अर्थ भाववेद है वहां भावरूप और जहां उसका अर्थ क्रयवेद है वहां स्त्री उन्होंने किया है। इसजिये मूल ग्रन्थ में कबल मानुषी पद होने पर भी हरष्टता के जिये टीकाकारों ने द्रव्यस्त्री अर्थ समझ कर ही किया है। वह टीकाकारों का किया हुआ नहीं समझकर मूल ग्रन्थ का हो समझना चाहिये । 'वक्तुः प्रमाणु- तू वनप्रमाणम' इस नीति पर सोनी जी ध्यान देंगे ऐसी आशा है। टीकाकारों की निजी कल्पना कहने वाले एवं उनकी भूल बताने वाले दूसरे विद्वान भी इस विवेचन पर लक्ष्य देंगे "टीकाकारों ने ऐसा लिखा है मूस में यह बात नहीं है" इस प्रकार की बातें हमें सहन नहीं हुई हैं उस प्रकार के कथन से टीका ग्रन्थों में श्रद्धा की कमी एवं उलटी समझ हो सकती है इस लिये इतना लिखना हमने आवश्यक
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समझा ।
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सोनो जी की पूर्वापर विरुद्ध बातें सत्र मापदका प्रभाव सोनीधी स्वबसाते। पं० पन्नालाल जी सोनी माज अपने लम्बे लेखों में समूचे पटसारखागम सिद्धान्त शास्त्र में केवल भाववेकही कपन बना रहे हैं। न्यवेद का उसमें कहींभी वर्णन नहीं है ऐसा वे बार बार निरहे।।
इसी प्रकार वे पालापारिकार में भी केवल भाव काही कथन बताते हैं।
भाजपवला सिद्धान सत्र को भाववर विधायक बताते हुये उसमें "संयत" शब्द का होना मावश्यक बता रहे हैं। । परन्तु भाज से केवल कुछ मास पहिले उपयुक्त बातों के सबंधा पिरीत उन बातों को सप्रमाण पुष्टि वे स्वयं कर चुके हैं जिम विधान हम अपने इस लेख में कर रहे है। माश्चर्य इस बात का है कि जिन प्रमाणों से वे भाज भाववेद की पुटिकर रहे हैं, मी प्रमाणों से पाले में व्यवेव की पुष्टि कर चुरे हैं। ऐपी दशा में हम नहीं समझं कि पागम ही बदल गया है या सोनी जीको मविभ्रम हो चुका है। अन्यथा उनके जने में पूर्वापस विरोध एवं स्ववचन बाधितपना किस प्रकार माता ? जो भीहो।
यहां पर सोनी जी सनद्धरणों को हम देते है जिन्हें. मोने दिगम्बर जसित पण पुस्तक द्वितीय भाग में
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सोनी जी ने धवल सिद्धान्त के ६२ और ६३ में सूत्रों को लिखकर उनका अर्थ भी लिखा है, उस अर्थ के नीचे वे लिखते हैं fr
"यत्र विचारणीय बात यहां पर यह है कि वे मनुषिणियां द्रव्यमनुविधियां है या भाव मनुषिणियां । भावमनुशियां तो हैं नहीं। क्योंकि भाव तो वेदों की अपेक्षा से है, उनका यहां पर्याप्तता अपर्याप्तता में कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि आ देश में पर्याप्तता भता ये दो भेद है नहीं। जिस तरह कि कोधादि कषायों में पर्याप्तता अपर्याप्तता ये दो भेद नहीं है। इस लिये स्पष्ट होता है कि ये द्रव्य मनुषिणियां हैं। आदि के द गुणस्थानों में पर्याप्त और पर्याप्त भाग तीन गुणस्थानों में पर्याप्त, इस तरह पांच गुणस्थान कहे गये हैं। इससे भी स्पष्ट होता है कि ये यमनुषिणियां हैं। भावमनुषिशियां होतीं तो उनके नौ या चौर गुणस्थान कहे जाते । किन्तु गुणास्थान पांच ही कहे गये हैं।
(दि० जैन सिद्धान्त दर्पण द्वितीय भाग पृष्ठ १५० ) पाठकगण सोनीओ के ६२ और ६३ सूत्रों के अर्थ को ध्यान से पढ़ लेगें । उन्होंने सहेतुक इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि पटरागम के सूत्र ६२ और १३ में जो मानुषियां हैं वे द्रव्यसियां हो हैं और उनके पांच ही गुणस्थान होते हैं। भाज -वे बन्दी प्राणों से ६२-६३ सूत्रोंको भाववेद का विधायक बताते हुने छन सूत्रों में कही गई मानुषिणियों को भाव- मनुषि
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१५६ कह रहे है। और उनके चौदह गुणस्थान बता रहे है। और द्रव्यही के पांच गुणस्थानों को प्रन्थान्तरों से जान लेना चाहिये ऐसा लिख रहे हैं। ऊपर अपने लेख में वे पांच गुणस्थान इसी १३ सूत्र में सुसिद्ध बता रहे हैं। सोनी जी कोई बात तो नहीं है जो परिपक नहीं किन्तु एक प्रौद विद्वान है। परन्तु ने पहन लेखों में उसी बात की पुष्टि कर रहे हैं जिसधे हमने इस ट्रेक्ट में की है भाजकुछ मास के पीछे उनकी समझ में उस कथन संसा विपरीत परिवान देखकर हमें ही क्या सभी पाठकों को मारमय हुए बिना नहीं रहेगा। मासु मागे वे लिखते हैं
वेदों में दो सत्र भाषद की अपेक्षा से कथन रिया है परन्तु मनुषिणी में कहीं द्रव्य की अपेक्षा और कही भारवेदी अपेक्षा कथन है ऐसे अवसर पर सन्देह हो जाता है, इस सन्देश को दूर करने के लिये व्याख्यान से, विवरण से, टीका से विशेष. प्रतिपति (निय) होता है। तदनुसार टीका मन्त्रों से और अन्य प्रन्यों से सन्देो दूर कर लिया जाता है। टीका प्रन्यों में स्पष्ट कहा गया किमानुषिणी भावलिंग की पपेसा दा गुणस्थान होते है और व्यनिंग की अपेक्षा से पाहिले पांच गुणस्थान होते हैं।"
इस धन से सोधे जी टीका न्यों के कथन को मुबारे अनुसार प्रमाण पब ऐहै परन्तु भामरेटीकामचों को मूल प्रब पक्षपाते हैं।
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आगे धौर मी पहिरे
"इसके ऊपर के (यहां पर ६३वां सूत्र सोनी जी ने लिखा है) नं० ६२ सूत्र में मलुसियीसु शब्द है, उसको अनुवृत्ति नं० ६३ सूत्र में जाती है, इस मनुषिणी शब्द को यदि भाप द्रव्यसी मानें तो बड़ी खुशी की बात होगी। क्योंकि यहां मानुषिणी के पांच ही गुलशन कहे हैं। पांव गुणस्थान बाली मानुषिक द्रव्यश्री होती है।"
(दिगम्बर जैन सिद्धांत दर्पण पृ० १५३)
ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट है कि सोनी जी ६३में सूत्र में साद पद नहीं बताते हैं और उसको द्रव्यस्त्री का ही प्रतिपादक बताते हैं और उस सूत्र को पांच गुणस्थानों का विधायक ही बताते हैं । आज ये ६३वें सूत्र को भावको का कथन करने वाला बता रहे है। इस पूर्वापर विरुद्ध कथन का और इस प्रकार की समझदारी का भी कुछ ठिकाना है ?
पाठकगण सोच लें कि प्रोफेसर हीरालाल जी को ही मतिभ्रम नहीं है किन्तु सोनी जी जैसे विद्वानों को भी मतिभ्रम होगया है । अन्यथा पूर्वापर विरुद्ध बातें भागम के विषय में क्यों ?
मागे सोनोजी संख्या को भी द्रव्यनियों की संख्या बताते हैं"पज्जचम शुरु प्राणं विष उत्यो मा गुखीए परिमाणं" इस गाथा को देते हुए सोनी जी लिखते हैं: "यह नं० १५८ की गाथा का माणुसीय शब्द का अर्थ केशवन
पूरा है इसमें जाने हुबे की कन्नड़ टीका के अनुसार
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出
संस्कृत टीकाकार नेमिचन्द्र " द्रव्यकीयां" और केशव के
गुरु अभषचन्द्र सैद्धान्ती 'द्रव्यमनुष्य स्त्रीयां' ऐसा करते है" इसीप्रकार - 'विगुण सत्तगुणा वा सम्बट्टा मासुसी पमाणादो। इस गाथा को देकर सोनी जी लिखते हैं कि
"इस गाथा की टीका में मानुषी शब्द का चयें मनुष्यकी किया गया है यह मनुष्य स्त्री या मानुषी शब्द द्रव्य की है। क्योंकि सर्वार्थसिद्धि के देवों की संख्या द्रव्यमनुष्य की की संख्या से तिगुनी अथवा सातगुनी है ।"
(दि० जैन सिद्धान्त दूपण पृष्ठ १५० )
यहां पर सोनी जी ने यह सब संख्या द्रव्यखयों की स्वयं स्वीकार की है। और गोम्मटसार को भी द्रव्यवेद का कथन करने वाला स्त्रीकार किया है। टीका को भी पूर्ण स्वीकार किया है। किन्तु चाज ने उक्त कथन से सर्वथा विपरीत कह रहे हैं।
ऊपर के कथन में सोनी जी ने केशववर्णी की कन्नड़ टीका अनुसार संस्कृत टीकाकार नेमिचन्द्र को लिखा है परन्तु कम टीका के रचयिता केशवबर्फी नहीं हैं किन्तु भ० चामुदहराय जी हैं और उसी कन्नड़ टीका के अनुसार संस्कृत टीका के रचयिता केशवनय हैं। जैसा कि गोम्मटसार
गोमसुत लिहणे गोमटर | ये जा कया देसी । सो गमो चिरकालं गामेण व बोर मसंखे ॥
इस गाथा से स्पष्ट है। सोनी जी ने केशववर्णों को कम्म टीका रचयिता बताया है वह गलत है। मस्तु ।
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बागेसोनी जीनाधिकारी-बोर्ड मसतिये इस गायतको रिहते है. "पोनिमासंपते पर्याप्तालाप एवं योनिमत पसंपत में एक पर्याशाखापता। यहां योनिमत बर्ष इम्बमानुषी और माममानुपी दोनों है।"
(विजन सिक्षण वि० भाग १० १५६) . इसनेसमें सोनी भी बालापाधिकार को द्रव्यही और भाष को दोनों का निरूपक स्वीकार करते है। बार यहा बाम हमने निकीक पालापाधिकार में यथा सम्भब व्यय भावर शेनों लिये जाता है। परन्तु मात्र वे पक्ष-मोई में इतने गहरे सन गये किमानापाधिकार को पल भाषा निलाक पता रहे हैं। भागे और पहिये
सोनी जी पटसाण्डागम के "मणुस्सा सिवेश" इस १०८ सूत्र को लिख कर लिखते हैं
"इस सूत्र में द्रव्यमनुष्य तीन वेद पाने कहे गये।" "सत्र नं. १०८ में मस्या पर द्रव्यमनुष्यका सुषको"
(पृ.नं. १४८) इस लेख में सोनी जी को पटसारडागम के मुख सूत्रों में भी इम्योद के दर्शन हो परन्तु पाल के नेत्रों में करें समचे पटसएडागम में केवल भारदहो दीख रहा है पहले लेस में ने यह खुलासा जिस
"मनुस्मा का अर्थ भाव मनुबनी है" (११४६)
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इस पंचिसे वे पटखण्डागम में भाववेद का स्वयं खण्डन भी कर रहे हैं । इसके आगे दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण द्वितीय भाग के पृष्ठ १७८ और १७६ में उम्भों ने पटखरडागम के सूत्र १३ में की धवला टीका का पूरा उद्धरण दिया है और अर्थ भी किया है अन्त में यही लिखा है कि यह १३ वां सूत्र द्रव्यखी का ही विधान करता है और उसके पांच हो गुणस्थान होते हैं। इस से उन्हों ने १३ में सूत्र में 'संजय' पद का सप्रमाण एवं सहेतुक खण्डन किया है। हम यहां अधिक उद्धरण देना व्यर्थ समझने हैं जिन्हें देखना होवे दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण द्वितीय भाग में सोनी जी का पूरा लेख पढ़ लेवें। हमने तो यहां कुछ उद्धरण देकर के सोनी जी की पूर्वापर विरुद्ध लेखनी और समझ का दिग्दर्शन करा दिया है। इससे पाठक सहज समझ लेंगे कि इन भावपची विद्वानों का कोरा हठवाद कितना बढ़ा हुआ है।
वे सिद्धान्त शास्त्र और गोम्मटसार के प्रार्णो का पहले प्रन्भाशय के अनुकूल अर्थ करते थे अब वे उसके विरुद्ध अर्थ कर रहे हैं यह बात सोनी जी के दिये हुए उद्धरणों से हमने स्पष्ट कर दी है। इन विद्वानों को दिगम्बरस्य एवं सिद्ध-विघात की परवा (चिन्ता) नहीं है किन्तु इस समय उन्हें केवल अपनी बात को रक्षा की चिन्ता है। उनकी ऐसी समझ और विचार शत्री का हो जाना खेदजनक बात है।
भागम के विषय में हठवाद वर्षो ?
श्रीमान प्रोफेसर हीरालाल जी एम० ए० ने जब द्रव्यस्त्री
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मुक्ति चादि की बात प्रगट की थी. दिगम्बर धर्म के उस सभा विपरीत बात का समाज के अनेक विद्वानों ने भरने लेखों वा ट्रैक्टों द्वारा खण्डन कर दिया है। विश्य समाप्त हो चुका प्रोफेसर साहब का अब भी मत कुछ भी हो परन्तु वे भी इन खण्डनों को देख कर चुप बैठ गये। परन्तु अब फिर नये रूप शास्त्रों से सिद्धि की विपरीत
से ही स्त्री मुक्ति की
बात पं० खूबचन्द जी द्वारा धवल सिद्धान्त में सद पद जोड़कर तांबे में दबा देने से ही खड़ी हुई है। इस सम्बन्ध में भाज प्रत्येक समाचार पत्र इसी मंगा की चर्चा से भाग रहता 1 बम्बई में विद्वानों में परस्पर विचार विनिमय (लिखित शस्त्रार्थ) भी हो चुके हैं। आम्दालन पर्यात बढ़ चुका है। परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ श्राचार्य शाहिद सागरजी महाराज को इस विषय की विना खड़ी हो गई है। संजद' शब्द केवल तीन अक्षरों का है, उसके सूत्र में रखने या नहीं रखने में उतना ही प्रभाव पड़ेगा जितना मिध्यास्त्र और सम्यक्त्र के रहने नहीं रहने में पड़ता है। वे दोनों भी केवल तीन २ अक्षरों के ही है। संगत शब्द के जोड़ने पर द्रव्यात्री मुक्ति, की सिद्धि शेतावर मन्यता सिद्ध होती है, नहीं रखने से वह नहीं होती है। इसलिये उसके रखने का विरोध किया जा रहा है। सिद्धान्त-विधत नहीं हो यही विरोध का कारण है अन्यथा सिद्ध न शास्त्रों की स्थायी रहा के जिये तो ताम्र पत्र पर लिखे जाने की योजना है वह सब व्यर्थ ही नहीं किन्तु विपरीत साबक दंगो
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विचार यहां इतना है कि संघद शव जो पब बोड़ा जा चुना है उसे हटा दिया जाय। उस पन्ने को गनवा र दसग ताम्रपत्र खुवाया जाय। परम पूज्य पाचार्य मसरोज समय जा खुपचन्द भी से यह चर्चा हुई तब श्रापार्य महाराजको पदोंने 1 उत्तर दिया कि "पदि तांबे की प्रति से संजाशन निकाला जायगा तो मैं उसी दिन से उसके संशोधन का काम करना बोरदंगा" भाचार्य महाराज की इस उत्तर से खेद भी हमा और दो प्रकार की चिंता हो गई। यदि सर पद बाले पत्र को प्रवि से हटाकर नष्ट कराया जाता है तो सशोषन का पाल बमसकता है, और यदि सरशन जुड़ा रहता है तो मिथ्यात्व लहरुपनी की मुक्ति की सिद्धि सिद्धांतशाबों से सिटी । महाराज यह भी कर चुके हैं कि विधान लोग अपनी विद नहीं छोड़ते हैं। पं० खपचन्द जी जब भावार्य महाराज को उपयुक उत्तर रे है तब हमारी बात पर ध्यान देंगे यह कठिन है। पिर भी बनाते हम उनसे दो शब कह देना चाहते हैं पाहेमाने पानही
बाप भागमविषय में भी इतना करते है कि यदि सखर पर पासा पत्र हटाया गया तो में बम बोड़दंगा सो ऐगा इयों! बाप पास यदि ऐसे प्रवास प्रमार है जिनसे साराम कारखाना बावश्यक है वो करें बाबा बापने स्वोसिसनी गियावर्षसे यहीबापने साशनकोसबकः महाचरावित मा परहो।।
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आपको धरना सप्रमाण बकव्य प्रद्धि करना परमावश्यक था, परन्तु दूसरे विद्वान तो कुछ लिखते भी हैं, आप सबथा चुप हैं और काम छोड़ देने की धमकी दे रहे हैं। ऐनी धमरी तो चागम के विषय में कोई निस्पृह भ्रम करने वाला भी नहीं दे सकता है। धापका कर्तव्य तो यही होना चाहिये कि आप स्वयं महाराज की सेवा में यह प्रार्थना करें कि सअद शब्द पर जो विवाद समाज में खड़ा हो गया है उसे आप दूर कर दीजिये और शाखाधार से जो निर्णय भाप देंगे उसे मानने में हमें कोई भापति नहीं होगी । ऐसा कहने से आपको बात जाती नहीं है किन्तु सरतमा प्रयोग होगी। विद्वता का उपयोग और महस्य ह में नहीं कि आगम की रक्षा में है ।
चाचार्य महाराज पूर्ण समदर्शी उद्धट विद्वान, सिद्धांत शास्त्र के रहस्य एवं निश्चय सभ्यम्टष्टि है. भीतराग महर्षि है। ठ दे जो निर्णय देंगे भागम के अनुसार ही देंगे, चारको महाराज के नियांय में किसी प्रकार से माशङ्का भी नहीं करना चाहिये। जैसा कि - पं० वंशीवर ओ ने "यदि श्राचार्य शांतिसागर जी साद पद के विरुद्ध निर्णय देंगे तो दूसरे चाचार्य दूसरा निखँब देंगे तो किसका मान्य होगा" ऐवी सर्वथा अनुचित एवं भा बात रखकर अपनी भाशा रखकर मनोवृत्ति का परिचय दिया है। आप विवेक से काम लेवें और अपने बड़े भाई के समान कई बात नहीं कहकर इस विवाद को मिटाने एवं भागम की रक्षा करने में परम पूज्य भाचार्य महाराज से ही निर्णय मांगें बधा
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उनके दिये गये निर्णय को शिरोधार्य करें। काम छोड़ने की बात छोड़ देवें । यदि पं० बच जी हमारे समयोपित एवं वस्त-पथ प्रदर्शक शब्दों पर विचार करेंगे तो अच्छी बात है क्योंकि उनकी बात की रक्षा से प्रागम की रक्षा बहुत बड़ो एवं दिगम्बरत्व की मल भिति है । उसके मामने वे अपनी बात की रक्षा चाहें यह न वो विवेक है और न ऐसा हो सकता है।
मागम में बहुमत भी मान्य नहीं हो सकता है।
कतिपय व्यक्तियों के मतों को प्रसिद्ध करना एवं किसी सामुदायिक शक्ति के मत को चाहना, ये सब बातें भी निःसार हैं। भागम के विषय में बहुमत का कोई मूल्य नहीं है। इसमें तो प्राचार्यवचन ही मान्य होते हैं । अत: व्यान्न समुदाय का बहुमत संसद पद के बारे में बताना व्यर्थ है। जैसे यह बात व्यर्थ है इसी प्रकार यह बात भी व्यर्थ एवं मारहीन है कि प्रा० महाराज को इस संजर पद के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिये । ऐसे झगड़े तो गृहस्थों के लिये ही उपयुक्त एवं अधिकृत बात है। साधुनों को इन विवाद की बातों से क्या प्रयोजन है ? फिर पण्डितों का मत भव है। बेहो भापस में संजद पर रखने, नहीं रखने का निर्णय करें, या भा० दि० जैन महा सभा इस मामले को निबट
सपसी है? भादि जो बातें सुनी जाती है वे सब भी व्यर्थ एवं पवारण सरीखी है क्योंकि यह बस्तु स्वरूप से विपरीत समाह है। निय देने के बावार्य महाराज हो अधिकारी है।
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संजद पद का विवाद सिद्धांत शास्त्र सम्बन्धी है, अत: इसके निर्णय का अधिकार परमपूज्य चारित्र पकवतों श्री १०८ पाचार्य शांतिसागर जी महाराज को ही है। कारण कि वे वर्तमान के समस साधुगण एवं प्राचार्य पर धारियों में मपिरि शिरोमणि है, इस बात को हम ही केले नहीं करते हैं कि समस्त विद्वत्पमाज, धनिक समाज एवं समस्त साधुवर्ग भी एक मत से कहता है। उनका विशिष्ट तपोषल, अगाध पारिहस्य, असाधारण विवेक, परमशांति, सिद्धांत शास्त्र रहस्यमता, एवं सर्वोपरि प्रभाव जैसा उसमें है वैसा वर्तमान साधु और दूसरे पाचायों में नहीं है। यह एक प्रत्यक्ष सिद्ध निर्णीत बातमतः अधिक कुछ भी इस विषय में नहीं लिखकर हम इतना ही लिख देना पर्याप्त समझते हैं कि भाचार्य शांतिसागर जी महाराज इस समय श्री भगवत्कुन्दकुन स्वामी हैं। अतः सनद पर का निर्णय देने के लिये परम भाचार्य शांतिसागर जी महाराज ही एक मात्र अधिकारी हैं। उनका दिया हुमा निर्णय भागम के अनुसार ही शेगा।
दूसरे-यह कोई लौकिक व्यवहार सम्बन्धी बात नहीं है, लेन रेन पारिका कोई मापसी झगड़ा नहीं है, जिसका निर्णय गृहस्थ करें, और भाचार्य महाराज बीच में नहीं पा किन्तु यह बल शास्त्र सम्बन्धी निर्णय है। उसमें भी पर विज्ञान सत्र पर निर्णय देना है। गृहस्थों को वो उस सिद्धांव शास्त्र के पड़ने का भी अधिकार नहीं माने तो इसका निर्णय देने के
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अधिकारी ही नहीं ठहरते हैं। बस्तु ।
भाचार्य महाराज की सेवा में निवेदन इस प्रयको समाप्त करने से पहले हम विश्ववन्ध पूज्यपाद पारित्रपक्रवर्ती श्री १०८ पाचार्य महाराजको सेवामें यह निवेदन करना चाहते है कि यदि भाप सत्र में संजद पर के रहने से सिवाय कापात समझते हैं वो भापके पादेश से मापके नावपमें बनी हुई ताम्रपत्र कमेटी को सूचित कर तुरन ही उस वानपत्रकोपनगरा देव पिस में यह संजद पद खुदवा दिया गया है। यदि पापकी ऐसी इच्छा कि 'संजर पर का निकालना बापरयको फिर भी अभी पलता हुमा काम न का जाय, इस लिये बम पूरा होने पर कुछ वर्ष पोछे उसे हटा दिया जायगा' सब हमारा यह नम्र निवाल मापके परणों में है कि ऐसा विलंब सिी प्रकार भी उचित एवं गम होने की बात नहीं है। बरण एक विद्वान् विपरीत मिथ्या पात किसी को भून से गरि परमागम में मामिलर दी गई है तब उसे जानते हुए भीराने देने
बनवाना में परीत्य होने की सम्भावना है। इसने चान्दोलन, विचार संघर्ष और सप्रमाण सरान करने पर भी परिचमीबह पद जुड़ा रस तो फिर जनता को समझ एवं संस्कार संविधोटि में हुए विना नही रेंगे। या काल होने से फिर पविक दलबन्दी का रूप बम हो जाने से सा हटाना भी दुःसाध्य होगा। और लोगों को ऐसा विचार भी होगा कि दिसंबर पर भागमवाषित एवं विपरीत सिद्धान्त का
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पोषकानो उसे उस समय क्यों नहीं हटाया गया बरस पर भारी मांदोलन उठा था, क्या व महाराज को जानकारी नहीं थी, पीपी तो यह सुधार उसी समय करना थापाको फिर लम्बा काल होने से ऐसी बातें भी नही हो सकती है कि कारण फिर संजद शम को हटाना सर्वथा अशक्य हो जायगा। वैसी अवस्था में प्रोफेसर साहब बहमन्तब्य कि "सिद्धान्त शास्त्र से द्रव्यमी की मुक्ति एवं स्वेताम्बर मत मान्यता अनिवार्य विदोती है" स्थायी हो जायगा।
काम चलने के प्रलोभन से एक सिद्धांव-विमरीव पाव परमपागम में लम्बे समय तक रहने दो बाय यह भी वो ठीक नहीं है। चाहे काम हो चाहे वह रुक जाय पर विज्ञान विषय पर मूबसूत्र म तुरंत हटा देना होन्यायोचित एवं प्रथम कर्तव्य है। हमारी दो ऐसी समझ है। हमारे संयुक हेतुषों एवं सम्मावि बातों पर महाराज भ्यान देंगे ऐसी हमारी नम्र प्रार्थना है।
त्रम चलने के सम्बन्ध में हमारा यह कहना है कि वर्तमान में बिस रूप में बम परीवह बराबर खवा ऐगा ऐसी
माशा है। यदि त्रिशुणिव भमकता देने पर भी अब सुपारमासे चमक बावगा तो फिर मी महाराव पादेश एवं उनको परमागम रक्षा की सदिच्छा से होने वाले इस पवित्र वर्ष अहोई बाधा नहीं पा सकेगी। प्रत्युत निसारिसे पिता मी बम फल दिवे इस स्तुत्य परमार्थ जो करने वाले भी अमेशिन तैयार होवांयगे, महागबजेषापासमिय
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शास्त्र के जीर्णोद्धार कार्य में कोई चिंता का सामना नहीं करना पड़ेगा ऐसा भी हमें भरोसा है। परन्तु कार्य का प्रलोभन सिद्धांत विषात को सहन करा देवे यह बात भले ही थोड़े समय के लिये हो तो भी वह अनुचित एवं अग्राह्य है। जैसे अनेक दिनों का पोषित एवं पीण शरीर का धारी अत्यन्त मशक साधु भी बिना नधाभक्ति एवं निरन्तयय शुद्धि सप्रेक्षण के कभी भोजन ग्रहण नहीं कर सकता है। उसी प्रकार कोई भी परमागग श्रद्धानी, उस में सामिल की गई सिद्धांत विपरीत बात को अथवा लगे हुये भवर्णवार को बिना दूर किये कभी चुप नहीं बैठ सकता है। इस समस्या पर ध्यान दिलाते हुये हम चारित्र चक्रवर्ती परम पूज्य श्री १०८ प्राचार्य महाराज के चरणों में यह निवेदन करते हैं कि वे शोघ्र ही ऐसी समुचित व्यवस्था कराने का नाम्रपत्र निर्मारक कमेटी को भादेश दे। जिससे दिगम्मरत्व एव परमागम सिद्धांत शास्त्र की रक्षा भक्षुण्ण बनी रहे। बस इतना ही सदुरेश्य हमारा इस मन्ध रचना का है।
-अन्य नाम और उसका उपयोगइसका नाम हमने सिद्धांत सूत्र समन्वय' रक्खा है। वह इसलिये रक्खा है कि इस निन्ध रचना से सजद' पद १५६ सत्र में सर्वधा नहीं है यह निर्णय तो भली भांति हो ही जाता है। साथ ही इस पटखण्डागम में केवल भारत नहीं, उसमें इब्योरमा निरुण भी है, पाद की कार मार्गणामी का बोन वेदाहि मार्गणामों से सर्वथा भिम बोगमायाम
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१६६ सम्पन्ध पर्याप्ति के साथ अविनाभावी पानापाधिकार का नि रूपण पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षासेमा वहां द्रव्य भाव दोन वेदों का यथा सम्भव समन्वय किया है। इत्यादि सभी विशे रष्टिकोण भी इस रचना से सहज समझ में पा जायगे। प्रत इस रचना को ट्रैक्ट नहीं समझना चाहिये, किन्तु सिद्धांत शाह में खचित किये गये सूत्रों का गुणस्थान मागणामों में यथायोग्य समन्वय समझने लिये अथवा षटखएडागम सिद्धांत शास्त्र का रहस्य समझने के लिये एक उपयोगी अन्य समझना चाहिये। इसीलिये इस प्रन्य का नाम "सिद्धांत सूत्र समाय" यह यथार्थ रक्सा गया है।
यपि अन्य रचना अधिक विस्तृत एव बड़ी है। साथ ही पटखएडागम-सिद्धांत शास्त्र जैसे महान गम्भीर परमागम के सूत्रों का विवेपन होने से यह भी गम्भीर रवं क्लिष्ट है। फिर भी इसे सरन बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। इसलिये उपयोग विशेष लगाने से सर्व साधारण भी इसे समझ सकेंगे। विद्वानों के लिये वो कुछ कहना ही नहीं है। वे तो इसका पर्यालोचन करेंगे। हमारा उन स्वाध्यायशीन महानुभावों से विशेष कर गोम्मटसार की हिन्दी टीका का मनन करने वाले सजनों से भी निवेदन है कि वे विशेष उपयोग पूर्वक इस प्रन्य का रकबार पाचोपांत (पूररा) स्वाध्याय अवश्य करें।
HORRORaar
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१५०
|| अन्त्य मङ्गल ॥
श्रीमच्छीधरवेश सूरिश्वतादंगे के देशप्रभुः,
यावपि तत्समावभवतां सिद्धांत पारंगतौ । षट्खण्डागमनामकं सुरचितं ताभ्यां महाशास्त्रकम्. जीयाचन्द्रदिवाकराविव सदा सिद्धांतशास्त्रं वि ॥ सोताराम सुतेनासौ लालारामानुजेन च । 'प्रबन्धो रचितः श्रेयान् मक्खनलालशास्त्रिया ॥
शुभंभूबात ।
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