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श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र
(चित्रयुक्त विधि सहित)
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र (चित्रयुक्त : विधि सहित)
+ सम्पादक उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी महाराज
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.प्रकाशक. श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय
उदयपुर (राजस्थान)
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* उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. * की जन्म शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित
पुस्तकः श्रावक प्रतिक्रमण मूत्र सम्पादकः उपाध्याय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. * दिशा-दर्शनः
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. * पूर्व पाँच संस्करण २०,००० * षष्ठम् संस्करण ५२००
प्रकाशक व प्राप्ति-स्थलः श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय गुरु पुष्कर मार्ग, उदयपुर-३१३ ००१ (राजस्थान) * मूल्य : लागत से अर्ध मूल्य
१० रुपया मात्र
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[दिशा दर्शन ] आज का युग भौतिकवादी है। मानव भौतिकवाद की ओर द्रुतगति से दौड़ रहा है तथा अध्यात्मवाद को विस्मृत हो रहा है। वह त्याग से भोग की ओर लपक रहा है। अहिंसा से हिंसा की ओर झुक रहा है । अपरिग्रह से परिग्रह की ओर कदम बढ़ा रहा है। वस्तुतः मानव का यह अभियान आरोहण की ओर नहीं अवरोहण की ओर है, उत्थान की ओर नहीं पतन की ओर है, विकास की ओर नहीं विनाश की ओर है। यही कारण है कि भौतिक दृष्टि से अत्यधिक उन्नति करने पर भी मानव का हृदय धड़क रहा है, उसके अन्तर्मानस में शांति की लहरें तरंगित नहीं हो रही हैं।
जैनदर्शन मानव को अन्तर्दर्शन की प्रेरणा देता है । जैनदर्शन की प्रत्येक साधना अन्तर्दर्शन की साधना है । जो साधना अन्तर्दर्शन नहीं कराती वह साधना नहीं अपितु विराधना है।
आवश्यक जैन साधना का प्रमुख अंग है। जो अवश्य ही किया जाय वह आवश्यक है। अथवा जो आत्मा को दुर्गुणों १. अवश्यकर्त्तव्यमावश्यकम् । श्रमणादिभिरवश्यम् उभयकालं क्रियत इति भावः।
-आवश्यक मलयगिरिवृत्ति
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से हटाकर सद्गुणों के अधीन करे वह आवश्यक है। या इन्द्रिय और कषाय जिस साधना से पराजित किये जायें वह आवश्यक है। ___ अन्तर्दृष्टि साधक का लक्ष्य बाह्य पदार्थ नहीं होता।
आत्म-शोधन ही उसकी साधना का लक्ष्य होता है । जिस साधना से आत्मा सहज व स्थायी सुख का अनुभव करे, कर्म मल को नष्ट कर, अजर अमर पद प्राप्त करे तथा सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की अध्यात्म ज्योति जिससे जगमगाये उसे ही वह आवश्यक मानता है। अपनी भलों को देखकर एवं उसके संशोधनार्थ कुछ न कुछ क्रिया करना आवश्यक है। प्रस्तुत शास्त्र उस आवश्यक क्रिया का विधान करता है अतः इसका नाम आवश्यक सूत्र है।
श्रमण हो, या श्रावक हो, दोनों के लिए प्रातः व सायंकाल आवश्यक करने का विधान है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के श्रमणों के लिए यह अनिवार्य है कि वे नियमतः आवश्यक
१. गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति। २. ज्ञानादिगुणानाम् आसमन्ताद् वश्या इन्द्रिय-कषायादिभावशत्रवो
यस्मात् तद् आवश्यकम्। -आवश्यक मलयगिरिवृत्ति ३. समणेण सावएण य, अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा। अन्नो अहो-निसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ॥
-आवश्यकवृत्ति, गा. २, पृ. ५३
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करें, यदि वे नहीं करते हैं तो श्रमण धर्म से च्युत हो जाते हैं। यदि दोष लगा है तो भी और दोष न लगा है तो भी अवश्य ही प्रतिक्रमण करना चाहिए क्योंकि प्रथम और चरम तीर्थंकर के शासन में प्रतिक्रमण सहित धर्म ही प्ररूपित किया गया है। श्रावकों के लिए भी आवश्यक की जानकारी आवश्यक है। आवश्यक के छह प्रकार हैं
१. सामायिक-समभाव की साधना २. चतुर्विंशतिस्तव- तीर्थंकर देव की स्तुति ३. वन्दन- सद्गुरुओं को नमस्कार ४. प्रतिक्रमण-दोषों की आलोचना ५. कायोत्सर्ग-शरीर के ममत्व का त्याग ६. प्रत्याख्यान-आहार आदि का त्याग साधक के लिए सर्वप्रथम समता का पालन करना आवश्यक है। समता को अपनाये बिना सद्गुणों का विकास नहीं हो सकता और न अवगुणों से ग्लानि ही हो सकती है।
१. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाण, कारणजाए पडिक्कमणं ॥
-आवश्यक नियुक्ति, गा. १२४४ २. सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, . पडिक्कमणं, काउसग्ग, . पच्चक्खाणं।
-अनुयोगद्वार
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जब तक विषम भावों की ज्वालाएँ अन्तर्हृदय में दहकती रहेंगी तब तक वह वीतरागी पुरुषों के सद्गुणों का उत्कीर्तन नहीं कर सकता । अतः प्रथम आवश्यक सामायिक है। समता को -अपनाने वाला साधक ही महापुरुषों के गुणों को आदर की निगाह से निहारता है और उन गुणों को जीवन में उतार सकता है, अतएव सामायिक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव रखा गया है। गुण का महत्त्व समझ लेने के पश्चात् ही साधक गुणी के सामने सिर झुकाता है। भक्ति-भावना से विभोर होकर वन्दन करता है। वन्दन करने वाले साधक का हृदय नम्र होता है और जो नम्र होता है वह सरल होता है, सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना करता है अतः वन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण आवश्यक रखा गया है। भूलों को स्मरण कर उनसे मुक्ति पाने हेतु तन और मन की स्थिरता आवश्यक है। कायोत्सर्ग में तन
और मन की एकाग्रता की जाती है, स्थिर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है। जब तन और मन में स्थिरता होती है तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है । मन डाँवाडोल हो तो प्रत्याख्यान संभव नहीं है अतः प्रत्याख्यान को छठा स्थान दिया गया है। इस प्रकार आवश्यक की साधना के क्रम को रखा गया है जो कार्य-कारण भाव की श्रृंखला पर अवस्थित है और आत्म-साधना का अमोघ उपाय है।
पूर्व यह बताया जा चुका है कि प्रतिक्रमण यह चतुर्थ आवश्यक है। पर आजकल यह शब्द इतना अधिक प्रसिद्ध हो
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गया है कि छहों आवश्यकों का प्रतिबोध कराता है। प्रतिक्रमण का अर्थ है-प्रमादवश शुभ योग से हटकर अशुभ योग को प्राप्त करने के पश्चात् पुनः शुभ योग को प्राप्त करना तथा अशुभ योग को छोड़कर उत्तरोत्तर शुभ योग में रमण करना।२
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अप्रशस्त योग ये चार दोष साधना के क्षेत्र में अतीव भयंकर माने गये हैं। अतः साधक को इन दोषों के परिहार हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिए। मिथ्यात्व को त्यागकर सम्यक्त्व को स्वीकार करना चाहिए । अविरति को छोड़कर व्रत अंगीकार करना चाहिए। कषाय से मुक्त होकर क्षमा, सरलता, निर्लोभता धारण करनी चाहिए, अप्रशस्त योगों को छोड़कर प्रशस्त योगों में रमण करना चाहिए।
प्रतिक्रमण के (१) दैवसिक, (२) रात्रिक, (३) पाक्षिक, (४) चातुर्मासिक, और (५) सांवत्सरिक ये पाँच भेद १. स्वस्थानाद्यन्यस्थानं प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति से उद्धृत २. प्रतिवर्तनं वा शुभेषु, योगेषु मोक्षफलदेषु । निःशल्यस्य यतेर्यत्, तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणं ।
-आवश्यक सूत्र, पृ. ५५३/१ ३. मिच्छत्त-पडिक्कमणं तहेव, असंजये य पडिक्कमणं । कसायाणपडिक्कमणं, जोगाण य अप्पसत्थाणं ।।
-आवश्यक नियुक्ति, गा. १२५०
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भी किये गये हैं। और कालभेद की दृष्टि से प्रतिक्रमण के तीन भेद भी किये हैं-(१) अतीतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करना, (२) वर्तमान में संवर कर दोषों से मुक्त होना, और (३) भविष्यकालीन दोषों से मुक्त होने के लिए प्रत्याख्यान करना।२ प्रतिक्रमण के द्रव्य और भाव रूप से दो भेद भी किये गये हैं-(१) द्रव्य प्रतिक्रमण,
और (२) भाव प्रतिक्रमण । द्रव्य प्रतिक्रमण का अर्थ है उपयोगरहित, केवल परम्परा की दृष्टि से, यशःकामना की भावना से पाठों को बोलते जाना, पर उसका जीवन में आचरण नहीं करना । द्रव्य प्रतिक्रमण प्राणरहित शरीर के सदृश है जो जीवन में आलोक प्रदान नहीं कर सकता ।३ भाव प्रतिक्रमण का अर्थ है उपयोग सहित वीतराग की आज्ञा के अनुसार, किसी भी प्रकार की लौकिक कामना से रहित होकर कर्ममल से मुक्त होने के लिए जीवन का
१. आवश्यक नियुक्ति, गा. १२४७ २. आवश्यक, पृ. ५५१ ३. जे इमे समणगुणमुक्क जोगी, छक्काय-निरणुकंपा, हया इव
उद्दामा, गया इव निरंकुसा, घट्ठा, मट्ठा, तुप्पोट्ठा, पंडुरपडपाउरणा, जिणाणमणाणाए सच्छंदं विहरिऊण उभओ कालं आवस्सयस्स उवट्ठति, से तं लोगुत्तरियं दव्वावस्सयं ।
- अनुयोगद्वार सूत्र
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सिंहावलोकन करना' भाव प्रतिक्रमण है । वस्तुतः भाव प्रतिक्रमण ही साधना का सौन्दर्य है।
प्रतिक्रमण की साधना आध्यात्मिक साधना है। आत्मा मूलतः विशुद्ध है पर अनादि अनन्त काल से राग-द्वेष से ग्रसित होने का कारण अपने शुद्ध स्वरूप को विस्मृत हो गया है, जब वह उसे समझने का प्रयास करता है तब भी अनादि अभ्यासवश भूलें कर देता है, पर जब तक उन भूलों का मार्जन न हो तब तक विकास नहीं हो सकता, प्रतिक्रमण उन भूलों का मार्जन करता है और पुनः भूलें न करने के लिए सावधान करता है।
कितने ही मुमुक्षुओं की ओर से यह जिज्ञासा प्रस्तुत की जाती है कि प्रतिक्रमण में पुनरुक्तियाँ बहुत हैं। एक-एक पाठ अनेक बार बोला जाता है। यह प्रतिक्रमण में से पुनरुक्तियाँ निकाल दी जाएँ तो प्रतिक्रमण अधिक सुव्यवस्थित व उपयोगी हो सकता है। उत्तर में निवेदन है कि पुनरुक्ति दोष साहित्य में चुने हुए स्थलों पर ही माना गया है। निम्न स्थलों में पुनरुक्ति दूषण नहीं अपितु भूषण है१. जंणं इमे समणो वा समणी वा, सावओवा, साविया या, तच्चित्ते,
तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते, तदप्पियकरणे, तब्भावणाभाविए, अन्नत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओ कालं आवस्सयं करेंति, से तं,लोगुत्तरियं भावावस्सयं।
-अनुयोगद्वार सूत्र
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अनुवादादरवीप्सा,
भृषार्थविनियोग हेत्वसूयासु। ईषत्संभ्रमविस्मय,
गणनस्मरणे न पुनरुक्तम् ॥ प्रतिक्रमण यह एक स्मरण है, आत्म-चिन्तन है । यदि इसमें एक ही पाठ अनेक बार आता है तो वह दोष नहीं है, दूसरी बात विशेष ध्यान देने की यह है कि जो पाठ दूसरी बार आते हैं वे भी किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही आते हैं।
प्रतिक्रमण का कालमान एक मुहर्त का माना गया है। आगम साहित्य में यद्यपि काल की चर्चा नहीं है तथापि उत्तरवर्ती साहित्य में इस पर विचार किया गया है, जो शास्त्रीय दृष्टि से उचित भी है। छद्मस्थ की एकाग्रता की स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है, अतः एकाग्रता की दृष्टि से यह काल निर्णय किया है। कितने ही आचार्यों की यह भी धारणा है कि जिनके काल के सम्बन्ध में आगमों में निर्णय नहीं है उनका काल अन्तर्मुहूर्त समझना चाहिए । जैसे- नमुक्कारसी, सामायिक आदि का । प्रतिक्रमण किस समय करना चाहिए, इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि दिन की समाप्ति पर दैवसिक प्रतिक्रमण करना चाहिए और रात्रि के पूर्ण होने पर रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिए । पक्ष के अन्त में पाक्षिक प्रतिक्रमण करना चाहिए, चार माह के पूर्ण होने पर
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चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करना चाहिए । वर्ष में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण तीन बार आते हैं-प्रथम आषाढ़ी पूर्णिमा, द्वितीय कार्तिक पूर्णिमा, तृतीय फाल्गुनी पूर्णिमा । सांवत्सरिक प्रतिक्रमण वर्ष में एक बार आता है।
प्रतिदिन प्रातः सायंकाल को नियमित प्रतिक्रमण करना चाहिए। जिस मकान में प्रतिदिन झाडू लगाया जाता है वह मकान स्वच्छ रहता है। पर्यों के अवसर पर उसे विशेष झाड़ने की आवश्यकता नहीं रहती। यदि कहीं असावधानी से धूल जम जाती है तो वह साफ कर दी जाती है वैसे ही प्रतिदिन प्रतिक्रमण करने से आत्मा निर्मल रहती है, यदि कदाचित् सावधानी रखने के बावजूद भी कहीं पर स्खलना हो जाती है तो पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण से उसकी भी शुद्धि कर ली जाती है।
कई व्यक्तियों की यह भ्रान्त विचारधारा है कि प्रतिक्रमण तो उन्हें ही करना चाहिए, जिन्होंने बारह व्रत अंगीकार कर रखे हों। जिन व्यक्तियों ने बारह व्रत अंगीकार नहीं किये हैं उन्हें प्रतिक्रमण करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जब त्याग ही नहीं किया है तब प्रतिक्रमण किस बात का किया जाय? किन्तु उनकी यह विचारधारा उचित नहीं है, चाहे व्रत ग्रहण किये हों या न किये हों तथापि प्रतिक्रमण करने से
आत्म-निरीक्षण का सुनहरा अवसर मिलता है, त्याग के प्रति निष्ठा जाग्रत होती है। स्वाध्याय होने से मन और वाणी की भी
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विशुद्धि होती है। प्रतिक्रमण एक ऐसा अनमोल रसायन है जिसका सेवन सभी के लिए हितावह है । जैन जगत् के ज्योतिर्धर आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने प्रतिक्रमण को तृतीय वैद्य की औषधि के समान बताया है जो रोग होने पर लाभ करती है। रोग को नष्ट कर रोगी को स्वस्थ और प्रसन्न बनाती है तथा रोग न होने पर भी उसके सेवन से शरीर के कण-कण में ओज प्रदीप्त होता है। शरीर सशक्त और तेजस्वी बनता है।
श्रावकं प्रतिक्रमण सूत्र के अनेक संस्करण विभिन्न संस्थाओं के द्वारा व व्यक्तिगत रूप से प्रकाशित होते रहे हैं तथापि प्रस्तुत संस्करण की अपनी मौलिक विशेषता है। शुद्ध पाठ, नयनाभिराम छपाई व सफाई तथा पाठों का व्यवस्थित क्रम । जो पाठ जहाँ पर बोला जाता है वहीं पर उसे उट्टंकित कर दिया गया है जिससे जिन जिज्ञासुओं को प्रतिक्रमण नहीं आता है, वे भी पुस्तक पढ़कर सहजतया प्रतिक्रमण कर सकते हैं। उन्हें इधर-उधर टटोलने की आवश्यकता नहीं है। जिज्ञासुओं की प्रबल प्रेरणा से प्रेरित होकर ही परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज ने अन्य आवश्यक लेखन-कार्य में व्यस्त होकर भी समय निकालकर इसे तैयार
१. प्रतिक्रमणमप्येवं, सतिदोषे प्रमादतः । तृतीयौषधकल्पत्वाद्, द्विसंध्यमथवाऽसति ।।
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति
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किया, तदर्थ जिज्ञासु वर्ग की ओर से मैं श्रद्धेय सद्गुरुवर्य के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त करता हूँ । प्रस्तुत पुस्तक के चार संस्करण समाप्त हो गये, यह इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है। पंचम संस्करण की माँग दीर्घकाल से बनी हुई थी, इस संस्करण में यथास्थान आवश्यक चित्र देकर इसे और भी उपयोगी बना दिया गया है ।
मुझे हार्दिक विश्वास है कि इस नई साज-सज्जा से युक्त प्रस्तुत श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र साधकों को अपने आप को परखने की प्रेरणा देगा तथा श्रद्धालुगण इससे लाभ उठायेंगे, विशेषतः युवक और बालक वर्ग । सुज्ञेषु किं बहुना ।
- आचार्य देवेन्द्र मुनि
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(प्रकाशकीय
आज अपने स्नेही पाठकों के कर-कमलों में 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र का नव्य भव्य पुष्प अर्पित करते हुए महती प्रसन्नता है। 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं पर इस संस्करण की अपनी अनूठी विशेषता है।
इसके सम्पादक हैं- उपाध्याय परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी महाराज, जो स्थानकवासी समाज के जानेमाने प्रसिद्ध प्रवक्ता हैं, लेखक हैं, कवि हैं और हैं गम्भीर तत्त्व-चिन्तक । आपके द्वारा लिखित व सम्पादित दो सौ से भी अधिक पुस्तकें हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी व संस्कृत भाषा में प्रकाशित हो चुकी हैं जो अत्यधिक लोकप्रिय सिद्ध हुई हैं। समयाभाव होने पर भी हमारी नम्र प्रार्थना पर श्रद्धेय सद्गुरुवर्य ने समय निकालकर प्रस्तुत पुस्तक का सम्पादन किया तदर्थ हम उनके आभारी हैं। ___ श्रद्धेय गुरुदेवश्री के सुयोग्य शिष्य आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज ने पुस्तक पर महत्त्वपूर्ण भूमिका लिखकर प्रतिक्रमण के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला है अतः उनके प्रति हृदय से आभार प्रदर्शित करना हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं।
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(उदार अर्थ सहयोगी)
धर्म प्रेमी परम् गुरुभक्त
स्व. श्री धनराज जी,
स्व. श्रीमती झमका बाई बांठिया
की पुण्य स्मृति में श्री गुलाबचन्द जी, फूलचन्द जी,
सुहास जी, प्रशान्त जी, हर्षल जी,
रूपेश जी, प्रितेश जी बांठिया
पूना
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मुद्रण की दृष्टि से पुस्तक को सर्वाधिक सुन्दर और चित्रयुक्त-सचित्र बनाने के लिए श्रीयुत् सम्माननीय श्रीचन्द जी सुराना ने जो प्रयास किया है वह भी भुलाया नहीं जा सकता। साथ ही उन अर्थ-सहयोगियो को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता जिनके मधुर सहकार से ही यह पुस्तक प्रकाश में आई है।
मन्त्री
तारक गरु जैन ग्रन्थालय गुरु पुष्कर मार्ग, उदयपुर (राजस्थान)
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(अनुक्रम
क्या?
कहाँ ?
सामायिक सूत्र श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र परिशिष्ट
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सामायिक सूत्र
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सामायिक सूत्र और उसकी विधि[शान्त तथा एकान्त स्थान में भूमि का अच्छी तरह प्रमार्जन कर तथा शुद्ध आसन लेकर, गृहस्थ-वेश पगड़ी, पाजामा, कोट, कुर्ता आदि उतारकर, शुद्ध वस्त्र धोती एवं उत्तरासन धारण कर, मुख-वस्त्रिका बाँधकर, पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके बैठकर या खड़े होकर सामायिक सूत्र के पाठों को इस प्रकार बोले-चित्र संख्या १ देखें।
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१८
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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सामायिक सूत्र [नमस्कार मंत्र को तीन बार बोलें]
नमस्कार मंत्र
नमो अरिहंताणं। नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं। नमो उवज्झायाणं। नमो लोए सव्व साहूणं। एसो पंच नमोक्कारो, सव्व पाव प्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं॥
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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सम्यक्त्व सूत्र अरिहंतो मह देवो,
जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पण्णत्तं तत्तं,
इय सम्मत्तं मए गहियं॥
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[पंचिंदिय एक बार बोलें] | गुरु-गुण स्मरण सूत्र पंचिंदिय-संवरणो,
____ तह नवविह-बंभचेर-गुत्तिधरो। चउव्विह-कसाय-मुक्को,
इअ अट्ठारस-गुणेहिं संजुत्तो॥२॥ पंच-महव्वय-जुत्तो,
पंचविहायार-पालण-समत्थो। पंच-समिओ तिगुत्तो,
छत्तीस-गुणो गुरु मज्झ॥३॥
२०
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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[तिक्खुत्तो तीन बार बोलें
| गुरु-वन्दन सूत्र तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि, वंदामि, नमंसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं
N
पज्जुवासामि
मत्थएण वंदामि।
[प्रस्तुत सूत्र से तीन बार गुरुदेव को वन्दन करें और आलोचना की आज्ञा लें तथा इस पाठ को एक बार बोलें। | श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र २१
-
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आलोचना सूत्र आवस्सही इच्छाकारेण संदिसह भगवं! इरियावहियं, पडिक्कमामि ? इच्छं। इच्छामि पडिक्कमिउं ॥१॥ इरियावहियाए, विराहणाए ॥२॥ गमणागमणे, पाणक्कमणे बीयक्कमणे हरियक्कमणे ॥३॥
ओसा-उत्तिंग-पणग-दगमट्टी-मक्कडा संताणा-संकमणे॥४॥ जे मे जीवा विराहिया॥५॥ एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदि चउरिंदिया, पंचिंदिया॥६॥ अभिहया, वत्तिया, लेसिय संघाइया, संघट्टिया, परियाविया,
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥७॥
[तस्स उत्तरी एक बार बोलें] | उत्तरीकरण सूत्र (कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा)
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तस्स उत्तरी-करणेणं, पायच्छित्त-करणेणं, विसोही-करणेणं, विसल्ली-करणेणं, पावाणं-कम्माणं, निग्घायणट्ठाए, ठामि काउस्सग्गं ॥१॥ (चित्र के अनुसार खड़ी मुद्रा में आगार सूत्र बोलें) । श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र ।। २३ |
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[अन्नत्थ एक बार बोलें]
आगार सूत्र
अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डएणं, वाय-निसग्गेणं, भमलीए, पित्तमुच्छाए, सुहमेहिं अंग-संचालेहिं ॥१॥ सुहुमेहिं खेल-संचालेहि, सुहुमेहिं दिट्ठि-संचालेहिं ॥२॥ एवमाइएहिं आगारेहि, अभग्गो, अविराहिओ, हुज मे काउस्सग्गो॥३॥ जाव अरिहंताणं, भगवंताणं, नमुक्कारेणं न पारेमि ॥४॥ ताव कायं ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि॥५॥
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[पद्मासन आदि से बैठकर या खड़े होकर कायोत्सर्ग-ध्यान करें और ध्यान में “इरियावहिए" का पाठ “जीवियाओ ववरोविया" तक मन में चिन्तन करें]
[“नमो अरिहंताणं" पढ़कर ध्यान खोलना और निम्न पाठ को एक बार बोलना।]
| कायोत्सर्ग दोषापहार सूत्र | कायोत्सर्ग में आर्तध्यान, रौद्रध्यान ध्याया हो,
और धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्याया हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
१. एक लोगस्स का ध्यान भी करते हैं।
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[लोगस्स एक बार बोलना] | चतुर्विंशतिस्तव सूत्र
(१) लोगस्स उजोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली॥
उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणंच सुमइंच। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे॥
सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल-सिजंस-वासुपुजं च। विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि॥
कुंथु अरंच मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणंच। वंदामि रिट्टनेमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥
एवं मए अभिथुआ, विहूय-रयमला पहीण-जरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥
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कित्तिय-वंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्ग-बोहिलाभं, समाहि-वरमुत्तमं दितु ॥
चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागर-वर-गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ __[तिक्खुत्तो तीन बार बोलकर गुरु से या वे न हों तो भगवान की साक्षी से सामायिक की आज्ञा लेना और करेमि भंते एक बार बोलना।]
| प्रतिज्ञा सूत्र | करेमि भंते ! सामाइयं, सावज जोगं पच्चक्खामि। जाव नियम पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा, तस्स भंते ! पडिक्कमामि,
२. 'जाव नियम' के बाद जितनी सामायिक करनी हो, उतने ही मुहूर्त
कहने चाहिए, जैसे- जाव नियम मुहूर्त एक, मुहूर्त दोआदि।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि। __ [दाहिना घुटना भूमि पर टेककर, बायाँ घुटना खड़ा
कर उस पर अंजलिबुद्ध “कमलपुष्पवत्" दोनों हाथ रखकर, प्रणिपात सूत्र-नमोत्थुणं दो बार पढ़ें। नमोत्थुणं में पहला सिद्धों का, दूसरा अरिहंतों का है। अरिहंतों के नमोत्थुणं में “ठाणं संपत्ताणं” के बदले “ठाणं संपाविऊं कामाणं" पढ़ना चाहिए।] चित्र देखिए
| प्रणिपात सूत्र नमोत्थुणं अरिहंताणं, भगवंताणं, आइगराणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवर-पुंडरीयाणं, पुरिसवर-गंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोग-नाहाणं,
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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लोग - हियाणं, लोग - पईवाणं, लोग - पज्जोयगराणं, अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, जीवदयाणं, बोहिदयाणं,
धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवर - चाउरंत - चक्कवट्टीणं,
दीवो ताणं सरणगइपइट्ठा
अप्पडिहय - वर-नाण- दंसण-धराणं,
विअट्ट-छउमाणं,
जिणाणं, जावयाणं, तिण्णाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं, सव्वन्नूणं, सव्वदरिसीणं, सिव-मयल-मरुयमणंत- मक्खय-मव्वावाह - मपुणरावित्ति सिद्धिगड़-नामधेयं, ठाणं संपत्ताणं,
नमो जिणाणं जियभयाणं ॥
३. दूसरी बार के नमोत्थुणं में 'ठाणं संपाविउ कामाणं' कहना
चाहिए।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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[ ४८ मिनट तक अर्थात् सामायिक के काल में स्वाध्याय, धर्मचर्चा एवं आत्म ध्यान करना चाहिए ।]
सामायिक पारने की विधि
गुरु-वन्दन - सूत्र - तिक्खुत्तो तीन बार, आचोचना सूत्र - इरियावही एक बार, उत्तरीकरण सूत्र - तस्स उत्तरी एक बार,
आगार सूत्र - अन्नत्थ एक बार,
( पद्मासन आदि से बैठकर या खड़े होकर कायोत्सर्ग करना ।)
कायोत्सर्ग में लोगस्स एक बार,
'नमो अरिहंताणं' पढ़कर ध्यान खोलना,
कायोत्सर्ग में दोषापहार सूत्र एक बार,
प्रगट रूप में लोगस्स एक बार,
(दाहिना घुटना टेककर बायाँ घुटना खड़ा कर, उस पर अंजलिबद्ध दोनों हाथ रखकर ।)
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[ प्रणिपात सूत्र - नमोत्थुणं दो बार बोलें] सामायिक समाप्ति सूत्र
ऐसे नवमें सामायिक व्रत के विषय में, जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँसामायिक में मन, वचन, काय के अशुभ योगों को प्रवर्त्ताये हों, सामायिक की संभालना न की हो, अधूरी पारी हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
X
सामायिक में दश मन के, दश वचन के,
बारह काया के, इन बत्तीस दोषों में से जो कोई दोष लगा हो
तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
X
X
सामायिक में राज कथा, देश कथा स्त्री कथा, ४ भक्त कथा;
४. श्राविकाएँ 'पुरुष कथा' बोलें ।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
-
X
३१
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इन चार कथाओं में से कोई विकथा की हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। xx
सामाइयं सम्मं कारणं, न फासियं, न पालियं, न तीरियं, न किट्टियं न सोहियं, न आराहियं, आणाए अणुपालियं न भवइ, तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
[नवकार मंत्र नौ बार] (इति सामायिक सूत्र)
| ३२
३२
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
उपाध्याय पुष्कर मुनि
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| प्रतिक्रमण करने की विधि |
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[प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने से पहले पूर्व दिशा में या उत्तर दिशा में यदि गुरुदेव विराजित हों तो गुरुदेव के सन्मुख होकर सामने बैठकर 'चउवीसत्थव' करना चाहिए। ___ इसकी विधि सामायिक की विधि के समान ही है। अंतर केवल इतना है कि 'करेमि भंते' के पाठ को नहीं बोलना चाहिए।
चउवीसत्थव के अनन्तर 'तिक्खुत्तो' पाठ तीन बार बोलकर, गुरुदेव को वन्दना करके गुरुदेव से प्रतिक्रमण करने की आज्ञा लेनी चाहिए। आज्ञा लेकर सर्वप्रथम श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र का प्रथम पाठ 'इच्छामिणं भंते' बोलें।
|३४||
३४
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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| उपक्रम सूत्र इच्छामिणं भंते ! तुन्भेहिंअब्भणुण्णाए समाणे देवसियं पडिक्कमणं ठाएमि देवसिय-नाण-दंसणचरित्ताऽचरित तवअइयार-चिंतणत्थं, . करेमि काउसग्गं।
[यहाँ ‘तिक्खुत्तो' से तीन बार गुरु वन्दन कर, प्रथम आवश्यक की आज्ञा लें। नमस्कार मंत्र एक बार पढ़ें।]
| नमस्कार सूत्र नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्व साहूणं।
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एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पाव प्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं॥
[करेमि भंते का पाठ एक बार बोलें
| सामायिक सूत्र | करेमि भंते ! सामाइयं, सावजं जोगं पच्चक्खामि । जाव नियमं पडिक्कमणं पजुवासामि, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
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| संक्षिप्त प्रतिक्रमण सूत्र इच्छामि ठामि काउसग्गं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ, दुन्विचिंतिओ, अणायारो, अणिच्छियव्वो, असावग-पाउग्गो, नाणे तह दंसणे, चरित्ताचरित्ते, सुए, सामाइए, तिण्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हं अणुव्वयाणं, तिण्हं गुणव्वयाणं, चउण्हं सिक्खावयाणं, बारसविहस्स सावग-धम्मस्स जंखंडियं, जं विराहियं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
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[' तस्सउत्तरी' का पाठ बोलें] उत्तरीकरण सूत्र
तस्स उत्तरी- करणेणं, पायच्छित्त करणेणं, विसोहि - करणेणं, विसल्ली- करणेणं, पावाणं कम्माणं निग्धायणट्ठाए, ठामि काउस्सग्गं ।
( यदि खड़े होकर ध्यान नहीं कर सकते हों तो
/
पालथी लगाकर ध्यान मुद्रा में बैठें ।)
आगार सूत्र
अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डुएणं, वाय- निसग्गेणं,
भमलीए, पित्तमुच्छाए, सुहुमेहिं अंग-संचालेहिं, सुहुमेहिं खेल - संचालेहिं, सुहुमेहिं दिट्ठि-संचालेहिं, एवमाइएहिं, आगारेहिं, अभग्गो, अविराहिओ, हुज्ज मे काउसग्गो ।
३८
ह
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जाव अरिहंताणं, भगवंताणं, नमोकारेणं, न पारेमि, ताव कायं ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि।
[पद्मासन आदि से बैठकर या खड़े होकर कायोत्सर्ग ध्यान करना।] ['काउसग्ग' में निम्न ९९ अतिचारों के पाठ बोलना।]
चौदह ज्ञान के अतिचार आगमे तिविहे पण्णत्ते तं जहा-सुत्तागमे, अत्थागमे, तदुभयागमे,
इस तरह तीन प्रकार आगम रूप ज्ञान के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ__ जं वाइद्धं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं, पय-हीणं, विणय-हीणं, जोग-हीणं, घोस-हीणं, सुदिनं, दुठ्ठपडिच्छियं, अकाले कओ सज्झाओ, काले न कओ सज्झाओ, असज्झाए सज्झाइयं, सज्झाए न सज्झाइयं,
भणतां, गुणतां, विचारतां, ज्ञान और ज्ञानवन्त की आशातना की हो तो आलोऊँ।
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| सम्यक्त्व के पाँच अतिचार | अरिहंतो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पण्णत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं ॥१॥ परमत्थसंथवो वा, सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वा वि। वावण्णकुदंसणवजणा, य सम्मत्त-सद्दहणा ॥२॥
इस प्रकार श्रीसमकितरत्न पदार्थ के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
श्रीजिन वचन में शंका की हो, पर-दर्शन की वांछा की हो, धर्मफल के प्रति संदेह किया हो, पर-पाखण्डी की प्रशंसा की हो, पर-पाखण्डी का संस्तव (परिचय) किया हो, तो मेरे सम्यक्त्वरूप रत्न पर मिथ्यात्वरूपी रज-मैल लगा हो, तो आलोऊँ।
(बारह व्रतों के साठ अतिचार) पहला स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
४०
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रोषवश गाढ़े बन्धन बाँधे हों, गाढ़े घाव घाले हों, अंगोपांग का छेदन किया हो, अधिक भार भरा हो, भक्त-पान का विच्छेद किया हो, तो आलोऊँ ।
1
X
X
X
दूसरा स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँसहसाकार - किसी पे झूठे आल दिये हों, रहस्य (छानी) बात प्रगट की हो, स्त्री-पुरुष का मर्म प्रकाशित किया हो, किसी को मिथ्या उपदेश दिया हो,
झूठे लेख लिखे हों, तो आलोऊँ ।
X
X
X
तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
चोर की चुराई वस्तु ली हो, चोर को सहायता दी हो,
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1
४१
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राज्य-विरुद्ध किया हो, झूठा तोल, झूठा माप किया हो, वस्तु में भेल-संभेल किया हो, तो आलोऊँ।
चौथा स्थूल स्वदारसंतोष परदारविवर्जनरूप मैथुन विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँइत्वरिक-परिगृहीता से गमन किया हो, अपरिगृहीता से गमन किया हो, अनंगक्रीड़ा की हो, पर-विवाह कराया हो, काम-भोग की तीव्र अभिलाषा की हो, तो आलोऊँ।
पाँचवाँ स्थूल परिग्रह-परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
क्षेत्र-वास्तु के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, हिरण्य-सुवर्ण के परिमाण का अतिक्रमण किया हो,
४२
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धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, द्विपद-चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण किया
कुप्य (घर बिखेरी) के परिमाण का अतिक्रमण किया हो,
तो आलोऊँ।
छट्टा दिशा परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँऊर्ध्व दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, अधो दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, तिर्यक् दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, क्षेत्र वृद्धि की हो,
क्षेत्र परिमाण के विस्मृत हो जाने से क्षेत्र परिमाण का अतिक्रमण किया हो,
तो आलोऊँ।
सातवाँ उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
सचित्त का आहार किया हो, । श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र । ४३ |
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सचित्त प्रतिबद्ध का आहार किया हो, अपक्व का आहार किया हो, दुष्पक्व का आहार किया हो, तुच्छ औषधि का आहार किया हो, तो आलोऊँ। यह तो भोजन के अतिचार कहे। अब कर्त्तव्य के अतिचार कहता हूँइङ्गाल-कम्मे, वण-कम्मे, साडी-कम्मे, भाडी-कम्मे, फोडी-कम्मे, दन्त-वाणिजे, लक्ख-वाणिजे, रस-वाणिज्जे, केस-वाणिजे, विस-वाणिजे जंतपीलणिया-कम्मे, निल्लंच्छणिया-कम्मे, दवग्गिदावणिया-कम्मे सर-दह-तलाव-सोसणिया-कम्मे, असइजण-पोसणिया-कम्मे, इन कर्मादानों में से किसी कर्मादान का सेवन किया
तो आलोऊँ
४४
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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आठवाँ अनर्थदण्ड विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
कन्दर्प की कथा की हो, भाण्ड-कुचेष्टा की हो, मुखरी (बिना प्रयोजन) वचन बोला हो, अधिकरण जोड़कर रखे हों, उपभोग-परिभोग अधिक बढ़ाए हों, तो आलोऊँ।
नवमें सामायिक व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ- सामायिक में मन, वचन, काया के अशुभ योग प्रवर्ताये हों, सामायिक की संभालना न की हो, अधूरी पारी हो, तो आलोऊँ।
x
दशवाँ देशावकाशिक व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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मर्यादित सीमा के बाहर की वस्तु मँगाई हो, अथवा बाहर वस्तु भेजी हो, शब्द करके चेताया हो, रूप दिखाकर अपना भाव प्रकट किया हो, कंकर आदि फेंककर दूसरे को बुलाया हो, तो आलोऊँ।
ग्यारहवें प्रतिपूर्ण पौषध व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ. पौषध व्रत में शय्या संथारे की प्रतिलेखना न की
उसकी प्रमार्जना न की हो, उच्चारपासवणभूमि की प्रतिलेखना न की हो, उसकी प्रमार्जना न की हो, पौषध व्रत का सम्यक् पालन न किया हो, पौषध में निद्रा, विकथा, प्रमाद का सेवन किया
जाते आवस्सही-आवस्सही न कहा हो, आते निसिही-निसिही न कहा हो,
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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शक्रेन्द्र महाराज की आज्ञा न ली हो, थोड़ी जगह पूंजकर घनी जगह परठा हो,
परठकर तीन बार वोसिरामि-वोसिरामि न कहा हो, .
तो आलोऊँ।
बारहवाँ अतिथि-संविभाग व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
सूज्झती वस्तु सचित्त पर रखी हो, सचित्त वस्तु से ढंकी हो, काल का अतिक्रमण किया हो, (आप सूझते होते हुए दूसरे से दान दिराया हो) अपनी वस्तु को दूसरे की बतलाई हो, मत्सर भाव से दान दिया हो, तो आलोऊँ। x x
x संलेखना के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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तं जहा - इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे,
मरणासंसप्पओगे,
कामभोगासंसप्पओगे,
[मा मज्झ हुज्ज मरणंते वि सड्ढापरूवणम्मि
अन्नहा भावो]
मारणान्तिक कष्ट के होने पर भी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा
में अन्तर आया हो, तो आलोऊँ ।
X
X
X
अठारह पापस्थानक के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) पर- परिवाद, (१६) रति - अरति, (१७) मायामृषावाद, (१८) मिथ्यादर्शन शल्य ।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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इन अठारह पापस्थानों में से किसी का सेवन किया हो, कराया हो, करते हुए को भला जाना हो,
तो आलोऊँ।
| संक्षिप्त प्रतिक्रमण सूत्र | इच्छामि ठामि पडिक्कमिडं, जो मे देवसिओ, अइयारो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिजो, दुज्झाओ, दुविचिंतिओ, अणायारो, अणिच्छियव्वो, असावग-पाउग्गो, नाणे तह दंसणे, चरित्ताचरित्ते, सुए, सामाइए, तिण्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हं अणुव्वयाणं, तिण्हं गुणव्वयाणं, चउण्हं सिक्खावयाणं, बारसविहस्स सावग-धम्मस्स, जं खण्डियं, जं विराहियं, तस्स आलोउं।
[फिर नवकार मंत्र का चिन्तन कर प्रकट में 'नमो अरिहंताणं' पढ़कर कायोत्सर्ग को पाले।]
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| कायोत्सर्ग दोषापहार सूत्र | कायोत्सर्ग में आर्तध्यान, रौद्रध्यान ध्याया हो, और धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्याया हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। [यहाँ प्रथम आवश्यक पूर्ण हुआ, अब दूसरे आवश्यक की गुरु वन्दना कर आज्ञा लें।] [दूसरे आवश्यक में 'लोगस्स' बोलें]
| चतुर्विंशतिस्तव सूत्र लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली॥१॥ उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइंच पउमप्पहं सुपासं, जिणंच चंदप्पहं वंदे॥२॥
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कमा
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सुविहिं च पुष्पदंतं, सीअल-सिजंस-वासुपुजं च। विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिंच वंदामि ॥३॥ कुंथुअरंच मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणंच। वंदामि रिट्टनेमिं, पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ एवं मए अभिथुआ, विहूय-रयमला, पहीण जरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय-वंदिय-महिया, जे एलोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्ग-बोहिला , समाहि-वरमुत्तमं दिंतु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागर-वर-गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥७॥
[यहाँ सामायिक चउवीसंथव दो आवश्यक पूरे हुए कहकर 'तिक्खुत्तो से तीन बार गुरु वन्दन कर तीसरे आवश्यक की आज्ञा ले और दो ‘इच्छामि खमासमणो' बोले।]
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द्वादशावर्त गुरु-वन्दन सूत्र | इच्छामि खमासमणो! वंदिउं, जावणिजाए, निसीहियाए। (मुद्रा १) अणु जाणह मे मिउग्गहं। निसीहि, (मुद्रा २) अहो का यं, का य-संफासं। खमणिजो भे किलामो। अप्पकिलंताणं, बहु-सुभेणं भे दिवसो वइकंतो! जत्ता भे! जव णि जं च भे? खामेमि खमासमणो! देवसियं वइक्कम। आवस्सिआए पडिक्कमामि। खमासमणाणं,
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देवसियाए, आसायणाए, तित्तिसन्नयराए, जं किंचि मिच्छाए, मण-दुक्कडाए, वय-दुक्कडाए, काय-दुक्कडाए, कोहाए, माणाए, मायाए, लोहाए, सव्वकालियाए, सव्वमिच्छोवयाराए, सव्वधम्माइक्कमणाए, आसायणाए, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
| खमासमणा की विधि । [प्रथम जहाँ 'निसीहियाए' शब्द आता है वहाँ दोनों घुटने खड़े करके हाथ जोड़कर बैठे, तथा छह आवर्तन करें, वे इस प्रकार हैं-प्रथम 'अहो का यं का य' शब्द उच्चारण करते तीन आवर्तन होते हैं, जैसे-दोनों हाथ लम्बे कर हाथ की दसों अंगुलियाँ भूमि पर लगाकर तथा गुरु चरण स्पर्श करके 'अ' अक्षर नीचे स्वर से कहें, फिर ऐसे ही दसों अँगुलियाँ अपने मस्तक पर लगाकर 'हो' अक्षर ऊँचे स्वर से कहें, यह दोनों अक्षरों के कहने से प्रथम आवर्तन होता है, और इसी प्रकार 'का' और 'य' दो उच्चारण करते समय द्वितीय आवर्तन होता है। इसी तरह 'का' और
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'य' दो अक्षरों के कहने से तृतीय आवर्तन होता है। फिर 'जत्ता भेज व णि जंच भे' के उच्चारण करने से तीन आवर्तन होते हैं। प्रथम 'ज' अक्षर मन्द स्वर से, 'त्ता' अक्षर मध्यम स्वर से और 'भे' उच्च स्वर से, इस प्रकार तीनों अक्षरों के उच्चारण से प्रथम आवर्तन होता है और 'ज, व, णि' इन तीनों अक्षरों को त्रिविध स्वर से उच्चारण करने से द्वितीय आवर्तन होता है तथा इसी तरह 'जं, च, भे' को भी त्रिविध स्वर से उच्चारण करने से तृतीय आवर्तन होता है। तीन, तीन, छह आवर्तन एक पाठ में बोलें और जहाँ 'तित्तीसत्रयराए' शब्द आता है वहाँ खड़े होकर पूरे पाठ को समाप्त करें । इस प्रकार से द्वितीय 'खमासमणो' का पूरा पाठ बोलें, इसमें भी छहों आवर्तन पूर्वोक्त प्रकार से होते हैं।
इन दो 'खमासमणो' में बारह आवर्तन होते हैं। यहाँ यह ध्यान रखें कि दूसरे ‘खमासमणो' में 'आवसियाए पडिक्कमामि' इन दश अक्षरों को न बोलें, द्वितीय ‘खमासमणो' को बैठे-बैठे ही पूर्ण करना चाहिए।
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यहाँ सामायिक एक, चउवीसत्थव दो, वंदना तीन यह तीनों आवश्यक पूर्ण हुए। अब चौथे आवश्यक की तिक्खुत्तो से तीन बार गुरु-वंदन कर आज्ञा लें और निम्न पाठों को क्रमशः बोलें।
| ज्ञानातिचार आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहां-सुत्तागमे, अत्थागमे, तदुभयागमे, ___ इस तरह तीन प्रकार
आगम रूप ज्ञान के विषय में जो कोई अतिचार लगा - हो तो आलोऊँ-
-- ___ जं वाइद्धं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं,
अच्चक्खरं, पय-हीणं, विणय-हीणं, जोगहीणं, घोस-हीणं, सुठु दिन्नं, दुळु पडिच्छियं, अकाले कओ सज्झाओ, काले न कओ सज्झाओ, असज्झाए सज्झाइयं, सज्झाए न सज्झाइयं, भणतां, गुणतां, विचारतां, ___ ज्ञान और ज्ञानवन्त की आशातना की हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। । श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र ५५
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सम्यक्त्व के पाँच अतिचार अरिहंतो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पण्णत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं ॥१॥ परमत्थसंथवो वा, सुदिट्टपरमत्थसेवणा वा वि। वावण्णकुदंसणवजणा, य सम्मत्त-सद्दहणा॥२॥
इस प्रकार श्रीसमकितरत्न पदार्थ के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
श्रीजिन वचन में शंका की हो, पर-दर्शन की वांछा की हो, धर्मफल के प्रति संदेह किया हो, पर-पाखण्डी की प्रशंसा की हो, पर-पाखण्डी का संस्तव (परिचय) किया हो, तो मेरे सम्यक्त्वरूप रत्न पर मिथ्यात्वरूपी रज-मैल लगा हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
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बारह व्रतों के साठ अतिचार | प्रथम अहिंसा व्रत के अतिचार पहला स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
रोषवश गाढ़े बन्धन बाँधे हों, गाढ़े घाव घाले हों, अंगोपांग का छेदन किया हो, अधिक भार भरा हो, भक्त-पान का विच्छेद किया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| द्वितीय सत्य व्रत के अतिचार
दूसरा स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
सहसाकार-किसी पे झूठे आल दिये हों, रहस्य (छानी) बात प्रकट की हो, स्त्री-पुरुष का मर्म प्रकाशित किया हो, किसी को मिथ्या उपदेश दिया हो, | श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र ५७
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झूठे लेख लिखे हों, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। | तृतीय सत्य व्रत के अतिचार तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
चोर की चुराई वस्तु ली हो, चोर को सहायता दी हो, राज्य-विरुद्ध किया हो, झूठा तोल, झूठा माप किया हो, वस्तु में भेल-संभेल किया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। | चतुर्थ ब्रह्मचर्य व्रत के अतिचार
चौथा स्थूल स्वदारसंतोष परदारविवर्जनरूप मैथुन विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँइत्वरिक-परिगृहीता से गमन किया हो, अपरिगृहीता से गमन किया हो,
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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अनंगक्रीड़ा की हो, पर-विवाह कराया हो, काम-भोग की तीव्र अभिलाषा की हो, तो । तस्स मिच्छामि दुक्कडं। | पंचम अपरिग्रह व्रत के अतिचार __ पाँचवाँ स्थूल परिग्रह-परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
क्षेत्र-वास्तु के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, हिरण्य-सुवर्ण के परिमाण का अतिक्रमण किया हो,
धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, द्विपद-चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण किया
___ कुप्य (घर बिखेरी) के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, तो
तस्स मिच्छामि दुक्कडं। | श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र ५९
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| षष्ठ दिशा परिमाण व्रत के अतिचार
छट्ठा दिशा परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँऊर्ध्व दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, अधो दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, तिर्यक् दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, क्षेत्र वृद्धि की हो,
क्षेत्र परिमाण के विस्मृत हो जाने से क्षेत्र परिमाण का अतिक्रमण किया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
सप्तम उपभोग-परिभोग परिमाण
व्रत के अतिचार सातवाँ उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँसचित्त का आहार किया हो, सचित्त प्रतिबद्ध का आहार किया हो,
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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अपक्व का आहार किया हो, दुष्पक्व का आहार किया हो, तुच्छ औषधि का आहार किया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। यह तो भोजन के अतिचार कहे। अब कर्त्तव्य के अतिचार कहता हूँइङ्गाल-कम्मे, वण-कम्मे, साडी-कम्मे, भाडी-कम्मे, फोडी-कम्मे, दन्त-वाणिजे, लक्ख-वाणिजे, रस-वाणिजे, केस-वाणिजे, विस-वाणिज्जे, जंतपीलणिया-कम्मे, निल्लच्छणिया-कम्मे, दवग्गिदावणिया-कम्मे, सर-दह-तलाव-सोसणिया-कम्मे, असइजण-पोसणिया-कम्मे, . इन कर्मादानों में से किसी कर्मादान का सेवन किया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। .
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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अष्ठम अनर्थदण्ड विरमण
व्रत के अतिचार आठवाँ अनर्थदण्ड विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
कन्दर्प की कथा की हो, भाण्ड-कुचेष्टा की हो, मुखरी (बिना प्रयोजन) वचन बोला हो,
अधिकरण जोड़कर रखे हों, उपभोग-परिभोग अधिक बढ़ाए हों, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। | नवम सामायिक व्रत के अतिचार |
नवमें सामायिक व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
सामायिक में मन, वचन, काया के अशुभ योग प्रवर्ताये हों,
सामायिक की संभालना न की हो, अधूरी पारी हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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दशम देशावकाशिक व्रत के अतिचार
दशवाँ देशावकाशिक व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँमर्यादित सीमा के बाहर की वस्तु मँगाई हो, अथवा बाहर वस्तु भेजी हो, शब्द करके चेताया हो, रूप दिखाकर अपना भाव प्रकट किया हो, कंकर आदि फेंककर दूसरे को बुलाया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| एकादश पौषध व्रत के अतिचार
ग्यारहवें प्रतिपूर्ण पौषध व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ- पौषध व्रत में शय्या संथारे की प्रतिलखेना न की
उसकी प्रमार्जना न की हो, उच्चार-पासवण भूमि की प्रतिलेखना न की हो, उसकी प्रमार्जना न की हो,
. श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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पौषध व्रत का सम्यक् पालन न किया हो, पौषध में निद्रा, विकथा, प्रमाद का सेवन किया
जाते आवस्सही-आवस्सही न कहा हो, आते निसिही-निसिही न कहा हो, शक्रेन्द्र महाराज की आज्ञा न ली हो, थोड़ी जगह पूंजकर घनी जगह परठा हो,
परठकर तीन बार वोसिरामि-वोसिरामि न कहा हो, तो
तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
द्वादश अतिथि-संविभाग व्रत के
अतिचार बारहवाँ अतिथि-संविभाग व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
सूज्झती वस्तु सचित्त वस्तु पर रखी हो, सचित्त वस्तु से ढंकी हो, काल का अतिक्रमण किया हो,
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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(आप सूज्झते होते हुए दूसरे से दान दिराया हो) अपनी वस्तु को दूसरे की बतलाई हो, मत्सर भाव से दान दिया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
संलेखना के अतिचार
संलेखना के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो
तो आलोऊँ
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तं जहा - इहलोगासंसप्पओगे,
परलोगासंसप्पओगे,
जीवियासंसप्पओगे,
मरणासंसप्पओगे,
कामभोगासंसप्पओगे,
[ मा मज्झ हुज्ज मरणंते वि सड्ढापरूवणम्मि अन्नहा भावो]
मारणान्तिक कष्ट के होने पर भी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा
में अन्तर आया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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| अष्टादश पापस्थानक | अठारह पापस्थानक के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) पर-परिवाद, (१६) रति-अरति, (१७) मायामृषावाद, (१८) मिथ्यादर्शन-शल्य।
इन अठारह पापस्थानों में से किसी का सेवन किया हो, कराया हो, करते हुए को भला जाना हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| निन्यानवे अतिचार | चौदह ज्ञान के, पाँच सम्यक्त्व के, साठ बारह व्रतों के, पन्द्रह कर्मादान के, पाँच संलेखना के, इस प्रकार निन्यानवे अतिचारों के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
इन व्रतों में अतिक्रम-व्यतिक्रम, अतिचारअनाचार सेवन किया हो, कराया हो, करते हुए को भला जाना हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| संक्षिप्त प्रतिक्रमण सूत्र | इच्छामि ठामि पडिक्कमिडं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिजो, दुज्झाओ, दुविचिंतिओ, अणायारो, अणिच्छियव्वो, असावग-पाउग्गो, नाणे तह दंसणे, चरित्ताचरित्ते, सुए, सामाइए, तिण्डं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हं अणुव्वयाणं, तिण्हं गुणव्वयाणं,
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र. ६७
डा
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चउण्हं सिक्खावयाणं, बारसविहस्स सावग-धम्मस्स जं खण्डियं, जं विराहियं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं। [यहाँ तीन बार 'तिक्खुत्तो' से गुरु-वन्दन कर श्रावक सूत्र की आज्ञा लें और निम्न पाठ खड़े-खड़े बोलें।]
| समय अतिचार चिन्तन । तस्स सव्वस्स, देवसियस्स, अइयारस्स दुब्भासियस्स, दुविचिंतियस्स, दुच्चिट्ठियस्स, आलोयंते पडिक्कमामि । [श्रावक सूत्र पढ़ते समय दाहिना घुटना ऊँचा करके और बायाँ घुटना नीचा करके बैठे।]
| नमस्कार सूत्र | नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्व साहूणं।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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एसो पंच नमोक्कारो, सव्व पाव प्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥
| सामायिक सूत्र । करेमि भंते ! सामाइयं, सावजं जोगं पच्चक्खामि। जाव नियमं पडिक्कमणं पजुवासामि, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा, तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
| मंगल सूत्र चत्तारि मंगलंअरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि-पण्णत्तो धम्मो मंगलं।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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चत्तारि लोगुत्तमाअरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू-लोगुत्तमा, केवलि-पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वजामि, अरिहंते सरणं पव्वजामि, सिद्धे सरणं पव्वजामि, साहू सरणं पव्वजामि, केवलि-पण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वजामि। यह चार शरण दुःख हरण जगत में
और न शरणा कोई होगा। जो भव्य प्राणी करे आराधन
उसका अजर अमर पद होगा। | संक्षिप्त प्रतिक्रमण सूत्र | इच्छामि ठामि पडिक्कमिडं जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिजो,
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दुज्झाओ, दुव्विचिंतिओ, अणायारो, अणिच्छियव्वो, असावग-पाउग्गो, नाणे तह दंसणे, चरित्ताचरित्ते, सुए, सामाइए, तिण्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हं अणुव्वयाणं, तिण्हं गुणव्वयाणं, चउण्हं सिक्खावयाणं, बारसविहस्स सावग-धम्मस्स जं खण्डियं, जं विराहियं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| आलोचना सूत्र | आवस्सही इच्छाकारेण संदिसह भगवं! इरियावहियं, पडिक्कमामि ? इच्छं! इच्छामि पडिक्कमिडं। इरियावहियाए, विराहणाए। गमणागमणे, पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियक्कमणे।
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ओसा-उत्तिंग-पणग-दग-मट्टीमक्कडा संताणा-संकमणे। जे मे जीवा विराहिया। एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया। अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया, तस्स मिच्छामि दुल्कडं। [यहाँ तीन बार 'तिक्खुत्तो' से गुरु-वन्दन कर "व्रत अतिचार शामिल पढ़ने की आज्ञा है" ऐसा कहकर निम्न पाठ बोलें।
| ज्ञानातिचार आगमे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा-सुत्तागमे, अत्थागमे, तदुभयागमे, __ इस तरह तीन प्रकार आगम रूप ज्ञान के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ| ७२ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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जंवाइद्धं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं, पय-हीणं, विणय-हीणं, जोग-हीणं, घोस-हीणं, सुट्ठदिन्नं, दुठ्ठपडिच्छियं, अकाले कओ सज्झाओ, काले न कओ सज्झाओ, असज्झाए सज्झाइयं, सज्झाए न सज्झाइयं, भुणतां, गुणतां, विचारतां, ज्ञान और ज्ञानवन्त की आशातना की हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| सम्यक्त्व सूत्र | अरिहंतो मह देवो,
जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पण्णत्तं तत्तं,
इय सम्मत्तं मए गहियं ॥१॥ परमत्थसंथवो वा,
सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वा वि। वावण्णकुदंसणवजणा,
य सम्मत्त-सद्दहणा ॥२॥ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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इस प्रकार श्रीसमकितरत्न पदार्थ के विषय में जे कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँश्रीजिन वचन में शंका की हो, पर - दर्शन की वांछा की हो, धर्मफल के प्रति संदेह किया हो,
पर - पाखण्डी की प्रशंसा की हो,
पर- पाखण्डी का संस्तव (परिचय) किया हो, तो मेरे सम्यक्त्वरूप रत्न पर मिथ्यात्वरूपी रज-मैल लगा हो, तो
तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
प्रथम अहिंसा अणुव्रत
पहला अणुव्रत - थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सजीव - बेइंदिय, तेइंदिय, चउरिंदिय, पंचिंदिय, जान के, पहचान के, संकल्प करके स्व-सम्बन्धी शरीर में पीड़ाकारी सापराधी को छोड़ निरपराधी को मारने की बुद्धि से मारने का पच्चक्खाण जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं
न करेमि, न कारवेमि,
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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मणसा, वयसा, कायसा,
ऐसा पहला स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँरोषवश गाढ़े बन्धन बाँधे हों,
गाढ़े घाव घाले हों,
अंगोपांग का छेदन किया हो, अधिक भार भरा हो,
भक्त - पान का विच्छेद किया हो, तो
जो मे देवसिओ अइयारो कओ
तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
द्वितीय सत्य अणुव्रत
दूसरा अणुव्रत - थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं,
कन्नालीए, गवालीए,
भोमालीए, णासावहारे (थापणमोसो)
झूठ
कूडसक्खिज्जे, इत्यादि मोटके बोलने के पच्चक्खाण, जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि,
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मणसा, वयसा, कायसा,
ऐसा दूसरा स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँसहसाकार-किसी पे झूठे आल दिये हों, रहस्य (छानी) बात प्रकट की हो, स्त्री-पुरुष का मर्म प्रकाशित किया हो, किसी को मिथ्या उपदेश दिया हो, झूठे लेख लिखे हों, तो जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| तृतीय अस्तेय अणुव्रत । तीसरा अणुव्रत-थूलाओ अदिनादाणाओ वेरमणं, ___ खात खनकर, गाँठ खोलकर, ताले पर कुंजी लगाकर, मार्ग में चलते को लूटकर, पड़ी हुई वस्तु मालिक की जान के लेने के पच्चक्खाण, सगेसम्बन्धी, व्यापार सम्बन्धी तथा पड़ी निर्धमी वस्तु के
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उपरान्त अदत्तादान का पच्चक्खाण, जावज्जीवाए दुहिं तिविहेणं,
न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा,
ऐसा तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
चोर की चुराई वस्तु ली हो, चोर को सहायता दी हो, राज्य-विरुद्ध किया हो, झूठा तोल, झूठा माप किया हो, वस्तु में भेल-संभेल किया हो, तो जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| चतुर्थ ब्रह्मचर्य अणुव्रत | चौथा अणुव्रत-थूलाओ मेहुणाओ वेरमणं, सदार संतोसिए अवसेस
१. श्राविका ‘सभत्तार संतोसिए' पढ़ें।
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मेहुणविहिं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, देव-देवी सम्बन्धी, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा, मनुष्य तिर्यंच सम्बन्धी एगविहं एगविहेणं, न करेमि, कायसा,
ऐसा चौथा स्थूल स्वदारसंतोष परदारविवर्जनरूप मैथुन विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
इत्वरिक-परिगृहीता से गमन किया हो, अपरिगृहीता से गमन किया हो, अनंगक्रीड़ा की हो, पर-विवाह कराया हो, काम-भोग की तीव्र अभिलाषा की हो, तो जो मे देवसिओ आइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| पंचम अपरिग्रह अणुव्रत | पाँचवाँ अणुव्रत-थूलाओ परिग्गहाओ वेरमणं, धन-धान्य का यथा परिमाण,
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क्षेत्र-वास्तु का यथा परिमाण, हिरण्य-सुवर्ण का यथा परिमाण, द्विपद-चतुष्पद का यथा परिमाण, कुविय धातु का यथा परिमाण, जो परिमाण किया है उसके उपरान्त अपना करके परिग्रह रखने का पच्चक्खाण, जावजीवाए, एगविहं तिविहेणं, न करेमि, मणसा, वयसा, कायसा,
ऐसा पाँचवाँ स्थूल परिग्रह-परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
क्षेत्र-वास्तु के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, हिरण्य-सुवर्ण के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, द्विपद-चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण किया हो,
कुप्य (घर बिखेरी) के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, तो
जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
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| षष्ठ दिशा व्रत । छट्ठा दिसि व्रत-उड्ढ दिसि का यथा परिमाण, अहो दिसि का यथा परिमाण, तिरिय दिसि का यथा परिमाण,
एवं यथा परिमाण किया है उसके उपरान्त स्वेच्छा से काया कर
पाँच आस्रव सेवन का पच्चक्खाण, जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा,
ऐसा छट्ठा दिशा परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँऊर्ध्व दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, अधो दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, तिर्यक् दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, क्षेत्र वृद्धि की हो,
क्षेत्र परिमाण के विस्मृत हो जाने से क्षेत्र परिमाण का अतिक्रमण किया हो, तो
-
२. कोई ‘एगविहं तिविहेणं' भी कहते हैं।
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जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
सप्तम उपभोग - परिभोग परिमाण व्रत
सातवाँ अणुव्रत - उपभोग - परिभोग विहिं पच्चक्खायमाणे
(२) दंतण - विहिं,
(४) अब्भंगण - विहिं, (६) मज्जण - विहिं (८) विलेवण - विहिं, (१०) आभरण-विहिं, (१२) पेज्ज - विहिं, (१४) ओदण - विहिं,
(१६) विगय - विहिं,
(१) उल्लणिया - विहिं, (३) फल-विहिं, (५) उवट्टण - विहिं, (७) वत्थ - विहिं,
(९) पुप्फ - विहिं, (११) धूवण - विहिं,
(१३) भक्खण-विहिं,
(१५) सूव - विहिं,
(१७) साग - विहिं,
(१९) जेमण - विहिं, (२१) मुहवास - विहिं,
(१८) महुर - विहिं, (२०) पाणीय - विहिं,
(२२) वाहण - विहिं,
(२४) उवाणह - विहिं, (२६) दव्व - विहिं, करेमि,
(२३) सयण - विहिं,
(२५)
सचित्त - विहिं,
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इत्यादि छब्बीस बोल का यथा परिमाण किया है उसके उपरान्त उपभोग, परिभोग, वस्तु भोग निमित्त भोगने का पच्चक्खाण,
जावज्जीवाए, एगविहं तिविहेणं, न करेमि, मणसा, वयसा, कायसा,
ऐसा सातवाँ उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
सचित्त का आहार किया हो, सचित्त प्रतिबद्ध का आहार किया हो, अपक्व का आहार किया हो, दुष्पक्व का आहार किया हो, तुच्छ औषधि का आहार किया हो, तो जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छामि दुक्कडं। यह तो भोजन के अतिचार कहे। अब कर्त्तव्य के अतिचार कहता हूँइङ्गाल-कम्मे, वण-कम्मे, साडी-कम्मे, भाडी-कम्मे, फोडी-कम्मे,
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दन्त-वाणिजे, केस-वाणिजे, रस-वाणिजे, लक्ख-वाणिजे, विस-वाणिजे, जंतपीलण-कम्मे, निल्लंछणिया-कम्मे, दवग्गिदावणिया-कम्मे, सर-दह-तलाव-सोसणिया-कम्मे, असइजण-पोसणिया-कम्मे,
इन कर्मादानों में से किसी कर्मादान का सेवन किया हो, तो
जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं। | अष्टम अनर्थदण्ड विरमण व्रत | आठवाँ अणट्ठदण्ड वेरमण व्रतसे य अणट्ठ दण्डे चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा-अवज्झाणाचरिए, पमायाचरिए, हिंसप्पयाणे, पाव-कम्मोवएसे, इस तरह आठवें अनर्थदण्ड सेवन के पच्चक्खाण (जिसमें आठ आगार आए वा, राए वा, नाए वा, परिवारे वा,
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देवे वा, नागे वा, जक्खे वा, भूए वा, एत्तिएहिं आगरेहिं अन्नत्थ) जावजीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा,
ऐसा आठवाँ अनर्थदण्ड विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
कन्दर्प की कथा की हो, भाण्ड-कुचेष्टा की हो, मुखरी (बिना प्रयोजन) वचन बोला हो,
अधिकरण जोड़कर रखे हों, उपभोग-परिभोग अधिक बढ़ाए हों, तो जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
| नवम सामायिक व्रत नवमं सामाइयव्वयं सावज जोगंपच्चक्खामि जाव नियम पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं,
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न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा, ऐसी मेरी श्रद्धा, प्ररूपणा है, सामायिक के अवसर पर स्पर्शना करके शुद्ध होऊँ। ऐसे नवमें सामायिक व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
सामायिक में मन, वचन, काया के अशुभ योग प्रवर्ताये हों,
सामायिक की संभालना न की हो, अधूरी पारी हो, तो जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं। | दशम देशावकाशिक व्रत | दशवाँ देशावकाशिक व्रत, दिन प्रति प्रभात से प्रारम्भ करके पूर्वादिक छहों दिशाओं की जितनी भूमिका की मर्यादा रक्खी हो, उसके उपरान्त आगे जाकर
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पाँच आस्रव सेवन करने के पच्चक्खाण, जाव अहोरत्तं दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयमा, कायसा, जितनी भूमिका की मर्यादा रखी है उसमें जो द्रव्यादिक की मर्यादा की है, उसके उपरान्त उपभोग-परिभोग निमित्त से भोगने का पच्चक्खाण, जाव अहोरत्तं एगविहं तिविहेणं, न करेमि, मणसा, वयसा, कायसा,
ऐसा दशवाँ देशावकाशिक व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँमर्यादित सीमा के बाहर की वस्तु मँगाई हो, अथवा बाहर वस्तु भेजी हो, शब्द करके चेताया हो, रूप दिखाकर अपना भाव प्रकट किया हो, कंकर आदि फेंककर दूसरे को बुलाया हो, तो जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
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एकादश पौषध व्रत
ग्यारहवाँ पडिपुण्ण पौषध व्रत -
असणं, पाणं, खाइमं, साइमं का पच्चक्खाण, अबंभसेवण का पच्चक्खाण, अमुक मणिसुवर्ण का पच्चक्खाण, माला - वन्नग - विलेवण का पच्चक्खाण, सत्थ- मुसलादिक सावज्ज जोग का पच्चक्खाण, जाव अहोरत्तं, पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि,
मणसा, वयसा, कायसा, ऐसी मेरी श्रद्धा, प्ररूपणा तो है
पौषध के अवसर पर पौषध की
स्पर्शना कर शुद्ध होऊँ ।
ऐसे ग्यारहवें प्रतिपूर्ण पौषध व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
पौषध व्रत में शय्या संथारे की प्रतिलेखना न की
हो,
उसकी प्रमार्जना न की हो,
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CATERED
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उच्चार-पासवण-भूमि की प्रतिलेखना न की हो, उसकी प्रमार्जना न की हो, पौषध व्रत का सम्यक् पालन न किया हो, पौषध में निद्रा, विकथा, प्रमाद का सेवन किया
जाते आवस्सही-आवस्सही न कहा हो, आते निसिही-निसिही न कहा हो, शक्रेन्द्र महाराज की आज्ञा न ली हो, थोड़ी जगह पूंजकर घनी जगह परठा हो,
परठकर तीन बार वोसिरामि-वोसिरामि न कहा हो, तो
जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं। | द्वादश अतिथि-संविभाग व्रत | बारहवाँ अतिथि-संविभाग व्रतसमणे निग्गंथे, फासुयएणं, एसणिजेणं, असण-पाण-खाइमसाइमेणं, वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पाय
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पुंछणेणं, पाडिहारिएण, पीढ-फलग-सिज्जासंथारएणं, ओसह-भेसज्जेणं य पडिलाभेमाणे, विहरामि। ऐसी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा है, साधु-साध्वी का योग मिलने पर निर्दोष दान दूं तब शुद्ध होऊँ।
ऐसा बारहवाँ अतिथि-संविभाग व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
सूज्झती वस्तु सचित्त पर रक्खी हो, सचित्त वस्तु से ढंकी हो, काल का अतिक्रमण किया हो, (आप सूज्झते होते हुए दूसरे से दान दिराया हो) अपनी वस्तु को दूसरे की बतलाई हो, मत्सर भाव से दान दिया हो, तो जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
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| संलेखना सूत्र अह भंते! अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा झूसणा आराहणा पौषधशाला पूंज, पूंजकर उच्चार-पासवण भूमिका पडिलेह, पडिलेह कर, गमणागमणे, पडिक्कम पडिक्कम कर, दर्भादिक संथारा, संथार संथारकर, दर्भादिक संथारा दुरूह-दुरूह कर पूर्व तथा उत्तर दिशि सन्मुख, पल्यंकादिक आसन से बैठकर, करयल-संपरिग्गहियं, सिरसावत्तं, मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी“नमोत्थुणं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं-" ऐसे अनन्त सिद्धों को नमस्कार करके
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“नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपाविउकामाणं" जयवन्ता वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र में । विचरते हुए तीर्थंकरों को नमस्कार करके अपने धर्माचार्य जी को नमस्कार करता हूँ। साधु प्रमुख चारों तीर्थ को खमा कर, सर्व जीव राशि को खमा कर, पूर्व में जो व्रत आदरे हैं उनमें जो अतिचार लगे हों, वे सर्व आलोच के,पडिक्कम के, निन्द के, निशल्य होकर के सव्वं पाणाइवाइयं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावायं पच्चक्खामि। सव्वं अदिन्नादाणं पच्चक्खामि। सव्वं मेहुणं पच्चक्खामि। सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि। सव्वं कोहं जाव मिच्छादसण-सल्लं अकरणिजं, जोग पच्चक्खामि। जावजीवाए, तिविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि,
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करतंपि अन्नं न समणुजाणामि। मणसा, वयसा, कायसा। ऐसे अठारह पाप-स्थानक पच्चक्ख के सव्वं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं चउव्विहं पि आहारं पच्चक्खामि । जावजीवाए-जं पि य इमं सरीरं इटुं, कंतं, पियं, मणुण्णं, मणाम, धिजं, वेसासियं, सम्मयं, अणुमयं, बहुमयं, भण्ड-करण्डगसमाणं, माणं सीयं, मा णं उण्हं, माणं खुहा, माणं पिवासा, मा णं बाला, मा णं वाइयपित्तिय-कप्फिय-संभिय सन्निवाइयं, विविह रोगायंका. परिसहोवसग्गा. फुसन्त त्ति कटु, एवं पिणं चरमेहि, उस्सास-नीसासेहिं, वोसिरामि त्ति कटु, ऐसे शरीर को वोसिरा कर, "कालं अणवकंखमाणे विहरामि" ऐसी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा है। स्पर्शना करूँ तोशद्ध होऊँ। ऐसी अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
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तं जहाइहलोगा संसप्पओगे, परलोगा संसप्पओगे, जीविया संसप्पओगे, मरणा संसप्पओगे, कामभोगा संसप्पओगे, (मा मज्झ हुज्ज मरणंते वि सड्ढापरूवणम्मि अन्नहा भावो) मारणान्तिक कष्ट होने पर भी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा में अन्तर आया हो, तो जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
पर्यालोचन पाठ ऐसे सम्यक्त्वपूर्वक बारह व्रत संलेखना सहित, इनके विषय में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, जानते, अनजानते, मन, वचन, काया से सेवन किया हो, कराया हो, करते हुए का अनुमोदन
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किया हो तो अनन्त सिद्ध केवली भगवान की साक्षी से मिच्छामि दुक्कडं।
| अष्टादश पापस्थानक अठारह पापस्थान के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह (६) क्रोध, (७) मान,
(८) माया, (९) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य (१५) पर-परिवाद (१६) रति-अरति, (१७) माया-मृषावाद, (१८) मिथ्यादर्शन-शल्य।
इन अठारह पापस्थानों में से किसी का सेवन किया हो, कराया हो,
करते हुए को भला जाना हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
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| संक्षिप्त प्रतिक्रमण सूत्र | इच्छामि ठामि पडिक्कमिडं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ, दुविचिंतिओ, अणायारो, अणिच्छियव्वो, असावग-पाउग्गो, नाणे तह दंसणे, चरित्ताचरित्ते, सुए-सामाइए, तिण्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हं अणुव्वयाणं, तिण्हं गुणव्वयाणं, चउण्हं सिक्खावयाणं, बारसविहस्स सावग-धम्मस्स जं खण्डियं, जं विराहियं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
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[यहाँ खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर निम्न पाठ पढ़ें]
| उपसंहार सूत्र तस्स धम्मस्स केवलि-पन्नत्तस्स अब्भुट्टिओमि, आराहणाए, विरओमि विराहणाए, सव्वं तिविहेणं, पडिक्कन्तो, वंदामि जिण-चउवीसं। [यहाँ ‘तिक्खुत्तो' से तीन बार गुरु-वन्दना कर 'इच्छामि खमासमणो' दो बार पढ़ें।]
| द्वादशावर्त शुरु-वन्दन सूत्र इच्छामि खमासमणो! वंदिउं, जावणिजाए, निसीहियाए। अणु जाणह मे मिउग्गहं। निसीहि, अहो का यं, का य-संफासं। खमणिजो भे किलामो। अप्पकिलंताणं, बहु-सुभेणं भे दिवसो वइक्वंतो! जत्ता भे! ज व णि जं च भे? खामेमिखमासमणो! देवसियं वइक्कम । आवस्सिआए पडिक्कमामि।
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खमासमणाणं, देवसियाए, आसायणाए, तित्तिसन्नयराए, जं किंचि मिच्छाए, मण-दुक्कडाए, वय-दुक्कडाए, काय-दुक्कडाए, कोहाए, माणाए, मायाए, लोहाए, सव्वकालियाए, सव्वमिच्छोवयाराए, सव्वधम्माइक्कमणाए, आसायणाए, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
(अब दोनों हाथ जोड़कर, सिर नीचे झुकाकर पाँच पदों की वंदना करें।) | नमस्कार मंत्र | नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्व साहूणं। एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पाव प्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं॥
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| पाँच पदों की वन्दना ।
नमो अरिहंताणं नमस्कार हो, अरिहंतो को। अरिहंत भगवान कैसे हैं ? उप्पन्न-नाण-दसणधरा-अरहा जिण केवली चार घाती कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय के क्षय करने वाले हैं। चार अनन्त चतुष्टयअनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, और अनन्त वीर्य के धारण करने वाले हैं। देव-दुन्दुभि, भा-मण्डल, स्फटिक-सिंहासन, अशोक-वृक्ष, पुष्प-वृष्टि, दिव्य-ध्वनि, छत्र, चामर, इन आठ महाप्रातिहार्यों से सुशोभित हैं। इन बारह गुणों से युक्त और अठारह दोषों से रहित हैं। जघन्य बीस तीर्थंकर उत्कृष्ट एक सौ साठ तथा सत्तर तीर्थंकर, वर्तमान में
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पाँच महाविदेह क्षेत्रों में बीस विहरमानसीमन्धर-स्वामी, युगमन्दिर-स्वामी, बाहु-स्वामी, सुबाहु-स्वामी, सुजात-स्वामी, स्वयंप्रभ-स्वामी, ऋषभानन-स्वामी, अनन्तवीर्य-स्वामी, सुप्रभ-स्वामी, वज्रधर-स्वामी, विशालधर-स्वामी, चन्द्रानन-स्वामी, चन्द्रबाहु-स्वामी, भुजंग-स्वामी, ईश्वर-स्वामी, नेमप्रभ-स्वामी, वीरसेन-स्वामी, महाप्रभ-स्वामी, देवयश-स्वामी, अजितवीर्य-स्वामी, चौंतीस अतिशय, पैंतीस वाणी के गुणों से विराजमान हैं और एक सौ आठ उत्तम लक्षणों के धारण करने वाले हैं। चौंसठ इन्द्रों के पूजनीय हैं। जघन्य दो करोड़, उत्कृष्ट नव करोड़, सामान्य केवली विदेह क्षेत्रों में विहरते, विचरते हैं। उन महापुरुषों को मैं
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एक हजार आठ बार 'तिक्खुत्तो' के पाठ से बारम्बार वंदना एवं नमस्कार करता हूँ तथा जानते-अनजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो, तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ।
सवैया नमो श्री अरिहंत, करमों का किया अन्त, हुवा सो केवलवन्त, करुणा भण्डारी है। अतिशय चौंतीस धार, पैंतीस वाणी उच्चार, समझावे नर नार, पर उपकारी है। शरीर सुन्दराकार, सूरज सो झलकार, गुण हैं अनन्त सार, दोष परिहारी है। कहत है तिलोक रिख, मन वच काय करि, झुक-झुक बारंबार, वंदना हमारी है ॥१॥
नमो सिद्धाणं नमस्कार हो सिद्धों को ! सिद्ध भगवान कैसे हैं ? सकल कार्य सिद्ध कर,
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अष्ट कर्म नष्ट कर सिद्ध हुए। उनके पन्द्रह भेदतीर्थ-सिद्धा, अतीर्थ-सिद्धा, तीर्थंकर-सिद्धा, अतीर्थंकर-सिद्धा, स्वयंबुद्ध-सिद्धा, प्रत्येकबुद्ध-सिद्धा, बुद्धबोधित-सिद्धा, स्त्रीलिंग-सिद्धा, पुरुषलिंग-सिद्धा, नपुंसकलिंग-सिद्धा, स्वलिंग-सिद्धा, अन्यलिंग-सिद्धा, गृहस्थलिंग-सिद्धा, एक-सिद्धा, अनेक-सिद्धा, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, क्षायिक-समकित, अटल अवगाहना, अमूर्तपना, अगुरुलघु, अनन्त अकरणवीर्य रूप आठ गुण प्राप्त किये हैं।
अडियल्ल छन्द अविनाशी अविकार परम रस धाम है। समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम है। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त है। जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवन्त है। ..
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जहाँ जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, भूख नहीं, तृषा नहीं, चाकर नहीं, ठाकुर नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, दुःख नहीं, दारिद्र नहीं, एक में अनेक, ज्योति में ज्योति विराजमान हैं। ऐसे अनन्त सिद्ध भगवन्तों को मैं एक हजार आठ बार ‘तिक्खुत्तो' के पाठ से वन्दना एवं नमस्कार करता हूँ तथा जानते-अनजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ।
सवैया सकल करम टाल, वश कर लियो काल, मुगति में रह्या माल, आतमा को तारी है। देखत सकल भाव, हुवा है जगत् राव,
सदा ही क्षायिक भाव, भये अविकारी है। १०२
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अचल अटल रूप, आवे नहीं भव-कूप, अनूप स्वरूप ऊप, ऐसे सिद्ध धारी है। कहत है तिलोक रिख, बताओ ए वास प्रभु, सदा ही उगते सूर, वंदना हमारी है।
__ नमो आयरियाणं नमस्कार हो, आचार्यों को। आचार्य महाराज कैसे हैं ? पाँच आचारज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, वीर्याचार, तपाचार पाले, पाँच महाव्रत पाले, पाँच इन्द्रिय वश करे, चार कषाय टाले, नव वाड सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य पाले, पाँच समिति, तीन गुप्ति शुद्ध आराधे, इन छत्तीस गुणों से युक्त है। आठ सम्पदा (आचार-सम्पदा, श्रुतसम्पदा, शरीर-सम्पदा, वचन-सम्पदा, वाचना-सम्पदा, मति-सम्पदा, प्रयोग-सम्पदा,
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संग्रह-सम्पदा) सहित हैं। उन आचार्य श्री१..... महाराज को मैं एक हजार आठ बार 'तिक्खुत्तो' के पाठ से वन्दना एवं नमस्कार करता हूँ तथा जानते-अनजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ।
सवैया गुण हैं छत्तीस पूर, धारत धरम उर, मारत करम क्रूर, सुमति विचारी है। शुद्ध सो आचारवन्त, सुन्दर है रूपकन्त, भण्या है सभी सिद्धान्त, वाँचणी सुप्यारी है। अधिक मधुर वैण, कोई नहीं लोपे केण, सकल जीवों का सेण, कीरति अपारी है। कहत है तिलोक रिख, हितकारी देत सिख, ऐसे आचारज ताकुं, वंदना हमारी है।
१. यहाँ अपने आचार्यश्री का नाम बोलना चाहिए।
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नमो उवज्झायाणं नमस्कार हो उपाध्यायों को। उपाध्याय महाराज कैसे हैं ? उपाध्याय जी, गणधर जी, स्थविर जी, बहुश्रुत जी, आप पढ़ें, औरों को पढ़ावें, ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद, बत्तीसवाँ आवश्यक सूत्र, ग्यारह अंग के नामआचारांग, सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, भगवती (विवाहपन्नति), ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशांग, अन्तगडदसा, अनुत्तरोववाईदसा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, बारह उपांग के नाम- उववाई, रायप्पसेणी, जीवाभिगम, पन्नवणा, जंबूदीवपन्नत्ति, चन्दपन्नति, सूरपन्नत्ति, निरयावलिया, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुप्फचूलिया, वण्हिदसा,
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चार मूल- उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नंदी, अनुयोगद्वार, चार छेद- दशाश्रुत-स्कन्ध, वृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, बत्तीसवाँ आवश्यक सूत्र, आदि अनेक ग्रन्थों के जानने वाले, करण सत्तरि, चरण सत्तरि का पालन करने वाले, सम्यक्त्वरूप प्रकाश के करने वाले, मिथ्यात्वरूप अन्धकार के मेटने वाले, धर्म को दीपाने वाले, डिगते प्राणी को धर्म में स्थिर करने वाले, पच्चीस गुणों से विराजमान हैं। उन उपाध्याय जी महाराज को वन्दना एवं नमस्कार करता हूँ तथा जानतेअनजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो, तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ।
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सवैया पढ़त इग्यारे अंग, करमों सुं करे जंग, पाखण्डी को मान भंग, करण हुशियारी है। चउदे पूरव धार, जानत आगम सार, भवियन के सुखकार, भ्रमणा निवारी है। पढ़ावे भविक जन, स्थिर कर देत मन, तप करि तावे तन, ममता निवारी है। कहत है तिलोक रिख, ज्ञान भानु परतिख, ऐसे उपाध्याय ताकुं, वंदना हमारी है।
।
- नमो लोए सव्व साहूणं नमस्कार हो, लोक में समस्त साधुओं को। साधु जी महाराज कैसे हैं ? स्व-पर कार्य के साधने वाले, सम्यक्त्व के दातार, ज्ञान के दातार, संयम के दातार, परोपकारी अपने
धर्माचार्य पूज्य गुरुदेव श्री२....... २. यहाँ अपने पूज्य गुरुदेव का नाम बोलना चाहिए।
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श्री पुष्कर मुनि जी महाराज आदि ..... अढाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्रों में जघन्य दो हजार करोड़, उत्कृष्ट नव हजार करोड़ साधु जी महाराज विचरते हैं। पाँच महाव्रत पालें, पाँच इन्द्रिय जीतें, चार कषाय टालें, भाव सच्चे, करण सच्चे, जोग सच्चे, क्षमावन्त, वैराग्यवन्त, मन-समाधारणया, वय-समाधारणया, काय-समाधारणया, नाण-सम्पन्ना, दंसण-सम्पन्ना, चारित्त-सम्पन्ना, वेदनी-समा-अहियासणया, मारणांतिय-समाअहियासणया, ऐसे सत्ताईस गुणों से विराजमान हैं; उन साधु जी महाराज को मैं वंदना एवं नमस्कार करता हूँ तथा जानते-अनजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो, तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ।
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सवैया आदरी संजम भार, करणी करे अपार, सुमति गुपति धार, विकथा निवारी है। जयणा करे छ काय, सावद्य न बोले वाय, बुज्झाई कषाय लाय, किरिया भण्डारी है। ज्ञान भणे आठों याम, लेवे भगवन्त नाम, धरम को करे काम, ममता को मारी है। कहत है तिलोक रिख, करमों का टाले विख, ऐसे मुनिराज ताकुं, वंदना हमारी है।
गुरुदेव-वन्दना जैसे कपड़ा को थाण, दरजी वेंतत आण, खण्ड खण्ड करे जाण, देत सो सुधारी है। काठ के ज्युं सूत्रधार, हेम को कसे सुनार, माटी के ज्युं कुम्भकार, पात्र करे त्यारी है। धरती के किरसाण, लोह के लुहार जान, सीलावट सीला आण, घाट घड़े भारी है। कहत है तिलोक रिख, सुधारे ज्युं गुरु सिख, गुरु उपकारी नित, जाऊं बलिहारी है।
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गुरु मित्र, गुरु मात, गुरु सगा, गुरु तात, गुरु भूप, गुरु भ्रात, गुरु हितकारी है। गुरु रवि, गुरु चन्द्र, गुरु पति, गुरु इन्द्र, गुरु देव दे आणन्द, गुरु पद भारी है । गुरु देत ज्ञान-ध्यान, गुरु देत दान मान, गुरु देत मोक्ष - स्थान, सदा उपकारी है। कहत है तिलोक रिख, भली भली देवे सिख, पल-पल गुरुजी को, वन्दना हमारी है ॥
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X
X
यह पाँच पद महामांगलिक हैं, महाउत्तम हैं, शरण लेने योग्य हैं, इस भव में, पर भव में, भवो भव में शरण
होना ।
( एक स्वर से निम्न दोहे बोलें) दोहा
अनन्त चौबीसी जिन नमूं, सिद्ध अनन्ता क्रोड़ । केवलज्ञानी गणधरा, वंदूं बेकर जोड़ ॥ १ ॥ दो क्रोड़ केवल धरा, विहरमान जिन बीस । सहस्र युगल कोड़ी नमूं, साधु वंदूं निस दीस ॥२॥
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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धन साधु धन साध्वी, धन धन है जिनधर्म। यह समाँ पातक टले, टूटे आठों कर्म ॥३॥
(यहाँ खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर निम्न पाठ उच्च स्वर से पढ़ें।).
क्षमापना पाठ आयरिए उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे य जे मे केई कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि॥१ सव्वस्स समण-संघस्स, भगवओ अंजलिं करिय सीसे। सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि॥२॥ सव्वस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्म-निहिय-नियचित्तो। सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि॥३॥ _ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र १११
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श्रावक-श्राविका से क्षमापना अढाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्रों में तथा बाहर, श्रावकश्राविका दान देवे, शील पाले, तपस्या करे, भावना भावे, संवरकरे, सामायिक करे, पौषध करे, प्रतिक्रमण करे, तीन मनोरथ चिन्तवे, चौदह नियम चितारे जीवादिक नौ पदार्थ जाने, श्रावक के इक्कीस गुणों सहित, एक व्रतधारी, जाव बारह व्रतधारी, भगवन्त की आज्ञा में विचरे, ऐसे बड़ों को हाथ जोड़, पैरों पड़कर क्षमाता हूँ और छोटों को समुच्चय क्षमाता हूँ, आप क्षमा करने योग्य हैं ।
समुच्चय जीवों से क्षमापना
सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अपूकाय, सात लाख तेऊकाय,
सात लाख वायुकाय, दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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वनस्पति काय, दो लाख बेइन्द्रिय, दो लाख तेइन्द्रिय, दो लाख चौरिन्द्रिय, चार लाख देवता, चार लाख नारकी, चार लाक तिर्यञ्च और चौदह लाख मनुष्य ऐसे चार गति में चौरासी लाख जीव योनि के सूक्ष्म बादर, त्रस स्थावर, पर्याप्ता अपर्याप्ता, जानते - अनजानते किसी भी जीव को हना हो, हनाया हो, हनते हुए को भला जाना हो,
मन, वचन और काय से अठारह लाख चौबीस हजार एक सौ बीस बार तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
क्षमापना सूत्र
खामि सव्वे जीवे,
सव्वे जीवा खमन्तु मे ।
मित्ती मे सव्व-भूएसु,
वेरं मज्झं न केाई ॥ १ ॥
एव महं आलोइअं,
निंदियं गरिहियं दुगंच्छियं सम्मं ।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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तिविहेणं पडिक्कन्तो,
वंदामि जिण चउव्वीसं॥२॥ (अब यहाँ 'सामायिक', 'चउवीसत्थवो', 'वन्दना', 'प्रतिक्रमण' ऐसे चार आवश्यक समाप्त हुए। अब तिक्खुत्तो से तीन बार गुरु-वंदना कर पाँचवें आवश्यक की आज्ञा लें।)
विशोधन पाठ देवसिय-पायच्छित्त-विसोहणटुं करेमि काउसग्गं। | नमस्कार मंत्र नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्व साहूणं। एसो पंच नमोक्कारो, सव्व पाव प्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं,..
पढमं हवइ मंगलं॥ | ११४ •श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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| सामायिक सूत्र || करेमि भंते ! सामाइयं, सावजं जोगं पच्चक्खामि। जाव नियमं पडिक्कमणं पज्जुवासामि। दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
| संक्षिप्त प्रतिक्रमण सूत्र | इच्छामि ठामि काउसग्गं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइयो, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिजा, दुज्झाओ, दुविचिंतिओ, अणायारो, . श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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अणिच्छियव्वो, असावग - पाउग्गो, नाणे तह दंसणे, चरित्ताचरित्ते,
सुए, सामाइए,
तिण्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं,
पंचण्हं अणुव्वयाणं, तिण्हं गुणव्वयाणं, चउण्हं सिक्खाव्वयाणं, बारसविहस्स सावग - धम्मस्स जं खण्डियं, जं विराहियं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
उत्तरीकरण सूत्र
तस्स उत्तरी- करणेणं,
पायच्छित करणेणं,
विसोहि - करणेणं,
विसल्ली - करणेणं,
पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए,
ठामि काउसग्गं ।
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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आगार सूत्र अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डुएणं, वाय-निसग्गेणं, भमलीए, पित्तमुच्छाए, सुहुमेहिं अंग-संचालेहिं, सुहुमेहिं खेल-संचालेहिं, सुहुमेहिं दिट्ठ-संचालेहिं, एवमाइएहिं आगारेहि, अभग्गो, अविराहिओ, हुज मे काउसग्गो। जाव अरिहंताणं, भगवंताणं, नमोक्कारेणं, न पारेमि, ताव कायं ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि। (यहाँ पद्मासन आदि से बैठकर या खड़े होकर कायोत्सर्ग- ध्यान करें और ध्यान में दैवसिक, रात्रिक श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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प्रतिक्रमण में चार लोगस्स, पाक्षिक में आठ लोगस्स, चातुर्मासिक में बारह लोगस्स और सांवत्सरिक में बीस लोगस्स का ध्यान करें। यह साधु सम्मेलन का नियम है । फिर 'नमो अरिहंताणं' पढ़कर ध्यान खोलना ।)
कायोत्सर्ग दोषापहार सूत्र
कायोत्सर्ग में आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान ध्याया हो,
और
धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्याया हो, तो
'तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
चतुर्विंशतिस्तव सूत्र
लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे ।
अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली ॥१॥ उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ २ ॥
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल-सिजंस-वासुपुजं च ॥
विमलमणंतं च जिणं, धम्मसंतिंच वंदामि॥३॥ कुंथु अरंच मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणंच।
वंदामि रिट्ठनेमिं, पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ एवं मए अभिथुआ, विहूय-रयमला पहीण-जरमरणा।
चउवीसं पिजिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय-वंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा।
आरुग्ग-बोहिलाभं, समाहि-वरमुत्तमं दितु॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहिंय पयासयरा।
सागर-वर-गम्भीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥७॥ ___ (यहाँ दोनों घुटने खड़े करके दोनों हाथ जोड़कर, दो बार 'इच्छामि खमासमणो' का पाठ पढ़ें।) चित्र देखें पृष्ठ १२० पर।
द्वादशावर्त गुरु-वन्दन सूत्र इच्छामि खमासमणो! वंदिउं, जावणिजाए, निसीहियाए। अणु जाणह मे मिउग्गहं। निसीहि, अहो का यं, का य-संफासं।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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खमणिजो भे किलामो। अप्पकिलंताणं, बहु-सुभे दिवसो वइक्कतो! जत्ता भे! जव णि जं च भे? खामेमि खमासमणो! -- देवसियं वइक्कम। * आवस्सिआए पडिक्कमामि। खमासमणाणं; देवसियाए, आसायणाए, तित्तिसन्नयराए, जं किंचि मिच्छाए, मण-दुक्कडाए, वय-दुक्कडाए, काय-दुक्कडाए, कोहाए, माणाए, मायाए, लोहाए, सव्वकालियाए, सव्वमिच्छोवयाराए
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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सव्वधम्माइक्कमणाए, आसायणाए, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स खमासमणो! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि। (निम्न रीति से बोलकर खड़ा हो) सामायिक एक, चउवीसत्थवो दो, वंदना तीन, प्रतिक्रमण चार, काउसग्ग पाँच यह पाँच आवश्यक पूरे हुए। छठे आवश्यक की आज्ञा है। धन्य श्री महावीर स्वामी अन्तर्यामी, पच्चक्खाण करा दो गुरुदेव स्वामी। ___ (अब यदि वहाँ पर सन्त व सतीजम हों, तो उनसे; वे न हों, तो बड़े श्रावक से; वे भी न हों, तो स्वयमेव निम्न पाठ से अपनी धारणा अनुसार प्रत्याख्यान करें।)
समुच्चय-प्रत्याख्यान सूत्र | गंठि-सहियं, मुट्ठि-सहियं, नमुक्कार-सहियं, पोरिसियं, साड्ढ पोरिसियं,
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र १२१
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(आप आपके धारणा अनुसार) तिविहं पि, चउविहं पि, आहारंअसणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व-समाहिवत्ति
आगारेणं, वोसिरामि ॥
( वोसिरामि कहकर ) तत्तु सामायिक एक, चउवीसत्थवो दो, वंदना तीन, प्रतिक्रमण चार,
काउसग्ग पाँच, पच्चक्खाण छह, ये छहों आवश्यक पूरे हुए। इनमें अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, जानते - अनजानते कोई दोष लगा हो, तो
तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
इन छहों आवश्यक के पाठों को उच्चारण करते समय काना, मात्रा, अनुस्वार, पद, अक्षर अधिक न्यून तथा आगे का पीछे, पीछे का आगे कहा हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
१. अन्य को कराने हों तो 'वासिरे' ऐसा पढ़े ।
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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१. मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण, २. अव्रत का प्रतिक्रमण, ३. कषाय का प्रतिक्रमण, ४. प्रमाद का प्रतिक्रमण, ५. अशुभ योग का प्रतिक्रमण,
इन पाँच प्रतिक्रमणों में से कोई प्रतिक्रमण न किया हो, तो
तस्स मिच्छामि दुक्कडं। गये काल का प्रतिक्रमण, वर्तमान काल की सामायिक, आगामी काल का पच्चक्खाण, इनमें कोई दोष लगा हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
दोहा आगे आगे दव बले, पीछे हरिया होय ।
बलिहारी उस वृक्ष की, जड़ काट्यां फल होय॥
शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, और आस्था, इनको धारण करता हूँ। | श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र १२३ |
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देव अरिहंत, गुरु निर्ग्रन्थ,
धर्म केवलीभाषित दयामय और सच्चे की सद्दहणा, झूठे का तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
थव थुइ मंगलं
( कहकर नीचे बैठ जाय और दाहिना घुटना नीचे करके एवं बायाँ घुटना ऊँचा करके दो बार 'नमोत्थुणं'
बोलें ।)
प्रणिपात सूत्र
नमोत्थुणं !
अरिहंताणं, भगवंताणं, आइगराणं, तित्थयराणं,
सयंसंबुद्धाणं,
पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं,
पुरिसवर - पुण्डरीयाणं,
पुरिसवर - गंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोग - नाहाणं,
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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लोग-हियाणं, लोग-पईवाणं, लोग-पजोयगराणं, अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, जीवदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवर-चाउरंत-चक्कवट्टीणं, दीवो ताणं सरणगइपइट्ठा, अप्पडिहय-वर-नाण-दंसण-धराणं, विअट्ट-छउमाणं, जिणाणं, जावयाणं, तिण्णाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं, सव्वन्नूणं, सव्वदरिसीणं, सिव-मयल-मरुयमणंत-मक्खय-मव्वावाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगइ-नामधेयं, ठाणं संपत्ताणं, नमो जिणाणं, जियभयाणं। __ सन्त सतीजन विराजते हों तो उन्हें 'तिक्खुत्तो' से तीन बार वन्दन करें तथा न विराजते हों तो पूर्व तथा
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र १२५
१२५
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उत्तर दिशा की ओर मुख करके भगवान श्री महावीर को तथा धर्माचार्य (धर्मगुरु) को वन्दन करें, बाद में सभी स्वधर्मी बन्धुओं को हाथ जोड़, मान मोड़ नीचे मस्तक झुकाकर अन्तःकरण से खमाता हूँ, ऐसा कहें। __ प्रतिक्रमण में खास सूचना है कि जहाँ-जहाँ 'देवसिय' शब्द आवे वहाँ-वहाँ प्रातःकाल के प्रतिक्रमण में 'राइय सम्बन्धी', पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पक्खी सम्बन्धी', चौमासी प्रतिक्रमण में 'चौमासी सम्बन्धी' और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'संवत्सरी सम्बन्धी' बोलना चाहिए।
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आवक प्रशिक्ष्मण सूत्र -
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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परिशिष्ट
जिन चौबीसी
(तर्ज-मोहनगारो रे) आनन्द चावो रे, वा वा आनन्द चावो रे।
चौबीस जिनन्द का नित्य गुण गावो रे ॥ टेर ।। ऋषभ अजित संभव अभिनन्दन,
सुमति पदम को ध्यावो रे। सुपार्श्व और चन्द्रप्रभु को,
शीश नमावो रे ॥ आनन्द. ॥ १ ॥ सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपूज्य,
ध्यायां से तिर जावो रे। विमल अनन्त श्री धर्म शान्ति जिन,
__ शान्ति वर्तावो रे॥ आनन्द. ॥ २॥ कुंथु अर्ह मल्लि मुनिसुव्रत,
जप्यां जाप सुख पावो रे। | श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र १२७
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मिनेम पार्श्व महावीर से,
प्रेम लगावो रे ॥ आनन्द ॥ ३ ॥
गणधर विहरमान जिन सारे,
तिरण तारण गुरु राज मोक्ष की,
घर में मंगल बाहर मंगल,
ठौर दिखावो रे | आनन्द ॥ ४ ॥
जिनराज प्रभु का ध्यान किया,
साल सत्ताणु खण्डप संघ में,
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मेरे विघ्न मिटावोरे,
पुष्कर कहे वीतरागी हुआ से,
अमरापुर पावो रे । आनन्द ।। ५ ।।
मंगल आज मनावो रे ।
धर्म को घणो उमावो रे ।
मोक्ष सिधावो रे | आनन्द ॥ ६ ॥
विहरमान जिन - स्तुति (तर्ज - सिमरूं सिद्ध सदा जयकार ) वंदूं विहरमान जिन बीस |
मेटो जन्म जरा दुःख ईश || टेर ॥
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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सीमन्दिर, युगमन्दिर स्वामी,
बाहु सुबाहु धीश। कर्मवन दहन अनल सम,
सुजात विभु जगदीश ॥ वंदूं. ॥१॥ स्वयंप्रभ और ऋषभानन्दन,
परम वन्द्य विश्वेश। अनन्तवीर्य सूरप्रभ स्वामी,
__ सेवित चरण सुरेश ॥ वंदूं. ॥२॥ वज्रधर पुनि विशालधर को,
नित्य नमाऊं शीश। चन्द्रानन्दन चन्द्रबाहु जी,
कर्म वपु दिये पीस ॥ वंदूं. ॥३॥ भुजंग प्रभु और ईश्वरस्वामी,
नेमप्रभु श्रमणेश। वीरसेन की अजब वीरता,
प्रसरित है विशेष ॥ वंदूं. ॥४॥ महाद्युतिधर महाभद्र को,
. लखि हो लजित महेश। श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र १२९
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देवयश पुनि अजितवीर्य के,
__चरण नमूं हमेश ॥ वंदूं. ॥५॥ विद्यमान विदेह क्षेत्र में,
- करत ललित उपदेश। भव दुःखभञ्जन भवि मन रञ्जन,
'पुष्कर' के जिनेश । वंदूं. ॥६॥ गणधर स्तुति
(तर्ज-पूर्ववत्) वंदूं गणधर के चरणार।
वीर जिनवर के अग्यार । टेर ।। इन्द्रभूति और अगनिभूति जी,
वायुभूति सुखकार। व्यक्तभूति की अजब विभूति,
प्रकटित है संसार ॥ वंदूं. ॥१॥ सुधर्म-स्वामी का कलियुग माहिं,
__ है परम उपकार। विविध ज्ञान प्रदान करि पुनि,
__ पहुंचे मोक्ष मझार ॥ वंदूं. ॥ २॥
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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मण्डीपुत्र जी मौर्यपुत्र जी,
__सद्गुण के भण्डार। अकम्पित और अचलभ्रात जी,
मुक्तिपुरी दातार ॥ वंदूं. ॥ ३ ॥ मेतारज और श्री प्रभास,
गणधर यह अग्यार। ब्रह्मर्षि आदर्श ऋषि यह,
___काटन कर्म कुठार ।। वंदूं. ॥ ४ ॥ मुझ नैया है मध्य धार में,
कर दो पैले पार। भव चक्र से 'मुनि पुष्कर' को,
तारो दीन दयाल ॥ वंदूं. ॥५॥
सती स्तवन
(तर्ज-सेवी श्री रिष्टनेम.) वंदूं सोलह सती, ओ वंदूं सोलह सती।
नाम से आनन्द होवे अति ॥ टेर । ब्राह्मी सुन्दरी ऋषभ-सुता।
सीता कौशल्या जगत पूता ।। वंदूं. ॥१॥
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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राजमती और कुन्ती सती।
द्रौपती चन्दनबाला वती॥ वंदूं. ॥२॥ मृगावती पुनि चेलना जान।
प्रभावती शीलगुण की खान ॥ वंदूं. ॥ ३ ॥ सती दमयंती रु सुभद्रा नार।
खोल्या है चम्पानगर के द्वार ॥ वंदूं. ॥ ४ ॥ सुलसा शिवा सत्य शीलवती।
सोलमी सती श्री पद्मावती ॥ वंदूं. ॥ ५ ॥ नाशत रोग ने शोग मरी।
सिमरे सतियों को चित्त धरी । वंदूं. ॥६॥ लीमडी शहर है बाणु की साल।
पुष्कर के वर्ते हैं मंगल माल ॥ वंदूं. ॥ ७॥
प्रतिक्रमण की सज्झाय कर पडिकमणो भाव सुं।
दोय घड़ी शुभ ध्यान, लाल रे। परभव जाता जीव ने,
संबल साचो जान, लाल रे ॥ कर. ॥१॥
- श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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श्री मुख वीर समुच्चरे,
श्रेणिक राय प्रतिबोध, लाल रे। गोत्र तीर्थंकर बांधने,
पावे मुक्ति नो शोध, लाल रे ॥ कर. ॥२॥ लाख खण्डी सोना तणी,
देवे नित्य प्रति दान, लाल रे। पडिकमणो दोय टंक करे,
नहीं आवे तेह समान, लाल रे॥ कर. ॥ ३ ॥ लाख वर्ष लग ते वली,
दीजे दान अपार, लाल रे। एक सामायिक ने तोले,
__ न आवे तेह लगार, लाल रे॥ कर. ॥ ४ ॥ सामायिक चउवीसत्थव,
वन्दन दोय दोय बार, लालरे। व्रत संभालो आपणा,
किया जो कर्म अपार, लाल रे ॥ कर. ॥५॥ कर काउसग्ग शुभ ध्यान थी,
दिन में दोय दोय बार, लाल रे। | श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र १३३
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करो सज्झाय ते वली,
टाली सब अतिचार, लाल रे ।। कर. ॥ ६ ॥ गोत्र तीर्थंकर निर्मलो,
करतो बांधे दिन रात, लाल रे। कर्म तणी कोडी खपे,
टले सकल व्याघात, लाल रे ॥ कर. ॥ ७ ॥ दोय बखत नित्य कीजिये,
पडिक्कमणे शुद्ध चित, लाल रे। लीला लहर मिले-मिले,
अविचल गति में नित्त, लाल रे ॥ कर. ॥ ८॥ सामायिक परशाद थी,
पाये अमर विमान, लाल रे। धर्मसिंह मुनिवर कहे, मुक्ति तणो छे निधान, लाल रे ॥ कर. ॥ ९ ॥
आत्म-चिन्तन भूलो मन भमरा कांई भमियो,
भमियो दिवस ने रात।
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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माया रो लोभी प्राणियो,
___मर ने दुर्गति जात ॥ भूलो. ॥१॥ मूरख कहे धन म्हायरो,
धन खरचे न खाय। वस्त्र बिना जाई सूत्रों,
लखपति लकडा रे माय ॥ भूलो. ॥२॥ केहना छोरू रे केहना वाछरू,
केहना माय ने बाप। ओ प्राणी जासी एकलो,
साथे पुण्य ने पाप ॥ भूलो. ॥ ३ ॥ आशा तो डुंगर जेवडी,
मरणो पगला रे हेट । धन संची-संची कांई करो,
करो सद् गुरुनी भेट ॥ भूलो. ॥ ४ ॥ लखपति छत्रपति सहु गया,
गया लाख बेलाख। गर्व करी गोखे बेसता,
जल बल हो गया राख । भूलो. ॥ ५॥
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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भव सागर दुःख जल भर्यो,
तिरवो जीवड़ा तेह। बीच में ग्रह सबलो अछे,
करो प्रभुजी सुं नेह ।। भूलो. ॥ ६॥ धंधो करी धन जोड़ियो,
लाखा ऊपर क्रोड। मरणा री वेला मानवी,
लेसी कंदोरो तोड़॥ भूलो. ॥ ७ ॥ कांई नहीं लारे चालियो,
कीनों पर भव वास। हाड जले ज्युं लाकड़ी,
केस जले ज्युं घास ॥ भूलो. ॥ ८॥ लाख चौरासी तूं भम्यो,
भमियो अनन्ती काय। दया धरम पाल्यो नहीं,
ज्युं आओ त्युं जाय ॥ भूलो. ॥९॥ उलटी नदी मारग चालणो,
जाणो पेले रे पार।
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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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आगल नहीं हाट वाणियां,
संबल लीजो रे लार ॥ भूलो. ॥ १० ॥ म्हारो म्हारो धुं कर रह्यो,
थारो कोई न लगार। कुण थारो यूँ केहनो, ___जोवो हिवड़े विचार । भूलो. ॥ ११ ॥ मेमद कहे समझो सहु,
संबल लीजो रे साथ। आपणो लाभ उबारियो,
लेखो साहेब हाथ ॥ भूलो. ॥ १२ ॥
प्रभु नाम स्मरण (तर्ज-मैं तो साफ-साफ कह देता)
ले ले जरा प्रभु का नाम,
तेरे लगे न पैसा दाम ॥ टेर ।। बड़े कठिन से नर तन पाया,
फिर यह उत्तम ठाम। अब तो कमी प्रभु भजन की,
कर ले आतम राम ॥ ले ले. ॥१॥ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र १३७
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जीभ घिसे नहीं दांत घिसे नहीं,
होठ घिसे नहीं चाम। प्रभु भजन करने से तेरे,
लगे न कोड़ी छदाम ॥ ले ले. ॥२॥ लगा पद्मासन दृष्टि नाक पर,
चित्त को कर फिर ठाम । जाप अजपा जप प्रभु का,
__पावे सुख आराम ॥ ले ले. ॥ ३ ॥ इन्द्रिय विषय लगे हैं तुझको,
मिट्टे अति ललाम। फल किम्पाक समान है मित्रो!
कह गए हैं जग स्वाम ॥ ले ले. ॥ ४ ॥ अब तो छोड़ो मन को मोड़ो,
विषय भोग निकाम। मन अश्व को बाँध के रखना,
दे प्रभु नाम लगाम ॥ ले ले. ॥५॥ पुष्कर मुनि तारा गुरुवर को,
करता नित्य प्रणाम। साल सताणु किया चौमासा,
सुन्दर खण्डप ग्राम ॥ ले ले.॥६॥
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दश प्रत्याख्यान (१) नमस्कार सहित सूत्र उग्गए सूरे नमोक्कार-सहियं पच्चक्खामि । चउव्विहं पि आहारंअसणं, पाणं, खाइमं, साइमं । ' अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, वोसिरामि। (२) पौरषी सूत्र उग्गए सूरे पोरिसिं पच्चक्खामि। चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइमं, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। (३) पूर्वार्ध सूत्र उग्गए सूरे पुरिमडं पच्चक्खामि।
१. अन्य को कराने हों तो 'वासिरे' ऐसा पढ़े।
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चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइमं, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। (४) एकाशन सूत्र एगासणं पच्चक्खामि । तिविहं पि आहारंअसणं, खाइमं, साइमं। अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, आउंटणपसारणेणं, गुरु-अब्भुट्ठाणेणं (पारिट्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। (५) एकस्थान सूत्र एक्कासणं एगट्ठाणं पच्चक्खामि।
तिविहं पि आहारं-असणं, खाइमं, साइमं । १. यह आगार साधु-साध्वियों को ही बोलना चाहिए; श्रावक
श्राविकाओं को नहीं।
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अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, गुरु-अब्भुट्ठाणेणं (पारिट्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। (६) आचाम्ल सूत्र उग्गए सूरे आयंबिलं पच्चक्खामि। तिविहं पि आहारं-असणं, खाइमं, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, उक्खित्तविवेगेणं, निहत्थसंसिटेणं (पारिट्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। (७) निर्विकृतिक सूत्र विगइओ पच्चक्खामि । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थ-संसिट्टेणं, उक्खित्त-विवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं (पारिट्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
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(८) उपवास सूत्र उग्गए सूरे अभत्तटुं पच्चक्खामि। चउब्विहं पि'आहारं-असणं, पाणं, खाइमं, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं (पारिट्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। (९) अभिग्रह सूत्र अभिग्गहं पच्चक्खामि । चउन्विहं पि आहार-असणं, पाणं, खाइमं, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि। (१०) दिवसचरिम सूत्र दिवसचरिमं पच्चक्खामि। चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं ।अन्नत्थणाभोगेणं,
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१. साधक को तिविहार उपवास करना हो तो चउव्विहं पि के
स्थान पर तिविहं पि बोले और 'पाणं' का पाठ न बोले।
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सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि।
(साधक ने दश प्रत्याख्यानों में से जो प्रत्याख्यान किए हों उनका समय पूर्ण होने पर उस प्रत्याख्यान का नाम लेकर निम्न पाठ बोलकर पार लेना चाहिए।)
प्रत्याख्यान पारने का पाठ उग्गए सूरे (नमोक्कार-सहियं) पच्चक्खाणं कयं तं पच्चक्खाणं सम्मं कारणं न फासियं, न पालियं, न तीरियं, न किट्टियं, न सोहियं, न आराहियं, आणाए अणुपालियं न भवइ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
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________________ यह है जीवन की डायरी.. * प्रतिक्रमण-जीवन की डायरी है। * अज्ञान, मोह एवं प्रमादवश प्राणी भूल करता है, असत्/अशुभ आचरण भी कर लेता है। अंधकार में भटकते हुए प्राणी को ठोकर लगना कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु जैसे ही हृदय में ज्ञान व कर्तव्य बोध का दीपक जगमगाए, आत्मभाव की उज्ज्वल किरणें चमकने लगें, तो प्राणी अपनी भूल का बोध कर लेता है। अपने प्रमादाचरण का निरीक्षण/समीक्षण करता है। अपने अज्ञान आचरण पर पश्चात्ताप करता है, मन से ग्लानि का अनुभव करता है और फिर भविष्य में पुनः असद् / अशुभ आचरण नहीं करने का शुभ संकल्प करता है। बस, इसी का नाम है प्रतिक्रमण। यही है उन्नति और प्रगति का राजमार्ग / यही है आत्म-विकास का प्रशस्त पथ। * जैन श्रावक एवं श्रमण के लिए प्रतिक्रमण जीवन का दर्पण है। * पूज्य गुरूदेव उपाध्यायश्री के दिशा निर्देशन में श्रावक प्रतिक्रमण का सविधि चित्रमय प्रकाशन पाठकों के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध होगा। श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर। चौधरी ऑफसेट प्रा. लि. - 0294-2584071, 248578413867