Book Title: Shiv Mahimna Stotram
Author(s): Thakurprasad Pustak Bhandar
Publisher: Thakurprasad Pustak Bhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra રસૂરિ નગર OFOOSEX EXCDE www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir GOODO♚♚eCOCO शिवमहिम्न * स्तोत्रम् भाषा टीका सहितम् । ठाकुरप्रसाद पुस्तक भण्डार कचौड़ीगली, वाराणसी LOGO मूल्य ०.८० 9000 1 For Private and Personal Use Only Oe 9999999999009 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * श्रीगणेशाय नमः ॐ शिवमहिम्नस्तोत्रम महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी स्तुतिब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः। अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ममाप्येषः स्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः ॥१॥ __ हे हर ! ( सभी दुःखों के हरने वाले ) आपकी महिम अन्तको न जानने वाले मुझ अज्ञानी से की गई स्तुति य आपकी महिमा के अनुकूल न हो तो कोई आश्चर्य की व नहीं है। क्योंकि ब्रह्मा आदि मी आपकी महिमा के अन्त नहीं जानते हैं । अतः उनकी स्तुति भी आपके योग्य नहीं “सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते" के अनुसार यथा म मेरी स्तुति उचित ही । क्योंकि-"नमः पतन्त्यात्मसमं । त्रिणः" इस न्याय से मेरी स्तुति आरम्भ करना क्षम्य हो । अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयोरतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि । For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ * शिवमहिम्नस्तोत्रम् स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥ हे हर ! आपकी निर्गुण और सगुण महिमा मन और वाणी के विषय से परे है, जिसे वेद मा संकुचित होकर कहते हैं । अतः आपकी इस महिमा की स्तुति करने में कौन समर्थ हो सकता है ? तब भी अर्वाचीन भक्तों के अनुग्रहार्थ धारण किया हुआ नवीन रूप भक्तों के मन और वाणी का विषय हो सकता है मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतस्तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् । मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता || ३ || हे ब्रह्मन् ! जब कि अपने मधु सदृश मधुर और अमृत के सदृश जीवनदायिनी वेदरूपी वाणी को प्रकाशित किया ब्रह्मादि से की गई स्तुति आपको कैसे प्रसन्न कर सकती है ? हे त्रिपुरमथन ! जब ब्रह्मादि भी आपकी स्तुति गान करने में समर्थ नहीं हैं तब मुझ तुच्छ की क्या सामर्थ्य है । मैं तो केवल आपके गुणगान से अपनी वाणी को पवित्र करने की इच्छा करता हूँ || ३ || तवैश्वर्यं प्रलयकृत् यत्तज्जगदुदयरक्षा त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु । For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा टीका सहितम् रमणीयामरमणीम् अभव्यानामस्मिन् वरद विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥ ४ ॥ हे वरद ! ( वर देने वाले ) आपके ऐसे ऐश्वर्यं, जो संसार की सष्टि, रक्षा तथा प्रलय करने वाले हैं, तीनों वेदों से गाये हुए हैं, तीनों गुणों ( सत्, रज, तम ) से परे हैं, तीनों शक्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश ) में व्याप्त हैं, कुछ नास्तिक अनुचित निन्दा करते हैं । इससे उन्होंका अधःपतन होता है न कि आपके यश का ॥ ४ ॥ किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनम् किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च । अतयैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥ ५ ॥ "अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत्" के अनुसार कल्पना से बाहर, अपनी अलौकिक माया से सृष्टि करनेवाले आपके ऐश्वर्यके विषय में नास्तिकों का यह विचार ( वह ब्रह्म सृष्टिकर्ता है, किन्तु उसकी इच्छा, शरीर सहकारी कारण आधार और समवायि कारण क्या है ? ) कुतर्क जगत के कतिपय मन्द-मति वालोंको भ्रान्ति के लिए वाचाल करता है ॥ ५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् अजन्मानो लोकाः किमवयवन्तोऽपि जगतामधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति । अनीशो वा कुर्याद् भुवनजननमेकः परिकरो यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर ! संशेरत इमे ॥६॥ हे अमरवर ! ( देवश्रेष्ठ ) सावयव लोक अवश्य ही जन्य है तथा इसका कर्ता भी कोई न कोई है, परन्तु वह कर्ता आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता ? क्योंकि इस विचित्र संसार की विचित्र रचना की सामग्री ही दूसरे के पास असम्भव है । इसलिए अज्ञानी लोग ही आपके विषय में सन्देह करते हैं || ६ || त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च । रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥ हे अमरवर ! वेद त्रयी, सांख्य, योग, शैवमत और वैष्णव मत ऐसे भिन्न मतों में कोई वैष्णव मत और कोई शैव मत अच्छा कहते हैं, रुचि की विचित्रता से टेढ़े - सीधे मार्ग में प्रवृत्त हुए मनुष्यों को अन्त में एक आपही साक्षात् या परम्परा प्राप्त होते हो, जैसे नदियाँ टेड़ी-सीधी बहती हुई भी साक्षात् या परम्परा से समुद्र में ही मिलती हैं ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा टीका-सहितम * महोक्षः खट्वाङ्ग परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेतीयत्तव वरद ! तन्त्रोपकरणम् । सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहिताम् नाह स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भ्रमयति ॥८॥ ___ हे वरद ! महोद (बैल) खटिया का पाया, परशु, गजचर्म, भस्म, सर्प, कपाल इत्यादि आपकी धारण सामग्रियाँ हैं, परन्तु उन ऋद्धियों को,जो आपकी कृपा से प्राप्त देवता लोग मोगते हैं; आप क्यों नहीं भोगते ? स्वात्माराम ( आत्मज्ञानी) को विषय (रूप-रसादि ) रूपी मृगतृष्णा नहीं भ्रमा सकती है ॥ ८॥ ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्धृवमिदम् परो धौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये । समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन ! तैर्विस्मित इव स्तुवञ्जिह्न मि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥९॥ __ हे पुरमधन ! सांख्य मतानुयायो "नवसत उत्पत्तिः सम्भवति" के अनुसार जगत्को ध्रव (नित्य) बुद्धमतानुयायी, अध्व (क्षणिक ) तार्किक नन नित्य आकाश आदि पञ्च और पृथिव्यादि परमाणु भौर अनित्य कार्यद्रव्य, दोनों मानते हैं । इन मतान्तरोंसे विस्मित मैं मा आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं होता, क्योंकि वाचालता लज्जाको स्थान नहीं देती ॥९॥ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् के तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरचिहरिरथः परिच्छेत्तं यातावनलमनिलस्कन्धवषुपः । ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश ! यत् स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥१०॥ ___ हे गिरिश ! (गिरि में शयन करने वाले ) तेजपुञ्ज आपकी विभूति को ढूँढ़ने के लिए ब्रह्मा आकाश तक और विष्णु पाताल तक जाकर भी उसे पाने में असमर्थ रहे । तत्पश्चात् उनकी कायिक, मानसिक और वाचिक सेवा से प्रसन्न होकर आप स्वयं प्रकट हुए, इससे यह निश्चय है कि आपकी सेवासे ही सब सुलभ है ॥ १० ॥ रयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरम् दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान् । शिरः पद्मश्रेणी रचितचरणाम्भोरुहबलेः स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहरविस्फूर्जितमिदम्।।११॥ ___हे त्रिपुरहर ! मस्तकरूपी कमल की माला को जिस रावण ने आपके कमलवन चरणों में अर्पण करके त्रिभुवन को निष्कण्टक बनाया था तथा युद्ध के लिए सर्वदा उत्सुक रहने वाली भुजाओं को पाया था, वह आपको अविरल भक्ति का ही परिणाम था ॥११॥ For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा-टोका-सहितम् के अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनम् बलात्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः । अलभ्या पातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्टशिरसि प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥१२॥ रावण ने उन्हीं भुजाओं से जिन्होंने आपकी सेवा से बल प्राप्त किया था आपके घर कैलास को उखाड़ने के लिये हठात् प्रयोग करते ही आपके अंगूठे के अग्रभाग के संकेत मात्रसे पातालमें जा गिरा.निश्चय ही खल उपकारको भूल जाते हैं।॥१२॥ यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद ! परमोच्चैरपि सतीमधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयास्त्रभुवनः । न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः॥१३॥ ___हे वरद ! बाणासुर ने आपके नमस्कार मात्र से इन्द्रकी सम्पत्ति को नीचा दिखलाने वाली सम्पत्ति प्राप्त किया था और त्रिभुवन को अपना परिजन बना लिया था। यह आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि आपके चरणों में नमस्कार करना किस उन्नति का कारण नहीं होता ॥ १३ ॥ अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकितदेवासुरकृपा विधेयस्याऽऽसीद्यस्त्रिनयनविषं संहृतवतः । For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् के स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो विकारोंऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभगव्यसनिनः ॥१४॥ हे त्रिनयन ! सिन्धु विमन्थनसे उत्पन्न कालकूटसे असमय में ब्रह्माण्ड के नाश से डरे हुए सुर व मसुरों पर कृपा करके एवं संसार को बचाने की इच्छा से उस (कालकूट )को पान करनेसे आपके कण्ठकी कालिमा मी शोमा देती है। ठीक ही है, जगत् उपकारकी कामना वाले दूषण भी भूषण समझे नाते हैं । असिद्धार्था नैव स्वचिदपि सदेवासुरनरे निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः । स पश्यन्नीश ! त्वामितरसुरसाधारणमभत् स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः॥१५॥ जो विजयी कामदेव अपने वाणों द्वारा नगत् के देव, मनुष्य और राक्षसों को बीतने में सर्वदा समर्थ रहा,वही कामदेव अन्यदेवों के समान आपको मी समज्ञा, जिससे वह स्मरण मात्र के लिए ही रह गया ( दग्ध हो गया)। जितेन्द्रियों का अनादर करना अहितकारक ही होता है ॥ १५ ॥ मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदम् पदं विष्णोर्धाम्यद् भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् । For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा-टीका सहितम् के मुहुधौदीस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा जगदक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥१६॥ हे ईश ! भाप जगत् की रक्षा के लिए राक्षसों को मोहित करके नाश के लिए नृत्य करते हो, तभी संसार का आपके ताण्डव से दुःख दूर होता है। क्योंकि आपके चरणोंके आघातसे पृथ्वी धंसने लगती है, विशाल बाहुओं के संघर्ष से नक्षत्रमय आकाश पीड़ित हो जाता है तथा आपकी चचल जटाओं से ताड़ित हा स्वर्ग लोक भी कम्पायमान हो जाता है । ठीक ही है, उपकार भी किसी के लिए अहितकारक हो जाता है ॥ १६ ॥ वियव्यापी तारागणगृणितफेनोद्गमरुचिः प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते । जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमित्यनेनेवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपुः ॥१७॥ ___ हे ईश ! तारा गणों की कान्ति से अत्यन्त शोभायमान आकाश में व्याप्त तथा भूलोक को चारों ओर से घेरकर जम्बूद्वीप बनानेवाला गङ्गा का जल-प्रवाह आपके जटाकलाप में बूँद से भी लघु देखा जाता है। इतने से ही आपके दिव्य तथा श्रेष्ठ शरीर की कल्पना की जा सकती है ॥ १७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिनगेन्द्रो धनुरथो रांगे चन्द्रार्को रथचरणपाणिः शर इति । दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिविधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥१८॥ __ हे ईश ! तृण के समान त्रिपुरको जलाने के िलए पृथ्वी का रथ, ब्रह्मा को सारथी, हिमालय को धनुष, सूर्य-चन्द्र को रथ का चक्र तथा विष्णुको विषधर वाण बनाना आपका आडम्बर मात्र है। विचित्र वस्तुओं से क्रीडा करते हुए समर्थों की बुद्धि स्वतन्त्र होती है ॥ १८॥ हरिस्ते साहस्रं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम् । गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर! जागति जगताम् ॥१९॥ __ हे त्रिपुरहर ! विष्णु आपके चरणों में प्रति दिन कमलों का उपहार देते थे। एक दिन एक की कमी होने के कारण उन्होंने अपने एक कमलवत् नेत्रको निकाल कर पूरा किया। यह भक्ति की परम सीमा चक्र के रूप में आज संसार की रक्षा किया करती है ॥ १९॥ ऋतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे ऋतुमताम् क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते । For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा-टीका-सहितम् * अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य ऋतुषु फलदानप्रतिभुवम् श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः॥२०॥ ___ हे त्रिपुरहर ! आपही को यज्ञका फलका दाता समझकर वेदमें दृढ़ विश्वास कर मनुष्य कर्मों का आरम्भ करते हैं। क्रिया रूप यज्ञ के समाप्त होनेपर आपही फल देनेवाले रहते हैं। आपको आराधना के बिना नष्ट कर्म फलदायक नहीं होता है ॥२०॥ क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृताम् ऋषीणामात्विज्यं शरणद ! सदस्याः सुरगणाः। ऋतुभ्रेषस्त्वत्तः ऋतुफलविधानव्यसनिनो ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥ हे शरणद ! कमकुशल यज्ञपति दक्ष के यज्ञके कर्ता ऋषिगण ऋविज, देवता सदस्य थे । फिर मी यज्ञ के फल देनेवाले आप की अप्रसन्नता से वह ध्वंस हो गया। निश्चय है, आप में श्रद्धा रहित किया गया यज्ञ नाश के लिये ही होता है ॥ २१ ॥ प्रजानाथं नाथ ! प्रसभमभिकं स्वां दुहितरम् गतं रोहिद्भतां रिरमयिषुमध्यस्य वपुषा । धनुः पाणेयातं दिवमपि सपत्राकृतममुम् वसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥ हे नाथ ! काल से प्रेरित मृगरूप धारण किये ब्रह्माके भय For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * से मृगीरूप धारण करने वाली अपनी कन्या में आसक्त देख आपका उनके पीछे छोड़ा गया बाण आज भी नक्षत्र रूपमें मृगशिरा (ब्रह्मा) के पीछे वर्तमान है || २२ ॥ स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत् पुरः प्लुष्ट दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि । यदि स्त्रैणं देवो यमनिरतदेहार्धघटनाद् दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ||२३|| हे यम नियम वाले त्रिपुरहर, आपकी कृपा से आपका अर्धस्थान प्राप्त करने वाली पार्वती, अपने सौन्दर्यरूपी धनुषको धारण करने वाले कामदेव को जला हुआ देखकर भी यदि आपको अपने अधीन समझें तो ठीक ही है, क्योंकि प्रायः युवतियाँ ज्ञान हीन होती हैं ॥ २३ ॥ स्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर ! पिशाचाः सहचराश्चिताभस्मालेपः स्रगपि नृकरोटीपरिकरः । अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलम् तथापि स्मर्तॄणां वरद ! परमं मङ्गलमसि ॥२४॥ हे स्मरहर आपका स्मशान में क्रीडा करना, भूत-प्रेतपिशाचादि का साथ रखना, शरीर में चिता के भस्म का लेपन करना तथा नर मुण्डोंका माला पहिनना आदि बीभत्सकर्मों से For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा-टीका सहितम् * यद्यपि आपका चरित्र अमंगल है तथापि स्मरण करने वालों को हे वरद, आप परम मंगलरूप हैं ।। २४ ॥ मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्सङ्गितदृशः । यदालोक्यालादं हृद इव निमज्यामृतमये दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥२५॥ हे वरद, जिस प्रकार अमृतमय सरोवर में अवगाहन से (स्नान करने से) प्राणीमात्र तापत्रय से मुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों से पृथक् करके मन को स्थिर कर विधिपूर्वक प्राणायाम से पुलकित तथा आनन्दाश्र से युक्त योगीजन ज्ञानदृष्टि से जिसे देखकर परमानन्द का अनुभव करते हैं वह आप ही हैं ॥ २५॥ त्वमकस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहस्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमुधरणिरात्मा त्वमिति च । परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरम न विद्मस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥ _हे वरद, आपके विषयमें ज्ञानीजनों को यह धारण है कि "क्षिति-हुतवह-क्षेत्रज्ञाम्भ-प्रभंजनश्चन्द्रमस्तपनविदित्य टो मूर्तिनमो भवं विभ्रते' इस श्रुतिके अनुसार सूर्य,चन्दमा,वायु,अग्नि For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * जल, आकाश, पृथ्वी और आत्मा भी आपही हैं, किन्तु मेरे विचार से ऐसा कोई स्थान नहीं है कि जहाँ आप न हो ॥२६॥ त्रयी तिस्रो वृत्तिस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरानकाराद्यैव स्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृतिः । तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवस्न्धानमणुभिः समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥२७॥ हे शरणद, व्यस्त ( अ, उ, म् ) 'ॐ' पद शक्ति द्वारा तीन वेद ( ऋक् , यजुः और साम ),तीन वृत्ति (जाग्रत् ,स्वप्न, सुषुप्ति ), त्रिभुवन (भूर्भुवः स्वः ) तथा तीनों देव, (ब्रह्मा, विष्णु, महेश ) इन प्रपञ्चों से व्यस्त आपका बोधक है और समस्त "ॐ' पद समुदाय शक्ति से सर्वविकार रहित अवस्थात्रय से विलक्षण अखण्ड, चैतन्य आपको सूक्ष्म ध्वनि से कहता है ॥२७॥ भवः शवों रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सह महांस्तथा भोमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् । अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव ! श्रुतिरएि प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहितनमस्योऽस्मि भवत।।२८॥ हे देव, भव, शर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान यह जो आपके नामका अष्टक है, इस प्रत्येक नाममें वेद और देवतागण ( ब्रह्मा ) आदि विहार करते हैं, इसलिए ऐसे For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा-टीका-सहितम् * प्रियधाम ( आश्रयभूत ) आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥२८॥ नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः। नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः॥२९॥ __ हे यिदेव ! ( निर्जन वन-विहरणशील ), नेदिष्ट (अत्यन्त समीप ), दविष्ठ (अत्यन्त दुर), क्षोदिष्ठ (अति सूक्ष्म), महिष्ठ ( महान् ), वर्षिष्ठ ( अत्यन्त वृद्ध ), यविष्ठ ( अतियुवा ),सर्व स्वरूप और अनिर्वचनीय आपको नमस्कार है ।।२९।। बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः । जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः प्रमहासे पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०॥ __ हे शिवजी ! जगत् की उत्पत्ति के लिए परम रजोगुण धारण किये भव ( ब्रह्मा) रूप आपको बार-बार नमस्कार है और उस जगत् के संहार करने में तमोगुण को धारण करनेवाले हर (स्द्र )रूप आपके लिए पुनः-पुनः नमस्कार है, जगत् के सुख के लिए सत्त्वगुण को धारण करने वाले मृड (विष्णु) For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * आपको बार-बार नमस्कार है। तीनों गुणों (सत्व, रज, तम ) से परे अनिर्वचनीय पद से विशिष्ट आपको बार-बार नमस्कार है ||३०|| कृश परिणतिचेतः क्लेशवश्यं कचेदम् व च तव गुणसीमोल्लङ्घिनी शखदृद्धिः । इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद् वरद ! चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ||३१|| हे वरद ! कहाँ तो रागद्वेष आदि से कलुषित तथा तुच्छ मेरा मन, कहाँ आपकी अपरिमित विभूति, तिसपर भी आपकी भक्तिने मुझे निर्भय बनाकर इसी वाक्रूपी पुष्पाञ्जलिको आपके चरण कमलों में समर्पण करने के लिए बाध्य किया ||३१|| असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे लेखनीपत्रमुर्वी । सुरतरुवरशाखा लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालम् तदपि तव गुणानामीश ! पारं न याति ||३२|| हे ईश ! असित अर्थात् काले पर्वत के समान यदि कज्जल ( स्याही ) समुद्र पात्र में हो, सुरवर ( कल्पवृक्ष ) की शाखा को उत्तम लेखनी हो और पृथ्वी कागज हो तो इन साधनों को लेकर स्वयं शारदा सर्वदा लिखती रहें तथापि आप के गुणों का पार नहीं पा सकतीं, तो मैं कौन हूँ ? ||३२|| For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा-टीका-सहितम् * - स्वयं शारदा सर्वदा लिखती रहें तथापि आपके गुणों का पार नहीं पा सकतीं, तो मै कौन हूँ ? ॥ ३२ ॥ असुरसुरमुनीन्द्ररचितस्येन्दु मौले-. प्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य । सकलगुणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृत्चैः स्तोत्रमेतचकार ।। ३३ ॥ अमुर, सुर और मुनियों से पूजित तथा विख्यात महिमा वाले ऐसे ईश्वर चन्द्रमौलि के इस स्तोत्र को अलधुवृत्त अर्थात् बड़े (शिखरिणी ) वृत्त में सकल गुण श्रेष्ठ पुष्पदन्त नामक गन्धर्व ने बनाया है ॥ ३३ ॥ अहरहरनवा धूर्जटः स्तोत्रमेतत्पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्यः॥ स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च ॥३४॥ शुद्धचित्त होकर अनवद्य महादेवजी के स्तोत्र को जो पुरुष प्रतिदिन परम भक्ति से पड़ता है वह इस लोक में धन-धान्य तथा आयुयुत, पुत्रवान् और कीर्तिमान होता है और अन्त में शिवलोक में शिवस्मरूप हो जाता है ॥३५॥ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः । अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥३५॥ महादेवजी से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, अघोर मन्त्र से श्रेष्ठ कोई मन्त्र नहीं और गुरु से श्रेष्ठ कोई तत्व ( पदार्थ ) नहीं ॥३५॥ दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः । महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशोम् ॥३६॥ दीक्षा, दान, तप, तीर्थादि तथा ज्ञान और यागादि क्रियाएँ इस शिवमहिम्नस्तोत्र के पाठ को सोलहवीं कला को भी नहीं प्राप्त कर सकती हैं ॥३६॥ कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः । शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दासः ॥ सखलु निजमहिम्नो भ्रष्टएवास्य रोषात्स्तवनमिदमकार्षीदिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३७॥ पुष्पदन्त नामक सभी गन्धर्वो के राजा, भाल में चन्द्रमा को धारण करनेवाले देवताओं के देव महादेवजी के दास थे, वे सुरगुरु महादेवजीके क्रोधसे अपनी महिमासे भ्रष्ट हुए तब शिव के प्रसन्नार्थ इस परम दिव्य शिवमहिम्न स्तोत्रको बनाये॥३७॥ For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ भापाटीया-स-हितम * सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षकहेतुम् । पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्यचेताः॥ व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः । स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३८॥ ___ यह पुष्पदन्त का बनाया हुआ अमोघ स्तोत्र कैसा है किसुरवर मुनियों से पूज्य और स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण है। इसे जो मनुष्य अनन्य चित्त से हाथ जोड़कर पड़ता है वह किन्नरों द्वारा स्तुति किया शिवजी के समीप जाता है ॥३८॥ श्रीपुष्पदन्तमुखपङ्कजनिगतेन । स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण ॥ कण्ठस्थितेन पाठतेन समाहितेन । सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥३९॥ ___ सावधान होकर श्रीपुष्पदन्त के मुख से निकले हुए पापहारी तथा महादेवजी के प्रिय इस स्तोत्र को कण्ठ कर पाठ करने से प्राणीमात्र के स्वामी श्रीमहादेवजी प्रसन्न होते हैं ॥३९॥ आसमाप्तामदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम् । अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम् ॥४०॥ __ अनुपम और मन को हरनेवाला ईश्वर-वर्णनात्मक पवित्र स्तोत्र पुष्पदन्त गन्धर्व का कहा हुआ समाप्त हुआ ॥४०॥ For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर । यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः || ४१ ॥ हे महेश्वर ! मैं नहीं जानता कि, आप कैसे हैं ? आप चाहे जैसे हों आपके लिए मेरा नमस्कार है ||४१ ॥ एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः । सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥ ४२ ॥ छूट कर प्रातःकाल या दोपहर या सायंकाल में या तीनों कालमें जो आपकी महिमा का गान करेगा वह सब पापों से आपके लोक में सुखपूर्वक निवास करेगा ||४२ || इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः । अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥ ४३ ॥ इस प्रकार वाङ्मयी पूजा को मैं श्रीशंकरजी के चरणों में अर्पण करता हूँ । जिससे महादेवजी मुझपर प्रसम रहें ||४३|| ॥ इति भाषाटीकोपेतं श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम् समाप्तम् । - * - For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ रावण कृत शिवताण्डव-स्तोत्रम् रावणारिं नमस्कृत्य भक्तानामभयङ्करम् । रावणस्य कृतेः कुर्वे भाषाटीका सुखावहाम् ॥१॥ जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि । धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥१॥ भाषार्थ:--तान्डव नृत्य के समय जटारूपी कूप में वेग से घूमती हुई भागीरथी का चञ्चल तरङ्गरूपी लताओं से शोभायमान और धक-धक्क शब्द सहित जलने वाली है अग्नि जिसमें ऐसे ललाटवाले तथा द्वितीयाके चन्द्रमारूपी आभूषणको धारण करनेवाले श्री महादेवजी के विषे मेरी प्रतिक्षण प्रीति होवे ॥१॥ जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले । गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् ॥ डमड्डमडमडमन्निनादवड्डमर्वयम् । चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥२ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् भाषार्थ : - - लङ्कापति रावण अभीष्ट सिद्धि के निमित्त श्री शंकरजी महाराज से प्रार्थना करता है कि जो श्री महादेवजी जटारूपी वन से गिरते हुए जल के प्रवाह से पवित्र कण्ठ में बड़े-बड़े सर्पों की माला को लटका कर डमडम शब्द करने वाले डमरूको बजाते हुए ताण्डव ( नृत्य ) करते हैं वह श्री महादेवजी महाराज हमारा मंगल करें ॥ २ ॥ धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥ ३ ॥ भाषार्थ : -- पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती की क्रीड़ा के बान्धव और अति रमणीय प्रकाशमान कृपा कटाक्षों से भक्तों की घोर आपत्ति को दूर करनेवाली वाणी से नग्नरूप श्री महादेवजीके विषे मेरा मन आनन्द को प्राप्त होवे ||३|| जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभाकदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे । मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं विभत्तु भूतभर्तरि ॥ ४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा टीका सहितम् २३ भाषार्थ::- जब नृत्य करने के समय जटाओं में विराजमान सर्पों के फणों व मणियों की चमकती हुई पीलो कान्ति फैलती है और दिशायें पीली हो जाती हैं तब ऐसा प्रतीत होता है मानों शिवजी ने दिग्वनिताओं के मुख पर केशर मल दिया है, ऐसे और मदसे अन्धा को गजासुर या उसके चर्मको ओढ़कर परम शोभाको प्राप्त होनेवाले श्रीमहादेवजी के विषे मेरा मन परम आनन्द को प्राप्त होवे ॥ ४॥ ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् । सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरम् महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥ ५ ॥ भाषार्थ:- जिन्होंने अपने मस्तक रूप आँगन में धक् धक् जलते हुए अग्नि के कण से कामदेव को भस्म कर दिया, जिनको ब्रह्मा आदि देवताओं के अधिपति भी प्रणाम करते हैं, जिनका विशाल भाल चन्द्रमा की किरणों से विराजमान रहता है और जिनकी जटाओं में कल्याणकारिणी श्री गङ्गाजी निवास करती हैं ऐसे कपालधारी तेजो मूर्ति सदाशिव हमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों सम्पत्ति देवें || ५ | सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखरप्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः । For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * भुजङ्गराजमालयानिबदजाटजूटकः श्रियचिरायजायताञ्चकोरबन्धुशेखरः ॥६॥ भाषार्थ:-जिन महादेवजीके चरण धरनेसे भूमि, इन्द्रादि देवताओंके मुकुटों को पुष्पमालाओं से गिरी हुई पराग से धूसर ( मटमैली ) रहती है, जिनका जटाजूट सर्पराज वासुकी के लपेटों से बँध रहा है और जिनके विशाल भाल में चन्द्रमा विराजमान हैं, ऐसे सदाशिव हमें धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्षरूपी सम्पत्ति देखें। ६॥ करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्वलद्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके । धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनेकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥७॥ भाषार्थ:-जिन महादेवजी ने अपने कराल भालरूपी मैदान में धधकती हुई अग्नि में प्रबल कामदेवकी आहुति दे दी, जो हिमालयकुमारी श्रीपार्वती जी के स्तनों पर चित्रकारी करने में परम प्रवीण हैं ऐसे त्रिलोचन महादेवजी के विषे मेरी प्रीति होवे ॥ ७ ॥ नवीनमेषमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरकुहूनिशीविनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः। For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा-टीका-सहितम के २५ निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसुन्दरः कलानिधानबन्धुरः श्रिय जगधुरन्धरः॥८॥ भाषार्थः--अमावस्या की अर्धरात्रि के समय स्वयं अन्धकार अधिक होता है और यदि उस समय नवीन मेघमण्डली घिर आवे तो और भी अधिक अन्धकार हो जाता है ऐसे घोर अन्धकार का भी जिनकी ग्रीवा निरादर करती है अर्थात् उस अन्धकार से मी अधिक काली है ऐसे गङ्गाधर हस्ती के चर्म को ओढ़ने वाले चन्द्रमौलि त्रिलोक के पालन करने वाले सदाशिव हमारी सम्पदा को अधिक कर ॥८॥ प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभावलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् । स्मरच्छिदंपुरच्छिदंभवच्छिदंमखच्छिदंगजच्छिदान्धकच्छिदंतमन्तकच्छिदंभजे ॥९॥ भाषार्थ:--जिनके सुन्दर कण्ठ की परम रमणीय शोभा खिले हुए नील कमल की भाँति चारों ओर फैली हुई नील वर्ण की कान्ति का निरादर करती है ऐसे कामदेव को भस्म करने वाले त्रिपुरारि दक्षयज्ञध्वंसकारी गजासुर संहारी अन्धकासुर के नाशक कालान्तक शिवजी को भजता हूँ ॥९॥ अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरीरसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् । For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीमहोबा * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तत्र गजान्तकान्धकान्तकन्तमन्तकान्तक भजे १०॥ ___ भाषार्थ:--सब प्रकार के मंगलों को अधिकता से देनेवाले चौसठ कलारूपी कदम्ब के वृक्ष की मंजरी का रस पीने वाले अर्थात् सर्वकला प्रवीण कामारि त्रिपुरारि भक्त-भयहारी दक्षयज्ञ विध्वंसकारी गजासुरसंहारी अन्धकासर के प्राण हरण करने वाले और काल का भय मिटाने वाले महादेवजी का मैं भजन करता हूँ ॥१०॥ जयत्यदभ्रविभ्रमस्फुरभुजंगमश्वसद्विनिर्गमक्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् । धिमिन्धिमिन्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥ भाषार्थः--नृत्य करते समय अधिक वेग से घूमने पर शिर में लिपटे हुए सपों के श्वास के निकलने से और भी अधिक प्रज्वलित हुई है कराल भाल की अग्नि जिनको और मृदंग की धिमि-धिमि मंगल ध्वनि की वृद्धि के अनुसार अपने ताण्डव नृत्य की गति को बढ़ाने वाले शिवजी महाराज की जय होवे ॥ ११॥ दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोगरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः । For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाष -टोका सहितम् तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ १२ ॥ भाषार्थ :- वह कौन-सा शुभ समय होगा, कि जिस समय पर मैं पत्थर और पुष्पों की शय्या में सर्प और मोतियों की माला में, बहुमूल्य रत्न और मृत्तिका के ढेलों में, शत्रु और मित्र में, तृण और नीलकमल के समान नेत्र वाली स्त्री में तथा प्रजा और चक्रवर्ती राजा में एक दृष्टि करके सदाशिव का भजन करूँगा ।। १२ ।। २७ कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिंवहन् । विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेतिमन्त्रमुच्चरन्सदासुखी भवाम्यहम् ॥ १३ ॥ भाषार्थ:- वह कौन-सा कल्याण कारक समय होगा जिस समय मैं सम्पूर्ण दुर्वासनाओं को त्याग कर गंगातट के कुञ्ज के विषय निवास करके शिरपर अंजलि बाँधता हुआ चंचल नेत्र वाली स्त्रियों में रत्नरूप जगज्जननी श्रीपार्वतीजीको भी प्रारब्धवश प्राप्त हुए अर्थात् औरों को परम दुर्लभ शिव-शिव मंत्र का उच्चारण करता हुआ परम आनंदको प्राप्त होऊँगा ॥ १३ ॥ निलिम्पनाथ नागरीकदम्बमौलिमल्लिका निगुम्फनिर्झरक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः । For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * तनोतु नो मनो मुदं विनोदिनीमहनिशं पर:श्रियः परम्पदन्सदङ्गजविषञ्चयः ॥१४॥ ___ भाषार्थः-- इन्द्र नगरी की अप्सराओं के शिर से गिरी हुई निवारीके पुष्पोंकी मालाओं के पराग की उष्णतासे उत्पन्न हुए पसीने से शोभायमान परमशोभा का सर्वोपरि स्थान और रात दिन आनंद देनेवाले जो सदाशिव के शरीर की कान्तिका समूह है सो हमारे मनके आनन्द को बढ़ावे ॥ १४ ॥ प्रचण्डवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी महाष्टसिद्धिकामिनीजनावहूतजल्पना विमुक्तवामलोचनाविवाहकालिकध्वनिः शिवेतिमंत्रभूषणा जगज्जयायजायताम् ॥१५॥ भाषार्थ:--- भयदायक वड़नानल के अग्नि की प्रभा के समान अमंगलों का नाश करनेवाले, अष्टसिद्धियों के सहित स्त्रियाँ जो गीत गाती हैं और शिव-शिव यह मन्त्र है भूषण जिसका ऐसी स्वयंमुक्तभाव जगत् की माता पार्वतीजीके विवाह के समय की ध्वनि संसार की जयकारिणी होवे ॥ १५ ॥ पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यःशम्भुपूजनमिदं पठति प्रदोषे। तस्यस्थिसंरथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैवसुमुखों प्रददातिशंभुः।। उन्नावमण्डलस्य बरोदा ग्राम निवासी पं० आनन्दमाधव दीक्षितात्मज पण्डित महारासदीनदीक्षित कृत भाषाटीका शिवताण्डव स्तोत्रम् सम्पूर्ण । For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * भाषा-टीका-सहितम् * २९ श्रीमद्गोस्वामी तुलसीदासकृत-शिवस्तुति नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं । विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ॥ निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाश वासं भजेऽहम् ॥ निराकारमोङ्कार--मूलं तुरीयम् । गिरा-ज्ञान-गोतीतमीशं गिरीशम ॥ करालं महाकाल--कालं कृपालम् । ___ गुणागार-संसार-पारं नतोऽहम् ॥ तुषाराद्रि-संकाश--गौरं गभीरम् । मनोभत कोटिप्रभा श्रीशरीरम् ॥ स्फुरन्मौलिकल्लोलिनीचारुगंगा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ चलत्कुण्डलं भ्रू त्रिनेत्रं विशालम् ।। __ प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम् ॥ मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालम् । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिवमहिम्नस्तोत्रम् * प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशम् । अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ॥ त्रयः शूल निर्मूलिनं शूलपाणिम् । भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् । कलातीत-कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ॥ चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ न यावत् उमानाथपादारविन्दम् । भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ॥ न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशम् । प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ न जानामि योगं जपं नैव पूजाम् । नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ॥ जराजन्म दुःखौघतातप्यमानम् । ___प्रभो पाहि आपन्नमामीशशम्भो ॥ श्लोक:-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतुष्टये । ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति । For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * शिव-स्तुति * पशुपति-अष्टकम् श्रीगणेशाय नमः ॥ पशुपतीन्दुपति धरणीपतिं भुजगलोकपतिं च सतीपतिम् । प्रणतभक्तजनार्तिहरं परं भजत रे मनुजा गिरिजापतिम् ॥ १॥ न जनको जननी न च सोदरो न तनयो न च भूरि बलं कुलम् । अवति कोऽपि न कालवशं गतं मज० ॥२॥ मुरजडिण्डिमवाद्यविलक्षणं मधुरपञ्चमनादविशारदम् । प्रथम भृतगणैरपि सेवितं भज० ॥३॥ शरणदं सुखदं शरणान्वितं शिव शिवेति शिवेति नतं नृणाम् । अमयदं करुणावरुणालयं भज० ॥ ४ ॥ नरशिरोरचितं मणिकुण्डलं भुजगहारमुदं वृषभध्वजम् । चितिरजोधवलीकृतविग्रहं भज० ॥ ५॥ मखविनाशकरं शशिशेखरं सततमध्वरभाजिफलप्रदम् । प्रलयदग्धसुरासुरमानवं भज० ॥६॥ मदमपास्य चिरं हृदि संस्थितं मरणजन्मजराभयपीडितम् । जगदुदीक्ष्य समीप भयाकुलं भज० ॥७॥ हरिविरञ्चिसराधिपपूजितं यमजनेशधनेशनमस्कृतम् । त्रिनयनं भुवनत्रितयाधिपं भज० ॥ ८॥ पशुपतेरिदम रकमद्भुतं विरचितं पृथिवीपतिसूरिणा । पठति संशृणुते मनुजः सदा शिवपुरीं वसते लभते मुदम् भज० ॥६॥ ॥ इति श्रीपशुपति अष्टकं सम्पूर्णम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ * शिव-स्तुति * शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम श्रीगणेशाय नमः ॥ नागेन्द्रहारामधनिलंघमाय भस्माज रागाय महेश्वराय नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकराय नमः शिवाय ॥ १॥ मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय । मन्दारपुष्पबहु-पुष्पसुपूजिताय तस्मै मकराय नमः शिवाय ॥ २ ॥ शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्दसूर्याय दक्षध्वरनाशकाय । श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिकाराय नमः शिवाय ॥ ३ ॥ वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्यमुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय । चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै क्काराय नमः शिवाय ॥४॥ यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय । दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नमः शिवाय ॥ ५ ॥ पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ । शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥६॥ ॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।। हर प्रकार की पुस्तक मिलने का पता-- ठाकुर प्रसाद पुस्तक भंडार कचालीगली, वाराणसी। मुद्रक-अनुपम प्रेस, दुर्गाघाट, वाराणसी । For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमारे यहाँ से नीचे लिखी पुस्तके एक बार अवश्य मँगाकर लाभ उठा। श्रीमहालक्ष्मी वसना पूजा 1.50 दुर्गासप्तशती 32 पेजी मल, 4.00 गोपालसहस्रनाम मूल 1.00 दुर्गासप्तशती 64 पेजी मल 3.00 रघुवंश 6,7 सर्ग 4.00 नीति शृंगार वैराग्य शतक, 3.00 मानसागरी भाषाटीका 18.0 माघ भादों गणेश चौथ मावकुतूहल भाषा टीका 10.0 जीवित पूत्रिका कुम्भविवाह प्रयोग 1.00 महामृत्युञ्जय स्तोत्र दुर्गासप्तशती भाषाटीका ग्लेज८.०० चित्रगुप्त व्रत कथा दुर्गासप्तशती भाषाटीका रफ 7.00 पञ्चदेवता पूजा दुर्गासप्तशती मा.टी. साँची काली कवच ग्लेज 8.00 हितोपदेश मित्रलाभ दुर्गासप्तशती भाषाटीका चाणक्यनीति दर्पण साँची रफ७.०० किरात अर्जुनीय 1-2 सर्ग 3.00 घनिष्ठा पञ्चक शान्ति 2.00 पार्वण श्राद्ध पद्धति 1.00 विन्ध्यवासिनी पूष्पाञ्जली 1.00 सत्यनारायण माषा टीका स्वप्नविज्ञान 7 ध्यायी 1.50 अनन्त व्रत कथा१ .00 सत्यनारायण भाषा टीका 5 सोमवती व्रत कथा ध्यायी 1.00 शुक्लयजुर्वेदीय संध्योपासन 0.80 सुन्दरकाण्ड गुटका अन्नपूर्णा स्तोत्र 0.20 चालीसा पाठसंग्रह आदित्य हृदय स्तोत्र मूल 020 रामरक्षा स्तोत्र worxM. 000 . Serving JinShasan हर प्रकार ठाकुर 098924 gyanmandir@kobatirth.org "बुद्रक-ठाकुर प्रसार प्रेस कोड़ीगली, वाराणसी। For Private and Personal Use Only