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॥ प्रस्तावना ॥
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प्रगट हो कि यह स्तवन तरंगिणी ग्रंथ का द्वितिय तरंग सतंपशमद मसँय्यमाद्यलङ्ककृत श्रीमज्जैनाचार्य पूज्यवर 'धर्मदास जी महाराज के संप्रदायानुयायी. विद्वद्वर्ण्य पूज्यवर श्री १००८ श्र मगनमुनि जी महा'राज तच्छिष्य श्रीमज्जन धर्मोपदेष्टा माधव मुनि जी भजनानन्दी सज्जनों के ज्ञान लाभार्थ अति परिश्रम रचा है इसके छापने में यदि प्रामादिक अशुद्धियाँ ' ही होय तिन्हें सुक्ष जन शुद्ध फर बांचेगे यह हमारी गाय पूर्वक प्रार्थना है किमधिकम्
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इस पुस्तक को अविनय खुले मुख तथा दीपक सहायता से न बांचना चाहिये
निवेदक-वलबन्तराय-प्रधान जैन सभा आगरा
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॥ विज्ञापन ॥ समा में निम्न पुस्तक बिक्रीयार्य उपस्थित हैं। स्तवनतरङ्गिणी पहिला भाग - स्तवनतरंगिणी द्वितीय भाग
श्रीप्रदेशी चरित्र .. दशवकालिक पाठ......... सामायक सूत्र सायायक प्रतिक्रमण सूत्र वारहभावना सँग्रह गुल्दिस्ताजैन मजनमाला उर्दू नेकवदकी तमीज़ जैन प्रकाश जैन धर्म के नियम पता पुस्तकाध्यक्ष साधुमार्गी जैन उद्योतनी सभा मानपाड़ा आगरा. पता सेठ जसवन्तराय
आगरा
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॥ श्रीमद्वीराय नमः
॥ अथ लावनी रंगत लंगडी ॥ सकल इष्ट मांहीं विशिष्ट उत्कृष्ट पंच परमेष्टि विचार ॥ याकी महिमां अगम सुरगुरु सुनि कहत न पावें पार || टेर ॥ गुण अनंत परमेष्टि प्रभू के पै शर्त अष्टो तर परधान । सुमरण तिनका करो भंव जीव हरिदेमें घर के ध्यान ॥ तरु अशोक ' सुर सुमनदृष्टि दिव्यध्वनि चारु चमर जुगे जानें || फंटिक रतन को लसे सिंहासन भामंडल ज्यूमानं ॥ तीन छत्र पर छत्र देव दुनी येवसु प्रति हार्य्य वखान || अपायं
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अयंगम्, ज्ञान वैच पूजा ये अतिशय चतु मान ॥ द्वादशं गुण ये बड़े देव अरिहंत प्रभूके भवि उरधार ॥ याकी० ॥१॥ ऋद्ध: सिद्ध नव निद्ध प्रगट होय पलक माहिश्री. सिद्ध जपंतः ॥ वसुगुण जिनके सुमरिये प्रात उठ, भवि बेठ इकंत ॥ ज्ञान अनतः अनंतही दर्शन है सुख अव्याबाधि अनत।। रागद्वेष से भिन्न ताते प्रभु खायक समकित "बँत ।। अचल अमूर्तिक अगुरुलघू गुण कर राज श्री सिद्ध महंत ।। शक्ति अनंती अनंते शान बान कोउ लखें सुसंत । ये वसु गुणकर युक्त मुक्त भगवँत नमो नित वारवार।। याकी ॥२॥ पंचेन्द्रीवश करें ब्रह्म बत धरै बाइनवसे में विसाल ॥ मू के
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चारों कषायन को रहें उपशम रसमें लाल। पालें पंच महाव्रत निर्मल । पंचा चारनके. प्रतिपालें ॥ पंच समित को सदा उपयोग : सहित पाले उजमाल ।। मन वच तन को . गोपैनिश दिन निज आतम हित दीन दयाल ॥ये छत्तीसों सुगुण युत आचारज भजिये तिरकाल । धरे ध्यान जो भव्य मावधर सो पावे मुख संपति साराायांकी। ॥३॥जस समीप अध्यन करें जिन आगम: को मुनि हित चितलाय ॥ पाठक ऋषि सो कहीं जें तस पग वदत पाप पलाय॥ ग्यारह अग उपंग दुवादश आप पढें अरु . देत पढीय ॥ चरण सित्तरी करण सित्तरी को इमहिंज दे समुझाय ॥ये पच्चीस गुणों
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कर राजें सो मुनिवर कहिये उवझाय ॥ सुगरण तिनका करै तिहुंकाल तास त्रिभु वन वशथाय ।। है अद्भुत अतिशय कारी समरण पेको जाने नरनार याकी llll पंच महाबत निर्मल पाले शुद्ध भावना सहित समन्न् ॥ चेन्द्रिय को करें वंशचार कषाय तजें मुनिजन्न् ॥ माव करण अरू योग सत्त्य पुन सहें शीत आदिक वेदन्न।। मन बच तन को धरे सेम ,सण णान चरित संपन्न । क्षमावत वैराग्यवंत उपसर्ग सह मरणांत कठन्न् । सात वीश ये मूल गुण धारी साधु कहें भगवन्ना।साधे स्वपर कारज को ताते मुनि मनछित दातारा
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यांकी ॥५॥.सार चतुर्दशं पूरव को यह भाख्यो आगम मांहि मुनीश ॥ अस सुमः रण से भयो पल. मांहि उरग. अवनी कों ईश ॥ आठ कोड-वसु लाख आठ हजार आठसे आठ जपीस । तीर्थ कर सोथाय इम ग्रन्थ मांहि गायो योगीश ॥ इमजानी उत्तम भव प्राणी जपा भक्तिभावें निशदीस। सत्तप शमके धरण हारे सूरीश्वर मगन - पाश । महामंत्र नवकार कहै मुनि माधव जपतां जय जय कारयाका०॥६॥इति।। •॥ अथ कब्बाली॥
॥ देऊ कोटि.धन्य में ताहि जो बाला पन संजम धारे॥जो बालापन संजम धारें जो निज आतम कारज सारे ॥देऊ०॥टेर।।
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सुर धनु सम जानी संसार । त्यागे अहि कंचुकि अनुहारः ।। चढते भावें संजमभा लेने की मन माहि बिचारे । दऊँ० ॥१॥ त्यागी जगका माया मोहाालेवेचारित धरैन छोह ॥ राखै जरा न गुरु से द्रोह । जैसो लेते सोही पारे ।। दे || गुरु की सेवा करे इमेश ।। बिचरै देश प्रदेश विपश॥ देबे सत्त्य धर्म उपदेश आपन तिरे अवर को तारे ।। दें ॥३॥ राखे प्रति दिन बढ़ते भाव ।। पढ़ने गुनने का चितचाया। ऐसा लहिमानव भवदाव विषियन सुख माटे नहीं हारे ।।देशाशास्वपर समय तनों होय जान तपस्या करै शक्ति परिमाण ॥ पाले सूगुरु मगन मुनि आण माधव दोऊ
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कुल उजवारे ॥ देऊ० ॥५॥ इति ।
॥ अथ गजल रेखता में। ..बड़ाये हे मुझे विष्मय रूप कैसातिहारा है। देवदेखे विविध विधिके न तेरा गुण निहारा है ।। टेर॥ कोई तो पशु मुखी देवा लखे में प्रगट जग माहीं।गजानन्न षडानन सरिसे अजव जिन्न देह धारा है।ब०॥१॥ पशू रूपी कोई देंवा कच्छ ओ मच्छ बारा ही॥ कोई तो जल अनल पूजे देव. पीपल नियाराहै।बादेव कोई पशु बाही चढे जो वृषभ आदिक पै॥ नशे के लालची केई. जिन्हों को मद पियारा है। बाशा कोई. क्रोधी लखे देवा धरें जो शखनिज करमें।। गदा कुंता.धनुष बरछी किसी के कर कुठारा
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है | ||४|| विषय के बश परे केई जिन्हों के सँग अर्द्धगी । कोई कामी रसिक नामी न चेले संग दारा है |ब० ॥ ५ ॥ कोई तो चार भुजधारी कोई के चार आनन है । देव कोई सहित शिरका धरसो धरणि भारा है ॥ ● ॥ ६ ॥ सरागी सगुण युत येतो चरित से है प्रगट जाहिर । सुन्यो तू तो सुगुरुमुख से निरागी निर्विकारा है ॥ ब ० ॥ ७॥ सुगुरु श्री मगन चरणन को दास माधव कहे जपी ये ॥ देव देवाधि देवों का निरजन्न निराकारा है ॥ ब० ॥ ८ ॥ इति ॥
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अथ स्थान सुमति संवाद पद राग रसिया की में ।
अजव गजव की बात कुगुरु मिल कैसो
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(११) वेश बनायेशिटेरामानो पेत शेत पट ओढन जिन मुनिको फरमायोरी अशाकल्पसूत्र उत्तराध्ययन में प्रगट पणे दरसायोरी।अ०
। तो क्यों पीतवसन के सरिया कुगुरुनके मन भायोरी। अ०॥३॥ भिष्ट भये निर्मल चारित से तासे पीत सुहायोरी॥अ०॥४॥ नहीं वीर शाशन वरती हम यों इन प्रगट जतायोरी॥अ०॥५॥ तांभीमूढमती नहीं समझेताको कहा उपयोरी अ०॥६॥रजो हरण को दंड अमेहित मुनिपट मांहि लुका यारा॥०॥७॥ तोक्यों आकरणांत दंड अतिदीरघ करमें साह्योरी अ०८॥त्रिविध दंड आतम दंडानों ताते दंड रखायोरी ।।
अ०॥॥ मुंह णतग मुख पे धारे विन
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भवश पाणि वध थायरी |अ०॥१॥तो क्यों करमें करपति धारी हिंसा धरम चला योरी॥अ०॥११॥ विपतकाल में वेश बदल, इन मांग मांग कर खायोरी॥ अ०॥ १२॥ पडी कुरीत कहो किम छूटे पक्षपात प्रगटा योरी। अ०॥१३॥ क्या अचरज की बात अलीये काल महातम छायोरी||अ०॥४॥ स्यान सुमति संवाद सुगुरु मुनि मगन पसायें गायोरी ॥ अ०॥ १५ ॥ इति ।। .
..॥ पुनः॥
देखो पंचम काल कलू की महिमा अजव निराली है।।टेर॥जो जो वातहोय या जुगमें वो कबहूँ न निहाली है।दे॥१॥ तीन खंड को नायक ताको रूप बनावें जा;
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(१३ ) ली है।दे॥२॥ पामर नीच अधम जन आगै नाचें दे दे ताली है । दे. ॥शा पदमा पतिको रूपधारक मांगें फेरै थालीहै।दे ॥४॥ 'वनें मात पितु जिनजी के ये बात अभे वाली है दे॥५॥जम्बू रूप बना के नांचे कैसी. पडी प्रनाली है.|दे०॥६॥ पुत्र पिता को करें अनादर प्रीत.सुसुर संग पाली है।। दि०॥७॥ खारीलागें वहिन भानजीप्यारी लागें साली है । देव॥ ८॥ माता सों कहें काम काजकर मेरीवहू अरवाली है. देव॥१॥
लहा.साठ बरषका दुलहिन पांच वरष की लालीहै ।।दे॥११॥ जान बूझ निज कन्या को दें अंध कूपमें डालीहै।दे०।११नारीधरम करणमें लाजेंचरितरचे चरिताली दे१२।
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मात पितादि भरे पंचन में गावे गहरी गाली है। दे॥१३॥धरम कथा सुनने की को कहे तो कहें का हम ठालीहै ।दे ॥१४॥ आला ढोला सुनें हरषसू नारिभई नखरालीहै।दे। ॥ १५ ॥ जाचक आयें कहे परेंजा नहीं हाथ हम खालीहै ।।दे ॥१६॥ करें कुसोंनआपनों अपुही मूढ प्रथा ये चाली है ॥दे०१७॥चरम कारकें गायबँधे घर बामन के घर छाली है।। आदे०॥ १८॥ प्रगट अविद्या देवी जी ने फूट घरों धर घाली है।।दे०॥१९॥ करो किनारा बुध या जुगते धरम धरण ल्यो झाली है।दे। ॥२०॥ माधव अन होनी नहीं होवें भावी टले न टाली है.।। दे० ॥ २१॥ इति ।।
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: ( -१.५ :)
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॥ अथ कव्वाली ॥ : प्रतप भाण समान हमान जो जगमें निज
धर्म दिपावै ॥ जो जगमें जिनधर्म दिपावै बो जगमें जगनाथ कहावै ॥ ढेर | जिन भाषित आगम अनुसार। जिनवर धर्म करे परचार ॥ धारे शिर जिन आणाभार साही जन जैनी कहलाबै ॥ प्र० ॥ १ ॥ पर भावना अंग अव धार ॥ तन मन धन व्यय करें अपार ॥ आ-गम ग्रंथतनों भंडार करके विद्यालय खुलवा - बे ॥ ० ॥२॥ उपदेशक जन कर तय्यार ।। भेजे देश विदेश मझार ॥ जहँ पै नहीं साधु पयसार तँह पै दया धरम दरशावे ॥ प्रः ॥ ३ ॥ दिक्षा लेबेंजोनरनारताकोदेवे विविध सहार ॥ परभव की लेखरची लारताकीद हदिशकार तिछावै ॥ प्र० ।
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राखन दया धरमकी कार ।। त्यागे निज - कुटुम्ध परवार ॥ताको धन मानव अवतार जोमिथ्यामत दूर हटावै।।म ॥५॥श्रीयुतः सुगुरु मगन अनगार। वदो भवि नितवार हजार ॥ धरम दिपावन को इकरार करल्यो माधव छन्द सुनावैः ॥ प्र० ॥६।। इति ॥
॥ अथ कब्बाली ।। ... ॥ सुनिये विनय कह । दीन मों खट काया के पीहरजी | भो खट कायाकै पीहर जी सत्तप शमदमके सायस्जी ।। देर राख न दया धर्म की देकः ॥ सब जुर मिल हो. जावो एक ॥ तज के आपस का व्यतिरेक निंदा कलह मान मद वरजी ।।सु० ॥१॥ स्व स्व संप्रदाय का गर्व ॥ तजके निर्णय ..
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कीजे सर्व। मोटो श्रीपयूषण पर्व जापै है। समाकित निर्भरजी,॥ सु० ॥२॥ तजिये. : बिरथा खेंचातान ।।जासै होय दिनों दिन हांना|उन्नति दयातनी सब थान कीजै संप खडग कर धरजी।।मु०॥ ३॥ आपस में यो बिद्या दान ॥ वच्छल ताई का धर. ध्यान ॥ वोलो प्राकृत में बुधवान अन्यों अन्य मिलो जहं परजी।मु०॥४॥ हिंसा धरम तनों परचारप्रति दिन वढतो जायं अपारा।याको करो कछू प्रतिकार बिलकुल वनों मती खुदगरजी।सु०॥५॥स्वपर समय तनों हाय जानः।। सोही मुनि दै अवशव खान ।। यामें नहीं मान अपमान आगे", . संब मुनिगण की मरजी। सु०॥६॥ श्री .
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गुरु मगनं चरण सुपसाय ॥ पायो रत्नत्रय सुखदाय || माधव हाथ जोड शिर नाय करता सब सँतन सों अरजी | सु- |७|इति । ॥ अथ गजल रेखता में ॥
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॥ अविद्या प्रेतनी ने द्वद कैसा मचाया. हैं. ॥ झुला के सुपथ से चैतन कुपथ मांहीं भ्रमाया है || टेक | सच्चिदानंद प्रभुतजकें । उपल पूजन चलाया है ।। गोरि गोवर गधाघूरों पेड़ पानी पुजाया ॥ अ० ॥ १ ॥ पुत्रं के. काजं वलि देना महिष मेंढा मुरग अजकी || पतीको छोड पर पति से पुत्र लाना बताया है । अंगाभोग भोगी वने जोगी दया. की रीत जांने ना ॥ भँग गांजा चरस पोके
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कहें आनन्द आयाहै ॥अ॥३॥ पुजायें कुगुरु ऐसेभी जिन्होंके धामधनदारा।।तिन्हों का मूढ लोगों को प्रगट झूठा खबाया है। "अगापुत्रके पठन पाठन में खरच कौडी. नहीं करना ॥ व्याह में वे अस्थ धन को लुटाना तें सिखाया है|अगा|दयामें धर्म जग जाने मूढ से मूढ भी माने धरमके हेत हिंसा भी करो ये तें सुनाया है |अ॥६।। धर्म जो होय हिंसा से फेर क्यों दया पाली जै॥ ध्यान देके लखो बुध जन्न घोर अधेर .. छाया है। अ०॥७॥ मुगुरु श्री मगनमुनि : ध्याई कहें माधव अविद्यान।।धर्म का नाम: लेलेके कर्म बंधन बढाया है।अदालाइति।।
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॥ अथ लावणी रंगत लँगडी।
सुख सुमाग संपति शिवदाई स्वर्ग शेल सोपान समाना।सत गुरु भाख्यो सदां शुध भाव सहित दीजै भविदानादेशादान दियें दारिद्र नशे जश कीरत दह दिशमें छावे।। प्रीत बनाबे विविध विध बैभव बिन उद्यम पावै ।। आधि व्याधि दुख दोहग दुःकृत दूरटले भय विरलावै।।सब जग जाने विपत मैं दान दियो आडो आबे ॥ दानी जनको नाम जगतमें लें. सब कोई होत विहान।।
स०॥ १॥ दान प्रभाव निधान मिलै गुण ज्ञान-मिले, अति आदरसेबिन श्रम कायें रसायन मिलै मिलै मणि मणि धरस।काम धेनु चितामिणि चित्रा बेलि मिल जल धर
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चर से । नृप पद पावै भोग सुख ओमतिरै भव सागरसे।।दान कृपाण धार कर दानी शूर हरें अघ अरि के प्राण ॥ स० ॥२॥ पात्र दान दिये होय निर्जरा अथवा पुण्य बंध ह्वे जाय ॥ दुखित जनों के दियेसे पुर लीक सुख भव भवथाय ॥ रिपु जन बैर तजै दीये से सज्जन प्रीत करे चितलाय ॥ अनुचर,भक्ती करै जश भाट बदै बश हो बैराय । दान कोऊ निर्फलन होय पे सब से उत्तम अभय प्रधान ॥सं०॥३॥ अभय दानकी महिमा 'जिन आगम में वरणी अपरंपार ॥ गज भव माहीं मेघनें देखो परत कियो संसार॥भयो मेघरथ षोडसमो जिन शांति नाथ सब जग सुखकार। जस
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(. .११. ) .. सुमरण से आजहूं साता पामें सुमरणहारा। मेतारज मुनि अभय दान दे निर्मय पद. पायों निर्वाण ।।स० ॥ ४॥ पंखों परतख दान सुपातर है: मुख संपति को दातार॥ दें सुपात्र को दान सो भरै अगण्य पूण्य भंडार ॥ दान सुपात्र प्रभाव मुमनने पाई. ऋद्धि अचिंत्य उदार ।। सुरपति के सम्म भोग भोगे. नर भव में शालि कुमारदान सुपात्रतनी महिमा कोको कोविद करसके. बयान |स०॥ ५॥ दूषण पंच पंचही भूषण दान तने भाखे भगवन्नौदूषण तजकें सजो भवि भूषण तिनका सुन बरनन्न ।विप्रिय चन बिना आदेर अरुकर बिलम्बै देबिल.. खदैन । पोमांदे दाने ये दूषण पँचत :
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जो बुधजन्नं ॥ दूषण सहित दान जो देवे दान नहीं सोतो दुख खान । स० ॥ ६ ॥ निर्बंद वस्तु चतुर्दश देवै निजकर सैंती होय 'प्रसन्न ॥ वहु आदेर से दान देकरे सकल दिन अनुमोदन्न ॥ भूषण पंच प्रकार कहे ये सजो भव्यं पाके नर तन्नू ॥ दानं धर्म tha सब को तन मन धन अरपन्न | माधव दान महातम बरण्यो सुगुरु मगन मुनि को धर ध्यान || स० ॥ ७॥ इति ॥ ॥ पुनः ॥ " ॥ सुरपति सानिध करें टरें सब सँकट पाबै स्वर्ग सलील || शिव सुखदाई सुमति उर आंन अखंडित पाली शील | टेरें ॥ सीतळ जेलसम होय अनल थल समं समुद्र होयसिंह
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सियाल ॥ नाग छाग सम्म होय विकराल व्याल पुष्पन की माल।।अति उतँग गिर उपल खडसम होयाबिकट वन नगर बिशाल अमृत सरिसो विषम बिष होय नृपति सम नर कँगालः ॥ कामदेव सम होयः कुरूपी. कल्प वृक्ष सम होय करील॥शि० ॥१॥ पिशुन पडे पगतले छलैनाः ।। भूत प्रेत व्यतर बैतालाादीठ मूठ ना लगे विन जतन कटें कोटिन जंजाल।। सूली को सिंहासन था बे वंधन भय भाजे तत्कालः ॥ बिन भेषः जहीं व्याधि बिरलाय थाय जय समर बिचालः ॥ फलै मनोरथ माल हाल ही करें
हुकमकी सुर तामील ॥ शि० ॥२॥ अरि. - अरिष्ट होय नष्ट इष्ट सँजोग मिले छलिया
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( २५ ) न छलै ॥ आगम दरसै जगत में जगमग जश की ज्योति जलै ॥ प्रति दिन बढे प्रताप चोगुणो प्रबल पापकी ताप टलै॥ दुरगति नाशै घोर उपसर्ग शमें वर वचने फल।।पूरण तेज पराक्रम आयू पाबै पावन थाबेडीलं । शि०॥ ३॥ शीलवत भगवत वरोवर यामें नहीं संदेह लगार ॥ शुध मन पाले शील सो शीघ्र होय मव दपिसे पासबिन समंकित परवश पाल्योहू शील विरत सुरगति दातार ॥ सुगुरु मगन से सुन्यो इम सूत्र उवाई के मझार ।। माधव कहै मनष तन पाके पालो शील करो 'मति दील | शि. ॥ ४ ॥ इति ॥
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(१)
॥ पुनः ॥ ॥ प्रबल पापदल दलन वज्रवर विषत विघन घन शमन शमीर || तपदव सरिसो दहन भव विपन मदनमारन बडवार || टेर।। अनशनादि तपतपत त्रिदशपति त्रिविधि सेव तिरकाल करें ॥ खेट भेट ले मिल कर जोड भवन पति पांय परे ॥ काज करें विंतर किंकर सम विनय सहित अस्तुत उचरें ॥ खग पति ना में शीस अवनीश चरण में माथ धरै ।। अति अनंद अहमिंद करें अभिवेदन कटे करम जंजीर ॥ त० ॥ is.. १॥ तप से सिद्ध होंय सब साधन मंत्र जैत्र और तंत्र जडी॥सफलित होवे दियो वर पदमा पांयन रहे पंडी ॥ प्रगट होय घट
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( १७ )
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ज्ञान भान सम खुलें शास्त्र की कडी कडी ।। रिद्ध अचिंती होय उत्पन्न रहे सव- बात बडी ॥ जनम मरण भव व्याधि भयँकर भेटन तप औषधि अकसीर ॥ त० ॥ २ ॥ तप परिचय परतक्ष जगत में तप पसाय त्रिभुवन पतिथाय ॥ तप प्रभाव से पूज्य पद पायो हर केशी मुनिराया। द्रढ प्रहार तस कर तप सेती सदगति पामी कर्म खिपाय ॥ अर्जुनं माली लही पंचम गति तपही के सुपसाय ॥ करम काठ काटने कुठार सम तप तपिये साहस घर धीर ॥ तः ॥ ३ ॥ नवकारसी
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आदि ले बरसी तपकी सरघा उर धरियै ।। शक्ति प्रमाणे बनें सोही तप क्षूमा सहित करियै । नरतन चिंता मणि समपा के ममत भाव
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.......... २८ .......... भवि पर हरिये।।तप धारी की सेव तनमनः से कर भव दधितरियै ।।माधव कहै मगन
मुनि पद कज़ पर सत होय पबित्र शरीरा। · ॥ तः ॥ ४ ॥ इति ॥..
॥ पुनः।।.. ..|दान शियल तपशम दम संयम नियम • आँखडी विरत भजन्न ॥ बिना भावना "वृथा सब जिम ऊषरमें मेध पतन्न ।। टेर॥ नीरागी नर आगे निष्फल जिम कटाक्ष मृगनेनी के ॥ बहिरे आगे वृथा. जिम गीत मधुर पिकवेनी कोजिनम अध पति के आगे श्रृंगार विफल सुख लेनी के ॥ .
वृथासूमकीसंपदा सुपन विफलविनरेनीक। - दया बिना सब किया अकारथ मनवश विन .
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(२९)
जिम जोग व्रसन्न ॥ वि० ॥ ॥ भवना शनी भावना भ्रम भय हरणी जिनवर वरणी है ॥ भव अरणव में पोत समं स्वर्ग मोक्ष निस्सरणी है || दाना दिक तिहुं धर्म कल्प तरु उपजन अनुपम धरणी है । दिव शिव दाई करम वसु विध कतरण कर तरणी है ।। तिरे अनंत भव्य भावन से कतिपय का कहिये वरण | व्रिं ॥२॥ परसन चंदराज ऋषि पलमें पायो निरमल केवल ज्ञान || मामरुदेवी भावना भाय लह्यो निश्चल निः र्वाण | कपिल के वली भयो क्षणक में दादुर पाम्यों देव विमान | सुकुर भवन में भरत नृप पाम्यो पंचम ज्ञान विधान || प्रायो पँचम सुरग मिरग एलानट मेढ़े जनम मरन्नू ॥
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( ३० ) ॥वि०॥शाजारण सेठ सुरग द्वादश माँ पायों. केवल भावन भाय ।। अवर अनते भव्य भवदधिसे तिरे भाव सुपसायाविना भाव नहीं लाभ होय क्रय विक्रय में भी किये उपाय।।इम जानी ने भावियुत दानादिक कीजैमन लाया|माधवकहैसकल मुख दायक सुगुरु मगन मुनिकोदरशन्न।विणाइति॥
.॥ लावणी बहरखडी।। मणी मुकरको जो न पिछाने वो कैसा जोहरी प्रधाना। जोशठजड चेतन नहीं जाने ताको किमकहियै मतिमाना।टेजिडमें चेतन भाव विचारें चेतन जड भाव धरें। प्रगट. यही मिथ्यात्व मूढ बो भीम भबोदधि केम तरेंगे। मुक्तगये भगवत तिन्हों का फिर.अहानन
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( ३१ ,
मुख उचरें । करें विसर्जन पुन प्रभुजीका यह अद्भुत अन्याय करें।।दोऊ बिध अप मान प्रभूका करें कहो कैसे अज्ञानाजोगा ॥१॥ श्रुत इन्द्री जाके नहीं ताको नाद बजाय सुनाव गाना|चक्षु नहीं नाटक. दिख लावें हाथ नचाय तोड कर तान ॥ जाके घाण न ताको मूरख पुप्प चढावें वे परमान।। रसनाजाके मुख में नाहीं ताको क्यों चांटें पकबान ।। फोकट भ्रम भक्ती में हिंसाकरें वो कैसे हैं इन्सान जो०॥२॥जव गोधूम चनाआदिक सव धान्य सचित जिन राज भने ।। प्रगट लिखा है पाठ सूत्र सामायिक मांही वियकमने। दग्ध अन्न अंकुर नहीं देवे देखा है परतक्ष पणे ॥ तोभी शठ हठ
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( ३३ ) से बतलाने अचित कुहे तू लगा घणे ॥ अभि निवेश उन्मत्त अज्ञ को आवे नहीं शुद्ध श्रद्धान ॥ जो० ॥ ३ ॥ शुध श्रद्धान विना सब जप तप क्रिया कलाप होय निस्सार ॥ विन समकित चउदह पूरख के धारी जांय नरक गंझारा॥ हे समकित ही सार पायः नर भव कीजे, सत असत विचार ॥ सुगुरु मगन सुपसाय पाय मति माधव कहै .सुनों नरनार ।। तजके पक्ष लखो जड चेतन व्यर्थ करो मत खेचातान ।। जो०॥ ४॥ इति ॥ . :॥ अथ लावनी अष्टपदी।
ब्रह्म बत, दिव शिव सुखकारी ॥ धन्य मुक्तजो पाले नरनारी।टेसाशील से सुख सम्पति
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। ३३ । पावै ॥ विधन भय दूर ही टल जावै ॥ सुजश कीरति दह दिश छावै ।। देवपति पग वदन आवै ।दोहा।। जो शुध मनवच कायसे ।। पाले शील रसाल ।। सो कान्हड कठियारे केसम पावै मँगलमाल हालताको कहु विस्तारी ॥ध०॥१॥ अजुध्या नगरी मंझारो ।। नृपति कीरति धर मुखकारो ॥ निधन पे मन मोहन गारो।वसेतिहां कान्हड कठियारो ॥दोहा।। भव जीवों के भाग्यते॥ साधुतने परिवार।। गामनगरपुर विचरत आया चउ नाणी अनगार धर्म उपदेश दियो भारी॥ध० ॥२॥ श्रवण सुनभविजन सुखपायो॥ भाग्य वश कान्हड तिहां आयो। सुगुरु दर्शन कर हरषायो।।
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( ३४ नियम ल्यो मुनिवर फरमायो । दोहा । कान्हड कहै घो मोभनी। शियल विरतनी आन. ॥ पूणम के दिन पर नारी को में कीयो पचखान | आज से साख सुगुरु थारी-|| ध० ॥३॥ नियम ले वंदन कर भा॥धाम निज आयों चितचा । विपन सेदारु भारलावै ॥नगर में वेचै अरुखावै।। ॥दोहा॥ इम अनुक्रम करतां थकांआयो वरषा काल॥घोर घोर धन वषन लाग्यो नदी वहें असराल विहग वोले वोली प्यारी।। ॥धः॥४॥ कान्हरज्जू कुठार झाली ॥
ओढ सिरसे कामर काली ॥ चल्यो, वन काटन तरु डाली।. धरणि पे हो रही हरि याली ॥ दोहा॥ विषम नदी इक बाटम।।
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( ३५ ) :
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पेख विलख मुख कान || बैठ्यो तटनी तट पर सोचे व्यर्थ भयो हैरान ॥ करम गति टरै नहीं टारी ॥ ६०॥५॥ कान्ह फिर साहस : दिल धरके ।। लियो इक लक्कड जल तर के || तास के खंड खंड करके ॥ बांधलई : मौली मन भरके || दोहा || आयो नगर वजार में || वेचन के हित कान ॥ तिनः . अवसर तिन नगर में सजी श्री पति सेठ सुजान वसै शुध वारै व्रत धारी॥६०॥६॥ * सेठनो चंपक अनुचरजी॥ गयो वाजार हरप धरंजी | मिल्यो कठियारो कान्हरजी || मोल ले भार चल्यो घरजी।दोहा।। चोखो चंदन वामना || महिके गंध महांन ॥ तदपि काठ के माल कान्ह ने || बेच्यो विन पहचान
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सेठ लखि वोल्यो सुबिचारी॥ध ॥७॥कहों तुम चंपक परकासीः ।। मूल्य मौ लीनों स्यूंथासी।।टका दोय दीजै सुखराशी ॥ दाम ले परौ घरे जासी ।।दोहा।। कान्हडं कठिन यारा प्रतें । सेठ कह्यों समुझायः ॥ दिया. सुनैया भार प्रमाणे॥ कान्हड हरषितथाय।. . अमित तन छाई हुसियारी । ध० ८॥ . अंगमें फूल्यों नहिंमा३द्रव्यं ले निज घर
कोजावै ॥ एक वश्यां लखि ललचावैः ।।
द्रव्य से अनरथ ही थावै ॥ दोहा ।। .गणि .' का बैठी गोख में ।। नट विद लंपट साथ।।.
कान्हड लखि रसिया हंसि.बोले यो आयो तुझनाथ करेगी क्यों हमसे प्यारीधिवा श्रवण सुन बचन क्रोध खाके । वेग वेश्या
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३७ " के टिंग जाके । दियो सबधन अमरस पाके गये रसिया मुख बिलखाके ।।दोहा।। देख द्रव्य गणिका उठी। आईसन मुखधायः ।। आगे. आवो प्राणशरजी धन तुम तुमरी माय विहसि गल गल वैय्यांडारी॥ध्रु०॥१०॥ नायका नापित तेडायो॥क्षौर अरु उबटन करवायो ॥ सुगंधित जल से न्हवरायो । कान्ह मन परमानंद पायो । दोहा॥ पट भूषण पहिरायकें ॥मोजन सरस जिमाय।। देताम्बूल प्रेम अति पोख्यो. हाव भाव दर सायं ।। चढीले.जाय चित्रसारी॥ १॥ सहेली सवरी वुलवाई।आप शृंगारित हो आई ॥रागना नाटक कर गाई॥केल को सलता दिखलाई ॥दोहा.कामलता मन,
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( ३८ ) मोहनी । अदुत रूपारेल ॥शची होय सर मिततस आगे कंचन की सी वेल कमल नयनी काम न गारी॥ध०॥१२|| कान्ह के वदन मदन छायो । करण रति को स्यांसे चायो॥ एतले शशि धर दीख्यायो ॥ इंदु लखि नियम याद आयो । दोहा ॥ पून मरें दिन में कियो । परनारी परिहाराअव सर आये कदियन लोप॑ ॥ मुगुरु वचनकी 'कार त्याग तो ड्यां हो सी ख्वाधि०॥१३॥ दिसा कोमिस वनांय सट क्यो ।घनों ही वेश्या ने हट क्यो । दियो वेश्यां को वेश 'पट क्यो । मध्य वाजारें जा खट क्यो । ॥ दोहा।। निज पट ओढी सोगयो।। सूनी देखी हाट ॥ विलख वदन को स्याँ कान्हड़
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की ऊभी जो वे वाट हाथ लिये कंचन की झारी॥ध॥१४||भयो परभात निशावीती।। कान्ह आयो न जुडी प्रीती ॥ हती वेश्या के ये रीती॥ मुफत धन-परको नां छोती दोहा।। नियम आफ्नो पालवा॥ले गणि का सब लारः ॥ कान्हड मू क्यों ते धन 'जइने मेल्यो नृप दरवार । विनय कर बात कही सारी ॥ध०॥ १५ ॥ बात सुन नृप विष्मय आंन्यों ॥ केम वह पुरुष जाय जा न्यों । करण निर्णय दिलमें ठान्यों ।। बुला यो अनुचर मन मान्यों । दोहा ॥ पुरमें पड ह पिटावियो। सुनलीजो सहुकोय ॥काम.
लताके घर धन तजके भाग गयो जे होय।। - प्रगट सो होवे इनवारी ॥ध ॥१६॥आय तव
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कान्हड कठियारो कहै यो द्रव्य अछे म्हारो।। "अहो अनुचर मति किलकारो।। वात मारी यह अवधारों॥दोहा॥किंकर कर पकडी क रीलिंगयो नरपति पास ॥ कान्हड से नृपने इम पूछी एतो धन तुझ पास केम आव्यों वादल फारी॥ध॥१७॥ कहै तव. कान्हड़ कर जोरी ।। विनय भूपति सुनिये मोरी ॥ सिरी पति सेठ धरम धोरी ॥ दियो तिन धन माय भर झोरी।दोहा।। ते धन वेश्या कों दियो।।में मन आंनी मान!!पुरण शशि लखि मिस कर नाठ्यो पाल्यों में पचखान बुलायो श्रीपति व्यापासधि०१८ानृपति से श्री पति इम भासे ॥ नियम में लियो सुगुरु पासे।। ठगुना में पर धनता से॥ करू सब कारेज
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( .४१ ) . करुणा से ॥ दोहा ॥ चंदन भारो वेचवा।। कान्हड आयों स्वाम ॥ चंदन सम कॅचन में दोधों ।। राखन ब्रत अभिराम भई वेश्यां भी इकरारी॥१०॥१९।। बात सुन सव धन भूधवन।।दियो कान्हड को हरष घनो प्रसंसा कानी सब जनने।एतले वन पालक पभने।। दोहा॥ज्ञानी गुरू समोसरया।।चालो वेदन
राज ॥ प्रमुदित हे राजा गयो सजी। मुनि - वंदन के काज साथ ले सारी सरदारी ॥ध०॥
२०करें नृप परसन पग लागी।।कोंन चारोंमें सोभागी कहें मुनि चारों ही त्यागी।।अधिक है कान्ह धरमरागी।दोहा।साधरमी लखि कान्ह
को।दियो सचिव पदसासाकान्हड राज ऋद्धि : :: सुखभोगीलीयों संजम भार भयो सुर एका भो .
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तारी ध०॥२१॥एम जानी बुध जन प्रानी।। तजोधन दाग दुखदानी ।।शील ब्रत पालो मन आनी वृथामत खोवोजिंदगानी।।दोहा।। कान्हड मुनि गुण गावतां ॥ सुख सम्पति सरसायः ।। सुगुरु मगन पद कज सुपसायें माधव मुनि गुण गाय कहै त्यागी की वलि हारी॥ध• ॥ २२॥ इति ॥ . ॥ अथ पद राग ठुमरी ॥
॥ परत्रिय पर संग सहै दुख जिन तिन का कहूँ नाम सुना करकें।।टेश।कुटम सहित दारुण दुखपायो।रावण सिया हरला करके।। लँक गमाय पँक परभा पहुंच्यो प्राण गमा कराप०॥१॥ पूरण ताप सह्यो पद मोतर
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.( ४३ )
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द्रोपदि को हरवा करके कीचक नीच भींच कर मारयो भीम भेषः त्रियका करके 1प०1 हांसा और महांसा के हित मुंझ मरयो तनता करके || मनरथ भूवो मयनरहा लखि अन रथ का फल पा करके ||१०||३|| राज सुता के काज रुद्र द्विज मरयो रीछ वश जाकर कें ।। अवर अनते जीव कुंगति गए जग में कुजस बढ़ा करके || १० ||४|| जो नर जितने पल पर त्रियको निरखे नेह निघा करकें ॥ ताकों तितने ही पल्यो पम तक मारें जमधाकरको ॥ प० ॥५॥ ख पराई ख्वारी परि हर पर त्रिय.. को भय खाकर के । सुगुरु मगन सुपसाय पाय मति माधव कहै समुझाय करक। । प० | ६ | इति । ***
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( १४ )
॥ अथ लावनी वहिर खडी ॥ "
* अंतरालपा *
॥वुध जन पक्षपात तज देखो व्यर्थ बनो मत मतवारे करो तत्व सरधान ज्ञान उर आन सुनों सज्जन प्यारे। टेर कोंन कुगतिका कारण जग में जासे अवश कुगति जावे ॥ दुर्गति पड़ते प्राणी को कहो कोन सुगति में पहुँ'चावै॥को दातार हुवा इस जग में जसजश अज हूँ जग गावै । कहो महा भारत में कौरव दल के हाथ कहा आवै। वेंगे भव अरणव मैं को हिंसा धरम करण हारे ॥ क• ॥१॥ भीम भयानक विश्व विपनमें भय कोनसा कहाता हैं। कोंन हलाहल जग में जिसके खाने से मर जाता है। वतलावो बो रिपू कोंनसा जो नितं
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द्वद मचाता है ।।दारुण दुख क्याहैं दुनियाँ में जिससे जग दुख पाता है । ज्ञानी कोंन कहावै जो छल क्रोध मान तृष्णा टारोकन
राएकांतिक आत्यंतिकहित को चेतन का कहियै सुविचारसरण कोन भाख्यो जिन • जीने इस अपार सँसार मझार ।। अनुपम सुख बो कहीं कोनसा जासे सुखी कहै अन गार।कहो बिज्ञवर अमृत क्या है कोटि ग्रंथ का कर निरधारानीरागीका कहो अप्रमत-सत
वचतोष दया धाक जंगम तीरथ को हे ' जगमें कहो सुज्ञजन देके ध्याना|उत्तम धर्म' .: दलाल हुवाको कहो जिना गम के परिमान॥
जिन शाशन का मूल कहा है मिलै न जाके बिनानिर्वाणऋिष भादिक चौवीसों जिनने
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..कियो कहांपा केवल ज्ञान।।सुगुरु मगन सुष
साय कहै मुनि माधव विनय भव्यतारे॥ .। क.॥ ४ ॥ इतिः ।।
॥ अथ होरी॥ .:॥ पालोशील विरत सुख कारी । सुनों : सौभागिन नारी । टेरा। संजो शियल शृंगार सलोनी ॥ विषय विकार विसारी ।। जानी तन धन जोवन चंचल । चल दल ने अनुहारी । बेलगयो मनडोबारी ॥ पा०॥ ॥ १ ॥ पंचन की साखी.. सें. परणी ते. पियुनी रहो प्यारी । तासे और पुरुष को जानो । रक फकीर भिखारी ॥ होय जो सुर अवतारी ॥ पा०॥२॥ नट खट नर लॅपट लुच्चा से ॥ दूर रहो. हरवारी ।।
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( ४७ ),
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काम कु तूहल क्रीडा कारी ॥ बात कहो' ना उधारी || हँसो मत दे दे तारी ॥ पा०|| ॥ ३ ॥ बाटघाट चिक चउक चच्चर में ।। एक लडी निर धारी | तात भ्रत सम तुल्यं हुनर से ॥ करिये ना बात बिचारी ॥ होय हक नाहक ख्वारी || पा० ॥ ४ ॥ विन का. रण पर घर जाईने ॥ कीजै न थारी म्हारी ॥ पर धन सुत गृह पट भूषण लखि करियै ना ईर खारी || गहो संतोष पिटा - ये । पा० ॥ ५ । पति परदेश गयां पदम निको । तजवो सरस अहारी ॥ पट भूषण: नूतन न पहरिया || तीज त्योहार विनारी ॥ - न जावो बाग मझारी ॥ पा० ||६|| लाख बात की बात एक यह ।। त्यागी चोरी
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(४४, जारी ॥ सुध मन शील अराध्यां होस्यो। भब भब में मुखियारी ॥ कहै माधव सुवि चारी ॥ पा• ॥ ७ ॥ इति ।।
अथ पद राग चलत सोरठा। ॥ इह भव परभव में दुख दाई क्रोध न कीजिये हो राज ॥ टेर ।। क्रोध समान न बैरीजी को॥ तन में रहै दहै तनही को। वाधक सुरग पुरी को श्रवण सुनी जिये होराज ॥ ३० ॥ १॥ क्रोध समान न विष - जंग माहीं । जस पसाय सुध बुध रहै नांहीं ॥ संकट सहै सदाही प्रति छिन छीजियेहो राज ॥ ॥२ ॥ क्रोध कियां नर कालो थावै ॥ निज पर को पीड़ा उप
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जावै ॥ हाथ, कछू ना आवै इम लखि लीजिये होराज ॥ इ० ॥ ३ ॥ अल्प हु क्रोध प्रचुर दुखदाई ॥ जिम . तिण को भारत भयो भाई। क्रोधी कह्यो कसाई कहूं न पतीजिये हाराज. ॥ ३० ॥ ४ ॥ क्रोध रिदे में कुमति जगाडै ॥ प्रीत पलक माहीं विन साडै । विधिकी बात विगाडै प्रगट लखीजिये होराज ॥३०॥ ॥५॥ क्रोध कियां नारहै, बडाई ॥ लज्जा लछमी जाय पलाई। नाशे.धार जताई किम से वीजिये होराज ।। इ०॥ ॥६॥ देखो भद्दा अच्चं कारी. ॥ क्रोध कियां दुख पायो भारी ॥, पेख पराई वारी अवश डरीजिये होराज ॥ इ०॥
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( ३० )
॥ ७ ॥ क्रोध कियां दुख लहै न उसको ॥ वजे विश्व में ढोल कुजसको ॥ इम जानी शमरस को प्यालो पीजिये होराज ॥ ३० ॥ ॥ ८ ॥ श्रीयुत सुगुरु मगन मुनि ध्याई माधव कहै सुनों चितलाई || सब जगको सुखदाई बात कहीजिये होराज ॥ ३० ॥ ॥ ९ ॥ इति ॥
॥ पद राग सोरठ ॥
८. ॥ मान न कीजै हो चतुर सुजान ॥ || मान विनय सुरतरु काटन को। कातिल जान कृपाण ॥ सुजश शशी की कला निरोधन || परतख राहु-समान ॥० ||१|| मान किये अपमान है नर | आना ' गुण ज्ञान । उप
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शम रूपी थंभ उपाडन ॥ मान गजेंद्र पिछान ॥मा०॥२॥ मान महातमको विनशाडे ॥ मान घटावैकान। वुध विद्या नैपुनता नाशन । मानों मदिरा पान || मा० ॥३॥ मान कियां दशमुख दुख पायो।कर कुल को अवशान ॥ दुर्योधन कोणिक आदिकर्णे दुरगति कीन पयान ॥ || मा० ||४|| इम जानी मार्दवता करके । जी तो मान महान।। सुगुरु मगन सुपसाय पाय मति!! माधव करत वखान ॥ मा० ॥५॥ इति ॥
॥ पुनःपद ॥
॥ पदम प्रभु पावन नाम तिहारो ऐ देशी लोभ सम को जगमें दुख दाई | जासो जा बै सुजश वडाई ॥ टेर। पाप को बाप माह विष
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( १२ )
वृक्ष को मूल कह्यो मुनिराई ॥ पुण्य पयो दधि शोषण कारण कुभोद्रवकी नाई। लो | ||१|| प्रगट प्रभाकर रोधन नीरेदसमये थाई ॥ ग्रसन विवेक शशी को राहू देखो दृष्टि लगाई || लो० ॥२॥ कूड़ को कोष कलेश को कारण दर्भे की दीर्घन टोई । लाज लता उत पाटन गज सम क्यों न तजोरे भाई || लो ||३|| सूक्ष्म लोभहू है दुख दायक होय उदै जब आई || एका दश में जीव ठाण से देवे प्रथम पठाई ॥ लो• ॥ ४ ॥ जिम जिम लोभ होय तिम तिमही लोभ बढती जाई॥ दो मासे के काज कपिल गयो कोटि से तृपति न पाई | लो० ॥ ५ ॥ लोभी विषम विदेश में जावै गिनेना गिरि बन
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( १३ ).
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खाई ॥ कृत्य कुकृत्य न देखे कोई ॥ करे कुकर्म अघाई || लो० ॥ ६ ॥ अति को लोभ न कीजे प्राणी ख्वारी पेख पराई || 'लोभ पसाय लखो सागर गयो सागर मांहिं समाई || लो० ॥ ७ ॥ पूरव पुण्य विना श्रम कीर्ये पाँवै न एकहु पाई ॥ 'इम जानी' मन थिर चित आनो पुण्य करो उतसाई ॥ लो• ॥ ८ ॥ सुगुरु मगन सुनि पद कज पर सत जावे पाप पलाई || निर्लोभी मुनि को मुनि माधव वंदे शीस नबाई || लो० ॥ ९ ॥ इति ॥
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.१ अगस्त २ मेघ ३ खजानो ४ कपट ५ स्तंभ
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॥ लावनी॥ । समझ मन माया दुख दाता । माया के परसंग पलक में टूट जाय नाता ॥ ॥टेर ॥ कुंगतिः युवति गले माल मोह गज साल लखो भ्राता ।। सत्य सूर्य के . अस्त करण को संध्या समख्याता ।स।
॥ १ ॥ कूड केल घर कुमति कोठरी धरम हरम ढाता।। कसिन व्यसन उपजन की धरणा बरणी है. ज्ञाता. ॥ स० ॥३॥ भय विभ्रम की खान करे पुम्बेद तनी घाता॥ निवड कपट करणे से प्राणी
पशु शरीर पाता ॥ स.॥३॥ अविश .: वास को थानक ही दुरध्यान जनन माताः .. रे मन मूरख शोच कपट कर को पायो
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साता ॥स. ॥४॥ निपट कपट कर झपट पराया धन जो ठग खाता ॥सो.॥ सो नर दिव शिव सुख से वंचित हो दुरगति जाता ॥ स.॥ ५ ॥ कपटी जन का कुजश केतु जग माहीं फर्रात्ता । इम जानी तज दीजै माया जो तू सुख चाता ॥स०॥६॥ सुख साथी संसार विपत में को आडा आता क्यों नाहक कर कपट मूढ मन माहीं हर काता ॥ स० ॥७॥ चरण करण युत सुगुरु मगन मुनि सव जग जन त्राताधाम मँडावर मांझ मुनी माधव इम समझाता ॥ सम० ॥ ८॥
॥ इति ॥ १ महल २ वजा
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* खुशखवर * सर्व जैनी भाइयों को विदित होकि जो किताबें नीमचके छापे खानेमें छपीथो वह * इससमयइससभामें बिक्रीयार्थउपस्थितजिन
साहवोंकोचाहिये वह फौरन पत्रदारा प्रकट करें और इस सभामें हमेशा जैनियों के नये नये अंथ छपते रहते हैं. और जिस जैनी भाईको कोई चीज छपवानी हो सभाउनको बहूत सस्ता छपाकर भेजेगी। जैन दर्पण ) रतनपाल सेठरो चरित्र ।) अंजना सतीकारास) मणरहिया सतीनोशस ) हंसरानवत्सराज कारासा-) पूजीवली
) देवसिगाईतिक्रमण स्तवन संग्रह: जनरत्नावली ) मानगराना । पनाः पुस्तके मिलने का साधुमार्गी जैन उद्योतना सभा
ठिकाना: सेठ जसवताय आगरा
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