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“અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૨૧૭
વ્યાકરણ સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન લધુ વિવરણ ભાગ-૩
': દ્રવ્ય સહાયક :
શ્રી ઉમરા જૈન સંઘ, મલબાર હીલ, સુરતના
જ્ઞાનખાતામાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજેન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૨
ઈ. ૨૦૧૬
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
-टी515२-संपES 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणि म.सा. | 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 015 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 | જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | 028 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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020
हार
454 226 640
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30 | શિન્જરત્નાકર
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री प्रासाद मंडन
| पं. भगवानदास जैन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ पू. लावण्यसूरिजी म.सा. | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ પૂ. ભવિષ્યસૂરિની મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા 038 તિલકમશ્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 તિલકમગ્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી સપ્તભફીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
| સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ 044 વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી 054 | જ્યોતિર્મહોદય
સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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60
218
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(04)
210
274
286
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
स
पू. लावच
218.
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी upl stGirls sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-
टीर-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056| विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
| पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
| श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
. श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
|
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/४. श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन 0748न सामुद्रिन पांय jथो
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी | 376
4. 14.
060
322
532
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'075
374
238
194
192
254
ગુજ. |
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિ૨નીવન જોશ
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ ગુજ. | શ્રી સYTમારૂં નવા ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ ગુજ. | શ્રી મનસુભાન કુકરમલ
| श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. | श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શાસ્ત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરીન લોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સં. | પૂ. મેષવિનયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910 436
336
087
230
322,
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272
सं.
240
254
282
466 342 362 134 70
316 224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता / टीकाकार भाषा | संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु | हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि | पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी |सं. जैन सत्य संशोधक
सं./हि
514 454 354 337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754 84 194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब
गुज. | साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. | हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. ब्रज. बी. दास बनारस 133 | | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसुरिजी
गुज. यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. | शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी | गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151| सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. ब्रीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय
सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274
168 282
182 384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
Page #8
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार
संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५
क्रम
विषय
संपादक/प्रकाशक
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति
कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य
पू. हेमचंद्राचार्य
156 प्राकृत प्रकाश सटीक
157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति
158 आरम्भसिध्धि सटीक
159 खंडहरो का वैभव
160 बालभारत
161 गिरनार माहात्म्य
162 गिरनार गल्प
163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
164 भारतिय संपादन शास्त्र
165 विभक्त्यर्थ निर्णय
166 व्योम वती - १
167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक
176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत
179 मुहूर्त संग्रह
180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी
भामाह
ठक्कर फेरू
पू. उदयप्रभदेवसूरिजी
पू. कान्तीसागरजी
पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास
पू. ललितविजयजी
पू. क्षमाकल्याणविजयजी
मूलराज जैन
गिरिधर झा
शिवाचार्य
शिवाचार्य
- -
यशोविजयजी
व्याकरण
व्याकरण
व्याकरण
धातु
ज्योतीष
शील्प
प्रकरण
साहित्य
न्याय
न्याय
न्याय
उपा.
न्याय
भाव मिश्र
आयुर्वेद
पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
आयुर्वेद
ज्योतिष
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
ज्योतिष
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज
ज्योतिष
ज्योतिष
पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भगवानदास जैन
ज्योतिष
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष
काव्य
तीर्थ
तीर्थ
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत / गुजराती
संस्कृत/गुजराती
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत / हिन्दी
गुजराती
गुजराती
जोहन क्रिष्टे
पू. मनोहरविजयजी
जय कृष्णदास गुप्ता
भंवरलाल नाहटा
पू. जितेन्द्रविजयजी
भारतीय ज्ञानपीठ
पं. शीवदत्त
जैन पत्र
हंसकविजय फ्री लायब्रेरी
साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी
जैन विद्याभवन, लाहोर चौखम्बा प्रकाशन
संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय
बद्रीनाथ शुक्ल
शीव शर्मा
लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस
खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी
आनंद आश्रम
मेघजी हीरजी
अनूप मिश्र
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
भगवानदास जैन
शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता
पृष्ठ
304
122
208
70
310
462
512
264
144
256
75
488
226
365
190
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352
596
250
391
114
238
166
368
88
356
168
Page #9
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________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
Page #10
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________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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________________
अहम् । ॥ पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद् विजय-दान-प्रेम-रामचन्द्र-भद्रंकर सद्गुरुभ्यो नमः ॥
- कलिकालसर्वज्ञ-श्रीमद्हेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीतं श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् [ स्वोपज्ञबृहत्वृत्ति तथा 'न्याससारसमुद्धार' (लघुन्यास) संवलितम् ]
तृतीयो भागः
आद्य-सम्पादक : नाप्सनसम्राट् पृ. आचार्यदेव श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. की प्रेरणा से परमपूज्य आचार्यदेव
श्रीमद् विजय उदयसूरीश्वरजी म. सा.
सम्पादक : जिनप्रासन-भासनभास्कर गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के विष्यरत्न अध्यात्मयोगी प्रामरसनिमग्न पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्यश्री के निष्यरत्न प्रांतमूर्ति पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय कुदकुद सूरीश्वरजी म. सा. के
विद्वान् निष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री वज्रसेनविजयजी म.
सह-सम्पादक : सूक्ष्मतत्त्वचितक पूज्यपाद पंन्यासप्रवरश्री भद्रंकर विजयजी गणिवर्यश्री के निष्य
मुनिश्री रत्नसेन विजयजी म.
प्रकाशक :
भेरुलाल कन्हैयालाल रिलिजोयस ट्रस्ट
चंदनबाला, बम्बई-400 006
Page #12
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प्रकाशक
शा. भेरुलाल कन्हेंयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट चंदनबाला एपार्टमेन्ट रीज रोड, वालकेयर बम्बई-400 006
प्रकाशन-तिथि
कार्तिक अमावस्या, दीपावली महापर्व दिनांक 2-11-86 (श्री वीरविभु निर्वाण दिवस)
• प्रावत्ति-द्वितीया
• मूल्य-७०/- रुपये
• प्राप्ति-स्थान
सरस्वती पुस्तक भण्डार १११, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद
पार्श्व प्रकाशन, नीना पोल, अवेरीवाड, अहमदाबाद-१
जगवंतलाल गिरधरलाल दोलीयाहानी पोल, अहमदाबाद-१
Page #13
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KOK" "" (.) (KUKKUKKUKKUKKAKKAKK
समर्पण
25
K) KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO KO
मचकुद के पुष्प की भाँति अपने निर्मल जीवन द्वारा तथा अपनी सूक्ष्म - तीक्ष्ण व परिमाजित बुद्धि-प्रतिभा द्वारा बाल-जीवों के लिए उपयोगी और उपकारी, सरस, सरल व सुबोध साहित्य की रचना कर जिन्होंने अनेक भव्यात्माओं को सन्मार्ग प्रदान किया है, ऐसे परमोपकारी हालार-रत्न प्राचार्यदेव श्रीमद् विनय कुदकुद सूरीश्वरजी म. सा. की पुण्यात्मा को यह पवित्र-ग्रंथ समर्पित करते हुए हमें अत्यन्त ही आनन्द हो रहा है, जिनको अदृश्य कृपा से यह दुर्गम कार्य भी सुगम हो पाया है।
बाराधना
-मुनि वज्रसेन विजय -मुनि रत्नसेन विजय
卐
"K"K"K"
"
"
"
"
"
"
"
"K"K"K"""
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प्रकाशक की कलम से...
सकल श्रीसंघ की सेवा में 'सिद्धहेम बहत्ति लघुन्यास सहित' महाग्रंथ के द्वितीय भाग का प्रकाशन करने के बाद अल्प समय में ही इस तृतीय भाग को प्रकाशित करते हए हमें अत्यंत ही प्रा परम कृपालु महावीर देव जब बाल्यावस्था में थे, नब सौधर्मेन्द्र ने आकर भगवान् से व्याकरण सम्बन्धी जो प्रश्न किये थे, उन सभी का भगवान् ने संतोषप्रद समाधान किया था। बाल्यवय में भी प्रभु की अद्भुत ज्ञान-प्रतिभा को देखकर सभी दंग (आश्चर्य-चकित) रह गये थे। उस काल में सर्वप्रथम जैनेन्द्र व्याकरण प्रसिद्धि में माया-यह बात हम हर वर्ष पर्युषण में सुनते आये हैं।
कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी म. ने सिद्धराज की प्रार्थना को लक्ष्य में रखकर सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्' का निर्माण किया था और उन्होंने इस ग्रन्थ पर लघुवृत्ति-बृहद्वृत्ति और बृहन्न्यास का भी निर्माण किया था। दुर्भाग्यवश आज वह बृहन्न्यास पूर्णरूप से उपलब्ध नहीं है। इस व्याकरण की बृहद्वृत्ति पर पू. आचार्य श्री कनकप्रभसरिजी म. विरचित न्याससार समुद्धार (लघुन्यास संज्ञक) उत्तम विवरण ज्ञानभंडारों में आज भी मौजूद है। परन्तु आज उसकी हालत अत्यन्त ही खस्ता है। पत्ते जीणं हो गए हैं तथा इसके साथ ही दुष्प्राप्य भी हैं। लेकिन जैन-शासन का सौभाग्य है कि उसकी जीर्ण हालत को देख कर पू. आचार्य श्री विजय कुन्दकुन्दसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री वयसेन विजयजी म. सा के हृदय में उसके पुनर्मुद्रण रूप जीर्णोद्धार करवाने की सद्भावना जगी।
दूसरी पोर सिद्धांतदिवाकर प. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसरिजी म. की अोर से हमारे ट्रस्ट के सदस्यों को इस ग्रन्थरत्न के जीर्णोद्धार के लिए पुनीत प्रेरणा प्राप्त हुई। विशालग्रन्थ रत्न का प्रकाशन करना, एक भगीरथ कार्य था और इस कार्य में प्रायः डेढ़ लाख रुपये से कम खर्च नहीं था। पूज्य गुरुवर्यों की शुभं प्रेरणा से हमारे ट्रस्ट के सदस्यों के दिलों में यह शुभ मनोरथ हा कि अपने ट्रस्ट की ज्ञाननिधि का सव्यय करके । इस पुण्य कार्य का लाभ उठाया जाय । आज ऐसे महान् ग्रन्थरत्नों के पीछे अपना अमूल्य समय देने वालों की संख्या अत्यल्प होने से पूज्य मुनि भगवंतों की इस पवित्र भावना को क्यों न सहर्ष अपना लिया जा? और बस, हमने इस महाग्रन्थ रत्न के जीर्णोद्धार में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय कर लिया।
इस ग्रन्थरत्न के सुवाच्य पुनःसंपादन के इस भगीरथ कार्य को परमपूज्य, गच्छाधिपति, संघहितवत्सल, प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा की अनुमति और शुभाशीर्वाद से प्रतिपरिश्रमपूर्वक पूर्ण करने वाले परम पूज्य अध्यात्मयोगी पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री के शिष्य-प्रशिष्य परमपूज्य मुनिराज श्री वयसेन विजयजी महाराज साहब तथा परम पूज्य मुनि श्री रत्नसेन विजयजी म. सा. के हम सदा ऋणी रहेंगे। उनके इस भगीरथ कार्य की हम बारंबार अनुमोदना करते हैं, एवं सकल श्रीसंघ से अर्ज करते हैं कि ऐसे संघरत्न मुनि भगवंत, जो कि श्रुत-भक्ति से निःस्वार्थ श्रुत सेवा कर रहे हैं.......उन्हें पूर्ण सहयोग प्रदान कर श्रुत समृद्धि को युगों पर्यंत जीवनदान देकर प्रात्मकल्याण के पथ में आगे बढ़े।
लि..
लि. श्री मेरुलाल कन्हैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट
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॥ ऐं नमः ॥
संपादक की कलम से...
पूज्य मुनिश्री वज्रसेन विजयजी म.
अनंत उपकारी तीर्थकर परमात्मा जगत् के भव्य जीवों के उपकार के लिए केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद 'धर्मतीर्थ' की स्थापना करते हैं। 'तीर्यतेऽनेनेति तीर्थः' की व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे संसार-सागर तरा जाय, उसे तीर्थ कहते हैं। जैन वाङमय में 'तीर्थ' शब्द का अर्थ प्रथम गणधर, द्वादशांगी और चतुर्विध संघ (साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका) भी होता है।
परम तारक श्री अरिहंत परमात्मा के पवित्र मुख से 'त्रिपदी' का श्रवण करके बीजबुद्धि के निधान गणधर भगवंत 'द्वादशांगी' की रचना करते हैं। 'द्वादशांगी' के अन्तर्गत समस्त श्रुतज्ञान का समावेश हो जाता है।
किसी विवक्षा से ज्ञेय पदार्थों के दो भेद कर सकते हैं-(१) अनभिलाप्य और (२) अभिलाप्य ।
अनभिलाप्य अर्थात् ऐसे ज्ञेय पदार्थ, जिन्हें ज्ञान द्वारा जानने के बाद भी शब्द द्वारा व्यक्त न किया जा सके। अभिलाप्य अर्थात ऐसे ज्ञेय पदार्थ, जिन्हें ज्ञान द्वारा जानने के बाद शब्द/वाणी द्वारा अभिव्यक्त किया जा सके।
तारक अरिहंत परमात्मा अपने केवलज्ञान द्वारा जगत् के समस्त पदार्थों के समस्त भावों को साक्षात् / प्रत्यक्ष जानते हुए भी अपने ज्ञान का अनंतवाँ भाग ही वारणी द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं, क्योंकि ज्ञेय अ और वाणी की शक्ति, समय, आयुष्य आदि मर्यादित हैं।
परमात्मा की धर्म देशना को गणधर-भगवंत सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं और इन्हीं सूत्रों को जैन-भाषा में 'पागम' कहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जितने भी पागम हैं, वे सब तीर्थंकर-परमात्मा की वाणी के ही संग्रह (Collection) रूप हैं। वे पागम मोक्ष-मागं के पथ-प्रदर्शक हैं।
पूज्यपाद वीर विजय जी म. ने ठीक ही कहा है-'विषमकाल जिनबिंब-जिनागम भवियरणकु प्राधारा' विषम (पंचम) काल में जिनबिंब और जिनागम ही भव्य-जीवों के लिए परम-आधार/श्रेयभूत हैं ।
गणधर भगवंतों ने ये आगम प्राकृत (अर्धमागधी) भाषा में रचे हैं। उन आगमों के रहस्यार्थ/ ऐदंपर्यायार्थ को समझाने के लिए पूर्वाचार्यों ने उन पागमों के ऊपर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाओं की रचना की है।
नियुक्ति और भाष्य प्राकृत भाषा में रचे गये हैं। 'चूर्णी' को भी मुख्य भाषा 'प्राकृत' होते हुए भी उसमें कहीं-कहीं संस्कृत भाषा का भी प्रालंबन लिया गया है। नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी के रहस्यों के स्पष्टीकरण के लिए जिनशासन रहस्यवेदी गीतार्थ महर्षियों ने विविध टीकानों की रचना की है। ये टीकाएँ संस्कृत भाषा में रची हुई हैं। अतः आगम-अभ्यास के अधिकारी संविग्न-मुनियों को संस्कृत भाषा का ज्ञान होना अत्यंत ही अनिवार्य है।
Page #16
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भाषा/व्याकरण, साहित्य में प्रवेश का द्वार है। व्याकरण के स्पष्ट बोध के बिना किसी भी शब्द/ वाक्य / सूत्र और ग्रंथ का वास्तविक बोध संभव नहीं है।
जैन शासन में भी स्थानकवासी आदि जो नए मत निकले हैं, उनका भी मूल व्याकरण-बोध की अज्ञानता ही है। व्याकरण के सम्यगबोध के अभाव के कारण ही स्थानकवासी-वर्ग 'चैत्य' शब्द का विपरीत अर्थ करके मार्ग-विमुख बनते जा रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जिनागमों के रहस्यार्थों को जानने के लिए व्याकरण का सम्यग्बोध अत्यन्त ही जरूरी है। संस्कृत भाषा-ज्ञान/व्याकरण के सम्यग्बोध के लिए अनेक विद्वानों ने अनेक व्याकरण-ग्रंथों की रचना की है।
गुर्जर सम्राट् सिद्धराज की प्रार्थना को ध्यान में रखकर कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी भगवंत ने 'श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्' की रचना की। भाषा-विज्ञान के सांगोपांग बोध के लिए कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवंत ने 'शब्दानुशासनम्' के साथ-साथ 'लिंगानुशासनम्', धातु-पारायणम्, अभिधान-चिंतामपिाकोश, 'उणादिगण-वृत्ति', 'द्वयाश्रय-महाकाव्य' आदि की रचना कर भव्य जीवों पर महान् उपकार किया है।
'श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम्' की लोकप्रियता के विषय में कोई सन्देह नहीं है। अनेक विद्वानों ने इस ग्रंथ का अध्ययन अध्यापन कर इस ग्रंथ की उपादेयता/महत्ता प्रगट की है।
इस 'शब्दानुशासनम्' के ऊपर कलिकालसर्वज्ञ भगवंत ने 'बृहद्वृत्ति' की रचना की है और उसमें पाए क्लिष्ट पदों पर ८४००० श्लोक-प्रमाण 'बृहन्न्यास' की भी रचना की है। दुर्भाग्य से वह 'बृहन्यास" पूर्ण उपलब्ध नहीं है। उस 'बृहन्न्यास' के संक्षिप्तीकरण रूप ही पू. प्रा. श्री देवेन्द्रसूरिजी म. सा. के शिष्य आचार्य श्री कनकप्रभसूरिजी ने 'न्याससारसमुद्धार' की रचना की थी, जो आज संपूर्णतया उपलब्ध है। आज से लगभग १०० वर्ष पूर्व प. पू. प्राचार्य श्री नेमिसूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा से प. पू. प्राचार्य श्री उदयसूरीश्वरजी म. सा. ने इस ग्रंथ (बृहद्वृत्ति-लघन्यास सहित) का प्रकाशन किया था।
अाज से वर्षों पूर्व बाल्यवय में जब मेरा पाटण में पंडितवर्य श्री शिवलाल भाई के पाग सिद्धहेम. का अभ्यास चल रहा था, उस समय दरम्यान इस महाकाय ग्रन्थ के अवलोकन का प्रसंग पाता था और उसकी जीर्ण-शीर्ण अवस्था को देख कर इस ग्रन्थ के पुनरुद्धार की भावना का मन में बीजारोपण हुमा था।
तत्पश्चात् अन्यान्य प्रवृत्ति में काफी समय व्यतीत हो गया। पुनः योगानुयोग संवत् २०३५ में परम पूज्य सुविशाल-गच्छाधिपति श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की छत्रछाया में मेरे परम उपकारी परम गुरुदेव अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रकर विजयजी गरिणवर्य श्री का भी पाटण में चातुर्मास हुपा। उस चातुर्मास दरम्यान पूज्यपाद वात्सल्यमूर्ति पंन्यास प्रवर श्री भद्रकर विजयजी गणिवर्य श्री के चरम शिष्य मुनि श्री रत्नसेन विजयजी म. का भी 'सिद्धहेम' का अभ्यास चल रहा था। 'लघुन्यास' की जीर्णावस्था को देख, उनके दिल में भी यही भावना पैदा हुई कि इस महाकाय ग्रन्थ का अवश्य पुनरुद्धार होना चाहिये। इस प्रसंग पर एक गुजराती कहावत याद आ जाती है-'झाझा हाथ रलियामणा' चार हाथ मिलने पर भारी काम भी सुगम हो जाता है। बस ! आत्मीय मुनिश्री ने भी अपना पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया।
संवत् २०४१ के रतलाम चातुर्मास दरम्यान मुनि श्री रत्नसेन विजयजी म. ने तीसरे अध्याय से सातवें
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________________
( ७ )
अध्याय के लघुन्यास की प्रेसकॉपी तैयार की, साथ में लिंगानुशासनम् आदि परिशिष्ट भी तैयार किए गए ।
दूसरी ओर इस भगीरथ कार्य की निविघ्न समाप्ति के लिए पूज्यपाद गच्छाधिपति प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के पुनीत शुभाशीर्वाद भी प्राप्त हुए।
इस कार्य दरम्यान परमोपकारी वात्सस्यनिधि करुणामूर्ति पूज्यपाद परम गुरुदेव पंन्यास प्रवर श्री भद्रकर विजयजी गरिणवर्य श्री की असीम कृपावृष्टि, परम पूज्य सौजन्यमूर्ति प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रद्योतनसूरीश्वरजी म. सा. की सतत प्रेरणा, प. पू. उपकारी गुरुदेव स्वर्गीय प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय कुंदकु दसूरीश्वरजी म. सा. की अदृश्य कृपा और प पू सांसारिक पिता मुनि श्री महासेन विजयजी म. सा. की सहानुभूति सतत प्राप्त होती रही है।
सम्पादन कार्य में आत्मीय मुनि श्री रत्नसेन विजयजी म का जो साद्यन्त सहयोग मिला, उसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं ।
इस प्रकार के प्राचीन ग्रंथों के पुनर्मुद्रण में प. पू. प्राचार्य श्रीमद् विजय जयघोषसूरीश्वरजी म. सा. के सदुपदेश से भेरुलाल कन्हैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट ने लाभ लिया है ।
अन्त में इस ग्रंथ प्रकाशन में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सहयोग देने वाले नामी अनामी सभी व्यक्तियों का
J
आभार मानता 1
विद्याशाला, अहमदाबाद- १
आषाढ़ सुद १४, २०४२
दिनांक २०-७-८६
--मुनि वज्रसेन विजय
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॥ अहंम् ॥
सह-संपादक की कलम से...
मुनिश्री रत्नसेन विजयजी म.
अनंतज्ञानी, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवंतों ने ज्ञान के पाँच भेद बतलाए हैं - (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः पर्यवज्ञान और ( ५ ) केवलज्ञान ।
● इन पाँच ज्ञानों में मति और श्रुतज्ञान म्रात्म-परोक्ष हैं और अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान आत्म- प्रत्यक्ष हैं ।
* छद्मस्थ आत्मा को इन पांचों ज्ञानों में से चार ज्ञान संभव / शक्य हैं । वीतराग धारमा को ही होती है।
● इन पाँच ज्ञानों में से प्रथम चार ज्ञान का विषय मर्यादित / सीमित है, जबकि केवलज्ञान का विषय केवलज्ञान के द्वारा श्रात्मा जगत् के समस्त पदार्थों के समस्त पर्यायों को साक्षात् जान सकती है। * इन पाँचों ज्ञानों में एकमात्र 'श्रुतज्ञान' की ही अभिव्यक्ति हो सकती है, शेष चार ज्ञान मूक हैं ।
• इन पाँचों ज्ञानों में परोपकार में समर्थ एकमात्र 'श्रुतज्ञान' ही है शेष चार ज्ञान स्वोपकार प्रधान है।
• इन पाँचों शानों में से एकमात्र श्रुतज्ञान का ही मादान-प्रदान हो सकता है, शेष चार ज्ञानों का नहीं। जैनशासन का लोकोत्तर- व्यवहार मार्ग 'श्रुतज्ञान' के ऊपर ही अवलंबित है और इस व्यवहार का पालन तीर्थंकर परमात्मा और अन्य केवली भगवंत भी करते हैं ।
अनंत है ।
केवलज्ञान की प्राप्ति एकमात्र
* तीर्थंकर परमात्मा भी समवसरण में बैठकर देशना के प्रारम्भ में 'नमो तित्थस्स' कहकर द्वादशांगी रूप 'श्रुतज्ञान' को नमस्कार करते हैं ।
* तीर्थंकर परमात्मा भी केवलज्ञान द्वारा दृष्ट जगत् के भावों का निरूपण 'द्रव्य - श्रुत' के माध्यम से ही करते हैं । इसीलिए प्रभु की वाणी 'सम्यग् श्रुत' स्वरूप है ।
• जैनागमों में 'नमो गंभीलिवीए' कहकर श्रुत की जननी स्वरूप ब्राह्मी लिपि को भी नमस्कार किया
गया है ।
'श्रुत' के सम्यग् बोध के लिए और द्वितीय महाव्रत के पालन / रक्षण व संवर्धन के लिए व्याकरण का सम्यम् बोध अत्यंत ही जरूरी है।
'प्रश्नव्याकरण' रूप दसवें अंग में कहा गया है
अह केरिसयं पुणाइ सच्चं भासिव्वं ?
जं तं दब्येहि पज्जवेहि य गुणेहि कम्मेहि बहुविहेहि
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सिप्पेहिं प्रागमेहिं य नामक्खायनिवायउवसग्ग-तद्धि-समाससंधि-पदहेतु-जोगिय-उणाइ-किरिप्राविहाण-धातु-सर-विभत्तिवण्णजुत्तं तिकल्लं दसविहं सच्चं.----..-वत्तव्वं । (सूत्र २४)
अर्थ-हे भगवंत ! किस प्रकार का सत्य बोलना चाहिये? (भगवान-) जो द्रव्य, पर्याय, गुण, कर्म, बहुविधशिल्प तथा आगम से युक्त हो और नाम, पाख्यात, उपसर्ग, तद्धित, समास, संधि, पदहेतु, योगिक, उणादि, क्रिया-विधान, धातु-स्वर, विभक्ति और वर्ण से युक्त हो, वैसा त्रिकालविषयक दसविध सत्य बोलना चाहिये।
इस प्रागम-प्रमाण से स्पष्ट है कि मोक्षाभिलाषी मुमुक्षु प्रात्मा को श्रुत के सम्यग् बोध के लिए व्याकरण-शास्त्र का अवश्य अभ्यास करना चाहिये ।
महोपाध्याय श्रीमद् विनयविजयजी म. ने 'हैमलघुप्रक्रिया' के मंगलाचरण में 'श्रीहैमव्याकरण' को भी नमस्कार किया है और उन्होंने युक्ति-प्रयुक्ति के द्वारा उसकी नमस्करणीयता को सिद्ध किया है।
'श्रीहैमव्याकरण' सम्यग्दृष्टि द्वारा प्रणीत होने से श्रुतज्ञान रूप है और सकल शास्त्रों की व्युत्पत्ति बोध में हेतु रूप होने से लोक में भी महान् उपकारी है, अतः उसको नमस्कार समुचित ही है और यह व्याकरण सरस्वती रूप होने से व्याकरण को नमस्कार करने से सरस्वती को भी नमस्कार हो जाता है।
व्याकरण की महिमा का गान करते हुए किसी विद्वान् ने ठीक ही कहा है
अर्थप्रवृत्तितत्त्वानां, शब्दा एव निबन्धनम् ।
तत्त्वावबोधः शब्दानां, नास्ति व्याकरणं विना ।। अर्थ-विषयक प्रवृत्ति के रहस्य में शब्द ही कारण हैं और शब्दों का वास्तविक बोध व्याकरण के बिना संभव नहीं है।
व्याकरण के सम्यग् बोध के अभाव में वाणी के विचित्र (उपहास्य) प्रयोगों पर कटाक्ष करते हुए किसी कवि ने ठीक ही कहा है
नाङ्गीकृतं व्याकरणौषधानां, अपाटवं वाचि सुगूढमास्ते । कस्मिश्चिदुक्ते तु पदे कथंचित् स्वैरं वपुः स्विद्यति वेपते च ।।
भावार्थ-'जिन व्यक्तियों ने व्याकरण रूप औषध का सेवन नहीं किया है, उनकी वाणी में अत्यंत अपटुता होती है और इस कारण जब वे किसी व्याकरणविद् के मुख से कोई पद/वाक्य सुनते हैं,....तो उस वाक्य के अनवबोध के कारण उनके देह में पसीना छूटने लगता है और उनकी देह काँपने लगती है।'
अस्तु ! विद्वज्जन के आगे व्याकरण की महिमा का गान, यह तो माता के सामने, मामा के घर के वर्णन समान ही है, क्योंकि विद्वज्जन व्याकरण के माहात्म्य से सुपरिचित ही होते हैं ।
प्रस्तुत 'श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्' के ग्रन्थकर्ता कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी के पूण्यनाम से भला कौन अपरिचित होगा? वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। गुर्जरसम्राट् सिद्धराज और परमार्हत्
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कुमारपाल को प्रतिबोध कर, उन्होंने जिनशासन की अद्भुत प्रभावना की है। उनके विराट् व्यक्तित्व का परिचय वाणी से अगोचर है, फिर भी प्राचीन और अर्वाचीन अनेक विद्वानों ने उनके विराट व्यक्तित्व को प्रांशिक रूप से शब्द-देह देने का प्रयास किया है।
_ 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम्' के प्रथम भाग में मैंने ग्रंथकार का संक्षिप्त जीवन-परिचय देने का अल्प प्रयास किया है, परन्तु वह परिचय तो बालक द्वारा अपने हाथ पसार कर उदधि / सागर का माप बतलाने तुल्य ही है।
कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य भगवंत के विराट् व्यक्तित्व का परिचय देने वाली तत्कालीन विद्वानों की अनेक काव्य-पंक्तियाँ इतिहास के स्वर्ण-पृष्ठों पर अंकित हैं, उनमें से कतिपय पक्तियां यहाँ उद्धृत की जा रही है
१
विराट् आत्मा का विराट् व्यक्तित्व और अद्भुत कृतित्व
सम्यग्ज्ञाननिर्गुणरनवधेः श्रीहेमचन्द्रप्रभोः ।
ग्रंथे व्याकृतिकौशल, वसति तत् क्वास्मादृशां तादृशं ।। अर्थ- सम्यग्ज्ञान के निधि और गुणों से अवधि रहित श्री हेमचन्द्र प्रभु के ग्रन्थ में जो व्याकृति (व्याकरण-शब्दविज्ञान) का कौशल है, वैसा कौशल हमारे जैसे में कहाँ से हो?
-श्री महेन्द्र सूरि कृत अनेकार्थ-करय कौमुदी (२) विद्याम्भोनिधिमंथमंदरगिरिः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः ।
-श्रो देवचन्द्रसूरि कृत चन्द्रलेखा नाटक अर्थ-विद्या रूपी समुद्र को मथने के लिए श्री हेमचन्द्र गुरु मंदरगिरि के समान हैं ।
क्लपं व्याकरणं नवं विरचितं. छन्दो नवं दयाश्रयाऽलंकारौ प्रथितौ नवी प्रकटिती श्री योगशास्त्रं नवं । तर्कः संजनितो नवो जिनवरादीनां चरित्रं नवं,
बद्धं येन न केन केन विधिना, मोहः कृतो दूरतः ।। अर्थ-नवीन व्याकरण, नवीन छन्दोनुशासन, नवीन द्वयाश्रय महाकाव्य, अलंकार शास्त्र, योग-शास्त्र, प्रमाण-शास्त्र तथा जिनेश्वर देवों के चरित्रों की रचना करके (श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य जी ने) किस-कि.म प्रकार से अपना मोह दूर नहीं किया है ? अर्थात् अनेक प्रकार से दूर किया है।
-श्री सोमप्रभसूरिकृत शतार्थकाव्य-टी का जोक ९३ (४)
निःसीमप्रतिभैकजीवितघरौ, निःशेषभूमिस्पृशां, पुण्यौधेन सरस्वतीसरगरू. स्वांगैकरूपो दधत । यः स्याद्वादमसाधयन् निजवपुष्टान्ततः सोऽस्तु मे,
सद्बुद्ध्यम्बुनिधिप्रबोधविधये, श्रीहेमचन्द्रः प्रभुः ।। १ ।। ये हेमचन्द्र मुनिमेतदुक्तग्रन्थार्थ-सेवाभिषतः श्रयन्ते । संप्राप्य ते गौरवमुज्ज्वलानां, पदं कलानामुचितं भवन्ति ।।
-श्री मल्लिषेणमूरिकृत स्यादवादमजरी
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अर्थ-समस्त पृथ्वीवासियों की पुण्यगशि को इकट्ठी करके असीम प्रतिभा से एक जीवित धारण करने वाली सरस्वती और ब्रहस्पति को जिन्होंने अपने शरीर में एक रूप करके धारण किया है और अपने देह के र मे जिन्होंने स्याद्वाद को सिद्ध किया है, ऐसे चन्द्रतुल्य श्री हेमप्रभु मेरी सद्बुद्धिरूपी सागर के प्रबोध (विकास) के लिए चन्द्र समान हों।
. जो इस ग्रन्थ के अर्थ की सेवा के बहाने से श्री हेमचन्द्रमुनि का प्राश्रय लेते हैं, वे गौरव प्राप्तकर उज्ज्वल कलाओं के उचित स्थान रूप बनते हैं।
(५) . जयसिंहदेववयणाउ, निम्मियं सिद्धहेमवागरणं ।
नीसेससद्दलक्खणनिहामिभिणा मुरिंगदेण ।। अर्थ-जयसिंह (सिद्धराज) राजा के वचन से इस मुनीन्द्र के द्वारा समस्त शब्द लक्षण के निधान म्वरूप सिद्धहैम व्याकरण रचा गया । (६) किं स्तुमः शब्दपाथोघेहेमचन्द्रयतेतिम् ।
एकेनापि हि येनेदृक् कृतं शब्दानुशासनम् ।। अर्थ- शब्द-समुद्र रूप हेमचन्द्र मुनि की बुद्धि की क्या स्तुति करें (कैसे स्तुति करें ?) ? क्योंकि जिन्होंने प्रोले ही ऐसे (महान्) शब्दानुशासन की रचना की है। (७) शब्द-प्रमाण-साहित्य-छन्दो-लक्ष्म-विधायिनां ।
श्रीहेमचन्द्रपादानां, प्रसादाय नमो नमः ।। अर्थ-शब्द, प्रमाण, साहित्य, छंद और व्याकरण के विधायक श्री हेमचन्द्र भगवंत के प्रसाद गुण को बारम्बार नमस्कार हो। "
-श्री रामचन्द्र सूरि तथा श्री गुणचन्द्र सूरि कृत नाट्यदर्पण (८) तुलीय-तवरिणज्ज-कंती-सयवत्त-सवत्त-नयण-रमरिणज्जा।
पल्लविय-लोयलोयण-हरिसप्पसरा सरीर-सिरी ॥१॥ पाबालत्तणो बिहु चारित्तं जणिय-जरण-चमक्कारं । बावीस-परिसहसहण-दुद्धरं तिव्व-तव पवरं ।। २ ।। मरिणय-विसमत्थसत्था-निमियवायरण-पमूह-गंथगरणा । परवाइ पराजय-जायकित्तीमई जयपसिद्धा ।। ३ ।। धम्म पडिवत्तिजणणं, अतुच्छ-मिच्छत्त मुच्छिमारणं पि । महु-खोरपमुह-महुरत्त-निम्मियं धम्मवागरणं ।। ४ ।। इच्चाइ गुणोहं हेमसूरिणो, पेच्छिऊण छेयजणो । सद्वहइ अदिट्टे वि हु तित्थंकर-गणहरप्पमुहे ।। ५ ।।
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( १२ )
अर्थ-शतपत्र अर्थात् कमल समान नयन से रमणीय और लोगों के नयनों में हर्ष के प्रसार को पल्लवित करने वाली जिनकी शारीरिक संपदा तपनीय अर्थात् सुवर्ण की कांति के समान थी॥१॥
बाल्यकाल से ही जिनका चारित्र लोगों में चमत्कार पैदा करने वाला और बावीस परिषहों को सहन करने से दुर्जय और तीव्र तप के कारण उत्तम था ॥ २ ॥
विषमार्थ शास्त्र के बोध वाली, व्याकरणादि ग्रंथों को रचने वाली और परवादी का पराजय कर कीर्ति प्राप्त करने वाली जिनकी बुद्धि थी ॥३॥
मिथ्यात्व से मूच्छित बने हुओं को भी धर्मबोध देने वाला जिनका धर्मकथन अतुच्छ और मधु-क्षीर प्रमुख माधुर्य वाला था—इत्यादि गुणों वाले हेमचन्द्राचार्यजी भगवंत को देख कर, चतुर-निपुणजन अदृष्ट तीर्थकर और गणधर भगवंतों पर भी श्रद्धा करते हैं ।। ४-५॥
-श्री सोमप्रभसूरि कृत प्रबंध (8) सप्तर्षयोऽपि सततं गगने चरन्तो, रक्षुक्षमा न मृगी मृगयोः सकाशात् । जीयाच्चिरं कलियुगे प्रभुहेमसूरि-रेकेन येन भुवि जोववधो निषिद्धः ।।
-विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह
अर्थ-आकाश में सतत घूमने वाले सप्तर्षि भी शिकारी के पास से हरिणी का रक्षण करने में समर्थ न बन सके, जबकि कलियुग में (प्रभु हेमचन्द्राचार्यजी ने) अकेले ही पृथ्वी पर जीववध का निषेध करा दिया, ऐसे हेमचन्द्र प्रभु दीर्घ काल तक जय पाएँ। (१०) गुरुगुर्जरराजस्य, चातुर्विधकसृष्टिकृत् । त्रिषष्टिनरसवृत्तकविर्वाचां न गोचरः ।।
-श्री मुनिरत्नसूरि कृत अममचरित्र अर्थ-गुर्जर सम्राट के गुरु, चार प्रकार की विद्याओं का सर्जन करने में विशिष्ट और त्रिषष्टिशलाका पुरुषों के पवित्र चरित्र को लिखने में कवि ऐसे श्री हेमचन्द्राचार्यजी गणी से अगोचर हैं अर्थात् इस वाणी द्वारा उनकी स्तुति शक्य नहीं है। (११) वैदुष्यं विगताश्रयं श्रितवति श्रीहेमचन्द्रे दिवम् ।'
-राजकवि सोमेश्वरदेवरचित सुरथोत्सव
अर्थ-श्री हेमचन्द्र प्रभु के स्वर्ग-गमन पर विद्वत्ता आश्रयरहित हो गई।
प्रचंड प्रतिभा के स्वामी कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्यजी भगवंत की दैविक-प्रतिभा के दर्शन हमें उनकी कृतियों में मिलते हैं। प्राचीन-अर्वाचीन अनेक विद्वानों ने उनकी काव्य-कृतियों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।
संस्कृतभाषा-बोध के लिए आज तक अनेक व्याकरण-ग्रन्थ रचे गए हैं, उन ग्रन्थों में इस व्याकरण-ग्रन्थ को अपनी मौलिक विशेषताएँ हैं, जो अध्यापक व पाठकगण स्वयं ही समझ सकते हैं।
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( १३ )
'सिद्ध हेम' के अध्ययन-अध्यापन में उपयोगी कतिपय प्राचीन अर्वाचीन ग्रंथों की यहाँ सूची दी जा रही है
१. क्रियारत्न समुच्चय-- प्रा. गुणरत्नसूरि कृत (सं. १४६६ )
२.
स्यादि - समुच्चय-- प्रा. अमरचन्द्रसूरि कृत
३.
हैमविभ्रम- सटीक - प्रा. गुरणचन्द्रसूरि कृत
४. हैमविभ्रम-सवृत्तिक - प्रा. जिनप्रभसूरि कृत
५. लिंगानुशासन वृत्ति - प्रा. जयानंदसूरि कृत
६. लिंगानुशासनदुर्गपदप्रबोधवृत्ति - श्री वल्लभगरिण कृत
७.
८.
हैम - कविकल्पद्रुम - पं. हर्षकुलगणि कृत
स्यादिशब्ददीपिका - प्रा. जयानंदसूरि कृत
९.
प्राकृतशब्द समुच्चय-- प्रा. प्रमरचंद्रसूरि कृत
१०.
द्वयाश्रय - काव्यवृत्ति (संस्कृत) – उपा. अभय तिलकगरण कृत ११. द्वयाश्रयवृत्ति - प्राकृत - पं. पूर्णकलश गरिण कृत
१२.
न्याय संग्रह - न्यायार्थं मंजूषा न्यास -- हेमहंस गणि कृत १३. अभिधान- चिंतामणि मिर्गीति - महो. भानुचन्द्र गणि कृत १४. अभिधान - चिंतामणि - सारोद्धारवृत्ति - श्री वल्लभ गरिण कृत मीनाममाला - प्रा. जिनदेवसूरि कृत
१५.
सिद्धम पर से अवतरित व्याकरण
१. सिद्ध सारस्वत – प्रा. देवानंदसूरि कृत (सं. १३३४ )
२. हैमलघुप्रक्रिया — महो. विनयविजय गरिण कृत ( १७१२ )
३. हैम प्रक्रिया प्रकाश
४.
चन्द्रप्रभा (हैमकौमुदी ) - महोपाध्याय मेघविजय गरि कृत ( १७५८ )
५. हेमशब्दचन्द्रिका - महो. मेघविजय गणि
६. हैम प्रक्रिया - वीरसी कृत
७.
11
बृहद् हेमप्रभा - प्रा. विजय मिसूरि कृत
सिद्ध प्रभा - आ. सागरानंदसूरि कृत
19
८.
९. हेमबृहत् प्रक्रिया - पं. गिरिजाशंकर शास्त्री कृत
१०. हेमसंस्कृतप्रवेशिका (गुजराती) - पं. शिवलाल कृत
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न्यास सारसमुद्धार (लघुन्यास) के कर्ता का संक्षिप्त परिचय
कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी भगवंत विरचित 'श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्' के बृहन्न्यास में से पू. प्राचार्य श्री कनकप्रभसूरीश्वरजी म. सा. का परिचय देना भी अत्यंत अनिवार्य है। प्राचीन इतिहास के ग्रंथों के अवलोकन के बाद भी उनके जीवन सबंधी विशेष जानकारी तो नहीं मिल पाई है, फिर भी न्याससारसमुद्धार के अन्त में प्रशस्ति काव्यों के द्वारा उनकी विद्वत्ता का हमें अवश्य बोध होता है।
प्रशस्तिकाव्यपासीद् वादिद्विरदपृतनापाटने पञ्चवक्त्रश्चान्द्रे गच्छेऽच्छतरधिषणो धर्मसूरिमुनीन्द्रः । पट्टे तस्यानि जनमनोऽनोकहानन्दकन्दः, सूरिः सम्यग्गुणगणनिधिः ख्यातिभाग् रत्नसिंहः ।। १ ।।। यस्योपरागसीमाया-मुदयः परभागभाग् । देवेन्द्रसूरिस्तत्पट्टे जज्ञे नव्यो नभोमणिः ।। २ ।। भूपालमौलिमाणिक्य-मालालालितशासनः । दर्शनषटकनिस्तन्द्रो, हेमचन्द्रो मुनीश्वरः ।। ३ ।। तेषामुदयचन्द्रोऽस्ति, शिष्य: संख्यावतां वरः । यावज्जीवमभूद्यस्य, व्याख्याज्ञानामृतप्रपा ।। ४ ।। तस्योपदेशाद् देवेन्द्रसूरिशिष्यलवो व्यधात् ।।
न्याससारसमुद्धार, मनीषी कनकप्रभः ।। ५ ।। अर्थ- चान्द्रगन्छ में वादी रूपी हाथियों की सेनाओं को फाड़ने में सिंह समान अत्यंत बुद्धि निधान प्राचार्य धर्मसूरि थे।
जन-मन रूपी वृक्ष के पानंद रूपी कंद वाले सम्यग् गुण गण के महासागर और प्रत्यंत प्रसिद्ध रत्नसिंहसूरि उनके पट्टधर थे।
उपराग अर्थात् विपक्षाक्रमण की पराकाष्ठा में जिनका उदय गुणोत्कर्ष को भज रहा था, ऐसे नवीन सूर्य समान देवेन्द्रसूरिजी म. उनके पट्ट पर उत्पन्न हुए। नवीनता का कारण यह है कि राहु ग्रहण की पराकाष्ठा में सर्य तेजस्विताहीन उदित होता है, जबकि देवेन्द्रसरिजी म. परवादियों के प्राक्रमण में अधिक दीप्तिमान हो रहे थे।
माणेक की श्रेणी से सुशोभित मुकुट वाले राजा भी जिनकी प्राज्ञा का स्वीकार करते थे, ऐसे षड्दर्शन के ज्ञाता श्री हेमचन्द्रसूरिजी हुए।
उनके अनेक शिष्यों में उदयचन्द्र नाम के शिष्य हैं, जो सदैव जीवन-पर्यन्त व्याख्या ज्ञान रूपी अमृत की प्रपा (प्याऊ) थे।
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१५ )
उनके उपदेश से देवेन्द्रसूरि के शिष्य मनीषी कनकप्रभ ने न्याससारसमुद्धार की रचना की।
उपर्युक्त प्रशस्ति-काव्यों से स्पष्ट होता है कि कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य भगवंत श्री के शिष्य पंडित उदयचन्द्र गणि की सत्प्रेरणा से पू. कनकप्रभ मुनि ने 'न्याससारसमुद्धार' की रचना की है।
पू. कनकप्रभ मनीषी चान्द्र गच्छ के अन्तर्गत राजगच्छ में हुए हैं ।
चान्द्रगच्छ में प्राचार्य धर्मघोषसूरि नाम के एक महान् प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिनका दूसरा नाम 'धर्मसूरि' था। वे व्याकरण के पारगामी, न्याय-शास्त्र में निष्णात, सूत्र-अर्थ के समर्थ व्याख्याता और अपूर्व बुद्धिशाली थे। वे महावादी थे। अंबिका देवी के कृपा-पात्र थे।
- नागौर के राजा पाल्हण, शाकंभरी के राजा अजयराज, अर्णोराज तथा विग्रहराज को उन्होंने प्रतिबोध किया था। उनके उपदेश से प्रभावित होकर विग्रहराज ने जैनधर्म स्वीकार किया था और उसने अपने राज्य में पर्व-दिनों में प्रमारि पालन करवाया था।
पू. प्राचार्य धर्मघोषसूरिजी म. के पट्टधर पू. प्रा. रत्नसिहसूरिजी म. थे। वे भी अत्यंत प्रभावक और प्रतिभा संपन्न थे। उन्होंने भी अपने जीवन में अनेक ग्रन्थों की रचना की है।
- पू. प्रा. श्री रत्नसिंहसूरिजी म. के पट्टधर पू. आ. श्री देवेन्द्रसूरि हुए और उनके शिष्य पं. कनकप्रभ महर्षि थे। वे भी प्रतिभावंत और जिनशासन के अनुरागी थे।
प्रस्तुत-संपादन परम पूज्य दात्सल्यनिधि स्वर्गीय पूज्यपाद गुरुदेव पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री के कृपा-पात्र बने पूज्य विद्वद्वयं प्रात्मीय मुनिवर श्री वज्रसेनविजयजी म.सा के दिल में प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशन की उत्तम भावना रही हुई है, जो अत्यंत ही प्रशस्य है। उनके दिल में इस ग्रन्थ के पुनरुद्धार की भावना जागृत हुई और उनकी ही शुभ प्रेरणा से मु भी यत्किंचित् सेवा का अवसर मिला, उसके लिए मैं उनका अत्यंत ही अ.भारी हूँ।
प्रस्तुत, ग्रन्थ-संपादनादि में कहीं स्खलना रह गई हो तो उसके लिए क्षमायाचना के साथ, प्रस्तुत ग्रन्थ भव्यात्माओं के सम्यग् ज्ञान की वृद्धि में निमित्त बने और वे भव्यात्माएँ क्रमशः शाश्वत-पद की भोक्ता बनें, इसी शुभेच्छा के साथ
विजयदानसूरि ज्ञानमंदिर कालपुर रोड प्राषाढ़ मुद १४, २०४२ (चातुर्मास-प्रारंभ दिवस) दिनांक २०-७-८६
--मुनि रत्नसेनविजय
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SparxxxxxxxxxxARRRRRRRXxxxxxAARRARY
Namanbharaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaas
अध्यात्मयोगी निस्पृहशिरोमणि पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकर विजयजी गणिवर्यश्री
विरचित तात्त्विक और तार्किक साहित्य
गुजराती साहित्य १. जैन मार्ग नी पिछाण
१४. श्री महावीरदेव नु जीवन । २. नमस्कार-महामन्त्र
१५. तत्त्वदोहन ३. अनुप्रेक्षा
१६. तत्त्वप्रभा नमस्कार-मीमांसा
१७. मननमाधुरी ५. नमस्कार दोहन
१८. मंगल वाणी जिन-भक्ति
१६. वचनामृत संग्रह देव-दर्शन
२०. अजातशत्रु नी अमर वाणी ८. प्रतिमा-पूजन
२१. चुटेलु चिंतन ६. प्रार्थना
२२. महामंत्र ना अजवाला १०. प्रतिक्रमण नी पवित्रता
२३. अनुप्रेक्षा ना अजवाला ११. धर्म श्रद्धा
२४. चिन्तनधारा २. अाराधना नो मार्ग
२५. चिंतन सुवास १३. आस्तिकता नो आदर्श
हिन्दी साहित्य १. परमेष्ठि-नमस्कार
६. जैन मार्ग परिचय २. महामन्त्र की अनुप्रेक्षा
७. चिन्तन के मूल ३. नमस्कार मीमांसा
८. परमात्म-दर्शन चिन्तन की चिनगारी
चिन्तन की चांदनी ५. प्रतिमा-पूजन
:
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अहम् ॥ अनंतलब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने नमः ॥ । पूज्यपादाचार्य देवश्रीमद् दान-प्रेम-रामचन्द्र-भद्रङ्करसद्गुरुभ्यो नमः ।
- कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिभगवत्प्रणीतंश्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् । [ स्वोपज्ञतत्त्वप्रकाशिकाभिधबृहद्वृत्ति-मनीषिकनकप्रभसूरिविरचितन्याससारसमुद्धार (लघुन्यास)-संवलितम् ]
[तत्र-षष्ठोऽध्यायः] तद्धितोऽणादिः ॥ ६. १. १॥
अणादिः प्रत्ययो य इत ऊर्ध्व वक्ष्यते स तद्धितसंज्ञो विज्ञेयः । औपगवः, कापटवः । तद्धितंप्रदेशाः 'ऋतो रस्तद्धिते' (१-२-२६) इत्यादयः ॥१॥
न्या० स.-तद्धितोऽणादिः-तस्मै लौकिक-वैदिकशब्दसंदर्भाय ताभ्यः प्रकृतिभ्यो विकृतिभ्यो वा हितः, आधं मतं जैनेन्द्रस्य, द्वित्तीयमुत्पलस्य । हितादिभिः' ३-१-७१ इति समासः। पौत्रादि वृद्धम् ॥ ६. १. २ ॥
परमप्रकृतेः अपत्यवतो यत्पौत्राद्यपत्यं तद्वद्धसंजं भवति । गर्गस्यापत्यं पौत्रादि गार्ग्यः, एवं वात्स्यः । पौत्रादीति किम् ? अनन्तरापत्ये गार्गिः वात्सिरित्येव भवति, पौत्रस्यापत्यत्वात् तदाद्यपत्यमेव विज्ञायते। वृद्धप्रदेशाः 'वृद्धानि' (६-१-३०) इत्यादयः ॥२॥
न्या० स० पौत्रादि वृद्धम्-अपत्यवत इति-विशेष्यं परमप्रकृतेरिति विशेषणं, अन्यथा परमप्रकृतविशेष्यत्वे अपत्यषत इत्यस्य स्त्रीत्वं स्यात्, परमा प्रकृष्टा प्रकृतिः परमप्रकृतिर्यस्मात परोऽन्यो न ज्ञायते. यद्यपि पितामहप्रपितामहादिनीत्या वृद्धसंतानस्यानन्त्यं तथापि यन्नाम्ना कुलं व्यपदिश्यते स परमप्रकृतिरित्युच्यते । ___ गार्ग्य इति-बाहादोबो बाधको गर्गादेर्यञ् । गार्गिरिति-अन्न इमो बाधक ऋष्यण प्राप्नोति, तद्बाधनाय बाहादित्यादि ।
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२] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
वंश्यज्यायोभ्रात्रोर्जीवति प्रपौत्राद्यस्त्री युवा ॥ ६. १. ३. ॥
वंशे भवो वंश्यः पित्रादिरात्मनः कारणम् । ज्यायान् भ्राता वयोऽधिक एकपितक एकमातृको वा, प्रपौत्रः पौत्रापत्यम् परमप्रकृतेश्चतुर्थः । स्त्रीवजितं प्रपौत्राद्यपत्यं जीवति वंश्ये ज्यायोभ्रातरि वा युवसंज्ञं भवति । गाायणः, वात्स्यायनः । वंश्यज्यायोभ्रात्रोरिति किम् ? अन्यस्मिन् जीवति गार्ग्यः । ज्यायोग्रहणं किम् ? कनीयसि भ्रातरि गार्यः । जीवतीति किम् ? मते गार्यः । प्रपौत्रादीति किम् ? पौत्रो गार्ग्यः । अस्त्रीति किम् ? स्त्री गार्गी। वचनभेदः पृथनिमित्तत्वद्योतनार्थः ॥३॥
न्या. स.- वंश्यज्यायोभा०-वंश्य इति-आदिपुरुषे रूढिवशाद् वर्तते । सपिण्डे वयःस्थानाधिके जीवदा ॥ ६. १. ४॥
ययोरेकः पूर्वः सप्तमः पुरुषस्तावन्योन्यस्य सपिण्डौ, वयो यौवनादि, स्थानं पिता पुत्र इत्यादि । परमप्रकृतेः स्त्रीवजितं प्रपौत्राद्यपत्यं वयःस्थानाभ्यां द्वाभ्यामप्यधिके सपिण्डे जीवति जीवदेव युवसंज्ञं वा भवति । पितृव्ये पितामहस्य भ्रातरि वा वयोऽधिके जीवति जीवत् गार्ग्यस्यापत्यं गार्ग्यः गाायणो वा, एवं वात्स्यः वात्स्यायनो वा। सपिण्ड इति किम् ? अन्यत्र गार्यः । वयः स्थानाधिक इति किम् ? द्वाभ्यामन्यतरेण वा न्यूने गायः । जीवदिति किम् ! मृतो गार्ग्यः । जीवतीत्येव ? मृते गार्ग्यः । प्रपौत्रादीत्येव ? पौत्री गार्यः । अस्त्रोत्येव ? स्त्रो गागीं ॥४॥
न्या० स० सपिण्डे वयःस्थाना०-पितृव्ये इति-न वाच्यं पितृव्ये वाच्ये वंश्यद्वारा पूर्वणैव भविष्यति, पितृव्यस्य वंश्यताया अभावात् । पित्रादिगत्मनः कारणमिति युक्तम् । अन्यत्रेति-मातुलादावित्यर्थः ।
द्वाभ्यामन्यतरेणेति-लघौ पितृव्यजे द्वाभ्यां न्युनत्वं लघौ पितृव्ये जीवत्यऽन्यतरेण न्युनत्वमिति ।
पौत्रो गार्य इति-गर्गस्यापत्यमनन्तरमपि वृद्धत्वोपचारात् गार्ग्यस्तस्यापत्यं युवेति कृते गाायण इति प्राप्नोति, तन्न भवति । युववृद्धं कुत्सार्चे वा ॥ ६. १.५॥ युवा च वृद्धं चापत्यं यथासंख्यं कुत्सायाम यां च विषये युवसंशं वा
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः भवति, यूनः कुत्सायां पक्षे युवत्वं निवर्त्यते, तत्र वृद्धप्रत्ययेनाभिधानं भवति । गाग्यस्यापत्यं युवा कुत्सितो गार्ग्यः गाायणो वा जाल्मः । गुर्वायत्तो भूत्वा स्वतन्त्रो यः स एवमुच्यते, कुत्साया अन्यत्र गाायण एव । वृद्धस्य चर्चायां पक्षे युवत्वं प्राप्यते, तत्र युवप्रत्ययेनाभिधानं भवति । गर्गस्यापत्यं वृद्धचितं तत्रभवान् गाायणः गार्यो वा । अर्चाया अन्यत्र गार्ग्य एव । अस्त्रीत्येव ? गर्गस्यापत्यं पौत्रादि स्त्री गार्गी ।। ५॥
न्या० स०-युववृद्ध०-युवत्वं निवर्त्यत इति- वंश्यज्यायः' ६-१-३ इत्यनेन नित्यं प्राप्तम् । संज्ञा दुर्वा ॥६. १. ६ ॥. . या संज्ञा संव्यवहाराय हठान्नियुज्यते सा दुसंज्ञा वा भवति । देवदत्तीयाः, देवदत्ताः, सिद्धसेनीयाः, सैद्धसेनाः । द्रुप्रदेशाः 'दोरीयः' (६-३-३१) इत्यादयः ॥६॥
न्या० स०-संज्ञा दुर्वा-संज्ञायतेऽनया स्थादित्वात् कः, बाहुलकात् त्रीत्वं, संज्ञानं वा, 'उपसर्गादातः' ५-३-११० इत्यञ् । त्यदादिः ॥ ६. १.७॥
सर्वाद्यन्तर्गतास्त्यदादयो दुसंज्ञा भवन्ति । त्यदीयम्, तदीयम्, यदीयम, इदमीयम्, अदसीयम्, एतदीयम् एकीयम्, द्वीयम्, युष्मदीयम्, अस्मदीयम, किमीयम्, त्यादायनिः, यादायनिः ॥ ७ ॥ . न्या० स०-त्यदादिः-भवदन्यै!दाहृतः इत्यस्माभिरपि नोदाहृतः, प्रयोगस्तु भावतायनिः । वृद्धिर्यस्य स्वरेष्वादिः ॥ ६. १. ८॥
यस्य शब्दस्य स्वरेषु मध्ये आदिः स्वरो वृद्धिसंज्ञो भवति स शब्दो दुसंज्ञो भवति । आम्रगुप्तायनिः, शालगुप्तायनिः, आम्बष्ठयः, शालीयः, मालीयः, ऐतिकायनीयः, औपगवीयः । वृद्धिरिति किम् ? दत्तस्येमे दात्ताः, अत्र स्वरेष्वादिः अकारोस्तीति दुसंज्ञा स्यात्, शालीया इत्यादिषु तु न स्यादिति वृद्धिग्रहणम् । यस्येति संज्ञिनिर्देशार्थम् । अनेन हि स इत्याक्षिप्यते। स्वरेष्विति व्यञ्जनानपेक्षया बुद्धिसंनिकृष्टस्वरसंनिवेशापेक्षमादित्वं यथा विज्ञायेतेत्येवमर्थम्, तेन व्यञ्जनादेरपि दुसंज्ञा सिद्धा भवति । आदिरिति किम् ? सभासन्नयने भवः साभासंनयनः ॥८॥
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पा० १. सू० ९-१०] न्या० स०-वृद्धिः-स्वरेष्विति-स्वरौ च स्वराश्च एकशेषे, शालायां भवो जातो वा 'दोरीयः' ६-३-३२ । आम्बष्टय इति-आम्षष्ठानां राष्ट्रस्य राजा, आम्बष्ठस्य राज्ञोऽपत्यंवा, 'दुनादि' ६-१-११८ इति अयः । ऐतिकायनीय इति-इतिकस्यापत्यं वृद्धं नडाद्यायनण, तस्य छात्र इति कृते 'गोत्राददण्ड' ६-३-१६९ इत्यकम् न शिष्यवर्जनात, ततो 'दोरीयः' ६-३-३२ एवमौपगवीयः ।
अकारोऽस्तीति-स्वरेषु हि आदौ अकारः चात्रास्ति शालीया इत्यादिषु तु आदिस्वरोऽकारो नास्ति किन्तु द्वितीय आकार इति न स्यात् । एदोद्देश एवेयादौ ॥ ६. १, ९ ॥
देश एव वर्तमानस्य यस्य शब्दस्य स्वरेष्वादिः स्वर एकार ओकारो वा भवति स ईयादौ प्रत्यये विधातव्ये दुसंज्ञो भवति । सैपुरिका, सैपुरिकी, स्कौनगरिकी । सेपुरं स्कोनगरं च वाहीकग्रामौ । देश इति किम् ? दैववाचकं नन्द्यध्ययनम् । एवकारोऽन्यत्र वृत्तिव्यवच्छेदार्थः, तेन देशेऽन्यत्र च वर्तमानस्य न भवति । कोडं नामोदग्ग्रामस्तत्र भवः कौडः, देवदत्तं नाम वाहीकग्रामस्तत्र भवो देवदत्तः । क्रोडशब्दः स्वाऽपि वर्तते । देवदत्तशब्द: पुस्यपि क्रियाशब्दश्च । ईयादाविति किम् ? आयनिबादौ न भवति ॥९॥
न्या० स०-एदोद्देश०-ईयादाविति- ईयः स्वसुश्च' ६-१-८९ ‘जातेरीयः सामान्यवति' ६-३-१३९ इत्यादेरीयस्य न प्रहस्तेषु दुसंज्ञानिबन्धनकार्याभावात् ।
सैपुरिकेति-सिन्वन्तीति विच् गुणः सयां पुरं सेपुरं, तत्र भावा 'व्यादिभ्यो णिकेकणौ' ६-३-३४ इत्यधिकारे 'वाहीकेषु प्रामात् ' ६-३-३६ ।
देववाचकमिति-देवान वक्ति बाहुलकात् णकः, देववाचकेन कृतं प्रोक्तं वा कृते, तेन प्रोक्ते वा अण् , अवश्यं नन्दतीति 'णिन्चावश्यक' ५-४-३६ इति णिन् , नन्दिनोऽध्ययनं .. नन्दन्ति भव्यप्राणिनोऽनया नन्दी चासावध्ययनं च इति वा ।
आयनिबादाविति-उपचारात् सेपुरस्थः पुरुषोऽपि सेपुरस्तस्यापत्यमवृद्धादायनिञ् , न च वक्तव्यं देशे एव न वर्तते इति, मुख्याभिधेयापेक्षया देशे एव वर्त्तते इत्युक्तमन्यथा सर्वेऽपि शब्दा उपचारेण स्वार्थ त्यजन्त्येव । प्राग्देशे ॥ ६. १.१०॥
प्राग्देशे वर्तमानस्य यस्य शब्दस्य स्वरेष्वादिः स्वर एकार ओकारो वा भवति स ईयादी प्रत्यये विधातव्ये दुसंज्ञो भवति, कः पुनः प्राग्देशः यः शरावत्याः सरितः पूर्वोत्तरेण वहन्त्याः पूर्वतो दक्षिणतो वा भवति । यस्तु पश्चिमत उत्तरतो वा स उदक् । यदाहुः
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[पा० १. सू० ११] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः
प्रागुदञ्चौ विभजते हंसः क्षीरोदके यथा,
विदुषां शब्दसिद्धय या सा वः पायाच्छरावती ॥१॥ एणोपचने भव एणीपचनीयः । गोनर्दीयः, भोजकटीयः, कोशवक्षीयः, गोमयह्रदीयाः, एकचक्रकः । क्रोडं नाम प्रागग्रामस्तत्र भवः क्रोडीयः, देवदत्तं नाम प्रागग्रामस्तस्य काश्यादिपाठात् णिकेकणौ, देवदत्तिका, देवदत्तिकी। पूर्वक देशग्रहणम् एवकारेण संबद्धमिति पुनरिह देशग्रहणम् । देश एवेति नियमनिवृत्त्यर्थं वचनम् ।। १०॥
न्या० स०-प्रारदेशे-प्राङ् चासो देशश्च प्राचां देश इति वा । पूर्वोत्तरेणेति-पूर्वावयवयोगात् पूर्व, उतगवयघयोगादन्तरालमुत्तरं, पूषं च तदुत्तरं च । ईशानतो नैऋतं गच्छति । गोमहदीये इति-वाहीकेषु बाधकः ‘कखोपान्य' ६-३-५९ इति ईयः, ननु प्राचीति क्रियता देशविकारे ' सति किं पूनर्देशग्रहणेन ! इत्याह-एवकारेण संबद्धमिति-तदनुवृत्तावेधकारोऽप्यनुवर्तेत; तन्निवृत्त्यर्थ पुनर्ग्रहणमित्यर्थः । ननु प्राचीति सूत्रकरणसामर्थ्यादेचकारहित एव देश इत्यनुचर्तिध्यते, यदि ह्येवकारसंबद्धं देश इत्यनुवतिष्यते तदा प्राचीत्येतदपि न कुर्यात्, पूर्वेण सामान्येन सिद्धत्वात् ?
सत्यं, प्राचीति कृते सूत्रसामर्थ्यात् प्राचि कालेऽपि वर्तमानस्य दुसंज्ञा स्यादित्यप्याशङ्का स्यादिति देशग्रहणं, पूर्वसूत्रे सामान्ये देशे दुसंज्ञा सामान्यमध्ये विशेषो बुडित एव, ततः किं वचनेन ! इत्याह-देश एवेति । वाद्यात् ॥ ६. १. ११॥
वा इति च आखादिति च द्वितयमधिकृतं वेदितव्यम्, तत्र वाधिकारादित ऊवं वक्ष्यमाणाः प्रत्यया विकल्प्यन्ते, तेन पक्षे यथाप्राप्तं वाक्यं समासश्च भवति । उपगोरपत्यम, उपग्वपत्यम् इति । उत्सर्गरूपस्तु तद्धितोऽपवादविषये 'पीलासाल्वामण्डूकाद्वा' (६-१-६८) इत्यादौ वाग्रहणान्न भवति । आद्यादित्यधिकारात्सूत्रे यदादौ निर्दिष्टं तस्मात्प्रत्ययो भवति नान्यस्मात्, तेन 'सास्य'-(६-२-९८) इत्यधिकारे देवतेत्यादौ सेति प्रकृतिरस्येति प्रत्ययार्थो व्यवस्थितो भवति । इन्द्रो देवतास्य ऐन्द्रम् हविः, ऐन्द्रो मन्त्रः ॥ ११॥
न्या. स० वाद्यात्-नन्वत्र यथा वक्ष्यमाणतद्धितप्रत्ययानां विकल्पनात् पक्षे वाक्यसमासौ दश्यते तथा कथमपवाद प्रत्ययानां विकल्पेन पक्षे नोत्सर्गप्रत्यय इत्याह उत्सर्येत्यादि ।
, व्यवस्थितो भवतीति-आद्यादिति विना तु अस्येति प्रकृतिर्देवतार्थे इत्यपि स्यात् ।
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते गोत्रोत्तरपदाद्गोत्रादिवाजिह्वाकात्यहरितकात्यात् ॥ ६. १. १२ ॥
गोत्रमपत्यम्, जिह्वाकात्यहरितकात्यजिताद्गोत्रप्रत्ययान्तोत्तरपदात् यदगोत्रप्रत्ययान्तमुत्तरपदं तस्मादिव वक्ष्यमाणः प्रत्ययो भवति, यथेह ईयो भवतिचारायणोयाः, पाणिनीयाः, जैमिनीया: रौढीयाः तथा कम्बलचारायणीयाः, ओदनपाणिनीया, कडारजैमिनीयाः, घृतरौढीया इत्यादावपि भवति। यथा चेहाञ् भवति शाकलाः, काण्वाः, दाक्षाः, पान्नागाराः तथा हिशाकलाः, पैङ्गलकाण्वाः, कापिलदाक्षाः, क्षरपान्नागारा इत्यत्रापि भवति । अजिह्वाकात्यहरितकात्यादिति किम् ? यथेहेयो भवति कात्यस्य छात्रा: कातीयास्तदिह न भवति, जिह्वाचपल: कात्यो जिह्वाकात्यः, हरितभक्षः कात्यो हरितकात्य: तस्येमे छात्रा: जैह्वाकाताः हारिकाताः ॥ १२॥
न्या० स० गोत्रो०-परमश्चासौ गार्ग्यश्च पग्मगार्ग्यस्तस्यापत्यं पारमगाायण इति न भवति, शैषिकेऽर्थे सूत्रस्य प्रवृत्तत्वात् , शैषिकः कथं लभ्यते इति चेत् १ सत्यं, ईयादावित्यधकारे ईयस्यादिरीय आदिरस्येति च समासात् ।
पाणिनीया इति-पणनं पणः, 'पणेर्माने' ५-३-३२ (इति) अल् , पणोऽस्यास्तीति पणी, 'अतोऽनेकस्वरात् ' ७-२-६ (इति) इन्, पणिनोऽपत्यं वृद्धं, 'सोऽपत्ये ६-१-२८ (इति ) अण् पाणिनस्यापत्यं युवा, 'अत इञ्' ६-१-३१ पाणिनेरिमे च्छात्रा ईयविषये 'युनि लुप्' ६-१-१३७ इति इबो लुपि दोरीयः।
शाकला इति-शकलस्यापत्यं 'गर्गादेर्यञ्' ६-१-४२ तस्येमे 'शकलादेर्यम् । ६-३-२७ इत्यबि 'अवर्णेवर्णस्य' ७-४-६८ इत्यनेनालोपे तद्धितयस्वरे २-४-९२ इति यलुप । एवं काध्वाः। प्राग् जितादण् ॥ ६. १. १३ ॥
प्राग् जितशब्दसंकीर्तनात् पादत्रयं यावत् येऽर्था अपत्यादयस्तेष्वपवादविषयं परित्यज्याण् प्रत्ययो वा भवति । उपगोरपत्यमौपगवः, मञ्जिष्ठया रक्त वस्त्रं माजिष्ठम्, भिक्षाणां समूहो भैक्षम्, अश्मनो विकार आश्मः, सूघ्ने भवः स्रोघ्नः, णकारो वृद्धयर्थः । अधिकारः परिभाषा विधिर्वाऽयम. अधिकारपक्षे प्राजितादित्युत्तरार्थम् । अन्यथेकणित्यादिवदणित्येव सिद्धम ॥ १३ ॥ ___ न्या०-स.-प्राजि० भैक्षमिति औत्सर्गिकाणो बाधकस्य 'कवचि' ६-२-१४ इतीकणो बाधको भिक्षादेर । अधिकार इति ननु कोऽत्र परिभाषाधिकारयोर्भेदः ? उच्यते, परिभाषा
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [७ हि एकदेशस्थैव सकलं शास्त्रमभिज्वलन्ती व्यवहितेऽपि अनन्तरोत्तरादौ प्रवर्त्तमाना न प्रतिहतशक्तिर्भवति, अधिकारस्तु नदीस्रोतोरूपतया अनन्तर एव प्रवर्त्तते न व्यवहिते, विधिरपि युज्यते एव यतः प्रागजिताये अर्थाः तेषामिह बुद्धया संकलय्य निर्देशात् , तेनानेनैव सर्वेष्वर्थेष्वण् विधीयते, अतः पक्षत्रयेऽप्यदोष इति । धनादेः पत्युः ॥ ६. १. १४॥
धनादेर्गणात्परो यः पतिशब्दस्तदन्ताद्धनपतीत्येवमादेः प्रागजितीयेऽर्थेऽण् प्रत्ययो वा भवति। धनपतेरपत्यं तत्र भवस्तत आगतो वा धानपतः, आश्वपतः, राष्ट्रपतेरिदं राष्ट्रपतम्, धान्यपतम् प्राणपतम् । धन, अश्व, गज, शत, गण कुल, गृह, पशु, धर्म, धन्वन्, सभा, सेना, क्षेत्र, अधि, राष्ट्र, धान्य, प्राण इति धनादिः । केचित्तु गृहसेनाशब्दौ न पठन्ति, तन्मते गाहपत्यं सैनापत्यम् इत्युत्तरेण ञ्य एव । पत्युत्तरपदलक्षणस्य ज्यस्य राष्ट्रादिषु त्रिषु ‘दोरीयः' (६-३-३१) इतीयस्य चापवादोऽयम् ॥ १४ ॥ अनिदम्यणपवादे च दित्यदित्वादित्ययमपत्युत्तरपदाभ्यः॥६.१.१५॥
दिति-अदिति-आदित्ययमशब्देभ्यः पत्युत्तरपदाच्च प्रागजितीयेऽर्थे इदमर्थवजितेऽपत्यादावर्थे योऽणोऽपवादः प्रत्ययस्तद्विषये च ज्यः प्रत्ययो भवति । दितेरपत्यं दैत्य:, अदितेरपत्यमादित्यः । दितिरदितिरादित्यो वा देवतास्य दैत्यम् आदित्यम, आदित्य्यम् एवं याम्यम्, पत्युत्तरपद-बृहस्पतेरपत्यं बाहस्पत्यः, प्राजापत्यः, बृहस्पतिर्देवतास्य बार्हस्पत्यम्, एव प्राजापत्यम् । अणपवादे च आदित्यस्यापत्यमादित्य्यः, यमस्यापत्यं याम्यः, अत्र परत्वात् 'अत इञ्' (६-१-३१) इतीञ् स्यात् । वनस्पतीनां समूहो वानस्पत्यम्, अत्रचित्तलक्षण इकण् स्यात्, ज्यो हि प्राजितीयमणं बाधित्वा सावकाश इति अणपवादग्रहणम् । अणग्रहणं किम् ? वास्तोष्यत्यभार्यः। असत्यण्ग्रहणे स्वापवादविषयेऽप्यस्य समावेशे सति ' तद्धितः स्वरवद्धिहेतु:-' (३-२--५५) इत्यादिना पुवद्भावनिषेधात् वास्तोष्पत्याभार्य इति स्यात् । अनिदमीति किम् ? आदित्यस्येदमादितीयम्, उष्ट्रपति म वाहनम् तस्येदमौष्ट्रपतम्, 'वाहनात् '-(६-३-१७६) इत्या कारस्य वृद्धिः ‘जिदा दणिोः ' (६-१-१४०) इति च प्रयोजनम् ।। १५ ॥
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० १६-१७) न्या० स० अनिद० आदित्य्यमिति-अदितेरपत्यं यः, आदित्यो देवतास्येति व्यः, अवर्णेवर्ण' ७-४-६८ 'तद्धितयस्वर' २-४-९२ इनि यलोपः, 'ततोऽस्याः' १-३-३४ द्वित्वं, अथवा अदितिर्देवताऽस्य व्यः, आदित्यो देवताऽस्येति न्या, 'अवर्णवर्णस्य ४-४-६८ इत्यकारलोपः तदा यस्य लप न भवत्यनपत्यत्वात । आदित्यस्यापत्यमिति-अदितिर्देवता अस्याऽपत्ये त वाच्ये आपत्यस्य यस्य लोपः स्यात्, अत्र 'अवृद्धाद्बोर्नवा' ६-१-११० इत्यायनिमः पले इश् प्राप्नोति, स बाथ्यते ।
ज्यो हीति-ननु च ज्योऽप्यणपवाद इञादयोऽपि तत्र यदीयादयो यं बाधित्वापि स्युः, तदा ञ्यस्य कोऽवकाश इत्यनवकाशत्वात् परानपीबादीनसौ बाधेत किमणंपवादग्रहणेन ? इत्याह-ज्यो होत्यादि अयमर्थः 'प्राजितात्' ६-१-१३ इत्यनेन यो विहितोऽण् तस्यान्योऽपवादो नास्ति, तत्रैतत्सूत्रं सावकाशं ततश्चेह आदित्यस्यापत्यं वनस्पतीनां समूह इत्यादावुभयप्राप्ती असत्यणपवादग्रहणे इवादिरेव स्यात् न भ्यः ।
__अणपवादग्रहणमिति-अणोऽपवादविषये ज्यो न स्यात्, तत्राणपवाद एव स्यादित्यर्थः । स्यापवादविषयपाति-स्वस्यापवादः स्वापवादः तस्य तथाहि वास्तोष्पत्यभाये इत्यत्र वास्तोष्पतिर्देवतास्या इति वाक्ये 'देवता'६-२-१०१ इत्यणपवादोऽनेन भ्यः प्राप्तस्तदपवादो 'यावापृथिवो' ६-२-१०८ इति य इति तस्यापवादोऽयं स्यादित्यर्थः ।
ननु व्यस्य ' द्यावापृथिवी' ६-२-१०८ इति यस्य वा को विशेष इत्याह-तद्धितः स्ववृद्धिरिति-आदित्यस्येरमिति-अदितेरपत्यमिति कर्तव्यं, अन्यथेये आपत्याभावात् 'तद्धितय म्वर' २-४-९२ इति लुप् न स्यात् । न वाच्यं 'गोत्राददण्ड' ६-३-१६९ इतीयबाधकोऽकञ् स्यात्, यतस्तत्र स्वापत्यसंतानस्येति विशिष्टं गात्रं लातं, एतच्च 'पुनर्भूपुत्र'.६-१-३९ इति सूत्रे पूनाधपत्यस्याऽगोत्रत्वात् गोत्राधिकारविहिता लुप् संघाद्यऽण् च न भविष्यतीत भणनात् ज्ञायते ।
निदा दणिोरिति चेति-यमस्यापत्यं वृद्धं याम्य, याम्यस्यापत्यं युवा 'अत इन' ६-१-३१, “बदार्षादणिबाः' ६-१-१४० इति लोपे याम्यः पिता पुत्रश्च । बहिषष्टीकण च ॥ ६. १. १६ ।।
बहिस् इत्येतस्मात् प्रागजितीयेऽर्थे टीकण् प्रत्ययो भवति चकाराद् ञ्यश्च । बहिर्जातो बाहीकः, बाह्यः, बाह्या । 'प्रायोऽव्ययस्य' (७-४-६५) इति अन्त्यस्वरादिलोपः, टकारो ड्यर्थः । बाहीकी। णकारो णित्कार्यार्थः ॥१६॥
न्या. स०-बहिषष्टीकण् च-बाहीक इति-'जातेऽर्थे । ६-३-९८ भवेतु 'यज्ञ ज्य ६-३-१३४ इत्याधिकारे 'गम्भीरपञ्चजन' ६-३-१३५ इति ज्य एव स्यात् न टोकण , ज्योऽप्यऽत्र जात एव, भवेतु सिद्धत्वात् ।। कल्यग्नेरेयण ॥ ६. १. १७ ।।
कलि अग्नि इत्येताभ्यां प्राजितीयेऽर्थेऽनिदम्यणपवादे च एयण् प्रत्ययो भवति । कलिर्देवतास्य कालेयम्, आग्नेयम्, कलो भवं कालेयम्, आग्नेयम्,
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[ पाद. १. सू. १८-१९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः
[ ९
कलिना दृष्टं साम कालेयम्, आग्नेयम्, कलेरिदम् काळेयम् आग्नेयम् । अणपवादे च, कलेरागतं कालेयम्, आग्नेयम् । अत्र ' नृहेतुभ्यः ~( ६-३१५५) इत्यादिना रूप्यमयटी स्याताम् अन्ये तु जितार्थात्परेष्वपि प्राग्वतीयेष्व र्थेष्वेयणमिच्छन्ति । कलये हितं कालेयम् आग्नेयम् । कलेनिमित्तं उत्पातः संयोगो वा कालेयः, आग्नेयः ॥ १७॥
कल्यग्नेरेयण-आग्नेय मति - ण मुख्ययोरिंति अग्निरिवाग्निर्यदा तदा न भवतीति भोजपरिभाषावृत्तिः, एतच भाष्यानुयाथि, एवं- 'बांसुदेवार्जुनादकः ६-३-२०७ इत्यादावपि ।
पृथिव्या ञञ् ॥ ६१. १८॥
पृथिवीशब्दात्प्राग् जितीयेऽर्थेऽनिदम्यणपवादे च आञ् इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः । पृथिव्यां भवः पार्थिवः, प्रावो स्त्रियां विशेषः । पार्थिवा, पार्थिवी । अगपवादे च पृथिव्या अपत्यं पार्थिवः पार्थिवा, पार्थिवी । अत्र एयण् स्यात्, ङी 'बहुषु लुप्” संघादिष्वणिति प्रयोजनमज्विधानस्य ॥१८॥
* न्या० स० पृथिव्या – पार्थिवेति-जातित्वेऽप्यजादित्वादापू यद्वा प्रत्ययद्वय - विधानस्य व्यातिपुरःसरत्वेन व्याख्यानादाबित्यनेनैवाप् न तु जातिद्वारा ङीः ।
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'बहुषु लुबिति - पृथिव्या अपत्यानि अनेनाञ् 'यसनः ' ६-१-१२६ इति लुप् ' क्यादेः ' २०४ - ९५ इति ङीनिवृत्तिर्न गौरादी पृथिवीति पाठात 'गोश्चान्त' २-४-९६ इति ह्रस्वत्वे जसि प्रथिवयः । संघादिष्विति - पृथिव्या अपत्यानि अनो लुपि पृथिवीनां - संघादीति विवक्षायां. 'गोत्राददण्ड ' ६-३-१६९ इत्यक अनिषये 'न प्रागूजितीये' ६-१-१३५ इति अत्रो लुबभावे अकबाधके ' संघघोषाङ्क ६-३-१७२ इत्यणि पार्थिवः ।
उत्सादेर ।। ६. ११९ ॥
उत्स इत्येवमादिभ्यः शब्देभ्यः प्राग्जितीयेऽर्थेऽनिदम्यणपवावे चाम् प्रत्ययो भवति । उत्सस्येदमौत्सम्, औदपानम्, अणपवादे च - उत्सस्यापत्यम् औत्सः, औदपान:, तरुण्या अपत्यं, तारुणः, तालुनः, पञ्चालेषु भवः पाञ्चालः । अत्र इञ् एयण्' अकञ् च प्राप्नुवन्ति । कुरोरपत्यं कौरव्य इति ञ्यविधो कुरुशब्दोपादानस्यानवकाशत्वात् भवति । कौरव इति त्वपत्यस्यापीदमर्थ विवक्षायां भविष्यति । उत्तरत्र वष्कयशब्दस्य समासे: प्रतिषेधादुत्साद्यन्तस्यापोह प्रत्यया, तेन गोधेनुभ्य आगतं गौधेनवमिति सिद्धम् । अन्यथा रूप्यमयटी स्याताम् । उत्स, उदपान, विकर, विनय, महानद, महानस, महाप्राण, महाप्रयाण, तरुण, तलुन, धेनु, पङ्क्ति, जगती, बृहती, त्रिष्टुभ, मिहदित्यपि केचित् । सत्वत् सच्छब्दो मत्वन्तः । सत्वतोऽपत्यं तत्र भवो वा सात्वतः, अन्ये
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१.]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० २०-२२ तू नागममिच्छन्ति, सात्वन्तः, कुरु पञ्चाल इन्द्रावसान उष्णिह ककुभ् अकारान्तावतावित्यन्ये । सुवर्ण, हंसपथ, वर्धमान इति उत्सादि ॥१९॥
न्या० स० उत्सा०-ौत्स इति-'अत इन' ६-१-३१ प्राप्नोति । तारुण इति 'सोऽपत्ये ६-१-२८ इत्येतस्य बाधको 'क्याप्त्यूङः ६-१-७० इत्यनेनैयण् स्यात् ।
पाञ्चाल इति-'ईतोऽकर' ६-३-४१ इत्यधिकारे भवार्थे 'बहुविषयेभ्यः' ६-३-४५ इत्यकञ् प्राप्नोति । कुरोरपत्यमिति - ननु यद्यणपवादेऽप्यन भवति कथं कौरव्य इति ? इत्याहकुरोरपत्यमिति-ध्यविधाविति-राष्ट्रक्षत्रियवाचकस्य ‘दुनादि' ६-१-११८ इत्यादिना बाह्मणवाचकस्य तु 'कुर्वादेर्व्यः' ६-१-१००।
विवक्षायां भविष्यतीति - अनेनैवाञ् प्रत्यय इति, अन्यथा किं तत्र समासप्रतिषेधेन प्रहणवता नाम्ना इत्यनेनैव न्यायेन केवलस्य लब्धत्वात् ।
गौ धेनवमिति – 'जङ्गलधेनु' ७-४-२४ इति षोत्तरपद वृद्धिः। अच्छन्दसीति – अच्छन्दसीत्यादयो ग्रीष्मादोनामर्थनिर्देशार्थाः सप्तम्यन्ताः। .
पश्चाल इति - 'अमद्रस्य दिशः' ७-४-१६ 'मद्राद' ६-३-२४ इत्येतयोः सूत्रयोर्यानि सुपांचालकादीनि दर्शितानि तानि मतान्तरेण, ते हि उत्सादी ब्राह्मणवाचिनं पश्चाल शब्दं पठन्ति । गष्ट्रवचनात्त्वकबेव, स्वमते त्वकञ् च प्राप्नुवन्तीति भणनाद् राष्ट्राका प्राप्ती उत्सादिपाठ इति अक न स्यादेव । बष्कयादसमासे ॥६. १. २०॥
बष्कयशब्दादसमासे वर्तमानात् प्राग्जितीऽर्थेऽनिदम्यणपवादे चान् प्रत्ययो भवति । बष्कयस्यापत्यं बाष्कयः । असमास इति किम् ? सुबष्कयस्यापत्यं सौबष्कयिः । इव ॥२०॥
न्या० स० - बष्का-बाष्कय इति-वस्कते गोदूंरं 'गयहृदयादयः' ३७० (उणादि)। बस्कतेऽल्पक्षीरतां बष्काऽच् पृषोदरादित्वात् षत्वं बष्कां याति 'आतो ड' ५-१-७६ इति डः 'क्यापो बहुलं नाम्नि' २-४-९९ इति हृस्वः।
देवाद्यञ्च ॥६. १. २१ ॥
देवशब्दात्प्राजितीयेऽर्थेऽनिदम्यणपवादे च यम् चकारादन् प्रत्ययो भवति। देवस्येदं देवादागतं वा देव्यम् दैव्वम्, यजन्तादान्ताच्च इयां देवी वाक् । केचित्तु ञ्यप्रत्ययमपीच्छन्ति, तन्मते दैव्या ॥२१॥
न्या. स०-देवाद्यच्च-देवी बागिति 'यत्रो डायन च बा' २-४-६७ इति वा डायनि देव्यायनीत्यपि ।
अः स्थाम्नः ॥ ६. १. २२॥
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[पाद. १. सू. २३-२४] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [११
स्थामन् शब्दात्प्रागजितीयेऽर्थे अ: प्रत्ययो भवति । अश्वत्थाम्नोऽपत्यमश्वत्यामः ॥२२॥
न्या० स० अः स्थाम्न:-अश्वत्थाम्न इति, अश्व इव तिष्ठति 'मन् वन्क्वनिप्' ५-१-१४७ पृषोदगदित्वात् सस्य तः, इष्टिवशात्तदन्ताद् विधिः, एवमुत्तरत्र ।
लोग्नोऽपत्येषु ॥ ६. १. २३ ॥ लोमन्शब्दात्प्राजितीयेऽपत्यलक्षणेऽर्थे अः प्रत्ययो भवति । उदुलोम्नाऽपत्यानि उडुलोमाः, शरलोमाः, उडुलोमः, शरलोमैः । अपत्येष्विति बहुवचनात् एकस्मिन्नपत्ये द्वयोश्च वाह्वादित्वादिओव, औडुलोमिना औडुलोमिभ्याम् ॥२३॥ दिगोग्नपत्ये यस्वगदे बद्धिः ॥ ६. १. २४ ॥
अपत्यादिन्यस्मिन प्रागजितीयेऽर्थे उत्पन्नस्य द्विगोः परस्य यकारावेः स्वरादेश्च प्रत्ययस्य सकृल्लुप् भवति न तु द्विः । द्वयो रथयाद्विरथ्या वायं वोढा द्विरथः । — रथात्सादेश्च वाढङ्ग' इत्यर्थे ' यः' (६-३-१७६) इति यः । पञ्चसु कपालेषु पञ्चकपाल्यां वा संस्कृतः पञ्चकपालः, पञ्चेन्द्राण्यः पञ्चेन्द्राणि वा देवताम्य पञ्चेन्द्रः, चतुगेऽनयोगान् चतुरनुयोगो वाधीते चतुरनुयागः । एवं त्रिवेदः । एष्वण् । द्विगोरिति किम् ? पूर्वशालायां भवः पौर्वशाल:, व्यवयवा विद्या त्रिविद्या तामधोते त्रविद्यः । अनपत्य इति किम् ? द्वैमातुरः, पाञ्चनापितिः। यस्वरादेरिति किम् ? पञ्चभ्यो गर्गेभ्य आगतं पञ्चगर्गमयम् । अद्विरिति किम् ? पञ्चसु कपालेषु संस्कृतं पञ्चकपालं तस्येदं पाञ्चकपालम् । एवं वेदम् । प्रागजितादित्येव ? द्वो रथो वहति द्विरथ्यः, 'वहति '-(७-१-२) इत्यादिना यः । द्वाभ्यां नोभ्यां तरति द्वैनाविकः ।।२४।।
म्या० स० द्विगौर०-विरथ इति-यदा द्वयो रथयोशेढेति वाक्यं तदा तद्धितविषये द्विगुः, यदा तु द्विरथ्या वेति तदा समाहारविषये द्विगुः यथासंभवं 'झ्यादेः' २-४-९५ इति को निवृत्तिः, एवमन्यत्रापि ।
अद्विरिति किमिति-अयमर्थः ननु अद्विरिति विनापि द्वितीय प्रत्ययस्य लुब् न भविष्यति. लुप्रस्य प्रथमप्रत्ययस्य स्थानिवेन द्विगोर्व्यवधायकत्वात्तत् किमद्विर्गहणेन ? नैवं, 'दूरवणः' ६-१-१२३ इत्यत्र यौधेयस्य भर्गादिपाठात प्रत्ययलोप इति न्यायस्यानित्यत्वं, भर्गादिपाठो हि यौधेयात् शत्रजोविसंघविवक्षायां 'यौधेयादेरञ् । ७-३-६५ इति स्वार्थावन्तात् 'गोत्राददण्ड' ६-३-१६९ इति प्राप्तस्याऽकयो बाधकः, 'संघघोष' ६-३-१७२ इत्यण् यथा स्यान्नाकषित्येवमर्थः, यदि च प्रत्ययलोप इति न्यायः स्यात्तदा भर्गादिपाठो व्यर्थः स्यात् ।
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१२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंबलिते [पाद. १. सू. २५-२८ ] पौवंशाल इति-पूर्वा चासौ शाला च 'पूर्वापरप्रथम' ३-१-१०३ इति समांस ततः पूर्वशालायां भवः, 'भवे' ६-३-१३३ (इति) अण्, यदा तु पूर्वस्यां शालायों भवः तदार 'दिक पूर्वादनाम्नः ६-३-२३ इति णः, 'दिगधिकम् ३-१-९८ इति समासश्च । पाश्चनापितिरिति-पञ्चानां नापितानामपत्यं 'अत इञ् ' ६-१-३१
नाविक इति-अस्मिन्नेव वाक्ये 'नावः' ७-३-१०४ इत्यत् समासान्तः 'तरति ६-४-९ इत्यनेन इकण च । प्रागवतः स्त्रीपुंसाद् नञ् स्नञ् ॥ ६. १. २५॥
प्राग्वतो येऽस्तेिप्वनिदम्यणपवादे च स्त्रीशब्दात् पुंस्शब्दाच्चं. यथासंख्यं नञ् स्नञ् प्रत्ययो भवतः। स्त्रिया अपत्यं णः, पाँस्नः, स्त्रोणां समूहः स्त्रणम्, पौंस्नम्, स्त्रीषु भवं स्त्रणम्, पौंस्नम्, स्त्रीणामियं स्त्रैणी, पौंस्नी, स्त्रीणां निमित्तं संयोग उत्पातो वा स्त्रैणः, पास्नः, स्त्रीभ्यो हित स्त्रणम्, पोस्नम् । प्राग्वत इति किम् ? स्त्रिया अहं कृत्यम्, स्त्रीया तुल्यं वर्तत इति वा, स्त्रीवत्, पुंवत्, अकारो मित्कार्यार्थः ॥२५॥
न्या० स०- प्राग्वतः-'प्रागवतः' ६-१-२५ इति तस्याहे । ७-१-५१ इति विहितादित्यर्थः, वत इति प्रत्ययस्यावधित्वेऽपि न प्रत्यय इमो प्रत्ययो संभवत इति वच्छन्देन तदर्थो निर्दिश्यते ।
त्वे वा ॥ ६. १: २६ ॥ .... स्त्रीशब्दात्पुस्शब्दाच्च त्वे स्वप्रत्ययविषये भावे यथासंख्यं नम्, स्नम् ।। प्रत्ययो वा भवतः। स्त्रिया भावः स्त्रैणं स्त्रीत्वं स्त्रीता, पौंस्नम्, पुस्त्वम्, . पुस्ता, पुनर्वाग्रहणं प्रत्ययविकल्यार्थम् ॥२६॥ गोः स्वरे यः ॥ ६. १. २७ ॥
गोशब्दात स्वरादितद्धितप्रसङ्गे यः प्रत्ययो भवति । गोरिदं गव्यम, गोरपत्यं गव्यः, गवि भवं गव्यम्, गौर्देवतास्य गम्यः, गवा चरति गैव्यः । स्वर इति किम् ? गोभ्यो हेतुभ्य आगतं गोरूप्यम्, गोमयम् ॥२७॥
न्या. स० - गोः-गोरपत्यमिति-यदा क्रियते तदा 'चतुष्पाद्य एयम्' ६-१-८३ तस्य बाधकः । डसोऽपत्ये ॥ ६. १. २८॥ भणादयोऽनुवर्तन्ते । सः षष्ठयन्तान्बाम्नोऽपत्येऽर्थे यथाभिहितमणादयः
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[पाद. १. सू. २९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः
प्रत्यया भवन्ति । उपगोरपत्यमोपगवः । धानपतः, दैत्यः, औत्सः, स्त्रैणः. पौंस्नः । अपत्य इत्यपत्यमानं विवक्षितं न लिङ्गसंख्यादि, तेन द्वयोबहुषु स्त्रीलिङ्गादौ च भवति । औपगवो, औपगवाः, औपगवी इत्यादि । इस इति किम् ? देवदत्तेऽपत्यम् । अपत्य इति किम् ? भानोरयं भानवीयः, श्यामगवीयः । 'तस्येदम्' (६-३-१५९) इत्येवाणादिसिदो अपत्यविवक्षामां तदपवादबाधनार्थं वचनम् , तेन भानोरपत्यं भानवः, श्यामगवः । अत्र ‘दोरीयः' (६-३-३१) इतीयो न भवति । कम्बल उपगोः अपत्यं देवदत्तस्येत्यत्र तु असामर्थ्यान्न भवति ॥२८॥
न्या. स०-सोऽपत्ये - षष्ट्यन्तादिति उसुग्रहणस्य षष्ठ्युपलक्षणत्वात् षष्ठी लभ्यते । संख्यादिति-आदिशब्दाद्विद्यमानाविद्यमानादि, ब्राह्मणत्वादि वा।
श्यामगवीय इति-श्यामा चासो गौश्च 'गोस्तत्पुरुषात् ' ७-३-१०५ बहुव्रीहिर्वा ।
तदपवादबाधनार्थमिति-तस्य तस्येदमित्यणोऽपवादो यो दोरीय इत्यादिस्तस्य बाधनार्थमन्यथा दुसंज्ञकादपत्यविवक्षायामपि ईय एव स्यात् । ____ असामान्न भवतीति-अयमर्थः उपगोरित्यस्य कम्बलेन संबन्धित्वान्न तत्संबन्धित्वेनापत्यं वक्तुमण् प्रत्ययः समर्थः ।
आद्यात् ।। ६. १. २९ ॥
अपत्ये येऽणादयःप्रत्ययास्ते आद्यात् परमप्रकृतेरेव भवन्ति । पौत्राद्यपत्यं सर्वपूर्वजानामापरमकृपतेः पारंपर्येण संबन्धादपत्यं भवति, तत्र तस्तैः संबन्धविवक्षायामनन्तरवृद्धयुवभ्योऽपि प्रत्यय: प्राप्नोतीति नियमार्थ आरम् । उपगोरपत्यमनन्तरं वृद्धं वा औपगवः, तस्याप्यौपगविः, औपगवेरप्यौपगवः, गंर्गस्यापत्यं पौत्रादि गार्ग्यः, गार्गरपि गार्यः, गाय॑स्यापि गार्ग्यः गाायणस्यापि मायः । अनन्तरादयोऽपि परमप्रकृतिरूपेणवापत्ये प्रत्ययमुत्पादयन्ति ॥२९॥॥
न्या० स० आद्यात्-परम परमप्रकृतेरेवेति गर्गादिरूपान्न गार्गिरित्यादिरूपादित्यर्थः ।
पौत्राद्यपत्यमिति ननु यस्यैवाङ्गजत्वेनानन्तरः संबन्धः तस्यैव तदपत्यमुच्यते, अतस्तस्मादेवापत्यप्रत्ययो युज्यते नान्यस्मादित्याशङ्का ।
तत्र तैस्तैरिति तत्र परम प्रकृतौ तस्तैर्गानिप्रभृतिभिरपत्यैः सह संबन्धविवक्षायामित्यर्थः । ___ नियमार्थ आरम्भ इति अयमर्थः गर्गस्यापत्यमनन्तरं गार्गिरितीजन्तात् , गर्गस्यापत्यं वृद्धं गार्ग्य इति यजन्तात् , गार्ग्यस्यापत्यं युवा गाायण इत्यायनणन्ताच्चापत्यप्रत्ययो मा भूत किन्तु या मूलप्रकृतिरूपा गर्गादिलक्षणा तस्या एवाऽपरोपि अपत्यप्रत्ययः समुत्पद्यते नान्यापत्यप्रत्ययान्तायाः, युवार्थापत्यप्रत्ययं प्रति च वृद्धार्थापत्यप्रत्ययान्तैव प्रकृतिराया वक्ष्यते, ततः
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ३०-३१ ] स्थितमेतत् अपत्यप्रत्ययोऽनपत्यप्रत्ययान्ताया एव प्रकृतेर्भवतीति । आगच्छति चापरे प्रत्यये अप्रेतनो निवर्त्तत एव ।
__ अनन्तरादयोऽपीति न केवलं गर्ग इत्येवंरूपा प्रकृतिः परमप्रकृतिरूपेण प्रत्ययमुत्पादयति, गार्गि-गार्ग्य-गाायणादयोऽपि अनन्तरवृद्धयुवानः परम प्रकृतिरूपेणैव प्रत्ययमुत्पादयन्ति । अयमर्थः पुत्रपौत्रादयोऽपि मूल प्रकृतेरेवोत्पन्नैः प्रत्ययैरभिधीयन्ते न तत्सविभिन्न प्रत्ययान्तायाः प्रकृतेरूत्पन्नैः । वृद्धाधूनि ॥ ६. १. ३०॥
यून्यपत्ये विवक्षिते यः प्रत्ययः स आद्यात्-वृद्धात् परमप्रकृतेर्यो वृद्धप्रत्ययस्तदन्ताद्भवति । 'आद्यात् ' (६-१-२९) इत्यस्यापवादः । वृद्धादिति यूनि प्रकृतिविधीयते। गर्गस्यापत्यं वृद्धं गायः, तस्यापत्यं युवा गाग्र्यायणः । दक्षस्यापत्यं पौत्रादि दाक्षिः, तस्यापत्यं युवा दाक्षायणः, नडस्यापत्यं वृद्धम् नाडायनः, तस्यापत्यं युवा नाडायनिः । यूनीति किम् ? गार्यः, नाडायनः । आद्यात इत्येव ? उपगोरपत्यं वृद्ध मौपगवः तस्यापत्यं युवा औपगविः । गाग्र्यायणस्य अपत्यं युवा गाायणः, अत्रायन ण् इश् च न भवनि ॥३०।।
न्या० स० वृद्धाद्यनि-यूनि प्रकृतिरिति यूनि प्रत्यये विधातव्ये वृतप्रत्ययान्त एवाद्य इत्यर्थः। तस्याप्यपत्यं युवा औपगविरति पुनर्वृद्धप्रत्ययान्तलक्षणात् परमप्रकृतेरिञ् नेवन्ताबन्यो युवार्थप्रत्यय इत्यर्थः ।
अत्रायनण् इम् च न भवतीति, ननु 'वृद्धाधुनि' ६-१-३० इति वचनात् वृद्धप्रत्ययान्तादेव यूनि प्रत्ययो, न तु युवप्रत्ययान्तादित्यत्र प्राप्तरेव नास्ति ? सत्यं, अत्र औपगव्यादि यत् युवसंज्ञमपत्यं तत्पौत्रादि वृद्धमिति सामान्येन भणनात् वृद्धमप्यस्तीति प्राप्तिः ।
अत इञ् ॥ ६. १. ३१ ।।
ङसोऽपत्य इति वर्तते, अकारान्तात् ङसन्तान्नाम्नोऽपत्येऽर्थे इन् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । दक्षस्यापत्यं दाक्षिः, अस्यापत्यम् इः । अत इति किम् ? शौभंयः, कैलालपः, । केचित्तु शुभंयाकोलालपाशब्दाभ्यामणमपि नेच्छन्ति कथं ' त्यजस्व कोपं कुलकीर्तिनाशनम्, भजस्व धर्म कुलकोतिवर्धनम् । प्रसीद जीवेम सबान्धवा वयं, प्रदीयतां दाशरथाय मैथिली ॥१॥
तस्येदमिति विवक्षायामण भविष्यति, अपत्यविवक्षायां तु दाशरथिग्त्येिव भवति । अथ काकबकशुकादेः कस्मान्न भवति । जात्यवापत्यार्थस्य पौत्रादेरनन्तरस्य चाभिहितत्वात, यत्र त्वर्थप्रकरणादेविशेषप्रतीतिरस्ति तत्र भवत्येव, यथा कुतश्चरति मायूरिः केन कापिञ्जलिः कृशः, एतेन काक्यादिभ्य
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[पाद. १. सू. ३२) श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः एयणादयोऽपि व्याख्याताः । कथं तहि क्रौञ्चः कौकिलः, गौधेरः, चाटकर इति । जातिशब्दा एवेते यथाकथंचिद्व्युत्पाद्यन्ते । यथा क्षत्रं क्षत्रियः, राजा राजन्यः, मनुः मनुष्यो, मानुष इति । अनभिधानाच्च शतसर्ववृद्धकारकराजपुरुषमाथुरकुरकुररादिभ्यो न भवति । जकारो जित्कार्यार्थः ॥३१॥ ___न्या० स० अत इम्-इरिति नन्वग वृष्णित्वादण् प्राप्नोति ? न, तत्र प्रसिद्धा वंश्याख्या क्षत्रिया गृह्यन्ते, अयं तु न तथाविधः । शौभंय इति शुभं याति । यातीति विच् , शुभंयोऽपत्यं एवं कैलालपः । मैथिलीति मिथिलाया अयं स्वामी 'तस्येदम्' ६-३-१६० अणि मैथिलस्यापत्यं ऋष्यणि डोः । मैथिलस्य गज्ञोऽपत्यं वा 'राष्ट्र क्षत्रियाद्' ६-१-११४ इत्यम् ।
जात्यैवेति यतः सर्वोऽपि लोकः काकं दृष्ट्वा काकोऽसावित्येव व्यवहरति न काकापत्यमिति । एतेनेति पूर्वोक्तप्रकारेणेत्यर्थः । एयणादयोऽपीति विशेषप्रतीतो भवन्ति, अन्यत्र जात्याभिहितत्वान्न भवन्तीत्यर्थः । कौंञ्च इति एषु त्रिषु गोधावर्जमजादित्वादाप् तत्र द्वयोः शिवादित्वादण् । यथाकथमिति न किमप्यपत्यविवक्षाफलं तादृशमस्तीति भावः । क्षत्रमिति क्षणनं क्षत् , क्विप् मां क्वौ,४-२-५८ इति नलोपे तागमे क्षतखायते. क्षणनं क्लीबेक्त: 'यमिरमि ४-२-५० इत्यन्तलोपः । क्षतात जायते ' स्थापा' ५-१-१४२ इति के पृषोदरादित्वादऽस्य लोपः । क्षदि हिंसार्थः सौत्रो वा 'हुयामा' ४९१ (उणादि) इति त्रः । बाहादिभ्यो गोत्रे ॥ ६. १. ३२॥
स्वापत्यसंतानस्य स्वव्यपदेशकारणमृषिरनषिर्वा यः प्रथमः पुरुषस्तदपत्यं गोत्रम् । बाह्वादिभ्यो ङसन्तेभ्यो गोत्रेऽपत्येर्थे इञ् प्रत्ययो भवति, अनकारान्तार्थो बाधकबाधनार्थश्चारम्भः । बाहोरपत्यं बाहविः, औपवाकविः, नैवाकविः, औदश्विः, इहोदाश्चिति पैलादिषु चोदचीति सनकारस्य पाठादन यामपि नलोपाभावः । गोत्र इति किम् ? योऽद्यत्वे बाहु म तस्यापत्यं बाहवः । संभवापेक्षं च गोत्रग्रहणम्, तेन पञ्चानामपत्यं पाहिचः, साप्तिः, आष्टिः इत्यादि सिद्धम् । बाहु, उपवाकु, निवाकु, वटाकु, चटाकु, उपबिन्दु, चाटाकु, वृकला, कृकला, चूडा, बलाका, जङ्घा, छगला, भगला, लगहा, ध्रुवका, धुवका, मूषिका, सुमित्रा, दुमित्रा । कलादिभ्यो यथासंभवमेयणो मानुषीनामलक्षणस्य चाणोऽपवादोऽयमिज् । युधिष्ठिर, अर्जुन, राम, संकर्षण, कृष्ण, गद, प्रद्युम्न, शाम्ब, सत्यक, शूर, असुर, अजीगत, मध्यंदिन, एषु ऋष्यादिलक्षणस्याणोऽपवादः । सुधावन् स्वधावत्, पुष्करसद्, अनुरहत्, अनडुङ, पन्चन् सप्तन्, अष्टन्, क्षेमधन्विन्, माषाशिरोविन्,शृङ्खलतोदिन, खरनादिन् प्राकारदिन्, नगरमदिन, इन्द्रशर्मन, मद्रशर्मन्, अग्निशर्मन्, देवशर्मन्, उपदकच, उवच, कुनामन् सुनामम् सुदामन्, शिरस् लोमन् एतौ तदन्तौ । हस्तिशिरसोऽपत्यं हास्तिशिषिः, बोड़लोमिः, शारलोमिः,
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१६ ]
बृहद्वृत्ति-उघुन्याससंवलिते [प० १ सू० ३३-३४ इति बाह्वादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम्, तेन सख्युरपत्यं साखिः । संवेशिनः सांवेशिः, उदङ्कस्य औदङ्कि, एवमौद्दालकिः, वाल्मीकिः, आरुणिः इत्यादि सिद्धम् भवति । शिवादेश्च प्राग्येऽकारान्ता बिदादयस्तेभ्य ऋष्यणं बाधित्वा उक्तादर्थादन्यत्रानेनैवेञ् । बिदादेवृद्धेऽञ् वक्ष्यते, बिदस्यापत्यमनन्तरं बैदिः, औविः, गर्गादेयं गागिः, वारिसः, कुजादेयि यः, कौनिः , ब्राधिनः, अश्वादेरायन, आश्विः, आकिः, नडादिभ्य आयनण् नाडिः, मोजिः । अनकारान्तेभ्यस्त्वणेव औपमन्यवः, जामदग्नः, भास्मः सौमनसः, लैंगवः, शारद्वतः । इतः प्रभृति गोत्र इत्यधिकारात् गोत्रे संभवति ततोऽन्यत्र प्रतिषेध ।। ३२ ।।
न्या० स० बाला-खरनादिनिति गणपाठात् 'पूर्वपदस्था' २-३-६४ इति न णत्वम् ।
उक्तार्थादन्यत्रेति कोऽर्थः वृद्धार्थादन्यत्राकारान्तानां विदादीनां 'ऋषिवृष्ण्यन्धक' ६-१-६१ इत्यनेनाण् स्यात् , सोऽनेन बाध्यते ।
भास्म इति भस्मनोऽपत्यं ऋष्यणि 'अणि' इति प्रतिषेधे प्राप्ते 'अवर्मणो मनोऽपत्ये ७-४-४९ इत्यनेनान्त्यस्वरादिलोपः ।
ततोऽन्यत्रेति अयमर्थः, यत्र गोत्रमगोत्रं घ संभवति तत्र ततो गोत्रादन्यत्रेञ् प्रतिषेधः, यत्र गोत्रं न संभवत्येव तत्रागोत्रेऽपीञ् । वमेणोऽचक्रात् ॥ ६. १. ३३॥
चक्रशब्दवजितात्परो यो वर्मन्शब्दस्तदन्ताद रत्येऽर्थे इञ् प्रत्ययो भवति । इन्द्रवर्मणोऽपत्यमैन्द्रवमिः, अचक्रादिति किम् ? चाक्रवर्मणः ॥३॥
न्या० स० वर्म- चाक्रवर्मण इति चक्रं वर्म यस्य चक्रवर्मा अथवा चक्रमेनं वृषीष्ट 'तिक्कृतो नाम्नि' ५-१-७१ मन् , 'नोपदस्य' ७-४-६१ इत्यनेनान्तलोपे प्राप्ते 'अणि' ५-४-५२ इति प्रतिषेधः, 'अवर्मणो मनो' ७-४-५९ इत्यनेन भविष्यतीति च न वाच्यं, तत्र वर्मन्वर्जनात् ।
अजादिभ्यो धेनोः ॥६. १.३४॥ ___ अजादिभ्यः परो यो धेनुशब्दस्तदन्तादपत्येऽर्थे इञ् प्रत्ययो भवति । भाजधेनविः, बाष्कधेनविः । अजादयः प्रयोगतोऽनुसर्तव्याः ।। ३४ ॥
न्या० स० मजा-आजधेनविरिति अजा चासो धेनुश्चेति कार्य, 'पोटायुवति' ३-१-१११ इति समासः, न त्वजा धेनुर्यस्येति तदा 'स्वाङ्गान्डाः' ३-२-५६ इति पुंवन्निषेद्यः स्यात् । ब्राह्मणादा ॥६१३५॥
ब्राह्मणशब्दात्परो यो धेनशब्दस्तदन्तादपत्येऽर्थे इञ् वा भवति। ब्राह्मणधेनविः ब्राह्मणधेनवः ॥ ३५॥ भूयःसंभूयोम्भोमितौजसः स्लुक् च ॥ ६ १ । ३६ ॥ भूयस्, संभूयस्, अम्भस्, अमितीजस् इत्येतेभ्योऽपत्येऽर्थे इञ् प्रत्ययो
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[ पाद. १. सू. ३७-३९ । श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [१० भवति सकारलोपश्चषाम् । भूयसोऽपत्यं भौयिः, एवं सांभूयिः, आम्भिः , आमितौजिः। भूयसो नेच्छन्त्यन्ये । अकतसोऽपीच्छन्त्येके आकतिः ॥३६।।
शालक्यौदिषाडिवाइवलि ॥ ६. १. ३७ ॥ ___शालङ्कि, औदि, षाडि, वाडवलि इत्येते शब्दा अपत्येऽर्थे इप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शलङ्कोरपत्यं शालङ्किः । अत्रे प्रत्यय उकारलोपश्च निपात्येते । उदकस्यौदिः, अत्रेम् कलोपश्च । षष्णां षाडिः, अत्रे अन्त्यस्य च डत्वम् । वाचं वदति वाग्वादस्तस्यापत्यं वावलिः, अत्रेमि वाचोऽन्तम्य डत्वं वलभावश्चोत्तरपदस्य ॥३७॥ व्यासवरुटसुधातृनिषादबिम्बचण्डालादन्त्यस्य चाकू ॥ ६. १. ३८॥
व्यासादिभ्योऽपत्येऽर्थे इञ् प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे चैषामक् इत्ययमम्तादेशो भवति । व्यासस्यापत्यं वैयासकिः, वरुटस्य वारुटकिः, सुधातुः सौधातकिः, निषादस्य नैषादकिः, वृद्धे तु परत्वाद्विदादिलक्षणोऽन् । नैषादः, विम्बस्य, बैम्बकिः, चण्डालस्य चाण्डालकिः, सुधातृव्यासाभ्यामणोऽपवादः । वरुटात् कारुञ्यस्यापवादः । शेषेभ्योस्त्येव । कर्मारव्याघ्राग्निशर्मभ्योऽपोच्छम्त्येके । कारकिः, वैयाघ्रकिः, आग्निशर्मकिः ॥३८॥ पुनर्भूपुत्रदुहितननान्दुरनन्तरेऽञ् ॥६. १. ३९॥
पुनर्भू पुत्रदुहितुननान्द इत्येतेभ्यो ङसन्तेभ्योऽनन्तरेऽपत्येऽर्थे अत्र प्रत्ययो भवति । पुनर्वा अनन्तरमपत्यं पौनर्भवः पौनर्भवौ, पौनर्भवाः, पौत्रः, दौहित्रः, नानान्द्रः । अनन्तर इति किम् वृद्धेऽञ् न भवति । अनो जित्करणमुत्तरार्थम्, इह तु सूत्रेऽभि अणि वा नास्ति विशेषः । नन्वस्त्येव विशेषः, अनि हि 'यत्रोऽश्यापर्ण'-( ६-१-१२६ ) इत्यादिनाजो बहुषु लुप् स्यात् यथा बैदः, बैदौ, बिदा इति, तथा संघादिष्वर्थेषु ‘संघघोपा' (६-३-१७१) इत्यादिनानः परोऽण् स्यात् यथा बैदमिति, अणि तु तदुभयमपि न भवति यथोपगवाः औपगवकमिति । तथा पुत्रशब्दादप्रत्ययान्तात् ततोऽप्यपत्यविविक्षायाम् 'अत इब्' (६-१-३१) इतीनि 'जिदार्षादणिषोः'(६-१-१४०) इति तस्य लुपि पौत्र इति स्यात् यथा बैद पिता, वैदः पुत्रः । अणि तु 'द्विस्वरादणः, (६-१-१०९) इत्यायनिम् स्यात् यथा कात्रायणिरिति ? उच्यते,-पुनधिपत्यस्यागोत्रत्वाहोत्राधिकारविहिता लुप् सि. ३
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१८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० ४०-४१ ] संघाद्यण च न भविष्यति । पौत्रशब्दाच्चावद्धप्रत्ययान्तत्वादञ्यणि च इम् आयनिन् च न भविष्यतीति विशेषाभाव एव, केचित्तु पुनर्व इति लुपमप्युदाहरन्ति, तेषां पुनर्भूरिति गोत्रं तहाप्यस्ति विशेषः ॥३९॥
न्या० स० पुनभू-यथा बैदमितीति बिदस्यापत्यानि बिदादेवृद्धेऽञ् , बिदानां संघादि बहुषु वर्तमानस्यानो न लुप् ‘न प्राजितीये स्वरे' ६-१-१३५ इति प्रतिषेधात् , नतो 'गोत्राददण्ड' ६-३-१६९ इत्यकबाधकः 'संघघोष' ६-३-१७२ इत्यण् ।
ततोऽप्यपत्यविषक्षायामिति-आपातमात्रे पूर्वपक्षोऽयम् , अन्यथा 'वृद्धाधुनि' ६-१-३० इति वचनात् अनन्तरानि प्रत्ययो न स्यात् , न च वृद्ध एव भविष्यतीति वाच्यं यतः 'आद्यात्' ६-१-२९ इति सूत्रात्पुत्र इत्येवंरूपायाः परमप्रकृतेरेव स्यात् । कि च तदा 'बिदार्षादणियोः लापो न स्यात् , तत्र युवप्रत्ययग्रहणात् ।
बैदः पुत्र इति बिदस्यापत्यं वृद्धं बिदादेवृद्ध अञ् , बैदस्यापत्यं युवा. 'अत इश्' ६-१-३१ 'बिदार्षादणियोः' ६-१-१४० इति लोपः । ___ का यणिरितीति कर्तुरपत्यं वृद्धं 'सोऽपत्ये' ६-१-२८ अण, कार्तस्यापत्यं युवा 'द्विस्वरादाणः' ६-१-१०९ आयनिञ् अस्य च ब्राह्मणत्वात् 'अब्राह्मणात्' ६-१-१४१ इति न लुप् ।
विशेषाभाव एवेति ननु तर्हि इबाधकः पुत्रादमित्येव क्रियतां किं गुरुणा सूत्रेण, यतः शेषेभ्यः सामान्योऽण अस्स्येव ? उच्यते, मताभिप्रायेण पुनर्भूपुत्रदुहितननान्दृग्रहणमिति दर्शितं, यतस्तन्मते दुहित्रादीनां पूर्वदर्शितं गोत्रे फलमस्तीति ।
परस्त्रियाः परशुश्वासावयें ॥६. १.४० ॥
परस्त्रीशब्दादनन्तरेऽपत्येऽन् प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे परस्त्रीशब्दस्य परशुभावश्चासावये न चेत् पुरुषेण सह समानो वर्णो ब्राह्मणत्वादिस्तस्या भवति । परा पुरुषाद्भिन्नवर्णा स्त्री परस्त्री, तस्या अनन्तरापत्यं पारशवः । असावर्ण्य इति किम् ? परस्य श्री परस्त्री तस्या अनन्तरापत्यं पारस्त्रेणेयः । कल्याण्यादिपाठादेयण् अन्तस्य चेनादेशः, अनुशतिकादिपाठादुभयपदवृद्धिश्च ॥४०॥ बिदादेवृद्धे ॥ ६. १. ४१॥
बिदादिभ्यो वृद्धेऽपत्येऽर्थे अञ् प्रत्ययो भवति । बिदस्यापत्यं वृद्ध बंदः, बैदौ, बिदाः, और्वः, और्वो, उर्वाः, काश्यपः, काश्यपौ, कश्यपाः, भारद्वाजः, भारद्वाजौ, भरद्वाजाः । अथेन्द्रहूः सप्तमः काश्यपानाम् भारद्वाजानां कतमोऽसीत्यत्र बहुषु लुप् कस्मान्न भवति । नायम किंतु अस्येदम् इति विवक्षायामण, सर्वेषामपि हि पितरोऽभेदोपचारेण कश्यपाः, यथा बभ्रुः मण्डः लमक इति । वृद्ध इति किम् ? बिदस्यापत्यमनन्तरं बैदिः । बिद, उर्व,
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[पाद. १. सू. ४१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः
कश्यप, कुशिक, भरद्वाज, उपमन्यु, किलात, कीदर्भ, विश्वानर, ऋष्टिषेण, ऋतभाग, हर्यश्व, प्रियक, पियक अपस्तम्भ, कुवाचार, कूवाचर, शरद्वत्, शुनक, धेनु । उत्सादिष्वपि धेनुशब्दः पठ्यते । स प्रत्यग्रप्रसवगव्यादिवाचकः, अयमषिवचनः । अश्व शङ्ख, गोपवन, शिग्रु, विन्दु, ताजम, अश्वावतान, श्यामाक, श्यापर्ण, हरित, किन्दास, वस्यस्क, अर्कलुश, वध्योग, विष्णुवृद्ध, वृष्णिवृद्ध, प्रतिबोध, रथीतर, रथंतर, गविष्ठिर, गविष्ठिल, निषाद, शबर, मठर, सृदाकु, पृदाकु । केचिदेतो हरितादेः प्राक् पठन्ति । तन्मते 'हरितादेरबः' (६-१-५५) इत्यायनण् न भवति । मठरशब्दं गोपवनादावपि अबो लुबभावार्थ केचित्पठन्ति । अन्ये तु मठराधकारादिमनमिच्छन्ति । माठर्यः, माठयौं । बहुष्वजो लुपि संनियोगशिष्टत्वात् यस्यापि निवृत्तिरिति मठराः ॥४१॥
न्या० स० बिदा-सप्तमः काश्यपानामिति अत्र कश्यपसंतानापेक्षया बहुवचनं न तु भ्रावर्गापेक्षया, अथ गणः, विन्दत्यवयवी-भवति स्वगोत्रे ‘विन्देनलुकच' ६ ( उणादि ) इति अः बिदः, उर्वति अष्टप्रकारं कर्म उर्वः, कशामर्हति कश्यः, अनया व्युत्पत्त्या पुरुष एव लभ्यते न मद्य, न पुरुषो मद्ययोगात् कशायोग्यः अतस्तदेव कशायोग्य, कश्यं पिबति कश्यपः । कुश्यति सत्कर्मसु 'कुशिक' ५०३ ( उणादि ) इति साधुः। बजण् वर्जिणि गन्तो वा, भरन्तं वाजयति भरद्वाजः, उपगतं मन्यु बहुव्रीहिवा उपभन्युः ।
किरतीति 'नाम्युपान्त्य' ५-१-५४ इति के किलस्तमतति किरातस्य स्थाने वा किलातः। कस्य भार्या को, क्यां दर्भ इव पवित्रः कीदर्भः। विश्वे नरा अस्य विश्वानरः । ऋष्टयः सेनायां ऋष्टिवत् सेना वा यस्य ऋष्टिषेणः । ऋतेन सत्येन भागो भागधेयं यस्य ऋत भागः ।
हरयो नीलवर्णा अश्वा यस्य हर्यश्वः । प्रिय एव प्रियकः प्रियं कायति वा । पिबति उष्णं पानीयादिकं 'कीचक' ३३ ( उणादि) इति पियकः ।। - अपस्तभ्नाति अष्टप्रकारं कर्म अपस्तम्भः । कुत्सितं वान्ति विच्, कुवाः तेषां पार्वेन चरति कुवाचरति कुवाचरः, बाहुलकात् दीर्घत्वे कूवाचरः।
शरद् उपकारकतयाऽस्यास्ति शरदद्वत् । शुनति परमां गतिं 'कीचक' ३३ ( उणादि) इति 'नाम्युपान्त्य''५-१-५४ इति के शुन इव शुनकः । धीयते अस्मात्तत्वमिति धेनुः ।
प वनति वनते वा गोपवनः । शेरते गणा अत्र शिनोति वा शिमः। वेत्तीत्येवंशीलो 'विन्द्विच्छू' ५-२-३४ विन्दुः । तां लक्ष्मी जमति ताजमः ।
अश्वानवतनोति अश्वावतान: । श्यायतेः 'मवाक' ३७ ( उणादि) श्यामाकः । श्यायन्ते श्याः श्यायां वसतौ गताना पर्णयति आद्रीकरोति देशनया श्यापर्णः।
'हश्या' २१० ( उणादि ) इति हरितः । किमपि दासते किंदासः ।
वसिमस्यति 'भीणूशलि' २१ ( उणादि ) इति के वस्यस्कः । अर्कमपि कशति तेजसा मशः । वधमर्हन्ति वध्यास्तान उगति 'मूलविभुज' ५-१-१४४ इति के वयोगः । विष्णुवत् वृष्णिवद् वा वृद्धः विष्णुवृद्धः । वृष्णिवृद्धः । प्रतिबोधयति प्रतिबोषः । रध्या तरति
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२० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्यास संबलिते
[ पा० १ सू० ४२ ]
रथीतर: । 'भृवृजि ' ५-१-११२ इति खे रथंतरः । निषीदन्ति गुणा अवेति निषादः । 'ऋच्छिचटि ' ३९७ ( उणादि ) इत्यरे शबरः । मठर: । 'सृपृभ्यां दाकु ' ७५६ ( उणादि ) सदाकुः, पृदाकुः इति बिदादयः । गोपवनादावपीति न केवलं हरितादो ।
गर्गादेर्यञ् ॥ ६. १. ४२ ॥
गर्गादिभ्यो ङसन्तेभ्यो वृद्धेऽपत्येऽर्थे यञ् प्रत्ययो भवति । गर्गस्यापत्यं वृद्धं गार्ग्यः, वात्स्यः । वृद्ध इत्येव ? गर्गस्यापत्यमनन्तरं गार्गिः । गोत्र इत्येव ? गर्गो नाम कश्चित् तस्यापत्यं वृद्धं गागिः । ननु मनोरत्र पाठाल्लोहितादित्वात् स्त्रियां नित्यं डायनिङधां च मानव्यायनीति स्यात् तत्कथं मानवी प्रजेति ? उच्यते, अपत्यसामान्यविवक्षायां 'ङसोऽपत्ये ' ( ६-१-२८) इत्यणि भविष्यति । कथमनन्तरो रामो जामदग्न्यः, व्यासः पाराशर्यः पुत्रेऽपि पौत्रादिकार्य करणात् ? तथोच्यते, अनन्तरापत्यविवक्षायां जामदग्नः पाराशरिः, कथं पाराशरः ? तस्येदमिति विवक्षायां भविष्यति । गर्ग, वत्स, वाज, अज, संकृति, व्याघ्रपाद्, विदभृत्, पितृबध्, प्राचीनयोग, पुलस्ति, रेभ, अग्निवेश, शंख, शट, धूम, अवट, नमस, चमस, धनंजय, तृक्ष, विश्वावसु, जरमाण, कुरुकत, अनगृह, लोहित, संशित, वक्र, बभ्रु, बभ्लु, मण्डु, मङ्क्षु मखु, शस्थ, शङ्कु, लतु. लिगु, गूहल, जिगीषु, प्रनु, तन्तु, मनुतन्तु, मनायी । अणेयणोः प्राप्तावस्य पाठः । पुंवद्भावस्तु 'कौण्डिन्यागस्त्ययोः ' - ( ६- १ - १२७ ) इति कौण्डिन्यनिर्देशादनित्य इति न भवति । सूनु स्रुव, कच्छक, ऋक्ष, रुक्ष, रूक्ष, तलुक्ष, तण्डिन् वतण्ड, कपि, कत, शकल, कण्व, वामरथ, गोकक्ष, कुण्डिनी, यज्ञवल्क, पर्णवल्क, अभयजात, विरोहित, वृषगण, रहोगण, शण्डिल, मुद्गर, मुद्गल, मुसर, मुसल, पराशर, जतूकर्ण, मन्द्रित, अश्मरथ, शर्कराक्ष, पूतिमाष, स्थूर, स्थूरा, अरराका, पिङ्ग, पिङ्गल, कृष्ण, गोलून्द, उलूक, तितिम्भ, भिष, भिषज, भिष्णज, भण्डित, भडित, दल्भ, चिकित, देवहू, इन्द्रहू, यज्ञहू, एकलू, विष्यल्लु, पत्यलू, वृहलू, पप्फलू, बृहदग्नि, जमदग्नि, सुलामिन, कुटीगु, उक्थ, कुटल, चणक, चुलुक, कर्कट, अलापिन् सुवर्ण, सुलाभिन् इति गर्गादिः ॥ ४२ ॥
न्या० स० गर्गा० गणः
गिरति वदति निरवद्यमिति 'गम्यमि' ९२ ( उणादि ) इति 'मावावधमि' ५६४ (बणादि ) इति च गतौ । गर्गः, वत्सः, वाजयत्यच् वामः । न जातः भजः । संस्करणं संकृतिः । गणपाठात् सडभावः । व्याघ्रस्येव पादौ यस्य व्याघ्रपाद् । त्रिदं विभर्ति पितरं बध्नाति क्विप् विदमृत पितृबधू । बहुव्रीहौ प्राचीनयोगः । अगिबिलित्यस्तिकि पुलस्ति: ।
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[पाद. १. सू. ४३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः
रेभते अच् रेभः । अग्निमपि विशति अग्निवेशः । 'शमिमनि' ८४ ( उणादि) इति खे शंखः। 'दिव्यवि' १४२ ( उणादि) इति अवटः। 'तप्पणि' ५६९ इति नमसः । चमसः। धनं जयति धनंजयः। तृक्षति तृक्षः । विश्वस्मिन् वसूनि यस्य विश्वावसुः । जिंजइति ऋकारान्तं मन्यते तन्मते जरमाणः। 'प्रषिरजि' २०८ (उणादि) इति कनः कुरूणां कतः । चसो वा । 'हृश्या' २१० ( उणादि) इति रोहितः, लत्वे लोहितः'
'हनिया' ७३३ ( उणादि ) इति बधुः लत्वे बलुः । मण्डते 'भृमृ' ७४० ( उणादि) इति मण्डुः। 'मस्जि' इति सुक् बाहुलकान्न-लोपाभावे मक्षु ।
'उखनरव' इति 'भृमृ' इति मखु ।
शंगति, केवयुनिपातः कैशी' ७४९ ( उणादि) इति शक्कुः । कृलाभ्यां कित' ७८० (उणादि) लतुः। ‘रघिलङ्घि ७४० (उणादि) इति लिगुः। 'गूहलुगुग्गुलु' ७२४ ( उणादि ) इति गृहलुः । जेतुमिच्छुः जिगीषुः । मन्यते इति मनु ‘कृसिकृम' ७७३ (उणादि) इति तन्तुः, मनुश्चासौ तन्तुश्च मनुतन्तुः । 'निघृषि' ५११ ( उणादि) इति किति वे सुवः। कच्छते कच्छकः।
'ऋजिरिषि' ५६७ (उणादि) इति ऋक्षः । रूक्षणं सक्षः । तरून् क्षयति तरक्षः, लत्वे तलक्षः । अवश्यं तण्डते तण्डी, वनेश्च वतण्डः। 'अम्भिकुण्ठि ६१४ (उणादि) इति कपिः। 'प्रषिरञ्जि' २०८ (उणादि) इति कित्यते कतः । प्रसे वामरथः ।
गोरिव कक्षो भक्ष्यः पाश्र्वो वा अस्य गोकक्षः। अवश्यं कुण्डते कुण्डिनी । यज्ञे वल्कोऽस्य यज्ञवल्कः, प्रसे अभयः। जायते स्म जातः, चसे अभयजातः । विशेषेण रोहति 'दृश्या' २१० ( उणादि ) इति विरोहितः । वृषान् गणयति वृषगणः रहो गणयति रहोगणः ।
'कल्यनि' ४८१ ( उणादि) इति शण्डिलः । 'मुदिगूरिभ्यां' ४०४ ( उणादि ) मुद्गरः लत्वे मुद्गल: । मुसं राति मुसरः ‘तृपिवृपि' ४६८ ( उणादि) इति मुसलः।
परावृत्त्या शृणाति पराशरः। जतुवत् कर्णौ यस्य जतकर्णः। मन्द्रो गम्भीरः शब्दः सोऽस्याऽस्ति तदस्य' ७-१-१३८ इतीतः, मन्द्रं करोति वा ततः के मन्द्रितः ।
- अश्मवदथोऽस्य अश्मरथः। शर्करावत् अक्षिणी यस्य ‘सक्थ्यक्ष्णः' ७-३-१२६ शर्कराक्षः। पूतयो माषा यस्य पूतिमाषः। 'स्थाविडे' ४२९ (सणादि) स्थूरः । अरा अराकाराणि भक्ष्याणि गति 'भीण्शलि' २१ ( उणादि) इति अरराका । 'स्फुलिकसि' १०२ (उणादि) इति पिङ्गः, पिड़ लाति पिछलः । ___ गां लुनाति 'कुमुद' २४४ इति गोलन्दः, गोलायामुनत्ति स्नाति वा, उलिः सौत्रः ओलति 'शम्बूक' ६१ ( उणादि) इति उलूकः । स्तभ्नाति 'जजल' १८ ( उणादि) इति तितिम्भः। भिषिः सौत्रः के भिषः, 'भिषेभिषभिष्णौ च वा' भिषजः, भिणः। पतो साधुस्तल्लुनाति पत्यल्लूः । वृहं लुनाति वृहलः । फलानि लुनाति पृषोदरादित्वात् पफखः । मधुबभ्रोब्राह्मणकौशिके ॥ ६. १. ४३ ॥
मधुशब्दाशब्दाच्च यथासंख्यं ब्राह्मणे कौशिके च वृदेऽपत्येथे यव प्रत्ययो भवति । माधव्यो ब्राह्मणः, माधवोऽन्यः, बाभ्रव्यः कौशिकः, बाभ्र.
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२२]
बृहबृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १. सू. ४४-४७ ] वोऽन्यः । बभ्रोमर्गादिपाठाद्यषि सिद्धे कोशिके नियमार्थं वचनम् । गर्गादिपाठस्तु लोहितादिकार्यार्थः तेन बाभ्रव्यायणीति नित्यं डायन् । केचित्तु अकौशिकेऽपि लोहितादिपाठाद्यबमिच्छन्ति, तन्मतेनेदं यज्विधानं बभ्रोलोहितादेबहिष्करणार्थम्, तेन कौशिके यषि सति लोहितादिकार्य न भवति, तथा च स्त्रियां डायन् वा भवति । बाभ्रवी बाभ्रव्यायणी च कौशिकी ॥४३॥ कपिबोधादाङ्गिरसे ॥ ६.१. ४४ ॥
कपिबोधशब्दाभ्यामाङ्गिरसेऽपत्यविशेषे वृद्धे यम् प्रत्ययो भवति । कपेरपत्यं वृद्धमाङ्गिरसः काप्यः, एवं बौध्यः, अन्य कापेयः, बौधिः, कपिशब्दो गर्गादिषु पठ्यते तस्येहोपादानं नियमार्थम् । आरिस एव यम् नान्यत्रेति । . लोहितादिकार्यार्थश्च गणपाठः । काप्यायनी, मधुबोधयोस्तु यबन्तयोरुभयम् । माधवी, माधव्यायनी, बौधी, बौध्यायनी ॥४४॥
न्या० स० कपि-यान्तयोरुभयमिति ‘यबो डायन च वा' २-४-६७ इत्यनेन विकल्प इत्यर्थः।
वतण्डात् ॥ ६. १. ४५॥
वतण्डशब्दादाङ्गिरसेऽपत्यविशेषे यमेव भवति । वतण्डस्यापत्यं वृद्धमाङ्गिरसः वातण्डयः । आङ्गिरसादन्यत्र गर्गादिशिवादिपाठद्यञ् अण् च भवतः । वातण्डयः, वातण्डः । गर्गादिपाठादेव यषि सिद्ध वचनमागिरसे शिवाचणबाधनार्थम् । शिवादिपाठोऽप्यस्य वृद्ध एवाविधानार्थः । अन्यत्र हि ऋषित्वादेव अण् सिद्धः ॥४॥
न्या० स०-वतण्डा-शिवादिपाठोऽप्यस्येति ननु यः शिवादौ अण् सोऽपत्यमाने विहितो गर्गादौ तु यञ् वृद्धापत्ये तस्माद् विशेषविधानादेव आङ्गिरसेऽन्यत्रापि च यसिद्धौ किमर्थ सूत्रम् ! इत्याशङ्का भण् सिद्ध इति-अनन्तरे बाहादित्वादि प्राप्नोति इति न वाच्यं, शिवादेश्च प्रागिति वचनस्य गर्गादिगणापेक्षया तु बाहादिभ्य इति बहुवचनस्याऽतन्त्रत्वात् । स्त्रियां लुप् ॥ ६. १. ४६ ॥
वतण्डाशब्दादागिरसेऽपत्यविशेषे वृद्धे स्त्रियां यत्रो लब भवति, वतण्डस्यापत्यं वृद्धं स्त्री आङ्गिरसी वतण्डी, जातिलक्षणो डीः। अनाङ्गिरसे तु शिवादिपाठात् वातण्डी, लोहितादिपाठाद्वातण्ड्यायनी ॥४६॥ कुआदेायन्यः ॥ ६. १. ४७॥
कुन्जादिभ्यो असन्तेभ्यो वृद्धेऽपत्येऽर्थे प्रायन्यः प्रत्ययो भवति । कुञ्जस्यापत्यं वृद्ध कोजायन्य:, कोजायन्यो ब्राध्नायन्यः, बाध्नायन्यौ। वृद्ध
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[ पाद. १. सू. ४८-४९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [२३
इत्येव ? कुञ्जस्यापत्यमनन्तरं कौजिः । कुञ्ज, बध्न, गण, भस्मन्, लोमन्, लौमायन्य । तदन्तादेव केचित् । औडुलोमायन्यः । शट, अयं गर्गादिष्वपि । शाक, शुण्डा, शुभा, विपाश्, अयं शिवादिष्वपि। स्कन्ध स्कम्भ शङ्ख, अयं गर्गादावश्वादौ विदादौ च । इति कुजादिः । प्रकारो जित्कार्यार्थः ॥४७॥ ___ या० स० कुजा-यदाकुञ्जस्यापत्यं वृद्धं कौञ्जायन्यः तस्याप्यपत्यानि युवानः 'अत इञ्' ६--१-३१ 'जिदार्षात' ६-१-१४० इति तस्य लुपि एकत्वद्वित्वरूपनिमित्ताभावात् व्यायन्यनिवृत्तौ बहुत्वसभावात् 'स्वीबहुवायनञ्' ६-१-४८ इत्यनेनायनम् भवति तदा कौञ्जायना इति रूपं, यदा तु कुञ्जस्यापत्यानि वृद्धानि कौञ्जायनास्तेषामपत्यं युवा इत्रो 'बिदार्षात' ६-१-१४० इति लुपि आयनानिमित्तबहुत्वाभावात् तन्निवृत्तौ जायन्यनिमित्तैकत्व भावात् जायन्ये सति कोजायन्य इत्येव रूपम् ।
स्त्रीबहष्वायनञ् ॥ ६. १.४८॥ __कुजादिभ्यो ङसन्तेभ्यो बहुत्वविशिष्ठे वृद्ध स्त्रियां वाबहुत्वेऽपि आयन प्रत्ययो भवति । कुञ्जास्यापत्यं स्त्री कोजायनी, ब्राध्नायनी, कुञ्जस्यापत्यानि कोजायनाः, बाध्नायनाः। बकरो बित्कार्यार्थः ॥४८॥ अश्वादेः ॥ ६. १. ४९॥
अश्वादिभ्यो वृद्धेप्रत्ये आयन प्रत्ययो भवति । अनस्यापत्यं वृदमाश्वायनः, शांखायनः। वृद्ध इत्येव ? आश्विः । गोत्र इत्येव ? अश्वो नाम कश्चित् तस्यापत्यं वृद्धमाश्विः। अश्व, शंख, जन, उत्स, ग्रीष्म, अर्जुन, वैल्य, अश्मन्, विद, कुट, पुट, स्फुट, रोहिण, खर्जुल, खजूर, खजूल, पिञ्जूर, भदिल, भटिल, भडिल, भण्डिल, भटक, भडित, भण्डित, प्रास्त, राम, उद, क्षान्ध, ग्रीव, रामोद, रामोदक्ष, अन्धग्रीव, काश, काण, गोल आह्व, गोलाह्व, अर्क, स्वन, अर्कस्वन, शुन, वन, पत, पद, चक्र, कुल, ग्रीवा, श्रविष्ठा, पावित, पवित्रा, (पावित्र) पविन्दा, गोमिन्, श्याम, धूम, धूम्र, वस्त्र, वाग्मिन्, विश्वानर, विश्वतर, वत, सनख, सन, खड, जड, गद, जण्ड, अर्ह, (अर्थ) वीक्ष, विशम्प, विशाल, गिरि, चपल, गिरिचपल, चुप दासक, चुपदासक, धाय्या, धन्य, धर्म्य, पुंसिजात, शूद्रक, सुमनस्, दुर्मनस्, आतव, उत्सातव, कितव, किव, शिव, खिव, खिप, खदिर, आनडुह्य, आनडुह्यायन इति यबन्तादायनणापि सिध्यति प्राग्जितीयस्वरादौ तु 'यूनि लुप्' (६-१-१३७) इति नित्यलबर्थमस्योपादानम् इत्यश्वादिः । अत्र योऽश्वादिवढकाण्डेऽन्यत्रापि पठयते तस्य सोऽपि भवति । अश्वशम्दाद्वि.
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२४]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ४९ ] दादिषु पाठादा, इहायनम् आश्वः, आश्वायनः। शंखशन्दाद्विदादिष्वम् गर्गादिष् यम् कुजादिषु बायन्यः इहायनञ् । शाङ्खः शायः, शांखायन्यः, शाखायनः । जनशब्दान्नडादिषवायनण् इहायनम् । तत्र यूनि प्रत्यये विधेये विशेषः, जानायनिः जानायनो युवा । उत्सग्रीष्मयोरुत्सादिषु पाठोऽनन्तरार्थोऽनपत्यार्थश्च इह तु वृद्धेऽयमेव यथा स्यादित्येवमर्थः। औत्सायनः, ग्रेष्मायणः । अर्जुनशब्दस्य वाह्वादिषु पाठोऽनन्तरार्थः। वृद्ध स्वयमेव-आर्जुनायनः, वैल्येति विलिशब्दो भ्यान्तस्ततो यूनि प्रत्ययः, वैल्यायनो युवा ॥४९॥
न्या० स० अश्वा-गणः 'लटिखटि' ५०५ (ग्णादि) इति अश्वः, 'शमिमनी' ८४ (उणादि) इति शस्खः । अचि जनः । 'ऋजि प्रसते ‘रुक्मग्रीष्म ' ३४६ (उणादि) इति प्रीष्मः । याज' २८८ (उणादि) इत्युने अर्जुनः ।
विलेरपत्यं 'दुनादि' ६-१-११८ इति वैल्यः । ‘विन्दे लुक च' ६ (उणादि) इति विदः । 'नाम्युपान्त्य' ५-१-६४ इति के कुट, पुट, स्फुट । 'विपिन' २८४ इति रोहिणः । 'खर्जमार्जने च' 'कुमुल' ४८७ (उणादि) इति खर्जुलः । 'मामसि' ४२७ (उणादि) इति खजुरः, लत्वे खर्जुलः ।
पिञ्जयति 'मोमसि' ४२७ (उणादि) इति पितरः । भन्दते सुखी भवति 'स्थण्डिल'. ६-२-१३९ इति भदिलः । भति 'कल्यनि' ४८१ (उणादि) इति भटिलः । भण्डते 'भण्डे लुक् च' ४८२ (उणादि) भडिल:, भडिलः।
भटस्य तुल्यो भटकः, भण्डति 'पुतपित्त' २०४ ( उणादि ) इति भडितः। 'भण्डनं भण्डः संजातोऽस्य मण्डितः । प्रादृते 'पुतपित्त' २०४ (उणादि) इति प्रादृतः।
उन्दै स्थादित्वात के उदः । जे क्षिप् तान् अन्धयति क्षान्धः । 'प्रह' ५१४ (उणादि) इति प्रीव: । गमामुनत्ति राममुदकं यस्य वा रामोदः। अक्षी रामाणामुदक्षः रामोदक्षः । अन्धन गणाति अन्धग्रीवः। अचि काशः । घत्रि काणः। ग्रहादभ्यः किति गोल करणे के माहः, कर्मधारये गोलाहः । सुष्ठु अनिति स्वनः, अकीणां स्तावकानां स्वनः मर्कस्वनः । के शुनः । अचि वन, पत, पद । 'कृगो द्वे च' चक्रः । के कुलः । श्रवणं श्रवः, ततो मतुः, बहूनां मध्ये अषवती श्रविष्ठा ।
पून त्वष्टक्षतृ' ८६५ (उणादि) पावितः । 'ऋषिनाम्नाः करणे' ५-२-८६ पवित्रा । पविं वनं ददाति पविन्दाः । 'गोः' ७-२-५० इति मिन्प्रत्यये गोमिन् । अन्ये सुगमाः । ___ सह नरवैवर्तते सनखः । सन्त्यचि सनः । खडणू णिचोऽनित्यत्वेऽचि खडः । जल धात्ये उलयो रक्ये अचि नरः। अचि गदः । अर्हः। वीक्षः। विशाम्यति 'भापा' २९६ (उणादि) इति विशम्यः । णके दासकः । कर्मधारये चुपदासकः । धनं लब्धा धन्यः ।
धर्मादनपेतो धर्नाः। पुसि जायते स्म पुंसिजातः । शूद्रं कायात दकः। आतनोति 'भैरव' ५१९ (उणादि) इति भातवः । कर्मधारये उत्सातवः 'कितिकुडि' ५१८ (उणादि) इति कितनः। कित शाने 'प्रह' ५१४ इति किवः । खनूगू 'प्रह' ५१४ इति । ‘पम्पा'
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[ पाद. १. सू. ५०-५३ ) श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [२५ ३०० इति खिषः खिपः, नित्यलुबर्थमिति, अन्यथा ‘वायनणायनियोः '६-१-७२ इति विकल्पः स्यात् । यूनि प्रत्यये विधेये विशेष इति । आयनियो नित्वात् 'त्रिदार्षादणिोः ' ६-१-१४० इत्यनेन यून्युत्पन्नस्येबा लुब् भवति न त्वायनणः । शपभरदाजादात्रये ॥ ६. १. ५० ॥
शपभरद्वाज इत्येताभ्यामात्रेयापत्ये वृद्ध आयनम् प्रत्ययो भवति । शापायनः भारद्वाजायनः आत्रेयश्चत् । आत्रेय इति किम् ? शापिः, भारद्वाजः, भारद्वाजौ बिदादौ ॥५०॥ भर्गात्रैगर्ते ॥ ६. १. ५१ ॥
भर्गशब्दात्रैगर्तेऽपत्ये वृद्ध आयनञ् प्रत्ययो भवति । भायणस्वैगर्तश्चेत्, अन्यो भागिः ।।५१॥
आत्रेयाद्भारद्वाजे ॥ ६. १. ५२ ।।
आत्रेयशब्दावृद्धप्रत्ययान्ताद्भारद्वाजे यून्यपत्ये आयनम् प्रत्ययो भवति । आत्रेयायणो भारद्वाजो युवा । आत्रेयोऽन्यः । 'जिदार्षात्-' (६-१-१४०) इतीओ लुप् ।।२।।
- न्या० स०, मात्रे-अवेरपत्यं वृद्धम् ‘इतोऽनित्रः' ६-१-७२ आत्रेयस्यापत्यं युवा अनेनायनम् । द्वितीये बाह्वादीम् 'त्रिदार्षात' ६-१-१४० लुप् ।
नडादिभ्य आयनण ॥ ६. १. ५३ ॥ ___ नडादिभ्यो डसन्तेभ्यो वृद्धेऽपत्ये आयनण् प्रत्ययो भवति । नडस्यापत्यं वृद्धं नाडायनः, चारायणः । वृद्ध इत्येव ? नडम्यापत्यमनन्तरं नाडिः, णकारो वृदयर्थः । नड, चर, बक, मुञ्ज, इतिक, इतिश, उपक, लमक, सप्तल, (सत्तल) सत्वल, व्याज, (वाज) व्यतिकेत्येके । प्राण नर, सायक, दाश, मित्र, दाशमित्र, द्वीपा, द्वीप, पिङ्गर, पिङ्गाल, किंकर, किंकल, कातर, काथल, काश्यप, काश्य, नाव्य (ताव्य), अज, अमुष्य, लिगु, चित्र, अमित्र, कुमार, लोह, स्तम्ब, स्तम्भ, अग्र, शिशपा, तृण, शकट, मिकट, मिमत, सुमत, जन, ऋच्, इन्ध, ऋगिन्ध, मित, जनंधर, जलंधर, युगंधर, हंसक, दण्डिन्, हस्तिन, पञ्चाल, चमसिन्, सुकृत्य, स्थिरक, ब्राह्मण, चटक, अश्वल, खरप, बदर, शोग, दण्डम, छाग, दुर्ग, अलोह, आलोह, कामुक, (कामक) ब्रह्मदत्त, जदुम्बर, सण, लडू, केकर, (ककर) नाव्य, आलाह, ऋग, बषगण, अध्वर, बालिश, दण्डप इति नहादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥५३॥ सि. ४
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२६]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ५४-५७ ] यत्रित्रः ॥ ६. १. ५४॥
वृद्ध इति यनिमाविशेषणम्, वृद्धे विहितो यो यभिगो तदन्तान्यपत्ये आयनण् प्रत्ययो भवति । 'वृद्धाधुनि' (६-१-३०) इति वचनानीनि लभ्यते । गाय॑स्यापत्यं युवा गाायणः, वात्स्यायनः। दाक्षेरपत्यं युवा दाक्षायणः, लाक्षायणः, औदुम्बरायणः, तैलखलायनः। वृद्धविहितस्येजो अटणादिह न भवति । उदुम्बराणां राजा औदुम्बरिस्तस्यापत्यमौदुम्बरः औदुम्बगयणिर्वा । 'अवृद्धाहार्नवा' (६-१-११०) इति पक्षे आयनि, गार्या अपत्यं गार्गेय: दाक्षेय इत्यत्र परत्वात् ' याप्त्यूङः' (६-१-७०) इत्येयण भवति ॥५४॥
__ न्या. स. यनि-औदुम्बरायण इति उदुम्बरस्य गज्ञाऽपत्यं वृद्ध 'साल्वांश' ६-१-११७ इती. तस्यापत्यं युवा, एव द्वितायेऽपि । हरितादेनः ॥ ६. १. ५५ ॥
बिद द्यन्तर्गणा हरितादिः । वृद्ध विहितो योऽञ् तदन्तेभ्यो हरितादिभ्यो यून्यपत्ये आयनण प्रत्ययो भवति । हरितस्यापत्यं युवा हाग्तिायन:, केन्दासायन: । हरितादेरिति किम् ? वैदस्यापत्यं युवा बंदः । अत्रेनो लुप् । अन इति किम् ? हरितस्यापत्यं वृद्ध हारितः ।।५।। कोष्टशलङ्को क् च ॥ ६. १. ५६ ।।
क्राष्ट्ट शलकु इत्येनाभ्यां वृद्धऽत्ये आयन ण् प्रत्ययो भवति तयोश्वान्तस्य लुग्भवति । क्रोष्टुरपत्यं वृद्धं क्राष्ट्रीयन:, शालङ्कायनः ।।५६।। दर्भकृष्णामिशर्मरणशग्दच्छुनकादाग्रायणब्राह्मणवार्षगण्यवामिष्ठभागववात्स्ये ॥ ६. १. ५७ ॥
दर्भादिभ्य अ ग्रायण दिप यथासंख्यं वृद्धवपत्यषु प्रायनण प्रत्ययो भवति । दभाद ग्रायणे, दर्भगार.' . यणश्चेत् दार्भायणः, दाभिग्न्यः । कृष्णादब्राह्मणे, कायना ब्राह्मणः, +गिन्यः । अग्निशमणा वाषगण्ये, आग्निशर्मायणी वार्षगण्यः, आग्निमिरन्यः । रणाद्वासिष्ठ, राणायनो वासिष्ठः, राणिरन्यः । शरद्वतो भार्गवे, शारद्वतायनो भार्गवः, शारद्वतोऽन्यः । शुनकाद्वात्स्ये, शोनकायनो वात्स्यः, शौनकोऽन्यः । शरद्वच्छनको विदादी ॥५७॥
न्या० स० दर्भकृष्णा-दर्भादिभ्यः पक्षे बाह्वादीन् ।
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[ पाद. १. सू. ५८-६० ] श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः
जीवन्तपर्वताद्वा ॥ ६. १. ५८ ॥
जीवन्तपर्वताभ्यां वृद्धेऽपत्ये आयनण् प्रत्ययो वा भवति । जैवन्तायनः, जैवन्तिः, पार्वतायनः, पार्वतिः वृद्धे इत्येव ? जैवन्तिः ॥ ५८ ॥ द्रोणाद्वा ॥ ६. १. ५९ ॥
योगविभागाद्वृद्ध इति निवृत्तम्, द्रोणशब्दादपत्यमात्रे आयनण् प्रत्ययो वा भवति । द्रौणायनः, द्रौणिः ।।५९ ॥
शिवादेरण ।। ६. १६० ॥
शिवादिभ्यो ङसन्तेभ्योऽपत्य मात्रेऽण् प्रत्ययो भवति । अत इजादेरपवादः । शिवस्यापत्यं शैवः, प्रौष्ठः, प्रोष्ठिकः । शिव, प्रोष्ठ, प्रोष्ठिक, वष्ट ( चण्ड) जम्ब, जम्भ, ककुभ, कुथार, अनभिम्लान, ककुस्थ, कोहड, क्हूय, रोध, पिलधर, वतण्ड, तृण, कर्ण, क्षोरहूद, जलहूद, परिषिक, शिलिन्द, गोफिल, गोहिल, कपिलक, जटिलक, बधिरक, मजिरक, वृष्णिक, खजार, खञ्जाल, रेख, लेख, आलेखन, वर्तन, ऋक्ष, वर्तनर्क्ष, विकट, पिटाक, तृक्षाक, नभाक, ऊर्णनाभ, सुपिष्ट, पिष्टकर्णक, पर्णक, मसुरकर्ण, मसूरकर्ण, खडूरक, गडेरक, यस्क, लह्य, द्रुह्य, अयस्थूण, भलन्द, भलन्दन, विरूप, विरूपाक्ष, भूरि, संधि, भूमि, मुनि, क्रुश्खा, कोकिला, इला, सपत्नी, जरत्कारु, उत्केया, काय्या, सुरोहिका, पीठीनासा, महित्री, आर्यश्वेता, ऋष्टिषेण गङ्गा, पाण्डु, विपाश, तक्षन् इति शिवादिः । अत्राविरूपाक्षादिञोऽपवादः । भूर्यादीनामा आर्यश्वेताया एयणः, ऋष्टिषेणस्य सेनान्तस्य सेनान्तञ्येञोः, बिदादिपाठादृद्धेऽमेव भवति तदन्ताच्च यूनि ' अत इब्' (६-१ - ३१ ) तस्य त्रिदार्षादणिमोः,(६-१-१४० ) इति लुपि आष्टिषेण: पिता आष्टिषेणः पुत्रः । ॠष्टिषेणस्यापत्यं वृद्धं बहवः विदाद्यम् तस्य यवनः '– (६-१-१२६ ) इत्यादिना लुपि ॠष्टिषेणाः, पाण्डुपाठः शुभ्रायणा गङ्गापाठस्तिकाद्यायनिशा च समावेशार्थ:, तेन पाण्डोद्वैरूप्यं गङ्गायाश्व त्रैरूप्यं सिद्धम् । पाण्डवः, पाण्डवेयः, गाङ्गः, गाङ्गायनिः, गाङ्गेयः । विपाश्पाठः कुञ्जादिलक्षणेन मायन्येन समावेशार्थः । वैपाशः, वैपाशायन्यः । तक्षन्पाठः कुर्वा दियेन समावेशार्थः । ताक्ष्णः, ताक्षण्यः ||६०॥
तथा
न्या० स० शिवा - प्रवृद्धावोष्ठौ यस्य पौष्ठः, 'वोऽष्ठौतौ' १-२-१७ इति वा लुपि । पौष्ठावस्य स्तः ' अतोऽनेक ' ७-२-६ इतीके पौष्ठिकः ।
जनै 'तुम्बस्तुम्बादय' ३२० ( उणादि ) जम्बः । कुथमियर्ति कर्म्मणोऽणि कुमारः ।
"
[ २७
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________________ 28 ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० 1. सू० 61-64 ] कु 'अव्ययस्य कोद् च' 7-3-31 इत्यकि ककु कुत्सितं तिष्ठन्ति विपक्षा अस्मिन स्थादिभ्यः के ककुस्थः / कं वयति क्विपि ग्वृति दीर्धे कहूं याति 'क्वचित् ' 5-1-171 इत्यनेन डे कहूयः / ऋषिवृष्ण्यन्धककुरुभ्यः // 6. 1. 61 // ऋषयो लौकिका वसिष्ठादयः अपत्ययोगात् / वृष्णयः अन्धकाः / कुरवश्व प्रसिद्धा वंशाख्याः क्षत्रियाः / ऋष्यादिवचनेभ्यः शब्देभ्योऽपत्येऽण् प्रत्ययो भवति / इबोऽपवादः / ऋषि, वासिष्ठः, वैश्वामित्रः, गौतमः, वृष्णि वासुदेवः, आनिरुद्धः, वाज्रः, प्रातिवाहनः, औदारः, अन्धक, श्वाफल्कः, रान्ध्रसः, चैत्रकः, कुरु, नाकुलः, साहदेवः, दोःशासनः, दौर्योधनः / अश्यादिभ्यस्तु परत्वात् एयण् ञ्येसो च भवतः। आत्रेयः, जातसेन्यः जातसेनिः, औग्रसेन्यः, औग्रसेनिः, वैष्वक्सेन्यः, वैष्वक्सेनिः, भैमसेन्यः, भैमसे निः / कथं दौर्योधनिः? क्रियाशब्द त्वात् दुःखेन युध्यत इति / योधिष्ठिरिरार्जुनिरित्यत्र तु बाह्वादित्वादिव / 61 / न्या० स० ऋषि-वंशाख्या इति वंशनिमित्ता आख्या अभिधानं येषां ते / इवाफल्क इति 'द्वारादेः' 7-4-6 इति न भवति व्युत्पत्तेरनाश्रयणात्, श्वानं फालयतीति तु वर्णनिर्णयार्थ वाक्यम्-एमण् त्रेभ्यो चेति 'इतोऽनित्रः 6-1-72 ‘सेनान्तकार' 6-1-102 इत्येताभ्याम / कन्यात्रिवेण्याः कनीनत्रिवणं च // 6. 1. 62 // कन्याशब्दात् त्रिवेणीशब्दाच्चापत्येऽण् प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे कनीन त्रिवण इत्येतौ च यथासंख्यमादेशौ भवतः / कन्याया अपत्यं कानीनो व्यासः कानीन: कर्णः, त्रिवेण्या अपत्यं त्रैवणः / एयणोऽपवाद: // 62 / / शुङ्गाभ्यां भारद्वाजे // 6. 1. 63 // शुङ्गशब्दात्पुंलिङ्गात् स्त्रीलिङ्गाच्च, भारद्वाजेऽप्रत्येऽण प्रत्ययो भवति / शुङ्गस्य शुङ्गाया वा अपत्यं शौङ्गो भारद्वाज, शौतिः शोङ्गयश्चान्यः / ' नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' इति सिद्धे परत्वात् द्विस्वरादनधाः' (6-1-71) इत्येयण प्राप्नोति तदाधनाथ द्विवचनेन स्त्रीलिङ्गः शुङ्गाशब्द उपादीयते // 63 // न्या० स० शुङ्गा-शुगश्च शुङ्गा च 'पुरुषः स्त्रिया ' 3-1-126 इति पुरुषः शिष्यते / विकर्णच्छगलाद्वात्स्यात्रेये // 6. 1. 64 // विकर्णछगल इत्येताभ्यां यथासंख्यं वात्स्ये आत्रेये चापत्येण् प्रत्ययो भवति / वैकर्णो वात्स्यः, वैकणिरन्यः छागल आत्रेयः, छागसिरन्यः // 64 //
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[ पाद. १. सू. ६५-६७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [२५
न्या० स० विक-वैकणिरन्य इति ऋषित्वेऽपि व्यावृत्तिबलात् 'अत इत्र' ६-१-३१ बाहादित्वाद् वा। णश्च विश्रवसो विशलुक च वा ॥ ६. १. ६५॥
विश्रवसोऽपत्येऽण् प्रत्ययस्तत्संनियोगे णकारश्चान्तादेशो भवति णसंनियोगे विशशब्दलोपश्चास्य वा, विश्रवसोऽपत्यं वैश्रवणः। विश्लुकि तु रावणः, अण् सिद्ध एवादेशार्थ वचनम् । एवमुत्तरत्र ।।६।। संख्यासंभद्रान्मातुर्मातुर च ॥६. १. ६६ ॥
संख्यावाचिनः सम्भंद्र इत्येताभ्यां च परो यो मातृशब्दस्तदन्तादपत्येऽण् प्रत्ययो भवति मातुश्च मातुर इत्यादेशः । द्वयोर्मात्रोरपत्यं द्वैमातुरः, षाडमातुरः । शतस्य माता शतमाता तस्यापत्यं शातमातुरो भरतः। संगता माता संमाता, तस्या अपत्यं सांमातुरः भद्रायाः भद्रस्य वा माता भद्रमाता, तस्या अपत्यं भाद्रमातुरः, । 'संबन्धिनां संबन्धे' (७-४-१२१) इति वचनात् धान्यमातुर्न भवति, तेन . द्वयोर्मात्रोरपत्यं द्वैमात्रः । अत्रादेशो न भवति । संख्यासंभद्रादिति किम् ? सौमात्रः, शुभ्रादिपाठाद्वैमात्रेयः ॥६६॥
न्या० स० संख्या-दैमात्र इति नन्वत्र मिति तद्धिते 'नामिनोऽर्कालहले:' ४-३-५१ इत्यन्तस्य, यद्वाख्यात-कृत्प्रकरणमेकमेव तत्साहचयदित्र प्रकरणे यत्सूत्रं तद्विहितप्रत्ययो गृह्यते, अयं तु भिन्नप्रकरणविहितः । अदोनदीमानुषीनाम्नः ॥६. १. ६७॥
अदुसंज्ञकान्नदीनाम्नो मानुषीनाम्नश्चापत्येण् प्रत्ययो भवति, एयणोऽपवादः यामुनः प्रणेतः, ऐरावतः उद्ध्यः, वैतस्तः पलाशः(ल)शिराः, नार्मदो नीलः, मानुषी, देवदत्तः। सौदर्शनः सौतारः, स्वायंप्रभः, चन्तितः, शैक्षितः । अदोरिति किम ? चान्द्रभागेयः, वासवदत्तेयः । नदीमानुषीग्रहणं किम् । सुपाः सुपर्णाया वापत्यं सौपर्णेयः, वैनतेयः । देव्यावेते इत्येके, पक्षिण्यावित्यन्ये । नामग्रहणं किम् ? शौभनेयः । शोभनाशब्दो नद्यां मानुष्यां च वर्तते न तु नामधेयत्वेन ॥६७॥
न्या० स० अदोनवामानुषी-देवदत्त इति अदोरेवेति सावधारणव्याख्यानात या नित्यं दुसंज्ञा सैवात्र गृह्यते, न संज्ञा दुर्वा' ६-१-६ इति वैकल्पिको, तेन देवदत्त इत्यादि सिद्धं, अन्यथाऽत्र संदेहः स्यात , अत एव व्यावृत्त्युदाहरणे नित्या दुसंज्ञा उदाहृता । चान्द्रभागेय इति चन्द्रभागौ नाम नर्गो, ताभ्यां प्रभवति, अण् शोणादित्वात् वा क्यामापि च चान्द्रभाग्याः चान्द्रभागाया वाऽपत्यम सुपर्णाय वेति गरुडमातुर्जातित्वमन्ये न मन्यन्ते इत्याप् ।
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३०]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० ६८-७१ ] ___देव्याषिति ननु सुपर्णाविनताशब्दयोरेक एव शब्दार्थस्तत्कथं देव्याविति द्विवचनम् ! उच्यते, शब्दभेदादर्थभेदो भवतीत्याश्रयणात् । पीलासाल्वामण्डूकादा ॥ ६. १. ६८॥
पीलासाल्वामण्डूकशब्देभ्योऽपत्येऽण् प्रत्ययो वा भवति । पैलः, पैलेयः, साल्वः, साल्वेयः, माण्डकः, माण्डूकिः । पीलासाल्वाभ्यां द्विस्वरयणि मण्डकादिषि प्राप्ते वचनम्, वाग्रहणं मण्डूकस्य इमर्थम् ॥६८॥ ____ न्या० स० पीलासाल्वा-इअर्थमिति अन्यथा वाग्रहण बिनापि गुत्तरेण चानुकृष्टेभ्य एभ्यस्त्रिभ्योऽप्येयण, अनेन त्वः भवति, मण्डूकातु कथमपी न स्यादिति । दितेश्चैयण वा ॥ ६. १. ६९ ॥
दितिशब्दान्मण्डकशब्दाच ङसन्तादपत्ये एयण वा भवति । दैतेयः, दैत्यः, माण्डकेयः, माण्डुकिः, चकारो मण्डकार्थः। पीलासाल्वाभ्यां ह्यविकल्पादेव एयण सिद्धः । मण्डूके रूप्यं सिदमेव । वाग्रहणं दितेार्थम् । ' इतोऽनिमः' (६-१-७२) इत्येव दितेरेयणि सिद्ध 'अनिदम्यणपवाद च'-(६-१-१५) इत्यनेन तस्य बाधायां प्रतिप्रसवार्थं वचनम् ॥६९॥
न्या० स० दिते-एयण सिद्ध इति 'द्विग्पादनद्याः' ६-१-७१ इत्यनेन । मण्डूके त्रैरूप्यमिति अत्र वाग्रहणं विनापि पूर्वसूत्रे वाग्रहणेन मण्डूकेऽणित्रोः सिद्धत्वात् , अनेन च एयणविधानात त्रैरूप्यं सिद्धमित्यर्थः।
यापत्यूङः ॥ ६. १. ७०॥
ड्यन्तादावन्तात्त्यन्तादूङन्ताच्चापत्ये एयण् प्रत्ययो भवति । सौपर्णेयः, वैनतेयः, यौवतेयः, कामण्डलेयः ॥७॥
न्या० स० क्याप्त्यूल-यौवतेय इति एयेऽग्नाप्येवेति नियमात पुंवत्त्वाभावात्तेर्न निवृत्तिः । कामण्डलेय इति देवीवचनोऽत्र कमण्डलूशब्दः, मानुषीय वनात्तु 'अदोनदी' ६-१-६७ इत्यण् चतुष्पादवचनात्त्वेयम् स्यात् , 'अकदुपाण्ड्वोः ' ७-४-६९ इति उवर्णस्य लुक् ।। द्विस्वरादनद्याः ॥६.१.७१ ॥
द्विस्वरात् ङ्याप्त्यूमन्तादनदीवाचिनोऽपत्ये एयण प्रत्ययो भवति । दात्तेयः, गौप्तेयः । अनद्या इति किम् ? सोताया अपत्यं संतः, संध्यायाः सान्ध्यः, वेण्णाया वैण्णः, सिप्रायाः सैप्रः, रेवायाः रैवः, शुदायाः शोखः, कुलायाः कौलः, मह्या माहः, सीतादयो नखः । अदोर्नदीमानुषीनाम्नोऽपवादो योगः ॥७१॥
न्या० स० द्विस्व०- दातेय इति क्याप्त्यूने बाधकस्य 'अदोनदी' ६-१-६७ इत्यणो बाधकोऽनेनैयण ।
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( पाद. १. सू. ७२-७३, श्रीसिडहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः । ३१
इतोऽनित्र ॥ ६. १. ७२ ॥ • इबन्तजितात् द्विस्वरादिकारान्तादपत्ये एयण प्रत्ययो भवति । नाभेरपत्यं नाभेय:, अनेरात्रेयः । अहेराहेयः, दुलेदोलेयः, वलेलेयः, निधेर्नेधेयः । इत इति किम् ? दाक्षिः । अनिन इति किम् ? दाक्षायणः । द्विस्वरादित्येव ? मरीचेरपत्यं मारीचः, कथमजबस्तेरपत्य माजबस्तेयः शकन्धेरपत्यं शाकन्धेयः परिधेः पारिधेयः शकुनेः शाकुनेय : अतिथेरातिथेय इति, शुभ्रादित्वाद्भविष्यति ॥७२॥ शुभ्रादिभ्यः ॥ ६. १. ७३ ॥
शुभ्रादिभ्योऽपत्ये एयण प्रत्ययो भवति । यथायोगमिमादीनामपवादः । शौभ्रेयः, वष्टपुरेयः । शुभ्र, विष्टपुर, विष्टपर, ब्रह्मकृत, शतद्वार, शताहार, शालाधल, किट (टीक), शालूक, कृकलास, प्रवाहण, भाण, भारत, भारम, कुदत्त, कपूर, इतर, अन्यतर, आलीढ, सुदत्त, सुदक्ष, तुद, अकशाप, वादन, शतल, शकल, (शक) शवल, खडुर, कुशम्ब, शुक्र, विग्र, वीज, अश्व, वीजाश्व, अजिर, मवक्र, मखण्डु. मकष्टु, मघष्टु, मृकण्डु, मृकण्डु, जिह्माशिन्, अजवस्ति, शकन्धि, परिधि, अणोचि, कणोचि, शकुनि, अतिथि, अनुदृष्टि, शलाकाभ्र, लेखाभ्रू, रोहिणी, रुक्मिणी, किकशा, विवशा, गन्धपिङ्गला, षडोन्मता कुमारिका, कुबेरिका, अम्बिका, अशोका, श्वन्, गङ्गा, पाण्डु, विमातृ, विधवा, कादू, गोधा, सुदामन, सुनामन् इति शुभ्रादयः ।। मवक्रान्तानामिजोऽपवाद एयण मखण्डवादीनां विमात्रन्तानामणः विधवाया एरणः कद्रूगांधयोश्चतुष्पादेयत्रः । सुदामन्सुनाम्नोरिबा शुभ्रस्य तु ज्येन समावेशार्थः पाठः, बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ॥७३॥
न्या० स० शुभा-शोभते, 'ऋज्यजि' ३८८ (उणादि) इति, विष्टानि पुरणि येन विष्टं परं येन, ब्रह्मणा क्रियते स्म, शतं द्वाराणि यस्यां, शतमाहाति, शालासु निष्ठतिपृषोदरादित्वात् , टोकते 'नाम्युपान्त्य' ५-१-५४ इनि कः, शल्यणेणित् शालूकः । कृतकेन शलनि, प्रवाह यति नन्द्यादित्वादन:, मण्यते उपादेयतया, भरत यायम् , भाभी ग्मते, क्वादीयते स्म, कल्पते स्म कल्पते, 'मीमसि' ७४६ (Bणादि) इति, पूभ्यां क्ति , द्वयोर्मध्ये प्रकृष्टोऽन्यतरः, आलियते स्म, सुखेन दायते स्म, शोभना दक्षा यस्य, तुद.त 'नाभ्युपान्त्य' ५-१-५४ इति कः, अकं शपति, वादयति नन्द्यादित्वात् , शतं लाति, 'मोममि' ४२७ ( उणादि ) इति खइरः । को शाम्यति ‘शम्यमेणिद्वा' ३१८ ( उणादि), विगता नासिका यस्य, वियो जक, बीजश्चासौ अश्वश्च, 'स्थविरः' ४१७ (उणादि) इति अजिरः' मया लक्ष्म्या वक्रा, मया खण्डयति कषति घर्षति 'केवयु' ७४६ (उणादि ) इति 'झ्यापोबहुलम् ' २-४-२९,
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३२]
बृहबृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १. सू. ७४-७८ ] जिझमश्नातीत्येवंशीलः, अजस्येव बस्तिरस्य, शकान अन्धयति, परिधीयते' 'मृश्वि' ६२७ (उणादि ) इति शकेरूनिः, अतेरिथिः, अनुदृश्यात् , शलाकावत् लेखावत् भूर्यस्य, विपिन' २८४ ( उणादि ) इति रोहिणी, समस्या अस्ति, विष्टि विगतो वशो यस्या वा, कुबेरस्य तुल्या कुबेरिकाः। ____ अम्बते अम्बायास्तुल्या वा, न विद्यते शोको यस्याः, विगता माता, विगतो धत्रो यस्याः, गुध्यते गोधा, शोभनं दाम नाम यस्याः । श्यामलक्षणादासिष्ठे ॥ ६. १.७४ ।।
श्यामलक्षण इत्येताभ्यां वासिष्ठेऽपत्यविशेषे एयण् प्रत्ययो भवति । श्यामेयो वारिष्ठः । श्यामायनोऽन्यः । अवादित्वात् वृद्धे आयन, अवृद्ध तु श्यामिः, लाक्षणेयो वासिष्ठः, लाक्षणिरन्यः ॥७४॥ विकर्णकुपीतकात्काश्यपे ॥ ६. १.७५ ।।
विकर्णकुपीतक इत्येताभ्यां काश्यपेऽपत्यविशेषे एयण् प्रत्ययो भवति । वैकर्णेयः काश्यपः, वैकणिरन्यः, कौषीतकेयः काश्यपः, कौषीतकिरन्यः ॥७५।।
भ्रवो भ्रव च ॥ ६. १. ७६ ॥
भ्रूशब्दादपत्ये एयण् प्रत्ययो भवति भ्रुव चास्यादेशः । भ्रुवोऽपत्यं भ्रौवेयः ।।७६॥
न्या० स० ध्रुवो-ध्रौवेय इति यथा चुलुकस्याऽपत्यसंभवस्तथा भ्रुवोऽपि । कल्याण्यादेरिन चान्तस्य ॥ ६. १, ७७ ॥
कल्याण्यादिभ्योऽपत्ये एयण् प्रत्ययो भवति इन् इत्ययं चान्तस्यादेशः । कल्याण्या अपत्यं काल्याणिनेयः । सौभागिनेयः । कल्याणी, सुभगा, दुर्भगा, बन्धकी, जरती बलीवर्दी, ज्येष्ठा, कनिष्ठा, मध्यमा, परस्त्री, अनुष्टि, अनुसृष्टि इति कल्याण्यादिः । परस्त्र्यन्तानां 'ङयाप्स्यूहः' (६-१-७०) इति अनुदृष्टे: 'शुभ्रादिभ्य' (६-१-७३) इति एयण सिद्ध एव इनादेशमात्र विधीयते । अनुसृष्टेरुभयम् ।।७७॥
न्या० स० कल्या-शुभ्रादित्वात आनुदृष्टेयः, कल्याण्यादिपाठात् आनुदृष्टिनेयः । कुलटाया वा ॥ ६. १. ७८॥
कुलान्यटति कुलटा, कुलटाशब्दादपत्ये एयण प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे इन् च वान्तादेशः । आवन्तत्वादेयण सिद्ध आदेशार्थं वचनम्, अत एवादेशस्यैव विकल्पो न त्वेयणः । कोलटिनेयः, कौडयः। या तु कुलान्यटन्ती शीलं भिनत्ति ततः परत्वात् क्षुद्रालक्षण एरणेव, कौलटेरः ॥७८॥
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[ पाद. १. सू. ८०-८४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [३३ चटकाण्णैरः स्त्रियां तु लुप् ॥ ६. १. ७९ ॥
चटकशब्दात् ङसन्तादपत्यमात्रे गैरः प्रत्ययो भवति स्त्रियां स्वपत्ये विहितस्य गैरस्य लुप् । चटकस्यापत्यं चाटकरः, लिङ्गविशिष्टस्य ग्रहणात् चटकाया अपि चाटकरः स्त्रियां तु लुप, चटकस्य चटकाया वा अपत्यं स्त्री चटका चटकेति जातिशब्दोऽस्त्येव स्त्रियामपत्ये प्रत्ययाश्रवणार्थ लबवचनम् । अस्त्रियामित्येव सिद्धे प्रत्ययान्तरबाधनार्थ रविधानम् ।७९। ___ न्या० स० चटका-चटकेति जातिडीबाधकोऽजादेराप्, क्षिपकादित्वादित्वाभावे प्रत्ययलुपि 'ड्यादेः' २-४-९५ इति आनिवृत्तौ पुनरजादित्वादाप् । चटकेति जातिशब्द इति ।
ननु स्त्रियां लुपा भाव्यं, ततो जातिशब्देनैव सिद्धे किं स्त्रीलिङ्गे चटकशब्दात् प्रत्ययविधानेनेत्याशङ्का । क्षुद्राभ्य एरण वा ॥ ६.१.८० ॥
क्षुद्रा अङ्गहीना अनियतपुस्का वा स्त्रियः, बहुवचनं शूद्रार्थपरिग्रहार्थम् । क्षुद्रावाचिभ्यः शब्देभ्यो ङसन्तेभ्यः स्त्रीलिङ्गेभ्योऽपत्ये एरण् प्रत्ययो वा भवति । अणेयणोरपवादः, काणाया अपत्यं काणेरः, काणेयः, दास्या दासेरः, दासेयः, नाटया नाटेरः, नाटयः, कर्दनायाः कार्दनेरः, कार्दनेय: ।८०।
न्या० स० क्षुद्रा-अणेयणोरपवाद इति 'अदोनदीमानुषी' ६-१-६७ इत्यणः 'द्विस्वरादनद्या' ६-१-७१ ‘ड्याप्ठ्यूङः ६-१-७० इत्येताभ्यामेयणः कर्दना वंशोपरि नर्तकी । गोधाया दुष्टे णारश्च ॥ ६. १.८१ ॥
गोधाशब्दात् डसन्तात् दुष्ठेऽपत्ये णारश्चकारादेरण् च प्रत्ययो भवति । गोधाया अपत्यं दुष्टं गौधारः, गौधेरः, योऽहिना गोधायां जन्यते, गौधेयोऽन्यः । शुभ्रादित्वादेयण् ।८१। जण्टपण्टात् ॥ ६.१. ८२ ॥
जण्टपण्ट इत्येताभ्यामपत्ये णारः प्रत्ययो भवति । जाण्टारः, पाण्टारः । केचित्तु पक्षस्यापत्यं पाक्षार इत्यपीच्छन्ति ।८२॥
चतुष्पाभ्य एयञ् ॥६. १.८३ ॥
चतुष्पाद्वाचिभ्यो ङसन्तेभ्योऽपत्ये एयञ् प्रत्ययो भवति, अणादीनामपवादः । कमण्डल्वा अपत्यं कामण्डलेयः, शितिबाह्वाः, शैतिबाहेयः, मद्रबाह्वा माद्रबाहेयः, जम्ब्वा जाम्बेयः, शबलायाः शाबलेयः, बहुलाया बाहुलेयः, सुरभेः सौरभेयः ।८३॥
न्या० स० चतुष्पा-चत्वारः पादा यासां स्त्रीणामिति कर्त्तव्यं, न तु येषां यतः स्त्रीलिङ्गानामेवेष्यते न पुंलिङ्गानामिति । शबलाया इति-गौरादौ गुणवाचकपरिग्रहात् संज्ञाशब्दान्न की।
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३४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० ८५-८७ । गृष्टयादेः ॥ ६. १. ८४ ।।
गृष्टयादिभ्योऽपत्ये एयञ् प्रत्ययो भवति, अणादीनामपवादः । गृष्टेरपत्यं गाष्टयः, हृष्टः हार्टेयः, गृष्टिशब्दो यश्चतुष्पाद्वचनस्ततः पूर्वेणैव सिद्धे अचतुष्पादर्थमुपादानम् । गष्टि, हृष्टि, हलि, वालि, विश्रि, कुद्रि, अजवस्ति, मित्रयु इति गृष्टयादिः । बकारस्य मित्कार्यार्थत्वान्मत्रेय पिता मैत्रेय पुत्रः ।८।।
न्या० स० गृष्ट्या-मैत्रेय इति 'सारवैश्वाक' ७-४-३० इत्यादिनाऽयुलोपः, तत इत्र, तस्य 'बिदार्षा' ६-१-१४० इति लोपः । वाडवेयो वृषे ॥ ६. १. ८५॥
वाडवेय इति वडवाशब्दात् वषे एयञ् एयण् वा प्रत्ययो निपात्यते । वषो यो गर्भे बीजं निषिञ्चति । वडवाया वषः वाडवेयः, अपत्येऽणेव भवति, वाडवः । निपातनमेयणेयोरुभयोरपि वृषे व्यवस्थापनार्थम्, अन्यथा अन्यतरोऽपत्ये प्रसज्ज्येत ।८५।
न्या० स० वाड-अन्यन्तरोऽपत्ये इति 'दितश्चैयण वा' ६-१-६९ इत्यधिकारे यदि क्रियेत तदैयण चतुष्पाभ्य इत्यधिकारे त्वेयञ् स्यादित्यर्थः । रेवत्यादेरिकण् ॥६. १. ८६ ॥
रेवतीत्येवमादिभ्योऽपत्ये इकण् प्रत्ययो भवति, एयणादीनामपवादः रैवतिकः, आश्वपालिकः । रेवती, अश्वपाली, मणिपाली, द्वारपाली वृकवञ्चिन, वृकग्राह, कर्णग्राह, दण्डग्राह, कुक्कुटाक्ष इति रेवत्यादिः । द्वारपाल्यन्तानामेयणोऽपवादः, यदा मानुषीनाम तदाणोऽपि । कवञ्चिनोऽणः शेषाणामित्रः।८६।
न्या० स० रेव-रैवतिक इति रेवते चन्द्रमसं 'पुतपित्त'-इति रेवत्या चन्द्रयुक्तात्कालेऽण् लुप , 'ङयादेः-डोनिवृत्तौ पुनर्जी रेवत्यां जाता, 'भर्तृसंध्यादेरण' 'चित्रारेवती इति लुपि ङीनिवृत्तिः, पुनमः, रेवत्या अपत्यमनेनेकणि 'जातिश्च णि' ३-२-५१ इति भावे 'अवर्णेवर्णस्य ७-४-६८।।
वृद्धस्त्रियाः क्षेपे णश्च ॥ ६. १. ८७ ॥ __ वृद्धप्रत्ययान्तात् स्त्रीवाचिनः शब्दादपत्ये णः प्रत्ययो भवति चकारादिकण् च क्षेपे गम्यमाने, पितुरसंविज्ञाने मात्रा व्यवदेशोऽपत्यस्य क्षेपः, गार्या अपत्यं युवा गार्गः गागिको वा जाल्मः, ग्लुचुकायन्या ग्लौचुकायनो ग्लोचुकायनिको वा जाल्मः । म्लुचुकायन्याः म्लौचुकायनः म्लौचुकायनिको वा जाल्मः । 'वृद्धाधुनि' (६-१-३०) इति यूनीमौ प्रत्ययो । वृद्धग्रहणं किम् ? कारिकेयो जाल्मः । स्त्रिया इति किम् ? औपगविर्जाल्मः । क्षेप इति किम् ? गार्गेयो माणवकः, मातुः संविज्ञानार्थम् इदमुच्यते ।८७।
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[ पाद ४. सू० ८८-९१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [३५
न्या० स० वृद्ध-गार्ग इति 'जातिश्च णि तद्धित' ३-२-५१ इति पुंवभावेऽलोपे 'तद्धितयस्वरे' २-४-९२ इति य लुपू । ग्लौचुकायन इति वृद्धेऽपत्येऽदोरायनिः 'नुजति' २-४-७२ डीः, ततोऽनेन णे 'जातिश्च णि' ३-२-५१ इति पुंवत्वे डीनिवृत्ती 'अवर्णेवर्णस्य' ७-४-६८ इति इलोपः । अत्र ण-इकण्प्रत्ययोर्णित्वं ग्लौचुकायन इत्यादी वृद्धेश्चरितार्थ, न वाच्यं ग्लौचुकायनीभार्य इत्यत्र 'तद्धितः स्वरवृद्धि' २-४-९२ इति पुंवन्निषेधादपि, यतोऽत्र वृद्धप्रत्ययान्तादिति भणनात् युनीमो प्रत्ययो स्त्रियाश्च युवत्वाभावादिमौ प्रत्ययौ न भवत इति ग्लौचुकायनीभार्य इति प्रयोगोऽपि न भवति । कार्तिकेय इति कारिकाया 'याप्त्यूङः' ६-१-७० एयण 'तद्धिताककोपान्त्य' ३-२-५४ इति पुंवत्त्वाभावः ।
गार्गेयो माणवक इति नन्विह क्षेपोऽस्त्येवान्यथा माणव इत्यत्र णत्वं न स्यात् ? सत्यं, व्याख्यानात् पितुरसंविज्ञाने यत्र मात्रा व्यपदेशः स इह क्षेपो गृह्यते, यस्त्वन्यथा स नहि । इदमुच्यत इति पिता प्रख्यात एव पर पत्नीबाहुल्ये कस्या अयमित्याह । भ्रातुर्व्यः ॥ ६. १.८८॥
.भ्रातृशब्दादपत्ये व्यः प्रत्ययो भवति । भ्रातुरपत्यं भ्रातृव्यः, शत्रुरपि भ्रातृव्य उच्यते स उपचारात् एकद्रव्याभिलाषश्चोपचारनिमित्तम् ।८८।
ईयः स्वसुश्च ॥ ६. १.८९ ॥ __भ्रातृशब्दात् स्वसृशब्दाच्चापत्ये ईयः प्रत्ययो भवति । भ्रात्रीयः, स्वस्रीयः ।८९॥ मातृपित्रादेयणीयणौ ॥ ६. १. ९० ॥
मातृपितृशब्दावादी अवयवौ यस्य स्वसुः स्वसन्तस्य तस्मात् मातृष्वसृशब्दात् पितृष्वसृशब्दाच्चापत्ये डेयण ईयण् इत्येतो प्रत्ययौ भवतः, वचनभेदान्न यथासंख्यम् । मातृष्वसे यः, मातृष्वस्रीयः, पैतृष्वसेयः, पैतृष्वतीयः । डित्त्वात् डेयणि अन्त्यस्वरादिलोपः, मातृपित्रादेः स्वसन्तस्य ग्रहणादिह न भवति । परममातृष्व सुरपत्यम्, परमपितृष्वसुरपत्यम् । मातृपितृशब्दयोऋकारान्तयोनिर्देशात् इह न भवति । मातुःस्वस्रः, पैतुस्वस्रः, मातुःष्वस्रः, पैतु:ष्वस्रः । अत्र 'अलुपि वा' (२-३-१९) इति विकल्पेन षत्वम् ।९०।
न्या० स० मातृ-माता च पिता च मातृपितरौ, तावादी यस्य शब्दप्रधानत्वात् निर्देशस्य 'आ द्वंदे' ३-३-३९ इति न भवति योनिसंबंधाभावात् । मातृष्वसेय इति-'स्वस्पत्योर्वा' ३-२-३८ इति वा लुपि । श्वशुराद्यः॥ ६. १. ९१ ॥
श्वशुरशब्दादपत्ये यः प्रत्ययो भवति, श्वशुरस्यापत्यं श्वशुर्यः । 'संबन्धिनां संबन्धे' (७-४-१२१) इतीह न भवति, श्वशुरो नाम कश्चित् तस्यापत्यं श्वाशुरिः ।९१॥
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३६] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० ९२-९५ ] जातौ राज्ञः ॥ ६. १. ९२ ॥
राजनशब्दादपत्ये जातो गम्यमानायां यः प्रत्ययो भवति । राज्ञोऽपत्यं राजन्यः क्षत्रियजातिश्चेत् । जाताविति किम् । राजनोऽन्यः ।९२।
न्या० स०-जातौ-यद्यपि जातिशब्दा अव्युत्पन्ना गजन्यादयस्तथाप्यपत्यार्थस्य व्युत्पत्तिनिमित्तत्वाश्रयणेन यप्रत्ययत्य आपत्यत्वात् 'तद्धितयस्वर' २-४-९२ इति प्राप्तौ राजन्यकमित्यत्र 'न राजन्यमनुष्ययोः २-४-९४ इति निषेघो युज्यते ।
राजनोऽन्य इति राज्ञः स्वामिनोऽपत्यं वारणो वा । क्षत्रादियः ॥ ६. १. ९३॥
क्षत्रशब्दादपत्ये इयः प्रत्ययो भवति जातो गम्यमानायाम, क्षत्रस्यापत्यं क्षत्रियः जातिश्चत् । क्षात्रिरन्यः ।९३।
न्या० स० क्षत्रा-क्षात्रिरन्य इति यदि जातिरपत्यस्य न गम्यते किंतु क्षत्रस्यापत्यमित्येतावदेव तत इयाभावे 'अत इञ्। ६-१-३१ इति इञ् ।
मनोर्याणौ पश्चान्तः ॥ ७. १. ४९ ॥ __ मनुशब्दादपत्ये य अण् इत्येतो प्रत्ययौ भवतस्तसंनियोगे च मनशब्दस्य षकारोऽन्तो भवति जातो गम्यमानायाम, मनोरपत्यानि मनुष्याः मानुषाः, . मानुषी । जातावित्येव ? मानवः, मानवाः, मानवी: प्रजा: पश्य । अत्र हि मनोरपत्यमित्येतावानेवार्थों विवक्षितो न जातिस्तेन षोऽन्तो न भवति, वृद्धापत्यविवक्षायां तु लोहितादिपाठाद्यमेव । मानव्यः, मानव्यौ, मनवः, मानव्यायनी। मनुष्यमानुषशब्दाभ्यां सत्यसति चापत्येऽर्थे अनभिधानादपत्ये पुनरन्यः प्रत्ययो न भवति ।९४।
न्या० स० मनो०-मनुशब्दस्येति अत्र प्रत्ययसंबन्धे उपयुक्तायाः पञ्चम्याः षष्ठीरूपतया विपरिणामः । जातौ गम्यमानायामिति अपत्याधिकारादपत्ये प्रत्ययो विज्ञायते, जाताविति च प्रकृतिप्रत्ययसमुदायविशेषणं न तु जातिः प्रत्ययार्थ इत्याह-पोन्तो न भवतीति अण् सामान्यः सिद्ध एवाऽनेन षोऽन्त एव विधीयते इत्याह-अनभिधानादिति -यदापत्यार्थो न किंतु मन्यते इति 'शिक्यास्याय' ३६४ ( उणादि) इति 'अपुषधनुषादयः' ५५९ ( उणादि ) इति च मनुष्यमानुषशब्दौ निपात्येते तदाऽनभिधानादनिष्टेरित्यर्थः, यदा तु मनोरपत्यमिति तदाऽनभिधानादऽप्रतिपादनात्, अप्रतिपादनं च 'आद्यात् । ६-१-२९ इति सूत्रात् , न वाच्यं वृद्धापत्ये येऽणि पुन!नि प्रत्ययो भविष्यतीति, यतोऽत्रैव वृद्धापत्यविवक्षायां तु लोहितादिपाठात् यत्रवेत्युक्तम् ।
माणवः कुत्सायाम् ॥ ६. १. ९५ ॥ __ माणव इति मनुशब्दस्यौत्सगिकेऽण्प्रत्यये कुत्सायां गम्यमानायां नकारस्य णकारादेशो निपात्यते । मनोरपत्यं कुत्सितं मूढं माणवः ।९५।
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[ पाद. १. सू. ९६-१०० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [३७ - कुलादीनः ॥ ६. १. ९६ ॥
कुलशब्दान्तात्केवलाच्च कुलशब्दादपत्ये ईनः प्रत्ययो भवति, कुलस्यापत्यं कुलीनः । ईषदपरिसमाप्तं कुलं बहुकुलम् तस्यापत्यं बहुकुलीनः, क्षत्रियकुलीनः, एषु अत इञः अदोरायनेश्चापवादः । आढपकुलीनः, राजकुलीनः, अत्र 'अवद्धाहोर्नवा' (६-१-११०) इत्यायनिञोऽत इञश्च । उत्तरसूत्रे समासे प्रतिषेधादिह कुलान्तः केवलश्च गृह्यते १९६१ यैयकत्रावसमासे वा ॥ ६. १. ६७ ।।
कुलशब्दान्तात्केवलाच्च कुलशब्दादपत्ये य एयका इत्येतो प्रत्ययौ वा भवतः ताभ्यां मुक्ते ईनश्च न चेत् कुलशब्दः समासे वर्तते । कुल्यः कोलेयकः कुलीनः, बहुकुल्यः बाहुकुलेयकः बहुकुलीनः । असमास इति किम् ? माढयकुलीनः ।९७१ दुष्कुलादेयण् वा ।। ६. १. ९८ ॥
दुष्कुलशब्दादपत्ये एयण प्रत्ययो वा भवति । दौष्कुलेयः, दुष्कुलीनः ।९८१ महाकुलादाजीनौ ॥ ६. १. ९९ ।।
महाकुलशब्दादपत्ये अज् ईनञ् इत्येतो प्रत्ययो बा भक्तः ताभ्यां मुक्ते ईनश्च । माहाकुलः, माहाकुलीनः, महाकुलीनः, महेत्याकारनिर्देशात् महतां कुलं महत्कुलं तस्यापत्यं महत्कुलीन इति ईन एव भवति ।९९।
कुर्वादेर्व्यः ॥ ६. १. १००॥ ___कुरु इत्येवमादिभ्योऽपत्ये ज्यः प्रत्ययो भवति । कौरव्यः, अक्षत्रियवचनस्येह कुरोग्रहणम् । क्षत्रियवचनात्त 'दुनादिकुवित्कोशलाजादाभ्यः ' (६-१-११८) इत्यनेन भ्यः, अयं चानयोविशेषः । तस्य दिसंज्ञत्वात् बहुषु लुप् । कुरवः । अस्य तु द्रिसंज्ञाया अभावात् कौरव्याः ततो यूनि तिकादिपाठादायनिञ् । कौरव्यायणिः। अस्माच्चात इब् । तस्य 'बिदाषादणिो:' (६-१-१४०) इति लुप् । कौरच्यः । कुरुशब्दश्च तिकादिष्वपि पठयते । कौरवायणिः, उत्साद्यञ् तु ज्यायनिभ्यां बाधितः कुरुशब्दादपत्ये न भवति । शकु, शाङ्कव्यः, बहुषु शाकव्याः, स्त्री शाङ्कव्या । लोहितादौ पाठात् पौत्रादौ यनि शाङ्कव्यः, बहुषु लुप् शङ्कवः, स्त्री शाङकव्यायनी । कुरु शकु शकन्धु, शाकभू, पथिकास्मि, मतिमत्, पितृमत्, पितृमन्तु, वाच, हन्त, हृदिक,
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३८]
बृहद्दृत्ति-लघुन्याससंवलिते (पा० १. सू० १०० ] शलाका, कालाका, एरका, पदका, खदाका, केशिनी, मति, कवि, हन्ति, पिण्डी, ऐन्द्रजाली, धातुजि, वैराजकि, दामोष्णोषि, गाणकरि, कैशोरि, कापिञ्जलादि, गर्गर, हन, मजूष, अविमारक, अजमारक, चफदक् (चफदृक) कुट, कुटल, मुर, दभ्र, सूर्पणाय, श्यावनाय, श्यावरथ, श्याप्रथ, श्यावप्रथ, श्यापप्रथ, श्यापुवप्रथ, सत्यंकार, वलभीकार, कर्णकार, पथिकार, बृहतीकार, वान्तवृक्ष, आर्द्रवृक्ष, मूढ, शाक, इन, रथकार, नापित, तक्षन्, शुभ्र, इति कुर्वादिः । अत्र हन्त्रन्तानां सामान्याणो हृदिकस्य तु वृष्ण्यणोऽपवादो ज्य: । शलाकादीनां केशिन्यन्तानामेयणः । मानुषीनामत्वेऽणोऽपि केशिनीशब्दस्य स्त्रीलिङ्गपाठादेव पुवद्भावो न भवति । कैशिन्य: पुलिङ्गनिवृत्त्यर्थस्तु स पाठो न भवति । 'गाथिविदथिकेशिपणिगणिनः' (७-४-५४) इत्यपत्येऽण्यन्त्यस्वरादेः लुकप्रतिषेधात्, केशिनशब्दाद्धि ब्यविधानेऽण् न संभवत्येव । मतिकविहन्तिपिण्डीनामेयणः । एन्द्रजाल्यादीनां कापिञ्जलाधन्तानामायनणः । गर्गरादीनामित्रः । तक्षशब्दस्य शिवाधणा समावेशार्थः पाठः, शुभ्रस्यैयणा ।१००
न्या० स० कुर्वा-कुरव इति-कथं तर्हि कौरव्याः पशव इति ? उच्यते, अपत्यस्यापि इदमर्थविवक्षायामुत्साद्यत्रि कौरवास्ततस्तत्र साधाविति ये च भविष्यति । न वाच्यमपत्य एव । उत्साद्यञ् कथं नेति, यतस्तत्रोक्तं कुरोरपत्यं कौरव्य इति ब्यविधौ कुरुशब्दोपादानस्यावकाशत्वाद् भवतीति । ततो यूनि तिकादिपाठात् इति 'दुनादि' ६-१-११८ इति भ्यान्तात् , तिकादौ हि औरससाहचर्यात् कौरव्यशब्दोऽपि राष्ट्रक्षत्रियस्वरूप एव गृह्यते इति वक्ष्यते । कौरव्यायणिरिति कोरव्यशब्दात् क्षत्रियवचनायूनि उत्पन्नस्य आयनिअप्रत्ययस्य 'अब्राह्मणात' ६-१-१४१ इत्यनेन लुप् न भवति विधानसामर्थ्यात् ।
अस्माच्चेति 'कुर्बादेर्व्यः' ६-१-१०० इति भयान्तात् । तिकादिष्वति पठ्यते इति क्षत्रियवचनो ब्राह्मणो वा तेन पाठसामर्थ्यात् · कौरवाणिरित्यपि भवति । अथ गणःशकानामन्धुरिव पृषोदगदित्वात अलोपः शाकेभ्यो भवति, पन्थानं कगेति, मतिरस्यास्ति, पितरि मन्तुः विप्रियं यस्य, वक्तीत्येवंशीलः, हन्ति तृच्, कालमकति, ईरयति 'कीचक' ३३ ( उणादि) इति, पद्यते 'कीचक' इति एदका, खदनं 'भिदादयः' ५-३-१०८ खदा कार्यात, केशा अस्याः सन्ति, मन्यते कवते मन्यादित्वादिः, वध्यात् हन्तिः, पिण्ते अच् गौरादित्वात् ङ्यां पिण्डी, इन्द्रं जलति तस्यापत्यं धनोः गशेर्जातः तस्यापत्यं, विराजते तस्यापत्यं, दामयुक्तमुष्णीषं यस्य तस्यापत्यं, गणान् करोति तस्यापत्यं, किशोरस्यापत्यं, कपिंजलानादत्ते तस्यापत्यं, गर्ग गति, हन्ति 'पुत' २.४ ( उणादि) इति, 'खलिफलि' ५६० ( उणादि ) इति मञ्जूषः, अवीनामजानां मारकः, दकारो द्विः, 'नाम्युपान्त्य' ४-१-५४ इतिके कुटः, 'तृपिवपि' ४६८ ( उणादि) इति 'कुटलः, 'ऋज्यजि' ३८८ ( उणादि) इति, सूर्प नयति 'कर्मणोऽण् ५-१-६२ श्यावं पिङ्गलं नयति, श्यावः पिङ्गलो रथो यस्य, श्यायन्ते श्याः गासुकारतै प्रथते । श्यावैः पिगलैः प्रथते, श्या गत्वरः पत्रं पुत्रो
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[पाद. १. सू. १०१-१०४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [३९ यस्य, सत्यं वलमी कर्णान्पन्थानं बृहतीं करोति, वान्तां आर्द्रा वृक्षा यस्य मुह्यति स्म, शक्यते आराधयितुम् ।। ___नापितायनिरिति परत्वात् 'अवृद्धादोर्नवा' ६-१-११० इत्यपि । केशिन्य इति पुंवद्भावे तु कैश्य इति स्यात् स्थिते तु 'अवर्णेवर्णस्य' ७-४-६८ इति स्वरादेशस्य स्थानित्वात् 'नोपदस्य' ७-४-६१ इति न भवति लुक्प्रतिषेधात् इति अयमर्थः केशिन शब्दस्याणि अन्त्यस्वरादिलुक्प्रतिषेधोऽनर्थकः स्यात् यद्यस्मात् यः स्यात् । सम्राजः क्षत्रिये ॥ ६ १. १०१ ।।
सम्राज् इत्येतस्मात् क्षत्त्रियेऽपत्ये ज्यः प्रत्ययो भवति । सम्राजोऽपत्यं साम्राज्यः क्षत्रियश्चेत् । अन्यत्राव साम्राजः, अन्ये साम्राजिरित्याहुः, तत्र सम्राट् बाह्वादिषु द्रष्टव्यः ।१०१। सेनान्तकारुलक्ष्मणादिश् च ॥ ६. १. १०२ ॥
सेनशब्दान्तेभ्य: कारवः कारिणस्तन्तुवायादयस्तद्वाचिभ्यो लक्ष्मणशब्दाच्चाप्रत्ये इञ् प्रत्ययो भवति ज्यश्च । सेनान्त, हारिषेणिः, हारिषेण्यः, वारिषेणिः, वारिषेण्यः, कारु, तान्तुवायिः, तान्तुवाय्यः, तोन्नवायिः, तोन्नवाय्यः, वार्धकिः, वार्धक्यः, कौम्भकारिः, कोम्भकार्यः । रथकारनापिततक्षभ्यो भ्य एव नेञ् कुर्वादिपाठात् । - कुर्वादो जातिवाचिन एव पाठात् रथकारादित्रपीत्येके । लक्ष्मण, लाक्ष्मणिः, लाक्ष्मण्यः । ऋषितृष्ण्यन्धककुरुभ्योऽण् ड्यापत्यूङन्तेभ्यस्त्वेषण परत्वादाभ्यां बाध्यते । जातसे निः, जातसेन्यः, वैष्वक्सेनिः, वैष्वक्सेन्यः । औग्रसेनिः, औग्रसेन्यः, भैमसे निः, भैमसेन्यः । तन्तुवाय्या अपत्यं तान्तुवायिः तान्तुवाथ्य इत्यादि । १०२ ।
मा० स०-सेनान्त हारिणिरिति 'एत्यकः' २-२-२६ इति षत्वम् । जातिवचन एवेति रथकारशब्दोऽजातिवाची चास्ति इत्याह । सुयाम्नः सौवीरेष्वायनिञ् ।। ६. १. १०३ ।।
सुयामनशब्दात्सौवीरेषु जनपदे योऽर्थस्तस्मिन् वर्तमानादपत्ये आयनि प्रत्ययो भवति । सौयामायनिः । सौवीरेभ्योऽन्यत्र सौयामः ।१०३। पाण्टाहतिमिमताण्णश्च ॥ ७. ४. ११५ ॥
पाण्टाहृतिशब्दादिजन्तामिमतशब्दाच्च सौवीरेषु जनपदे योऽर्थस्तस्मिन्वर्तमानाभ्यामपत्येऽण् आयनिञ् च प्रत्ययो भवतः। पाण्टाहृतेरपत्यं युवा
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वृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १. सू० १०५-१०७ सौवीरगोत्रः पाण्टाहृतः पाण्टाहतायनिर्वा। मिमतस्य मैमतः मैमतायनिर्वा । सौवीरेष्वित्येव ? पाण्टाहृतायनः । 'यनिञः' ( ६-१-५४) इत्यायनण् । मैमतायनः । अत्र नेडादित्वात् । अनन्तरो मैमतिः । १०४ ।
न्या० स०-पाण्टाहृतिमिमता -पण्टेन आहृतः फाण्टेन अनायाससाध्येनेति तु शाकटायनः, भाष्यकारस्तु यथासंख्यं मन्यते, ततो णित्वस्य प्रयोजन पान्टाहृतामार्य इत्यत्र पुंवन्निषेधः । मीयते परिच्छिद्यते ऋषित्वेन 'पुतपित्त' २०४ ( उणादि) इति, मया लक्ष्म्या मन्यते स्म पृषोदरादित्वाद् वा। भागवित्तितार्णविन्दवाकशापेयान्निन्दायामिकण्वा ॥ ६.१.१०५॥
भागवित्ति ताणबिन्दव आकशापेय इत्येतेभ्यः सौवीरेषु वद्ध वर्तमानेभ्यो यून्यपत्ये इकण प्रत्ययो वा भवति निन्दायां गम्यमानायाम् । भागवित्तरपत्यं युवा निन्दितः भागवित्तिकः भागवित्तायनो वा जाल्मः, तार्णबिन्दविकः तार्णबिन्दविर्वा । आकशापेयिकः आकशापेयि। निन्दायामिति किम ? अन्यत्र भागवित्तायनः तार्णबिन्दविः आकशापेयिः इत्येव भवति ।१०५॥
न्या० स० भाग-आकशापेयिक इति अकं दुःखं शपति अण् अकशापस्यापत्यं वृद्धं शुभ्रादिभ्य एयण् । सौयामायनियामुन्दायनिवार्ष्यायणेरीयश्च वा ।। ६. १. १०६ ॥
एभ्य आयनिअन्तेभ्यः सौवीरेषु वृद्ध वर्तमानेभ्यो यून्यपत्ये ईयश्चकारादिकण् च प्रत्ययो वा भवति ताभ्यां मुक्तेऽण् प्रत्ययः निन्दायां गम्यमानायाम् । सुयानोऽपत्यं सोयामायनिस्तस्यापत्यं युवा निन्दितः सौयामायनीयः, सोयामायनिकः, सौयामायनिर्वा। अणो लुप् । यमुन्दस्यापत्यं यामुन्दायनिः । तिकादित्वादायनि-, तस्यापत्यं युवा निन्दितः यामुन्दायनीयः, यामुन्दायनिकः, यामुन्दायनिर्वा। वृषस्यापत्यं वाायणिः। दगुकोसलादिसूत्रेण यकारादिरायनिज। तस्य वार्ष्यायणीयः । वार्ष्यायगिकः । वाायाणि । कश्चित्वन्येभ्योऽपीच्छति, तैकायनेरपत्यं युवा तैकायनीयः। निन्दायामित्येव ? अन्यत्र सौयामायनिः यामुन्दायनिः वार्ष्यायणियुवा । अणेव । 'बिदा दणिोः ' (६-१-१४०) इति तस्य लुप् ।१०६। तिकादेरायनिञ् ॥ ६. १. १०७ ॥
तिक इत्येवमादिभ्योऽपत्ये आयनिञ् प्रत्ययो भवति । इबादेरपवादः । तेकायनिः । कैतवायनिः। तिक, कितव, संज्ञा, बाल, शिखा, बालशिख,
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[पाद. १. सू. १०८-११० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [४१ उरश, शाटय, सैन्धव, यमुन्द, रूप्य, पूणिक, ग्राम्य, नील, अमित्र, गोकक्ष्य, कुरु, देवर, देवर, धेवर, धैवर, देवरथ, तैतिल, शैलाल, औरश, कौरव्य, भौरिकि, भौलिकि, चौपयत, चैतयत, चैटयत, शैकयत, क्षतयत, ध्वाज, वत, ध्वाजवत, चन्द्रमस्, शुभ, श्रुभ, गङ्ग, गङ्गा, वरेण्यः वन्ध्या, बिम्बा, अरुद्ध, आरद्धा, आरद्ध, वह्य का, खल्य, लोभका, उदन्य, यज्ञ, नीड, आरथ्य, लङ्कव, भीत, उतथ्य, सुयामन्, उखा, खल्वका, शल्यका, जाजल, वसु, उरस्, इति तिकादिः । शाठयशब्दो यजन्तो घ्यणन्तो वा । शाट्यायनिः, यजन्तादाय नणेवेत्येके शाटथायन: । औरशशब्देन क्षत्रियप्रत्ययान्तेन साहचर्यात् कौरव्यशब्दः क्षत्रिय प्रत्ययान्त एव गृह्यते । अन्यस्मादिव । तस्य च 'जिदार्षादणिोः ' (६-१-१४०) इति लुप् । कौरव्यः पिता, कौरव्यः पुत्रः । आयनिअस्तु 'अब्राह्मणात्' (६-१-१४१) इति प्राप्तापि लुप् न भवति विधानसामर्थ्यात् नहीञ आयनिग्रो वा लुपि कश्चिद्विशेषः । कौरव्यः पिता, कौरव्यायणिः पुत्रः ।१०७। ___न्या० स० तिका-सैन्धवेति सिन्धुषु भवः 'कोपान्त्याचाण' ६-३-५६-नृनृस्थाभ्यामन्यः, नरि. नृस्थे तु विशेषविधानात् कच्छादित्वादकञ् स्यात् । सिन्धुराभिजनो निवासोऽस्य 'सिन्ध्वादेरञ्' ६-३-२१६ वा । शादयायनिरिति शट रुजा० अच् तस्यापत्यं वृद्धं 'गर्गादेर्य' ६-१-४२ विधानसामर्थ्यादिति लुपि हि अक्षत्रियवचनस्य कौरव्यशब्दस्य परिहारे फलं न स्यात् । दगुकोशलकारच्छागवृषाद्यादिः ॥ ६. १. १०८॥
दग, कोशल, कर्मार, छाग, वृष इत्येतेभ्योऽपत्ये यकारादिरायनित्र प्रत्ययो भवति । दागव्यायनिः, कौशल्यायनिः। जनपदसमानशब्दात् क्षत्रियात् 'दुनादि '-(६-१-११८) इत्यादिना ज्य एव । कौशल्य इति । कार्याियणिः, छाग्यायनिः, वार्ष्यायणिः ।१०८। द्विस्वरादणः ॥ ६. १. १०९ ॥
द्विस्वरादणन्तादपत्ये आयनिञ् प्रत्ययो भवति । कतु रपत्यं कात्रः, तस्य का यणिः, हत्तुः हात्रः, तस्य हायिणिः । पौत्रः, पौत्रायणिः । औत्सगिकोऽण यास्कायनिः, शिवाधण् । द्विस्वरादिति किम् ? औपगविः । अण इति किम् ? दाक्षेः दाक्षायणः, प्लाक्षेः प्लाक्षायणः, वृद्धादेवायं विधिः । अवृद्धातूत्तरेण विकल्प एव, अङ्गानां राजा आङ्गः । तस्याङ्गिः आङ्गायनिर्वा ।१०९। __ न्या० स० द्विस्वरादणः का यणिरिति ब्राह्मणत्वात् 'अब्राह्मणात्' ६-१-१४१ इति न लुप्, एवमुत्तरेष्वपि ।
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४२ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते
अवृद्धाद्दोर्नवा ॥ ६. १. ११० ॥
अवृद्धवाचिनो दुसंज्ञकादपत्ये आयनिञ् प्रत्ययो वा भवति । आम्रगुप्तायनिः, आम्रगुप्तिः, शालगुप्तायनिः, शालगुप्तिः, वायुरथायनिः, वायुरथिः, पञ्चालानां राजा पाञ्चालस्तस्यापत्यं पाञ्चालायनिः पाञ्चालि:, नापितस्यापत्यं नापितायनिः, नापित्यः, पक्षे नापितशब्दस्येम् नास्ति तद्बाधनार्थं हि कुर्यादिषु तस्य पाठः । अवृद्धादिति किम् ? दाक्षेः दाक्षायणः, प्लाक्षेः प्लाक्षायणः । दोरिति किम् ? अकम्पनस्यापत्यमाकम्पनिः । ११० ।
[ पाद. १ सू० ११०-११२ ]
पुत्रान्तात् ।। ६. १. १११ ।।
पुत्रशब्दान्तात् दुसंज्ञकादपत्ये आयनिञ् प्रत्ययो वा भवति । गार्गीपुत्रायाणिः, गार्गीपुत्रिः, वासवदत्तापुत्रायणिः, वासवदत्तापुत्रिः । पूर्वेणायनिञि सिद्धे वचनमिदमुत्तरसूत्रप्राप्त कागमाभावार्थम् । उत्तरेण च कागमोऽपि, एवं च गार्गीपुत्रायणिरिति तार्तीयीकमपि रूपं भवति । १११ । चर्मिवर्मिंगा रेटका र्कट का कलङ्कावाकिनाच्च कश्चान्तो ऽन्त्यस्वरात्
॥ ६ १. ११२ ॥
चमिन् वर्मन् गारेट कार्केटथ काक लङ्गा वाकिन इत्येतेभ्यः पुत्रान्ताच्च दुसंज्ञकादपत्ये आयनिञ् प्रत्ययो वा भवति तत्संनियोगे चैषामन्त्यस्वरात्परः ककारोऽन्तो भवति । चार्मिकार्याणिः, चार्मिणः, वार्मिकार्याणिः, वार्मिणः । ' संयोगादिनः' (७-४-५३ ) इति प्रतिषेधादणि अन्त्यस्वदादिलोपो न भवति । गारेट कायनिः, गारेटिः, कर्कटस्यापत्यं कार्कटयः, तस्यापत्यं कार्कटयकायनिः कार्केटयायनः । यदा स्वव्युत्पन्नः कार्कटचशब्दस्तदा पक्षे इजेव । कार्कट्यः, काककायनिः, काकि:, लाङ्का, लाङ्ककायनि, लाङ्केय:, लङ्कशब्द केचिदकारान्तमिच्छन्ति, तन्मते लाङ्ककायनिः । लाङ्किः, वाकिन कार्यनि:, वाकनि:, पुत्रान्तादोः, गार्गीपुत्रकायणिः, गार्गीपुत्रिः । ककारस्यान्त्यस्वरात्परतो विधानं चमिवर्मिणोः नकारस्य लोपार्थम् । यद्येवं परादिरेव क्रियेत । नैवम्, तथा सति प्रत्ययस्य व्यञ्जनादित्वात्पुंवद्भावो न सिध्येत् । चर्मिण्या अपत्यं चार्मिकायणिः, वर्मिण्या अपत्यं वामिकायणिः । ११२ ।
"
न्या० स० चर्मिवर्मिंगारे - अन्तग्रहणाभावे कस्य प्रत्ययत्वं स्यात्, ततश्च लाककायनिरित्यत्र
C
,
अनन्तः पञ्चम्याः प्रत्ययः
'इयादीदूत : ' २-४ -१०४ इति ह्रस्वत्वं स्यात् । अत एव च १-१-३८ इत्यत्रान्तग्रहणं सफलम् ।
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[ पाद १. सू० ११३-११५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [४३
नकारस्य लोपार्थमिति अन्त्यस्वरादेर्लोप इति वक्तव्येऽपि विशेषाभावान्नकारस्य लोपार्थमित्युक्तमिति शकटः ।
परादिरेवेति कश्चादिरित्येव क्रियता किं कश्चान्तोऽन्त्यस्वरादिति गुरुणा सूत्रेण, ततश्च 'नाम सिदव्यजने' १-१-२१ इति पदसंज्ञायां 'नाम्नोनोनहः' २-२-९१ इत्यनेनैव नलोपो भविष्यति । अदोरायनिः प्रायः ॥ ६. १. ११३ ॥
अदुसंज्ञकादपत्ये आयनि: प्रत्ययो वा भवति प्रायः । ग्लुचकायनिः, ग्लौचुकिः, म्लुचकायनिः, म्लौचुकिः, अहिचुम्बकायनिः । आहिचुम्बकिः, त्रिपृष्टायनिः, त्रैपृष्टिः, श्रीविजयायनिः, श्रेविजयिः । अदोरिति किम् ? औपगविः, रामदत्तिः, रामदत्तायनिः पिता, रामदत्तायनिः पुत्रः। आयनिञन्तादणो लुप् । प्रायोग्रहणात्कचिन्न भवति । दाक्षिः, प्लाक्षिः ।११३।
न्या स० अदो-रामदत्तायनिः पुत्र इति वृद्धं रामदत्तस्यापत्यं 'अवृद्धाहोर्नवा' ६-१-१०२ इत्यायनिन्, ततो युवार्थे ङसोऽणो लुप् । ... राष्ट्रक्षत्रियात्सरूपाद्राजापत्ये दिरञ् ॥ ६. १. ११४ ॥
क्षत्रियवाचिसरूपाद्राष्ट्रवाचिनो राष्ट्रवाचिसरूपाच्च क्षत्रियवाचिनो यथासंख्यं राजनि क्षत्रियेऽपत्ये चाञ् प्रत्ययो भवति स च द्रिसंज्ञः, वेति निवृत्तम् । विदेहानां राष्ट्रस्य राजा वैदेहः वैदेही, विदेहाः, बहुत्वे 'बहुष्वस्त्रियाम् ' ( ६-१-१२४) इति लुप् । विदेहस्य राज्ञोऽपत्यं वैदेहः, वैदेही, विदेहाः, एवम् ऐक्ष्वाकः, ऐक्ष्वाको, इक्ष्वाकवः, पाञ्चालः, पाञ्चाली, पञ्चालाः । राष्ट्रक्षत्रियादिति किम् ? पञ्चालस्य ब्राह्मणस्य राजा पाठचालः, 'तस्येदम्' (६-६-१५९) इत्यण् । पञ्चालस्य ब्राह्मणस्यापत्यं पाञ्चालि: । सरूपादिति किम् ? सुराष्ट्राणां राजा सौराष्ट्रकः, भादर्शस्य राष्ट्रस्य राजा आदर्शकः, दशरथस्य क्षत्रियस्यापत्यं दाशरथिः, त्रिपृष्टस्य त्रैपृष्टिः, द्रिप्रदेशाः 'द्रेरणोऽप्राच्यभर्गादेः' (६-१-१२३) इत्यादयः ।११४॥
न्या० स० राष्ट्र-वेति निवृत्तमिति अपत्येऽनुवर्तमाने राजनीत्यधिकार्थस्य भणनात् । ऐक्ष्वाक इति 'सारवक्ष्वाक' ७-४-३० इति उलोपः ।।
पञ्चालस्य ब्राह्मणस्य राजा पाञ्चाल इति-'उत्सादेः' ६-१-१९ इत्यप्पञ् न तत्रापि राष्ट्रस्वरूपग्रहणात् । गान्धारिसाल्वेयाभ्याम् ॥ ६. १. ११५॥
गान्धारिसाल्वेयशब्दौ इयणन्ती सरूपी राष्ट्रक्षत्रियवचनी, ताभ्यां राष्ट्राद्राजनि क्षत्रियादपत्ये अञ् प्रत्ययो भवति स च द्रिसंज्ञः । दुलक्षणस्य
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४४]
बृहदृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० १. सू० ११६-११७ ] ज्यस्यापवादः, वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः, गान्धारीणां राजा गान्धारे राज्ञोऽपत्यं च गान्धारः, गान्धारी, गान्धारयः, बहुष्वजो लुप । एवं साल्वेयः, साल्वेयौ, साल्वेयाः। एकत्वद्वित्वयोस्त्वपत्यार्थविवक्षायामब्राह्मणादिति लुप् न भवति विधानसामर्थ्यात् । अन्यथा ज्य विधावेवानयोः प्रतिषेधः क्रियेत । तथा पूर्वेणैवाञ् सिध्यति । ५।
न्या० स० गान्धारि-इत्रेयणन्तौ सरूपाविति गन्धमियति अण, तस्यापत्यमिञ्, साल्वाया अपत्यं, 'द्विस्वरादनद्याः' ६-१-७१ अपत्यप्रत्ययान्तावप्युपचाराद् राष्ट्रे वर्तते । विधानसामर्थ्यादिति ननु गान्धार इत्यत्र लुबभावे फलमस्ति यतो लुप्ते गान्धारिरिति स्यात् , स्थिते तु गान्धारः साल्वेय इत्यत्र तु किं फलम् ? उच्यते, अत्रालुपि संघादिविवक्षायामण लुपि तु 'गोत्राददण्ड' ६-३-१६९ इत्यकञ् स्यात् ।
ननु दुलक्षणञ्यस्य बाधनेन विधानामिदं चरितार्थमिति कुतो विधानसामर्थ्यादित्युक्तम् ? इत्याह-अन्यथा ज्यविधाविति ।
अगान्धारिसाल्वेयदुनादिकुर्वित्कोशलाजादाब्य इत्यनया युक्त्या प्रतिषेधे कृते राष्ट्रक्षत्रियादित्यनेनाञ् भविष्यतीत्यर्थः। पुरुमगधकलिङ्गशूरमसदिस्वरादण् ॥ ६. १. ११६ ।।
पुरुमगधकलिङ्गशूरमस इत्येतेभ्यो द्विस्वरेभ्यश्च शब्देभ्यो राष्ट्रवाचिभ्यः क्षत्रियवाचिभ्यश्च सरूपेभ्यो यथासंख्यं राजन्य पत्ये चार्थे दिरण भवति, अनोऽपवादः । पुरोरपत्यं पौरवः, पौरवौः, पुरवः, मगधानां राजा मगधस्यापत्यं वा मागधः, मागधी, मगधाः, एवं कालिङ्गः, कालिङ्गो, कलिङ्गाः, शौरमस: शौरमसौ, शूरमसाः, द्विस्वर, अङ्गानां राजा अङ्गस्यापत्यं वा. आङ्गः, अङ्गाः, वाङ्गः, वङ्गाः, सौह्मः, सुह्माः, पौण्ड्रः, पुण्ड्राः, दारदः, दरदः, भार्गः भर्गाः, साल्वः, साल्वाः । सर्वत्र बहुषु लुप्, पुरुग्रहण मराष्ट्रसरूपार्थम् । अस्ति राजा पुरुर्नाम न तु राष्ट्रम्, तस्योत्सर्गिकेणैवाणा सिद्धे बहषु लबर्थमिदमणविधानम् । अव सिद्धेऽविधानं संघाद्यण बाधनार्थम् । तेनाका भवति, पौरवकम् मागधकम्, कालिङ्गकम्, शौरमसकम्, आङ्गकम्, वाङ्गकम्। अअन्ताद्धि गोत्रात् 'अञ्य निञः' (६-३-१७२) इत्यण् बाधकः स्यात् । ११६।
न्या० स० पुरु-पौरवकमिति पुरोरपत्यानि अण् लुप्, पुरूणां संघादि 'गोत्राददण्ड' ६-३-१६९ इत्यकाविषये 'न प्राजितीये' ६-१-१३५ इति अणो लुप् निवर्तते । साल्वांशप्रत्यग्रथकलकूटाश्मकादि ॥ ६. १. ११७॥
साल्वा नाम जनपदस्तदंशास्तदवयवा उदुम्बरादयस्तेभ्यः प्रत्यग्रथकल. कटाश्मक इत्येतेभ्यश्च राष्ट्रवाचिभ्यः क्षस्त्रियवाचिभ्यश्च सरूपेभ्यो यथासंख्यं
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[ पाद. १. सू. ११७-११८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [४५ राजन्यपत्ये च इञ् प्रत्ययो भवति स च द्रिसंज्ञः । उदुम्बराणां राजा उदुम्बरस्यापत्यं वा औदुम्बरिः, उदुम्बराः, एवं तैलखलिः, तिलखलाः, माद्रकारिः, मद्रकारा, यौगन्धरिः, युगन्धराः, भौलिङ्गिः, भुलिङ्गाः, शारदण्डिः, शरदण्डाः, आजमी ढिः अजमीढाः, आजकुन्दिः, अजकुन्दाः, बौधिः, बुधाः इति साल्वांशाः । प्रात्यग्रथिः, प्रत्यग्रथाः, कालकूटिः, कलकूटाः, आश्मकिः अश्मकाः, सर्वत्र बहुषु लुप् । उदुम्बरास्तिलखला मद्रकारा युगंधराः ।। भुलिङ्गाः शर दण्डाश्च साल्वांशा इति कीर्तिताः ।।१।। अजमोढाजकुन्दबुधास्तूदुम्बरादिविशेषाः, तेऽपि साल्वांशा एव । प्रत्य ग्रथादिग्रहणमसाल्वांशार्थम् । ११७॥
न्या० स० साल्वां-उदुम्बरा इति उन्दन्ति आर्दीभवन्ति ऋद्ध्या 'तीवर' ४४४ (उणादि) इति, यद्वा उल्लविताम्बराः प्रासादैः ‘पृषोदर' ३-२-१५५ इत्यादिना निपातः ।
तिलखला इति तिला एव खला यज प्रचुरत्वात् , तिला: खल्यन्ते यत्र 'गोचर' ५-३-१३१ इति निपातः, तिलैः खलन्ति संचिता भवन्ति वा ।
मद्रकारा इति मद्रं कुर्वन्ति 'क्षेमप्रिय' ५-१-१०५ इति अण, युगं धारयति 'धारेर्धर्च' ५-१-११३ खः।
भुलिङ्गा इति लभेरिदुतौ चातः। शरदण्डा इति शरैः दण्डयन्ति । अजमीढा इति अजैमिह्यन्ते स्म क्तः ‘कारक कृता' ३-१-६८ सः। अजगुदा इति अजा एक गुदा यत्र । बौधिरिति बुध्यन्ते इति 'नाम्युपान्त्य' ५-१-५४ इति कः । प्रात्यप्रथिरिति-प्रत्ययः रथो यस्य । कालकूटिरिति कूटयन्ति अच् , कल्पप्रधानाः कूटाः, आश्मकिरिति अश्मनः कायन्ति 'आतो ड' ५-१-७६ इति ङ । तेऽपि साल्वांशा एवेति अवयवावयत्रोप्यवयविनोऽवयव एव । दुनादिकुर्विकोशलाजादा ज्यः ॥ ६. १. ११८॥
दुसंज्ञकेभ्यो नकारादिभ्यः कुरुशब्दादिकारान्तेभ्यः कोशल अजाद इत्येताभ्यां च राष्ट्रवाचिभ्यः क्षत्रियवाचिभ्यश्च सरूपेभ्यो यथासंख्यं राजन्यपत्ये च ज्यः प्रत्ययो भवति स च द्रिसंज्ञः । दुष्ठा, आम्बष्ठानां राजा आम्बष्ठस्यापत्यं वा आम्बष्ठयः, आम्बष्ठाः, सौवीराणां सौवीरस्य वा सौवीर्यः, सौवीराः, एवं काम्बव्यः, काम्बवाः, दाwः, दाः । द्विस्वरलक्षणोऽण परत्वादनेन बाध्यते । नादि, निषधानां निषधस्य वा नैषध्यः, निषधाः, नेचक्यः, निचकाः, नैप्यः, नीपाः, कुरूणां कुरोर्वा कौरव्यः, कुरवः, इत्, अवन्तीनामवन्तेर्वा आवन्त्यः, अवन्तयः, कौन्त्यः, कुन्तयः, वासात्यः, वसातयः, चैद्यः, चेदयः, काश्यः, काशयः, कोशलानां कोशलस्य वा कौशल्यः, कोशलाः, अजादानामजादस्य वा आजाधः, अजादाः एभ्य इति किम् ? कुमारी नाम जनपदः क्षत्रिया च ततो राजन्यपत्ये वाद्येव भवति, कौमारः ।११८१
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. बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. १ सू० ११९-१२२ ] ___न्या० स० दुनादि कुमारी नाम जनपद इति जनपदवाचकस्य गौरादित्वात् क्षत्रियावाचकात् 'जातेरयान्त' २-४-५४ इति लीः । क्षत्रिया चेति नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् इति न्यायात् क्षत्रियासरूपस्यापि ग्रहः । पाण्डोड्यण ॥ ६. १. ११९ ॥
पाण्डशब्दाद्राष्ट्रक्षत्रियवाचिनः सरूपाथथासंख्यं राजन्यपत्ये चार्थे डचण प्रत्ययो भवति स च द्रिसंज्ञः। पाण्डूनां राजा पाण्डोरपत्यं वा पाण्डयः, पाण्डयौ, पाण्डवः । कथं पाण्डकाः यस्य दासाः? तस्य क्षत्रियस्य राष्ट्र सरूपस्य य ईश्यो जनपदो यश्च तस्य क्षत्रियसरूपस्य राष्ट्रस्येशिता क्षस्त्रियः स एव गह्यते प्रत्यासत्तेः, अत्र तु कुरवो जनपदस्तस्य राजा पाण्डुरिति शिवाद्या भवति, डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः । जकारो वृद्धिनिमित्तपुवद्भावप्रतिषेधार्थः । पाण्ड्याभार्यः ।११९।
न्या० स० पाण्डोर्यण-प्रत्यासत्तेरिति अयमर्थः यदि राष्ट्रक्षत्रिययोरेकशब्द-वाच्यता भवति तदानीं ड्यण भवति । शकादिभ्यो ट्रेलुप् ॥ ६. १. १२० ॥
शक इत्येवमादिभ्यः परस्य द्रेः प्रत्ययस्य लुप् भवति । शकानां राजा शकस्यापत्यं वा शकः, यवनः, जर्तः, कम्बोजः, चोलः, केरलः, आधारयः, विधारयः, उपधारयः, अपधारयः, मुरलः, खसः । शकादयः प्रयोगगम्याः ॥१२॥
न्या० स० शकादिभ्यो-यवनादिषु यथायोग्यं 'राष्ट्रक्षत्रियात्' ६-१-११४ इत्यनेन 'पुरुमगध' ६-१-११६ इत्यनेन चाचणी, आधारय इत्यत्र 'दुनादि' ६-१-११८ व्यः । कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम् ॥ ६. १. १२१ ॥
कुन्ति अवन्ति इत्येताभ्यां परस्य द्रेय॑स्य लुप् भवति खियामभिधेयायाम् । कुन्तेरपत्यं स्त्री कुन्ती, एवमवन्ती। खियामिति किम् ? कौन्त्यः, आवन्त्यः । प्रकृतस्य द्रेलु विज्ञानात् स्वार्थिकस्य ज्यटोऽदिसंज्ञकस्य न भवति, कौन्ती ।१२१॥
न्या० स० कुन्त्यवन्तः अद्रिसंज्ञकस्य न भवतीति प्राकरणिकाप्राकरणिकयोः प्राकरणिकस्यैव ग्रहणमिति न्यायात् । कौन्तीति-कुन्तेरपत्यानि बहवो माणवकाः 'दुनादि' ६-१-११८ इति व्यः । 'बहुष्वस्त्रियां' ६-१-१२४ लुक् । ते शस्त्र जीविसंघः स्त्रीत्वविशिष्टो विवक्षितः, 'पूगादमुख्यकायो दिः' ७-३-६० इत्यधिकारे 'शस्त्रजीविसंघात् । ७-३-६२ इति ज्यद, यद्वा कुन्तेरपत्यं बहवो माणवकास्ते शस्त्रजीविसंघः स्त्रीत्वविशिष्टो विवक्षितः, 'दुनादि। ६-१-११८ अनेन लुप् । 'नुर्जातेः' २-४-७२ डीः, ततः शस्त्रजीविसंघाळ्यद, 'अवर्णेवर्णस्य ' ७-४-६८ 'अणय' २-४-२० इति कीः, 'अस्य ङ्याम् ' २-४-८६ . 'व्यञ्जनात्तद्धितस्य' २-४-८८ इति य लोपः ।
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। पाद. १. सू. १२२-१२३ ] श्रीसिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [४७ कुरोर्वा ॥६. १. १२२ ।।
कुरुशब्दात्परस्य द्रेय॑स्य स्त्रियां वा लुप् भवति । कुरोरपत्यं स्त्री कुरुः, कौरव्यायणी । 'कौरव्यमाडूकासुरेः' (२-४-७०) इति डायन् ।१२२। देस्त्रणोप्राच्यभर्गादेः ॥ ६. १. १२३ ॥
प्राच्यान् भर्गादींश्च वर्जयित्त्वान्यस्मात्परस्यानोऽणश्च द्रेः स्त्रियां लुप भवति । अञ् सूरसेनस्यापत्यं स्त्री शूरसेनी, एवमपाच्या, अण्-मद्री, दरत्, मत्सी ट्रेरिति किम् ? औत्सी, औपगवी । द्रावनवर्तमाने पुनद्रिग्रहणं भिन्नप्रकरणस्यापि द्रेलु बर्थम् । पसू:, रक्षाः, असुरी । पशु, रक्षस्, असुर इति राष्ट्रसरूपक्षत्रियवाचिनः । एषामपत्यं संघ: स्त्रीत्वविशिष्टो विवक्षित इति अणो: 'शकादिभ्यो द्रेलुप' (६-१-१२०) इति लुपि पुनः पर्वादिलक्षणः स्वाथिकोऽण् । तस्यापि स्त्रियामनेन लुप् । अञण इति किम् ? औदुम्बरी । साल्वांशत्वादि । अप्राच्यभईदेरिति किम् ? पाञ्चाली, चैदेही, पप्पली, मागधी, कालिङ्गी, वैदर्भी, आङ्गी, वाङ्गी, सौह्मी, पौण्ड्री, शौरमसी । पाञ्चलादयः प्राच्या राष्ट्रसरूपाः क्षत्रियाः। भर्गादि, भार्गी, कारूपी, भर्ग, करूप, करूश, केकय, कश्मीर, साल्व, सुस्थाल, उरश, यौधेय, शौकेय, शौभ्रेय, घार्तेय, धार्तेय, ज्यावानेय, त्रिगत, भरत, उशीनर इति भर्गादिः । यौधेयादिज्बावानेयान्तानां स्वार्थिकस्याओ द्रेः लुप् प्रतिषिध्यते । यौधेयीनां संघादि यौधेयमिति संघाद्यणर्थम्, लुपि हि सत्यामनन्तत्वाभावात् संघाद्यण न स्यात् । प्रकृतस्य तु अबः प्रसङ्गाभावात् न प्रतिषेधः, भरतोशीनरशब्दावसादिषु पठते । तयोरिहोपादानात् सत्यप्यणपवादे चेत्यस्मिन् उत्साद्यबं बाधित्वा द्रिसंशक एवाञ् भवतीति ज्ञाप्यते, तेन भरतानां राजानो भरता उशीनराणामुशीनरा इति राशि विहितस्यात्र उत्तरसूत्रेण लुप् सिद्धा भवति, उत्साद्यबस्तु द्रिसंज्ञाया अभावान्न स्यात् । नापि 'यत्रजः'-(६-१-१२६) इत्यादिना प्राप्तिः राज्ञामगोत्रत्वात् ।१२३॥ ___ न्या० स० देरत्रणो–पर्श रिति पर्शोरपत्यं बहवो माणवकाः 'पुरुमगध' ६-१-११६ इत्यण , शकादित्वाल्लुपि पर्शवः ते शस्त्रजीविसंघ स्त्रीत्वविशिष्टो विवक्षितः, 'पर्वादेरण' ४-३-६६ अनेन लुप्' 'उत्तोऽप्राणिनश्च' २-४-७३ इति ऊ, एवमुत्तस्योरपि ।। ___अणोरिति पशूरक्षसोः 'पुरुमगध' ६-१-११६ इत्यणः असुरात्तु राष्ट्रक्षत्रियादत्रः। शका दिभ्य इति स्त्रीत्वेऽपि प्राच्यत्वात् 'द्रेरणः६-१-१२३ इति न भवति । ___ स्त्रियामनेन लुबिति लुप्ताणान्तानां पर्वादोनां प्राच्यादावपाठात् 'नेत्रणः ६-१-१२३ इत्यनेन लुगू भवत्येव
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंलिते [ पाद- १. सू० १२४ लए प्रतिषिध्यत इति सा किमर्थमित्याह-यौधेयीनां संघादीति युधाया अपत्यानि 'द्विस्वरादनद्या ६-१-७१, यौधेयाः शस्त्रजीविसंघाः स्त्रीत्वविशिष्टा विवक्षिताः. 'यौधेयादेश' ७-३-६५ 'अणय' २-४-२० इति ङीः, यौधेयीनां संघादि संघाद्यण् न स्यादिति न वाच्यं, लुपि सत्यामपि प्रत्ययलोप इति अनः स्थानित्वात् ‘संघघोष' ६-३-१७२ इत्यणेव भविष्यति न ‘गोत्रादण्ड' ६-३-१६९ इत्यकञ् , यतो 'द्विगोरनपत्य' ६-१-२४ इत्यत्राद्विरितिकरणात् 'स्वरस्य ' ७-४-११० इति परिभाषाया अनित्यत्वम् ।।
प्रकृतस्येति ‘राष्ट्रक्षत्रिय' ६-१-११४ इति विहितस्य । अबः प्रसङ्गाभावादिति अमीषां राष्ट्रक्षत्रियत्वस्वरूपत्वाभावे प्राप्त्यभावादित्यर्थः यद्वा सन्ति यौधेयादयो राष्ट्रस्वरूपवचनाः परं स्त्रियां लुबुच्यते । यौधेयादयश्चापत्य-प्रत्ययान्ता न पुनरपत्ये प्रत्ययमुत्पादयितु समर्थाः 'वृद्धाशूनि' ६-१-३० इति वचनात् , खियाश्च युवसंज्ञानिषेधात् , न वाच्यमपत्ये मा भवतु राष्ट्रसरूपत्वात् राजन्यथं भविष्यति यतस्तदापि परत्वादबं बाधित्वा दुसंज्ञत्वात् 'दुनादि' ६-१-११८ इति व्य एव स्यात् नाञ्, न च ब्यस्यानेन लुबस्ति अतोऽप्राकरणिकस्यैवाबो लपप्रतिषेधः। भरतोशीनरशब्दाविति-दिसंज्ञक एवाञ् भवतीति प्रथमं 'प्रागजितादण' ६-१-१३ प्राप्नोति तस्य बाधको राष्ट्रक्षत्रिय' ६-१-११४ इत्यञ्, इदं द्वयमपि बाधित्वोत्सादित्वाद प्राप्नोति अणपवादे चेति वचनादिति स्थिते गणपाठात् 'राष्ट्रक्षत्रिय' ६-१-११४ इत्ययेव भवति ।
तेनोत्तरसूत्रेणेति तेनेत्यादिना ज्ञापकसिद्धं फलं दर्शयति, उत्तरसूत्रेणेति 'बहुध्वस्त्रियाम' ६-१-१२४ इत्यनेन, न च तस्याप्यनेन निषेधः, अत्र स्त्रियामित्यधिकारात् ।
नापि यत्र इति अयमर्थः, उत्साद्यञोपि 'यत्रोऽश्यापर्ण' ६-१-१२६ इत्यादिना लुप् भविष्यतीति न वाच्यं, तत्र गोत्राधिकाराद पत्यस्यैव लुप् भवति, न राजनि विहितस्येति । बहुष्वस्त्रियाम् ॥ ६. १. १२४ ॥
द्यन्तस्य शब्दस्य बहुषु वर्तमानस्य यो द्रिः प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां लपं भवति । पञ्चालानां राजानः पञ्चालस्यापत्यानि वा पञ्चाला:, एवं पूरवः. अङ्गाः, लोहध्वजः एव, लौहध्वज्यः लौहत्रज्यौ लोहध्वजाः। बहुष्विति यन्तस्य विशेषणं न निमित्तम्, तत्र हि पञ्चालानां निवासः पञ्चालनिवासः, प्रिया वडा यस्य स प्रियवङ्गः, अङ्गानतिक्रान्तोऽत्यङ्गः, पञ्चालेभ्य आगतं पञ्चालमयम, पञ्चालरूप्यम्, लोहध्वज मयं, लोहध्वजरूप्यमित्यादौ पञ्चाल अब आम निवास इत्यादिस्थिते ' अन्तरङ्गानपि विधीन् बहिरङ्गा लुप् बाधते' इति बरवचनस्य लपि ट्रेलप न स्यात् । द्वेरिति पूर्ववदेव भिन्नप्रकरणस्यापि परिग्रहः । बहुष्विति किम् ? पाञ्चालः, लोहध्वज्यः । प्रियो वाङगो येषां ते प्रियवाङ्गा इत्यत्र न यन्तं बहुषु किं तर्हि समास इति लुप् न भवति, प्रत्ययः प्रकृत्यादेरिति नियमाद्धि न समासो यन्तो भवति । पञ्चालस्यापत्यं पाञ्चालस्तस्य तयोपित्यानि पञ्चाला इत्यत्र तु इनि लुप्तेऽञन्तमेव बहाल
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पाद १. सू. १२५
श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः
[ ४९
वर्तत इति अजोऽपि लुप् । द्रेः प्रत्ययस्य बहुषु वर्तमानस्य इति तु विज्ञायमाने न स्यात् । अस्त्रियामिति किम् ? पञ्चालस्यापत्यानि स्त्रियः पाञ्चाल्यः । लौहृध्वज्याः स्त्रियः, पञ्चभिः पाञ्चालीभिः क्रीतः पञ्चपञ्चाल इत्यत्र तु इकणो लुपः पित्त्वात् पुंवद्भावेन स्त्रीत्वनिवृत्तेर्लुप् भवत्येव ।१२४॥
न्या० स० बहुष्व स्त्रियाम्० बहिरङ्गा लुप् बाधते इति अत्र प्रकृतेः पूर्वं पूर्वमित्यन्तरङ्गत्वं बहिरङ्गत्वं च ।
6
द्वे अपि लुप तत्कथं बाध्यबाधकभावः ? उच्यते, विधीनिति सामान्यभन अन्तरङ्गा लुप् बाध्यते । इति तु विज्ञायमाने न स्यादिति यदाप्येवं विवक्ष्यते तदापि न भवति, पञ्चालस्यापत्यानि पञ्चालाः । अण् तेषामपत्यं युवा अत इञ् ' ६-१-३१ अत्र प्रथमस्यानो न लुप् 'प्राग्जितीय' ६-१-१३५ इति निषेधात् । ' निदार्ष ' ६-१-१४० इति इञि लुप्तेऽपि न भवति बहुत्वाभावात्, ततः पाञ्चाल इत्येव भवति ।
यस्कादेर्गोत्रे ॥ ६. १. १२५ ॥
यस्कादिभ्यो यः प्रत्ययो विहितस्तदन्तस्य बहुत्वविशिष्टी गोत्रेऽर्थे वर्तमानस्य यस्कादेर्यः स प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां विषये लुप् भवति । यस्कस्यापत्यं यास्कः, याह्कौ, यस्का:, लाह्यः, लाह्यौ, लह्या: शिवाद्यण् । यस्कादेरिति किम् ? उपगोरपश्यमौपगवः, औपगवो, औपगवाः, यास्कायनयः, लाह्यायनयः । गोत्र इति किम् ? यास्काश्छात्त्राः, यस्कस्यापत्यानि यस्काः, तत्प्रतिकृतयो यास्का इत्यत्र गोत्रे उत्पन्नस्यापि प्रत्ययस्य नेदानीं तदन्तं प्रतिकृतिषु वर्तमानं गोत्र इति न भवति । अस्त्रियामित्येव यास्वयः स्त्रियः । यस्क, लह्य, द्रुह्य, अयस्थूण, तृणकर्णं, भलन्दन । एभ्यः शिवाद्यणो लुप्, खरप ।
अस्मान्नडाद्यायनणः । भडिल, भण्डिल, भडित, भण्डित, एम्योऽश्वाद्याय नमः । सदामत्त, कम्बलहार, पर्णाठक, कर्णाटक, पिण्डीजङ्घ, वकसक्थ, रक्षोमुख, जङ्घारथः उत्काश, कटुमन्थ, कटुकमन्थ, विषपुट, निकष, (किषकः), कषकः, उपरिमेखल, क्वडम, कृश, पटाक, क्रोष्टुपाद, क्रोष्टुमाय, शीर्षमाय, स्थगल, पदक, वंक एभ्योऽत इञः । पुष्करसद्, अस्माद्वाह्लादीनः । विवि, कुद्रि, अजबस्ति, मित्रयु, एभ्यो, शृष्ठ्याधेयत्रः इति यस्कादिः । १२५ ।
न्या० स० यस्कादेर्गोत्रे-यास्का इति अत्र यदि गोत्रे उत्पन्नस्य प्रत्ययस्य लुबिति व्याख्यायेत तदात्रापि प्राप्नोति गोत्रे प्रत्ययस्योत्पन्नत्वात् न त्वेवं व्याख्यायतेऽपि तु प्रत्ययान्तस्य गोत्रे बहुषु वर्तमानस्येति, ततश्च नेह प्रत्ययान्तं गोत्रबहुत्वे किं तर्हि प्रकृतिबहुत्व इति, अथ यस्कादिगणो विक्रियते ।
यस्यति 'निष्क' २६ ( उणादि ) इति यस्क: । लहिः सौत्रः । लह्यति द्रुह्यति 'शिक्य' ३६४ ( उणादि ) इपि लह्यः । दुह्यः । अयसः स्थूणा यञ, तृणवत् कर्णौ यस्य, भ भलमन्दति नन्द्यादित्वादन:, ' भण्डेर्न लुक् च ' ४८२ ( उणादि ) इति मलि:, भण्डिलः ।
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५० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू. १२६ ] भडुङ् 'पुन' २०४ ( उणादि ) इति भडितः। भण्ड्यते स्म भण्डितः । सदा माद्यति स्म सदामत्तः । कम्बलं हरति कम्बलहारः । पर्णवत् आढको देयोऽस्य, कर्ण्यते कर्णः कर्णवदाढको भेद्योऽस्य, बकवत्सक्थ्यस्य, रक्षोवन्मुखं यस्य, जङ्घा रथो यस्य, उत्काशते अच्, कं सुखं ददाति 'पृका' ७२९ इति किदुः । तं मध्नाति, 'मिवमि' ५१ ( उणादि) इति कटुकः तं मथ्नाति, विषं पुटति, मूले निकषन्ति अत्रेति, 'गोचरसंचर' ५-३-१३१ इति कषं कायति, उपरि मेखला यस्य, कडति 'सृपृप्रथि' ३४७ ( उणादि) इति कडमः । कृश्यति 'नाम्युपान्त्य' ६०९ ( उणादि) इतिके कृशः । पटति 'शलिवलि' इति पटाक:, कोष्ठुना पद्यते 'पदरूज' ५-३-१६ इति क्रोष्टुवत्पादौ यस्य, क्रोष्टुवन्माया यस्य, शीर्ष मिमीते, पगेष्ठगे स्थग संवारक लाति, पदयते पदकः, वर्म वपुः कायति, पुष्करे सीदति, विशंत प्रवेशने, 'तङ्कि' ६९२ ( उणादि) इत्यधिकारे रिः विधिः, क्लादीयते कुद्रिः । अजस्येव बस्तिरस्य । यात्रोऽश्यापर्णान्तगोपवनादेः ॥ ६. १. १२६ ॥
यजन्तस्याअन्तस्य च बहुत्वविशिष्टे गोत्रेऽर्थे वर्तमानस्य यः स प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां लुप भवति गोपवनादिभ्यः श्यापर्णान्तेभ्यो विहितं वर्जयित्वा। गोपवनादिविदाद्यन्तर्गणः । गार्ग्यः, गाग्यौं, गर्गाः, वात्स्यः, वात्स्यौ, वत्साः, वैदः, वैदौ, विदाः, और्वः, औौं, उर्वाः, गर्गमयम्, गर्गरूप्यम् अश्यापर्गान्तगोपवनादेरिति किम् ? गौपवनाः, शेग्रवाः, वैन्दवाः, ताजमाः, आश्ववताना:, श्यामाकाः, श्यापर्णाः । केचित्त मठरराजमाऽवतानाऽश्वश्याम्याकशब्दानपि गोपवनादिषु पठन्ति । माठरा इत्यादि । श्यापर्णान्तग्रहणं किम् ? हारितः, हारितो, हरिताः। गोपवनादिग्रहणं किम् ? धेनवः, धनवी, धेनवः । बहुष्वित्येव ? गार्ग्यः, बैदः बैदस्य बैदयोपित्यानि बिदा इत्यत्र विधि लुप्तेऽअन्तं बहुष्विति लुप् । बिबानामपत्यं बैदः बैदौ इत्यत्र त्विनि लुप्तेऽन्तं न बहुष्विति लुप् न भवति । इप्रत्ययंविषयेऽप्यो लुप् न भवति ‘न प्राग्जितीये स्वरे' (६-१-१३५) इति प्रतिषेधात् । बिदानामपत्यं बहवो माणवका बिदा इत्यत्र चाबन्तं बहुष्विति भवत्येव । कश्यपप्रतिकृतयः काश्यपा इत्यत्र यद्यपि प्रत्ययो गोत्र उत्पन्नस्तथापि तदन्तं नेदानी गोत्रबहुत्वे क तहि प्रतिकृतिष्विति लुप् न भवति, अस्त्रियामित्येव । गार्ग्यः, वैद्यः स्त्रियः । पञ्चभिर्गार्गीभिः क्रीतः पञ्चगर्गः दशगर्गः पट इत्यत्र विकणो लुप: पित्त्वात्पु वद्भावेन स्त्रोत्वनिवृत्ते लुप् । गोत्र इत्येव ! औत्साश्छात्त्राः, उत्सादेरञ्, पौनर्भवाः । पौत्राः, दौहित्राः, नानान्द्राः। 'पुनर्भू पुत्रदुहितृननान्दुरनन्तरेऽञ्' (६-१-३९) । पारशवाः। 'परस्त्रियाः परशुश्वासावये' (६-१-४०) इत्यञ् । कथं प्रियो गार्यो गाग्र्यो वा येषां ते प्रियगार्या
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[ पाद. १. सू. १२६ - १२७] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः
[ ५१
इति, अत्र हि यजन्तस्य बहुविषयत्वात् लुप् प्राप्नोति ? नैवम्, न यजन्तं बहुषु किं तर्हि समासः स च ' प्रत्ययः प्रकृत्यादेः ' ( ७ - ४ - ११५ ) इति नियमात् यजन्तो न भवतीति लुप् न भवति, प्रिया गर्गा यस्य स प्रियगर्ग इत्यत्र तु यजन्तस्य बहुत्वाद्भवत्येव । १२६ ।
न्या० स० यव्यञोऽश्याप- स्त्रीत्व निवृत्ते लुबिति यदा पञ्चभिर्गार्गीभिः क्रीता इकणू लुप् पुंवत् ततो बाह्यस्त्र्यापेश्नया पञ्चगाय दशगाय इत्येव भवतीति न्यासः, अन सूत्रे गोपवनादौ दुसंज्ञकानां पूर्वाचार्यानुरोधात् पाठः, यावता नास्ति विशेषः, यतोऽनि लुपि सत्यामपि 'न प्राजितीय' ६-१-१३५ इति निषेधात् 'संघघोष ' ६-२-१७२ इत्यादि - नार्णेव भाव्यम् ।
कौण्डिन्यागस्त्ययोः कुण्डिनागस्ती च ॥ ६. १. १२७ ।।
कौण्डिन्य आगस्त्य इत्येतयोर्बहुत्वविशिष्टे गोत्रेऽर्थे वर्तमानयोर्यञोऽणश्चास्त्रियां लुब् भवति तयोश्च कुण्डिनीअगस्त्य शब्दयोः कुण्डिन अगस्ति इत्येतावादेशौ भवतः आगस्त्यशब्दस्य ऋप्यणन्तत्वात् यजञौ न संभवतः, कुण्डिन्या अत्यं गर्गादित्वाद्यञ्, अत एव निर्देशात्पु वद्भावाभावः । कौण्डिन्यः, कौण्डिन्यो, कुण्डिनाः, मागस्त्य:, आगस्त्यौ, अगस्तयः । प्रत्ययलुपं कृत्वादेश - करणमगस्तीनामिमे आगस्तीया इत्येवमर्थम् । प्रत्ययान्तादेशे हि कृते अगस्तिशब्दस्यादेराकारस्याभावात् वृद्धिर्यस्य स्वरेष्वादिः ( ६-१-८) इति दुसंज्ञा न स्यात्, तदभावे च तन्निमित्तो ' दोरीय:' ( ६-३-३१) इतीय: प्रत्ययोऽपि न स्यात्, यदा तु प्रत्ययस्य लुब् विधीयते तदा स्वरादावीयप्रत्यये भाविनि 'न प्राग्जितीये स्वरे' ( ६-१-१३५ ) इति प्रतिषेधात् प्रत्ययस्य लुब् न भवति, तथा च सति दुसंज्ञत्वात् ईयः सिद्धो भवति । कुण्डिन्यामविशेष:, प्रत्ययान्तादेशे हि कुण्डिनशब्दाददुसंज्ञकात् 'तस्येदम्' (६-३-१५९) इत्यणा भवितव्यम् । प्रत्ययस्य तु लुपि न प्राग्जितीये स्वरे' (६-१-१३५) इति लुप्प्रतिषेधे सत्यामपि दुसंज्ञायामीयप्रत्ययापवादः शकलादित्वादमेव स्यात् अतो न विशेषः । अस्त्रियामित्येव ? कौण्डिन्यः, आगस्त्यः स्त्रियः ॥ १२७॥
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न्या० स० कौण्डिन्या - यत्रत्रौ न संभवत इति तेनास्याण एव लुबित्यर्थः
कुण्डिन्यामविशेष इति ईयप्रत्ययापेक्षमिदमुक्तं अविशेष इति न प्रत्ययान्तर यतः प्रत्ययलोपेऽपि हि 'न प्राजितीये' ६-१-१३५ इति लोपनिषेधे यञन्तात् कुण्डिनानामयं संवादिः इति विवक्षायामण् भवति, तथा च कौण्डिनमिति भवति, सप्रत्ययादेशे ि 'गोत्राददण्ड ' ६-३ - १६९ इत्यकञ् स्यात् तदा कौण्डिनकमिति भवत्यतो विशेषः ।
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५२]
बृहद्दृत्ति-लघुन्याससंवलिते (पा० १. सू० १२८-१२९ ] भृग्वङ्गिरस्कुत्सवसिष्ठगोतमात्रेः ॥ ६. १. १२८ ।। __भृगु, अङ्गिरस्, कुत्स, वसिष्ठ, गोतम, अत्रि इत्येतेभ्यो यः प्रत्ययस्तदन्तस्य बहुत्वविशिष्टे गोत्रेऽर्थे वर्तमानस्य यः स प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां लुब भवति । भार्गवः, भार्गवौ, भृगवः, एवमङ्गिरसः, कुत्साः, वसिष्ठाः, गौतमाः, एभ्योऽणो लुप् । अत्रयः । एयणो लुप् । अस्त्रियामित्येव भार्गव्यः आङ्गिरस्यः आत्रेय्यः स्त्रियः । बहुष्वित्येव ? भार्गवः, आत्रेयः । गोत्रे इत्येव ? भार्गवाश्छात्राः । भृग्वादीन् यस्कादिष्वपठित्वेदं वचनं 'व्येकेषु षष्ठयास्तत्पुरुषे यादेर्वा' (६-१-१३४) इत्येवमर्थम्, अन्यथा भृगुकुलं भार्गवकुलमिति न सिध्येत् ।१२८। ___न्या० स० भृगवङ्गिरः-भृगुकुलमिति भृगोरपत्यमपत्ये वा ऋष्यण् , भार्गवस्य भार्गवयोर्वा कुलम् । ____ न सिध्येदिति तदाऽयमादित्वात् तत्र हि यादेर्वेत्युक्तं, ततश्च ‘यजनोऽश्यापर्ण' ६-१-१२६ इत्यारभ्य येषां बहुत्वे लुप् तेषामेकत्वद्वित्वयोरपि लुप् । प्रागभरते बहुस्वरादिनः ॥ ६. १. १२९ ॥
बहुस्वरान्नाम्नो य इञ् प्रत्ययस्तदन्तस्य बहुत्वविशिष्टोऽर्थे प्राग्गोत्रे भरतगोत्रे च वर्तमानस्य यः स प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां लुप् भवति । क्षैरकलम्भिः , क्षरकलम्भी, क्षीरकलम्भाः, पान्नागारिः, पान्नागारी, पन्नागाराः, मान्थरेषणिः, मान्थरेषणी, मन्थरेषणाः । सर्वेष्वत इञः। भरत, यौधिष्ठिरिः, यौधिष्ठिरी, युधिष्ठिराः, आर्जु निः, आर्जुनी, अर्जुनाः, औद्दालकिः, औद्दालकी, उद्दालकाः। एभ्यो बाह्वादीनः । प्राग्भरत इति किम् । बालाकयः, हास्तिदासयः । कथं तौल्वलयः, तेल्वलयः, तैल्वकयः इत्यादिषु लुब् न भवति ? उच्यते, यस्कांदिषु पुष्करसच्छब्दपाठात्, अस्य हि बहुस्वरत्वादनेनैवेञ्लोपे सिद्धे तदर्थो यस्कादिपाठो ज्ञापयति तौल्वल्यादीनामिओ लुप् न भवतीति, भरताः प्राच्या एव तेषां पृथगुपादानं प्राग्ग्रहणेनाग्रहणार्थम्, तेन यौधिष्ठिरिः पिता यौधिष्ठिरायणः पुत्र इत्यत्र 'प्राच्येत्रोऽतौल्वल्यादेः' (६-१-१४३) इति लुप् न भवति । अपरे त्वाहुः। प्रागग्रहणं भरतविशेषणम् । क्षीरकलम्भादयो र प्रगभरताः, युधिष्ठिरादयो राजान उदग्भरताः, तत्र प्राग्ग्रहणादुदीच्यभरतेषु राजसु लुब् न भवति । यौधिष्ठिरयः, आर्जुनयः, भरतग्रहणात्तु प्राच्येषु राजसु लुप् न भवति । मारसंबन्धयः, भागवित्तयः ।
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श्रीसिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः
पोष्पयः,
काशयः,
पाद. १. सू. १३० ] बहुस्वरादिति किम् ? चैङ्कयः, किम् ? शान्तनवाः । १२९ ।
न्या० स० प्राग्भरते - प्रागग्रहणेनाग्रहणार्थमिति अयमर्थः अन्यत्र सूत्रे प्राग्ग्रहणेन भरताग्रहणमित्याह - राजसु लुब् न भवतीति प्राच्या भरता द्वेधा बैश्या राजानश्च ततो वैश्येषु वाच्येषु लुब् भवति न राजस्, उदीच्यभारता राजान एवोच्यन्ते तेषु प्राग्ग्रहणान्न लुप् ।
वोपकादेः ।। ६. १. १३० ॥
वाशयः ।
'
उपक इत्येवमादिभ्यो यः प्रत्ययस्तदन्तस्य बहुवविशिष्टे गोत्रे वर्तमानस्य यः स प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां लुप् भवति वा । उपकाः, अपकायनाः, लमकाः, लामकायनाः । अस्त्रियामित्येव ? औपकायिन्यः स्त्रियः । उपक, लमक आभ्यां नडाद्यायनणो लुप्, भ्रष्टक, कपिष्ठल, कृष्णाजिन, कृष्णसुन्दर, पिङ्गलक, कृष्णपिङ्गल, कलशीकण्ठ, दामकण्ठ, जतुक, कनक, मदाघ, अपजग्ध, अडारक, वटारक, प्रतिलोम अनुलोम, प्रतान, अनुपद, अभिहित, अनभिहित, खारीजङ्क, कशकृत्स्न, शलाथल, कमन्दक, कमन्तक, कवन्तक, पिलक, अडडुक, अवव्वक, पतञ्जल, पदञ्जण, वर्णक, पर्णेक कठेरित, एभ्योऽत इञः । कुषीतक, अत्र काश्यपेऽर्थे विकर्ण कुषीतकात्काश्यपे ' ( ६-१-७५ ) इत्येयणः । अन्यत्रेञः । लेखाभ्रूः अत्र शुभ्राद्येयण: । पिष्ट, सुपिष्ट, मसुरकर्ण, कर्णक, पर्णक, जटिलक, बधिरक, एभ्यः शिवाद्यणः । कठेलिति पतञ्जलि, खरीखन, एभ्य औतसर्गिकाणः, इत्युपकादिः । १३०|
[ ५३
इत्र इति
न्या० स० वोपकादेः अथ गणः उपकायति, कपेरिव स्थलमस्य, कृष्णमजति ' विपिन ' २८४ ( उणादि ) इति कृष्णमजिनमस्य वा, अपकृष्टं जग्धं यस्य अपात्ति स्मेति वापजग्धः, अडत्यच्, अडं वृश्चिकलाङ्गूलमियर्ति भडारकः वटारस्य तुल्यो वटारकः प्रतिगतं लोमानुगतं लोम' प्रत्यन्ववात्सामलोम्नः ७-३-८२ प्रतिलोम अनुलोम । ' तन्व्यधि' ५-१-६४ प्रतान: अभिदधाति अनभिधीयते स्म ' शीरी' २०१ ( उणादि ) खारीवज्जधा यस्य कमन्दति कमन्दकः । क्रमन्तति कमन्तकः । कौति कवः कत्रमन्तति कवन्तकः । पिञ्जिमञ्जि' ४८८ ( उणादि ) इति पिञ्जलः, अडति उद्यतते अड् अडमड्डति भडड्डकः, अवमवति ' कीचक' ३३ ( उगादि ) इति अवच्वकः । पतो जलात् पाञ्जलः । णके कर्णकः, जटिलं बधिरं च कायति बधिरस्य तुल्यो वा जटिलकः बधिरकः । कठमेनमित्यात् कठेलितिः । पतोऽञ्जलेः पतञ्जलिः । खरी खनति खरीखनः इत्युपकादिः ।
7
पर्णकशब्दस्य ऋषिवचनस्य शिवादौ पाठात् क्रियावचनादत इनेब, अतः पर्णाति करोतीति वाक्यं, अत्र गणेऽर्थभेदात् न्यासकारैर्द्विरुपात्तः ।
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५४]
वृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० १३१-१३२ ) तिककितवादी द्वन्दे ॥ ६. १. १३१ ।।
तिककितवादिषु द्वन्द्ववृत्तिषु बहुषु गोत्रापत्येषु वर्तमानेषु तैकायनिकैतवायनीत्यादीनां यः स प्रत्ययस्तस्यास्त्रियां लुप भवति । तैकायनयश्च कैतवायनयश्च तिककितवाः, तिकाद्यायनिनो लुप् । औब्जयश्च काकुभाश्च उब्जककुभाः, उब्जादिनः ककुभाच्छिवाद्यणः। औरशायनयश्च लाङ्कटयश्च उरशलङ्कटाः, उरशात्तिकाद्यायनित्रः लङ्कटात् इञः । अग्निवेशाश्च दाशेरकयश्च अग्निवेशदशेरकाः, शण्डिलाश्च काशकृत्स्नयश्च शण्डिलकशकृत्स्नाः , अग्निवेशशण्डिलाभ्यां गर्गादियजः दशेरककशकृत्स्नाभ्यां त्वत इजः । 'वान्येन'(६-१-१३३) इति यत्रो लुब्धिकल्पे प्राप्ते नित्यार्थः पाठः । औपकायनाच . लामकायनाश्च उपकलमकाः, अत्र नडाधायनणः । भ्राष्ट्रकयश्च कापिष्ठलयश्च भ्रष्ट्रककपिष्ठलाः, काष्र्णाजिनयश्च कार्णसुन्दरयश्च कृष्णाजिन कृष्णसुन्दराः, वाङ्खरयश्च भाण्डीरथयश्च वङ्खरभण्डीरथाः, पाहकयश्च नारकयश्च पहकनरकाः, बाकनखयश्च स्वागुदपारिणद्धयश्च बकनखस्वगुदपरिणद्धाः, अन्येषी बाकनखयश्च स्वागुदयश्च पारिणद्धयश्चेति त्रिपदो द्वन्द्वः । (ता)लायश्च शान्तमुखयश्च (ता) लाङ्कशान्तमुखाः। एषु सर्वेष्वत इजः । उपकलमकाः भ्रष्ट्रककपिष्ठलाः कृष्णाजिनकृष्णसुन्दरा इत्येषामुपकादिष्वद्वन्द्वार्थः पाठः द्वन्द्वे त्वयमेव नित्यो विधिः । तिककितव, उब्जककुभ, उरशलङ्कट, अग्निवेशदशेरक, शण्डिलकशकृत्स्न, उपकलमक, भ्रष्ट्रककपिष्ठल, कृष्णाजिनकृष्ण सुन्दर, वहरभण्डीरथ, पहकनरक, बकनख, स्वगुदपरिणद्ध (ता) लङ्कशान्तमुख इति तिककितवादिः । १३१॥
न्या० स० तिककितवादी-समासकालेऽपि बहुत्वावृत्तित्वात् 'यात्रः' ६-१-१२६ इति यिमो लुपि अग्निवेशाश्च शण्डिलाश्चेति समासः ।
लुब्विकल्पे प्राप्ते इति द्वयोरग्निवेशशण्डिल शब्दयोर्यन्तयोरित्यर्थः, अयबन्तानां तु अड्यन्तत्वान्न । यादेस्तथा ॥ ६. १. १३२ ॥
यादिप्रत्ययान्तानां द्वन्द्वेऽबहुध्वर्थेष वर्तमाने य: स यादिप्रत्ययस्तस्य लुप् भवति तथा यथापूर्वम् । बार्केण्यश्च लौहध्वज्यश्च कौण्डीवश्यश्च वकलोहध्वजकुण्डीवृशाः। अत्र 'काट्टेण्यण' (७-३-६४) इति टेण्यणः • पूगादमुख्यकाञ्ञ्यो द्रिः' (७-३-६०) इति ज्यस्य 'बाहीकेष्वब्राह्मणराजन्येभ्यः' (७-३-६३) इति ज्यटश्च लुप् । माङ्गश्च वाङ्गश्च सौह्मश्च
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[ पाद १. सू० १३३-१३४] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [५५ अङ्गवङ्गसुह्माः, अत्र द्विस्वरलक्षणस्याणः, एवं गर्गवत्सवाजाः। अत्र यत्रः, बिदगर्गयस्काः । अत्रानो योऽणश्च । तथेति किम् ? यास्कलाह्याश्छात्राः । अत्र 'तस्येदम्' (६-३-१५९) इत्यणो लुप् न भवति 'यस्कादेर्गोत्रे' (६-१-१२५ ) इत्यत्र गोत्रे उत्पन्नस्येति प्रत्ययस्य विशेषणात् । गार्गीवत्सवाजाः, अत्र वत्सवाज योरेव यजो लुप् न गार्गी इत्यत्र तत्रास्त्रियामिति प्रतिषेधात्, शैग्रवगौपवनाः । अत्र 'अश्यापर्णान्तगोपवनादेः' इति प्रतिषेधात् अञो लुप् न भवति । बालाकिहास्तिदासयः, अत्र प्राग्भरतेति वचनात् अप्राग्भरते न भवति । यादिग्रहणमगोत्रेऽपि यथा स्यादित्येवमर्थम् अबह्वथं वचनम् ।१३२॥
न्या० स० द्यादेःतथा-धादिप्रत्ययान्तानामिति 'बहुध्वस्त्रियामित्यारभ्य ये केचन लोपनीयाः प्रत्ययास्ते द्यादयो ज्ञेयाः, 'तरवणः' ६-१-१२३ इत्यनेन तु एकत्वद्वित्वबहुत्वसामान्वे लुबुक्तानेनापि तथैवेति न तत्रास्य कश्चिदुपयोगोऽतो 'बहुष्वस्त्रियाम्' ६-१-१२४ इत्यारभ्योदाहियते ।
यथापूर्वमित्ति-पूर्वप्रत्ययान्तबहुत्वे यस्य लुब् भवति, द्वन्द्वे बहुत्वेऽपि तस्यैव भवति, अस्व न भवति, तस्य च भक्त्येव, यस्यादेशेन सह तस्यादेशेन सहेव यस्य विकल्पस्तस्य विकल्प एवेत्यर्थः ।
यादिप्रहणमगोपीति ननु तथेति भणनाद्येषां पूर्व बहुषु लुबुक्ता तेषामेव भविष्यति किं यादिग्रहणेन ? इत्याह-अयमर्थः, यदि न्यादिग्रहण न क्रियेत्त तदा 'यस्कादेर्गोत्रे' ६-१-१२२ इत्यतो गोत्र इत्यनुवर्तमाने गोत्र एष लुपू स्यात् यथा अङ्गबङ्गसुम्हा इति नागोत्रे यथा वृकलोहध्वजकुण्डीवृशा इति । वान्येन ॥ ६. १. १३३ ॥
द्यादेरन्येन सह द्यादीनां द्वन्द्वे बहुष्वर्थेषु वर्तमाने य स यादिप्रत्ययस्तस्य तथा वा लुप् भवति यथा पूर्वम् । अङ्गवङ्गदाक्षयः, आङ्गवाङ्गादाक्षयः, गर्गवत्सौपगवाः, गाय॑वात्स्योपगवाः, भृगुवत्साग्रायणाः, भाववात्स्याग्रायणाः, गर्गकश्यपगालवाः, गार्यकाश्यपगालवाः, पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पा) वचनम् ।१३३३
मा० स० वान्ये विकल्पार्थमिति पूर्वेण 'यादेः' ६-१-१३२ इति सामान्यभणनादत्रापि सिद्धे यत्रान्येन सह द्वन्द्वः तत्रानेन विकल्प एवेत्यर्थः ।। धेकेषु षष्ठयास्तत्पुरुषे यत्रादेर्वा ॥ १. १. १३४ ॥
षष्ठीतत्पुरुष यत्पदं तस्याः षष्ठया विषये द्वयोरेकस्मिंश्च वर्तते तस्य यः स यादिः प्रत्ययस्तस्य तथा वा लुक् भवति यथा पूर्वम् । गार्ग्यस्य
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५६ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते
[ पाद. १ सू० १३५ गार्ग्ययोर्वा कुलं गर्गकुलम्, गार्म्यंकुलम्, एवं बिदकुलम्, बैदकुलम् अगस्तिकुलम्, भागस्त्यकुलम्, भृगुकुलम्, भार्गवकुलम् । द्वयेकेष्विति किम् ? गर्गाणां कुलम् गर्गकुलम् । षष्ठया इति किम् ? मार्ग्यहितम्, परमगार्ग्यः । षष्ठया इति तत्पुरुषस्य विशेषणेन प्रतिपदोक्तस्यैव षष्ठीतत्पुरुषस्य परिग्रहादिह न भवति, गार्गस्य गार्ग्ययोर्वान्तर्गतः अन्तर्गार्ग्यः । ' प्रात्यव ' - ( ३-१-४७ ) इत्यादिना समासः । केष्वित्यस्य षष्ठया इति विशेषणं किम् । देवदत्तस्य मार्ग्यः देवदत्तगार्ग्यः, देवदत्तगायौं । तत्पुरुष इति किम् ? गार्ग्यस्य समीप - मुपगार्ग्यम् । यजादेरिति किम् ? आङ्गकुलम्, यास्ककुलम् ।१३४।
I
न्या० स० दूव्येके - प्रात्यवेत्यादिना समास इति बाहुलकात् षष्ठ्यन्तेन समासः, यतस्तत्र पञ्चम्यन्तान्तैरेव समास उक्तः ।
न प्राग्जितीये स्वरे ॥ ६. १. १३५ ॥
गोत्र इति वर्तते, गोत्रे उत्पन्नस्य बहुषु या लुबुक्ता सा प्राजितीयेऽर्थे यो विधीयते स्वरादिस्तद्धितस्तस्मिन् विषयभूते न भवति । गर्गाणां छात्रा : गार्गीयाः, वात्सीयाः, आत्रेयीया:, आगस्तीयाः, खारपायणीयाः, हारितीया: । प्राजितीये इति किम् ? अत्रिभ्यो हितः अत्रीयः, अगस्तीयः, गर्गीयः, वत्सीयः । स्वर इति किम् ? गर्गेभ्य आगतं गमयम्, गर्गरूप्यम्, बिदानामपत्यं युवा बैद:, मैदावित्यत्र तु इञि विषयभूतेऽनेन प्रतिषेधः । इञस्तु लुपि सत्यामनन्तं न बहुषु वर्तते इति लुपः प्राप्तिरेव नास्ति । यत्र त्वस्ति तत्र भवत्येव, बिदानामपत्यानि बिदा: । अथेह कस्मान्न भवति अत्रीणां भरद्वाजानां च विवाहः अत्रिभरद्वाजिका वसिष्ठकश्यपिका भृग्वङ्गिरसिका कुत्सकुशिकिकेति ? उच्यते, प्रत्यासत्तेर्यस्य प्रत्ययस्य लुप् प्रतिषिध्यते तल्लोपिप्रत्ययान्तादेव विधीयमाने स्वरादी प्रतिषेधः अत्र द्वन्द्वाद्विधीयते न तल्लोपिप्रत्ययान्तादिति प्रतिषेधो न भवति । ' गर्गभार्गविका' ( ६- १ - १३६ ) इत्युत्तरसूत्रं वा नियमार्थं व्याख्यायते । गर्म भार्गविकाया अन्यत्र द्वन्द्वे वृद्धे यूनि वा प्रतिषेधो न भवति । गोत्र इत्येव ? कुवल्याः फलं कुवलम्, तस्येदं कौवलम् ॥१३५ । न्या० स० न प्रागू-गार्गीया इति ननु गार्गीया इत्यादौ विषयव्याख्यानादुत्पन्ने प्रत्यये पश्चाल्लोपः कथं न भवति ?
उच्यते, विषयव्याख्यानेन त्रैकाल्यमपि गृह्यते, तेन यो वर्तते, यो भूतो यश्च भावी तस्मिन् सर्वस्मिन् न लोपो भवतीत्यर्थः ।
तल्लो पिप्रत्ययान्तादिति - स लोपी प्रत्ययोऽन्ते यस्य तस्मादित्यर्थः ।
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[ पाद. १. सू. १३६-१३७ ]
श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [ ५७ गर्गमार्गविकेत्युत्तरसूत्रं वेति यदा कश्चित् प्रत्यासत्तिममन्यमानो ढौकते तदेदमुत्तरं, यद्वा यदा द्वंद्वपदानां कुक्कुटमर्युयावित्यादिवत् कृत्स्नमादेशं विवक्ष्यते, यद्वा यदा द्वन्द्वात्परं पदं श्रूयमाणं प्रत्येकमभिसंबध्यते तदा एवमुत्तरम् ।
गर्ग भाविका ॥ ६. १. १३६ ॥
गर्गभार्गविकेति द्वन्द्वात् प्राग्ज्जतीये विवाहे यो विधीयतेऽकल् प्रत्ययस्त - स्मिन् अणो लुप्प्रतिषेधो निपात्यते । गर्गाणां वृद्धानां भृगूणां वृद्धानां यूनां च विवाह गर्गभार्गविका, अत्रिभरद्वाजिकादिवदप्राप्तः प्रतिषेधो निपात्यते । १३६ । न्या० स० गर्ग - गर्गस्य यूनि गार्ग्यायणानामिति प्राप्नोतीति गर्गाणां वृद्धानामित्येवाह भृगोस्तु यून्यपि 'विदार्षात् ' ६-१-१४० इति लुबिति यूनां चेत्याह ।
यूनि लुप् ।। ६. १. १३७ ॥
यून्यपत्ये विहितस्य प्रत्ययस्य प्राग्जितीये स्वरादौ प्रत्यये विषयभूतेऽनूत्पन्न एव लुप् भवति, लुपि सत्यां यो यतः प्राप्नोति स तत उत्पद्यते । पाण्टाहृतस्यापत्यं पाण्टाहृतिः, तस्यापत्यं युवा पाण्टाहृतः, 'पाण्टाहृतिमिमताण्णश्च ( ६- १ - १०४ ) इति णः । तस्य छात्रा इति प्राग्जितीये स्वरादौ चिकीर्षिते णस्य लुप्, तत इञन्तं प्रकृतिरूपं संपन्नम् इति ' वृद्धेञः ' ( ६-३-२८) इत्यञ् भवति । पाण्टाहृताः, भगवित्तस्यापत्यं भागवित्तिः तस्यापत्यं युवा भागवित्तिकः । ' भागवित्तितार्णविन्दव ' - ( ६- १ - १०५ ) इत्यादिना इकण् तस्य छात्रा इति पूर्ववदिकणि निवृत्तेऽब् । भागवित्ताः, वृषस्यापत्यं वार्ष्याणिः, तस्यापत्यं युवा वार्ष्यायणीयः, 'सौयामायनि ' - (६-१-१०६) इत्यादिनेयः । तस्य छात्रा इति पूर्ववदीयस्य लुपि 'दोरीय: ' ( ६-३-३१) इतीयः । वार्ष्यायणीयाः, कपिञ्जलादस्यापत्यं कापिञ्जलादिस्तस्यापत्यं युवा कापिञ्जलाद्यः कुर्वादित्वात् ञ्यः, तस्य छात्राः पूर्ववत् ज्यस्य लुपि 'वृद्धेञः ' ( ६-३ - २८ ) इत्यन् । कापिञ्जलादाः, ग्लुचुकस्यापत्यं ग्लुचुकायनिः तस्यापत्यं युवा ग्लौचुकायनः, औत्सर्गिकोऽण् । तस्य छात्रा इति पूर्ववदणो पि पुनः शैषिकोऽणेव भवति । ग्लोचुकायनाः स्वर इत्येव ? पाण्टाहृतमयम्, वार्ष्यायणीयरूप्यम् । प्राग्जितीय इत्येव ? भागवित्तिकाय हितं भागवित्तिकीयम् । १३७।
न्या० स० यूनि - तस्यापत्यं युबेति वार्ष्यायणेः सौबीरदेशस्थस्यापत्यं युवा युवा निन्दितः । मायणीया इति न वाच्यं ' प्रस्थपुर ' ६-३ - ४३ इत्यकनः प्राप्तिर्यतस्तेन देशवाचकाद् भवतीति ।
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बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते
वायनणायनिञोः ॥ ६. १. १३८ ॥
आनण आयनिजच यून्यपत्ये विहितस्य प्राजितीये स्वरादौ प्रत्यये विषयभूते लुब् वा भवति, गर्गस्यापत्यं गार्ग्यः तस्यापत्यं युवा गार्ग्यायणः, ' यञिञ : ' ( ६- १ - ५४ ) इत्यायनण्, तस्य छात्रा गार्गीयाः गार्ग्यायणीया वा, 'दोरीयः' (६-३ - ३१ ) इतीयः । चिङ्कस्यापत्यं चैङ्किः तस्यापत्यं युवा चैङ्कायनः, तस्य छात्राः चेङ्कीयाः चैङ्कायनीया वा, आयनिञः खल्वपि । होतुरपत्यं होत्रः तस्यापत्यं युवा हौत्रायणिः, 'द्विस्वरादण:' ( ६-१-१०९ ) इत्यायनि तस्य छात्राः हौत्रीयाः हौत्रायणीया वा । 'दोरीयः' ( ६-३-३१) इतयः । आयनोति उपादानात् ञितः पूर्वेण नित्यमेव लुप् अत्रेरपत्यमात्रेयः । तस्यापत्यं भारद्वाजो युवा आत्रेयायणः, 'आत्रेयाद्भारद्वाजे ' ( ६-१-५२ ) इत्यायनञ् तस्य छात्रा : आत्रेयीयाः । १३८ |
५८ ]
[ पाद. १ सू० १३९ J
न्या० स० वाय चैक्कीया इति 'वृद्धेनः ' ६-३ - २८ इत्यम् न भवति 'न द्विस्वरात् ' ६- ३ - २९ इति प्रतिषेधात् ।
दीत्रो वा ॥ ६. १. १३९॥
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प्राजितीये स्वर इति निवृत्तम्, द्विसंज्ञो य इन् तदन्तात्परस्य युवप्रत्ययस्य लुब् वा भवति । उदुम्बरस्यापत्यमोदुम्बरिः, 'साल्वांश '( ६- १ - ११७ ) इत्यादिनेञ् । तस्यापत्यं युवा औदुम्बरि: औदुम्बरायणो वा, ' यञिञः ' ( ६-१-५४ ) इत्यायनण् । द्रिग्रहणं किम् ? दाक्षेरपत्यं दाक्षायणः । इञ इति किम् ? अङ्गस्यापत्य माङ्गः । 'पुरुमगध'(६-१-११६) इत्यादिना अण्, तस्यापत्यमिति 'द्विस्वरादण:' ( ६-१-१०९ ) इत्यायनिञ्, तस्य ' अब्राह्मणात्' (६-१-१४१ ) इति नित्यं लुप् । आङ्गः पिता, आङ्गः पुत्रः । 'अब्राह्मणात्' इति नित्यं लुपि प्राप्तायां विकल्पार्थं वचनम् ।१३९।
न्या० स० द्रीत्रो - प्राजितीये स्वर इति निवृत्तमिति - अस्य सूत्रस्य करणात्, अन्यथेमन्तात् आयनणैव भाव्यमिति पूर्वेणैव सिद्धे इदं न कुर्यात् ।
नन्वायनणैव भाव्यमिति न वाध्यं यत उदुम्बरस्यापत्यं स्त्री इम् । नुर्जाते तदा ङ्ङ्घन्तात 'स्थाप्यूङ : ' ६-१-७० इति एयणू प्राप्नोति इति प्राग्रजितीये प्रत्यये एतदूविना लोपो न प्राप्नोतीत्येतद कस्मान्न भवति ? सत्यं, यद्येतदर्थं स्यात्सदा यूनि लुपि यस्या इदं कुर्यात् ।
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[पाद. १. सू. १४०-१४१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [५९ त्रिदार्षादणित्रोः ॥ ६.१.१४०॥
जित् आर्षश्च योऽपत्यप्रत्ययस्तदन्तात्परस्य युवप्रत्ययस्य अण इअश्च लुप् भवति, वचनभेदाद्यथासंख्याभावः। बितः, तिकस्यापत्यं तैकायनिः, तिकादेरायनिञ् । तस्यापत्यमौत्सर्गिकोऽण, तस्य लुप् । तैकायनि: पिता, तैकानिः पुत्र, बिदस्यापत्यं बंदः, बिदादित्वाद, तस्यापत्यम् 'अत' (६-१-३१) इती, तस्य लप् । बैदः पिता, बैदः पुत्रः, कुरोरपत्यं कौरव्यः, 'कुर्वादेर्व्यः' (६-१-१००)। कौरव्यस्यापत्यम् 'अत इन्' (६-१-३१) तस्य लुप्, कौरव्यः पिता, कौरव्यः पुत्रः, तिकादिषु औरशशब्दसाहचर्यात् कौरव्यशब्दः क्षत्रियगोत्रवृत्ति विज्ञायते अयं तु ब्राह्मणगोत्रवृत्तिरिति अत आयनिञ् न भवति । आर्षात् वासिष्ठः पिता, वासिष्ठः पुत्रः, वैश्वामित्रः पिता, वैश्वामित्रः पुत्रः, ऋष्यणन्तादिञ् तस्य लुप् । आत्रेयः पिता, आत्रेयः पुत्रः, 'इतोऽनित्रः' (६-१-७२) इत्येयणन्तादिन, तस्य लुप् । बिदार्षादिति किम् ? औपगवः पिता, औपगविः पुत्रः, औरसगिकारन्तादि । कोहडः पिताः, कौहडिः पुत्रः । शिवाद्यणन्तादि । अणिजोरिति किम् ? दाक्षेरपत्यं दाक्षायणः ।१४०। ‘अब्राह्मणात् ॥ ६. १. १४१ ॥
अब्राह्मणवाचिनो वृद्धप्रत्ययान्ताधूनि विहितस्य प्रत्ययस्य लुप् भवति, अङ्गस्यापत्यमाङ्गः । 'पुरुमगध'-इत्यादिनाण् । तस्यापत्यं द्विस्वरादणः' (६-१-१०९) इत्यायनि, तस्य लुप् । आङ्गः पिता, आङ्गः पुत्रः, एवं सौह्मः पिता, सौह्मः पुत्रः, मगधस्यापत्यं मागधः, 'पुरुमगध'(६-१-११६) इत्यादिनाण, तस्यापत्यम् अत इञ्' (६-१-३१) । तस्य लुप् । मागधः पिता, मागधः पुत्रः, एवं कालिङ्गः पिता, कालिङ्गः पुत्रः, शोरमसः पिता, शोरमसः पुत्रः, तथा नाकुल: पिता, नाकुलः पुत्रः, साहदेवः पिता, साहदेवः पुत्रः, वासुदेवः पिता, वासुदेवः पुत्रः, आनिरुद्धः पिता, आनिरुद्धः पुत्रः, रान्ध्रस: पिता, रान्ध्रसः पुत्रः, श्वाफल्कः पिता, श्वाफल्कः पुत्रः, एभ्यः 'ऋषिवृष्ण्यन्धक कुरुभ्यः' (६-१-६१) इत्यण, तत इनो लुप् । भाण्डीजाडियः (जङियः) पिता, भाण्डीजाडियः पुत्रः, कार्णखारिः पिता, कार्णखारिः पुत्रः, मायूरिः पिता, मायूरिः पुत्रः, कापिञ्जलिः पिता, कापिञ्जलिः पुत्रः, अत्रात इबितीञ् तत आयनणो लुप् । श्वशुर्यः पिता, श्वशुर्यः पुत्रः, कुलीनः पिता, कुलीनः पुत्रः, अत्रेनो लप् । अब्राह्मणादिति किम् ? माग्यः पिता, गाायणः पुत्रः ।१४१॥
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० १. सू० १४२-१४३ ] पैलादेः ॥ ६. १. १४२ ॥ - पैलादिभ्यो यूनि विहितस्य प्रत्ययस्य लुब् भवति, ब्राह्मणार्थमप्राच्यार्थं वचनम् । पीलाया अपत्यं पैलः, पीलासाल्वामण्डूकाद्वा' (६-१-६८) इत्यण, तस्यापत्यं 'द्विस्वरादणः' (६-१-१०९) इत्यायनिञ् तस्य लुप् । पैलः पिता, पैलः पुत्रः, शलङ्कोरपत्यं शालङ्किः । 'शालङ्क्यौदि'-(६-१-३७) इत्यादिना निपातनात्, तस्यापत्यं 'यजिनः' (६-१-५४) इत्यानयण तस्य लुप् । शालङ्किः पिता, शालङ्कि पुत्रः, पैल, शालङ्कि, सात्यकि, सात्यंकामि, औदन्यि, औदश्चि, औदमज्जि, औदवजि, औदभृज्जि, औदमेधि, औदशुद्धि, औदकशुद्धि, देवस्थानि, पैङ्गलोदनि, राणि, राहक्षिति, भौलिङ्ग, औद्राहमानि, . औज्जिहानि, औज्जहानि, इति पैलादिः ।१४२।
न्या० स० पैलादेः --पैलादिगणा वित्रियते । सत्यं कायति तस्यापत्यं सात्यकिः । सत्यंशब्दो मकारान्तोऽव्ययोऽति, मत्यं कामयते 'शीलिकामि' ५-१-७३ तस्यापत्यं सात्यकामिः । उदकमिच्छति क्यनि अचि उदन्याया अपत्यं बाह्वादी , यदा तु उदन्यशब्दः पुंलिङ्गस्तदा सत्यपि निकादित्वे अपवादविषये क्वचिदुत्सर्गोऽपि इतोव । उदञ्चतीति क्विप् , बाह्वादित्वादन!यामपि न लोपो, न उदञ्चोऽपत्यं बाह्वादीभि औदञ्चिः । ____ उदकेन मज्जति 'नाम्नुत्तरपद' ३-२-१०७ इति उदभावः, उदके व्रजति उदकं वा व्रजति, उदकं भृज्जति, मूलविभुजादयः, उदकस्य मेघः, उदकेन शुद्ध उदशुद्धः, संझाया अभावे उदादेशाभावे सति उदकशुदः, तिष्ठत्यत्र स्थानं देवानां स्थानं, उदयते उदेति वा नन्यादित्वादने पिङ्गलश्चासावुदयनश्च पिङ्गलोदयनः, रणत्यच् रणः, रहक्षित इति चिन्त्यं,
भलेरिटतौर १०३ (उणादि) इति भलिका, उदनाहते आनशि उदनाहमानः, उज्जिहीते आनशि उज्जिहानः, उज्जहे 'तत्र क्वसुकानौ' ५-३-२ इति उज्जहानः, सर्वत्र अपत्यार्थे 'अत इञ्' ६-१-३१ इति इव ।
प्राच्येजोऽतौल्वल्यादेः ॥ ६. १. १४३ ॥ ___ प्राच्यगोत्रे य इञ् तदन्तात्तौल्वल्यादिवजितात् यून्यपत्ये विहितस्य प्रत्ययस्य लुब् भवति, ब्राह्मणार्थं वचनम् । पान्नागारिः पिता, पान्नागारिः पुत्रः, मान्थरेषणिः पिता, मान्थरेषणिः पुत्रः । क्षरकलम्भिः पिता, क्षैरकलम्भिः पुत्रः, 'अत इञ्' (६-१-३१) ततो 'यजिनः' (६-१-५४) इत्यायन, तस्य लुप् प्राच्यग्रहणं किम् ? दाक्षिः पिता, दाक्षायणः पुत्रः । इत्र इति किम् ? राघवः पिता, राघविः पुत्रः । तौल्वल्यादिवर्जनं किम् ? तौल्वलिः पिता, तौल्वलायनिः पुत्रः, तेल्वलिः पिता, तैल्वलायनः पुत्रः, दालीपि: पिता, दालोपायनः पुत्रः, अत्र दिलीपशब्दस्यात एव निपातनादिनि वृद्धिराकारः ।
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पाद. १. सू. १४३] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [६१ अपरे दलीप इति प्रकृत्यन्तरमाहुः, तौल्वलि, तेल्वलि, तेल्वकि, धारणि, रामणि, दालीपि, देवोति, देवमति, दैवयज्ञि, प्राटाहति, प्रादाहति, चाफट्टकि, आसुरि, पौष्करसादि, आनुराहति, आनुति, नैमिश्रि, नैमिश्लि, नैमिशि, आशि, बान्धकि, यासि, बाद्धकि, आसिनासि, आसिबद्धकि, चैङ्कि, पौष्पि, आहिसि, वैरकि, वैलकि, वैशीति, वैहति, वैकणि, वार्कलि, कारेणुपालि, इति तौल्वल्यादिः ॥ १४३ ॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशम्दानुशासनबृहवृत्तौ षष्ठस्याध्यायस्य प्रथमः पादः ।।६।१।। श्रीविक्रमादित्यनरेश्वरस्य त्वया न किं विप्रकृतं नरेन्द्र ॥ यशांस्यहार्षीः प्रथमं समंतात्क्षणावभागीरथ राजधानीम् ॥ १॥
न्या० स० प्राच्ये-तौल्वल्यादिर्गणो विचार्यते, तुलण 'तुल्वलेल्वल' ५०० (उणादि) इति तुल्वलः, तिलत् स्नेहने, तिलति 'तुल्वल' ५०० ( उणादि ) इति निपातनात् तिल्वलः, तिलति 'कीचक' ३३ ( उणादि) इति तिल्वकः, धरति नन्या दत्वादने, धरणः, रमते रम्यादित्वादनटि रमणः, 'दलेरीयो दिल च' ३०१ ( उणादि) इति दिलीप, एके तु इदादेश न मन्यते, तन्मते इनि निपातनाभावेऽपि दलीपप्रकृतिः सिद्धा, देवेन सतः, देवेन मन्यते स्म देवमत:, देवेनेज्यते देवयज्ञः, प्रकर्षेण टीकते 'क्वचित्' ५-१-१७१ इति डे प्रटः, तेनाहन्यते स्म प्रटाहतः, प्रकर्षेण ददाति, 'उपसर्ग' ५-१-५६ इति डे प्रदः, तेनाहन्यते स्म प्रदाहतः, चपति “कीचक' ३३ ( उणादि) इति चफट्टकः । .....
असुरस्यापत्यं बाहादि, पुष्करे सीदति बालादि, अनुरहति शतरि बाहादित्वात्, आनूयते स्म आनुतः, नियमेन मिश्रयति अचि निमिश्रः, रस्य रत्वे निमिश्लः, नियमेन मेशतीति निमिशः, अस्यति असतीति वा अंसः, 'दृकृनृस' २७ ( उणादि) इति बन्धकः, यस्यति यसः, बद्धं कायति बद्धकः, असिं नासते असिनासः, असिना बद्धः असिबद्धं कायति असिबद्धकः, चकते अचि पृषोदरादित्वात् चिक्कः, पुष्प्यति पुष्पः, न विद्यते हिंसा यस्य न हिनस्तीति वा अहिंसः, वीरयते वीरकः, रस्य लत्वे बीलकः, विगतं शीतं यस्य विशीतः, विशेषेण हन्यते स्म विहतः, विविधौ विशिष्टौ वा कौं यस्य विकर्णः, वृकं लाति वृकला, बाह्वादित्वादिश् , करेणुं पालयांत करेणुपालः, सर्वत्र 'अत इञ्' ६-१-३१ इति इञ् , इति तौल्वल्यादिगणः संपूर्णः ।।
इत्याचार्य० षष्ठस्याध्यायस्य प्रथमः पादः सम्पूर्णः ।
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॥ द्वितीयः पादः ॥ रागाटो रक्ते ॥ ६. २. १ ॥
शुक्लस्य वर्णान्तरापादनमिह रञ्जरर्थः, रज्यतेऽनेनेति रागः कुसुम्भादिः । रागविशेषवाचिनो नान्नष्ट इति तृतीयान्ताद्रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । कुसुम्भेन रक्त बलं कौसुम्भम, एवं काषायम्, कौकुमम्, माञ्जिष्ठम्, हारिद्रम्, माहारजनम्, वाधिकारात्पक्षे वाक्यं समासश्च भवति । कुसुम्भेन रक्तम् कुसुम्भरक्तम् इत्यादि । रागादिति किम् ? चैत्रेण रक्तम् । पाणिना रक्तम् । रागशब्देन प्रसिद्धा एव कुसुम्भादयो रागा गृह्यन्ते, तेनेह न भवति । कृष्णेन रक्तम्, लोहितेन रक्तम्, पीतेन रक्तमिति, एते हि वर्णा द्रव्यवृत्तयो न तु रागाख्याः। कथं काषायो गर्दभस्य को हारिद्रो कुकुटस्य पादाविति ? काषायाविव काषायो हारिद्राविव हारिद्रौ इत्युपमानोपमेयभावेन . तद्गुणाध्यारोपाद्भविष्यति ॥ १॥
न्या० स० रागा०-शुक्लस्य वर्णान्तरापादनमिति-उपलक्षणमिदमन्येषामपि वर्णानां वर्णान्तरापादनमिह रब्जेरर्थः।
तृतीयान्तामिति टइत्यकेदेशेन समुदायोपलक्षणत्वात्तृतीया लभ्यते ।
द्रव्यवृत्तय इति द्रव्येषु कुसुम्भादिषु वृत्तिर्येषां द्रव्याश्रयी गुण इति कृत्वा । न तु रागाख्या इति-रज्यते अनेनेति रागशब्दव्युत्पत्तेरघटनात् । लाक्षारोचनादिकण् ॥ ६. २. २॥
लाक्षारोचना इत्येताभ्यां तृतीयान्ताभ्यां रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे इकण् प्रत्ययो भवति अणोऽपवादः । लाक्षया रकं लाक्षिकम्, रोचनया रक्तम् रोचनिकम् ।।२।। शकलकर्दमादा ॥६. २. ३ ॥
शकल कर्दम इत्येताभ्यां तृतीयान्ताभ्यां रागविशेषवाचिभ्यां रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे इकण् प्रत्ययो वा भवति । शकलेन रक्तम् शाकलिकम्, शाकलम्, कादमिकम् कार्दमम् ॥३॥
न्या. स. शकल-शकलं रक्तचन्दनं कधूरवर्णो वा, कर्दमस्तु मृद्विकारविशेषः स पाण्ड्यमण्डले प्रसिद्ध इति विश्रान्तः ।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः
[ ६३
| पाद. २. सू. ४-५-६ ]
नीलपीतादकम् ॥ ६. २. ४ ॥
नीलपीतशब्दाभ्यां रागविशेषवाचिभ्यां तृतीयान्ताभ्यां रक्तमित्येतस्मिन्नर्थे यथासंख्यम् अ क इत्येतौ प्रत्ययो भवतः । नीलेन लिङ्गविशिष्ट ग्रहणान्नील्या वा रक्त नीलम्, पीतेन रक्तं पीतकम्, केचित्तु पीतकशब्दादप्य प्रत्ययमिच्छन्ति, पीतकेन कुसुम्भप्रथम निर्यासेन रक्त पीतकम्, गुणवचनत्वात्केनैव सिद्धे अणपवादार्थं वचनम् ॥४॥
न्या० स० नील- केचित्विति ते हि नीलपीतकादः पीतात्क इति द्वे सूत्रे विरचयन्ति । अणपवादार्थमिति अयमर्थः, इदं सूत्रं विनाऽपि नीलपीत गुणयोगान्नीलं पीतं च पीतात् सु स्वार्थिकेन कुत्सितार्थेन वा कपा पीतकमिति व सेत्स्यतीत्याशका |
उदितगुरोर्भादे ॥ ६.२.५ ॥
उदितो गुरु बृहस्पतिर्यस्मिन् भे नक्षत्रे तद्वाचिनस्तृतीयान्तात् युक्त यथाविहितं प्रत्ययो भवति स चेद्युक्तोऽर्थोऽब्दः संवत्सरः स्यात् । पुष्पेणोदितगुरुणा युक्तं वर्ष पौषं वर्षम्, फल्गुनी मिरुदित गुरुभिर्युक्तः फाल्गुन: संवत्सरः । उदितगुरोरिति किम् ? उदितशनैश्वरेण पुष्येण युक्त वर्षमित्यत्र न भवति । भादिति किम् ? उदितगुरुणा पूर्वरात्रेण युक्त वर्षम् । अब्द इति किम् ? मासे दिवसे वा न भवति |५|
चन्द्रयुक्तात्काले लुस्वप्रयुक्ते च ॥ ६. २. ६ ॥
चन्द्रेण युक्तं यन्नक्षत्रं तद्वाचिनस्तृतीयान्ताद्युक्तेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति स चेद्युक्तोऽर्थः कालो भवति अप्रयुक्ते तु कालवाचके शब्दे लुब् भवति, पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्तमहः पौषमहः, एवं पौषी रात्रिः, पौषोऽहोरात्रः, पौषः कालः, माघमहः, माघी रात्रिः, माघोऽहोरात्रः, माघः कालः । चन्द्रयुक्तादिति किम् ? शुक्रयुक्तेन पुष्येण युक्तः कालः भादित्येव ? चन्द्रयुक्तेन शुक्रेण युक्तः कालः । काल इति किम् ? चन्द्रयुक्तेन पुष्येण युक्तो ग्रहः, लुप् स्वप्रयुक्ते, अद्य पुष्यः । अद्य मधाः । दिवा कृत्तिकाः, रात्रौ फल्गुन्यः । पुष्ये पायसमश्नीयात् मघासु पललौदनम् । अप्रयुक्त इति किम् । पोषमहः, पौषी रात्रिः, पौषोऽहोरात्रः, पौषः कालः | ६|
न्या० स० चन्द्रयुक्तात् काले - अहोरात्र इति एकाद् रात्रः समाहारः इति पुंक्लीवत्वं कथं दीर्घण्यहोरात्राणीति समाहाराभावे निकाय्यरात्रवृत्रा इति पुंस्त्वमेव प्राप्तम् ? सत्यं, अहोरात्रं च ३ इत्येकशेषे ।
अद्य पुष्य इति अत्र अद्येत्यस्याधारत्वमेव न सामानाधिकरण्यम् ।
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६४]
वृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू. ७-८-९] फल्गुन्य इति 'फल्गुनीप्रोष्ठ' २-२-१२३ इति बहुवावः। पुष्ये पायसमिति पयसि संस्कृतं 'संस्कृते भक्ष्ये' ६-२-१४० अण् , पयसा संस्कृतमिति तु कृते 'संस्कृते' ६-४-३ इत्यनेनेकण् स्यात् । दन्दादीय ॥ ६. २. ७॥
चन्द्रयुक्त यन्नक्षत्रं तद्वन्द्वात्तृतीयान्तायुक्ते कालेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति । राधानुराधाभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्तमहः राधानुराधीयमहः, अद्यराधानुराधीयम् । एवं तिष्यपुनर्वसवीया रात्रिः, अद्य तिष्यपुनर्वसवीयम् ॥७॥
__ न्या० स० द्वंद्वा-राधानुराधीयमिति राधाभिः चन्द्रयुक्ताभिर्युक्तः कालः 'चन्द्रयुक्त' ६-२-६ इत्यण् , अप्रयुक्ते लुप् , ततो गधाश्च अनुराधाश्च राधानुराधाः ताभिः, एवं सर्वत्र । श्रवणाश्वत्थान्नाम्न्यः ॥ ६. २.८ ॥
चन्द्रयुक्तनक्षत्रवाचिनः श्रवणशब्दादश्वत्थशब्दाच्च तृतीयान्तायुक्ते काले अकारः प्रत्ययो भवति नाम्नि प्रत्ययान्तं चेत् कस्यचित्कालविशेषस्य नाम भवति, श्रवणेन चन्द्रयक्तेन युक्ता श्रवणा रात्रिः । श्रवणा पौर्णमासी, श्रवणो मुहूर्तः, अश्वत्थेन चन्द्रयुक्तेन युक्ता अश्वत्था रात्रिः, अश्वत्था पौर्णमासी, अश्वत्थो मुहूर्तः, सत्यपि अन्वर्थयोगे न कालमात्रमेव उच्यते अपि तु कालविशेष एवेति नामत्वम् । नाम्नीति किम् ? श्रावणमहः, श्रावणो रात्रिः, आश्वत्थमहः, आश्वत्थो रात्रिः ॥८॥
न्या० स० श्रव-पौर्णमासीति माति मिमीते वा असित्यस् , पूर्णोमासश्चन्द्रोऽस्यामस्ति पूर्णमासोऽण् , पूर्णमास इयमिति वा, 'तस्येदम्। ६-३-१६० इत्यण, पूर्णो मासोऽस्यां पूर्णमासा वा युक्ता 'सास्य पौर्णमासी'६-२-९८ इत्यणि निपातो वा । षष्टयाः समूहे ॥ ६, २. ९ ॥
षष्ठ्यान्तान्नाम्न: समूहेऽर्थे यथाविहितं प्रत्यया भवन्ति । गौत्रादकञ् वक्ष्यते अचित्तादिकण प्रतिपदं केदाराण्ण्यश्चेत्येवमादयः, ततोऽन्यदिहोदारणं द्रष्टव्यम् । चाषाणां समूहश्चाषम्, एवं काकं, वाकम्, शौकं, भैक्षुकम्, वाडवम्, वनस्पतीनां समूहो वानस्पत्यम्, बैणम्, पौंस्नम्, पञ्चानां कुमाराणां समूहः पञ्चकुमारीत्यत्र तु समूहः समाहार एव, स च समासार्थः समासेनैव च गत इति तद्धितो नोत्पद्यते । यद्युत्पधेत को दोषः स्यात् उत्पन्नस्यापि ह्यस्य 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेल बद्विः' (६-१-२४) इति लुपा भवितव्यम् तथा चाविशेषः ? नवम्, ‘ड्यादेगौणस्य'-(२-४-९४) इत्यादिना डीनिवृत्तिः स्यात्, ‘तस्येदम्' (६-३-१५९) इत्येवाणादिसिद्धौ समूहविवक्षायां तदपवादबाधनार्थो योगः ॥९॥ .
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पाद. २ सू. १०-१२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्राशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [६५
न्या० स० षष्ठ्याः-प्रतिपदं केदाराण्ण्यश्च इति उक्षकवचिप्रभृतयः प्रतिपदोक्तत्वात् केदाराणण्यश्चेत्यादिषु द्रष्टव्या इति 'गोत्रादकञ्' इत्यत्र न उक्ताः । समूह: समाहार एवेति द्वयोरप्येकार्थत्वात् समूह एव समाहार इत्यर्थः । डीनिवृत्ति स्यादिति तद्धितलुकि सत्यामिति शेषः । तदपवादबाधनार्थ इति ईयादीनामित्यर्थः । भिक्षादेः ॥ ६. २. १० ॥
भिक्षादिभ्यः षष्ठयन्तेभ्यः समूहेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । भिक्षाणां समूहो भैक्षम्, गाभिणम्, यौवतम्, अचित्तेकणो बाधनाथं वचनम् । औलूक्यशब्दस्य गोत्राको बाधनार्थः पाठः, युवतेरण सिद्ध एव, पुवद्भावबाधनार्थस्तु पाठः, अन्ये तु युवतिशब्दं न पठन्ति, तन्मते पुंवद्भावे सति युवतीनां समूहो यौवनमित्येव भवति ।
सुरूपमतिनेपथ्यं कलाकुशलयौवनम् ।। यस्य पुण्यकृतः प्रैष्यं सफलं तस्य यौवनम् ॥ १॥ भिक्षा भिक्षशब्दोऽकारान्तोऽपीत्येके, गर्भिणी, युवति, क्षेत्र, करीष, अङ्गार, धर्मन्, वर्मन् चर्मिन्, वर्मिन्, पद्धति, सहस्र, अथर्वन्, दक्षिणा, खण्डिक, युग, वरत्रा, युगवरत्रा, हल, बन्ध, हलबन्ध, औलूक्य इति भिक्षादिः ।१०।
न्या. स. भिक्षा गाभिणमिति-अत्र गर्भिणीशब्दो मेघमालाशालिपङ्क्यादिवाचकत्वादचित्तविशेषवचन इतीकण्प्राप्तौ तद्बाधकोऽनेनाण् , ततो 'जातिश्च णि' ३-२-५१ इति पुंवद्भावे ‘संयोगादिनः' ७-४-५३ इत्यन्तलोपप्रतिषेधः, गर्भवतीस्त्रवचनात्तु इकणोऽप्राप्तेरौत्सर्गिक एवाण् । क्षुद्रकमालवात्सेनानानि ॥६. २. ११ ॥
क्षुद्रकमालवशब्दात् षष्ठयन्तात्समूहेऽर्थे यथाविहितमण् प्रत्ययो भवति सेनाया नाम्नि संज्ञायाम्, क्षुद्रकाश्च मालवाश्च क्षुद्रकमालवास्तेषां समूहः क्षौद्रकमालवी एवंनामा काचित्सेना । सेनानाम्नीति किम् ? क्षौद्रकमालवकमन्यत्, गोत्राकबाधनार्थं वचनम्, समूहाधिकारे हि तदन्तस्यापि ग्रहणम् । 'धेनोरनञः' (६-१-१५) इति प्रतिषेधात् ।११।।
न्या० स० क्षुद्र-तदन्तस्यापीति अन्यथा 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७-४-११५ इति न्यायात् समुदायस्यागोत्रत्वात् क्षौद्रकमालवकमिति न सिध्येत् ।
गोत्रोक्षवत्सोष्ट्रवृद्धाजोरभ्रमनुष्यराजराजन्यराजपुत्रादकञ् ॥६. २. १२ ॥
स्वापत्यमंतानस्य स्वव्यपदेशकारिणः प्रथमपुरुषस्यापत्यं गोत्रम् । गोत्रप्रत्ययान्तेभ्य उक्षादिभ्यश्च समूहेऽकञ् प्रत्ययो भवति । अणोऽपवादः, गोत्र,
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बृहदुवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २. सू. १३-१७ ] औपगवानां समूह औपगवकम् , कापटवकम् , गार्गकम् , वात्सकम् , गाायणकम् , वात्स्यायनकम्, उक्षन् औक्षकम्, वत्स वात्सकम्, उष्ट्र औष्ट्रकम, वृद्ध वार्धकम्, अज आजकम्, उरभ्र औरभ्रकम्, मनुष्य मानुष्यकम्, राजन् राजकम्, राजन्य राजन्यकम्, राजपुत्र राजपुत्रकम् ।१२।
न्या० स० गोत्र०-मनुष्यगजन्यशब्दौ औणादिको इति पृथगुपादानम् , अण्प्रत्ययान्तयोस्तु गोत्रद्वारेण सिद्धम् । केदारापण्यश्च ॥ ६. २. १३ ॥
केदारशब्दासमहेऽर्थे ण्योऽकञ् च प्रत्ययौ भवतः, अचित्तेकणोऽपवादः । कैदार्यम्, केदारकम् ।१३। कवचिहस्त्यचित्ताचेकण् ॥ ६. २. १४ ॥
कवचिन् हस्तिन् इत्येताभ्यामचित्तवाचिभ्यः केदाराच्च समूहे इकण् प्रत्ययो भवति । कवचान्येषां सन्तीति कवचिनः, तेषां समूहः कायचिकम्, हस्तिनां लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणात् हस्तिनीनां वा समूहः हास्तिकम्, अचिचात्, आपूपिकम्, शाकुलिकम्, केदारात् कैदारिकम्, एवं केदारस्य त्रैरूप्यं भवति । ण्याकउभ्यां बाधा माभूदिति केदारात् इकविधानम् ।१४। ___ न्या० स० कव०-इकविधानमिति अन्यथा अचित्तद्वारा सिध्यतीत्याशझ्याह । धेनोरनञः ॥६. २. १५॥
धेनुशब्दात्समूहे इकण् प्रत्ययो भवति न चेत् स धेनुशब्दो नञः परो भवति । धेनुनां समूहो धेनुकम् अनञ इति किम् ? अधेनूनां समूह आधैनवम्, उत्सादित्वादन । 'धेनोरनत्रः' (६-१-१५) इति प्रतिषेधो लिङ्गम् समूहे तदन्तस्यापि भवतीति, तेन क्षौद्रकमालवकम् ब्राह्मणराजन्यकम् वानरहस्तिकम् गौधेनुकम् ।१५।
न्या० स० धेनो०-आधैनवमिति 'बष्कयादसमासे' ६-१-२० इत्यत्रासमासवचनादुत्साद्य तदन्तादपि, अनुशतिकादीनामुभयपदवृद्धिः ।
ब्राह्मणराजन्यकमिति 'न राजन्यमनुष्ययोः' ६-२-३३ इति यलोपाभावः । ब्राह्मणमाणववाडवाद्यः ॥ ६. २. १६ ।।
ब्राह्मणमाणववाडव इत्येतेभ्यः समूहे यः प्रत्ययो भवति । ब्राह्मण्यम, माणव्यम्, वाडव्यम् ।१६। गणिकाया ण्यः ॥ ६. २. १७॥ गणिकाशब्दात्समूहे ण्यः प्रत्ययो भवति। गाणिक्यम्, ब्राह्मणादीनां यविधानं
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[पाद २. सू. १८-२३] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठाध्यायः [६७ पुवद्भावार्थम् । ब्राह्मणाः प्रकृता अस्यां यात्रायां 'तयोः समूहवच्च बहुषु' (७-३-३) इति यः प्रत्ययः। ब्राह्मण्या यात्रा यस्य स ब्राह्मण्ययात्रः,माणव्ययात्रः, वाडव्ययात्रः । ण्ये हि पुंवद्भवो न स्यात् यथा गाणिक्यायात्रः ।१७।
न्या० स० गणि०-पुंवद्भावो न स्यादिति 'तद्धितः स्वरवृद्धि' ३-२-५५ इति निषेधात् । केशादा ॥ ६. २.१८॥
केशशब्दात् समूहे ण्यः प्रत्ययो वा भवति । केशानां समूहः कैश्यं कैशिकम्, अचित्तलक्षण इकण् ।१८। वाश्वादीयः ॥ ६. २. १९ ॥
अश्वशब्दात्समूहे ईयः प्रत्ययो वा भवति । अश्वोयम्, आश्वम् ।१९। . पर्धा डवण ॥ ६. २. २०॥
. पशू शब्दात्समहे डवण् प्रत्ययो भवति, इकणोऽपवादः । पशूनां समूहः पार्श्वम् । डित्करणमन्त्यस्वरादिलोपार्थम् ।२०।
न्या० स० पश्र्वा इवण्-पाश्र्वास्थिवाचिनः पर्श शब्दादूछ । ईनोऽह्नः क्रतौ ॥ ६. २. २१ ॥ - अहन्शब्दात्समूहे ऋतौ वाच्ये ईनः प्रत्ययो भवति । अह्नां समूहोऽहीनः ऋतुः । ऋताविति किम् ? आमन्यत्, श्वादिपाठादञ् ॥२१॥ पृष्ठाद्यः ।। ६. २. २२ ॥
पृष्ठशब्दात्समूहे ऋतौ वाच्ये यः प्रत्ययो भवति । पृष्ठानां समूहः पृष्ठयः क्रतुः, पृष्ठशब्दोऽहःपर्यायः । रथन्तरादिसामपर्याय इत्यन्ये । क्रतावित्येव? पाष्ठिकम् ।२२। चरणाद्धर्मवत् ॥ ६. २. २३ ॥
चरणं कठकालापादि तस्माद्यथा धर्म प्रत्यया भवन्ति तथा समूहेऽपि । वत्सर्वसादश्यार्थः, तेन यकाभ्यः प्रकृतिभ्यो यः प्रत्ययो यथा धर्मे भवति ताभ्य एव प्रकृतिभ्यः सः एव प्रत्ययस्तथैवेह भवति । यथा कठानां धर्मः काठकम् कालापकम् छान्दोग्यम् औक्थिक्यम् बाढच्यम् आथर्वणम् तथा समूहेऽपि काठकमित्यादि ।२३। ___ न्या० स० चर०-परार्थे प्रयुज्यमानाः शब्दा वतिमन्तरेणापि वत्यर्थे गमयन्तीत्याहवत्सर्वसादृश्यार्थ इति । औक्थिक्यमिति उक्थमधीते केचिदूक्थिक्यस्यापीति अक्थिक्यं वाधीते 'याज्ञिकौक्थिक' ६-२-१२२ इति इकणन्तो निपातः ।
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६८ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पाद. २ सू० २४-२८ ]
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बाहूच्यमिति बहुव्य ऋचो यस्य, 'नत्रहोऋचो माणवचरणे ७-३ - १३५ (इति) अप् समासान्तः, नापुप्रियादौ ३-२-५३ इति पुंवद्भावनिषेधः कथं न भवति ? सत्यं, प्रियादिसाहचर्यादप्प्रत्ययान्तमपि स्वरान्तं गृह्यते, अत्र तु व्यञ्जनान्तादप् प्रियादयो हि स्वरान्ताः तेषां धर्मः ।
आथर्वणमिति अथर्वाणं वेत्त्यधोते वा न्यायादेरिकण् 'इकण्यथर्वणः ' ७-४-४९ इत्यन्त्यस्वरादिलुगभावः ।
गोरथवातालकटचलूलम् ।। ६. २. २४ ॥
गोरथवात इत्येतेभ्यः समूहे यथासंख्यं त्रल् कटघल् ऊल इत्येते प्रत्यया भवन्ति । गवां समूहो गोत्रा, रथानां रथकट्या, लकारौ स्त्रीत्वार्थी । वातानां वातूलः ।२४।
पाशादेश्व ल्यः ॥ ६. २. २५ ।।
पाशादिभ्यो गोरथवातशब्देभ्यश्च समूहे ल्यः प्रत्ययो भवति, इकणादेरपवादः । पाशानां समूहः पाश्या, तृण्या, खल्या, गव्या रथ्या, वात्या | पाश, तृण, खल, धूम, अङ्गार, पोटगल, पिटक, पिटाक, शकट, हल, नल, वन इति पाशादिः । भिक्षादिपाठादङ्गारहाभ्यामपि । आङ्गारम्, हालम् । लकारः स्त्रीत्वार्थः । २५|
वादिभ्यो ऽ ।। ६. २. २६ ।।
श्वन्प्रकारेभ्यः समूहेऽञ् प्रत्ययो भवति । शुनां समूहः शौवम्, अह्नामाह्नम्, दण्डिनां दाण्डम्, चक्रिणां चाक्रम् | अणैव सिद्धे 'नोऽपदस्य तद्धिते ' ( ७-४-६१ ) इति अन्त्यस्वरादिलोपार्थमञ्वचनम् अणपवादबाधनार्थं च, श्वादयः प्रयोगगम्याः | २६ |
न्या० स० श्वादि० अन्त्यस्वरादिलोपार्थमिति अन्यथाऽणीत्यादिभिः सूत्रैरन्त्यस्वरादिलोपनिषेधः स्यात् । अणपवादबाधनार्थं चेति सूत्राभावे अहन् शब्दात् क्रतोरन्यत्र समूहे ऽचित्तत्वादणोपवाद इॠण् स्यात् ।
खलादिभ्यो लिन् ॥ ६. २. २७ ॥
खलप्रकारेभ्यः समूहे लिन् प्रत्ययो भवति, लकारः स्त्रीत्वार्थः । खलानां समूहः खलिनी । पाशादित्वाल्ल घोऽपि । खल्या, ऊकानाम् ऊकिनी, कुटुम्बानां कुटुम्बिनी । खलादयः प्रयोगगम्याः | २७|
ग्रामजनबन्धुराजसहायात्तल् ॥ ६. २. २८ ॥
एभ्यः समूहे तल् भवति । ग्रामाणां समूहः ग्रामता, जनता, बन्धुता, गजता, सहायता । लकारः स्त्रीत्वार्थः | २८
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[ पाद. २ सू. २९-३१ ] श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोध्यायः
पुरुषात्कृत हितवधविका रे चैयञ् ।। ६. २. २९ ॥
पुरुषशब्दात्कृते हिते वधे विकारे चकारात्समूहे च एयञ् प्रत्ययो भवति । कृतादौ यथाभिधानं विभक्तियोगः । पुरुषेण कृतः षौरुषेयो ग्रन्थः, पुरुषाय हितं पौरुषेयमार्हतं शासनम्, पुरुषस्य वधः षौरुषेयो वधः पुरुषस्य विकारः पौरुषेयो विकारः पुरुषाणां समूहः पौरुषेयम् । २९ ।
[ ६९
विकारे ॥ ६.२.३० ॥
षष्ठ्यन्ताद्विकारे यथाविहितं प्रत्यया भवति । द्रव्यस्यावस्थान्तरं विकारः । अश्मनो विकारः आश्मनः, आश्मः, 'वाश्मनो विकारे ' ( ७-४-६३ ) इत्यन्त्यस्वरादिलोपः, भस्मनो भास्मनः, मृत्तिकायाः मार्त्तिकः, अर्धस्य आर्धः, हलस्य हाल:, सीरस्य सैरः, चेदीनां चैदः, वृजीनां वार्जः । त्रिगर्तानां त्रैगर्तः । रङ्गूणां राङ्कवः । ‘तस्येदम्' ( ६-३ - १५९) इत्येवाणादिसिद्धावर्धादिषु विकारे अणपवादवाधनार्थं वचनम् |३०|
न्या० स० विकारे – प्रत्यया भवन्तीति बहुवचनात् कलेर्विकारः ' कल्यग्नेरेयण' ६-१-१७ उत्सस्य विकारः ' उत्सादे' ६-१-१९ स्त्रीणां पुंसां वा विकारः ' प्राग्वतः स्त्री पुंसा ' ६-१-२५ कालेयः । औत्सः स्त्रैणः पौंस्नः इत्याद्यपि ज्ञेयम् । अणपवादबाधनार्थं मिति - अयमर्थो मार्त्तिक इत्यादीनि सिध्यन्ति, आर्द्ध इत्यादिषु तु अर्धशब्दात् : अर्घादयः ' ६-३-३९ इलसीराभ्यां 'इलसीरादीकण् ७-१-६ चेदिवृजिभ्यां राष्ट्रवाचित्वात् ' बहुविषयेभ्यः " ६- ३-४५ इत्यकनि प्राप्ते तदपवादौ चेदिशब्दस्य काशादिपाठाणिके कर्णो वृजेस्तु वृजिमद्रात् ६-३-३८ इति कः त्रिगर्त्तात् ' बहुविषयेभ्यः' ६-३-४५ इत्यकञ् रङ्कोस्तु वर्णादिकगोपवादो 'रङ्कोः प्राणिनि वा ' ६-३-१५ इति टायनणित्येते प्रत्ययाः प्राप्नुवन्ति, माभूवन्नित्येवमर्थम् ।
6
प्राण्योषधिवृक्षेभ्यो ऽवयवे च ॥ ६. २. ३९ ॥
प्राणिन् - औषधिवृक्षवाचिभ्यः षष्ठ्यन्तेभ्योऽवयवे विकारे च यथाविहितं प्रत्यया भवन्ति । प्राणिभ्यः कापोतं सक्थि, कापोतं मांसम्, मायूरं सक्थि, मायूरं मांसम्, आविकं सक्थि, आविकं मांसम् अविशब्दादन भिधानान्न भवति । औषधिभ्यः, दौवं काण्डं दौर्वं भस्म, मौर्व काण्डं मौर्यं भस्म, वृक्षेभ्यः, — कारीरं काण्डं कारीरं भस्म, वैल्वं काण्डं वैल्वं भस्म, प्राण्यौषधिवृक्षेभ्य इति किम् ? पाटलिपुत्रस्यावयवः पाटलिपुत्रकः प्राकारः । ' तस्येदम् ( ६-३ - १५९) इति विवक्षायामकञ्, एवं पाटलिपुत्रकः प्रासादः इतः परं विकारे प्राण्यौषधिवृक्षेभ्योऽवयवे चेति द्वयमप्यधिक्रियते, तेनोत्तरे प्रत्ययाः
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७० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंघलिते [पाद. २ सू० ३२-३७ । प्राण्यौषधिवृक्षेभ्योऽवयव विकारयोरन्येभ्यस्तु विकारमात्रे भवन्तीति वेदितव्यम् । प्राणिनश्चेतनावन्तः, औषधयः फलपाकान्ताः, वृक्षाः, पुष्पवन्तः फलवन्तश्च, वृक्षविशेषत्वात् वनस्पतिवीरुधामपि वृक्षग्रहणेन ग्रहणम् । प्राणिग्रहणेनैव चेतनावत्त्वेन वृक्षौषधिग्रहणे सिद्धे तदुपादान मिह शास्त्रे प्राणिग्रहणेन त्रसा एव गृह्यन्ते न स्थावरा इति ज्ञापनार्थम् ।३१॥
न्या० स० प्रार्यो०-वृक्षविशेषत्वादिति एकदेशेन फलवत्तया ऐक्यं न तु पुष्पवत्तया । तालाद्धनुषि ॥ ६. २. ३२ ॥
तालशब्दाद्धनुषि विकारे यथाविहितमण् प्रत्ययो भवति, दुलक्षणस्य मयटोऽपवादः । तालस्य विकारस्तालं धनुः । धनुषोति किम् ? तालमयं काण्डम् ।३२।
न्या० स० ताला - तालस्य विकार इति तालस्य तालवृक्षकाष्ठस्य विकारः यतो धनुरोः संभवति न वृक्षात्, यदा तु तालशब्दो वृक्ष इति व्याख्यायते, तदावयवार्थोऽपि घटते, पारंपर्येण धनुरवयवो भवति वृश्नस्यापि । त्रपुजतोः पोऽन्तश्च ॥ ६. २. ३३ ॥
पुजतु इत्येताभ्यां विकारे यथाविहितमण प्रत्ययो भवति तयोश्च षोऽन्तो भवति । पुणो विकारः त्रापुषम्, जतुनो विकारः जातुषम्, अण् सिद्ध एव षागमार्थं वचनम् । चकारः संनियोगार्थः ।३३।
शम्या लः ॥ ६. २. ३४ ॥
शमीशब्दाद्विकारेऽवयवे च यथाविहितमण् प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे चास्य लोऽन्तः । शम्या विकारोऽवयवो वा शामीलं भस्म, शामीली शाखा ।३४। पयोदोर्यः ॥ ६. २. ३५॥
पयम् द्रु इत्येताभ्यां विकारे यः प्रत्ययो भवति, पयसोऽणोऽपवादः । द्रोरेकस्वरमयटः, पयसो विकारः पयस्यम्, द्रोर्दारुणो विकारो द्रव्यम् ।३५। उष्टादकञ् ॥ ६. २.३६ ॥
उष्ट्रशब्दाद्विकारेऽवयवे चाकञ् प्रत्ययो भवति । उष्ट्रस्य उष्ट्रया वा विकारोऽवयवो वा औष्ट्रकं मासम्, औष्ट्रिका जङ्घा ।३६। उमोर्णादा ॥ ६. २.३७॥
उमा ऊर्णा इत्येताभ्यां यथासंभवं विकारेऽत्रयेव च वा अकञ् प्रत्ययो
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[पाद. २. सु. ३८-४१) श्रीसिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [७१ भवति । उमा अतसी तस्या विकारोऽवयवो वा औमकम्, औमम्, ऊर्णाया विकारः और्णकम्, और्णः कम्बलः ।३७।
न्या० स० उमो०-ऊर्णाया विकार इत्ति 'ऊर्वतीति णे' राल्लुक ४-१-११० इति वलोपे, 'भ्वादेः' २-१-६३ इति बाहुलकाद्दीर्घः अन्यथा मोर्मेतिवत् गुणः स्यात् । एण्या एयञ् ॥ ६. २. ३८॥
एणोशब्दाद्विकारेऽवयवे च एयञ् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । एण्या विकारोऽवयवो वा ऐणेयं मासम्, ऐणेयी जङ्घा, स्त्रीलिङ्गनिर्देशात्पुलिङ्गादणेव । ऐणं मांसम, ऐणी जङ्घा ।३८॥ कौशेयम् ॥ ६. २. ३९ ॥
कोशशब्दाद्विकारे एयञ् प्रत्ययो निपात्यते । कोशस्य विकारः कौशेयम् वखं सूत्रं वा। निपातनं रूढयर्थम्, तेन वस्त्रसूत्राभ्यामन्यत्र भस्मादी न भवति ।३९।
परशव्याद्यलुक् च ॥ ६. २. ४०॥ . परशवे इदं परशव्यम्, तस्माद्विकारे यथाविहितमण प्रत्ययो भवति यकारस्य च लुक् । परशव्यस्यायसो विकारः पारशवम्, अण् सिद्ध एव यलुगर्थं वचनम् । अथेह यग्रहणं किमर्थम् तदभावेऽप्यवर्णेवर्णस्य [७-४-६८ ] इत्यन्तलुसिद्धौ लुग्ग्रहणात् अन्त्याभावेऽन्त्य सदेशस्यापि यकारस्य लुग् भविष्यति ? सत्यम्, यग्रहणं यशब्दस्य समुदायस्यैव लोपार्थम्, तेनोत्तरसूत्रे 'स्वरस्य परे प्राविधौ' (७-४-११०) इत्यस्यानुपस्थानाद्यकारलोपे 'अवर्णेवर्णस्य' (७-४-६८) इतीकारलोपो भवति ।४०॥
न्या० स० परशव्यात्-सदेशस्यापीति समीपस्यापीत्यर्थः । अन्त्याभावे इति न वाच्यं 'स्वरस्य' ७-४-११० इत्यकारस्य स्थानित्वं यविधित्वान्न संधीत्यस्यावस्थानात , यद्वाऽस्य लुक्ग्रहणरय नैरर्थक्यात् । ।
_ तेनोत्तरेति अयमर्थोऽत्र परशव्याल्लुक चेत्येवमपि कृते सिध्यति, उत्तरत्र तु कंप्सीय शब्दात ज्ये सत्यस्य लोपे कृते 'स्वरस्य परे' ७-४-११० इत्यादिवशात् ईलोपो न स्यात् ।
हैमो निष्क इति हेम्नो विकारः, 'हेमादिभ्योऽ' ६-२-४५, 'नोपदस्य' ७-४-६१ इत्यन्लुप् । यद्यनेनाणु स्यात्तदाणीत्यन्त्यस्वरादिलुगभावः स्यात्, अकारान्तात्तु अनेनैवाण हैमः। कंसीयाञ् ज्यः ॥ ६. २. ४१॥
कंसाय इदं कंसीयं परिणामिनि तदर्थे' (७-१-४४) इतीयः, कंसीयशब्दाद्विकारे ज्यः प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे यशब्दस्य लुक च । कांसीयस्य विकारः कांस्यम् ।४१।
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७२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू. ४२-४५ ] हेमार्थान्माने ॥ ६. २. ४२ ॥ ।
हेमवाचिनः शब्दान्माने विकारे वाच्ये यथाविहितमण् प्रत्ययो भवति, दुमयटोऽपवादः । हाटकस्य विकारः हाटको निष्कः, हाटकं कार्षापणम्, जातरूपो निष्कः, जातरूप कार्षापणम् । हैमो निष्क: हैमं कार्षापणमित्यत्र परत्वाद्धेमादिलक्षणोऽव । अर्थग्रहणं स्वरूपविधिव्युदासार्थम् । मान इति किम् ? हाटकमयी यष्टि: ।४२। द्रोर्वयः ॥ ६. २. ४३ ॥
शब्दान्माने विकारे वयः प्रत्ययो भवति, यस्यापवादः । द्रोविकारो द्रुवयं मानम् ।४३।
न्या. स. द्रोर्वयः यस्यापवाद इति 'पयोद्रोर्यः' ६-२-३५ इति प्राप्तस्य, मानादन्यत्र सोऽपि चरितार्थ इति । मानात्कोतवत् ।। ६. २. ४४ ॥
मीयते परिच्छिद्यते येन तन्मानम् इयत्तापरिच्छित्तिहेतुः संख्यादिरुच्यते । मानवाचिन: शब्दाद्विकारे क्रीतवत्प्रत्यय विधिर्भवति । शतेन क्रीतं शत्यं शतिकम, शतस्य विकारः शत्यः शतिकः, एवं साहस्रः नैष्किकः। वत्सर्व- . विधिसादश्यार्थः, तेन लुबादिकस्याप्यतिदेशो भवति । द्विशतः, त्रिशतः, द्विसहस्रः, द्विसाहस्रः, द्विनिष्कः, द्विनैष्किकः ।४४।
न्या० स० माना-द्विशत इति द्वाभ्यां शताभ्यां क्रीतः 'शताद्यः' ६-४-१४५ इति विकल्पेन यः प्राप्तः परं तस्य विधानसामर्थ्याल्लुप् न स्यादिति, 'संख्याडतेः' ६-४-१३० । ( इति ) कः, 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' ६-४-१४१ एवं त्रिशतः द्विसहस्र इति । क्रीते 'सहस्रशत' ६-४-१३६ इत्यण 'नवाणः' ६-४-१४२ इति विकल्पेन लुप्, लुबभावे 'मानसंवत्सर' ७-४-१९ इत्युक्तरपदवृद्धिः । द्विनिष्क इति 'द्वित्रिबहोः' ६-४-१४४ इति वा इकणो लुप् । हेमादिभ्योऽञ् ॥ ६. २. ४५ ॥
हेमन इत्येवमादिभ्यो यथायोगं विकारेऽवयवे चार्थे नित्यमञ् प्रत्ययो भवति । हेम्नो विकारो हैमें शरासनम्, हैमो यष्टिः, रजतस्य राजतः, हेमन्, रजत, उदुम्बर, नीवुदार, रोहीतक, बिभीतक, कण्डकार, गवीधुका, पाटली, श्यामाक, बाहिण इति हेमादयः । बहुवचनम् आकृतिगणार्थम् । हेनोऽणबाधनार्थमञ्वचनम् । अणि हि सति 'अणि' (७-४-५२) इत्यन्त्यस्वरादेलुग् न स्यात्, पाटलीश्यामाकबाहिणानां दुलक्षणस्य शेषाणां तु वैकल्पिकस्य मयटो बाधनार्थम् ।४५।
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[ पाद. २. सू. ४६-४८ ]
श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्टोऽध्यायः
[ ७३
न्या० स० हेमा० - ननु रजतादीनामभि अणि वा नास्ति विशेषः ततस्तेषामौत्सर्गिको व भविष्यति किमत्र पाठेन ? सत्यं, अभक्ष्याच्छादनविवक्षायां 'अभक्ष्याच्छादने ' ६-२-४६ इति वा मयट् स्यात्तद्विकल्पेऽण् स्यात्, गणपाठे तु गणपाठसामर्थ्यादञेव भवति न मयद, अत एवाह
नित्यमन्प्रत्ययो भवतीति—भाकृतिगणार्थमिति वाचिकवार्तिकेन हेमादौ काञ्चनमिति निरटङ्किः तेन कानी वासयष्टिरिति सिद्धं, अन्यथाऽणपवादो 'दोरप्राणिनः ६-२-४९ इति मयट् स्यात् ।
अभक्ष्याच्छादने वा मयट् ॥ ६. २. ४६ ॥
"
षष्ठ्यन्ताद्भक्ष्याच्छादनवर्जिते यथायोगं विकारेऽवयवे च मयट् प्रत्ययो वा भवति । भस्मनो विकारः भस्ममयं भास्मनम्, अश्मनो विकारः अश्ममयम् आश्मम्, कपोतस्य विकारोऽवयवो वा कपोतमयम् कापोतम्, दूर्वाया विकारोऽवयवो वा दूर्वामयम् दौर्वम्, मूर्वामयम् मौर्वम् करीरमयं कारीरम्, शिरीषमयम् शैरीषम् अभक्ष्याच्छादन इति किम् ? मौङ्गः सूपः कार्पास: भक्ष्याच्छादनयोर्मयडभावपक्षे च ' तालाद्धनुषि' [ ६-२-३२] इत्यादिको विधि: सावकाशः, अयं च भस्ममयमित्यादौ । तत्रोभयप्राप्तौ परत्वादनेन मयट् भवति । तालमयं धनुः, त्रपुमयम्, जतुमयम्, शमीमयम्, पयोमयम्, द्रुमयम्, उष्ट्रमयम्, उमामयम् ऊर्णामयम्, एणीमयम्, कोशमयम्, परशव्यमयम्, कंसीयमयम्, शतमयम् । एके तु तालाद्धनुषि द्रोः प्राणिवा - चिभ्यश्च मयटं नेच्छन्ति ॥ ४६ ॥
पटः I
शरदर्भकूदी तृणसोमबल्वजात् ॥ ६.२.४७ ॥
शरादिभ्यो यथायोगं भक्ष्याच्छादनवर्जिते विकारेऽवयवे च नित्यं मयट् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । शरमयम्, दर्भमयम्, कूदीमयम्, तृणमयम्, सोममयम्, बल्वजमयम् ॥४७॥
न्या० स० शर० - ननूत्तरेण सह एकयोगः कथं न क्रियते ? उच्यते, एकयोगे शरदर्भादीनामदुसंज्ञकानां सहचर्यादेकस्वराणामपि अदुसंज्ञकानां स्यात्ततो वाङ्मयमित्यादि न स्यात् । एकस्वरात् ।। ६. २. ४८ ॥
एकस्वरान्नाम्नो यथासंभवं भक्ष्याच्छादनवर्जिते विकारेऽवयवे च नित्यं मट् प्रत्ययो भवति । वाङ्मयम् त्वङ्मयम्, मृन्मयम्, स्रुङ्मयम्, गोर्मयम्, धूर्मयम् ॥४८॥
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७४)
बृहवृत्ति-लघुन्या संवलिते पा० २. सू० ४९-५४ ] दोस्पाणिनः ॥ ६. २. ४९-॥
दुसंज्ञकादप्राणिवाचिनो यथायोगं भक्ष्याच्छादनजिते विकारेऽवयवे च मयट् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः। आम्रमयम्, शालमयम्, शाकमयम्, काशमयम्, तन्मयम्, यन्मयम् । अप्राणिन इति किम् । श्वाविधो विकारोऽवयवो वा शौवाविधम् श्वाविन्मयम् । चाषं चाषमयम् । वा (भा) सं वा (भा) समयम् ।४९। गोः पुरीषे ॥ ६. २. ५० ॥
गोशब्दात्पुरीषेऽर्थे मयट् प्रत्ययो भवति । गोः पुरीषं गोमयम । पूरीष इति किम् ? गव्यं पयः, गव्यं सक्थि । 'गोः स्वरे यः' [६-१-२७) इति यः। यद्यपि पुरीषं विकारत्वेन न प्रसिदं तथापि दोषधातुमलमूलं शरीरमिति विवक्षायां तात्स्थ्यात्तद्वदुपचार इति गोः पुरीषं पयश्च विकारो भवति । 'एकस्वरात्' [६-२-४८] इत्येव सिद्ध पुरीषे नियमार्थं वचनम् ।५०।
न्या० स० गोः पु०-विकारत्वेनेति गोविकारत्वेन न प्रसिद्धं किंतु आहारादिविकार इति । बीहेः पुरोडाशे ॥ ६. २. ५१ ॥
खोहिशब्दात्पुरोडाशे विकारे नित्यं मयट प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । बोहिमयः पुरोडाशः । पुरोडाश इति किम् । वैह ओदनः वहं भस्म ॥५१॥ तिलयवादनाम्नि ।। ६. २. ५२ ।।
तिलयव इत्येताभ्यां विकारेऽवयवे . च मयट् प्रत्ययो भवति अनाम्नि, अणोऽपवादः । तिलमयम्, यवमयम् । अनाम्नीति किम् । तैलम्, यवानां विकारो यावः स एव यावकः ।५२। पिष्टात् ॥ ६. २. ५३ ॥
विष्टशब्दाद्विकारे मयट् प्रत्ययो भवति अनाम्नि, अणोऽपवादः । पिष्टमयम् ।५३। नानि कः ॥ ६. २. ५४ ॥
पिष्टशब्दान्नाम्मि विकारे कः प्रत्ययो भवति । पिष्टस्य विकारः पिष्टिका ।५४।
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। पाद. २. सू. ५५-५७] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [७५ ह्योगोहादीनञ् हियङ्गुश्चास्य ॥ ६. २. ५५ ॥
ह्योगोदोहशब्दाद्विकारे नाम्नि ईनञ् प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे च प्रकृतेहिया इत्यादेशः । ह्योगोदोहस्य विकारः हैयङ्गवीनं नवनीतं घृतं वा । नाम्नीत्येव ? ह्योगोदोहस्य विकार इदमुदश्वित् ह्यौगोदोहमित्यणेव भवति ।५५।
न्या ० स० ह्योगो०-हैयगवीनमिति न ह्योगोदोहविकार मात्रं किंतु किंचिदेवेत्याह-नवनीतेति तेनाभ्यामन्यत्र न भवतीति प्रत्युदाहरति । . अपो यञ् वा ।। ६. २. ५६ ॥
अपशब्दाद्विकारे यञ् प्रत्ययो वा भवति, ए.स्वरमयटोऽपवादः । अपां विकारः आप्यम्, अम्मयम् ।५६। • लुब्बहुलं पुष्पमूले ॥ ६. २. ५७॥
विकारावयवयोविहितस्य प्रत्ययस्य पुष्पे मले वा विकारतयावयवतया वा विवक्षिते बहुलं लप भवति । मल्लि काया विकारोऽवयवो वा पुष्पं मल्लिका, यूथिका, नवमालिका, मालती । एषु अणो मयटो वा लुपि 'यादेगीणस्याकिपस्तद्धितलुक्य गोणीसूच्योः' (२-४-९४) इति स्त्रीप्रत्ययनिवृतौ लुबन्तस्य स्त्रीत्वापुनः स्त्रीप्रत्ययः । जातेर्जाति: । पाटल्याः पाटलाया वा पाटलं पाटला वा । यदाहुः-पुष्पे क्लीबेऽपि पाटला, पाटलीत्यपि । कुन्दम् , सिन्दुवारम्, कदम्बम्, करवीरम्, अशोकम्, चम्पकम्, कणिकारम्, कोविदारम् । विदार्या मूलं विदारी, अशुमती, बृहती, हरिद्रा, माधवी, मुस्ता कचिन्न भवति । वरणस्य पुष्पाणि वारणानि, एरण्डस्य मूलानि ऐरण्डानि, बिल्वस्य बैल्वानि । कचिद्विकल्पः, शिरीषस्य पुष्पाणि शिरीषाणि, शैरीषाणि । हीबेरस्य मूलानि हीबेराणि, हैबेराणि । कचित्पुष्पमूलाभ्यामन्यत्रापि भवति । आमलकस्य विकारो वृक्षः आमलकी, बदरो, बोहेविकारः स्तम्बः व्रीहिः ।५७।
या० स० लुब्बहुलं-मल्ल्यते मूर्द्धि पदिपठि' ६०७ ( उणादि ) इति के च 'दृकृन्' २७ ( उणादि) इत्यऽके वा।
मल्लिका, यूयते ‘पथयुथ' २३१ ( उणादि) इति थे यूथीके यूथिका । यूथो जालकमस्त्यस्यां वा । नवा मालाऽम्यां नवमालिका । मां लाति 'पृषिरञ्जि' २०८ ( उणादि ) इति किदते गौरादित्वाद् ङ्यां मालयत्यामोदैर्वा 'पुतपित्त' २०४ ( उणादि) इति मालतो ।
अणो मयटो वेति मालत्या दुमयटोऽन्येभ्यस्तु 'प्राण्यौषधि' ६-२-३१ इत्यणोऽभक्ष्याच्छादनविवक्षायां तु मयटो लुप्, पुनगौरादित्वाद् ङीः ।
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २. सू. ५८-६१ ] पाटल्या इति मतान्तरेण 'नवा शोणादेः' २-४-३१ इति ङीविकल्पात् , एके तु गौरादौ अन्ये तु अजादौ, पाटल्या 'हेमादिभ्योऽञ्। ६-२-४५, पाटलायास्तु मयट् ।
क्लीबेऽपीति न केवलं पुष्पे वर्तमानः स्त्रीलिङ्गाः। फले ॥ ६. २. ५८ ॥
विकारेऽवयवे वा फले विवक्षिते प्रत्ययस्य लुप् भवति । आमल क्या विकारोऽवयवो वा फलमामलकम्, बदर्या बदरम्, कुवल्या: कुवलम्, भल्लातक्याः भल्लातकम्, वोहिः, यवः, मुद्रः, माषः, गोधूमः, निष्पावः, तिलः, कुलत्थः, हरीतकी, पिप्पली, कोशातकी, श्वेतपाकी, अर्जुन पाकी, कर्कटी, नखरजनी, शष्कण्डी, दण्डी, दोडी, दाडी, पथ्या, अम्लिका, चिञ्चा, द्राक्षा, ध्रुक्षा, ध्वाङ्क्षा, मृद्वीका, कणा, वला, एला, शाला, काला, गर्गरिका, कण्टकारिका, शेफालिका, ओषधिः, करिः । हरीतक्यादिभ्यो लुपि प्रकृतिलिङ्गमेव । तत्र पूर्वस्य स्त्रीप्रत्ययस्य लुपि पुन: स एव स्त्रीप्रत्ययः । यद्यप्यामलकादीनि प्रकृत्यन्तराणि सन्ति तथाप्यामलक्यादिभ्यः प्रत्ययश्रुतिनिवृत्त्यर्थं लुब्वचनम् ।५८॥
न्या० स० फले-बदरकुवलशब्दौ हेमादौ द्रष्टव्यौ अभक्ष्याच्छादनमयबाधनार्थम् । प्लक्षादेरण् ॥ ६. २. ५९ ॥
प्लक्ष इत्येवमादिभ्यो विकारेऽवयवे वा फले विवक्षितेऽण् प्रत्ययो भवति, मयटोऽपवादः । विधानसामर्थ्याच्चास्य लुब् न भवति । प्लक्षस्य विकारोऽवयवो वा फलं प्लाक्षम् । एवं नैयग्रोधम् । प्लक्ष, न्यग्रोध, अश्वत्थ, इङ्गदी, वेणु, वृहतो, सगु, रु(स)कु, कऋतु इति प्लक्षादिः ।५९। जम्ब्वा वा ॥ ६. २. ६० ॥
जम्बूशब्दाद्विकारेऽवयवे वा फले विवक्षिते वाण प्रत्ययो भवति पक्षे यथाप्राप्तं प्रत्ययस्तस्य च लुप् । जम्ब्वा विकारोऽवयवो वा फलं जाम्बवम्, पक्षे जम्बु जम्बूः । लुपि स्त्रीनपुसकते ।६०। न दिरद्रुवयगोमयफलात् ॥ ६. २. ६१॥
द्रवयं गोमयं फलवाचि च वर्जयित्वाऽन्यस्मान्नाम्मो विकारावयवयोतिः प्रत्ययो न भवति । कपोतस्य विकारोऽवयवो वा कापोतः कापोतस्य विकारोऽवयवो वेति ‘दोरप्राणिन:' (६-२-४९) इति मयट न भवति, एवं वैल्वः, ऐणेयः, शामीलः, औष्ट्रकः, कांस्यः, पारशवः । अद्रुवयगोमयफलादिति
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[ पाद. २. सू. ६२-६५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [७७ किम् ? द्रौवयं खण्डम, गौमयं भस्म, कापित्थो रसः। कथं कपोतस्य मांसं कापोतम् तस्य विकारः कापोतो रसः पलाशस्यावयवः पालाशी शाखा तस्या अवयवः पालाशी समित् इति ? विकारेऽपि प्रकृतिशब्दो वर्तते, यथा मुद्ः शालीन भुङ्क्ते । मुद्रविकारैः शालिविकारानिति गम्यते, गोभिः सन्नद्धो वहति । गोविकारैश्चर्मभिरिति गम्यते । अवयवेऽप्यवयविशब्दो वर्तते । पूर्वे पञ्चालाः उत्तरे पश्चाला: ग्रामो दग्धः पटो दग्ध इति । तत्र विकारवृत्तेः प्रकृतिशब्दादवयववृत्तेरवयविशब्दाच्च प्रत्ययो भविष्यति । विकारविकारोऽपि वा विकार एव अवयवावयवोऽप्यवयव इति १६१॥
न्या० स० न द्वि-अवयवेऽपीति कापोतं प्रति उत्तरं दत्त्वा पालाशी प्रत्याह विकार एवेति प्रकृतेरपीत्यर्थः ।
पितृमातुर्यडुलं भ्रातरि ।। ६. २. ६२॥ - पितृमातृशब्दाभ्यां षष्ठचन्ताभ्यां भ्रातरि वाच्ये यथासंख्यं व्यडुल इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । पितुर्धाता पितृव्यः मातुर्धाता मातुलः, डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः । ६२।
न्या. स० पितृ-विकल्पादेकशेषः सूत्रत्वाद्वा ‘आ द्वंद्वे' ३-२-३९ इति च न । पित्रो महट् ॥ ६. २. ६३॥
पितृमातृशब्दाभ्यां षष्ठयन्ताभ्यां मातापित्रोर्वाच्ययो महट् प्रत्ययो भवति । पितुः पिता पितामहः, पितुर्माता पितामही, मातुः पिता मातामहः, मातुर्माता मातामही । द्विवचनटित्त्वाभ्यां मातापित्रोरिति विज्ञायते । डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः, टकारो इयर्थः ।६३। अवेर्दुग्धे सोढदूसमरीसम् ॥ ६. २. ६४ ॥
अविशब्दात् षष्ठयन्तात् दुग्धेऽर्थे सोड दूस मरीस इत्येते प्रत्यया भवन्ति । अवेर्दुग्धम् अविसोढम्, अविदूसम्, अविमरीसम् ।६४। राष्ट्रेऽनङ्गादिभ्यः ॥ ६. २. ६५॥
राष्ट्र जनपदः, षष्ठपन्तादङ्गादिवजितान्नाम्नो राष्ट्रेऽभिधेये यथाविहितमण् प्रत्ययो भवति । शिबीनां राष्ट्रं शैबम् । उषुष्टानामौषुष्टम् । गान्धारीणां गान्धारम् । अनङ्गादिभ्य इति किम् । अङ्गानां राष्ट्रं वङ्गानां राष्ट्रमिति वाक्यमेव भवति । अङ्ग वङ्ग. सुह्म पुण्ड इति । अङ्गादयः प्रयोगगम्याः । केचित्तु अगादिप्रतिषेधं नेच्छन्ति । अङ्गानां राष्ट्रमाङ्गम् ।
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७८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू. ६६-६८ ] वाङ्गमित्यादि । उत्तरत्र निवास इत्यभिधानात् ईशितव्ये राष्ट्रेऽयं विधि:, उभयथा हि राष्ट्रसंबन्धो भवति ।६५। ।
न्या० स० राष्ट्र-शैबमिति शिबे राज्ञोऽपत्यानि 'दुनादि' ६-१-११८ इतिच्यः, 'बहुष्वस्त्रियां ६-१-१२४ इति लुप् , ततो राष्ट्रे वाच्येऽनेनाण् , एतद्विषये 'न प्रागजितीये' ६-१-१३५ इति न्यस्य स्थानित्वं न कुतः एक न प्राजितीय इत्यत्र वृत्तौ गोत्र इति पदं द्विधा व्याख्याय गोत्रे उत्पन्नस्य 'यस्कादेर्गोत्रे' ६-१-१२५ इत्यारम्य यः प्रत्ययलोपः प्राप्नोति तस्य 'न प्रागजितीये' ६-१-१३५ इत्यनेन लुपं प्रतिषेधन्ति, ज्यो हि 'यस्कादे गोत्रे' ६-१-१२५ इत्यत्र प्रागविहित एवेति स्थानित्वं न, यदा तु शिबीनां राजाम इत क्रियते तदागोत्रत्वात्, 'न प्राजितीये' ६-१-१३५ इत्यस्य प्राप्तिरेव नास्ति, एवमुत्तरेष्वपि ।
उत्तरत्रेति 'निवासादूरभवे' ६-२-६९ इत्यत्र । ईशितव्ये इति-यथेच्छं विनियोज्ये । उभयथा हीति परिपालनेन निवासेन च । राजन्यादिभ्योऽकञ् ॥ ६. २. ६६ ॥
राजन्य इत्येवमादिभ्यो राष्ट्रे वाच्येऽक ञ् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः। राजन्यानां राष्ट्र राजन्यकम्, दैवयातवकम्, राजन्य, दैवयातव, देवयात आवृत, आव्रीतक, वात्रव, शालङ्कायन, बाभ्रव्य, जालन्धरायण, जानंधरायण, कौन्ताल, आत्मकामेय, अम्बरीपुत्र, आम्बरीपुत्र, अम्बरीषपुत्र, बैल्ववन, . शैलूषज, उदुम्बर, औदुम्बर, तैतल, संप्रिय, दाक्षि, ऊर्णनाभ, ऊर्णनाभि, आर्जुनायन, विराट, मालव, त्रिगर्त इति राजन्यादिः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।६६। वसातेर्वा ॥ ६. २. ६७ ॥
वसातिशब्दाद्राष्ट्रे वाच्येऽकञ् प्रत्ययो वा भवति । वसातीनां राष्ट्र वासातक, वासातम् ।६७।
भौरिक्यैषुकार्यादेविधभक्तम् ॥ ६. २. ६८ ॥ __ भौरिकि इत्येवमादिभ्य ऐषुकारि इत्येवमादिभ्यश्च राष्ट्र वाच्ये यथासंख्यं विध भक्त इत्येतौ प्रत्ययो भवतः, अणोऽपवादः । भौरिकीणां राष्ट्र भौरिकिविधम्, भौलि कि विधम्, स्वभावान्नपुसकता। ऐषुकारीणां राष्ट मैषुकारिभक्तम्, सारसायनभक्तम् । भौरिकि, भौलिक, चौपयत, चौदयत, चटयत, चैकयत, सैकयत, क्षतयत, काणेय, वालिकाध, वाणिजक इति भौरिक्यादिः । ऐषुकारि, सारसायन, चान्द्रायण, ताायण, याक्षायण, व्याक्षायण, ब्यक्षायण, ध्यक्षायण, औलायन, सौवीर, दासमित्रि, दासमित्रायण, शौद्रकायण, शयण्ड,
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पाद. २ सू. ६९-७० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्राशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [७९ शाण्ड, शायाण्ड, शायण्डायन, खादायन, गौ (मा)लुकायन, विश्व, वैश्व, धेनव, वैश्वमाणव, वैश्वदेव, तुण्ड, देव, तुण्डदेव, शायाण्डी, शायण्डी, वायौविद इत्यैषुकार्यादिः ।६८॥ निवासादूरभवे इति देशे नाग्नि ॥ ६. २. ६९ ।।
षष्ठयन्तान्नानो निवास अदूरभव इत्येतयोरर्थयोर्यथाविहितं प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि प्रत्ययान्तं चेद्देशस्य नामधेयं भवति, इतिकरणो विवक्षार्थः । तेनानवृत्त व्यवहारमनुपतिते नाम्नि विज्ञेयम् न संगीते । निवसन्त्यस्मिन् इति निवासः । तत्र, ऋजुनाव, ऋजुनावानां वा निवास आज नावः, शिबीनां शैबः, उषुष्टस्य औषुष्टः, शकलायाः शाकल:, अदूरभवे, विदिशाया अदूरभवं वैदिशं नगरम्, वैदिशो जनपदः, वरणास्योः वारणसी, वोहिमत्या हिमतम्, यवमत्या यावमतम्, ' इह केचिदङ्गानां निवासः अङ्गाः, वङ्गाः, कलिङ्गाः, सुह्माः, मगधाः, पुण्ड्राः, कुरवः । पञ्चालाः। मत्स्याः । वरणानामदूरभवं बरणा नगरम् । शृङ्गशाल्मलीनां शृङ्गशाल्मलयो ग्रामः। गोदयोर्हदयोर्गोदौ ग्रामः । आलन्यायनपर्णानामालन्यायनपर्णा ग्रामः। शफण्डयाः शफण्डी । जालपदाया जालपदा, मथुरायाः मथुरा, उज्जयन्याः उज्जयनो, गयानां गया, उरशायाः उरशा, तक्षशिलाया: तक्षशिला, कटुक बदर्याः कटुकबदरी, खलतिकस्य खलतिकं वनानीत्यादिषु प्रत्ययमुत्पाद्य लुपमारभन्ते । सत्यां च लुपि प्रकृतिवाल्लिङ्गवचने च मन्यन्ते' । तदयुक्तम् । अत्र हि प्रकृतिमात्रमेव देशनाम न प्रत्ययान्तम् प्रत्ययान्तस्य च देशनामत्वे प्रत्ययो विधीयते इति न भवति, तस्य निवास इत्यादिविवक्षायां तु वाक्यमेव । प्रत्ययाभावाच्च लुबपि न वक्तव्या । अङ्गवरणादीनां च क्षत्रियवृक्षादिवज्जनपदनगरादौ स्वत एव वत्तिर्न प्रत्यययोगात् लिङ्गसख्योपादानं च स्वगतमेवेति ।६९। ___ न्या० स० निवासा-इतिकरण इति क्रियतेऽनेनार्थप्रतीतिरिति करणः शब्दः । ऋजुनाष इति ऋच्यो नावो यस्य, एकत्वे तु 'पुमनडुन्नौ' ७-३-१७३ इति कच् स्यात् । ऋजुनावानामिति ऋजु आर्जवयुक्तं नुवन्ति 'कर्मणाऽण' ५-१-७२ ।
___ वरणास्योरिति वरणा चासिश्च वरणासी, तयोरदूरभवा पृषोदरादित्वाद् वस्य दी? णस्य तु हस्वः। प्रकृतिमात्रमेवेति केवलैव प्रकृतिः प्रत्ययमन्तरेण देशनाम इत्यर्थः । अङ्गवरणादीनां चेति स्वमतमेव द्रढयन्नाह। तदत्रास्ति ॥ ६. २. ७० ॥
तदिति प्रथमान्तादत्रेति सप्तम्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति
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८० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंलिते [ पाद. २ सू० ७१-७३ ] यतत्प्रथमान्तं तच्चेदस्तीति भवति देशे नाम्नि प्रत्ययान्तं चेत् देशस्य नाम भवति । अत्रापीतिकरणो विवक्षार्थोऽनुवर्तत एव । तेन प्रसिद्ध नाम्नि भूमादी चार्थे भवति, अत एव चोभय प्राप्तौ परोऽपि मत्वर्थीयोऽनेन बाध्यते । उदुम्बरा अस्मिन् देशे सन्ति औदुम्बरं नगरम्, औदुम्बरो जनपदः, औदुम्बरः पर्वतः ७०। तेन निवृत्ते च ॥ ६. २. ७१ ॥
तेनेति तृतीयान्तानिवृत्तमित्येतस्मिन्नर्थे ययाविहितं प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि प्रत्ययान्तं चेद्देशस्य नाम भवति. यदा अकर्मका अपि धातवः सोपसर्गाः सकर्मका भवन्तीति कर्मणि निर्वृत्तशब्दो व्युत्पाद्यते तदा तेनेति कर्तरि करणे वा तृतीया । यदा त्वकर्मकविवक्षया कर्तरि निर्वृत्तशब्दस्तदा हेतौ तृतीया । कुशाम्बेन निवत्ता कौशाम्बी, ककन्देन काकन्दी, मकन्देन माकन्दी, सगरैः सागरः, सहस्रेण निर्वृत्ता साहस्री परिखा, चकार श्चतुर्णा योगानामुत्तरत्रानुवृत्त्यर्थः । तेनोत्तरे प्रत्यया यथायोगं चतुर्वर्थेषु भवन्ति ।७१। नद्यां मतुः ॥ ६. २. ७२ ।।
तस्य निवासः तस्यादूरभवः तदत्रास्ति तेन निवृत्तं चेत्येष्वर्थेषु यथायोगं मतुः प्रत्ययो भवति नद्यां देशे नाम्नि प्रत्ययान्तं चेन्नदीविषयं देशस्य नाम भवति । नदीनामेत्यर्थः, अणोऽपवादः । उदुम्बरा अस्यां सन्ति उदुम्बरावती नदी, पशकावती, वीरणावती, पुष्करावती, इक्षुमती, द्रमती, शरावती, इरावती। भगीरथेन निर्वृत्ता भागीरथी । भैमरथी, जाह्नवी, सौवास्तवी । अमत्वन्तान्येव भागीरथ्यादीनि नदोनामानीति मतुर्न भवति ।७२। मध्वादेः ॥ ६. २. ७३ ।।
मध्वादिभ्यो मतुः प्रत्ययो भवति चातुरथिकः देशे नाम्नि प्रत्ययान्तं चेद्देशस्य नाम भवति, अणोऽपवादः। अनद्यर्थश्चारम्भः । मधुमान् बिसवान् स्थाणुमान् । मधु, बिस, स्थाणु, ऋषि, इक्षु, वेणु, कर्कन्धु कर्कन्ध, शमी, करीर, हिम, किसर, सार्पण, रुवत्, पार्दा, कीशरु, इष्टका, पार्दाकी, शरु, शुक्ति, आसुति, सुत्या, आसन्दी, शकली, वेट, पीडा, अक्षशिल, अक्षशिला, तक्षशिला, आमिषी इति मध्वादिः ।७३।
न्या० स० मध्वादेः चातुरर्थिक इति चतुर्वर्थेषु भवः अध्यात्मादित्वादिकण , विधानतो 'द्विगोः' ७-१-१४४ इति न लुप् , अथ गणो विव्रियते 'मनिजनिभ्यां' ७२१ (उणादि)
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[पाद. २ सू. ७४-७७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ ८१ इति मधुः, पटिवीभ्यामिति बिसं बिस्च् खण्डने वा, 'अजिस्था' ७६८ ( उणादि) इति स्थाणुः, 'नाम्युपान्त्य' ५-१-५४ इति ऋषिः, 'मस्जि' ८२६ (उणादि) इति इक्षुः, 'अजिस्था' ७६८ ( उणादि) इति वेणुः, कर्कस्य अन्धुरिव कर्कन्धुः, 'कृगः कादिः' ८४९ ( उणादि ) कर्कन्धः, शमयति शमो, 'कृश' ६१९ करीरः, 'क्षुहिन्यां' ३४१ ( उणादि )
__ हिमः, कस्य भार्या की सरति 'यापो बहुलम्' २-४-९९ इति किसरा, सहाणेन वर्तते सार्पणः, रौति शतरि रुवत् , पर्दते बाहुलकाद्दीघे पार्दा, कुत्सितः शरूः कोशरुः, पृषोदरादिः । 'इध्यशि' इति इष्टका, पार्दामकति पार्दाकी, 'भृमृ' इति शरुः,
'मुषि' ६५१ ( उणादि) इति शुक्तिः, 'समिणा' ५-३-९३ इति आसूयते आसुतिः, 'समजः ५-३-९९ इति सुत्या, आसिक् 'कुमुद' ६-२-९६ इति आसन्दी, आसं दयते वा योगविभागान्मोऽन्तः, विट शब्दे, लिहाद्यचि वेट:, 'भीष' इति पीडा । नडकुमुदवेतसमहिषाड्डित् ॥ ६. २. ७४ ॥
नडादिभ्यो डिन् मतुः प्रत्ययो भवति चातुरर्थिकः देशे नाम्नि । अणाद्यपवादः । नड्वान् कुमुद्वान् वेतस्वान् महिष्मान् देशः, तत्र भवा माहिष्मती नगरी, डित्त्वमन्त्यस्वरादिलोपार्थम् ।७४॥
न्या० स० नडकुमुद०-अणाद्यपवाद इति आदिपदात् नडशब्दात 'नडशादाबलः' ६-२-७५ कुमुदात् 'कुमुदादेरिकः' ६-२-९६ इत्यादिग्रहः, महिष्मानित्यत्र 'धुटस्तृतीय' २-१-७६ इति डत्वं न भवति, असिद्धं बहिरङ्ग-मन्तरङ्गम् इति अकास्य स्थानित्वेन पदान्तत्वाभावात, न वाच्यं 'स्वरस्य' ७-४-११० इति स्थानित्वं 'न सन्धि' १-३-५२ इत्यस्यावस्थानात् । नडशादादवलः ॥ ६. २. ७५ ॥
नड शाद इत्येताभ्यां डित् वलः प्रत्ययो भवति चातुथिको देशे नाम्नि, मत्वणाद्यपवादः । नड्वलम्, शाद्वलम् ।७५॥
न्या० स० नडशादा०-मत्वणायेति आदिपदात् 'नडादेः कीयः' ६-२-९२ इति । शिखायाः ॥ ६. २. ७६ ॥
शिखाशब्दाद्वलः प्रत्ययो भवति चातुरर्थिकः देशे नाम्नि, अणोऽपवादः । पृथग्योगाड्डिदिति निर्वृत्तम्, शिखावलं नाम नगरम्, मतुप्रकरणे शिखाया वलचं वक्ष्यति तत् अदेशार्थं वचनम् १७६।
न्या० स० शिखाया:-- वक्ष्यतीति 'कृष्यादिभ्यो वलच्' ७-२-२७ अदेशार्थमिति न वाच्यं सामान्येनोत्तरेण देशेप्यदेशेऽपि भविष्यतीति यतोऽत्राणोपवाद इत्युक्तं, ततश्चादेशे तस्य चरितार्थत्वात् देशे 'निवासादूरभवे' ६-२-६९ इत्यादयः स्युः । शिरीषादिककणौ ॥६. २. ७७ ॥
शिरीषशब्दादिककण् इत्येतौ प्रत्ययो भवतः चातुरथिको देशे नाम्नि । शिरीषाणामदूरभवो ग्रामः शिरीषिकः, शैरीषकः ॥७॥
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८८२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० ७८-८३ । शर्कराया इकणीयाण च ॥ ६. २. ७८ ॥
शर्कराशब्दादिकण् ईय, अण् चकारात् इक, कण् इत्येते प्रत्यया भवन्ति चातुरथिका देशे नाम्नि । शर्करा अस्मिन्देशे सन्ति शार्करिकः, शर्करीयः, शार्करः, शर्करिकः, शार्करकः, । शिरीषाः शर्करा इति प्रत्यययोगमन्तरेणापि देशे वृत्तिरिति पूर्ववत्प्रत्ययो न भवति ।७८।
न्या. स. शर्कराया०-शिरीषाः शर्करा इति नन्वेवंविधान्यपि देशनाभानि दृश्यन्ते तदर्थ प्रत्ययलुप् वक्तव्येत्याशङ्का । रोमादेः ॥ ६. २. ७९ ॥
अश्मादिभ्यो रः प्रत्ययो भवति चातुरथिको देशे नाम्नि । अश्मरः, . यूषरः, अश्मन्, यूष, ऊष, यूथ, मोन, गुद, दर्भ, कूट, गुहा, वृन्द, नग, क.ण्ड, गह्व, कन्द, पामन् इत्यश्मादिः ।७९। प्रेक्षादेरिन ।। ६. २. ८० ॥
प्रेक्षादिभ्य इन् प्रत्ययो भवति चातुरथिको देशे नाम्नि। प्रेक्षी, फलकी । प्रेक्षा, फलका, बन्धुका, ध्रुवका, धुवका, क्षिपका, कूप, पुक, धुक,. इक्कट, कङ्कट, संकट, मह, गर्त, न्यग्रोध, परिवाप, यवाष, हिरण्य इति प्रेक्षादिः ।८० तृणादेः सल ॥ ६. २. ८१ ॥
तृणादिभ्यश्चातुरथिकः सल प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । तृणसा, नदसा। तृण, नद, जन, पर्ण, वर्ण, अर्णस्, वरण, विल, तुस, वन, पुल इति तृणादिः ।८१॥ काशादेरिलः ॥ ६. २. ८२ ॥
काशादिभ्यश्चातुरथिक इलः प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । काशिलम्, वाशिलम् । काश, वाश, अश्वत्थ, पलाश, पीयूक्षा, पाश, विश, तृण, नल, वन, नलवन, कर्दम, कर्पूर वर्वर, वर्गुल, शीपाल, कण्टक, गुहा, कपित्थ इति काशादिः ।८२॥ अरीहणादेरकण ॥ ६. २. ८३ ॥
अरीहणादिभ्यश्चातुरथिकोऽकण् प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । आरोहणक, खाण्डवकम् । अरीहण, खण्डु, खण्डू, द्रुघण, किरण, खदिर, भगल, भलन्दन,
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[पाद २. सू. ८४-८५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठाध्यायः [८३ उलुन्द, खावुरायण, खापुरायण, खानुरायण, कौष्टायन, कौद्रायण, भास्त्रायण, गर्ताय न, रैवत, रायस्पोष, विपथ, विपाश, उद्दण्ड, उदञ्चन, ऐडायन, जाम्बवत, जाम्बवत्, शिशपा, वीरण, धौमतायन, यज्ञदत्त, सुयज्ञ, बधिर, बिल्व, जम्बू, साम्बुरायण, सौशायन, सौमायन, शाण्डिल्यायन, श्वित्रायणि, साम्वरायण, कश, कृत्स्न, सुशर्मन् इत्यरीहणादिः ।८३। सुपन्थ्यादेर्व्यः ॥ ६. २. ८४ ॥
सुपन्थिन् इत्यादिभ्यश्चातुरथिकोज्यः प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । सौपन्थ्यम्, सौवन्थ्यम् सुपथिन्शब्दस्यात एव निपातनात् पकारातरो नागमः पस्य च वा वकारः । सांकाश्यम्, काम्पील्यम् सुपन्थिन्, सुवन्थिन्, संकाश, कम्पील, सुपरि, यूप, अश्मन्, अश्व, अङ्ग, नाथ, कुण्ट, कुट, कूट, मादित, मृष्टि आगस्त्य, शूर, विरन्त, विकर, नासिका, प्रगदिन्, मगदिन्, कटिद, कटिप, कटिव, चूदार, मदार, मजार, कोविदार, कश्मीर, शूरसेन कुम्भ, सीर, सरक, समल, अंस, नासा, रोमन, लोमन्, तीर्थ, पुलिन, मलिन, अगस्ति, सुपथिन्, दश, नल, सकर्ण, कलिव, खडिव, गडिव इति सुपन्थ्यादिः ।८४।
न्या० स० सुपन्थ्यार्थ्य: सुपन्ध्यादिर्विचार्यते, शोभनः पन्थाः सुपन्थाः सुपन्थिन् गणपाठात् वत्वे सुवन्धिन् , संकाशते अच् संकाशः, के सुखं पीलति कंपीलः, सुष्ठु पिपर्ति 'स्वरेभ्य इ.' ६०६ (उणादि) सुपरिः, 'युसकु' २९७ (उणादि) इति यूपः, 'गम्यमि' ९२ (उणादि) इति 'उरवनख' इति वा अङ्गः, नाथति अच् नाथः, कुटति 'नाम्युपान्त्य' ५-१-५४ इतिके कुट:, कूटयति अचि कूटः, माद्यन्तं प्रयुक्ते माद्यते स्म मादितः, मार्जनं मर्शनं मर्षणं वा मृष्टिः, 'अगपुलाभ्याम' ६६३ ( उणादि) इति अगस्त्यः तस्यापत्यमृष्यण् भागस्त्यः, शूरयतेऽचू शूरः, विरमति 'पुतपित्त' २०४ ( उणादि ) इति यद्वा विरमतीति औणादिके तृप्रत्यये विरन्तरमाचष्टे णिजि विरन्तयति, अचि विरन्तः ।
विकरोति अचि विशिष्टौ करो यस्य वा विकरः, नसते 'नसिवसि' ४० ( उणादि) इति नासिका, प्रगदतीत्येवंशीलः प्रगदी, मां गदतीत्येवंशीलः 'क्यापो बहुलं नाम्नि २-४-९९ इति ह्रस्वे मगदी, कटिं ददाति, पाति वाति वा कटिदः, कटिपः, कटिवः । चुदण् 'द्वार' ४११ इति चूदारः, 'अग्यगि ४०५ (उणादि ) इति मदारः, मृजुमजशब्दे, मजति 'अग्यङ्गि' ४०५ (उणादि) इति बहुवचनात् 'द्वार' ४११ (उणादि) इति वा मजारः, कनेः 'कोविद' इति कोविदारः ।
सुतंगमादेरि ॥ ६. २. ८५ ॥ .. सुतंगमादिभ्यश्चातुरथिक इञ् प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । सौतंगमिः मौनि वित्तिः, सुतंगम, मुनिवित्त, विप्रचित्त, महावित्त, महापुत्र, शुक्र, श्वेत,
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८४]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० २. सू० ८६-८९ ] विग्र, श्वन, विनश्वन्, अर्जुन, अजिर, गदिक, बीज, वाप, बीजवाप, बाजवाप, कर्णा इति सुतंगमादिः ।८५। बलादेर्य ॥ ६. २. ८६ ॥
बलादिभ्यश्चातुरथिको यः प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । बल्यं, पुल्यम् बल, पुल, मुल, उल, कुल, दुल, नल, दल, उरल, लकुल, वन इति बलादिः ।८६। अहरादिभ्योऽञ् ॥ ६. २. ८७ ॥
अहन् इत्येवमादिभ्यश्चातुरथिकोऽञ् प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । . आह्नम्, लौमम्, तेन निर्वृत्तमित्यर्थेऽहःशब्दाद्देशे नाम्नि विहितोऽयमञ् विशेषविहितत्वात् निर्वृत्त इति सामान्यविहितस्य काले कणोऽपवादः । अहन् लोमन् वेमन् गङ्गा इत्यहरादिराकृतिगणः ।८७।
न्या० स० अहरादिभ्यो-इकणोपवाद इति तेन हस्ताद्य इत्यतः तृतीयान्तमनुवर्तते, कालात् परिजय्येत्यतः कालादिति च ततो निवृत्ते इत्यनेन कालसामान्यविहित इकण प्राप्तस्तस्य बाधकोऽयम् । सख्यादेरेयण ॥ ६. २. ८८ ॥
सखि इत्येवमादिभ्यश्चातुरथिक एयण प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । साखेयः, साखिदत्तेयः । सखि, सखिदत्त, दत्त, अग्नि, अग्निदत्त, वायुदत्त, वायुदत्ता, गोफिल, भल्ल, भल्लिपाल, चक्र, चक्रवाक, छगल, अशोक, सीरक, सरक, वीर, चीर, सरस, समल, रोह, तमाल, कदल, करवीर, कुशीरक, सुरसा, सरम, सपूल इति सख्यादिः ।८८। पन्थ्यादेरायनण् ॥ ६. २. ८९॥
पन्थ्यादिभ्यश्चातुराणिक आयनण् प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । पान्थायनः पथिनशब्दस्य प्रत्यययोगे पकारात्परो नागमोऽत एव निपातनात् । पाक्षायणः, तौषायणः । पथिन् पक्ष, तुष, अण्डक, वलिक, पाक, चित्र, चित्रा, अतिश्व, कुम्भ, सोरक, लोमन्, रोमन्, लोपक, हंसक, सकर्ण, सकर्णक, सरक, सहक, सरस, समल, अंशुक, कुण्ड, यमल, विल, हस्त, हस्तिन्, सिंहक इति पन्थ्यादिः ।८९।
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[ पाद. २. सू. ९०-९३ ) श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशसने षष्टोध्यायः [८५ कर्णादेरायनिञ् ॥ ६. २. ९०॥
कर्णादिभ्यश्चातुरथिक आयनिञ् प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । कार्णायनिः, वासिष्ठायनिः । कर्ण, वसिष्ठ, अर्क, लुस, अर्कलुस, द्रुपद, आनडुह्य, पाञ्चजन्य, स्फिग, स्फिज, कुलिश, आकनीकुम्भ, जिवन्, जित्य, जंत्र, आण्डीवत्, जीवन्त इति कर्णादिः ।९।। उत्करादेरीयः॥ ६. २. ९१॥
उत्करादिभ्यश्चातुरथिक ईयः प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । उत्करीयः, संकरीयः । उत्कर, संकर, संपर, संपल, सफर, संफल, संफुल, पिप्पल, मूल, पिप्पलम्ल, अर्क, अश्मन्, सुवर्ण, सुपर्ण, पर्ण, सुपर्णपर्ण, हिरण्यपर्ण, इडा, अजिर, इंडजिर, अग्नि, तिक, कितव, आतप, अनेक, पलाश, तिककितव, वातपान, एक, पलाश, अनेकपलाश, अंशक, त्रैवण, पिचुक, अश्वत्थ, काश, क्षुद्रा, काशक्षुद्रा, भस्त्रा, विशाल, शाला, अरण्य, अजिन, अरण्याजिन, जन्यजनक, आर्जन, खण्डाजिन, चल्यण, उत्कोश, क्षान्ध, रु [ख] ण्ड, खदिर सूपर्णाय, श्यावनाय, नैवाकव, नितान्त, वृक्ष, नितान्त वृक्ष, आर्द्रवृक्ष, इन्द्रवृक्ष, अग्निवृक्ष, मन्त्रणाह, अरीहण, वातागर, विजिगीषा, संस्रव, रोहित, नीवापक, अणक, निशान्त, खल, जिन, वैराणक, अवरोहित, जन्य, इन्द्रवर्म, गर्त इत्युत्करादिः ।९१।।
नडादेः कीयः ॥ ६. २. ९२ ॥ ___ नड इत्येवमादिभ्यश्चातुरधिकः कीयः प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । नंडकीयः, प्लक्षकीयः। नड, प्लक्ष, बिल्व, वेणु, वेत्र, वेतस त्रि, तक्षन, इक्षुकाष्ट, कपोत, क्रुञ्च, क्रुञ्चाशब्दस्यात एव गणपाठात् हस्वत्वम् इति नडादिः ।९२।। कृशाश्वादेरीयण ।। ६. २. ९३ ।।
कृशाश्वादिभ्यश्चातुरथिक ईयण् प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । . काश्विीयः, आरिष्टीयः । कृशाश्व, अरिष्ट, अरिष्य, वेष्य, विशाल, रोमक, लोमक, रोमश, शवल, शिवल, कूट, चर्चुल, पूगर, शूकर, धूकर, पूकर, संदृश, सदृश, पुरगा, पूरवा, धूम, धूम्र, विनीत, आविनत, विकूच्या, अयस्, सायस, इरस, उरस्, अरुष्य, ऐरास, इर, आस, मुगल, मौद्गल्य, सुवर्चल, प्रतर, अजिन, अभिजन, अवनत, विकुटयाङ्कुश पराशर इति कृशाश्वादिः ।९३।
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८६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद- २ सू० ९४-९८ ] ऋश्यादेः कः ॥ ६. २. ९४ ॥
ऋश्य इत्यादिभ्यश्चातुर्थिकः कप्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । ऋश्यकः, न्यग्रोधकः, ऋश्य, न्यग्रोध, शर, निलीन, निवात, विनद्ध, सित, शित, नद्ध, निनद्ध, परिगूढ, उपगूढ, उत्तर, अश्मन्, उत्तराश्मन्, स्थूल, बाहु, स्थूलबाहु, ख दिर, अरदु, अनडुह, परिवंश, खण्डु, वीरण, कर्दम, शर्करा, निबन्ध, अशनि, खण्ड, दण्ड, वेणु, परिवृत, वेश्मन्, अंशु इति ऋश्यादिः ।९४। वराहादेः कण् ॥ ६. २. ९५॥
वराहादिभ्यश्चातुरर्थिकः कण् प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । वाराहकः, पालाशकः, वराह, पलाश, विनद्ध, निबद्ध, स्थूल, बाहु, स्थूलबाहु, खदिर, विदग्ध, विजग्ध, विभग्न, विभक्त, पिनद्ध, निमग्न इति वराहादिः ।९५॥ कुमुदादेरिकः ॥ ६. २. ९६ ॥
कुमुद इत्येवमादिभ्यश्चातुरर्थिक इकः प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । कुमुदिकम्, इक्कटिकम्, बल्वजिकम् । केचिदमु न पठन्ति । बाल्वजः कुमुद, इक्कट, निर्यास, कङ्कट, संकट, गर्त, परिवाप, यवाप, कूप, विकङ्कत, बल्वज, अश्वत्थ, न्यग्रोध, बोज, दशा, शाल्मलि मुनि, स्थल, ग्राम इति कुमुदादिः ।९६। अश्वत्थादेरिकण ॥ ६. २. ९७ ॥
अश्वत्थ इत्यादिभ्यश्चातुरथिक इकण् प्रत्ययो भवति देशे नाम्नि । आश्वस्थिकम्, कौमुदिकम् । अश्वत्थ, कुमुद, गोमठ, रथकार, दाश, ग्राम, घास, कुन्द, शाल्मलि, मुनि, स्थल, मुनिस्थल, कुट, मुचुकर्ण, मुचुकूर्णि, कुण्डल, शुचिकर्ण इत्यश्वत्थादिः । इति करणाद्यथादर्शनं प्रत्ययव्यवस्थायामर्थप्रकृत्युपादानं प्रपञ्चार्थम् ।९७।
न्या० स० अश्वत्थादेरिकण इतिकरणादिति पूर्वैः प्रत्यया एव विहिता, न प्रकृतीनामुपादानं कृतमितीतिकरणस्य विवक्षार्थत्वाल्लौकिक-प्रत्ययानुसारेणार्थप्रकृतयोऽनुमीयन्त इति, अत एव च प्रत्युपादानेऽपि कैश्चिद्धीनाः कैश्चिदधिकाः पठिता इति न मतिव्यामोहो विधेयः यथादर्शनं तु प्रयोगव्यवस्था, अतः एव बाल्वजिकं बाल्वजमित्याधुपदर्शितम् । . सास्य पौर्णमासी ॥ ६. २. ९८ ॥
इति शब्दो नाम्नीति चानुवर्तते । देश इति निवृत्तम् । सेति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेत्पौर्णमासी भवति नाम्नि, प्रत्ययान्तं चेन्नाम स्यात्, इतिकरणो विवक्षार्थः । तेन
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[पाद. २. सू. ९९-१०१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [८७ मासार्धमासयोरेव संवत्सरपर्वणोः प्रत्ययः, संवत्सरेऽप्यन्ये । अस्येत्यवयवावयविसंबन्धे षष्ठी, पौषी पौर्णमासी अस्य पौषो मासः, पौषोऽर्धमासः, एवं राघः वैशाखः आषाढ इति । नाम्नीत्येव ? पौषो पौर्णमासी अस्य पश्चरात्रस्य दशरात्रस्य भृतकमासस्य वेति वाक्यमेव, पौर्णमासीति पूर्णो माश्चन्द्रोऽस्यामस्तीति 'पूर्णमासोऽण' (७-२-५५) इत्यण् । पूर्णमास इयमिति वा 'तस्येदम् (६-३-१५९) इत्यण् । पूर्णो मा मासो वास्यां पूर्णमासा वा युक्तेति अत एव निपातनादण् ।९८॥
न्या० स० सास्य पौर्णमासी-तेनेत्यादि मासः त्रिंशदात्ररूपः, मासस्यामिर्धमासः पञ्चदशरात्ररूपः, अत्रैव प्रत्ययो भवति, नान्यत्र पञ्चपत्रादौ मासार्धमासावप्यनेकरूपत्वादित्याह___ संवत्सरपर्वणोरिति संवत्सरस्य वर्षस्य पर्वभूतो मासः सूर्याचन्द्रमसोः संश्लिष्य पुनः संश्लिष्टयोर्विश्लिष्य पुनर्विश्लिष्टयोर्वा यौ तौ संश्लेषौ विश्लेषौ वा तयोरन्तरालकालः, अर्धमासश्च संश्लेषविश्लेषयोरन्तरमतो भृतकमासादेन भवति, संवत्सरपर्वाभावात् । आग्रहायण्यश्वत्थादिकण् ॥ ६. २. ९९ ॥
आग्रहायणी अश्वत्था इत्येताभ्यां सेति प्रथमान्ताभ्यामस्येति षष्ठयर्थे इकण् प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेत्पौर्णमासी भवति नाम्नि प्रत्ययान्तं चेत् नाम स्यात् । आग्रहायणी पौर्णमासी अस्य आग्रहायणिको मासोर्धमासो वा, अश्वत्था पौर्णमासी अस्य आश्वत्थिको मासोऽर्धमासो वा, आग्रहायणी मार्गशीर्षी, अश्वत्था आश्वयुजी, अन्ये तु अश्वत्थशब्दमप्रत्ययान्तं पौर्णमास्यामपि पुलिङ्गमिच्छन्ति, अश्वत्थः पौर्णमासी ।९९।
न्या० स० आग्रहायण्य-आग्रहायणीति अग्रं हायनस्य 'द्वित्रिचतुष्परण' ३-१-५६ इति सः, 'प्रथमोक्तम्' ३-१-१४८ इति अग्रस्य पूर्वनिपातः, 'पूर्ष पदस्था' २-३-६४ इति णत्वं, अग्रहायण एव प्रज्ञादिभ्योऽण् कीः । चैत्रीकार्तिकीफाल्गुनीश्रवणादा ॥ ६. २. १००॥
एभ्य इकण् प्रत्ययो भवति वा सास्य पौर्णमासीति अस्मिन् विषये नाम्नि । चैत्री पौर्णमासी अस्य चैत्रिकः चैत्रो वा मासोऽर्धमासो वा, एवं कार्तिक्याः कातिकिकः, कार्तिकः, फाल्गुन्याः फाल्मुनिकः, फाल्गुनः, श्रवणायाः श्रावणिकः श्रावणः ॥१०॥ देवता ।। ६. २. १०१ ॥
सास्येत्यनुवर्तते । सेति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं देवता चेत्सा भवति । अर्हन् देवता अस्य आर्हतः,
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८८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २. सू. १०२-१०६ ] जैनः, आग्नेयो ब्रह्मणः, ऐन्दं हविः, ऐन्द्रः पुरोडाशः, वारुणश्वरुः, आदित्यः, बार्हस्पत्या, मव्यम्, द्वीन्द्रम् ।१०१॥
पैङ्गाक्षीपुत्रादेरीयः ॥ ६. २. १०२ ॥ __ पैङ्गाक्षीपुत्र इत्येवमादिभ्य ईय: प्रत्ययो भवति सास्य देवतेत्यस्मिन विषये, अणोऽपवादः । पैङ्गाक्षीपुत्रो देवतास्य पैङ्गाक्षीपुत्रीयं हविः, तार्णाबिन्दवो देवतास्य तार्णबिन्दवीयं हविः एवं पैङ्गोपुत्रीयम्, पैङ्गाक्षीपुत्रादयः प्रयोगगम्याः ।१०२।
न्या० स० पैङ्गाक्षीपुत्रादेः पिङ्गे अक्षिणी यस्य ‘सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे' ७-३-१२६ (इति) टः, पिङ्गाक्षस्यापत्यं वृद्धं स्त्री, 'अत इञ्। ६-१-३१ 'अनार्षे वृद्धे । २-४-७८ इति ष्यः, आप् पिङ्गाक्षायाः पुत्रः 'ष्या पुत्रंपत्योरीच्' २-४-८३, अनन्तरापत्ये वा इञ् , तदा 'नुर्जातेङीः' २-४-७२ पिङ्गाक्ष्याः पुत्रः । शुक्रादियः ॥ ६. २. १०३ ॥
शुक्रशब्दादियः प्रत्ययो भवति सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये । शुक्रियं हविः, शुक्रियोऽध्यायः ॥१०३। शतरुद्रात्तौ ।। ६. २. १०४ ।।
शतरुद्रशब्दात्तौ ईय इय इत्येतो प्रत्ययो भवत: सास्य देवतेत्यस्मिन विषये । शतसंख्या रुद्राः शतरुद्राः, ते देवता अस्य शतरुद्रीयं शतरुद्रियम् । शतं रुद्रा देवतास्येति द्विगावपि विधानसामर्थ्यात् लुब् न भवति ।१०४। अपोनपादपान्नपातस्त चातः ॥ ६. २. १०५ ॥
अपोनपादपान्नपात् इत्येताभ्यां तौ प्रत्ययो भवतः सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये तत्सनियोगे चानयोराच्छब्दस्य तृ इत्ययमादेशो भवति । अपोनपात देवतास्य अपोनप्त्रोयम् अपोनप्त्रियम् अपांनप्त्रीयम् अपान्नप्त्रियम् ।१०५॥
न्या० स० अपोनपाद-अपोनप्त्रीयमिति न पातीति शतृः नखादित्वाददभावः, ततोऽपः कर्मतापन्ना नपात, अत एव निर्देशादलुप, यद्वाऽपकृष्टमूनमपोनं तत्पातयति क्विप् अपकृष्टमन्नपान्नं तत्पातयति क्विप् । महेन्द्रादा ॥ ६. २. १०६ ॥
महेन्द्रशब्दात्सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये तो प्रत्ययौ वा भवतः । महेन्द्रीयम्, महेन्द्रियम्, पक्षे अण-माहेन्द्रं हविः ॥१०६।
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[पाद. २. सू. १०७-११• ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ ८९ कसोमात् ट्यण् ॥ ६. २. १०७ ॥
कशब्दात्सोमशब्दाच्च सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये टयण प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । टकारो ड्यर्थः । कः प्रजापतिर्देवतास्य कायं हविः, कायी इष्टिः, कशब्दं प्रति णित्त्वस्य वैयदिालोपो न भवति । सोमो देवतास्य सौम्यं हविः, सौम्य सूक्तम्, सौमी ऋक् ।१०७।
न्या० स० कसोमायण-अथ कायमित्यत्र लोपात्स्वरादेशः इति न्यायेन लोपात्पूर्व वृद्धौ कृतायां पश्चादाकारलोपः कस्मान्न भवति ? इत्याह-कशब्द प्रतीति अकारस्याकारस्य वा लोपे विशेषाभावात् , यद्वा सकृद्गते स्पर्द्ध यद्बाधितं तद्बाधितमेवेत्युपतिष्ठते । द्यावापृथिवीशुनासीरामीषोममरुत्वदास्तोष्पतिगृहमेधादीययो
॥ ६. २. १०८ ॥ · एभ्यः सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये ईंय य इत्येतो प्रत्ययो भवतः, अणो व्यस्य चापवादः। द्यौश्च पृथिवी च द्यावापृथिव्यौ ते देवते मस्य घावापृथिवीयम् हविः द्यावापृथिव्यम्, शुनश्च वायुः सीरश्चादित्यः शुनासीरौ तो देवता अस्य शुनासीरीयम् शुनासीयम् । अग्निश्च सोमश्च अग्नीषामौ तौ देवता अस्य अग्नीषोमीयम्, अग्नीषोम्यम्, मरुत्वान् देवतास्य मरुत्वतीयम्, मरुत्वत्यम्, वास्तोष्पतिर्देवतास्येति वास्तोष्पतीयम् वास्तोष्पत्यम्, गृहमेधो देवतास्य गृहमेधीयम् गृहमेध्यम् ।१०८। वावृतुपित्रुषसो यः ॥ ६. २. १०९ ॥
वायु ऋतु पितृ उषस् इत्येतेभ्यः सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये यः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । वायुर्देवतास्य वायव्यम् । एवम् ऋतव्यम्, पित्र्यम्, उषस्यम् ।१०९। __न्या० स० वातपित्रु०-उषस्यमिति संध्यावाचकः स्त्रीक्लीषः प्रभातवाचकस्तु नपुंसकलिङ्गः, उषा देवताऽस्येति विग्रहः। महाराजप्रोष्ठपदादिकण् ॥ ६. २. ११०॥
महाराज प्रोष्ठपद इत्येताभ्यां सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये इकण् प्रत्ययो भवति । अणोऽपवादः । महाराजो देवतास्य माहाराजिकः। माहाराजिकी, प्रौष्ठपदिकः, प्रौष्ठपदिकी ।११०।
न्या० स० महाराज०-पौष्ठपदिक इति पौष्ठो गौस्तस्येव पादावस्य 'सुप्रातसुश्व' ७-३-१२९ इति डे निपातः प्रौष्ठपदः पुरुषः नामग्रहणेऽपि बीलिङगोऽपि नक्षत्रवाची
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९० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. २ सू. १११-११४ ] प्रोष्ठपदाशब्दो ग्राह्यः, यदा प्रोष्ठपदासु जातः 'जाते' ६-३-९८ इत्यः तदा ‘प्रोष्ठभद्राजाते' ७-४-१३ इत्युत्तरपदवृद्धौ प्रोष्ठपाद इति स्यात् , बहुलग्रहणाबहुलमन्येभ्य इति जाता यस्याणो न लुप् , बहुलग्रहणस्य लक्ष्यानुसारार्थत्वे व्याख्यातत्वात् । कालाद्भववत् ॥ ६. २. १११ ॥
कालविशेषवाचिभ्यो नामभ्यो यथा भवेऽर्थे प्रत्यया वक्ष्यन्ते तथा सास्य देवतेत्यस्मिन् विषये भवन्ति । वत्सर्वसादृश्यार्थः, तेन यकाभ्यः प्रकृतिभ्यो येन विशेषणेन ये प्रत्यया भवेऽर्थे भवन्ति ताभ्य एव प्रकृतिभ्यस्तेनैव विशेषणेन त एव प्रत्यया इह भवन्ति । यथा मासे भवं मासिकम्, सांवत्सरिकम्, हैमनम्, वासन्तम्, प्रावृषेण्यम् तथा मासो देवतास्य मासिकम्, सांवत्सरिकम्, हैमनम्, वासन्तम्, प्रावृषेण्यम् ।१११। आदेश्छन्दसः प्रगाथे ॥ ६. २. ११२ ॥
सेति प्रकृतिरस्येति प्रत्ययार्थश्चानुवर्तते । तयोर्यथाक्रमं विशेषणे आदेश्छन्दस इति प्रगाथे इति च, सेति प्रथमान्तादादिभूतात् . छन्दसोऽस्येति षष्ठयर्थे प्रगाथेऽभिधेये यथाविहितं प्रत्ययो भवति । यत्र द्व ऋचौ प्रग्रन्थनेन प्रकर्षगानेन वा तिस्रः क्रियन्ते स मन्त्रविशेषः प्रगाथः। पङ्क्तिरादिर्यस्य प्रगाथस्य स पाङ्क्तः प्रगाथः, एवमानुष्टुभः, जागतः आदेरिति किम् ? अनुष्टुब्, मध्यमस्य प्रगाथस्य । छन्दस इति किम् । उदित्ययं शब्द आदिरस्य प्रगाथस्य । प्रगाथ इति किम् ? पङ्क्तिरादिरस्य अनुवाकस्य ।११२॥
न्या० स० आदेश्छन्दसः प्रगाथे इति प्रगथ्यते घञ्, अत एव निर्देशात् रनकारयोर्लोपः प्रगीयते वा कमिघुगार्तिभ्यस्थः, प्रपन्थनेन प्रकृष्टरचनाविशेषेण ।
प्रकर्षगानेन उच्चारविशेषेणेत्यर्थः । भनुवाकस्येति अनुवाकः पाठविशेषः तस्य । योद्धप्रयोजनाद्युद्धे ॥ ६. २. ११३ ॥ ___ सेति प्रथमान्तात् योद्धवाचिनः प्रयोजनवाचिनश्चास्येति षष्ठपर्थे युद्धेऽभिधेये यथाविहितं प्रत्ययो भवति । विद्याधरा योद्धारः अस्य युद्धस्य वैद्याधरं युद्धम्, भारतं युद्धम्, प्रयोजनं प्रवृत्तिसाध्यं फलम् । सुभद्रा प्रयोजनमस्य युद्धस्य सौभद्रं युद्धम्, सौतारं युद्धम्, अत्र सुभद्रादिशब्दस्तत्प्राप्तौ वर्तत इति प्रयोजनम् । योद्धृप्रयोजनादिति किम् ? मासोऽस्य युद्धस्य । युद्ध इति किम् ? सुभद्रा प्रयोजनमस्य वैरस्य ।११३। भावघञोऽस्यां णः ॥ ६. २. ११४ ॥
सेति प्रकृतिविशेषणमनुवर्तते। भावे यो घन् तदन्तात् प्रथमान्ताद
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[पाद. २ सू. ११५-११७] श्रीसिद्धहेमचन्द्राशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ ९१ स्यामिति स्त्रीलिङ्गे सप्तम्यर्थे णः प्रत्ययो भवति । प्रपातोऽस्यां वर्तते तिथौ प्रापाता, एवं दाण्डाघाता, मौसलपाता भूमिः, भावग्रहणं किम् ? प्रकारोऽस्याम्, प्रासादोऽस्याम् । घन इति किम् ? श्येनपतनमस्याम् । स्त्रीलिजगग्रहणादिह न भवति । दण्डपातोऽस्मिन् दिवसे । इतिकरणानुवृत्तेः कचिन्न भवति । द्रोणपाकोऽस्यां स्थाल्याम्, केवलाच्च भाव घान्तान्न भवति ।११४॥
न्या० स० भावोऽस्यां०-प्रापातेति यद्यपि प्रत्ययः प्रकृत्यादेः इति न्यायेन पात इत्येतदेव घनन्तं न समुदायस्तथापि, कृत् सगतिकारकस्यापीति प्रतातादिः समुदायो घनन्त एव । श्यैनंपाता तैलंपाता ॥ ६. २. ११५ ॥
श्येनशब्दस्य तिलशब्दस्य च भावघजन्ते पातशब्दे परे मान्तो निपात्यते, प्रत्ययस्तु पूर्वेणैव सिद्धः । श्येनपातोऽस्यां वर्तते श्यनंपाता। तिलपातोऽस्यां वर्तते तैलंपाता तिथिः क्रियाभूमिः क्रीडा वा ।११५। प्रहरणात् क्रीडायां णः ॥ ६. २. ११६ ॥
प्रहरणवाचिन: प्रथमान्तादस्यामिति सप्तम्यर्थे क्रीडायां णः प्रत्ययो भवति । दण्डः प्रहरणमस्यां क्रीडायां दाण्डा, एवं मौष्टा, पादा, क्रीडा । प्रहरणादिति किम् ? माला भूषणमस्यां क्रीडायाम् । क्रीडायामिति किम् ? खड्गः प्रहरणमस्यां सेनायाम्, यत्राद्रोहेण घातप्रतिघातौ स्यातां सा क्रीडा । 'भावघोऽस्यां णः' (६-२-११४) इत्य नन्तरो णो नानुवर्तते क्रीडाया अर्थान्तरत्वात् यथा पूर्वसूत्रोपात्तः समूहाद्यर्थेषु ततो यथाविहितमेव प्रत्ययो भवेदितीह पुनर्णग्रहणम् ।११६। - न्या० स० प्रहरणात्-समूहाचर्येष्विति 'श्रवणाश्वत्थान्नाम्न्यः' ६-२-८ इत्यत्रोपात्तोऽप्रत्ययः 'षष्ठ्याः समहे, ६-२-९ इत्यत्र यथा नानवर्तते. अन्यथा भाषघबोर इत्यतोऽधिकारायातेनैव सिध्यति । तद्धेत्यधीते ॥ ६. २. ११७॥
तदिति द्वितीयान्तात् वेत्ति अधीते वेत्येतयोरर्थयोर्यथाविहितं प्रत्ययो भवति । मुहूर्तं वेत्ति मौहूर्तः, एवमौत्पात, नैमित्तः । केचित्तु मुहूर्तनिमित्तशब्दौ न्यायादौ पठन्ति तन्मते मौहर्तिकः नैमित्तिकः छन्दोऽधीते छान्दसः, व्याकरणं वेत्त्यधीते वा वैयाकरणः, नैरुक्तः, घटं वेत्ति पटं वेत्तीत्यादावनभिधानान्न भवति । केचित्तु वेदनाध्ययनयोरेकविषयतायामेवेच्छन्ति । तन्मते अग्निष्टोमं यज्ञं वेत्तीस्यादावपि प्रत्ययो न भवति ।११७।
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९२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंलिते [ पाद. २ सू० ११८-१२० ] न्या. स. तदुवेत्त्यधीते-अग्निष्टोमं यज्ञमिति यज्ञो हि क्रियारूपस्तस्य च ज्ञानमेव घटते । नाध्ययनम् , ते च यत्र ज्ञानाध्ययने द्वे अपि घटेते तत्रैव प्रत्ययमिच्छन्ति नान्यत्र । न्यायादेरिकण् ॥ ६. २. ११८॥
न्यायादिभ्यो वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । न्यायं वेत्यधीते वा नैयायिकः, नैयासिकः, न्याय, न्यास, लोकायत, पुनरुक्त, परिषद्, चर्चा, क्रमेतर, श्लक्ष्ण, संहिता, पदे, पद, क्रम, संघट, संघटा, वृत्ति, संग्रह, आयुर्वेद, गण, गुण, स्वागम, इतिहास, पुराण, भारत, ब्रह्माण्ड, आख्यान, द्विपदा, ज्योतिष, गणित, अनस्त, लक्ष्य, लक्षण, अनुलक्ष्य, सुलक्ष्य, वसन्त, वर्षा, शरद्, वर्षाशरद्, हेमन्त, शिशिर, प्रथम, चरम, प्रथमगुण, चरमगुण, अनुगुण, अथर्वन्, आथर्वण इति न्यायादिः ।। ११८ ।।।
न्या० स० न्यायादेरिकण्-ननु न्यायः प्रतिपत्युपायः प्रज्ञाविशेषः कश्चिदुच्यते, तस्य च वेदनमेव संभवति नाध्ययनं तत्कथमुच्यते न्यायं वेत्यधीते वेति ! नैष दोषः, न्यायाभिधायिशास्त्रस्यापि तादर्थ्यान्न्याय शब्देनाभिधानात्तस्य च वेदनाध्ययनयोः संभवादिति, एवं पूर्वसूत्रेऽप्यग्निष्टोमप्रतिपादकग्रन्थस्य वेदनाध्ययने संभवतः, न्यायशास्त्रं वा। पदकल्पलक्षणान्तक्रत्वाख्यानाख्यायिकात् ॥ ६. २. ११९॥
पदकल्पलक्षणशब्दान्तेभ्यः क्रत्वाख्यानाख्यायिकावाचिभ्यश्च वेत्त्यधीते . वेत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । पदान्त, पौर्वपदिकः, औत्तरपदिकः, आनुपदिकः । बहुप्रत्ययपूर्वात्पदशब्दान्न भवति अनभिधानात् । कल्पान्त,-मातृकल्पिकः, पैतृकल्पिकः, पाराशरकल्पिकः, श्राद्धकल्पिकः, I लक्षणान्त,-गौलक्षणिकः, आश्वलक्षणिकः, हास्तिलक्षणिकः, आनुलक्षणिकः, सौलक्षणिकः । लाक्षणिक इति न्यायादित्वात् सिद्धम् । ऋतु-आग्निष्टोमिकः, वाजपेयिकः, ज्यौतिष्टोमिकः, राजसूयिकः, आख्यान, यावक्रोतिकः, यावक्रिकः, प्रेयंगविकः, प्रयंगुकः, आविमारकिकः, आख्यायिका-वासवदत्तिकः, सौमनोहरिकः ॥११९॥ __न्या० स० पदकल्प०–अनभिधानादिति-यथा ईषदपरिसमाप्तं पदं बहुपदं तद्वेत्त्यधीते वा. आख्यानेति अभिनयति गायन् पठन् यदेको ग्रन्थकस्तदाख्यानम्, व्याख्यानशब्दस्य न्यायादिपाठादेव इकण् सिद्ध इत्यर्थप्रधानोऽयं, एतत्साहचर्याच क्रत्वादीनामप्यर्थप्रधानानां ग्रहः, यावक्रीतिक इति यवैः क्रीतं, यवाः क्रीता अस्मिन्निति वा यवक्रीतनामाख्यानं, यवान् क्रीणातीति यवक्रीस्तमधिकृत्य कृतमाख्यानं, 'अमोधिकृत्य' ६-३-१९८ इत्यणि यावकं ततस्तदवेत्त्यधीते वेतीकणि यावक्रिकः । अकल्पात् सूत्रात् ॥ ६. २. १२० ॥ कल्पशब्दवजितात्परो यः सूत्रशब्दस्तदन्ताद्वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकण् प्रत्ययो
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[पाद २. सू. १२१-१२४] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठाध्यायः [९३ भवति । वातिसूत्रिकः, सांग्रहसूत्रिकः। अकल्पादिति किम् ? सौत्रः, काल्पसौत्रः ।।१२० ॥
न्या० स० अकल्पात् सूत्रात्-सौत्र इति अकल्पादिति पर्युदासेन पूर्वपदाभावे न भवति । अधर्मक्षत्रत्रिसंसर्गाङ्गादिद्यायाः ॥ ६. २. १२१ ॥
धर्म क्षत्र त्रि संसर्ग अङ्ग इत्येतच्छन्दवजितात्परो यो विद्याशब्दस्तदन्ताद्वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । वायसविधिकः सार्पविधिकः । अधर्मादेरिति किम् । वैद्यः, धार्मविद्यः, क्षात्रविद्यः, व्यवयवा विद्या त्रिविद्या तां वेत्त्यधीते वा विद्यः, अत्र त्रिविद्याशब्दस्य कर्मधारयस्यैव ग्रहणम् न द्विगोः । तत्र लुपि सत्यामणिकणोविशेषाभावात् । त्रिविद्यः, सांसर्गविद्यः, आङ्गविद्यः ।। १२१ ॥ याज्ञिकौक्थिकलौकायितिकम् ॥६. २. १२२ ।।
याज्ञिकादयः शब्दा वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकण्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, याशिकेति यज्ञशब्दाचाज्ञिक्यशब्दाच्चेकण् इक्यलोपश्व निपात्यते। यज्ञं याज्ञिक्यं वा वेत्त्यधीते वा याज्ञिक: । औक्थिकेति उक्थशब्दः केषुचिदेव सामसु रूढः । यज्ञायज्ञीयात् परेण यानि गीयन्ते न च तेषु वर्तमानात्प्रत्यय इष्यते किं तर्हि तव्याख्याने औक्थिक्ये उपचारेण वर्तमानात् । उक्थमधीते औक्थिकः, औक्थिक्यमधीते इत्यर्थः । औक्थिक्यशब्दात्तु प्रत्ययो न भवत्यनभिधानात्, तस्मादपीच्छन्त्येके । औक्थिक्यमधीते औक्थिकः, लौकायितिकेति लोकायतशब्दादिकण् यकाराकारस्य चेकारो निपात्यते, लोकायतं वेत्त्यधीते वा मौकायितिकः । लौकायतिका इति तु न्यायादिपाठात्सिद्धम् ॥ १२२ ॥
न्या. स. याज्ञिकौक्थिक०-परेणेति अव्ययः पराणीत्यर्थः । अनुब्राह्मणादिन् ॥ ६. २, १२३ ॥
अनुब्राह्मणशब्दाद्वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इन् प्रत्ययो भवति । ब्रह्मणा प्रोक्तो ग्रन्थो ब्राह्मणम् । ब्राह्मणसदृशो ग्रन्थोऽनुब्राह्मणम् । सहशार्थेऽव्ययीभावः, तद्वेत्त्यधीते वानुब्राह्मणी । अनुब्राह्मणिनी, अनुब्राह्मणिनः, मत्वर्थीयेनैवेना सिद्धे अनभिधानाच्च इकस्याप्रवृत्तावण्बाधनार्थमिनो विधानम् ॥ १२३॥ शतषष्टेः पथ इकट् ॥ ६. २. १२४॥
शतषष्टि इत्येताभ्यां परो यः पथिन् शब्दस्तदन्ताद्वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकट् प्रत्ययो भवति। शतपथिकः, शतपथिकी, षष्टिपथिकः, षष्टिपथिकी।१२४॥
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९४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंपलिते [ पा० २. सू० १२५-१२८ ] पदोत्तरपदेभ्य इकः ॥ ६. २. १२५॥
पदशब्द उत्तरपदं यस्य तस्मात्पदशब्दात्पदोत्तरपदशब्दाच्च वेत्त्यधीते वेत्यर्थे इकः प्रत्ययो भवति । पूर्वपदिकः, उत्तरपदिकः, पूर्वपदिका, उत्तरपदिका, पद पदिकः, पदिका, पदोत्तरपदिकः, पदोत्तरपदिका । बहुवचनं सर्वभङ्गपरिग्रहार्थम् ।१२५।
न्या० स० पदोत्तरपदेभ्यः पदशब्द उत्तरपदं यस्य पदोत्तरपदश्च पदश्च पदोत्तरपदश्च सूत्रत्वादेकशेषः । पदक्रमशिक्षामीमांसासाम्नोऽकः ॥ ६. २. १२६ ।।
पद क्रम शिक्षा मीमांसा सामन् इत्येतेभ्यो तद्वेत्त्यधीते वेत्यर्थेऽकः . प्रत्ययो भवति । पदकः, क्रमकः, शिक्षकः, मीमांसकः, सामकः। उपनिषच्छब्दादपीच्छति कश्चित् । उपनिषदकः, के सति शिक्षाका शिक्षिका शिक्षका । मीमांसाका मीमांसिका मीमांसकेति रूपत्रयं स्यात् । शिक्षिका मीमांसिकेति चेष्यते, तदर्थमकवचनम् ।१२६॥
न्या. स. पदक्रम-रूपत्रयमिति 'इच्चापुंसोनिक्याप्परे' २-४-१०७ इत्यनेन । ससर्वपूर्वाल्लुप् ॥ ६. २. १२७ ॥
सपूर्वात्सर्वपूर्वाच्च वेत्यधीते वेत्यर्थे विहितस्य प्रत्ययस्य लुप् भवति । सवातिकमधीते सवार्तिकः, ससंग्रहः, अणो लुप् । सकल्पः, अत्रेकणः, सर्ववेदः, सर्वतन्त्रः, अत्राणः, सर्वविद्यः, अत्रेकणः । कथं द्विवेदः पश्चव्याकरण इति ? 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेलु बद्विः' (६-१-२४) इति लुपि भविष्यति ।१२७। संख्याकात्सूत्रे ॥ ६. २. १२८ ॥
संख्याया: परो यः कः प्रत्ययो विहितस्तदन्तात्सूत्रे वर्तमानात् नाम्नो वेत्त्यधीते वेत्यर्थे उत्पन्नस्य प्रत्ययस्य लुब भवति, अप्रोक्तार्थ आरम्भः । अष्टावध्यायाःपरिमाणमस्य अष्टकं सूत्रम् । तद्विदन्ति अधीयते वा अष्टकाः पाणिनीयाः, आपिशलीयाः, त्रिकाः काशकृत्स्नाः, दशका उमास्वातीयाः, द्वादशका आर्हताः, संख्याग्रहणं किम् ? माहावातिकाः, कालापकाः । कादिति किम् ? चतुष्टयं सूत्रमधीयते चातुष्टयाः ।१२८१
___ न्या० स० संख्याकात्०-अप्रोक्तार्थ आरम्भ इति अन्यथोत्तरेणैव सिध्यति, त्रयोदश चाध्याया मानमस्य अवयवात्तयट्बाधकः 'संख्याऽतेः कः' ६-४-१३०. त्रिकं दशकं च विदन्त्यधीयते वा यदा तु 'क्वचित्' ५-१-१७१ इति डे कलापोऽस्यास्ति, कलापिना प्रोक्तं तेन प्रोक्तं'
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[पाद. २. सू. १२९-१३० श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ ९५ ६-३-१८१ इत्यण् 'कलापि' ७-४-७२ इत्यन्त्यस्वरादिलुप् , कुत्सितं कालापं कालापर्क तद्विदन्ति अधीयते वा तदा लुप्यलुपि वा न विशेषो वृद्धस्तथैव सद्भावात् । प्रोक्तात् ॥ ६. २. १२९ ॥
प्रोक्तार्थविहितः प्रत्यय उपचारात् प्रोक्त इत्युच्यते, तदन्तान्नाम्नो वेत्त्यधीते वेत्यर्थे उत्पन्नस्य प्रत्ययस्य लुब् भवति । गोतमेन प्रोक्तं गौतमम्, तद्वत्यधोते वा गौतमः । सुधर्मेण सुधर्मणा वा प्रोक्त सौधर्मम् सौधर्मणं वा तद्वेत्यधीते वा सौधर्मः सौधर्मणः, एवं भाद्रवाहवः । पाणिनीयः, आपिशलः, स्त्रियां विशेषः । गौतमा सौधर्मा सौधर्मणा स्त्री इत्यादि । अणो लुप्यणन्तत्वाभावात् डोर्न भवति ।१२९। ___ न्या० स० प्रोक्तात्-सुधर्मेणेति शोभनो धर्मो यस्य 'द्विपदाद्धर्मादन्' ७-३-१४१ इत्यस्यैकेषां मते विकल्पः ।
स्त्रियां विशेष इति नन्वत्र प्रत्ययलुप्यलुपि वाऽविशेषस्तकिमर्थमिदं सूत्रं ? इत्याशक्का गर्न भवति अत्र हि यस्यां त्रियां योऽण् विहितः, स लुप्तः यश्च विद्यते तस्य न खी। . वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव ॥ ६. २. १३० ॥ . प्रोक्तग्रहणमिहानुवर्तते । तच्च प्रथमान्तं विपरिणम्यते । प्रोक्तप्रस्ययान्तं वेदवाचि इनन्तं च ब्राह्मणवाचि अत्रैव वेत्त्यधीते वेत्येतद्विषये एव प्रयुज्यते, तेन स्वातन्त्र्यम् उपाध्यन्तरयोगो वाक्यं च निवर्तते । वेद, कठेन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा कठाः, एवं कलापिना कालापाः, मौदेन मौदाः । पैष्पलादेन पैष्पलादाः, ऋचाभेन आर्चाभिनः वाजसनेयेन वाजसनेयिनः, इन् ब्राह्मणं खल्वपि । ताण्डयेन प्रोक्त ब्राह्मणं विदन्त्यधीयते वा ताण्डिनः । भाल्लविना भाल्लविनः । शाटचायनिना शाटचायनेन वा शाटयानिनः, ऐतरेयेण ऐतरेयिणः। इन्ग्रहणं किम् ? याज्ञवल्क्येन प्रोक्तानि ब्राह्मणानि याज्ञवल्क्यानि । 'शकलादेर्यञः' (६-३-२७) इस्यञ्, सौलाभेन सोलाभानि । 'मौदादिभ्यः' (६-३-१८०) इत्यण् । ब्राह्मणमिति किम् । पिङ्गेनं प्रोक्तः पैगी कल्पः । ब्राह्मण बेद एव तत्र वेद इत्येव सिद्धे अनिनन्तस्य नियमनिवृत्त्यर्थमिन्ब्राह्मणग्रहणम् । प्रोक्तानुवर्तनं किमर्थम् । ऋचः यजूषि सामानि मन्त्राः वेदः। आरम्भसामर्थ्यादवधारणे सिद्ध उभयावधारणार्थमेवकारः । प्रोक्तप्रत्ययान्तस्यात्रैव वृत्तिन्यित्र तथात्र वृत्तिरेव न केवलस्य प्रोक्तप्रत्ययान्तस्यावस्थानम् । अन्यत्र स्वनियमात्कचित्स्वातन्त्र्यं भवति, अर्हता प्रोक्तमार्हतं शास्त्रम् । कचिदुपाध्यन्तरयोगः। आर्हतं महत्सुविहितमिति, कचिद्वाक्यम् ।
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९६ ] बृहबृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० १३०- १३१ । आर्हतमधीते, कचिद्वत्तिः आर्हत इति । इह पुननियमायुगपदेव विग्रहः । कठेन प्रोक्तमधीयते कठा इति ।१३०।। ____ न्या० स० वेदेन ब्राह्मण प्रथमान्तमिति अर्थवशाद विभक्तिपरिणामः, स्वातन्त्र्यमिति वेत्त्यधीते वेत्यर्थरहितं न प्रयुज्यत इत्यर्थः । उपाध्यन्तरयोग इति कठेन प्रोक्तं शोभनं वेदं विदन्त्यधीयते वा इति विशेषणयोगो न भवतीत्यर्थः। मुदपिप्पलादाभ्यामृध्यणि मौदः, पैप्पलादः ततो 'मौदादिभ्यः' ६-३-१८२ इतीयापवादोऽण् , ऋम्भिराभातीति ऋगाभः, पृषोदरादित्वात् गस्य चत्वे ऋचाभः, ततः प्रोक्ते शौनकादित्याण्णिन्, तदन्तादबो लुप्, वाजसनाया अपत्यं 'क्याप्त्यूङः' ६-१-७० (इति) एयण, शौणकादित्वाण्णिन् ततोऽण लुप् , तण्डिनशब्दाद्गर्गादियबन्तात् शौनकादित्वाण्णिन् ततोऽण् लुप्, भल्लवशब्दादिनन्तात् प्रोक्तार्थे पूर्ववण्णिनादयः । शादयायनिन इति शटशब्दात् गर्गादियबन्तात् तिकाद्यायनिञ् , एके त्वयवन्तं तिकादौ पठन्ति तन्मते 'यमित्र' ६-१-५४ इत्यायनणि पूर्ववत् शौनकादित्वात् णिन्नादौ शाट्यानिनः, इतरस्यापत्यं शुभ्रादित्वादेयणि एतरेयः, ततः पूर्ववण्णिनादौ ऐतरेयिणः ।
इन्प्रहणमिति तेन याज्ञवल्कानि ब्राह्मणानीत्यनिनन्तस्य वेद इति नियमो निवर्त्तते ।
प्रोक्तानुवर्तनमिति अयमर्थः, ऋगादयः शब्दा वेदवाचिनो भवन्ति न तु प्रोक्तप्रत्ययान्ता इति, यद प्रोक्तग्रहणं नानुवत्तेत तदात्रापि वेत्त्यधीते वेत्येतद्विषय एवेति प्रयोगनियमः प्रसज्येत ततश्च ऋचस्तिष्ठन्ति इत्यादि वक्तुं न लभ्येत । ___ आहेत इतीति अर्हता प्रोक्तं तेन प्रोक्त' ६-३-१८१ इत्यण् आहेतं वेत्त्यधीते वा अण् तस्य लुप् ।
तेन छन्ने रथे ।। ६. २. १३१॥ ___ छन्न इति प्रत्ययार्थो रथ इति तस्य विशेषणम्, तेनेति तृतीयान्तात् छन्ने रथेऽभिधेये यथाभिहितं प्रत्ययो भवति । वस्त्रेण छन्नो रथः वास्त्रः, काम्बलः, चार्मणः, द्वैपेन चर्मणा द्वैपः, वैयाघ्रण वैयाघ्रः । रथ इति किम् ? वस्त्रेण छन्नः कायः, छन्नशब्देन समन्ताद्वेष्टितं व्याप्त मुच्यते, तेनेह न भवति । पुत्रैः परिवृतो रथः, इह कथमण भवति । न विद्यते पूर्वः पतिर्यस्याः सा अपूर्वा कुमारी तादृशीं कुमारीमुपपन्न: कौमारः पतिरिति, तत्र ‘भवे' (६-३-१२२) इत्यण भविष्यति । कुमायाँ भवः कौमारः पतिः धवयोगे तु कौमारी भार्येत्यपि सिद्धम् ।१३१। ___ न्या० स० तेन०-वैयाघेणेति व्याघ्रस्य विकारः 'प्राण्यौषधि' ६-२-३१ इत्यण् , इदमर्थे त्वीयः स्यात् ।
कथमण भवतीति परैस्तावपत्र कौमारापूर्ववचन इति कौमारशब्दोऽणन्तो वृत्तिप्रदर्शितेऽर्थे निपात्यते, स्वमते त्वस्मिन्नर्थेऽण्विधायकसुत्राभावात् कथम् ? इत्याशका ।
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। पाद. ३. सू. १३२-१३७] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [९७ पाण्डुकम्बलादिन् ॥ ६. २. १३२ ॥
पाण्डुकम्बलशब्दात्तृतीयान्ताच्छन्ने रथे वाच्ये इन् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । पाण्डुकम्बलेन छन्नः पाण्डुकम्बली रथः ।१३२।
दृष्टे साम्नि नाम्नि ॥ ६. २. १३३ ॥ ___ दृष्ट इति प्रत्ययार्थस्तस्य साम्नीति विशेषणम् । तेनेति तृतीयान्तात् दृष्टं सामेत्यस्मिन् अर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति नाम्नि प्रत्ययान्तं चेत्साम्नो नाम भवति । क्रुञ्चेन दृष्टं साम क्रोश्चम, मृगीयुणा मार्गीयवम्, एवं मायूरम् । तैत्तिरम्, वासिष्ठम्, वैश्वामित्रम्, कालेयम्, आग्नेयम्, एवं नामानि सामानि ॥१३३॥
न्या० स० दृष्टे०-कुञ्चेनेति नडादिगणपाठात् कुञ्चाशब्दस्य हस्वः । गोत्रादकवत् ॥ ६. २. १३४॥ ___गोत्रवाचिनस्तृतीयान्तात् दृष्टं सामेत्यस्मिन्नर्थे अङ्कवत् प्रत्ययो भवति । यथा तस्यायमङ्क इत्यत्रेदमर्थे प्रत्ययो भवति तथा दृष्टं सामेत्येतस्निन्नर्थेऽपि ।
औपगवेन दृष्टं साम औपगवकम्, कापट वकम्, वाहतवकम् । अङ्क इति विशेषोपादानेऽपि तस्येमित्यर्थमात्रं परिगृह्यते ।१३४। वामदेवाद्यः ॥ ६. २. १३५॥
वामदेवशब्दात्तृतीयान्तात् दृष्ट सामनि यः प्रत्ययो भवति । वामदेवेन दृष्टं साम वामदेव्यम् ।१३५॥ डिवाण ॥ ६. २. १३६ ॥
दृष्टं सामेत्यस्मिन्नर्थे योऽण् प्रत्ययो विहितः स डिद्वा भवति । उशनसा दृष्टं साम औशनम्, औशनसम् ।१३६।
वा जाते दिः ॥ ६. २. १३७ ॥ ___ जात इत्यस्मिन्नर्थे योऽण् प्रत्ययो द्विविहित उत्सर्गेण प्राप्तोऽपवादेन बाधितः सन् पुनविहितः स डिद्वा भवति । शतभिषजि जातः शातभिष: शातभिषजः । द्विरिति किम् ? हिमवति जातो हैमवतः, केचित्तु द्विडित्त्वमिच्छन्ति, तन्मते द्विडित्त्वात् द्विरन्त्यस्वरादिलोपे शातभ इत्यपि भवति, एवं पूर्वसूत्रेऽपि । औशं साम, एवं च योगद्वयेऽपि त्रैरूप्यं सिद्धम् ।१३७॥
न्या० स० वा जा०-शातभिष इति शतं भिषजोऽस्याः शतभिषजा चन्द्रयुक्तया युक्तः
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९८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २. सू. १३८-१४३ ] कालोऽण् , लुप् 'जाते' ६-३-९८ इत्यणो बाधको ‘वर्षाकालेभ्यः' ६-३-८० इकण् पुनस्तद्बाधको ‘भर्तुसंध्यादेरण' ६-३-८९ ।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र० षष्ठस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः । तत्रोद्धृतेपात्रेभ्यः ॥ ६. २. १३८॥
तत्रेति सप्तम्यन्तात्पात्रवाचिन: उद्धृत इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । शरावेषु उद्धृत ओदनः शारावः, माल्लकः, कार्परः । पात्रेभ्य इति । किम् ? पाणावुद्धत ओदनः, बहुवचनं पात्रविशेषपरिग्रहार्थम् । १३८५ स्थण्डिलाच्छेते व्रती ॥ ६. २. १३९ ॥
स्थण्डिलशब्दात्सप्तम्यन्ताच्छेते इत्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति योऽसौ शेते स चेद्वती भवति । तत्र शयनवतोऽन्यत्र शयनान्निवृत्त इत्यर्थः, स्थण्डिल एव शेते स्थाण्डिलो भिक्षुः । व्रती इति किम् ? स्थण्डिले शेते बालः ।१३९। संस्कृते भक्ष्ये ॥ ६. २. १४० ।।
संस्कृत इति प्रत्ययार्थः। तस्य विशेषणं भक्ष्य इति । तत्रेति सप्तम्यतात्संस्कृते भक्ष्ये यथाविहितं प्रत्ययो भवति । सत उत्कर्षाधान संस्कारः, भ्राष्ट्रे संस्कृता भ्राष्ट्रा अपूपाः, एवं कैलासाः। पात्राः । भक्ष्ये इति किम् ? फलक संस्कृता माला ।१४०। शूलोखाद्यः ॥ ६. २. १४१॥
शूलोखाशब्दाभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां संस्कृते भक्ष्ये यः प्रत्ययो भवति । शूले संस्कृतं शूल्यं मांसम्, उखायाम् उख्यम् ।१४१। क्षीरादेयण ॥ ६. २: १४२ ॥
क्षोरशब्दात्सप्तम्यन्तात्संस्कृते भक्ष्ये एयण् प्रत्ययो भवति । क्षीरे संस्कृतं भक्ष्यं क्षैरेयम् । क्षरेयी यवागूः ।१४२। दन इकण ॥ ६. २. १४३ ॥
दधिशब्दात्सप्तम्यन्तात् संस्कृते भक्ष्ये इकण् प्रत्ययो भवति, दधिन संस्कृतं भक्ष्यं दाधिकम् । ननु च संस्कृतार्थे इकण वक्ष्यते तेनैव सिद्धम् ? न सिध्यति । दधना हि तत्संस्कृतं यस्य दधिकृतमेवोत्कर्षाधानम्, इह तु दधि केवलमाधारभूतं द्रव्यान्तरेण तु लवणादिना संस्कारः क्रियते ।१४३।
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[पाद. २ सू. १४४-१४५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ ९९ वोदश्वितः ॥ ६. २. १४४ ॥
उदश्विच्छन्द सप्तम्यन्तात् संस्कृते भक्ष्ये इकण प्रत्ययो वा भवति । उदकेन श्वयति उदश्वित्, अत एव निर्देशावृदभावः तत्र संस्कृतं भक्ष्य मौदश्वितम् औदश्वित्कम् ॥१४४॥ कचित् ॥ ६. २. १४५॥
अपत्यादिभ्योऽन्यत्राप्यर्थे क्वचिद्यथाविहितं प्रत्ययो भवति । चक्षुषा गृह्यत इति चाक्षुष रूपम्, श्रावण: शब्दः, रासनो रसः, दृषदि पिष्टा दार्षदा: सक्तवः, उदूखले क्षुण्ण औदूखलो यावकः, चतुर्दश्यां दृश्यते चातुर्दशं रक्षः, चतुभिरुह्यते चातुरं शकटम्, अश्वेरुह्यते आश्वो रथः, संप्रति युज्यते सांप्रतम् सांप्रतः ।१४५।
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वत्तौ षष्ठस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥ ६॥ २॥६॥
मृदित्वा दो:कण्डू समरश्रुवि वैरिक्षितिभुजाम् भुजादण्डे दध्रुः कति न नवखण्डां वसुमतीम् ।। यदेवं साम्राज्ये विजयिनि वितृष्णेन मनसा यशोयोगीशानां पिबसि नृप तत्कस्य सदृशम् ।।
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॥ तृतीयः पादः॥ शेषे । ६ ३.१॥
अधिकारोऽयम् यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः शेषेऽर्थे तद्वेदितव्यम्, उपयुक्तादन्यः शेषः, अपत्यादिभ्यः संस्कृत भक्ष्यपर्यन्तेभ्यो योऽन्योऽर्थः स शेषः, तस्येदंविशेषा ह्यपत्यसमूहादयः तेषु वक्ष्यमाणा एयणादयो मा भूनिवति शेषाधिकारः क्रियते । किंच सर्वेषु प्राक् जितात् कृतादिषु वक्ष्यमाणाः प्रत्यया यथा स्यः अनन्तरेणैवार्थनिर्देशेन कृतार्थता माविज्ञायि इति साकल्यार्थं शेषवचनम् ।।
न्या० स० शेषे- तस्येदमिति एयणादयश्च तस्येदमित्यर्थे विहितास्ततश्चापत्यसमूहादिष्वपि प्राप्नुवन्ति तद्विशेषत्वात्तेषाम् । तेष्विति अपत्यसमूहादिषु अन्यत्रोपयुक्तत्वात्तेषां, न केवलमपत्यादिषु एयणादीनां निवृत्तये शेषाधिकारः क्रियते, यावत्सर्वेषु कृतजातादिषु अस्येति षष्ठ्यर्थपर्यन्तेष्वेयणादीनां प्रवृत्त्यर्थश्चेत्याह-किंचेत्यादि अयमर्थः, संनिहितत्वात् कृतलब्धक्रीतादिध्वर्थेषु एयगादीनां प्रवृत्तेर्व्यवहितेष्वर्थेषु प्रवृत्तिर्न भविष्यतीत्येवं शङ्का माभूदित्यर्थः ।
नद्यादेरेयण् ॥ ६. ३. २ ॥ __नद्यादिभ्यो यथासंभवं प्राजितीये शेषेऽर्थे एयण् प्रत्ययो भवति । नद्यां जातो भवो वा नादेयः, माहेयः, वानेयः, वन्य इति तु साधी यः। शेषः इति किम् ? नदीनां समूहो नादिकम्, नदी, मही, वाराणसी, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वनकौशाम्बी, वनवासी, काशफरी, खादिरी, पूर्वनगर, पूर्वनगरी, पुर, वन, गिरि, पुर, वनगिरि, पूर्वनगिरि, पावा, मावा, माल्वा, दार्वा, सेतकी, सैतवी इति नद्यादिः । इतः प्रभृति प्रकृतिविशेषोपादानमात्रेण प्रत्यया विधास्यन्ते तेषां कृतादयोऽर्था विभक्तयश्च परस्ताद्वक्ष्यन्ते ॥२॥ ___ न्या० स० नद्यादे०-अथ गणः, नदति शब्दायते अवगाह्यमाना सती अचि नदी, मद्यते पूज्यते राजभिः मह इत्यकारान्ताद् वा डी मही, वरः आणः शब्दो येषां वराणा वृक्षाः, तेऽत्र सन्ति वराणसा भद्दारिका तस्या अदूरभवा नगरी वाराणसी, शृण्वन्तं प्रयुङ्क्ते श्रावयति भावः, असि श्रावसं, तायते 'क्वचित् ' ५-१-१७१ ( इति) डे, गौगदित्वात् ङ्यां श्रावस्ती, कुशेनाम्बो यस्य कुश्यति वा 'तुम्बस्तुम्ब' ३२० (उणादि) इति कुशाम्बस्तेन निर्वृत्ता कौशाम्बी नगरी, वनप्रधाना कौशाम्बी नगरी, वनप्रधाना कौशाम्बी, को पृथिव्यां शाम्यति 'शम्यमे ३१८ (उणादि) कुशम्बस्तेन निवृत्ता कौशाम्बी नगरी वनप्रधानाकौशाम्बी।
वनं वासयति 'कर्मगोऽणू ५-१-७२ वनवासी अटवी, 'शपेः फ च' ४०१ ( उणादि)
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श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोध्यायः
[ पाद. ३. सू. ३-७ ] [ १०१ इति शफर:, कु ईषन शफरो मत्स्यो यस्याः 'अल्पे ' ३-२-१३६ कादेशे काशफरी, खदिरा अत्र सन्ति, ' तदत्रास्ति ६-२-७० खादिरी ।
पूर्वं च तत् नगरं च पूर्वनगरं, पूर्वति 'निघृषि' ५११ ( उणादि ) इति वा पूर्वः नश्यन्ति अत्र चौरा इति नगरी, पूर्वा चासौ नगरी च पूर्वनगरी पूर्व नगिरीति 'नाम्युपान्त्य ६०९ ( उणादि ) इति प्रसाधि ।
,
पूर्यते 'गुषृदुर्बि' ९४३ ( उणादि ) इति पुर ।
वन्यते ' वर्षादय: '५-३-२९ इति वनं, गिरन्ति श्वापदा अत्र 'नाम्युपान्त्य' ६०९ ( उणादि ) इति गिरिः, वनप्रधानो गिरिः वनगिरिः, न विद्यते गिरिर्यस्य नगिरिः, न गृणाति या नगिरिः, पूर्वश्चासौ नगिरिश्च ।
,
पवमानं मत्रभानं भवन्तं वा प्रयुक्ते पात्रयति मावयति पाषा, मावा । मलमानं प्रयुङ्क्ते मालयति 'प्र' ५१४ ( उणादि ) इति माल्वा, दृणाति 'प्रह्व' ५१४ ( उणादि ) इति दाव, सां लक्ष्मीमितः प्राप्तः सेतः को ब्रह्मा यस्यां सेतको गौरादित्वात् ङ्यां, सेतुः सेतुबन्धोऽत्रास्ति ' तदत्रास्ति' ६-२-७० सैतवो, इति नद्यादिः ।
,
राष्ट्रादियः ॥ ६. ३.३॥
राष्ट्रशब्दात्प्राग्जितीये शेषेऽर्थे इयः प्रत्ययो भवति । राष्ट्रे क्रीतः कुशलो जातो भवो वा राष्ट्रियः । शेष इत्येव ? राष्ट्रस्यापत्यं राष्ट्रिः | ३ | दूरादेत्यः ।। ६. ३. ४ ।।
दूरशब्दात् शेषेऽर्थे एत्यः प्रत्ययो भवति । दूरे भवो दूरेत्यः |४| उत्तरादाहञ् ।। ६. ३.५ ॥
उत्तरशब्दाच्छेषेऽर्थे आहञ् प्रत्ययो भवति । औत्तराहः, अत्तराहा स्त्री, औत्तराहीति उत्तराहिशब्दाद्भवार्थेऽणि 1५॥
न्या०
स० उत्तरा० - उत्तराहिशब्दादिति उत्तरा दिग्देशो वा रमणीयः 'वोत्तरात् ' ७-२-१२१ इत्याहिः प्रत्यय:, कालार्थत्वे त्वाहिप्रत्ययान्तात् ' सायंचिरं' ६-३-८८ इति तनडेव न त्वण् ।
पारावारादीनः ॥ ६. ३.६ ॥
पारावारशब्दाच्छेषेऽर्थे ईनः प्रत्ययो भवति । अवारस्समुद्रस्तस्य पारम् राजदन्तादित्वात्पारावारस्तत्र भवो जातो वा पारावारीणः | ६ |
व्यस्तव्यत्यस्तात् ।। ६. ३. ७ ।।
पारावारशब्दाव्यस्ताद्विपर्यस्ताच्च ईनः प्रत्ययो भवति । पारीणः, अवारीणः,
अवारपारीणः ॥७॥
न्या० स० व्यस्त०–अवारपारीण इति राजदन्तादित्वाद्विकल्पेन पूर्वनिगतो न ।
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१०२ ] ___ बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंबलिते [ पाद. ३ सू. ८-११ ] __ द्यप्रागपागुदकप्रतीचो यः ॥ ६. ३. ८॥
दिवशब्दात् प्राच अपाच उदच प्रत्यच् इत्येतेभ्यश्चाव्ययानव्ययेभ्यः शेषेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति । दिवि भवं दिव्यम्, प्राचि प्राग्वा भवं प्राच्यम्, एवमपाच्यम्, उदीच्यम्, प्रतीच्यम् । दिग्देशवृत्तेः प्रागादेरयं यः काल वृत्तेस्त्वव्ययात्परत्वात् 'सायम् '-(६-३-८७) इत्यादिना तनट् । अनव्ययात्तु 'वर्षाकालेभ्यः' (६-३-७९) इतीकण् । प्राक्तनम् प्राचिकमित्यादि ।८। ___न्या० स० ग्रुप्रा०-प्रागादयः क्विबन्तास्ते श्वाप्रत्ययान्ता अव्ययसंज्ञास्तदनुत्पत्तावनव्ययसंज्ञा, विशेषानुपादानाच्चोभयेषामपि ग्रहणम् । ग्रामादीनञ् च ।। ६. ३. ९ ॥
ग्रामशब्दाच्छेषेऽर्थे ईनञ् चकाराद्यश्च प्रत्ययो भवति । ग्रामीण: ग्राम्यः, अकारः पुवद्भावप्रतिषेधार्थः, ग्रामीणा भार्याऽस्य ग्रामीणाभार्यः ।९। कन्यादेश्चैयकञ् ॥ ६. ३.१०॥
कश्चि इत्येवमादिभ्यो ग्रामशब्दाच्च शेषेऽर्थे एयकञ् प्रत्ययो भवति । कात्रेयक: पौष्करेयकः, ग्राम, ग्रामेयकः, एवं च ग्रामशब्दस्य त्रैरूप्यं भवति । कत्रि, पुष्कर, पुष्कल, पौदन, उम्पि, उम्भि, औम्भि, कुम्भी, कुण्डिना, नगर, महिष्मती, वर्मवती, चर्मण्वती इति कयादिः । नगरशब्दो महिष्मत्यादिसाहचर्यात् संज्ञायामेयकामुत्पादयति अन्यत्राणमेव ।१०।
न्या० स० कश्या०-कठ्यादि गणो विव्रियते-कुत्सितात्रयो धर्मार्थकामा यस्य कत्रिः, पांक क्विप् , पा ओदनो यस्य पौदनः, उभत् 'पदिपठि' ६०७ ( उणादि) इति भण्यादित्वादौ भस्य वा पत्वे उम्पि, उम्भि, उम्भस्यापत्यं इञि औम्भि, कुम्भाज्जातौ ङ्यां कुम्भी, कुदुङ 'विपिन' २८४ ( उणादि) इति कुण्डिना, महिषा अत्र सन्ति महिष्मती, चर्माणि तनोति 'क्वचित् ' ५-१-१७१ इति डे गौरादिङ्याम ।। ____ संज्ञायामिति अयभर्थो महिष्मत्यादयो नगर्यादिवाचकाः संज्ञाशब्दास्तत् साहचर्यान्नगरशब्दोऽपि स्थानविशेषवाची प्रत्ययं जनयति न सामान्यपत्तनवाची तर्हि कथं नागरो ब्राह्मणः ? सत्यं देवतार्थे भविष्यति ।
कुण्डयादिभ्यो यलुक् च ॥ ६. ३. १९॥
__ कुण्डयादिभ्यः शेषेऽर्थे एयकञ् प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे यलुक चैषां भवति । कोण्डेयक:, कौणेयकः । कुण्डया, कुण्या, उक्ष्या, भाण्ड्या, ग्रामकुड्या, तृण्या, वन्या, पल्या, पुल्या, मुल्या इति कुण्डयादिः। बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।११॥
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[पाद. ३. सू. १२-१५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [१०३ कुलकुक्षिग्रीवाच्छवास्यलङ्कारे ॥ ६. ३. १२ ॥
कुलकुक्षिग्रीवा इत्येतेभ्यो यथासंख्यं श्वास्यलङ्कारविशिष्टे प्राग्जितीये शेषेऽर्थे एयकञ् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः। कुले शुद्धान्वये भवो जातो वा कौलेय कः श्वा, कोलोऽन्यः । कोक्षेयकोऽसिः, यः ककुक्षिनिजीर्णेनायसी कृतः। कौक्षोऽन्यः, ग्रैवेयकोऽलंकारः, ग्रैवोऽन्यः ।१२। - न्या० स० कुल०-कुक्षौ ग्रीवायां जातः भवे तु 'दृतिकुक्षि' ६-३-१३० इति ग्रीवातोऽण च' ६-३-१३२ ( इति ) स्यात् ।। दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यण् ॥ ६. ३. १३ ॥
एभ्यः शेषेऽर्थे त्यण् प्रत्ययो भवति, अणोपवादः । दक्षिणा दिक् तस्यां भवो दाक्षिणात्यः अथवा दक्षिणस्यां दिशि वसति ‘वा दक्षिणात्प्रथमासप्तम्या आ' (७-२-११९) इत्याप्रत्यये दक्षिणा तत्र भवो दाक्षिणात्यः पाश्चात्यः, पौरस्त्यः, पश्चात्पुरःशब्दसाहचर्याद्दक्षिणा इति दिक्शब्दोऽव्ययं वा गृह्यते, तेनेह न भवति, दक्षिणायां भवानि दाक्षिणानि जुहोति । अत्र दक्षिणाशब्दो गवादिवचन:, अव्ययादेवेच्छन्त्येके ।१३।
न्या० स० दक्षि०-दाक्षिणात्य इति 'कौण्डिन्यागस्तयोः' ६-१-१२७ इति कौण्डिन्यनिर्देशात् पुंभावोऽनित्यः, तेन ‘सर्वादयोऽस्यादौ' ३-२-६१ (इति) न, यदा त्वाप्रत्ययस्तदा अव्ययत्वात् डेलुपि दक्षिणाभवः पुंभावोऽपि न असर्वादित्वात् । ____पाश्चात्य इति अपरा दिक् देशो वा रमणीयः, 'अधरापराश्चात् ' ७-२-११८ पूर्वा पूर्वो वा दिक् देशो वा रमणीयः, 'पूर्वावराधरेभ्य' ७-२-११५ इत्यस् , पश्चाद्भवः पुरोभवः । वहल्यर्दिपदिकापिश्याष्टायनण् ॥ ६.३.१४॥
वह्वि आदि पदि कापिशी इत्येतेभ्यः शेषेऽर्थे टायनण प्रत्ययो भवति । वाह्लायनः, बाह्लायनी, औयनः, और्दायनी, पायनः, पार्दायनी । कापिशायनं मधु, कापिशायनी द्राक्षा, वल्हीति ऊष्मोपान्त्यः । केचिदत्र वकारं दीर्घान्तं पठन्ति ।१४।।
न्या० स० बल्य-वल्हिः देशविशेषः, ऊर्दिः क्रीडा, पर्दिः पर्दनक्रीडा, कपिशा मर्कटा अत्र सन्ति, तदत्रास्ति कापिशी अटवी । रोः प्राणिनि वा ॥ ६. ३.१५॥
रङ्कुशब्दात्प्राणिविशिष्ठे शेषेऽर्थे टायनण् प्रत्ययो वा भवति । राङ्कवायणः, पक्षेऽण् । राङ्कवो गौः । प्राणिनीति किम् ? राङ्कवः कम्बलः । मनुष्ये तुप्राणिन्य पि कच्छादिपाठात् 'कच्छादे नृस्थे' (६-३-५४) इति परत्वादकडेव भवति । राङकवको मनुष्य: ॥१५॥
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१०४ ]
बृहबृत्ति-लधुन्याससंलिते [पाद. ३ सू० १६-२२ ] क्वेहामात्रतसस्त्यच् ॥ ६. ३. १६ ॥
क इह अमा इत्येतेभ्यस्त्रतस्प्रत्यान्तेभ्यश्च शेषेऽर्थे त्यच् प्रत्ययो भवति । कत्यः, इहत्यः, अमात्यः, तत्रत्यः, यत्रत्यः, ततस्त्यः, यतस्त्यः, कुतस्त्यः । आविश्शब्दादपि कश्चित् । आविष्टयः, चकारस्त्यण्त्यचो: सामान्य ग्रहणाविघातार्थः ।१६।
न्या० स० क्वेहा.-अत्र तसितस् सानुबन्धित्वान्न गृह्येते, कौश्चित्प्रातस्त्यप् इति सूत्रं व्यवधायि, तेन प्रातस्त्य इत्यपि सिद्धं, स्वमते तु 'क्वेह' ६-६-१६ इत्यायव्ययोपलक्षणं, तेन यथार्थदर्शनमन्येषामपि अव्ययानां भवति । ___सामान्यग्रहणेति अन्यथा 'स्त्रज्ञाजभन' २-४-१०८ इत्यादौ त्यग्रहणे निरनुबन्धत्वादस्यैव ग्रहः स्यात् । नेफ्रेवे ॥ ६. ३. १७ ।।
निशब्दात् ध्रुवेऽर्थे त्यच् प्रत्ययो भवति । नित्यं ध्रुवम् ॥१७॥ निसो गते ।। ६. ३.१८॥
निस्शब्दातेऽर्थे त्वच् प्रत्ययो भवति । निर्गतो वर्णाश्रामेभ्यो निष्टयचण्डालः ।१८। ऐषमोह्यःश्वसो वा ।। ६. ३. १९॥
एषमस्, ह्यस्, श्वस् इत्येतेभ्यः शेषेर्थे त्वच् प्रत्ययो वा भवति । ऐषमस्त्यम्, ऐषमस्तनम्, ह्यस्त्यम्, ह्यस्तनम्, श्वस्त्यम्, श्वस्तनम् । 'श्वसस्तादिः' (६-३-८३) इति इकणपि भवति । शोवस्तिकम् ।१९। कन्थाया इकण ।। ६. ३. २० ॥
कन्था ग्रामविशेषः, कन्थाशब्दात् शेषेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । कान्थिकः ।२०। वर्णावकञ् ॥ ६. ३. २१ ॥
वर्णन म हृदः । तस्य समीपो देशोऽपि वर्ण: तत्र या कन्था ततः शेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति । इकणोऽपवादः। कान्थकः ॥२१॥ रूप्योत्तरपदारण्याण्णः ॥ ६. ३. २२ ॥
रूप्योत्तरपदादरण्यशब्दाच्च शेषेऽर्थे णः प्रत्ययो भवति । वार्करूप्यः वार्करूप्या । शैविरूप्यम्, शैवरूप्यम्, आरण्याः सुमनसः, आरण्याः पशवः ।
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[पाद ३. सू. २३-२५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १०५ माणिरूप्ये जातो माणिरूप्यक इत्यत्र तु दुसंज्ञकत्वेन परत्वात् 'प्रस्थपुर'(६-३-४२) इत्यादिना ज्योपान्त्यलक्षणोऽकमेव भवति । अन्तग्रहणेनैव सिद्ध उत्तरपदग्रहणं बहुप्रत्ययपूर्वनिवृत्त्यर्थम् । बाहुरूप्यी ।२२।। दिक्पूर्वादनाम्नः ॥ ६. ३. २३ ॥
दिकपूर्वपदादनाम्नोऽसंज्ञाविषयाच्छेषेऽर्थे णः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । पौर्वशालः, पौवंशाला, आपरशालः, आपरशाला। अनाम्न इति किम् ? पूर्वेषुकामशमी नामः ग्राम, तस्यां भवः पूर्वंषुकामशमः, एवमपरैषुकामशमः, पूर्वकार्णमृत्तिका, अपरकाष्र्णमृत्तिका। 'प्राग्ग्रामाणाम्' (७-४-१७) इत्युत्तरपदवृद्धिः ।२३। __ न्या० स० दिक्पू०-पौवंशाला इति यदा पूर्वशब्दो देशकालवाची तदा पूर्वशालायां भवाणि पौर्वशालीति भवति, यदा तु पूर्वशब्दो दिक्शब्दस्तदा पूर्वस्यां शालायां भवस्तद्धितविषये ‘दिगधिकम् ' २-१-९८ इति तत्पुरुषकर्मधारयो द्विगुस्तु संख्यापूर्वपदत्वाभावात तवाऽनेन णः ।
मद्रादुञ् ॥ ६. ३. २४॥ . मद्रान्ताद्दिकपूर्वपदाच्छेषेर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति । पूर्वेषु मद्रेषु भवः पौर्वमद्रः, पौर्वमद्री, 'बहुविषयेभ्यः' (६-१-४४) इत्यकञ् प्राप्तस्तदपवादे 'वृजिमद्राद्देशात्कः' (६-३-३७) इति के प्राप्तेऽञ्वचनम् । केवलादेव मद्रादक कविधिरिति चेत् तीदमेव ज्ञापकं सुसधिदिक्शब्देभ्यो जनपदस्योति तदन्तविधेः । तेन सुपाञ्चालकः, सर्वपाञ्चालकः, अर्धपाश्चालकः, पूर्वपाञ्चालकः, अपरपाञ्चालकः, सुमागधकः, सर्वमागधकः, सुवृजिकः, सुमद्रकः इत्यादि सिद्धम् ।२४।
न्या० स० मद्रा०-ननु अधिकारायातो ण एव भविष्यति किमकरणेन? सत्य, णाधिकारे अवचनं स्थर्थ, तथापि न कर्तव्यं मद्रादित्येव कृते यथाविहितः प्रागूजितादणेव भविष्यति, न तु णः, कुनः दिक्पूर्वान्मद्राच्चानाम्न इत्येकयोगाकरणात् ? सत्यं, मद्रादित्येव सिद्धौ यो हि येन बाधितो न प्राप्नोति तदर्थमिदं स्यादिति कबाधिताकवर्थ स्यात् , स माभूदित्येवमर्थ, उत्तरार्थ चेति शकटः । उदग्ग्रामाद्यकल्लोम्नः ॥ ६. ३. २५ ॥
उदग्ग्रामवाचिनो यकृल्लोमन् शब्दाच्छेषेऽर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति । याकृल्लोमः। उदग्ग्रामादिति किम् । अन्यस्मादणेव । याकुल्लोमनः । यकल्लोम्न इति किम् ? प्रेक्षिणि भवः प्रैक्षिणः, कोष्टिन्यां भवः कौष्टिनः ॥२५॥
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१०६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू० २६-२९ ] गौष्टीतकीनैकेतीगोमतीशूरसेनवाहीकरोमकपटच्चरात् ॥ ६.३. २६ ॥
गोष्टयादिभ्यः शेषेऽर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति गौष्टः, तैकः, नैकेतः, एभ्यो वाहीकग्रामलक्षणयोणिकेकणोस्तैक्याः कोपान्त्यलक्षणस्येयस्य चापवादः । गोमतः, अस्मिन्नोल्लक्षणस्याकञः । शौरसेनः, अत्र राष्ट्राकञः । वाहोकः, रौमकः । अत्र दुलक्षणस्येयस्य । पाटच्चरः, अत्र रोपान्त्यलक्षणस्याकञः। एके तु गौष्ठीस्थाने गोष्ठी तैकीस्थाने तैकी नैवीं च पठन्ति ।२६। . .
न्या. स. गौष्ठी०-अत्र दुलक्षणेति वाहीकशब्दस्य पुरुषवाचिनो 'दोरीयः' ६-३-३२ इत्यस्य देशवाचिनस्तु 'कखोपान्त्ये' ६-३-५९ इत्यस्याप्यपवादः तदुभयमपि दुलक्षणस्येत्यनेन श्लिष्टनिर्देशेन संगृहीतं, यत उभाभ्यामपि दुसंज्ञायां विधानात् , रोमकस्य तु 'कखोपान्त्ये'. ६-३-५९ इत्यस्यैव, यतस्तस्य पुरुषवाचिनो दुसंज्ञा न प्राप्नोति, देशवाचिनस्तु 'प्राग्देशे' ६-१-१० इति दुसंज्ञा । शकलादेर्यत्रः ॥ ६. ३. २७ ॥
शकलादिभ्यो यअन्तेभ्यः शेषेऽर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति । ईयस्यापवादः। गर्गाद्यन्तर्गणः शकलादिः । शकलस्यापत्यं वृद्ध शाकल्यः । तस्य छात्राः शाकलाः । एवं काष्ठाः । गौकक्षाः । वामरथाः। यत्र इति किम् । शकलो देवतास्य शाकलः, तस्येदं शाकलीयम् । कण्ठादागतः काण्ठः तस्य छात्राः काण्ठीयाः ।२७। वृद्धवः ॥ ६. ३. २८ ॥
वृद्ध य इञ् विहितस्तदन्ताच्छेषेऽर्थेञ् प्रत्ययो भवति, ईयस्यापवादः । दक्षस्यापत्यं वृद्ध दाक्षिस्तस्य छात्राः दाक्षाः, प्लाक्षाः । वृद्धति किम् ? सुतंगमेन निर्वत्ता सौतंगमी नगरी तस्यां भवः सौतंगमीयः । शालऊरपत्यं युवा शालकिः , 'यजिनः' (६-१-५४) इत्यायनणः पैलादिपाठाल्लुप् । तस्य छात्राः शालङ्का इत्यत्र तु आयनणि लुप्ते यद्यपीजन्तं यूनि वर्तते तथापीञ् वृद्ध इत्यजेव भवति ।२८।
न्या. सवृद्धत्रः-यूनि वर्तत इति 'वृद्धायूनि' ६-१-३० इत्यत्र यूनोऽपि वृद्धसंज्ञाकार्यदर्शनादत्र इअन्तस्य वृद्धाप बत्तनमित्याश्रयणे औपगवस्थापत्यं युवा, औपगविस्तस्य छात्रा औपगवीयाः एवं पाणनीया इत्यादावपि स्यात् , अतो मुख्यत्वावृद्ध एवेति व्याख्येयम् । न द्विस्वरात् प्रागभरतात् ॥ ६. ३. २९ ॥ प्राच्यगोत्रवाचिनो भरतगोत्रवाचिनश्च नाम्नो वृद्धअन्ताद्विस्वराद
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[पाद. ३ सू. ३०-३४] श्रीसिद्धहेमचन्द्राशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १०७ प्रत्ययो न भवति । पूर्वेण प्राप्तस्य प्रतिषेधः । प्राचः चैकीयाः, पौष्पीयाः। चिङ्कपुष्पशब्दावाबन्तावपि तत्र वाह्वादित्वादिञ् । भरतात, काश काशीयाः, वाश वाशीयाः । द्विस्वरादिति किम् ? पानागारेच्छात्राः पान्नागाराः, मान्थरेषणाः। प्राग्भरतादिति किम् ? दाक्षाः, प्लाक्षाः, प्राग्ग्रहणे भरतानां ग्रहणं न भवतीति स्वशब्देन ग्रहणम् ।२९। भवतोरिकणीयसौ ॥ ६. ३. ३०॥
भवतुशब्दाच्छेषेऽर्थे इकण ईयस् इत्येतो प्रत्ययो भवतः, ईयापवादौ । भवतः भवत्या वा इदं भावत्कम्, भावत्की, भवदीयः, भवदीया, सकारो 'नाम सिदय्व्यञ्जने' (१-१-२१) इति पदत्वार्थः। उकारान्तग्रहणात् शत्रन्तान्न भवति, भवत इदं भावतम् ।३०।
न्या० स० भव०-शत्रन्तान भवतीति ननु तर्हि यदा मत्वन्तता क्रियते, भमस्यास्तीति भवत् , तदा कथं न भवति यत उकारानुबन्धोऽस्ति ? न, तदा मतुरेवोकारानुबन्धो न तु तदन्तः । अथ मतुरुकारानुबन्धस्तद्योगाद् भवच्छब्दोऽपि तथोच्यते ! नैवं, लाक्षणिकत्वाल्लक्षणप्रतिपदोक्तयोः इति न्यायात् । यद्येवं तर्हि औणादिकस्यापि न प्राप्नोति, यतो डषतुरयमुकारानुबन्धः ? सत्य, अव्युत्पत्तिपक्षाश्रयणाददोषः। . परजनराज्ञोऽकीयः ॥ ६. ३. ३१ ॥
एभ्यः शेषेऽर्थेऽकीय: प्रत्ययो भवति । परकीयः, जनकीयः, राजकीयः, अकारः पुवद्भावार्थः । राझ्या इदं राजकीयम्, स्वकीयं देवकीयमिति तु स्वकदेवकयोर्गहादित्वात् सिद्धम् । ये तु स्वदेवशब्दाभ्यामकीयमिच्छन्ति तेषां स्वस्येदं सौवम् देवमायुः दैवी वाक् इत्यादि न सिध्यति ।३१॥ दोरीयः ॥ ६. ३. ३२॥
दुसंज्ञकाच्छेषेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, देवदत्तीयः, जिनदत्तीयः तदीयः, यदीयः, गार्गीयः, वात्सोयः, शालीयः, गोनीयः, भोजकटीयः । दोरिति किम् ? सभासन्नयने भव, साभासन्नयनः । अणपवादो योगः ॥३२॥ उष्णादिभ्यः कालात् ॥ ६. ३. ३३ ॥
उणादिपूर्वपदात्कालान्ताच्छेपेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति । उष्णकालीयः, बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।३३।... व्यादिभ्यो णिकेकणौ ॥ ६. ३. ३४ ॥
वि इत्येवमादिभ्यः परो यः कालशब्दस्तदन्ताच्छषेऽर्थे णिक इकण
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१०८]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० ३५ । इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । उभयोः खियां विशेषः। वैकालिकः, वैकालिका, वैकालिकी, आनुकालिकः, आनुकालिका, आनुकालिकी, ऐदंकालिका, ऐदकालिकी, धौमकालिका, धौमकालिकी, आपत्कालिका, आपत्कालिकी, सांपत्कालिका, सांपत्कालिकी, कोपकालिका, कोपकालिकी, क्रोधकालिका, क्रोधकालिकी, और्वकालिका, और्वकालिकी, पौर्वकालिका, पौर्वकालिकी, तात्कालिका, तात्कालिकी, क्रौरकालिका, क्रोरकालिकी । व्यादयः प्रयोगगम्याः ।३४॥ काश्यादेः ॥ ६. ३. ३५॥
दोरिति वर्तते, पूर्वयोगयोस्तु न संबध्यते, व्यापारासंभवात् । काशीत्येवमादिभ्यो दुसंज्ञकेभ्यः शेषेऽर्थे णिक इकण् इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । काशिकः, काशिका, काशिकी, चैदिकः, चैदिका, चैदिकी। दोरित्येव ? देवदत्तं नाम वाहीकग्रामः, तत्र जाती देवदत्तः, देवदत्तशब्दस्य प्राग्देशे एव दुसंज्ञा न वाहीकेष्विति न भवति, नाप्युत्तरेण । तत्रापि दोरित्यनुवर्तनात, प्राग्ग्रामेषु तु दुसंज्ञकत्वेन काश्यादित्वाद्भवत्येव । दैवदत्तिका, देवदत्तिकी। येषां तु काश्यादोनां दुसंज्ञा न संभवति तेषां पाठसामाद्भवति । चेदिशब्दसाहचर्याच्च काशिशब्दो जनपद एव वर्तमान इमो प्रत्ययावुत्पादयति नान्यत्र । काशोयाश्छात्राः । काशि, चेदि, देवदत्त, सांयाति, सांवाह, अच्युत, मोदमान, श्वकुलाल, शकुलाद, हस्तिकडू, कौनाम, हिरण्य, करण, हैहिरण्यः, करणे, अरिंदम, सधमित्र, दाशमित्र, सिन्धुमित्र, दासमित्र, छागमित्र, दासग्राम, शौवावतान, गौवाशन, गोवासन, तारङ्गि, भारङ्गि युवराज, उपराज, देवराज इति काश्यादिः ।३५॥ ___न्या० स० काश्या०-व्यापारासंभवादिति फलाभावादित्यर्थः, पूर्वयोगयोहि दुसंज्ञस्यादुसंज्ञस्य च भवति, गणपाठसामर्थ्यात् अनेन तु येषां दुसंज्ञत्वमदुसंज्ञत्वं च तेषां देवदत्त इत्यादीनां दुःसंज्ञानामेव । अथ गणः, काशते 'पदिपठी' ६०७ (उणादि) इति काशिः,चदेग मण्यादित्वादिः एवं च, देवा एनं देयासुर्देवदत्तः संयाति स्म संयातस्तस्यापत्यं इनि सांयातिः ।
न च्यवते स्म अच्युतो विष्णुः मोदते मोदमानः, शुनां कुलं श्वकुलमलति श्क्कुलालः, 'हृषिवृषि' ४८५ ( उणादि) इति शकुलः, शकुलान् मत्स्यान् आदत्ते अचि वा शकुलादः, हस्तिनः कर्परिव नदी इव स देशो हस्तिकषूः, कु पृथ्वी नामयति कुनामोऽत्रास्ति कौनामः, हिरण्यस्य करणं हिरण्यकरण, हिनोति हेः तस्य हिरण्यं तदत्रास्ति हैहिरण्यः करण इति कोऽर्थः?
करणार्थे हिरण्यः प्रशस्यते, अन्ये वाहुः हिरण्यकरण एवंविधो ध्वनिः समस्त एवात्र पठ्यते, तदेवं संश्लिष्टनिर्देशेन संगृहीतं, सिन्धुमित्रमस्य सिन्धुमित्रः ।
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[पाद. ३. सू. ३६-३८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १०९
अरीन दमयति 'भृवृजि' ५-१-११२ इति अरिंदमः, धानं धाः 'क्रुत्संपत्' ५-३-११४ इति क्विप् , सह धा वर्तते सधः, सधो मित्रमस्य सधमित्रः, दाशो दासो मित्रमस्य दाशमित्रः दासमित्रः, छागो मित्रमस्य छागमित्रः, दासस्य ग्रामः दासप्रामः, शुनः संकोचस्तमवतनोति शौवाचतानः, गा वाश्यत इति नन्द्यादित्वादने गोवाशनोऽत्रास्ति गोवाशनः, वासण , गाः वासयति सोऽत्रास्ति गौवासनः ।
तरङ्गस्यापत्यं तारगिः भृशुः ल्वादित्त्वादशै भरकास्याफ्त्यं भारगिः, युवा चासौ यजा च युवरानः ।
राज्ञः समीपं उपराजम् , देवस्व राजा देवराजः । वाहीकेषु प्रामात् ॥ ६. ३. ३६ ।।
वाहीकदेशे ग्रामवाचिभ्यो दुसंज्ञकेभ्यः शेषेऽर्थे णिक इकण इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । कारन्तपिकः, कारंतपिका, कारंतपिकी, शाकलिकः, शाकलिका, शाकलिकी, मान्थविकः, मान्थविका, मान्यविकी, आरात्कः, आरात्का, आरात्की, सैपुरिकः, सैपुरिका सैपुरिकी स्कौनगरिकः, स्कौनगरिका, स्कोनगरिकी, नापितवास्तुकः इत्यत्र तु परत्वात् ' उवर्णादिकण' (६-३-३८) इतीक ण् । वातानुप्रस्थक: नान्दीपुरकः कौक्कुटीवहकः दासरूप्यकः इत्येतेषु 'प्रस्थपुरवहान्तयोपान्त्यधन्वार्थात् ' (६-३-४२) इति परस्वादकञ् । सौसुकीय इत्यत्र कोपान्त्यलक्षण ईयोऽपवादत्वाच्च भवति । कथं मौजीयम् ? मौजं नाम वाहीकावधिरत्यदीयो ग्रामो न वाहीकग्राम इत्येके, अन्ये तु दश द्वादश बा ग्रामा विशिष्टसंनिवेशावस्थाना मौजं नामेति ग्रामसमूह एवायं न ग्रामः, नापि राष्ट्रम् येन राष्ट्रलक्षणोऽकञ् स्यात् इति मन्यते । दोरित्वेव ? देवदत्तं नाम वाहीकग्रामः तत्र जाती देवदत्तः ।३६।
न्या० स० वाही०-अपवादत्त्वाच्चेति न केवलं परत्वान्नापि राष्ट्रमिति विशिष्टस्यैव प्रामसमुदायस्य राष्ट्रत्वात् । वोशीनरेषु ॥ ६. ३. ३७ ॥
उशीनरेषु जनपदे यो ग्रामस्तद्वाचिनो दुसंज्ञकाच्छेषेऽर्थे णिकेकणौ प्रत्ययौ वा भवतः। आह्वजालिकः, आह्वजालिका, आह्वजालिकी, सौदर्शनिकः, सौदर्शनिका, सौदर्शनिकी, पक्षे आहजालीयः सौदर्शनीयः ॥३७॥ वृजिमदाद्देशात्क ।। ६. ३. ३८॥
वजिमद्रशब्दाभ्यां देशवाचिभ्यां शेषेऽर्थे कः प्रत्ययो भवति, राष्ट्राकओऽपवादः । दोरिति निवृत्तम् । वृजिकः, मद्रकः । सुसर्धिदिक्शन्देभ्यो
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११० J
बृहद्वृत्ति- लघुन्यास संवलिते
[ पाद. ३. सू. ३९-४२ ] जनपदवाचिनः प्रत्ययो भवति । तत्र मद्रात् दिक्पूर्वपदात् ' मद्रादञ् ' ( ६ - ३ - २४ ) इत्यञ् विहितः शेषपूर्वपदात्वयं भवति । सुमद्रकः, सर्वमद्रकः, अर्धमद्रकः, सुवृजिकः, सर्ववृजिकः, अर्धवृजिकः, पूर्ववृजिक, अपरवृजिक : देशादिति किम् ? मनुष्यवृत्ते वर्जिमाद्रः |३८|
वर्णादिक ॥ ६. ३. ३९ ॥
वर्णान्ताद्देशवाचिनः शेषेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । 'अणोऽपवादः परत्वादीयणिके कणोऽपि बाधते । शबरजम्ब्वां भवः शाबर जम्बुकः । निषादक भवः नैषादकषुकः । दाक्षिक दाक्षिकषुकः । प्लाक्षिकष्व प्लाक्षिकर्षुकः । नापितवास्तुर्वाहीकग्रामः तत्र भवो नापितवास्तुकः । यस्तु प्राग्ग्रामस्तस्मादुत्तरेण भवति । आव्रोतमायौ भवः आव्रीतमायवकः । जिह्नषु जैह्नबक इति परत्वाद्योपान्त्यलक्षणो राष्ट्रलक्षणश्वा कञ्, ऐक्ष्वाक इत्यत्र तु कोपान्त्यलक्षणोऽण् । उवर्णादिति किम् ? देवदत्तः । देशादित्येव । पटो छात्राः पाटवाः । ३९ । न्या० स० उबर्णा [० - ननु ' ऋवर्णोवर्ण' ७-४-७१ इति इकारलोपेन भाव्यं, ततः कणित्येव क्रियताम् ? न, स्त्रियां ङीर्न स्यात् । शाबरजम्बुक इत्यत्र औत्सर्गिकाऽणो दाक्षिकर्षक इत्यत्रेत्यस्य. fecare इत्यत्र 'वाहीकेषु' ६-३-३६ इति णिके कणोः प्राप्तिः ।
दोरेव प्राचः ।। ६. ३.४० ।।
शरावत्या नद्याः प्राच्यां दिशि देशः प्राग्देशः तद्वाचिन उवर्णान्ताद्दुसज्ञकादेव इकण् प्रत्ययो भवति । आषाढजम्ब्वां भव: आषाढजम्बुकः, नापितवास्तौ जातः नापितवास्तुकः, पूर्वेण सिद्धे नियमार्थं वचनम् । इह न भवति मल्लवास्तुः प्राग्ग्रामः माल्लवास्तव: । एवकार इष्टावधारणार्थः । दोः प्राच एवेति नियमो मा भूत् |४०|
न्या० स० दोरे० - आषाढजम्बूक इति 'चन्द्रयुक्त ' ६-२-६ इत्यणि आसाढा प्रयोजनमस्य विशाखाषाढा ६-४- १२० इत्यण् तस्य जम्बूस्तत्र भवः ।
ईतोऽकञ् ।। ६.२.४१ ॥
दोर्देशात्प्राच इति च वर्तते । ईकारान्तात्प्राग्देशवाचिनो दुसंज्ञकाच्छेषेsrse प्रत्ययो भवति, ईयस्यापवादः । काकन्द्यां भवः काकन्दकः, माकन्द्यां भवः माकन्दकः, प्राच इत्येव ? दात्तामित्र्यां भवः दात्तामित्रीयः । ४१ ।
रोपान्त्यात् ॥ ६. ३. ४२ ।।
रेफोपान्त्यात्प्राग्देशवाचिनो दुसंज्ञकाच्छेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति, यस्यापवादः । पाटलिपुत्रकः, एकचत्रकः ॥४२॥
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[पाद. ३. सू. ४३-४५ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः . [ १११ प्रस्थपुरवहान्तयोपान्त्यधन्वार्थात् ॥ ६. ३. ४३ ॥
दोर्देशादिति च वर्तते । प्रस्थपुरवह इत्येतदन्तात् यकारोपान्त्याद्धन्ववाचिनश्च देशवाचिनो दुसंज्ञकाच्छेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति । धन्वशब्दो मरुदेशवाची। प्रस्थान्त, मालाप्रस्थकः शौणप्रस्थकः, काञ्चीप्रस्थकः, वातानप्रस्थकः, बाणप्रस्थकः । पुरान्त, नान्दीपुरकः, वार्तीपुरकः । वहान्त, पैलुवहकः, फाल्गुनीवहकः, कोक्कुटीवहकः, कौकुचीवहकः, योपान्त्य, सांकाश्यकः, काम्पील्यकः, माणिरूप्यकः । दासरूप्यकः आवीतमायवकः । धन्ववाचि, पारेधन्व अपारेधन्व पारेधन्वनि भवः पारेधन्वकः । आपारेधन्वकः, ऐरावत्तकः, सुप्रचष्टे डे सुप्रख्येन निर्वृत्त इत्वणि सौप्रख्ये भवः सौप्रख्यीय इति तु गहादित्वात्, एवं कामप्रस्थीयः । पुरग्रहणमप्राच्यार्थम्, प्राच्याद्धि रोपान्त्यत्वेनैव सिद्धम् । अत एव हि प्राच इति नानुवर्तते । ईयबाधनार्थ वचनम् ।४३।
न्या. स. प्रस्थ०-फाल्गुनीवहक इति फन्गुनीभ्यां 'चन्द्र' ६-२-६ इत्यण् लुप् कीनिवृत्तिः, पुनर्जी, फल्गुन्योर्जाता ‘फल्गुन्याटः' ६-३-१०६ इति प्राप्तौ मतान्तरेण 'भर्तुसंध्यादेरण' ६-३-८९ भवति, ततो 'वृद्धिर्यस्य' ६-१-८ इति दुःसंहा। राष्ट्रेभ्यः ॥ ६. ३. ४४ ॥
दोर्देशादिति च वर्तते । राष्ट्रेभ्यो देशेभ्यो दूसंज्ञकेभ्यः शेषेऽर्थेऽकत्र प्रत्ययो भवति । ईयस्यापवादः । आभिसारे भवः आभिसारकः, आदर्श आदर्शकः, औपुष्टश्यामायने राष्ट्रावधी अपि राष्ट्रे । औपुष्ट्रे औपुष्टकः, श्यामायने श्यामायनकः, बहुवचनमकमा प्रकृतिबहुत्वं द्योतवदपवादविषयेऽपि प्रापणार्थम, तेनेहापि भवति । आभिसारगर्तकः, अत्र गर्वोत्तरपदलक्षण ईयो न भवति । राष्ट्र समुदायो न राष्ट्रग्रहणेन गृह्यते इतोह न भवति । काशिकोशलीयः ।४४॥ बहविषयेभ्यः ॥ ६. ३. ४५॥
दोरिति निवृत्तम्, योगविभागात् । अतः परं दोरदोश्च विधानम् । देशादिति तु वर्तते । राष्ट्रेभ्यो देशेभ्यो बहुत्वविषयेभ्यः शेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति, अणाद्यपवादः । अङ्गेषु जातः आङ्गकः, वङ्गेषु जातः वाङ्गकः, दार्वेषु दार्वकः काम्बवेषु काम्बवकः, जिन्हुषु जैन्हवकः, अजमीढेषु जमीढकः, अजकुन्देषु आजकुन्दकः, कालजरेषु कालजरकः, बैकुलिशेषु वैकुलिशका, विषयग्रहणम् अनन्यत्र भावार्थम्, तेन य एकत्वद्वित्वयोरपि वर्तते ततो माभूत् ।
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू. ४६ ॥ वर्तनो च वर्तनी च वर्तनी च वर्तन्यः तासु भवो वार्तनः । बहुववनमपवादविष येऽपि प्रापणार्थम्, त्रिगर्तेषु वैगर्तकः । अत्र गर्वोत्तरपद्लक्षण ईयो बाध्यते ॥४५।।
न्या० स० बहु०-अणाद्यपवाद इति आदिशब्दाजिह्वोः उवर्णादिकणः । अनन्यत्रेति न विद्यते बहुत्वविषयादन्यत्र भावो यस्य स तथा सोऽर्थः प्रयोजनं यस्य । धूमादेः ॥ ६ ३. ४६ ॥
देशारिति वर्तते । धूमादिभ्यो देशवाचिभ्यः शेषेऽर्थेऽका प्रत्ययो भवति अणाद्यपवादः । धौमकः, षाडण्डकः धूम, षडण्ड, षडाण्ड, अवतण्ड, तण्डक, वतण्डव, शशादन, अर्जुन, आर्जुनाव, दाण्डायन, स्थली, दाण्डायनस्थली, मानकस्थली, आनकस्थली, माहकस्थली, मद्रकस्थली, माषस्थली, घोषस्थली, राजस्थली, अट्टस्थलो, मानस्थली, माणवकस्थलो, राजगृह. सत्रासाह, सात्रासाह, भक्ष्यादी, भक्ष्यली, भक्ष्याली, भद्रालो, मद्रकुल, अजीकुल, ब्याहाव, व्याहाव, वियाहाव, त्रियाहाव, संस्फीय, बर्बड गर्त, वर्ण्य, शकुन्ति, विनाद, इमकान्त, विदेह, आनर्त, वादूरः, खाडूर, माठर, पाठेय, पाथेयः घोष, घोषमित्र, शिष्य, वणिय, पल्ली, अराज्ञी, आराजी, धार्तराशी, धार्तराष्ट्री, धार्तराष्ट्र, अवया, तीर्थकुक्षि, समुद्रकुक्षि, द्वीप, अन्तरीप, बरुण, उज्जयनी, दक्षिणापथ, साकेत इति धूमादिः । दाण्डायनस्थलीत्यादीनां दुसंज्ञकानामीकारान्तानां वादूरखाडूरमाठराणां च पाठोप्राच्यार्थः । प्राच्यानां त्वीद्रोपान्त्यलक्षणोऽकत्र सिद्ध एव, विदेहानर्तयो राष्ट्रेऽकञ् सिद्ध एव । सामर्थ्याददेशार्थः पाठः, विदेहानामानानां च क्षत्रियाणामिदं वैदेहकम् । आनर्तकम्, पाठेयपाथेययोर्योपान्त्यत्वादकञ् सिद्धोऽदेशार्थः पाठः । पठेः पठाया वापत्यं पाठेयः, तस्येदं पाठेयकम् ।४६।
न्या० स० धमा०-धार्तराष्ट्रीति ननु नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणं भविष्यति किं द्वयोरुपादानेन ? नैवं, नामग्रहणेति न्यायस्तदा आश्रीयते यदा द्वयोरप्येकोऽर्थो भवति, अत्र तु धार्तराष्ट्रीशब्देन काचिन्नगरी उच्यते, धार्तराष्ट्रशब्देन तु कश्चित् प्राम इति भिन्नशब्दोपादानं, अथ धूमादिगणो विव्रियते-'विलिभिलि' ३४० ( उणादि) इति धूमः, षड् अण्डा आण्डाश्च यत्र षडण्डः, षडाण्डः ।
अवतण्डयति अति अवतण्डः, तण्डते तण्डकः, अवतण्डते 'कैरव' ५१९ ( उणादि ) इति वतण्डवः ।
शशान् अति शशादनः, 'यम्यजि' २८८ (उणादि ) इति अर्जुन:, ऋजुनावानां निवासः आर्जुनावः, दण्डानां समूहो दाण्डं, 'श्वादिभ्योऽञ्' ६-२-२६ दाण्डमय्यते अनेनेति दाण्डायनः।
स्थलतिस्थली, दाण्डायनस्य स्थली, मानं कायति मा अविद्यमाना आनका येषां वा
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[ पाद. ३. सू. ४७-५० ] श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः
[ ११३
मानकास्तेषां स्थली, आनकानां स्थली, महन्ति माहकास्तेषां स्थली, मद्रेषु भवाः मद्रकास्तेषां स्थली, स्थल्युत्तरपदानां सर्वत्र षष्ठीसमासः, व्युत्पत्तिस्तु सान्वया, राज्ञो गृहं, सत्राशब्द आकारान्तोऽव्ययः, सत्रा साकं सह्यते सत्रासाहः, सन्त्रासादोऽत्रास्ति सात्रा साहः, भक्ष्याणि आदत्ते लाति, अलाति भद्रमलति 'कर्म्मणोऽणू' ५-१-७२, मद्रभूतं कुलं यत्र, अनक्ति अच् ङी, अज्याः कुलं, द्वौ त्रत्रोऽहो वा यत्र, केचित्तु इवर्णादिभ्यः यवरलानिच्छन्ति, तन्मते द्वियाहाव इत्यादि ।
संस्फायते क्विप् तस्मै हितः संस्फीयः, बर्बतीति 'विहड' १७२ ( उणादि ) इति बडः, वर्ज्यते वर्ज्यः, शके रुन्ति शकुन्तिः, विनादयति विनादः, इश्च मा च ताभ्यां कान्तः पृषोदरादित्वात इमकान्तः ।
विदिह्यन्ते विदेहाः, एत्य नृत्यन्त्यत्र आनर्त्तः, वट वेष्टने खादृ 'सिन्दूर' ४३० (उणादि ) इति वादूर, खाडूरः । मठरोऽत्रास्ति माठरः । घुष्यत इति घोषः, स मित्रमस्य 'इकिस्तिव ' ५ -३ - १३८ इति वणिं याति वणिय:, न विद्यते राजा यस्यां 'नाम्नि ' २-४-१२ इति यां अराज्ञी । आगता राजानो यस्यां सा भाराज्ञी ।
धृतो राजा येन धृतराजा, सोऽत्रास्तीति धार्त्तराज्ञी, धृतराष्ट्रोऽत्रास्ति धार्त्तराष्ट्री, धार्तराष्ट्रः । अवयाति अवयाः, समुद्रवतकुक्षिरस्य समुद्रकुक्षिः, उज्जीयतेऽनया उज्जयनी, रम्यादित्वा - दुज्जयति वा, दक्षिणस्याः पन्था दक्षिणापथः, साया: लक्ष्म्याः केतो निवासः साकेतः ।
सौवीरेषु कूलात् ॥ ६. ३. ४७ ॥
सौवीर देशवाचिनः कूलशब्दाच्छेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति । कौलक : सौवीरेषु, कौलोsन्यत्र ॥४७॥ समुद्रान्नृनावोः ॥ ६. ३. ४८ ॥
समुद्रशब्दाद्द शवाचिनः शेषेऽर्थेऽकञ्प्रत्ययो भवति स चेत् प्रत्ययान्तवाच्यो ना मनुष्यो नौर्वा भवति । सामुद्रको मनुष्यः । सामुद्रिका नौः । नृनावोरिति किम् ? सामुद्रं लवणम् ॥ ४८ ॥
नगरात् कुत्सादाये ।। ६. ३. ४९ ।।
नगरशब्दाद्दशवाचिनः शेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति प्रत्ययार्थस्य कुत्सायां दाक्ष्ये च गम्यमाने । कुत्सा निन्दा, दाक्ष्यं नैपुण्यम् । केनायं मुषित इह नगरे मनुष्येण संभाव्यते एतन्नागरके, चौरा हि नागरका भवन्ति । केनेदं चित्रं लिखितमिह नगरे मनुष्येण संभाव्यते एतन्नागरके, दशा हि नागरका भवन्ति । कुत्सादाक्ष्य इति किम् ? नागरः पुरुषः, संज्ञाशब्दात्तु कत्र्यादि - पाठादेयकञ् । नागरेयकः । ४९|
कच्छाभिवक्त्रवर्तोत्तरपदात् ।। ६. ३. ५० ॥
कच्छ अग्नि वक्त्र वर्त इत्येतदुत्तरपदादेशवाचिनः शेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो
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११४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. ३ सू० ५१-५४ ] भवति, ईयाणोरपवादः । भारुकच्छे भवो भारुकच्छकः, पिष्पलीयकःच्छे पैष्पलीयकच्छकः, अग्नि, काण्डाग्नौ काण्डाग्नकः, विभुजाग्नौ वैभुजाग्नकः, वक्त्र, ऐन्दुवक्त्रे भवः ऐन्दुवक्त्रकः, तिन्दुवक्त्रे तेन्दुवक्त्रकः, वर्त, बाहुवर्ते बाहुवर्तकः, चक्रवर्ते चाक्रवर्तकः । उत्तरपदग्रहणमबहुप्रत्ययपूर्वार्थम्, ईषदसमाप्तः कच्छो बहुकच्छो देशः ततोऽकञ् न भवति ॥५०॥
न्या० स० कच्छा-ईयाणोरपधाद इति यत्र पूर्वपदस्य दुसंज्ञा तत्रेयस्यान्यत्र त्वणः, अत्र प्रथमप्रयोगे ईयस्य द्वितीये त्वणः प्राप्तिः। . अरण्यात्पथिन्यायाध्यायेभनरविहारे ॥ ६. ३. ५१ ॥
अरण्यशब्दाद्देशवाचिनः पथ्यादिषु वाच्येषु शेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति । आरण्यकः पन्थाः न्यायोऽध्यायः इभो नरो विहारो वा । पथ्यादाविति किम् ? आरण्याः सुमनसः, आरण्याः पशवः ॥५१॥ गोमये वा ॥ ६. ३. ५२ ॥
अरण्यशब्दाद्देशवाचिनः शेषेऽर्थे गोमये वाच्येऽकञ् प्रत्ययो भवति । आरण्यका गोमयाः, आरण्यानि गोमयानि । केचित्तु हस्तिन्यामपि विकल्पमिच्छन्ति, आरण्या आरण्यका हस्तिनी। एके तु नरवजं पूर्वसूत्रेऽपि विकल्पमाहुः, भारण्यः आरण्यकः पन्था इत्यादि ।५२।। कुरुयुगन्धरादा ॥ ६.३.५३ ॥
कुरुयुगन्धरशब्दाभ्यां देशवाचिभ्यां शेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो वा भवति । कुरुषु भवः कौरवकः कौरवः, युगन्धरेषु भवः योगन्धरकः, यौगन्धरः, राष्ट्रशब्दावेतौ बहुविषयो च तत्र युगन्धरात् 'बहुविषयेभ्यः (६-३-४४) इति नित्यमकत्रि प्राप्ते विकल्पः । कुरोस्त्वकञः कच्छाद्यणा बाधितस्य प्रतिप्रसवार्थ वचनम् । तथा च विकल्पः सिद्ध एव । युगन्धरात्तु विभाषा। ननस्थयोस्तु करोः परत्वादकडेव । कौरवको मनुष्यः कोरवकमस्य हसितम्।५३। साल्वादोयवाग्वपत्तौ ॥ ६. ३. ५४ ॥
साल्वशब्दाद्देशवाचिनो गवि यवाग्वां पत्तिजिते च मनुष्ये शेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति । साल्वको गौः, साल्विका यवागूः, साल्वको मनुष्यः । गोयवाग्वपत्ताविति किम् ? साल्वा व्रीहयः, साल्वः पत्तिः। राष्ट्रेभ्योऽकत्रि कच्छाद्यणा बाधिते गोयवानग्रहणं प्रतिप्रसवार्थम् अपत्तीति पत्तिप्रतिषेधात तत्सदशे मनुष्ये विधिः, तत्र चोत्तरेण सिद्ध एवाकजि नरि नियमार्थमपत्ति
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। पाद. ३. सू. ५५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [११५ ग्रहणम् । एवं च गोयवाग्वोः पत्तिवजिते च मनुष्ये मनुष्यस्थे च हसितादौ साल्वक: अन्यत्र साल्व इति स्थितम्, अयं च विभागः सल्वशब्दस्यादोरपि विज्ञेयः ।५४।
न्या० स० साल्वा०-नियमार्थमिति नार साल्वशब्दात् यद्यकञ् भवति, तदा अपत्तावेव न पत्तौ, मनुष्यस्थे चेति ननु गोयवाग्वपत्तावित्युच्यमाने मनुष्यस्थः कथं न लभ्यते, नहि मनुष्यस्थः प्रहासादिौयवागूरपत्तिर्वा भवति, न च पत्तेरन्यमात्रमपत्ति, अपि तु मनुष्योऽन्यथा व्रीहय इत्यत्राप्यक प्राप्नोति, तथा च गोयवागूग्रहणमनर्थकं स्यात्तत्राप्यपत्तावित्येव सिद्धेः? उच्यते, अपत्ति ग्रहणं 'कच्छादेर्नूनृस्थे' ६-३-५५ इत्यकत्रि सिद्धे पत्तेावृत्त्यर्थं क्रियते न तु विध्यर्थ, तेन यथा अपत्तो मनुष्ये भवति तथा मनुष्यस्थेऽपि, ततः प्रत्ययस्याव्यावर्तितत्वात् । सल्यशब्दस्येति उपलक्षणत्वादेकदेशविकृतस्यानन्यत्वाद् वा ।
कच्छादे नृस्थे ।। ६. ३. ५५ ॥
कच्छादिभ्यो देशवाचिभ्यो नरि मनुष्ये नृस्थे मनुष्यस्वे च शेषेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । काच्छको मनुष्यः, काच्छकमस्य हसितम्, स्मितं जल्पितम् ईक्षितम्, काच्छिका चूला, सैन्धवको मनुष्यः, सैन्धवकमस्य हसितम्, सैन्धविका चूला । ननस्थ इति किम् ? काच्छो गौः, सैन्धवं लवणम्, कच्छ, सिन्धु, वर्ण, मधुमत्, कम्बोज, साल्व, कुरु, अनुषण्ड, अनूषण्ड, कश्मीर, विजापक, द्वीप, अनूप, अजवाह, कुलूत, रङ्गु, (कु) गन्धार, साल्वेय, यौधेय, सस्थाल, सिन्ध्वन्त इति कच्छादिः । कच्छादयो ये बहुविषया राष्ट्रशब्दास्तेभ्यो 'बहुविषयेभ्यः' (६-३-४४) इत्यकञ् सिद्ध एव । उत्तरेण स्वणा बाधा माभूदिति पुनविधीयते । वर्णसिन्धुभ्याम् ‘उवर्णादिकण्' (६-३-३८) इतीकणि तदपवादे कच्छाधणि, कुरो: 'कुरुयुगन्धराद्वा' (६-३-५२) इति विकल्पे, विजापकस्य कोपान्त्यलक्षणेऽणि, कच्छस्यौत्सर्गिकाणि प्राप्तेऽकविधिःः, अपरे कच्छमपि बहुविषयं राष्ट्रशब्दमाहुस्तदा पूर्वोक्तमेव पाठफलम् ।५५।
न्या० स० कच्छा० -अणोपवाद इति 'कोपान्त्याच्चाण' ६-३-५६ इति सामान्येन प्राप्तस्य, अथ कच्छादिगणो विव्रियते-'तुदिमदि' १२४ ( उणादि ) इति कच्छ:, 'स्यन्दि सृजिभ्याम् ' ७१७ ( उणादि) इति सिन्धुः ।
'अजिस्था' ७६० ( उणादि) इति वर्णः, मधु अस्यास्ति मधुमत् ,
'सलेर्णिद्वा' ५१० ( उणादि ) साल्व: ‘कृगृ' ४४१ ( उणादि ) इति कुरुः, अनुरूपा षण्डा यत्र अनुषण्डः, बाहुलकादीर्घत्वे अनूषण्डः, 'कशेर्मोऽन्तश्च ' ४२० ( उणादि) कश्मीराः, विजापयन्ति विजापकाः, द्विधा गता अनुगता आपो यत्र द्वीपः, अनूपः, अजान्वहति अजवाहः,
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११६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू. ५६-५८ ] कुत्सिता लूता यत्र कुलुतः, कैशीशमि' ७४९ ( उणादि) इति रकुः, गन्धानियति गन्धारः, साल्वाया अपत्यं साल्वेयः, युधाया अपत्यं यौधेयः, सह स्थालेन वर्तते सस्थाल: ।
सिन्धुशब्दोऽन्ते यस्य सिध्वन्त:, सिन्धु शब्दान्तो गृह्यते, न तु सिन्धोरन्त इति कृत्वा सिध्वन्त इत्यखण्डः, तदा हि 'हृद्भगसिन्धोः' इत्यत्र साक्तुसैन्धवः पानसैन्धव इत्यादिषु कच्छादौ तदन्तविधेरपीष्टत्वात् इति यदुक्तं तदुपपन्नस्यात् । पूर्वोक्तमेवेति उत्तरेण त्वणा बाधा माभूदित्येवरूपम् । कोपान्त्याचाण् ॥ ६. ३. ५६ ॥
देशादित्येव वर्तते न ननस्थे इति । कोपान्त्यात्कच्छादेश्च देशवाचिनः शेषेऽर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, इकणकजोरपवादः । कोपान्त्यः, ऋषिका जनपदः तेषु जातः आर्षिकः । महिकेषु माहिषकः, अश्मकेषु आश्मकः, इक्ष्वाकुषु ऐक्ष्वाकः, कच्छादि, काच्छः, सैन्धवः, वार्णवः । अथाणग्रहणं किमर्थम् यो हि अन्येन बाधितो न प्राप्नोति तदर्थमिदं स्यात् स चाणेव, न चानन्तरोऽकमेव स्यादित्याशङ्कनीयम् । एवं हि पूर्वकमकविधानम् अनर्थकं स्यात् ? नैवम्, असत्यण्ग्रहणे इक्ष्वाकोरुवर्णलक्षण इकण् स्यात् स हि ततो राष्ट्राका बाधितः ।५६। ___ न्या० स० कोपा०-इकणकनोरिति ‘उवर्णादिकण' ६-३-३९ 'बहुविषयेभ्यः' ६-३-४५ इत्यनयोः । अन्येन बाधित इति 'प्रागजितात् ६-१-१३ इति प्राप्तोऽन्येनाकादिना बाधित इत्यर्थः।
अनर्थकं स्यादिति यदि हि नृनृस्थे अन्यत्र वाकोव स्यात् तदा कि पूर्वसूत्रेण, अनेनैव कच्छादिकोपान्त्याच इत्येवंरूपेण सिद्धत्वात् । इकण् स्यादिति यत इक्ष्वाकोरिकणप्यनेनाका बाध्यमानो विद्यते एव ततश्च सोप्यनेन स्यादिति । गर्वोत्तरपदादीयः ॥ ६. ३. ५७ ॥
गतॊत्तरपदाद्देशवाचिनः शेषेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । श्वादिदर्तात्तु वाहीकग्रामलक्षणी णिकेकणी परत्वाद्वाधते । श्वाविद् भवः श्वाविदर्तीयः, वृकगीयः शृगालगर्तीयः, राहिदीयः । आभिसार गर्तकः त्रैगर्तकः इत्यत्राकञ् 'राष्ट्रेभ्यः' (६-३-४३) इति बहुविषयेभ्य इति बहुवचनसामर्थ्यात् भवतीत्युक्तम् । उत्तरपदग्रहणं बहुप्रत्ययपूर्वनिरासार्थम्, बाहुगतः ।५७। कटपूर्वापाचः ॥ ६. ३. ५८ ।।
कटपूर्वपदात्पाग्देशवाचिनो नाम्नः शेषेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । कटनगरीयः, कटग्रामीयः, कटघोषीयः, कटवर्तकीयः, कटपल्वलीयः। प्राच इति किम् ? काटनगरः ।५८।
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[पाद. ३ सू. ५९-६२] श्रीसिद्धहेमचन्द्राशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ ११७ कखोपान्त्यकन्थापलदनगरग्रामहदोत्तरपदादोः ॥ ६. ३. ५९ ॥
ककारखकारोपान्त्यात्कन्थापलदनगरग्रामहूद इत्येतदुत्तरपदाच्च देशवाचिनो दुसंज्ञकात् शेषेऽर्थे ईय: प्रत्ययो भवति । बाधकबाधनार्थ आरम्भः, कोपान्त्यात् कोपान्त्यलक्षणेऽणि प्राप्ते । आरोहणकीयः, द्रौघणकीयः, आश्वस्थिकीयः, शाल्मलिकीयः, सौषुकीयः, आष्टकीयः, ब्राह्मणकीयः, बालकीयः । खोपान्त्यात् वाहीकग्रामलक्षणयोणिकेकणोः, कौटशिखीयः, माटिशिखीयः, अयोमुखीयः । कन्थापलदोत्तरपदात्तयोरेव । दाक्षिकन्थीयः, माहकिकन्थीयः, दाक्षिपलदीयः, माहकिपलदीयः । नगरोत्तरपदाद्रोपान्त्यलक्षणेऽकत्रि, दाक्षिनगरीयः, माहकिनगरीयः । ग्रामह्रदोत्तरपदात् णिकेकणोरेव । दाक्षिग्रामीयः, माहकिग्रामीयः, दाभिह्रदीयः, माहकिह्रदीयः । दोरिति किम् ? माषिकः, माडनगरः ॥५९।। __ न्या० स० कखो०-बाधकबाधनार्थ इति 'दोरीयः' ६-३-३२ इति ईयस्य ये बाधकाः कोपान्त्याच्चेत्येवमादयस्तेषां बाधनं बाधस्तदर्थोऽयमारभ्या इत्यर्थः, एतदेव कोपान्त्यादित्यादिना स्पष्टयन्नुदाहरति । . आष्टकीय इति 'इर्ष्याश' ७७ ( उणादि) इति तककि साध्यः अष्टौ कायति वा, अष्टावध्याया मानमस्येति वा पश्चात् 'तदत्रास्ति' ६-२-७० इत्यण , इहान्तग्रहणादेव केवलस्य निवृत्तौ दुत्वाच्च गर्वोत्तरपदवद् बहुपूर्वनिवृत्त्यर्थमित्याशङ्कायाअभावे उत्तरपद्ग्रहणं कन्थाद्यन्तोत्तरपदाग्रहणार्थ, 'प्रस्थपुरवहान्त' ६-३-४३ इत्यत्र त्वन्तग्रहणात् प्रस्थाद्यन्तोत्तरपदग्रहस्यापीष्टत्वात् । पर्वतात् ॥ ६. ३. ६० ॥
पर्वतशब्दाद्देशवाचिनः शेषेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । पर्वतीयो राजा । पर्वतीयः पुमान् ।६०। अनरे वा ॥ ६. ३. ६१ ॥
पर्वताद्देशवाचिनो नरवजिते शेषेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति वा । पर्वतीयानि पार्वतानि फलानि, पर्वतीयं पार्वतमुदकम् । अनर इति किम् ? पर्वतीयो मनुष्यः ।६१॥ पर्णकणाद्भारद्वाजात् ॥ ६. ३. ६२ ॥
पर्णकृकण इत्येताभ्यां भारद्वाजदेशवाचिभ्यां शेषेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । पर्णीयः। कृकणीयः। भारद्वाजादिति किम् ? पार्णः, कार्कणः ।६२।
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११८]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० ३. सू० ६३ ] गहादिभ्यः ॥ ६. ३. ६३ ॥
देशादिति वर्तते । तद्भहादीनां यथासंभवं विशेषणम् । गहादिभ्यो यथासंभवं देशवाचिभ्यः शेषेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, अणाद्यपवादः । गहीयः, अन्तस्थीयः । गह, अन्तस्थ, अन्तस्था, सम, विषम, उत्तम, अङ्गमगध, शुक्लपक्ष, पूर्वपक्ष, अपरपक्ष, कृष्णशकुन, अधमशाख, उत्तमशाख, समानशाख, एकशाख, समानग्राम, एकग्राम, एकवृक्ष, एकपलाश, इष्वग्र, दन्ताग्रे, इष्वनीक, अवस्यन्द, कामप्रस्थ, सौप्रख्य, खाडायनि, काठेरणि, काठेरिणि, लावेराणि, लावेरिणि, लावीरणि, शौशिरि, शौङ्गि, शौङ्गिशैशरि, आसुरि, आहिंसी, आमित्रि, व्याडि, भौङ्गि, भौजि, भौजि, आध्यश्वि, आश्वत्थि, औद्धाहमानि, औपविन्दवि, आग्निशमि, देवमि, श्रीति, बाटारकि, वाल्मीकि, क्षेमधृत्वि, उत्तर, अन्तर, मुखतस्, पार्श्वतस्, एकतस्, अनन्तर, आनुशंसि, साटि, सौमित्रि, परपक्ष, स्वक, देवक, इति गहादयः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।६३।
न्या० स० गहादि०-अथ गणः, गाह्यते घम् , पृषोदरादित्वात् ह्रस्वत्वे गहः, अन्ते तिष्ठति अन्तस्थः, अन्तस्थाः, समति अच् समः, विगतः समात् विषमः, उत्ताम्यति बहूनां प्रकृष्ट . उत्कृष्टो वा उत्तमो देशः अगाश्च मगधाश्च अङ्गमगधाः, शुक्लश्चासौ पक्षश्च शुक्लपक्षः, एवं पूर्वपक्षः, अपरपक्ष:, कृष्ण शकुनः ।।
अधम उत्तमा समाना एका शाखा यस्य, समानश्चासौ ग्रामश्च समानग्रामः, अस्य देशवाचिन एवास्मिन् गणे पाठः, अन्यत्र 'समानपूर्व' ६-३-८९ इति इकण् , एकश्चासौ ग्रामश्च वृक्षश्च पलाशश्च एकग्रामः, एकवृक्षः, एकपलाशः, इषुभिरग्रः प्रधानं इष्वनः, दन्तैरनः दन्ताः , इषु प्रधानान्यनीकानि यत्र इष्वनीकः, अवस्यन्दतेऽत्र अवस्यन्दः, कामेषु प्रतिष्ठते कामप्रस्थः, सुप्रचष्टे सुप्रख्यः सोत्रास्ति तस्य निवासो वा सोप्रख्यः, कठमीरयति, नन्द्यादित्वात् कठेरणस्तस्यापत्यं काठेरणिः, 'ऋद्रुहेकित्' १९५ (उणादि) इरिणं कठस्य इरिणमिव उषरमिव कठेरिणस्तस्यापत्यं काठेरिणिः, लूयते लवः, लवमीरयति लवेरणस्तस्यापत्यं लावेरणिः, लवस्येरिणमिव लवेरिणस्तस्यापत्यं लावेरिणिः, लवोऽस्यास्तीति लवी, लविनमीरयति लवीरणस्तस्यापत्यं लावीरणिः, शिशिरस्यापत्यं शैशिरिः, शुङ्गत्यापत्यं शौड्गिः, शुङ्गस्य शुङ्गाया वापत्यं 'शुङ्गाभ्यां भारद्वाजे' ६-१-६३ अण् शौङ्गश्चासौ शशिरिश्च, असुरस्यापत्यं मासुरिः, बाहादित्वादित्र, न हिनस्ति, न विद्यते हिंसा यस्य वा अहिंसस्तस्यापत्यं आहिसिः, न मित्रममित्रः, प्रसो वा तस्यापत्यं आमित्रिः, व्यडस्यापत्यं भोजस्य भूर्जस्य अध्यश्वस्य अश्वत्थस्य उद्गाहमानस्यापत्यं 'अत इञ्। ६-१-३१ उपविन्दोः अग्निशर्मणो देवशर्मणोऽपत्यं बाह्लादित्वादिञ् , श्रुतस्यापत्यं श्रौतिः, बटारं कायति तस्यापत्यं वल्मीकस्यापत्यं 'अत इञ्' ६-१-३१, क्षेमं धृतवान क्षेमधृत्वा तस्यापत्यं बाहादित्वादि क्षेमधृत्वि:, उतरति उत्तरः, 'अनिकाभ्यां तरः, ४३७ (उणादि) इति अन्तं राति वा अन्तरः, एक तस्यति क्विप् एकताः, न अन्तरः अनन्तर:. नन् शंसति नृशंसः, न नृशंसः अनृशंसस्तस्यापत्यं आनुशंसिः, षट् अवयवे, सति सटस्तस्यापत्यं साटिः, सुमित्राया अपत्यं सौमित्रिः, बाह्वादित्वादि , परस्य पक्ष पर पक्षः इति गहादिगणः ।
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[पाद. ३. सू. ६४-६७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ ११९ पृथिवीमध्यान्मध्यमश्वास्य ॥ ६. ३. ६४॥
पृथिवीमध्यशब्दाद्देशवाचिनः शेषेऽर्थे इयः प्रत्ययो भवति मध्यमादेशश्वास्य पृथिवीमध्यशब्दस्य भवति । पृथिवीमध्ये जातो भवो वा मध्यमीयः।६४। निवासाच्चरणेऽण् ॥ ६. ३. ६५ ॥
पृथिवीमध्यानिवासभूताद्देशवाचिनश्चरणे निवस्तरि शेषेऽर्थेऽण् प्रत्ययो भवति मध्यमादेशश्वास्य पृथिवीमध्यशब्दस्य । पृथिवीमध्यं निवास एषां चरणानां माध्यमाश्चरणाः, त्रयः प्राच्याः त्रयः उदीच्याः त्रयो माध्यमाः । निवासादिति किम् ? पृथिवीमध्यादागतो मध्यमीयः कठः। चरण इति किम् ? पृथिवीमध्यं निवासोऽस्य मध्यमीयः शूद्रः ।६५।
'न्या० स० निवा-नन्वण्ग्रहणं किमर्थ यतो यो हि अन्येन बाधितो न प्राप्नोति तदर्थमिदं स चाणेव ?
सत्यं, निवासाच्चरण इति कृते पूर्वसूत्रेणैव सिद्धे नियमार्थ स्यात्, पृथिवीमध्यान्निवासभूतदेशवाचिनश्चरणे एव निवस्तरि नान्यत्र ततश्च मध्यमीयाश्चरणा माध्यमः शूद्र इति वैपरीत्यं स्यादतस्तन्मा भूदित्यण् ग्रहणम् । वेणुकादिभ्य ईयण् ॥ ६. ३. ६६ ॥
वेणुक इत्येवमादिभ्यो यथायोगं देशवाचिभ्यः शेषेऽर्थे ईयण् प्रत्ययो भवति । वैणुकीयः, वैत्रकीयः, औत्तरपदीयः, औतरीयः, औतरकीयः, प्रास्थीयः, प्रास्थकोयः, माध्यमकीयः, माध्यमिकीयः, नैपुणकीयः, बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।६६।
न्या. स. वेणु०-वेणवः सन्त्यत्र उत्तराण्यत्र सन्ति, 'ऋश्यादेः कः' ६-२-९४ प्रस्मस्य तुल्यः, मध्यम एव, मध्यममस्यास्ति
'अतोऽनेक' ७-२-६ इतीकः, अल्पा निपुणः, 'कुत्सिताल्पे' ७-३-३३ इति कप् , तत्र भवः ।
वा युष्मदस्मदोऽत्रीनी युष्माकास्माको चास्यैकत्वे तु तवकममकम् ।। ६. ३. ६७ ॥
देशादिति निवृत्तम्, युष्मद् अस्मद् इत्येताभ्यां शेषेऽर्थे अञ् ईन इत्येतो प्रत्ययौ वा भवतः तत्संनियोगे च यथासंख्यं युष्मदस्मदोयुष्माकास्माको, एकत्वविशिष्ठे त्वर्थे वर्तमानयोस्तवकममकावादेशौ भवतः, प्रत्ययौ प्रति यथासंख्यं नास्ति वचनभेदात् । युष्माकमयं युवयोर्वा यौष्माकः । यौष्माकीणः, अस्माकमयमावयोर्वा आस्माकः आस्माकीनः, पक्षे त्यदादित्वेन दुसंज्ञकत्वादीयः ।
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१२० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३. सू. ६८-७४ ] युष्मदीयः, अस्मदीयः, एकत्वे तु तवकममकम् । तवायं तावकः, ममायं मामकः, तावकीनः, मामकीनः, पक्षे त्वदीयः, मदीयः ।६७ दीपादनुसमुद्र ण्यः ॥ ६. ३. ६८ ॥
समुद्रसमीपे यो द्वीपस्तद्वाचिनः शेषेऽर्थे ण्यः प्रत्ययो भवति । कच्छाघकरणोरपवादः, द्वेप्यो मनुष्यः, द्वेप्यमस्य हसितम्, द्वेप्यम् । अनुसमुद्रमिति किम् ? अनुनदि यो द्वीपस्तस्मात् द्वैपको व्यासः, द्वेपकमस्य हसितम्, द्वैपम् ।६८।
अर्धाद्यः ॥ ६. ३. ६९ ॥ ___अर्धशब्दाच्छेषेऽर्थे य: प्रत्ययो भवति । अय॑म् ।६९। सपूर्वादिकण ॥ ६. ३. ७० ।।
सपूर्वपदादर्धशब्दात् शेषेऽर्थे इकण प्रत्ययो भवति । पौष्कराधिकः, बजयाधिकः, बालेयाधिकः, गौतमाधिकः, क्षेत्राधिकः यौवनाधिकः ।७०। दिकपूर्वपदात्ती ॥ ६. ३.७१ ॥
दिक्पूर्वपदादर्धशब्दाच्छेषेऽर्थे तो य इकण् इत्येतो प्रत्ययो भवतः । पूर्वार्ध्यम्, पौर्वाधिकम् दक्षिणायम, दाक्षिणाधिकम्, पश्चार्यम्, पाश्चाधिकम् ।७१। ग्रामराष्ट्रांशादणिकणी ॥ ६. ३. ७२ ॥
ग्रामराष्ट्रैकदेशवाचिनोऽर्धशब्दाद्दिकपूर्वात् शेषेऽर्थेऽण् इकण इत्येतो प्रत्ययो भवतः, यापवादो। ग्रामस्य राष्ट्रस्य. वा पूर्वार्धे भवः पौर्षिः, पौर्वाधिक:, दाक्षिणार्धः, दाक्षिणाधिकः ।७२। परावराधमोत्तमादेयः ॥६. ३.७३ ॥
पर अवर अधम उत्तम इत्येतत्पूर्वादर्धशब्दाच्छेषेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति, इकणोऽपवादः । पराय॑म्, अवराय॑म्, अधमाध्यम्, उत्तमार्यम्, परावरयोः दिकशब्दत्वेऽपि परत्वादयमेव यः ।७३।
न्या० स० परावरा-दिक्शब्दत्वेऽपीति न केवलं परावरयोर्यथाक्रम शत्रवधर्मार्थयोरनेन प्रत्यय इत्यपेरर्थः। - अमोऽन्तावोधसः ॥ ६. ३. ७४ ॥
____ अन्त, अवस्, अधस् इत्येतेभ्यः शेषेऽर्थेऽमः प्रत्ययो भवति । अन्तमः, अवमः, अधमः, अकारादित्वमवोऽधसोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थम् ।७४।
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[पाद ३. सू. ७५-७८] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १२१
न्या० स० अमो०-यत्र प्रकृतिविशेषो नोपादीयते तत्र 'वाद्यात् । ६-१-११ इति प्रवर्तते इत्यत्र प्रकृतिविशेषोपादनादम इत्यस्य प्रथमान्तनिर्देऽपि न प्रकृतिभावः ।
अन्तम इति अन्तशब्दात् भवादन्यत्रायं विधिः, भवे तु दिगादिय एव, तथा अवोधः शब्दयोर्दिग्देशवृत्त्योरिह ग्रहणं, कालवृत्त्योस्तु परत्वात् 'सायंचिरम् ' ६-३-८८ इति तनडेव ।
अकारादीति अन्यथा आम इति कृते 'नाम सिदय्यव्यञ्जने' १-१-२१ इत्यनेन पदत्वात् 'प्रायोऽव्ययस्य' ७-४-६५ इत्यन्त्यस्वादिलोपो न स्यात् , 'नोऽपदस्य' ७-४-६१ इत्यतोऽपद पश्चादाद्यन्ताग्रादिमः ॥ ६. ३. ७५ ॥
पश्चात् आदि अन्त अग्र इत्येतेभ्यः शेषेऽर्थे इमः प्रत्ययो भवति । पश्चिमः । अत्राव्ययत्वादन्त्यस्वरादिलोपः। आदिमः, अन्तिमः अग्रिमः । आधन्ताभ्यां भवादन्यत्रायं विधिः, भवे तुं परत्वादिगादिय एव ।०५। मध्यान्मः ॥६. ३. ७६ ॥
मध्यशब्दाच्छेषेऽर्थे मः प्रत्ययो भवति । मध्यमः, भवे दिनणादिर्वक्ष्यते । ततोऽन्यत्रायं विधिः ॥७६।
मध्य उत्कर्षापकर्षयोरः ।। ६. ३. ७७ ।। - उत्कर्षापकर्षयोर्मध्ये वर्तमानान्मध्यशब्दाच्छेषेऽर्थे अ इत्ययं प्रत्ययो भवति, मापवादः । नात्युत्कृष्टो नात्यपकृष्टो मध्यपरिमाणो मध्यो वैयाकरणः, मध्या गुणाः, मध्या स्त्री, नातिदीर्घ नातिह्रस्वं मध्यप्रमाणं मध्यं काष्ठम्, नातिस्थूलो नातिकृशो मध्यः कायः । यद्यपि मध्यशब्दो मध्यपरिणामवाचिन्यपि वर्तते तथाप्यवस्थावस्थावतोः स्याद्वादाद्भेदविवक्षायामवस्थावाचिप्रकृतेरवस्थावति प्रत्ययार्थे पूर्वेण मो माभूदिति वचनम् ।७७।
न्या० स० मध्य०-यद्यपीति नन्वाधाराधेययोरभेदविवक्षाया मध्यवर्तिकाष्टायपि मध्यशब्देनोच्यते, तत् किमनेनेत्याशङ्का । अध्यात्मादिभ्य इकण् ॥ ६. ३. ७८॥
अध्यात्म इत्यादिभ्यः शेषेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । अध्यात्म भवमाध्यात्मिकम्, एवमाधिदैविकम्, आधिभौतिकम्, अनुशतिकादित्वादनयोरुभयपदवद्धिः। और्वदमिकः, और्ध्वदेहिकः, औवंदमिकः, और्वदेहिकः, अत एव पाठादूर्ध्वशब्दस्य दमदेहयोर्वा मोऽन्तः । केचिदूर्ध्वदमोर्ध्वदेहावनुशतिकादिषु पठन्त उभयपदवृद्धिमिच्छति । और्वदामिकः, और्वदैहिकः, ऊर्ध्वमौहर्तिकः, अत्र 'सप्तमी चोर्ध्वमौहूतिके' (५-३-१२) इति ज्ञापकादुत्तरपदस्यैव
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१२२ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते
[ पाद. ३ सू० ७९-८० | वृद्धिः । अकस्मात् हेतुशून्यः कालः तत्र भवमाकस्मिकम् । अमुष्मिन्परलोके भवम् आमुष्मिकम्, एवमामुत्रिकम्, पारत्रिकम्, इह भवमोहिकम्, शैषिकम् पाठसामर्थ्यात्सप्तम्या अलुप् । अध्यात्मादयः प्रयोगगम्याः ॥७८॥
6
न्या० स० अध्यात्मा० - आत्मनि इति विगृह्य अनः ' ७-३-८८ इत्यत् समासान्तः ततः सप्तम्यर्थस्योक्तत्वात् सिप्रत्ययः, यद्वा स्यादवादात् प्रकृतिभेदेन कारकभेदे सप्तम्यन्तादिकण् ।
6
मुष्मिकमिति ननु 'नोपदस्य ७-४-६१ इति कथमन्त्यस्वरादिलोपः, 'तदन्तं पदम् ' १- १ - २० इति पदत्वात्वान्न प्राप्नोति ? न, नाम सिदय्' १-१-२१ इति नियमात्पदत्वाभावः । एवमामुत्रिकमिति एवंशब्दः परलोकलक्षणं सादृश्यमवगमयति द्वयोः ।
समान पूर्वलोकोत्तरपदात् ।। ६. ३. ७९ ।।
समानपूर्वपदेभ्यो लोकशब्दोत्तरपदेभ्यश्च शेषेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । समानग्रामे कृतो भवो वा सामानग्रामिकः, सामानदेशिकः, इह लोके कृतो भवो वा ऐहलौकिकः, पारलौकिकः, सार्वलौकिकः, योगद्वयेऽपि भवार्थ एव प्रत्यय इत्यन्ये ॥ ७९ ॥
वर्षाकालेभ्यः ॥ ६. ३. ८० ।।
वर्षा शब्दात्कालविशेषवाचिभ्यश्व शेषेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, अणपवादः दोरीयमपि परत्वाद्वाधते । वर्षासु भवो वार्षिकः, ऋतोणित् प्रत्ययंस्तदवयवादेऋत्वन्तादपि भवत्यभिधानात् । पूर्ववार्षिकः, अपरवार्षिकः । एवमुत्तरत्रापि । कालवाचि, मासिकः, आर्धमासिकः, सांवत्सरिकः, आह्निकः, देवसिकः, वर्षाग्रहणं मृत्वण्बाधनार्थम् । कालशब्दः काल विशेषवाची । ' भर्तु संध्यादेरण् ( ६- ३ - ८८ ) इत्यत्र संध्यादिग्रहणात् । स्वरूपग्रहणे हि काललक्षणेकण्बाधकं सध्या दिग्रहणमनर्थकं स्यात् । बहुवचनं तु यथाकथंचित् कालवृत्तिभ्यः प्रत्ययप्रापणार्थं, निशासहचरितमध्ययनं निशा प्रदोषसहचरितं प्रदोषः तत्र जयी नैशिकः प्रादोषिकः । कदम्बपुष्पसहचरितः कालः कदम्बपुष्पं व्रीहिपलाल सहचरितः कालो व्रीहिपलालम् । तत्र देयमृणं कादम्बपुष्पिकं वैहिपलालिकम् । कालशब्दात्तु कालार्थादकालार्थाच्च कालतः, अकालादपि कालार्थात् 'कालेभ्यः' इति यो विधिः ८०
,
न्या० स० वर्षा० - पूर्ववार्षिक इति पूर्वाश्च ता वर्षाश्च 'पूर्वापरप्रथम' ३-१-१०३ इति समासः, पूर्वासु वर्षासु भष इति तद्धितविषये 'दिगधिकम् ३-१-९८ इत्यनेन वा, वर्षाणां पूर्वत्वमिति 'पूर्वापराध' ३-१-५२ इत्यादिना तत्पुरुषो वा 'अंशादुदृतो:' ७-४-११ इत्युत्तरपदवृद्धिः, विशेषविहितत्वात् परत्वाच्चानेन 'दिक्पूर्वात् ' ६- ३-७१ इति बाध्यते ।
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[ पाद. ३. सू. ८१-८५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्टोध्यायः [ १२३ __विशेषवाचीति गृह्यत इति शेषः, मासाद्यपेक्षया कालशब्दोऽपि कालविशेषवाची तेन कालिक इत्यपि । ___ यथाकथंचिदिति यथाकथंचित् गुणवृत्त्या मुख्यवृत्त्या वा ये काले वर्तन्ते इत्यर्थः । अकालादपीति-अकालशब्दश्च यदा कालमुपलक्षणीकृत्य काले वर्त्तते गुणवृत्त्यैव तदाकालशब्दात कालार्थात् प्रत्ययो भवति यथादर्शितात् कदम्बपुष्पादेः।
यो विधिरिति कालेभ्य इत्यंशेन यो विधिः स तस्माद् भवतीति । शरदः श्राद्धे कर्मणि ॥ ६. ३. ८१ ॥
शरच्छब्दात्कालवाचिनः श्राद्धे कर्मणि पितृकार्ये शेषेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, ऋत्वणोऽपवादः । शारदिकं श्राद्धकर्म। कर्मणीति किम् ? शारदः श्राद्धः, श्रद्धावानित्यर्थः । श्राद्ध इति किम् ? शारदं विरेचनम् ।८१।
नवा रोगातपे ॥ ६. ३. ८२॥
. शरच्छब्दात्कालवाचिनो रोगे आतपे च शेषेऽर्थे इकण प्रत्ययो भवति वा, ऋत्वणोऽपवादः । शारदिकः शारदो वा रोगः, शारदिकः शारद आतपः । रोगातप इति किम् ? शारदं दधि ।८२।
निशाप्रदोषात् ॥ ६. ३. ८३ ॥ - निशाप्रदोषशब्दाभ्यां कालवाचिभ्यां शेषेऽर्थे 'वर्षाकालेभ्यः' (६-३-७९) इति नित्यं प्राप्त इकण वा भवति । नैशिकः नैशः प्रादोषिकः प्रादोषः ।८३।
श्वसस्तादिः ॥ ६. ३. ८४ ॥ __ श्वस् इत्येतस्मात्कालवाचिनः शेषेऽर्थे इकण् प्रत्ययो वा भवति स च तादिः । शौवस्तिकः, पक्षे 'ऐषमोह्यःश्वसो वा' (६-३-१८) इति त्यच् । श्वस्त्यम् । तत्रापि वाग्रहणात् पक्षे 'सायम्'-(६-३-८७) इत्यादिना तनट् । श्वस्तनम् ।८४१ चिरपरुत्परारेस्त्नः ॥ ६. ३. ८५ ॥
चिरपरुत्परारि इत्येतेभ्यः कालवाचिभ्यः शेषेऽर्थे त्नः प्रत्ययो भवति वा, चिरत्नं परत्नं परारितम्, पक्षे 'सायम्' [६-३-८७ ] इत्यादिना तनट् । चिरंतनम्, परुत्तनम्, परारितनम्, परुत्परारिभ्यां विकल्पं नेच्छन्त्यन्ये । परारेस्तु रिलोप इत्येके, परात्नः। केचित्तु परुत्परार्योस्तनटयन्त्यस्वरात्परं स्वागममिच्छन्ति । परुन्तनम्, परारितनम् ।८५।
न्या० स० चिर०-म्वागममिति मोरुदित्करणं 'तौ मुमौ' १-३-१४ इत्यनुस्वरार्थ, अन्यथाऽपदान्तत्वान्न स्यात् , 'नाम सिदय् १-१-२१ इत्यनेनापि मस्य पदान्तत्वं
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१२४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ ० ८६-८९ ] परारितनमित्यत्रैव स्यात् , परुन्तनमित्यत्र तु अन्त्यस्वरात् परस्य तकाराच्च प्राक् स्थितस्य न स्यात् । पुरोनः ॥ ६. ३. ८६॥
पुराशब्दात्कालवाचिनोऽव्ययाच्छेषेऽर्थे नः प्रत्ययो भवति वा । पुरा भवं पुराणम्, पुरातनम् ।८६। पूवालापराह्णात्तनट् ॥ ६. ३. ८७ ॥
पूर्वाह्न अपराह्न इत्येताभ्यां कालवाचिभ्यां शेषेऽर्थे तनट् प्रत्ययो वा भवति । 'वर्षाकालेभ्यः' (६-३-७९) इति नित्यमिकणि प्राप्ते विकल्पः, तेन पक्षे सोऽपि भवति, पूर्वाह्न जातो भवो वा पूर्वाह्नतनः। पूर्वाह्नतनः, अपराह्नेतनः, अपराह्णतनः, 'कालात्तन' (३-२-२४) इत्यादिना वा सप्तम्या अलुप् । पूर्वाह्न जयी पूर्वाह्नतनः, अपराह्नतनः। अत्र जयिनि वाच्ये तत्र व्यवस्थितविभाषाविज्ञानात् नित्यं सप्तम्या लुप्, पक्षे पौर्वाहिकः, आपरालिकः। टकारो ड्यर्थः । पूर्वाह्नतनी, अपराह्नेतनी ८७।
सायंचिरंपालेप्रगेऽव्ययात् ॥ ६. ३. ८८॥ ____ योगविभागाद्वेति निवृत्तम्, सायंचिरंप्राहेप्रगे इत्येतेभ्योऽव्ययेभ्यश्च कालवाचिभ्यः शेषेऽर्थे तनट् प्रत्ययो नित्यं भवति । साये भवं सायन्तनम्, चिरे चिरन्तनम्, अत एव निर्देशान्मान्तत्वं निपात्यते। प्रातनम्, प्रगेतनम्, अनयोरेकारान्तत्वम् । अव्यय, दिवातनम्, दोषातनम्, नक्तंतनम्, पुनस्तनम्, प्रातस्तनम्, प्राक्तनत् । कालेभ्य इत्येव ? स्वर्भवं सौवम्, सायंचिरंप्राह प्रगे इत्यव्ययेभ्योऽव्ययादित्येव सिद्ध सायचिरप्राह्नप्रगशब्देभ्य स्तनविधानं कालेकण्बाधनार्थम् ।८८। भर्तुसंध्यादेरण ॥ ६. ३. ८९ ॥
भं नक्षत्रं तद्वाचिभ्य ऋतुवाचिभ्यः संध्यादिभ्यश्च कालवाचिभ्यः शेषेऽर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, इकणोऽपवादः । पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्तः काल: पुष्यः । 'चन्द्रयुक्त'-(६-२-७) इत्यादिनाण् । तस्य लुप्, पुष्ये भवः पौषः, एवं तैष: आश्विनः रौहिणः, सौवातः । ऋतु गृष्मः, शैशिरः, वासन्तः ऋतोणित् प्रत्ययस्तदवयवादेरपि भवति । पूर्वगृष्मः, अपरशैशिरः । 'अंशादृतोः' (७-४-१४) इत्युत्तरपदवृद्धिः । सन्ध्यादि, सान्ध्यः, साधिवेलः, आमावास्यः । एकदेशविकृतस्यानन्यत्वादमावस्याशब्दादपि भवति । आमावस्यः,
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[पाद. ३ सू. ९०-९३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १२५ अण्ग्रहणं स्वातिराधाापौर्णमासीभ्य ईयबाधनार्थम् । यथाविहितमित्युच्यमाने दोरीय इतीयः प्राप्नोति । कालेभ्य इत्येव ? स्वातेरिदमुदयस्थानम् स्वातीयम्, एवं राधीयम्, आर्दीयम् । सन्ध्या सन्धिवेला अमावास्या त्रयोदशी, चतुर्दशी," पञ्चदशी, पौर्णमासी, प्रतिपत्, शश्वत् इति संध्यादिः । ऋवर्णोवर्णात्'(७-४-७१) इति सूत्रेऽशश्वदिति प्रतिषेधाच्छश्वच्छब्दात् इकणपि । शाश्वतम् शाश्वतिकम् ।८९।।
न्या० स० भर्तु० एकदेशविकृतस्येति 'वाधारेमावस्या' ५-१-२१ इति हृस्वत्वे एकदेशविकृतत्वम् । अण्ग्रहण:मति अन्यथा योऽन्येन बाधितो न प्राप्नोति स भवति, स चाणेवेति न्यायात् सिद्धं, किं तद्ग्रहणेन ? ईयबाधनार्थमिति ननु कालेकण प्राप्नोति तत् किमुक्तं ईयबाधनार्थमिति १ सत्यं, सूत्रकरणात् कालेकणू न भवति । ____ इकणपीति 'वर्षाकालेभ्यः' ६-३-८० इत्यनेन, न वाच्यं प्रयोजनेकणि चरितार्थः, यतः प्रयोजनार्थे इकण् अस्मान्नेष्यत एव । संवत्सराफलपर्वणो ॥ ६. ३. ९०॥
संवत्सरशब्दात्फले पर्वणि च शेषेऽर्थेऽण् प्रत्ययो भवति । सांवत्सरं फलम्, सांवत्सरं पर्व । फलपर्वणोरिति किम् ? सांवत्सरिकं श्राद्धम् ।९०। हेमन्तादा तलुक् च ॥ ६. ३. ९१ ॥
हेमन्तशब्दादृतुविशेषवाचिनः शेषेऽर्थेऽण् वा भवति तत्संनियोगे च तकारस्य लुग्बा भवति । नित्यमणि प्राप्ते विभाषा । तथा त्रैरूप्यम्, हैमनम्, हैमन्तम्, हैमन्तिकम्, तदन्तविधिना पूर्वहैमनम् । 'अंशादृतोः' [७-४-१४ ] इत्युत्तरपदवृद्धिः ।९१॥ प्रावृष एण्यः ॥ ६. ३. ९२॥
प्रावृष् इत्येतस्मात् ऋतुवाचिनः शेषेऽर्थे एण्यः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । प्रावृषि भवः प्रावृषेण्यः । जाते तु परत्वादिक एव । प्रावृषि जातः प्रावृषिकः, एण्य इति प्रत्यये मूर्धन्यो णकारो निनिमित्तकः प्रावृषेण्ययतीति ण्यन्तात् किपि प्रावृषेण् इति मूर्धन्यार्थः ।९२।
न्या० स० प्रा० निनिमित्तक इति न तु 'रघुवर्ण' २-३-६३ इत्यनेन मूर्धन्यार्थ इति, अन्यथा न लोपरूपे परे कार्ये 'णषम' २-१-६० इति णत्वस्यासत्त्वादन्यत्वाच्च ‘रवर्णः' २-३-६३ इत्यप्रवृत्ती 'नाम्नो नोनह्नः' २-१-९१ इति नलोपेऽनिष्टं रूपं स्यात् । स्थामाजिनान्ताल्लुप ॥ ६. ३. ९३ ॥
स्थाम नशब्दान्तादजिनान्ताच्च परस्य शैषिकस्य प्रत्ययस्य लुप् भवति ।
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१२६ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्यास संवलिते
7
अश्वत्थामनि भवो जाता वा अश्वत्थामा अः स्थ नः [ ६-१-२२ ] इत्यः । तस्य लुप् । सिहाजिने भवो जातो वा सिंहाजिन: उलाजिनः, नृकाजिनः । भवार्थस्यैव लुपमिच्छन्त्यन्ये तन्मते अश्वत्थाम्नोऽयं तत आगतो वा अश्वत्थामः एवं सैंहाजिनः वार्काजिनः इत्यादौ न भवति । ९३ ।
[ पा० ३. सू० ९४-९७ J
तत्र कृतलब्धक्रीत संभूते ॥ ६. ३. ९४ ॥
अणादय एयणादयश्च सविशेषणा अनुवर्तन्ते तत्रेति सप्तम्यन्तात् कृते लब्धे क्रीते संभूते चार्थे यथायोगमणादय एयणादयश्च प्रत्यया भवन्ति । यदन्येनोत्पादितं तत्कृतम् । यत्प्रतिग्रहादिना प्राप्तं तल्लब्धम्, यन्मूल्येन स्वीकृतम् तत् क्रीतम् । यत्संभाव्यते संमाति वा तत्संभूतम् । स्रुग्घ्ने कृतो लब्धः क्रीतः संभूतो वा स्रौघ्नः, एवं माथुरः, अत्राण् औत्सः उत्साद्यञ् । बाह्यः, बाहकः । ' बहिषष्टी कण्च ' ( ६-१-१६) । नादेयः नद्यादित्वादेयण् । राष्ट्रिय: । ' राष्ट्रादिय:' ( ६-३-३ ) । पारावरीणः । ' पारावारादीनः ( ६-३-६ ) । तत्रेति किम् । देवदत्तेन क्रीतः । कृतलब्धक्रीतसंभूत इति किम् ? शयने शेते, आसन आस्ते |१४|
न्या० स० तत्र० - यत्संभाव्यते इति उत्पत्तिज्ञानं संभावना, तत्र उत्पद्यते तत्र घटते इत्यर्थः । संमाति वेति प्रमाणानतिरेकेणावतिष्ठते । तत्संभूतमिति संमात्यर्थे अकर्मकत्वाच्छील्यादित्वात् सति कर्त्तरि क्तः, इतरे तु अन्तर्भूतव्यर्थत्वात् कर्मणि कः ।
कुशले ।। ६. ३. ९५ ॥
तत्रेति सप्तम्यन्तात्कुशलेऽर्थे यथाविहितमणादय एयणादयश्च प्रत्यया भवन्ति । स्रुध्ने कुशलः स्रौघ्नः माथुरः, नादेयः, राष्ट्रिय योगविभाग उत्तरार्थः । ९५।
पथोऽकः ।। ६. ३.९६ ॥
तत्रेति सप्तम्यन्तात्पथिन्शब्दात्कुशलेऽर्थेऽकः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । पथि कुशल: पथकः । ९६ ।
कोऽस्मादेः ॥ ६. ३. ९७ ॥
तत्रेति सप्तम्यन्तेभ्योऽश्मन् इत्यादिभ्यः कुशलेऽर्थे कः प्रत्ययो भवति । अणादेरपवादः । अश्मनि कुशल: अश्मकः, अशनिकः आकर्षकः । अश्मादय उपचारात्तद्विषयायां क्रियायां वर्तमानाः प्रत्ययमुत्पादयन्ति तत्रैव कुशलार्थयोगात् । प्रत्ययान्तरकरणमिकारोकारान्तशब्दार्थम् || अन्यथा तेषु अनिष्टं
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[ पाद. ३. सु. ९८-१०१
श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोध्यायः
[ १२७
रूपमापद्येत । अश्मन् अशनि आकर्ष त्सरु, पिशाच, पिचण्ड, पाद, शकुनि, निचय, जय, नय, हूद, ह्राद इत्यश्मादिः । ९७|
न्या० स० कोऽश्म० - प्रत्ययान्तरकरणमिति नतु 'पथोकः ' ६-३-९६ इत्यतोऽकेनैव साध्यसिद्धिर्भविष्यति किं करणेनेति ? अनिष्टमिति ' अवर्णवर्णस्य' ७-४-९८ इति प्रसङ्गात् ।
जावे ।। ६. ३. ९८ ॥
तत्रेति सप्तम्यन्ताज्जातेऽर्थे यथाविहितमणादय एयणादयश्च प्रत्यया भवन्ति । स्रुध्ने जातः स्रौघ्नः, एवं माथुरः, अण्- औत्सः, औदपानः, अञ्बाह्यः, बाहीकः, ञ्यटीकणौ - कालेयः, आग्नेयः, 'कल्यग्नेरेयण्' (६-१-१७) । स्त्रैणः, पौंस्न, ' प्राग्वतः स्त्रीपुंसान्नञ्स्नञ्' (६- १ - २५ ) | नादेयः, एयण्, राष्ट्रियः इयः पारावारीणः, ईनः ग्राम्यः, ग्रामीणः, येनञी - कात्रेयकः । कत्र्या देश्वयकञ्' ( ६-३ - १० ) । तत्रेत्येव । चैत्राज्जातः । जात इति किम् ? शयने शेते । आसने आस्ते, स्वयमुत्पत्तिर्जातस्यार्थ इति कृतादिभ्यो भेदः ॥६८॥
4
,
प्रावृष इकः ।। ६. ३. ९९ ॥
तत्रेति सप्तम्यन्तात्प्रावृष्ाब्दाज्जातेऽर्थे इकः प्रत्ययो भवति, एण्यस्यापवादः । प्रावृषि जातः प्रावृषिकः । ९९|
नानि शरदोऽकञ् ॥ ६. ३. १०० ॥
शरदित्येतस्मात्सप्तम्यन्ताज्जातेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति नाम्नि प्रकृतिप्रत्यय समुदायश्चेत्कस्यचिन्नाम भवति, ऋत्वणोऽपवादः । शारदका दर्भाः, शारदका मुद्राः । दर्भविशेषाणां मुद्रविशेषाणां चेयं संज्ञा । नाम्नीति किम् ? शारदं सस्यम् । १०० ।
सिन्ध्वपकरात्काणौ ॥ ६. ३. १०१ ॥
सिन्धु अपकर इत्येताभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां जातेऽर्थे क अण् इत्यती प्रत्ययौ भवत: नाम्नि । सिन्धोः कच्छाद्यकञणोः अपकराच्चौत्सर्गिकाणोऽपवादः, वचनभेदाद्यथासंख्याभावः । सिन्धो जातः सिन्धुकः सैन्धवः अपकरे कचवरे जातः अपकरकः, आपकरः । नाम्नीत्येव ? सैन्धवको मनुष्यः । नाम्नीत्यधिकारः 'कालाद्देय ऋणे' (६- ३ - ११२ ) इति सूत्रं यावत् अन्ये तु नाम्नीत्यधिकारं नेच्छन्ति । १०१ ।
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१२८ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते . [ पाद. ३ सू० १०२-१०५ ] पूर्वाह्णापराला मूलप्रदोषावस्करादकः ॥ ६. ३. १०२ ॥
तत्रेति सप्तम्यन्तेभ्यः पूर्वाह्लादिभ्यो जातेऽर्थेऽकः प्रत्ययो भवति नाम्नि, इकणादेरपवादः। पूर्वाल्ल जातः पूर्वालकः, अपराहकः, अत्रेकण्तनटोरपवादः । आर्द्रकः, मूलकः, अत्र भाणः, प्रदोषकः, अत्रेकणणोः, अवस्करकः, अत्रौत्सगिकाणः । नाम्नीत्येव ? पौर्वाह्निकम्, पूर्वाह्नतनम्, आपराह्निकम् अपराह्न तनम् आर्द, मौलं, प्रादोषिकं, प्रादोषम्, आवस्करम् । केनैव सिद्धेऽकविधानमाद्रिकेत्येवमर्थम् । अन्यथा खट्वाका खट्वका खट्विकेतिवत् के रूपत्रयं स्यात् ।१०२। पथः पन्थ च ॥ ६. ३. १०३ ॥
पथिन्शब्दात्सप्तम्यन्ताज्जातेऽर्थेऽक: प्रत्ययो भवति पथिन् शब्दस्य च पन्थादेशो नाम्नि, अणोऽपवादः । पथि जातः पन्थकः ।१०३। अश्व वाऽमावास्यायाः ॥६. ३. १०४ ॥
अमावास्याशब्दात्सप्तम्यन्ताज्जातेऽर्थेऽकारोऽकश्च प्रत्ययौ वा भवतः नाम्नि, सन्ध्याधणोऽपवादः। अमावास्यायां जातः अमावास्यः, अमावास्यकः, पक्षे संध्याद्यण् । आमावास्यः, एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् अमावस्याशब्दादपि भवति । अमावस्यः, अमावस्यकः, आमावस्यः । नाम्नीत्येव ? आमावास्यः ।१०४।
न्या. स. अश्च०-अमावस्याशब्दादिति 'वाऽधारेऽमावस्या' ५-१-२१ इति ध्यणि वाहस्वत्वनिषातनात् । श्रविष्ठाषाढादीयश्च ॥ ६. ३. १०५॥
श्रविष्ठा अषाढा इत्येताभ्यां जातेऽर्थे ईयण चकारादश्च प्रत्ययो भवतः नाम्नि, भाणोऽपवादः । श्रविष्ठाः धनिष्ठाः, ताभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्तः कालः श्रविष्ठाः तासु जातः श्राविष्ठीयः, अविष्ठः । एवम् अषाढायामषाढयोरषाढासु वा जातः आषाढीयः अषाढः, अणमपीच्छन्त्येके । श्राविष्ठः आषाढः ॥१०॥ ___ न्या० स० विष्ठाषाढा०-अविष्ठा इति शृणोत्यनेनास्मिन्निति वा 'पुन्नाम्नि' ५-३-१३० इति घः, श्रवो विद्यते अस्यां मतुींः , 'मावर्ण' २-१-९४ इति वादेशे श्रववती, तत आतिशायिके इष्टे 'जाति' ३-२-५१ इति पुंवद्भावे ‘विन्मतोर्णीष्ठेयसौ' ७-४-३२ इति मतोलपि श्रविष्ठाः ताभिः ।
अषाढायामिति अषाढा नक्षत्रमेकद्वित्रितारकं च मन्यन्ते ।
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। पाद. ३. सू. १०६-१०९ ]
फल्गुन्याष्टः ।। ६. ३. १०६ ॥
फल्गुनीशब्दात्सप्तम्यन्ताज्जातेऽर्थे टः प्रत्ययो भवति नाम्नि, भाणोऽपवादः । फल्गुन्योर्जातः फल्गुनः, फल्गुनी स्त्री । अणमपीच्छन्त्येके । फाल्गुनः, टकारो ङयर्थः ।१०६।
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [ १२९
बहुलानुराधापुष्यार्थपुनर्वसुहस्तविशाखास्वातेर्लुप् ।। ६. ३. १०७॥
बहुलादिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यः परस्य भाणो जातेऽर्थे लुप् भवति नाम्नि । बहुलाः कृत्तिकाः ताभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्तः कालो बहुलाः तासु जातो बहुल: । अत्राणो लुपि ' ङयादेर्गौणस्य ' - ( २ - ४ - ९४ ) इत्यादिनापोऽपि लुप्, एवमनुराधासु अनुराधः । ' घञ्युपसर्गस्य बहुलम् ' ( ३-२-८६ ) इति दीर्घत्वे अनूराधाः, तासु अनूराध:, पुष्यार्थ- पुष्ये पुष्यः, तिष्यः, सिध्यः । पुनर्वसौ पुनर्वसुः, हस्ते हस्तः, विशाखायां विशाखः, स्वाती स्वातिः ॥ १०७ ॥
न्या० स० बहुल०-पुनर्वसाविति अत्र प्रागेव एकैत्र तारा विवक्षितेति 'पुष्यार्थात् ' ३ - १ - १२९ इति सूत्रं विनाऽपि सिद्धं पुंलिङ्गश्चायम् ।
चित्रा रेवती रोहिण्याः स्त्रियाम् ।। ६. ३. १०८ ॥
चित्रादिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यः परस्य भाणो जातेऽर्थे स्त्रियां लुप् भवति नाम्नि | चित्रायां जाता चित्रा माणविका, रेवत्यां रेवती, रोहिण्यां रोहिणी, स्त्रियामिति किम् ? चैत्रः रैवतः रोहिणः पुंस्येषां विकल्प इत्येके । तन्म चित्र: रेवतः रोहिण इत्यपि भवति । १०८ ।
बहुलमन्येभ्यः ।। ६. ३. १०९ ॥
श्रविष्ठादिभ्यो येऽन्ये नक्षत्रशब्दास्तेभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यः परस्य भागो जातेऽर्थे बहुलं लुप् भवति नाम्नि | अभिजिति जातोऽभिजित्, अभिजितः, अश्वयुजि जात: अश्वयुक्, आश्वयुजः, शतभिषजि शतभिषक् शातभिषजः, शतभिषः, ' वा जाते द्वि:' ( ६-२-१३७ ) इति विकल्पनाणो डिस्वादन्त्यस्वरादिलोपः । कृत्तिकासु कृत्तिकः, कार्तिकः, मृगशिरसि मृगशिराः मार्गशीर्षः, एषु वा लोपः । कचिन्नित्यम् । अश्विनीषु जातः अश्विनः, अश्विनी, राधः, राधा, श्रवणः, श्रवणा, उत्तरः, उत्तरा । कचिन्न भवति, मघासु माघः, अश्वत्थे अश्वत्थः, प्रोष्ठपदासु प्रोष्ठपादः, भद्रपादः, प्रोष्ठभद्राज्जाते' ( ७-४ -१३ ) इत्युत्तरपदवृद्धिः । १०९ ।
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१३.] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३. सू. ११०-११४
स्थानान्तगोशालखरशालात् ॥ ६. ३. ११०॥ ___ स्थानशब्दान्तानाम्नो गोशालखरशाल इत्येताभ्यां च सप्तम्यन्ताभ्यां परस्य जातेथे प्रत्ययस्य लुब्भवति नाम्नि । गोस्थाने जातो गोस्थान:, अश्वस्थानः, गोशाले गोशालः, खरशाले खरशालः, लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणादोस्थान्यां गोस्थानः । गोशालायां गोशालः, खरशालायां खरशालः । 'उयादेगौणस्य' (२-४-९४) इत्यादिना स्त्रीप्रत्ययस्यापि लुक् ।११०।
न्या० स० स्थाना०-गोशाले इति अत्र तत्पुरुषे कृते परवल्लिातायां प्राप्तायां 'सेनाशाला' इति पक्षे नपुंसकत्वात् ह्रस्वत्वे गोशाले जात इत्यादिविग्रहः । वत्सशालादा ॥ ६. ३. १११॥
वत्सशालशब्दात्सप्तम्यन्तात्परस्य जातेऽर्थे प्रत्ययस्य वा लुप् भवति नाम्नि । वत्सशालः, वात्सशालः ।१११। सोदर्यसमानोदयौं ।। ६. ३. ११२ ॥
सोदर्यसमानोदर्यशब्दो जातेऽर्थे यप्रत्ययान्तौ निपात्येते । समानोदरे जातः सोदयः, समानोदर्यः । निपातनात्पक्षे समानस्य सभावः, तत एव च जातार्थमात्रत्वेऽपि भ्रातृष्वेवाभिधानम् न कृमिमलादिषु । नाम्नीत्यधिकाराद्वा ।११२।। .. कालाद्देये ऋणे ॥ ६. ३. ११३ ॥
तत्रेति वर्तते, तत्रेति सप्तम्यन्तात्कालविशेषवाचिनो देयेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति यत्तद्देयमृणं चैत्तद्भवति, नाम्नीति निवृत्तम् । मासे देयमणं मासिकम्, आर्धमासिकम्, सांवत्सरिकमृणम् । मासादिके गते देयमित्यर्थः । ऋण इति किम् ? मासे देया भिक्षा । स्वाती देयं स्वस्तिवाचनम् ।११३। कलाप्यश्वत्थयवबुसोमाव्यासैषमसोऽकः ॥ ६. ३. ११४ ॥
कलापिन अश्वत्थ यवबुस उमाव्यास ऐषमस् इत्येतेभ्यः कालवाचिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो देय ऋणेऽकः प्रत्ययो भवति । इकणादेरपवादः । यस्मिन्काले मयूराः केदाराः इक्षवः कलापिनो भवन्ति स कालस्तत्साहचर्याकलापी तत्र देयमणं. कलापकम् । यस्मिन्कालेऽश्वत्थाः फलन्ति स कालोऽश्वत्थफलसहचरितोऽश्वत्थः तत्र देयमृणमश्वत्थकम् । यस्मिन्काले यवानां बुसं भवति स कालो यवबुसम् तत्र देयम्णं यवबुसकम् । उमा व्यस्यन्ते विक्षिप्यन्ते
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[ पाद. ३. सू. ११५-११९]
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [ १३१ यस्मिन्स काल उमाव्यासस्तत्र देयमृणमुमाव्यासकम् । ऐषमोऽस्मिन्संवत्सरे देयमृणमैषमकम् ।११४॥
न्या० स० कला०—इकणादेरिति आदिशब्दात् 'ऐषमोह्यःश्वसो वा' ६-३-१९ इति त्यच्तनटौ ऐषम इति सामान्यविशेषभावेन भूयः सप्तमी, एके तु विशेषाभावं मन्वानाः सप्तम्यर्थादपि प्रत्यय इति च व्याचख्युः ।
ग्रीष्मावरसमादकञ् ।। ६. ३. ११५ ।।
ग्रीष्म अवरसमा इत्येताभ्यां कालवाचिभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां देये ऋणेऽकञ् प्रत्ययो भवति, अणिकणोरपवादः बकारो वृद्ध्यर्थः । ग्रीष्मे देयमृणं ग्रैष्मकम्, अवरा, समा, अवरसमा, समाया, अवरत्वमित्यवरसमं वा । तत्रावरसमकम् । अपरंसमादपीच्छन्त्येके । आपरसमकम् ।११५।
संवत्सराग्रहायण्या इकण् च ॥। ६. ३. ११६ ।।
संवत्वर आग्रहायणी इत्येताभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यां देये ऋणे इकण् चकारादकश्च प्रत्ययो भवतः, अणिकणोरपवादः । संवत्सराद्धि फले पर्वाणि च ऋण प्राप्नोति । संबत्सरे देयमृणं फलं पर्ब वा सांवत्सरिकम्, सांवत्सरकम्, आग्रहायणिकम्, आग्रहायणकम्, वेश्यकृत्वा इकण् चेति विधानं ' संवत्सरात्फलपर्वणोः ' ( ६-३ - ८९ ) इत्यण्बाधनार्थम् ११६॥
न्या० स० संव० - वेत्यकृत्वेति नन्त्राग्रहायण्या वेत्यपि कृते साध्यसिद्धिर्भविष्यतीत्याशङ्का ।
साधुपुष्यत्पच्यमाने ॥ ६. ३. ११७ ॥
1
कालादिति वर्तते । तत्रेति सप्तम्यन्तात्काल विशेषवाचिनः साधौ पुष्यति पच्यमाने चार्थे यथाविहितं प्रत्यया भवन्ति । हेमन्ते साधु हैमनमनुलेपनम् । हैमन्तं हैमन्तिकम् । वसन्ते पुष्यन्ति वासन्त्यः कुन्दलताः, ग्रैष्म्य: पाटला, शरदि पच्यन्ते शारदाः शालयः, शैशिरा मुद्गाः । ११७ |
उप्ते ।। ६. ३. ११८ ।।
तत्रेति सप्तम्यन्तात् कालवाचिन उप्तेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । शरद्युप्ता: शारदा यवाः । हेमन्ते हैमनाः, ग्रैष्माः, नैदाधाः योगविभाग उत्तरार्थः ।११८।
आश्वयुज्या अकञ् ।। ६. ३. ११९ ।।
आश्वयुजीशब्दात्सप्तम्यन्तादुप्तेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति, इकणोऽपवादः । अश्विनीभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्ता या पौर्णमासी सा आश्वयुजी, अश्विनीपर्यायोऽ.
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१३२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू. १२०-१२४ ] श्वयुकशब्दः । आश्व युज्यां कौमुद्यामुप्ता आश्वयुजका माषाः ।११९।
न्या० स० आश्व०-आश्वयुज्यामिति अत एव निर्दशात् 'चन्द्रयुक्तात्' ६-२-६ इति न लुप् ।
ग्रीष्मवसन्ताद्वा ॥ ६. ३. १२० ॥ ___आभ्यां सप्तम्यन्ताभ्यामुप्तेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति वा, ऋत्वणोऽपवादः । ग्रैष्मकं, ग्रेष्मम् सस्यम् वासन्तकं, वासन्तं सस्यम् ।१२०। . व्याहरति मृगे ॥ ६. ३. १२१ ॥
तति वर्तते कालादिति च, तत्रेति सप्तम्यन्तात्कालवाचिनो व्याहरत्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति व्याहरंश्चन्मृगो भवति । निशायां व्याहरति नैशिको नैशो वा शृगालः । प्रादोषिकः प्रादोषो वा शगालः। इति किम् ? वसन्ते व्याहरति कोकिलः ।१२१। जयिनि च ।। ६. ३.१२२ ।।
जयः प्रसहनमभ्यासः। सोऽस्यास्तीति जयी, तति संप्तम्यन्तात्काल. वाचिनो जयिनि वाच्ये यथाविहितं प्रत्ययो भवति । निशासहचरितमध्ययनं निशा तत्र जयी साभ्यासः नैशिक: नैशः, प्रादोषिकः, प्रादोषः, वासन्तः, वार्षिकः । केवलकालविषयस्य जयस्यायोगान्निशादिसहचरिताध्ययनादिवृत्तयो निशादयः शब्दाः प्रत्ययमुत्पादयन्ति । चकारः कालादित्यनुकर्षणार्थः तेन . चानुकृष्टत्वाप्नोत्तरत्रानुवर्तते ।१२२॥
न्या० स० जयानि.-जयस्यायोगादिति जयो हि क्रिया, सा च केवलस्य न संभवतीत्यर्थः । भवे ॥ ६. ३. १२३ ॥
तत्रेत्यनुवर्तते, तत्रेति सप्तम्यन्ताद्भवेऽर्थे यथाविहितमणादय एयणादयश्च प्रत्यया भवन्ति । सत्ता भवत्यर्थों गृह्यते न जन्म जात इत्यनेन गतार्थत्वात, स्रुध्ने भवः स्रोघ्नः, माथुरः, औत्सः, नादेयः, राष्ट्रियः, पारावारीणः, ग्राम्यः, ग्रामीणः ।१२३॥ दिगादिदेहांशाधः ॥ ६. ३. १२४ ॥
दिगादिभ्यो देहावयववाचिनश्च सप्तम्यन्ताद्भवेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति, अणीयादेरपवादः । दिशि भवो दिश्यः, वर्ग्य:, अप्सुभवोऽप्सव्यः, 'अपो ययोनिमतिचरे' ( ३-२-२८) इति सप्तम्यलुप् । देहांश, मूर्धन्यः, " अनोट घेये" (७-४-५१) इत्यनो लोपाभावः । दन्त्यः । कर्ण्यः । ओष्ठयः ।
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[पाद. ३. सू. १२५-१२९ । श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [१३३ पाण्यः । पद्यः । तालव्यः । मुख्यः । जघन्यः । देहांशात्तदन्तादपीच्छन्त्येके । कण्ठतालव्यः, दन्तोष्ठयः । दिश, वर्ग, पूग, गण, यूथ, 'पक्ष, घाय्या, मित्र, धाय्यमित्र, मेषा, न्याय, अन्तर्, पथिन्, रहस्, अलीक, उख, उखा, साक्षिन्, आदि, अन्त, मुख, जघन, मेघ, वंश, अनुवंश, देश, काल, वेश, आकाश, अप् इति दिगादिः ॥ मुखजघनबंशानुवंशानाम् अदेहांतार्थः पाठः, सेनाया यन्मुखं तत्र भवो मुख्यः, सेनाया यज्जघनं तत्र भवो जघन्यः, बंशोऽन्वयस्तत्र भवो बंश्यः । एवमनुवंश्यः ।१२४। ___न्या० स० दिया०-अदेहांशा इति देहांअर्थत्वे इति तु अनुवंशस्य मताभिप्रायेण यस्य सिद्धिः, स्वमत्ते तदन्तविधिनिरासान् ।।
नाम्न्युदकात् ॥ ६. ३. १२५॥ - उदकशब्दात्सप्तम्यन्ताद्भवेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति नाम्नि । उक्या रजस्वला । नाम्नीति किम् ? औदको मत्स्यः ।१२५॥
न्या. स. नाम्न्यु०-उदक्येति उदके भवा नैमित्तिक आधारः । मध्यादिनण्णेया मोऽन्तश्च ॥ ६. ३. १२६ ॥
मध्यशब्दात्सप्तम्यन्ताद्भवेऽर्थे दिनम् ण ईय इत्येते प्रत्यया भवन्ति तत्संनियोगे च मागमो भवति । मध्ये भवा माध्यंदिना उदायन्ति, माध्यमः, मध्यमीयः, अन्ये तु दिनं णितं नेच्छन्ति, मध्यंदिनः ।१२६। जिह्वामूलाङ्गुलेश्चेयः ॥ ६. ३. १२७ ॥
जिह्वामूल अङगुलि इत्येताभ्यां मध्यशब्दाच्च भवेऽर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, यापवादः । जिह्वामूले भवो जिह्वामूलीयः, अङ्गुलीयः, मध्यीयः, चकारेण मध्यशब्दानुकर्षणं मागमाभावार्थम् ।१२७।
न्या० स० जिला०-यापवाद इति ‘दिगादि' ६-३-१२४ इति प्राप्तस्य । वगान्तात् ॥ ६. ३. १२८ ॥
वर्गशब्दान्तात्सप्तम्यन्ताद्भवेऽर्थ ईयः प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । कवर्गीयः, पवर्गीयो वर्णः ।१२८॥
ईनयी चाशब्दे ॥ ६. ३. १२९॥ __ वर्गशब्दान्तात्सप्तम्यन्ताद्भवेऽर्षे ईनय इत्येतौ चकारादीयश्च प्रत्यया भवन्ति अशब्दे न चेत्स भवार्थः शब्दो भवति । भरतवर्गीणः, भरतवर्यः, भरतवर्गीयः, बाहुबलिवर्गीणः, बाहुबलिवर्यः, बाहुबलिवर्गीयः, युष्मद्वर्गीणः,
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१३४ J
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंघलिते [पाद. ३ सू० १३०-१३३ ) युष्मद्वर्यः, युष्मद्वर्गीयः, अस्मद्वर्गीणः, अस्मद्वर्यः, अस्मद्वर्गीयः, अशब्द इति किम् ? कवर्गीयः ॥१२९।। दतिकुक्षिकलशिवस्त्यहेरेयण ॥ ६. ३. १३०॥
एभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो भवेऽर्थे एयण् प्रत्ययो भवति । अणादीनामपवादः । दृतौ चर्मखल्वायां भवं दातयं जलम्, कुक्षौ देहांशे भवः कौक्षेयो व्याधिः, देशार्थादपि भवे परत्वात् अयमेव न धूमाद्यकञ् । असावप्ययमेर न कुलकुक्ष्याद्येयकञ् । असि कौक्षेयमुद्यम्य, कलश्यां मन्थन्यां भवं कालं शेयं तक्रम् । वस्तौ पुरीषनिर्गमरन्ध्रे भवं वास्तेयं पुरीषम् । अहौ भवमाहेयं विषम् ॥१३०॥
न्या० स० दृति०-अयमेवेति भवादन्यत्र जातादावथें तस्य चरितार्थत्वात् । असावपीति . खड्गेऽपीत्यर्थः। कलक्ष्यामिति कल्यते स्म क्ते कलितः, कलितं क्षिप्तं परिच्छिन्नमश्नुते व्याप्नोतीति कर्मणोऽणि कलिताशी, पृषोदरादित्वात् कलशिरित्यादेशः ।
आस्तेयम् ॥ ६. ३. १३१ ॥ . __ अस्तिशब्दात्तिवन्तप्रतिरूपकाद्व्ययाद्धन विद्यमानपर्यायत्तत्र भवे एयण प्रत्ययो निपात्यते असृजशब्दस्य वास्त्यादेशश्च । धने वा विद्यमाने वा असृजि वा भवमास्तेयम् ।१३१॥ ग्रीवातोण च ॥ ६. ३. १३२॥
ग्रीवाशब्दाद्भवेऽर्थेऽण् चकारादेयण च प्रत्ययो भवतः, देहांशयापवादः । ग्रीवायां ग्रीवासु वा भवं ग्रंवंवेयम्, ग्रीवाशब्दो यदा शिरोधमनीवचनस्तदा तासां बहुत्वाद्वहुवचनम् ।१३२।
न्या० स० ग्रीवातो०- त्रैवमिति 'ग्रीवेभ्योऽण् च'
इति पाणीनीयसूत्रे बहुवचेन ज्ञापितत्वात् ग्रीवासु भवमिति बहुत्वे एव प्रत्ययो न ग्रीवायां भव इत्येकत्वे । चातुर्मासान्नाम्नि ।। ६.३.१३३ ॥
चतुर्मासशब्दात्तत्र भवेऽण् प्रत्ययो भवति नाम्नि समुदायश्चेन्नाम भवति । चतुषु मासेषु भवा चातुर्मासी, आषाढी, कार्तिकी, फाल्गुनी च पौर्णमासी भण्यते । अत्र विधानसामर्थ्यात् 'द्विगोरनपत्ये '-(६-१-२४) इत्यादिना प्रत्ययस्य लुब् न भवति । नानीति किम् ? चतुर्षु मासेषु भवश्चतुर्मासः । अत्र 'वर्षाकालेभ्यः' (६-३-७९) इतीकण् । तस्य लुप् ।१३३॥
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[पाद. ३. सू. १३४-१३७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १३५ . यज्ञे ञ्यः ॥ ६. ३. १३४॥
चतुर्मासशन्दात्तत्र भवे यज्ञे ज्यः प्रत्ययो भवति । चतुर्यु मासेषु भवानि चातुर्मास्यानि यज्ञकर्माणि ।१३।। गम्भीरपञ्चजनबहिर्देवात् ।। ६. ३. १३५ ॥
गम्भीरपञ्चजनबहिर्देव इत्येतेभ्यस्तत्र भबे ज्यः प्रत्ययो भवति, अणाय. पवादः । गम्भीरे भवो गाम्भीर्यः, पाञ्चजन्यः, बाह्यः, दैव्यः । भवादन्यत्र गाम्भीरः, पाञ्चजनः, द्विगौ त्वणो लुपि पञ्चजनः । बाहीकः, देवः । भवेऽपि बाहीक इत्येके ।१३५१
न्या० स० गम्भीर०-द्विगौ त्वणो लपीति यदा पञ्चजनशब्दः पातालवाचकः रथकारपश्चमस्य चातुर्वर्णस्य वा इति व्याख्या तदा न द्विगुः, असंज्ञायां तस्य विधानात्, यदा तु पञ्चसु जनेषु भवस्तदा द्विगौ व्यः, अस्य विधानसामर्थ्यान्न लुप् । परिमुखादेख्ययीभावात् ॥ ६. ३. १३६ ॥
* परिमुख इत्येवमादिभ्योऽव्ययीभावेभ्यस्तत्र भवे ञ्यः प्रत्ययो भवति । अणोऽपवादः । परितः सर्वतो मुखं परिमुखम् । अत एव वचनादव्ययीभावः । वर्जनार्थो वा परिः । मुखात् परि परिमुखम् । 'पर्यपाङ्'-(३-१-३२) इत्यादिनाव्ययीभावः । परिमुखे भवः पारिमुख्यः, पारिहनव्यः, पार्योष्ठयः । परिमुखादेरिति किम् ? औपकूलम्, औपमूलम्, औपशाखम्, औपकुम्भम्,
औपखलम्, आनुकुम्भम्, आनुकूलम्, आनुखलम् । अव्ययीभावादिति किम् ? परिग्लानो मुखाय परिमुखः तत्र भवः पारि मृखः । परिमुख, परिहनु, पर्योष्ठ पर्युलूखल, परिरथ, परिसिर, परिसीर, उपसीर, अनुसीर, उपस्थूण, उपस्थूल, उपकलाप, उपकपाल, अनुपथ, अनुगङ्ग, अनुतिल, अनुसीत, (अनुशीत) अनुमाष, अनुयव, अनुयूप, अनुवंश, अनुपद इति परिमुखादिः । अनवंशादिगादित्वाद्योऽपि अनुवंश्यः ।१३६।
न्या० स० परि०-अत एव वचनादिति न तु 'पर्यपाङ्' ३-१-३२ इत्यादिना पञ्चम्यन्तेन सह तेन विधानात् परेश्वात्र वर्जनार्थाभावात् 'पर्यपाभ्याम् ' २-२-७१ इति पञ्चम्यभावः । ___परिसिरेति सिनोतेः 'ऋज्यजि' ३०८ ( उणादि) इति किति रे सिग। परिसीरेति सिनोतेः 'विजि' इति दीर्घत्वे च सीरा ।
अन्तःपूर्वादिकण् च ॥ ६. ३. १३७ ॥ ___ अन्तःशब्दपूर्वपदादव्ययीभावात्तत्र भवे इकण् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । अगारस्यान्तः अन्तरगारम्, तत्र भव आन्तरगारिकः । आन्त हिकः,
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१३६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. ३ सू० १३८-१४१ } आन्तश्मिकः, आन्तपुरिकः । अव्ययीभावादित्येव ? अन्तर्मतमगारस्य अन्तःस्थं वागारमन्तरमारम् तत्र भवभान्तरगारम् । आन्तःपुरम्, आन्तःकरणम् ।१३७।
न्या० स० अन्त:०-आन्तस्मिक इति वेश्मनोऽन्तः 'नपुंसकाद्वा ' ७-३-८९ (इति) अत्, अन्तर्वेश्मे अन्तर्वेश्म 'सप्तम्या वा' ३-२-४ अम् , अन्तर्वेश्म वा भवः ।। पर्यनो मात् ॥ ६. ३. १३८।।
परि अनु इत्येताभ्यां परो यो ग्रामशब्दस्तदन्तादव्ययीभावात्तत्र भके इकण प्रत्ययो भवति, अणोपवादः । ग्रामात्परि परिग्रामम्, ग्रामस्य समीपमनुग्रामम्, तत्र भवः पारिनामिकः, आनुग्रामिकः । अव्ययीभावादित्येव ? परिगतो ग्रामः परिग्रामस्तत्र भव: पारिग्रामः आनुग्रामः ।१३८। उपाज्जानुनीविकर्णात् प्रायेण ।। ६.३.१३९॥
उप इत्येतस्मात्परे ये जानुनीविकर्णशम्दास्तदन्तादव्ययीभावादिकण प्रत्ययो भवति प्रायेण तत्र भवे यस्तत्र बाहुल्येन भवति अन्यत्र च कदाचिद्भवति तस्मिन्नित्यर्थः । जानुन: समीपमुपजानु, प्रायेणोपजानु भवति
औपजानकः सेवकः, औपजानुकं शाटकम्, औपनीविकं ग्रीवादाम, औपनीविक कार्षापणम्, औपकणिकः सूचकः । प्रायेणेति किम् ? नित्यं भवे माभूत् । औपजानवं मांसम्, औपजानवं गड़, जानुशब्दो देहावयवो नोपजानुशन्द इति यो न भवति ।१३९। रुदावन्तःपुरादिकः ॥ ६. ३. १४० ॥
अन्तःपुरशब्दात्तत्र भवे इकः प्रत्ययो भवति रूढौ स चेदन्तःपुरशब्द: कचिद्रूढो भवति । क चायं रूढः एकपुरुषपरिग्रहे वीसमुदाये, उपचारात्तनिवासेऽपि । अन्तःपुरे भवा अन्तःपुरिका खी। रूढाविति किम् ? पुरस्यान्तर्गतम् अन्तःपुरम् यथान्तरगुलो नख इति । तत्र भवः मान्तःपुरः । पुरस्यान्तरन्तःपुरमिति अव्ययीभावात्त्विकण् भवति । आन्तःपुरिक इति ।१४०।
न्या० स० रुढा-अन्त:पुरमिति पुरस्य शरीरस्य अन्तर्गतं चित्तस्थं गृहस्य वाऽन्तर्गतम् , अव्ययीभावादिति रूढाविति वचनात् अव्ययीभावादिति निवृत्तं, अव्ययीभावे रूढेरसंभवात् , . अम्तःपुरमिति पत्र राज्ञोऽन्तःपुरमिति राज्ञः स्त्रीवर्ग उच्यते, नासावव्ययीभावार्थो भवति, अव्ययीभावो हि पूर्वपदार्थप्रधानोन्तरर्थप्रधान इति पूर्वेणेकणेव भवतीति । कर्णललाटाकल ॥ ६.३.१४१ ॥
रूढाविति वर्तते । सेह रूढिः प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य विशेषणम् । . कर्णललाटशब्दाभ्यां तत्र भवे कल् भवति रूढी प्रकृतिप्रत्ययसमुदायवेक्व
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[ पाद ३. सू. १४२-१४३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १३७ चिद्रढो भवति । कणिका कर्णाभरणविशेषः पद्माधवयवश्व, ललटिका ललाटमण्डनम् । रूढावित्येव ? कर्णे भवं कर्ण्यम्, ललाटयम्, लकारः खीत्वार्थः ।१४१।
न्या० स० कर्णललाटा०-पद्माद्यवयवश्चेति कर्णे भवेति भवार्थस्तु व्युत्पत्तिमात्रं पद्माद्यवयवस्य कर्णे अभावात् । तस्य व्याख्याने च ग्रन्थात् ॥ ६. ३. १४२ ॥
ग्रन्थः शब्दसंदर्भः। स व्याख्यायतेऽवयवशः कथ्यते तेन तयाख्यानम् । तस्येति षष्ठयन्ताव्याख्यानेऽर्थे तोति सप्तम्यन्ताच्च भवेऽर्थे ग्रन्थवाचिनो यथाविहितं प्रत्ययो भवति । चकारस्तत्र भव इत्यस्यानुकर्षणार्थः । वाक्यार्थसमीपे चकारः श्रूयमाणः पूर्ववाक्यार्थमेव समुच्चिनोति । कृतां व्याख्यानं कृत्सु भवं वा कार्तम्, प्रातिपदिकीयम् । ननु च तस्य व्याख्यानेऽर्थे 'तस्येदम्' (६-३-१५९) इत्यनेनैव प्रत्ययविधिः सिद्धः चकारानुकृष्ठऽपि तत्र भवेऽर्थे पूर्वमेव प्रत्ययविधिरुक्तस्तत्किमनयोयुगपदुपादानम् ? उच्यते, वक्ष्यमाणः सकलोऽप्यपवादविधिरनयोरर्थयोर्यथा स्यात् इत्येवमर्थम्, उत्तरेणैकयोगत्वे चानुकृष्टत्वात्तत्र भव इत्यस्य ततः परं नानुवृत्तिः स्यात् । योगविभागे विहानवत्तिरनथिकेति द्वयोरुत्तरत्रानुवृत्तिर्भवति । उदाहरणोपन्यासस्तु अनुवादमात्रम् । ग्रन्थादिति किम् ? पाटलिपुत्रस्य व्याख्यानी सुकोसला। पाटलिपुत्रमेवंसंनिवेशमिति सुकोसलया प्रतिच्छन्दकभूतया व्याख्यायते न तु पाटलिपुत्रं ग्रंथ इत्युत्तरेणापवादिक इकण् न भवति . ११४२॥ . ___ न्या० स० तस्य०-उदाहरणोपन्यास इति ननु कथमनर्थकत्वं भवानुवर्तनस्य यदि हि भव इति नानुवर्तते तदा प्रातिपदिकीयम् इत्यत्रापवादभूत इकण प्राप्नोति ? न, तत्र प्रायोग्रहणादेव न भविष्यति, तर्हि किमर्थतदुदाहरणं दयते, इत्याह-अनुवादमात्रम् ।। __व्याख्यानीति व्याख्यायतेऽनया वाच्यलिङ्गः । इकण न भवतीति किंतु 'रोपान्त्यात् । ६-३-४२ इत्यकञ् । प्रायो बहुस्वरादिकण ॥ ६. ३. १४३ ॥
बहुस्वराद्ग्रन्थवाचिनस्तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थे प्राय इकण प्रत्ययो भवति, अणादेरपवादः । षत्वणस्वयोव्याख्यानं तत्र भवं वा षात्वणत्विकम्, एवं नातानतिकम् । उदात्तानुदात्तयोः स्वरयोरेते नतानतसंज्ञे । आत्मनेपदपरस्मैपदिकम् । आव्ययीभावतत्पुरुषिकम् । नामाख्यातिकम्, आख्यातिकम्, ब्राह्मणिकम्, प्राथमिकम्, आध्वरिकम्, पौरश्चरणिकम् । प्रायोवचनात्क्वचिन्न भवति । सांहितम्, प्रातिपदिकीयम् ।१४३।
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१३८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० १४४-१४६ ]
न्या० स० प्रायो०-नातानतिकमिति नतोऽनुदात्तः अनतस्तूदात्तोऽल्पस्वरत्वान्नतस्य पूर्वनिपातः, पौरश्चरणिकमिति परो विपाककालादर्वाक चर्यते पुरश्चरणं 'भूजिपत्यादिभ्यः' ५-३-१२८ प्रायश्चित्तं, तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽपि । ऋगृद्धिस्वरयागेभ्यः ॥ ६. ३. १४४॥
ऋच् इत्येतस्मात् ऋकारान्तात् द्विस्वरात् यागशब्देभ्यश्च ग्रन्थवाचिभ्यस्तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थे इकण् प्रत्ययो भवति, अणादेरपवादः । ऋचां व्याख्यानमा भवं वा आचिकम्, ऋकारान्त,-चतुर्दा होतृषु भव इत्यणो लुपि चतुर्होता ग्रंथः, तस्य व्याख्यानं तत्र भवं वा चातु)तृकम् । एवं पाञ्चहोतृकम, द्विस्वर,-आङ्गिकम्, पौर्विकम्, सौत्रिकम्, ताकिकम्, नामिकम्, याग,-आग्निष्टोमिकम्, राजसूयिकम्, वाजपेयिकम्, पाकयज्ञिकम्, नावयज्ञिकम्, पाञ्चौदनिकम्, दाशीदनिकम्, ऋद्यागग्रहणं पूर्वस्यैव प्रपञ्चः । यागेभ्य इति बहुवचनं ससोमकानामग्विष्टोमादीनाम् असोमकानां पञ्चौदनादीनां च परिग्रहार्थम् ।१४४।। ____ न्या० स० ऋ०-नावयज्ञिकमित्यादि नवसु यज्ञेषु, पञ्चसु दशसु ओदनेषु भवः अण् तस्य 'द्विगोः' ७-१-१४४ इति लुप् , ऋद्यागग्रहणमिति ऋदन्तानां यागवाचिनां च द्विस्वराणां द्विस्वरेत्यंशेन बहुस्वराणां तु 'प्रायो बहुस्वरात्' ६-३-१४३ इति सिध्यति, एकस्वरास्तु न संभवत्येव तत् किमर्थमिदम् ? इत्याह-पूर्वस्यैवेति प्रायो बहुवरात् ' ६-३-१४३ इत्यस्येत्यर्थः । असोमकानामिति अन्यथा गौणमुख्ययोः इति न्यायेन ससोमकानां मुख्यानामग्निष्टोमादीनामेव ग्रहणं स्यादिति । ऋषेरध्याये ॥ ६. ३. १.४५॥
ऋषिशब्देभ्यो ग्रन्थवाचिभ्यस्तस्य व्याख्याने तत्र भवे चाध्याये इकण् प्रत्ययो भवति । वसिष्ठस्य ग्रंथस्य व्याख्यानस्तत्र भवो वा वासिष्ठिकोऽध्यायः, वैश्वामित्रिकोऽध्यायः । अध्याय इति किम् ? वसिष्ठस्य व्याख्यानी तत्र भवा वा वासिष्ठी ऋक् । 'प्रायो बहुस्वरात्' (६-३-४२) इति प्रायोग्रहणादप्राप्तिकल्पनायां विध्यर्थम् प्राप्तिकल्पनायामध्याय एवेति नियमार्थं वचनम् ।१४५।
न्या० स० ऋषे०-ग्रन्थस्येति वसिष्ठादिसाहचर्यात् ग्रन्थोऽपि तथोच्यते । प्राप्तिकल्पनायामिति प्रायोग्रहस्य यादृच्छिकत्वात् । पुरोडाशपौरोडाशादिकेकटौ ॥ ६. ३. १४६ ॥
आभ्यां ग्रंथवाचिभ्यां तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थे इक इकट् इत्येतो प्रत्ययौ भवतः, अणीययोरिकणोऽपवादः । वचनभेदाद्यथासंख्याभावः ।
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[पाद. ३ सू. १४७-१४९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १३९ इके कटोः स्त्रियां विशेषः । पुरोडाशाः पिष्टपिण्डाः, तैः सहचरितो मन्त्रः पुरोडाशः तस्य व्याख्यानस्तत्र भवो वा पुरोडाशिकः पुरोडाशिका, पुरोडाशिकी, पुरोडाशानामयं तत्र भवो या पौरोडाशः तत्संस्कारको मन्त्रस्तस्य व्याख्यानस्तत्र भवो वा पौरोडाशिकः, पौरोडाशिका, पौरोडाशिकी ।१४६।
न्या० स० पुरो०-अणीययोरिति पुरोडाशादणः पौरोडाशादीयस्यः प्राप्तिकल्पनायां तु द्वाभ्यामपि प्रायोबहुस्वरादिकणोऽपवादोऽयम् । छन्दसो यः ॥ ६. ३. १४७॥
छन्दःशब्दाद्ग्रन्थवाचिनस्तस्य व्याख्याने तत्र भवे च यः प्रत्ययो भवति, द्विस्वरेकणोऽपवादः । छन्दसो व्याख्यानस्तत्र भवो वा छन्दस्यः ।१४७। शिक्षादेश्वाण ॥ ६. ३. १४८॥
• शिक्षा इत्येवमादिभ्यश्छन्दःशब्दाच्च ग्रंथवाचिनस्तस्य व्याख्याने तत्र भवे चार्थेण् प्रत्ययो भवति, इकणोपवादः । शिक्षाया व्याख्यानस्तत्र भवो वा शैक्षः, आर्गयनः, छन्दस्, छान्दसः, एवं छन्दस्शब्दस्य द्वरूप्यं भवति । अण्ग्रहणमीयबाधनार्थम् । नयायः, वास्तुविधः । शिक्षा, ऋगयन, पद, व्याख्यान, पदव्याख्यान, छन्दोव्याख्यान, छन्दोमान, छन्दोभाष, छन्दोविचिति, छन्दोविचिती, छन्दोविजिति, न्याय, पुनरुक्त, निरुक्त, व्याकरण, निगम, वास्तुविद्या, अङ्गविद्या, क्षत्रविद्या, त्रिविद्या, विद्या, उत्पात, उत्पाद, संवत्सर, मुहूर्त, निमित्त, उपनिषद्, ऋषि, यज्ञ, चर्चा, क्रमेतर, लक्ष्ण, इति शिक्षादिः । बहुस्वराणामदुसंज्ञकानामुपादानं प्रायोग्रहणस्य प्रपश्चः ।१४८। . न्या० स० शिक्षा०- अणप्रहणमिति ननु किमर्थमत्राण्ग्रहणं योऽन्येन बाधितो न प्राप्नोतीति न्यायादणेव भविष्यतीत्याशङ्का ।
प्रपञ्च इति ननु दुसंज्ञानामीयबाधनाथं क्रियतां पाठः, ये तु बहुस्वरा अदुसंज्ञकास्तेषामुपादानं कथं कृतं यतः 'प्रायो बहुस्वरात्' ६-३-१४३ इति सूत्रे प्रायोग्रहणादेषां न भविष्यतीकण किं तु अणेवेत्याशङ्का । तत आगते ॥ ६. ३. १४९ ॥
तत इति पञ्चम्यन्तादागतेऽर्थे यथाविहितमणादय एयणादयश्च प्रत्यया भवन्ति । सुघ्नादागतः नौघ्नः, माथुरः, औत्सः, गव्यः:, दैत्यः, बाह्यः, कालेयः, आग्नेयः, स्त्रैणः, पौंस्नः, नादेयः, राष्ट्रियः, ग्रामीणः, ग्राम्यः । मुख्यापादानपरिग्रहात्स्रुघ्नादागच्छन् वृक्षमूलादागत इत्यत्र वृक्षमूलान्नान्त. रोयकापादानान्न भवति ।१४९।
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१४० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंघलिते [पाद. ३. सू. १५०-१५४ ] विद्यायोनिसंबन्धादकम् ॥ ६. ३. १५० ॥
विद्याकृतो योनिकृतश्च संबन्धो येषां तद्वाचिभ्यः पञ्चम्यन्तेभ्य आगतेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । ईयं तु परत्वाद्वाधते । विद्यासंबन्धः, आचार्यादागतमाचार्यकम् औपाध्यायकम्, शैष्यकम्, आत्विजकम्, आन्तेवासकम्, योनिसंबन्ध पैतामहकम्, मातामहकम्, पैतृव्यकम्, मातुलकम् ।१५०।
न्या० स० विद्या०-विद्याकृत इति विद्या च योनिश्च संबन्धो यस्येति बहुव्रीहिः, अत्र विद्याकृते संबन्धे विद्याशब्दो योनिकृते च योनिशब्दः उपचारादर्थे च कार्यासंभवाद् विद्यायोनिसंबन्धवाचिनः प्रतिपत्तिरित्याह-विद्याकृत इत्यादि। पितुर्यो वा ।। ६. ३. १५१ ॥
पितृशब्दाद्योनिसंबन्धवाचिनः पञ्चम्यन्तादागतेऽर्थे यः प्रत्ययो वा भवति, इकणोऽपवादः । पितुरागतं पित्र्यम् । 'ऋतो रस्तद्धिते' (१-२-२६) इति रत्वम् । पक्षे पैतृकम् ।१५१।
ऋत इकण् ॥ ६.३. १५२॥ __ ऋकारान्ताद्विद्यायोनिसंबन्धवाचिनः पञ्चम्यन्तादागतेऽर्थे इकण प्रत्ययो भवति, अकबोऽपवादः । होतुरागतं होतृकम्, पौतृकम्, प्राशास्तृकम् प्रातिहत कम्, शास्तृकम् यौनिसंबन्ध-मातृकम्, भ्रातृकम्, स्वासृकम्, दौहितृकम्, जामातृकम् नानान्दकम् । मातुरागता मातृकी विद्या, इकणन्तत्वात् ङीप्रत्ययः ।। १५२ ॥ आयस्थानात् ॥ ६. ३. १५३ ॥
स्वामिग्राह्यो भाग आय: स यस्मिन्नुत्पद्यते तदायस्थानम् । तद्वाचिनः पञ्चम्यन्तादागतेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः। ईयं तु परत्वाबाधते। एत्य तरन्त्यस्मिन्नित्यातरो नदीतीर्थम् । तत आगतम् आतरिकम्, शौल्कशालिकम् । आपणिकम् , दौवारिकम् आयस्थानत्वेनाप्रसिद्धादपि ताद्रूप्येण विवक्षिताद्भवतीति कश्चित् । स्रौनिकः ।।१५३।।
न्या० स० आय०-एति ऐति वा स्वामिनं, 'तम्व्यधी' ५-१-६४ इति णे, आयाति वा 'उपसर्गा' ५-१-५६ इ.त डः, आयस्तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानं आयस्य स्थानम् ॥ शुण्डिकादेरण ॥ ६. ३. १५४ ॥
शुण्डिक इत्येवमादिभ्यः पञ्चम्यन्तेभ्य आगतेऽर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, इकणादेरपवादः । शुण्डः शुण्डा वा सुरा ततो मत्वर्थीये शुण्डिकः शुण्डिका वा सुरापणः सुराविक्रयी चोच्यते । तत आगतं शौण्डिकम्, औदपानम्, कार्कणम्,
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[पाद. ३. सू. १५५-१५६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १४१ अण्ग्रहणं विस्पष्टार्थम् । यदि ह्यनेनाप्यायस्थानादिकणतीर्थाधूमाधकञ् पर्णकृकणाभ्यां चैयः स्यात् वचनमिदम् अनर्थकं स्यात् । न चोदपानादिहाध्यणि वा विशेषोऽस्तीति । यदा तु शुण्डिकादीनि सर्वाण्यायस्थानान्येव तदा भकजीयबाधनार्थम् । शुण्डिका, उदपान, पर्ण, कृकण, उलप, तृण, तीर्थ, स्थण्डिल, उपल, उदक, भूमि, पिष्पल इति शुण्डिकादि; ॥१५४॥
न्या० स० शुण्डिकादे०-विस्पष्टार्थमिति ननु यद्यण ग्रहणं न क्रियते तदानीं 'आयस्थानात्' ६-३-१५३ इत्यादिभिरिकणादयः प्राप्नुवतीत्याह- यदीति। अनर्थकं स्यादिति तैरेव सूत्ररमीषां प्रत्ययानां सिद्धत्वात् , किं चानन्तर इकण नानुवर्तते ? अनायस्थानत्वे हि सूत्रारम्भात् आयस्थानशुण्डिकादिभ्यामित्येकयोगाकरणाच, तस्मात् विस्पष्टार्थमिति सूक्तं । भकत्रीयबाधनार्थमिति अयमर्थः, यदा शुण्डिकादीनि सर्वाण्यप्यायस्थानान्येव तदा तीर्थाद धूमादकत्रः पर्णकृकणाभ्यामिति च. ईयस्यापवादे आयस्थानादितीकणि प्राप्ते इत्यारम्भादिकणो निवृत्तेर्यथाप्राप्तमिति ततोऽकनीयौ प्राप्नुतः, अतस्तौ बाधित्वा ततोऽप्यणेव यथा स्यादित्येवमर्थमण् ग्रहणमित्यर्थः । गोत्रादकवत् ॥ ६. ३. १५५॥
गोत्रवाचिनः शब्दात्पञ्चम्यन्तादागतेऽर्थे अङ्क इव प्रत्ययविधिर्भवति । यथा भवति विदानामङ्कः बैदः गार्गः दाक्ष इति 'संघघोषाङ्क'-(६-३-१७१) इत्यादिनाण तथेहापि बिदेभ्य आगतं बैदम्, गार्गम्, दाक्षम्, अङ्कग्रहणेन तस्येदमित्यर्थसामान्यं लक्ष्यते । तेनोकोऽप्यतिदेशः। अन्यथा संघाद्यण एव स्यात्, तेन यथा भवति औपगवकः कापटवकः नाडायनक: गाग्र्यायणक इति 'गोत्राददण्ड ' (६-३-१६८) इत्यादिनाऽकञ् तथेहापि औपगवकः कापटवकः नाडायनकः गाायणकः, एवं ' रैवतिकादेरीयः' (६-३-१६९) । रैवतिकेभ्य आगतं रैवतिकीयम् गौरग्रीवीयम्, 'कौपिञ्जलहास्तिपदादण' (६-३-१७०) कौपिजलादागतं कौपिजलम् हास्तिपदम् ।। १५५ ।। ___न्या० स० गोत्रा०--कौपिञ्जलमिति कुपिञ्जलस्यापत्य, हस्तिपादस्यापत्यं 'अत इनि प्राप्ते, अत एव निपातनादण् पादस्य पद्भावश्च तस्येदं 'कौपिञ्जलहास्तिपदादण' ६-३-१७१ । नृहेतुभ्योरूप्यमयटौ वा ॥ ६. ३. १५६ ॥
नवाचिभ्यो हेतुवाचिभ्यश्च पञ्चम्यन्तेभ्य आगतेऽर्थे रूप्य मयट् इत्येतो प्रत्ययौ वा भवतः ताभ्यां मुक्ते यथाप्राप्तम् । वचनभेदाद्यथासंख्याभावः । हेतुः कारणम्, नग्रहणमहेत्वर्थम् । देवदत्तादागतं देवदत्तरूप्यम्, देवदत्तमयम्, दैवदत्तम्, अत्रापादाने पञ्चमी । हेतु-समादागतं समरूप्यम्, सममयम्, विषमरूप्यं विषममयम्, पक्षे गहादिपाठादीयः । समीयम्, विषमीयम्, पापरूप्यम् पापमयम्,
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१४२ ] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० १५७-१६० ] पक्षे 'दोरीयः' (६-३-३१) पापीयम् । अत्र हेतौ पञ्चमी, टकारो ड्यर्थः । जिनदत्तमयी, सममयी, बहुवचनं स्वरूपव्युदासार्थम् ।१५६। ___ न्या० स० नृहे०-समादागतमिति यदा समत्वमृणं तदा 'ऋणाद्धेतोः' २-२-७६ इति पञ्चमी, अथ गुण वाचकस्तदा 'गुणादस्त्रियां नवा' २-२-७७ इत्यनेन । प्रभवति ॥ ६. ३. १५७ ॥
तत इति वर्तते तत इति पञ्चम्यन्तात्प्रभवति प्रथमं प्रकाशमानेऽर्थे यथाविहितं प्रत्यया भवन्ति । प्रथममुपलभ्यमानता प्रभवः । अन्ये प्रभवति जायमाने इत्याहुः । 'जाते' (६-३-९७) इति भूते सप्तम्यन्तात्प्रत्ययः अयं तु पञ्चम्यन्ताद्वर्तमाने इति विशेषः। हिमवतः प्रभवति हैमवती गङ्गा, दारदी सिन्धुः, काश्मीरी वितस्ता, कश्मीरशब्दात् 'बहुविषयेभ्यः ' (६-३-४४) इति अकोऽपवादः कच्छाद्यण् ।१५७। वैयः ॥ ६. ३.१५८॥
विडूरशब्दात्पञ्चम्यन्तात्प्रभवत्यर्थेभ्यः प्रत्ययो निपात्यते । विडूरात्प्रभवति वैडूर्यो मणिः। विडूरग्रामे ह्ययं संस्क्रियमाणो मणितया ततः प्रथमं प्रभवति । वालवायात्तु पर्वतादसौ प्रभवन्नसौ न मणिः किंतु पाषाणः, यदा तु जायमानतार्थः प्रभवशब्दस्तदा वालवायशब्दस्य ञ्यस्तत्संनियोगे विडूरादेशश्च निपात्यते। वालवायपर्याय एव वा विडूरशब्दः । प्रतिनियतविषयाश्च रूढय · इति वैयाकरणानामेव प्रसिद्धिः । यथा जित्वरीशब्दस्य वाराणस्यां वणिजामेव । वालवायशब्दात्तु ईयप्रत्ययोऽनभिधानान्न भवति ।१५८।।
न्या० स० वैडूर्यः-प्रतिनियतेति यद्येवं तर्हि किं सर्वत्रापि वालवायपर्यायो विडूरशब्दः प्रयुज्यते ! इत्याशङ्कयाह प्रसिद्धिरिति इति वैयाकरणानामेव विडूरशब्दस्य वालवाये प्रसिद्धिर्नान्येषां यदा जित्वरीशब्देन वणिज एव वाणारसी व्यवहरन्ति । त्यदादेर्मयट् ॥ ६. ३. १५९ ॥
त्यदादिभ्यः पञ्चम्यन्तेभ्यः प्रभवत्यर्थे मयट् प्रत्ययो भवति । तन्मयम, तन्मयी, भवन्मयम्, भवन्मयी ।१५९। तस्येदम् ॥ ६. ३. १६०॥
तस्येति षष्ठ्यन्तादिदमित्यर्थ यथाविहितमणादय एयणादयश्च प्रत्यया भवन्ति । उपगोरिदमौपगवम्, कापटवम्, स्रोघ्नम्, माथुरम्, दैत्यम्, बाहस्पत्यम्, कालेयम्, आग्नेयम्, औत्सम्, वैणम्, पौंस्नम्, गव्यम्, नादेयम्,
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[पाद. ३. सू. १६१-१६५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [१४३ राष्ट्रियम्, पारीणः, भानवीयः, श्यामगवीयः। पाटलिपुत्रकः प्राकारः, इह त्वनभिधानान्न भवति । देवदत्तस्यानन्तरः। ग्रामस्य समीपम् । विंशतेरवयवे एकः, शतस्य द्वौ, सहस्रस्य पञ्च, तस्येति षष्ठयर्थमात्रमिदमिति षष्ठ्यर्थसंबन्धिमात्रं च विवक्षितम् । यदन्यल्लिङ्गसंख्याप्रत्यक्षपरोक्षत्वादिकं तद्विवक्षितम् ।१६०। हलसीरादिकण् ॥ ६. ३. १६१ ॥
आभ्यां षष्ठ्यन्ताभ्यामिदमित्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । हालिकम्, सैरिकम् ।१६१॥ समिध आधाने टेन्यण् ॥६. ३. १६२ ।।
आधीयते येन समित्तदाधानम्, समिध् इत्येतस्मात्तस्येदमित्यर्थे छैन्यण प्रत्ययो भवति तच्चेदिदमाधानं भवति, अणोऽपवादः । टकारोङयर्थः, समिधामाधानो मन्त्रः, साभिधेन्यो मन्त्रः सामिधेनी ऋक्, सामिधेनीरवाह, पञ्चदश सामिधेन्यः ।१६२॥ विवाहे द्वन्द्वादकल् ॥ ६. ३. १६३ ॥
द्वन्द्वात्तस्येदमित्यर्थे विवाहेऽभिधेयेऽकल प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । अत्रिभरद्वाजानां विवाहोऽत्रिभरद्वाजिका, वशिष्ठकश्यपिका, भृग्वङ्गिरसिका, कुत्सकुशिकिका, गर्गभार्गविका, कुरुवृष्णिका, कुरुकाशिका, लकारः स्त्रीत्वार्थः ॥१६३ ॥ अदेवासुरादिभ्यो वैरे ॥ ६. ३. १६४ ॥
द्वन्द्वात्षष्ठचन्ताद्देवासुरादिवजितादिदमर्थेवैरेऽकल प्रत्ययो भवति, अणोऽ. पवादः । ईयं तु परत्वाद्वाधते । बाभ्रवशालकायनानामिदं वैरम् बाभ्रवशालङ्कायनिका । काकोलूकस्येदं वैरम् काकोलूकिका, श्वावराहिका, श्वशृगालिका, अहिनकुलिका अदेवासुरादिभ्य इति किम् ? दैवासुरम्, राक्षोऽसुरम, देवासुरादयः प्रयोगगभ्याः ॥१६४ ॥ नटान्नृत्ते ज्यः ॥ ६. ३. १६५ ॥
नटशब्दात्तस्येदमित्यर्थे नृत्ते ज्यः प्रत्ययो भवति । नटानामिदं नत्यं नाटयम् । नृत्त इति किम् ? नटानामिदं गृहम् ।। १६५ ॥
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बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
[ पाद. ३ सू. १६६-१६९ ]
छन्दोगौक्थिकयाज्ञिकबहवृचाच्च धर्माम्नाय संवे ॥ ६. ३. १६६ ॥
छन्दोगादिभ्यश्चरणेभ्यो नटशब्दाच्च तस्येदमित्यर्थे धर्मादौ ञ्यः प्रत्ययो भवति, छन्दोगादिभ्यश्चरणाको नटादणोऽपवादः । छन्दोगानां धर्म आम्नाय : संघो वा छान्दोग्यम्, औक्थिक्यम्, याज्ञिक्यम्, बाह्वृच्यम्, नाटघम् । धर्मादिति किम् ? छन्दोगानां गृहं छान्दोगम् ।। १६६ ।। आथवर्णिकादणिकलुक च ।। ६. ३. १६७ ।
१४४ ]
आथर्वणिकशब्दात्तस्येदमित्यर्थे धर्मादावण्प्रत्यय इकलोपश्चास्य भवति । अथर्वणा प्रोक्तं वेदं वेस्वधोते वा आथर्वणिकः, न्यायादित्वादिकण् । अत एव निपातनाद्भणपाट सामर्थ्याद्वा प्रोक्ताल्लुप्न भवति । आथर्वणिकानां धर्म आम्नायः संघो वा आथर्वणः, चरणादकञि प्राप्ते वचमम् ॥ १६७ ॥
न्या० स० आ० - आथर्वणिकादणू लुक् चेति क्रियतां किमिकोपादानेन, यतोऽणो विधान सामर्थ्यालुक् न भविष्यति, ततश्च प्रत्ययाप्रत्ययोः इति न्यायात् इकस्यैव लोपो भविष्यति, न च वाच्यमुत्रयोरपि प्राप्नोति यदि स्यात्तदा विधानस्य न किमपि फलम् ?
नैवं विधानस्य एतदेव फलमकलभावस्तत उभयोरपि लोपेनिष्टं स्यात् रूपं, अत इक ग्रहणं विधातव्यम् ।
चरणादकञ् ।। ६. ३. १६८ ।।
चरणशब्दो वेदशाखावचनस्तद्योगात्तदध्यापिषु वर्तते । चरणवाचिनस्तस्येदमित्यर्थे धर्मादावकञ् प्रत्ययों भवति, अणोऽपवादः । ईयं तु परत्वाद्वाधते । कठानां धर्मं आम्नायः संघो वा काठकः, चरकाणां चारकः, कलापानां कालापकः पैष्पलादानां पष्पलादकः, मौदानां मोदकः, आर्चाभिनामार्चाभिकः, वाजसनेयिनां वाजसनेयकः ॥१६८॥ गोदण्डमावशिष्ये ।। ६. ३. १६९ ।।
गोत्रवाचिनस्तस्येदमित्यर्थे दण्दमाणवशिष्यव जितेऽकञ् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । ईयाञौ तु परत्वाद्बाधते । औपगवस्येदमौपगवकम्, कापटवकम्, दाक्षकम्, प्लाक्षकम्, गार्गकम्, गार्ग्यायणकम्, ग्लौचुकायनकम्, म्लोचुकायनकम् अण्डमानव शिष्ये इति किम् ? काण्व्यस्येमे काण्वा दण्डमाणवाः शिष्या वा, एवं गौकक्षाः । शिकलादेर्यञः (६-३-२७) इत्यञ् । दाक्षेरिमे दाक्षाः, प्लाक्षाः, माहकाः । ' वृद्धेञः' (६-३-२८) इत्यञ् । दण्डप्रधाना माणवा दण्डमाणवाः आश्रमिणां रक्षापरिचरणार्याः, शिष्या अध्ययनार्था अन्तेवासिनः ।। १६९ ।।
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[पाद. ३ सू. १७०-१७३] श्रीसिद्धहेमचन्द्राशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [१४५ रैवतिका देरीयः ॥ ६. ३. १७० ।।
रैवतिकादेगोत्रवाचिनस्तस्येदमित्यर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, अकजादेरपवादः । रैवतिकस्येदं, रैवतिकीयम् शकटम्, रैवतिकीयः संधादिः, रैवतिकीया दण्डमाणवशिष्याः, गौरग्रीवीयं शकटम, गौरग्रीवीयः संघादिः, गौरग्रीवीया दण्डमाणवशिष्याः । रेवतिकः, गौरग्रीवि, स्वापिशिष्य, क्षेमधृति, औदमे घि, औदवाहि, वैजवापि, इति रैवतिकादिः ।१७०।
न्या० स० रैव०-अकादेरिति आदिशब्दादणलोः । कौपिञ्जलहास्तिपदादण् ॥ ६. ३. १७१ ॥
आभ्यां गोत्रवाचिभ्यां तस्येदमित्यर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, अकादेरपवादः । कुपिजलस्यापत्यं कौपिञ्जलः, हस्तिपादस्यापत्यं हास्तिपदः, अतो निपातनादेवाण पादस्य च पद्भावः। तयोरिदं कौपिजलं शकटम् । कौपिजला दण्डमाणवशिष्याः, हास्तिपदं शकटम्, हास्तिपदा दण्डमाणवशिष्याः । अथाणग्रहणं किमर्थम् ? यथाविहितमित्येव ह्यण् सिद्धः । न चेयः प्राप्नोति । तदभीष्टौ हि रैवतिकादावेवैतौ पठघेयाताम्, अकप्राप्तौ वचनमनर्थकं स्यात् ? नवम्, असत्यण्ग्रहणे दण्डमागवकशिष्येष्वक अर्थमेतत् स्यात् । तत्र ह्यकञ् प्रतिषिद्ध इति । णित्त्वं यथं पुंवद्भावाभावार्थ च। कोपिञ्जलीस्थूणः । हास्तिपदीस्थूणः ।१७१। संघघोपाङ्कलक्षणेऽभ्यनित्रः ॥ ६. ३. १७२ ॥
अजन्ताधजन्तादिनन्ताच्च गोत्रवाचिनस्तस्येदमित्यर्थे संघादावण प्रत्ययो भवति, अकोऽपवादः । अञ् बिदानामयं बैदः संघो घोषोऽङ्को वा, बैद लक्षणम् । यञ् गर्गाणामयं गार्गः संघो घोषोऽङ्को वा, गार्ग लक्षणम् । इन्, दाक्षीणामयं दाक्षः संघो घोषोऽङ्को वा, दाक्षं लक्षणम् । संघादिष्विति किम् ? बिदानां गृहम् । अञ्यजिञ इति किम् ? औपगवकः संघादिः । गोत्रादित्येव ? सोतंगमीयः संघादिः । अथाङ्कलक्षणयोः को विशेषः । लक्षणं लक्ष्यस्यैव स्वम्, यथा शिखादि, अङ्कस्तु स्वामिविशेषविज्ञापकः । स्वस्तिकादिर्गवादिस्थो न गवादीनामेव स्वं भवति ।१७२।
न्या० स० संघ०-स्वं भवतीति स्वमात्मीयं सामान्यनिर्देशान्नपुंसकत्वम । शाकलादकञ् च ।। ६. ३. १७३ ॥ शाकलशब्दात्तस्येदमित्यर्थे संघादावण अकञ् च प्रत्ययो भवति ।
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१४६] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३. सू. १७४-१७७ ] शाकल्येन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा शाकलाः, तेषां संघो घोषोऽङ्को वा शाकलः शाकलकः, शाकलं शाकलकं लक्षणम् ।१७।। __न्या० स० शाक-ननु शाकलाद् वेति क्रियतां विकल्पात् पक्षे 'चरणादकञ्' ६-३-१६८ इति अकञ् भविष्यति ?
सत्यं, इह सूत्रे संघघोषाङ्कलक्षणाश्चत्वारोऽर्थाः चरणादकभित्यत्र तु धर्माम्नायसंघास्त्रयोऽस्तितश्चामीषां चतुर्णामेतन सूत्रोपात्तार्थानां मध्यात्तत्र एकः संघा एवार्थः पप्रथे नान्ये इति अन्यार्थार्थोऽकञ् , अन्यथा संघार्थादन्यत्राऽर्थे विकल्पपक्षे ईय. स्यात् ।। गृहेऽजनीधो रण धश्च । ६. ३. १७४ ॥...
अग्नीध् ऋत्विग्विशेषः, तस्मात्तस्येदमित्यर्थे गृहे रण प्रत्ययो भवति अन्तस्य च तृतीयबाधनार्थं धादेशः, अग्नीध इदं गृहमाग्नीध्रम् ।१७४। स्थात्सादेश्च वोढङ्गे ॥ ६. ३. १७५ ॥
नियममूत्रमेतत्, रथात्केवलात्सपूर्वाच्च षष्ठ्यन्तादिदमर्थे य: प्रत्ययः स रथस्य वोढरि रथामें एव च भवति रथस्यायं वोढा रथ्योऽश्वः, रथस्येदं रथ्यं चक्रम्, रथ्यं युगम्, सादि द्वयो रथयोर्वोढा द्विरथः, त्रिरथ: । द्विगोरनपत्ये यस्वर-' (६-१-२४) इत्यादिना यलुप् । अन्ये तु स्वरादेरेव लुमिच्छन्ति । तन्मते द्विरथ्यः, त्रिरथ्यः । परमरथस्येदं परमरथ्यम्, उत्तयरथ्यम्, आश्वरथम्, चक्रम् । वोढङ्ग एव इति नियमात् अन्यत्र वाक्यमेव न प्रत्ययः । रथस्येदं स्थानम्, अश्वरथस्य स्वामी ।१७५॥
न्या० स० रथा-नियमक्षेत्रमिति प्रत्ययस्तूत्तरेणैव तयेक एव योगः क्रियताम् ? नैवं, रथात् सादेश्च वोदगे य इति कृते विधि सूत्रं स्यात् ; ततश्च वोद्रङ्ग इत्यस्य व्यावृत्ती रथस्येदं स्थानमिति कृते अण् प्रापेत् , नियमे वाक्यमेव ।
यः ॥६. ३. १७६ ॥
रथाकेवलात्सादेश्च षष्ठयन्तादिदमर्थे यः प्रत्ययो भवति, अणाद्यपवादः । रथस्यायं वोढा रथ्यः, द्वयो रथयोर्वोढा द्विरथः, त्रिरथः, रथ्यम्, परमरथ्यम्, काष्ठरथ्यं चक्रम् ।१७६। । पत्रपूर्वाद ॥ ६. ३. १७७ ॥
पत्र वाहनम्, तत्पूर्वाद्रथशब्दात्षष्ठयन्तादिदमर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति, यापवादः। अश्वरथस्येदमाश्वरथं. चक्रम् । आश्वरथं युगम्, औष्ट्ररथम, रासभरथम् ।१७७
- न्या० स० पत्र-नन्वकरणं किमर्थ प्रागजितादित्येव सेत्स्यति ? सत्यं, उत्तरसूत्रे हास्तो • रथ इत्यत्र 'संयोगादिनः' ७-४-५३ इति निषेधः स्यात् ।
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( पाद. ३. सू. १७८-१८२] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने प्रष्ठोध्यायः [१४७ वाहनात् ॥ ६. ३. १७८॥
बाहनवाचिनस्तस्येदमित्यर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति, अणादेरपवादः । उष्टस्यायमौष्टः, रासभः, हास्तो रथः ।१७८।
न्या० स० वाह०-अणादेरिति आदिशब्दादीयययोः, ईये रासभ इति, व्ये औष्ट्रपतमिति द्रष्टव्यमिति । वाह्यपथ्युपकरणे ॥ ६. ३. १७९ ॥
नियमसूत्रमिदम्, वाहनाद्योऽयं प्रत्यय उक्तः स वाह्य पथि उपकरणे एव चेदमर्थे भवति नान्यत्र । अश्वस्यायामाश्वो रथः, आश्वः पन्थाः, आश्व पल्ययनम्, आश्वी कशा, वाह्यपथ्युपकरण एवेति नियमादन्यत्र वाक्यमेव न प्रत्ययः, अश्वानां घासः ।१७९।। __न्या० स० वाह्य०-यदि पूर्वेण सह एकयोगं कुर्यात्तदानीं वाहनवाचिनो वाह्यपथ्युपकरणे अत्रेवान्यत्र यथा प्राप्तमेव स्यात् , पृथग्योगं तु नियमार्थम् । वहेस्तुरिश्वादि ॥ ६. ३. १८०॥
वहेः परो यस्तृचस्तृनो वा तृशब्दस्तदन्तानाम्नस्तस्येदमित्यर्थेऽप्रत्ययस्तृशब्दस्य चादिरिकारो भवति । संवोढुः सारथेरिदं सांवहित्रम् ।१८०। ___ न्या० स० वहे०-सांवहित्रमिति अत्र परे इकारागमे कर्तव्ये ढत्वादिशास्त्रमसत् , इकारागमे च कृते न प्राप्नोति । तेन प्रोक्ते ॥ ६. ३. १८१ ॥
प्रकर्षेण व्याख्यातमध्यापितं वा प्रोक्तम् न तु कृतम्, तत्र कृत इत्येव गतत्वात् । तस्मिन्नर्थे तेनेति तृतीयान्तान्नान्नो यथाविहितं प्रत्यया भवन्ति । भद्रबाहुना प्रोक्तानि भाद्रबाहवानि उत्तराध्ययनानि, गणधरप्रत्येकबुद्धादिभिः कृतानि तेन व्याख्यातानीत्यर्थः । याज्ञवल्क्येन याज्ञवल्क्यानि ब्राह्मणानि, पाणिनेन पाणिनीयम्, आपिश लिना आपिशलम्, काशकृत्स्निना काशकृत्स्नम् । उशनसा औशनसम्, बृहस्पतिना बार्हस्पत्यम् ।१८१॥ मौदादिभ्यः ॥ ६. ३. १८२ ॥
मौदइत्येवमादिभ्यस्तेन प्रोक्तं यथाविहितं प्रत्ययो भवति, स चापवादैबर्बाधितोऽणेव । अपवादस्यैव भावे वचनानर्थक्यात् । मौदेन प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा मौदाः, 'वेदेन्ब्राह्मणमत्रव' (६-२-१३०) इति नियमात् अत्र वेदित्रध्येतृविषय एवाण् । एवं पैष्पलादाः, जाजलाः, माथुरेण प्रोक्ता माथुरी वृत्तिः, सौलभानि ब्राह्मणानि, मौदादयः प्रयोगगम्याः ।१८२॥
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१४८] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू. १८३-१८६ ]
न्या० स० मौदा०-जाजल इति जातं जलमस्य पृषोदरादित्वात् साधुः, 'जजल' १८ (उणादि) इति निपातनाद् वा, जजलस्यापत्यमृध्ययणि जाजलः यद्वा जाजलेन प्रोक्तं जाजलं, तदस्यास्ति इन् , जाजलेन जाजलिना वा प्रोक्तं वेदं 'कलापि' ७-४-६२ इत्यन्त्यस्वरादिलोपः। कठादिभ्यो वेदे लुप् ॥ ६. ३. १८३ ॥
कठ इत्येवमादिभ्यः प्रोक्ते यः प्रत्ययस्तस्य लुप् भवति स चेत्प्रोक्तो वेदो भवति । क्ठेन प्रोक्तं वेदं विदस्यधीयते वा कठाः, चरकाः, कर्कराः, धेनुकण्ठाः, गोगडाः, वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव' (६-२-१३०) इति नियमात् वेदित्रध्येत्रोरेव विषये प्रत्ययस्य लप् । वेद इति किम् ? चरकेण प्रोक्त्ताश्वारकाः श्लोकाः, चरको वैशम्पायनः, कठादयः प्रयोगगम्याः ।१८३। तित्तिविरन्ततुखण्डिकोखादीयण ॥ ६. ३. १८४ ॥
तित्तिरिवरतन्तु खण्डिक उख इत्येतेभ्यस्तेन प्रोक्तेऽर्थे ईयण् प्रत्ययो भवति अणोऽपवादः स चेत्प्रोक्तो वेदो भवति । तित्तिरिणा प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा तैत्तिरीयाः, वारतन्तवीयाः, खाण्डिकीयाः, औखीयाः । वेदे इत्येव ? तित्तिरिणा प्रोक्तास्तैत्तिराः श्लोकाः, अत्रापि 'वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव' (६-२-१३०) इत्युपतिष्ठते ।१८४॥ छगलिनो णेयिन् ॥ ६. ३. १८५ ॥
छगलिनशब्दात्तेन प्रोक्त वेदे णयिन् प्रत्गयो भवति, अणोऽपवादः । छगलिना प्रोक्त वेदं विदन्त्यधीयते वा छागले यिनः ॥१८५॥ शौनकादिभ्यो णिन् ॥ ६. ३. १८६ ।।
शौनक इत्येवमादिभ्यस्तेन प्रोक्त वेदे णिन् प्रत्ययो भवति, अणाद्यपवादः। शौनकेन प्रोक्त वेदं विदन्त्यधीयते वा शौनकिनः, शाङ्गरविणः, वाजसनेयिनः । वेद इत्येव ? शौनकीया शिक्षा । शौनक, शाङ्गरव, वाजसनेय, शापेय, काकेय, (शाफेय) शाष्पेय, शाल्फेय, स्कन्ध, स्कम्भ, देवदर्श, रज्जुभार, रज्जुतार, रज्जुकण्ठ, दामकण्ठ, कठ, शाठ, कुशाठ, कुशाप, कुशायन, आश्वपञ्चम, तलवकार, परुषांसक, पुरुषांसक, हरिद्र, तुम्बुरु, उपलप, आलम्बि, पलिङ्ग, कमल, ऋचाभ, आरुणि, ताण्डय, श्यामायन, खादायन, कषायतल, स्तम्भ इति शौनकादयः । आकृतिगणोऽयम्, तेन भाल्लविना प्रोक्त ब्राह्मणं विदन्त्यधीयते वा. भाल्लविनः, शाटचायनिनः, ऐतरेयिणः
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[पाद. ३. सू. १८७-१८९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [१४९ इत्यादि सिद्धं भवति । ब्राह्मणमपि वेद एब । मन्त्रब्राह्मणं हि वेदः ।१८६।
न्या० स० शौन-शाट्याथनिन इति ध्यणन्तात् 'तिकादेरायनिञ्। ६-१-१०७ इत्यायनण् , शाट्यायनिना शाट्याबनेन वा प्रोक्तं वेदं विदन्त्यधीयते वा ।
नन्वनेन वेदे प्रत्ययोऽभ्यधामि तत्कथं भाल्लविना प्रोकं ब्राह्मणम् ? इत्याह-ब्राह्मयमपीति । पुराणे कल्पे ॥ ६. ३. १८७ ॥
तेनेति तृतीयान्तात्प्रोक्तेऽर्थे णिन् प्रत्ययो भवति, अणाद्यपवादः । स चेत्प्रोक्तः पुराणः कल्पो भवति । पिन प्रोक्तः कल्पः पुराणः पैनी कल्पः, तृणपिङ्गेन तार्णपिङ्गी कल्पः, अरुणपराजेन आरुभपराजी कल्पः, येऽपि पङ्गिनं कल्पं विदन्त्यधीयते वा तेऽपि पङ्गिनः, आरुणपराजिनः । प्रोक्ताद्धि लुबुक्तैव । पुराण इति किम् ? आश्मरथः कल्पः। आश्मरथ्येन प्रोक्तः कल्प उत्तरकल्पेभ्य आरातीय इति श्रूयते ।१८७॥ काश्यपकौशिकावेदवच ।। ६. ३. १८८ ॥
आभ्यां तेन प्रोक्त पुराणे कल्पे णिन् प्रत्ययो भवति, ईयापवादः । वेदवच्चास्मिन्कल्पे कार्य भवति। काश्यपेन प्रोक्त पुराणं कल्पं विदन्त्यधीयते वा काश्यपिनः, कोशिकेन कौशिकिनः, काश्यपिनां धर्म आम्नायः संघो वा काश्यपकः, कौशिकिनां कोशिककः । वेदवच्चेत्यतिदेशाद्वेदेन् ब्राह्मममत्रैवेति नियमाद्वेदित्रध्येतृविषयता 'चरणादकञ्' (६-३-१६७) इत्यकञ् च भवति । कल्प इत्येव ? काश्यपीया संहिता, पुराण इत्येव ? इदानींतनेन गोत्रकाश्यपेन प्रोक्तः कल्पः काश्यपीयः । वदवच्चेति अतिदेशार्थ वचनम् ॥१८८। . न्या० स• काश्य० अतिदेशार्थमिति 'पुराणेकल्पे' ६-३-१८७ इत्यनेनैव सिद्धत्वात् । शिलालिपाराशर्यान्नटभिक्षुसूत्रे ॥ ६. ३. १८९ ॥
शिलालिन्पाराशर्य इत्येताभ्यां तेन प्रोक्ते यथासंख्यं नटसूत्रे भिक्षुसूत्रे च णिन् प्रत्ययो भवति, अणअपवादः। वेदवच्चास्मिन् कार्यं भवति, नटानामध्ययनं नटसूत्रम् । भिषणामध्ययनं भिक्षुसूत्रम् । शिललिना प्रोक्त नटसूत्रं विदन्त्यधीयते वा शैलालिनो नटाः, पाराशर्येण प्रोक्त भिक्षुसूत्रं विदन्त्यधोयते वा पाराशरिणो भिक्षक, शैलालिनां धर्म: आम्नायः संघो वा शैलालकम्, पाराशरकम्, अतिदेशाद्वेदित्रध्येतृविषयता चरणादकञ् च भवति । नट भिक्षुसूत्र इति किम् ? शैलालं पाराशरम् ।१८९। न्या० स० शिला०-भणत्रपवाद इति शिलालिन् शब्दात्तेन प्रोक्त पाराशर्यात्तु शकलादेर्यनः।
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१५० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंघलिते [पा० ३. सू० १९०-१९३ ] कृशाश्वकर्मन्दादिन ॥ ६. ३. १९० ॥
आभ्यां तेन प्रोक्त यथासंख्यं नटसूत्रे भिक्षुसूत्रे च इन् प्रत्ययो भवति, अणोऽपवादः । वेदवच्चास्मिन् कार्य भवति । कृशाश्वेन प्रोक्त नटसूत्रं विदन्त्यधीयते वा कृशाश्विनो नटाः, कर्मन्देन प्रोक्त भिक्षुसूत्रं विदन्त्यधीयते वा कर्मन्दिनो भिक्षवः, अतिदेशादकञ् च । काश्विकम्, कार्मन्दकम् । नटसूत्रे कापिलेयशब्दादपीच्छन्त्येके । कापिलेयिनो नटाः। कापिलेयक अम्नायः ।१९०। उपज्ञाते ॥ ६. ३.१९१ ।।
तेनेति वर्तते, प्रथमत उपदेशेन विना वा ज्ञातमुपज्ञातम् प्रथमतः कृतं वोपज्ञातम् । तस्मिन्नर्थे तृतीयान्ताद्यथाविहितं प्रत्ययो भवति । पाणिनेन पाणिनिना वोपज्ञातं पाणिनीयम्, अकालकं व्याकरणम् । काशकृत्स्न, गुरुलाघवम् ।१९१
. न्या० स० उप० --अकालकमिति न विद्यते कालः, कालाधिकारो यत्र, पाणिनेः पूर्वे आचार्याः कालपरिभाषां कुर्वन्ति स्म, आ न्यायादुस्थानादा न्यायाच्च संवेशनादेषोऽद्यतनः कालः ।
अन्ये पुनराहुः उभयतोर्द्धरात्रं वेति, तत्पाणिनिः प्रत्याचष्टे, तदशिष्यं लोकतोऽर्थगतेस्तदेवं कालपरिभाषारहितमकालकं व्याकरणं पाणिनिना प्रथमं ज्ञातं वयमेव वोपदेशेन विना ज्ञातं. प्रथमतः कृतं वेत्यर्थः, एवं काशकृत्सिननोपज्ञातं काशकृत्स्नम् । 'वृद्धेऽञ्' ६-३-२८ इत्यम्।
गुरुलाघवमिति 'अंशादृतोः' ७-४-१४ इत्यत्र गुरुश्च गुरुत्वं लाघवं च गुरोर्लाघवं चेति दर्शिष्यते । कृते ॥६.३.१९२॥
तेनेति तृतीयान्तात्कृते उत्पादितेऽर्थे यथाविहतमणादयो भवन्ति । शिवेन कृतो ग्रन्थः शैवः, वाररुचानि वाक्यानि । जलूके न जलूकया वा कृता जालूकाः श्लोकाः, जालुकिना जालुकाः, अत्र वृद्धेनः' (६-३-२७) इत्यञ् । सिद्धसेनीयः स्तवः, इष्टकाभिः कृतः प्रासाद ऐष्टकः, नारदेन कृतं गीतं नारदीयम्, मनसा कृता मानसी कन्या, तक्ष्णा कृतः प्रासाद इत्यादावनभिधानान्न भवति, कृते ग्रन्थे एवेच्छन्त्यन्ये ।१९२। नाम्नि मक्षिकादिभ्यः ॥ ६. ३. १९३ ॥
मक्षिकादिभ्यस्तृतीयान्तेभ्यः कृतेऽर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति नाम्नि प्रत्ययान्तं चेन्नाम भवति । मक्षिकाभिः कृतं माक्षिकं मधु, सरघाभिः सारघम्, गर्मुद्भिर्गामुतम्, नमुकाभिकिम् । नाम्नीति किम् ? मक्षिकाभिः कृतं शकृत्, वातपः कृतं वातपमित्यत्राणन्तं नाम नेयान्तमितीयो न भवति ।
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[पाद. ३ सू. १९४-१९७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [१५१ मक्षिका, सरघा, गमुत्, नमुका, पुत्तिका, क्षुद्रा, भ्रमर, बटर, वातप, इति मक्षिकादयः प्रयोगगम्याः ।१९३३ कुलालादेरकञ् ॥ ६. ३. १९४ ।।
कुलाल इत्येवमादिभ्यस्तेन कृतेऽर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति नाम्नि संज्ञायाम् । कुलालेन कृतं कौलालकम्, वारुटकम् । नाम्नीत्यभिधेयनियमार्थम्, तेन घटघटीशरावोदश्चनाद्येव भाण्डं कौलालकम् न यत्किञ्चित्कुलालकृतम् । शूर्पपिटकपटलिकापिच्छिका व भाण्डं वारुटकम् नान्यत् । एवमन्यत्राप्य भिधेयनियमः । कुलाल, वरुट, कर्मार, निषाद, चण्डाल, सेना, सिरन्ध्र, देवराजन्, देवराज, परिषद्, वधू, भद्र, अनहुह, ब्रह्मन्, कुम्भकार, अश्वपाक, रुरु, इति कुलालादिः ।१९४।
न्या० स० कुला० सिरन्धेति सितानि बद्धानि ग्ध्राणि यस्य सितरन्धः, पृषोदरादित्वात्तस्य लोपः, 'अदासो दासवृत्तियः, स सिरन्ध्र इति स्मृतः ।'
सर्वचर्मण ईनेनौ ॥ ६. ३. १९५॥ . सर्वचर्मनशब्दात्तेन कृते इन ईनञ् इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः। नाम्नीत्यधिकारादभिधेयनियमः । सर्वश्चर्मणा कृतः सर्वचर्माणः सार्वचर्मीणः, अत्र सर्वशब्दस्य कतापेक्षस्य चर्मशब्देनायोगिनापि ' नाम नाम्ना'-(३-१-१८) इत्यादिना समासः ।१९५।। उरसो याणौ ॥ ६. ३. १९६॥
उरस्शब्दात्तेन कृते य अण् इत्येतो प्रत्ययौ भवती नाम्नि । उरसा कृतः उरस्यः औरसः ।१९६। छन्दस्यः ॥ ६. ३. १९७ ॥
छन्दसंशब्दात्तेन कृते यः प्रत्ययो निपात्यते नाम्नि । छन्दसा इच्छया कृतश्छन्दस्यः, न तु प्रवचनेन गायत्र्यादिना वा । नाम्नीत्यधिकारादभिधेयव्यवस्था । निपातनात् कचिदन्यत्रापि भवति । ओश्रावयेति चतुरक्षरम् अस्तु श्रौषट् इति चतुरक्षरं ये यजामहे इति पञ्चाक्षरम् यजेति यक्षरम्, व्यक्षरो वषट्कारः, एष वै सप्तदशाक्षर छन्दस्यो यज्ञमनुविहितः । अत्र स्वार्थे यः। यथानुष्टुबादिरक्षरसमूहश्छन्दस्तथैषां सप्लदशानामक्षराणां समूह छन्दस्य उच्यते ॥१९॥
न्या० स० छन्दस्य:-यज्ञमनुविहित इति यज्ञमनुलक्ष्यीकृत्य विहितो अनुगत इत्यर्थः ।
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१५२ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते
अमोऽधिकृत्य ग्रन्थे ॥ ६. ३. १९८ ॥
कृत इति वर्तते, अम इति द्वितीयान्तादधिकृत्य कृते ग्रन्थेऽर्थे यथाfafe प्रत्ययो भवति । अधिकृत्य प्रस्तुत्य उद्दिश्येत्यर्थः, तदपेक्षा द्वितीया । सुभद्रामधिकृत्य कृतो ग्रन्थः सौभद्रः, भद्रां भाद्रः, सुतारां सौतारः, भीमरथामधिकृत्य कृतायायिका भैमरथी । ग्रन्थ इति किम् ? सुभद्रामधिकृत्य कृतः प्रासादः । कथं वासवदत्तामधिकृत्य कृताख्यायिका वासवदत्ता उर्वशी सुमनोहरा बलिबन्धनं सीताहरणमिति । उपचारद्ग्रन्थे ताच्छन् भविष्यति । १९८ ।
न्या० स० अमो० – उपचारादिति अन्यैः प्रत्ययमुत्पाद्य लुबुक्ता तत्त्वमते कथम् ? इत्याह ताच्छन्द्यमिति स वासौ शब्दश्च तस्य भावः, अयमर्थः, स एष वासवदत्तादिशब्दो प्रन्थे वर्तते ।
ज्योतिषम् ॥ ६. ३. १९९ ॥
[ पाद. ३ सू० १९८-२०२
ज्योतिः शब्दादमोऽधिकृत्य कृते प्रन्येऽण् प्रत्ययो वृद्ध्यभावश्च निपात्यते । ज्योतींष्यधिकृत्य कृतो ग्रन्थो ज्योतिषम् । १९९०
शिशुक्रन्दादिभ्य ईयः ॥ ६.३.२०० ॥
शिशुक्रन्द इत्येवमादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्योऽधिकृत्य कृते ग्रन्थे ईयः प्रत्ययो भवति । शिशुक्रन्दमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः शिशुक्रन्दीयः, यमसभोयः, इन्द्रजननीयः, प्रद्युम्नप्रत्यागमनीयः, प्रद्यम्नोदयनीयः, सीताहरणीयः, सीतान्वेषणीयः, शिशुक्रन्दादयः प्रयोगतोऽनुसर्तव्याः । शिशुक्रन्दशब्दान्केचिन्नेच्छन्ति । शैशु. क्रन्दम् ।२००।
न्या० स० शिशु०– यमसभीय० यमस्य सभा यमसमं शालां विना सभा, राजवर्जितेत्यादिना राक्षसादित्वात् क्लीवत्वम् ।
द्वंद्वात्प्रायः ॥ ६. ३. २०१ ॥
द्वन्द्वात्समासादमोऽधिकृत्य कृते ग्रन्थे प्रायः ईयः प्रत्ययो भवति, अणोsपवादः । वाक्यपदीयम्, द्रव्यपर्यायीयम्, शब्दार्थसंबन्धीयम् । श्येनकपोतीयम् । प्राय इति किम् देवासुरम्, राक्षोसुरम्, गौणमुख्यम् । २०१ |
न्या० स० द्वंद्वात् – श्येन कपोतीय मिति श्येनकपोतावधिकृत्येति शकटः, उत्पलस्तु नित्यवैरस्येत्येकवद्भाषमिच्छति, ततः श्येनकपोतमिति वा ।
गौणमुख्यमिति संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः इति न दोरीयः, गुणमुख्याद् वा प्रत्ययः । अभिनिष्क्रामति द्वारे ।। ६. ३. २०२ ॥
द्वितीयान्तादभिनिष्क्रामति अभिनिर्गच्छत्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति
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[ पाद ३. सू. २०३-२०७ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठाध्यायः [ १५३ तच्चेदभिनिष्क्रामद्द्द्वारं भवति । सुग्घ्नमभिनिष्क्रामति स्रौघ्नं कन्यकुब्जद्वारम् । माथुरम्, नादेयम्, राष्ट्रिय द्वारम्, करणभूतस्यापि द्वारस्याभिनिष्क्रमणक्रियायां स्वातन्त्र्यविवक्षा । यथा साध्वसिध्छिनत्तीति । रचनाबहिर्भावे वा निष्क्रमिः । यथा गृहकोणो निष्क्रान्तः । द्वार इति किम् ? स्रुघ्नमभिनिष्क्रामति चैत्रः ।२०२॥
न्या० स० अभि० -- निष्क्रान्त इति रचनाया बहिर्निगत इत्यर्थः ।
गच्छति पथि दूते ।। ६. ३. २०३ ॥
द्वितीयान्ताद्भच्छत्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति योऽसौ गच्छति स चेत्पन्था दूतो वा भवति । स्रुग्घ्नं गच्छति स्रोग्नः पन्था दूतो वा, माथुरः, नादेयः, राष्ट्रियः पथिस्बेषु गच्छत्सु तद्धेतुः पन्था अपि गच्छतीत्युच्यते । स्रुघ्नादिप्राप्तिर्वा पथो गमनम् । पथिदूत इति किम् ? स्रुग्घ्नं गच्छति साधुः, पाटलिपुत्रं गच्छति नौः पण्यं वाणिग्वा ॥ २०३॥
भजति ॥ ६.३.२०४ ॥
द्वितीयान्ताद्भजत्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । स्रुघ्नं भजति स्रौघ्नः, माथुरः, नादेयः, राष्ट्रियः | २०४ | महाराजादिकण ॥ ६.३.२०५ ॥
महाराजशब्दात् द्वितीयान्ताद्भजत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । महाराजं भजति माहाराजिकः ॥ २०५ ॥ अचित्ताददेशकालात् ।। ६.३.२०६ ।।
देशकालवजितं यदचित्तमचेतनं तद्वाचिनो द्वितीयान्ताद्भजत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । अणादेर्बाधिकः । अपूपान्भजति आपूपिकः, शाष्कुलिकः, मौदकिकः, पायसिकः अचित्तादिति किम् ? देवदत्तः । अदेशकालादिति किम् ? स्रौघ्नः, हैमनः । २०६ ।
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वासुदेवार्जुनादकः ॥ ६. ३. २०७ ॥
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आभ्यां द्वितीयान्ताभ्यां भजत्यर्थे कः प्रत्ययो भवति, ईयाकञोरपवादः । वासुदेवं भजति वासुदेवकः, यदा वासुदेवशब्दः संज्ञाशब्दोऽक्षत्रियवचनस्तदोत्तरेणाकञ् न प्राप्नोति किं तु ' दोरीय: ( ६-३ - ३१ ) इतीयः स्यात् इति तद्ग्रहणम् । अर्जुनं भजति अर्जुनकः । अर्जुनशब्दः क्षत्रियवाचीत्युत्तरेणाकञ्
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१५४ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाव. ३ सू० २०८-२०९] स्यादिति केनैव सिद्धेऽकविधानं वासुदेवीं भजति वासुदेवकःअर्जुनीमर्जुनक इति एवमर्थम् ।२०७। ___न्या० स० वासु०-एवमर्थमिति कप्रत्यये 'यादीदूतःके' २-४-१०४ इति ह्रस्वत्वं स्यात् , अकप्रत्यये तु 'जानिश्च ' ३-२-५१ इति पुंवद् भवति । गोत्रक्षत्रियेभ्योऽकञ् प्रायः ॥ ६. ३. २०८ ॥
गोत्रवाचिभ्यः क्षत्रियवाचिभ्यश्च द्वितीयान्तेभ्यो भवत्यर्थेऽकञ् प्रत्ययो भवति प्रायः, अणाद्यपवादः।। ग्लुचुकाय नि भजति म्लौचुकायनकः, औपगवकः, दाक्षकः, गार्गकः, गाायणकः । क्षत्रिय, नाकुलकः, साहदेवकः, दौर्योधनकः, दौःशासनकः । बहुवचनं क्षत्रिय विशेषपरि ग्रहार्थम् । प्राय इति किम् ? पणिनोऽपत्यं पाणिनः तं भजति पाणिनीय:, पौरवीयः ।२०८। सरूपाद् द्रेः सर्व राष्ट्रवत् ॥ ६. ३. २०९ ॥
'राष्ट्रक्षत्रियात्सरूपाद्राजापत्ये द्विर' (६-१-११४) इति प्रस्तुत्य सरूपाद्यो द्रिः प्रत्यय उक्तस्तदन्तस्य द्वितीयान्तस्य भजतीत्यर्थे सर्व प्रत्ययः प्रकृतिश्च राष्ट्रवद्भवति । राष्ट्रवाचिनी या प्रकृति जि इत्यादिस्ततश्च यः प्रत्ययो ‘जिमद्राद्देशात्क:' (६-३-३७) इत्यादिना विहितस्तदुभयं वायं इत्येवमादेः सरूपस्य दिप्रत्ययान्तस्य भजतीत्यस्मिन् विषये भवतीत्यर्थः । वाज्यं वाज्यौं वृजीन् वा भजति जिकः, माद्रं माद्री 'मद्राम्वा भजति मद्रकः, अत्र प्रत्ययः। पाण्डचं पाण्डयौ पाण्डुन्वा भर्जेति पाण्डवकः, आङ्गकः, वाङ्गकः, पाञ्चालकः, वैदेहकः, औदुम्बरकः, तैलखलकः । अत्र 'बहुविषयेभ्यः' (६-३-४४) इत्य कञ् । कौरक्कः । कौस्वः । यौगन्धरकः । यौगन्धरः । अत्र 'कुरुयुगंधराद्वा' (६-३-५२) इति वाकञ् । ऐक्ष्वाकः । अत्र 'कोपान्त्याच्चाण' (६-३-५५) इत्यण् । सरूपाविति किम् ? पौरवीयम् । अत्र पुरू राजा अनुखण्डो जमपद इति सारूप्यं नास्ति । अत एव पुरुमगध'-इत्यादौ द्विस्वरत्वेनैव सिद्धे पुरुम्रहणमसरूपार्थ कृतम् । द्रेरिति किम् । पञ्चालान् ब्राह्मणान् भजति पाञ्चालः, अत्र 'बहुविषयेभ्यः' इत्य कञ् न भवति । सर्वग्रहणं प्रकृत्ये तिदेशार्थम् । तच्च वाय॑माद्रपाण्डयकौरव्याः प्रयोजयन्ति । अन्यत्र हि मास्ति विशेषः ।२०९।
न्या० स० सरूपातः-सरूपाविति सूत्राशेन राष्ट्रक्षत्रियादित्युपलक्ष्यते ।
यविषयेभ्य इति-पाण्ड्य : पाण्याविति एकस्वंद्वित्वयोरपि मष्ट्रवदित्वतिदेशादबहुक्त्ता तथैव इति बढविषयेभ्य इति अकम् भक्त्येव ।
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[ पाद. ३. सू. २१०-२१४ । श्रीसिहभचन्द्र शब्दानुशासनै षष्ठोध्यायः [१५५
कौरवक इति कुरोरेपत्यं कुरूणां राजा का 'दुनादि । ६-१-११४ इतिः व्यः कौरव्यं भजति मनुष्ये वाच्चे 'कच्छार्टनस्थे'६-३-५५ निस्थमञ्, अन्यत्र तु कुत्याांधरावा' ६-३-५३ इति वा अकञ् , पक्षे 'कोपान्त्याच्चाण' ६-३-५६ ।
यौगन्धरक इति युगंधराणां राजा युगंधरापत्यं वा 'साल्वांश' ६-१-११७ इति इज तं भजति औत्सर्गिकाण।
भतिदेशार्थमिति तेन वृजिकमद्रकपाण्डवक इतिः सिद्धं, अन्यथा पाण्यक इत्यादौ यकारश्रुतिः स्यात् , न वाच्यं तद्धितयस्वरे' २-४-९२ इति यलोपप्राप्तिः, अनापत्यत्वात् यकारस्य ।
नास्ति विशेष इति-आशक इत्याद्रि लिखितापेक्षया एतदुक्तं यावता आवन्तक इत्यादावस्त्येव विशेषः, अनापत्त्यत्वादावन्त्य इति स्थिते यलोपाप्रसङ्गात् । टस्तुल्यदिशि ॥ ६. ३. २१०॥
ट इति सहार्थतृतीयान्तात्तुल्यदिश्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । तुल्या, समाना, साधारणा दिक, यस्य तुल्य दिक् । एकदिगित्यर्थः । सुदाम्ना एकदिक् सौदामनी विद्युत्, सुदामा नाम्र पर्वतो यस्यां दिशि तस्यां विद्युत्, तेन सा सुदाम्ना सहैकंदिगुच्यते । सूर्येण सहकदिक् सौरी बलाका, हिमवता एकदिक् हैमवती गङ्गा, त्रिककुदा एकदिक् त्रैककुदी लङ्का ।२१०। तसिः ॥ ६. ३. २११ ॥
ट इति तृतीयान्तात्तुल्य विश्यर्षे तसिरित्ययं प्रत्ययो भवति । पूर्वेण यथास्वमणादय एयणादयश्च विहिताः प्रत्ययान्तरमिदं सर्वप्रकृतिविषयं विधीयते । सुदाम्ना एकदिक् सुदामतः, सूर्यतः, हिमवत्तः, त्रिककुत्तः, पीलुमूलतः, पार्थतः, पृष्ठतः, कारो 'बत्तस्याम्' (१-१-३४) इत्यत्र विशेषणार्थः ।२१॥
यश्चोरसः ॥ ६. ३. २१२ ।।
__ उरस् इत्येतस्मात्तृतीयान्तात्तुल्यदिश्यर्षे यः प्रत्ययश्चकारात्तसिश्च भक्तः, अणोऽपवादः। उरसा एकदिक् उरस्यः, उरस्तः ।२१२॥ सेनिवासादस्य ॥६. ३. २१३ ॥ .
सेरिति प्रश्रमान्तावस्येति षष्ठवर्षे यथाविहितं प्रत्ययो भवति यत्तस्मथ.. मान्तं निवासश्चेत्स भवति । निवस्त्यस्मिमिति निवासी देवा उच्यते । स्रघ्नो निवासोऽस्य स्रोग्घ्नः, माथुरः, मादेयः, राष्ट्रियः ।२१३॥
आभिजनात् ॥ १. ३. २१४ ॥ क्षेनिवासादस्येति वर्तते । अभिजनः पूर्वबान्धवाः, तेषामयमाभिजनः ।
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१५६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३. सू. २१५-२१९ ] सः प्रथमान्तादाभिजनान्निवासादस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । सुग्घ्नोऽस्याभिजनो निवासः स्रोग्घ्नः, माथुरः, नादेयः, राष्ट्रियः ।२१४।
शण्डिकादेण्यः ॥ ६. ३. २१५ ॥ ___ शण्डिक इत्येवमादिभ्यः प्रथमान्तेभ्य आभिजननिवासवाचिभ्योऽस्येत्यस्मिन्नर्थे ण्यः प्रत्यया भवति, अणाद्यपवादः । शण्डिक आभिजनो निवासोऽस्य शाण्डिक्यः। कौचवार्यः । शण्डिक, कूचवार सर्वसेन, सर्वकेश, शङ्ख, शक, शट, रक, चरण (चणक), शंकर, बोध इति शण्डिकादिः ।२१५॥ सिन्ध्वादेञ् ॥ ६. ३. २१६ ॥
सिन्ध्वादिभ्यः प्रथमान्तेभ्य आभिजननिवासवाचिभ्योऽस्येत्यस्मिन्नर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति । सिन्धुराभिजनो निवासोऽस्य सैन्धवः, वार्णवः, सिन्धु, वर्ण, मधुमत्, कम्बोज, कुलूज, गन्धार, कश्मीर, सल्व, किष्किन्ध, गब्दिक, उरस्, दरद, ग्रामणी, काण्डवरक सल्वान्तेभ्यो ननस्थाकञोपवादोऽञ् । शेषेभ्यो बहुविषयराष्ट्र लक्षणस्याको ग्रामणीकाण्डवरकाभ्यामीयस्य । तक्षशिलादिभ्यस्तु अञ् नोच्यते उत्सर्गेणैव सिद्धत्वात् ।२१६। ___न्या० स० सिन्ध्वादेर-अम् नोच्यत इति केचित्तक्षशिलादिभ्योऽत्र ब्रुवते, तन्न, बाधकप्रत्ययान्तराप्राप्तया 'प्राजितात् । ६-१-१३ इत्येव सिद्धत्वात् । सलातुरादीयण ॥ ६. ३. २१७॥
सलातुरशब्दात्प्रथमान्तादाभिजननिवासवाचिनोस्येत्यस्मिन्नर्थे ईयण प्रत्ययो भवति । सलातुर आभिजनो निवासोऽस्य सालातुरीयः पाणिनिः ।२१७॥
__ न्या० स० सलातुरा०–सलातुरेति सालैस्ततं सालततं तच्च तत्पुरं च सालतस्पुर, पृषोदरा दित्वात् सलातुरः। तूदीवर्मत्या एयण् ॥ ६. ३. २१८ ॥
तूदीवर्मतीशब्दाभ्यां प्रथमान्ताभ्यामाभिजननिवासवाचिभ्यामस्येत्यर्थे एयण प्रत्ययो भवति । तूदी आभिजनो निवासोऽस्य तौदेयः, वार्मतेयः ।२१८।
न्या० स० तूदीवर्म-तावानायामो यस्याः सा तावदायामा, पृषोदरादित्वात्तदादेशे गौरादिश्यां तूदी, वर्म तनोति 'क्वचित ' ५-१-१७१ इति डे गौरादिश्यां च धर्मती। गिरेरीयोऽस्म्राजीवे ॥ ६. ३. २१९ ॥
गिरिर्य आभिजनो निवासस्तदभिधायिनः प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे ईयः प्रत्ययो भवति अबाजीवे असमाजीवो जीविका यस्य तस्मिन्नायुधजीविन्यभिधेय इत्यर्थः । हदोलः पर्वत आभिजनो निवासोऽस्यास्त्राजीवस्य
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[पाद. ३ सू. २१९ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १५७ . हृदोलीयः, एवं भोजकटीयः, रोहितगिरीयः, अन्धश्मीयः । गिरोरिति किम् ? सांकाश्यकोऽस्त्राजीवः । 'प्रस्थपुर'-(६-३-४२) इत्यादिनाकञ् । अस्त्राजीव इति किम् ? ऋक्षोदः पर्वत आभिजनो निवासोऽस्य आर्कोदो ब्राह्मणः । पृथः पर्वत आभिजनो निवासोऽस्य पार्थवः ।२१९।
. न्या० स० गिरे०-अन्धश्मीय इति अन्धा अश्मानो यत्र पर्वते सोऽन्धश्मा, पृषोदरादित्वात अलोपः, अन्धश्मा आभिजनो निवासोऽस्य ।
इत्याचार्य• षष्ठस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ।
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वत्तो षष्ठस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ॥ ६. ३. ।।
___ जयस्तम्भान् सोमन्यनुजलधिवेलं निहितवान् वितानब्रह्माण्डं शुचिगुणगरिष्ठः पिहितवान् ॥ यशस्तेजोरूपरलिपत जगन्त्यर्धघुसणः कृतौ यात्रानन्दो विरमति न कि सिद्धनृपतिः ॥१॥॥
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॥ चतुर्थः पादः ।।
इकण ।। ६. ४. १॥
अणः पूर्णोऽवधिः, अधिकारोऽयम आ पादपरिसमाप्तः, यदितं ऊर्ध्वभनुक्रमिष्यामस्तत्रापवादविषयं परिहृत्येकर्णित्यधिकृत वेदितव्यम् ।१॥
तेन जितजयद्दीव्यवनस्सु ।। ६.१.२॥ . __ ते ति तृतीयान्ताज्जिते जयति दीव्यति खनति चार्थे इकण प्रत्ययो भवति । अजितमाक्षिकम, शालाकिकम्, अर्जयति आक्षिकः, शालाकिंकः, अक्षेर्दीव्यति आक्षिकः, शालाकिकः । अव्या खनति आभ्रिंकः, कौद्दालिकः, अभ्री काष्ठमयों तीक्ष्णाग्रा, इह तेनेति करणे तृतीया वेदितव्या नान्यत्रानभिधानात, तेन देवदत्तेन जितम् धनेन जितमित्यत्र न भवति । अभ्रव्या खनन्नछुल्याः खनतीत्यत्र तु सत्यप्यङ्गुलेः करणत्वे मुख्यकरणभावोऽभ्रव्या एव नागुले रित्यङ्गुलिशब्दान्न भवति । यथा सुग्घ्नादागच्छन्वृक्षमूलादागत इति । जयदादिषु त्रिषु कालो न क्किक्षितः जिते तु विवक्षितः बहुवचनं . पथगर्थताभिव्यक यर्थम् ।।
अहं । तेन-माक्षिक इति अक्षेर्जयन् दीव्यन् वा आक्षिकः, एवमन्येपि, जयतीत्यादि तु वृत्तावर्थकथनं विग्रहः शत्रन्तेनैव द्रव्यप्रधानेन कर्तव्यः। .
कोद्वालिक इति कुं दालयति कम्र्मण्यणि पृषोदरादित्वात् पूर्वपदस्य दागमः, तेन खनन् । . न विवक्षित इति कर्ता तु विवक्षितोऽत एव जयग्रहणे सत्यपि कर्मण्यपि इकण् प्रत्यार्थ जितग्रहणं, अयमर्थः जयतीत्युक्ते जयति, जेष्यति अजैषीदिति लभ्यते किं जितग्रहणेन ? उच्यते, भूते कर्मण्यपि वाच्ये यथा स्यादित्येवर्थ, विवक्षित इति अतीतः कालः । संस्कृते ॥ ६. ४. ३ ॥
तेनेति तृतीयान्तात्संस्कृतेऽर्थे इकण प्रत्ययो भवति । सत उत्कर्षाधान संस्कारः, दध्ना संस्कृतं दाधिकम् । मारिचिकम्, शाहूवेरिकम्, उपाध्यायेन संस्कृत: औपाध्यायिकः शिष्यः, विद्यया संस्कृतो वैधिकः, योगविभाग उत्तरार्थः ।। कुलत्थकोपान्त्यादण ॥६. ४.४ ।। ___ कुलत्थशब्दात्ककारोपान्त्याच्च शब्दरूपात्तेन संस्कृतेऽर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, इकणोपवादः । कुलत्थैः संस्कृतं कौलत्थम्, अन्ये तु कुलत्थशब्दात्सकाराकान्त.
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५ पाद. ४. सू. ५-८] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासमे पोध्यायः [१५९ थकारात्प्रत्यवं मन्यन्ते । कोलस्थः, कोपान्त्य, तित्तिडीकेन तित्तिडीकाभिर्वा संस्कृतं तैत्तिडीकम्, दर्दु रूके.ण दादुरूकम्, मरण्डूकेने मारण्डूकम्, अन्ये तु कवर्गोपान्त्यादपीच्छन्ति । मौहम्, सारघम् ।।
न्या० स० कुल-सारघमिति सरघ.मिः वृत्तं 'नाम्नि मक्षिषादिभ्यः' ६-३-१९३ इत्यण , सारण मधुना संस्कृतः । संसृष्टे ॥ ६. ४.५।।
तेनेति तृतीयान्तात्संसृष्टेऽर्थे इकण प्रत्यत्रो भवति । मिश्रणमात्रं संसर्ग इति पूर्वोक्तासंस्कृताद्भेदः, दधना संसृष्टं दाधिकम्, सागरिकम्, पैप्पलिकम्, वैषिका भिक्षाः, आशुचिकन्वम् ।५। . ___ न्या० स० संमृ०-दाधिकमिति अत्र संसृष्टं शाकादि भक्ष्यं विवक्षितं, अन्यथा 'व्यानेभ्य उपसिक्ते' ६-४-८ इति नियमः स्यार। - आशुचिकमिति नात्रान् भोज्यार्थ पश्चाद्भावनापामभक्ष्यत्वादतोऽनियमः । लवणादः ॥ ६. ४.६॥
लवणशब्दात्तेन संसृष्टे अकारः प्रत्ययो भवति । लवर्णन संसृष्टी लवणः सूपः, लवणः शाकः, लवणा यवागूः, लवणशब्दा द्रव्यशब्दा गुणशब्दश्च । तत्र द्रव्यवाची लवणशब्दः प्रत्ययं प्रयोजयति न मुणवाची, गुणेन विश्लेषपूर्वकस्य संसर्गस्याभावात् ।६।
चूर्णमुद्गाभ्यामिनणौ ।। ६. ४.७॥ ___बाम्या तेन संसृष्टे यथासंख्यमिन् अण् इत्येतो प्रत्ययौ भवतः। चूर्णैः संसृष्टाम्भूणिनोऽपूपाः, चूणिन्यो धानाः । मुरैः संसृष्टो मौद्ध ओदनः, मोही · यवागूः ।७।
न्या० स० चूर्ण -मत्वर्षीयेनैव इना. सिद्धे संसविकक्षायामिकवानवार्थम । व्यञ्जनेभ्य उपसिक्ते ॥ ६. ४.८॥
व्यञ्जनवाचिनस्तृतीयान्तादुपसिक्तार्थे इकण् प्रत्ययो भवति । सूपेन उपसिक्तः सौपिक ओदनः, दाधिक ओदनः, घातिकः सूपः, तैलिक शाकम् । व्यजनेभ्य इति किम् ? उदकेन उपसिक्त ओदनः । व्यजनशब्दो रूहया सूपादौ वर्तते । उपसिक्त इति किम् ? सूपेन संसृष्टा स्थाली । उपसिक्तमिति यद्भोजनार्थमुपादीयते भोज्यादि तदुच्यते न स्वाल्वादि। उपसिक्त संसृष्टमेव तत्र 'संसृष्टे (६ । ४ । ५) इत्येव सिंछे नियमार्थ वचनम् व्यञ्जनैः संसृष्ट उपसिक्त एव उपसिक्ते च व्यञ्जनरेव, बहुवचनं स्वरूपविनिरासार्थम् ।।
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१६०] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० ३. सू० ९-१५ ]
न्या० स० व्यज.-उपसिक्त एवेति सूपेन संसृष्टा स्थालीत्यनुपसिक्ते संसृष्टे प्रत्ययो न भवतीति प्रत्ययार्थव्यवस्था।
न्यजनैरेवेति उदकेनोपसिक्त ओदन इत्युदकादव्यञ्जनान्न भवतीति प्रकृतिव्यवस्था । तरति ॥ ६. ४. ९॥
तेनेति तृतीयान्तात्तरत्यर्थे इकण प्रत्ययो भवति । उडुवेन तरति औडुविकः काण्डप्लविकः, शारप्लविकः, गोपुच्छिकः ।। नौदिस्वरादिकः ॥ ६. ४.१०॥
नौशब्दाद्विस्वराच्च नाम्नस्तृतीयान्तात्तरत्यर्थे इकः प्रत्ययो भवति । नावा तरति नाविकः, नाविका, द्विस्वर, घटिकः, प्लविकः, दृतिकः, बाहुकः, बाहुका ।१०। चरति ॥ ६. ४. ११ ॥
तेनेति तृतीयान्ताच्चरत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । चरतिरिह गत्यर्थो भक्ष्यार्थश्चगृह्यते । गत्यर्थ, हस्तिना चरति हास्तिकः, शाकटिकः, घाण्टिकः, आकषिकः । आकषः सुवर्णनिकषोपलः औषधपेषणपाषाणश्च । भक्ष्यर्थ,-दधना चरति दाधिकः, शाङ्ग वेरिकः ॥११॥ पादेरिकट् ॥ ६. ४. १२ ॥
पर्प इत्येवमादिभ्यस्तृतीयान्तेभ्यश्चरस्यर्थे इकट् प्रत्ययो भवति । पर्पण चरति पपिकः, पपिकी, अश्विकः, अश्विकी। पर्प, अश्व, अश्वत्थ, रथ, अर्घ्य व्याल, व्यास इति पर्पादिः ॥१२॥ पदिकः ॥६. ४.१३॥ .
पादशब्दात्तेन चरत्यर्थे इकट् प्रत्ययो भवति अस्य पद्भावश्च निपात्यते। पादाभ्यां चरति पदिकः ।१३॥ श्वगणादा ।। ६. ४. १४ ॥
श्वगणशब्दात्तेन चरत्यर्थे इकट् प्रत्ययो वा भवति । श्वगणेन चरति श्वगणिकः, श्वगणिकी, पक्षे इकण् श्वागणिकः, श्वागणिकी ‘श्वादेरिति' (७-४-१०) इति वात्प्रागौर्न भवति ॥१४॥ वेतनादेर्जीवति ॥ ६. ४. १५॥
तेनेति वर्तते, वेतन इत्येवमादिभ्यस्तृतीयान्तेभ्यो जीवत्यर्थे इकम् प्रत्ययो
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[ पाद. ४. सू. १६-२१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [१६१ भवति । वेतनेन जीवति वैतनिकः, वाहिकः । वेतन, वाह, अर्धवाह, धनुस .दण्ड, धनुर्दण्ड, जाल, वेश, उपवेश, प्रेषण, भृति, उपवेष, उपस्था, उपास्ति, उपस्थान, सुख, शय्या, सुखशय्या, शक्ति, उपनिषत्, उपरिजन, स्फिज, स्फिग, वाल, पुतचाल, उपदेश, पाद, उपहस्त, इति वेतनादिः ।१५। व्यस्ताच्च क्रयविक्रयादिकः ॥ ६. ३. १६ ॥
क्रयविक्रयशब्दात्समस्ताव्यस्ताच्च तेन जीवत्यर्थे इकःप्रत्ययो भवति । क्रय विक्रयेण जीवति क्रयविक्रयिकः, ऋयिकः, विक्रयिकः ।१६। वस्नात् ॥ ६. ४. १७॥ .
वस्नात्तेन जीवत्यर्थे इकः प्रत्ययो भवति । वस्नं मूल्यं तेन जीवति वस्निकः ।१७।
आयुधादीयश्च ॥ ६. ४. १८॥ आयुधशब्दात्तेन जीवत्यर्थे ईयश्चकारादिकश्च प्रत्ययौ भवतः। आयुधीयः, आयुधिकः आयुधिका, आयुधादिकेकणोः स्त्रियां विशेषः ॥१८॥
'न्या० स० आयुधादीयश्च-स्त्रियां विशेष इति नन्वायुधादीयो वेति क्रियतां पक्षे इकणापि सेत्स्यतीत्याशङ्का। वातादीनञ् ॥ ६. ४. १९॥
वातशब्दात्तेन जीवत्यर्थे ईनञ् प्रत्ययो भवति । नानाजातीया अनियतवृत्तयः शरीरायासजीविनः संघा वाताः। तत्साहचर्यात्तत्कर्मापि बातम् । तेन जीवति व्रातीनः, अकारो वृद्धयर्थः । तेन ‘तद्धितः स्वरवृद्धि-' (३-२-५५) इत्यादिना पुवदावो न भवति, व्रातीनाभार्यः ।१९। .. निवृत्तक्षयूतादेः ॥ ६. ४. २०॥
अक्षयत इत्येवमादिभ्यस्तृतीयान्तेभ्यो निर्वृत्तेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । अक्षछूतेन निर्वृत्तमाक्षातिकं वैरम्, जावाप्रहतिकं वैरम् । अक्षयूत, जङ्घाप्रहत, जङ्घाप्रहृत, जङ्घाप्रहार, पादस्वेद, पादस्वेदन, कण्टकमर्द, कण्टकमर्दन, शर्करामर्दन, गत, आगत, गतागत, यात, उपयात, यातोपयात, गतानुगत, अनुगत इत्यक्षद्यूतादिः ।२०। भावादिमः ॥ ६. ४. २१ ॥
भाववाचिनस्तेन निवृत्तेऽर्थे इमः प्रत्ययो भवति । पाकेन निवृत्तं पाकियम्, सेकिमम्, त्यागिमम्, रोगिमम्, कुट्टिमम्, संमूछिमम् ॥२१॥
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१६२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० २२-२६ ] याचितापमित्यात्कण ॥ ६. ४. २२ ॥
याचित अपमित्य इत्येताभ्यां तेन निवृत्ते कण् प्रत्ययो भवति । याचितेन' याच्या निवृत्तं याचितकम्, अपमित्येति यबन्तम् । अपमित्य प्रतिदानेन निर्वृत्तमापमित्यकम् ।२२।
न्या० स० याचि-अपमित्येति अपमानं 'निमील्यादिमेडः । ५-४-४६ क्त्वा 'मेडो वा मित् ' ४-३-८८।
हरत्युत्सङ्गादेः ॥६. ४. २३ ॥ ___ उत्सङ्गादिभ्यस्तृतीयान्तेभ्यो हरत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । उत्सङ्गेन हरत्यौत्सङ्गिकः, उत्रुपेन औत्रुपिकः, उडुपेन औडुपिकः । उत्सङ्ग, उत्रुप, उडुप, उत्पुन, उत्पुट, पिटक, पिटाक इत्युत्सङ्गादिः ।२३।
भस्त्रादेरिकट ।। ६. ४. २४ ॥
भनादिभ्यस्तृतीयान्तेभ्यो हरत्यर्थे इकट् प्रत्ययो भवति । भखया हरति भस्त्रिकः, भस्त्रिकी, भरटिकः, भरटिकी। भस्त्रा, भरट, भरण, शीर्षभार, शीर्षेभार, अङ्गभार, अङ्गभार, अंसभार, अंसे भार इति भस्त्रादिः ।२४। विवधवीवधादा ॥ ६. ४. २५ ॥
विवधवीवध इत्येताभ्यां तेन हरत्यर्थे इकट् प्रत्ययो वा भवति । विवधेन हरति विवधिकः, विवधिकी, वीवधिकः, वीवधिकी, पक्षे इकण वैवधिकः वैवधिकी, विवधवीवधशब्दो समानाौं पथि पर्याहारे च वर्तेते ॥२५॥ ___न्या० स० विविध०-पक्षे इकणिति अत्र वाग्रहणसामर्थ्यात् अन्येनाप्राप्तोऽपि पक्षे इकण् अन्यथा वाग्रहणमनर्थकं स्यात् । कुटिलिकाया अण् ॥ ६. ४. २६ ॥
कुटिलिकाशब्दात्तृतीयान्ताद्धरत्यर्थेऽण् प्रत्ययो भवति । कुटिलिकाशब्देनाग्रेवका लोहादिमयी अङ्गाराकर्षणी यष्टिर्वा कुटिला गतिर्वा पलालोत्क्षे. पणोऽग्रेवको दण्डो वा परिव्राजकोपकरणविशेषो वा चौराणां नौगृहाद्यारोहणार्थ दामाग्रप्रतिबद्ध आयसोऽर्द्धकुशो वोच्यते । कुटिलिकया हरत्यङ्गारान् कौटिलिकः कारः, कुटिलिकया हरति व्याधं कौटिलिको मगः, कुटिलिकया हरति पलालं कौटिलिकः कर्षकः, कुटिलिकया हरति पुष्पाणि कौटिलिकः परिव्राजकः, कुटिलिकया हरति नावं कौटिलिकश्चौरः ।२६।
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[पाद. ४. सू. २७-३१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [१६३
ओजःसहोम्भसो वर्तते ॥ ६. ४. २७ ॥ ___ ओजस्, सहस्, अम्भस् इत्येतेभ्यस्तृतीयान्तेभ्यो वर्तते इत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, वृत्तिरात्मयापना चेष्टा वा । ओजसा बलेन वर्तते औजसिकः, सहसा प्रसहनेन पराभिभवेन वा साहसिकः, अम्भसा जलेन आम्भसिकः ।२७। तं प्रत्यनोर्लोमेपकूलात् ॥ ६. ४. २८॥
तेनेति निवृत्तम् । तमिति द्वितीयान्तात्प्रति अनु इत्येताभ्यां परो यो लोमशब्द ईषशब्दः कूलशब्दश्च तदन्ताद्वर्तते इत्यर्थे इकण प्रत्ययो भवति । प्रतिलोभं वर्तते प्रातिलोमिकः, आनलोमिकः, प्रातीपिकः, आन्वीपिकः, प्रातिकलिकः, आनुकूलिकः अकर्मकस्यापि वृत्तेोगे प्रतिलोमादेः क्रियाविशेषणत्वात् द्वितीया, तमिति पुलिङ्गनिर्देशोऽसंदेहार्थः ।२८। ___ न्या० स० तं प्रत्यनो०-असंदेहार्थ इति तदिति कृते हि प्रथमान्तस्यैतद्रूपं द्वितीयान्तस्य वेति संदेहः, यतः स्यमोरपि नपुंसके साधारणं तदिति रूपम् ।।
परेमखपार्थात् ॥ ६. ४. २९ ॥ . परिशब्दाद्यो मुखशब्दः पाच शब्दश्च तदन्तात् द्वितीयान्तात् वर्तते इत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । परिमुखं वर्तते पारिमुखिकः, परिपाच वर्तते पारिपाश्विकः, परिवर्जने सर्वतोभावे वा । स्वामिनो मुखं वर्जयित्वा वर्तमानोऽथवा यतोयतः स्वामिमुखं ततस्ततो वर्तमानः पारिमुखिक: सेवकः, एवं पारिपाश्विकः ।२९।
न्या० स० परे०-परिमुखमिति मुखात् परि 'पर्यपाङ्' ३-१-३२ इत्यव्ययीभावः, परितः सर्वतो मुखं परिमुखं तदा 'परिमुखादेरव्ययीभावात् ' ६-३-१३६ वचनादव्ययीभावः। रक्षदञ्छतोः ॥ ६. ४. ३० ॥
तमिति द्वितीयान्ताद्रक्षति उञ्छति चार्थे इकण् प्रत्ययो भवति । समाज रक्षति सामाजिकः, सामवायिकः, नागरिकः, सांनिवेशिकः, बदराण्युञ्छति उच्चिनोति बादरिकः, श्यामाकिकः, नैवारिकः ।३०। पक्षिमत्स्यमृगार्थाद् नति ॥ ६. ४. ३१ ॥
तमिति द्वितीयान्तेभ्यः पक्ष्यर्थेभ्यो मत्स्यार्थेभ्यो मृगार्थेभ्यश्च घनत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । पक्षिणो हन्ति पाक्षिकः, मात्सिकः, मार्गिकः, अर्थग्रहणात्तत्पर्यायेभ्यो विशेषेभ्यश्च भवति । शाकुनिकः, मायूरिकः, तैत्तिरिकः, मैनिकः, शारिकः, शाकुलिकः, हारिणिकः, सौकरिकः, नैयङ्कुकः। अथाजिह्मान्
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१६४ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू. ३२-३५ ] हन्ति अनिमिषान् हन्तीत्यत्र कस्मान्न भवति । नैतन्मत्स्येत्यस्य स्वरूपं न विशेषो न पर्यायः अपि त्वसाधारणं विशेषणं यथा जिह्मगा भुजगाः अनिमिषा देवा इति ।३१ ___ न्या० स० पक्षि०-न पर्याय इति यः किल पर्यायशब्दः स व्युत्पत्तिमन्तरेणापि तावन्तमर्थ गमयत्ययं तु व्युत्पत्त्यपेक्ष एव गमयति ।
विशेषणमिति यत्रापि अजिह्मादिशब्देभ्यो मत्यादिप्रतीतिस्तत्राप्यसाधारणविशेषणत्वेनैव न पर्यायत्वेन। परिपन्थात्तिष्ठति च ॥ ६. ४. ३२ ॥
परिपन्थशब्दाद्वितीयान्तात्तिष्ठिति घ्नति चार्थे इकण् प्रत्ययो भवति । परिपन्थं तिष्ठति हन्ति वा पारिपन्थिकश्चौरः, अतः एव निर्देशात् परिपथशब्दस्येकणोऽन्यत्रापि वा परिपन्थादेशः, तेन परिपन्थं गच्छति परिपन्थं पश्यति इत्याद्यपि भवति ।३२।
__ न्या० स० परिपन्थमिति पथः परिशब्दो वजनार्थः तदा 'पर्यपाम्यां वये । इति पञ्चमी, 'पर्यपाबहिः' ३-१-३२ इति समासः, यदा तु परितः पन्थानमिति सर्वतोऽर्थः परिः तदा 'सर्वोभयाभिपरिणातसा' २-३-३५ (इति) द्वितीया, सूत्रसामर्थ्यादव्ययीभावः 'ऋपः पथ्यपोऽत् ' ७-३-७३। परिपथात् ॥ ६. ४. ३३॥
तिष्ठतीति वर्तते, परिपथशब्दाद्वितीयान्तात्तिष्ठत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । परिवर्जने सर्वतोभावे वा । पथः परि सर्वतः पन्थानं वा परिपथम् । परिपथं तिष्ठति पारिपथिकः, पन्थानं वर्जयित्वा व्याप्य वा तिष्ठतीत्यर्थः ।३३। अवृद्धग्रहति गर्ये ॥ ६. ४: ३४ ॥
तमिति द्वितीयान्तादिशब्दवजितागुह्मत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति योऽसौ गृह्णाति स चेदन्यायेन ग्रहणाद्भर्यो निन्द्यो भवति । द्विगुणं गृह्णाति द्वैगुणिकः, त्रैगुणिकः, वृधुषीं वृद्धि गृह्णाति वार्षु षिकः, अल्पं दत्त्वा प्रभूतं गृह्णन्नपन्यायकारी निन्धते । अवृद्धेरिति किम् ? वृद्धि गृह्णातीति वाक्यमेव । गर्थे इति किम् ? दत्तं गृह्णाति ॥३४। - न्या० स० अ०-धुषीमिति प्रयुक्तं धनं पुष्णातीति प्रयुक्तधनपोषी तस्य पृषोदरादित्वात् वृधुषीशब्द आदेशः। कुसीदादिकद ॥ ६. ४. ३५॥
तमिति द्वितीयान्तात्कुसीदशब्दाहें गृह्णत्यर्थे इकट् प्रत्ययो भवति ।
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('पाद. ४. सू. ३६-३९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [१६५ कुसीदं वृद्धिस्तदथं द्रव्यमपि कुसीदम् । तदाति . कुसीदिकः, कुसीदिकी, टकारो ड्यर्थः ।३५॥ दशैकादशादिकश्च ॥ ६. ४. ३६ ॥
तमिति द्वितीयान्ताद्दशैकादशब्दद्रं गृह्णत्यर्थे इकलकारादिकट च प्रत्ययो भवति । दशभिरेकादश दशैकादशाः। तान्गृह्णाति दशैकादशिकः, दशैकादशिका, दशैकादशिकी दर्शकादशादित्यत एव निपातनादकारान्तत्वम् । तच्च वाक्ये प्रयोगार्थम् । दशैकादशान् गृह्णाति । अन्ये दशैकादश गृहातीति 'विगहन्ति । त्तदपि अबाधकान्यपि निपातनानि भवन्तीति न्यायादुपपद्यते ।३६।
अर्थपदपदोत्तरपदललामप्रतिकण्ठात् ॥ ६. ४. ३७ ।।
• गर्ये इति निवृत्तम्, अर्थात्पदास्पदशब्द उत्तरपदं यस्य तस्मात् ललामात प्रतिकण्ठाच्च द्वितीयान्तादहत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । अर्थं गृह्णाति आर्थिकः, 'पदं पादिकः, पदोत्तरपद, पूर्वपदं पौर्वपदिकः, औत्तरपदिकः, आदिपदिकः, आन्तपदिकः, ललाम लालामिकः, प्रतिकण्ठं प्रातिकण्ठिकः, अव्ययीभावसमासाश्रयणादिह न भवति । प्रतिगतः कण्ठं प्रतिकण्ठः तं गृह्णाति । उत्तरपदग्रहणाद्वहुप्रत्ययपूर्वान्न भवति, बहुपदं गृहाति ।३७।
न्या० स० अर्थ-ललिणो नित्यण्यन्तात् कर्मणिके ललस्तममति प्राप्नोति ललामः प्रतिकण्ठ मिति कण्ठे प्रति प्रतिकण्ठं लक्षणेनाभिप्रति' ३-१-३२ इत्यवव्ययीभावः, कण्ठंकण्ठं प्रति 'योग्यतावीप्स्या' ३-१-४० इति वा समासः।
प्रत्तिगत: कण्ठमिति ‘प्रात्य' ३-१-४७ इति समासस्तत्पुरुषः । परदारादिभ्यो गच्छति ॥ ६. ४. ३८ ॥
परदारादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो गच्छत्यर्थ इकण् प्रत्ययो भवति । परदारान गच्छति पारदारिकः, गौरदारिकः, गौरवरिपकः, सभर्तृकां गच्छति साभर्तृकिकः, भ्रातृजायिकः, परदारादयः प्रयोगगम्याः ।३८॥
__ न्या० स० पर०-भ्रातृजायिक इति भ्रातुः सकाशात् भातरि वा जायेति कृत्य, षष्ठीसमासे तु 'ऋतां पिया' ३-२-२७ इत्यलुप् स्यात् । प्रतिपथादिकश्च ।। ६. ४. ३९॥
प्रतिपथशब्दाद्वितीयान्तादच्छत्यर्थे इकः प्रत्ययो भवति । चकाराद्यथाप्राप्त इकण् । पन्थानं २ प्रति पयोऽभिमुखमिति वा प्रतिपथम् । तद्गच्छति प्रतिपथिकः प्रातिपथिको बा १३९॥
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बृहद्वृत्ति - लघुन्याम संवलिते
माथोत्तरपदपदव्याक्रन्दाद्धावति ॥ ६. ४. ४० ॥
तमिति वर्तते । माथ उत्तरपदं यस्य तस्मान्नाम्नः पदवीशब्दादाक्रन्दशब्दाच्च द्वितीयान्ताद्धावत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । दण्डमाथं धावति दाण्डमाथिकः, शौक्लमाथिकः । माथशब्दः, पथिपर्याय: । दण्ड इव माथो दण्डमाथः ऋजुमार्ग उच्यते । पदवीं धावति पादविकः, आक्रन्दन्ति यत्र स देश आन्द आक्रन्द्यते इति वा आक्रन्दः आर्तायनं शरणमुच्यते । आक्रन्दं धावति आक्रन्दिकः, उत्तरपदग्रहणाद्बहुप्रत्ययपूर्वान्न भवति । बहुमाथं धावति ॥ ४० ॥
१६६ ]
[ पा० ४. सू० ४०-४४ ]
न्या० स० माथोत्तरपद० - दण्डमाथ इति मध्यते अवगाह्यते पादैः घनि माथः, दण्ड इय माथः, उपमानं सामान्यैरेवेति नियमादप्राप्तोऽपि " मयूरव्यंसक ३-१-११६ इति सः । पश्चात्यनुपदात् ।। ६. ४. ४१ ॥
पश्वातीति प्रकृतिविशेषणम् । पश्चादर्थः पश्चात् । पश्चादर्थे वर्तमानादनुपदशब्दाद्द्द्वितीयान्ताद्धावत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति पदस्य पश्चादनुपदम्, अनुपदं धावति आनुपदिकः, प्रत्यासत्त्या धावतीत्यर्थः । पश्रातीति किम् ? अनुपदं धावति । अत्र दैर्येऽनुः ' ( ३-१-३४) समीपे ( ३-१-४७ ) इत्यादिना वा समासः । ४१ ।
' प्रात्यव -
सुस्नातादिभ्यः पृच्छति ॥ ६. ४. ४२ ॥
तमिति वर्तते । सुनातादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यः पृच्छत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । सुस्नातं पृच्छति सौस्नातिकः, सौखरात्रिकः, सौखशायनिकः, सौखशाय्यिक:, सुस्नातादयः प्रयोगगम्याः ॥४२॥
प्रभूतादिभ्यो ब्रुवति ॥ ६. ४. ४३ ॥
प्रभूतादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो ब्रुवत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । प्रभूतं ब्रूते प्राभूतिकः, पर्याप्तं ब्रूते पार्याप्तिकः, वैपुलिकः, वैचित्रिकः, नैपुणिकः, क्रियाविशेषणादयमिष्यते, तेनेह न भवति । प्रभूतमर्थं ब्रूते पर्याप्तमर्थं ब्रूत इति । कचिदक्रियाविशेषणादपि । स्वर्गमनं ब्रूते सौवर्गमनिकः, स्वागतिकः, सौवस्तिकः, प्रभूतादयः प्रयोगगम्याः ॥४३॥
न्या० स० प्रभू० – सौवस्तिक इति स्वतीति ब्रूते व्युत्पत्ति ४-५ इति अव्युत्पत्तिपक्षे तु — द्वारादेः ' ७-४-६ इत्यौत् । Movies माशब्दइत्यादिभ्यः ॥ ६ २,४४ ॥
" मा शब्द इत्यादिभ्यो ब्रुत्रत्यर्थं इकणू प्रत्ययो भवति । इति शब्दो
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[ पाद ३. सू. ४५-४७ ] श्रीसिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने षष्ठाध्यायः
[ १६७
वाक्यपरामशार्थः । माशब्द इति ब्रूते माशब्दिकः । मा शब्दः क्रियतामितिब्रूत इत्यर्थः । कार्यःशब्द इति ब्रूते कार्यशब्दिकः, नित्यः शब्द इति ब्रूते नैत्यशब्दिकः, माशब्द इत्यादयः प्रयोगगम्याः । वाक्यात्प्रत्ययविधानार्थं
वचनम |४४ ।
न्या० स० माश०~~ वाक्यादिति पूर्वेण हि पदात्प्रत्यय इत्यर्थः । शाब्दिकदार्दरिकलालाटिककौकुटिकम् ॥ ६. ४. ४५ ।।
शाब्दिकादयः शब्दा ययास्वं प्रसिद्धेऽर्थविशेषे इकण्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शब्दं करोति शाब्दिकः, यः कश्चिच्छब्दं करोति न स सर्वः शान्तिः किं तहि यः शब्दं जानाति वैयाकरणः स एवाविनष्टं शब्दमुच्चारयन् शब्दिक उच्यते । एवं दार्दरिकः, दर्दरो घटो वादित्रं च तत्र वादित्रं कुर्वन्नेव मुच्यते । ललाटं पश्यति लालाटिकः, ललाटदर्शनेन दूरावस्थानं लक्ष्यते तेन च कार्येष्वनुपस्थानम् । यः सेवको दृष्टं स्वामिनो ललाटमिति दूरतो याति न स्वामिकार्यपूपतिष्ठते स एवमुच्यते । ललाटमेव वा कोपमसादलक्षणाय यः पश्यति स लालाटिकः, कुक्कुटीं पश्यति कौक्कुटिकः, कुक्कुटीशब्देन कुक्कुटीपातो लक्ष्यते, तेन च देशस्याल्पता, यो हि भिक्षुरविक्षिप्तदृष्टिः पादविक्षेपे देशे चक्षुः संयम्य पुरो युगमात्रदेशप्रेक्षी गच्छति स एवमुच्यते । यो वा तथाविधमात्मानमतथाविधोऽपि संदर्शयति सोऽपि कौक्कुटिकः । दाम्भिकचेष्टा वा मिथ्याशौचादिः कुक्कुटी, तामाचरन् कौक्कुटिकः, हृदयावयवो वा कुक्कुटी तां पश्यति Satara टिको भिक्षुः । निभृत इत्यर्थः । तदेतत्सर्वं निपातनाल्लभ्यते । ४५ । समूहार्थात्समवेते ।। ६. ३.४६
समूहवाचिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यः समवेते तादात्म्यात्तदेकदेशीभूतेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । समूहं समवैति सामूहिकः, सामाजिक, सांसदिकः, सामवायिकः, गौष्ठिकः । तदेकदेशीभावमनुभवन्नेवमुच्यते । समवेत्यापगते तु समवेतशब्दो न वर्तते यथा सुप्तोत्थिते सुप्तशब्द इति तत्र न भवति |४६ | न्या० स० समू० – कैश्चिदन प्रत्ययलोपः कृतः समः स्वमते कथमित्याई समकेथेति ।
पर्षदो ण्यः ।। ६. ४. ४७ ।।
पर्षच्छब्दाद्वितीयान्तात्समवेतेऽर्थेण्यः प्रत्ययो भवति, मर्षद प्रति पार्षद्यः, परिषच्छब्दादपीच्छन्त्यन्ये, पारिषयः stat
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१६८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० ४८-५३, सेनाया वा ॥ ६. ४.४८॥
सेनाशब्दाद्वितीयान्तात्समवेतेऽर्थे ण्यः प्रत्ययो वा भवति । सेनां समवैति सैन्यः, पक्षे समूहात्सिमवेते इतीकण् । सैनिकः, सेनैव सैन्यमिति तु भेषजादित्वात्स्वार्थे टयण् ।४८॥
धर्माधर्माच्चरति ॥ ६. ४. ४९ ॥ ___ धर्म अधर्म इत्येताभ्यां द्वितीयान्ताभ्यां चरत्यर्थे इकण प्रत्ययो भवति । चरतिस्तात्पर्येणानुष्ठाने । धर्म चरति धार्मिकः, आधर्मिकः ।४९। षष्ठया धयें ॥६. ४. ५०॥
षष्ठयन्ताद्धर्थेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । धर्मो न्यायोऽनुवृत्त आचारस्तस्मादनपेतं धर्म्यम् । शुल्कशालाया धर्म्यम् शोल्कशालिकम्, आपणिकम्, गौल्मिकम्, आतरिकम् ।५०। ऋन्नरादेरण ।। ६. ४. ५१ ।।
ऋकारान्तेभ्यो नरादिभ्यश्च षष्ठयन्तेभ्यो धर्थेऽर्थेऽण् प्रत्ययो भवति । नुर्धर्म्य नारम्, स्त्रियां नारी, मातुर्मात्रम्, पितुः पैत्रम्, शास्तुः शास्त्रम्, विकतुः वैकत्रम्, होतुहौं त्रम्, पोतुः पौत्रम्, उदातुः औद्भात्रम्, नरादि । नरस्य धर्म्यम् नारम्, स्त्रियां नारी, नृशब्देनैव रूपद्वये सिद्धे नरशब्दादिकण माभूदिति तद्ग्रहणम् । महिष्या माहिषम् नर महिषी, प्रजावती, प्रजापति विलेपिका, प्रलेपिका, अनुलेपिका, वर्णक, पेषिका, वर्णकपेषिका, मणिपाली, पुरोहित, अनुचारक, अनुवाक, यजमान, होतृयजमान इति नरादिः ।५१॥ विभाजयितृविशसितुर्णीइलुक् च ॥ ६. ४. ५२॥
आभ्यां षष्ठयन्ताभ्यां धर्थेऽर्थेऽण् प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे च विभाजयितुणिलुक् विशसितुश्चेट्लुक् भवति । विभाजयितुर्धयं वैभाजित्रम्, विशसितुर्वैशस्त्रम्, ।५२।।
न्या० स० विभा०-विपूर्णं भजणू , ततो णिच् तृच् विभाजयित् । णिलुकिंति नन्वत्र इदलोप एक विधीयतां किं णिलोपेन विभाजयित इत्यत्रापि इट्लोपे णिचा सस्वरत्वे वैभाजित्रमिति सिध्यति ? नैवं, णिलोपाभावे गुणः स्यात् , ततोऽनिष्टं रूपं स्यात् , णिलोपे तु इटो धातुत्वाभावात् गुणो न भवतीति सिध्यति ।
अवक्रये ॥ ६. ४. ५३ ॥ अवक्रीयते येनेच्छानियमितेन द्रव्येण कियन्तमपि कालमापणादि सोऽवक्रयः ।
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[ पाद४. सू. ५४-५७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १६९ भोमनिर्वेशो भाटकमिति यावत् । षष्ठयन्तानाम्नोऽवक्रयेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । आपणस्यावक्रयः आपणिकः, शौल्कशालिकः, आतरिकः, गौल्मिकः, लोकपीडया धर्मातिक्रमेणापि अवक्रयो भवतीत्ययं धाद्भिद्यते ।५३। ___ न्या स० अवक्रये-भोगनिवेश इति भूज्यते इति भोगो गृहादि, निर्विश्यते अनेन व्यञ्जनाद् घबि निवेशः, ततः षष्ठीसमासः । धर्माद्भिद्यते इति ततः 'षष्ठ्या धर्ये' ६-४-५० इत्यनेन न सिध्यतीति पृथग् योग इत्यर्थः । तदस्य पण्यम् ॥ ६. ४. ५४ ॥
तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, तच्चेत् प्रथमान्तं पण्यं विक्रेयं भवति । अपूपाः पण्यमस्य आपूपिकः, पण्यार्थी वृत्तावन्तर्भूत इति पण्यशब्दस्याप्रयोगः । एवं शाष्कुलिकः, मौदकिकः, लावणिकः ॥५४॥ किशरादेरिकट् ॥ ६. ४. ५५॥
किशर इत्येवमादिभ्यस्तदस्य पण्यमित्यस्मिन् विषये इकटप्रत्ययो भवति, किशरादयो गन्धद्रव्यविशेषवचनाः। किशरं किशरो वा पण्यमस्य किशरिकः, किशरिकी स्त्री, तगरिकः, तगरिकी स्त्री। किशर, तगर, स्थगर, उशीर, हरिद्रा, हरिद्रु, हरिद्रुपी, गुग्गुलु, गुग्गुल, नलदा। इति किशरादिः ।। टकारो ड्यर्थः ।५५। शलालुनो वा ॥ ६. ४. ५६ ॥
शलालुशब्दागन्धविशेषवाचिनस्तदस्य पण्यमित्यस्मिन् विषये इकट प्रत्ययो भवति वा। शलालु पण्यमस्य शलालुकः, शलालुकी, पक्षे इकण् । शालालुकी ५६। शिल्पम् ।। ६. ४. ५७ ॥ ___ तदस्येति वर्तते, तदिति प्रथमान्तादस्येत्यर्थे. इकण् प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेच्छिल्पं भवति । शिल्पं कौशलम् विज्ञानप्रकर्षः । अनेन तन्निवर्त्यः क्रियाविशेषो लक्ष्यते, नृत्तं शिल्पमस्य नातिकः । गीतं गैतिकः, वादनं वादनिकः, मृदङ्गो मृदङ्गवादनं शिल्पमस्य मार्दङ्गिकः, । एव पाणविकः, मौरजिकः, वैणिकः मृदङ्गादिशन्दा वादनार्थवृत्तयः प्रत्ययमुत्पादयन्ति न द्रव्यवृत्तयः। उत्पादनार्थवृत्तिभ्यस्त्वनभिधानान्न भवति । अत एव कुम्भकारादावभिधेये मृदङ्ग करणादिभ्य एव प्रत्ययः, मृदङ्गकरणं शिल्पमस्य
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१७० ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
[ पाद. ३. सू. ५८-६० ] माङ्गकरणिकः, वैणाकरणिकः, मृदङ्गवादनादिभ्योऽप्यनभिधानान्न भवति । शिल्पार्थो वृत्तावन्तर्भूत इति शिल्पशब्दस्याप्रयोगः ॥ ५७ ॥
न्या० स० शिल्प ० मृदङ्गादिशब्दा इति आदिशब्दात् व्याकरणकरणादि शिल्पमस्येति वैयाकरणिकादयः । न द्रव्यवृत्तय इति द्रव्यस्य शिल्पायोगात्तद्विषयायाः क्रियायाः शिल्पत्वमिति वादनार्थवृत्तय इत्युक्तम् ।
कुम्भकारादाविति केषुचिग्रामेषु मृन्मया मृदङ्गा भवन्ति तेषां कुम्भकारादुत्पत्तिः । करणादिभ्य एवेति न तु मृदङ्गशब्दादित्यर्थः ।
मड्डुकझर्झराद्वाण् ॥ ६. ४. ५८ ॥
मडुकझर्झर इत्येताभ्यां तदस्य शिल्पमित्येतस्मिन् विषये अण् प्रत्ययो वा भवति । मड्डुकवादनं शिल्पमस्य माड्डुकः, झार्झरः, पक्षे इकण् माड्डुकिकः । झार्झरिक: 1५८|
शीलम् ।। ६. ४. ५९ ।।
तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेच्छीलं भवति । शीलं प्राणिनां स्वभाव:, फलनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावत् । अपूपा अपूपभक्षणं शीलमस्य आपूपिकः, शाष्कुलिकः, मौदकिकः, ताम्बूलिकः । परुषवचनं शोलमस्य पारुषिकः एवमाक्रोशिकः । मृदङ्गादिवदपूपादयः शब्दाः क्रियावृत्तय प्रत्ययमुत्पादयन्ति । शीलार्थो वृत्तावन्तर्भूत इति शीलशब्दस्याप्रयोगः ॥५९॥ अस्थाच्छत्रादेरञ् ।। ६. ४. ६० ।।
अङ्प्रत्ययान्तात्तिष्ठष्ठेश्छन्न इत्यादिभ्यश्च तदस्य शीलमित्यस्मिन् विषयेऽञ् प्रत्ययो भवति । आस्था शीलमस्य आस्थः, सांस्थः, आवस्थः, सामास्थः, वैयवस्थः, नैष्ठः, वैष्ठः, ' उपसर्गादात:' ( ६-३ - ११० ) इत्यङ् । अन्तस्थः । भिदादित्वादङ् । छत्रादि, छत्रं शीलमस्य छात्रः, छत्रशब्देन गुरु कार्येष्ववहितस्य शिष्यस्य छत्रक्रियातुल्या गुरुच्छिद्राच्छादनाऽपायरक्षणादिका क्रियोच्यते उपचारात् । शिष्यो हि छत्रवद् गुरुच्छिद्रावरणादिप्रवृत्त छात्र इत्युच्यते । अभ्यासापेक्षाऽपि क्रिया शीलमित्युच्यते । यथा शीलिता विद्येति । चुराशीलः चौरः, तपःशीलः तापसः, कर्मशीलः कार्मः स्त्रियां छात्री चौरी तापसी । छत्र, चुरा, तपस्, कर्मन्, शिक्षा, चुक्षा, चिक्षा, भिक्षा, भक्षा, तितिक्षा, बुभुक्षा, विश्वधा, उदस्थान, उपस्थान, पुरोडा, कृषि, मन्द्र, सत्य, अनृत, विशिख, विशिखा, प्ररोह इति छत्रादिः | ६० |
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[पाद. ४. सू. ६१-६४] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [ १७१ ___ न्या० स० अस्था०-अचासौ स्थाश्च, छत्रं आदिर्यस्य अस्थाश्च छत्रादिश्च तस्मात् , अन्तर्मध्ये स्थानं भिदाद्यङि 'व्यत्यये लुग वा' १-३-५६ इति रलोपः, अन्तस्थानं वा अन्तस्था शीलमस्य । अभ्यासापेक्षापीति शीलं हि प्राणिनां स्वभावः, छात्रस्य तु न स स्वभाव इत्याशङ्क्योक्तम ।
चुक्षेति चुक्षिः सौत्रो निर्मलीकरणे चुक्षा शौचं चिक्षेति केचित् शिक्षीत्यस्य स्थाने चिक्षीति पठन्ति धात्वन्तरं वा चिक्षिः, चिक्षा शिक्षेत्यर्थः। तूष्णीकः ॥ ६. ४. ६१ ॥
तूष्णींशब्दात्तदस्य शीलमित्यस्मिन्विषये कः प्रत्ययो मकारलोपश्च निपात्यते । तूष्णीभावः शोलमस्य तूष्णीकः ।६१। प्रहरणम् ॥ ६. ४. ६२ ॥
तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेत्प्रहरणं भवति । असिः प्रहरणमस्य आसिकः, प्रासिकः, चाक्रिकः, मौष्टिकः, धानुष्कः, मौद्गरिकः, मौसलिकः । चरतीत्यत्र व्यापारसाधनात् प्रत्ययो यथा अश्वन चरतीति । शिल्पमित्यत्र तु विज्ञानातिशये यथा नृत्तं शिल्पमस्येति, अनेन तु व्यापाराभावेऽपि परिज्ञानमात्रे प्रत्ययः ।६२। - न्या. स. प्रह-व्यापारसाधनादिति व्यापारश्चरणरूप साध्यते येन तस्मात् , अयमर्थः, चरत्यर्थे व्यापारं साधयन्नेव शब्दः प्रत्ययमुत्पादयति । ____ व्यापाराभावेऽपीति प्रहरणस्य हि व्यापारः परप्रहरणरूपः, तस्याभावेऽपि प्रहरणाभावेऽपीत्यर्थः, विज्ञानातिशयश्च प्रहारवैचक्षण्यं तदभावेपि तन्मात्रेऽपीत्यर्थः । परश्वधादाण ॥ ६. ४. ६३ ॥
परश्वधशब्दात्तदस्य प्रहरणमित्यस्मिन्विषयेऽण् प्रत्ययो वा भवति । परश्वधः प्रहरणमस्य पारश्वधः, पक्षे इकण्-पारश्वधिकः ।६३। शक्तियष्टेष्टीकण ।। ६. ४. ६४ ॥
शक्ति यष्टि इत्येताभ्यां तदस्यप्रहरणमित्यस्मिन् विषये टीकण प्रत्ययो भवति । शक्तिः प्रहरणस्य शाक्तीकः, शाक्तीकी, याष्टीकः, याष्टीको, कथं शाक्तिकः ? शक्त्या जीवतीति वेतनादीकणा भविष्यति ।६४।
न्या० स० शक्ति-ननु टिकणिति मात्रालघुः प्रत्ययो विधीयतां, एवमपि कृते शाक्तीकादयः सेत्स्यन्ति । न च वाच्यं, 'अवर्णेवर्णस्य' ७-४-६८ इत्यस्य प्रसङ्गः, यतष्टकारो हि यर्थः, स तु इकण द्वारा सिद्धः इत्यधिकस्य टकारस्यैतदेव फलं यत् 'अवर्णेवर्णस्य ' ७-४-६८ इति इलोपं बाधित्वा 'समानानाम् ' १-२-१ इति दीर्पण टिकणि कृतेऽपि शाक्तीकादयो भवन्ति, परमुत्तरत्र आम्भसीक इति सिद्ध्यर्थे टीकण्करणम् ।
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१७२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० ६५-६८ ]
वेष्टयादिभ्यः ।। ६. ४. ६५ ।। ___ इष्टि इत्येवमादिभ्यस्तदस्य प्रहरणमित्यस्मिन्विषये टीकण वा भवति, पक्षे प्रहरणमितीकण् । इष्टिः प्रहरणमस्य ऐष्टीकः, ऐष्टीकी, ऐष्टिकः, ईषा प्रहरणमस्य ऐषोकः, ऐषीकी, ऐषिकः। कम्पनं प्रहरणमस्य काम्पनीकः, काम्पनीकी, काम्पनिकः, अम्भःप्रहरणः आम्भसीकः, आम्भसीकी, आम्भसिकः, दण्डप्रहरणः दाण्डीकः, दाण्डीकी, दाण्डिकः, इष्टथदयः प्रयोगगम्याः ।६५। नास्तिकास्तिकदैष्टिकम् ॥ ६. ४. ६६ ॥
एते शब्दास्तदस्येत्यस्मिन्विषये इकण्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, निपातनं रूढयर्थम् । नास्ति परलोकः पुण्यं पापमिति वा मतिरस्य नास्तिकः, अस्ति परलोक: पुण्यं पापमिति वा मतिरस्य आस्तिकः, नास्त्यस्तिशब्दौ तिवादिप्रतिरूपके अव्यये । निपातनादेव वा तदिति प्रथमाधिकारेऽपि आख्यातान्नास्तीति पदसमुदायाच्च प्रत्ययः, दिष्टं दैवं तत्प्रमाणमिति मतिरस्य दिष्टा वा प्रमाणानुपातिनी मतिरस्य दैष्टिकः ।६६।
न्या० स० नास्ति०-अव्यये इति तयोश्च परतः प्रथमैकवचनम् । वृत्तोऽपपाठोऽनुयोगे ॥ ६. ४. ६७ ।।
तदस्येति वर्तते । तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेदनुयोगविषये वृतोऽपपाठो भवति, अनुयोगः परीक्षा। एकमन्यदपपाठोऽनुयोगे वृत्तमस्य ऐकान्यिकः, द्वैयन्यिकः, त्रैयन्यिकः, संख्यान्यशब्दयोस्तद्धिते विषयभूते समासः, ततस्तद्धितः । वृत्तोऽपाठोऽनुयोग इत्यस्य तु वृत्तावन्तर्भावादप्रयोगः । अन्यत्वं चापपाठस्य सम्यक्पाठापेक्षम् । वृत्त इति किम् ? वर्तमाने वय॑ति च न भवति । अपपाठ इति किम् ? एकमभ्यदस्य दुःखमनुयोगे वृत्तम्, जयोऽनुयोगे वृत्तः । अनुयोग इति किम् ? स्वैराध्ययने माभूत् । अन्ये स्वपपाठादन्यत्राप्यध्ययनमात्रे प्रत्यय मिच्छति, एक रूपमध्ययने वृत्तमस्य ऐकरूपिकः, ऐकग्रिन्थकः ॥६७।
बहुस्वरपूर्वादिकः ॥ ६. ४. ६८ ॥ - बहुस्वरं पूर्वपदं यस्य तस्मान्नाम्नः प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे इकः प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेद्वत्तोपपाठोऽनुयोगे भवति । एकादशान्यान्यपपाठरूपाण्यनुयोगेऽस्य वृत्तानि एकादशान्यिकः, एकादशान्यिका स्त्री,
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[ पाद. ४. सू. ६९-७२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १७३ द्वादशान्यिकः, द्वादशान्यिका स्त्री। त्रयोदशान्यिकः, त्रयोदशान्यिका, चतुर्दशायिकः । चतुर्दशान्यिका, अत्राप्यन्ये पूर्ववदन्यत्रापीच्छन्ति । द्वादश रूपाण्यध्ययने वृत्तान्यस्य द्वादशरूपिकः ।६८० भक्ष्यं हितमस्मै ॥ ६. ४. ६९ ॥
तदिति वर्तते । तदिति प्रथमान्तादस्मै इति चतुर्थ्यर्थ इकण् प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेद्भक्ष्यं हितं भवति । अपूपा भक्ष्यं हितमस्मै आपूपिकः, शाष्कुलिकः, मौदकिकः, गौडधानिकः । भक्ष्यमिति किम् ? देवदत्तो हितोऽस्मै । हितमिति किम् ? अपूपा भक्ष्यमहितमस्मै । हितार्थो भक्षणक्रिया च तद्धितवृत्तावेवान्तर्भवति ।६९। ____ न्या० स० भक्ष्यं०-अथास्येत्यनुवर्तमानस्य हितमित्येतद्योगेऽर्थवशात् 'हितसुखाभ्याम् । २-२-६५ इति चतुर्थीपरिणामेनास्मायिति लभ्यते इति किमर्थमस्योपादानम् ?
सत्यं, उत्तरार्थत्वाददोषः, उत्तरत्र हि नियुक्तं दीयते इति षष्ठ्यन्तस्यापि संबन्धोपपत्तेरस्मै इति न लभ्यते इति संप्रदानप्रतिपत्त्यर्थ, अस्मायिति कर्त्तव्यं तदुत्तरार्थ सदिह सूत्रेऽपि विभक्तिपरिणामक्लेशमन्तरेण सोऽर्थः प्रतीयते इति क्रियते । नियुक्तं दीयते ॥ ६. ४.७० ॥
__ तदिति अस्मै इति च वर्तते, तदिति प्रथमान्तादस्मै इति चतुर्थ्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेन्नियुक्तमव्यभिचारेण नित्यं वा दीयते । अग्रभोजनमस्मै नियुक्त दीयते आग्रभोजनिकः, आग्रफलिकः, मांसिकः, आपूपिकः, शाष्कुलिकः, ग्रामिकः, आग्रहारिकः, अस्मै इत्येव । रजकस्य वस्त्रं नित्यं दीयते-अर्यते इत्यर्थः ७०। .. श्राणामांसौदनादिको वा ॥ ६. ४. ७१ ।।
श्राणामांसौदन इत्येताभ्यां तदस्मै नियुक्त दीयत इत्यस्मिन् विषये इकः प्रत्ययो वा भवति । श्राणा नियुक्तमस्मै दीयते धाणिकः पथ्याशी श्राणिका, मांसौदनिकः, मांसोदनिका, पक्षे इकण् । श्राणिकी, मांसौदनिकी । इकेकणोः स्त्रियां विशेषः। अन्ये त्विकं नेच्छन्ति ।७१।
भक्तौदनाद्वाणिकट् ॥ ६. ४. ७२ ॥ __ भक्त ओदन इत्येताभ्यां यथासंख्यमण् इकट् प्रत्ययो वा भवतः तदस्मै नियुक्त दीयते इत्यस्मिन्विषये। भक्तमस्मै नियुक्त दीयते भाक्तः ।
ओदनिकः । ओदनिको पक्षे इकण् । भाक्तिकः, औदनिकः-ओदनशब्दादिकणं नेच्छन्त्यन्ये ।७२।
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बृहद्वृत्ति- - लघुन्यास संवलिते
नवयज्ञादयोऽस्मिन्वर्तन्ते ॥ ६. ४. ७३ ॥
नवयज्ञादिभ्यः प्रथमान्तेभ्यो वर्तन्त इत्येवमुपाधिभ्योऽस्मिन्निति सप्तम्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, नवा यज्ञा अस्मिन्वर्तन्ते नावयज्ञिकः । पाकयज्ञिकः, नवयज्ञादयः प्रयोगगम्याः ॥७३॥
१७४ ]
[ पा० ४. सू० ७३-७७ ]
तत्र नियुक्ते ॥ ६. ४. ७४ ॥
तत्रेति सप्तम्यन्तान्नियुक्तेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, नियुक्तोऽधिकृतो व्यापारित इत्यर्थः पूर्वकस्य नियुक्तमित्यस्य क्रियाविशेषणरूपस्याव्यभिचारो नित्यमिति चार्थः । प्रत्ययार्थश्चायम् स तु प्रकृत्यर्थोपाधिः । शुल्कशालायां नियुक्तः शौल्कशालिक, आपणिकः, आतरिकः, दौवारिकः, आक्षपटलिकः ॥७४ । अगारान्तादिकः ॥ ६. ४. ७५ ।।
अगारान्तात्तत्र नियुक्तेऽर्थे इकः प्रत्ययो भवति । देवागारिकः, देवागारिका, भाण्डागारिकः, भाण्डागारिका, आयुधागारिकः, आयुधागारिका, कोष्ठागारिकः, कोष्ठागारिका ॥७५॥ अदेशकालादध्यायिनि ॥ ६. ४. ७६ ॥
तत्रेति वर्तते । अध्ययनस्य यो प्रतिषिद्धौ देशकालौ तावदेशकालौ । तद्वाचिनः सप्तम्यन्तादध्यायिन्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, अदेश, अशुचावध्यायी आशुचिकः । श्मशानेऽध्यायी श्माशानिकः, श्माशानाभ्यासिकः, अकालः, सान्ध्यकः, औपातिकः, आनध्यायिकः । अदेशकालादिति किम् ? स्वाध्यायभूमावध्यायी, पूर्वाध्यायी ॥७६॥
न्या॰ स॰ अदेश॰—अध्ययनस्येति अध्यायिनश्च देशकालावेवाधारौ भवतः ताभ्यामन्यत्राये तुमशक्यत्वात्, तत्र देशकालयोराधाराभावेन प्रतिषिद्धयोः क्वान्यत्राध्यायी अधीयीत विरोधमाशङ्कयाह-अध्ययनस्येति एतेन प्रतिषिद्धदेशवाचकात् प्रतिषिद्धकालवाचकाच्च सप्तम्यन्तादृध्येतरि प्रत्ययः ।
निकटादिषु वसति ॥ ६. ४. ७७ ॥
निकटादिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यो वसत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । निकटे वसति नैकटिकः, आरण्यकेन भिक्षुणा ग्रामात्क्रोशे वस्तव्यमिति यस्य शास्त्रितो वासः स एवोच्यते । एतदर्थ एव च तत्रेत्यधिकारे सप्तमीनिर्देशः । वृक्षमूले वसति वार्क्षमूलिकः, श्माशानिकः, आभ्यवकाशिकः, आवसथिकः, निकटादयः प्रयोगगम्याः ॥७७॥
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[पाद ४. सू. ७८-८०] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १७५ सतीर्थः ॥६. ४. ७८ ॥
सतीर्थ्य इति समानतीर्थशब्दात्तत्र वसत्यर्थे य: प्रत्ययो निपात्यते समानशब्दस्य च सभावः, समानतीर्थे वसति सतीर्थ्यः । तीर्थमिह गुरुरुच्यते ।७८। प्रस्तारसंस्थानतदन्तकठिनान्तेभ्यो व्यवहरति ॥ ६. ४. ७९ ॥
प्रस्तारसंस्थान इत्येताभ्यां प्रस्तारान्तात् संस्थानान्तात् कठिनान्ताच्च. व्यवहरत्यर्थे ३कण् प्रत्ययो भवति । व्यवहरतिरिह क्रियातत्त्वे क्रियाया अविपरीतस्वभावे, यथा लौकिको व्यवहार इत्यत्र, प्रस्तारे व्यवहरति प्रास्तारिकः, सांस्थानिकः, तदन्त, कांस्यप्रस्तारिकः । लौहप्रस्तारिकः, गौसंस्थानिकः, आश्वसंस्थानिकः, कठिनान्त, वांशकठिनिकः, वार्धकठिनिकः, कठिनं तापसभाजनं पीटं वा । बहुवचनं कठिनान्तेति स्वरूपग्रहणव्युदासार्थम् रूढयर्थं च, प्रस्तारसंस्थानाभ्यां तदन्ताभ्यां केचिन्नेच्छन्ति ७९।
न्या० स० प्रस्ता०-व्यवहरतिरिति व्यवहरतिरयमस्ति विनिमये, यथा शतं व्यवहरति शतस्य व्यवहरति इति, अस्ति विवादे, यथा व्यवहारे पराजित इति, अस्ति विक्षेपे, यथा शलाका व्यवहरति, अस्ति क्रियातत्वे, यथा लौकिको व्यवहार इति, तह क्रियातत्त्वे वर्तमान आश्रीयते, क्रियायास्तत्त्वमविपरीतः स्वभावः, यथेत्यादिनाऽत्रैव व्यवहरति निदर्शयति, अस्य त्वर्थस्य ग्रहणे हेतुः, प्रत्ययान्तादविपरीतस्वरूपक्रियानुष्ठातुः प्रतिपत्तिः ।
रूढयर्थ चेति रूढिश्च तापसभाजनेत्यादि तेन कठिने कठोरे न । संख्यादेश्वार्हदलुचः ॥६. ४. ८०॥
आ अहंदर्थादित ऊर्ध्वं या प्रकृतिरुपादास्यते तस्याः केवलायास्तदन्तायाश्च संख्यापूर्वाया वक्ष्यमाणः प्रत्ययो भवतीति वेदितव्यम् न चेत्सा लुगन्ता भवति । चन्द्रायणं चरति चान्द्रायणिकः, द्वे चन्द्रायणे चरति द्वैचन्द्रायणिकः, पारायणमधीते पारायणिकः, द्वे पारायणे अधोते द्वैपारायणिकः संख्यादेरिति किम् ? परमपारायणमधीते, महापारायणमधीते, चकारः केवलार्थः । आर्हत इत्यत्राकारोऽभिविधौ, तेनाहदर्थेऽपि भवति । द्वे सहस्र द्विसहस्र वार्हति द्विसाहस्रः । अलुच इति किम् ? द्वाभ्यां सूर्याभ्यां क्रीतं द्विशूर्पम्, अत्र “शूद्वाञ्' (६-४-१३७) इत्यञ् । 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' (६-४-१४१) इति लुप् । द्विशूर्पण क्रीतं द्विशौपिकम् । त्रिशोपिकम् । पुनरपि 'शूद्विाज्' (६-४-१३७) इत्यञ् न भवति ।८०।
न्या० स० संख्या-द्वैचन्द्रायणिक इति 'द्विगोरनपत्ये' ६-१-२४ इत्यनेन न लुप्, प्रागजितीयेऽर्थे तस्य विधानात् , 'अनाम्न्यद्विः' ६-४-१४१ इत्यपि न यतोऽनाम्न्येति सूत्रेणास्मादेव सूचात् येऽस्तिमहतीति यावत् तेष्वेव लुप् न त्वेषु तेन नात्र लुप् ।
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१७६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
गोदानादीनां ब्रह्मचर्ये ॥ ६. ४. ८१ ॥
गोदानादिभ्यो निर्देशात् षष्ठ्यन्तेभ्यो ब्रह्मचर्येऽभिधेये इकण् प्रत्ययो भवति । गोदानस्य ब्रह्मचर्यं गौदानिकम्, आदित्यव्रतानामादित्यव्रतिकम्, महानाम्नीनां माहानाम्निकम् । गोदानादयः प्रयोगगम्याः, येभ्योऽस्मिन्नर्थे इकण् दृश्यते ते गोदानादयः ॥८१॥
न्या० स० गोदा० गोदानस्येति गाव इति लोम्नामाख्या गवां लोभनां दानं लवनं वपनमित्यर्थः, यावत् गोदानं न करोति तावद् ब्रह्मचर्यमित्यर्थः । चन्द्रायणं च चरति ॥ ६. ४. ८२ ॥
[ पाद. ४ सू. ८१-८६ ]
चन्द्रायणशब्दान्निदेशादेव द्वितीयान्तादोदानादिभ्यश्चार्थात् द्वितीयान्तेश्रत्यर्थे इण् प्रत्ययो भवति । चन्द्रायणं चरति चान्द्रायणिकः, गोदानं चरति गौदानिकः, आदित्यव्रतिकः, महानाम्न्यो नाम ऋचः । तत्साहचर्यातासां व्रतमपि महानाम्न्यः, महानाम्नीव्रतं चरति माहानाम्निकः ॥८२ |
देवव्रतादीन् डिन् ॥ ६. ४. ८३ ॥
देवव्रतादिभ्यो निर्देशादेव द्वितीयान्तेभ्यश्चरत्यर्थे डिन् प्रत्ययो भवति । देवव्रतं चरति देवव्रती, तिलव्रती, अवान्तरदीक्षी, महाव्रती, देवव्रतादयः प्रयोगगम्याः । डिस्करणमुत्तरत्रान्त्यस्वरादिलोपार्थम् । ८३ ।
कचाष्टाचत्वारिंशतं वर्षाणाम् ॥ ६. ४. ८४ ॥
वर्षाणां संबन्धिनोऽष्टाचत्वारिंशच्छन्दाद्व्रत वृत्तेनिदेशादेव द्वितीयान्ताच्चरत्यर्थे डकचकाराडिन् च प्रत्ययो भवति । अष्टाचत्वारिंशद्वर्षसहितं व्रतमष्टाचत्वारिंशत् तच्चरति अष्टाचत्वारिंशकः, अष्टाचत्वारिंशी १८४ चातुर्मास्यं तौ यलुक् च ।। ६. ४. ८५ ।।
चातुर्मास्यशब्दाद्वतवृत्ते निर्देशादेव द्वितीयान्ताच्चरत्यर्थे तो डकडिनो प्रत्ययौ यलोपश्च भवति । चतुर्षु मासेषु भवानि ' यज्ञे ञ्यः' (६-३-१३३) इति यः चातुर्मास्यानि नाम यज्ञाः, तत्सहचरितानि व्रतानि चातुर्मास्यानि तानि चरति चातुर्मासकः चातुर्मासी ॥८५॥ क्रोशयोजनपूर्वाच्छता योजनाच्चाभिगमार्हे ॥ ६. ४. ८६ ।।
क्राशशब्दपूर्वाद्यो जनशब्दपूर्वाच्च शताद्योजन शब्दाच्च निर्देशादेव पञ्चम्यन्तादभिगमाहूँऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । क्रोशशतादभिगमनमर्हति कौशशतिको मुनिः, यौजनशतिको मुनिः, योजनिकः साधुः ॥८६ |
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[पाद ४. सू. ८७-९३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १७७ तद्यात्येभ्यः ॥ ६. ४. ८७ ॥
तदिति द्वितीयान्तेभ्य एभ्यः क्रोशशत योजनशत योजन इत्येतेभ्यो याति गच्छत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । कोशशतं याति क्रौशशतिकः, यौजनशतिकः, यौजनि को दूतः । एभ्य इति किम् ? नगरं याति चैत्रः।८७। पथ इकट् ॥ ६.४.८८॥
पथिन्शब्दात्तदिति द्वितीयान्ताद्यात्यर्थे इकट् प्रत्ययो भवति । पन्थानं याति पथिकः पथिकी स्त्री, टकारो यर्थः । द्वौ पन्थानौ याति द्विपथिकः, द्विपथिकी स्त्री, कटमकृत्वा इकवचनं परस्वात्समासान्ते कृतेऽपि यथा स्यादित्येवमर्थम् ।८८० नित्यं णः पन्थश्च ।। ६. ४. ८९ ॥
नित्यमिति प्रत्यायार्थविशेषणम् । पथिन्शब्दाद्वितीयान्तानित्यं यात्यर्थे णः प्रत्ययो भवति पथिन्शब्दस्य च पन्थादेशः । पन्थानं नित्यं याति पान्थः, पान्था स्त्रो, द्वौ पन्थानौ नित्यं याति द्वैपन्थः, द्वैपन्था स्त्री। नित्यमिति किम् ? पथिकः।८९। शकूत्तरकान्ताराजवारिस्थलजङ्गलादेस्तेनाहते च ॥६. ४.९०॥
शङ्कु उत्तर कान्तार अज वारि स्थल जङ्गल इत्येतत्पूर्वपदात् पथिन्नन्तात्तेनेति तृतीयान्तादाहृते यातिचार्थे इकण् प्रत्ययो भवति, शकुपथेनाहतो याति वा शाकुपथिकः, औत्तरपथिकः, कान्तारपथिकः, आजपथिकः । वारिपथिकः, स्थालपथिकः, जाङ्गलपथिकः ।९०। स्थलादेमधुकमरिचेऽण ॥ ६. ४. ९१ ॥
स्थलपूर्वपदात्पथिन्नन्तात्तृतीयान्तादाहृतेऽर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति तच्चेबाहृतं मधकं मरिचं वा भवति स्थलपथेनाहृतं मधुकं मरिचं वा स्थाळपथम् । मधुकमरिच इति किम् ? स्थालपथिकमन्यत् ।९१॥ तुरायणपारायणं यजमानाधीयाने ॥ ६. ४. ९२ ॥
आभ्यां निर्देशादेव द्वितीयान्ताभ्यां यथासंख्यं यजमानेऽधीयाने चार्थे इकण प्रत्ययो भवति । तुरायणं नाम यज्ञस्तं यजते तोरायणिकः, पारायणमधीते पारायणिकः ।९२॥ संशयं प्राप्ते ज्ञेये ॥ ६. ४. ९३ ॥ संशयमिति द्वितीयान्तात्प्राप्तेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति स चेत्प्राप्तोऽर्थो
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१७८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४. सू. ९४-९७ ] ज्ञेयो भवति । संशयं प्राप्तः सांशयिकः, सांशयिकोऽयमूवो न जाने स्थाणुरुत पुरुष इति, सांशयिकश्चैत्रो न जाने जीवति उत मृत इति । ज्ञेय इति किम् ? संशयितरि माभूत्, सोऽपि हि संशयं प्राप्तो भवति, तस्य तत्र भावात् ।९३। तस्मै योगादेः शक्ते ॥ ६. ४. ९४ ॥
योगादिभ्यस्तस्मै इति चतुर्थ्यन्तेभ्यः शक्तेऽर्थे इकण प्रत्ययो भवति । योगाय शक्तः यौगिकः, सांतापिकः योग, सन्ताप, सन्नाह, संग्राम, संयोग, संपराय, संघात, संपाद, संपादन, संक्रम, संपेष, संवेश, संमोदन, निष्पेष, निःसर्ग, निर्घोष, निसर्ग, विसर्ग, उपसर्ग, प्रवास, उपवास, सक्तु, मांस, ओदन, मांसौदन, सक्तुमांसौदन इति योगादिः ।९४। योगकर्मभ्यां योकत्रौ ॥ ६. ४. ९५ ॥
आभ्यां चतुर्थ्यन्ताभ्यां शक्तेऽर्थे यथाक्रमं य उकञ् इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः। योगाय शक्तः योग्यः । कर्मणे शक्त कार्मुकम् । एवं योगशब्दस्य द्वैरूप्यम् ।९५। यज्ञानां दक्षिणायाम् ।। ६. ४. ९६ ॥
यज्ञवाचिभ्यो निर्देशादेव षष्ठयन्तेभ्यो दक्षिणायामर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, यज्ञकर्मकृतां वेतनादानं दक्षिणा। अग्निष्टोमस्य दक्षिणा आग्निष्टोमिकी, वाजपेयिकी राजसूयिकी, नावयज्ञिको, पाञ्चौदनिकी ऐकादशाहिकी, द्वादशाहिकी, द्वैवाजपेयिकी, बहुवचनं स्वरूपविधेयुदासार्थम् ।९६।
न्या० स० यज्ञा-नावयज्ञिको इति नवानां यज्ञानां दक्षिणा तद्धितविषये सः ।
पाचौदनिकीति पञ्चसु ओदनेषु भवः अण, तस्य लुप्, पञ्चौदनस्य दक्षिणा । ऐकादशाहिकीति एकादशानामह्नां समाहारः, 'द्विगोरनह्नः' ७-३-९९ इत्यद्, एकादशाहेन निर्वो यागोप्येकादशाहः, तस्य दक्षिणा ।
द्ववाजपेयिकीति द्वयोर्वाजपेययोर्दक्षिणा इति तद्धितविषये द्विगुः । तेषु देये ॥६. ४. ९७॥
यज्ञवाचिभ्यस्तेष्विति निर्देशादेव सप्तम्यन्तेभ्यो देयेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । अग्निष्टोमे देयम् अग्निष्टोमिकम् । वाजपेयिकं भक्तम् ।९७।।
न्या० स० तेषु० - ननु यदग्निष्टोमे देयं तदग्निष्टोमे भवति, तत्र 'ऋगृद्विस्वरयागेभ्यः' ६-३-१४४ इतीकण भविष्यति किमर्थमिदं वचनम् ? उच्यते, तत्र 'तस्य व्याख्याने च' ६-३-१४२ इत्यतो ग्रन्थादित्यधिकृतेऽग्निष्टोमादिविधायके ग्रन्थे वर्तमानादग्निष्टोमादेरिकण् विहितः, इह त्वर्थात्मन इति विषयभेदः, किं च द्वयोर्वाजपेययोर्देयं द्वैवाजपेयिकमिति इकण
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( पाद. ४. सू. ९८-१०० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [ १७९ न स्यात् , अत्र तु 'संख्यादेश्च' ६-४-८० इति भवति, देयत्वं च प्रत्ययार्थो यथा स्यादिति वचनम् ।
काले कार्य च भववत् ॥ ६. ४. ९८॥ __ कालवाचिनो निर्देशादेव सप्तम्यन्तादेये कार्ये चार्थे भववत्प्रत्यया भवन्ति, यकाभ्यः प्रकृतिभ्यो येन विशेषेण ये प्रत्यया भवेऽर्थे भवन्ति ताभ्यः प्रकृतिभ्यस्तेन विशेषेण कार्य देये चार्थे ते प्रत्यया भवन्ति । वद्धि सर्वसादृश्यार्थः । यथा वर्षासु भवं वार्षिकम्, मासिकम्, शारदिकम्, श्राद्धं कर्म शारदिकः शारदो वा रोग आतपो वा नेशं नैशिकम्, प्रादोषं प्रादोषिकम्, शौवस्तिकम्, चिरत्नम्, परुत्नम्, पुराणम्, पूर्वाद्धेतनम्, सायंतनम्, चिरन्तनम्, पौषम्, शैशिरम्, सान्ध्यम्, सांवत्सरम् फलं पर्व वा हैमन्तम्, हैमनम्, प्रावृषेण्यमिति भवति एवं वर्षासु देयं कार्यं वा वार्षिकम् मासिकमित्यादि भवति, प्रत्ययस्य भावोऽत्रातिदिश्यते नाभाव इति द्विगोः परस्य लुप् न भवति । द्वयोर्मासयोर्देयं कार्यं वा द्वैमासिकम्, त्रैमासिकम् ।९८।
व्युष्टादिष्वण ॥ ६. ४. ९९ ॥ - व्युष्टादिभ्यो निर्देशादेव सप्तम्यन्तेभ्यो देये कार्ये चार्थेऽण् प्रत्ययो भवति । व्युष्ठे देय कार्यं वा वयुष्टम्, नत्यम् । व्युष्टसाहचर्यान्नित्यशब्दः कालवाची गृह्यते ततः सप्तम्यपवादेन 'कालाध्वनोाप्ती' (२-२-४२) इत्यनेन द्वितीयाविधानात् नित्यं देयं कार्य वेति द्वितीयान्तादेव प्रत्ययः,-अन्ये तु सप्तम्यन्तादपीच्छन्ति । नित्ये विषुवति षड्भिश्चराचरैमुहूर्तेरनाक्रम्यमाणे देयं कार्यं वा नैत्यम्, व्युष्ट नित्य निष्कमण प्रवेशन तीर्थ संग्राम संघात अग्निपद पीलुमूल प्रवास उपवास । इति व्युष्टादिः। बहुवचनादाकृतिगणोऽयम् ॥१९॥
__ न्या० स० व्युष्टा०—विषुवतीति विषुर्नाम मुहूर्तः, सोऽस्यास्ति विषुवत् , समरात्रिंदिवः कालः पुनपुंसकः, यद्वैजयन्ती 'पुरीतत् महिमा हेम, विषुवत् कर्मलोभदोः' नृषण्ढलिगाः । यथाकथाचाण्णः ॥६. ४. १००॥
यथाकथाचशब्दोऽव्ययसमुदायोऽनादरेणेत्यर्थे वर्तते तस्मादृये कार्ये चार्थे णः प्रत्ययो भवति । यथाकथाच दीयते याथाकथाचम्, याथाकथाचा दक्षिणा ।१०॥
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१८० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० १०१-१०५ ] तेन हस्ताद्यः ॥ ६. ४. १०१॥ . तेनेति तृतीयान्ताद्धस्तशब्दाद्देये कार्ये चार्थे यः प्रत्ययो भवति । हस्तेन देयं कार्यं वा हस्त्यम् ।१०१। शोभमाने ॥ ६. ४. १०२ ।।
तेनेति तृतीयान्ताच्छोभमानेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । कर्णवेष्टकाभ्यां शोभते कार्णवेष्टकिकं मुखम् । एवं वास्त्रयुगिकं शरीरम् । औपानहिको पादौ । असमर्थनसमासोऽप्यस्मिन्विषये भवति । कर्णवेष्टकाभ्यां न शोभते अकार्णवेष्टकिकम्, अवास्त्रयुगिकम् ।१०२।
न्या. स. शोभ-कर्णवेष्टकाभ्यामिति कौँ वेष्टते 'कर्मणोऽण' ५-१-७२, तावेव कर्णवेष्टको ताभ्यां, अथवा वेष्टेते णकः वेष्टको कर्णयोर्वेष्टको ताभ्याम् ।
असमति अत्र हि नञ् शोभमाने इत्यनेन संबद्धत्वादसमर्थः, तत्समासोऽपि गमकत्वादभिधानाद् भवतीत्यर्थः ।।
अकार्णवेष्टकिकमिति इकणमानीय पश्चान्नसमासः । कर्मवेषाद्यः ॥ ६. ४. १०३ ॥
कर्मन् वेष इत्येताभ्यां तृतीयान्ताभ्यां शोभमानेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति । कर्मणा शोभते कर्मण्यं शौर्यम् । वेषेण शोभते वेष्यो नटः । पूर्ववनसमासो भवति । अकर्मण्यः, अवेष्यः । केचिद्वेषस्थाने वेशं पठन्ति, वेश्या नर्तकी ।१०३।
कालात्परिजय्यलभ्यकार्यसुकरे ॥ ६. ४. १०४ ॥ ___ कालविशेषवाचिन: शब्दात्तेनेति तृतीयान्तात्परिजय्ये लभ्ये कार्ये सुकरे चार्थे इकण् प्रत्ययो भवति । परितो जेतु शक्यं परिजय्यम्, शक्ते कृत्यः, लभ्यकार्ययोः शक्तेऽर्हे वा । अकृच्छण क्रियते यत्तत्सुकरम् । मासेन परिजय्यो मासिको व्याधिः, आर्धमासिकः, सांवत्सरिकः, मासेन लभ्यो मासिकः पटः, मासेन कार्य मासिकं चान्द्रायणम्, मासेन सुकरः मासिकः प्रमादः । कालादिति किम् ? चैत्रण परिजय्यम् ।१०४। निवृत्ते ॥ ६. ४. १०५॥
तेनेति कालादिति च वर्तते, कालवाचिनस्तृतीयान्तानिवृत्तेऽर्थे इकण प्रत्ययो भवति । अह्ना निवृत्तमाह्निकम्, मासिकम्, आर्धमासिकम्, सांवत्सरि. कम्, योगविभाग उत्तरत्रास्यानुवृत्त्यर्थः ।१०५।
न्या० स० निवृत्ते-अत्र सूत्रेऽन्ये कालादिति न मन्यन्ते तन्मते तात्त्विका ऐर्यापिथिकीत्यादयः स्वमते 'प्रयोजनम्' ६-४-११७ इत्यनेन सिद्धाः ।
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पाद. ४. सू. १०६-१०९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [१८१ तं भाविभूते ॥ ६. ४. १०६ ।।।
कालादिति वर्तते, तमिति द्वितीयान्तात्कालवाचिनो भाविनि भूते चार्थे इकण प्रत्ययो भवति । स्वसत्तया व्याप्स्व मानकालो भावी, व्याप्त कालो भूतः । भासं भावी मासिक उत्सवः, मासं भूतो मासिको व्याधिः ॥१०६॥
न्या० स० तं भा०-व्याप्यस्यमानेति व्याप्स्यमानः कालो येन भाविना उत्सवेन स व्याप्स्यमानः कालो भावी । व्याप्तकाल इति अनापि स्वसत्तयेत्यपेक्ष्यते, ततश्च भूतभाविनो. ऽर्थस्य स्वया सत्तया व्याप्स्यमानः कालो येन भूतभाविनाऽर्थेन स तथोक्तः, इह काल इलि यः काले वर्तते ततः प्रत्ययः उत काल एव वर्तते, कालान्न व्यभिचरति ततः प्रत्ययः । किंचातः यदि काले यो वर्तते ततः प्रत्ययो रमणीय वर्ष भूतः शोभनं वर्ष भूत इति रमणीयादेरपि प्राप्नोति, यदा यः काल एव वर्त्तते ततः प्रत्ययः तदा पष्टिं वर्षाणि भूतो षाष्टिकः द्विषष्टिं वर्षाणि भूतो द्विषाष्टिकः साप्ततिको द्विसाप्ततिक इखि न स्यात् , तत्र संख्यायाः कालवृत्तेः प्रत्ययो वक्तव्यः ?
___ उच्यते, यः काले वर्तते ततः प्रत्ययः तेन षाष्टिक इत्यादौ कालवृत्ते: संख्याया प्रत्ययः सिद्धो भवति, रमणीयं चा भूत इत्यादी वनभिधानान्न भवति ।
तस्मै भृताधीष्टे च ।। ६. ४. १०७॥ . कालादिति वर्तते, तस्मै इति तादर्थ्यचतुर्थ्यन्तात्कालवाचिनो भृतेऽधीष्ठे चार्थे इकण प्रत्ययो भवति । भृतो वेतनेन क्रीतः, अधीष्टः सत्कृत्य व्यापारितः, मासाय भृतः मासिकः कर्मकरः, मासं कर्मणे भृत इत्यर्थः । मासायाधीष्टो मासिक उपाध्यायः । मासमध्यापनायाधीष्ट इत्यर्थः । एवं वार्षिकः, सांवत्सरिकः, चकारस्तेन निर्वृत्ते तं भाविभूते तस्मै भृताधीष्टी चेति सूत्रत्रयस्याप्युत्तरत्रानुवृत्त्यर्थः ।१०७ षण्मासादवयसि ण्येकौ ॥ ६. ४. १०८ ॥
षण्मासशब्दात्कालवाचिनस्तेन निवृत्ते तं भाविभूते तस्मै भृताधीष्टे चेत्यस्मिन्विषयेऽवयसि गम्यमाने ण्य इक इत्येतो प्रत्ययो भवतः, षड्भिर्मासनिर्वृत्तः षण्मासान् भावी भूतो वा षण्मासेभ्यो भृतोऽधीष्टो वा पाण्मास्यः, षण्मासिकः । अवयमीति किम् ? षण्मासान् भूत: षण्मास्यः, 'षण्मासाद्ययणिकण्' (६-४-११५) इति यः ।१०८॥ समाया ईनः ॥ ६. ४. १०९॥
समाशब्दात्तेन निवृत्त इत्यादिपञ्चकविषय ईन: प्रत्ययो भवति, समया निर्वृत्तः समां भूतो भावी वा समायै भृतोऽधीष्टो वा समीनः ।१०९।
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१८२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० ११०-११२ ] रात्र्यहःसंवत्सराच द्विगोर्वा ॥ ६. ४. ११० ॥
रात्रि अहन् संवत्सर इत्येतदन्तात्समाशब्दान्ताच्च द्विगोस्तेन निर्वत्त इत्यादिपञ्चकविषये ईनः प्रत्ययो वा भवति । द्वाभ्यां रात्रिभ्यां निवृत्तो द्वे रात्री भूतो भावी वा द्वाभ्यां रात्रिभ्यां भृतोऽधीष्टो वा द्विरात्रीणः, त्रिरात्रीणः, एवं द्यहीनः, द्विसंवत्सरीणः, द्विसमीनः, पक्षे इकण द्वैरात्रिकः, द्वैयहिकः, द्वैयहिक इति तु व्यहशब्दात्समाहारद्विगोरिकणि भवति । द्विसांवत्सरिकः, 'मानसंवत्सरस्य' (७-४-१९) इत्यादिनोत्तरपदवृद्धिः । द्वैसमिकः, राश्यन्तादहरन्ताच्च परमपि समासान्तं बाधित्वा अनवकाशत्वादीन एव भवति तथा च समासान्तसंनियोगे उच्यमानः ‘सर्वांशसंख्याव्ययात् ' (७-३-११८) इत्यह्लादेशो न भवति । समान्तात्पूर्वेण नित्ये प्राप्ते शेषेभ्योऽप्राप्ते विकल्पः ।११०।
न्या० स० रात्र्य-समासान्तं बाधित्वेति रात्रिशब्दात् 'संख्यातैक' ७-३-११९ इत्यनेन प्राप्तं, अह्नस्तु 'सर्वाश' ७-३-११८ इत्यनेन । अनवकाशत्वादिति अन्यथा रात्र्यन्ताहरन्ताभावान्न भवति, एकदेशेत्यपि नोपतिष्ठते न्यायानामनित्यत्वात् । वर्षादश्व वा ॥६. ४. १११॥
वर्षशब्दो यः कालवाची तदन्ताद्विगोस्तेन निर्वृत्त इत्यादिपञ्चकविषयेऽकारश्च कारादीनश्च वा भवति, पक्षे इकण, एवं च त्रैरूप्यं भवति। द्वाभ्यां वर्षाभ्यां निवृत्तो द्वौ वर्षों द्वे वर्षे वा भूतो भावी वा द्वाभ्यां वर्षाभ्यां भृतोऽधीष्टो वा द्विवर्षः, द्विवर्षीणः, द्विवार्षिकः, त्रिवर्षः, त्रिवर्षीणः, त्रिवार्षिकः । 'संख्याधिकाभ्यां वर्षस्याभाविनि' (७-४-१८) इत्युरपदवृद्धिः। भाविनि तु प्रतिषेधात् द्वैवषिकः । त्रैवर्षिकः ।१११॥ प्राणिनि भूते ॥ ६. ३. ११२॥
कालवाचिवर्षशब्दान्तात् द्विगोभू तेऽर्थे अः प्रत्ययो भवति स चेद्भतः प्राणी भवति । द्वे वर्षे भूतो द्विवर्षों दारकः, त्रिवर्षों वत्सः। प्राणिनीति किम् ? द्विवर्षः, द्विवर्षीणः, द्विवार्षिकः सरकः । भूत इति किम् ? शेषेष्वर्थेषु पूर्वेण विकल्प एव । द्विवर्षः, द्विवर्षीणः, द्विवार्षिको मनुष्यः। भाविन्यपि केचिदिच्छन्ति, एवमुत्तरेष्वपि त्रिषु । पूर्वेण विकल्पे प्राप्ते नित्यार्थो विधिः।११२।
HREITHEREER
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[पाद. ४. सू. ११३-११७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [१८३ मासाद्वयसि यः ॥ ६. ४. ११३ ॥
मासशब्दान्ताद् द्विगोभूतेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति वयसि गम्यमानो। द्वौ मासौ भूतो द्विमास्यः, त्रिमास्यो दारकः। वयसीति किम् ? द्वैमासिको व्याधिः, त्रैमासिको व्याधिः, द्वैमासिको नायकः । भूत इत्येव ? द्वौ मासौ भावी द्वैमासिको युवा ।११३॥ ईनञ् च ॥ ६. ४. ११४ ॥
द्विगोरिति निवृत्तम् योगविभागात्, मासशब्दाद्भतेऽर्थे ईनञ् चकाराद्यश्च प्रत्ययो भवति वयसि गम्यमाने । मासं भूतो मासीन: मास्यो दारकः, अकारो वृद्धिहेतुत्वेन पुवद्भावाभावार्थः। मासीना स्वसाऽस्य मासीनास्वसृकः । वयतीत्येव ? मासिको नायकः ।११४॥ षण्मासाद्ययणिकण् ॥ ६. ४. ११५ ॥
षण्मासशब्दात्कालवाचिनो भूतेऽर्थे य यण इकण् इत्येते प्रत्यया भवन्ति वयसि गम्यमाने । षण्मासान् भूतः षण्मास्यः, षाण्मास्यः, पाण्मासिकः । भूत इत्येव ? षण्मासान् भावी । वयसीत्येव ? पाण्मास्यः षण्मासिको नायकः ।११५। ___न्या० स० षण्मा०-षण्मासाधयण वेति सिद्धे इकण प्रहणं व्यावृत्त्युदाहरणे इकण् निवृत्त्यर्थ, अत एव व्यावृत्त्युदाहरणे वाक्यमेव दर्शितम् ।। सोऽस्य ब्रह्मचर्यतदतोः ॥ ६. ४. ११६ ॥
‘स इति प्रथमान्तात्कालवाचिनोऽस्येति षष्ठघर्थे इकण् प्रत्ययो भवति ब्रह्मचर्ये तद्वति चाभिधेये यत्तदस्येति निर्दिष्टं तच्चेद्ब्रह्मचर्यम् ब्रह्मचारी वा भवतीत्यर्थः। मासोऽस्य ब्रह्मचर्यस्य मासिकं ब्रह्मचर्यम्, आर्धमासिकम, सांवत्सरिकम् । मासोऽस्य ब्रह्मचारिणो मासिको ब्रह्मचारी, मासं ब्रह्मचर्यमस्येत्यर्थः । एवमार्धमासिकः, सांवत्सरिकः ।११६। प्रयोजनम् ॥ ६. ४. १९७॥
सोऽस्येति वर्तते, स इति प्रथमान्तावस्येति षष्ठ्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेत्प्रयोजनं स्यात्, प्रयोजनं प्रयोजकम् प्रवर्तनम् जनक मुत्पादकम् । जिनमहः प्रयोजनमस्य जैनमहिकम्, ऐन्द्रमहिकम्, आभिषेचनिकम्, दैपोत्सविकम् ।११७।
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१८४J
बृहवृत्ति-लघुन्याससँवलितेः [ पा० ४. सूण ११८-१२२ } एकागाराचौरे ।। ६. ४. ११८ ।।
एकागार शब्दात्तदस्य प्रयोजन मित्यस्मिन् विषये इकण प्रत्ययो भवति चौरे यत्तदस्येति निर्दिष्टं स चेत् चौरी भवति । एकमसहायमगारं प्रयोजनमस्य ऐकामारिकश्चौरः, ऐकागारिकी, चौरे नियमार्थं वचनम् । तेनान्यत्र न भवति । एकागारं प्रयोजनमस्य भिक्षोरिति वाक्यमेव १११८।
न्या० स० एका०-नियमार्थमिति ‘प्रयोजनम् ' ६-४-११७ इत्येव सिद्धत्वात् । चूडादिभ्योऽण् ॥ ६. ४. ११९ ।।
चुडादिभ्यस्तदस्य प्रयोजनमित्यस्मिन् विषयेऽण् प्रत्ययो भवति । चूडा प्रयोजनमस्य चौडम्, चूला चौलम्, उपनयनम् औपनयनम्, श्रद्धा श्राद्धम्,चूडादयः प्रयोमगम्याः ।११९॥ विशाखापाढान्मन्थदण्डे ।। ६. ४. १२० ॥ .
विशाखा अषाढा इत्येताभ्यां तदस्य प्रयोजनमित्यस्मिन् विषयेऽण प्रत्ययो भवति, यथासंख्यं मन्थे दण्डे चाभिधेये । मन्थो विलोडनं दण्डो वा, विशाखा प्रयोजनमस्य वैशाखो मन्थः, आषाढा आषाढे अषाढाः प्रयोजनमस्य आषाढो दण्ड: ।१२०॥ उत्थापनादेरीयः ॥ ६. ४. १२१ ॥
उत्थापन इत्येवमादिभ्यस्तदस्य प्रयोजनमित्यस्मिन् विषये ईयःप्रत्ययो भवति । उत्थापनं प्रयोजनमस्योत्थापनीयः, उपस्थापनीयः, उत्थापन, उपस्थापन, अनुप्रवचन, अनुवाचन, अनुवदन, अनुवादन, अनुपान, अनुवासन, आरम्भण, समारम्भण इत्युत्थापनादिः १२१ विशिरुहिपदिपूरिसमापेरनात् सपूर्वपदात् ॥ ६. ४. १२२ ॥
विशिरुहिपदिपूरिसमापि इत्येतेभ्योऽनप्रत्ययान्तेभ्यः सपूर्वपदेभ्यस्तदस्य प्रयोजनमित्यर्थे ईयः प्रत्ययो भवति । विशि, गृहप्रवेशनं प्रयोजनमस्य गृहप्रवेशनीयम्, संवेशनीयम्, अनुवेशनीयम्, अनुप्रवेशनीयम्, समावेशनीयम् । रुहि, प्रासादारोहणीयम्, आरोहणीयम्, प्ररोहणीयम्, अनुरोहणीयम् अन्वारोहणीयम्, पदि-अश्वप्रपदनीयम्, गोप्रपदनीयम्, पूरि-प्रपापूरणीयम्, महापूरणीयम, समापि-अङ्गसमापनीयम्, श्रुतस्कन्धसमापनीयम्, व्याकरणसमापनीयम् ।१२२॥
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[ पाद ४. सू. १२३-१२८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने षष्ठोध्यायः स्वर्गस्वस्तिवाचनादिभ्यो यलुपौ ।। ६. ४. १२३ ॥
स्वर्गादिभ्यः स्वस्तिवाचनादिभ्यश्च यथासंख्यं तदस्य प्रयोजनमित्यस्मिन् विषये यः प्रत्ययो लुप् च भवतः, स्वर्गादिभ्यो यः । स्वर्गः प्रयोजनमस्य स्वर्ग्यम्, यशस्यम्, आयुष्यम्, काम्यम्, धन्यम्, स्वस्तिवाचनादिभ्य इकणो लुप् । स्वस्तिवाचनं प्रयोजनमस्य स्वस्तिवाचनम्, शान्तिवाचनम्, पुण्याहवाचनम्, स्वर्गादयः स्वस्तिवाचनादयश्च प्रयोगगम्याः । गणद्वयोपादानाद्वचनभेदेऽपि यथासंख्यम् । १२३ ।
[ १८५
समयात् प्राप्तः ।। ६. ४. १२४ ॥
सोऽस्येत्यनुवर्तते । समयशब्दात्प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति योऽसौ प्रथमान्तः प्राप्तश्चेत्स भवति । समयः प्राप्तोऽस्य सामायिकं कार्यम्, उपनतकालमित्यर्थः । १२४ | ऋत्वादिभ्योऽण् ॥। ६. ४. १२५ ।।
ऋतु इत्येवमादिभ्यः सोऽस्य प्राप्त इत्यर्थे अण् प्रत्ययो भवति । ऋतुः प्राप्तोऽस्य आर्तवं पुष्पफलम्, उपवस्ता प्राप्तोऽस्य औपवस्त्रम्, प्राशिता प्राप्तोऽस्य प्राशित्रम् । ऋत्वादयः प्रयोगगम्याः । १२५ ।
न्या० स० ऋत्वा॰—औपवस्त्रमिति उपोषितपारण के यद्भक्ष्यद्रव्यं तदौपवस्त्रं यद्वैदिकम् - 'माषान्मधुमसुरांश्चवर्जयेदौपवस्त्र के ' पुरुषस्तूपवस्ता ।
प्राशित्रमिति बालस्य यत्प्रथमं भोजनं तदुच्यते प्राशित्रम् ।
कालाद्यः ।। ६. ४. १२६ ।।
कालशब्दात्सोऽस्य प्राप्त इत्यर्थे यः प्रत्ययो भवति । कालः प्राप्तोऽस्य काल्यस्तापसः, काल्मा मेघाः । १२६ । दीर्घः ॥ ६. ४. १२७ ||
कालशब्दात्मप्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति योऽसौ प्रथमान्तः स चेद्दीर्घो भवति । दीर्घः कालोस्य कालिकमृणम्, कालिकं वैरम्, कालिकी संपत्, योगाविभागादिकण् । यविधाने हि कालाद्यो दीर्घश्वेत्येकमेव सूत्रं क्रियेत । १२७ ।
आकालिकमिकश्चाद्यन्ते ॥ ६. ४. १२८ ॥
आकालिकमिति शब्दरूपमिकान्तमिकणन्तं च निपात्यते, आकालशब्दादिक इकण् च भवत्यर्थे भवतीत्यर्थः । आद्यन्ते आदिरेव यद्यन्तो गम्यते ।
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१८६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० १२९-१३० ] कथं चादिरेवान्तो भवति ? यस्मिन्काले यत् प्रवृत्तमनध्यायादि तस्मिन्नेव काले प्रत्यावृत्ते यदि तदुपरमेत, यदि वा यस्मिन्नेव काले क्षणादौ विद्यदादेर्जन्म यदि तस्मिन्नेव काले विनश्यन्नात्मलाभकालादूर्ध्व तिष्ठेदित्यर्थः । आकालं भवति आकालिकोऽनध्यायः पूर्वेधुर्यस्मिन्काले तृतीये चतुर्थे वा यामे प्रवृत्तः पुनरपरेधुरपि आ तस्मात्कालाद्भवन् आकालिकोऽनध्याय उच्यते । आकालिका आकालिकी वा वृष्टिः । स्त्रियामिकेकणोविशेषः । आकालिका आकालिकी वा विद्युत्, आजन्मकालमेव भवन्ती जन्मानम्तरविनाशिनी ऊर्ध्वमननुवर्तमाना एवमुच्यते । एवं च द्वेधाप्यादिरेवान्तो भवति । आद्यन्त इति किम् ? सर्वकालभाविनि माभूत्, निपातनमादावन्ते चेति द्वन्द्वनिवृत्त्यर्थम् । अथवा निपातनस्येष्टविषयत्वात् समानकालशब्दस्याकालादेशः। आद्यन्त इति च द्वन्द्वः प्रकृतिविशेषणम् । आद्यन्तयोर्वर्तमानात्समानकालशब्दात् प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे इकेकणी प्रत्ययौ निपात्येते समानकालशब्दस्य चाकालादेशः । समानकालावाधन्तावस्याकालिकोऽनध्यायः । आकालिका आकालिकी वा विद्युत्, समानकालताचाद्यन्तयोः पूर्ववद्वेदितव्या ।१२८१
न्या० स० आका०-तस्मिन्नेवेति इह यद्यपि गतः कालो न प्रत्यावर्त्तते तथापि सामान्येन तुल्यः कालः स एवोच्यते, तथा च वक्तारो भवन्ति । अद्य यस्मिन्काले भवानायातः श्वः सोऽपि तस्मिन्नेव काल समागमिष्यति ।
द्वंद्वानिवृत्त्यर्थमिति 'यद्येवमाकालिकमिति किमर्थ, आकालादिकश्चाद्यन्त इत्युच्यमानेऽपि सिध्यति ? ____ उच्यते निपातनाभावे आद्यन्त इति द्वंद्वाऽपि विज्ञायते, ततश्चाकालादिकश्च भवति, आदौ अन्ते च गम्यमाने इत्यपि स्यात् , ततश्च यत् कुतश्चिदारूब्धमा कुतश्चित्कालादाभवति तत्रापि प्रत्ययः प्रसज्येत । त्रिंशदिशतेर्डकोऽसंज्ञायामाईदर्थे ॥६. ४. १२९ ॥
त्रिशविंशति इत्येताभ्यामा अर्हदर्थाद्योऽर्थो वक्ष्यते तस्मिन् डकः प्रत्ययो भवति कापवादः असंज्ञायां विषये न चेत्प्रत्ययान्तं कस्यचित्संज्ञा भवति । त्रिंशता क्रीतं त्रिशकम्, विंशत्या क्रीतं विंशकम्, त्रिंशतमर्हति त्रिंशकः, विशकः, आईदर्थ इत्यभिविधावाकारः । असंज्ञायामिति किम् ? त्रिंशत्कम्, विशतिकम् ।१२९।
न्या० स० त्रिंश-आर्हदर्थे इति अर्हश्चासावर्थश्च, अहंदर्थात् आईदर्थ तस्मिन् । संख्याडतेश्वाशत्तिष्टेः कः ॥ ६. ४. १३०॥ शदन्तत्यन्तष्टयन्तवजितायाः संख्याया डतिप्रत्ययान्ताच्च शब्दाच्चकारा
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1. पाद. ४. सू. १३१-१३२]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः
[ १८७
त्रिंशद्विशतिभ्यां च आर्हदर्थे कः प्रत्ययो भवति, इकणोऽपवादः । संख्या द्वाभ्यां क्रीतं द्विकम्, त्रिकम्, पञ्चकम्, बहुकम्, गणकम्, यावत्कम्, तावत्कम्, अध्यर्धकम्, अर्धपञ्चमकम् । इति कतिभिः क्रीतं कतिकम्, त्रिंशत् त्रिंशत्कम् विंशति विंशतिकम्, अशत्तिष्टेरिति प्रतिषेधे प्राप्ते इतित्रिंशद्विशतीनामुपादानम् । अशत्तिष्टेरिति किम् ? चात्वारिंशत्कम् पाञ्चाशत्कम्, साप्ततिकम्, आशीतिकम् नावतिकम्, षाष्टिकम् | १३०|
न्या० स० संख्या ० - ननु इतिग्रहणं किमर्थं संख्याद्वारेणापि गतत्वात् त्यन्तद्वारेण प्रतिषेधः स्यादिति न वाच्यं अर्थवद्ग्रहणे इति न्यायेन तेः सार्थकस्योपादानात् ?
उच्यते, ष्ट्र्यन्तद्वारेण षष्टिवर्जनं ज्ञापयति, अत्राव्युत्पत्तिपक्षः अव्युत्पत्तिपक्षे च न्यायस्याप्रवृत्तिः, किं च न्यायस्यानित्यत्वज्ञापनार्थं इतिग्रहणं तेन एकसप्ततिरित्यत्र त्यन्तद्वारेण प्रतिषेधः सिद्धः, अन्यथा सप्ततिरित्येव त्यन्तो नैकसप्ततिरिति न स्यात् । अव्युत्पत्तिपक्षश्च कस्मान्निश्चीयते षष्टिग्रहणात्, अन्यथा षष्टिशब्दस्यतिप्रत्ययान्तत्वात्यन्तद्वारेण प्रतिषेधे अस्योपादनमनर्थकं स्यादिति भावार्थ: ।
शतात्केवलादतस्मिन्येकौ ॥ ६. ४. १३१ ॥
आ अर्हदर्थाद्योऽर्थो वक्ष्यते तस्मिन्केवलाच्छतशब्दात् य इक इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः कापवादी अतस्मिन् स चेदर्थो वस्तुतः प्रकृत्यर्थादभिन्नो न भवति । शतेन क्रीतं शत्यम् शतिकम्, शतमर्हति शत्यः शतिकः, शतं वर्षाणि मानमस्य शत्यः शतिकः पुरुषः । केवलादिति किम् ? ह्युत्तरं शतं द्विशतम्, तेन क्रीतं द्विशतकम् । संख्यादेवार्हदलुच इति प्राप्नोति । अतस्मिन्निति किम् ? शतं मानमस्य शतकम् स्तोत्रम्, शतकं निदानम्, अत्र हि प्रकृत्यर्य एव श्लोकाध्यायशतं प्रत्ययान्तेनाभिधीयते, अन्यस्मिंस्तु शते भवत्येव । शतेन क्रीतं शाटकशतम् शत्यम् शतिकम् ।१३१।
न्या० स० शता० - वस्तुत इति वस्तुत इति परमार्थवृत्त्या, यद्यपि अभिन्तेऽपि वस्तुनि कथंचिद् भेदविवक्षया भेदो भवत्येव तथापि न स गृह्यत इत्यर्थः ।
प्रत्ययान्तेनेति शतकमिति कप्रत्ययान्तेन, अयमर्थ:, - अत्रास्येति षष्ठ्यर्थे प्रत्ययो विहित इति स एव प्रत्ययार्थः, ततश्च शतरूपात् प्रकृत्यर्थात् अस्य स्तोत्रस्येत्वंरूपः प्रत्ययार्थो भिन्न यतो यदेव शतं तदेव स्तोत्रं न खलु शतादन्यद्रूपं स्तोत्रस्येति ।
एव,
वातोरिकः ।। ६. ४. १३२ ॥
अत्वन्तायाः संख्याया आ अर्हदर्थाद्योऽर्थो वक्ष्यते तस्मिन्निकः प्रत्ययो वा भवति । यावतिकम्, यावत्कम्, तावतिकम्, तावश्यकम् विधानसामर्थ्यादिकारलोपो न भवति । १३२ ।
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१८८]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४. सू. १३३-१३९ ] कार्षापणादिकट् प्रतिश्चास्य वा ।। ६. ४. १३३ ॥
कार्षापणशब्दादाहंदर्थे इकट् प्रत्ययो भवति, अस्य च कार्षापणशब्दस्य प्रति इत्यादेशो वा भवति । कार्षापणिकम्, कार्षापणिकी, प्रतिकम्, प्रतिकी। चकार आदेशस्य प्रत्ययसंनियोगशिष्टत्वार्थः, अत एव द्विगोलपि प्रत्यादेशो न भवति । द्विकार्षापणम्, अध्यर्धकार्षापणम्, अस्येति स्थानिप्रतिपत्त्यर्थम्, अन्यथा प्रतिः प्रत्ययान्तरं विज्ञायेत, टकारो ङ्यर्थः ।१३३।
अर्धात्पलकंसकर्षात् ॥ ६. ४. १३४॥ ___ अर्धशब्दपूर्वाल्पलकंसकर्ष इत्येवमन्तान्नाम्न आईदर्थे इकट् प्रत्ययो भवति । अर्धपलिकम्, अर्धपलिकी, अर्धकसिकम्, अर्धकंसिकी, अर्धकर्षिकम्, अर्धषिकी ।१३४। कंसाधोत् ॥ ६. ४. १३५॥
कंस अर्ध इत्येताभ्यामार्हदर्थे इकट् प्रत्ययो भवति । कंसिकम्, कंसिकी, अधिकम्, अधिकी ।१३५॥ सहस्रशतमानादण ॥ ६.४. १३६ ॥
सहस्रशतमान इत्येताभ्यामार्हदर्थेऽण् प्रत्ययो भवति, केकणोरपवादः । सहस्रेण क्रीतः साहस्रः, शतमानेन शातमानः । 'वसनात्' (६-४-१३६) इत्यत्र सहस्रशतमानग्रहणमकृत्वाऽण्वचनम् 'नवाणः' (६-४-१४२) इति एवमर्थम् ।१३६।
न्या० स० सह-केकणोरपवाद इति ‘संख्याडतेः' ६-४-१३० इति 'मूल्यैः क्रीते' ६-४-१५० इति प्राप्तयोः । एवमर्थमिति 'नवाणः' ६-४-१४२ इत्यनेनाण्प्रत्ययस्य वा लुप, अस्तु 'अनाम्न्यद्विः' ६-४-१४१ इति नित्यं लुप् स्यादित्यर्थः । शूर्पाद्धाञ् ॥ ६. ४. १३७ ॥
शूर्पशब्दादाहदर्थेऽञ् प्रत्ययो वा भवति, इकणोऽपवादः । शौर्पम्, शोपिकम् ।१३७॥ वसनात् ॥ ६. ४. १३८॥
वसनशब्दादाहदर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति । वसनेन क्रीतं वासनम् ।१३८। विशतिकात् ।। ६. ४. १३९ ।।
विशतिकशब्दादाहदर्थेऽञ् प्रत्ययो भवति । विशतिर्मानमस्य विशतिकम् तेन क्रीत्तं बैंशतिकम्, योगविभाग उत्तरार्थः ।१३९।।
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[ 'पाद ४. सू. १४०-१४२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १८९ दिगोरीनः ॥ ६. ४. १४० ॥
विशतिकशब्दान्तात द्विगोराईदर्थे ईनः प्रत्ययो भवति, अञोऽपवादः ।। विधानसामर्थ्याल्लुप् न भवति । द्विविंशतिकीनम्, त्रिविंशति कीनम्, अध्यर्धविशतिकीनम्, अर्धपञ्चविंशतिकीनम् ।१४०। अनाम्न्यद्धिः प्लुप् ॥ ६. ४. ९४१ ॥
द्विगोः समासादाईदर्थे उत्पन्नस्य प्रत्ययस्य पिल्लुप् सकृद्भबति न तु द्विः अनाम्नि न चेत्प्रत्ययान्तं कस्यचिन्नाम भवति । द्वाभ्यां कंसाभ्यां द्विकंस्था वा क्रीतम् द्विकंसम्, विकंसम्, अध्यर्धकंसम्, अर्धपञ्चकंसम् । द्विशूर्पम्, त्रिशूर्पम् । अध्यर्धशूर्पम् । अर्धपञ्चमशर्पम् । अद्विरिति किम् ? द्वाभ्यां शूर्पाभ्यां क्रीतं द्विशूर्पम्, अञ्लप् । द्विशूर्पण क्रीतं द्विशौपिकम् । अनाम्नि इति किम् ? पञ्च लोहिन्य: परिमाणमस्य पाञ्चलोहितिकम्, 'जातिश्च णि'-(३-२-५१) इत्यादिना पुवद्भावः, पञ्च कलायाः परिमाणमस्य पाञ्चकलायिकम् । परिमाणविशेषनाम्नी एते । अत एव 'मानसंवत्सर'(७-४-१९) इत्यादिना नोत्तरपदवृद्धिः, लुपः पित्त्वात् पञ्चभिर्गार्गीभिः क्रीतः पञ्चगर्ग इत्यत्रेकणो लुपि पुवद्भावो भवति । संख्यान्तात् द्विगोलपं नेच्छन्त्येके, द्वाभ्यां षष्टिभ्यां क्रीतं द्विषाष्टिकम्, त्रिषाष्टिकम् ।१४१।
· न्या० स० अना०-अध्यर्द्धकसम्, अर्धपञ्चमकंसमिति 'कसमास' १-१-४१ इति 'अर्धपूर्व' १-१-४२ इति च संख्यावत्त्वाद् द्विगौ 'संख्यादेश्च' ६-४-८० इत्यतिदेशात् 'कॅसार्धात्' ६-४-१३५ (इति) इकट्, एवं पूर्वोदाहरणद्वयेपि द्विशूर्पमित्यादौ 'द्विशूर्पाद्वाञ्' विकल्पपक्षे इकण च द्विशौर्पिकमिति, 'संख्यादेश्च' ६-४-८० इत्यत्राऽलुच इति भणनाल्लुचि सत्यां शूर्पाद्वाञ् न भवति, 'मानसंवत्सर' ७-४-१९ इत्युत्तरपदवृद्धिः ।
पुंभावो भवतीति 'क्यङ्मानि' ३-२-५० इत्यनेन पुंभावे कृते 'यवनः' ६-१-१२६ इति यत्रो लुप् । नवाणः ॥ ६. ४. १४२॥
द्विगोः परस्याहदर्थे विहितस्याणः पिल्लुप् वा भवति न तु द्विः । द्विसहस्रम् द्विसाहस्रम्, अध्यर्धसहस्रम्, अध्यर्धसाहस्रम्, अर्धषष्ठसहस्रम्, अर्धषष्ठसाहस्रम्, द्विशतमानम्, द्विशातमानम्, अध्यर्धशतमानम्, अध्यर्धशातमानम्, अर्धषष्ठशतमानम्, अर्धषष्ठशातमानम् । अण इति किम् ? द्वौ द्रोणौ पचति द्विद्रोणः। अध्यर्धद्रोणः, पूर्वेण नित्यमेव लुप् ।१४२।
___ न्या. स. नवा०-द्विशातमानमिति द्वाभ्यां शतमानाभ्यां क्रीतं 'सहस्रशतमानादणू' ६-४-१३६ सर्वेष्वत्र प्रकरणे 'मानसंवत्सर' ७-४-१९ इत्युत्तरपदवृद्धिः ।
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१९० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससवलिते [ पाद. ४ सू० १४३-१४७ ] सुवर्णकार्षापणात् ॥ ६. ४. १४३ ॥
सुवर्णान्तात्कार्षापणान्ताच्च द्विगोः परस्याहदर्थे विहितस्य प्रत्ययस्य वा लुप् भवति न तु द्विः। द्वाभ्यां सुवर्णाभ्यां क्रीतं द्वि सुवर्णम्, द्विसौणिकम्, अध्यर्धसुवर्णम्, अध्यर्धसौणिकम्, द्विकार्षापणम्, द्विकार्षापणिकम, द्विप्रति, द्विप्रतिकम्, अध्यर्यकार्षापणम्, अध्यर्धकार्षापणिकम्, अध्यर्धप्रतिकम ।१४३॥ दित्रिबहोर्निष्कबिस्तात् ॥ ६. ४. १४४ ॥
द्वित्रिबह इत्येतेभ्यः परो यो निष्कबिस्तशब्दौ तदन्तात् द्विगोराहदर्थे उत्पन्नस्य प्रत्ययस्य लुप वा भवति न तु द्विः । द्विनिष्कम्, द्विनैष्किकम्, त्रिनिष्कम्, त्रिनष्किकम्, बहुनिष्कम्, बहुनैष्किकम्, द्विबिस्तम्, द्विबैस्तिकम् त्रिबिस्तम्, त्रैबैस्तिकम्, बहुबिस्तम्, बहुबैस्तिकम् ।१४४। शताद्यः ।। ६. ४. १४५॥
शतान्तात् द्विगोराहदर्थे यः प्रत्ययो बा भवति, पक्षे संख्यालक्षणः कः तस्य लुप् भवति, अस्य तु विधानसामर्थ्यान्न भवति । द्वाभ्यां शताभ्यां क्रीतम् द्विशत्यम, द्विशतम्, अध्यर्धशत्यम्, अध्यर्धशतम्, अर्धषष्ठशत्यम्, अर्धषष्ठशतम् ।।१४५। शाणात् ॥ ६. ४. १४६ ।।
शाणान्ताद्विगोराहदर्थे यः प्रत्ययो वा भवति, पक्षे इकण, तस्य लुप् । अस्य तु न भवति विधानसामर्थ्यात् । पञ्चशाणम्, पञ्चशाण्यम्, अध्यर्धशाण्यम्, अध्यर्धशाणम्, अर्धपञ्चमशाण्यम्, अर्धपञ्चमशाणम्, योगविभाग उत्तरार्थः ।१४६। दिव्यााण वा ॥६. ४. १४७ ॥
द्वित्रि इत्येतत्पूर्वो यः शाणशब्दस्तदन्ताद्विगोराहदर्थे यअण् इत्येतो प्रत्ययौ वा भवतः, वाग्रहणमुत्तरत्र वानिवृत्त्यर्थम् । द्वाभ्यां शाणाभ्यां क्रीतं द्विशाण्यम्, द्वैशाणम् । पक्षे इकण तस्य लुप्, द्विशाणम्, एवं त्रिशाण्यम्, त्रैशाणम्, त्रिशाणम्, एवं च त्रैरूप्यं भवति ।१४७।
न्या० स० द्वित्र्यादेर्याण-द्वित्र्यादेरण वैति क्रियतां द्विव्यादिर्यः शाणशब्दस्तदन्तादनेनाण शाणाद् वेति यः विकल्पपक्षे चेकणिति रूपत्रयं सिभ्यति, उच्यते, तक्रकौण्डिन्यन्यायेन यप्रत्ययस्य बाधा आशङक्येत । यप्रत्ययबाधकोऽण् वा भवति तन्निवृत्त्यर्थ यग्रहणम् ।
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पाद. ४. सू. १४८-१५१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १९१ पणपादमाषाद्यः ।। ६. ४. १४८ ॥
- पणपादमाष इत्येवमन्ताद्विगोराहदर्थे यः प्रत्ययो भवति, विधानसामर्थ्यान्न लुप् । द्वाभ्यां पणाभ्यां क्रीतं द्विपण्यम्, त्रिपण्यम्, अध्यर्धपण्यम्, अर्धषष्ठपण्यम्, द्विपाद्यम्, त्रिपाद्यम्, अध्यर्घपाद्यम्, माषपणसाहचर्यात्पादः परिमाणं गृह्यते न प्राण्यङ्गम् । तेन 'हिमहतिकाषिये पद' (३-२-९६) इति पद्भावो न भवति तत्र प्राण्यङ्गस्यैव ग्रहणात्, यद्वा पादसंबन्धी यकारस्तत्र गृह्यते अयं तु द्विगुसंबन्धीति न भवति । द्विमाष्यम्, त्रिमाष्यम्, अध्यर्धमाष्यम् ।१४८। खारीकाकणीभ्यः कच् ॥ ६. ४. १४९ ॥
खारीकाकणी इत्येवमन्तात् द्विगोर्बहुवचनात्केवलाभ्यां च खारीकाकणीभ्यांमार्हदर्थे कच प्रत्ययो भवति विधानसामर्थ्याच्च न कुप् । द्वाभ्यां खारीभ्यां क्रोतं द्विखारीकम, त्रिखारीकम्, अध्यर्धखारीकम्, अर्धतृतीयखारीकम्, एवं द्विकाकणीकम्, त्रिकाकणीकम् अध्यर्धकाकणीकम्, अर्धतृतीयकाकणीकम् । केवलाभ्याम्, खारीकम्, काकणीकम, चकारो 'न कचि' (२-४-१०४) इति प्रतिषेधार्थः ।१४९। मूल्यैः क्रीते ॥ ६. ४. १५० ॥
मूल्यवाचिनो निर्देशादेव तृतीयान्तात् क्रीतेऽर्थे यथाविहितमिकणादयः प्रत्यया भवन्ति । प्रस्पेन क्रीतं प्रास्थिकम्, सप्तत्या साप्ततिकम्, आशीतिकम्, नैष्किकम् पाणिकम्, पादिकम्, त्रिशकम्, विशकम्, द्विकम्, त्रिकम्, शत्यम्, शतिकम् । मूल्यैरिति किम् ? देवदत्तेन क्रीतम्, पाणिना क्रीतम् । वृत्तौ संख्याविशेषानवगमात् द्विवचनबहुवचनान्तान्ना भवति । प्रस्थाभ्यां प्रस्थैर्वा क्रीत मिति, यत्र तु संख्याविशेषावगमे प्रमाणमस्ति तत्र भवत्येव । द्वाभ्यां क्रीतं द्विकम्, त्रिकम् , द्वाभ्यां प्रस्थाभ्यां क्रीतं द्विप्रस्थम्, त्रिप्रस्थम्, यथा मुद्गः क्रीतं मौद्रिकम्, माषिकम्, न ह्येकेन मुद्रेन माषेण वा क्रयः संभवति ।१५०। ___ न्या० स० मूल्यैः-मूल्यैरिति बहुवचननिर्देशो लाघवार्थः, स्वरूपग्रहणव्युदासार्थश्च । ख्याविशेषाऽनवगमादिति प्रत्यये सति न ज्ञायते वृत्तिर्द्धिवचनेन बहुवचनेन वा कृतेत्येकवचनान्तादेव प्रत्यय इत्यर्थः । तस्य वापे ।। ६. ४. १५१ ॥
तस्येति षष्ठ्यन्ताद्वापेऽर्थे यथाविधि इकणादयो भवन्ति, उप्यतेऽस्मिन्निति
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१९२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू. १५२-१५५ । वापः क्षेत्रम् । प्रस्थस्य वापः प्रास्थिकम्, द्रौणिकम्, मौद्धिकम्, शत्यम्, शतिकम्, खारीकम् ।१५१॥ वातपित्तश्लेष्मसंनिपाताच्छमनकोपने ॥ ६. ४. १५२ ।।
वातादिभ्यस्तस्येति षष्ठचन्तेभ्यः शमने कोपने चार्थे यथाविहितमिकणा प्रत्ययो भवति । शाम्यति येन तच्छमनम्, कुष्यति येन तत्कोपनम्, वातस्य शमनं कोपनं वा वातिकम्, पैतिकम्, श्लैष्मिकम् सांनिपातिकम् । पथ्यमपथ्यं च द्रव्याद्येवमभिधीयते प्रकरणात्तु विशेषगतिः ।१५२॥ हेतौ संयोगोत्पाते ॥ ६. ४. १५३ ॥
तस्येति षष्ठयन्ताद्धेतावणे यथाविहितं प्रत्ययो भवति योऽसौ हेतु: स चेत् संयोग उत्पातो वा भवति । हेतुनिमित्तम्, संयोगः संबन्धः । प्राणिनां शुभाशुभसूत्रको महाभूतपरिणाम उत्पातः । शतस्य हेतुरीश्वरसंयोगः शत्यः शतिकः, साहस्रः, उत्पात सोमग्रहणस्य हेतुरुत्पातः सोमग्रहणिको भूमिकम्पः, सांग्रामि कमिन्द्रधनुः, सौभिक्षिकः, परिवेषः, शतस्य हेतुर्दक्षिणाक्षिस्पन्दनम् शत्यं शतिकम्, साहस्रम् । संयोगोत्पात इति किम् ? शतस्य हेतुश्चैत्रः ।१५३। . पुत्राद्ययौ ॥६. ४. १५४॥
पुत्रशब्दात्तस्येति षष्ठयन्ताद्धेतावर्थे य ईय इत्येतो प्रत्ययौ भवतः स चेदेतुः संयोग उत्पातो वा भवति । पुत्रस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा पुत्र्यः, पुत्रीयः ।१५४।
दिस्वरब्रह्मवर्चसाद्योऽसंख्यापरिमाणाश्चादेः ॥ ६. ३. १५५ ।। ___ संख्यापरिमाणाश्वादिजिताद्विस्वरान्नाम्नो ब्रह्मवर्चसशब्दाच्च तस्येति षष्ठयन्ताद्धतावर्थ यः प्रत्ययो भवति स चेद्धेतुः संयोग उत्पातो वा भवति, इकणादीनामपवादः । धनस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा धन्यः, यशस्यः, आयुष्यः, वात्या विद्युत्, ब्रह्मवर्चसस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा ब्रह्मवर्चस्यः । कथं गोर्हेतुः संयोग उत्पातो वा गव्यः ? द्विस्वराभावात् 'गोः स्वरे यः' (६-१-२७) इति भविष्यति । द्विस्वरेति किम् ? विजयस्य हेतुः संयोग उत्पातो वा वैजयिकः, आभ्युदयिकः । ब्रह्मवर्चसग्रहणमद्विस्वरार्थम्, असंख्यापरिमाणाश्वादेरिति किम् ? संख्या, पञ्चानां हेतुः संयोग उत्पातो वा पञ्चकः, सप्तकः, परिमाण, प्रास्थिकः, खारीकः । 'ऊर्ध्वमानं किलोन्मानं परिमाणं
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[ पाद. ४. सू. १५६-१५८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोऽध्यायः [१९३ तु सर्वतः, आयामस्तु प्रमाणं स्यात्संख्या बाह्या तु सर्वतः' इति संख्यापरिमाणयोविशेषः । अश्वादि, आश्विकः, गाणिकः, वासुकः । अश्व, गण, वसु, वस्त्र, ऊर्णा, उमा, भङ्गा, वर्षा, अश्मन् इत्यश्वादिः ।१५५। ___न्या० स० द्विस्व० -ऊर्ध्वमानमिति इह संख्याग्रहणं किमर्थं परिमाणग्रहणेनैव संख्या गृह्यते, संख्या हि परिमाणं भवति, परिमीयते परिच्छिद्यते इयत्तावधार्यते येन तद्धि परिमाणं संख्ययापि चेयत्तावधार्यते ? इत्याह-संख्येति । पृथिवीसर्वभूमेरीशज्ञातयोश्वाञ् ॥ ६. ४. १५६ ॥
पृथिवीसर्वभूमिशब्दाभ्यां षष्ठयन्ताभ्यामीशज्ञातयोस्तस्य हेतुस्संयोग उत्पात इत्यस्मिन् विषये चाञ् प्रत्ययो भवति । ईशः स्वामी, पृथिव्या ईशः पार्थिवः, सर्वभूमेः सार्वभौमः सर्वभूमेरनुशतिकादित्वादुभयपदवृद्धिः । पृथिव्या ज्ञातः पार्थिवः, कर्तरि षष्ठी संबन्धविवक्षायां वा एवं सार्वभौमः । पृथिव्या हेतुः संयोग उत्पातो वा पार्थिवः, सार्वभौमः, ईशज्ञातयोरिति द्विवचनं हेतुविशेषणत्वशङ्का व्यवच्छेदार्थम् ।१५६।
न्या० स० पृथिवीसर्वभूमे०-व्यवच्छेदार्थमिति हेतुविशेषणत्वे ति संयोग उत्पात ईश ज्ञातेत्यर्थचतुष्टयं विज्ञायेत, ततश्च स चेद्धेतुः संयोग उत्पात ईशो ज्ञातो वा भवतीत्यर्थः स्यात् ।
लोकसर्वलोकाज्ज्ञाते ॥ ६. ४. १५७ ॥ __ लोकसर्वलोकशब्दाभ्यां तस्येति षष्ठ्यन्ताभ्यां ज्ञातेऽर्थे यथाविहितमिकण् प्रत्ययो भवति । लोकस्य ज्ञातो लौकिकः, सार्वलौकिकः। सर्वलोकशब्दस्यानुश तिकादित्वादुभयपदवृद्धिः ।१५७।। तदत्रास्मै वा वृद्धयायलाभोपदाशुल्कं देयम् ॥ ६. ४. १५८॥
तदिति प्रथमान्तादत्रेति सप्तम्यर्थे अस्मै इति चतुर्थ्यर्थे वा यथाविहितं प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेद्वद्धिरायो लाभ उपदा शुल्क वा देयं भवति । अधमर्णेनोत्तमाय गृहीतधनातिरिक्तं देयं वृद्धिः, ग्रामादिषु स्वामिग्राह्यो भाग आयः । पटादीनामुपादानं मूल्यातिरिक्त प्राप्तं द्रव्यं लाभः, उपदा उत्कोचः, लञ्च उत्कोट इति यावत्, वणिजां रक्षानिर्देशो राजभागः शुल्कम्, पञ्चास्मिन् शते वृद्धिः पञ्चकं शतम्, पञ्चास्मिन् ग्रामे आय: पञ्चको ग्रामः, पञ्चास्मिन् पटे लाभः पञ्चकः पटः, पञ्चास्मिन् व्यवहारे उपदा पञ्चको व्यवहारः । पञ्चास्मिन् शते शुल्कं पञ्चकं शतम् । एवं शतमस्मिन् वृद्धिरायो लाभ उपदा शुल्कं वा देयम् शत्यं शतिकम् । साहस्रम्, प्रास्थिकम्, द्रौणिकम्, अस्मै, पञ्चास्मै देवदत्ताय वृद्धिरायो लाभ
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१९४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. ४ सू० १५९-१६२ ] उपदा शुल्कं वा देयम् पञ्चको देवदत्तः, शत्यः, शतिकः, साहस्रः, प्रास्थिकः, द्रौणिकः । वृद्ध्यादिग्रहणं किम् । पञ्च मूल्यमस्मिन्नस्मै वा दीयते ।१५८। पूरणार्दादिकः ॥ ६. ४. १५९॥
पूरणप्रत्ययान्तादर्धशब्दाच्च तदिति प्रथमान्तादस्मिन्नस्मै वा दीयत इत्यर्थयोरिकः प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं वृद्ध्यादि चेत्तद्भवति, इकणिकटोरपवादः । द्वितीयमस्मिन्नस्मै वा वृद्धिरायो लाभ उपदा शुल्क वा देयम् द्वितीयिकः, तृतीयिकः, पञ्चमिकः, षष्ठिकः, अर्ध-अधिकः, अधिका स्त्री। अर्धशब्दो रूपकाचे रूढः ।१५९।
न्या० स० पूर०-इकणिकटोरिति पूरणप्रत्ययान्तेभ्यः पूर्वेणेकण् , अर्द्धात्तु ' कंसार्द्धात् '. ६-४-१३५ इतीकद ।
भागाघेकौ ॥ ६. ४. १६०॥
भागशब्दात्तदस्मिन्नस्मै वा वृद्ध्यादीनामन्यतमं देयमिति विषये य इक इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः, इकणोऽपवादौ । भागोऽस्मिन्नस्मै वा वृद्ध्यादीनामन्यतमं देयं भाग्यः, भागिकः, भागिका स्त्री। भागशब्दोऽपि रूपकार्धस्य वाचकः ।१६०। तं पचति द्रोणादाञ् ॥६. ४. १६१ ॥
तमिति द्वितीयान्ताद्रोणशब्दात्पचत्यर्थे अञ् प्रत्ययो वा भवति, पक्षे इकण् । द्रोणं पचति, द्रोशः, द्रौणिकः, द्रौणी द्रोणिकी स्थाली गृहिणी वा, द्वौ द्रोणौ पचति द्विद्रोणी। 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' (६-४-१४१) इति अधिकणोलुप् ।१६१॥ संभवदवहरतोश्च ॥ ६. ४. १६२ ।।
तमिति द्वितीयान्तान्नान्नः पचति संभवदवहरतोश्वार्थयोर्यथाविहितमिकणादयो भवन्ति । तत्राधेयस्य प्रमाणानतिरेकेण धारणं संभवः, अतिरेकेणावहारः । प्रस्थं पचति संभवत्यवहरति वा प्रास्थिकः कटाहः, प्रास्थिकी स्थालो, एवं खारीकः, कौडविकः, संभवतिः अकर्मक: सकर्मकश्च संभवति तत्र सकर्मक इह ग्राह्यः । संभवत्यवगृह्णातीत्यर्थः । चकारः पचता संभवदवहरतोः समुच्चयार्थः । तेनोत्तरत्रार्थत्रयस्याप्यनुवृत्तिः ॥१६२।।।
न्या० स० संभ०-अकर्मक इति यथा प्रस्थोऽत्र संभवति माति नातिरिच्यत इति अकर्मकः, प्रस्थमयं संभवत्यवगृह्णाति न निर्वमति नातिरेचयतीति सकर्मकः ।
समुच्चयार्थ इति न त्वाकर्षणार्थः, तेन चानुकृष्टमित्यस्याप्रवृत्तिः ।
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। पाद. ४. सू. १६३-१६६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पष्ठोध्यायः [ १९५ पात्राचिताढकादीनो वा ॥ ६. ४. १६३ ॥
पात्र आचित आढक इत्येतेभ्यो द्वितीयान्तेभ्यः पचत्संभवदवहरत्स्वर्थेषु ईनः प्रत्ययो वा भवति, पक्षे इकण पात्रं पचति संभवत्यवहरति वा पात्रीणः, पात्रिकः, पात्रीणा, पात्रिकी स्थाली, आचितीना, आचितिकी, आढकीना, आढकिकी। पात्रादय: परिमाणशब्दाः ।१६३। द्विगोरीनेकटौ वा ॥६. ४. १६४॥
पात्राचिताढकान्तात् द्विगोद्वितीयान्तात्पचदादिषु त्रिष्वर्थेषु ईन इकट् इत्येतौ प्रत्ययौ वा भवतः, पक्षे इकण् । तस्य च 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' (६-४-१४१) इति लुप् नानॉविधानसामर्थ्यात् । द्वे पात्रे पचति संभवत्यवहरति वा द्विपात्रीणः, द्विपात्रिकः, द्विपात्रः, द्विपात्रीणा, द्विपात्रिकी, द्विपात्री, याचितीना, चितिकी, ब्याचिता । आचितान्तात् ङोर्न भवति अबिस्ताचितकम्बल्यादिति प्रतिषेधात् । व्याढकीना, व्याढकिकी, ब्याढकी, टकारो ङयर्थः।१६४। ___ न्या० स० द्विगो०-नन्विह ईन्ग्रहणं किमर्थं, ईनो वेति प्रकृतं तत्र लाघवात् द्विगोरिकद च वेति वक्तव्यं, एवं च द्विगोरिकट चकारादीनश्च वा भवतीति विज्ञायते ? अत्रोच्यते, इह च शब्देन ईने समुच्चीयमाने 'कुलिजाद्वा' ६-४-१६५ इत्युत्तरसूत्रे इकडेव विज्ञायेत, न त्वीन इत्युत्तरार्थमीनग्रहणम् । कुलिजादा लुप च ॥ ६. ४. १६५ ॥
कुलिजान्ताद्विगोद्वितीयान्तात्पचदादिषु त्रिष्वर्थेषु ईन इकट् इत्येतौ प्रत्ययौ वा भवतः, पक्षे इकण् । तस्य च लुप् वा भवति, तेन चातूरूप्यं संपद्यते । द्वे कुलिजे पचति संभवत्यवहरति वा द्विकुलिजीना द्विकुलिजिकी, पक्षे द्विकुलिजी, द्वैकुलिजिकी लुपि 'परिमाण'-(२-३-२३) इत्यादिना डीः । अन्ये तु लुविकल्पं न मन्यते, तन्मते त्रैरूप्यमेव ।१६५।
न्या० स० कुलि०- तस्य चेति तस्येकणो लुप् वा भवतीत्यर्थः, न चेने कटोरपि विकल्पेन विधानत्तयोः यदि हि लुबभीष्टा स्यात्तदा नित्यं विदध्यात् , न वाच्यं विधानादेव लुप् न भविष्यतीति, लुपोऽपि विकल्पविधानेन पक्षे चरितार्थत्वात् । वंशादेर्भाराद्धरदहदावहत्सु ॥ ६. ४. १६६ ॥
वंशादिभ्यः परो यो भारशब्दस्तदन्ताद् द्वितीयान्तानाम्नो हरति वहति आवहति चार्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । वंशभारं हरति वहति आवहति वा वांशभारिकः, कौटभारिकः । वंशादेरिति किम् ? भारं वहति । भारादिति किम् ? वंशं हरति, अपरोऽर्थः । भारभूतेभ्यो वंशादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो
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१९६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० १६७-१७० ] हरदादिष्वर्थेषु यथाविहितं प्रत्ययो भवति । भारभृतान् वंशान् हरति वहति आवहति वा वांशिकः, कौटिकः, वाल्वजिकः । भारादिति किम् ? एक वंशं हरति, हरतिर्देशान्तरप्रापणे चौर्ये वा। वह तिरुक्षिप्य धारणे, आवहतिरुपादाने । वंश, कुट, कुटज, वल्वज, मूल, स्थूणा, अक्ष, अश्मन्, इक्षु, खट्वा, श्लक्ष्ण इति वंशादिः ।। बहुवचनमर्थत्रयसूचनार्थम् ।१६६। द्रव्यवस्नात्केकम् ॥ ६. ४. १६७ ।।
द्रव्यवस्न इत्येताभ्यां द्वितीयान्ताभ्यां हरति वहति आवहति चार्थे यथासंख्यं क इक इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । द्रव्यं हरति वहति आवहति वा द्रव्यकः, एवं वस्निकः ।१६७।। सोस्य भृतिवस्नांशम् ॥ ६. ४. १६८॥
स इति प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे यथाविहितमिकणादयो भवन्ति, यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेद्भतिर्वस्नमंशो वा भवति । भृतिवेतनम्, वस्नो नियतकाल. क्रयमूल्यम् । अंशो भागः, पञ्चास्य भृतिः पञ्चकः कर्मकरः, पञ्चास्य वस्नं पञ्चकः पटः, पञ्चास्यांशाः पञ्चकं नगरम्, एवं सप्तकः, अष्टकः,. शत्यः शतिकः, साहस्रः, प्रास्थिकः ।१६८। मानम् ॥ ६. ४. १६९ ॥
सोऽस्येति वर्तते । स इति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेन्मानं भवति, मीयते येन तन्मानम्। प्रस्थो मानमस्य प्रास्थिको राशिः। द्रौणिकः, खारीकः, खारीशतिकः, खारीसहस्रिकः । वर्षशतं मानमस्य वार्षशतिको देवदत्तः । वार्षसहस्रिकः, पञ्च लोहितानि पञ्च लोहिन्यो वा मानमस्य पाञ्चलोहितिकम्, पाञ्चकलायिकम् । अनयोः संज्ञाशब्दत्वात् 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' (६-४-१४१) इति लुप् न भवति, अथ मासो मानमस्य वर्ष मान मस्येत्यादौ कस्मात्प्रत्ययो न भवति । न कालो मानग्रहणेन गृह्यते 'मानसंवत्सरस्य-' (७-४-१९) इत्यादौ मानग्रहणे सत्यपि संवत्सरग्रहणात् ।१६९।
न्या० स० मानम्-न काल इति मीयते येनाऽनया व्युत्पत्त्या कालस्यापि ग्रहणं प्राप्नोति । जीवितस्य सन् ॥ ६. ४. १७० ॥
जीवितस्य यन्मानं ततः प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति स च सन् तस्य अनाम्न्यद्विः प्लुप्' (६-४-१४१) इति लुप्
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[ पाद. ४. सू. १७१-१७२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १९७ प्राप्ता न भवतीत्यर्थः । षष्टिर्जीवितमानमस्य षाष्टिकः, साप्ततिकः, वार्षशतिकः, वार्षसहस्रिकः, द्वे षष्टी जीवितमानमस्य द्विषाष्टिकः, त्रिषाष्टिकः, द्विसाप्ततिकः, त्रिसाप्ततिकः, द्विवार्षशतिकः, त्रिवार्षशतिकः, द्विवार्षसहस्रिकः । त्रिवार्षसहस्रिकः, कथं पुनः षष्टयादयो जीवितमानं भवन्ति । वृतौ वर्षशब्देलोपात्, यथा शतायुर्वं पुरुष इति । एवं तर्हि मानमित्यनेनैव सिद्धे किमर्थमिदम् ? नैवम्, प्रास्थिक इत्यादौ व्रीह्यादय एव मेयाः त एव च प्रत्ययार्थः, अत्र तु जीवितं मेयं पुरुषस्तु प्रत्ययार्थ इत्येतदर्थं लुबभावार्थ च ।१७०।
न्या० स० जीवि०-कथमिति दिनादीनानामपि कथं षष्ठ्यादिर्न लभ्यत इत्याह-वृत्तौ वर्षेति यथा शतं वर्षाण्यायुर्यस्यासौ शतायुरित्यत्र समासवृत्तौ गतार्थत्वात् वर्षशब्दलोपः, एतदर्थमिति पूर्वसूत्रे मेयः प्रत्ययार्थोऽत्र तु मानवाचिनी प्रकृतिः जीवितं मेयं प्रत्ययार्थस्तु मेयवानित्यर्थः । संख्यायाः संघसूत्रपाठे ॥ ६. ४. १७१ ॥
संख्यावाचिनः प्रथमान्तादस्य मानमित्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति यत्तदस्येति निर्दिष्टं तच्चेत्संघः सूत्रं पाठो वा भवति । संघः प्राणिनां समूहः, सूत्रं शास्त्रग्रन्थः, पाठोऽधीतिरध्ययनम् । पञ्च गावो मानमस्य पञ्चकः संघः, सप्तकः, अष्टावध्याया मानमस्याष्टकं पाणिनीयं सूत्रम्, दशकं वैयाघ्रपदीयम, शतकं निदानम्, अष्टौ रूपाणि वारा मानमस्याष्टकः पाठोऽधीतः संघसूत्रपाठ इति किम् ? पञ्च वर्णा मानमस्य पञ्चतयं पदम्, पदं न संघो न सूत्रं न पाठ इति को न भवति । अपि तु तयडेव । एवं चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः। पञ्चादीनां संख्येयानामवयवतया संघादेनिस्वान्मानमित्यनेनैव सिध्यति परत्वात्तु तयट प्राप्नोति तद्बाधनार्थ वचनम्, न चातिप्रसङ्गः। अभेदरूपापन्ने संघादी तयायट्रोधिकमिदम् । भेदरूपापन्ने तु तयडेव । चतुष्टय ब्राह्मणक्षत्रियविट् शूद्राः । द्वये देवमनुष्याः, स्याद्वादाश्रयणाच्चान भेदाभेदयोः संभव इति ।१७१।
न्या० स० संख्याया०-न चातिप्रसङ्ग इति संघे वाच्ये क एवेति । नानि ।। ६. ४. १७२॥
संख्यावाचिनस्तदस्य मानमित्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति नाम्नि समुदायश्चेन्नाम भवति । पञ्चेति संख्या मानमेषां पञ्चकाः शकुनयः। त्रिकाः । शालङ्कायनाः, सप्तका ब्रह्मवृक्षाः, अष्टका राजर्षयः, योगविभागकरणात्
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१९८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. ४ सू० १७३-१७५ ) संज्ञायां पञ्चैव पञ्चकाः त्रय एव त्रिका इति स्वार्थे एव वा प्रत्ययो भवति ।१७२। विशत्यादयः ।।६. ४. १७३ ।।
विशत्यादयः शब्दा नाम्नि विषये तदस्य मानमित्यर्थे साधवो भवन्ति । द्वेर्दशदर्थे विभावः शतिश्च प्रत्ययः । द्वौ दशतौ मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य विंशतिः, स्त्रिभावः शच्च प्रत्ययः, त्रयो दशतो मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य त्रिंशत्, चतुरश्चत्वारिंभावः शच्च प्रत्यः, चत्वारो दशतो मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य चत्वारिंशत् । पञ्चन आत्वं च, पञ्च दशतो मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य पञ्चाशत् । षषस्तिः षष्च, षट् दशतो मानमेषां सख्येयानामस्य वा संख्यानस्य षष्टिः, सप्तनस्तिः, सप्त दशतो मान मेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य सप्ततिः, अष्टनोऽशी च, अष्टौ दशतो मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य अशीतिः, नवनस्तिः, नव दशतो मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य नवतिः, दशनः शभावस्तश्च प्रत्ययः । दश दशतो मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य शतम् दश शतानि मानमेषां संख्येयानामस्य वा संख्यानस्य सहस्रम्, एवं दश सहस्राण्ययुतम्, यशायुतानि नियुतम् । दश नियुतानि प्रयुतम् । दश प्रयुतान्यर्बु दम् । दशार्बुदानि व्यर्बुदम् । बहुवचनाल्लक्षकोटिखर्वनिखर्वादयो भवन्ति, पञ्च पादा मानमस्याः पङिक्तश्छन्दः । पिपोलिकापङ्क्तिरित्यादौ तु पचुण् विस्तारे इत्यस्मात् क्त्यन्ताद्भवति, यदत्र लक्षणेनानुत्पन्नं तत्सर्व निपातनात्सिद्धम् ॥ लिङ्गसंख्यानियमश्च विंशत्याद्या शतादिति सिद्धः।१७३।
न्या० स० विश०-बहुवचनादिति दशायुतानि लक्षं दश प्रयुतानि कोटिः, दशाब्जानि खर्वम् , दशवर्वाणि निखर्वम् । त्रैशं चात्वारिंशम् ॥ ६. ४. १७४ ॥
त्रिशच्चत्वारिंशदित्येताभ्यां तदस्य मानमित्यर्थे डण् निपात्यते प्रत्ययात चेत्कस्यचिन्नाम भवति । त्रिंशदध्याया मानमेषां शानि चात्वारिंशानि कानिचित् ब्राह्मणान्येवमुच्यन्ते ।१७४। पञ्चदशदर्गे वा ।। ६. ४. १७५ ॥ पञ्चद्दशदित्येतौ शब्दौ तदस्य मानमित्येतस्मिन् विषये वर्गेऽभिधेये
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[पाद ४. सू. १७६-१८१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ १९९ डत्प्रत्ययान्तौ निपात्येते वा, पक्षे को भवति । पञ्च मानमस्य वर्गस्य पञ्चद्वर्गः, पञ्चको वर्मः, दशद्वर्गः, दशको वर्गः ।१७५। स्तोमे डट् ॥ ६. ४. १७६ ।।
संख्यावाचिनः प्रथमान्तात्तदस्य मानमित्यस्मिन् विषये स्तोमेऽभिधेये डट् प्रत्ययो भवति । ऋगादीनां समूहः स्तोमः । पञ्चदश ऋचो मानमस्य पञ्चदशः स्तोमः। विशः, पञ्चविंश, त्रिंशः, पञ्चदशी पङ्क्तिः। डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः । टकारो ड्यर्थः ।१७६। तमहति ॥६. ४. १७७॥
तमिति द्वितीयान्तादर्हदर्थे यथाविधि प्रत्ययो भवति । श्वेतच्छामर्हति "तच्छत्रिका, बैषिकः, वास्त्रिकः, वास्त्रयुगिकः, आभिषेचनिकः, बालीवर्दिकः, चामरिकः, शत्यः शतिकः, साहस्रः, भोजनमर्हति पानमर्हतीत्यादावनभिधानान भवति ।१७७। दण्डादेयः ।। ६. ४. १७८ ॥
दण्डादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्योऽहत्यर्थे यः प्रत्ययो भवति । इकणोऽपवादः । दण्डमर्हति दण्ड्यः , मुसल्यः, दण्ड, मुसल, मेधा, वध, मधुपर्क, अर्घ, मेघ (थ), उदक, इभ, कशा, युम इति दण्डादिः ।१७८। यज्ञादियः ॥६. ४. १७९ ॥
यज्ञशब्दाद्वितीयान्तादर्हत्यर्थे इयः प्रत्ययो भवति । यज्ञमर्हति यज्ञियो देशः, यज्ञियो यजमानः, यज्ञो नाम क्रियासमुदायः कश्चित् तदभिव्यङ्ग्यं चापूर्वम् इत्याहुः ।१७९। पात्रात्तौ ॥ ६. ४. १८० ॥
पात्रशब्दाद्वितीयान्तादर्हत्यर्थे तौ य इय इत्येतौ प्रत्ययो भवतः। पात्रमर्हति पान्यः । पात्रियः ।१८०। दक्षिणाकडङ्गरस्थालीविलादीययौ ॥ ६. ४. १८१ ॥
दक्षिणा कडङ्गर स्थालीबिल इत्येतेभ्यो द्वितीयान्तेभ्योऽर्हत्यर्थे ईय य इत्यतौ प्रत्ययौ भवतः । दक्षिणामहति दक्षिणीयो दक्षिण्यो मुरुः, कडङ्गरीयः कडङ्गयों गौः । कडङ्गरं माषादिकाष्ठम्, स्थालीविलीयाः स्थालीविल्या स्तण्डुलाः पाकाहा॑ इत्यर्थः ।१८१।
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२०० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४. सू. १८२-१८५ ] छेदादेनित्यम् ॥ ६. ४. १८२ ॥
नित्यमित्यहतीत्यस्य विशेषणम्, छेदादिभ्यो द्वितीयान्तेभ्यो नित्यमहत्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । छेदं नित्यमर्हति छैदिकः, भैदिकः । छेद, भेद, द्रोह, दोह, नर्त, गोनर्त, कर्ष, विकर्ष, प्रकर्ष, विप्रकर्ष, प्रयोग, विप्रयोग, संप्रयोग, प्रेक्षण, संप्रश्न, विप्रश्न इति छेदादिः ।१८२। विरागादिरङ्गश्च ॥ ६. ४. १८३॥
विरागशब्दाद्वितीयान्तान्नित्यमहत्यर्थे यथाविधि प्रत्ययः तत्संनियोगे च विरागशब्दस्य विरङ्गादेशो भवति । नित्यं विरागमर्हति वैरङ्गिकः ।१८३।। शीर्षच्छेदाद्यो वा ॥ ६. ४. १८४ ॥
शीर्षच्छेदा द्वितीयान्तानित्यमहत्यर्थे यः प्रत्ययो वा भवति, पक्ष इकण् । शीर्षच्छेदं नित्यमर्हति शीर्षच्छेद्यः चौरः, शैर्षच्छदिकः ।१८४। शालीनकौपीनाविजीनम् ॥ ६. ४. १८५॥ .
शालीन कौपीन आत्विजीन इत्येते शब्दास्तमहत्यर्थे ईनप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, नित्यमिति निवृत्तम् । निपातनस्येष्ट विषयत्वात् । शालीन इति शालाप्रवेशनशब्दादीनञ् उत्तरपदस्य च लुक, शालाप्रवेशन मर्हति शालोनः, अकारस्य वृद्धिनिमित्तत्वात्पुवद्भावो न भवति । शालीनाभार्यः । शालीनशब्दोऽधृष्टपर्यायः । कौपीन इति कूपप्रवेशनमहति कौपीनः, कौपीनशब्दः पापकर्मणि गोपनीयपायूपस्थे तदावरणे च चीवरखण्डे वर्तते । आत्विजीन इति ऋत्विज्शब्दात् ऋत्विकर्मशब्दाद्वा ईनञ् प्रत्ययः कर्मशब्दलोपश्च निपात्यते, ऋत्विजमहत्यात्विजीनो यजमान:, ऋत्विकर्हिति आत्विजीनः ऋत्विगेव।१८५।
न्या० स० शाली-गोपनीयेति उपस्थशब्देन सर्ववस्तूनां मध्यभागोऽभिधीयते इति गुह्यप्रतिपत्त्यर्थ गोपनीयग्रहणम् ।
इत्याचार्य० षष्ठस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः ।
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्ध हेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वत्तौ षष्ठस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥ ६. ४ ॥
मि कामगवि स्वगोमयरसैरासिश्च रत्नाकरा मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुडप त्वं पूर्णकुम्भीभव ।
धत्वा कल्पतरोदलानि सरलैंदिग्वारणास्तोरणान्याधत्त स्वकरविजित्य जगती नन्वे ते सिद्धाधिपः ।।
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॥ अथ सप्तमोऽध्यायः ॥
॥प्रथमः पादः॥ यः ॥ ७ १.१॥
अधिकारोऽयम्, यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामो यावत् प्रकृतिसामान्यविषयमनपात्तप्रकृतिविशेष प्रत्ययान्तरमीयोऽधिकरिष्यते तावत् तत्र य इत्येतदपवादविषयं परिहृत्याधिकृतं वेदितव्यम् ॥१॥
न्या० स० य:-प्रकृतसामान्येति प्रकृतिसामान्यं विषयो यस्य अत एवानुपात्तः प्रकृतिविशेषो यत्र तत्प्रत्ययान्तरमीयलक्षणमित्यर्थः । वहति रथयुगमासङ्गात् ॥ ७. १. २॥
तमित्यनुवर्तते, तमिति द्वितीयान्तेभ्यो रथयुगप्रासन इत्येतेभ्यो वहत्यर्थे यः प्रत्ययो भवति । - रथं वहति रथ्यः, द्वौ रथौ वहति द्विरथ्यः, युगं वहति युग्यः । इहानभिधानान्न भवति । कालसंज्ञकं युगं वहांते राजा, युगं वहति मनुष्यः । 'कुप्यभिध'-(५-१-३९) इत्यादिनिपातनादेव युग्य इति सिद्धे इदमर्थविवक्षायामण्वाधनार्थं युगग्रहणम् । यो हि युगं वहति स युगस्य संबन्धी भवति । प्रसज्यते इति प्रासङ्गः । यत्काष्ठं वत्सानां दमनकाले स्कन्ध आसज्यते । तत् वहति यः स प्रासङ्गधः। यत्त्वन्यत् यत्प्रसङ्गादागतं प्रासङ्गमिति तदहति न भवत्यनभिधानात् । ननु यो रथं वहति स रथस्य वोढा भवति, तत्र 'रथात्सादेश्च वोढङ्गे' 'यः'-(६-३-१७५) इत्येव सिद्धम् तत्कि रथस्य ग्रहणेन ? सत्यम्, अलुबर्थ तु तस्य ग्रहणं, तेन हि ये विधीयमाने 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेल बद्विः'-(६-१-२४) इति लुपा भवितव्यम् । द्वयो रथयोर्वोढा द्विरथः। अनेन तु विधीयमाने न भवति अप्रागजितीयत्वात्, एवं च द्विगो रूपद्वयं संपन्नं भवति ।२।
न्या० स० वह-युगं वहति पनुष्य इति अकालसंज्ञकेऽपि युगे मनुष्ये वोढरि न भवतीत्यर्थः । अनेन विति नन्वत्र ग्रहणवता न्यायादेव तदन्तस्य यो न भविष्यति तत्कथमुच्यते अलुबर्थमिति ? ___ उच्यते, एतदेव सूत्रकरणं ज्ञापयति, यत्तदन्तादपि भवति ।
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२०२]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ३-७ ] धुरो यैयण ॥ ७. १. ३ ॥
धुर् इत्येतस्मात् द्वितीयान्तात् वहत्यर्थे य एयण् इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः । धुरं वहति धुर्यः धौरेयः। एयण वेत्यकृत्वा यग्रहणमिदमर्थविवक्षायां वहत्यर्थेऽण्बाधनार्थम् । यो हि यद्वहति स तस्य संबन्धी । कश्चित् तु यडेय कणावपीच्छति तन्मते धुर्यः । स्त्रियां टित्त्वान् ङी धुरी, धौरेय कः ।३। वामाद्यादेरीनः ॥ ७ १.४॥
वाम आदिर्येषां ते वामादयः । तत्पूर्वात् धुर् इत्येतदन्तात् द्वितीयान्ताद्वहत्यर्थे ईन: प्रत्ययो भवति । वामा धूर्वामधुरा, समासान्तादाप् । वामधुरां वहति वामधुरीणः । एवं सर्वधुरीणः, उत्तरधुरीणः, दक्षिणधुरीणः । वामादयः प्रयोगगम्याः । सर्वधुर्य इत्यत्र यप्रत्ययोऽपीति कश्चित् । धुरीण इति केवलादपीन इत्यन्यः ।४।
न्या० स० वामा०-धुर् इत्येतदन्तादिति ननु च वामधुरादिसमुदायः समासान्तादापि कृते धुरन्तो न भवति तत्र कथं धुरन्तादुच्यमानः प्राप्नोति प्रत्ययः ?
उच्यते, 'धुरोऽनक्षस्य ' ७-३-७७ इति समासान्तेन भाव्यमेव ततः सामासान्तत्वे मुख्यान्तत्वायोगात् तत्समीपवर्ती समासान्तो धुरन्त इत्यदोषः । अश्चैकादेः॥ ७. १. ५ ॥
एकशब्दादेधुर् इत्येतदन्ताद्वितीयान्ताद्वहत्यर्थे अः प्रत्ययो भवति चकारादीनश्च । एका एकस्य वा धूरेकधुरा । एका धूरस्मिन्नेकधुरम्, तां तद्वा वहति एकधुरः, एकधुरीणः ।५।
हलसीरादिकण ॥७. १.६॥ ___ हलसीर इत्येताभ्यां द्वितीयान्ताभ्यां वहत्यर्थे इकण् प्रत्ययो भवति । हलं वहति हालिकः, सैरिकः ।६। शकटादण् ।। ७. १.७॥
शकटशब्दाद्वितीयान्ताद्वहत्यर्थेऽण् प्रत्ययो भवति । शटकं वहति शाकटो गौः ।। .. __ ननु च : तस्येदम् ' (६-३-१५९) इति शकटादण् हलसीरादिकण् (६-३-१६०) इति हलसीराभ्याम् इकण च सिद्ध एव, यो हि यद्वहति स तस्य संबन्धी भवति ? सत्यम्, रथवदेव तदन्तार्थमुपादानम्, तेनाबापि द्विगौ द्वैरूप्यं भवति । द्वयोः शंकटयोहलयोः सीरयोर्वा वोढा द्विशकटः,
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[ पाद १. सू. ८-१०] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२०३ . द्विहलः, द्विसीरः । द्वे शकटे हले सीरे वा वहति द्वैशकटः, द्वैहलिकः, द्वैसीरिकः। अन्ये तु शकटहलसीरेभ्य इदमर्थविवक्षायां प्रत्ययमिच्छन्ति न वहत्यर्थे तन्मते द्विशकट इत्येव भवति । हलसीराभ्यां तु तदन्तविधि नेच्छन्त्येव ।।
न्या० स० शक०-इकणू चेति तृतीयपादोक्तेन 'हलसीरादीक' ६-३-१६१ इति सूत्रेणेत्यर्थः । तदन्तार्थमिति अलुबर्थमित्यर्थः, यतस्तदन्तस्यैव लुप्यप्रसङ्गः । द्विशकट इति त्रिध्वपि ' तस्येदम् ' ६-३-१६० इत्यणो लुप् , न तु हलसीराभ्याम् '
इति शैषिकेण सूत्रेण विहतस्येकणः, केवलाभ्यां तेन विधानात् । अन्ये विति-अयमभिप्रायः, ते हि हलसीराभ्यामिकण इति इदमर्थप्रस्ताव एवारभन्ते, शकटात्तु औत्सर्गिकोऽण् सिद्ध एव. ततश्च यथा रथात् सपूर्वादपि य प्रत्यय इष्यते, न तथा हलसोराभ्यामिति वचनान्न के.वलं तदन्ताभ्यामिकण् न भवति, औत्सर्गिकोऽणपीति द्विहल त्रिहल इत्यादि न भवति । विध्यत्यनन्येन ।।७. १.८ ॥
तमिति वर्तते, तमिति द्वितीयान्ताद्विध्यत्यर्थे यः प्रत्ययो भवति, स चेद्विध्यन्नात्मनोऽन्येन करणेन न विध्यति ।
पादौ विध्यन्ति पधाः शर्कराः । ऊरू विध्यन्ति ऊरव्याः कण्टकाः। उरो विध्यन्ति उरस्या वाताः । अनन्येनेति किम् ? चौरं विध्यति चैत्रः । अत्र हि चैत्रश्चौरं विध्यन् धनुषा पाषाणेन वा विध्यति । शर्करादयस्तु न करणेन विध्यन्ति । यच्चमुखतक्ष्ण्यादि करणम् ततेषामात्मनो नान्यत् । यद्येवं पादौ विध्यन्ति शर्कराः मुखेनेति करणप्रयोगे कस्मान्न भवति अस्ति हि अत्रानन्यत्करण मिति ? उच्यते, अत्राप्रधानस्य सापेक्षत्वात् । साधनप्रधाने हि तद्धिते क्रियाऽप्रधानमेव । अनभिधानाद्वा। मुखेन पद्या इत्युक्त हि मुखस्योपलक्षणत्वं सहयोगो वा प्रतीयते न व्यधनं प्रति करणत्वमिति ।।
___ न्या० स० विध्य० - सापेक्षत्वादिति अप्रधानस्य व्यधनस्य कोऽर्थोऽप्रधानाया व्यधनक्रियाया मुखस्याऽपेक्षमाणत्वात् , अप्राधान्यं च कुतः १ इत्याह-साधनप्रधाने हीति यतः पद्या इत्युक्ते व्यधनक्रियाविशिष्ट कर्लोच्यते अतः कत्तव प्रधानं तद्धिते । अनभिधानाद्वेति अप्रतिपादनादित्यर्थः। धनगणालब्धरि ॥७. १. ९ ॥
द्वितीयान्ताद्धनशब्दादणशब्दाच्च लब्धर्यर्थे यः प्रत्ययो भवति । धनं लब्धा धन्यः, गणं लब्धा गण्यः । लब्धेति तृन्नन्तम् ।९। .
णोऽन्नात् ।। ७. १.१०॥ ___ अन्नशब्दाद्वितीयान्ताल्लब्धरि णः प्रत्ययो भवति । अन्नं लब्धा आन्नः ।१०।
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२०४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० ११ ] हृद्यपद्यतुल्यमूल्यवश्यपथ्यवयस्यधेनुष्यागार्हपत्यजन्यधर्म्यम्
हृद्यादयः शब्दा यथास्वमर्थविशेषेषु यप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, हृद्य इति हृदयशब्दात् षष्ठ्यन्तात् प्रियेऽर्थे बन्धने च वशीकरणमन्त्रे यः प्रत्ययो निपात्यते। हृदयस्य प्रियं हृद्यमौषधम् । हृद्यो देशः । हृदयस्य बन्धनो हृयो वशीकरणमन्त्रः । 'हृदयस्य हल्लासले खाण्ये '-(३-२-९४) इति हृदादेशः । निपातनं रूढयर्थं तेनेह न भवति । हृदयस्य प्रियः पुत्रः। पद्य इति पदशब्दात्प्रथमान्तात् दृश्यत्वोपाधिकादस्मिन्निति सप्तम्यर्थे यः। पदमस्मिन् दृश्यं पधः कर्दमः नातिद्रवो नातिशुष्को यत्र प्रतिमुद्रोत्पादनेन पदं द्रष्टुं शक्यते, तुल्य इति तुलाशब्दात्संमितेऽर्थे यः, तुलया संमितं तुल्यं भाण्डम्, निपातनं रूढयर्थम्, तेन न तुलासंमित एवोच्यते किं तु सहशार्थोऽपि तुल्यशब्दः, गिरिणा तुल्यो हस्ती। मत्यमिति मूलशब्दात्प्रथमान्तादस्येति षष्ठपर्थे यः तच्च यद्यत्पाटनयोग्यं भवति । मूलमेषामुत्पाठयं मूल्या मुद्धाः । तृतीयान्ताच्चानाम्ये समे च, मूलेनानाम्यं मूल्यम् । मूलं पटाद्युत्पत्तिकारणम्, तेनानाम्यं यत्पटादेविक्रयाप्राप्यते सुवर्णादि तन्मूल्यम् । मूलेन समो मूल्यः पटः, उपादानेन समानफल इत्यर्थः । वश्य इति वशशब्दाद्वितीयान्तादतेऽर्थे य: । वशं गतो वश्यो गौविधेयः । इच्छानुवर्तीति यावत्, निपातनं रूढयर्थं तेनेह न भवति । वशं गतः, इच्छां प्राप्तः, अभिप्रेतं गत इत्यर्थः। पथ्य इति पथिन्शब्दादनपेते यः पथोऽनपेतं पथ्यम् ओदनादि । निपातनादिह न भवति, पथोऽनपेतं शकटादि । वयस्य इति वयःशब्दात्तृतीयान्तात्तुल्येऽर्थे यः। वयसा तुल्यो वयस्यः सखा, निपातनादिह न भवति । वयसा तुल्य: शत्रुः ।
धेनुष्येति-धेनुशब्दाद्विशिष्टायां धेनौ.यः षोऽन्तश्च । धेनुष्या या गोमता गोपालायाधमणेन चोत्तमय आ ऋणप्रदानाद्दोहार्थं धेनुदीयते सा धेनुरेव धेनुष्या। पीतदुग्धेति यस्याः प्रसिद्धिः। गार्हपत्य इति गृहपतिशब्दात्तृतीयान्तात्संयुक्तेऽर्थे ञ्यः प्रत्ययः, गृहपतिना संयुक्तो गार्हपत्य एवंनामा कश्चिदग्निः । निपातनादन्यत्र न भवति । जन्य इति जनीशब्दाद्वधूवाचिनो द्वितीयान्ताद्वहत्सु अभिधेयेषु जनशब्दाच्च षष्ठयन्ताज्जल्पेऽर्थे यः । जनीं वहन्ति जन्याः जामातु
यस्या उच्यन्ते, जनस्य जल्पः जन्यः । निपातनादन्यत्र न भवति । धर्म्य इति धर्मशब्दात्तृतीयान्तात्प्राप्येऽर्थे पञ्चम्यन्ताच्चानपेतेऽर्थे यः । धर्मेण प्राप्यं
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[ पाद. १. सू. १२-१९ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२०५ धर्म्यम् सुखम्, धर्मादनपेतं च धर्म्यम् । यद्धर्ममनुवर्तते ॥११॥ नौविषेण तार्यवध्ये ॥ ७. १. १२ ॥
नौविष इत्येताभ्यां निर्देशादेव तृतीयान्ताभ्यां यथासंख्यं तार्ये वध्ये चार्थे यः प्रत्ययो भवति । नावा तायं नाव्यमुदकम्, नाव्या नदी, विषेण चध्यो वधार्थी विष्यः ।१२। न्यायार्थादनपेते ॥ ७. १. १३ ॥
न्याय अर्थ इत्येताभ्यां निर्देशादेव पञ्चम्यन्ताभ्यामनपेतेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति । न्यायादनपेतं न्याय्यम्, अर्थादनपेतमर्थ्यम् ॥१३॥ मतमदस्य करणे ॥ ७. १. १४ ॥
मतमदशब्दाभ्यां निर्देशादेव षष्ठयन्ताभ्यां करणेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति । इष्टं साम्यं ज्ञानं मतिर्वा मतशब्देनोच्यते, करणं साधकतमं कृतिर्वा । मतस्य करणं मत्यम्, मदस्य करणम् मद्यम् ॥१४॥ ___ न्या० स० मत०-साम्यमित्ति मननं मतं, धावूनामनेकार्थत्वेन मतशब्दः साम्येऽपि यथा मतीकृता समीकृतेत्यर्थः । तत्र साधौ ॥७. १. १५ ॥
तत्रेति सप्तम्यन्तात्साधावर्षे यः प्रत्ययो भवति । साधुः प्रवीणो योग्य उपकारको वा, सामनि साधुः सामन्यः, वेमनि साधुर्वमन्यः, कर्मणि कर्मण्यः, सभायां सभ्यः, शरणे शरण्यः ।१५। पथ्यतिथिवसतिस्वपतेरेयण ॥ ७. १. १६ ॥
पथिन् अतिथि वसति स्वपति इत्येतेभ्यस्तत्र साधौ एयण प्रत्यमो भवति । पथि साधु पायेयम्, आतिथेयम्, वासतेयम्, स्वापतेयम् ।१६।।
भक्ताण्णः ॥ ७. १. १७ ॥ . भक्तशब्दात्तत्र साधौ णः प्रत्ययो भवति । भक्तं साधुर्भाक्तः शालिः, भाक्त'स्तण्डुलाः ।१७। पर्षदोण्यणौ ॥७. १. १८॥
पर्षच्छन्दात्तत्र साधौ ण्यणेत्येतो प्रत्ययो भवतः । पर्षदि साधुः पार्षद्यः, पार्षदः । परिषदोऽपीच्छन्त्यन्ये, पारिषद्यः, पारिषदः ।१८। सर्वजनाण्ण्येनत्रौ ॥ ७. १. १९॥
सर्वजनशब्दात्तत्र साधौ ण्य ईनञ् इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । सार्वजन्यः,
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२०६ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्यासर्सवलिते [पादः १. सू. २०-२५ सार्वजनीनः ।१९। प्रतिजनादेरीनञ् ॥ ७. १. २० ॥
प्रतिजनादिभ्यस्तत्र साधावीनञ् प्रत्ययो भवति । प्रतिजने साधुः प्रातिजनीनः, अनुजने साधुः आनुजनीन:, इदंयुगे साधु: ऐदंयुगीनः । प्रतिजन, अनुजन, विश्वजन, पाञ्चजन, महाजन, इदंयुग, संयुग, समयुग, परयुग, परकुल, परस्यकुल, अमुष्यकुल इति प्रतिजनादिः ।२०।
न्या० स० प्रति०--परस्यकुलेति गणपाठात् षष्ठ्य लुप् , 'षष्ठ्याः क्षेपे.' ३-२-३० इति वा यदा परकुलसंबन्धित्वेनाऽक्षिप्यते । एवमुष्यकुलेति। कथादेरिकण् ॥ ७. १. २१ ॥
__ कथादिभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यः साधावणे इकण् प्रत्ययो भवति । कथायां साधुः काथिकः, वैकथिकः । कथा, विकथा, विश्वकथा, संकथा, वितण्डा, जनेवाद, जनवाद, (जनोवाद) भृशोवाद, जनभृशोवाद, वृत्ति, संग्रह, गुण, गण, आयुर्वेद, गुड, कुल्माष, गुल्मास, इक्षु, सक्तु, वेणु, अपूप, मांसौदन, मांद, ओदन, संग्राम, संघात, संवाह, प्रवास, निकास, उपवास इति कथादिः ।२१॥ देवतान्तात्तदर्थे ॥ ७. १. २२ ।।
देवतान्ताच्छब्दरूपात्तदर्थेऽर्थे य: प्रत्ययो भवति । अर्थाच्चतुर्थ्यन्तात प्रत्ययः, अग्निदेवतायै इदमग्निदेवत्यम् । पितृदेवत्यम्, देवदेवत्यम् । देवताशब्देन देयस्य हविरादेः प्रतिग्रहीता स्वामी संप्रदानमुच्यते ।२२।
न्या० स० देव०-तदर्थ इति प्रत्ययार्थादेवेत्यर्थः । पाद्याध्यें ॥७. १. २३ ॥
पाद्य अर्घ्य इत्येतौ तदर्थे यप्रत्ययान्तौ निपात्येते पादार्थमुदकं पाद्यम्, निपातनादेव ये पदादेशो न भवति । अर्को मूल्यं पूजनं वा, अर्धार्थ रत्नमय॑म् ॥२३॥ ण्योतिथेः ॥ ७. १. २४ ॥
अतिथिशब्दात्तदर्थे ण्यः प्रत्ययो भवति । अतिथ्यर्थमातिथ्यम् ।२४। सादेवा तदः ॥ ७. १. २५ ॥
अधिकारोऽयम् यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तन आ तदस्तदिति सूत्रं
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पाद. १. सू. २६-२९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२०७ यावत्केवलस्य सादेच विधिर्वेदितव्यः ।२५। हलस्य कर्षे ॥ ७. १. २६ ॥
हलशब्दात्केवलात्सादेश्च निर्देशादेव षष्ठयन्तात्कर्षेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति । हलस्य कर्षों हल्या हल्यो वा, द्वयोद्विहल्या, त्रिहल्या, परमहल्या। उसमहल्या, बहुहल्यः । यत्र हलं कृष्टं स मार्गः कर्षः । कृष्यते इति कर्षः क्षेत्रमित्यन्ये ।२६।
न्या० स० हल०-कृष्टमिति कृष्टं गमित्यर्थः, कर्ष इत्यधिकरणे पञ्, न तु कर्ष इति पलस्य चतुर्थो भागः परिमाणमिह गृह्यते अनभिधानात् । सीतया संगते ॥ ७. १. २७ ॥
सीताशब्दात्केवलात्सादेश्च निर्देशादेव तृतीयान्तात्संगतेऽर्थे य: प्रत्ययो भवति । सीतया संगतं सीत्यम्, द्वाभ्यां सीताभ्यां संगतं द्विसीत्यम्, त्रिसीत्यम्, परमसीत्यम् । यस्य पूर्णोऽवधिः ।२७।। ईयः ।। ७. १. २८ ।।
आ तद इत्यनुवर्तते, यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत्रातदोऽर्थेषु ईय इत्यधिकृतं वेदितव्यम् ।२८॥ हविरन्नभेदापूपादेर्यो वा ॥ ७. १. २९॥
हविर्भेदवाचिभ्योऽन्नभेदवाचिभ्योऽपूपादिभ्यश्च शब्देभ्यः आ तदोऽर्थेषु वा यः प्रत्ययोऽधिक्रियते, ईयापवादः । हविर्मेदः आमिक्षायै इदं दधि आमिक्ष्यम्, आमिक्षीयम् पुरोडाशाय इमे पुरोडाश्याः, पुरोडाशीयास्तण्डुलाः, हविस्शब्दात्तु परत्वाद्युगादिपाठान्नित्यमेव यः। अन्नभेद, ओदनाय इमे ओदन्या ओदनीयास्तण्डुलाः, कृशरायै कृशाः कृशरीयास्तण्डुलाः, सुराय सुर्याः सुरीयास्तण्डुलाः । अपूपादि, अपूपायेदमपूप्यम्, अपूगीयम्, तण्डुलाय तण्डुल्यम्, तण्डलीयम् । 'सादेश्चेत्यधिकारात्तदन्तादपि भवति । यषापूप्यम् यथापूपीयम्, व्रीहितण्डुलीयम्, व्रीहितण्डुलीयम् । उवर्णान्तात्तु हविरघ्नभेदात्परत्वान्नित्यो यो भवति । चरव्यास्तण्डुलाः, सक्तव्या धानाः । अपूप, तण्डुल, ओदन, पृथक, अभ्यूष, अभ्योष, अवोष, किण्व, मुसल, कटक, शकट, कर्णवेष्टक, ईर्गल, ईल्वल, स्थूणा, यूप, सूप, दीप प्रदीप अश्वपत्र इत्यपूपादिः । अपूपादिषु येऽन्नभेदशब्दा अपूपादयस्तेषां केनचिदाकारसादृश्येन अर्थान्तरवृत्तो प्रत्ययार्थमुपादानम् । केचित्तु अपूपादिपठितान्नभेदव्यतिरिक्तानामन्नभेदानां तदन्तविधि नेच्छन्ति । यवसुरीयम्
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बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संबलि
२०८ ]
विष्टसुरीयम्, यो न भवति । २९ ।
न्या० स० हवि० - आमिति - आमिश्रितं क्षीरं काञ्जिकेन यस्यां सा आमिश्रितक्षीरा तार्थत्वात् काञ्जिकशब्दस्य लोपः, पृषोदरादित्वादामिक्षादेशः ।
[ पाद- १ सू० ३०-३१
•
अर्थान्तरवृत्ताविति अपूषाकर्र चर्माद्यपूपमित्येव । तदन्तविधिमिति कोऽर्थः ? ये अपूपादिषु पठिता अन्नभेदास्तेषां तदन्तानां विर्धिर्भवति, अन्नभेदवाचिनां तु अपूपादिष्वपठितानां तदन्तविधिर्न भवतीत्यर्थः ।
उवर्णयुगादेर्यः
1: 11 6. 9. 30 11
वर्णान्ताद्युगादिभ्यश्चा तदोऽर्थेषु यो भवति, ईयापवादः । उवर्ण, शङ्कवे इदं शङ्कव्यं दारु, पिचव्यः कर्पासः, परशव्यमयः, कमण्डलव्या मृत्तिका चरव्यास्तण्डुलाः, सक्तव्या धानाः । युगादि, युगाय हितं युगार्थं युगोऽस्य स्यादिति का युग्यम् । हविष्यम् । सादेवेत्यधिकारात्सुयुग्यम् । अतियुग्यम् ।
युग, हविस्, अष्टका बहिस्, मेधा, स्रच्, बीज, कूप, क्षर, अक्षर, खद, स्खद, विष, दाश, खर, असुर, दर, अध्वन्, गो इति युगादिः । ' गोः स्वरे यः' ( ६-१-२७ ) इत्यनेनैव सिद्धे गोग्रहणं तदन्तार्थम् । तेन सुगव्यम् अतिगव्यम् इत्यपि सिद्धम् । इह यग्रहणं बाधक बाधनार्थम् । सनङ्गवे इदं सनङ्गव्यं चर्म अत्र हि परत्वात् 'चर्मण्यञ् ( ७-१-४५ ) इति
प्राप्नोति |३०|
न्या० स० — उब ०—बाधनार्थमिति वर्णान्तत्वादनेन यः प्राप्तस्तं बाधित्वा चर्मण्यञ प्राप्त इति तद्बाधनार्थम् ।
नाभेर्नम् चादेहाशात् ।। ७. १.३१ ॥
नाभिशब्दाददेहांश वाचिन आ तदो वक्ष्यमाणेष्वर्थेषु यः प्रत्ययो भवति नाभिशब्दस्य च नभ् इत्यादेशो भवति । नाभ्यै नाभये वा हितं नभ्य मञ्जनम्, नभ्योऽक्षः, नाभये इदं नभ्यं दारु, अरकमध्यवर्ती अक्षधारणश्चक्रावयवो नाभिस्तदर्थं नभ्यम् । यत्तु अरकगण्डरहितं चक्रम् एककाष्ठं तत्र न नाभिरिति तदर्थे नभ्यमित्युपचारात् । नभ्यो वृक्षः नभ्या शिशपेति नभ्यार्थे वृक्षादी ताच्छन्द्यान्नभ्यत्वम् इन्द्रार्थायां स्थूणायामिन्द्रवत् । अदेहांशादिति किम् ? नाभये हितं नाभ्यं तैलम् अत्र नभादेशो न भवति । यस्तु ' प्राण्यङ्ग '_ ( ७-१-३७ ) इत्यादिना भवति |३१|
न्या० स० नामे० – एककाष्ठमिति पाषाणानयनशकटस्य रहडू इति प्रसिद्धस्य । नभ्यो वृक्ष इति शाखाद्येव नाभये हितं न समस्तो वृक्ष इति प्रश्नाशयः ।
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[ पाद. १. सू. ३२-३५] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने सप्तमोध्यायः
न् चोधसः ॥ ७. १. ३२ ॥
ऊधस्शब्दात् आ तदोऽर्थेषु यः प्रत्ययो नकारश्चान्तादेशो भवति, ईयापवादः । ऊधसे हितम् ऊधन्यम् ॥ ३२॥
[ २०९
न्या० स० न चोध० - ईयापवाद इति यदा प्राण्यङ्गवाची तदा यः सिद्ध एव नकाराSSदेशोऽनेन विधीयते, यदातु न प्राण्यङ्गवाची किंतु तदाकारं किंचिदभ्रादि विवक्ष्यते तदा ईयः प्राप्नोति, अतस्तदपवादः ।
शुनो वश्वोदूत् ॥ ७ १. ३३ ॥
श्वन् शब्दादा तदोऽर्थेषु यः प्रत्ययो भवति वकारश्च उकार उकाररूपो भवति, अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः । शुने हितं शुन्यम्, शून्यम् ।
नाभि ऊधस् श्वन्शब्दान् युगादिषु पठित्वापि शक्यः प्रत्ययः आदेशार्थास्तु योगाः ।३३।
न्या० स० शुनो०- युगादिष्विति नाभ्यूधसोः प्राण्यङ्गत्वाभावे युगादिपाठ आश्रीयेत, प्राण्यङ्गार्थत्वे तु 'प्राण्यङ्गरथ ' ७-१-३७ इत्यनेनैव यः सिध्येत् ।
कम्बलान्नानि । ७. १.३४॥
कम्बलशब्दादा तदोऽर्थेषु यः प्रत्ययो भवति ईयापवादः नाम्नि संज्ञायां विषये । कम्बलोऽस्य स्यात् कम्बल्यं परिमाणम् ऊर्णापलशतमुच्यते । अशीतिशतमित्यन्ये । षट्षष्टिशतमित्यपरे । नाम्नीति किम् ? कम्बलीया ऊर्णा ॥ ३४ ॥
तस्मै हिते ॥ ७. १. ३५ ॥
हित उपकारकः, तस्मै इति चतुर्थ्यन्तानाम्नो हितेऽर्थे यथाधिकृतं प्रत्ययो भवति । वत्सेभ्यो हितो वत्सीयः, करभीयः, पित्रीयः, मात्रीयः, आमिक्ष्यः, आमिक्षीयः, ओदन्यः, ओदनीयः, अपूप्यः, अपूपीयः, हविष्यः, युग्यः, शुन्यः, शून्यः, ऊधन्यः । वत्सेभ्यो न हितः अवत्सीयः एवमकरभोयः | ३५ |
न्या० स० तस्मै ० - भवत्सीय इति ननु हिते प्रत्यय उच्यमानो निषिध्यमाने तस्मिन् कथं स्यादिति चेत् १ न,
विवक्षोपारोहिण्यर्थे शब्दप्रयोगाद् बाह्यवस्तुनिषेधेऽपि न तम्निषेधः, अन्यथा निषिध्यमानाभिधायिशब्दप्रयोगान्निर्विषयप्रतिषेधः कथमिव शक्यक्रियः स्यात्, प्रत्ययार्थस्य च प्रकृत्यर्थेन न प्रत्ययार्थेनाऽसामर्थ्यात् एतदेव हि प्राधान्यं यद्युगपत्कालो प्रकार कसंबन्ध सहत्वं नाम, एवं हितार्थे ननर्थापेक्षेऽपि प्रत्ययोत्पत्तिरविरुद्धा ।
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२१० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. १ सू० ३६-४० ] न राजाचार्यब्राह्मणवृष्णः ॥ ७. १. ३६ ॥
राजन् आचार्य ब्राह्मण वृषन् इत्येतेभ्यश्चतुर्थ्यन्तेभ्यो हितेऽर्थेऽधिकृतः प्रत्ययो न भवति । राज्ञे हितः आचार्याय हितः, ब्राह्मणाय हितः, वृष्णे हितः इति वाक्यमेव भवति ।३६। प्राण्यङ्गरथखलतिलयववृषब्रह्ममाषायः ॥ ७. १. ३७ ॥
प्राण्यङ्गवाचिभ्यो रथादिभ्यश्च चतुथ्यन्तेभ्यो हितेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति । दन्तेभ्यो हितं दन्त्यम्, कर्ण्यम्, चक्षुष्यम्, कण्ठयम्, ओष्ठयम्, नाभ्यम्, रथाय हिता रथ्या भूमिः, खलाय हितं खल्यम् अग्निरक्षणम्, तिलेभ्यो हितः तिल्यो वायुः, यवेभ्यो हितो यव्यस्तुषारः, वृषाय हितं वृष्यं क्षीरपाणम्, ब्रह्मणे हितो ब्रह्मण्यो देशः, माषेभ्यो हितो माष्यो वातः । सादेश्चेत्यधिकारात् राजदन्त्यम्, शङ्खनाभ्यम्, अश्वरथ्या भूमिः, कृष्णतिल्यः, राजमाष्यः ।३७।
न्या० स० प्राण्य - शंखनाभ्यमिति शंखो नाभिश्च देहांशी ततः शंखश्च नाभिश्च 'प्राणि-तूर्या गाणाम् ' ३-१-३६ इति समाहारे शंखनाभिने हितं, शंखाकारा नाभिर्वा तदा शंखनाभये हितम् ।
अव्यजात्थ्यप् ॥ ७. १. ३८ ॥ ___ अवि अज इत्येताभ्यां तम्मै हिते थ्यप् प्रत्ययो भवति । अविभ्यो हितम् अविथ्यम्, अजेभ्यो हितम् अजथ्यम्, पकारः पुंवद्भावार्थः । अजाभ्यो हिता अजथ्या यूतिः ।३८।
न्या० स० अव्य-अजध्येति-पित्करणमामात 'स्वाङ्गान्डीर्' ३-२-५६ इत्यनेन निषिद्धोऽपि 'क्यङ्मानि' ३-२-५० इत्यनेन पुंवद्भावः । चरकमाणवादीनञ् ॥ ७. १. ३९॥
आभ्यां तस्मै हितेऽर्थे ईनञ् प्रत्ययो भवति । चरकेभ्यो हितश्चारकोणः, माणवीन: ।३९। भोगोत्तरपदात्मय्यामीनः ॥ ७. १. ४० ॥
भोगोत्तरपदादात्मनशब्दाच्च तस्मै हितेऽर्थे ईनः प्रत्ययो भवति । मातृभोगाय हितो मातृभोगीणः पितृभोगोणः, ग्रामणिभोगोनः, सेनानिभोगीनः, आचार्यभोगोनः । अत्र क्षुम्नादित्वान्न णत्वम् । आत्मन्, आत्मने हितः आत्मनीनः, अनात्मनीनः । 'ईनेऽध्वात्मनोः' (७-४-४८) इत्यन्त्यस्वरादिलोपाभावः ।४।।
- २८ा
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[पाद. १. सू. ४१-४४] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२११ पञ्चसर्वविश्वाज्जनात्कर्मधारये ॥ ७. १. ४१ ॥
पञ्च सर्व विश्व इत्येतेभ्यः पराज्जनशब्दात्कर्मधारये वर्तमानात्तस्मै हिते ईनः प्रत्ययो भवति, ईयापवादः । पञ्चजनेभ्यः पञ्चजनाय वा हितः पञ्चजनीनः, रथकारपञ्चमस्य चातुर्वर्ण्यस्य पञ्चजन इति संज्ञा एवं सर्वजनीनः, विश्वजनीन: । कर्मधारय इति किम् ? पञ्चानां जनः पञ्चजनः, तस्मै हितः पञ्चजनीयः । सर्वोजनोऽस्य सर्वेषां वा जनः, सर्वजनः, तस्मै हितः सर्वजनीयः, एवं विश्वजनीयः ।४१
न्या० स० पञ्च० रथकारपश्चमस्येति द्वादशधा भिन्नस्य शूद्रस्य त्रैवर्ण्यस्य च मध्ये न पततीति रथकारस्य पृथगुपादानं, यत आरथकृन्मिश्रजातंय इत्युक्तं, रथकास्य तु किं लक्षणम् ? इति चेत् , उच्यते-माहिष्येण तु जातः स्यात् करण्यां रथकारकः, वेश्यायां क्षत्रियाजातो माहिष्य उच्यते, वृषलस्त्रियां वैश्यात्तु करणः बी चेत् करणी।
महत्सर्वोदिकण् ॥ ७. १. ४२॥
__ महतः सर्वाच्च यो जनशब्दस्तदन्ताकर्मधारये वर्तमानात्तस्मै हिते इकण प्रत्ययो भवति । महते जनाय हितः माहाजनिकः, सर्वस्मै जनाय हितः सार्वजनिकः, एवं च सर्वजनात्पूर्वेण ईनः अनेनेकणिति द्वैरूप्यम् । कर्मधारय इत्येव ? महान् जनोऽस्य महाजनः, तस्मै हितः महाजनीयः, सर्वेषां जनाय हितं सर्वजनीयम् ।४२। सर्वाणो वा ॥ ७. १. ४३ ॥
जनात्कर्मधारय इति च निवृत्तम्, सर्वशब्दात्तस्मै हिते णः प्रत्ययो वा . भवति । सर्वस्मै हितः सार्वः, पक्षे ईयः सर्वीयः ।४३। परिणामिनि तदर्थे ॥ ७. १.४४ ॥
हित . इति निवृत्तम्, तद्भावः परिणामस्सोऽस्यास्तीति परिणामि द्रव्यमुच्यते, तस्मै इति चतुर्थ्यन्तात्तदर्थे चतुर्थ्यन्तार्थार्थे परिणामिनि कारणद्रव्येऽभिधेये यथाधिकृतं प्रत्ययो भवति । अङ्गारेभ्य इमानि अङ्गारीयाणि काष्ठानि, अङ्गारार्थानीत्यर्थः । एवं प्राकारीया इष्टकाः, शङ्कव्यं दारु, पिचव्यः कासः आमिक्ष्यम् आमिक्षीयं दधि, ओदन्या ओदनीयास्तण्डुलाः । अपूप्यम् अपूपीयम् पिष्टम् । परिणामिनीति किम् ? उदकाय कपः, असये कोशी। न कूपः कोशी वा उदकासिभावेन परिणमेते । तदर्थे इति किम् ? मूत्राय यवागूः, उच्चाराय यवान्नम्, पादरोगाय नड्वलोदकम् । यवाग्वादि
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२१२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. १ सू० ४५-४८ ] मूत्रादितया परिणमति न तु तदर्थम् अथवा तदर्थे इति चतुर्थीविशेषणम् । तदर्थे या चतुर्थी तदन्तात्प्रत्ययः, इह तु संपद्यतौ चतुर्थीति न भवति । तस्मै इत्येव ? सक्तूनां धानाः, धानानां यवाः । अत्र सत्यपि तादर्थ्य संबन्धमात्रविवक्षायां षष्ठी यथा गुरोरिदं गर्वर्थमिति । भवति च सतोऽप्यविवक्षा यथानुदरा कन्येति ।४४।
न्या० स० परि० अथवेति पूर्व हि तदर्थे इति परिणामिशब्दस्य विशेषणम् । चर्मण्यञ् ॥ ७. १. ४५ ।।
तस्मै इति चतुर्थ्यन्तात्परिणामिनि तदर्थे चर्मण्यभिधेये अञ् प्रत्ययो भवति । वर्धायेदं वार्धम् चर्म, वरत्राय इदं वारत्रं चर्म, रथोपस्थायेदं राथोपस्थं चर्म, हलाबन्धायेदं हालाबन्धं चर्म । सनङ्गके इदं सनङ्गव्यं चर्मेति ' उवर्णयुगादेर्य:' (७-१-३०) इति यग्रहणाद्य एव भवति । सनङ्ग श्चर्मविकारः ।। ४५॥
न्या० स० चर्म०-राथोपस्थमिति अत्राधिकारायातत्वात परिणामिनीति योजितमपि यथासंभवं योज्यं, तेनाऽत्र चर्मणो रथोपस्थरूपेण परिणामाभावेप्यञ् भवति । सनगवे इति अङ्गेषु सन्नं 'राजदन्तादिषु' ३-१-१४९ इति सप्तम्यन्तस्य परनिपातः, पृषोदरादित्वात् सनगुशब्द आदेशः । चर्मविकार इति स्थालादीनां रक्षार्थ कोशः ।
ऋषभोपानहायः ॥ ७. १. ४६ ॥ ___ ऋषभ उपानह इत्येताभ्यां चतुर्थ्यन्ताभ्यां परिणामिनि तदर्थे अभिधेये ज्यः प्रत्ययो भवति । ऋषभाय अयम् आर्षभ्यो वत्सः, औपानह्यो मुजः, औपानह्यम् काष्ठम् औपानां चर्मेति चर्मण्यपि परिणामिनि परत्वादयमेव भवति ।४६। छदिलेरेयण ॥७. १. ४७ ।।
छदिस् बलि इत्येताभ्यां चतुर्थ्यन्ताभ्यां परिणामिनि तदर्थे एयण प्रत्ययो भवति । छदिषे इमानि छादिषेयाणि तृणानि, बलये इमे बालेयास्तण्डुलाः, चर्मण्यपि परत्वादयमेव भवति । छादिषेयं चर्म। कथमौपधेयः, उपधोयत इत्युपधेयः । स एव प्रज्ञाद्यणि स्वाथिके औपधेयः। उपधिः रथाङ्गमिति यावत्, अत उपधेः स्वार्ये एयणिनि नारम्भणीयम् ।४७। परिखास्य स्यात् ।। ७. १. ४८ ।। परिखाशब्दानिर्देशादेव प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे परिणामिनि एयण्
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[पाद. १. सू. ४९-५१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२१३ प्रत्ययो भवति या सा परिखा सा चेत्स्यादिति योग्यतया संभाव्यते, तदित्यनेन यथाधिकृतस्य प्रत्ययस्य विधास्यमानत्वादिहोत्तरत्र च एयणेवानुवर्तते। परिखा आसामिष्टकानां स्यादिति पारिखेय्य इष्टकाः। स्यादिति संभावने सप्तमी । इष्टकानां बहुत्वेन संभाव्यत एतत्परिखासां स्यादिति । स्यादिति । किम् ? परिखा इष्टकानाम् । परिणामिनीत्येव ? परिखास्य नगरस्य स्यात् ।४८।
न्या० स० परि०-एयणेवेति एतत्सूत्रोत्तरसूत्रकरणात् , अन्यथा तदित्यने नैव यथाधिकृतस्य सिद्धत्वादिदं सूत्रद्वयं व्यर्थम् । अत्र च ॥७. १. ४९॥
परिखाशब्दान्निर्देशादेव प्रथमान्तादत्रेति सप्तम्यर्थ एयण प्रत्ययो भवति सा चेत्परिखा स्यादिति संभाव्यते । परिखास्यां स्यात् पारिखेयो भूमिः। योगविभागः परिणामिनीत्यस्येह असंबन्धार्थः । चकार उत्तरत्रास्य स्यादिति परिणामिन्यत्र स्यादिति चोभयस्याप्यनवत्त्यर्थः । ४९ ।
न्या० स • अत्र च०-भसंबन्धार्थ इति तेनेह परिणामिनि अपरिणामिनि च भवतीत्यर्थः । • तद् ॥ ७. १. ५०॥
__तदिति प्रथमान्तादस्येति पष्ठयर्थे परिणामिनि अत्रेति सप्तम्यर्थे च यथाधिकृतं प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेत्स्यादिति संभाव्यते । प्राकार आसामिष्टकानां स्यात्प्राकारीया इष्टकाः। प्रासादीयं दारु, परशव्यमयः । प्रासादोऽस्मिन्देशे स्यात् प्रासादोयो देशः, प्रासादीया भूमिः। स्यादित्येव प्राकार इष्टकानाम् । परिणामिनीत्येव प्रासादोऽस्य चैत्रस्य स्यात् । ५० । तस्याहे क्रियायां वत् ॥ ७. १. ५१ ॥
ईयस्य पूर्णोऽवधिः, अर्हतीत्यहम् 'अच् '-(५-१-४९ ) इत्यच् । तस्येति षष्ठयन्तादर्हेऽर्थे वत् प्रत्ययो भवति यत्तदहं तच्चेत् क्रिया भवति राज्ञोऽहं राजवत् वृतमस्य राज्ञः, राजत्वस्य युक्तमस्य राज्ञो वृत्तमित्यर्थः, राजवदवर्तत भरतः । राजाहं वर्तते स्मेत्यर्थः । एवं कुलीनवत्, साधुवत् । स शिरांसि द्विषामाजी चिच्छेद कृतहस्तवत् । राज्ञि एकस्मिन्नुपमानोपमेयभावासंभवादुत्तरेण न सिध्यतीति वचनम्, यदा तु राज्ञः सगरादेवत्तस्याह इदानींतनः कश्चिद्राजेति भेदो विवक्ष्यते तदोत्तरेणैव सिद्धम् । क्रियायामिति किम् शतस्या) देवदत्तः, राज्ञोऽ) मणिः । ५१ ।
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२१४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० १. सू० ५२-५५ )
न्या० स० तस्या०-राजाहमिति अत्राद्यत्वात् न भरतस्योपमानमन्यो राजाऽस्ति स एव सर्वेषां राज्ञामुपमानभूतस्तत्र राजवदिति, राज्ञ आत्मन एवाई वृत्तमवर्ततेत्यर्थः । स्यादेरिवे ॥ ७. १. ५२ ॥
स्याद्यन्तादिवार्थे वत्प्रत्ययो भवति, इवशब्दः सादृश्यं द्योतयति । तच्चेत्सादृश्यं क्रियायां क्रियाविषयं क्रियागतं भवति । क्षत्रिया इव क्षत्रियवद्युध्यन्ते ब्राह्मणाः, अश्ववद्धावति चैत्रः, देवमिव देववत्पश्यन्ति मुनिम्। साधुनेव साधुवदाचरितं मैत्रेण, ब्राह्मणायेव ब्राह्मणवहत्तं क्षत्रियाय पर्वतादिव पर्वतवदवरोहति आसनात् । स्यादेरिति किम् गच्छन्नास्त इव मन्दत्वादीप्सितदेशस्य असंप्राप्तेः । अधीयानो नृत्यतीव अङ्गविकारप्रायत्वात् । क्रियायामित्येव गौरिव गवयः । देवदत्त इव गोमान्, हस्तीव स्थूलः। अत्र द्रव्यगुणविषये सादृश्ये न भवति । कथं देवदत्तवत्स्थूलः यज्ञदत्तवदोमान् इति । अत्र तुल्यायामस्तो भवतौ चाध्याहियमाणायां प्रत्ययो भविष्यति, अथोपमानोपमेयक्रिययोः साधनभेदापेक्षायामिह कस्मान्न भवति ऋचं ब्राह्मणवदयं गाथामधीत इति, सापेक्षत्वात् । ५२ ।
न्या० स० स्यादे०-असंप्राप्तेरिति यथा आसीनोऽभिमतं देशं न प्राप्नोति तथैष गच्छन्नपि। . साधनमेदापेक्षायामिति यद्यपि वस्तुवृत्त्या अध्ययनमेकमेव तथापि साधनभेदाद् व्याप्यलक्षणभेदाद् भेद एव । सापेक्षत्वादिति ब्राह्मणवत् अयं गाथामधीत इत्युक्ते हि ऋचः कर्मणोऽपेक्षा भवति ।
तत्र ॥ ७. १. ५३ ॥ ___ तत्रेति सप्तम्यन्तादिवार्थे वत्प्रत्ययो भवति । मथुरायामिव मथुरावत्पाटलिपुत्रे प्रासादा:, सुघ्न इव साकेते परिखा स्रुघ्नवत् । गुरुवदरुपुत्रे वर्तितव्यमित्यादिषु क्रियासादृश्ये पूर्वेणैव सिद्धम् । अक्रियार्थस्त्वारम्भः ।५३ ।
न्या० स० तत्र-अक्रियार्थ इति तथापि नारम्भणीयमिदं सूत्रं षष्ठीसप्तम्योराभेदात् सप्तमीविषये षष्ठीप्रवृत॑र्दर्शनात् उत्तरसूत्रेणैव भविष्यति, न, अधिकरणविवक्षायां सप्तम्यन्तादपि यथा स्यादित्येवमर्थः न च सप्तमीविषये षष्ठ्या नियमेन समावेशः, यथा नभसीवोदके शशीति । तस्य ॥ ७. १. ५४॥
तस्येति षष्ठयन्तादिवार्थे वत्प्रत्ययो भवति । चैत्रस्येव मैत्रस्य गावश्चैत्रवत्, ब्राह्मणस्येव क्षत्रियस्य दन्ताः ब्राह्मणवत्, अक्रियाविषयसादृश्यार्थ आरम्भः । योगविभाग उत्तरार्थः ।५४। भावे स्वतल ॥ ७. १. ५५॥
तस्येति षष्ठयन्ताद्भावेऽभिधेये त्व तल इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । भवतो.
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[ पाद १. सू. ५५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२१५ ऽस्मात् अभिधानप्रत्ययौ इति भावः शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तम् द्रव्यसंसर्गी भेदको गुणः, यदाहुः यस्य गुणस्य हि भावात् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने त्वतलाविति । तत्र 'जातिगुणाज्जातिगुणे, समासकृत्तद्धितात्तु संबन्धे । डित्थादेः स्वे रूपे, त्वतलादोनां विधिर्भवति' । तत्र जातिवचनेभ्यो जातौ, गौः शब्दस्य भावो गोत्वम् गोता, अत्र गोशब्दजातिर्भावः, गोरर्थस्य भावो गोत्वम् गोता, अत्र गवार्थजातिर्भावः । एवमश्व वमश्वता, शुक्लस्य गुणस्य भावः शुक्लत्वं शुक्लतेत्यत्र शुक्लगुणजातिः, रूपस्य भावो रूपत्वम् रूपता, रसस्य रसत्वम्, रसता। अत्र रूपादिगुणजाति: । कत्वं खत्वमिति भिन्नवर्णव्यक्तिसमवेता जातिः । कवर्गत्वं चवर्गत्वमिति ककारादिवर्गव्यक्तिसमवेता जातिः संहतिः । गुणशब्देभ्यो गुणे, शुक्लस्य पटस्य भावः शुक्लत्वम् शुक्लता । अत्र शुक्लो गुणो भावः । एवं शुक्लतरत्वं शुक्लतमत्वमिति स एव प्रकृष्टः । अणुत्वं महत्त्वमिति परिमाणलक्षणो गणः, एकत्वं द्वित्वमिति संख्यालक्षणः, पृथक्त्वं नानात्वमिति भेदलक्षणः, उच्चस्त्वं नीचैस्त्वमिति उच्छयादिलक्षणः, वृत्तौ पृथगादिशब्दाः पृथग्भूताद्यर्थे सत्वे वर्तन्ते इति प्रत्ययः विग्रहस्तु पृथग्भूतस्य भाव इत्यादि । पटवादयोऽपि गुणा एवेति पटुत्वं मृदुत्वं तीक्ष्णत्वमित्यादिष्वपि गुणो भावः । समासात्संबन्धे, राजपुरुषत्वं चित्रगुत्वम् । अत्र स्वस्वामिसंबन्धः । कृतः संबन्धे, पाचकत्वं पक्तृत्वं कार्यत्वं साधनत्वम् । अत्र क्रियाकारकसंबन्धः । तद्धितासंबन्धे, औषगवत्वम् दण्डित्वं विषाणित्वम् । अत्रोपगुदण्डादिसंबन्धः ।
डित्थादेः स्वरूपे, डित्थादेस्तु यदृच्छाशब्दादन्यस्य प्रवृत्तिनिमित्तस्यासंभवात्तस्मिन्नेव स्वरूपे डित्थशब्दवाच्यतया अध्यवसितभेदेऽव्यतिरिक्तऽपि व्यति रिक्त इव शब्दप्रत्यय बलात् बुद्ध्यावगृहीते धर्मे प्रत्ययः। डित्थस्य भावः स्वरूपंडित्थत्वं डवित्थत्वम् । एवं गोजाते वो गोत्वम् गोतेति गोशब्दस्य स्वरूपम् । शुक्ल जातेर्भावः शुक्लत्वं शुक्लतेति शुक्लशब्दस्य स्वरूपम्, गवादयो हि यदा जातिमात्रवाधिनस्तदा तेषां शब्दस्वरूपमेव प्रवृत्तिनिमित्तम्, तथाह्यर्थजातो शब्दार्थयोरभेदेन शब्द स्वरूपमध्यवस्यते यो गोशब्दः स एवार्थ इति । एवं देव दत्तत्वं, चन्द्रत्वं, सूर्यत्वं, दिक्त्वम्, आकाशत्वम्, अभावत्वमिति स्वरूपमेवोच्यते ।
एके तु यहच्छाशब्देषु शब्दस्वरूपं संज्ञासंज्ञिसंबन्धो वा प्रवृत्तिनिमित्तमिति मन्यन्ते, अन्ये तु डिस्थत्वं देवदत्तत्वमिति वयोऽवस्थाभेदभिन्न व्यक्तिसमवेतं सामान्यम्, चन्द्रत्वं सूर्यत्वमिति कालावस्थाभेद भिन्नव्यक्तिसमवेत सामान्यं, दिक्त्वम् आकाशत्वम् अभावत्वम् इति उपचरितभेदव्यक्तिसमवेतं सामान्य
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२१६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
• १ सू. ५५ प्रत्ययार्थ इति वदन्तोऽत्रापि जातिमेव त्वतलादिप्रत्ययप्रवृत्तिनिमित्तमभिदधति । ननु च समासकृत्तद्धितेभ्योऽपि भाव प्रत्ययेन जातिरेवाभिधीयते गौरखरत्वं लोहितशालित्वं सप्तपर्णत्वं धवखदिरत्वमिति, कुम्भकारत्वं तन्तुवायत्वं स्तम्बे. रमत्वं पङ्कजत्वमिति, हस्तित्वं मानुषत्वं क्षत्रियत्वं राजन्यत्वमिति उच्यते, समासकृत्तद्धितेषु संबन्धाभिधानमन्यत्र रूढयभिन्नरूपाव्यभिचरितसंबन्धेभ्यः, तत्र रूढयो गौरखरादय उदाहृता एव, अभिन्नरूपास्तु तद्धितान्ता एव लुबादिभिः संभवन्ति गर्गत्वं पञ्चालत्वमिति, अत्र गर्गादयः शब्दा यसोलु पि यद्यपि तद्धितान्तास्तथापि मूलप्रकृत्या सह सहविवक्षायामभिन्नरूपत्वात् प्रत्ययोत्पत्तिहेतुः संबन्धो न्यग्भूत इति अभिन्नशब्दाभिधेयतैव भावप्रत्ययात्प्रतीयते न संबन्धः, अथ पञ्चालशब्दात् युगपदपत्य जनपदाभिधायिनो भावप्रत्ययेन किमभिधीयते ? प्रवृत्तिनिमितसंघातः यथा धवखदिरत्वमिति जातिसंहतिः । एतेन अक्षत्वं पादत्वं माषत्वमित्यादीन्यपि व्याख्यातानि । अव्यभिचरितसंबन्धास्तु प्रायः कृत्स्वेव भवन्ति । सतो 'भावः सत्त्वं सत्ता विद्यमानत्वं विद्यमानता, अत्र हि जातावेव भावप्रत्ययः । न हि सद्वस्तु सत्तासंबन्धस्य व्यभिचरतीति सत्तासंबन्धानपेक्षणान्न संबन्धे । पाचक इत्यादौ तु संबन्धस्य कादाचित्कत्वात् तदपेक्षः पाचकादिशब्द; स्वार्थमभिधत्त इति ततः सम्बन्धे प्रत्ययो युक्तः । तस्मात्सत्सु विद्यमानेषु च पदार्थेषु नित्यसमवायिनी शब्दप्रवृत्तिहेतुः सत्त्व भावप्रत्ययवाच्या न तु सत्सत्तयोः संबन्धः कश्चित् इति। ततः स्थितमेतत् रूढयादिभ्योऽन्यत्रैव कृत्तद्धितसमासेषु संबन्धाभिधानमिति । 'त्वे वा' (६-१-२६ ) इति वचनात्स्त्रीपुंसाभ्यां पक्षे नस्नावपि भवतः। स्त्रीत्वं स्त्रोता स्वंणम् । पुस्त्वं पुंस्त। पौंस्नम् इति । लकारः स्त्रीत्वार्थः । त्वान्तम् आ त्वात्त्वादिः' इति नपुंसकम् । ५५ ।
न्या० स० भावे०-अभिधानप्रत्ययाविति यद्यपि पूर्व ज्ञानं पश्चाच्छब्द इति क्रमस्तथापि स्वराद्यदन्तत्वात् अभिधानस्य 'लध्वक्षर' ३-१-१६० इति पूर्वनिपात एवमाह-पृथग्भूताद्यर्थ इति-ननु पृथगादिशब्दानामव्ययानामसत्ववाचित्वात् कथमत्र भावप्रत्ययो नह्यसत्वादसत्वे प्रत्ययो भावो ह्यसत्वरूप इति आशङ्का ? ____डित्थादेंः स्वरूपे इति डित्थादैस्तस्मिन्नेव स्वरूपे धर्मे प्रत्ययो भवति, कथंभूतात् डिस्थादेर्यदृच्छाशब्दादत एवान्यस्य प्रवृत्तिनिमित्तस्यासंभवात् , ननु यदि स्वरूप एव प्रत्ययो भवति तर्हि डिस्थस्य भाव इति वाक्ये भावशब्दोपादानं न प्राप्नोति यतो डित्थशब्देनापि स्वरूपमभिधीयते, भावशब्देनापि तदेवोच्यते तत्कथं भावशब्दोपादानम् ? इत्याह-अध्यवसितभेदे
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[पाद. १ सू. ५५-५६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्राशब्दानुशासने षष्ठोध्यायः [ २१७ कोऽर्थोऽध्यवसित आरोपितो भेदो यस्य म्वरूपस्य तदध्यवसितभेदं तत्र कया? डित्थशब्दवाच्यतया, डित्थशब्देन वाच्यत्वेन कोऽर्थः ? डित्थशब्दस्य यदेव स्वरूपं प्रवृत्तिनिमित्तं तदेवाश्रित्य डित्थशब्दः प्रवृत्त इत्यर्थः, ततो डित्थशब्दवाच्यतया कृत्वा अध्यवसितभेदे आरोपितभेदे । कोऽर्थः १ स्वरूपमेव विशेष्यं विशेषणं चाऽत्र यतो भावो वर्तते इति विशेषणं कस्य डित्थस्य, इदं च विशेष्यं, न हि डिस्थशब्दाव्यतिरिक्तं किंचिद्भावशब्देनाभिधीयते अपि तर्हि तदेव परमध्यवसितभेदात्तदेव विशेष्यं विशेषणं च भवति ।
किं विशिष्टेऽध्यवसितभेदे ऽव्यतिरिक्तेऽपि व्यतिरिक्त इव क इव यथा शिलापुत्रकस्य शरीरमित्यत्राव्यतिरिक्तेऽपि वस्तुनि व्यतिरिक्ते प्रत्ययो जायते तथात्रापि, परं कस्मादित्याहशब्दप्रत्यय बलात् बुद्ध्यावगृहीते शब्देन कृत्वा प्रत्ययो ज्ञानं तबलात् ।
अत्रैव प्रस्तावे गोजाते वो गोत्वं गोतेति गोशब्दस्य स्वरूपमित्युक्तं, ततश्च गोशब्दस्य स्वरूपं कोऽर्थो गोजातेः स्वरूपमिति हि किलात्रार्थः । ननु गोशब्दस्य स्वरूपमित्युक्ते गोजातेः स्वरूपमिति कथं लभ्यत ? इत्याह -शब्दार्थयोरभेदेन जातिलक्षणोऽर्थस्ततो जातिलक्षणेनार्थेन गोशब्दस्याभेदः, य एव गोशब्दः स एव जातिलक्षणोऽर्थ इति, अत एव शब्दस्वरूपं प्रवृत्तिनिमितं कोऽर्थः ? गोशब्दस्य स्वरूपं जातिस्तदेव प्रवृत्तिनिमित्तम् ।।
- अवस्थाभेदभिन्न व्यक्तिसमवेतमिति नित्यमेकमनेकर्वृत्ति सामान्यमित्यनेकवृत्तित्वज्ञापनायाहवयो बाल्ययौवनवार्धकलक्षणमिति मान्धकार्यलम्बकर्णादयो भेदा अवस्थाः, एवमुत्तरेषु भावना कार्या। . उपच रतभेदव्यक्तिसमवेतमिति आकाशदिशोरेकत्वादुपचार आश्रीयते, अत्र गर्गादय इति लक्षणस्य प्रवृत्तिरेव नास्ति तत्कथमादिशब्देनोपचारो गृह्यते, यतस्तद्धितप्रत्ययान्तोऽपि तदा गर्गशब्दो नास्ति ?
__उच्यते, तद्धितप्रत्ययान्तत्वं योग्यतया व्याख्यातव्यं ततो योग्यतयाऽत्राप्यस्ति । सहविवक्षायामिति युगपद्विवक्षायामित्यर्थः, सा च कथमित्युच्यते, गर्गशब्देनापि सोऽप्यभिधीयते, गर्गस्यापत्यानि गर्गाश्चेत्यनया विवक्षया, स एवेति कृत्वाऽभिन्नस्वरूपत्वम् युगपदपत्यजनपदाभिधायिन इति युगपदभिधायित्वं च कथम् ? इत्युच्यते, पञ्चालस्यापत्यानि पञ्चालाः, द्वितीयफचालशब्दस्तु प्रत्ययरहितो जनपदवाची ततः पन्चालाश्च फच्चालाश्चेत्येकशेषे कृते युगपदभिधानं भवति ।
प्रवृत्तिनिमित्तसंघात इति अपत्यजनपदरूपः। अक्षत्वमिति अक्षशब्देनेन्द्रियपाशबिभीतकादीन्युच्यन्ते, पादशब्देन चरणकिरणश्लोकचतुर्था शप्रत्यन्तपर्वताः, माषशब्देन धान्यविशेषदशागुरुजवृक्षविशेषा उच्यन्ते, तत एकशेषे स्वप्रत्ययः । __ ननु यथा धवखदिरवमिति दृष्टान्त उक्तस्ततश्चात्र जातिसंहतिर्वाच्या कथंभ वति, यतः समासकृत्तद्धितात्तु संबन्ध इति लक्षणात् संबन्ध एव प्रवृत्तिनिमित्तं प्राप्नोति ?
उच्यते, प्रायिकमेतत् ज्ञातव्यं, ततो द्वंद्वेऽपि संबन्धो नाभिधीयते किन्तु जातिसंहतिरेवोच्यते ।
त्वे वेति वचनादिति ‘प्राग्वतः स्त्रीपुंसा०' ६-१-२५ इत्यस्मादप्रेतनेन सूत्रेणेत्यर्थः । प्राक्त्वादगडुलादेः ॥ ७. १. ५६ ॥ स्वतलित्यनुवर्तते, ब्रह्मणस्त्व इत्यत्र यत्त्वसंशब्दनं तस्मात् प्राक् त्वतल
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२१८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० ५७ ] इत्येतौ प्रत्ययावधिकृतौ वेदितव्यो गडुलादीन् वर्जयित्वा, ते उत्तरत्रैवोदाहरिष्यन्ते । अपवादः समावेशार्थः कर्मणि विधानार्थश्चाधिकारः। अगडुलादेरिति किम् ? गाडुल्यम्, कामण्डलवम् । गडुल, विशस्त, दायाद, बालिश, संवादिन्, बहुभाषिन्, शीर्षघातिन् ‘शीर्षाघातिन् ' कमण्डलु इति गडुलादिः । एषु कमण्डलोः 'य्ववर्णाल्लवादेः' (७-१-६९ ) इत्यण् । शेषेभ्यस्तु राजादेराकृतिगणत्वात् ट्यण् । गडुलादेरपि केचिदिच्छन्ति । गडुलत्वम् गडुलता ।५६।
न्या० स० प्राक्वा०-ते उत्तरत्रैवेति प्रत्यययोर्द्वित्वेऽपि प्रतिसूत्रं व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनं, यद्वा त्वतल्प्रत्ययान्ताः शब्दाः । नञ्तत्पुरुषादबुधादेः ॥ ७. १. ५७ ॥
प्राक्त्वान्नपूर्वात्तत्पुरुषाधाद्यन्तजितात्त्वतलौ भवत इत्ययमधिकारो वेदितव्यः टयणादिबाधनार्थम् । न शुक्लोऽशुक्लस्तस्य भावोऽशुक्लत्वमशुक्लता, वर्णलक्षणटयण्बाधया स्वतलावेव, अशोक्ल्यम् अकार्ण्य मिति च टयणन्तेन समासः । समासात्तु टयणि नमो वद्धिः प्रसज्येत । एवमपतेर्भावः कर्म वा अपतित्वम् अपतिता, अत्र पत्यन्तलक्षणटयण्बाधया। अनाधिपत्यम् अगाणपत्यमिति ट्यणन्तेन समासः । अराजत्वमराजता, अत्र राजान्तलक्षणटयणबाधया, अनाधिराज्यमयौवराज्यमिति टयणन्तेन समासः । अमूर्खत्वममूर्खता, अत्र गुणाङ्गलक्षणटयणबाधया । अमौर्यम जाडथमिति टयणन्तेन समासः । अस्थविरत्वमस्थविरता, अत्र वयोवचनलक्षणाञ्बाधया, अस्थाविरमकैशोरमित्यणअन्तेन समासः। अहायनत्वमहायनता, अत्र हायनान्तलक्षणाणबाधया, अद्वैहायनम् अत्रैहायनमित्यणन्तेन समासः। अपटुत्वमपटुता, अत्र य्वृवर्णलक्षणाणबाधया, अपाटवमलाधवमित्यणन्तेन समासः । अरमणीयत्वमरमणीयता, अत्र योपान्त्यलक्षणाक बाधया । अरामणीयकम् अकामनीयकमित्यकान्तेन समासः । नग्रहणं किम् ? प्राजापत्यम् सैनापत्यम् । तत्पुरुषादिति किम् ? न विद्यते पतिरस्य अपतिमः तस्य भावः कर्म वा आपत्यम् एवमाराज्यम्, आहायनम्, आरमणीयकम् । अबुधादेरिति किम् ? न बुधः अबुध: तस्य भावः कर्म वा आबुध्यम्, आचतुर्यम् ।
बुध, चतुर, संगत, लवण, वड, कत, रस, लस, यथा, तथा, यथातथ, यथापुर, ईश्वर, क्षेत्रज्ञ, संवादिन, संवेशिन्, संभाषिन्, बहुभाषिन्, शीर्षघातिन्,
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[ पाद १. सू. ५८-५९ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः
[ २१९
समस्थ, विषमस्थ, पुरस्थ, परमस्थ, मध्यस्थ, मध्यमस्थ, दुष्पुरुष, कापुरुष, विशाल इति बुधादिः, एभ्यो नञ्तत्पुरुषेभ्यो राजादित्वात् टयण् । गडुलविशस्तदायादानामपि पाठ केचित् इच्छन्ति । अन्ये तु बुधादीनामष्टानामेव प्रतिषेधमिच्छन्ति, एषामेव च विकल्पमपरे । अथ टचणन्तानामेषां नञ्समासो भवति वा नवा बुधस्य भावः कर्म वा बौध्यम् न बोध्यम् अबोध्यमिति । भवतीत्येके, न भवतीत्यन्ये । ५७ |
न्या० स० नञ् तत्० – अत्र वयोवचनेति स्थविरशब्दस्य केवलस्यैव युवादौ पाठादत्र नञ्पूर्वस्य वयोलक्षणस्यात्र एव प्राप्तिस्तेनास्थाविरमित्यत्र युवाद्यण् ।
हामिति यो हायना यस्य गृहस्य त्रिहायनस्य भावः, अत्रावयोऽर्थत्वात् 'चतुहयनस्य वयसि २-३-७४ इति न णत्वम् ।
पृथ्वादेरिमन् वा ॥ ७१. ५८ ॥
पृथु इत्येवमादिभ्यस्तस्य भावे इमन् प्रत्ययो वा भवति । प्राक्त्वादित्यधिकारात् त्वतलौ च वावचनाद्यचाणादिः प्राप्नोति सोऽपि भवति । पृथोर्भाव: प्रथिमा पृथुत्वं पृथुता पार्थवम् म्रदिमा मृदुत्वं मृदुता मार्दवम्, बहुलस्य भावो बंहिमा । इमनि बहुलस्य ' प्रियस्थिर' ( ७-४-३८ ) इत्यादिना बंहभावः, बहुलत्वं बहुलता बाहुल्यम् । ट्यण् । वत्सिमा, वत्सत्वं, वत्सता वात्सं, वयोलक्षणोऽन् । पृथु, मृदु, पटु, महि, तनु, लघु, बहु, साधु, आशु, उरु, गुरु, खण्डु, पाण्डु, बहुल, चण्ड, खण्ड, अकिंचन, बाल, होड, पाक, वत्स मन्द, स्वादु, ऋजु, वृष, कटु, ह्रस्व, दीर्घ, क्षिप्र, क्षुद्र, प्रिय, महत्, अणु, चारु, वक्र, वृद्ध, काल, तृप्त इति पृथ्वादि: ।५८
वर्णदृढादिभ्यष्टचण् च वा ॥ ७. १. ५९ ॥
वर्णविशेषवाचिभ्यो दृढादिभ्यश्च तस्य भावे टघण् इमन् च इत्येतौ प्रत्ययो वा भवतः, प्राक्त्वादित्यधिकारात् त्वतलौ च । वावचनाद्यचाण् प्राप्नोति सोऽपि भवति । शुक्लस्य भावः शोक्ल्यं शुक्लिमा शुक्लत्वं शुक्लता, काष्र्ण्य कृष्णमा कृष्णत्वं कृष्णता, काद्रव्यं कद्रमा कद्रत्वं कद्रुता, शितेर्भाव: शैत्यं शितिमा शितित्वं शितिता शैतम्, वावचनाद्य्वृवर्णान्तस्य पाञ्चरूप्यम् । दृढादि, दढ द्रढिमा दृढत्वं दृढता, वाढय वढिमा वृढत्वं वृढता, पारिवृढयं परिव्रढिमा परिवृढत्वं परिवृढता, वैमत्यं विमतिमा विमतित्वं विमतिता वैमतम्, सांमत्यं संमतिता संमतित्वं संमतिता सांमतम्, य्वृवर्णान्तलक्षणोऽण् टकारो
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२२० ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
[ पाद. १ सू. ६० ] ङयर्थः । अर्हतो भावः कर्म वा आर्हन्त्यम् ङी चेत् आर्हन्ती । एवमौचिती, यथाकामी, सामग्री, शैली, पारिख्याती, आनुपूर्वी ।
दृढ, वृढ, परिवृढ, कृश, भृश, चुक्र, शुक्र, आम्र, ताम्र, अम्ल, लवण, शीत, उष्ण, तृष्णा, जड, बधिर, मूक, मूर्ख, पण्डित, मधुर, वियात, विलात, विमनस्, विशारद, विमति, संमति, संमनस् इति दृढादिः । बहुवचनादाकृतिगणोऽयम् तेन स्थैर्यं स्थेमेत्याद्यपि सिद्धम् ॥५९॥
न्या० स० वर्ण० - ढिमेति अत्र मतान्तरेण रहवं, एतच्च 'पृथुमृदु' ७-४-३९ इत्यत्र कथयिष्यते ।
पतिराजान्तगुणाङ्गराजादिभ्यः कर्मणि च ॥ ७ १. ६० ॥
पत्यन्तेभ्यो राजान्तेभ्यो गुणाङ्गेभ्यो राजादिभ्यश्च तस्येति षष्ठयन्तेभ्यो भावे कर्मणि च क्रियायां टचण् प्रत्ययो भवति, प्राक्त्वादित्यधिकारात् त्वतलौ च । पत्यन्त, अधिपतेर्भावः कर्म वा आधिपत्यम्, अधिपतित्वम्, अधिपतिता । एवं नारपत्यम्, बार्हस्पत्यम्, प्राजापत्यम्, सैनापत्यम् । राजान्त - आधिराज्यम्, अधिराजत्वम्, अधिराजता, एवं सौराज्यम्, यौवराज्यम् गुणाङ्ग - द्रव्याश्रयी गुणः । गुणोऽङ्गं निमित्तं येषां प्रवृत्तौ ते गुणाङ्गाः गुणद्वारेण ये गुणिनि वर्तन्ते न तु गुणवचना एव । मौढ्यम् मूढत्वम् मूढता, मौखर्यम्, वैदुष्यम्, राजादि राज्यम् राजत्वं राजता, काव्यं कवित्वं कविता, ब्राह्मण्यं ब्राह्मणत्वं ब्राह्मणता । चकारो भावे कर्मणि चेत्युभयसमुच्चयार्थः ।
राजन्, कवि, ब्राह्मण, माणव, दण्डमाणव, वाडव, चौर, धूर्त, आराधय, विराधय, उपराधय, अपिराधय, अनृशंस, कुशल, चपल, निपुण, पिशुन, चौक्ष, स्वस्थ, विश्वस्त, विफल, विशस्य, पुरोहित, ग्रामिक, खण्डिक, दण्डिक, कर्मिक, चर्मिक, वर्मिक, शिलिक, सूतक, अजिनिक, अञ्जनिक, अञ्जलिक, छत्रिक, सूचक, सुहित, बाल, मन्द, होड राजादिराकृतिगणः । ६० ।
न्या० स० पति० – द्रव्याश्रयी गुण इति द्रव्याणामेवाश्रय एवास्यास्तीति ततो द्रव्यमेवाश्रयो यस्येति जातेर्व्यवच्छेदः अयं चैवकारोऽन्ययोगं व्यवच्छेदयति, नहि जातिर्द्रव्यमेवाश्रयति किंतु गुणमपि इति जातिर्गुणो न भवति । आश्रय एवेति किमुक्तं भवति ? केवलो गुणो न भवति, किंतु द्रव्यमेवाश्रयति, अनेन चायोगव्यच्छेदः, तेनोत्क्षेपणावक्षेपणेति या तार्किकाणां क्रिया तस्या गुणसंज्ञा न भवति, यत्तस्या आश्रय एव नास्ति ।
न च गुणवचना एवेति न हि मूढो गुणोऽपि भण्यते, किंतु मोहगुणद्वारेण गुणिन्येव वर्त्तते, अतो गुणोऽङ्गं प्रवृत्तिनिमित्तमस्याऽपि विद्यते इति गुणाङ्गः न तु गुणवचनः, गुणवचना हि पूर्व गुणे पश्चाद् गुणिनि वर्त्तन्ते, एतावता रूपादीनां व्युदासः ।
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[पाद. १. सू. ६१-६५ ] श्रीसिद्धाहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२२१ ___ आराधयेति आपूर्वाद्राधेः ण्यन्तादत एव निपातनात् शः एवमुत्तस्त्रयेऽपि । अनृशंसेति नन् शंसत्यण् , ततो नत्र योगः।
चौक्षेति चुक्षा शील्मस्य ' अथा' ६-४-६० इत्यञ् । अर्हतस्तोन्त् च ।। ७. १. ६१ ॥
अर्हत्शब्दात् षष्ठचन्ताद्भावे कर्मणि चार्थे टयण प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे च तकारस्य न्त् इत्यादेशो भवति, अरिहननात् रजोहननात् रहस्याभावाच्च अर्हन् पृषोदरादित्वात् । यद्वा, चतुस्त्रिशतमतिशयान् सुरेन्द्रादिकृतां पूजां वाहतीति अर्हन, तस्य भावः कर्म वा आर्हन्त्यम्, आईन्ती । प्राक्त्वादितित्वतलौ च अर्हत्त्वम्, अर्हत्ता १६१. सहायादा ।। ७. १.६२ ॥
सहायशब्दात्तस्य भावे कर्मणि च टचण प्रत्ययो वा भवति, वावचनात्पक्षे योपान्त्यलक्षणोऽकञ् । प्राक्त्वादिति स्वतलो च। सहायस्य भावः कर्म वा साहाय्यम्, साहायकम्, सहायत्वम्, सहायता ।६२।
सखिवणिग्दूताद्यः । ७. १.६३॥ ___ सखिवणिजदूत इत्येतेभ्यस्तस्य भांचे कर्मणि च यः प्रत्ययो भवति प्राक्त्वादिति त्वतलौ च । सख्युर्भावः कर्म वा सख्यम् सखित्वम् सखिता, वणिज्या वणिज्यम् वणिक्त्वं वणिक्ता, दूत्यम् दूतत्वं दूतता, राजादिराकृतिगणत्वात् टयणपि । वाणिज्यम् दौत्यम् ।६३१
स्तेनान्नलुक् च ।। ७. १. ६४॥ . स्तेनशब्दात्तस्य भावे कर्मणि च यः प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे च न इत्येतस्य लुग भवति, प्राक्त्वादिति त्वतलौ च । स्तेनस्य भावः कर्म घा स्तेयम्, स्तेनत्वम्, स्तेनता । राजादिदर्शनात् स्तैन्यमित्यपि भवति ।६४। कपिज्ञातेरेयण ॥ ७. १. ६५ ।।।
कपि ज्ञाति इत्येताभ्यां तस्य भावे कर्मणि च एयण् प्रत्ययो भवति स्वतलौ च । कपेर्भावः कर्म वा कापेयम् कपित्वम्, कपिता, ज्ञातेयम, ज्ञातित्वम्, ज्ञातिता, कपेः इकारान्तस्वादणि प्राप्ते ज्ञातेश्व प्राणिजातित्वादबि प्राप्ते वचनम् ॥६५॥
न्या० स० कपि० इकारान्तत्वादिति यद्यपि कपिशब्दस्य प्राप्पिजातित्वं तथापि विशेषत्वात्। 'वृवर्ण' ७-१-६९ इत्यणि प्राप्ते ।
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२२२ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. १ सू० ६६-६८ } प्राणिजातिवयोर्थादा ॥ ७. १. ६६ ॥
प्राणिजातिवाचिनो क्योवचनाच्च तस्य भावे कर्मणि चाञ् प्रत्ययो भवति त्वतलौ च । अश्वस्य भावः कर्म वा आश्वम्, अश्वत्वम्, अश्वता, गार्दभम्, माहिषम्, द्वीपिनो द्वैपम, हस्तिनो हास्तम्, अनि 'नोऽपदस्य तद्धिते' (७-४-६१) इति अन्त्यस्वरादिलोपः । क्योऽर्थ-कुमारस्य भावः कर्म वा कौमारम्, कुमारत्वम्, कुमारता, कैशोरम्, शावम्, वार्करम, कालभम् । प्राणिग्रहणं किम् ? तृणत्वम्, तृणता । जातिग्रहणं किम् ? देवदतत्वम्, देवदत्तता ॥६६॥ युवादेरण ।। ७. १. ६७ ॥
युवाविभ्यः शब्देभ्यस्तस्य भावे कर्मणि चाण् प्रत्ययो भवति त्वतलौ च । यूनो लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणात् युवतेर्भावः कर्म वा यौवनम् युवत्व युवता, चौरादिपाठाद्यौवनिकेत्यपि भवति । स्थाविरम्, स्थविरत्वम्, स्थविरता।
युवन्, स्थविर, यजमान, कुतुक, श्रमण, श्रमणक, श्रवण, कमण्डलुक, कुस्त्री, दुःस्त्री, सुस्त्री, सुहृदय, दुहूं दय, सुहृत्, दुर्हत्, सुभ्रातृ, दुर्भ्रातृ, वृषल, परिव्राजक, सब्रह्मचारिन्, अनृशंस, चपल, कुशल, निपुण, पिशुन, कुतूहल, क्षेत्रज्ञ, उदातृ, उन्नेतृ, प्रशास्तृ, प्रतिहत, होत, पोत, भ्रातृ, भतृ , रथगणक, पत्तिगणक, सुष्ठु, दुष्ठ, अध्वर्यु, कर्तृ, मिथुन, कुलीन, सहस, 'सहस्र', कण्डुक कितव इति युवादिः ।
__ स्थविरश्रमणपिशुन निपुणकुशलचपल-अनुशंसेभ्यो राजादिदर्शनात टघणपि भवति । स्थाविर्यं श्रामण्यमित्यादि, पूर्वत्राणि द्वंपादि न सिध्यति । इह त्वजि यौवनादि इत्यत्रणोरुपादानम् ।६७।
न्या० स० युबा-सुहृदयदुई दशब्दयोरणि 'हृदयस्य ' ३-२-९४ इत्यादेशे 'हृद्भगं ७-४-२५ इत्युभयपदवृद्धो सौहार्द दौहार्दमिति, एवमुत्तरयोरपि, ततश्च एकतरद्वयोपादानेनैव सिद्धे यत् युगलद्वयोपादानं तदर्थभेदार्थम् । हायनान्तात् ॥ ७. १. ६८ ॥
हायनान्तेभ्यः शब्देभ्यस्तस्य भावे कर्मणि चाण् प्रत्ययो भवति त्वतलो च । द्वैहायनम्, द्विहायनत्वम्, द्विहायनता, त्रैहायनम्, चातुर्हायनम् । अत्रावयोवाचित्वात् 'चतुस्त्रेयिनस्य वयसि'-(२-३-७५) इति णत्वं न भवति, वयसि तु पूर्वेणाञ् । त्रैहायणम्, चातुर्हायणम् ।६८।
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श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २२३
[ पाद. १. सू. ६९-७० ]
खूवर्णालघ्वादेः ॥ ७. १. ६९ ॥
लघुरादिर्यस्येवर्णो वर्णवर्णस्य तदन्तान्नान्नस्तस्य भावे कर्मणि चाण् प्रत्ययो भवति त्वतलौ च । शुचेर्भावः कर्म वा शौचम्, शुचित्वं शुचिता, शकुनेः, शाकुनम्, मुनेर्भावः कर्म वा मौनम्, संमत्तेः साम्मतम्, कवेर्भावः कर्म वा काव्यमिति तु राजादिपाठात्, नखरजन्या नाखरजनम्, हरीतक्या हारीतकम्, तितउनस्तैतवम् । पृथोः पार्थवम्, पटो: पाटवम्, लघोर्लाघवम्, वध्वा वाधवम्, पितुः पैत्रम्, आदिग्रहणं समीपमात्रार्थम्, तेन तितउ इत्यत्रा व्यवहिते शुच्यादी चक्रवर्णव्यवहिते लघुनि भवति । खूवर्णादिति किम् ? घटत्वं पटत्वम् । लघ्वादेरिति किम् ? पाण्डुत्वं कण्डूत्वम् । केचित्तु कृशानोर्भावः कर्म वा काशनवम् अरत्नेरारत्नम् अरातेरारातम् इत्यादिष्वपीच्छन्ति, तन्मतसंग्रहार्थं लघ्वादेरिति प्रकृतेविशेषणम् न य्वृवर्णस्येति व्याख्येयम्, तन्मते साम्मतमित्ति न भवति । ६९ ।
पुरुषहृदयादसमासे ॥ ७ १. ७० ॥
पुरुषहृदय इत्येताभ्यां तस्य भावे कर्मणि चाण् भवति त्वतलौ च असमासे न चेदनयोः समासो विषयभूतो भवति । पुरुषस्य भावः कर्म वा पौरुषम् पुरुषत्वं पुरुषता, हृदयस्य भावः कर्म वा हार्दम्, 'हृदयस्य हृल्लासलेखाण्ये' (३-२-९४ ) इति हृद्भाव:, हृदयत्वम् हृदयता । असमास इति किम् ? परमपुरुषत्वम् परमहृदयत्वम् सत्पुरुषत्वम् सौहृदय्यम् । परमपौरुषम् परमहार्दम् इत्यादि मा भूत् । अत एव निषेधात् सापेक्षादपि भावप्रत्ययो विज्ञायते, तेन काकस्य कार्ण्यम् बलाकाया: शौक्त्यम् इत्यादि सिद्धम् । पौरुषमिति प्राणिजात्यत्रापि सिद्धम्, समासविषये प्रतिषेधार्थं पुरुषोपादानम् ॥७०॥
न्या० स० पुरु०—असमास इति प्रसज्य प्रतिषेधः न पर्युदासः, तत्र हि समासादन्यत्र कस्यचिद्वृत्तौ स्यात् बहुहृदयो बहुपुरुष इत्ति इह न स्यात् ।
पौरुषम, हार्दम, असमास इति च विषयसप्तमीयं न सत्सप्तमी, अस्यां हि ग्रहणवता नाम्ना इति न्यायेन केवलाभ्यामेवाण उक्तत्वात् परमश्चासौ पुरुषश्च परमपुरुषादेः प्राप्तिरेव नास्ति, अतो विषयप्रहणात् समासार्वागवस्थायां परमस्य पुरुषस्य भाव इत्येवंविधायां प्रत्ययः प्रकृत्यादेरिति परिभाषया परमपौरुषमिति स्यात् ।
ननु परमं च तत् पौरुषं चेति कृते परमपौरुषमिति भवति वा नवा !
उच्यते, सादृश्यत्वान्न भवति, एवं हि कृते परमस्य पुरुषस्य भावः परमं च तत्पौरुषं चेति वा कृतमिति विशेषो न ज्ञायते ।
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२२४] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पा० १. सू० ७१-७३ ।
परम पौरुषं मा भूदिति ततश्च परमस्य पुरुषस्य भाव इति वाक्ये 'सन्महत्' ३-१-१०७ इत्यादिना समासविषयो यतो भावपदापेक्षया षष्ठी ततः सामानाधिकरण्यं इति 'सन्महत्' ३-१-१०७ इति प्राप्तिः, ततस्त्वे समानीते सति पुरुषत्वं एवंविधेन शब्देन सह परमशब्दस्य समासः, 'षष्ठ्ययत्नाच्छेषे' ३-१-७६ इत्यनेनैव परमस्यैवंविधस्य पुरुषत्वेन शब्देन सह समासो न भवति, 'सन्महत्' ३-१-१०७ इति सूत्रेण विशेषणविशेष्याभावात्, विशेषणविशेष्यत्वं च समानाधिकरण्ये सति संभवति, अत्र पुरुषत्वं परमस्येति वैयधिकरण्यं, अतः 'षष्ठ्ययत्ना' ३-१-७६ इत्यनेनैव समास इति प्रकारद्वयेनापि समासविषयो भवति । __अत एवेति ननु समासे चिकीर्षिते पुरुषहृदयशब्दौ पदान्तरापेक्षौ भवतस्तत्र सापेक्षत्वादेव न भविष्यति किं प्रतिषेधेन ? इत्याह-सापेक्षत्वादपीत्यादि । श्रोत्रियाद्यलुक् च ॥७. १.७१ ॥
श्रोत्रियशब्दात्तस्य भावे कर्मणि चाण प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे च य इत्यस्य लोपो भवति त्वतलौ च । श्रोत्रियस्य भावः कर्म वा श्रौत्रम्, श्रोत्रियत्वं श्रोत्रियता, चौरादिपाठादकअपि श्रोत्रियकम् ।७१। योपान्त्यादुरूपोत्तमादसुप्रख्यादकञ् ॥ ७. १. ७२ ॥
त्रिप्रभृतीनामन्त्यमुत्तमम् तत्समीपमुपोत्तमम्, उपोत्तमं गुरुर्यस्य तस्मात् यकारोपात्यात् सुप्रख्यवर्जितात् तस्य भावे कर्मणि चाकञ् प्रत्ययो भवति स्वतलौ च ।
रमणीयस्य भावः कर्म वा रामणीयकम्, रमणीयत्वम् रमणीयता, दार्शनीयकम्, कामनीयकम्, औपाध्यायकम् पानीयकम् । गुरुग्रहणादनेकव्यञ्जनव्यधाने ऽपि भवति । आचार्यकम्, गुरुग्रहणं हि दीर्घपरिग्रहार्थ संयोगपरपरिग्रहार्थ च, अन्यथा दीर्घोपोत्तमादित्युच्येत । योपान्त्यादिति किम् ? कापोतं, विमानत्वम् । गुरूपोत्तमादिति किम् ? क्षत्रियत्वम्, कायत्वम् । असुप्रख्यादिति किम् ? सुप्रख्यत्वम् । गुणाङ्गत्वात् टथणपि, सौप्रख्यम् ॥७२॥
न्या० स० योपा.-गुरुपोत्तम इत्यत्र 'विशेषणसर्वादि' ३-१-१५० इति गरोः पूर्वनिपातः संयोगपरेति-संयोगे गुरुरित्यर्थः, तेनाचार्यकमित्यादावनेकव्यञ्जनव्यधानेऽपि ।
क्षत्रियत्वम्, कायत्वम्-प्रथमे गुरुनास्ति द्वितीये तु उपोत्तमत्वं नास्ति । चौरादेः ॥ ७. १. ७३ ॥
चौरादिभ्यस्तस्य भावे कर्मणि चाकञ् प्रत्ययो भवति त्वतलौ च । चौरस्य भावः कर्म वा चौरिका चौरकम्, धौतिका धौर्तकम्, मानोज्ञकम, प्रेयरूपकम्, चौरत्वम्, चौरता।
चौर, धूर्त, युवन्, ग्रामपुत्र, ग्रामसण्ड, ग्रामसाण्ड, ग्रामकुमार, ग्रामकुल,
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[ पाद. १. सू. ७४-७५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२२५ ग्रामकुलाल, अमुष्यपुत्र, अमुष्यकुल, शरपत्र, शारपत्र, मनोज्ञ, प्रियरूप, अदोरूप, अभिरूप, बहुल, मेधाविन्, कल्याण, आढय, सुकुमार, छान्दस, छात्र, श्रोत्रिय, विश्वदेव, ग्रामिक, कुलपुत्र, सारपुत्र, वृद्ध, अवश्यम् इति चौरादिः ।
___ मनोज्ञादीनामक अन्तानां नपुंसकत्वमेव । पूर्वेषां तु ' चौराद्यमनोज्ञाधकजिति स्त्रीनपुसकते ' । चौर्य धौत्यं नामिक्यमिति राजादित्वात् टयर्णपि ।७३। इन्द्राल्लित् ॥ ७.१.७४
द्वन्द्वसमासात्तस्य भावे कर्मणि चाकञ् प्रत्ययो भवति समलित त्वतलौ च, लित्करणं स्त्रीस्वार्थम् । गोपालपशुपालानां भावः कर्म वा गौपालपशुपालिका, शैष्योपाध्यायिका, कौत्सकुशिकिका, विश्व पक्षी ना च नरः वित्रो वः कर्म वा वैत्रिका, अत्र 'वृषर्णाल्लच्यादेः' (७-१-६९) इत्यणि प्राप्ते परत्वादकञ् । एवं भारतबाहुबलिका, गोपालपशुपालत्वम्, गोपालपशुपालता ७४
- न्या० म० द्वंद्वा०-कौत्सकुशिकिकेति कुत्सस्य फुशिकम्य बापल्यानि प्रथमे ऋष्यण द्वितीये ‘विदाद्य , 'भृगवङ्गिर' ६-१-१२८ यत्रघोश्याफ्ण'१-१२६ इति च यथाक्रमं लुक् ।
एवमिति अत्रायणि प्राप्ते इत्यर्थः, अत्र बाहुबलिशब्द इकारान्तो प्रायः अन्यथाश्णोऽ प्राप्तिः । गोत्रचरणाच्छलाघात्याकारप्राप्त्यवगमे ।। ७.१.१. ७५॥ ..
गोत्रवाचिनश्चरणवाघिनश्च शब्दात्तस्य भावे कर्मणि लिदकञ् प्रत्ययो भवति त्वतलौ च श्लाघादिषु विषयभूतेषु, श्लाघा जिकस्थनम, 'अत्याकारः पराधिक्षेपः, विषयभावः पुनः श्लाघादीनां क्रियारूपाणां' भापकर्मणी प्रति साध्यत्वात् । गोत्रमपत्यम् प्रवराध्याय पठितं च चरण शीखानिमित्त केठादि । गाय॑स्य भावः कर्म वा गार्गिका. तया श्लाघते. काठिकया विकत्थते, गार्मिक यात्याकुरुते, काठिकयाधिक्षिपति, मालिकां प्राप्तवान् । काठिकामधिगतवान्, गार्गिकामवगतवान्, काठिका विज्ञानवान मात्धन गार्यतया कठत्वेन कठतया श्लाघते । श्लाघादिष्विति किम् ? .. गार्गम्, काठम्, प्राणिजातिलक्षणोञ् १७५॥
न्या० स० गोत्रचरणा० विषयभूतेध्विति न विशेषणेषु, यतो विशेषपानि न पढन्ते, कुतः ? इति चेत् ,-उच्यते, भाव इति शब्दस्य, प्रवृत्तिनिमित्तमिह , गृह्यते, गार्गिकाइत्यादिषु. न इलाघादयः प्रबृत्तिनिमित्तान्यपि तर्हि गर्गत्वमिति, कर्म इति च क्रिया गुह्यते, अतः क्रियाविशेषणं न संभवतीति श्लाघादिषु विषयभूतेष्विति व्याख्यातम् ।।
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२२६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० ७६-७९ ] साध्यत्वादिति भावकर्मभ्यां कर्तृभ्यां श्लाघादयो यत्र साध्यन्ते इति तात्पर्यम् , विषयभाव इत्यादिना श्लाघादीनां भावकर्मणी प्रति विषयमाह, एषां च भावकर्मणी प्रति विषयत्वं भावकर्मसाध्यत्वात्, क्रियारूपत्वाञ्च तेषां भावकर्मणी प्रति साध्यत्वमुपपद्यत एव भावकर्मणोः सत्वात्मनोस्तत्र कारकत्वोपपत्तेरिति श्लाघादीनां कारके भावे कर्मणि च प्रत्यय इत्यर्थः, अयमर्थः, इलाघाद्या हि कियास्ताइच कारकैरेव साध्याः, कारकाणि चात्र भावकर्मरूपाण्येवेति तैः साध्यत्वम्।
पठितं चेति प्रवरमाधं गोत्रं तस्याध्यायस्तत्र पठितं यत् गोत्रं तदप्यभिधीयते, एतेन किमुक्तं भवति ? द्विविधमिह गोत्रं गृह्यते, तेन मित्रयोर्भावः कर्म वेति कृते मैत्रेयिकेत्यत्र प्रयोजनम । होत्राभ्य ईयः ।। ७. १. ७६ ॥
होत्राशब्द ऋत्विग्विशेषवचनः, ऋत्विग्विशेषवाचिभ्यस्तस्य भावे कर्मणि च ईयः प्रत्ययो भवति त्वतलौ च । मैत्रावरुणस्य भावः कर्म वा मैत्रावरुणीयम्, मैत्रावरुणत्वम्, मैत्रावरुणता ॥ अग्नीधः अग्नीधीयम्, नेष्टुः नेष्ट्रीयम्, पोतुः पोत्रीयम्, ब्राह्मणाच्छंसिनो ब्राह्मणाच्छंसीयम् । हूयते आभिरिति होत्रा ऋच इत्येके, तान्येवोदाहरणानि । मैत्रावरुणादयस्तु ऋग्वचनाः, बहुवचनं स्वरूपविधिनिरासार्थम् ।७६।
न्या० स० होत्रा०-ऋत्विषिशेषवचन इति स्त्रीलिङ्गोऽपि सन् ऋत्विजः प्राह । . ब्रह्मणस्त्वः ॥ ७. १. ७७ ॥
होत्राभ्य इति वर्तते, ब्रह्मन् इत्येतस्मादृत्विग्वाचिनस्तस्य भावे कर्मणि च त्वः प्रत्ययो भवति, ईयापबादः । ब्रह्मणो भाव: कर्म वा ब्रह्मत्वम, होत्राधिकाराद् ब्राह्मणपर्यायाज्जातिवाचिनो ब्रह्मन्शब्दात तलपि भवति, ब्रह्मत्वम् ब्रह्मता ।७७।
न्या० स० ब्रह्मण-ईयापवाद इति ईयेत्युपलक्षणं तलोऽप्ययमपवादः, अन्यथा ईयस्यैव प्रतिषेधे ब्रह्मणो नेति सूत्रं कुर्यात् ।।
तलपीति न केवलं 'भावे त्वतल' ७-१-५५ इत्यनेन त्वः किंतु तलपि, अयमर्थः ऋत्विग्रवचनस्य ब्राह्मणवचनस्य च त्वप्रत्ययः समानः, तेन जातिवचनस्य तलपि भवतीत्यर्थः उपलक्षणं चेदं तेन ब्रह्मणो भावः कर्म वा प्राणिजात्यवि ब्राह्ममित्यपि । शाकटशाकिनौ क्षेत्रे ॥ ७. १. ७८ ॥
तस्येति वर्तते, क्षेत्र धान्यादीनामुत्पत्त्याधारभूमिः, तस्येति षष्ठयन्ताक्षेत्रेऽर्थे शाकटशाकिन इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । इक्षूणां क्षेत्रम् इक्षुशाकटम्, इक्षुशाकिनम्, मूलकशाकटं मूलकशाकिनम्, शाकशाकटम् शाकशाकिनम् ।७८। धान्येभ्य ईनञ् ॥ ७. १. ७९ ॥ .
धान्यवाचिभ्यः षष्ठयन्तेभ्यः क्षेत्रेऽर्थे ईनञ् प्रत्ययो भवति । कुलत्थानां
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[ पाद. १. सू. ८०-८७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२२७ क्षेत्रं कौलत्थीनम्, मौद्गीनम्, प्रेयङ्गवीणम्, नैवारीणम्, कौद्रवीणम् ।७९। बीहिशालेरेयण ॥ ७. १. ८० ॥
व्रीहिशालि इत्येताभ्यां तस्य क्षेत्रे एयण प्रत्ययो भवति, ईनञोऽपवादः। वीहेः क्षेत्रं वैहेयम्, शालेयम् ।८।।
यवयवकषष्टिकाद्यः ॥ ७. १. ८१ ।।
यवयवकषष्टिक इत्येतेभ्यस्तस्य क्षेत्रे यः प्रत्ययो भवति, ईननोऽपवादः । यवानां क्षेत्रं यव्यं, यवक्यं, षष्टिक्यम्, षष्टिरात्रेण पच्यमाना व्रीहयः षष्टिकाः, अतः एव निपातनात् सिद्धिः ।८१। वाणुमाषात् ॥ ७. १. ८२ ॥
अणुमाष इत्येताभ्यां षष्ठयन्ताभ्यां क्षेत्रेऽर्थे यः प्रत्ययो भवति वा, पक्षे ईनञ् । अणूनां क्षेत्रमणव्यम्, आणवीनम्, माष्यम्, माषीणम् ।८२॥
वोमाभङ्गातिलात् ।। ७. १. ८३ ॥ - उमाभङ्गातिल इत्येतेभ्यः षष्ठयन्तेभ्यः क्षेत्रेऽर्थे यः प्रत्ययो वा भवति, पक्षे ईन । उमाभङ्गे अपि धान्ये एवेष्येते । उमानां क्षेत्रम् उम्यम् औमीनम्, भनयम, भाङ्गीनम्, तिल्यम्, तैलीनम्, योगविभाग उत्तरार्थः ।८३। अलाब्वाश्च कटो रजसि ॥ ७. १. ८४ ।।
अलाबूशब्दाच्चकारादुमाभङ्गातिलेभ्यश्च षष्ठयन्तेभ्यो रजस्यर्थे कटः प्रत्ययो भवति । अलाबूनां रजः अलाबूकटम्, उमाकटम्, भङ्गाकटम्, तिलकटम् ।८४॥ अह्ना गम्येऽश्वादीनञ् ॥ ७. १. ८५ ॥
तस्येति षष्ठयन्तादश्वशब्दादेकेनाह्ना गम्येऽर्थे ईनञ् प्रत्ययो भवति । अश्वस्यैकेनाह्ना गम्यः आश्वीनोऽध्वा, अहेति किम् ? अश्वस्य मासेन गम्यः ।८५॥ कुलाज्जल्पे ।। ७. १.८६ ॥
तस्येति षष्ठयन्तात्कुलशब्दाज्जल्पेऽर्थे ईनन् प्रत्ययो भवति । कुलस्य जल्प: कौलोनम् ।८६। पील्वादेः कुणः पाके ॥७. १. ८७ ।।
पीलु इत्यादिभ्यः षष्ठयन्तेभ्यः पाकेऽर्थे कुणः प्रत्ययो भवति । पीलूनां
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२२८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंललिते [पाद. १ सू. ८८-९३ ] पाकः पीलुकुणः, कर्कन्धुकुणः । ___ पीलु, कर्कन्धु, शमी, करीर, बदर, कुवल, अश्वत्थ, खदिर इति पील्वादिः ।८७॥ कर्णादेर्मूले जाहः ॥ ७. १. ८८ ॥
कर्णादिभ्यः षष्ठयन्तेभ्यो मूलेऽर्थे जाहः प्रत्ययो भवति । कर्णस्य मूलं कर्णजाहम्, अक्षिजाहम् ।
कर्ण, अक्षि, आस्य, वक्त्र, नख, मुख, केश, दन्त, ओष्ठ, भ्रू, शृङ्ग, पाद, गुल्फ, पुष्प, फल इति कर्णादिः ।८८
पक्षात्तिः ॥ ७. १. ८९॥ ..पक्षशब्दात्षष्ठयन्तान्मूलेऽर्थे तिः । प्रत्ययो भवति । पक्षस्य मूलं क्षतिः ।८९।
न्या० स० पक्षा०-पक्षतिरिति मूलेप्यभिधेये शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् स्त्रीलिङ्गः । हिमादेलुः सहे ॥ ७. १. ९० ॥
हिमशब्दात्षष्ठचन्तात्सहे सहमानार्थ एलुः प्रत्ययो भवति । हिमस्य सहः हिमं सहमानः हिमेलुः ॥१०॥ बलवातादलः ॥७.१२.९१ ।।।
मलनात, इत्सेताश्या काष्ठकाभ्यां सहेऽर्थे ऊलः प्रत्ययो भवति । बलस्य सहा बलं सहमानः बलूलः, वातूल : १९१ ।।
न्या० स० बल०-वातूल इति वातसहः, वातासहोऽप्येतदर्थ एवेति शब्दभेदः । शीतोष्णतृप्रादालुरसहे .।। ७. ११. ९२ ॥
शीत, उष्ण, तृप्त इत्येते. त्या षष्ठयन्तेभ्योऽसहेऽसहमानेर्थे आलुः प्रत्ययो भवति । शीतस्यासहः शीतमसहमानः शीतालुः, उष्णालुः, तृप्रालुः, तृप्रम् दुःखम् ।९२। यथाखमुसंमुखादीनस्तदश्यतेऽस्मिन् ॥ ७. १. १३ ॥
यथामुखसंमुख इत्येताभ्यां तदितिः प्रथमान्ताभ्यामस्मिन्निति सप्तम्यर्थे ईनः प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं दृश्यते चत्तद्भवति, यथामुखं दृश्यतेऽस्मिन यथामुखीन: आदर्शादिः मुखस्यः सदृशोठों यथामुखं प्रतिबिम्ब उच्यते, अत एव निपातनायथाथा (३-१-४१.) इति प्रतिषेधेऽप्यमयीभावः । समं मुखं
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[पाद. १. सू. ९४-९७] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः । २२९ संमुखम्, समं मुखमस्यानेनेति वा संमुखं प्रतिबिम्बमेव, अत एव निपातनात्समशब्दस्य अन्तलोपः, संमुखं दृश्यतेऽस्मिन्निति संमुखीन:, यथामुखीनः सीताया इति । संमुखीनो हि जयो रन्ध्रप्रहारिणामिति च उपमानात् ।९३।
न्या० स० यथा०-अन्तलोप इति ननु समशब्द एव वृत्तिविषये समशब्दस्यार्थे वर्तिष्यते ततः किं समस्यान्तलोपेन ?
उच्यते, समशब्दस्यापि विशेषणसमासादौ मुखशब्देन संमुख इति यथा स्यादित्येवमर्थम् । सर्वादेः पथ्यङ्गकर्मपत्रपात्रशरावं व्याप्नोति ॥ ७. १. ९४ ॥ . सर्वशब्दपूर्वेभ्यः पथिन्, अङ्ग, कर्मन्, पन्न, पात्र, शराव इत्येतदन्तेभ्यो निर्देशादेव द्वितीयान्तेभ्यो व्याप्नोतीत्वर्थे ईनः प्रत्ययो भवति । सर्वपथं स्याप्नोति सर्वपथोनो रथः । सर्वपथान् व्याप्नोति सर्वपथीनमुदकम् । एवं सर्वाङ्गीणस्तापः । सर्वकर्मीणः पुरुषः सर्वपत्रीणः सारथिः, सर्वपात्रीण ओदनः, सर्वशरावीण ओदनः सर्वादेरिति किम् ? पन्थानं व्याप्नोति १९४।
आप्रपदम् ॥ ७. १. ९५॥ - प्रगतं पदं प्रपदम् पदाग्रमित्यर्थः, अथवा प्रवृद्धं पदं प्रपदम् पदस्योपरिष्टात् संस्था खलुको गुल्फ इति यावत्, आङ मर्यादायामभिविधौ वा । आ प्रपदात् आप्रपदम् 'पर्यपाङ'-( ३-१-३२ ) इत्यव्ययीभावः । आप्रपदशब्दानिर्देशादेव द्वितीयान्तात् व्याप्नोतीत्यर्थे ईनः प्रत्ययो भवति ।
आप्रपदं व्याप्नोति न तदतिवर्तते यः स आप्रपदीनः पटः, अनेन पटस्य प्रमाणमाख्यायते १९५। अनुपदं बद्धा ॥ ७. १. ९६ ॥
अनुपदशब्दान्निर्देशादेव द्वितीयान्ताहद्धा इत्येतस्मिन्नर्थे ईनः प्रत्ययो भवति । अनुपदं बद्धा अनुपदीना उपानत् । पदप्रमाणेत्यर्थः । अनुपदमिति ' दैर्येऽनुः' -(३-१-३४) इत्यव्ययीभावः ।९६।
न्या० स० अनु० - अनुपदमिति पदं लक्ष्यीकृत्यायतं बन्धनमिति क्रियाविशेषणत्वात् द्वितीयाभेदोपचाराद् बद्धत्युच्यते ।
अयानयं नेयः ।। ७. १. ९७ ॥ ___ अयानयशब्दान्निर्देशादेव द्वितीयान्तान्नेय इत्येतस्मिन्नर्थे ईनः प्रत्ययो भवति । अयानयं नेयोऽयानयीनः शारः, फलकशिरसि स्थित उच्यते । अयः प्रदक्षिणं गमनम्, अनयः प्रसव्यं वामम्, शारिद्यूते हि केचिच्छाराः प्रदक्षिणं
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२३० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० ९८-१०० ) गच्छन्ति केचित्प्रसव्यम्, तेषां गतिरयसहितोऽनयोऽयानय इत्युच्यते । यस्मिन् परशारैः पदानामप्रवेशः तदुभयं नेयः अयानयीन इति रूढिः । अथवा अयः शुभं दैवम्, अनयोऽशुभम् । शुभादवादपवर्ततेऽशुभं दैवं यस्मिन् कर्मणि तदयानयं शान्तिकर्म चतुःशरणप्रतिपत्तिरनाघात घोषणं देवगुरुपूजा तपो दानं ब्रह्मचर्यादिनियमः तधो नेय: कारयितव्यः सोऽयानयीन ईश्वर इति ।९७। ___ न्या० स० अथा० - अयानयं नेय इति कर्मणि द्वितीया, यद्यपि नेयशदेन कर्माभिधीयते तथापि अयानयशब्दाद् द्वितीया भवत्येव द्विकर्मकत्वात् , शार इत्येतदेव हि कर्माभिहितं नेतरत् ।
यस्मिन्निति दक्षिणगमने वामगमने च पराग बाधिता भवन्ति, तस्मिन् परशारैः कर्तृभिः . पदानां गृहकाणां कर्मभूतानां स्वशारैर्बद्धत्वात् अप्रवेशः ___रूढिरिति प्रदक्षिणप्रसव्यगामी च शारो मीयमानो न सर्वोऽयानयीन इत्युच्यते अपि तु कश्चिदेवेति, अयमर्थः, यत्र फलके अक्षैभव्यन्ति तस्य यच्छिरोभूतं स्थानं कितवानां प्रसिद्ध तत्रस्थ एव शारोऽयानयीनः। सर्वान्नमत्ति ॥ ७. १. ९८ ॥
सन्निशब्दाद्वितीयान्तात् अत्तीत्यस्मिन्नर्थे ईनः प्रत्ययो भवति, सर्वशब्दः प्रकारकात्न्ये । सर्वप्रकारमन्नं सर्वान्नम् तदत्ति सन्निीनो भिक्षुः नियमरहितः ।९८॥ परोवरीणपरंपरीणपुत्रपौत्रीणम् ॥ ७. १. ९९ ॥
परोवरीणादयः शब्दा अनुभवत्यर्थे ईनप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । परावरशब्दाद्वितीयान्तादनुभवत्यर्थे ईनः प्रत्ययोऽवरशब्दाकारस्य चोत्वं प्रत्ययसंनियोगे निपात्यते । परांश्चावरांश्चानुभवति परोवरीणः, पारोवर्यमित्यत्रातीतक्रमवाचि परोवरमिति शब्दान्तरम् । परंपरीणेति परपरतरशब्दात् द्वितीयान्तादनुभवत्यर्थे ईनः परंपरभावश्च, परान् परतरांश्चनुभवति परंपरोणः । मन्त्रिपरंपरा मन्त्रं भिनत्तीत्यत्र परम्पराशब्द आबन्तो बाहुल्यार्थः प्रकृत्यन्तरम्, पुत्रपौत्रीणेति पुत्रपौत्रशब्दात् द्वितीयान्तादनुभवत्यर्थे ईनः। पुत्रांश्च पौत्रांश्चानुभवति पुत्रपौत्रीण ।९९।
न्या० स० परो०-पारोवर्यमिति यदि प्रत्ययसंनियोगे ओत्वं तत्कथमत्र तदभावे इत्याशङ्का । यथाकामानुकामात्यन्तं गामिनि ॥ ७. १. १००॥
यथाकामानुकाम अत्यन्त इत्येतेभ्यो निर्देशादेव द्वितीयान्तेभ्यो गामिन्यर्थे ईनः प्रत्ययो भवति । यथाकामं गामी यथाकामीनः, अनकामीनः, यथेच्छं गामीत्यर्थः । अत्यन्तं गामी अत्यन्तीनः, भृशं गन्तेत्यर्थः ।१०।
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पाद १. सू. १०१-१०५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २३१ पारावारं व्यस्तव्यत्यस्तं च ॥ ७. १. १०१॥
पारावारशब्दात्समस्ताव्यस्ताब्यत्यस्ताच्च निर्देशादेव द्वितीयान्तादामिन्यर्थे ईनः प्रत्ययो भवति । पारावारं गामी पारावारीणः, पारीणः, अवारीणः, अवारपारीणः ।१०१॥ अनुवलम् ॥ ७. १. १०२॥
अनुगुशब्दाद्वितीयान्तादलंगामिनि ईनः प्रत्ययो भवति । अलं पर्याप्तमित्यर्थः । गवां पश्चादनुगु तदलं गामी अनुगवीनो गोपालकः ।१०२॥ अध्वानं येनौ ॥ ७. १. १०३ ॥
अलं गामिनीति वर्त्तते। अध्वनशब्दान्निर्देशादेव द्वितीयान्तादलंगामिनि य ईन इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । अध्वानमलं गामी अध्वन्यः अध्वनीनः ।१०३॥ अभ्यमित्रमीयश्च ।। ७. १. १०४ ॥
अभ्य मित्रशब्दान्निर्देशादेव द्वितीयान्तादलंगामिनिः ईयः प्रत्ययो भवति चकाराद्येनौ च । अभ्यमित्रमलंगामी अभ्यमित्रीयः, अभ्यमिध्यः, अभ्यमित्त्रीणः, अमित्त्राभिमुखं भृशं गन्तेत्यर्थः ।१०४। समांसमीनाद्यश्वीनाद्यप्रातीनागवीनसाप्तपदीनम् ॥७. १. १०५॥
समांसमीनादयः सब्दा ईनप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । साप्तपदीनस्त्वीनजप्रत्ययान्तः। समांसमीनेति समांसमामिति वीप्साद्वितीयान्तात्समुदायाद्दर्भ धारयत्यर्थे ईनः पूर्वपदविभक्तेश्चालुप् । समां समां गर्भ धारयति समांसमीना गौः । समामिति 'कालाध्वनोयाप्तौ' (२-२-४२) इति द्वितीया।।
अन्ये समायां समायां विजायते गर्भ विमुञ्चति समांसमीनेति पूर्वपदस्य यलोपमाहुः। व्याप्त्वभावाच्चाधिकरणे सप्तमी। अद्यश्वीनेति अद्यश्वःशब्दयोर्वार्थे समासः विजनिष्यमाणेऽर्थे विजननस्य प्रत्यासत्तौ गम्यमानायामीनः। अद्य श्वो वा विजनिष्यमाणा अद्यश्वीना गौः । एवं नाम प्रत्यासन्नप्रसवेत्यर्थः । अन्ये तु प्रत्यासत्तौ गम्यमानायां भविष्यत्यर्थे प्रत्ययमाहः । अद्य श्वो वा भविष्यति अघश्वीनो लाभः, अधश्वीनं मरणम्, एवमद्यप्रात:शब्दादीनः, अबप्रातीना गौः, अद्यप्रातीनो लाभः, अघातीनं मरणम्, आगवीनेति आगोप्रतिदानशब्दात्कारिण्यर्थे ईनः प्रतिक्षानशब्दस्य च लुक् । आगोप्रतिदानं कारी आगवीनः कर्मकरः। गवा भृतो य आ तस्मा गोः प्रत्य
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२३२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्थासर्सवलिते [पाद. १ सू० १०६-१०७ ] पणात्कर्म करोति स आगवीनः, रूढिशब्दोऽयम् । यत्किंचिदादाया तस्य प्रतिदानात्कर्मकर एवमुच्यते इत्येके, अन्ये तु आ गोः प्राप्तेः कर्म कारी आगवीन इत्याहुः। साप्तपदीनेति सप्तपदशब्दात्तृतीयान्तात्तदवाप्येऽर्थे ईनञ् यत्तदवाप्यं तच्चेत्सख्यं सखा वा भवति । सप्तभिः पदैरवाष्यम् साप्तपदीनं सख्यम्, साप्तपदीनः सखा, साप्तपदीनं मित्रम् ॥१०॥
न्या० स० समास-द्वितीयेति ननु समायाः कथं व्याप्तिरेकदेशे एव गर्भग्रहणात् ?
सत्यं, अवयके समुदायोपचारात् । एवमिति पूर्वोक्तनील्या विजनिष्यमाणे भविष्यक्ति थाऽथे इत्यर्थः ।
अषडक्षाशितंग्वलंकलिंपुरुषादीनः॥७ १. १०६ ।। : अषडक्ष, आशितंगु, अलंकर्मन्, अलंपुरुष, इत्येतेभ्यः स्वार्थ ईनः प्रत्ययो भवति । अविद्यमानानि षडक्षीण्यस्मिन् अषडक्षीणो मन्त्रः, सक्थ्यक्षणः स्वाङ्गे' (७-३-१२६) इति टान्तादीनः । अषडक्षीणा क्रीडा, द्वाभ्यां साध्यत इत्यर्थः। अषडक्षीणः कन्दुकः, येन द्वौ क्रीडतः। अदृश्यानि षडक्षीण्यस्य अषडक्षीणश्चैत्रः पितुः पितामहस्य पुत्रस्य वा द्रष्टोच्यते । इन्द्रियपर्यायो वाक्षशब्दः । अविद्यमानानि षडक्षाण्यस्याषडक्षीणोऽमनस्कः। विचारेण विना प्रवर्तते इत्यर्थः । आशिता गावोऽस्मिन्निति आशितंगु, अस्मादेव निपातनात्पूर्वपदस्य मोऽन्तः। तत् ईनः । आशितंगवीनमरम्यम्, अलं कर्मणे अलं पुरुषाय
प्रत्यवपरि '-(३-१-४७) इत्यादिना समासः तत ईनः। अलंकर्मीणः, भरपुरुषीणः । राजाधीनमिति त्वधीनेन शाण्डादित्वात्सप्तमीसमासः । अस्ति चाधीनशब्दः । अस्मास्वधीनं किमु निःस्पृहाणाम् इति, वाक्यं हि वक्तर्यधीनं भवति इति, तदेतत् प्रयोक्तर्यधीनं भवतीति ।१०६।
अदिस्त्रियां वाचः ॥ ७. १. १०७ ।। - अञ्चत्यन्तान्नाम्न ईनः प्रत्ययो वा भवति स्वार्थे न चेत्स दिशि स्त्रिंथीं वर्तते । प्राक् प्राचीनम्, प्रत्यक् प्रतीचीनम्, उदक उदीचीनम्, अवाक् अवाचीनम्, सम्यङ् समीचीनः । अदिस्त्रियामिति किम् ? प्राची उदीची दिक। दिग्ग्रहणं किम् ? प्राचीना शाखा, अवाचीना ब्राह्मणी, स्त्रीग्रहणं किमा प्राक् प्राचीनं रमणीयम् । दिश्यपि लुबन्तं स्वभावात् नपुसकम्, वाद्यात् (६-१-११) इति विकल्पे लब्धे वाग्रहणं पूर्वत्र नित्यार्थम् ॥१०७।
ATML० स० अदिग्ग-प्रसज्योऽयं नम् दिगूलक्षणा स्त्री चेन्न भवतीति न तु अदिग्लक्षणयां स्त्रियामितिपर्युदासस्तेम पुक्लीवयोरपि भवति ।
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[ पाद १. सू. १०८-११० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२३३
ननु दिशः स्त्रोत्वमव्यभिचारि तत्किमत्र स्त्रीग्रहणेन ? इत्याह-स्त्रीग्रहणमिति-बीलिङगरहितायां दिश्यश्चत्यन्तषाच्यायां प्रत्युदाहरति प्राक्प्राचीनं रमणीयमित्यादिना। नपुंसकमिति प्रागिति धातुलुबन्तम् , अव्ययत्वाल्लिगायोग्यं, प्राचीनं च स्वार्थिकान्तत्वात् तद्वत् तथापि स्वभावान्नपुंसकं, अन्यथा अभेदे अलिङगत्वं भेदे तु स्त्रीलिङ्गत्वं स्यात् ।
नित्यार्थमिति ‘अषडक्ष ' ७-१-१०७ इत्यत्र सूत्रे वाक्यं त्वलौकिकम् । तस्य तुल्ये कः संज्ञाप्रतिकृत्योः ॥ ७. १. १०८ ॥
तस्येति षष्ठयन्तात्तुल्ये सदृशेर्थे कः प्रत्ययो भवति संज्ञाप्रतिकृत्योः संज्ञायां प्रतिकृतौ च विषये । प्रतिकृतिः काष्ठादिमयं प्रतिच्छन्दकम् , अश्वस्य तुल्यः अश्वकः, उष्ट्रकः, गर्दभकः । अश्वादिसदृशस्य संज्ञा एताः । प्रतिकृतिः, अश्वकम् रूपम् । अश्विका प्रतिमा, अश्वकानि रूपाणि । तुल्य इति किम् ? इन्द्रदेवः । एवंनामा कश्चित्, नात्र सादृश्यम् । संज्ञाप्रतिकृत्योरिति किम् ? गोस्तुल्यो गवयः । संज्ञा ग्रहणमप्रतिकृत्यर्थम्, एके स्वाहुः-तुल्यमा प्रत्ययः, शिव इव शिवकः ।। १०८।।
__ न्या० स० तस्य-संज्ञा एता इति एवं नामानः पशुविशेषा, न तु प्रतिबिम्बानि । इन्द्रदेव • इति षष्ठ्यन्तादभेदे इन्द्रदेवस्य संबन्धी इन्द्र देवः, इन्द्रदेवक इत्युक्ते संज्ञा प्रतीयत इति न द्वयङ्गविकलता।
गोस्तुल्य इति न हि गोक इति कप्रत्ययान्तेन संज्ञा प्रतीयते । न नृपूजार्थध्वजचित्रे ॥ ७. १. १०९ ॥
नरि मनुष्ये पूजार्थे ध्वजे चित्रे च चित्रकर्मणि अभिधेये कः प्रत्ययो न भवति, तत्र सोऽयमित्येवाभिसंबन्धः । संज्ञाप्रतिकृत्योरिति यथासंभवं प्राप्ते प्रतिषेधोयम् । नृ, चञ्चा तृणमयः पुरुषः, यः क्षेत्ररक्षणाय क्रियते । चञ्चातुल्यः पुरुषश्चश्चा, एवं वध्रिका, खरकुटी, पूजार्थ, अर्हन्, शिवः, स्कन्दः । पूजनार्थाः . प्रति कृतय उच्यन्ते । ध्वज, गरुडः, सिंहः, तालो, ध्वजः, चित्र, दुर्योधनः, भीमसेनः ।। १०९ ।।
न्या० स० न नृ०-तत्रेति निषेधे सतीत्यर्थः । सोयमिति चम्चातुल्य पुरुषोऽभेदोपचारेण चञ्चा, अतश्चचा पुरुष इत्यादौ सामानाधिकारण्यम् तथा चान्यैरिव प्रत्ययस्य लुप् न वक्तव्या ।
यथासंभवमिति मनुष्ये संज्ञायां पुजार्थादिषु प्रतिकृती प्राप्तिः । अपण्ये जीवने ।। ७. १. ११० ॥
जीवन्त्यनेनेति जीवनम् । पण्यं विक्रेतव्यम् । पण्यवजितं यज्जीवनं तस्मिन् कः प्रत्ययो न भवति । वासुदेवसदृशः वासुदेवः, शिवः स्कन्दः विष्णुः, देवल.
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२३४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू. १११-११५ । कानां जीविकार्थाः प्रतिकृतय उच्यन्ते । अपण्य इति किम् ? हस्तिकान् विक्रीणीते । जीवन इति किम् ? क्रीडने निषेधो मा भूत् । हस्तिकः ।११०। देवपथादिभ्यः ॥ ७. १. १११ ॥
देवपथ इत्येवमादिभ्यस्तुल्ये संज्ञाप्रति कृत्योः कः प्रत्ययो न भवति । देवपथस्य तुल्यः देवपथः, एवं हंसपथः ।
देवपथ, हंसपथ, अजपथ, वारिपथ, राजपथ, शतपथ, शङ्कपथ, स्थलपथ, सिन्धुपथ, उष्ट्रग्रीवा, वामरज्जु, हंस, (हस्त) इन्द्र, दण्ड, पथ्य (पुष्प) मत्स्य, इति देवपथादिः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् , पूर्वयोगावस्यैव प्रपञ्चः । १११ । वस्तेरेय ॥ ७. १. ११२॥
तस्य तुल्य इति वर्तते न संज्ञाप्रतिकृत्योरिति । वस्तिशब्दात्षष्ठयन्तातुल्येऽर्थे एयञ् प्रत्ययो भवति। वस्तेस्तुल्यं वास्तेयम् , वास्तेयो प्रणालिका ।११२।
न्या० स० वस्ते०-न संहति प्रत्ययान्तरोपादानात् । शिलाया एयच्च ।। ७. १. ११३॥
शिलाशब्दात्षष्ठचन्तात्तुल्येऽर्थे एयच् प्रत्ययो भवति चकारादेयञ् च । शिलायास्तुल्यं शिलेयं दधि, शिलेयी इष्टका, शैलेयं दधि, शैलेयी इष्टका । चकारः 'अणजेयेकण्'-(२-४-२०) इति एयस्य सामान्यग्रहणाविधातार्थः । अन्यथा ह्यस्यैव स्यात् , अन्ये तु द्रव्यशब्दवदेयजन्तं स्त्रियां नास्तीत्याहुः । ११३ ।
न्या० स० शिला०-द्रव्यशब्दवदिति यथा द्रोभव्ये इति तुल्यार्थे ये द्रव्यशब्दो नियतं लिङ्गमाह एवं शिलेयमिति । शाखादेयः ॥ ७. १. ११४ ॥ .
शाखा इत्येवमादिभ्यस्तस्य तुल्ये यः प्रत्ययो भवति । पुरुषस्कन्धस्य वुक्षस्कन्धस्य वा तिर्यक् प्रसृतमङ्गं शाखेत्युच्यते, तद्यथा शाखा पायता तथा कुलस्य यः पाश्र्वायतोऽङ्गभूतः स शाखायास्तुल्यः शाख्यः, मुख्यः, जघन्यः ।
शाखा, मुख, जघन, स्कन्द, स्कन्ध, मेघ, शृङ्ग, चरण, शरण, उरस् , शिरस् , अन । इति शाखादिः । ११४ । द्रोर्भव्ये ॥ ७. १. ११५॥
शब्दात्तस्य तुल्ये भव्येऽभिधेये यः प्रत्ययो भवति । विशिष्टेष्टपरिणामेन भवतीति भव्यम् अभिप्रेतानामर्थानां पात्रम् । द्रुतुल्यः द्रव्यमयं माणवकः, द्रव्यं कार्षापणम् , यथा द्रु अग्रन्थि अजिह्म दारु उपकल्प्यमानविशिष्टेष्टरूपं
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। पाद. १. सू. ११६-१२०] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २३५ भवति तथा माणवकोऽपि विनीयमानो विद्यालक्ष्भ्यादिभाजनं भवतीति द्रव्यमुच्यते । कार्षापणमपि विनियुज्यमानं विशिष्टेष्टमाल्याधुपभोगफलं भवति इति द्रव्यमुच्यते । दुरिव द्रव्यं राजपुत्रः, यथा द्रुमः पुष्पफलादिभिरथिनः कृतार्थयति एवमन्योऽपि यः सोऽपि द्रव्यमुच्यते । भव्य इति किम् ? द्रुतुल्योऽयं न चेतयते । ११५ । कुशाग्रादीयः ॥ ७. १. ११६ ॥
कुशाग्रशब्दात्तस्य तुल्ये ईयः प्रत्ययो भवति, कुशाग्रस्य तुल्यं कुशाग्रीयं शस्त्रम् तदाकारत्वात् । कुशाग्रीया बुद्धिः, तीक्ष्णत्वात् ।। ११६ ॥
काकतालीयादयः ॥ ७. १. ११७ ।।
, काकतालीयादयः शब्दा ईयप्रत्ययान्ताः साधवो भवन्ति तस्य तुल्येऽभिधेये ॥ काकश्च तालश्च काकतालम् , यथा कथंचिद्वजतः काकस्य निपतता तालेनातकितोपनतश्चित्रीयमाणः संयोगो लक्षणयोच्यते तत्तुल्यं काकतालीयम् , एवं खलतिबिल्वीयम् , अन्धकश्च वर्तिका च अन्धकवतिकम् , अत्रान्धकस्य वर्तिकाया उपरि अकितः पादन्यास उच्यते, अन्धकस्य बाहूत्क्षेपे वर्तिकायाः करे निलयनं वा तत्तुल्यमन्धकवतिकीयम् । अजया पादेनावकिरत्यात्मवधाय कृपाणस्य दर्शनमजा कृपाणम् तत्तुल्यमजाकृपाणीयम् , एवंविधचित्रीकरणविषयाः काकातालीयादयः । निपातनं रूढयर्थम् । बहुवचनादन्येऽपि, अर्धजरतीय , घुणाक्षरीय मित्यादि । ११७ । . शर्करादेरण् ।। ७. १. ११८ ॥
शर्करादिभ्यस्तस्य तुल्येऽण् प्रत्ययो भवति । शर्करायास्तुल्यं शार्कर दधि मधुरत्वात् । शार्करी मृत्तिका कठिनत्वात् ।
___ शर्करा, कपालिका, कम्वाष्टिका, गोपुच्छ गोलोमन् पुण्डरीक, शतपत्र, नराची, नकुल, सिकता, कपाटिका । इति शर्करादिः । ११८ ।
अः सपल्याः ॥७. १. ११९॥ सपत्नीशब्दात्तस्य तुल्ये अः प्रत्ययो भवति । सपत्न्यास्तुल्यः सपत्नः ।११९। एकशालाया इकः ॥ ७. १. १२० ॥
एकशालाशब्दात्तस्य तुल्ये इकः प्रत्ययो भवति । एकशालायास्तुल्यमेकशालिकम् ।१२०
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२३६ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. १ सू० १२१-१२६ ]
गोण्यादेश्चेकण् ॥ ७. १. १२१ ॥ ___ गोण्यादिभ्य एकशालाशब्दाच्च तस्य तुल्ये इकण् प्रत्ययो भवति । गोण्यास्तुल्यं गौणिकम् अङ्गलेरङ्गल्या वा आङ्गलिकम्, एकशालाया ऐकशालिकम् ।
___ गोणी, अङ्गली, भरुजा, व . बभ्रु, वल्ग, मण्डर, मण्डल, शष्कुली, हरि, मण्डु, कपि, भरु, खल, उदश्वित्, तरस् कुलिश, मुनि, रुरु, इति गोण्यादिः ।१२१॥ कर्कलोहिताट्टीकण च ॥ ७. १. १२२ ॥
कर्कलोहितयब्दाभ्यां तस्य तुल्ये टीकण् प्रत्ययो भवति चकारादिकण् च ।। शुक्लोऽश्वः कर्कः । तस्य तुल्यः कार्कीकः, कार्किकः, लौहितीक:, लौहितिकः । स्फटिकादिः अलोहितवर्णोऽप्युपाश्रयवशाद्यस्तथावभासते स एवमुच्यते, टकारो ड्यर्थः। कार्कीकी, लौहितीकी ।१२२।। __ न्या० स० कर्क०-ननु लोहितेन तुल्यस्य संभवो नास्ति, लोहितगुणयुक्तश्चेत् स्वयमेव लोहितो गुणान्तरयुक्तश्चेत् कथं लोहितेन तुल्यः स्यादित्याशङ्क्यस्फटिकादेर्लोहितगुणयुक्तेन द्रव्येण तुल्यतां समर्थयितुमाह-अलोहितवर्णोपीत्यादि । वेर्विस्तते शालशङ्कटौ ॥ ७. १. १२३ ॥
विशब्दाद्विस्तृतेऽर्थे शाल शङ्कट इत्येतो प्रत्ययौ भवतः। विशाल:, विशङ्कट: विस्तृत इत्यर्थः । विनानानेत्यव्यये पृथग्भावे वर्तेते इति विन[भ्यां नानाजी प्रत्ययौ न वक्तव्यौ ।१२३। कटः ॥ ७. १. १२४॥
विशब्दाद्विस्तृतेऽर्थे कटः प्रत्ययो भवति । विकटः ।१२४। संप्रोन्नेः संकीर्णप्रकाशाधिकसमीपे ॥७ १. १२५ ।।
सम् प्र उद् नि इत्येभ्यो यथासंख्यं संकीर्णादिष्वर्थेषु कटः प्रत्ययो भवति । समः संकीर्णे संकटः, प्रात्प्रकाशे, प्रकटः, उदोऽधिके, उत्कटः, नेः समीपे निकटम् ॥१२॥ अवात्कुटारश्चावनते ॥ ७. १. १२६ ।।
अवशब्दादवनतेऽर्थे कुटारश्चकारात्कटश्च प्रत्ययो भवति । अवकुटारः, अवकट: ।१२६॥
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पाद. १. सू. १२७-१३१] श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २३७
नासानतितद्वतोष्टीटनारभ्रटम् ॥ ७१.१२७ ॥
अवशब्दान्नासानतौ तद्वति च वाच्ये टीट नाट भ्रट इत्येते प्रत्यया भवन्ति नासानतौ । नासाया नमनम् अवटीटम्, अवनाटम्, अवभ्रटम् । सा नासानतिविद्यते यस्मिन् स तद्वान् नासा पुरुषः, अपकृष्टो वार्थः । तत्र अवटीटा, अवनाटा, अवभ्रटा नासिका । अवटीटः, अवनाटः, अवभ्रटः पुरुषः । अवटीटम्, अवनाटम्, अवभ्रटं वा ब्रह्मदेयम् । अपकृष्टमपि हि वस्तु दृष्ट्वा लोको नासिकां नामयति । १२७ ।
निपिटक चिकचिचिकश्वास्य ।। ७. १. १२८ ॥
निशब्दान्नासानतौ तद्वति चाभिधेये इन पिट क इत्येते प्रत्यया भवन्ति तत्संनियोगे चास्य नेर्यथासंख्यं चिकू चि चिक् इत्येते आदेशा भवन्ति । चिकिनम्, चिपिटम्, चिक्कम्, नासिकानमनम् । चिकिना, चिपिटा, चिक्का, नासिका । चिकिन, चिपिट, चिक्कः पुरुषः । बहुवचनं रुढयर्थम् । १२८| न्या० स० नेरिन० - चिकिनमिति नासिकाया नमनं शब्दान्तरेण निशब्दस्यार्थकथनम् । रूढ्यर्थमिति तेनाप्रकृष्टे अर्थे ब्रह्मदेयलक्षणे चिकिनमित्यादयो न भवन्ति ।
fasबिरीस नीरन्ध्रे च ।। ७. १. १२९ ॥
निशब्दान्नीरन्ध्रेऽर्थे नासानतितद्वतोव बिडबिरीस इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः । निबिडा : निबिरीसाः केशाः, निबिडम् निबिरोसम् वस्त्रम्, नासिकाया नमनं निबिडम्, निबिरीसम् । निबिडा, निबिरोसा नासिका । निबिडो, निबिरीसौ मैत्रः । विधानसामर्थ्यात् षत्वं न भवति । १२९ ।
किन्नाल्लश्चक्षुपि चिह्न पिल चुल चास्य ।। ७. १. १३० ।।
क्लिन्नशब्दाच्चक्षुषि वाच्ये लः प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे चास्य चिल पिल् ल् इत्येते आदेशा भवन्ति । चिल्लम्, पिल्लम् चुल्लम् चक्षुः । तद्योगात्पुरुषोऽपिं चिल्लः, पिल्ल: चुल्ल: । १३० । उपत्यकाधित्यके ॥ ७. १. १३१ ॥
उपत्यका अधित्यका इत्येतौ शब्दौ निपात्येते । उपाधिशब्दाभ्यां यथासंख्यम् पर्वतस्यासन्नायामधिरूढायां च भुवि त्यकः प्रत्ययो निपात्यते । उपत्यका, अधित्यका । क्षिपकादित्वादित्वाभावः । स्वभावतः स्त्रीलिङ्गावेतौ । पुंलिङ्गावपीति कश्चित् उपत्यको देशः, अधित्यकः पन्थाः, निपातनं रूढ्यर्थम् । १३१ ।
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२३८ ] बृहपृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० १३२-१३८ }
अवेः संघातविस्तारे कटपटम् ॥ ७. १. १३२ ॥ __ अविशब्ददात् सामर्थ्यात्षष्ठचन्तात्संघाते विस्तारे चार्थे यथासंख्यं कटपट इत्येतौ प्रत्ययो भवतः। अवीनां संघात: अविकटः, अवीनां विस्तारः अविपटः, संघाते सामूहिकानां विस्तारे ऐदथिकानां चापवादो योगः । १३२ ।
न्या० स० अवैः संघातक-सामादिति षष्ठीमन्तरेण संघातविस्तारार्थयोरप्रतीतेः षष्ठ्यैव च प्रतीतेरित्यर्थः । संघात इति अविशब्दस्य कटपटशब्दाभ्यां सिद्धस्वरूपाभ्यां षष्ठीसमासे अविकट इत्यादि सिध्यति किमर्थो योगः ? इत्याह-सामूहिकानामिति 'षष्ठ्याः समूहे' ६-२-९ इत्यादीनाम् ।
ऐदर्थिकानामिति तस्येदम् । ६-३-१६० इत्यादीनां 'दोरीय' ६-३-३२ इति च दुसंज्ञाविवक्षायाम् । पशुभ्यः स्थाने गोष्ठः ॥ ७. १. १३३ ॥
पशुनामभ्यः षष्ठयन्तेभ्यः स्थानेऽर्थे गोष्ठः प्रत्ययो भवति, इदमर्थानामपवादः । गवां स्थानं गोगोष्ठम् , महिषीगोष्ठम् , अश्वगोष्ठम् । १३३ । द्वित्वे गोयुगः ॥ ७. १. १३४ ॥
पशुनामभ्यः षष्ठयन्तेभ्यो द्वित्वेऽर्थे गोयुगः प्रत्ययो भवति, इदमर्थानामपवादः । गवोद्वित्वं गोगोयुगम् , अश्वगोयुगम् , उष्ट्रगोयुगम् । १३४ । षट्वे षड्गवः ॥ ७. १. १३५॥ ।
पशुनामभ्यः षष्ठयन्तेश्वः षट्त्वे गम्यमाने षड्गवः प्रत्ययो भवति । उष्ट्राणां षट्वम् उष्ट्रषड्गवम् , हस्तिषड्गवम् , अश्वषड्गवम् । इदमर्थानामपवादः। १३५ । तिलादिभ्यः स्नेहे तैलः ॥ ७. १. १३६ ॥
तिलादिभ्यः सामषिष्ठयन्तेभ्यः स्नेहेऽर्थे तैल इति प्रत्ययो भवति, विकारप्रत्ययापवादः । तिलानां स्नेहो विकारस्तिलतैलम् , सर्षपतैलम् इङ्गुदतैलम् , एरण्डतैलम् । १३६ । तत्र घटते कर्मणष्ठः ॥ ७. १. १३७ ॥
कर्मनशब्दात्तत्रेति सप्तभ्यन्ताद्धटते इत्यर्थे ठः प्रत्ययो भवति । कर्माणि घटते कर्मठः । १३७। तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतः ॥ ७. १ १३८ ॥
तदिति प्रथमान्तेभ्यस्तारका इत्यादिभ्योऽस्येति षष्ठपर्थे इतः प्रत्ययो
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पाद. १. सू. १३९-१४१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२३९ भवति यत्तत्प्रथमान्तं संजातं चेत्तद्भवति । तारकाः संजाता अस्य तारकितं नमः, पुष्पाणि संजातान्यस्य पुष्पितस्ततः ।
तारका, पुष्प, कर्णक, ऋजीष, मूत्र, पुरीष, निष्क्रमण, उच्चार, विचार, प्रचार, आसल, कुड्मल, कुसुम, मुकुल, वकुल, स्तबक, पल्लव, किशलय, वेश, वेग, निद्रा, तन्द्रा, श्रद्धा, बुभुक्षा, पिपासा, अभ्र, श्वभ्र, रोग, अङ्गारक, अङ्गार, पर्णक, द्रोह, सुख, दुःख, उत्कण्ठा, भर, तरङ्ग, व्याधि, व्रण, कण्डूक, कण्टक, मजरी, कोरक, अङ्कर, हस्तक, पुलक, रोमाञ्च, हर्ष, उत्कर्ष, गर्व, कल्लोल, शृङ्गार, अन्धकार, कन्दल, शैवल, कुतूहल, कुवलय, कलङ्क, कज्जल कर्दम, सीमन्त, राग, क्षुध्, तृष्, ज्वर, गर, दोह, शास्त्र, पण्डा, मुकुर, मुद्रा, गर्व, फल, तिलक, चन्द्रक इति बारकादिः ॥ बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ।१३८। गर्भादप्राणिनि ॥ ७. १. १३९॥
गर्भशब्दात्तदस्य संजातमित्यर्थे इतः प्रत्ययो भवति । अप्राणिनि स चेत्षष्ठ्यर्थः प्राणी न भवति । गर्भः संजातोऽस्य गभितो ब्रीहिः, गभिताः शालयः । अप्राणिनीति किम् ? गर्भः संजातोऽस्या दास्या इति बाक्यमेव ११३९१ प्रमाणान्मात्रट् ॥ ७. १. १४०॥
तदस्येति वर्तते । तदिति प्रथमान्तात्प्रमाणवाचिनो नाम्नोऽस्येति षष्ठयर्थे मात्रट् प्रत्ययो भवति, आयाममानं प्रमाणं, तद्विविधम् ऊर्ध्वमानं तिर्यग्मानं च । तत्रोर्ध्वमानात्, जानुनी प्रमाणमस्य जानुमात्रमुदकम् । जानुमात्री खाता, ऊरुमात्रमुदकम्, ऊरुमात्री खाता। तिर्यग्मानात, रज्जुमात्री भूमिः, तन्मात्री, तावन्मात्री। टकारो ङयर्थः ।१४०।
हस्तिपुरुषादाण ॥७. १. १४१ ।।
तदिति प्रथमान्तात्प्रमाणवाचिनो हस्तिशब्दात्पुरुषशब्दाच्चास्येति षष्ठ्यर्थेऽण प्रत्ययो वा भवति पक्षे यथात्राप्तम् । हस्ती प्रमाणमस्य हास्तिनं हस्तिमात्रम् हस्तिदनं हस्तिद्वयसमुदकम्, हास्तिनी हस्तिमात्री हस्तिदघ्नी हस्तिद्वयसी खाता। पौरुषम् पुरुषमात्रम् पुरुषदघ्नम् पुरुषद्वयसमुदकम्, पौरुषी पुरुषमात्री पुरुषदघ्नी पुरुषद्वयसी खाता, पौरुषी पुरुषमात्री छाया ।१४१।
न्वा० स० हस्ति-पौरुषी पुरुषमात्री छायेति अत्र तिर्यगमानमिति ऊचे माने विधीयमानी दघ्नदद्वयसटौ न भक्तः किंतु मात्रडेव ।
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२४० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
वो दद्यसद् ।। ७. १. १४२ ।।
ऊर्ध्वं यत्प्रमाणं तद्वाचिनो नाम्नः प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे दघ्नट् द्वयसट् इत्येतौ प्रत्ययो वा भवतः पक्षे मात्रट् । ऊरुः प्रमाणमस्य उरुदघ्नम् ऊरुद्वयसम् ऊरुमात्रमुदकम्, उरुदघ्नी ऊरुद्वयसी ऊहमात्री खाता, तद्दघ्नी तद्वयसी तन्मात्री, तावद्दघ्नी तावद्द्द्वयसी तावन्मात्री, वाग्रहणमण्मात्रटोरबाधनार्थम्, तेन पुरुषदघ्नम् पुरुषद्रयसम् पुरुषमात्रम् पौरुषमिति पुरुषहस्तिनोश्वातूरूप्यं भवति । ऊर्ध्वमिति किम् ? रज्जुमात्री भूमिः । १४२ |
न्या० स० वोर्ध्व० - वा ग्रहणमिति अन्यथा ऊर्ध्वमानाभावेऽणुमात्रौ सावकाशाविति तौ after said स्याताम् ।
[ पाद. १ सू० १४२-१४४ ।
मानादसंशये लुप् । ७. १. १४३ ।।
प्रमाणादिति वर्तते, मानवाच्येव साक्षाद्यः प्रमाणशब्दो हस्तवितस्त्यादि: प्रसिद्धो न तु रज्ज्वादिर्यो लक्षणया प्रमाणे वर्तते तस्मात्प्रस्तुतस्य मात्रडादे: प्रत्ययस्यासंशये गम्यमाने लुब् भवति । हस्तः प्रमाणमस्य हस्तः, वितस्तिः, दिष्टिः । शमः चतुर्विंशतिरङ्गुलानि । मानादिति किम् ? ऊरुमात्रमुदकंम्, रज्जुमात्री भूमिः । असंशय इति किम् ? शमः प्रमाणमस्य स्यात् शममात्रम्, दिष्टिमात्रम्, त्रितस्तिमात्रम् । केचित्तु मानमात्रान्मात्रढं तस्यासंशये लुब्विकल्पं चेच्छन्ति । प्रस्थः प्रस्थमात्रो वा व्रीहिः । हस्तः हस्तमात्रं वा काष्ठम्, पल पलमात्रं वा सुवर्णम्, शतं शतमात्रा वा गावः । १४३ |
न्या० स० माना० - मानवाच्येवेति प्रमाणादित्यधिकारे मानग्रहणमवधारणार्थमिति ।
द्विगोः संशये च ॥ ७ १- १४४ ।।
,
मानादिति वर्तते, प्रमाणादिति निवृत्तम् ' पुरुषाद्वा ' - ( २ - ४ - २५ ) इत्यत्र उपचरितप्रमाणात्पुरुषात्लुपि ङीविधानात् । तदनुवृत्तौ तु तस्य मानेन विशेषणात् प्रसिद्धादेव हस्तादेः लुप् स्यात् । मानान्ताद्विगोः संशये चकारादसंशये च प्रस्तुतस्य मात्रडादेः प्रत्ययस्य लुप् भवति । द्वौ शमो प्रमाणमस्य द्वौ शमौ प्रमाणमस्य स्यादिति वा द्विशमः, द्विदिष्टिः, द्विवितस्तिः, द्विकाण्डा क्षेत्रभक्तिः, द्विकाण्डी रज्जुः, द्विपुरुषी खाता, द्विहस्तिनी, त्रिहस्तिनी, द्वौ प्रस्थो मानमस्य स्यात् द्वित्रस्थः, द्विपलम्, द्विशतः । मीयतेऽनेन मानं प्रमाणम् परिमाणम् उन्मानं संख्या चेह गृह्यते ।
' ऊर्ध्वमानं किलोत्मानं परिमाणं तु सर्वतः । आयामस्तु प्रमाण स्यात्संख्या बाह्या तु सर्वतः ' ॥१॥
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[ पाद. १. सू. १४५-१४८] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२४१
अन्ये तु रूढप्रमाणान्तादेव द्विगोरिच्छन्ति तन्मते द्विप्रस्थमात्रम् द्विपलमात्रं द्विशतमात्रं स्यादित्यादौ लुप् न भवति ।१४४॥
न्या० स० द्विगो:०-उपचरितप्रमाणादिति पुरुषशब्दस्य हि प्रमाणत्वमुपचरितमेव न साक्षात् प्रमाणमेव । लुप् स्यादिति तदभावे च ङीन स्यात् ।
द्विशम इति ‘मात्रट्' ७-१-१४५ इति मात्रद संशयविवक्षायां सर्वत्र, अन्यत्र यथासंभवं मात्रट् दध्नद द्वथसद् च, एवं सर्वत्र । द्विपुरुषीति अत्र 'हस्तिपुरुषाद्वाऽण' ७-१-१४१, न, तत्र तदन्तविधेरनाश्रयणादिति मात्रडादेर्लुप् । मात्रद ॥ ७.१.१४५ ॥
मानात् संशये इति च वर्तते, तदिति प्रथमान्तान्मानवाचिनो नाम्नः षष्ठचर्थे मात्र प्रत्ययो भवति संशये । प्रस्थो मानमस्य स्यात् प्रस्थमात्रम् धान्यम्, प्रस्थमात्रा वीहयः, कुडवमात्रम्, पलमात्रम्, कर्षमात्रम्, पञ्चमात्राः, शतमात्राः, शतमात्रम्, दिष्टिमात्रम् । मात्रदघ्नद्वयसानि नामान्यपि सन्ति । अनुबन्धासजनाथं तु प्रत्यय विधानम्, तेन च स्त्रियां विशेषः। वैश्वदेवमात्रा भिक्षा ।१४५। . न्या० स० मात्रद-वैश्वदेवमात्रेति विश्वे देवा देवता अस्याण् वैश्वदेवो मात्रं मात्राऽवास्याः । शनशदिशतेः ॥ ७. १. १४६ ॥
शन्नन्ताच्छदन्ताच्च संख्याशब्दाद्विशतिशब्दाच्च मानवृत्तेस्तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठयर्थे संशये गम्यमाने मात्रट् प्रत्ययो भवति, डिनोऽपवादः । दश मानमेषां स्यात् दशमात्राः, पञ्चदशमात्राः, त्रिंशन्मात्राः, त्रयस्त्रिशन्मात्राः विंशतिमात्राः ।१४६। डिन ।। ७. १. १४७ ।।
संशये इति निवृत्तम्, योगविभागात् । शन्नन्ताच्छदन्ताच्च संख्याशब्दाद्विंशतिशब्दाच्च मानवृत्तेस्तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठपर्थे डिन् प्रत्ययो भवति । पञ्चदशाहोरात्राः परिमाणमस्य पञ्चदशी अर्धमासः, पञ्चदशिनौ, पञ्चदशिनः, एवं त्रिशी त्रिशिनौ त्रिशनो मासाः । त्रयस्त्रिंशिनो देवविशेषाः, विशिनो भवनेन्द्राः ।१४७। न्या० स० डिन्०-योगविभागादिति अन्यथा शनशद्विशतेर्डिन्वेत्येक एव योगः क्रियेत । इदंकिमोऽतुरिय किय् चास्य ॥७. १. १४८ ॥ तदस्य मानादिति वर्तते, तदिति प्रथमान्तादिदंशब्दात् किंशब्दाच्च
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२४२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. १ सू० १४९-१५१ ] मानवृत्तेरस्येति षष्ठयर्थे मेयेऽतुः प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे च इदकिम्शब्दयोरिय किय् इत्येतावादेशो भवतः । चतुर्विध मानं, तत्र प्रमाणात्, इदं मानमस्य इयान् पटः । किं मानमस्य कियान् पटः । परिमाणात्, इयद्धान्यम्, कियद्धान्यम्, उन्मानात्, इयत्सुवर्णम्, कियत्सुवर्णम्, संख्यायाः, इयन्तो गुणिनः। कियन्तो गुणिनः इयती, कियती। उदित्करणं दीर्घत्वाद्यर्थम् ॥१४८॥ __न्या० स० इदंकिमो०-दीर्घत्वाद्यर्थमिति आदिशब्दात् 'ऋदुदितः' १-४-७० इति नागमः, 'अधातूदृदितः' २-४-२ इति लीश्च गृह्यते । यत्तदेतदो डावादिः ॥ ७. १. १४९ ॥
यत्तदेतदित्येतेभ्यस्तदिति प्रथमान्तेभ्यो मानवृत्तिभ्योऽस्येति षष्ठयथें . मेयेऽतुः प्रत्ययो भवति स च डावादिः। यत्तदेतद्वा प्रमाणमस्य यावान् पटः, तावान्, एतावान्, यावत्, तावत्, एतावत्, धान्यम्, यावत्, तावत्, एतावत्, सुवर्णम् । यावन्ति तावन्ति एतावन्ति अधिकरणानि । यावती तावती एतावती। ननु मात्रडादयोऽपि दृश्यन्ते इदं प्रमाण मस्य इदंमात्रं किमात्रम् यन्मात्रम् तन्मात्रम् एतन्मात्रम् यद्दघ्नम् यद्वयसमित्यादि ? सत्यम्, स्वविषये मानविशेषे प्रमाणे मात्रटादयो भवन्त्येव मानसामान्येऽतुरेवेति विभागः ।१४९।
न्या० स० यत्तदे०-नन्विति मानवाचिनोऽतावुच्यमाने कथं मात्रडादय इत्याशङ्का । यत्तत्किमः संख्याया डतिर्वा ॥ ७. १. १५०॥
संख्यारूपं यन्मानं तवृत्तिभ्यो यत्तत्किम् इत्येतेभ्यः प्रथमान्तेभ्योऽस्येति षष्ठयर्थे संख्येये मेये डतिः प्रत्ययो भवति वा पक्षे यथाविहितोऽतुश्च । या संख्या मानमेषां यति यावन्तः, सा संख्या मानमेषां तति तावन्तः, का संख्या मानमेषां कति कियन्तः । एतौ चातुडति प्रत्ययौ स्वभावाद्वहुवचनविषयावेव भवतः । संख्याया इति किम् ? क्रियान् यावान् तावान् पटः । मानादिति संख्याया विशेषणं किम् ? . क्षेपे माभूत्, का संख्या येषां दशानाम् ।१५०॥
न्या० स० यत्तत्-एतौ चेति अनेन संख्यावृत्तिभ्यो विहितो मानवृत्तेस्तु 'इदं किमोतु' ७-१-१४८ इत्यादिना एकत्वादावपि । अवयवात्तयत् ।। ७. १. १५१ ॥
तदस्येति संख्याया इति च वर्तते, मानादिति निवृत्तम्, अवयवादिति विशेषणान्तरापादानात्, अवयवे वर्तमानात्संख्यावाचिनो नाम्नस्तदिति प्रथमा
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[ पाद. १. सू. १५२-१५३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२४३ न्तात् अस्येति षष्ठ्यर्थे अवयविनि तयट् प्रत्ययो भवति । चत्वारोऽवयवा अस्याः चतुष्ट यी शब्दानां प्रवृत्तिः। चतुष्टयी रज्जुः, पञ्चतयो यमः, सप्ततयी नयप्रवृत्तिः, दशतयो धर्मः, द्वादशतयः सिद्धान्तः ।१५१।। द्वित्रिभ्यामयट् वा ॥ ७. १. १५२ ॥
द्वित्रि इत्येताभ्यामवयववृत्तिभ्यां प्रथमान्ताभ्यामस्येति षष्ठयर्थे अवयविनि अयट् प्रत्ययो वा भवति । द्वाववयवावस्य द्वयम् द्वितयम् तपः, त्रयं त्रितयम् जगत्, त्रयः त्रितयो मोक्षमार्गः । टकारो ङयर्थ । द्वयी द्वितयी, त्रयी त्रितयी रज्जुः । अवयवा अवयविनि संबद्धा इति सामर्थ्यादवयवी प्रत्ययार्थ इति विज्ञायते । त्रयाणि पानानि यथातथा . पिबेदित्यत्र तु देशकालादिभेदेन समुदायाभिधानात् बहुवचनम् । द्वये पदार्था जीवा अजीवाश्चेत्यत्र तु जीवाजीवतया द्वैराश्योपादानात् बहूनामपि द्वाववयवौ भवतः । कथमुभयो मणिः उभये देवमनुष्याः उभयी दृष्टिरिति ? उभयशब्दः सर्वादिषु उभयट् इति पठयमानः शब्दान्तरमेव विज्ञेयम् तथा चास्य 'नेमा '-(१-४-१०) इत्यादिना जस इकारविकल्पो न भवति ।१५२।
— न्या० स० द्वित्रि०-पयश्च दिव्यं शुचि मेघसंभवं स्वतिप्रसन्नां परमां च वारुणी, ममातुलं वारि च वक्त्रसंभवं त्रयाणि पानानि यथातथा पिबेत् ।
बहुवचनमिति पानस्यैकत्वात् कथं बहुवचनमित्याशङ्कार्थः । कथमिति इह केचिदुभयशब्दान्नित्यमयटमिच्छन्ति उभौ शुक्लकृष्णौ अवयवावस्य तत् स्वमते कथमित्याशङ्का ।
यादेर्गुणान्मूल्यक्रेये मयट् ॥ ७. १. १५३ ॥ . संख्याया इति वर्तते, ढ्यादेः संख्याशब्दाद्गुणवृत्तेस्तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठचर्थे मयट प्रत्ययो भवति स चेत्संख्याशब्दो मूल्ये केये वा वर्तते ।
यवानां द्वौ गुणौ मूल्यमस्योदश्वितः केयस्य द्विमयमुदश्विद्यवानाम्, एवं त्रिमयम्, चतुर्मयम् । उदश्वितो द्वौ गुणो क्रेयावेषां यवानां द्विमया यवा उदश्वितः, एवं त्रिमयाः, चतुर्मयाः। व्यादिपदस्य सापेक्षस्यापि नित्यसापेक्षत्वेन गमकत्वाद्वृत्तिः । ब्यादेरिति किम् ? यवानामेको गुणो मूल्यमस्योदश्वित उदश्वित एको गुणः क्रेय एषां यवानाम् । ____ गुणादिति किम् ? द्वौ व्रीहियवौ मूल्यमस्योदश्वितः । द्वे घृतोदश्विती केये एषां यवानाम् । मूल्यक्रेय इति किम् ? क्षीरस्य द्वौ गुणौ तैलस्य पाक्यस्य ॥ अपरः प्रकारः । मूल्यक्रेय इति प्रत्ययार्थविशेषणम् ।
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२४४ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्यास संत्र लि
[ पाद. १ सू. १५४ ]
व्यादे: संख्याशब्दाद्गुणवृत्तेस्तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे मयट् प्रत्ययो भवति स चेत् षष्ठयर्थो मूल्यं क्रेयं वा भवति । द्वौ गुणावेषां मूल्यभूतानां वानामुदश्वितः द्विभया यवा उदश्वितो मूल्यम् । त्रिमयाः, चतुर्मयाः । द्वौ गुणावस्योदश्वितः क्रेयभूतस्य द्विमयमुदश्विद्यवानाम् क्रेयम्, त्रिमयम्, चतुर्मयम् । व्यादेरिति किम् ? एकगुणा यवा उदश्वितो मूल्यम् एकगुणमुदश्विद्यवानाम् यम् । गुणादिति किम् ? उदश्वितस्त्रयाणां भागानां द्वो भागौ यवानां मूल्यभूतानाम् । यवानां त्रयाणां भागनां द्वौ भागौ उदश्वितः यस्य । द्वौ गुणाविति क्रेयं मूल्यं चैकगुणं कृत्वा तदपेक्षया मूल्य क्रेययोद्विस्तावत्तोच्यते । मूल्यत्रेय इति किम् ? द्विगुणं क्षीरं तैलस्य
पाक्यस्य । १५३।
न्या० स० द्वयादे० – मूल्ये क्रेये वेति यदा मूल्ये संख्याशब्दस्तदा केयः प्रत्ययार्थः, क्रेये तु मूल्यं प्रत्ययार्थः ।
प्रत्ययार्थविशेषणमिति पूर्व तु प्रकृति विशेषणम् । गुणादिति किम्-भागादिति क्रियतामित्यर्थः । द्वौ भागौ यवानामिति यत्र साक्षात् गुणः प्रयुज्यते तत्र भवतीति भागशब्दप्रयोगे माभूदित्यर्थः ।
अधिकं तत्संख्यमस्मिन् शतसहस्रे शतिशद्दशान्ताया डः
।। ७. १. १५४ ॥
संख्याया इति वर्तते तदिति च तदिति प्रथमान्तात् शतिशद्दान् इत्येवमन्तात्संख्याशब्दादस्मिन् इति सप्तम्यर्थे शते सहस्रे च डः प्रत्ययो भवति यत्तत् प्रथमान्तं तच्चेदधिकं तत्संख्यं च भवति सा शतसहस्रलक्षणा संख्या यस्य योजनादेस्तत्तत्संख्यं शतं सहस्रमिति च यत्संख्यायते तदेव यद्यधिकमपि भवतीत्यर्थः ।
योजनानां विंशतिर्योजनानि वा विंशतिरधिका स्मिन्योजनशते शते वा योजनेषु विशं योजनशतम् विशं शतं योजनानि, एवं विशं योजनसहस्रम् विंशं सहस्रं योजनानि विंशं कार्षापणशतम् विशं शतं कार्षापणानि, विशं कार्षापणसहस्रम् विंशं सहस्रं कार्षापणानि । संख्यासमुदायोऽपि संख्यैव संख्यायतेऽनयेति कृत्वेत्वत्रापि भवति । एकविंशति एकविंशम् द्वाविंशं शतम्, शत्, त्रिशं शतं त्रिशं सहस्रम् एकत्रिंशम्, चत्वारिंशम्, पञ्चाशम्, दशन्, एकादशं शतम्, एकादशं सहस्रम् द्वादशम् त्रयोदशम् शतं सहस्रम् वा, योजनादीनामिव शतानामपि सहस्रे भवति । विंशतिः शतान्यधिकान्यस्मिन्
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[ पाद. १. सू. १५५ - १५६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २४५ शतानां सह विशं शतसहस्रम् त्रिंशम् एकादशम्, एवं सहस्राणामपि शते भवति । विशतिः सहस्राण्यधिकान्यस्मिन्सहस्राणां शते विंशं शतसहस्रम् त्रिशम्, एकादशम् । राजदन्तादिषु पाठाच्छतशब्दस्य पूर्वनिपातः ।
अधिकमिति किम् ? विंशतिः त्रिंशत् एकादश वा ऊना अस्मिन् शते । तत्संख्यमिति किम् ? विंशतिर्दण्डा अधिका अस्मिन् योजनशते, त्रिशरणा अधिका अस्मिन् कार्षापणसहस्रे, एकादश माषा अधिका अस्मिन् कार्षापणशते । अस्मिन्निति किम् ? विंशतिरधिकास्माच्छतात् । शतसहस्र इति किम् ? एकादशाधिका अस्यां त्रिशति । शतिशद्दशान्ताया इति किम् ? षडधिका अस्मिन् शते, दशाधिका अस्मिन्सहस्रे । व्यपदेशिवद्भावाद्दशान्तत्वे सन्नित्येव क्रियते न तु दशन्निति । संख्याया इत्येव ? गोविंशतिः अधिका अस्मिन् गोशते, न गोविंशतिशब्द एकविंशत्यादिवत्संख्याशब्दः । १५४ ॥
न्या० स० अधि० – ननु दशान्तशतिशत इत्युक्तेऽपि शतिशतोः प्रत्ययत्वात् प्रत्ययग्रहणपरिभाषया तदन्तप्रतिपत्तिर्भविष्यति कि तयोरन्तरसंबन्धनेन !
सत्यं, अन्तग्रहणाभावे विंशतित्रिंशदादेरेव स्यात्, न त्वेकविशत्येक त्रिंशदादेः, अन्तग्रहणे तु यावतः शतिशच्छब्दावन्तौ स्तस्तावतो ग्रहणं सिद्धम् । भवत्येवं तथापि संख्यानुवृत्तेः संख्याशब्दादुच्यमानः प्रत्ययः संख्या समुदायादेकविंशत्यादेर्न स्यात् इत्याशङ्क्याह — संख्यासमुदायोपीत्यादि एकविंशत्यादेः समुदायस्य लोके पृथक् संख्यात्वेन रूढत्वादिति भावः ।
6
पूर्वनिपात इति सहस्राणां शतमिति कृते षष्ठ्चायत्ना० १ ३-१-७६ इति समासे प्रथमोक्तत्वात् सहस्रस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते ।
ऊना अस्मिन् शते इति योजनेष्वित्याध्याहार्यमन्यथा तत्संख्यत्वं न स्यात् ।
संख्यापूरणे डट् ।। ७. १. १५५ ।।
संख्या पूर्यते येन तत्संख्यापूरणम्, संख्याया इति वर्तते । संख्याशब्दात्संख्यापूरणेऽभिधेये डट् प्रत्ययो भवति, अत्र सामर्थ्यात् षष्ठयन्तात्प्रत्ययो विज्ञायते, अत एव तदिति निवृत्तम् ।
एकादशानां पूरण: एकादशः, एकादश संख्यापूरण इत्यर्थः । एवं द्वादशः, त्रयोदशः, चतुर्दशः, एकादशी स्त्री । संख्याग्रहणं किम् ? एकादशानामुष्ट्रिकाणां पूरणो घटः । एकस्य तु पूरणाभावान्न ग्रहणम्, यादेरित्यनुवृत्तेर्वा । १५५।
विंशत्या देव तमट् ॥७. १. १५६ ।।
विशत्येवमादिकायाः संख्यायाः संख्यापूरणे तमद् प्रत्ययो वा भवति,
पक्ष डट ।
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२४६
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससवलिते [पाद. १ सू० १५७-१६१ ] ___विशते पूरण: विंशतितमः, विंशः, विंशतितमी, विशी स्त्री, एकविंशतितमः। एकविंशः, द्वाविंशतितमः, द्वाविंशः, एकान्नत्रिशत्तम, एकान्नत्रिंशः, त्रिशत्तमः, त्रिशः, चत्वारिंशतमः, चत्वारिंशः, द्वाचत्वारिंशतमः द्वाचत्वारिंशः, पञ्चाशत्तमः, पश्चाशः, अष्टपञ्चाशत्तमः, अष्टपञ्चाशः ।१५६॥ शतादिमासाधेमाससंवत्सरात् ॥ ७. १. १५७ ॥
शतादिभ्यः संख्याशब्देभ्यो मास अर्धमास संवत्सर इत्येतेभ्यश्च संख्यापूरणे तमट् प्रत्ययो भवति ।
शतस्य पूरणः शततमः, शततमी, एकशततमः, सहस्रतमः, लक्षतमः, मासस्य पूरणो मासतमो दिवसः, अर्घमासतमः, संवत्सरतमः । षष्ठयादेरित्येक सिद्धे शतादिग्रहणं संख्याद्यर्थम् ।१५७। षष्टयादेस्संख्यादेः ।। ७. १.१५८॥
संख्या आदिरवयवों यस्य स संख्यादिः, ततोऽन्यस्मात् षष्ठयादेः षष्टिप्रभृतिभ्यः संख्याशब्देभ्यः संख्यापूरणे तमट् प्रत्ययो भवति, विकल्पापवादः ।
षष्ठः पूरणः षष्टितमः, सप्ततितमः, अशीतितमः, नवतितमः । असंख्यादेरिति किम् ? एकषष्टितमः, एकषष्टः, एकसप्ततितमः, एकसप्ततः। विंशत्यादेरिति क्किल्प एव ।१५८।
नो मट् ॥ ७. १. १५९ ।। ___ असंख्यादेः संख्याशब्दान्नकारान्तात्संख्यापूरणे मट् प्रत्ययो भवति, डेटोऽपवादः ।
पञ्चानां पूरणः पञ्चमः, पञ्चमी, सप्तमः, अष्टमः, नवमः, दशमः । न इति किम् ? विशः । असंख्यादेरित्येव ? एकादशः, द्वादशः ।१५९। पित्तिथट् बहुगणपूगसंघात् ॥ ७. १. १६०॥
बहुगणपूगसंघ इत्येतेभ्यः संख्यापूरणे तिथट् प्रत्ययो भवति स च पित् ।
बहुनां पूरणः बहुतिथः, बह्वीनां पूरणी बहुतिथी, गणतिथः, गणतिथी, पृगतिथः, पूगतिथी, संघतिथः, संघतिथी। संख्याविशेषणं संभवापेक्षम् । पित्करणं पुवद्भावार्थम्, टकारो ङयर्थः ।१६०। अतोरिथट् ॥ ७. १. १६१ ॥
अत्वन्तात्संख्याशब्दात्संख्यापूरणे इथट् प्रत्ययो भवति स च पित, ' डटोऽपवादः ।
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• पाद. १. सू. १६२-१६७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः । २४७
इयतां पूरणः इयतिथः, इयतीनां पुरणी इयतिथी, कियत्तियः, कियतिथी, यावतिथः, यावतिथी, तावतिथः, तावतिथी, एतावतिथः, एतावतिथी ।१६१॥ षट्कतिकतिपयात्थट् ॥ ७. १. १६२ ॥ . षट् कति कतिपय इत्येतेभ्यः संख्यापूरणे थट् प्रत्ययो भवति स च पित् ।
षण्णां पूरणः षष्ठः षष्ठी, कतीनां पूरणः कतिथः, कतिथी, कतिपयथः, कतिपयानां स्त्रीणां पूरणी कतिपयथी । 'षष्ठी वानादरे' (२-२-१०८) 'चतुर्थी' (२-२-५३) · इति च निर्देशात्थटि 'नाम सिदयव्यञ्जने' (१-१-२१) इति पदत्वं न भवति ।१६२॥
चतुरः ।। ७. १. १६३ ॥ ___ चतुर् इत्येतस्मात्संख्यापूरणे थट् प्रत्ययो भवति 1
' चतुर्णां पूरणः चतुर्थः । चतसृणां पूरणी चतुर्थी । योगविभाग - उत्तरार्थः ११६३।
येयो चलुक च ॥ ७. १. १६४ ॥
चतुर् इत्येतस्मात्संख्यापूरणे य ईय इत्येतो प्रत्ययौ भवतः च इत्येतस्य लुक् च भवति । चतुएँ पूरणः तुर्यः तुरीयः, तुर्या तुरीया। एवं च त्रैरूप्यं भवति ।१६४। देस्तीयः ।। ७. १. १६५ ॥
दिशब्दात्संख्यापूरणे तीयः प्रत्ययो भवति । द्वयोः पूरणः द्वितीयः द्वितीया ॥१६॥ त्रेस्तु च ॥ ७. १. १६६ ॥
त्रि इत्येतस्मात्संख्यापूरभे तीयः प्रत्ययो भवति, तत्संनियोगे च श्रेस्तृ इत्ययमादेशो भवति ।
त्रयाणां पूरणः तृतीयः, तिसृणां पूरणी तृतीया ॥१६६॥ पूर्वमनेन सादेश्चेन् । ७. १. १६७ ॥
पूर्वमिति क्रियाविशेषणान्निर्देशादेव द्वितीयान्तारकेबलात्सादेः सपूर्वाच्चानेनेति तृतीयार्थे कर्तरि इन् प्रत्ययो भवति ।
केवलात्-पूर्वमनेन पूर्वी, पूर्विणो, पूर्विणः । अनेनेति कर्तृपदं,-कर्ता च कियामन्तरेण न भवतीति कृतं भुक्त पीतं चेति कांचित्कियामपेक्षते । विशे
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२४८ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते
[ पाद. १ सू० १६८-१७१ ] षावगमस्तु अर्थात् प्रकरणात् शब्दान्तरसंनिधेर्वा भवति । पूर्वी कटम्, पूर्वी ओदनम्, पूर्वी पयः । सादेः कृतं पूर्वमनेन कृतपूर्वी कटम्, भुक्तं पूर्वमनेन भुक्तपूर्वी ओदनम्, प्रीतं पूर्वमनेन पीतपूर्वी पयः । कृतपूर्वादिसमासात् प्रत्ययः तान्तं येनैव समानाधिकरणं तस्यैव कर्मतां वक्ति । न च वृत्तौ क्तान्तं कटादिना समानाधिकरणमिति कटादिगतं कर्मानुक्तमिति अतो द्वितीया । १६७। इष्टादेः ।। ७. १. १६८ ॥
इष्ट इत्येवमादिभ्यः सामर्थ्यात्प्रथमान्तेभ्योऽनेनेति तृतीयार्थे कर्तरि इन् प्रत्ययो भवति । इष्टमनेन इष्टी यज्ञे, पूर्ती श्राद्धे । ' व्याप्ये तेनः ' ( २ - २ - ९९ ) इति कर्मणि सप्तमी ।
इष्ट पूर्त, उपपादित, उपसादित, उपासित निगदित, परिमदित, निकटित, संकलित, परिकलित, संरक्षित, परिरक्षित, अचित, अगणित, अवगणित, अवकीर्ण, अवमुक्त, आयुक्त, गृहीत, अधीत, आम्नात, श्रुत, आसेवित, अवधारित, अवकल्पित, कृत, निराकृत, उपकृत, उपाकृत, अनुयुक्त, अनुगुणित, अनुगणित, गणित, परिगणित, अनुपठित, निपठित, पठित, व्याकुलित, उद्गृहीत कथित, निकथित, निषादित इतीष्टादि: । १६८ ।
,
श्राद्धमद्य भुक्तमिकेनौ ॥ ७. १. १९६ ॥
श्राद्धशब्दात्प्रथमान्तादद्यभुक्तमित्येवमुपाधिकादनेनेति तृतीयार्थे कर्तरि इक इन् इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः, श्राद्धशब्दः कर्मनामधेयं तत्साधने द्रव्ये वतित्वा प्रत्ययमुत्पादयति । श्राद्धमनेनाद्य भुक्तं श्राद्धिकः, श्राद्धी । अधग्रहणादद्य भुक्ते श्राद्धे वः श्राद्धिकः श्राद्धी इति न भवति । भुक्तमिति किम् ? श्राद्धमनेनाद्य कृतम् ।१६९।
अनुपद्यन्वेष्टा ॥ ७ १. १७० ॥
अनुपदीति इन्नतं निपात्यते अन्वेष्टा चेत्प्रत्ययार्थो भवति, अनुपदमन्वेष्टा अनुपदी उष्ट्राणाम् । अनुपदी गवाम् ।१७० |
दाण्डा जिनिकायःशूलिकपार्श्वकम् ॥ ७ ११७१ ॥
crosoft निकाय: शूलिकशब्दौ इकण्प्रत्ययान्तो पार्श्व कशब्दा कप्रत्य - यान्ता निपात्यते अन्वेष्टा चेत्प्रत्ययार्थो भवति ।
दण्डाजिनं दम्भः तेनान्वेष्टा दाण्डाजिनिकः, यो मिथ्याव्रती पर प्रसादार्थ
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[ पाद १. सू. १७२-१७४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२४९ दण्डाजिनमुपादायार्थानन्विच्छति स दाम्भिक उच्यते । निपातनं रूढयथं तेन शैवभागवतादौ न भवति । आयःलिक इति, तीक्ष्ण उपायोऽयःशूलसाम्यादयःशूलम् तेनान्वेष्टा आयःशूलिकः, यो मृदुनोपायेनान्वेष्टव्यानर्थान्तीक्ष्णोपायेनान्विच्छति राभसिकः स एवमुच्यते । केचिद्दण्डाजिनायःशूलाभ्यामिकमेवाहुः तन्मते दण्डाजिनिकः दण्डाजिनिका अयःशूलिकः अयःशूलिका । पार्श्वक इति पार्श्व मनजुरुपायः लञ्चादिः तेनान्वेष्टा पार्श्व कः ।ऋजुनोपायेनान्वेष्टव्यानर्थाननृजुनोपायेन योऽन्विच्छति स पार्श्वक उच्यते, यस्तु राज्ञः पाश्वेनार्थानविच्छति स राजपुरुषस्तत्र न भवति ।१७१।
क्षेत्रेऽन्यस्मिन्नाश्य इयः ॥ ७. १. १७२ ॥ क्षेत्रशब्दान्निर्देशादेव सप्तम्यन्तादन्योपाधिकान्नाश्येऽर्थे इयः प्रत्ययो भवति ।
अन्यस्मिन् क्षेत्रे नाश्यः क्षेत्रियो व्याधिः, क्षेत्र शरीरम् । अन्यदिति जन्मान्त रशरीरमुच्यते । तत्र नाश्यो नेहेत्यसाध्यो व्याधिरुच्यते । क्षेत्रिय विषम् । तद्धि स्वशरीरादन्यस्मिन्परशरीरे संक्रमय्य किंचिन्नास्यं चिकित्स्यं भवति । क्षेत्रियाणि तृणानि, तानि हि सस्यक्षेत्रेऽन्यस्मिन्नुत्पन्नानि नाश्यान्युत्पाद्यानि भवन्ति । क्षेत्रियः पारदारिकः, स हि स्वक्षेत्रादन्यस्मिन् क्षेत्रे परदारेषु प्रवर्तमानस्तत्र नाश्यो निग्राह्यो भवति । दाराः क्षेत्रम् ।१७२। छन्दोऽधीते श्रोत्रश्च वा ।। ७. १. १७३ ॥
छन्दसशब्दान्निर्देशादेव द्वितीयान्तादधीत इत्यस्मिन्नर्थे इयः प्रत्ययो वा भवति तत्संनियोगे च छन्दस्शब्दस्य श्रोत्रभावः । छन्दोऽधीते श्रोत्रियः, पक्षेऽण् छान्दसः ।१७३। इन्द्रियम् ।। ७. १. १७४ ॥
इन्द्रियमितीन्द्रशब्दादियप्रत्ययो निपात्यते, निपातनं रूढयर्थ, तेन यथायोगमर्थकल्पना। इन्द्र आत्मा इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम् चक्षुराच्यते तेन हि करणेनात्मानुमीयते नाकर्तृकं करणमिति । इन्द्रेण दृष्टमिन्द्रियम्, आत्मा हि चक्षुरादीनि दृष्ट्वा स्वविषये नियुङ्क्ते, इन्द्रेण सृष्टमिन्द्रियम् । आत्मकृतेन हि शुभाशुभेन कर्मणा तथाविधविषयोपभोगायास्य चक्षरादीनि भवन्ति । इन्द्रेण जुष्टमिन्द्रियम्, तद्द्वारेणास्य विज्ञानोत्पादात् । इन्द्रेण दत्तमिन्द्रियम्, विषयग्रहणाय विषयेभ्य: समर्पणात् । इन्द्रस्यावरणक्षयोपशमसाधनमिन्द्रियम्, एवं सति संभवेऽन्यापि व्युत्पत्तिः कर्तव्या ।१७४।
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२५० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० १७५-१७९ ] तेन वित्ते चञ्चुचणौ ॥ ७. १. १७५ ॥
तेनेति तृतीयान्ताद्वित्तेऽर्थे चञ्चुचण इत्येतौ प्रत्ययो भवतः। वित्तो ज्ञातः प्रकाश इत्यर्थः, विद्यया वित्तः विद्याचञ्चुः, विधाचणः, केशचञ्चः, केशचणः ।१७५। पुरणादग्रन्थस्य प्राहके को लुक्चास्य ॥ ७. १. १७६ ।।
तेनेति तृतीयान्तात्पूरणप्रत्ययान्तात् ग्रन्थस्य ग्राहकेऽर्थे कः प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे च पुरणप्रत्ययस्य लुक ।
द्वितीयेन रूपेण ग्रन्थस्य ग्राहकः द्विकः, त्रिकः, चतुष्कः, पञ्चकः, षट्कः वैयाकरणः । ग्रन्थस्येति किम् ? पञ्चमेन दिनेन शत्रूणां ग्राहकः ।१७६। ग्रहणादा ॥ ७. १. १७७ ।।
ग्रन्थस्येति वर्तते पूरणादिति च, गृह्यतेऽनेनेति ग्रहणं रूपादि, ग्रन्थस्य ग्रहणाद् ग्रहणे वर्तमानात्पूरणत्प्रत्ययान्तानाम्नः कः प्रत्ययो भवति स्वार्थे प्रकृत्यर्थ एव अर्थान्तरानिर्देशात् तत्संनियोगे च पूरणप्रत्ययस्य वा लुक्, वेति लुकैव संबन्ध्यते न प्रत्ययेन । पक्षे प्रत्ययानुत्पत्तेर्महाविभाषयैव सिद्धत्वात् । .
द्वितीयमेव द्विकम् ग्रन्थग्रहणमस्य, द्वितीयकम् ग्रन्थग्रहणमस्य एवं त्रिक व्याकरणस्य ग्रहणम्, तृतीयकं व्याकरणस्य ग्रहणम्, चतुष्कं चतुर्थकं पञ्चक पञ्चमकम् । ग्रन्थस्येत्येव ? द्वितीयं ग्रहणं धान्यस्य ।१७७। सस्याद्गुणात्परिजाते ॥७१. १७८ ॥
सस्यशब्दाद्गुणवाचिनस्तेनेति तृतीयान्तास्परिजातेऽर्थे कः प्रत्ययो भवति । परिः सर्वतोभावे, जनिः संपत्तो, सस्येन परिजातः सस्यक: शालिः, यः सर्वतो गुणैः संपन्नो न यस्य किंचिदपि वैगुण्य मस्ति स एवमुच्यते । एवं सस्यको देशः, सस्यको वत्सः, सस्य कं सीधु, सस्यको मणिः । रूढिशब्दश्चायं मणिविषये । .
सस्यकः, खड्गः सर्वतः सारेण संबद्धः । गुणादिति किम् ! धान्यवचनान्मा भूत् । सस्येन परिजातं क्षेत्रम् ।१७८।
न्या० स० सस्या०-ढिशब्दश्चेति गुणेन परिजातोऽस्तु वा मा वा समुदायप्रसिद्धथा तु मणिविशेषस्य संज्ञा। धनहिरण्ये कामे ॥७. १. १७९ ॥
धन हिरण्य इत्येताभ्यां निर्देशादेव सप्तम्यन्ताभ्यां कामेऽभिलाषेऽर्थे कः प्रत्ययो भवति ।
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[ पाद. १. सु. १८०-१८५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२५१
धने कामः धनकः चैत्रस्य, हिरण्यको मैत्रस्य ।१७९। स्वाङ्गेषु सक्त ।। ७. १. १८० ॥
स्वाङ्गवाचिभ्यो नामभ्यो निर्देशादेव सप्तम्यन्तेभ्यः सक्ते तत्परेऽर्थे कः प्रत्ययो भवति ।
केशेष सक्तः केशकः नखकः, दन्तकः । केशादिरचनायां प्रसक्त उच्यते । बहुवचनात्स्वाङ्गसमुदायादपि भवति । दन्तौष्ठकः, केशनखकः ।१८।। उदरे विकणायने ।। ७. १. १८१ ॥
उदरशब्दानिर्देशादेव सप्तम्यन्तासक्तेऽर्थे इकण् प्रत्ययो भवति सक्तश्चंदानो भवति । उदरे सक्तः औदरिकः आयुनः अविजिगीषुः यो बुभुक्षयात्यन्तं पीडयते । औदरिकी । आधुन इति किम् ? उदरकोऽन्यः। तु शब्दः पूर्वयोगशेषतामस्य कथयति तेन काधिकारो न बाध्यते ॥१८॥ अंशं हारिणि ॥ ७. १. १८२ ॥
अंशशब्दाग्निर्देशादेव द्वितीयान्ताद्धारिण्यर्थे कः प्रत्ययो भवति । अंशं हारी अंशको दायादः, हारीत्यावश्यके णिन् ।१८२।
न्या० स० अंश०-अवश्यं हरिष्यति णिन् , 'एष्यहणेनः ' २-२-९४ इति षष्ठ्या निषेधः, शीलार्थे तु षष्ठी स्यात् ।। तन्त्रादचिरोद्धते ॥ ७. १. १८३ ॥
तन्त्राशब्दान्निर्देशादेव पञ्चम्यन्तादचिरोद्धृतेऽचिरादुत्तीर्णेऽर्थे कः प्रत्ययो भवति । तन्त्रात्पटवानोपकरणादचिरोत्तीर्णः तन्त्रकः पटः । प्रत्यय इत्यर्थः ।१८३। ब्राह्मणानानि ॥ ७. १. १८४॥
ब्राह्मणशब्दान्निर्देशादेव पञ्चम्यन्तादचिरोद्धृतेऽर्थे नाम्नि संज्ञायां कः प्रत्ययो भवति ।
__ सदाचारब्राह्मणेभ्यस्तदानीमेवोद्धृत्य पृथक्कृतः ब्राह्मणको नाम देशः । यत्रायुधजीविनः काण्डस्पृष्टा नाम ब्राह्मणा भवन्ति । आयुधजीवी ब्राह्मण एव ब्राह्मणक इत्यन्ये ।१८४। उष्णात् ॥ ७. १. १८५ ।। उष्णशब्दात्पञ्चम्यन्तादचिरोद्धृतेऽर्थे कः प्रत्ययो भवति नाम्नि ।
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२५२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. १ सू० १८६-१९१ ] उष्णादग्नेरचिरोद्धता उष्णिका यवागूः । अल्पान्ना पेया विलेपिकेति यावत्, उष्णकुण्डान्निसृता नदीति केचित् ।१८५) शीताच्च कारिणि ॥७. १. १८६ ।।
शीतादुष्णाच्च सामर्थ्यात् द्वितीयान्तात्कारिण्यर्थे कः प्रत्ययो भवति नाम्नि । शीतं मन्दं करोति शीतक: अलसः, उष्णं क्षिप्रं करोति उष्णकः दक्षः । नाम्नीत्यनुवृत्तेः शीतोष्णशब्दाविह मान्द्यशीघ्रवचनौ गृह्यते न स्पर्शवचनौ । क्रियाविशेषणत्वात् द्वितीया, कारीत्यावश्यके णिन् ।१८६। अधेरारूढे ॥ ७. १. १८७ ॥
अधिशब्दादारुढेऽर्थे वर्तमानात्स्वार्थे कः प्रत्ययो भवति । आरूढशब्दः कर्तरि कर्मणि च क्तप्रत्यये सिद्धः । तत्र यदा कर्तरि तदा अधिको द्रोणः खार्याः अधिको द्रोणः खार्यामिति च भवति । यदा तु कर्मणि तदा अधिका खारी द्रोणेनेति भवति ।१८७।
न्या. स. अधे०-खार्याः, खार्यामिति चेति 'अधिकेन भूयसस्ते ' २-२-१११ पञ्चमीसप्तभ्यो । द्रोणेनेति 'तृतीयाल्पीयसः' २-२-११२ । अनोः कमितरि ॥ ७. १. १८८ ॥
अनुशब्दात्कः प्रत्ययो भवति समुदायेन चेत्कमिता गम्यते । अनुकामयतेऽनुकः ।१८८। अमेरीश्च वा ॥ ७. १. १८९ ॥
अभिशब्दात्कः प्रत्ययो भवति ईकारश्चास्य वा भवति समुदायेन चेत्कमिता गम्यते । अभिकामयते अभिकः, अभीकः ।१८९। सोऽस्य मुख्यः ॥ ७. १. १९०॥
स इति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे क प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं स चेन्मुख्यः प्रधानं ग्रामणीर्भवति । देवदत्तो मुख्योऽस्य देवदत्तकः संघः, जिनदत्तकः, देवदत्तो मुख्य एषां देवदत्तकाः, जिनदत्तकाः, मुख्य इति किम् ? देवदत्तः शत्रुरेषाम् ।१९०। शृङखलकः करमे ॥ ७. १. १९१॥ शृङखलकशब्द: कप्रत्ययान्तो निपात्यते करभे उष्टशिशौ वाच्ये ।
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पपाद. १. सू. १९२-१९५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमाऽध्यायः [ २५३ शृङ्खलं बन्धनमस्य शृङ्खलकः करभ उच्यते। करभाणां काष्ठम्यं पादबन्धनं शृङ्खलम्, वयःशब्दश्वायम् । शृङ्खलं बन्धनं भवतु वा माभूत् ।१९१॥ उदुत्सोरुन्मनसि ।। ७. १. १९२ ।।
उत् उत्सु इत्येताभ्यामस्येत्युन्मनस्यभिधेये कः प्रत्ययो भवति । उद्गतं मनोऽस्य उत्कः, उत्सुगतं मनोऽस्य उत्सुकः,- उन्मना इत्यर्थः ।१९२। कालहेतुफलादोगे ॥ ७. १. १९३ ।।
स इति वर्तते, स इति प्रथमान्तेभ्यः कालविशेषवाचिभ्यो हेतुवाचिभ्यः 'फलवाचिभ्यश्चास्मेति षष्ठपर्थे कः प्रत्ययो भवति यत्तदस्येलि निर्दिष्ट रोगचतद्भवति ।
द्वितीयो दिवसोऽस्याविर्भावाय, द्वितीयका, तृतीयकः, चतुर्थको ज्वरः, सततः कालोऽस्य सततको ज्वरः। हेतु,-विषपुष्पं हेतुः कारणमस्य विषपुष्पकः, काशपुष्पकः, पर्वतको रोगः । फल, शीतं फलं कार्यमस्य शीतकः, उष्णको ज्वरः । रोग इति किम् ? द्वितीयो दिवसोऽस्य जातस्य बालकस्य ।१९३।
. न्या० स० काल-स इति वर्तते इति अतः कारणनिर्देशादेव पञ्चम्यन्तेभ्य इति न लभ्यते। ननु कालस्यापि रोगकारणत्वाद् हेतुग्रहणेनैव तद्ग्रहणे सिद्धे किं कालाहणेन ? न, अन्यतो भवतोऽपि रोगस्यायमस्य काल इति रोगाधिकरणभूतस्य कालस्यासंबन्धित्वे विज्ञायमानेऽपि यथा स्यादित्येवमर्थम् । प्रायोऽन्नमस्मिन्नाम्नि ॥ ७. १. १९४ ।।
स इति वर्तते । स इति प्रथमान्तादस्मिन्निति सप्तम्यर्थे नाम्नि संज्ञायाँ विषये कः प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेदन्नं प्रायः प्रायेण भवति, प्रायशब्दोऽत्रान्नसमानाधिकरणो नियतलिङ्गसंख्या, प्रायः अकृत्स्नबहुत्वम् ।
गडापूपाः प्रायेण प्रायो वान्नमस्यां गुडापूपिका पौर्णमासी, तिलापूपिका, कृशरिका, त्रिपुटिका । नाम्नीति किम् ? अपूपाः प्रायेण प्रायो बान्नमा चन्तिषु ।१९४।
न्या० स० प्रायो०-नियतलिङ्गसंख्य इति अनव्ययं पुंलिङ्ग एकवचनान्तोऽदन्तश्च पूर्वस्तु सान्तोऽव्ययत्वादलिङ्गश्च ।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचितायो...सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्थोपज्ञ० स० प्रथमः पादः । कुल्मासादण ॥ ७. १. १९५॥ कुल्मासशब्दात्प्रथमान्तात्प्रायोऽन्नमस्मिन्नित्यर्थेऽण् प्रत्ययो भवति नाम्नि ।
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२५४ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
[ पाद. १ सू. १९६-१९७ ] कुल्मासाः प्रायेण प्रायो वान्नमस्यां पौर्णमास्यां कोल्मासी । कुल्माष इति मूर्धन्योपान्त्योप्यस्ति । १९५ ।
वटकादिन् ॥ ७. १. १९६ ॥
वटकशब्दात्प्रथमान्तात्प्रायोऽन्नमस्मिन्नित्यर्थे इन् प्रत्ययो भवति नाम्नि वटकानि प्रायेण प्रायो वान्नमस्यां पौर्णमास्यां वटकिनी । १९६ ।
साक्षाद्रष्टा ।। ७. १. १९७ ।।
साक्षाच्छब्दाद्द्रष्त्यस्मिन्नर्थे इन् प्रत्ययो भवति ।
साक्षाद्रष्टा साक्षी, साक्षिणौ, साक्षिण: । ' प्रायोऽव्ययस्य (७-४-६५) इत्यन्त्यस्यरादिलोपः ॥ नाम्नीत्येव ? साक्षाद्द्रष्टा ।।१९७।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वृत्तौ सप्तमस्वाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः ७. १ ।।
लब्धलक्षा विपक्षेषु विलक्षास्त्वयि मार्गणाः । तथापि तव सिद्धेन्द्र दातेत्युक्तं धरं यशः ||१
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॥ द्वितीयः पादः ॥
तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः ।। ७. २. १ ।।
तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थेऽस्मिन्निति सप्तम्यर्थे वा मतुः प्रत्ययो भवति यत्तत्प्रथमान्तमस्तीति चेत्तद्भवति अस्तिसमानाधिकरणं भवतीत्यर्थः ।
गावोऽस्य सन्ति गोमान् यवमान् वृक्षा अस्मिन् सन्ति वृक्षवान् प्लक्षवान् पर्वतः अस्ति धनमस्य अस्तिमान् स्वस्ति आरोग्यमस्यास्ति स्वस्तिमान्, अत्रास्तिस्वस्ती अव्ययो धनारोग्यवचनौ । अस्तीति च सामा न्याभिधायि । विशेषास्तेश्च सामान्यास्तिना सामानाधिकरण्यमुपपद्यत एव । अस्तीति वर्तमानकालोपादानात् वर्तमान सत्तायां प्रत्ययो भवति न भूतभविष्यसत्तायाम् गावोऽस्यासन् गावोऽस्य भवितार इति । न तर्हि इदानीमिदं भवति गोमानासीत् गोमान् भवितेति । भवति, न त्वेतस्मिवाक्ये भवति । तथा सति हि यथा गोमान् यवमानित्यत्रास्तेः प्रयोगो न भवति एवं गोमानासीत् गोमान् भवितेत्यत्रापि न स्यात् । भवतु वा प्रयोगः तथापि गावोऽस्यासन् गावोऽस्य भवितार इतिवत् गोमानासीदित्यादिष्वपि बहुवचनं श्रुयेत । का तर्हीयं वाचोयुक्तिः गोमानासीत् गोमान् भवितेति ? एषैषा वाचोयुक्तिः, नैषा गवांसत्ता कथ्यते गोमत्सत्तैषा कथ्यते । तहि कथं मतुः ? अस्त्यत्र वर्तमान कालोक्तिः । कथं तर्हि भूतभविष्यत्कालता गम्यते, धातोः संबन्धे प्रत्ययाः' ( ५-४-४१ ) इति । अथेह कस्मान्न भवति, चित्रा गावोऽस्य सन्ति स चित्रगुः शबलगुरिति ? बहुत्रीहिणैव मत्वर्थस्योक्तत्वात् । एवं पूर्वशाल: अपरशालः पञ्चगुः दशगुरित्यत्राप्यस्तीतिपदसापेक्षं तद्धितद्विगु द्वैमातुर इत्यादी सावकाशं बाधित्वा अस्तिपदनिरपेक्षत्वादन्तरङ्गेण बहुव्रीहिणा भवता उक्तार्थत्वान्मतुर्न भवति ।
अस्तीति किम् ? गावोऽस्यानन्तराः, गावोऽस्य समीपाः । अनन्तरादिष्वपि स्यात् । इतिकरणो विवक्षार्थः । तेन
'भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने ।। संसर्गेऽस्ति विवक्षायां प्रायो मत्वादयो मताः ' |१| भूम्नि, - गोमान् यवमान्, निन्दायाम्, - शङ्खोदकी, ककुदावर्ती । प्रशंसायाम्, - रूपवती शीलवती कन्या, नित्ययोगे-क्षीरिणो वृक्षाः कण्टकिनः,
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२५६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्यासर्सवलिते [पा० २. सू० १] अतिशायने-उदरिणी कन्या, बलवान् मल्लः, संसर्गे, दण्डी छत्री । प्रायिकमेतद्भमादिदर्शनं सत्तामात्रेऽपि प्रत्ययो दृश्यते । व्याघ्रकान्, पर्वतः, स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुलाः, रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी, रूपरसस्पर्शवत्य आपः, रूपस्पर्शवत्तेजः, स्पर्शवान् वायुः। यक्मतीभिरद्भिद्रूपं प्रोक्षन्ति । तथा मत्वर्थीयान्मत्वर्थीयः सरूपो न भवति, गाव एषां सन्तीति गोमन्तः गोमन्तोऽत्र सन्तीति मतुर्न भवति, दण्ड एषामस्तीति दण्डिकाः दण्डिका अत्र सन्तीति इको न भवति । विरूपस्तु भवत्येव । दण्डिमती शाला, हस्तिमती उपत्यका । विरूपोधि मत्वर्थीयः समानायां वृत्तौ न भवति । दण्ड एषामस्तीति दण्डिकाः दण्डिनः । दण्डिका अस्य सन्ति दण्डिनोऽस्य सन्तीति इन्मतू न भक्तः ॥ .
'शैषिकाच्छैषिको नेष्टः सरूपः प्रत्ययः क्वचित् ।। समानवत्ती मत्वथन्मित्वर्थीयोऽपि नेष्यते ॥१॥ कचिदिति समानायामसमानायां च वृत्ती, शालायां भवः शालीय । ' दोरीयः' (६-३-३१) इतीये सति पुनः शालीये भवः शालीयस्यायं वेतीयो न भवति । विरूपस्तु भवति । अहिच्छत्रे भव आहिच्छत्रः तत्र भव आहिच्छत्रीयः ॥ तथा असंज्ञाभूतात् कर्मधारयान्मत्वर्थीयो न भवति । वीरपुरुषा अस्मिन् ग्रामे सन्ति । अत्र बहुव्रीहिरेव भवति । वीरपुरुषको ग्रामः, संज्ञायास्तु भवत्येव-गौरखरवदरण्यम्, कृष्णसर्पवान् वल्मीकः, लोहितशालिमान ग्रामः । कथमैकगविकः सर्वधनीति । 'एकादेः कर्मधारयात्' (-७-२-५८) इत्याद्यारम्भसामर्थ्याद्भविष्यति । तथा गुणे गुणिनि च ये मुणशब्दा वर्तन्ते तेभ्यो मत्वर्थीयो न भवति । शुक्लो वर्णोऽस्यास्तीति तिक्तो रसोऽस्यास्तोति प्रत्ययमन्तरेणाप्येषां तदभिधाने सामर्थ्यात्, ये तु गुणमात्रे तेभ्यो भवत्येव । रूपवान् रसवान् शौक्ल्यवान् कायॆवानिति ।। ____ अर्ह । तद०-अस्तीति चेति यदा अस्तिशब्दो घनार्थस्तदास्तिमानित्युपपद्यते, यदा तु विद्यमानार्थस्तदा कथं द्वयोरेकार्थत्वादित्याह-सामान्याभिधायीति अस्तीति क्रियापदं सामान्याभिधायि सामान्येनास्तित्वमात्रप्रतिपादनात् , प्रकृतिभूतस्य त्वव्ययस्य विशेषाभिधायित्वं विद्यमानत्वरूपविशेषस्याभिधानात् । ____ अस्तीति वर्तमानेति यद्यपि सूत्रे लिग संख्या कालश्चातन्त्राणि तथापीह सूत्रे वर्तमानकालस्यैव प्राधान्यमस्तीतिपदोपादानादन्यथा किमनेन १ न खलु पदार्थः सत्तां व्यभिचरति, ततः सत्तायां निसर्गसिद्धायां यत्पुनरस्तीति ग्रहणं तद्वर्तमानकालार्थम् ।।
एषेषेति एषा या त्वया पृष्टा सा एषा वक्ष्यमाणेत्यर्थः। कथं मतुरिति वर्तमानत्वाभावादित्यर्थः ।
धातो: सम्बन्ध इति अनेन सूत्रेणायथाकालमपि प्रत्यया भवन्तीत्यर्थः, तेन प्रत्ययस्य वर्तमानकालत्वेऽपि भूतभविष्यत्कालतावगमः । शबलगुरिति शबलशब्दावर्णवाचिनो गौरादित्वात्
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[ पाद. २. सू. २] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२५७
यां शबल्यो गावोऽस्य सन्तीत्येवं कार्यम् । यदा तु शवलशब्दो गवि वर्तते तदा गौरादित्वाभावादापि सति ‘तद्धिताककोपान्य' ३-२-५४ इत्यनेन आख्याद्वारेण पुंवत्त्वनिषेधात् शबलागुरित्येव स्यात् । शंखादककुदाव? द्वे अपि अश्वस्यापलक्षणे।।
समानायां वृत्ताविति अत्र एषामस्येति च उभयत्रापि षष्ट्याः सद्भावात् समाना वृत्तिः । समानवृत्तावित्यादि पूर्वाद्धे यत्सरूप इति पदं तदुत्तराद्धेऽपि योज्यं, ततोऽयमर्थः-न केवलं सरूपो मत्वर्थीयो मत्वर्थीयात् समानवृत्ती न भवति, मत्वर्थीयोऽपोत्यत्रापिशब्दाद् विरूपोऽपि इति । विषमवृत्तौ सरूपो मत्वर्थीयो न भवतीति तु कारिकया न संजगृहे अथवा पूर्वार्धात् सरूप इति नाधिक्रियते किंतु मत्वर्थीयोऽपि नेष्यत इति सामान्येन भणनात् सरूपो विरूपश्च नेष्यत इत्येव व्याख्यायते, अपिशब्दस्तु शौषिकापेक्षया समुच्चये व्याख्येयः। ____असंज्ञाभूतादिति द्विविधः कर्मधारयः संज्ञाभूतोऽसंज्ञाभूतश्च, तत्र संज्ञाभूतो यः समुदायप्रसिद्धया प्रवर्त्तते यथा गौरखरादयः, असंज्ञाभूतो योऽवयवार्थयोगेन प्रवर्त्तते, न पृथक्समुदायप्रसिद्धया यथा वीरपुरुषादिः ।
___ कर्मधारयादित्यादि उपलक्षणमिदं यत्कर्मधारयान्मत्वर्थीयो न भवतीति । यावता नञ् तत्पुरुषादपि बहुव्रीहिणैव भाव्यं, यथा अघोषा इति । अत्र हि न घोषोऽघोषः, सोऽस्यास्ति इति कृते बहुव्रीहिरेव न मतुः, यत्र त्वर्थविशेषो मत्वर्थीयेनाभिधीयते तत्र नजूतत्पुरुषादप्यसो भवति यथानखन्ति चक्राणीति । अत्र हि नञ्तत्पुरुषेण चक्रेश्वरकाभावः सामान्येनोच्यते, मत्वर्थी येन त्वत्यन्तं मूलतोऽप्यरकाभाव यावत् , तथा यद्यप्यसंज्ञाभूतात् कर्मधारयान्मत्वर्थीयो न भवतीत्युक्तं तथापि प्रायेण दृश्यते यथा चिसकिसलयछेदपाथेयवन्त इति, अत्र हि बिसकिसलयच्छेदाच्च ते पाथेयं चेति कर्मधारये मति मतुरिति वल्लभेन निश्चिक्ये ।
कथमिति अत्राप्यसंज्ञाभूतः कर्मधारयोऽतीत्यभिप्रायः । आ यात् ॥ ७. २. २ ॥
' गणादिभ्यो यः (७-२-५३) रूपात्प्रशस्ताहतात् (७-२-५४) इत्या एतस्माद्य प्रत्ययात् याः प्रकृतयो निर्देक्ष्यन्ते ताभ्यो मतुः प्रत्ययो भवति तदस्यास्ति तदस्मिन्नस्तोत्यस्मिन्विषये । कुमारीमान्, व्रीहिमान, दण्डवान, अशीर्षवान्, वातवान्, चूडावान्, सिध्मवान्, गोमान्, गुणवान् । आ यादित्यभिविधावाङ् । अपवादै धिा माभूदिति वचनम्, तेन यथाभिधान मुत्तरत्र मतुरपि भवति ।।
न्या० स० आ यात्०-अत्र कुमारीमानित्यादि-प्रयोगेषु यथाक्रमं 'नावादेरिकः । ७-२-३ 'ब्रोह्यादिभ्यस्तो' ७-२-५ 'अतोऽनेकस्वरात्' ७-२-६, 'अशिरसोऽशीर्षश्च' ७-२-७ 'बलवातदन्त०' ७-२-१९, 'प्राण्यङ्गादातो लः' ७-२-२०, 'सिध्मादिक्षुद्रजन्तु०' 'गोः' ७-२-५०, 'गुणादिभ्यो यः' ७-२-५३ इत्यादिसूत्रविहितप्रत्ययविषये पक्षे आ यादित्यनेन मतुर्विधीयते । ___यथाभिधानमिति 'कालाजटा' ७-२-२३ इत्यादिभिः कैश्चित्सूत्रैरर्थविशेषे प्रत्ययोऽभिहितः, स च मतुना न गम्यत इति तदर्थप्रतिपादनाय तत्सूत्रविहित एव प्रत्ययो भवति, न तु मतुरित्याशयः ।
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२५८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० ३-६ ] नावादेरिकः ॥ ७. २. ३ ॥
नौ इत्येवमादिभ्यो मत्वर्थे इकः प्रत्ययो भवति मतुश्च ।
नौरस्यास्मिन्वास्तीति नाविकः, नौमान्, कुमारिकः, कुमारीमान्, यवखदिकः, यवखदावान् । नौकुमारीभ्याम् इनं केचिदाहुः नावी, कुमारी । नौ, कुमारी, यवखदा, सभा, करण इति नावादिः ।३।
न्या० स० नावा०-इनं केचिदाहुरिति ते ह्यनयोः शिखादौ पाठमिच्छन्ति । यवखदिक इति खदन भिदायङ्, यवानां खदा यवखदा यवाभ्योषः । शिखादिभ्य इन् ॥ ७. २. ४ ॥
शिखा इत्येवमादिभ्यो मत्वर्थे इन् प्रत्ययो भवति मतुश्च । शिखो, . शिखावान्, माली, मालीवान् ।
शिखा, माला, शाला, मेखला, शाखा, वीणा, संज्ञा, वडवा, अष्टका, बलाका, पताका, कर्मन्, चर्मन्, वर्मन्, बल, उत्साह, उद्दास, उद्भास, उल, मुल, मूल, आयाम, व्यायाम, प्रयाम, आरोह, अवरोह, परिणाह, शङ्ग, वृन्द, गदा, निचुल, मुकुल, कूल, फल, अल, मान, मनीषा, व्रत, धन्वन, चूडा, केका दंष्ट्रा, सूना, घृणा, करुणा, जरा, आयास, (आयस) स्तबक, उपयाम, उद्यम इति शिखादिराकृतिगणः । केचित्तु वडवा, अष्टका, कर्मन, वर्मन, चर्मन् इत्येतेभ्य इकमपीच्छन्ति ।४।
न्या० स० शिखा ०-इकमपीच्छन्ति इति ते ह्येतान् व्रीह्यादौ पठन्ति । व्रीह्यादिभ्यस्तौ ॥ ७. २. ५॥
व्रीह्यादिभ्यो मत्वर्थे तौ इक इन इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः मतुश्च । व्रीहयोऽस्यास्मिन्वा सन्ति व्रीहिकः, व्रोही, व्रीहिमान्, मायिकः, मायी, मायावान्, मायावीति विन् । व्रीह्यादयः प्रयोगगम्याः ।५। अतोऽनेकस्वरात् ।। ७. २.६॥ अकारान्तादनेकस्वरान्मत्वर्थे तौ इक इन् इत्येतो प्रत्ययो भवतः मतुश्च ।
दण्डिकः, दण्डी, दण्डवान्, छत्त्रिकः, छत्त्री, छत्त्रवान् । अत इति किम् ? खट्वावान्, मालावान् । अनेकस्वरादिति किम् ? खवान्, स्ववान । अभिधानार्थस्येतिकरणस्यानुवृत्तेः कृदन्तान भवतः । राप्यवान्, लाप्यवान, लव्यवान, हव्यवान्, कृत्यवान्, भृत्यवान्, कारकवान्, हारकवान, कुम्भकारवान्, धान्यमायवान, हिंस्रवान्, ईश्वरवान् पाकवान्, स्नेहनवान् । क्वचिद्भवतः ।
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[पाद २. सू. ७-८] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २५९ कायिकः, कार्या, हायिकः, हार्थी, गहिकः, गही, दात्रिकः, दात्री, पात्रिका, पात्रो, भोगिकः, भोगी, तरिकः, तरी, विजयिकः, विजयी, संयमिकः, संयमी, स्थानिकः, स्थानी इति ।
जातिशब्देभ्यो न भवतः । व्याघ्रवान्, सिंहवान्, वृक्षवान्, प्लक्षवान्, तथा द्रव्यवान्, क्रव्यवान्, सस्यवान्, धान्यवान्, माल्यवान्, पुण्यवान् अपत्यवान्, धनवान् । क्वचिद्भवतः, तण्डुलिकः, तण्डुली, कर्पटिकः, कर्पटी। धनादुत्तमणे भवतः-धनिकः, धनी । सप्तम्यर्थे च न भवतः-दण्डोऽस्मिन्नस्ति दण्डवद्गृहम्, वीरवान् ग्रामः । क्वचिद्भवत: । खलिनी भूमिः, शालिनी भूमिः। रसरूपवर्णगन्धस्पर्शशब्दस्नेहेभ्यो गुणवाचिभ्यो न भवतः । कचिद्भवतः । रसिको नटः, रसी इक्षुः, रूपिको दारवः, रूपिणी कन्या, रूपिष्ववधिः, रूपिसमवायाच्चाक्षुषाणि, स्पशिको वायुः, गन्धिकः, गन्धी । तदेवं व्यभिचारे सूत्रणादभिधानमेव श्रेयः ।।
न्या० स० अतो०-स्ववानिति अत्र स्वामित्वाविवक्षणात् 'स्वानमिन्नीशे' ५-२-४९ इति न मिन् ।
तथा द्रव्यवानिति व्याघ्रादयो लोकप्रसिद्धथा जातिशब्दा द्रव्यादयस्तु शास्त्रप्रसिद्धथा इति द्रव्यादीनामपि शास्त्रप्रसिद्धथा जातिशब्दत्वं दर्शयता तथेत्थुपात्तम् ।
गुणवाचिभ्यो नेति यदा तु कस्यचिद्रूपं रस इत्यादि नाम भवति तदा भवत्येव । रूपिसमवायादिति संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ कर्म च रूपिसमवायाञ्चाक्षुषाणीति । अशिरसोऽशीर्षश्च ।। ७. २. ७ ॥
अशिरःशब्दान्मत्वर्थे तो इक इन् इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः मतुश्च तत्संनियोगे चाशिरःशब्दस्याशीर्ष इत्ययमादेशो भवति ।।
अशीषिकः, अशीर्षी, अशीर्षवान् । इकेनोः 'शीर्षः स्वरे तद्धिते' (३-२-१०३) इति शीर्षादेशो विद्यत एव, मतो त्वशिरसोऽशीर्षभावोऽनेन विधीयते ।। अर्थार्थान्ताद्भावात् ॥ ७. २. ८॥
अर्थशब्दादर्थान्ताच्च भाववाचिनो मत्वर्थे तौ इक इन् इत्येतो प्रत्ययौ भवतः, नियमार्थमिदम्, उभयथा चायं नियमो वाक्यभेदेन क्रियते, भाववाचिन एवैतौ प्रत्ययौ भवतः, भाववाचिनश्चतावेव भवतः ।
अर्थणि उपयाचने-अर्थनमर्थः, सोऽस्यास्तीत्यर्थिकः अर्थी । प्रतीपमर्थनं प्रत्यर्थः सोऽस्यास्तीति प्रत्यर्थिकः, प्रत्यर्थी । इकेनावेवेति नियमादतो मतून
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२६. ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २. सू० ९-१३ ] भवति । भावादेवेति नियमादतो द्रव्यवाचिन इकेनौ न भवतः, अर्थो हिरण्यादिरस्यास्तीति अर्थवान् इति मतुरेव भवति ।। व्रीह्यर्थतुन्दादेरिलश्च ॥ ७. २. ९॥
व्रीहिवाचिभ्यस्तुन्दादिभ्यश्च मत्वर्थे इल: प्रत्ययो भवति चकारात्तौ चेकेनौ आ यादिति मतुश्च । व्रोह्यर्थ, कलमा अस्यास्मिन्वा सन्ति कलमिलः, कलमिकः, कलमी, कलमवान्, शालिलः, शालिकः, शाली, शालिमान् । व्रोहिशब्दोऽपि व्रोह्यर्थो भवति किंतु तस्य पूर्वत्रोपादानादिलो 'न भवति । भावे हि तत्रोपादानमनर्थकं स्यात् । भवतीत्येके । व्रीहिलः। तुन्दादि, तुन्दिलः, तुन्दिकः, तुन्दी, तुन्दवान्, उदरिलः, उदरिकः, उदरी, उदरवान् ।
तुन्द, उदर, पिचण्ड, यव, ग्रह, पङ्क, गुहा, कला, काक इति तुन्दादिः ।९।
न्या० स० व्रीह्य०-चकारात्तौ चेति अत्र च शब्दोऽप्यर्थे तावपीत्यर्थः ।
पूर्वत्रेति व्रीह्यादिभ्यस्तावित्यत्र । ननु तर्हि अर्थग्रहणाभावेऽपि व्रीहिशब्दोपादानेऽपि व्रीह्यर्थग्रहणे लब्धे किमर्थग्रहणेन ?
न, प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थत्वादर्थग्रहणस्य । स्वाङ्गादिवृद्धात्ते ॥ ७. २. १० ।।
स्वाङ्गाद्विवृद्धोपाधिकान्मत्वर्थे ते इल इक इन् इत्येते प्रत्यया भवन्ति मतुश्च ।
विवृद्धौ महान्तौ कर्णावस्य स्तः कणिलः, कणिकः, कर्णी, कर्णवान्, ओष्ठिलः, ओष्ठिकः, ओष्ठी, ओष्ठवान् । विवृद्धादिति किम् ? अन्यत्रेलो न भवति । 'अतोऽनेकस्वरात् ' (७-२-६) इतीकेन्मतव एव भवन्ति ।१०। वृन्दादास्कः ॥ ७. २. ११॥
वृन्दशब्दान्मत्वर्थे आरकः प्रत्ययो भवति मतुश्च । वृन्दारकः, वृन्दवान् । शिखादित्वात् वृन्दी ।११। शृङ्गात् ॥ ७. २. १२ ॥
शृङ्गान्मत्वर्थे आरकः प्रत्ययो भवति मतुश्च । शृङ्गारकः, शृङ्गवान् । शिखादित्वात् शृङ्गी ।१२। फलबर्हान्चेनः ॥ ७. २. १३॥
फलबह इत्येताभ्यां शृगाच्च मत्वर्थे इनः प्रत्ययो भवति मतुश्च ।
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( पाद. २. सू. १४-१९] श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः
[ २६१
फलिनः फलवान्, बर्हिणः, बर्हवान् शृङ्गिणः, शृङ्गवान् । शिखादित्वात् फली बर्हो |१३|
मलादीमसश्च ।। ७. २. १४ ॥
मलशब्दान्मत्वर्थे ईमस इनश्च प्रत्ययौ भवतः मतुश्च । मलीमसः, मलिनः, मलवान् ।१४।
मरुत्पर्वणस्तः ।। ७. २. १५ ॥
मरुत्पर्वन् इत्येताभ्यां मत्वर्थे त: प्रत्ययो भवति मतुश्च । मरुतः, मरुत्त्वान् पर्वतः, पर्ववान् । १५ ।
वलिवटितुण्डेर्भः ॥ ७२. १६ ॥
वलि टिडि इत्येतेभ्यो मत्वर्थे भः प्रत्ययो भवति । वलिभः, वलिन इत्यङ्गादित्वान्न । वटिभ, तुण्डिभः । सिध्मादिपाठाल्ले तुण्डिलः, मतुश्व । वलवान्, प्रवृद्धा नाभिस्तुण्डिः | १६ |
न्या० स० वलिव० - वटिरुनतनाभ्यर्थः, एकदेश इति न्यायात्तुन्दिशब्दादपि भे तुन्दिभ इति क्षीरः ।
ऊर्णाहंशुभमो युस् ।। ७. २. १७ ॥
ऊर्णा अहम् शुभम् इत्येतेभ्यो मत्वर्थे युस् प्रत्ययो भवति । ऊर्णायुः उरभ्रः, अहंयुः अहंकारी, शुभंयुः कल्याणबुद्धिः | १७|
कंशंभ्यां युस्तियस्तुतवभम् ।। ७. २. १८ ।।
कम्, शम् इत्येताभ्यां मत्वर्थे युस्, ति, बस्, तु, त, व, भ इत्येते प्रत्यया भवन्ति ।
--
कंयुः, शंयुः, कन्तिः, शंतिः, कंयः, शंयः, कंतुः, शन्तुः, कन्तः, शन्तः, कंवः, शंवः, कंभः, शंभः । युस्यसोः सकारो नाम सिदव्यञ्जने '( १ - १ - २१ ) इति पदत्वार्थः तेन 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ (१-३-१४ ) इत्यनुस्वारानुनासिको सिद्धौ । कंयुः, कय्युः, शंयः, शय्यः | १८ |
"
बलवातदन्तललाटा दूलः ।। ७. २. १९ ॥
एभ्यो मत्वर्थे ऊलः प्रत्ययो भवति । बलूल:, वातूल:, दन्तूल:, ललाटूलः । मतुश्च । बलवान्, वातवान्, दन्तघान् ललाटवान् । १९ ।
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२६२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० २०-२१ ] प्राण्यङ्गादातो लः ॥७. २. २० ॥
प्राण्यङ्गवाचिन आकारान्तान्मत्वर्थे लः प्रत्ययो भवति मतुश्च । चूडालः, जङ्घालः, शिखालः, चूडावान्, जङ्घावान्, शिखावान् । प्राण्यङ्गादिति किम् ? जङ्घावान् प्रासादः, शिखावान् प्रदीपः । अङ्गग्रहणं किम् ? इच्छावान्, वासनावान् । कणिकाल इत्यत्र कर्णिकाशब्दः प्राण्यङ्गस्यैव वाचक इत्याहुः । आत इति किम् ? हस्तवान्, पादवान् ।२०।
न्या० स० प्राण्य-चूडाल इति शाखादिपाठेन न बाध्यते इतिकरणात् ।
शिखाल इति इदमुदाहृतं शकटोत्पलभोजैः मूलोदाहरणं तु भोजेनैव ततश्चैवं ज्ञायते यथा शिखाया वलच संज्ञायां तथा इन्नपि वह्नौ मयूर इति नियतेऽर्थे द्रष्टव्य इत्यवधार्यमितिकरणात्
प्राण्यङ्गस्यैवेति न तु कर्णाभरणस्येत्यर्थः । सिध्मादिक्षुद्रजन्तुरुग्भ्यः ।। ७. २. २१ ॥
सिध्मादेर्गणात् क्षुद्रजन्तुवाचिभ्यो रुग्वाचिभ्यश्च मत्वर्थे लः प्रत्ययो भवति मतुश्च । सिध्मान्यस्य सन्ति सिध्मलः, सिध्मवान्, वर्मलः, वर्मवान् । अङ्गादित्वान्ने वर्मनः । गडुलः, गडुमान् । पाखुधमनीशब्दो दीर्घान्तावेव गणे पठ्यते तेन दीर्घान्ताभ्यामेव लः । पार्णीलः, धमनीलः । हस्वान्ताभ्यां तु मतुरेव । पाणिमान्, धमनिमान् । क्षुद्रजन्तु, यूकालः, यूकावान्, मक्षिकालः, मक्षिकावान् । आ नकुलात् क्षुद्रजन्तुः । रुकु, मूर्छालः, मूीवान, विचिकालः, विचिकावान् । रुग्भ्य इति बहुवचनं स्वरूपविधिनिषेधार्थम् ।
सिध्म, वर्मन्, गडु, तुण्डि, मणि, नाभि, बीज, निष्पाद, निष्पद, निष्प, पांशु, हनु, पशु, पाष्र्णी, धमनी, सक्तु, मांस, पत्र, वात, पित्त, श्लेष्मन्, पार्श्व', कर्ण, सक्थि, स्नेह, शीत, कृष्ण, श्याम, पिङ्ग, पक्ष्मन्, पृथु, मृदु, मञ्जु, चटु, कण्ड् इति सिध्मादिः । कथं वत्सलः स्नेहवान् अंसलो बलवान् ? नात्र कश्चिद्वत्साद्यर्थोऽस्ति इति पेशलकुलादिवदेतौ यथाकथचियुत्पादनीयौ सिध्मादिषु वा पठनीयौ ।२१॥
न्या० स० सिध्मा०-ननु सिध्मशब्दस्य दुर्भित्तार्थत्वात् रुगद्वारेणैव ल: सिद्धः किं गणपाठेन ?
सत्यं, अस्यादन्तत्वात 'प्राणिस्थादस्वाङ्गात् ' ७-२-६० इतीन स्यात्तद्बाधनार्थम् , वर्मनशब्दस्यापि दुर्भितार्थत्वात कण्डूशब्दस्य च तथैव सिद्धं किं त्वाभ्यां यथाक्रम 'नोऽगा।'
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{पाद. २. सू. २२-२५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२६३ 'मध्वादिभ्योरः' ७-२-२६ इत्येव स्यात्, तथाऽत्र गडशब्दो गडलस्वरूपे गुणे वत्तते इति रुगद्वारेण न सिध्यति ।
पेशलकुशलादिषदिति यथा पेशं लाति, कुशं लाति इत्येवमनयोयुत्पत्तिरेवं वत्सलांसलयोरपि । औणादिको वा मनोज्ञमेधावि बाचिनौ । प्रज्ञापर्णोदकफेनालेलौ ॥ ७. २. २२ ।।
प्रज्ञा पर्ण उदक फेन इत्येतेभ्यो मत्वर्थ ल इल इत्येतौ भवतः मतुश्च ।
प्रज्ञालः, प्रज्ञिलः, प्रज्ञावान्, पर्णलः, पर्णिलः, पर्णवान, उदकलः, उदकिलः, उदकवान्, फेनलः, फेनिलः, फेनवान् ।२२। कालाजटाघाटाक्षेपे ॥ ७ २. २३ ॥
कालाजटाघाटा इत्येतेभ्यो ल इल इत्येतो प्रत्ययौ भवतः क्षेपे प्रत्यवार्थस्य निन्दायां गम्यमानायाम् । कालाल: कालिलः। कालेति डोपान्त्यं केचित्पठन्ति । काडालः, काडिलः, जटाल:, जटिलः, घाटालः, घाटिलः । मतुना क्षेपो न गम्यते इति क्षेपे मतुर्न भवति । क्षेपे इति किम् ? कालावान्, जदावान्, घाटावान् ।२३। .
न्या० स० काला०-कालाल इति कडत् णिग् भिवाद्या, 'ऋफिड' २-३-१०४ इति ले काला पादत्रसाविशेषः, अस्मान्मतो 'प्राण्यङ्ग' ७-२-२० इति ले अभ्राद्यकारे च प्राप्ते लेलो।
जटाल इति लोकवचनाय जटा अस्यास्ति । घाटाल इति निन्द्या घाटा कृकाटिकास्यास्ति । वाच आलाटौ ॥ ७. २. २४ ॥ - वाच् इत्येतस्मान्मत्त्वर्थे आल आट इत्येतो प्रत्ययो भवतः क्षेपे गम्यमाने, ग्मिनोऽपवादः । बाचालः, वाचाटः । यो बहु निःसारं भाषते स एवं क्षिप्यते । मतुना क्षेपो न. गम्यते इति क्षेपे मतुर्न भवति । क्षेपे इत्येव ? वाग्मी, वाग्वान् ।२४। ग्मिन् ।। ७. २. २५॥
बाचो मत्वर्थे ग्मिन् प्रत्ययो भवति मतुश्च । वाग्मी, वाग्वान् । गकारः 'प्रत्यये च' (१-३-२) इति अनुनासिक निवृत्त्यर्थः । क्षेप इति निवृत्तम् ।२५।
न्या० स० ग्मिन् निवृत्त्यर्थ इति द्वितीयगश्रघणं न स्यादिति न बाच्थे, रूपमेव हि भिद्यते न श्रुतिः, शब्दस्य श्रोत्रग्राह्यत्वादिति पूर्वन्यासाः ।
क्षेप इति निवृत्तम्-पृथग्योगादिति-करणानुवृत्तेश्च प्रशंसायामेवायं न स्वरूपमा ।
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२६४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० २६-२८ ] मध्वादिभ्यो रः ॥ ७. २. २६ ।।
मध्वादिभ्यो मत्वर्थ रः प्रत्ययो भवति । मधुरो रसः । अत्र मधुशब्दः स्वादुत्वे गुणत्वे गुणसामान्ये वर्तते । मधुरं मधु, मधुरं क्षीरम्, अत्र गुणे । क्षौद्रादिद्रव्यवृत्तेस्तु मतुरेव इतिकरणानुवृत्तेः । मधुमान् घटः । एवं खं महत् कण्ठविवरमस्यास्ति खरः गर्दभः, खवानन्यः । मुखं सर्वस्मिन् वक्तव्ये यस्यास्तीति मुखरः वाचालः, मुखवानन्यः। कुजावस्य स्त: कुञ्जरो हस्ती । कुञ्जशब्दोऽत्र हनुपर्यायः। कुजवानन्यः । नगरं पुरं, नगवदन्यत् । ऊषरं क्षेत्रम्, ऊषवदन्यत् । मुष्करः पशुः, मुष्कवानन्यः । शुषिरं शुषिमत्काष्ठम् । कण्डूरः कण्डूमान्, पाण्डुरः पाण्डुमान्, पांशुरः पांशुमान्, मध्वादयः प्रयोगगम्या: ।२६।
न्या० स० मध्वा०-मधुर इति मधुशब्दो माधुर्येऽर्थे पुंलिङ्गः क्षौद्राद्यर्थे तु नपुंसकः तस्मात् माधुर्येऽर्थे पुंलिङ्गेन वाक्यं कार्य मधुरस्यातीति, स्वादुत्वे इत्यस्य गुणत्व इति गुणसामान्ये इति च पर्यायद्वयम् । एवमिति इतिकरणानु वृत्तेः, खर इत्यादिषु अर्थविशेषे स्प्रत्ययोऽन्यत्र मधुरेवेत्यर्थ । पाण्डुर इति अत्र पाण्डुशब्दः पाण्डुत्वरूपे गुणे वर्त्तते । कृष्यादिभ्यो वलच् ॥ ७. २. २७ ॥
कृष्यादिभ्यो मत्वर्थे वलच प्रत्ययो भवति । कृषीवलः कुटुम्बी, कृषिमत्क्षेत्रम्, आसुतीवलः कल्यपालः, आसुतिमान्, परिषद्वल:, परिषद्वान्, पर्षद्वलः, पर्षद्वान्, परिषदलं तीर्थ पङ्किलमित्यर्थः । परिषद्वत् । रजस्वला स्त्री, रजस्वान ग्रामः । केचित्तु रजस्वलो देशः रजस्वला भूमिः रजस्वान रजस्वतीति सर्वत्राविशेषेण वृत्तिमिच्छन्ति । दन्तावलो नाम राजा हस्ती च । शिखावलं नगरम् शिखावलो मयूरः, शिखावला स्थूणा, दन्तवान् शिखावानन्यः । मातृबल: मातृमान्, एवं पितृवलः, भ्रातृवलः, उत्साहवलः पुत्रवल: उत्सङ्गवलः । विशेष इतिकरणात्सिद्धः। कृष्यादयः प्रयोगगम्या: ।२७। ___ न्या० स० कृष्या० -शिखाक्लो मयूर इति इतिकरणात प्राण्यङ्गार्थादपि शिखाशब्दात वलच् न तु लः, एवं दन्तवान् शिखावानन्य इति दन्तशिखाभ्यां संज्ञायामिति पूर्वरुक्तत्वात् । लोमपिच्छादेः शेलम् ॥ ७. २, २८ ॥
लोमादिभ्यः पिच्छादिभ्यश्च मत्वर्थे यथासंख्यं श इल इत्येतौ भवतः मतुश्व । लोमशः लोमवान्, रोमशः रोमवान, पिच्छिलः पिच्छवान उरसिलः उरस्वान।
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[ पाद. २. सू. २९-३१ ] श्रीसिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२६५
___ लोमन्, रोमन्, बभ्रु, वल्ग, हरि, कपि, मुनि, गिरि, उरु, कर्क इति लोमादिः । पिच्छ, उरस्, धुवका, ध्रुवका, पक्ष, चूर्ण इति पिच्छादिः ।२८।
न्या० स० लोम०-पिच्छिल इति पिच्छं चिक्कणत्वमस्यास्ति, यद्वा पिच्छं मयूरादिसत्कमस्यास्त्युपमानतया । नोऽङ्गादेः ॥ ७. २. २९ ॥
अङ्ग इत्येवमादिभ्यो मत्वर्थे न: प्रत्ययो भवति मतुश्च । अङ्गान्यस्याः सन्ति अङ्गना। रूढिशब्दोऽयं, कल्याणाङ्गी स्त्री उच्यते इतिकरणात् अन्यत्राङ्गवती । पामनः पामवान्, वामनः वामवान् ।
अङ्ग, पामन्, वामन्, हेमन्, श्लेष्मन्, सामन्, वर्मन् (वर्मन्) शाकिन्, पलालिन्, पलाशिन्, ऊष्मन्, कद्रु, बलि इत्यङ्गादिः योगविभाग उत्तरार्थः ।२९॥
न्या० स० नोऽङ्गा०- वामन इति वामानि नीचान्यर्थादगान्यस्य । योगविभाग इति एकयोगन्तु लोमपिच्छाङ्गादेः शेलेनमित्येवंविधः स्यात् । शाकीपलालीदा हस्वश्च ॥ ७. २. ३० ।।
शाकी पलाली दर्दू इत्येतेभ्यो मत्वर्थे नः प्रत्ययो भवति मतुश्च नप्रत्ययसंनियोगे चषां इस्वोऽन्तादेशः। महच्छाकं शाकमूसहो वा शाकी, महत्पलालं पलालक्षोदो वा पलाली। द न म व्याधिः । शाकिनः, शाकीमान, पलालिनः, पलालीमान्, दर्दु णः, दर्दू मान् । केचित्तु शाकीपलाल्योईस्वत्वं नेच्छन्ति । तन्मते शाकीनः, पलालोनः ।३०।
न्या० स० शाकी-शाकीति महत्त्वे समूहेऽपि तद्बहुलमिति स्त्रीत्वे गौरादित्वात् ङी । विष्वचो विषुश्च ।। ७ २. ३१ ।।
विष्वच इत्येतस्मान्मत्वर्थे नः प्रत्ययो भवति विषु इत्ययं चादेशो भवति । विष अञ्चतीति विष्वक् । विष्वञ्चो रश्मयो विष्वग्नतानि वा अस्य सन्ति इति विषुणः आदित्यः । विषुणः वायुः । विषुशब्दो निपातो नानात्वे वर्तते । विष्वगिति अखण्डमव्ययं वा। नकारसंनियोगे आदेशस्य विधानात् मतौ विष्वग्वान् । कथं विषमानहोरात्रप्रविभाग इति ? विषुर्नाम मुहूर्तस्तस्माद्भविष्यति ।३१।
न्या० स० विध्वचो०- विष्वक् इति अत्र रूपमित्यध्याहारात् क्लीबत्वे सेलुपि नागमाभावः । अखण्डमिति चकारान्तमित्यर्थः, चकारान्तस्यैव सूत्रे ग्रहणात् ।
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२६६ ]
बृहदृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० २: सू०.३२-३७ ] लक्ष्म्या अनः ॥ ७. २. ३२॥
लक्ष्मीशब्दान्मत्वर्थेऽनः प्रत्ययो भवति । लक्ष्मीरस्यास्तीति लक्ष्मणः, मतौ लक्ष्मीवान् ।३२। प्रज्ञाश्रद्धा वृत्तेर्णः ।। ७. २. ३३॥
प्रज्ञाश्रद्धा वृत्ति इत्येतेभ्यो मत्वर्थे णः प्रत्ययो भवति मतुश्च । प्राज्ञः, प्रज्ञावान्, श्राद्धः, श्रद्धावान्, आर्चः, अर्चावान्, वार्तः, वृत्तिमान् । स्त्री तु प्राज्ञा श्राद्धा आर्चा वार्ता। प्राज्ञीति स्वार्थिकाणन्तात् ।३३। ज्योत्स्नादिभ्योऽण ॥ ७. २. ३४ ॥
ज्योत्स्ना इत्येवमादिभ्यो मत्वर्थेऽण प्रत्ययो भवति । ज्योत्स्ना अस्मिन्नस्ति ज्योत्स्नः पक्षः, ज्योत्स्नी रात्रिः, तामिस्रः पक्षः, तामिस्री रात्रिः । तामिस्राणि गुहामुखानि । वैसर्पो व्याधिः, वैपादिकं कुष्ठम्, कौतुपं गृहम्, कौण्डलो युवा, तापसः पाखण्डी, साहस्रो देवदत्तः, मतौ. ज्योत्स्नावान् तमिस्रावानित्यादि । तापस इति रूढिशब्दो रूढिविषये च मतुर्न भवति । कुण्डली सहस्री चेति शिखादित्वात् । ज्योत्स्नादयः प्रयोगगम्याः ।३४। . सिकताशर्करात् ॥ ७. २. ३५॥
सिकताशर्करा इत्येताभ्यां मत्वर्थेऽण् प्रत्ययो भवति मतुश्च । सैकतः, सिकतावान् देशः, शार्करः शर्करावानोदनः ।३५। इलश्च देशे ॥ ७. २. ३६ ॥
सिकताशर्कराभ्यां देशे मत्वर्थे इलश्चकारादण् च प्रत्ययौ भवतः मतुश्च । सिकतिल:, सैकतः, सिकतावान् देशः, शर्करिलः, शार्करः, शर्करावान् देशः । सिकताः, देशः, शर्कराः देशः इत्यभेदोपचारात् ।३६।।
न्या० स० इल:-ननु पूर्व सूत्रेग सामान्येन भणनादेशेऽपि 'सिकताशर्कराभ्याम' ७-२-३५ सिद्ध एवेति किमत्र तदनुकर्षणार्थेन च शब्देन ?
सत्यं, यद्यत्र चकारो न स्यात्तदनुकर्षणार्थस्तदा देशेऽसावेव स्यान्न त्वण् । ।
ननु सिकता देश इत्याद्यर्थं मत्वर्थीयस्य पक्षे लुप् लुबन्तस्य च प्रकृतिलिङ्गसंख्ये वक्तव्ये इत्याह-उपचारादिति रूढिवशाच्च बहवचनान्त इति ।
द्रोर्मः ॥ ७. २. ३७ ॥ धु इति दिवः कृतोकारस्य निर्देशः धुशब्द उकारान्तोऽहःपर्यायः
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[पाद. २. सू ३८-४३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२६७ प्रकृत्यन्तरं वा। चूद्रशब्दाभ्यां मत्वर्थे मः प्रत्ययो भवति । द्योद्युस्यिास्मिन्वास्तीति धुमः । द्रूणि दारूण्यस्यास्मिन्वा सन्ताति द्रुमः । रूढिशब्दाविमौ रूढिविषये च मतुर्न भवति । अन्यत्र तु मतुरेव । घुमान्, द्रुमान् ।३७। काण्डाण्डभाण्डादीरः ॥ ७. २. ३८॥
काण्ड आण्ड भाण्ड इत्येतेभ्यो मत्वर्थे ईर: प्रत्ययो भवति मतुश्च । काण्डीरः, काण्डवान्, आण्डीरः, आण्डवान्, भाण्डीरः, भाण्डवान् । आण्डौ मुष्कौ ।३८
न्या० स० काण्डा०-आण्डीर इति एकदेशेति न्यायात् श्लिष्टनिर्देशाद्वा अण्डीर इत्यपि गौडजयौ।
कच्छवा डुरः ॥ ७. २. ३९ ॥ .. कच्छूशब्दान्मत्वर्थे डुरः प्रत्ययो भवति । कच्छरः, कच्छूमान् ।३९। दन्तादुन्नतात् ।। ७. २. ४० ॥
उन्नतत्वोपाधिकाद्दन्तशब्दान्मत्वर्थे डुरः प्रत्ययो भवति । उन्नता दन्ता अस्य सन्ति दन्तुरः । उन्नतादिति किम् ? दन्तवान् ।४०।
न्या. स० दन्ता०-दन्तवानिति निर्गतत्वमुन्नतत्वं, प्रमाणातिरेकस्तु वृद्धिरिति भिन्नत्वं, तत्रोन्नतत्वे दन्तुरः, विवृद्धिविवक्षायां तु 'स्वाङ्गाद्विवृद्धात्' ७-२-१० इति 'आयात' ७-२-२ इति च दन्तिलो, दन्ती, दन्तिको, दन्तवानिति यथायोगं भवति, उन्नतार्थो मतुना न गम्यते इत्यत्र मतुर्न भवति । मेधास्थान्नवरः ॥ ७. २, ४१ ॥
मेघारथ इत्येताभ्यां मत्वर्थे इरः प्रत्ययो वा भवति, वावचनाद्यथाप्राप्तिमिकेनौ आ यादिति मतुश्च । मेधिरः । मेधावान् । उत्तरसूत्रेण विन्नपि । मेधावी, रथिरः, रथिकः, रथो, रथवान् ।४१। कृपाहृदयादालुः ॥ ७. २. ४२॥
कृपाहृदयशब्दाभ्यां मत्वर्थे आलुः प्रत्ययो वा भवति मतुश्च । कृपालुः कृपावान, हृदयालुः, हृदयिकः, हृदयी, हृदयवान् ।४२। केशादः ॥ ७. २. ४३ ॥
केशशब्दान्मत्वर्थे वः प्रत्ययो वा भवति मतुश्च । केशवः, केशिकः, कशी, केशवान् । केशव इति रूढिशब्दोऽपि विष्णुवाची ।४३।
न्या० स० वे श .-रूढिशब्दोऽपीति न केवलं यस्य केशाः सन्ति स केशवः, किन्तु विष्णुरपि ।
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२६८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. २ सू० ४४-४८ ] मण्यादिभ्यः ॥ ७. २. ४४ ॥
मण्यादिभ्यो मत्वर्थे वः प्रत्ययो वा भवति मतुश्च, योगविभागाद्वेति निवृत्तम् । मणिवः, मणिमान् । सिध्मादिपाठात् मणिलः, हिरण्यवः, हिरण्यवान्, बिम्बावम्, कुररावम्, कुरबावम् । 'घञ्युपसर्गस्य बहुलम्' ( ३-२-८६ ) इति बाहुलकाद्दीर्घः । राजीवम्, इष्टकावम्, गाण्डिवम्, गाण्डीवम्, अजकावम्, बिम्बावम् इत्यादयो रूढिशब्दाः । रूढिशब्दविषये च मतुर्न भवति । विषयान्तरे तु भवत्येव । बिम्बवानित्यादि, मणि, हिरण्य, बिम्ब, कुरर, कुरव, राजी, इष्टका, गाण्डि, गाण्डी, अजका इति मण्यादयः प्रयोगगम्याः ।४४। होनात्स्वाङ्गादः ॥ ७. २. ४५ ।।
हीनोपाधिकात् स्वाङ्गान्मत्वर्थे अः प्रत्ययो भवति । खण्डः कर्णोऽस्यास्ति कर्णः, छिन्ना नासिकास्यास्ति नासिकः । हीनादिति किम् ? कर्णवान् नासिकावानित्येव भवति ।४५। अभ्रादिम्यः ॥ ७. २. ४६ ॥
अभ्र इत्येवमादिभ्यो मत्वर्थे अः प्रत्ययो भवति यथादर्शनं मतुश्च । अभ्राण्यस्मिन् सन्ति अभ्र नभः, अस्यिस्य सन्ति अर्शसो देवदत्तः, उरसः । उरस्वान् ।
अभ्र, अर्शस्, उरस्, तुन्द, चतुर, पलित, जटा, घाटा, कर्दम, काम, बल, घटा, अम्ल, लवण इत्यभ्रादिराकृतिगणः ।४६।
अस्तपोमायामेधास्रजी विन् ॥ ७. २. ४७ ।। - असन्तेभ्यस्तपस्मायामेघास्रज् इत्येतेभ्यश्च मत्वर्थे विन् प्रत्ययो भवति मतुश्च । असन्त, यशस्वी, यशस्वान्, सरस्वी, सरस्वान्, सरस्वती, एवं तेजस्वी, वर्चस्वी, तपस्वी, तपस्वान् । असन्तत्वेनैव सिद्धे तपसो ग्रहणं ज्योत्स्नाद्यणा बाधो माभूदित्येवमर्थम् । मायावी, मायावान्, मायी, मायिक इति व्रीह्यादिपाठात् । मेधावी, मेधावान्, स्रग्वी, स्रग्वान् ।४७। ___न्या० स० अस्त-सरस्वतीति यदा नदी तदा सरः सरणं गमनमस्यास्तीति वाक्यं, यदा तु भारती तदा सरो मानसाद्यस्यास्तीति । आमयादीर्घश्व ॥ ७. २. ४८॥ आमयशब्दान्मत्वर्थे विन् प्रत्ययो दीर्घश्चामयशब्दस्य भवति मतुश्च ।
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। पाद २. सू. ४९-५४] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २६९ आमयावी, आमयवान् ।४८॥ स्वानमिन्नीशे ॥ ७. २. ४९ ॥
स्वशब्दान्मत्वर्थे ईशे वाच्ये मिन् प्रत्ययो भवति दीर्घश्वास्य । स्वमस्यास्तीति स्वामी। ईश इति किम् ? स्ववान् ।४९।
गोः ॥७. २. ५०॥ ___ गोशब्दान्मत्त्वर्थे मिन् प्रत्ययो भवति । गावोऽस्य सन्ति गोवी, मतुश्चगोमान् । पूज्य एव मिनमिच्छन्त्यन्ये ।५०। ऊर्जा विन्वलावश्वान्तः ॥ ७. २. ५१ ।।
ऊ शब्दान्मत्वर्थे विन्वल इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः तत्संनियोगे चास्यास चान्तो भवति । ऊर्जस्वी, ऊर्जस्वलः, मतुश्व-ऊर्वान्, कथमूर्जस्वान् ? ऊर्जयतेः अस्प्रत्ययान्तस्य मतौ ।५१॥
न्या० स० ऊ!०-अस्प्रत्ययान्तस्येति योवें ऊर्जयतेरसन्तस्यास्तपोमायेत्यनेन असन्तत्वाद्विन सिद्ध एव किमत्र सूत्रे ऊर्जुशब्दाद् विन्विधानेन ? __सत्यं, असन्तस्य ऊर्जयतेनियत एव प्रयोग इति, ततोऽनेन विविधानं, एतच्च ऊर्जशब्दाद् विविधानेनैव ज्ञाप्यते । तमिस्राणेवज्योत्स्ना ॥ ७. २. ५२ ।।
तमिस्रार्णवज्योत्स्ना इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । तमिस्रति तमशब्दाद्रः उपान्त्यस्य चेत्वम् । तमोऽत्रास्तीति तमिस्रा रात्रिः, तमिस्रं तमःसमूहः, तमिस्राणि गुहामुखानि । मतुश्च । तमस्वान्, अर्णवेति अर्णसो वः प्रत्ययः अन्त्यस्य च लोपः, अर्णवः समुद्रः। ज्योत्स्नेति ज्योतिःशब्दान्नः प्रत्यय उपान्त्यलोपश्च निपात्यते। ज्योत्स्ना चन्द्रप्रभा । अन्यत्र ज्योतिष्मती रात्रिः निपातनस्येष्टविषयत्वात् ।५२। गुणादिभ्यो यः ॥ ७. २. ५३ ॥
गुणादिभ्यो मत्वर्थे यः प्रत्ययो भवति । गुण्यः पुरुषः, हिम्यः पर्वतः, मतुश्च-गुणवान्, हिमवान् । कथं को गुणिनो नार्चयेत् इति इन् ? शिखादित्वेन भविष्यति । मुणादयः प्रयोगगम्याः ।५३। रूपात्प्रशस्ताहतात् ।। ७. २. ५४ ॥ प्रशस्तोपाधिकादाहतोपाधिकाच्च रूपान्मत्वर्थे यः प्रत्ययो भवति ।
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२७० ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० ५५-५७ ] प्रशस्तं रूपमस्यास्ति रूप्यो गौः। रूप्यः पुरुषः, आहतं रूपमस्यास्ति रूप्यः कार्षापणः । निघातिकाताडनाद्दीनारादिषु यद्रूपमुत्पद्यते तदाहतं रूप्यम् । प्रशस्ताहतादिति किम् ? रूपवान् । प्रशंसायां मतुरपि भवति । रूपवती कन्या । आहते न भवति इतिकरणात् । कथं रूपिणी कन्या रूपिको दारक इति ? व्रीह्यादित्वाद्भविष्यति। आ यादित्यस्य पूर्णोऽवधिः अतः परं मतुर्नास्ति ।५४। पूर्णमासोऽण ।। ७. २. ५५ ॥
पूर्णमास्शब्दान्मत्वर्थेऽण् प्रत्ययो भवति । पूर्णो माश्चन्द्रमा अस्यामस्तिा पौर्णमासी ॥५५॥ गोपादत इकण ॥ ७. २. ५६ ।।
गोशब्दपूर्वादकारान्तान्मत्वर्थे इकण् प्रत्ययो भवति, मत्वादीनामपवादः । गौशतिकः, गौसहत्रिकः । अत इति किम् ? गोविंशतिमान् । कथं गौशकटिकः ? शकटीशब्देन समानार्थः शकटशब्दोऽस्ति । शकटीशब्दात्तु मतुः अनभिधानान्न भवति । के चित्तु गवादेरनकारान्तादपीच्छन्ति । गवां समूहो गोत्रा सा विद्यते यस्य गौत्रिकः, गावो वयांसि चास्य सन्ति गौवयसिकः ।५६।
न्या० स० गोपू०-कथमिति अदन्ताद्विहित इकण् कथं शकटीशब्दाद् भवतीत्याशयः शकटीशब्दात्त्विति शकटीशब्दात्तावददन्तत्वाभावादिकण् न भवति, परं मतुर्भवति नो वेत्याह- . अनभिधानादिति । निष्कादेः शतसहस्रात् ॥ ७. २. ५७ ॥
निष्को य आदिस्ततः परं यच्छतं सहस्रं च तदन्तान्मत्वर्थे इकण प्रत्ययौ भवति । नैष्कशतिकः, नैष्कसहस्त्रिकः । निष्कादेरिति किम् ? शतो, सहस्री। आदिग्रहणात्सुवर्णनिष्कशतमस्यास्तीत्यत्र न भवति ।५७।।
न्या० स० निष्का-निष्कश्चासावादिश्च बहुव्रीहिर्वा । .. ___ननु बहुव्रीहौ सुवर्णनिष्कशतशब्दादपि प्राप्नोति ? सत्यं, अत्रादिशब्दोऽवयवार्थः निएकादश्च शतसहस्रशब्दयोरवयवः समास एव सति भवति वाक्ये तस्य स्वाताच्यात. समासश्च सुवर्णनिष्कशब्देन शतशब्देन चारभ्यत इति शतशब्दान्तसमासापेक्षया सुवर्णनिष्कशब्दस्यैवावयवत्वं, न तु निष्कशब्दस्येति सुवर्णेनिष्कशतशब्दान्नेकण, अथवात्रादिशब्दः प्राथम्यार्थोऽपि व्याख्यायते प्राथम्यं च सुवर्णनिष्कशतशब्दे शतशब्दापेक्षया निष्कशब्दस्यास्येवेतीकण प्राप्नोतीति तन्निवृत्त्यर्थ सावधारणं व्याख्येयं निष्क एवादिर्यस्येति अन तुन निष्क एवादिः किंतु सुवर्णशब्दोऽपीति न भवति, एवमुत्तरत्रापि ।
आदिग्रहणादित्यादि सुवर्णस्य निष्काशस्तेषां शतमिति विग्रहः ।
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पाद. २. सू. ५८-६२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२७१ एकादेः कर्मधारयात् ॥ ७. २. ५८ ॥
एकादेः कर्मधारयादकारान्तान्मत्वर्थे इकण प्रत्ययो भवति । एको गौरेकगवः सोऽस्यास्त्यैकगविकः, ऐकशतिकः ऐकसहस्रिकः । कर्मधारयादिति किम् ? एकस्य गौरेकगवः सोऽस्यास्ति इति न भवति । अत इत्येव ? एकविंशतिरस्यास्तीति न भवति । कथमेकद्रव्यवत्त्वादिति । एकेन द्रव्यवत्त्वमिति समासे भविष्यति ।५८।
न्या स० एका०-समासे इति । 'ऊनार्थपूर्वाद्यैः' ३-१-६७ इत्यनेन । सर्वादेरिन् ॥ ७. २. ५९॥
सर्वादेरकारान्तात्कर्मधारयान्मत्वर्थे इन् प्रत्ययो भवति । सर्वं धनं सर्वधनम् तदस्यास्तीति सर्वधनी, सर्वबीजी, सर्वकेशी नटः ।५९। प्राणिस्थादस्वाङ्गाद्वन्द्वरुमिन्द्यात् ।। ७. २. ६० ॥
प्राणिस्थोऽस्वाङ्गवाची अकारान्तो यो द्वन्द्वः समासो यश्च रुग्वाची निन्द्यवाची च शब्दस्तस्मान्मत्वर्थे इन् प्रत्ययो भवति । द्वन्द्व. कटकवलयिनी। शंखनपुरिणी । रुक्-कुष्टी, किलासी, निन्ध, ककुदावर्ती, काकतालुकी । प्राणि स्थादिति किम् ? पुष्पफलवान् वृक्षः । अस्वाङ्गादिति किम् ? स्तनकेशवती। अत इत्येव ? चित्रकललाटिकावती । विपादिकावती । काकतालुमती । " अतोऽनेकस्वरात् ' (७-२-६) इत्येव सिद्ध इकादिबाधनार्थं वचनम् ।६०।
न्य० स० प्राणि-शखनूपुरिणीति अनुपरतो वो यस्य यस्माद् वा तदनुपरतरवं तस्य पृषोदरादित्वान्नूपुरादेशः ‘श्वशुर' ३-१-१२३ इति निपातनाद् वा । वातातीसारपिशाचात्कश्वान्तः ॥ ७. २. ६१ ॥
वात, अतीसार, पिशाच इत्येतेभ्यो मत्वर्थे इन् प्रत्ययो भवति ककारश्चान्तः । वातातीसारयो रुक्त्वात् पूर्वेणेन् सिद्धः कार्थमुपादानम् । पिशाचस्य तूभयार्थम् । वातकी, अतीसारकी, पिशाचकी ।६१॥
न्या० स० वाता०-अब एकदेशविकृतेति न्यायादतिसारकीत्यपि । पूरणादयसि ॥ ७. २. ६२॥
पूरणप्रत्ययान्ताद्वयसि गम्यमाने मत्वर्थे इन्नेव प्रत्ययो भवति । पञ्चमो मासः संवत्सरो वास्यास्तीति पञ्चमी बालकः दशमी करभः ।२।
न्या. स. पूर.-ननु 'अतोऽनेकस्वरात्' ७-२-६ इत्यनेनेन् सिद्ध एव किमनेन ? सत्यं, इन्नेवेति नियमार्थ तेन हि इविधाने इकोऽपि स्यादिति ।
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२७२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० ६३-६८ । सुखादे: ।। ७. २. ६३ ।। ... सुखादिभ्यो मत्वर्थे इन्नेव प्रत्ययो भवति । सुखी, दुखी।
सुख, दुःख, तृप्र, कृच्छ, अस्र, अलीक, कृपण, सोढ, प्रतीप, प्रणय, हस्त, (हल) आस्र, कक्ष, शील इत्येके इति सुखादिः ।६३। मालायाः क्षेपे ॥ ७. २. ६४ ॥
मालाशब्दात्क्षेपे गम्यमाने मत्वर्थे इन्नेव प्रत्ययो भवति । माली । क्षेप इति किम ? मालावान्, मालाशब्द: शिखादिः। ततः क्षेपे मतुनिवृत्त्यर्थं वचनम् ।६४॥ धर्मशीलवर्णान्तात् ॥ ७. २. ६५ ॥
धर्मशीलवर्ण इत्येतदन्तान्मत्वर्थ इन्नेक भवति । मुनिधर्मी, यतिशीली, ब्राह्मणवर्णी ॥६५॥ बाहर्वादेवलात् ।। ७. २. ६६ ॥
बाहु-ऊरुपूर्वोद्वलान्तानाम्नो मत्वर्थे इन्नेव भवति । बाहुबली, ऊरुबली ।६६।
मन्माब्जादेर्नाम्नि ॥ ७. .२ ६७ ॥ ___ मन्नन्तेभ्यो मान्तेभ्योऽजादिभ्यश्च मत्वर्थे इन्नेव भवति नाम्नि समुदायश्रेत्कस्यचिन्नाम भवति । मन्नन्त, दामिनी, सामिनी, प्रथिमिनी, महिमिती, धमिणी (वमिणी)। कमिणी, मान्त-प्रथमिनी, भामिनी, कामिनी, यामिनी, सोमिनी, अब्जादि, अब्जिनी, कमलिनी, सरोरुहिणी, सरोजिनी, अम्भोजिनी, राजीविनी, अरविन्दिनी, पङ्कजिनी, पुटकिनी, नालीकिनी, मृणालिनी, बिसिनी, तामर सिनी, यवासिनी। नाम्नीति किम् ? सामवान्, सोमवान्, अब्जवान् ।६७।
न्या० स० मन्म०-प्रत्ययाप्रत्ययोः इति न्यायात् मन्नन्तेभ्य इत्युक्तेऽपि मन्प्रत्ययान्तेभ्य इति दृश्यं अब्जिन्यादयः कमलिनीवाचकाः यवासिनी त्वौषधिः । हस्तदन्तकराज्जातौ ॥ ७. २. ६८ ॥
हस्त दन्त कर इत्येतेभ्यो मत्वर्थे इन्नेव भवति समुदायेन चेज्जातिरभिधीयते । हस्तोऽस्यास्तीति हस्ती, दन्ती, करी। जाताविति किम् ? हस्तवान्, दन्तवान् करगन् नरः । ६८।
न्या० स० हस्त०-ननु हस्ती इत्यादिभिर्जातिमानेवाभिधीयते न जातिस्तत्कथमनेन ? सत्यं, जातिमत्युच्यमाने गौणवृत्त्या जातिरप्युच्यते, गौणमुख्यन्यायस्तु मुख्यया वृत्त्या
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[पाद. २. सू. ६९-७१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२७३ इन्प्रत्ययान्तेन हस्त इत्यादिना प्रतिपादनासंभवान्नाद्रियते, यद्वा निर्विशेषं न सामान्यं भवेच्छशविषाणवदित्ति न्यायात् समुदायेन चेज्जातिरभिधीयते इत्युक्तेऽपि जातिमती व्यक्तिरुच्यत इति द्रष्टव्यं, निर्विशेषायास्तस्या जातेः असत्कल्पत्वात् ।
वर्णाद्रह्मचारिणि ॥७. २. ६९ ॥ __ वर्णशब्दान्मत्वर्थे इन् भवति ब्रह्मचारी वेदभिधेयो भवति । वर्णशब्दो ब्रह्मचर्यपर्यायः, वर्णो ब्रह्मचर्यमस्यास्ति बर्णी, ब्रह्मचारीत्यर्थः। अन्ये तु वर्णशब्दो ब्राह्मणादिवर्णवचनः । तत्र ब्रह्मचारीत्यनेन शूबव्यवच्छेदः क्रियते इति मन्यन्ते तेन त्रैवणिको वर्णीत्युच्यते । स हि विद्याग्रहणार्थमुपनीतो ब्रह्म चरति न शूद्र इति । ब्रह्मचारिणीति किम् ? वर्णवाम् ।६९।
न्या० स० वर्णात्-त्रैवर्णिक इति त्रिषु वर्णेषु भवः अध्यात्मादिभ्य इतीकण विधान सामर्थ्यात् 'द्विगोरनपत्य' ६-१-२४ इत्यनेन न लुप्, प्रयोजनम्' ६-४-११५ इति वेकण् प्रागजितीयत्वाभावात् 'द्विगोरनपत्ये' ६-१-२४ इत्यस्य लुपः प्रसङ्ग एवं नास्ति । विद्याग्रहणार्थमिति एवमुक्तेऽपि वेदविद्याग्रहणार्थमिति व्याख्येयम् ।। पुष्करादेर्देशे ॥ ७. २. ७० ॥
पुष्करादिभ्यो मत्वर्थे इन्नेव भवति देशेऽभिधेये । पुष्करिणी, पद्मिनी । देश इति किम् ? पुष्करवान हस्ती । · पुष्कर, पद्म, उत्पल, तमाल, कुमुद, कैरव, नल, कपिस्थ, बिस, मणाल, कर्दम, शालूक, विवर्ह, करीष, शिरीष, यवास, यबाष, यव, माष, हिरण्य, तट, तरङ्ग, कल्लोल इति पुष्करादिः । कथं कुमुवती सरसी कुमुद्वान् हृदः नड़वान् नड्वलमिति ? ' नडकुमुद'-(६-२-७४) इत्यादिना चातुरथिकेन मतुना भविष्यति १७०।
न्या० स०-पुष्क०-पुष्करिणी, पद्मिनी च देशविशेषौ, यवासशब्दोऽब्जादिगणे पुष्करादिगणे चाधीतस्तत्रौषधौ पूर्वसूत्रं प्रवर्तते देशविशेषे विदमिति विवेकः । कथमिति अत्र गणपाठात् कुमुदिनी इत्येव प्राप्नोतीत्याशङ्का ।
सूक्तसाम्नोरीयः ।। ७. २.७१ ॥
सूक्ते सामनि चाभिधेये मत्वर्थे ईयः प्रत्ययो भवति, मत्वादीनामपवादः । अच्छावाक् शब्दोऽत्र सूक्तेऽस्ति अच्छावाकीयम्, मैत्रावरुणीयम्, साम्नि, यज्ञायज्ञीयम्, अशनापिपासीयम्, वारतन्तवीयम् साम । अथास्यवामीयं सूक्त कयानश्चित्रीयं सामेत्यत्र 'ऐकायें' (३-२-८) इति विभक्तिलोपः कथं न भवति । उच्यते, अस्यवामादयः सूक्तसामस्थानामनुकार्याणामखण्डा एवानु
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२७४
बृहदृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० २. सू० ७२-७५ ] करणशब्दाः नात्र विभक्तिरिति लुप् न भवति । अत एव प्रथमान्ततापि न विरुयते । सूक्तसाम्नी ग्रन्थविशेषौ ।७१।।
न्या० स० सूक्त०-अत एव प्रथमान्ततापीति यत एवामी अखण्डा अनुकरणशब्दा अत एव तेनैवानुकार्येणार्थनार्थवत्त्वान्नामत्वे सति प्रथमान्तताप्यविरुद्धैवेत्यर्थः ।
लुब वाध्यायानुवाके ॥ ७. २. ७२ ॥ __ अध्यायेऽनुवाके चाभिधेये मत्वर्थेय ईयस्तस्य लुब् वा भवति । अत एव लुब्वचनादध्यायानुवाकयोरीयोऽनुमीयते । एतावपि ग्रन्थविशेषौ । गर्दभाण्डशब्दोऽस्मिन्नध्यायेऽनुवाके वास्तीति गर्दभाण्डः गर्दभाण्डीयोऽध्यायोऽनुवाको वा। एपं दीर्घजीवितिः, दीर्घजीवितीयः, पलितस्तम्भः, पलितस्तम्भीयः, पलितः, पलितीयः, स्तम्भः, स्तम्भीयः, उच्छिष्टः, उच्छिष्टीयः, द्रुमपुष्पः, द्रुमपुष्पीयः ॥७२॥
न्या० स० छब् वा अध्यायानुवाकयोरर्थान्तरत्वात् पूर्वेण न प्राप्नोतीत्याहअत एवेति। विमुक्तादेरण् ।। ७. २. ७३ ॥
विमुक्तादिभ्यो मत्वर्थेऽध्यायानुवाकयोरभिधेययोरण प्रत्ययो भवति । विमुक्तशब्दोऽस्मिन्नध्यायेऽनुवाके वास्ति वैमुक्तः । दैवासुरः ।।
विमुक्त, दैवासुर, रक्षोसुर, उपसद्, उपसद, परिसारक, वसु, मरुत्, सत्वत, सत्वन्तु, दहि, वयस्, हविर्धान, महित्री, सोमापूषन, इडा, इला, अग्नाविष्णू, उर्वशी, दशार्ण, वसुमन्तु, पत्नीवन्तु, वर्हवन्तु, (सु) वृत्रहन्, पतत्रिन्, सुपर्ण इति विमुक्तादिः ।७३।
न्या० स० विमु०-सोमापूषन्निति अत्र 'वेदसहश्रुत' ३-२-४१ इति पूर्वपदस्य आत्वम्। घोषदादेरकः ॥ ७. २. ७४ ॥
घोषदित्येवमादिभ्यो मत्वर्थेऽध्यायानुवाकयोरभिधेययोरकः प्रत्ययो भवति । घोषच्छब्दोऽस्मिन्नस्ति घोषदकः, गोषदकः, इषेत्वकः ।
घोषद, गोषद्, इषेत्वा, मातरिश्वन्, देवस्यत्वा, पत्वा, देवीराप, कृष्णोस्य, खरेष्ठा, देविधीया, रक्षोहण, अञ्जन, प्रतूर्त, उशान, कृशानु, सहस्रशीर्षन्, वाचस्पति, स्वाहा, प्राण इति घोषदादिः ।७४। प्रकारे जातीयर् ॥ ७. २. ७५ ॥
तदस्येति वर्तते, तदिति प्रथमान्तादस्येति षष्ठ्यर्थे जातीयर् प्रत्ययो
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पाद. २. सू. ७६-७७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२७५ भवति यत्तत्प्रथमान्तं तच्चेत्प्रकारो भवति । सामान्यस्य भिद्यमानस्य यो विशेषो विशेषान्त रानुप्रवृत्तः स प्रकारः । पटुः प्रकारोऽस्य पटुजातीयः, मदुजातीयः, यज्जातीयः, तज्जातीयः, नानाभूतः प्रकारोऽस्य नानाजातीयः, एवं प्रकारोऽस्य एवंजातीयः, अस्येति षष्ठ्यर्थे विधानात् प्रकारवति जातीयर विज्ञायते । ततः प्रकारमात्रभाविथाथमन्तादपि जातीयर् प्रत्ययो भवति । यथाजातीयः, तथाजातीयः, कथंजातीयः, इत्थं जातीयः । रित्करणं 'रिति' (३-२-५८) इत्यत्र विशेषणार्थम् ।७५।
न्या० स० प्रका०-सामान्यस्य पुरुषरूपस्य भिद्यमानस्य पटुजडादिभेदेन विशेष्यमाणस्य यो विशेषो पटुत्वादिरित्यर्थः।
विशेषान्तरानुप्रवृत्त इति स विशेषो द्विप्रकारो विशेषान्तरेष्वनुप्रवृत्तोऽनुस्युतः संबद्ध इति यावत् यथाऽयं पटुम॒दुः पण्डित इत्यादि, अयं हि पटुत्वलक्षणो विशेषो बहूनामापि तथा भावात् सभेदेषु विशेषान्तरेष्वनुप्रवृत्तो भवति, अपरश्चाननुप्रवृत्तो यस्य भेदा न सन्ति यथा अमूर्तसामान्यस्याकाशमिति भेदः, आकाशमिति थेकं द्रव्यं, न तस्य भेदाः सन्ति येन विशेषो विशेषान्तरेष्वनुप्रवृत्तः स्यात् , तत्र यो विशेषो विशेषान्तरेष्वनुप्रवृत्तः स प्रकार उच्यते ।
कोण्वादेः ॥ ७. २. ७६ ॥ ___ अणु इत्येवमादिभ्यस्तदस्य प्रकारे इत्यस्मिन् विषये कः प्रत्ययो भवति । जातीयरोऽपवादः । अणुः प्रकारोऽस्य अणुकः पटः, स्थूलकः पटः, अणुका माषाः, स्थूलका माषाः, माषकं हिरण्यम्, इषुका, गोलिका।
अणु. स्थूल, माष, इषु, इक्षु, वाद्य, तिल, काल, तिलकाल, पत्र मूल, पत्रमूल, पर्णमूल, कुमारीपुत्र, कुमारी, श्वशुर, मणि, बृहत्, चञ्चत्, चन्द्र, एरण्ड, पुण्ड इत्यण्वादिः ।७६। • जीर्णगोमूत्रावदातसुरायवकृष्णाच्छाल्याच्छादनसुराहिव्रीहितिले
।। ७. २.७७॥ जीर्ण, गोमूत्र, अवदात, सुरा, यव, कृष्ण इत्येतेभ्यो यथासंख्यं शालिआच्छादनसुराऽहिव्रीहितिलेषु वाच्येषु तदस्य प्रकार इत्यस्मिन्विषये कः प्रत्ययो भवति ।
जीर्णाच्छालिषु, जीर्णः प्रकार एषां जीर्णकाः शालयः । गोमूत्रादाच्छादने, गोमूत्रप्रकारं गोमूत्रकम् गोमूत्रवर्णमाच्छादनम् । अवदातात्सुरायाम्, अवदातप्रकारा अवदातिका सुरा, सुराया अहौ, सुराप्रकारः सुरावर्णः सुरकोऽहिः । यवात् व्रीहिषु, यवप्रकारा यवका व्रोहयः । कृष्णात्तिलेषु, कृष्णप्रकाराः कृष्णकास्तिलाः । शाल्यादिष्विति किम् ? जीर्णजातीयोऽन्य इत्यादि ।७७।
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२७६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. २ सू० ७८-८१ ] न्या. स. जीर्ण०-गोमूत्रप्रकारमिति अर्थकथनमिदं वाक्यं तु गोमूत्र प्रकारोऽस्येत्येवं मार्यम् , एवमवदातप्रकारेत्यादिष्वपि ज्ञेयम् । भूतपूर्व पचरट् ॥ ७. २. ७८ ॥
अतः परंप्रायः स्वार्थिकाः प्रत्ययाः। तत्रोपाधिः प्रकृते विज्ञायते स प्रत्ययस्य धोत्यो भवति । पूर्वं भूतो भूतपूर्वः, भूतपूर्वेऽर्थे वर्तमानान्नाम्नः पचरट् प्रत्ययो भवति स्वार्थे । भूतपूर्व आढय आढयचरः, दर्शनीयचरः । टकारो ड्यर्थः । पकारः पुंवद्भावार्थः, भूतपूर्वा आढया आढयाचरी, दर्शनीयचरी । भूतशब्दो वर्तमानेऽप्यस्ति पूर्वशब्दो दिगादावपीति अतिक्रान्तकाल. प्रतिपत्त्यर्थमुभयोरुपादानम्। प्रत्यासत्तेः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य भूतपूर्वत्वेऽयं प्रत्यय इतीह न भवति । अर्जुनो माहिष्मत्यां भूतपूर्व इति ।७८॥
न्या० स० भूतपूर्व-तत्रोपाधिरिति तत्र तेषु स्वार्थिकप्रत्ययेषु प्रकान्तेषु उपाधिर्विशेषणं भूतपूर्वादि प्रकृतेरेव सकाशादवसीयते केवलं प्रत्ययेन द्योत्यते न तूच्यते ।
- प्रत्यासत्तेरिति अत्र हि नार्जुनत्वस्यार्जुनशब्दाभिधेयस्य भूतपूर्वत्वम्, न हि अर्जुना माहिष्मत्यामर्जुनेन भूतपूर्व इत्यत्र विवक्षाऽपि तु राजत्वेनेत्यत्र न भवति । गोष्ठादीनञ् ॥ ७. २. ७९ ॥
गोष्ठशब्दादतपूर्वत्वे ईनञ् प्रत्ययो भवति । गोष्ठो भूतपूर्वो गौष्ठीनो. देशः ७९। षष्या रूप्यपचरट् ॥ ७. २. ८०॥
षष्ठयन्ताद्भूतपूर्वेऽर्थे रूप्यप्चरट् प्रत्ययौ भवतः । भूतपूर्व इतीह प्रत्ययार्थः । देवदत्तस्य भूतपूर्वो देवदत्तरूप्यो गौः, देवदत्तचरः, पचरटित्यत्र पकारटकारी पूवद्भावङीप्रत्ययाथौं । देवदत्तचरी।८०।
न्या० स० षष्ठ्या०-प्रत्ययार्थ इति प्रकृत्यर्थस्तु पूर्वसूत्रेणैव सिद्धः सर्वविभक्त्यन्तत्वात् । देवदत्तचरीति देवदत्ताया भूतपूर्वा, असंज्ञाशब्दोऽयमन्यथा ‘तद्धिताक' ३-२-५४ इति निषेधः स्यात् ।
व्याश्रये तसुः ॥ ७. २. ८१॥ __नानापक्षाश्रयो व्याश्रयः, षष्ठयन्ताव्याश्रये गम्यमाने तसुः प्रत्ययो भवति । उकारोऽधण्तस्वाद्याशसः (१-१-३२) इत्यत्र विशेषणार्थः । देवा अर्जुनतोऽभवन, आदित्यः कर्णतोऽभवत् । अर्जुनकर्णयोर्विवदमानयोरर्जुनस्य पक्षे देवाः कर्णस्य पक्षे आदित्योऽभवदित्यर्थः । यत्तोऽभवत् यस्य पक्षे इत्यर्थः । तत्तोऽभवत् तस्य पक्षे इत्यर्थः । एवं त्वत्तोऽभवत्, मतोऽभवत् । व्याश्रय इति किम् ? वृक्षस्य शाखा ।८१।
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[ पाद. २. सू. ८२-८६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२७७
न्या० स० व्याश्र०-यत्त इति तसोरुकारानुबन्धत्वात् 'आवरः' २-१-४१ इति न भवति । रोगात्प्रतीकारे ॥ ७. २. ८२ ॥
सेगवाचिनः षष्ठचन्तात्प्रतीकारेऽपनयने गम्यमाने तसुः प्रत्ययो भवति । प्रवाहिकातः कुरु, प्रच्छदिकातः कुरु, अस्य रोगस्य चिकित्सां कुर्वित्यर्थः । ८२॥ पर्यभेः सर्वोभये ॥ ७, २, ८३ ॥
परि अभि इत्येताभ्यां यथाक्रमं सर्वोभयार्थे वर्तमानाभ्यां तसुः प्रत्ययो भवति । परितः सर्वत इत्यर्थः । अभितः उभयत इत्यर्थः । सर्वोभय इति किम् ? वृक्षं परि, वृक्षमभि ।८३१ आद्यादिभ्यः ।।७. २.८४ ।।।
आधादिभ्यः संभवाद्विभक्त्यन्तेभ्यस्तसुः प्रत्ययो भवति । आदौ आदे आदित्तः, एवं मध्यतः, अन्ततः, अप्रतः, वक्षस्तः, पार्वतः, पृष्ठतः, मुखतः, सर्वतः, विश्वतः, उभवतः, अन्यतः, पूर्वतः, एकतः, इत्तः । प्रमाणेन प्रमाणाद्वा प्रमाणतः, पृष्ठेन पृष्ठतोऽक सेवेत । एवं पार्श्वतः, इतः, दुष्ट: शब्दः स्वरतो वर्णतो वा, शब्दतः, अर्थतः, अधिधानतः, येन बस्मिन्वा यतः, ततः, पृषोदरादित्वात् दलोपः। आधादयः प्रयोगगम्याः ।।४।
न्या० स. आद्या०-दलोप इति 'आद्वेरः' २-१-४१ इति तु न तसादावित्यधिकारात्, अयं तु उदनुबन्धः । क्षेपातिग्रहाव्यथेष्वकर्तुस्तृतीयायाः ॥ ७. २. ८५ ॥
तृतीयान्तादकर्तृवाचिनः क्षेपातिग्रहाच्यथाविषये तसुः प्रत्ययो भवति । क्षेपो निन्दा, वृत्तेन क्षिप्तः वृत्ततः क्षिप्तः, वृत्तेन निन्दित इत्यर्थः । अतिक्रम्य ग्रहणमतिग्रहः । वृत्तेनातिगृह्यते वृत्ततोऽतिगृह्यते । साधुवृत्तोऽन्यानतिक्रम्य वृत्तेन गृह्यते । साध्वाचार इति संभाव्यत्त इत्यर्थः । अतिशयेन बा ग्रहणमतिग्रहः । तत्रातिशयेन गृह्यत इत्यर्थः । अचलनमक्षोभणमन्वथा अभीतिर्वा । वृत्तेन न व्यथते वृत्ततो न व्यथते। वृत्तेन न चलति न बिभेति चेत्यर्थः । क्षेपातिग्रहाव्यथेष्विति किम् ? वृत्तेन भिन्नः । अकर्तु रिति किम् ? देवदत्तेन क्षिप्तः । तृतीबाया इति किम् ? देवदत्तं क्षिपति ८५। पापहीयमानेन ।। ७. २. ८६ ।।
अकर्तृवाचिनस्तृतीयान्तात्पापहीयमानाभ्यां योगे तसुः प्रत्ययो भवति । वत्तेन पापः वृत्ततः पापः, वृत्तेन हीयते वृत्ततो हीयते । शब्दतो हीनः
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२७८ ।
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० ८७-८९ ] स्वरतो वर्णतो वा । पापहीयमानेनेति किम् । चारित्रेण शुद्धः । अकर्तु रित्येव ? चैत्रेण हीयते । तृतीयाया इत्येव ? ग्रामे हीयते । क्षेपस्याविवक्षायां तत्त्वाख्याने यथा स्यादिति वचनम् ।८६॥
न्या० स० पाप० पापहीयमानाभ्यां योगे क्षेपस्यः प्रतीयमानत्वात् पूर्वेणैव सिध्यतीत्याहतत्वाख्याने इति ।
प्रतिना पञ्चम्याः ॥७. २.८७ ।। .. प्रतिना योमे या पञ्चमी विहिता तदन्तात्तसुः प्रत्ययो भवति वा । अभिमन्युरर्जुनात्प्रति अभिमन्युरर्जुनतः प्रति । अर्जुनस्य प्रतिनिधिरित्यर्थः । माषानस्मै तिलेभ्यः प्रति यच्छति तिलतः प्रति यच्छति । परम्या इति किम् ? वृक्षं प्रति विद्योतते ।८७. अहीयरुहोऽपादाने ॥ ७. २, ८८ ।।
अपादाने या पञ्चमी विहिता तदन्तातसुः प्रत्ययो भवति वा तच्चेदपादानं हीयम्होः संबन्धि न भवति । ग्रामादागच्छति ग्रामत. आगच्छति । चौराद्विभेति चौरतो बिभेति । अहीयरुह इहि किम् ? सार्थात् हीयते सार्थाद्धीनः, पर्वतादवरोहति । सार्थादिति कर्तुरपायेऽवधिविवक्षा, सार्थेन हीयते देवदत्तः इत्यर्थः । हीयते इति कर्मकर्तरीत्यन्ये । सात्स्वियमेव हीयते देवदत्त इत्यर्थः। हीयेति क्यान्तस्य जहानिर्देशो जिहीते इत्यस्य व्युवासार्थः, तेन तत्र प्रतिषेधो न भवति । भूमित उज्जिहोते। हागिति निर्देशेनैव हाङो नित्तिसिद्धौ हीयेति निर्देशो यत्रैव भावे कर्मणि कर्मकर्तरि च जहातेः प्रयोगस्तत्रैवापायविवक्षा नान्यत्रेत्येवमर्थम्, तेन सार्थाज्जहातीति न भवति । अपादान इति किम् । ऋते धर्मात्कुतः सुखम् । आ पाटलिपुत्रादृष्टो देवः ।८८
न्या० स० अही०-हीयत इति जहाति सार्थो देवदत्तं, स एवं विवक्षते, नाहं जहामि किंतु स्वयमेव हीयते ।
तेन सार्थाज्जहातीति न भवतीति सार्थो जहातीति वक्तव्ये । किमद्यादिसर्वाद्यवैपुल्यवहोः पित्तम् ॥ ७. २. ८९ ॥
पञ्चम्या इत्यनुक्तते, किंशब्दात् व्यादिजितेभ्यः सर्वादिभ्योऽवैपुल्यवाचिनो बहुशब्दाच्च पञ्चम्यन्तात्तस् प्रत्ययो भवति स च पित् । किम, कस्मात् कुतः, सर्वादि, सर्वतः, विश्वतः, यतः ततः बहु, बहुभ्यः बहुतः। किमः सर्वादित्वेऽपि
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[ पाद २. सू. ९०-९१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २७९ ड्यादिवर्जनान्न प्राप्नोतीति पृथगुपादानम् । व्यादिवर्जनं किम् ? द्वाभ्याम्, त्वत्, मत्, युष्मत, अस्मत्, भवतः । कथं द्वितः त्वत्तः मत्तः युष्मत्तः अस्मत्त इति । 'अहीयरुहोऽपादाने' (७-२-८८) इति भविष्यति । अनेन हि तविधाने ' आ द्वेरः' (२-१-४१) इत्यत्वं स्यात् । तसावप्यत्वमिच्छन्त्येके । बहोर्वैपुल्य प्रतिषेधः किम् । बहोः सूपात् । किमयादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोरिति किम् । वृक्षाद्विना। किंसर्वादिवहोश्च तसुविषयेऽपि परत्वादयमेव तस् । यतः प्रति, ततः प्रति, यत आगच्छति, तल आगच्छति । निरनुबन्धप्रत्ययान्तरकरणमत्त्वार्थम् । पित्करणं पुवद्धावार्थम् । बह्वीभ्यो बहुतः, पञ्चम्यन्तमात्रादयं विधिः । सर्वतो हीयते, सर्वतो रोहति, सर्वतो हेतोः, सर्वतः पूर्वः ।८९।
न्या० स० किम-द्विरादिर्यस्य द्वयादिस्तत्तो नया योगः, सर्व आदिर्यस्य सर्वादिः, अव्यादिश्चासौ सर्वादिश्च अद्व्यादिसर्वादिः, अवैपुल्ये बहुः अवैपुल्यबहुः, किम् च अव्यादिसर्वादिश्च अवैपुल्यबहुश्च, तस्मात् तसृषिषयेऽपीति 'प्रतिना पञ्चम्याः' ७-२-८७ “अहीयरुहोपादाने' ७-२-८८ इति विहिवस्य । पञ्चम्यन्तमात्रादिति न त्वपादान एव विहितपञ्चम्यन्तात् । इतोऽतः कुतः ॥ ७. २. ९० ॥
इतस् अतस् कुतस् इत्येते शब्दा निपात्यन्ते । इत इति इदमस्तसि इः सर्वादेशो निपात्यते । अस्मादितः, इमकस्मादित:, अत इति एतदः अः सर्वादेशः । एतस्मादतः, एतकस्मादतः। कुत इति किमः कुरित्यादेशः, कस्मात्कुतः । इह पञ्चम्या इति नानुवर्तते । लक्षणान्तरेण तसि तसौ वा सिद्धे आदेशमा विधीयते । तेनोत्तरसूत्रेण तसि इतोभवान् अतोभवान् आद्यादितसौ इत आस्यतामिति भवति १९०।
भवत्वायुष्मदीर्घायुर्देवानांप्रियैकार्थात् ॥ ७. २. ९१ ॥ ___ भवतु आयुष्मत्त् दीर्घायुस् देवानांप्रिय इत्येतैः समानाधिकरणात किमध्यादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोः सर्वविभक्त्यन्तात्पित्तस् प्रत्ययो वा भवति । स भवान् ततोभवान्, तौ भवन्तौ ततोभवन्तौ, ते भवन्तः ततोभवन्तः तं भवन्तं ततोभवन्तम्, तेन भवता ततोभवता, तस्मै भवते ततोभवते, तस्माद्भवतः ततोभवतः, तस्य भवतः ततोभवतः । एवमयं भवान् इतोभवान् को भवान् कुतोभवान् इत्यायुदाहार्यम् । तथा स आयुष्मान ततआयुष्मान्, स दीर्घायुः ततोदीर्घायुः, स देवानांप्रियः ततोदेवानांप्रियः, अयमायुष्मान् इतआयुष्मान्, क आयुष्मान् कुतआयुष्मान, एवं दीर्घायुर्देवानांप्रियाभ्यामपि । भवस्वित्युकारः
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२८० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते पाद. २ सू० ९२-९३ ] सर्वादिपरिग्रहार्थः । तेन मतुशत्रन्तव्युदासः ।९१। - न्या० स० भवत्वा०-उकारोपादानात् मुख्यवृत्त्या उदनुबन्धस्य भवतुशब्दस्य सर्वादिपठितस्य औणादिकत्वात् अव्युत्पन्नस्य प्रहणं, न तु भशब्दात् मतौ भवतुशब्दस्य, अत्र प्रत्ययस्यैव उदित्त्वं शब्दस्य तूपचारेण, यद्वा श्रुतानुमितेति न्यायात् । त्रप् च ॥ ७. २, ९२ ॥
भवत्वायुष्मदीर्घायुर्देवानांप्रियः समानाधिकरणात् किमब्यादिसर्वांद्यवैपुल्यबहोः सर्वविभक्त्यन्तात् त्रप् प्रत्ययौ वा भवति । स भवान् तत्रभवान्, तो भवन्तौ तत्रभवन्तौ, ते भवन्तः तत्रभवन्तः, तं भवन्तम् तत्रभवन्तम्, तेन भवता तत्रभवता, तस्मै भवते तत्रभवते, तस्माद्भवतः तत्रभवतः, तस्य भवतः तत्रभवतः, तस्मिन् भवति तत्रभवति । एवमायुष्मद्दीर्घायुर्देवानांप्रिवरप्युदाहार्यम् । योगविभागश्चकारेण पुनस्तस्विधानार्थः । तेन सप्तम्यन्तादपि तस् भवति । ततोभवति, तत्रभवति, अन्यथा हि ततः 'सप्तम्या:' (७-२-९४) इति परत्वात्रवेव स्यात् । रूढिशब्दाश्ते ततोभवदादयः समुदायाः पूजावचना यथाकथंचित व्युत्पाद्यन्ते । अत एव पुनस्त्यदादिरनुप्रयुज्यते । स तत्रभवान, तं तत्रभवन्तम् । केचित्तु भवच्छन्दस्यामन्त्रणे सौ भो इत्यादेशं कुर्वन्ति तन्मले ततो भोः तत्रभोः इत्यत्रापि भवति । केचित्तु भवदाययोगेऽपि ऋप्तसाविच्छन्ति । क गमिष्यसि कं देशं गमिष्यसीत्यादि ।१२।।
न्या० स० त्रफ्य-अत एवेति यद्येते रूढिशब्दा न स्युरवयवार्थयोगेन प्रवर्तेरन् तदा स तत्र भवान् सं तत्रभवन्तमिति पुनस्तदः प्रयोगोऽनुपपन्नः स्यात् , प्रकृत्यैव तदर्थस्यावगतत्वात् , रूढिशब्दत्वे तु न तत्रावयवार्थोऽस्ति, किंतु समुदायोऽयं विशिष्टः पूजां गमयतीति तदर्थप्रतिपादनाय पुनस्तच्छब्दप्रयोग उपपद्यते । क कुत्रात्रेह ।। ७. २. ९३ ।। . .
क, कुत्र, अत्र, इह इत्येते शब्दावबन्ता निपात्यन्ते । क्वेति किमः कादेशः, त्रपश्चाकारः । कस्मिन् क्व, कुत्रेति किमः कु इत्यादेशः, कस्मिन कुत्र, अत्रेति एतदोऽकारादेशः । एतस्मिन् अत्र, एतकस्मिन् अत्र, इहेति इदम इकारादेशः अपश्च हादेशः। अस्मिन् इह, इमकस्मिन्निह । एषु सप्तम्याः' (७-२-९४) इति अप् । अप्मात्रे चैते आदेशा विधीयन्ते तेन भवदादियोगेऽपि भवन्ति । क्वभवान्, कुत्रभवान्, अत्रभवान्, इहभवान्, क्वायुष्मान् कुत्रायुष्मान्, अत्रायुष्मान्, इहायुष्मान्, क्वदीर्घायुः, कुत्रदीर्घायुः, अत्रदीर्घायुः इहदीर्घायुः इत्यादि ।९३।
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[पाद. २. सू ९४-९९ ) श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२८१
न्या० स० क्वकु०-क्वभवानिति ‘त्रप् च' ७-२-९२ इत्यनेन सर्वविभक्तिद्वारेणापि त्रपायोगे क्वाद्यादेशः।
सप्तम्याः ॥ ७. २. ९४ ॥ ___ सप्तम्यन्तात् किमब्यादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोस्त्रप् भवति । कस्मिन्कुत्र, सर्वत्र, तत्र बहुषु बहुत्र । पकारस्य पुवद्भावार्थत्वात् बह्वीषु बहुत्र ।९४। किंयत्तत्सर्वेकान्यात्काले दा ।। ७. २. ९५ ॥
कियत्तत्सर्व एक अन्य इत्येतेभ्यः सप्तम्यन्तेभ्यः काले वाच्ये दा प्रत्ययो भवति । कस्मिन् काले कदा, यदा, तदा, सर्वदा एकदा अन्यदा। काल इति किम् ? क्व देशे ।९५। . सदाधुनेदानींतदानीमेतहि ॥ ७. २. ९६ ॥
'सदा, अधुना, इदानीं, तदानीम्, एतहि, इत्येते शब्दाः काले वाच्ये निपात्यन्ते । सदेति सर्वशब्दाद्दा प्रत्ययः सभावश्चास्य । सर्वस्मिन् काले सदा, सर्वदेत्यपि पूर्वेण | अधुनेति इदमो धुना प्रत्ययोऽकारादेशश्च । अस्मिन्कालेऽधुना, इदानीमिति इदमो दानी प्रत्ययः इकारादेशश्च, मस्मिन्काले इदानीम्, तदानीमिति तदो दानीम् प्रत्ययः, तस्मिन् काले तदानीम्, एतौति इदमोहिः प्रत्ययः एतादेशश्च, अस्मिन्काले एतर्हि ।९६॥ सद्योऽद्यपरेद्यव्यह्नि ॥ ७. २. ९७ ॥
सद्यस् अद्य परेधवि इत्येतेऽह्नि काले निपात्यन्ते । सद्य इति समानशब्दात् सप्तम्यन्ताह्नि काले वर्तमानात् यस् प्रत्ययः समानस्य च सभावो निपात्यते । समानेऽह्नि, सद्यः, अद्य इति अद्येति, इदं शब्दात् द्यः प्रत्ययः अकारादेशश्चास्य, अस्मिनहनि अद्य । परेद्यवि इति परशब्दात एद्यवि प्रत्ययः, परस्मिन्नहनि परेद्यवि, सद्य इति केचित्कालमात्रे निपातयन्ति ।९७। पूर्वापराधरोत्तरान्यान्यतरेतरादेद्युम् ॥ ७. .२ ९८॥
पूर्व, अपर, अधर, उत्तर, अन्य, अन्यतर, इतर, इत्येतेभ्यः सप्तम्यन्तेभ्योऽह्नि काले वर्तमानेभ्य एधुस् प्रत्ययो भवति । पूर्वस्मिन्नहनि पूर्वेद्यः, अपरेयुः, अधरेयुः, उत्तरेयुः, अन्येद्युः, अन्यतरेयुः, इतरेयुः ।९८। उभयात् घुसूच ॥ ७. २. ९९ ॥
उभयशब्दादति काले द्यस् चकारादेास् च प्रत्ययो भवति । उभयस्मिन्नहनि उभयद्युः, उभयेयुः ।९९।
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२८२ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
ऐषमः परुत्परारि वर्षे ॥ ७. २. १०० ॥
ऐषमस्, परुत्, परारि इत्येते वर्षे संवत्सरे काले निपात्यन्ते । ऐषमसिति इदम् शब्दात्सप्तम्यन्ताद्वर्षे वर्तमानात् समसिण प्रत्ययः इदमश्वकारादेशः । अस्मिन् संवत्सरे ऐषमः, इमकस्मिन् संवत्सरे ऐषमः । परुदिति पूर्वशब्दात् परशब्दाद्वा उत् प्रत्ययस्तस्य च पर इत्यादेशः । पूर्वस्मिन् परस्मिन् वा संवत्सरे परुत् । परारीति पूर्वतरशब्दात्परतरशब्दाद्वा आरिप्रत्ययः तस्य च परादेश: पूर्वतरे परतरे वा संवत्सरे परारि ॥१००॥
अनद्यतने र्हिः ।। ७. २. १०१॥
[ पाद. २ सू. १००-१०३ ]
सप्तम्यन्तादनद्यतने काले वर्तमानात् यथासंभवं किमयादिसर्वाद्यवैपुल्य बहोः हिः प्रत्ययो भवति । कस्मिन्ननद्यतने काले कहि, यहि, तहि, अन्यहि । एतस्मिन् काले एतर्हि, एतदः साको नेष्यते । अमुष्मिन् काले अमुर्हि, इदमस्तु अनेन नेष्यते । बहुषु कालेषु बहुहि । कियत्तदेतदन्येभ्य एवेच्छन्त्यन्ये । काल इत्येव ? यस्मिन्ननद्यतने भोजने यत्र । अनद्यतन इति किम् ? यस्मिन् काले यदा, अनद्यतनेऽपि काले कालमात्र विवक्षायाम् दादिः प्रत्ययो भवति । कदा, यदा तदा तदानीम्, अन्यदा सप्तम्यर्थमात्रविवक्षायां त्रवपि भवति । अमुत्र काले । १०१ ।
न्या० स० अन० - अनेन नेष्यते इति किंतु 'सदाधुनेदानींतदानीम् ' ७-२-९६ इति सामान्यकाले भवति । बहुषु कालेध्विति बहुवचनेनावैपुल्यं दश्यते ।
प्रकारे था । ७. २. १०२ ॥
सप्तम्या इति निवृत्तम् । यथासंभवं विभक्तिः । सामान्यस्य भिद्यमानस्य भेदान्तरानुप्रवृत्तो भेदः प्रकारः तस्तिन्वर्तमानात् किमव्यादिसर्वाद्यवैपुल्यबहोः था प्रत्ययो भवति । सर्वेण प्रकारेण सर्वथा, यथा, तथा, उभयथा, अन्यथा, अपरथा, इतरथा । बहोस्तु परत्वाद्धा भवति । १०२ ।
न्या० स० प्रका० - बहोस्तु परत्वादिति 'संख्याया धा ७-२-१०४ इत्यनेन ।
कथमित्थम् ॥ ७. २. १०३ ॥
कथमित्थमिति प्रकारे निपात्यते कथमिति किमस्थापवादस्थम् निपात्यते । केन प्रकारेण कथम्, इत्थमिति इदम् एतदो वा थम् प्रत्यय इदादेशश्च अनेन एतेन वा प्रकारेण इत्थम् । १०३ ॥
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[ पाद. २. सू. ४] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२८३ संख्याया धा ॥ ७. २. १०४ ॥
संख्यावाचिनो नाम्नः प्रकारे वर्तमानाचा प्रत्ययो भवति । एकेन प्रकारेण एकधा। द्विधा, विधा, चतुर्धा, पञ्चधा, शतधा, बहुधा, गणधा, कतिधा, तावद्धा ।१०४। ___न्या० स० संख्या०-द्विधेति 'किमः कस्तसादौ च' २-१-४० इत्यत्रादिशब्दो व्यवस्थावाचीति थमवसाना एव तसादयो ग्राह्याः, तेनात्र धाप्रत्यये 'आद्वेरः' २-१-४१ इत्यत्वं न भवति तसाद्यभावात् । विचाले च ॥ ७. २. १०५॥
विचलनं विचालः, द्रव्यस्य पूर्वसंख्यायाः प्रच्युतिः संख्यान्तरापत्तिः एकस्यानेकीभावः अनेकस्य चैकीभावः, तस्मिन् गम्यमाने संख्यावाचिनो नाम्नी धाप्रत्ययो वा भवति । एको राशिौं क्रियते द्विधा क्रियते, विधा क्रियते । एको राशिौं भवति द्विधा भवति, त्रिधा भवति । एकं राशि द्वौ करोति, द्विधा करोति, त्रिधा करोति शतेन शतधा ।
'यदि मे यतमानाया वचनं न करिष्यसि ।
उन्मत्त शतवा मूर्धा तवैषोऽद्य फलिष्यति' ॥१॥ अनेक एकः क्रियते एकधा क्रियते । अनेक एको भवति एकधा भवति । अनेकमेकं करोति एकधा करोति । पञ्च राशयत्रयो द्वौ एको वा क्रियन्ते त्रिधा द्विधा एकधा वा क्रियन्ते । एवं त्रिधा, द्विधा, एकधा वा भवन्ति । त्रिधा, द्विधा, एकधा वा करोति । एवं बहुधा, गणधा, कतिधा, तावद्धा । चकार उत्तरत्र प्रकारे विचाले चेत्युभयोः समुच्चयार्थः ।१०५।
न्या० स० विचाले०-प्रकारे विचाले चेति प्रकारोऽवस्थितस्य धर्मिणो भवति, विचाले तु अवस्थित एव धर्मी (धर्मः ) पृथक्रियते । वैकाद् ध्यमञ् ॥ ७. २. १०६ ।।
एक इत्येतस्मात् संख्यावाचिनः प्रकारे वर्तमानाद्विचाले च गम्यमाने ध्यमञ् प्रत्ययो भवति वा। एकेन प्रकारेण ऐकध्यम्, एकधा भुङ्क्ते । अनेकमेकं करोति ऐकध्यं करोति, एकधा करोति । वाग्रहणं धार्थम् ।१०६।
न्या० स० वैका०-संख्यावाचिन इति अन्यादावप्यसौ वर्त्तते इति संख्याविशेषणं सार्थकम् । दिर्धमत्रेधी वा ॥७ २. १०७ ।।
द्वि, त्रि इत्येताभ्यां संख्यावाचिभ्यां प्रकारे वर्तमानाभ्यां विचाले च
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२८४ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० १०८-११२ ] गम्यमाने धमञ् एधा इत्येतो प्रत्ययौ वा भवतः । वचनभेदाद्यथासंख्यं नास्ति । द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां द्वैधम्, त्रैधम्, द्वेधा, त्रेधा भुङ्क्ते । वावचनात् द्विधाः त्रिधा । एक राशि द्वौ करोति द्वैधम्, त्रैधम्, द्वेधा त्रेधा, द्विधा, त्रिधा करोति ।१०७। तद्धति धण् ॥ ७. २. १०८ ॥
द्वित्रिभ्यां संख्यावाचिभ्यां तद्वति प्रकारवति विचालवति चाभिधेये धण् प्रत्ययो भवति । द्वो प्रकारौ विभागौ वा एषां द्वैधानि, त्रैधानि, राजद्वैधानि, राजद्वैधानि द्वैधीभावः, त्रैधीभावः ।१०८। ।
वारे कृत्वम् ॥ ७. २. १०९॥ ___ संख्याया इति वर्तते, वारो धात्वर्थस्यायोगपद्येन वृत्तिः, तत्कालो वा । तस्मिन्वर्तमानात्संख्याशब्दात् तद्वति वारवति धात्वर्थे क्रियायामर्थे कृत्वस् प्रत्ययो भवति । पञ्च वारा अस्य पञ्चकृत्वो भुक्त, षट्कृत्वः, शतकृत्व: सहस्रकृत्वोऽधीते । बहुकृत्वः, गणकृत्वः, कतिकृत्वः, तावत्कृत्वः। भुज्यर्थो वारवानिति भुज्यर्थस्य इदं विशेषणम् । तद्वतीत्येव ? भोजनस्य प्रञ्च वाराः। संख्याया इत्येव ? भूरयो वारा अस्य भोजनस्य ।१०९। ___ न्या. स. वारे०-तत्कालो वेति तस्य धात्वर्थस्यायोगपद्येन वृत्तेः कालः । इदं विशेषणमिति - पञ्चकृत्व इत्यादिकम् । भोजनस्य पञ्च वारा इति इह वारे पञ्चेति संख्याया वृत्तिरस्ति न तु वारवानुच्यते भोजनस्य वारेण संबन्धमात्रस्यैव विद्यमानत्वात् । दित्रिचतुरः सुच् ॥ ७. २. ११०॥
द्वित्रिचतुर् इत्येतेभ्यः संख्याशब्देभ्यो वारे वर्तमानेभ्यस्तद्वति सुच प्रत्ययो भवति, कृत्वसोऽपवादः।
द्वौ वारावस्य द्विभुक्त, त्रिभुङ्क्ते, चतुभुङ्क्ते । इह तु द्विस्तावान् प्रासादः द्विर्दशेति गम्यमानेऽपि वारे भवति । चकारः ‘सुचो वा' (२-३-१०) इत्यत्र विशेषणार्थः ।११०।। ___ न्या० स० द्वित्रि०-गम्यमानेऽपीति धात्वर्थस्यायोगपद्येन वृत्तिर्वारः इह तु न धात्वर्थस्य वृत्तिरपि तु दशेति संख्यार्थस्येत्याशङ्का । एकात्मकृच्चास्य ।। ७. २. १११ ॥
एकशब्दाद्वारे वर्तमानात्तद्वत्यभिधेये सुच्प्रत्ययः सकृदिति चास्यादेशो भवति । कृत्वंसोऽपवादः । एकवारं भुङ्क्ते सकृद्भक्ते ।१११। बहोर्धासन्ने ॥ ७. २. ११२ ॥ बहुशब्दात्संख्यावाचिन आसन्ने अविदूरेऽविप्रकृष्टकाले वारे क्रियाप्रवत्तौ
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[ पाद. २. सू. ११३-११४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२८५ तत्काले वाविप्रकृष्टे वर्तमानात्तद्वति धा प्रत्ययो भवति ।
बहव आसन्ना बारा अस्य बहुधा भुङ्क्ते, बहुधा पिबति । आसन्न इति किम् ? बहुकृत्वो मासस्य भुङ्क्ते । आसन्नवारेऽपि वारमात्रे द्योत्ये कृत्वस् प्रत्ययो भवत्येव । बहुकृत्वोऽह्रो भुङ्क्ते, आसन्नत्ता तु प्रकरणादिना गम्यते । एके तु गणधा भुङक्त तावद्धा भुक्त इत्यत्रापीच्छन्ति १११२ दिकशब्दादिग्देशकालेषु प्रथमापञ्चमीसप्तम्याः ॥ ७. २. ११३ ॥
दिकशब्दादिशि प्रसिद्धाच्छब्दादिशि देशे काले च वर्तमानात् प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्तात् स्वार्थे धा प्रत्ययो भवति । प्राची दिग् रमणीया प्राग्रमणीयम् । प्राङ् देशो रमणीयः प्राग्रमणीयम्, प्राङ कालो रमणीयः प्राग्रमणीयम्, प्राच्या दिश आगतः प्रागागतः, प्राचो देशादागतः प्रागागतः, प्राचः कालादागतः प्रागागतः, प्राच्यां दिशि वसति प्राग्वसति, प्राचि देशे वसति प्राग्वसति, प्राचि काले वसति प्राग्वसति । 'लुबञ्चेः'-(७-२-१२३) इति धाप्रत्ययस्य लुप् । लुपि 'यादेः' (२-४-९४) इत्यादिना डोलुक् । दिक्शब्दादिति किम् ? ऐन्द्री दिक् । दिग्देशकालेष्विति किम् ? प्राङ् वृक्षः । प्रथमापञ्चमीसप्तम्या इति किम् । प्राची दिशं पश्यति, प्राच्या दिशा प्रज्वलितम् । प्राच्य दिशे देहि, प्राच्या दिशः स्वम् । दिग्देशकालेष्विति बहुवचन प्रथमादिभिर्यथासंख्यनिवृत्त्यर्थम् ।११३।
न्या० स० दिक्श०-ननु दिग्देशकालेविलि दिगग्रहणं किमर्थ, यो हि दिग्शब्दः स दिशि वर्तत एव ?
नैवं, न हि दिगशब्दो दिइयेव वर्त्ततेऽपि तु देशादापि, तन्त्र दिग्ग्रहणं विना देशकाल इत्युच्यमाने यदा दिक्शब्दो देशे काले वा बर्त्तते तदैव प्रत्ययः स्यात् , यदा तु दिशि तदा न स्यात् , ततो दिगदेशकालेषु त्रिष्वेच वर्तमाना दिक्शब्दा गृह्यन्ते, लेन केघलायां दिशि ककुभप्रभृतिभ्यो न भवति ।
प्रागरमणीयमिति एषु क्रियान्ययविशेषणे इत्यनेनाव्ययविशेषणत्वात् नपुंसकत्वम् । ऊर्धादिरिष्टातावुपश्चास्य ॥ ७. २, ११४ ॥
ऊर्ध्वशब्दादिग्देशकालेषु वर्तमानात् प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्तात् रि रिष्टात् इत्येतौ प्रत्ययौ धापवादौ भवतः, अस्य चोवंशब्दस्योपादेशो भवति । ऊर्ध्वा दिग्देशः कालो वा रमणीयः, उपरि रमणीयम् उपरिष्टात् रमणीयम्, एवम् उपर्यागतः, उपरिष्टादागतः, उपरि वसति उपरिष्टादसति ।११४॥
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२८६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० ११५-११८ } पूर्वावराधरेभ्योऽसस्तातोपुरवधश्चैषान् ॥ ७. २. ११५॥
पूर्व, अवर, अधर इत्येतेभ्यः प्रत्येक दिग्देशकालवृत्तिभ्यः प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्तेभ्योऽस अस्तात् इत्येतो प्रत्ययौ भवतः, एषां च पूर्वावराधरशब्दानां यथासंख्यं पुर, अक्, अध् इत्येते आदेशा भवन्ति । पूर्वा दिम्देशः कालो वा रमणीयः पुरो रमणीयम् पुरस्ताद्रमणीयम् । पुर आगतः पुरस्तादागतः, पुरो वसति पुरस्तावसति, अवरा दिग्देशः कालो वा रमणीयः अवो रमणीयम्, अवस्ताद्रमणीयम्, अव आगतः । अवस्तादागतः, अवो वसति, अवस्ताद्वसति । अधरा दिग्देशः कालो वा रमणीयः अधो रमणीयम्, अधस्ताद्रमणीयम्, अध आगतः। अधस्तादागतः, अधो वसति, अधस्ताद्वसति ।११५॥ परावरात्स्तात् ।। ७. २. ११६ ॥
परअवर इत्येताभ्यां दिग्देशकालेषु वर्तमानाभ्यां प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्ताभ्यां स्वार्थे स्तात्प्रत्ययो भवति । परा दिन्देशः कालो वा रमणीयः परस्ताद्रमणीयम, परस्तादागतः। परस्तात् वसति, एवमवरस्ताद्रमणीयम्, अवरस्तादागतः, अवरस्तावसति ।११६) दक्षिणोत्तराचातस् ॥ ७. २. ११७ ॥
दक्षिण उतर इत्येताभ्यां चकारात्परावराभ्यां च दिग्देशकालेष वर्तमानाभ्याम् प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्ताभ्यां स्वार्थेऽतस् प्रत्ययो भवति । दक्षिणशब्दः काले न संभवतीति दिग्देशवृत्तिगृह्यते । दक्षिणा दिग्देशो वा रमणीयः दक्षिणतो रमणीयम्, दक्षिणत आगतः, दक्षिणतो वसति, उत्तरा दिग्देशः कालो वा रमणीयः उत्तरतो रमणीयम्, उत्तरत आगतः, उत्तरतो वसति. परतो रमणीयम्, परत आगतः, परतो वसति, अवरतो रमणीम्, अवरत आगतः. अवरतो वसति, एवं चावरशब्दस्य चातूरूप्यं भवति । अकारस्तमोमय भेदार्थः, तेनातः 'केहामात्रतसस्त्यच'-(६-३-१६) इति त्यच न भवति परतो भवं पारतमित्यणेव ।११७।
न्या० स० दक्षि०-यातूरूध्यमिति अवः अवस्तात् अवरस्तात् अवरतः । अधरापराच्चात् ॥७. २. ११८ ॥
अधर, अपर इत्येताभ्यां दिग्देशकाल वृत्तिभ्यां प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्ता. भ्यामात्प्रत्ययो भवति चकाराद्दक्षिणोत्तराभ्यां च । अधरा दिग्देशः कालो वा रमणीयः अधराद्रमणीयम्, अधरादागतः, अधराद्वसति । एवं चाधरशब्दस्य भैरूप्यम् । अपरा दिग्देश: कालो वा रमणीयः पश्चाद्र मणोयम्, पश्चादागतः,
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पपाद. २. सू. ११९-१२२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ २८७ ‘पश्चाद्वसति, दक्षिणपश्चाद्रमणीयम्, दक्षिणपश्चादागतः, दक्षिणपश्चाद्वसति ।' "पचोऽपरस्य'---(७-२-१२४) इत्यादिना पश्चादेशः । दक्षिणाद्रमणीयम्, दक्षिणादागतः, दक्षिणाद्वसति । उत्तराद्रमणीयम्, उत्तरादागतः, उत्तराद्वसति । ११८। ___ न्या० स० अघ०-त्ररूप्यमिति अधः अधस्तात् अधरात् । पश्चादरमणीयमिति पश्चादेशोदन्तः कार्यः पश्चार्धमित्यादिसिद्धयर्थं ततः 'अवर्णेवर्णस्य' ७-४-६८ । __दक्षिणपश्चादिति दक्षिणा च सा अपरा च दक्षिणापरा 'सर्वोदयोस्यादौ' ३-२-६१ इति पुं भावे दक्षिणापरा. दिगरमणीया, “पक्षोऽपरस्य' ७-२-१२४ इति सूचनात् तदन्तादपि प्रत्ययः ।
वा दक्षिणात्पथमासप्तम्या आः ॥ ७. २. ११९ ॥ ___ दक्षिणशब्दादिग्देशवृत्तेः प्रथमान्तात्सप्तम्यन्ताच्च आः प्रत्ययो भवति वा । दक्षिणा रमणीयम्, दक्षिणा वसति, पक्षे अतसातौ । दक्षिणतो रमणीयम्, दक्षिणतो वसति, दक्षिणाद्रमणीयम, दक्षिणाद्वसति । पञ्चम्यां सावकाशावतसातावाकारो बाधेतेत्ति चाग्रहणम् । प्रथमासप्तम्या इति किम् ? दक्षिणत आगतः, दक्षिणादागतः ।११६।
आही दूरे ॥ ७. २. १२०॥
दिकशब्दा अवध्यपेक्षाः । तत्रावधेर्दू रे दिशि देशे वा वर्तमानात् प्रथमासप्तम्यन्तात् दक्षिणशब्दादा आहि इत्येतो प्रत्ययो भवतः । ग्रामाद् दूरा दक्षिणा दिग्देशो वा रमणीयः ग्रामाद्दक्षिणा रमणीयम्, दक्षिणाहि रमणीयम्, दक्षिणा वसति, दक्षिणाहि वसति । दूर इति किम् ? दक्षिणः दक्षिणात् दक्षिणा रमणीयम्, आहिर्न भवति । आकारस्तु पूर्वेण सामान्येन विधानाद्भवत्येव । यद्येवमिहाकार ग्रहणं किमर्थम् ? विशेषविहितेनाहिना बाधो मा भूदित्येवमर्षम् उत्तरार्थं च । प्रथमासप्तम्या इत्येव ? दक्षिणत आगतः ।१२०॥
न्या० स० आहो०-अधध्यपेक्षया इति यथायमस्मात् पूर्व इत्यादि । वोत्तरात्ः ॥ ७. २. १२१ ॥
उत्तरशब्दात्प्रथमासप्तम्यन्तात् आ आहि इत्येतौ प्रत्ययौ वा भवतः, योगविभागाद्र इति नानुवर्तते । उत्तरा रमणीयम्, उत्तरा वसति, उत्तराहि रमणीयम्, उत्तराहि वसति, पक्षे अतसाती, उत्तरतः, उत्तरात् । प्रथमासप्तम्या इत्येव ? उत्तरतः, उत्तरादागतः ।१२१। अदरे एनः ॥७. २. १२२ ।। बोत्तरादिति नानुवर्तते, दिक्शब्दादिग्देशकालवृत्तेः प्रथमासप्तम्यन्ता
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१८८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. २ सू० १२३-१२५ ] दवधेरदूरे वर्तमानादेन: प्रत्ययो भव'त । अस्म त पूर्वा अदूरा दिक रमणीया देशः कालो वा पूर्वेणास्य रमणीयम्, पूर्वेणास्य वसति, अपरेणास्य रमणीयम्, अपरेणास्य वसति । एवं दक्षिणेन उत्तरेण अधरेण । अदूर इति किम् ? पुरो रमणीयम्, पुरो वसति । प्रथमासप्तम्या इत्येव ? पुरः आगतः । दिम्देशकालमात्रे द्योत्ये ये सामान्यप्रत्यया उक्ता अदूरे अपि सामान्यविवक्षायां ते भवन्त्येव प्रकरणादेश्चादूरता मम्यत इति नार्थो वाग्रहणेन, अन्ये तु दक्षिणोत्तराधरशब्देभ्य एव एनप्रत्ययमिच्छन्ति ।१२२।
न्या० स० अदूरे०-नानुवर्तत इति 'द्वितीयाषष्ठ्यावेनेनानश्चेः३-२-११७ इत्यत्राचेवर्जनात् ।
नार्थो वा ग्रहणेनेति एवं तर्हि 'आही दूरे' ७-२-१२० इत्यत्र कथमुक्तं विशेषविहितेनन आहिना बाधो माभूदित्येवमर्थमिति अनेनैव प्रकारेण सिद्धत्वात् ?
सत्यं, सोऽपि प्रकारोऽस्तीति ज्ञापनार्थम् । लुबञ्चः ॥ ७. २. १२३ ॥
अञ्चत्यन्तादिशब्दादिग्देशकालेषु वर्तमानात्प्रथमापञ्चमीसप्तम्यन्ताद्यः प्रत्ययो विहितो धा एनो वा तस्य लुप् भवति । प्राची दिक् दूरादूरा वा रमणीया देशः कालो वा प्राग्रमणीयम्, प्रागागतः, प्राग्वसति । एवं प्रत्यक् अवाक उदक । लुपि च सत्यां स्त्रीप्रत्ययस्यापि लुप् भवति ।१२३॥ पश्चोऽपरस्य दिक्पूर्वस्य चाति ॥ ७. २. १२४ ॥
अपरशब्दस्य केवलस्य दिकपूर्वपदस्य च आति प्रत्यये परे पश्चादेशो भवति । अपरा दिग्देश: कालो वा रमणीयः पश्चाद्रमणीयम् । पश्चादागतः, पश्चाद्वसति । दिकपूर्वात्, दक्षिणा च सा अपरा च दक्षिणापरा दिग्देशो वा रमणीयः दक्षिणपश्चाद्रमणीयम् । दक्षिणपश्चादागतः, दक्षिणपश्चाद्वसति, उत्तरपश्चाद्रमणीयम्, उत्तरपश्चादागतः, उत्तरपश्चाद्वसति ।१२४। वोत्तरपदेऽर्धे ॥ ७. २. १२५ ॥
अपरशब्दस्य केवलस्य दिकपूर्वपदस्य च अर्धशब्दे उत्तरपदे पश्चादेशो वा भवति । अपरमर्थं पश्चार्धम् अपरार्धम् दक्षिणापरस्या अर्धः दक्षिण पश्चार्धः दक्षिणापरार्धः, उत्तरपश्चार्ध, उत्तरापराधः, उत्तरपदे इति किम ? अपरा अर्धे शोभते । असमासोऽयम् । पूर्वपदमुत्तरपदमिति हि समासे भवति ।१२५॥
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[ २८९
[ पाद २. सू. १२६ - १२७] श्रीसिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वं चिचः ॥ ७. २. १२६ ॥
भूव अस्तिव वस्ति का च स्वस्ति च कृभ्वास्तिनी ताभ्यांकृभ्वस्तिभ्याम्, द्विवचनं कर्मकर्तृभ्यामिति ययासंख्यार्थम् । करोतिकर्मणो भ्वस्तिकर्तुश्च प्राक् पूर्वमतस्य तत्त्वेऽभूततद्भावे गम्यमाने कृभ्वस्तिभ्यां च योगे च्विः प्रत्ययो भवति । द्रव्यस्य गुणक्रिया द्रव्यसंबन्धसमूहविकारयोगे प्रागतत्तत्त्वमुदाहार्यम् ।
शुक्लीकरोति पटम्, प्रागशुक्लं शुक्लं करोतीत्यर्थः, शुक्लीक्रियते पटः प्रागंशुक्लः शुक्लः क्रियत इत्यर्थः । शुक्लीकरणम् शुक्लीभवति पटः । प्रागशुक्लः पट इदानीं शुक्लो भवतीत्यर्थः । शुक्लीभवनम् शुक्लीस्यात्पटः, प्रागशुक्लः पट इदानीं शुक्लः स्यादित्यर्थः । एवं कारकीकरोति चैत्रम्, कारकीभवति कारकीस्याच्चैत्रः । दण्डीकरोति चैत्रम्, दण्डीभवति दण्डीस्यात् चैत्रः, राजपुरुषीकरोति चैत्रम्, राजपुरुषीभवति राजपुरुषीस्याच्चैत्रः । संधीकरोति गाः, संधीभवन्ति सघीस्युर्गावः, घटीकरोति मृदम्, घटीभवति घटी स्यान्मृत् पटीकरोति तन्तून्, पटीभवन्ति पटीस्युस्तन्तवः, भस्मीकरोति काष्ठम्, भस्मीभवति काष्ठम्, भस्मीस्यात् काष्ठम् । कृभ्वस्तिभ्यामिति किम् ? अशुक्लं शुक्लं संपादयति, अशुक्ल : शुक्लः संपद्यते । कर्मकर्तृभ्यामिति किम् ? प्रागदेवकुले इदानीं देवकुले करोति, प्रागदेवकुले इदानीं देवकुले भवति । कथं समीपीभवति दूरीभवति, अभ्यासीभवति ? अत्रापि उपचारात्तत्स्थे द्रव्ये वर्तमानानां समीपादीनां कर्तृत्वम् । प्रागतत्तत्त्व इति किम् ? शुक्लं करोति । शुक्लो भवति । शुक्लः स्यात् । प्राग्ग्रहणं किम् ? अशुक्लं शुक्लं करोति । एककालमतत्तत्त्वे न भवति । भवति हि एको भावः कश्चिदेककालं शुक्लोशुक्लच देशभेदन चित्रपटीवत् । अभद्रं भद्रं करोति भद्राकरोति शिरः, अनिष्कुलं निष्कुलं करोति निष्कुलाकरोति दाडिममित्यत्र परत्वात् डाजेव ॥१२६॥
"
न्या० स० कृभ्व० - प्रागतत्तत्वे इति, तस्य भावस्तत्त्वं न स असः, प्रागू असः प्रागसः, 'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः ' ३-१-४८ इति सः, प्रागतस्य तत्त्वं प्रागतत्तत्वं तस्मिन् ।
,
दण्डीकरोतीति असत्पर इत्यधिकारस्य ' रात् सः ' २ - १ - ९० इत्यवस्थितत्वात् 'दीर्घश्चि० ४-३-१०८ इति दीर्घः । कथमिति नन्वत्र प्रागतत्तत्वं नास्ति प्रकृतिविकाराभावात्, समीपं भवति किं तर्हि असमीपस्थं समीपस्थं भवतीति समीपादिभ्यः च्विः प्रत्ययो वक्तव्य इत्याशङ्क्याह उपचारादिति समीपशब्दः समीपस्थे वस्तुनि वर्त्तते इत्यर्थः ।
6
अरुर्मनश्चक्षुश्वेतोरहोरजसां लुक च्वौ ॥ ७ २ १२७ ॥
अरुस्, मनस्, चक्षुस्, चेतस्, रहस्, रजस् इत्येतेषां च्वौ परेऽन्तस्य
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२९० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू. १२८-१३० ] लुग्भवति । अनरु: अरुः करोति अरूकरोति, अरूभवति अरूस्यात्, महारूकरोति, महारूभवति, महारूस्यात्, मनीकरोति, मनीभवति मनीस्यात्, उन्मनीकरोति, उन्मनीभवति, उन्मनीस्यात्, चर्करोति, चक्षुभवति चर्स्यात्, उच्चर्करोति, उच्चक्षूभवति, उच्चक्षूस्यात्, चेतीकरोति चेतीभवति, चेतीस्यात्, विचेतीकरोति, विचेतीभवति, विचेतीस्यात्, रहीकरोति । रही भवति, रहीस्यात्, विरहीकरोति, विरहीभवति, विरहीस्यात्, रजीकरोति, रजीभवति, रजीस्यात्, विरजीकरोति, विरजीभवति, विरजीस्यात् । च्याविति किम् ? अरुः करोति । बहुवचनं तदन्तानामपि परिग्रहार्थम्, अन्यथा ग्रहणवता न तदन्तविधिरित्युपतिष्ठेत् ॥१२७।। इसुसोबहलम् ॥७. २. १२८ ।। इस् उस् इत्येवमन्तस्य च्वौ परे बहुलमन्तस्य लुक् भवति ।
असपिः सपिः करोति सीकरोति नवनीतम्, धनूभवति वंशः । न च भवति सपिभवति धनुर्भवति । बहुलग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् ॥१२८।। व्यञ्जनस्यान्त ईः ॥ ७. २. १२९ ॥ व्यञ्जनान्तस्य च्वौ परे बहुलमीकारोऽन्तो भवति ।
दृपदीभवति शिला, समिधीभवति काष्ठम् । न च भवति दृपद्भवति, समिद्भवति ॥१२९।।
न्या० स० व्यञ्ज-नन्वन्तग्रहणं किमर्थम् ? सत्यं, व्यञ्जनादीरिति कृते प्रकृतेः प्रत्ययत्वात् दरदोऽपत्यं स्त्री पुरुमगध' ६-१-११६ इत्यणि 'दूरबणो'६-१-१२३ इति लपि अदरद दरदु भवतीति च्वावनेन ईप्रत्यये 'जातिश्च णि' ३-२-५१ इति भावः स्यात्ततश्च दारदीति स्यात् , दरदीति चेष्यते ।
व्याप्तौ स्सात् ॥ ७. २. १३०॥ ___ कृभ्वस्तिभ्यां कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे इति वर्तते । एतस्मिन्विषये सकारादिः सात् प्रत्ययो भवति, व्याप्तौ प्रागतत्तत्त्वस्य चेद्व्याप्तिः सर्वात्मना द्रव्येणाभिसंबन्धो गम्यते । द्विसकारपाठः पत्वनिषेधार्थः । सर्व काष्ठं प्रागनग्निमग्नि करोति अग्निसात्करोति काष्ठम्, अग्निसाद्भवति, अग्निसात् स्यात् । उदकसात्करोति लवणम्, उदकसाद्भवति, उदकसात् स्यात् । ____ व्याप्ताविति किम् ? अग्नीकरोति काष्ठम्, अग्नीभवति अग्नीस्यात्काष्ठम् । सत्यामपि वस्तुनि व्याप्तौ प्रागतत्तत्त्वमात्रे विर्भवत्येवेति नार्थों वावचनेन । अग्नीकरोति, अग्नीभवति, अग्नीस्यात्काष्ठम्, उदकीकरोति, उदकीभवति उदकीस्याल्लवणम् । व्याप्तिस्तु प्रकरणादेर्गम्यते ॥१३०॥
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[ पाद. २. सू. १३१-१३४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [२९१ जातेः संपदा च ॥ ७. २. १३१ ॥
कृभ्वस्तिभिः संपदा च योगे करातिकमणो भ्वस्तिकतु : संपदिकतु श्च प्रागतत्तत्त्वेन जातेः सामान्यस्य व्याप्तौ स्सात्प्रत्ययो भवति ।
___ अस्यां सेनायां सर्वं शस्त्रमग्निसात्करोति देवम्, अस्यां सेनायां सर्व शस्त्रमग्निसाद्भवति, अग्निसात् स्यात्, अस्यां सेनायां सर्व शखमग्निसात्संपद्यते। वर्षासु सर्वं लवणमुदकसात्करोति मेघः, उदकसाद्भवति, उदकसात् स्यात्, उदकसात्संपद्यते । यथव ह्ये कस्य द्रव्यस्य सर्वावयवाभिसंबन्धे प्रागतत्तत्त्वेन व्याप्तिर्भवति तथा जातेः सामान्यस्य सर्वव्यक्तिसंबन्धे भवति । एवं च व्याप्ताविति सामान्योपादानात् कृभ्वस्तियोगे पूर्वेणैव स्सासिद्धः संपद्यर्थं तु वचनम्, चकार उत्तरत्रोभयोः समुच्चयार्थः ॥१३१।। तत्राधीने ॥ ७. २. १३२ ॥
कृभ्वस्तिभ्यां संपदा चेत्यनुवर्तते, कर्मकर्तृभ्यां प्रागतत्तत्त्वे इति च निवत्तम् । तत्रेति सप्तम्यन्तादधीने आयत्तेऽर्थे कृभ्वस्तिसंपद्भिर्योगे स्सात्प्रत्ययो भवति ।
. राजन्यधीनं करोति राजसात्करोति, राजस्वामिकं करोतीत्यर्थः, राजसाद्भवति, राजसात्स्यात्, राजसात्संपद्यते। आचार्यसात्करोति, आचार्यसाद्भवति, आचार्यसात् स्यात्, आचार्यसात्संपद्यते ।।१३२॥
न्या० स० तत्र-निवृत्तमिति तत्रेति भणनात् कर्मकर्तृभ्यामिति अधीने इत्यभिनवार्थोपादानाच्च प्रागतत्तत्व इति ।
देये त्रा च ॥ ७. २. १३३ ॥ - तत्रेति सप्तन्यन्तायोपाधिकेऽधीनेऽर्थे कृभ्वस्तिसंपद्भिर्योगे त्राप्रत्ययो भवति । चकारो न स्सातोऽनुकर्षणार्थः तस्याधीनतामात्रविवक्षायां पूर्वेणैव सिद्धत्वात् । किंतु, कृभ्वस्तिभ्यां संपदा चेत्यस्यानुकर्षणार्थः, तेनोत्तरत्र नानुवर्तते ।
देवेऽधीनं देयं करोति देवत्रा करोति द्रव्यम्, देवाय दातव्यमिति यत् स्थापितं तदिदानी देवाय ददातीत्यर्थः, देवेऽधीनं देयं भवति देवत्रा भवति । देवत्रा स्यात्, देवत्रा संपद्यते, गुरुत्रा करोति, गुरुत्रा भवति, गुरुत्रा स्यात्, गुरुत्रा संपद्यते । देय इति किम् ? राजसाद्भवति राष्ट्रम् ।।१३३॥ सप्तमीद्वितीयाद्देवादिभ्यः ॥ ७. २. १३४ ॥ सप्तम्यन्तेभ्यो द्वितीयान्तेभ्यश्च देवादिभ्यस्त्रा प्रत्ययो वा भवति स्वार्थे । देवेषु वसति देवत्रा वसति, देवेषु भवति देवत्रा भवति, देवेषु स्याद्देवत्रा
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२९२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० १३५-१३६ । स्यात्, देवान् करोति देवत्रा करोति, देवान् गच्छति देवत्रा गच्छति। एवं मनुष्यत्रा वसति, मनुष्यत्रा गच्छति, मर्त्यत्रा वसति मर्त्यत्रा गच्छति, पुरुषत्रा वसति, पुरुषत्रा गच्छति, पुरुत्रा वसति, पुरुत्रागच्छति, बहुत्रा वसति, बहुत्रा गच्छति । देवादयः शिष्टप्रयोगगम्याः ॥१३४॥ तीयशम्बबीजात् कृगा कृषौ डाच ।। ७. २. १३५ ॥
तीयप्रत्ययान्तात् शम्बबीज इत्येताभ्यां च करोतिना योगे कृषिविषये डाच् प्रत्ययो भवति ।
द्वितीयं वारं करोति क्षेत्रं द्वितीया करोति क्षेत्रम्, द्वितीयं वारं कृषतीत्यर्थः, तृतीयाकरोति क्षेत्रम्, तृतीयं वारं कृषतीत्यर्थः । शम्बाकरोति क्षेत्रम्, अनुलोमकृष्टं पुनस्तिर्यक् कृषतीत्यर्थः । अन्ये त्वाहुः शम्बसाधनः कृषिरिति शम्बेन कृषतीत्यर्थः ।
___ एके तु शम्बाकरोति कुलिवमित्युदाहरन्ति । लोहकं वा वर्धकुण्डलिका वा शंबम्, तत् कुलिवस्य करोतीत्यर्थः। बीजाकरोति क्षेत्रम्, उप्ते पश्चाद्बीजैः सह कृषतीत्यर्थः । यदाप्येवं विग्रहः क्षेत्रस्य द्वितीयां कृषि, कर्ष, कर्षणं करोति । शम्बं करोति क्षेत्रस्य कुलिवस्य वा बीजं करोति क्षेत्रस्येति तदापि द्वितीयाकरोति क्षेत्रमित्यादौ क्षेत्रात् द्वितीया भवति । द्वितीयाकरोतीत्यादयो हि मुण्डयतीत्यादिवत् क्रियाशब्दास्तेषां च क्षेत्रादि कर्म भवति । कृगेति किम् ? द्वितीयं वारं कृषति । कृषाविति किम् ? द्वितीयं पटं करोति । चकारो, 'डाच्यादौ'-(७-२-१४९) इत्यत्र विशेषणार्थः ।९३५।
न्या० स० तीय-प्रत्ययान्तादिति 'द्वस्तीयः' ७-१-१६५ इत्यादिविहितात् यस्तु मुखतीय इत्यादौ तीयस्तदन्तादनर्थकत्वान्न भवति ।
शम्बसाधन इति शम्बो हलभेदः स साधनं कारकं यस्य, यदाप्येवं विग्रह इति ननु प्रथम षष्ठी डाचि उत्पन्ने कथं द्वितीयेत्याशनका।
संख्यादेर्गुणात् ॥ ७. २. १३६ ॥ __संख्याया आद्यवयवात्परो यो गुणशब्दस्तदन्तात् कृगा योगे कृषिविषये डाच् प्रत्ययो भवति ।
द्विगुणं कर्षणं करोति क्षेत्रस्य द्विगुणाकरोति क्षेत्रम्, त्रिगुणाकरोति क्षेत्रम् । क्षेत्रस्य द्विगुणं त्रिगुणं च विलेखनं करोतीत्यर्थः। कृषावित्येव । द्विगुणां रज्जु करोति ।१३६।
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पाद. २. सू. १३७-१४१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२९३ समयाद्यापयानाम् ॥ ७. २. १३७॥
समयशब्दाद्यापनायां कालहरणे गम्यमाने कगा योगे डाच् प्रत्ययो भवति । समयाकरोति तन्तुवायः । अद्य श्वस्ते पटं दास्यामीति कालक्षेप करोति इत्यर्थः । यापनायामिति किम् ? समयं करोति ।१३७। सपत्रनिष्पत्रादतिव्यथने ।। ७. २. १३८ ।।
सपत्रनिष्पत्र इत्येताभ्यां कृगा योगेऽतिव्यथनेऽतिपीडने गम्यमाने डाच् प्रत्ययो भवति ।
___ सपनाकरोति मृगम्, पत्रं शरः सह पत्रमनेनेति सपत्रः, तं करोति शरमस्य शरीरे प्रवेशयतीत्यर्थः । निष्पत्राकरोति, निर्गतं पत्रमस्मादिति निष्पत्रः तं करोति शरमस्वापरपावन निष्क्रमयतीत्यर्थः, सपत्राकरोति वृक्षं वायुः, निष्पत्राकरोति वृक्षं वायुः, अत्र पत्त्रशातनमेवातिव्यथनम् । सपत्त्रकरोतीत्यपि मङ्गलाभिप्रायेण वृक्षस्य निष्पत्त्राकरणमेवोच्यते । यथा दीपो नन्दतीति विध्वंसः। अतिव्यथन इति किम् ? सपत्रं करोति वृक्ष जलसेकः, 'निष्पत्रं करोति वृक्षतलं भूमिशोधकः ।१३८। निष्कुलानिष्कोषणे ॥ ७. २. १३९ ॥
निष्कुलशब्दात्कृगा योगे निष्कोषणेऽर्थे डाच् प्रत्ययो भवति ।
निष्कृष्टं कुलमवयवसंघातोऽस्मादिति निष्कुलम्, अन्तरवयवानां, बहिनिष्कासनं निष्कोषणम्, निष्कुलं करोति निष्कुलाकरोति दाडिमम् निष्कुष्णातीत्यर्थः । एवं निष्कुलाकरोति पशु चण्डालः । निष्कोषण इति किम् ? . निष्कुलं करोति शस्त्रम् ।१३९। प्रियसुखादानुकूल्ये ॥ ७. २. १४०॥
प्रियसुख इत्येताभ्यां कुगा योमे आनुकूल्ये गम्यमाने डाच् प्रत्ययो भवति ।
प्रियाकरोति गुरुम्, सुखाकरोति गुरुम् । गुरोरानुकूल्यं करोति तमाराधयतीत्यर्थः। आनुकूल्य इति किम् ? प्रियं करोति सामवचनम्, सुखं करोत्यौषधपानम् ।१४०॥
न्या० स० प्रिय०-सामवचनमिति आनुकूल्य हि चेतनधर्मः, तदन नास्ति एवमुत्तरेऽपि । दुःखात् प्रातिकूल्ये ॥ ७. २. १४१ ॥
दुःखशब्दात् प्रातिकूल्ये गम्यमाने कृगा योगे डाच प्रत्ययो भवति ।
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२९४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. २ सू० १४२-१४५
दुःखाकरोति शत्रत्, शत्त्रोः प्रातिकूल्यं करोति, प्रतिकुलमाचरति । अनभिमतानुष्ठानेन तं पीडयतीत्यर्थः। प्रातिकूल्य इति किम् ? दुःखं करोति रोगः ॥१४॥ शूलात्पाके ।। ७. २. १४२ ॥
शूलशब्दात्पाके गम्यमाने कृगा योमे डाच् प्रत्ययो भवति । शुलाकरोति मांसम्, शूले पचतीत्यर्थः । पाक इति किम् ? शूलं करोति कदन्नम् ।१४२। सत्यादशपथे ॥ ७. २. १४३ ॥
सत्यशब्दाच्छपथादन्यत्र वर्तमानात् कृगा योगे डाच् प्रत्ययो भवति । सत्याकरोति वणिग् भाण्डम्, कार्षापणादिदानेन मयावश्यमेवैतत क्रेतव्यमिति विक्रेतारं प्रत्याययति । अशपथ इति किम् ? सत्यं करोति। यदीदमेवं न स्यात, इदं ये इष्ट माभूत्, अनिष्टं वा भवत्विति शपथं करोतीत्यर्थः ।१४३। मद्रमद्राद्धपने ॥ ७. २. १४४ ॥ मद्रभद्रशब्दाभ्यां वपने मुण्डने गम्यमाने कृगा योमे डाच् प्रत्ययो भवति ।
मद्रं वपनं करोति मद्राकरोति, भद्राकरोति नापितः। शिशोमङ्गल्यं केशच्छेदनं करोतीत्यर्थः । मद्रभद्रशब्दौ मङ्गल्यवचनौ। वपन इति किम् ? मद्रं करोति, भद्रं करोति साधुः ।१४४॥ अव्यक्तानुकरणादनेकस्वरात् कृम्वस्तिनानितौ
. दिश्च ॥ ७. २. १४५ ॥ यस्मिन् ध्वनावकारादयो वर्णा विशेषरूपेण नाभिव्यज्यन्ते सोऽव्यक्तः तस्यानुकरणमव्यक्तानुकरणम्, तस्मादनेकस्वरादनितिपरात् कृभूअस्ति इत्येतैर्धातुभिर्योगे डाच प्रत्ययो वा भवति द्विश्चास्य प्रकृतिरुच्यते । प्रत्ययस्य द्विर्वचनानर्थक्यात् ।
पटत् करोति पटपटा करोति, पटपटा भवति, पटपटा स्यात्, दमत् करोति, दमदमाकरोति, दमदमाभवति, दमदमास्यात्, एवं मसत् करोति, मसमसा करोति, खरटत् करोति, खरटखरटा करोति । अव्यक्तवर्णस्यापि कथंचिद् ध्वनिमात्रसादृश्यात् व्यक्तवर्णमनुकरणं भवति । अव्यक्तानुकरणादिति किम् ? दृषत्करोति । अत्र व्यक्तवर्णमनुकार्यम् । अनेकस्वरादिति किम् ?
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'[ पाद. २. सू. १४६-१४९ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२९५ श्रत्करोति, खाट् करोति । कृभ्वस्तिनेति किम् ? पटज्जायते । अनिताविति किम् ? पटिति करोति ।१४५।
न्या० स० अव्यक्त० आनर्थक्यादिति यदि प्रत्ययस्य द्विभक्तिः क्रियते तथापि समानानामिति दीर्घत्वे एकस्यैव श्रुतिर्भवति । भव्यक्तवर्णस्यापीति अथ पटदित्यादि व्यक्तवर्णमव्यक्तवर्णस्य कथमनुकरणमनुकरणस्यानुकार्यसदृशत्वादन्यथातिप्रसङ्गः स्यादित्याह-कचिदिति, पटिति करोतीति न च परत्वात् 'इतावतो लुक' ७-२-१४६ इति लुका भाव्यमिति वाच्यम् , कृभ्वस्तीनामभावे तस्य चरितार्थत्वात् ।
इतावतो लुक् ॥ ७. २. १४६ ॥ ___ अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य योऽत् इत्ययं शब्दस्तस्य इतिशब्दे परे लुग् भवति ।
__पटत् इति पटिति, झटत् इति झटिति, एवं छमत् छमिति, घटत् · घटिति, असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे इति लुकि सति तृतीयत्वं न भवति ।
अव्यक्तानुकरणस्येत्येव, जगदिति । अनेकस्वरस्येत्येव, छत् इति छदिति । स्रत् इति स्रदिति । अत इति किम् ? महत् इति मरुदिति । शरद् इति शरदिति । इताविति किम् ? पटदत्र । कथं घटदिति गम्भीरमम्बुदैनंदितं, चकदिति तडितापि कृतम् इति । दकारान्तावेतौ द्रष्टव्यौ ।१४६। न द्वित्वे ।। ७. २. १४७ ॥
अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य द्वित्वे द्विर्वचने कृते इतिशब्दे परे योऽत् शब्दस्तस्य लुग न भवति । पटपटदिति, घटत्घटदिति, झटत्झटदिति । वीप्सायां द्विवचनम् । द्वित्वे इति किम् ? पटिति । कथं चटच्चटिति ? धगद्धगिति पटत्पटिति नात्र द्वित्वमपि तु समुदायानुकरणमिति भवति ॥१४७॥ तो वा ॥ ७. २. १४८॥
द्वित्वे सति अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्य योऽच्छब्दस्तस्य संबन्धिनस्तकारस्येतौ परे वा लुग भवति । पटत्पटेति करोति, पटपटदिति करोति, घटद्घटेति करोति, घटत्घटदिति करोति ।।१४८॥ डाच्यादौ ॥ ७. २. १४९ ॥
अव्यक्तानुकरणस्यानेकस्वरस्याच्छब्दान्तस्य द्वित्वे सति आदी पूर्वपदे योऽतस्तकारस्तस्य डाचि परे लुग्भवति । पटपटा करोति, दमदमा करोति । आदाबिति किम् ? पतपता करोति । डाच्यन्त्यस्वरादिलोपे मूलप्रकृतेस्तकारस्य लुग न भवति ॥१४९॥
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बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते
[ पाद. २ सू० १५०- १५१ ]
बह्वल्पार्थात्कारकादिष्टानिष्टे प्रशस् । ७ २ १५० ॥ बह्वर्थादल्पार्थाच्च कारकाभिधायिनो नाम्नः पशस् प्रत्ययो वा भवति यथासंख्यमिष्टेऽनिष्टे च विषये ।
२९६ ]
इष्टं प्राशित्रादि, अनिष्टं श्राद्धादि, ग्रामे बहवो ददति, बहुशो ददति, बहु धनं ददाति, बहुशो धनं ददाति, विवाहे बहून् कार्षापणान् ददाति, बहुशः कार्षापणान् ददाति विवाहे बहुभिर्भुक्तमतिथिभि: बहुशो भुक्तमतिथिभि: । बहुभ्योऽतिथिभ्यो ददाति बहुशोऽतिथिभ्यो ददाति, बहुभ्यो ग्रामेभ्य आगच्छति बहुशो ग्रामेभ्य आगच्छति । बहुषु ग्रामेषु वसति, बहुशो ग्रामेषु वसति । एवं भूरिशः, प्रभूतराः, गणशः । अल्पार्थे, अल्प आगच्छति अल्पश आगच्छति । अल्पं धनं ददाति, अल्पज्ञो धनं ददाति । श्राद्धे अल्पैर्भुक्तम् अल्पशो भुक्तम्, अल्पेभ्यो ददाति, अल्पशो ददाति, अल्पेभ्य आगतम्, अल्पेषु वसति, अल्पशो वसति, एवं स्तोकशः, कतिपयशः । बह्वल्पार्थादिति किम् ? ग ददाति, अश्व ददाति । कारकादिति किम् ? बहूनां स्वामी । इष्टानिष्ट इति किम् ? बहु ददाति श्राद्धे, अल्पं ददाति प्राशित्रादौ । पकारः पित्कार्यार्थः ॥ १५०॥
संख्यैकार्थाद्वीप्सायां शस् ।। ७. २.१५१ ।।
संख्यावाचिन एकस्वविशिष्टार्थवाचिनश्च कारकाभिधायिनो नाम्नो aterयां द्योत्यायां शस् प्रत्ययो भवति । वीप्सायां द्विर्वचनस्य प्राप्तौ तदपवादोऽयम्, वाधिकारात्पक्षे द्विर्वचनमपि भवति ।
एकैकं ददाति - एकशो ददाति द्वौद्वौ द्विशः, एवं त्रिशः, तावच्छः, कतिशः, गणशः । एकैकेन दीयते एकशो दोयते । द्वाभ्यां द्वाभ्यां द्विशः, त्रिशः, तावच्छ, एवं कतिशः, गणशः । एकार्थ, माषं माषं देहि माषशो देहि, कार्षापणशः, पणशः, पादशः, पलशः, प्रस्थश, अर्धशः, पर्वशः, तिलश: संघशः पूगशः, वृन्दशः पक्तिशः, वनशः प्रविशतिः, कूपीशः खनति, कुम्भीशः कलशीशो ददाति । क्रमश इति क्रमवतां भेदात् क्रमेणक्रमेणेति वीप्सा भवति । संख्यैकार्थादिति किम् ? माषौ माषौ ददाति । वीप्सायामिति किम् ? द्वो ददाति मासं ददाति तानेकैकशः पृच्छेत् एकैशोऽपि निघ्नन्ति एकैकशो ददातीति वीप्सायां द्विरुक्तात्पूर्वेणाल्पार्थादिति प्रशस् । वीप्सितवीप्सायां वानेनैव शस् । एकैकम् एकैकं पृच्छेदित्यर्थः । कारकादित्येव ? द्वयोर्द्वयोः स्वामी । माषस्य माषस्येष्टे ।। १५१
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[ पाद. २. सू. १५२-१५५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२९७ ___ न्या० स० संख्यैः-एकैकश इति 'प्लुप्चादावेकस्य स्यादेः' ७-४-८१ इति द्विवचने आदिविभक्तेलुंछ । संख्यादिः पादादिभ्यो दानदण्डे चाकल लुक च ।। ७. २. १५२ ॥
संख्यायाः प्रकृत्याधवयवात्परे ये पादादयस्तदन्तानाम्नो दानदण्डे चकाराद्वीप्सायां च विषयेऽकल् प्रत्ययो भवति, तत्संनियोगे च प्रकृतेरन्तस्य लुग्भवति ।
द्वो द्वौ पादौ ददाति द्विपदिकां ददाति, त्रिपदिकां ददाति, द्वे शते व्यवसृजति, द्विशतिका व्यवसृजति । द्विमोदकिकाम् त्रिमोदकिकाम् त्यजति, दण्डे द्वौपदी दण्डितः द्विपदिकां दण्डितः, एवं त्रिपदिकाम् द्विशतिकाम् त्रिशतिकाम्, द्विमोदकिकाम्, त्रिमोदकिकाम्, वीप्सायां, द्वौ द्वौ पादौ भुक्ते द्विपदिका भुङ्क्ते, त्रिदिकाम्, द्विशतिकाम्, त्रिशतिकाम, द्विमोदकिकाम्, त्रिमोदकिकाम् । संख्यादेरिति किम् ? पादं ददाति, पादं दण्डितः, पादं पादं भुङ्क्त । पादादिभ्य इति किम् ? द्वौ द्वौ माषौ ददाति । दानदण्डे चेति किम् ? द्वौ पादौ भुक्ते । चकारो वीप्साया अनुकर्षणार्थः । लकारः स्त्रीत्वार्थः । लुग्वचनम् अनिमित्तलगर्थम, तेन पादः पद्भावो भवति । परिनिमित्तायां तु लुचि स्थानिवद्भावो न स्यात । पादादयः प्रयोगतोऽनुसर्तव्याः ।१५२।
न्या० स० संख्या०-अनिमित्तलगर्थमिति नन्वकलि 'अवर्णवर्णस्य' ७-४-६८ इति प्रकृत्यन्तस्य लुप् भविष्यति किमर्थ लुगवचनमित्याशङ्का । तीयाट्टीकण न विद्या चेत् ॥ ७. २. १५३ ॥
तीयमत्ययान्तात्स्वार्थे टीकण प्रत्ययो वा भवति, न चेत्तीयान्तस्य विद्या 'विषयो भवति ।
द्वितीयम् द्वैतीयीकम्, तृतीयं तार्तीयीकम् । टकारो ड्यर्थः । द्वैतीयीकी, ताीयीकी शाटी न विद्या चेदिति किम् ? द्वितीया विद्या, तृतीया विद्या, मुखतीयः पाश्वतीय इति तीयस्यानर्थकत्वान्न भवति ।१५३॥ - न्या० स० तीया-मुखतीय इत्यादि मुखे मुखतः आद्यादिभ्यस्तस् मुखतो भवः गहादिभ्य ईयः 'प्रायोऽव्ययस्य ' ७-४-६५ इत्यन्तलोपः, एवं पार्वतीयः। निष्फले तिलात् पिञ्जपेजौ ॥७. २. १५४ ॥
तिलशब्दान्निष्फलेर्थे वर्तमानात् पिञ्जपेज इत्येतो प्रत्ययो भवतः । निष्फलस्तिल: तिलपिजः, तिलपेजः ।१५४। प्रायोऽतोयसटमात्रट् ॥ ७. २. १५५॥ अनुप्रत्ययान्तात् स्वार्थे द्वयसट मात्रट् इत्येतो प्रत्ययो भवतः प्रायः ।
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२९८ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
[ पाद. २ सू. १५६-१५९ ] यावदेव यावद्द्द्वयसम्, यावन्मात्रम्, तावदेव तावद्द्द्वयसम्, तावन्मात्रम्, एतावदेव एतावद्वयसम्, एतावन्मात्रम्, कियद्द्द्वयसम्, कियन्मात्रम् । प्रायोग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् । १५५ ।
न्या० स० प्रायो० - यावद्द्द्वय समिति स्त्रियां यावतीद्वयसी, सामान्यविवक्षायां प्रत्यये पश्चात् स्त्रीत्वे यावद्वयसीत्यपि ।
वर्णाव्ययात्स्वरूपे कारः ।। ७. २. १५६ ।।
वर्णेभ्योऽव्ययेभ्यश्च स्वरूपार्थवृत्तिभ्यः स्वार्थे कारः प्रत्ययो भवति ।
अकारः, इकारः, ककारः । खकारः । ककारादिष्वकार उच्चारणार्थः । अव्यय - ओंकारः, स्वाहाकारः, स्वधाकारः, वषट्कारः, हन्तकारः, नमस्कारः, चकारः, इतिकारः, एवकार:, हुंकार:, पूत्कारः, सीत्कारः, सूत्कारः । यथा हुंकृतिः, प्रकृतिः, सूत्कृतम्, सीत्कृतमिति भवन्ति तथा कारशब्देन घञन्तेन समासे ओंकारादयो भविष्यन्ति ? सत्यम्, किंतु ओंकारमुच्चारयति वषट्कारमभिधत्ते हुकारं करोतीत्यादि न सिध्यति ।
स्वरूप इति किम् ? अ: विष्णुः, इः कामः कः ब्रह्मा, खम् आकाशम्, ओं ब्रह्म, वर्षाडिन्द्राय, स्वाहाग्नये, स्वधा पितृभ्य इत्यर्थपरतायां न भवति । प्रायोऽनुवृत्तेरन्यत्रापि भवति । मन एव मनस्कारः, अहमेवाहंकारः । १५६। न्या० स० वर्णा० - नमस्कार इति कस्कादित्वात् सः न तु ' प्रत्यये २-३-६ इत्यनेन तत्रानव्ययस्येत्यधिकारात् ।
ओकारमुच्चारयतीति यद्यत्र कृ इत्यस्य कार इति निष्पद्यते तदा ओमिति करणस्य किमु - चारणं भवतीति न संगच्छते । मनस्कार इति मनस् शब्दः स्वरादित्वात् अव्ययश्चित्ताभोगे वर्त्तते, कस्कादित्वात् सः ।
रादेकः ॥ ७. २. १५७ ॥
रशब्दादेफः प्रत्ययो वा भवति । रेफः, प्रायोवचनाद्रकार इत्यपि । १५७ | नामरूपभागाद्धेयः ॥ ७- २. १५८ ॥
नामन्, रूप, भाग इत्येतेभ्यः स्वार्थे धेयः प्रत्ययो वा भवति । नामैव नामधेयम्, रूपमेव रूपधेयम्, भाग एव भागधेयम् ।१५८ | मर्तादिभ्यो यः ॥ ७. २. १५९ ।।
मर्त इत्येवमादिभ्यः स्वार्थे यः प्रत्ययो वा भवति ।
मर्त्यः, सूर एव सूर्य:, एवं क्षेम्य:, यविष्यः, भाग्यम्, अपराध्यम्, रव्यम्, लव्यम् । मर्तादयः प्रयोगगम्याः । १५९ ।
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[ पाद. २. सू. १६०-१६५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [२९९ नवादीनतनत्नं च न चास्य ॥ ७. २. १६० ॥
नवशब्दात्स्वार्थे ईन, तन, न चकाराद्यश्च प्रत्यया वा भवन्ति, तत्संनियोगे च नवशब्दस्य नू इत्ययमादेशो भवति । नवमेव नवीनम्, नूतनम्, नूत्नम्, नव्यम् ॥१६०। प्रात्पुराणे नश्च ।। ७. २. १६१॥
प्रशब्दात्पुराणेऽर्थे वर्तमानात् स्वार्थे नः प्रत्ययो भवति, चकारादीनतनत्नाश्च ।
प्रगतं कालनेति प्रशब्देन पुराणमुच्यते, प्रणं, प्रीणं, प्रतनम्, प्रत्नम् ॥१६१। देवात्तल ॥ ७. २. १६२ ॥ 'देवशब्दात् स्वार्थे तल् प्रत्ययो वा भवति ।
देव एव देवता, लित्करणं स्यर्थम् ॥१६२॥ होत्राया ईयः ।। ७. २. १६३ ॥
होत्राशब्दात्स्वार्थे ईयः प्रत्ययो वा भवति । होत्रव होत्रीयम् ॥१६३। भेषजादिभ्यष्टयण् ।। ७. २. १६४॥
भेषज इत्येवमादिभ्यः स्वार्थे टयण प्रत्ययो भवति वा ।
भेषजमेव भैषज्यम्, अनन्त एव आनन्त्यम, आवसथ एव आवसथ्यम्, इतिह इत्येव ऐतिह्यम्। इतिहेति निपातसमुदाय उपदेशपारंपर्ये वर्तते । चत्वार एव वर्णाश्चातुर्वर्ण्यम्, चातुराश्रम्यम् । चत्वारो वेदाश्चतस्रो विद्या वा चातुर्वेद्यम्, एवं वैद्यम् । अनुशतिकादित्वादुभयपदवृद्धिः । त्रैलोक्यम्, ऐकभाव्यम्, द्वैभाव्यम्, त्रैभाव्यम्, आन्यभाव्यम्, सार्ववैधम्, सार्वलोक्यम्, षाड्गुण्यम् । शोलमेव शैलीयम् आचार्यस्य । भैषज्यानन्त्यावसथ्यैतिशब्दा यदि स्त्रियां स्युस्तदा अजादिषु द्रष्टव्याः॥ भेषजादयः शिष्टप्रयो गगम्याः ॥१६४।।
न्या. भेष० चातुर्वेद्यमिति 'व्यञ्जनात् पञ्चमान्तस्थायाः सरूपे वा' १-३-४७ इति यलोपः, अथ भैषज्यादय आबन्ताः खियां दृश्यन्ते ते कथमित्याह-अजादिष्वित्यादि अन्यथा ट्यणन्तत्वात् जीः स्यात् । प्रज्ञादिभ्योऽण् ॥ ७. २. १६५ ॥ ..... प्रज्ञ इत्येवसादिभ्यः स्वार्थऽण प्रत्ययो वा भवति ।
प्रजानातीति प्रज्ञः प्रम एव प्राज्ञः, प्राज्ञी कन्या । प्रज्ञास्या अस्तीति णे प्राज्ञा कन्या । वणिगेव वाणिजः ।
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३०० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. २ सू० १६६-१६९ ]
प्रज्ञ, वणिज्, उशिज, प्रत्यक्ष, विद्वस्, विदत्, विदन्त, द्विदत्, षोडत्, विद्या, मनस्, जुह्वत्, चिकीर्षत्, चिकीर्षति, वसु, मरुत्, (वसुमत्) सत्वस्, सन्वतु, सर्व, दशाह, क्रुञ्च, वयस्, रक्षस्, असुर, शत्रु, चोर, योध, चक्षुस्, पिशाच, अशनि, कर्षापण, देवता, बन्धु, अनुजा, वर, अनुषुक, चतुष्प्रास्य, रक्षोघ्न, वियात, विकृत, विकृति, व्याकृत, वरिवस्कृत, अग्रायण, अग्रहायण, संतपन, मधुप, द्विधा, (ता) चण्डाल, गायत्री, उष्णिह, अनुष्टुभ्, बृहती, पङक्ति, त्रिष्टुभ्, जगती, इति प्रज्ञादिराकृतिगणः । तेन आग्नीध्री आग्नीध्रा वा शाला साधारणी साधारणा वा भूमिरित्यादि सिद्धम् ॥१६५॥ श्रोत्रौषधिकृष्णाच्छरीरभेषजमृगे ॥ ७. २. १६६ ॥
श्रोत्र, ओषधि, कृष्ण इत्येतेभ्यो यथासंख्यं शरीरे भेषजे मृगे च वर्तमानेभ्यः स्वार्थेऽण् प्रत्ययो वा भवति ।
श्रोत्राच्छरीरे, श्रोत्रमेव श्रौत्रं शरीरम्, श्रोत्रमेवान्यत् । ओषधेर्भेषजे ओषधिवौषधम् भेषजम् । ओषधिरेवान्यत् । कृष्णान्मृगे। कृष्ण एव काष्र्णो मृगः, कृष्ण एवान्यः ॥१६६॥ कर्मणः संदिष्टे ॥ ७ २. १६७ ।। संदिष्टेऽर्थे वर्तमानात्कर्मणः स्वार्थेऽण् प्रत्ययो भवति ।
अन्येनान्योन्यस्मै यदाह त्वयेदं कर्तव्यमिति तत्संदिष्टं कर्म । कमैव कार्मणं करोति, संदिष्टं कर्म करोतीत्यर्थः । वशीकरणमपि वृद्धपरंपरोपदेशात क्रियते इति कार्मणमुच्यते । संदिष्ट इति किम् ? कर्म करोति । सत्यपि महावाधिकारे विशिष्टोऽर्थः प्रत्ययमन्तरेण न प्रतोयते इत्यस्मिन् विषये नित्य एव प्रत्ययः ।१६७॥ वाच इकण् ॥ ७. २. १६८ ॥
संदिष्टीऽर्थे वर्तमानाद्वाचशब्दात्स्वार्थे इकण् प्रत्ययो भवति ।
अन्येनान्योऽन्यस्मै यामाह सा संदिष्टा वाक् । वागेव वाचिकं कथयति, संदिष्टां वाचं कथयतीत्यर्थः। संदिष्ट इत्येव, चित्रा वाक् चैत्रस्य । अत्रापि पूर्ववन्नित्यो विधिः ॥१६॥ विनयादिभ्यः ॥ ७. २. १६९ ॥
विनय इत्येवमादिभ्यः स्वार्थे इकण प्रत्ययो वा भवति । विनय एव
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[पाद. २. सू. १७०-१७२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३०१ वैनयिकम्, समय एव सामयिकम् । विनय, समय, समाय, कथंचित्, अकस्मात्, उपचार, व्यवहार, समाचार, संप्रदाय, समुत्कर्ष, संगति, संग्राम, समूह, विशेष, अव्यय, अत्यय, अनुगादिन् इति विनयादिराकृतिगणः ।।१६९॥ उपायादुध्रस्वश्च ॥ ७. २. १७० ॥
उपायशब्दात्स्वार्थे इकण् प्रत्ययो वा भवति तत्संनियोगे च हस्वः । उपाय एव औपयिकम् ।।१७०॥ मृदस्तिकः ॥ ७. २.१७१।।
मच्छब्दात्स्वार्थे तिकः प्रत्ययो वा भवति । मृदेव मृत्तिका ।।१७१॥ सस्नो प्रशस्ते ॥ ७. २. १७२ ॥
मृद् इत्येतस्मात् प्रशस्तेऽर्थे वर्तमानात् स स्न इत्येतौ प्रत्ययो वा भवतः, रूपप्रत्ययापवादः । प्रशस्ता मृत् मृत्सा मृत्स्ना, केचित्तु रूपमपीच्छन्ति प्रशस्ता मृत् मृदूपा ॥१७२।।
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपजशब्दानुशासनबृहवृत्तौ सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः ।।७ २. १७२ ॥ उत्साहसाहसवता भवता नरेन्द्र, धारावतं किमपि तद्विषमं सिवे । यस्मात्फलं न खल मालवमात्रमेव श्रीपर्वतोऽपि तव कन्दुककेलिपात्रम् ॥१॥
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचितायां बृहद्वृत्तावचूर्णिकायां सप्तमस्वाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः।
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॥ तृतीयः पादः ॥
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प्रकृते मयट् ॥ ७ ३. १॥
प्राचुर्येण प्राधान्येन वा कृतं प्रकृतम्, प्रकृतेऽर्थे वर्तमानान्नाम्नः स्वार्थे मयट् प्रत्ययो भवति ।
अन्नं प्रकृतम् अन्नमयम्, घृतमयम्, दधिमयम्, टकारो ङघर्थ:यवागूमयी । अतिवर्तन्तेऽपि स्वार्थिकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानीति यवागूः प्रकृता यवागूमयम् । एवमुत्तरत्रापि । अपूपाः प्रकृताः आपूपिकम् अपूपमयम्, शष्कुल्यः प्रकृताः शाष्कुलिकम् शष्कुलीमयम् । प्रकृत इति किम् ? अन्नम् घृतम् ॥ १॥
न्या० स० प्रकृते ० – अन्नमयमिति अन्नं प्रचुरं प्रधानं वेत्यर्थः । अतिवर्तन्ते इति इहानमयमित्यादिषु युक्तमन्नादेर्नपुंसकत्वात् प्रत्ययस्यापि तत्रैव वृत्तिरिति यवागूमयीत्यपि युक्तमेव प्रकृत्यर्थस्य स्वात् प्रत्ययस्य स्वार्थिकस्य तत्रैव स्त्रियां वृत्तेः, यवागूमयमिति त्वयुक्तं यवाग्वर्थस्य स्त्रीत्वात् स्वार्थिकस्य प्रत्ययस्यापि तत्तैव वृत्रैर्नपुंसकत्वायोगादित्याशङका ।
अस्मिन् ॥ ७.
३.२ ॥
प्रकृतेऽर्थे वर्तमानान्नान्नोऽस्मिन्निति सप्तम्यर्थे मयट् प्रत्ययो भवति । अन्नं प्रकृतमस्मिन्नन्नमयं भोजनम्, अपूपमयं पर्व, वटकमयी यात्रा, वागूमी इष्टः ॥ २॥
तयोः समूहवच्च बहुषु ॥ ७. ३.३ ॥
तयोः 'प्रकृते' 'अस्मिन्' इत्येतयोर्विषययोर्बहुषु वर्तमानान्नान्नः समूहयत्प्रत्ययो भवति चकारान्मयट् च ।
--
अपूपाः प्रकृता: आपूपिकम्, अपूपमयम्, मौदकिकम्, मोदकमयम्, शाष्कुलिकम्, शष्कुलीमयम् । 'कवचिहत्य चित्ताच्चेकण्' 'धेनुकम् धेनुमयम्, ' धेनेारनञः'। अपूपाः प्रकृता अस्मिन् आपूपिकम् अपूपमयं पर्व, मौदकिकी मोदकमयी पूजा, गणिकाः प्रकृता यस्यां यात्रायां गाणिक्या, गणिकामयी यात्रा | 'गणिकाया ण्यः | अश्वीया अश्वमयी यात्रा । ' वाश्वादीयः ' ॥३॥
,
निन्द्ये पाश ॥ ७ ३.४ ॥
निन्द्येऽर्थे वर्तमानान्नाम्नः स्वार्थे पाशम् प्रत्ययो भवति ।
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[पाद. ३. सू. ५-६] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३०३
निन्द्यो वैयाकरणः वैयाकरणपाशः, छान्दसपाशः । निन्द्य इति किम् ? साधुर्वैयाकरणः। प्रत्यासत्तेः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तकुत्सायामयमिष्यते, तेनेह न भवति । वैयाकरणश्चौरः । नक्षत्र चौर्येण वैयाकरणत्वं कुत्स्यते किं तर्हि शीलमिति । पकारः पुवदावार्थः, कुत्सिता कुमारी कुमारपाशा, किशोरपाशा । अथेह वयोवचनत्वात्पुनर्जीः कस्मान्न भवति । कुमारादयो वयोवचना, न कुमारपाशादयः । निन्दावचना हि ते इति न भवति ॥४॥
न्या० स० निन्द्ये०-इति न भवतीति ननु पाशपः प्रत्ययस्य स्वार्थे उत्पन्नत्वात् कुमारपाशादयोऽपि वयोवचना इति प्राप्नोति ? ____ सत्यं, यत्र केवलवयोवाचित्वं तत्रैव डीः गौणमुख्ययोरिति न्यायात्, कुमारपाशादयस्तु निन्दाविशिष्टवयोवाचिन इति । प्रकृष्टे तमप् ॥ ७. ३.५ ॥
प्रकृष्ट प्रकर्षवत्यर्थे वर्तमानान्नाम्नस्तमप प्रत्ययो भवति । प्रकर्षोऽतिशयः। स च गुणक्रिययोरेव न जातिद्रव्ययोः । सर्वे इमे शुक्लाः अयमेषां प्रकृष्ट: शुक्लः शुक्लतमः, शुक्लतमो, शुक्लतमाः, एवमाढयतमः, सुकुमारतमः, कारकतमः, साधकतमः, प्रकृष्टतमः। जातिद्रव्यवचनेभ्योऽपि गुणक्रियाप्रकर्षविवक्षायां भवति । गौरयं य सुसंहननः शकटं वहति । गोतमोऽयं यः सुलक्षणः शकटं सीरं च वहति । गोतमयं या समांसमां विजायते खीवत्सा च । द्रव्यान्तरसमवायिना च प्रकृष्टेन गुणेन कृत्वा प्रकृष्ट द्रव्ये तद्वतः प्रत्ययो भवति । अतिशयेन सूक्ष्माणि वस्त्राण्यस्य सूक्ष्मवस्वतमः। प्रकर्षप्रत्ययान्ताच्च प्रकर्षस्यापि प्रकर्षविवक्षायां प्रत्ययो भवति । यथा युधिष्ठिरः श्रेष्ठतमः कुरूणाम्, तरवन्तात्तु तरपन भवति, अनभिधानात् । तथा यथा पूर्वपदातिशये पूर्वपदादहुव्रीहेर्वा आतिशायिकः प्रत्ययो भवति सूक्ष्मतमवस्त्रः सूक्ष्मवस्त्रतमो वा न तथोत्तरपदातिशये बहुव्रीहेः बह्वाढयकतम इति किंतूत्तरपदादेव । बहव आढयतमा यत्र बह्वाढथतमकः । केचित्तु पूर्वपदातिशये बहुव्रीहेरेवातिशायिकमिच्छन्ति । द्वयोः प्रकर्षे तरपो विधानात् बहूनां प्रकर्षेऽयं विधिः ।
कथं तहिं प्रधानमयं ग्रामः प्रधानतमोऽयं ग्रामे, आढयौं नगरम् आढयतमोऽयं नगरे । एकस्मिन्नपि निर्दिष्टे समुदाये तदन्तर्गतावयवान्तरापेक्षया प्रकर्षे भविष्यति । प्रकृष्ट इति किम् ? महत्सर्षपं महान् हिमवानिति । शुक्लापेक्षया च कृष्णे माभूत् । अदूरविप्रकर्षे समानगुणक्रिययोश्च स्पर्धा भवति, नहि निष्कधनः शतष्किधनेन स्पर्धते । आढचाभिरूपौ वा गन्तृपाचको वा। तथा
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३०४ ] बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. २ ० ५-६ ] च तन्निमित्तः प्रकर्षोऽपि नास्ति । कथं तहि शुक्लकृष्णयोः कृष्णो भास्वरतर इति । भास्वरत्वमेकजातीयम् तदपेक्षो भविष्यति । कथमन्धानां काणतमः, अन्धशब्दस्य काणपर्यायत्वात्काणशब्दस्य चान्धपर्यायत्वाददोषः । कथमहिंसकः श्रेयान् पापीयान् प्राणिनां हन्तेत्यत्र तरवर्ये ईयस् । नैतयोः परस्परं स्पर्धा, कि तर्हि अन्यापेक्षा, पकारः पुंवद्भावार्थः । शुक्लतमा शाटी ॥५॥
न्या० स० प्रकृ०-सुसंहनन इति सुसंबद्ध इति समांसमामिति अत्र. 'कालाध्वभाव' २-२-२३ इत्याघारस्य कर्मत्वे द्वितीयान्तस्य वीप्सायां द्वित्वम् । स्त्रीवत्सा चेति स्त्री वत्सा यस्याः सा तथा, सवत्सेत्युच्यमाने सह वत्सेन वत्सया या वर्तते इति संशयः स्यात् तन्निरासाय स्त्रीवत्सेत्युक्तम् ।
द्रव्यान्तरेति देवदत्तरूपात् द्रव्यादन्यद्रव्यं वस्त्रादि तत्र समवायी यो गुणः सूक्ष्मत्वादिः तेन । तद्वत इति प्रकृष्टगणवद द्रव्यवतश्चैत्रादेः परमार्थवृत्त्याऽस्यैव प्रकर्ष इत्यर्थः । ___ कुरूणामिति कुरोरपत्यानि 'दुनादि' ६-१-११८ इति व्यः, 'बहुवखियाम्' ६-१-१२४ इति तस्य लुप् ।
तरबन्तात्त्वित्यादि द्वयोः शुक्लतरयोर्मध्ये प्रकृष्टः शुक्लतर इति विग्रहें सतीति ज्ञेयम् । तथेति अनभिधानादित्यर्थः । बह्वाहयकतम इति प्रयोगे बहुव्रीहिज्ञापनाय कच् दर्शित ।
केचित्त्वित्यादि तन्मते सूक्ष्मतमवस्त्र इति प्रयोगो न भवति । कथमिति यदि बहूनां प्रकर्षोऽयं विधिस्तर्हि प्रधानतमोऽयं ग्राम इत्यत्र ग्रामपुरुषयोद्धयोः प्रकर्षे न प्राप्नोतीति कथमर्थः उत्तरं तु सुगममेव । महान् हिमवानिति अत्र सर्वपापेक्षया हिमवतो महत्त्वात् महच्छब्दात्तरप प्राप्नोति तर्युत्तरसूत्रेऽयं विचारो युक्तस्तरप उत्तरेण विधानात् १
सत्यं, प्रकर्षस्यात्र प्रस्तुतत्वात्तद्विचारप्रस्तावे उक्त इति न दोषः, विषमगुणयोः स्पर्धाया अभावात् प्रकर्षाभावे तमा न प्राप्नोतोत्याह-कथमन्धानामिति,
कथमहिंसक इत्यादि द्वयोर्वाक्ययोः पृथक्प्राप्तयोः श्रेयः पापीयसोविषमगुणयोः परस्परापेक्षया प्रकर्ष प्रतिपद्यमान परः प्राह कथमित्यादि। अन्यापेक्षेति अन्यमहिंसकान्तरसपेशी 'शीलिकामि' ५-१-६३ इति णः । द्वयोर्विभज्ये च तरम् ॥ ७. २. ६ ॥
द्वयोस्तद्भणयोरर्थयोर्मध्ये यः प्रकृष्टस्तस्मिन् विभज्ये च विभक्तव्ये च प्रकृष्टेऽर्थे वर्तमानान्नाम्नस्तरप् प्रत्ययो भवति, तमपोऽपवादः ।
द्वाविमौ पटू अयमनयोः प्रकृष्टः पटुः पटुतरः, एवं सुकुमारतरः। पाचकतरः, गोतरो यः शकटं वहति सीरं च, गोतरा या समांसमां बिजायते स्त्रीवत्सा च । दन्ताश्च औष्ठौ च दन्तौष्ठम् दन्तौष्ठस्य, दन्ताः स्निग्धतराः । पाणी च पादौ च पाणिपादम्, पाणिपादस्य पाणी सुकुमारतरौ। अत्र यद्यपि विग्रहे बहत्वसंख्या प्रतीयते तथापि समाहारेऽवयवो स्वार्थमा दन्तत्वादिलक्षणम
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[ पाद. ३. सू. ७-८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [३०५ अभेदैकत्वसंख्यायोग्युपाददात न संख्याभेदमिति द्वयोरेव प्रकर्षः। यदा पूनरितरेतरयोगस्तदा बह्वर्थप्रकर्ष इति तमबेव भवति । अस्माकं च देवदत्तस्य च देवदत्तोऽभिरूपतरः । अत्रास्माकमित्येकस्यैव ‘अविशेषणे द्वौ चास्मदः' (२-२१२२) इति बहुवद्भावः। परुद्भवान्पटुरासीत् पटुतर ऐषयः । अत्रकस्यापि पर्यायार्पिणया द्वित्वमिति द्वयोरेव प्रकर्षः । विभज्ये, सांकाश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रका आढयतराः अभिरूपतराः सुकुमारतराः, सांकाश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रकेभ्यश्च माथुरा आढथतराः अभिरूपतराः सुकुमारतराः, सांकाश्यकादिषु पाटलिपुत्रकादीनामप्रवेशात विभागः, विभज्यस्य च विशेषणमप्याढथाद्यर्थः प्रकृष्टं विभज्यं भवति ततः प्रत्ययः । द्वयोविभज्ये चेति किम् ? गवां कृष्णा संपन्नक्षीरतमा, सांकाश्यकानां पाटलिपुत्रकाणां च पाटलिपुत्रका आढघतमा इत्यत्र राश्यपेक्षया द्वित्वेऽपि शब्देन बहुत्वोपादानात्तरप् न भवति । विभज्यग्रहणमद्वित्वार्थम् । प्रकष्टे' इत्येव, अयमनयोः पटुः, सांकाश्यकेभ्यः पाटलिपुत्रका आढघाः । पकारः पूवद्धावार्थः। शुक्लतरा शाटी ॥६॥ ... न्या० स० द्वयोः०-तद्गुणयोरिति स विवक्षितः समानो गुणो ययोरिति विग्रहः । अभेदैकत्वसंख्येति न विद्यते भेदो यस्याः सा अभेदा, सा चासावेकत्वसंख्या च, यथौषधिरसाः सर्वे मधुन्याहितशक्तयः, अविभागेन वर्तन्ते तां संख्यां तादृशीं विदुः, चैत्रेण चैत्राभ्यां चैत्रैर्वा भूयत इत्यत्र या संख्या सा अभेदैकत्वसंख्येति । पर्यायार्पणयेति पर्यायेषु पदुपटुतरादिषु अर्थस्य विशेषस्य चत्रादेरर्पणा ढौकनम् । गवां कृष्णेति अत्र यथा द्वयोरर्थयोर्मध्ये प्रकृष्टत्वं नास्ति तथा विभज्योऽपि नास्ति, स हि भेदरूपमापन्नानां भवति, अत्र तु गोत्वेन सर्वा अपि कृष्णा गावोऽभिन्नाः।
सांकाश्यकानां पाटलिपुत्रकाणां चेति प्रकर्षद्वारेण विभज्यद्वारेणापि न भवति, षष्ठ्यन्तपदाभ्यां समुदायस्याभिन्नस्यैव प्रतिपादनात् , न त्यत्राप्यपायप्रतिपादिका पञ्चम्यस्ति, अपि तु चकारेणाविभागः प्रतीयते ।
ननु द्वयोरित्युक्तेऽपि अत्र न भविष्यति किं विभज्यग्रहणेन ?
स्याह-विभज्यग्रहणमित्यादि विभज्ये इत्यसति द्वयोरेव प्रक्रष्टे स्यात. ततउचामगति हि द्वित्वे विभज्ये यथा स्यादित्येवमर्थम् । क्वचित् स्वार्थे ॥ ७. ३. ७ ॥
क्वचित् स्वार्थेऽपि तरप् प्रत्ययो पवति । प्रकृष्ट सिद्ध एव । अभिन्नमेवाभिन्नतरकम्, उपपन्नमेवोपपन्नतरकम्, उच्चैरेवोच्चस्तराम् । कचिदग्रहणं शिष्टप्रयोगानुसरणार्थम् ॥७॥ कित्यायव्ययादसत्त्वे तयोरन्तस्याम् ॥ ७. ३. ८॥ ..
किंशब्दात् त्याद्यन्तात् एकारान्तादव्ययेभ्यश्च परयोस्तमप्तरपोरन्तस्या
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३०६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ ० ९ ] मित्ययमादेशो भवति असत्त्वे न चेती सत्वे द्रव्ये इदंतदितिपरामर्शयोग्ये प्रकृष्टे वर्तेते । इदमनयोरतिशयेन किं पचति किंतरां पचति, इदमेषामतिशयेन किं पचति किंतमां पचति त्यादि, द्वाविमौ पचतः अयमनयोरतिशयेन पचति पचतितराम् , सर्वे इमे पचन्ति, अयमेषां प्रकृष्टं पचति पचतितमाम् , अस्मादेव वचनात् त्याद्यन्तादपि व्यर्थप्रकर्षे तरप् वह्वर्थप्रकर्षे तमप् भवति । पूर्वाहणेतरां भुङ्क्ते । पूर्वाह्णतमाम्, भुङ्क्ते । अपराहणेतराम् । अपराहणेतमाम् । प्राहेतराम् प्राहणेतमाम् प्रगेतराम्, प्रगतमाम्, अग्रेतराम् , अग्रेतमाम् । एग्रहणसामर्थ्यात् काले सत्वेऽप्याम् भवति नान्यस्मिन्नेदन्ताभावात् । अंग्रेशब्दोऽपि । कालवाची । अथवा विभक्त्यर्थो न द्रव्यम् । तत्प्रकर्षेऽत्र तरप्तमपी। शोभनो हेशब्दो यस्य स सुहेतर इत्यत्रानभिधानान्न भवति । क्रियाशब्देभ्यश्च, जयतीति विचि जेः जेतर इत्यादि, अव्यय, नितराम् , सुतराम्, अतितराम अतित. माम् , अतीवतराम्, नतराम्, उच्चस्तराम् । उच्चस्तमाम् ।
कित्याचेव्ययादिति किम् ? शीघ्रतरं गच्छति । असत्व इति किम् ? किंतरं दारु । उच्चस्तरः उच्चस्तमौ वृक्षः, उत्तरः, उत्तमः ।८।
न्या० स० कित्यावे.-अस्मादेवेति नामप्रस्तावात् 'त्यादेश्च प्रशस्ते रूप' ७-३-१० इति वचनाच नाम्न एव प्राप्नुत इति प्रश्नाशयः। ____ अथवेति यद्यपि पर्वाहोपराह इति कालः सत्वमत्र नामार्थः तथापि विभक्त्यर्थो याऽधिकरणशक्तिर्न सा आधेयपरतन्त्रा इति तस्या असत्त्वात्तत्र प्रत्यय इति । गुणाङ्गादेष्टेयसू ॥ ७. ३. ९ ॥
तयोरिति सप्तम्या विपरिणम्यते, गुणोऽङ्ग प्रवृत्तिनिमित्तं यस्य स गुणाङ्गः। यः शब्दो गुणमभिधाय द्रव्ये वर्तते । तस्मात्तयोस्तमप्तरपोविषये यथासंख्यमिष्ठ ईयसु इत्येतौ प्रत्ययो वा भवतः। पक्षे यथाप्राप्तं तमप्तरपो च । तमबर्थे इष्ठः । अयमेषामतिशयेन पटुः पटिष्ठः, पटुतमः, पटिष्ठी, पटुतमो, पटिष्ठाः, पटुतमाः, एवं लधिष्ठः, लघुतमः, गरिष्ठः गुरुतमः, म्रदिष्ठः, मृदुतमः तरबर्थे ईयसुः, अयमनयोरतिशयेन पटुः पटीयान्, पटुतरः, गरीयान्, गुरुतरः, लघीयान्, लघुतरः, प्रदीयान् , मृदुतरः, परुद्भवान् पटुरासीत् पटीयानैषमः, पटुतरः, माथुरेभ्यः पाटलिपुत्रकाः पटीयांसः पटुतराः। गुणग्रहणं किम् ? गोतमः, गोतरः, पाचकतमः, पाचकतरः, दन्तोष्ठस्य दन्ताः स्निग्धतराः, परुद्भवान् , विद्वानासीत् ऐषमो विद्वत्तर इति । अत्र जाति. क्रियाङ्गत्वान्न भवति ।
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[पाद. ३. सू. १०-११] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३०७
अङ्गग्रहणं किम् ? शुक्लतमम् , शुक्लतरं रूपम् । अत्र हि गण एव वत्तिर्न तदुपसर्जने, द्रव्य इति न भवति । ईयसोरुकार उदित्कार्यार्थः । पटीयसी ।९।
न्या स० गुणा०–तदुपसर्जन इति स गुण उपसर्जनं यत्र तत्र । त्यादेश्व प्रशस्ते रूपम् ॥ ७. ३. १०॥
त्याद्यन्तान्नाम्नश्च प्रशस्तेऽर्थे वर्तमानाद्रूपप् प्रत्ययो भवति । प्रशस्तं पचति पचतिरूपम्, पचतोरूपम्, पचन्तिरूपम् । त्याद्यन्तानां क्रियाप्रधानत्वात्तस्याश्च साध्यत्वेन लिङ्गसंख्याभ्यामयोगात् रूपबन्तस्यौत्सर्गिकमेकवचनं नपुसकलिङ्ग च भवति । प्रशस्तो वैयाकरणो वैयाकरणरूपः, पण्डितरूपः । प्रकृते प्रवृत्तिनिमित्तस्य वैस्पष्टयम् परिपूर्णता प्रशस्तत्वम्, तेनात्रापि भवति । वषल रूपोऽयमपि पलाण्डुना सुरां पिबेत् । दस्युरूपोऽयमप्यक्ष्णोरञ्जनं हरेत् । पटुतमरूपः, पटुतररूपः । पकारः पुंवद्भावार्थः । शोभनरूपा, दर्शनीयरूपा ।१०। अतमबादेरीषदसमाप्ते कल्प' देश्यप् देशीयर ॥ ७. ३. ११ ॥
त्यादेश्चति वर्तते, संपूर्णता पदार्थानां समाप्तिः। सा किंचिद्रना ईषदसमाप्तिः । तद्विशिष्टेऽर्थे वर्तमानात्त्याद्यन्तान्नाम्नश्च तमबाधन्तवजितात् कल्पप देश्यप देशीयर् इत्येते प्रत्यया भवन्ति । ईषदसमाप्तं पचति पचतिकल्पम, पचतिदेश्यम्, पचतिदेशीयम्, पचतःकल्पम्, पचतोदेश्यम्, पचतोदेशीयम्, पचन्तिकल्पम, पचन्तिदेश्यम्, पचन्तिदेशीयम्, पक्ष्यतिकल्पम् । अपाक्षीत्कल्पमित्यादि । पूर्ववन्नपुंसकत्वमेकवचनं च। इदमेव त्यादिग्रहणं ज्ञापकम् शेषस्तद्धितो नाम्न एव भवति । ईषदसमाप्तः पटुः पटुकल्पः, पटुदेश्यः, पटुदेशीयः, कारककल्पः, कारकदेश्यः, कारकदेशीयः, कृतकल्पं भुक्तदेश्यम्, पीतदेशीयम्, ईषदसमाप्तो गुडो गुडकल्पा द्राक्षा, गुडदेश्या, गुडदेशीया, पयस्कल्पा यवागः, चन्द्रकल्पं मखम, तैलकल्पा प्रसन्ना । गुडादिधर्माणां माधुर्यादीनां द्राक्षादिष्वीषदसमाप्तत्वात गडादित्वेनेषदसमाप्ता द्राक्षादय एवमुच्यन्ते । कल्पबाधन्तमुपमेये वर्तमानमुपमेयलिङ्गसंख्यम् । बहुप्रत्ययपूर्वं तु प्रकृतिलिङ्गसंख्यम् ।
स्वभावाच्छब्दशक्तिरेषा यदुत स्वार्थिकाः केचित् प्रकृतिलिङ्गान्यतिवर्तन्ते यथा कुटीरः, शुण्डारः, शमीरुः, शमीरः, दैवतम्, औपयिकम्, औषधम् वाचिकमिति । केचित्तु नातिवर्तन्ते यावकः, मणिकः, हतिका, मृत्तिका, कासूतरी, गोणीतरी व्यावक्रोशी, व्यावहासीति । अतमवादेरिति किम् । यदा प्रकर्षा
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३०८ ] . बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू. १२-१४ ] दिविशिष्टस्येषदसमाप्तिविवक्षा भवति तदा तमबादिभ्यः कल्पबादयः प्राप्नुवन्त्यतस्ते मा भूवन् । यदा त्वीषदसमाप्तस्य प्रकर्षादयो विवक्ष्यन्ते तदा कल्पबाधन्तेभ्यस्तमबादयो भवन्त्येव । पटुकल्पतमः पटुकल्पतरः, पटुदेश्यतमः, पदेश्यतरः पटुकल्परूपः, पटुदेश्यरूपः । पकारौ पुवद्भावाौँ । दर्शनीयकल्पा, दर्शनीयदेश्या। केचिद्देश्यं पितं नेच्छन्ति तन्मते दर्शनीयादेश्येत्येव भवति । देशीयरिति रेफो 'रिति' (३-२-५८) इत्यत्र विशेषणार्थः । स्रोघ्नदेशीया । पञ्चमदेशीया ।११।
न्या० स० अतम०-पचतः कल्पमिति 'प्रत्यये' २-३-६ इत्यनेन सो न भवति अव्ययपर्यदासेन नाम्नो ग्रहणात्, अव्ययं नाम तद्वर्जनेनान्यदपि नाम गृह्यते । स्रौनदेशीयेति ईषदसमाप्ता स्रोघ्नी पश्चमी वा, अनयोः 'तद्धितः स्वरवृद्धिः, ३-२-५५ इति तद्धिताककोपान्त्य' ३-२-५४ इत्याभ्यां निषिद्धोऽपि 'रिति' ३-२-५८ इत्यनेन पुंवद्भावः। . नाम्नः प्राग्बहर्वा ॥ ७. ३. १२॥
ईषदसमाप्तेऽर्थे वर्तमानानाम्नो बहुप्रत्ययो वा भवति स च प्राक पुरस्तादेव न परस्तात् । ईषदसमाप्तः पटुः बहुपटुः, बहुमृदुः, बहुभुक्तम्, बहुपीतम्, बहुगुडो द्राक्षा, बहुतैलं प्रसन्ना, बहुपयो यवागूः, बहुचन्द्रो मुखम् । नामग्रहणं त्याद्यन्तनिवृत्त्यर्थम् । त्याधन्तेषु सावकाशाः कल्पवादयो बहुना मा बाधिषतेति वावचनम् । तेन पक्षे तेऽपि भवन्ति ।१२। न तमबादिः कपोऽच्छिन्नादिभ्यः॥ ७. ३. १३ ॥
छिन्नादीन् वर्जयित्वान्यस्माद्यः कप् प्रत्ययस्तदन्तात्तमबादिः प्रत्ययो न भवति । ____ अयमेषां प्रकृष्टः पटुकः, अयमनयोः प्रकृष्टः पटुकः । प्रकर्षादिमतः कुत्सितत्वादिविवक्षायां तमबाद्यन्तेभ्यः कप् भवत्येव । अयमेषामतिशयेन पटुः कुत्सितः पटुतमकः, अयमनयोः, पटुतरकः, पटुरूपकः पटकल्पकः पटदेश्यकः, पटुदेशीयकः । कब् इति किम् ? कुटीरतमः। पकारः किम ? लोहितकतमो मणिः । लोहितकतममक्षि कोपेन । अच्छिन्नादिभ्य इति किम ? कृत्सितोऽल्पोऽज्ञातो वा छिन्नः छिन्नकः । अयमेषामतिशयेन छिन्नकः छिन्नकतमः, छिन्नकतरः, छिन्नकरूपः, छिन्नककल्पः । छिन्नादयः प्रयोगगम्याः ॥१३॥ अनत्यन्ते ॥ ७. ३. १४ ॥ अनस्यन्तेऽर्थे यः कप तदन्तात्तमबादिर्न भवति, छिन्नाद्यर्थं वचनम् ।
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पाद ३. सू. १५-१८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः
[ ३०९
अनत्यन्तं छिन्नं छिन्नकम्
1
अनत्यन्तं भिन्नं भिन्नकम् इदमेषां प्रकृष्टं छिन्नकम् प्रकृष्टं भिन्नकम् इदमनयोः प्रकृष्टं छिन्नकम् प्रकृष्टं भिन्नकम्, यदा तु प्रकर्षवतोsनत्यन्तविशिष्टविवक्षा तदा तमबाद्यन्तात् 'क्तात्तमबादेश्चा'नश्यन्ते' (७-३-५६) इति कब् भक्त्येव । छिन्नतमकम्, छिन्नतरकम्, भिन्नतमकम्, भिन्नतरकम् ॥ १४ ॥
,
,
1
यावादिभ्यः कः ॥ ७, ३. १५॥
याव इत्येवमादिभ्यः स्वार्थे कः प्रत्ययो भवति । याव एव याबक, मणिरेव मणिकः, अविरेव अविक: 1
याव,
मणि, अवि, अस्थि, लात्र, पात्र, पीत, स्तब्ध, ज्ञात, अज्ञात, 'पुण्य, नित्य, सत्वत् दशार्ह, वयस्, चन्द्र, जानु, भूत, भिक्षु इति मावादिराकृतिगणः । तेनाभिन्नलरकम् बहुतरकमित्यादि सिद्धम् ।१५।
"
कुमारी क्रीडने यसोः
।। ७. ३. १६ ।।
कुमारीणां यानि क्रीडनानि तद्वाचिभ्य ईयसुप्रत्ययान्तेभ्यश्च स्वार्थे कः प्रत्ययो भवति । कन्दुरेव कन्दुकः, उत्कण्टकः, गिरिकः, समुद्गकः, दोलिका, भ्रमरकः, शृङ्गकम् । ईयसु, श्रेयानेव श्रेयस्कः, ज्यायस्कः, भूयस्कः । १६ ।
न्या० स० कुमा० – दोलिकेति दोलैव 'इच्चापुंसो नि' २-४-१०७ इति वा इत्वम् । ज्यायस्क इति द्वयोर्मध्ये प्रकृष्टो वृद्धः प्रशस्यो वा ईयसुः ' वृद्धस्य च ज्यः ' ७-४-३५ 'ज्यायान्' ७-४-३६ इति ईकारस्य आकारः, ज्यायानेव ' प्रत्यये ' २-३ - ६ इति सूत्रेण सः । भूयस्क इति द्वयोर्मध्ये प्रकृष्टो बहुः ईयसि 'भूर्लुक् चेवर्णस्य ' ७-४-४१ भूरादेश ईलोपश्च ।
लोहितान्मणौ ॥ ७. ३. १७ ॥
लोहितशब्दान्मणी वर्तमानात् स्वार्थे कः प्रत्ययो वा भवति । लोहित एव लोहितको मणिः, लिङ्ग विशिष्टस्यापि ग्रहणाल्लोहिन्येव लोहिनिका मणिः, लोहितैव लोहितिका मणिः, मणेविशेषणमेतदित्येके । नामधेयमित्यन्ये । वाधिकारात भवत्यपि । लोहितो मणिः । मणाविति किम् ? लोहिता गौः ॥ १७ ॥
रक्तानित्यवर्णयोः ॥ ७. ३.१८ ॥
रक्त द्रव्यान्तरेण लाक्षादिना बर्णान्तरमापादितेऽनित्ये च वर्णे, वर्तमानाल्लोहितशब्दात्कः प्रत्ययो वा भवति ।
रक्त लोहित एव लोहितकः पटः, लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणात् लोहिनिका
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३१० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. ३ सू० १९-२३ } शाटी, लोहितिका पटी, अनित्यवर्णे, लोहितकमणो रूपं कोपेन, लोहितकमक्षि कोपेन, लोहिनिका लोहितिका कन्या कोपेन, वाधिकारान्न भवत्यपि । लोहिता लोहिनी वा कोपेन । नित्योऽपि रक्तो वर्णोऽस्ति यथा कृमिरागादिरक्त पट इति रक्तग्रहणम् । अनित्यग्रहणं किम् । लोहित इन्द्रगोपकः । सत्येवाश्रयद्रव्येऽपय निहानित्य उच्यते । अन्यथा रक्तग्रहणस्यानर्थक्यात् । वर्णग्रहणं द्रव्य निवृत्यर्थम्, असति वर्णग्रहणे स्त्रीणामार्तवे द्रव्ये स्यात् । तद्धि सत्येवाश्रये स्त्रियां कदाचिन्न भवति लोहितशब्दवाच्यं च ॥१८॥
न्या० स० स्का०-नित्योपीत्यादि-ननु रक्त वातुनि अनित्य एक वर्णो भवति यथा हरिद्रादौ, तत्रानित्यवणे इत्येव प्रत्ययः सिध्यति किमर्थ रक्तप्रहमिन्याशङ्का ? सत्येवेति इन्द्रगोपकाभावे लोहितत्वनिवृत्तावपि नानित्यत्वमिति । कालात् ।। ७. ३. १९॥
कालशब्दात्कज्जलादिना रक्त अनित्यवर्णे चार्थे वर्तमानात्कः प्रत्ययो वा भवति ।
रक्त, काल एव कालकः पटः, अनित्यवणे, कालकं मुखं कैलक्ष्येण । वाधिकारान्न भवत्यपि । कालः पटः, कालं मुखम् ।१९। शीतोष्णादतौ ॥ ७. ३. २० ॥
शीतोष्णशब्दाभ्यामृतौ वर्तमानाभ्यां कः प्रत्ययो वा भवति । शीत एव शीतक ऋतुः, उष्णक ऋतुः। ऋताविति किम् ? शीतो वायुः, उष्णः स्पर्शः ।२०। लूनवियातात्पशी ॥ ७. ३. २१ ।।
लनवियातशब्दाभ्यां पशो वर्तमानाभ्यां स्वार्थ कः प्रत्ययो वा भवति । लन एव लनकः, वियातकः पशुः। पशाविति किम् ? लनो यवः, वियातो बटः । विहानशब्दादपोच्छन्त्येके । विहानकः पशुः, विहान एवान्यत्र ।२१। स्नातादेदसमाप्तौ ।। ७. ३. २२ ।।
स्नातशब्दावेदसमाप्ती गम्यमानायां कः प्रत्ययो भवति । वेदं समाष्य स्नातः स्नातकः । वेदसमाप्ताविति किम् ? तीर्थे स्नातः ।२२।। तनुपुत्राणुबृहतीशून्यात् सूत्रकृत्रिमनिपुणाच्छादनरिक्ते ॥७.३.२३ ॥
तनपुत्राणुबहतीशून्य इत्येतेभ्यो यथासंख्यं सूत्रकृत्रिमनिपुणाच्छादनरिक्त इत्येतेष्वर्थेषु वर्तमानेभ्यः स्वार्थे कः प्रत्ययो भवति । तनोः सूत्रे, तनु सूत्र
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पाद. ३. सू. २४-२८] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३११ तनुकम् भङ्गादिमयं कल्पादि च । सूत्र इति किम् ? तनुवंशः । पुत्रात्
त्रिमे, कृत्रिमस्तक्षादिव्यापारनिष्पादितः । कृत्रिमः पुत्रः पुत्रकः । कृत्रिम इति किम् । औरसः पुत्रः । अणोनिपुणे, निपुणो निष्णातोऽणुः अणुकः। निपुण इति किम् । अणुर्चीहिः । बृहत्या आच्छादने, बृहतिका आच्छादनविशेषः । प्रत्ययमन्तरेणार्थानवगमात्र नित्य एवायं विधिः। आच्छादन इति किम् ? बृहती छन्दः, बृहती ओषधिः, शून्याद्रिक्त, रिक्तो धनप्रज्ञादिना, शून्य एव शून्यक: रिक्तश्चेत् । रिक्त इति किम् ? शुने हितं शून्यम् । अन्ये तु सूत्रादयोऽर्थाः प्रत्ययमन्तरेण न प्रतीयन्ते इति तद्विषये तन्वादिभ्यो नित्य एव प्रत्ययविधिरिति मन्यते, एवं पूर्वसूत्रेऽपि ।२३।
न्या० स० तनु०-नित्य एवायमिति आच्छादनरूपस्यार्थस्यानक्शमात् । भागेऽष्टमाञः ॥ ७. ३. २४ ॥
अष्टमशब्दाद्भाऽगेंशे वर्तमानात्स्वार्थे बः प्रत्ययो वा भवति । अष्टम एवाष्टमो भागः। भाग इति किम् ? अष्टमो जिनः चन्द्रप्रभः ।२४। षष्ठात् ॥ ७. ३. २५ ।।
षष्ठशब्दाद्भागे वर्तमामात्स्वार्थे ञः प्रत्ययो वा भवति । षष्ठ एव षाष्ठो भागः। भाग इति किम् ? षष्ठो जिनः पद्मप्रभः। योगविभाग उत्तरार्थः ।२५॥ माने कश्च ॥ ७. ३. २६ ॥
मीयते येन तन्मानम् । तस्मिन् माने भागे वर्तमानात् षष्ठशब्दात्कश्चकाराञश्च प्रत्ययो वा भवतः । षष्ठ एव षष्ठकः, षाष्ठो भागः मानं चेत् । माम इति किम् ? षष्ठ एव षाष्ठो भागोन्यः ।२६। एकादाकिन् चासहाये ॥ ७. ३. २७ ॥
एकशब्दादसहायार्थवाचिन आकिन् प्रत्ययो भवति धकारात्कश्च । एक एव एकाकी एककः । असहाय इति किम् ? एके आचार्याः, एको द्वौ बहवः ।२७। प्रागू नित्यात्कप ॥ ७. ३. २८ ॥ नित्यशब्दसंकीर्तनात् प्राग्येऽर्थास्तेषु धोत्येषु कप् प्रत्ययोऽधिकृतो वैदि
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३१२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० २९-३१ । तव्यः । कुत्सितोऽल्पोऽज्ञातो वा अश्वः अश्वकः, गर्दभकः, पकार: वद्भावार्थः ।। कुत्सिता दरद् दारदिका, प्रागनित्यादित्यवध्यर्थम् । अन्यथापवादबाधितो नोत्तरत्रानुवर्तेत । परतोऽपि चानुवर्तते ।२८।
न्या० स० प्रागनि०-दारदिकेति दरदां राज्ञी 'पुरुमगध '६-१-११६ इत्यणु, 'द्रेरणो ६-१-१२३ :ति लुप्, ततोऽनेन कपि 'क्यङ्मानि' ३-२-५० इत्यनेन अण्लोपनिवृत्तिरूफे पुंवाके 'आत् ' २-४-१८ इत्याप् 'अस्यायत्तत् ' २-४-१११ इत्वम् , यदा त्वपत्ये अण् तदा गोत्रं च चरणैः सहेति जातित्वे 'स्वाङ्ग्मन् ङोतिश्च' ३-२-५६ इति वन्निषेधः स्यात् । त्यादिसर्वादेः स्वरेष्वन्त्यात्पूर्वोऽक ॥ ७. ३. २९ ॥
त्याद्यन्तस्य सर्वादोनां च स्वरेषु स्वराणां मध्ये योऽत्यस्वरस्तस्मात पूर्वोऽक् प्रत्ययो भवति, प्रागनित्यात् कपोऽपवादः । कुत्सितमल्पमज्ञातं वा पचति पचतकि । पचतकः, पचन्तकि । सर्वादि, सर्वके, विश्वके, सर्वकस्म, विश्वकस्मै, यकतापिता, तकत्पिता, त्वकपिता, मकत्पिता, परमसर्वके, परमविश्वके । तदन्तस्यापि सर्वादित्वमस्तीत्यत्राप्यक् । स्वरेष्वन्त्यादिति किम् ? त्याधन्तात्सर्वादेश्च पूर्व माभूत् । पूर्व इति किम् ? परो माभूत् ।२९।
न्या० स० त्यादि०-यकत्पितेत्यादिषु बहुव्रीहिवर्ज समासः कार्यः, बहुव्रीही तु 'ऋन्नित्यदितः' ७-३-१७१ कच् स्यात् । . युष्मदस्मदोऽसोभादिस्यादेः ।। ७. ३. ३०॥
युष्मदस्मदित्येतयोः सकाराद्योकारादिभकारादिजितस्याद्यन्तयोः स्व. रेष्वन्त्यात्पूर्वोऽक् प्रत्ययो भवति । युष्मदस्मदोः स्वरेष्वन्त्यात्पूर्वस्यापवादः । स्वयका, मयका, त्वयकि, मयकि, युष्माककम् , अस्माककम् , परमत्वयका, परममयका, युष्मदस्मद इति किम् ? तकया, यकया, सर्वकेण, विश्वकेन, इमकेन, अमुकेन, इमकः, अमुकैः, भवकन्तौ, भवकन्त: । केचिद्भवच्छब्दस्यापि स्याद्यन्तस्यान्त्यस्वरात्पूर्वमकमिच्छन्ति । तन्मते, भवतका भवतके भवतकः भवतकोत्यपि भवति । असोभादिस्यादेरिति किम् ? युष्मकासु, अस्मकासु, युवकयोः, आवकयोः, युवकाभ्याम्, आवकाभ्याम्, युष्मकाभिः, अस्मकाभिः ।३०। अव्ययस्य को दु च ॥ ७. ३. ३१ ॥
प्राइनित्याद्यऽर्थास्तेषु छोत्येषु अव्ययस्य स्वरेष्वन्त्यात्स्वरात्पूर्वमक प्रत्ययो भवति तत्संनियागे यत्ककारान्तमव्ययं तस्य दकारोन्तादेशो भवति,
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पाद. ३. सू. ३२-३४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३१३ कपोऽपवादः । कुत्सितमल्पमज्ञातं वा उच्चैः उच्चकैः, नीचैस्, नीचकः, धिक् धकित्, हिरुक हिरकुद, पृथक् पृथकद् । चकारोऽन्वाचये तेन सर्वस्याव्ययस्याक् भवति । ककारान्तस्य त्वक् दान्तादेशश्च । योगविभागस्त्यादेर्दादेशाभावार्यः । शक्लट् शक्तो। यह लुप् दिव, अशाशक् । अकि, अशाशकक् ।३१। तूष्णीकाम् ॥ ७. ३. ३२ ॥
तूष्णीकामिति तूष्णीमो मकारात्पूर्व का इत्यागमो निपात्यते प्रानित्यात्, अकोऽपवादः । कुत्सितमल्पमज्ञातं वा तूष्णीं तूष्णीकाम् आस्ते । तूष्णीकां तिष्ठति ॥३२॥ कुत्सिताल्पाज्ञाते ॥ ७. ३. ३३ ॥
कुत्सितं निन्दितम, अल्पं महत्प्रतियोगि, अज्ञातं प्रकृत्युपात्तधर्मव्यतिरेकेण केनचित् स्वत्वादिना धर्मेणानिश्चितम्, सर्वथा त्वज्ञाते प्रयोगायोगात् । कुत्तिताल्पाज्ञातोपाधिकेऽर्थे वर्तमामाद्यथायोगं कबादयः प्रत्यया भवन्ति ।
__ कुत्सितोऽल्पोऽज्ञातो वाश्वः अश्वकः, गर्दभकः, घृतकम्, तैलकम्, पचतकि, भिन्धकि, सर्वके, विश्वके, उच्चकैः, नीचकैः, तूष्णीकाम् । कथं कुत्सितकः, अल्पकः, अज्ञातकः। कुत्सादीनां भेदोपपत्तेः कुत्सितादिभ्योऽपि कुत्सितादौ प्रत्ययो भवति प्रकृष्टतर इत्यादी प्रकर्षभेदे तरवादिवत् ।
राधकः, पूर्णकः, शूदक इत्यादौ सत्यामपि संज्ञायां कुत्सायोगात् कुत्सित इत्येव कप् । व्याकरणकेन नाम त्वं गर्वितः याज्ञिक्यकेन नाम त्वं विकत्थसे इत्यादी अवक्षेपणमपि कुत्सितमेव । नाकुत्सितेनावक्षिप्यते ।३३।
न्या० स० कुत्सि०-कथमिति कुत्सितादेः प्रकृत्यैव गतार्थत्वात् प्रत्ययस्यार्थाभावान्न तदर्थद्योती प्रत्ययोऽत्र युक्त इत्याशङ्का । कुत्सायोगादिति तेनान्यैरिव संज्ञायां कप् न विधातव्यः, यथा
अज्ञाते कुत्सिते चैव, संज्ञायामनुकम्पने ।
ताक्तनीतावप्यल्पे, वाच्ये ह्रस्वे च कः स्मृतः ॥१॥ भवक्षेपणमपीति व्याकरणं कुत्सनं वैयाकरणस्तु कुत्सित इति व्याकरणात् कथं प्रत्यय इत्याशका । अनुकम्पातधुक्तनीत्योः ॥ ७. ३. ३४ ॥
अनुकम्पा कारुण्येन परस्यानुग्रहः । तया अनुकम्पया युक्ता नीतिस्तद्युक्तनीतिः, नीतिः सामादिप्रयोगः, तत्रानुकम्पायां सामोपप्रदाने एव न भेददण्डो तयोः अनुकम्पाया अयोगात् । अनुकम्पायां तद्युक्तायां नीती भ गम्य
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३१४ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. ३ सू० ३५ ] मानायां यथायोगं कबादयः प्रत्यया भवन्ति । अनुकम्पा तन्नीतिश्च प्रयोक्तृधमौं वेदितव्यो ।
पुत्रकः, वत्सकः, बालकः, बुभुक्षितकः, ज्वरितकः, शनकैः, तूष्णोकाम्, स्वपितकि, स्वपिषकि, जल्पतकि, एहकि । अनुकम्पमान एवं प्रयुङ्क्ते पुत्रक एहकि उत्सङ्गके उपविश कदमकेनासि दिग्धकः कण्टकस्ते लग्नकः, वत्सक तूष्णीकां तिष्ठ ओदनं भोक्ष्यसे हन्त ते गुडका हन्त ते धानका अकि । अत्रोपविश असि तिष्ठ ओदनं भोक्ष्यसे हन्त ते इत्येतेष्वनभिधानान्न भवति, यत्र त्वभिधानं तत्र भवति । नक त्वकं पुत्रक पश्यसकि, असको काकको वृक्षके उच्चकैः प्रणिलीयते । अनुकम्पायां प्रत्यासत्तेरनुकम्प्यमानादेव स्यात् नान्यस्मात् उत्सङ्गादेस्ततोऽपि यथा स्यादिति तद्युक्तनीतिग्रहणम् । ३४ ।।
न्या० स० अनु० गुडका इति गुडेन मिश्रा धाना इति विग्रहे ते लुग् वा' ३-२-१०८ इति धानाशब्दस्य लुकि अनेन कप् । धानका इति अत्र गुडशब्दलोपे कपि 'इच्चापुंसोऽनि.' २-४-१०७ इति नवा इहृस्वौ। अजाते।नाम्नो बहुस्वरादियेकेलं वा ॥ ७. ३. ३५ ॥
तयुक्तनीताविति न वर्तते अनुकम्प्यादेव प्रत्ययविधानात् , ननाम्नो मनुष्यनामयाबहुस्वरादनुकम्पायां गम्यमानायां इय इक इल इत्येते प्रत्यया भवन्ति वा अजातेः न चेन्मनुष्यनाम जातिशब्दो भवति । अनकम्पितो देवदत्तः देवियः, देविकः, देविलः । वावचनात्कबपि । देवदत्तकः, जिनियः, जिनिकः, जिनिलः । जिनदत्तकः । अजातेरिति किम् । महिपकः । वराहकः । शरभकः। सूकरकः। गर्दभकः । एते जातिशब्दा मनुष्यनामानि च । अजातेरिति प्रायिको निषेध इत्यन्ये । व्याघ्रिल: सिहिल इति हि दृश्यते, तन्मते बहुस्वरादित्यपि प्रायिकम् । नृनाम्न इति किम् ? सुसीमकः, सीमा स्फटा । नृग्रहणं किम् ? अनुकम्पितो देवदत्तो हस्ती देवदत्तकः । नामग्रहणं किम् ? मद्रबाहुकः । विशेषणमेतन्न नाम । बहुस्वरादिति किम् ? रामकः, गुप्तकः । ३५ ।
न्या० स० अजा-तद्युक्तनीताविति न वर्तते इति नृनाम्न इत्युक्ते नृनाम्नो हि अनुकम्पैव घटते न तत्युक्तनीतिः ।
ध्याघ्रिल इत्यादि अत्र व्याघ्रसिंहइत्येवंविधा द्विस्वरेव प्रकृतिर्न तु व्याघ्रदत्तसिंहदत्तेत्यनेकस्वरा द्विस्वरयोरेवानयोर्जातिवोचित्वात् बहुस्वरादित्यपि प्रायिकमित्यस्यासंगतार्थत्वापत्तेश्च ।
देवदत्तो हस्तीति कस्यचित् हस्तिनो देवदत्त इति नाम ।
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[ पाद ३. सू. ३६-३८ ] श्रीसिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३१५ वोपादेरडाको च ॥ ७. ३. ३६ ॥
उपपूर्वादजातिरूपान्मनुष्यनामधेयाद्बहुस्वरादनुकम्पायां गम्यमानायां अड अक चकारात् इय इक इल इत्येते प्रत्यया वा भवन्ति । अनुकम्पित उपेन्द्रदत्त: उपड:, उपकः, उपियः, उपिकः, उपिलः । वावचनात्पक्षे कबपि । उपेन्द्रदत्तकः । ३६ ।
न्या० स० वोपा० - उपढ इति 'आतो नेन्द्र' ७-४-२९ इति ज्ञापकादकृत संघेरेव 'द्वितीयात्स्वरादूर्ध्वम् ' ७ - ३ - ४१ इति इन्द्रदत्तेत्यस्य लुक् ।
ऋवर्णोवर्णात्स्वरादेरादेर्लुक् प्रकृत्या च ।। ७. ३. ३७ ।।
ऋवर्णान्तादुवर्णान्ताच्च परस्यानुकम्पायां विहितस्य स्वरादेः प्रत्ययस्यादेर्लुग्भवति तच्च ऋवर्णोवर्णान्तं लुकि सति प्रकृत्या तिष्ठति । न विकारमापद्यत इत्यर्थः । अनुकम्पितो मातृदत्तः मातृय:, मातृकः, मातृलः । अनुकम्पितः पितृदत्तः पितृयः, पितृकः, पितृलः । अनुकम्पितो वायुदत्तः वायुय:, वायुकः, वायुल: । अनुकम्पितो भानुदत्तः भानुयः, भानुकः, भानुल:, प्रकृतिवद्भावात् रेफावादेशौ न भवतः । ऋवर्णोवर्णादिति किम् ? अनुकम्पितो देवदत्तो देवियः, देविकः, देविलः । अनुकम्पितो वागाशीः, वाचियः, वाचिकः वाचिलः । स्वरादेरिति किम् ? मद्रबाहुकः । आदेरिति किम् ? सर्वस्य माभूत् । ३७ ॥
न्या० स० ऋवर्णो० – रेफावादेशाविति 'ऋतो रस्तद्धिते १-२-२६ इति अपदान्ते वर्त्तमानस्य 'अस्वयं भुवोऽवू' ७-४-७० इति च ।
,
मद्रबाहुक इति मण्डूकप्लुतिन्यायेनाधिकारानुवृत्तिरिति नृनामेति पदं न संबध्यते, ततोऽत्र विशेषण शब्दत्वेन नृनामत्वाभावेऽपि व्यावृत्तेर्न द्वयगविकलता, यदा तु नृनामेत्यत्रापि संबध्यते तदेदमपि नृनाम विवक्ष्यते, ततः अजातेर्नृनाम्नः ' ७-३-३५ इत्यनेन इयादौ प्रत्यये विकल्पेन सति मत्रियः मद्रबाहुक इत्यादीन्यपि भवन्ति ।
लुक्युत्तरपदस्य कपून् ॥ ७. ३. ३८ ॥
नूनाम्नो यदुत्तरपदं तस्य ते लुग्वेति लुकि सति ततः कप्न् प्रत्ययो भवति अनुकम्पायां गम्यमानायाम्, कबादीनामपवादः । देवदत्तो देवः । अत्र ' ते लुग्वा ' ( ३-२-१०८ ) इत्युत्तरपदलोपः । अनुकम्पितो देवः देवकः, एवमनुकम्पितो यज्ञः यज्ञकः, पकारः पुंवद्भावार्थः । नकारः ' इच्चापु सोऽनित्क्यापरे' (२-४- १०६ ) इत्यत्र पर्युदासार्थः । अनुकम्पिता देवी देवका । अत्र कति सति पित्त्वात्पुंवद्भावे नित्त्वादाप्परेऽपि ककारे इत्वं न भवति ।
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३१६] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू. ३९-४० ]
उत्तरपदस्येति किम् ? देवदत्ता दत्ता, अत्र ' ते लुग्वा' (३-२-१०८) इति पूर्वपदस्य लुक् । अनुकम्पिता दत्ता दत्तिका, पूर्वेण कप् ।३८। लुक चाजिनान्तात् ।। ७. ३. ३९ ॥
अजिनशब्दान्तान्मनुष्यनाम्नोऽनुकम्पायां गम्यमानायां कप्न् प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे लुक् चोत्तरपदस्य । व्याघ्राजिनो व्याघ्रमहाजिनो वा नाम मनुष्यः सोऽनुकम्पितो व्याघ्रकः, एवं सिंहकः, शरभकः, वृककः, कृष्णकः, उलकः, अनुकम्पिता व्याघ्राजिना व्याघ्रमहाजिना वा व्याघ्रकाः, सिंहकाः । ‘आतो नेन्द्रवरुणस्य' (७-४-२९) इत्यत्र ज्ञापनादकृतसंधेरेवोत्तरपदस्य लुक ।३९।
न्या० स० लुक्चा०-पूर्वोत्तरपदस्य लुकि कपनि देवकः लुगभावे तु कपि देवदत्तकः . एवं च रूपद्वयं स्यादिति, अत्र हि अजिनान्तादेव कनि नित्यं लुकि व्याघ्रक एवेति, अयमत्र भावः अजिनान्तस्यानुकम्पायां कप्न सन्नियोग एव लुक, तेनं व्याघ्रजिनक इति न भवति । षडवकस्वरपूर्वपदस्य स्वरे ॥ ७. ३. ४०॥
षट्छन्दवजितमेकस्वरं पूर्वपदं यस्य तत्संबन्धिन उत्तरपदस्यानुकम्पायां विहिते स्वरादौ प्रत्यये लुग भवति । उत्तरसूत्रस्यापवादः । अनुकम्पितो वागाशी: वाग्दत्तः वागाशीर्दत्तो वा वाचियः, वाचिकः, वाचिलः । एवं त्वचियः, त्वचिकः, त्वचिलः, स्रुचियः, चिकः, सुचिलः । षड्वर्जेकस्वरपूर्वपदस्येति किम् ? उपेन्द्रेण दत्तः उपेन्द्रदत्तः, सोऽनुकम्पितः उपडः, उपकः, उपियः, उपिकः, उपिलः । उत्तरेण लुक् । षड्वर्जेति किम् ? अनुकम्पितः षडङ्गुलि:, षडियः, षडिकः, षडिलः । अत्रोत्तरेण द्वितीयस्वरादूर्ध्वं लोपः । तथा चावणेवर्णस्येत्यल्लुचः स्थानिवद्भावात्पदत्वस्यानिवृत्तेस्तृतीयत्वं न निवर्तते । षड्वर्जनादेव च पदत्वे संधिविधावपि अल्लुकः स्थानित्वनिषेधो न भवति । स्वर इति किम् ? वागाशीकः वागाशीर्दत्तकः ।४०।
न्या० स०षड्व० वाचिय इति नन्वत्र एकस्वरादूर्ध्व लोपे सति 'चजः कगम् । २-१-८६ इति कथं न भवति, यतोऽन्तर्वत्तिविभक्तिमाश्रित्य पदसंज्ञाऽस्ति ? उच्यते, यदि प्रत्यये पर. भावभाजि अन्तवर्तिनी विभक्तिमाश्रित्य पदसंज्ञा स्यात्तर्हि सित्येवेति नियमान्न भवति पदत्वं, अथेत्थं भणिष्यन्ति सित्येवेति नियमस्तदा प्रवर्तते, यदा वागाशीर्दत्त एवंविधस्य प्राप्नोति किंचित् , यतः 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७-४-११५ इति !
नैवं, यतः षड्वर्जनात् पूर्वपदस्यापि पदसंज्ञायां कर्तव्यायां सित्येवेति नियमः प्रवर्तते. यतोऽत्र पडिक इत्यादिसिद्ध्यर्थ षद वर्जनं क्रियते, तच्च तदभावेऽपि सेत्स्यति, यतोऽनेन सूत्रणास्गुलिलोपेऽपि 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७-४-११५ इति परिभाषया पदत्वस्यानिवृत्तेः. यद् वाऽवयवसमुदाययोरभेदोपचारात् समुदायस्य विभक्तिरवयवात् द्रष्टव्या ततः सित्येवेति नियमः प्रवर्तते ।
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[ पाद. ३. सू. ४१-४४ ]
द्वितीयात्स्वरादूर्ध्वम् ॥७. ३. ४९ ॥
अनुकम्पायां विहिते स्वरादौ प्रत्यये परतः प्रकृते द्वितीयात्स्वरादूध्वं शब्दस्वरूपस्य लुग् भवति । अनुकम्पितो देवदत्तो देवियः, देविकः, देविलः । अनुकम्पित, उपेन्द्रदत्त, उपडः, उपकः, उपियः, उपिकः, उपिलः, अनुकम्पितः पितृदत्तः, पितृयः, पितृकः, पितृलः, एवं वायुखः, वासुकः, वायुलः, ऊवंग्रहणं सर्वलोपार्थम् ।४१।
न्या० स० द्विती० – सुपड इति अकृतसंवेरेव लुबित्युत्तरेणाप्राप्तिः, तृत्तीयत्वं च पूर्वबन्न
भवति ।
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [ ३१७
संध्यक्षरात्तेन ।। ७. ३. ४२ ॥
अनुकम्पायां विहिते स्वरादौ प्रत्यये परतः प्रकृतेद्वितीयात्संध्यक्षररूपात्स्वरादूर्ध्वं शब्दरूपस्य तेन द्वितीयेन संध्यक्षरेण सह लुग् भवति । अनुकम्पितः कुबेरदत्तः कुबियः, कुबिकः, कुबिलः । अनुकम्पितः कहोड:, कहियः, कहिकः, कहिलः । अनुकम्पितो लहोड : - लहियः, लहिकः, लहिलः । अनुकम्पितः कपोतरोमा - कपियः, कपिकः, कपिलः । अनुकम्पितोऽमोघः अमोघदत्तः, अमोघजिह्वो वा अभियः, अमिकः, अमिलः । सन्ध्यक्षरादिति किम् ? अनुकम्पितो गुरुदत्तः गुरुयः, गुरुकः, गुरुलः ॥४२॥
शेवलाद्यादेस्तृतीयात् ॥ ७. ३. ४३ ॥
शेवलादिपूर्वपदस्य मनुष्यनाम्नोऽनुकम्पायां विहिते स्वरादौ प्रत्यये परे तृतीयात्स्वरादूर्ध्वं लुग्भवति, द्वितीयात्स्वरादूर्ध्वमित्यस्यापवादः । अनुकम्पितः शेवलदत्तः, शेवलियः, शेवलिकः, शेवलिल: एवं सुषरिदसः, सुपरियः, सुपरिकः, सुपरिल: । विशालदत्तः, विशालियः, विशालिकः । विशालिल:, वरुणदत्तः वरुणियः, वरुणिकः, वरुणिलः । अर्यमदत्तः अर्यमियः, अमिकः, अर्थं मिलः । अत्राप्यकृतसंधेरेव लोपः शेवलेन्द्रदत्तोऽनुकम्पितः शेवलिक इति यथा स्यात् शेवलयिक इति माभूत्, सुपर्याशीर्दत्तोऽनुकम्पितः सुपरिक इति यथा स्यात् सुपयिक इति मा भूत् । शेवल, सुपरि, विलाश, वरुण, अर्यमन् इति शेवलादिः । केचित्तु विशाखिलः, कुमारिल इत्यत्रापीच्छन्ति |४३|
न्या स० शे० – सुपरिदत्त इति सुष्ठु पिपर्त्ति सुपरीति पूर्व पदं नोपसर्गद्वयम् । कचित्तुर्यात् ॥ ७ ३४४ ॥
अनुकम्पायां विहिते स्वरादी प्रत्यये परे कचिल्लक्ष्यानुसारेण तु
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३१८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० ४५-४४ } तुर्थात्स्वादूवं लुग्भवति । अनुकम्पितो बृहस्पतिदत्तो बृहस्पतिशर्मा वा बह-- स्पतियः बृहस्पतिकः, बृहस्पतिलः, एवं प्रजापतियः, प्रजापतिकः, प्रजापतिलः । अकृत सन्धेरित्येव पूर्ववत् प्रजापत्याशीदत्तोऽनुकम्पितः प्रजापतिक इति यथा स्यात् प्रजापत्यिक इति मा भूत् । कचिद्ग्रहणादिह न भवति । अनुकम्पितः: उपेन्द्रदत्तः, उाडः, उपकः, उफ्यिः उपिलः ।४४॥ पूर्वपदस्य वा ।। ७. ३. ४५ ॥
अनकम्पाया विहिते स्वरादौ प्रत्यये परे पूर्वपदस्य लुग वा भवति । अनकम्पितो देवदत्तः, दतियः, दत्तिकः, दत्तिलः । वाक्चनाद्यथाप्राप्तम् ।। देवियः, देविकः, देविल: 'द्वितीयात्स्वरादूर्ध्वम् ' (७-३-४१) इति . लुक् ।४५॥
न्या० स० पूर्व०-दत्तिय इति ‘ते लुम् का' ३-२-१०८ इति पूर्व लुकि बहुस्वरत्वा:. भावादियादिर्न स्मदिति वचनम् ।
हस्वे ॥ ७. ३. ४६ ॥
दीर्घप्रतियोगि ह्रस्वम्, हस्वेऽर्थे वर्तमानाच्छब्दरूपायथायोगं कबादयः . प्रत्यया भवन्ति । हस्वः पटः पटकः, शाटकः, हस्वं पचति पचतकि, हस्वकालयोमात्क्रिया हस्वेत्युच्यते । हस्वाः सर्वे सर्वके, विश्वके, उच्चकः, नीचकैः, तूष्णीकाम् । संज्ञायामपि हस्वस्वयोगात्का, स हस्व इत्येव सिद्धः । वंशकः, वेणकः, नडक: (नरकः), ललकः, वरक: ।४६।
न्या. स. हस्वे०-दीर्घप्रतियोगि ह्रस्वमिति लोहादिकं हस्वं च महच्च संभवतीति महत्प्रतियोगिनि 'अल्पे । ३-२-१३६ इति न सिध्यति । सिद्ध इति ये हि संज्ञायां कप् प्रत्यय विदधति तेऽपि हस्वत्वोपाधिकायां संज्ञायामिति व्याख्यान्तीति संज्ञायामप्येनैत्र का सिद्ध इत्यर्थः। कुटीशुण्डाद्रः ॥ ७. ३. ४७ ॥
कुटीशुण्डा इत्येताभ्यां हस्वेऽर्थे वर्तमानाभ्यां रः प्रत्ययो भवति, कपोऽपवादः । हूस्वा कुटो कुटीरः, शुण्डारः। केचित्त कुटीस्थाने कुदों पठन्ति । कुदीरः । ४७ । शम्या रुरौ ॥ ७. ३. ४८ ॥
शमीशब्दात् ह्रस्वेऽर्थे वर्तमानात् रुर इत्येतो प्रत्ययो भवतः । ह्रस्वा शमी शमीरुः, समीरः । ४८ ।।
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[पाद. ३. सू. ४९-५३ श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३१९ 'कुत्वा डुपः ॥७. ३. ४९ ॥
कुतूशब्दाभ्रस्वेऽर्थे वर्तमानात्स्वार्थे डुपः प्रत्ययो भवति । ह्रस्वा कुतूः कुतुपः, कुतूरिति चर्ममयं तैलाधावपनमुच्यते । ४९५ कासूगाणीभ्यां तस्ट् ॥ ७. ३. ५० ।।
कासूगोणी इत्येताभ्यां ह्रस्वेऽर्थे वर्तमानाभ्यां तर प्रत्ययो भवति । ह्रस्वा कासूः कासूतरी, गोणीतरी। पुलिङ्गमपि दृश्यते इत्येके । कासूतरः, गोणीतरः, कासूः शक्तिमायुधम् । गोणी धान्यावपनम् । टकारो ङयर्थः ।५। वत्सोक्षाश्वर्षमाधासे पित् ॥ ७. ३. ५१ ॥
वत्स, उक्षन् , अश्व, ऋषभ इत्येतेभ्यः शब्दप्रवृत्तिनिमितस्य स्वार्थस्य ह्रासे गम्यमाने तरट् प्रत्ययो भवति स च पित् ।
हसितो वत्सः वत्सतरः । वसः प्रथमवयस्को गौः तस्य ह्रासो द्वितीयवयःप्राप्तिः, हसित उक्षा उक्षतरः, उक्षा द्वितीय बयास्तरुणस्तस्य ह्रासस्तृतीयवयःप्राप्तिः । ह्रसितोऽश्वोऽवतरः । अश्वेनाश्वाया जातोऽश्वस्तस्य ह्रासो गर्दभपितृकता, आशुगमनाद्वाश्वस्तस्य हासो गमने मन्दता, सर्बथाश्वतरशब्दो जातिशब्दः, हसित ऋषभः ऋषभतरः, ऋषभोऽनड्वान् बलीयान् तस्य हासो भारवहने मन्दशक्तिता, प्रत्यासत्तेः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य हासे भवति । इह माभूत् कृशो वस्सो वत्सत्तर इति । पित्करणं पुवद्भावार्थम् । हसिता वत्सा वत्सतरी, हसिताश्वा अश्वतरी । ५११
वैकाद् द्वयोर्निर्धार्ये डतः ॥ ७. ३. ५२ ॥ ___ समुदायादेकदेशो जातिगणक्रियासंज्ञाद्रव्यनिष्कृष्य बुध्या पृथकक्रियमाणो निर्धार्यः। एकशब्दात् द्वयोर्मध्ये निर्धार्येऽर्थे वर्तमानात् डतरः प्रत्ययो वा भवति । एकतरो भवतोः कठः पटुमन्ता देवदत्तो दण्डी वा। वावचनम् अगर्थम् । एकको भवतोः कठः पटुर्वा, महावाधिकारान्न भवत्यपि । एको भवतोः पटुः । द्वयोरिति किम् ? एकोऽस्मिन् ग्रामे प्रधानम् । निर्धार्य इति किम् ? एकोऽनयोमियोः स्वामी । ५२ ।
न्या. स. वैकाद अगर्थमिति महावाधिकारेणेव सिद्धे किमर्थ वावचनमित्याशङ्का । यत्तकिमन्यात् ।। ७. ३. ५३ ॥
यद् , तद् , किम्, अन्य इत्येतेभ्यो द्वयोरेकस्मिन् निर्धार्येऽर्थे वर्तमानेभ्यो
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३२०
बृहद्वृत्ति-लघुन्यास संवलिते
[ पाद. ३ सू० ५४-५५ उतर: प्रत्ययो भवति । यतरो भक्तोः कठः पटुर्गन्ता देवदत्तो दण्डी वा ततर आगच्छतु । कतरो भवतोः कठः पटुर्गन्ता देवदत्तो दण्डी वा अन्यतरो भवतोः कठः पटुर्गन्ता देवदत्तो दण्डी वा महावाधिकारात्प्रत्ययो न भवत्यपि । यो भक्तोः पटुः स आगच्छतु । को भवतोः पटुः, अन्यो भवतो: पटुः, द्वयोरित्येव ? योऽस्मिन् ग्रामे प्रधानं स आगच्छतु । निर्धार्य इत्येव ? योsनयोर्ग्रामयोः स्वामी स आगच्छतु । ५३ ।
बहूनां प्रश्न उतमश्च वा ॥ ७. ३. ५४ ॥
यद्, तद्, किम्, अन्य इत्येतेभ्यो बहूनां मध्ये निर्धार्येऽर्थे वर्तमानेभ्यः प्रश्नविषये उतमः प्रत्ययो वा भवति चकाराड्डतरश्च । यतमो यतरो वा भवतां कठस्ततमस्ततरो वा आगच्छतु कतमः कतरो वा भवतां कठः, प्रमाणान्तरात् प्रतिपतो बहूनामप्रयोगेऽपि भवति । यथा बहुष्वासीनेषु कश्चित्कंचित्पृच्छति कतमो देवदत्तः कतरो देवदत्तः । अन्यतमोऽन्यतरों वा भवतां कठः । शुचिवल्कवीत व पुरन्यतमस्तिमिरच्छिदामिव गिरौ भवतः । वृद्धस्तु व्याधितो वा राजा मातृवन्धुकुल्य गुणवत्सामन्तानामन्यतमेन क्षेत्रे बीजमुत्पादयेत् । वावचनमगर्थम् । यको भवतां कठः सक आगच्छतु, अन्यक raf कालाप: । किमस्तु साकः कादेश उक्तः । महावाधिकारात् प्रत्ययो न भवत्यपि । यो भवतां कठः स आगच्छतु । बहूनामिति किम् ? योऽस्मिन् ग्रामे कठः स आगच्छतु । प्रश्न इति किम् ? क्षेपे माभूत् । को भवतां कठः कुत्सित इत्यर्थः । प्रश्नग्रहणं किमो विशेषणं नान्यस्यासंभवात् । अन्ये वाहुः यत्तत्कियो जातावेव उतमः; डतरस्तु बहूनां निर्धार्ये किम एव न यत्तद्भ्याम्, सच जातावेव, अन्यशब्दादपि बहुविषये डतम एव न तु डतरः, डतरडतमौ च निर्धार्ये अन्यशब्दान्नित्यावेव नाक्, नापि केवलस्य प्रयोगः, एके स्व विशेषेणेत्यत्राभिधानमनुसर्तव्यम् ॥५४॥
वैकात्
।। ७. ३.५५ ।
एकशब्दात् बहूनामेकस्मिन् निर्धार्येऽर्थे वर्तमानात् उतमः प्रत्ययो वा भवति । एकतमो भवतां कठः पटुर्गन्ता देवदत्तो दण्डी वा । वावचनादक्, एककः । महावाधिकारान्न भवत्यपि । एको भवतां कठः । पृथग्योगो उतरनिवृत्त्यर्थः ॥ ५५ ॥
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[ पाद. ३. सू. ५६-६० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने सप्तमोध्यायः
तावादेश्चात्यन्ते ।। ७. ३. ५६ ।।
क्तान्तात्केवलात्तम बाद्यन्ताच्चानत्यन्तेऽर्थे वर्तमानात् कप् प्रत्ययो भवति । क्रियायाः स्वनाश्रयेण साकल्येनानभिसंबन्धोऽनत्यन्तता । अनत्यन्तं भिन्नं भिन्नकम्, अनत्यन्तं छिन्नं छिन्नकम्, अनश्यन्तं भिन्ना भिन्निका घटी, छिन्निका रज्जुः, तमबाद्यन्तात् क्तात्, अनत्यन्तं भिन्नतमं भिन्नतमकम्, एवं भिन्नतर कम् भिन्नकल्पम्, भिन्नकल्पकम् छिन्नतमकम्, छिन्नतरकम्, छिन्नक्ल्पम्, तमबाधन्तेषु क्तान्तता नास्तीति तम्बादिग्रहणम् । असमासस्तमबादेरित्यत्रापि क्तादित्यस्य सबन्धार्थ:, तेनेह न भवति । अनत्यन्तं शुक्लतमम् ॥५६।
न सामिवचने ॥ ७. ३. ५७ ।।
सामि अर्धः, सामिवचने उपपदे अनत्यन्तेऽर्थे वर्तमानात् क्तान्तात्केवलात्तमबाद्यन्ताच्च कप् प्रत्ययो न भवति । सामि अनत्यन्तं भिन्नम्, एवं कृतं भुक्तं पीतम् । भिन्नतमम्, भिन्नतरम् । वचनग्रहणं पर्यायार्थम् । अर्धमनत्यन्तं भिन्नम् | नेममनत्यन्तं भिन्नम् । एवं शकलं खण्डमित्यादि । अन्ये तु समास एवोदाहरन्ति । सामिकृतम् अर्धकृतमिति । ननु साम्यादिभिरेवानत्यन्तताया अभिहितत्वादुक्तार्थत्वेन कप् न प्राप्नोतीति व्यर्थः प्रतिषेधः । उच्यते साम्यादिभिः समुदायविषयक्रियाया एवानत्यन्तता प्रतीयते न स्वविषये । तत्रानत्यन्तविवक्षायां कं प्राप्नोतोति प्रतिषेधवचनम् । ५७ ।
[ ३२१
नित्यं ञञिनोऽण् ॥ ७. ३. ५८ ॥
जञिन् इत्येतत्प्रत्ययान्तात्स्वार्थे नित्यमण् प्रत्ययो भवति । नित्यग्रहणामहाविभाषा निवृत्ता । व्यावक्रोशी, व्यावलेखी, व्यावहासी वर्तते । ञिन्, सांकोटिनम्, सांराविणम्, सामाजिनम् । ५८
विसारिणो मत्स्ये । ७. ३. ५९ ॥
विसारिन् शब्दान्मत्स्ये वर्तमानात्स्वार्थेऽण् प्रत्ययो भवति । विसरतीति विसारी, ग्रहादित्वाणिन् । मत्स्यश्चेत् वैसारिणः । मत्स्य इति किम् ? विसारी देवदत्तः । ५९।
पूगाद मुख्यक | यो द्रिः ।। ७. ३.६० ॥
नानाजातीया अनियतवृत्तयोऽर्थ कामप्रधानाः संघाः पूगाः । पूगवाचिनो नाम्नः स्वार्थे ञ्यः प्रत्ययो भवति सच द्विसंज्ञः न चेत्पूगवाचि नाम ' सोऽस्य
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३२२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससवलिते [ पाद. ३ सू० ६१-६२-६३ ] मुख्यः' (७-१-१९०) इति विहितकप्प्रत्ययान्तं भवति । लोहध्वजाः पूगाः, लौहध्वज्यः, लोहध्वज्यौ, लोहध्वजाः, शैब्यः, शैब्यौ, शिबयः, वातक्यः, वातक्यौ, वातकाः । द्रित्वात् बहुष्वस्त्रियां लुप् । अमुख्यकादिति किम् ? देवदत्तो मुख्योऽस्य देवदत्तकः, इन्द्राग्निलुप्तकः पूगः ।६०। वातादस्त्रियाम् ॥ ७. ३.६१ ॥
नानाजातीया अनियतवृत्तयः शरीरायासजीविनः संघा वाता: । वातवाचिनोऽस्त्रियां वर्तमानात् स्वार्थे ज्यः प्रत्ययो भवति स च द्रिसंज्ञः । कापोतपाक्यः, कापोतपाक्यो, कपोतपाकाः, हिमत्यः, वैहिमत्यौ, व्रीहिमताः । अस्त्रियामिति किम् ? कपोतपाका, व्रीहिमता स्त्री ।६१। शस्त्रजीविसंघायड् वा ॥ ७. ३. ६२ ॥
शस्त्र जीविनां यः सघस्तद्वाचिनः स्वार्थे ज्यट प्रत्ययो भवति स च दिसंज्ञः । शबराः शखजीविसंघः। शाबर्यः, शाबयौं, शबराः, पौलिन्द्यः, पौलिन्द्यौ, पुलिन्दाः । कुन्ते रपत्यं बहवो माणवकाः कुन्तयः, ते शस्त्र जीविसघः कौन्त्यः, कौन्त्यौ, कुन्तयः । पक्षे शबरः । पुलिन्दः । शस्त्रजी विग्रहणं किम् ? मल्लाः संघः, मल्लः, मल्ली, मल्ला:, शयण्डः, शयण्डौ, शयण्डाः । संघादिति किम् ? सम्राट्, वागुरः, वागुरो, वागुराः । नैते श्रेणिबद्धा इति न संघः । टकारो ङयर्थः। शाबरी, पोलिन्दी, कौन्ती ।६।
· न्या० स० शस्त्र० कुन्तय इनि एततसूत्रायातस्यापि ब्यटो 'बहुध्वस्त्रियाम् ' ६-१-१२४ इति लुपु, शयण्ड इति शयण्डा योधृविशेषा येषां लोके चउकडिया इति प्रसिद्धिः । कौन्तीति कुन्तरपत्यं बहवो माणवकास्ते शस्त्रजीविसंघः स्त्रोत्वविशिष्टो विवक्षितः, 'दुनादि' ६-१-११८ इति ज्यः, 'कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम् ' ६-१-१२१ इति लुप्, 'नुर्जातेः' २-४-७२ डीः ततः 'शस्त्रजीविसंघायद' ७-३-६२ वा 'अवर्णेऽवर्णस्य' ७-४- 'अणबेये २-४-२० इति डी, 'व्यज्जनात्तद्धितस्य' २-४-८८ इति यलुप् । वाहीकेष्वब्राह्मणराजन्येभ्यः ॥ ७. ३. ६३ ॥
वाहीकेषु यः शस्त्रजीविसंघो ब्राह्मणराजन्यजितस्तद्वाचिनः स्वार्थे ज्यट प्रत्ययो नित्यं भवति स च द्रिसंज्ञः । कुण्डीविशाः शस्त्रजीविसंघः, कौण्डीविश्यः, कोण्डीविश्यौ, कुण्डीविशाः क्षौद्रक्यः, क्षौद्रक्यौ, क्षुद्रकाः, मालव्यः, मालव्यो, मालवाः। वाहीकेष्विति किम् ? शबराः शस्त्रजोविसंघः। शबरः, शबरौ, पुलिन्दः, पुलिन्दौ ।-अब्राह्मणराजन्येभ्य इति किम् ? गौपालिः, गौपाली, शालकायनः, शालकायनौ, राजन्यः, राजन्यौ, काम्बव्यः, काम्बव्यौ। स्त्रियां राजन्या
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[ पाद. ३. सू. ६४-६६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [३२३ काम्बव्या । व्यटि तु डीः स्यात् । ब्राह्मणप्रतिषेधे ब्राह्मणविशेषप्रतिषेधः । न हि ब्राह्मणशब्दवाच्यो वाहीकेषु शस्त्रजीविसंघोऽस्ति । राजन्ये तु स्वरूपस्य विशेषस्य च प्रतिषेधः । तदर्थमेव बहुवचनम् । शस्त्रजीविसंघादित्येव । मल्लः, शयण्डः, सम्राट, वागुरः ।६३। वृकाटेण्यण् ॥ ७. ३. ६४ ॥
वृकशब्दाच्छस्त्रजीविसंघवाचिनः स्वार्थे टेण्यण् प्रत्ययो भवति स च द्रिः । वार्केण्यः, वार्केण्यो, वृकाः । टकारो ङयर्थः । वार्केणी स्त्री, शस्त्रजीविसंघादित्येव । कामक्रोधौ मनुष्याणां खादितारौ वृकाविव । वाहीकत्वे नित्यमवाहीकत्वे तु विकल्पेन व्यटि प्राप्ते वचनम् । एवमुत्तरसूत्रत्रयमपि ।६४। यौधेयादेरञ् ।। ७. ३. ६५॥
यौधेयादिभ्यः शस्त्रजीविसंघवाचिभ्योऽञ् प्रत्ययो भवति स च दिः । युधाया अपत्यं बहवः कुमारास्ते शस्त्रजीविसंधः यौधेयः, यौधेयौ, यौधेयाः, एवं शौभ्रेयः, शौक्रेयः घातयः, धार्तेयः, ज्यावनेयः । अञ्वचनं 'संघघोषाङ्क. लक्षणेभ्यजिनः' (६-३-१७१) इत्यणर्थम्, तेन यौधेयस्य संघादियॊधेय इति भवति । ननु यौधेयादयः संघवचनाः कथं गोत्रं भवन्ति ? उच्यते, भर्गाधन्तगणो यौधेयादिस्तत्र येऽपत्यप्रत्ययान्तास्ते गोत्रं भवन्ति औपगवादिवत् । अपत्यं हि गोत्रम्, अपत्यप्रत्ययान्ताच्च स्वार्थिकोऽप्यपत्यग्रहणेन गृह्यते । अत्र चेदमेव अञ्वचनं लिङ्गम् ।६५। ____ न्या० स० यौधे०-अनुवचनमिति अथ यौधेयादिभ्योऽअवचनं किमर्थम् ? यौधेयादिषु ये तावदेयणन्तास्तेष्वञ् भावाभावयोरविशेषः, यतः तदेव हि रूपं स एव चार्थः प्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वात् , त्रिगर्तभरतोशीनरेषु तु रूपभेदाऽस्ति तान् पर्वादौ प्रक्षिप्य तेभ्योऽण् विधेयो न हि त्रैगतः त्रैगतौं त्रिगर्ता इत्यादावणमोर्विशेषोऽस्ति, अथ यौधेयादिभ्यः शस्त्रजीविसंघवाचिभ्यो वाहीकवावाहीकत्वाभ्यां नित्यो विकल्पितो वा ज्यद प्राप्नोतीत्यञ् विधेयस्तहि तानपि पर्वादिषु प्रक्षिप्य तेभ्योऽप्यण् विधेय इत्याशक्का । पश्वोदेरण ।। ७. ३.६६ ॥
पशु इत्येवमादिभ्यः शस्त्रजीविसंघवाचिभ्यः स्वार्थेऽण् प्रत्ययो भवति स च द्रिः । पर्शोरपत्यं बहवो माणवका पर्शवः । द्विस्वरत्वादण् लुप् । ते शस्त्रजी विसंघः, पार्शवः, पार्शवी, पर्शवः, राक्षसः, राक्षसौ, रक्षांसि । स्त्रियां तु 'द्रेरअणोऽप्राच्यभर्गादेः' (६-१-१२३) इति लुप् । पर्शः। अणो लुपि — उतोऽप्राणिनश्च-' (२-४-७३) इत्यादिनोङ ।
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३२४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू. ६७-६९ ] पशु, रक्षस्, असुर, वहलिक, वयस्, (वचस्) वसु मरुत्, सत्वन्, सत्वन्तु दशाह पिशाच अशनि, कार्षापण इति पर्वादिः । ६६ ।।
न्या स० पर्वा०-लुबिति खियामेकत्वेऽपि लुप् भवतीत्यर्थः । दामन्यादेशयः ॥ ७. ३. ६७ ॥
दामन्यादिभ्यः शस्त्रजीविसंघेभ्यः स्वार्थे ईयः प्रत्ययो भवति स च दिः । दमनस्यापत्यं बहवः कुमारास्ते शस्त्रजीविसंघः, दामनीयः, दामनीयौ, दामनयः, औलपीयः, औलपीयौ, औलपयः ।।
दामनि, औलपि, औपाल, वैजवापि, औदकि, आच्युतन्ति, काकन्दि काकन्दकि, ककुन्दि, ककुन्दकि, शाक्रन्तपि, (शत्रुन्तपि) सार्वसेनि, बिन्दु, तुलभा, मौजायन, औदमेघि, औपबिन्दि सावित्रीपुत्र, कोण्ठोपरथ, कोण्डोपरथ, कोण्ठारथ, दाण्डकि, क्रौष्टकि, जालमानि, जारमाणि, ब्रह्मगुप्त, ब्राह्मगुप्त, जानकि इति दामन्यादिः । ६७ । श्रुमच्छमीवच्छिखावच्छालावदृर्णावद्धिदभृदभिजितो गोत्रेऽणो
यञ् ॥ ७. ३. ६८॥ शस्त्र जीविसंघादिति निवृत्तम्, श्रमच्छमीवच्छिखावच्छालावदूर्णावद्विदभृदभिजिदित्येतेभ्यो गोत्रे योऽण् तदन्तेभ्यः स्वार्थे यञ् प्रत्ययो भवति स च दिः। भुमतोऽपत्यमण् तदन्ताद्यम् । श्रीमत्यः, श्रीमत्यौ, श्रीमताः । श्रीमच्छब्दादपि केचिदिच्छन्ति । श्रमत्यः, श्रमत्यौ, श्रमताः, शामीवत्यः, शामीवत्यो, शामीवताः, शैखावत्यः, शेखावत्यौ, शेखावताः, शालावत्यः, शालावत्यो, शालावताः, और्णावत्यः और्णावत्यौः, औविताः, वैदभृत्यः, वैदभृत्यौ, वैदभृताः, आभिजित्यः, आभिजित्यो, आभिजिताः । गोत्रग्रहणं किम्? श्रुमत इदं श्रीमतम्, आभिजितो मुहूर्त: । आभिजितः स्थालीपाकः, अपत्यप्रत्ययान्तात्स्वार्थिकोsपत्य एव वर्तते इति तदाश्रयः प्रत्ययो भवति । श्रीमत्यस्यापत्यं युवा श्रीमत्यायनः, आभिजित्यायनः। अत्र 'यजिनः' (६-१-६४) इत्यायनण् । श्रीमत्यस्यायं श्रीमतकः, आभिजितकः, अत्र ‘गोत्राददण्ड '-(६-३-१६८) इत्यादिनाऽकञ् । श्रीमतानां समूहः श्रीमतकम् , आभिजितकम् । अत्र गोत्रोक्ष-(६-२-१२) इत्यादिनाऽकञ् । श्रीमत्यस्य संघादि भौमतम् आभिजितम् । अत्र 'संघघोषाङ्कलक्षणेऽञ्यनिञः' (६-३-१७१) इत्यण् । ६८।
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पाद. ३. सू. ६९-७२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः । ३२५ समासान्तः ॥ ७. ३. ६९ ॥
अधिकारोऽयमापादपरिसमाप्तः, अतः परं ये प्रत्ययास्ते समासस्यान्ता अवयवा भवन्ति तद्गहणेन गृह्यन्ते । प्रयोजनं बहुब्री ह्यव्ययीभावद्विगुद्वन्द्वसंज्ञाः। सुजम्भे खुजम्मानौ स्त्रियौ। अत्रानो वहुव्रीहिग्रहणेन ग्रहणात् डापडीविकल्पः सिद्धः । उपधुरम् उपशरदम्, अत्रातोऽव्ययीभावग्रहणेन ग्रहणाद्विभक्तीनामम्भावः । द्विधुरी, त्रिधुरी । अत्र द्विगुग्रहणेन ग्रहणान्डीः । चाग्दृषदिनी स्रक्वचिनी । अत्र द्वन्द्वग्रहणेन ग्रहणादिन् । ६९ ।
न्या० स० समा० द्वंद्वसंज्ञा इति उपलक्षणं चेदं. कर्मधारयादिसंज्ञा अपि भवति । न किमः क्षेपे ॥ ७. ३. ७० ॥
· निन्दायां यः किंशब्दस्तस्मात् परे म अगादयो यानुरादाय समासान्तो विधास्यते तदन्ताद्वक्ष्यमाणः समासान्तो न भवति । किर्या न तथा गर्वी, कि राजा यो न रक्षति, स किसखा योऽभिद्रुह्यति, किंगौयों न वहति, का कुत्सिता धूरस्य किंधूः शकटम्, के कुत्सिते अक्षिणी अस्म किमक्षिाह्मणः ।
किम इति किम् ? कुराजः । दुःसखः । क्षेपे इति किम् ? केषां राजा किंराजः, किंसखः, किंगवः ।७।। नञ्तत्पुरुषात् ॥ ७. ३. ७१ ॥
नञ्तत्पुरुषाद्वक्ष्यमाणः समासान्तो न भवति । न ऋक अनक, अराजा, असखा, अपन्थाः। अपथमिति पथशब्दस्य यथा कुपथम् । तत्पुरुषादिति किम् ? न विद्यते धूरस्य अधुरं शकटम्, अपयोऽयमुद्देशः । राज्ञामभावोऽराज वर्तते ।७११ ___ न्या० स० न०-कुपथमिति यद्यत्र पथिनशब्दः स्यात्तदा 'काक्षपयोः' ३-२-१३४ प्रवर्तेत । पूजास्वतेः पाक टात् ॥७. ३. ७२ ।।
पूजायां यो स्वती ताभ्यां परे ष ऋगादयस्तदन्तात्समासात् बहुव्रीहेः काष्ठे टः' (७-३-१२५) इति टप्रत्ययात्प्राक् यः समासान्तो वक्ष्यते स न भवति । शोभना धूः सुधूः, अतिधूः, सुराजा, अतिराजा, सुधूः शकटम्, अतिधूः शकटम्, सुसखा, अतिसखा, सुपौः, अतिगौः । पूजाग्रहणं किम् ? अतिक्रान्तो राजानमतिराजः, अतिसखः, अतिगवः । स्वतेरिति किम् ? परमधुरा,
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३२६ ] बृहृवृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. ३ सू० ७३-७५ ] परमराजः, परमसख:, परममव:। प्राक्टादिति किम् ? स्वङ्गलं काष्ठम्, अत्यगुलं काष्ठम्, सुसक्थः, अतिसक्थः, स्वक्षः, अत्यक्षः ॥७२॥
बहोर्ड ।। ७. ३.७३ ॥ ___ डे डविषये डप्रसङ्गो यत्र ततो बह्वन्तात्समासान्तो डः कच् च न भवति । आसन्ना बहवो येषां ते आसन्नबहवः, उपबहवः । बहोरिति किम् ? द्वित्राः, उपदशाः । ड इति किम् ? प्रिया बहवोऽस्य प्रियबहुकः ।७३।
न्या० स० बहो०-आसन्नबहव इति 'आसन्नदूर' ३-१-२० इति सः, 'बहुगणं भेदे' १-१-४० इति संख्यावद्भावात् 'प्रमाणीसंख्याड्डः'७-३-१२८ इति ड प्रत्ययः प्राप्नोति, तस्मिन् निषिद्धे 'शेषाद् वा' ७-२-१७५ इति कच्च प्राप्नोति, उभयस्यापि सामान्येनाऽयं प्रतिषेध इत्युभयमपि न भवति ।
उपबहव इति 'अव्ययम्' ३-१-२१ इति समासः ।
प्रियबहक इति 'एकार्थ चाऽनेक च' ३-१-२२ इति सामान्यसमासः, ततः 'प्रमाणीसंख्याड्डः ' ७-३-१२८ इत्यत्र प्रतिपदोक्तबहुव्रीहेर्ग्रहणात् बहोवैपुल्यर्थत्वेन का संख्यात्वाभावे डः समासान्तो न भवति किंतु कच् । इच् युद्ध ॥ ७. ३. ७४ ॥
युद्धे यः समासो विहितस्तस्मादिच् समासान्तो भवति । केशाके शि, दण्डादण्डि, मुसलामुसलि, मुष्टामुष्टि, अस्यसि । चकारः 'इच्यस्वरे दीर्घ आच्च' (३-२-७२) इत्यत्र विशेषणार्थः ।७४।
न्या० स० इच् युद्ध-विशेषणार्थ इति अथ तत्राऽपि इरित्येव क्रियताम् ? न, तथा सति 'दृतिनाथात् पशाविः' ५-१-९७ इत्यस्मिन्नपीकारे दीर्घप्रसङ्गः। द्विदण्डयादिः ।। ७. ३. ७५॥
द्विदण्डि इत्येवमादयः समासा इजन्ताः साधवो भवन्ति । द्वौ दण्डावस्मिन प्रहरणे द्विदण्डि प्रहरति । एवं द्विमुसलि, उभादन्ति उभयादन्ति, उभाबाहु, उभयाबाहु । उभौ हस्तावस्मिन्पाने उभाहस्ति पिबति । एवमुभयाहस्ति । उभापाणि उभयापाणि, उभाञ्जलि, उभयाञ्जलि, उभौ कर्णावस्मिन् श्रवणे उभाणि श्रणोति, एवमुभयाकणि । अन्ते वासोऽस्मिन्स्थानेऽन्तेवासि तिष्ठति । अन्तेवासी गुरोरिति ताच्छीलिकान्तोऽन्य एव शब्दः । संहितानि पुच्छान्यस्मिन् सरणे संहितपुच्छि धावन्ति । एकः पादोऽस्मिन् गमने एकपदि गच्छति, समानी पादावस्मिन्सपदि गच्छति । आच्यपादौ आच्यपादे शेते । एवं प्रोझपादे हस्तिनं वायति, निकुच्य कर्णो निकुच्यकणि धावति ।
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पाद. ३. सू, ७६-७८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३२७ 'तिष्ठद्गवादित्वादव्ययीभावः । उभाबाह उभयाबाह्वित्यत्र निपातनादिलपि स्थानिवद्भावादिजन्तत्वेनाच्ययीभावसंज्ञा। विभक्त्यलुक पादस्य पद्भावः समानस्य सभावश्चेत्यादि सर्व निपातनात् सिद्धम् । क्रियाविशेषणाच्चान्यत्र न भवति । द्वौ दण्डावस्यां शालायां । द्विदण्डा, द्विमुसला । ७५ ।
न्या० स० द्विद-उभयापाणीति उभस्थ उभयोऽद्वित्वे इत्यनुपदकारसूत्रं ततः उभयः पाणिः उभयो वा पाणयो यस्मिन्नित्येकत्वे बहुत्वे एव वाक्यं कार्य, एषमन्यत्राऽपि । ऋकपू-पथ्यपोऽत् ॥ ७. ३. ७६ ॥
ऋच्, पुर, पथिन्, अप् इत्येतदन्तात्समासादत् अकारः समासान्तो भवति । ऋ चोऽर्धम् अर्धर्चः, ऋचः. समोपमुपर्चम्, सप्तर्च सूक्तम्, उच्चारितर्चः । पुर्, श्रियाः पू: श्रीश्चासौ पूश्चेति वा श्रीपुरम्, पिष्टपुरम्, त्रिपुरम्, स्फोतपुरो देशः । पथिन्, जलपथः, स्थलपधः, उपपथम्, प्रतिपथम्, विशालपथं नगरम्, अप्, द्विर्मता आपोऽस्मिन् द्वीपम्, समीपम्, प्रतीपम् बह्वपं तडागम्, पुरपथशब्दाभ्यां सिद्ध पुर् पथिन् इत्येतयोरुपादानमेतद्विषये प्रयोगनिवृत्त्यर्थम् । ७६ ।
. न्या० स० ऋक्तः०–त्रिपुरमिति तिसृणां पुरां समाहारः, उत्तरपदस्यादन्तस्वाभावात् स्त्रीत्वाभावः, किंतु अन्यस्तु सर्वो नपुंसकः प्रयोगनिवृत्त्यर्थमिति समासान्तविषये व्यञ्जनान्तयोः प्रयोगो न भवतीत्यर्थः । . धुरोऽनक्षस्य ॥ ७. ३. ७७ ।।
धुरन्तात्समासादत् समासान्तो भवति सा चेद्धः अक्षसंबन्धिनी न भवति । राज्यधुरा, रणधुस द्विधुरी, त्रिधुरी, उपधुरम् महाधुरं शकटम् । अनक्षस्येति किम् ? अक्षधूः दृढधूरक्षः । ७७ ।
न्या० स० धुरो० -अक्षसंबन्धिनी नेति शब्दद्वारकमेतन्नार्थद्वारकम, सेन महाधुरं शकटमिति सिद्धम् ।
द्विधुरीत्यादि द्वयोः धुरोः समाहारः, तिसृणां धुरां समाहारः, अन्यस्तु सर्वो नपुंसक इति वचने सत्यपि तद्बहुलमिति स्त्रीत्वे 'द्विगोः' २-४-२२ इति डीः । संख्यापाण्डूदकृष्णाद्भूमेः ७. ३. ७८ ॥
संख्यावाचिभ्यः पाण्डु उदच् कृष्ण इत्येतेभ्यश्च नामभ्यः परो यो भूमिशब्दस्तदन्तात्समासादसमासान्तो भवति । द्वयोभूम्योः समाहारो द्विभूमम्, त्रिभूमम् द्वे भूमो अस्य द्विभूमः त्रिभूमः प्रासादः पाण्डुभूमिः पाण्डभूमम् पाण्डुभूमो देशः, उदीची भूमिः उदगभूमम्, उदग्भूमो देशः,
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३२८ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंकलिते
[ पाद. ३ सू० ७९-८२ कृष्णा भूमि: कृष्ण भूमम्, कृष्णभूमो देशः । भूमोऽसंख्यात एकार्थ इति पाण्डुभूमादेर्नपुंसकत्वम् । संख्यादिभ्य इति किम् ? सर्वभूमिः । ७८ ।
उपसर्गादध्वनः । ७. ३. ७९ ॥
उपसर्गात् धातुयोमे यः प्रादिरुपसर्गसंज्ञां लभते तस्मात्परादध्वनोत् समासान्तो भवति । प्रगतमध्वानं प्राध्वं शकटम्, प्राध्वो रथः, उपकान्तमध्वानमुपाध्वम् निरध्वम्, अत्यध्वम् । ७९ ।
समवान्धात्तमसः ॥ ७. ३.८० ॥
सम् अब अन्य इत्येतेभ्यः परो यस्तमसुशब्दस्तदन्तात्समासादत् समासान्तो भवति । संततं तमः संततं तमसा संततं तमोऽस्मिन्निति वा संतमसम् । अवहीनं तमोऽवहीनं तमसा अवहीनं तमोऽस्मिन्निति वा अवतमसम् । अन्धं करोतीत्यन्धम्, अन्धं च तत्तमश्च अन्धं तमोऽस्मिन्निति वा अन्धतमसम् अन्धश्च तमश्चेति अन्धतमसम् अन्धतमसे वा । ८० ।
न्या० स० सम० – अन्ध करोतीति अन्धण् इत्येतस्याचि ततः करोत्यर्थे णिचि ततोऽचि सामानाधिकरण्यम् ।
तप्तान्वबादहसः ॥ ७. ३. ८१ ॥
रह इति अप्रकाश्यं विजनं वा । तप्त, अनु, अव इत्येतत्पूर्वी यो रहः शब्दस्तदन्तान्तादश्समासादत्समासान्तो भवति । तप्तं तप्ताय इवानधिगम्यं रहः तप्तरहसम्, तप्तं रहोऽस्येति तप्तरहसः, अनुगतं रहोऽनुगतं रहसा वा अनुरहसम्, अनुगतं रहोऽस्येति अनुरहसः । अवहीनं रहोऽवहीनं रहसा वा अवरहसम्, अवहीनं रहोऽस्येत्यवरहसः । ८१ ।
प्रत्यन्ववात्सामलोम्नः ॥ ७. ३. ८२ ॥
प्रति अनु अव इत्येतेभ्यः परो यो सामन्लोमन् शब्दौ तदन्तात्समासादत्समासान्तो भवति । प्रतिगतं साम प्रतिसामम्, प्रतिगतं सामास्य प्रतिसामः एवमनुसामम् अनुसामः, अवसामम् अवसामः, प्रतिलोमम् प्रतिलोमः, अनुलोमम् अनुलोमः, अवलोमम्, अवलोमः । अव्ययीभावे तु परत्वाद्विकल्पः ।
साम साम प्रति सानोऽभिमुखं वा प्रतिसाम, प्रतिसामम् । साम सामानु साम्नः समीपं साम्ना तुल्यायामं वा अनुसाम, अनुसामम् एवं प्रतिलोम, प्रतिलोमम्, अनुलोम, अनुलोमम् । प्रत्यन्ववादिति किम् ? निःषाम
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[ पाद ३. सू. ८३-८७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३२९ वचनम् । निर्लोमा पुरुषः । सामलोम्न इति किम् ? प्रतिकर्म । ८२ ।
न्या० स० प्रत्य०-विलोमेनेति तु पृषोदरादित्वात् लोम्न ऋद्ध्यभावो वा विलोम 'नपुंसकाद् वा' ७-३-८९ इति समासान्ते तद्योगात् । ब्रह्महस्तिराजपल्यादर्चसः ॥ ७. ३. ८३ ॥
ब्रह्मन्, हस्तिन, राजन्, पल्य इत्येतेभ्यः परो यो वर्चस्शब्दस्तदन्तासमासादत्समासान्तो भवति । वर्चस्तेजो बलं वा, ब्रह्मणो वर्चः ब्रह्मवर्चसम्, एवं हस्तिवर्चसम् । राजवर्चसम् । पल्यवर्चसम् । पल्यं कटकृतं पवालवर्तिकृतं वा धान्यभाजनम् । हस्तिविधा वा। ब्रह्मादिभ्य इति किम् ? नृपाः सोमार्कवर्चसः । कथं स्विषिमान् राजवर्चस्वीति । समासान्तविधेरनित्यत्वात् । एतच्च 'ऋक्यूःपथ्यपोऽत् '-(७-३-७६) इति निर्देशात्सिद्धम् ।८। प्रतेरुरसः सप्तम्याः ॥ ७. ३. ८४॥
प्रतिशब्दात्परो य उरसशब्दः सप्तम्यन्तस्तदन्तात्समासादत्समासान्तो भवति । उरसि वर्तते प्रत्युरसम्, विभत्त्यर्थेऽव्ययीभावः । उरसि प्रतिष्ठितं प्रत्युरसम्, 'प्रात्यव'--(३-१-४७) इत्यादिना तत्पुरुषः। सप्तम्या इति किम् ? प्रतिगतसुर: उरः प्रति वा प्रत्युरः ।८४। अक्ष्णोऽप्राण्यङ्गे ॥ ७. ३. ८५ ॥
अक्षिशब्दान्तात्समासादत्समासान्तो भवति अप्राण्यङ्ग न चेत् सोऽक्षिशब्द: प्राण्यङ्गे वर्तते । लवणस्याक्षि लवणमक्षीवेति वा लवणाक्षम् । पुष्कराक्षम्, गवाक्षः, रुद्राक्षम्, महिषाक्षो गुग्गुलः । कचराक्षमश्वानां मुखप्रच्छादनं बहुच्छिद्रकम् । अप्राण्यङ्ग इति किम् ? अजाक्षि, उपाक्षि, वामाक्षि ।८५।
संकटाभ्याम् ॥ ७. ३. ८६ ॥ ___ संकट इत्येतत्पूर्वादक्षिशब्दादत्समासान्तो भवति । संगतमक्षणा समीपमक्ष्णो वा समक्षम् । कटस्याक्षि कटाक्षः । प्राण्यङ्गार्थं वचनम् ।८६। प्रतिपरोऽनोख्ययीभावात् ॥ ७. ३. ८७॥
प्रति परस् अनु इत्येतत्पूर्वो योऽक्षिशब्दस्तदन्तादव्ययीभावसमासादत्समासान्तो भवति । अक्षिणी प्रति प्रत्यक्षम्, परसमावार्थः परस्शब्दोऽव्ययम्, अक्ष्णोः परं परोक्षम्, अत्ययेऽव्ययीभावः। अक्ष्णः समीपमन्वक्षम् । कथं प्रत्यक्षोऽर्थः परोक्षः काल इत्यादेरव्ययीभावस्य सत्ववचनता । अभ्रादेराकृति
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३३० ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते
[ पा० ३. सू० ८८-९२ ] गणत्वादप्रत्ययेन भविष्यति ॥ अक्षशब्देनेन्द्रियपर्यायेण सिद्धे प्रत्यादिभ्यः परस्याक्षिशब्दस्याव्ययीभावे प्रयोगो मा भूदिति वचनम् ॥८७॥
अनः ॥ ७ ३.८८ ॥
अन्नन्तादव्ययीभावादत्समासान्तो भवति । उपराजम्, उपतक्षम्, अध्यात्मम्, प्रत्यात्मम् ॥८८॥
नपुंसकाद्वा ।। ७. ३. ८९ ।।
अनन्तं यन्नपुंसकं तदन्तादव्ययीभावादत्समासान्तो वा भवति । उपचर्मम्, उपचर्म, प्रतिकर्मम् प्रतिकर्म, प्रतिसाम, प्रतिसामम्, अनुलोम अनुलोमम् प्रतिलोम, प्रतिलोमम्, । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विकल्पः । ८९ । गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायण्यपञ्चमवर्ण्याद्वा ॥ ७. ३. ९० ।।
गिरि नदी पौर्णमासी आग्रहायणी इत्येतच्छब्दान्तात्पञ्चमरहिता ये वयस्तदन्ताच्चाव्ययीभावात्समासादत्समामान्तो भवति वा । गिरेरन्तः अन्तर्गिरम् अन्तर्गिरि, गिरेः समीपमुपगिरम्, उपगिरि, एवमुपनदम् उपनदि, उपपौर्णमासम् उपपौर्णमासि, उपाग्रहायणम्, उपाग्रहायणि, अपञ्चमवर्ग्य, उपस्रुचम् उपस्रुक्, अधिस्रजम्, अधिस्रक्, उपैडविडम्, उपंडविड्, प्रतिमरुतम्, प्रतिमरुत्, उपदृषदम्, उपदृषद्, उपसमिधम्, उपसमित्, उपककुभम्, उपककुब् । ९० ।
न्या० स० गिरिनदी०—उपैड बिडमिति इडविडोऽपत्यं स्त्री ' राष्ट्रश्नत्रिय ' ६-१-११४ इत्यत्र ' द्रेण: ' ६-१-१२३ इति लुप् अनेनात् विषये 'जातिश्च णि ३-२-५१ इति पुंवद्भावेऽनः प्रत्यावृत्तिः ततो वगन्तित्वाभावादत् न भवति, पुंवद्भाव एव चाऽस्य फलम् । संख्याया नदीगोदावरीभ्याम् ॥ ७ ३.९९ ॥
·
संख्यावाचिनः परो यो नदीगोदावरीशब्दो तदन्तादव्ययीभावसमासादत्समासान्तो भवति । पञ्च नद्यः पञ्चनदम्, सप्तनदम्, द्विगोदावरम्, त्रिगोदावरम् । संख्याया इति किम् ? उपनदि । अव्ययीभावादित्येव ? एकनदी । इह नदीग्रहणं नित्यार्थम् । ९१ ।
शरदादेः ।। ७. ३. ९२ ॥
शरदाद्यन्तादव्ययीभावसमासादत्समासान्तो भवति । शरदः समीपमुपशरदम्, प्रतिशरदम्, उपत्यदम्, प्रतिश्यदम् ।
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[ पाद. ३. सू. ९३-९६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [३३१
___शरद्. त्यद्, तद्, यद्, कियत्, हिरुक, हिमवत, उपसद्, सदस्, अदस्, अनस्, मनस्, विपाश्, दिश, दृश, विश्, उपानह, अनडुह, चतुर् दिव् । अत्रापञ्चमवान्तपाठो नित्यार्थः । अव्ययीभावादित्येव । परमशरद् । ९२ । ___ न्या० स० शरदा०-विपाशिति पाशं पाशाद् वा विमोचयति णिच् वसिष्ठं विपाशितवती 'विशिविपाशिभ्याम् । ९५० (उणादि) इति वा क्विप् ।। जराया जरसू च ॥ ७. ३. ९३ ॥
जराशब्दान्तादव्ययीभावसमासादसमासान्तो भवति तत्संनियोगे च जराशब्दस्य जरसादेशः ।। उपजरसम् । प्रतिजरसम् । ९३। सरजसोपशुनानुगवम् ॥ ७. ३. ९४ ॥
सरजस, उपशुन, अनुगव इत्येतेऽव्ययीभावा अदन्ता निपात्यन्ते । सह रजसा सरजसमभ्यवहरति । साकल्येऽव्ययीभावः, शुनः समीपे उपशुनं तिष्ठति । अत्र निपातनाद्वस्योत्वम् । गामन्वायतमनुगवम् । 'दयेऽनः' (३-१-३४) इत्यव्यययीभावः, दैदिन्यत्र न भवति । गवां पश्चादनग यानम् । १४ । जातमहदद्धादुक्ष्णः कर्मधारयात् ॥ ७. ३. ९५ ॥
जातमहवृद्ध इत्येतेभ्यः परो य उक्षनशब्दस्तदन्तात्कर्मधारयादत्समासान्तो भवति । जातश्चासावुक्षा च जातोक्षः, महोक्षः, वृद्धोक्षः । जातादिभ्य इति किम् ? परमोक्षा, उत्तमोक्षा। उक्षण इति किम ? महाश्मश्रु । कर्मधारयादिति किम् ? जातस्योक्षा जातोक्षा, महदुक्षा, वृद्धोक्षा । ९५ । स्त्रियाः पुंसो द्वन्दाच ॥ ७. ३. ९६ ॥
स्त्रीशब्दात्परो यः पुम्स्शब्दस्तदन्ताद्वन्द्वात्कर्मधारयाश्चात् समासान्तो भवति । स्त्री च पुमांश्च स्त्रीपुस स्त्रीपुसौ स्त्रीपुसाः । कर्मधारयात् स्त्री चासौ पुमांश्च स्त्रीपुसः शिखण्डौ, स्त्रीपुसं विद्धि राक्षसम् । द्वन्द्वाच्चेति किम् ? स्त्रियाः पुमान् स्त्रीपुमान् । ९६ । ऋक्सामय॑जुषधेन्वनडुहवाङ्मनसाहोरात्ररात्रिंदिवनक्तंदिवाहर्दि
वोर्वष्ठीवपदष्ठीवाक्षिभ्रवदारगवम् ॥ ७. ३. ९७ ॥ ऋक्सामादो द्वन्द्वा अत्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । ऋक् च साम च
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३३२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० ९७-९९ ) ऋक्सामे । ऋक् च यजुश्च ऋग्यजुषमधीयानान् । धेनुश्च अनड्वांश्च धेन्वनडुहौ, धेन्वनडुहाः। असमाहारार्थं धेन्वनडुहग्रहणम् । समाहारे तूत्तरेणैव सिद्धम । वाक च मनश्च वाङमनसे, अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रः, पुण्याविमावहोरात्री, रात्रिश्च दिवा च रात्रिंदिवम्, रात्रिंदिवानि पश्यति । निपातनात्पूर्वपदस्य मोऽन्तः, नक्त च दिवा च नक्त दिवम्, अत्रापि, मोऽन्तः । अहश्च दिवा च अहर्दिवम् । पर्याययोरपि वीप्सायां द्वन्द्वो निपातनात् । अहरहरित्यर्थः । रात्रिपर्यायोऽत्रान्यतर इत्येके । अहनिशमित्यर्थः, ऊरू च अष्ठीवन्तौ च ऊर्वष्ठीवम् । निपातनादन्त्यस्वरादिलोपः, पादौ चाष्ठोवन्तौ च पदष्ठीवम् । अत्र पद्धावश्च । अक्षिणी च भ्रुवौ च अक्षिध्रुवम् । दाराश्च गावश्च दारगवम्, अत्र वैशब्दस्य निपातनादुवादेशोऽक्षिदारशब्दयोश्च पूर्वनिपातः । द्वन्द्वादित्येव ? ऋक् साम यस्य ऋक्सामा मुग्धः । ऋग्यजुर्यस्य स ऋग्यजुः, धेनोरनड्वान् धेन्वनऽवान् । ६७ ।
न्या० स० ऋक्साम-ननु चाहर्दिवंशब्दौ तुल्यार्थों तयोश्चोक्तार्थानामप्रयोग इति वा 'समानाम् ' ३-१-११८ इत्येकशेषारम्भाद् वा द्वंद्वो नोपपद्यत इत्याह-पर्याययोरपीत्यादि । पूर्वनिपात इति लघ्वक्षर' ३-१-१६० इत्यादिना अल्पस्वरत्वेन भू-गोशब्दयोः पूर्वनिपाते प्राप्ते चवर्गदषहः समाहारे ॥ ७. ३. ९८ ॥
चवर्गदकारषकारहकारान्ताद्वन्द्वात्समाहारेर्थे वर्तमानादत्समासान्तो भवति । वाक् च त्वक् च वाकवचम्, वाक् च समुच्च वाक्समुच्छम, श्रीस्रजम् । द्, समिदृपदम्, संपद्विपदम् ष, वात्विषम् । बागविग्रुषम् ह, छत्रोपानहम्, गोगोदुहम् । समासान्तत्वेन प्रत्ययस्य द्वन्द्वावयवत्वात् छत्रोपानहिनीति द्वन्द्वलक्षणो मत्वर्थीय इन् भवति । चवर्गदषह इति किम् दृषत्समित् । यकृन्मेदः । समाहारे इति किम् ? प्रावृटशरद्भ्याम्, अश्वानडुद्भ्याम् द्वन्द्वादित्येव ? पञ्च वाचः समाहृताः पञ्चवाक ।९८॥
न्या स० चवर्ग०-वाक्समुच्छमिति उच्छत विवास इत्यस्य विप् 'अनुनासिके च' ४-१-१०८ इति शत्वस्यानित्यत्वात् समुच्छेविचि वा । गोगोदुहमिति अत्र गोशब्दः किरणादिपर्यायस्ततः समाहारो भवति, अन्यथा तु गवि वर्तमानस्य स्वैरिति व्यावृत्तिविषयत्वान्न स्यात् समाहारः, एवं दारगवमित्यत्रापि, यद्वा गोधुक वत्सा गां दोग्धीति व्युत्पत्त्या। दिगोरनबोष्ट् ॥ ७. ३. ९९ ।। अन्नन्तादहनशब्दान्ताच्च द्विगोः समाहारे वर्तमानादट् समासान्तो भवति ।
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[ पाद. ३. सू. १००-१०२ ] श्रीसिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [१३ पञ्च तक्षाणः समाहृताः पञ्चतक्षी, पञ्चतक्षम, दशोक्षी, दशोक्षम्, शतराजी, शतराजम्, द्वहः, व्यहः । द्विगोरिति किम् ? समाहृतास्तक्षाणः संतक्षाणः, समाहृतान्यहानिः समनाः । ' सर्वांशसंख्याव्ययात्' (७-३-११८) इत्यत् । समाहार इत्येब? द्वाभ्यामुभभ्यां क्रीतः न्युझा, न्युक्षा, द्वयोरनोर्भव: ब्यह्नः, व्यह्नः । अन्नन्तत्वेनैव सिद्धेऽन इदमड्विधानं समाहारे ' सर्वाशसंख्याव्ययात् ' (७-३-१९८) इति परस्याप्यटो बाधनार्थम् । तस्मिन् हि सत्यनादेशः स्यात् ।९९५ द्वित्ररायुषः ॥ ७. ३. १००॥
द्वित्रि इत्येताभ्यां पसे य आयुषशब्दस्तदन्ताल द्विगोः समाहारे वर्तमानादट् समासान्तो भवति । द्वयोरायुषोः समाहारो द्वचायुषम्, व्यायुषम् । द्विवेरिति किम् ? चतुरायुः । समाहारे इत्येव ? द्वयायुःप्रियः । घ्यायुःप्रियः ॥१०॥ वाजलेरलुकः ।। ७. ३. १०१ ॥
वित्रिभ्यां परो योऽजलिशब्दस्तदन्तात् द्वि गोरट् समासान्तो वा भवति न चेत्स द्विगुस्तद्धितलुगन्तो भवति । द्वयोरजल्योः समाहारः द्वयजलम्, द्वघजलि, व्यजलम्, व्यञ्जलि। द्वाभ्यामञ्जलिभ्यामागतं द्वयजलमयम्, द्वयञ्जलिमयम्, द्वबजलरूप्यम्, द्वयञ्जलिरूप्यम्, पजलमयम्, व्यञ्जलिमयम्, व्यञ्जलरूप्यम्, व्यजलिरूप्यम् । द्वावकजलो प्रियो यस्य यजल प्रियः द्वयजलिप्रियः, यजलप्रियः त्र्यञ्जलिप्रियः अलुक इति किम् ? द्वाभ्यामजलिभ्यां क्रीतः द्वघञ्जलिर्घटः, यजलिर्घट: । द्विगोरित्येव ? द्वयोरजलिः द्वपञ्जलिः, व्यञ्जलि: । द्वावञ्जली अस्य द्वयञ्जलिकः, यजलिकः । नित्योऽयं विधिरित्येके ।१०१।।
न्या० स० वाज.-द्विगोरित्ति अत्र समाहारो नानुवर्त्तते अपेक्ष्मत इति वचनाल्, समाहारे लक न संभवतीति अलक इति वचनादेवेति न वाच्यं समाहारादपि तदितलोपसंभवात यथा द्वयञ्जलेन क्रीत इकणो लुपि सममसान्तनिवृत्तौ द्वयञ्जलिर्घट इत्यत्र, अलुक इत्यस्य चरितार्थत्वात् । खार्या वा ॥ ७. ३. १०२ ।।
पृथग्योगाद्विवेरिति निवृत्तम्, खारीशब्दान्तात् द्विगोरलुकोऽट् समासान्तो वा भवति । द्विखारम् । पक्षे 'क्लीबे' (२-४-९६) इति इस्वत्वे द्विखारि । केचिदत्र पुंस्त्वमपीच्छन्ति, तन्मते 'गोश्चान्ते'-1२-४-९५)
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३३४ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. ३ सू० १०३-१०४ ] इत्यादिना इस्वत्वे द्विखारिः। स्त्रीत्वमध्यन्ये । तन्मते पूर्ववदध्रस्वत्वे 'इतोऽक्त्यर्थात् ' (२-४-३२) इति ङ्यां च द्विखारी। एवं पञ्चखारम् पञ्चखारी, द्विखारमयम, द्विखारीमयम्, पञ्चखाररूप्यम्, पञ्चखारीरूप्यम्, द्विखारप्रियः, द्विखारीप्रियः, पञ्चखारधनः, पञ्चखारीधनः । द्विगोरित्येव ? उपखारि, अधिखारि । अलुक इत्यस्य प्रत्युदाहरणं नास्ति विशेषाभावात् । यतस्तद्धितलुक्यडशवेऽपि 'यादे:'-(२-४-९४ ) इत्यादिना डोलुकि पुन्नपुंसकयो द्विखारः द्विखारम्, स्त्रियां तु 'परिमाणात्तद्धितलुकि'-(२-३-२३) इत्यादिना डीप्रत्यये द्विखारीति भवति । एतच्च रूप्यमयपि भवति । इदन्तात् ङ्यां खारीत्येके । तदा तु अस्त्येव विशेषः ।१०२॥
न्या. स. खार्या०-पुंस्त्वमपीच्छन्तीति स्थिते तु अन्यस्तु सर्वो नपुंसक इति क्लीवत्वमेव ।
द्विखार इति भवेदमर्थादावण क्रीते त्वर्थे 'खारीकाकणीभ्यः कच्' ६-४-१४९ प्राप्नोति तस्य च विधानसामर्थ्यात् लुप् न भवति 'द्विगोरनपत्ये ६-१-२४ इत्यणो लुप् । द्विखारीति द्वे खार्यो मानमस्याः स्यात , 'मात्रट' ७-१-१४५ इति मात्रटू 'द्विगोः संशये च' ७-१-१४४ इति लुप् 'परिमाणात् ' २-४-२३ इति ङीः । ।
इदन्तात् ज्यामिति स्वमते तु खारडिति निपातने टानुबन्धात् टिद्वारेण डोः। अस्त्येव विशेष इति यतस्तद्धितलुकि इदन्ता प्रकृतिरवतिष्ठते । वार्धाच ।। ७. ३. १०३ ॥
अर्धशब्दात्परो यः खारीशब्दस्तदन्ताच्च समासादलुकोऽट् समासान्तो वा भवति । ‘समेंऽशेऽधं नवा' (३-१-५४) इत्यर्धशब्दे यः प्रतिपदं समास उक्तस्तत्रायं विधिः, अर्घ खार्याः अर्धखारम् अर्घखारी। विधानसामर्थ्यादडन्तस्य न स्त्रियां वत्तिः । चकारो द्विगोरनुकर्षणार्थः । तेनोत्तरत्र द्वयमप्यनुवर्तते ॥१०३॥
न्या. स. वार्धा-प्रतिपदमिति लक्षणप्रतिपदोक्तयोः' इति न्यायात् , तत्राय विधिरिति न बहुव्रीह्यादौ । द्वयमपीति इह तु प्रयोजनम् । नावः ॥ ७. ३. १०४॥
अर्धशब्दात्परो यो नौशब्दस्तदन्तात्समासात् द्विगोश्च नौशब्दान्तादलुकोऽट समासान्तो भवति । अर्धं नाव: अर्धनावम् अर्धनावी, द्विगोः, द्विनावम्, पञ्चनावम्, द्विनावमयम्, पञ्चनावमयम्, द्विनावरूप्यम्, पञ्चनावरूप्यम्, द्विनावप्रियः, द्विनावधनः । अलुक इत्येव ! द्वाभ्यां नोभ्यां क्रीतः द्विनौः, पञ्चनौः। द्विगोरित्येव ? द्वयोनौंः द्विनौः, अर्धादित्येव ? राजनौः, परमनौः ।
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पाद. ३. सू. १०५-१०७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३३५ टकारो यर्थः । अर्धनावम् अर्धनावीति हि स्त्रीनपुसकयोदश्यते ॥१०॥
न्या स० नाव:-अर्धनावमित्यादि अर्धपूर्वपदो नाव इति स्त्रीक्लोक्त्वे भवतः । गोस्तत्पुरुषात् ॥ ७. ३. १०५ ॥
गोशब्दान्तात्तत्पुरुषादल कोऽट् समासान्तो भवति । राज्ञो गौ राजगवः, राजगवी, पुंगवः, स्त्रीगवी, अतिगवः, अतिगवी, पञ्चगवम्, दशगवम्, पञ्चगवमयम्, पञ्चगवरूप्यम्, पञ्चगवधनः, दशगवधनः, दशगवप्रियः। तत्पुरुषादिति किम् ? चित्रगुः । अलक इत्येव । पञ्चभिर्गोभिः कोतः पञ्चगुः ।।१०॥
राजन्सखेः ॥ ७. ३. १०६ ॥ __ अलुक इति निवृत्तम् पृथग्योगात् । राजन् सखि इत्येतदन्तात्तत्पुरुषाद समासान्तो भवति । देवानां सजा देवराजः, महांश्चासौ राजा च महाराजः, अतिक्रान्तो राजानमतिराजः, अतिसजो। पश्चानां राज्ञां समाहारः पञ्चराजी, दशराजी । पञ्चभी राजभिः क्रीतः पश्चराजः, पञ्चराजी, पञ्चराजप्रियः । सखि,-राजसखः, महासखः, अतिसखः, अतिसखी, पञ्चमखम्, दशसखम्, पञ्चसखः, पञ्चसखो, पञ्चसखप्रियः, राजन्निति नान्तनिर्देशादनकारान्तान्न भवति । मद्राणां राज्ञी मद्रराज्ञी, विद्याराज्ञी, महासज्ञी । सखीशब्दात्त्वटि सत्यसति बा न रूपभेदः ॥१०६।।
न्या. स. राजन्०-नान्तनिर्देशादिति नामग्रहणे इति न्यायात् अटि सति जातिश्च णि' ३-२-५१ इति पुंबद्भावे मद्रराजीति प्राप्नोतीत्याशङ्का । न रूपभेद इति सखीशब्दस्य ईकारान्तस्यापि पञ्चानां सखीन्मं समाहार इति 'क्लीबे' २-४-९७ इति ह्रस्वत्वे इदन्तादेवाद भवति, तथा च पश्चसखमिति, तथा सखीमतिकान्त इति कृते सखीशब्दादडभावेऽपि 'गोश्चान्त' २-४-९६ इति कृते सखिद्वारेणाद प्राप्नोत्येव, तथा पञ्चानां सखी इत्यपि कृते अटि अडभावेऽपि तत्पुरुषस्योत्तरपदप्रधानत्वात् पञ्चसखीत्येव रूपम् , एवमन्यदपि रूपभेदाहेतुकमभ्यूयम् । राष्ट्राख्याद्ब्रह्मणः ॥ ७. ३. १०७ ॥
राष्ट्रवाचिनः परो यो ब्रह्मशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषाद समासान्तो भवति । सुराष्ट्र ब्रह्मा सुराष्ट्रब्रह्मः, यः सुराष्ट्रेषु वसति स सौराष्ट्रिको ब्राह्मण इत्यर्थः । एवमवन्तिब्रह्मः, काशिब्रह्मः ।।
राष्ट्राख्यादिति किम् । देवब्रह्मा नारदः। आख्यग्रहणं राष्ट्र. बाच्यर्थम् ॥१०॥
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बृहवृत्ति-लघुन्यासर्सवलिते [पाद. ३ सू. १०८-११२ कुमहद्भ्यां वा । ७. ३. १०८॥
कु महदित्येताभ्यां परो यो ब्रह्मनशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषाद्वाट् समासान्तो भवति । पापो ब्रह्मा कुब्रह्मा कुब्रह्मः, महान् ब्रह्मा महाब्रह्मः महाब्रह्मा, पापो महांश्च ब्राह्मण एवमुच्यते ॥१०॥ ग्रामकोटात्तक्ष्णः ॥ ७. ३. १०९ ॥
ग्रामकोट इत्येताभ्यां परो यस्तक्षनशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषाद समासान्तो भवति । ग्रामस्य तक्षा ग्रामतक्षः, ग्रामसाधारण इत्यर्थः । कुटी शाला तस्यां भवः कोटः कौटस्तक्षा कौटतक्षः, स्वापणशालायां यः कर्म करोति स्वतन्त्रो न कस्यचित्प्रतिबद्ध इत्यर्थः । ग्रामकोटादिति किम् ? राजतक्षा । तत्पुरुषादित्येव । ग्रामश्च तक्षा च ग्रामतक्षाणौ । कौटस्तक्षास्य कौटतक्षा ।।१०९।।
गोष्ठाते: शुनः ।। ७. ३. ११०॥ ___ गोष्ठ अति इत्येताभ्यां परो यः श्वनशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषादट् समासान्तो भवति गोष्ठे श्वा गोष्ठश्वः, अतिक्रान्तः श्वानम् अतिश्वो वराहः अतिजवन इत्यर्थः । अतिश्वः सेवकः। सुष्ठु स्वामिभक्त इत्यर्थः। अतिश्वी सेवा। अतिनीचेत्यर्थः ॥११०॥ प्राणिन उपमानात् ॥७. ३. १११॥
प्राणिवाचिन उपमानात्परो यः श्वनशम्दस्तदन्तात्तत्पुरुषाद समासान्तो भवति । व्याघ्र इव व्याघ्रः स चासो श्वा च व्याघ्रश्वः, ' उपमेयं व्याघ्रायः साम्यानुक्तो' (३-१-१०२) इति समासः । अत एव वचनात् श्वनशब्दस्य परनिपातः। मयूरव्यंसकादित्वाद्वा समासः । एवं सिंहश्वः, वृकश्वः । प्राणिन उपमानादिति पूर्वपदविज्ञानादिह न भवति । वानरः श्वेव वानरश्वा ।
प्राणिन इति किम् ? फलकमिव श्वा फलकवा । उपमान ग्रहणं किम् ? देवदतश्वा । प्राणी उपमानभूतो यः श्वाशब्दः तदन्तात्तत्पुरुषादिच्छन्त्येके । व्याघ्रः श्वेव व्याघ्रश्वः । एवं सिंहश्वः, वृकश्वः, पुरुषश्वः तन्मते वानर श्वेत्यत्र समासान्तविधे नित्यत्वान्न भवति ॥१११।।
भ्या० स० प्राणि-परनिपात इति प्रथमोक्तत्वेन उपमेयस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते । अप्राणिनि ॥ ७. ३. ११२ ॥ पूर्वसूत्रे उपमानादिति पूर्वपदस्य विशेषणम् इह तु शुनः, अप्राणिनि
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[पाद. ३. सू, ११३-११५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३३७ वर्तते य उपमानवाची श्वन्शब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषाद समासान्तो भवति । श्वेव श्वा आकर्षश्चासौ श्वा च आकर्षश्वः । एवं फलकश्वः, शकटश्वः। अप्राणिनीति किम् ? वानरः श्वव वानरश्वा । उपमानादित्येव ? आकर्षे श्वा आकर्षश्वा। कुक्करवच्छारेऽपि श्वन शब्दो रूढो नोपमानम् । तत्राप्युपमानादेव वर्तत इत्येके, तन्मते आकर्षश्व इत्येव भवति । केचित्तपमानादिति नापेक्षन्ते तन्मते आकर्षे श्वा आकर्षश्वः शकटश्व इत्येव भवति । अन्ये तूपमानादप्राणिनीति एकमेव योगमारभन्ते, तन्मते व्याघ्रश्व इत्यादि न भवति ।११२॥
न्या० स० अप्रा. एकमेव योगमिति ते हि अस्यैव सूत्रस्य विषयमाद्रियन्ते, न तु पूर्वस्य 'प्राणिन उपमानात् ' ७-३-१११ इत्यस्य । प्रर्वोत्तरमृगाच्च सक्थ्नः ।। ७. ३. ११३ ॥
, पूर्वोत्तरमग इत्येतेभ्य उपमानवाचिनश्च शब्दात्परो यः सक्थिशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषादट् समासान्तो भवति । पूर्व सक्थि सक्थ्नः पूर्व वा पूर्वसक्थम्, एवमुत्तर सक्थम, मृगस्य सक्थि मृगसक्थम्, उपमानात्, फलकमिव फलकम्, फलक च तत् सक्थि च फलकसक्थम्, व्याघ्रश्वादिवत्समासः। पूर्वशब्दान्नेच्छन्त्येके कुक्कुटादपीच्छन्त्यन्ये । कुक्कुट सक्थम् ।११३।
न्या० स० पूर्वोत्तर, व्याघ्रश्वादिवदिति वचनसामर्थ्यान्मयूरव्यंसकादित्वाद् वेत्यर्थः, एतच्च 'प्राणिन उपमानात' ७-३-१११ इत्यत्र दर्शितमस्ति । उरसोऽग्रे ॥ ७. ३. ११४ ॥
अग्र मुखं प्रधानं वा तत्र वर्तमानो य उरस्शब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषादट् समासान्तो भवति । अश्वाश्च ते उरश्च अश्वोरसं दृश्यते, सेनाया अश्वा मुखमित्यर्थः, अश्वानामुरः अश्वोरसं वर्जयेत् । अश्वानां मुखमग्रदेशमित्यर्थः ।। अश्वानामुरः अश्वोरसम् अश्वानां प्रधानमित्यर्थः। एवं हस्त्युरसम्, रथोरसम् । अग्र इति किम् ? अश्वोरस्यावर्तः ।११४।
सरोऽनोऽश्मायसो जातिनाम्रोः ॥७. ३. ११५ ।। __ सरस्, अनस्, अश्मन्, अयस् इत्येतदन्तात्तत्पुरुषादट् समासान्तो भवति जातावभिधेयायां नाम्नि च विषये । इदं च यथासंभवं विशेषणम् । जातसरसम्, मण्डूकसरसम्, एवंनाम्नो सरसी। मण्डूकसरसमिति जातिरित्येके । उपानसमिति अन्नविशेषस्य संज्ञा जातिर्वा । महानसं पाकस्थानस्य संज्ञा । राज्ञ उपस्थितमित्येके । गोनसं जातिः, स्थूलाश्मः अमृताश्मः कनकाश्मः । अश्मजातिविशेषा एते । पिण्डाश्मः संज्ञा जातिर्वा । कालायसम्, लोहितायसम्,
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३३८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्यास संवलिते [ पाद. ३ सू० ११६-११९ ]
तीक्ष्णायसम् । अयो जातिविशेषा एते । लोहितायसमिति नामेत्येके । जातिनाम्नोरिति किम् ? परमसरः, सदन, सदश्मा । कथं बिन्दुसरः बकसर इति । नैषा संज्ञा रूढया ह्यत्र संज्ञाविज्ञानं शूर्पनखीवत् । ११५।
"
न्या० स० सरो० -- यथासंभवमिति क्वापि जातौ क्वापि नाम्नि चेत्यर्थः । महानसमिति अन इवानः महच्च तदनश्च ।
गोन समिति गवामन इव गोनसमद्दिजातिः, बाहुलकान्नपुंसकः । अह्नः ।। ७. ३. ११६ ।।
अहन्शब्दान्तात्तत्पुरुषादट् समासान्तो भवति । एकाहम्, पुण्याहम्, सुदिनाहम् | ११६ |
परमाहः, उत्तमाहः,
संख्यातादह्नश्च वा । ७. ३. ११७ ॥
संख्यातशब्दात्परो योऽहन्शब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषादट् समासान्तो भवति तस्य चाहनुशब्दस्याह्नादेशो वा भवति । संख्यातमहः संख्याताह्नः संख्याताहः । अह्नादेशार्थं वचनम्, अट् तु पूर्वेणैव सिद्धः । चकार उत्तरत्रांना देशस्याट्संनियोगशिष्टत्वार्थः । अन्यथा ह्यटोsपवादोऽह्लादेशो विज्ञायेत, तथा च स्त्रियां ङीर्न स्यात् ।११७।
6
न्या० स० संख्या ० - अहादेश इति अतोऽह्नस्य २-३-७३ इति संख्यासायवे : ' १- ४ - ५० इति च ज्ञापकान्न प्रत्ययशङ्का ।
"
सर्वाशसंख्याव्ययात् ॥ ७. ३. ११८ ।।
सर्वशब्दादश एकदेशस्तद्वाचिभ्यः संख्यावाचिभ्योऽव्ययेभ्यश्च परो योऽहन्शब्दस्तदन्तात् तत्पुरुषादट् समासान्तो भवति तस्य चाहनुशब्दस्य नित्यमह्नादेशो भवति । सर्वमहः सर्वाः, अंश, पूर्वाह्नः, अपराह्नः, मध्याहूनः, सायाहूनः । संख्या, द्वयोरह्नोर्भवः व्यह्नः पटः, व्हूनीः अष्टका, एवं त्र्यह्नः त्र्यहूनी,
अनी प्रिये यस्य स व्यह्नप्रियः व्यह्नप्रियः, द्वे अहनी जातस्य व्यह्नजातः, त्र्यह्नजातः, अव्यय, अत्यनः, अत्यहनी कथा, निरहून: निरहूनी वेला, व्यह्नः, व्यह्नी । ११८ |
संख्यात पुण्यवर्षादीर्घाच्च शरत् ।। ७. ३. ११९ ॥
संख्यात, एक, पुण्य, वर्षा, दीर्घ इत्येतेभ्यश्चकारात्सर्वांशादिभ्यश्च परो यो रात्रिशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषादत् समासान्तो भवति । संख्याता रात्रिः संख्यातरात्रः, एकरात्रः पुण्यरात्रः, वर्षाणां रात्रिः वर्षारात्रः, दीर्घरात्रः,
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[ पाद ३. सू. १२०-१२३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३३९ सर्वरात्रः अंश, पूर्वरात्रः, अपररात्रः, अर्घरात्रः, द्वितीयरात्रः। संख्या, द्वयो रात्र्योः समाहारः द्विरात्रः, त्रिरात्रः । द्वयो राज्योर्भवः द्विरात्रः, द्विरात्रा, त्रिरात्रः त्रिरात्रा, द्विरात्रप्रियः, त्रिरात्रप्रियः, द्विरात्रजातः, त्रिरात्रजातः, अव्यय,अति रात्रः, अतिरात्रा, नीरात्रः, नीरात्रा । एकग्रहणं संख्याग्रहणेनानेनैकस्याग्रहणार्थम् । तेन पूर्वसूत्र संख्याशब्देनकस्याग्रहणम् । एकमहः एकाहम् । अटि प्रकृतेऽविधानं स्त्रियां ड्यभावार्थम् ।११९।। पुरुषायुषद्रिस्तावत्रिस्तावम् ॥ ७. ३. १२० ॥
एतेऽत्प्रत्ययान्तास्तत्पुरुषा निपात्यन्ते । पुरुषस्यायुः पुरुषायुषम्, द्विस्तावती द्विस्तावा, त्रिस्तावा वेदिः, वेद्यामनयोः प्रयोगः । अतीशब्दलोपो निपातनात् । प्रकृती यावती वेदिस्तावती द्विगुणा त्रिगुणा वा कस्यांचिद्वि कृतौ भवति । प्रकृतिविकृती यागविशेषौ । अन्यत्रापि दृश्यते । द्विस्तावोऽग्निः, . त्रिस्तावोऽग्निः ।१२०।
श्वसो वसीयसः ॥ ७. ३. १२१ ॥ .. श्वसः परो यो वसीयस्शब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषादसमासान्तो भवति । वसूमच्छब्दादीयसौ मतोरन्त्यस्वरादेश्च लोपे वसीयः, शोभनं वसीयः श्वोवसीयसं कल्याणम् ।१२१॥ निसश्च श्रेयसः ॥ ७. ३. १२२ ॥
निस्शब्दात् श्वसशब्दाच्च परो यः श्रेयसशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषादत् समासान्तो भवति । निश्चितं श्रेयः निःश्रेयसं निर्वाणम् । शोभनं श्रेयः श्वःश्रेयसम् ।१२२॥
नत्रव्ययात्संख्याया डः ॥ ७. ३. १२३ ॥ __ नञोऽव्ययाच्च परो यः संख्याशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषात् डः समासान्तो भवति । न दश अदशाः, अनवाः । न्यूना दश न्यूना नव इत्यर्थः । नञ्पूर्वोऽयं वैकल्ये दृश्यते । अव्यय, निर्गतत्रिंशतोऽङ्गुलिभ्यः निविंशः खङ्गः, निनिश इव क्रूरकर्मा निखिशः खलः, । त्रिशतो निर्गतानि निस्विंशानि वर्षाणि, निस्त्रिशान्यहानि, निश्चत्वारिंशानि, निष्पञ्चाशानि । नत्रव्ययादिति किम् ? गोत्रिंशत् । नग्रहणं 'नञ्तत्पुरुषात्' (७-३-७१) इति प्रतिषेधे प्राप्ते प्रतिप्रसवार्थम् । संख्याया इति किम् ? निःशकृत् । तत्पुरुषादित्यैव । न
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३४० ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संबलिते
[ पाद. ३ सू. १२४-१२७ ] विद्यन्ते त्रयो यस्य सोऽत्रिः । शोभनास्त्रयो यस्य सुत्रिः निर्गतास्त्रिशदस्य निस्त्रिशत् । डित्वमन्त्यस्वरादिलोपार्थम् । १२३॥
न्या० स० नञ्० - नञ्ग्रहणमिति अव्ययद्वारेणापि सिद्धे ।
संख्याव्ययादङ्गुलेः ॥ ७. ३. १२४ ॥
संख्याया अव्ययाच्च परो योऽङ्गुलिशब्दस्तदन्तात्तत्पुरुषात् डः समासान्तो भवति । द्वयोरङ्गुल्योः समाहारः व्यङ्गुलम्, त्र्यङ्गुलम् । द्वे अङ्गुली प्रमाणमस्य मात्रट् तस्य लुप्, ततः समासान्तः । द्व्यङ्गुलम्; त्र्यङ्गुलम्, व्यङ्गुलप्रियः, त्र्यङ्गुलप्रियः, अव्यय, निरङ्गुलम् अत्यङ्गुलम्, तत्पुरुषादित्येव ? उपाङ्गुलि, पञ्चाङ्गुलिर्हस्तः । अनङ्गुलिः पुरुषः । कथमात्माङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलम् उत्सेधाङ्गुलमिति ? अङ्गुलशब्दः प्रमाणवाची प्रकृत्यन्तरम् । 'स्वेनाङ्गुलप्रमाणेनाङ्गुलानां शतं हस्तोऽङ्गुल
पुमान्' ।
यथा
विंशत्येति । १२४ |
बहुव्रीहेः काष्ठे टः ॥ ७. ३. १२५ ॥
अङ्गुल्यन्ताद्बहुव्रीहेः काष्ठे वर्तमानात् टः समासान्तो भवति । द्वे अङ्गुली यस्य व्यङ्गुलम् । त्र्यङ्गुलं, चतुरङ्गुलम्, पञ्चाङ्गुलम् । अङ्गुलिसदृशावयवं धान्यकण्टकादीनां विक्षेपणकाष्ठमेवमुच्यते । बहुव्रीहेरिति किम् ? उपाङ्गुलि, अत्यङ्गुला यष्टिः । काष्ठ इति किम् ? पञ्चाङ्गुलिर्हस्तः । अङ्गुलेरिति निर्देशादङ्गुलीशब्दान्तान्न भवति । द्वावङ्गुलीसदृशाववयवो यस्य तत् द्व्यङ्गुलीकम् दारु । ' न कचि ' (२-४ -१०४) इति हस्वाभाव:, टकारो ङ्घर्थः । दीर्घाङगुली । तीक्ष्णाङ्गुली यष्टिः । १२५ ।
सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे ॥ ७. ३. १२६ ॥
स्वाङ्गवाची यः सक्थिशब्दोऽक्षिशब्दश्च तदन्ताद्बहुव्रीहेष्टः समासान्तो भवति । दीर्घं सक्थि यस्य दीर्घसक्थः, दीर्घसक्थी, गौरसक्थः, गौरसक्थी, विशालाक्षः, विशालाक्षी, कमलाक्षः, कमलाक्षी, स्वक्षः, स्वक्षी । सक्थ्यक्ष्ण इति किम् ? सुबाहुः, दीर्घजानुः । स्वाङ्ग इति किम् ? दीर्घसक्थि शकटम्, स्थूलास्थिरिक्षुः । बहुव्रीहेरित्येव ? परमसक्थि, सदक्षि । १२६ ।
न्या० स० सक्थ्य० —— स्थूलाक्षिरिक्षुरिति समासान्तविधेरनित्यत्वात् 'अक्ष्णोऽप्राण्यङ्गे ७ - ३ - ८५ इत्यनेनापि न भवति ।
,
द्वित्रेमूनों वा ॥ ७. ३. १२७ ॥
द्वि, त्रि इत्येताभ्यां परो यो मूर्धन् शब्दस्तदन्ताद्बहुव्रीहेष्टः समासान्तो
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[ पाद. ३. सू. १२८-१३० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३४१ वा भवति । द्विमूर्धः, द्विमूर्धा, त्रिमूर्धः, त्रिमूर्धा, द्विमूर्धी स्त्री। बहुव्रीहेरित्येव । द्वयोमूर्धा द्विमूर्धा ।१२७॥ प्रमाणीसंख्याइडः ॥ ७. ३. १२८॥
प्रमाणोशब्दान्तात्संख्यावाचिशब्दान्ताच्च बहुव्रोहेर्डः समासान्तो भवति । स्त्री प्रमाणी येषां ते स्त्रीप्रमाणाः कुटुम्बिनः, भार्याप्रमाणाः श्रेणयः, कल्याणी प्रमाण्यस्य कल्याणप्रमाणः । संख्या, द्वौ वा त्रयो वा द्वित्राः, पञ्चषाः, द्विदशाः, त्रिदशाः, आसन्नदशाः, अदूरदशाः, अधिकदशाः, उपदशाः, उपगणाः । प्रमाणशब्देन सिद्धे प्रमाणीशब्दान्तात्कजभावार्थं वचनम् । संख्यान्तस्य प्रतिपदोक्तस्य बहुव्रीहेर्ग्रहणादिह न भवति । अत्रिः। सुत्रिः, प्रियपश्चानः, प्रियषषः । बहुव्रोहेरित्येव । द्वादश, त्रयोदश ।१२८।
न्या० स० प्रमा०–अत्रिरिति तत्र संख्यावाचिना नाम्ना संख्येयेऽन्यपदार्थ इति व्याख्या. नात 'अव्ययम् ' ३-१-२१ इति न समासः, अत्र तूत्तरपदं संख्येयवाचि ।
प्रियषष इति स्त्रीत्वेऽपि 'यापः' २-४-९९ इति ह्रस्वः, अन्यथा षष उपादानानुपादानयोरविशेष इति लिङ्गानुशासने ष्णन्ता संख्येत्यत्रानुपपन्नं स्यात् । सुप्रातसुश्वसुदिवशारिकुक्षचतुरश्रेणीपदाजपदप्रोष्ठपदभद्रपदम्
॥ ७. ३. १२९ ॥ सुप्रातादयो बहुव्रोहयो डप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शोभनं कर्म प्रातरस्य सुप्रात:, शोभनं कर्म श्वोऽस्य सुश्वः । शोभनं कर्म दिवास्य सुदिवः, शारेरिव कुक्षिरस्य शारिकुक्षः, चतस्रोऽश्रयो यस्य चतुरश्रः, एण्या इव पादावस्य एणीपदः, एवमजपदः, प्रोष्ठो गौस्तस्येव पादावस्य प्रोष्ठपदः, भद्रौ पादावस्य भद्रपदः । निपातनात्पद्भावो विषयव्यवस्था च भवति ।१२९। पूरणीभ्यस्तत्प्राधान्येऽप् ।। ७. ३. १३०॥
पूरणप्रत्ययान्तः स्त्रीलिङ्गशब्दः पूरणी तदन्ताबहुव्रीहेरए समासान्तो भवति तत्वाधान्ये तस्याः पूरण्याः प्राधान्ये, समासेनाभिधीयमानो ह्यर्थः प्रधान भवति । कल्याणी पञ्चमी रात्रिर्यासां रात्रोणां ताः कल्याणीपञ्चमा रात्रयः । अत्र रात्रयः समासार्थः। तासु पञ्चम्यपि रात्रित्वेनान प्रविष्टेति प्रधानम् । एवं कल्याणीदशमाः, कल्याणोतुर्याः । कल्याणीतुरीयाः, कल्याणीद्वितीयाः, कल्याणीतृतीयाः। पूरणीभ्य इति किम् ? द्वितीया भार्या कल्याणी यासां भार्याणां ता द्वितीयाकल्याणीकाः । स्त्रीत्व निर्देशः किम् ? कल्याण
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३४२)
बृहदृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ३. सू० १३१-१३५ ) पञ्चमका दिवसाः, कल्याणद्वितीयकान्यहानि । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम्, तेन कल्याणीपञ्चमा रात्रय इत्यत्र 'ऋन्नित्यदितः' (७-३-१७१) इति परोऽपि कच् न भवति । तत्प्राधान्य इति किम् ? कल्याणपञ्चमीकः पक्षः। पकारो 'नाप्रियादौ' (३-२-५३) इति पर्यु दासार्थः ।१३०॥
नसुव्युपत्रेश्चतुरः ॥ ७. ३. १३१ ॥ ___ नञ् सु वि उप त्रि इत्येतेभ्यः परो यश्चतुःशब्दस्तदन्तात् बहुव्रोहेरप समासान्तो भवति । अविद्यमानानि अदृश्यानि वा चत्वारि यस्य सोऽचतुरः । सुदृश्यानि शोभनानि वा चत्वारि यस्य सुचतुरः, विसदृशानि विगतानि वा चत्वारि यस्य विचतुरः, चत्वारः समीपे येषां संख्येयानां ते उपचतुराः, त्रयो वा चत्वारो वा त्रिचतुराः । समासान्तविधेरनित्यत्वादिह न भवति । त्रयश्चत्वारो यस्य स त्रिचत्वा उन्मुग्धः, उपगताश्चत्वारो येन स उपचत्वाः ।१३१॥
न्या स० नञ् सु०-अत्र सामान्यो बहुव्रीहिः, प्रतिपदोक्तग्रहणे तु 'एकार्थ चानेकं च' ३-१-२२ इति चकारेण विधीयमाने बहुव्रीही अचतुर इत्यादयो न स्युः । अन्तर्बहिया लोग्नः ॥ ७. ३. १३२ ॥
अन्तर बहिस इत्येताभ्यां परो यो लोमन्शब्दस्तदन्ताद्वहुव्रीहेर समासान्तो भवति । अन्तलोमान्यस्य अन्तर्लोमः, बहिर्लोमः प्रावारः ।१३२॥
भान्नेतुः ॥ ७. ३. १३३॥
भान्नक्षत्रवाचिनः परो यो नेतृशब्दस्तदन्ताबहुव्रीहेरप् समासान्तो भवति । मगो नेता आसां मृगनेत्रा रात्रयः, पुष्यनेत्राः । भादिति किम् ? देवदत्तनेतृकः। नेत्रशब्देनैव सिद्धे नेतृशब्दात्कच् मा भूदिति वचनम् ।१३३। नाभेर्नानि ॥ ७. ३. १३४ ॥
नाभ्यन्तादबहुव्रीहेरप् समासान्तो भवति नाम्नि अबन्तेन चेत् संज्ञा गम्यते । पद्मनाभः, ऊर्णनाभः, हेमनाभः, वज्रनाभः, हिरण्यनाभः । नाम्नीति किम् ? विकसितवारिजनाभिः। अघोनाभं प्रहतवानिति अव्ययीभावेऽपि तिष्ठद्गावादिषु तथापाठात् सिद्धम् ।१३४। नबहोचो माणवचरणे ॥ ७. ३. १३५॥
नञ् बहु इत्येताभ्यां परो य ऋचशब्दस्तदन्ताबहुव्रीहेरप् समासान्तो
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[ पाद. ३. सू. १३६-१३९ ] श्रीमिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [ ३४३ भवति यथासंख्यं माणवे चरणे च वाच्ये । न विद्यन्ते ऋचोऽस्य अनचो माणवः । बहवच श्चरणः । माणवचरण इति किम् ? अनक्कं साम । बवक्कं सूक्तम् । 'ऋक्यूःपथ्यपोऽत्' (७-३-७६ ) इत्येव सिद्ध नियमार्थं वचनम् ।१३५॥
न्या० स० नत्रबहो०-नियमार्थमित्ति उभयथापि नियमः । नसुदुर्व्यः सक्तिसक्थिहलेर्वा ॥ ७. ३. १३६ ॥
___नञ् सु दुर् इत्येतेभ्यः परे ये सक्तिसक्थिहलिशब्दास्तदन्ताबहुव्रीहेरप् समासान्तो भवति वा । सञ्जनं सक्तिः, अविद्यमाना सक्तिरस्य असक्तः, असक्तिः, सुसक्तः, सुसक्तिः, दुःसक्तः, दुःसक्तिः, असक्थः, असक्थिः, सुसक्थः, सुसक्थिः , दुःसक्थः, दुःसक्थिः, अहलः, अहलिः, सुहलः, सुहलिः, दुहलः, दुईलिः । नसुदुर्घ्य इति किम् ? गौरसक्थी स्त्री। दीर्घसक्थि शकटम्, बहहलिः पुरुषः । हलसक्तशब्दाभ्यां सिद्धे कजभावार्थ वचनम्, तेन न विद्यते हलमस्य अहलक इत्यादि न भवति । सक्तिशब्दान्नेच्छन्त्यन्ये । वचनभेदो यथासंख्य निवृत्त्यर्थः । १३६।
न्या० स० नसु, कजभावार्थमिति अत्राहल इति साध्यं तच्च हलशब्दस्यापि सिध्यति इति सिद्धौ सत्यां यत् हलिशब्दोपादानं तज्ज्ञापयति हलादपि कच् न भवति, हलि प्रति तु विचाराशकापि न तेन हल्यन्ताद् वैकल्पिकः कज् भवति । प्रजाया अम् ॥ ७. ३. १३७ ।।
नत्रादिभ्यः परो यः प्रजाशब्दस्तदन्ताबहुव्रीहेरस समासान्तो भवति । अविद्यमानाः प्रजा अस्य अप्रजाः, अप्रजसौ, अप्रजसः, एवं सुप्रजसौ, दुष्प्रजसो ।१३७। मन्दाल्पाञ्च मेधायाः ॥ ७. ३. १३८॥
मन्द अल्प इत्येताभ्यां नमादिभ्यश्च परो यो मेधाशब्दस्त दन्ताबहुव हे रस् समासान्ता भवति । मन्दा मेधास्य मन्दमेधाः, मन्दमेधसौ, मन्दमेधसः । एवमल्पमेधाः, अमेधाः, सुमेधाः, दुर्मेधाः ।१३८।। जातेरीयः सामान्यवति ।। ७. ३. १३९ ।।
जातिशब्दान्ताबहुव्रीहेरीयः समासान्तो भवति सामान्यवति सामान्याश्रयेऽन्यपदार्थे वाच्ये । ब्राह्मणो जातिरस्य ब्राह्मणजातीयः, अत्र ब्राह्मणशब्देन ब्राह्मणस्था जातिरुच्यते । एवं क्षत्रियजातीयः, सुजातीयः, दुर्जातीयः
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३४४]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० १४०-१४२ ) नानाजातीयः, किंजातीयः । सामान्यवतीति किम् ? बहुजातिमः । अत्र ग्रामो न सामान्यवान् किन्तु तत्स्थाः पुरुषाः । अजातीय इत्यत्र तु सामान्यवानेवान्यपदार्थः । प्रतिषेधस्तु नअर्थः । सामान्यग्रहणं किम् ? दुर्जातेः सूतपुत्रस्य । अत्र जातिशब्दो जन्मपर्याय इति न सामान्यवानन्यपदार्थः । कथं पितृस्थानीयः, गुरुस्थानीयः ? स्थानीयं दुर्गमितिक्त् स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानीय इत्यधिकरणप्रधानेन स्थानीयशब्देन भविष्यति । पितेव स्थानीयः पितृस्थानीयः । १३६॥
न्या स० जाते०-यदि सामान्यवतीदं विधानं कथं अजातीय इति ? अत्र हि सामान्य प्रतिषिध्यते न विद्यते जातिरस्येति, न च तस्मिन प्रतिषिध्यमाने तदबोधनार्थः संभवतीत्याहअजातीय इत्यादि अयमर्थः, सामान्यवतीति सामान्यमात्रसंबन्धिन्यन्यपदार्थे वाच्ये प्रत्ययो, न तु विधोयमानसामान्यसंबन्धिनीति । भृतिप्रत्ययान्मासादिकः ॥ ७. ३. १४० ॥
भृतौ वर्तमानाद्यः प्रत्ययो विहितस्तदन्तात्परो यो मासशब्दस्तदन्ताबहुवा हेरिकः समासान्तो भवति । पञ्च भृतिरस्य पञ्चकः, पञ्चको मासोऽस्य पञ्चकमासिकः, सप्तकमासिकः, विशकमासिकः, त्रिंशकमासिकः, शस्यमासिकः, शतिकमासिकः कर्मकरः। भृतिप्रत्ययादिति किम् ? सुमासः। भृतिग्रहणं किम् ! वर्षासु भवो वार्षिकः, वार्षिको मासोऽस्य वार्षिकमासकः । प्रत्ययग्रहणं किम् ? भृतिमासोऽस्य भृतिमासकः। मासादिति किम् ? पञ्चको दिवसोऽस्य पञ्चकदिवसकः ।१४०॥ द्विपदाद्धर्मादन् ॥ ७. ३. १४१ ॥
धर्मशब्दान्ताद्विपदादबहुवा हेरन् समासान्तो भवति । साधनामिव धर्मोऽस्य साधुधर्मा, क्षत्रियधर्मा, अनन्तधर्मा, विनाशधर्मा । साक्षात्कृतो धर्मो येषां ते (एतैः) साक्षात्कृतधर्माणः । विकल्पमिच्छन्त्येके । कल्याणधर्मा, कल्याणधर्मकः, तद्धर्मा, तद्धर्मकः, विपरीतवर्मा, विपरीतधर्मकः। द्विपदादिति किम ? परमः स्वो धर्मोऽस्य परमस्वधर्मः । इह कस्मान्न भवति परमः स्वधर्मोऽस्य परमस्वधर्मः। प्रत्यासत्तेदिपदस्य बहुव्रोहेर्यदि धर्म एवोत्तरपदं भवति तदा स्यादितीह न भवति ।१४१॥ सुहरित तृणसोमाज्जम्भात् ॥ ७. ३. १४२ ॥
स हरित तृण सोम इत्येतेभ्यः परो यो जम्भशब्दस्तदन्तादब्रहुव्रीहेरन
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| पाद. ३. सू. १४३-१४६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [३४५
समासान्तो भवति, जम्भशब्दोऽभ्यवहार्यवचनो दंष्ट्रावचनो वा । शोभनो जम्भो जम्भा वा अस्य सुजम्भा, हरितजम्भा, तृणजम्भा, सोमजम्भा । दंष्ट्रापक्षे तृणमिव जम्भोऽस्य तृणजम्भा । एवं सोमजम्भा । स्वादिभ्य इति किम् ? चारुजम्भः, प्रतितजम्भः ।१४२॥
न्या० स० सुहरि०--जम्मो, जम्मा वेति उभयत्रापि वैयाकरणमते पुंस्त्रीलिङ्गः । दक्षिणेर्मा व्याधयोगे ॥ ७. ३. १४३ ॥
दक्षिणेर्मेति बहुव्रीहिरन्नन्तो निपात्यते व्याधेन योगे सति । ईबहु वणं वा । दक्षिणमङ्गमीर्ममस्य दक्षिणेऽङ्गं ईर्ममस्येति वा दक्षिणेर्मा मृगः । व्य झुकामस्य व्याधस्य दक्षिणं भागं बहुकृत्य व्यधनानुकूलं स्थितो व्याधेन वा दक्षिणभागे कृतव्रण एवमुच्यते । व्याधयोग इति किम् ? दक्षिणेम शकटम् । दक्षिणेर्मः पशुः ।१४३।
सुपूत्युत्सुरभेर्गन्धादिद्गुणे ।। ७. ३. १४४ ॥ ___ सुपूतिउत्सुरभि इत्येतेभ्यः परो यो गन्धशब्दो गुणे वर्तते तदन्ताबहुव्रीहेरित समासान्तो भवति । शोभनो गन्धो गुणोऽस्य सुगन्धि चन्दनम, पूतिगन्धि करजम्, उद्गन्धि कमलम्, सुरभिगन्धि केसरम् । उतरत्रागन्तोर्वावचनादिह स्वाभाविकाद्भवति । स्वादिभ्य इति किम् । तीवगन्धं हिङ्ग, उग्रगन्धा वचा। गन्धादिति किम् ? सुरसः । गुण इति किम् ? शोभना गन्धाः कुष्ठादयोऽस्य सुगन्ध आपणिकः । इदिति तकार उच्चारणार्थः ।१४४। वागन्तौ ॥ ७. ३. १४५॥
स्वादिभ्यः पर आगन्ती आहार्ये गुणे वर्तते यो गन्धशब्दस्तदन्ताबहव्रीहेरित् समासान्तो वा भवति । सुगन्धि सुगन्धं वा शरीरम्, पूतिगन्धि प्रतिगन्धं वा जलम्, उद्गन्धिः उद्गन्धो वा आपणः, सुरभिगन्धिः सुरभिगन्धो वा पवनः ।१४५।
वाल्पे ॥ ७. ३. १४६ ।। ___ अल्पेऽर्थे यो गन्धशब्दस्तदन्ताबहुव्रोहेरित्समासान्तो वा भवति । सूपस्य गन्धो मात्रास्मिन् सूपगन्धि सूपगन्धं भोजनम् । अल्पसूपमित्यर्थः । माल्यगन्धिः माल्यगन्धः उत्सवः, एवं दधिगन्धि दधिगन्धं भोजनम् । असामानाधिकरण्येऽपि उष्ट्रमुखादित्वाद्बहुव्रीहिः ।१४६।
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद. ३ सू० १४७-१५१ ]
३४६ ]
वोपमानात् ।। ७. ३. १४७ ।।
उपमानात्परो यो गन्धशब्दस्तदन्ताद्बहुव्रीहेरित्समासान्तो वा भवति । उत्पलस्येव गन्धोऽस्य उत्पलगन्धि उत्पलगन्धं वा मुखम्, करीषगन्धि करीषगन्धं वा शरीरम् ॥ १४७॥
पात्पादस्याहस्त्यादेः ।। ७. ३. १४८ ।।
हस्त्यादिर्वाजतादुपमानात्परस्य पादशब्दस्य बहुव्रीहौ पादित्ययमादेशः समासान्तो भवति । व्याघ्रस्येव पादावस्य व्याघ्रपात, सिंहपाद्, ऋक्षपाद् । अहस्त्यादेरिति किम् ? हस्तिन इव पादावस्य हस्तिपादः, अश्वपादः ।
हस्तिन्, अश्व, कटोल, कटोलक, कण्डोल, कण्डोलक, गण्डोल, गण्डोलक, गडोल, गडोलक, गण्ड, महेला, दासी, गणिका, कुसूल, कपोत, जाल, अज इति हस्त्यादिः । १४८
कुम्भपद्यादिः ॥ ७ ३. १४९ ।।
कुम्भपद्यादयः शब्दाः कृतपात्समासान्ता ङयन्ता एवं बहुव्रीहयो निपात्यन्ते । कुम्भाविव पादावस्याः कुम्भपदी, जालपदी, एकपदी, शतपदी, स्थूणापदी, सूत्रपदी, मुनिपदी, शितिपदी, आर्द्रपदी, गोधापदी, कलशीपदी, दासीपदी, विष्णुपदी, कृष्णपदी, कुणिपदी, गुणपदी, द्रोण (णी) पदी, सकृत्पदी, सूकरपदी, शुचिपदी, सूचीपदी, विपदी, अपदी, निष्पदी, अष्टापदी, अशीतिपदी, इति कुम्भपद्यादिः । येऽत्रोपमानपूर्वास्तेषां पूर्वेण संख्यादीनां चोत्तरेण सिद्धे यदि वचनं तेन 'वा पादः ' (२-४-६ ) इति ङीविकल्पो न भवति । कथमेकादिति ? केचिदिहैकपदीशब्दं न पठन्ति । १४९ ।
न्या० स० कुम्भ० अष्टापदीति संज्ञायां ' नाम्नि' ३-२-७५ इत्यसंज्ञायां तु निपातनाद् दीर्घः ।
सुसंख्यात् ॥ ७ ३. १५० ॥
सुपूर्वस्य संख्यापूर्वस्य च पादशब्दस्य बहुव्रीहौ पादित्ययमादेशः समासान्तो भवति । शोभनौ पादावस्य सुपाद्, द्विपाद्, त्रिपात्, चतुष्पात् । स्त्रियां तु वा पाद: ' - ( २-४-६ ) इति पक्षे ङीः । सुपदी सुपात् द्विपदो द्विपात् ।१५०
"
वयसि दन्तस्य दतृ ॥ ७. ३. १५१ ॥
सुपूर्वस्य संख्यापूर्वस्य च दन्तशब्दस्य बहुव्रीहौ वयसि गम्यमाने दतृ
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[ पाद. ३. सू १५२-१५५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३४७ इत्ययमादेशः समासान्तो भवति । शोभना: सुजाताः समस्ता वा दन्ता अस्य सुदन् कुमारः, सुदती कुमारी। द्वौ दन्तावस्य द्विदन् बालः, त्रिदन्, चतुर्दन्, षड् दन्ता अस्य षोडन्, 'एकादशषोडशषोडत्'-(३-२-९१) इत्यादिना षष उत्वं दस्य च डः । वयसीति किम् ? सुदन्तो दाक्षिणात्यः, द्विदन्तः कुञ्जरः, ऋकारो ङयाद्यर्थः ।१५१। स्त्रियां नाम्नि ॥ ७. ३. १५२ ॥
बहुव्रीही स्त्रियां स्त्रीलिङ्गे नाम्नि विषये दन्तशब्दस्य दत्रादेशः समासान्तो भवति । अय इव दन्ता अस्या अयोदती, फालदती, परशुदती। एवंनामा काचित् । स्त्रियामिति किम् ? वज्रदन्तः, नागदन्तः । नाम्नीति किम् ? समदन्ती, स्निग्धदन्ती । असमास उत्तरत्र नाम्मीन्येतावतोऽनुवृत्त्यर्थः ।१५२। श्यावारोकादा ।। ७. ३. १५३ ।।
श्याव अरोक इत्येताभ्यां परो यो दन्तशब्दस्तस्य बहुव्रीहौ दत्रादेशः समासान्तो वा भवति नाम्नि संज्ञायां विषये। श्यावा: कपिशा दन्ता अस्य श्यावदन, श्यावदन्तः । अरोका निर्दीप्तयो निश्छिद्रा वा दन्ता अस्य अरोकदन, अरोकदन्तः । नाम्नीत्येव, श्यावदन्तः, अरोकदन्तः ॥१५३। वाग्रान्तशुद्धशुभ्रवृषवराहाहिमूषिकशिखरात् ॥ ७. ३. १५४ ॥
अग्रान्तेभ्यः शुद्ध, शुभ्र, वृष, वराह, अहि, मूषिक, शिखर इत्येतेभ्यश्च परो यो दन्तशब्दस्तस्य बहुव्रीही दत्रादेशः समासान्तो वा भवति । कुड्मलाग्रमिव दन्ता अस्य कुड्मलाग्रदन्, कुड्मलाग्रदन्तः, शिखरामा दन्ता अस्य शिखराग्रदन्, शिखराग्रदन्तः, शुद्धा दन्ता अस्य शुद्धदन्, शुद्ध दन्तः, शुभ्रदन्, शुभ्रदन्तः, वृषस्येव दन्ता अस्य वृषदन्, वृषदन्तः, एवं वराहदन्, वराहदन्तः, अहिदन्, अहिदन्तः, मूषिकदन्, मूषिकदन्तः, शिखरदन, शिखरदन्तः । योगविभागानाम्नीति निवृत्तम् ।१५४। संप्राज्जानोज्ञौ ।। ७. ३. १५५ ।।
संप्र इत्येताभ्यां परस्य जानुशब्दस्य बहुव्रीही जुज्ञ इत्येतावादेशी समासान्ती भवतः । संगते जानुनी अस्य संजुः, संज्ञः। प्रगते प्रवृद्धे प्रणते प्रकृष्टे वा जानुनी अस्य प्रजुः प्रज्ञः। संप्रादिति किम् ? विजानुः । वचनभेदाधथासंख्याभावः ।१५५।
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३४८ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० १५६-१६१ ] वोर्ध्वात् ॥ ७. ३. १५६ ॥
___ ऊर्ध्वशब्दात्परो यो जानुशब्दस्तस्य बहुव्रीही जुज्ञ इत्येतावादेशी समासान्तौ वा भवतः । ऊर्वे जानुनी अस्य ऊर्ध्वजुः, ऊर्ध्वज्ञः, ऊर्ध्वजानुः । १५६।
सुहृर्हदुन्मित्रामित्रे ॥ ७. ३. १५७ ॥ __ सुहृत्, दुह दिति सुपूर्वस्य दुष्पूर्वस्य च हृदयशब्दस्य बहुव्रीहौ यथासंख्यं मित्रे सख्यौ अमित्रे शत्रौ चामिधेये हृदित्ययमादेशः समासान्तो निपात्यते शोभनं हृदयं यस्य सुहृन्मित्रम्, दुई दमित्रः । मित्रा मित्र इति किम् ? सुहृदयो मुनिः, दुई दयो व्याधः ।१५७। धनुषो धन्वन् ॥ ७. ३. १५८ ॥
धनुःशब्दस्य बहुव्रीही धन्वन् इत्ययमादेशः समासान्तो भवति । शाङ्ग धनुरस्य शाङ्गधन्वा, पिनाकधन्वा। अजकावधन्वा, गाण्डीवधन्वा । कथं गाण्डीवधनुषः खेभ्यो निश्चचार हुताशनः इति ? संज्ञात्वविवक्षायामुत्तरेण विकल्पो भविष्यति ।१५८० वा नाम्नि ॥ ७. ३. १५९ ॥
धनुसशब्दस्य बहुव्रीही धन्वन्नित्ययमादेशः समासान्तो वा भवति नाम्नि संज्ञायां विषये । शतधन्वा, शतधनुः, पुष्पधन्वा, पुष्पधनः ।१५९। खरखुरान्नासिकाया नस् ॥ ७. ३. १६० ॥
खर, खुर इत्येताभ्यां परस्य नासिकाशब्दस्य बहुव्रीही नस् इत्ययमादेशः समासान्तो भवति नाम्नि । खरा खरस्येव वा नासिका अस्य खरणाः, खरणसी। खुर इव नासिकास्य खुरणाः, खुरणसो । 'पूर्वपदस्थान्नाम्न्यगः' (२-६-६५) इति णत्वम् । नाम्नीत्येव ? खरनासिकः, खुरनासिकः ।१६०। अस्थूलाच नसः ॥ ७. ३. १६१ ॥
स्थूलशब्दजितात्पूर्वपदात्खरखुरशब्दाभ्यां च परस्य नासिकाशब्दस्य बहुव्रीही नस इत्ययमादेशः समासान्तो भवति नाम्नि । द्रुरिव नासिकास्य Pणसः, वार्धीव नासिकास्य वार्षीणसः। तद्धितः स्वर'-(३-२-५५) इत्यादिना पुवद्भावाभावः । गोरिव नासिकास्य गोनसः, कुम्भीनसः, खरणसः, खुरणसः । अस्थूलादिति किम् ? स्थूलनासिकः । नाम्नीत्येव ।
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[ पाद ३. सू. १६२-१६७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३४९ तुङ्गा नासिकास्य तुङ्गनासिकः ॥ कथं गोनासः ? यद्यस्ति नासाशब्देन भविष्यति । चकारः पूर्वेणास्य बाधानिवृत्त्यर्थः ।१६१।।
न्या० स० अस्थू०-वाधीणस इति वर्धस्येयं रज्जुरिति रज्जुविशेषणेन वा(शब्दः परतः स्त्रीति पुंभावप्राप्तिः, तद्वन्निरस्थिर्नासा अस्य ।। उपसर्गात् ॥ ७. ३. १६२ ॥
धातुयोगे यः प्रादिरुपसर्गसंज्ञो भवति तस्मात्परस्य नासिकाशब्दस्य बहुव्रीही नस इत्ययमादेशः समासान्तो भवति । प्रगता प्रवृद्धा वा नासिका अस्य प्रणसं मुखम्, 'नसस्य' (२-३-६६) इति णः। उन्नता उद्ता वा नासिकास्य उन्नसं मुखम्, असंज्ञार्थं वचनम् ।१६२१ वेः खुखग्रम् ॥ ७. ३. १६३ ॥
विशब्दादुपसर्गात्परस्य नासिकाशब्दस्य बहुव्रीहौ खुस्नग्र इत्येते आदेशाः समासान्ता भवन्ति । विगता नासिकास्य विखुः, विखः, विग्रः। उपसर्गादित्येव । वेः पक्षिण इव नासिकास्य विनासिकः ।१६३।
जायाया जानिः ॥ ७. ३. १६४ ॥ ___ जायाशब्दस्य बहुव्रीही जानिरित्ययमादेशः समासान्तो भवति । युवतिर्जाया अस्य युवजानिः, प्रियजानिः, शोभनजानिः, वधूजानिः अनन्यजानिः ।१६४। व्युदः काकुदस्य लुक् ॥ ७. ३. ९६५ ॥
वि उद् इत्येताभ्यां परस्य काकुदशब्दस्य बहुव्रोही लुक समासान्तो भवति । विगतं काकुदं ताल्वस्य विकाकुत्, उत्काकुत् ।१६५। पूर्णादा ॥ ७. ३. १६६ ॥
पूर्णशब्दात्परस्य काकुदशब्दस्य बहुव्रीही लुक् समासान्तो वा भवति । पूर्ण काकुदमस्य पूर्णकाकुत्, पूर्णकाकुदः । पूर्णादिति किम् ? रक्तकाकुदः ।१६६। ककुदस्यावस्थायाम् ॥ ७. ३. १६७ ।।
अवस्था वयः, काकुदशब्दस्य बहुव्रीहाववस्थायां गम्यमानायां लुक समासान्तो भवति । न संजातं ककुदमस्य असंजातककुद्वालः, पूर्णककुद् युवा, स्थूलककुबलवान्, यष्टिककुद्, नातिस्थूलो नातिकृशः, सन्नककुद् कृशः, पन्नककुदृद्धः । अवस्थायामिति किम् ? श्वेतककुदः। ककुच्छब्देनैव सिद्धे ककुदशब्दस्यास्मिन्विषये प्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् ।१६७।
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३५०
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. ३ सू. १६८-१७२ ॥ त्रिककुदिरौ ॥ ७. ३. १६८॥
गिरौ पर्वतेऽभिधेय ककुदशब्दस्य त्रिशब्दात्परस्य बहवीही ककुदादेशः समासान्तो निपात्यते । त्रीणि ककुदानि ककुदाकाराणि शिखराण्यस्य त्रिककुत्पर्वतः। गिराविति सिद्धे निपातनं गिरिविशेषप्रतिपत्त्यर्थम्, तेनान्यस्मिन् त्रिककुद इत्येव भवति ।१६८। स्त्रियामूधसो न् । ७. ३. १६९।।
स्त्रियां वर्तमानस्य ऊधस्शब्दस्य बहुव्रीही नकारादेशः समासान्तो भवति । कुण्डमिवोधोऽस्याः कुण्डोध्नी, घटोनी, पीवरमूधोऽस्या: पीवरोध्नी, महोनी गौः । स्त्रियामिति किम् ? महोधाः पर्जन्यः । बहुवीहेरित्येव ? ऊधः प्राप्ता प्राप्तोधा गौः ।१६९। इन: कचू ।। ७. ३. १७०॥
इन्नन्ताबहुव्रीहेः स्त्रियां वर्तमानात्कच् प्रत्ययः समासान्तो भवति । बहवो दण्डिनोऽस्यां बहुदण्डिका, बहुच्छत्रिका सेना । बहुरासभराविका शाला। • अनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवतानर्थ केन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति । बहुस्वामिका वहवाग्म्मिका पुरी । नियासित्येव । बहुदन्डी बदहुण्डिको राजा। चकारो 'न कचि' (२-४-१०४) इति विशेषणार्थः ।१७०।
ऋन्नित्यदितः ॥ ७. ३. १७१ ॥ ___ ऋकारान्तान्नित्यं दिदादेशो यस्मात्तदन्ताच्च बहीव्रीहेः कच् समासान्तो भवति । ऋत्, बहुक कः, बहुहर्तृकः । नित्यदित्, बहुकुमारीकः, बहुब्रह्मबन्धको ग्रामः । नित्यग्रहणं किम् ? पृथुश्री: पृथुश्रीकः, लम्बभ्रूः, लम्बभ्रूकः । पूर्वत्र खियां विधिरिति योगविभागः। केचिन्नित्यदितां चङन्तानामेव कचमिच्छन्ति । तन्मते बहुतन्त्रीः बहुतन्त्रीक इति · शेषाद्वा' (७-३-१७५) इति विकल्प: ।१७१। दध्युरःसर्पिमधूपागच्छालेः ॥ ७. ३. १७२ ॥
दधि, उरस, सर्पिस्, मधु, उपानह, शालि इत्येतदन्ताद्बहुव्रीहेः कच समासान्तो भवति । प्रियदधिकः, प्रियोरस्कः, प्रियसर्पिष्कः, प्रियमधुकः, प्रियोपानक: प्रिय शालिकः ।१७२।
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[पाद. ३. सू. १७३-१७७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३५१ पुमनडुन्नौपयोलक्ष्म्या एकत्वे ॥ ७. ३. १७३ ॥
एकत्वविषये पुम्स् अनडुह नौ पयस् लक्ष्मी शब्दास्तदन्ताबहुव्रीहे: कच् समासान्तो भवति । प्रियः पुमानस्य प्रियपुस्कः, प्रियानडुत्कः, प्रियनौका, प्रियपयस्कः, प्रियलक्ष्मीकः एकत्व इति किम् ? द्विपुमान् द्विपुस्कः, वह्वनड्वान्, वह्वनडुत्कः, बहुनौः, बहुनौकः, बहुपयाः, बहुपयस्कः, बहुलक्ष्मीः, बहूलक्ष्मीकः । * शेषाद्वा' (७-३-१७५) इति विकल्पः । केचिल्लक्ष्मीशब्दात् द्वित्वबहुत्वयोरपि नित्यं कचमिच्छन्ति । अपरे तुल्ययोगेऽपि । सलक्ष्मीको विनाशित: ।१७३।
न्या० स० पुम० -तुल्योगेऽपीति स्वमते तु 'सहात्तुल्ययोगे' ७-३-१७८ इति निषेधात् कन्न भवति । नत्रोऽर्थात् ॥ ७. ३. १७४ ।।
नत्रः परो योऽर्थशब्दस्तदन्तादबहवीहेः कच् समासान्तो भवति । न विद्यतेऽर्थो यस्यानर्थकं वचः । नत्र इति किम् ? अपार्थम्, अपार्थकम् ।१७४।
शेषादा ॥ ७. ३. १७५ ॥ ___ यस्मादबहुव्रीहेः समासान्तः प्रत्यय आदेशो वा न विहितस्तस्माच्छेषात् कच् प्रत्ययः समासान्तो वा भवति । बढ्यः खट्वा अस्मिन् बहुखट्वकः, बहुखट्वः, बहुमालकः, बहुमालः, बहुवीणकः, बहुवीणः । शेषादिति किम् ? प्रियपथः, प्रियधुरः, व्याघ्रपाद्, सिंहपाद् । असति शेषग्रहणे पक्षे परत्वात् कच् स्यात् । ।१७५॥
न नाम्नि ॥ ७. ३. १७६ ।। __ नाम्नि संज्ञायां विषये कच् समासान्तो न भवति । बहुदेवदत्तः, विश्वदेवदत्तः, बहुविष्णुमित्रः, विश्वविष्णुमित्रः । एवंनामानो ग्रामाः ॥ विश्वदेवः, विश्वयशाः । एवंनामानौ पुरुषौ, पद्मश्रीः एवंनामा स्वी। श्वेताश्वतरिः स्त्री पुरुषो वा ।१७६॥
ईयसोः ॥ ७, ३. १७७ ।। ___ ईयस्वन्तात्समासात्कच समासान्तो न भवति । बहुश्रेयान्, बहुप्रेयान् । लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणात् बहुश्रेयसी, बहुप्रेयसी ।१७७॥
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३५२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० १७८-१८१ । सहात्तुल्ययोगे ॥ ७. ३. १७८ ॥
तुल्ययोमे यः सहशब्दः सामर्थ्यात्तदादेर्बहुव्रीहेः कच समासान्तो न भवति । तुल्ययोगो वर्तिपदार्थस्य पुत्रादेवृत्त्यर्थेन पित्रादिना सह क्रियागुणजातिद्रव्यैः साधारणः संबन्धः । सपुत्र आगतः, सपुत्रः स्थूलः, सपुत्रो ब्राह्मणः, सपूत्रो गोमान् । सहादिति किम् ? श्वेताश्वको देवदत्त आगतः। तुल्ययोग इति किम् ? सह विधमानानि लोमान्यस्य सलोमकः । सपक्षकः, सकर्मकः ।१७८।
न्या० स० सहा०-वर्तिपदार्थस्येति वर्तन्ते पूर्वपदोत्तरपदान्यस्मिन् 'विदिवृत्तेर्वाहः' ६१० ( उणादि) वर्त्तिः समासस्तस्य पदानि तेषामर्थः । भ्रातुः स्तुतौ ॥ ७. ३. १७९ ॥
भ्रान्तात्समासात्कच् समासान्तो न भवति स्तुतौ भ्रातुः समासार्थस्य वा प्रशंसायां गम्यमानायाम् । शोभनो भ्रातास्य सुभ्राता, कल्याणभ्राता, प्रिय भ्राता, बहुभ्राता। भ्रातुरिति किम् ? सुमातृकः । स्तुताविति किम् ? मूर्खभ्रातृकः ।१७९। नाडीतन्त्रीभ्यां स्वाङ्गे ॥ ७. ३. १८० ॥
स्वाले यौ नाडीतन्त्रीशब्दौ तदन्तात्समासात्कच समासान्तो न भवति । बहव्यो नाडयो यस्मिन् बहुनाडिः कायः, बहुतन्त्रोर्गीवा, तन्त्रीर्घमनिः ।
चाद्यन्ताभावाद्रस्वो न भवति । स्वाङ्ग इति किम् ? बहनाडीकः स्तम्बः, बहतन्त्रीका वीणा । अन्ये त्वाहुर्न पारिभाषिकं स्वाङ्गमिह गह्यते किंतु स्वमात्मोयमङ्ग स्वाङ्गम् । आत्मा चेह अन्यपदार्थः तस्याङ्गमवयवस्तस्मिन्निति। तेषां बहुनाडिः स्तम्बः बहुन्त्रीर्वीणा । प्रत्युदाहरणं तु बहुनाडीकः कुविन्दः बहतन्त्रीको नटः १८०॥
'न्या० स० नाडी०-आत्मा चेहेति ननु स्वमात्मीयमङ्गं स्वाङ्गमित्युक्तं ततश्च कोऽसावास्मेत्याह-४.स्पेति । निष्पवाणिः ॥ ७. ३. १८१ ॥
निष्प्रवाणिरिति कजभावो. निपात्यते । प्रोयतेऽस्यामिति प्रवाणी तन्तुवायशलाका सा निर्गतास्मादिति निष्प्रवाणिः कम्बल:, निष्प्रवाणिः पटः. तन्त्राचिरोद्धत इत्यर्थः । 'गोश्चान्ते इस्वः' (२-४-९५) इत्यादिना इस्वः । जयते अस्यामिति वानिः, प्रभृता वानि: प्रवाणिः, सा निर्गता तन्तभ्योऽस्येति निष्प्रवाणिः संदश इत्येके । निर्गतः प्रवाण्या निष्प्रवाणिरिति
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[ पाद. ३. सू. १८२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [ ३५३ तत्पुरुषेण सिद्धे बहुव्रीहौ कच् मा भूदिति वचनम् ।१८१॥
सुवादिभ्यः ॥ ७. ३. १८२ ॥ ___ सुभ्र इत्येवमादिभ्यः कच् समासान्तो न भवति । सुभ्रः, लेखाभ्र, शलाकाभ्रः, कोमलोरूः, संहितोरू, वरोरूः, पीवरोरूः । जातिवचनत्वादुङन्ता एते । एवं हि आमच्ये सौ इस्वो भवति । हे सुभ्र, हे वरोरु । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । तेन करभोर: संहितोरू: इत्यादयोऽपि भवन्ति ।१८२।
न्या. स० सुम्वा ०-सुश्रुरिति शोभनं 5 भ्रमणं यस्या अत्र ऊङः प्राक् ‘शेषाद्वा' ६-३-१७५ इति कचि प्राप्ते प्रतिषेधः, न च ऊझ्यप्यानीते नित्यदिवारेण कचूप्रसाः तत्रोत्तरपदस्थस्यैव नित्यदित्त्वग्रहणात् ।
ननु 'उतोऽप्राणिनश्च' २-४-७३' इत्यत्र उङ् इत्येव विधीयतां कि दीर्घनिर्दिशेन ?
सत्यं, ऊ ऊकारान्त एव भवति, न तद्विषये प्रत्ययान्तरम् । एवं तर्हि दीर्घनिर्देशादेव कच् न भविष्यति किं निषेधकरणेन ? सत्यं, शोभने ध्रुवौ यस्याः सा सुभूरिति ‘शेषाद्वा' - ७-३-१७५ इति पक्षेऽपि कच् न भवति इति प्रतिषेधकरणं सार्थकम् , सुभ्र इत्येवमादिभ्य इति तु विवरणं विशेषव्याख्यानानपेक्षया कृतम्
इत्याचार्य० सप्तस्याध्यायस्य तृतीयः पादः । - इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्र विरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपशशब्दानुशासनबृहवृत्तौ सप्तमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ।। ७. ३ ।।
अयमवनिपतीन्दो मालवेन्द्रावरोधस्तनकलशपवित्रां पत्रवल्ली लुनातु ।। कथमखिलमहीभृन्मौलिमाणिक्यभेदे घटयति पटिमानं भग्नधारस्तवासिः ।।
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॥ चतुर्थः पादः ॥
वृद्धिः स्वरेष्वादेर्भिणति तद्धिते ॥ ७ ४ १ ॥
ञिति णिति च तद्धिते प्रत्यये परे पूर्वो यः प्रकृतिभागस्तस्य स्वरेषु स्वराणां मध्ये य आदिः स्वरस्तस्य वृद्धिरादेशो भवति । ञिति, दाक्षिः । प्लाक्षिः, काणिः नैवाकविः, चौलिः, णिति, - कापटवः, भार्गवः, शैवः, औपगवः । श्रीर्देवता अस्य श्रायः स्थालीपाकः, एवं ह्रायः । स्वरेष्विति व्यञ्जनापेक्षाव्युदासार्थम् तेन व्यञ्जनादेरपि भवति । णितीति किम् शङ्कव्यं दारु । तद्धित इति किम् ? चिकीर्षकः । १ ।
केकयमित्रयुप्रलयस्य यादेरिय्च ॥ ७. ४. २ ॥
केकयमित्रयुप्रलय इत्येतेषां णिति तद्धिते परे स्वेरष्वादेः स्वरस्य वृद्धिर्यादेश्च शब्दरूपस्य इयादेशो भवति । केकयस्यापत्यं कैकेयः । राष्ट्क्षत्रियात्'–(६-१-११४) इत्यादिनाञ् । मित्रयोर्भावः मैत्रेयिकया श्लाघते । गोत्रचरण '– (७-१-७५ ) इत्यादिनाकञ् । प्रलयादागतं प्रालेयं हिमम् । तत आगते' (६-३- १४८ ) इत्यण् । णितीत्येव । केकयश्वम् |२| अहं । न्या० स० देवि ० - केवलानामेवेति ग्रहणवतेति न्यायात् ।
"
देविकाशिंशपादीर्घसत्रश्रेयसस्तत्प्राप्तावाः ॥ ७ ४. ३ ।।
देविका शिशपादीर्घसत्रश्रेयस् इत्येतेषां स्वरेष्वादेः स्वरस्य ञ्णिति तद्धिते निमित्ते तत्प्राप्तौ वृद्धिप्रसङ्गे आकार आदेशो भवति । देविकायां भवं दाविकमुदकम्, देविकाकूले भवा दाविकाकूलाः शालयः पूर्वदेविका नाम प्राच्यग्रामस्तत्र भवः पूर्वदाविकः । अत्र ' प्राग्ग्रामाणाम् ' ( ७-४-१७ ) इत्युत्तरपदवृद्धिप्राप्तिः । शिशपाया विकारः शांशप: स्तम्भः, शिशपास्थले भवाः शांशपास्थलाः शालयः, पूर्वशिशपा नाम प्राच्यग्रामस्तत्र भवः पूर्वशांशतः, दीर्घसत्रे भवं दार्घसत्रम्, श्रेयोऽधिकृत्य कृतं श्रायसं द्वादशाङ्गम् । तत्प्राप्ताविति किमर्थम् ? सुदेविकायां भवः सौदेविक इत्यत्र निषेधार्थम् पूर्वोत्तरपदानामपि यथा स्यादित्येवमर्थं च, अन्यथा हि केवलानामेव स्यात् |३|
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[ पाद. ४. सू, ४-५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३५५ वहीनरस्यैत् ॥ ७. ४. ४॥
वहीनरशब्दस्य गिति तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्य ऐकार आदेशो भवति । वहीनरस्यापत्यं वैहीनरिः, वहीनरस्येदं वैहीनरम्, विहीनरस्य वृद्ध्या सिध्यति, वहीनरस्य वाहीनरिर्माभूदिति वचनम् ।४।
खः पदान्तात्प्रागैदौत् ॥ ७. ४. ५ ॥
णिति तद्धिते इवोवर्णयोस्तत्प्राप्तौ वृद्धि प्रसङ्ग तयोरेव स्थाने यौ यकारवकारौ पदान्तौ ताभ्यां प्राक यथासंख्यम् एत् औत् इत्येतावागमौ भवतः । यकारात्प्रागैकारः, वकारात्प्रागौकार इत्यर्थः । व्याकरणं वेत्त्यधीते वा वैयाकरणः, नैयायिकः, नैयासिकः, व्यंसने भवं वैयसनम्, स्वागमं वेत्त्यधोते वा सौवागमिकः, स्वश्वस्यापत्यं सौवश्विः, स्वश्वस्यायं सौवश्वः, पूर्वयलिन्दो नाम प्राग्ग्रामः तत्र भव: पूर्वत्रयलिन्दः, परत्वान्नित्यत्वाच्च वृद्धः प्रागेव सर्वत्र अनेनैदौतौ । य्व इति किम् ? सौपर्णेयः । पदान्तादिति किम् ? यत इमे याताश्छात्राः । यत इतोणः शत्रन्तस्य रूपम् । तत्प्राप्तावित्येव ? दाध्यश्विः माध्वश्विः । अत्रेदुतोरनादित्वाद्वद्धिप्राप्तिास्ति । द्वाभ्यामशीतिभ्यां निर्वतो द्वाभ्यामशीतिभ्यामधीष्टो भृतो वा द्वे अशीती भूतो भावी वा द्वचाशीतिकः, व्याशीतिकः, अत्रापि 'मानसंवत्सरस्याशाणलि. जस्यानाम्नि' (७-४-१९) इत्युत्तरपदवृद्धौ यकारस्थानिम इकारस्य वृद्धिप्रसङ्गो नास्तीति । प्राप्तिश्चाकृते यत्ववत्वे इति वेदितव्यम् । कृते हीवर्णोवर्णयोरभावान्नास्ति प्राप्तिः । वृद्ध थपवादश्चैदौदागमः, तेन तद्धितस्य स्वरवृद्धिहेतुत्वाभावात् पुबद्भावप्रतिषेधो न भवति । वैयाकरण भार्यः, शौवश्वभार्यः ।५।
न्या० स० व: ५०–ननु वैयाकरणः सौवश्विरित्यादिषु व्याकरणादिशब्दसाधनकाल एव यत्ववत्वभावादिवर्णोवर्णयोः कथं वृद्धिप्राप्तिः ? सत्यं, 'आतो नेन्द्रवरुणस्य' ७-४-२९ इत्यत्र ज्ञापयिष्यन्ते, पूर्वोत्तरपदकायें कृते ततः संधिकार्यमिति वृद्धिरूपे पूर्वपदकार्ये कृते यत्वमिति वृद्धिप्राप्तिः। तत्प्राप्तौ च सत्यामेतत्सूत्रसामर्थ्यात् वृद्धि बावित्वा यत्ववत्वे भवतः, तत ऐदौतौ । परत्वान्नित्यत्वाच्चेति ‘वृद्धिः स्वर' ७-४-१ इति सूत्रापेक्षया हेतुद्वयमपि दृश्यम् ‘य्वः पदान्तात् ' ७-४-५ इत्यस्य परत्वात् तथा यकारवकाराभ्यामग्रेतनस्वरस्य वृद्धिः स्वरे' ७-४-१ इत्यनेन वृद्धिर्भवतु मा वा तथापि 'य्यः पदान्तात् ' ७-४-५ इति एदौदागमेन भाव्यमेव, प्रथमं तु ऐदौदागमात वृद्ध्या न भाव्यं, तबाधकत्वादैदौदागमस्येति कृताकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यत्वमप्यस्ति, पूर्वत्रैयलिन्द इत्यादौ तु यत्वे कृते अलिन्दशब्दसंबन्धिनोऽस्य 'प्राग ग्रामाणाम् ' ७-४-१७ इति वृद्धौ चिकीर्षितायां नित्यत्वादित्येक एव हेतुर्द्रष्टव्यः ।
अनेनैदौताविति एतच्च 'आतो नेन्द्रवरुणस्य ' ७-४-२९ इत्यत्र यत्पूर्व सन्धिकार्य न
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३५६] बृहदृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पा. ४. सू० ६ ] भवतीति ज्ञापितं तस्यानाश्रयणेन ज्ञापकज्ञापितत्वात् तस्य ज्ञापकस्य समाश्रयणे वा पूर्व यत्ववत्वाभावे ऐदौतः प्राप्तेरभावात् पूर्वमिवर्गोवर्णयोवृद्धौ तत आयावादेशे च य्यः प्रागैदौति आत ऐत्वौत्वे तान्येव रूपाण्यतः पूर्व वृद्धिरेव, न यत्ववत्वे इत्याग्रहो न कार्य इति ।
याता इति नन्वत्र वृद्धिप्राप्त्यभावात् द्वयङ्ग विकलता प्राप्नोति ? सत्यं, यत इमे इनि वाक्यकाले यद्यपि कृतयत्वस्येणो रूपं तथापि इ अत् डस् अणू इत्येव द्रष्टव्यं यतः अन्तर
गानपि विधीन् बहिरङ्गापि लुप् बाधते इति न्यायेनान्तरङ्गस्यापि 'बिगोरविति' ४-३-१५ विधीयमानस्य यत्वस्य 'ऐकाय'३-२-८ इति विधीयमानया ङ्स्प्रत्ययस्य लुपा बाधितत्वात. ततो ङसो लुपि णित्प्रत्ययमाश्रित्य वृद्धिप्राप्तिः, ततोऽन्तरङ्गाद्वृद्धिं बाधित्वा यत्वमजनिष्ट, एतच्च वैयाकरण इत्यादिष्वपि ज्ञेयं, तथाहि वि आकरण अम् अण् इति स्थितौ अन्तरङ्गमपि यत्वं बाधित्वा तेनैव न्यायेन प्रथमममो लुप् ततो वृद्धिप्राप्तावन्तरङ्गत्वात् यत्वमिति । ___द्वयाशीतिक इत्यादि एषु 'निर्वृत्ते' ६-४-२० इत्यादिभिरिकणू , अत्राशीतिशब्दो दिवसार्द्रमासमासादेः कालस्य संख्यां ब्रते इति काले वर्तमानत्वादशीति-शब्दात 'कालातपरिजव्या ६-४-१०४ इति कालाधिकारविहितस्तेन 'हस्ताद्यः' इति तृतीयान्ताधिकारे 'निवृत्ते ६-४-२० इत्यादिसूत्रैर्निर्वृत्ताद्यर्थ इकण् ।
प्राप्तिश्चाकृते इति वैयाकरण इत्यादिषु य्वोः स्थानिनोरिवर्णोवर्णयोवृद्धप्रसङ्ग इत्यर्थः । दारादेः ॥ ७. ४. ६ ॥
द्वार इत्येवमादीनां यौ यकारवकारी तयोः समीपस्य स्वरेष्वादेः स्वरस्य तत्प्राप्तौ वृद्धिप्रसङ्गे ताभ्यामेव प्राक् ऐत् औत् इत्येतावागमौ भवतः णिति तद्धिते परे। द्वारे नियुक्तः दौवारिकः, स्वरमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः सौवरः, स्वर्भवः सौबः, 'प्रायोऽव्ययस्य'-(७-४-६५) इत्यन्त्यस्वरादिलोपः । स्वस्तीत्याह सौवस्तिकः, अव्युत्पन्नोऽयम् । सुपूर्वस्य तु पूर्वेणैव सिद्धम् । स्वादुमदोऽपत्यं सौवादुमृदः, व्यल्कसे भवो वैयल्कस:, विपूर्वस्य तु पूर्वेणैव सिद्धम् । श्वो भवः शीवस्तिकः, 'श्वसस्तादिः'-(६-३-८३) इति तिकण् । शुन इदं शौवनं मांसम् । स्फ्यकृतस्यापत्यं स्फेयकृतः । ऋष्यण् । स्वस्येदं सौवम, स्वाध्यायेन जयति सौवाध्यायिकः । तेन जित'-(६-४-२) इत्यादिनेकण् । स्वग्रामे भवः सौवग्रामिकः, अध्यात्मादित्वादिकण्। 'श्वादेरिति' (७-४-१०) इति प्रतिषेधात् द्वारादिपूर्वाणामपि भवति । द्वारपालस्यापत्यं दौवारपालिः, 'अन्न इञ्'-(६-१-३१) । द्वार पाल्या अपत्यं दौवारपालिकः, रेवत्यादित्वादिकण, स्वराध्याये भवः सौवराध्यायः, स्वर्गमनमाह सौवर्गमनिकः । प्रभूतादित्वादिकण-श्वादंष्ट्रायां भवः शौवादंष्द्रो मणिः, शौवभस्त्रः । वोः समीपस्य वृद्धिप्राप्ताविति विज्ञानात् वैयल्कस इत्यत्र वकारात्प्रागौकारो न भवति । स्बपाठेनैव सिद्धे स्वाध्यायस्वग्रामपाठात् स्वापतेयं स्वाजन्यमित्यादौ न भवति ।
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{ पाद ४. सू. ७-८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३५७ ___द्वार, स्वर, स्वर्, स्वस्ति, स्वादुमृद्, व्यकस, श्वस्, श्वन्, स्पयकृत, स्व, स्वाध्याय, स्वग्राम इति द्वारादिः ।६।
न्या० स० द्वारा०- सौव इति अत्र भवे अणू , अथ स्वर्शब्दस्याव्य यत्वात् 'सायंचिरम्' ६-३-८८ इत्यनेन कथं न तन ?
सत्यं, 'वर्षाकालेभ्यः' ६-३-८० इत्यतः कालाधिकारात् ।
वैयल्कस इति अत्र यकारस्वरस्य वृद्धिप्राप्तिरिति यात्प्रागैकारः, न तु वात् प्रागीकारः, चकारसमीपे स्वरस्यैवाभावेन वृद्धिप्राप्तिनास्तीति ।
विपूर्वस्येति० विगतो अर्कः, व्यर्क स्यति 'आतो डः' ५-१-७६ इति डः ऋफिडादित्वादस्य लः।
शौवनमिति संकोच एवान्त्यस्वरादिलोपविधानादत्र मांसे वाच्ये न भवति । श्वादेरितीति श्यन्शब्दोऽपि द्वारादिस्तत्र तदादेः कार्यप्रतिषेधात् तत्प्राप्तिर्विज्ञायत इत्यर्थः । शौवादंष्ट्र इति अत्र यद्यपि वादंष्ट्रायां भव इति वाक्ये श्वनशब्दस्यात्वं दृश्यते, तथापि 'शुनः' ३-२-९० इत्यस्मिन्नात्वविधायके सूत्रे बहुलाधिकारादणि प्रत्यय एव सत्यात्वं भवति, अन्यथा प्रथममात्वे कृते 'दोरीयः' ६-३-३२ इत्तीयः स्यात् ।
शौवभस्त्र इति० श्वेव भस्त्रा यस्य बाहुलकात् 'शुनः' ३-२-९० इति न दीर्घः । न्यग्रोधस्य केवलस्य ।। ७. ४. ७ ॥
न्यग्रोधशब्दस्य केवलस्य यो यकारस्तस्य स्थानी अव्युत्पत्तिपक्षे तु समीपो यः स्वरेष्वादिः स्वरस्तस्य तत्प्राप्तौ वृद्धिप्राप्तौ तस्मादेव यकारात् प्राक ऐकार आगमो भवति णिति तद्धिते परे । न्यग्रोधस्य विकारो नैयग्रोधो दण्डः, नैयग्रोधः कषायः । केवलस्येति किम् ? न्यग्रोधमूले भवा न्याग्रोधमूलाः शालयः, न्यग्रोधाः सन्त्यस्मिन् ऋश्यादित्वाच्चातुरथिकः कः-न्यग्रोधकम्, तत्र भवो न्याग्रोधकः । इदमपि द्वारादीनां तदादिविधेपिकम् । न्यग्रोहतीति न्यग्रोध इति व्युत्पत्तिपक्षे नियमार्थम् । केवलस्यैवेति । अव्युत्पत्तिपक्षे तु विध्यर्थं वचनम् ।।
न्या स० न्यग्रोधस्य०-इदमपीति न केवलं 'श्वादेः' ७-४-१० इति निषेधः, किंतु केवलग्रहणमपीत्यर्थः । नन्वेतत्सूत्रमपि किमर्थ कृतम् ? इत्याह-न्यगरोहतीत्यादि-अयमर्थः, यदा व्युत्पत्तिपक्ष आश्रीयते तदा न्यकशब्दसाधनकाले या निशब्दात् प्रथमा, तदपेक्षया निसंबन्धिन दकाम्य पदान्तत्वात ततस्थानप्रादर्भावात यस्यापि पदान्तत्वे 'वः पदान्तात ७-४-५ इत्यनेनैवदागमे सिद्धे सतीदं सूत्रं नियमार्थम् । अव्युत्पत्तिपक्षे तु यस्यापदान्तत्वात् 'यवः पदान्तात् ' ७-४-५ इति न सिध्यतीति विध्यर्थमिदम् । न्यकोर्वा ।। ७. ४.८ ॥
न्यङ्कशब्दस्य तद्धिते णिति परे यकारात्प्रागैकारो वा भवति । न्यकोरिदं नैयङ्कवम्, न्याङ्कवम् ।८।
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३५८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद. ४ सू. ९-१२ ] न्या स० न्यको-न्यञ्चतीति 'नेरुचेरुः ७२४ ( उणादि)'न्यङ्कूद्ग' ४-१-११२ इति कः, व्युत्पत्तिपक्षे पूर्वेण प्राप्ते विभाषा, अव्युत्पत्तिपक्षे त्वप्राप्ते । न अस्वङ्गादेः ॥ ७. ४. ९ ॥
अप्रत्ययान्तस्य स्वङ्गादेश्च णिति तद्धिते परे य्वः प्रागैकार कारौ न भवतः । ब, व्यावक्रोशी, व्यावलेखी, व्यावचर्ची, व्यावहासी, व्यात्युक्षी। 'व्यतिहारेऽनीहादिभ्यो नः'-(५-३-११६) इति नः। ततो नित्यं अजिनोऽण् '-(७-३-५८) इत्यण् । स्वङ्गादि, स्वङ्गस्यापत्यं स्वाङ्गिः, व्याङ्गिः, व्याडिः, स्वागतमित्याह स्वागतिकः, स्वध्वरेण चरति स्वाध्वरिकः, व्यवहारेण चरति व्यावहारिकः,। व्यायामः प्रयोजनमस्याः व्यायामिकी विद्या ॥
__ स्वङ्ग, व्यङ्ग, व्यड, स्वागत, स्वध्वर, व्यवहार, व्यायाम इति स्वङ्गादिः ।९। श्वादेरिति ॥ ७. ४. १० ॥
श्वन्शब्द आदिरवयवो यस्य तस्य श्वादेनम्नि इति इकारादौ णिति तद्धिते प्रत्यये परे वः प्रागौकारो न भवति । श्व भवस्यापत्यं श्वाभस्त्रिः, श्वाशीषिः, श्व दंष्ट्रिः, श्वगणेन चरति श्वागणिकः, श्वायूथिकः आदिग्रहणं किम् ? ३वभिश्चरति शौविकः। इतीति किम् ? श्वहानस्येदं शौवहानम्, शौवभत्रम्, श्वादंष्ट्रायाः विकारः शौवादंष्ट्रो मणिः ।१०।
इञः ॥ ७. ४. ११ ॥ ___ वादेरि प्रत्ययान्तस्य णिति तद्धिते परे वकारात्प्रागौकारो न भवति । श्वाभस्त्रेरिदं श्वाभस्त्रम्, श्वाकर्णेः श्वाकर्णम् । इकारादौ निमित्त उच्यमानः पूर्वेण प्रतिषेध इअन्तस्य प्रत्ययान्तरे न प्राप्नोतीति वचनम् ।११।
न्या० स० इञ:०-इवाकर्णेरिति वाक्ये पूर्वेण औनिषेधः । पदस्यानिति वा ॥ ७. ४. १२ ॥
पदशब्दान्तस्य श्वादेः शब्दस्य इकारादिजिते णिति तद्धिते परे वकारात्प्रागौकारो वा भवति । शुन इव पदमस्य श्वापदम्, तस्य विकारः श्वापदं, शौवापदम् । अनितीति किम् ? श्वापदेन चरति श्वापदिकः । श्वन शब्दस्य द्वारादिषु पाठात् तत्र तदादिविधेापितत्वान्नित्यमौकारागमे प्राप्ते विकल्पः ।१२।
न्या० स० पद - श्वापदशब्दो बाहुलकात पुनपुंमकः ।
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[ पाद. ४. सू १३-१५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३५९ प्रोष्ठभद्राज्जाते ॥ ७. ४, १३ ॥
वृद्धिरित्यनुवर्तते, प्रोष्ठशब्दाद् भद्रशब्दाच्च परस्य पदशब्दस्योत्तरपदस्य स्वरेष्वादे: स्वरस्य स्थाने जातेऽर्थे विहिते णिति तद्धिते परे वृद्धिर्भवति । प्रोष्ठपदासु जातः प्रोष्ठपादः, भद्रपादो माणवकः । जात इति किम् ? प्रोष्ठपदासु भवः प्रौष्ठपदो मेघः, ऊर्ध्वमौहतिक इति — सप्तमी चोर्ध्वमौहूति के ' (५-४-३०) इति निपातनात्, गुरुलाघवमिति गुरोलाघवं गुरुश्च गुरुत्वं लाघवं चेति वा, संहतपारायमिति संहते पारार्थ्यमिति सिद्धमतो नार्थ उत्तरपदवृद्धि विधानेन ।१३।।
न्या० स० प्रोष्ठ०-प्रकृतिहरीतक्यादिरिति वचनात् कालेऽपि प्रोष्ठपदादयः स्त्रीलिङ्गाः । अंशादतोः ।। ७. ४. १४ ॥
· अंशवाचिनः शब्दात्परस्य ऋतुबाचिन उत्तरपदस्य स्वरेष्वादेः स्वरस्य स्थाने णिति तद्धिते परे वृद्धिर्भवति । पूर्वासु वर्षासु भवः पूर्ववार्षिकः, अपरवार्षिकः । 'वर्षाकालेभ्यः' (६-३-७९) इतीकण् । पूर्वशारदः, अपरशारदः पूर्वनैदाघः, अपरनैदाघः, पूर्वमनः, अपरहैमनः । ऋत्वण । अंशादिति किम् ? पूर्वासु ऋत्वन्तरैर्व्यवहितासु वर्षासु भवः पौर्ववर्षिकः, सुवर्षासु भवः सौर्षिकः । ऋतोरिति किम् ? पूर्वपिप्पल्या इदं पौर्वपिप्पलम्, आर्धपिप्पलम् ।१४।
न्या० स० अंशा०-पूर्वासु वर्षास्विति अर्थकथनमिदं यावता 'पूर्वापरप्रथम' ३-१-१०३ इत्यनेन कर्मधारये पूर्ववर्षासु भवः पूर्व भागान्तरं वर्षाणां वा इति कार्य, अन्यथांशवाचकत्वेन पूर्वस्यादिग्वाचित्वाभावात्, 'दिगधिकम् ' २-१-९८ इति न स्यात्, एवं पूर्वशारद इत्यादावपि यथा पूर्व भाग.न्तर शरदः पूर्व भागान्तरं निदाघस्य तत्र भवः ।।
ऋत्वन्तरैव्यवहितास्विति अत्र हि पूर्वशब्दो न वर्षाणामेकदेशं ब्रूते किंतु व्यवहितत्वमिति न पूर्वशब्दोंऽशवचनः। सुसर्वार्धाद्राष्ट्रस्य ॥ ७. ४. १५॥
सू, सर्व, अर्ध इत्येतेभ्यः परस्य राष्ट्रवाचिन उत्तरपदस्य णिति तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिर्भवति । सुपञ्चालेषु भवः सुपाञ्चालकः, सर्वपाञ्चालकः, अर्घपाञ्चालकः, सुमागधकः, सर्वमागधकः अर्धमागधकः । 'बहुविषयेभ्यः' (६-३-४४) इत्यकञ् । राष्ट्रस्येति किम् ? सुगन्धाः पण्यमस्य सौगन्धिकः, अर्धपिप्पल्यां भव आर्धपिप्पलः ।१५। ___ न्या० स० सुस-सुपाञ्चालक इति उत्सादौ पञ्चालशब्दो ब्राह्मणवाच्येव गृह्यत इति केचित् , तन्मतेन नात्रा कित्वकमेव ।
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३६० ] बृहवृत्ति-लघुन्याससवलिते [पाद. ४ सू० १६-१८ ] ___ बहुविषयेभ्य इति ‘सुसर्वार्द्धदिक्शब्देभ्यो जनपदस्य ' ७-४-१५ इति ज्ञापकात्तदन्तस्यापि भवति । अमद्रस्य दिशः ॥ ७. ४. १६ ॥
दिग्वाचिनः परस्य राष्ट्रवाचिनो मद्रशब्दजितस्य गिति तद्धिते परे स्वरेष्वादे: स्वरस्य वृद्धिर्भवति । पूर्वपाञ्चालकः, अपरपाञ्चालकः, दक्षिणपाञ्चालकः, उत्तरपाञ्चालकः । अमद्रस्येति किम् ? पौर्वमद्रः, दिश इति किम् ? पूर्व पञ्चालानां पूर्वपञ्चालाः, अंशिसमासः, तेषु भवः पौर्वपञ्चालकः। अवयववृत्तेरपि पूर्वशब्दस्य दिशि दृष्टस्वेन दिक्शब्दत्वात्तदन्तविधौ सति 'बहुविषयेभ्यः' (६-३-४४) इत्यकञ् । एके त्वस्य दिक्शब्दत्वं नेच्छन्ति, तन्मते तदन्तविध्यभावेऽणेव । पौर्वपञ्चालः ।१६।
न्या० स० अम० - पूर्व पञ्चालानामिति अत्र पूर्वशब्दस्य दिगशब्दत्वाभावात् 'सुसर्वार्धदिक्शब्देभ्यो जनपदस्य' ७-४-१५ इति न्यायेन दिक्शब्दात् परतो जनपदस्य तदन्तविधिविधीयमानो न प्राप्नोतीति कथं 'बहुविषयेभ्यः' ६-३-४५ इत्यकञ् ?
इत्याह-अवयववृत्तेरपीत्यादि तत्र हि दिक्शब्देभ्य इत्युक्तं न तु दिग्वाचिन इति । प्राग्ग्रामाणाम् ॥ ७. ४. १७ ॥
प्राग्देशग्रामवाचिनां योऽवयवो दिग्वाची ततः परस्यावयवस्य दिशः परेषां च प्राग्ग्रामवाचिनां गिति तद्धिते परे स्वरेष्वादे: स्वरस्य वृद्धिर्भवति । पूर्वकृष्णमृत्तिका नाम प्राक्षु ग्रामः तत्र भवः पूर्वकार्णमृत्तिकः, एवमपरकार्णमृत्तिकः, पूर्वेषुकामशमी नाम प्राग्ग्रामस्तत्र भवः पूर्वैषुकामशमः, एवमपरैषुकामशमः, बहुवचनाद् ग्रामग्रहणेन नगरमपि गृह्यते। पूर्वस्मिन्कन्यकुब्जे भवः पूर्वकान्यकुब्नः, अपरकान्यकुब्जः, एवं पूर्वपाटलिपुत्रकः, अपरपाटलिपुत्रकः । प्राग्ग्रहणं किम् ? देवदत्तं नाम वाहीकग्रामः पूर्वस्मिन्देवदत्ते भवः पौर्वदेवदत्तः, आपरदेवदत्तः ।१७।
न्या० स० प्राग्ल-अत्र सूत्रार्थद्वयं तत्रावयवस्येत्यन्तः प्रथमः सूत्रार्थः, दिशः परेषामित्यादिस्तु द्वितीयः, तत्र 'प्रथमसूत्रार्थापेक्षयापरमैषुकामशम इत्यन्तानि यतः पूर्वकृष्णमृत्तिकादीनि अखण्डानि प्रागग्रामनामानि, एषु सर्वेषु भवेऽण् । द्वितीयसूत्रार्थापेक्षया पूर्वकान्यकुब्ज इत्यादीनि, एषु सर्वेषु भवेऽण् ।
पूर्वपाटलिपुत्रक इत्यत्र ‘संज्ञा दुर्वा' ६-१-६ इति वा दुसंज्ञायां 'रोपान्त्यादका' ६-३-४२ दुसंज्ञाया अभावे त्वणन्तात्स्वार्थे कः । संख्याधिकाभ्यां वर्षस्याभाविनि ॥ ७. ४. १८ ॥
संख्यावाचिनोऽधिकशब्दाच्च परस्य वर्षशब्दस्य णिति तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिर्भवति अभाविनि न चेत्स तद्धि तो भावीत्यस्मिन्नर्थे
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[पाद. ४. सू. १९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३६१ विहितो भवति । द्वाभ्यां वर्षाभ्यां नित्तः द्वाभ्यां वर्षाभ्यां भूतोऽधीष्टो वा द्वे वर्षे भूतो वा द्विवार्षिकः, त्रिवार्षिकः, अधिकवार्षिक: । अभाविनीति किम् ? द्वे वर्षे भावि द्वैवर्षिकं त्रैवर्षिकम् धान्यम्, द्वाभ्यां वर्षाभ्यां भृतोऽधीष्टो वा कर्म करिष्यति द्विवार्षिको मनुष्य इति, अधीष्टभृतयोः प्रत्ययो नभाविनीति प्रतिषेधो न भवति । गम्यते ह्यत्र भविष्यत्ता न तु प्रत्ययार्थः ॥१८॥
न्या० स० संख्या०–ननु द्विवार्षिक इत्यादी 'निर्वृत्ते' ६-४-२० इत्यादिभिरिकण न प्राप्नोति, तत्र 'कालात् परिजय्य' ६-४-१०४ इत्यतः कालादिति अधिकारात्, अत्र तु वर्षशब्द एव कालवाची, न तु द्विवर्षे त्यादिरिति १ ।
सत्यं, 'संख्यादेश्चाईदलुचः' ६-४-८० इत्यनेन संख्यादेरपि कालवाचिनो भवतीति, तर्हि अधिक वार्षिक इत्यत्र कथं न ह्यधिकशब्दः संख्यावाचीति ?
सत्यं, अभाविनीतिव्यावृत्तिसामर्थ्यात् , अभाविनीति व्यावृत्तवर्षिक इत्यादिषु चरितार्थत्वमिति चेत् , तर्हि अभाविनीव्यावृत्तेर्व्यक्त्या प्रवृत्तरिकण भविष्यतीति ।
मानसंवत्सरस्याशाणकुलिजस्यानानि ॥ ७. ४. १९ ॥ __ मीयते परिच्छिद्यते येन तन्मानम् परिमाणादि । संख्याया अधिकशब्दाच्च परस्य शाणकुलिजशब्दवजितस्य मानवाचिनः संवत्सरशब्दस्य च णिति तद्धिते परे स्वरेष्वादे: स्वरस्य वृद्धिर्भवति अनाम्नि असंज्ञायां विषये। संख्याविकाभ्यां मानसंवत्सरस्य वचनभेदान्न यथासंख्यम् । द्वौ कुडवी प्रयोजनमस्य द्विकौडविकः, त्रिकोडविकः । अधिककोडविकः । द्वाभ्यां सुवर्णाभ्यां क्रीतं द्विसौणिकं त्रिसौणिकम् । अधिकसौणिकम, द्वाभ्यां षष्टिभ्यां निर्वतो द्वाभ्यां षष्टिभ्यां भूतोऽधीष्टो वा द्वे षष्टी भूतो भावी वा द्विषाष्टिकः, त्रिषाष्टिकः, अधिकषाष्टिकः, द्विसाप्ततिकः, अधिकसाप्ततिकः, द्विषष्टयादिशब्दाः संख्येये काले वर्तन्त इति कालाधिकारविहितं प्रत्ययमुत्पादयन्ति । द्वाभ्यां नवतिभ्यां क्रीतमिति 'मूल्यैः क्रीते' (६-४-१५०) इतीकण । तस्य अनाम्यद्विः पलप् (६-४-१४१) इति लुपि द्विनवति द्रव्यम् तेन दो च नवतिश्च द्विनवतिस्तया वा क्रीतं द्विनावतिकम्, एवं विनावतिकम, संवत्सर, संवत्सर, द्वाभ्यां संवत्सराभ्यां निर्वत्तो द्वाभ्यां संवत्सराभ्यां भूतोऽधीष्टो वा द्वौ संवत्सरौ भूतो भावी वा विसांवत्सरिकः, त्रिसांवत्सरिकः, संवत्सरग्रहणात् कालो मानग्रहणेन न गाते तेन द्वसमिकः, समिकः, द्वैरात्रिकः, त्रैरात्रिकः । अशाणकुलिजस्येति किम् ? द्वाभ्यां शाणाभ्यां क्रीतं द्वैशाणं, त्रैशाणम्, द्वे कुलिजे पचति संभवत्यवहरति च द्वैकुलिजिकः । त्रैकुलिजिकः । अनाम्नीति किम् ? पञ्च लोहिन्यः परिमाणमस्य पाञ्च
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३६२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पा० ४. सू० २०]
लोहितिकम्, पाञ्चकलायिकम । तद्धितान्तमिदं परिमाणविशेषस्य नाम । १९ ।
न्या० स० मान० – द्विमौवर्गिक मित्यादि अत्र तु 'सुवर्ण कार्षापणात् इत्येनेने कणो वा लुप् भवति ।
६-४-१४३
द्विषष्ट्यादिशब्दा इति द्वे षष्टी सप्तती वा दिवसानां मासानामर्धमासानां वेति विवक्षया कालवृत्तित्वम् ।
कलाधिकार विहितमिति 'कालात् परिजय्य' ६-४-१०४ इत्यस्मिन् कालाधिकारे विहितं ' निर्वृत्ते ' ६-४-२० इत्यादिभिः प्रत्ययमिकणुरूपम् ।
कालो मानग्रहणेनेति मीगते अनेनेति व्युत्पत्या मानग्रहणेन कालस्यापि ग्रहणप्रसङ्गे सतीत्यर्थ. द्वैरात्रिक इत्यादि अत्र 'संख्यातै' ६-३-११९ इत्यत्, तत इण् । द्वैशाणमिति 'द्वित्र्यादेर्याण् च ' ६-४-१४७ इत्यण् तस्य च विधानस मर्थ्यात् 'अनाम्न्यद्विः प्लुर्' ६-४१४१ इति लुबभावः ।
द्वैकुलिजिक इति अत्र 'संभव' ६-४-१६२ इति इकण्, 'कुलिजाद् वा' ६-४-१६५ इति वा लुप् ।
पाञ्चलोहितिक्रमिति अत्र मानम् ६-४-१६९ इतीकण् 'जातिश्च णि ३-२-११ इति पुंवद्भावः ।
पाचकला विकमिति कलायो धान्यविशेषो मालविकप्रसिद्धः, तत्कणानां पञ्चानां यावत परिमाणं भवति, तावन्मात्रस्य परिमाणवि शेषस्येदं नाम, अत्र एव 'अनाम्न्यद्विः प्लुप्' ६-४-१४१ इति लुवपि न भवति ।
अर्थात्परिमाणस्यानतो वा त्वादेः ॥ ७. ४. २० ॥
6
ין
अर्धशब्दस्य परिमाणवाचिनः कुडवादेः शब्दरूपस्य णिति तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्थानसोऽकाररहितस्य वृद्धिर्भवति वा स्वादेः परिमाणात्पूर्वस्य स्त्रर्धशब्दस्य वा भवति । अर्धकुडवेन क्रीतम् अर्धकौडविक्रम्, आर्थकौडविकम्, अर्धमौष्टिकम्, आर्धमोष्टिकम्, अर्धद्रौणिकम् आर्धद्रौणिकम् । परिमाणस्येति किम् ? अर्धक्रोशः प्रयोजनमत्य आर्धा [क्री] शिकम् । अनत इति किम् ? अर्धप्रस्थिकम् आर्धप्रस्थिकम्, अर्धकंसिकम्, आर्धकसिकम्, अर्धवमसि - कम् । आर्धचमसिकम् आदिविकल्प उत्तरवृद्ध्यनपेक्ष इति भवत्येव । अतः प्रतिषेधादाकारस्य वृद्धिर्भवत्येव । अर्धखाय भवः अर्धखारीकः । पुनरत्र विशेषः सत्यामसत्यां वा वृद्धी । उच्यते, अर्धखारी भार्यास्य अर्धखारीभार्यं इति । rees वृद्धिप्रतिषेधः स्यात् अयं तद्धितो न वृद्धिहेतुरिति पुंवद्भावप्रतिषेधो न स्वात् यथार्धप्रस्थे भवार्धप्रस्थी सा भार्यास्य अर्धप्रस्थ भार्य इति | २० |
न्या० स० अर्द्ध० - अर्द्धकंसिकमितिअर्द्धकंसशब्दशत् क्रीतेऽर्थे इकणू न भवति, ' अर्द्धात्पलकंकर्षात् ६-४-१३४ इतीकटा बाधितत्वात्ततः प्रयोजनेऽर्थे इकणू दृश्यः । अर्द्धप्रस्थभार्य इति अत्रान्त इति भणनान्नोत्तरपदवृद्धिः, पूर्वपदस्यापि वा त्वादेः' इति वचनान्न भवति, ततस्तद्धितस्य स्वरवृद्धिहेतुत्वाभावान्न पुंवन्निषेधः ।
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[पाद ४. सू. २१-२३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३६३
प्रादाहणस्यैये ॥ ७. ४. २१ ॥ ____ वा त्वादेरिति वर्तते, प्रशब्दात्परस्य वाहणशब्दस्य एये णिति तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्व वृद्धिर्भवति आदे: पूर्वस्य तु प्रशब्दस्य वा भवति । प्रवाहयतीति प्रवाहणः प्रवाहणस्यापत्यं प्रवाहणेयः, प्रावाहणेयः, शुभ्रादिस्वादेयण् । अत्राप्युत्तरपदवृद्धः पूर्वोक्तमेव प्रयाजनम्, तेन प्रवाहणेयी भार्या यस्य प्रवाहणेयोभार्य इति पुवद्भावप्रतिषेधो भवति ॥२१॥ एयस्य ॥ ७. ४. २२ ॥
एयप्रत्ययान्तावयवात्प्रशब्दात्परस्य वाहणशब्दस्य णिति तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिर्भवति आदेस्तु प्रशब्दस्य वा भवति। प्रवाहेणयस्यापत्यं युवा प्रवाहणेयिः प्रावाहणेयिः। प्रवाहणेयस्येदं संघादि तस्य भावो वा प्रवाहणेयकम् । प्रावाहणेयकम् । बाह्यतद्धितनिमित्ता वृदिरेवाश्रयेण विकल्पनाशक्या बाधितुमिति सूत्रारम्भः ॥२२॥
न्या० स० एय-प्रवाहणेयिरिति अत्र ब्राह्मणत्वात् 'अब्राह्मणात् । ६-१-१४१ इत्यनेन इबो न लुप् ।
- बाह्यतद्धितेति-बाह्यस्तद्धित एयव्यतिरिक्तस्तन्निमित्ता वृद्धिः 'वृद्धिः स्वर' ६-४-१ इत्यनेन नित्यं प्राप्ता एयाश्रयेण विकल्पेन 'प्राद्वाहणस्य' ६-४-२१ इति विहितेनेति योजना। नत्रः क्षेत्रज्ञेश्वरकुशलचपलनिपुणशुचेः ॥ ७. ४. २३ ॥
नत्रः परेषां क्षेत्रज्ञ, ईश्वर, कुशल, चपल, निपुण, शुचि इत्येतेषां प्रकृत्यवयवानां णिति तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिर्भवति आदेस्तु नत्रो वा। अक्षेत्रज्ञस्येदं अक्षैत्रज्ञम्, आक्षेत्रज्ञम् । अक्षेत्रज्ञस्य भावः कर्म वा अक्षेत्रश्यम् आक्षेत्रश्यम्, राजादित्वात् टघण् । एवमनैश्वरम्, बानेश्वरम्, अनैश्वर्यम्, आनैश्वर्यम् । अकुशलस्येदम् बकौशलम् आकौशलम्, एवमचापलम्, आचापलम्, अनैपुणम् । नैपुणम् । न शुचिरशुचिस्तस्येदम् अशौचम्, आशौचम्, न विद्यते शुचिरस्येति वा अशुचिस्तस्य भावः कर्म वा अशौचम्, आशौचम् । क्षेत्रज्ञकुशलचपलनिपुणानां नपूर्वाणामपि युवादिपाठादणमिच्छन्त्येके । आयथातथ्यमिति समासात्प्रत्ययः । अयाथातथ्यमिति प्रत्ययान्तेन समासः । एवम् आयथापुर्यम् अयाथापुर्यम् यथा आचतुर्यम् अचातुर्यम् इति । यथातथा यथापुरा इत्यखण्डमव्ययं वा 'नाम नाम्ना'-(३-१-१८) इति वा समासो 'यथाऽथा' (३-१-४१) इति अव्ययीभावो वा
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३६४ ]
बृहद्वृत्ति-लधुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू. २४-२५ 1 अकारान्तः ।२३॥ ___ न्या. स. मत्रः-अक्षेत्रमिति ‘नजतत्पुरुषादबुधादेः' ७-१-५७ इत्यनेन दयण न बाध्यते, क्षेत्रज्ञेश्वरयोर्बुधादिपाठात् ।
न विद्यते शुचिरस्येति वेति पूर्वप्रयोगापेक्षया वा न तु वाक्यापेक्षया न तत्पुरुषे हि 'नबतत्पुरुषात्' ६-३-७१ इति त्वतलावेव स्यातामतो बहुव्रीहिरेव कार्यः ।
अव्ययीभावो वेति तथेत्यस्य योग्यत्वं पुरेत्यस्य योग्यत्वं तथेत्यस्य पुरेत्यस्य चानतिक्रम इति वा यथातथं, यथापुरम् । अकारान्त इति अव्ययीभावस्य नपुंसकत्वे 'क्लीवे' २-४-९७ इत्यनेन हस्वः । जङ्गलधेनुवलजस्योत्तरपदस्य तु वा ॥ ७. ४. २४ ॥
आदेरित्यनुवर्तते । वेति तु निवृत्तम् । उत्तरपदस्य चेत्यकरणात् । जङ्गल, धेनु, वलज इत्येतदुत्तरपदानां शब्दानामादेः पूर्वपदस्य णिति तद्धिते परे स्वरेष्वादेः स्वरस्य नित्यं वृद्धिर्भवति । उत्तरपदस्य पुनर्वा भवति । कुरुजङ्गलेषु भवः कोरुजङ्गलः, कौरुजाङ्गलः, वैश्वधेनवः वैश्वधैनवः, सौवर्णवलजः सौवर्णवालजः ।२४।
न्या० स० जङ्गल०-वैश्व(नव इत्यत्र 'उत्सादेर' ६-१-१९ शेषेषु भवे' ६-३-१२३ हृदभगसिन्धोः ॥ ७. ४. २५ ॥
आदेहत्तरपदस्येति च द्वयमनुवर्तते, हृद्भगसिन्धु इत्येवमन्तानां शब्दानां णिति तद्धिते परे आदेः पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिर्भवति ।
सुहृदः सुहृदयस्य वा इदं भावः कर्म वा तस्येदम् ' (६-३-१५९) इत्यणि युवाद्यणि वा सौहार्दम्, एवं दौहार्दम् । सुहृदो भावः कर्म वा राजादित्वात् टयणि सौहाद्यम्, दोहार्धम् । बहुलाधिकारात्, मित्रामित्रार्थयोः सुहृदुहृच्छब्दयोः सौहृदम् दौ« दमित्यपि भवति । सुभगस्य भावः सौभाग्यम्, दौर्भाग्यम्, सुभगाया अपत्यं सौभागिनेयः, दो गिणेयः, एकपदत्वाण्णत्वम् । सक्तुप्रधानाः सिन्धवः सक्तुसिन्धवः, तेषु भवः साक्तुसैन्धवः, पानसैन्धवः, लावणसैन्धवः, माहासैन्धवः, सौरसैन्धवः । कच्छादित्वादण । तत्र तदन्तविधेरपीष्टत्वात् ।२५॥
न्या० स० हृद् भग० --सुहृदस्य वेति मित्रार्थत्वाभावान्न 'सहृदुहन्' ७-३-१५७ इत्यनेन सुहृदादेशः, तथा चाणि सति 'हृदयस्य' ३-२-९४ इति हृदादेशः । सौहार्यमिति अयं सुहृदशब्दस्यैव प्रयोगः सुहृदयशब्दस्य तु ट्यणि सौहदय्यमित्येव भवति, हृदयस्या
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पाद. ४. सू, २६-२७] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः । ३६५ हल्लाम' ३-२-९४ इत्यत्र निरनुबन्धग्रहणे इति न्यायान्निरनुवन्धस्यैव यस्य प्रहणेन यणि हनादेशाभावात् । बहुलाधिकारादिति 'इसुसोर्बहुलम्' ७-२-१२८ इत्यतोऽनुवृत्तात् ।
मित्रामित्रार्थयोरिति ननु सुहृदुहेच्छन्दयोर्मित्रार्थयोरिति विशेषणं किमर्थ मित्रामित्रार्थयोरेव सुहृद्दुहृद्रूपसमामान्तविधानेनाव्यभिचारात् ! ___ सत्ये, सुहृदयदुहृदयशब्दयोः क्रूगकरार्थयोर्यदा 'तस्येदम्' ६-३-१६० इत्यणि 'हृदयस्य हल्लास' ३-२-९४ इत्यनेन हृदादेशस्त्रदापि सुहृदुईच्छब्दौ स्त इति तद्व्यवच्छेदार्थ मित्रामित्रार्थयोरित्युक्तम् ।
___ तत्र तदन्तविधेरिति न केवल सिन्धु इत्यस्य केबलस्य कच्छादी पाठात् केवलान प्रत्ययः किंतु सिन्ध्वन्तेति पाठात् तदन्तादपीत्यर्थः । प्राचां नगरस्य ।। ७. ४. २६ ॥
प्राचां देशे वर्तमानस्य नगरान्तस्य शब्दस्य णिति तद्धिते परे आदेः पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च स्वरेष्वादे: स्वरस्य वृद्धिर्भवति । सुह्मनगरे भवः सौह्मनागरः, पौण्डनागरः, वाजु (वांज) नागरः, वैराटनापरः, गैरिनागरः । प्राचामिति किम् ? उदीचां माडनागरः ॥२६॥
न्या० स० प्राचां०-पुण्डामडाश्च पुरुषविशेषाः । अनुशतिकादीनाम् ॥ ७, ४. २७ ॥
अनुज्ञलिक इत्येवमादीमा शब्दानां णिति तद्धिते परे पूर्वपदस्योत्तर'पदस्य च स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिर्भवति । अनुशतिकस्येदमानुशातिकम, अनुशतिकस्यापत्यमानुशातिकिः, अनुहोडेन चरति आनहौडिकः ।
___ अनुशतिक, अनुहोड, अनुसंवत्सर, अनुसंवरण, अनुरहत्, अगारवेण, असिहत्या, अश्वि (स्य) हत्य, अस्थहेति, अस्यहेतु, अनिषाद, अधेनु, कृरुरुत, कुरुपञ्चाल, अधिदेव, अधिभूत, इहलोक, परलोक, सर्वलोक, सर्बपुरुष, सर्वभूमि, बध्योग, प्रयोग, अभिगम, परस्त्री, पुष्करसद्, उदकशुद्ध, सूत्रनड, चतुर्विद्या, शातकुम्भ, सुखशयन इत्यमुशतिकादिः । आकृतिगणोऽयम्, तेन राजपौरुष्यादयष्टयणन्ता अत्रैव पट व ते । राजपौरुष्यम्, पारिमाण्डल्यम, प्रातिभाष्यम्, सार्ववैद्यम् । प्रत्ययान्तरे त्वादेरेव वृद्धिः। राजपुरुषस्यापत्यं राजपुरुषायणिः । ।२७।
न्या० स० अनु० -पारिमाण्डल्यमिति परिमण्डलमणूनां परिमाणं तद्योगात् परमाणवोऽपि परिमण्डलास्तेषां भावः।
प्रातिभाव्यमिति प्रतिभुवो भावः दयणि उभयपदवृद्धौ ‘व्यक्ये १-२-२५ इत्यावादेशः, "अस्वयंभुवोऽव् ' ६-४-७. इति कृते पश्चादुभयपदवृद्धि ।
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३६६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. ३ सू० २८-२९ ) सार्ववैद्यमिति सर्वे वेदाः सर्वा विद्या वा भेषजादिभ्यष्ट्रयणि 'अवर्णेवर्णस्य ' ६-४-६८, यदा विद्या तदा 'व्यञ्जनात् पञ्चम' १-३-४७ इति यस्य लुक् ।
राजपुरुषार्याणरिति अत्र 'अवृद्धात्' ६-१-११० इत्यायनि । देवतानामात्वादौ ॥ ७. ४. २८॥
देवतार्थानां शब्दानामावादी विषये णिति तद्धिते परे आदेः पूर्वपदस्योत्तरपदस्य च स्वरेन्वादेः स्वरस्य वृद्धिर्भवति । अग्निश्च विष्णश्च देवता अस्य आग्नावैष्णवं सूक्तम्, ऐन्द्रापोष्णं हविः, आग्निमारुतं कर्म, आग्निवारुणीमनड्वाहोमालभेत । आत्वादाविति किम् ? स्कन्दविशाखयोरिदं स्कन्दविशाखम्, ब्राह्मप्रजापत्यम् । 'वेदसहश्रुतावायुदेवतानाम्' (३-२-४१). इत्यत आरभ्य ' उषासोषसः' (३-२-४६) इति यावदात्वादयः ।२८॥
न्या. स. देवता०-विशाखः स्कन्दमिजम् । ब्राह्मप्रजापत्यमिति अत्र पत्यवयवयोगात् प्रजाप्रतिशब्दोऽपि पतिरिति 'अनिदम्य' ६-१-१५ इति व्यः, भावे 'पतिराजन्त' ७-१-६० इति दयण वा।
आतो नेन्द्रवरुणस्य ॥७. ४. २९ ॥
आकारान्तात्पूर्वपदात्परस्य इन्द्रशब्दस्य वरुणशब्दस्य चोत्तरपदस्य स्वरेष्वादेः स्वरस्य वृद्धिनं भवति । अग्निश्च इन्द्रश्च अग्नेन्द्रो, तो देवता अस्य भाग्नेन्द्रम् सूक्तम्, सौमेन्द्रं हविः, ऐन्द्रावरुणम्, मैत्रावरुणम् । आत इति किम् । आग्निवारुणम् । उत्तरपदस्येत्येव ? ऐन्द्राग्नम् एकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपेत् । नन चेन्द्रशब्दस्य तो स्वरौ तत्राद्यः संधिकार्येण हियतेऽपरो 'ऽवर्णवर्णस्य' (७-४-६८) इत्यतोऽस्वर एवेन्द्रशम्दस्तस्य कि वृद्धिप्रतिषेधेन ? सत्यम्, किन्त्वनेनतज्ज्ञाप्यते । बहिरङ्गमपि पूर्व पूर्वोत्तरपयोः कार्य भवति पश्चात्सधिकार्यम, तेन पूर्वेषुकामशम इत्यादि सिद्धं भवति ।२९।
या० स० आतो. आग्नेन्द्र सूक्तमिति नन्वग्निश्चेन्द्रश्याग्नेन्द्रौ तौ देवते अस्येति विग्रहे आकारो न प्राप्नोति, यतः अन्तरङ्गानपि विधीन बहिरगापि लुप् बाधते इति इः कथं न स्यान् यथा आग्निवारुणमिति व्यावृत्त्युदाहरणे, अथ सूत्रसामर्थ्यादाकारो भविष्यतीति इति चेत्, न, सूत्रमन्यत्रापि चरितार्थ यथा सौमेन्द्रं हविरिति, अथ 'इवृद्धिमति' ३-२-४३ इति इ: प्राप्नोति, न यतोऽग्निशब्दस्य प्रत्ययादि ईषोम' ३-२-४२ इति सूत्रादग्नेरित्यनुवृत्तेः!
उच्यते, 'आतो नेन्द्र' ७-४-२९ इति सूत्रं व्यक्ती प्रावर्त्तिष्ट तत एतत्सूत्रादाकारो भवस्येव ।
आग्निवारुणमिति अग्निश्च वरुणश्च देवताऽस्येति विग्रहेऽणि सति 'ऐकाध्यें। ३-२-८ इत्यनेन विभक्तिलोपः 'ई: पोमवरुणेऽग्नेः' ३-२-४२ इत्यन्तरगामीत्वं च ततो अन्तरगानपि विधीन् बहिरङ्गापि लुप् बाधते इति न्यायात् लुबेव प्रवर्तते, ततो विभक्तिलोपे
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( पाद. ३. सू. ३०-३१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [ ३६७ सति ईत्वं 'देवतानामात्यादौ ७-४-२८ इत्युभयपदवृद्धिश्च प्राप्नोति द्वयोः प्राप्तौ परत्वादुभयपदवृद्धिः क्रियते, तस्यां च सत्यां विशेष विहितत्वात् 'इर्वृद्धिमत्यविष्३-२-४३ इति इकार एव ।
एकादशकपालमिति एकादशसु कपालेषु संस्कृतं 'संस्कृते भक्ष्ये' ६-२-१४० इत्यण् 'द्विगो: ' ७-१-१४४ इति लुन् ।
पूर्वेषुकामसम इत्यादीति अत्र भत्रेऽण् 'प्रावामाणाम् ' ७-४-१७ इत्युत्तरपदवृद्धि:, अत्र यदि पूर्व संधिः स्यात्तदा इकारस्य पूर्वान् संबन्धिन उकारस्य वृद्धिः स्यात् । सारवैक्ष्याक मैत्रेयभ्रोणहत्यधैवत्यहिरण्मयम् ।। ७. ४. ३० ॥
सारवादयः शब्दा अनादिप्रत्ययान्ताः कृतायलोपादयो निपात्यन्ते । सरय्वां भवं सारवमुदकम्, सरयू शब्दस्याणि प्रत्ययेऽयित्यस्य लोपः । इक्ष्वाको रपत्यमैerre: | 'राष्ट्र क्षत्रियात् ' - ( ६-१ - ११४ ) इत्यादिनान् । इक्ष्वाकोरिदमैत्राकम्, इक्ष्वाकुशब्दस्य अनि अणि चोकारलोपः । मित्रयोरपत्यं मैत्रेयः, मित्रयुशब्दस्य गृष्टच्चादित्वादेवनि युलोपः । अथ मित्रशब्दो विदादिषु किं न पठद्यते । तथा च ' केकयमित्रप्रलय ' ( ७ - ४ - २ ) इत्याविनेयादेशेनैव सिध्यतीति नेदं निपातनमारब्धव्यं भवति । यस्काविषु च मित्रयुशन्दो बहुषु बन पठितव्यो भवति यजञ: ' ( ६-१-१२६ ) इत्यादिनैव सिद्धत्वात् । उच्यते, अनि सति मित्रयूणां संघो मैत्रेयकमित्यत्राकवं बावित्वा स्यादिति विदादिषु न षठ्यते । भ्रूणनो भावः कर्म वा श्रोणहत्यम्, घोन्नो भावः कर्म वा धैवत्यम् । अत्र यणि नकारस्थ तकारः । हिरण्यस्य विकारो हिरण्मयम्, अत्र मयटि यशदलोपः |३०|
वान्तमान्तितमान्तितोऽन्तियान्तिषद् ॥ ७ ४ ३१ ॥
वा
अन्तमादयः शब्दास्तमवादिप्रत्ययान्ताः कृततिकादिलोपादयो निपात्यन्ते । अयमेषामतिशयेनान्तिकः अन्तमः पक्षे अन्तिकतमः, अत्रान्तिकशब्दस्य तमप्प्रत्यये तिकशब्दलोपो 'नोऽप्रशानोऽनुस्वारानुनासिको च पूर्वस्यापरे' इति सकाराभावश्च निपात्यते । अबमेषामतिशयेनान्तिकः अन्तितमः । अत्र कशब्दस्य लोपः, पक्षे अन्तिकतमः । अन्तिकादागच्छति अन्तित आगच्छति, अत्रापादानलक्षणे तसौ कशब्दस्य लोपः । पक्षेऽन्तिकत आगच्छति, अन्तिके साधुः अन्तियः, अत्र मप्रत्यये कशब्दस्य लोपः इकारस्य च लोपाभावः । पक्षे अतिक्ष: । अन्तिके सीदति अन्तिषद्, अत्र सदिति त्रिन्ते कलोपः सस्य षत्वं च । पक्षे अन्तिकसत् |३१|
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३६८ ]
वृहत्ति -लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० ३२-३६ ॥ ___ न्या० स० वान्त० सकाराभावश्चेति 'नाम सिव्यञ्जने' १-१-२१ इति पदत्वात् सकारः प्राप्तः । विन्मतोर्णीष्ठेयसौ लुप् ॥ ७. ४. ३२ ॥
विन्मतु इत्येतयोः प्रत्यययोणि इष्ठ इयसु इत्येतेषु प्रत्ययेषु परेषु लुब् भवति । स्रग्विणमाचष्टे स्रनयति, अयमेषां स्रग्विणामतिशयेन स्रग्बी स्रजिष्ठः । अयमनयोः स्रग्विणोरतिशयेन सग्को स्रजोयान्, त्वग्वन्तमाचष्टे त्वचयति, अयमेषामतिशयेन त्वग्वान् वरिष्ठः, अयमनयोरतिशयेन त्वग्वान् त्वचोयान्, कुमुवन्तमाचष्ठे कुमुदयति, कुमुदिष्ठः, कुमुदोयान् । अत एव वचनादगुणाङ्गादपीष्ठेयसू । निर्दिश्यमानत्वात् प्रत्ययमात्रस्य लुप् ॥३२॥
न्या० स० विन्म०-सजिष्ठ इति अत्रान्तवर्त्तिविभक्त्यपेक्षया यथा विसन्तस्य इष्ठप्रत्यये प्राप्तस्य पदत्वस्य सित्येवेति नियमेन निषेधस्तथा विन्लोपेऽपि, न च 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७-४-११५ इति विनन्तादिष्ठप्रत्ययो विहितोऽतस्तस्यैव नियमेन पदत्वाभावो, न तु विन्लोपे पाश्चात्यस्येति यतः 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७-४-११५ इति परिभाषायाः 'षड्वर्जेक। ७-३-४० इत्यत्र षड्वर्जनेनानित्यत्वज्ञापनात् , एवं त्वचिष्ठ इत्यादिष्वपि दृश्यम् । अल्पयूनोः कन्वा ॥७. ४. ३३ ।।
अल्प युवन इत्येतयोणि इष्ठ ईयसु इत्येतेषु परेषु कन् इत्ययमादेशो वा भवति । कनयति, कनिष्ठः, कनीयान्, पक्षे-अल्पयति, अल्पिष्ठः, अल्पीयान, यवयति, यविष्ठः यवीयान् ।३३।। ___न्या० स० अल्प०-अत्रापि अगुणाकणादपि इष्ठेयसू वचनसामर्थ्याद् भवतः, अन्यथा 'स्थूलदूर' ७-४-४२ इत्यनेनान्तस्थादेवयवस्य लुबपि न स्यात् तयोरभावात् एवमुत्तरेष्वपि दृश्यम् । प्रशस्यस्य श्रः ॥ ७. ४. ३४ ॥
प्रशस्यशब्दस्य णीष्ठेयसुषु परत: श्र इत्ययमादेशो भवति । यति श्रेष्ठः, श्रेयान् ।३४। वृद्धस्य च ज्यः ॥ ७. ४. ३५ ॥
वदशब्दस्य प्रशस्यशब्दस्य च णोष्ठेयसुषु परतो ज्य इत्यादशो भवति । ज्ययति, ज्येष्ठः ।३५॥ ज्यायान् ॥ ७. ४. ३६ ॥
ज्यायानिति पूर्वसूत्रेण विहिताज्ज्यादेशात्परस्येयसोरीकारस्य आकारादेशो निपात्यते । अयमनयोरतिशयेन प्रशस्यो वृद्धो वा ज्यायान, ज्यायसी ॥३६॥
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[पाद. ४. सू. ३७-३९ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३६९
न्या० स० ज्याया०-आकारादेश इति अत्राकारस्यापि निपातने ज्यायानिति सिध्यति 'लुगस्यादेत्यपदे ' २-१-११३ इत्यस्याकारकरणादेवाप्रवृत्तेः प्रक्रियानिरासार्थ त्वाकारकरणम् ।
बाढान्तिकयोः साधनेदौ ॥ ७. ४. ३७ ॥ ___ बाढ अन्तिक इत्येतयोर्णीष्ठेयसुषु परतो यथासंख्यं साधनेद इत्येतावादेशी भवतः । साधयति, साधिष्ठः, साधीयान्, नेदयति, नेदिष्ठः, नेदीयान् ।३७। __ न्या० स० बाढा० साधनेद इति अदन्तावेताविति समानलोपित्वादससाधदियत्र ङपरे णौ सन्वदादिकार्याभावः । प्रियस्थिरस्फिरोरुगुरुबहुलतृप्रदीर्घवृद्धवृन्दारकस्येमनि च प्रास्था
स्फावरगरबंहत्रपदाघवर्षवृन्दम् ॥ ७. ४. ३८ ॥ प्रियादीनां यथा संभवमिमनि णीष्ठेयसुषु च यथासंख्यं प्रा इत्यादय आदेशा भवन्ति । प्रियस्य प्रा,-प्रेमा, प्रापयति, प्रेष्ठः, प्रेयान् । स्थिरस्य स्था, स्थेमा, स्थापयति, स्थेष्ठः, स्थेयान् । स्फिरस्य स्फा,-स्फापयति, स्फेष्ठः, स्फेयान् । उरोवर,-वरिमा, वरयति, वरिष्ठः, वरीयान् । गुरोर्गर्,-गरिमा, गरयति, गरिष्ठः, गरोयान् । बहुलस्य बंह,-बंहिमा, बंयति, बंहिष्ठः, बंहीयान् । तृप्रस्य त्रप्-त्रपिमा, अपयति, पिष्ठः, पीयान् । दीर्घस्य द्राघद्राधिमा, द्राधयति, द्राघिष्ठः, द्राधीयान् । वृद्धस्य वर्ष-वर्षिमा, वर्षयति, वर्षिष्ठः, वर्षीयान् । वृन्दारकस्य वन्द-वन्दिमा, वृन्दयति. वृन्दिष्ठः, वृन्दीयान् । स्फिरशब्दस्यावर्णत्वादपृथ्वादित्वाददृढादित्वाच्च नेमन्-प्रत्ययः। वरादीनामकार उच्चारणार्थः, कश्चित्तु करोत्यर्थे णौ प्राधादेशं नेच्छति, तन्मते प्रिययति, स्थिरयतीत्यादि ।३८। . न्या० स० प्रिय०-स्थेमेति अत्र बहुवचनसामर्थ्यात् 'वर्णदृढादिभ्यः' ७-१-५९ इतीमन्, शेषेषु 'पृथ्वादेरिमन् वा ' ७-१-५८ वृन्दारकात् ‘वर्णदृढादिभ्यः ष्ट्रयण च वा' ७-१-५९ इत्यनेनेमन् । पृथुमृदुभृशकशदढपरिवृढस्य ऋतो रः ॥ ७. ३. ३९ ॥
पृथ्वादीनामृकारस्येमनि गीष्ठेयसुषु च परेषु रशब्द आदेशो भवति । प्रथिमा, प्रथयति, प्रथिष्ठः, प्रथीयान्, म्रदिमा, बृदयति, म्रदिष्ठः, म्रदीयान्, भ्रशिमा, भ्रशयति, भ्रशिष्ठः, भ्रशीयान्, ऋशिमा, क्रशयति, ऋशिष्टः, क्रशीयान्, ढिमा, द्रढयति, द्रढिष्ठः, द्रढोयान्, परिवढिमा, परिवढयति, परिव्रढोष्ठः, परिवढीयान् । केचित्तु वृढशब्दस्यापीच्छन्ति । वढिमा, वढयति, बढिष्ठः, वढीयान् । पृथ्वादीनामिति किम् ? ऋजिमा, ऋजयति, ऋजिष्ठः,
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३७० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ३ सू० ४०-४२ ) ऋजीयान, कृष्णिमा, कृष्णयति, कृष्णिष्ठः, कृष्णीयान । अनचीयान स्वचीयान् । ऋत इति किम् ? सर्वस्य मा भूत् ।३९।
न्या० स० पृथु०-अनुचीयानित्यादि न विद्यन्ते ऋचोऽस्य 'नञ् बहोः' ७-३-१३५ इत्यप, शोभना ऋग यस्य स्वच्, आभ्यामप्यगुणाङ्गत्वेऽपि ‘विन्मतोः' ७-४-३२ इति ज्ञापकस्य सर्वोद्विष्टत्वादीयस् । बहोर्णीष्ठे भूय् ॥ ७. ४. ४० ॥
बहशब्दस्य णीष्ठयोः परयोर्भूय इत्ययमादेशो भवति, भूभावापवादः । भूययति, भूयिष्ठः । बहोराख्यानं भूयनम् । णौ केचिद्विकल्पमाहुः। भूययति, भूयमम् । पक्षे बहयति, बहनम् । बहोर्णो भाविति कश्चित् । भावयति ।४०।
न्या० स० बहो०- बहोराख्यानमिति णिचोऽनटश्चैकमेवेदं वाक्यं, यद् वा बहुमाचष्टे णिच् भूय्यत इत्यनद । भूलकः चेवर्णस्य ।। ७. ४. ४१ ।।
बहुशब्दस्य ईयसाविमनि च परे भू इत्ययमादेशो भवति अनयोश्चेवर्णस्य लुग्भवति । भूयान्, भूयांसौ, भूयांसः, भूमा। भू ऊ इति ऊकारप्रश्लेषादवादेशो न भवति । इवर्णस्येति किम् ? सर्वस्य माभूत् ।४१।
न्या० स० भूलू ०–'प्रियस्थिर' ७-४-३८ इत्यतः सूत्रादिमणि इष्ठईयसवश्चत्वारोऽनुवर्तन्ते तेषु च णीष्ठयोः पूर्वसूत्राघातत्वात् पारिशेषादिमनीयसोरेवायं विधिरित्याहईयसाविमनि चेति । ऊकारप्रश्लेषादिति न च भू इत्यादेशविधानादत्र न भविष्यति इति यतो भमेत्यत्र पदत्वादपदे उक्तः 'अस्वयंभुवेषु' ७-४-७० इति अव् न भविष्यतीति, अत्र भू आदेशस्य चरितार्थत्वात् , भूयानित्यादावव् स्यादिति भूश्चासावूश्चेति प्रश्लेषव्याख्यानम् । स्थूलदूरयुवहस्वक्षिप्रक्षुद्रस्यान्तस्थादेर्गुणश्च नामिनः ।।७. ४. ४२ ।।
स्थलादीनां यथासंभवमिमनि णीष्ठेयसुषु च परेष्वन्तस्थादेरवयवस्य लग नामिनश्च गुणो भवति । स्थूल-स्थवयति, स्थविष्ठः, स्थवीयान् । दूरदवयति, दविष्ठः, दवीयान् । युवन्-यवयति, यविष्ठः, यवीयान् । हूस्व-हसिमा, हसयति, इसिष्ठः, इसीयान् । क्षिप्र-क्षेपिमा, क्षेपयति, क्षेपिष्ठः, क्षेपीयान् । भद्र-क्षोदिमा, क्षोदयति, क्षोदिष्ठः, क्षोदीयान् । हूस्वादिभ्यः पृथ्वादित्वादिमन् । उत्तरेणान्त्यस्वरस्यानेनार्थादन्तस्थाया लोपे सिद्धे अन्तस्थादेरिति किमर्थम् ? येन नाप्राप्तिन्यायनान्त्यस्वरादिलोपं बाधित्वानेनान्तस्थाया एव लोपो मा भदित्येवमर्थम् । नामिन इति किम् ? इस्वक्षिप्रक्षुद्राणां सकारपकारदकाराणां
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श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः
[ ३७१
[ पाद. ४. सू. ४३-४५ ] माभूत् केचित्तु स्थूलदूरयूनां करोत्यर्थे णौ नेच्छन्ति । स्थूलं करोति स्थूलयति, दूरयति, युवति ॥ ४२ ॥
न्या० स० स्थूल० - अन्तस्थादेरिति किमर्थमिति - अन्त्यस्वरस्य तावत् त्रन्त्यस्वरादेः ' ७-४-४३ इत्यनेन लुपि सत्यामन्तस्थामात्रमेवावशिष्यते, ततश्चात्रादिग्रहणं निरर्थकं किंतु अन्तस्थादेरित्यनीयान्तस्थाया इति कर्तुमुचितमिति प्रश्नाशयः ।
दकाराणां माभूदिति सर्वमुखस्थानमवर्णमित्येकदेशेन प्रत्यासन्त्या सकारदकारयोरकारस्य त्वत्वं स्यात् ।
त्रन्त्यस्वरादेः ॥ ७. ४. ४३ ॥
तृप्रत्ययस्यान्त्यस्वर।देश्वावयवस्येमनि णीष्ठेयसूषु च परेषु लुग्भवति । कर्तृ मन्तमाचष्टे करयति, करिष्ठः, करीयान् कर्तारमाचष्टे करयति । मातति भ्रातयतीत्यत्र अनर्थकत्वात् तृशब्दस्य न भवति । पटिमा, पटयति, पटिष्ठः, पटीयान् । लघिमा, लघयति, लघिष्ठः, लघीयान् । विमनसो भावो विमनिमा, सन्मनसो भावः सन्मानिमा, दृढादित्वादिमन् । विन्मतोलु पि अनेकस्वरस्यान्त्यस्वरादेलु' चं च विकल्पेनेच्छन्त्येके, लुगभावपक्षे णौ गुणं चेच्छन्ति ।। पयस्विनमाचष्टे पययति, पयस्यति, पयिष्ठः, पयसिष्ठः, पयोयान्, पयसीयान् । वसुमन्तमाचष्टे वसयति, वसवयति, वसिष्ठः, वसविष्ठः, वसीयान्, वसवीयान् ।४३।
न्या० स० त्रन्त्य॰—अनर्थकत्वादिति अनर्थकत्वं चास्याव्युत्पन्नत्वात्, तृप्रत्ययश्च वर्णानुपूर्वी विज्ञानार्थः ।
नैकस्वरस्य
।। ७.४. ४४ ॥
एकस्वरस्य शब्दरूपस्य योऽन्त्यस्वरादिरवयवस्तस्येमनि णीष्ठेयसुषु च परेषु लुग्न भवति । स्रग्विणमाचष्टे स्रजयति, स्रजिष्ठः, स्रजीयान् । स्रुग्वन्तमाचष्टे खचयति, स्रुचिष्ठः, स्रुचीयान् । एकस्वरस्येति किम् ? वसुमन्तमाचष्टे वसयति, वसिष्ठः, वसीयान् । इन चेत्येव । अस्यापत्यम् इः । ज्ञो देवतास्य ज्ञः, श्रिये हितः श्रीयः, योगविभागात् ' अवर्णवर्णस्य' ( ७-४-६८) इति लोपस्यापि प्रतिषधः । श्रेष्ठः, श्रेयान् ।४.४।
न्या० स० नैक० – योगविभागादिति अन्यथा त्रन्त्यस्वरादेरनेकस्वरस्येत्येव कुर्यात् ।
fuseस्तिनोरायने ।। ७. ४. ४५ ।
दण्डिन् हस्तिन् इत्येतयोरायने प्रत्ययेऽन्त्यस्वरादेर्लुग् न भवति । ' नोपदस्य -' (७-४-६१ ) इति प्राप्तो प्रतिषेधः । दण्डिनोऽपत्यं दाण्डिनायनः,
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३७२ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० ४६-५१ ] हास्तिनायनः, नडाद्यायनण् । आयन इति किम् ? दण्डिनां समूहो दाण्डम्, हास्तिकम् ।४५। ____ न्या० स० दण्डि०-दाण्डम, हास्तिकम्-'श्वादिभ्योऽञ्' ६-२-२६, ‘कवचि' ६-२-१४ इतीकण, 'नोपदस्य' ७-४-६१ इत्यन्तलोपः।
वाशिन आयनो ॥७. ४. ४६ ।। __वाशिन्शब्दस्यायनिप्रत्यये परेऽन्त्यस्वरादेलुंग न भवति । वाशिनोऽपत्यं वाशिनायनिः । 'अवृद्धाहोर्नवा' (६-१-११०) इत्यायनिञ् ।४६। एये जिह्माशिनः ॥ ७. ४.४७ ॥
जिह्माशिनशब्दस्य एये प्रत्यये परेऽन्त्यस्वरादेलुग न भवति । जिह्माशिनोऽपत्यं जैह्माशिनेयः, शुभ्रादित्वादेयण् ।४७। ईनेऽध्वात्मनोः ॥ ७. ४. ४८॥
अध्वन आत्मन् इत्येतयोरीनप्रत्यये परेऽन्त्यस्वरादेलुंग न भवति । अध्वानमलंगामी अध्वनीनः, 'अध्वानं येनौ' (७-१-१०३) इतीनः । आत्मने हित आत्मनीनः, 'भोगोत्तरपदात्मभ्यामीनः ' (७-१-४०) इतीनः । ईन इति किम् ? प्राध्वम्, अध्यात्मम् ॥४८॥ इकण्यथर्वणः ॥ ७. ४. ४९ ॥
अथर्वनशब्दस्येकणि प्रत्यये परेऽन्त्यस्वरादेर्लुग् न भवति अथर्वाणं वेत्त्यधीते वा आथर्वणिकः, न्यायादित्वादिकण् ।४९। यूनोऽके ॥ ७. ४. ५०॥
युवनशब्दस्याके प्रत्ययेपरेऽन्त्यस्वरादेलुग् न भवति । यूनो भावः यौवनिका, चौरादित्वादकञ् । अक इति किम् ? युवा प्रयोजनमस्य यौविकम् ॥५०।
न्या स० यूनो०-यौवनिकेति चौराद्यमनोज्ञाद्यकबिति स्त्रीक्लीबत्वम् । अनोष्ट्ये ये ॥ ७. ४. ५१ ॥ __ अन् इत्येतदन्तस्य ट्यजिते ये प्रत्यये परेऽन्त्यस्वरादेलग्न भवति । सामनि साधुः सामन्यः, एवं वेमन्यः, मूर्धनि भवः मूर्धन्यः, तक्ष्णोऽपत्यं ताक्षण्यः, कुर्वादित्वात् ज्यः । अटच इति वचनात् सानुबन्धेऽपि प्रतिषेधः । अन इति किम् ? छत्रिषु साधुः छत्त्र्यः, अटथ इति किम् ? राज्ञो भावः कर्म वा राज्यम्, दौरात्म्यम् । य इति किम् । परमराजः, द्विमधः ५१॥
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। पाद ४. सू. ५२-५६] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३७३ अणि ॥ ७. ४. ५२ ॥
अन् इत्येतदन्तस्याणि तद्धिते परेऽन्त्यस्वरादेलग्न भवति । सुत्वनोऽपत्यं सौत्वनः, याज्वनः, साम देवतास्य सामनः, वैमनः, संदिष्टं कर्म कार्मणम्, 'पर्वणि भवः पार्वणः अणीति किम् ? कर्म शीलमस्य कार्मः, छन्त्रादित्वादनु । कर्मणे शक्तं कार्मुकम्, 'योगकर्मभ्यां योकजी' (६-४-९५) इत्युक, योगविभाग उत्तरार्थः ॥५२॥ संयोगादिनः ॥ ७. ४. ५३ ॥
संयोगात्परो य इन् तदन्तस्याणि परेऽन्त्यस्वरादेलुग न भवति । शङ्गिनोऽपत्यं शाङखिनः, चाक्रिणः, वाविणः, स्राग्विणः, माद्रिणः, भाद्रिणः । संयोगादिति किम् ? मेधाविनोऽपत्यं मैधावः, मायावः । अणीत्येव ? प्राकारमदिनोऽपत्यं प्राकारमदिः, वाह्वादित्वादि । अनपत्ये उत्तरेण सिद्धत्वादपत्यार्थोऽयमारम्भः ।५३।
गाथिविदथिकेशिपणिगणिनः ॥ ७. ४. ५४ ॥ - गाथिन्, बिदथिन्, केशिन्, पणिन्, गणिन् इत्येतेषामिन्नन्तानामणि परेऽन्त्यस्वरादेलुग्न भवति । गाथिनोऽपत्यं गाथिनः, वैदथिनः, कैशिनः, पाणिनः, गाणिनः ।५४१ अनपत्ये ॥ ७. ४. ५५ ॥
इन्नन्तस्यापत्यादन्यत्रार्थे योऽण् तस्मिन् परेऽन्त्यस्वरादेलुग् न भवति । सांकृटिनं वर्तते, सांकोटिनम्, सांराविणम्, सामाजिनम् गभिणीनां समहो गाभिणम् । भिक्षादित्वादण् । गुणिन इदं गौणिनम्, स्त्रग्विण इदं वाग्विणम् अनपत्ये इति किम् ? मेधाविनोऽपत्यं मैधावः । अणीत्येव ? गभिणां समहो गार्भम्, दण्डिनां दाण्डम्, चक्रिणां चाक्रम् । 'वादिभ्योऽञ्' (६-२-२६ ) इत्यज ।५५॥
न्या० स० अन०-गामिणमिति 'जातिश्च' ३-२-५१ झति पुंवत , अन्यथा 'स्वरस्य' --४-११० इति स्थानित्वात् प्राप्तिरेव न । उक्ष्णो लुक ॥ ७. ४. ५६ ॥
उक्षनशब्दस्यानपत्येऽणि परेऽन्त्यस्वरादेलुंग भवति । उक्ष्ण इदमौक्षं पदम् । अनपत्य इत्येव ? उक्ष्णोऽपत्यमौक्ष्णः ।५६।
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३७४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससँवलिते [पाद. ४ सू. ५७-६२ ॥ ब्रह्मणः ॥ ७. ४. ५७ ।। ___ब्रह्मन्शब्दस्यानपत्येऽणि परेऽन्त्यस्वरादेर्लुम् भवति । ब्रह्मण इदं ब्राह्ममस्त्रम्, ब्राह्मो मन्त्रः, योगविभाग उत्तरार्थः ।५७। जातौ ॥ ७. ४. ५८ ॥
ब्रह्मन्शब्दस्य जातावभिधेयायामनपत्ये एवाणि परेऽन्त्यस्वरादेलुग भवति । ब्रह्मण इयं ब्राह्मो ओषधिः, पूर्वेण सिद्धे जातावनपत्ये एवेति नियसार्थं वचनम्, तेनोत्तरसूत्रेणापत्ये लुग् न भवति । ब्रह्मणोऽप्रत्यं ब्राह्मणः, जाताविति किम् ? ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मो नारदः ।५८।।
न्या. स. जातो०-नियमार्थमिति व्यक्तिवाचिनस्तु ब्रह्मणोऽपत्येऽणि ब्राह्मः इति भवत्युत्तरेण लोपात् , सूत्राकरणे तु ब्राह्मण इति. न स्यात् । अवर्मणो मनोऽपत्ये ।। ७. ४. ५९ ।।
वर्मनशब्दवजितस्य मन्नन्तस्यापत्यार्थविहितेऽणि परेऽन्त्यस्वरादेल ग भवति । सुषाम्नोऽपत्यं सौषामः, माद्रसामः, भाद्रसामः । अवर्मणं इति किम् ? वक्रवर्मणोऽपत्यं चाक्रवर्मणः । मन इति किम् ? सुत्वनोऽपत्यं सौत्वनः, याज्वनः । अपत्य इति किम् ? चर्मणा छन्नश्चार्मणो रथः ।५९।
न्या० स० अवर्म.-चाक्रवर्मण इति अत्र व्यावृत्तौ सर्वत्र 'नोपदस्य.' ७-४-६१ इत्यनेनापि नान्त्यस्वरादिलोपः 'अणि' ७-४-५२ इत्यनेन निषेधात् । हितनानो वा ॥ ७. ४. ६०॥
हितनामशब्दस्यापत्येऽणि परेऽन्त्यस्वरादेलग् भवति वा। हितनाम्नो. ऽपत्यं हैतनामन:, हैतनामः । अपत्य इति किम् ? हैतनामनः ।६०। नोऽपदस्य तद्धिते ॥ ७. ४. ६१ ॥
नकारान्तानामपदसंज्ञकानां तद्धिते परेऽन्त्यस्वरादेल ग भवति । मेधावि-- नोऽपत्यं मैधावः, मायावः, औडुलोमिः, शारलोमिः, आम्निमिः। द्वयोरह्रोः समाहारो व्यहः, व्यहः । हस्तिनां समूहो हास्तिकम् । न इति किम् ? वैद्युत तेजः । अपदस्येति किम ? मेधाविरूप्यम् मेधाविमयम् । तद्धित इति किम् ? हस्तिना, हस्तिने ।६।। कलापिकुथुमितैतलिजाजलिलाङ्गलिशिखण्डिशिलालिसब्रह्म
चारिपीठसर्पिसूकरसमसुपर्वणः ।। ७. ४. ६२ ॥ कलाप्यादीनां नकारान्तानामपदसंज्ञकानां तद्धिते परेऽन्त्यस्वरादेलम
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। पाद. ४. सू. ६३-६५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३७५ भवति । अत्र ये इन्नन्तास्तेषामनपत्य इति शिखण्डिपीठसपिणोरपत्येऽपि * संयोगादिनः' (७-४-५३) इति सूकरसमसुपर्वणोस्त्वणि (७-४-५२) इति निषेधे प्राप्ते लगवचनम् । कलापिना प्रोक्त वेदमधीयते कालापा:, कौथमाः ।
तैतली, जाजली, लाङ्गली, चाचार्याः । तत्कृतो ग्रन्थोऽप्युपचारात् तच्छब्देनोच्यते । तमधीयते तत्तलाः, जाजलाः, लाङ्गलाः, शिखण्डिन इमेऽपत्यानि चा शैखण्डाः, शिलालिनः शैलालाः, सब्रह्मचारिणः साब्रह्मचारा, पीठसपिणः पैठसर्पाः, सूकरसमनः सौकरसद्याः, सुपर्वणः सौपर्वाः ।६२। वाश्मनो विकारे । ७. ४. ६३ ।।
अश्मनशब्दस्यापदस्य विकारे विहिते तद्धिते परेऽन्त्यस्वरादेल ग्वा भवति । अश्मनो विकारः आश्मः, आश्मनो बा । विकार इति किम् ? आश्मनो मन्त्रः, नित्यमिच्छन्त्येके ।६३१ चर्मशुनः कोशसंकोचे ॥७. ४. ६४ ।।
चर्मन्, श्वन इत्येतयोरपदभूतयोर्यथासंख्यं कोशे संकोचे चार्थे तद्धिते परेऽन्त्यस्वरादेलुग भवति । चर्मणो विकार: कोशश्चार्मः । कोशादन्यत्र चार्मणः । शुनोऽयं शौव: संकोचः, संकोचादन्यत्र शौवनः । कथं शुनो विकारोऽवयवो वा शौवं मासम् शौवं पुच्छमिति ? हैमादित्वादबि 'नोऽपदस्य' -(७-४-६१) इत्येव भविष्यति ।६४।
प्रायोऽव्ययस्य ॥ ७. ४. ६५ ॥ . अव्ययस्यापदसंज्ञकस्य तद्धिते परेऽन्स्यस्वरादेः प्रायो लग भवति । स्वर्भवः सौवः, बहिर्जातो बाह्यः, बाहीकः, सायंप्रातिकः, पौनापुनिकः । “ वर्षाकालेभ्यः' (६-३-७९) इतीकण् । अनभिधानादव्ययलक्षणस्तनट न भवति । पौनःपुन्यम्, उपरिष्टादागतः औपरिष्टः, परत आगतः पारतः, एकैकश्यम् । प्रायोग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम्, तेनेह न भवति । आरातीयः, शाश्वतिकः, शाश्वतः, पार्थक्यम् । अपदस्येत्येव । कंयुः, शंयुः, अहंयुः ।६५।
न्या० स० प्रायो०-सायंप्रातिक इत्यादि अथाव्ययसमुदायोऽव्ययग्रहणेन गृह्यते इति 'सायंचिरम्', ६-३-८८ इति सायंप्रातरादिभ्यस्तनट् कस्मान्न भवति ? इत्याह-अनभिधानादियादि, एकैकश्यमिति एकमेकं ददाति, एकशब्दस्यामन्तस्य वीप्सायां द्वित्वं 'प्लुपचादावेक' ७-४-८१ इत्यमो लुपि बह्वल्पार्थात् ' ७-३-१५० इति कारके शस् , एकैकशो भावः दयण।
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३७६ ॥
बृहदृत्ति-लघुन्याससंवलिते पा० ४. सू० ६६-६८ । आरातीय इत्यादि-'दोरीयः' ६-३-३२ वर्षाकालेभ्यः' ६-३-८० इतीकण, 'भर्तुसंध्यादेरण' ६-३-८९ । अनीनादट्यह्नोऽतः ॥ ७. ४. ६६ ।।
ईन-अत्-अट्वजिते तद्धिते परेऽपदस्याह्नो योऽकारस्तस्य लुग भवति । अह्नां समूहः आम्, अह्ना निर्वृत्तम् आह्निकम्, अनीनादटीति किम् । द्वाभ्यामहोभ्यां निर्वृत्तः द्वाभ्यामहोभ्यां भृतोऽधीष्टो द्वे अहनी भूतो भावी वा व्यहीनः, यहीणः, ‘राज्यहः'-(६-४-११०) इत्यादिनेनः । अति, अन्वहम्, प्रत्यहम् । अटि,-द्वयोरनोः समाहारः ब्यहः, त्र्यहः, उत्तमाहः, परमाहः, पुण्याहम्, सुदिनाहम् ॥६६॥
न्या० स० अनी-द्वयहीन इति 'सर्वा शसंख्या' ७-३-११८ इति विहितमटं परमपि समासान्तं बाधित्वानवकाशत्वात् 'सत्र्यहः संवत्सर' ६-४-११० इतीन एव अन्वहमित्यादि अहरहस्नु, अहरहः प्रति 'योग्यता' ३-१-४० इति वीप्सायामव्ययीभावे नपुंसकाद्वा ' ५-३-८९ इत्यत् । यदा तु अनुगतं प्रतिगतमहः तदा 'अह्नः' ७-३-११६ इत्यर्ट बाधित्वाऽव्ययद्वारेण 'सर्वाश' ७-३-११८ इत्यद अह्लादेशश्च स्यात् । द्वयहः, त्र्यहः, 'द्विगोरनहोऽद' ७-३-९९ । विशतेस्तेर्डिति ।। ७. ४. ६७ ।।
विशतिशब्दस्यापदसंज्ञकस्य यस्तिशब्दस्तस्य डिति तद्धिते परे लुग भवति । विंशत्या क्रीत: विंशकः, विशतिरधिकास्मिन् शते विशं शतम्, एकविंशम्, विशतेः पूरणः विंशः, एकविंशः, आसन्ना विशतिरेषामासन्नविशाः । विशतेरिति किम् ? एकसप्ततेः पूरणः एकसप्ततः, एकाशीतः। तद्धित इत्येव । विशतौ ।६७। अवर्णवर्णस्य ।। ७. ४. ६८ ॥
अवर्णान्तस्येवर्णान्तस्य चापदस्य तद्धिते परे लुग्भवति । निर्दिश्यमानस्वाद वर्णेवर्णयोरेव । दक्ष, दाक्षिः, प्लक्ष, प्लाक्षिः, चूडा, चौडिः, बलाका,बालाकिः, इवर्ण,-नाभि, नाभेयः । संकृतिः, सांकृत्यः, दुली, दौलेयः, रोहिणी,
रौहिणेयः, वत्सं प्रीणातीति वत्सप्रीः तस्या अपत्यं वात्सप्रेयः। अत्र ' चतुष्पाद्य ऐयञ्' (६-१-८३) । परत्वाच्चेयादेशो बाध्यते । श्रायं हविरित्यादिषु तु विशेषविहितत्वात् 'वृद्धिः स्वरे' (७-४-१) इत्यादिना वृद्धिरेव । अपदस्येत्येव । शुक्लतमः, ऊर्णायुः, शुचितरः । तद्धित इत्येव । वक्षे, अग्न्योः ।६८॥
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[पाद ४. सू. ६९-७२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३७७ अकद्रपाण्डवोरुवर्णस्यैये ॥ ७. ४. ६९ ॥
कद्रूपाण्डुशब्दवजितस्य उवर्णान्तस्य एये तद्धिते परे लुग् भवति । कमण्डल्वा अपत्यं कामण्डलेयः, मद्रबाबा माद्रबाहेयः, शिति बाह्वाः शैतिबाहेयः, जम्बा जाम्बेयः, लेखाभ्रवः लैखाभ्रेयः। अत्र परत्वादुवादेशो बाध्यते । अकबूपाण्ड्वोरिति किम् ? काद्रवेयः, पाण्डवेयः । उवर्णस्येति किम् ? वैमात्रयः। एय इति किम् ? माण्डव्यः ।६९।
अस्वयंभुवोऽव् ॥ ७. ४. ७० ॥ __स्वयंभूशब्दवजितस्यापदसंज्ञकस्योवर्णान्तस्य तद्धिते परे अव् इत्ययमादेशो भवति । उपगोरपत्यमोपगवः, कापटवः, बाभ्रव्यः, माण्डव्यः । शङ्कव्यं दारू, पिचव्यः कर्पासः, बाहविः, औपबिन्दविः (औपबाहविः) अस्वयंभुव इति किम् ? स्वायंभुवः ॥७॥ ऋवोवर्णदोसिसुसशश्वदकस्मात्त इकस्येतो लुक् ॥ ७. ४. ७१ ॥
ऋवर्णान्तादुवर्णान्ताद्दोस्शब्दादिसन्तादुसन्ताच्छश्वदकस्माद्विवजितात्तकारान्ताच परस्येकप्रत्ययस्य संबन्धिन इत इकारस्य लग्भवति । मातुरागतं मातृकम्, पैतृकम् । 'ऋत इकण्' (६-३-१५१)। उवर्ण, निषादकवा भवः नैषादकर्षुकः, शाबरजम्बुकः, 'उवर्णादिकण्' (६-३-३८)। दोस्, दोभ्या तरति दौष्कः, इस्, सपिः पण्यमस्य सापिष्कः, बाहिष्कः । उस्, धनुः प्रहरणमस्य धानुष्कः, याजुष्कः, उदश्विता संस्कृत मोदन औदश्वित्कः, शकृता संसृष्टः शाकृत्कः । याकृत्कः । शश्वदकस्मात् प्रतिषेधः किम् ? शश्वद्भवं शाश्वतिकम्, 'वर्षाकालेभ्यः' (६-३-७९) इतीकण्-आकस्मिकम्, अध्यात्मादित्वादिकण। प्रत्ययययोरिसुसोग्रहणादिह न भवति। आशिषा चरति आशिषिकः वसे: कि उस्, उषा चरति औषिकः, मथितं पण्यमस्य माथितिक इत्यत्रापि तान्तत्वस्य लाक्षणिकत्वात् न भवति ।७१। असकृत्संभ्रमे ॥ ७. ४. ७२ ॥
भयादिभिश्चित्तव्याक्षेपात् प्रयोक्तुस्त्वरणं संभ्रमः । तस्मिन्द्योत्ये यत् प्रवर्तते पदं वाक्यं वा तदसकृदनेकवारं प्रयुज्यते ।
अहिरहिः, बुध्यस्व बुध्यस्व, अहिरहिरहिः, बुध्यस्व बुध्यस्व बुध्यस्व, हस्स्यागच्छति हस्त्यागच्छति, लघु पलायध्वं लघु पलायध्वम् । संभ्रमादौ पदं
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३७८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० ७३ ) वाक्यं वा वर्तते न पदावयव इति नासौ असद्विर्वा भवति । तच्च पदं वाक्यं वा परिनिष्पन्नं सत्तत्र वर्तते नापरिनिष्पन्नमिति कृतेषु यत्वादिकार्येषु तदसकृद्विर्वा भवति नाकृतेषु । तेन द्रोग्धा द्रोग्धा, द्रोढा द्रोढेत्येव भवति न तु द्रोग्धा द्रोढा द्रोढा द्रोग्धा । एवं माषवापाणि माषवापाणि, मातुःष्वसा मातुःष्वसा, हीणों हीणः । कृतद्विर्वचनानामपि रूपार्थयोरभेदेन स्थानिवद्भावेन चैकपदत्वात् कौतस्कुतः पौनःपुन्यम् पौनपुनिकः इत्यादिषु तद्धितः सिद्धो भवति ।७२।
न्या० स० अस–असकृद्विति अनेनासकृत् वक्ष्यमाणैस्तु द्विः। कौतस्कुत इति कस्कादौ कौतस्कुतेति पाठादागतेऽर्थे अणेव, न तु 'क्वेहामात्र' ६-३-१६ इति त्यच् । भृशाभीक्ष्ण्याविच्छेदे द्विः प्राक्तमबादेः ॥ ७. ४. ७३ ॥
क्रियायाः साकल्यमवयव क्रियाणां कात्न्यं भृशार्थः । पौनःपुन्यमा-भीक्ष्ण्यम्, सातत्यं क्रियान्तरैरव्यवधानमविच्छेदः । एतेषु द्योत्येषु यत्पदं वाक्यं वा वर्तते तत्तमबादिप्रत्ययेभ्यः प्रागेव द्विरुच्यते। भृशे, लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनाति, अधोध्वाधीष्वेत्येवायमधीते, आभीक्ष्ण्ये, भोज भोज व्रजति, भुक्त्वा भुक्त्वा व जति अविच्छेदे, पचति पचति, अधोते अधोते, ब्रह्मचर्य चरति चरति, प्रपचति प्रपचति, सत्करोति सत्करोति, अलंकरोति अलंकरोति । भृशादयश्च क्रियाधर्मा इति क्रियापदमेवात्र संबध्यते । क्रियाविशेषणस्यापि क्रियात्वेनाध्यवसाय त् भृशादियोगे द्विर्वचनं भवति । यथा पुनःपुनः पचति, भूयो भूयः पठति, वारंवार भुङ्क्ते, मुहुर्मुहुः पिबति, शनैः शनैर्गच्छति, मन्दं मन्द तुदति, स्तोकं स्तोक चलति, पृथक्पृथगभिधत्ते । यदा तु क्रियारूपता न विवक्ष्यते तदा ' नवा गुणः सदशे रित् ' (७-४-८६) इति सादृश्ये द्विर्वचनं भवति । मन्द मन्दं तुदति, स्तोकं स्तोकम् अस्तमयति इति । एतेष्विति किम् लुनीहि, भुक्त्वा व्रजति, पचति । भृशाभीक्ष्ण्ययोर्यङिति यङन्तमुक्तार्थत्वान्न द्विरुच्यते । यदा तु भृशार्थे यङ् तदाभीक्ष्ण्यार्थाभिव्यक्तये द्विर्वचनम् पापच्यते पापच्यत इति । यदा तु तत्प्रतिपादनाय पञ्चमी विधीयते तदा तस्या द्विर्वचनसहायाया एवाभीक्ष्ण्यप्रतिपादने सामर्थ्य क्त्वाणमोरिवेति द्विर्वचनमपि भवति पापच्यस्व पापच्यस्वेति। प्राक्तमबादेरिति किम् ? पचतिपचतितमाम्, पवतिपचतितराम् । अत्र तमबादेरातिशायिकात्पूर्वमेव द्विवचनम् पश्चात्तमवादिः, अन्यथा ह्यनियमः स्यात् ।।७३॥
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[ पाद. ४. सू. ७४-७५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३७९
न्या० स० भृशाभीक्ष्ण्या०-आभीक्ष्ण्यं विच्छेदेनापि स्थित्वा स्थित्वा क्रियाकरणे संभवति, अविच्छेदश्च निरन्तरक्रियाकरणे संभवति इत्यनयोर्भेदः ।
क्रियाविशेषणस्येति यदि क्रियापदमेवात्र संबध्यते तर्हि पुनः पुनः पचतीत्यत्र कथं क्रियाविशेषणस्य द्विवचनम् ? इत्याशका, अस्तमयतीति 'इंण्क् गतौ ' अयनमयः अस्तमयोऽस्तमयः, स इवाचरति क्विपि रूपमिदं इं दुं इत्यस्य वा।
द्विवचनमिति यदा तु आभीक्ष्ण्ये यक् तदा भृशार्थत्यावयवक्रियासाकल्यरूपस्य मध्यपातित्वेन गतार्थत्वाद् विचारो न कृतः। नानावधारणे ॥ ७. ४. ७४ ॥
नानाभूतानां भेदेनेयत्तापरिच्छेदो नानावधारणम् । तस्मिन्यच्छब्दरूपं वर्तते तद्विरुच्यते, योगविभागात्प्राक्तमबादेरिति नानुवर्तते । अस्मात्कार्षापणादिहभवद्भ्यां माष माष देहि, प्रत्येकं माषमात्रं देहि नाधिकमित्यर्थः । द्वौ द्वौ देहि, त्रीन् त्रीन् देहि, एषु कार्षापणसंबन्धिनो माषा न साकल्येन दित्सिताः कि तहि प्रत्येकं माषमात्रमेव द्वावेव त्रय एव वेति न वीप्सास्ति । नानाग्रहणं किम् अस्मात्कार्षापणादिहभवद्धभ्यां माषदेहि । एकमेवेत्यर्थः। अवधारण इति किम् । अस्मात्कार्षापणादिहभवद्भ्यां माषं द्वौ त्रीन्वा देहि ।।७४।।
___ न्या० स० नाना०-भूतानामित्यादि नानाशब्दो नानाभूते माषादौ वर्तते, सस्यावधारणमेकत्वादि नानावधारणमिति न वीप्साऽस्तीति, इह सत्यपि नानावधारणे वीप्सास्त्येव, द्वावपि हि तो माषौ प्रत्येकं दानेन वीप्स्येते, ततो वीप्सायामेव द्विवचनं भविष्यति किमर्थमिदम् ? इत्याह-एषु कार्षापणसंबन्धिन इत्यादि वीप्सा हि द्विरुच्यमानस्य यावन्तोऽर्थभेदास्तावतां प्रत्येक क्रियादिना व्याप्तुमिच्छ। सा न द्वयोस्त्रयाणां वा संबन्धे भवति, अपि तु सर्वेषामेव, अत्र च कार्षापणो नामानेकमाषसमुदायरूपस्तत्र तत्संबन्धिनो माषाः सर्व एव न दातुमिष्टाः किन्तु द्वावेव, वीप्सायां तु सर्व ददात्येव । आधिक्यानुपूष्ये ॥७. ४. ७५ ।।
आधिक्यं प्रकर्षः, आनुपूयं क्रमानुल्लङ्घनम् । एतयोर्यच्छब्दरूपं वर्तते तद्विरुच्यते । आधिक्ये, नमो नमः, अधिकं नम इत्यर्थः । कन्या दर्शनीया कन्या दर्शनीया, अहोदर्शनीया अहोदर्शनीया, मह्य रोचते मह्यं रोचते, एष तवाजलि रेष तवाजलिः, मह्य रोचतेतराम् मह्यं रोचतेतराम, अत्र प्रागातिशायिकः पश्चाद्वित्वम्, आनुपूर्व्य, मूले मूले स्थूलाः, अग्रे भग्रे सूक्ष्माः, ज्येष्ठं ज्येष्ठमनुप्रवेशय, कनिष्ठं कनिष्ठमासय, मूलाद्यानपूपेणैषां स्थौल्पादय इत्यर्थः । अग्रमूलमध्यानि त्रयो भागाः तत्रैकमेव मुख्यमग्रं मूलं च । अन्येषां तु भागानामपेक्षाकृतोऽग्रमूलव्यपदेशः । अधःसन्निविष्टमपेक्ष्याग्र
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३८० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू. ७६-७७ ] व्यपदेशः, उपरिसंनिविष्टमपेक्ष्य मूलव्यपदेशः । न चैकरूपं भागानां स्थौल्यं सौम्यं वा किं तर्हि यथामूलमुपचीयते स्थौल्यम् यथाग्रं च सौम्योपचय इति वीप्सा नास्ति, एवं ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्वयोरपि आपेक्षिकत्वाद्वीप्सा नास्तीति वचनम् ।।७५॥
न्या० स० आधि०-अग्रेअग्रे इति विरामविवक्षणात् 'न सन्धिः' १-३-५२ इति संधिनिषेधः।
वीप्सा नास्तीति साकन्येन व्याप्त्यभावात् । आपेक्षिकत्वादिति साकल्यं नास्ति, न हि ये वृद्धास्ते वृद्धा एव, ये च कनिष्ठास्ते कनिष्ठा एवेति ।। डतरडतमौ समानां स्त्रीभावप्रश्ने ।। ७. ४. ७६ ॥
समानां केनचिद्गुणेन तुल्यतया संप्रधारितानां स्त्रीलिङ्गस्य भावस्य प्रश्ने यद्वर्तते डतरान्तं डतमान्तं च शब्दरूपं तद्विरुच्यते, उभाविमावाढयो कतरा कतरा अनयोराढयता कि देवकृता उत पौरुष कृतेत्यर्थः, कतमा कतमा अनयोराढयता किं साधनसंबन्धकृता उतान्य संबन्धकृता आहोस्विदुभयसंबन्धकृतेत्यर्थः । एवं सर्व इमे आढघाः कतरा कतरा एषामाढयता। कतमा कतमा एषामाढथता। सर्व इमे आढथाः यतरा यतरा एषां विभूतिः ततस ततरा कथ्यताम् । यतमा यतमा एषां संपत्, ततमा ततमा कथ्यताम् । डतरडतमाविति किम् ? उभाविमावाढघौ कानयोराढयता। समानामिति किम ? आढयोऽयं कतरास्याढयता कतमास्याढ्यता। स्रोग्रहणं किम् ? उभाविमावाढयौ कतरदनयोराढयत्वम् । कतमोऽनयोविभवः। भावग्रहणं किम् ? उभाविमौ लक्ष्मीवन्तौ कतरानयोर्लक्ष्मीः। कतमानयोर्लक्ष्मीः । लक्ष्यतेऽनया पुण्यकर्मेति लक्ष्मीः, इयं स्त्री भवति न भाव इति । प्रश्न इति किम् ? उभाविमावाढयौ यतरानयोराढयता ततरा भ्रूयताम् । केचिड्डतरडतमाभ्यां स्त्रीलिङ्गाच्चान्यत्रापीच्छन्ति । उभाविमावाढयौ कीदृशी कीदृशी अनयोराढयता । कतरत्कतरदनयोराढयत्वम्, कतमः कतमोऽनयोविभवः। कतरानयौराढयतेत्यादी प्राप्ते स्वार्थिकं द्विर्वचनम् ॥७६॥ पूर्वप्रथमावन्यतोऽतिशये ॥ ७. ४. ७७ ॥
पूर्वशब्दः प्रथमशब्दश्चान्यतोऽतिशये तदर्थस्य प्रकर्षे द्योत्ये द्विरुच्यते, आतिशायिकापवाद: । पूर्व पूर्व पुष्यन्ति, प्रथमं प्रथमं पच्यन्ते, अन्येभ्यः पूर्वतरं पुष्यन्ति, प्रथमतरं पच्यन्त इत्यर्थः । अन्यत इति किम् ? पूर्वतरं पष्यन्ति, प्रथमतरं पच्यन्ते । अत्र स्वव्यापारापेक्षातिशयो गम्यते न तावदिसे
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| पाद. ४. सू. ७८-८० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [ ३८१ किसलयिता यावत्पुष्पिताः, न तावदिमे पुष्पिता यावत्पक्त्रा इति । अतिशय इति किम् ? पूर्वं प्रथमम् । अन्येऽतिशयमात्रेऽपि द्विर्वचनमिच्छन्ति तमप्तरबर्थं च विकल्पम् ॥७७॥
न्या० स० पूर्व०—तदर्थस्येति प्रकर्षो ह्यर्थस्य भवति तद्धर्मत्वात्, ततश्च द्विर्वचनभाजोः पूर्व प्रथम शब्दयोरेव प्रत्यासत्तेर्विज्ञायत इति । न तावदिमे इति क्रमो हि किशलयानन्तरं पुष्पं तत्त्यागे न प्रथममेव पुष्पमेवं पुष्परित्यागे न फलमिति ।
प्रोपोत्सं पादपूरणे ।। ७.४. ७८ ॥
प्र, उप, उत्, सम् इत्येतान्युपसर्गरूपाणि द्विरुच्यन्ते तेन चेत् पादः
पूर्यते ॥
प्र प्रशान्तकषायाग्नेरुपोपप्लववर्जितम् ॥ उदुज्ज्वलं तपो यस्य संसंश्रयत तं जिनम् ||१|| पादपूरण इति किम् ? प्रणम्य सच्छासनवर्धमानम् । इदं छन्दसीति कश्चित् ॥७८॥ सामीप्येsssयुपरि ।। ७.४. ७९ ॥1
अधस्, अधि, उपरि इत्येतानि शब्दरूपाणि द्विरुच्यन्ते सामीप्ये विवक्षिते । सामीप्यं देशकृता कालकृता वा प्रत्यासत्तिः । अधोऽधो ग्रामम्, अध्यधि ग्रामम्, उपर्युपरि ग्रामम्, उपर्युपरि दुःखानि, सामीप्य इति किम् ? अधः पन्नगाः, अधि ब्रह्मदत्ते पञ्चाला, उपरि चन्द्रमाः, कथमुपरि शिरसो घट इति ? अत्रौत्तराधर्यमात्रं विवक्षितम् न सदपि सामीप्यमिति न भवति । यथायथमिति मकारान्तमव्ययं यथास्वमित्यर्थे आश्रीयते इति यथास्वे यथायथमिति नारभ्यते ॥ ७९ ॥
वीप्सायाम् ।। ७. ४८० ।।
पृथक्संख्यायुक्तानां बहूनां सजातीयानामर्थानां साकल्पेन प्रत्येकं क्रियया गुमेन द्रव्येण जात्या वा युगपत्प्रयं । क्तुर्व्याप्तुमिच्छा बीप्सा, तस्यां यद्वर्तते शब्दरूपं तद्विरुच्यते । वीप्सा च स्याद्यन्तेष्वेव भवतीति तेषामेव द्विवचनम् । वृक्षं वृक्षं सिञ्चति, ग्रामो ग्रामो रमणीयः, गृहे गृहे अश्वाः, योद्धा योद्धा क्षत्रियः, तथा रूपं रूपं पश्यति, शुक्लं शुक्लमानयति, क्रियां क्रियामारभते । उपचरितभेदस्यापि भवति । खिन्नः खिन्नो विश्राम्यति, क्षीणः क्षीणः पयः पिबति । व्यापकधर्मस्यापि व्याप्येनाभेदोपचाराद्भेदे सति व्याप कान्तरापेक्षायां वीप्सा भवति । स एवान्योऽन्यः संपद्यते । नबो नवो भवति
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३८२]
बृहदृत्ति-लघुन्याससंवलिते (पा० ४. सू० ८० ] जायमान इति । आढचतरमाढचतरमानय । अत्र द्विवचनात्प्रागातिशायिकः । वीप्सायामिति किम् ? वृक्षं सिञ्चति । जात्येक शेषतरेतरयोगक्रमाभिधानेषु सत्यामपि व्याप्तौ यथोक्तलक्षणवीप्साया अभावान्न भवति । तथाहि-संपन्नो यवः संपन्ना यवा इति जातेरेकत्वात् बह्वर्थाभिधानं नास्ति । अस्मिन्वने वृक्षाः शोभना इति एक शेषे साकल्येन व्याप्तिर्नास्ति । तथाहि-कतिपयेष्वपि वृक्षेषु शोभनेष्वयं प्रयोगो भवति । एवमितरेतरयोगेऽपि । अस्मिन्वने धवखदिरपलाशाः शोभना इति न वीप्सा, तथास्मिन्वनेऽयं वृक्षः शोभनोऽयं वृक्षः शोभन इति क्रमाभिधाने साकल्येनापि व्याप्ती योगपद्याभावान्न भवति । अस्मिन्वने सर्वे वृक्षाः शोभना इत्यत्र तु सर्वशब्देन वीप्सार्थाभिधानान्न भवति । यथा तद्धितसमासाभ्याम् । तद्धितेन तावत्, द्वौ द्वौ पादौ ददाति द्विपदिकां ददाति, एकैकं ददाति एकशो ददाति, एकैकशो ददातीत्यत्र वीप्सायां द्विर्वचने कृते 'वह्वल्पार्थात् '-(७-२-५०) इति कारके प्रशस् भविष्यति । समा. सेनापि, अर्थमर्थं प्रति प्रत्यर्थम्, गेहंगेहमनुप्रवेशमास्ते गेहानुप्रवेशमास्ते, कचित्तु वीप्स्यमानमपि समासेनाभिधीयते । पर्वणि पर्वणि सप्त पर्णान्यस्य सप्तपर्णः, पङ्क्ती पङ्क्ती अष्टौ पदान्यस्य अष्टापदः, ननु च वृक्षं वृक्षं सिञ्चतीत्यादौ वीप्सायां बहवोऽर्थाः प्रतीयन्ते तत्र बहुषु बहुवचनं प्राप्नोति? उच्यते-पृथक्संख्यायुक्तानामिति वचनात परिगृहीतैकत्वादिसंख्यानां पदार्थानां वीप्सया योग इति पुनः समुदायाद्वहुवचनं न भवति ।८।
न्या० स० वीप्सायाम्-उपचरितमेदत्येति एकस्यापि देशकालावस्थादिभेदेन भेदोपचारादनेकत्वाद् वीप्सायां द्विर्वचनविरोध इत्यर्थः।।
व्यापकधर्मस्यापीत्यादि अत्रेयमाशङ्का-यदुतान्योन्यः संपद्यत इत्यादिषु
अन्यत्वादिधर्म एक एव तत्कथं वीप्सा! इत्याह-व्यापकधर्मोऽन्यत्वादिः। जीवश्च व्याप्यः, स च जीवः कदाचिद् हस्ती भवति कदाचिन्नरः कदाचित् शगाल इत्यनेकभेदः, व्यापकधर्मस्य व्याप्येन सहाभेदोपचारात् भेदत्वं व्यापकधर्मस्य भेदे नानात्वे सति व्यापकान्तरापेक्षायां भवति, संपद्यत इत्यादिक्रियारूपायां वोप्सा भवति, यतः क्रियादिना व्याप्तुमिच्छा वीप्सा इति क्रियादिव्यापकः।
यथाऽन्योऽन्यः संपद्यते स एव जीवोऽन्योऽन्यो भवति । कोऽर्थः ? कदाचिद् हस्ती नरः ३वा च भवतीति व्याप्यभूतो जीवोऽनेकप्रकारः तद्भेदादु व्यापकधमोप्यनेकप्रकार: नती बहूनामर्थानामित्यादि यद्वीसालक्षणं तद् घटत एव, एवं नवो नवो भवति जायमान इत्यत्रापि ।
ननु तस्यैवान्यत्वमन्यत्वं इत्यर्थः तस्य च जायमानस्य नवत्वं भवतीत्यर्थ इत्यनयोः प्रयोगयोरर्थः, तत्कथं स एवान्योन्यः संपद्यते स एव नवो नवो भवति जायमान इति सामानाधिकरण्यं स्यात् ! उच्यते, धर्मधर्मिणो भेदनयेन भविष्यतीति ।
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पाद. ४. सू. ८१-८३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३८३ प्लुप चादावेकस्य स्यादेः ॥ ७. ४. ८१ ॥
एकशब्दस्य वीप्सायां द्विरुक्तस्यादौ वर्तते य एकशब्दस्तत्संबन्धिनः स्यादेः प्लुप् भवति, पित्करणं पुवद्भावार्थम् । अत एवातद्धितेऽपि लुपि पुवद्भावः । एकैकः, एकैका, एकैकस्याः, एकएका, एकएकस्याः, अत्र विरामस्य विवक्षितत्वात्पुवद्भावे सति संधिकार्य न भवति । यथा अग्रे अग्रे सूक्ष्माः, यथा वा, ऋक ऋगिति । आदिपदस्य स्यादेः प्लप्युत्तरेणाभेदाश्रयणे स्याद्यन्तत्वात् 'सर्वादयोऽस्यादौ' (३-२-६१) इति पुवद्भावो न प्राप्नोतीति लुपः पित्त्वं विधीयते । चकार उत्तरत्र प्लुपद्विवंचनयोः समुच्चयार्थः । इह तु द्विवचनं पूर्वेणैव सिद्धम् । प्लुप्मात्रं विधीयते । आदाविति किम् ? उत्तरोक्तो मा भूत् ।८१।
न्या० स० प्लुप् चा.-आदिपदस्येत्यादि ननु चात्र स्यादेलपा निवृत्तेः 'सर्वादयोऽस्यादौ' ३-२-६१ इति पुंवद्भाषो भविष्यति किं पित्त्वविधानेन ? इत्याशा । द्वन्दं वा ॥ ७. ४. ८२ ॥
द्वन्द्वमिति वीप्सायां द्विरुक्तस्य द्विशब्दस्यादौ स्यादेः प्लप इकारस्याम् भाव उत्तरत्रेकारस्यात्वं स्यादेश्चाम्भावो वा निपात्यते । द्वन्द्वं तिष्ठतः, द्वौ द्वौ तिष्ठतः । नरकपटलान्यधोऽधोद्वन्द्वं हीनानि । द्वाभ्यां द्वाभ्यां हीनानि द्वन्द्वं युद्धं वर्तते । द्वयोर्द्वयोर्युद्धं वर्तते द्वन्द्वं कृतं द्वाभ्यां द्वाभ्यां द्वाभ्यां कृतम्, द्वन्द्वं स्थितं द्वयोर्द्वयोः स्थितम् ।८२॥ रहस्यमर्यादोक्तिव्युत्क्रान्तियज्ञपात्रप्रयोगे ॥ ७. ४. ८३ ।।
वीप्सायामिति निवृत्तम् । द्वन्द्वमिति द्विशब्दस्य द्विवचनं शेषं पूर्ववत् रहस्यादिषु गम्यमानेषु निपात्यते । रहस्ये, द्वन्द्वं मन्त्रयन्ते, रहस्यं मन्त्रयन्त इत्यर्थः। मर्यादोक्तौ, आचतुरं हीमे पशवो द्वन्द्वं मिथुनायन्ते । माता पुत्रेण पौत्रेण प्रपौत्रेण तत्पुत्रेण च मैथुनं यातीत्यर्थः। व्युत्क्रान्ती, द्वन्द्वं व्युत्क्रान्ताः द्वैराश्येन भिन्ना इत्यर्थः । व्युत्क्रान्तिर्भेदः । यज्ञपात्र प्रयोगे, द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति । द्वे द्वे प्रयुनक्तीत्यर्थः। रहस्यादिष्विति किम् ? द्वौ तिष्ठतः। उक्तिग्रहणं शब्दोपात्तायां मर्यादायां यथा स्यात् प्रकरणादिगम्यायां मा भूदित्येवमर्थम् । द्वन्द्व : समासः, द्वन्द्वः कलहः, द्वन्द्वं युद्ध, द्वन्द्वं युग्मम्, द्वन्द्वानि सहते, दुःखानीत्यर्थः । अत्र द्वन्द्व इति शब्दान्तरम् ।८३।
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३८४ ] बृहवृत्ति-लघुन्याससंलिते [पाद. ४ सू० ८४-८७ ]
न्या० स० रहस्य०-रहस्यं मन्त्रयन्त इत्यर्थ इति अत्र द्वंद्वशब्दो रहस्यार्थः, न तु द्विशब्दार्थः संख्या काचिदस्ति, यदनेकार्थः
'द्वंद्वः स द्वंद्वमाहवे रहस्ये मिथुने युग्मे' इति । लोकज्ञातेत्यन्तसाहचर्ये ॥ ७. ४. ८४ ॥
लोकज्ञातेऽत्यन्तसाहचर्ये घोत्ये द्विशब्दस्य पूर्ववत् द्वन्द्वमिति निपात्यते। द्वन्द्वं नारदपर्वतो, द्वन्द्वं रामलक्ष्मणौ, द्वन्द्व बलदेववासुदेवी, द्वन्द्वं स्कन्दविशाखौ, द्वन्द्वं शिववैश्रवणौ। लोकज्ञात इति किम् ? द्वौ चैत्रमैत्री । अत्यन्त साहचर्य इति किम् ? द्वौ युधिष्ठिरार्जुनौ । द्वन्द्वमिति च सूत्रत्रयेऽपि नपुंसकम् वेदितव्यमनुप्रयोगस्य नपुंसकत्वार्थम् ॥८४।। आबाधे ॥ ७. ४. ८५॥
आबाधो मन:-पीडा प्रयोक्तृधर्मः, तस्मिन् विषये वर्तमानं शब्दरूपं दिरुच्यते तत्र चादौ पूर्वपदे स्यादेः प्लुप् भवति । ऋक ऋक्, पू: पूः, गतगतः, नष्टनष्टः, गतगता, नष्टनष्टा । नन करोमि । ऋगादेर्दुरुच्चारणादिना पीडद्यमान: प्रयोक्ता एवं प्रयुङ्क्ते । अष्टमी अष्टमी कालिका कालिका इत्यत्र तु पूरणप्रत्ययान्तत्वात् कोपान्त्यत्वाच्च पुवद्भावो न भवति ।।८५॥
न्या. स. आबा.-कालिकाकालिकेति 'गौरादिभ्य' २-४-१९ इति ड्या काल्येव यावादिभ्यः कः' ७-३-१५॥ नवा गुणः सदशे रित् ॥ ७. ४. ८६ ॥
गुणशब्दो मुख्यसदृशे गुणे गुणिनि वा वर्तमानो वा द्विरुच्यते तत्र चादी वर्तमानस्य स्यादेः प्लुप् भवति सा च रित् । रित्करणं प्रतिपिद्धस्यापि पुंवद्भावस्य ' रिति ' (३-२-५८) इति विधानार्थम् । शुक्लशुक्लं रूपम्, शुक्लशुक्ल: पटः, कालककालिका, शुक्लादिसदृशमपरिपूर्णगुणमेवमुच्यते। वाग्रहणात्पक्षे जातीयरपि भवति । शुक्लजातीयः, पटुजातीयः । गुण इति किम ? अग्निर्माणवकः, गौर्वाहीकः । सदा गुणवाची यः स इह गणशब्दो गह्यते । अयं तूपमानात्प्रारद्रव्यवाची पश्चात्तु तैक्ष्ण्य जाड्यादिगुणवाचीति न भवति । सदृश इति किम् ? शुक्लः पटः, पटुश्चत्रः ।८६।
न्या० स० नवा-कालककालिकेति 'भाजगो' २-४-३० इति ज्यां काल्येव कालिका । प्रियसुखं चाकृच्छे ॥ ७. ४. ८७ ॥
प्रिय सुखशब्दो अकृच्छे क्लेशाभावे वा द्विरुच्येते तत्र चादौ शब्दरूपस्य
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[पाद. ४. सू, ८८-८९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [३८५ स्यादेः प्लप् भवति । प्रिय प्रियेण ददाति । प्रियेण ददाति । सुखसुखेनाधीते सुखेनाधीते, अक्लेशेनाधीते इत्यर्थः । अकृच्छ इति किम् ? प्रियः पुत्रः, सुखो रथः । चकारः प्लुप् चादौ स्यादेः इत्यस्यानकर्षणार्थः ।८७। वाक्यस्य परिवर्जने ॥ ७. ४. ८८ ॥
वाक्यस्यावयवो यः परिशब्दो न पदस्य स वर्जने वर्तमानो वा द्विरुच्यते । परिपरि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो मेघः, परि त्रिगर्तेभ्यो वष्टो मेघः, परिपरि सौवीरेभ्यः, परि सौवीरेभ्यः। वाक्यस्येति किम् ? परित्रिगतं वृष्टो मेघः । वाक्यस्यैवेत्यवधारणविज्ञानात्पदावयवे न भवति । परिरिति किम् ? अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो मेघः । वर्जन इति किम् । साधुर्देवदत्तो मातरं परि ८८।
न्या० स० वाक्य-वाक्यस्यैवेति । यद्यपि यः पदावयवः स वाक्यस्यापि तथापि यो वाक्य यैव भवतीति । ननु परिशब्दो नावाक्यावयवः कश्चिदस्ति सर्वमपि हि पदं वाक्यावयवे प्रयुज्यते वाक्यावयवत्वात् संव्यवहारस्य संव्यवहारार्थत्वाञ्च शब्दप्रयोगस्य, न च परिशब्दः केवलः प्रयुज्यमानो वर्जनं गमयति द्योतकत्वात, द्योतको हि कस्यचित् संनिधावेव प्रयुज्यमानो द्योत्यं द्योतयतीति वाक्यावयवत्वे सिद्धे वाक्यावयवत्वप्रतिपत्त्यर्थ वाक्यस्येत्यनर्थकम् , ततश्च सिद्धे सति नियमः । संमत्यसूयाकोपकुत्सनेष्वाद्यामन्त्र्यमादौ स्वरेष्वन्त्यश्च प्लुतः
॥७. ४.८९ ।। कार्येष्वाभिमत्यं सम्मतिः पूजनं वा । परगुणासहनमसूया, कोपः क्रोधः, निन्दा कुत्सनम् । एते प्रयोक्तृधर्मा नाभिधेयधर्माः । एतेष्वर्थेषु वर्तमानस्य वाक्यस्यादिभूतमामन्त्र्य मामन्त्रणीयार्थं पदं द्विरुच्यते, तत्र द्विवचने आदौ पूर्वोक्तो स्वरेषु स्वराणां मध्ये योऽन्त्यस्वरः स प्लुतो वा भवति । संमत्यसूयाकोपकुत्सनेष्विति बहुवचनात् द्विर्षचने विकल्पो न सबध्यते । संमती, माणवक ३ माणवक माणवक माणवक अभिरूपक ३ अभिरूपक अभिरूपक अभिरूपक शोभन: खल्वसि । असूयायाम्, माणवक ३ माणवक माणवक माणवक अभिरूपक ३ अभिरूपक अभिरूपक अभिरूपक रिक्त ते आभिरूप्यम। कोपे, माणवक ३ माणवक माणवक माणवक अविनीतक ३ अविनीतक अविनीतक अविनीतक इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म । कुत्सने, शक्तिके ३ शक्तिके शक्तिके शक्तिके यष्टिके ३ यष्टिके यष्टिके यष्टिके रिक्ता ते शक्तिः । संमत्यसूयाकोपकुत्सनेष्विति किम् । देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेन । आदीति किम् ? शोभनः खल्वसि माणवक । आमन्त्र्य मिति किम् ? उदारो देवदत्तः ।
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३८६ ] बृहदुवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० ९०-९२ ] आदाविति किम् ? उत्तरीक्ती मा भूत् । स्वरेष्विति किम् । व्यञ्जनान्तस्यापि यथा स्यात् । अन्त्य इति किम् ? आदिमध्यो वा मा भूत् । चकारो द्विर्वचनानुकर्षणार्थः । तथा च चानुकृष्टत्वादुत्तरत्र नानुवर्तते ।८९। भर्सने पर्यायेण ॥ ७. ४. ९० ॥
भसनं कोपेन दण्डाविष्करणम्, तत्र द्विवचनं सिद्धमेव प्लुतार्थ आरम्भः। भर्त्सने वर्तमानस्य वाक्यस्य यदामन्त्र्यं पदं तद्विरुच्यते। तत्र पर्यायेण पूर्वस्यामुत्तरस्यां वोक्तो स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लतो वा भवति । चौर ३ चौर, चौर चौर ३, चौर चौर, दस्यो ३ दस्यो, दस्यो दस्यो ३, दस्यो दस्यो घातयिष्यामि त्वां, बन्धयिष्यामि त्वाम् ।९।। त्यादेः साकाङ्क्षस्याङ्गेन ॥ ७. ४. ९१ ॥
वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः प्लतो वेत्यनुवर्तते भर्त्सन इति च, भर्त्सने वर्तमानस्य वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरस्याद्यन्तस्य पदस्य वाक्यान्तराकाङ्क्षस्य अङ्ग इत्यनेन निपातेन युक्तस्य संबन्धी प्लुतो वा भवति । अङ्ग कूज ३ अङ्ग कूज इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म अङ्ग व्याहर ३ अङ्ग व्याहर इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म । त्यादेरिति किम् ? अङ्ग देवदत्त मिथ्या वदसि । साका
क्षस्येति किम् ? अङ्ग पच, नैतदपरमाकाक्षति । अनेनेति किम् ? देवदत्त कजेदानीं ज्ञास्यसि जाल्म । भर्त्सन इत्येव । अङ्गाधीष्व मोदकं ते दास्यामि ।९१॥
न्या० स. त्यादे०- अग पचेति अत्राङ्गशब्दात् 'सम्मत्यसूया' ७-४-८९ इति 'भर्सने प' ७-४-९० इति च सूत्रेण प्लुतो. द्विवचनं च न भवति' यतोऽनयोरामन्त्र्ये आमन्त्रणीयार्थे यत्पदं वर्तते तद् गृह्यते, अङ्गेति च पदमामन्त्रणमेव द्योतयति न त्वामन्त्र्यम्।
देवदत्त कूजेत्यादि नन्वत्र भर्त्सनस्य विद्यमानत्वात् 'सम्मत्यसूया' ७-४-८९ इत्यनेनाद्यामन्त्र्यस्य द्वित्वं प्लुतश्च कस्मान्न भवति?
उच्यते, वाक्यैकदेशत्वान्न भवति, अत्र हि परमदेवदत्तेत्यादि महद्वाक्यमस्तीति न प्लुतः। क्षियाशीः श्रेषे ॥ ७. ४. ९२ ॥
क्षिया आचारभ्रेषः, आशीः प्रार्थना विशेषः, प्रेषोऽसत्कारपूविका व्यापारणा, एतेषु वर्तमानस्य वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरस्त्याद्यन्तस्य पदस्य वाक्यान्तराकाक्षस्य संबन्धी प्लुतो वा भवति ।
क्षियायाम, स्वयं ह रथेन याति ३ उपाध्यायं पदाति गमयति, स्वयं
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। पाद. ४. सू. ९३-९५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [ ३८७ ह रथेन याति उपाध्यायं पदाति गमयति, स्वयं ह ओदनं भुङ्क्ते ३ उपाध्याय सक्तून् पाययति, स्वयं ह ओदनं भुङ्क्त उपाध्यायं सक्तून् पाययति । आशिषि, सिद्धान्तमध्येषीष्ठाः ३ व्याकरणं च तात, सिद्धान्तमध्येषीष्ठा व्याकरणं च तात, पुत्रांश्च लप्सोष्ठाः ३ धनं च तात, पुत्रांश्च लप्सीष्ठाः धनं च तात । प्रेषे, त्वं ह पूर्व ग्रामं गच्छ ३ चैत्रो दक्षिणम्, त्वं ह पूर्व ग्रामं गच्छ चैत्रो दक्षिणम् । कटं च कुरु ३ ग्रामं च गच्छ ३, कटं च कुरु ग्रामं च गच्छ । त्यादेरित्येव । भवता खलु कटः कर्तव्यः ग्रामश्च गन्तव्यः । साकाङ्क्षस्येत्येव । दीर्घ ते आयुरस्तु ।९२। चितीवार्थ ।। ७. ४. ९३ ॥
___ इवार्थे उपमायां वर्तमाने चित् इत्यस्मिन्निपाते प्रयुज्यमाने वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लुतो वा भवति । अग्निश्चिद्धाया३त् अग्निश्चि । यात् । राजा चिदभूयात्, राजा चिद्भूयात् । अग्निरिव राजेवेत्यर्थः । चितीति किम् ? अग्निरिव भायात् । चितीति रूपसत्ताश्रयणादप्रयोगे न भवति । अग्निर्माणवको भायात् । इवार्थ इति किम् ? कर्णवेष्टकांश्चित्कारय । कर्णवेष्टकानेवेत्यर्थः । कथंचिदाहुः कृच्छ्रणाहुरित्यर्थः ।।३।। प्रतिश्रवणनिगृह्यानुयोगे ॥ ७. ४. ९४ ॥
प्रतिश्रवणं परोक्तस्याभ्युपगमः स्वयं प्रतिज्ञानं श्रवणाभिमुख्यं च, निगृह्य स्वमतात्प्रच्याव्यानुयोगो निग्रहपदस्याविष्करणं निगृह्यानुयोगः । उपालम्भ इति यावत् । एतयोर्वर्तमानस्य वाक्यस्य खरेष्वन्त्यस्वरः प्लुतो वा भवति । अभ्युपगमे,-गां मे देहि भोः, हन्त ते ददामि ३, हन्त ते ददामि। स्वयं प्रतिज्ञाने, नित्यः शब्दो भवितुमर्हति ३, नित्यः शब्दो भवितुमर्हति । श्रवणाभिमुख्ये,-भो देवदत्त कि मार्ष ३, कि मार्ष । मार्षेति श्रवणाभिमुख्यद्योतको निपातः । निगृह्यानुयोगे, अद्य श्राद्धमित्यात्थ ३ । अद्य श्राद्धमित्यात्थ । अझ श्राद्धेति वादी युक्त्या स्वमतात्तच्याव्यवमुपालभ्यते ।।४। विचारे पूर्वस्य ॥ ७. ४. ९५ ॥
किमिदं स्यात् किमिदमिति निरूपणं विचारः संशय इति यावत् । तस्मिन् विषये संशय्यमानस्य यत्पूर्व तस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः पलतो वा भवति । अहिर्नु ३ रज्जुन, अहिर्न रज्जुर्नु, स्थाणुर्नु ३ पुरुषो नु, स्थाणुर्नु पुरुषोनु ।६५।
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३८८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू. ९६-९९ । ओमःप्रारम्भे ॥ ७. ४. ९६ ॥
प्रारम्भे प्रणामादेरभ्यादाने वर्तमानस्य ओमशब्दस्य स्वरेष्वन्त्यःस्वरः प्लुतो वा भवति । ओ ३ म् ऋषभं पवित्रम्, ओमृषभं पवित्रम्, एवम् ओ ३ म ऋषभमृषभगामिनं प्रणमत २। ओ ३ म् अग्निमीले पुरोहितम् । प्रारम्भ इति किम् ? ओं ददामि । ओमत्राभ्युपगमे ।९६। __ न्या० स० ओमः-- प्रणामादेरिति ओम् इत्यस्य प्लुतविधानात् प्रणामादेरेव प्रारम्भो गम्यते । हेः प्रश्नाख्याने ।। ७. ४. ९७ ॥
प्रश्नस्याख्याने पृष्टप्रतिवचने वर्तमानस्य वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरो हिशब्दसंबन्धी प्लुतो वा भवति । अकार्षीः कटं देवदत्त, अकार्ष हि ३, अकार्षं हि । अलावीः केदारं देवदत्त, अलाविषं हि ३ । अलाविषं हि । हेरिति किम् ? अकार्षीः कटं देवदत्त, करोमि ननु । प्रश्नग्रहणं किम् । कटं देवदत्ताकार्ष हि । अप्रश्नपूर्वक आख्याने न भवति । आख्यानग्रहणं किम् ? देवदत्त कटमकार्षीहि । उत्तरेण सिद्धे नियमार्थं वचनम् । हेः प्रश्नाख्यान एव हेः प्रश्नाख्याने वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्य एव प्लुत इति च ।९७।
न्या० स० हेः प्रश्ना-नियमार्थमिति अत्र हेः प्रश्नाख्यान एवेति नियमेन देवदत्त कटमकार्षीहीति प्रश्ने प्लुतो निवर्त्यते, हेः प्रश्नाख्याने वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्य एव प्लुत इत्यनेन तु अकार्ष हि कटमित्यनन्त्यस्य न भवति, एतन्नियमद्वयमुपलक्षणं हेरेव प्रश्नाख्याने वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लुतो भवतीत्यपि नियमो द्रष्टव्यस्तेन करोमि नन्विति हि सजातीयस्य निपातान्तरस्य प्लुतो निवर्त्यते । अगमः ३ पूर्वा ३ न पामा ३ नित्यादावनिपातस्य विजातीयस्य भवत्येव । प्रश्ने च प्रतिपदम् ॥ ७. ४. ९८ ।।
प्रश्ने प्रश्नाख्याने च वर्तमानस्य वाक्यस्य संबन्धिनः पदस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरः प्लुतो वा भवति । प्रश्ने, अगमः ३ पूर्वा ३ न् ग्रामा ३ न देवदत्त ३, अगमः पूर्वान् ग्रामान् देवदत्त । प्रश्नाख्याने, अगम ३ म् पूर्वा ३ न ग्रामा ३ न जिनदत्त ३ । अगमम्पूर्वान् ग्रामान् जिनदत्त । प्रश्ने चेति किम् ? देवदत्त ग्रामं गच्छ । प्रतिपदमिति किम् ? वाक्यस्यैवान्त्यः स्वरः प्लुतो मा भूत् ।९८॥ दूरादामन्त्र्यस्य गुरुवैकोऽनन्त्योऽपि लनृत् ।। ७. ४. ९९ ॥
यत्र प्राकृतात्प्रयत्नात्प्रयत्नविशेष आश्रीयमाणे संदेहो भवति किमयं श्रोष्यति नवेति तदूरम् । वाक्यस्य यः स्वरेष्वन्त्यः स्वरो दूरादामन्त्र्यस्य
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HHI
[पाद. ४. सू. ९९-१०० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३८९ पदस्य संबन्धी गुरुर्वानन्त्योऽपि ऋकारवजितः स्वर लकारश्चैको दूरादामन्त्र्यस्यैव संबन्धी स प्लुतो वा भवति । आगच्छ भो माणव कपिलक ३, आगच्छ भो माणव कपिलक । आगच्छ भो देवदत्त ३, आगच्छ भो देवदत्त । आगच्छ भो इन्द्रभूते ३, आगच्छ भो इन्द्रभूते । आगच्छ भोः कलप्तशिख ३, आगच्छ भोः कलप्तशिख । गुरुवैकोऽनन्त्योऽपि लनृत, सक्तून् पिब दे ३ वदत्त । सक्तून् पिब देवदत्त । आगच्छ भो इ ३ न्द्रभूते, आगच्छ भो इन्द्रभू३ ते । आगच्छ भो न ३षभ, आगच्छ भो नृषभ । आगच्छ भोः कलु३प्तशिख, आगच्छ भोः क्लप्तशिख । महाविभाषयैव प्लुतविकल्पे सिद्धे वाग्रहणं न विकल्यार्थं कित्वन्यप्लुतेन सह गुरोः असमावेशार्थम् । तेन क्ल ३ प्तशिख ३ इति न भवति । दूरादिति किम् ? शृणु देवदत्त । आमन्न्यस्येति किम् ? आगच्छतु देवदत्तः। प्रधाने कार्यसंप्रत्ययादिह न भवति। आगच्छ भोः कपिलक माणव,-अत्र माणवेति कपिलक इत्यस्य विशेषणमित्यप्रधानता । गुरुरिति किम् ? अनन्त्यस्य लघोर्मा भूत् । एक इति किम् ? अनेकस्य गुरोर्योगपद्येन मा भूत् । अनन्त्योऽपीति किम् ? अन्त्यस्यैव मा भूत, लकारग्रहणमनदिति प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थम् । अथ ऋतः प्रतिषेधे लकारस्य कः प्रसङ्गः ? उच्यते,-इदमेव ज्ञापकमवर्णग्रहणे लवर्णस्यापि ग्रहणं भवतोति, तेनाचीकलपदित्यादौ ऋवर्णकार्यम् लवर्णस्यापि सिद्धं भवति । अनदिति किम् ? कृष्णमि ३ स्त्र । कृष्णमित्र ३ । अनूदिति गुरुविशिष्यते न स्वरेष्वन्त्यस्तेनेहापि भवति । आगच्छ भोः कर्तृ ३, आगच्छ भोः कर्तृ । वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः प्लुत इत्यनुवृत्तेरिह न भवति । देवदत्त अहो आगच्छ, अभिपूजितेऽपि दूरादामन्त्र्यस्यैव प्लुत इष्यते इति अभिपूजिते चेति नारम्भणीयम्, शोभनः खल्वसि माणवक ३। शोभनः खल्वसि माणवक ।९९।
न्या० स० दूरा० ऋकारवर्जित इति गुरोरेव विशेषणम् । ऋकारवर्जितः स्वर लकारश्चेति । असमावेशार्थमिति तेन यदान्त्यस्य प्लुतस्तदान्त्यस्येव न तु गुरोः, यदा तु गुरोस्तदा गुरोरेव न त्वन्त्यस्येत्यर्थः । ऋवणकार्यमिति-लुवर्णस्येति 'ऋतोऽत्' ४-१-३८ इत्येवंविधम् ऋवर्णस्य इत्यनेन लुकारस्यापि मध्ये गुणबाधनार्थम् लकारः। हेहैष्वेषामेव ॥ ७. ४. १०० ॥
दुरादामध्यस्य संबन्धिनौ यौ हेहैशब्दो को च तो यौ तदामन्त्रणे वर्तेते तयोः प्रयुज्यमानयोस्तयोरेव वाक्ये यत्रतत्रस्थयोरन्त्यः स्वरः प्लुतो वा भवति । हे ३ देवदत्त आगच्छ, आगच्छ हे ३ देवदत्त, आगच्छ देवदत्त हे
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३९० ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
[ पाद. ४ सू० १०१ ] ३, है ३, देवदत्त आगच्छ, आगच्छ है ३ देवदत्त, आगच्छ देवदत्त है ३ । है है ष्वित्वधारणस्य विषयार्थम् । एषामिति स्थानिनिर्देशार्थम् । बहुवचनं ह इ हे हए है इति लाक्षणिकयोरपि परिग्रहार्थम् एवकारोऽन्यस्य प्लुतस्य व्युदासार्थः । अत एव चैवकारात् यत्रतत्रस्थयोः प्लुतो विज्ञायते । १०० ।
न्या० स० है है ० - एषामितीति देहायामेवेत्येव कृते पूर्वसूत्रेण सामान्येन प्लुतप्राप्तौ द्योतकानां त् प्लुतः स्यात् तदा देहायामेवेति नियमार्थं स्यात्तेन हे ३ आगच्छ हे ३ देवदत्त इत्यादि सिद्धं, पूर्व हि देवदत्त ३ इत्यादौ चरितार्थ भोःप्रभृतिषु तु न स्यात् ।
यजतत्रस्थयोरिति यदि पुनरन्तभूतानामेव देहायां प्लुतः स्यात्तदाऽपरस्यान्त्यभूतस्यासंभवात् प्राप्तिरेष नास्ति किमेवकारेण ?
अस्त्र प्रत्यभिवादे भोगोत्रनाम्नो वा ॥ ७.४. १०१ ।।
यदभिवाद्यमानो गुरुः कुशलानुयोगेनाशिषा वा युक्त वाक्यं प्रयुङ्क्ते स प्रत्यभिवादः । तस्मिन्न स्त्री शूद्रविषये वर्तमानस्य वाक्यस्य स्वरेष्वन्त्यः स्वरो भोःशब्दस्य गोत्रस्य नाम्नो वामन्त्र्यस्य संबन्धी प्लुतो वा भवति । अभिवादये देवदत्तोऽहं भोः ३, अभिवादये देवदत्तोऽहं भोः, आयुष्मानेधि भोः ३, आयुष्मानेधि भोः, आयुष्मानेधि देवदत्त भोः ३ । आयुष्यानेधि देवदत्त भोः । गोत्रे, अभिवादये गाग्र्योऽहं भोः, कुशल्यसि गार्ग्य ३, कुशल्यसि गार्ग्य । आयुष्मानेधि गार्ग्य ३, आयुष्मानेधि गार्ग्य । राजन्यविशोरपि गोत्रत्वमेव । अभिवादयेऽहमिन्द्रवर्मा भोः, आयुष्मानेधीन्द्रवर्म ३ न् इन्द्रवर्मन् । अभिवादये इन्द्रपालतोहं भोः, आयुष्माने घीन्द्रपालित ३ । इन्द्रपालित । नाम, अभिवादये देवदत्तोऽहं भोः, आयुष्मानेधि देवदत्त ३, देवदत्त । स्त्रीशूद्रवर्जनं किम् ? अभिवादये गार्ग्यहं भोः, आयुष्मती भव गागि, अभिवादये तुषजकोऽहं भोः, आयुष्यानेधि कुशल्यसि तुषजक । प्रत्यभिवादे इति किम् ? अभिवादये स्थायहं भोः, आयुष्मानेघि स्थालि ३ । अभिवादयिताह खरकुटीवन्न मकारान्ता संज्ञा का तर्हि दण्डिवन्नकारान्ता । पुनर्गुरुराह आयुष्माने धि स्थालि ३ न् स पुनराह ईकारान्तैव मम संज्ञा, स प्रत्युच्यते, असूयकस्त्वमसि जाम, न त्वं प्रत्यभिवादमर्हसि । भिद्यस्व वृषल स्थालि । भोगोत्रनाम्न इति किम् ? देवदत्त कुशल्यसि देवदत्तायुष्मानेधि, पुनर्वाग्रहणमुत्तरत्र वाधिकारनिवृत्त्यर्थम् । १०१ ।
न्या० स० अस्त्री० देवदत्त कुशल्यसीत्यादि अत्र एधि असीति क्रियापदेन आमन्त्र्य इति यङ्गविकलता व्यावृत्तेरिति न वाच्यं यतोऽत्राव्यये त्वमित्यस्य अर्थस्य वाचके इत्यामन्त्रयता, यत्रा वाक्यैकदेशो भव्य इत्याद्यध्याहारार्थः ।
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[ पाद. ४. सू. १०२-१०३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३९१ प्रश्नार्चाविचारे च संधेयसंध्यक्षरस्यादिदुत्परः ॥ ७. ४. १०२ ।।
संधेयः संधियोग्यः यः कचित्स्वरे परे विकारमापद्यते, प्रश्नेऽ यां विचारे प्रत्यभिवादे च वर्तमानस्य वाक्यस्य संबन्धिनः स्वरेष्वन्त्यस्वरस्य संधेयसंध्यक्षरस्य प्लुतो भवन् आकार इदुत्परः प्लुतो भवति । स च प्रत्यासत्त्या एकारैकारयोरिकारपर ओकारौकारयोरुकारपरो भवति । प्रश्ने, अगमः ३ पूर्वान् ३ ग्रामा ३ नग्निभूता ३ इ, पटा ३ उ। अदा ३ स्तस्मा ३ इ, अपचा ३ इ, पटा ३ उ, अहौषी ३ रग्ना ३ उ। 'प्रश्ने च प्रतिपदम् ' (७-४-९८) इति प्लुतः । अर्चा पूजा तस्यां 'दूरादामन्यस्य' (७-४-९९) इति प्लुतः । शोभनः खल्वसि अग्निभूता ३ इ। पटा ३ उ । विचारे, वस्तव्यं कि निर्ग्रन्थस्य सागारिका ३ इ उतानागारिके । प्रत्यभिवादे, आयुष्मानेधि अग्निभूता ३ इ, पटा ३ उ, आयुष्मन्तौ भूयास्तां देवदत्तजिनदत्ता ३ उ। प्रश्ना_विचारे चेति किम् ? आगच्छ भो अग्निभूते ३ । संधेयग्रहणं किम् ? कच्चि ३ त् कुशल ३ म् भवत्योः ३ कन्ये ३ । अगमः ३ पूर्वा ३ न ग्रामा३ नहो ३ भद्रकाऽसि गौः ३। आयुष्मानेधि भौ ३: । संध्यक्षरस्येति किम् ? भद्रिकासि कुमारि ३ । वाक्यस्य स्वरेष्वत्यस्वर इति विज्ञानादिह न भवति । अगमः ३ पूर्वी ३ ग्रामौ ३ देवदत्त ३ ।१०२॥
न्या० स० प्रश्ना०–संधियोग्य इति यस्य 'ईदूदेत्' १-२-३४ इत्येवमादिर्भिनिषेधो नास्ति । .. तयोर्यो स्वरे संहितायाम् ॥ ७. ४. १०३ ॥
तयोः प्लुताकारात्परयोरिदुतोः स्थाने स्वरे परे संहितायां विषये यथासंख्यं यकारवकारावादेशी भवतः । अविरामः संहिता, अगम ३ अग्निभूता ३ यत्रागच्छ, अगम ३ अग्निभूता ३ यिहागच्छ, अगमः ३ पटा ३ वत्रागच्छ, अगमः ३ पटा ३ वुदकमानय, स्वे दीर्घत्वस्यास्वे स्वरे इस्वत्वस्य बाधनार्थ वचनम् । स्वर इति किम् ? अग्ना ३ इ, पटा ३ उ, संहितायामिति किम् ? अग्ना ३ इ इन्द्रम्, पटा ३ उ उदकम्, अग्ना ३ इ अत्र, पटा उ अत्र । केचिदैदौतोश्चतुर्मात्रं प्लुतमिच्छन्ति । ऐ ४ तिकायन, औ ४ पगव ।१०३।
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३९२)
बृहदृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पा० ४. सू० ४१०-१०७ ] _ पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य ॥७. ४. १०४ ॥
पञ्चम्या निर्दिष्टे यत्कार्य मुच्यते तत्परस्य स्थाने भवति । अतो भिस ऐस्' (१-४-२) वृक्षः, प्लक्षैः । इह न भवति, मालाभिरत्र । निर्दिष्टग्रहणस्यानन्तर्यार्थत्वादिह न भवति, दद्भिः । व्यवहितेऽपि हि परशब्दो दृश्यते । यथा महोदयात्परं साकेतमिति । अत इत्यादौ दिग्योगलक्षणा पञ्चमी। तत्र पूर्वस्य च परस्य च कार्य स्यादिति नियमार्थं वचनम् ।१०४। सप्तम्या पूर्वस्य ॥ ७. ४. १०५॥
सप्तम्या निर्दिष्टे यत्कार्यमुच्यते तत्पूर्वस्यानन्तरस्य स्थाने भवति । 'इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्' (१-२-२१) । दध्वत्र । मध्यत्र । निर्दिष्टाधिकारादिह न भवति । समिदत्र, त्रिष्टबत्र, व्यवहितेऽपि पूर्वशब्दो दृश्यते । मथुरायाः पूर्वं पाटलिपुत्रमिति । स्वर इत्यादी औपश्लेषिकमधिकरणं पूर्व परं च संभवति तत्र परमेव ग्राह्य मिति नियमाथं वचनम् ।१०५। ___ न्या० स० सप्त०-नन्वत्र दध्यत्रे यादौ सूत्रमन्तरेणापि यत्वादि सिध्यति, यत 'इवर्णादे' १-२-२१ इत्यत्र स्वरे इत्यौपश्लेषिकमधिकरणं तच्च पूर्व परं च संभवति, ततः स्वरः परो विद्यते, न च मध्विदमित्यादौ पूर्वस्मिन् स्वरे निमित्ते उत्तरस्य इकारस्य यत्वं स्यादित्याशङ्कनीयं यतः प्रकृतेः पूर्व पूर्वमिति न्यायात् पूर्वस्य उकारस्य वत्वं भविष्यति ? ___ उच्यते, अष्टाभिरष्टप्रिय इत्यत्र पूर्वस्मिन् भिसि परे उत्तरस्याष्टनशब्दस्य ‘वाष्टनः' १-४-५२ इत्यात्वं स्यादिति सूत्रं सफलम् । षष्ठयान्त्यस्य ॥ ७. ४. १०६ ॥
षष्ठया निर्दिष्टे यत्कार्यमुच्यते तदन्त्यस्य षष्टीनिदिष्टस्यैव योऽन्त्यो वर्णस्तस्य स्थाने भवति न तु समस्तस्य । ‘वाष्टन आः स्यादौ ' (१-४-५२) । अष्टाभिः । अष्टासु ।१०६।। अनेकवर्णः सर्वस्य ॥ ७. ४. १०७॥
अनेकवर्ण आदेशः षष्ठ्या निर्दिष्टस्य सर्वस्यैव स्थाने भवति । 'त्रिचतुरस्तिसृचतसृ स्यादौ' (२-१-१) तिसृभिः, चतसृभिः । सर्वस्येति निर्दिश्यमानापेक्षम्, तेन व्याघ्रपादित्यत्र ‘पात्पादस्याहस्त्यादेः' (७-३-१४८) इति निर्दिष्टस्य पादशब्दस्य भवति न तु समुदायस्य । 'ऋतां विङतीर' (४-४-११७) । किरति । पूर्वस्यापवादोऽयम् एवमुत्तरोऽपि ।१०७।
न्या० स० अने०-एकशब्दोऽध्यारोपितद्वयादिवृत्तिर्नबा न एकोऽनेक इति विगृह्य
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[ पाद ४. सू० १०८-१०९] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३९३ नसमासः क्रियते । तस्मिन् कृते विषयगतायाः संख्याया अग्रहणे स्वसंख्यायाः अपरित्यागादेकवचनोपपत्तिः, अन्ये तु विषयगतां संख्यामाश्रित्य द्विवचनबहुवचनयोरुत्पत्तिमिच्छन्ति अनेको अनेके इति, तेन कदाचिदनेको वर्णोऽस्येति बहुव्रीहिः कदाचिदनेके वर्णा अस्येति । प्रत्ययस्य ।। ७. ४. १०८ ॥
प्रत्ययस्थाने विधीयमान आदेशः सर्वस्य भवति । सर्वे, अष्टौ, कति ।१०८। स्थानीवावर्णविधौ ॥७. ४. १०९ ॥
स्थान प्रसङ्गः, सोऽस्यातीति स्थानी आदेशी, आदेशस्थानिनोः पृथक्त्वास्थानिकार्यमादेशे न प्राप्नोतीत्यतिदिश्यते । आदेशः स्थानिवद्भवति स्थान्याश्रयाणि कार्याणि प्रतिपद्यते 'अवर्णविधौ' न चेत्तानि स्थानिवर्णाश्रयाणि भवन्ति, तत्र धातुप्रकृतिविभक्तिकृदव्ययपदादेशा उदाहरणम् । धात्वादेशो धातुवद्भवति । 'अस्तिब्रुवो वचावशिति' (४-४-१) भूवचोस्तृजादयो भवन्ति । भविता, भवितुम्, भवितव्यम्, वक्ता, वक्तुम्, वक्तव्यम् । प्रकृत्यादेशः प्रकृतिवत् । कस्मै, के, केषाम् । किमः कादेशे कृते सर्वादित्वास्मायादयो भवति । विभक्त्यादेशो विभक्तिवत् । वृक्षाय, प्लक्षाय, राजा। अत्र स्यादित्वाद्दीर्घत्वं पदत्वं च भवति । पचेयम्, पचेयुः । अत्र आद्यन्तत्वात्पदत्वम् । कृदादेशः कृद्वत् । प्रकृत्य । प्रहृत्य । अत्र क्त्वो यबादेशे 'स्वस्य तः पित्कृति' (४-४-११४) इति तोऽन्तो भवति । अव्ययादेशोऽव्ययवत् । प्रस्तुत्य, उपस्तुत्य । अत्र 'अव्ययस्य' (३-२-७) इति सेल प् भवति । पदादेश: पदवत्, धर्मो वो रक्षतु, धर्मो नो रक्षतु, पदत्वात्सो रुत्वम् । इवग्रहणं स्वाश्रयार्थम्, अन्यथा स्थानीत्यादेशस्य संज्ञा विज्ञायेत, तेन आहत आवधिष्टेत्यादी 'आडो यमहनः स्वेऽङ्गे च' (३-३-८६) इत्यनेनोभयत्राप्यात्मनेपदं भवति । अन्यथा वधेरेव स्यात् । अवर्णविधाविति किम् । वर्णाश्रयो विधिर्वर्णविधिरिति समासस्याश्रयणाद्वर्णात्परस्य विधिर्वणे परतो विधिर्वर्णस्य स्थाने विधिवर्णन विधिरप्रधानवर्णाश्रयो वा विधिर्वर्णविधिरिति सर्वत्रावर्णविधाविति प्रतिषेधो भवति । तत्र वर्णात्परस्य विधिः । द्यौः, पन्थाः, सः । अत्र औत्वात्वत्यदायत्वेषु कृतेषु स्थानिवद्भावाव्यञ्जनात्परस्य सेलोपः प्राप्नोति स न भवतीति । वर्णे परतो विधिः । क इष्टः, स उप्तः, अत्र य्वति कृते 'घोपवति' (१-३-२१) इति रोरुत्वम् 'एतदश्च'-(१-३-४६) इत्यादिना सेर्लोपश्च न भवति । वर्णस्य स्थाने विधिः, श्रीर्देवतास्य श्रायं
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३९४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० १०९ हविः, अत्रेकारस्य वृद्धो कृतायां स्थानिवद्भावादवर्णेवर्णस्य (७-४-६८) इति लोपः प्राप्तो न भवति । वर्णेन विधिः । उरःकेण । उर:पेण: । उरु ) केण । उर - पेण । अत्र सकारादेशानां विसर्जनीयजिह्वामूलीयोपध्मानीयानां स्थानिवद्भावप्रतिषेधादलचटतवर्गशसान्तरे इति णत्वप्रतिषेधो न भवति । व्यूढोरस्केन महोरस्के नेत्यत्र तु सकारे कृते स्वाश्रयः प्रतिषेधः प्रवर्तते । अप्रधानवर्णाश्रयो विधिः । प्रदीव्य, प्रसीव्य । अत्र स्तादीत्यन्यपदार्थस्याशित: प्राधान्यात् स्तोरप्राधान्य मिति स्थानिवद्भावप्रतिषेधो भवति । स्थानिवर्णाश्रयकार्यप्रतिषेधाच्चादेशवर्णाश्रयाणि स्थान्यनुबन्धाश्रयाणि च कार्याणि भवन्त्येव । आदेशवर्णाश्रयाणि । सर्वेषाम् । अत्र सामादेशे कृते सकाराश्रयमेत्वं भवति । स्थान्यनबन्धाश्रयाणि । प्रभिद्य, निरुध्य, प्रणीय, प्रलय । अत्र क्वो यवादेशे कृते स्थानिवद्भावेन विडतीति गुणप्रतिषेधो भवति । अनुबन्धा ह्यसन्त एव गुणाभावादिकं कार्यं कुर्वन्ति । अथ कथमग्रहीदित्यत्रेटो दीर्घत्वे स्थानिवद्भावादिट ईतीति सिचो लोपो भवति, वर्णविधिह्यषः ? उच्यते,-नायं वर्णविधिः, विशिष्टं ह्येष समुदायमवर्णमाश्रयते इटं नाम । अथ शोभना दृषदोऽस्य सुदृषदित्यत्र जस्लुपः स्थानिवद्भावेनासन्तत्वात् 'अभ्वादेरत्वसः सौ' (१-४-९०) इति दीर्घः कस्मान्न भवति । 'लुप्यय्वल्लेनत्' (७-४-११२) इति प्रतिषेधात् । भ्वादिप्रतिषेधेन श्रूयमाणासन्तपरिग्रहाच्च न भवति । सुदषदानित्यत्र तु इतिकरणसामदिसन्तलक्षणो विन्न भवति ।१०९।
न्या. स. स्थानी०-अवर्णविधावित्यस्यार्थमाह-न चेत् तानीत्यादि वर्णाश्रयाणि कार्याणि त्रिविधानि विद्यन्ते, आदेशवर्णाश्रयाणि अनुबन्धवर्णाश्रयाणि स्थानिवर्णाश्रयाणि च, तत्र स्थान्याश्रयाणां कार्याणामतिदेशप्रस्तावेन स्थानिवर्णाश्रयाणामेवावर्णविधाविति प्रतिषेधो न्याय्यो, न त्वादेशाश्रयाणामनुबन्धाश्रयाणां चेति मनसिकृत्य स्थानिवर्णाश्रयाणीत्युक्तम् , तेन सर्वेषां प्रभिद्येत्यादौ सामादेशे क्त्वो यबादेशे च कृते स्थानिवद्भावात् सकाराश्रयमेवम् , अक्ङिति इति गुणप्रतिषेधश्च भवत्येवाकार्यशब्दं पुनः पुनः प्रयुञ्जानः कार्यातिदेशतामभ्याचष्टे. एवं च यत्कार्य वर्णमचार्य विधीयते तद्वर्णाश्रयमस्तु, यत्तु धात्वादिसमुदायोच्चारेण न तवर्णाश्रयं वर्णस्य तत्र शब्देनासंसर्गात् ।
ननु अग्निर्माणवकइतिवदिवग्रहणमन्तरेणापीवार्थानुमानं भविष्यति किमिवग्रहणेन ? इत्याशङ्क्याह-इवग्रहणं स्वाश्रयार्थमिति स्वस्य स्थानिस्वरूपस्य हन्इत्वादेराश्रय आश्रयणं तदर्थम, अन्यथा इवग्रहणाभावे संज्ञासंझिर्सबन्धो विज्ञायेत, आदेश इति संज्ञी स्थानीति च संज्ञा ततो यत्रादेशः स्थानी च स्यात्तत्र स्थानीत्यादेशस्य संज्ञा विज्ञायेतेतीवग्रहणम् ।
स्वाश्रयः प्रतिषेध इति 'प्रत्यये' २-३-६ इत्यनेन यः कृतः सकारस्तदाश्रयो णत्वनिषेधो, न तु मूलभूतसकाराश्रयः तस्य वर्णत्वात् वर्णाश्रये च स्थानित्वनिषेधात् ।
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[पाद. ४. सू. ११०] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३९५
प्रतिषेधो भवतीति स्थानिवद्भावप्रतिषेधाच्च प्रदीव्येत्यादौ 'ऊदितो वा' ४-४-४२ इतीटू प्राप्तः सकारतकाररूपाप्रधानवर्णाश्रयत्वात् स्थानित्वाभावे न भवति । ___ गुणप्रतिषेध इति अत्रापि न स्थानिवर्णाश्रयं किमपि कार्य विधीयते किंतु स्थानिनो योऽनुबन्धः ककारादिलक्षणस्तदाश्रय एव गुणप्रतिषेधस्तत्र च स्थानित्वम् ।
अथानुबन्धानामप्रयोगित्वात् कथं तेष्वसत्सु तदाश्रयं कार्यमुच्यत इत्यत आह-अनुबन्धा इत्यादि, वर्णविधिह्येष इति । वर्णात् परतो विधिरिति समासात् । श्रूयमाणासन्तेति भ्वादयो हि तावत पिडग्रः चर्मव इत्यादयः भूयमाणा सन्त एवं प्रतिषिध्यन्ते, ततश्च गृह्यन्तेऽपि श्रूयमाणासन्त एव । स्वरस्य परे प्राविधौ ॥ ७. ४. ११० ॥
स्वरस्यादेशः परे परनिमित्तको व्यवहितेऽव्यवहिते वा पूर्वस्य विधी कर्तव्ये स्थानीव भवति । कथयति, अवधीत् । अत्राल्लुकः स्थानिवद्भावादुपान्त्यलक्षणा वद्धिर्न भवति । स्पृहयति, मृगयते । अत्र लघुपान्त्यलक्षणो गणो न भवति । पादाभ्यां तरति पादिकः, अत्र पद्भावो न भवति । शातनी, पातनी। अत्रानोऽस्य लुग् न भवति । धरणस्यापत्यं धारणिः । रवणस्यापत्यं रावणिः । अत्र 'नोऽपदस्य'-(७-४-६१) इत्यन्त्यस्वरादिलोपो न भवति । स्रस्यते, ध्वंस्यते । अत्र णिलुकः स्थानिवद्भावादुपान्त्यनकारलोपो न भवति । याज्यते, वाप्यते,-अत्र वृन्न भवति । निरादनं पूर्व निराध, समाद्य । अत्र जग्धादेशो न भवति । घात्यात् । अत्र वधादेशो न भवति, निगार्यते, निगाल्यते । अत्र 'नवा स्वरे' (२-३-१०३) इति पक्षे लत्वम् । चातुरौ, आनडुहो । अत्र औत्वादेशस्य स्थानिवद्भावात् 'वाः शषे' (१-४-८२) इति वा न भवति । पादे । अत्र एत्वादेशस्य स्थानिवद्भावात्पभावो न भवति । उभयजन्यत्वेऽपि अन्यतरव्यपदेशात् औत्वत्वयोः परनिमित्तत्वम् । अवीवदद्वीणां परिवादकेनेत्यत्र तु णिजात्याश्रयणादुपान्त्यस्य इस्वो भवति । द्वाभ्यामित्यत्र तु निमित्तापेक्षया प्राविधावास्वेऽत्वस्य न स्थानित्वम् । 'वैकत्र द्वयोः' (२-२-८५) इति निर्देशात् । स्वरस्येति किम् ? अक्राष्टाम्, अद्राष्टाम् । अत्र सिज्लोपो न स्वरादेश इति षढोः कः सि' (२-१-६२) इति कत्वे स्थानी न भवति । आगत्य, अभिमत्य । अत्र पञ्चमलोपो हस्वलक्षणे तकारे स्थानी न भवति । पर इति किम् ? द्वौ पादौ ददाति द्विपदिकां ददाति, अत्राल्लुचः परनिमित्तत्वाभावात् स्थानिस्वाभावे पदादेशो भवति । प्राविधाविति किम् ? बाभ्रव्यस्य छात्राः बाभ्रवीयाः ।
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३९६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पा० ४. सू० १११ ]
अत्र ' तद्धितस्वरेऽनाति' ( २-४ - ९१ ) इति यलोपे परविधौ कर्तव्येऽवादेशः स्थानी न भवति । निधानं निधिः, तस्यापत्यं नैधेयः, निधिकः । अत्र ' इडेत्पुसि चातो लुक्' (९ - ३ - ९४ ) इत्याकारलोपो द्विस्वरलक्षण एयणिकप्रत्ययविधो परस्मिन् स्थानी न भवति । अन्यथा त्रिस्वरत्वात्प्रत्ययो न स्यात् । इलुकाया अदूरभवं नगरमैलुकम्, परिखायाः पारिखम्, तत्र भव: ऐलुकीयः पारिखीयः । अत्राण्याकारलोपः परविधौ कखोपान्त्यलक्षणे ईये स्थानी न भवति । पूर्वस्माद्विधिः प्राग्विधिरित्यप्याश्रीयते, तेन अधुक्षन्तेति ' स्वरेऽतः ( ४-३ - ७५ ) इति सकोऽकारलोपस्य परमप्यदादेशं प्रति स्थानिवद्भाव इति स न भवति । पूर्वत्रावर्णविधाविति प्रतिषेधाद्वर्णं विध्यर्थं वचनम् ।११०।
न्या० स० स्वर० - वृद्धिर्न भवतीति 'ञ्णिति' ४-३ - १०० 'व्यञ्जनादेव पान्त्यस्यातः ' ४-३-४७ इत्याभ्याम् ।
भौत्वैत्वयोरिति इष्टसिध्यर्थमकारस्यैव व्यपदेशः कार्यः, न त्वौकारैकारयोः ।
न संधिङी
दीर्घासद्विधावस्क्लुकि ॥ ७ ४. १११ ॥
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पूर्वेणातिप्रसक्तः स्थानिवद्भावः प्रतिषिध्यते । संधिविधी ङोविधो यविधो विविधद्वयोद्वित्वस्य विधौ दीर्घविधी ' संयोगस्यादौ स्कोर्लुक्' ( २-१-८८) इति स्क्लवजितेऽसद्विधौ च स्वरस्यादेशः स्थानीव न भवति । कि लो ' ( १ - ३ - ६५ ) इति यावत्संधिविधिः । तत्र वियन्ति अपयन्ति । अत्रेणो यत्वं स्वरादेशः परनिमित्तकः पूर्वविधौ दीर्घत्वे एस्वे च कर्तव्ये स्थानीव न भवति । तानि सन्ति, तौ स्तः, अत्रास्तेरल्लोपो यत्वे आवादेशे च कर्तव्ये स्थानी न भवति । वैयाकरणः, सौवश्व:, अत्र यत्ववत्वयो: स्थानिवद्भावाभावादेदौतोरायावादेशो न भवतः । शिष्टि, पिण्डि । अत्र श्रस्याकारलोपो 'नां धुड्बर्गेऽन्योऽपदान्ते' ( १ - ३ - ३९ ) इति वर्गान्त कर्तव्ये स्थानी न भवति । शिषन्ति पिवन्ति इत्यत्र त्वनुस्वारे | जक्षतुः, जक्षुः । अत्र प्रथमत्वे घसेरुपान्त्यलोपः । निमित्तापेक्षयापि प्राग्विधिरिष्यते, तेन नयनं लवनमित्यत्र गुणस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधादयवादेशौ सिद्धौ । स्थानिवद्भावे त्वियुवादेशी स्याताम् । ङीविधी, बिम्ब्याः फलं बिम्बम् हेमादित्वादञ् । 'फले ' ( ६-२- ५८ ) इति लुप् । ङच्चादेरित्यादिना ङीलुप् तस्य परनिमित्तत्वेऽपि स्थानिवद्भाव निषेधात् मस्य ङय लुक् ' (२ - ४ - ८५ ) इत्यकारस्य लुग् न भवति । एवमामलक्याः फलमामलकम्, ' दोरप्राणिनः ' ( ६-२-४९)
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[ पाद. ४. सू. १११ ] भीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोघ्यायः [३९७ इति मयट् । पञ्चभिः खारीभिः कृतः पञ्चखारः । ‘कृते' (६-३-१९०) इत्यण् । 'द्विगोः'-(६-१-२४) इत्यादिना लुप् । पञ्चेन्द्राण्योऽग्नाय्यो वा देवतास्य पञ्चेन्द्रः, पञ्चाग्निः, अत्र 'देवता' (६-२-१०१) इस्यण् । तस्य लुपि ङीप्रत्ययस्यापि लुक् । तस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् तत्संनियुक्त आनागम ऐकारादेशश्च न भवति । यविधी,-कण्डू तिः, कण्डूयतेः क्तावतो लोपः परनिमित्तको ' य्वोः प्वव्यञ्जने लक्' (४-४-१२२) इति लोपे कर्तव्ये न स्थानिवद्भवति । सूर्येणैकदिक् सौरी बलाका । अत्रकोऽण्यकारलोपो द्वितीयो उयां तयोः स्थानिवत्त्वाचकारस्यानन्तरो डीनं भवतीति यलोपो न स्यात् स्थानिवद्भावनिषेधाच्च भवति । किविधौ,-देवयते: विप्, दयूः, लवमाचष्टे लवयते: किप् लौः,-अत्र णिलगल्लुची क्विविधावूटि कर्तव्ये न स्थानिवद्भवतः । द्वित्वविधौ, दद्ध्यत्र, मद्ध्वत्र,-अत्र यत्ववत्वयोः स्थानिवद्भावाभावादेकव्यञ्जनलक्षणं धकारस्य द्वित्वं भवति, द्वित्वस्य संधिकार्यत्वेनैव स्थानिवद्भावप्रतिषेधे सिद्ध द्विग्रहणमसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग इति न्यायबाधनार्थम् । तेनान्तरङ्गे द्वित्वे क्रियमाणे यकारवकारी परपदाश्रितत्वेन बहिरश्रावपि नासिद्धौ भवतः । दीर्घविधी, शामंशामम् । अशाभि । शंशामशंशामम, अशंशामि, अत्र णिगन्ताद्यङन्ताच्च णिगि रूणम्बिचोः परयोणिग्लग्यङो लक च स्थानिवन्न भवति । असदधिकारे विहितो विधिरसद्विधिः तत्र यायज्यतेर्यायष्टिः । नाम्नि तिक,-पापच्यतेः पापक्तिः। याजयतेर्याष्टिः, पाचयतेः पाक्तिः, अत्राल्लोपणिलोपयोः स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् षत्वकत्वे भवतः । देहयतेदेग्धिः, लेहयतेर्लेढिः। अत्र णिलोपस्य स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् धुनिमित्ते धत्वढत्वे भवतः। प्रतिदीन्वा, प्रतिदीन्वे । अत्र 'अनोऽस्य' (२-१-१०७) इति अलोपो न्वादेर्मामिनः'-(२-१-६३) इत्यादिना दीर्घत्वे स्थानी न भवति । स्क्लकविधेः प्रतिषेधः किम् ? सुकुस्मयतेः क्विप् । सुकः । काष्ठं तक्षयति विप्; काष्ठतक् । अत्र संयोगाद्यो: स्कोलु कि णिलकः स्थानिवदभावप्रतिषेधाभावात् स्कोलग्न भवति । संयोगान्तलोपस्त्वसद्विधौ स्थानिवदभावप्रतिषेधात् भवत्येव । काष्ठतडिति अण्यन्तस्य । प्रायिकोऽयं निषेधः, तेन मधश्चयतीति क्विप् । मधुक् । अत्र शलोपः सिद्धः । वेतस्वानित्यल्लकः स्थानिवद्भावाभावेऽपि न स्तं मत्वर्थे' (१-१-२३) इति पदत्वाभावात्सो रुन भवति । ब्रह्मवन्ध्वौ ब्रह्मबन्ध्व इति ऊङादेशस्य वकारस्य स्थानिवद्भावाभावेऽप्यन्तर धस्य तृतीयत्वे लुकि च बहिरङ्गत्वेनासिद्धत्वम्, एवं किर्योः
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३९८ ] - बृहपृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू० ११२-११३ ) गिर्योरिति नामिनो दीर्घत्वे । काक्यर्थं वास्यर्थमित्यत्र तु पदस्येति यलोपे यत्वस्यासिद्धत्वम् । अथ सखीयतीति क्विपि अल्लुको यविधौ स्थानिवत्त्वाभावाद्यलुकि सि · योऽनेकस्वरस्य' (२-१-५६) इति यस्य य्वोः ' (४-४-११२) इत्यादिना क्विबाश्रयो लुक् कथन्न भवति । बहिःप्रत्ययाश्रयत्वेन बहिरङ्गस्य यस्य अन्तःक्विबाश्रये लुक्यसिद्धत्वात् ।१११॥
न्या० स० न संधि०-मधुक् इति अत्र 'न संधि' ७-४-१११ इत्यनेन स्थानित्वनिषेधः प्रवर्तते, असविधिकार्ये सलुकि णिलुकः स्थानित्वं न भवति । ____ऊअदेशस्येति ऊप्रत्ययादेशो वकारोऽपि प्रत्ययस्तस्मिन् धस्य पदत्वे 'धुटस्तृतीयः' २-१-७६ इति धस्य दत्वं, सन्निषेधे संयोगान्तत्वात् 'पदस्य' २-१-८९ इति लुगका प्राप्नोतीत्याशङ्का ।
लुप्यय्बल्लेनत् ॥ ७. ४. ११२॥ __ परस्य प्रत्ययस्य लुपि सत्यां लुबभूतपरनिमित्तकं पूर्वकार्यं न भवति 'अय्वल्लेनत् ' वल्लत्वमेनच्च वर्जयित्वा । तद्, अत्र स्थानिवद्भावप्रतिषेधात् त्यदाद्यत्वसत्वे न भवतः । गर्गस्यापत्यानि गर्गाः, गर्गादित्वाद्यञ् । 'योs. श्यापर्णान्तगोपवनादेः' (६-१-१२६) इति लुप् । कुवल्याः विकारः फलं कुवलम् । हेमादित्वादञ् । 'फले' (६-२-५८) इति तस्य लुप् । अत्र वद्धिर्न भवति । प्लुप्यपि लुब्रूपतास्त्येव, तेन पञ्चगोणिरित्यत्रेकणः प्लपि वृद्धिर्न भवति । लुपोति वचनाल्लुकि भवत्येव, गोमान् यवमान् । अत्र सिलुकि तन्निमित्तं दीर्घत्वं भवति । लुपीति सप्तमीनिर्देशात् पूर्वस्य यत्कार्य प्राप्त तन्निषिध्यते । समुदायस्य तु भवत्येव । पयः, साम, पञ्च, सप्त । अत्र पदसंज्ञा तथा च तन्निबन्धनानि रुत्वनलोपादीनि भवन्ति । कथं पापक्ति पापचीतीत्यत्र द्वित्वम् ? नेदं यङि निमित्ते किंतु य डन्तस्य । अय्वल्लेनदिति किम् ? य्वृत्, व्यध्, वेविद्धि । श्वि, शोशवीति । ग्रह, जरीगृहीति । ल, गु, निजागलीति । एनत्, एनत्पश्य, एनच्छित कः । स्थानीवावर्णविधाविति लपः स्थानिवद्भावेन प्राप्तानां पूर्वेषां कार्याणां प्रतिषेधार्थं वचनम् ।११२।
न्या० स० लुप्यम्वृ०-पञ्चगोणिरिति 'क्यङ्मानि' ३-२-५० इति पुंवन्न भवति, झ्यादेोणस्येत्यत्र गोणीशब्दवर्जनात् , एनच्छ्रितक इति नन्वतच्छब्दस्य साकाङ्क्षस्यासमर्थत्वात् कथं समास एनदादेशश्च ?
उच्यते, अर्थात् प्रकारणाद्वा अपेक्ष्ये निर्माते समास एनदादेशश्च भवत्येव । विशेषणमन्तः ॥ ७. ४. ११३॥
विशिष्यतेऽनेनेति विशेषणम्, विशेषणं विशेष्यस्य समुदायस्यान्तोऽवयवो
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[पाद. ४. सू. ११४-११५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः [ ३९९ भवति, इह शाने धात्वादिः समुदायोऽभेदेनावयवविशेषणक उपादीयते । तत्र सोऽवयवस्तत्समुदायस्यान्तस्बेन नियम्यते । अतः स्यमोऽम् । कुण्डं तिष्ठति, कुण्डं पश्य, इह न भवति-तद् । 'युवर्ण वृदृवशरणगमृद्ग्रहः' । जयः, स्तवः, इह न भवति । सेकः, योगः । इणोऽलि अय इत्यादौ व्यवदेशिवद्भावाद्भवति ।११३।
न्या० स० विशे०-इह शास्त्रे धात्वादिः समुदाय उपादीयते, कथंभूतोऽवयवो विशेषणं यस्य स तथा केनाभेदेन तादात्म्येन कोऽभिप्रायः ? किल 'नामिनो गुण' ४-३-१ इत्यत्र धातु म त्यभिधीयते, नाम्यवयवयोगात् समुदायोऽपि. धातुलक्षणो नामीत्यभिधीयते इत्येकदेशेन सामानाधिकरण्येनावयवविशेषणक उपादीयते इति तत्सामानाधिकरण्ये सति नामी आदी मध्ये अन्ते च संभवति, तत्र सोऽवयवस्तस्य समुदायस्य अन्तत्वेन नियम्यते । सप्तम्या आदिः ॥ ७. ४. ११४ ॥
सप्तम्यन्तस्य विशेष्यस्य यद्विशेषणं तत्तस्यादिरवयवो भवतीति वेदितव्यम् । इन डीस्वरे लुक । पथः, पथाम् । इह न भवति । पथिषु । 'ब्युक्तोपान्त्यस्य शिति स्वरे' (४-३-१४) नेनिजानि । अनेनिजम् । इह न भवति-नेनेक्ति । 'उत औविति व्यञ्जनेऽद्वे:' (४-३-५९) यौति, रौति । इह न भवति अस्तवीत् । पथा, अयोदित्यादौ व्यपदेशिवद्भावाद्भवति,-अन्तत्वापवादो योगः ।११४। प्रत्ययः प्रकृत्यादेः ॥ ७. ४. ११५ ॥
यस्माद्यः प्रत्ययो विधीयते सा तस्य प्रकृतिः। प्रत्ययः प्रकृत्यादेः समुदायस्य विशेषणं वेदितव्यम् नोनाधिकस्य । मातु गो मातृभोगस्तस्मै हितो मातृभोगीणः । ' भोगोत्तरपदात्मभ्यामीनः' (७-१-४०)। खरपस्यापत्यं खारपायणः,-नडादित्वादायनण् । अत्र 'तदन्तं पदम्' (१-१-२०) इति पदसंज्ञा समुदायस्य भवति न तूनस्य भोगीण इत्यादिरूपस्य तेनैकपदत्वात् णत्वं सिद्धम् । 'राज्ञः पुरुषः राजपुरुषः, 'षष्ठथयत्नाच्छेषे' (३-१-७६) इति समासः । अधिकस्य न भवति । ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः, गार्ग्यस्यापत्यं गाायणः । । 'यजिनः' (६-१-५४ ) इत्यायनण् । अधिकारसमुदायान्न भवति । परमगार्यस्यापत्यम् । पुत्रमिच्छति पुत्रकाम्यति, अधिकान्न भवति, महान्तं पुत्रमिच्छति, न्यूनाधिकव्यवच्छेदार्थं वचनम् । तदन्तत्वं च 'विशेषणमन्तः' (७-४-११३) इत्येव सिद्धम् ।११५॥
न्या. स. प्रत्य० प्रकृत्यादेरिति आदिशब्दात् प्रत्ययो गृह्यते, ततः प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य प्रत्ययो विशेषणं भवतीति सिद्धम् ।
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४०.] • वृहत्ति -लघुन्याससंवलिते [पाद. ४ सू. ११६-११९ ।
ननु प्रत्ययः प्रकृतेविशेषणं भवतीति किं न पूर्यते, किमादिग्रहणात् प्रत्ययग्रहणेन ?
उच्यते, आदिशब्दाभावे प्रत्ययः प्रकृतेर्विशेषणमिति कोऽर्थः ? प्रत्ययः पूर्वा प्रकृति विशेषयतीत्यर्थः स्यात्तथा च स्यादौ पूर्वस्याः प्रकृतेः स्याद्यन्तत्वं स्यात्ततः पयांसि इत्यादी जसि पूर्वस्याः प्रकृतेर्विभक्त्यन्तत्वात् ‘सो रुः' २-१-७२ इति रुत्वं स्यात, यतः किं हि वचनान्न सिध्यतीति आदिग्रहणेन प्रत्ययो गृह्यते ।।
णत्वं सिद्धमिति अन्यथा 'रणवर्ण०' २-३-६३ इति एकपदत्वाभावात् णत्वं न स्यात् । गौणो ड्यादिः ॥ ७. ४. ११६ ॥
डीमारभ्य व्यं यावत् ङयादिः प्रत्ययः स गौण उपसर्जनं सन् प्रकृत्यादेः समुदायस्य विशेषणं भवति नोनाधिकस्य । कारीषगन्ध्यामतिक्रान्तः स बन्धुरस्य अतिकारीषगन्ध्यबन्धः । अतिकोमुदगन्ध्य बन्धु । अत्र येणाधिकस्याग्रहणात् 'बन्धी बहुव्रीहौ' (२-४-८३) इति ईच न भवति । गौण इति किम् । अगीणोऽधिकस्यापि समुदायस्य विशेषणं भवति, परमकारीषगन्धीबन्धुः परमकौमुदगन्धीबन्धुः । पूर्वेणैव सिद्धेऽगौणस्याधिकपरिग्रहार्थं वचनम् ।११६॥
न्या० स० कृत्सग०-भस्मनिहुतमित्यादिषु तत्पुरुषे कृति ' ३-२-२० इति सर्वत्रालुप् । कृत्सगतिकारकस्यापि ॥ ७. ४. ११७ ॥
कृत्प्रत्ययः प्रकृत्यादेः समुदायस्य गतिकारकपूर्वस्य अपिशब्दात्केवलस्यापि विशेषणं भवति, यथेह समासो भवति भस्मनिहुतम् प्रवाहेमुत्रितम तथा उदके विशीर्णम् अवतप्तेनकुलस्थितमिति सगतिकेन सकारकेण च क्तान्तेन 'क्तन' (३-१-९२) इति समासः सिद्धो भवति । तथा व्यावक्रोशी व्यावहासी सांकौटिनं सांराविणमिति 'नित्यं अजिनोऽण' (७-३-५८) इति अण् सिद्धः । 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' (७-४-११५) इत्यतोऽप्राप्ते वचनम् ।११॥ परः ॥ ७. ४. ११८॥
यः प्रत्यय स प्रकृतेः पर एव भवति। अजा, खट्वा, वृक्षः, वृक्षो, वृक्षाः, जुगुप्सते, मीमांसते, कार्यम्, गम्यम्, औपगवः ।११८॥ स्पर्धे ॥ ७. ४. ११९ ॥
द्वयोविध्योरन्यत्र सावकाशयोस्तुल्यबलयोः एकत्र अनेकत्र च उपनिपातः स्पर्धः तत्र यः सूत्रपाठे परः स विधिर्भवति । 'शसोऽता सश्च नः पुसि' (१-४-४९) इत्यस्यावकाशो वृक्षान् मुनीन् । 'नपुसकस्य शिः'
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। पाद. ४ सू. १२१-१२२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [४०१ (१-४-५५) इत्यस्य तु महान्ति यशांसि । इहोभयं प्राप्नोति वनानि मधनि,-तत्र परस्वाच्छिरेव भवति । अयं तावदेकस्य द्विकार्ययोगे स्पर्ध उक्तः । अनेकस्याप्यसंभवे सति भवति । 'ई: पोमवरुणेऽग्नेः' [३-२-४२] इत्यस्यावकाशोऽग्नीवरुणो, 'देवतानामात्यादी' (७-४-२८) इति वृद्धेरवकाश आग्नावैष्णवं हविः, इहोभयं प्राप्नोति । आग्निवारुणीमनड़वाहीमालभेत । परत्वात्तु वृद्धिर्भवति । अत्र ह्यग्नेरीत्वं वरुणशब्दस्य च वृद्धिरिति नैको द्विकार्ययुक्तः । असंभवस्त्वस्ति वृद्धी सत्याम् ' इद्धिमत्यविष्णो' [३-२-४३] इति अग्नेरीत्वापवाद इर्भवति, परस्परप्रतिबन्धेनाप्रवृत्ती पर्याय वा प्राप्ते वचनम् ।११९।
न्या० स० स्पर्धे०-एकत्रेनि एकत्र एकस्मिन् स्थानिनि । उपनिपातः प्रसङ्गो द्वयोर्विध्योरित्यर्थः। भनेकत्र चेति अनेकस्मिन् स्थानिनि उपनिपातो द्वयोंविध्योरित्यर्थः । आसन्नः ॥ ७. ४. १२० ।।
इह आसन्नानासन्नप्रसङ्गे यथास्वं स्थानार्थप्रमाणादिभिरासन्न एव विधिर्भवति । तत्र स्थानेन, दण्डाग्रम्, क्षुपाग्रम्, कण्ठययोरकारयोः कण्ठ्य एवाकारो दीपों भवति । अर्थेन, वातण्ययुवतिः, दारदवृन्दारिका, अत्र वतण्डीशब्दस्य दरच्छन्दस्य च 'पुंवत्कर्मधारये' [३-२-५७ | इति पुवद्भावे कर्तव्ये अर्थत सन्मो वातण्डयभावो दारदभावश्च भवति । प्रमाणेन, अमुष्मै । अमूभ्याम् 'मादुवर्णोऽनु' (२-१-४७) इति मात्रिकस्य मात्रिको द्विमात्रस्य च द्विमात्रः ।१२०॥ ___ न्या० स० आस०-दारदभावश्चेति न तु वतण्डदरद्भावः पुंस्त्वं तु तस्यापि विद्यत एव परमनासन्नो गोत्रानभिधानात् । संबन्धिनां संबन्धे ।। ७. ४. १२१ ॥
संबन्धिशब्दानां यत्कार्यमुक्त तत्संबन्ध एव सति भवति नान्यथा । 'श्वशुराद्यः'। श्वशुरस्यापत्यं श्वशुर्यः । संज्ञाशब्दात्तु इव । श्वारिः । 'मातृपितुः स्वसुः' (२-३-१८) मातृष्वसा, धान्यमातुः स्वसुस्तु न भवतिमातृस्वसा ।१२१॥ समर्थः पदविधिः ॥ ७. ४. १२२ ॥
समर्थपदाधितत्वात्समर्थः। पदसंबन्धी विधिः पदविधिः, तेन यः पदाद्विधिः यश्च पदे यश्च पदस्य पदयोः पदानां वा स सर्वः पदविधिरेव,
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४०२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पा० ४. सू० १२२ ] सर्वः पदविधिः समर्थो वेदितव्यः । समर्थानां पदानां विधिर्वेदितव्य इत्यर्थः । तच्च सामर्थ्यं व्यपेक्षा एकार्थीभावश्च । अत्र व्यपेक्षायां संबद्धार्थः संप्रेक्षितार्थो वा पदविधि: साधुर्भवति । एकार्थीभावे तु विग्रहवाक्यार्थाभिधाने यः शक्तः संगतार्थः संसृष्टार्थो वा पदविधिः स साधुर्भवति, अत्र च पदानि उपसर्जनीभूतस्वार्थानि निवृत्तस्वार्थानि वा प्रधानार्थोपादानात् व्यर्थानि अर्थान्तराभिधायी नि वा भवन्ति । पदविधिश्व समासनामधातुकृत्तद्वितोपपदविभक्तियुष्मदस्मदादेशप्लुतरूपो भवति । तत्र समासः, द्वितीया 'श्रितादिभिः ' । धर्मं श्रितः धर्मंश्रितः, ' तृतीया तत्कृतैः । शङकुलया कृतः खण्डः शङ्कुलाखण्ड: । ' चतुर्थी प्रकृत्या यूपाय दारु यू दारु, 'पञ्चमी भयाद्यै: ' त्रृकाद्भयं वृकभयम्, ' षष्ठययत्नाच्छेषे राज्ञः पुरुषः राजपुरुषः, 'सप्तमी शौण्डाद्यं: ' अक्षेषु शौण्डः अक्षशौण्डः, ' विशेषणं विशेष्येणैकाथं कर्मधारयश्च' नीलं च तदुत्पलं च नीलोत्पलम्, एषु पूर्वोत्तरपदयोर्वाक्यावस्थायां परस्पराकाङ्क्षालक्षणा व्यपेक्षा । वृत्त्यवस्थायां तु पृथगर्थानां सतामेकार्थीभाव इति । तथा हि- धर्ममित्येतत्साधनत्वात्साध्यभूतां क्रियामपेक्षते । श्रित इत्येतदपि श्रयणक्रियोपसर्जनकर्तृ वाचि स्वक्रियाविषयं साधनमपेक्षते, तयोश्च परस्परसंसर्गात् मूछितावयव इव वृत्तावेकार्थीभावो भवति ।
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धर्मं श्रितो धर्मंश्रितश्चैत्र इति, एवं शङकुलया कृतः खण्डः शंकुलाखण्ड इति कर्तृकर्मणोर्गम्यमानकरोतिक्रियाकृता वाक्ये व्यपेक्षा । वृत्तावेकार्थीभावः, एवं चतुर्थीसमासादावपि यूपायेत्यादि सामान्यमवच्छेदाय भेदानाकाङ्क्षति कि यूपाय गच्छत्यागच्छति पुष्पं दारु वेति । दार्वपि यूपाय गृहाय दाहाय वेति भेदानाकाङ्क्षति । एवं सर्वत्र उपसर्जनानां प्रधानानां च परस्परमाकाङ्क्षावतां कचित्प्रकृतिविकारभावलक्षणः क्वचिदवध्यवधिमद्भावात्मकः कचित्स्वस्वामिभावः कचिद्विषयविषयिभावरूपः संबन्धो वाक्ये व्यपेक्षा, वृत्तौ स्वेकार्थीभावः । एवं नीलमित्येतद्विशेषणं गुणत्वात् द्रव्यमाकाङ्क्षति । उत्पलमित्येतदपि सर्वोत्पलावग्रहरूपेण प्रवृत्तं सद्विशेष्यत्वाद्विशेषणं गुणमाकाङ्क्षति । वृत्तौ पुनरेकार्थीभावेन पांसूदकवदविभागापन्नो तावुभावप्यर्थावेकस्मिन्नधिकरणे मूर्च्छिताविव भवतः । नीलं च तदुत्पलं च नीलोत्पलमिति, तदेतत्सामर्थ्य - विशेषोक्तमपि लोकव्यपेक्षया वृत्त्यवृत्त्योः स्वभावेन विभक्तमवतिष्ठते । यत्र त्वसामर्थ्यं तत्र समासो न भवति । पश्य धर्मम् श्रितो मैत्रो गुरुकुलम्, किं ते शकुलया खण्डो मैत्र उपलेन, गच्छ यूपाय दारु शोभनं शैले, निवर्तस्व
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[ पाद. ४. सू. १२२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने सप्तमोध्यायः [४०३ व्याघ्रात भयं चैत्रस्य मैत्रात, भार्या राज्ञः, पुरुषो देवदत्तस्य, सक्तस्त्वमक्षेष, शौण्डः पिबति पानागारे इति, नामधातुः, पुत्रमिच्छति पुत्रीयति, श्येन इवाचरति श्येनायते । समर्थ इति किम् ? पश्यति पुत्रमिच्छति सुखम्, कृत्-कुम्भं करोति कुम्भकारः, समर्थ इति किम् ? पश्य कुम्भं करोति कटम् । तद्धितः, उपगोरपत्यमोपगवः । समर्थ इति किम् ? गृहमुपगोरपत्यं तव । उपपदविभक्तिः नमो देवेभ्यः, अभिजानासि देवदत्त काश्मीरेषु वत्स्यामः, उपाध्यायश्चेदागच्छेदाशंसे युक्तोऽधीयीय । समर्थ इति किम् ? इदं नमो देवाः शृणुत, देवदत्त मातरं स्मरसि, अवसाम दीर्घ मगधेषु । युष्मदस्मदादेशः, धर्मस्ते स्वं धर्मो मे स्वम् । धर्मो व: स्वं धर्मो नः स्वम् । समर्थ इति किम् ? ओदनं पच, तव भविष्यति, मम भविष्यति । प्लुत,-अङ्ग कज ३ इदानीं ज्ञास्यसि जाल्म । समर्थ इति किम् ? अङ्ग कूजत्ययमिदानी ज्ञास्यति जाल्मः । पदग्रहणाद्वर्णविधिरसामर्थेऽपि भवति, तिष्ठतु दध्यशान त्वं शाकेन । तिष्ठतु कुमारीच्छत्रं हर देवदत्तेति । यत्वं द्वित्वं च भवति । एवं समासनामधातुकृत्तद्धितेषु वाक्ये व्यपेक्षा वृत्तावेकार्थीभावः। शेषष पुनर्व्यपेक्षव सामर्थ्यं भवति । ननु च राज्ञः पुरुषमानयेत्युक्ते योऽर्थे आनीयते राजपुरुषमानयेत्यप्युक्त स एव तत्कोऽत्र व्यपेक्षका भावयोविशेषः । उच्यते, संख्याविशेषो व्यक्ताभिधानमुपसजनविशेषणं चयोगश्चेति । तत्र राज्ञः पुरुषः राज्ञोः पुरुषः राज्ञां पुरुषः इति वाक्ये संख्याविशेषो भवति, समासे न भवति । राजपुरुषः । वाक्ये युपसर्जनानि विभक्तार्थाभिधायित्वात्संख्याविशेषयुक्त स्वार्थ प्रतिपादयन्ति । समासेऽन्तर्भूतस्वार्थं प्रधानार्थमभिदधतीत्यभेदकत्वसंख्यां गमयन्ति । संख्याविशेषाणामविभागेनावस्थानमभेदैकत्वसंख्या ।।
'यथोषधरसाः सर्वे मधुन्याहितशक्तयः । अविभागेन वर्तन्ते ता संख्यां तादृशीं विदुः' ।१। विभक्तिवाच्यैव तु संख्या वृत्ती निवर्तते नामादिगम्या तु न निवर्तते । यथा द्विपुत्रः पञ्चपुत्र इत्यादी नामार्थ एवं संख्याविशेषः । तावकीनो मामकीन इत्यादेशाभिव्यङ्गयमेकत्वम् । शौर्षिकः मासजात इति परिमाणस्वाभाव्यादेकत्वसंख्यावगमः । कारकमध्यं व्यञ्जनमध्यमित्यादी मध्यान्यथानुपपत्त्या द्वित्वावगमः । यत्रापि वृत्तौ विभक्तलब नास्ति दास्याः पूत्र देवानांप्रियः आमुष्यायणः अप्सव्यः गोषुचरः वर्षासुज इति तत्रापि संख्याविशेषो नास्ति सामान्येन विशेषणमात्रप्रतीतेः । अत एव वृत्ती संख्याभेदाभावात्स्वभावतो
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४०४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवळिते [पाद. ४ सू. १२२ ] निवृत्ता विभक्तिलपा अन्वाख्यायते, अलुप्समासे तु शब्दान्तरं विभक्त्यन्तप्रतिरूपावयवमनेनोपायेन प्रतिपाद्यते, तथा वाक्ये व्यक्ताभिधानं भवति । ब्राह्मणस्य कम्बलस्तिष्ठति। समासे पुनरव्यक्त ब्राह्मणकम्बलस्तिष्ठतीति, संदिह्यतेऽत्र षष्ठीसमासो वा संबोधनं वेति । किंचित्पुनरव्यक्त वाक्ये । यथार्ध पशोर्देवदत्तस्येति । पशुगणस्य वा देवदत्तस्य यदधं यो वा संज्ञीभूतो पशुस्तस्य यदर्धमिति । तच्च समासे व्यक्तम् अर्धपशु देवदत्तस्येति, तथा वाक्ये उपसर्जनविशेषणं भवति । ऋदस्य राज्ञः पुरुषः, समासे न भवति । राजपुरुषः। यथाहुः-'सविशेषणानां वृत्तिर्न वृत्तस्य वा विशेषणं न प्रयुज्यत इति' । विशेषणयोगे हि सापेक्षत्वेनागमकत्वात्सामर्थ्य न भवति । यत्र च 'कचिद्विशेषणयोगेऽपि गमकत्वं तत्र भवत्येव समासः यथा देवदत्तस्य गुरुकुलम्, यज्ञदत्तस्य दासभार्या । यदाह
'संबन्धिशब्दः सापेक्षो नित्यं सर्वः प्रवर्तते । स्वार्थवत्सा व्यपेक्षास्य वृत्तावपि न हीयते ।१।
तथा वाक्ये चयोगो भवति स्वचयोगः स्वामिचयोगः । राज्ञो गोश्चाश्वश्च पुरुषश्च । चैत्रस्य मैत्रस्य मित्रस्य च गौः । समासे न भवति । राज्ञो गोश्वपुरुषाः । चैत्रमैत्रमित्राणां गौरिति । यदि समर्थः पदविधिः कथमसामर्थ्य सूर्यमपि न पश्यन्त्यसूर्यपश्या राजदाराः, पुनर्न गीयन्तेऽपुनर्गेया: श्लोकाः, श्राद्धं न भुक्तंऽश्राद्धभोजी, अलवणभोजी, सर्वश्चर्मणा कृतः सार्वचर्मीणो रथः, कृतः पूर्व कटोऽनेनेति कृतपूर्वी कटम् इत्याचा वृत्तयो भवन्ति । किं हि वचनाम्न भवति ।१२२। __ न्या० स० सम०-व्यपेक्षेति परस्पराकाक्षेत्यर्थः सा च वाक्ये संभवति, एकार्थीभावस्तु समासे । संबद्धार्थ इति संबद्धोऽर्थो यस्य यत्र झटित्येव पदानामन्वयः प्रतीयते राज्ञः पुरुष इत्यादौ संबद्धार्थः पदविधिः । संप्रेक्षितार्थ इति संप्रेक्षितः कष्टकल्पनया प्रतीतोऽथों यत्र यथा
राजोत्पले हरिभुजामिह के शवस्य, यस्योरसीन्दुरदनं च जटाकलापे । शं खाम्बरोऽपि पवनादरिनाथसूनुः,
कान्ता स वोऽगतनया बिपुलं ददातु ॥१॥ इत्यादौ क्लिष्टकाव्ये कष्टकल्पनयार्थः प्रतीयते, अस्य काव्यस्य व्याख्या
यस्योरसि हरिभुजां वायुभुजां सर्पाणां राजा शेषः, यस्य च जटाकलापे इन्दुर्यस्य च शवस्य के मृतकस्य के मस्तके उत्पले निर्मा से अदनं भक्षणं, यस्य च कान्तागतनयाद्रिसुता
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[ पाद. ४. सू. १२२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः
[ ४०५
स खाम्बरोऽपि विपुलं शं सुखं वो ददातु, पवनात् सर्पस्तस्यारिमयूरस्तस्य नाथः कार्तिकेयः सूर्यस्येत्यर्थः ।
संगतार्थो गतार्थः, यथा वीरपुरुषको ग्रामः अतिखट्व इति, अत्र हि पदानामर्थः सर्वोऽपि गतः समासार्थ एव प्रतीयते, संसृष्टार्थस्तु मिलितार्थः, यथा राजपुरुष इति ।
द्वघर्थानीति प्रधानोऽर्थः समासार्थलक्षणस्तदुपादानात् द्वयर्थानीति, अयमर्थः, एकस्तावन् प्रधानोऽर्थः परः स्वार्थ इति द्वयर्थता ।
अर्थान्तराभिधायनीति अर्थान्तरं समासार्थलक्षणं तदभिधायीनीति |
मूर्च्छितावयव इवेति मूर्च्छितभिन्नपदार्थावयव इत्यर्थः । उपसर्जनानां प्रधानानां चेति द्वितीयाद्यन्तानां विशेषणानां प्रथमान्तानां विशेष्याणां चेत्यर्थः ।
द्रव्यमाकाङ्क्षतीति द्रव्याश्रमो गुण इति गुणलक्षणात् । अङ्ग कूजत्ययमिति अत्र 'त्यादेः साकाङ्क्षस्य ' ७-४-९१ इत्यनेन सूत्रेणायमित्यनेन आकाइक्ष्यमाणस्य इदानीं ज्ञास्यतीत्यस्य वाक्यस्य भेदकत्वेनासामर्थ्यात् प्लुतो न भवति ।
परिमाणस्वाभाव्यादिति यद्यपि सूर्पाभ्यां सूपैर्वा क्रीत इति मासौ मासा वा जातस्येति fare संख्याविशेषोऽस्ति, तथापि वृत्तौ परिमाणस्वाभाव्यादेकत्वमेव प्रतीयते ।
अन्वाख्यायत इति नहि विद्यमानेऽर्थे विभक्तेर्लुबन्वाख्यायते अपि तु संख्याभेदाभावात् कोऽर्थः ? एकत्वद्वित्वबहुत्वाभावात् स्वत एव निवृत्ता विभक्तिः ' ऐका' ३-२-८ इति पान्वाख्यायते ।
चयोगो भवतीति वाक्ये भिन्नत्वात् पदार्थानां भेदनिबन्धनसमुच्चयद्योतनाय च शब्दः प्रयुज्यते, वृत्तौ तु समूहलक्षणैकार्थप्रादुर्भावात् भेदस्य निवर्त्तनात् द्योत्यार्थाभावात् द्योतकस्य चशब्दस्य निवृत्तिः ।
कथमसामर्थ्ये इत्यादि—अत्र हि सूर्यकर्मिकया दृशिक्रियया नमः संबन्ध:, न सूर्यसत्तया । पुन गोमन्त इति गानेन ननः संबन्धो न पुनः शब्दार्थेन ।
अश्राद्ध भोजीत्यादौ तु भुजिना नमः संबन्धो न श्राद्धादिना श्राद्धादि भोजननिषेधावगमात्, ' एवं सार्वचम्मणः कृतपूर्वीत्यत्र सर्वशब्दस्य कृतशब्देन कृतशब्दस्य कटशब्देन च संबन्धो न चर्म पूर्वशब्दाभ्यामिति । किं हि वचनान्न भवतीति गमकत्वात् ' नञ्' ३-१-५१ इत्यनेनासामर्येऽपि बाहुलकाद् भवतीत्यर्थः ।
इति व्याकरणस्य सारोद्धारप्रकरणे सप्तमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ।
( प्रशस्तिः )
आसीद् वादिद्विरदपूतन पाटने पञ्चवक्त्रश्चान्द्रे गच्छेऽच्छतरधिषणो चर्म्मसूरिर्मुनीन्द्रः ।
पट्टे तस्याजनि जनमनोऽनो कहानन्द कन्दः, सूरिः सम्यग् गुणगणनिधिः, ख्यातिभाग् रत्नसिंहः || १ ||
यस्योपरागसीमाय - मुदयः परभागभाग् ।
देवेन्द्रसूरिस्तत्पट्टे, जज्ञे नव्यो नभोभणिः ||२॥
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद. ४ सू० १२२ ]
इतश्च
निर्वीराधनमुक्तिशास्त्ररचनाभीवावधोत्सर्पणाश्रीकौमारविहारमण्डितमही, भूपप्रबोधादिका । क्षीरोदोदधिमुद्रितेऽवनितले, यस्योर्जिताः केलयः,
सोऽभूत्तीर्थकरानुकारिरचनः (चरितः) श्रीहेमचन्द्रो गुरुः ॥३॥ किंच
भूपालमौलिमाणिक्य,-मालालालितशासनः । दर्शनषट्कनिस्तन्द्रो हेमचन्द्रो मुनीश्वरः ॥४॥ तेषामुदयचन्द्रोऽस्ति, शिष्यः संख्याक्तां वरः। यावज्जीवमभूद्यस्य, व्याख्याज्ञानामृतप्रपा ॥५॥ तस्योपदेशाद् देवेन्द्रसूरिः शिष्यलवो व्यधात् । न्याससारसमुद्धारं, मनीषी कनकप्रभः ॥६॥
तद्धितावचूर्णिका समाप्ता ।
" इति लघुन्यासप्रशस्तिः” ये तु शास्त्रे सूचिता लोकसिद्धाश्च न्याया न तदर्थ यत्नः क्रियते । स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा ।। सुसद्धिंदिकशब्देभ्यो जनपदस्य ।२। ऋतोर्वद्धिमद्विधाववयवेभ्यः ।३। स्वरस्य इस्वदीर्घप्लुताः ।४। आद्यन्तवदेकस्मिन् ।५। प्रकृतिवदनुकरणम् ।६। एकदेशविकृतमनन्यवत् ।७। भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः।८। भाविनि भूतवदुपचारः।९। यथासंख्यमनुदेशः समानानाम् ।१०। विवक्षातः कारकाणि ।११। अपेक्षातोधिकारः ।१२। अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः । अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य (ग्रहणम्) ।१४। लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव (ग्रहणम्) ।१५। नामग्रहणे लिङ्गविशिष्ट स्यापि ।१६। प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि ।१७। श्तिवा शवाऽनुबन्धेन निर्दिष्टं यद्णेन च । एकस्वरनिमित्तं च पञ्चैतानि न यङ्लुपि ।१८। संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य ।१९। असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे ।२०। न स्वरानन्तर्ये ।२१। गौणमुख्ययोमुख्य कार्यसंप्रत्ययः ।२२। कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे ।२३। क्वचिदुभयगतिः ।२४। सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः ।२५। धातोः स्वरूपग्रहणे तत्प्रत्यये कार्यविज्ञानम् ।२६। नञ्युक्तं तत्सदृशे ।२७। उक्तार्थानामप्रयोगः ।२८। निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः।२९। संनियोगशिष्टानामेकापायेऽन्यतरस्याप्यपायः।३०। नान्वाचीयमाननिवृत्तौ प्रधानस्य।३१। निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य ।३२। एकानुबन्धग्रहणे न ब्यनुबन्धकस्य ।३३। नानुबन्धकृतान्यसारूप्यानेकस्वरत्वानेकवर्णत्वानि ।३४। समासान्तागमसंज्ञाज्ञापकगणन् नि ष्टान्य
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श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने सप्तमोऽध्यायः
[ ४०७
[ पाद. ४. सू. १२२ ] नित्यानि । ३५। पूर्वेऽपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् | ३६ | मध्येऽपवादाः पूर्वान् । ३७। यं विधि प्रत्युपदेशोऽनर्थकः स विधिर्बाध्यते । ३८ | यस्य तु विधेनिमित्तमेव नासो बाध्यते । ३९ । येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्य बाधकः |४० | बलवन्नित्यमनित्यात् ।४१ | अन्तरङ्ग बहिरङ्गात् ॥४२॥ निरवकाशं सावकाशात् ।४३। वार्णात् प्राकृतम् ॥ ४४ ॥ स्वृत् स्वृदाश्रयं च ॥४५॥ उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिः । ४६ । लुबन्तरङ्गेभ्यः । ४७ । सर्वेभ्यो लोपः । ४८१ लोपात्स्वरादेशः । ४९ । आादेशादागमः । ५० । आगमात्सर्वादेशः । ५१ । पराग्नित्यम् । ५२ । नित्यादन्तरङ्गम् । ५३ । अन्तरङ्गाच्चानवकाशम् १५४ | उत्सर्गादपवाद: |५५ | अपवादात् क्वचिदुत्सर्गोऽपि । ५६ । नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिरिति ॥५७॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचितायां श्रोसिद्ध हेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासन बृहद्वृत्तौ सप्तमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः ।। ७ । ४ ।।
क्षितिघव भवदीयः क्षीरधाराबलक्षे-रिपुविजययशोभिः श्वेत एवासिदण्डः ॥ किमुत कवलितैस्तैः कज्जलैर्मालवीनां परिणतमहिमानं कालिमानं तनोति |१| ।। इति सप्तमोऽध्यायः ॥
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निस्सीमप्रतिभैकजीवितधरौ निःशेष भूमिस्पृशां,
पुण्यौघेन सरस्वतीसुरगुरू स्वाङ्गकरूपौदधत् । यः स्याद्वाद मसाधयन्निजवपुर्दृष्टान्ततः सोऽस्तु मे, सबुद्धयम्बु निधिप्रबोधविधये श्रीहेमचन्द्रः प्रभुः ॥ श्री मलिषेणसूरिः ॥
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retuReatreet ॥ इति श्रीसिद्धहेमचन्द्र (संस्कृत) शब्दानुशासनं (बृहदुवृत्तिः)
लघुन्याससहितम् ॥
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परिशिष्ट-१
लिङ्गानुशासनम् ।
पुंलिङ्ग कटणथपभमयरषसस्न्वन्तमिमनलौ किश्तिव । ननङौ घघौ दः किर्भावे खोऽकर्तरि च कः स्यात् ॥ १॥
अथ लिङ्गानुशासनावचूरिः--
ॐ नमः सर्वज्ञाय । लिङ्गानुशासनमन्तरेण शब्दानुशासनं नाविकलमिति सामान्यविशेषलक्षणाभ्यां लिङ्गमनुशिष्यते। नामेति वक्ष्यमाणमिह संबध्यते । क ट ण थप भ म य र ष सान्तं स्न्वन्तं च नाम पुलिङ्ग स्यात्, कादयोऽकारान्ता गृह्यन्ते पृथक् सन्त निर्देशात्, द्विस्वरसन्तानां नपुसकत्वस्य वक्ष्यमाणत्वेन एकत्रिस्वरादिसन्ता गह्यन्ते ।
कान्तः-पानक: पटहो दुन्दुभिश्च इत्यादि । टान्तः-कक्षापुट: सारसंग्रहग्रन्थः इत्यादि । णान्तः-गुणः शुम्बेप्रधानादौ इत्यादि । थान्तः-निशीथः अर्धरात्र: शपथः समयः इत्यादि । पान्तः-क्षुपो लतासमुदायः इत्यादि । भान्तः-दर्भो बहिः इत्यादि । मान्तः-गोधूमो नागरङ्ग स्यादित्यादि ।
यान्तः-भागधेयो दायादः, राजदेये तु पुस्त्रियोर्वक्ष्यते, शुभे तु तन्नामत्वादेव क्लोबत्वम्, तन्दुलीयः शाकविशेषः इत्यादि ।
रान्तः-निर्दर: कन्दरी इत्यादि । पान्तः-गवाक्षः ‘गवाक्षी शक्रवारुण्यां, गवाक्षो जालके कपौ' इत्यादि । सान्तः-कूसः कञ्चके, हंसो विहङ्गभेदे इत्यादि । सन्त:-माश्चन्द्रमासयो: पुसि, अनेहाः कालः इत्यादि । नन्तः-ग्रावा पाषाणो गिरिश्च इत्यादि । उकारान्तः-तकु: सूत्रवेष्टनमग्न्याधारभाण्डं च, मन्तुः अपराधः इत्यादि ।
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2
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श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने
अन्तान्तं नाम पुलिङ्गम्, पर्यन्तोऽवसानम्, विष्टान्तः मरणम्. प्रत्यन्तस्य बाहुलकत्वान्नपुंसकत्वमेव । इमन् प्रत्ययान्तं अल् प्रत्ययान्तं च नाम पुलिङ्गम् ---इमन्प्रथिमा, म्रदिमा, द्रढिमा इत्यादि। नन्तत्वेनैव सिद्धे इमन् ग्रहणं 'पात्वात् त्वादिः' इति नपुसकबाधनार्थम्, यस्त्वौणादिकस्तस्याश्रयलिङ्गता, भरिमा पृथ्वी, वरिमा तपस्वी इत्यादि । अल, प्रभव: 'प्रभवस्तु पराक्रमे, मोक्षेऽपवर्गः इत्यादि । तथा क्यन्तं श्तिवन्तं (च) नाम पुलिङ्गम्-किः अयं वृतिः वृतूङ धातुस्तदर्थश्च । श्तिव्-अयं पचतिः डुपची धातुस्तदर्थश्च । श्तिव्साहचर्यात् 'इकिश्तिव् स्वरूपार्थे' [५-३-१३८] इति विहितस्यैव के हरणम् । तथा न प्रत्ययान्तं नङप्रत्ययान्तं (च) नाम पुलिङ्गम् । 'स्वप्नः स्वापे प्रसूप्तस्य, विज्ञाने दर्शनेऽपि च' प्रश्नः पृच्छा, नङ विश्नो गमनम, तथा घ प्रत्ययान्तं घञ् प्रत्ययान्तं च नाम पुलिङ्गम् । घ:, कर: 'करो वर्षोपले रश्मी, पाणौ प्रत्यायशुण्डयोः ।' परिसरो मृत्यौ देवोपान्तप्रदेशयोः, उरश्छदः कवचं प्रच्छदश्चोत्तरपट:, छदस्य तु नपुसकता वक्ष्यते इत्यादि । घअन्तम्-पादः । पादो बुध्नांह्नितुर्यांशरश्मिप्रत्यन्तपर्वतादिषु, प्राप्लावः स्नानम्, भावः,
'भावः सत्तास्वभावाभिप्रायचेष्टात्मजन्मसु ।
क्रियालोलापदार्थषु विभूतिबन्धजन्तुषु । अनुबन्धः प्रकृत्यादेरनुपयोगी । दासंज्ञकाद्धातोर्यः कि: प्रत्ययो विहितस्तदन्तं नामपुलिङ्गम् । आदि: प्राथम्यम्, व्याधिः रोगः, उपाधिर्धर्मचिन्ता कैतवं कुटुम्बव्यावृतो विशेषणं च. उपधि: कपटम, उपनिधि: न्यासः, प्रतिनिधिः प्रतिबिम्बम् , संधि : पुमान् सूरुङ्गादौ । परिधिः परिवेषः, अवधिस्त्ववधानादौ, प्रणिधिः प्रार्थनमवधानं चरश्च, समाधि: प्रतिसमाधानं, नियमो मौनं चित्तैकार्थ्यं च, विधिः काल: कल्पो ब्रह्मा विधिवाक्यं विधानं दैवं प्रकारश्च । वालधिः पुच्छम्, शब्दधिः कर्णः, जलधिः समुद्रः. अन्तद्धिर्व्यवधा, प्रधेस्तु नेमौ स्त्रीपुसत्वं रोगविशेष स्त्रीत्वं. शिरोधेस्तु स्त्रीत्वम्, इषुधेस्तु स्त्रीपुसत्वं वक्ष्यते इत्यादि । भावे खः, भावेऽर्थे यः खो विहितस्तदन्तं नाम पुलिङ्गम् । प्राशितस्य भवनम् आशितंभवो वर्तते, तृप्तिरित्यर्थः । भाव इति किम् ? पाशितो भवत्यनया आशितंभवा पञ्चपूली, अकर्तरि च क: स्यात्, भावे कर्तृवजिते च कारके यः कः प्रत्ययस्तदन्तं नाम पुलिङ्गम् । प्राखूनामुत्थानमाखूत्थः, विहन्यतेऽनेनास्मिन् वा विघ्न अन्तरायः इत्यादि । अकर्त्तरि चेति किम् ? जानातीति ज्ञा परिषद् ॥१॥
हस्तस्तनौष्ठनखदन्तकपोलगुल्फ, केशान्धुगुच्छदिनसतु पतद्ग्रहाणाम् । निर्यासनाकरसकण्ठकुठारकोष्ठ, हैमारिवर्षविषबोलरथाशनीनाम् ॥ २॥
हस्तादीनां नाम जलध्यादीनां तु सभिदां सप्रभेदानामपि पुलिङ्ग भवति । हस्तनाम, पञ्चशाखः, करः, शयः, अयं शय्यायामपि यान्तत्वात् पूसि, हस्तस्य तू पूनपुसकत्वम्, स्तननाम स्तनः, पयोधरः, कुचः वक्षोजः इत्यादि। प्रोष्ठनाम प्रोष्ठः अधरः, दन्तच्छदः इत्यादि । नखनाम, करज:, कररुहः, मदनाङ कुशः इत्यादि। नख:
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लिङ्गानुशासनम् .
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पुक्लबः नखरस्तु त्रिलिङ्ग, दन्तनाम दन्तः, दशनः, अयं रुद्रटेन क्लीबेऽपि निबद्धः 'दशनानि च कुन्दकलिकाः स्युः' इति तच्चिन्त्यम् द्विजः, रदः रदनः इत्यादि । कपोलनाम कपोल:. गण्डः, गल्लः इत्यादि। गुल्फनाम गुल्फः, गुटुः, प्रपदः, प्राप्रपदः, खुरकः, निस्तोदः पादशीर्षः इत्यादि । हस्तिगुल्फस्तु प्रौहः घुटिकघुण्टिघुण्टगुल्फास्तु स्त्रीपुंसलिङ्गा वक्ष्यन्ते ।
केशनाम केशः, शिरोजः, शिरोरुहः, चिकुरः, चिहुरः, कच: अयं बाहुलकाद् वरणेऽपि पुसि, गुरोः पुत्र तु देहिनामत्वात् सिद्धम् । इभ्यां तु योनिमत्त्वात्स्त्रीत्वम् । अस्रः, वेल्लितानः इत्यादि । वृजिनश्च यद्गौडः 'वृजिनं कल्मषे क्लीबं, केशे ना कुटिले त्रिषु ।' कुन्तलश्च-'कुन्तला: स्युर्जनपदो, हलो वालश्च कुन्तलः ।' हले बाहुलकात् पुसि। वाल: पुनपुसको वक्ष्यते, तद्विशेषोऽपि केशः । कुरलः, अलकः। अन्धुः कूपस्तन्नाम, अन्धुः, ह्रहिः प्रहिः इत्यादि। कूपस्तु स्त्रीपुसलिङ्गः । गुच्छनाम गुच्छः गुत्सः, गुलुच्छः, स्तबकस्तु पुक्लीबः ।
दिननाम घस्रः, सूर्याङ्कः, दण्डयामः दिनदिवसवासराणां पुनपुंसकत्वम् । दिवाह्नोस्तु नपुंसकत्वम् । स इति समासस्याख्या पूर्वाचार्याणाम् तन्नाम बहुव्रीहिः, अव्ययीभावः, द्वन्द्वः इत्यादि । ऋतुनाम हेमन्तः, वसन्तशिशिरनिदाघाः पुनपुंसका:, शरत्प्रावृड्वर्षाश्च स्त्रीलिङ्गाः । ऋतुस्तु उदन्तत्वात् पुसि, पतद्ग्रह आचेलकाधारस्तन्नाम प्रतिग्रहः, प्रतिग्राहः इत्यादि । निर्यासनाम वृक्षादीनां रसः, गुग्गुलः, श्रीपृष्टः, श्रीवेष्टः, सर्जरसः, उषः, उलूखलं नपुंसकम् । निर्यासस्तु पुनपुंसकः, कुम्भकुन्दोलूषले तु
हलकानप सके। नाकनाम स्वर्गः, स्वः अव्ययम नाकत्रिदिवौ पूनसकौ. दिवं त्रिविष्टबं क्लीबे, द्योदिवौ स्त्री। रसाः शृगारादयस्तन्नाम शृङ्गार-हास्य-करुण-चौद्रवीर-भयानक-शान्त-वीभत्साद्भुता इति । वत्सलस्तु पुत्रादिस्नेहात्मा रतिभेद एव, शृङ्गारः पुक्लीबः, गौस्तु
शृंगारवीरौ बीभत्सं, रौद्रं हास्यं भयानकम् । करुणा चाद्भुतं शान्तं, वात्सल्यं च रसा दश ॥१॥ इति ।
कण्ठनाम गलः, नालः । कुठारनाम, परशुः, पशु:, स्वधितिः इत्यादि । कुठारः पुस्त्री, कोष्टनाम, कुशूलः इत्यादि। हैमनाम हैमो भेषजभेदः किराततिक्तः किरातकसंज्ञः । अरिनाम, द्विषन्. प्रत्यर्थी, रिपुः इत्यादि । वर्षनाम वत्सः, संवत्सरः संवदित्ययमव्ययमपीति कश्चित् । वर्षहायनाब्दास्तु पुक्लीबाः, शरत्समे तु स्त्रीलिङ्ग । विषनाम, गरः, ब्रह्मसुतः, क्ष्वेडः, वत्सनाभः इत्यादि। विष-कालकूट-गरल-हालाहल-काकोला: पुनपुसका:, मधुरस्य बाहुलकात् क्लीबत्वम् । बोल औषधविशेषस्तन्नाम, गन्धरस: प्राण: इत्यादि। रथनाम, पताकी, स्यन्दनः, पुनपुसकोऽयमिति गोडशेषः, रथः पुस्त्री। अशनिनाम पविः इत्यादि । अशनिः पुंस्त्री, वज्रकुलिशो पुक्लीबो, भिदुरं बाहुलकात् क्लीबम् ॥२॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
श्वेतप्लवात्ममुरजासिकफाभ्रपङ्क, मन्थत्विषां जलधिशेवधिदेहभाजाम् । मानद्रुमाद्रिविषयाशुगशोरणमास, धान्याध्वराग्निमरुतां सभिदां तु नाम ॥ ३ ॥
श्वेतनाम, श्वेतः, कपर्दः। प्लवनाम, कोलः, भेलः, उडुपस्तु पुक्लीबः । अात्मनाम, जीवः, पुङ्गलः, क्षेत्रजः, प्रधाने त्वाश्रयलिङ्गता पुरुषः इत्यादि। मुरजो मर्दलस्तन्नाम मृदङ्गः, मुरजभेदोऽपि मुरजः । असिनाम निस्त्रिशः, खड्गः, ऋष्टेस्तु पुंस्त्रीत्वम् । कफः श्लेष्मा खेटस्तु पुक्लीबः। अभ्र मेघः, अभ्रस्तु पुक्लीबः । पङ्को निषद्वरः, पङ्कजम्बालो पुक्लीबो। मन्थः, मन्थानः। विटकान्तिः अंशुः, अयं रवावपि, अभीषुः मर्धन्योपान्त्योऽयम । यखः । अयं शोभाज्वालयोरपि बाहलकात प्रसि रुचित्विटद्यतिदीघतयः स्त्रीलिङ्गाः, रोचि: शोचिषी तु द्विस्वरसन्तत्वात् क्लीबे, गोमरीचिप्रश्नयस्तु . पुंस्त्रीलिङ्गाः, रश्मिः, अयं रज्जो स्त्रियाम् । जलधिः, अर्णवः, समुद्रः, महाकच्छः । पश्चिमाशापतौ तु देहिनामत्वात् पुसि तत्प्रभेदनाम क्षीरोदः, लवणोदः इत्यादि शेवधिः, निधिः तत्प्रभेद:
'महापश्च पाश्च, शङ्खो मकरकच्छपौ ।
मुकुन्दकुन्दनीलाश्च, खर्वश्च निधयो नव ॥ १॥ पद्मस्य विभबिन्दी नपुसकत्वम्। देही, जन्तुः, जन्मी, जन्मशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति, जन्तुः पुनपुसकः तत्प्रभेदः ब्राह्मणः, क्षत्रियः, वैश्यः, शूद्रः इत्यादि । देवः सुर: इत्यादि । तत्प्रभेद: इन्द्रः, चन्द्रः इत्यादि। माननाम तूल:, कुडवः, प्रस्थ: पुनपुसकः, पाढकस्तु त्रिलिङ्गः। द्रुमनाम अंहिपः, वनस्पतिः। विषयनाम विषय इन्द्रियग्राह्यो गन्धशब्दस्पर्शादिः। देशश्च तुबररावकषायकोलाहलनीलानां पुक्लीबत्वं, रूपस्य तु नपुंसकत्वम् । आशुगनाम पतत्रिः, शरबारणकाण्डाः पुनपुसकाः । इषस्त्रिलिङ्गः । धान्यनाम व्रीहिः, स्तम्बकरिः। धान्यसोत्यशस्यानां संयुक्तयान्तत्वेन नपुसकत्वम् । भाषाण पुनपुसको । पाढकी प्रियंगू स्त्री, मसूरः स्त्रीपुसः, शणं नपुसकम् । अध्वरनाम अध्वरः, मखः, यज्ञः। वितान-वाजपेय-राजसूयानां यज्ञविशेषाणां पुनपुसकत्वम् । बर्हिः सत्रयोस्तु नपुसकत्वम् । अग्निनाम भास्करः, प्राशुशुक्षणिः, अयमण्यन्तोऽपि बाहुलकात् पुसि । मरुन्नाम वातः, समानस्तु पुनपुसकः ।। ३ ।।
बोऽच्छदेऽहिर्वप्रे, वह्यग्न्योर्हायन - बहिषौ ।
मस्तुः सक्तौ स्फटिकेऽच्छो नीलमित्रौ मणीनयोः ॥ ४ ॥ छदः पर्ण पिच्छं च, ततोऽन्यस्मिन् बर्हः पुसि, बर्हः परिवारः तयोस्तु पुनपुसकः । वप्रे केदारेऽहिः पुसि, सर्प तु पुस्त्री। हायनबहिषौ व्रीहावग्नौ च पुसि । वर्षरश्म्योश्च भेदे पुनपुसको। बहिषाऽग्निनामत्वादेव सिद्धे द्विस्वरसन्तक्लीबत्वबाधनार्थम् । सक्तो धानाविकारे मस्तुः, अन्यत्र तु स्त्वन्तत्वात् क्लीबत्वम् ।
स्फटिकेऽच्छः, अयमव्ययमाभिमुख्येऽप्यस्ति । मणौ रत्ने इने सूर्ये क्रमेण नील
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मित्रौ पुसि, नोलान्तत्वान्महीनीलोऽपि, मित्रस्य देहिनामत्वादेव सिद्धे नियमार्थ, तेन सुहृदि संयुक्तरान्तत्वेन क्लीबत्वम् ।। ४ ।।
कोणेऽस्रश्चषके कोशस्तलस्तालचपेटयोः ।
अनातोद्ये घनो भूम्नि दारप्राणासुवल्वजाः ॥ ५ ॥ कोणेऽस्रः पुसि, कोणः अस्रः, अन्यत्रेदमस्र रुधिरम्, संयुक्तरान्तत्वान्नपुसकत्वम् , केशे तु तन्नामत्वादेव पुस्त्वम् । चषके कोशः पुसि, कोशश्चषकः, प्रत्याकारे शम्बायां च त्रिषु, भाण्डागारादौ तु पुनपुसकः । तालो वृक्षविशेषो वितस्तिश्च तयोश्चपेटे च तल: पुसि, तलान्तत्वात् प्रतलोऽपि चपेटे। प्रातोद्यमुपलक्षणं नृत्यस्य, प्रातोद्यान्मध्यमनृत्ताच्चान्यत्र घनः पूसि। दाराः कलत्रम्, प्रारणा असवो जीवितं च, असवः प्राणा: वल्वजा उपलाख्यस्तृलभेदः, एते पुलिङ गाः, भूम्नि बहुत्व एव, क्वचिदेषामेकत्वमपि, असुसाहचर्यात्तद्वाचिन एव प्राणस्य बहुत्वम्, पुंस्त्वं तु णान्तत्वादेव सिद्धम् ।। ५ ॥
कान्तश्चन्द्रार्कनामायः परो यानार्थतो युगः ।
यश्च स्यादसमाहारे द्वन्द्वोऽश्ववडवाविति ॥ ६ ॥ चन्द्रार्कनामभ्योऽयः शब्दाच्च परः कान्तो यानार्थवाचिनः परो युगश्च पुलिङ्गः, चन्द्रकान्तः, सूर्यकान्तः, अयस्कान्त: लोहाकर्षणः (यूपयुग्मयोरपि) यानयुगः, शकटयुगः, यश्चासमाहारे इतरेतरयोगे द्वद्वोऽश्ववडवाविति स पुसि, अश्वश्च वडवा चेमावश्ववडवौ, द्विवचनमतन्त्रम्, तेनेमेऽश्ववडवाः, अश्ववडवान् पश्य, 'अश्ववडवपूर्वापराधरोत्तरा' [३.१.१३१] इति निर्देशाद् ह्रस्वत्वम्, असमाहार इति किम् ? अश्ववडवम् । द्वन्द्व इति किम् ? अश्वो वडवाऽस्याश्ववडवमुन्मुग्धं कुलं, अश्ववडवा स्त्री, द्वन्द्वस्यापरवल्लिङ्गत्वप्राप्तौ वचनम् ।। ६ ।।
वाकोत्तरा नक्तकरल्लकाङ्का, न्युङ खोत्तरासङ्गतरङ्गरङ्गाः। परागपूगौ सृगमस्तुलुङ गकुडङ्गकालिङगमतङ्गमङ गाः ॥ ७ ॥
अतः परं स्वरान्तक्रमेण शब्दा उदाह्रियन्ते, तत्र स्वरान्तेषु ककारोपान्त्यादिक्रमेणाकारान्ता उदाह्रियन्ते, वाकोत्तरपदा नक्तकादयश्च शब्दा: पुलिङ्गाः, अनूच्यत इति अनुवाकः ऋग्यजु: समूहात्मकं वचनं, धान्तत्वादेव, सिद्धे नियमार्थं वचनम् 'भाव एव पुस्त्वमिति' तेन वङ्क काष्ठमित्यादौ भावादन्यत्र घान्तस्याश्रयलिङ्गता, अथवा अनुगतो वाकोऽनेन तदनुवाक इति अन्यपदार्थत्वेऽपि पुस्त्वार्थम् । नक्तको गलनम्, रल्लक: पक्ष्मकम्बल:, अङ्कः समीपन्, नक्तकरल्लकयोवस्त्रनामत्वेनाङ्कस्यान्तिकनामत्वेन क्लीबत्वे प्राप्ते वचनम् ।
न्युङ खा: षडोङ काराः, सम्यगमनोज्ञे त्वाश्रयलिङ्गः, उत्तरासङ गः वैकक्ष्यम्, तद्वाची अर्थप्राधान्यात् कम्बलोऽपि । तरङग: मिः, रङ गो नर्तनभूमिः, परागो
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धूल्यादिः, पूगः क्रमुकः संघोऽपि, अयं क्लीबोऽपि इति कश्चित् । सृगो भिन्दिपालाख्यः शस्त्रविशेषोऽर्थप्राधान्याद् भिन्दि (द) पालोऽपि । मस्तुलुङ गो मस्तिष्क: कुडङ गो वृक्षगहनम्, कालिङग: कालिङि गनी तत्फलं च, चिर्भट्यां वल्लिनामत्वादेव स्त्रीत्वम्, वल्लिनामत्वेन स्त्रीत्वे फलनामत्वेन क्लीबत्वे प्राप्ते वचनम् । तमङ गइन्द्रकोश:, मङगो धर्मो नौः शिरश्च ।।७।।
वेगसमुद्गावपाङ्गवगौघार्घा मञ्चसपुच्छपिच्छगच्छाः ।
वाजौजकिलिञ्जपुञ्जमुजा अवटः पट्टहठप्रकोष्ठकोष्ठाः ॥ ८ ॥
वेगो रयः किंपाकफलं प्रवाहो मूत्रादिप्रवृत्तिश्च, समुद्गः संपुटः, अपाङ्गो नेत्रान्तस्तिलकश्च, वर्गः संघातः, अोघः समूहादिः, अर्को मूल्यं पूजाविशेषश्च, वेग-वर्ग-रङ गौघार्धाणामौरणादिकगान्तानां समुद्गस्य च डान्तस्य ग्रहणम्, घनन्तत्वे तु सिद्धमेव । मञ्चो राजासनम्, पुच्छः पश्चाद्भागः, लाङ गूले तु पुनपुसकः, पिच्छं, लाङ गूलम्, गच्छोऽभिमतसंख्यावसानम्, वाजः पिच्छम्, प्रोजो विषमसंख्या, किलिजः कटः, मुजः शरेषोका, अवटो रन्ध्र, पट: पेषणपाषाणः पीठं च, ललाटभूषायां बाहलकत्वात् स्त्रीत्वे पट्टो हठः बलात्कारः वारिपर्णी च, प्रकोष्ठः कूर्परादधः, कोष्ठः कुक्षिगृहयोरन्तरालं आत्मीयश्च ।। ८ ।।
अङ गुष्ठगण्डौ लगुडप्रगण्डकरण्डकूष्माण्डगुडाः शिखण्डः ।
वरण्डरुण्डौ च पिचण्डनाडीव्रणौ गुरणभ्र रणमलक्तकुन्तौ ।। ६ ॥ अङ गुष्ठोऽङ गुलिविशेषः, अथ डान्ता दश, गण्ड: पिटकः, लगुडो लोहमयं शस्त्रं, प्रगण्ड: कूर्परांसयोर्मध्यम्, करण्डा भाण्डविशेषः, कुष्माण्ड: कर्कारुः भ्र गाश्च, गुडो गोलकः, शिखण्डश्चूडा, वरण्डोऽन्तरावेदौ रुण्डः, कबन्धः, रुण्डान्तत्वाद् वारुण्ड: सेकपात्रम्, पिचण्ड उदरम् णान्तास्त्रयः, नाडोव्रणो रोगविशेषः, वरणस्य पुनपुसकत्वेन तत्पुरुषेण परवल्लिङ गताप्राप्तौ वचनन, गणः पट: । भ्रगणो गभिणी स्त्री शिशुश्च, गुणस्यांशुकनामत्वेन नपुसकत्वे भ्र रणस्य तु योनिमन्नामत्वेन स्त्रीत्वे प्राप्ते पाठः, अथ तान्ताः सप्त, अलक्तो यावकः, कुन्त: प्रासः, अर्थप्राधान्यात् शलपराचदीर्घायुधा अपि ।। ६ ।।
पोतः पिष्टातः पृषतश्चोत्पातवातावर्थकपदौ । बुबुदगदमगदो मकरन्दो जनपदगन्धस्कन्धमगाधाः ॥ १० ॥
पोतः प्रवहणं शिशुश्च, पिष्टात पटवासकः, पृषता बिन्दवः, प्रायेण बहुवचनान्तोऽयम्, मृगवाचिनस्तु देहिनामत्वादेव पुंस्त्वम्, उत्पातः उपसर्गः, व्रातः समूहः । अथ थान्तः–'अर्थः प्रकारे विषये, चित्तकारणवस्तुषु, अभिधेयेऽपि शब्दानाम् । धननामत्वेन क्लीबत्वे प्राप्तेऽस्य पाठः। अथ दान्ताः षट् कपर्दो हरजटाबन्धः, वराटवाचिनस्तु तन्नामत्वादेव सिद्धं पुस्त्वम्, बुबुदः जलादिसंस्थानविशेषः, गदो व्याधिः
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विष्णोरनुजश्च, अगद औषधम्, मकरन्दः पुष्परसः, अर्थप्राधान्यान्मरन्द इति, जनपदो जनसमूहो विषय: करदश्च कुटुम्बी, अगदजनपदयोभैषजनामपदान्तत्वाभ्यां नपुंसकत्वे प्राप्ते पाठः।
.. अथ धान्ता: 'गन्धो गन्धक आमोदे लेशे संबन्धगर्वयोः स्कन्धः 'प्रकान्डेंऽशे नृपे स्कन्धः काये व्यूहसमूहयोः' । अगाधः विरलम्, बिलनामत्वादेव क्लीबत्वे प्राप्तेऽस्य पाठः ।। विरं छन्दः ।। १० ।। .
अर्धसुदर्शनदेवनमह्नाभिजनजनाः परिघातनफेनौ ।
पूपापूपौ सूपकलापौ रेफः शोफः स्तम्बनितम्बौ ॥ ११ ॥ अर्धः खण्डम्, ग्रामाधः, अधः पटी, अर्धः नगरम्, समांशे तु क्लीबत्वस्य वक्ष्यमारणतया विषमांशवृत्तिरिहाधशब्दः । अथ नान्ताः सप्त, सुदर्शनः विष्णुचक्रं शऋपुरं च, मेरुजम्ब्वां स्त्री पुसलिंग:, देवनः अक्षः, क्रोडाविहारविजिगीषासु नान्तत्वान्नपुसकत्वमेव । अह्न इति 'संख्यात' [७.३.११६] इति 'सर्वांश' [७.३.११८] इति च कृतसमासान्तोऽहन् शब्दः, संख्याताह्नः, सर्वमहः सर्वालः, पूर्वमह्नः, पूर्वाल्लः, एवं सायाह्नः, प्रारम्भो मध्ये चाह्नः प्राण: मध्याह्नः, अपराह्णस्तु पुक्लोब:, परवल्लिङगतापवादोऽह्नस्य पाठः, अभिजनः कुले ख्याताव भिजनो जन्मभूम्यां कुलध्वजौ। जनः लोकः, परिघातनः अयोबद्धो लगुडः, फेनः डिण्डोरः, अर्थप्राधान्यादब्धिकफ इत्यपि । अथ पान्ताश्चत्वारः पूपोऽपूपश्च गुणभेदः मूप: मुद्गादिविकारः सूपकारे देहिनामत्वादेव सिद्धम्, अर्थप्राधान्यात् सूद इत्यपि, पूपादीनां नपुंसकत्वे प्राप्तेऽस्य पाठः, 'कलापःसंहतौ बर्हे काञ्च्यां भूषणतूणयोः', पिच्छनामत्वान्नपुसकत्वेऽस्य पाठः ।
अथ फान्तो। रेफोऽवद्यम्, वर्णविशे तु विषयनामत्वेनैव पुस्त्वम्, शोफः श्वययुः । अथ बान्ताः स्तम्बः पालानं व्रीह्यादीनां प्रकाण्डविशेषश्च, तत्र चार्थप्राधान्याद् गुच्छोऽपि, नितम्बः स्त्रियाः पश्चात् कटौ, सानो नितम्ब: कटरोधसोः' ।। ११ ।।
शम्बाम्बौ पाञ्चजन्यतिष्यौ पुष्यः सिचयनिकाय्यरात्रवृत्राः । मन्त्रामित्रो कटप्रपुण्ड्राराः कल्लोलोल्लौ च खल्लतल्लौ ॥ १२ ॥
शम्ब: मुसलाग्रस्थो लोहमण्डलकः, अशनौ तु तन्नामत्वादेव पुस्त्वं, अम्बः सरकादीनाम् . अथ यान्ताः। पाञ्चजन्यो विष्णोः शङ्क: पोटगलश्च, तिष्यः पूष्यश्च कलियुगं, नक्षत्रे बहुलं नक्षत्रेत्यनेन मासविशेषे तु मासनामत्वादेव पुस्त्वम्, सिचयो वस्त्रम्, अंशुकनामत्वेन क्लीबत्वे प्राप्तेऽस्य पाठः । निकाय्यो निवास: ।
अथ रान्ताः रात्र इति कृत समासान्तः 'संख्यातैक' [७.३.११६] इति 'ऋक्साम' [७.३.६७] इति च रात्रि शब्दः । पुण्यारात्रिः पुण्यरात्रः, वर्षा रात्रः, दीर्धरात्रः, चिररात्रः, पूर्वरात्रः, अपररात्रः, अर्धरात्रः, अहोरात्राविमौ, एकात् समाहारे च पुक्लीब:,
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
परवल्लिङ्गतापवादोऽस्य पाठः । वृत्रोऽन्धकार: रिपुश्च, मन्त्र: ऋगादिलक्षणः, अमित्रा वैरी । अरिनामत्वादेव सिद्धे संयक्तरान्तत्वात क्लीबत्वबाधनार्थं वचनम, कटप्रः समह 'पुण्ढ़ो दैत्यविशेषेक्षुभेदयोरतिमुक्तके' प्रार: आरकूटः, द्रवनामत्वात् क्लीबत्वे प्राप्तेऽस्य पाठः। अथ लान्ताः २६ कल्लोलस्तरङ्गः, अर्थप्राधान्यादुल्लोलोऽपि, उल्लः सूरणः, खल्लः कृतौ हस्तपादावमर्दनाख्यरुजि च, तल्लस्तडागः ।। १२ ।। कण्डोलपोटगलपुद्गलकालवाला
वेला गलो जगलहिङ गुलगोलफालाः । स्यादेवलो बहुलतण्डुलपत्रपाल
वातूलतालजडुला भृमलो निचोलः ॥ १३ ॥ . कण्डोल: पिटकाख्यं भाजनम्, पोटगल: काश: नडश्च, पुद्गलः परमाणुः देहश्च । कालो मृत्युः, वालोऽश्वकरिवालधिः, तूटो तु बाहलकात स्त्रियाम, आवेलचवितताम्बलम, गलः सर्जरसः, अर्थप्राधान्यात् कलकल इत्यपि, कण्ठे तु तन्नामत्वादेव पुस्त्वम् । द्रवनामत्वात् क्लीबत्वे प्राप्तेऽस्य पाठः, जगल: पिष्टमद्यम्, हिङ गुलं दारदं, गोल: सर्वतोवृत्तः बालक्रोडनकाष्टे स्त्रीपत्राशनादौ क्लीबः, यस्तु गोल एव गोलक इति स्वार्थिकप्रत्ययान्तो मृते भर्तरि जारजस्य वाचकः स प्राश्रयलिङ्गः। फाल: कुशी, देवल: देवायतनम्, बहुलः कृष्णपक्षः, तण्डुलः धान्यसारः विडङ गं च । पत्रपालः दोर्घाछरी । वातूलः वातसमूहः वातासहे चोन्मत्ते चाश्रयलिङ गः । ताल: गीतकालक्रियामान करतलादौ। जडुलो देहे कृष्णं लक्ष्म । भृमलो रोगविशेषः, निचोल: निचुलकम्, उपसर्गस्यातन्त्रत्वात् चोल: स्त्रीणां कूसकश्चोल: ।। १३ ।।
कामलकुद्दालावयवस्वाः ख वरोरवयावाः शिवदावौ।
माधवपणवादीनवहावध्र वकोटीशांशाः स्पशवंशौ ॥ १४ ॥
कामलो 'मरौ रोगेऽवतसे ना कामलस्त्रिषु कामुके' कुद्दालः खनित्रविशेषः । अथ वान्ताः १२-अवयव: अङ्गम् । स्व आत्मा स्वभाव: ज्ञातिश्च, अर्थे तु पुक्लीबः प्रात्मोये तु गुणवृत्तित्वादाश्रयलिङ्गः। स्रवः स ग्भेदः, रौरवो नरकभेदः, याव: अलक्तकः, शिवो वेदादिः, दावो अरण्यम्, वह्निविशेषेत पूस्त्वं सिद्धमेव, अर्थप्राधान्यादव इत्यपि 'कानने वनवह्नौ च स्याद्दावो दववन्नरि', माधवो मधुमिश्र पासवः, स्वाथिके के माधवकः, माघे मासभेदे मघौ विष्णौ च सिद्धमेव पुंस्त्वम्, स्त्रियामपीति कश्चित्, पणवः पटहः, आदीनवो दोषः परिक्लिष्ट: दुरन्तश्च, हावः भावसूचकः, ध्र व आतौ शिवे शङ्को इत्यादि। अथ शान्ता: ७ कोटीशो लोष्टभेदनः, अर्थप्राधान्यात् कोटिशोऽपि, अंश: भागः, स्पशः संपरायः प्रणिधिश्च, 'वंशो वर्ग कुले वेणौ पृष्ठस्यावयवेऽपि च ॥ १४ ॥
कुशोड्डीशपुरोडाश-वृषकुल्मासनिष्कुहाः । अहनिवू हकलहाः पक्षराशिवराश्यषिः ॥ १५ ॥
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लिङ्गानुशासनम्
कुश: योक्त्रम् द्वीप, उड्डीशो ग्रन्थविशेषः, हरे तु देहिनामत्वात् पुस्त्वंपुरोडाशो हविभदे चमस्यां पिष्टकस्य च । रसे सोमलतायाइच, हुतशेषे च पुंस्यपि ॥
अथ षान्तः वृषः गवादिः, व्रतिनामासनं वृषी । अथ सान्तः कुल्मासः अर्धस्विन्नो माषादिः, अन्ननामत्वात् क्लीबत्वे प्राप्तेऽस्य पाठः, मूर्धन्योपान्त्योऽप्ययम् । अथ हान्ताः ४ निष्कुहः कोटरम्, ये तु टान्तमाहुस्तन्मते टान्तत्वात् पुंस्त्वम्, अह इति 'द्विगो:' [ ७. १. ११४. ] इति 'अह्नः ́ [७. ३. ११६. ] इति च कृतसमासान्तो ऽहन् शब्दः, द्वयोरोः समाहारो द्वयहः, त्र्यहः, पञ्चाहः, सप्ताहः । द्विगुरन्नेति स्त्रीनपुंसकत्वे परमाह उत्तराह इत्यादी परवल्लिङ्गताप्राप्तौ वचनम्, सुदिनैकाभ्यां क्लीबत्वम्, पुण्याहस्य तु पुंनपुंसकत्वम् । निर्यूहः शेखरे नागदन्ते निर्यासेऽपि, कलहः खड्गकोशे भण्डने च । अथ क्षान्त:, - पक्षः पिच्छम्, युद्धपिच्छनामत्वात्क्लीबत्वे प्राप्ते वचनं, प्रतिज्ञार्थादौ च पक्षस्य षान्तत्वादेव पुंस्त्वम् । अथेकारान्ता:, - राशिमेषादिः पुच, वराशि: स्थूलशाटः, वस्त्रनामत्वात् क्लांबत्वे प्राप्तेऽस्य पाठ: ऋषिर्वेदविशिष्टादौ ।। १५ ।।
दुन्दुभिर्वमतिवृष्णि पाण्यविज्ञातिरा लिकलयोऽञ्जलिर्घा रिणः । अग्निवह्निमयोऽह्रिदीदिविग्रन्थि कुक्षिहतयोऽर्दनिर्ध्वनिः ।। १६ ।।
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दुन्दुभिर्भेरीविशेषे, दैत्ये तु सिद्धमेव प्रक्षे स्त्रीत्वम् वमतिर्वान्तिः, वृष्णिः कुलविशेषः मेषश्च पारिणः हस्तः, प्रविः मूषककम्बलः, ज्ञातिः स्वजन:, रालिः कलहः, कलिः, अन्त्ययुगम्, अञ्जलिः पाणिपुट:, घृरिणरभीशु, प्रग्निः कृशानुः, वह्निः स एव कृमि: कीटः, अर्थप्राधान्यात् क्रिमिरपि । हि: पाद:, प्रर्थप्राधान्यादङ घिरपि, दीदिवि: ओदनम् अर्थप्राधान्यात् कुरुश्च ग्रन्थिः रज्ज्वादिवेष्टनबन्धः कुक्षिर्जठरम्, टतिश्चर्म चर्मप्रसेवकश्व, प्रर्दनिः अग्निः, ध्वनिः प्रतीयमानोऽर्थः, वृष्णिघृष्ण्योर्ण्यन्तत्वात् अग्निवह्नयोश्च न्यन्तत्वात् प्रर्दनेरन्यन्तत्वात् कृमेर्म्यन्तत्वात् पाणिकुक्ष्यं णां प्राण्यङ्गवाचीदन्तत्वात् स्त्रीत्वे दीदिवेरन्ननामत्वाद् रालेश्च युन्नामत्वात् क्लीवत्वे प्राप्ते वचनम् ।। १६ ।।
गिरिशायुकd हाहाहूहूश्च नग्नहूर्गर्मु त् ।
पादश्मानावात्मा पाप्मस्थेमोष्मयक्ष्मारणः ।। १७ ।।
॥ इति पुंलिङ्गं समाप्तम् ॥
गिरि: कन्दुकः, शिश्रुः श्रोत्रम्, जायुरौषधम्, कर्पू: कराषाग्निः, हाहाहूहूरित्यखण्डं नाम देवगायनवाचि, केचित् खण्डयन्ति, अव्ययत्वादलिङ्गाविति केचित्, गन्धवच हाहा हूहूरिति तु लक्ष्यम् । एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् * अर्थप्राधान्याद् वा निर्देशस्य तदपि संगृहीतम्, देहिनामत्वादेव पुंस्त्वसिद्धौ विमतिज्ञापनार्थं हूहूरित्यस्य कृत इति स्त्रीत्वबाधनार्थम्, नग्नहूर्माषदलिन्यादिबोजम्, अर्थप्राधान्यान्नग्नहुरित्यपि, नग्नान् ह्वयतीति व्युत्पत्तिप्राधान्ये त्वाश्रयलिङ्गता ।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
अथ व्यञ्जनान्ता: गर्मत सवर्णम सरघा च, द्रवनामत्वान्नपुसकत्वे प्राप्त ऽस्य पाठः, पादः चरणः, अदन्तोऽप्ययम्, अश्मा पाषाणः, उपलक्षणत्वाद् वेमलोऽपि । प्रात्मा शरीरं स्वभावश्च, पाप्मा पापं रोगश्च, स्थेमा स्थर्यम्, इमन्नन्तत्वादेव सिद्धे द्विस्वरं मन्नकर्तरि इति क्लीबत्वबाधनार्थमस्य पाठः। ऊष्मा संतापः समृद्धिश्च, यक्ष्मा क्षयरोग:, तदन्तत्वाद् राजयक्ष्मापि। अश्मादीनामन्नन्तत्वेन क्लीबत्वे प्राप्ते वचनम्, एवं शेषेष्वपि लिङ्गषु स्वरव्यञ्जनान्तक्रमो ज्ञेयः ।। १७ ।।
॥इति पुंल्लिङ्गस्यावचूरिः॥
स्त्रीलिङ गं योनिमद्वम्री-सेनावल्लितडिन्निशाम् ।
वीचितन्द्राऽवटुग्रीवा - जिह्वाशस्त्रीदयादिशाम् ॥ १॥ नामेति स्मर्यते, योनिमदादीनां नाम स्त्रीलिङग भवति-पुरुषी, स्त्री, रामा, वामा, हस्तिनो, वशा, वृषो, अश्वा, मकरी, मत्सो, मयूरी इत्यादि। वम्री नाम उपदेहिका इत्यादि । सेनानाम--चमूः, पृतना, वाहिनी इत्यादि । वल्लिनाम-लता, प्रतानिनी, वल्लरी इत्यादि । वल्ली अजमोदायां तु अस्य बाहुलकात् स्त्रीत्वम् ।।
तडिनाम-शंबा, चपला, चरा, इत्यादि। निशानाम तुङ्गी, तमी, निट शब्दोऽप्यस्ति निशावाची। वीचिनाम--वीचिः, उत्कलिका, लहरी, भङ्गिः इत्यादि 'तरङ्गोल्लोलकल्लोलानां पुस्त्वमुक्तम् । तन्द्राशब्देनालस्यनिद्रे गृह्यते । अवटुनाम घाटा, कृकाटिका इत्यादि, अवटोस्तु स्त्रीपुसत्वम् । ग्रीवानाम--ग्रीवा, अयं तशिरायामपि । जिहानाम रसज्ञेत्यादि । शस्त्रोनाम शस्त्री, असिपुत्री इत्यादि । दयानाम–दया, करुणा इत्यादि। दिग्नाम-पाशा, ककुप् इत्यादि ।। १ ।।
शिशपाद्या नदीवीरणा-ज्योत्स्ना-चीरीतिथीधियाम् ।
अङ गुलीकल - शिक्वङ गु - हिङ गुपत्रीसुरानसाम् ॥ २ ॥ शिशपादिगणो नद्यादीनां नाम च स्त्रीलिङ्ग भवति । शिशपादि - शिशपा, वीरुत्, पाटला, विडा, फल्गुका, स्नुकस्नुह्यौ, निर्गुण्डी. झण्टी, जम्बूः, श्रीपर्णी, भद्रपर्णी, बदरी इत्यादिगणपाठः। नदीनाम-नदी, धनी, निम्नगा इत्यादि । वीणानाम-घोषवती. तभेदोऽपि, विपञ्ची इत्यादि । ज्योत्स्नानाम चन्द्रिका, कौमुदी इत्यादि ।
चीरी जीवविशेषः, तिथीति छ यन्तं पदम्, प्रतिपदाद्याः, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी इत्यादि यावत् पञ्चदशी, सैव पूर्णचन्द्रा राका, पूणिमा; न्यूनचन्द्राऽनुमति : अमावस्या इत्यादि । धीनाम-धिषणा, पण्डा । अङ गुलीनाम अङ गुली करशाखा, कलशी, गर्गरी, क्वङ गुर्धान्यविशेषः, हिङ गुपत्री गुल्मभेदः, सुरा वारुणी, नसा नासिका ।। २ ।।
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रास्नाशिलावचाला - लाशिम्बाकृष्णोष्णिकाश्रियाम् । स्पृक्कापण्यातसीधाय्यासरघारोचनाभुवाम् ॥३॥ हरिद्रामां सिदूर्वाऽऽलू - बलाकाकृष्णलागिराम् ।
इत्तु प्राण्यङ गवाचि स्यादीदूदेकस्वरं कृतः ॥ ४ ॥ रास्ना औषधी विशेषः, शिला, मनः शिला वचा शतपविका, गोलोमी, जीवा षड्ग्रन्था, उग्रगन्धा इत्यादि। लाला सृणीका, शिम्बा बजिकोशी, कृष्णा कृष्णजीरकी राजिका च पिप्पल्या वल्लिनामत्वात् सिद्धमेव, उष्णिका यवागूः, श्री:-लक्ष्मी:, कमला, पद्मा, पद्मवासा, हरिप्रिया, क्षीरोदतनया, मा, रमा, इन्दिरा इत्यादि ।
स्पृक्का गन्धद्रव्यविशेषः तन्नाम, मरुन्माला, पिशुना, पृक्का, देवीलता इत्यादि । पण्यानाम पण्या, कटती, सुवर्णलता, ज्योतिष्का इत्यादि । अतसीनाम कृष्णप्रिया, चण्डिफा, मसृरणा, क्षमा, उमा, इत्यादि सरधानाम क्षुद्रा, मधुमक्षिका इत्यादि । रोचनेति गोरोचना वंशरोचना च गृह्यते । तत्राद्यानाम 'वन्दनीया तु रोचना, भूतघ्नी भूतनाशिनी ।' वंशरोचना तु वांशी तु काक्षीरी तुका शुभा इत्यादि।
भूनाम भूः, भूमिः, पृथ्वी, मही इत्यादि। हरिद्रा पीतिका, मांसिगंधद्रव्यविशेषः, दूर्वा हरितालो, पालु: कर्करी गलन्तिका च, बलाका पुध्वजेऽपि स्त्रीत्वमेव, बलाका विसकण्टिका, कृष्णला गुखा, गीर्वाक् । प्राण्यङ गवाचि इकारान्तं नाम स्त्रीलिङ गम् । गोधिललाटम्, कटिः पालि: इत्यादि। इदिति किम् ? कर्णः । प्राण्यङ गवाचीति किम् ? नाभि , क्षत्रियः, प्राण्यङ गवाचिनस्तु स्त्रीपुसत्वम्, चक्रपिण्डिकायां तु स्त्रीत्वम्, ईकारान्तमूकारान्तं चैकस्वरं स्त्रीलिङ गम् । ह्रीः, प्री:, श्रीः, भ्रः, स्र:, दूः, ज्:। एकस्वरमिति किम् ? स्वयंभूब्रह्मा। नी:, लूरित्यादौ तु गुणवृत्तित्वादाश्रयलिङगता, कृत्सम्बन्धिनौ यावीदूतौ तदन्तं नाम स्त्रीलिङ गं अनेकस्वरार्थ प्रारम्भः लक्ष्मीः, पपीः, ययीः इत्यादि । यवा गुः कुकूः, कच्:, अजू, तनूः इत्यादि ।। ३-४ ।।
पात्रादिजिता - दन्तोत्तरपदः समाहारे ।
द्विगुरनाबन्तान्तो, वान्यस्तु सर्वो नपुंसकः ॥ ५ ॥ पात्रादिजितमकारान्तमुत्तरपदं यस्य स द्विगुः समाहारे स्त्री, पञ्चानां पूलानां समाहारः पञ्चपूली। पात्रादिवजित इति किम् ? द्विपात्रम्, द्विमासम् त्रिभुवनम्, चतुर्युगम् । द्वित्रिचतुर्यः परः पथः, त्रिपुरमित्यादि । अदन्तेति किम् ? पञ्चसमिति, त्रिगुप्ति, पञ्चकुमारि, दशकुमारि, अन्त्ययोः स्त्रीपुसत्वमपीत्येके, उत्तरपदेति किम् ? पञ्च गावः समाहृताः पञ्चगवम्, एवं दशगवं, सप्तभूमं, अत्र द्विगुरदन्तो नोत्तरपदम् ।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
समाहार इति किम् ? पञ्चाम्रप्रियः, अन्नन्तमाबन्तं च यदुत्तरपदं तदन्तो द्विगुर्वा स्त्री, पञ्चराजी, पञ्चराजम्, पञ्चमाली, पञ्चमालम्, त्रिसंध्यं तु क्लीबम् । अन्नन्तं चाबन्तं चोत्तरपदं न द्विगुरिति द्विरन्तग्रहणम्, उक्तस्त्रीत्वादन्यो द्विगुः समाहारे वर्तमानो नपुंसकम्, तेन पात्राद्युत्तरपदस्यानदन्तोत्तरपदस्य विकल्पितस्त्रीत्वस्य च पक्षे क्लीबत्वम् ।। ५ ।।
लिन्मिन्यनिण्यरिणस्त्र्युक्ताः क्वचित्तिगल्पह्रस्वे कप् ।
विशत्याद्या शताव द्वे, सा चैक्ये द्वन्द्वमेययोः ॥ ६ ॥ लित्प्रत्ययान्तं मि-नि-अनि-अरिण-प्रत्ययान्तं स्त्रियामुक्ताः स्त्र्युक्ताः क्तिः, क्यप्, शः, य, अः, अङ, अनः, क्विप्, ञः, अनिः, इञ्, रणकश्च इत्येतदन्तं च नाम स्त्रीलिङ्ग स्यात् । लित्वां समूहो गोत्रा, एवं रथकट्यातृण्या-जनतादयोऽपि, शुक्लस्य भावः शुक्लता, देव एव देवता इत्यादि।
मिः,--नेमिः कूपस्यान्ते त्र्यस्र काष्ठं चक्रधारा च, वल्मि: इन्द्रः, दल्मिः शस्त्रम् । निः-वेनिः केशरचना, अनिः वर्तनि: मार्गः, अटनिर्धनुष्प्रान्तः। रिण:वाणिः मूल्यं, वेरिण: केशरचना प्रवाहश्च, अणि:-सरणिः पन्थाः, तरणिः संक्रमो यवागूश्च, समुद्रादौ तु स्त्रोपसत्वम् । क्ति:-भूत्यादयः । क्यप-पास्या आसनस् । अट्या-व्रज्या, ईर्या च गमने। श:-क्रिया। य:-जागर्या । अ:-शंसा, इच्छा, शुश्रूषा श्रवणेच्छा । अङ-भिदा, छिदा, पूजा। अन:-वन्दना स्तुतिः, चेतना सवित्तिः । याचेरपि बाहुलकादने याचना, एषां भावे क्लीबत्वम् । क्विप्-संपत्, समित् एधो रणश्च, रुक् त्विट् धुच्च कान्तिः । त्र:-व्यात्युक्षी व्यतिहारेण सेचनम् । अनिः-अजननिस्ते वृषल भूयात् । इञ्, कां, त्वं कारिमकार्षी: सर्वां कारिमकार्षम् । रणक: भवतः शायिका, शयित पर्याय इत्यर्थः। क्वचिल्लक्ष्यानुसारेण तिगन्तं नाम स्त्रीलिङ्गम् । तनुतात्तन्तिरित्यादि । अल्पे ह्रस्वे चार्थे यः कप् तदन्तं नाम स्त्रीलिङ्गम् अल्पः क्रयः ऋयिका, ह्रस्वः पुट: पुटिका। क्वचिदिति किम् ? पुटकः, विशत्याद्या संख्या संख्येये संख्याने वर्तमाना च स्त्रीलिङ्गम् । इयं विशति: घटा घटानां वा, एवं त्रिंशदादयोऽपि ।
षष्टि स्त्रिलिङ्गः, शताद्यानां पुनपुसकत्वम्, नन्तसंख्या त्वलिङ्गा, द्वन्द्व विशत्याद्या संख्या शतादर्वाक् स्त्रीलिङ्ग एकविंशतिर्यावन्नवनवतिः। द्वन्द्वकत्वे इति क्लीबत्वबाधनार्थं वचनम्, सा विशत्याद्या संख्या द्वंद्व इतरेतरसमासे मेये संख्येये च वर्तमाना एकत्व एव प्रयोक्तव्या, इतरेतरार्थं वचनम् । एकविंशतिघंटा घटानां वा, एकशतम्, द्विलक्षम्, द्विसहस्रम् । द्वन्द्वमेययोरिति किम् ? द्वे विंशती घटानां तिस्रो वा विंशत्यः, विंशत्यादेः संख्यास्थानस्यैव द्वित्व बहुत्वविवक्षायां द्विवचनबहवचने, सा चेति प्रसिद्धसंख्यापरामर्शादिह न स्यात्, एकश्चैत्राय, विंशतिमैत्रायेति एकविंशती प्राभ्यां दीयतामिति द्विवचनमेव ।। ६ ।।
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लिङ्गानुशासनम्
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स्र गगीतिलताभिदि ध्र वा विडनरि वारि घटीभबन्धयोः।। शल्यध्वनिवाघभित्सु तु वेडा दुन्दुभिरक्षबिन्दुषु ॥ ७ ॥
स्र गभेदे यज्ञभाण्डभेदे गीतिलताभिदोः शालिपीमूर्वयोश्च ध्र वाशब्द: स्त्रीलिङ्गः । नरादन्यत्र विट, वारीति शब्दरूपं घट्यामिभबन्धनभुवां वा, शल्यभिदि वेणुशलाकायां, ध्वनिभिदि भटानां सिंहनादे, वाद्यभिदि च दन्तोष्ठवाचे क्ष्वेडा स्त्री। अक्षबिन्दुषु पासकबिन्दुषु दुन्दुभि स्त्री ।। ७ ।।
गृह्या शाखापुरेऽश्मन्तेऽन्तिकाकीला रताहतौ ।
रज्जौ रश्मिर्यबादिर्दोषादौ गजा सुरागृहे ॥ ८ ॥ शाखापुरं समोपस्थपुरं तत्र गृह्या, अश्मन्ते चुल्ल्यामन्तिका, रताहतौ सुरतप्रहणने कीला स्त्री, रज्जौ वाच्यायां रश्मि स्त्री, इह यवादयो यवयवनेति सूत्रोक्ताः शब्दा दोषादयश्चार्था गृह्यन्ते, दुष्टो यवो यवानी, यवनानां लिपिर्यवनानी, उरु अरण्यमरण्यानी, महद्धिमं हिमानी। दोषादाविति किम् ? यवः, यवना, धान्यविषयनामत्वात् पुस्त्वमेव, अरण्य हिमयोस्तु प्रतिपदपाठान्नपुसकत्वम्, सुरागृहे वाच्ये गजा स्त्री, खानौ स्त्रीपुसलिङ्गः ।। ८॥
अहं पूर्विकादिवर्षामघा, अपकृत्तिका बहौ।
वा तु जलौकाप्सरसः, सिकतासुमनः समाः ॥ ६ ॥ अहं पूविकादयो मयूरव्यंसकादिषु कृतनिपातः स्त्रीलिङ्गाः, 'अहं पूर्वोऽहं पूर्व इत्यहं पूर्विका स्त्रियाम् । आहोपुरुषिका दर्पाद्या स्यात् संभावनात्मनि, अहमहमिका तु सा स्यात् परस्परमहंकृतिः'। वर्षामघाऽपकृत्तिका: स्त्री०, बहुवचनान्ताश्च, जलौकप्रादयोऽपि स्त्री०, विकल्पेन बहुवचनान्ताश्च, कृत्तिकाऽर्थप्राधान्याद् बहुलाऽपि समान्तत्वात् सुषमाऽपि कालभेदे परमशोभायां च ।। ६ ।।
गायत्र्यादय इष्टका बृहतिका संवतिका सजिका-, दूषीके अपि पादुका झिरुकया पर्यस्तिका मानिका । नीका कञ्चुलिकाऽल्लुका कलिकया राका पताकान्धिका ,
शूका पूपलिका त्रिका चविकयोल्का पञ्चिका पिण्डिका ॥ १० ॥
षडक्षरी गायत्रीमादीकृत्य षड्विंशत्यक्षरीमुत्कृष्टि यावत् छन्दोजातिनामानि स्त्री०, शर्करी मेखलानद्योरपि, अक्षरनियमात्मकं छन्द , गुरुलधुनियमात्मक वृत्तं, इति बहुलं वृत्तेत्यादिना न सिध्यति इष्टका मृविकारः, बृहतिका उत्तरासङ्गः, कप्रत्ययाभावे बृहती रिङि गणी, संवर्तिका पद्मादीनां नवोद्भिन्न दलम्, सजिका क्षारविशेषः,
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
अर्थप्राधान्यात् सझिकापि, सुवचिका स्रघ्नो इत्यादि। दूषीका नेत्रमलं, अर्थप्राधान्यात् दूषिका इत्यादि, पादुका उपानत्, अर्थप्राधान्यादुपानदादयोऽपि तत्पर्यायाः सर्वे, झिरुका कोष्ठिकाख्यो मृद्विकारः पर्यस्तिका परिकरः अर्थप्राधान्यादवसक्थिकापि, मानिका द्रोणचतुष्टयं, नीका सारणिः, कञ्च लिका कञ्च कः, अल्लका धान्यकम्, कलिका कुड्मलं, कलिकान्तत्वादुत्कलिकाऽपि हेलोत्कण्ठयोः राका कच्छ:, पताका सौभाग्यं ध्वजश्च अर्थप्राधान्यात् पटाकावैजयन्तीजयन्त्योऽपि, अन्धिका कैतवम्, शूका हृल्लेखा, पूपलिकाऽपूपः, काभावे पूपली, अर्थप्राधान्यात् पोली, त्रिका कूपस्यान्ते त्र्यस्र काष्ठं, चविका श्लेष्मघ्नश्चव्याख्यो भेषज: अर्थप्राधान्यात् सुगन्धापि, उल्का ज्वाला, पञ्चिका न्यासः, पिण्डिका चक्रनाभिः ।। १० ।।
ध्र वका क्षिपका कनीनिका, शम्बूका शिबिका गवेधुका । करिणका केका विपादिका, महिका यूका मक्षिकाष्टका ॥ ११ ॥
ध्र वका भाण्डविशेषः, उपलक्षणत्वात् धुवकापि, क्षिपका शस्त्रविशेषः, कनीनिका नेत्रतारा, शम्बूका शुक्तिः, शिबिका याप्ययानं, गवेधुका तृणधान्यविशेषः, अर्थप्राधान्यात् गवीधुकाऽपि, कणिका गोचूमचूर्णं, अर्थप्राधान्यात् शुद्धसमिताऽपि, केंका मयूरध्वनिः, विपादिका पादस्फोटः, मिहिका हिमम्, यूका क्षुद्रजीवविशेषः, मक्षिकाऽपि, अष्टका पितृदेवत्यं कर्म ।। ११ ।।
कूचिका कुचिका टीका कोशिका केरिणकोमिका ।
जलौका प्राविका धूका कालिका दीधिकोष्ट्रिका ॥ १२ ।। कूचिका क्षीरविकृति , कूचिका कपाटाङ कुटः, अर्थप्राधान्यात् कुञ्चिकापि, टीका वृत्तिः, कोशिका दीपभाजनं, केणिका गुणलयनी, ऊमिका अङ गुलायकम्, जलौका रक्ताकर्षः प्राणा, अर्थप्राधान्याज्जलूकाऽपि, प्राविका श्येनः, धूका पताका, कालिका क्षारविशेषः कीटश्च, दोधिका परिखा, उष्ट्रिका अलिअरः अर्थप्राधान्यानन्दाऽपि ।। १२ ।।
श (शि)लाका वालुकेषीका विहङिगकेषिके उखा। परिखा विशिखा शाखा, शिखा भङ गा सुरुङ गया ॥ १३ ॥
शलाका चित्रकूचिका, वालुका सिकता, वालुकान्तत्वाद् हिमवालुकाऽपि कर्पूरे, इषीका वीरणशलाकाविशेषः, विहङ्गिका भारयष्टिः, ईषिका गजाक्षिकूट, उखा स्थाली, परिखा खेयविशेषः, विशिखा प्रतोली, शाखा भुजः, शिखा चूडा, भङ्गा तृणधान्यं, सुरुङ्गा गूढमार्गः, अर्थप्राधान्यात् संधिलाऽपि ।। १३ ।।
जडन चञ्चा कच्छा पिच्छा पिञ्जा गुञ्जा खजा प्रजा। झञ्झा घण्टा जटा घोण्टा पोटा भिस्सटया छटा ।। १४ ।।
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लिङ्गानुशासनम्
[ 15
जङ्घाऽङ्गविशेषः, चञ्चा तृणमयः पुरुषः, कच्छा कच्छोटिका. अर्थप्राधान्यात् कच्छाटिकाऽपि, पिच्छा काश्चिकं, पिला तूलं, गुखा पटहः, खजा मन्थः दर्विश्च, अर्थप्राधान्यात् खजाकाऽपि, प्रजा लोकः, झञ्झा सशीकरो मेघवात:, घण्टा वाद्यविशेषः, अर्थप्राधान्यात् किङ्गिणीक्षुद्रघण्टिकेऽपि, जटा कचविकारः, घोण्टा बदरीफलं, पोटा शण्ढः, अर्थप्राधान्यात् तृतीयाप्रकृतिरपि, भिस्सटा दग्धिका, छटा समूहविशेष ॥ १४ ।।
विष्ठा मञ्जिष्ठया काष्ठा पाठा शुण्डा गुडा जडा।
बेडा वितण्डया दाढा, राढा रीढाऽवलीढया ॥ १५॥
विष्ठा पुरीषं, मञ्जिष्ठा रागद्रव्यविशेषोऽअर्थप्राधान्यात् अरुणाऽपि, काष्ठा मर्यादा, पाठा औषधविशेषः, शुण्डा करिहस्तः, गुडास्नुही, गुडिकापि च, जडा शूकशिम्बी, बेडा नौः, वितण्डा वादभेदः, दाढा दंष्ट्रा, राढा शोभा, रीढा अवहेला, अवलीढाऽपि ।। १५ ।।
घृणोर्णा वर्वणा स्थूणा दक्षिणा लिखिता लता ।
तृणता त्रिवृता त्रेता, गीता सीता सिता चिता ॥ १६ ॥ घृणा निन्दा, ऊर्णा मेषरोम, वर्वणा मक्षिका, स्थूणा गृहादीनामुत्तम्भनकाष्ठं, दक्षिणा यज्ञदानं, लिखिता लिपिः, तृणता चापं, त्रिवृता औषधिः, अर्थप्राधान्यादरुरंगादयोऽपितत्पर्यायाः, त्रेता युगविशेषः, गीता शास्त्रविशेषः, सीता लाङ गलपद्धतिः, सिता शर्करा, अर्थप्राधान्यात् कठिन्यपि, चिता मृतकदाहाय काष्ठशय्या ।। १६ ।।
मुक्ता वार्ता लताऽनन्ता, प्रसृता माजिताऽमृता ।
कन्था मर्यादा गदेक्षुगन्धा गोधा स्वधा सुधा ॥ १७ ॥ मुक्ता मौक्तिकं, वार्ता, वृत्तिः, लूता ऊर्णनाभः, अनन्ता दूर्वा, प्रसृता जङघा, माजिता शिखरिणी, अर्थप्राधान्यात् मजिता शिखरिण्यावपि, अमृता पथ्या गुडूची च, कन्था स्यूतजीर्णवस्त्रपावरणम्, मर्यादाऽवधिः, गदा प्रहरणविशेषः, इक्षुगन्धा कोकिलाक्षे गोक्षुरकाशक्रोष्ट्रीषु, गोधा दोस्त्राणं प्राणिविशेषश्च पुध्वजोऽपि, गोधान्तत्वात् तृणगोधा कृकलासः, स्वधा पितृदानार्थो मन्त्रविशेषः, सुधा पीयूषं लेपनं च ।। १७ ।।
सास्ना सूना धाना पम्पा, झम्पा रम्पा प्रपा शिफा।।
कम्बा भम्भा सभा हम्भा, सीमा पामारुमे उमा ॥ १८ ॥ सास्ना गोगलचर्म, सूना घातस्थानं, धाना भ्रष्टयवोऽङ कुरश्च, पम्पा सरोवरविशेषः, झम्पा उच्चादध: पतनम्, रम्पा चर्मकृदुपकरणं, प्रपाऽम्बुशाला,-अकर्तरि कः स्यादिति पुस्त्वे प्राप्तेऽस्य पाठः । शिफा तरुजटा, कम्बा कम्बिः, भम्भा भेरी, सभा वृन्दं सभासदश्च, हम्भा गोध्वनिः अर्थप्राधान्याद् रम्भाऽपि, सीमा मर्यादा पामा कण्डूः अर्थप्राधान्याद विचिकाऽपि, रुमा लवणाकरः, उमा कीर्तिः ।। १८ ।।
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16 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
चित्या पद्या पर्या योग्या, छाया माया पेया कक्ष्या । दृष्या नस्या शम्या संध्या, रथ्या कुल्या ज्या मङगल्या ॥ १६ ॥
चित्या चिता, पद्या मार्गः, पर्या क्रमः, सहयोगे सपर्या पूजा, योग्याभ्यासः । छाया शोभातमः प्रतिबिम्बेषु पालनोत्कोचयोः पङ क्त्यर्क योषित् कान्त्यादिषु च, माया दम्भः, अर्थप्राधान्यात् शाम्बरी, पेया शृतं दुग्धादि, कक्ष्या काञ्ची हादेमध्यभागश्च, दूष्या रज्जुः, नस्या वृषादीनां नासारज्जुः, शम्या युगकीलकः, संध्या चिन्तामर्यादादिषु, रथ्या रथानां समूहः प्रतोली पन्थाश्च, कुल्या सारणिः, ज्या मूर्वी, मङगल्या मल्लिकागन्ध्यगुरुश्च ।। १६ ।।
उपकार्या जलारा, प्रतिसीरा परम्परा ।
कण्डराऽसृग्धरा, होरा वागुरा शर्करा शिरा ॥ २० ॥ उपकार्या नृपमन्दिरं,-अर्थप्राधान्यादुपकारिकापि, जलार्द्रा आर्द्रवस्त्रं, इरा जलमन्नं गांश्च, प्रतिसीरा जवनिका, परंपरा परिपाटि: सन्तानकच, कण्डरा महास्नायुः, असृग्धराऽजिनं, होरा लग्नं, वागुरा मृगबन्धिनी, शर्करा उपला, शिरा धमनी ॥ २० ।।
गुन्द्रा मुद्रा क्षुद्रा भद्रा, भस्त्रा छत्रा यात्रा मात्रा।
दंष्ट्रा फेला वेला मेला, गोला दोला शाला माला ॥ २१ ॥ . गुन्द्रा मुस्ताविशेषः अर्थप्राधान्यान्महिलाऽपि, मुद्रा प्राण्यङ गुलिसंनिवेश:, क्षुद्रा वेश्या नटी कण्टकारिका च, भद्रा विष्टिः, भस्त्रा लोहधमनी, छत्ता मधुरिका कुस्तुबरुशिलन्ध्रयोश्च, यात्रा प्रयाणी देवोत्सवो वृत्तिश्च, मात्रा परिच्छद: मानमल्पं च, दंष्ट्रा दाढा अर्थप्राधान्याद् राक्षस्यपि, फेला भोजनोज्झितं, अर्थप्राधान्यात् पिण्डोलि: फेलिश्च, वेला काले बुधग्रहस्त्रियां सीम्नि वाचि च, अकारप्रश्लेषादवेला पूगचूर्णः, मेला मसिः, गोला बालक्रीडनकाष्टं, दोला प्रङखा, शाला गृहं अर्थप्राधान्यात् किमीत्यपि, माला पङ्क्तिः , स्वाथिके के मालिका पुष्पमाल्यं सरिभेदः पक्षी ग्रेवेयकं च ।। २१ ।। .
मेखला सिध्मला लीला, रसाला सर्वला बला।।
कुहाला शङ कुला हेला, शिला सुवर्चला कला ॥ २२ ॥
मेखला काञ्चीशैलनितम्बखड्गबन्धेषु, सिध्मला मत्स्य चूर्णम् लीला केलिः । रसाला माजिता जिह्वा च । सर्वला बाणभेदः । बला औषधिविशेषः अर्थप्राधान्याद्विनयापि । बलान्तत्वादतिबलामहावले अपि । कुहाला काहला,--अर्थप्राधान्याच्चण्डकोलाहला पिच्छला पत्रकाहला च, शङ कुला क्रीडनशङ कुः. हेलावहेला, शिला दृषत् स्तम्भाधारभूतं दारु च । गण्डूपद्यां तु ङ यां शिली, सुवर्चला शाकविशेषः, कला शिल्पादिः ।। २२ ।।
उपला शारिवा मूर्वा, लट्वा खट्वा शिवा दशा । कशा कुशेषा मञ्जूषा, शेषा मूषेषया स्नसा ॥ २३ ॥
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लिङ्गानुशासनम् .
[ 17
उपलाऽश्मरूपा मृत् शर्करा च, अत्र चोपलक्षणत्वात् माधवी मधुनः शर्करा । अथ वान्ताः पञ्च शारिवा औषध-विशेषः शालिविशेषः, मूर्वा ज्याहेतूस्तणविशेषः, अर्थप्राधान्यान्मोरटास्रवेऽपि, कटंभरापि च, लट्वा कुसुम्भं भ्रमरश्च खट्वा शयनं, शिवा क्रोष्ट्रो, दशावस्था वर्तिश्च, कशाऽश्वताडनं चर्मदण्डः, अर्थप्राधान्यात्सप्तलापि कुशी बला ङ्यां कुशा प्रायसो चेत्, ईशा हलदण्डः, मञ्जूषा पेटा अर्थप्राधान्यात् पेटीपेटेऽपि, शेषा देवनिर्माल्यं मूषा स्वर्णविलयनभाण्ड, ईषा हलाद्यवयवः, स्नसा स्नायुः ।। २३ ।।
वस्नसा विरसा भिस्सा, नासा बाहा गुहा स्वाहा । कक्षाऽऽमिक्षारिक्षा राक्षा, भङ ग्यावल्यायतिस्त्रोटिः ॥ २४ ।।
वस्नसा स्नायुः, विस्रसा जरा, भिस्सा प्रोदनः, नासा स्तम्भादीनामुपरि दारु, बाहा बाहुः, गुहा गिरिविवरं, स्वाहाग्निभार्या, कक्षा उद्ग्राहणिका स्पर्धा पदं कटाटिका च, प्रामिक्षा शृतक्षीरक्षिप्तदधि, रिक्षा यूकाण्डं, लत्वे लिक्षा, राक्षा जतु, लत्वे लाक्षा अर्थप्राधान्यात् वरवणिनी रजनी पलंकषा च। अथ चेदन्ताः,-भङ्गिविच्छित्तिः, प्रावलिः पंक्तिः, आयतिरुत्तरकालः प्रभावः दैर्घ्यं च, त्रोटिमस्यभेदे बन्द्यां च ।। २४ ।।
पेशिर्वासिर्वसतिविपरणी-नाभिनाल्यालिपालि
भल्लिः पल्लि कुटिशकटी चर्चरिः शाटिभाटी। खाटिर्वतिव्रततिवमिशुण्ठीतिरीतिविदि
दवि विच्छबिलिबिशढिश्रेढि - जात्याजिराजि ॥ २५ ॥ पेशिर्मासपिण्डी खङ गपिधानं च, वासिस्तक्षोपकरणं, अर्थप्राधान्यात्तक्षण्यपि । वसतिर्वेश्म, विपरिणः पण्यमापणः पण्यवीथी च, अस्यां च पुस्यपीति कश्चित्, नाभिश्चक्रादिनाभिः । नालि: कालमान कन्दलं च, लत्वाभावे नाडि लम् शिरा च, शिरायां चार्थप्राधान्याल लनापि, पालिरनर्थः सेतुश्च, पालिः कर्णलताग्रं अनिरुत्सङ गप्रान्तश्च, । पाल्यन्तत्वादङ्ककपाल्यपि । भल्लिर्बाणभेदः । पल्लिः कुटी ह्रस्वग्रामश्च, भ्रकुटिभ्र भङ्गः उपलक्षरणत्वात् भ्र कुटि: भ्र कुटी अपि, शकटिः शकटं चर्चरिः हर्षक्रीडा, शाटि: प्रावरणनिशेषः, भाटि: सुरतमूल्यं, खाटि: किरणः, वत्तिर्दीपस्तद्दशा च, व्रततिविस्तारः, वमिर्वान्तिः शुण्ठिनागरं, ईतिरुपद्रवः-अर्थप्राधान्यात् शृगाल्यपि ।
अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषकाः शलभाः शुकाः ।
अत्यासन्नाश्च राजानो षडेता ईतयः स्मृताः॥ रोतिरारकूट,-अर्थप्राधान्यादरीरी अपि, विदिर्वेदिका, दविरुहस्तः, नीविर्मूलधनं छवि: क्रान्ति: शोभा, लिबिलिपिः अर्थप्राधान्याल्लिपिरपि। शढिरौषधविशेषः, श्रेढिर्गणितव्यवहारविशेषः, जातिर्मालती, आजिः संग्रामः, पुस्यपीति कश्चित्, राजि: पङि क्तः, के राजिका केदारः ।। २५ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
रुचिः सूचिसाची खनिः खानिखारी , खलिः कोलितूली क्लमिर्वापिधूली । कृषिः स्थालिहिण्डी त्रुटिदिनान्दी ,
किकिः कुक्कुटिः काकलिः शुक्तिपङक्ती ॥ २६ ॥ रुचिः कान्तिः, सूचिः सेवनी साचिः तिर्यग्, खनिराकरः, खानिः स एव, खारिर्मानविशेषः, खलिः पिण्याकादिः, कीलिः कीलिका, तूलिः चित्रकूचिका, क्लमिः क्लमः, वापिः कूपः, धूलिः पांशुः, कृषिः कर्षणं, उपलक्षणं चेदं किप्रत्ययान्तानाम्, तेन छिदि-भिदित्विष्यादयोऽपि सिद्धाः, स्थालिरुखा, हिण्डिः रात्रौ रक्षाचारः, त्रुटि: संशयेऽल्पेऽपि, वेदियज्ञोपकरणी भूः, नान्दिः पूर्वरङ गाङ्ग, ककिः पक्षविशेषः, कुक्कुटिः कुहनी काकलिर्ध्वनिविशेषः, शुक्तिः कपालशकले, पङक्तिर्दशसंख्या ।। २६ ।। किखिस्ताडिकम्बी द्युतिः शारिराति
स्तटिः कोटिविष्टी वटिगृष्टिवीथी। दरिवल्लरिर्मञ्जरिः पुञ्जिभेरी
शरारिस्तुरिः पिण्डि माढी मुषुण्डिः ॥ २७ ॥ किखि: कालस्य गोत्रविशेषः, ताडिराभरणविशेषः, कम्बिदविः द्युतिः कान्तिः, शारिरक्षोपकरणं, आतिः शरारिः, तटिः नद्यादौ जलास्फोटनस्थानं, कोटिरग्रं, विष्टिर्भद्रा, वटिगुलिका, गृष्टिनिविशेषः, वीथिः पङ क्त्यादिषु। दरिः कन्दरा, वल्लरिमायौं एकार्थे, पुखिः संहतिः, भेरिः वाद्यं, शरारिराटिः, तुरिस्तन्तुवायोपकरणं, पिण्डिनिष्पीडितस्नेहपिण्डः, माढि: पत्रस्नसा, मुषुण्ढिरायुधविशेषः ।। २७ ।।।
राटिराटिरटविः परिपाटिः, फालिगालिजनिकाकिनिकानि । चारिहानिवलभि प्रधिकम्पी, चुल्लिचुण्डितरयोंऽहतिशारणी ॥ २८ ॥
राटि: कलहः, प्राटिः शरारिः, अटविः अरण्यं, परिपाटि: क्रमः, फालिदलं, गालिरवद्योद्भावनं, जनिर्जन्म, काकिनिर्माषचतुर्भागः, कानिः संकोच:, चारिः पशुभक्ष्यं, हानिर्रर्थनाशः, वलभि: पटलाधारो वंशपचारः, इदन्तत्वात् ङ्यां वलभी, अर्थप्राधान्यात् गोपानसी, प्रधिः रोगविशेषः, कम्पिः कम्पनं चुल्लिरुद्धानं, त्रुण्डिः क्षुद्रवापी, तरिः नौः अर्थप्राधान्यात् द्रोण्यपि, अंहतिर्दानं, शारिणः शाणः ।। २८ ।।
सनिः सानिमेनी मरिर्मारिरथ्योषधी विद्रधिर्भल्लरिः पारिरभ्रिः । शिरोधिः कविः कीर्तिगन्त्रीकबर्यः, कुमार्याढकी स्वेदनी हादिनीली ॥२६॥
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लिङ्गानुशासनम्
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सनिर्याचा, सानिर्वस्त्रभेदः, मेनिः संकल्प:, मरिमरिश्व मरकं, अश्रिः कोटि:, औषधिरौषधं विद्रधिः रोगविशेषः, भल्लरिर्वाद्यविशेषः, प्रर्थप्राधान्यात् कलरिरपि, पारिस्तैलाद्याघारः, अभिः खनित्रं शिरोधि: कन्धरा, कबिः खलीनं, कोर्तिर्यशः । अदन्ताः - गन्त्री शकटिका, कबरी वेणिः, कुमारी रामतरुणी, आढकी धान्यविशेषः, अर्थप्राधान्यात् तुबर्यपि, स्वेदिनी कण्डू, ह्रादिनी वज्र, ईली एकधारोऽसि: ।। २६ ।।
"
हरिण्यश्मरी कर्त्तरीस्थग्यपट्यः, करीयेकपद्यक्षवत्यः प्रतोली ।
कृपाणी दल्यो पालीहसन्यौ, बृसी गृध्रसी घर्घरी कर्परी च ॥ ३० ॥
हरणी स्वर्णप्रतिमा, अश्मरी मूत्रकृच्छ्र, कर्तिनी तर्कु, स्थगी ताम्बूलकरङ्कः, अपटी काण्डपट, करीरी करिदन्तमूलं, एकपदी मार्गः, अर्थप्राधान्यात् पदविरपि । अक्षवती द्यूतं प्रतोली विशिखा, कृपारिणः कर्तरिः, अर्थप्राधान्यात् कर्तर्यपि, कदली पताका, पलाली क्षोदः, हसनो अङ्गारशकटी, अर्थप्राधान्यात् हसन्त्यपि, बृसी व्रतिनामासनं मूर्धन्योपान्त्यो दत्योपान्तश्च गृध्रसी उरुसंघौ वातरुक् घर्घरी किंकिणी, कर्परी तुत्थाखनं अर्थप्राधान्याद्दविकाऽपि ।। ३० ।।
hrust खल्ली मदी घटी गोणी खण्डोत्येषरणी दुखी ।
तिलपर्णी केवली खटी नध्रीरसवत्यौ च पातली ।। ३१ ।।
काण्डी वेदविषयो ग्रन्थः, खल्ली हस्तपादावमर्दनाख्यो रोग:, मदी कृषिवस्तुविशेष:, घटी वस्त्रखण्डं, गोरणी धान्यभाजनविशेषः, अर्थप्राधान्यात् कण्ठालापि, खण्डोली सरसी तैलमानं च एषणी वैद्यशलाका, अर्थप्राधान्यात् नाराच्यपि, दुणी कजलौका, तिलपर्णी रक्तचन्दनं पर्ण्यन्तत्वेन माषपर्णीत्याद्यपि, केवली ज्योतिःशास्त्रं, खटी खटिनी, -- प्रर्थप्राधान्यात् कष्कटी कठिन्यामपि, नधी वधी, रसवती महानसं, पातली वागुरा ।। ३१ ।।
बाली गन्धोली काकली गोष्ठ्यजाजी
न्द्राणी मत्स्यण्डी दामनी शिञ्जिनी च । शृङगी कस्तूरी देहली मौर्व्यतिभ्या
सन्दीक्षैरेय्यः
शष्कुली
दद्रु ।। ३२ ।। बाली कर्णभूषण, कप्रत्यये बालिका सिकता, गन्धोली क्षुद्रजन्तुः, काकली ध्वनिविशेषः, गोष्ठी सभा संलापश्च प्रजाजी जीरकः, इन्द्राणी कररणविशेषः सिन्दुवारश्च । मत्स्यण्डी, शर्कराभेद: । अर्थप्राधान्यात् मात्स्यण्डी मोनाण्डी च दामनी पशुरज्जुः, शिखिनी ज्या शृङ्गी स्वर्णविशेषः, कस्तूरी मृगमद: प्रर्थप्राधान्याद्योजनगन्धापि, देहली हद्वारा ग्रस्थली, मौर्वी ज्या प्रतिभीर्वज्रज्वाला, श्रासन्दी वेत्रासनं, क्षैरेयी पायसं शष्कुलो अन्नभेदः । प्रथोदन्ताः ददुः कुष्ठभेदः पशुः पार्श्वास्थि ।। ३२ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
कर्णान्दुकच्छ तनू रज्जुचञ्चु स्नायुर्जुहूः सीमधुरौ स्फिर्गवाक् । द्वाोदिवौ स्र क्त्वगृचः शरद्वादिदरत् पामहषदृशो नौः ।। ३३ ॥
॥ इति स्त्रीलिङ गाः ॥ कर्णान्दुरुत्क्षिप्तिका, कच्छुः पामा, तनुः कायः, रज्जुर्गुणः --अर्थप्राधान्यार वरत्रापि, चञ्चुः पक्षिमुखाग्रं, स्नायुः शिरा, जुहूः स ग्भेदः, सीमा मर्यादा, धूः शकटाङ्गम् , स्फिग् क्षुतं, अर्वाक् अवान्तरं, द्वार द्वारं, द्योदिवित्येतौ स्वर्गाकाशवाचिनौ प्रोकारान्तवन्तौ। स ग होमभाण्डं, त्वक् चर्म वल्कलं च, वल्कले चार्थप्राधान्यात् छल्लिरपि, ऋग् गायत्र्यादिः, एते त्रयोऽपि चन्ताः, शरत् ऋतुविशेषः वर्षश्च, वा: वारि. क्वचित् क्लीबत्व, छदिन्तिः , दरत् म्लेच्छविशेषः, पामा कच्छ:, दृषत पाषाणः, दृग् लोचनं, नौस्तरी ।। ।। ३३ ।। इति स्त्रीलिङ गम् समाप्तम् ।।
नलस्तुतत्त - संयुक्तररुयान्तं नपुंसकम् ।
वेधनादीन् विना सन्तं द्विस्वरं मन्नकर्तरि ॥१॥ नान्तं, लान्तं, स्त्वन्तं, तान्तं, त्तान्तं संयुक्ता ये ररुयास्तदन्तं च नपुसकलिङ गं स्यात। नान्तमजिनं चर्मेत्यादि. लान्तं चक्रवालं समहः, दलं शकलं, स्त्वन्तं वस तत्त्वं पदार्थश्च, मस्तु दधिनिस्यन्दः, तान्तं शीतमनुष्णं अद्भुतमाश्चर्यमित्यादि । त्तान्तं भित्तं, शकलं, निमित्तं हेतुरित्यादि। तस्य संयुक्तस्य पृथगुपन्यासात् पूर्वेऽसंयुक्ता गृह्यन्ते, संयक्तरान्तं अग्रं पुरः अधिकं च, गोत्रं नाम कुलं क्षेत्रं च, शुक्रं सप्तमो धातुः इत्यादि । संयुक्तरुशब्दान्तं श्मश्रु कूर्च इत्यादि, संयुक्तयान्तं शरव्यं लक्ष्यं वेध्यं च । सान्नाय्यं हव्यमित्यादि । वेधस्प्रभृतीन वर्जयित्वा सकारान्तं द्विस्वरं नपुंसकम् । इदं रक्षः निशाचरः, उषः प्रभातं संध्यायां तु प्रस्त्री। तपः कृच्छाचरणं, माघे पूनपूसकं, रजो रेणुः,-पुसीति गौडः, जोपान्त्योऽयं, यादो जलचरः, रोचिः शोचिश्च दीप्ती। वेध प्रादीनिति किम् ? वेधा बुधो विष्णुविधिश्च, सहाहेमन्तः, नभा मेघादिः, प्रोका प्राश्रयः, प्रोकस्य तु कान्तत्वात् पुस्त्वं, पूर्वापवादो योगः, तेनाम्भः स्रोतो याद इत्यादीनां नद्यादिनामत्वेऽपि क्लीबत्वमेव, गुणवृत्तेस्तु आश्रयलिङ गता परत्वात्, द्विस्वरमिति अनुवर्तते, अकर्तरि विहितो यो मन्तदन्तं नाम नपुसकं, धाम तेजः, वर्म प्रमाणं शरीरं च, तम यूपाग्रं, वर्त्म, मार्गः । अकर्तरीति किम् ? ददातीति दामा, करोतीति कर्मा ।। १ ।।
धनरत्ननभोऽन्नहृषीकतमोघुसृणाङ गणशुल्कशुभाम्बुरुहाम् ।
अघगूथजलांशुकदारुमनोबिलपिच्छधनुर्दलतालुहृदाम् ॥ २॥
धनादीनां नाम नपुसकं, धननाम द्रविणं, वस्तु इत्यादि। रत्नं माणिकमित्यादि । नभो वियदित्यादि, अन्न सिक्थं भक्त, हृषीक इन्द्रियं अक्षं, तमोऽवतमसं इत्यादि । दिगम्बरस्य तु बाहुलकात् पुंस्त्वं, घुसृरणं कुम्कुमः, पुसोति वाचस्पतिः, कश्मीरजं इत्यादि। अङगणं प्राङगणं अजिरं इत्यादि । शुल्कं पारनालं तुषोदक
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लिङ्गानुशासनम्
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मित्यादि । शुभम् श्वःश्रेवसं, कल्याणमित्यादि, शम्भावपि निश्रेयसशब्दो बाहुलकात् नपुसकः । अम्बुरुहम् अब्जन् कशेशयम् इत्यादि अम्बुरुहवाचिनां नलिनाम्बुजपद्मकमलनालीकानां पुनपुसकत्वं, अघं पापं, गूथं अशुचिः ।
जलं, सलिलं, कीलालं, क्षीरं, दधिसारबाणयोस्तु पुनपुसकत्वं, गौडस्तु घनरसस्यापि, वरुणस्य तद्वाचिनो बाहुलकात् पुस्त्वं, अंशुकं, वस्त्रम् । दारु काष्ठं, काष्ठान्तत्वात् पूतिकाष्ठमपि. सरलो देवदारुश्च द्रुमो, एघस्तु घान्तत्वेन पुसि, समिधस्तु स्त्र्युक्तत्वात् स्त्रीत्वं, मनो मानसमित्यादि । बिलं रन्ध्र इत्यादि, पिच्छं पतत्त्रम्, पत्त्रं । तनूरुहगरुबर्हास्तु पुनपुसकाः धनुः कामुकं, पिनाक-कोदण्ड-गाण्डीवगाण्डिवानां पुनपुसकत्वं, दलं किसलयं, तालुः काकुदं, हृत् हृदयं, वक्षः पुनपुसकम् ।। २ ।। . हलदुःखसुखागुरुहिङ गुरुचत्वचभेषजतुत्थकुसुम्भदृशाम् ।
मरिचास्थिशिलाभवसृक्कयकृन्नलदान्तिकवल्कलसिध्मयुधाम् ॥ ३ ॥
हलं लाङ गलं, दुःखं कष्ट, सुखं शर्म,--सुखादीनां गुणवृत्तेस्त्वाश्रयलिङ गता । सुखः सुखा, अगुरु लोहं, ह्रिङ गुः सहस्रवेधि, रुचं ह्रीबेरं, त्वचं गन्धद्रव्यविशेषः, भेषजं शमनं, तुत्थं चक्षुष्यो द्रव्यविशेषः, औषधस्तु पुनपुसकः । कुसुम्भं वह्निशिखं, महारजतं, कुसुभस्तु पुनपुसकः । अक्षिः ईक्षणं, हग् दृष्टिः स्त्रीलिङगे, मरिचं वेल्हजं, अस्थि कोकसं, शिलाभवं शिलाया: सारः निस्यन्दः शैलेयसंज्ञं, सृक्क प्रोष्ठपर्यन्तः, यकृत् दक्षिणपार्श्वे कृष्णंमांसांशः, नलदं तृणविशेषः, अन्तिकं समीपं, अभ्यर्णं. अभ्याशम् । दन्त्योपान्त्ये तु बाहलकात प्रस्त्वम् । सिध्म किलासं, यत् युद्धं, युधस्तुस्त्रीत्वम् - संयतो नपुंसकत्वम् ॥ ३ ॥
सौवीरस्थानकद्वारक्लोमधौतेयकासृजाम् ।
लवणव्यञ्जनफल-प्रसूनद्रवतां सभित् ।। ४ ।। सौवीरादीनां लवणादीनां तु सभेदमपि क्लीबं, वाच्यस्य सभेदत्वान्नामापि सभेदं, सौवीरं सौवीराञ्जन, स्थानकं योघानामालीढादिसंस्थानविशेषः, द्वारमुपायेऽपि बाहुलकात् क्लीबं । क्लोममुदर्यो जलाधारो हृदयस्य दक्षिणे यकृत् क्लीमं च वामे प्लीहा पुष्पसाश्चेति वैद्याः, धौतेयकं ग्रन्थिपणं, तद्वाची जीवदस्तु बाहुलकात् पुसि। असृग् रुधिरं, लवणं तद्भेदाः, अक्षीवमाणिवन्धविडादयः, व्यञ्जनभेदाः दधिदुग्धाज्यतकादयः, गोरसस्य सान्तत्वात् पुस्त्वं, फलभेदा नालिकेरादयः, प्रसूनभेदाचम्पकादयः, अग्निसंपर्के ये द्रवन्ति विलीयन्ते ते द्रवन्तस्तेषां भेदा लोहादयः, स्वर्णवाचिनस्त चाम्पेयस्य प्रारकटवाचिनो मदनस्य तु बाहुलकात् पुस्त्वं, इह पृथग्ग्रहणात् जलसंपर्काद् ये द्रवन्ति, न तेषां परिग्रहः, तेन न मृदोऽपि परिग्रहः ।। ४ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
पुरं सद्माङगयोश्छत्र शीर्षयोः पुण्डरीकके । मधु द्रवे ध्र वं शश्वत्तर्कयोः खपुरं घटे ॥ ५ ॥ अयूपे दैवेऽकार्यादौ, युगं दिष्टं तथा कट ।
असे द्वन्द्व स्थले धन्वारिष्टमद्रुमपक्षिरणोः ॥ ६ ॥ सद्मनि अङगे च पुरं क्लीबं, नगरे तु त्रिलिङ गः । पुण्डरीकं कं च क्रमेण छत्त्रे शीर्षे च, द्रवति वस्तुनि मधु क्लीबं, मधु मकरन्दः, शश्वन्नित्ये त ऊहे चर्के ध्र वं अन्यत्र तु यथाप्राप्तम् । खपुरं घटे वाच्ये क्लीबम् । अयूपादिष्वर्थेषु यथासंख्यं युगादिष्टकटुशब्दाः क्लीबाः, युगं युग्मं कृतादि च, यूपे तु पुनपुसकं, गोगोयुगं इत्यादौ तु गोयुगप्रत्ययान्तादेव सिद्धं । दिष्टं देवं, काले तु पुसि, कटु अकार्य दूषणं च, समासादन्यत्र द्वन्द्व क्लोब, द्वन्द्व युग्मं अर्थप्राधान्याद् द्वन्द्वमपि, धन्वन् शब्दः स्थले क्लीबः । मरौ तु पुनपुसकः, द्रुमं च पक्षिणं च वर्जयित्वाऽरिष्ट क्लीबं, अरिष्टं सूतिकागृहं, मरणं, अशुभम् ।। ५-६ ।।
धर्म दानादिके तुल्यभागेऽधं ब्राह्मणं श्रुतौ।
न्याय्ये सारं पद्ममिभबिन्दौ काममनुमतौ ॥ ७ ॥ दानादिके पुण्यस्योपाये धर्मः क्लीबः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्, पुण्ये तु मान्तत्वात् पुस्त्वं, स्वभावे तु पुनपुसकः। समेंऽशे वाच्येऽर्धशब्दः, अर्धं पिप्पल्याः अर्ध- . पिप्पली, अतुल्ये भागे तु पुस्त्वं, केचिदाश्रयलिङ गतामाहुः. श्रुतौ वेदविषये ब्राह्मणं नपुसकं, न्यायादनपेतं न्याय्यं तस्मिन् वाच्ये सारशब्दः बलादौ तु पुस्त्वं, इभबिन्दौ वाच्ये पद्म नपुसकं अन्यत्र तु यथाप्राप्तं। अनुज्ञायां कामं क्लीबं, अयमव्ययमप्यस्ति ।। ७ ॥
खलं भुवि तथा लक्षं, वेध्येऽहः सुदिनैकतः ।
भूमोऽसंख्यात एकार्थे पथः संख्याव्ययोत्तरः ॥ ८ ॥ __ भुवि वाच्यायां क्लीबं खलं, पिण्याके दुर्जने च पुनपुसकः स्थाने तु त्रिलिङ गः । सुवेध्ये वाच्ये लक्षं व्याजे तु पुनपुसकः, संख्यायां तु पुस्त्री, शोभनवाचिदिनशब्दादेकशब्दाच्च परो अह इति कृतसमासान्तोऽहन् शब्दः क्लीबः। भूम इति कृतसमासान्तो भूमिशब्दः संख्याया अन्येभ्यः परः एकार्थे कर्मधारये वर्तमानः क्लोबः, पाण्डुर्भूमिः पाण्डुभूमम् एवमुदग्भूम, कृष्णभूमम् । असंख्यात इति किम् ? द्वयोर्भूम्योः समाहारः द्विभूमं, 'अन्यस्तु सर्वो नपुसकः' इति नपुसकत्वम् । ननु चेत् संख्यापूर्वस्यापि क्लीबत्वं तर्हि निषेधोऽनर्थकः ? नैवं, द्वयोभूम्योः क्रीत इति कृतसमासान्तादिकणि तस्य लुपि क्लीबत्वं पाश्रयलिङ गता चेष्यते, एतच्च विशिष्टं व्यावृत्तेः फलं, संख्यावाचिनोऽव्ययाच्च परः कृतसमासान्तोऽयं पथिन्शब्दः पथशब्दो वा क्लीबे, द्वयोः पन्थाः द्विपथं, द्वयवयवो वायम् ।।८।।
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लिङ्गानुशासनम् .
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द्वन्द्व कत्वाव्ययीभावौ, क्रियाव्ययविशेषणे ।
कृत्याः क्तानाः खल् जिन् भावे या त्वात् त्वादिः समूहजः ॥ ६ ॥ द्वन्द्व कत्वं सुखदुःखं, अव्ययीभावः दण्डादण्डि, तूष्णींगङ गं देशः, पञ्चन दम, पारेगङ्गमित्यादि। क्रियाया अव्ययस्य च यद्विशेषणं समानाधिकरणं तद्वाचि नपुंसक, साधु पचति, प्राग्रमणीयं दिग् देशः कालो वा, एवमुदग् प्रत्यगित्यादि । भावे ये विहिताः कृत्याः क्तानाः खल् निन् तदन्तं नाम क्लीबम्, चैत्रेण कार्यं पाक्यं, कर्तव्यं करणीयं, देयं ब्रह्मभूयं ब्रह्मत्वमित्यादि । क्ताना इति प्रश्लेषात् आनानानटो गृह्यन्ते, क्त चैत्रेण कृतं, आनेति कानानशोर्ग्रहणं, पेचानं पच्यमानं चत्रेण, अनट निर्वाणं, अन इष स्थानं मैत्रेण ।
खल् दुराढ्यंभव मंत्रेण । जिन् समन्ताद् रावः सांराविणम् । भावे त्वतल' [७-१-५५] इति त्व प्रत्ययादारभ्य ब्रह्मणस्त्वमिति त्वमभिव्याप्य ये प्रत्यया त्व-यएयण-अञ्-अण्-अकञ्-ईय-त्वरूपास्तदन्तं नाम क्लोबम् । त्व-तदात्वं तत्कालः। यःसख्यं मंत्री, वणिज्यं तु स्त्री क्लीवम् । एयण-कापेयं कपेः क्रीडादिकम् । अञ्-द्व पं द्वीपिनो जातिः कर्म च। अण्-चापलम् । अकञ्---प्राचार्यकं, प्राचार्यता। ईयहोत्रीयम् । त्व-ब्रह्मत्वम् ।
समूहे जाता ये प्रत्यया प्रण, अकञ्, ण्य, इकण, य, ईय, ड्वण्, अञ्, एयपास्तदन्तं नाम क्लीबम् । अण-भैक्षं, अकञ् प्रौपगवकं, ण्य केदार्य, इकण कावचिक, य ब्राह्मण्यं, ईय अश्वीयं, ड्वण पावं, अञ् शौवं, एयञ् पौरुषेयम् इत्यादि ।। ६ ।।
त्रायत्र्याधरण स्वार्थऽव्यक्तमथानकर्मधारयः ।
तत्पुरुषो बहूनां चेच्छाया शाला विना सभा ॥ १० ॥ - गायत्र्यादीनि च्छन्दोनामानि स्वार्थे योऽण तदन्तानि क्लोबानि, गायत्रयेव गायत्रम्, एवमानुष्टुभादीन्यपि। अव्यक्त अव्यक्तलिङ गवाचि क्लीबम् । किं तस्या गर्भेजातं, यत्तत्रोत्पद्यते तदानय, इदं च शिष्टप्रयुक्त ष्वेव द्रष्टव्यं, अधिकारोऽयं गृहतः स्थूणा इति यावत् । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत्र नसमासं कर्मधारयं च वर्जयित्वा योऽन्यस्तत्पुरुषः स नपुंसकं भवतीति अधिकृतं वेदितव्यं, छायान्तस्तत्पुरुषः क्लीबः, सा यदि येषां बहूनां समुदितानां संभवति, शलभानां छाया शलभच्छायं, शरच्छायम् ।
बहूनामिति किम् ? कुड्यस्य छाया कुड्यच्छाया। सेना शालेत्या दिना विकल्पे प्राप्ते वचनं, नित्यार्थम् । शालां मुक्त्वाऽन्यत्रार्थे यः सभाशब्दस्तदन्तस्तत्पुरुषः क्लीबः, स्त्रीसभं, दासीसभं, मनुष्यसभं तत्समूह इत्यर्थः । अनञ् कर्मधारय इत्येव ? असभा, परमसभा, परमसभाया उत्तरपदत्वविज्ञानादिह न स्यात्, स्त्रीणां परमसभा स्त्रीपरमसभा एवमुत्तरत्राऽपि ।। १० ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
राजवजितराजार्थराक्षसादेः पराऽपि च ।
प्रादावुपक्रमोपज्ञे कन्थोशीनरनामनि ॥ ११ ॥ राजार्था ईश्वरादयस्तेभ्यो राजजितेभ्यो राक्षसादयः पिशाचादयश्च प्राणिनोऽमनुष्यास्तेभ्यः परा या सभा तदन्तस्तत्पुरुषः क्लीब, शालार्थ प्रारम्भः, इनसभं, ईश्वरसभं, नृपसभं, पिशाचसभं, रक्षः सभं, तद्गृहं तत्संघो वेत्यर्थः । नृपतिसभामगमदिति बाहलकात। राजवजितेति किम् ? राजसभा, समहार्थस्य भवत्येव पूर्वेण राजसभम । राजार्थराक्षसादेरिति किम् ? नरसभा. प्रादौ उपक्रमस्योपज्ञानस्य च प्राथम्ये विवक्षिते उपक्रमोपज्ञेत्येतदन्तस्तत्पुरुषः क्लीबः । श्रेयांसस्योपक्रमः श्रेयांसोपक्रम दानं, श्रेयांसेन श्रेयसे प्रथमं प्रवर्तितमित्यर्थः ।
__आदिदेवस्योपज्ञा प्रादिदेवोपज्ञं धर्मव्यवस्था । आदिदेवेन प्रथमं ज्ञात्वा प्रवर्तितेत्यर्थः, उपक्रम्यते इत्युपक्रमः, उपज्ञायते इत्युपज्ञा, कर्मरिण घनङावित्यनुयोगेन सामानाधिकरण्यम् । उशीनरा नाम देशस्तत्र चेत् कस्यचित् संज्ञायां वर्तमानः कन्थान्तस्तत्पुरुषः क्लीबः । सौशमीनां कन्था सौशमिकन्थं, पावरकन्थं, नाम उशीन । उशीनरेति किम् ? दक्षिणकन्था नाम ग्रामसंज्ञा किन्तु उशीनरेषु न ।। ११ ।।
सेनाशालासुराच्छाया-निशा वोर्णा शशात्परा ।
भाद्गरणो गृहतः स्थूरणा, संख्यादन्ता शतादिका ॥ १२ ॥ सेनाद्यन्तस्तत्पुरुषो वा क्लीबः, कपिसेनं, कपिसेना, हस्तिशालं, हस्तिशाला, यवसुरं, यवसुरा, छत्त्रच्छायं छत्त्रच्छाया, चौरनिशं चौरनिशा। अनञ् कर्मधारय इति किम् ? असेना, परमसेना। शशात्परो य ऊरशब्दस्तदन्तस्तत्पुरुष. क्लोबः । शशोर्ण, अन्यत्र तु न। छागो, भाल्परो यो गरगस्तदन्तस्तत्पुरुषः क्लीबः, भगरणम् अन्यत्र न । गोगणः गृहान् परा या स्पूणा तदन्तस्तत्पुरुष क्लीबः, गृहस्थूणं गृहधारणं, अन्यत्र तु न । शालास्थूणा। अकारान्ताः शतप्रभतिसंख्या: क्लीबाः, अब्ज, खर्व, निखर्व, महासरोजमित्यादि। शतसहस्रायुतप्रयुतानां पुनपुसकत्वं, लक्षस्य तु पुस्त्रीत्वम् ।। १२ ।। मौक्तिक माक्षिकं सौप्तिकं क्लोतकं, नारणकं नाटकं खेटक तोटकम् । आह्निकं रूपकं जापकं जालकं, वेरण कं गैरक कारकं वास्तुकम् ॥ १३ ॥
अथ कान्ताः ४७ मौक्तिक मुक्ता, माक्षिकं यस्मात्ताम्रादि भवति स धातुविशेषः, सोप्तिकं रात्रीघाटी क्लातकं मधुकं, नाणकं रूपकादि, नाटक दशरूपकभेदः, खेटक फलक, तोटकं दशरूपकभेदः वत्तं च, पाह्निकं नित्यक्रिया भोजनं च, रूपकं काव्यालंकारविशेषः, उपलक्षणत्वाद्यमकं दीपकं च, जापकं दर्वी सुगन्धिद्रव्यविशेषश्च, अर्थप्राधान्यात् कालपकमिति, दर्त्यां च पुलिङ गोऽप्ययमित्येके, जालकं कुड्मलं, वेणुकं गजयोत्रं, गैरिक धातुविशेषः, कारकं कादि, गुणवृत्तिस्त्वाश्रयलिङगः, वास्तुकं शाकविशेषः ।। १३ ।।
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लिङ्गानुशासनम्.
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रुचकं धान्याकनिः शलाकालीकालिकशल्कोपसूर्यकाल्कम् । कवकिबुकतोक तिन्तिडीकैडूकं छत्राकत्रिकोल्मुकानि ॥ १४ ॥
रुचकं चन्दनपेषरणी शिला, धान्याकं अल्लुका, अर्थप्राधान्यात् धानेयकं, धान्यकं, धानीयकं प्रपि । निःशलाकं रहः । अर्थप्राधान्याज्जनान्तिकमपि, अलीकं ललाटं अलिकं च, शल्कं खण्डं, उपसूर्यकं परिवेषः अल्कश्व रोगः । कवकं भूकन्दविशेषः । किबुकं जलोत्पन्न द्रव्यविशेषः, तोकमपत्यं, तितिडीकं चक्र, एडूकं अन्तर्न्यस्तास्थि कुड्यं छत्राकं भूकन्दविशेषः, त्रिकं पृष्ठाधो भागः, उल्मुकं अलातम् ।। १४ ।।
माक कदम्बके बुकं चिबुकं कुतुकमनूकचित्रके ।
कुहुकं मधुपर्कशीर्षके शालूकं कुलकं प्रकीरणकम् ।। १५ ।। मार्दीकं मृद्वीकासवः, अर्थप्राधान्यात् माध्वीकमपि हारहूरं च सुरानामत्वेन स्त्रीत्वें प्राप्ते वचनम् । कदम्बकं समूहः, काभावे कदम्बं, बुकं तृणविशेष, चिबुकमधरस्याधः । कुतकं कुतूहलं, अनूकमन्वयः, चित्रकं पुण्ढ, कुहुकमाश्चर्यं मधुपर्कं दधिमध्वादिः देवादीनामर्षः, शीर्षकं शिरस्त्राणं, शालूकमुत्पलादिकन्दः, कुलकं वृत्तसमूहः, प्रकीर्णकं
चामरम् ।। १५ ।।
हल्लीसक पुष्पके खलिङ्गं स्फिगमङ्गं प्रगचोचबीजपिञ्जम् । रिष्टं फाण्टं ललाटमिष्ट व्युष्टं करोटकृपीट - चीनपिष्टम् ।। १६ ।।
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हल्ली सकं स्त्रीणां नृत्तभेदः, पुष्पकं नेत्ररोगः, खं संवेदनं, लिङगं हेतुचिह्न च अर्थप्राधान्याच्चिह्नमपि स्फिगं, स्फिग् अङ्गं प्रतीकः समीपं च अङ्गान्तत्वाद् वराङ्गं चक्राङ्गं च । प्रगं प्रभातं, चोचमुपभुक्तफलाव शेषश्छत्त्यादि । बीजं हेतुः आधानं च पिञ्ज बलं, रिष्टं क्षेमं फाण्टमनायासं, ललाटं भालं, इष्टं क्रतुकर्म, व्युष्टं प्रभातं, करोटं मस्तकं कांस्यभाजनं च कृपीठमुदरं, चीनपृष्टं सिन्दूरम् ।। १६ ।।
शृङ्गाटमोर पिटान्यथ पृष्ठगोष्ठभाण्डाण्डतुण्डशररणग्रहरणे रणानि ।
पिङ गारण तीक्ष्णलवर द्रविणं पुराणं,
त्राणं शरणं हिरणकारण कार्मरणानि ।। १७ ।।
शृङ्गाटं जलोद्भवकन्दः चतुष्पथं च । मोरटमिक्षुमूलं, पिटं छर्दिः, टान्तानां तु पु ंस्त्वे प्राप्तेऽस्य पाठः । ग्रंथ ठान्तौ पृष्ठ प्राण्यङगं गोष्ठ, गोकुलं गोष्ठप्रत्ययान्तमपि, गोगोष्ठ, अश्वगोष्ठं । 'पशुभ्यः स्थाने गोष्ठः' इति गोष्ठः । भाण्डं भाजनं गेहं च, अण्डं वृषणः, तुण्डं मुण्डं प्रर्थप्राधान्यात् द्विजालयमपि, शरणं गृहं त्राणं च ग्रहणमादरः, इरिणमूषरम् | अर्थप्राधान्या दूरमपि । पिङ्गाणं काचभाजनं गेहं च । तोक्ष्णं विषादिः ।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
लवणं लावण्यम् । द्रविणं पराक्रमः अर्थप्राधान्यात् द्युम्नमपि । पुराणं पञ्चलक्षणम् । त्राणं त्रायमानाख्यो विधिविशेषः, शरणं धान्यविशेषः, हिरणं 'विराटहेमरेतःसु हिरणं स्याद्धिरण्यवत् ।' कारणं हेतुः, कार्मणं संवननमपि ।। १७ ।।
पर्याणघ्राणपारायणानि, श्रीपर्णोष्णे धोरणक्षरणभूतम् । प्रादेशान्ताश्मन्तशीतं निशान्तं, वृन्तं तूस्तं वार्तवाहित्थमुक्थम् ॥ १८ ॥
पर्याणं पल्ययनम्, ऋणमुत्तमर्णदेयं, घ्राणं घ्राणा, पारायणं शास्त्रविशेष , श्रीपर्णमग्निमन्थः, उष्णं शीतविरोधः, धोरणं वाहनं, क्षणं विकलता, भूतं प्राणी, प्रादेशान्तं प्रमाणविशेषावस्थानं, अश्यन्तं चुल्लिः, शीतं ऋतुविशेषः उष्णविरोधश्च, निशान्तं गृहं अवरोधश्च, अन्तान्तत्वात् पुस्त्वे प्राप्तेऽस्य पाठः, वृन्तं प्रसवबन्धनम् . वृन्तान्तत्वात्तालवृन्तमपि । तूस्तं केशजटा, जरद् वस्त्रं । खण्डे तु सिद्धमेव, वार्तमारोग्यं निःसारं च । अथ थान्तौ वहित्थं गजकुम्भयोरधः, उक्थं साम ।। १८ ।। अच्छोदगोदकुसिदानि कुसीदतुन्दवृन्दास्पदं दपदनिम्नसशिल्पतल्पम् । कूर्पत्रिविष्टपपरीपवदन्तरीपरूपं च पुष्पनिकुरम्बकुटुम्बशुल्बम् ॥ १६ ॥
___ अथ दान्ताः ११ । अच्छोदं देवसरः, उपलक्षणत्वात् मानसमपि, गोदं मस्तकस्नेहः, कुसिदं ऋणं, कुसीदं विज्ञानं, तुन्दमुटरं. वन्दं समूहः, प्रास्पदं प्रतिष्ठा कृत्यं च । दं कलत्रं त्राणं च, पदं त्राणं स्थानं, पादे पुस्यपि पदान्तत्वात् गोष्पदप्रपदादयोऽपि, निम्न गम्भीरं, शिल्पं विज्ञानं, तल्पं रणमण्डप: अट्टः दाराश्च, शयनीये तु पु क्लीबः, कूर्प भ्र वोर्मध्यरोम, कूपमिति भार्गविः, त्रिविष्टपं स्वर्गः, त्रिपिष्टपमपि, परीपं परिगता प्रापो यत्र, अन्तरीपं मध्येजलप्रदेशः, रूपं चक्षुर्विषयः सौन्दर्य च, पुष्पं स्त्रीरजोनेत्ररोग-श्रीदविमान-प्रसूनेषु, निकुरम्बं समूहः, कुटुम्बं पुत्रदारादि, शुल्ब रज्जुः ।। १६ ।। प्रसभतलभशुष्माध्यात्मधामेर्मसूक्ष्म,
किलिमलिमतोक्मं युग्मतिग्मं त्रिसंध्यम् । किसलयशयनीये सायखेयेन्द्रियाणि,
द्रुवयभय - कलत्र - द्वापर - क्षेत्रसत्रम् ॥ २० ॥ अथ भान्तौ-प्रसभं बलात्कारः, तलभं करिकराघातः, भान्तत्वेन पुस्त्वे प्राप्तेऽस्य वचनं। अथ मान्ता दश १०-शुष्मभोजः, प्रात्मानमधिष्ठितमध्यात्म योगशास्त्रं, बाहुलकात् तत्पुरुषादपि समासान्तः, अव्ययीभावस्य तु 'द्वन्द्वकत्व' (१) इति नपुसकत्वम्, धामं मेहं तेजश्च, नन्तस्य तु मन्नन्तत्वादेव सिद्धम्, ईर्मं व्रणं, सूक्ष्ममरणो, किलिमं देवदारुः, तलिम कुट्टिम, तल्पं, चन्द्रहासः वितानं च। तोक्म कर्णमलः, युग्मं, युगं, तिग्म तीक्ष्णं, अर्थप्राधान्यात् तीक्ष्णं खरं तीव्रमपि। अथ यान्ताः ८ त्रिसन्ध्यमुपवैरणवं सन्ध्यात्रय समाहारः, 'अन्नाबन्तान्तो वा' इति पक्षे स्त्रीत्वे प्राप्तेऽस्य
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लिङ्गानुशासनम् ।
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पाठः, किसलयं पल्लवः, शयनीयं शय्या, सायं दिनावसानं, खेयं परिखा, इन्द्रियं रेतः, वयं मानं, पाय्यमपि । भयं प्रतिभयं कुब्जकप्रसूनेऽपि। शुष्मादीनां मान्तत्वात् किसलयादीनां यान्तत्वात् पुस्त्वे प्राप्ते पाठः। अथ रान्ताः २१ कलत्रं भार्या, द्वापर युगविशेषः, क्षेत्र केदारः, क्षेत्रकलत्रयोर्योनिमन्नामत्वेन स्त्रीत्वप्राप्तौ वचनं, सत्रं गृहं पाच्छादनं, सदादानं, वन, दम्भ: साधनं यज्ञश्च ।। २० ।।
शृङ गवेरमजिराभ्रपुष्करं, तीरमुत्तरमगारनागरे ।
स्फारमक्षरकुकन्दरोदरप्रान्तराणि शिबिरं कलेवरम् ॥ २१ ॥ शृङ्गवेरमाकं, अजिरं प्राङ्गणे, वाते, विषये दर्दुरे तनौ। अभ्र मेघः नाकश्च, स्वाथिके के प्रभ्रकं गिरिजामलं, अर्थप्राधान्यात् शैलाभ्रादयोऽपि, पुष्करं पङ्कजव्योमपयःकरिकराग्रेषु, तीरं तटं, त्रपुवाची तु तीरो बाहुलकात् पुसि, उत्तरं प्रतिवचनं, अगारं गृहं. नागरं मुस्तक: शुण्ठी च, स्फारं विपुलं, गुणवृत्तेस्त्वाश्रयलिङ्गता। अक्षरं वर्णः, मोक्षः, परब्रह्म च, कुकुन्दरं जघनकूपः,-अर्थप्राधान्यात् ककुन्दररतावुके अपि, उदरं जठरव्याधियुद्धानि, जठरे त्रिलिङ्गोऽयमिति बुद्धिसागरः। प्रान्तरं विपिने दूरशून्यवर्त्मनि कोटरे च शिबिरं सैन्यं तन्निवेशश्च, कलेवरं शरीरम् ।। २१ ।।
सिन्दूर - मण्डूर - कुटीर - चामर-क्रूराणि दूराररवरचत्वरम् । प्रौशीरपातालमुलखलातवे, सत्वं च सान्त्वं दिवकिण्वयौतवम् ॥ २२ ॥
सिन्दूरं धातुविशेषः, अर्थप्राधान्यात् मसिवर्द्धनं, गन्धीरं नागसंभव मित्यपि, मण्डूरं लोहमलं, कटोरं कटी, चामरं प्रकीर्णकं, पुस्यपीति कश्चित् क्रूरं क्रौर्य, दूरं विप्रकृष्टं, अनयोर्गुणवृत्तेस्त्वाश्रयलिङ्गतैव । अररं कपाटं रणं च, वैरं विरोधः, चत्वरं चतुष्पथं, प्रौशोरं शयनासने चामरं यष्टिश्च । अथ लान्तौ पातालं वडवानलः, उलूखलं गुग्गुलः, निर्यासनामत्वात् पुस्त्वे प्राप्ते पाठः, आर्तवं पुष्पं स्त्रीरजश्च, सत्वं व्यवसाये स्वभावे विलम्बिते चित्ते गुणे द्रव्यात्मभावयोः, चस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् तत्त्वं स्वरूपे वाद्यभेदे परमात्मनि च, प्लवं मुस्तः गन्धतृणं च, सान्त्वं साम दाक्षिण्यं च, दिवं दिवसः स्वर्गश्च, किण्वं सुराबीजं, यौलवं मानविशेषः ।। २२ ।।।
विश्वं वृशालिशपिशकिल्बिषानुतर्षाषिषं मिषमृचीषमजीषशीर्षे । पीयूष-साध्वसमहानससाध्वसानि, कासीसमत्सतरसं यवसं बिसं च ॥ २३ ॥
विश्वं जगत्, वृशं शृङ्गवेरं लशुनं मूलकं च, पलिशं यत्र स्थित्वा मृगादि व्यापाद्यते । अपिशं प्रार्द्रमांसं, बालवत्साया दुग्धं च। अथ षान्ताः किल्बिषं रोगः अपराधः विषं च, अनुतर्ष मद्यं अषिष आर्द्रमांस, मिषं व्याजः, ऋचीषं ऋजोषं च पिष्टपचनभाजनं, शीर्ष शिरः, शीर्षान्तत्वात् कपिशीर्षमपि, पीयूषममृतं प्रत्यग्रप्रसव
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुश सने
गव्यादिक्षीरविकारश्च । अथ सान्ता: साध्वसं भयं, महानसं पाकस्थानं. साहसं दुष्करकर्मवैयात्यमविमृश्यकारिता दमश्च, कासीसं धातुविशेष:--अर्थप्राधान्यात् धातुकासीसं घातुशेखरपि। मत्सं सन्धिस्थानं, तरसं मांसं, अर्थप्राधान्यात् उत्तप्तं शुष्कमांस, यवसमश्वादिघासः, बिसं पद्मकन्दः ।। २३ ॥ मन्दाक्षवीक्षमथ सक्थि शयातु यातु,
स्वाद्वाशु तुम्बरु कशेरु शलालु चालु । संयत्ककुन्महदहानि पृषत्पुरीतत्
पर्वाणि रोम च भसच्च जगल्ललाम ।। २४ ॥
॥ इति नपुसकलिङग समाप्तम् ॥ मन्दाक्षं लज्जा शूका च, वीक्षं विस्मयः दृश्यं च, सक्थि ऊरु: 'इत्तु प्राण्यङ्ग' (स्त्रीलिङ्ग-श्लोक ४) इति स्त्रीत्वप्राप्तौ वचनं । अथोदन्ता: शयातु अजगरः, यातु राक्षस:, स्वादः पयः, ग्राश शीघ्र, तम्बरु अौषधिविशेषः, उकारान्तत्वार पूस्त्वे प्राप्ते वचनं, कसेरु कन्दविशेषः, पृष्ठास्थि च अर्थप्राधान्यात् गाङ्ग यमपि । शलालु गन्धद्रव्यं, अालु कन्दविशेषः । अथ व्यञ्जनान्ता: संयत् संग्रामः, ककुत् वृषस्कन्धः, महत् राज्य बुद्धितत्त्वं च अयं पुस्यपि, महान् प्रकृतिः, अहदिनं, पृषत् बिन्दुः, पुरोतत् अन्त्रं, पर्व दर्शप्रतिपदोः सन्धिः, ग्रन्थिप्रस्तावयोरपि, पर्व क्लोबमाहवे च विषुवत् प्रभृतिष्वपि, रोम तनूरुहं, रोमणी इति द्विवचनं, मन्नन्तत्वेनैव सिद्ध कथं वचनं पुस्यपि कश्चित् । भसदास्यं जघनमामाश्रयस्थानं, दकारान्तोऽयं जगत्, विश्व । ललाम ध्वजादी रम्ये च, . ललामस्य तु पुन्नपुंसकत्वम् ।। २४ ।।
इति नपुंसकलिङ्गम् । पुंस्त्रीलिङगं चतुर्दशके, शङ कुनिरये च दुर्गतिः ।
दोमूले कक्ष आकरे गजो भूरुहि बाररापिष्पलौ ॥१॥ चतुर्दशके स्थाने वर्तमानः शङ कुशब्दः स्त्रीपुसलिङ्गः, अयमियं वा शङ कुः ।
एक दशं शतं तस्मात् सहस्रमयुतं ततः परं लक्षम् । प्रयुतं कोटिमथार्बुदमजं खर्व निखर्व च ॥१॥ तस्मान्महासरोज शङ्कुसरितां पति ततस्त्वन्त्यम् ।
मध्यं परार्धमाहुर्यथोत्तरं दशगुणं तज्ज्ञाः ॥ २ ॥ निरये वाच्ये दुर्गतिशब्द: स्त्रीपुसलिङ्गः, अयमियं वा दुर्गतिः, भुजमूलेऽभिवेये कक्षशब्दः स्त्रीपुसलिङ्गः, कक्षः कक्षा दोर्मूलं, प्राकरे वाच्ये गाः स्त्रीपुसलिङ्गः, गक्षः गला आकरः, भाण्डागारे तु पुनपुसकत्वमसुरालये तु स्त्रीत्वं प्रतिपदपाठेनोक्त, भूरुहि वृक्षे वाच्ये बाणपिष्पलशब्दो स्त्रीपुसको, बाणः बाणा झिण्टी, पिष्पलः पिष्पली अश्वत्थः, वस्त्रच्छेदनोपकरणे प्रतिपदपाठात् पुनपुसकत्वं, जले तु तन्नामत्वान्नपुसकत्वम् ।। १ ।।
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लिङ्गानुशासनम्
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नाभिः प्राण्यङ्ग के प्रधिर्नेमौ क्वचन बलिहे कुटः ।
श्रोण्योषध्योः कटो भ्रमो मोहे पिण्डो वृन्दगोलयोः ॥ २ ॥
प्राण्यङ्ग वाच्ये नाभिशब्दः स्त्रीपुसलिङ्गः, अयं नाभिरियं नाभिः प्राण्यङगविशेषः, नेमौ चक्रधारायां वाच्यायां प्रधिः, अयमियं वा प्रधिः क्वचनार्थविशेष बलिशब्दः स्त्रीपुसलिङ्गः, बवयोरक्येन निर्देशः, अयमियं वा बलिः उपहार: त्वग् मांससंकोचश्च जठरावयवश्च, गृहे वाच्ये कुट शब्द:, कुट: कुटी, घटे हलाङ्ग च पुक्लीबः, श्रोणावौषधि विशेषे च कट: पुस्त्रीलिङ्गः, कट: कटी श्रोणि:, कट: कटा औषधिः, मोहे अज्ञान विशेष च भ्रमः पुस्त्री, भ्रमः भ्रमी अज्ञानविशेषे संदेहे भ्रमणे च, वन्दे सक्त्वादीनां गोले च वाच्ये पिण्डः पुंस्त्री, पिण्ड: पिण्डो वृन्दं गोलकश्च ।। २ ।।
भकनीनिकयोस्तारोभेऽश्लेषहस्तश्रवणाः ।
करणः स्फुलिङगे लेशे च, वराटो रज्जुशस्त्रयोः ॥ ३ ॥ भे नक्षत्रे कनीनिकायां तारकायां च तारशब्दः स्त्रीपुसलिङ्गः, तारस्तारा नक्षत्रं कनीनिका च, भे नक्षत्रविशेषे अश्लेषहस्तश्रवणा: स्त्रीपुसलिङ्गाः अश्लेषः अश्लेषा, हस्तो हस्ता, श्रवणः श्रवणा नक्षत्रारिग । स्फुलिङ्ग लेशे च वाच्ये करणः स्त्रीपुसलिङ्गः, करणः करणाः स्फुलिङ्गो लेशश्च वराटः वराटा रज्जुशस्त्रविशेषौ, अन्यत्र तु कपर्दे श्वेतनामत्वात् पुंस्त्वमेव ।। ३ ।।
कुम्भः कलशे तरणिः समुद्राांशुयष्टिषु ।
भागधेयो राजदेये मेरुजम्ब्वां सुदर्शनः ॥ ४ ॥ कलशे वाच्ये कुम्भः पुस्त्री, कुम्भः कुम्भी कलशः. अन्यत्र तु यथाप्राप्तं, गुग्गुलौ बाहुलकानपुंसकत्वम् । अयमियं वा तरणि: समुद्रः, अर्कः, अंशुः पतितगोरूपोत्थापनी यष्टिश्च, अन्यत्र तु लिन्मिन्यनिण्यणिस्त्र्युक्ताः इति स्त्रीत्वमेव । भागधेयो भागधेयी राजदेयः करः, मेरुजम्ब्वां सुदर्शनशब्द: स्त्रीपुसलिङ्ग। सुदर्शन: सुदर्शना मेरुजम्बूः, अन्यत्र तु विष्णुचक्रे शक्रपुरे च प्रतिपदपाठात् पुस्त्वमेव ।। ४ ।।।
करेण र्गजहस्तिन्योरल्याख्यापत्यतद्धितः ।
लाजवस्त्रदशौ भूम्नीहाद्याः प्रत्ययभेदतः ॥ ५ ॥ गजे हस्तिन्यां च वाच्ये करेग: स्त्रीपुसलिङ्गः, अयमियं वा करेगुः गजः हस्तिनी च, अलेधं मरस्याख्या पुस्त्री, अयमलिः, इयमलिः, एवमली अलिनी, भृङ्गः भृङ्गी इत्यादि । देहिनामत्वात् पुस्त्वे प्राप्ते योनिमन्नामत्वा भावाच्च स्त्रीपु सार्थं वचनम्, अपत्येऽर्थे जातस्तद्धितस्तदन्तं नाम पुस्त्रीलिङ गं, अयमोपगवः इयमौपगवी, एवं बैदः, बैदी, गार्यः, गार्गी इत्याद्यपि । आश्रयलिङ्गत्वमपीति कश्चित्, प्रोपगवः ना, औपगवी
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
स्त्री, औपगवं कुलमित्यादि। लाजशब्द: वस्त्रसंबन्धिदशावाची, च दशशब्दः स्त्रीपुसौ तौ च बहुत्व एव प्रयोक्तव्यौ, अघाप्रत्ययभेदेनेहाद्या: शब्दा: स्त्रीपूसलिङ्गा:, ईहः ईहा, वाञ्छा उद्यमश्चेष्टा च, ऊहः ऊहा तर्कः, स्पर्धः स्पर्धाः संघर्षः इत्यादि ।। ५ ।।
शुण्डिकचमप्रसेवको, सल्लकमल्लकवृश्चिका अपि ।
शल्यकघुटिको पिपीलि-कश्चुलुकहुडुक्कतुरुष्कतिन्दुकाः ।। ६ ॥
अथ कान्ता: १२ शुण्डिकः शुण्डिका सुरापणः, चर्मप्रसेवक: चर्मप्रसेवका दृतिः, सल्लकः, सल्लकी, गजप्रियतरुः निर्यासविशेषश्चेत्यरुणः, मल्लक: मल्लिका दीपवाधारः, वृश्चिक: वृश्चिकी सविष: कोट:, शल्यक: शल्यकी श्वावित्, धुटिक: घुटिका गुल्फः, अर्थप्राधान्यात धूण्टिक: पण्टिका. घटघुटी, गूल्फः गुल्फा इत्यादि । पिपीलक: पिपीलिका वल्मीककृमिः, चुलुक: चलुका पास्यपूरणं वारि, हुडुक्कः हुडुक्कातोद्यं, तुरुष्क: तुरुष्का सिहकः, तिन्दुकः तिन्दुकी वृक्षविशेषः ।। ६ ।।
शृङ गोऽथ लञ्चभुजशाटसटाः सृपाटः,
कोटः किटस्फटघटा वरटः किलाटः । चोटश्चपेटफटशुण्डगुडाः सशारणाः,
स्युरिपर्णफलगर्तरथाजमोदाः ॥ ७ ॥ शुङ गः शुङ गा कन्दलः । अथ चान्तः लञ्च: लञ्चा उपचारः, 'भुजः भुजा बाहुः, शाटः शाटी परिधानं, सट: सटा सिहस्कन्धकेशाः, सृपाटः सृपाटी परिमारणविशेषः, किट: किटो वंशादिपुत्तलिका, स्फटः स्फटा फणः, घटः घटी कलशः, वरटः वरटा क्षुद्रजन्तुविशेषः, किलाट: किलाटी क्षोरविकारः, किलाटिकेत्यमरटीका, चोट: चोटी शाटिका, चपेटः चपेटा विस्तृताङ गुलिपाणितलं, फट: फटा फरणः, शुण्डः शुण्डा सुरा, गुडः गुडा हस्तिसन्नाहः, शाणः शाणा निकषः, वारिपर्णः वारिपर्णी फङ गानामशाकं, फरणः फरणा फटा, गर्तः गर्ता श्वभ्र. रथः रथी स्यन्दनः, अजमोदः, अजमोदा ब्रह्मकुशा ।। ७ ।।
विधकूपकलम्बजित्यवर्धाः, सहचर-मुद्गरनालिकेरहाराः । बहुकरकृसरौ कुठारशारौ, वल्लरशफरमसूरकोलरालाः ॥८॥
विधः विधा प्रकारः, कूपः कूपी अन्धुः, कलम्बः कलम्बी शाकविशेषः, जित्यः जित्या हलिः । अथ रान्ता:-वध : वर्षी चर्मरज्जुः, सहचर: सहचरी लता समूहविशेषश्च, मुद्गर. मुद्गरी लोष्ठादिभेदनोपकरण, नालिकेरः नालिकेरी तरुविशेषः फले तु तन्नामत्वात् क्लीबत्वं, हारः हारा मुक्तादाम, बहुकरः बहुकरी समाजिनी, कृसरः कृसरो तिलौदनः, कुठारः कुठारी पशु:, शारः शारी पायानयीनः, वराटश्चेति हर्षः । वल्लरः वल्लरी मञ्जरो अर्थप्राधान्यान्मञ्जरः मञ्जरीत्यपि, शफर शफरी मत्स्यविशेषः, मसूरः
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मसूरी माषविशेषः श्रर्थप्राधान्यात् मसुरोऽपि कील कीला कफण्यादि, रालः राला सर्जरसः ।। ८ ।।
पटोल: कम्बलो भल्लो, दंशो गण्डुषवेतसौ ।
लालसो रभसो वर्ति-वितस्तिटयस्त्रुटि: ॥ ६ ॥
पटोल: पटोला प्रौषधिविशेषः, कम्वलः कम्बली ऊर्णावस्त्रं गोगलचर्म च भल्ल: भल्ली शस्त्रभेदः । अथ शान्त: - दंश: दंशी क्षुद्रजन्तुविशेष:, गण्डूष: गण्डूषा करजलादिमुखपूरणम् । अथ सान्ता: वेतसः वेतसी, वानीरः, लालसः, लालसा तृष्णातिकौत्सुक्याच्ञासु अन्यत्र तु श्राश्रयलिङ्गः, रभसः रभसा पौर्वापर्याविचारः, रभसो हर्षवेगयोः, माघे तु स्त्रियां 'क्रमते नभो रभसयैव' । अथेदन्ताः ३४ अयं वर्तिरियं वर्तिर्वस्त्रस्य दशा, वितस्तरियं वितस्तिः वितताङ गुष्ठकनिष्ठः करः प्रयं कुटिरियं कुटि: स्वल्पवास:, श्रयं त्रुटिरियं त्रुटि अवस्या क्षणद्वयं चेत्यरुणः ।। ६ ।।
ऊर्मोशम्यौ रत्त्यरत्नी अवीचिर्तव्यण्यारिणश्रेणयः श्रोण्यस्थ्यौ । पापल्या शाल्मलियंष्टिमुष्टीयोनिमुन्यौ स्वातिगव्यूतिवस्त्यः ॥ १० ॥
:
यमूमिरियमूमिः वीच्यादि, प्रयमियं वा शमिस्तरुविशेष:, अयमियं वा रत्नि: बद्धमुष्टिः करः प्रयमियं वाऽरत्निः सकनिष्ठः करः प्रयमियं वाऽवीचिः नरकभेदः, श्रयमियं वा लविर्दात्रं प्रयमियं वा प्रणि: प्रक्षा म्रकीलिका प्रश्रिः सीमा च प्रयमियं वारिणः सैव प्रयमियं वा श्रेणिः पङक्तिः, प्रयमियं वा श्रोणी: कटि:, श्रयमियमरणिः अग्निनिर्मन्थनकाष्ठं, अयमियं वा पाष्णिः गुल्फयोरधः पादावयवः, सैन्यपृष्ठे तु बाहुलकात् पुस, प्रयमियं वा शलिः कौटिल्यं प्रयमियं वा शाल्मलिर्वृक्षविशेषः, एकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् शल्मलिः, श्रयमियं वा यष्टिः प्रालम्बनदण्ड, प्रयमियं वा मुष्टि: संपीडिताङ गुलिः कर:, श्रयमियं वा योनिरुत्पत्तिस्थानं श्रोणिश्च यद्गौडः 'द्वयोर्योनिभंगाकारे' प्रयमियं वा मुनिस्तपस्वी, श्रयमियं वा स्वातिर्नक्षत्रं प्रयमियं वा गव्यूतिः कोशद्वयं प्रयमियं वा बस्तिर्मूत्राधारः ।। १० ।।
मेथर्मेधिमशी मषीषुधी ॠष्टिः पाटलिजाटली अहिः ।
प्रश्निस्तिथयशनी मरिणः सृरिणमौलिः केलिहलीमरीचयः ।। ११ ।।
अमियं वा मेथि: पशुबन्धनार्थं खलमध्ये स्थूणा, अयमियं सेधिः सेव, अयमियं मसि: कज्जलं. अयमियं मषिस्तदेव प्रयमियमिषुधिस्तूणीर:, श्रयमियमृष्टिः खड्गः व्यञ्जनादिरपि श्रयमियं पाटलिस्तरुविशेष:, श्रयमियं नाटलिः स एव प्रयमियमहि: सर्पः प्रयमियं प्रश्नि: किरणः प्रयमियं तिथिः प्रतिपदादिः, प्रयमियमशनिर्वज्र विद्युच्च, अमियं मणिः रत्नादि, अयमियं सृणिरङ कुश:, अयमियं मौलि: चूडा मुकुटः केशाश्व, मियं कलिः परिहासः, प्रयमियं हलिः महाहलं, प्रयमियं मरीचिः करः ।। ११ ।।
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32
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श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने
हन्वाखू ककन्धुः सिन्धुर्मृत्युमन्वावट्वेर्वारुः । उरुः कन्दुः काकुः किष्कुर्बाहुर्गवेधूरागौर्भाः ।। १२ ॥
॥ इति स्त्रीपुसलिङ गम् ।। अयमियं हनुः कपोलयोरधोवर्ती मुखावयवः । अयमियमान्वुः मूषिकः । अयमिय कर्कन्धुः बदरी। अयमियं सिन्धुः सरिदर्णवश्च । अयमियं मृत्युः प्रारवियोगः । अयमियं मनुः प्रजापतिः, अयमियमवटुः कृकाटिका, अयमियमेर्वारुः चिर्भटः उपलक्षणत्वादीर्वारुरपि, स्वाथिके तु के प्रकृतिलिङ गबाधया एर्वारुकमपि, अयमियमूरुः सक्थि, अयमियं कन्दुः स्वेदनिका, अयमियं काकुः ध्वनिर्विकारः, अयमियं-'किष्कुः हस्ते वितस्तौ च, प्रकोष्ठ वा नपुसकम् ।' अयमियं बाहुः हस्तः, अयमियं गवेधुः तृणधान्यविशेषः, अयमियं रा द्रव्यं, अयमियं गौः, अयमियं भाः गौ अयमियं कान्तिः प्रभावश्च. अन्यत्र प्रभायामपि भाः शब्दः सन्तः पुलिङ ग एव चेत्याह ।। १२ ।।
इति स्त्रोपुसलिङ गाव दरिः । पुनपुंसकलिङ गोऽब्जः शङखे पद्मोऽब्जसंख्ययोः ।
कंसोऽपुंसि कुशो बहिर्वालो ह्रीवेरकेशयोः ॥ १ ॥ शङखे वाच्येऽब्जशब्दः पुनपुसकलिङ्ग., अब्जः अब्जं शंखः, यदुक्तम्-'अब्जो धन्वन्तरी चन्द्रे, शंखे स्त्रीक्लीबमम्बुजे' अब्जे संख्याविशेषे च पद्मः पुनपुसकं, पद्मः पद्ममब्जं संख्याविशेषश्च, पद्मकादावपीत्यन्ये । अपुसि नरादन्यत्रार्थे कंसशब्द: पुनपुसकः, कंसः कसं मानविशेषः पानपात्रं कांस्यं च, कुशशब्दः पुनपुसको बहिर्दर्भश्चेद्वाच्यः, कुशः कुशं दर्भः, रामसुते तु देहिनामत्वाद्योक्त्रद्वीपान्तरयोस्तु प्रतिपदपाठात् पुसि, अपरोऽप्यर्थः। बहिः शब्दः पुनपुसकः कुशो दर्भश्चेद् वाच्यो भवति, अमिदं वा बहि. कुश:, ह्रीबेरे केशे च वाच्ये वाल शब्दः, वाल: वालं ह्रीबेरं केशश्च, करिवालधिः प्रतिपदपाठात् पुसि ।। १ ।।
द्वापरः संशये छेदे पिष्पलो विष्टरस्तरौ ।
अब्दो वर्षे दरस्त्रासे कुकूलस्तुषपावके ॥ २ ॥ संशये संदेहे वाच्ये द्वापरशब्द: पुनपुसकः, द्वापरः द्वापर संशयः, अन्यत्र तु यथाप्राप्त, द्वापर युगविशेषः प्रतिपदपाठात् नपुसकः । छिद्यतेऽनेनेति च्छेदो वस्त्रोपकरणं, तस्मिन् वाच्ये पिष्पल: पुनपुसकः, पिष्पलः पिष्पलं वस्त्रच्छेदोपकरणम् । तरोरन्यत्रार्थे विष्टरः पुनपुसकः, विष्टरः विष्टरं आसनं बर्हिमुष्टिश्च, अब्द: अब्दं वर्ष, दरो दरं भयं, कन्दरे तु त्रिलिङ गः, ईषदर्थे त्वव्ययं देश्यपदं वा, यथा-'दरदलितहरिद्रापिखराण्यङ गकानि ।' तुषपावके तुषाग्नौ वाच्ये कुकूल: पुनपुंसकः, कुकूलः कुकूलं तुषपावकः, अन्यत्र तु लान्तत्वान्नपुसकं, कुकूलं शंकुमान् गर्तः ।। २ ॥
परीवादपर्ययोर्जन्यतल्पो, तपोधर्मवत्सानि माघोष्णहृत्सु । वटस्तुल्यतागोलभक्ष्येषु वर्णः, सितादिस्वराद्यो रणे संपरायः ॥ ३ ॥
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लिङ्गानुशासनम्
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जण्यशब्दः परोवादे कौलोने वाच्ये तल्पश्च पल्यत पुन्नपुसकः, जन्य: जन्यं परीवादः 'जन्यः स्याज्जनवादेऽपि' इत्यमरः । तल्पं तल्पः पर्यङ्कः, तपः शब्दो माघमासे, धर्मशब्द उष्णे शीतविरोधिनी, वत्सः हृदि पुनपुसकः, अयं तपा इदं तपः माघः धर्मः धर्ममुष्णः, वत्सः वत्स हत्, वटशब्दस्तुल्यतायां गोलके भक्ष्यविशेषे च वाच्ये पुनपुसकः। वटः वट तुल्यता गोलक: भक्ष्यविशेषः, न्यग्रोवे रज्जौ च त्रिलिङ्गः, भक्ष्ये स्वाथिके केऽपि वटक: वटकं, न्यग्रोधफले फलनामत्वानपुसकं, वर्णशब्द: सितादौ स्वरादौ च वाच्ये पुनपुंसकः, वर्णः वर्ण सितकृष्णादि रूपं स्वराद्यक्षरं च, अन्यत्र तु णान्तत्वात्पुस्येव, विलेपनेऽप्येके. रणे युद्धे वाच्ये संपरायः पुनपुसकः. संपराय: संपरायं रणम् ।। ३ ।।
सैन्धवो लवणे भूतः प्रेते तमो विधुतुदे ।
स्वदायौ कस्वरे कृच्छ व्रते शुक्रोऽग्निमासयोः ॥ ४ ॥ - लवणे वाच्ये सैन्धवः पुनपुसकः, सैन्धवः सैन्धवं लवण, प्रेते वाच्ये भूतः पुनपुसकः, भूत: भूतं प्रेतः अन्यत्र तु पृथिव्यादौ प्राणिनि च क्लीबः, विधुतुदे राहो वाच्ये तमः शब्दः पुनपुसकलिङ्गः। अयं तमा इदं तमो सहुः, स्वदायशब्दौ कस्वरे धने वाच्ये पूनपुसको, स्वः स्वं कस्वरम्, अन्यत्र स्व: प्रात्मा स्वभावो ज्ञातिश्च, प्रतिपदपाठात् पुस्त्वमेव । दायः दायं धनम्, कृच्छशब्दो व्रते वाच्ये पुनपुसकः, कृच्छ्र: कृच्छ्र सान्तपनादि व्रतं, अग्नौ ज्येष्ठमासे च शुक्रः शब्दः पुनपुसकः, शुक्र शुक्रमग्नियेष्ठमासश्च ।। ४ ।।
कर्पूरस्वर्णयोश्चन्द्र, उडावृक्षं छदे दलः ।
धर्मः स्वभावे रुचको भूषाभिन्मातुलिङ गयोः ॥ ५ ॥ कर्पू रे स्वर्ण च वाच्ये चन्द्रशब्दः पुनपुसकः । चन्द्रः चन्द्रं कर्पू र स्वर्ण च, उडी नक्षत्रे वाच्ये ऋक्षशब्दः पुनपुसकः, ऋक्षः ऋक्षं भम्, छदे पणे वाच्ये दल शब्दः पुनपुसकः दल : दलं छदः, स्वभावे स्वरूपे वाच्ये धर्मशब्द: पूनपुसकः, धर्मः धर्म स्वभावः अन्यत्र तु पुण्यो पाये क्लोबत्वमुक्त, अन्यत्र तु पुलिङ ग एव । भूषाभिदि ग्रंवेयके मातुलिङ गे च बाजपूरे वाच्ये रुचकः पुनपुसकः, रुचकः रुचकं ग्रैवेयकं बीजपूरं च, सौवर्चले चन्दनपेषण्या शिलायां च वलीबः ।। ५ ।।
पाताले वाडवो वः, सीस पामलकः फले ।
पिटजङगलसत्वानि, पिटकामांसजन्तुषु ॥ ६ ॥ पाताले वाच्ये वाडवशब्दः पुनपुसकः. वाडवः वाडवं पातालं, वर्ध: सीसे सीसके वाच्ये, फले वाच्ये प्रामलकः पुनपुसकः, पामलकः प्रामलकम् फलं, पिटकाख्ये भाजनविशेषे मांसे जन्तौ च यथासंख्यं पिटजङगलसत्वाः पुनपुसकाः । पिट: पिट पिटका, अन्यत्र छदौं
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
आकर्षफले च प्रतिपदपाठान्नपुसकत्वम्, जङगलः जङगलं मांसं, जङगलो निर्जले देशे त्रिलिङ गः पिशितेऽस्त्रियां. सत्वः सत्वं जन्तुः, जन्तुविशेषोऽपि जन्तुः तेन पिशाचादावपि पुनपुसकत्वं उपलक्षणत्वाद् गुणप्राणयोरपि, अन्यत्र तु क्लीबः ।। ६ ॥
मधुपिण्डौ सुरातन्वोर्नाम शेवालमध्ययोः ।
एकाद्रात्रः समाहारे, तथा सूतककूलको ॥ ७ ॥ सुरायां मृद्विकामद्ये तनौ च वाच्यायां मधुपिण्डशब्दी पुनपुसको, अयं मधुः इदं मधु सुरा। अयं पिण्डः इदं पिण्डः तनुः, शेवालमध्ययोर्नामपुनपुसकम्, शेवालः शेवालम्, शेवलः शेवलमित्यादि। मध्यः, मध्यं मध्यमः:, मध्यमं अवलग्नः अवलग्नं. विलग्नः विलग्नं इत्यादि। रात्र इति कृतसमासान्तो रात्रिशब्दो गृह्यते स एकशब्दात्परः पुनपुसकः । असमाहारार्थं वचनं एका चासो रात्रिश्च एकराजः एकरात्रः एकरावं, समाहारे द्विगुसमाहारो द्वद्वसमाहारश्च गृह्यते, तस्मिन् वर्तमानो यो रात्रशब्दः स पुनपुसकः, द्वे रात्री समाहृते द्विरात्रः द्विरात्रम्, एवं त्रिरात्रः त्रिरात्रमित्यादि, द्वंद्वसमाहारे अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रः अहोरात्रम्। समाहार इति किम् ? पूर्वो रात्रेरंशः पूर्वरात्रः । अथ कान्ताः १६-सूतकः सूतकं पारद, कूलकः कूलकं स्तूपः ।। ७ ।।
वैनीतकभ्रमरको मरको वलीक
वल्मीकवल्कपुलकाःफरकव्यलीको । किंजल्ककल्कमरिणकस्तबकावितङ्क
वर्चस्कचूचुकतडाकतटाकतङ्काः ।। ८ ॥ वैनीतकः वैनीतक परंपरावाह्य याप्ययानादि, भ्रमरकः भ्रमरकं ललाटस्थोऽलकः । मरकः मरकं बहुप्राणिमरणं, वलीकः वलीक नोव्र, वल्मीकः वल्मीकं पिपीलिकादिकृतो मृतसंचयः, वल्कः वल्कं तरुत्वक, पूलकः पूलक रोमाञ्चः, फरकः फरक खेटकः, रलयोरक्येन फलकमपि। व्यलीकः व्यलीकमप्रियमकार्य च, किजल्कः किल्क केसरम्, कल्क: कल्कं कषायः, तिलादेः खलश्च, मणिकः मणिकमलिञ्जरः, स्तबकः स्तबकं गुच्छकः, वितङ्कः वितङ्कम् आरोग्य, वर्चस्क: वर्चस्कमवस्करः, चू चुक: चूचुकं कुचाग्रं, तडाकः तडाक सरः, तटाकः तटाकं तदेव अर्थप्राधान्यात्तडागोऽपि, तङ्कः तङ्कम् अातङ्कः ।। ८ ।।
बालकः फलकमालकालका, मूलकस्तिलकपकपातकाः ।
कोरकः करककन्दुकान, दुकानोकनिष्कचपका विशेषकः ॥ ६ ॥
बालक: २ परिहार्यमङ गुलीयकं च, फलक: फलं खेटकं । तदन्तत्वात्, शालिफलकोऽपि अष्टापदः, मालक: मालकं ग्रामान्तराटवी, अलकः अलकं चूर्णकुन्तलः, मूलकः मूलकं शाकविशेष:, तिलक: तिलकं पूण्ड, पङ्कः पङ्ग कर्दम: पापंच, पातकः पातकं पापं,
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लिङ्गानुशासनम् .
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कोरक: कोरकं कुड्मलं अर्थप्राधान्यात् क्षारकोऽपि । करकः करकं कमण्डलुः करङ्कश्च, कन्दुक: कन्दुकं गिरिः अन्दुकः अन्दुकं गजवादबन्धनं, अनोकः अनोकं युद्धं सेना च, निष्क: निष्क, हेम्नः अष्टोत्तरं, शतं, पलं, कर्षः, हेम्नः, उरोभूषणं दोनारश्च । चषकः चषकं मद्यपानभाजनं विशेषक: विशेषकं तिलक: ।।8।।
शाटककण्टकटविटङ्का, मञ्चकमेचकनाकपिनाकाः ।
पुस्तकमस्तकमुस्तकशाका, वर्णकमोदकमूषिकमुष्काः ॥ १०॥
शाटकः शाटकं वस्त्रविशेषः, कण्टक: कण्टकं रोमाञ्चः वृक्षभेदी च, टङ्कः पाषाणादिच्छेदोपकरणं गिरिशृङ्ग च, विटङ्कः विटङ्क कपोतपालोसंशं पक्षिविश्रामार्थं बहिर्निगतं दारु, वक्रदार्वाधारः तत्र हि कपोतपडिंक्तरुत्कीर्यते। ञ्चक: पल्यङ्कः, मेचक: वर्णविशेषः, नाक: स्वर्गः अाकाशं च, पिनाक: रुद्रधनुः, पुस्तक: लिखितपत्रसञ्चयः, णकप्रत्ययान्तोऽयम्, तेन पुस्तात् स्वार्थिककेन न सिध्यति । मस्तक: शिरः, उरणादौ तु कान्तोऽयं तप्रत्ययान्ताद्वा स्वार्थिकः कः, मुस्तक: मुस्ता। शाकं मूलकादि, वर्णकः विलेपनं, मोदक: लड्डुकः, मूषिकः प्राः, मुष्कः वृषणः ।। १० ।।।
चण्डातकश्चरकरोचककञ्चुकानि, मस्तिष्कयावककरण्डकतण्डकानि । प्रातङ्कशूकसरकाः कटकः सशुल्कः, पिण्याकझझरकहंसकशंखपुंखाः ॥११॥
चण्डातकः अोरुकवस्त्रं. चरक: शास्त्रविशेषः। रोचकः क्षुत्, कञ्चुकः सन्नाहादिः, मस्तिष्कः मस्तकस्नेहः. यावक: अलक्तकः, करण्डकः पूष्पाद्याधारः, तण्डक शाल्यादिसारः, आतङ्कः इष्टवियोगतापरुक्शङ्कादिषु, घनन्तत्वात् पुसि। शूकः धान्यादेः शृङ्गः, सरकः मद्यभाजनं मद्यपाने तु त्रिलिङ्गः, कटक: सैन्यं सानुः वलयोऽद्रिशृगं च, शुल्क: मादौ राजदेयं स्त्रीविवाहपरिग्राह्य धान्यं च। पिण्याकः तिलादिखलः, झर्भरकः कलियुगं, हंसक: नूपुरं, शंखः कम्बुः वलयं प्राण्यङ्ग, पुङ्खः शरस्पृष्टम् ।। ११ ।।
नखमुखमधिकाङगः संयुगः पद्मरागो,
भगयुगमथ टङ गोद्योगशङगा निदाघः । क्रकचकवचकर्धिर्चपुच्छोञ्छकच्छा,
व्रजमुटजनिकुञ्जो कुञ्जभूर्जाम्बुजाश्च ॥ १२ ॥ नखमुखे प्रसिद्ध, अधिकाङ्गः सारसनं यद् हृदि बध्यते युधि, संयुगः संग्रामः, पद्मराग: शोणमरिणः, भग उपस्थः, युगो यूपः, टङ्गः खनित्रं उद्योगः पराक्रमः शं गं शिखरं, निदाद्यः ग्रीष्मः, कचः करपत्रं, कवचः वर्म, कूर्चः भ्र मध्यं दोघश्मश्रु कैतवं च । ऋचोऽर्धमर्धर्चः । 'परलिङ्गो द्वंद्वोंऽशी' इत्यस्यापवादः । पुच्छः लाङ गूलं, उञ्छं जीविकाविशेषः, कच्छो बहुजलो देशः. व्रजः पन्थाः, उटजः तापसपर्णकुटी निकुञ्जः
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श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
गह्वरं, कुञ्जः गह्वरः गजकुम्भाघो दन्तिदन्तः हनुश्व, भूर्जं च तरुविशेषत्वक्. श्रम्बुजः कमलं चकारोऽनुक्तसमुच्चये. तेन चान्तेषु प्रध्यर्चो नमस्या ।। १२ ।।
ध्वजमलयजकूटाः कालकूटारकूटौ,
aachपटखेटा: कर्पटः पिष्टलोष्टौ ।
नटनिकट किरीटाः कर्बटः, कुक्कुटाट्टो,
कुटकुटविटानि त्र्यङगट ः कोहकुष्टौ ।। १३ ।।
ध्वजः पताकादिः मलयज : श्रीखण्डं, कूटं मायादि, कालकूटं विषं, प्रारकूटो रीतिः, कवट : उच्छिष्ठं, कपट : दम्भः, खेटः फलकं कफश्व, कर्पटः वासः, पिष्ट: अपूपः, लोष्ट : मृच्छकलं, नटः नर्तकविशेषः, निकटः समीपं किरीटः मुकुटं कर्बट: पर्वतावृतग्रामविशेष:, , कुक्कुट ताम्रचूडः, ऋट्टः क्षौमं गेहभेदव, कुटो घटः हलाङ्गविशेषश्च । कुटः वार्ताकीकुसुमं विट: खिङ्गः गोविशेषश्च त्र्यङ्गटः शिक्यभेदः, कोट्टः दुर्गः । अथ ठान्तौ कुष्ठं त्वग्दोषः गन्धद्रव्यविशेषश्च ।। १३ ।।
कमठो वारुण्डखण्डखण्डानिगडाक्रीडनडप्रकाण्डकाण्डाः ।
कोदण्डत रण्डमण्डमुण्डा, दण्डाण्डौ दृढवारवारणबारणाः ।। १४ ।।
कमठः प्रसुरविशेषः भाजनं च कूर्भे तु देहिनामत्वात पुंस्त्वमेव, वारुण्ड: दृक्कर्णमलः गरिणस्थराजश्व, खण्डः शकलमिविकारश्च गुणवृत्तेस्त्वाश्रयलिङ्गता, खण्ड: खण्डी खण्डमिति, षण्ड: वृक्षादिसमूहः, निगडः पादबन्धनं, प्राक्रीड: उद्यानविशेषः, नड: नड्वलजस्तृणविशेषः, प्रकाण्डः स्तम्बः, शस्तं तरोश्च मूलशाखान्तरं, काण्डः शरः समयश्व प्रकरणं, समूहः, जलं, वालं, कुत्सितं वृषस्कन्धः लता च । कोदण्डं चापं, तरण्ढः उडुपः, मण्डः द्रवद्रव्याणामुपरिस्थो भागः भक्तादिनिर्यासः एरण्डः मस्तु च मुण्डं शिरः, दण्ड: यष्टिः, मन्थाः सैन्यं दमनं च । अण्ड: पक्ष्यादिप्रसवः । अथ ढान्तः दृढः स्थूलं बलवांश्च, वारबाणं चर्म, बारणः शरः पुष्पविशेषश्च ।। १४ ।।
कर्षापरणः श्रवणपश्वरणकङ करणानि,
द्रोणापराचरणानि तृणं सुवर्णम् ।
स्वर्णव्रणौ वृषणभूषरणदूषणानि,
भारणस्तथा किरणरण प्रवरणानि चूर्णः ।। १५ ।।
कर्षापरण : मानविशेषः परणषोडषकं च, प्रज्ञाद्यरिण कार्षापणोऽपि श्रवणः कर्णः, पक्वरणः शबरालयः, कङ्कणः हस्तरक्षासूत्रं द्रोणः परिमाणविशेषः अपराह्नः दिवसापरभागश्च चरणं गोत्रादि, तृणः उपलादिः, सुवर्णः स्वर्ण: हेमं, व्ररणः ऊरुः, वृषरणः मुष्कः,
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लिङ्गानुशासनम्
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भूषणः अलंकारः अर्थप्राधान्यात् मण्डनोऽपि. दूषणः उपालम्भः. भाणः प्रबन्धभेद: किणः त्वग्ग्रन्थिः, रणः संपरायः, प्रवरणः चतुष्पथं, चूर्णः क्षोदः ।। १५ ।।
तोरणपूर्तनिकेतनिवाताः पारतमन्तपुतप्रयुतानि। वेडितमक्षतदैवतवृत्तैरावतलोहितहस्तशतानि ॥ १६ ॥
तोरणः वन्दनमाला बहिर्वारि नि! हश्च । पूर्तः खानादिकर्म, निकेतः प्रावासः, निवातः गृहं दुर्भेदं चर्म च, वातरहिते प्रदेशे त्वाश्रयलिङ्गता। पारतं रसेन्द्रः अर्थप्राधान्यात् पारदमपि । अन्तः प्रान्तः समीपं स्वरूपं च, उपलक्षणत्वात् प्रान्तः प्रान्तमपि, पुतं अपानं, प्रयुतं दशलक्षारिण. वेडितः सिंहनादविशेषः अक्षताः अक्षतं, मङ्गलस्य तण्डुलाः, पुसि बहुत्व एवायम् । देवतः देवताः, वृत्तं शीलं निस्तलं च, ऐरावतः सुरेन्द्रदन्ती, लोहितः शोणितं गुणवृत्तिस्त्वाश्रयलिङ्गः हस्तः करः, शतं पञ्च विंशतयः ।। १६ ।।
व्रतोपवीतौ पलितो, वसन्तध्वान्तायुतद्यूतघृतानि पुस्तः । शुद्धान्तबुस्तौ रजतो, मुहूर्तद्वियूथयूथानि वरुथगूथौ ॥ १७ ॥
_व्रतः शास्त्रितो नियमः, उपवीतः कण्ठसूत्रं, पलितं पक्वकेशः, केशपाके कर्दमे च तान्तत्वौनपुसकत्वं, वसन्तः सुरभिः देवपुत्रविशेषश्च, ध्वान्तं तमः, अयुतं दशसहस्राणि, घृतः दुरोदरं, द्युतं प्राज्य, पुस्तं लेख्यपत्रसंघातः, लेपादिकर्म च, शुद्धान्तः अन्तःपुरं पुस्तं पक्वमांसविशेषः, रजतो रूप्यं श्वेतं च, महर्तः घटिकाद्वयं, द्वयोर्य थयो: समाहारो द्वियूथः, यूथः सजातीयपश्वादिसंघातः, वरुथः रथगुप्तिः, गूथः विष्ठा ।। १७ ।।
प्रस्थं तीर्थं प्रोथमलिन्दः ककुदः ककुदाष्टापदकुन्दाः ।
गुददोहदकुमुदच्छदकन्दाऱ्या दसौधमथोत्सेधकबन्धौ ॥१८॥ प्रस्थः माने, तन्मितं वस्तुमात्रं च, तीर्थ पुण्यस्थानं जलावतारश्च, प्रोथः अश्वादे?णान्तरं, अलिन्दः गृहद्धारस्था स्थली, ककुदः कुकुदश्च श्रेष्ठं वृषस्कन्धः राजचिह्न च, अष्टापदं सुवर्ण द्यूत फलकं च अर्थप्राधान्यात् शारिफलकमपि, गिरौ शलभे कपो चाद्रिदेहिनामत्वात् पुस्त्री, कुन्दः पुष्पविशेषः, निधिभेदमुरभिदोस्तु पुस्त्वमुक्तमेव, चक्रभ्रमौ च बाहुलकात् पुसि, गुदं अपानं, दोहदः श्रद्धादौ, हृदयस्य तु बाहुलकानपुसकत्वं, कुमुदः करवम्, छदः दलं पिच्छं च, कन्दः पयोधरः सस्यमूलं च, अर्बुदो दशकोटयः कोटिरित्यन्ये, स्थानविशेषः अक्षिरोगविशेषश्च पर्वतविशेषे तु पुस्त्वमेव, अथ धान्ताः सौधः राजगृहं, उत्सेधः उन्नतिः, कबन्धः शिरोरहितः कायः ।। १८ ।।
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38
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
श्राद्धायुधान्धौषधगन्धमादनप्रस्फोटना लग्नपिधानचन्दनाः । वितानराजादनशिश्नयौवनापीनोदपानासनकेतनाशनम् ॥१६॥
श्राद्धः पितृकर्म । यस्तु मत्वर्थीयान्तः स आश्रयलिङ्गः, प्रायुधः प्रहरणं अन्धः तमः औषधो भेषजं, गन्धमादनः पर्वतविशेषः, प्रस्फोटनः शूर्प, लग्नं मेषादि, पिधानं संवरणं, अपेः प्यादेशाभावेऽपिधानमपि, चन्दनः मलयजतरुः चन्दनान्तत्वाद्धरिचन्दनो देवदारुः चन्दनविशेषश्च, वितानं विस्तारः उल्लोच:, शुन्यं यज्ञश्च, राजादनः पियाल: क्षीरिका च, शिश्नं मेढ़ः, यौवनं द्वितीयं वयः, पापीनं ऊधः, उदपानं कूपः, असनं वक्षविशेषः श्लेषनिर्देशादासनमुपवेशनं, केतनः ध्वजः, अशनः प्रोदनः ।। १६ ।।
नलिनपुलिनमौना वर्धमानः समानौदनदिनशतमाना हायनस्थानमानाः। धननिधनविमानास्ताडनस्तेनवस्ना, भवनभुवनयानोद्यानवातायनानि ।। २० ॥
नलिनः पद्म, पुलिनः सैकतं, मौनो वाग्यमः, वर्धमानः शरावः, समानः तुल्यः शरीरस्थो वायूविशेषश्च, प्रोदनः करं, दिनो दिवसः, शतं मानान्यस्य शतमानः, भूभागविशेषः रूप्यमानं च, हायनः वर्षः रश्मिश्च । स्थानं आश्रयः, मानः दर्पः, धनो द्रव्यं, निधनः विनाशः कुलं च, विमानं व्योमयानादि ताडनः व्यधनं, स्तेनः चौरः चौर्यं चः वस्नः अवक्रयः, धनवस्त्रयोस्तु क्लीबत्वं, भवनः गेहं. भुवनं जगत्, यानः वाहनं, उद्यान: क्रीडास्थानं, वातायन: गवाक्षः ।। २० ।।
अभिधानद्वीपिनौ निपानं, शयनं लशुनरसोनगृञ्जनानि ।
खलिनखलीनानुमानदीपाः, कुरणपः कुतपावापचापसूर्याः ।। २१ ।।
अभिधानं संज्ञा शब्दश्च द्वोपिनं व्याघ्रः, निपानं पाहावः, शयनं शय्या, लशुनरसोनगञ्जना महाकन्दाः खलिनं खलीनं च कवियं, अनुमानो हेतुः, अकत्रनडन्तोऽयं, भावे तु क्लोबत्वमेव, दीपः प्रदीपः, कुरणप: शवं; कुतपः छागरोमकृतकम्बलः दर्भः अपराह्मकालश्च , पावापो वलयः, चापं धनुः, शूर्प धान्यादिपवनं भाण्डम् ।। २१ ।। स्तूपोडुपौ विटपमण्डपशष्पबाष्य
द्वीपानि विष्टपनिपौ शफडिम्बबिम्बाः । जम्भःकुसुम्भककुभौ कलभौ निभार्म
संक्रामसंक्रमललामहिमानि हेमम् ।। २२ ॥ स्तूपो मृदादिकूटः, उडुपं प्लवः चन्द्रे तु पुस्त्वं, विटपः तरोः स्कन्धादू शाखा, मण्डपो जनाश्रयः, शष्यं वालतृणं प्रोक्त, बाष्पं नेत्रवारि ऊष्मा च, द्वीपं मध्येजलं देशः, विष्टां जगत, निपं घटः, शफः खुरः, डिम्बः उदरान्तोऽवयवः, बिम्बं प्रतिबिम्बं मण्डलं च,
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लिङ्गानुशासनम्
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जम्भो जम्बीरः, कुसुम्भं कमण्डलुः महारजतं च, ककुभः वीणाप्रसेवः, कलभः करिपोतः, निभो व्याजः, अर्मः चक्षुरोगः, संक्रामः संक्रमश्च, जलतरणविशेषः ललामः शृङ्गपुच्छं हयमुखेऽन्यवर्णः पुण्ढः केतुश्च, हिमः तुषारः, हेमं स्वर्णः ।। २२ ।।
उद्यमकामोद्यामाश्रमकुट्टिमकुसुमसंगमा ।
गुल्मः क्षेमक्षौमौ कम्बलिवाह्यो मैरेयतूयौं च ।। २३ ।। उद्यमः उत्साहः, कामः अभिलाषः, उद्यामः 'उद्यमोपरमौ' इति निपातनादवृद्धिनिषेधेऽपि अत एव निपातनादात्वमपि, पाश्रम: मुनिस्थानं ब्रह्मचर्यादिश्च, कुट्टिमः संस्कृतभूमिविशेषः, कुसुमं पुष्पे स्त्रीरजस्यपि च, नेत्ररोगे तु बाहलकात् क्लीबत्वमेव । सङ्गमः संगमः, गुल्मः विटपः प्रकाण्डं च, क्षमः कुशलं लब्धरक्षणं च, क्षौमं अट्टालकः अभ्यन्तरे प्राकारधारणार्थं खोमाख्याश्च । कम्बलिवाह्य गन्त्री, मैरेयः सीधुः, तूर्यं वाद्यम् ।। २३ ॥
पूयाऽजन्यप्रमयसमया राजसूयो,
हिरण्यारण्ये संख्यं मलयवलयौ वाजपेयः कषायः । शल्यं कुल्याव्ययकवियवद्गोमयं पारिहार्यः,
पारावारातिखरशिखरक्षत्रवस्त्रोपवस्त्राः ॥ २४ ॥ पूयः क्लिन्नासृग, अजन्यः उत्पातः, प्रमयः मरणं, समयः कालः, अन्यत्र पुसि, राजसूय: ऋतुः, हिरण्यं स्वर्ण, अरण्यः अटवो. संख्यः पाहवः, मलयः गिरिविशेषः, वलय: कटकं, वाजपेयः ऋतुभेदः, कषायो रसभेदेऽङ्गरोगे च, शल्यं देहगतं शस्त्रादि, कुल्यः अस्थि, अव्ययं स्वरादि, कवियः खलिनं, गोमयः गोशकृत्, पारिहार्यं वलयम् । अथ रान्ता: पारं परतीरं समाप्तिश्च, अवारं अक्तिीरं, अतिखरः औषधविशेषः, शिखरं शलवक्षाग्रं पूलकः पक्वदाडिमबीजाभमाणिक्यं च, क्षत्र क्षत्रियः, वस्त्रां वासः, उपवस्त्रं उपवासः, यत्तूपवस्ता प्राप्तोऽस्येति कृतवाणि औपवस्त्रमुपवासः तत्संयुक्तरान्तत्वान्नपुंसकम् ।। २४ ।।
अलिञ्जरः कूबरकूरबेरनोहारहिजीरसहस्रमेढ़ाः ।
संसारसीरौ तुबरश्च सूत्रशृङ गारपद्रान्तरकर्णपूराः ॥ २५ ॥
अलिञ्जरः मणिकः, कूबरं युगन्धरः, कूर: प्रोदनं, बेरो देहः, नीहारः हिमम्, हिजीरः अन्दुकः, सहस्र दशशतानि, मेण्ढ़ः शफः, संसारः जगत्, सीरं हल, तुबरः कषायः, सूत्रः तन्तुः सूत्रणा च, शृङ्गारो रसविशेषः, पद्म ग्रामस्थानविशेषः, अन्तरं मध्यं छिद्रं विनार्थश्च अवधिः अवकाशः विशेषश्च, कर्णपूरः अवतंसः नीलोत्पलं च ।। २५ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशामने
नेत्रं वक्त्रपवित्रपत्रसमरो शीरान्धकारा वरः,
केदारप्रवरौ कलीरशिशिरावाडम्बरो गह्वरः । क्षीरं कोटरचक्रचुक्रतिमिराङ गारास्तुषारः शर
भ्राष्ट्रोपहरराष्ट्र तक्रजठरार्द्राःकुञ्जरः पञ्जरः ॥ २६ ॥ नेत्रो नयनं परिधानविशेषश्च, वक्त्रो मुखं, पवित्र. पावनं, गुणवत्तेस्त्वाश्रयलिङ्गता, पत्रं पर्ण वाहनं च, समरः रणं, उशीरः वीरणीमुलं, अन्धकारः तमः अर्थप्राधान्यान्नीलपङ्कदिनकेसरावपि वरः श्रेष्ठः देवतादेश्व,-मनागिष्टे त्वव्ययं, अन्ये, तु क्लीबम् । केदारः वप्रः, प्रवरो गोत्रविशेष: हिमं च, कुलीरः कर्कटकः, शिशिरः ऋतुविशेषः अाडम्बरं करिर्गाजतं पटह उद्धतवेषादिश्च, गह्वरं बिलं निकुञ्जः दम्भश्च, क्षीरः दुग्धं, जले तु नपुसकत्वं, कोटरं छिद्रं निष्कुहश्च, चक्रः प्रायुधम् : रथाङ्ग, संघातः राष्ट्र कटकं च,स्वल्पह्रस्वयोः कपि चक्रिका दुरुद्योगः घुरणावर्तश्च. चुकं अम्लो रसः अम्लव्यञ्जनं च, तिमिरः तमः, अङ्गारः अग्निदग्धकाष्ठशकलं तुषारः हिम. शरः बाणः दधिसारश्च, भ्राष्ट्र अम्बरीषः, उपह्वरः उपसर: रहः समीपंच, राष्ट्र: जनपदः उपद्रवश्च, तकं उदश्वित्, जठरं उदरं, आर्द्रः शृङ्गवेरं कुञ्जरः गजः, पञ्जरं वीतसम् ।। २६ ।।
कर्पूरनपुरकुटोरविहारवारकान्तारतोमरदुरोदरवासरारिण । कासारकेसरकरीरशरीरजीरमजीरशेखरयुगंधरवज्रवप्राः ।। २७ ।। .
कर्पूरं घनसारः, नूपुरो गञ्जीरः, कुटीरं ह्रस्वा कुटो, विहारं भिक्षुस्थान यतिचर्या च, वार: परिपाटि: अवसरः समूहश्च कान्तारो महारण्यं, तामरं शस्त्रविशेषः दुरोदरं पणः, वासरं दिनं. कासारः पल्वलं, केसर: किल्कः सटा च, करीरं वंशाधङ कुरः घटश्च, शरीर: कायः, जीरं अजाजीक: जीरकोऽपि च, मञ्जीरः नुपूर, शेखरं शिरोभूषणं, युगंधरं बरं, वज्र अशनिः रत्नं च, व क्षेत्र रोधश्च ।। २७ ।।
प्रालवालपलभालपलालाः, पल्वलः खलचषालविशालाः।
शूलमूलमुकुलास्तलतैलौ तूलकुड्मलतमालकपालाः ॥२८ ।।
प्रालवालं पावालं, पलं मांसं मानविशेषश्च, भालं ललाटं, पलालं धान्यादे: शुष्कनालं, पल्वलः कासारः, खलः पिण्याकः दुर्जनश्च, दुर्जने अाश्रयलिङ्गोऽप्ययमित्येके, चषालः यज्ञपात्रं, विशालः विस्तीर्णता गुणवृत्तेस्त्वाश्रयलिङ्गता, शूलं प्रायुधं मूलं पादिः प्रतिष्ठा च, मुकुलं कुड्मलः तलं अधः स्वभावश्च, पृष्ठे तु लान्तत्वान्नपुसकः, तैलं ति लादिस्नेहः, तूलं पित्रः, कुड्मलो मुकुलः, तमालो वृक्षविशेषः, कपालं शिरोऽस्थि घटादिशकले वजे भिक्षाभाजने च स्त्रीक्लीबः ।। २८ ।।
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लिङ्गानुशासनम्
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कवलप्रवालबलशम्बलोत्पलोपल-शीलशैलशकलाङ गगुलाञ्चलाः । कमलं मलं मुशलशालकुण्डलाः, कललं नलं निगलनीलमङगलाः ॥ २६ ॥
कवलः भक्ष्यपिण्डः, प्रवालं नवकिशलयं विद्रुमश्च, बलः प्राणः अर्थप्राधान्यात् सहोऽपि, सैन्यस्थौल्यरूपेषु तु क्लीबः, शंबलं पाथेयं, उत्पलं सरोज अर्थप्राधान्यात् कुवलयमपि. उपलः पाषाणः, शीलं सद्वृत्तं स्वभावश्च, शैलं गडः, शकलं खण्डं, अङ्गलः अङ गुलीयमानं, अञ्चलं वस्त्रैकदेशः, कमलः पद्म जले तु क्लीबः, अर्थप्राधान्यान्नालीकमपि, मलं किट्ट पापं च, किट्ट चार्थप्राधान्यात् किट्टः किट्ट, मुसलः क्षोदनोपकरणं अर्थप्राधान्यात् अयोऽग्रः । शालं वृक्षविशेषः, कुण्डलं कर्णाभरणं, कललं शुक्रशोणितयोरीषद्घनः परिणामः, नलं अन्तःशुषिरस्तृण विशेषः, नल् गन्धे इत्यस्येद रूपमिति कृतलत्वान्नडादस्य भेदः । निगल्यते बध्यतेऽनेनेति निगल: पादबन्धनम् । अयमपि धातुभेदे कृतलत्वान्न सिध्यति । नीलं वर्णविशेषः। मङ्गलः प्रशस्तम् ।। २६ ।।
काकोलहलाहलौ हलं कोलाहलकङ कालवल्कलाः ।
सोर्चलधूमले फलं हालाहलजम्बालखण्डलाः ॥ ३० ॥ .
काकोलो विषभेदः, हलाहलः स एव, हलः सीरः कोलाहल: कलकलः कंकालं शरोरास्थि । वल्कलं वृक्षादीनां त्वक्, सौवर्चलं रुचकं, धूमल: तूर्यः, फलः प्रयोजनं पुष्पादिभवं च, हालाहलो विषभेदः एकदेशविकृतस्यानन्यत्वेन हालाहलमपि, जम्बाल: कर्दमः, खण्डलः खण्डम् ।। ३० ।।
लाङ गूलगरलाविन्द्रनीलगाण्डीवगाण्डिवाः ।
उल्वः पारशवः प्रार्वापूर्वत्रिदिवताण्डवाः ॥ ३१ ॥ लाङ गूल: पुच्छं, गरलं विषं, इन्द्रनील: रत्नभेदः, गाण्डीवं धनुः पार्थधनुश्च, गाण्डिवं तदेव. उल्वः कललम् । पारशवः शस्त्रं, पार्श्वः कक्षाधः शरीरदेशः, अपूर्व धर्माधमौं, त्रिदिवं स्वर्गः, ताण्डवं उद्धतं नृत्यम् ।। ३१ ।।
निष्ठेवप्रग्रीवशरावरावौ भावक्लीवशवानि । देवः पूर्वः पल्लवनल्वौ पाशं कुलिशं कर्कशकोशौ ॥ ३२ ॥
निष्ठेवः निष्ठेवनं-पत्र यज्ञोपकरणवाचिनं पात्रीवशब्दं केचित् पठन्ति स त्वाश्रयलिङ्गः, प्रग्रीवो वातायनं शरावो वर्धमानं, रावः ध्वनिविशेषः, भावः स्वभावादिः, क्लीबः तृतीयाप्रकृतिः अर्थप्राधान्यात नपसकमपि । शवो मृतशरीरं, देवो विधिः, पर्व प्रथमता, गुणवृत्तिस्त्वाश्रयलिङ्गः, पल्लवः किशलयं, पल्लवान्तत्वाद् सपल्लवो वासः, नल्वो हस्तचतुःशती। अथ शान्ताः ८-पाशो बन्धनं, कुलिशा वज्र कर्कशोऽमृदुत्वं
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42 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
गुणवृत्तेस्त्वाश्रयलिङ्गता, कोशो भाण्डागारः कुड्मलं शपथश्च-भाण्डागारेऽर्थप्राधान्यात् गजोऽपि तालव्योपान्त्य, समानार्थः मूर्धन्योपान्त्यः कोषशब्दो वक्ष्यते ।। ३२ ।।
अाकाशकाशकरिणशाङ कुशशेषवेषो
ष्णीषाम्बरीषविषरोहिषमाषमेषाः । प्रत्यूषयूषमथ कोषकरीषकर्ष
__वर्षामिषा रसबुसेक्कसचिक्कसाश्च ॥ ३३ ॥ आकाशो नभः, काशः तृणविशेषः, करिणशं धान्यशीर्षकं, अङ कुशः सृरिणः । अथ षान्ताः १५ शेषः उपयुक्त तरत्, वेषः पाकल्पः तालव्योपान्त्योऽप्ययं, उष्णीषं किरीटं शिरोयेष्टनं च, अम्बरीषं भ्राष्ट्रः, विषं गरल, रोहिषं रक्ततृणं माषः धान्यविशेषः, मेष: मेण्ढ़, प्रत्यूषः प्रभातं, यूषं मुद्गादिग्सविशेषः, कोषः कुड्मलं, करीषः शुष्कगोमयं तदग्निश्च, कर्षः पलचतुर्थांशः वर्ष; संवत्सरः, वृष्टिः खण्डः भरतक्षेत्रादि च। आमिषं उत्कोचः मांसं भोग्यवस्तु च रसं मधुरादि शृगारादि विषं वीर्य रागश्च, बुसं कडङ्गरः, इक्कसं वस्तुविशेषः, चिक्कसं यवान्न विशेषः, चकारा पायसं परमान्नं च ।। ३३ ।।
कर्पास पासो दिपसावतंसवीतंसमांसाः पनसोपवासौ ।। निर्यासमासौ चमसांसकांसस्नेहानि बर्हो गृहगेहलोहाः ॥ ३४ ॥
कर्यासः तूलकारणं, पासो धनुः, दिवसं दिनं, अवतंस: शेखरः अवस्य वादेशे वतंसोऽपि, अर्थप्राधान्यादुत्तंसोऽपि, वोतंसः पञ्जरः, मांसं जङ्गलं, पानसो वृक्षविशेषः, उपवासः अहोरात्रनिरशनता. निर्यासो वृक्षादेनिस्यन्दः, मास: पक्षद्वयं, चमसं यज्ञपात्रं, मसूरादिपिष्टे तु बाहुलकात् स्त्रीत्वं, चमसी, अंस: स्कन्धः, कांसो भाण्डविशेषः, स्नेहं सौहृदं तैलं च, बर्हः कलापः वर्णं च, गृहाणि दारा वेश्म च, गेहः सदनं, लोहः अयः अगुरु च ।। ३४ ॥
पुण्याहदेहौ पटहस्तनूरुहो, लक्षाररिस्थानुकमण्डलूनि च । चाटुश्चटुर्जन्तुकशिष्णणुस्तथा, जीवातुकुस्तुम्बुरु जानु सानु च ।। ३५॥
पुण्याहः पुण्यदिनं, देहः कायः, पटहः प्रानकः, तनूरुहः गरुल्लोम्नो, लक्षः व्याजः, वेध्ये क्लीबः, संख्यायां तु स्त्रीक्लीबः, अररिः कपाटम् । अथोदन्ता: स्थाणुः शङ कुः शिवे तु देहिनामत्वात्पुस्त्वम्, कमण्डलुः करकः, चाटुः प्रियवाक्यं चाटुः तदेव, जन्तुः प्राणी, कशिपु: भोजनाच्छादने, अणुः परमाणुः सूक्ष्मपरिमाणविशेष इत्यर्थः, जीवातुः जीवातु: जोवनौषधं, कुस्तुम्बुरु: धान्यविशेषः, जानुः अष्ठीवान्, सानुः गिरितटम् ।। ३५ ।।
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लिङ्गानुशासनम्
कम्बुः सक्तुर्दार्वगुरुर्वास्तु पलाण्डु
हिङ्गुः शिग्रुर्दोस्तितउः सीध्वथ भूम ।
वेम प्रेम ब्रह्म गरुल्लीम विहायः
कर्माष्ठीवत् पक्ष्मधनुर्नाम महिम्नी ॥ ३६ ॥ ॥ इति पुंनपुंसकलिङ्गाः ॥
[ 43
कम्बु : शंख:, वलये शम्बूके, गजे कट्टरे च पुंसि सक्तुः यवादिविकृतिः, केचिदेनं बहुवचनान्तं पठन्ति, दारु काष्ठं दार्वन्तत्वादेव महादार्वादयोऽपि पुं क्लीवा :, सर्वेऽप्येते एकार्थाः, अगुरु गन्धद्रव्यविशेषः, वास्तु: गृहभूमि: पलाण्डुः कन्दविशेष:, हिङगुः रामठ, शिग्ग्रुः शोभाञ्जनम् । अथोदन्तप्रक्रम एव छन्दोऽनुसंधानात् सन्तः, दो बाहुः, तितउः शूर्पं, सीधुः मैरेयम् । अथ व्यञ्जनान्ताः १३ भूमा बहुत्वं वेमा तन्तुवायप्रेम स्नेहः नर्म च ब्रह्म तप वेदः ज्ञानं प्रात्मा प्रजापतिः, गरुत् स्वर्णं पिच्छं च लोभ च तनूरुहं, विहायाः शकुनिर्नभश्च कर्म क्रिया व्याप्यं च भ्रष्ठीवान् जानुः, पक्ष्म अक्षिरोम तूलं च धनुः चापं नाम संज्ञा, महिमा महत्त्वम् ।। ३६ ।।
"
शलाका,
॥ इति पुनपुसकलिङ्गं समाप्तम् ।।
स्त्रीक्लीबयोर्नखं शुक्तौ विश्वं मधुकमोषधे ।
माने लक्षं मधौ कल्यं, क्रोडोऽङ्के तिन्दुकं फले ॥ १ ॥
शुक्तौ गन्धद्रव्यविशेषे नखशब्दः स्त्रीक्लीबलिङ्गः, नखो, नखं विश्वमधुकनाम्नी प्रोषधवाचिनी स्त्रीक्लोबे । विश्वा विश्वं शुण्ठी, मधुका मधुकं मधुयष्टिः, माने संख्यायां लक्षं स्त्रीक्लीबं, लक्षा लक्षं सहस्रशतं, मधौ मद्ये वाच्ये कल्यशब्दः स्त्रीक्लीबः, कल्या कल्यं, प्रङ्क उरसि वाच्ये कोडशब्दः स्त्रीक्लीब:, क्रोडा, कोडंम् फलविशेषे तिन्दुकं स्त्रीक्लीबं, तिन्दुकी, तिन्दुकम् ॥ १ ॥
तरलं यवाग्वां पुष्पे पाटलं पटलं चये । वसन्ततिलकं वृत्ते कपालं भिक्षुभाजने ।। २ ।।
यवाग्वां वाच्यायां तरलं, तरला, तरलं । हारे तन्मध्यमरणो चाभरणनामत्वात् 'पु ंस्त्वम् । पुष्पविशेषे वाच्ये पाटलं, पाटली पाटलं, चये समूहे वाच्ये पटलं, पटली पटलम् पिटकतिलकपरिच्छेदेषु लान्तत्वान्नपुंसकत्वं वृत्तविशेषे वसन्ततिलकं, वसन्ततिलका, वसन्ततिलकं, भिक्षुभाजने वाच्ये कपालं स्त्रीक्लोवम्, कपाली, कपालम् ।। २ ।।
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44 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
अर्धपूर्वपदो नावष्ट्यरणकर्बनटौ क्वचित् ।
चोराद्यमनोज्ञाद्यकञ् कथानककशेरुके ॥ ३ ॥ अर्धशब्दपूर्वपदोऽट्समासान्तो नौशब्दः स्त्रीक्लीब , अर्धनावी, अर्धनावं-ट्यरण - प्रत्ययान्तं कर्तृवजिते कारके विहितो योऽनट्प्रत्ययस्तदन्तं च क्वचिल्लक्ष्यानुसारेण स्त्रीक्लीबम् । ट्यण-उचितस्य भावः कर्म वा प्रौचिती, औचित्यम्, एवं याथाकामी याथाकाम्यं, वंदग्धी वैदग्ध्यं, मैत्री मैत्र्यं, आनुपूर्वी प्रानुपूयं इत्यादि । क्वचिद्वचनात् क्वचित् स्त्रित्वमेव शीलमेव शैली, क्वचित्क्लीबत्व मेव-शैत्यं, एवं दाढ्य, जाड्यं, ब्राह्मण्यं, त्रैलोक्यं, सैन्यं इत्यादि । अकर्बनट् । प्रास्थानी प्रास्थानम् राजसभा । राजधानी राजघानम् स्कन्धावार:। चालिनी चालनम् तितउः । एवं करणी करणम् । प्रमाणी. प्रमाणम् इत्यादि । क्वचित्स्त्रीत्वमेव गुणलयनी दूष्यं. भ्रमणी राज्ञः क्रीडा, प्रसाधनी कङ्कतिका वेषे तु क्लीबत्वमेव, गवादनी गवां घासस्थानं इत्यादि, क्वचिन्नपुसकत्वमेव प्रधीयतेऽस्मिन्निति प्रधानम्
प्रकृतौ च महामात्रे, प्रज्ञायां परमात्मनि ।
नपुंसकं प्रधानं स्यात्, एकत्वे तूत्तमे सदा ॥ १ ॥ साध्यतेऽनेनेति साधनं प्रमाणं तुरगादिसमूहश्च, लक्षणं लक्ष्म चिह्न नाम च, उपवर्तन देशः, स्थानं स्थितिः साश्यं च, युक्तार्थे करणार्थे च स्थाने इत्यव्ययम् । केतनं गृहे केतौ तु पुनपुसकं, प्रमाणं सम्यक् प्रवक्ता, कारणं मर्यादा मानं च. उपसर्जनं गौरणमित्यादयः, केचित्तु प्राश्रयलिङ्गभाज:, राजभोजन: शालि, राजभोजनी द्राक्षा, राजभोजनमन्नं इत्यादिकाः। मनोज्ञाद्यन्तर्गणजितेभ्यश्चौरादिभ्यो योऽकप्रत्ययस्तदन्तं नाम स्त्रोनपुंसकम् । चौरिका, चौरकं, धौर्तिका, धौर्तकं यौवनिका यौवनकं इत्यादि ।
अमनोज्ञादिति किम् ? मानोज्ञक प्रेयरूपकं इत्यादौ 'पा त्वात्त्वादिः' इत्यनेन क्लोबत्वमेव, चौर, धूर्त, युवन्, ग्रामपुत्र, ग्रामषण्ड, ग्रामभाण्ड, ग्रामकुमार, ग्रामकुल, ग्रामकुलाल, अमुष्यपुत्र, अमुष्यकुल, शरपुंत्र, शारपुत्र, मनोज्ञ, प्रियरूप, ग्राभिरूप, बहुल, मेधाविन्, कल्याण, पाढ्य, सुकुमार, छान्दस, छात्र, श्रोत्रिय, विश्वदेव, ग्रामिक, कुलपुत्र, सारपुत्र, वृद्ध, अवश्य इति चौरादिः। अथ कान्ताश्चत्वारः कथानिका कथानक आख्यानं, कशेरुका कशेरुकं पृष्ठास्थि ।। ३ ।।
वंशिकवक्रौष्ठिककन्य-कुब्जपीठानि नक्तमवहित्थम् ।
रशनं रसनाच्छोटनशुम्बं, तुम्बं महोदयं कांस्यम् ॥ ४ ।। वंशिका, वंशिकं अगुरुः, वक्रोष्ठिका, वक्रोष्ठिकं स्मितम् । अथ जान्तः कन्यकुब्जा कन्यकुब्ज महोदयाख्यो देशः। अथ ठान्तः पीठो पीठमासनं, नक्ता नक्त रात्रिः नक्तमिति मत्तमव्ययमपि, अवहित्था अवहित्थमाकारगोपन रशनं रशना, काञ्ची, रसना रसनं जिह्वा, अच्छोटना अाच्छोटनं मृगया, शुम्बा शुम्ब रज्जुः, तुम्बी तुम्बं वल्कि विशेषः,
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लिङ्गानुशासनम्
[ 45
महोदया महोदयं कन्यकुब्जाख्यो देशः, कांस्यी, कांस्यं सौराष्ट्रिका, अर्थप्राधान्यात् सौराष्ट्रिका सौराष्ट्रिकमपि ।। ४ ।।
मृगव्यचव्ये च वरिणज्यवीर्यनासोरगात्रापरमन्दिरारिण ।
तमिस्रशस्त्रे नगरं मसूरत्वक्षीरकादम्बरकाहलानि ॥ ५ ॥
मृगव्या मृगव्यं पापद्धिः, चव्या चव्यं नागवल्लिमूलं, वचायां तु स्त्रात्वमेव । वरिणज्या वणिज्यं वणिक्कर्म, वोर्या वीयं अतिशयशक्तिः। अथ रान्ता: दश-नासीरा नासीरमग्रयानं गात्रा गात्रं गजस्य पूर्वजङ धादिभागः. अपरा अपरं गजस्य पाश्चात्यजङघा, मन्दिरा मन्दिरं गृहं, समुद्रे तु पुस्त्वमेव नगरे तु क्लोब, तमिस्र तमः, तमिस्रा निबिड तमः सामान्यविशेषयोरभेदविवक्षया ऐकार्थ्यम्. कोपे तु क्लीबं, कृष्णपक्षनिशायां तु स्त्री। शस्त्रमायुधविशेषः, नगरी नगर पुरी, मसूरी मसूरं चर्मासन, त्वक्षीरो त्वक्षार वंशलोचना, कादम्बरो कादम्बरं मद्यविशेषः, सामान्य विशेषयोरभेदविवक्षायामित्थं निर्देश , यदाह-'कादंबर मद्यभेदे दधिसारे सीधुनि स्त्रियाम्' । अथ लान्ता अष्ट । काहला काहलं शुषिरो वाद्यभेदः ।। ५ ।।
स्थालीकदल्यौ स्थलजालपित्तला, गोलायुगल्यौ बडिशं च छदि च । अलाबु जम्बूडुरुषः सरः सदो रोदोऽचिषी दाम गुरणे त्वयट तयट् ॥ ६ ॥
॥ इति स्त्रीक्लोबलिङ गाः ।। स्थाली स्थाल भाजनविशेष , कदली कदलं शाकादेर्नवनालं, स्थली अकृत्रिमा चेत् कृत्रिमा तु स्थला, स्थल उन्नतो भूभाग:, जाली जालं आनायः समूहः गवाक्षश्च, पित्तला पित्तलमारकूटम् । गोला गोलं
पत्राञ्जने कुनद्या च, गोदावर्या च मण्डले ।
सखीमणिकयोर्गोला, गोलं लक्ष्यानुसारतः ।। १ ।। युगली युगलं युगम् । अथ शान्तः बडिशा बडिशं मत्स्यबन्धनं, बडिशीत्यपि क्वचित् । अथेदन्त इयं छदिः, इदं छदिः वान्तिः, इयमलाबूः इदमलाबु तुम्बोलता, इयं जम्बूः इदं जम्बु जम्बूवृक्षफलं, अनयोः क्लीबत्वे ह्रस्वता, उडुः उडु नक्षत्र, उषा: उषः सन्ध्या, प्रभाते पुनपुसकं, सर: सरसी तडाग , सदः सदा: सभा, रोदसी द्यावापृथिव्यौ, अचिः अग्निशिखा रश्मिश्च, दाम बन्धन-गुणवाचि अयटनयडन्तं नाम स्त्रीनपुसकं, द्वयी द्वयं, त्रयी त्रयं. चतुष्टयी चतुष्टयं, गणिनि त्वाश्रयलिङ्गतैव । द्वये पदार्थाः द्वयी गतिः, द्वयं वस्तु, त्रयाणि जर्गान्त, चतुष्टये कषायाः, चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः इत्यादि ।। ६ ।।
।। इति स्त्रीक्लीबलिङ्गम् ।।
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46 ]
श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
स्वतस्त्रिलिङ्गः सरकोऽनुतर्षे शललः शले । करकोऽब्दोपले कोश: शिम्बाखड्गपिधानयोः ॥ १ ॥
स्वतो न तु विशेष्यवशात्, अनुतर्षे मद्यपाने वाच्ये सरकशब्दस्त्रिलिङ्गः, सरक:, सरका, सरकं, स्वतस्त्रिलिङ्ग इत्यधिकारः । शले श्वाविद्रोमरिण वाच्ये शललशब्दस्त्रिलिङ्गः, शललः, शलली, शललं । प्रब्दोपले मेघपाषाणे, वाच्ये करकशब्दस्त्रिलिङ्गः, शिम्बायां बीजकोशे खड्गपिधाने प्रत्याकारे च कोशशब्दस्त्रिलिङ्गः ।। १ ।।
जीवः प्राणेषु केदारे वलजः पवने खलः ।
बहुलं वृतनक्षत्र पुराद्याभरणाभिधाः ॥ २ ॥
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प्राणेषु सुषु वाच्येषु जीवः स्वतस्त्रिलिङ्गः । जीवः, जीवा जीवं प्रारणाः, केदारे वाच्ये वलजस्त्रिलिङ्गः, पवनेधान्यपवनस्थाने खलशब्दस्त्रिलिङ्गः, वृत्तं मात्रादिच्छन्दः, वृत्तादीनामभिधा नामानि बहुलं लक्ष्यानुरोधेन त्रिलिङ्गानि, वृत्ताभिधा श्लोकः पुटः परणव इत्यादि पुंसि । प्रमाणी, समानी, कलिका, गाथा, प्रार्या इत्यादि स्त्रियां पक्त्रं वितानमित्यादि क्लीबे, दण्डकः पुरं नपुंसकः, वसंततिलकं स्त्रीक्लीबे उक्त नक्षत्राभिधा तिष्य: पुनर्वसू इत्यादि पुंसि, अश्विनी इल्वलाः चित्रा इत्यादि स्त्रियां, भं नक्षत्रं इत्यादि नपुंसकम् ।
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मृगशिरः पुरंनपुंसकः, कस्यचित् पुरस्याभिधा द्रङ्गः द्राङ्गः निगमः इत्यादि पुंसि । पूः अमरावती अलकेत्यादि स्त्रियां, अधिष्ठानं पत्तनं दुर्गं इत्यादि क्लीबम् । आदिशब्दो ग्रामदेशोपलक्षणम्, तेन वरणा ग्रामः गोदौ ग्रामः इत्यादि पुसि । शालुकिनी काची माढिच देश इत्यादि स्त्रियाम् । कोडं ग्रामः कुरुक्षेत्र च देश इत्यादि क्लीबे । आभरणाभिधा, तुलाकोटि:, ताडङ्कः इत्यादि पुसि वालपाश्यापारितयाशब्दो केशाभरणे, मेखला सप्तकी इत्यादि स्त्रियां, केयूराङ्गदे मुकुटं प्रङ्गुलीयकं इत्यादि क्लोबे, नावाप्यादयः पुंनपुंसकाः, हारः पुंनपुंसकः, रशनं स्त्रीक्लीबम् ॥ २ ॥
ग्रामः.
भल्लातक प्रामलको हरीतकबिभीतकौ ।
तारकाढकपिटक - स्फुलिङ्गा विडङ्गतौ ।। ३ ।।
भल्लातकी आमलकी हरीतकी बिभीतक्यादयो वृक्षभेदाः, तारका भम्, प्राढकी मानविशेषः पिटका भाजनविशेष: फोटश्च स्फुलिङ्गा प्रग्निकरणाः, विडङ्गा प्रौषधिविशेषः, अभिज्ञे त्वाश्रयलिङ्गः, तटी रोधः ।। ३ ।।
पट पुटो वटो वाटः कपाटशकटौ कटः ।
पेटो मठः कुण्डनीड - विषारणास्तरणकङ कतौ ॥ ४ ॥
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लिङ्गानुशासनम्
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पटी वस्त्रविशेषः, पुटी पत्रभाजनं, भूर्जाद्यवयवे तु टान्तत्वात् पुस्त्वमेव, वटी न्यग्रोधतरु: रज्जुश्च, वाटी वृत्ति: यवविकारे वरण्डेऽङ्गे च बाहुलकात् पुनपुसकः, वर्त्मनि पुस्त्वमेव, इक्कटीवास्तुनोस्तु स्त्रियां, कपाटी अररिः, जपादित्वाद्वत्वे कवाटी, शकटी अनः, कटी वीरणादिकृतः, पेटी संघात: परिच्छदश्च, स्वार्थे के पेटिका, मठी प्राश्रयविशेषः, कुण्डी भाजनभेद: नीडा कुलायः, विषाणी विषाणा वा गवादिशृङ्ग दन्तिदन्तश्च । तूणी तूणा वा इषुधिः कंकती केशमार्जनम् ।। ४ ।।
मुस्तकुयेङ गुदजृम्भदाडिमाः, पिठरप्रतिसरपात्रकन्दराः । नखरो वल्लूरो दरः पुरश्छत्त्रकुवलमृणालमण्डलाः ॥ ५ ॥
मुस्ता कन्दविशेषः, कुथा वर्णकम्बलः, इङ गुदी वृक्षविशेषः, ज़म्भा जम्भरण, दाडिमा उच्चिलिङ्गतरुः तत्फलं तत्करणश्च, पिठरी स्थालो मुस्तं मन्थानदण्डयोस्तु क्लीबं, प्रतिसरा मङ्गल्यसूत्रं सेनायाः पश्चाद्भागश्च । पात्री भाजनं, योग्ये यज्ञभाण्डे नाट्यानुकर्तरि च क्लीबः, कन्दरी कन्दरा च दरी, अंकुशे तु पुसि। नखरी नखरा वा नखः,. वल्लूरा सोकरं शुष्क वा मांसं, ऊषरे नक्षत्रे वाहने च क्लीबं, दरी श्वभ्र, पुरी नगरी, छत्त्री प्रातपत्रं, कुवली वृक्षविशेष: तत्फलं च, मृणाली बिसं, मण्डली देश: समूहश्च बिम्ब चतुरस्रता च ।। ५ ।।
नालप्रणालपटलार्गलशृङ्खलकन्दलाः । पूलावहेलो कलशकटाहौ षष्टिरेण्विषु ॥ ६ ॥
. ॥ इति स्वतस्त्रिलिङ्गाः ॥ नाली नाला वा पद्मादिवृन्तं, जलनिर्गमे तु बाहुलकात्पु सि, लत्वाभावे नाडः । प्रणाली जलपद्धतिः, पटली गृहोपरिभागः, अक्षिरोगश्च, 'अर्गला त्रिषु कल्लोले, दण्डे चान्त: कपाटयो:।' शृङ्खलः शृङ्खला शृङ्खलमयोमयी रज्जुः, कन्दली उपरागः समूहः नवाङ कुर: द्रुमभेदश्च, पूली पूला वा बद्धतृणसंचयः, अवहेलाऽवज्ञा. कलशी जलाद्याधारविशेषः, दन्त्योपान्त्योऽयमपि, कटाही भाण्डविशेषः, षष्टिः संख्याविशेषः, रेणु— लि:, इषुर्बाण: ।। ६ ।।
॥ इति स्वतस्त्रिलिङ्गावचरिः ।। परलिङगो द्वद्वोऽशी ङऽर्थो वाच्यवदपत्यमितिनियताः ।
अस्त्र्यारोपाभावे गुणवृत्तेराश्रयाद्वचनलिङगे ॥१॥
द्वन्द्वः समासो द्वन्द्वस्यैव यत्परमुत्तरपदं तत्समानलिङ्गो भवति, स च समाहारादन्यो भिन्नलिङ्गवतिपदो वचनं प्रयोजयति, समाहारस्तु नपुसक उक्तः 'समानलिङ्गवतिपदोऽपि सिद्धलिङ्ग एव' । इमौ मयूरीकुक्कुटो, इमे कुक्कुटमयूयौं, इत्यादि,
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श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
अंशितत्पुरुषसमासः परलिङ्गो भवति, अर्धं पिपल्या अर्धपिप्पली, अयं 'समेंऽशेऽर्ध नवा' [३. १. ५४] इति समासः, अ? जरत्या: अर्धजरतोयं 'जरत्यादिभि:' [३. १. ५५] इति समासः, द्वितीयं भिक्षायाः द्वितीयभिक्षा 'द्वित्रि' [३. १. ५६] इति समास:, पूर्वाह्नपूर्वरात्रादीनां 'अह्न' [७. ३. ११६] इति 'रात्र' इति च पुस्त्व, ङर्थश्चतुर्थ्यर्थोऽर्थशब्दो यत्र प्रस्तावात् तत्पुरुषसमासे स वाच्यस्य यल्लिङ्ग तत्समानलिङ्गो भवति, ब्राह्मणायायं ब्राह्मणाथः सूपः, एवं ब्राह्मणार्था पेया, ब्राह्मरणार्थ पयः ।
हु इति किम् ? धान्येनार्थः धान्यार्थः. पुस्त्वापवादो योगः अपत्य मिति अपत्यादयः शब्दा नियता नियते अजहद्वतिनी व्यस्ते समस्ते वा लिङ्गवचने येषां ते तथा, अपत्यं दुहिता पुत्रश्च, इति शब्दस्याद्यर्थत्त्वादेव तोक रक्षः, सारथिः, सादी, निषादी अतिथिः स्त्रो पूमान् कूलं वा, स्याद्वाद: प्रमाणं अनेकान्तात्मकं वस्तु संविदां गोचर, दण्ड उपसर्जनं, विद्या गुणः, गौः प्रकाण्डं, कुमारी तल्लज: अश्वो मतल्लिका स्वाथिककप्रत्ययान्तास्तु क्वचिद्वाच्यलिङ्गा अपि भवन्ति ।
वीरौ रक्षः प्रकाण्डको, कुमारी तल्लजका इत्यादि, बाहुलकात् क्वचिदाश्रयलिङ्गा अपि, प्रमाणी ब्राह्मणी, गुणो विशेषणं तस्मात् प्रवृत्तिनिमित्ताद् विशेष्ये वत्तिर्यस्य स गुणवृत्तिः शब्दः तस्याश्रयाद् विशेष्यवशाल्लिङ्गवचने स्यातां, परत्वात् सकलशास्त्रापवाद:, अस्त्र्या रोपेति प्रारोपोऽर्थान्तरे निवेशनं, अस्त्रियामारोपाऽस्यारोप:. तस्याभावे सति, गुणवृत्तिश्च गुगद्रव्य क्रियोपाधिभेदात् त्रिधा। गुणोपाधिः शुक्लः, पटः, शुक्ला शाटी शुक्ल वस्त्र, मूों ना मूर्खा स्त्री मूर्ख कुलं इत्यादि । द्रव्योपाधि:-दण्डी ना, दण्डिनो स्त्री दण्डि कुलं इत्यादि । क्रियोपाधिः-पाचको ना पाचिका स्त्री, पाचकं कुलं इत्यादि, सर्वादि केवलस्तदन्तश्च गुणवृत्तिः एवं सख्यापि, सर्वः मूपः, सर्वा यवागूः, सर्वमन्नम्, एवं स, सा, तत्, अन्यः, अन्या, अन्यत्, द्वाभ्यामन्य: द्वयन्यः, द्वयन्या: द्वयन्यत् एक: पटः, एका पटो, एकं वस्त्रं, एवं द्वौ, द्व, द्वे, त्रयः तिस्रः त्रीणि, बहुव्रो हिरदिग्वृत्तिगुणवृत्तिः ।
चित्रा गावोऽस्य चित्रगुर्ना, चित्रगुः स्त्री, चित्रगु कुलं इत्यादि. दिग्वाची तु दिगनामत्वात् स्त्रीलिङ्गः, दक्षिणस्या: पूर्वस्याश्च यदन्तरालं दिक् सा दक्षिणपूर्वा दिक्, एवं दक्षिणपश्चिमा। पूर्वपदप्रधानस्तत्पुरुषस्तद्धितार्थद्विगुश्च गुणवृत्तिः, अतिक्रान्त: खटवां अतिखटवः, अतिखटवा, अतिखटव एवं प्रवष्ट: कोकिलया अवकोकिल:, अवकोकिला, अवकोकिलम् । परिग्लानोऽध्ययनाय पर्यध्ययन: ३, अलं जीविकाय अलंजीविक: ३, निष्क्रान्तः कौशाम्ब्या निष्कौशाम्बिः, प्राप्तो जीविकां प्राप्तजीविक: ३ इत्यादयः । शतात् परे पर:शताः ३, एवं परःसहस्रा: ३, परोलक्षा: ३। उत्तरपदप्रधानम्य तु यथास्वं लिङ्ग, तद्धितार्थद्विगुः पञ्चसु कपालेषु संस्कृतः पञ्चकपालः, पञ्चकपाला, पञ्चकपालं, रक्ताद्यर्थऽणाद्यन्ताश्च गुणवृत्तयः । हरिद्रया रक्त: हारिद्रः, हारिद्री हारिद्र । एवं सर्वतद्धितेषु यथायोगमपवादवर्जमुदाहायँ। प्रारोपाभावे इति किन् ?
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लिङ्गानुशासनम्
चञ्चेव चचा पुरुषः, अत्र समतया आरोप:, एवमन्येष्वप्यारोपेषूदाहार्यम् । स्त्री किम् ? घवनाम्नो योगात्तद्भार्यायामध्यारोपे प्राश्रयलिङ्गतैव प्रष्ठस्य भार्या स एवेयमित्यभेदोपचारेण प्रष्ठी एवं भवान्यादयोऽपि ।। १ ।।
प्रकृतेलिङ गवचने बाधन्ते स्वार्थिकाः क्वचित् । प्रकृतिर्हरीतक्यादिर्न लिङगमतिवर्तते ।। २ ।
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स्वार्थे प्रकृत्यर्थे भवन्ति इति स्वार्थिका ते च क्वचिल्लक्ष्यानुसारेण प्रकृते लिङ्ग वचनं च बाघन्ने, बाधिते च लिङ्ग बहुलं लिङ्गव्यवस्था, संदिष्टा वाक् वाचिक, विनय एव वैनयिक उपाय एव प्रौपयिकम्, योग्ये त्वाश्रयलिङ्गता, वृत्तिरेव वार्तिकं, ह्रस्वा शुण्डा शमी वा शुण्डार : शमीरः क्वचिदनुवर्तते, राज्ञो धूः राजवुरा, मृदेव मृत्तिका मृत्सा मृत्स्ना क्वचिद्विकल्प:, ईषदपरिसमाप्तो गुडो बहुगुडो बहुगुडा वा द्राक्षा, प्रकृतिलिङ्ग प्रतिपत्तिव्युदासार्थं वचनं, हरीतक्यादिका प्रकृतिः प्रत्ययार्थे वर्तमानापि प्रकृत्यर्थलिङ्गनातिक्रामति, हरीतक्याः विकारोऽवयवो वा हरीतकी हरीतक्यौ हरीतक्यः फलानि एवं पिप्पल्यादयोऽपि । मल्लिकाया विकारोऽवयवो वा पुष्पं मल्लिका, एवं मालती यूथिका मागधी नवमालिकादयोऽपि ।। २ ।।
वचनं तु खलतिकादिर्बह्वर्थात्येति पूर्वपदभूता । सकानां सहवचने स्यात् परं लिङ्गम् ॥ ३ ॥
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खलतिकादिका प्रकृतिर्वचनमेव नातिक्रामति, लिङगं तु प्रतिक्रामति । तुरेवार्थे, खलतिको नाम पर्वतस्तस्यादूरभवानि खलतिकं वनानि, बहुविषया प्रकृतिः पञ्चालादिका पूर्वपदभूता सती स्वगतं वचनमतिक्रामति । 'ग्रस्त्र्यारोपाभावे' इत्यस्यापवादः, पञ्चालाश्च निवास : मथुरा च पञ्चालमथुरे । स्त्रीपुंनपुंसकानामिति स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गानां सहवचने परं पुंलिङ्गं नपुंसकलिङ्गं वा भवति, स्त्रीपुंसयोः सहवचने पुंलिङ्गं भवति । सा च स च तौ, स च शाटी च तौ, स्त्रीनपुंसकयोर्नपुंसकम्, सा च वस्त्रं चते, पुंनपुंसक्योर्नपुंसकं, स च तच्च ते स्त्रीपुंनपुंसकानां नपुंसक, सा च सच तच्च तानि ।। ३ ।।
नन्ता संख्या डतिर्युष्मदस्मच्च स्युरलिङ्गकाः । पदं वाक्यमव्ययं चेत्यसंख्यं च तद्बहुलम् ।। ४ ।।
निःशेषनामलिङ्गानुशासनान्यभिसमीक्ष्य संक्षेपात् । श्राचार्यहेमचन्द्रः समदृभदनुशासनानि लिङ्गानाम् ॥ ५ ॥
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50 ]
श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
नन्ता संख्या इत्यन्तं युष्मदस्मदी च श्रलिङ्गाः शब्दाः, पञ्च कति यति वा स्त्रिय, अत्र ङीर्न भवति, युष्मभ्यं अस्मभ्यं प्रत्राप् न भवति, विभक्त्यन्तं पदं, सविशेषणमाख्यातं वाक्यं, स्वराद्यव्ययं च प्रलिङ्गानि श्रसंख्यानि च । काण्डे, कुलं पचते, काण्डीभूतं कुलं, एषु 'क्लीबे' [ २-४-९७ ] इति ह्रस्वो न भवति, तद् बहुलं, तत्पूर्वोक्त लिङ्गलक्षणं बहुलं द्रष्टव्यं तेन
पिङ्गः पिशङ्ग पिङ्गो तु शम्यां पिङ्ग तु बालकम् । रामठे नालिकायां तु पिङ्गा गोरोचनामयोः ॥ १ ॥
इत्येवमादिलिङ्गं शिष्ट प्रयोगानुसारेण वेदितव्यं तदुक्त
वाग्विषयस्य तु महतः संक्षेपत एव लिङ्गविधिरुक्तः । यन्नक्तमत्र सद्भिस्तल्लोकत एव विज्ञेयम् ।। १ ।।
॥ इति लिङ्गानुशासनावचूरिः समाप्ता ॥
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परिशिष्ट-२
___ अकारादिसूत्रानुक्रमणिका अइउवर्ण-देः । १ । २ । ४१ ।।
अङ स्थाच्छत्रादेरञ् । ६ । ४ । ६० ।। अं अः-गौं । १ । १ । ६ ।।
अच् । ५ । १ । ४६ ।। अं-अः-क-ट् । १ । १ । १६ ।। अचः । १ । ४ । ६६ ।। अंशं हारिणि । ७ । १ । १८२ ।। अचि । ३ । ४ । १५ ।। अंशादृतोः । ७ । ४ । १४ ।।
अचित्ताददेशकालात् । ६ । ३ । २०६ ।। अः सपत्न्याः । ७ । १ । ११६ ।। अचित्ते टक् । ५ । १ । ८३ ।। अः सृजिदृशोऽकिति । ४ । ४ । ११२ ।। अच्च् प्रा-श्च । २ । १ । १०४ ॥ अः स्थाम्नः । ६ । १ । २२ ।।
अजातेः पञ्चम्याः । ५ । १ । १७० ।। अकखाद्य-वा । २ । ३ । ८० ।।
अजाते: शीले । ५ । १ । १५४ ।। अघिनोश्च रजेः । ४ । २ । ५० ।। अजातेनू -वा । ७ । ३ । ३५ ।। अकद्र पा-ये । ७ । ४ । ६६ ।।
अजादिभ्यो धेनोः । ६ । १ । ३४ ।। अकमेरुकस्य । २ । २ । ६३ ।।
अजादेः । २ । ४ । १६ ।। अकल्पात् सूत्रात् । ६ । २ । १२० ।। अज्ञाने ज्ञः षष्ठी । २ । २ । ८० ।। अकालेऽव्ययीभावे । ३ । २ । १४६ ।। अञ्चः । २ । ४ । ३ ।। अकेन क्रीडाजीवे । ३ । १ । ८१ ।। अञ्चेश्न याम् । ४ । २ । ४६ ।। अक्लीबेऽध्वर्युक्रतोः । ३ । १ । १३६ ।। अञ्जनादीनां गिरौ। ३ । २ । ७७ ।। अक्षणोऽप्राण्यङ्ग । ७ । ३ । ८५ ।। अञ्वर्ग-तः । १ । ३ । ३३ ।। अगारान्तादिकः । ६ । ४ । ७५ ।। अञ्वर्गात्-न । १ । २ । ४० ।। अगिलादिगलगिल-योः । ३ । २ । ११५ ।। अटयतिसू-र्णोः । ३ । ४ । १० ॥ अग्निचित्या। ५ । १ । ३७ ।।
अड़धातोरा-ङा । ४ । ४ । २१ ।। अग्नेश्चेः । ५ । १ । १६४ ।।
अरणजेयेक-ताम् । २ । ४ । २० ।। अग्रहानुपदेशेऽन्तरदः । ३ । १ । ५ ।। अरिण । ७ । ४ । ५२ ।। अघक्य बल-: । ४ । ४ । २ ॥ अणिक्कर्म णिक्-तौ । ३ । ३ । ८८ ।। अघोषे-शिट: । ४ । १ । ४५ ।।
अरिणगि प्राणिक-गः । ३ । ३ । १०७ ।। अङप्रतिस्त-म्भः । २ । ३ । ४१ ।। अतः । ४ । ३ । ८२ ।। अङे हिहनो-र्वात् । ४ । १ । ३४ ।। अतः कृकमि-स्य । २ । ३ । ५ ।। अङ्गानिरसने गिङ् । ३ । ४ । ३८ ।। अतः प्रत्ययाल्लुक् । ४ । २ । ८५ ।।
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52 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
अतः शित्युत् । ४ । २ । ८६ ॥ अतः स्यमोऽम् । १ । ४ । ५७ ।। अत आ:-ये । १ । ४ । १ ।। अत इञ् । ६ । १ । ३१ ।। अतमबादे-यर् । ७ । ३ । ११ ।। अतिरतिक्रमे च । ३ । १ । ४५ ।। अतोऽति रोरुः । १ । ३ । २० ।। अतोऽनेकस्वरात् । ७ । २ । ६ ।। अतो म आने । ४ । ४ । ११५ ।। अतोरिथट् । ७ । १ । १६१ ।। अतोऽह्नस्य । २ । ३ । ७३ ।। अत्र च । ७ । १ । ४६ ।। प्रदश्चाट् । ४ । ४ । ११ ।। अदसोऽकसायनणोः । ३ । २ । ३३ ।। अदसो द: सेस्तु डौ । २ । १ । ४३ ।। अदिकस्त्रियां वाऽञ्चः । ७ । १ । १०७ ।। अदीर्घात्-ने । १ । ३ । ३२ ।।। अदुरुपसर्गा-नेः । २ । ३ । ७७ ।। अदूरे एनः । ७ । २ । १२२ ।। अदृश्याधिके । ३ । २ । १४५ ।।। अदेत:-क् । १ । ४ । ४४ ।। अदेवासुरादिभ्यो वैर । ६ । ३ । १६४ ।। प्रदेशकालादध्यायिनि । ६ । ४ । ७६ ।। . अदोऽनन्नात् । ५। १ । १५० ।। अदो मुमी । १ । २ । ३५ ।। अदोरायनिः प्रायः । ६ । १ । ११३ ।। अदोनदी-मा-म्नः । ६ । १ । ६७ ।। अद्यतनी । ५ । २ । ४॥ अद्यतनी-महि । ३ । ३ । ११ ।। अद्यतन्यां वा-ने । ४ । ४ । २२ ।।
अद्यर्थाच्चाधारे । ५ । १ । १२ ।। अव्य ञ्जनात् स-लम् । ३ । २ । १८ ।। अदव्यञ्जने । २ । १ । ३५ ।। अधण्-सः । १ । १ । ३२ ।। अधरापराच्चात् । ७ । २ । ११८ ।। अधर्मक्षत्रि-याः । ६ . २ । १२१ ।। अधश्चतुर्थात् तथोधः । २ । १ । ७६ ।। अधातुवि-म । १ । १ । २७ ।। अधातूददितः । २ । ४ । २ ।। . अधिकं तत्सं-डः । ७ । १ । १५४ ।। अधिकेन भूयसस्ते । २ । २ । १११ ।। अधीष्टौ । ५ । ४ । ३२ ।। अधेः प्रसहने । ३ । ३ । ७७ ।। अधेः शीस्थासाम् अाधारः ।२।२।२०।। अधेरारूढे । ७ । १ । १८७ ।।। अध्यात्मादिभ्य इकण् । ६ । ३ । ७८ ।। अध्वानं येनौ । ७ । १ । १०३ ।। अनः । ७ । ३ । ८८ ।। अनक् । २ । १ । ३६ ॥ अनजिरादि-तौ । ३ । २ । ७८ ।। अनञः क्त्वो यप् । ३ । २ । १५४ ।। अनओ मूलात् । २ । ४ । ५८ ।। अनट् । ५ । ३ । १२४ ।। अनडुहः सौ । १ । ४ । ७२ ।। अनतोऽन्तोऽदात्मने । ४ । २ । ११४ ।। अनतो लुप् । १ । ४ । ५६ ।। अनतो लुप् । ३ । २ । ६ ।। अनत्यन्ते । ७ । ३ । १४ ।। अनद्यतने हिः । ७ । २ । १०१ ।। अनद्यतने श्वस्तनी । ५ । ३ । ५ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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अनद्यतने हस्तनी । ५ । २ । ७ ।। अननोः सनः । ३ । ३ । ७० ।। अनन्तः प-यः । १ । १ । ३८ ।। अनपत्ये । ७ । ४ । ५५ ।। अनरे वा । ६ । ३ । ६१ ।। अनवरा नामी । १ । १ । ६ ।। अनाङमाङो-छः । १ । ३ । २८ ।। अनाच्छादजा-वा । २ । ४ । ४७ ।। अनातो नश्वान्त-स्य । ४ । १ । ६६ ।। अनादेशादे-तः । ४ । १ । २४ ।। अनाम्न्यद्विः प्लुप् । ६ । ४ । १४१ ।। अनाम् स्वरे नोन्तः । १ । ४ । ६४ ।। अनार्षे वृद्धे-ष्यः । २ । ४ । ७८ ।। अनिदम्यणपवादे-ज्यः । ६ । १ । १५ ।। अनियो-वे । १ । २ । १६ ।। अनीनाद-तः । ७ । ४ । ६६ ।। अनुकम्पा-त्योः । ७ । ३ । ३४ ।। अनुग्वलम् । ७ । १ । १०२ ।। अनुनासिके च-ट् । ४ । १ । १०८ ।। अनुपदं बद्धा । ७ । १ । ६६ ।। अनुपद्यन्वेष्टा । ७ । १ । १७० ।। अनुपसर्गाः क्षीबो-ल्लाः ।४।२।८।। अनुब्राह्मणादिन् । ६ । २ । १२३ ।। अनुशतिकादीनाम् । ७ । ४ । २७ ।। अनेकवर्णः सर्वस्य । ७ । ४ । १०७ ।। अनोः कमितरि । ७ । १ । १८८ ।। अनोः कर्मण्यसति । ३ । ३ । ८१ ।। अनोऽटये ये । ७ । ४ । ५१ ।। अनोर्जनेर्ड: । ५ । १ । १६८ ।। अनोदेशे उप । ३ । २ । ११० ।।
अनो वा । २ । ४ । ११ ।। अनोऽस्य । २ । १ । १०८ ।। अन्तःपूर्वादिकण् । ६ । ३ । १३७ ।। अन्तद्धिः । ५। ३ । ८६ ।। अन्तर्बहि-म्नः । ७ । ३ । १३२ ।। अन्तो नो लुक । ४ । २ । ६४ ।। अन्यत्यदादेराः । ३ । २ । १५२ ।। अन्यथैवंकथ-कात् । ५ । ४ । ५० ।। अन्यस्य । ४ । १ । ८ ।। अन्यो घो-न् । १ । १ । १४ ।। अन्वाङ्परेः । ३ । ३ । ३४ ।। अन् स्वरे । ३ । २ । १२६ ।। अपः । १ । ४ । ८८ ।। अपचितः । ४ । ४ । ७८ ।। अपञ्चमा-ट् । १।१ । ११ ।। अपण्ये जीवने । ७ । १ । ११० ।। अपस्किरः । ३ । ३ । ३० ।। अपाच्चतुष्पा-र्थ । ४ । ४ । ६६ ।। अपाच्चायश्चिः क्तौ । ४ । २ । ६६ ।। अपायेऽवधिरपादानम् । २।२ । २६ ।। अपोल्वादेवहे । ३ । २ । ८४ ।। अपोऽद् भे । २ । १ । ४ ।। अपोनपादपा-तः । ६ । २ । १०५ ।। अपो यञ् वा । ६ । २ । ५६ ।। अपो ययोनिमतिचरे । ३ । २ । २८ ।। अप्रत्यादावसाधुना । २ । २ । १०१।। अप्रयोगीत् । १ । १ । ३७ ।। अप्राणिनि । ७ । ३ । ११२ ।। अप्राणिपश्वादेः । ३ । १ । १३६ ।। अब्राह्मरणात् । ६ । १ । १४१ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
अभक्ष्याच्छादने वा मयट । ६ । २ । ४६ ।। अभिनिष्क्रामति द्वारे । ६ । ३ । २०२ ॥ अभिनिष्ठानः । २ । ३ । २४ ॥ अभिव्याप्तौ-जिन् । ५ । ३ । ६० ॥ अभेरीश्च वा । ७ । १ । १८६ ॥ अभ्यमित्रमीयश्च । ७।१ । १०४॥ अभ्यम्भ्यसः । २ । १ । १८ ॥ अभ्रादिभ्यः । ७ । २ । ४६ ॥ अभ्वादे-सौ । १ । ४ । ६० ॥ अमद्रस्य दिशः । ७ । ४ । १६ ॥ अमव्ययीभाव-म्याः । ३ । २ । २ ।। अमा त्वामा । २ । १ । २४ ।। अमाव्ययात् क्यन् च । ३ । ४ । २३ ॥ अमूर्धमस्तका-मे । ३ । २ । २२ ।। अमोऽकम्यमिचमः । ४ । २ । २६ ॥ अमोऽधिकृत्य ग्रन्थे । ६ । ३ । १६८ ॥ अमोऽन्तावोऽधसः । ६ । ३ । ७४ ॥ अमौ मः । २ । १ । १६ ।। अयज्ञे स्त्रः । ५ । ३ । ६८ ॥ अयदि श्रद्धा-नवा । ५। ४ । २३ ॥ अयदि स्मृ-न्ती । ५ । २ । ६ ॥ अयमियं पुं-सौ । २ । १ । ३८ ।। अयि रः । ४ । १ । ६ ॥ अरण्यात् पथि-रे । ६ । ३ । ५१ ।। अरीहणादेरकण् । ६ । २ । ८३ ।। अरुर्मनश्च-च्वौ । ७ । २ । १२७ ।। अरोः सुपि रः । १ । ३ । ५७ ॥ अङौं च । १ । ४ । ३६ ॥ अतिरोब्लीह्री-पुनः । ४ । २ । २१ ।। अर्थपदपदोत्तर-ण्ठात् । ६ । ४ । ३७ ।।
अर्थार्थान्ता -त् । ७ । २।८॥ अर्धपूर्वपदः पूरणः । १ । १ । ४२ ॥ अर्धात् परि-देः । ७ । ४ । २० ॥ अर्धात् पलक-त् । ६ । ४ । १३४ ।। अर्धाद् यः । ६ । ३ । ६६ ।। आर्यक्षत्रियाद् वा । २।४ । ६६ ।। अर्हतस्तो न्त् च । ७ । १ । ६१ ।। अहम् । १ । १ । १ ।। अर्हे तृच् । ५ । ४ । ३७ ।। . . अर्होऽच् । ५। १ । ६१ ।। अलाब्वाश्च-सि । ७ । १ । ८४ ॥ अलुपि वा । २ । ३ । १६ ।। अल्पयूनोः कन् वा । ७ । ४ । ३३ ।। अल्पे । ३ । २ । १३६ ।। अवः स्वपः । २ । ३ । ५७ ।। अवक्रये। ६ । ४ । ५३ ।। अवयवात् तयट् । ७ । १ । १५१ ।। अवर्णभो-धिः । १ । ३ । २२ ।। अवर्णस्या-साम् । १ । ४ । १५ ॥
अवर्णस्ये-रल् । १ । २ । ६ ।। . अवर्णादश्नो-ड्योः । २ । १ । ११५ ।। अवर्णेवर्णस्य । ७ । ४ । ६८ ।। अवर्मणो-त्ये। ७ । ४ । ५६ ॥ अवहसासंस्रोः । ५। १ । ६३ ।। अवाच्चाश्रयो-रे । २ । ३ । ४२ ॥ अवात् । ३ । ३ । ६७ ॥ अवात् । ५ । ३ । ६२ ।। अवात् कुटा-ते । ७ । १ । १२६ ।। अवात् तृ स्तृ.भ्याम् । ५ । ३ । १३३ ॥ अविति वा ।४।१ । ७५ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 55
अवित्परोक्षा-रेः । ४ । १ । २३ ॥ अविदूरेऽभेः । ४ । ४ । ६५ ॥ अविवक्षिते । ५। २ । १४ ॥ अविशेषणे-दः । २ । २ । १२२ ।। अवृद्धाद्दोर्नवा । ६ । १ । ११० ॥ अवृद्धेर्गृह्णति गह्य । ६ । ४ । ३४ ॥ अवे: संघा-टम् । ७ । १ । १३२ ॥ अवेर्दुग्धे-सम् । ६ । २ । ६४ ॥ अवौ दाधौ दा । ३ । ३ । ५।। अव्यक्तानु-श्च । ७ । २ । १४५ ॥ अव्यजात् थ्यप् । ७ । १ । ३८ ॥ अव्ययम् । ३ । १ । २१ ॥ अव्ययं प्रव-भिः । ३ । १ । ४८ ॥ अव्ययस्य । ३ । २ । ७ ॥ अव्ययस्य कोऽद् च । ७ । ३ । ३१ ॥ अव्याप्यस्य मुचेर्मोग्वा । ४ । १ । १६ ।। अशवि ते वा । ३ । ४ । ४ ।' अशित्यस्सन्-टि । ४ । ३ । ७७ ॥ अशिरसोऽशीर्षश्च । ७ । २ । ७ ॥ अशिशोः । २ । ४ । ८ ॥ अश्च वाऽमावास्यायाः । ६ । ३ । १०४ ।। अश्चैकादेः । ७ । १ । ५॥ अश्रद्धामणे-पि । ५ । ४ । १५ ॥ अश्वत्थादेरिकण् । ६ । २ । ६७ ॥ अश्ववडवपू-राः । ३ । १ । १३१ ।। अश्वादेः । ६ । १ । ४६ ।। अषडक्षा-नः । ७ । १ । १०६ ॥ अषष्ठीतृती-र्थे । ३ । २ । ११६ ।। अष्ट और्ज-सोः । १ । ४ । ५३ ॥
असंभस्त्राजिनैक-त् । २ । ४ । ५७ ॥ असंयोगादोः । ४ । २ । ८६ ।। असकृत् संभ्रमे । ७ । ४ । ७२ ॥ असत्काण्ड-त् । २ । ४ । ५६ ॥ असत्त्वाराद-म् । २ । २ । १२० ।। असत्त्वे उसेः । ३ । २ । १० ॥ असदिवा-र्वम् । २ । १ । २५ ।। असमानलोपे-डे । ४ । १। ६३ ॥ असरूपोप-क्त: । ५ । १ । १६ ।। असहनवि-भ्यः । २ । ४ । ३८ ॥ असूको वाऽकि । २ । १ । ४४ ।। असूर्योग्राद् दृशः । ५। १ । १२६ ॥ असोङसिवू-टाम् । २ । ३ । ४८ ॥ अस् च लौल्ये । ४ । ३ । ११५ ॥ अस्तपोमाया-विन् । ७ । २ । ४७ ।। अस्तिब्रुवो वचावशिति । ४ । ४ । १ ॥ अस्ते: सि-ति । ४ । ३ । ७३ ।। अस्त्रीशूद्र-वा । ७ । ४ । १०१ ॥ अस्थूलाच्च नसः । ७ । ३ । १६१ ।। अस्पष्टाव-वा । १ । ३ । २५ ॥ अस्मिन् । ७ । ३ । २ ।। अस्य यां लुक् । २ । ४ । ८६ ॥ अस्यादेराः परोक्षायाम् । ४ । १ । ६८ ॥ अस्याऽयत्त-नाम् । २ । ४ । १११ ॥ अस्वयंभुवोऽव् । ७ । ४ । ७० ॥ अस्वस्थगुणैः । ३ । १ । ८७ ॥ अहन्पञ्चमस्य--ति । ४ । १ । १०७ ।। अहरादिभ्योऽञ् । ६ । २ । ८७ ॥ अहीयरुहो--ने । ७ । २ । ८८ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने
अह्नः । २ । १ । ७४ ।। अह्नः । ७ । ३ । ११६ ।। अह्ना ग--नञ् । ७ । १ । ८५ ।। प्रा अम्शसोऽता । १ । ४ । ७५ ॥ आः खनिसनिजनः । ४ । २ । ६० ।। आकालिक--न्ते । ६ । ४ । १२८ ॥ आख्यातर्युपयोगे । २ । २ । ७३ ।। आगुणावन्यादेः । ४ । १ । ४८ ।। आग्रहायण्यश्व--कण् । ६ । २ । ६६ ।। अाङः । ४ । ४ । १२१ ॥ प्राङः क्रीडमुषः । ५। २ । ५१ ।। प्राङ: शीले । ५ । १ । ६६ ॥ आङल्पे । ३ । १ । ४६ ।। प्राङावधौ । २ । २ । ७० ।। आङो ज्योतिरुद्गमे । ३ । ३ । ५२ ।। आङोऽन्धसोः । ४ । १ । ६३ ॥ आङो यमहनः--च । ३ । ३ । ८६ ॥ प्राङो यि । ४ । ४ । १०५ ॥ प्राङो युद्धे । ५ । ३ । ४३ ॥ प्राङो रुप्लोः । ५ । ३ । ४६ ।। आ च हौ । ४ । २ । १०१ ॥ प्रात् । २ । ४ । १८ ॥ प्रात ऐः कृऔ। ४ । ३ । ५३ ॥ प्रातामातेप्राथा-दिः । ४ । २ । १२१ ।।। आ तुमोऽत्या-त् । ५ । १ । १॥ आतो डोऽह्वावामः । ५। १ । ७६ ।। प्रातो गव औः । ४ । २ । १२० ॥ आतो नेन्द्र-स्य । ७ । ४ । २६ ॥ आत्मनः पूरणे । ३ । २ । १४ ॥
प्रात्रेयाद् भारद्वाजे । ६ । १ । ५२ ॥ प्रात् संध्यक्षरस्य । ४ । २ । १ ॥ आथर्वणिका-च । ६ । ३ । १६७ ।। आदितः । ४ । ४ । ७२ ॥ आदेश्छन्दसः प्रगाथे। ६ । २ । ११२ ।। आद्यद्वितीय-षाः । १ । १ । १३ ।। आद्यात् । ६ । १ । २६ ।। प्राद्यादिभ्यः । ७ । २ । ८४ ।। प्राद्योंऽश एकस्वरः । ४ । १ । २ ।। श्रा द्वन्द्व । ३ । २ । ३६ ॥ प्रा द्वरः । २ । १ । ४१ ।। प्राधाराच्चोप-रे। ३ । ४ । २४ ।। प्राधारात् । ५। १ । १३७ ।। आधारात् । ५ । ४ । ६८ ।। आधिक्यानुपू] । ७ । ४ । ७५ ।। आनायो जालम् । ५। ३ । १३६ ।। प्रानुलोम्येऽन्वचा । ५ । ४ । ८८ ॥ प्रापत्यस्य क्यच्व्योः । २ । ४ । ६१ ।। आपो ङितां-याम् । १ । ४ । १७ ।। प्राप्रपदम् । ७ । १ । ६५ ।। आबाधे । ७ । ४ । ८५ ॥ आभिजनात् । ६ । ३ । २१४ ॥ ग्राम प्राकम् । २ । १ । २०॥ आम कृगः । ३ । ७५ ।। आमन्ताल्वाय्येत्नावय् । ४ । ३ । ८५ ॥ आमन्त्र्ये । २ । २ । ३२ ।।
७। २ । ४८ ।। आमो नाम् वा । १ । ४ । ३१ ॥ प्रायस्थानात् । ६ । ३ । १५३ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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आ यात् । ७ । २ । २ ॥
इङोऽपादाने-द्वा । ५ । ३ । १६ ॥ आयुधादिभ्यो-देः । ५ । १ । ६४ ।। इच्चापुंसो-रे । २ । ४ । १०७ ।। आयुधादीयश्च । ६ । ४ । १८ ।।
इच्छार्थ कर्मणः सप्तमी। ५ । ४ । ८६ ॥ प्रारम्भे । ५। १ । १० ।।।
इच्छार्थे सप्तमीपञ्चम्यौ । ५ । ४ । २७ ॥ आरादर्थैः । २ । २ । ७८ ।।
इच्यस्वरे दी-च्च । ३ । २ । ७२ ।। आ रायो व्य ञ्जने । २ । १ । ५॥ इच् युद्धे । ७ । ३ । ७४ ।। आशिषि तु-तङ् । ४ । २ । ११६ ॥ इञ इतः । २।४ । ७१॥ आशिषि नाथः । ३ । ३ । ३६ ॥
इञः । ७ । ४ । ११ ।। आशिषि हनः । ५। १ । ८० ॥
इट ईति । ४ । ३ । ७१ ।। आशिषीणः । ४ । ३ । १०७ ॥
इट सिजाशिषो-ने । ४ । ४ । ३६ ॥ पाशिष्यकन । ५। १ । ७० ॥
इडेत्पुसि-लुक् । ४ । ३ । ६४ ।। आशिष्याशीः पञ्चम्यौ। ५ । ४ । ३८ ॥
इणः । २।१ । ५१ ॥ आशीः क्यात्-सीमहि । ३ । ३ । १३ ॥ इणिकोर्गाः । ४ । ४ । २३ ।। आशीराशा-णे । ३ । २ । १२० ।। इणोऽभ्रेषे । ५ । ३ । ७५ ।। प्राश्वयुज्या अकञ् । ६ । ३ । ११६ ।। इतावतो लुक् । ७ । २ । १४६ ॥ आसन्नः । ७ । ४ । १२० ।।
इतोऽक्त्य र्थात् । २ । ४ । ३२ ॥ आसन्नादूरा-र्थे । ३ । १ । २० ॥
इतोऽतः कृतः । ७।२।१०।। आसीनः । ४ । ४ । ११६ ॥
इतोऽनिञः । ६ । १ । ७२ ।। प्रासुयु-मः । ५ । १ । २०॥
इदंकिमीत्कीः । ३ । २ । १५३ ।। प्रास्तेयम् । ६ । ३ । १३१ ॥
इदकिमो-स्य । ७ । १ । १४८ ।। आस्यटिव्रज्य जः क्यप् । ५ । ३ । ६७ ।। इदमः । २ । १ । ३४ ।। आहावो निपानम् । ५ । ३ । ४४ ।। इदमदसोऽक्येव । १ । ४ । ३ ॥ आहिताग्न्यादिषु । ३ । १ । १५३ ।। इदुतोऽस्त्रे-त् । १ । ४ । २१ ॥ आही दूरे । ७ । २ । १२० ।।
इनः कच् । ७ । ३ । १७० ।।। इकण । ६ । ४ । १ ।।
इन्डीस्वरे लुक् । १ । ४ । ७६ ।। इकण्यथवणः । ७ । ४ । ४६ ॥
इन्द्रियम् । ७ । १ । १७४ ॥ इकिश्तिव स्वरूपार्थे । ५ । ३ । १३८ ।। . इन्द्र । १।२ । ३० ।। इको वा । ४ । ३ । १६ ।।
इन्ध्यसंयोग-द्वत् । ४ । ३ । २१ ।। इङितः कर्तरि । ३।३ । २२॥
इन्हन्-स्योः । १ । ४ । ८७ ।। इडितो व्यञ्जना-त । ५। २ । ४४ ।। इरमदः । ५। १ । १२७ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
इर्दरिद्रः । ४ । २ । ६८ ॥ इर्वृद्धिमत्यविष्णौ। ३ । २ । ४३ ॥ इलश्च देशे। ७ । २ । ३६ ॥ इवर्णादे-लम् । १ । २ । २१ ॥ इवृध-सनः । ४ । ४ । ४७ ॥ इश्च स्थादः । ४ । ३ । ४१ ।। इषोऽनिच्छायाम् । ५ । ३ । ११२ ॥ इष्टादेः । ७ । १ । १६८ ॥ इसासः शासोङव्यञ्जने । ४ । ४ । ११५ ।। इसुसोर्बहुलम् । ७ । २ । १२८ ॥ ईः षोमवरुणेऽग्नेः । ३ । २ । ४२ ।। ईगितः । ३ । ३ । ६५ ।। ईङौ वा । २ । १ । १०६ ।। ई च गणः । ४ । १ । ६७ ॥ ईतोऽकञ्। ६ । ३ । ४१ ।। ईदूदे-नम् । १ । २ । ३४ ॥ ईनञ् च । ६ । ४ । ११४ ।। ईनयौ चाशब्दे । ६ । ३ । १२६ ।। ईनेऽध्वात्मनोः । ७ । ४ । ४८ ।। ईनोऽह्नः क्रतौ। ६ । २ । २१ ।। ईयः । ७ । १ । २८ ॥ ईयः स्वसुश्च । ६ । १ । ८६ ।। ईयकारके । ३ । २ । १२१ ।। ईयसोः । ७ । ३ । १७७ ।। ईर्व्यञ्जनेऽयपि । ४ । ३ । १७ ॥ ईशीडः-मोः । ४ । ४ । ८८ ॥ ईश्च्वाववर्ण-स्य । ४ । ३ । १११ ।। ईषद्गुणवचनैः । ३ । १ । ६४ ॥ ई३वा । १ । २ । ३३ ।। उः प ।२। १ । ११८ ।।
उक्ष्णो लुक् । ७ । ४ । ५६ ॥ उरणादयः । ५ । २ । ६३ ।। उत प्रौविति व्यञ्जनेऽद्वः । ४।३। ५६ ।। उति शवऱ्या-भे । ४ । ३ । २६ ॥ उतोऽनडुच्चतुरो वः । १ । ४ । ८१ ।। उतोऽप्राणिन-ऊङ् । २० । ४ । ७३ ॥ उत्करादेरीयः । ६ । २ । ६१ ॥ उत्कृष्टेऽनूपेन । २ । २ । ३६ ।। उत्तरादाहञ् । ६ । ३ । ५॥ उत्थापनादेरीयः । ६ । ४ । १२१ ।। उत्पातेन ज्ञाप्ये । २ । २ । ५६ ।। उत्सादेरञ् । ६ । १ । १६ ।। उत्स्व राधु-जे । ३ । ३ । २६ ।। उदः पचि-रेः । ५ । २ । २६ ॥ उदः श्रेः । ५। ३ । ५३ ॥ उदः स्थास्तम्भः सः । १ । ३ । ४४ ।। उदकस्योदः पेषंधिवास-ने। ३ । २ । १०४॥ उदग्ग्रामाद्य-म्नः । ६ । ३ । २५॥ . उदकोऽतोये । ५। ३ । १३५ ॥ उदच उदीच् । २ । १ । १०३ ।। उदन्वानब्धौ च । २।१ । ६७ ॥ उदरे त्विकरणाड्ने । ७ । १ । १८१ ॥ उदश्चरः साप्यात् । ३ । ३ । ३१ ।। उदितः स्वरान्नोऽन्तः । ४ । ४ । 88 । उदितगरो -ब्दे । ६ । २ । ५॥ उदुत्सोरुन्मनसि । ७ । १ । १६२ ।। उदोऽनूर्वे हे । ३ । ३ । ६२ ॥ उद्यमोपरमौ । ४ । ३ । ५७ ॥ उपज्ञाते । ६ । ३ । १६१ ।। उपत्यकाधित्यके । ७ । १ । १३१ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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59
उपपीडरुध-म्या । ५। ४ । ७५॥ उपमानं सामान्यैः । ३ । १ । १०१ ।। उपमानसहित-रोः । २ । ४ । ७५ ।। उपमेयं व्याघ्रा-क्तौ । ३ । १ । १०२॥ उपसर्गस्यानि-ति । १ । २ । १६॥ उपसर्गस्यायौ । २ । ३ । १०० ॥ उपसर्गात् । ७ । ३ । १६२ ॥ उपसर्गात् खल्घञोश्च । ४ । ४ । १०८ ॥
२ । ३ । ३६ ॥ उपसर्गादध्वनः । ७ । ३ । ७६ ॥ उपसदिस्योहो वा । ३ । ३ । २५ ।। उपसर्गादातः । ५। ३ । ११० ।। उपसर्गादातो-श्यः । ५। १ । ५६ ।। उपसर्गाहो ह्रस्वः । ४ । ३ । १०६ ।। उपसगोदः किः । ५। ३ । ८७ ।। उपसोद्दिवः । २ । २ । १७ ।।। उपसर्गाव-शः । ५। २ । ६६ ।। उपानेऽन्वाजे । ३ । १ । १२ ।। उपाज्जानुनीवि-ण । ६ । ३ । १३६ ।। उपात् । ३ । ३ । ५८ ।। उपात किरो लवने । ५ । ४ । ७२ ।। उपात् स्तुतौ । ४ । ४ । १०६ ।। उपात् स्थ: । ३ । ३ । ८३ ।। उपाद्भूषासमवाय-रे । ४ । ४ । ६३ ।। उपान्त्यस्यासमा-डे । ४ । २ । ३५ ।। उपान्त्ये । ४ । ३ । ३४ ।। . . उपान्वध्याङ्वसः । २ । २ । २१ ।। उपायाद्धस्वश्च । ७ । २ । १७० ।। । उपेनाधिकिनि । २ । २ । १०५ ।। उप्ते । ६ । ३ । ११८ ।। . .
उभयाद् धुस् च । ७ । २ । ६६ ।। उमोद्विा । ६ । २ । ३७ ।। उरसोऽग्रे । ७ । ३ । ११४ ।। उरसो याणौ । ६ । ३ । १६६ ।। उवर्णयुगादेर्यः । ७ । १ । ३० ।। उवात् । ४ । ४ । ५६ ।। उवर्णादावश्यके । ५। १ । १६ ।। उवर्णादिकरण । ६ । ३ । ३६ ।। उश्नोः । ४ । ३ । २ ।। उषासोषसः । ३ । २ । ४६ ।। उष्ट्रमुखादयः । ३ । १ । २३ ।। उष्ट्रादकञ् । ६ । २ । ३६ ।। उष्णात् । ७ । १ । १८५ ।। उष्णादिभ्यः कालात् । ६ । ३ । ३३ ।। ऊङः । ३ । २ । ६७ ।। ॐ चोञ् । १ । २ । ३६ ।। ऊटा । १ । २ । १३ ।। ऊढायाम् । २ । ४ । ५१ ।। ऊदितो वा । ४ । ४ । ४२ ।। ऊदुषो रणौ । ४ । २ । ४० ।। ऊनः । २ । ४ । ७ ।। ऊनार्थपूर्वाद्यैः । ३ । १ । ६७ ।। ऊर्जा विन्व-न्त: । ७ । २ । ५१ ।। ऊहिंशुभमो युस् । ७ । २ । १७ ॥ ऊर्ध्वात् पूःशुषः । ५ । ४ । ७० ।। ऊर्ध्वादिभ्यः कर्तुः । ५ । १ । १३६ ।। ऊर्ध्वाद्रिरिष्टा-स्य । ७ । २ । ११४ ।। ऊर्याद्यनु-तिः । ३ । १ । २ ।। ऋलति-वा । १ । २ । २ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
ऋःशृ दृ.पः । ४ । ४ । २० ।। ऋक्पूःपथ्यपोऽत् । ७ । ३ । ७६ ॥ ऋक्सामर्य-वम् । ७ । ३ । ६७ ॥ ऋगद्विस्वरयागेभ्यः । ६ । ३ । १४४ ।। ऋचः श्शंसि । ३ । २ । ६७ ।। ऋचि पादः-दे । २ । ४ । १७ ।। ऋणाद्धेतोः । २ । २ । ७६ ।। ऋणे प्र-र् । १। २ । ७ ।। ऋत इकण । ६ । ३ । १५२॥ ऋतः । ४ । ४ । ८० ॥ ऋतः स्वरे वा । ४ । ३ । ४३ ।। ऋतां विद्यायो-न्धे । ३ । २ । ३७ ।। ऋते तृ-से । १ । २ । ८ ।। ऋते द्वितीया च । २ । २ । ११४ ।। ऋतेमयः । ३ । ४ । ३ ॥ ऋतो डुर् । १ । ४ । ३७ ।। ऋतोऽत् । ४ । १ । ३८ ।। ऋतो रः-नि । २ । १ । २॥ ऋतो र-ते । १ । २ । २६ ।। ऋतो रीः । ४ । ३ । १०६ ॥ ऋतो वा तौ च । १ । २ । ४ ।। ऋत्तृषमृषकृश-सेट् । ४ । ३ । २४ ॥ ऋत्यारु-स्य । १ । २ । ६ ॥ ऋत्वादिभ्योऽरण । ६ । ४ । १२५ ।। ऋत्विदिश्-गः । २ । १ । ६६ ।। ऋदुदितः । १ । ४ । ७० ॥ ऋदुदित्तरतम-श्च । ३ । २ । ६३ ।। ऋदुपान्त्याद-चः । ५ । १ । ४१ ।। ऋदुशनस्पु-र्डाः । १ । ४ । ८४ ।।
ऋदृवर्णस्य । ४ । २ । ३७ ।। ऋद्धनदीवंश्यस्य । ३ । २ । ५॥ ऋध ईत् । ४ । १ । १७ ।। ऋन्नरादेरण । ६ । ४ । ५१ ।। ऋन्नित्यदितः । ७ । ३ । १७१ ॥ ऋफिडादीनां डश्च लः । २ । ३ । १०४ ।। ऋमतां रीः । ४ । १ । ५५ ॥ ऋर लुलं-षु । २ । ३ । ६६ ॥ ऋवर्णदृशोऽङि । ४ । ३ । ७ ।। ऋवर्णव्यञ्ज-ध्यण । ५। १ । १७ ।। ऋवर्णश्यूशुंग : कितः । ४ । ४ । ५७ ॥ ऋवर्णात् । ४ । ३ । ३६ ॥ . ऋवर्णोवर्ण-लुक् । ७ । ४ । ७१ ।। ऋवर्गोवा -च । ७ । ३ । ३७ ।। ऋवृव्येद इट् । ४ । ४ । ८१ ।। ऋश्यादेः कः । ६ । २।६४ ।। ऋषभोपा-ज्यः । ७ । १ । ४६ ।। ऋषिनाम्नोः करणे । ५। २ । ८६ ।। ऋषिवृष्ण्यन्धककुरुभ्यः । ६ । १ । ६१ ।।
ऋषेरध्याये । ६ । ३ । १४५ ।। — ऋषौ विश्वस्य मित्रे । ३ । २ । ७६ ।।
ऋस्मिपूङज्जशौ-च्छः । ४ । ४ । ४८ ।। ऋह्रीघ्राध्रा-र्वा । ४ । २ । ७६ ।। ऋतां क्ङितीर् । ४ । ४ । ११७ ।। ऋदिच्छ्विस्तम्भू-वा। ३ । ४ । ६५ ।। ऋल्वादेरे-प्रः । ४ । २ । ६८ ।। ऋस्तयोः । १ । २ । ५ ।। लत-वा । १ । २ । ३ ॥ लत्याल् वा । १ । २ । ११ ।।
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प्राकादिसूत्रानुक्रमणिका
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लदिद्युतादि-स्मै । ३ । ४ । ६४ ।। लू दन्ताः -नाः। १ । १ । ७॥ ए ऐ ओ औ-रम् । १ । १।८।। ए: । १ । ४ । ७७ ।। एकद्वित्रि-ताः । १ । १ । ५।। एकद्विबहुषु । ३ । ३ । १८ ॥ एकधातौ कर्म-ये । ३ । ४ । ८६ ॥ एकशालाया इकः । ७ । १ । १२० ।। एकस्वरात् । ६ । २ । ४८ ।। एकस्वरादनु-तः । ४ । ४ । ५७ ॥ एकागाराच्चौरे । ६ । ४ । ११८ ।। एकात्-स्य । ७ । २ । १११ ।। एकादश षोडश-ड्ढा । ३ । २ । ६१ ।। एकादाकि-ये। ७ । ३ । २७ ।। एकादे: कर्मधारयात । ७।२। ५८ ।। एकार्थं चानेकं च । ३ । १ । २२ ।। एकोपसर्गस्य च घे । ४ । २ । ३४ ॥ एजेः । ५। १ । ११८ ॥ एण्या एयञ् । ६ । २ । ३८ ।। एतदश्च-से । १ । ३ । ४६ ।। एताः शितः । ३ । ३ । १० ।। एत्यकः । २ । ३ । २६ ॥ एत्यस्तेर्वृद्धिः । ४ । ४ । ३० ॥ एदापः । १ । ४ । ४२ ।। एदैतोऽयाय । १ । २ । २३ ।। एदोत:-लूक। १ । २ । २७॥ एदोद्देश एवेयादौ । ६ । १ । ६ ।। एदोद्भ्यां -रः । १ । ४ । ३५ ।। एद्वहुस्भोसि । १ । ४ । ४ ।।
एयस्य । ७ । ४ । २२ ।। एयेऽग्नायी । ३ । २ । ५२ ।। एये जिह्माशिनः ७ । ४ । ४७ ।। एषामीळञ्जनेऽदः । ४ । २ । ६७ ॥ एष्यत्यवधौ-गे। ५ । ४ । ६ ।। एष्यदृरणेन: । २ । २ । ६४ ।। ऐकाh । ३ । २।८।। ऐदौत्-रैः । १ । २ । १२ ।। ऐषम परु-र्षे । ७ । २ । १०० ॥ ऐषमोह्यःश्वसो वा । ६ । ३ । १६ ।। प्रोजःसहो-ते । ६ । ४ । २७ ॥ मोजोजःस-ष्टः । ३ । २ । १२ ॥ प्रोजोऽप्सरसः । ३ । ४ । २८ ।। प्रोत औः । १ । ४ । ७४ ।। प्रोत: श्ये । ४ । २ । १०३ ।। प्रोदन्तः । १ । २ । ३७ ।। अोदौतोऽवाव् । १ । २ । २४ ॥ प्रोमः प्रारम्भे । ७ । ४ । ६६ ।। अोमाङि । १।२ । १८ ॥ प्रोन्तिस्था-णे । ४ । १ । ६० ।। अोष्ठयादुर् । ४ । ४ । ११८ ।। औता । १ । ४ । २० ।। औदन्ताः स्वराः । १ । १ । ४ ।। औरीः । १ । ४ । ५६ ।। कशंभ्यां-भम् । ७ । २ । १८ ।। कंसार्धात् । ६ । ४ । १३५ ।। कंसीयाभ्यः । ६ । २ । ४१ ॥ ककुदस्या-म् । ७ । ३ । १६७ ।। कखोपान्त्य-दोः । ६ । ३ । ५६ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
कगेवनूजनै-रजः । ४ । २ । २५ ।। कङश्चञ् । ४ । १ । ४६ ।। कच्छाग्निवक्त्र-दात् । ६ । ३ । ५० ॥ कच्छादेर्न नुस्थे । ६ । ३ । ५५ ॥ कच्छ्वा डुरः । ७ । २ । ३६ ।। कट: । ७ । १ । १२४ ॥ कटपूर्वात् प्राचः । ६ । ३ । ५८ ॥ कठादिभ्यो वेदे लुप् । ६ । ३ । १८३ ॥ कडारादयः कर्मधारये । ३ । १ । १५८ ।। कणेमनस्तृप्तौ । ३ । १।६।। कण्ड्वादेस्तृतीयः । ४ । १ । ६ ॥ कतर-कतमौ-श्ने । ३ । १ । १०६ ॥ कत्त्रिः । ३ । २ । १३३ ।। कत्त्र्यादेश्चैयकञ् । ६ । ३ । १० ।। कथमित्थम् । ७ । २ । १०३ ।। कथमि सप्तमी च वा । ५ । ४ । १३ ।। कथादेरिकरण । ७ । १ । २१ ।। कदा-कोर्नवा । ५ । ३ । ८ ।। कन्थाया इकरण । ६ । ३ । २० ।। कन्यात्रिवेण्या:-च । ६ । १ । ६२ ।। कपिज्ञातेरयरण । ७ । १ । ६५ ।। कपिबोधा-से । ६ । १। ४४ ॥ कपेर्गोत्रे । २ । ३ । २६ ॥ कबरमणि-दे: । २ । ४ । ४२ ।। कमेरिणङ् । ३ । ४ । २ ।। कम्बलान्नाम्नि । ७ । १ । ३४ ।। करणक्रियया क्वचित् । ३ । ४ । ६४ ।। करणं च । २ । २ । १६ ।। करणाद्यजो भूते । ५ । १ । १५८ ।।
करणाधारे । ५ । ३ । १२६ ।। करणेभ्यः । ५ । ४ । ६४ ॥ कर्कलोहि-च । ७ । १ । १२२ ।। कर्णललाटात् कल् । ६ । ३ । १४१ ।। कर्णादेरायनिञ् । ६ । २ । ६० ।।
हः । ७.। १ । ८८ ।। कर्तरि । २ । २ । ८६ ।। कर्तरि । ५। १ । ३ ।। कर्तर्यनद्भ्यः शव् । ३ । ४ । ७१ ।। कर्तु: क्विप्-ङित् । ३ । ४ । २५ ।। कर्तु: खश् । ५ । १ । ११७ ।। कर्तु र्जीवपुरुषा-हः । ५ । ४ । ६६ ।। कत गिन । ५ । १ । १५३ ।। कर्तु याप्यं कर्म । २ । २ । ३ ॥ कर्तृस्थामूर्ताप्यात् । ३ । ३ । ४० ।। कर्मजा तृचा च । ३ । १ । ८३ ॥ कर्मणः संदिष्टे । ७ । २ । १६७ ।।. कर्मणि । २ । २ । ४० ।। . कर्मणि कृतः । २ । २ । ८३ ।। कर्मणोऽरण । ५ । १ । ७२ ।। कर्मणोऽण । ५ । ३ । १४ ॥ कर्मण्यग्न्यर्थे । ५। १ । १६५ ।। कर्मवेषाद यः । ६ । ४ । १०३ ।। कर्माभिप्रेयः संप्रदानम् । २ । २ । २५ ।। कलापिकुथु-णः । ७ । ४ । ६२ ।। कलाप्यश्वत्थ-कः । ६ । ३ । ११४ ।। कल्यग्नेरेयण । ६ । १ । १७ ।। कल्याण्यादेरिन् चान्तस्य । ६ । १ । ७७ ।। कवचिह-करण । ६ । २ । १४ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 63
कवर्गकस्वरवति । २ । ३ । ७६ ॥ कालाध्वनोाप्तौ । २ । २ । ४२ ॥ कषः कृच्छगहने । ४ । ४ । ६८ ।।
कालाध्वभा-णाम् । २ । २ । २३ ।। कषोऽनिटः । ५ । ३ । ३ ।।
काले कार्ये-वत् । ६ । ४ । १८ ॥ कष्टकक्षकृच्छ-रो। ३ । ४ । ३१ ।। कालेन तृष्य-रे । ५। ४ । ८२ ।। कसमा-र्धः । १ । १ । ४१ ।।
काले भान्नवाधारे । २ । २ । ४८ ।। कसोमात् टयण । ६ । २ । १०७ ।। कालो द्विगौ च मेयैः । ३ । १ । ५७ ।। काकतालीयादयः । ७ । १ । ११७ ।।। काशादेरिलः । ६ । २ । ८२ ॥ काकवौ वोष्णे । ३ । २ । १३७ ।।
काश्यपको-च्च । ६ । ३ । १८८।। काकाद्यैः क्षेपे । ३ । १ । ६० ।।
काश्यादेः । ६ । ३ । ३५ ॥ काक्षपथोः । ३ । २ । १३४ ।।।
कासूगोणीभ्यां तरट् । ७ । ३ । ५० ।। काण्डाण्डभाण्डादीरः । ७ । २ । ३८ ।। किंयत्तत् सर्वै-दा । ७ । २ । ६५ ।। काण्डात् प्रमा-त्रे । २ । ४ । २४ ।। किंवृत्ते लिप्सायाम् । ५ । ३ । ६ ॥ कादिर्व्यञ्जनम् । १ । १ । १० ॥ किंवृत्ते सप्तमी-न्त्यौ। ५ । ४ । १४ ।। कामोक्तावकच्चिति । ५ । ४ । २६ ।। किंयत्तद्बहोरः । ५। १ । १०१ ।। कारकं कृता । ३ । १ । ६८ ॥ . किंकिलास्त्यर्थ-न्ती। ५ । ४ । १६॥ कारणम् । ५। ३ । १२७ ॥
कि क्षेपे । ३ । १ । ११० ।।। कारिका स्थित्यादौ । ३ । १ । ३ ।। कित्याद्य-स्यम् । ७ । ३ । ८ ।। कार्षापरणा-वा। ६ । ४ । १३३ ॥ कितः संशयप्रतीकारे । ३ । ४ । ६ ॥ कालः । ३ । १ । ६० ।।
किमः क-च । २ । १ । ४०॥ कालवेलासमये-रे । ५ । ४ । ३३ ॥ किमद्वयाति-तस् । ७ । २ । ८६ ।। कालस्यानहोरात्राणाम् । ५ । ४ । ७ ॥
किरो धान्ये । ५ । ३ । ७३ ।। कालहेतु-गे । ७ । १ । १६३ ॥
किरो लवने । ४ । ४ । ६३ ।। । कालाजटाघा-पे । ७ । २ । २३ ॥ किशरादेरिकट । ६ । ४ । ५५ ।। कालात् । ७ । ३ । १६ ॥
कुक्ष्यात्मोदरा-खिः । ५ । १ । ६० ।। कालात तन-तर-तमकाले। ३ । २ । २४ ॥ कुञ्जादेयिन्यः । ६ । १ । ४७ ।। कालात् परि-रे । ६ । ४ । १०४ ॥ कुटाद्विदञ्णित् । ४ । ३ । १७ ।। कालाद् देये ऋणे । ६ । ३ । ११३ ।। कुटिलिकाया अण । ६ । ४ । २६ ।। .' कालाद् भववत् । ६ । २ । १११ ॥ कुटी शुण्डाद् रः । ७ । ३ । ४७. ।। . कालाद् यः । ६ । ४ । १२६ ॥
कुण्डयादिभ्यो यलुक् च । ६ । ३ ।। ११ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
कुत्वा डुपः । ७ । ३ । ४६ ।। कुत्सिताल्पाज्ञाते । ७ । ३ । ३३ ।। कुन्त्यवन्तेः स्त्रियाम् । ६ । १ । १२१ ॥ कुप्यभिद्यो-म्नि । ५ । १ । ३६ ।। कुमहद्भ्यां वा । ७ । ३ । १०८ ॥ कुमारः श्रमणादिना । ३ । १ । ११५ ।।। कुमारशीर्षाण्णिन् । ५। १ । ८२ ।। कुमारीक्रीड-सोः । ७ । ३ । १६ ।। कुमुदादेरिकः । ६ । २ । ६६ ।। कुरुछुरः । २ । १ । ६६ ।। कुरुयुगंधराद् वा । ६ । ३ । ५३ ।। कुरोर्वा । ६ । १ । १२२ ।। कुर्वादेर्व्यः । ६ । १ । १०० ।। कुलकुक्षि-रे । ६ । ३ । १२ ।। कुलटाया वा । ६ । १ । ७८ ।। कुलत्थकोपान्त्यादरण । ६ । ४ । ४ ।। कुलाख्यानाम् । २ । ४ । ७६ ।। कुलाज्जल्पे । ७ । १ । ८६ ।। कुलादीनः । ६ । १ । ६६ ।। कुलालादेरकञ् । ६ । ३ । १६४ ।। कूलिजाद् वा लुप् च । ६ । ४ । १६५ ।। कुल्मासादरण । ७ । १ । १६५ ।। कुशलायु:-याम् । २ । २ । ६७ ।। कुशले । ६ । ३ । ६५ ।। कुशाग्रादीयः । ७ । १ । ११६ ।। कुषिरजेाप्ये-च । ३ । ४ । ७४ ।। कुसीदादिकट । ६ । ४ । ३५ ॥ कूलादुद्रुजोद्वहः । ५ । १ । १२२ ।। कूलाभ्रकरी-षः । ५। १ । ११० ॥
कृग: खनट-णे । ५ । १ । १२६ ।। कृगः प्रतियत्ने । २ । २ । १२ ॥ कृगः श च वा । ५ । ३ । १०० ।। कृगः सुपुण्य-त् । ५। ११६२ ।। कृगो नवा । ३ । १ । १० ।। कृगो यि च । ४ । २। ८८ ।। कृगोऽव्ययेना-मौ । ५ । ४ । ८४ ॥ कृग्ग्रहो-वात् । ५ । ४ । ६१ ।। कृगतनादेरुः । ३ । ४ । ८३ ॥ कृतच तनृत-र्वा । ४ । ४ । ५० ।। कृताद्यैः २ । २ । ४७ ।। कृतास्मरणा-क्षा । ५ । २ । ११ ॥ कृति । ३ । १ । ७७ ।। कृते । ६ । ३ । १६२ ।। कृत्यतुल्या-त्या । ३ । १ । ११४ ।। कृत्येऽवश्यमो लुक् । ३ । २ । १३८ ।। कृत्यस्य वा । २ । २ । ८८ ॥ कृत्संगति-पि । ७ । ४ । ११७ ।। कृद्येनावश्यके । ३ । १ । ६५ ।। कृपः श्वस्तन्याम् । ३ । ३ । ४६ ।। कृपाहृदयादालुः । ७ । २ । ४२ ।। कृभ्वस्तिभ्यां-च्चिः । ७ । २ । १२६ ।। कृवृषिमृजि-वा । ५ । १ । ४२ ।। कृशाश्वक-दिन् । ६ । ३ । १६० ।। कृशाश्वादेरीयण । ६ । २ । ६३ ।। ऋष्यादिभ्यो वलच् । ७ । २ । २७ ।। कृतः कोतिः । ४ । ४ । १२३ ।।
। ७ । ४ । २ ॥ केदाराण्ण्यश्च । ६ । २ । १३ ॥
केक
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 65
केवलमामक-जात् । २ । ४ । २६ ॥ केवलस-रौः । १ । ४ । २६ ।। केशाद् वः । ७ । २ । ४३ ।। केशाद् वा । ६ । २ । १८ ॥ केशे वा । ३ । २ । १०२ ।। कोः कत् तत्पुरुषे । ३ । २ । १३० ।। कोटरमिश्रक-णे । ३ । २ । ७६ ।। कोऽण्वादेः । ७ । २ । ७६ ॥ कोपान्त्याच्चारण । ६ । ३ । ५६ ॥ कोऽश्मादेः । ६ । ३ । ६७ ॥ कौण्डिन्याग-च । ६ । १ । १२७ ॥ कौपिञ्जलहास्तिपदादण् । ६ । ३ । १७१ ॥ कौरव्यमाण्डूकासुरेः । २ । ४ । ७० ॥ कौशेयम् । ६ । २ । ३६ ।। क्डिति यि शय् । ४ । ३ । १०५ ॥ क्त नत्रादिभिन्नैः । ३ । १ । १०५ ॥ क्तक्तवतू । ५। १ । १७४ ।। क्तयोः । ४ । ४ । ४० ॥ क्तयोरनुपसर्गस्य । ४ । १ । ६२॥ क्तयारसदाधारे । २ । २ । ६१ ।। क्ताः । ३ । १ । १५१ ।। क्ताच्च नाम्नि वा । २ । ४ । २८ ।। क्तात्तमबादे-न्ते । ७. | ३ । ५६ ।। क्तादल्पे । २ । ४ । ४५ ।। तादेशोऽषि । २ । १ । ६१ ।। क्तटो गुरोर्व्यञ्जनात् । ५ । ३ । १०६ ॥ क्त न । ३ । १ । ६२ ॥ क्त नासत्त्वे । ३ । १ । ७४ ॥ तनिटश्चजो:-ति । ४ । १। १११ ॥
क्त्वा । ४ । ३ । २६ ।। क्त्वातुमम् । १ । १ । ३५ ।। क्त्वातुमम्-वे । ५ । १ । १३ ॥ क्नः पलितासितात् । २ । ४ । ३७ ।। क्यः शिति । ३ । ४ । ७०॥ क्यङ्। ३ । ४ । २६ ॥ क्यङ्मानिपित्-ते । ३ । २ । ५० ।। क्यरो नवा । ३ । ३ । ४३ ।। क्यनि । ४ । ३ । ११२ ॥ क्ययङाशीर्ये । ४ । ३ । १० ॥ क्यो वा । ४ । ३ । ८१ ॥ क्रमः । ४ । ४ । ५४ ।। क्रमः क्त्वि वा । ४ । १ । १०६ ।। क्रमो दीर्घः परस्मै । ४ । २ । १०६ ।। क्रमोऽनुपसर्गात् । ३ । ३ । ४७ ॥ क्रय्यः क्रयार्थे । ४ । ३ । ६१ ॥ क्रव्यात् क्रव्या-दौ । ५। १ । १५१ ।। क्रियातिपत्तिः-महि । ३ । ३ । १६ ॥ क्रियामध्येऽध्व-च । २ । २ । ११०॥ क्रियायां क्रियार्था-न्ती । ५ । ३ । १३ ॥ क्रियार्थो धातुः । ३ । ३ । ३ ।। क्रियाविशेषणात् । २ । २ । ४१ ॥ क्रियाव्यतिहा-र्थे । ३ । ३ । २३ ॥ क्रियाश्रयस्या-गम् । २ । २ । ३० ॥ क्रियाहेतुः कारकम् । २ । २ । १ ॥ क्रीडोऽकूजने । ३ । ३ । ३३ ।। कीतात् करणादेः । २ । ४ । ४४ ।। Qत्संपदादिभ्यः क्विप् । ५ । ३ । ११४ ॥ क्रुद्रु हे-पः । २ । २ । २७ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
क्रुशस्तुनः-सि । १ । ४ । ६१ ॥ क्रोशयोजन-हें । ६ । ४ । ८६ ।। क्रोष्टशलङ्कोर्लुक् च । ६ । १ । ५६ ।। क्रौड्यादीनाम् । २ । ४ । ८० ॥ क्रयादेः । ३ । ४ । ७६ ।। क्लिन्नाल्ल-स्य । ७ । १ । १३० ।। क्लीबमन्ये-वा । ३ । १ । १२८ ॥ क्लीबे । २ । ४ । ६७ ॥ क्लीबे क्तः। ५ । ३ । १२३ ॥ क्लीबे वा । २।१ । ६३ ॥ क्लेशादिभ्योऽपात् । ५ । १ । ८१ ।। क्वकुत्रात्रेह । ७ । २ । ६३ ।। क्वचित् । ५। १ । १७१ ॥ क्वचित् । ६ । २ । १४५ ॥ क्वचित् तुर्यात् । ७ । ३ । ४४ ।। क्वचित् स्वार्थे । ७ । ३ । ७ ॥ क्वसुष्मतौ च । २ । १ । १०५ ॥ क्विप् । ५। १ । १४८ ।। क्विबवत्तेरसूधियस्तौ । २ । १ । ५८ ॥ क्वेहामात्रतसस्त्यच् । ६ । ३ । १६ ॥ क्वौ । ४ । ४ । १२० ॥ क्षत्त्रादियः । ६ । १ । ६३ ॥ क्षय्य-जय्यौ शक्तौ । ४ । ३ । ६०॥ क्षिपरटः । ५। २ । ६६ ॥ क्षिप्राशंसार्थ-म्यौ । ५ । ४ । ३ ॥ क्षियाशी:प्रैषे । ७ । ४ । ६२ ॥ क्षीरादेयण । ६ । २ । १४२ ।। क्षुत्तृड्गर्धेऽशना-यम् । ४ । ३ । ११३ ॥ क्षुद्रकमालवा-म्नि । ६ । २ । ११ ।।
क्षुद्राभ्य एरण वा । ६ । १ । ८० ।। क्षुधक्लिशकुष-सः । ४ । ३ । ३१ ॥ क्षुधवसस्तेषाम् । ४ । ४ । ४३ ।। क्षब्धविरिब्ध-भौ । ४ । ४ । ७१ ।। क्षभ्नादीनाम् । २ । ३ । ६६ ॥ क्षुश्रोः । ५। ३ । ७१ ।। क्षेः क्षीः ।४।३ । ८४ ।। क्षेः क्षी: चाध्यार्थे । ४ । २ । ७४ ।। क्षेत्रेऽन्य-यः । ७ । १ । १७२ ॥ . क्षेपातिग्र-याः । ७ । २ । ८५ ॥ क्षेपे च यच्चयो। ५ । ४ । १८ ।। क्षेपेऽपिजात्वो-ना। ५ । ४ । १२ ॥ क्षेमप्रिय-खारण । ५। १ । १०५ ।। क्षैशुषिपचो-वम् । ४ । २ । ७८ ॥ खनो डडरेकेकवकधं च । ५। ३ । १३७ ।। खलादिभ्यो लिन् । ६ । २ । २७ ।। खारीकाक-कच् । ६ । ४ । १४६ ।। खार्या वा । ७ । ३ । १०२ ॥ खितिखीती-र । १ । ४ । ३६ ॥ खित्यनव्यया-श्च । ३ । २ । १११ ॥ खेयमषोद्ये । ५। १ । ३८ ॥ ख्रणम् चाभीक्ष्ण्ये । ५ । ४ । ४८ ॥ ख्यागि । १ । ३ । ५४ ।। ख्याते दृश्ये । ५। २ । ८ ॥ गच्छति पथिदूते । ६ । ३ । २०३ ॥ गडदबादे--ये । २ । १ । ७७॥ गड्वादिभ्यः । ३ । १ । १५६ ।। गणिकाया ण्यः । ६ । २ । १७ ।। गतिः । १ । १ । ३६ ॥ गतिकारक--क्वी।३ । २ । ८५ ॥
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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गतिक्वन्य-षः । ३ । १ । ४२ ।। गतिबोधा-दाम् । २ । २ । ५॥ गते गम्येऽध्व-वा । २ । २ । १०७ ॥ गते वाऽनाप्ते । २ । २ । ६३ ।। गतौ सेधः । २ । ३ । ६१ ।।। गत्यर्थवदोऽच्छः । ३ । १ । ८ ॥ गत्यर्थाकर्मक-जेः । ५। १ । ११ ।। गत्यर्थात् कुटिले । ३ । ४ । ११ ।। गत्वरः । ५। २ । ७८ ।। गन्धनावक्षे-गे। ३ । २ । ७६ ।। गमहनजन-लुक् । ४ । २ । ४४ ।। गमहनविदल-वा । ४ । ४ । ८४ ।। गमां क्वौ । ४ । २ । ५८ ।। गमिषद्यमश्छः । ४ । २ । १०६ ।। गमेः क्षान्तौ । ३ । ३ । ५५ ।। गमोऽनात्मने । ४ । ४ । ५१ ॥ गमो वा । ४ । ३ । ३७ ।। गम्भीर--वात् । ६ । ३ । १३५ ॥ गम्ययपः कर्माधारे । २ । २ । ७४ ।। गम्यस्याप्ये । २ । २ । ६२ ।। गर्गभार्गविका । ६ । १ । १३६ ।। गर्गादर्यञ् । ६ । १ । ४२ ।। गर्तोत्तरपदादीयः । ६ । ३ । ५७ ।। गर्भादप्राणिनि । ७ । १ । १३६ ॥ गवाश्वादिः । ३ । १ । १४४ ।। गवि युक्त । ३ । २ । ७४ ।। गवियुधेः स्थिरस्य । २ । ३ । २५ ।। गस्थकः । ५ । १ । ६६ ।। गहादिभ्य । ६ । ३ । ६३ ।।
गहोर्जः । ४ । १ । ४० ।। गाः परोक्षायाम् । ४ । ४ । २६ ।। गात्रपुरुषात् स्नः । ५ । ४ । ५६ ।। गाथिविद-नः । ७ । ४ । ५४ ।। गान्धारिसाल्वेयाभ्याम् । ६ । १ । ११५ ।। गापापचो भावे । ५। ३ । ६५ ।। गापास्थासादा-कः । ४ । ३ । ६६ ।। गायोऽनुपसर्गाट्टक् । ५ । १ । ७४ ।। गिरिनदी-द्वा । ७ । ३ । ६० ।। गिरिनद्यादीनाम् । २ । ३ । ६८ ।। गिरेयोऽस्त्राजीवे । ६ । ३ । २१६ ।। गुणाङ्गाद् वेष्ठेयसू । ७ । ३ । ६ ॥ गुणाद-नवा । २ । २ । ७७ ।।। गुणादिभ्यो यः । ७ । २ । ५३ ॥ गुणोऽरेदोत् । ३ । ३ । २ ।। गुपौधूपवि-यः । ३ । ४ । १ ।। गुप्तिजो-सन् । ३ । ४ । ५।। गुरावेकश्च । २ । २ । १२४ ।। गुरुनाम्यादे-र्णोः । ३ । ४ । ८४ ।। गृष्टयादेः । ६ । १ । ८४ ।। गृहेऽग्नीधो रण धश्च । ६ । ३ । १७४ ।। गृह्णोऽपरोक्षायां दीर्घः । ४ । ४ । ३४ ।। गृ लुपसद-गो। ३ । ४ । १२ ।। गेहे ग्रहः । ५ । १ । ५५ ।। गोः । ७ । २ । ५० ।। गो: पुरीषे। ६ । २ । ५० ।। गोः स्वरे यः । ६ । १ । २७ ।। गोचरसंचर-षम् । ५ । ३ । १३१ ।। गोण्यादेश्चेकरण । ७ । १ । १२१ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
गोण्या मेये । २ । ४ । १०३ ।। गोत्रक्षत्रिये-यः । ६ । ३ । २०८ ।। गोत्रचरणा-मे । ७ । १ । ७५ ।। गोत्रादङ्कवत् । ६ । २ । १३४ ।। गोत्रादङ्कवत् । ६ । ३ । १५५ ।। गोत्राददण्ड-ष्ये । ६ । ३ । १६६ ।। गोत्रोक्षवत्सो-कञ् । ६ । २ । १२ ॥ गोत्रोत्तरपदात्-त्यात् । ६ । १ । १२ ।।। गोदानादीनां-र्ये । ६ । ४ । ८१ ॥ गोधाया दुष्टे रणारश्च । ६ । १ । ८१ ।। गोपूर्वादत इकरण । ७ । २ । ५६ ।।। गोमये वा । ६ । ३ । ५२ ॥ गोऽम्बाम्ब-स्य । २ । ३ । ३० ।। गोरथवातात्र-लम् । ६ । २ । २४ ।। गोर्नाम्न्यवोऽक्षे । १ । २ । २८ ।। गोश्चान्ते-हौ । २ । ४ । ६६ ।। गोष्ठातेः शुनः । ७ । ३ । ११० ।। गोष्ठादीनञ् । ७ । २ । ७६ ।। गोस्तत्पुरुषात् । ७ । ३ । १०५ ।। गोहः स्वरे । ४ । २ । ४२ ॥ गौरणात्सम-या । २ । २ । ३३ ।। गौरगो ड्यादिः । ७ । ४ । ११६ ।। गौरादिभ्यो मुख्यान डीः । २ । ४ । १६ ।। गौष्ठीतैकी-च्चरात् । ६ । ३ । २६ ।। ग्मिन् । ७ । २ । २५ ।। ग्रन्थान्ते । ३ । २ । १४७ ।। ग्रहः । ५ । ३ । ५५ ।। ग्रहगुहश्च सनः । ४ । ४ । ६० ।। ग्रहणाद् वा । ७ । १ । १७७ ।।
ग्रहवश्वभ्रस्जप्रच्छः । ४ । १ । ८४ ।। ग्रहादिभ्यो गिन् । ५ । १ । ५३ ।। ग्रामकौटात् तक्ष्णः । ७ । ३ । १०६ ।। ग्रामजनबन्धु-तल् । ६ । २ । २८ ।। ग्रामराट्रांशाद्-रणौ । ६ । ३ । ७२ ।। ग्रामाग्रान्नियः । २ । ३ । ७१ ॥ ग्रामादीनञ् च । ६ । ३ । ६ ।। ग्राम्याशिशुद्वि-यः । ३ । १ । १२७ ।। ग्रीवातोऽण च । ६ । ३ । १३२ ।। ग्रीष्मवसन्ताद् वा । ६ । ३ । १२० ।। ग्रीष्मावर-कञ् । ६ । ३ । ११५ ।। ग्रो यङि । २ । ३ । १०१ ।।. ग्लाहाज्यः । ५ । ३ । ११८ ।। घत्रि भावकरणे । ४ । २ । ५२ ।। घञ्युपसर्ग-लम् । ३ । २ । ८६ ॥ घटादेह स्वो-रे । ४ । २ । २४ ।। घसेकस्वरा-सोः । ४ । ४ । ८३ ।। घस्लु सन-लि । ४ । ४ । १७ ।।.. घस्वसः । २ । ३ । ३६ ॥ .. घुटि । १ । ४ । ६८ ॥ घुषेरविशब्दे । ४ । ४ । ६६ ।। घोषदादेरकः । ७ । २ । ७४ ।। घोषवति । १ । ३ । २१ ॥ घ्राध्मापाट्धे-शः । ५ । १ । ५८ ।। घ्राध्मोर्यङि । ४ । ३ । ६८ ॥ घ्यण्यावश्यके । ४ । १ । ११५ ॥ ङसेश्चाद् । २ । १ । १६ ।। ङसोऽपत्ये । ६ । १ । २८ ।। ङस्युक्त कृता । ३ । १ । ४६ ॥
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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डिडौंः । १ । ४ । २५ ।। डित्यदिति । १ । ४ । २३ ॥ उ: स्मिन् । १ । ४ । ८ ।। उडसा ते मे । २ । १ । २३ ।। अँडस्योर्यातौ । १ । ४ । ६ ॥ डे पिवः पीप्य् । ४ । १ । ३३ ।। ङौ सासहिवाव-ति । ५ । २ । ३८ ।।
णोः कटा-वा । १ । ३ । १७ ।। यः । ३ । २ । ६४ ।। यादीदूतः के । २ । ४ । १०४ ।। यादेगौरण-च्योः । २ । ४ । ६५ ।। यापो बहुलं नाम्नि । २ । ४ । ६६ ।। ङयाप्त्यूङः । ६ । १ । ७० ।। चक्षो वाचि-ख्यांग । ४ । ४ । ४ ।। चजः कंगम् । २ । १ । ८६ ।। चटकाण्णैरः-प् । ६ । १ । ७६ ।। चटते स-ये । १ । ३ । ७ ।। चतस्रार्द्धम् । ३ । १ । ६६ ।। चतुरः । ७ । १ । १६३ ।। चतुर्थी । २ । २ । ५३ ।। चतुर्थी प्रकृत्या । ३ । १ । ७० ।। चतुर्मासान्नाम्नि । ६ । ३ । १३३ ।। चतुष्पाद् गभिण्या । ३ । १ । ११२ ।। चतुष्पाद्भय एयञ् । ६ । १ । ८३ ॥ चतुस्रो -सि । २ । ३ । ७४ ।। चत्वारिंशदादौ वा । ३ । २ । ६३ ॥ चन्द्रयुक्तात्-क्त । ६ । २ । ६ ।। चन्द्रायणं च चरति । ६ । ४ । ८२ ॥ चरकमा-नज । ७।१ । ३६ ॥ चरणस्य स्थगो-दे । ३ । १ । १३८ ।।
चरणादका । ६ । ३ । १६८ ॥ . चरणाद्धर्मवत् । ६ । २ । २३ ।। चरति । ६ । ४ । ११ ।। चरफलाम् । ४ । १ । ५३ ।। चराचरचला-वा । ४ । १ । १३ ।। चरेराङस्त्वगुरौ । ५ । १ । ३१ ।। चरेष्टः । ५ । १ । १३८ ।। चर्मण्यत्र । ७ । १ । ४५ ।। चर्मण्वत्य-त् । २ । १ । ६६ ।। चर्मशुनः-चे । ७ । ४ । ६४ ।। चमिवमि-रात् । ६ । १ । ११२ ।। चर्मोदरात् पूरेः । ५ । ४ । ५६ ॥ चलशब्दार्था-त् । ५। २ । ४३ ।। चल्याहारार्थे-नः । ३ । ३ । १०८ ।। चवर्गद-रे। ७ । ३ । १८ ॥ चहरणः शाठय । ४ । २ । ३१ ।। चातुर्मास्यन्-च । ६ । ४ । ८५ ।। चादयोऽसत्त्वे । १ । १ । ३१ ।। चादिः -नाङ । १ । २ । ३६ ।। चायः कीः । ४ । १ । ८६ ।। चार्थे द्वन्द्वः सहोक्तौ । ३।१ । ११७ ।। चाहहवैवयोगे । २ । १ । २६ ।। चिक्लिदचक्णसम् । ४ । १ । १४ ।। चितिदेहा-देः । ५ । ३ । ७६ ।। चितीवार्थ । ७।४। ३।। चितेः कचि । ३ । २ । ८३ ।। चित्ते वा । ४ । २ । ४१ ।। चित्रारेवती--याम् । ६ । ३ । १०८ ।। चित्रे । ५ । ४ । १६ ॥ चिरपरुत्प-स्त्नः । ६ । ३ । ८५ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
चिस्फूरोर्नवा । ४ । २ । १२ ।। चीवरात् परिधार्जने । ३ । ४ । ४१ ॥ चुरादिभ्यो रिणच । ३ । ४ । १७ ।। चूडादिभ्योऽरण । ६ । ४ । ११६ ।। चूर्णमुद्रा-णौ । ६ । ४ । ७ ।। चेः किर्वा । ४।१ । ३६ ॥ चेलार्थात् क्नोपेः । ५ । ४ । ५८ ।। चैत्रीकार्तिकी-द्वा। ६ । २ । १०० ।। चौरादेः । ७ । १ । ७३ ।। च्वौ क्वचित् । ३ । २ । ६० ।। व्यर्थे क प्या-गः । ५ । ३ । १४० ।। व्यर्थे भृशादेः स्तोः । ३ । ४ । २६ ।। छगलिनो रणयिन् । ६ । ३ । १८५ ।। दिबलेरेयण । ७ । १ । ४७ ।। छदेरिस्मन्त्रट क्वौ । ४ । २ । ३३ ।। छन्दसो यः । ६ । ३ । १४७ ।। छन्दस्यः । ६ । ३ । १६७॥ छन्दोगौ-धे । ६ । ३ । १६६ ॥ छन्दोऽधीते-वा । ७ । १ । १७३ ।। छन्दोनाम्नि । ५ । ३ । ७० ।। छाशोर्वा । ४ । ४ । १२ ।। छेदादेनित्यम् । ६ । ४ । १८२ ।। जङ्गल-वा । ७ । ४ । २४ ।। जण्टपण्टात् । ६ । १ । ८२ ।। जनशो न्युपान्त्ये-क्त्वा । ४ । ३ । २३ ॥ जपजभदहदश-शः । ४ । १ । ५२ ।। जपादीनां पो वः । २ । ३ । १०५॥ जभः स्वरे । ४ । ४ । १०१ ॥ जम्ब्वा वा । ६ । २ । ६० ।। जयिनि च । ६ । ३ । १२२ ।।
जरत्यादिभिः । ३ । १ । ५५ ॥ जरसो वा । १ । ४ । ६० ॥ जराया ज-च । ७।३।६३ ।। जराया ज-वा। २ । १ । ३ ।। जस इः । १ । ४ । ६ ॥ जस्येदोत् । १ । ४ । २०२ ।। जस्विशे त्र्ये । २। १ । २६ ॥ जागुः । ५ । २ । ४८ ।। जागुः किति । ४ । ३ । ६ ।। जागुरश्च । ५ । ३ । १०४ ।। जागझिणवि । ४ । ३ । ५२ ।।। जागुषसमिन्धेर्नवा । ३ । ४ । ४६ ॥ जाज्ञाजनोऽत्यादौ । ४ । २ । १०४ ।। जातमहद्-यात् । ७ । ३ । ६५ ।। जातिकालसुखा-वा । ३ । १ । १५२ ।। जातिश्च रिणतद्धि-रे । ३ । २ । ५१ ।। जातीयैकार्थेऽच्वे: । ३ । २ । ७० ।। जातुयद्यदायदो सप्तमी। ५ । ४ । १७ ।। . जाते । ६ । ३ । १८ ।।
जाते: सम्पदा च । ७ । २ । १३१ ।। • जातेरयान्त-त् । २ । ४ । ५४ ।।
जातेरीयः सामान्यवति । ७ । ३ । १३६ ।। जातौ । ७ । ४ । ५८ ।। जातौ राज्ञः । ६ । १ । ६२ ।। जात्याख्यायां-वत् । २ । २ । १२१ ।। जायापतेश्चि-ति । ५ । १ । ८४ ।। जायाया जानिः । ७ । ३ । १६४ ।। जासनाट-याम् । २ । २ । १४ ॥ जिघ्रतेरिः । ४ । २ । ३८ ।। जिविपून्यो-ल्के । ५ । १ । ४३ ।। . .
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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71
जिह्वामूला-यः । ६ । ३ । १२७ ।। जिण दक्षि-थः । ५। २ । ७२ ।। जीर्णगोमूत्रा-ले । ७ । २ । ७७ ।। जीवन्तपर्वताद वा । ६ । १ । ५८ ।। जीविकोपनि-म्ये । ३ । १ । १७ ।। जीवितस्य सन् । ६ । ४ । १७० ॥ ज भ्रमवम-वा । ४ । १ । २६ ।। ज़ व्रश्वः क्त्वः । ४ । ४ । ४१ ।। ज़ षोऽतृः । ५ । १ । १७३ ।। जेगिः सन्परोक्षयोः । ४ । १ । ३५ ।। ज्ञः । ३ । ३ । ८२ ॥ ज्ञप्यापो ज्ञीपीप-सनि । ४ । १ । १६ ॥ ज्ञानेच्छार्थाि -न । ३ । १ । ८६ ॥ ज्ञानेच्छार्थिनी-क्तः । ५ । २ । ६२ ।। ज्ञीप्सास्थेये । ३ । ३ । ६४ ।। ज्ञोऽनुपसर्गात् । ३ । ३ । ६६ ।। ज्यश्च यपि । ४ । १ । ७६ ।। ज्यायान् । ७ । ४ । ३६ ॥ ज्याव्यधः क्ङिति । ४ । १ । ८१ ।। ज्याव्येव्यधिव्यचि-रिः । ४ । १ । ७१ ।। ज्योतिरायु-स्य । २ । ३ । १७ ।। ज्योतिषम् । ६ । ३ । १६६ ।। ज्योत्स्नादिभ्योऽण । ७ । २ । ३४ ॥ ज्वलहलह्मल-वा । ४ । २ । ३२ ॥ जिख्णमोर्वा । ४ । ४ । १०७ ॥ बिच ते पद-च । ३ । ४ । ६६ ।। जिरणवि घन् । ४ । ३ । १०१ ।। जिदा दरिणजोः । ६ । १ । १४० ।। ञ्णिति । ४ । ३ । ५० ।।
ञ्णिति घात् । ४ । ३ । १०० ।। टः पुंसि ना । १ । ४ । २४ ।। टनण । ५। १ । ६७ ।। टस्तुल्यदिशि । ६ । ३ । २१० ।। टाङसोरिनस्यौ। १ । ४ । ५ ।। टायोसि यः । २ । १ । ७ ॥ टादौ स्वरे वा ।१ । ४ । ६२ ।। टौस्यनः । २ । १ । ३७ ।। टौस्येत् । १ । ४ । १६ ।। टधेघ्राशाछासो वा । ४ । ३ । ६७ ।। ट्धेश्वेर्वा । ३ । ४ । ५६ ।। टूवितोऽथुः । ५। ३ । ८३ ।। डकश्चाष्टाच-णाम् । ६ । ४ । ८४ ।। डतर-डतमौ-श्ने । ७ । ४ । ७६ ॥ डतिष्ण :-प । १।४। ५४॥
। १ । १ । ३६ ।। डाच्यादौ । ७ । २ । १४६ ।। डाच्लोहिता-षित् । ३ । ४ । ३० ॥ डित्यन्त्यस्वरादेः । २ । १ । ११४ ।। डिद्वारण । ६ । २ । १३६ ।। डिन् । ७ । १ । १४७ ।। डीयश्व्यदितः क्तयोः । ४ । ४ । ६१ ॥ ड्नः सः-श्चः । १ । ३ । १८ ॥ ड्वितस्त्रिमक-तम् । ५ । ३ । ८४ ।। ढस्तड्ढे । १ । ३। ४२ ॥ रगकतृचौ । ५। १ । ४८॥ णश्च विश्रवसो-वा । ६ । १ । ६५ ।। गषमसत्परे स्यादिविधौ च । २ । १ । ६० ।। गस्वराघोषा-श्च । २ । ४ । ४ ॥ गावज्ञाने गमुः । ४ । ४ । २४ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
णिज् बहुलं-षु । ३ । ४ । ४२ ।। रिणद्वान्त्यो णव । ४ । ३ । ५८ ।। गिन् चावश्य-ये । ५ । ४ । ३६ ॥ रिगवेत्त्यास-नः । ५ । ३ । १११ ।। रिणश्रिद्रुस्र कम:-ङः । ३ । ४ । ५८ ।। णिस्तोरेवाऽ-णि । २ । ३ । ३७ ।। रिणस्नुश्यात्मने-त् । ३ । ४ । ६२ ॥ गरनिटि । ४ । ३ । ८३ ।। गर्वा । २ । ३ । ८८ ॥ गोऽन्नात् । ७ । १ । १० ॥ गौ क्रीजीङः । ४ । २ । १० ।। णौ ङसनि । ४ । १ । ८८ ।। गौ दान्तशान्त-प्तम । ४।४ । ७४ ।। गौ मृगरमणे । ४ । २ । ५१ ।। गौ सन्डे वा । ४ । ४ । २७ ॥ ण्योऽतिथेः । ७ । १ । २४ ।। तः सौ सः । २ । १ । ४२ ।। तक्षः स्वार्थे वा । ३ । ४ । ७७ ।। ततः शिट: । १ । ३ । ३६ ।। तत प्रागते । ६।३।१४६ ।। ततोऽस्या: । १ । ३ । ३४ ।। ततो ह-र्थः । १ । ३ । ३ ।।। तत्पुरुषे कृति । ३ । २ । २० ॥ तत्र । ७ । १ । ५३ ।। तत्र कृतलब्ध-ते । ६ । ३ । ६४ ।। तत्र क्वसुकानौ--त् । ५ । २ । २ ॥ तत्र घटते-ष्ठः । ७ । १ । १३७ ।। तत्र नियुक्त । ६ । ४ । ७४ ।। तत्र साधौ । ७ । १ । १५ ।।
तत्रादायमि-वः । ३ । १ । २६ ।। तत्राधीने । ७ । २ । १३२ ।। तत्राहोरात्रांशम् । ३ । १ । ६३ ।। तत्रोद्ध ते पात्रेभ्यः । ६ । २ । १३८ ।। तत्साप्यानाप्या-श्च । ३ । ३ । २१॥ तद् । ७ । १ । ५० ।। तद: से:-र्था। १।३ । ४५ ।। तदन्तं पदम् । १ । १ । २० ।। तदत्रास्ति । ६ । २ । ७० ।। तदत्रास्मै वा-यम् । ६ । ४ । १५८ ।। तदर्थार्थन । ३ । १ । ७२ ॥ तदस्य पण्यम् । ६ । ४ । ५४ ।। तदस्य सं-तः । ७ । १ । १३८ ।। तदस्यास्त्य-तुः । ७ । २ । १ ॥ तद्धितः स्वर-रे । ३ । २ । ५५ ।। तद्धितयस्वरेऽनाति । २ । ४ । ६२ ।। तद्धिताकको-ख्या: । ३ । २ । ५४ ।। . तद्धितोऽणादिः । ६ । १ । १ ।। तद्भद्रायुष्य-षि । २ । २ । ६६ ।। तद्यात्येभ्यः । ६ । ४ । ८७ ।। तद्वति धरण । ७ । २ । १०८ ॥ तद्वत्त्यधीते । ६ । २ । ११७ ॥ तद्युक्त हेतौ । २ । २ । १०० ।। तनः क्ये । ४ । २ । ६३ ।। तनुपुत्राणु--क्त । ७ । ३ । २३ ।। तना वा । ४ । १ । १०५ ।। तन्त्रादचि-ते । ७ । १ । १८३ ।। तन्भ्यो वा--श्च । ४ । ३ । ६८ ।। तन्व्य धीरण --तः । ५। १ । ६४ ॥
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
तपः कर्त्रनुतापे च । ३ । ४ । ६१ ।। तपसः क्यन् । ३ । ४ । ३६ ।। तपेस्तपः कर्मकात् । ३ । ४ । ८५ ।। तप्तान्ववाद्रहसः । ७ । ३ । ८१ ।। तमर्हति । ६ । ४ । १७७ ।। तमिस्रार्णवज्योत्स्नाः । ७ । २
। ५२ ।
४ । १६१ ।।
तं पचति द्रोणाद्वाञ् । ६ । तं प्रत्यनो-- लात् । ६ । ४ । २८ ।। तं भाविभूते । ६ । ४ । १०६ ॥ तयोव-याम् । ७ । ४ । १०३ ।। तयोः समू-- षु । ७ । ३ । ३ ।। तरति । ६ । ४ । ६ ॥ तरुतृणधान्य--त्वे । ३ । १ । १३३ ।। तव मम ङसा । २ । १ । १५ ॥ तवर्गस्य श्च -- गौं । १ । ३ । ६० ।। तव्यानीयौ । ५ । १ । २७ ।। तसिः । ६ । ३ । २११ ।। तस्मै भृता च । ६ । ४ । १०७ ।। तस्मै योगादेः शक्ते । ६ । ४ । ६४ ॥ तस्मै हिते । ७ । १ । ३५ ।।
तस्य । ७ । १ । ५४ ।। तस्य तुल्ये कः--त्योः । ७ । १ । १०८ ।। तस्य वापे । ६ । ४ । १५१ ।। तस्य व्याख्या--त् । ६ । ३ । १४२ ।। तस्येदम् । ६ । ३ । १६० ।। तस्यार्हे--वत् । ७ । तादर्थ्ये । २ । २ । ५४ ।।
। ५१ ।।
ताभ्यां वा--त् । २ । ४ । १५ ।।
तारका वर्णका -- त्ये । २ । ४ । ११३ ॥ तालाद्धनुषि । ६ । २ । ३२ ।।
[ 73
१ । १३१ ॥
तिककितवादी द्वन्द्व । ६ । तिकादेरायनि । ६ । १ १०७ ।। तिक्कृतौ नाम्नि । ५ । १ । ७१ ।। ति चोपान्त्या -- दु: । ४ । १ । ५४ ।। तित्तिरिवर-- यरण । ६ । ३ । १८४ ।। तिरसस्तिर्यति । ३ । २ । १२४ ।। तिरसो वा । २ । ३ । २ ।। तिरोऽन्तधौं । ३ । १ । ६ ॥ तिर्यचापवर्गे । ५ । ४ । ८५ ।। तिर्वा ष्ठिवः । ४ । १ । ४३ ।। तिलयवादनानि । ६ । २ । ५२ ।। तिलादिभ्यः -- लः । ७ । १ । १३६ ।। तिवां रणवः परस्मै । ४ । २ । ११७ ॥ तिष्ठते । ४ । २ । ३६ ।। तिष्ठद्वियः । ३ । १ । ३६ ।। तिष्य - पुष्ययोर्भारिण । २ । ४ । ६० ।। तीयं ङित - वा । १ । ४ । १४ ।। तीयशम्ब--डाच् । ७ । २ । १३५ ।। तयाट्टोकरण -- चेत् । ७ । २ । १५३ ।। तुः । ४ । ४ । ५४ ।। तुदादेः शः । ३ । ४ । ८१ ।। तुभ्यं मह्यं ङा । २ । १ । १४ ।। तुमर्हादिच्छायां -- नः । ३ । ४ । २१ ।। तुमच मन:कामे । ३ । २ । १४० ।।
मौर्थे भा--त् । २ । २ । ६१ ।। तुरायणपा --ने । ६ । ४ । ६२ ।।
तुल्यस्थाना-- स्वः । १ । १ । १७ ।। तुल्यार्थैस्तृतीयाषष्ठ्यौ । २ । २ । ११६ ।। तूदीवत्या एयण । ६ । ३ । २१८ ।। तूष्णीकः । ६ । ४ । ६१ ।।
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74 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
तूष्णीकाम् । ७ । ३ । ३२ ।। तूष्णीमा। ५। ४ । ८७ ॥ तृणादेः सल् । ६ । २ । ८१ ॥ तणे जातौ । ३।२।१३२ ।। तृतीयस्तृ-र्थे । १ । ३ । ४६ ।। तृतीयस्य पञ्चमे । १ । ३ । १ । तृतीया तत्कृतैः । ३ । १ । ६५ ॥ तृतीयान्तात्-गे । १ । ४ । १३ ।। तृतीयायाम् । ३ । १ । ८४ ॥ तृतीयाल्पीयसः । २ । २। ११२ ॥ तृतीयोक्त वा । ३ । १ । ५० ।। तृन्नुदन्ता-स्य । २ । २ । १० ॥ तृन् शीलधर्मसाधुषु । ५ । २ । २७ ॥ तृप्तार्थपूरणा-शा । ३ । १ । ८५ ॥ तृषिधृषिस्वपो नजिङ् । ५ । २ । ८० ।। तृस्वसृ-र् । १ । ४ । ३८ ॥ तृहः श्नादीत् । ४ । ३ । ६२ ।।। तृत्रपफलभजाम् । ४ । १ । २५ ।। ते कृत्याः । ५। १ । ४७ ॥ तेन च्छन्ने रथे । ६ । २ । १३१ ।। तेन जित-त्सु । ६ । ४ । २॥ तेन निर्वत्ते च । ६ । २ । ७१ ।। तेन प्रोक्त । ६ । ३ । १८१॥ तेन वित्ते-णौ । ७ । १ । १७५ ॥ तेन हस्ताद्यः । ६ । ४ । १०१ ॥ तेर्ग्रहादिभ्यः । ४ । ४ । ३३ ।। ते लुग्वा । ३ । २ । १०८ ॥ तेषु देये । ६ । ४ । ६७ ।। तो वा । ७ । २ । १४८ ॥
तौ माङयाक्रोशेषु । ५। २ । २१ ।। तौ मुमो-स्वौ । १ । ३ । १४ ।। तौ सनस्तिकि । ४ । २ । ६४ ॥ त्यजयजप्रबचः । ४ । १ । ११८ ॥ त्यदादिः । ३ । १ । १२० ॥ त्यदादिः । ६ । १ । ७ ॥ त्यदादेर्मयट् । ६ । ३ । १५६ ।। त्यदाद्यन्यसमा-च । ५। १ । १५२ ।। त्यदामेन-ते । २ । १ । ३३ ॥ त्यादिसर्वादे:-ऽक् । ७ । ३ । २६ ।। त्यादेः सा-न । ७ । ४ । ६१ ।। त्यादेश्च प्र-पप् । ७ । ३ । १० ।। त्यादौ क्षेपे । ३ । २ । १२६ ।। त्रने वा । ४ । ४ । ३ ॥ त्रन्त्यस्वरादेः । ७ । ४ । ४३ ॥ त्रपुजतोः षोऽन्तश्च । ६ । २ । ३३ ॥ त्रप् च । ७ । २। ६२ ॥ असिगृधि-क्नुः । ५ । २ । ३२ ॥ त्रिककुद् गिरौ । ७ । ३ । १६८ ।। त्रिचतुरस्-दौ । २ । १ । १ ।। त्रिशद्विशते-र्थे। ६ । ४ । १२६ ॥ त्रीणि त्रीण्यन्य-दि । ३ । ३ । १७ ।। त्रेस्तृ च । ७ । १ । १६६ ।। त्रेस्त्रयः । १ । ४ । ३४ ।। त्रैशचात्वारिंशम् । ६ । ४ । १७४ ।। त्वते गुणः । ३ । २ । ५६ ॥ त्वमहं-कः । २ । १ । १२ ॥ त्वमौ प्र-न् । २ । १ । ११ ॥ त्वे । २ । ४ । १०० ॥
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 75
त्वे वा । ६ । १ । २६ ।। थे वा । ४ । १ । २६ ।। थो न्थ् । १ । ४ । ७८ ।। दंशसञ्जः शवि । ४ । २ । ४६ ।। दंशेस्तृतीयया । ५ । ४ । ७३ ॥ दशेस्त्रः । ५ । २ । ६० ।। दक्षिणाकडङ्गर-यो। ६ । ४ । १८१ ॥ दक्षिणापश्चा-त्यण । ६ । ३ । १३ ॥ दक्षिणेर्मा व्याधयोगे। ७ । ३ । १४३ ।।। दक्षिणोत्तराच्चातस । ७।२।११७॥ दगुकोशल-दिः । ६ । १ । १०८ ।। दण्डादेयः । ६ । ४ । १७८ ॥ दण्डिहस्ति-ने । ७ । ४ । ४५ ।। दत् । ४ । ४ । १० ॥ दन इकण । ६ । २ । १४३ ।। दध्यस्थि -न् । १ । ४ । ६३ ।। दध्युरः स-ले: । ७ । ३ । १७२ ॥ दन्तपादना-वा । २ । १ । १०१ ॥ दन्तपादुन्नतात् । ७ । २ । ४० ॥ दम्भः । ४ । १ । २८ ।। दम्भो धिप्धीपू । ४ । १ । १८ ।। दयायास्कासः । ३ । ४ । ४७ ॥ दरिद्रोऽद्यतन्यां वा । ४ । ३ । ७६ ।। दर्भकृष्णाग्निशर्म-त्स्ये । ६ । १ । ५७ ॥ दशनावोदै-थम् । ४ । २ । ५४ ।। दशैकादशादिकश्च । ६ । ४ । ३६ ॥ दश्चाडः । ५।१ । ७८ ।। दस्ति । ३ । २ । ८८ ॥ दागोऽस्वास्यप्रसारविकासे । ३।३। ५३ ।। दाधेसिशद-रुः । ५। २ । ३६ ॥
दाण्डाजिनि-कम् । ७ । १ । १७१ ।। दामः संप्रदा-च । २ । २ । ५२ ।। दामन्यादेरीयः । ७ । ३ । ६७ ।। दाम्नः । २ । ४ । १० ॥ दाश्वत्साह वन्मीढ्वत् । ४ । १ । १५ ॥ दिकपूर्वपदादनाम्नः । ६ । ३ । २३॥ दिकपूर्वात्तौ । ६ । ३ । ७१ ।। दिक्शब्दात्तीर-रः । ३ । २ । १४२ ।। दिक्शब्दा-म्याः । ७ । २ । ११३ ।। दिगधिकं संज्ञा-दे । ३ । १ । ६८ ॥ दिगादिहेहांशाद्यः । ६ । ३ । १२४ ।। दितेश्चैयण वा । ६ । १ । ६६ ।। दिद्युद्ददृज्ज-पः । ५ । २ । ८३ ।। दिव औः सौ । २ । १ । ११७ ।। दिवस् दिव:-वा । ३ । २ । ४५ ।। दिवादेः श्यः । ३।४।७२।। दिवो द्यावा । ३ । २ । ४४ ।। दिशो रूढया-ले । ३ । १ । २५ ।। दिस्योरीट् । ४ । ४ । ८६ ।। दिङ: सनि वा । ४ । २ । ६ ॥ दीपजनबुध-या। ३ । ४ । ६७ ।। दीप्तिज्ञानयत्न-दः । ३ । ३ । ७८ ।। दीय दीङ:-रे । ४ । ३ । ६३ ।। दीर्घः । ६ । ४ । १२७ ।। दीर्घड्याब-सेः । १ । ४ । ४५॥ दीर्घमवोऽन्त्यम् । ४ । १ । १०३ ।। दीर्घश्च्वियङ्-च । ४ । ३ । १०८ ॥ दीर्घोनाम्य-षः । १ । ४ । ४७ ॥ दुःखात् प्रातिकूल्ये । ७ । २ । १४१ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
दुःस्वीषतः-खल् । ५ । ३ । १३६ ।। दुगोरू च । ४ । २ । ७७ ।। दुनादिकुर्वि--ञ्यः । ६ । १ । ११८ ।। दुनिन्दाकृच्छ । ३ । १ । ४३ ।। दुष्कुलादेयरण वा । ६ । १ । ६८ ।। दुहदिहलिह--कः । ४ । ३ । ७४ ॥ दुहेडुघः । ५। १ । १४५ ।। दूरादामन्त्र्य--नृत् । ७ । ४ । ६६ ॥ दूरादेत्यः । ६ । ३ । ४ ।। दृग्दृशदृक्षे । ३ । २ । १५१ ॥ दृतिकुक्षि--यण । ६ । ३ । १३० ।। दृतिनाथात् पशाविः । ५ । १ । ६७ ॥ दृन्पुनर्वर्षाकारैर्भुवः । २ । १ । ५६ ।। दृवृगस्तुजुषे-सः । ५ । १ । ४० ।। दृशः क्वनिप् । ५ । १ । १६६ ।। दृश्यभिवदोरात्मने । २ । २ । ६ ॥ दृश्यर्थश्चिन्तायाम् । २ । १ । ३० ॥ दृष्टे साम्नि नाम्नि । ६ । २ । १३३ ॥ देये त्रा च । ७ । २ । १३३ ॥ देदिगिः परोक्षायाम । ४ । १ । ३२ ॥ देवता । ६ । २ । १०१ ।। देवतानामात्वादौ । ७ । ४ । २८ ॥ देवतान्तात्तदर्थे । ७ । १ । २२ ॥ देवपथादिभ्यः । ७ । १ । १११ ।। देववातादापः । ५ । १ । ६६ ।।' देवव्रतादीन डिन । ६।४। ८३ ।।। देवात् तल् । ७ । २ । १६२ ।। देवाद्यञ् च । ६ । १ । २१ ॥ देवानांप्रियः । ३ । २ । ३४ ।।
देवा मैत्री--स्थः । ३ । ३ । ६० ।। देविकाशिश--वाः । ७ । ४ । ३ ।। देशे । २ । ३ । ७० ।। देशेऽन्तरो--नः । २ । ३ । ६१ ।। दैर्घ्यऽनुः । ३ । १ । ३४ ।। दैवयज्ञिशौचिव-र्वा । २ । ४ । ८२ ॥ दो मः स्यादौ । २ । १ । ३६ ।। दोरप्राणिनः । ६ । २ । ४६ ।। दोरीयः । ६ । ३ । ३२ ।। दोरेव प्राचः । ६ । ३ । ४० ।। दोसोमास्थ इः । ४ । ४ । ११ ।। द्यावापृथिवी--यौ । ६ । २ । १०८ ।। द्युतेरिः । ४ । १ । ४१ ।। धुद्भयोऽद्यतन्याम् । ३ । ३ । ४४ ।। धुद्रोर्मः । ७ । २ । ३७ ।। धुप्रागपागु--यः । ६ । ३ । ८ ।। धुप्रावट्वर्षा--त् । ३ । २ । २७ ॥ द्रमक्रमो यङः । ५ । २ । ४६ ॥ द्रव्यवस्नात् केकम् । ६ । ४ । १६७ ।।। द्रीमो वा । ६ । १ । १३६ ।। द्ररत्रणोप्राच्यभर्गादेः । ६ । १ । १२३ ।। द्रोणाद्वा। ६ । १ । ५६ ॥ द्रोभव्ये । ७ । १ । ११५ ।। द्रोर्वयः । ६ । २ । ४३ ।। द्रयादेस्तथा । ६ । १ । १३२ ।। द्वन्द्व वा । ७ । ४ । ८२ ।। द्वन्द्वात् प्रायः । ६ । ३ । २०१ ।। द्वन्द्वादीयः । ६ । २ । ७ ।। द्वन्द्वाल्लित । ७ । १ । ७४ ॥
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 77
द्वन्द्वे वा। १ । ४ । ११ ।।
द्वित्वे वां नौ। २ । १ । २२ ।। द्वयोविभज्ये च तरप् । ७ । ३ । ६ ।। द्वित्वे ह्वः । ४ । १ । ८७ ॥ द्वारादेः । ७ । ४ । ६ ॥
द्विदण्डयादिः । ७ । ३ । ७५ ।। द्विः क्वान:-सः । १ । ३ । ११ ।। द्विपदाद्धर्मादन । ७ । ३ । १४१॥ द्विगोः संसये च । ७ । १ । १४४ ।। द्विर्धातुः परोक्षा:-धेः । ४ । १ । १ ।। द्विगोः समाहारात् । २ । ४ । २२ ।। द्विषन्तपपरन्तपौ । ५। १ । १०८ ।। द्विगोरनपत्ये-द्विः । ६ । १ । २४ ॥ द्विषो वातृशः । २ । २ । ८४ ।। द्विगोरनह्नीऽट् । ७ । ३ । ६६ ॥
द्विस्वरब्रह्म देः । ६ । ४ । १५५ ॥ द्विगोरीनः । ६ । ४ । १४० ॥
द्विस्वरादणः । ६ । १ । १०६ ।। द्विगोरीनेकटौ वा । ६ । ४ । १६४ ।। द्विस्वरादनद्याः । ६ । १ । ७१ ।। द्वितीय-तुर्य-वौं । ४ । १ । ४२ ।। द्विहेतो-वा । २ । २ । ८७ ।। द्वितीयया। ५ । ४ । ७८ ।।
द्वीपादनुसमुद्र ण्यः । ६ । ३ । ६८ ॥ - द्वितीया खट्वा क्षेपे । ३ । १ । ५६ ॥ द्वस्तीयः । ७ । १ । १६५ ।। द्वितीयात् स्वरादूर्ध्वम् । ७ । ३ । ४१ ।। द्वयन्तरनव-ईप् । ३ । २ । १०६ ।। द्वितीयायाः काम्यः । ३ । ४ । २२ ।। द्वयादेर्गुणान्-यट् । ७ । १ । १५३ ।। .. द्वितीयाषष्ठयावे-ञ्चेः । २ । २ । ११७ ।।। द्वय क्तजक्षपञ्चतः । ४ । २ । ६३ ।। . द्वित्रिचतुरः सुच् । ७ । २ । ११० ॥ द्वय क्तोपान्त्यस्य-रे । ४ । ३ । १४ ।। द्वित्रिचतुष्पू-यः । ३ । १ । ५६ ।।
द्वय केष-र्वा।६।१।१३४ ॥ द्वित्रिबहो-स्तात् । ६ । ४ । १४४ ॥ द्वयषसूत-स्य । २ । ४ । १०६॥ द्वित्रिभ्यामयङ् वा । ७ । १ । १५२ ॥ धनगणाल्लब्धरि । ७ । १।६।। द्वित्रिस्वरौ-भ्यः । २ । ३ । ६७ ।। धनहिरण्ये कामे । ७ । १ । १७६ ।। द्वित्ररायुषः । ७ । ३ । १०० ।।
धनादेः पत्युः । ६ । १ । १४ ॥ द्विर्धमजेधौ वा । ७ । २ । १०७ ।। धनुर्दण्डत्सरु-हः। ५ । १ । ६२ ।। द्वित्रर्मों वा । ७ । ३ । १२७ ।। धनुषो धन्वन् । ७ । ३ । १५८ ॥ द्वित्र्यष्टानां-हौ । ३ । २ । ६२ ।। धर्मशील-त् । ७ । २ । ६५ ।। द्वित्र्यादेर्याण् वा । ६ । ४ । १४७ ।। धर्माधर्माच्चरति । ६ । ४ । ४६ ।। द्वित्वे गोयुगः । ७ । १ । १३४ ॥ धर्मार्थादिषु द्वन्द्व । ३ । १ । १५६ ।। द्वित्वेऽधोऽध्युपरिभिः । २ । २ । ३४ ।। धवाद्योगा-त् । २ । ४ । ५६ ।। द्वित्वेऽप्यन्ते-वा । २ । ३ । ८१॥ धागः । ४ । ४ । १५ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशन्दानुशासने
धागस्तथोश्च । २ । १ । ७८ ।। धातोः कण्ड्वादेर्यक् । ३ । ४ । ८ ॥ धातोः पू-च । ३ । १ । १॥ धातोः सम्बन्धे प्रत्ययाः। ५ । ४ । ४१ ॥ धातोरनेकस्वरादाम्-न्तम् । ३ । ४ । ४६ ।। धातोरिवर्णो-ये । २ । १ । ५० ॥ धात्री। ५ । २ । ६१ ।। धान्येभ्य ईनञ् । ७ । १ । ७६ ।। धाय्यापाय्यसा-से । ५ । १ । २४ ॥ धारीङोऽकृच्छे तृश् । ५। २ । २५ ।। धारेर्धर् च । ५। १ । ११३ ॥ धुटस्तृतीयः । २ । १ । ७६ ।। धुटां प्राक् । १ । ४ । ६६ ।। धुटो धुटि-वा। १ । ३ । ४८ ॥ धुड्ह्रस्वा-थोः । ४ । ३ । ७० ॥ धुरोऽनक्षस्य । ७ । ३ । ७७ ।। धुरो यैयण । ७ । १ । ३ ।। धूगौदितः। ४ । ४ । ३८ ।। धूगप्रोगोनः । ४ । २ । १८ ।। धूगसुस्तोः परस्मै । ४ । ४ । ८५ ।। धूमादेः । ६ । ३ । ४६ ॥ धृषशसः प्रगल्भे । ४ । ४ । ६६ ।। धेनोरनञः । ६ । २ । १५ ॥ धेनोभव्यायाम् । ३ । २ । ११८ ।। न । २ । २ । १८ ॥ नं क्ये । १ । १ । २२ ।। नः शि ञ्च् । १ । ३ । १६ ।। न कचि । २ । ४ । १०५ ।। न कर्तरि । ३ । १ । ८२ ।।
न कर्मणा जिच् । ३ । ४ । ८८ ।। न कवतेर्यङः । ४ । १ । ४७ ।। न किमः क्षेपे । ७ । ३ । ७० ॥ नखमुखादनाम्नि । २ । ४ । ४० ।। नखादयः । ३ । २ । १२८ ॥ नख्यापूग्-श्च । २ । ३.। ६० ॥ नगरात कूत्सादाक्ष्ये । ६ । ३ । ४६ ।। नगरादगजे । ५ । १ । ८७ ।। न गरणाशूभरुचः । ३ । ४ । १३ ।। नगोप्राणिनि वा । ३ । २ । १२७ ।। नग्नपलित-कौ । ५। १ । १२८ ।। न जनवधः । ४ । ३ । ५४ ॥ नञ् । ३।१ । ५१ ॥ नञः क्षेत्रज्ञे-चेः । ७ । ४ । २३ ॥ नजत् । ३ । २ । १२५ ।। नत्रव्यया-ड: । ७ । ३ । १२३ ॥ .. न अस्वङ्गादेः । ७ । ४ । ६ ॥ नोऽनि: शापे । ५ । ३ । ११७ ॥ नोर्थात् । ७ । ३ । १७४ ।। नञ्तत्पुरुषात् । ७ । ३ । ७१ ।। नञ्तत्पुरु-देः । ७ । १ । ५७ ।। नबहो-णे । ७ । ३ । १३५ ।।। नसुदुर्व्यः । ७ । ३ । १३६ ।। नसुव्युप-रः । ७ । ३ । १३१ ।। नटान्नृत्ते ज्यः। ६ । ३ । १६५ ।। नडकुमुदवेतस-डित् । ६ । २ । ७४ ।। नडशादाद् वलः । ६ । २ । ७५ ।। नडादिभ्य आयनण । ६ । १ । ५३ ।। नडादेः कीयः । ६ । २ । ६२ ॥
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 79
न डोशी -दः । ४ । ३ । २७ ।। न गिङ्यसूद-क्षः । ५। २ । ४५ ॥ न तमबादि:-भ्यः । ७ । ३ । १३ ।। न तिकि दीर्घश्च । ४ । २ । ५६ ।। न दधिपयादिः । ३ । १ । १४५ ॥ न दिस्योः । ४ । ३ । ६१ ॥ नदीदेशपुरां-नाम् । ३ । १ । १४२ ।। नदीभिर्नाम्नि । ३ । १ । २७ ।। नद्यादेरेयण । ६ । ३ । २ ।। नद्यां मतुः । ६ । २ । ७२ ।। न द्वित्वे । ७ । २ । १४७ ।। न द्विरद्रुवय-त् । ६ । २ । ६१ ।। न द्विस्वरा-तात् । ६ । ३ । २६ ।। न नाङिदेत् । १ । ४ । २७ ॥ न नाम्नि । ७ । ३ । १७६ ।। न नाम्येक-ऽमः । ३ । २ । ६ ॥ न नपूजार्थध्वजचित्रे । ७ । १ । १०६ ।। ननौ पृष्टोक्तौ-त् । ५ । २ । १७ ॥ नन्द्यादिभ्योऽनः । ५। १ । ५२ ।। नन्वोर्वा । ५ । २ । १८ ।। नपुंसकस्य शिः । १ । ४ । ५५ ।। नपुंसकाद् वा । ७ । ३ । ८६ ।। न पंवन्निषेधे । ३ । २ । ७१ ।। न प्राग्जितीये स्वरे । ६ । १ । १३५ ।। न प्रादिरप्रत्ययः । ३ । ३ । ४ ॥ न बदनं संयोगादिः । ४ । १ । ५ ।। नमस्पुरसो-सः । २ । ३ । १ ।। नमोवरिवश्चित्रङो-र्ये । ३ । ४ । ३७ ।। न यि तद्धिते । २ । १ । ६५ ।। न राजन्य-के । २ । ४ । १४ ॥
न राजाचार्य-ष्णः । ७ । १ । ३६ ।। न रात् स्वरे । १ । ३ । ३७ ॥ नरिका मामिका । २ । ४ । ११२ ।। नरे । ३ । २ । ८० ।। न वञ्चेर्गतौ । ४ । १ । ११३ ॥ नवभ्यः -वा । १ । ४ । १६ ॥ न वमन्तसंयोगात् । २ । १ । १११ ॥ नवयज्ञादयोऽ-न्ते । ६ । ४ । ७३ ।। न वयो य । ४ । १ । ७३ ।। नवा क्वणयमहसस्वनः । ५। ३ । ४८ ॥ नवाऽखित्कृद-त्रेः । ३ । २ । ११७ ॥ नवा गुण:-रित् । ७ । ४ । ८६ ।। नवारणः । ६ । ४ । १४२ ।। नवादीन-स्य । ७ । २ । १६० ।। नवाद्यानि शतृ-पदम् । ३ । ३ । १६ ।। नवापः । २ । ४ । १०६ ॥ नवा परोक्षायाम् । ४ । ४ । ५ ।। नवा भावारम्भे । ४ । ४ । ७२ ।। नवा रोगातपे । ६ । ३ । ८२ ॥ नवा शोणादेः । २ । ४ । ३१ ॥ नवा सुजषैः काले । २ । २ । ६६ ।। नवा स्वरे । २ । ३ । १०२ ॥ न विंशत्यादि-न्तः । ३ । १ । ६६ ।। न वृद्धिश्चा-पे । ४ । ३ । ११ ॥ न वदभ्यः । ४ । ४ । ५५ ॥ नवैकस्वराणाम् । ३ । २ । ६६ ॥ नश: शः । २ । ३ । ७८ ॥ न शसदद-नः । ४ । १ । ३० ।। न शात् । १ । ३ । ६२ ।।
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80 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
न शिति । ४ । २ । २॥ नशेर्नेश् वाङि । ४ । ३ । १०२ ।। नशो धुटि । ४ । ४ । १०६ ।। नशो वा । २ । १ । ७० ॥ न श्विजागृशस्-तः । ४ । ३ । ४६ ॥ न संधिः । १ । ३ । ५२ ॥ न संधिङीय-कि । ७ । ४ । १११ । न सप्तमीन्द्वादिभ्यश्च । ३ । १ । १६५ ।। न सर्वादिः । १ । ४ । १२ ॥ नसस्य । २।३। ६५ ।। न सामिवचने । ७ । ३ । ५७ ॥ न स्तं-र्थे । १ । १ । २३ ।। नस् नासिका-द्रे । ३ । २ । ६६ ।। न स्सः । २ । ३ । ५६ ।। न हाको लुपि । ४ । १ । ४६ ॥ नहाहोर्धतौ। २।१।८५ ॥ नाडीघटोखरी-श्न । ५। १ । १२० ॥ नाडीतन्त्रीभ्य
। ३ । १८०॥ नाथः । २।२।१०॥ नानद्यतन-त्योः । ५। ४ । ५ ।। नानावधारणे । ७ । ४ । ७४ ॥ नान्यत् । २ । १ । २७ ।। नाप्रियादौ । ३ । २ । ५३ ॥ नाभेर्नभ्-शात् । ७ । १ । ३१ ।। नाभेर्नाम्नि । ७ । ३ । १३४ ॥ नामन्त्र्ये । २ । १ । ६२ ।। नाम नाम्नैकार्थ्य-लम् । ३ । १ । १८ ।। नामरूप-यः । ७ । २ । १५८ ॥ नाम सिद-ने । १ । १ । २१ ।।
नामिनः काशे । ३ । २ । ८७ ॥ नामिनस्तयोः षः । २ । ३ । ८ ॥ नामिनोऽकलिहलेः । ४ । ३ । ५१ ॥ नामिनो गणो-ति । ४ । ३ । १ ॥ नामिनोऽनिट् । ४ । ३ । ३३ ॥ नामिनो लुग्वा । १ ।'४ । ६१ ।। नाम्नः प्रथमै-हौ । २ । २ । ३१ ।। नाम्नः प्रा-र्वाग् । ७ । ३ । १२ ॥ नाम्ना ग्रहादिशः । ५ । ४ । ८३ ।। नाम्नि । २ । १ । ६५ ।। नाम्नि । २ । ४ । १२ ।। नाम्नि । ३ । १ । ६४ ॥ नाम्नि । ३ । २ । १६ ।। नाम्नि ।
३ । २ । ७५ ।। नाम्नि । ३ । २। १४४ ।। नाम्नि । ६ । ४ । १७२ ।। नाम्नि कः । ६ । २ । ५४ ॥ नाम्नि पंसि च । ५। ३ । १२१ ॥ नाम्नि मक्षिकादिभ्यः । ६ । ३ । १६३ ।। नाम्नि वा । १ । २ । १० ।। नाम्नि शरदोऽकञ् । ६ । ३ । १०० ।। नाम्नो गमः-हः । ५ । १ । १३१ ॥ नाम्नो द्विती-ष्टम् । ४ । १ । ७ ।। नाम्नो नोऽनह्नः । २ । १ । ६१ ।। नाम्नो वदः क्यप् च । ५ । १ । ३५ ।। नाम्न्युत्तरपदस्य च । ३ । २ । १०७ ।। नाम्न्युदकात् । ६ । ३ । १२५ ।। नाम्यन्तस्था-पि । २ । ३ । १५॥ नाम्यादेरेव ने । २ । ३ । ८६ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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[ 81
नाम्युपान्त्य-कः । ५ । १ । ५४ ।। नारी-सखी-श्रू । २ । ४ । ७६ ।। नावः । ७ । ३ । १०४ ।। नावादेरिकः । ७ । २ । ३ ।। नाशिष्यगोवत्सहले । ३ । २ । १४८ ।। नासत्वाश्लेषे । ३ । ४ । ५७ ॥ नासानति-टम् । ७ । १ । १२७ ॥ नासिकोदरौ-ठात् । २ । ४ । ३६ ।। नास्तिका-कम् । ६ । ४ । ६६ ।। निसनिक्ष-वा । २ । ३ । ८४ ।। निकटपाठस्य । ३ । १ । १४० ॥ निकटादिषु वसति । ६ । ४ । ७७ ।। निगवादेर्नाम्नि । ५ । १ । ६१ ।। निघोद्घसंघो-नम् । ५ । ३ । ३६ ।। निजां शित्येत् । ४ । १ । ५७ ।। नित्यदिद-स्वः। १ । ४ । ४३ ।। नित्यमन्वादेशे । २ । १ । ३१ ।। नित्यवैरस्य । ३ । १ । १४१ ॥ नित्यं अजिनोऽरण । ७ । ३ । ५८ ।। नित्यं णः पन्थश्च । ६ । ४ । ८६ ।। नित्यं प्रतिनाल्पे । ३। १ । ३७ ॥ नित्यं हस्ते--हे । ३ । १ । १५ ॥ नि दीर्घः । १ । ४। ८५ ॥ निनद्या:--ले । २ । ३ । २० ।। निन्दहिंस--रात् । ५ । २ । ६८ ॥ निन्द्यं कुत्सनै--द्यैः । ३ । १ । १०० ॥ निन्द्य पाशप् । ७ । ३ । ४ ।। निन्द्ये व्याप्या--यः । ५ । १ । १५६ ॥ निपुरणेन चार्चायाम् । २ । २ । १०३ ॥ निप्राधुजः शक्ये । ४ । १ । ११६ ।।
निप्रेभ्यो घ्नः । २ । २ । १५ ॥ निमील्यादिमेङ-के । ५ । ४ । ४६ ॥
: । ५। ४ । ६२ ॥ निय आम् । १ । ४ । ५१ ।। नियश्चानुपसर्गाद् वा । ५ । ३ । ६० ॥ नियुक्त दीयते । ६ । ४ । ७० ।। निरभेः पूल्वः । ५। ३ । २१ ॥ निरभ्यनोश्च--नि । २ । ३ । ५० ।। निर्गो देशे । ५। १ । १३३ ।। निर्दु:सुवे--तेः । २ । ३ । ५६ ।। निर्दुर्बहि--राम् । २ । ३ । ६ ॥ निर्दुःसो--म्नाम् । २ । ३ । ३१ ॥ निर्नेः स्फुरस्फुलोः । २ । ३ । ५३ ॥ निर्वाणमवाते । ४ । २ । ७६ ॥ निविण्णः । २ । ३ । ८६ ॥
:।६। ४ । २० ।। निर्वृत्ते । ६ । ४ । १०५॥ नि वा । १ । ४ । ८६ ।। निवासाच्चरणेऽरण । ६ । ३ । ६५ ।।
। ६ । २ । ६६ ॥ निविशः । ३।३ । २४ ॥ निविस्वन्ववात् । ४ । ४ । ८ ॥ . निशाप्रदोषात् । ६ । ३ । ८३ ॥ निषेधेऽलंखल्वोः क्त्वा । ५ । ४ । ४४ ॥ निष्कादे:--स्त्रात् । ७ । २ । ५७ ।। निष्कुलानि-रणे। ७ । २ । १३६ ॥ निष्कुषः । ४ । ४ । ३६ ॥ निष्प्रवाणिः । ७ । ३ । १८१ ॥ निष्फले तिला--जौ । ७ । २ । १५४ ॥ निष्प्रा--नस्य । २ । ३ । ६६ ॥
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82 1
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने
। ३५ ।।
निसस्तपेऽनासेवायाम् । २ । ३ निसश्व श्रेयसः । ७ । ३ । १२२ ।।
निसो गते । ६ । ३ ।
।
५ । २ । ८८ ।।
निह्नवे ज्ञः । ३ । ३ नी- दाव् शस् - स्त्रट् । नीलपीतादकम् । ६ । २ । ४ ।। नीलात् प्राण्यौषध्योः । २ । ४ । २७ ।। नुप्रच्छः । ३ । ३ । ५४ ।। नुर्जातेः । २ । ४ । ७२ ।। नुर्वा । १ । ४ । ४८ ॥ नृतेर्यङि । २ । ३ । ६५ ॥ नृत्स्वन्रञ्जः-ट् । ५ १ । ६५ ।। नृहेतुभ्यो वा । ६ । ३ । १५६ ।। नृ नः - वा । १ । ३ । १० ।। सिद्धस्थे । ३ । २ । २६ ।। नेमार्ध - वा । १ । ४ । १० ।। नेरिनपिट - स्य । ७ । १ । १२८ ।।
१८ ।।
६८ ।।
मादापत-ग्धौ । २ । ३ । ७६ ।। ध्रुवे । ६ । ३ । १७ ॥ नेर्नदगदपठ - रणः । ५ । ३ । २६ ।। नेर्बुः । ५ । ३ । ७४ ।। नैकस्वरस्य । ७ । ४ । ४४ ।।
क्रिये । २ । ३ । १२ ।। नोऽङ्गादेः । ७ । २ । २६ ।। नोतः । ३ । ४ । १६ ॥ नोsस्य तद्धिते । ७ । ४ । ६१ ।। नोपसर्गात् हा । २ । २ । २८ ।। नोपान्त्यवतः । २ । ४ । १३ ।। नोऽप्रशानो-रे । १ । ३ । ८ ।।
नोभयोर्हेतोः । २ । २ । ८६ ।। नो मट् । ७ । १ । १५६ ।। नोर्म्यादिभ्यः । २ । १ । ६६ ।। नो व्यञ्जनस्यान्तः । ४ । २ । ४५ ॥ नौद्विस्वरादिक: । ६ । ४ । १० ।। नौविषेण - ध्ये । ७ । १ । १२ ।। न् चोधसः । ७ । १ । ३२ ।। न्यग्रोधस्य -स्य । ७ । ४ । ७ ।। न्यङ्कद्ग-यः । ४ । १ । ११२ ।। न्यङ्कोर्वा । ७ । ४ । ८ ॥ न्यभ्युपवेर्वाश्वोत् । ५ । ३ । ४२ ।। न्यवाच्छापे । ५ । ३ । ५६ ।।
न्यादो नवा । ५ । ३ । २४ ।। न्यायादेरिकरण । ६ । २ । ११८ ।। न्यायार्थादनपेते । ७ । १ । १३ ।। न्यायावाया - रम् । ५ । ३ । १३४ ।।
न्युदो ग्रः । ५ । ३ । ७२ ।। न्स्महतोः । १ । ४ । ८६ ।। पक्षाच्चोपमादेः २ । ४ । ४३ ।। पक्षात्तिः । ७ । १ । ८६ ।। पक्षिमत्स्य-ति । ६ । ४ । ३१ ।। पचिदुहेः । ३ । ४ । ८७ ।। पञ्चको वर्गः । १ । १ । १२ ।। पञ्चतोऽन्यादे-दः । १ । ४ । ५८ ।। पञ्चद्दशद्वर्गे वा । ६ । ४ । १७५ ।। पञ्चमी - ग्रामहैव् । ३ । ३ । ८ ।। पञ्चमी - भयाद्यैः ः । ३ । १ । ७३ ।। पञ्चम्यपादाने । २ । २ । ६६ ।। पञ्चम्यर्थतौ । ५ । ३ । ११ ।।
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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पञ्चम्याः कृग् । ३ । ४ । ५२ ।। पञ्चम्या त्वरायाम् । ५ । ४ । ७७ ।। पञ्चम्या नि-स्य । ७ । ४ । १०४ ।। पञ्चसर्व-ये । ७ । १ । ४१ ।। परणपादमाषाद्यः । ६ । ४ । १४८ ।। पणेर्माने । ५। ३ । ३२ ॥ पतिराजान्त-च । ७ । १ । ६० ।। पतिवन्यन्त-ज्योः । २ । ४ । ५३ ॥ पत्तिरथौ गणकेन । ३ । १ । ७६ ॥ पत्युनः । २ । ४ । ४८ ।। पत्रपूर्वाद । ६ । ३ । १७७ ।। पथ इकट् । ६ । ४ । ८८ ।। पथः पन्थ च । ६ । ३ । १०३ ।। पथिन्मथिन्-सौ । १ । ४ । ७६ ॥ पथोऽकः । ६ । ३ । ६६ ॥ पथ्यतिथि-यण । ७ । १ । १६ ॥ पदः पादस्याज्या-ते । ३ । २ । ६५ ।। पदकल्पल-कात् । ६ । २ । ११६ ।। पदक्रमशिक्षा-कः । ६ । २ । १२६ ॥ पदरुजविश-घञ् । ५ । ३ । १६ ।। पदस्य । २ । १ । ८६ ।। पदस्यानिति वा । ७ । ४ । १२ ।। पदाधुग्-त्वे । २.१ । २१ ॥ पदान्तरगम्ये वा । ३ । ३ । ६६ ॥ पदान्ताट्ट-तेः। १।३। ६३ ॥ पदान्ते । २ । १ । ६४ ।। पदास्वैरिवा-हः । ५ । १ । ४४ ॥ पदिकः । ६ । ४ । १३ ।। पदेऽन्तरेऽना-ते । २ । ३ । ६३ ॥
पदोत्तरपदेभ्य इकः । ६ । २ । १२५ ।। पद्धतेः । २ । ४ । ३३ ।। पन्थ्यादेरायनण । ६ । २ । ८६ ।। पयोद्रोर्यः । ६ । २ । ३५ ।। परः । ७ । ४ । ११८ ।। परःशतादिः । ३ । १ । ७५ ।। . परजनराज्ञोऽकीयः । ६ । ३ । ३१ ।। परतः स्त्री पुंवत्-ङ्। ३ । २। ४६ ।। परदारादिभ्यो गच्छति । ६ । ४ । ३८ ।। परशव्याद्यलुक् च । ६ । २ । ४० ।। परश्वधाद्वारण । ६ । ४ । ६३ ।। परस्त्रियाः प-ये । ६ । १ । ४० ।। परस्परान्योन्येत-सि । ३ । २ । २ ।। परारिण कानान-दम् । ३ । ३ । २० ॥ परात्मभ्यां : । ३ । २ । १७ ॥ परानोः कृगः । ३ । ३ । १०१ ।। परावरात् स्तात् । ७ । २ । ११६ ।। परावराधमो-र्यः । ६ । ३ । ७३ ।। परावरे । ५। ४ । ४५ ।। परावेर्जेः । ३ । ३ । २८ ।। परिक्रयणे । २ । २ । ६७ ।। परिक्लेश्येन । ५ । ४ । ८० ।। परिखाऽस्य स्यात् । ७ । १ । ४८ ।। परिचाय्योप-ग्नौ । ५। १ । २५ ।। परिणामि-र्थे । ७ । १ । ४४ ।। परिदेवने । ५ । ३ । ६ ॥ परिनिवेः सेवः । २ । ३ । ४६ ।। परिपथात् । ६ । ४ । ३३ ॥ परिपन्थात्तिष्ठति च । ६ । ४ । ३२ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
परिमारणा-ल्यात् । २ । ४ । २३ ।। पर्वतात् । ६ । ३ । ६० ॥ परिमारणार्थ-चः । ५। १ । १०६ ।। पर्वा ड्वण् । ६ । २ । २० ।। . परिमुखादे-वात् । ६ । ३ । १३६ ।। पर्वादेरण् । ७ । ३ । ६६ ।। परिमुहायमा-ति । ३ । ३ । ६४ ॥ पर्षदो ण्यः । ६ । ४ । ४७ ।। परिव्यवात् क्रियः । ३ । ३ । २७ ।। पर्षदो ण्यरणौ । ७ । १ । १८ ॥ परेः । २ । ३ । ५२ ॥
पशुभ्यः -ष्ठः । ७ । १.। १३३ ।। परेः क्रमे । ५ । ३ । ७६ ।।
पशुव्यञ्जनानाम् । ३ । १ । १३२ ॥ परेः सृचरेर्यः । ५ । ३ । १०२ ।।
पश्चात्यनुपादात् । ६ । ४ । ४१ ।। परेघः । ५ । ३ । ४० ।।
पश्चादाद्यन्ता-मः । ६ । ३ । ७५ ।। परेर्घायोगे । २ । ३ । १०३ ।।
पश्चोऽपरस्य-ति । ७ । २ । १२४ ।। परेर्देविमुहश्च । ५। २ । ६५ ॥
पश्यद्वाग्दि-ण्डे । ३ । २ । ३२ ।। परे ते । ५ । ३ । ६३ ।।
पाककर्णपर्ण-त् । २ । ४ । ५५ ।। परेमुखपाश्र्वात् । ६ । ४ । २६ ।।
पाठे धात्वादेो नः । २ । ३ । ६७ ॥ परेम॒ पश्च । ३ । ३ । १०४ ॥
पाणिकरात् । ५ । १ । १२१ ।। परे वा । ५ । ४ । ८ ।।
पाणिग्रहीतीति । २ । ४ । ५२ ।। परोक्षा-महे । ३ । ३ । १२ ॥
पाणिघताडघौ-नि । ५ । १ । ८६ ।। परोक्षायां नवा । ४ । ४ । १८ ।। पाणिसमवाभ्यां सृजः । ५ । १ । १८ ।। परोक्षे । ५। २ । १२ ॥
पाण्टाहृति-रणश्च । ६ । १ । १०४ ॥ . परोपात् । ३ । ३ । ४६ ।।
पाण्डकम्बलादिन् । ६ । २ । १३२ ।। परोवरीण-रणम् । ७ । १ । ६६ । पाण्डोडर्य ण् । ६ । १ । ११६ ।। पर्णकुकरणात्-जात् । ६ । ३ । ६२ ।। पातेः । ४ । २ । १७ ।। पर्यादेरिकट । ६ । ४ । १२ ।।
पात्पादस्याह-देः । ७ । ३ । १४८ ।। पर्यधेर्वा । ५ । ३ । ११३ ।।
पात्राचिता-वा। ६ । ४ । १६३ ॥ पर्यनोमात् । ६ । ३ । १३८ ।।
पात्रात्तौ। ६ । ४ । १८० ।। पर्यपाङ्-म्या । ३ । १ । ३२ ।।
पात्रेसमि-यः । ३ । १ । ६१ ।। पर्यपात् स्खदः । ४ । २ । २७ ।।
पात्र्यशूद्रस्य । ३ । १ । १४३ ।। पर्यपाभ्यां वये । २ । २ । ७१ ।। पादाद्योः । २। १ । २८ ।। पर्यभेः सर्वोभये । ७ । २ । ८३ ॥
पाद्यार्थे । ७ । १ । २३ ।। पर्यायाहणोत्पत्तौ च णकः । ५। ३ । १२० ॥ पानस्य भावकरणे । २ । ३ । ६६ ।।
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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पापहीयमानेन । ७ । २ । ८६ ॥ पारावारं-च । ७ । १ । १०१॥ पारावारादीनः । ६ । ३ । ६ ॥ पारेमध्ये-वा।३।१ । ३० ।। पार्वादिभ्यः-ङः । ५। १ । १३५ ।। पाशाच्छासा-यः । ४ । २ । २० ॥ पाशादेश्च ल्यः । ६ । २ । २५ ॥ पिता मात्रा वा । ३ । १ । १२२ ।। पितुर्यो वा । ६ । ३ । १५१ ।। पितृमातुर्व्य-रि। ६ । २ । ६२ ॥ पित्तिथट-घात् । ७ । १ । १६० ॥ पित्रो महट । ६ । २। ६३ ।। पिबैतिदाभूस्थ:-ट् । ४ । ३ । ६६ ।। पिष्टात् । ६ । २ । ५३ ॥ पीलासाल्वा-द्वा । ६ । १ । ६८ ।। पील्वादे:-के । ७ । १ । ८७ ।। पुनाम्नि घः । ५ । ३ । १३० ।। पुंवत् कर्मधारये । ३ । २ । ५७ ।। पुंसः । २ । ३ । ३ ॥ पुंसोः पुमन्स् । १ । ४ । ७३ ॥ पुंस्त्रियोः -स् । १ । १ । २६ ।। पुच्छात् । २ । ४ । ४१ ।। पुच्छादुत्परिव्यसने । ३ । ४ । ३६ ।। पुजनुषोऽनुजान्धे । ३ । २ । १३ ।। पुत्रस्यादि-शे । १ । ३ । ३८ ॥ पुत्राधेयौ । ६ । ४ । १५४ ।। पुत्रान्तात् । ६ । १ । १११ ।। पुत्रे । ३ । २ । ४० ॥ पुत्रे वा । ३ । २ । ३१ ॥
पुनरेकेषाम् । ४ । १ । १०॥ .. पुनर्भूपुत्र-ञ् । ६ । १ । ३६ ।। पुमनडु-त्वे । ७ । ३ । १७३ ।। पुमोऽशि-रः । १ । ३ । ६ ॥ पुरंदरभगंदरौ। ५ । १ । ११४ ।। पूराणे कल्पे । ६।३ । १८७ ॥ पुरायावतोवर्तमाना। ५ । ३ । ७ ॥ पुरुमगधकलिङ्ग-दए । ६ । १ । ११६ ।। पुरुषः स्त्रिया । ३ । १ । १२६ ।। पुरुषहृदयादसमासे । ७ । १ । ७० ॥ पुरुषात् कृत--यञ् । ६ । २ । २६ ॥ पुरुषाद्वा । २ । ४ । २५ ।। पुरुषायु-वम् । ७ । ३ । १२० ।। पुरुष वा । ३ । २ । १३५ ।। पुरोऽग्रतोऽग्ने सर्तेः । ५। १ । १४० ।। पुरोडाश--टौ । ६। ३ । १४६ ॥ पुरो नः । ६ । ३ । ८६ ।। पुरोऽस्तमव्ययम् । ३ । १ । ७ ।। पुव इत्रो दैवते । ५ । २ । ८५ ।। पुष्करादेर्देशे । ७ । २ । ७० ।। पुष्यार्थाद्भ पुनर्वसुः । ३ । १ । १२६ ।। पुस्पौ । ४ । ३ । ३ ।। पूगादमुख्य--द्रिः । ७ । ३ । ६० ।। पुक्लिशिभ्यो नवा । ४ । ४ । ४५ ।। पूयजः शानः । ५ । २ । २३ ।। पूजाचार्यक--यः । ३ । ३ । ३६ ।। पूजास्वतेः प्राक् टात् । ७ । ३ । ७२ ।। पूतक्रतुवृषा-च । २ । ४ । ६० ॥ पूदिव्यञ्चेर्ना-ने । ४ । २ । ७२ ।।
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86
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशन्दानुशासने
पूरणाद्ग्रन्थ-स्य । ७ । १ । १७६ ।। पैङ्गाक्षीपुत्रादेरीयः । ६ । २ । १०२ ।। पूरणाद्वयसि । ७ । २ । ६२ ।।
पैलादेः । ६ । १ । १४२ ॥ पूरणार्धादिक: । ६ । ४ । १५६ ।। पोटायुवति-ति । ३ । १ । १११ ॥ पूरणीभ्यस्तत्-प् । ७ । ३ । १३० ।। पौत्रादि वृद्धम् । ६ । १ । २ ॥ पूर्णमासोऽण । ७ । २ । ५५ ॥
प्यायः पी । ४ । १ । ११ ॥ पूर्णाद्वा । ७ । ३ । १६६ ।।
प्रकारे जातीयर् । ७ । २ । ७५ ॥ -कम् । ३ । १ । ६७ ।।
प्रकारे था । ७ । २ । १०२।। पूर्वपदस्था-गः । २ । ३ । ६४ ।।
प्रकृते मयट् । ७ । ३ । १॥ । वा । ७ । ३ । ४५ ।।
प्रकृष्टे तमप । ७ । ३ । ५ ।। पूर्वप्रथमा-ये । ७ । ४ । ७७ ।।
प्रघणप्रघाणौ गृहांशे । ५ । ३ । ३५ ।। पर्वमनेन-न । ७ । १ । १६७ ।।
प्रचये नवा-स्य । ५ । ४ । ४३ ।। पूर्वस्याऽस्वे स्वरे य्वोरियुव् । ४।१ । ३७ ।। प्रजाया अस् । ७ । ३ । १३७ ।। पूर्वाग्रेप्रथमे । ५। ४ । ४६ ।।
प्रज्ञादिभ्योऽग । ७ । २ । १६५ ।। पूर्वात् कर्तुः । ५ । १ । १४१ ।।
प्रज्ञापोद-लौ । ७ । २ । २२ ।। पूर्वापरप्र-रम् । ३ । १ । १०३ ।।
प्रज्ञाश्रद्धा-र्णः । ७ । २ । ३३ ।। पूर्वापराध-ना। ३ । १ । ५२ ।।
प्रणाय्यो नि-ते । ५। १ । २३ ।। पूर्वापरा-धुस् । ७ । २ । ६८ ।।
प्रतीजनादेरीनञ् । ७ । १ । २० ।। पूर्वावराध-षाम् । ७ । २ । ११५ ।। प्रतिज्ञायाम् । ३ । ३ । ६५ ॥ पूर्वाल-नट् । ६ । ३ । ८७ ।।
प्रतिना पञ्चम्याः । ७ । २ । ८७ ।। पूर्वाणा-कः । ६ । ३ । १०२ ।।
प्रतिपन्थादिकश्च । ६ । ४ । ३६ ॥ :-क्थनः । ७ । ३ । ११३ ॥
प्रतिपरोऽनो-वात् । ७ । ३ । ८७ ।। पृथग् नाना-च । २ । २ । ११३ ।।। प्रतिश्रवण-गे । ७ । ४ । ६४ ।। पृथिवीमध्यान्-स्य । ६ । ३ । ६४ ।। . प्रतेः । ४ । १ । १८ ।। पृथिवीसर्व-श्वाञ् । ६ । ४ । १५६ ।। प्रतेः स्नातस्य सूत्रे । २ । ३ । २१ ॥ पृथिव्या जाञ् । ६ । १ । १८ ।।
प्रतेरुरसः सप्तम्याः । ७ । ३ । ८४ ।। पृथमृदु-रः । ७ । ४ । ३६ ।।
प्रतेश्च वधे । ४ । ४ । ६४ ।। पृथ्वादेरिमन्वा । ७ । १ । ५८ ।।
प्रत्यनोर्गणा-रि । २ । २ । ५७ ।। पृषोदरादयः । ३ । २ । १५५ ।।
प्रत्यन्ववात् सामलोम्नः । ७ । ३ । ८२ ।। पृष्ठाद्यः । ६ । २ । २२ ।।
प्रत्यभ्यतेः क्षिपः । ३ । ३ । १०२ ॥ पृभृमाहाङामिः । ४ । १ । ५८ ।।
प्रत्ययः-दे: । ७ । ४ । ११५ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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प्रत्ययस्य । ७ । ४ । १०८ ।। प्रत्यये । २ । ३ । ६ ।। प्रत्यये च । १ । ३ । २ ।। प्रत्याङः श्रु-नि । २ । २ । ५६ ।। प्रथमाद-छः । १ । ३ । ४ ।। प्रथमोक्त प्राक् । ३ । १ । १४८ ।। प्रभवति । ६ । ३ । १५७ ।। प्रभूतादि-ति । ६ । ४ । ४३ ।। प्रभूत्यन्यार्थ-रैः । २ । २ । ७५ ।। प्रमारणसमासत्त्योः । ५ । ४ । ७६ ।। प्रमाणान्मात्रट । ७ । १ । १४० ।। प्रमाणीसंख्याड्डः । ७ । ३ । १२८ ॥ प्रयोक्तृव्यापारे णिग् । ३ । ४ । २० ॥ प्रयोजनम् । ६ । ४ । ११७ ॥ प्रलम्भे गृधिवञ्चेः । ३ । ३ । ८६ ॥ प्रवचनीयादयः । ५ । १ । ८ ।। प्रशस्यस्य श्रः । ७ । ४ । ३४ ।। प्रश्नाख्याने वेञ् । ५ । ३ । ११६ ।। प्रश्नार्चाविचा-रः । ७ । ४ । १०२ ॥ प्रश्ने च प्रतिपदम् । ७ । ४ । ६८ ॥ प्रष्ठोऽग्रगे । २ । ३ । ३२ ।। प्रसमः स्त्यः स्ती । ४ । १ । ६५ ॥ प्रसितोत्सु-द्धः । २।२ । ४६ ।। प्रस्तारसस्थान-ति । ६ । ४ । ७६ ।। प्रस्थपरवहान्त-त् । ६ । ३ । ४३ ॥ प्रस्यैषै--रग । १ । २ । १४ ।। प्रहरणम् । ६ । ४ । ६२ ।। प्रहरणात् । ३ । १ । १५४ ।। प्रहरणात् क्रीडायां रण: । ६ । २ । ११६ ॥ प्राक्कारस्य व्यञ्जने । ३ । २ । १६ ॥
प्राक्काले । ५ । ४ । ४७ ।। प्राक्त्वादगलादेः । ७।१ । ५६ ।। प्रागनित्यात् कप । ७ । ३ । २८ ।। प्रागिनात् । २ । १ । ४८ ।। प्राग्ग्रामाणाम् । ७ । ४ । १७ ॥ प्राग्जितादरण । ६ । १ । १३ ।। प्राग्देशे। ६ । १ । १० ।। प्राग्भरते-ञः । ६ । १ । १२६ ॥ प्राग्वत् । ३ । ३ । ७४ ।।। प्राग्वत:--स्नञ् । ६ । १ । २५ ।। प्राचां नगरस्य । ७ । ४ । २६ ।। प्राच्च यमयसः । ५ । २ | ५२॥ प्राच्येोऽतौल्वल्यादेः । ६ । १ । १४३ ।। प्राज्ज्ञश्च । ५। १ । ७६ ।। प्राणिजाति-दञ् । ७ । १ । ६६ ।।
म् । ३ । १ । १३७ ।। प्राणिन उपमानात् । ७ । ३ । १११ ।। प्राणिनि भूते । ६ । ४ । ११२ ।। प्राणिस्थादस्वा-त् ।। ७ । २ । ६० ।। प्राण्यङ्गरथखल-द्यः । ७ । १ । ३७ ।। प्राण्यङ्गादातो लः । ७ । २ । २० ।। प्राण्यौषधिवृ-च । ६ । २ । ३१ ॥ प्रात्तश्च मो वा । ४ । १ । ६६ ॥ प्रात्तुम्पतेर्गवि । ४ । ४ । ६७ ।। प्रात्पुराण नश्च । ७ । २ । १६१ ।। प्रात्यवपरि-न्तैः । ३ । १ । ४७ ॥ प्रात्सूजोरिन् । ५। २ । ७१ ।। प्रात् स्त्र द्रुस्तो: । ५ । ३ । ६७ ।। प्रादुरुपसर्गा-स्तेः । २ । ३ । ५८ ।। प्रादागस्त प्रा--क्त ।४।४ । ७।।
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88
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
प्रादश्मितुलासूत्रे। ५ । ३ । ५१ ॥ फलस्य जातौ । ३ । १ । १३५ ।। प्राद्वहः । ३ । ३ । १०३ ॥
फले । ६ । २ । ५८ ॥ प्राद्वाहणस्यैये । ७ । ४ । २१ ।।
फल्गुनीप्रो--भे । २ । २ । १२३ ॥ प्राध्वं बन्धे । ३ । १ । १६ ॥
फल्गुन्याष्टः । ६ । ३ । १०६ ।। प्राप्तापन्नौ-च्च । ३ । १ । ६३ ।।
फेनोष्मबाष्प-ने। ३ । ४ । ३३ ।। प्रायोऽतो य-त्रट । ७ । २ । १५५ ॥ बन्धे घञि नवा । ३ । २। २३ ॥ प्रायोऽन्नम-म्नि । ७ । १ । १६४ ॥ बन्धेर्नाम्नि । ५ । ४ । ६७ ।। प्रायो बहुस्वरादिकण । ६ । ३ । १४३ ॥ बन्धौ बहुव्रीहौ । २ । ४ । ८४ ॥ प्रायोऽव्ययस्य । ७ । ४ । ६५ ।।
बलवातदन्त--लः । ७ । २ । १६ ॥ प्राल्लिप्सायाम् । ५ । ३ । ५७ ।।
बलवातादूलः । ७ । १ । ६१ ।। प्रावृष इकः । ६ । ३ । ६६ ॥
बलादेर्यः ६ । २ । ८६ ॥ प्रावृष एण्यः । ६ । ३ । ६२ ॥
बलिस्थूले दृढः । ४ । ४ । ६६ ।। प्रियः । ३ । १ । १५७ ।।
बष्कयादसमासे । ६ । १ । २० ।। द्वदः । ५। १ । १०७ ।।
बहिषष्टीकण च । ६ । १ । १६ ।। प्रियसुखं-छ। ७ । ४ । ८७ ।।
बहुग--दे । १ । १ । ४० ।। प्रियसुखादा--ल्ये । ७ । २ । १४० ।। बहुलं लुप् । ३ । ४ । १४ ।। प्रियस्थिर--न्दम् । ७ । ४ । ३८ ॥ बहुलम् । ५। १ । २ ।। प्रसृल्वोऽकः साधौ । ५। १ । ६६ ॥ बहुलमन्येभ्यः । ६ । ३ । १०६ ।। प्रेक्षादेरिन् । ६ । २ । ८० ।।
बहुलानुराधा--लुप्। ६ । ३ । १०७ ।। प्रैषानुज्ञावसरे--म्यौ । ५ । ४ । २६ ।। बहुविध्वरु--दः । ५। १ । १२४ ।। प्रोक्तात् । ६ । २। १२६ ।।।
बहुविषयेभ्यः । ६ । ३ । ४५ ।। प्रोपादारम्भे । ३ । ३ । ५१ ।।
बहुव्रीहे:--ट: । ७ । ३ । १२५ ।। प्रोपोत्सं--णे । ७ । ४ । ७८ ॥
बहुष्वस्त्रियाम् । ६ । १ । १२४ ।। प्रोष्ठभद्राज्जाते । ७ । ४ । १३ ।।
बहुष्वेरी: । २ । १ । ४६ ।। प्लक्षादेरण । ६ । २ । ५६ ।।
बहुस्वरपूर्वादिकः । ६ । ४ । ६८ ।। प्लुताद्वा । १ । ३ । २६ ।।
बहूनां प्रश्ने--वा । ७ । ३ । ५४ ।। प्लुतोऽनितौ । १ । २ । ३२ ।।
बहो। ७ । ३ । ७३ ।। प्लुप्चादा--देः । ७ । ४ । ८१ ॥
बहोरीष्ठे भूय । ७ । ४ । ४० ।। प्वादेह स्वः । ४ । २ । १०५ ।।
बहोर्धासन्ने । ७ । २ । ११२ ।। फलबर्हाच्चेनः । ७ । २ । १३ ।। बह्वल्पार्था--प्शस् । ७ । २ । १५० ।।
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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89
भवत
बाढान्तिक--दौ । ७ । ४ । ३७ ॥ बाहूर्वादेर्बलात् । ७ । २ । ६६ ॥ बाह्वन्तक-म्नि । २ । ४ । ७४ ।। बाह्वादिभ्यो गोत्रे । ६ । १ । ३२॥ बिडबिरी--च । ७ । १ । १२६ ॥ बिदादेर्वृद्ध । ६ । १ । ४१ ।। बिभेतेर्भीष् च । ३ । ३ । ६२ ॥ बिल्वकीयादेरीयस्य । २ । ४ । ६३ । ब्रह्मणः । ७ । ४ । ५७ ।। ब्रह्मणस्त्वः । ७ । १ । ७७ ।। ब्रह्मणो वदः । ५। १ । १५६ ।। ब्रह्मभ्र रणवृ-प् । ५ । १ । १६१ ।। ब्रह्महस्ति-सः । ७ । ३ । ८३ ।। ब्रह्मादिभ्यः । ५। १ । ८५॥ ब्राह्मणमाग-द्यः । ६ । २ । १६ ।। ब्राह्मणाच्छंसी । ३।२। ११ ।। ब्राह्मणाद्वा । ६ । १ । ३५ ।। ब्राह्मणान्नाम्नि । ७।१ । १८४ ।। ब्रुवः । ५। १ । ५१ ॥ ब्रगः पञ्चानां-श्व । ४ । २ । ११८ ॥ ब्रूतः परादिः । ४ । ३ । ६३ ।। भक्ताण्ण: । ७ । १ । १७ ।। भक्तौदनाद्वारिणकट । ६ । ४ । ७२ ।। भक्षेहिंसायाम् । २ । २ । ६ ॥ भक्ष्यं हितमस्मै । ६ । ४ । ६६ ।। भजति । ६ । ३ । २०४ ।। भजो विरण । ५। १ । १४६ ।। भजिभासिमिदो घुरः । ५ । २ । ७४ ।। भजेऔं वा । ४ । २ । ४८ ।।
भद्रोष्णात् करणे । ३ । २ । ११६ ।। भर्गात् त्रैगर्ते । ६ । १ । ५१ ।। भर्तुः तुल्यस्वरम् । ३ । १ । १६२ ।। भर्तुः संध्यादेरण । ६ । ३ । ८६ ॥ भर्त्सने पर्यायेण । ७ । ४ । ६० ।। भवतेः सिज्लुपि । ४ । ३ । १२ ।। भवतोरिकरणीयसौ। ६ । ३ । ३० ॥
७ । २।६१ ॥ भविष्यन्ती । ५। ३ । ४ ।। भविष्यन्ती-हे । ३ । ३ । १५॥ भवे । ६।३। १२३ ॥ भव्यगेयजन्य-नवा । ५। १ । ७ ॥ भस्त्रादेरिकट । ६ । ४ । २४ ।। भागवित्तिता-वा । ६ । १ । १०५ ।। भागाद्येकौ । ६ । ४ । १६० ॥ भागिनि च--भिः । २ । २ । ३७ ।। भागेऽष्टमाञः । ७ । ३ । २४ ।। भाजगोण--शे । २ । ४ । ३० ।। भाण्डात् समाचितौ। ३ । ४ । ४० ॥ भादितो वा । २।३ । २७ ।। भान्नेतुः । ७ । ३ । १३३ ॥ भावकर्मणोः । ३ । ४ । ६८ ।। भावघो --रणः । ६ । २ । ११४ ।। भाववचनाः । ५। ३ । १५ ।। भावाकोंः । ५। ३ । १८ ।। भावादिमः । ६ । ४ । २१ ॥ भावे । ५ । ३ । १२२ ॥ भावे चाशि--खः । ५। १ । १३० ।। भावे त्वतल । ७ । १ । ५५ ।।
।। ३ । ४५ ॥
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90 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
भिक्षादेः । ६ । २ । १० ॥ भिक्षासेनादायात् । ५। १ । १३६ ॥ भित्तं शकलम् । ४ । २ । ८१ ॥ भिदादयः । ५। ३ । १०८ ॥ भियो नवा । ४ । २ । ६६ ॥ भियो रुरुकलुकम् । ५। २ । ७६ ॥ भिस ऐस् । १ । ४ । २ । भीमादयोऽपादाने । ५ । १ । १४ ।। भीरुष्ठानादयः । २ । ३ । ३३ ।। भीषिभूषि-भ्यः । ५ । ३ । १०६ । भीह्रीभृहोस्तिव्वत् । ३ । ४ । ५० ॥ भुजन्युज-गे । ४ । १ । १२० ॥ भूजिपत्या ने । ५। ३ । १२८ ॥ भुजो-भक्ष्ये। ४ । १ । ११७ ।। भुनजोऽत्राणे । ३ । ३ । ३७ ।। भुवो वः-न्योः । ४ । २ । ४३ ॥ भुवोऽवज्ञाने वा । ५। ३ । ६४ ॥ भूङः प्राप्तौ गिङ् । ३ । ४ । १६ ॥ भूजेः ष्णक। ५। २ । ३० ॥ भूतपूर्वे पचरट् । ७ । २ । ७८ ।। भूतवच्चाशंस्ये वा । ५। ४ । २॥ भूते । ५ । ४ । १० ॥ भूयःसंभूयो-च । ६ । १ । ३६ ।। भूलृक् चेवर्णस्य । ७ । ४ । ४१ ।। भूश्यदोऽल् । ५ । ३ । २३ ।।। भूषाक्रोधार्थ-नः । ५ । २ । ४२ ।। भूषादरक्षेपे-त् । ३ । १ । ४ ।। भूषार्थसन्-क्यौ । ३ । ४ । ६३ ।। भूस्वपोरदुतौ । ४ । १ । ७० ॥ भगो नाम्नि । ५। ३ । १८ ॥
भृगोऽसंज्ञायाम् । ५ । १ । ४५ ।। भृग्वङ्गिरस्कु-त्रेः । ६ । १ । १२८ ।। भज्जो भ । ४ । ४ । ६ ।। भृतिप्रत्य-कः । ७ । ४ । १४० ।। भृतौ कर्मणः । ५ । १ । १०४ ॥ भृवृजितृ.-म्नि । ५ । १ । ११२ ।। भृशाभीक्ष्ण्या -देः । ७ । ४ । ७३ ।। भृशाभीक्ष्ण्ये हि-दि । ५ । ४ । ४२ ।। भेषजादिभ्यष्टयण । ७।२ । १६४ ।। भोगवद्गौरिमतो म्नि । ३ । २ । ६५ ।। भोगोत्तर-नः । ७ । १ । ४० ॥ भोजसूतयोः-त्योः । २ । ४ । ८१ ॥ भौरिक्येषु-क्तम् । ६ । २ । ६८ ॥ भ्राजभासभाष-नवा । ४ । २। ३६ ।। भ्राज्यलंकृग-ष्ण : । ५ । २ । २८ ।। भ्रातुर्व्यः । ६ । १ । ८८ ॥ भ्रातुः स्तुतौ । ७ । ३ । १७६ ॥ भ्रातुष्पुत्र-यः । २ । ३ । १४ ।। भ्रातृपुत्राः स्वसृ-भिः । ३ । १ । १२१ ।। भ्राष्ट्राग्नेरिन्धे । ३ । २ । ११४ ।। भ्रासभ्लासभ्रम-र्वा । ३ । ४ । ७३ ।। भ्र वोऽच्च-ट्योः । २ । ४ । १०१ ॥ भ्र वो भ्र व् च । ६ । १ । ७६ ।। भ्र श्नोः । २ । १ । ५३ ।। भ्यादिभ्यो वा । ५ । ३ । ११५ ॥ भ्वादेर्दादेर्घः । २ । १ । ८३ ॥ भ्वादे मिनो-ने । २ । १ । ६३ ।। मड्डुकझर्भराद्वाण । ६ । ४ । ५८ ॥ मण्यादिभ्यः । ७ । २ । ४४ ।। मतमदस्य करणे । ७ । १ । १४ ।।
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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91
मत्स्य स्य यः । २ । ४ । ८७ ।।
मव्यविधिवि-न । ४ । १ । १०६ ॥ मथलपः । ५ । २ । ५३ ।।
मव्यस्याः । ४ । २ । ११३ ॥ मद्रभद्राद्वपने । ७। २ । १४४ ।।
मस्जेः सः । ४ । ४ । ११०॥ मद्रादञ् । ६ । ३ । २४ ।।।
महत:-डाः । ३ । २।६८ ।। मधुबभ्रोर्ब्राह्म-के । ६ । १ । ४३ ॥ महत्सर्वादिकरण । ७ । १ । ४२ ।। मध्य उत्क-रः । ६ । ३ । ७७ ॥
महाकुलाद्वानोनौ । ६ । १ । ६६ ।। मध्याद्दिनण्णेया मोन्तश्च । ६ । ३ । १२६ ।। महाराजप्रो-करण । ६ । २ । ११० ॥ मध्यान्ताद् गुरौ । ३ । २ । २१ ॥
महाराजादिकरण । ६ । ३ । २०५ ।। मध्यान्मः । ६ । ३ । ७६ ॥
महेन्द्राद्वा । ६ । २ । १०६ ।। मध्ये पदे नि-ने । ३ । १ । ११ ।। मांसस्यानड्-वा । ३ । २ । १४१ ।। मध्वादिभ्यो रः । ७ । २ । २६ ।।
माङयद्यतनी । ५। ४ । ३६ ।। मध्वादेः । ६ । २ । ७३ ।।
माणवः कुत्सायाम् । ६ । १ । ६५ ।। मनः । २ । ४ । १४ ।।
मातमातृमातृके वा । २ । ४ । ८५ ।। मनयवलपरे हे । १ । ३ । १५ ।।
मातरपितरं वा । ३ । २ । ४७ ।। मनसश्चाज्ञायिनि । ३ । २ । १५ ॥ मातुर्मातः-त्र्ये । १ । ४ । ४० ।। मनुर्नमो-ति । १ । १ । २४ ।।
मातुलाचार्यो-द्वा । २।४ । ६३ ॥ मनोरौ च वा । २ । ४ । ६१ ।।
मातृपितुः स्वसुः । २ । ३ । १८ ।। मनोर्याणौ षश्चान्तः । ६ । १ । ६४ ॥ मातृपित्रादेर्डेयणीयाणौ । ६ । १ । ६० ।। मन्तस्य युवा-योः । २ । १ । १० ।। मात्रट् । ७ । १ । १४५ ।। मन्थौदनसक्तु-वा । ३ । २ । १०६ ॥ माथोत्तरपद-ति । ६ । ४ । ४० ।। मन्दाल्पाच्च मेधायाः । ७ । ३ । १३८ ॥ मादुवर्णोऽनु । २ । १ । ४७ ॥ मन्माब्जादेम्नि । ७ । २ । ६७ ॥ मानम् । ६ । ४ । १६६ ॥ मन्यस्यानावा-ने । २ । २ । ६४ ॥ मानसंव-म्नि । ७ । ४ । १६ ।। मन्याण्णिन् । ५। १ । ११६ ॥
मानात् क्रीतवत् । ६ । २ । ४४ ।। मन्वन्क्वनि-चित् । ५ । १ । १४७ ।।। मानादसंशये लुप् । ७ । १ । १४३ ॥ मयूरव्यंसकेत्यादयः । ३ । १ । ११६ ॥ माने । ५। ३ । ८१ ।। मरुत्पर्वणस्तः । ७ । २ । १५॥
माने कश्च । ७ । ३ । २६ ।। मादिभ्यो यः । ७ । २ । १५६ ।। मारणतोषण-ज्ञश्च । ४ । २ । ३० ।। मलादीमसश्च । ७ । २। १४ ।।
मालायाः क्षेपे । ७ । २ । ६४ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
मालेषीके-ते । २ । ४ । १०२ ॥ मावन्तिो -वः । २ । १ । ६४ ।। माशब्द इत्यादिभ्यः । ६ । ४ । ४४ ।। मासनिशा-वा । २ । १ । १०० ॥ मासवर्णभ्रात्रनुपूर्वम् । ३ । १ । १६१ ।।। मासाद्वयसि यः । ६ । ४ । ११३ ॥ मिग्मीगोऽखलचलि । ४ । २ । ८ ।। मिथ्याकृगोऽभ्यासे । ३ । ३ । ६३ ।। मिद: श्ये । ४ । ३ । ५ ।।। मिमीमादामित्स्वरस्य । ४ । १ । २० ॥ मुचादितृफदफ-शे । ४ । ४ । ६६ ॥ मुरतोऽनुनासिकस्य । ४ । १ । ५१ ॥ मुहद्रुहष्णहष्णिहो वा । २ । १ । ८४ ।। मूर्तिनिचिताभ्रे घनः । ५ । ३ । ३७ ।। मूलविभुजादय: । ५ । १ । १४४ ।। मल्यैः क्रीते । ६। ४ । १५० ।।। मृगक्षीरादिषु वा । ३ । २ । ६२ ।। मृगयेच्छा यात्रा-र्द्धा । ५ । ३ । १०१ ।। मजोऽस्य वृद्धिः । ४ । ३ । ४२ ॥ मृदस्तिकः । ७ । २ । १७१ ।।
तान्तौ । ४ । ३ । २८ ॥ मेघर्तिभया-खः । ५ । १ । १०६ ।। मेङो वा मित् । ४ । ३ । ८८ ।। मेधारथान्नवेरः । ७ । २ । ४१ ।। मोऽकमियमिरमि-मः । ४ । ३ । ५५ ।। मो नो म्वोश्च । २ । १ । ६७ ॥ मोर्वा । २ । १ । ६ ॥ मोऽवर्णस्य । २ । १ । ४५ ॥ मौदादिभ्यः । ६ । ३ । १८२ ॥ म्नां धुड्-न्ते । १ । ३ । ३६ ।।
म्रियतेरद्यत-च । ३ । ३ । ४२ ।। य एच्चातः । ५। १ । २८ ।। यः । ६ । ३ । १७६ ।। यः । ७ । १ । १ ।। यः सप्तम्याः । ४ । २ । १२२ ॥ यतुरुस्तोर्बहुलम् । ४ । ३ । ६४ ।। यजसृज-षः । २ । १ । ८७ ।।। यजादिवचेः किति । ४ । १ । ७६ ।। यजादिवश् य्वत् । ४ । १ । ७२ ॥ . यजिजपिदंशि-कः । ५ । २ । ४७ ॥ यजिस्वपिरक्षि-नः । ५ । ३ । ८५ ।। यजेर्यज्ञाङ्ग । ४ । १ । ११४ ॥ यज्ञादियः । ६ । ४ । १७६ ।। यज्ञानां दक्षिणायाम् । ६ । ४ । ६६ ।। यज्ञे ग्रहः । ५ । ३ । ६५ ।। यज्ञे ञ्यः । ६ । ३ । १३४ ।। याओऽश्याः --देः । ६ । १ । १२६ ।। यञिञः । ६ । १ । ५४ ॥ यो डायन् च वा । २ । ४ । ६७ ।। । यतः प्रतिनि--ना । २ । २ । ७२ ।। यत्कर्मस्पर्शात्--तः । ५ । ३ । १२५ ।। यत्तकिमः- । ७ । १ । १५ ॥ यत्तत्किमन्यात् । ७ । ३ । ५३ ॥ यत्तदेतदो डावादिः । ७ । १ । १४६ ॥ यथाकथाचाण्णः । ६ । ४ । १०० ॥ यथाकामा--नि । ७ । १ । १०० ।। यथातथादीर्घोत्तरे । ५ । ४ । ५१ ।। यथाऽथा । ३ । १ । ४१ ।। यथामुख-स्मिन् । ७ । १ । ६३ ।। यद्भावो भावलक्षणम् । २ । २ । १०६ ।।
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५८ ॥
यद्भदैस्तद्वदाख्या । २ । २ । ४६ ।। यद्वीक्ष्ये राधीक्षी । २ । २ । यपि । ४ । २ । ५६ ।। यपि चादो जग्ध् । ४ । ४ । १६ ।।
अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
बक्ङिति । ४ । २ । ७ ।। यमः सूचने । ४ । ३ । ३६ ।। यमः स्वीकारे । ३ । ३ । ५६ ।। यममदगदोऽनुपसर्गात् । ५ । १ । ३० ।। मिरमिनमिगमि--ति । ४ । २ । ५५ ।। मिरमिनम्याव । ४ । ४ । ८६ ।। यमोऽपरिवे- च । ४ । २ । २६ ।। यरलवा अन्तस्था: । १ । १ । १५ ।। यवयवक - - द्यः । ७ । १ । ८१ ।। यवयवनार--त्वे । २ । ४ । ६५ ।। यश्वोरसः । ६ । ३ २१२ ॥ यस्कादेर्गोत्रे । ६ । १ । १२५ ।। यस्वरे पाटि । २ । १ । १०२ ।। याचितापमित्यात् करण । ६ । ४ । २२ ॥ याजकादिभिः । ३ । १ । ७८ ।। याज्ञिकौक्थिक--कम् । ६ । २ । १२२ । याज्या दानच । ५ । १ । २६ ।। याम्सोरियमियुसौ । ४ । २ । १२३ ।। यायावरः । ५ । २ । ८२ ।। यावतोविन्दजीवः । '५ । ४ । ५५ ।।
ܢ
यापादयत्त्वे । ३ । १ । ३१ ।। यापादिभ्यः कः । ७ । ३ । १५ ।।
यिः सन्वेर्ण्यः । ४ । १ । ११ ।। यि लुक् । ४ । २ । १०२ ।। युजञ्चक्रुञ्चो नो ङः । २ । १ । ७१ ।। युजभुजभज--नः । ५ । २ । ५० ।।
93
युजादेर्नवा । ३ । ४ । १८ ।। युन्रोऽसमासे १ । ४ । ७१ ।। द्रुद्रोः । ५ । ३ । ५६ ।। युपूद्रोर्घञ । ५ । ३ । ५४ ।। युवर्णवृदृवश--हः । ५ । ३ । २८ ।। युववृद्धं कुत्सार्चे वा । ६ । १ । ५ ।। युवा खलति--नैः । ३ । १ ११३ ।। युवादेरण । ७ । १ । ६७ ।। युष्मदस्मदोः । २ । १ । ६ ।। युष्मदस्मदो -दे: । ७ । ३ । ३० ।। यूनस्ति: । २ । ४ । ७७ ।। यूनि लुप् । ६ । १ । १३७ ।। यूनो के । ७ । ४ । ५० ।। यूयं वयं जसा । २ । १ । १३ ।। ये नवा । ४ । २ । ६२ ।।
ये चलुक् च । ७ । १ । १६४ ।। येऽवर्णे । ३ । २ । १०० ।। यैयकजावसमासे वा । ६ । १ । ६७ ।। योगकर्मभ्यां योक । ६ । ४ । ६५ ।। योग्यतावीप्सा - श्ये । ३ । १ । ४० ।। योद्धृप्रयोजनाद् युद्धे । ६ । २ । ११३ ।। astrस्वरस्य । २ । १ । ५६ ।। योपान्त्या--कञ् । ७ । १ । ७२ ।। योऽशिति । ४ । । ५० ।। यौधेयादेरन् । ७ । ३ । ६५ ।। व्यक्ये । १ । २ । २५ ।।
य्वः पदान्तात् -- दौत् । ७ । ४ । ५ ।। य्वृत् सकृत् । ४ । १ । १०२ ।। य्वृवर्णाल्लघ्वादेः । ७ । १ । ६६ ।। य्वोः प्वय्व्यञ्जने लुक् । ४ । ४ । १२१ ।।
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94 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
रः कखप-पौ। १ । ३ । ५।। रः पदान्ते-योः । १ । ३ । ५३ ।। रक्तानित्यवर्णयोः । ७ । ३ । १८ ।। रक्षदुञ्छतोः । ६ । ४ । ३० ।। रङ्कोः प्राणिनि वा । ६ । ३। १५ ।। रजःफलेमलाद् ग्रहः । ५ । १।६८ ॥ रथवदे । ३ । २ । १३१ ।। रथात्सादेश्च वोढ़ङ्ग । ६ । ३ । १७५ ।। रदादमूर्छम-च । ४ । २ । ६६ ।। रध इटि तु-व । ४ । ४ । १०१ ॥ रभलभशक-मिः । ४ । १ । २१ ॥ रभोऽपरोक्षाशवि । ४ । ४ । १०२ ॥ रम्यादिभ्यः-रि । ५। ३ । १२६ ।। रषवर्णान्नो-रे । २ । ३ । ६३ ।। रहस्यमर्या-गे । ७ । ४ । ८३ ।। रागाट्टो रक्त । ६ । २ । १ ।। राजघः । ५ । १ । ८८ ।। राजदन्तादिषु । ३ । १ । १४६ ।। राजन्यादिभ्योऽकञ् । ६ । २ । ६६ ।। राजन्वान् सुराज्ञि । २ । १ । १८ ॥ राजन्-सखेः । ७ । ३ । १०६ ।। रात्रौ वसो-द्य । ५। २ । ६ ।। रात्र्यहःसं-र्वा । ६ । ४ । ११० ।। रात्सः । २ । १ । ६० ।। रादेफः । ७ । २ । १५७ ।। राधेर्वध । ४ । १ । २२ ॥ राल्लुक् । ४ । १ । ११० ॥ राष्ट्रक्षत्रियात्-रज । ६ । १ । ११४ ॥ राष्ट्राख्याद् ब्रह्मणः । ७ । ३ । १०७ ।। राष्ट्रादियः । ६ । ३ । ३ ॥
राष्ट्रऽनङ्गादिभ्यः । ६ । २ । ६५ ।। राष्ट्रभ्यः । ६ । ३ । ४४ ।। रिः शक्याशीय । ४ । ३ । ११० ।। रिति । ३ । २ । ५८ ।। रिरिष्टात्-ता । २ । २ । ८२ ॥ रिरौ च लुपि । ४ । १ । ५६ ।। रुचिकृप्य-षु । २ । २ । ५५ ।। रुच्याव्यथ्यवास्तव्यम् । ५ । १ । ६ ।। रुजार्थस्या-रि । २ । २ । १३ ।। . रुत्पञ्चकाच्छिदयः । ४ । ४ । ८८ ।। रुदविदमुष-च । ४ । ३ । ३२ ॥ रुधः । ३ । ४ । ८६ ।। रुधां स्वराच्छ्नो -च । ३ । ४ । ८२ ।। रुहः पः । ४ । २ । १४ ।। रूढावन्तःपुरादिकः । ६ । ३ । १४० ।। रूपात् प्रशस्ताहतात् । ७ । २ । ५४ ।। रूप्योत्तरपदारण्याण्णः । ६ । ३ । २२ ॥ रेवतरोहिणाद् भे । २ । ४ । २६ ।। रेवत्यादेरिकण । ६ । १ । ८६ ॥ रैवतिकादेरीयः । ६ । ३ । १७० ॥ रोः काम्ये । २ । ३ । ७ ॥ रोगात् प्रतीकारे । ७ । २ । ८२ ॥ रोपान्त्यात् । ६ । ३ । ४२ ।। रोमन्थाद् व्याप्या-णे । ३ । ४ । ३२ ।। रोरुपसर्गात् । ५। ३ । २२ ।। रो रे लुग्-तः । १ । ३ । ४१ ।। रोर्यः । १ । ३ । २६ ॥ रो लुप्यरि । २ । १ । ७५ ॥ रोऽश्मादेः । ६ । २ । ७६ ।। नम्यिन्तात्-ढः । २ । १ । ८० ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रर्माणका
[ 95
लॊ वा । १ । ४ । ६७ ॥ दिर्हस्व-वा। १ । ३ । ३१॥ लक्षणवीप्स्ये-ना।२।२ । ३६ ।। लक्षणेनाभि-ख्ये । ३ । १ । ३३ ।। लक्ष्म्या अनः । ७ । २ । ३२ ।। लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः । ४ । १ । ६४ ।। लघोरुपान्त्यस्य । ४ । ३ । ४ ।। लघोर्यपि । ४ । ३ । ८६ ॥ लघ्वक्षरास-कम् । ३ । १ । १६० ॥ लङ्गिकम्प्यो -त्योः । ४ । २ । ४७ ।। लभः । ४ । ४ । १०३ ।। ललाटवात-कः । ५ । १ । १२५ ।। लवणादः । ६ । ४ । ६ ।। लषपतपदः । ५ । २ । ४१ ।। लाक्षारोचनादिकरण । ६ । २ । २ ।। लिप्स्यसिद्धौ। ५। ३ । १० ॥ लिम्पविन्दः । ५। १ । ६० ।। लियो नोऽन्तः-वे । ४ । २ । १५ ।। लि लौ । १ । ३ । ६५ ।। लिहादिभ्यः । ५ । १ । ५० ॥ लीलिनो-पि । ३ । ३ । ६० ।। लीलिनोर्वा । ४ । २ । ६ ॥ लुक् । १ । ३ । १३ ।। लुक्चाजिनान्तात् । ७ । ३ । ३६ ॥ . लुक्युत्तरपदस्य कप् न । ७ । ३ । ३८ ।।। लुगस्यादेत्यपदे । २ । १ । ११३ ।। लुगातोऽनापः । २ । १ । १०७ ।। लुप्यय्वृल्लेनत् । ७ । ४ । ११२ ।। लुबञ्चेः । ७ । २ । १२३ ।। लुब्बहुलं पुष्पमूले । ६ । २ । ५७ ॥
लुब्वाध्यायानुवाके । ७ । २ । ७२ ।। लुभ्यञ्चेविमोहाः । ४ । ४ । ४४ ।। लूधूसू--र्तेः । ५। २ । ८७ ।। लूनवियातात् पशौ । ७ । ३ । २१ ॥ लोकपृणम--त्नम् । ३ । २ । ११३ ॥ लोकज्ञाते-र्ये । ७ । ४ । ८४ ॥ लोकसर्व--ते । ६ । ४ । १५७ ।। लोकात् । १ । १ । ३ ।। लोमपिच्छादेः शेलम् । ७ । २ । २८ ।। लोम्नोऽपत्येषु । ६ । १ । २३ ॥ लो लः । ४ । २ । १६ ॥ लोहितादिश-त् । २ । ४ । ६८ ।। लोहितान्मणौ । ७ । ३ । १७ ।। वंशादेर्भा--त्सु । ६ । ४ । १६६ ॥ वंश्यज्यायो-वा। ६ । १ । ३ ।। वंश्येन पूर्वार्थे । ३ । १ । २६ ।। वचोऽशब्दनाम्नि । ४ । १ । ११६ ।। वञ्चस्र सध्वंस-नीः । ४ । १ । ५० ॥ वटकादिन् । ७ । १ । १६६ ॥ वतण्डात् । ६ । १ । ४५ ॥ वत्तस्याम् । १ । १ । ३४ ॥ वत्सशालाद् वा । ६ । ३ । १११ ॥ वत्सोक्षाश्व--पित् । ७ । ३ । ५१ ।। वदब्रजलः । ४ । ३ । ४८ ।। वदोऽपात् । ३ । ३ । ६७ ।। वन्यापञ्चमस्य । ४ । २ । ६५ ॥ वमि वा । २ । ३ । ८३ ॥ वम्यविति वा । ४ । २ । ८७ ।। वयःशक्तिशीले । ५। २ । २४ ।। वयसि दन्त-तृ । ७ । ३ । १५१ ।।
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96 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
वयस्यनन्त्ये । २ । ४ । २१ ।। वराहादेः कण् । ६ । २ । ६५॥ वरुणेन्द्र--न्तः । २ । ४ । ६२ ।। वर्गान्तात् । ६ । ३ । १२८ ।। वर्चस्कादिष्व--यः । ३ । २ । ४८ ॥ वर्णदृढा--वा । ७ । १ । ५६ ॥ वर्णाद्--णि । ७ । २ । ६६ ।। वर्णावकञ् । ६ । ३ । २१ ॥ वर्णाव्ययात्--रः । ७ । २ । १५६ ।। वर्तमाना--महे । ३ । ३ । ६ ॥ वर्तेर्वत्तं ग्रन्थे । ४ । ४ । ६५ ।। . वय॑ति गम्यादिः । ५ । ३ । १ ।। वय॑ति-ले । ५ । ४ । २५ ।। वर्मणोऽचक्रात् । ६ । १ । ३३ ॥ वर्योपसर्या-ये। ५ । १ । ३२ ॥ वर्षक्षर--जे । ३ । २ । २६ ॥ वर्षविघ्नेऽर्वाद् ग्रहः । ५। ३ । ५० ॥ वर्षाकालेभ्यः । ६ । ३ । ८०॥ वर्षादयः क्लीबे । ५ । ३ । २६ ।। वर्षादश्च वा । ६ । ४ । १११ ॥ वलच्यपित्रादेः । ३ । २ । ८२ ।। वलिवटि--भः । ७ । २ । १६ ।। वशेरयङि । ४ । १ । ८३ ।। वसातेर्वा । ६ । २ । ६७ ।। वसनात् । ६ । ४ । १३८ ॥ वसुराटोः । ३ । २ । ८१ ॥ वस्तेरेयञ् । ७ । १ । ११२ ।। वस्नात् । ६ । ४ । १७ ।। वहति रथयु--त् । ७ । १ । २ ॥ वहाभ्राल्लिहः । ५ । १ । १२३ ॥
वहीनरस्यैत् । ७ । ४ । ४ ।। वहेः प्रवेयः । २ । २ । ७ ॥ वहेस्तुरिश्चादिः । ६ । ३ । १८० ॥ वह्य करणे। ५। १ । ३४ ॥ वह ल्यूपिदि--नण् । ६ । ३ । १४ ।। वाः शेषे । १ । ४ । ८२ ।। वाऽकर्मणा --णौ । २ । २।४।। वाकाङ्क्षायाम् । ५। २ । १० ।। वाक्यस्य परिर्वर्जने । ७ । ४ । ८८ ॥ वाक्रोशदैन्ये । ४ । २ । ७५ ।। वा क्लीबे । २ । २ । ६२ ।। वाक्षः । ३ । ४ । ७६ ॥ . वागन्तौ । ७ । ३ । १४५ ।। वाग्रान्त--रात् । ७ । ३ । १५४ ।। वाच आलाटौ । ७ । २ । २४ ॥ वाच इकरण । ७ । २ । १६८ ॥ वाचंयमो व्रते । ५। १ । ११५ ।। वाचस्पति--सम् । ३ । २ । ३६ ।।। वा जाते द्विः । ६ । २ । १३७ ।। वा ज्वलादि--रणः । ५। १ । ६२ ।। वाञ्जलेरलुकः । ७ । ३ । १०१ ॥ वाऽटाटयात् । ५ । ३ । १०३ ।। वाडवेयो वृषे । ६ । १ । ८५ ।। वारण माषात् । ७ । १ । ८२ ।। वातपित्त--ने । ६ । ४ । १५२ ।। वातातीसार--न्तः । ७ । २ । ६१ ।। वा तृतीयायाः । ३ । २ । ३ ।। वातोरिकः । ६ । ४ । १३२ ।। वात्मने । ३ । ४ । ६३ ।। वात्यसंधिः । १ । २ । ३१ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[
97
वा दक्षिणात्-प्राः । ७ । २ । ११६ ।। वादेश्च रणकः । ५ । २ । ६७ ।। वाद्यतनीक्रिया-र्गीङ् । ४ । ४ । २८ ॥ वाद्यतनी पुरादौ । ५। २ । १५ ॥ वाद्यात् । ६ । १ । ११ ।। वाद्रौ । २ । १ । ४६ ॥ . वा द्विषातोऽनः पुस् । ४ । २ । ६१ ॥ वाऽऽधारेऽमावास्या । ५। १ । २१ ॥ वा नाम्नि । १ । २ । २० ॥ वा नाम्नि । ७ । ३ । १५६ ॥ वान्तिके । ३ । १ । १४७ ॥ वान्तमान्ति-षद् । ७ । ४ । ३१ ।। वान्यतः पुमान्-रे । १ । ४ । ६२ ।। वान्येन । ६ । १ । १३३ ।। वापगुरो गमि । ४ । २ । ५ ।। वा परोक्षायङि । ४ । १ । ६० ।। वा पादः । २ । ४ । ६ ॥ वाप्नोः । ४ । ३ । ८७ ।। वा बहुव्रीहेः । २ । ४ । ५ ॥ वाभिनिविशः । २ । २ । २२ ॥ वाऽभ्यवाभ्याम् । ४ । १ । ६६ ।। वामः । ४ । २ । ५७ ॥ वामदेवाद्यः । ६ । २ । १३५ ॥ वामाद्यादेरीनः । ७ । १ । ४ ॥ वाम्शसि । २ । १ । ५५ ।। वायणायनिजोः । ६ । १ । १३८ । वा युष्मद-कम् । ६ । ३ । ६७ ॥ वायवृतुपित्रुष सो यः । ६ । २ । १०६ ।। वारे कृत्वस् । ७ । २ । १०६ ॥ वार्धाच्च । ७ । ३ । १०३ ।।
वा लिप्सायाम् । ३ । ३ । ६१ ॥ वाल्पे । ७ । ३ । १४६ ॥ वावाप्यो-पी। ३ । २ । १५६ ।। वा वेत्तेः क्वसुः । ५। २ । २२ ॥ वा वेष्टचेष्ट: । ४ । १। ६६ ॥ वाशिन प्रायनौ । ७ । ४ । ४६ ॥ वाश्मनो विकारे । ७।४।६३ ॥
वाश्वादीयः । ६ । २ । १६ ।। . वाष्टन आः स्यादौ । १ । ४ । ५२ ॥ वासूदेवाजनादकः ।६।३ । २०७।। वा स्वीकृतौ । ४।३। ४० ॥ वाहनात् । ६ । ३ । १७८ ।। वाहर्पत्यादयः । १ । ३ । ५८ ।। वाहीकेषु ग्रामात् । ६ । ३ । ३६ ॥ वाहीकेष्वब्राह्म-भ्यः । ७ । ३ । ६३ ॥ वा हेतुसिद्धौ क्तः । ५ । ३ । २ ॥ वाह्यपथ्युपकरणे। ६ । ३ । १७६ ।। वाह्याद्वाहनस्य । २ । ३ । ७२ ॥ विंशतिकात् । ६ । ४ । १३६ ।। विंशते-ति । ७ । ४ । ६७ ।। विंशत्यादयः । ६ । ४ । १७३ ॥ विंशत्यादेर्वा तमट् । ७ । १ । १५६ ।। विकर्णकुषीत-पे । ६ । १ । ७५ ॥ विकर्णच्छगला-ये। ६ । १ । ६४ ।। विकारे । ६ । २ । ३० ॥ विकुशमिपरे:-स्य । २ । ३ । २८ ॥ विचारे पूर्वस्य । ७ । ४ । ६५ ॥ विचाले च । ७ । २ । १०५ ।। विच्छो नङ् । ५। ३ । ८६ ।। विजेरिट । ४ । ३ । १८ ।।
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98
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
वित्तं धनप्रतीतम् । ४ । २ । ८२ ।।
विष्वचो विषुश्च । ७ । २ । ३१ ।। विद्ग्भ्यः -रणम् । ५ । ४ । ५४ ।। विसारिणो मत्स्ये । ७ । ३ । ५६ ॥ विद्यायोनिसम्बन्धादकञ् । ६ । ३ । १५० ॥ वीप्सायाम् । ७ । ४ । ८० ॥ विधिनिमन्त्रणा-ने । ५ । ४ । २८ ॥ वीरुन्न्यग्रोधौ । ४ । १ । १२१ ॥ विध्यत्यनन्येन । ७ । १ । ८ ॥
वकाट्टेण्यण । ७ । ३ । ६४ ।। विनयादिभ्यः । ७ । २ । १६६ ॥
वगो वस्त्रे । ५ । ३ । ५२ ।। विना ते तृतीया च । २ । २ । ११५॥ वृजिमद्राद्देशात् कः । ६ । ३ । ३८ ॥ विनिमेयद्यूतपणं-होः । २ । २ । १६ ॥ वृत्तिसर्गतायने । ३ । ३ । ४८ ।। विन्द्विच्छू । ५ । २ । ३४ ।।
वृत्तोऽपपाठोऽनुयोगे । ६ । ४ । ६७ ॥ विन्मतोर्णीष्ठे-लुप् । ७ । ४ । ३२ ।। वृत्त्यन्तोऽसषे । १ । १ । २५ ॥ विपरिप्रात्सर्तेः । ५ । २ । ५५ ।। वृद्धस्त्रिया:-गश्च । ६ । १ । ८७ ॥ विभक्तिथ-भाः । १ । १ । ३३ ।। वृद्धस्य च ज्यः । ७ । ४ । ३५ ।। विभक्तिस-यम् । ३ । १ । ३६ ।।
वृद्धाद्य नि । ६ । १ । ३० ॥ विभाजयितृ-च । ६ । ४ । ५२ ।।
वृद्धि : स्वरेष्वा-ते । ७ । ४ । १ ।। विमुक्तदेरण । ७।२।७३ ।।
वद्धिरारदौत् । ३ । ३ । १॥ वियः प्रजने । ४ । २ । १३ ।।
वृद्धिर्यस्य स्व-दिः । ६ । १ । ८ ।। विरागाद्विरङ्गश्च । ६ । ४ । १८३ ।। वृद्धवः । ६ । ३ । २८ ॥ विरामे वा । १ । ३ । ५१ ॥
वृद्धो यूना तन्मात्रभेदे । ३ । १ । १२४ ॥ विरोधिनाम-स्वैः । ३ । १ । १३० ।। वृङ्भिक्षिलुण्टि-कः । ५। २ । ७० ।। . विवधवीवधाद् वा । ६ । ४ । २५ ।। वृद्भचः स्यसनोः । ३ । ३ । ४५ ।। विवादे वा । ३ । ३ । ८० ॥
वृन्दादारकः । ७ । २ । ११ ।। विवाहे द्वन्द्वादकल् । ६ । ३ । १६३ ॥ वृन्दारकनागकुञ्जरैः । ३ । १ । १०८ ॥ विशपतपद-क्ष्ण्ये । ५ । ४ । ८१ ॥ वृषाश्वान्मैथुने स्सोऽन्तः । ४ । ३ । ११४ ।। विशाखाषा-ण्डे । ६ । ४ । १२० ।। वृष्टिमान-वा । ५ । ४ । ५७ ।। विशिरुहि-दात् । ६ । ४ । १२२ ॥ व तो नवाऽना-च । ४ । ४ । ३५ ।। विशेषणं वि-श्च । ३ । १ । ६६ ।। वेः । २ । ३ । ५४ ॥ विशेषणमन्तः । ७ । ४ । ११३ ।।
वेः कृगः-शे । ३ । ३ । ८५॥ विशेषणस-हौ । ३ । १ । १५० ॥ वेः खुखग्रम् । ७ । ३ । १६३ ।। विशेषाविव-श्रे। ५ । २ । ५ ॥
वेः स्कन्दोऽक्तयोः । २ । ३ । ५१ ॥ विश्रमेर्वा । ४ । ३ । ५६ ।।
वेः स्त्रः । २ । ३ । २३ ।।
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वेः स्वार्थे । ३ । ३ । ५० ।। वेगे सर्त्तेर्धाव् । ४ । २ । १०७ ।।
वेटोsपतः । ४ । ४ । ६२ ।।
प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
।
६ । ३ । ६६ ।।
वेणुकादिभ्यई वेतनादेर्जीवति । ६ । ४ । १५ ।। वेत्तिच्छिदभिदः कित् । ५ । २ । ७५ ।। वेत्तेः कित् । ३ । ४ । ५१ ।। वेत्तेर्नवा । ४ । २ । ११६ ।। वेदसहश्रु-नाम् । ३ । । ४१ ।। वेतोऽनव्य-दें । २ । ४ । ६८ ।। वेदेन्ब्राह्मणमत्रैव । ६ । २ । १३० ।। वेयिवदनाश्व-नम् । ५ । २ । ३ ।। वेयुवोsस्त्रियाः । १ । ४ । ३० ।। वेरयः । ४ । १ । ७४ ।। वेरशब्दे प्रथने । ५ । ३ । ६६ ।। वेर्दहः । ५ । २ । ६४ ॥ वेर्वय् । ४ । ४ । १६ ॥ वेविचकत्थ - नः । ५ । २ । ५६ ।। विस्तृते - टौ । ७ । १ । १२३ ।। वेश्व द्रोः । ५ । २ । ५४ ।। वेष्टयादिभ्यः । ६ । ४ । ६५ ।।
सोऽपेक्षायाम् । २ । ३ । ११ ।। वैकत्र द्वयोः । २ । २ । ८५ ।। वैकव्यञ्जने पूर्ये । ३ । २ । १०५ ।। वैकात् । ७ । ३ । ५५ ।। वैकात् - रः । ७ । ३ । ५२ ।। वैकाद् ध्यमञ् । ७ । २ । १०६ ।। वैडूर्य: । ६ । ३ । १५८ ।। वैरणे क्वणः । ५ । ३ । २७ ।।
[ 99
वोतात् प्राक् । ५ । ४ । ११ ।। वोत्तरपद - ह्नः । २ । ३ । ७५ ।। वोत्तरपदेऽर्धे । ७ । २ । १२५ ।। वोत्तरात् । ७ । २ । १२१ ।। वोदः । ५ । ३ । ६१ ।। वोदश्वितः । ६ । २ । १४४ ।। वोपकादे: । ६ । १ । १३० ।। वोपमानात् । ७ । ३ । १४७ ।। वोपात् । ३ । ३ । १०६॥ वोपादेरडाकौ च । ७ । ३ । ३६ ।। वोमाभङ्गातिलात् । ७ । १ । ८३ ।। वोर्णुगः सेटि । ४ । ३ । ४६ ॥ वोर्णोः । ४ । ३ । १६ ।। वोर्णोः । ४ । ३ । ६० ।।
वोर्ध्वं द-सट् । ७ । १ । १४२ ।। वोर्ध्वात् । ७ । । १५६ ।। वो विधूनने जः । ४ । २ । १९ ।। वोशनसो-सौ । १ । ४ । ८० ।। वोशीनरेषु । ६ । ३ । ३७ ।। वौ वर्तिका | । ४ । ११० । वौ विष्किरो वा । ४ । ४ । ६६ । वौ व्यञ्जनादेः:-य्व । ४ । ३ । २५ ।। वौष्ठतौ-से । १ । २ । १७ ।।
व्यः । ४ । १ । ७७ ।। व्यक्तवाचां सहोक्तौ । ३ । ३ । ७६ ।। व्यचोऽनसि । ४ । १ । ८२ ।। व्यञ्जनस्या- -र्लुक् । ४ । १ । ४४ ॥ व्यञ्जनस्यान्त ई: । ७ । २ । १२६ ॥ व्यञ्जनाच्छ्नाहेरानः । ३ । ४ । ८० ।।
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100
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
व्यञ्जनात्तद्धितस्य । २ । ४ । ८८ ।। व्य ञ्जनात् प-वा । १ । ३ । ४७ ।। व्य ञ्जनादेरेक--वा । ३ । ४ । ६ ॥ व्यञ्जनादे म्युपान्त्याद् वा ।२।३।८७।। व्य ञ्जनादेर्वो--तः । ४ । ३ । ४७ ।। व्य ञ्जनाद् घञ् । ५ । ३ । १३२ ॥ व्य ञ्जना: सश्च दः । ४ । ३ । ७८ ॥ व्यञ्जनानामनिटि । ४ । ३ । ४५ ।। व्यञ्जनान्तस्था--ध्यः । ४ । २ । ७१ ।। व्यञ्जनेभ्य उपसिक्त । ६ । ४ । ८ ॥ व्यतिहारेऽनीहा--अः । ५ । ३ । ११६ ॥ व्यत्यये लुग्वा । १ । ३ । ५६ ॥ व्यधजपमद्भ्यः । ५ । ३ । ४७ ।। व्यपाभेर्लषः । ५ । २ । ६० ।। व्ययोद्रोः करणे । ५।३।३८ ।। व्यवात् स्वनोऽशने । २ । ३ । ४३ ।। व्यस्तव्यत्यस्तात् । ६ । ३ । ७ ॥ व्यस्ताच्च क्र--कः । ६ । ४ । १६ ।। व्यस्थववि । ४ । २। ३ ॥ व्याघ्राघ्र प्रा--सोः । ५। १ । ५७ ।। व्याङपरे रमः । ३ । ३ । १०५ ॥ व्यादिभ्यो णिकेकरणौ । ६ । ३ । ३४ ॥ व्याप्तौ । ३ । १ । ६१ ॥ व्याप्तौ स्सात् । ७ । २ । १३० ॥ व्याप्याच्चेवात् । ५ । ४ । ७१ ॥ व्याप्यादाधारे । ५ । ३ । ८८ ।। व्याप्ये क्तनः । २ । २ । ६६ ॥ व्याप्ये घुरके--च्यम् । ५ । १ । ४ ।। व्याप्ये द्विद्रो--याम् । २।२। ५० ।। व्याश्रये सुतः । ७ । २।८१ ॥
व्यासवरुट--चाक । ६ । १ । ३८ ॥ व्याहरति मृगे। ६ । ३ । १२१ ।। व्युदः काकु--लुक् । ७।३ । १६५ ।। व्युदस्तपः । ३ । ३ । ८७ ।। व्युपाच्छीङः । ५ । ३ । ७७ ॥ व्यूष्टादिष्वरण ।६।४। हह ।। व्योस्यमोर्यङि । ४ । १ । ८५ ।। व्योः । १ । ३ । २३ ।। व्रताद् भुजितन्निवृत्त्योः । ३ । ४ । ४३ ।। व्रताभीक्ष्ण्ये । ५ । १ । १५७ ॥ वातादस्त्रियाम् । ७ । ३ । ६१ ।। ब्रातादीनञ् । ६ । ४ । १६ ।। व्रीहिशालेरेयण । ७ । १ । ८ ॥ वीहेः पुरोडाशे । ६ । २ । ५१ ।। व्रीह्यर्थतुन्दा--श्च । ७ । २ । ६ ॥ व्रीह्यादिभ्यस्तौ । ७ । २ । ५ ॥ शं सं स्वयं--डुः । ५ । २ । ८४ ।। शंसिप्रत्ययात् । ५ । ३ । १०५ ।। शक: कर्मणि । ४ । ४ । ७३ ।। शक-धृष-ज्ञा-रभ--तुम् । ५ । ४ । ६० ।। शकटादण । ७ । १ । ७ ।। शकलकर्दमाद् वा । ६ । २ । ३ ।। शकलादेर्य ञः । ६ । ३ । २७ ।। शकादिभ्यो नेर्लुप् । ६ । १ । १२० ।। शकितकिचति--त् । ५ । १ । २६ ॥ शकृत् स्तम्बाद्--गः । ५। १ । १०० ॥ शकोजिज्ञासायाम् । ३ । ३ । ७३ ।। शक्तार्थवषट्नमः--भिः । २ । २ । ६८ ।। शक्तार्हे कृत्याश्च । ५ । ४ । ३५ ।। शक्तियष्टेष्टीकरण । ६ । ४ । ६४ ।। .
०५ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[
101
शक्त : शस्त्रे । २ । ४ । ३४ ।। शङ्क्त्त र-च । ६ । ४ । १० ॥ शण्डिकादेर्यः । ६ । ३ । २१५ ।। शतरुद्रात्तौ। ६ । २ । १०४॥ शतषष्टे: पथ इकट् । ६ । २ । १२४ ।। शतात् केव-कौ । ६ । ४ । १३१॥ शतादिमासा-रात् । ७ । १ । १५७ ।। शताद्यः । ६ । ४ । १४५ ।। शत्रानशावे-स्यौ । ५ । २ । २० ॥ शदिरगतौ शात् । ४ । २ । २३ ॥ शदेः शिति । ३ । ३ । ४१ ।। शन्शद्विशतेः । ७ । १ । १४६ ॥ शप उपलम्भने । ३ । ३ । ३५ ॥ शपभरद्वाजादात्रये । ६ । १ । ५० ।। शब्दनिष्कघोषमिश्रे वा । ३ । २ । ६८ ।। शब्दादेः कृतौ वा । ३ । ४ । ३५ ॥ शमष्टकात्--ण । ५ । २ । ४६ ।। शमो दर्शने । ४ । २ । २८ ।। शमो नाम्न्यः । ५ । १ । १३४ ।। शम्या रुरौ । ७ । ३ । ४८ ।। शम्या लः । ६ । २ । ३४ ॥ शम्सप्तकस्य श्ये । '४ । २ । १११ ।। शयवासिवासे--त् । ३ । २ । २५ ।। शरदः श्राद्धे कर्मणि । ६ । ३ । ८१ ।। शरदर्भकूदी--जात् । ६ । २ । ४७ ।। शरदादेः । ७ । ३ । ६२ ।। शर्करादेरण । ७ । १ । ११८ ।। शर्कराया इक--रण च । ६ । २ । ७८ ।।।
।६ । ४ । ५६ ।।
शषसे श वा । १ । ३ । ६ ।। शसोता--सि । १ । ४ । ४६ ।। शसो नः । २ । १ । १७ ।। शस्त्रजीवि-वा । ७ । ३ । ६२ ।।. शाकटशा-त्रे । ७ । १ । ७८ ॥ शाकलादकञ् च । ६ । ३ । १७३ ।। शाकीप-श्च । ७ । २ । ३० ॥ शाखादेर्यः । ७ । १ । ११४ ।। शारणात् । ६ । ४ । १४६ ।। शान्-दान्-मान्-बधा-तः । ३ । ४ । ७ ।। शापे व्याप्यात् । ५ । ४ । ५२ ॥ शाब्दिकदाद-कम् । ६ । ४ । ४५ ।। शालङ्क्यौदिषा-लि । ६ । १ । ३७ ।। शालीनको-नम् । ६ । ४ । १८५ ।। शासस्-हनः-हि । ४ । २ । ८४ ।। शासूयुधिदृशि-नः । ५। ३ । १४१ ॥ शास्त्यसूवक्ति-रङ् । ३ । ४ । ६० ॥ शिक्षादेश्चाए । ६ । ३ । १४८ ।। शिखादिभ्य इन् । ७ । २ । ४ ॥ शिखायाः । ६ । २ । ७६ ।। शिटः प्रथ-स्य । १ । ३ । ३५ ॥ शिटयघोषात् । १ । ३ । ५५ ।। शिटयाद्यस्य द्वितीयो वा । १ । ३ । ५६ ।। शिड्ढेऽनुस्वारः । १ । ३ । ४० ॥ शिदवित् । ४ । ३ । २० ॥ शिरसः शीर्षन् । ३ । २ । १०१ ॥ शिरीषादिककणौ । ६ । २ । ७७ ॥ शिरोऽधसः-क्ये । २ । ३ । ४ ॥ शिघुट् । १ । १ । २८ ।।
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102 1
श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने
१
।
शिलाया एयच्च । ७ । शिलालिपात्रे । ६ । ३ । शिल्पम् । ६ । ४ । ५७ ।। शिवादेरण । ६ । १ । ६० ।। शिशुक्रन्दा--य: । ६ । ३ । २०० ।। शीङ एः शिति । ४ । ३ । १०४ ।। शीङो रत् । ४ । २ । ११५ ।। शीश्रद्धानिद्रा -लुः । ५ । २ । ३७ ।। शीताच्च कारिणि । ७ । १ १८६ ।। शीतोष्णतृ --हे । ७ । १ शीतोष्णादृतौ । ७ । ३ । शीर्षः स्वरे तद्धिते । ३ २ । १०३ ।। शीर्षच्छेदाद्यो वा । ६ । ४ । १८४ ।। शीलम् । ६ । ४ । ५६ ।।
६२ ।। २० ।।
११३ ।।
१८६ ।।
शीलिकामि - रणः । ५ । १ । ७३ ।। शुक्रादिय: । ६ । २ । १०३ ।। शुङ्गाभ्यां भरद्वाजे । ६ । १ । ६३ ।। शुण्डिकादेरण, । ६ । ३ । १५४ ।। शुनः । ३ । २ । ६० ।। शुनीस्तन - ट्धेः । ५ । २ । ११६ ।। शुनो वचोदूत् । ७ । १ । ३३ ।। शुभ्रादिभ्यः । ६ । १ । ७३ ।। शुष्कचूर्ण--व । ५ । ४ । ६० ।। शूर्पाद्वाञ् । ६ । ४ । १३७ ॥ शूलात् पाके । ७ । २ । १४२ ।। शूलोखाद् यः । । २ । १४१ ।। शृङ्खल--भे । ७ । १ । १६१ ।। शृङ्गात् । ७ । २ । १२ ।।
शृ -कम-गम--कण् । ५ । २ । ४० ।।
शृ॰ वन्देरारुः । ५ । २ । ३५ ।। शेपपुच्छला--नः । ३ । २ । ३५ ।। शेवलाद्यादे-यात् । ७ । ३ । ४३ ।। शेषात् परस्मै । ३ । ३ । १०० ।। शेषाद् वा । ७ । ३ । १७५ ।। शेषे । २ । २ । ८१ ।। शेषे । ६ । ३ । १ ।
शेषे भविष्यन्त्ययदौ । ५ । ४ । २० ॥ शेषे लुक् । २ । १ । ८ ॥ शोकापनुद--के । ५ । १ । १४३ ।। शोभमाने । ६ । ४ । १०२ ।। शो व्रते । ४ । ४ । १३ ।। शौनकादिभ्यो णिन् । ६ । ३ । १८६ ।। शौ वा । ४ । २ । ६५ ।।
श्नश्वातः । ४ । २ । ६६ ।। श्नास्त्योर्लु' क् । ४ । २ । ६० ।। श्यः शीर्द्र वमूर्ति - र्शे । ४ । १ । ६७ ।। श्यशवः । २ । १ । ११६ ।। श्यामलक्षणा--ष्टे । ६ । १ । ७४ ।। श्यावारोकाद्वा । ७ । ३ । १५३ ।। श्येतै हरित---नश्व । २ । ४ । ३६ ।। श्यैनंपाता - ता । ६ । २ । ११५ ।। श्रः शृतं हविः क्षीरे । ४ । १ । १०० ।। श्रन्थग्रन्थो न्लुक्--च । ४ । १ । २७ ।। श्रपेः प्रयोत्रैक्ये । ४ । १ । १०१ ।। श्रवरणाश्वत्थान्नाम्न्यः । ६ । २ । ८॥ श्रविष्ठाषाढादीयण् च । ६ । ३ । १०५ ।। श्रारणामांसौ-- -- वा । ६ । ४ । ७१ ।। श्राद्धमद्य-नौ । ७ । १ । १६६ ।।
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 103
श्रितादिभिः । ३ । १ । ६२ ।। श्रुमच्छमी--यञ् । ७ । ३ । ६८ ।। श्रुवोऽनाप्रतेः । ३ । ३ । ७१ ।। श्रुसदवस्भ्यः --वा । ५ । २ । १ ।। श्रस्र द्रप्र--र्वा । ४ । १ । ६१ ।। श्रेण्यादिकृता--र्थे । ३ । १ । १०४ ।। श्रोत्रियादलुक् च । ७ । १ । ७१ ।। श्रोत्रौषधि--गे । ७ । २ । १६६ ।।। श्रो वायुवर्णनिवृत्ते । ५ । ३ । २० ॥ श्रौतिकृवधिव-दम् । ४ । २ । १०८ ।। श्वादिभ्यः । ५ । ३ । ६२ ।। श्लाघह नुस्था--ज्ये । २ । २ । ६० ।। श्लिषः । ३ । ४ । ५६ ।। श्लिषशीङ्--क्तः । ५ । १ । ६ ।। श्वगरणाद्वा । ६ । ४ । १४ ।। श्वन्-युवन्-म--उः । २ । १ । १०६ ॥ श्वयत्यसूवच-प्तम् । ४ । ३ । १०३ ॥ श्वशुरः श्वश्रूभ्यां वा । ३ । १ । १२३ ।। श्वशुराद्यः । ६ । १ । ६१ ।। श्वसजपवम-मः । ४ । ४ । ७५ ।। श्वसस्तादिः । ६ । ३ । ८४ ।। । श्वसो वसीयसः । ७ । ३ । १२१ ॥ श्वस्तनी ता-तास्महे । ३ । ३ । १४ ।। श्वादिभ्योऽञ् । ६ । २ । २६ ।। श्वादेरिति । ७ । ४ । १० ॥ श्व ताश्वाश्वतर-लुक् । ३ । ४ । ४५ ।। श्वर्वा । ४ । १ । ८६ ।। षः सोऽष्टय-कः । २ । ३ । ६८ ।। षट्कति-थट् । ७ । १ । १६२ ॥
षट्त्वे षड्गवः । ७ । १ । १३५ ।। षड्वजॅक-रे । ७ । ३ । ४० ।। षढोः कः सि । २ । १ । ६२ ।। षण्मासादवयसि-कौ। ६ । ४ । १०८ ॥ षण्मासाद्य-करण । ६ । ४ । ११५ ।। षष्टयादेरः-दे: । ७ । १ । १५८ ।। षष्ठात् । ७ । ३ । २५ ।। षष्ठो वाऽनादरे । २ । २ । १०८ ।। षष्ठ्य यत्नाच्छेषे । ३ । १ । ७६ ।। षष्ठयाः क्षेपे । ३ । २ । ३० ।। षष्ठयाः समूहे । ६ । २ । ६ ।। षष्ठया धर्म्य । ६ । ४ । ५० ॥ षष्ठयान्त्यस्य । ७ । ४ । १०६ ।। षष्ठया रूप्य-टू । ७ । २ । ८० ॥ षात्पदे । २ । ३ । ६२ ।। षादिहन्-णि । २ । १ । ११० ॥ षावटाद्वा । २ । ४ । ६६ ।। षि तवर्गस्य । १ । ३ । ६४ ॥ षितोऽङ । ५ । ३ । १७७ ।। ष्ठिवक्लम्वाचमः । ४ । २ । ११० ॥ ष्ठिसिवोऽनटिवा । ४ । २ । ११२ ।। ष्या पुत्रपत्योः -षे । २।४ । ८३ ॥ संकटाभ्याम् । ७ । ३ । ८६ ।। संख्याक्ष-त्तौ। ३ । १ । ३८ ॥ संख्याङ्कात् सूत्रे । ६ । २ । १२८ ॥ संख्याडते-कः । ६ । ४ । १३० ॥ संख्याता-वा । ७ । ३ । ११७ ।। संख्यातैक-रत् । ७ । ३ । ११६ ॥ संख्यादेः पादा-च । ७ । २ । १५२ ॥
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104 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
संख्यादेर्गुणात् । ७ । २ । १३६ ।। संख्यादेर्हाय-सि । २।४ । ६ ॥ संख्यादेश्चा-चः । ६ । ४ । ८० ॥ संख्याधि-नि । ७ । ४ । १८ ।। संख्यानां ष्र्णाम् । १ । ४ । ३३ ॥ संख्याने । ३ । १ । १४६ ॥ संख्यापाण्डू-मेः । ७ । ३ । ७८ ॥ संख्यापूरणे डट् । ७ । १ । १५५ ।। संख्यायाः संघ-ठे। ६ । ४ । १७१ ।। संख्याया धा । ७ । २ । १०४ ।। संख्याया नदी-म् । ७ । ३ । ६१ ॥ संख्याव्यायादगुलेः । ७ । ३ । १२४ ।। संख्या समासे । ३ । १ । १६३ ॥ संख्या समाहारे । ३ । १ । २८ ।। संख्या समाहारे-यम् । ३ । १ । १६ ॥ संख्यासाय--वा । १ । ४ । ५० ।। संख्यासंभ-र्च । ६ । १ । ६६ ।।। संख्याहर्दिवा-टः । ५ । १ । १०२ ॥ संख्यैकार्था-शस् । ७ । २ । १५१ ॥ संगतेऽजयम । ५ । । ५ ।। संघघोषा-अः । ६ । ३ । १७२ ॥ . संघेऽनर्वे । ५। ३। ८० ।। संचाय्यकुण्ड-तौ । ५। १ । २२ ॥ . संज्ञा दुर्वा । ६ । १ । ६ ॥ संध्यक्षरात्तेन । ७ । ३ । ४२ ॥ संनिवेः । ३ । ३ । ५७ ।। संनिवेरर्दः । ४ । ४ । ६३ ।। संनिव्युपाद्यमः । ५ । ३ । २५ ॥ संपरिव्यनुप्राद्वदः । ५ । २ । ५८ ॥
संपरे: कृगः स्सट् । ४ । ४ । ६१ ॥ संपरेर्वा । ४ । १ । ७८ ॥ संप्रतेरस्मृतौ। ३ । ३ । ६६ ॥ सप्रदानाच्चान्य-यः । ५। १ । १५ ॥ संप्राज्जा ज्ञौ । ७ । ३ । १५५ ।। संप्राद्वसात् । ५ । २ । ६१ ॥ संप्रोन्नेः सं-पे । ७ । १ । १२५ ।। संबन्धिनां संबन्धे । ७ । ४ । १२१ ॥ संभवदवहरतोश्च । ६ । ४ । १६२ ।। संभावनेऽलमर्थ-क्तौ । ५ । ४ । २२ ।। संभावने सिद्धवत् । ५ । ४ । ४ ।। संमत्यसू-तः । ७ । ४ । ८६ ॥ संमदप्रमदौ हर्षे । ५। ३ । ३३ ।। संयोगस्या-क् । २ । १ । ८८ ॥ संयोगात् । २ । १ । ५२ ।। . संयोगादिनः । ७ । ४ । ५३ ॥ संयोगादतः । ४ । ४ । ३७ ॥ संयोगादृदर्तेः । ४ । ३ । ६ ॥ संयोगादेर्वा-ष्येः । ४ । ३ । ६५ ।। संवत्सराग्र-च । ६ । ३ । ११६ ।। संवत्सरात्-णोः । ६ । ३ । ६० ॥ संविप्रावात् । ३ । ३ । ६३ ।। संवेः सृजः । ५ । २ । ५७ ।। संशयं प्राप्ते ज्ञेये । ६ । ४ । ६३ ॥ संसृष्टे । ६ । ४ । ५॥ संस्कृते । ६ । ४ । ३ ॥ संस्कृते भक्ष्ये । ६ । २ । १४० ॥ संस्तोः । ५। ३ । ६६ ॥ सः सिजस्तेदिस्योः । ४।३ । ६५ ।।
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[
105
सक्थ्यक्ष्णः स्वाङ्गे । ७ । ३ । १२६ ॥ सखिवणिग्दूताद्यः । ७ । १ । ६३ ॥ सख्यादेरेयण । ६ । २ । ८८ ।। सख्युरितोऽशावत् । १ । ४ । ८३ ॥ सजुषः । २ । १ । ७३ ।। सजेर्वा । २।३ । ३८ ॥ सति । ५। २ । १६ ॥ सतीच्छार्थात् । ५ । ४ । २४ ।। सतीर्थ्यः । ६ । ४ । ७८ ।। सत्यामदास्तोः कारे । ३ । २ । ११२ ।। सत्यादशपथे । ७ । २ । १४३ ।। सत्यार्थवेदस्याः । ३ । ४ । ४४ ।। सत्सामीप्ये सद्वद्वा। ५ । ४ । १ ॥ सदाधुने-हि । ७ । २ । ६६ ॥ सदोऽप्रतेः--देः । २ । ३ । ४४ ॥ सद्योऽद्य--द्रि। ७।२। ७।। सनस्तत्राऽऽवा । ४ । ३ । ६६ ।। सनि । ४ । २ । ६१ ।। सनीङश्च । ४ । ४ । २५ ॥ सन्भिक्षाशंसेरुः । ५। २ । ३३ ।। सन्महत्परमो--याम् । ३ । १ । १०७ ।। सन्यङश्च । ४ । १ । ३ ।। सन्यस्य । ४ । १ । ५६ ।। सपत्न्यादौ । २ । ४ । ५० ॥ सपत्रानिष्पत्रा--ने । ७ । २ । १३८ ॥ सपिण्डे वयःस्थाना-द्वा । ६ । १ । ४ ॥ सपूर्वात्--द्वा । २ । १ । ३२ ॥ सपूर्वादिकण । ६ । ३ । ७० ॥ सप्तमी--ईमहि । ३ । ३ । ७ ॥
सप्तमी चा-णे । २ । २ । १०६ ॥ सप्तमी चोर्ध्व-के। ५। ३ । १२ ॥ सप्तमी चो-के । ५ । ४ । ३० ।। सप्तमी द्विती-भ्यः । ७ । २ । १३४ ॥ सप्तमी यदि । ५ । ४ । ३४ ॥ सप्तमी शौण्डाद्यैः । ३ । १ । ८८ ॥
सप्तम्यधिकरणे । २ । २ । ६५ ।। . सप्तम्यर्थे क्रि-त्तिः । ५ । ४ । ६ ।।
सप्तम्याः । ५। १ । १६६ ।। सप्तम्याः । ७। २ । ६४॥ सप्तम्या आदिः । ७ । ४ । ११४ ॥ सप्तम्या पूर्वस्य । ७ । ४ । १०५ ।। सप्तम्या वा। ३ । २ । ४ ।। सप्तम्यताप्योर्बाढे । ५ । ४ । २१ ॥ सब्रह्मचारी । ३ । २ । १५० ।। समः क्ष्णोः । ३ । ३ । २६ ॥ समः ख्यः । ५ । १ । ७७ ॥ समः पृचैप्ज्वरेः । ५। २ । ५६ ॥ समजनिपनिषद-गः । ५। ३ । ६६ ॥ समत्यपाभि-रः । ५ । २ । ६२ ।। समनुव्यवाद्धः । ५ । २ । ६३ ॥ समयात् प्राप्तः । ६ । ४ । १२४ ।। समयाद्या-याम् । ७ । २ । १३७ ॥ समर्थः पदविधिः । ७ । ४ । १२२ ॥ समवान्धात्तमसः । ७ । ३ । ८० ॥ समस्ततहिते वा । ३ । २ । १३६ ॥ समस्तृतीयया । ३ । ३ । ३२ ॥ समांसमी-नम् । ७ । १ । १०५ ।। समानपूर्व-त् । ६ । ३ । ७६ ॥
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106
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
समानस्य धर्मादिषु । ३ । २ । १४६ ॥ समानादमोऽतः । १ । ४ । ४६ ।। समानानां-र्घः । १ । २ । १॥ समानामर्थेनैकः शेषः । ३ । १ । ११८ ॥ समाया ईनः । ६ । ४ । १०६ ॥ समासान्तः । ७ । ३ । ६६ ।।। समासेऽग्ने: स्तुतः । २ । ३ । १६ ।। समासेऽसमस्तस्य । २ । ३ । १३ ॥ समिरणा सुगः । ५ । ३ । ६३ ॥ समिधा -न्यण । ६ । ३ । १६२ ।। समीपे । ३ । १ । ३५ ।। समुदाङो यमेरग्रन्थे । ३ । ३ । १८ ॥ समुदोऽजः पशौ । ५ । ३ । ३० ।। समुद्रान्नृनावोः । ६ । ३ । ४८ ।। समूहार्थात् समवेते । ६ । ४ । ४६ ।।। समेंऽशेऽर्धं नवा। ३ । १ । ५४ ॥ समोगम-शः । ३ । ३ । ८४ ।। समो गिरः । ३ । ३ । ६६ ।। समो ज्ञोऽ-वा । २ । २ । ५१ ॥ समो मुष्टौ । ५ । ३ । ५८ ।। समो वा । ५ । १ । ४६ ।। सम्राजः क्षत्रिये । ६।१ । १०१ ॥ . सम्राट् । १ । ३ । १६ ॥ सयसितस्य । २ । ३ । ४७ ।। सरजसोप-वम् । ७ । ३ । ६४ ॥ सरूपाद् द्रेः-वत् । ६ । ३ । २०६ ।। सरोऽनो-म्नोः । ७ । ३ । ११५ ।। सर्तेः स्थिर-त्स्ये। ५ । ३ । १७ ॥ सर्त्यतैर्वा । ३ । ४ । ६१ ।।
सर्वचर्मण ईनेनौ । ६ । ३ । १६५ ।। सर्वजनाण्ण्येनौ । ७ । १ । १६ ॥ सर्वपश्चा-यः । ३ । १ । ८० ॥ सर्वाणा वा । ७ । १ । ४३ ॥ सर्वात् सहश्च । ५ । १ । १११ ।। सर्वादयोऽस्यादौ । ३ । २ । ६१ ।। सर्वादिविष्वग-ञ्चौ । ३ । २ । १२२ ।। सर्वादेः प-ति । ७ । १ । ६४ ॥ सर्वादेः सर्वाः । २ । २ । ११६ ॥ सर्वादेः स्मै-स्मातौ । १ । ४ । ७ ।। सदिडस्पूर्वाः । १ । ४ । १८ ।। सर्वादेरिन् । ७ । २ । ५६ ।। सर्वान्नमत्ति । ७ । १ । ६८ ॥ सर्वांश-यात् । ७ । ३ । ११८ ।। . सर्वोभया-सा । २ । २ । ३५ ।। सलातुरादीयण ।६।३। २१७ ।। सविशेषण-क्यम । १ । १ । २६ ।। ससर्वपूर्वाल्लुप् । ६ । २ । १२७ ॥ सस्तः सि । ४ । ३ । ६२ ।। सस्नो प्रशस्ते । ७ । २ । १७२ ॥ सस्मे ह्यस्तनी च । ५ । ४ । ४० ।। सस्य शषौ । १ । ३ । ६१ ।। सस्याद् गुणात्-ते । ७ । १ । १७८ ।। सस्त्रिक्रिदधि-मि । ५ । २ । ३६ ।। सहराजभ्यां-धेः । ५। १ । १६७ ।। सहलुभेच्छ-देः । ४ । ४ । ४६ ।। सहसमः सध्रिसमि । ३ । २ । १२३ ।। सहस्तेन । ३ । १ । २४ ।। सहस्रशत-दण । ६ । ४ । १३६ ।।
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 107
सहस्य सोऽन्यार्थे । ३ । २ । १४३ ॥ सहात्तुल्ययोगे । ७ । ३ । १७८ ॥ सहायाद् वा । ७ । १ । ६२ ।। सहार्थे । २ । २ । ४५ ॥ सहिवहे-स्य । १ । ३ । ४३ ।। साक्षादादिश्च्व्य र्थे । ३ । १ । १४ ॥ साक्षाद्रष्टा । ७ । १ । १६७ ॥ सातिहेतियूति-ति । ५ । ३ । ६४ ॥ सादेः । २ । ४ । ४६ ।। सादेश्चातदः । ७ । १ । २५ ॥ साधकतमं करणम् । २ । २ । २४ ।। साधुना । २ । २। १०२ ॥ साधुपुष्यत्पच्यमाने । ६ । ३ । ११७ ।। साधौ। ५। १ । १५५ ।। सामीप्येऽधो-रि । ७ । ४ । ७६ ॥ सायंचिरंप्रा-यात् । ६ । ३। ८८ ।। सायाह्नादयः । ३ । १ । ५३ ॥ सारवैश्वा -यम् । ७ । ४ । ३० ।। साल्वात्-त्तौ। ६ । ३ । ५४ ।। साल्वांशप्रत्य-दिञ् । ६ । १ । ११७ ॥ सास्य पौर्णमासी। ६ । २ । १८ ।। साहिसातिवे-त् । ५ । १ । ५६ ॥ सिकताशर्करात् । ७ । २ । ३५ ।। सिचि-परस्मै-ति । ४ । ३ । ४४ ।। सिचोऽञ्जः । ४ । ४ । ८४ ।। सिचो यङि । २ । ३ । ६० ।। सिजद्यतन्याम् । ३ । ४ । ५३ ।। सिजाशिषावात्मने । ४ । ३ । ३५ ॥ सिज्विदोऽभुवः । ४ । २ । ६२ ॥
सिद्धि:-त् । १ । १ । २ ।। सिद्धौ तृतीया । २ । २ । ४३ ॥ सिध्मादि-ग्भ्यः । ७ । २ । २१ ॥ सिध्यतेरज्ञाने । ४ । २ । ११ ।। सिन्ध्वपकरात् काणौ। ६ । ३ । १०१ ।। सिन्ध्वादेरञ् । ६ । ३ । २१६ ॥ सिंहाद्यैः पूजायाम् । ३ । १ । ८६ ।। सीतया संगते । ७ । १ । २७ ॥ सुः पूजायाम् । ३ । १ । ४४ ।। सुखादेः । ७ । २ । ६३ ।। सुखादेरनुभवे । ३ । ४ । ३४ ।। सुगदुर्गमाधारे । ५। १ । १३२ ।। सुग: स्यसनि । २ । ३ । ६२ ।। सुग् द्विषाहः-त्ये । ५। २ । २६ ॥ सुचो वा । २ । ३ । १० ॥ सुज्वार्थे सं-हिः । ३ । १ । १६ ॥ सुतंगमादेरिञ् । ६ । २ । ८५ ।। सुदुर्व्यः । ४ । ४ । १०८ ॥ सुपन्थ्यादेर्व्यः । ६ । २ । ८४ ।। सुपूत्युत्सु-णे । ७ । ३ । १४४ ।। सुप्रातसुश्व-दम् । ७ । ३ । १२६ ।। सुभ्वादिभ्यः । ७ । ३ । १८२ ॥ सुयजोईवनिप् । ५। १ । १७२ ।। सुयाम्नः सौवी-निञ् । ६ । १ । १०३ ।। सुरासीधोः पिबः । ५ । १ । ७५ ।। सुवर्णकार्षापरणात् । ६ । ४ । १४३ ॥ सुसर्धािद्राष्टस्य । ७ । ४ । १५ ।। सुसंख्यात् । ७ । ३ । १५० ॥ सुस्नातादि-ति । ६ । ४ । ४२ ।।
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108 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशन्दानुशासने
सुहरित तृण-त् । ७ । ३ । १४२ ॥ सुहृद्-दुर्ह न्-त्रे । ७ । ३ । १५७ ।। सूक्तसाम्नोरीयः । ७ । २ । ७१ ॥ सूतेः पञ्चम्याम् । ४ । ३ । १३ ।। सूत्राद्धारणे। ५ । १ । ६३ ।। सूयत्याद्योदितः । ४ । २ । ७० ।। सूर्यागस्त्ययो-च। २।४ । ८६ ।। सूर्या वतायां वा । २ । ४ । ६४ ॥ सृग्लहः प्रजनाक्षे । ५। ३ । ३१ ।। सृघस्यदो मरक् । ५ । २ । ७३ ॥ सृजः श्राद्धे-तथा । ३ । ४ । ८४ ।। सृजिशिस्कृ-वः । ४ । ४ । ७८ ॥ सृजीण नशष्ट्व रप् । ५ । २ । ७७ ।। सेः स्वांचरुर्वा । ४ । ३ । ७६ ॥ सेट क्तयोः । ४ । ३ । ८४ ।। सेड्नानिटा । ३ । १ । १०६ ।। सेनाङ्गक्षुद्र-नाम् । ३ । १ । १३४ ।। सेनान्तका-च । ६ । १ । १०२ ।। . सेनाया वा । ६ । ४ । ४८ ॥ सेासे कर्मकर्तरि । ४ । २ । ७३ ।। सेनिवासादस्य । ६। ३ । २१३ ।। सोदर्यसमानोदयौं । ६ । ३ । ११२ ॥ सोधिवा । ४ । ३ । ७२ ॥ सोमात् सुगः । ५। १ । १६३ ।। सोरुः । २ । १ । ७२ ।। सो वा लुक् च । ३ । ४ । २७ ।। सोऽस्य ब्रह्म-तोः । ६ । ४ । ११६ ।। सोऽस्य भृति--शम् । ६ । ४ । १६८ ।। सोऽस्य मुख्यः । ७ । १ । १६० ॥ सौ नवेतौ । १ । २ । ३८ ।।
सौयामायनि--वा । ६ । १ । १०६ ॥ सौर्वीरेषु कूलात् । ६ । ३ । ४७ ।। स्कन्दस्यन्दः । ४ । ३। ३० ।। स्कभ्नः । २ । ३ । ५५ ।। स्कृच्छ तो-याम् । ४ । ३ । ८ ॥ स्क्रसृवृभृ--याः । ४ । ४ । ८१ ॥ स्तम्बाद् घनश्च । ५ । ३ । ३६ ॥ स्तम्भूस्तम्भू--च । ३ । ४ । ७८ ।। स्ताद्यशितो--रिट । ४ । ४ । ३२ ॥ स्तुस्वजश्चा--वा । २ । ३ । ४६ ।। स्तेनान्न लुक् च । ७ । १ । ६४ ।। स्तोकाल्प-रणे । २ । २ । ७६ ।। स्तोमेडट । ६ । ४ । १७६ ।।। स्त्यादिविभक्तिः । १ । १ । १६ ॥ स्त्रियाः । २ । १ । ५४ ।। स्त्रियाः पंसो-च्च । ७ । ३ । ६६ ।। स्त्रिया डितां--म् । १ । ४ । २८ ।। . स्त्रियां क्तिः । ५ । ३ । ६१ ॥ स्त्रियां नाम्नि । ७ । ३ । १५२ ।। स्त्रियां नृतो--मः । २ । ४ । १ ।। स्त्रियां लुप् । ६ । १ । ४६ ॥ स्त्रियाम् । १ । ४ । ६३ ॥ स्त्रियाम् । ३ । २ । ६६ ॥ स्त्रियामूधसोऽन् । ७ । ३ । १६६ ।। स्त्रीदूतः । १ । ४ । २६ ।। स्त्री पुंवच्च । ३ । १ । १२५ ।। स्त्री बहुष्वायनञ् । ६ । १ । ४८ ।। स्थण्डिलात्--तो। ६ । २ । १३६ ॥ स्थलादेमधक--ण । ६।४।११॥ स्थाग्लाम्लापचि--स्नुः । ५ । २ । ३१ ॥
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अकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 109
स्थादिभ्यः कः । ५ । ३ । ८२ ।। स्थानान्तगो-लात् । ६ । ३ । ११० ॥ स्थानीवावर्णविधौ । ७ । ४ । १०६ ॥ स्थापास्नात्रः कः । ५ । १ । १४२ ॥ स्थामाजिना-प । ६ । ३ । ६३ ।। स्थासेनिसेध-पि । २ । ३ । ४० ॥ स्थूलदूर-नः । ७ । ४ । ४२ ॥ स्थेशभास-रः । ५ । २ । ८१ ॥ स्थो वा । ५ । ३ । ६६ ।। स्नाताद्वे दसमाप्तौ । ७ । ३ । २२ ।। स्नानस्य नाम्नि । २ । ३ । २२ ।। स्नोः । ४ । ४ । ५२ ।। स्पर्धे । ७ । ४ । ११६ ।। स्पृश-मृश-कृष-वा । ३ । ४ । ५४ ।। स्पृशादिसृपो वा । ४ । ४ । ११२ ।। स्पृशोऽनुदकात् । ५ । १ । १४६ ।। स्पृहेाप्यं वा । २ । २ । २६ ।। स्फाय स्फाव् । ४ । २ । २२ ॥ स्फायः स्फी वा । ४ । १ । १४ ।। स्फुर-स्फुलोजि । ४ । २ । ४ ।। स्मिङः प्रयोक्तुः स्वार्थे । ३ । ३ । ६१ ।। स्मृत्यर्थदयेशः । २.। २ । ११ ।। . स्मद त्वरप्रथ-रः । ४।१ । ६५ ।। स्मृदृशः । ३ । ३ । ७२ ॥ स्मे च वर्तमाना। ५ । २ । १६ ।। स्मे पञ्चमी । ५ । ४ । ३१ ।। स्म्य जसहिंस--रः । ५ । २ । ७६ ॥ स्यदोजवे । ४ । २ । ५३ ।। स्यादावसंख्येयः । ३ । १ । ११६ ।।
स्यादेरिवे । ७ । १ । ५२ ।। स्यादौ वः । २ । १ । ५७ ॥ स्यौजस--दिः । १।१ । १८ ॥ स्रस्-ध्वंस्-दः । २ । १ । ६८ ॥ स्व जश्च । २।३ । ४५ ।। स्वजेर्नवा । ४ । ३ । २२ ।। स्वज्ञाऽजभ-कात् । २ । ४ । १०८ ॥ स्वतन्त्र कर्ता । २।२।२॥ स्वपेर्यड्डे च । ४ । १ । ८० ।। स्वपो रणावुः । ४।१ । ६२ ।। स्वयं सामी क्तन । ३ । १ । ५८ ॥ स्वर-ग्रह-दृश-वा । ३ । ४ । ६६ ॥ स्वर-दुहो वा । ३ । ४ । १० ॥ स्वरस्य परे-धौ । ७ । ४ । ११० ॥ स्वर-हन-गमो:-टि । ४ । १ । १०४ ॥ स्वराच्छौ । १ । ४। ६५॥ स्वरात् । २ । ३ । ८५।। स्वरादयोऽ-यम् । १ । १ । ३० ॥ स्वरादुतो-रोः । २ । ४ । ३५ ॥ स्वरादुपसर्गात्--धः । ४ । ४ । ६ ।। स्वरादेद्वितीयः । ४ । १ । ४ ।। स्वरादेस्तासु । ४ । ४ । ३१ ।। स्वरेऽतः । ४ । ३ । ७५ ।। स्वरेभ्यः । १ । ३ । ३० ।। स्वरे वा । १ । ३ । २४ ।। स्वरे वाऽनक्षे । १ । २ । २६ ।। स्वर्ग-स्वस्ति--पौ । ६ । ४ । १२३ ।। स्वसृपत्योर्वा । ३ । २ । ३८ ।। स्वस्नेहनार्था--षः । ५ । ४ । ६५ ।।
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110 ]
श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने
स्वाङ्गतश्च्व्यर्थ--श्च । ५ । ४ । ८६ ।। स्वाङ्गात् नि । ३ । २ । ५६ ।। स्वाङ्गादेरकृत-हेः । २ । ४ । ४६ ।। स्वाङ्गाद्विवृद्धात्ते । ७ । २ । १० ।। स्वाङ्गनाघ्रवेण । ५ । ४ । ७६ ।। स्वाङ्गेषु सक्तं । ७ । १ । १८० ।। स्वादेः श्नुः । ३ । ४ । ७५ ।। स्वाद्वर्थाददीर्घात् । ५ । ४ । ५३ ।। स्वान्मिन्नीशे । ७ । २ । ४६ ।। स्वामि-चिह्न - । ३ । । ८४ ।। स्वामि वैश्येऽर्थः । ५ । १ । ३३ ।। स्वामीश्वरा - तैः । २ २ । ६८ ।। स्वाम्येऽधिः । ३ । १ । स्वार्थे । ४ । ४ । ६० स्वेशेऽधिना । २ । २ ।
२
१३ ।।
।।
१०४ ।।
। १५ ।।
स्वैर-ण्याम् । १ । सटि समः । १ । ३ । १२ ।। हः काल-व्रीह्योः । ५ । १ । ६८ ।। हत्या - भूयं भावे । ५ । १ । ३६ ।। हनः । २ । ३ । ८२ ॥
हनः सिच् । ४ । ३ । ३८ ॥
हनश्च समूलात् । ५ । ४ । ६३ ।। हनृतः स्यस्य । ४ । ४ । ४६ ।। हनो धि । २ । ३ । ९४ ।। हनो घ्नीर्वधे । ४ । ३ । ६६ ॥ हनो गिन् । ५ । १ । १६० ॥ हनोऽन्तर्धना-देशे । ५ । ३ । ३४ ।। हनो वध - ञौ । ४ । ४ । २१ ।। हनो वा वधू च । ५ । ३ । ४६ ।।
।
३ । १६१ ।।
१ । ६ ।।
२६ ।।
१२ ।।
नो ह्रो घ्नः । २ । १ । ११२ ।। हरत्युत्सङ्गादेः । ६ । ४ । २३ ।। हरितादेरञः । ६ । १ । ५५ ।। होडाssस्ये पुवः । ५ । २ । ८६ ।। हलसीरादिकरण । ६ हलसीरादिकरण । ७ हलस्य कर्षे । ७ । १ । हवः शिति । ४ । १ । हविरन्न - वा । ७ । १ । २६ ।। हविष्यष्टनः कपाले । ३ । २ । ७३ ।। हशश्वद्युगान्तः - च । ५ । २ । १३ ।। हशिटो ना - सक् । ३। । ५५ ।। हस्तदन्त - तौ । ७ । २ । ६८ ।। हस्तप्राप्ये चेरस्तेये । ५ । ३ । ७८ ।। हतार्थाद् ग्रह- तः । ५ । ४ । ६६ ॥ हस्तिपुरुषाद्वाण । ७ । १ । १४१ ।। हस्ति बाहुकपा - तौ । ५ । १ । ८६ ।। हाकः । ४ । २ । १०० ।।
हाको हि: क्वि । ४ । ४ । १४ ।। हान्तस्थाञ् जीभ्यां वा । २ । १ । ८१ ॥
हायनान्तात् । ७ । १ । ६८ ।।
हितनाम्नो वा । ७ । ४ । ६० ।। हितसुखाभ्याम् । २ । २ । ६५ ।। हितादिभिः । ३ । १ । ७१ ।। हिमहतिकाषिये पद् । ३ । २ । ६६ ।। हिमालः सहे । ७ । १ । ६० ।। हिंसार्थादेकाप्यात् । ५ । ४ । ७४ ।। हीनात् स्वाङ्गादः । ७ । २ । ४५ ।।
टो । ४ । २ । ८३ ।।
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प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[
111
हक्रोर्नवा । २ । २ । ८॥ हृगो गतताच्छील्ये । ३ । ३ । ३८ ।। हगो वयोऽनुद्य मे । ५ । १ । ६५ ॥ हृदयस्य--ण्ये । ३ । २ । ६४ ॥ हृद्भगसिन्धोः । ७ । ४ । २५ ।। हृद्य-पद्य-तुल्य-भ्य॑म् । ७ । १ । ११ ।। हृषेः केशलोम--ते । ४ । ४ । ७६ ॥ हेः प्रश्नाख्याने । ७ । ४ । ६७ ॥ हेतुकर्तृ करणे--णे । २ । २ । ४४ ।। हेतुतच्छीला--त् । ५ । १ । १०३ ।। हेतुसहार्थेऽनुना । २ । २ । ३८ ।। हेतौ सं--ते ६ । ४ । १५३ ।। हेत्वर्थस्तृ--द्याः । २ । २ । ११८ ।। हेमन्ताद्वा तलुक् च । ६ । ३ । ६१ ।। हेमादिभ्योऽञ् । ६ । २ । ४५ ॥ हेमार्थात् माने । ६ । २ । ४२ ॥ हेहैष्वेषामेव । ७ । ४ । १०० ॥ होत्राभ्य ईयः । ७ । १ । ७६ ॥
होत्राया ईयः । ७ । २ । १६३ ।। हो धुट्पदान्ते । २ । १ । ८२ ।। हो दः । ४ । १ । ३१ ॥ ह्रस्वः । ४ । १ । ३६ ।। ह्रस्वस्य गुणः । १ । ४ । ४१ ॥
ह्रस्वस्य तः पित्कृति । ४ । ४ । ११३ ।। • ह्रस्वान्ङ्-ण -नो द्वे । १ । ३ । २७ ।।
ह्रस्वान्नाम्नस्ति । २ । ३ । ३४ ।। ह्रस्वापश्च । १ । ४ । ३२ ।। ह्रस्वे । ७ । ३ । ४६ ।। ह्रस्वोऽपदे वा । १ । २ । २२ ।। शस्तनी--महि । ३ । ३ । ६ ॥ ह्यो गोदोहादी-स्य । ६ । २ । ५५ ।। ह्लादो ह्लद्--श्च । ४ । २ । ६७ ॥ ह्वः समाह्वया-म्नोः । ५। ३ । ४१ ॥ ह्वः स्पर्धे । ३ । ३ । ५६ ।। ह्वालिपसिचः । ३ । ४ । ६२ ।। ह्विणोरप्विति व्यौ । ४ । ३ । १५ ।।
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श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितोणादिसूत्र सूची
अभेरमुः ।। ८०० ।। अमिमृभ्यां रिणत् ।। ५४६ ।। मेहौ चान्तौ ।। ६६२ ।। अमेर्वरादिः ।। ५५५ ।। अम्भिकुण्ठिक - च ।। ६१४ ॥ अर्जेॠज् च ।। ७२२ ॥
अर्तीरणभ्यां नस् || ६७९ ।। अर्तीणभ्यां पिशतशौ ।। ५३६ ।। अरिस्तु -मः ।। ३३८ ।। अर्तेः शसानः ।। २६५ ।। अरत्नि: ।। ६८२ ॥ अर्तेरुराशौ च ।। ६६७ ।। अर्तेरूर्च ।। ७३६ ।।
श्रः ।। २ ।। अगपुला-- डित् ।। ३६३ ॥ विलिपुलिस्तिक ।। ६६० ।।
अयङ्गिमदि - - आरः ।। ४०५ ।। अस्थिवृरीभ्यो ण ुः ॥ ७६८ ॥ अर्जोऽन्तश्च ॥ ८३४ ॥ अञ्चेः क्च वा ।। ६५६ ।। अरिष्ण ु: ।। ७७१ ।। अजयुजि-- ग च ।। १६६ ।। अञ्जयर्तेः कित् ।। ७७७ ॥ अञ्जघवेरिष्ठुः ।। ७६४ ।। अडोल च वा ।। ८३७ ।। अडित् ।। ७२ ।। अर्डोऽन्तश्च ।। ८३६ ।।
अतेरिथिः ।। ६७३ ।। अदुपान्त्यऋ - न्तः ।। १४ ।। अदेरन्ध च वा ॥ ९६३ ॥
अदेरिणत् ।। १०४ ।
प्रदेर्मनिः ।। ६८५ ॥
अदेस्त्रिन् ।। ६२६ ॥
प्रदेस्त्रीरिणः ।। ६४५ ।। प्रदो भुवो डुतः ।। २१४ ।। अनसो वहे:-- :--डः ।। १००६ ॥ अनिकाभ्यां तरः ।। ४३७ ।। अनिशृ पृ. -- आटः ।। १४५ ।। अनेरोकहः ।। ५६५ ॥
अपुषधनुषादयः ।। ५५६ ।। अभेर्यामाभ्याम् ।। ६६३ ॥
अध च ।। १०६ ॥ अर्तेर्भुक्षिनक् ।। ९२८ ॥ अर्पेरिषः ।। ५४६ ॥ अलेरम्बुसः ।। ५८५ ॥ अवभृनिर्ऋ - -भ्यः ।। २२६ ॥ अवाद्गोऽच्च वा ।। २२६ ।। अवेरिणत् ।। ६६५ ।
अवे' च वा ।। ३४८ ॥ अवे च वा ।। ३६८ ॥ अवेर्मः ।। ६३३ ।। वे ।। ६१ ।। अवेर्हस्वश्च वा ।। ३४२ ।। अव्यतिगृभ्योऽटुः ॥ ७६२ ।। अशऊपः पश्च ।। ३१२ ।। शेरान्नोऽन्तश्च ।। ७१६ ।।
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'उणाद्यकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 113
अशेडित् ।। ८७ ॥ अरिंगत् ।। ४१५ ।। अशेर्यश्चादिः ।। १५८ ।। अशारश्चादिः ।। ६२२ ।। अशोरश्चादिः ।। ६८८ ॥ अशोरश्चादौ ।। २७० ॥ प्रश्नोतेरीच्चादे: ।। ४४२ ।। अस् ॥ ६५२ ।। प्राङ: कृह-नः ।। ६४३ ।। आङ: पणिपनि-भ्यः ।। ३६ ।। प्राङश्च गित् ।। ६२० ॥ आपः क्विप् ह स्वश्च ।। ६३१ ।। आपोऽप च ॥ २३८ ।। आपोऽप् च ।। ७७६ ।। आपोऽप् च ।। ८२३ ॥ आपोऽप् च ।। ८६१ ।। प्रापोऽपाप्ता-श्च ।। ६६४ ।। आरगेर्वधः ।। २५४ ॥ प्रास्फार्डित् ।। २१८ ॥ इङ्गबिभ्यामुदः ।। २४२ ।। इण प्रास् ॥ ६८८ ॥ इणः ।। ५८१ ।। . इण: कित् ॥ ३२८ ।। इणस्तद् ।। ८६६ ।। इणस्तशस् ।। ६८४ ।। इणुर्विशा वेरिण-गः ॥ १८२ ।। इणो णित् ।। ६६८ ।। इणो दमक् ।। ६३८ ।। इरण धाग्भ्यां वा ।। ३८६ ॥
इण पूभ्यां कित् ।। ४३८ ।। इदुदुपान्त्या-च ॥ १७ ।। इवर्णादि पि ॥ २०६ ॥ इषेः स्वाकुक् च ।। ७५७ ।। इषेरुधक् ॥ २५६ ॥ इष्यशिमसिभ्यस्तकक् ॥ ७७ ।। ईङ् कमिशमि-डित् ।। ६४१ ॥ ईडेरविड् ह स्वश्च ॥ ७६ ।। उक्षितक्ष्यक्षी-रन् ।। ६०० ॥ उच्चिलिङ्गादयः ।। १०५ ।। उच्यञ्चेः क च ॥ ६६५ ।। उटजादयः ।। १३४ ।। उडेरुपक ॥ ३११ ।। उड् च भे ।। ७३८ ।। उदकाच्छवेर्डित् ।। ८८८ ।। उदर्तेणिद्वा ।। ६७२ ।। उद्वटिकुल्य-कुमः ।। ३५१ ।। उन्देर्नलुक् च ।। २७१ ॥ उपसर्गाच्चेंडित् ॥ ७५४ ।। उपसर्गाद्वसः ।। २३३ ।। उभेळेत्रौ च ।। ६१५ ॥ उभ्यवेर्लुक् च ।। ३०३ ॥ उर्ध च ।। ५०७ ।। उर्वेरादेरूदेतौ च ।। ८१४ ।। उलेः कित् ।। ८२८ ॥ उशेरशक् ।। ५३१ ॥ उषेः किल्लुक् च ।। ८८ ।। उषेरधिः ॥ ६७५ ॥ उषेण च ॥ ६५६ ॥
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114 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
उषेोऽन्तश्च ॥ ५५६ ।। ऋकृमृवृ-पालः ॥ ४७५ ।। ऋक व -उरणः ।। १६६ ॥ ऋच्युजिहुषी-कित् ।। ४८ ॥ ऋच्छिचटिवटि-ररः ।। ३६७ ।। ऋजनेर्गोऽन्तश्च ।। ४६७ ।। ऋजिरिषि-कित् ।। ५६७ ॥ ऋजिश प.भ्यः कित् ।। ५५४ ॥ ऋज्यजितञ्चि-कित ।। ३८८ ॥ ऋजिरञ्जि-ऽसानः ।। २७६ ।। ऋतृ शु मृभ्रा-श्च ।। ७२७ ।। ऋतोरत च ।। ८४० ।। ऋधिपृथिभिषि-कित् ।। ८७४ ॥ ऋशिजनि-कित् ।। ३६१ ।। ऋ-शीशि-क्वनिप् ॥ १०६ ।। ऋषिवृषिलुसि-कित् ।। ३३१ ।। ऋसृत व्यालि-रडः ।। १७१ ॥ ऋहृसृमृधृ-णिः ।। ६३८ ॥ ऋतष्टित् ॥ ६ ॥ ऋद् धृसृकु-कित् ।। ६३५ ॥ ऋद्रुहेः कित् ।। १६५ ।। ऋप नहिहनि-उषः ।। ५५७ ।। एधेरिनिः ॥ ६८३ ॥ ककिमकिभ्यामन्दः ।। २४५ ।। ककुत्रिष्टुबनुष्टुभः ।। ६३२ ।। ककेरिणत् ॥ ६४० ॥ ककेरुभः ।। ३३३ ।। ककेरिणद्वा ।। २४३ ।। कङ्करिच्चास्य वा ।। ६३१ ।।
कञ्चुकांशुक-यः ॥ ५७ ।। कटिकुटयर्तेररुः ॥ ८१२ ।। कटिपटिकण्डि-पोलः ॥ ४६३ ।। कठिचकिसहि-पोरः ॥ ४३३ ।। कडेरेवराङ्गरौ ।। ४४५ ।। कणिभल्लेर्दीर्घश्च वा ।। ६० ।। कण्यरिणखनिभ्यो रिणद्वा ।। १६६ ।। कण्यणेरिणत् ॥ ५६ ॥ कदेणिद्वा ।। ३२२ ।। कनिगदिमनेः सरूपे ॥ ८ ॥ कनेः कोविद-श्च ।। ४१० ॥ कनेरीनकः ॥ ७३ ।। कनेरीश्चातः ॥ ५३४ ।। कन्दे कुन्द् च ॥ ८१८ ॥ कपटकीकटादयः ।। १४४ ॥ कपाटविराट-यः ।। १४८ ॥ कपोटवकोटा-यः ॥ १६१ ॥ कफादीरेल च ।। ८३६ ।। . कबेरोतः पच ।। २१७ ।। कमिजनिभ्यां बूः ।। ८४७ ।। कमितमिशमिभ्यो डित् ।। १०७ ॥ कमितिमेर्दोऽन्तश्च ।। ५४ ।। कमिप्रगातिभ्यस्थः ।। २२५ ।। कमिवमिजमि-णित् ।। ६१८ ।। कमेरत उच्च ।। ४०६ ।। कम्यमिभ्यां बुः ।। ७६६ ।। कर्करारुः ।। ८१३ ॥ कलिकुलिभ्यां मासक् ॥ ५८४ ।। कलिगलेरस्योच्च ॥ ३१५ ।।
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उणाद्यकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 115
कले: किल्ब च ।। ५५१ ।। कलेरविङ्कः ।। ६५ ॥ . कलेरापः ॥ ३०८ ॥ कलेर्मषः ।। ५६२ ॥ कलेष्टित् ।। ५३२ ।। कल्यनिमहि-इलः ।। ४८१ ॥ कल्यलिपुलि-इन्दक् ॥ २४६ ।। कल्यविमदि-ऽचः ।। ११४ ।। कल्याणपर्याणादयः ।। १६३ ।। कशेर्मोऽन्तश्च ॥ ४२० ॥ कडित् ।। २२४ ।। कषेर्डच्छौ च षः ।। ८३१ ।। कसिपद्यादिभ्यो रिणत् ।। ८३५ ।। कसेरलादिरिच्चास्य ।। ३६८ ॥ कस्यतिभ्यामिपुक् ।। ७९८ ।। काकुसिभ्यां कुम्भः ।। ३३७ ।। काच्छीङो डेरूः ॥ ८५१ ।।। कायः किरिच्च वा ।। ६२३ ।। कावावीक्रीश्रि-रिणः ।। ६३४ ॥ किच्च ।। १० ।। कितिकडि-जित् ।। ५१८ ।। कितो गे च ।। ५८७ ।। किमः श्री णित् ।। ७२५ ।। किरः ष च ।। ७५१ ।। किरोऽङ्कोरोलश्च वा ।। ६२ ।। किरोलश्च वा ॥ १४७ ॥ किलिपिलिपिशि-भ्यः ।। ६०८ ।। किलेः कित् ।। ५७५ ।। किशृ वृभ्यः करः ।। ४३५ ।।
कीचकपेचक-यः ॥ ३३ ॥ कुकेः कोऽन्तश्च ॥ ३३४ ॥ कुगुपतिकथि-केरः ॥ ४३१ ॥ कूगलि-रयः ।। ३६५ ॥ कुगुहुनी-कित् ॥ १७० ॥ कुच्योर्नोऽन्तश्च ।। ६५२ ।। कुटिकुलि-इञ्चक् ।। १२३ ।। कुटेरजः ॥ १३० ॥ कुट्टिवेष्टि-इमः ।। ३४६ ।। कुटय न्दिचुरि-कुम्बः ।। ३२६ ।। कुडितुडघडेरुवः ।। ५२४ ।। कुणेः कित् ।। १८० ।।
।। ३५३ ॥ कुन्दुमलिन्दुम-दयः ।। ३५२ ।। कुपूसमिण भ्य--श्च ॥ ११२ ।। कुपेर्व च वा ।। २४७ ।। कुन्द्रिकुद्रयादयः ॥ ६६५ ।। कुमुदबुद्बुदादयः ।। २४४ ।। कुमुलतुमुल--दयः ॥ ४८७ ॥ कुलिकनिक--किश: ।। ५३५ ।। कुलिचिरिभ्यामिङ्कक् ।। ६४ ॥ कुलिपुलि--कित् ।। ४१० ॥ कुलिमयिभ्यामूतक् ।। २१५ ॥ कुलिलुलि--कायः ।। ३७२ ।। कलिविलिभ्यां कित् ।। १४३ ॥ कुलेर्डच वा ।। ३६२ ।। कुलेरिजक् ।। १३५ ॥ कुलेश्च माषक् ।। ५६३ ।। कुवः कुब् कुनौ च ।। १२६ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
कुशिकमिभ्यां च ।। ५०३ ।। कुशिकहृदिक--यः ।। ४५ ।। कुशेरुण्डक् ॥ १७८ ।। कुषेः कित् ।। ८० ॥ कुषेर्वा ।। १६४ ॥ कुष्युषिसृपिभ्यः कित् ।। ६१२ ।। कुसेरिदेदौ । २४१ ।। क र्चचूर्चादयः ॥ ११३ ।। क लिपिलिविशि--कित् ।। ४७६ ।। कृकडिकटिवटेरम्बः ।। ३२१ ।। कृकलेरम्भः ।। ३३६ ।। कृकस्थूराद्वचः क च ।। ७२८ ।। कृकुरिभ्यां पासः ॥ ५८३ ॥ कृगः कादिः ।। ८४६ ।। कृग: कित् ।। ३७६ ।। कृगोऽञ्जः ॥ १३६ ।। कृगो द्वे च ।। ७ ॥ कृगोमादिश्च ।। ४०७ ।। कृगो यङः ।। २०५॥ कृगो वा ।। २३ ।। कृजन्येधिपाभ्य इत्वः ।। ५२६ ।। कृतिपुतिलति--कित् ।। ७६ ।। कृतेः कृन्त् च ।। ४५८ ।। कृतेः क्रूकृच्छौ च ॥ ३६५ ॥ कृतेस्तर्क च ।। ७२३ ।। कृत्यशौभ्यां स्नक ।। २६४ ॥ कृधूतन्यृषिभ्यः कित् ॥ ४४० ।। कृपिक्षुधिपी--कित् ।। ८१५ ।। कृपिविषिवृ--णक ॥ १६१ ॥
कृपिशकिभ्यामटि: ॥ ६३० ॥ कृभूभ्यां कित् ॥ ६६० ।। कृलाभ्यां कित् ।। ७८० ।। कृवापाजि--उरण ।। १ ।। कृवृभृवनिभ्यः कित् ।। ५२८ ।। कृशक शाखेरोट: ।। १६० ।। कृशृ कुटिग्रहि-वा ।। ६१६ ।। कृशेरानुक ॥ ७६४ ॥ कृषिचमितनि-ऊः ॥ ८२६ ।। कृषेर्गुणवृद्धी च वा ।। ३१ ।। कृषेश्चादेः ।। ६४१ ।। कृसिकम्यमि-स्तुन् । ७७३ ।। कृहनेस्तुक नुको ।। ७६१ ॥ कृहृभूजीवि-एण : ।। ७७२ ।। कृ.गृ.पृ.-कित् ।। १८८ ।। कृ ग श द वग्-वरट् ।। ४४१ ॥ कृ ग्रऋतउर् च ॥ ७३४ ।। कृतृ भ्यामीषः ।। ५५३ ।। कृ पृ कटिपटि--रहः ।। ५८६ ॥ कृ वृकल्यलि-आतक ।। २०६ ।। कृ.शू गृ शलि--भः ।। ३२६ ।। कृ शृ पृ.पूग्--ईरः ।। ४१८ ।। कृ शु सृ-स्य ॥ २६८ ॥ केवयुभुरण्य्व--यः ।। ७४६ ।। करवभैरव--यः ।। ५१६ ॥ के शीशमिरमिभ्यः कुः ॥ ७४६ ॥ कोरचोरमोर--यः ।। ४३४ ।। कोरदूषाटरूष--दयः ।। ५६१ ॥ कोरन्धः ॥ २५७ ।।
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कोरषः ।। ५४४ । को रुरुष्टिरण्टिभ्यः ।। २८ ।।
कोर्डिखिः ।। ६२६ ॥
कोडिम् ।। ६३६ ।। कोषादिः ।। ६४८ ॥
कोर्वा ।। ४६६ ।
कोर्वा ।। ५२६ ॥ कौतेरियः ।। ३७५ ।।
क्रकचादयः ।। ११५ ।। कमिमिक्षमे - तः ॥। ६४२ ।। क्रमितमि वा ।। ६१३ ॥ कमिमथिभ्यां चन्मनौ च ।। १२ ।। क्रमेः कृम् च वा ।। ५३ ।। क्रमेरेलकः ।। ६६ ॥ क्रीकल्यलि - इकः ।। ३८ ॥ शिपिशि - कित् ।। २१२ ।।
ऋ शेर्वृद्धिश्च ।। २६५ ॥
क्लिशः के च ॥ ५३० ।।
क्वणेर्डयिः ।। ६६१ ॥ क्विपि म्लेच्छश्च वा ।। ८८० ।।
क्षः कित् ।। १६७ ।।
क्षिपेः कित् ।। ६४२ ।। क्षिपेरण क ।। ७७० ।। क्षुचुपिपूभ्यः कित् ॥ ३०१ ॥
उणाद्यकारादिसूत्रानुक्रमणिका
क्षुहिभ्यां वा ।। ३४१ ।। खजेररीट: ।। १५२ ।।
खनो लुक् च ।। ८०८ ॥ खलिफलि -- ऊषः ।। ५६० ।। खलिहिंसिभ्यामीनः ॥ २८६ ॥
खल्यमिरमि -- रतिः ।। ६५३ ।। खुरक्षुरदूर--य: ।। ३६६ ।।
गन्धेरचन्तिः ।। ५०८ ।। गमिमिक्षमि - डित् ।। ९३७ ।। गमेः सन्वच्च ।। ७६२ ।। गमेरा च ।। ४५३ ।।
मेरिन् ।। १६ ।। गमेर्जम् च वा ।। १३ ।। गमेद्द्वेि च ।। ८८५ ॥
[ 117
गम्यमिरम्य -- गः ।। ६२ ।। गयहृदयादयः ।। ३७० ।। गादाभ्यामेष्णक ̧ ।। १६६ ।। गुङ ईधुकधुकी ।। ७४ ।। गुडेरूचट् ।। १२० ।। गुधिस्त च ।। ५६८ ।। गुपिमिथिभ्यः कित् ।। ४८३ ।। गुलुञ्छपिलि-य: ।। १२६ ।।
गूहलगुग्गुलुकमण्डलवः ।। ८२४ ।। गृधेर्गभ् च ।। ६६१ ।।
गृ. ज. दृवृ - श्च ।। १५३ ।। गृदृ रमि-भः ।। ३२७ ।। गृ. प. दुर्विधुविभ्यः क्विप् ।। ६४३ ।। गोः कित् ।। २३६ ।। गोपादेरनेरसिः ॥ ७०८ ।।
ग्रसिहाग्भ्यां ग्रा - च ।। ३३६ ।। ग्रहेरा च ।। ६०५ ॥ ग्रह्याद्भ्यः कित् ।। ४९४ ॥ ग्रोगृष् च ।। ६४६ ।। ग्रोणित् ।। १५६ ।।
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
ग्रोमादिर्वा ।। ८६० ॥ ग्लानुदिभ्यां डौः ॥ ८६८ ॥ घटाघाटाघण्टादयः ।। १४१ ॥ घसिवशिपुटि-कित् ।। ४१६ ।। घुयुहिपितुशोर्दीर्घश्च ॥ २४ ॥ घृवीह्वाशुष्यु-कित् ।। १८३ ।। चकिरमि-स्य ।। ३६३ ।। चक्षः शिद्वा ।। ६६६ ।। चक्षेः शिद्वा ।। १.०१ ॥ चटिकठिपदिभ्य आकुः ॥ ७५२ ।। चण्डिभल्लिभ्यामातकः ।। ८२ ।। चतेरुर् ।। ६४८ ॥ चन्दोरमस् ॥ ६८६ ।। चपेरेट: ॥ १५८ ।। चमेरुच्चातः ॥ ६३२ ।। चमेरूरुः ॥ ८१४ ।। चात्वालकङ्काल-दयः ॥ ४८० ।। चायः के च ।। ७७८ ॥ चायेः केक च ।। ३६६ ।। चायेनौ ह्रस्वश्च वा ॥ ९५७ ॥ चिक्कणकुक्करण-दयः ।। १६० ।। चिजिशुसि-श्च ।। ३६२ ॥ चिनीपीम्यशिभ्यो रुः ॥ ८०६ ।। चिमिदिशंसिभ्यः कित् ।। ४५४ ।। चिमे? चडञ्चौ ।। १२२ ॥ चिरेरिटोभ च ।। १४६ ।। चुम्बिकुम्बि-च ।। ३६० ।। छदिवहिभ्यां छन्दोधौ च ।। ६५४ ।। छविच्छिवि-दयः ।। ७०६ ।।
छिदिभिदिपिटेर्वा ॥ ३० ।। छो डग्गादिर्वा ॥ ४७१ ।। जजलतितल-यः ।। १८ ।। जठरक्रकर-दयः ।। ४०३ ॥ जनिपरिणकिजु--श्च ।। १४० ॥ जनिहनिशद्यर्तेस्त च ।। ८०६ ।। जम्बीराभोर--दयः ।। ४२२ ।। जाया मिग: ।। ८६० ।। जिभृसृभ्रस्जि--श्च ॥ ४४७ ।। जीण शीदी--कित् ॥ २६१ ।। जीवेरदानुक् ।। ७६५ ।। जीवेरातुः ॥ ७८२ ।। जीवेरातृकोजैव च ॥ ६७ ।। . जीवेर्मश्च ।। २१६ ।। ज़ कृ त शृ.--ण्डः ।। १७३ ॥ ज़ पृ.दृ.श --दौ ।। ४७ ॥
विशिभ्यामन्तः ।। २१६ ॥ ज़ वृ भ्यामूथः ।। २३६ ।। ज़ शृ स्तृ जागृ--ङित् ।। ७०५ ।। ज षोरश्च वः ।। ६६४ ।। झमेर्भः ।। १३७ ।। टिण्टश्चर् च वा ॥ १५० ।। डित् ।। ६०५ ॥ डिमेः कित् ।। ३५६ ॥ डीनीबन्धि-डिम्बः ॥ ३२५ ।। गेल्प् ॥ २० ॥ तङ्किवङ्कयङ्कि-रिः ।। ६६२ ॥ तडेरागः ।। ६७ ॥ तनित लापा--उत्रः ।। ४६१ ।।
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उणाद्यकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 119
तनित्यजियजि-डद् ॥ ८६५ ।। तनेर्डउः ॥ ७४८ ॥ तनेडित् ।। ६७४ ।। तनेवच ।। ८७२ ॥ तनेर्यतुः ।। ७८१॥ तप्यरिणपन्य--रसः ।। ५६६ ।। तमिमनिकरिणभ्यो डुः ॥ ७६५ ।। तमेोऽन्तोदीर्घस्तु वा ।। ४८६ ।। तलिकसिम्यामीसग ।। ५७६ ॥ तवेर्वा ।। ५५० ॥ तस ।। ५८० ॥ तिजियुजेर्ग च ॥ ३४५ ॥ तिनिशेतिशादयः ।। ५३७ ।। तीवर-धीवर-दयः ॥ ४४४ ।। तुदादिविषिगुहि-कित् ॥ ५ ॥ तुधादिवृजि-कित् ।। २७३ ।। तुदिमदिपद्य--श्छक् ॥ १२४ ।। तुभूस्तुभ्यः कित् ।। ६६६ ।। तुम्बस्तम्बादयः ॥ ३२० ।। तुम्बेरुरुः ।। ८१७ ॥ तुल्वलेल्वलादयः ।। ५०० । तुषिकुठिभ्यां कित् ॥ ४०८ ।। तषेरीम रणोऽन्तश्च ।। ६४० ।। तृपिवपिकुपि--कित् ।। ४६८ ।। तृपेः कत् ।। ८८१ ॥ तृ क कृपि--कीट ॥ १५१ ।। तृ क श पृ.--रणः ॥ १८७ ।। तृ खडिभ्यां डूः ।। ८४५ ।। तृ जिभूवदि--भ्य: ।। २२१ ।।
तृ दू भ्यां दूः ।। ८४६ ।। तृ पलिमलेरक्षुः ।। ८२७ ।। तृ भ्रम्यद्यापि--श्च ।। ६११ ॥ त स्तु तन्द्रितन्त्र्य--ईः ।। ७११ ।। तोः किक् ।। ८६६ ।। त्रः कादिः ।। ४०६ ।।
अट् ॥ ४४६ ।। . पेरुसः ।। ५७८ ॥ त्वष्टक्षतृदुहित्रादयः ।। ८६५ ।। दधिषाय्यदीधीषाय्यौ ।। ३७४ ।। दमेरुनसूनसौ ।। ६८७ ।। दभेणिद्वादश्च डः ॥ ४०२ ।।
॥ ६८६ ।। दमेर्लुक् च ।। ७५६ ।। दमो दुण्ड् च ।। ३३५ ।। दम्यमितमि--स्तः ॥ २०० ।। दलिवलि--ऽपः ॥ ३०४ ।। दलेरीपो दिल च ॥ ३१० ॥ दस्त्यूहः ।। ५६४ ॥ दाभाभ्यां नुः ॥ ७८६ ॥ दाभूक्षण्युन्दि-रनुङ् ।। ७६३ ।। दिननग्नफेन-यः ॥ २६८ ॥ दिव ऋः ।। ८५२ ।। दिवादिरभि--कित् ।। ५७२ ।। दिविपुरिवषि--कित् ।। ५६६ ॥ दिवेर्डिन् ॥ ६४६ ॥ दिवेद्यौं च ॥ ४४८ ॥ दिव्यविश्रुकु--ऽटः ।। १४२ ।। दुःस्वपवनिभ्यः स्थः ।। ७३२ ॥
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श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
दुकूल-कुकूल-दयः ।। ४६१ ।। दुरोद्रः-दुर्च ॥ १५६ ॥ दुडित् ॥ ६६६ ।। दृपृभृमृ-ऽतः ।। २०७ ।। दृभिचपेः स्वरा--श्च ।। ८४१ ।। दृमुषिकृषि--कित् ।। ६५१ ।। दृ कृ न सृभृ--ऽकः ।। २७ ।। दृ.पृ.व.भ्यो विः ।। ७०४ ।। देङः ।। ६६८ ॥ दो डिमः ॥ ३५५ ॥ धु गमिभ्यां डोः ।। ८६७ ॥ धु तेरादेश्च जः ॥ ६९१ ।। द्य द्रुभ्याम् ।। ७४४ ।। धु सुनिभ्यो माङो डित् ।। २६६ ।। द्रमो रिणद्वा ॥ १५ ॥ द्रागादयः ।। ८७० ।। द्रुहिवृहिमहि--कतृ: ।। ८८४ ।। द्रुहृवृहि--इणः ।। १६४ ।। द्रोर्वा ॥ १८४ ॥ द्रोह स्वश्च ।। ८६८ ।। द्वारशृङ्गार--दयः ॥ ४११ ॥ धाग्राजिश --न्यः ।। ३७६ ॥ धालूशिद्धिभ्यः ।। ७० ।। धूगो धुन् च ।। ७८५ ।। धूमूभ्यां लिक्लिणी ॥ ७०१ ॥ धूशाशीङो ह स्वश्च ।। ६७८ ।। धृषिवहे--स्य ।। १८६ ॥ धृषदिधिषदिधीषौ च ।। ८४२ ।। धेः शित् ।। ७८७ ॥
ध्याप्यो/पीच ॥ १०८ ।। ध्र धूदि--कित् ।। २६ ।। नत्र आपेः ।। २११ ।। नत्र ईहेरेहेधौ च ।। ६७५ ।। नत्रः ऋमिगमि--डित् ।। ४ ।। नञः पुंसेः ॥ ३२ ॥ । नञः सहेः षा च ।। १८१ ।। नजो दागो डितिः ।। ६६७ ॥ नमो भुवो डित् ॥ ५१२ ।। नजो लम्बेर्नलुक् च ।। ८३८ ।। नो व्यथेः ।। ५५२ ।। नजो हलिपतेः ।। ३५८ ।। नडेरिणत् ।। ७१२ ।। नदिवल्लयर्ति--ररिः ।। ६६८ ।। नमितनिजनि-च ।। १३६ ।। नमेः प च ।। ८६२ ।। नमे क् च ।। ७२० ।। नर्कुट-कुक्कुटो-यः ।। १५५ ।। नशि-न्भ्यां नक्तननौ च ।। ६३५ ।। नसिवसिकसि-रिणत ।। ४० ।। नहिलङ्गेर्दीर्घश्च ॥ ४६६ ।। नहेर्भ च ॥ ६२१ ॥ नाम्युपान्त्यक गृ.-कित् ।। ६०६ ॥ निघृषीष्य-कित् ।। ५११ ।। नियः षादिः ।। ८६४ ।। नियो डित् ।। ८५४ ॥ नियो डित् ।। ६६४ ।। नियो वा ।। ३०२ ।। निरइण ऊहश् ।। ५६३ ।।
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उणाद्यकारादिसूत्रानुक्रमणिका
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निषजेधित् ।। ६७१ ।। निष्क-तुरुष्को-यः ॥ २६ ॥ नीनरमि-कित् ।। २२७ ।। नीमीकुतुचेर्दीर्घश्च ।। ४४३ ॥ नीवीप्रहृभ्यो डित् ।। ६१६ ।। नीसावृयुश.-मिः ।। ६८७ ।। नीह्विण्ध्य-स्त्वः ।। ५२५ ।। नुवो धथादिः ।। ६७३ ।। नतिशृधि-कित् ।। ८४४ ।। नेः स्यतेरधक् ।। २५२ ॥ नेरञ्चेः ।। ७२४ ॥ न्युखादयः ।। ६० ।। न्युझ्यामञ्चेः--च्च ।। १००३ ।। न्युद्भ्यां शीङः ।। २२८ ।। पंसेदीर्घश्च ।। ७१८ ॥ पःपीप्यौ च वा ।। ७७५ ॥ . पचिवचिभ्यां सस् ।। ६८३ ॥ पचेरिच्चातः ।। ७३५ ।। पञ्चमाडडः ।। १६८ ॥ पटच्छपदादयो-रगाः ।। ८८३ ।। पटिवीभ्यां टिस-डिसौ ।। ५७६ ।। पठेरिणत् ।। २८७ ॥ पतिकृलूभ्यो णित् ।। ४७६ ।। पतितमितृ --ङ्गः ॥ ६८ ।। पते: सलः ॥ ५०४ ।। पतेरत्रिः ।। ६६७ ।। पतेरत्रिन् ।। ६३० ॥ पथयूथ--दयः ।। २३१ ।। पथि-मन्थिभ्याम् ।। ६२६ ॥ पदिपठिपचि--भ्यः ।। ६०७ ॥
पनेर्दीर्घश्च ।। ७६६ ॥ पम्पाशिल्पादयः ।। ३०० ॥ परमात् कित् ॥ ६२५ ।। पराभ्यां शृ--डित् ॥ ७४२ ॥ पराच्छो डित् ॥ २५५ ।। पलिमृभ्यामाण्डुकण्डुको ।। ७६७ ।। पलिसचेरिवः ।। ५२२ ॥ पलेराशः ।। ५३३ ।। पषोणित् ।। १६२ ।। षष्ठधिठादयः ।। १६६ ॥ पस्थोऽन्तश्च ॥ ६६३ ॥ पाट्यजिभ्यामलिः ॥ ७०२ ।। पातेः कृथ् ।। ८६३ ।। पातेरिच्च ।। ८५८ ।। पातेजस्थसौ ।। ६७७ ।। पातेडुम्सुः ॥ १००२ ॥ पातेर्वा ।। ६५६ ।। पादाच्चात्यजिभ्याम् ।। ६२० ।। पादावम्यमिभ्यः श: ।। ५२७ ॥ पापुलिकृषि--कित् ।। ४१ ॥ पारेरज् ॥ ८७३ ।। पाहाभ्यां पयह्यौ च ।। ६५३ ॥ पिचण्डैरण्ड-दयः ॥ १७६ ।। पिञ्छोल-कल्लोल-दयः ।। ४६५ ।। पिजिमजि--ऊलः ॥ ४८८ ।। पिशिमिथिक्षुधिभ्यः कित् ।। २६० ।। पिशेराचक् ।। ११६ ॥ पिषः पिन्-पिण्यौ च ।। ३६ ।। पीङ: कित् ।। ८२१ ।। पीडो नसक् ।। ५८२ ॥
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पीपूङो ह, स्वश्च ।। १२५ ।। पीमृगमित्र - युः ।। ७४१ ।। पीविशिकुरिण -- कित् ।। १६३ ।। पुतपित्त --दय: ।। २०४ ।।
पुत्रादयः ।। ४५५ ।। पुले : कित् ।। ५० ।।
पुवः पुन् च ।। १२८ ॥ पूगो गादिः ।। १७४ ।। पूमुदिभ्यां कित् ।। ९३ ।।
होः पुन्मूरौ च ।। ८६ ।। पून्यमिभ्यः श्च ।। ६४७ ।। पृपूभ्यां कित् ।। २९३ ॥ पृषि रञ्जि- कित् ।। २०८ ।। पृषिहृषिभ्यां वृद्धिश्च ।। ६३६ ।। पृ. काहृषिधृषीषि - कित् ॥ ७२६ ॥ पृ. पलिभ्यां टित्-स्य ॥। ११ ॥ पृ. पलिभ्यां रित् ।। २४८ ।। प्याधापन्यनि- - नः ।। २५८ ॥
प्रः शुः ।। ८२५ ।।
प्रः सद् ।। ८९७ ।।
प्रथेविट् पृथ् च ।। ५२१ ।। प्रथेर्लुक् च वा ।। ६४७ ।। प्रप्रतेर्याबुधिभ्याम् ।। ६२३ ।। प्रह्वाह्वाय-यः ।। ५१४ ।। प्राङ: परिणपनि - भ्यः ।। ४२ ।। प्रात्सदिरी - श्च ।। ६१० ।।
प्रात्स्थ: ।। ६२४ ।। प्रादतेर र् ।। ६४५ ॥
श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
प्रियः कित् ॥ ६६ ॥ प्रीकैपैनीलेरङ्गुक् ।। ७६१ ।।
प्रुषिप्लुषिशुषि - सिक् ।। ७०७ ।। प्लुज्ञाय जिषपि - स्ति: ।। ६४६ ।। प्लुषेः प्लष् च ।। ५६६ ।। फनसतामरसादयः ।। ५७३ ।।
फलिवल्यमेर्गुः ।। ७५८ ।। फले : फेलू च ।। ८३० ।। फलेर्गोऽन्तश्च ।। २६१ ।। बंहिबृ हेर्न लुक् च ।। ६६० ।। बन्धिवहि - इत्रः ।। ४५६ ।। बन्धेः ।। १५७ ।
बलि बिलि-ग्राहकः ।। ८१ ।। बलेfरद्वा ।। ५३६ ॥ बलेर्वोऽन्तश्च वा ।। १३३ ।। बहुलं गणवृद्धी चादेः ।। १६ ।। बृहेर्नोऽच्च ।। ६१३ । भजे : कगौ च ।। ४७७ ।। भण्डेर्नलुक् च वा ।। ४८२ ।। भन्देर्वा ।। ३९१ ॥
भरिदुतौ चातः ।। १०३ ।। भावः ॥ ८८६ ॥
भापाचरण - पः ।। २६६ ।। भिक्षुणी ।। १६८ ।। भियः षोऽन्तश्च वा ।। ३४४ ।। भियो द्व े च ।। ७८ ।। भिल्लाच्छभल्ल - दयः ।। ४६४ ।। भिषेभिषभिष्णौ च वा ।। १३१ ।। भीवृधिरु - रः ।। ३८७ ।। भीरण - शलिवलि - कः ।। २१ ।। भुजिकुति - कित् ।। ३०५ ।। भुजेः कित् ।। ८०२ ।।
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उणाद्यकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 123
भुवो वा ।। ६२२ ।। भूक्षिपिचरेरन्युक् ।। ८०४ ॥ भूगृ वदिचरिभ्यो णित् ॥ ४६० ।। भूसूकुशिविशि-कित् ।। ६६३ ॥ भृपणिभ्यामिज्-च ।। ८७५ ।। भृभृतृ त्सरि-उः ।। ७१६ ।। भृवृभ्यां नोऽन्तश्च ।। ६४ ।। भृशीशपि-ऽथ: ।। २३२ ।। भ्रमिगमितनिभ्यो डित् ॥ ८४३ ।। भ्र गतृणगुण-दयः ।। १८६ ॥ मघाघवाघदीर्घादयः ।। ११० ॥ मङ्कर्नलुक्-स्य ॥ ४२४ ।। मङ्कमकमुकौ च ॥ १५४ ।। मङ्ग लुक् च ।। २५३ ।। मण्डेमडुड् च ।। ५५ ।। मरिणवसेणित् ।। ५१६ ॥ मदिमन्दिचन्दि-इरः ।। ४१२ ।। मदेः स्यः ।। ३८३ ।। मन् ॥ ६११ ॥ मनिजनिभ्यां धतौ च ॥ ७२१ ।। मनेरुदेतौ-वा ।। ६१२ ।। मनेर्मनमातौ च ।। १०० ।। मयेधिभ्यामूखेखौ ॥ ६१ ॥ मलेर्वा ।। ५१७ ।। मवाकश्यामाक-यः ।। ३७ ।। मषिमसेर्वा ।। १५ ।। मस्जीष्यशिभ्यः सुक् ।। ८२६ ।। मस्ज्यङ्किभ्यामुशः ।। ५३८ ।। मस्यसिघसि-उरिः ।। ६६६ ।।
महत्युर्च ॥ ७३७ ॥ महिकरिणचण्य-णित् ॥ ४२८ ।। महेरुच्चास्य वा ॥ ८६ ।। महेरेलः ।। ४६२ ॥ महेरिणद्वा ।। २८५ ॥ मह्यविभ्यां टित् ।। ५४७ ॥ माङस्तलेरुङ्गक च ।। १०६ ।। मानिभ्राजेर्लुक् च ।। ८५६ ।। मावावद्यमि-सः ॥ ५६४ ।। मासाविभ्या-मली ॥ ७०३ ।। मिगः खल-च्च ।। ४६७ ॥ मिथिरञ्ज्युषि-कित् ।। ६७१ ।। मिवमिकटि-रुकः ।। ५१ ।। मिवहिचरिचटिभ्यो वा ।। ७२६ ।। मीज्यजिमा-सरः ।। ४३६ ।। मीमसिपशि-ऊरः ॥ ४२७ ।। मुचिस्वदेर्ध च ॥ ६०२ ॥ मुचेर्घयघुयो । ३७१ ॥ मुचेडुकुन्दकुकुन्दौ ।। २५० ॥ मुदिगूरिभ्यां-न्तौ ।। ४०४ ।। मुमुचान-णाः ।। २७८ ॥ मुरलोरलवि-दयः ।। ४७४ ।। मुर्वेर्मुर् च ।। १३२ ।। मुषेरुण चान्तः ॥ ६३३ ।। मुषेर्दीर्घश्च ।। ४३ ।। मुस्त्युक् ।। ८०५॥ मुहिमिथ्यादेः कित् ।। १००० ।। मुहेः कित् ॥ ७०. ।। मृजिखन्याहनि-डित् ।। ४७२ ।।
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124 ]
मृज़ शकम्य - ऽठः ।। १६७ ॥ मृजेर्गुणश्च ।। ८३३ ।। मृजेर्णालीयः ।। ३७७ ।। मृत्रपिभ्यामिचः ।। ११७ ।। मृदकन्दकुण्ड - मृदेर्वोऽन्तश्च वा ।। ४६ ।। मृद्युदिपिठि - कित् ।। ३६६ ।। मृमन्यञ्जिञ्जलि - ऊकः ।। ५८ ।।
- रलः ।। ४६५ ।।
मृशी पसि - दिः ।। ३६० ।। विकण्यरि-- ईचि: ।। ६२७ ।।
म्र उत् ।। ८८६ ॥ म्रियतेरीचरण ।। ११८ ।। म्लेच्छडे स्वश्च वा ।। ३ ।। यशुन्धिदहि--युः ॥ ८०१ ।। यजेः कच ।। ८२ ॥ यजो यच ।। ६६४॥ यतिननन्दिभ्यां दीर्घश्च ।। ८५६ ।। यमिदमिभ्यां डोस् ।। १००५ ।।
यमेरुन्दः ।। २४६ ॥ यमेर्दुक् ।। ७८३ ।।
यम्यजिशक्य - उनः ॥ २८८ ॥ यापाभ्यां द्वे च ।। ७१४ ।।
युजलेराषः ।। ५४५ । युबलिभ्यामासः ।। ५७४ ।। युयुजियुधि-- कित् ।। २७७ ।। युष्यसिभ्यां क्मद् ।। ६६ ।।
युसुकुरु-च्च ।। २६७ ।। येन्धिभ्यां यादेधौ च ।। ६६८ ।।
योः कित् ।। ६५८ ॥ योगः ।। ८५० ।।
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
योरूच्च वा ।। ५४१ ।। वसिरसि -
-- रन: ।। २६६ ।।
रङ्घिलङ्गिलिङ्ग लुक् च ।। ७४० ।। रञ्जेः कित् ।। ६८१ ।। रभिप्रथिभ्या रस्य ।। ७३० ।।
रमेस्तच ।। २६४ ।।
रसेर्वा ।। २६० । रातेर्डेः ।। ८६६ ।।
1
रालापाकाभ्यः कित् ॥ ६३ ॥ राशदिखक - स्त्रिः ।। ६६६ ॥
रिचेः कच ।। ६८० ॥ वृभ्यां पस् ।। ८१ ।। रीशीभ्यां फः ।। ३१४ ॥ रुक्मग्रीष्म-दय: ।। ३४६ ।। रुचिकुटि --मलक् ।। ५०२ ।। रुचिभुजिभ्यां किष्यः ।। ३८४ ।। रुचि शुचि -इस् ।। ६८६ ॥ रुद्यतंजनि--उस् ।। ६६७ ।। रुपूभ्यां कित् ।। ८०७ ।। रुहिनन्दि--शिषि ।। २२० ।। रुहियजेः कित् ।। २८० ॥ रुहेवृद्धिश्च ।। ५४८ । रोर्वा ।। २३५ ।। लक्षेर्मोऽन्तश्च ।। ७१५ ।।
लगेरुडः ।। १७७ ॥ लङ्घ े रट् नलुक् च ।। ८७७ ।। लटिखटि--वः ।। ५०५ ॥ लषेः शू च ।। २८६ ॥
लषेरुचः कश्च ।। ११६ ॥ लषेष्चि वा ।। ५०६ ।।
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उणाद्यकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 125
लस्जीष्यि शलेरालुः ।। ८२२ ।। लाक्षाद्राक्षामिक्षादयः ।। ५६७ ।। लादिभ्यः कित् ।। ३६७ ।। लिहेजिह च ।। ५१३ ।। लुधूप्रच्छिभ्यः कित् ।। ६७६ ।। लुषेष्टः ।। १३८ ॥ . लूगो हः ।। ५८६ ॥ लूपूयुवृषि--कित् ।। ६०१ ।। लूम्रो वा ।। २०२ ॥ वचेः कगौ च ।। ७६० ॥ वचेरन्कुः ।। ७६६ ।। वचोऽथ्य उत् च ।। ३८६ ॥ वयथिभ्यामुष्यः ।। ३८५ ।। वडिवटिपे--रवः ।। ५१५ ।। वणेरिणत् ॥ ६२६ ।। वदिसहिभ्यामान्यः ।। ३८१ ॥ वद्यविच्छदि--न्तिः ।। ६६५ ।। वनिकरिण--ष्ठः ॥ १६२ ।। वनिवपिभ्यां गिगत् ।। ४२१ ।। वनेस्त च ॥ १७५ ॥ वयःपयःपुरो--गः ।। ६७४ ।। वयिमखचिमादयः ।। ३५० ।। वर्धरकिः ।। ६२४॥ वलिनितनिभ्यां वः ।। ३१७ ।। वलिपुषेः कलक् ।। ४६६ ।। वले रक्षः ।। ५६६ ।। वशेः कित् ।। ८७६ ।। वष्टे: कनस् ।। ६८५ ।। वसेरिणद्वा ।। ७७४ ।। वस्त्यगिभ्यां णित् ।। ६७० ।।
वस्यतिभ्यामातिः ।। ६६२ ।। वहियुभ्यां वा ॥ ५७१ ।। वहिमहिगु--ऽतुः ।। ७७६ ।। वहे: च ।। ८३२ ।। वारिसादेरिणिक ।। ६४४ ।। वातात् प्रमः कित् ।। ७१३ ।। वाश्यसिवासी--उरः ॥ ४२३ ।। वातेणिद्वा ।। ६५७ ॥ वारौि ।। ६४४ ॥ विचिपुषिमु--कित् ।। २२ ॥ विडिविलि--कित् ॥ १०१ ॥ विदनगगन-दयः ।। २७५ ॥ विदिप भ्यां कित् ।। ५५८ ।। विदिभिदि--कित् ।। २३४ ।। विदिवृतेर्वा ।। ६१० ।। विदोरधिक् ।। ६७६ ।। विधेः कित् ।। ४२५ ॥ विधेर्वा ।। ६७२ ।। विपिनाजिनादयः ।। २८४ ।। विन्देर्नलुक् च ।। ६ ।। वियो जक् ।। १२७ ॥ विलिभिलि-कित् ।। ३४० ॥ विले:--कित् ।। ५६२ ॥ विशिविपाशिभ्यां क्विप् ॥ ६५० ॥ विशेरिपक् ।। ३०६ ॥ विश्वाद् विदिभुजिभ्याम् ।। ६५६ ॥ विषेः कित् ॥ ७६६ ।। विष्टपोलप-यः ॥ ३०७ ।। विहडकहोड-दयः ।। १७२ ॥ विहायस्सुमनस्-सः ।। ६७६ ।। विहाविशा-केलिमः ।। ३५४ ।।
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126
]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
वीपतिपटिभ्यस्तन: ।। २६२ ॥ वीयुसुबह्यगिभ्योऽनिः ॥ ६७७ ।। वीसज्यसिभ्यस्थिक् ।। ६६६ ।। वृकटिशमिभ्य आहः ।। ५६१ ।। वक त मीङ्माभ्यः षः ॥ ५४० ।। वृगो व्रत् च ।। ६५५ ॥ वगनक्षिपचि-ऽत्रः ।। ४५६ ।। वृङ एण्यः ।। ३८२ ।। वृङः शषौ चान्तौ ।। ३६६ ।। वृजितुहि-कित् ।। २८३ ।। वृतुकुसु-श्च ।। २४० ।। वृतेस्तिकः ॥ ७५ ॥ वृधृपृ.व साभ्यो नसिः ।। ७०६ ।। वृधेर्वा ।। २८१ ॥ वमिथिदिशि--न्ताः ॥ ६०१ ।। वेः साहाभ्याम् ।। ६०० ।। वेगो डित् ।। ६२८ ॥ वेतेस्तादिः ॥ ३७८ ॥ वौरिचेः स्वरा-श्व ॥ ६१७ ।। व्यवाभ्यां तने--वेः ॥ ५६५ ॥ व्येग एदोतौ च वा ।। ६१४ ।। वियो हिक् ।। ७१० ।। शंसेः श इच्चातः ॥ ३०६ ।। शः सन्वच्च ॥ ७४७ ।। शकेरन्धः ॥ ८४८ ॥ शकेरुन्तः ।। २२३ ॥ शकेरुन्तिः ॥ ६६६ ।। शकेरुनिः ।। ६८४ ।। शकेऋत् ॥ ८६१ ॥ शतेरादयः ।। ४३२ ।।
शदिबाधि--च ।। २६६ ।। शदेरूच्च ।। ३६४ ।। शपेः फ च ।। ४०१ ।। शफकफ-दयः ।। ३१६ ।। शमिकमिपलिभ्यो बलः ॥ ४६६ ॥ शमिमनिभ्यां खः ।। ८४ ।। शमिषणिभ्यां ढः ।। १७६ ।। शमेव च वा ।। ४७० ।।। शमेर्लुक च वा ॥ १६५ ।। . . शमो नियोडैस्मलुक् च ।। १००४ ।। शम्बूकशाम्बूक-यः ।। ६१ ॥ शम्यमेरिणद्वा ।। ३१८ ।। शलिबलिपति--पाकः ॥ ३४ ॥ शले रङ्कुः ।। ७५५ ॥ शलेराटुः ।। ७६३ ॥ शल्यरिणत् ।। ५६ ॥ शल्यलेरूच्चातः ।। ३१६ ।। शव-शशेरिच्चातः ।। ४१३ ।। शाखेरिदेतौ चातः ॥ ४०० ।। शामाश्याशक्य-लः ।। ४६२ ।। शाशपिमनि-दः ।। २३७ ।। शासिशंसि-स्तृः ।। ८५७ ।। शिक्यास्याढय-यः ।। ३६४ ।। शिग्रगेरुनमेर्वादयः ।। ८११ ।। शिलविलादेः कित् ॥ ३२३ ।। शीङ: फस् च ।। ६८२ ॥ शीङस्तलक्पा-लाः ॥ ५०१ ।। शीङ: सन्वत् ।। २६७ ।। शीङापो ह्रस्वश्च वा ॥ ५०६ ॥ शीङो धुक् ॥ ७८४ ॥
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उणाद्यकारादिसूत्रानुक्रमणिका
[ 127
शीङो लूः ।। ८२० ।। शीभीराजेश्चानकः ॥ ७१ ।। शीरीभूदू-कित् ॥ २०१ ।। शुकशीमूभ्यः कित् ।। ४६३ ।। शुभिगृहि--कित् ।। ३५ ।। शुभेः स च वा॥ ७४३ ।। शुषीषि बन्धि--कित् ।। ४१६ ।। शृङ्गशादियः ।। ६६ ॥ शृणातेरावः ।। ५२० ।। शू दृ भसेरद् ।। ८६४ ।। श्मन: शीङो डित् ॥ ८१० ।। • श्यः शीत च ॥ ८१६ ।। श्यतेरिच्च वा ।। ८५ ।। श्याकठिखलि--इनः ॥ २८२ ।। श्रन्थेः शिथ् च ॥ ४१४ ॥ शृदक्षिगृहि--य्यः ।। ३७३ ।। श्रेढिः ।। ६३१ ।। श्रो नोऽन्तो ह स्वश्च ।। ४९८ ॥ श्लिषेः क च ।। ७३६ ।। श्लिषेः शे च ।। ५४३ ।। श्लेष्मातकाम्रा-दयः ।। ८३ ॥ श्वन्मातरिश्वन्--ति ॥ ६०२ ।। श्वशुरकुकुन्दुर--दयः ।। ४२६ ।। श्वितर्वश्च मो वा ।। ४५२ ।। श्व: शव् च वा ।। ६५५ ।। षप्यशौभ्यां तन ।।६०३ ।। षसेरिणत् ।। २५६ ॥ संविभ्यां कसेः ॥ ५२ ॥ संश्चद्वेहत्साक्षादादयः ।। ८८२ ॥ संस्तुस्पृशिमन्थेरानः ॥ २७६ ॥ सजेध च ।। ३५६ ।। सदिवत्यमि--रनिः ।। ६८० ।।
सनिक्षमिदूषेः ।। ६०४ ।। सतरय्वन्यू ।। ८०३ ।। सनेर्डखिः ।। ६२५ ॥ सनेडित् ।। ३३० ।। समिणनिकषिभ्यामाः ।। ५६८ ।। सर्तेरघः ।। १११ ॥ सतरड् ॥ ८७८ ।। सर्तेर्गोऽन्तश्च ।। ४७८ ।। सतंरिणत् ।। २३० ॥ सतः षपः ।। ३१३ ॥ सतेः सुर् च ॥ १०८ ॥ सलेरिणद्वा ॥ ५१० ॥ सव्यात् स्थः ।। ८५५ ।। सहेः षष् च ।। ६५१ ॥ सहेर्ध च ।। ६६२ ।। सात्मन्नात्मन्वे--ति ।। ६१६ ।। सारेरथिः ।। ६७० ॥ सिटिकिभ्या--च ।। ३३२ ॥ सिन्दूरकर्चुर--दयः ।। ४३० ॥ सिविकुटिकुठि--कित् ॥ ७५३ ।। सिवेडित् ॥ १२१ ।। सीमन्तहेमन्त--यः ॥ २२२ ।। सुव: ।। ६२१ ॥ सुसितनि--वा ॥ २०३ ॥ सूङ: कित् ।। ७८८ ॥ सूधूभूभ्रस्जिभ्यो वा ॥ २७४ ।। सपषिभ्यां कित ॥ ४३६॥ सूमूखन्युषिभ्यः कित् ॥ ४४६ ।। सृजेः स्रक्सृको च ॥ ६०७ ।। सृरणीकास्तीक--यः ।। ५० ॥ सृपृ.भ्यां दाकुक् ॥ ७५६ ॥ सृपृ. प्रथिचरि--रमः ॥ ३४७ ।।
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128 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
सृवयिभ्यां णित् ।। ५७० ।। सृवृनु भ्यो रिणत् ।। ६६ ।। सृसृपेः कित् ।। १४६ ।। सहभृधृस्तृ सूभ्य ईमन् ।। ६१८ ॥ सेरी च वा ॥ ३४३ ।। सेडित् ॥ ५७७ ॥ सेर्वा ।। २६२ ॥ सोरर्तेर्लुक् च ।। ६४६ ॥ सोरसेः ।। ८५३ ।। सोरस्तेः शित् ॥ ६५० ।। सोरू च ।। २६३ ।। सोरेते रम् ॥ ६३४ ॥ सोबॅग आह च ।। ६०३ ।। सोविदः कित् ।। ४५७ ।। स्कन्देधुं च ।। ६६० ।। स्कन्द्यमिभ्यां धः ॥ २५१॥ स्त्री ।। ४५० ।। स्थण्डिलकपि--दयः ।। ४८४ ॥ स्थविरपिठिर--दयः ॥ ४१७ ॥ स्थाक्षुतोरूच्च ॥ १८५।। स्थाछामासा--यः ॥ ३५७ ।। स्थामदिपद्यति--वन ।। १०४ ।। स्थार्तिजनिभ्यो घः ।। १०६ ।। स्थावङ्कि-क् च ।। ४८६ ॥ स्थाविडेः कित् ।। ४२६ ।। स्थो वा ॥ ४७३ ।। स्नुपूसूम्वर्क--कित् ।। ५४२ ॥ स्यतेरी च वा ।। ६१५ ।। स्पृशे: श्व: पार् च ॥ ५२३ ।। स्फुलिकलि--इङ्गक् ॥ १०२ ।। स्पशिभ्रस्जे: स्लुक् च ।। ७३१ ॥ स्यतेरिणत् ।। ६३६ ॥
स्यन्दिसृजिभ्यां च ।। ७१७ ।। स्यमिकाषिदू--ईकः ।। ४६ ॥ स्यमेः सीम् च ॥ ४४ ।। स्रर्तेरूच्चातः ।। ६८६ ।। स्रीभ्यां तस् ।। ६७८ ।। स्त्रोश्चिक् ।। ८७१ ।। स्वरेभ्य इः ॥ ६०६ ।। हनियाकृभू-द्व च ।। ७३३ ।। हनेर्घतजघौ च ॥ २७२ ।। हन्तेरंहू च ।। ६५४ ॥ हरिपति--द्रुवः ।। ७४५ ।। हिण्डिविलेः च ।। ३२४ ।। हिरण्यपर्जन्यादयः ।। ३८० ।। हिंसेः सिम् च ।। ५८८ ।। हुपूग्गोन्नो--जि ।। ८६३ ।। हुयामाश्रु--स्त्रः ।। ४५१ ।। हणिणिरिण--दयः ।। ६३७ ॥ हृग ईतरण ॥ २१३ ॥ हजनिभ्यामिमन् ।। ६१७ ।। हृभूलाभ्य प्राणकः ।। ६८ ।। . हृरुहिपिण्डिभ्य ईतक: ।। ७६ ॥ हृश्यारुहि--इतः ।। २१० ।। हृषिपुषिधुषि--त्नुः ।। ७६७ ।।। ह.षिवृतिचटि--उलः ।। ४८५ ।। ह सृफलिकषेरा च ।। १६ ।। ह.सृरुहि-इत् ।। ८८७ ।। हेहिन्च ।। ७६० ॥ हो जहू च ।। ७८६ ॥ होमिन ।। ६२७ ।। ह्रियः किद्रो लश्च वा ।। ७५० ।। ह्रियो रश्च लो वा ॥ २५ ।।
000
.
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शुद्धिपत्रकम् षष्ठोऽध्यायः
or
w
०००
w
w
२०
w
is
is
भवे तु
२५
पृष्ठ पंक्ति - अशुद्ध हृदीयाः
हृदीयः चारायणायाः
चारायणीया: हारिकाता:
हारितकाता: काष्वाः
काण्वा: २४ प्राश्म्:
प्राश्मः ज्या
ञ्यः भवेतु पंक्ति संख्या २६ में जोड़ें : त्रिष्टुम्, अनुष्टुभ्, जनपद, भरत, उशीनर, ग्रीष्म, अच्छन्दसि,
पीलुकरण, उदस्थान, देशे, वृषद्, अंशे, वृषदंश इत्यन्ये। भल्लकीय रथन्तर मध्यंदिन बृहत् महिमन् । अद्विगित
अद्विरिति ०कृपतेः
०प्रकृतेः यि यः
यिन्यः २७ ०ङाः कुवाचार
कुवाचर अकीणां
अर्काणां ०साहचयदित्र
साहचर्यादत्र वंष्टपुरेयः
वैष्टपुरेयः जति
•र्जातः लुस्व०
लुप्त्व० शम्या
शम्याश्च पयम्
पयस् वहं पशका.
मशका. १०६ काष्ठा:
काण्ठा: ऋत्रो
त्रयो ११६ राहि.
रोहि० १२५ स्थामन
स्थामन्
०डी:
M००
वह
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130 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
पृष्ठ
पंक्ति
अशुद्ध
१३२ १४४
२७
जयानि शिकला० ०घोपा.
शुद्ध जयिनि शकला० घोषा० पिङ्गन अभ्र या
१४५ १४६
पिङ्गन
१५८
अभ्र व्या
१७७ १८७ १६६
250
माई.. इकड तावत्यकम् श्व०
०मा० इकड् तावत्कम् श्व
वहांते
२०१ २०१
।
२०२
२०३
२०३
K
सप्तमोsध्यायः
वहति २५ ग्रहणवता
ग्रहणवता नाम्नेति शटकं
शकटं लुप्यप्रसङ्गः
लुप्प्रसङ्गः केवलाभ्यां
केवलाभ्यामेव हलसीराभ्यां भाक्त स्तण्डुलाः
भाक्तास्तण्डुलाः एवमुष्यकुलेति
एवममुष्यकुलेति मांद
मांस देव०
देव०- अर्थादिति ब्रीहितण्डलीयम्,
व्रोहितण्डुल्यम्, उकाररूपो
ऊकाररूपो तूर्या गाणाम्
तूर्याङ गाणाम् भोगोत्तरपदात्मय्यामीनः
भोगोत्तरपदात्मभ्यामीन: सनङ्गके
सनङ्गवे स्वार्ये एयरिणनि
स्वार्थे एयरिणति षष्ठीप्रवृत्तैर्दर्शनात्
षष्ठीप्रवृत्तेदर्शनात् उपचरेत
उपचरित १८ वीं पंक्ति (गर्गादय इति) के बाद नीचे की पंक्तियाँ बढाएँ-आदि शब्दादुपचारो
गृह्यते । यदा गर्गशब्देन गर्ग उपचारात्तदपत्यानि वा अभिधीयन्ते तदापि भावप्रत्ययान्तस्य जातिरेवप्रवृत्तिनिमित्तम् । ननु उपचारे पाश्रिते समासकृत्तद्धितात्त सम्बन्ध इति
२०५ २०६ २०६ २०६ २०७ २०६ २१० २१० २१२
२१२
२१४ २१७ २१७
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शुद्धिपत्रकम्
[
131
पंक्ति
अशुद्ध
शुद्ध
धवखदिखमिति
२१७ २२१ २२१
नृन्
به به ه
धवखदिरत्वमिति नृन् नत्रा वणिक्त्वं
नत्र बरिणक्त्वं
२२१
हृदभगं'
'हृद्भग'
२२३
.२२४
१४
x
G003
इत्यत्रा व्यवहिते यकारोपात्यात् चाव यात्रोश्यापरण क्षतिः यथाखमु चत्तद्भवति मीयमानो परतरांश्च पौत्रीण गामिनि वुक्षस्कन्धस्य वेशा: निबिरीसौ अविशब्ददात् त्रिशनी क्रियान् भागनां सह षष्ठ्यायत्ना० पक्ष
२३४ २३७
१६
२३८
२
इत्यत्राव्यवहिते यकारोपान्त्यात् चाकञ् यात्रोश्यापर्ण पक्षतिः यथामुख यत्तद्भवति नीयमानो परतरांश्चा पौत्रीण: गामिनि वक्षस्कन्धस्य केशा: निबिरिसो प्रविशब्दात् त्रिशिनो कियान् भागानां सहस्र षष्ठ्ययला. पक्षे १६६ पूरणप्रत्यया. श्वे दाबूनो तन्त्रशब्दा० प्रत्यग्र ब्राह्मणान्नाम्नि शृङ खलक
२४१
२४२ २४४ २४५
०४८ २५०
२५१
पूरगत्प्रत्यया० श्व दाबूनो तन्त्राशब्दा० प्रत्यय बाह्मणानाम्नि शृङखलक
२५२
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132 ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने
पृष्ठ
पंक्ति
अशुद्ध
शुद्ध
२५४
G : CM
war OUT
२६१
इत्यन्त्यस्यरा० त्वेतस्मित्वाक्ये प्राख्याद्वारेण खदन मालीवान् हारकवान तथेत्थुपात्तम् भाववाचिनश्चतावेव कय्यू: शय्य पेशलकुलादिवदेतो मत्वर्थ मधुरस्यातीति शाकमूसहो विषुमानहोरात्र कच्छवा मेधास्रजी तमिस्राणेवज्योत्स्ना ०सहस्त्रिक: शतो पुष्करवान
इत्यन्त्यस्वरा० त्वेतस्मिन्वाक्ये - . प्राख्याद्वारेण खदन मालावान् हारकवान् तथेत्युपातम् भाववाचिन श्वे तावेव कय्यु शय्यः पेशलकुशलादिवदेतौ मत्वर्थे मधुरस्यास्तोति शाकसमूहो विषुमानहोरात्र कच्छवा मेधास्रजो तमिस्रार्णवज्योत्स्ना ०सहस्रिक:
२
२६७ २६८ २६६
२७०
शती
२७३
पुष्करवान्
२७५ २७८
- Marrowrow ००Murroxxxure
बहूनामपि पुत्रावृष्टो द्युस्
त्रबपि
तस्मिन्वर्तमानात शतधा
बहूनामापि पुत्राद्दष्टो द्यस् त्रवपि तस्तिन्वर्तमानात शतवा पाङ ०श्चषान् पञ्चाद्रमणीयम् भवत । अस्मत एव सधीस्युर्गावः
प्राङ
२८६
०श्चषाम् पश्चाद्रमणीयम् भवति । अस्मात्
२८८
एवं
२८४
संधीस्युर्गावः
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शुद्धिपत्रकम्
[ 133
पंक्ति
अशुद्ध दृपदीभवति दृपद्भवति करातिकमणो सपदिकतुश्च
देवम्
४ २२ २०
२६३ २६४
२६५ २६६
७
२६७
.
२६६ ३००
MMMMM C. ० WWW
प्रथम शस्त्र शत्वत् तैर्धातुभिर्यागे महत् अल्पज्ञो एकस्व मासं एकैशोऽपि परिनिमित्तायां तीयमत्ययान्तास्बार्थे शिष्टप्रयो गगम्या: श्रोत्र पोषधिवौषधम् नक्षत्र तरपन शतष्किधनेन तरवर्ये दन्तौष्ठम् दन्तौष्ठक्य, ऐषयः हतिका वर्तमाना नाम्नो कल्पवादयो रक्त त्रिमे अष्टमशब्दाभाऽगेंशे इद्हृस्वी स्र चिकः
दषदीभवति दषद्भवति करोतिकर्मणो संपदिकर्तुश्च देवम् प्रथम शत्रुम् शत्रुम् तैर्धातुभिर्योगे मरुत् अल्पशो एकत्व माष एककशोऽपि परनिमित्तायां तीयप्रत्ययान्तात्स्वार्थे शिष्टप्रयोगगम्या: श्रोत्र ओषधिरेवौषधम् नह्यत्र तरप्न शतनिष्कधनेन तरबर्थे दन्तौष्ठम् . दन्तौष्ठस्य ऐषमः वृहतिका वर्तमानान्नाम्नो कल्पबादयो रक्ते कृत्रिमे अष्टमशब्दाभागेंऽशे इद्धस्वी स्र चिकः
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अशुद्ध
एव
हस्तितोऽश्वा
सघ
सघ
आसन्नदूर
प्रियबहक
होयत्वेन
अब
अन्ध
म
तप्तान्वबाद्रहसः वगन्तित्वा
नक्त
समिद्धृपदम् समाहृतान्यहानिः
पुन्नपुंसकयो
हनी:
व्रहेरस्
सभासान्ता
प्रतितजम्भ:
श्री सिद्धहेमचन्द्र
व्रीहेर
उतरत्रा
नाम्मीन्ये
सुहृहृ ६.०
समासान्ता
काकुद
० गच्छाले :
लेखाभ्र
संहितोरू सुभ्रुरिति
• वृद्धप्रसङ्ग शौवादद्रो न्यगरोहतीत्यादि इत्यनेनैवदागमे
हेमचन्द्र शब्दानुशासने
शुद्ध
एवं
हस्तितोऽश्व
संघ
संघ
प्रसन्नादूर
प्रियबहूक
अव
अन्धं
य
यावे
तप्तान्ववाद्रहसः वर्गान्तत्वा
नक्तं
समिद् दृषदम् समाहृतान्यहानि
पुन्नपुंसकयो :
छयह नी
व्रीहेरस्
समासान्तो
पतितजम्भ:
व्रीहेरित्
उत्तरत्रा
नाम्नीत्ये
सुहृद्द ु हुँ० समासान्तो
ककुद
० नच्छाले :
लेखाभ्र ूः
संहितोरू:
सुरिति
०
• वृद्धिप्रसङ्ग
शौवादंष्ट्रा
न्यग्रोहतीत्यादि इत्यनेनैवैदागमे
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शुद्धिपत्रकम्
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अशुद्ध प्रागैकाराकारी पलुप् स्वरवृद्धित 'पटयते राजपुरुषार्याणरिति । स्कन्दमिजम् पूर्वोत्तरपयाः षठ्यते शब्दास्तमवा० स्रग्वा भूलुकः सूचयति वात्सप्रयः मा-भीक्ष्ण्यम्
३६८.
१२
३७१ ३७६
३७८
११
प्रागैकारौकारौ प्लुप् स्वरवृद्धि० पठ्यन्ते राजपुरुषायणिरिति स्कन्दमित्रम् पूर्वोत्तरपदयो: पठ्यते शब्दास्तमबा० स्रग्वी भूलुक स्र चयति वात्सप्रेयः माभीक्ष्ण्यम् मन्दं मन्द पश्चात्तमबादि: ०भवद्भ्यां मह्य मा पञ्चालाः, तस्यैवान्यमन्यत्वं संपद्यत नवो नवो धर्मम्मिरणोरभेद० द्विरुच्यते वाक्यस्यैव भवतीति संबध्यते
१० २१ २८ . १४
३७६
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३०
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मन्द पश्चात्तमवादिः ०भवद्धभ्यां मा मह्य पञ्चाला, तस्यैवान्यमन्यत्वं नवा नवो धर्मम्मिणोम्भेद० दिरुच्यते वाक्य यैव भ तीति सबध्यते प्रेषो अग्निश्चि यात् खरेष्वन्त्य ३ ते ऋकारजितः ल,कारश्च ति ऋवर्णकार्यमिति
११
३८६
प्रैषो
३८७
अग्निश्चिभायात् स्वरेष्वन्त्य०
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३
ल
ते
ऋकारवजितः लकारश्च ति ऋवर्णकार्यमिति .
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________________ 136 ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंक्ति Bur mr mmmmy 361 362 364 xxw M0 अशुद्ध ल वर्णस्येति यजतत्र भौ दध्वत्र / मध्यत्र। उरु) क्विविधौद्व यो० प्रशाभि अतिकौमुदगन्ध्यबन्धु शुद्ध लुवर्णस्येति यत्र तत्र भो दध्यत्र / मध्वत्र / उर ) क्विविधौ द्वंयो० प्रशामि अतिकौमुदगन्ध्यबन्धुः 397 400