Book Title: Shilopadesh Mala
Author(s): Harishankar Kalidas Shastri
Publisher: Jain Vidyashala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIMARATHIV DISHA HI NTALU NOM G XSE HARY मा००००००००० ००० AA२००N 1970 पंडित श्री जयकीतिमूरिविरचिता।। श्री शीलोपदेशमाला VERDOSE 17 द्वय नाषांतर BLOCACCIDENT LANAND MPUR श्रा ग्रंथ चतुर्विध संघने वांचवा योग्य जाणी तेनुं शास्त्री हरिशंकर कालीदास पासे गुजराती भाषामां नाषांतर करावी तेने यथामति शुद्ध करी बपावी प्रसिद्ध करनार, ( शा. रवचंद जयचंदे स्थापन करेली)। श्री जैन विद्याशालो. डोशीवाडानी पोल- अमदावाद. श्रा ग्रंथ मुंबई निर्णयसागर प्रेसमां पाव्यो बे. संवत १९५७ सन १९००. किंमत -१३-० प्रसिद्धकर्ताए आ ग्रंथने फरिथी छापवा छपाववा संबंधी सर्व हक्क पोताना स्वाधिन राख्या छे. MANCE 5000000000....००००० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकनो नं० लेनारनुं नाम. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. या शीलोपदेशमाला नामनो ग्रंथ पोताना नाम उपरथीज लोकोने बतावी पे बे के, ते ग्रंथ पोते शील ( ब्रह्मचर्यव्रत ) नो उपदेश करवानी एक माला बे. 'माला' शब्द नामनी साथे जोड्यो बे ते उपरथी एम पण सिद्ध थाय बे के ए ग्रंथ हंमेशां पुष्पमालानी पेठे कंठमां धारण करी राखवा योग्य बे. तेनुं कारण एज डे के, जेम पुष्पनी माला कंठमां होवाने लीधे ते जुली जवाती नयी तेमज या शीलोपदेशमाला पण हंमेशां कंठमां धारण करवायी ( मुखपाठे करवाथी ) शीलव्रत पालवुं मूली जवातुं नथी. या कारणथी ग्रंथकारे या ग्रंथनुं नाम शीलोपदेशमाला पांडे. शील ए एक चिंतामणिरत्न बे. कारण के, तेनावज माणसो धर्म, अर्थ, काम छाने मोक्षरूप चार पुरुषार्थने साधवामां समर्थ थाय बे. ए चार पुरुषार्थने साधवानो मुख्य आधार शरीर उपर रहेलो बे. शास्त्रमां पण कधुं बे के, " शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् " धर्मनुं मुख्य साधन शरीर बे ने ए शरीरने खरो आधार शील उपर रहेलो बे. - या विश्वनी अंदर श्रापणे जोइए बी ए के, योग्य रीते शीलत्रत पालनारा माणसोनां शरीर बहु मजबूत होय बे, घने शीलत्रत नहिं पालनारानां शरीर बहु निर्बल होय ते. शास्त्रमां पण पूर्वना पुरुषोनां शरीर शीलव्रत पालवाथीज बहु मजबूत वर्णवेलां बे अने तेथीज तेर्ज म्होटां म्होट कार्य करवाने शक्तिवंत यता इता. दालमां शीलव्रत पालवानो अन्यास जेम जेम बो यतो जाय बे तेम तेम प्रजार्ज निर्बल यती जायाने तेथी एक बीजाने परस्पर सहाय्य करवाने शक्तिवंत घता नथी. वली पांच महाव्रतोमां शीलने चोथुं व्रत गएयुं बे, तो पण ते चोथा तने खंडन करनार पुरुष पांच व्रतने खंडन करनारो थाय बे अने ते चोथा व्रत पालनारो पुरुष पांच व्रतने पालनारो थाय बे. - श्रावी रीतना ते शीलव्रतमां दिव्यगुणो रहेला होवाथी तेमज ते ब्रतने पालनार माणसने या लोक परलोकसंबंधी बहु लाज होवाथी यापणा जैनाचार्य श्री जयकीर्ति मुनिये बहु जीवो उपर पूर्व उपकार करवाना देतुथी उपदेशरूप या " शीलोपदेशमाला ए नामनो मा "" Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. गधी भाषामां पद्यबंध ग्रंथ रच्यो बे. ग्रंथ मागधी जाषामां दोवाने लीधे बहु कठीण मालम पडवाथी श्री सोमतिलक सूरिये विक्रम संवत १३ए। नी शालामां तेना उपर शीलतरंगिणी ए नामनी संस्कृत टीका रची . टीका करनार सूरिये पण मूल ग्रंथमां श्रापेला दृष्टांतो उपर रसीक म. नोहर कथा दाखल करी ग्रंथने बहु सुशोजित बनाव्यो बे. ग्रंथ मा. गधी अने संस्कृत भाषानो होवाथी श्रमे विद्याशालाना शास्त्री पासे तेनुं गुजराती भाषांतर करावी उपावीने प्रसिद्ध कस्यो बे, तेनुं कारण एज के, उपरनी बन्ने नापाना उडा परिचयवाला हालमां आपणा जैन बंधु ए ग्रंथने वांचवानो लाज लश् ते महान् श्राचार्योये आपणा उपर करेला उपकारनो तेमने धन्यवाद आपी ते पुरुषोए करेला श्रमने सफल करे. श्रा ग्रंथ उपाती वखते मतिमंदथी अथवा दृष्टिदोषथी जे काश्नूलो श्रावी , ते पाउल शुद्धिपत्रमा सुधारी लीधी . वली १२० मा पृष्ठे श्री मल्लिनाथनी कथा उपर ४० मी गाथा नूलथी रही गयेली होवाथी ते गाथाने पाडल शुद्धिपत्रमा दाखल करवामां श्रावी . तो पण जो कोश नूल रही गइ होय तो तेने माटे हुँ क्षमा मागु ढुंअने विनंती करुं दूं के, तेवी चूल्यो सुधारी लेवी. ल जैन विद्याशाला. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था पुस्तकमां श्रावेली कथानी अनुक्रमणीका. अंक. १ गुणसुंदरी अने पुण्यपालनी कथा. ५ द्वैपायनज्ञषिनी अने विश्वामित्रनी कथा. ३ नारदनी कथा. ४ रिपुमर्दन राजा अने जुवनानंद राणीनी कथा. ५ विजयपाल राजा अने खदमी राणीनी कथा. ६ ब्रह्मानी कथा. ७ चंजनी कथा. सूर्यनी कथा. ए सनी कथा. १० श्रा:कुमारनी कथा. ११ नंदिषेणमुनिनी कथा. १२ रथनेमिनी कथा. १३ नेमिनाथना नव नवनी कथा. १४ महिनाथनी कथा. १५ स्थूलजनी कथा. १६ वज्रवामीनी कथा. १७ सुदर्शन शेउनी कथा. १० वंकचूलनी कथा. १ए सुनमानी कथा. २० मदनरेखानी कथा. १ सुंदरीनी कथा. २२ अंजना सुंदरीनी कथा. २३ नर्मदा सुंदरीनी कथा. २४ रतिसुंदरीनी कथा. २५ झषिदत्तानी कथा. २६ दवदंतिनी कथा. १३६ ९५१ १७३ ११ १९३ १एन २०० २१३ १२५ २३० २४६ २६२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अनुक्रमणीका. कमलानी कथा. २० कलावतीनी कथा. २५ शीलवतीनी कथा. ३० नंदयतीनी कथा. ३१ रोहिणीनी कथा. ३२ कुलवालक मुनिनी कथा. ३३ द्रौपदीनी कथा. ३४ नूपुरपं कितनी कथा. ३५ दत्तहितानी कथा. ३६ अगडदत्तनी कथा. ३७ प्रदेशी राजानी कथा. ३० महासती सीतानी कथा. ३० धनश्रीनी कथा. २ २०४ ३०८ ३२४ ३३० ३३८ ३४४ ३५१ ३६२ ३८२ ३६ ४१४ ४३८ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंमत. ३-०-० (-2-0 3-0-0 १-४-० ३-०-० (-6-0 ०-६-० 0-8-0 2-0-0 0-0-0 ०-२-० (-0-0 १-०-० श्री श्रमदावाद जैन विद्याशालामां वेचातां पुस्तकोनुं सूचिपत्र. १-४-० पुस्तकनुं नाम. श्राद्धविधि ( श्रावकनी सामाचारी ) सुलसाचरित्र ( बांधेली चोपडी ) सुलसाचरित्र (बुटां पानां ) पर्युषण महात्म्य बालाबोध. (-0-0 (-0-0 १-०-० सझायमाला. प्रकरणमाला. सिंडरप्रकर (मूल टीका अने भाषांतर साथे . ) " "" देवसी राइ प्रतिक्रमण. जरतेश्वरवृत्ति समकित कौमुदी. संबोधसत्तरी. "" या नीचेनां पुस्तकोनी किंमत मूल किंमत करतां घटाडेली बे, तेथी ते वे पढी घटाडेली किंमत प्रमाणे वेचाशे. मूल किंमत घटाडेली किंमत. पुस्तकनुं नाम. अक्षर. २-०-० १-१०-० पंचप्रतिक्रमण तथा नवस्मरण अर्थसहित. शास्त्री. "" 3-8-0 (-0-0 अक्षर शास्त्री "" 0-22-0 "9 0-22-0 0-0-0 "9 नीचेनुं पुस्तक विद्याशालातरफथी उपाय डे. ऋषिमंडलवृत्तिभाषांतर. "" 3-0-0 देववंदनमाला. १- ४ - ०पूजा संग्रह. ( पद्मविजयजी तथा रूप विजयजी कृत. )" "" 2-8-0 पूजा संग्रह ( वीरविजयजी कृत. ) पंचप्रतिक्रमण. जयानंद केवलीनो रास tara पंचाशिका शत्रुंजयतीर्थ महात्म्य सार. 13 " गुजराती. "" गुजराती " " 99 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचिपत्र. श्रा पुस्तको शीवाय मुंबश्वाला जीमसी माणके उपावेलां सर्वे पुस्तको तथा तीर्थना नकशा विद्याशालामांथी मुंबईनी किंमत प्रमाणे वे. चाता मले. श्री जैन विद्याशाला. वे डोशीवाडानी पोल. श्रमदावाद. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगणधरेन्यो नमः श्री शीलोपदेशमाखा. मूल, शब्दार्थ, विशेषार्थ अने कथान सहित प्रारंनः शहां ग्रंथनी टीका करनार श्रीधजयदेवसूरि सात श्लोकवडे मंगलाचरण करे . ___(वसंततिलका वृत्तम् ) यस्योपदेशसमये दशनांशुमिश्राः, स्कंधोपरि प्रसृमराश्चिकुरप्ररोदाः॥ कल्याणपात्रदधिसंवलितोरुदूर्वा लीलां दधुः स कुशलाय युगादिदेवः॥१॥ अर्थ-देशनाने समये दंतकांतिथी मिश्र थएला अने खजा उपर प्रसरता जेमनां अंकुर सरखा केश, सुवर्णपात्रमा दहिंथी मिश्रित एवी बहु दूर्वानी समान शोजता हता, ते श्री युगादिदेव (रुषजदेव जगवान) कल्याणने अर्थे था.॥१॥ (उपजाति वृत्तम् ) श्रिये स शांतिर्मगलांगनःसन, युक्तं दधानः कुमुदां विकाशम् ॥ योऽनूद्भवानीदितनावमाप्य, शिवोत्तमांगं स्थिरनासुरश्रीः॥२॥ अर्थ-चंडमा जेम मृगलांबन पामीने कुमुदोने ( चंडविकाशी कमलोने ) प्रफुल्लित करे , तेम जे जगवान मृगलांबन पामीने कुमुदोने (पृथ्वी उपर रहेला माणसोने) हर्ष उत्पन्न करे . ए युक्तज बे. तेमज प्रसिफ चंजमा जेम पार्वतीने हितकारी एवा शंकरना मस्तके आश्रय पामीने स्थिर तथा देदीप्यमान शोजाने पाम्यो, तेम जे जगवान Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ शीलोपदेशमाला. संसारने विषे रुचि उत्पन्न करनारा शिवरमणीना मस्तके रही स्थिर छाने देदीप्यमान शोजा पाम्या; ते श्री शांतिनाथ जगवान कल्याने अर्थे थाई ॥ २॥ शिव श्रियो रूपमनन्यरूपं, ज्ञानात्मदर्श परिभाव्य जज्ञे ॥ यशैशवात्तन्मयमानसो यः, स नेमिनाथः शिवतातिरस्तु ॥३॥ अर्थ - जे जगवान शिवरमणीनुं अलौकिक सौंदर्य ज्ञानरूप दर्पणमां जोई वाल्यावस्थाथीज तेने विषे आसक्त थया, ते श्री नेमिनाथ जगवान मंगलने था. ॥ ३ ॥ जावा अनेकाः प्रतिबिंब्य यस्य, ज्ञानेऽविबाधं दधिरे निवासम् ॥ फणानिनाः सप्त नयाश्च तस्थुस्त्यक्त्वा रिपुत्वं स शिवाय पार्श्वः ४ अर्थ - जे जगवानना ज्ञानमां अनेक जावो प्रतिबिंब पामीने निराबाधपणे ह्या बे. वली जेमने विषे शेषनागना सात फणासरखा सात नय पण परस्परमा रहेलो विरोध त्यजी दइने रह्या छे, ते श्री पार्श्वनाथ जगवान कल्याणने अर्थे थाउं ॥ ४ ॥ यस्मिनेि गर्नगतेऽपि पित्रोः श्रीः सर्वतोऽजायत वर्धमाना ॥ सिदार्थसूनुश्वरमप्रभुम, सिदार्थसार्थं स दृढं विदध्यात् ॥ ५ ॥ अर्थ- जे जगवान गर्नमां आवे बते तेमना माता पितानी लक्ष्मी दिवसे दिवसे वृद्धि पामी, ते सिद्धार्थ राजाना पुत्र चरम तीर्थंकर श्री वईमान स्वामी, मने दृढ एवा सिद्ध अर्थना समूहवालो करो. अर्थात् म्हारा सर्व कार्य निश्चयथी सिद्ध करो. ॥ ८ ॥ ( वंशस्थ वृत्तम् ) जयंतु ते श्रीगुरवः कलावतां, जडोऽपि येषां करसंगमान्नरः ॥ रत्नेषु चंशेत्पलवडुरि स्थितिं समश्नुते नाशितदोषडुर्दशः ॥ ६ ॥ अर्थ-जेम चंद्रकांतमणि जम बतां पण सोलकलाना धारक चंद्रना किरणना स्पर्शची पोताना दोषने दूर करीने रोमां श्रेष्ठपद मेलवे बे, तेमज अनेक कलाना धारक जे सद्गुरुना हस्तना अवलंबनथी जड पुरुष Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण. पण पोताना दोष तथा उर्दशा दूर करीने श्रेष्ठ पुरुषोमा अग्रपद मेलवे बे, ते सङ्गुरु जयवंता वर्तो. ॥६॥ (उपजाति वृत्तम् ) चक्रे पुरा यजयसिंहसूरि-शिष्येण शास्त्रं जयकीर्तिनाना ॥ तस्यादमासूत्रयितास्मि वृत्ति, सुखावबोधां स्वपरोपकृत्यै ॥ ७॥ अर्थ-पूर्वे जयसिंहसूरिना शिष्य जयकीर्ति नामना मुनिए जे श्रा शीलोपदेशमालारूप शास्त्र रच्यु , तेनी हुँ ( अजयदेवसूरि) पोताना अने परना उपकारने माटे सुखे बोध थाय एवी वृत्ति(टीका)करुं बु.॥७॥ __ए प्रकारे मंगलाचरण करीने ग्रंथकार ग्रंथनो श्रारंज करे जे. हिं तत्वना उपदेशरूप अमृतना समूहने एकतुं करनार ग्रंथकार (जिनकीर्तिसूरि) पुण्यरूपी वेलना पसवने प्रफुल्लित करवाने मेघनाश्रारंजरूप था शीलोपदेशमाला नामना प्रकरणना आरंजनेविषे, उत्तम विचारमा प्रविण एवा पुरुषोना चित्तने चमत्कार करवामाटे, ग्रंथ जोनाराऊनी तेमां प्रवृत्ति करवामाटे अने विघ्नना समूहनो नाश करवामाटे पोताना इष्टदेवताने स्मरण करवापूर्वक शीलना उपदेशना प्रयोजनना संबंधवाली प्रथम गाथा कहे . (आर्यावृत्तम्) श्राबालब्रह्मचारिणं नेमिकुमारं . नत्वा जगत्सारम् आबालबंनयारि नेमिकुमारं नैमित्तु जयसारं ॥ शीलोपदेशमालां वक्ष्यामि विवेककरिशालाम् सीलोबएसमालं बामि विवेयकरिसालं ॥१॥ शब्दार्थ-(आबालबंजयारि के०) जन्मथी मांडीने ब्रह्मचारी एवा अने (जयसारं के)त्रण जगत्ने विषे प्रधान एवा, बावीशमा तीर्थकर ( नेमिकुमारं के०) श्री नेमिकुमारने ( नमित्तु के०) नमस्कार करीने ( विवेयकरिसालं के०) विवेकरूपी हस्तीने रदेवानी शालारूप एवा (सीलोवएसमालं के०) शीलोपदेशमाला नामना ग्रंथने हुँ (वुछामि के०) कहीश. ॥१॥............. .... Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीखोपदेशमाला. _ विशेषार्थ-श्रा ग्रंथना करनार श्री जयसिंहसूरिना शिष्य जयकीर्ति मुनि, ग्रंथना श्रारंजमां मंगलाचरण कहे जे के- जन्मयीज चतुर्थव्रतरूप ब्रह्मचर्यने पालनारा, वाणी समान मनोहर वरूपवाली राजीमतीने, राज्यने अने त्रणसे वर्षसुधी पोताने खाधीन रहेली राज्यलक्ष्मीने तृणनी पेठे त्याग करी गिरनार पर्वते सहसावनमां दीक्षा लेनारा, तेमज बीजा साधारण मनुष्यथी नहि पाली शकाय एवा शीलवतने पालवाथी अथवा लोकमां उत्तम रूपपणाथी ध्यान करवायोग्य अथवा बाह्य श्रने धान्यंतर शत्रुने जीतवाथी त्रण जगत्मा प्रधान एवा बावीशमा तीर्थंकर श्री नेमिनाथ प्रजुने नमस्कार करीने 'विवेकरूप हस्तीने रदेवानी शालासमान एवी शीलव्रतना उपदेशरूप पुष्पोनी मालाने ' अथवा शीलोपदेशमाला नामना ग्रंथने हुं कहीश. हवे फलने बतावता सता शीलनो उपदेश कहे जे. निर्मश्रितसकलहीलं दुःखवलीमूलोत्खननकीसं ॥ निम्मदियसयलहीलं, उदवल्लीमूलनकणकीलं ॥ कृतशिवसुखसमीलं पालयत नित्यं विमलशील कयसिर्वसुदसंमीलं, पालद निचं विमलसीलं॥२॥ शब्दार्थ-हे जव्यजीवो ! तमे ( निम्म हियसयलहीलं के०) मथन करी नांखी ने सर्व प्रकारनी निंदा जेणे एवा, तथा (उदवसीमूलकणणकील के) पुःखरूपी वेलना मूलने उखेडी नांखवाने खीला समान एवा श्रने ( कयसिवसुहसंमीलं के०) कस्यो डे मोदना सुखनो मेलाप जेणे एवा ( विमलसील के० ) निर्मल शीलने ( निच्चं के०) निरंतर (पालह के) पालो. ॥२॥. विशेषार्थ-दे जव्यजनो! दहीने मंथन करनारा रवैयानी पेठे सर्व प्रकारनी निंदाने मंथन करनार, सिंह, गजेंड, सर्प श्रने संग्रामादिकना परानवने दूर करनार, कर्मरूप जलथी उत्पन्न थएली पुःखरूपी वेलिना * श्रादरवायोग्य अने गंडवायोग्य वस्तुनुं ज्ञान. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथारंभ. Ա मूलने उखेडी नाखवाने खीला समान श्रने मोक्षसुखने मेलवनार एवा निर्मल शीलवतने तमे निरंतर पालो. ॥ २॥ काव्यनी अंदर केटलांक वचनो विशेष उपदेश श्रापवाने योग्य होवाथी तेने फरीथी कहेवामां पण पुनरुक्ति दोष लागतो नथी. कह्युं वे केसझायप्राणतवो, सहेसु जवएसु थुश्पयाणेसु ॥ संतगुण कित्तणेसु य, न हुति पुणरुत्तदोसा ॥ १ ॥ मूल ग्रंथकारे या प्रथमना काव्यमां पूर्वार्द्धने विषे विघ्ननी निवृत्तिने माटे इष्टदेवताने नमस्कार करी उत्तरार्द्धने विषे ग्रंथनो विषय कह्यो बे. मां बे प्रकारनो संबंध ठे. वाच्य ाने वाचक, तेमां वाच्य प्रकरणार्थ वाचक प्रकरण बे. वली शीलोपदेश श्रनिधेय (कदेवायोग्य वस्तुतुं. स्वरूप) ने विवेक करी शालारूप प्रयोजन दर्शाव्यं बे, ते बे प्रकारे बे एक कर्त्ता ने बीजुं सांजलनारने, ते पण पर अने पर एवा नेदथी प्रकारे बे. मां कर्त्ताने पर एटले मोक्षप्राप्ति अने अपर ए जव्यजीवो उपर अनुग्रह बे. सांजलनारने पण पर ते मोक्षप्राप्ति अने पर ते प्रकरना अर्थं जाणपणुं बे. वली ग्रंथकारे बीजा तीर्थंकरोने नमस्कार न करता फक्त नेमिनाथने नमस्कार करवानुं कारण एबे के, ग्रंथमां शीलनुं प्राधान्यपणुं प्रगट कर बे. हवे शील पालवाथी या लोक परलोकमां जे फल थाय बे, ते कड़े बे. लक्ष्मीः यशः प्रतापः माहात्म्यं अरोग्यता गुणसमृद्धिः लच्ची जैसे पर्यावो, माढप्य मरोगया गुणसंमिश्री ॥ सकलसमीहितसिद्धिः शीलात् इह aas सयलसमी दियसिद्धी सीलान इदै नैवेवि नैवेवि परलोकेsपि खलु नरसुरसमृद्धिं उपजुज्य परेलोएवि है नरसुँरसमिद्धि- मुर्वसुंजिकण त्रिभुवनप्रणमितचरणाः अणाः प्राप्तुवंति सिद्धिसुखं तिदुच्प्रणर्पेणमियचरणा, अरिणी पीवंति सिद्धिदं ॥४॥ युग्मम्॥ नवेत् नवे ॥ ३ ॥ शीलनराः सीलेंनरा ॥ * दान, तप ने जावना ए त्रष्ये जेटलो वखत पाल्यां होय तटेलो वखत फल पवावालां थाय बे. ने शीलत्रत बहु वखत पाट्या बतां एक वखत खंकन करवाथी सघलुखंकन थाय बे. माटे निरंतर शील पालकुं. कह्युं बे के, वनंति नामजारा, नच्चिय वनंति वीसमंतेहिं ॥ सीखजरो वोढबो, जावज्जीवं छावी सामो ॥१॥ ( + परमपयं ) इति पाठांतरम्. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपो (नरसुशा एका ( सोलनशने (परिणा शीलोपदेशमाला. शब्दार्थ-(सीला के० ) शीलथी अर्थात् शील पालवाथी ( इह जवेवि के ) था जवने विषे पण (लही के०) लक्ष्मी, (जसं के०) जश, (पयावो के० ) प्रताप, (माहप्यं के०) माहात्म्य, (श्ररोगया के०) थारोग्यता, अर्थात् श्रारोग्यपणुं (गुणसमिझी के ) गुणोनी समृद्धि अने (सयलसमीहियसिसी के०) सर्वे रूडा श्वेला कार्यनी सिधि (नवे के०) थाय . तेमज (परलोएवि के० ) परलोकने विषे पण (हु के०) निश्चे (तिहुश्रणपण मियचरणा के०) त्रण जुवनना जनोए जेमना चरणकमलने नमस्कार कस्यो बे एवा, अने (अरिणा के) कर्मरूप शण (देवा) थी रहित थएला एवा ( सीलनरा के) शीलवतने धारण करनारा पुरुषो ( नरसुरसमिकि के) मनुष्य अने देवताउनी समृद्धिने (उवचुंजिऊण के ) जोगवीने ( सिधिसुहं के०) मोक्षसुखने (पावंति के ) पामे .॥३॥४॥ विशेषार्थ-निष्कपटपणे शील पालवाथी श्रा नवने विषे 'लक्ष्मी' एटले चक्रवर्ति, वासुदेव, बलदेव अने मंमलिक राजानी पछी, 'यश' एटले सर्व दिशाउँमा धन्यवाद, 'प्रताप' एटले अखंमित ऐश्वर्यपणुं, 'माहात्म्य' एटले सर्प विगेरेमा पुष्पनी मालानुं देखावं, 'अरोग्यता' एटले अतिसार, जगंदर अने क्षय विगेरे रोगथी निराबाधपणुं, 'गुणसमृद्धि' एटले महाव्रत श्रने अणुव्रतोनी पुष्टि अने सर्वे रूडा श्छेला • कार्यनी सिद्धि थाय , तेमज परलोकने विषे पण त्रण जुवनना प्राणियोए नमस्कार करेला भने पूर्वजन्मना शुनाशुज कर्मरूप ज्ञण (देवा). थी रहित थएला एवा ते शीलव्रतने धारण करनारा पुरुषो मनुष्य . अने देवताउँनी समृद्धिने जोगवीने मोदना सुखने पामे . ॥३॥४॥ शील पालवाथी थानव श्रने परनवमां सुखनी प्राप्ति थाय , . ते उपर गुणसुंदरी अने पुण्यपालनी कथा. बे सूर्य श्रने बे चंअरूप चार चक्रने धारण करवाथी सर्वे छीपोमा चक्रवर्ती पदने पामेला आ जंपूछीपमां लक्ष्मीथी मनोहर एवा जरतदेवनी दक्षिण दिशाए नदिलपुरनामे मनोहर नगर जे. जे नगरनी आकाशपर्यंत उंची गएली हवेली उपर सूर्य, सुवर्णना कुंजसमान शोजतो हतो अने सोनाना दंडनी धजाउँ उपर बांधेली शेकडो घूघरी श्राका Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसुंदरी अने पुण्यपालनी कथा. शमा रहेला ताराऊनी पेठे शोजती हती. ते नगरमांजेना प्रतापरूप रजकणो जाणे रत्नोज होय नी! एवो सिंहना समान पराक्रमवालो थरिकेसरी नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने अरिहंतना धर्मवाली, कामदेवरूप इस्तीने बंधन करवाने वालानस्तंनरूप अने अखंडित सौजाग्यवाली कमलमाला नामे पट्टराणी हती. धर्मनेविषे प्रीतिवाला ते दंपती (स्त्री पुरुष) पुत्रने माटे देव देवीउनी बहु मानता करतां हतां, जेथी तेमने काले करीने शेकडो पुत्रथी पण अधिक प्रेमवाली एक पुत्री थश्. थरिकेसरी राजाए पोताना श्रात्माने धन्य मानतां ए पुत्रीनो म्होटो जन्मोत्सव करीने गुणसुंदरी एवं यथार्थ नाम पाड्यु. पठी कल्पवेलनी पेठे दिवसे दिवसे वृद्धि पामती ए राजसुता, चंडकलानी पेठे सर्व मनुष्योने अत्यंत वहाली थइ. अनुक्रमे ए राजपुत्रीना शरीररूप वननेविषे पूर्ण एवा उन्मादरूप क्याराथी सिंचन थएबुं अने हावनावरूप लची रहेली बायावालुं यौवनावस्थारूप वृक्ष वृद्धि पाम्यु.. एक दिवस पूर्णकलाउंना अभ्यासवाली अने सर्व अंगनेविषे सुशोजित अलंकारोने धारण करनारी ए राजकुमारी पोतानी मातानी श्राझाथी पोताना पिताना चरणने प्रणाम करवामाटे सन्नामां गश्. चोसठ कलाथी पूर्ण जाणे साक्षात् सरखती पोतेज होयनी ! एवी अने विनयथी नम्र एवी ते पुत्रीने अरिकेसरी राजाए पोताना खोलामा बेसारी. पड़ी उन्मतशृंगारना एक तरंगरूप पोतानी सजाने जोतो अरिकेसरी राजा, मदोन्मत्त हस्तिथी पेठे जगत्ने तृणसमान गणतो पोताना मनमां विचार करवा लाग्यो के, "श्रा म्हारी सना देवसना बे, चित समृद्धिवाला सेवको देवतारूप , लक्ष्मी पण जोशए तेटली बे, अने हुं पोते अरूप . तो हवे म्हाराथी वर्गने विषे वधारे झुंडे.” श्राम गर्वरूप अजीर्णथी पूर्ण थएला उदरवाला ए राजाए दंडथी ताडन करेला सर्पनी पेठे (लोकोने) विषरूप वचन कह्यां, “ हे लोको! तमे पृथ्वीने विषे रह्या उतां, देवलोकनी क्रीडाथी श्राद् दैवने स्वाधिन एवं पूर्ण सुख जोगवो बे, ते कोना प्रसादथी ?" राजानां धावां वचन सांजली थाकुल व्याकुल थएला ते सर्वे सेवको, शियालनी पेठे एकी वखते राजाने कदेवा लाग्या के, “हे खामि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. न् ! निरंतर श्रापना प्रसादरूप कल्पवृदनी बायानो आश्रय करी र. हेला अमे जमराऊनी पेठे छितफलना वादने पामीए बीए.” लोकोनां आवां वचन सांजली जैनधर्ममां श्रादरवाली थएली अने कर्मना मर्मने जाणनारी गुणसुंदरीए जाणे लोकोना वचननो तिरस्कार करती होयनी! एम पोतानुं मस्तक धूणाव्यु. पनी राजाए पोतानी पुत्रीने तेम करवानुं कारण पूज्युं एटले गुणसुंदरीए स्पष्ट कर्वा के “ शुजाशुन फलनी प्राप्तिमां जाव कर्म एज मुख्य कारण . बीजानुं शुं प्रयोजन ? फक्त एक लदमीज दीर्घकालपर्यंत जीवो के, जेना प्रसादथी सर्वे माणसो धनवंत पुरुषनी पासे मी मी बोले .” पुत्रीनां श्रावां वचनथी श्रत्यंत कोप पामेला राजाए व्रकुटी चडावीने तेने कयु के “ तुं कोना प्रसादश्री श्रावं अखंमित सुख जोगवे ने ?” पुत्रीए कह्यु, “ हे तात! था सर्वे माणसो पोतपोताना करेला कर्मनुं फल जोगवे , बीजाउँ तो केवल निमित्तमात्र . __ पढी राजाए, पोताना खोलामांथी पुत्रीने उतारी मूकी सर्व बाजरपादिक पण कढावी नांखीने तेने जूनां वस्त्रो पहेराव्यां. बेवट पोताना सेवको पासे कोई एक जीर्णवस्त्रने धारण करनारा, रोगी अने पुर्बल अंगवाला कठीयाराने बोलावीने तेनी साथे ते पोतानी पुत्रीने परणावी दीधी; अने कयु के “ जा, तुं त्हारा कर्मनां अने जीजनां फल जोगव." वली तेणे पोताना सेवकोने पण कडं के " जे माणस श्रा म्हारी पुत्रीनी पाउल जशे, ते निश्चे म्हारो शत्रु बे," आम नूपतिए पोतानी पुत्रीने श्रावी स्थितिए पोहोचाडी एटले “ हे महाराज ! अविनीत एवा पण बालकने विषे माता पिताए कोप करवो नहि जोश्ए. शुं स्तनपान करतो बालक पोतानी माताना स्तनने खेंचवाथी वध करवा योग्य थाय ?" श्रावी रीते अंतःपुरना मंत्री ए राजाने बहु विनती करी, पण सर्पनी पेठे अत्यंत कोपायमान थएला ते राजाए कोश्नु कहेवं मान्युं नहीं. - पनी प्रफुलित मुखकमलवाली गुणसुंदरी “ पण म्हारा पुण्यकर्मने जोगवीश" एम कहीने पोताना आत्माने धन्य मानती ती कागडानी पाबल राजहंसीनी पेठे कठीयारानी पाउल पाउल तेना जूना घर प्रत्ये गश्. त्यां ए राजपुत्रीए पोताना पतिने आसन थापी तेना उपर बेसा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसुंदरी अने पुण्यपालनी कथा. स्यो. पड़ी कठीयाराए गुणसुंदरीने कडं, " हे राजसुता ! आ म्हारा घरने विषे त्हारा योग्य कांश पण वस्तु नथी, तेथी तुं त्हारी मरजी होय त्यां बीजे स्थानके जा; कारण के, सुवर्ण ज्यां ज्यां जाय जे त्यां त्यां अव्यने उत्पन्न करे ." गुणसुंदरीए कह्यु, " अरे स्वामिन् ! श्राप हवे क्यारे पण श्रावु वचन बोलशो नहीं. कारण के, चिंतामणि रत्नसमान थापना शरणे हुँ श्रावेली ढुं” पड़ी विनयथी नम्र मुखवाली गुणसुंदरीए जेटलामां पोताना पतिना जटासमान थएला केशने बूटा करवा मांड्या, तेटलामां तेने पतिना मस्तकमांधी बावना चंदननो गंध श्राव्यो एटले तेणे आश्चर्यथी विचार करी सार जाणीने पोताना पतिने पूब्युं. “ हे स्वामिन् ! थाजे तमे लाकडानो जारो क्यां वेच्यो ?” कठीयारे उत्तर श्राप्यो. के, “ खावानुं लश् कंदोश्नी पुकाने घराणे मूक्यो .” पड़ी गुपसुंदरी पतिनी संगाथे कंदोश्नी उकाने गश् अने तेने लीधेला खावाना पैसा श्रापी लाकडानो नारो पोताने घेर पालो पाण्यो. कडं डे केवादलाथी ढंकार गएलो सूर्य शुं पोताना तेजने मलिन करे ? श्रर्थात् नथी करतो. __ पनी राजपुत्री गुणसुंदरीए ते बावना चंदननो एक ककडो लश् सरैयानी जुकाने वेच्यो अने तेना उपजेला अव्यथी वस्त्रानूषण विगेरे खरीद कस्यां. त्यारपडी तेणे केशने साफ करी तेलमर्दन करी संस्कारपूर्वक पोताना पतिने स्नान कराव्यु. ज्यारथी ए रंक कठीयारो पुण्यनेलीधे राजसुता गुणसुंदरीने पाम्यो, त्यारथी लोकमां तेनुं पुण्यपाल एवं यथार्थ नाम पड्यु. हवे पुण्यपाले जे वृक्ष कापीने ते नारो आण्यो हतो, ते वृक्ष गुणसुंदरीए मजुरलोको पासे कपावीने पोताना घरने विषे मंगाव्यु. पनी " व्यवहारथी निकली गएला ( साधु ) पुरुषोए निरंतर जोगवेला मेरु पर्वतनां शिखरो पण काले करीने क्षय पामे !” एवो विचार करीने ते राजसुताए बावना चंदनना सर्व ककडाने वेची दश्ने बहु अव्य एक करी लेवा देवारूप कार्यश्री व्यवहार चलाव्यो, परंतु ते कार्यमा पोतानो पति पशुनी पेठे अजाण हतो, तेथी गुणसुंदरी तेने श्रन्यास कराववा माटे को बीजे गाम तेडी गश्. त्यां तेने अकारादि अदरो उलखावी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. वांचतां शीखव्यु, गणितव्यवहारमा पण प्रवीण कस्यो भने डेवट वस्त्र अने करीयाणा विगेरेनी परीक्षा पण शीखवी. श्राम गुणसुंदरीए तेने सेवा-देवारूप सर्व व्यवहारना कार्यमां चतुर बनावी दीधो. वली सर्व वीद्यामां कुशल एवी ते गुणसुंदरीए पोताना पतिने थोडा दिवसमां धर्मकार्यमां पण प्रविण कस्यो. पनी को सार्थवाहनी संगाथे ए राजपुत्री पोताना पतिसहित पोतनपुर नगरप्रत्ये गश्. त्यां तेणे पुण्यपालने वेपारना कार्यमां घणो कुशल कस्यो, तेथी ते अनुक्रमे पोतानी मेले व्यवहारना सर्व कार्यमा प्रवत्र्यो. एक दिवस गुणसुंदरीने कां साधारण लेख जड्यो. तेमां सात औ• षधीना प्रयोगथी कल्याण सिद्धिने आपनारी सुवर्ण बनाववानी क्रीया लखी हती. तेउपरथी राजपुत्रीए ए प्रयोग करी बहुपव्य एकतुं कलुं. पली सर्वप्रकारनी चिंताथी मुक्त थएलीने सुखरूपसमुरुमां मुबी गएली गुणसुंदरी कमलनेविषे जमरीनी पेठे धर्मरूप उद्यानमां अधिक अधिक रमवा लागी. पुण्यपाल पण राजानी पेठे लक्ष्मीवडे विलास करतो बतो दान अने चतुराश्नी क्रीडाथी लोकमां बहु प्रसिद्धि पाम्यो. श्राप्रमाणे पुण्यपालनी लक्ष्मी, धर्म, दान, यश श्रने चतुराइए सर्व उत्तरोत्तर बहु वधवा लाग्या. कडं जे के- लक्ष्मीना परिचयथी जम्पुरुषो बहु चतुराश्ने पामे बे, अने स्त्रीउना यौवननो मद लावण्यपणाने प्रगट करे . पड़ी धर्मबुद्धिवाला पुण्यपाले त्याना राजापासेथी जमीन लश् तेना उपर एक उंचा तोरणवालुं जिनमंदिर कराव्यु. “ निरंतर एक स्थानके रहेवाथी माणस जड थर जाय ," माटे हुँ पतिने बीजा देशमां लश् जालं, एवो विचार करी गुणसुंदरीए पोताना पतिने परदेश जवानुं कडं. पली पुण्यपाले पण घणां वाहनो एकगं करी, शेंकडो करीयाणाने खरीद करी अने म्होटी संघरचना करीने नगरने विषे पटह वगडाव्यो के, “ म्हारी साथे श्रावनार माणस पासे नाथु नही होय तो नाथु श्रने वाहन नहीं होय तो वाहन हुं श्रापीश.” पनी त्यांना राजानी रजा लश जाट लोकोए करेला मांगलिक शब्दपूर्वक पुण्यपाल, प्रजातनी वखते दान श्रापतो बतो हस्तीनी पेठे सिंहलद्वीप तरफ चाल्यो. सर्व प्रकारनी संपत्तिए करीने जाणे जंगम (हालतुं चालतुं) वृदाज होयनी ! Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसुंदरी अने पुण्यपालनी कथा. . ११ एम मार्गने विषे जतो एवो ते पुण्यपाल नायक बहु यश पाम्यो. रस्ते प्रजावना पूर्वक तीर्थनो उद्धार करतो बतो ते पुण्यना समूहनी पेठे ठेकाणे ठेकाणे नवीन एवां जिनमंदिरो करावतो हतो. याप्रमाणे अनेक देशोनुं उलंघन करी पोताना यशने विस्तारतो बतो ते पुण्यपाल अनुक्रमे सिंहलद्वीपमा श्रावी पहोंच्यो. त्यां तेणे माणिक्यजडित बाजूषणोथी पोताना सेवकोने साक्षात् कल्पवृक्ष समान बनाव्या, इंजनी स्पर्धा करनारा तेणे वेश देशमा उत्पन्न थएला लाखो अश्वो पोताना सेवको पासे मंगाव्या, तेमज विंध्याचल पर्वतमांथी नबजातिना हजारो हस्तीने पण मंगाव्या. एक दिवसे था प्रकारनी पोतानी बहु समृझिने जो गुणसुंदरीए श्रवसर मलवाथी पोताना पतिने मधुर वचनथी कह्यु, “ हे स्वामिन् ! तापथी तप्त थएला पदीउँना कंठनी पेठे श्रा अव्यादि सर्व संपत्ति चंचल बे; माटे विवेकी पुरूषोए धर्मकार्य करीने तेना फलनो उपनोग करवो. हे नाथ ! जे अव्यथी पुण्य कयुं नथी, अथवा तो खजन संबंधाउने आश्चर्य उत्पन्न थयु नथी, तो तेवा अव्ये करीने शु! माटे हवे ज्यां म्हारो पिता अरिकेसरी राजा राज्य करे , त्यांजवू योग्य बे. कारण के, ते पण पोताना नेत्र उघाडीने म्हारा कर्मनुं फल जुए" प्रियानां श्रावां वचन सांजली अवसरना जाण एवा ते पुण्यपाले तुरत प्रयाणनो पडद वगडाव्यो. पड़ी मार्गमां अनेक नूपतिए सन्मुख थाववा विगेरेथी पगले पगले सत्कार करेलो ए पुण्यपाल चक्रवर्तीनी पेठे मार्गउबंधन करवा लाग्यो. तेणे तीर्थस्थानमां जश्ने महादानथी, संघनी पूजायी अने प्रस्तावनादि सत्कृत्यथी जैनशासननी उन्नति करी "शुं बाते चक्रवर्ती ने ? के वासुदेव ? अथवा तो पृथ्वी उपर इंज पोतेज श्राव्यो डे ? के जेनी श्रावी उत्कृष्ट समृद्धि देखाय !" श्राम लोकोए योग्य अथवा अयोग्य रीते शंका करेलो ते पुण्यपाल “ महानायक" एवी म्होटी नामना पाम्यो. . अनुक्रमे तेणे सर्वे देश- उलंघन करीने पूर्वना अनेक संकेतवाली पोतानी जन्मनूमिरूप जहिल पुरनी सीमाने दीठी. पडी ते लाकडाना जारा वहेवारूप पोतानी पूर्व अवस्थाने वारंवार संजारतो बतो पोता Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. ना मित्रोनी बागल ब्रह्माथी पण न उलंघी शकाय तेवं कर्मनु विचित्रपणुं कहेवा लाग्यो. नदिल पुरनी नजीकमां तेणे पोताना संघनो पडाव करावीने थोडा बखतमां वैमानना समान एक नवो महेल चणाव्यो. त्यार पड़ी ते, एक थालमां जाणे गुणोज होयनी !! एम रत्नो मूकीने अरिकेसरी राजा पासे नेट श्रापवा गयो. अरिकेसरी राजा पण पुण्यपाले वर्णन करेला ते ते देशना आश्चर्यकारी समाचारथी बहु विस्मय पाम्यो, कह्यु के-जे पदार्थों राजाऊना जोवामां पण श्रावता नथी, तेवा पदार्थोनो परदेशमा मुसाफरी करनारा पुरुषो सहजमां अनुभव ले . पनी मंत्रीउना कहेवा उपरथी अरिकेसरी राजाए अव्य श्रापी पुण्यपाल पासेथी केटखाक हस्ती खरीदवा माग्या, एटले पुण्यपाले कह्यु. “ हे स्वामिन् ! म्हारे अव्य, शुं काम ? में ए सर्व श्रापना चरणमांज थर्पण कखु बे; माटे आप म्हारा उपर प्रसन्न थर म्हारे घेर पधारी म्हारा उपर अनुग्रह करो.” अरिकेसरी राजा पण कौतुकथी तेनो वैजव जोवामाटे थोडा माणसोना परिवार सहित पुण्यपालना संघमां गयो. त्यां ते जूदी जूदी जाषा बोलनारा तेमज विचित्र अलंकारोने धारण करनारा बने थामतेम कार्यने माटे जता श्रावता माणसोवाला वर्गसमान ते सार्थने जो आश्चर्य पाम्यो. पठी पुण्यपालनी विनंती उपरथी थरिकेसरी राजा न्हावाने माटे न्हावण करवाना मंडपमा जश् बाजोठ उपर बेठो. त्यां ते देवतानी समान उत्तम सामग्रीथी स्नान करी, सूक्ष्म रेशमी वस्त्रने पहेरी श्री जिनराजनुं पूजन करवामाटे मध्यमां रहेला देवगृहमा गयो. त्यां तेणे कपूर, कस्तूरी, अगुरूचंदन थने उत्तम स्तोत्रपाठश्री श्री जिन राजनी पूजा करी. पड़ी ते नोजनशालामा श्रावे बते सेवकोए सुवर्णना बाजोठ उपर रत्नना थालो मूक्या. पठी श्वेत वस्त्र तथा आभूषणो धारण करनारी को स्त्री जाणे देवीज होयनी ! एम पूर्वना छारमाथी श्रावीने राजाना आगल रहेला सुवर्णना थालमां फलो मूकी गश्. वली लीला वस्त्राचरणने धारण करनारी स्त्री दक्षिण धारथी निकलीने मनोहर रस. वती पीरसी गश्. तेमज पीला वस्त्राजरणने धारण करनारी स्त्री पश्चिम Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसुंदरी ने पुष्यपालनी कथा. १३ मां निकली तीमधुर पक्वान्न पीरसी गई. बेवट रक्तवस्त्राजरने धारण करनारी स्त्री दुध घी विगेरे पीरसीने चाली गइ ! रीते महा उत्तम रूपवाली चार स्त्रीने जो आश्चर्य पामेला श्ररिकेसरी राजाए पुण्यपालने पूब्धुं के, “ तमारे केटली स्त्रीर्ड बे ? " पुण्यपाले हास्यपूर्वक उत्तर थाप्यो " हे स्वामिन्! थापे जे धाखुं बे, ते तेमज बे. ” जोजन करी रह्या पढी राजा ने पुण्यपाल बन्ने जणा एकांते सुखी वातो करता दता, एवामां श्रवसरनी जाए गुणसुंदरी पोताना पिताए पोताने काढी मूकती वखते श्रापेलां वस्त्रोने धारण करी तुरत त्यां श्रावी. राजाए तेना यावा विलक्षणपणाने जोश्ने कयुं, “हे वत्से ! तुं व्हारा शणगारने धारण करी म्हारा खोलामां बेश. " गुणसुंदरीए तेम क एटले कर्मना फलने मानता एवा राजाए तेने कयुं, " हे पुत्री ! अवला मागे जता एवा मने तेंज सारो मार्ग देखाड्यो बे. वली दुष्ट एवा में जोजन वखते जूदा जूदा शणगारने धारण करी श्रावती तने उलखी पण नही.” हे वत्से ! श्रा पुण्यपाल कोण बे ?” राजाना वा प्रश्न गुणसुंदरीए पोतानी द्वारपालिनी ( दासी ) सामुं जोयुं, एटले ते दासीए पूर्वनो सर्व वृत्तांत राजाने कही संजलाव्यो. या वात नगरीमा फेलाइ तेथी मंत्री, सामंत ने अंतःपुरसहित नगरीना सर्वे लोको हर्षथी त्यां श्रववा लाग्या. जेना नेत्रमां हर्षनां श्रासुं वदेतां तां एवी गुणसुंदरीनी माता पण पोतानी पुत्रीने या लिंगनपूर्वक कड़ेवा लागी के, “ हे वत्से ! श्राजे तने मलवाथी मने बह दर्ष थाय बे, " धावमाता धने न्हानपणचीज साथै म्होटी घएली सखी पण गाढ ग्रहथी तेने वारंवार आलिंगन करवा लागी नगरनी स्त्रीउ गुणसुंदरीना धावा पूर्व वैजवने सांजली अत्यंत कोलाहल करती ती वीस्मय पामी पढी गुणसुंदरीए हर्षथी पोताना पिता ने सेवक वर्गेने वस्त्र, जरण अने तांबूल थापी बहु सत्कार कस्यो. बीजना चंद्रनी पेठे उत्साहथी जोवायला पुण्यपाले पण विनयथी मस्तक नमावीने पोतानां सासु ससराने प्रणाम करया. पढी सासरो ने जमाइ म्होटी संपत्ति थी इस्तीउपर बेसी परिवारसहित नगरमां चाव्या. रस्ते श्री वर्धमानसूरि धर्मोपदेश यापता हता, तेथी इष्ट छाने प Y Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ शीलोपदेशमाला. थ्य एवा ते धर्मोपदेशनी वात सांजली अरिकेसरी राजाए पोताना जमार पुण्यपालने कडं. “ हुँ तमारा वैजवने सांजली वैराग्यवासित थयो बुं, माटे विस्तारपूर्वक जिनधर्म सांजलवानी श्छा करुं बुं." पली सर्वे जणाए एकग थक्ष श्री वर्धमानसूरिना चरणने नमस्कार करी वैराग्यना कारणरूप श्री अरिहंत धर्मना महात्म्यने सांजल्यु. ते श्रा प्रमाणे॥ लक्ष्मीर्यशः कुलेजन्म, प्रतापः प्रियसंगमः॥ श्रीधर्मकल्पवृक्षस्य, फसमेत झिनोदितम् ॥ लक्ष्मी, यश, सारा कुलमा जन्म, प्रताप, प्रियनो संग ए सर्व श्रीधर्मरूप कल्पवृदनां फल ले एम श्री जिनेश्वर प्रजुए कह्यु जे. वली सूरिए अरिकेसरी राजाने कर्वा के, “हे राजन् ! था त्हारी पुत्रीए पूर्वजन्मने विषे उत्तम शीलवत पाल्युं हतुं, तेनुं था सर्व फल . श्रने ते अंते मोद पामशे. हे राजन् ! उःखरूप कहोलथी पूर्ण एवो आ संसार समुज अपार बे, माटे दीदारूप वहाणविना को तेने तरी शकतुं नथी.” मुनिनां आवां वचन सांजली राजाए कह्यु के, “ हुँ श्रापना चरणनोज आश्रय करीश. कारण के, म्होटा पुरुषोनो श्रादेश फक्त निरुद्यमी पुरुषोथीज पाली शकतो नथी." पड़ी थरिकेसरी राजा सूरिने कहीने पोताना नगर प्रत्ये गयो. त्यां दयावंत एवा तेणे बंधीवानोने बोडी मूकी पोताने पुत्र न होवाथी पोताना जमाइ पुण्यपालने राज्य श्राप्यु. त्यार पड़ी ते नूपति, याचकजनोने मनवांबित दान थापीने महोत्सवपूर्वक चारित्र अंगीकार करी तेने निष्कलंकपणे पालवा लाग्यो. पुण्यपाल राजा पण श्री जिनधर्मनी प्रनावना करतो तो न्यायथी राज्य करवा लाग्यो. " यौवन नाशवंत खजाववाढं बे, लक्ष्मी दणनंगुर ; अने आ देद पण शेकमो विघ्नवालो ने, माटे धर्मनेविषे बुद्धि करो." श्रावां पोतानी प्रिया गुणसुंदरीनां बोधकारक वचन सांजली पुण्यपाले पोताना पुत्र सुलोचनने राज्य सोप्यु. पड़ी ते बन्ने स्त्री पुरुषे महोत्सवपूर्वक चारित्र श्रादयुं. दीर्घकाल पर्यंत निरतिचारपणे चारित्रने पालता ते बन्ने जणा अनुक्रमे अक्षयसुखवाला मोक्षपदने पाम्यां. जे धीरपुरुषो शीलरूप माणिक्यने यत्नथी निरंतर पोताना हृदयने Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथा. विषे धारण करे , ते गुणसुंदरीनी पेठे श्रा लोकमां श्रने परलोकमां वांबित अर्थनी प्राप्तिथी हर्षवंत थाय ने. इति गुणसुंदरी अने पुण्यपालनी कथा. मोक्षसाधननां बीजां घणां साधनो बे, बतां पण शील उत्कृष्ट साधन डे ते कहे . देवः गुरुः च धर्मः व्रतं तपः गुप्तिः अवनिनाथोऽपि देवो गुरू ये धम्मो, वैयं तेवं गुत्ति-मवणिनादोविं॥ पुरुषः नारी अपि सदा शीलप्रवृत्तानि अर्धति पुरिसो नारीवि सया, सीलपवित्ताइं अग्छति ॥५॥ शब्दार्थ-(देवो के०) देव, (गुरू के) गुरु, ( धम्मो के ) धर्म, (वयं के०) व्रत, (तवं के०) तप, (गुत्तिं के०) गुप्ति,(अवणिनादो के०) पृथ्विनो नाथ-राजा, (अपि के०) नीखारी, (पुरिसो के०)पुरुष, (च के) श्रने (नारीवि के०) स्त्री पण. ए सर्वे (सया के) निरंतर (सी. लपवित्ता के०) शीलमा प्रवर्त्या सता (अग्धंति के०) पूजाय .॥५॥ - विशेषार्थः-शासन प्रवर्त्तावनार देव, धर्मनो उपदेश देनार गुरु, हेय उपादेय एटले त्याग करवा योग्य अने ग्रहण करवा योग्य वस्तुने जणावणार धर्म, दीक्षा अंगीकार करवा रूप व्रत, बाह्य अने धान्यंतर ए बार प्रकार, तप, मन वचन अने काय ए त्रण प्रकारनी गुप्ति, राजा नीखारी. धर्मने धारण करनार पुरुष तथा मोदना साधन नूत ज्ञान, दर्शन श्रने चारित्र रूप त्रण रत्नोने धारण करनारी स्त्री; ए सर्वे शीलमा प्रवर्त्या सताज निरंतर पूजाय . अर्थात् शील पालवाथीज म्होटाइने पामे के अने समतिमां जवाने योग्य थाय बे. ॥५॥ हवे बे गाथाएं करी बीजा पुरुषोने शीलमा प्रवर्त्ताववाने माटे 5. कारकारक होवाथी शीलथी व्याप्त थएला पुरुषोने कहे डे. दातृशिरोमणयः केके न भूताः जगति सत्पुरुषाः दायारैसिरोमणियो, केके ने दुआ जयंमि सँप्पुरिसा ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ शीलोपदेशमाला. केके न संति किंपुनः स्तोकाः धृतशीलनराः 'केके न संतिं किंपुंण, थोवैच्चिय धरियसीलनरा ॥ ६ ॥ षष्ठाष्टमदशमादि तप्यमानाः श्रपि खलु मदेसमाई तवर्माणावि तीव उग्रतपः नग्गतैवं ॥ अस्खलितशील विमलाः महामुनयः जगति विरलाः यस्क लिये सील विमला जैयंमि विरली महामुणिणो ॥ ७॥ युग्मम्. ॥ शब्दार्थ - ( जयंमि के० ) श्री जगतने विषे, गया कालमां (केके के० ) कोण कोण ( दायार सिरोमणिणो के० ) दातारोना शिरोमणी एवा ( सप्पुरिसा के० ) सत्पुरुषो ( न दुश्रा के० ) नथी थया ? अने व र्तमान कालमा पण (केके के० ) कोण कोण, दातारना शिरोमणि ( न संति के ० ) नथी ? अर्थात् गया कालमां घणा यया हता ने वर्त्तमान कालमा पण घणा बे. त्यारे ( किंपुण के० ) कोण थोडा बे ? तो h, ( धरियसीलन के० ) धारण करयो बे शीलनो जार जेमणे एवा सत्पुरुषो ( यो चि ० ) थोडा बे. ॥ ६ ॥ ( हु के० ) निश्चे (जयं मि के० ) या जगत्जे विषे ( मदसमाई के० ) बठ (बे उपवास ) श्र हम (त्रण उपवास ). छाने दशमादि (चार उपवासादिक) ( ० ) अतिशय (जग्गतवं के० ) उग्रतपने ( तवमाणावि के० ) तपता एवा पु-. रुषो घणा बे, परंतु ( रक लियसील विमला के० ) अखंडित शीलवते करीने निर्मल थला एवा ( महामुणि के० ) म्होटा मुनियो ( विरला के० थोडा बे ॥ ७ ॥ विशेषार्थ - या जगत्ने विषे गया कालमां जीवरक्षाने माटे पोताना जीवीतने ( देहने) तोली आपनारा एवा दातार शिरोमणि कोण कोण नथी था ? कयुं वे के - कर्णश्चर्म शिविमसं, जीवं जीमूतवाहनः ॥ ददौ दधी चिरस्थी नि, नास्त्यदेयं महात्मनाम् ॥ कर्णे पोताना चामडं, शिविए पोतानुं मांस, जीमूतवाहने पोताने जीव ने दधीचिए पोताना हाडकां यां बे. माटे महात्मा पुरुषो पासे कां न श्रापवायोग्य वस्तु नथी. वर्त्तमान कालमा पण कोण कोण नथी ? अर्थात् श्रा जगत्ने विषे गया कालमां बीजाने माटे (जीवरक्षानेमाटे ) पोताना प्राण आपनारा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. जीमूतवाहनश्रने दधीचि विगेरे सत्पुरुषो थइ गया अने वर्तमान कालमां पण घणा . त्यारे थोडा कोण ले ? तो के, अखंमित शीलवतना नारने धारण करनारा सत्पुरुषो थोडा . ॥ ६ ॥ श्रा जगत्ने विषे बे उपवास, त्रण उपवास, चार उपवास पंदर उपवास अने मासखमण ( एक महिनाना उपवास) विगेरे महा उग्रतप करनारा घणा पुरुषो ने, परंतु अखंमित शीलव्रते करीने पवित्र थएला महामुनियो थोडा . अर्थात् शीलवत पालवू घणुं कठण होवाश्री अखंडित शीलपालनारा सत्पुरुषो थोडाज होय . कयु के-थकाणसणी कम्माण मोदणी, तह वयाण बंजवयं॥गुत्तीण य मणगुत्ती चउरो पुकेण जिप्पंति॥ इंडियोमां रसेंजि जीतवी कठण , कर्ममां मोहनी कर्म जीत, कठण बे, व्रतमां ब्रह्मचर्य व्रत पालवू कठण जे अने गुप्तिमा मनगुप्ति संवरवी कठण जे. एम ए चारे कुःखे जीताय . माटे तपखिउँमां पण निर्मल शील पालनारा थोडा होय . ॥७॥V तेज वात लौकिक शषिना दृष्टांतथी देखाडता सता कदे बे. यत् लोकेऽपि श्रूयते निजतपोमाहात्म्यरंजितजगतोऽपि जं लोएवि सुणिजार, नियतवमाप्परंजियजयावि॥ वैपायनविश्वामित्रप्रमुखशषयोऽपि प्रजृष्टाः दीवायविस्सामि-त्तपमुदरिसिणोवि पहा॥॥ शब्दार्थः- (जं के० ) जे ( लोएवि के० ) लोकने विषे पण ( सुणि. जार के) संजलाय , (निय तव मादप्परं जिय जयावि के०) पोताना तपना माहात्म्ये करीने रंजन कमु डे जगत् जेमणे एवाय पण ते ( दीवायण विस्सामित्त पमुह के०) दैपायन अने विश्वामित्र प्रमुख (रिसिणोवि के०) झषियो पण शील थकी (पप्रज्ञा के०) चष्ट थया !॥॥ विशेषार्थ-खाखरानां सूकां पांदडां, शेवाल श्रने पाणीथी शरीरनो निर्वाह करनारा तथा पोताना तपना प्रजावधीत्रण जगत्ना जनोने रंजन करनारा एवा जे द्वैपायन अने विश्वामित्र झषियो विगेरे लोकने विषे संनलाय बे, ते ऋषियो पण स्त्रीऊना कटाकथीत्रांति पामीने शीलथी ज्रष्ट थया ले. अर्थात् एवा म्होटा ऋषि पण शीलवत पालवामां असमर्थ थया .॥॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ शीलोपदेशमाला. म्होटा म्होटा शषि पण शीलथी नष्ट थएला बे, ते उपर द्वैपायन शषिनी श्रने विश्वामित्र ऋषिनी कथा. आ जरतदेत्रने विषे हस्तिनापुर नगरमां पांडवोनो पूर्वज शांतनुनामे राजा राज्य करतो हतो. प्रजानुं पुत्रनी पेठे पालन करतो एवो ते मृगया रमवामां घणी प्रीतिवालो होवाथी एक दिवसे तेणे मृगया रमतां रमतां एक हरिण, जोडं दी. राजाए पोतानो घोडो ते हरिणनी पाउल दोडाव्यो, तेथी ते हरिण अने हरिणी बन्ने कोश् म्होटा वनमां नासी गयां अने राजा पण तेनी पाउल गयो. त्यां तेणे महावनमां एक म्होटो सात मालनो महेल दीगे. पड़ी घोडाने नीचे राखी पोते जेवो सातमा माल उपर चडे बे, तेवामां राजाए एक महारूपवंती कन्या हाथमां पाणीथी जरेलो कलश लश्ने पोतानी सामे श्रावती दीनी. कन्याए श्रासन थापी राजाने घणो विनय करी पाणी पाश्ने संतोष पमाड्यो. त्यारे राजाए पूज्युं के, “हे सुजगे! तुं कोण जे ? कोनी पुत्री डे अने श्रा स्थानके केम रहे बे.” कन्याए उत्तर थाप्यो के, “हे राजन् ! हुं जन्हु नामना विद्याधरनी दीकरी बुं. म्हारूं नाम गंगा . एक वखते म्हारा पिताए पोताने त्यां श्रावेला जोशीने पूज्युं के, “श्रा पुत्रीनो वर कोण थशे?" त्यारे ते जोशीए कह्यु के, “श्रा तमारी पुत्री गंगाने “वनमां" वरनी प्राप्ति थशे.” जोशीनां एवां वचन सांजली म्हारा पिताए श्रावनमा सात मालनो महेल चणावी मने अहिं मूकी ने, अने जोशीए कहेलां वचनो श्राज तमारा मेलापथी सफल थयां .” ___ कन्यानां श्रावां अमृतसरखां वचनो सांजली शांतनु राजा तेने त्यांज गांधर्व विवाहथी परणी म्होटी स्वारीश्री पोताना नगरमां लाव्यो. पड़ी शब्दादिक पांच प्रकारनां विषयसुख जोगवतां ते गंगाने एक पुत्र थयो. तेनुं गांगेय एवं नाम पाड्यु. शुक्लपक्षनी बीजना चंडमानी पेठे ते गांगेय वृद्धि पामवा लाग्यो भने महोतेर कलानो अभ्यास करी पोताना मामानी पासे धनुर्विद्या शीखवा लाग्यो. _हवे हस्तिनापुर नगरनीपासे यमुना नदीने कांठे एक पारासर नामनो कृषि तप करतो हतो. त्यां मंगंधा नामनी एक घणा स्वरूपवाली १ आ मछगंधानां ( मवगंधा, सत्यवती अने योजनगंधा ए ) त्रण नाम हतां. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २॥ दैपायनी कथा. धीवरनी पुत्रिने जोर ते शषिए ध्यानमांथी चूकी तेनी साथे विषयसुख जोगव्यु, तेथी केटलेक दिवसे तेने एक पुत्र थयो. तेनुं द्वैपायन एवं नाम पाड्यु. द्वैपायन म्होटो थयो एटले ते तापसी दीक्षा ल तप करवा लाग्यो. . हवे एक वखते शांतनु राजा मृगया रमवा माटे नावमां बेसी यमु. ना नदीने सामे कांठे गयो. त्यां तेणे घणा खरूपवाली धीवरनी पुत्री सत्यवतीने देखी तेना पिताने कयु के, “श्रा त्हारी पुत्री मने श्राप," धीवरे कडं. “ हे राजा ! मने तमारा सरखो जमाश् क्याथी मले? प. रंतु तमारे गांगेय नामनो पुत्र ने, तेथी म्हारी पुत्रीना पुत्रने राज्य मले नहि; पण जो तमे मने एवं वचन श्रापो के, “ हुं हारी पुत्री सत्यवतीना दीकराने राज्य थापीश, तो हुँ तमने म्हारी पुत्री परणावं.” धी. वरना एवां वचनो सांजली खेद पामेलो राजा पोताना नगरमां गयो, परंतु-कोश्नी साथे राज्यसंबंधी वातचित के, जोजन पण करे नहीं. था वात गांगेयना सांजलवामां श्रावी के, 'राजा धीवरनी पुत्री सत्यवतीने माटे चिंता करे .' पठी गांगेये पोताना पिता शांतनु राजाने धीवरनी पासे लश् जर तेनी सत्यवती पुत्री मागी श्रने धीवरने एईं वचन श्राप्यु के, “ हुँ त्हारी पुत्रीना पुत्रने राज्य पापीश अने हुँ पोते ब्रह्मचारी बु.” गांगेयनां ावां साहस नरेलां वचनोथी संतुष्ट थ देवताउए जयजय शब्द बोली पुष्पनी वृष्टि करी. तेमज तेनुं चिष्म एवं नाम पाड्यु. __ पड़ी धीवरे पोतानी पुत्री सत्यवती शांतनु राजाने श्रापी अने जिष्मने कडं के, “ एक दिवस में यमुनाने कांठे था कन्याने जोश हती. देवताउँए ए रत्नांगदनी पुत्री सत्यवती बे एम कर्यु. ढुं पुत्रविनानो हतो, तेथी में तेने प्रेमथी पाली." अनुक्रमे शांतनु राजा तेने परण्यो भने तेने परस्पर प्रेमवाला एक चित्रांगद अने बीजो चित्रवीर्य एवा बे पुत्रो थया. हवे ते बन्ने पुत्रो ज्यारे सर्व कलाउनो थान्यास करी यौवनावस्थामा श्रावी राज्य योग्य थया, त्यारे शांतनु राजा मरण पाम्यो. पनी गांगेये चित्रांगदने राज्य थाप्यु. त्यार पड़ी केटलेक वर्षे निलांगद नामना शत्रुनी साथे युद्ध करतां ज्यारे चित्रांगद Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. मृत्यु पाम्यो, त्यारे गांगेये चित्रवीर्यने गादीए बेसास्यो. ते चित्रवीर्य पण पोतानी अंबिका अंबालिका, अने अंबा नामनी त्रण स्त्री साथे संसारसंबंधी जोग नोगवतो अने प्रजानुं पालन करतो पुत्र विनाज दयरोगथी मृत्यु पाम्यो. हवे गांगेये विचार कस्यो के, “म्हारे म्हारा नाना वंशनी वृद्धि करवी जोश्ए, परंतु हुं तो ब्रह्मचारी बुं तेथी म्हारे तो शास्त्रमा कह्याप्रमाणे पृथ्वी विगेरे त्रण स्त्री जे. तेथी ते स्त्री कांश कामनी नथी; माटे पाराशर ऋषिना पुत्र (वैपायन ) जे एक मासना उपवासरूप तप करीने पारणाने दिवसे सूकी शेवाल अने खाखरानां सूकां पांदडांगें नक्षण करीने पली बीजा महिनाना उपवासरूप महा तप करे , ते छैपायन ऋषि पासे म्हारा नाश चित्रवीर्यनी स्त्रीने मोकबुं.” एवो विचार करी चित्रवीर्यनी स्त्री अंबिकाने बोलावीने कडं के, “तुं वस्त्ररहित थश्ने पाराशर रुषिना पुत्र द्वैपायन, जे यमुना नदीने कांठे तप करे , त्यां तेमनी पासे जा.” एटले अंबिकाए विचार कस्यो के, “ ए तो म्हारो जेठ थाय, तो वस्त्ररहित थर म्हाराथी तेमनी पासे केम जवाय ? " एवो विचार करी ते वस्त्ररहित करेला पोताना देदने सूखड श्रने केसर विगेरे चोपडी द्वैपायन ऋषि पासे गश्. द्वैपायन पण तेना उपर मोहित थर श्रादर करीने बोल्यो के, “ हारे पुत्र थशे, पण ते कोढि थशे.” बीजे दिवसे गांगेये अंबालिकाने मोकली. ते पण लाजथी पोतानी श्रांखे पाटो बांधीने गश्. तेथी तेने पण द्वैपायने कह्यु के, “ त्हारे पुत्र थशे, पण ते बांधलो थशे." वली त्रीजे दिवसे गांगेये अंबाने मोकली पण तेणे तो लाजथी न जतां पोतानी दासीने मोकली. त्यारे द्वैपायने कडं के, “ एने दासीपुत्र थशे." पड़ी ते त्रणे जणीउँने अनुक्रमे १ पांडु, २ धृतराष्ट्र श्रने ३ विपुर एवा त्रण पुत्रो थया. जुर्ड के, ते वैपायन ऋषि महा उग्रतपने करनारा हता, तो पण ते स्त्रीना संगथी पोतानुं शीलवत चूक्या. माटे विषय मदा पुर्जय . कडं बे के-कानीनस्य मुनेः स्वबांधववधूवैधव्यविध्वंसिनो, नप्तारः किल तेपि गोलकसुताः कुंमाः स्वयं पांमवाः॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वामित्रनी कथा. किं चैतेऽपि समानजातय इति प्राप्ताः समुत्कीर्तनं, तेषां पावनमाः कथं नु विषमा धर्मस्य सूक्ष्मा गतिः॥१॥ इति द्वैपायनषिनी कथा. क्षत्रिकुलमां आजूषण समान गाधी राजाने विश्वामित्र नामे पुत्र हतो. तेणे वशिष्ठ ऋषिनी बराबरी थवा माटे तापसी दीक्षा लीधी. पड़ी ते सूकार गएला खाखरानां पांदडां श्रने शेवाल- नदण करी सूर्य सामी दृष्टि करीने महा उग्रतप करवा लाग्यो. एवी रीते महा उग्रतप करवाथी विश्वामित्रने अनेक प्रकारनी शक्ति प्राप्त थइ. विश्वामित्रनी ___ * एक वखते कोइ पतित माणसे वशिष्ठ ऋषि पासे श्रावीने कडं के, “मने यज्ञ करावो.” शषिए कह्यु “तुं पतितनो दीकरो बुं माटे तने यज्ञ नहि करावं.” त्यारे ते माणसे विश्वामित्र पासे जइ प्रार्थना करीने कर्वा के " महाराज, मने यज्ञ करावो.” त्यारे विश्वामित्रे "शुं एकलो वशिष्ठज यज्ञ कराववाने समर्थ के ? अने बीजा नथी?" एवो गर्व करी तेने यज्ञ कराववानी हा कही यज्ञनी सामग्री जेगी करी बीजा शषिउने बोलावी यज्ञ कस्यो. तेमां वशिष्ठने पण बोलाव्या हता, परंतु ते आव्या नही. पनी विश्वामित्रे ते यज्ञ करनार माणसने कह्यु के "तुं आ देहे स्वर्गमा जा." एटले ते माणस तेज देहे स्वर्गमां गयो. ते माणसने देखी देवताए लेगा श्रश् इंजने प्रार्थना करीने कडं के, “ हे महाराज! आपणा स्वर्गलोकमां विश्वामित्र नामना शषिए मोकलेलो कोश् अधम माणस आव्यो ने, तेने पागे मृत्युलोकमां मोकलो; कारण के, ते स्वर्गमा रहेवाने योग्य नथी.” पनी इंजे विश्वामित्रे मोकलेला अधम माणसने कह्यु के, "तुं मृत्युलोकमां पागे जा." एम कहेवाथी ते विश्वामित्र पासे पागे आव्यो एटले विश्वामित्रे तेने फरीथी स्वर्गमां मोकट्यो. त्यारे इंजे ते अधम माणसने कह्यु के, “तुं मृत्युलोकमां पागे जा, नहि तो त्हारूं मस्तक कापी नांखीश." एटले ते माणसे फरीने विश्वामित्र पासे आवी इंजे कहेली हकिकत कही संनसावी. इंजे कहेली हकिकत सांजली विश्वामित्रने देवताउंनी साथे वैर उत्पन्न अयुं. पनी विश्वामित्रे गर्व करी पोताना तपना बलथी नवी सृष्टि करवा मांडी. ते वखते देवता लेगा थश्ने विचार करवा लाग्या के, “विश्वामित्र ब्रह्माए स्थापन करेली सृष्टिने जनापन करीने पोतानी नवी सृष्टिने स्थापन करे , माटे विश्वामित्रनी सृष्टिमां आपणे मेघ न वरसाववो.” एम विचारी तेत्रीश कोडे देवताउए लेगा थक्ष विश्वामित्रे करेली नवी सृष्टिमां मेघ वरसाववो बंध कस्यो. विश्वामित्रे कूवा बनावी पृथ्विमांथी पाणी काढ्यु. आम करतां करतां ज्यारे देवताए गायोने उध देती बंध करी, त्यारे विश्वामित्रे नेशो करी अने माणसो पण नवा करवा मांड्या. ते माणसोने मस्तकने ठेकाणे नालिएर कस्यां, गतीने ठेकाणे कोहोलुं कां अने हाथने ठेकाणे दूधी करी. आवी रीते विश्वामित्रे करेली नवी सृष्टिने जो देवताउँए जय पामी शषिनी घणीज स्तुति करी, त्यारे विश्वामित्रे करवा मांडेली नवी सृष्टि बंध करी. इति विश्वामित्रनी शक्तिनी कथा.. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. तपथी प्रगट थएली शक्ति जो सौधर्मापति इंश पण जयपामी विचारवा लाग्यो के, “था शषि तपनां बलथी म्हारी इंजनी पदवी लश् ले. शे. माटे श्राने कांश पण उपाय करीने तपथी नष्ट करूं" ! ! एम विचारी इंजे मेनका नामनी देवकन्याने बोलावीने करघु के, “ हे मेनका! तुं विश्वामित्र ऋषिने तपथी ब्रष्ट कर" पड़ी मेनकाए इंजनी थाज्ञा मान्य करी विश्वामित्रना थाश्रममां श्रावीने वसंतऋतुने बोलाव्यो एटले अढारनार वनस्पति प्रफुल्लित थ थांबाने म्होर श्राव्यो, नवा प वो फूटवा लाग्या, कोयलो टहुका करवा लागी, जमराउँए ऊकार शब्द करवा मांड्यो भने मलयाचलनो पवन वावा लाग्यो. पड़ी मेनकाए सोल प्रकारना शृंगार सजी, कोयलना जेवी मधुर वाणीथी पंचम राग गातां पोतानुं स्वरूप देखाडतां सतां हाव-नाव अने कटाद बाणने फेंकी विणा वगाडतां सतां ऋषिनी श्रागल नृत्य करवा मांड्युं अने जाणे शषिना अंगने स्पर्श करती होयनी ! तेम चेष्टा करवा लागी. श्राम करवाथी विश्वामित्र ध्यानमांथी चूक्यो, मन विव्हल थयु अने ते जेटलामां नेत्र उघाडीने जुए बे, तेटलामां तो कामदेवे तेने पोताना बाणथी विधी नांखी बिन्नबिन्न करी नाख्यो. पनी नाश पाम्यो डे विवेक जेनो श्रने कामदेवथी विव्हल थयुं मन जेनुं एवा विश्वामित्रे तपनी क्रिया बोडी दर तेने कंठे पकडी नवशे शित्तोतेर वर्ष उ महिना अने त्रण दिवस सूधी मेनकानी साथे विषयसुख जोगव्यु. जेथी सर्व प्रकारनुं तप अने ध्यान नाश पाम्युं !!! कह्यु डे के- सुगुप्तानामपिप्राय इंडियाणां न विश्वसेत् । विश्वामित्रोऽपिसोत्कंठः, कंठे जग्राह मेनकाम् ॥ बहु वश्य थएली एवी पण इंजियोनो घणुं करीने विश्वास करवो नहीं, कारण विश्वामित्र जेवाए पण मेनकाने कंठने विष पकडी. जेणे क्षत्रिय कुलमा जन्म पामी महा उग्रतप करी अनेक प्रकारनी शक्ति मेलवी हती, ते विश्वामित्र दीपायन, जमदनि श्रने रेणुका विगेरे महा कृषि पण शीलवतथी व्रष्ट थया बे. जेथी शीलव्रत पालवू घणुंज पुष्कर जे. इति विश्वामित्र ऋषिनी कथा. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. २३ हवे मिथ्यात्वी साधु तो दूर रह्या, परंतु धर्मतत्व जाणनारा पुरुषोने . पण शील पालवू कठण डे ते कहे . जानंति धर्मतत्वं कथयति जावयंति लावनाः च जाणंति धम्मतत्तं, केदति नविंति नावणाय॥ लवकातराः अपि शीलं धृत्वा पालयंति नो प्रवराः नवकायरावि सोलं, धरिन पोलंति 'नो पर्वरा ॥ए॥ - शब्दार्थ-(पवरा के ) उत्तम कुलमा उत्पन्न थएला अने (जवकायरावि ) संसारे करीने कायर थएला एवाय पण संसारी जीवो (धम्मतत्तं के०) धर्मना तत्त्वने पोते (जाणंति के०) जाणे ने श्रने बीजानी थागल ( कहंति के० ) कहे जे (च के०) वली (नावणा के०) अनित्यादि बार नावनाउँने पण (जावंति के०) नावे बे, परंतु (सील के०) शीलवतने (धरि के०) धारण करीने ( नोपालंति के )नथी पालता ? ॥ए॥ विशेषार्थ- वारंवार जन्म धारण करवारूप नवे करीने कायर थएला घणा उत्तम कुल जातिवाला संसारी जीवो जिनेश्वर नगवाने कहेला धर्मतत्वने जाणे बे, बीजाउनी बागल ते तत्वनो उपदेश करे ले श्रने श्रनित्यादि बार प्रकारनी नावनाईने पण नावे जे; परंतु ते श्रखंमित शीलवतने धारण करीने पाली शकता नथी. अर्थात् ते सिंहनी पेठे चरित्र लश् तेने पालवामां शीयालनी पेठे अधीरा बनी जाय डे श्री डाणांगसूत्रना चोथा गणामां चार प्रकारना पुरुष कह्या २ ते था रीतेकेटलाएक सिंहनी पेठे व्रत लश्ने सिंहनी पेठे पाले बे, केटलाएक सिंहनी पेठे व्रत लश्ने शियालनी पेठे पाले बे, केटलाएक शियालनी पेठे व्रत लश्ने सिंहनी पेठे पाले जे अने केटलाएक शियालनी पेठे व्रत लश्ने शियालनी पेठे पाले बे. ए चार नांगामा पहेलो भने त्रीजो जांगो श्रेष्ट डे तेमज बीजो अने चोथो नांगो श्रादरवा लायक नश्री. ए॥ हवे सर्व धर्मथकी शीलवत पालवू कठण , ते कहे . __दानतपोजावनादिधर्मेन्यः सुष्करं शीलं . दाणतवनावणाई-धम्मादितो सुँक्कर सीलं ॥ इति ज्ञात्वा नोजव्याः अतियत्नं कुरुत तत्रैव श्य जाणिय नोव्वा, अर्जत्तं कुण तँबेव ॥१०॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. शब्दार्थ-(जोनवा के० ) हे जव्यजीवो ! (दाणतवजावणाई के०) दान, तप, श्रने जावनादिक (धम्माहिंतो के०) धर्म थकी पण (सीलं के) शील जे , ते ( सुकर के०) घणा फुःखथी पण पाली न शकाय एवं डे. (श्य के० ) ए प्रकारे ( जाणिय के०) जाणीने ( तठेव के०) ते शीलने विषेज (अजत्तं के०) अतिशय यत्न ( कुणह के०) करो. अर्थात् ते शील पालवामां अतिशय उद्यम करो.॥ १० ॥ विशेषार्थ- अजय, सुपात्र, अनुकंपा, उचित अने कीर्ति ए पांच प्रकारनां दान; अनशन, उनोदरी, वृत्तिसंदेप, रसपरित्याग, कायक्लेश अने इंजियपडिसंलिनता एक प्रकारे बाह्य तप तेमज प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान अने कायोत्सर्ग ए उ प्रकारे अत्यंतर तप मली बार प्रकारनुं तप अने अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, श्रशुचि, श्राश्रव, संवर, निर्जरा, लोकसरूप, सुबोधि श्रने जिनधर्म ए बार प्रकारनी नावना विगेरे धर्मश्री पण शीलवत पालवू घणुं पुष्कर . कह्यु के, नावनादान क्षणवार के तपनी स्थिती पण नियमित डे परंतु शीलवत यावडिव पर्यंतनुं होवाथी ते पालवं पुष्कर जे. एम जाणीने हे प्राणीयो ! तमे ते व्रत पालवामांज उत्कृष्ट श्रादर करो. पण “शील पाल, तो पुष्कर .” एम जाणीने मूकी देशो नही. ॥ १० ॥ हवे ते शीलनुं प्रमाण कहे . तत् दानं सः च तपः सः नावः तत् व्रतं खलु प्रमाणं ते दाणं सो य तेवो, सो नावो तें वयं खल पमाणं ॥ यत्र ध्रियते शीलं अंतररिपुहृदयनवकीलं जैन धरिङ सोलं, अंतररिजहिययनवकीलं ॥११॥ - शब्दार्थ- (खबु के०) निश्चे ( तं दाणं के० ) ते दान, (सो तवो के०) ते तप, ( सो नावो के) ते नाव, (य के०) अने (तं के ) ते व्रत, ( पमाणं के०) प्रमाण ने के, (जल के०) जे दानने विषे, जे तपने विषे, जे नावने विषे अने जे व्रतने विषे (अंतररिजहिययनवकील के०) राग द्वेषरूप अंतरंग शत्रुना हृदयने उखेडी नांखवाने खीला समान एवा ( सील के०) शीलव्रतने, (धरिजाश के०) धारण कराय . ॥ ११ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारदनी कथा. विशेषार्थ-जे दान, जे तप, जे नाव अने जे व्रतने ग्रहण करवामां रागद्वेषरूप पोताना अंतरंगशत्रुना हृदयने उखेडी नांखवाने नवा खीलासमान एवा शीलव्रतने विद्वान पुरुषो धारण करे बे; तेज दान, तेज तप, तेज नाव अने तेज व्रत प्रमाण गणाय ने. अर्थात् शीलरहित दान, तप, नाव श्रने व्रत कस्यां बतां पण न कस्यां जेवां थाय . ॥११॥ हवे अतिचाररहित पालेला शीलनुं माहात्म्य कहे जे. कलिकारकोऽपि जनमारकोऽपि सावद्ययोगनिरतोऽपि कलिकारनवि जेणमा-रवि सोवळजोगनिरऽवि ॥ यत् नारदोऽपि सिध्यति तत् खलु शीलस्य माहात्म्य जं नारवि सिंघ, तें खलु सीलस्स मादप्पं ॥१२॥ शब्दार्थ-( कलिकारवि के) क्वेशने करावनारो एवोय पण तथा (जणमारवि के०) मनुष्योने मरावनारो एवोय पण अने (सावज जोगनिरवि के०) सावद्य योगमां एटले पाप योगमां व्याप्त थ रहेलो एवोय पण ( नारवि के०) नारद जे , ते पण (जं के०) जे कारण माटे (सिस के०) सिझ थयो ने एटले मोदने पाम्यो बे, (तं के) ते (खलु के०) निश्चे (सीलस्स के०) शीलनु (माहप्पं के०) माहात्म्य . ॥१२॥ विशेषार्थ-परस्पर एक बीजाने क्वेश करावनार, युक विगेरे करावी मनुष्योने मरावनार, परस्त्रीनां हरण करावनार अने शोक्योना संयोग तथा वियोग करावनार इत्यादि पाप व्यापार करवामां आसक्त एवो नारद ऋषि, मोदने पाम्यो ; ते एक अखंमित शील पालवानुज माहात्म्य . अर्थात् बीजा सघला व्रतने त्यजी देनार नारद मोक्ष पाम्यो ते निश्च शीलनो प्रत्नाव जे. ___ ज्यां त्यां क्लेश करावनार नारद पण शील पालवाथी मोहने पाम्यो बे, ते उपर नारदनी कथा. ___ सुवर्णमय एवी छारका नगरीने विषे वसुदेवना पुत्र श्रीकृष्ण पोताना म्होटा लाई बलदेवसहित राज्य करता हता. तेमने सत्यनामा नामनी पट्टराणी हती. तेनी साथे श्रीकृष्ण पांच प्रकारना विषयसुख जोगवता हता. एक दिवस क्लेश कराववामां कुतूहलवाला अने सूर्य स Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ शीलोपदेशमाला. मान कांतिवाला नारद ऋषि श्राव्या. नारदने श्रावता जोइ श्रीकृष्णे बलभद्रसहित सामा जइ पंचांगे प्रणाम करी श्रासन उपर बेसारीधन वस्त्रादिकथी तेमनो सत्कार कस्यो. नारद त्यां एक क्षणमात्र रहीने पढी श्रीकृष्णना अंतःपुरमां गया. ते वखते सत्यनामा शृंगार सजी रिसामा पोतानुं मुख जोती जोती सखी साथे वात करती हती, तेथी तेणे पोताने त्यां श्रावेला नारदने दीठा नहि, तेमज जक्तिथी बहुमान पण दीधुं नही, जेथी नारदना मनमां विचार थयो के, 'जो मने देवतार्ज अने इंद्र सरखा पण माने बे, तो मनुष्यो माने तेमां तो आश्चर्य शुं ? परंतु या सत्यनामा श्रीकृष्णनी मानीती होवाथी ने धन यौवनना गर्वथी म्हारा सामुं पण जोती नथी, तेथी कोइपण उपायथी म्हारे तेनो गर्व उतारवो जोइए ! सत्यनामानो गर्व उतरवा माटे उपायनो विचार करतां नक्की थयुंके, " जो तेना उपर शोक्य होय, तोज तेनो गर्व उतरे. ते शिवाय तेनो गर्व उतरे तेम नथी; माटे म्हारे नक्की तेना उपर शोक्य लाववीज. " वो विचार करी जेने परस्पर क्लेश कराववो बहु प्रिय बे, एवा ते नारद त्यांथी आकाशमार्गे थइने कुंकिनपुर नगरमां श्राव्या. ते नगरमां रुक्मी नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने घणीज स्वरूपवान ने जोवन अवस्थामां आवेली रुक्मिणी नामनी बहेन हती तेनी पासे नारद श्राव्या. रुक्मिणीए नारदने श्रासन थापी बहुमान देइ संतोष पमाड्यो त्यारे नारद आशीष दइने बोल्या के, " हे वत्से ! तुं त्रण खंमना जोक्ता श्रीकृष्ण वासुदेवनी स्त्री थजे. " एटले तेज वखते रुक्मि ए नारदने पूj. " हे नारद! ते श्रीकृष्ण कोण बे ? केवा बे ? ने क्या बे ? ते कहो. " नारदे श्रीकृष्णना रूप गुण ने सौनाग्यनुं वर्णन कर एटले ते रुक्मिणी श्रीकृष्ण उपर घणीज आसक्त थइ. नारदे फरुक्मिणीने युं. " हे पुत्री ! तुं चिंता न करीश. व्हारो जर्तार श्रीकृष्णज थशे. " पढी चितारा पासे पट्ट उपर रुक्मिणीनुं रूप चितरावी नारद ऋषि द्वारका नगरीमां श्रावी फरीथी श्रीकृष्णने मल्या. श्रीकृष्णे नारदने बहुमान पीने पूaj के, " हे नारद! तमे पृथ्विीमां कां कौतुक दीतुं Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज नारद कथा. होय, अथवा कोई आश्चर्यकारक वार्ता सांजली होय ते कहो.” श्रीकृष्णनां एवां वचन सांजली पोते धारेवु काम पार पडवानो समय जाणी नारदे रुक्मिणीनुं पट्ट उपर चितरेवु रूप श्रीकृष्णने देखाड्यु. ते जोश्ने ज्यारे श्रीकृष्णे नारदने पूज्यु के, " हे नारद ! था रूप ते कोश मनुष्यनुं ले ? के देवांगनानुं ?" त्यारे नारदे रुक्मिणीनी सर्व वात कहीने कडं के, “ हे श्रीकृष्ण ! वधारे शें कहुं ! ज्यारे तमे रुक्मिणीने परणशो, त्यारेज तमारो जन्म सफल थशे !! ज्यांसुधी ए स्त्रीरत्न तमारे घेर नथी श्राव्यु, त्यांसुधी हुं तमारो जन्म निष्फल मानु बुं !!!" नारदनां एवां वचनो सांजली रुक्मिणीनुं रूप जो अत्यंत प्रीतिवाला थएला श्रीकृष्णे नारदने कयु के, " हे नारद तमे जेम रुक्मिणी म्हारे घेर श्रावे, तेम करो. दे नारद ! जेम कल्पवृक्षनी सेवा निष्फल थती नथी, तेम तमारी श्रागल करेली प्रार्थना पण निष्फल नहिज थाय.” नारदे कह्यु. "हे श्रीकृष्ण ! हुं एवो उपाय करीश, के जेथी तमारा मनोरथ सफल थशे, पण एक वखत तमे रुक्मिणीनी मागणी करो." नारदनां एवां वचन सांजली श्रीकृष्णे कुंमिनपुर नगरना रुक्मी राजा पासे दूत मोकली रुक्मिणीनुं मायुं कडं. त्यारे रुक्मी राजाए रीश चढावी दूतने कां के, “ शुं हुं म्हारी बहेन गोवालियाना पुत्र कृष्णने श्रापुं ? ना ना! म्हारी व्हेन तो में म्होटा कुलवंत एवा शिशुपाल राजाने श्रापी बे; माटे जा त्हारा श्रीकृष्णने कहेजे के, म्हारी बहेन रुक्मिणीनी त्हारे जरा पण श्राशा राखवी नही; कारण के रत्न तो सुवर्णनी सायेज शोने , पण पीतलनी साथे शोजतुं नथी. एम कही दूतने अपमान करी पाने काढ्यो.. ___ा सर्व वात रुक्मिणीनी फोर सांजलती हती, तेथी तेणे रुक्मिपीने कडं के, " त्हारा ना रुक्मी राजाए तने शिशुपालनी साथे परणाववानो निश्चय कस्यो ." था वात सांजली रुक्मिणी घणोज खेद करवा लागी, त्यारे फोश्ए कडं. “ रुक्मिणी! अतिमुक्त मुनिए एम कडं ने के, “ रुक्मिणी श्रीकृष्णनी पट्टराणी थशे.” ए वात में खरेखरी सांजली. ते खोटी केम थाय ? परंतु था रुक्मी राजा तने शिशुपाल साथे परणाववायूँ कहे , तेमज श्रीकृष्णे दूत मोकलीने त्हारूं माणु Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. कलूँ, तो पण तेणे मान्यु नही; माटे हवे शुं थशे ? अक्तिमुक्त मुनिनुं वचन असत्य तो नज थाय.” फो श्रावी वात करती हती, एटलामां तो रुक्मिणीए नारद पासेथी शिशुपालना कुरूपनी वात प्रथम जाणी हती, तेथी ते पोताना नाइए तेनी साथे संबंध करेलो सांजली बहु खेद पामी, पडी फोए तेने झानीनी वाणी मिथ्या केम थाय. एम कही कृष्णने विषे श्रासक्त करी. रुक्मिणीनो आवो दृढ निश्चय जोश शिशुपालनी साथे लग्ननो दिवस श्रावतो जाणी फोइए एक बानो दूत श्रीकृष्ण पासे मोकलीने कहेवराव्यु के, “ में रुक्मिणीने तमारा साथे परणाववानो निश्चय करेलो ने अने रुक्मी राजा तेने शिशुपाल साथे परणावे , तेम लग्ननो दिवस पण आठमनो निश्चय करेलो ने, माटे तमे बानी रीते श्रामने दिवसे कुंमिनपुर नगरे श्रावजो श्रने हुं पण तेने (रुक्मिणीने) नागदेवतार्नु पूजन करवा माटे मध्यान समये उद्यानमां नागदेवताना मंदिरे लावीश, त्यां आपणे मलीशु.” पड़ी संकेत प्रमाणे श्रीकृष्ण थाउमने दिवसे बानी रीते कुंमिनपुर नगरे श्राव्या. श्रीकृष्णना नाश् बलजझे पण केटलुक सैन्य लश् कुंमिनपुरथी थोडेक दूर गुप्तरीते पडाव कस्यो. अहिं शिशुपाल राजा पण सर्व सामग्री तैयार करी घणुं सैन्य खेर कुमिनपुर नगरे श्राव्यो. त्यारे रुक्मी राजाए सामैयुं करी बगीचामां उतारो थाप्यो. पडी क्लेश कराववामां प्रीतिवाला नारदे श्रीकृष्ण पासे श्रावीने कडं के, " हे श्रीकृष्ण ! आज तमारो दाव आव्यो .” एटलामां तो रुक्मिणी फोश्ने साथे तेडीने संकेतस्थानके नागदेवतार्नु पूजन करवा माटे श्रावी. रुक्मिणीनुं रूप जोश्ने श्रीकृष्ण मनमां विचार करवा लाग्या के, “ नारदे जे रूपनुं वर्णन कयुं हतुं, तेथी पण आ अधिक रूपवाली .” एम विचारी प्रीतिथी तेने कयु के "हे लडे ! त्हारी फोना संदेसाथी अने त्हारी प्रीतिथी वश्य थएलो हुँ था दूर पंथे थावेलो बुं, तो हवे तुं वार न कर श्रने आ रथमां बेसी जा” पनी रुक्मिणी तुरत रथमां बेसी गश्. एटले श्रीकृष्णे रथने पवनवेगे चलाव्यो. . __पनी फो पोताना माथेथी बाल उतारवा माटे बूम पाडीने कदेवा लागी के, “ दोडोरे दोडो! था श्रीकृष्ण रुक्मिणीने बलात्कारथी हरण Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारदनी कथा. करीने लइ जाय बे. " त्यारे पोते प्रसिद्ध थवामाटे श्रीकृष्णे पोतानो पांचजन्य नामनो शंख वगाडी रथ घणोज उतावलो चलाव्यो. " पढी नारदे शिशुपाल पासे श्रावीने कयुं के, " हे शिशुपाल ! तने पेली रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण लइ जाय बे, तो पढी व्हारुं जीवितव्य शा कामनुं बे ? " श्रावी रीते जेम शिशुपालने कयुं, तेम रुक्मी राजाने पण कयुं. तेथी शिशुपाल ने रुक्मी राजा ए बन्ने घणुं सैन्य लइ श्रीकृष्णनी पाल चाव्या. पोतानी पाउल आवता घणा सैन्यने जोइ रुक्मिणी श्रीकृष्णने कथं के, “ हे प्राणनाथ ! आपणी पाठल चतुरंगी सैन्य आवे ने तमे तो वे जया बे, माटे हवे म्हारो अने तमारो नाश यशे तेथी तमे एम पण जाणशो के, श्रा रुक्मिणी म्हारा कुलनो दय करनारी थइ. रुक्मिणीनां वां कायर वचनो सांजली श्रीकृष्णे रुक्मिणीने क के, " हे प्रिये ! तुं जय न पामीश. " एम कही पोतानुं बल देखाडवा माटे एकज बाणथी एक म्होटा वृने तत्काल विंधी नांख्युं. पठी पोताना हाथनी वींटीमां जडेला हीराने अंगुठावडे दबावीने कपूरनी पेठे चूर्ण करी नाखी रुक्मिणीने कधुं के " हे प्रिये ! ए विचारानो म्हारी आगल शो जार बे ?” एटलामां तो श्रीकृष्णे सैन्यसहित रुक्मी राजाने ने शिशुपालने पोतानी पासे श्रवता दीठा. ते वखते बलदेव, शिशुपाल तथा रुक्मी राजाना सामे युद्ध करवा रह्या ने श्रीकृष्णे रुक्मिणीसहित अगल चालवा मांड्यु. रुक्मिणीए बलदेवने कयुं के, " हे बलदेवजी ! म्हारा नाइने जीवितदान देजो. " पी बलदेवे श्रीकृष्णने अने रुक्मिणीने द्वारका नगरीतरफ विदाय क पोते दल मूसली शत्रुनो नाश करवा मांड्यो. रणतूर वागवा लाग्यां ने अनेक सुटो पडवा लाग्याथी भूमि बहु जयंकर देखावा लागी. शिशुपाल बलदेव सामो युद्ध करवा श्राव्यो, तेने बलदेवे मूसल मायुं तेथी ते बगलाना मुखमांथी बुटेला माबलानी पेठे नासी गयो. ते वखते नारद युद्ध जोवा माटे श्राकाशमां बजा रही नृत्य करवा लाग्यो, अने शिशुपालने हसीने कड़ेवा लाग्या के, "हे शिशुपाल ! नासी जानासी जा" पी रुक्मी राजा युद्ध करवा आव्यो. तेथे बलजनी SJ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० शीलोपदेशमाला. सामां अनेक आयुको नांखवा मांड्या, त्यारे बलन एक तीक्ष्ण बाणवडे तेनां सर्व शस्त्रो अने दाढी मूड कापी नांखीने कयु के, " हे रुक्मी ! तुं म्हारा न्हाना नाश् श्रीकृष्णनी स्त्रीनो नाश् थाय ने, माटे तने जीवतो मूकुं ९.” पडी बलरहित थएलो ते रुक्मी, शरमने लीधे कुंडिनपुरनगरे नहि जतां त्यांज नोजकटक नामर्नु नगर वसावीने रह्या. हवे बलजले पण जीत मेलवीने कीर्तिस्थंन रोपी पाठा द्वारका नगरीए श्रावी श्रीकृष्णने सर्व समाचार कह्या. पड़ी श्रीकृष्णे रुक्मिणीने कडं के, “ हे प्रिये ! देवताए बनावेली श्रा धारकानगरीमां श्रने देवताउँए बनावेला बगीचावाला महेलमां देवांगनाऊनी पेठे त्हारा मननी श्या प्रमाणे सुखेथी रहे." श्रीकृष्णनां एवां वचन सांजली रुक्मिणीए श्रीकृष्णने कह्यु के," हे स्वामिन् ! जेम को पुरुष सेवकने पकडी लावे तेम तमे मने लाव्या बो, माटे हुं नथी जाणती के, म्हारो निर्वाह केवी रीते थशे? अने वली शोक्यनां हास्यवाला वचनो पण म्हाराथी शी रीते सहन करी शकाशे?" पठी जेम वसंत माधवीलताने (वसंतऋतुमा थएली वेलने) परणे तेम श्रीकृष्ण रुक्मिणीसाथे गांधर्व विवाहथी लग्न करीने तेने कर्वा के, " हे न ! हुँ तने सर्व स्त्रीयोमा मुख्य पट्टराणी करीश.” एम सांजली रुक्मिणी संतोष पामी. पबी तेज बगीचामां स्थापन करेली लक्ष्मीनी प्रतिमाने उपाडी नांखी ते ठेकाणे वस्त्रालंकार पदेरावी रुक्मिणीने बेसारी अने सत्यजामा श्रावे त्यारे लक्ष्मीनी पेठे स्थीर नेत्रो राखवानी ललामण करी श्रीकृष्ण धारका नगरीमा श्राव्या त्यारे सत्यजामाऐ पूज्युं के, “हे खामीन् ! तमे हरण करीने लावेली कन्या कोण ? थने ते क्यों ? ते मने कहो." कृष्णे कडं. “ हे प्रिये ! मधुवनमां लक्ष्मीन मंदिर दे, त्यां तेने राखी बे.” पली सत्यनामा पोतानी सर्व सखीउने साथे लश् शोक्यने जोवा माटे मधुवनमा रहेला लक्ष्मीना मंदिरे गश्. मंदिरमा जश् चारे तरफ जोवा मांज्यु, पण कोश कन्याने दीठी नही त्यारे लक्ष्मीने ठेकाणे बेसारेली रुक्मिणीने सत्यनामाए नूलथी पगे लागीने कडं के, " हे माता ! श्रीकृष्णे म्हारा उपर उत्तम रूपवाली शोक्य आणी बे, परंतु ते शोक्यथी जेम मने जरा पण उःख न थाय अने ते म्हारी सेवा करे तेम Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारदनी कथा. ३१ करी तमे म्हारा मनोरथ पूर्ण करजो. हुं तमारी मानता पूर्ण करीश.” एम कही फरीबी पगे लागी मंदिरमां चारे तरफ जोवा लागी, परंतु बेवटे ज्यारे कोइपण माणस देखवामां न श्राव्युं, त्यारे श्रीकृष्णपासे पाठी यावी श्रा प्रकारे कयुं. " हे धूर्तना शिरदार ! तमे म्हारी शोक्यने क्यां राखी बे ?” कृष्णे कयुं “ चाल, तने देखाडुं.” एम कही लक्ष्मी ने ठेकाणे बेठेली रुकक्मिणी ने देखाडी एटले सत्यनामाए श्रीकृष्ण उपर रीश चढावीने क के, " पाखंड तमे शीखव्यं ! जे हुं सर्वथी म्होटी तूं, तेम बतां तमे मने या म्हाराथी न्हानीने पगे लगाडी !! " श्रीकृष्णे हसीने कयुं. " बनने पगे लागतां कांइ दोष नथी ! अने तेज द्वारा सर्व मनोरथ पूर्ण करशे. " श्रीकृष्णनां एवां वचन सांजली सत्यनामा रीसाइ गइ. हवे तेवा समयमां पेला क्लेश करावनार नारदे क्यांहिथी श्रावीने सत्यामाने कथं के, " हे सत्यनामा ! तें म्हारी अवज्ञा करी हती, माटेज तने या शोक्यनुं संकट थयुं छे." पढी श्रीकृष्णे रुक्मिणीने सर्व स्त्री मां मुख्य पट्टराणी करी . जुर्ज श्रावी रीते परस्पर क्लेश करनारो अने माणसोने मरावनारो एवो नारद पण मोक्षगतिने पाम्यो बे. ते मात्र शीलनोज प्रभाव बे. माटे सर्व प्राणीए शील पालकुं. इति नारदनी कथा. शीलष्ट थपला दातार विगेरे पण मोहने नयी पामता ते कड़े बे. दातापि तपस्वी अपि खलु विशुद्धभावोपि शीलपरिभ्रष्टः दायवि तवस्सीवि ढुं, विसु-धजावोवि सीलपॅरिनठो ॥ न लमते शिवसुखं समं तस्मात् पालयत पुष्करं शीलं न लदेश सिसुदमर्समं, तीं पालदें डुक्कैरं 'सीलं ॥ १३॥ शब्दार्थ - (दु के० ) निश्चे ( सीलपरिजको के० ) शीलथी ऋष्ट थएलो एवो (दायापि के० ) दातार पण, तथा ( तवस्सी वि के० ) तपस्वी पणाने ( विसुद्ध जावोवि के० ) निर्मल जावने राखनार एवोय पुरुष पण ( समं के० ) जेनी तुल्य कोइ थइ शके नहि एवा (सिवसुदं Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. के) मोक्षना सुखने (न लहर के० ) नथी पामतो. (ता के०) ते कारण माटे, हे जव्यजीवो ! तमे ( उकरं के० ) पुष्कर एवा (सील के०) शीलने (पालह के०) पालो. ॥ १३ ॥ विशेषार्थ-निरंतर दान आपनारा दातार, बह अहमादि उग्रतप करनार तपखी श्रने निर्मल लाववालो प्राणी पण जो शीलथी व्रष्ट थयो होय, तो जेनी बराबर को यश् शकतुं नथी अर्थात् केवलज्ञानी पण जेनुं वर्णन करी शकता नथी एवा मोक्षसुखने ते नथी पामतो. ते कारण माटे मोदना अर्थि एवा हे जव्यजीवो ! तमे ते पुष्कर (कुःखे पाली शकाय) एवा शीलने पालो. ॥ १३ ॥ हवे बे गाथाए करी शील पाल कवण बे, ते कहे . दृश्यते अनेके उनखड्गविषमांगणे महासमरे दीसंति अणेगे ज-ग्गकग्गविसमंगणे महासमरे॥ जग्नेऽपि सकलसैन्ये माजीतिदायकाः धीराः नँग्गेवि सयलसिन्ने, मनीसादायणो धीरा ॥२४॥ दृश्यते . सिंहपौरुषनिर्मथनाः दलितमदकलगणाः च दीसंत सीदपोरिस-निम्महणा दलियमयगलगणा ये॥ मदनशरप्रसरसमये सपौरुषाः किंतु यदि केपि मयणसरपसरसमए,सप्पोरिसों किंतु जे किंपि॥१॥युग्मम् शब्दार्थ- ( उग्गकग्गविसमंगणे के०) उग्र खड्गे करीने विषम श्रांगणुं जेनुं एवा ( महासमरे के० ) म्होटा रणसंग्रामने विषे ( सयलसिन्ने के०) सर्व सैन्य जे जे ते (जग्गेवि के०) जागी गए सते एटले नासी गए सते पण (माजीसादायणो के०) तमे जय न पामो. एम कहेनारा एवा (धीरा के०) धीर पुरुषो जे ते (अणेगे के०) अनेक एटले घणा ( दीसंति के० ) देखाय ॥१४॥ तथा (जश् के०)जो के (सीह पोरिसनिम्महणा के०) सिंहना बलने नाश करनारा ( य के०) श्रने ( दलिय के०) दली नांख्या के एटले नाश करी नांख्या बे(मयगलगणा के० ) म्होटा गजेंना समूह ते जेणे एवा महाबलवाला पुरुषो(दीसंति के०) देखाय बे, (किंतु के०) पण (मयणसर के०) कामदेवनां जे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m मूलगाथान. बाण, तेना ( पसरसमए के० ) प्रसरसमये एटले वागवानी वखते ( सप्पोरिसा के० ) बलसहित अर्थात् कामदेवनां बाण वागवानी वखते धीरज राखनारा एवा ( किंपि के० ) कोइ पण विरला पुरुषोज होय . ॥ १५ ॥ विशेषार्थ - तरवारे करीने जयंकर एवा म्होटा रणसंग्राममां शत्रुना सुनोथी त्रास पामेला ने सर्व दिशाउंमां नासी जता पोताना सर्व सैन्यने " जय न पामशो " एवा अजय वचन बोलनारा धीर पुरुषो श्रा संसारमां घणा देखाय बे. कह्युं बे के महासुजटोना सैन्य जागी गए बते पण जे वीर पुरुषो शत्रुना समूहना मुख उपर लात मारनारा बे, ते वीर पुरुषोने पृथ्वी पोताना मस्तके करीने धारण करे बे, कारण के, तेवाज वीरपुरुषोवडे या पृथ्वी धारण कराय बे. तथा सिंहना बलने मथन करनारा छाने मदे करीने उन्मत्त यएला म्होटा गजेंद्रना बलने पण नाश करनारा धीरपुरुषो घणा देखाय बे, परंतु कामदेवना, पुष्परूप तीक्ष्ण बाण वागवानी वखते धीरज राखनारा धीरपुरुषो तो कोइकज होय बे. कयुं बे के - दश अवस्थावालो दश मस्तकवालो, अने देव दानवी पण दुर्जय एवो कामदेवरूपी राक्षसराज ( रावण ) शीलरूपी शास्त्रवडेज वश्य थाय बे ॥ १४ ॥ १५ ॥ सुटोने पण स्त्री जीती शके बे, ते कहे बे. कस्यापि जुवनेऽपि ते ये नमयंति न शीर्ष महासुजटाः जे' नामंति ने सीसं, कस्सैवि जुर्वेणेवि "ते मर्दा सुहडा ॥ गलितबलाः रुवंति महिलानां चरणतले रागांधाः रोगंधा गलियंबला, कैलंति महिलाण चरणतले ॥ १६ ॥ शब्दार्थ - ( जे के० ) जे पुरुषो ( जुवणेवि के० ) त्रण भुवनने विषे ( कस्सवि के० ) कोने पण ( सीसं के० ) पोतानुं मस्तक ( न नामंति ho ) नथी नमावता, एवा ( ते के० ) ते रावणादिक ( महासुहडा ho ) महासुटो पण ( रागंधा के० ) रागे करीने अंध थपला एवा अ ( गलियबला के० ) नाश यर गयां बे बल ते जेमनां एवा थइने ( महिला के० ) स्त्रीर्जना ( चरणतले के० ) चरणतलने विषे अर्थात् ५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ शीलोपदेशमाला. पगने विषे ( रुलंति के०) लोटे . अर्थात् स्त्रीनी सेवा करे .॥१५॥ विशेषार्थ-जे महाबलथी अजिमान करनारा पुरुषो त्रण नुवनमां कोश्ने पण पोतानुं मस्तक नमावी प्रणाम करता नथी, ते रावणादिक महासुनटो पण प्रीतिये करीने अंध थश्ने अने कामदेवना वशथी नि- ' बल थश्ने स्त्रीउना पगमां पडीने पालोटे . धिक्कार २ ते कामदेवने के जे कामदेवने वश थएला म्होटा शूरवीर पुरुषो पण अधमजातिरूप स्त्रीउनी सेवा करे .॥१६॥ वली पण तेज वात विशेषथी कहे . शक्रोपि नैव खंडयति माहात्म्यस्फुर्ति जगति येषां । सेकोवि नेय खमझ, मादप्पमडप्फरं जए जेसिं॥ तेऽपि नराः नारीभिः कारिताः निजदासत्वं तेवि नरा नारीदिं, कराविया निययंदासत्तं ॥१७॥ शब्दार्थ-(जए के०) श्रा जगत्ने विषे ( सक्कोवि के० ) शक्रेज पण (जेसिं के) जे पुरुषोना ( माहप्पमडप्फरं के) माहात्म्यना गर्वने ( नेय खंगर के०) खंमन करी शकतो नथी एवा (तेवि नरा के०) ते महापुरुषोने पण ( नारीहिं के ) स्त्रीए ( निययदासत्तं के०) पोताना दासपणाने ( कराविया के० ) कस्या ने अर्थात् तेमनी पासे स्त्रीउए पोतानुं दासपणुं कराव्यु बे. ॥ १७ ॥ विशेषार्थ-श्रा जगत्ने विषे जे पुरुषोना माहात्म्य (कीर्ति ) ने इंस पण खंडन करी शकतो नथी. अर्थात् जे पुरुषो पोतानां पराक्रम श्रने अहंकारथी अने पण गणता नथी, एवा पुरुषोने पण स्त्रीए पोताना दास जेवा कख्या . एटले एवा पुरुषोने पण स्त्रीए नाना प्रकारनी विटंबनामां नांख्या . ॥ १७ ॥ ___ म्होटा पण स्त्रीउना दास थश्ने रहे जे ते उपर रिपुमर्दन राजा अने जुवनानंद राणीनी कथा. - श्रा जरतक्षेत्रमा सुखावासिन नामनुं नगर हतुं. जेमा हिमालयपर्वत सरखी उज्वल हवेली आकाशमार्गने विषे ताराऊना जेवी शोजती Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिपुमर्द्दन राजा ने नवनानंदा राणीनी कथा. ३५ हती. ते नगरमा महाप्रतापी, म्होटा मानवालो ने मेरुपर्वत सरखा रत्नवालो रिपुमर्दन नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने न्यायमां घणोज विचक्षण एवो बुद्धिसागर नामे प्रधान हतो, अने अत्यंत प्रिय एवी रतिसुंदरी नामनी स्त्री हती. हवे ते नगरथी पूर्व दिशने विषे उद्यानमां देवताना वैमान सरखं मनोहर घणुंज उंचुं एवं श्री आदिनाथनुं देहे हतुं अने ते देहेराना बारणानी सामे घणुंज उंचुं अने मनोहर एवं श्रवानुं वृक्ष हतुं. ते वृक्षनी उपर मनुष्यनी जाषामा बोलनारूं चतुर पोपटनुं जोडलं ( सूडोसूडी ) रहेतुं हतुं. एक वखते सूडीने पुत्र जन्म्यो त्यारे ते सूडो ने सूड घणो आनंद पामवा साथै राजाथी पण पोतानो जन्म अधिक मानवा लाग्या. एक दिवसे ते सूडाने बीजी कोइ सूडी संगाये आसक्त थलो जाणी तेने बारथी श्रावतो जोइ सूडीए पोताना मालामां नहि श्राववा देतां 66 युंके, "तुं हि शुं करवा श्राव्यो बे ? ज्यां त्हारी व्हाली स्त्री होय त्यां जा, कारण के, बीजी स्त्रीने विषे श्रसक्त थएला पुरुषने प्रथमनी स्त्रीसाथे घणो स्नेह, पराधिन एसी संपति अने मूर्ख पुरुषनी सेवा ए त्रप मासने विष बराबर बे. माटे हुं तने श्रा म्हारा मालानी अंदर नहि श्राववा दजं " सूडाए कयुं, " हे प्रिये ! एक वखत म्हारो अपराध क्षमा कर. हुं फरथी श्रातुं काम नहि करूं. " एम सुडाए घणी प्रार्थना करी, तो पण सूडीए मान्युं नही; त्यारे फरीथी सूडाए कयुं. " हे सूडी ! म्हारा वंशना कारणरूप पुत्र मने श्राप दे एटले हुं म्हारी मरजी प्रमाणे चाल्यो जनुं ने तुं पण व्हारी मरजी प्रमाणे चालीजा. " सूडानां एवा वचन सांजली सूडीए कयुं “ अरे सूडा ! तुं तो घणो चतुर लागे बे ! कारण के, एक तो तें पोते अपराध कस्यो ने अने वली उलटो पुत्रने मागे वे !!" एम एक कड़े बे " श्रा म्हारो पुत्र " अने बीजी कड़े बे, " म्हारो पुत्र" एवा संशयथी पुत्रने माटे वाद करतां करतां ते बन्नेए राज्यसनामां जइ ते वात राजाने कही पढी राजाए न्याय कस्यो के, “ जेम क्षेत्रमां वावेला बीजनुं फल देत्रनो धणी ( वावनारो) लहे बे, तेम स्त्रीरूपी क्षेत्रने विषे वावेला बीजनुं फल पण वावनारा पुरुपज मले; माटे जे पुत्र बे ते पितानो ” एम कही राजाए पुत्र सुडाने Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ शीलोपदेशमाला. पाव्यो त्यारे सुडी रोवा लागी अने तेणे राजाने कधुं. " हे राजन् ! जो तमे श्रा प्रमाणे न्याय करता हो, तो तमे जे न्याय कस्यो बे, ते " पुत्र पितानो ने पुत्री मातानी एम मने लखी श्रापो. " पछी राजाए ते न्याय लखी श्राप्यो एटले सूडी ते न्याय जींत उपर लखीने पोताना स्थानके - थांबाना वृक्ष उपर श्रावी. एवामां ते वृक्षनी नीचे एक श्रुतज्ञानी मुनिने बेठेला जोइ सूडीए वैराग्यथी वंदन करीने पूब्धुं के, “हे जगवन् ! म्हारूं आयुष्य केटलुं बे ? " श्रुतज्ञानी मुनिए कयुं, "तुं मनुष्यनुं श्रायुष्य बांधी आजश्री श्रीजे दिवसे मृत्यु पामीने या नगरना बुद्धिसागर प्रधाननी रतिसुंदरी स्त्रीना उदरे पुत्रीपणुं पामीश, अने पछी राजानी स्त्री यश. वली कोइ वखते दैवयोगथी तने जातिस्मरण ज्ञान पण उत्पन्न थशे. " श्रुतज्ञानी मुनिनां एवां वचन सांजली सूडीए ते सर्व वचनो देहेरानी जींत उपर लख्यां. पी आराधना सहित ते मुनिनी समीपे अनशन व्रत लइ विधिसहित पालीने त्यांची मरण पानी प्रधाननी स्त्री रतिसुंदरीना उदरने विषे श्रेष्ठ स्वप्नसूचित पुत्रीपणे उत्पन्न थइ. अनुक्रमे जन्म थयो. पिताए जन्ममहोत्सव करी तेनुं भुवनानंदा एवं नाम पाड्यं . पढी ते पुत्री म्होटी थइ सरखतीनी पेठे सर्व कलार्जुनो अभ्यास करवा लागी. एक दिवस ते भुवनानंदा पोतानी केटलीक सखी साथे रमती रमती श्री आदिनाथना देहेरामां गई. त्यां प्रजुनां दर्शन करी देहेरू जोबा लागी एटले सूडीना जवमां जींते जे अक्षर लख्या हता, ते था क्षर देखी ने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयुं. तेथी ते पोतानो पूर्वनो सूडीनो जव, राजानो न्याय अने पुत्रनो वियोग देखी विचार करवा लागी के, "आज श्री आदिनाथना प्रसादथी मने प्रधानना घरने विषे मनुष्यजव प्राप्त थयो बे, माटे तेज प्रभुनुं हुं जक्तिसहित निरंतर पूजन करूं." एम विचार करी ते हमेशां जक्तिसहित पूजन करवा लागी . हवे एक दिवसे बुद्धिसागर प्रधान एक महाजातिवंत घोडो वेचातो लेइ तेनी अनेक प्रकारे रक्षा करतो हतो. ते वात राजाए सांजली के, प्रधानने घेर एक महाजातिवंत घोडो बे पढी राजाए पोताने त्यांची केटी एक घोडी प्रधानने घेर मोकली. जेथी ते घोडी थी घणा मूल्य Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिपुमर्दन राजा ने जुवनानंदा राणीनी कथा. ३७ वाला केटलाएक बछेरा ( घोडानां बच्चां ) थया. त्यार पछी एक दिवसे राजा ते सर्वे छेरा माग्या अने तेने लाववामाटे प्रधानने घेर माणसो मोकल्या. त्यारे प्रधाननी पुत्री भुवनानंदाए राजाना माणसोने कयुं. " ते बछेरा तमने लs जवा नहि देनं,” कारण के, “जे जेनुं बीज, ते तेनी वस्तु. "" या घोडो म्हारा पितानो बो अने तेथी या सर्व वछेरा या बे, माटे ते पण म्हारा पितानाज बे. पीते सर्व माणसोए जइ राजाने कयुं, “ दे खामिन् ! प्रधाननी पुत्री छेराउने लेवा देती नथी अने वली कहे बे के, जेनुं बीज, तेनी वस्तु, माटे हवे जेम तमारी मरजी होय तेम करो.” जुवनानंदाए पोताना पूजवनी सर्व वात पोताना पिता प्रधानने कही. राजाए फरीथी बीजा प्रधानने मोकली वछेरा मंगाव्या, त्यारे पण जुवनानंदाए प्रधानने एवोज जवाब थाप्यो के "जेनुं बीज तेनी वस्तु" वली राजाना महेलनी जींत उपरशुं लख्युं बे ? ते तमे जुटं जो " पुत्र पितानाज होय ते." एम लख्युं होय तो वछेरा लेशो नहि घने एम न लख्युं होय तो तमे तमारा वछेरा खुशीथी ले जाने.” प्रधाने जर ते वात राजा श्रागल कही, त्यारे राजाए जींत उपर लखेला अक्षरो जोया तो तेज प्रमाणे लेख पण नीकल्यो. लेख वांची विस्मय पामेलो राजा मनमां विचार करवा लाग्यो के “ अहो ! आ प्रधाननी पुत्री तो बालपंकिता बे. हवे म्हाराथी ते वछेरा मगाशे नही " पढी केटलाक दिवस जवा देश राजाए प्रधान पासे भुवनानंदानुं मायुं करी तेने परणीने कयुं के, " जो तुं पंगिता हुँ, तो ज्यांसुधी हारे सर्व लक्षणयुक्त पुत्र थाय नहि, त्यांसुधी व्हारे म्हारे घेर aaj नहीं. " त्यारे भुवनानंदाए हसीने कधुं. " हे प्राणनाथ ! म्हारे पुत्रनो जन्म थया पठीज हुं तमारे घेर श्रावीश," पण एक बीजी बात कहुं हुं ते सांजलो. हे राजन् ! हुं तमारी पासे म्हारा पग चंपावुं अने म्हारा पगनी मोजडी पण उपडावुं, त्यारेज तमारा घरने विषे श्रावुं. या पण म्हारी बीजी प्रतिज्ञा बे. " राजाने या प्रमाणे कही जुवनानंदा पोताना पिताने घेर यावी, पढी पोताना पिता बुद्धिसागर प्रधानने तेणे सर्व वात एकांतमां कही. पिताए कयुं, " तें या प्रतिज्ञा घणीज कठण बीधी बे. " पुत्रीए कयुं. “दे Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ शीलोपदेशमाला. तात! बुद्धिवानने या प्रतिज्ञा शी कवण .अर्थात् बुद्धिवानने आप्रतिज्ञा कवण नथी. नीतिशास्त्रमा कह्यु डे के, धनुर्धारी पुरुषना धनुषनी बूटेबुं बाण एक पुरुषने मारे ने अथवा तो नथी मारी शकतुं, परंतु बुद्धिवान पुरुषनी बुद्धि, देशसहित राजाने पण मारे बे. (नुवनानंदा पिताने कहे ) " हे पिता! माटे बुद्धिवानने कोश्पण प्रतिज्ञा कठण थर पडती नथी." त्यारे प्रधाने कह्यु. “हे वत्से ! जाग्य पागल कोश्चें कांश पण चालतुं नथी." पुत्रीए कह्यु. “ हे तात ! कर्मना वशथकीज बुद्धि प्राप्त थाय बे, माटे तमे म्हारा कहेवा प्रमाणे करो के, “प्रथम श्राजश्री तमारे म्हारं नाम लीलावती कहे अने राजा विगेरे सर्व लोकोने पण एमज कहे, के, “ में परदेशथी नाच कराववा माटे श्रा लीलावतीने बोलावी बे." बीजुं राजाना महेलनी पासे श्री श्रादीश्वर जगवाननुं म्होटु देहेरासर करावो अने त्यां सारं गान करनारा अने वाजित्रो वगाडनारा गंधर्वोने बोलावी हमेशां त्रणेकाल नृत्य करावो. तेनी साथे ते देहेरानी अंदर गंधर्वोने रहेवा माटे अने म्हारे रहेवा माटे घर पण बनावी श्रापो.” पनी विचारवंत प्रधाने देहेरं कराव्यु अने गायन कराववामाटे गंधवोंने पण बोलाव्या. हम्मेशां ज्यारे त्यां त्रण्ये काले गंधर्वो गायन करे बे, त्यारे प्रधाननी पुत्री नृत्य करे . __ एक दिवसे रिपुमर्दन राजा पोताना धवलगृहमां सूतो हतो, त्यां तेणे लीलावतीनुं पंचमस्वरयुक्त गायन लांजल्यु. पठी सामान्यराजपुत्रनो वेष लक्ष श्री श्रादीश्वर जगवानना मंदिरना पश्चिम दरवाजामां श्रावी मनोहर एवी लीलावतीना नृत्यने जोवा लाग्यो एटले नाच करतां करतां लीलावतीए पोताना तीदण कटाक्षरूप बाणे करीने राजाने एवो विंध्यो के, जेथी ते लीलावतीना स्थानथी पाडं घेर जवू पण नूली गयो! परंतु ज्यारे नाच बंध करी लीलावती पोताना मंदिरमां गश्, त्यारे राजा पोताना मंदिरे गयो. एवी रीते राजा लीलावतीना नृत्यने जोवा माटे ते मनोहर मंदिरमा रात्रे श्राववा लाग्यो. अने त्यां राजा जे जे बोले , ते ते सांजलीने लीलावती पोताना पिता प्रधानने सर्व वात कहे जे. एटले प्रधान ते सर्व वात चोपडामां लखी ले . हवे एक दिवसे नृत्य करी रह्या पली लीलावती पोतानी मोजडी जाणी Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G रिपुमर्दन राजा अने जुवनानंदा राणीनी कथा. ३ए जोश्ने नूली जइ पोताने मंदिरे आवी सुखासन उपर सूझ रही. पनी ते मोजडी राजाए दीठी एटले ते विचार करवा लाग्यो के, “ श्राजे लीलावतीनी साथे मोजडी उपाडनारी दासी न होती, माटेज ते श्रा नूली गश् ; तो हुंज तेने श्रा मोजडी श्रापवाने मिषे मलवा माटे जजं." एवो विचार करी ते लीलावतीनी मोजडी राजा पोते माथे उपाडी आपवा श्राव्यो. श्रावीने तेणे लीलावतीने कडं. "तमे श्राज देहेरासरमां मोजडी नूली गयां हतां, ते ९ श्रापवा श्राव्यो बुं” लीलावतीए कह्यु. “ते सारूं कयुं, पण आजे वधारे वखत सुधी नृत्य करवाथी म्हारा पग बहुज कुःखे बे, माटे था सुतेली म्हारी दासीने जगाडो के, ते म्हारा पग चांपे.” त्यारे राजाए कडं. “ दासीने जगाडवानुं कांश कारण नथी, हुंज तमारा पग चांपीश!!!” एम कही राजाए पग चांपवा मांड्या अने अनुक्रमें तेनी साथे विषयसुख जोगव्यु. एटले लीलावती जंघी गश्, परंतु तेज निजामां तेणे स्वप्नमां पोताना मुखने विषे चंजने प्रवेश करतां दीगे. एटले ते जागृत थर, तो पण राजा पग चांपतो हतो; तेथी तेणे राजाने कयु के, “ मने अत्यारे जंघमां स्वप्न श्राव्यु हतुं, तेमां में म्हारा मुखने विषे चंउने प्रवेश करतां दीगे.” ते सांजलीने राजाए कडं. “ हे जडे! त्हारे सर्व गुणे युक्त एवो पुत्र थशे." ___ एम वातो करता करतां ज्यारे सवारनो वखत थवाने सूचवनारो शंख वाग्यो, एटले राजा पोताने मंदिरे गयो अने लीलावतीए पण पोताना पिताने घेर श्रावी रात्रीमां बनेली सर्व वात पिताने कही, पनी ते दिवसथी लीलावती मंदिरमा नृत्य करवा नहि जतां पोताना पिताने घेर एकांत स्थानके रही गर्जनुं पालन करवा लागी. बीजे दिवसे राजा तो हमेशना नियम प्रमाणे रात्रीए श्री श्रादीश्वर नगवानना मंदिरमां नृत्य जोवा माटे गयो. मंदिरमां चारे तरफ जोतां पण ज्यारे लीलावतीने न दीठी, त्यारे बहार श्रावी राजाए पाडोशीने पूज्युं के, “ लीलावती नामनी नृत्य करनारी स्त्री क्यां ग?" पाडोशीए कह्यु. “हे राजन् ! ते अमने कह्या विनाज चाली ग , माटे अमे नथी जाणतां के, ते क्यां ग डे ? ” पनी वीरहथी व्याकूल थएला राजाए घणा खेदसहित ते रात्री गमावी. ज्यारे प्रजात Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० शीलोपदेशमाला. थयो, त्यारे प्रधानने बोलावीने पूज्युं. "हे प्रधान ! तमे नाच करवा माटे बोलावेली लीलावती क्यां ग?" प्रधाने कडं. “हे राजन् ! तेना पुराचारने जोश में तेने मंदिरमांथी काढी मूकी बे, तेथी ते बीजा कोश्ना घरमां रात रही हशे.” प्रधाननां एवा वचन सांजली राजा कां पण बोल्यो नही. हवे समय श्राव्ये लीलावतीने सर्व लक्षण संपूर्ण पुत्र थयो. प्रधाने तेने गुप्त रीते सर्व कलानो अभ्यास कराव्यो. पड़ी शुज मुहूर्ते प्रधान पोतानी पुत्रीने तथा तेना पुत्रने साथे तेडी राजसनामां गयो; त्यारे राजाए पूज्युं. “ हे प्रधान ! था स्त्री कोण ? अने था पुत्र कोण बे?" प्रधाने उत्तर आप्यो के, “ हे राजन् ! ते आ म्हारी पुत्री जुवनानंदा तमारी स्त्री अने था म्हारी दीकरीनो दीकरो तमारो पुत्र जे.” प्रधाननां एवां वचन सांजली राजा जेटलामां कां बोलवा जाय , तेटलामां प्रधाने श्रागल लखी राखेली तेनी चेष्टा तथा वचनोनो चोपडो राजाना हाथमां प्राप्यो. राजा ते जुवनानंदानी साथे पोते करेलुं अने बोलेबुं सर्व वांचीने श्राश्चर्य पाम्यो. पड़ी लजा अने हर्षना बांसुए करीने जरा गइ ने आंखो जेनी एवो ते राजा पोताना वृत्तांतने स्मरण करतो मस्तक धूणाववा लाग्यो, अने पोताना पुत्रना सर्व अंग उपर हाथ फेरवी खोलामां बेसारी पुत्रने कहेवा लाग्यो के, “हे पुत्र! था सघj राज्य हारूंज जे. हे पुत्र ! जे महासती त्हारी माताए पुत्रनी प्राप्तिरूप पो. तानी प्रतिज्ञा पूर्ण करवा माटे केवल मश्करीए करीनेज मने थानंद पमाड्यो , ते सर्व में हवे जाण्यु; माटे म्हारी धीरजने, शौर्यने, पराक्रमने अने यशने धिक्कार डे के, जे हुँ स्त्रीनी लीलाए करीने जीताणो डं!!! वली हे प्रधान ! तमारे पण म्हारा तरफथी कांश जय राखवो नहि, कारण के, जेम सूर्य अंधकारनो नाश करे बे, तेम तमारी पुत्री थकी मने बोध मल्यो बे, एम हुँ जाणीश.” पली राजाए वैराग्य पामी पोताना पुत्रने राज्य थापीसारु समीपे दीक्षा ग्रहण करी आत्मसाधन कह्यु.अहो ! श्रावा महा पराक्रमी रिपुमर्दन राजाने पण स्त्रीए पोतानो दास कस्यो, तो पठी बीजा साधारण माणसनी शी वात कदेवी ? इति रिपुमर्दन राजाश्रने जुवनानंदा राणीनी कथा. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयपाल राजा ने लक्ष्मी राणीनी कथा. हवे पंडित पुरुषोने पण स्त्रीनुं परवश्यपएं बे ते कहे बे. मरणेऽपि दीनवचनं मानधनाः ये नराः न जपंति मरणेवि दीपवर्येणं, माधणा 'जे नरों ने जंपति ॥ तेऽपि खलु कुर्वति ललिं बालानामपि स्नेहग्रहप्रहिलाः ते वि हुँ कुँति लेलि, बौलाएवि नेदगदग दिला ॥ १८ ॥ ४१ शब्दार्थ - ( जे के० ) जे ( माणधणा के० ) मानरूपी धनने धारण करनारा एवा ( नरा के० ) पुरुषो जे बे, ते ( मरणेवि के० ) मरण प्राप्त ए सते पण ( दीवयणं के० ) दीन वचनने ( न जंपंति के० ) नथी बोलता, एवा बे, तो पण ( नेहगढ़ग हिला के० ) स्नेह रूप ग्रहे करी ग्रंथाला एवा ( तेवि के० ) ते पुरुषो पण ( हु के० ) निश्चे ( बालाएवि के० ) स्त्रीजनी पासे पण ( लहिं के० ) प्रिय वचनने अर्थात् जेथी इस आवे एवा बालक सरखां वचनने ( कुणंति के० ) करे बे. - र्थात् बोले बे ॥ १८ ॥ विशेषार्थ - गर्व रूप धनने धारण करनारा मनस्वी ( पोतानी मरजी प्रमाणे चालनारा ) जे पुरुषो प्राणना अंत वखते पण दीन वचन नथी बोलता एवां तां पण प्रेम रूप कदाग्रहथी ( खोटा पासथी ) बंधाएला ते पुरुषो पण स्त्रीनी पासे रांकनी पेठे प्रार्थना करे बे, अने बीजाउने हास्य यावे एवां वचनोने बोले बे. कथं बे के श्रधमा धनमिति, धनमानौ हि मध्यमाः ॥ उत्तमा मानमिछंति, मानो हिमहतां धनम् ॥ अधम पुरुषो धननी, मध्यम पुरुषो धन ने मान बन्नेनी अने उत्तम पुरुषो फक्त माननीज छा करे बे. कारण के, मान एज म्होटा पुरुषोनुं धन बे ॥ १८ ॥ मरण यावे पण दीन वचन नहि बोलनारा पुरुषो पण प्रेमने वश्य थ स्त्रीनी प्रार्थना करे बे, ते उपर विजयपाल राजा अने लक्ष्मी राणीनी कथा. श्रा जंबूद्वीपना जरतक्षेत्रमां पुरिमताल नामनुं नगर बे. जे नगरनी हवेलीउनी अगाशी जमां बेठेली स्त्रीजनां मुख अकाल चंद्रनी ब्रांति करावतां तां. ते नगरने विषे मानवंत राजार्जमां शिरोमणि एवो विजयपाल नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने रंजा सरखी मनोहर रंजा ना ६ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ शीलोपदेशमाला. मनी पट्टराणी हती. एक दिवसे हस्ति उपर बेसीने राजमार्गे जता ते राजाए लक्ष्मी सरखी खरूपवाली कोश् श्रेष्ठिनी पुत्री लक्ष्मीने दीठी. ते लक्ष्मीना कटाद रूप बाणथी विंधाएलो विजयपाल राजा त्यांथी पागे वली घेर श्राव्यो. पड़ी ते लक्ष्मीना पितापासे मागु करी तेनी साथे ते परण्यो. विषयमा अत्यंत आसक्त थएलो ते राजा राज्य संबंधी सर्व व्यवहार मूकी देश अंतःपुरमा रात्रि दिवस तेनी साथेज क्रिडा करवा लाग्यो. वली लक्ष्मीनी प्रीतिए करीने वश्य थएलो, वांदरानी पेठे नृत्य करतो, पोतानी महताने नूली गएलो अने विवेक रहित बनेलो ते राजा केटलोक काल अंतःपुरमांज रह्यो ! तेथी एक वखते प्रधान विगेरे केटलाक माह्या माणसोए श्रावीने कह्यु. “हे खामिन् ! सामान्य मा. णस पण जो रागथी स्त्रीउने वश्य थएलो होय, तो ते पण ज्यारे हलकाश्ने पामे जे; त्यारे राजा हलकाश्ने पामे तेमां तो कहेज ? धर्म अर्थ श्रने काम ए रणने अवसरे सेवनारा पुरुषोना मनोवांबित अर्थों सफल थाय बे, अने अवसरविना सेवनारा पुरुषोना मनोवांछित अथों निष्फल थाय . तथा रागरूप महा विषथी अंध थएला गुणवंत पुरुषोना गुणो पण नाश पामे . अने गुरुवादिक सत्पुरुषोए आपेलो उपदेश पण ते पुरुषोना कानमा पेसतो नथी.” ____“हे राजें! श्रापणा राज्य उपर तमारा शत्रुङ युक करवा माटे तैयारी करे , माटे हे प्रजु ! विषयने विषे श्रासक्ति मूकी दर राज्यसंबंधी विचार करो" प्रधाननां एवां वचन सांजलतां बतां पण जेम जं. घथी घोरतो माणस पाटु मारवाथी पण न जागे अने तृषातुर माणस पाणी मलवाथी पण अमृतनी श्छा न करे, तेम स्त्रीने विषेश्रासक्त थएला राजाए प्रधाननां अमृत सरखां वचनने पण नहि गणगारतां कधु के, “हे प्रधान ! मृग सरखां नेत्रवाली श्रने म्हारा जीवनरूप श्रा स्त्री म्हारी दृष्टि श्रागल रहेली , त्यांसुधी तमारे म्हारुं जीवित समजवं." पबी राजाने राज्याचंता रहित थएला जाणीने प्रधान विगेरे केटलाक माणसो विचार करता हता, तेवामां राजानी अत्यंत प्रिय स्त्री लक्ष्मी, एकाएक सवारमा उलटी विगेरेथी मांदी थइ जवाथी तुरत राजाए विचक्षण विछान वैद्योने बोलाव्या; पण जेटलामां ते वैद्यो Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयपाल राजा अने लक्ष्मी राणीनी कथा. ४३ श्रावीने औषध उपचार विगेरे करे बे, तेटलामां तो ते मृत्यु पामी !!! ते वखते मूळथी विकल देहवालो ने जानरहित थएलो ते राजा लाकडीनी पेठे पृथ्वि उपर पड़ी गयो. केटलाक माणसे औषधयुक्त शीतल पाणी गंटी ताडपत्रना विजणावडे पवन नांखी तेने सचेत कस्यो; एटले ते राजा बालकनी पेठे रुदन करवा लाग्यो अने पोतानी मृत्यु पामेली प्रियाने उद्देशीने कहेवा लाग्यो के, “ हे प्रिये ! तुं क्यां गश् ले ? हुँ जे जे पूढे तेनो मने योग्य उत्तर श्राप ! अने आ मश्करीथी न बोलवारूप जे त्हारूं हास्य , तेने हुँ घणीवार सहन करी शकीश नहि !!! एवी रीते विलाप करता थने ते मृत्यु पामेली स्त्रीथी दूर नहि जता ते राजाने प्रधान विगेरे कहेवा लाग्या के. “हे देव ! श्रा तमारी प्रिया मृत्यु पामी , माटे तेने आमसंस्कार करवानी श्रमने रजा आपो.” राजाए क्रोध करीने कडं. “अरे ! था पुष्ट कोण बोले ? के, जे कडवा वचनेकरी म्हारा कानने वींधे ! अरे पापी ! तमारा पुत्र विगेरे सघला माणसोने अग्निसंस्कार करो, अने था म्हारी प्राणप्रिया तो हजु सो वर्ष जीवशे. तथा जे माणस अमंगलिक वचनो बोले , ते मने शत्रु जेवो लागे . वली श्रा म्हारी प्रिया ज्यां सुधी जीवती नहि थाय, त्यां सुधी हुँ जोजन नही करूं.” .. श्रावी रीते राजानो श्राग्रह जोश्ने प्रधाने मृत्यु पामेली लक्ष्मीने राजाथी बानो अग्निसंस्कार कस्यो.पली राजाए जमवू बंध क.ज्यारे दश दिवस थया, त्यारे प्रधाने विचार कस्यो के," जो राजा नहि जमे, तो ते थोडा दिवसमांमृत्यु पामशे;माटे म्हारे कांश पण युक्ति करीने जमाडवो जोए." पडी प्रधाने को पुरुषने शीखवीने राजा पासे मोकल्यो एटले ते पुरुषे राजसनामां श्रावीने कडं. “ हे देव ! स्वर्गने विषे इंसनी सनामां रदेली, माह्या पुरुषोथी सेवन कराएली अने हस्तिना सरखी चालवाली तमारी प्रिया लक्ष्मीए म्हारी साथे समाचार मोकल्या २ अने आपने कहाव्यु के के, “हे स्वामिन् ! श्रापना दर्शन विना म्हारं चित्त हमेशां क्लेश पामे , माटे तमारे मृत्युलोकमां न रहे, पण फट अहिं श्राव; कारण के, मृत्युलोकमां देदसंबंधी पीडा, मनसंबंधि पीडा, पुगंध, अने अपवित्रपणुं विगेरे घणां उःखो के अने स्वर्गमां कोश्पण Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ शीलोपदेशमाला. जातनी पीडा नथी. जेथी सर्व इंजियोने प्रीति थाय .” माटे हे नाथ! जो मने मलq होय तो ऊट अहिं श्रावो, कारण के, जो नंदनवन स्वाधीन . तो पनी मरुदेश (जलरहित देश) मां क्यो पुरुष रमे ?" ते पुरुषनां श्रावां वचन सांजली राजाए पोताना प्रधान विगेरेने कह्यु. “हे मंत्रीजनो! तमे मने ऊट स्वर्गनो मार्ग बतावो के, जे मार्गे करीने हुँ स्वर्गमां जश् म्हारी प्रियानुं मुखकमल जोलं.” राजानां एवां वचन सांजली राणीनो संदेशो लावेला माणसे कयु के, “हे राजन् ! पहेढुं स्नान अने विलेपन करो. पली नोजन करो तथा हम्मेशां पुण्यकार्य साधो एटले तमने स्वर्गमां जवानो रस्तो मलशे ? वली हुं पण पाबो स्वर्गमां जश् आपनी आववानी वात कहुं .” एम सांजली राजा स्नान विगेरे सर्व कार्य करवा लाग्यो. कयु ने के- निर्बुद्धिर्वा सुबुद्धिर्वा, रंको वा यदिवा नृपः॥अलिकमपि रागेण, वेत्ति सत्यतया पुमान् ॥१॥ अर्थ- बुझिविनानो, सुबुद्धिवालो, रंक अथवा राजा, ते सर्वमांथी कोशपण पुरुष रागने लीधे असत्यने पण सत्य करीने माने बे, वली केटलाक दिवस पड़ी तेज माणसे राजसनामां आवी उत्तम प्र. कारनां फलो राजानी आगल मूकी हाथ जोडीने कडं. "हे राजन् ! लक्ष्मीदेवीए मोकलेलां था कल्पवृक्षनां फलो हुं लाव्यो बुं.” एटले ते फल राजाए घणी प्रीतिथी लीधां. एवी रीते ते माणसने प्रधान वारंवार राणीना नामथी राजा पासे मोकलतो हतो. एवामां एक दिवसे प्रधानने विचार थयो के," रखेने! को धूर्त माणस म्हारा कपटनी वात जाणीने राजानी पागल कहे !” एम विचारी प्रधाने एकनोजपत्र उपर कस्तूरीना रसथी समाचार लखी स्वर्गमांथी थाववानुं नाम लेश्ने थावनार माणसने श्रापी राजानी सजामां मोकल्यो. पठी ते माणसे राजापासे श्रावी पत्र आपीने कडं के, " हे देव ! तमने आ पत्र पवामाटे देवीए मने स्वर्गमांथी मोकल्यो .” ते माणसनां एवां वचन सांजली राजा पत्र जोश्ने कहेवा लाग्यो के, “धन्य ने स्वर्गनी सामग्रीने ! के, जेमां था प्रकारनी सामग्री रहेली !!!” एम वखाण करीने पत्र वांचवा लाग्यो, तो तेमां था प्रमाणे लखेलुं हतुंः__ " स्वस्तिश्री पुरिमताल नगरीना महाप्रतापी विजयपाल राजाना च Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयपाल राजा ने लक्ष्मी राणीनी कथा. ५५ रणकमलनी, स्वर्गथी श्राश्रयवाली लक्ष्मी राणी प्रीतिथी अने घणा उ त्साही विनंती करे बे के, "हुं अहिं कुशल बुं. हे नाथ ! में तमने म्हारा हृदयमां धारण करेला होवाथी हुं घणा जारवाली यइ बुं, माटे हुं तमारी पासे यावी शकती नथी, तेथी म्हारा अंगनां घरेणां या पत्र लावनार माणससाथे जरूर मोकली थापजो, के जेथी हुं पतिना मानवाली कवाडं. वली पंदर दिवस अथवा महिना पछी बीजां घरेणां ने वस्त्रो पण मोकल ज्यो.” या प्रकारना समाचार वांची राजाए प्रधानने कयुं के, "हे प्रधान ! सारां सारां घरेणां ने मनोहर देखातां सारां सारां वस्त्रो या पत्र लावनार माणसने पो के, ते देवीने श्रापशे. कर्तुं बे के समाचार आपनारो माणस लक्ष मूल्य पामे बे, समाचार लखी आपनार क्रोड मूल्य पामे बे, देखनार शेंकडो कोडो मूल्य पामे वे अने स्नेहिनो संगम अमूल्य वस्तु पामे बे. परंतु ते स्वर्गमां शीरीते जर शकशे ?” प्रधाने कधुं. "हे देव! ते माणस वगडामां जइ अग्निनी चय सलगावी तेमां प्रवेश करशे, एटले ते स्वर्गमां पहोचशे . " प्रधाननां एवां वचन सांजली को पद्मनामना श्रेष्ठीए राजाने कह्युं के, “ हे स्वामिन् ! या वृद्ध माणस जार उपाडीने ज‍ श - कशे नही, माटे बीजा कोइ जवान माणसने मोकलो.” पद्मश्रेष्ठीनुं एवं वचन सांजली प्रधान विचार करवा लाग्यो के, पद्मश्रेष्ठी म्हारो नेद जाग्यो, तेथी दवे म्हारे तेनो घाट घडवो जोइए ! " एम विचारी प्रधाने राजाने कह्युं के, " हे राजन् ! या पद्मश्रेष्ठी जवान बे, माटे जो श्रापनी मरजी होय तो तेनेज मोकलीए " राजाए कयुं "तेम करो. ፡ "" पी ज्यारे ते पद्मश्रेष्ठीने बलात्कारे जाली वगाडामां सलगावेला श्रग्निपासे लइ जवा मांड्यो, त्यारे ते पद्मश्रेष्ठीना संबंधी प्रधानने पूढवा लाग्या के, " ए शो अपराध कस्यो बे” प्रधाने उत्तर श्राप्यो के, "तेणे पोताना हाथेज वाचालपणाची अपराध कस्यो बे.” पढी ते पद्मश्रेष्ठीना संबंधीए प्रधानने घणीज विनंती करी, त्यारे प्रधाने तेने बोडावी ने प्रथ मना वृद्ध माणसने ते घरेणां ने वस्त्रो याप्यां, एटले तेणे स्वर्गमां जवा नुं नाम देने गुप्तरीते प्रधानने घेर यावी तेने घरेणां अने वस्त्रो आप्यां. एक वखते राजाए प्रधानने कयुं, " हे प्रधान ! लक्ष्मीदेवीने स्वर्ग Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. मांथी तेडावो. कारण के, तेना विना हुँ घणोज कु:खी था .” एटले प्रधाने विचार करीने लक्ष्मीना जेवी स्वरूपवाली को स्त्रीने लक्ष्मी नाम ठरावी राजाए श्रापेलां घरेणां श्रने वस्त्रो पहेरावीने बगीचामां को न जाणे एम बानी रीते एक ठेकाणे बेसारी. पडी राजापासे आवीने प्रधाने कां,"हे देव ! लक्ष्मीने तेडवामाटे एक माणसने स्वर्गमां मोकल्यो ." __ पली बीजे दिवसे प्रधाने राजापासे श्रावीने का, “ हे महाराज ! वधामणी !!! वधामणी !!! श्राजे लक्ष्मीदेवी स्वर्गमांधी आवी बगीचामां विराज्यां !” प्रधाननां श्रावां वचन सांजली जेम मेघने देखीने मोर नाचे, तेम राजा नाचवा कूदवा लाग्यो! अने पोते पहेरेला सर्व घरेणां प्रधानने देवीनी वधामणीमां बाप्यां!! अने वली म्होटी धामधूमसहित बगीचामां देवी सामो गयो, पडी देवीनुं गौरस्वरूप देखीने राजाए प्रधानने कडं, “ हे प्रधान ! लक्ष्मी पहेली तो कांश्क श्यामववाली, ढूंका कानवाली, लांबा होठवाली तेमज वांका नाकवाली हती श्रने हवे आ घणी गौरवर्णवाली (उजली) तेमज रूपसंपन्न देखाय , तेनुं शुं कारण?" प्रधाने कडं, "हे स्वामिन् ! एवीत्रांति शी करो बो? सांजलो, प्रथम तो त्यां (स्वर्गमां) अमृतनुं जोजन डे अने स्वर्गना राजा इंजे हर्षवडे वस्त्रालंकार विगेरेथी सुंदर करीने मोकली बे,तो पनी गौरवर्ण देखाय एमां श्राश्चर्य शुं?” पड़ी ते वात साची मानी राजा लक्ष्मीने हस्तिउपर बेसारीने नगरमां लाव्यो. हवे राजा ज्यारे लक्ष्मीने स्वर्गनी वात पूजे, त्यारे त्यारे लक्ष्मी पण प्रधाने शीखवी राखेली वात कही राजाने श्रानंद पमाडे अने राजा पण ते सर्व वात साची माने एम करतां घणा दिवसो थया. राजाने पुत्रो थया. पड़ी आयुष्यनो दय थए सते विजयपाल राजा मरण पामीने नरकने विषे गयो. सङनो! महा अहंकारी अने पृथ्वीने तृणसमान गणनार एवा विजयपाल राजाए पण ज्यारे कामदेवने वश्य थश्ने स्त्रीनीपासे दसवा जेवी क्रीडा करी तो बीजा अल्प सत्ववाला प्राणीउनी शी वात करवी ? इति विजयपाल राजानी अने लक्ष्मी राणीनी कथा. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. हवे पंडित पुरुषो पण स्त्रीउने वश्य थाय ने ते कहे जे. ये सकलशास्त्रजलनिधिमंदरशैलाः श्रुतेन गर्विताः जे सयलसजलनिदि-मंदरसेला सुऐण गारवि॥ ____ बालालट्लुरवचनैः तेऽपि जाताः निहतहदयाः बालालल्लुरवयणे-हिं तेवि जायाँ नित्यदियया ॥१॥ शब्दार्थ-(जे के०) जे पुरुषो (सयलसन के०) सकल शास्त्ररूप (जलनिहि के०) समुडनेविषे अर्थात् समुनो पार पामवामां (मंदरसेला के) मेरुपर्वत सरखा अने (सुएण के०) सिद्धांते करीने एटले शास्त्रना श्रन्यासे करीने (गारविश्रा के०) गर्व पामेला . ( तेवि के० ) ते पुरुषो पण (बाला के०) अबलाऊनां (लल्लुरवयणेहिं के०) मनोहर वचने करीने (निदय हियया के०) दणाणां अर्थात् हरण थयां ले हृदय जेमनां एवां ( जाया के० ) थया . ॥ १५ ॥ विशेषार्थ- जे पुरुषो सकल शास्त्ररूप महा समुज्नो पार पामवामां मेरुपर्वत सरखा २ अने सिद्धांतनां रहस्यने जाणवाथी म्होटाश्ने पामेला बे, तेवा विद्वान पुरुषो पण स्त्रीउनां हाव नाव, विलास अने कटाद युक्त वचने करीने हरण थयु जे चित्त जेमनुं एवा थया . श्रर्थात् विद्वान पुरुषो पण स्त्रीऊना राग रूप समुज्ने विषे बड्या , तो साधारण पुरुपो बूडे तेमां तो शुं आश्चर्य? कह्यु डे के-तावदेव कृतिनामपि स्फुरत्येष निर्मल विवेकदीपकः । यावदेव न कुरंगचक्षुषां, ताड्यते चपललोचनांचलैः ॥ विद्वान पुरुषोनो पण था विवेक रूपी निर्मल दी. पक त्यांसुधीस्फूर्णायमान रहे ने के, ज्यां सुधी ते मृगमा सरखां नेवाली स्त्रीउनां कटादरूपी बाणोथी घायल थया नथी. ॥ १५ ॥ हवे लौकिक देवोने पण स्त्रीउनी विटंबना कहे . हरिहरचतुराननचंसूर्यस्कंदादयोपि ये देवाः दरिदरचेउराणणचं-दसूरखंदाश्णोवि 'जे देवा ॥ नारीणां किंकरत्वं कुर्वति धिधिक् विषयतृष्णा नारीण किंकरतं, करंति धिही विसयतन्दा ॥२०॥ शब्दार्थ- (जे के०) समर्थ एवा जे (हरि हर चउराणण के०) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. विश्नु, ईश्वर, ब्रह्मा तथा (चंदसूर खंदाश्णोवि के०) चंड, सूर्य श्रने कार्तिकादिक पण ( देवा के०) देवता जे , ते ( नारीण के ) स्त्रीउना (किंकरतं के०) दासपणाने (कुरंति के० ) करे . ते कारण माटे हे नव्यजीवो! ( विसयतहा के०) विषयनी तृष्णाने (घिकी के०) धिक्कार था ! धिक्कार था !! ॥२०॥ विशेषार्थ- हरि, हर, ब्रह्मा, चंड, सूर्य अने कार्तिकखामी विगेरे समर्थ देवता पण विषयनी तृष्णाश्री स्त्रीउनु दासपणुं करे . अर्थात् स्त्रीउनी सेवा करे . माटे ते विषयनी तृष्णाने धिक्कार था ! धिकार था !!॥२०॥ लौकिक मतने विषे तो ए देवताउनी पासे स्त्रीए नवीन नवीन रीते नृत्य कराव्यु ने. तेमां हरिनुं स्त्रीने विषे परखाधिनपणुं प्रथम रुक्मिणीना विवाह वखते स्पृष्ट कहे , तेथी श्रहिं फरीथी कहेता नथी. गोपीउने विषे क्रीडाना चपलपणाए करीने तेमना वगोववाना बहु प्रकारो लौकिकमां प्रसिक डे, माटे त्यांथी जाणी लेवा. ते श्रा प्रमाणे राधा पुनातु जगदच्युतदत्तदृष्टिमथानकं विदधती दधिरिक्तनांडे ॥ तस्याःस्तनस्तबकलोल विलोचनालिर्देवोऽपि दोहनधिया वृषनंनिरुधन्॥ कृष्णना सामुं जो रहेली अने दहिंथी नरेली गोलीने विषे रवैने मूकती एवी राधा जगत्तुं रक्षण करो. वली ते राधाना स्तनरूप पुष्पना समूहने विषे लागी रहेला चपल नेत्ररूप नमरावाला कृष्णे पण दोवाना मीषथी वारडाने बांध्यो. इत्यादि. महेश्वरे पण पार्वतीनो वियोग न सहन करी शकवाथी अर्धनारीश्वर मूकती धारण करी बे, तेथी तेमणे पण स्त्रीनुं दासपणुं कर्यु . ते श्रा प्रमाणेअंबेयं नेयमंबा नहि किल कपिलः स्मश्रुरस्या मुखाग्रे, तातोऽयं नैव तातः स्तनगुरुहृदयं नैवदृष्टं कदाचित् ॥ केयं कोऽयं किमेतत्कथमिति सनयं याति दूरं विशाखे, देव्यासाऊं सहास्यं रहसि परिणतः पार्वतीशः पुनातु ॥ आ माताले ? ना था माता नथी ? कारण तेमना म्हों उपर काला वाल होता नथी. त्यारे शुं ए पिता ने ? ना पिता पण नहि ? कारण में Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मानी कथा. ყდ तेमनुं स्तनोथी विशाल हृदय क्यारे पण जोयुं नथी. या कोण स्त्री बे ? थवा कोण पुरुष बे !! अने ए शी रीते बे ! ! ! एम जय पामी कार्तिक स्वामी दूर गये ते पालथी पार्वतीनी साथे हास्य पूर्वक एकांतमां क्रीडा करनारा महेश्वर तमने पवित्र करो. इत्यादि. देवता पण स्त्रीने स्वाधिन थया बे, ते उपर ब्रह्मानी कथा. पूर्वे को वखते ब्रह्मा वनमां निवास करी साडा त्रण क्रोड वर्ष सुधी महा उग्र तप करवानो श्रारंभ कस्यो. ते वात सांजली देवतानो राजा इंद्र जय पामवा लाग्यो के " जो ए कोप करशे तो मने पण इंद्रपदथी चष्ट करशे." यावा विचारथी दीन बनेला इंद्रनुं मन मेरु पर्व - तने विषे अथवा तो नंदनवनने विषे पण दर्ष पाम्युं नहीं. नाटक अने स्त्री पण तेने प्रीति उपजावनारी थर नहीं. श्रावी रीते हर्षर हित इंद्रने जो रंजादि अप्सराउंए हाथ जोडीने कधुं. “ढे स्वामिन्! सर्व संपति थापना स्वाधिनमां बे तो पढी न मेलवी शकाय एवं शुं बे ? के जेथी आप श्री चिंता करो बो !” जोके चपल चित्तवाली स्त्री गुप्त बात कहेवाने योग्य तो नयी, तो पण हितकारी स्त्रीउने दुःख निवेदन करी सुख पामी शकाय बे. कांबे के - सुहृदि निरंतर चित्ते, गुणवति नृत्ये प्रियासु नारीषु । स्वामिनि सौहृदयुक्ते निवेद्य दुःखं सुखी जवति ॥ निरंतर प्री निवाला मित्रोने, गुणवाला चाकरोने, प्रेमवाली स्त्रीने अने स्नेहवाला पतिने पोतानुं दुःख कही दुःखी माणसो सुखी थाय बे. रंजा विगेरेनां एवां वचन सांजली इंडे कयुं. “ चौद लोकनो सृजनार ब्रह्मा महातप करेबे, तेथी म्हारुं मन कंपे बे” रंजाए कयुं " दे स्वामिन्! ए कोण मात्र बे ? तेने एक क्षणमात्रमां तपथी ॠष्ट करीशं. ए श्रमारी प्रतिज्ञा बे.” पी इंद्रे रंजा विगेरे सर्व स्त्रीउने ज्यां ब्रह्मा तप करता दता त्यां वनमां मोकली. ते स्त्रीउए पण ब्रह्मानी सन्मुख ज‍ पंचम रागथी मनोहर गायन ने नृत्य श्ररंज्युं. गायन, नृत्य अने वाजींना शब्द सांजली जेनी सर्व इंडिन विह्वल थइ हती एवा ते ब्रह्मा हरिणनी पेठे निश्चल थइ सांजलवा लाग्या. पढी तेनुं नृत्य जोइ प्रसन्न यएला ब्रह्माए तप त्यजी दइने कधुं. " हे देवांगनार्ज ! हुं नृत्य Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱԾ शीलोपदेशमाला. जो प्रसन्न थयो ९, माटे वरदान मागो.” रंजा विगेरे स्त्रीए कह्यु. " हे स्वामिन् ! जो आप अमारा उपर प्रसन्न थया हो तो आ बकरो श्रने कादंबरी नामनी मदिरा ए बे वस्तुमांधी एक वस्तुने ग्रहण करो." ब्रह्मा विचार करवा लाग्या. " बकरानुं नक्षण करवाथी तपनो नाश थाय बे, वली तपस्वीने जीव वध करवो योग्य पण नथी अने मदिरा तो जलरूप ले थने ते उत्तम हृदयवालाने बाध करनारी नथी" एम धारी ब्रह्माए ते निःशंकपणे पीधी. पडी ब्रह्माने बहु उन्माद थयो तेथी तेमणे बकराने मारीने लक्षण कस्यो अने ते देवांगनाउँनी साथे क्रीडा पण करी. पडी देवांगना विचार करवा लागी के “ था ब्रह्माने तप वधारवाथी तो नष्ट कस्या, पण तेमणे साडा त्रण कोड वर्ष तप कमु ने ते शी रीते नाश पामशे? " एम धारी तेए दक्षिण दिशा तरफ नृत्य करवा मांड्यु. ब्रह्माए ते जोवा माटे एक कोड वर्षना पुण्यथी ते दिशा तरफ बीजुंम्हो प्रगट कयु. ए प्रमाणे ब्रह्माए त्रण कोड वर्षतुं पुण्य थापी पोताने चार मुख प्रगट कस्या. पडी ज्यारे देवांगनाए उंचे नाच करवा मांड्यो त्यारे ब्रह्माए अर्का कोड वर्षना पुण्यथी एक उंचुं मुख प्रगट कमु. पठी देवांगना तेमने नमस्कार करी अने हसती बती स्वर्गे गश्. था प्रमाणे ब्रह्मा पण स्त्रीना दासपणाने पाम्या ने. इति ब्रह्मानी कथा. चंजनी कथा. पूर्वे कोई एक वखते सर्वे देवताए नेगा थ चंजने ज्योतिश्चक्रना अधिपतिपणानी पछी आपी. ते वखते सर्वे देवता, ऋषि अने - पिनी स्त्री तेने नमस्कार करवा श्राववा लागी. तेमां चंडे पोताना गुरु बृहस्पतिनी स्त्रीने घणी रूपवाली देखी तेने जोगवी. तेथी गुरुनी स्त्रीने बुध नामनो पुत्र थयो. इति चंजनी कथा. सूर्यनी कथा. को वखते हजार किरणोने धारण करनारो सूर्य पृथ्वीमा फरतो हतो, तेणे रानादे नामनी घणी रूपाली स्त्री दीनी, तेथी मोह पामी ते तेनी प्रार्थना करवा लाग्यो, त्यारे रानोदेये कयु के, “ हे खामिन् ! त Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यनी तथा इंनी कथा. मारं तेज म्हाराथी सहन थ शकत नथी, माटे उठं करो" पड़ी बमापासे जश्ने सूर्य कयु के, “ महाराज ! म्हारं तेज करो” ब्रह्माए सूर्यने कह्यु के, “ जो तुं न बोले तो तेज बुढं करूं.” सूर्ये तेम कबूल करवाथी ब्रह्माए संघाडो मंगावी ते उपर सूर्यने चडावी घसवा माड्यो. पगने घसतां घसतां सूर्ये पुःखाणो, तेथी मोढे बोली गयो, तेथी ब्रह्मा रीसाणा श्रने सूर्यने संघाडा उपरथी उतारी मूक्यो. पली सूर्ये पगमां मोजा पहेरी रानादेने जोगवी. जुर्व के, स्त्रीना स्नेहथी सूर्ये पण । एवी महापीडाने सहन करी. इति सूर्यनी कथा.. जो के कार्तिक स्वामीने लौकिक मतवालाए ब्रह्मचारी मान्या बे. तो पण ते देवपणाने लीधे अविरति होवाथी पुःशीलनुं पात्र . उनी कथा. गौतम ऋषिनी स्त्री अहल्या घणी स्वरूपवाली हती. तेने इंझे दीठी, तेथी ते घणोज कामातुर थयो. पठी एक वखते गौतम झषि न्हावा माटे नदीये गया त्यारे पालथी इंजे गौतमने घरे श्रावी अहव्या साथे विषयसुख जोगव्यु, एटलामां गौत्तम घेर श्राव्या; त्यारे इंज बिलाडानुं रूप लेश बहार नीकल्यो. गौतमे तेने उलखीने श्राप दीधो के, “ त्हारे शरीरे हजार जग (योनि) थाउँ " पठी देवताए ऋषिनी घणी प्रार्थना करीने मनाव्या अने सहस्र नेत्र नाम कराव्यु. एवो स्वर्गनो राजा इंज पण स्त्रीने वश्य थवाथी कष्ट पाम्यो. कयु डे के- किमु कुलवयनेत्राः संति नो नाकनार्य स्त्रिदशपतिरहय्यां तापसी यविषेवे ॥ दृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मरानावुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पंडितोऽपि ॥स्वर्गमां कमलसरखा नेत्रवाली स्त्री नथी ? के जेथी इंछे तापसी अहल्याने सेवी!!! ना ! स्वर्गमा रूपवाली बहु स्त्री जे, परंतु हृदयरूप घासनी फुपडीमा फामदेवरूप अग्नि सलगे बते कयो पंडित पुरुष योग्य अने अयोग्य जाणी शके ले ? अर्थात् को जाणी शकतुं नथी. एवो रीते घणा देवता स्त्रीयोना दासपणाने पाम्या . शति इंधनी कथा, - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. पूर्वे कडेला देवताउने पूजवामां दास्यप कहे बे. पूज्यंते शिवार्थ कैः अपि यदि कामगर्दजाः देवाः पूऊंति सिवेचं, केदिवि जर काम गददा देव ॥ गर्त्तान् शूकरप्रमुखान् किं न खलु पूजयंति ते मूढाः गंत्ता सूरपमुदा-ई "किं ने दु पूयंति 'ते मूढां ॥ २१ ॥ ५श् शब्दार्थ - ( जइ के० ) जो (केहिं वि के० ) को अज्ञानी पुरुषोवडे ( कामगद्दहा के० ) कामे एटले विषये करीने गर्दन सरखा थएला एवा ( देवा के० ) देवता ( सिवढं के० ) मोने अर्थे ( हु ० ) निश्चे ( पूजति के० ) पूजाय बे, तो ( ते मूढा के० ) ते मूढ ( - ज्ञानी ) पुरुषो ( गत्ता के० ) अज्ञानरूप अंधारी खाश्मां रहेला एवा सूयरपमुहाइ के० ) मूंड प्रमुख अधम पशुर्जने पण ( किं के० ) शुं ( न पूयंति के ० ) नथी पूजता ? अर्थात् अज्ञानी पुरुषो पशु सरखा दे - वोने पण पूजे बे ! ॥ २१ ॥ ( विशेषार्थ - मिथ्यात्वरूप मदिराथी उन्मत्त थरला कोइ पुरुषो मोने माटे कामे करीने गर्दन सरखा थएला देवताउने पूजे. बे तो ते मूढ पुरुषो अज्ञानरूप अंधारी खाइमां पडेला मूंड विगेरे पशुउने शुं नयी पूजता ? अर्थात् ज्यारे नगरमा रहेला कामातुर देवता पूजाय बे, त्यारे ते मूंड विगेरे पशु पण पूजावा जोइए, कारण के, ते देवतामां कांप विशेषपणं रहां नथी. कहां बे के - शंत्रुस्वयंजुहरयो हरिणेक्षणानां येनाक्रियंत सततं गृहकुंजदासाः ॥ वाचामगोचर चरित्र पवित्रताय तस्मै नमो जगवते कुसुमायुधाय ॥ ब्रह्मा, विष्णु अने महेश्वर जेनाथ निरंतर स्त्रीउने स्वाधिन रहेला बे. ते वाणिथी न वर्ण. वी शकाय एवा जगवान् कामदेवने म्हारो नमस्कार था. ॥ २१ ॥ " वे कामातुर वा ब्राह्मणादिकने गुरुपणाथी पूजे, तेने माटे उपहा - पूर्व. विषयासक्तोऽपि नरः नारी वा यदि नजेत् गुरुजावं विसयासत्तोवि नरो, नॉरी व जइ नइक गुरुनांवं ॥ ततः पारदारिकैः वेश्यानिः वा किमपराद्धं तो पारदां रिएहिं, वेसीहि वीं किम रु ६ ॥ २२ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलगाथान. ५३ शब्दार्थ - ( जइ के० ) जो ( विसयासत्तो वि के० ) विषयमां आसक थलो एवोय पण ( नरो के० ) पुरुष ( वा के० ) अथवा ( नारी के० ) स्त्री ( गुरुजावं के० ) गुरुनाव एटले गुरुपणाना जानने (नश्क के ) धारण करे, ( रूह के ) तो ( पारदारिहहिं के० ) परस्त्रीए ( वा ho) अथवा (वेसाएहिं के० ) वेश्यास्त्रीउए ( किमवरुद्धं के० ) शुं अपराध को बे ? अर्थात् ज्यारे विषयमां श्रासक्त यएला स्त्री पुरुषोने गुरु करीने मानीए, तो पढी वेश्या अने परस्त्री उनो शो अपराध के, ते do गुरु करीने न मानवी ? ॥ २२ ॥ विशेषार्थ - विषयमा आसक्त थएला व्यास, विश्वामित्र छाने वशिष्ठ विगेरे ब्राह्मणो ने पार्वती, अरुंधती विगेरे स्त्रीउने जो गुरुजावे करीने सेवीए, तो अन्य पुरुषोनो संग करनारी कुलटास्त्री अने वेश्यास्त्री उनो शो अपराध के, तेमनी पण गुरुनावे सेवा न करवी ? कारण के, प्रथम कही गएला पुरुषो ने स्त्रीउंमां तथा कुलटा ने वेश्यामां कं विशेपणुं नथी. अर्थात ते सर्वे सरखां श्राचरण करनारां दे. कचुंबे केसरागोऽपि हिदेवश्चेरुरब्रह्मचार्यपि ! कृपाहिनोऽपि धर्मः स्यात्कष्टं नष्टंदहाजगत् ॥ सरागी देव, अब्रह्मचारी गुरु ने दयारहित धर्म ए सर्वे कष्ट बे. माटे खेद या बे के, जगत् तेवडे नष्ट थइ गयुं बे. ॥ २२ ॥ वे एक चोथा (शील ) व्रतना जंगथी बीजां नतोनो पण जंग थाय बे. तेमां प्रथम प्राणातिपात व्रतनो जंग कडे बे. मैथुनसंज्ञारूढः नवलद्दान् हंति सूक्ष्मजीवानां मेदुणसन्नारूढो नवलक देणे सुदमजीवाणं ॥ इति श्रागमवचनात् हिंसा जीवानां शह प्रथमा आगमर्वयान हिंसी जीवाण- मिइँ पढेमा ॥ २३ ॥ शब्दार्थ - ( मेहुणसन्नारूढो के० ) मैथुनसंज्ञाने विषे श्रारूढ थलो एवो जे पुरुष, ते ( सुहमजीवाणं के० ) सूक्ष्मजीवोनी ( नवलरक के० ) नवलाख संख्याने ( हणे के० ) हणे बे. ( इ के० ) ए प्रकारे ( श्रागमवणार्ज के० ) सिद्धांतना वचनथी ( इह के० ) थालोकने विषे जे शीलवतो जंग बे, तेज ( जीवाणं के० ) जीवोनी ( पढमा के० ) प्रथम एटले मुख्य ( हिंसा के० ) हिंसा कद्देवाय डे. ॥ २३ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ शीलोपदेशमाला. विशेषार्थ- मैथुनसेवामां तत्पर थएलो नूढ पुरुष, मैथुन सेवती वखते मात्र केवलीज देखी शके एवा उत्कृष्टथी नवलाख सूक्ष्मजीवोने हणे . ए प्रकारे सिझांतमां कहेलु होवाथी निश्चय थाय डे के, श्रा लोकने विषे शील जंग करवाथी जीवोनी हिंसा थाय बे. अर्थात् तेथी पहेला प्राणातिपात नामना पहेला व्रतनो जंग थाय . यदागमः-शठिणं जोणिए नवंति बेदियाश्जे जीवा ॥ श्कोव दोव तिन्निव, लकपुहत्तं च उक्कोसं ॥१॥ पुरिसेण, सहगयाए, तेसिं जीवाण होश उद्दवणं ॥ वेणुग दिलंतेणं, तत्ताय सलाग नाएण॥२॥पंचिदिया मणुस्सा, एनगर जुत्तनारिगतंमि ॥ उकोसं नवलरका, जायंति एगवेलाए ॥३॥ नवलरकाणं मझे, जायश् श्कस्स दोएहवसमत्ति ॥ सेसा पुण एमेव य, विलयं वच्चंति तबेव ॥४॥ मेहुणं सेवमाणस्स केरिसए असंजमे कड़ा। गोयमा ! सेजहा नाम एकेश पुरिसेबुरनलियं वा रूवनलियं वा तत्तण अयाणगेण समनिधं सिजा ॥ मेहुणं सेवमाणस्स एरिसए असंजमे काश्त्यादि.॥२३॥ अर्थः- स्त्रीउनी योनीने विषे एक, बे, त्रण उत्कृष्टश्री लद पृथक्त्व (बे लाखथी नव लाख सुधी) बेइंजियादि जीवो होय . पुरुषनी साथे संयोग करता ते स्त्रीनी योनीमां रदेला जीवोनो नाश शाय बे. अग्निवडे तपावेली लोढानी सली रुएनरेली नलीमा नाखवाए करी जेम बधा रुनोविनाश करे ते दृष्टांते. एक मनुष्ये जोगवेली नारीना गर्नमां गर्नज पंचें जिय मनुष्य एक वखते उकृष्टधी नवलाख उत्पन्न थाय . ते नवलाख जीवोमांथी एक अथवा बेनी 'निष्पत्ति थाय बे, अने बाकीना त्यांज एमने एमज विनाश पामे . वली महानीशीथजीने विषे पण कहेलो पाठ दर्शाववामा आवे -गौतम खामीए श्रीमहावीर स्वामीने प्रश्न कस्यो के, "हे जगवन् ! मैथुन सेवनार प्राणीने केवी अविरति लागे ?” लगवाने कह्यु. "हे गौतम ! जेम को पुरुष आकडानी रुनी जरेली नलीने अग्निवर्णमय थयेली लोढानी शलीये करीने नाश पमाडे ( तेमांना रुनो नाश करे,) तेवी रीते असंख्याता जीवनो विनाश करनार एवी अविरति लागे जे." १ गपेली नगवतीजीना पाना १०१ नी टीकामां तिर्थचनी योनीमा गर्नज पंचेंजिय तिर्यंच लक्ष पृथक्त्व उत्पन्न श्राय बे. अने निष्पत्ति पण थाय बे. अने मनुष्यनी योनीमां लक्ष पृथक्त्व उत्पन्न श्राय , अने घणानी निष्पत्ति श्राय के. एम कडं बे. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथन हवे शील नंग करवाश्री बीजा अने त्रीजो व्रतनो पण नंग थाय नेते कहे . 'नो कामिनां सत्यं प्रसिद्ध एतत् जनस्य सकलस्य नो कामीणं सच्चं, पंसिह- मेयं जणस्सँ सयलस्स ॥ तीर्थकरस्वामिप्रमुखादत्तमपि एव तत्र खलु नवेत् तिरसामिपमुदा-दत्तंपि हुँ त खल हुडी ॥२४॥ शब्दार्थ-(कामीणं के० ) कामी पुरुषोनुं (हु के०) निश्चे (नो सचं के०) को कालने विष साचापणुं होतुं नथी. ( एयं के०) ए प्रकारे एटले ए वात ( सयलस्स के०) सर्व एवा ( जणस्स के०) मनुप्यना मध्ये (पसिझं के) प्रसिद्ध . वली (तियरसामिपमुह के०) तीर्थंकर अदत्त अने स्वामि अदत्त विगेरे चारे प्रकारनुं (अदत्तंपि के०) अदत्त पण ( तक के.) ते शीलवतना नंग करनारने (खनु के) निश्चे (हुडा के०) थाय . अर्थात् शील नंग करवाथी तीर्थंकर श्रदत, स्वामि अदत्त, गुरु अदत्त अने जीव अदत्त ए चारे प्रकारनां श्रदत्त लागे . ॥ २४ ॥ - विशेषार्थ- विषयानिलाषी कामी पुरुषो कदि पण साचा होता नश्री. ए वात सर्व मनुष्योमा प्रलिक . कह्यु के- वणिक, वेश्या, शत्रु, जुगारी, परस्त्री सेवनार, छारपाल (दरवाजे उनो रहेनार बडीदार) अने कोल ए सर्वे असत्यज बोलनारा बे. ए प्रकारे शील नंग करवाथी मृषावादरूप बीजा व्रतनो पण जंग थाय जे. वली ते शील खंडन कर.. नारने तीर्थंकर श्रदत्त, स्वामि अदत्त, गुरु अदत्त अने जीव अदत्त ए चारे अदत्त लागेज . शहां प्रश्न के, पिता विगेरेनी आज्ञाथी परणेली पोतानी स्त्रीनी साथे मैथुन सेववाथी झुं त्रीजा व्रतनो जंग थाय ? तेना उत्तरमां कहे डे के, ते मैथुनने विषे पण तीर्थंकर अदत्त अने गुरु श्रदत्त विगेरे लागे . त्यां तीर्थंकर श्रदत्त एटले मोक्षमार्गने विषे प्रवर्तेला पुरुषोने तीर्थंकर महाराजे सर्व प्रकारे मैथुननो निषेध करेलो . तेथी तीर्थकर अदत्त लागे . तथा राजाए पण ते कार्यनी आज्ञा श्रापी नथी तेथी स्वामीश्रदत्त लागे . प्रमुख शब्दथी जीवश्रदत्त श्रने गुरु श्र Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. दत्त पण लागे . ते एवी रीते के योनिमा रहेला जीवोए मने हणे, एवी श्राझा श्रापी नथी तेथी; जीव अदत्त लागे . तेमज गुरु महाराजे पण ते कार्य करवानी श्राझा श्रापी नथी; तेथी गुरु श्रदत्त पण लागे . ए रीते मैथुन सेवनारने चारे प्रकारनां श्रदत्त लागे . ॥ २३॥ हवे शील जंग करवाथीचोथा अने पांचमा व्रतनो जंग थायडे, ते कहे जे. अब्रह्म प्रगटं एव अपरिग्रहिकस्य कामिनी नैव अंबंनं पेयडं चिय, अपरिग्गैदियस्स कॉमिणी नेयं ॥ इति शीलवर्जितानां कुत्र व्रतं पंचव्रतमूलं श्य सीलवङिाणं, कई वयं पंचवंयमूलं ॥॥५॥ शब्दार्थ- स्त्री सेवनाराने (श्रब्बंजं के० ) अब्रह्मचर्य ( पयर्ड के०) प्रगट ( चिय के ) निश्चे बे. अने (अपरिग्गहियस्स के०) परिग्रह रहित पुरुषने ( कामिणी के० ) स्त्री जे ते ( नेय के०) नथीज. (श्य के०) ए प्रकारे ( सीलवजियाणं के० ) सील विनाना पुरुषोने (पंचवयमूलं के० ) पांचवतनुं मूल एवं (वयं के०) व्रत जे ते ( कल के) क्यांथी होय ? ॥२५॥ _ विशेषार्थ- स्त्रीनी साथे विषय सेवनारा पुरुषने अब्रह्मचर्य प्रगटज बे. अने परिग्रह न राखनारा पासे स्त्री होयज नही. कारण के, स्त्री राखवी ए पण एक परिग्रह . था प्रमाणे स्त्री राखनारा पुरुषो शील रहीत होय , तेथी तेवा शील रहित पुरुषोने पंचव्रतनुं मूल एवं व्रत क्यांथी होय ? अर्थात् शील नंगी चोथा व्रतनो नंग श्रने पाचमा व्र. तनो जंग थाय . ॥२५॥ हवे उपदेश कहे . तत् कथं विषयप्रसक्ताः नवंति गुरुवः तथा पुनः तैः तो कर्दै विसयपंसत्ता, देवंति गुरुंणो तहाँ पुणो तेहिँ ॥ जग्नाः जिनानां आज्ञा जणितं एतत् यतः सूत्रे नग्गी जिणोण आणी, जैणियं एवं जन सुते ॥२६॥ शब्दार्थ- ( ता के०) ते कारण माटे ( विसयपसत्ता के० ) विष Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथा. ५७ यमां आसक्त थएला एवा पुरुषो जे जे ते (गुरुणो के ) गुरु (कह हवंति के) केम थाय ? अर्थात् जे कामी पुरुषो , ते गुरु थर शकता नथी. ( तहा के०) तथा ( पुणो के०) फरीने पण ( तेहिं के०) ते कामी पुरुषोए ( जिणाण के०) श्री जिनेश्वर जगवाननी (श्राणा के०) थाज्ञा जे ते ( जग्गा के०) नागी बे. ( ज के०) जे कारण माटे (सुत्ते के०) सिद्धांतने विषे (एवं के०) ए प्रकारे (जणियं के०) कां ॥६॥ विशेषार्थ- विषयमां आसक्त थएला पुरुषो गुरु केवी रीते थ शके ? कारण के, एक शील व्रत नंग करवाश्री बाकीनां सर्व व्रतोनो नंग थाय ने. ते कारण माटे शीलवंत गुरुनेज सेववा. तथा ते कामी पुरुषोए फरीने पण तीर्थंकरनी श्राज्ञा जागी. जे कारण माटे सिझांतने विषे ए प्रकारे कडं . ॥२३॥ ___ वली तेज कहे . न एवं किमपि अनुज्ञातं प्रतिषिद्धं वा अपि जिनवरेजः नै हुँ किंचि अणुन्नायं, पंडिसिई वा "वि जिणवंरिदेटिं। मुक्त्वा मैथुनजावं न तत् विना रागपेषान्यां मुत्तुं मेहुणावं, न तं विणी रागैदोसेटिं॥२॥ शब्दार्थ-(जिणवरिदेहिं के० ) तीर्थंकरोए ( किंचि के०) कां पण सावद्यकार्य (न अणुन्नायं के० ) नथी कह्यु. (हु के) निश्चे (वावि के ) अथवा तो ( मेहुणजावं के ) मैथुननावने ( मुत्तुं के०) मूकीने अर्थात् मैथुननावने उद्देशीने (किंचि न पडिसिहं के०) शुं कां पण नथी निषेध कमु ? अर्थात् तीर्थंकरोए सावद्यकार्य करवू कडुं नथी ने मैथुनजावनो पण निषेध करेलो बे, कारण के ( रागदोसेहिं के०) राग षे करीने ( विणा के०) रहित अर्थात् राग द्वेष विना ( तं के०) ते मैथुननाव (न के० ) नज थाय. ॥२७॥ विशेषार्थ- तीर्थंकरोए सावद्यकार्यने निषेध्या . तथा मैथुनजावने उद्देशीने सर्व व्रतोमा सावद्यकार्यने करवा, कराववा अने अनुमोदवानो उत्सर्ग अपवादे निषेध कस्यो . अर्थात् जिनेश्वर लगवानोए सावद्यकार्यने निषेध्या जे अने सर्व व्रतोमा सावद्यकार्यने करवा, कराववा श्रने Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. अनुमोदवानो उत्सर्ग अपवादे निषेध कस्यो बे; कारण के, राग द्वेष विना ते मैथुननाव उत्पन्न थतो नथी. वली ते राग द्वेष संसारना मूलमा स्थंन समान . कयु के- जो राग द्वेष न होय तो पुःख कोण पामे ? कोना सुखमां विस्मय थवाय अने कोण मोद न पामे ? श्रर्थात् राग द्वेषरहित पुरुषो उःख पामता नथी, कोश्ना सुखमां श्राश्चर्य पामता नथी थने मोदने पामे .॥७॥ हवे उपसंहार कहे जे. ततः सकलेतरकष्टानुष्ठानसमुद्यमं परिहत्य तो सयलश्यरकहा-हाणसमुङमं परिदरे ॥ एकमेव शीलवतं धारयत स्वाधीनसकलसुखं । श्कंचिये सीलँवयं, धरेद साहीणसयलसुदं॥२॥ शब्दार्थ- (ता के० ) ते कारण माटे, हे नव्यजीवो ! (सयल के०) सर्व एवा (श्यर के०) शीलवतथी बीजा (कहाणुहाण के०) कष्टना अनुष्ठानना (समुघमं के०) म्होटा उद्यमने (परिहरेउं के) त्याग करीने (साहीण के ) पोताने वाधीन रह्यं ने (सयलसुहं के०) सर्व प्रकारचं सुख जेमां एवा अने (कंचिय के०) एकज एवा (सीलवयं के) शीलव्रतने (धरेह के०) धारण करो. ॥ ॥ ___ विशेषार्थः- ते कारण माटे हे जव्य प्राणियो! घणाज तीत्र एवा बीजा सर्व प्रकारना तप करवाना अनुष्ठानना उत्साहने त्याग करीने जेमां पोताने खाधीन एवं स्वर्ग अने मोदनुं सर्व प्रकारचं सुख रहेQ बे, एवा एक शीलवतनेज पालो. अर्थात् बीजा व्रतनी अपेक्षा न करतां वतने धारण करो के, जेथी बीजा बहु व्रतोथी मेलवी शकाय सारथी प्राप्त थशे. ॥ २० ॥ पण स्त्रीना संसर्गथी मोद जता अटके डे ते कहे . और निरवद्यरुजवोऽपि जगति सजा निरवऊँनजुआवि जए॥ ___HAधीराणां शिवमार्गाः ग्गा धीरोण सिवम॑ग्गा॥२॥ 'करवा, करावका र जगवानोए साच अने अनुमोदवा तथा मैथुनना Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगा था. ԱԽ शब्दार्थ - (जए के० ) जगत्ने विषे ( धीराण के० ) धीर पुरुषोना ( सावजोग के० ) सावद्य योग एटले पाप सहित योगने ( वसणस(To) त्याग करवाथी सुलज थएला एवा, तथा ( निरवऊ के० ) निखद्य एटले पाप रहित एवा योगने विषे ( उश्रावि के० ) सरल थ एला एवा पण (सिवमग्गा के० ) मोहना मार्गों जे ते ( नारीसंगपसंगा के० ) स्त्रीजना संगना प्रसंगथी अर्थात् स्त्रीउंना संसर्गथी ( जग्गा ho ) जम्न थया बे. ॥ २७ ॥ विशेषार्थ - श्रा संसारने विषे धीर पुरुषोना, सावद्ययोग एटले मैथुनसेवा विगेरे पापकर्माने त्याग करवाथी सुलन रहेला ने निरवद्ययोग एटले शीलवत विगेरे उत्तम कर्मने धारण करवाथी सरल थएला मोहनगरीमा जवाना मार्गों स्त्रीजना परिचयथी नाश पाम्या बे. - र्थात् सावद्य योगने त्यजी देनारा अने निरवद्य योगने सेवनारा धीर पुरुषोज मोक्षनगरमां जाय बे. कयुं बे के संसार तव पर्यंतपदवी न दवीयसी । अंतरा दुस्तरा नस्युर्यदि रे मदिरेणा ॥ हे संसार ! जो म्हारा हृदयनी अंदर पुस्तर एवी स्त्रीउनो वास नथी, तो म्हारे व्हारा कांटेज ए कां दूर नथी. २ए ॥ वे स्त्रीना संगना दोषने दृष्टांते करीने दृढकरता सता कद्रे के संवेगग्रहितदिदः तदुद्भवसिद्धिरपि संवेगगहिर्यदिको तप्नवैसि-६ वि कुमारः दयकुमारो / f / sis: व्रतं उझित्वा चतुर्विंशतिं वर्षान् सेवितवान् गृहवासं वर्ये-मुंधिय चनवी सं-वाँसे सेविंसु गिढ़वासं ॥ ३० शब्दार्थ - (संवेगग हिय दिरको के० ) वैराग्यथी ग्रहण करी बे दीक्षा का जेणे एवा श्रने ( तनव सिद्धीवि के० ) तेज जवने विषे प्राप्त थर बे सिद्धि जेने एवाय पण ( श्रद्दकुमारो के० ) श्रार्द्रकुमारे ( वयं के० ) व्रतने (उझिय के० ) त्याग करीने ( चवी संवासे के०) चोवीश वर्ष सुधी ( गिढ़वासं के० ) गृहस्थाश्रमने ( से विसु के० ) सेव्यो. अर्थात् श्राकुमारे पण चारित्रने मूकीने फरीथी चोवीश वर्ष सुधी गृहस्थाश्रम जोगव्यो बे. ॥ ३० ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० शीलोपदेशमाला. विशेषार्थ - वैराग्य उत्पन्न थवाथी तेज वखते दीक्षाने ग्रहण कर - नार ने तेज जवमां मोदसिद्धिने पामनार एवा याकुमारे चारित्रनो त्याग करीने चोवीश वर्ष पर्यंत गृहस्थाश्रम सेवन कस्यो. ॥ ३० ॥ कुमारनी कथा. या जरत क्षेत्रने विषे मगधदेशमां पृथ्वीरूप स्त्रीना मस्तकने विषे मणि समान ने संपत्तिए करीने स्वर्गने पण तिरस्कार करनारुं राजगृह नामनुं नगर हतुं. ते नगरीने विषे वृद्धिपामेली प्रेमरूप कलाए करी प्रजाए सेवाकरेलो श्रेणीक नामनो राजा राज्य करतो इतो तेने जैनधर्मने जाणनार, निर्भय, अने जेनी बुद्धिरूप तारिका राजमंडलमां - धिक शोजति हती एवो अजय कुमार नामनो पुत्र इतो हवे थाईक नामना देशमां श्राईक नामनुं नगर हतुं. ते नगरने विषे आईक नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने मुख्य पट्टराणी श्रार्डिकानामनी स्त्री हती ने तेनेति गुणवंत तथा जीवदयामां आई (कोमल) मनवालो थाकुमार नामनो पुत्र हतो. ते कुमार जेटला वखतमां सर्व कलानो अन्यासकरी यौवनावस्थामां श्रव्यो; ते वखतमां जेमनो पूर्वथीज परस्पर प्रीतिनो गाढ संबंध चालतो श्रावेलो बे एवा उपर कड़ेला श्रेणिक राजाए पोताना प्रधाननी साथे आईक राजा उपर केटली उत्तम कंबल विगेरेनी नेट मोकली. ते नेटने लइ वार्डकराजाए मगध देशना श्रेणीक राजानुं कुशल पूब्धुं. एटले ते प्रधाने श्रेणीकनुं कुशल कहीने पती श्रेणिके पूबेला कुशल समाचारना वचनरूप मलयाचलना सुगंधि पत्र - करीने प्रधाने कराजानी मनोवृतिरूप वेलने अत्यंत नृत्य क राज्यं पठी कराजानो पुत्र श्रार्ड कुमार श्रेणिकराजाना प्रधानने पूaar लाग्यो के, " हे प्रधान ! श्रेणिक राजाने कोइ योग्य पुत्र बे ? के जेनी साथे हुंपण म्हारा कुलने योग्य एवी अखंडित प्रीतिबाधुं ? कयुं बे के - धन्यास्त एव यत्प्रीतिर्वर्द्धमाना दिने दिने । क्रमात्पुत्रप्रपौत्रेषु, संकामति यथा कणम् ॥ जेम पितानुं देवं पुत्रने, पुत्रनुं देवं तेना पुत्रने एम अनुक्रमे चाले बे, तेम जेमनी प्रीति दिवसे दिवसे वधती बती पुत्र पौत्रादिकने विषे चाले तेने धन्य बे. " श्रकुमारनां एवां वचन सांजली प्रणाम करीने प्रधाने कयुं के, " हे राजकुमार ! धर्मने जाणनार, बुद्धि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारनी कथा. ६१ मान, दयानो समुद्र, पांचसें प्रधानोमां मुख्य, चतुर, करेला गुणने जानार, विद्या ने विनयथी संपूर्ण एवो अजयकुमार नामे श्रेणिक राजाने पुत्र बे; तेने थापे सांजल्यो नथी ?” प्रधाननां एवां वचन सांजली अजयकुमार साये मैत्री बांधवानी इछा करनार पोताना पुत्रने जाणी कराजा ते पोताना पुत्रना वखाण करवा लाग्यो . श्राकुमारे पण. अजयकुमारना गुणोने सांजली, विस्मय पामीने घणा हर्षथी प्रधानने क के " हे प्रधान ! श्राईकराजा तमने श्रेणिकराजा पासे पाठा जवानी आज्ञा आपे त्यारे मने पूब्याविना अथवा मारा समाचार लीधाविना तमारे जतुं नही. कारण अजयकुमारने मलवा माटे म्हारुं चित्त बहु ग्रह सहित दोडे बे." पढी यार्डकराजाए श्रेणिक राजा उपर मोकलवाने माटे मुक्ताफल विगेरे घणी नेटनी वस्तु प्रधानने श्राप अने पोताना प्रधानसहित ते प्रधानने पाठा श्रेणिक राजा पासे जवानी आज्ञा आपी; एटले ते प्रधान श्राकुमार पासे श्रावीने कड़ेवा लाग्यो के, " हे राजकुमार ! श्रार्डक राजाए मने श्रेणिक महाराजा पासे जवानी आज्ञा यापी बे, माटे हुं जाउं बुं ” प्रधाननां एवां वचन सांजली कुमारे पण अजयकुमारने आपवाने माटे मुक्ताफल विगेरेनी केटलीक नेटो आापी. पछी केटलेक दिवसे ते प्रधान राजगृह नगरे पहोच्यो. त्यां तेणे था कराजा श्रापेली मुक्ताफल विगेरेनी जेटो श्रेणिक राजाने थापी तेने जो श्रेणिकराजा घणो संतोष पाम्यो. वली ते प्रधाने श्राकुमारे श्रापेली मुक्ताफल विगेरेनी नेट पण अजयकुमारने यापी सर्व समाचार कह्या. तेथी जयकुमार मनमां विचार करवा लाग्यो के, श्री कोइ सन्न व्य, ने जिन शासननो इछित पुरुष चारित्रथी ऋष्ट थ अनार्य देशमां उत्पन्न थयो बे. जो ते नव्य के दूरजव्य होत तो मा " साथै प्रीति करवानी इछा करत नहीं; कारण समान धर्मवालाने - तरनी प्रीति थाय बे. हुं मारी प्रीतिनुं कारण त्यारेज जाएं, के ज्यारे हुं तेने प्रतिबोध पमाऊ. वली तेने तीर्थंकरनी उत्तम प्रतिमा जेट मोकलं, तेथ ते जातिस्मरण पामीने बोध पामशे. " एवो वीचार करीने धर्ममां १ तेज जवमां सिद्धि पामनार, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ शीलोपदेशमाला. प्रीतिवाला ते अजयकुमारे श्री श्रादिदेव (रुपनदेव)नी सुवर्णनी प्रतिमा तथा बीजा केटलाएक पूजानां उपकरणो एक पेटीमां जरी पोताना प्रधाननी साथे आवेला आर्डक राजाना प्रधानने आप्यां अने कयु के, “श्रा पेटी आर्डक राजाथी बानी आर्डकुमारने श्रापजो" पठी प्रधाने बानि रीते ते पेटी आईकुमारने श्रापी अने आईकुमारे पण घणा हपंथी एकांते ते पेटी उघाडीने जोयुं तो तेमां श्री आदिदेवनी प्रतिमा दीठी एटले विचार करवा लाग्यो के, “था घरेणुं हाथमां पहेरातुं हशे! माथे पहेरातुं हशे !! के हृदयमां धारण करातुं हशे !!! में आ घरे एं श्रगाउ कयारे पण जोयुं ?" एम विचार करतां करतां तेने जातीस्मरण ज्ञान प्राप्त थयुं अने पूर्वना लवनी वात सांजली के, " हुँ पूर्वनवने विषे (त्रीजा नवने विषे) मगधदेशने विषे वसंतपुर नगरमां सामायिक नामनो कणबी हतो. बंधुमति नामनी मारी स्त्री हती. को दिवसे ते स्त्रीसहित में सुस्थित नामना श्राचार्य पासे धर्म सांजलीने वैराग्यथी दीक्षा लीधी. एक दिवसे साध्वीउनी साथे विहार करती बंधुमतीने में दीठी; तेथी हुँ पूर्वना अनुरागथी तेनी श्छा करवा लाग्यो. ते वात जाणीने ते मने कहेवा लागी के, “हे साधो ! तमारे अने मारे वृत्त !!" पड़ी ते अनशन वृत्त लश् प्राणत्याग करीने वर्ग लोकमां गश्. था वात में जाणी तेथी हुँ वीचार करवा लाग्यो. “म्हारी पूर्वावस्थानी स्त्री के जेणे म्हारी साये दीक्षा लीधी हती, तेणे म्हाराज माटे प्राण त्याग कस्या.” एवो वीचार करीने ढुं पण चतुर्थ वृतना जंगनी बीकथी श्रणशन वृत लश् मृत्यु पामी देवता थयो अने त्यांथी चवीने श्रा अनार्य देशने विषे जन्म पाम्यो ९.” श्रावी रीते ते आईकुमार पूर्वना जन्मनुं ज्ञान थवाथी फरी विचार करवा लाग्यो के “ जेणे मने आ प्रमाणे पूर्वजन्मनो बोध प्रमाड्यो तेज मारो गुरु अने तेज म्हारो बंधु " एम वीचारी तेणे अजयकुमारने मलवा जवानी श्चा करीने आकराजाने कर्वा के “हे तात ! हुं श्रेणिक राजाना पुत्र अजयकुमारने मलवानी श्छा करुं बुं, माटे मने श्राज्ञा श्रापो.” पुत्रनां श्रावां वचन सांजली बाईक राजाए कयु के “हे व ! आपणी पोताने स्थानके रहिनेज श्रेणिक राजानी साथे प्रीति , मादे त्यां मलवा ज Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ आऽकुमारनी कथा. वाय नहीं.” श्राईक राजानां श्रावां सांजली जेने अनयकुमार पासे जवानी घणीज श्छा बे एवो ते आर्डकुमार आसक्त थएली कुलस्त्रीनी पेठे जवाने तथा रहेवाने शक्तीवान न थयो, परंतु अजयकुमारनुं तथा तेना गुणोनुं प्रत्यद दीगनी पेठे ध्यान करवा लाग्यो. वली घरनेविषे तथा वननेविषे अथवा बीजे को ठेकाणे ते शांति न पामतां तथा श्रजयकुमार संबंधी वातो करता विचार करवा लाग्यो के, “जो परमेश्वरे पांखो थापी होत तो तुरतज अजयकुमारनी पासे जात." एवी रीते अजयकुमारने मलवा माटे जंचा चित्तवाला थएला था कुमारने जाणीने श्राईक राजाए पुत्रने जवानी रजा न श्रापतां पांचसो सामंतो तेना रदणने माटे राख्या. यानी पेठे पोताना पमखाने न मूकता ते सामंतोने जो आर्डकुमारे विचामु के, “श्रा तो केदमां पड्या." पड़ी ते आर्डकुमार सामंतोनी साथे हमेशां पोताना नगरथी पांच पांच गाउ जवा आववा लाग्यो. को दीवस आठ गाउ जाय ने पाबो श्रावे. कोइ दिवस वेदेलो आवे. को दीवस मोडो श्रावे. एम करतां करतां एक दिवस अजयकुमारे मोकलेली श्रादीश्वर नगवाननी प्रतिमा अने रत्न विगेरे केटलोक समान एक पेटीमां जरी समुसने कीनारे वहाणमां बानी रीते मोकली देश, पोते सामंतोनी साथे वनमां वीहार करता करता तेउने पळवामे राखी बानी रीते पोताने माटे राखेला ते वाहाणमां बेसी अनयकुमारना देशमां गयो त्यां तेणे अजयकुमारे मोकलेली श्रादीश्वर नगवाननी प्रतिमा तेने पाली मोकली अने पोते लावेला धनने सातदेत्रमा पहेंची नांखी साधु खरूपने ग्रहण करी जेटलामा सामायिक चारित्रनो उच्चार करे बे एटलामां आकाशवाणी थर के, "अहो बाईक ! तुं दीक्षा न ग्रहण कस्य.कारण के कर्मनुं फल तो तीर्थकरोने पण जोगव, पडे बे. त्हारे हजु जे जोगावली कर्म , तेने जोगव्या वीना था दीदारूप व्रतने धारण करवाने तुं योग्य नथी, कारण के जे माणस नोगावली कर्म जोगव्या वीना दीदा लहे , ते व्रत थकी जष्ट थाय ने अने तेज कारणथी नरकमां जq पके ." ा प्रकारनी आकाशवाणीनो पण अनादर करीने आर्डकुमारे सहसा दीक्षा लीधी. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. पड़ी ते प्रत्येकबुद्ध, व्रतनुं पालन करतां एक दीवस वसंतपुर नामना नगरमां थाव्या के जे नगरने विषे धनावदशेनी धनवती नार्यानी कुखे पोताना पूर्वनवनी बंधुमती स्त्री मृत्यु पामीने, श्रीमति नामनी पुत्रीपणे उत्पन्न थर यौवन अवस्थामां आवी हती. ___एक दिवसे ते श्रीमति, पोतानी पांच सात सखी सहित ज्यां नगरनी बहार देवमंदिरने विषे आकुमार मुनि काउस्सग करी उजा हता त्यां मंदिरमा रमवाने माटे श्रावी. पनी ते कुमारी मंदिरना एक एक थांजलाने "श्रा म्हारो पति था म्हारो पति” एम कहीने वरवा लागी. एटलामा श्रीमति पण काउस्सग्ग करीने उन्नेला आईकुमार साधुने थांजलानी ब्रांतिथी “श्रा मारो पति” एम कहीने वस्या. ते वखते देवताए “बहु सारं थयुं! बहु सारं थयु!!” एम गर्जना करीने रत्ननी वृष्टि करी. देवताउँए करेली गर्जनाथी नय पामेली ते श्रीमति, आकुमार मुनिना पगने वलगी रही. पड़ी श्राकुमारे पोताने प्राप्त श्रयेला उपसर्गने देखी पोताना पग बोमावी त्यांथी विहार कीधो, ते वखते श्रीमतिए कह्यु के, “म्हारे था नवमां तमेज पति थजो, बीजो कोई नहीं,” हवे देवताए जे रत्नवृष्टि करी हती तेनो को धणी न दे. खीने राज पुरुषो ज्यारे ते लेवा माटे श्राव्या त्यारे देवताए कह्यु के, “ ए सर्वरत्न श्रमे कन्याने विवाहमां दीधां बे, माटे तमारे ग्रहण करवां नहीं.” देवतानां एवां वचन सांजली राजाना पुरुषो पाना गया. पली श्रीमति ते अव्य लेश्ने पोताना पितानी साथे घेर श्रावी. पबी केटलेक ठेकाणेथी श्रीमतिने माटे विवाहना मागा आव्या; त्यारे श्रीमतिये पिताने कर्वा के, " हे तात ! में जेने पति कह्यो जे ते जो म. लशे तोज ढुं विवाह करीश; नहीं तो नही करूं. कारण लोकमां पण कह्यु के-॥ सकळाल्पंति राजानः, सकृजापंति पंमिताः ॥ सकृत्कन्या प्रदीयंते, त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥ राजा एकवार बोले , पंडितो एकवार बोले , कन्या एकवार परणावाय जे. ए त्रण एक एक वार थाय .” एवां वचन सांजली धनावह शेठ पुत्रीने कहेवा लाग्यो के, " हे वछे ! तें जेने पति कहेलो , ते जमरानी पेठे विचरनारा मुनि केम म१ कोइ पण वस्तुने जोइ बोध पामे ते. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजकुमारनी कथा. य लशे? श्रने जो ते मलशे तो उलखाशे केम ?” श्रीमतिये कह्यु“हे तात ! हुं नामतो नथी जाणती; पण मेघ गाजवाथी जय पामीने हुं ते मुनिना पगने वलगीपडी, त्यारे में तेमना पगने विषे पद्म दी ए एधाण .” धनावह शेठे कर्वा " हे पुत्री! तो हवे जे जे मुनि आवे तेमने त्हारे दान देवू अने तेमना पग जोवा.” श्रीमतिये पण ए प्रमाणे करवां मांड्यु. एम करता करतां बार वर्ष वीती गयां. एवामां आर्षकुमार मुनि त्यां श्राव्या. तेमने श्रीमतिये उलख्या एटले दोडीने ते महमाने पगे वलगी अने कयु के “ हे स्वामिन् ! तमे ते वखते म्हारो तिरस्कार करीने जता रह्या, परंतु दवणांम्हारा उपर कृपा करी मने सेवो." पड़ी थाईकुमारे देवताना वचनने वीचारीअने जोगकरम उदय श्राव्युं जाणी श्रीमतिनी साथे पाणीग्रहण कऱ्या. पड़ी गृहवास करीने रहेला आर्डकुमार थकी श्रीमतिने त्रीजे वर्षे पुत्र थयो अने ते पुत्र ज्यारे नव वरसनो थयो त्यारे श्रार्डकुमारे श्रीमतिने कडं के “ हे प्रिये ! त्हारे सहाय्यरूप पुत्र थयो बे, माटे हवे हुँ दीक्षा लजं.” पतिनां एवां वचन सांजली श्रीमतिये रेंटी मांडी सूतर कांतवा माडयु. एटलामां बहार रमवा गयेल पुत्र आव्यो भने श्रीमतिने कहेवा लाग्यो के “ हे मात ! था शुं काम करवा माड्युं ?" श्रीमतिये कडं के "हे वह ! तुं न्हानो डे अने त्हारो पिता दीक्षा लहे बे; माटे ढुं था काम करूं .” पुत्रे कडं " हे मात ! म्हारो पिता क्या जवाना ने ? हुँ तेमने बांधीने राखीश.?" श्रा सघली वात श्राईकुमार कपट नीशाथी सूता सूता सांजलता हता. पडी ते पुत्र आर्डकुमारना पग सूतरथी बांधीने माताने कहेवा लाग्यो के, “ मात ! तमे जय पामशो नही. में म्हारा पिताना पग बांध्या जे.” पुत्रनी आवी क्रीया जोश्ने आर्डकुमारने दया श्रावी, तेथी विचार करवा लाग्या के “ जेटला सूतरना तांतणाथी म्हारा पग बांध्या होय एटला वर्षसूधी मारे ग्रहस्थाश्रममा रहे. वधारे वार रहे, नहीं.” एवो निश्चय करीने पनी पोताने पगे बांधेला सूतरना तांतणा गण्या तो बार थया; एटले बीजां बार वर्ष सूधी गृहस्थाश्रमने विषे रह्या. एवी रीते पहेलानां बार वर्ष अने पडीनां बार वर्ष एम चोवीश वर्ष गृहस्थाश्रममा रहेला ते आकुमार एक दिवस रात्रे विचार करवा ला Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. ग्या के, “ पहेला नवमां तो में मने करीने चारित्रनी विराधना करी हती, तेथी हुं अनार्य देशमा उत्पन्न थयो ढुं श्रने आ नवे तो कायाये करीने चारित्रती विराधना करी , तो हवे म्हारी शी गति थशे ?" एम विचार करीने श्रीमतिनी रजा लश् फरी मुनिवेषने धारण करी, पृथ्वी उपर वीहार करवा लाग्या. ___ एक दिवस राजगृहनगरना मार्गमा विहार करता ते श्राजकुमारे पोतानी पासे प्रथम दता ते पांचसो सामंतोने चोरीनो धंधो करता दे. खीने पूज्युं के, “ हे सामंतो! तमे था शो धंधो करो बो ? ” सामंतोए कडं के, “ हे महाराज ! श्राईकराजाए श्रमने तमारी संजाल राखवा माटे राख्या हता, पण ज्यारे तमे श्रमाराथी बानी रीते नाशी गया, त्यारे अमे विचार कस्यो के, “ जो हवे श्रापणे राजापासे जाशुं तो श्रापणने मारी नाखशे; माटे राजापासे न जतां बीजो उपाय खोलवो.” एम विचार करीने अमे था चोरीनो धंधो करवा मांड्यो अने श्राज अमे तमने उलख्या में माटे अमे प्रार्थना करीने कहीये बीये के श्रमने तमारो धर्म पमाडो." एवां ते चोरीनो धंधो करनारा सामंतोनां वचन सांजली बाईकुमारे कडं. “ हे सामंतो! था संसारमा दश दृष्टांते करीने मनुष्य जन्म घणो उर्लज . तेमां वली धर्मनी प्राप्ति तो घणीज उर्द्धन . माटे प्राणातिपात मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन भने परिग्रह ए सर्वनो त्याग करी पुण्यनो श्रादर करवो.” एवो उत्तम उपदेश सांजली क्रूर कर्मने करनारा ते पांचसो सामंतो चोरीनो धंधो मूकी दश्ने कहेवा लाग्या के “ हे महाराज ! तमे प्रथम श्रमारा स्वामी हताश्रने हमणां पण तमेजस्वामी बो; माटे अमने दीक्षा श्रापो." सामंतोनां वचन अंगीकार करी बार्डकुमारे तेमने संसारसमुज तार नारी दीक्षा आपी. पड़ी ते सर्वने साथे तेडीने श्रार्डकुमार श्रीमहावीर खामीने वांदवा माटे जेटलामां राजगृह नगरनी पासे श्रावे , एटलामां रस्ते गोशालो मल्यो. गोशालाए तेमने जोश्ने कयु. " अहो! तमे था वृथा तप करो बो, कारण के प्राणीने सुखःख मलवामां प्रारब्ध एज प्रमाण . सेंकडो उपायो करवायी पण जे मेलवी शकातुं नथी, ते फक्त प्रारब्धना Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आईकुमारनी कथा. योगथी सहेजमां श्रावी मले .” श्राकुमार मुनिए कह्यु. “ हे गोशाल ! तुं जेम तेम बोल नहीं; कारण प्रारब्ध अने पुरुषार्थ ए बन्ने मलवाथी कार्य सिद्धि थाय . जेमके प्रारब्धना योगथी जोजन तो म. ल्यु, पण ते थालीमां रहेढुं जोजन ज्यांसुधी थापणे हाथ चलावीए नही त्यांसुधी मुखमां पेसे नहीं. माटे कांश्क प्रारब्धना योगश्री श्रने कांश्क पुरुषार्थथी एम बन्नेथी कार्य सिद्धि थाय, बे, पण फक्त प्रारब्धथीज कार्यसिकि थाय, एम मिथ्या कदाग्रह न करवो.” कडं ले के"प्रारब्ध अचिंत्य बलवालुं तो पण पुरुषार्थ तेथी पण वधारे बलवान बे. जुलं. श्राकाशमांथी तो पाणी क्यारेक पडे ने पण कुवो खोदवाथी निरंतर मले ." श्रा प्रमाणे कही आकुमार मुनिए गोशालाने बोलतो बंध करी दीधो, तेथी देवता, विद्याधरो अने गंधर्वो तेमनी स्तुति करवा लाग्या. पली जीवदयाना बाजासे करीने ब्रांति पामेला एवा अने हाथीना मांस खानारा हस्ति तापसना थाश्रममां श्राव्या. तेमने ते तापसो कहेवा लाग्या के, “ धान्यरूप अनेक न्हाना जीवो मारवाथी शं? पण एक म्होटो हाथी मास्यो होय तो तेथी घणा दिवस श्राजीवीका चाले; तेथी श्रमे श्रा एक हाथी मास्यो ने अने बीजाने बांधी राख्यो ." तापसो एम कहे जे एटलामां तो पेहेलो बांधेलो हाथी आर्डकुमारने देखीने वीचार करवा लाग्यो के, “था मुनिने हुं वांउं." हाथी एम विचार करे बे, एटलामां तो तेनां सर्व बंधन बूटी गया. पड़ी ते हाथी मुनि तरफ दोड्यो एटले लोको जयथी हाहा शब्द करी जागवा लाग्या, पण बार्डकुमार तो मेरु पर्वतनी पेठे थचल उन्ना रह्या. पडी हाथी श्रा. कुमार मुनिने प्रणाम करी तेमनी पासे उनो रह्यो अने मुनिना चरणनो वारंवार स्पर्श करी बहु हर्ष पाम्यो. एटले सर्व तापसो हर्ष पामी अने आर्डकुमार पासेथी बोध पामी श्री महावीर खामीना समवसरण तरफ चाल्या. ए सर्ववात ज्यारे श्रेणीक राजाए सांजली, त्यारे ते श्रने अजयकुमार, थाईकुमार मुनिपासे आवीने पूबवा लाग्या के, “ हे महर्षे ! तमारा दर्शनथी हाथीनां बंधन बूटयां, ए आश्चर्यने सांजलवाने बुं बु.” राजानां एवां वचन सांजलीने थाऽकुमार मुनिए कह्यु के, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ शीलोपदेशमाला. 66 हे राजन् ! हाथीनां बंधन बूढे ए कांइ आश्चर्य नथी, पण सूतरना तांतणाथ बांधेला पेला बंध ऋटवा ए दुस्सह मानुं तुं.” एम कही ने तेणे पोतानुं सर्व वृत्तांत कयुं; एटले सर्व सजा हर्ष पामी अने अजयकुमार पण कुमारनां वखाण करवा लाग्यो . श्राकुमारे अजयकुमारने कयुंके, “ तमे म्हारा उपर श्री आदीश्वर जगवाननी प्रतीमा मोकली कयो को उपकार नथी कस्यो अर्थात् सर्व प्रकारनां उपगार या बे, कारण के जे प्रतिमाना प्रसादथी हुं धर्मने उलखी चारित्रने पाम्यो लुं. हे अजयकुमार ए सर्व व्हारो प्रसाद ठे." एवी श्राश्चर्यकारक ते कुमार मुनिनी कथा सांगली घणो आनंद पामेलो श्रेणिकराजा अजयकुमार सहित नगरमां पाठो गयो धने थार्डकुमार पण ते राजगृह नगरमां श्री वीर खामीना समवसरणनां दर्शन करी कृतार्थ थइ मनुष्य जन्मना कर्मनो क्षय करी मोक्ष पाम्या. ॥ इति रुद्रपक्षीय गठमां जहारक श्री संघ तिलक सूरिनी पाटे आभूषणरूप थएला श्री सोमति लक सूरिए रचेली शीलोपदेशमालामां श्राकुमारानी कथा समाप्ता ॥ सामान्यनी वात तो दूर रही, परंतु श्री जिनेश्वरोए दीक्षा श्रापेला पुरुषोने पण स्त्रीजना संगथी दोष प्राप्त थाय बे ते कड़े बे. प्रतिदिवसं दशदशबोधकोऽपि श्री वीरनाथ शिष्योऽपि पेइदिवस दददेहबो - दगोवि सिरिवीरनार्दसी सोवि ॥ वेश्यायाः सुतोऽपि सन् नंदिषेणमुनिः सेनिवि संतो, वेसाए नंदिसेमुणी ॥ ३१॥ शब्दार्थ - ( प दिवस के० ) दिवस दिवसप्रत्ये ( ददबोह गोवि के० ) दश दश पुरुषोने बोध करनार एवा, तथा (सिरिवीरनाहसी सो वि के० ) श्री वीरखामीना शिष्य थएला एवाय पण अने ( से पिश्रसुविसंतो ho ) श्रेणिक राजाना पुत्र बतां पण ( नंदिसेणमुणी के० ) नंदिषेण मुनि ( वेसाए के० ) वेश्याना घरने विषे रह्या हता. ॥ ३१ ॥ विशेषार्थ - दिवस दिवस प्रत्ये (इम्मेशां ) दश दश पुरुषो ने बोध आपी चारित्र ग्रहण करावनार, श्रीमहावीर स्वामीना हाथथीज दीक्षा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदिषेण मुनिनी कथा. धारण करनार अने श्रेणिक राजाना पुत्र बतां पण श्री नंदिषेण मुनि वेश्याना घरने विष बार वर्षसुधी रह्या हता. ॥३१॥ नंदिषेण मुनिनी कथा. को एक देशमां को ब्राह्मणे यज्ञ करवा मांड्यो श्रने ते यज्ञमडपनी रक्षा करवाने माटे तेणे एक चाकर राख्यो. ते चाकर जैनधर्मनो जाण होवाथी तेणे ब्राह्मणने कह्यु के “ यज्ञ करतां जे अन्न विगेरे वधे ते जो तमे मने थापो तो हुँ यज्ञमंडपर्नु रक्षण करवा रहूं" ते वातनी ब्राह्मणे हा कहेवाथी ते त्यां रह्यो. पड़ी ते यज्ञ करनार ब्राह्मणे वेद चणेला अने यज्ञकर्म कराववामां कुशल एवा ब्राह्मणोने बोलावी मधुपर्क विगेरे यानुं कर्म करावी हवन विधि करावी अने सेंकमो घमा घृतादि होमाव्युं, हमेशां ब्राह्मणोने विविध प्रकारनां जोजन जमाडतां जे कां बाकी रहे ते यज्ञमंडपर्नु रक्षण करनार पेला चाकरने श्रापे; तेथी ते पण पोताने त्यां वहोरवा माटे श्रावेला साधुने ते प्रासुक अन्न जाणी जक्तिथी वहोरावे अने योग्य वस्त्रो पण वहोरावे. पड़ी ते चाकर केटलेक काले आयुष्यनो दय करी मृत्यु पामी देवलोकमां देवपणे उतपन्न थयो अने त्यां घणो काल देवसंबंधी नोग जोगव्या पली प्राशुक अन्नना दानश्री श्रेणिकराजाने घेर नंदिषेण नामनो पुत्र थयो. ज्यारे ते अनुक्रमे यौवन अवस्थाने पाम्यो, त्यारे श्रेणिकराजाए तेने रूप अने लावण्यथी जोगववा योग्य शरीरवाली पांचसे कन्या परणावी. हवे एक वनमां को गजें पांचसे हाथणीउनी साथे जेम इंड वर्गनी स्त्रीयोनी साये क्रीडा करे तेम क्रीडा करतो हतो. एक दिवसे ते गजें5 विचार करवा लाग्यो के, “ रखे को नवो हाथी जन्म पामी मने मारीने था यूथनो राजा थाय.” एवो वीचार करीने ते हाथणीने जे जे पुत्र थाय तेनो तेनो नाश करवा लाग्यो. एवा वखते जे ब्राह्मणे यज्ञ कस्यो हतो, ते ब्राह्मण मरीने हाथणीना उदरमा श्राव्यो त्यारे हाथणीए विचार कस्यो के. “ म्हारे जेटला जेटला पुत्र थया ते सघला था हाथीए मारी नाख्या बे; तो हवे आ गर्जने को पण उपाय करीने जीवाहुँ” एवो विचार करीने कपटथी ते पगे लुली थ धीमे धीमे चालवा मांड्युं. अने एक दिवस हाथी पासे जाय एक दिवस न जाय एम बे Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ go शीलोपदेशमाला. चार दिवस करीने हाथीने विश्वास उपजाव्यो; कारण के स्त्रीयोए कोने कोने नथी नेतस्या. एक दिवसे हाथीबीजी हाथणीउनीसाथे घणे दूर कीमा करतो हतो अने श्रा हाथणीने प्रसवनो अवसर होवाथी ते पोताने माथे एक घासनो पूलो मूकी त्यांथी केटलेक दूर तापसोनो आश्रम हतो त्यां श्रावीने तेणे तापसोने पगे लागी पोतानो नाव जणाव्यो. तापसोए जाण्यु के, “ ए श्रापणे शरणे श्रावी .” पड़ी तापसोए आश्वासन करीने कडं के, “श्रा अमारा स्थानमां तुं निर्जयथी रहे.” पड़ी ते हाथणी पु. त्रने जन्म श्रापी पाबी यूथमां गश् अने एक एक दिवसने आंतरे श्रावी पुत्रने सुध पान करावी जाय. तापसोए हाथीना बच्चाने पाल्युं अने ज्यारे तापसो आश्रमना वृक्षने पाणी सींचे त्यारे ते बाल हाथी पण सींचवा लागे. ए परथी तापसोए तेनुं नाम सेचनक पाड्यु. पनी श्रनुक्रमे ते बाल हाथी यौवन श्रवस्थाने पामी सात हाथ उंचो, नव हाथ लांबो, त्रण हाथ जाडो, न्हानी डोकवालो, पीला नेत्रवालो, सांतेअंगथी सुंदर श्रने चारसोने चालीश लक्षण युक्त मदोन्मत्त जन जातिना गजेंउनी पदवीमां प्राप्त थयो. एवा समयमां हाथणीना परिवारसहित पासेनी नदीमां पाणी पीवा श्रावेला पोताना पिताने मारीने ते पोते यथपति थयो. पठी ते यूथपति मनमां विचार करवा लाग्यो के, “जेम म्हारी माताये कपट करीने म्हारा पिताथी गुप्त रीते मने तापसोना श्राश्रममा राख्यो, तेम म्हाराथी गुप्तरीते कोइ पण हाथणी पोताना पुत्रने राखे तो में जेम म्हारा पिताने मारी नाख्यो तेम ते मने पण मारी नाखे; माटे था वनमां तापसना श्राश्रम विगेरे को पण गुप्त स्थानक राखवां नही !” एवो विचार करीने वांदरो जेम पदीऊना मालाने जागी नाखे तेम ते तापसोना थाश्रमोने तोमी पाडवा लाग्यो. तापसोए त्यांची नासी श्रेणिक राजा पासे जश्ने कयु के, “हे राजन् ! वनमां सर्व लक्षणसंपूर्ण एक सेचनक नामनो हाथी श्राव्यो ने अने ते अमारा श्राश्रमोने तोमी पाडे जे.” ए वात सांजली श्रेणिक राजा वनमां श्राव्यो अने पोते क्यारे पण नहीं देखेला एवा सर्व लक्षणसंपूर्ण हाश्रीने पकमी नगरमां लावी एक महोटा बालान स्तंन साथे बांध्यो. पड़ी ते हाथी नाश पामेला महरवाला मनखी पुरुषनी पेठे यांखोने Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदिषेण मुनिनी कथा. बंध करी शांत थयो. पड़ी जेए ते हाथीने पालीने मोटो कस्यो हतो अने जेऊना आश्रमोने तेज हाथीए नागी नाल्या हता, एवा ते तापसो हाथीनी पासे श्रावी तिरस्कार करी कहेवा लाग्यो के, " हे पुरात्मन् ! अमोए हारं पालन कयुं हतुं अने तने लाम लमाव्यो हतो; ते तुंथमाराज आश्रमने जागवा लाग्यो. तेनांज तुं था फल जोगवे .” एवां तिरस्कारनां वचन सांजली जेना रातां नेत्र थयां ले एवो ते हाथी “श्रा तापसोना वचनश्रीज म्हारी आ दशा थर बे." एम धारी क्रोध करी आलान स्थंजने मूलमांथी उखेडी नाखी, बंधनोने तोडी नाखी, तेज वनमां नासी जश् फरीथी तापसोना आश्रमोने तोडी पाडवा लाग्यो. फरीथी पण तापसोनुं रक्षण करवा माटे अने हाथीने पकडवामाटे श्रे. णिकराजा पुत्रोनी साथे हाथी उपर बेसीने वनमां गपो. पण जेम उष्टजुत मंत्रने जाणनारा पुरुषने पण वश थतुं नथी तेम ते हाथी श्रेणिक राजाने अने नंदिषेण विनाना बीजा पुत्रोने वश थयो नहीं. पनी नंदिघेण हाथीने पकडवा माटे गयो. ते वखते नंदिषेणना वचन सांजलीने अने पूर्वना जन्मने संजारीने ते हाथी जाणे जीते चितरेलो होय तेवो गरीब थ गयो, पडी नंदिषेण कुमार गरीब बकरानी पेडे थर रहेला ते हाथी उपर बेशीने ज्यारे गाममां श्राव्यो, त्यारे श्रेणिक राजाए सर्व लक्षण संपूर्ण एवा ते हाथीने युवराजनी पेठे पोताना सर्व हाथीनो राजा ठरावी पट्टानिषेक कस्यो. एक वखते ते राजगृह नगरना गुण शिल नामना चैत्यने विष श्री महावीर स्वामी समवसस्या एटले पुत्र स्त्री विगेरे सहित श्रेणिक राजा त्यां श्रावी प्रजुने वांदी धर्म सांजलवा पागल बेगे अने कानने विषे अमृतनी सरखी प्रजुनी चार प्रकारनी देशना सांजली तेणे सम्यक्त्व लीधुं. अजयकुमार विगेरे पुत्रोए श्रावकनो धर्म थादस्यो. पनी नंदिषण पिताने प्रणाम करीने कहेवा लाग्यो के, “ हे स्वामिन् ! तमे मने श्राजसुधी पालण करी, परणावीने लाम लमाव्यो बे; तो हवे हुँ दीक्षा लश्श." एवी रीते माता पिताने थामहथी समजावी तेणे बलात्कारे दीक्षा सेवा मांडी एटले आकाशवाणी थर के, “ हे वछ ! जोगावली कर्म जोगव्याविना बूटतुं नथी. त्हारे हजु जोगावली कर्म घणुं बाकी . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ शीलोपदेशमाला. माटे काल ( अवसर ) नी वाटजो. कारण के नोगावली कर्मनो क्षय थया पडी दीक्षा लेनारने अंतराय थतो नथी. अत्यारे दीक्षा ग्रहण करवाने मिथ्या उत्साह न कर. अने चारित्रने नंग करनारा जोगावली कर्मनो घरने विषे रहीने नाश कर.!” एवी रीते श्राकाशवाणीए ना कह्या बतां पण " साधुना मार्गमा रहेला मने जोगावली कर्म शुं करशे ? " एम कर्मनो अनादर करीने श्री वीरप्रन्नु पासे गयो. प्रजुए पण ना कही तो पण ते पोताना श्राग्रहथी निवृत्ति पाम्यो नहीं अने हर्षथी दीदा धारण करी. पठी महा पुःसह तपे करीने पोताना शरीरने शोषण करवा लाग्यो. जोगनी श्छा उत्पन्न थाय तो तेने बलात्कारे रोकीने प्रेतवनमां जश्ने आतापना करे; तथा विकाररूप अरण्यमां इंजियरूप चोरो जो अत्यंत पीडा करे तो ते सहन करी नंदिषेण श्रात्मघातथी मरवानो विचार करे अने शस्त्रथी शरीरनो नाश करवा मांडे ते वखते जोगावली कर्म शस्त्रने धारविनानुं करे. अग्निमां परतुं मुकवानुं करे त्यारे अग्मिने शीतल करी नाखे. पोताना शरीरने सर्प दंश कराववानुं करे त्यांरे सर्पने निर्विष करी नाखे. गले फांसो खावानुं धारे त्यारे दोरमां तूटी जाय. डेवट पर्वत उपर जडीने ऊंपापात करवा तैयार थएला ते नंदिषेणने काली लइ जोगावली देवीए कह्यु के, “ हे वछ ! तुं श्रात्मघातरूप निंदित कर्म न कर; कारण के जाग्यमां लखेबुं सारं अथवा नरसुं कर्म जिनेश्वरोने पण निश्चय लोगवतुं पडे .” पली कुंमिनपुर नगरमां बहना पारणाने दिवसे ते एकला नंदिषेणे वेश्याने घेर जश्ने धर्मलाज कह्यो, एटले ते वेश्या हास्यगर्जित वचन बोली के “ श्रमारे धर्मलाल जोतो नथी, पण अव्य लाल जोवे बे." ते वेश्यानां एवां वचन सांजली मुनिए जाण्यु के, “आ वेश्या गर्वना जारथी मने हसे डे." पली नंदिषेणे उंचे रहेला तृणने खेंच्यु एटले तेमांथी बार कोड सोनाम्होरनो ढगलो थयो. ते देखीने वेश्या मुनिने पगे पडी थने कहेवा लागी के, " हे नाथ ! आप अनाथ अने अनुरक्त थ रहेली मने बोडीने जशो नहीं, अहींज रहो.” एवां ते वेश्यानां वचन सांजली. श्राकाशवाणीना वचन संजारी अने पोतानुं गोगावली कर्म उदय था१ स्मशान. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदिषेण मुनिनी कथा. ७३ व्युं जाणी नंदी षेणमुनि ते वेश्याने घेर रह्या, पण तेमणे एवी प्रतिज्ञा लीधी के " जे दिवस हुं दश अथवा तेथी वधारे जीवोने प्रतिबोध नह्रीं पमाडुं ते दिवस हुं दीक्षा लइश पढी ते दिवस दिवस प्रत्ये दश दश जीवोने प्रतिबोध पमाडीने जमे अने विविध प्रकारना जोग जोगवे. एम करतां करतां जेनुं जोगावली कर्म दय थयुं बे एवा ते नंदिषेण एक दिवसे नव जीवोने प्रतिबोध पमाडी दशमो टक्क देशनो सोनी श्राव्यो इतो तेने बोध पमाडता हता पण ते बोध पामतो न होतो. एवामां जेणे रसोइ तैयार करी हती एवी वेश्याए नंदिषेणने जमवा माटे बोलाव्या; परंतु पोतानो निग्रह पूर्ण न थवाथी नंदिषेण जमवा माटे या नहीं अने ते सोनी पण बोध पाम्यो नहीं. वेश्या वारंवार बोलाववा लागी त्यारे नंदिषेणे कधुं के " में नव जीवने प्रतिबोध पमाड्या बे पण दशमो जीव प्रतिबोध पामतो नथी." त्यारे वेश्याए कं के. आज दशमा तमेज थश्ने बोध पामो. " एवां वेश्यानां वचन सांगली नंदिषेण मुनि फरीथी श्री महावीर स्वामी पासे गया. पढी आलोचना ले चारित्रने धारण करी परिसहोने सहन करता ते नंदिषेण मुनि काल धर्म पामी देवलोकमां गया. विष सरखा विषयो एवा सत्पुषोने पण पोताने वश करे बे तो पछी बीजाउने वश करे एमां तो शुं कहेतुं. इति नंदिषेण मुनिनी कथा समाप्ता. 66 हवे तेज जवमां सिद्धि पामनाराउने पण विषयनुं दुर्जयपएं कहे. यडुनंदनः महात्मा जिन जाता व्रतधरः चरमदेहः जनंनंदणो महप्पा, जिनाया वयर्धरो चरमंदेदो ॥ रथनेमिः राजीमत्यां रागमतिः चकार धिक् विषयाः रनेमी रामई, रायमई कोसि ' है । विसया ॥ ३२ ॥ शब्दार्थ - ( जनंदणो के० ) यादवना पुत्र एवा, तथा ( महप्पा ho ) महात्मा एटले शांत थयुं बे चित्त जेमनुं एवा, तथा ( जिणनाया के० ) जिनेश्वर एवा श्री नेमिनाथना न्हाना जाई, ( वयधरो के० ) व्रतधारी ने ( चरमदेहो के० ) चरम एटले बेल्लो बे देह जेमनो - १० Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ शीलोपदेशमाला. र्थात् तेज जवने विषे मोक्ष जनारा एवा ( रहनेमी के०) रथनेमी, तेमणे पण ( राश्मई के ) राजीमतीने विषे ( रायमई के०) रागमतिने एटले प्रीतियुक्त मतिने (कासी के०) करी. ते कारण माटे हे जव्य जीवो ! ( विसया के) विशय जे जे ते ( ही के०) धिक्कार करवा योग्य बे. ॥३॥ विशेषार्थ- यादव कुलमां उत्पन्न थएला समुनविजय राजाना पुत्र, महात्मा ( शांत चित्तवान् ) श्री नेमिनाथ स्वामीना न्हाना नाश, व्रतधारी अने तेज नवने विषे मोद जनारा एवा रथनेमिए उग्रसेन रा. जानी पुत्री राजीमतीने विषे रागमति करी. अर्थात् जे विषयोए एवा समर्थ रथनेमिने विकारपणुं पमाड्या ते विषयोने जितवा कोण समर्थ ने ? ते कारण माटे हे जव्य प्राणि! विषयो धिक्कार करवा योग्य .॥३॥ रथनेमिनी कथा. ज्यारे बावीशमा तीर्थंकर श्रीनेमिश्वर जगवाने राज्यने अने राजीमतिने त्याग करी गीरनार पर्वत उपर ज दीक्षा लीधी त्यारे तेमना न्हाना जा रथनेमि राजीमतिनी साथे पाणीग्रहण ( विवाह) करवानी श्वाथी तेने वस्त्र, अलंकार श्रने खावाना पदार्थोनी नेटो मोकलवा लाग्या. तेने ते राजीमती निर्विकारपणाथी (तेना नाइए दीक्षा लीधी माटे हुं श्रनाथ थश्बु, तेथी म्हारा उपर दयाथी था पदार्थो मोकले , एवा वीचारथी) ग्रहण करवा लागी. ___ एक दिवसे विवाहनी श्छाथी रथनेमिए राजीमतीने कयु के "म्हारा मोटा जा नेमिश्वरे गीरनार पर्वत उपर दीक्षा लीधी बे, तो तुं हवे म्हारी साथे विवाह कर." रथनेमिनां एवां वचन सांजली श्रने तेना मननो नाव जाणीने राजीमतीए तेने बोध करवाने माटे खीर अने खांम खाधी. पली मदन फल सुंघी उलटी करीने रथनेमिने कह्यु के, "था खाउँ.? " त्यारे तेणे क्रोध करीने कर्वा के, " अरे ! हुं शुं कुतरो ढुं के त्हारा उकेला पदार्थने खालं!" राजीमतीए कडं. “ त्यारे तमारा म्होटा नाइए आठ नव सूधी मारो अंगीकार कस्यो भने था नवमा जवमा तेमणे मने उकेला पदार्थनी पेठे तजी दीधी , ते मने तमे जो. गववानी केम श्छा करो डो? हुँ तमारी श्छा करती नथी, कारण के Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथनेमिनी कथा. हाथीने त्याग करी गधेडा उपर कोण बेसे ? अने रत्नने त्याग करी काचने कोण ग्रहण करे ? वली हुँ एवी श्छा करुं दुं के, बीजा जन्मने विषे पण म्हारे नेमीश्वर विना बीजो पति थशो नहि.” एवां वचने करी रथनेमिने बोध पमाडीने जेने केवलज्ञान उत्पन्न थयुं हतुं एवा श्रीनेमीश्वर जगवान पासे राजीमती दीदा लश् विहार करवा लागी. एक दिवसे नेमीश्वर विहार करता करतां गीरनार पर्वत उपर गया. ते वखते प्रजुने वांदवामाटे छारकाश्री कृष्ण विगेरे श्राव्या तेमनी साथे रथनेमि पण श्राव्या. तेमणे संसारथी वैराग्य उत्पन्न करनारी प्र. जुनी धर्मदेशना सांजली श्री जीनेश्वर पासे चारित्र धारण कझुं. एक दिवस नेमीश्वरने वंदना करी रथनेमि जता हता, तेवामां रस्ते वरसाद थवाथी ते एक गुफामां उन्ना रह्या ते वखते नेमीश्वरने वांदवाने माटे राजीमति श्रावती हती, ते पण वरसाद थवाथी जे गुफामा रथनेमि उजा रह्या हता, तेज गुदामां अंधकारथी रथनेमिने न जाणती ती पेठी श्रने तेणे पोताना नीनां थयेला सर्व वस्त्रो काढीने सूकव्यां. पड़ी स्वर्ग प्राप्त करवाने माटे तप करती थने वस्त्ररहित एवी राजीमतीने देखी कामांध थयेला ते रथनेमि क्षणमात्र आकुलव्याकुल थश्ने वि. चार करवा लाग्या के, “ जेनामां सर्व जगत्तुं सौदर्यपणुं प्राप्त थएबुं के एवी था मृगना सरखा नेत्रवाली राजीमतीने में एक वखत पण जोगवी नथी, तो म्हारा निरर्थक जन्मने धीकार ." श्रावी रीते विचार करता एवा रथनेमिने जाणे तेमना म्होटा जानुं वेर लेवामाटे होयनी ? तेम कामदेवेमर्मस्थानमां एवो प्रहार कस्यो के जेथी ते पोतानुं सघर्बु नान नूली जवाथी धिमे धिमे गुप्तरीते राजीमति पासे श्रावीने बोली उठ्या के “हे न ! श्राव, श्राव, श्रापणे जन्म सफल करीये अने श्रापणे बन्नेजणा बेवट चारित्र लश् तपोविधि श्राचरशुं." एवी रीते उचिंता रथनेमिनां वचन सांजली तरतज सूकवेलां वस्त्र पहेरीने ते सतीए धीरजपणाने धारण करी रयनेमिने कह्यु. “ हे महानुनाव ! जवना कारणरूप था वेग तने क्याथी उत्पन्न थयो ? अने तें दीक्षा धारण करती वखते जे प्रतिज्ञा लीधी ले तेनुं तुं स्मरण कर. कयु डे के- तपस्वीनी हेलना करवाथी, धर्मनो उड्डाह अथवा विघात करवाथी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ शीलोपदेशमाला. ने देव व्यनो विनाश करवाथी बोधीनो घात थाय बे. प्रथम प्रहस्थावस्थाने विषे में त्हारो यादर कस्यो नथी तो या व्रतने विषे हुं म्हारो शी रीते श्रादर करीश. "" वली हे साधो ! हुं जोगकुलने विषे उत्पन्न थर बुं छाने तुं धक वृष्णिकुलमां थयो बे; माटे या अयोग्य कार्य आपणी लाजने नाश करनारुं बे. वली गंधन कुलमां थएला तिर्यंच जातिना सर्पो अग्निमां बली मर कबूल करे पण वमेला विषने चूसी लेता नथी तो पछी तेवा पदार्थ व्हारीथी शी रीते जोगवाय, माटे अखंडित बह्मचर्य व्रत पाली कलंक विना रहेतुं एज जीवीतनुं सफलपएं जाए. जेए ब्रह्मचर्य व्रत खंकन कर बे एवा पुरुषोना जीवीतने धीकार बे. हे साधु ! स्त्रीउए करीने जरपूर एवा या लोकमां जो व्हारुं चित्त स्थीर नथी तो तुं वायुए उखेडी नाखेला वृक्षनी पेठे कोइ ठेकाणे स्थीर यइश नहीं, माटे धारेला व्रतने नाश न करतां धीरपणाने धारण करी शुद्ध धर्मनुं श्राचरण कर. एवी रीते कामदेवना उन्मादरूप गर्वने धारण करनारा सर्पना विषने उतारी नांखवाने जांगुली औषधी समान राजी मतीनी वाणी ने सांजलीने रथनेमी कदेवा लाग्या के, गुणनी संपतिना स्थानरूप श्र स्त्रीजातिने धन्य ! छाने कुकर्मरूप समुद्रने विषे बुडेला पुरुष जातिरूप मने धिक्कार बे !! अहो या महासती स्त्रीना धीरजपणाने धन्य बे ! कारण के जेणे मने पूर्वावस्थाने विषे अने था श्रवस्थाने विषे लघुताना कारणरूप तथा अंध कुवामां पडवाना कारणरूप निंद्य कर्म थकी दूर करो . आज स्त्री निस्संशय मारो गुरु ने बंधु बे " एम कही ने धन्यात्मारूप ते राजमतीने धन्यवाद यापी रथनेमि नेमीश्वर पासे ज‍ आलोचना लइ, गाढ तपश्या करी चारशे वर्ष गृहावासमां एक वर्ष बस्थपने पांचशे वर्षसुधी केवल पर्याय एम एकंदर नवशे ने एक वर्षनुं आयुष्य पाली बाकीनां घातिकर्म खपावी शुद्धात्मा रथनेमि मोक्ष पाम्या इति रथनेमिनी कथा. 66 मदनपवन यदि तादृशा अपि सुरशैल निश्चलाः चलिताः मयपवणेण जई ता - रिसवि सुरसेनिञ्चला चैलिया ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथन ततः पक्कपत्रसदृशानां इतरसत्वानां का वार्ता तो पक्कपत्तसँरिसा-ण श्यरसत्ताण को वत्ती ॥३३॥ शब्दार्थ- हे नव्यजीवो! (जश के०) जो (मयणपवणेण के) कामदेवरूप पवने करीने (सुरसेल के०) मेरुपर्वत सरखा (निचला के०) अतिशय निश्चय एवा (तारिसावि के ) ते आर्डकुमार, नंदिषेण थने रथनेमि सरखा पुरुषो पण (चलिया के०) चलायमान थया; (ता के०) तो (पक्कपत्तसरिसाण के०) पाका पांदडा सरखा एवा (इयरसत्ताण के०) बीजा प्राणिनी (का वत्ता के०) शी वात ? अर्थात् मेरुपर्वत सरखा धीर पुरुषोने पण कामदेवे चलाव्या बे, तो बीजा श्रधीर पुरुषो चलायमान थाय तेमां तो कहेज शुं ? ॥ ३३ ॥ विशेषार्थ- हे जव्यजनो! जो कामदेवरूप पवने मेरुपर्वत सरखा अतिशय निश्चल एवा आईकुमार नंदिषेण अने रथनेमि सरखा पुरुषो चलायमान थया तो पड़ी पाका पादडां सरखा बीजा सामान्य प्राणि चलायमान थाय तेमां शुं श्राश्चर्य ? ॥ ३३ ॥ हवे कामर्नु उर्जयपणुं कहे. जीयंते सुखनैव हरिकरिसादयः महाक्रूराः जिप्पंति सुदेणेचिय, दरिकरिसप्पाश्णो मदाकूरा॥ एकएव पुर्जयः कामः कृतशिवसुखविरामः कुंचिय धुळे, काँमो कयसिवसुंदविरामो॥३४॥ शब्दार्थ- जे महासुनटोए (महाकूरा के०) महाक्रूर एवा (हरिकरिसप्पाश्णो के०) सिंह, हस्ति अने सर्पादिक प्राणि (सुदेणंचिय के०) सुखे करीनेज (जिप्पंति के०) जीताय बे, परंतु तेवा पुरुषोए (इक्कुच्चिय के०) एकलो एवो अने (कयसिवसुहविरामो के०) कस्यो बे मोद सुखनो नाश जेणे एवो (कामो के०) कामदेव , तेज (5. जे के०) फुःखे करीने पण जीती शकायो नथी. ॥ ३४ ॥ _ विशेषार्थ- महा सुजट पुरुषो, पुष्ट हृदयवाला सिंहने, हस्तिने अने सर्प विगेरे क्रूर जीवोने तेना ते ते उपाये करीने पोताने वश्य करे ,परंतु मोक्षसुखनो नाश करनार एक कामदेवने जीती शकता नथी. कह्यु Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 शीलोपदेशमाला. - मदोन्मत्त हस्तिना कुंजस्थलने दली नाखनारा, उग्र सिहने दमन करवामां चतुर एवा शूरवीर पुरुषो पृथ्विमां घणा बे. परंतु कृतार्थ माननारामां कामदेवना गर्वने दलन करनारा वीर पुरुषो थोडा होय ते. ॥३४॥ हवे कामने जीतनार पुरुषने वर्णवे छे. त्रिभुवन विनयनोद्नटप्रतापप्रक्रटोऽपि विषमशरवीरः तिदुच्प्रणजगमण्डनम-पयावपय मोवि विसमसरैवीरो ॥ यै जितः लीलया नमोनमः तेन्यः धीरेन्यः जेहिं जिंन लिलए, नमोनमो ता धीराणं ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ - ( जेहिं के० ) जे महात्माए ( तिहुश्रण के० ) त्रिभुवन एटले स्वर्ग, मृत्यु ने पातालवासी जनोने ( जगमण प्ररुपयावपयको वि ho) वश्य करवाना बलना माहात्म्ये करीने व्याप्त ( विसमसरवीरो के ० ) तीक्ष्ण बाणे करीने वीर एवा कामदेवने ( लिलाए के० ) लीलाए करी ( जिउ के० ) जीत्यो बे, ( ताण के० ) ते ( धीराणं के० ) धीर पुरुषोने ( नमो नमो के ० ) नमस्कार था नमस्कार था. ॥ ३५ ॥ विशेषार्थ - जे जितेंद्रिय महात्मार्जए स्वर्ग, मृत्यु ने पातालवासी जनोने वश्य करवाना प्रराक्रम वाला ने तीक्ष्ण बाणे करीने वीर एवा कामदेवने रमतनी पेठे ( मश्करीथी ) जीती लीधो बे, ते धीर पुरुषोने मारो नमस्कार था ! अर्थात् जेए पोताना श्रात्माने वश्य करेलो बे ते नमस्कार करवायोग्य बे. कारण के तेर्ज धीर ने वखाणवायोग्य बे. वीर विद्यावडे बलवान् होय के अने ते बले करीने कामदेवने जीती लड़े a. तेना सरखो कामदेव पण पिशाचनी पेठे बीजाने बेतरे बे. कथं केमध्य त्रिवली त्रिपथे, पीवरकुचचत्वरे च तरलह शि ॥ बलयति मदन पिशाचः पुरुषं हि मनागपिस्खलितं ॥ मध्यत्री वली रूप त्रण शेरीवाली, पुष्टस्तनरूप चोकवाली स्त्रीउने विषे जरा पण खलता पामेला पुरुषने कामदेवरूप पिशाच बेतरे बे. ॥ ३५ ॥ दवे शीलथी जश पण पमाय बे ते कहे. शेषनुवनतलं निजशी लवहनघनसारपरिमलेन नियसीलवदणघणेसा - रपरिमलेणं असेसर्भुवणयलं ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगा था. सुरजी क्रियते यैः इमं नमोनमः तेन्यः पुरुषेन्यः सुरदि जेहि ईमं, नमोनमो ताण पुरिसाण ॥ ३६॥ उ शब्दार्थ - ( जेहिं के० ) जे पुरुषोए ( नियसील के० ) पोताना शीलने (वहण के० ) धारण करवारूप ( घणसार के० ) कर्पूरना ( परिम के० ) सुगंधे करीने ( इमं के० ) या (असेसमुवणयलं के० ) समस्त पृथ्विलने (सुर हजार के० ) सुगंधवालुं कराय बे, अर्थात् क बे. ( ताण पुरिसाएं के० ) ते शीलवंत पुरुषोने ( नमो नमो के० ) न मस्कार था नमस्कार था. ॥ ३५ ॥ विशेषार्थ - जे पुरुषोए पोते धारण करेला शीलरूप घणा कर्पूरना सुगंधे करीने या समस्त पृथ्वीतलने सुगंधवालुं करयुं छे, ते शीलवंत पुषोने अमारो नमस्कार था. ॥ ३५ ॥ दवे शीलव्रतनी विशेष दुर्जयता कहे . रमणीकटाक्षविक्षेपतीक्ष्णवाणैः शीलसंनाहः रमणीकैमरकविरके--वतिस्कबाणेदिं सीलसन्नादो ॥ येषां गतः न नेदं नमोनमः तेन्यः सुनटेन्यः 'जेसिंग नं नेयं, नमोनमो ताण सुदर्माणं ॥ ३७ ॥ शब्दार्थ - (जे सिं के० ) जे पुरुषोनुं ( सील सन्नाहो के० ) शीलव्रतरूपी कवच ( बखतर) जे बे ते ( रमणीकमरक के० ) स्त्रीए पोताना कटाक्षरूप ( विरकेव तिरकबाणे हिं के० ) फेंकेला तीक्ष्ण बाणे करीने (जेयं के० ) जेदने ( न गर्न के० ) नथी पाम्युं अर्थात् नयी त्रुटी गयुं. ( ताण के० ) ते शीलवत धारण करनारा (सुकाणं के.) सुनटोने ( नमो नमो के० ) नमस्कार थार्ड नमस्कार था ॥ ३७ ॥ विशेषार्थ - जे पुरुषोनुं शीलरूपी कवच ( बखतर) स्त्रीउए फेंकेला कटाक्षरूप तीक्ष्ण बाणोए करीने नेदायुं नथी, ते सुनट पुरुषोने श्रमारो नमस्कार था. कयुं बे के - ( शार्दूल की डित्तवृत्तम् ) कोर्थान् प्राप्य न गवितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तं गता, स्त्री जिः कस्य न खंमितं भुवि मनः को नाम राज्ञां प्रियः ॥ कः कालऽस्य न गोचरांतरगतः कोर्थी गतो गौरवं, को वा दुर्जनवागुरासु पतितः देमेण यातः पुमान् ॥ १ ॥ श्रार्थ:- कया पुरुषे Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. अव्य पामीने गर्व नथी कस्यो ? कयो विषयी पुरुष आपत्तिने नथी पाम्यो ? स्त्रीए पृथ्विमा कोर्नु मन खंमित नथी कमु ? राजाने कोण प्रिय बे ? कालना कबजामां कोण नथी श्राव्यो ? कयो अर्थि गौरवप. णाने पामेलो ? अने उर्जनना पासमां पडेलो कयो पुरुष कुशले पाको श्राव्यो ने ? अर्थात् सर्वे पुरुषोए अव्य पामीने गर्व कस्यो , सर्व विषयी पुरुषो अपत्तिने पामेला बे, स्त्रीए सर्वनां मन खंमित करेला बे, राजाने को प्रिय होतुं नथी, कालना कबजामां सर्वे श्रावेला ने, को अर्थि गौरवपणाने पामेलो नथी श्रने उर्जनना पासमां पडेलो कोश पुरुष कुशले पानो श्राव्यो नथी. ॥ ३ ॥ हवे तेज वातने दृष्टांते करीने दृढ करे . नृपसुता निजरूपापहस्तिताशेषसुंदरीवर्गा निवडूंआ नियरूवा-वदासेससुंदरीवग्गा ॥ घनसौनाग्या निरुपमप्रेमा लावण्यरुचिरम्या घनसोग्गा निरुवम-पिम्मा लायन्नरुश्रम्मा ॥३०॥ जराजर्जरितस्थविरा व परिहृता येन नेमिनाथेन जरजऊँरथेरी ईव, परिदरिया जेण नेमिनादेण ॥ ब्रह्मव्रतधारिणां प्रथमोदाहरणं एषः जगति बनव्वयंधारीणं, पढमोदाहरण-मेसे जैए ॥ ३५॥ युग्मम् ॥ शब्दार्थ- (जेण नेमिनाहेण के) जे नेमिनाथ जगवाने ( नियरूवावह विश्रा के०) पोताना रूपे करीने जीत्यो ले (असेस सुंदरीवग्गा के०) समस्त सुंदरीनो समूह जेणे एवी, तथा (घणसोहग्गा के०) म्होटुंडे सौजाग्य जेनुं एवी, तथा ( निरुवमपिम्मा के०) उपमारहित प्रेम जेनो एवी, अने (लायन्नरुम्मा के) लावण्य एटले सौंदर्य तेनी रुचि जे कांति, तेणे करीने रम्या एटले मनोहर एवी ( निवधूश्रा के०) राजानी पुत्री जे ( पोतानी स्त्री) राजीमती बे, ते (जरजऊरथेरीश्व के०) जाणे वृद्धावस्थाने पामी नहि होय शुं ? एम जाणीने (परिहरिया के०) त्याग करी. ते कारण माटे (जए के०) श्रा जगत्ने विषे (एस के०) एज श्री नेमिनाथ जगवान (बंजवयधारीणं के० ) ब्रह्मचर्य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवजवनी कथा. ८१ व्रत धारण करनारा पुरुषोनी मध्ये ( पढम के० ) प्रथम ( उदाहरणं के० ) उदाहरण एटले दृष्टांतरूप थया बे ॥ ३८ ॥ ३७ ॥ " विशेषार्थ - जे बावीशमा तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जगवाने पोताना रूपथी समस्त सुंदरी वर्गोने जीतनारी, म्होटा सौभाग्यवाली, उपमारहितप्रेमवाली, सौंदर्यनी कांतिथी मनोहर ने उग्रसेन राजा पुत्री एवी पोतानी स्त्री राजीमतीने जाणे वृद्धावस्था पामवाथी शिथिल अंगवाली थ‍ होय नहि शुं ! एम मानीने त्याग करी. ते कारण माटे या जगत्ने विषे एज श्री नेमिनाथ भगवाननुं चरित्र शीलव्रत धारण करनारा पुरुषोने प्रथम दृष्टांतरूप थयुं. कयुं बे के तावदेव चलत्यर्थो, मंतुर्विषयमागतः ॥ यावन्नोत्तंजकेनैव दृष्टांतेनावलंब्यते ॥ जाणनार पुरुषना ध्यानमां श्रावेलो पण ज्यां सुधी दृष्टांतथी दृढ करायो नयी, त्यांसुधी चाब्यो जाय बे. ॥ ३८ ॥ ३८ ॥ श्री नेमिनाथना नवजवनी कथा. जेमना नवजवनुं चरित्र नव रसरूप श्रमृतथी पुष्ट थइ नमन करता एवा जव्य जीवोने प्रकार करे बे, ते श्री नेमिनाथ प्रभु शांतिने अर्थे था. असंख्य द्वीपोमां दीवासरखा था जंबुद्धीपने विषे सर्व संपत्तिना खेत्र सरखुं जरत नामनुं क्षेत्र बे. जे जरतत्रने विषे लक्ष्मीए पोतानो चंचल स्वाव त्याग करीने स्थीरपणाथी निवास कस्यो बे; ते जरतक्षेत्रमां - चलपुर नामना नगरने विषे महा पराक्रमी विक्रम नामनो राजा राज्य करतो हतो. लक्ष्मी ते राजाने पामीने हरिना सरखं सौभाग्य जोगवती हती. ते राजाने शुद्ध पांखवाली हंसलीना सरखी धारणी नामनी स्त्री इती. एक दिवसे ते स्त्रीये पाबली रात्रीए स्वनामां एक खांबानुं वृक्ष दीतुं पढी कोई एक दिव्य पुरुषे श्रावीने ते वृने ते स्त्रीना श्रांगणामां रोप्युं ने कह्युं के, “ या वृक्षने हुं वारंवार नववार रोपीश ने ते वृक्षने उत्तरोत्तर सारां सारां फलो थशे. वली या वृक्षने हुं द्वारा श्रांग यामां पहेलीवारज रोपुं बुं.” एम कहीने ते पुरुष चाल्यो गयो पढी धारणीये सवारे जागीने स्वप्नानी वात राजाने कही. राजाए स्वनने जाणनारा जोशी ने बोलावी स्वप्नानी बात कही एटले जोशीए कयुं के, हे राजन् ! पुत्रनी प्राप्ति रूप महाफलने आपनाएं या स्वप्न बे, परंतु 66 ११ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G‍ शीलोपदेशमाला. नववार सहकार वृक्षने रोपवानुं फल तो मे शास्त्रथी पण जाणी शकता नथी, ते तो ज्ञानी जाणे. " पछी केटलेक दिवसे हर्ष सहित धारणीने गर्भ रह्यो ने दशमास पूरा थया त्यारे शुभ दिवसने विषे कवि जेम सत्काव्यने जन्म श्रापे तेम धारणीये पुत्रने जन्म आप्यो. हर्ष पामेला विक्रम राजाए बंधीवानोने बोडी मूकी ने अनेक प्रकारना दान दश दिवस सुधी पुत्रना जन्मनो महोत्सव कस्यो. तथा बारमे दिवसे पोताना वंशना माणसोने वस्त्र विगेरेनी नेटो खपी ने पुत्रनुं धनकुमार एवं नाम पाड्युं पढी कलाये करीने अने व्यवस्थाये करीने अनुक्रमे वृद्धिपातो ते धनकुमार स्त्रीउने मोह पाडनार ने रतिने क्रीडा करवाना स्थान रूप यौवन अवस्थामां यावी पहोच्यो. "" हवे ते समयमां कुसुमपुर नगरने विषे राज सिंह नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने निर्मल मनवाली विमला नामनी राणी हती. तेने 'मनुष्यवर्गना पापने नाश करनारी ने श्राकाशमांथी उतरेली जाणे गंगा होय नहीं शुं ? एवी उत्तम लक्षणवाली रती तथा कामदेवने जीतवाने माटे तीक्ष्ण नृकुटीरूप धनुष्यने धारण करनारी अने प्रकासीत चंद्रना सरखा मुखवाली मनोहर धनवती नामनी पुत्री हती. ज्यारे ते कुमारी यौवन वस्थामा त्यारे एक दिवस ते पोतानी सखीयो साथे बगीचामां ज‍ लक्ष्मी जेम कमलना वनमां रमे तेम रमवा लागी अने चमरीनी पेठे अशोकवृनी नीचे जमवा लागी. त्यां तेणे जेना हाथमां चितरेली मूतिनो पट रहेलो हतो एवा कोइ एक पुरुषने दीठो; तेथी ते तेने पूढवा लागी के, " तुं कोण ? " एटलामां तो ते धनवतीनी सखी कमलीनीये ते पुरुषना हाथ माथी चितरेलो पट ऊडपथी लइ लीधो पढी ते बबीने जोइ कमलिनी कड़ेवा लागी के, " देवता, मनुष्य ने राजार्थमां कोइनुं श्रावुं उत्तम मनोहर रूप नथी, माटे श्रा बबी चीतरनारे कोइने जोने चीतरी नयी, पण पोतानी मरजी प्रमाणे चितरेली छे. अहो ! नेत्रने अमृतना सरखा या रूपने धन्य बे; के जे रूप सामान्य ब्रह्माने करवुं मुश्केल थयुं दशे !” एवां कमलीनीनां वचनने सांजलीने ते पुरुष हाय सहित आश्चर्य कारी वचन बोल्यो के, “ था कोइ देव नथी; दानव नथी; पण धनकुंमार बे. अने तेनुं या तो एक साधारण रूप में Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. ३ चितघु बे, कारण के, तेनुं बराबर रूप चितरवाने कोइ शक्तिमान थाय तेम नथी; माटे में मारी शक्तीप्रमाणे जेवं दी ते चितमु ." एवां ते माणसनां वचन सांजलीने कमलिनीए फरीथी पूज्यु के, “ ते धनकुमार कोण ? " त्यारे ते पुरुषे कडं. "अचलपुर नगरना राजा वि मनो ए पुत्र बे." एवां ते माणसनां वचन सांजलीने अने ते चितरेली मूर्तिने जोश्ने तथा तेना गुणोने सांजलीने धनवती तेज क्षणे मूळ पामवानी पेठे वारंवार ते धनकुमारनी मूर्तिने जोवा लागी अने कहेवा लागी के, “ आवं स्वरूप में क्यारे पण दीतुं नथी.” पठी ते धनकुमारने विषे तृष्णातुर थयेली धनवती विषनी पेठे ते बगीचाने त्यजी द कमलिनी साथे घेर श्रावी. एक दिवस जेनुं चित्त धनने विषे चोटेवू डे अने जेने बेसवामां, सूवामां, फरवामां, खावामां, दिवसे, रात्रीये के को वखते पण सुख पडतुं नयी एवी ते धनवतीने तेनी सखी कमलिनीए एकांतमां पूज्यु के, “हे राजपुत्री ! तुं कृष्णपदना चंजनी कलानी पेठे दिवसे दिवसे क्षीण केम थाय ले ? " धनवतीए कडं “हे तन्वी ! शुंतुनथी जाणती ? के श्रापणे बगीचामां गया हता, त्यां विक्रमराजाना पुत्र धनकुमारनी बबी जोश्." एटर्बु कहीने धनवतीए नीचं मुख कयुं, एटले कमलिनीये जाएयु के, " ते धनकुमारनी चिंता करे .” पली कमलिनीये कह्यु के, “हे राजपुत्री! धीरज धारण कर, सौ सारं थशे.” एक दिवसे वस्त्र अलंकार विगेरेने पहेरीने धनवती पिताने पगे लागवा ग. ते वखते राजसिंह राजा पुत्रीने जोश तेना वरने खोलवानी चिंता रूप समुअमां मुबवा लाग्यो, पण नाग्यवाला पुरुषोना चिंतवेलां कार्यों तुरत फली चूत थाय जे. एम ते वखते को कामने माटे विक्रमराजाए मोकलेलो दूत राजसिंहराजानी कचेरीमा श्राव्यो अने राजकार्य संबंधी वात करी रह्या पड़ी ते एक बाजुए उनो रह्यो. पडी राजसिंह राजाए ते दूतने पूज्युं के, “ तें पृथ्वीमां कां आश्चर्यनी वात सांजली वे ? ” दूते कयु. “ हे महाराज! विक्रमराजा रूप समुप्रमाथी त्रण लोकने वखाणवा योग्य धनरूप कौस्तुजमणि रत्न उत्पन्न थयुं ; माटे ते धननो अने श्रापनी पुत्री धनवतीनो जो विवाह थाय तो तेना जेवू बीजं काश् श्राश्चर्य नथी अने Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GU शीलोपदेशमाला. तेथी करेलो प्रयास पण सफल थशे.” एवां दूतनां वचन सांजली रा. जसिंह राजाए दूतने कां के, "हे दूत ! तें म्हारा मननी वात जाणी; माटे तने धन्य .” एम कहीने फरीश्री कर्वा के, " तुं विक्रम राजा पासे जश्ने तेप्रमाणे वात कर.” इडित वरप्राप्तिने सूचवनारीश्रा वात धनवतीये पोतानी सखीना मुखथी सांजली पण मानी नहीं, तेथी सखीने मोकलीने ते दूतने पोतानी पासे बोलावीने पूज्युं, त्यारे दूते राजानी पागल थयेली सर्व वात कही, तेथी धनवती घणो हर्ष पामी. पड़ी तेणे कंकुना रसथी एक कंकोत्री लखी दूतने श्रापी अने कह्यु के “श्रा कंकोत्री धनकुमारने श्रापजो.” एम कहीने तेने रजा आपी.पनी ते दूत घणो हर्ष पामतो अचलपुर नगरमां आव्यो श्रने सत्तामा बेठेला विक्रमराजाने नमीने कडं के, “ महाराज ! राजसिंह राजा कुशल डे अने तेमणे तमारा पुत्र धनकुमारने पोतानी पुत्री धनवती थापवाने कडं बे, माटे हे राजन् ! तमारो अने राजसिंह राजानो पुत्रना संबंधथी थयेलो स्नेह वृद्धि पामो." ते वात विक्रमराजाए कबुल करी एटले ते दूते धनकुमार पासे श्रावी धनवतीये आपेलो मूर्तिवंत स्नेहरूप पत्र तेने थाप्यो. पडी जेटलामा धनकुमार पोते ते पत्रने उघाडीने वांचवा लाग्यो तेटलामां तो ते कामदेवना बाणे करीने वींधाइ गयो अने मोहधी बोलवा लाग्यो के, “ हे अनंग ! तें मने जित्यो बे; माटे हवे तुं पुष्परूप बाणनो मने प्रहार न कर.” या प्रमाणे बोलता ते धनकुमारे मोतीनो एक हार अने पत्र ते दूतने श्राप्यां ने कह्यु के, “श्रा पत्र अने हार धनवतीने आपी श्राव्य" दूत पालो कुसमपुर नगरमा राजसिंह राजा पासे श्राव्यो अने तेणे विक्रमराजाए संबंधनी हा कहेवानी वात कही. पठी ते दूत धनवती पासे थाव्यो अने धनकुमारे आपेलो हार अने पत्र आप्यां. एटले धनवतीये एकांतमां जश्ने पत्र वांच्यो अने हाररूप धनकुमारना गुणोने जाणे धारण करती होयनी ? एम कंठमां धारण कस्यो. पडी राजसिंह राजा, पोतानी पुत्री धनवतीने उत्तम दिवसे धनकुमार साथे परणावीने पोताना जन्मनुं कृतार्थपणुं मानवा लाग्यो. ___ एक दिवसे बगीचामांश्रावेला वसुंधर नामना श्राचार्यने जाणीने विक्रम राजा परीवार सहित तेमने वांदवा गयो. त्यां धर्मोपदेश सांजली Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. राजाए मुनिने पूब्युं के, “ हे महाराज ! आ धनकुमारनी माने एक स्वप्नुं आव्युं हतुं; तेमां नववार सहकारनुं वृक्ष रोपवानुं को पुरुषे कयुं हतुं. अने तेज वखते पहेलीवार रोप्यु हतुं ते शुं?” राजानां एवां वचन सांजली वसुंधराचार्य नेमिनाथना नव नवनुं स्वरूप कडं. मुनिनां वचन सांजली अने जिनमतने विषे स्थीरता पामी राजा विगेरे सर्वे माणसो पोत पोताने घरे गया. पनी एक दिवसे धनवती थने धनकुमार क्रीडा करवाने माटे बगीचामां गया. त्यां तेमणे कोश् मूर्गथी अचेतन थएला साधुपुरुषने दीग; एटले तेमने शीतल जल अने वायुना उपचारथी सचेत कीधा अने पडी ते महात्मा पासेथी धर्मोपदेश सांजली तेमने पोताने घेर एक माससुधी प्रासुक खीरनुं जोजन आपीने राख्या. पनी धनकुमारे ते साधुने पूज्युं के, “ हे महाराज ! तमे बगीचामां अचेतन थश्ने पड्या हता; तेनुं शुं कारण हतुं?" मुनिए कडं “हे राजकुमार ! माझं नाम मुनिचं . हुं बीजा साधुउनी साथे आवतां मार्गमां नूलो पड्यो अने तृषा बहु लागवाथी अचेतन थर पड्यो हतो. तमे करेला उपचारथी ते हुँ पोते सचेतपणाने पाम्यो बुं.? पड़ी धनकुमारे अने धनवतीये ते साधु पासेथी गृहस्थाश्रमधर्मने विषे छादशवतरूप समक्त्व लीधुं. विक्रमराजाए पण धनकुमारने राज्य थापी चारित्र लिधुं. पली धनकुमारे केटलोक काल राज्य लोगवी जयंत नामना पोताना पुत्रने राज्य थापी धनवतीनी अने बीजा धनदत्त अने धनदेव नामना पोताना नानी साथे चारित्र लीधुं. अनुक्रमे सूरिपद पामी अने पड़ी धनवती अने बीजा नानी साथे एक मासर्नु अणसन वृत पाली धनकुमार मुनि मरण पाम्या. ते धनवती अने धनकुमार सौधर्म देवलो. कमां इंजना समानिक देवता थया. त्यांथी चवीने वैताढ्य पर्वतनी उत्तर श्रेणिउपर सूरतेज नगरीमां सूर नामना विद्याधरनी स्त्री विद्युन्मतीना उदरमा धनकुमारनो जीव उत्पन्न थयो. अनुक्रमे ते पुत्रतो जन्म थयो; त्यारे पिताए तेनुं चित्रगति नाम पाड्यु. अनुक्रमे ते पुत्र चोसठ कलाउनो पार पामेलो थयो. वली तेज वैताढ्य पर्वतनी दक्षिण बाजुए शिवमंदिर नगरमां अनंगसिंह राजानी शशीप्रना नामनी स्त्रीने विषे धनवतीनो जीव उत्पन्न थयो. त्यां तेनो जन्म थया पनी तेनुं रत्नवती नाम Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ शीलोपदेशमाला. “ पड्युं. एक दिवसे अनंग सिंह राजाए जोशीने पूब्धुं के, “ लक्ष्मीना सरखी या म्हारी पुत्री रत्नवतीनो वर कोण थशे ? " जोशीए कयुं के. युद्धने विषे जे पुरुष द्वारा हाथमांथी तरवार लेइ लेशे अने नंदीश्चरने विषे जेने माथे पुष्पवृष्टि यशे ते पवित्र बे बे पेक्ष जेना एवो पुरुष ल्हारी पुत्री नो वर थशे.” एवां ते जोशीनां वचन सांजली जेने पुत्रीना वरना ज्ञाननी प्राप्ति थइ बे एवा ते राजाए जोशी ने द्रव्य विगेरेथी संतोष पमाड्यो. हवे या जरतत्रने विषे चक्रपुर नगरमां सुग्रीव नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने यशस्वती ने जद्रा नामनी बे स्त्रीयो हती. यशस्वतीने सुमित्र नामनो पुत्र थयो थाने जाने पद्म नामनो पुत्र थयो. मां यशस्वतीनो पुत्र सुमित्र गुणवान्, मोटो ने जैनधर्मने जाणनारो हतो ने जानो पुत्र पद्म श्रवला आचरण वालो, पापी, अने सर्पना सरखो क्रूर हतो. एक दिवसे जद्रा विचार करवा लागी के, " सुमित्र बतां म्हारा पुत्रने राज्य मलशे नहीं, माटे कांइ पण उपाय करवो जो इये." एवो विचार करीने क्रूर कर्मने करनारी ते जाये यशस्वतीना पुत्र सुमित्रने फेर दीधुं. सुमित्र मूर्खाची घणुं दुख पाम्यो ते वात सांजलीने व्याकुल थयेलो सुग्रीव राजा पण प्रधाननी साथे तुरत सुमित्र पासे व्यो ने घणा मंत्र तंत्र विगेरे उपायो करया, पण जेम डुर्जन माणसनी दुष्ट बुद्धि शांत थाय नहीं, तेम ज्यारे वीषनो वेग शांति न पाम्यो, या ते राजा सुमित्रने परलोकना मार्गने विषे जाथारूप धर्मकार्य करी तेना गुणाने वारंवार संजारीने रोवा लाग्यो. या वखते लोकोमां परस्पर वातो थवा लागी के, " क्रूर कर्म करनारी जद्राये सुमित्रने फेर श्राप्युं बे." जड़ा पोतानी श्रावी वात सांजली त्यांथी सर्पणीनी पेठे नासी गइ. ते वखते वैमानमां बेसीने कौतुक जोवा माटे पृथ्वीउपर फरतां फरतां चित्रगतिए त्यां श्रावी सुमित्रना शोकथी ग्लानी पामेलुं श्रने घणुंज दुःखीत एलुं ते नगर दीव्रं पढी सुमित्रने विषयी मूर्छा पामेलो जाणीने चित्रगति विमानमांथी देगे उतस्यो अने मंत्रथी पवित्र करेल पाणी बांटीने तेने सचेतन कस्यो. श्रहो ! मंत्रनुं म्होतुं वल होय ते. प १ माता पितानुं कुल. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. बी बुद्धिवान् पुरुषोमां श्रेष्ठ एवा ते सुमित्रे ज्यारे पूज्यु के, “ था लोको शा कारण माटे नेगा थया ?" त्यारे जाये आपेला फेरनी श्रने चिजगतिए उतारेला फेरनी वात राजाए कही. पड़ी उत्साहथी उठीने ते सुमित्रे पोताने जीवाडनारा चित्रगतिने नमस्कार कस्यो भने कुल विगेरे पूज्यु; चित्रगति पासे उनेला मंत्रीना पुत्रे चित्रगतिनुं वंश अने नाम विगेरे कयु. तेने सांजलीने सुमित्र घणो हर्ष पाम्यो. पनी सुमित्र पोतानी समृद्धिने अनुसारे चित्रगतिने पोताने घेर तेडी गयो. केटलाक दहाडा रह्या पली चित्रगतिए सुमित्रने कयु के, “हवे हुं म्हारे घेर जश्श.” एटले सुमित्रे कयु के, " अहीं एक केवली श्राववाना , माटे ते आवे त्यां सुधी रहो.” पनी केटलेक दहाडे केवली श्राव्या तेमने वांदवाने माटे सुमित्र विगेरेने साथे तेडीने चित्रगति गयो. ज्ञानीयोमां प्रधान एवा ते केवलीए पोतानी आगल बेठेला सुग्रीव राजा विगेरे सर्वेने संसारना क्लेशने नाश करनारी देशना दीधी अने कह्यु के " मोदना अनिलाषी जीवो जे धर्म प्राप्त करे , ते धर्म डाह्या पुरुषोए उत्तम प्रकारे ग्रहण करवो. राजापणुं, चक्रवर्तीपणुं अने देवपणुं ए सर्व समृद्धि आ आराधन करेला धर्मना परमाणु . वली साधु अने श्रावकना नेदश्री धर्म बे प्रकारनो बे. तेमां पहेलो श्रावकनो धर्म सरल डे अने बीजो साधुनो धर्म कांश्क कठीण .” केवलीनी श्रा प्रमाणे धर्मदेशना सांजलीने चित्रगतिए कह्यु के, “अरे हुं तो संसारमां बेतरायेलो ढुं. कारण के स्वाधिन बतां पण में एके धर्मनुं आचरण कमु नथी.” एम कहीने ते व्रतरूप डालोधी वीटलाएला अने निरती चारपणारूप पुष्पोथी अलंकृत थयेला सम्यक्त्वरूप कल्पवृदने सेववा लाग्यो. पनी जेनुं मस्तक नमी रह्यु बे, एवा सुग्रीव राजाए केवलीने पूज्युं के, “ हे महाराज ! सुमित्रने फेर थापीने जमा क्यां नाशी गश् ?" केवलीए कयु के, “हे राजन् ! अहींथी नाशी गयेली जमाने रस्तामां चोर मच्या श्रने तेनी पासेथी सर्व वस्त्र अने घरेणां ले लीधां. पड़ी ते चोरोए जसा वणजाराने वेचाती थापी. त्यांथी ते नाशी गश् अने वननेविषे अग्निमां बली मूश्ने पहेली नरके गइ. त्यांथी पाळी था लोकमां चांडालना कुलमां उत्पन्न थयेली अने गर्जिणी ते नमाने तेनी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចុច शीलोपदेशमाला. शोक मारी नाखशे; एटले ते पाठी त्रीजे नरके जशे. त्यांथी पाली श्रा लोकमां तीर्यचपणाने पामी अनंत कालसुधी नमशे." केवलीनां एवां वचन सांजली राजाए कयु के, "अहो ! नाये जे पद्मने माटे पाप कडे हतुं, ते पद्म तो जीवे ने अने पोते नरकने पामी; माटे कर्मनी गति विचित्र . तथा श्रा साररहित संसारमा जंतु मिथ्याज मोह पामे ." राजाना एवां वचन सांजली तेज वखते प्राप्त थयेलो ने उत्साह जेने एवा सुमित्रे सुग्रीव राजाने कयु के, “ हे तात! स्मशानना सरखा दारुण श्रा संसारथी हुँ उठेग पाम्यो बुं, माटे मने श्राझा श्रापो के जेथी हुँ चारित्र ग्रहण करुं, कारण के था संसारने विषे डाकीणीनी पेठे स्त्री पोताना पुत्रोने मारी नाखे बे." एवां सुमित्रनां वचन सांजली संयमरूप उद्यानने विषे रहेवा तत्पर थएला सुग्रीव राजाए व्रत ग्रहण करवानी ना पाडी तेने राज्यासन उपर बेसारी पोते चारित्र लीधुं. पठी नवा राजा थएला सुमित्रने नगरमा प्रवेश करावी तेनी रजा लेश्ने चित्रगति विद्याधर पोताना नगर प्रत्ये गयो. सुमित्रे पोताना उरमान जाइ पद्मने केटलांक गाम बाप्यां, पण तेथी संतोष न पामेलो ते पद्म पोतानी मरजी प्रमाणे पृथ्वीमा जमवा लाग्यो. हवे शिवमंदिर नगरना अनंगसिंह राजाना पुत्र कमल नामना विद्याधरे कलिंग राजानी स्त्री के जे सुमित्रनी बहेन हती, तेनुं हरण कह्यु एटले सुमित्रना पक्षयी बलवान् चित्रगतिये कमल विद्याधरनी साथे युद्ध मांड्युं. ते वखते पुत्रनी पदे अनंगसिंह राजा त्यां युद्ध करवा श्राव्यो. तेने चित्रगतिए रणसंग्राममां आयुझरहित करी नाख्यो. एटले ते अनंगसिंह राजाए देवताए थापेली रत्नरूप तरवारने ग्रहण करी चित्रगतिने कडं के, " हे बालक ! नाशी जा ! नाशी जा!! नहीं तो आ जयंकर तरवारे करीने त्हारु मस्तक कमलना नालनी पेठे बेदी नाखीश.” अनंगसिंह राजानां एवां वचन सांजलीने चित्रगति हसिने बोल्यो के, " हे वृक्ष ! तें शुं नथी सांजल्युं, के कायरना हाथमां शस्त्र होय जे ते वीर पुरुषोने शोजवनारुं . ” एवां वचन कहीने चित्रगति सिंहनी पेठे उख्यो भने अनंगसिंह राजाना हाथमाथी तरवार तथा सुमित्रनी बहेनने पकडी लीधी. पड़ी तेणे चक्रपुर नगरमां जश्ने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए नेमिनाथना नवनवनी कथा. सुमित्रने तेनी बहेन सोंपी. बुद्धिवंत पुरुषोमा प्रधान एवा सुमित्रे पण पोताना पुत्रने राज्य सोंपी वैराग्यथी दीक्षा लीधी. पड़ी ते सुमित्र राजर्षि महातपने आचरता मगध देशमां को गामनी व्हार जेटलामां काउस्सग करी उन्ना रह्या, तेटलामां तेमनो उरमान नाश पद्म फरतो फरतो त्यां श्राव्यो अने सुमित्रने जोश्ने घी नाखवाथी जेम अग्नि बले तेम बलवा लाग्यो. पडी क्रूर हृदयवाला ते पद्मे जाणे पोतानी माने जे गति प्राप्त थर ते गति पामवाने होयनी ? तेम सुमित्रने पोतानो शत्रु जाणीने जेम व्याध पशुने विंधे तेम बाणे करीने विधि नाख्या, एटले ते महात्मा सुमित्र शुजध्यान अने आराधनादिक समाधि करीने आयुष्य पुरुं करी बह्मदेव लोकमां महा संपत्तिवाला देव थया. पली चित्रगति पोताना मित्र सुमित्रना मरणने सांजली शोक करतो करतो नंदीश्वरनी यात्रा करवा गयो. ते वखते त्यां रत्नवती पुत्रीनी साथे अनंगसिंह राजा तथा विद्याधरो हर्षथी तीर्थयात्रा करवाने श्राव्या हता. पली प्रसन्न मनवाला चित्रगतिए श्री शाश्वत प्रजुनी अव्य, केशर, चंदन पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य विगेरेथी पूजा करी विविध प्रकारनां स्तोत्रथी स्तुति करी कहेवा लाग्यो के, “ हे स्वामिन् ! आ अंतरहित संसाररूप समुअमां जमता अने थाकी गयेला प्राणिउँने मारवाड देशमा म्होटा शरोवरनी पेठे तमे एकलाज आनंद आपनारा बो. संसाररूप समुजमां बूडेलो अने मूढ एवो जे पुरुष तमारा दर्शनने पामे , ते पुरुष उत्तरोत्तर उत्तम समृझिने मेलवे .” ए प्रकारे चित्रगति स्तुति करतो हतो तेटलामां गंधवों ने अनंगसिंहराजा जोता बतां तेना मस्तक उपर जे सुमित्र मुनि देवपदने पाम्या हता तेमणे पुष्पवृष्टि करी. एटले अनंगसिंह राजाए पोतानी तरवारनुं हरण करनार तेने जाणीने पुत्रीनो वर निश्चय कस्यो. पली परस्पर एक बीजानां वखाण करता ते देव अने चित्रगतिने जोर गंधर्वोए तेमने प्रणाम कस्या. ते वखते रत्नवतीनी उष्टी चित्रगतिना लावण्यरूप अमृतना समुअमां ए प्रकारे बूडि गश् के, त्यांथी फरी चलायमान थ नहीं. परी अनंगसिंह राजाए पो.. तानी पुत्रीनारागने जोश्ने तथा जोशीए कहेला वचनने संजारीने चि-. १ पारधी. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए शीलोपदेशमला. त्रगतिनी साथे पोतानी पुत्री परणावी. एवो कोण मूर्ख होय के रत्नने सोनानी साथे न जोडे. पठी घणो काल गृहस्थाश्रम जोगवी पुरंदर नामना पुत्रने राज्य आपी चित्रगतिए तथा रत्नवतिये चारित्र लीधुं. श्रनुक्रमे उत्तम प्रकारना तप करी ते महेंजदेव लोकमां देवपणुं पाम्यां. इति श्रीनेमिनाथना पहेला चार जवनुं वर्णन. - हवे पृथ्वीरूप स्त्रीना ललाट सरखा उत्तम एवा पश्चिम महाविदेहमां पद्म नामनी विजयमां सिंहपुर नामर्नु नगर हतुं. ते नगरमां शत्रुरूप अग्निने शांत करवाने मेघसरखो अने जेनी कीर्तिरूप अचंबाकार चंड आकाशमां शोजी रह्यो हतो, एवो हरिनंदी नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने कामदेवनीश्राज्ञा माननारी श्रने चंजिकाना सरखा जेना उज्वल गुणोए जगत्ने श्राश्चर्य पमाड्यु हतुं, एवी प्रीयदर्शना नामनी स्त्री हती. हवे माहेंजदेव लोकथी चित्रगतिनो जीव चवीने ते हरिनंद राजानो पवित्र बुद्धिवालो अपराजित नामे पुत्र थयो. अने ते प्रधानना विमलबोध नामना पुत्रनो सुख दुःखमां नेत्रना सरखो मित्र थयो. एक वखते ते बन्ने मित्रो (अपराजित अने विमलबोध, बन्ने) घोडाने खेलाववा माटे नगरनी बहार गया. पण ते पुष्ट घोडार्ड तुरत ते बन्ने मित्रने म्होटा अरण्यमां ले गया. पठी ते बन्ने मित्रोए नीचे उतरी ढीला थ गयेला घोडाना बंधने बाधवा मांड्या एटले ते बन्ने घोडा कृतघ्न (करेला गुणने न जाणनारा)नी पेठे तरत पड्या अने मरण पाम्या. पली मार्गमां थाकी गयेला अने तरशथी विह्यल थयेला ते राजा भने प्रधानना पुत्रो कलियुगमा धर्म तथा न्यायनी पेठे क्षणमात्रमा तेज रहित यश् गया. - पली पाणीने शोधता एवा तेउए मित्रनी पेठे हितकारी एवं एक तलाव दी; तेमांथी अमृतना सरखं पाणी पीने जाणे तृषारूप समुअनो पार पाम्या होय ? एम ते बन्ने कुमारो शांतचित्तवाला थया. पनी राजाना पुत्रे प्रधानना पुत्रने कयुं के, “ हे मित्र ! श्रापण बन्नेने देशांतर जोवानी इछा घणा दिवसथी हती, ते श्राजे सफल थडे. श्रापणे माता पितानी आज्ञा लीधा विना श्राव्या बीये, तो हवे आपणो वि. योग ते जेम तेम करीने सहन करशे अने श्रापणे श्राश्चर्यथी संपूर्ण एवा था पृथ्वीमंडल उपर फरीये. ” राजपुत्रनां एवां वचन सांजली Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. पृथ्वीना चमत्कार जोवाने तत्पर थयेला ते बन्ने जणा मदोन्मत्त हाथीनी पेठे पोतानी श्वाप्रमाणे पृथ्वीउपर फरवा लाग्या. एक दिवस कोश एक चोर तेमनी शरणे श्रावीने कहेवा लाग्यो के, “ म्हारं रक्षण करो ! रक्षण करो!!” थोडी वखत पडीराजाना केटलाक सुजटो ते चोरनी पाउल श्राव्या. तेमनी साथे था राजकुमारे युद्ध करी चोरनुं रक्षण कगुं; एथी प्रसन्न थएला सुकोशल राजाए पोताना मित्रनो पुत्र जाणीने ते अपराजित राजकुमारने सुरसुंदरीना सरखी मनोहर पोतानी कमलमाला नामनी पुत्री परणावी. पढ़ी ते राजकुमार सुकोशल राजाने घेर केटलाक दिवस रहीने राजाथी बानी रीते प्रधानना पुत्रनी साथे पृथ्वीनां कौतुक जोवाने माटे चाट्यो गयो. एक दिवसे अपराजित राजकुमारे तथा प्रधानना पुत्र विमलबोधे रत्नमाला नामनी विद्याधरनी पुत्रीहरण करीने नाशी जता को एक विद्याधरने तथा न जवानी मरजीथी रोती एवी ते रत्नमालाने दीठी; एटले ते विद्याधरनी साथे अपराजित कुमारे युद्ध करीने ते कन्याने डोडावी. पडी युकथी प्रसन्न थ. एला ते विद्याधरे अपराजित कुमारने जखम रुकवी नाखनारी उषधि अने महा मूल्यवालो मणि आप्यो. तेमज विमलबोधने रूपपरावर्तन करनारी गूटिका (गोली) आपी. पडी अपराजित कुमार उपर अनुरागवाली थएली रत्नमालाने जाणीने तेना पिताए तेने अपराजित राजकुमार साथे परणावी. वली जुवनजानु नामनो बीजो विद्याधर पण पोतानी पुत्री को जोशीना कहेवाथी पराजित कुमारने परणावतो हतो. एवामां को पुरुषे ते जुवनजानु उपर शस्त्रनो घा कस्यो; पण ते घाने अपराजित कुमारे पोतानी पासे रहेली औषधिना प्रजावधी मटाड्यो अने अति उत्तम रूपवाली ते कन्याने श्रेष्ट बुझिवालो हरिनंदि राजा. नो पुत्र अपराजित कुमार परण्यो. ए प्रमाणे पृथ्वी उपर विहार करता ते बन्ने कुमारो कुंडिनपुर नगरे श्राव्या. त्यां तेमणे केवल ज्ञानी मुनिने दीग. पनी मुनिने वंदना करीने अने कानने विषे अमृतनो सरखी देशना सांजली ते बन्ने कुमारोए मुनिने पूब्युं के, “ हे महाराज ! अमे जव्य बीये के अलव्य ? ” कुमारोनां एवां वचन सांजली मुनिए कह्यु १ स्वरूप फेरवी नाखनारी. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शीलोपदेशमाला. के “ हे कुमारो ! तमे जव्य बो. वली हुं तमने बीजं पण कांश कहुं ते सांजलो. हे राजकुमार ! तुं श्राश्री पांचमा जवने विषे आ लोकमां नेमिकुमार नामनो बावीशमो तीर्थंकर थश्श अने श्रा प्रधाननो पुत्र त्हारो प्रथम गणधर थशे.” एवां ते मुनिनां वचन सांजली अत्यंत हर्षने पामेला ते बन्ने कुमारो तीर्थोने वंदना करता करता पृथ्वीउपर फरवा लाग्या. हवे तेवा समयमां श्रानंदपुर नगरने विषे जितशत्रु नामे राजा रा. ज्य करतो हतो. तेने शीलरूप अलंकारने धारण करनारी धारणी नामनी स्त्री हती. माहें लोकथी रत्नवतीनो जीव चवीने ते धारणीना उदरने विषे श्राव्यो. चंउनी कांती जेम सुधाने प्रगट करे तेम धारणीए पुरे मासे पुत्रीने जन्म श्राप्यो. पीताए तेनुं प्रीतिमती नाम पाड्यु. पडी ते प्रीतिमती गुणोसहित वृद्धि पामवा लागी. सरखतीने विषे घणा दिवस रहेवाथी क्लेशे करीने उदवेग पामेलानी पेठे विद्याए, बीजा थाधारनी श्वाश्री ते प्रीतिमतीनोज आश्रय कस्यो. अर्थात् ते प्रीतिमती सर्व विद्यानो पार पामेली थर, अनुक्रमे ते यौवन अवस्थामां श्रावी पहोची एटले ते राजकुमारीये पिता पासे प्रतिज्ञा करी के, “जे पुरुष मने विद्याये करीने जीतशे तेने हुं वरीश." पुत्रीनी आवी फुःसह प्रतिज्ञा जाणी जितशत्रु राजाए पुत्रीना वरने माटे स्वयंवरनो आरंज कस्यो. तेणे स्वयंवरमां बोलावेला सर्वे राजा अने विद्याधरो आव्या. ते वखते प्रधान पुत्रनी साथे अपराजितकुमार पण विद्याधरे आपेली गोलीना प्रयोगथी रूप परावर्तन करी कलाकौशलरूप अमृतने पीवानी श्वाथी श्राव्यो. श्रागल चालनारा प्रतिहारीए जेमना गुणोनुं वर्णन कलुं ने एवा राजा अने विद्याधरो उंचां सिंहासनो उपर बेग. पड़ी चामर धारण करनारी सखीउनी साथे वरमालाने हाथमां धारण करनारी वर्गथी जाणे देवांगना उतरी होय नही शु! एम स्वयंवर मंडपमां प्रीतिमती श्रावी. राजकुमारीने जो कामथी मूळ पामेला अने स्तंजनाज श्राश्रय करी रहेला सर्वे राजा अने विद्याधरो चित्रमा श्रालेख्यानी पेठे स्थिर थर गया. पडी सेंकडो बेठेला ते राजा अने विद्याधरोनी परीक्षा लेवाने सरखनी पेठे श्रावेली ते प्रीतिमतीने प्रतिहारिणीये २ अमृत. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. कडं के “ हे राजकुमारी ! था बेठेला राजा श्रने विद्याधरोने प्रश्न पू. ब.” पली राजकन्याए प्रश्न पूज्यां; पण सरस्वतीए पोतानी जातवाली प्रतिमतीनो पद करीने ते राजाने जाणे थंजावी दीधा होयनी ? एम अपराधी माणसनी पेठे ते उत्तर श्रापवाने समर्थ थया नहीं. पनी जितशत्रु राजा खेद करवा लाग्यो के, " अरे ! जरावस्थाथी वृक्ष थयेलो ब्रह्मा श्रा पुत्रीना वरने करवोज जुली गयो के शुं ? में दासीना पती सरखा आ राजाने वृथा नेगा कस्या, कारण के तेमांथी एक पण पुत्रीने योग्य वर मख्यो नहीं.” राजानां एवां वचन सांजली प्रधाने कर्वा के,“ हे महाराज ! खेद न करो. कारण के पृथ्वी रत्नगर्जा कहेवाय हे, जेथीअधिक गुणवालो पुत्रीनो वर मलशे; केम के नाग्यमां लखेबुं फरतुं नथी. " पबी राजाए पडो वगडाव्यो के, “जे माणस म्हारी पुत्रीने विद्यावडे करीने जीतशे, ते तेनो पति थशे.” एटले हरिनंदी राजाना पुत्र थपराजित कुमारे विचार कस्यो के, “ म्होटा पुरुषोने स्त्री साये विवाद करवो योग्य नथी.” शास्त्रमा कयु के- बालसखित्वमसंस्कृतवक्ता, स्त्रीषु विवादकथा खलसेवा ॥ गार्दजयानमकारणहास्यं, षट्सु नरा लघुतामुपयांति॥अर्थः- बालकनी साथे मित्रता, संस्कृत विनानी वाणी, स्त्रीयोनी साथे वाद, खल पुरुषोनी सेवा, गधेडानुं वाहन, अने कारण विनानुं हस; ए बने विषे माणसो हलकाश्ने पामे . अने तेम उतां जो हुँ तेने जीतीश तो तेथी करीने म्हारी मोटाश कहेवाशे नहीं." एवो विचार करीने तेणे विद्याधरे श्रापेलो दिव्य शक्तीवालो मणि हायमां राखी स्तंजमा कोरेली पुतलीनो स्पर्श कस्यो; एटले पुतलीए प्रीतिमतिने कद्यु के, "हे राजकुमारी ! मानने बोडी दे, अने श्रा राजा तो पशुना सर खा . माटे म्हारी साथे वाद कर, कारण के आ राजकुमाररूप गुरुना हस्तस्पर्शना प्रसादथी वाद करवामां तत्पर थएली हुं सूरीउथी अथवा देवताउँथी जीताश्श नहीं.” एवां ते पुतलीनां वचन सांजली हर्ष पामेली राजकुमारी प्रीतिमति वाद करवाने आवी अने चार प्रन पूज्या, तेनो उत्तर पुतलीए प्राप्यो. ते था प्रमाणे. प्रण “ गुरु कोण ? " उ " तत्वने जाणनारो" प्र “धर्म कयो ?” उ "जीव दया - १ आचार्यो. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए४ शीलोपदेशमाला. 22 ते. " प्र० " मनुष्योए शुं करवुं ? " उ० " संसारनो बेद. " प्र० " साधुं शुं ? ७० " जीवोनुं हित करवुं ते.” पछी पुतलीए प्रश्न पूठ्यो के, " ब्रह्मचारीने वाहाली कोण ?” पुतलीना या प्रश्ननो उत्तर राजकुमारी न श्री शकी के " ब्रह्मचारीउने वहाली मैत्री होय बे, " तेथी पुतलीये जीतेली ते राजकुमारी पुतलीने पूढवा लागी के " आ वरमाला त्हारा कंठने विषे श्रारोपुं ? " पुतलीए कयुं. "म्हारा गुरु श्री राजकुमारने कंठे ते वरमाला श्रारोपण कर. कारण के जे गुरुना प्रसादथी में त्हारी :सह प्रतिज्ञा ज्ञणमात्रमां पूरी दीधी बे. " एवां पुतलीनां वचन सांजली पूर्वजवना स्नेही जेने रोमांच थयो बे, एवी ते राजकुमारीए प्रफुल्लीत पुष्पनी वरमाला अपराजितकुमारना कंठमां आरोपण करी. पी दोन पामीने अने निर्लज थइने बीजा राजार्ड बोलवा लाग्या के, " अरे या कापडी कोण बे ? के जे श्रमे बतां या कन्याने परणशे ? एव ते क्रोध पामेला छाने पृथ्वीने कंपावता ते राजार्जए अपराजित कुमार साथे युद्ध करवा मांड्यं. अपराजित कुमारे पण सर्वे राजाउने वायु जेम डांगरनां फोतरांने उराडी नाखे तेम फेंकी दीधा. पढी शास्त्रे करीने स्त्रीए जीतेला ने युद्धमां एक वीर पुरुषथी पराजय पामेला ते सर्व राजा क्रोध करीने एकी वखते अपराजितकुमार साथे युद्ध करवा लाग्या कुमार अपराजिते पण इंद्र जेम पर्वतोनी पांखो वज्रवडे कापी नांखे तेम उबली उबली ने राजाउने कापी नाख्या. एवामां सोमप्रज नामना मामाए अपराजित कुमारने दीठो; एटले तेणे सर्व राजाने युद्ध करता बंधकरी पोते ते पराजित कुमारने मली ने कह्युं के, " हे जाणेज ! में तने बहु वारे दीगे बे. तुं जमरानी पेठे क्यां जमे बे ? तुं कट घेर जा, कारण के व्हारा माता पिता व्हारा वियोगथी बहु दुःख पामे बे. "" पढी गोलीना प्रयोगथी पोताना स्वरूपने पामेला पराजित कुमारने जितशत्रुराजा म्होटो उत्सव करीने पोतानी पुत्री परणावी अने जितशत्रुराजाना प्रधाने पोतानी पुत्री पराजितकुमारना मित्र विमलबोधने परणावी. राजाए सत्कार करेला ते बन्ने कुमारो केटलोक काल ह्या. हरिनंदी राजाने ते वातनी खबर पड़वाथी तेणे पोताना प्रधा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. एप नने बन्ने कुमारोने तेडवामाटे जितशत्रु राजाने त्यां मोकव्यो. पनी अपराजित कुमार पोतानी सर्व स्त्रीने साथे लश् प्रधानपुत्र सहित जित शत्रुराजानी श्राझा मागी पोताना देश जवा निकट्यो. जना सरखो महा समृद्धिवालो ते कुमार दानेकरीने लोकोने प्रसन्न करतो केटलेक दहाडे पोताना सिंहपुर नगरमां श्रावी उत्साहपूर्वक पिताना चरणमां पड्यो तथा अपराजितकुमारनी स्त्री हर्षथी सासुना पगमां पडी. पड़ी हरिनंदी राजा पुत्रने राज्यासन उपर बेसारी पोते चारित्र लश् अने अदय पदने पाम्यो. जेनो प्रधान विमलबोध , जेने प्रीतिमती पटराणी ने अने जेने खंडपति मित्र ने एवा ते अपराजित राजाए केटलोक काल राज्य करी पोताना पद्मपुत्रने राज्य थापी पोते बंधु, प्रधान,अने स्त्रीसहित चारित्र लीधुं. अंते अनशन व्रत लश्,आयुष्य पूरुं करी ते सर्वे श्रारण देवलोकमां इंजना सामानीक देव थया. था जंबुद्धीपमां रत्न विगेरे महासमृद्धिथी मनोहर हस्तिनागपुर नामनुं नगर . तेमां हस्तिना समूहथी देवताउनी स्पर्धाकरनारो श्रीषेण राजा राज्य करतो हतो. तेने मदोन्मत्त हाथणीनी पेठे चालनारी श्रीमती नामनी पटराणी हती. तेना उदरमा श्रारण देवलोकथी चवीने अपराजितनो जीव शंखखप्नने सूचवतो सतो महा समुडमां पांचजन्यनी पेठे उत्पन्न थयो. पूरे मासे पुत्रजन्म पाम्यो, एटले पिताए स्वप्नने अनुसारे तेनुं शंख एवं नाम पाड्यु. पली कलाउँनो अभ्यास करतो ते शंख कुमार यौवन अवस्थामा श्रावी पहोच्यो. विमलबोधनो जीव पण देवलोकथी चवीने तेज राजाना सुबुकि प्रधाननो पुत्र थयो. त्यां तेनुं मतिप्रन एवं नाम पाड्यु. ते नवमां पण शंखकुमारने अने मतिप्रजने पूर्वना नव जेवीज मैत्री थई. एक दिवसे सीममा रहेनारा लोकोए श्रीषेण राजाने कह्यु के, “ हे राजन् ! विशाल शिखरवाला पर्वत उपर चंद्रशीरा नामनी नदीने कांठे महाबलवालो समरकेतु नामनो पतिपति ( चोरनो राजा) किल्हो बांधीने रहेलो . वली कोथी ऊलायनहीं ए वो ते तमारा देशनी लक्ष्मीने बुटे .” एवां ते लोकोनां वचन सांजली सूर्यना सरखा महा प्रतापी ते श्रीषेण राजाए चोरनो पकडवा माटे चडाश्नो पडह वगडाव्यो. ते वखते केशरीसिंहना सरखा महापराक्रमी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. शंख कुमारे राजाने कर्वा के, " हे तात ! एक चोरने वश करवा माटे आटलो बधो प्रयास तमे केम करो बो ?” शंखकुमारनां एवां वचन सांजली प्रसन्न थयेला राजाए तेने साझा करी एटले केटबुंक सैन्य लेई ते शंखकुमार ज्यां चोरनुं गाम हतुं, त्यां श्रावी पहोच्यो. ते वखते पद्धिपति गाम त्यजी दश्ने कटपथी बीजे ठेकाणे संताई रह्यो. पनी युवराज शंख कुमार पण सैन्यना सारा बलवाला माणसो पासे गाम कबजे करावी पोते वृदोना यूथमां संताई रह्यो. पड़ी पल्सीपतिए कपटथी पोताना संताडी राखेला माणसोने एका करीने कुमार गाममां ने एवी शंकाथी कहेवा लाग्यो के, “अरे सुनटो ! शंखकुमारने जीवतो कालो ! कालो !!" एम कहीने पोते युद्ध करवा आव्यो, एटले शंखकुमारे किझामा राखेला पोताना माणसोनी साथे कर्म जेम प्राणीने घेरी लहे तेम तेने घेरी लीधो, तेथी नासी जवानो रस्तो न मलवाने लीधे तथा कुमारे तेने कंठमां कुवाडो मारवाथी ते चोर शंखकुमारने वश थयो. पनी जेनी जेनी जे जे वस्तु चोरी लीधी हती, तेने तेने ते ते वस्तु पानी अपावी ते चोरने साथे लई शंखकुमार पोताना नगर तरफ श्रावतो हतो एवामां बीजा दिवसनी रात्रीये पोतानी गवणीमां सुखश्री बंधी गयेलो ते शंखकुमार अरधी रात्रिये करुण शब्दवालुं रुदन सांजलीने उव्यो श्रने जे तरफथी ते शब्द आवतो हतो, ते तरफ चाल्यो आगला जतां तेणे एक रुदन करती स्त्री दीठी. कुमारे तेने पूब्यु के, "हे नीरु ! तुंशा कुःखथी रुवे .?” एवां ते कुमारनां वचन सांजली विश्वास पामेली ते स्त्रीए कह्यु के, “हे राजन् ! अंगदेशमां चंपा नामनी नगरी बे. त्यां जितारि राजा राज्य करे . तेने कीर्तिमती स्त्री बे. तेना उदररूप बीपमांथी उत्पन्न थयेला मोतीना सरखी कांतिवाली यशोमती नामनी पुत्री . गुणधी परिपूर्ण एवी ते पुत्री ज्यारे अभ्यास करती करती यौवन अवस्था मां आवी पहोची, त्यारे श्रीषेण रोजाना पुत्र शंखकुमारना गुणने तथा युवावस्थाना रूपने सांजली तेने विषे श्रासक्त थई. पली कलाऊना समूहने जाणवाथी मनोहर ते यशोमतीये जेम पोयणी सूर्यने विषे रुचिन करे तेम बीजा राजाउँने विषे रुचि करी. पिता जितारि राजाए शंखकुमारनेविषे श्रासक्त श्रयेली पोतानी पुत्रीने जाणीने तेने श्रापवाने जेट Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवजवनी कथा. ए "" लामां हस्तिनागपुरमां पोताना माणसोने मोकले बे, तेटलामां मणिशेखर विद्याधरे ते कन्यानुं मागुं करयुं, पण तेने ना पाडी श्रीषेण राजाना पुत्रने पवाने नक्की कस्युं पढी मणिशेखर विद्याधरे सिंचाणो जेम चकलीनुं हरण करे तेम ते यशोमतीनुं हरण करयुं हुं ते राजकुमारीना हाथने लगी रही यहीं सुधी यावी. पढी ते विद्याधरे बलथी मने ते कन्याना हाथथी बोडावी नाखी. हुं ते कुमारीनी धाव माता हुं, माटे ते म्हारा बिना दुःख पामशे, तेटला माटे म्हारा मनमां क्लेश थवाथी हुं रोठं बुं. " एवां ते रुदन करती स्त्रीनां वचन सांजली शंखकुमारे कर्तुं के, 'हे माता ! तुं रोश नहीं. धीरज राख. हुं जाउंं. ते विद्याधरने मारी ने कन्याने पाठी लावी हुं तने यापीश. " एम कही ने वीर पुरुषोमां हस्तिसमान ते शंखकुमारे सवारना वखते विशाल पर्वतना शिखर उपर गुफाना बारणामां बेठेला अने यशोमतीनी प्रार्थना करता एवा ते मणिशेखर विद्याधरने दीठो. ते वखते यशोमती उंचा स्वरथी विद्याधरने कहती इती के " हे विद्याधर ! तुं मने ही लाव्यो बुं, पण म्हारो प्राणप्रिय जर्तार तो शंखकुमार बे, बीजो कोइ नथी. " एवां तेनां वचन सांजलीने शत्रुने कालसरखी पोतानी तरवार खेंचीने श्र वता शंखकुमारने जोइ मणिशेखर विद्याधरे यशोमतीने कयुं के, "म्हारा जाग्ये चेलो या व्हारो वहालो प्राणनाथ शंखकुमार श्राव्यो, तेने हुं पहेलो देवांगना पासे मोकलुं बुं. अर्थात् मारी नाखुं हुं तेने तुं जो.” एटलामा शंखकुमार तेनी पासे आव्यो भने तिरस्कार करीने कड़ेवा लाग्यो के, " अरे ! अधम विद्याधर ! हुं परस्त्री योनी चोरीनुं फल तने देखाऊं बुं. " शंखकुमारनां एवां वचन सांजलीने केशरी सिंहनी पेठे गर्जना करतो ने पाटुथी पृथ्वीने कंपावतो मणिशेखर विद्याधर तेनी सामो श्राव्यो. बन्नेने परस्पर युद्ध चाल्युं पढी अगणित पुण्यना महाम्यथी शंखकुमारे पोताना शस्त्रथी मणिशेखरना अवध्य शस्त्रनो नाश कस्यो. वली लाघवपणाथी तेना हाथमां रहेलुं धनुष्य खेंची लीधुं अने तेज धनुष्यना बाणथी जेम योगी पुरुषो पोताना आत्माथी श्रात्माने मारे ते विद्याधरने मास्यो. तेथी ते विद्याधर मूल कपाइ गयेला का१ क्यारे पण पाढा फरे नहीं तेवा. · १३ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए शीलोपदेशमाला. डनी पेठे पृथ्वीउपर पड्यो. पनी शंखकुमारे तेने पवन विगेरे नांखी सचेत करी फरीथी युद्धने माटे बोलाव्यो एटले प्रसन्न थएला ते विद्याधरे शंखकुमारने कह्यु के, “ हे कुमार ! जेम गुणथी शासक्त थएली था तमारी प्रिया ने तेमज हुकममा रहेनारो हुँ पण तमारो दास ९ एम जाणो. वली श्रमारा उपर अनुग्रह करीने वैताढ्य पर्वतउपर यात्रा करवा चालो." एवां ते विद्याधरनां वचन सांजली शंखकुमार तेने हा कहीनेहस्तिनागपुरमा पोताना वृत्तांतनी खबरकदेवरावी अने यशोमतीनी धावमाताने पण पोतानी पासे बोलावी. पडी ते विद्याधरोए यशोमती अने धावमातासहित वस्त्रालंकारथी सत्कार करेलो शंखकुमार वैताढ्य पर्वतउपर गयो. त्यां यशोमतीनी साथे शंखकुमारे निष्कपटपणाथी शाश्वत अरिहंत नगवाननुं पूजन कझुं. त्यांथी मणिशेखर विद्याधर शंखकुमारने पोताना कनकपुर नगरमा तेडी गयो अने दिव्य वस्त्र अलंकार विगेरेथी तेनो स. त्कार कस्यो.” पड़ी शंखकुमारे ते विद्याधरोना शत्रुनो नाश श्रने राज्यमां विस्तार विगेरे अनेक उपकारो कस्या. ते उपरथी विद्याधरोए प्रसन्न थश्ने तेने पोतानी विद्या शिखवी अने पुत्री थापी. ते ने लश्ने जितारिराजाने आनंद पमाडतो शंखकुमार चंपानगरीमां श्राव्यो. वर्गथी पण अधिक वैनववाली ते नगरीमा शंखकुमार विद्याधरनी पुत्री सहित यशोमतीने परण्यो. पनी त्यां वासुपुज्य स्वामीनी यात्रा करी अने पोताना कार्यने जाणनार एवो ते शंखकुमार जितारिराजानी थाज्ञा लक्ष सर्व स्त्रीयो सहित पोताना हस्तिनागपुर नगरमांथाव्यो. पली श्रीषेण राजा शंखकुमारने राज्यासन उपर बेसारी पोते चारित्र बेश केवल ज्ञान पाम्या. केटलेक दिवसे श्रीषेण केवली विहार करतां करतां हस्तिनागपुर नगरमां श्राव्या. तेमने वांदवाने माटे शंखकुमार पोताना अंतःपुर सहित त्यां श्राव्यो. पड़ी उपदेश सांजली वैराग्य उत्पन्न थएलाशंखकुमारे श्रीषेण केवलीने पूज्युं के,“हे स्वामिन् ! विचारथी जोश्ये तो आसंसार असार जे. एम सत्य थाय बे; तो पड़ी म्हारे श्रा यशोमती साथे थाटलो बधो प्रेमबंध शा माटे ले ? ” शंखकुमारनां एवां वचन सांजली श्रीषेण केवलीए कडं के, “हे राजन् ! पहेला जवमां तुं ज्यारे धनकुमार हतो त्यारे था यशोमती धनवती नामनी हा. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ नवनवनी कथा. री स्त्री हती १ त्यांथी पहेला देवलोकमां तुं देव श्रने ते देवी थ३.२ त्यांची चवी तुं चित्रगति थयो त्यारे तेज तेज स्त्री हारी रत्नवती नामनी स्त्री थर हती.३ वली माहेंजदेवलोकमां तुं देव अने ते देवी थर. . ४ त्यांथी चवी तुं अपराजित कुमार थयो त्यारे ते प्रीतिमति नामनी त्हारी प्रीया थर- ५ त्यांथी तमे बन्ने बारुण देवलोकमां देव देवी ६ थश्ने श्रा सातमा नवमां तुं शंखकुमार थयो ढुं अने तेज स्त्री था यशोमती यश् . अहिथी चवी तुं अपराजित देवलोकमां देव थश्ने नवमा जवे था नारत देत्रने विषे यादवकुलमां नेमिनाथ नामनो बा. विशमो तीर्थंकर थश्श. अने ते वखते आ यशोमती अपराजित विमानमां देवी थश्ने त्यांथी चवी त्हारी राजीमती नामनी कन्या थशे. पण त्हारे विषे श्रासक्त थयेली ते तने न परणवाथी चारित्रने धारण करी मोकने पामशे. वली पूर्वनवमां जे त्हारा नान्हा बे लाइ हता ते था बे त्हारा ना तथा आ मतिप्रन नामनो पूर्वनवधी अनुसरी रहेलो प्रधान ते सर्वे त्हारा प्रथम गणधरो थशे.” एवां श्रीषेण केवलीनां व. चन सांजली शंखकुमारे पुंडरीक नामना पुत्रने राज्य थापी पोते स्त्री, जार्ज थने प्रधानसहित चारित्र लीधुं. पली अपूर्व वीशस्थानकादिक तप करी नक्ति विगेरेथी अरिहंत जगवाननुं श्राराधन करी निकाचित तीर्थंकर नाम कर्म बांधी अने उत्तम वैराग्यने पामी कर्म रूप सेपरहित शुझ देहने धारतो ते शंखकुमार शंखना सरखो शोजवा लाग्यो. पड़ी जावना, दमणा, गर्हणा, अनशन, चार शरण अने पांच परमेष्टि नमस्कार इत्यादि शोल आराधना पूर्वक अंतरंग शत्रुनो नाश करी निर्ममतावालो ते शंखकुमार मृत्यु पामीने अपराजित एवा अनुत्तर विमानमां देवता थयो अने त्यां तेणे तेत्रीश सागरोपम श्रायुष्य जोगव्यु. शति बीजा चार जवनुं वर्णन. आ जंबूझीपना जरतक्षेत्रमा दक्षिण दिशाये लक्ष्मीना कोश सरखो कुशावर्त नामनो देश बे. सर्व प्रकारना धान्यनी संपत्तिवाला अने उंची डांगरना क्षेत्रथी सुशोजित एवा ते देशमां अत्यंत मनोहर सौर्यपुर नामर्नु नगर जे. जे नगरनी लक्ष्मीने जोवा माटे उत्साहवंत ययेला जे ह. जार नेत्र कस्यां डे, ते नगरमां दशाई कुलमां उत्पन्न थयेलो अने उत्तम Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 शीलोपदेशमाला. रीते प्रजानुं पालन करतो एवो समुद्र विजय नामनो राजा ताराना समूहने विषे चंद्रनी पेठे राज्य करतो हतो. शंकरने पार्वतीनी पेठे तेने सात प्रकारना यंगना दानथी अतिप्रिय शिवादेवी नामनी राणी हती. sa कार्तिक वदी बारसनी रात्रीये चित्रा नक्षत्रमां ने कन्या रा शीने विषे चंद्रनो योग बते अपराजीत देवलोक थकी चवीने त्रण ज्ञानयी विभूषित शंखकुमारनो जीव १ हस्ति, २ वृषन, ३ सिंह, ४ लक्ष्मी देवी, ५ पुष्पनी माला, ६ चंद्र, ७ सूर्य, ध्वजा, एए कलस, १० पद्मसरोवर, ११ क्षीर समुद्र, १२ देवविमान, १३ रत्ननो राशि, १४ अग्निशिखा. ए चौदने सूचवता तां तेना उदरमां उत्पन्न थयो. ते वखते क्षणवार नारकी जीवोने सुख थयुं ने त्रण लोकमां प्रकाश थयो पढी शिवा देवी चौद स्वप्नने तथा पोताना मुखमां प्रवेश करता चंद्रने जोइ जागीग ने रोमांची आकूल व्याकुल थयेली ते शिवादेवीये स्वप्नानी वात समुद्र विजय राजाने कही. स्वप्ननी वात सांजली आनंद पामेला ते राजा क्रोष्टुकि नामना निमितियाने बोलावी स्वप्नानी वात पूछी. एवामां पुण्योच्चारण नामना साधु श्राव्या; तेथी तेमने पण राजाए स्वमानी बात कहीं. पी ते बन्ने जलाए राजाने स्वप्नानुं फल कह्युं के, हे देव ! या शिवादेवी तीर्थंकरनी श्रथवा चक्रवर्तीनी माता यशे अने तेने पूर्वना पुण्य योगे उत्तम स्वप्नना निमितथी महा पुण्यवान्, त्रण जगत्नुं रक्षण करवामां दिक्षित, श्रजयदर्शी, सर्वनो श्राधार, कुलमां उत्तम, श्रने लोकमां उत्कृष्ट एवो पुत्र यशे. " एवां तेमनां वचन सांजली यानंद पामेला ने जेमनो उदय वखणायेलो बे एवा ते राजा 66 राणी घणा मान ने धनथी सत्कार करेला साधु छाने निमित्तिक पोताने स्थानके गया. पी इंडे पोताना श्रासन कंपथी तीर्थंकरने गर्भमां श्रव्या जाणी ते बावीशमा तीर्थंकरने नमस्कार करीने स्तुतिकरी. वे ज्यारथी तीर्थंकर भगवान शिवादेवीना उदरमां श्राव्या, त्यारथी देशनो उदय थवा लाग्यो छाने समुद्र विजय राजाना जंडारमां लक्ष्मी वधवा मांडी. लक्ष्मीए धारण करेली चतुराइनी पेठे, उत्तम अर्थ - वाली कविनी वाणीनी पेठे छाने रत्ननी खाणनी पेठे शिवा देवीए गर्न धारण करो. प्रजुना प्रतापथी उत्पन्न थएला शुक्लध्यानथी होयनी ? Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ नेमिनाथना नवनवनी कथा. तेम प्रथम करतां शिवादेवीनुं शरीर कांश्क वधारे पीबुं थयु. शुज ग. जना प्रजावथी समुजविजय राजाए गुप्तिने मूकाववादि सर्व शिवा देवीना दहोला पूर्ण करूया. पड़ी राजाए पुंसवन विगेरे जे जे कर्म करवा श्छा करी ते ते कर्म से करेलांदीगं. तीर्थंकर जगवान माताना उदरमां वृद्धि पामता बता पण माता- उदर वृद्धि पाम्युं नहीं ए एक आश्चर्य हतुं. कडं जे के, म्होटा पुरुषने संपत्तिने विषे अथवा विपत्तिनेविषे विकार क्यांधीज होय. पडी श्रावण शुदी पांचमनी रात्रिये चित्रा नक्षत्रमा चंजनो योग ते अने लग्नमां सर्व श्रेष्ठ ग्रहो रह्ये ते शिवा देवीथी तीर्थकर नगवाननो जन्म थयो. श्रासन कंपवाथी उपन्न दिशा कुमारीकाउये प्रजुनी पासे श्रावी नगवानना जन्मने वखाणीने नमस्कार कस्यो. पड़ी केटलीएक कुमारीका संवर्त वायुथी सूतिकाना ग्रहने शुद्ध करी, जिनेश्वर जगवाननी पासे उती रही एटले बीजी कुमारीकाउँ, सुगंधी जलथी सूतिकाना ग्रहने बांटवा लागी. केटलीक शृंगारना अलंकार जालीने; केटलीक दर्पण कालीने; केटलीक वींऊणाने ग्रहण करीने; केटलीक चामर कालीने; केटलीक दीवी लेश्ने, एम सर्व कुमारीका जुदी जुदी सेवा करवा अने प्रजुना गुण गावा लागी. कोइएक कुमारिका जिने. श्वरना देला नालने पृथ्वीमांनांखी कपूर विगेरे सुगंधि पदार्थोथी खाडाने पुरी दीधो. केटलीक कुमारीकाउंये सूतिकागृहथी चारे दीशामा सिंहासनथी सुशोजित केलना मंडप कस्या. केटलीक कुमारीकाये जिनेश्वर जगवानने तथा शिवादेवीने मंगल स्नान करावी, चंदननुं विलेपन करी, वस्त्रालंकार विगेरे धारण करावी अने चंदन तथा जस्म विगेरेनी पोटली बांधीने “ दीर्घ श्रायुष्यवाला था.” एम आशीश थापी. पड़ी आसनकंपथी प्रजुना जन्मने जाणी सौधर्म देवलोकना इंजे त्यां श्रावी सूतिकाना घरने त्रण प्रदक्षिणा करी जिनेश्वर जगवानने तथा शिवादेवीने नमस्कार कस्यो. त्यार पनी शिवादेवीने अवस्थापिनी निजा मूकीने इंजे पांच रूप धारण कस्यां. एक रूपथी जिनेश्वर नगवानने बेहाथमां धारण कस्या. एक रूपथी जिनेश्वर जगवानने माथे छत्र धारण कह्यु. बे रूपथी बे चामर ग्रहण करी पवन नाखवा लाग्यो अने एक रूपथी वजने उबालतो श्रागल चाल्यो, एवीरीते इंजे जिनेश्वर जगवा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ शीलोपदेशमाला. नने मेरुपर्वत उपर पांडुकवनमां ज्यां शास्वतुं रत्ननुं सिंहासन हतुं त्यां ले गयो. त्यां ते पूर्वाभिमुखे जगवानने खोलामां बेश्ने बेगे एटले बीजा सब इंस्रो त्यां श्राव्या. पड़ी सुवर्ण विगेरेना एक हजार ने श्रा कलशोमां नरेला तीर्थना सुगंधी जलथी देवमुनिपूर्वक अनिषेक करी सुगंधी चंदनथी पूजन करी हर्षित मनवाला इंसोए स्तुति करी. पनी इंशाने पांच रूप विकूर्वि प्रजुने पोताना खोलामां लीधा एटले सौधर्मेन्छे चार दिशामां स्फाटिकना चार वृषनो प्रकट करी तेमना शिंगडाथी उछलती उधनी धारावडे प्रनु उपर अनिषेक कस्यो. ते वखते तुंबुर विगेरे गंधर्वो गान करवा लाग्या अने अस्परा नाचवा लागी. पठी सुगंधि चंदननो लेप करी, कल्पवृदना पुष्पोथी पूजन करी जे दिव्यवस्त्र प्रजुने धारण कराव्या. पली दिव्य चोखाथी अष्टमांगलीक थालेखी मांगलीक गीतोनुं गान करतां करतां आरति करी, ते वखते इंशाणि अने रंजा विगेरे अप्सराऊना समूहे नाच करतां करतां नेत्रना कटाक्षरूप पुण्योवडे करीने जववान- पूजन कमु. पड़ी इसे " नाथ ! तमारा शरीररूप इंछनीलमणिने जोनारां म्हारां नेत्रो आजे बहु प्रसन्न थाय ने. हे यमुनायक ! यमुना नदीना जल समान तमारा शरीरनी श्यामकांति गंगाना जल समान उज्वल यशने उत्पन्न करे बे; ए पृथ्वीमां आश्चर्य . हे महाराज ! था मेरु पर्वत, शिखर म्होटा रत्नोथी जरपूर ने तो पण तमारा सरखा रत्नवडे करीनेज रत्नवाडं थडे ३.” एप्रमाणे स्तुति करी त्यांथी लश्ने जगवानने माता शिवादेवी पासे मूक्या. तथा तेमने जमणे अंगोठे अमृत संचालुं के जेथी जुख्या थयेला जगवान पान करे. वली तेणे पांच अप्सराने धाव तरीके त्यांज मूकी. पनी सूर्य जेम कमलीनीनी निसा खेंची ले तेम इंझे मूकेली शिवादेवीनी अवस्वापिनी निशाने खेंची लीधी. इंनी आज्ञाथी कुबेरे समुपविजय राजाना घरने विषे हर्ष करनारी अनेक रत्नोनी वृष्टि करी. पड़ी देवता नंदीश्वरे महोत्सव करी पोतपोताने स्थानके गया. ते वखते सवार थर एटले दक्षिणावर्त वायु वावा लाग्यो, दिशा प्रसन्न थई. सर्व जगत् हर्षमय थयुं अने पूर्व दिशाये प्रजुने नेट श्रापवा माटे सूर्यरूप फल प्रगट कगुं. ते वखते कमलीनीनी पेठे शिवादेवीनां बे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. नेत्र उघडी गयां, तेथी तेमणे जंगम "हालता चालता" कल्पवृक्षना जा पुत्रने दीग. पडी राजा समुविजयने वधामणि दीधी. तेथी वसंतऋतुमां कोकिलानी पेठे हर्ष पामेला ते राजाए बंदीवानोने डोडी मूकी हपथी वधामणिने माटे आवेला ज्ञातिजनोने तथा नाच करती वारांगनाउँने उत्तम नेटो थापीने जगत्मां श्राश्चर्यकारी पुत्रनो जन्ममहोत्सव कस्यो, बग दिवसे सूर्य चंपनां दर्शन कराववापूर्वक बठीनो महोत्सव करी बारमे दिवसे नामकर्म महोत्सव कस्यो. ज्यारथी जगवान गर्नमा श्राव्या, त्यारथी लोकोनां अरिष्टो “फुःखो” नाश पाम्यां; ते उपरथी प्रजुनु अरिष्टनेमि एवं नाम पाड्यु. पनी राजाए परस्पर एकबीजाना हा. थमाथी तेडेला जगवान जिन्न जिन्न पद्ममां फरता राजहंसनी पेठे शोजवा लाग्या. नगवानना कंठने विषे धारण थयेली सुवर्णयुक्त मोतीनी माला जगवानना मुखरूप चंपनी सेवाने माटे उदेय पामेला ताराऊनी पंक्तिनी पेठे शोचती हती. सहज सौजाग्यथी सुशोजित जगवान पिताना श्रनेक मनोरथनी साथे वधता हता. __एक वखते प्रतिवासुदेव जरासंध राजाए समुविजय राजाने कहाव्यु के “वैताढ्य पर्वतनी पासेना सिंहपुरनगरना सिंहरथ राजाने बांधीने म्हारी पासे जे माणस लावशे; तेने हुँ म्हारी जीवयशा पुत्री परणावीश अने एक मनोहर नगर थापीश.” ए वात सांजलीने वसुदेवे समुजविजयने हाथ जोडीने कर्वा के, “ए काम हुं करीश.” एटले समुत्रविजय राजाए कह्यु. “ए काम तारूं नथी.” तोपण वसुदेव न मानतां पो. तानो रथ जोडावी कंसने सारथी करी युद्ध करवा गयो. सिंहरथ राजा पण सामो युक करवा श्राव्यो. पनी वसुदेव सिंहरथ राजाना सैन्यने मारी तेने पाडी कंसपासे बंधावी पोताना नगरमा लाग्यो एटले समुजविजय राजाये वसुदेवने एकांतमां बेसारीने कर्वा के, कोष्टुकि निमित्तियाए कडं ने के, “जे माणस जीवयशानो पाणीग्रहण करशे; तेना कुलनो दय थशे.” माटे विचार करी कंसने जीवयशा परणावी तुं सुखी था.” एवां समुविजय राजानां वचन सांजली वसुदेव कंसने जरासंध पासे खेर गयो भने तेने जीवयशा परणावी. तेमज मथुरा नगरी पण कंसनेज अपावी. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ शीलोपदेशमाला. हवे ज्यारे कंस मरायो भने प्रतिवासुदेव एवा जरासंधना दूतनुं श्रपमान कलं. त्यार पड़ी यादवोए कोष्टुकी निमित्तियाने पूज्यु एटले तेणे कडं के,“रामकृष्ण थोडा दिवसमां अर्धाचरत देवना अधिपति थशे. तमारे खेद पामवो नहि; परंतु त्यां सुधीमां तमारे पश्चिम दिशामां विंध्यपर्वतना सन्मुख समुज्ने कांवे निःशंकपणाथी रहे अने कृष्णनी प्रिया सत्यनामा जे ठेकाणे बे पुत्रोने जन्म आपे, ते ठेकाणे नगर वसावी निश्चयपणेथी निवास करवो.” पनी सात क्रोड कुलसहित यादवो शौरपुरथी नीकल्या श्रने अगीयारकोड कुलसहित उग्रसेन निकल्यो. ते विंध्याचल पासे श्राव्या एटलामां तेमणे काल तथा महाकालनी वात सांजली एटले सर्व यादवो कोष्टुकिना सत्यवचनने वखाणवा लाग्या. बागल जतां तेमने मुनि मल्या. मुनिने समुजविजयराजा विगेरे पुरुषोए पूज्युं के, "हवे पडी शुं थशे?" मुनिए कडं. “ तमारो पुत्र बाविशमो जिनेश्वर थशे. तेमज रामकृष्ण अर्धा नरतदेवना अधिपति थशे.” मुनि एम कहीने विहार करी गया. पनी यादवो सोरठ देशमां श्रावीने अर्धचंडाकार बावणी करीने रह्या. ते वखते सत्यनामाने जानु अने जामर एवा बे पुत्र थया; एटले कृष्णे त्रण उपवास करी सुस्थित देवनी आराधना करी. तेथी प्रसन्न थएला सुस्थित देवताए प्रत्यक्षपणाथी श्रावी सुघोश नामनो शंख रामने अने पांचजन्य नामनो शंख कृष्णने पीने कयु के, "मारुं शुं काम बे ? जे होय ते कहो.” कृष्णे कडं के, “ विष्णुनी हारकापुरी पाणीमां बूडी गश्ले ते अमने आप." एवां कृष्णनां वचन सांजली सुस्थितदेवे इंउपासे जश्ते वात कही. तेथी इंजे कुबेरपासे समुरुमां अढार हाथ ऊंचा अने बार हाथ जाडा रत्नजडीत्र सोनाना गढवाली, नव हाथ ठंडी खाश्वाली, देवताना वैमान सरखा एक, बे, त्रण मालथी सुशोजित कोड मेहेलवाली, श्रीकृष्णने माटे सर्वतोन नामना अढार मेहेलवाली, रत्नजडित्र उत्तम सजावाली, जिनमंदिरोवाली श्रने अनेक प्रासादवाली नगरी एक रातमां बनावी श्रापी, तथा देवताउँए ते पश्चिम समुअने तीरे द्वारका नगरीना राज्यासन उपर श्रीकृष्णने अनिषेक करी म्होटो उत्सव कस्यो. हवे त्रण ज्ञानयुक्त नेमिकुमार बलन विगेरेनी साथे बालकनी पेठे Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. २०५ बगीचामा रमता हता. बलनसादिक तेमने बहु रमतोथी रमाडता इता; कारण अवस्थाने अनुसरनारो नाव म्होटा पुरुषोने पण बाध करे ३. कुमार अवस्था उलंघी वज्रषजनाराच युक्त शरीरवाला, चतुरस्त्र मूर्तिवाला अने दशधनुष्य प्रमाण शरीरवाला नेमिकुमार यौवनावस्थामां श्रावी पहोंच्या. ते वखते वणजारा रत्नकंबलो वेचवा श्राव्या; पण त्यां न वेचतां ते वधारे लान खावा माटे राजगृह नगरमां गया. त्यां तेमणे जीवयशाने रत्नकंबलो देखाडी. तेणे रत्नकंबलनुं मूल पचास हजार रुपीया कह्यु; एटले वणजाराउए कह्यु के, “ श्रमने लाख रुपीया छारकामां मलता हता; पण त्यांनापीअने वधारे लान खावाने माटे श्रहीं लाव्या तोयहीं पचास हजार रुपीया कीमत थर, माटे श्रमने धिक्कार डे के, श्रमे त्यां न आपी." एवां वणकारानां वचन सांजली जीवयशाये पूब्यु के, "धारकां नगरी क्यों ने ? अने तेनो राजा कोण जे ?” तेए कह्यु के, “पश्चीम देशने विषे सुस्थित देवे श्रापेला स्थानमां देवताए निर्माण करेली अने कुबेरे धन धान्यथी नरेनी द्वारका नगरी जे. वसुदेव अने देवकीनो पुत्र एवो कृष्ण ते नगरीमां राज्य करे .” वणजारानां श्रावां वचन सांजली शरीरमा जुत आवेलानी पेठे पोताना बुटा केश करीने माथामां कूटती कूटती ते जीवयशा मगध देशना राजा पोताना पिता जरासंधने कहेवा लागी के "अरेरे ! हजु कंशनो शत्रु जीवे ." तेनां वचन सांजली जरासंधे कयु के, “ हे बछे ! धीरज राख्य ! एम कहीने ते प्रयाणनो पटह वगडावी सहदेव विगेरे पुत्रोने साथे ल तैयार थ'यो. ते वखते अपशुकन थवा लाग्यां. एटले पुर्योधन अने शिशुपाले ना पामी तो पण घणो क्रोधयुक्त थयेलो ते जरासंध सूर्यनी पेठे पश्चिम दिशा तरफ चाल्यो. पनी युद्ध जोवामां कौतुकी एवा नारदे मगध देशना राजानुं प्रयाण द्वारकाना अधिपति कृष्णने कह्यु. कृष्णे पण हुंकार शब्द करी प्रयाणनो पटह वगडाव्यो; तेथी परिवार सहित क्रोडो यादवो तैयार थया. उग्रसेन असंख्य सैन्य लश्ने तैयार थयो. महासेन विगेरे अनेक राजा तथा महाबलवाला तेमज जाणे पांच पांच अंगने धारण करनाराज होयनी ? एवा पांडवो अने सासरा तरफथी अनेक राजा कृष्णनी तरफ श्राव्या. पनी वृक्ष पुरुषोए श्राशीर वचन श्रापेला Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ शीलोपदेशमाला. श्रने मंगल करेला कृष्ण, गरुडध्वजवाला तथा दारुक सारथीवाला रथमां बेसी कोष्टुकिए श्रापेला विजयकारी उत्तम मुहूर्तमां जयजय शब्द करीने बलननी साथे ईशानतरफ प्रयाण करी जरासंधना सैन्यने मल्या. ते वखते प्रलय कालना वायुथी दोन पामेला सह्य अने विंध्याचल पर्वतनी पेठे ते बन्ने सैन्य शोजवां लाग्यां. ते वखते राजाउने माथे रहेला रत्नजडीत सोनाना श्रने रुपाना उत्रोनां मंडलोथी श्राकाश हजारो सूर्य चंजना सर शोजवा लाग्यु. ते वखते हाथीनी गर्जनाथी, घोडाऊना खोखाराथी,रथना घोरथी थने पालाना सिंहशब्दश्री जगत् शब्दमय थर गयुं. घोडाऊनी खरीउथी उमेली धूखे करीने आकाश रजमय थयु. दिवसो अमासनी रातना सरखा अंधकारमय थ गया; तेथी नूतो तथा राक्षसो पोतानी मरजी प्रमाणे फरवा लाग्या. पठी हंस अने डिनक नामना प्रधानोनीसाथे विचार करी जरासंधे शत्रुर्जना सैन्यनो नाश करवाने माटे सहस्त्र धारावालो चक्रव्यूह रच्यो. एक हजार आरामा एक हजार राजा, बे हजार रथ, सो हाथी, पांच हजार घोडा, श्रने सोल हजार पायदल, एप्रमाणे सैन्य राखी कौरव श्रने गांधार राजाने चक्रव्यूहनी पाउल राखी अने पोते पांच हजार राजा सहित चक्रव्यूहना मोढा आगल रह्यो. तथा चक्रव्यूहनी बार अनेक राजा यादवोने युद्धने माटे बोलाववाने रह्या, पढ़ी जरासंघे रचेला चक्रव्यूहने सांजलीने समुजना सरखा गंजीर बुद्धिवाला यादवोए चक्रव्यूह जीतवाने माटे पोतानी सेनानो गरुडव्यूह रची, पचास लाख कुमारोने गरुडव्यूहना मुख श्रागल राखी बलन तथा कृष्ण गरुड व्यूहना मस्तक उपर रह्या. अने चारे तरफ अनेक सुजट राजा रह्या, के जेने जोवाथीज शत्रुर्जनो गर्व गली जाय. ते वखते अवधिज्ञानथी युद्धनो समय जाणीने इंछे पोतानो मातली सारथी वालो रथ नेमिनाथने माटे मोकल्यो. पड़ी बन्ने सैन्यमा युद्धनां वाजींत्र वाग्यां एटले त्रण जगत्ने श्राश्चर्यकारी जयंकर युद्ध चाल्यु. वीरपुरुषोना खझना घाथी उत्पन्न थयेलो अग्नि रुधिररूप जलथी शांत थवा लाग्यो. वीर पुरुषोना पगथी उडती धूल रुधिरथी कादवरूप थर. त्रूटता वीरपुरुषोना मुकुटथी क्षणमात्र प्रकाश थवा लाग्यो. ते वखते चतुरंगी Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवजवनी कथा. २०७ सेनाना घातना रुधिरथी राती य‍ रहेली भूमिना जेवी पश्चिम दि शामां सूर्य अस्त पाम्यो. रुधिरथी प्रसन्न यएला वैतालोनी पेठे ते रणां गणमां मस्तकरहित शरीरो नाचवा लाग्या. ते दिवसे जेनी जीत थएली एवा सर्वे यादवो जय जय शब्द करीने रणथी पाढा फस्या अने जेनो सेनापति नाश पाम्यो बे एवं जरासंधनुं सैन्य पण पातुं फरयुं बीजे दिवसे जरासंधे शिशुपालने सेनापति स्थाप्यो; तेथी तेणे हशीने कृष्णनेयुंके, " हे कृष्ण ! या गोकुल नथी, पण रणसंग्राम बे. " एवां तिरस्कारनां वचन बोलतामांज कृष्णे चक्रथी तेनुं मस्तक, कुंजार जेम दोरडी थी चाकवाउपर रहेला काचा घडाने बेदी नाखे तेम बेदी नाख्युं; तेथी क्रोध पामेला जरासंधे बलजडना दश पुत्रने मारी नाख्या एटले बलन पण तेना ठावीश पुत्रने माझ्या अने कृष्णे पण तेना एक सारा पुत्रने मास्यो पढी पुत्रना नाशथी क्रोध पामेला जरासंधे बलजड़ने एक गदा मारी; तेथी ते रुधिरने वमतो बतो पृथ्वी उपर पढ्यो ने कृष्णने पण अनेक बाणोथी जेम वादलां सूर्यने ढांकी दे तेम ढांकी दीधो. पी ग्लानी पामेली यादवनी सेनाने जोइने मातली सारथीए नेमिनाथने कथं के, " हे खामिन्! तमारा वे हाथ सर्व जगतनुं रक्षण करवाने समर्थ बे, माटे श्रा निर्दयपणाथी यादवनी सेना ने मारनार जरासंध तमारे उपेक्षा करवा योग्य नथी. जो के तमारे कोइ स्वपर नथी, तो पण ा यादवकुलनो उद्धार करो. कारण के जु सूर्य पोयणीने संकोच करतो बतो पोताना बंधुरूप कमलना वनने शुं प्रकाश नथी करतो ? माटे या शत्रुर्जने बल देखाडवा माटे शस्त्र ग्रहण करीने यादवकुलनो उद्धार करो.” एवां मातलीनां वचन सांजली नेमिनाथे हाथमां धनुष लइ वर्षादनी धारानी पेठे अनेक बाणो बोड्यां ने वीर पुरुषोना मुकुटोने कापी नाखी तथा माथार्जुने मुंमी नाखी जोतां जोतां लाखो माणसोने विलक्षपणाने पमाड्या, के जेथी जरासंधनी सेनारूप समुद्र यादवनी सेनारूप खामामां बूमी गयो. एथी योगीश्वर ने मिनाथनुं महात्म्य प्रकाश पाम्युं पढी नेमिनाथे करेला उपचारथी स्वस्थ थयेला बल शत्रुर्जनी सेनाने मदोन्मत्त हाथी जेम वृक्षोने फेंकी नाखे तेम फेंकी नाखी. पोतानी सेनाने नाश पामेली जोश्ने कालना सरखा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० शीलोपदेशमाला. क्रोध पामेला जरासंधे कृष्णने कह्यु के, " अरे गोवालना पुत्र ! तुं म्हारा जमाश्ने कपटथी मारीने मंत्रना जाण पुरुषथी नूतनी पेठे नाशी जश् पश्चिम समुअमां रह्यो ९, पण श्राजे यमराजथी स्पर्श थयेला तने कंस पासे मोकलीने म्हारी पुत्रीनी प्रतिज्ञा पूर्ण करीश." जरासंधनां एवां वचन सांजलीने कृष्णे कयु के, “केड बांधीने श्राव, वार न कर. पिता, पुत्र अने माताने एक संगाथमां करूं.” एम परस्पर तिरस्कार करता श्रने समुनी पेठे गर्जना करता ते महा बलवाला कृष्ण अने जरासंध युक करवा लाग्या.जूदी जूदी विद्याथी अनेक जातिना शस्त्रोने फेंकतां ते एक बीजाने जम करवा मंड्या. अने एवी रीते युद्ध करवा ग्या के जेथी मेरु पर्वतसहित पृथ्वी कंपवा लागी. दीशाऊना हाथीने व्रम थवा लाग्यो. समुस्रो दोज पाम्या अने सर्व ब्रह्मांड फाटवा लाग्युं. पडी शस्त्र रहित थयेला जरासंधे सूर्यना सरखी कांतिवावु चक्र कृष्ण उपर फेक्यु; पण ते चक्र रमतना दमानी पेठे कृष्णना हृदयनो स्पर्श करी राजहंसनी पेठे हस्त कमल उपर बेतुं. ते वखते देवताए “ श्रा नवमो वासुदेव दे.” एम कहीने सुगंधी जलनो अने पुष्पोनो वर्षाद कस्यो. पनी कृष्णे चक्र मारीने पोताने तिरस्कार करनार जरासंधनुं मस्तक कापी नाख्यु एटले देवताउँए जय जय शब्द कस्यो. जाणे स. वना संहार माटेज उत्पन्न थर होय नही शं? एवी जीवयशाये जरासंधनुं मृत्यु शांजलीने माता सहित तुरत अग्निमां प्रवेश कस्यो. पली नेमिनाथे श्राज्ञा करेलो मातली सारथी पोताने स्थानके गयो भने कृ. ष्ण अर्धा जरतखंडने जीतीने फरी द्वारकामां गया. त्यां सोल हजार राजाए पोतपोतानी एक एक मोकलेली पुत्रीने परणी अर्ड चक्रवर्ती पणाथी प्राप्त थयेला शंख, खड्ग, धनुष, चक्र, वनमाला, मणि अने गदारूप सात रत्नोथी तथा समृद्धिथी अलंकृत थयेला ते कृष्ण, बलज सहित चक्रवर्ती राज्य जोगववा लाग्या. तथा वीश हजार राजाने बंधीखानामांथी बोडावी पोताना मित्रोनी साथे क्रीमा करवा लाग्या. अने नेमिनाथ तो विषय सुखथी विमुख थया. ॥ इति नेमिनाथ जन्म महोत्सव तथा बाल संग्रामसंपूर्णम् ॥ . एक दिवसे खेचरी अने जूचरी विगेरे पोतपोतानी हजारो स्त्रीयोनी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. १०ए साथे बगीचामां विहार करता कृष्णना पुत्र प्रद्युम्न तथा सांब विगेरेने जोश्ने समुष विजय राजाए अने शिवादेवीये युवावस्थामां श्रावेला पोताना पुत्र नेमिनाथने कह्यु के, “ हे विश्वमा एक वहाला पुत्र ! पुत्रवाला माणसोमां अमे तमारारूप पुत्रनी उत्तम रेखाने धारण करीए बीए; पण यौवन अवस्थामा प्राप्त थयेला तमे विवाद करता नथी; तेथी बीजाऊना पुत्रोनी वहु जोश्ने श्रमारा मन बहु कुःखाय बे. जगतमा विधिये तमारे विषे सर्व संबंध निर्माण कस्यो बे; तो पण जुद्ध के माणिक्य सोनाने मल्याविना शोनतुं नथी”. वली वहुने जोवा 7साद पामेली शिवादेवीये कह्यु के, “ हे पुत्र ! पृथ्वीमा जे स्त्रीयोनां मुख आगल कहेला कामने करनारी, उत्तम घरेणांने धारण करनारी अने नेत्रने अमृतना पारणा सरखी वहु फरे बे; तेज स्त्रीयोने हुँ धन्य मानुं बु.” एवां माता पितानां वचन सांजलीने अने तेमने नमस्कार करीने नेमिनाथे मधुर वाणीथी कडं. “हुँ दुःखना परिणामजूत कन्याने परणवाथी उत्साह पामतो नथी. ज्यारे हुं चतुर श्रने हितकारी स्त्रीने देखीश त्यारे परणीश; माटे तमारे ते बाबत खेद करवो नहीं. कारण के पुःखनी वेल सरखी दारुण स्त्रीने परणवाथी कष्टना पात्ररूप थवाय बे. “ एम कहीने तेमणे सरल मनवाला ते मात पिताने बोध पमाडयो. कयु डे के-तत्वने विषे दृष्टिवाला मनुष्यो खपरनेदने स्वीकारता नथी. हवे यशोमतिनो जीव अपराजीत देवलोकथी चवीने उग्रसेननी स्त्री धारणीने विषे पुत्री पणाये उत्पन्न थयो. माता पिताए तेनुं राजीमती नाम पाड्यु. पड़ी तेराजीमती शाश्वत रसना आश्रयवाली वेलनी पेठे व. धवा लागी. चंनी लेखानी पेठे पृथ्वी उपर सर्वने हर्ष पमाडती श्रने सर्व कलानो श्रन्यास करती ते अनुक्रमे यौवनावस्थामां आवी पहोंची. एक दिवसे कुमारोथी विंटलायेला नेमि कुमारे कृष्णनी श्रायुद्धशालामां " जाणे बीजो कृष्ण होय नहीं शुं ? तेम प्रवेश कयो, अने धनुष्य, खड्ग, चक्र, विगेरे आयुधोने जोश्ने पड़ी एकदृष्टिथी शंखने जोवा लाग्या. पडी शंखने ग्रहण करवानी श्वा करतां नेमिनाथने रक्षण करनाराए नमस्कार करीने कां के, “ हे प्रनु ! सांजलो, था पांचजन्य शंखने ग्रहण करवाने एक कृष्ण समर्थ बे, बीजो कोश नथी. तो वगा. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० शीलोपदेशमाला. डवाने तोक्यांधीज समर्थ थाय ? माटे तमे मिथ्या प्रयास करशो नहीं." एवां ते रक्षकोनां वचन सांजलीने ना कह्या बतां पण नेमिनाथे, बालक जेम हाथमां दडो लहे तेम शंख लीधो अने पोताना मुखे धारण कस्यो. ते वखते ते शंख हृदयमांथी निकलेला शुद्ध उज्वल ध्यानरूप पिंमना सरखो शोजवा लाग्यो. पनी ते शंखने वगाडवाथी जगतने पुरी नाखे एवो घोर शब्द निकट्यो, के जेथी रक्षको मूर्ग पामीने जाणे रोगवाला पड्या होय नही \ ? तेम पृथ्वी उपर पड्या. वली ते शंखना शब्दथी प्रलयकालना समयनी पेठे समुमो दोज पाम्या. पृथ्वी कंपवा लागी. ब्रह्मांड फाटवा लाग्यु. गजों पडवा लाग्या अने छारकानो गढ जाणे समुरुमां पडवाने जतो होय नहीं शुं? एम कंपवा लाग्यो. ते वखते राज पुरुषोनी साथे सनामां बेठेला कृष्णे शंखनो शब्द सांजली ब्रांति पामीने अने चारे तरफ जोश्ने बलनने कयुं के, “ हे ना! पांचजन्य शंखने वगाडतो शुं को बीजा छीपथी विष्णु आवे जे ? के बीजो को विष्णु उत्पन्न थयो ?” एटलामां नयनीत थयेला रक्षकोए श्रावीने कृष्णने कह्यु के," तमारा पांचजन्य शंखने नेमिनाथे वगाड्यो डे." एवां रदकोनां वचन सांजली जेनो मुकुट शंखना शब्दश्री कंप्यो हतो एवा कृष्णे विस्मय पामीने कडं के, " श्रापणा कुलमां नेमिनाथ चक्रवर्ती थया; कारण के जे शंखने में वगाड्ये बते पण श्रावो शब्द थयो न होतो." एम विचार करता करता कृष्ण पोतेज नेमिनाथ पासे थाव्या. पळी पोताना अर्धा श्रासन उपर बेसारीने कृष्णे नेमिनाथने कह्यु के, “ हे बंधो ! जेना शब्दथी आकाश पुरा गयुं हतुं एवो था शंख तमे वगाड्यो ?" नेमिनाथे हा कही. एटले कृष्णे मधुर वाणीथी नेमिनाथने कह्यु के, " हे नाश् ! ज्यारे तमे शंख वगाड्यो हतो त्यारे आ पृथ्वी कंपवा लागी हती, माटे तमे महा बलवाला बो; तेथी थापणे बंने जणा परस्पर एक बीजानुं बल जोवा मवयुद्ध करीए.” कृष्णनां एवां वचन सांजली नेमिनाथे पोताना अनंत बलनो विचार करीने कृष्णने कडं के, “ हे जा! आपण बनेने मश्करीथी पण मल्लयुद्ध करवो योग्य नथी, माटे बलनाने साक्षी राखी आपणे बंने जणा परस्पर हाथ नमावीए." पठी कृष्णे पोतानो हाथ लांबो राख्यो एटले ते हाथने ने Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. २२१ मिनाथे बालक जेम कमलना नालने वाली नाखे तेम वाली नाख्यो. पबी नेमिनाथे पोतानो हाथ लाबो राख्यो, पण कृष्ण ते हाथने वजना थंजनी पेठे वालवाने समर्थ थया नही. परी कृष्ण नेमिनाथनां वखाण करवा लाग्यो के, धन्य डे आपणा कुलने ! के जे तमारा सरखा वीर पुरुषो आपणा कुलमां उत्पन्न थया ले.” एम कहीने पली बलजने कह्यु के, " हे नाश् ! आर्यकुलमां जन्म पामेला नेमिनाथना सर बल इंजनुं के कोइ पण चक्रवर्तीनुं नथी, तो ते खंड पृथ्वीन राज्य जोगवे ते को उझन नथी.” एवां कृष्णनां वचन सांजली तेमनी शंका कुर करवाने माटे बलजले कयु के, " हे ना! ते नेमिनाथ पोताना बले करीने आपणा उपर राज्य जोगवे जे. कारण के जेमणे जरासंधनी जरा उतारी ते अ॒ तमे नथी जाणता ? वली नैमितिए कह्यु डे के, ए नेमिनाथ बावीशमो तिर्थंकर थशे; माटे नरकना कारणरूप राज्यनी एमने इछा नथी अने मोक्षमा जनारा ए नेमिनाथ, कुमार अवस्थाथीज अढ शीलवत पाले जे.” एवांबलनजनां वचन सांजली घणो दर्ष पामेला कृष्ण अंतपुरमा जश् रुक्मणी विगेरे पोतानी स्त्रीयो पासे नेमिनाथनां वखाण करवा लाग्या. पठी त्यां नेमिनाथने बोलावी, घणुं मान थापी, प्रसन्न करी, सुगंधी चंदन विगेरे चोपमी, रत्नना सिंहासन उपर बेसाडी, अने प्रेमथी व्याप्त एवा ते बन्ने जणा उत्तम रसोइ जम्या. एवी रीते दिवसे दिवसे बगीचामां, वाव्य श्रने तलावने कांठे अंतःपुर सहित कृ. ष्ण नेमिनाथ साथे रमता हता. एक दिवस कृष्णे पोताना द्वारपाल रदकोने आज्ञा करी के, “ तमारे मारा प्राणप्रिय बंधु नेमिनाथने कोश ठेकाणे पण रोकवा नहीं.” तेमज रुक्मणी, सत्यनामा, रेवती विगेरे पोतानी सर्व स्त्रीउने कयु के, “तमारे नेमिनाथने दियर सरखा मानवा." त्यार पनी समान चित्तवाला नेमिनाथ कृष्णना अंतःपुरमा निःशंकपणे जवा आववा लाग्या. _एक वखते शिवादेवीये कृष्णने कह्यु के “ हे कृष्ण ! तमे नेमिनाथने एवो बोध करो के जेथी पुत्रनी स्त्रीना मुखने जोवारूप म्हारो मनोरथ पूर्ण थाय.” पली नारायणे ते वात रुक्मणी विगेरेना मुखथी नेमिनाथने कही, एटले तेमणे ते वात मश्करीथी एवी उरामी दीधी के फ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ शीलोपदेशमाला. - री ते वात कोश्थी बोलाय नही. तेवा वखतमां नेमिनाथना विवा ने माटे जाणे सहाय करतो होय नही शुं ? तेम दक्षिण दिशाना पवनथी वन पुष्ट थयेलो वसंत ऋतु आव्यो, एटले कृष्ण नगरवासी जनो अने अंतःपुर सहित नेमिनाथने साथे लइ गीरनार पर्वत उपर रमवा गया. जाणे कोकिला बोलावता होय नहीं शुं ? " अर्थात् जेमां कोकीला बोली रह्या बे. धने जाणे कामदेवनुं पूजन करवानेज प्रफुलित थयेलो हो नी ? एवां ते बगीचामां जेए मद्यपान करयुं बे, एवासर्व यादवो स्त्रीdai साथे क्रीडा करवाने गया ने पुष्पोना समूह एकठा करवा लाग्या. पी मृगना सरखा नेत्रवाली सत्यनामा विगेरे स्त्रीयो कृष्णनी श्राज्ञाथी नेमिनाथनी साथे पुष्पो वणवाने माटे वनना मध्यभागमां जश्ने क्रीडा करवा लागी. कोइ स्त्रीये कामवेलना सरखी वृनी मंजरी नेमिनाथना हाथमां श्रापी; कोइ स्त्रीये कामदेवने उत्पन्न करनारी जाणे रानी पोटली होय नही शुं ? तेम उत्तम मल्लिका जातीनां पुष्पोए करीने नेमिनाथना चोटलाने शणगारयो, कोइ स्त्री उत्र चामर विगेरे राज्योपनयननी नेटना मिषथी श्री नेमिनाथना मुख रूप कमलना मकरंदने पान करवा लागी. कोइ स्त्रीये पोताना हाथना मूलजाग (स्तन) - ने देखा विशेष्य अलंकार धारण कराव्या. केकयी उतरी जता वस्त्रवाली कोइ स्त्रीये नेमिनाथना कपालमां पील करी. एम क्रीडा करतां करतां श्रग्निने शांत करवामां समर्थ एवो वसंत रुतु गयो छाने श्री नेमिनाथने मलवाने जाणे श्रावतो होय नही शुं ? एम ग्रिष्म ऋतु श्रव्यो एटले सत्यनामा विगेरे स्त्रीयो जलक्रीडा करवाने माटे हरिनी साथे वायुंमां गइ श्रने त्यां लता रहित थयेली ते स्त्रीर्ड कृष्णनी साथे जलकीमा करवा लागी तथा कृष्णे हाथमां पककी राखेला नेमिनाथ ते जलक्री मामां जाणे साक्षी होय नही शुं ? एम उजा रह्या. पढी कृष्णना संकेतथी रुक्मणी विगेरे स्त्रीयो, जेणे शृंगार धारण करेलो बे एवा श्री नेमिनाथने जलना हिलोलाथी खेलाववा लागी एटले निःशंक थइने नेमिनाथे ते स्त्रीयोनी साथे क्रीडा करी. कारण तेवा उत्तम पुरुषो कोइनी आशा मंग करता नथी. नेमिनाथे पाणिना हिलोलाथी ताडन करेली कोइ स्त्रीना कुंजसरखां स्तनो जलना बिंदुथी मोतीना हारनी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. ११३ शोनाने पाम्या. तथा जलना सेचनथी केटलीक स्त्रीयोनी नाडी त्रुटी गर; केटलीक स्त्रीउनी कंचुकी फाटी गश् श्रने केटलीक वस्त्ररहित थ गश्. एवी रीते कमलना पत्रनी पेठे रागरहित एवा नेमिनाथे कृष्णनी सर्व स्त्रीयोने तांबुलना चूर्णनी पेठे रागयुक्त करी. पडी रुक्मिणीए नेमिनाथने हाथ कालीने वाव्यमांधी बहार काढ्या. जांबुवतीए पीतांबर पहेराव्यां, गांधारीए केश बांध्या. रेवतीये शूक्ष्म वस्त्रधी पवन नाख्यो. पद्मावतीए प्रजुना कंठने विषे हार थारोपण कस्यो एटले सत्यजामाए चरणने चांपतां तथा चंदन चोपडतां नेमिकुमारने कर्वा के, " हे कुमार ! तमे अज्ञानी पुरुषोनी पेठे खोटो आग्रह केम करो जो ? के जे पूर्वना पुरुषोए प्रवर्तावेलो मार्ग हग्थी लोपो डो! जुट के सर्वे राजाए प्रथम अवस्थामा स्त्रीनी साथे विवाह करी अने यौवनने सफल करीने अंते व्रतने सेवन कमु . तमे घणा सौजाग्य वाली था युवावस्थाने व्रतथी पूर्ण करो डो, तेथी ताल फलनी श्छा करनारा वनमा रहेला पुरुपनी पेठे हसवा योग्य अशो.” सत्यनामा एवां युक्तिनां वचन कहेती हती, एवामां कृष्णे श्रावीने नेमिनाथने कह्यु के, “ हे बंधो! तमारा हग्ने बोडीने श्रा स्त्रिने प्रसन्न करो. कारण के, बहुधा प्रकारे पूर्वना जिनोश्वरो पण स्त्रीउने परण्या हता. पठी ते तीर्थनुं स्थापन करी अने अंते मोदने पामेला . तथा श्रमारा कुलमां पण पूर्वे सुव्रत नामना को पुरुषे नोग जोगवीने पढी व्रतने ग्रहण कह्यु हतुं. तो हे कुलमडन ! तमे पण कुलना आचारने लोपवा योग्य नथी.” एम कहीने स्त्री सहित कृष्णे ज्यारे नेमिनाथने प्रणाम कस्यो, त्यारे नाश्ना दाक्षीण्यपणाथी नेमिनाथे परणवानुं कबुल कलुं. कृष्णे समुपविजय राजाने तथा शिवादेवीने संदेशो मोकटयो के, “नेमिनाथे विवाह करवानुं कबुल कडं ." पठी प्रसन्न थयेला तेउए संदेशो लावनारने घणुं अव्य आपी संतोष पमाड्यो. पड़ी घणो हर्ष पामेला कृष्ण वर्षाऋतु श्राववाने वखते सर्व माणसोने लश् छारका पुरमा श्राव्या. त्यार पनी समुजविजय राजाए नेमिनाथने माटे योग्य कन्या खोलवा मांडी एटले कृष्णे कह्यु के, “ उग्रसेन राजाने पुत्री बे, तेनो नेमिनाथनी साथे विवाह करशुं.” ए वात सांजलीने शुज योगने विष समुविजय राजा उग्र १५ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ शीलोपदेशमाला. सेनना घेर श्राव्या. श्रने क्रोष्टुकीने बोलावीने लग्न पूज्यु. क्रोष्टुकिए कडं के, " हरिना शयन वखते विवाह कर्म करवू योग्य नथी." एवां कोष्टुकीनां वचन सांजली कृष्णे हसीने कडं के, “हुँ पोतेज हरि सादात् जागतो बुं, तो पड़ी था शंका शा माटे करवी जोश्ये ? वली नेमिनाथनो विवाह करवामां विलंब करवो योग्य नयी. कारण के बालानस्तंने बांधेला एवा मदोन्मत्त हस्तिनो विश्वास करवो योग्य नथी. लग्न श्रावण शुदी बग्नुं मंगल .” ए वात सांजली समुजविजय राजा श्रने उग्रसेन विवाहनी सामग्री करवा लाग्या. रंग विगेरेथी पोतपोतानां घरो शणगास्यां. सुवासिनी स्त्री दिनदिन प्रत्ये गीत गावा लागी. विचीत्र जातना वाजींत्रो वागवा लाग्यां. मांडवा विगेरेनी उत्तम रचना करी. पली लग्नने श्रागले दिवसे शिवादेवी विगेरे सर्व यादवनी स्त्रीयोए नेमिनाथने पूर्वामिमुखे सिंहाशन उपर बेसारी मंगल स्नान कराव्यु श्रने तेज दिवसे उग्रसेनने घेर जश्ने राजीमतीने पण मंगल स्नान कराव्यु. पठी राजीमतीने चोकमां बेसारी वस्त्रालंकार विगेरेथी शणगारवा लागी. ते वखते राजीमतीना रूपने जोवा माटे तरश्या नेत्रवाली स्त्री नेत्रने स्थिर करीने जोवा लागी. राजीमतीए पण पोताना पूर्वनवना वहाला स्वामीने पामवाना घणा हर्षथी ते रात्री बहु मूश्केलीथी वीताडी. पली बीजे दीवसे मंगलस्नान करी, चंदन विलेपन करी, शुक्वध्यानना सरखा उज्वल घरेणांने धारण करी, चंछ सरखा मनोहर बत्रथी सेवन थयेला, गंगाना तीरसरखा उज्वल चामरोथी शोनता, कुमारीकाउँए खुण उतारेला, व्हेनोये, मांगलिक करेला श्री नेमिनाथ धोला घोडावाला सोनाना उज्वल रथमां बेसी गोविंद विगेरे यादवोनी साथे उग्रसेनना घरे तोरणे श्राव्या, एटले केशने विषे मोतीउनी शेरने धारण करनारी राजीमतीने तेनी दासी नेमिनाथने जोवा माटे गोखमा लावी. ते राजीमती पण पोताना निमिषरहित नेत्रथी नेमिनाथने जोवा लागी. ते वखते तेनो ( राजीमतीनो) जमणो हाथ अने जमणुं नेत्र फरकवा लाग्युं, तेथी ते परणवा आवेला वरने उर्द्धन मानीने घणो खेद पामी. सखिए तेने खेद- कारण पूज्यु के " हे आहे. १ चोमासामां. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे सखिलं ! निजामत्रना फरकवा का सखा ये कयु के नेमिनाथना नवनवनी कथा. १२५ न! तने खेद शा माटे उत्पन्न थयो ?” राजीमतीये सत्य कह्यु के, "हे सखि ! हुं निर्जाग्य बुं; कारण के,श्रा आनंदना वखतमां मने जमणा हाथना अने जमणा नेत्रना फरकवा रूप निमित्त उत्पन्न थयु डे !!! हवे हुं शुं करूं ?” एवां तेनां वचन सांजली सखीये कयु के, "हे सखि! श्रा त्हारा अमंगलीक शब्दोने धिकार ने अने कुलदेवी श्रमारंकुशल करशे. हवे विवाहने प्रसंगे आवेला अनेक राजाना नोजनने माटे नेगा करीने बांधेलां, अने चीसो पाडतां पशुमने जोश्ने नेमिनाथे पोताना सारथीने पूज्युं के “श्रा सघलां पशु शा माटे नेगां कस्यां ?" सारश्रीए कह्यु के, “ हे देव ! तमारा विवाह प्रसंगे श्रावेला राजाऊना नोजनने माटे ए पशुउँने बांध्या बे.” सारथीनां एवां वचन सांजलीने नेमिनाथे कडं के "राजा रहित विश्वने श्रने दया रहित माणसोने धिकार के कारण के जे जेनुं को पण पालण करनार नथी एवां था पशुऊने मारे बे.” ए प्रकारे कहीने दयाथी कोरेला हृदयने धारण कररता नेमिनाथे पोतानो रथ बांधेला पशु तरफ चलाव्यो, एटले दिन थयां ने मुख अने नेत्र जेमनां एवां ते पशु नेमिनाथने जोश्ने पोतपोतानी नाषामां " अमाझं रक्षण करो, अमारं रक्षण करो.” एम बोलवा लाग्यां. पडी नेमिनाथे पोताना सारथीने आज्ञा करीने सर्व जीवोने बंधनमांथी बोडावी पोतानो रथ पालो वाख्यो एटले ब्रांति पामीने समुपविजय राजा अने शिवादेवी विगेरे पोतपोताना रथमांथी - तरी नेमिनाथ पासे श्राव्या. जेमनी आंखोमां आंसु श्राव्यां डे एवां मातपिताए नेमिनाथने कह्यु के " हे वत्स ! तने था विवाहरूप महोत्सवमां शो विरस उत्पन्न थयो ? हे नंदन ! अमने अकस्मात् फुःख केम उपजावे ? तुं विवाहथी विराम पाम्य नहीं.” नेमिनाथे कयु के. " हे तात ! म्हारा विवाह निमित्त पोताना कर्मथी वींटलाएला था पशुऊने जोइने हुँ विवाहथी निवृत्ति पाम्यो ढुं अने संयम मार्गमा विचरिश. तथा तमने संतोष पमाडनारा महानेमि विगेरे तमारा घणा पुत्रो ." नेमिनाथनां एवां वचन सांजलीने मात पिता मूळ पाम्या, एटले कृष्णे धीरजताथी नेमिनाथने कह्यु के, " हे ना! तमे दयाथी जेवी रीते था पशुउने मूकाव्या बे, तेवीज रीते दया करीने मातपिताने दु: Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ शीलोपदेशमाला. खमांथी शुं नहीं मूकावो? अने पुत्र तो मातपिताने फुःखरूप समुषथकी उझार करवाने माटेज डे; तो तमे तेमनो मनोरथ पूर्ण करो." एम कृष्णे, मातपिताए अने जाए घणुं समजाव्या; पण ते सर्वने रोता मूकीने नेमिनाथ घेर श्राव्या. पनी लोकांतिक देवताए आवीने नेमिनाथने कह्यु के, "हे खामिन् ! दीदा धारण करवानो समय थयो." एवां देवतानां वचन सांजलीने नेमिनाथे संवत्सरी दान देवा मांड्यु. ए वात ज्यारे राजीमतीए सांजली, त्यारे ते कंठमांथी तुटेली मोतीनी मालानी पेठे मूळ पामीने पृथ्वी उपर पडी. तेने सखीयोए टाढा पाणी वि. गेरेना उपचारोथी सचेत करी एटले ते राजीमती विलाप करती करती कदेवा लागी के, "हे धात! ते मने शा कारण माटे सरजी? गर्नमां केम मारी नाखी नहीं ? हुँ यौवन शाकारण माटे पामी ? बाल अवस्थामां केम मरी गई नहीं ? म्हारे माटे श्रा नेमिनाथने सरज्या नहोता तो तेनुं दर्शन मने शा कारण माटे कराव्यु ? कारण अव्यनो नंडार थापीने बेश लेवो ए करतां न देखाडवो ए वधारे सारं जे.” ए प्रकारे आत्माने निंदती, प्रेमथी प्रजुने वारंवार संजारती अने मूळ पामीने पृथ्वी उपर आलोटती ते राजीमतीने जोर घणा पुःखवाली थयेली सखीयो ए कह्यु के," हे सखि! हवे ते नेमिनाथने विषे त्हारो खोटो श्राग्रह बे; कारण के विरस थयेला तेणे निष्कपटपणाथी तने निश्चय त्याग करी बे; माटे तुं बीजा रूप अने पराक्रमवाला हजारो राजाउमाथी यो. ग्य रूपवाला राजा साथे विवाह करीने जन्मने सफल कर." सखीउनां एवां वचन सांजलीने जयंकर व्रकुटी चडावीने राजीमतीए कह्यु के,“अरे पापिणी! म्हाराथी दूर जाऊ. श्रा तमारा वचनने धिक्कार .में मनथीज वहाला नेमिनाथने स्वामी करेला , तो गजराज सरखा ते स्वामीने बोडीने गधेडा सरखा बीजा राजाने केम वरं ? जो तेमणे म्हारो पाणीग्रहण करीने श्रादर नथी कस्यो, तोपण तेज म्हारा धर्माचार्य थशे.” एम कहीने अने बीजावर साथे विवाह करवानी श्छा करनारा सर्व खजनोने रोकीने ते पतिव्रता राजीमती नेमिनाथना दीदाकालनी वाटजोवा लागी. हवे नेमिनाथ संवत्सरी दान आपी रह्या एटले अंतरजावने जाण१ गुरु. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. १२७ नारा चोसठ इंजोए श्रावीने तीर्थना जलथी प्रजुने स्नान कराव्यु. पड़ी देवताए उत्तरकुर नामनी निर्माण करेली अने हजारो राजाउँए उपाडेली पालखीमा प्रनु बीराज्या, एटले शर्के प्रजुने माथे छत्र धारण कमु.बीजा इंसो प्रजुनी बन्ने बाजुए चामर ढोलवा मंड्या अने शिवादेवी विगेरे हजारो स्त्रीयोए गदगद कंठश्री गीत गावा मांड्या; कारण के म्होटा पुरुषो पण तुरत मोहने त्यजी देवा समर्थ यता नथी. पड़ी चारित्ररूप लदमीने परणवा जता ते नेमिनाथने जो राजमती, वायुथी कंपता वननी पेठे दुःखी थवा लागी. पडी राजीमतीनी वाचाल सखी प्रजुनी सन्मुख श्रावीने कदेवा लागी. " लोकमां स्त्रीने विषे चंचल पणुं कहे बे, परंतु कबूल करेल प्रतिज्ञानो नंग करवाथी तमे स्त्रीउथी पण वधारे चंचल देखाउँ नो! तमे खरेखरा धूतारा डो, कारण के, राजीमतीने वृथा त्यजी दर संयमलमीने विषे आसक्त थया. जरासंधनो वध करवानी वखते तमे युद्धमा हजारो राजाउँथी पण लय पाम्या नहीं, ते एक स्त्रीनी साथे विवाह करवामां जय पाम्या !! वली हे धूर्त ! तमे पोताना कर्मथी बंधायेला हजारो पशुउने कुःखमांथी बोडाव्या अने एक अबला स्त्रीने कुःखरूप समुडमां फेंरी दीधी, तेथी तमारं दयालुपणुं आश्चर्यकारी !!! तमे एक वर्ष पर्यंत सुवर्णतुं दान थापी विश्वने संतोष पमाड्युं अने एक दीन अबलाने दृष्टिथी पण संतोष पमाडी नहीं, ए तमारूं खरेखलं दानेश्वरीपणुं जाण्यु !! त्रण ज्ञानवाला तमने वधारे ठबको आपवाश्री शं!!" श्राप्रमाणे निंदा, स्तुति अने उबको श्रापती एवी ते स्त्रीउनां वचनो सांजलता बता पण नहीं सांजलतानी पेठेथ नेमिनाथ पोते चारित्ररूप लक्ष्मीने मलवामाटे चाख्या. पनी जगवान् हजारो यादवोसहित गाजता वाजता अने पगले पगले दान आपता श्री गीरनार पर्वत उपर आम्रवनमां श्राव्या. त्या सर्व वस्त्र अने घरेणां उतारी बहनो तप करी त्रीश वरसे श्रावण शुदी बग्ने दिवसे चित्रा नखत्रमा सवारने पहोरे दीक्षा लीधी. ते वखते जगवानने मनःपर्यव नामर्नु झान उत्पन्न थयु. जेथी नारकादिक सर्व जीवोने पण दणिक सुख प्राप्त थयु. हजारो राजाए प्रजुनी साथे चारित्र लीधुं. पली कृष्ण श्रने बलजा प्रजुने वांदी पोतपोताने घरे गया. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ शीलोपदेशमाला. हवे बीजे दीवसे नेमिनाथ महाराजे वरदत्त ब्राह्मणने घेर खीरथी बहनुं पार| कऱ्या; तेथी देवताए ते ब्राह्मणने घरे पुष्पनी अने सुवर्णनी वृष्टि करी तथा जय जय शब्द कस्यो. तेमज देवडुनि पण वागवा लाग्या. पली नगवान् चोपन दीवस सुधी विहार करी फरीने पाना गीरनार पर्वतनी पासेना आम्रवनमां वेतस वृदनी तले श्राव्या. त्यां थाशोवदी अमांस श्रने चित्रा नदत्रमा सवारे प्रजुने केवल ज्ञान उत्पन्न थयु. इंग्नुं श्रासन कंपवा लाग्यु; तेथी इंस्रो अवधिज्ञानश्री प्रनुने केवल ज्ञान उत्पन्न थडे जाणीने त्यां आव्या अने त्रीगडा गढथी समवसरणनी रचना करवा मांडी. दरेक शालामा धुपनी घटी, तोरण, ध्वजा, अने वाव्यो रची. मध्यशालामा अशोक वृद रच्यु. तेनी नीचे रत्नजडित सुवर्णतुं सिंहासन कयु. सुवर्णना कमल उपर पग मूकता मूकता पूर्वधारमांथी समवसरणमां श्रावी श्रीनेमिनाथ महाराज “तीर्थायनमः” एवो उच्चार करीने सिंहासन उपर बीराज्या, एटले देवताए त्रणे बाजु सिंहासन उपर त्रण प्रतिमा स्थापन करी. उद्यान पालके छारकामा जश्ने कृष्णने वधामणि दीधी, तेथी कृष्णे तेने साडाबार क्रोड रुपियानी वधार आपी. पली कृष्ण अंतःपुर अने परिवार सहित अनेक यादवाने साये लश् प्रजुने वांदवा माटे गीरनार उपर श्राव्या. जमरी जेम मालतीने मलवा जाय तेम हर्षित मनवाली राजीमती पण त्यां श्रावी. पनी संसार रूप कुवामां पडेला माणसोने दोरडी सरखी नगवाननी धर्मदेशना सांजली वरदत्त राजाए प्रनुपासे व्रतनी प्रार्थना करी; तेथी नगवाने बे हजार राजकुमार सहित वरदत्त राजाने तथा अनेक कन्या सहित राजीमतीने महोत्सवपूर्वक दीक्षा दीधी. जन्म थीज प्रजुना चरण कमल सेववाने मनवाली राजीमतीने जाणीने कृ ष्णे तेनुं कारण पूब्यु एटले प्रजुए धन अने धनवतिना प्रथम जवथी नवे नवनी वात कही संजलावी. पड़ी तेमणे स्थापन करेला वरदत्त विगेरे अग्यार गणधरोए त्रीपदीने पामीने सूत्रना बार अंगो रच्यां. दाशाहे अने उग्रसेने प्रद्युम्न विगेरे पुत्रोसहित श्रावकधर्म श्रादस्यो तथा रामे श्रने कृष्णे सम्यक्त्व व्रत लीधुं. तेमज शिवादेवी, रोहिणी, १ उपन्नेवा, विगमेवा, घुवेवा. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना नवनवनी कथा. ११ ए देवकी ने रुक्मिणी विगेरे स्त्रिए प्रभुपासे श्राविकानो धर्म यादस्यो. प्रमाणे चणुर्विध संघ रचवामां पहेली पोरशी पूरी थइ, तेथी बीजी पोरशीमां गणधरो धर्मोपदेश दीघो. त्रण मुखवालो, नरना वाहनवालो गोमेध नामनो यक्ष स्थाप्यो तथा शासननुं रक्षण करवामाटे सिंहना वादनवाली कुष्मांडी नामनी देवी स्थापी मनोहर ने श्राश्चर्यकारी प्रातिहार्य सहित लोकने प्रकाश करनार जगवाने पृथ्वी उपर विहार करीना देशना घणा जव्य जीवोने बोध कस्यो. प्रभुना अढार हजार साधु, चालीश हजार महासती साध्वीउ, एक लाख उंगणोतेर इजार श्रावको, ऋण लाख अंगणचालीस हजार श्राविकार्ड, पंदरशें छात्रविज्ञानी, पंदरशें केवलज्ञानी, पंदरशें वैक्रियलब्धिवाला, चौदशें दपूर्वधार ने अढारसें मनः पर्यवज्ञानी हता. ए प्रकारे परिवार सहित विहार करता ने धर्मनो उपदेश करता ते श्री नेमिनाथ मुक्तिरूप स्त्रीने वरवानी इछाथी फरीने पाढा गीरनार उपर श्रव्या. त्यां य देशना सांजलीने केटलाके सम्यक्त्व धारण करयुं, केटलाके दीका लधी ने केटलाके श्रावकनो धर्म अंगीकार करो. पी पांचशे ने त्री शांत एवा महामुनिसहित नेमिनाथे पादपोपगमन अनशन ल‍ संथारो करो ने आषाढ शुदी आठमने दिवसे ने चित्रा नक्षत्रमां चंद्रनो योग बते सिद्धिरूप स्त्रीना वक्षःस्थल 'बाति' ने विषे श्रलं - कारताने पाम्या अर्थात् मोक्ष पाम्या. प्रद्युम्न सांब विगेरे कुमारो, नेमिनाथना जाइ अने कृष्णनी पटराणी विगेरे पण जगवाननी सेवा करवा थकी मुक्तिना पात्र थया. मुक्त श्रात्मावाली राजीमती पण सावना समूह सहित नेमिनाथनी गतिनेज पामी नेमिनाथना मातापिता चोथे देवलोके गयां बीजा पण दशाईकुलमां उत्पन्न थयेला पुरुषो देवगति पाम्या. त्रणसें वर्ष बाल्यावस्थामां ने सातसें बद्मस्थ तथा केवली व्यवस्थामां एम प्रजुनं श्रायुष्य एक हजार वर्षनुं हतुं. हवे देवता जगवानना शरीने चंदनयुक्त सुगंधि जलथी नवराव्यं, नैरुत्य खूणे गोशीर्ष चंदनथी चीता करीने श्रग्निकुमारे श्रमि की धो; वायुकुमारे वायु नाख्यो; मेघकुमारे अग्नि शांत करयो एटले इंडे नगवाननी डाढ लीधी अने बीजी देवतार्जए अस्थी 'हाडकां' लीधां, वस्त्रो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० शीलोपदेशमाला. राजार्जए लीधां श्रने जस्म सर्व लोकोए लीधी. बाकीना सर्व साधुनुं त्य कर्म देवतार्जए कस्युं पढी इंद्रे गीरनार पर्वतने विषे नगवाननी निर्वाण भूमिउपर मंडप कस्यो ने शीलामां पोताना वज्ज थकी नाम लख्युं. एवी रीते क्षणमात्र नारकी जीवोने पण महा आनंदना तरंग सरखो विधिप्रमाणे सङ्गतिथी उठव करीने सर्वे देवतार्ज नंदीश्वर गया. त्यांnda दिवस साश्वता जिनेश्वरनुं पूजन करी, श्राइ उछव करी पोतपोताने स्थानके गया. जेवी रीते नेमिनाथ आठ जव अनुसरी रहेली राजीमतीने त्याग करी उत्तम स्थानने पाम्या, तेवी रीते जव्य पुरुषोए पण समये समये करवुं इति नेमिनाथना नव जवनी कथा संपूर्ण थइ. श्री मल्लिनाथनी कथा. जेमना लंडननो कलश, नमन करता एवा जव्य जीवोनुं दर्शन यकीज कल्याण करे बे, ते श्री मल्लिनाथ तमने लक्ष्मी श्रापो. महिमाना समुद्ररूप जंबूद्वीपना प्रत्यक् विदेहमां विख्यात श्रने लक्ष्मीथी मनोहर सलिलावती नामे विजय बे. तेमां कलीयुगना अथवा क्लेशना मले करीने रहित वीतशोका नामनी नगरी बे. जे नगरीनी हवेली उनी जींते रहेला विचित्र मणिनी कांतिथी इंद्रे पोताना धनुष्यने लक्ष्मीवंत कखंबे एवी ते नगरीमां महा पराक्रमी बल नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने धरणी (पृथ्वी) थी अधिक गुणवाली शीलवंती धारणी नामनी स्त्री इती. तेउने सिंहना सरखो शूरवीर महाबल नामनो पुत्र हतो. पुत्र ज्यारे अनुक्रमे यौवना व्यवस्था पाम्यो, त्यारे पिताए तेने चोसव कलानी जाए एवी पांचसें कन्यार्ज महोत्सवपूर्वक महा श्रानंदथी परणावी. हवे ते महाबलकुमारने १ वैश्रमण, २ अनिचंद्र, ३ धरण, ४ पूरण, ५ वसु, अने ६ अचल ए ब मीत्रो हता. तेमनी साथे जीव जेम इंद्रिय साथे क्रीडा करे तेम महाबल वामी, कुवा. तलाव विगेरे स्थानके पोताने योग्य रमतथी निःशंकपणे रमतो हतो. एक वखते सेनासहित बल राजा वाडीये गयो; त्यां तेणे ज्ञानि आचार्यने जोइने वंदना करी. पी महात्मा ते श्राचार्ये धर्मने जाणवानी इछावाला ते राजाने सहज स्नेहथी मेघना सरखी गंजीर वाणीये करीने धर्मदेशना Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिनाथनी कथा. २१ दीधी अने कह्यु के, “ अज्ञानरूप कांजवाथी बांधला थयेला तथा काम सुखनी ब्रांतिये करीने तरश्या थयेला प्राणी संसाररूप वनने विषे मृगनी पेठे जमे बे अने धन्य पुरुषो हजारो पुःख आपनारा श्रा संसारने तृणनी पेठे त्याग करीने स्वर्ग तथा मोद थापनारी जैनी दीक्षाने हर्षथी ग्रहण करे .” मुनिनी एवी देशना सांजली राजा विचार करवा लाग्यो के, “ म्हारे राज्यना जारने धारण करे एवो पुत्र हजी थयो नयी; नहीं तो हुँ दीदा अंगीकार करत.” एवी रीते विचार करता राजाने जोश्ने मुनिए फरीथी कां के “ कर्मर्नु बल विजयवंत बतां त्हारा हृदयमां था शीचिंता उत्पन्न थ? वली सुखनुं कारण बालपणुं, यौवनपणुं के वृद्धपणुं नथी; पण सुख दुःख- कारण तो पूर्व नवमां संपादन करेलु कर्मज . तिर्यंचोने, जेनुं को रक्षण करनार नयी एवाने, तथा रोग विगेरेथी व्याकुल थयेला देहवालाने, वनमा पूर्वना कर्म विना बीजु कोइ पण रक्षण करनार नथी; माटे हारे पण राज्यना नारने धारण करवाने समर्थ पुत्रनी चिंता करवी ते फोगट बे; कारण के सर्वे प्राणि पोतपोतानां करेलां कर्म नोगवे . वली जीवीत वायुए कंपावेला वडना पांदडानां सर चंचल , यौवन विजलीना सरखं चपल , शरीश क्षणिक नाश पामवाना खनाववायूँ बे, प्रेम दर्न उपर रहेला पाणी जेवो चंचल अने वैजवो पण अस्थिर , माटे आत्महित करवं. कारण के कोश् कोनुं नथी." पड़ी जेना संकल्प विकल्प नाश पाम्या एवा ते बलराजाए चारित्र ग्रहण कडं. पढी तपथी कर्मनो दय करी, सर्वने खमावी अने अंते केवल ज्ञान उत्पन्न करी ते बल मुनीश्वर मुक्तिरूप स्त्रीना श्रृंगारपणाने पाम्या. पडी प्रधान अने सामंतोए सारा मुहूर्तमां महाबलने राज्यासन उपर बेसाड्यो; तेथी ते पण बलराजानी पेठेज राज्य करवा लाग्यो. तेमज जेणे प्रतापथी शत्रुजेने त्रास पमाड्या बे एवो अने इंजियो सहित प्राणनी पेठे उ मित्रयुक्त एवो ते पोतानी प्रजानुं रक्षण करवा लाग्यो. केटलेक दीवसे ते महाबलनी स्त्री कमलवतीए सर्व अंगथी उत्तम लक्षणवाला पुत्रने पूर्व दिशा जेम सूर्यने जन्म आपे तेम जन्म श्राप्यो. महाबल राजाए म्होटो जन्म महोत्सव कस्यो अने बारमे दीवसे तेनुं Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ शीलोपदेशमाला. बलजड़ एवं नाम पाड्यं पठी महाबल राजाए अनुक्रमे युवावस्थाने पामेला ने शस्त्र तथा शास्त्र विगेरे सर्व कलानो अभ्यास करेला ते महापराक्रमी बलजने युवराजपदे स्थाप्यो बलजड पण सावधान पाथी राज्य कार्य करवा लाग्यो; तेथी महाबल पोताने कृतार्थ मानी जिन धर्म पाल वामां सावधान थयो. वली दान, तप, शील, जावना अने जिनशासननी उन्नति इत्यादि धर्म कार्यथी तेणे पोतानो जन्म सफल करयो. 66 एक दिवसे विमयी चांति पामेला जड माणसोए सेवन करेला कोइ पाखंडी पुरुषने जोइ महाबल विचार करवा लाग्यो के, ' शुभ शु फलवाला कर्मने जाणनारा मुनिर्जनेज धन्य बे; कारण के ते पुरुषो पोते संसार समुद्र तरे बे ने बीजाने तारे बे. वली खोटा मंत्र तंत्र विगरेना गीत गानारा पाखंडी पुरुषोने धिक्कार बे; कारण के जे पुरुषो मृगनी पेठे जवरूप पासने विषे मूढ जीवोने बांधे बे.” इत्यादि संसारमा वैराग्यना कारणभूत विचार करीने, शुद्ध धर्मने विषे राखी बे बुद्धि जेणे एवा ते महाबल राजाए बलन ने राज्य सोंपी पोते चारित्र ग्रहण करवानी हाथी श्रीवरधर्म गुरुपासे जश्ने चडतां परिणामथी पोताना व मित्रोसहित दीक्षा लीधी. पढी संसारना जयनी सामे सुनट सरखा ते साते मुनियो आठ कर्मने जीतवानी इछाथी चारित्र पालवा लाग्या. मोक्ष लक्ष्मीनी इछावाला ते मुनिए सर्वतो जय ने सिंहनिक्रिडितादिक तपे करीने कर्मनो दय कस्यो. उत्तम फलनी इछावाला महाबल मुनि तो तपने अंते पण रोगना दंनथी एटले मने रोग थयो बे, एवा मीषथी पारणं पण करता नहीं; तेथी ते महाबलमुनिए उत्तम तप करता मायावडे करीने स्त्री नाम गोत्र बांध्यं. तेमणे विश स्थानक इत्यादि अरिहंतनी नक्ति विगेरे करीने तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन क. पढी चोराशी लाख पूर्वनी श्रायुष्यवाला ते साते मुनियो वनशन व्रत ग्रहण करी वैजयंत नामना अनुत्तर वैमानमां तेत्रीश सागरोपम आयुष्यवाला देवता थया. हवे जंबूद्वीपना जरतक्षेत्रमां दक्षिण दिशाए विदेह देशमां जेनी समृद्धि जोने स्वर्गमां रहेनारी देवांगना पण शीथल थर जाय बे Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिनाथनी कथा. २२३ एवी मिथिला नामनी मनोहर नगरी बे. ते नगरीमा जेनो यशरूप कुंज थाकाशमां (वर्गमां) अमृतना कुंन सरखो शोजतो हतो एवो इक्ष्वाकु कुलनो कुंजराजा राज्य करतो हतो. तेने शीलवतरूप अलंकारने धारण करनारी श्रने तारानी पेठे असंख्य गुणना समूहथी सुशोजित एवी प्रजावती नामनी राणी हती. हवे त्रण ज्ञानयुक्त महाबलनो जीव वैजयंत नामना अनुत्तर वैमान थकी चवीने नारकी जीवोने पण दणिक सुख उत्पन्न करतो सतो फागण शुदी चोथ अने अश्विनी नक्षत्रना योगमां रात्रीए राजहंस जेम कमलमां उतरे तेम चौद स्वप्न सूचवीने प्रत्नावतीना उदरमां अवतस्यो. महाबलना नवमां माया तप करवाथी तेने तीर्थकरपणामां पण स्त्रीपणाए उत्पन्न थर्बु पड्यु. हवे प्रजावतीए पोताने प्रजात वखते श्रावेला चौद स्वप्ननी वात रा. जाने कही के, “ हे स्वामिन् ! म्हारा मुखमां हस्ति विगेरेने प्रवेश करता में आज स्वप्नमां दीग तो तेनुं हुं फल हशे ? ते मने कहो.” पली राजाए हर्ष पामीने राणीने कडं के, “ हे देवी! था महास्वप्नथी तने महोटो लान थशे. धन धान्यादिकथी भंडार तथा कोठार वृद्धि पामशे. कुःखे वश न करी शकाय एवा शत्रुर्ड वश थशे तेमज उत्तरोत्तर श्रापणी संपत्ति अधिक अधिक वधशे. कारण समय थावे तुं पूर्ण सणवाला अने कुलमां दीवा सरखा पुत्रने जन्म आपीश.” एवां कानने विषे अमृतना पारणा सरखां पतिनां वचन सांजलीने धर्मजागरणमां उद्यमवती थएली ते प्रजावती राणीए रात्री निवृत्त करी. निरंतर देवताउए उपासना करवायोग्य ते प्रजावतीए पतिना मनोरथ सहित पृथ्वी जेम निधान (अव्यना जंडार) ने धारण करे तेम गर्नने धारण कस्यो. राजाए पुंसवनादिक जे जे कर्म करवानी श्छा करी ते ते कर्म चोसठ इंजीयो मलीने करेला दीग. तेमज प्रजावतीए पण देश कालने योग्य एवा गर्नने पोषण करनारा विहार, आहार अने कार्यवडे करीने गर्जनुं पोषण कखु. प्रजावतीने त्रीजे मासे शुज गर्नना प्रजावथी पुष्पनी शय्यामां सूवानो दहोलो उत्पन्न थयो, ते कुंन राजाए पूर्ण कस्यो. हवे मागशर शुदी अग्यारसने दीवसे अश्विनि नक्षत्रमां चंनो योग थते सते, प्रजावतीए तेजथी दीवानी कांतिने पण नाश करनारी, सर्व Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ शीलोपदेशमाला. अंगमां सुंदर लक्षणवाली, नीलमणिना सरखी कांतिवाली श्रने कुंचना लांबनवाली एक पुत्रीने जेम पूर्वदीशा सूर्यनी प्रतिमाने जन्म आपे तेम जन्म प्राप्यो. ते वखते तेजवडे करीने सर्व जगत् प्रकाशमय थर गयु. नारकी जीवोने पण दणिकसुख उत्पन्न थयु. दिशा प्रकाश पामी. वायु सुखकारी वावा लाग्या अने जगत् योगीना चि. त्तनी पेठे आनंदमय थर गो. ते वखते अधोलोकमां रहेनारी श्राप कुमारीकाए श्रासनकंपथी प्रजुना जन्मने अवधिज्ञानथी जाणी पोतपोताना परिवार अने वैमानसहित पोताना कार्य करवामाटे त्यां श्रावीने जिनेश्वर जगवानने तथा तेमनी माताने प्रणाम कस्यो अने " हे मात ! तमारे नय पामवो नही.” एम कहीने हजार स्तंजवालुं श्रने पूर्वानिमुखवालुं सूतिकागृह बनावीने संवर्तवायुथी योजन पर्यंत नूमिने शुद्ध करी शान तरफ उनी रही. पड़ी उललोकमां रहेनारीश्राउकुमारी आसन कंपथी प्रजुना जन्मने जाणी मेरुपर्वत उपरथी त्यांावीने योजनप्रमाणनूमिने सुगंधीजलथीबांटी तथा पुष्प वृष्टि करी जिनेश्वर नगवानना गुण गावा लागी. पढी रुचक पर्वतना पूर्वजाग उपरथी श्राप कुमारी श्रावी दर्पण हाथमां कालीने पूर्वदिशामा उनी रही. एवामां बीजी मनोहर कांतिवाली रूचक पर्वतना पश्चिम जाग उपर रहेनारी श्राप कुमारीका प्रजुना गुण गाती श्रावीने अने हाथमां कारी जालीने दक्षिण दीशामां उत्नी रही. पड़ी रूचक पर्वतना दक्षिण जाग उपर रहेनारी श्राप कुमारीका श्रावीने अने हाथमां विकणा झालीने पश्चिम दिशामा उनी रहीने जिनेश्वर जगवानना गुण गावा लागी. रूचक पर्वतना उत्तर जागमा रहेली बीजी आठ कुमारी श्रावीने चामर ग्रहण करीने उत्तर दिशामा उनी रही. पड़ी तेज पर्वतना खूणाना जाग उपरथी बीजी बाप कुमारीका श्रावीने दिवाउँ हाथमां कालीने श्शानादिक खूणामा उनी रही. वली रूचक बीपथी बीजी चार कुमारीकाए श्रावीने पृथ्वीमां विवर करीने श्री प्रजुना नालने नारख्यु. पड़ी ते सर्व कुमारीउए जिनेश्वरना जन्मगृह थकी पूर्व, दक्षिण अने उत्तर दिशामां चार शालाउथी मनोहर एवां केलनां गृहो रच्यां अने Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिनाथनी कथा. १२५ ते दरेकमां सुवर्णना सिंहासन मूक्यां. ते उपर जिनेश्वर लगवानने मा. तानी साथे बेसारी लक्षपाक विगेरे सुगंधि तेल चोली, पवित्र जलथी नवरावी, रूडां वस्त्र धारण करावी, केशर, चंदन विगेरे सुगंधि पदार्थों चोपडीने पुष्पोना हार पहेराव्या. पली रदाने माटे जस्मनी पोटली बांधी अने काननी पासे पथ्थरना बे गोला वगाड्या. ए प्रमाणे जक्तिनोक्रम करीने नाच करती ते कुमारीका जगवानना गुण गावा लागी. पब। वर्गमांशाश्वती घंटा वागवालागी अने शोना श्रासन कंपवा लाग्या; तेथी इंजे शवधिशाने करीने जिनेश्वरनो जन्म जाणीने सुघोशा घंटा वगाडी एटले सावधान थयेला कोटी देवताउँनेगा थया. पठी ते वखते अनुचरोए बनावेला, लाख योजनना विस्तारवाला, मध्यमां माणिक्यना पीउवाला, पांचसे योजन ऊंचा एवा पालक नामना विमानमां इंड वै. क्रिय रूप धारण करीने देवता साहीत बेसिने अनेक वाजींत्रोना शब्द सहित मिथिला नगरीमा ज्यां गणीशमा तीर्थंकरनो जन्म थयो हतो, त्यां श्राव्यो. पनी सूतिकागृहमां जश्ने ईडे जिनेश्वर जगवानने नमस्कार करी प्रत्नावतीने पण नमस्कार कस्यो भने हाथ जोडीने कडं के, "हे मात ! तमारा उदरने विषे प्रजुए अवतार धारण कस्यो बे, जेथी त्रण लोकने विषे पुत्रीवंत माताउँमा तमे सर्वथी श्रेष्ठ बो. हुं श्रहीं जगवाननो जन्ममहोत्सव करवा श्राव्यो ढुं; माटे तमारे म्हाराथी जय पामवो नहीं. पली इंडे दासी सहित प्रजावतीने प्रखापिनी नीडा मूकी अने जिनेश्वरनी माताना पडखामां कृत्रीम प्रतिमा मूकी पोते पांच रूपश्री जिनेश्वरने सेवन करवानी श्वाश्री पांच रूप धारण करी गोशीर्ष चंदनवाला हाथमां एक रूपथी जगवानने ग्रहण कस्या. बीजा रूपथी जगवानने माथे उत्र धारण कां. बे रूपथी चामर नाखवा लाग्यो अने एक रूपथी जगवाननी श्रागल वन उबालतो चाल्यो. एवीरीते जगवानने मेरुपर्वत उपर पांडुकवनमां ज्यां शाश्वतुं रत्नसिंहासन बे, त्यां खेर गयो भने ते सिंहासन उपर प्रजुने खोलामा लेश्ने बेगे. पनी बीजा अच्युत विगेरे त्रेसठ इंसो पोतपोतानी समृद्धिसहित श्राव्या. सर्वे देवताउए विविध प्रकारना रत्नजडीत उत्तम सोनाना कलाशोमां जरेला तीर्थना जलथी जगवान उपर अनिषेक कस्यो. पनी इशानेमें Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ शीलोपदेशमाला. पांच रूप धारण करी पोताना खोलामां प्रभुने बेलास्या, एटले सौधर्मेंद्रे जिषेक करो. जगवाननुं जिषेक जल देवतार्जए सिद्ध चूर्णनी पेठे ग्रहण करीने जरणनी पेठे सर्व अंगे चोपडी दीधुं. पठी गंधनुं लेपन करी, दीव्य वस्त्र धारण करावी, माथे मुगट, काने कुंडल ने कंठमां दीव्य मोतीना दार पहेराव्या. हाथे बाजुबंध, कांडे कडां, केडमां घुघरीवालो कंदोरो ने पगमां रत्नजडीत कडलां पढेराव्या; तेथी ते सर्वे अलंकारो परस्पर अत्यंत शोजवा लाग्या. पछी जंगम कल्प वृक्षनी पेठे प्रभुने जीने मणिपीउने विषेष्ट मंगलीक करी भारती उतारीने सौधर्माधिपति अप्सराए नृत्य करवा मांडे सते गायन करवा लाग्यो. ए प्रमाणे देवता हर्षथी स्तुति करीने परिवारसहित नंदीश्वर द्वीपे गया. त्यां श्राइ महोत्सव करी पोतपोताने स्थानके गया. सुधर्माधिपति पण प्रथमनी पेठे पांच प्रकारनं रूप करी अने पोताना हाथमां जगवानने लइ पाढो मिथिला नगरीमां सूतिकागृहने विषे श्राव्यो. त्यां तेणे मातानी पासे प्रजुने मूकीने कृत्रिम प्रतिमानुं तथा निद्रानुं हरण क. वली जगवानना शींगे बे रेशमी वस्त्र थाने रत्नजडित कुंडल मूक्यां तथा प्रजुना नेत्रने श्रानंद पमाडवामाटे उंचे रत्नजडित्र सुवर्णनुं दोरडं बांधयुं. पी इंद्रनी आज्ञाथी कुबेरे कुंजराजाना घरने विषे बत्रीश क्रोड सुवर्णनी वृष्टी करी. या लोकने विषे जे जे सुख दुर्व्वन हतुं; ते ते सुख प्रजुनी नक्ति थकी कुंजराजाने मल्युं वली इंडे पटह वजडावी त्रण लोकमां श्रज्ञा करी के, " जे कोइ जिनेश्वर जगवाननो अथवा तेमनी मातानो दुष्ट विचार करशे तेनुं मस्तक यार्जक मंजरिनी पेठे हुं वज्रवडे कापी नाखीश !! जगवानने नवराववा, दुधपान कराववा, अलंकार पराववा ने क्रीडा कराववा माटे इंडे पांच देवांगनार्जने धाव तरीके राखी तेमज प्रजुना जमणे अंगुठे अमृत संचायुं पढी इंद्र नंदीश्वर द्वीपने विषे पूर्व दीशामां अंजनाचल पर्वत उपर श्राव दीवस उत्सव करीने पोताने स्थानके गयो. दवे प्रजावती पोताना पडखामां सूतेली ने अलंकृत करेली पुत्रीने जोने दर्षना जारथी इंद्र विगेरेनुं श्रावकुं श्रने जनुं युं हतुं, तेनो विस्मय पणाथी विचार करवा लागी. कुंजराजाए ते सर्व वात जाणीने घणा हर्षथी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लीनाथनी कथा. १२७ पुत्रजन्म थकी पण अधिक पुत्रीना जन्मनो महोत्सव कस्यो. तथा राज्यना सात अंगनी उत्तम वृद्धि जोश्ने ते प्रजुना जन्मनिमित्ते घणां म्होटां तुष्टिदान प्राप्यां. पड़ी केटलाक राजाए कह्यु के, “श्रा तमारी पुत्री निश्चे मुक्ति पामशे." एवी वात सांजलीने कुंजराजाए सघलो करवेरो माफ कस्यो. ठीने दीवसे जागरण पूर्वक बहीनो महोत्सव करी अने बारमे दीवसे सगा संबंधिउँने तेडावी, जमाडी, वस्त्र विगेरेनी नेट आपी श्रने पुत्री- मति एवं नाम पाड्यु. पनी अंतःपुरनी राणीनए लाड लडावेली अने श्याप्रमाणे क्रीडा करती ते पुत्री नंदनवनमा रहेली कल्प वेलनी पेठे वधवा लागी. कर्मना क्षय अने उपशम थकी गुरुनी पासे श्रन्यास कस्या विना पण सर्व कला ते पुत्रीने जाणे प्रथमथी शीखेली होयनी ? एम प्राप्त थ. पचवीश धनुष उंची, पवित्र लावण्यथी मनोहर, अने त्रण झाने करीने पवित्र ते मल्लि कुमारी श्रनुक्रमे युवावस्था पामी. हवे वैजयंत देवलोकधी चवीने महाबलना मित्र अचलनो जीव श्रा जरत देत्रमा साकेतन नगरने विषे प्रतिबुकि नामना राजाना पदने पाम्यो हतो. तेने प्रेमवाली पद्मावती नामनी राणी हती. एक दिवसे पद्मावती सहित प्रतिबुछि राजा यात्रा करवा जतो हतो; एवामां रस्ते तेणे प्रफुल्लित पुष्पनो मोगर अने पुष्पनो मंडप दीगे; तेथी राजा ते बन्ने वस्तुने श्रने पोतानी प्रियाने वारंवार जोवा लाग्यो अने वखाणवा लाग्यो के, " श्रावी वस्तु हालमां को ठेकाणे पण जोवामां श्रावती नथी." एवां राजानां वचन सांजली सुबुकि प्रधाने कडं के, “हे देव ! था ते शुं ! कारण के पृथ्वी घणां रत्नवाली होय . जुवो के, कुंजराजाने घेर मलि नामनी कन्या बे; तेवी बीजी रूपनी रेखा कन्या त्रण जगमां नथी; कारण के, जगत्ना कर्ता ब्रह्माए पोतानी चातुरी जोवाने माटे घणीज संजालथी पुष्पनीमालानी पेठे ते मल्लि कुमारीकाने सृजी .” प्रधाननां एवां वचन सांजलीने पूर्वजवनी प्रीतिश्री उत्पन्न थएला अनुरागने लीधे तेणे ते मल्लि कुमारीकानुं मायुं करवा माटे दूतने कुंज राजा तरफ मोकल्यो. ___ हवे वैजयंत देवलोक थकी धरण मित्रनो जीव चवीने पृष्ठचंपा नग १ मधिनाथना पूर्वजवना. * पुष्पना काड उपर प्रफुलित पुष्पनो जथ्यो. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ शीलोपदेशमाला. रीमां चंद्रछाय नामनो राजा थयो. ते नगरीमां जिनधर्ममां निश्चल प्रीतिवालो नयसार नामनो शेठ रतो हतो. एक वखते ते शेठ वहाणमां बेसीने बीजा देशमां वेपार करवा जतो हतो. दवे एवं बन्युं के एक वखते इंद्र पोतानी सजामां बेठो बेठो ते नयसार शेवनी जैनधर्ममां रहेली क्तिना वखाण करतो इतो; तेथी एक देवने इर्ष्या उत्पन्न थ; तेथी ते देव नयसार शेवनुं वहाण समुद्रमां जतुं हतुं, त्यां श्राव्यो ने वाणने घणुंज कंपाववा लाग्यो पढी शेठनी धर्ममां दृढता जोवाने माटे ते बोल्यो के " हे शेव ! जो तुं जैनधर्म बोडी दइने म्हारो आश्रय करे तो हुं व्हारा वहाणने तारुं; नही तो बृहुं जाण. " प्राणजवाने वखते कयो बुद्धिवान् माणस थालोकाने परलोकमां सुख श्रापनारा श्रीजैन धर्म त्याग करे ? अर्थात् कोइ करे नहीं. तेम ते शेठे ज्यारे जैन धर्म त्याग न कस्यो; त्यारे ते देव प्रत्यक्ष रूप धारण करीने उनो रह्यो ने स्वर्गमां येली वात कही तेनां वखाण करवा लाग्यो. पढी ते देव "देवतानुं दर्शन निष्फल न होय. " एम कही नयसार शेठने रत्नजडीत चार कुंडल थापी स्वर्गमां गयो अने नयसार शेठ कुशलपणाथी समुSने उतरी मिथिला नगरीमां श्रव्यो. त्यां तेणे कुंजराजाने बे कुंडल जेमां श्राप्यां, कुंजराजाए पण पोतानी पासे उजेली मल्लि कुमारीने ते कुंडलो यां. पी ते नयसार शेठ क्रय विक्रय ( लेवा देवारूप वेपार ) कने पालो पोतानी पृष्ठचंपा नगरीमां श्रव्यो अने त्यां पण तेणे चंद्रछाय राजाने वे कुंडल श्राप्या. ते राजाए नयसार शेवने श्राश्चर्यश्री पूब्युं के, " या कुंडल तमने क्यांथी मल्या ?" नयसारशेठे कुंडलनी प्राप्तिनी वात कही अनेक के, " बे कुंडल कुंजरानी पुत्री मल्लिकुमारी ने श्राप्यां बे; पण हे राजन् ! ते मल्लि कुमारीना रूपनुं वर्णन एक मुखश्री कर शकाय तेम नथी, एवी ते रूववंती बे.” नयसार शेठनां एवां वचन सांजली पूर्व जवना स्नेहथी वश थयेला ते राजाए पोते मल्लिकुमारी ने परणवा माटे पोतानो दूत कुंजराजा पासे मागुं करवा मोकल्यो. हवे पूरण मित्रनो जीव वैजयंत देवलोक थकी चवीने श्रावस्ती नगरीमां रुक्मी नामनो राजा थयो. तेने धारणी नामनी स्त्री हती. एक दीवसे ते रुक्मी राजाए पोतानी पुत्रीनुं घणुंज मनोहर रूप जोश्ने आश्चर्यथी पोतानो Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिनाथनी कथा. १३ द्वारपाल के जे परदेशथी आवेलो हतो, तेने पूब्धुं के, " हे द्वारपाल ! म्हारी पुत्रीनुं जेवुं रूप अने समृद्धि बे, तेव्रं रूप अने समृद्धि तें बीजी कोइ कन्यानी जोइ होय तो मने कहे ? " एवां राजानां वचन सांजली कंचुकीएक के, " हे देव ! माणसो पोतानी मरजी प्रमाणे गमे तेम बोले, पण गुण अने अगुणनुं पारखुंतो त्रायात माणसो करे बे. वली मन तो पोताना दोषोने गुण सरखा माने बे; परंतु पक्ष पात विना त्रायात माणसो जे वात कहे ते वातज कबुल करवी पडे. हे महिनाथ ! सांजलो. मिथिला नगरीमां कुंजराजा राज्य करे बे. तेने मल्लि नामे कुमारी बे. तेनुं जेवुं रूप बे तेवुं रूप पृथ्वीमां कोइ ठेकाणे नथी. वली तेनी जेव समृद्धि व समृद्धि स्वर्ग लोकमां पण कोइ ठेकाणे जोवामां श्रावती नथी. " एवां कंचुकीनां वचन सांजली पूर्वना स्नेहथी वश थयेला ते रुक्मी राजाए पोते मल्लिकुमारीने परणवा माटे दूतने कुंजराजा पासे मागुं करवा मोकल्यो. हवे वसु मित्रनो जीव वैजयंत देवलोक थकी चवीने वाराणसी नगरीमा विजय लक्ष्मीना स्तंज सरखो शंख नामनो राजा थयो. हवे एक दिवसे नयसार शेठे मलि कुमारीने पेला कुंडलो जागी जवाथी कुंजराजाए सोनीने श्रापीने कथं के," या कुंडलोने सारा करी थाप." एटले सोनीए कह्युं के, “महाराज ! देवताए पेला कुंडलो सारा करवाने हुं समर्थ नथी. " तेथी राजाए रीसाइने तेने काढी मूक्यो; तेथी ते सोनी वाराणसी नगरीमां श्रावी बीजे दिवसे राजाने मलवा माटे कचेरीमां गयो. शंख राजाए तेने देशना कौतुकोनी वात पूछी, तेथी ते सोनीए मल्लिकुमारीना रूपनं वर्णन कस्युं, एटले पूर्वना स्नेहथी वश थरला शंख राजाए पोते मल्लिकुमारीने परवाने माटे दूत कुंजराजा पासे मागुं करवा मोकल्यो. वे वैश्रमणनो जीव वैजयंत देवलोक थकी चवीने हस्तिनापुर नगरमा यदीनशत्रु नामनो राजा थयो. एक दिवसे मल्लिकुमारीना सगा जाइ मल्लकुमारे परदेशथी आवेला केटलाक चितारा पासे चित्रशाला रंगावा मांडी. तेमां एक चितारो एवो हतो के, ते देवना वरदानी कोइ पण माणसनुं एक अंग देखीने तेनुं सर्व अंग चितरी श्रा १७ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० शीलोपदेशमाला. 72 पतो. एक दिवसे ते चितारे गोखमां उजेली मल्लिकुमारीना पगनो - गुठो दीठो; ते उपरथी तेथे मल्लिकुमारीनुं सर्व अंग एक तकतामां चितरीने उनुं कर हतुं. एवामां मलकुमार चित्रशालामां श्राव्यो, तो तेथे तकतामां चितरेली मल्लिकुमारीनी मूर्ति जोइने चांतिथी "ए मल्लिकुमारी पोतेज उनी बे." एम जाणीने शरमथी पाठो बढ्यो, एटले मल्लिकुमारीनी दासीएक के, " हे राजकुमार ! तमे जांति पाम्या बो; कारण के ते मल्लिकुमारी पोते नथी; पण तेनी चितरेली मूर्ति बे. एवां दासीनां वचन सांजलीने क्रोध करीने तेथे चित्रकारनो हाथ कापी नाख्यो अने पोताना देशमांथी काढी मूक्यो: तेथी ते बीचारो चित्रकार फरतो फरतो हस्तिनापुरमा गयो अने त्यां तेणे छादीनशत्रु राजा श्रगल मलिकुमारीना रूपनी बात कही; एटले ते राजाए पण पूर्वजवना स्नेहथी मल्लिकुमारीनुं शल्यनी पेठे ध्यान करता पोते मल्लिकुमारीने परएवा माटे पोताना दूतने कुंजराजा पासे मागुं करवा मोकल्यो. , हवे श्रमिचंद्रनो जीव वैजवंत देवलोक थकी चवीने कांपिल्य नगरीमां जितशत्रु राजा थयो. कोइ वखते कुंजराजाना अंतःपुरमा एक पाखंडी स्त्री धर्मनो उपदेश देती हती, तेने मल्लिकुमारीए धर्मना वादविवादमां जीतीने पोताना राज्यमांधी काढी मूकी. तेथी ते स्त्रीए कांपिल्य नगरमां श्रवीने जितशत्रु राजानी पासे मल्लिकुमारीना रूपनी बात कही; तेथे तेथे पण पूर्वजवना स्नेहथी मल्लिकुमारीने पोते परणवामाटे दूतने कुंजराजा पासे मागुं करवा मोकल्यो. हवे मल्लिकुमारी पण पूर्वजवना स्नेहथी प्रार्थना करनारा ते राजाउने अवधिज्ञानथी पोताना पूर्वजवना मित्रो जाणी तेमने बोध करवा माटे पोताना घरना अशोकवनमां मध्यजागे सुशोजित घरमां एक रत्नजडीत्र सोनानुं सिंहासन कराव्युं ने तेनी पासे रत्नजडीत्र सोनानि पोतानी पोली मूर्ति करावी, के जेने माथे बीडने सोनाना कमलश्री ढाकेलुं इतुं. तेनी फरतुं जुदा जुदा बारणावालुं श्रने जुदा जुदा खंडवालुं जालीनुं घर कराव्युं, के जेमां उनेला माणसो एकबीजाने जोइ शके नहीं. पी ते पुतलीने वस्त्र घरेणां वगेरे पढ़ेरावी अने तेना पोला जागमां एक घणी दुर्गंधवाली नली पुतलीनी जोडनी जींतमांथी मूकावी. दवे जेजे Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ मल्लिनाथनी कथा. राजाए दूत मोकल्या हता;तेसर्वे दूतो कुंजराजा पासे श्रावीने मचिकुमारीनु मागुं करवा लाग्या, एटले कुंजराजाए दूतोने कह्यु के, “तमारा सरखा राजाने मलिकुमारी परणाववाने मारूं मन मानतुं नथी."एम कहीने तेमने रजा थापी; तेथी ते सघला दूतोए पोतपोताना राजाने ते वात कही. पडी क्रोध पामेला अने पूर्वजवना अज्यासने लीघे प्रीतिथीवशथश्रहेला तेराजा पोतपोताना मनमां विचार करवा लाग्या के, “बीजामां आसक्त थर रहेली महिकुमारीने बीजा राजा साथे परणावशे अने अमने नहीं थापे तो श्रमे तेने बलथी परणशं." एम विचारीने पोतपोतानां सैन्य लश्ने जेम पूर्वना कमों मनुष्यने घेरी ले, ते ए मिथिलानगरीने घेरी लीधी. कुंजराजा श्राकुल व्याकुल थयो ने हवे शुं करवू तेनुं तेने कांश सूज्युं नहीं, तेथी तेने मविकुमारीए कह्यु के, “ हे तात ! तमे ते आवेला सर्वे राजाउने जूदा जूदा श्रापणा घेर तेडावो.” पनी कुंजराजाए सर्वे राजाउने जूदा जूदा के जेथी एकबीजा जाणीन शके तेम तेडावी रत्नजडीत सोनानी पुतलीना चारेतरफनाघरमां बेसास्या ज्यां के बेठेला ते सर्व राजा मध्यनागनी पुतलीने जो शकता हता. पड़ी ते सर्व राजा मल्लिकुमारीरूप पुतलीने जोश्ने ब्रांतिथी “श्रा मल्लिकुमारी ने.” एम मानीने हर्ष पामवा लाग्या. पनी पुतलीना माथा उपर रहेला बिजनुं ढांकणुं गुप्तरीते कोरे कसुं, एटले तेमांथी घणोज पुगंध निकटयो के जे पुगंधियी सर्वे राजाउँ नाक श्राडां लुगडां दश्ने उपवा मंड्या. एवामां मल्लिकुमारीए श्रावीने कडं के, " अरे राजाउँ ! रत्नजडित सोनानी पुतलीमां श्रावडो बधो उगंध रहेको बे; तो था चांबडाथी अने हामकाथी बनेला तथा मलमूत्र नरेला म्हारा देहने विषे केम प्रीतिवाला थयो बो ? कयो विवेकी माणस विशाला (इंअवारूणी) नुं फल लेवानेमाटे तत्पर थाय ? विषयो विष सरखा, श्रने अवगुणे करीने तो विष थकी पण घणाज पुष्ट . कारण के, विष एक जवनो नाश करे , पण विषय तो अनेक नवनो नाशकरे . हे राजपुत्रो! इंडियरूप चंचल घोडा मनुष्यने सारामार्गमांधी नरकरूप घोर वनमां फेंकी दे . तो कयो विहान् माणस तेने वखाणे? व्याधिना पांजरारूप शरीरने विषे यौवननो पवन उबली रहे ते कयो पुरुष बहु नव थापनारा विषयनी श्ठा करे? एवीरीते पूर्वजवना श्राख्या Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ शीलोपदेशमाला. नथी बोध पमाडेला ते ब राजाने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयु. पली ते सर्वे राजा महिनाथने कहेवा लाग्या के, " अमने अमारा नगरे जवानी थाझा आपो. अमे त्यां जश्ने संसारनो नाश करनारूं चारित्र खेशं. "महिनाथे कडं के, “ज्यारे मने केवलज्ञान उत्पन्न थशे, त्यारे तमने चारित्रनी प्राप्ति थशे." ए वात सांजली सर्वे राजा महिनाथने खमावी अने नमस्कार करी पोतपोताने नगरे गया. पड़ी महिनाथने जन्मथी मांडीने सो वर्ष पुरां थयां, त्यारे लोकांतिक देवताए श्रावीने तेमनी विनंती करी के, " हे महाराज ! दीक्षा ग्रहण करवानो समय थयो जे; माटे जगत्ना अनेक जीवोने अर्थे तीर्थ प्रवर्तावो.” एम प्रजुनी प्रार्थना करीने लोकांतिक देवता पोताने स्थानके गया. पडी महिनाथे प्रथम देवताए आपेला (जन्म वखते देवताए वृष्टि करी हती, ते अव्यथी सांवत्सरीक दान दीधुं. पनी मागशिर शुदी श्रग्यारसने दिवसे त्रणसो राज्य स्त्री साथे मनुष्य श्रने देवताए उपामेली पालखीमां बेसीने अनेक मनुष्योए चामर नाखेला महिनाथ सहस्त्रावनमां अशोक वृदनी नींचे श्राव्या. त्यां पालखीमांथी उतरी वस्त्र तथा घरेणांने उतारी अहम तप करी सवारना पहोरमां देवपुष्य वस्त्र पहेरीने दीक्षा लीधी. सामायक सूत्रनो उच्चार कस्यो एटले तेमने मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न थयु. तापथी तपेला वटेमाने जेम मार्गनुं वृक्ष क्षण मात्र सुखकारी थाय , तेम जिनेश्वर नगवाननी दीदा नारकी जीवोने पण क्षणमात्र सुखकारी थ. __ पड़ी तेज दिवसे श्री मशिनाथने कर्मना दयथी केवलज्ञान उत्पन्न थयु. जेथी इंजनुं श्रासन कंपवा लाग्युं श्रने स्वर्गलोकने विषे तिनी पेठे घंटा वागवा लागी. इंश अवधिज्ञानथी जिनेश्वरने केवलज्ञाननी उत्पत्ति जाणी विमानमां बेसी देवतासहित त्यां श्राव्यो अने बीजा पण अच्युत विगेरे सर्वे इंसो पण पोतपोताना परिवारसहित त्यां श्राव्या. पली वायुकुमार देवताए योजन परिमीत चूमिने शुद्ध करी; मेघकुमारोए सुगंधिजलथी बांटी; वैमानीक देवताउँए रत्न विगेरेथी ध्वजा पताका श्रने तोरण विगेरेथी सुशोजित करी; वैमानीक देवताए पहेलो रत्नमय गढ रच्यो भने तेना उपर मणिना कांगरा कल्या. ज्योतिषी देव Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिनाथनी कथा. १३३ तार्जए वचलो सोनानो गढ कस्यो अने तेना उपर उत्तम रत्नोथी कांगरारच्या जवनपतिए त्रीजो रूपानो गढ रच्यो ने तेना उपर कमलना सरखा सोनाना कांगरा रच्या. जाणे धर्म लक्ष्मीना विवाहने अर्थे चार मांडवा बनाव्या होयनी ? एम अकेका गढ़मां चार चार दरवाजा राख्या तथा दरेक दरवाजा पासे धूप घटी ने कमलथी मनोहर वाव्यं बनावी. मध्यमां समवसरणनुं म्होढुं मनोहर चैत्यवृक्ष व्यंतर देवताए बनाव्यं. तेनी नींचे रत्नजमीत पीठ कराव्युं तेना उपर प्रजुने बीराजवा माटे पूर्वाजिमुखे सुवर्णनुं सिंहासन मूक्युं तेना उपर त्रण रत्न सरखा त्रण उत्र गोठव्यां, के जेनी समीपे उनेला यो प्रजुने चामरो नाखे. समवसरणना एक बारणे धर्म चक्र ने बीजे बारणे प्रजुने विसामो क रवा माटे देवछंद स्थापन क. एव ते समवसरणनी उत्तम रचना कस्या पटी कोटी देवतायी वीटलायेला जगवान् कमल उपर पग मूकता मूकता पूर्वद्वारमाथी समवसरणमां श्रव्या ने चैत्यवृक्षने तथा तीर्थने नमस्कार करीने जेम मेरु पर्वतना शिखर उपर मेघ बेसे तेम रत्नजमित सोनाना सिंहासन उपर बैठा. पठी ते सिंहासननी बीजी त्रण बाजुए व्यतरोए जगवाननां प्रतिबिंब स्थापन करयां प्रजुना मस्तकनी पाउल रहेलुं नामंडल जाणे प्रजुने सेवामाटे तेजनां पुलो श्रावेला होयनी ? एम शोजवा लाग्युं श्राकाशमां देवतानां पुंडुनि वाग्ये सते प्रजुना विजयने जाणे जादेर करती होयनी शुं ? एम ध्वजा पण उंचे शोजवा लागी. ढींचण परिमाण पुष्पनी वृष्टि पण जाणे त्रास पामता कामदेवना हाथमांथी तेनां बाणो पडी गयां होयनी ? एम अत्यंत शोजती हती. सर्व सजा पोतपोताने स्थानके बेठा पढी इंडे पोते हाथ जोगीने मल्लिनाथ प्रजुनी स्तुति करी. ते या प्रमाणे. शरण रहित माणसोना समूहने शरण आपनारा, चारित्रना मंदिर, समजावने धारण करनारा, निर्मल कमलना पांदडाना सरखा मनोहर हाथ पगवाला, जन्म मरणरूप रणसंग्रामना जयने नाश करनारा हे प्रजो ! तमे जयवंता वर्तो. संसारने जय अपनारा, शेंकडो नेत्रवाला, निरंतर चंद्र सरखा मुख Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ शीलोपदेशमाला. वाला, देवता भने विद्याधरोए स्तुति करेखा, समये समये धर्मोपदेश आपनारा, अजय दान थापनारा अने दयावंत एवा हे प्रनो ! तमे जयवंता वर्तों. बीजा मतधारीउना मदने दावा नलसमान, कपटने दूर क. रनारा, सर्व जगतना रोगने समावनारा, जलसहित मेघना सरखा गंजीर शब्दवाला अने जयकारी वचनवाला हे प्रजो ! तमे जयवंत वर्तो. मोक्षपदने विषे प्रीतिवाला, गणधरोए निरंतर सेवेला, गजराजना सरखी गतिवाला, मदना जारे करीने अत्यंत गाढा वनने मेघ सरखा, उज्वल दांतवाला श्रने जयने नाश करनारा हे प्रजो! तमे जयवंता वर्तों जयवंता वतो. इंश था प्रमाणे एक स्वरथी स्तुति करीने श्री जिनेश्वरना सन्मुख अष्टि राखीने पोताने श्रासने बेगे. प्रतिबुझादि बीजा अनेक राजासहित कुंजराजा पण त्यां श्रावी जिनेश्वरने प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करी प्रजुना सन्मुख बेगे. श्री मल्लिनाथ प्रजुए पण सर्वे प्राणी पोत पोतानी जाषामां समजी शके तेवी संसारथी वैराग्य प्रगट करवाना कारणरूप देशना आपी. देशनाथी प्रतिबोध पामेला प्रतिबुझादि राजाए चारित्र लीधुं अने कुंजराजाए श्रावकपणुं धारण कयुं. जेउँए त्रीपदि पामीने क्षणमात्रमा बार अंगो रच्यां ते निषगादिक अहाबीश पुरुषो श्री महिनाथना गणधरो थया. साडा पांच घडी पूर्ण थर ते वखते कुंजराजा *आढक प्रमाण कलमना चोखानुबलि लाव्या. वाजिंत्रना शब्द पूर्वक ते बलिने पूर्व छारे थश्ने समवसरणमा लावीने देवता तथा माणसोए प्रजुनी सन्मुख उना रहीने उंचे उराड्यो. तेमांथी श्र? नाग जंचेथी देवता लश् गया. बाकीना अर्धा नागमांथी अों नाग राजाए लीधो भने बाकी रह्यो ते सामान्य माणसोए लीधो. प्राप्त थए. लो ते बलिनो एक दाणो सर्व प्रकारना रोगने नाश करनारो थाय जे; माटे सर्वे प्राणी तेने उ माससुधी मेलववानो प्रयत्न करे . प्रजुने केवलज्ञान उत्पन्न थयुं, तेना बीजे दिवसे प्रजुए विश्वसेनना घरने विषे खीरथी पारणुं कस्तूं, तेथी ते विश्वसेनना घरने विषे पांच दिव्य प्रगट थया. श्री मल्लिनाथ प्रजुना तीर्यने विषे हस्तिना वाहनवालो, चार मु. * बसे उप्पन मुवी. १ उंची जातना चोखा. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिनाथनी कथा. १३५ खवालो ने श्राव हाथवडे सुशोजित एवो कुबेर नामे यक्ष हतो. ते यना जमणा चार हाथमां वरद, अजय फरशी अने त्रिशूल इतां. तथा डाबा चार हाथमां मातुलिंग, सूत्र, मुजर अने तरवार दतां. श्री मल्लिनाथ प्रजुनी शासन देवी वैरोट्या नामनी चार हाथवाली देवी हती. तेमना जमणा बे हाथमां वरद, अने माला हती; तेमज डाबा हाथमा तरवार ने मातुलिंग हता. श्री मल्लिनाथ प्रजुना चालीश - जार साधु, पंचावन हजार साध्वी, सातसें आठ चौद पूर्वधारिजं, बावीशसें अवधिज्ञानि मुनिर्ज, एक हजार सातसें पचास मनः पर्यव ज्ञान धारि, बे हजार नवसें वैक्रिय लब्धिवाला मुनिर्ज, चौदसें वादलब्धिने धारण करनारार्ज, एक लाख तासी हजार श्रावको छाने त्रण लाख सात हजार श्राविकार्ड; ए प्रमाणे सघलो परिवार हतो. पी क्रोडो देवतार्जए सेवन करेला तथा साधु, साध्वी, श्रावक ने श्राविकाए चार प्रकारना संघसहित श्री मल्लिनाथ प्रभु विहार करता ता पृथ्वीने पवित्र करवा लाग्या. कुमार अवस्थामां, व्रतपर्यायमां ने केवली अवस्थामां एम सर्व मली प्रजुनुं पंचावन हजार वर्षनुं श्रायुष्य हतुं पढी पांच साधु ने पांचसें साध्वीना परिवारसहित समेत शिखर उपर जइ त्यां एक मासनुं अनशन लइ फागण शुदी बारशने जरणी नक्षत्रमां एक विशमा तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ प्रभु मोक्ष लक्ष्मी पाम्या. ते वखते श्रासनकंपथी इंद्रोए अवधिज्ञानथी प्रजुनो मोक्ष जाएयो; तेथी ते मोउत्सव करवा माटे त्यां श्राव्या. क्षणमात्र नारकी जीवने पण सुख श्रापनारो मोह उत्सव करीने तेमज उपद्रव न थवाना हेतुथी प्रजुनी दाढ दांत विगेरे लइने सर्वे देवता नंदीश्वर द्वीपे गया; अने त्यां श्राइ महोत्सव करीने पढी पोतपोताना विमानना मानवस्थंज उपर वज्रमां प्रभुनी दाढ तथा दांतो उपद्रव न थवा माटे राख्या. श्रीारनाथ तीर्थंकर मोक्ष पाम्या पछी एक हजार क्रोड वर्षे श्रीमल्लिनाथ जिनेश्वर मोक्षपद पाम्या. हे मुनीश्वरो ! तमे, स्त्रीपणुं बतां पण सर्व माण सोनी मध्ये उत्तम तेमऊ तीर्थंकर पदवीने शोजावनारुं ने शीले करीने उज्वल एवं श्री मल्लिनाथना श्राश्वर्यकारी चारित्रने सांजलो. मोक्षपदनी इछावाला श्री मल्लिनाथ प्रजुए जेवी रीते निश्चयथी शीलत्रत पा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ शीलोपदेशमाला. व्यु बे; तेवी रीते नव्य जीवोए पण निष्कपटपणाथी शीलवतने पालq. इति श्री रुउपलिय गठमां नहारक श्री संघतिलक सूरिनी पाटे श्राजरणरूप सोमतिलक सूरिए रचेली शीलोपदेश मालानी टीका शील. तरंगिणीमां श्री महिनाथ प्रजु, चरित्र समाप्तम्. ____ हवे चारित्रनुं दृढपणुं कहेले. सः जयतु स्थूलनमः आश्चर्यकारिचरितपरिकरितः सो जैयन यूलनदो, अनेरेयकारिचरियपरिअरि॥ यस्याद्यापि ब्रह्मव्रते जगति वाद्यते ययढक्का जस्सङवि बनवए, जयंमि वैऊ जयंढक्का ॥४१॥ शब्दार्थः- (अछेरयकारि के ) आश्चर्यकारी एवा ( चारियपरिवरित के० ) शीलवतरूप चारित्रे करीने सुशोनित थएला ( सो के०) ते ( थूलजद्दो के० ) स्थूलनप्रजेते ( जयन के० ) जयवंता वत्तों; कारण के, ( जयंमि के०) था जगत्ने विषे ( जस्सङ वि के०) जे स्थूलजनो श्राजसुधी पण (बंजवए के०) ब्रह्मवत पालवाने विषे श्रर्थात् शीलवत पालवाथी उत्पन्न थएलो ( जसढक्का के०) जयनो ढोल (वजा के० ) वागे . ॥४१॥ विशेषार्थः-प्रथम बार वर्षसुधी जोगवेली कोश्या वेश्याना घरने विषे रहीने षट्रस नोजन करता सता पण जे श्राश्चर्यकारी शीलवत रूप चारित्रथी सुशोजित थया बे, एवा थार्यसंचूति श्राचार्यना शिष्य ते स्थूलना जयवंता वत्तॊ; के जे शकटाल मंत्रिना पुत्र स्थूलजनो कामदेवनी सेनाने जीतवारूप विजयनो ढोल घणां वर्ष वीत्यां सतां आजसुधी पण था जगतने विषे वागी रह्यो . ॥४१॥ _ स्थूलजनी कथा.. श्रा नरतखंडने विषे पाटलीपुर नामर्नु नगर जे. जे नगरना चैत्यो उपर रहेला सुवर्णना कलशो रात्रीए सूर्यनी ब्रांति करता हता. ते नग. रमां, जेनी कीर्ति रूप नर्तकी नव खंडमां नृत्य करी रही हती, एवो प्रजाने थानंद पमाडनारो नंद नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने शक Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलनानी कथा. टाल नामनो महाबुद्धिवंत प्रधान हतो. तेने गुणे करीने जाणे लक्ष्मीनी शोक्य होय नहीं शुं ? एवी अने जेनी कोमलता तथा कलाथी जाणे मृगलीए वननोज आश्रय कस्यो होय नहि शुं ? एवी लदमीवती नामनी स्त्री हती. प्रधानने लदमीवतीना उदररूप बीपमांथी उत्पन्न थएला, मु. ताफलना सरखी कांतिवाला, स्थूलना अने श्रीयक नामना बे पुत्रो हता. तेमां स्थूलन ते नगरमा रहेती एवी कोशा वेश्याने विषे मोह पामीने तेनी साथे क्षण मात्रनी पेठे बार वर्ष निवृत्त कस्या हता. अने श्रीयक नंदराजानो अंगरक्षक तथा विश्वासन पात्र थयो हतो. ते नगरमा वररुचि नामनो एक महा बुद्धिवंत अने वाचाल कवि रहेतो हतो. ते हमेशां एकसोने आठ नवां काव्यो करीने नंद राजानी स्तुति करतो हतो. परंतु ते मिथ्यात्वी होवाथी मंत्री तेनी प्रशंसा करतो नहीं; तेथी राजा ते कविने कांश्थापतो पण नहीं. कर्वा डे के- राजा हमेशां परमुख (बीजा कहे तेम करनारा) होय . एक दिवस उपायने जाणनारा महाकवि वररुचिए मंत्रीनी स्त्री लक्ष्मीवती पासे जश्ने शकटाल मंत्री पोताना काव्यनी राजानी सनामां प्रशंसा करवा बाबत विनंती करी. कडं ले के- कपटथी मदोन्मत्त हस्ति पण वश्य करी शकाय . पली लक्ष्मीवतीए कहेली ते वात शकटाले कबुल करी. कां डे के-हाथथी घरेडीनी पेठे स्त्रीउथी कयो पुरुष व्रमित नथी थतो ? श्र. र्थात् सर्व थाय बे. ___ पडी बीजे दिवसे मंत्रीसहित नंद राजा सजामां श्राव्यो, त्यारे व. ररुचिए हमेशना नियम प्रमाणे काव्यो कह्यां एटले मंत्रीए “अहो वाणीनी शी मधुरता !" एम प्रशंसा करी. ते उपरथी प्रसन्न थएला नंद राजाए तेने एकसोने आठ सोना म्होरो श्रापी. कर्वा डे के-राजा हमेशां पशुऊनी पेठे कोश्ना कहेवा प्रमाणे करे . था प्रमाणे हमेशां वररुचिने सोना म्होर थापता एवा राजाने एक दिवसे मंत्रीए ना पाडी एटले राजाए मंत्रीने कयु के– “ हुँ तो फक्त तमारी प्रशंसाथीज श्रापतो हतो.” मंत्रीए कह्यु. “ अन्य पुरुषोए करेला काव्यने विषे प्रशंसा शी? वली ते वखते तो में काव्यना गुणोनी प्रसंशा करी हती; परंतु कविनी नहीं.” राजाए कह्यु. " त्यारे शुं ते कवि म्हारी Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ शीलोपदेशमाला. जुनां काव्योत्रीज प्रशंसा करतो हतो ? "कयु डे के- काचा माटीना घडानी पेठे राजाऊनो समागम तत्काल नाश पामे बे. पली मंत्रीए कह्यु. " कवि जे काव्यो कहे जे ते काव्यो म्हारी पुत्रीने पण श्रावडे ; तेथी हुं ते काव्यो काले सवारे संजलावीश." ____बीजे दिवसे मंत्रीए यदा यददत्ता, जूता, नूतदत्ता, रेणा, वेणा अने एणा ए साते पुत्रीने के जेठमां पहेली एक वखत सांजलेला काव्यो कही सकती हती. बीजी बे वखत सांजलेला काव्यो कही सक्ती हती. एम अनुक्रमे सातमी सात वखत सांजलेला काव्यो कही शकती हती. ते सातेने वररुचिना श्राव्या पहेलां सन्नानी एक बाजुए पडदानी अंदर बेसारी. पनी वररुचि श्राव्यो ने तेणे हमेशांनी पेठे काव्यो वांच्या, एटले शकटाल मंत्रीनी पुत्री सरस्वतीनी पेठे अनुक्रमे ते काव्यो बोली गश्ते उपरथी क्रोधायमान थयेला राजाए ते वररुचिने तुष्टिदान श्राप्यु नहीं. कडं ले के-घडाने बनाववो कठीण बे; परंतु फोडवो कठीण नथी. हवे वररुचि एवो ढोंग करवा लाग्यो के-ते हमेशांगुप्तरीते सांजे गं. गाना जलने विषे एकसोने आठ सोना म्होरोनी पोटली मूकी थावतो अने बीजे दिवसे सवारे गंगानी स्तुती पूर्वक ते पोटलीने ग्रहण करतो. या प्रमाणे करता एवा ते कविए सर्व लोकने आश्चर्य पमाड्या. कडं ले के-धूर्त पुरुषोए बाह्य दृष्टिवाला क्या क्या पुरुषोने नथी तस्या ? अर्थात् सर्वने तस्या . पठी मंत्रीए तेना कपटनी वात गुप्त अनुचरोथी जाणी लीधी. कारण कयुं ले के- शत्रु पासे बते बुद्धिवंत पुरुषो सुखथी निशा लेता नथी. पडी तेणे गुप्त अनुचरोमोकली वररुचिए गंगामां मूकेलुं अव्य मगावी लीधुं. बीजे दिवस सवारे वररुचि गंगाने कांठे गयो. त्यां कौतुक जोवाने माटे मंत्री सहित राजा पण आव्यो. कविए गंगानी स्तुति करीने पठी गुप्त रीते यंत्रने खेंच्यो पण अव्य पड्युं नहीं; तेथी ते सर्व माणसोना जोता बतामां विलद बनी गयो. अने जाणे पातालमांज पेशी जवानी श्छा करतो होय नहीं शुं? एम लजाथी नी-. चा मस्तकवालो देखायो. पनी मंत्रीए कह्यु. “ श्रमे बीजानु.अव्य ग्रहण करता नथी; माटे तुं था हारूं अव्य ग्रहण कर.” एम कहीने तेणे सोना म्होरोनी पोटली पाली थापी अने राजाने तेना कपटनी वात निवे Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलनानी कथा. २३ए दन करी. ते उपरथी राजा ते प्रधाननी बुद्धिनां वखाण करवा लाग्यो हवे सर्पनी पेठे बिजने खोलतो एवो वररुचि मंत्रीना घरनी चेष्टा जाणवाने तेनी (मंत्रीनी) दासिउने पूबवा लाग्यो. एक दिवस श्रीयकना विवाहने प्रसंगे शकटाल मंत्री राजाने नेट श्रापवा माटे बत्र चामरादिक कराववा लाग्यो. ते वात मंत्रीनी दासी पासेधी सांजलीने टाढथी पीडाएलो माणस जेम कंबलने पामीने यानंद पामे तेम हर्ष पामेला वररुचिए पोतानी पासे अन्यास करता एवा बालकोने या प्रमाणे बोलवानुं शीखव्युं के “ शकटाल मंत्री जे करवानो , ते मूढ लोको नथी जाणता. ते राजानो नाश करीने पोताना पुत्र श्रीयकने राज्य थापशे." या प्रमाणे बोलता एवा ते बालकोनी वात राजा पासे पहोची. ते उपरथी राजा विचार करवा लाग्यो के " बालको स्वेछाथी जे बोले , स्त्री जे कहे जे अने उचिंतु जे वाक्य संजलाय जे ते घणुं करीने खोटुं होतुंज नश्री." या प्रमाणे विचार करीने राजाए गुप्त अनुचरो मंत्रीने घरे जोवा मोकल्या. तेए जेवं जोयुं हतुं तेवु राजा आगल कह्यु; तेथी राजा अत्यंत कोपायमान थयो. पली सवारे मंत्रीए सजामां श्रावीने प्रणाम कस्यो, एटले राजाए श्रवलु मुख कडे, ते उपरथी मंत्रीए तेना चित्तनो अभिप्राय जाणीने घरे आवी पोताना पुत्र श्रीयकने एकांतमां बोलावीने कह्यु. “ हे वत्स! को पुष्ट पुरुषे राजाने म्हारा उपर कोपायमान कस्यो , ए एक थापणा कुलने विषे म्होटो अकस्मात् उत्पात उत्पन्न थयो . वली ते उत्पात ढुं जीq त्यां सुधी निवृत्ति पामे तेम पण नथी; माटे हुं सवारे सजामां जश्ने राजाने प्रणाम करूं ते वखते त्हारे शस्त्रवती म्हारुं मस्तक बेदी नाखवू.” श्रीयके कडं. "शुं श्रा, निर्दय कृत्य म्लेड पण करे खरो?” एम कहीने रुदन करवा लागेला श्रीयकने फरीथी मंत्रीए कह्यु. "हे पुत्र ! वृद्धावस्थाश्री व्याप्त थएला एवा मने मारीने तुं श्रापणां कु. लनो उझार कर. कारण के एक कोडीना नाशथी कोटी अव्यने कयो पुरुष न श्छे ? अर्थात् सर्व श्छे . वली हुँ तालपुट विपने जदण करीनेज नाश पामीश; परंतु त्हारे म्हारं मस्तक बेदीने राजाने एम कहे, केहे स्वामिन् ! हुं उष्ट पितानी श्छा राखतो नथी." पिताए श्रा प्रकारे Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० शीलोपदेशमाला. महा कष्टथी समजावेला श्रीयके तेज प्रमाणे करीने “श्रा राजानो मोही बे." एवी रीते ब्रांति पामेला सन्य लोकोने बोध पमाड्यो. पड़ी राजाए कह्यु. “ तें पूज्य पितानो वृथा वध केम कस्यो ?" श्रीयके उत्तर श्राप्यो के “ तेवा सुवर्णतुं शुं प्रयोजन के ? के जेनाथी कान तुटे." पड़ी मंत्री मुखा थापता एवा राजाने श्रीयके था प्रमाणे कयु. “हे देव ! स्थूलना नामनो म्हारो म्होटो नाश् कोशा वेश्यानां गृह प्रत्ये रह्यो , तेने ए मुना थापो.” ते उपरथी राजाए स्थूलनअने बोलावी मंत्री मुखा धारण करवानुं कह्यु. स्थूलजसे उत्तर श्राप्यो के “ हुं विचारीने कहीश.” पनी ते पासेना अशोक वनमा गयो; त्यां जश्ने योगिनी पेठे एकाग्र चित्तथी विचार करवा लाग्यो के– “म्हारे मंत्रिमुडानुं हुं प्रयोजन ? कारण शाकिनी रूप मंत्री मुजा धारण करे ते धनथी आकुल थयेलो मनुष्य खजनने विषे अथवा अन्य जनने विषे निदपणाने पामे जे. कुल धर्मनो त्याग करीने अने धर्मना अज्ञानी रहीने पण मंत्री मुजा धारण करनारा पुरुष स्वामीनुं कार्य बराबर रीते करी श्राप पडे बे. वली तेमां पण जो दैवयोगथी स्त्रीने वश्य थयो तो नरकथी पण वधारे फुःख आ लोकमां नोगवq पडे बे. वेश्या स्त्रीउथी पण वधारे निंदा करवा योग्य मंत्री मुसा . तो पड़ी कृत्याकृत्यने जाणनारो कयो पुरुष ते मुखाने धारण करवाने श्रादरवंत थाय ? देव, दानव अने मनुष्योने पूजवा योग्य पुण्यवंत महात्मा व्रतरूप चक्रवर्ती पणाने जोगवतां तां पोते संसार समुजश्री तरे अने बीजाउने तारे के माटे हुं मंत्रीमुखाने न स्वीकारतां इष्टफलने आपनारी जैनी दीक्षाने धारण करूं.” एम विचार करीने स्थूलनझे तत्काल लोच कस्यो भने रत्न कंबलथी बनावेला रजोहरणे करीने सुशोनित एवा तेणे सनामां जश्ने राजाने धर्म लाल दीधो. ते वखते राजाए " हे मंत्रीसुत ! तें श्रा बहु सारं कडं ! बहु सारं कडं !! के जे कुःसाध्य एवा कार्यनो श्रारंज कस्यो.” एम कहीने बहु प्रशंसा करी. . पली मोदराजानी सेनाने जीतवा माटे व्रतरूप बखतरने धारण करता एवा ते स्थूलनन, 'संनक एवा सुनटनी पेठे त्यांथी चाट्या. ते व१ बखतर पहेरेला अने हथियार धारण करेला. ... Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलनानी कथा. २४१ खते राजाए पण सर्व प्रकारनी शमताने धारण करनारा स्थूलनजना घणां वखाण कस्यां. पढी स्थूलनजे श्री संजूतिविजय आचार्यना चरणकमलनो आश्रय करीने सर्व सावद्यथी विराम पामीने व्रत अंगीकार कमु. पनी ज्ञानरूप अंकुशथी वश थयेला नमक हस्तिनी पेठे जिनेश्वरप्रणित धर्म क्रियानुं आचरण करता उता ते विहार करवा लाग्या. अहिं जेम सूर्य अस्त थया पली लक्ष्मी कमलिनीनो श्राश्रय करे तेम मंत्री मुखाए श्रीयकनो श्राश्रय कस्यो. अर्थात् राजाए श्रीयकने मंत्री मुना थापी; तेथी तेणे पण पोताना पिताना वैरनुं स्मरण करीने कोशा वेश्यानो श्राश्रय कस्यो. कारण तेवां जनो पण कपट साध्य वस्तुना कार्यने विषे काम आवे . __एक दिवस एकांतमां बेठेला श्रीयके स्थूलननी वार्ताथी कोशा वेश्यानुं मन, जेम टंकणखारथी धातुने पिंगलावी नाखे तेम पिंगलावी नाख्युं श्रने पडी कर्वा के "हे प्रिये ! स्थूलनने दीक्षा लेवरावी अने पितानी एवी स्थिति करी ए सर्व वररुचिर्नु काम बे; माटे म्हारे पण ए वैर रहारी सहायथी लेवू . " श्रीयकनां आवां वचन सांजलीने कोशाए हास्यथी कह्यु. “ ते वैर शी रीते लेवाशे ?” श्रीयके उत्तर आप्यो के- “ त्हारी बहेननी साथे तेने घणीज प्रीति जे; माटे जो ते वररुचिने मद्यपान करावे तो हुँ कृतार्थ था." पड़ी कोशाए पोतानी बहेन पासे वररुचिने मद्यपान करवानो अभ्यास कराव्यो. कर्वा डे के- पवित्र माणसो पण पडतीने वखते पोताना कुलाचारने त्यजी दे . पली वैरना साधनमा उद्यमवाला श्रीयके पण वररुचिनी साथे बीलाडी जेम उंदरनी साथे मित्रता करे तेम मित्रा करी. वररुचि पण मर जेम पद्मवनमां जा आव करे तेम निरंतर राजानी सनामां जा श्राव करतो अने राजा पण कवितानी प्रीतिथी हमेशां तेनां वखाण करतो, तेथी गाडरीक्षा प्रवाहना सरखा लोकने विषे ते कवि पूज्यपणाने पाम्यो हतो. __को अवसरे एकांतमां बेठेला राजाए श्रीयकने कयु के “ जेवो इं. अने मंत्री गुरु बे; तेवो श्रमारे शकटाल हतो. जेम रात्री चंड विना शोजती नथी; तेमज म्हारी सजा शकटाल मंत्री विना शोजती नथी; तेथी नश्च य में कागडाने उडाडवाने माटेज रत्न फेंकी दीधुं बे..” राजानां Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ शीलोपदेशमाला. आवां वचन सांजलीने श्रीयके कद्यु. “ स्वामिन् ! शुं करीए? मद्यपान करनारा वररुचिए ए खोटी वात उडाडवाथी एम आयु !” राजाए कडं "शुं ए विप्र मद्यपान करे ?” मंत्रीपुत्र श्रीयके उत्तर थापता जणाव्यु के " ते वात हुं आपने सवारे देखाडीश." बीजे दिवस सना जरा एटले प्रथमथी शीखवी राखेला मालीए सर्वे माणसोने एक एक कमलनुं पुष्प थाप्युं अने वररुचिने मदनफलना चूर्णवाडं कमलपुष्प आप्यु. श्रीयक कमलने सुंघीने तेनी सुगंधी विषे वखाण करवा लाग्यो. ते उपरथी सर्वे माणसो पोतपोताना कमलपुष्पने सुंघवा लाग्या. वररुचि पण उत्साहथी पोताना कमलपुष्पने सुंघवा लाग्यो, एटले मदनफलनुं चूर्ण उंचा श्वासने लीधे नाकमां पेशी गयु, तेथी तेने उलटी थ. पली राजाए अने बीजा सजाना माणसोए वररुचि मद्यपान करे के नहीं तेनी परिक्षा करवामाटे तेनुं मुख सुंघ्यु; एटले मद्यना जेवी वास श्राववा लागी, तेथी सजाना सर्वे माणसोए तिरस्कार करेलो वररुचि तत्काल पोताने घेर गयो. तेना पुत्रोए मद्यपान संबंधि प्रायश्चित्त करवा माज्युं, पण एटलामां ते वररुचि श्रीयकना वैरने लीधे मृत्यु पाम्यो. पनी शकटाल पुत्र श्रीयक, नंद नृपतिना राज्यना साते अंगने धारण करतो बतो निर्विरोधपणे स्वार्थ, परार्थ तथा राज्यार्थने साधवा लाग्यो. स्थूलन मुनि पण अनुक्रमे छादशांगीना धारक थया. एकदा वर्षाकाल प्राप्त थवाने वखते त्रण साधु गुरुनी पासे श्रावीने संसारनो निग्रह करवामां निपुण एवा अनिग्रहोने धारण करवा लाग्या. एके कडं. “ चार मास उपवास करीने सिंहनी गुफा श्रागल कायोत्सर्गे रहिश." बीजाए कपु. “ हुँ पण चार मास सुधी उपवास करतो तो दृष्टि विष सर्पना राफमा आगल कायोत्सर्गे रहीश." त्रीजा साधुए एवो अनिग्रह लीधो के, “ हुँ पण चार मास सुधी उपवास करतो तो कुवाना मंडाण उपर कायोत्सर्गे रहिश.” पनी संनूतिविजय श्राचार्य जेटलामा पोताना श्रुत शानथी ते मुनिना तपनी शक्ति जाणीने तेमने आज्ञा श्रापे ; एटलामां तो स्थूलनझे कयु के, " हे प्रनो ! हुं पण षट्रसनो थाहार खेतो बतो कोशा वेश्यानी चित्र Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलनानी कथा २४३ शालामा चोमासुं निर्गमन करीश.” गुरुए स्थूलजनी सर्व इंजिउनु वश्यपणुं जाणीने तेमने तथा बीजा त्रण शिष्योने पोतपोताने स्थानके जवानी श्राझा पापी. पनी पेला त्रण शिष्यो पोत पोताने स्थानके गया थने स्थूलन मुनि पण कामदेवनी pथी कोशा वेश्याने घरे गया. पोताने त्यां श्रावेला मुनिने जोश कटाक्षधी जाणे मंडपनेज उजो करती होय नहि शुं ? एम ते वेश्या तत्काल उठीने कहेवा लागी. " हे नाथ ! मने शी श्राज्ञा जे ? जे होय ते कहो." मुनिए धर्मलान आपीने तेनी चित्रशाला मागी. कोशाए ते श्रापी एटले शमताना समुअरूप ते महात्मा जेम मदोन्मत्त हस्ति विंध्याचलने विषे रहे तेम तेमां रह्या. __ पड़ी “ चारित्रने न सहन करी सकवाथी भने पूर्वना स्नेहथीज ए मुनि म्हारा घरे फरीथी श्रावेला .” एम विचार करती एवी ते वेश्या मुनिने षरस श्राहारथी जोजन करावा लागी. वली" निश्चय लजाथी मने कंश कही शकता नथी.” एम धारती ते वेश्या बपोरना वखते मुनिनी पासे श्रावीने कटाद फेंकवा लागी; परंतु मुनिनुं चित्त जरा पण कंपायमान थयुं नहीं; तेथी ते वेश्याए पोतानुं वक्षस्थल (बाति) बतावी हाव, नाव अने विलास करवा मांड्या. पण ते तो पोताना आत्माने श्रमरूपज थया, कारण के आकाशने विषे चित्रनी रचना जरा पण थश् शकती नथी. “ ग्रहण करेली दीक्षा जेना प्रजावथी सिम्योगने अर्थे थाय ? जे कारण माटे मांखण सरखा कोमल था मुनि श्रा श्रवसरे म्हारी पासे वन सरखा कठोर थया!" ए प्रकारे विचार करती अने पूर्वना स्नेहने वारंवार स्मरण करती ते वेश्या पूर्वे जोगवेला नोगोने संजारवा लागी; परंतु कमलिनीना पत्रना सरखा निर्लेप हृदयवाला मुनि तो ते वेश्याने जाणे गुप्तरीते आलोयणा ग्रहण करती होय नहि शुं ? एम मानवा लाग्या. जेम पाणीने जुई करवा माटे करेलाप्रहार श्रने वैराग्यवंत पुरुषोने धारण करावेला पुष्पना हार निष्फल थाय बे, तेमज कोशाए करेला सर्वे विकारो ते स्थूलजल मुनिने विषे निष्फल थया. वली वेश्याए करेला श्रृंगारो अने विकारो ते महामुनिने विषे जे. म पर्वत उपर सिंहे मारेली फाल मिथ्या थाय तेम फोकट थया. जे. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ शीलोपदेशमाला. म बुजिवंत वाचाल पुरुषतुं विज्ञान सजाने विषे वृद्धि पामे, तेमज वेश्याए करेला उपसर्गथी मुनिनुं ध्यानतेज वधारे वधारे वृद्धि पामवा लाग्युं. ___ पड़ी अत्यंत खेद पामेली वेश्या मुनिना चरणने विषे प्रणाम करीने कहेवा लागी. “ हे प्रनो ! में पूर्वना अन्यासथीज तमारे विषे था श्रपराधो कस्या , तेने हवे आप दमा करो."पली ते वेश्याए मुनिनी श्राझाथी पोताना धर्मनो त्याग करी श्रावक धर्म अंगीकार कस्यो अने एवो श्रनिग्रह धारण कस्यो के, “आजथी म्हारे राजाए प्रसन्न थश्ने मोकलेला पुरुषा विना बीजा सर्वे पुरुषोनो जावजीव सुधी नियम .” हवे पेला त्रण साधु के जेजे सिंहनी गुहा बागल, सर्पना राफडा बागल, श्रने कुवाना मंडाण उपर चार मास सुधी कायोत्सर्गे रहेवानो अनिग्रह लश्ने गया हता; ते चोमासु पूर्ण थयुं, एटले जाणे पोतेज पुरुषार्थरूप होय नहिं शुं ? एम गुरुनी पासे श्राव्या. तेउँने श्रावता जोश्ने गुरुए कांश्क उठीने कुशल समाचार पूज्या अने वखाण करीने कडं के, “ तमे पुष्कर कार्य कलुं .” पठी स्थूलजा श्राव्या. तेमने जोश्ने गुरु सामा तेडवा माटे गया अने प्रशंसा करीने कहेवा लाग्या के “हे महानाग ! तमे तो बहुज पुष्कर पुष्कर कार्य कऱ्या .” गुरुनां आवां वचन सांजलीने पासे बेठेला पेला त्रण शिष्यो pथी मांहोमांहे कहेवा लाग्या के, " अहो ! मंत्रीनो पुत्र जाणीने गुरुए तेमने आ प्रमाणे अति पुष्कर पुष्कर कडं ! ! जो षट्रसना श्राहारथी पुष्कर पुष्कर करनारा थवातुंहोय तो आपणे पण आवतां चोमासामांश्रनुक्रमे तेज तप करशुं.” पड़ी इर्ष्यानुं पोषण करनारा ते त्रणे साधुए महाकष्टथी थाउमास निवृत करूया. चोमासु बेसवाना समये सिंहगुहावासी साधुए गुरुपासे श्रावीने स्थूलना प्रमाणे कोशा वेश्याने त्यां रहेवानी विज्ञप्ति करी. गुरुए उपयोगथी जाएयु के “ ते स्थूलजउनी स्पर्धा करे बे.” परंतु तेम रहि शकवाने असमर्थ एवा ते मुनिने जाणीने गुरुए कडं." हे मुनि ! स्थूलन प्रमाणे करवु बहु पुष्कर , माटे ते श्राग्रह मूकी द्यो. कारण शेष विना बीजो कयो पुरुष पृथ्वीनो नार धारण करवाने समर्थ ?” ा प्रकारे गुरुएघणा वास्या; परंतु मुनि तो आग्रहथी तेज व्रतने धारण करी कोशाने त्यां श्राव्या अने तेनी चित्रशालामा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलनानी कथा. २४५ गीने हस्तिशालामा जेम सिज रहे तेम रह्या. वेश्याए जाण्यु के "श्रा मुनि स्थूलननी स्पर्धा करीने श्राव्या बे.” ए उपरथी परिक्षा करवाने माटे तेणे मुनिने षट्रस आहार जोजन कराववा मांड्यो. __ पनी विविध प्रकारना श्रलंकारोने धारण करी शृंगारोथी सुशोजित थर जाणे सादात् कामदेवनी क्रीडा नूमी होय नहीं शुं ? एवी ते वेश्या मुनिनी पासे श्रावी. ते वखते तेना मुखरूप चंजने जोश दोन पामेला मुनिना चित्तरूप समुउने विषे दीर्घकालथी सुश् रहेलो वडवाग्नि प्रदिप्त थयो. पडी कामरूप विषना तरंगोधी नाश थर वे धीरता जेमनी एवा ते मुनि पोताना साधुपणाने, तपनी क्रीयाने तथा स्थूलनउनी स्पर्धाने जूली गया; तेथी तेमणे कोशा पासे विषयसुखनी याचना करी एटले तेणे उत्तर श्राप्यो के, “अव्य श्रापीने पड़ी इष्ट कार्य पूर्ण करो.” वेश्यानां श्रावां वचन सांजलीने मदनज्वरथी दीन नेत्रवाला मुनिए फरीथी कडं. "हे जजे! अमारी पासे अव्य क्याथी होय ? माटे मने तत्काल प्रसन्न था.” पठी स्थूलजा पासेयी सांजव्यो ने जैनधर्मनो उपदेश जेणे एवी कोशाए मुनिने खेद पमाडवा माटे कद्यु. “हे साधो ! जो तमारे नोग नोगववानी श्छा होय तो नेपाल देशमां जाऊं. त्यांनो दयावंत राजा परदेशथी श्रावेला साधुऊने एक एक रत्नकंबल श्रापे ने ते लश् श्रावो ने पड़ी इष्ट कार्य करो." वेश्यानां वचनथी मुनि नेपाल देशमां गया. त्यांथी रत्नकंबल लश् तेने वांसमां नांखी चमर जेम मालतीनुं स्मरण करे तेम कोशानुं स्मरण करता पाबा फस्या. रस्ते मुनिने जोश्ने पसीपतिना पोपटे "लद जाय .” एवो उच्चार कस्यो. ए उपरथी चोर लोकोए मुनिने रोक्या अने जोयुं पण कंश मत्यु नहीं एटले तेमने जवा दीधा. पोपटे फरीथी उच्चार कस्यो के, “ लद जाय .” तेथी चोर लोकोए मुनिने रोकीने पूज्यु. मुनिए पण सत्य कही दी, एटले चोर लोकोए तेमने दयाथी जवा दीधा. पडी मुनि पाटलीपुर नगरप्रत्ये श्राव्या अने वेश्याने रत्नकंबल थापी. वैश्याए पण ते रत्नकंबलने जेम अगाध जलवाला धरामा नांगेला रत्नने फेंकी दे तेम कादवमां फेंकी दीधी; तेथी मुनिए कडं." हे मुग्धे ! तें श्रा महामूल्यवाली अने उर्द्धन एवी रत्नकंब १ गधेडो. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ शीलोपदेशमाला. लने फाटेला वस्त्रनी पेठे हेलनाथी कादवमां केम फेंकी दीधी?” वेश्याए उत्तर प्राप्यो के, "अरे मूर्ख ! तुं रत्नकंबलनो शा माटे शोक करे ले ? \ मुवता एवा आ व्रतरूप माणिक्यने नथी देखतो? मात्र अल्पसुखना श्राजासनी आशाथी ब्रांति पाम्यां चित्त जेमनां एवा जड पुरुषो मोद सुखथी वृथा व्रष्ट थाय जे.” । इत्यादि अनेक वचनोथी प्रतिबोध पमाडेला अने उत्पन्न थयो ने वै. राग्य जेमने एवा ते मुनिए वेश्याने कडं. "हे महानुनावे ! बलता एवा घरमांथी जेम को बालकनुं रक्षण करे तेम ते पण म्हारुं रक्षण कसु वे. हवे हुँ अतिचारना दोषनी आलोचनाने माटे गुरुना चरण कमलनी उपासना करीश.” ते वखते कोशाए हाथ जोडीने मुनिने कछु. “हे मुनि ! प्रबोध पमाडवाने माटे में जे अशातना करी होय ते श्राप दमा करजो.” पली लजाथी अधोमुखवाला मुनिए गुरु पासे श्रावीने आलोचना लइ फरीथी म्होटा तपनो श्रारंज कस्यो. ___ एक दिवस राजाए विषयवांबारहित एवी कोशाने त्यां एक सुथारने मोकटयो; तेथी ते हमेशां सुथारनी आगल स्थूलजननां वखाण क. रवा लागी. ते उपरथी ावंत थएला सुथारे एक दिवस पोतानी चातुरी देखाडवाने माटे पलंग उपर बेग बेग एक बाणथी आंबानी ढुंब वींधी अने ते बाणने बीजुं बाण सांध्यु, तेने त्रीजु, एम परस्पर बाणो लगाडिने पनी बीजा अर्धचंद्र बाणथी ढुंब कापीने पोताना हाथथी लश वेश्याना हाथमां आपी. या प्रकारे ते पोतानुं कौशल्य देखाडीने कोशा वेश्यानां मुख सामु जोवा लाग्यो. पठी वेश्याए पण पोतानी चातुरी बताववाने माटे सरशवना ढगला उपर सोय खोशी तेना उपर पुष्प गो. वी ते उपर नाच कस्यो; परंतु सरसव, पुष्प के सोय एमांनु कांश पण कंप्यु नहीं. ते उपरथी प्रसन्न थएला सुथारे कडं. कहे! हुँ तने सुं श्रापुं?" वेश्याए कडं. “में एवं शुं कमु बे के आप प्रसन्न थया ? घुवड रात्रीए देखे अने पदः श्राकाशमा उडे . ए सर्व अभ्यासथीज जाति सिक बे. कांश श्राश्चर्यकारी नथी. परंतु आश्चर्य तो एजले के महामुनि स्थूलन नहीं जाति सिह के नहीं अन्यासित एवं पुष्कर शीलवत पाल्यु. जेम सूर्यना तापना समागमथी नवनीत (मखण) पींगली Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ स्थूलनानी कथा. जाय बे, तेम स्त्रीना समागमथी पुरुषो पण पींगली जाय . उतां म्हारी साथे बार वर्ष सुधी जोग जोगवीने रहेला ते स्थूलन था वखते वनमणिना सरखं कठीणपणुं धारण कगुं.” श्रा प्रमाणे स्थूलजनी प्रशंसा करती एवी ते कोशा वेश्याए चंड ज्योत्स्ना जेम कुमुदिनीने प्रबोध पमाडे तेवी रीते सुथारने प्रबोध पमाड्यो. पनी सुथारे पण स्थूलनजना गुणोनुं स्मरण करता बतां दीक्षा ग्रहण करी अने कोशा वेश्या पोताना अनिग्रहनुं पालन करवा लागी. ___ को वखते बार वर्षनो उकाल पड्यो; तेथी साधुनो संघ समुअने कांठे रहीने उखथी पुःस्तर एवा विषम कालने निवर्त करवा लाग्यो. नणवा गणवानुं बंध थयु; तेथी सौ सिधांतो जुली जवा लाग्या. ते उपरथी पाटलीपुर नगरमां संघ नेगो थयो. त्यां जेने जेने जे जे सूत्रो श्रावडतां हतां ते ते एका करीने पूर्ण एकादशांगी रची. पनी सूत्रोना विछेदथी नय पामेला संघे जज्बाहु मुनिने बोलाववा माटे बे साधु ने तेमनी पासे मोकल्या. तेए त्यां जश्ने वंदना करी जबाहु मुनिने कयु. “ तमने गुरु महाराज पाटलीपुर नगरमा संघ नेगो थयो जे त्यां बोलावे ." लमबाहु मुनिए कडं, “ हवणां में महाप्राण नामनुं ध्यान आरंन्यु के तेथी हुँ हवणां त्यां श्रावी सकीश नहीं.” ते वात बे शिष्योए आवीने गुरुने तथा संघने निवेदन करी, पढी संघे अने गुरुए बीजा बे शिष्योने कंश कहीने मोकट्या. तेए नमबाहु मुनि पासे आवीने पूज्युं के, “ जे संघनी थाज्ञा न माने तेने शो दंड श्रापवो ? ' मुनिए उत्तर प्राप्यो के, "तेने संघनी बहार मूकवो.” ते उपरथी शिष्योए कपु. “ हे जगवन् ! त्यारे तो संघ तमने तेज प्रमाणे करशे.” मुनिए कडं."संघ जे श्छे जे ते करे बे; परंतु जो म्हारा उपर दया करीने बुद्धिवंत साधुउने अहिं मोकले तो हुँ तमने हमेशां सात वाचनाापीश. तेमां एक गोचरीएथी श्रावीने, बीजी मध्यान्हे, त्रीजी बहारथी आव्या पली, चोथी संध्या समये अने बाकीनी त्रण प्रतिक्रमण वखते, एम करवाथी संघर्नु अने म्हाळं कार्य सिद्ध थशे." ए वात शिष्योए श्रावीने गुरुने तथा संघने निवेदन करी. ते परथी हर्षित थयेला संघे स्थूलन विगेरे पांचसे साधुउने अष्टिवाद जणवा माटे जप्रबाहु मुनि पासे मोकव्या. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ शीलोपदेशमाला. हवे नवाहु मुनि पोताना ध्याननो विरोध न थाय एटलामाटे ते सर्व साधुउने थोडी थोडी वाचना देवा लाग्या; तेथी उद्वेग पामेला ते सर्वे मुनि पोतपोताना स्थानके चाख्या गया. फक्त स्थूलना एकलाज रह्या. ते तो स्वधर्ममां तत्पर रहीने गुरुनी सेवा करवा लाग्या. तेथी ज्यारे महाप्राण ध्यान पूर्ण थयु; त्यारे गुरुए तेमने संतोष थाय एटलो पाठ श्रापवा मांड्यो, एटले समाधानरूप अमृतना पानथी प्रफुहित बुद्धिवाला स्थूलना बे वस्तु विना दश पूर्व जणी गया.. _ एकदा दीक्षाने धारण करी पृथ्वी उपर विहार करती एवी स्थूलनजनी व्हेनो पोताना नाश्ने वंदन करवा माटे त्यां श्रावी अने तेउए गुरुने पूज्युं के, “ हे स्वामिन् ! श्रमारो नाश् स्थूलजन क्यां ने ?” गुरुए उत्तर प्राप्यो के, “श्रागल अशोक वृदनी नीचे बेठगे बेठो खाध्याय करे बे.” स्थूलज पण श्रावती एवी पोतानी ब्हेनोने जोश्ने कौतुक जोवानी हाथी सिंहगें रूप धारण कटुं, एटलामां तो ब्डेनोए श्रावीने जोयु तो सिंह दीगे, तेथी ते जय पामी पाली गुरु पासे जश्ने कदेवा लागी. "प्रजो ! श्रमारा नाश्ने तो सिंह नक्षण करी गयो ने !!!” गुरुए फरीथी उत्तर थापतां जणाव्यु के, “तमे क्लेश करशो नहीं. तमारो ना कुशल , माटे फरीथी त्यां जर तेने प्रणाम करो.” गुरुनां वचन सांजली यदा विगेरे सर्वे बहेनो त्यां गश् अने स्थूलनने वंदना करी. पड़ी सिंहनी वात पूर्वी, एटले “सिंह स्वरूप में धारण कयुं हतुं.” एम स्थूलन कयु. पड़ी यहाए कयु. “हे जगवन् ! श्रीयके अमारी साथे चारित्र धारण कयुं हतुं; परंतु ते कुधा परिसह सहन करी शकतो न होतो. एक दिवस तेणे पर्वने दिवसे म्हारा कहेवाथी पोरसी करी. पोरसी पूर्ण थर एटले पारणुं करवाने छातुर थएला एवा तेने में फरीश्री कयु. “ तुं श्रा पुर्खन एवा पर्वने विषे पूर्वाण्हर्नु व्रत शुं नहीं करे ?” ए उपरथी तेणे लजाने लीधे ते व्रतने पण अंगीकार कडं. ते व्रत पूर्ण थया पठी में तेने अपराण्हनुं व्रत कराव्युं. त्यार पड़ी में " रात्री सुखेथी निवृत्त थ जशे.” एम बोध पमाडीने उपवासनु पञ्चखाण कराव्यु. पड़ी अर्ड Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलननी कथा. २४ए रात्रीए कंधाथी श्राकुंल थयुं ने शरीर जेनुं एवो ते महात्मा श्रीयक थाराधन पूर्वक मृत्यु पामीने देवलोक प्रत्ये गयो.” यदा स्थूलजने कहे जे के “ हे प्रजो! रुषिघातना पापश्री जय पामेली एवी में प्रायश्चित्त करवा माटे ते वात संघनी श्रागल निवेदन करी. ते वखते संघे कह्यु. “ थानुं पायश्चित होय नहीं, कारण तमे तो तेने तारवाने माटे ते तप कराव्यु हतुं.” संघे या प्रकारे को बते में पोतानी निंदा करता करतां फरीथी कह्यु. “ जो था वात जिनेश्वर प्रजु पोताना मुखथी कहे तो म्हारुं समाधान थाय.” ते उपरथी संघे कायोत्सर्ग कस्यो, एटले शासन देवीए श्रावीने संघ प्रत्ये था प्रमाणे कडं. "हुँ था यदाने श्री सीमंधर स्वामी पासे लइ जश्ने जेटलामां अहिं पाडी लावू त्यांसुधी तमे कायोत्सर्गे रहो.” पठी शासन देवी मने श्री सीमंधर प्रजुपासे तेडी ग. त्यां में प्रजुने हर्षथी वंदना करी. पड़ी प्रजुए कह्यु. “श्रा साध्वी निर्दोष बे." प्रजुए ते वखते म्हारी पासे चार चुलिकानुं व्याख्यान कमु;ते में धारी लीधुं. पली शासन देवी मने था जरत क्षेत्रने विषे लावी एट में चारे चुलिका संघने थापी.” ___ यदा या प्रमाणे पोतानी वार्ता स्थूलन ने कहीने परिवारसहित पोताना श्राश्रमे गश्. स्थूलना पण पण वाचना लेवाने माटे श्राचार्य पासे आव्या. ते वखते गुरुए कह्यु." हवे तुं वाचना आपवा योग्य नथी." गुरुनां एवां वचन सांजली दीन मुखवाला स्थूलन विचार करवा लाग्या. "में एवो शो अपराध कस्यो बे के, वाचना आपवाने पण अयोग्य थयो?" घणीवार विचार करतां पण याद आव्युं नहीं, तेथी दीनमुखवाला तेमणे फरीथी गुरुने कडं. “प्रनो! ज्यांसुधी मने करेला अपराधनी स्मृति श्रावती नथी, त्यांसुधी हुँ अपराधी कदेवाचं नहीं.” गुरुए कडं. “अरे ! अपराध करीने पालो मानतो नथी?" स्मरण श्राववाथी स्थूलना तत्काल गुरुना चरणकमलमां पड्या अने कहेवा लाग्या के "म्हारा था एक अपराधने क्षमा करो; हवे हुँ फरीथी तेम करीश नहीं." गुरुए कह्यु. “फरीथी अपराध कर अथवा न कर; परंतु जेम ताववालाने चिनडं अपाय नहीं तेमज हुँ तने वाचना पण आपीश नहीं." पली स्थूलन गुरुने शांत करवा माटे संघनी प्रार्थना करी. कडं डे Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० शीलोपदेशमाला. के-चिंतामणि रत्न विना इष्टफल आपवाने बीजं कोण समर्थ डे ? सं. घनी प्रार्थना उपरथी सूरीए फरीथी संघने कह्यु. “ज्यारे श्रा स्थूलना सरखा पण था हानथी विकार पाम्या तो पड़ी बीजाउँ पामे तेमां तो शुं आश्चर्य ? माटे बाकीना जे पूर्वोने ढुंज जाणुं ९ ते पूर्वो अर्थ विना स्थूलजउने शीखडावीश, कारण एटलो तेने दंड आपवो घटे .” संघना श्राग्रहथी गुरुए स्थूलजसने बाकीना पूर्वो अर्थविना नणाव्या. अनुक्रमे श्राचार्य पदने पामीने स्थूलना नव्यजीवोने बोध पमाडवा लाग्या. पड़ी तीव्र एवं तप करी, अमृतना सरखा सिद्धांतोना उपदेशथी जव्यजीवोने बोध पमाडी स्थूलन अनुक्रमे वर्गप्रत्ये गया. ॥ इति स्थूलननी कथा संपूर्णा ॥ हवे शील पालवामां केड बांधेला पुरुषोनुं लोजथी पण अवध्यपणुं कहे. तं नमत वज्रस्वामिनं स्वयंवरा रत्नकोटिसुसमृशा तं नमह वेयरसामि, संयंवरा रयणकोडिसुसमिता ॥ अवगणिता येन तृणमिव श्रेष्ठिसुता प्रवररूपा अवगणिया जेण तिणं-व सिंधूिआ पैवररूपा ॥४॥ शब्दार्थः- हे जव्यजीवो ! (जेण के०) जेणे ( सयंवरा के०) स्वयंवरा एवी, तथा (रयणको डिसुसमिझा के०) रत्ननी कोटिए करीने सुशोजित थएली एवी अने (पवररूथा के०) प्रधान (मनोहर) बे रूप जेनुं एवी (सीरिधूथा के०) श्रेष्टिपुत्री रुक्मिणीने (तिणंव के०) तृ. पनी पेठे (अवगणिया के०) अवगणी जे. एवा (तं के०) ते (वयरसामि के०) वजखामिने (नमह के०) नमस्कार करो. ॥ ४५ ॥ विशेषार्थः- हे नव्यप्राणि ! जे महात्माए स्वयंवरा एटले पोते गुण सांजलीने अनुरागवाली थएली, कोटि रत्नोथी सुशोजित अने मनोहर रूपवाली एवी श्रेष्ठिपुत्री रुक्मिणीने पण जीर्ण तृणनी पेठे गणीने त्याग करी , एवा शीलवतने धारण करनारा ते वनस्वामिने तमे नमस्कार करो. आ प्रकारना समजाववाला महात्मा नमस्कार करवा योग्य वे. श्रने समतापण या प्रकारनी . कर्वा के-न यत्र फुःखं न सुखं न रो Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ ववस्वामीनी कथा. गो, न द्वेषमोहौ न च काचिदिन्छा ॥ रसः सः शांतो विहितो मुनिनां, सर्वेषु जावेषु समः प्रदिष्टः ॥ जेमां कुःख, सुख, राग, द्वेष, मोह अने कां पण श्वा नथी, ते शांत रस मुनिउँनो कह्यो . अने ते सर्व नावनेविषे समजाव कह्यो . ॥ ४२ ॥ वज्रखामीनी कथा. श्रा जरतदेत्रमा ललाटना तिलकनी उपमावालो अने जाणे लक्ष्मीना थानरणरूप होय नहीं शुं ? एवो अवंति नामनो देश जे. त्यां देवना सरखा मनुष्योथी सुशोजित तथा लक्ष्मीना स्थान सर तुंबवन नामर्नु उत्तम स्थान ले. त्यां पवित्र आत्मावालो तथा समृद्धिए करीने कुबेरना सरखो धनगिरि नामनो वणिक्पुत्र रहेतो हतो. जेम योगी शमताने पामे तेम मन, वचन अने कायाए करीने धर्मनुं आचरण करतो ते श्रनुक्रमे यौवन अवस्था पाम्यो. माता पिताए तेने माटे योग्य कन्यानी शोध करवा मांडी; परंतु दीवाना अर्थी एवा ते धनगिरिए जेम तृप्त थएलो माणस नोजननो तिरस्कार करे तेम कन्यानो तिरस्कार कस्यो. वली तेणे कयु के “ हुं स्त्री तथा मित्रादिकनो त्याग करी व्रत अंगीकार करवानो डुं; माटे कोशए पोतानी पुत्री मने थापीने तेने उःखमां नाखवी नहीं." एवां पुत्रनां वचन सांजलीने तत्वातत्वना विचारवालां माता पिता पोताना आग्रहथी निवृत्त थयां. ___पनी धनपाल शेठनी पुत्री सुनंदाए एवो अनिग्रह लीधो के “ हुं धनगिरि विना बीजा कोश्ने नहीं परj.” तेना श्रावा निश्चयथी माता पिताए बलात्कारथी धनगिरिने तेनी साथे परणाव्यो. पड़ी कतुने अंते स्नान करेली सुनंदानी साथे धनगिरिए नोगावली कर्मना प्रबलपणाथी विषयसेवन कडे. ते वखते यद लोकथी कुबेरनो सामानिक देवता चवीने सुनंदाना उदरने विषे श्रवतस्यो. पनी धनगिरिए ते स्त्रीने गर्नवती जाणीने तथा तेनी आज्ञा लश्ने सिंहगिरि आचार्य पासे जश्ने दीक्षा धारण करी. पडी ते मुनि सुनंदाना ना के जेमणे तेज गुरु पासे चारित्र धारण कयुं हतुं, एवा आर्यश मितनी साथे जेम चमर पुष्पना रसनो संचय करे तेम शास्त्रनो अभ्यास करवा लाग्या. हवे अहीं सुखेथी गर्जनुं पालन करती एवी सुनंदाए शुज दिवसे, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ शीलोपदेशमाला. जेम नंदन वननी नूमी कल्पवृक्षने जन्म श्रापे तेम एक उत्तम पुत्रने जन्म श्राप्यो. ते वखते जन्ममंगलनां गीतो गाती एवी सुनंदानी सखिउए कुमारना अंगने स्पर्श करीने कदेवा मांड्यु के, “ हे तात ! जो त्हारा पिताए प्रथम दीक्षा न लीधी होय तो ते आजे त्हारो म्होटो जन्ममहोत्सव करत; परंतु पुरुष विना धनवाली एवी पण एकली स्त्री शें करी शके ? शुं तेल थक्ष रह्या पली दीवि शोने खरी?" आवां सखिउनां वचन सांजलीने उहापोह करता बालकने जातिस्मरण झान प्राप्त थयु; तेथी ते पोताना मनमां विचार करवा लाग्यो के, “ म्हारा गुणोथी श्रानंद पामेली माता मने त्याग करशे नहीं. तो पड़ी हुँ दीदा शी रीते धारण करीश?” एम विचार करीने ते रोवा लाग्यो. सुनंदा तेने पारणामां सुवाडे; मधुर खरथी गीत गाय, परंतु ते बालक पुष्ट नूते ग्रसित करेलानी पेठे रोवाथी विराम पामे नही. एम करतां मास गया एटले सुनंदा पुत्र घणो वहालो बतां पण तेना उपर खेद पामवा लागी. एवामां श्री सिंह गिरि श्राचार्य,पोताना शिष्य धनगिरि श्रने श्रार्य. शमित विगेरे अनेक साधु सहित पृथ्वी उपर विहार करता करता त्यां श्राव्या. पड़ी थाझा लश्ने थार्यशमित सहित धनगिरि गोचरी जवा निकल्या, ते वखते तेउँने शुज शकुन थएलां जोश्ने प्रफुतित मुखवाला श्राचार्ये कडं. “आजे तमने म्होटो लान थशे; माटे जार्ज, परंतु सचित्त श्रचित्त निदानो निषेध करशो नही. पळी ते बन्ने जणा फरता फरता सुनंदाना घरे श्राव्या. तेउँने जोश्ने सखिए हास्यथी सुनंदाने कह्यु. “अरे सुनंदा ! था धनगिरि श्राव्या बे; तेमने पुत्र श्रपण कर. कारण के ते आवा पुत्रने अहिं मूकीने चाल्या गया .” पुत्रना रुदनथी खेद पामेली सुनंदा पण हाथमां पुत्रने लश् धनगिरि पासे श्रावी अने कहेवा लागी. “ न पाली शकाय एवा श्रा पुत्रने में श्राजसुधी पाख्यो . एणे मने बहुज खेद पमाडेली . तमे निस्पृह को उतां एने ग्रहण करो, कारण एना वहाला पिता तमेज डो. रोता एवा था बालकनी तमे उपेक्षा करशो. नही." धनगिरिए गुरुना वचननुं स्मरण करीने हास्यथी कडं. “ हे कल्याणी ! बहु सारं कडं. त्हारं वचन श्रवश्य म्हारे पालवू जोश्ए, परंतु सहसा श्रापेली वस्तुने विष फरीथी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववस्वामीनी कथा. १५३ स्पृहावाली थश्श नही. कारण पोताना हस्तथी श्रापेवू दान पाबु मलतुं नथी. कोश पोतानी वस्तु बीजाने श्रापी देता नथी, बता तुं तेम करवा तैयार थश् , तो खलपुरुषो ए वातनो निरोध न करे एटलामाटे साति राख्य.” मुग्ध सुनंदाए तेम करीने पुत्र वहोराव्यो एटखे मुनिए तेने पोताना पात्र बंधमां धारण कस्यो. ते वखते सिझ थयो जे मनोरथ जेनो एवो ते बालक तत्काल बानो रही गयो. . पड़ी गुरुनी श्राझाने मान्य करनारा ते बन्ने मुनि त्यांथी पाला फरी नैषिधिकिनो उच्चार करीने पौषध शालामा श्राव्या. त्यां पात्रना नारथी नमि गयेला हाथवाला धनगिरिने जो गुरुए कह्यु के " तमे पात्रबंध मने आपीने क्षण मात्र विश्राम करो." गुरुनां वचन सांजली धनगिरिए देदीप्यमान कांतिवालो पुत्र तेमना हाथमा अर्पण कस्यो. तेथी गुरुनो हाथ पण पुत्रना जारने लीधे नमवा लाग्यो; ते उपरथी तेमणे पुत्रनां लक्षण जाणी लीधां. पनी समग्र लक्षणवाला अने अमृ. तना सरखी श्राकृतिवाला पुत्रने जोश्ने शिष्यनी चिंतामां कृतार्थ थएला गुरुए कह्यु. . "अहो ! थावा जारथी अने श्रावी कांतिथी था पुत्र जिनशासनने अलंकृत करवामां युग प्रधान थशे. वली ते कर्मरूप हस्तिनो नाश करवाथी श्रने चारित्ररूप रत्नने धारण करवाथी म्हारुं सिंद गिरि ए नाम सत्य करशे; माटे था पुत्रनुं यत्नथी रक्षण करी तेनुं पोषण करवामां जक्त अने कल्याणकारी एवी श्राविकाउने जोडवी. पडी गुरुए वज्रना सरखा सारवाला ते पुत्रनुं नाम वज़ पाड्युं श्रने तेने रक्षण करवा माटे साध्वीने सोंप्यो. साध्वीए पण प्रेमवाली अने क्रीडा कुतुहलवाली एवी शय्यातरी स्त्रीने सोंप्यो. पली स्पर्धाथी शय्यातरीउँवडे पालन करतो ते वनकुमार तारीका विषे चंजनी पेठे एक बीजीउँना खोलामा विचरवा लाग्यो. सौजाग्यरूप अमृतना कुंडसमान ते वज्जकुमारने जे जे स्त्री क्रीडा करावे ते ते स्त्रीने विषे पोतानी मातानी पेठे ते स्नेह करवा लाग्यो. बालको पण तेने इष्ट क्रीडाथी रमाडता हता अने ते पण ते ने पोतानी समग्र क्रीडा दवितो हतो. वर्षा ऋतु जेम वृदनुं पोषण करे तेम शय्यातरी, स्नान, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ शीलोपदेशमाला. पान, मंडन, क्रीडन् अने विलेपन विगेरेथी वज्रकुमारनुं पोषण करती. वज्रकुमारे पोताना कंठने विषे धारण करेली माला अने सुवर्णजडित रत्नो हृदयरूप कमलथी निकलता एवा कमल तंतुनी उपमाने पामता हता. वली दिवस दिवस प्रत्ये धर्म क्रीडाथी रमतो एवो ते वज्रकुमार प्रासुक अन्नना श्राहारथी साध्वीउना चित्तने आनंद पमाडतो हतो. श्रा प्रकारे हमेशां दिन दिन प्रत्ये अधिकता देखाडता एवा पुत्रने जोश सुनंदा श्राविका पासे पोताना पुत्रनी याचना करवा लागी. श्राविकाउँए कह्यु. “ श्रमे तमारी वात जाणतां नथी. अमने तो गुरुमहाराजे सौदेखो माटे पालन करदिए. "एवी रति तिरस्कार करेली ते सुनंदा समुदायथी व्रष्ट थएली वांदरीनी पेठे दूर उनी रहिनेज वज्रमोणना सरखा उद्धन एवा वजकुमारने जोवा लागी. पली मोहना तुशासथी पराधिन थएली ते को कोश् वखते उपाश्रयमां श्रावीने धावमातानी पेठे वज्रकुमारने स्तनपान कराववा लागी. हवे अचलपुर नगरनी पासे कन्या अने पूर्णा एवी बे नदीऊना मध्य जागने विषे रहेली नूमिमां तापसोए सेवन करेलु कन्यापूर्ण नामर्नु तीर्थ बे. त्यां एक तापस लेप कर्मनो जाण होवाथी ते लेपवाली पाकुंकाने पहेरी अगाध जल उपर हंसनी पेठे चालतो हतो. श्रावी रीते लेपना योगयी ते हमेशां नदी उतरतो हतो; तेथी तेणे सर्व लोकने विस्मय पमाड्या हता. वली अहंकारवालो ते तापस श्रावकोने “ तमारा शासनने विषे श्रावो कोश् प्रजाव ? " एम कहीने हसतो हतो. ___ को वखत पृथ्वी उपर विहार करता करता वन कुमारना मामा के जे महातपस्वी हता ते श्रीधार्यशमित मुनि स्वेछाथी त्यां आवी चड्या. श्रावकोए तेमनी पासे जश्ने तापसे करेली पोताना शासननी निंदा कही बतावी. मुनिए ज्ञानथी तापसनी युक्ति जाणी अने पड़ी श्रावकोने कयु. “ अज्ञानरूप अंधकारना मंदिर एवा तापसोने विषे तपनी शक्ति क्यांथी होय ? अर्थात् नज होय. परंतु ए तापस लेपकीयाथी मूर्ख लोकोने विस्मय पमाडे जे. माटे हे जिनमतने जाणनारा ! तमारे थामां कंश विस्मय पामवो नहीं; कारण ते विधितो फक्त कोश्ना बताव्याथी १ चांखडी अथवा पावला. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रस्वामीनी कथा. 1 ԱԱ - करी शकाय बे. वली तेना पाखंडनी परीक्षा करवा माटे तमारे घेर तेनुं आमंत्रण करो ने दंजन क्तिथी तेनी पाडुका धोइ नाखो. कयुं वे केजैनधर्मना उपहासना नाशने माटे माया पण सुख आपनारी थाय छे.” पी श्रावको तापस पासे जश्ने कपट श्रद्धाथी तेनुं श्रमंत्रण कर्खु. ते उपरथी ते एक श्रावकने घरे जोजनमाटे श्रव्यो. ते वखते " तमारा चरणने धोएला पवित्र जलथी अमारा घरने विषे कुशल था. " एम कता एवा ते कपटज क्तिवंत श्रावके तापसना पग उना पाणीथी एवी ते धोइ नाख्या के कमलना पांदडानी पेठे जरा पण लेप चोटी रह्यो नहीं. पी गोशिर्ष चंदनथी तेना चरणने लेप करी आदरथी षट्स युक्त रसोइ जमाडी. कयुं बे के स्वार्थनी सिद्धिने माटे द्रव्यनो व्यय करी शकाय . हवे तापस पडुकानो लेप धोवाइ जवाथी पाणी मां डुबी जवाना - यने सीधे आकुल व्याकुल थवा लाग्यो; तेथी तेणे ताववाला माणसनी पेठे जोजननो पण कांइ खाद जाएयो नहि. जोजन करी रह्या पठी “हजु कंश् लेप चोटी रह्यो हशे एम धारीने " ते तापस माणसोना समूहसहित नदीने कांठे आव्यो अने जेवो पाणीनी अंदर चालवा जाय बे तेवोज लोढाना वहाणनी पेठे पोताना यशसहित डुबवा लाग्यो. ते वखते कांठे उनेला माणसो ताली पामीने इसवा लाग्या छाने कदेवा लाग्या के, " पाडुका लेप करीने नदी उतरता एवा या दंजीए श्रमने घणा दिवस बेतवा बे. " एवामां जैनमार्गना प्रजावने देखाडवा माटे जोजराजासहित श्रार्यशमित मुनि त्यां श्राव्या. पठी योग महात्म्यने वश्य य रहेली नदी प्रत्ये मुनिए कयुं के " हे वत्से ! श्रमने मार्ग आय; म्हारे व्हारा पेला पार प्रत्ये जनुं बे. " ते वखते मित्रोनी पेठे बन्ने तट नेगा थइ गया; तेथी संघ ने राजासहित मुनि पेले तीर गया. पी मुनिनुं श्रतिशयपणुं जोइने गर्व रहित थपला सर्वे तापसोए वैराग्यथी तेमनी पासे दीक्षा धारण कर एटले ते श्रागमने विषे है पिक " एवा नामी प्रसिद्ध थया. “ ब्रह्म हवे वज्रकुमार ण वर्षनो थयो एवामां धनगिरि विगेरे साधु विहार करता करता ते तुंबनवनने विषे श्राव्या. घणा काले श्रावेला इष्ट Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ शीलोपदेशमाला. धनगिरिने जाणीने पुत्रनी श्वावाली सुनंदाए तेमनी पासे पोतानो पुत्र माग्यो, ते वखते धनगिरिए कडं. “ हे मुग्धे ! मिथ्या न बोल्य, शुं ते वखते तें विचार कस्यो नहोतो ? सादि राखीने श्रापेला पुत्रने मागतां तने लाज नथी श्रावती ? ” सुनंदाए कडं “ में म्हारा कुटुं. बीउनी साथे विचार कस्यो नहोतो, तो हवे तेमनी रजा सिवाय म्हारा बालकने लेइ जवा कोण समर्थ डे ?" या प्रकारे ते बन्ने जणा अने ते बन्नेनी पदनां माणसो वाद करता करतां राजानी सनामां गया. राजानी डाबी बाजुए पोताना परिवार सहित सुनंदा बेठी अने जमणी बाजुए धनगिरि श्राचार्यसहित श्री संघ बेगे. पली नोज राजाए बन्ने प. कनी वात सांजलीने न्याय कयो के, “ मध्यनागमां उन्नेला था बालकने बोलावतां ते जेनी तरफ जशे तेनो कदेवाशे.” राजाना था न्यायने बन्ने पदवालाउँए प्रमाण कस्यो. पनी सुनंदानी पदवालाउँए राजाने कडं के, “ हे देव ! आ बालक हमेशां साध्वी पासे रहे , माटे तेमना परिचयवालो . तो तेने हवणां प्रथम माता सुनंदा बोलाववा योग्य जे. राजाए ते वातनी हा कही ते उपरथी पुलकितअंगवाली सुनंदा पोतानी पागल अनेक जातिना रमकडां श्रने खावाना पदार्थो मूकीने गाय जेम वाबरडाने बोलावे तेम मधुर वाणीथी पुत्रने बोलाववा लागी. ." हे वत्स ! अहिं श्राव्य, मने हर्ष श्राप्य अने म्हारा खोलाने सुशोजित कर. श्रा लाडवो, जाख, खांड अने साकर , तेने तुं ले. वली था घोडो, हाथी, दडो, कमल श्रने गाडी विगेरे लावी बुं, ते तुं ग्रहण करीने मने हर्ष श्राप्य. हे तात ! हुं त्हारा नेत्रनां उवारणां खेती बती बलीरूप था बुं. हे वत्स ! श्राव्य ! अहिं श्राव्य !! हुं त्हारा मुख उपरथी मरी जालं . हे वज्र ! तुं दीन एवी मने बोडी दश्श नहीं. में त्हारु गर्नने विषे पोषण कलुं ; माटे तुं म्हारी पासे श्रावीने रुणरहित था. हे वत्स ! हुं जाणुंडे के तुं विरक्त डे; परंतु एक वखत श्रावीने त्हारी माताने बेटी जा." था प्रकारे सुनंदाए मनोहर वचनथी तथा रमकडांथी घणो ललचाव्यो, परंतु जेम वायुथी मेरुपर्वत चला. समान थाथ नहीं; तेम मातानी वचनथी वज्रकुमार जरा पण चलायमान थयो नहीं. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रस्वामीनी कथा. १५७ माता गौरवपणामां पिताथी वधारे बे. " एम जाणतो बतो पण वकुमार ते वखते विचार करवा लाग्यो के, “ जो हुं मातानुं वचन - गीकार करीश तो संघनी आज्ञानुं उल्लंघन थशे के जेथी संसाररूप स. मुद्रनुं उलंघन करवुं दुर्घट यइ पडशे. वली जो हुं त्यां ( संघपासे ) नहीं जाउं तो तेथी संघ ने माता बन्ने समानपणुं पामशे तेमज म्हारा वियोगी अल्प कर्मवाली माता पण व्रत अंगीकार करशे. " आवी रीते विचार करता एवा दीर्घद्रष्टि वाला वज्रकुमारे पोताने बोलावती एवी माता सामी द्रष्टि पण करी नहीं. 66 पछी राजानी श्रज्ञाथी प्रफुल्लित मनवाला धन गिरिए पोताना हस्तने विषे तत्वना सरखा रजोहरणने धारण करीने वज्रकुमार प्रत्ये कयुं. " हे वत्स ! जो हारुं मन दीक्षा धारण करवामां दृढ होय तो मोद लक्ष्मीना दूतना सरखा श्रा रजोहरणरूप धर्मध्वजनुं सेवन कर. " श्रावां मुनिनां वचनने सांजलीने जेम डाह्यो माणस चिंतामणि रत्नने ग्रहण करे ने हस्ति कमलने ग्रहण करे तेम वज्रकुमारे तत्काल मुनि पासे जश्ने आदरथी रजोहरण धारण कस्यो. ते वखते रजोहरण जाणे नाल सहित कमलने जीतीने नींचा मुखवालुं बनावेलु होय नहि शुं ? एम वज्रकुमारना हस्त कमलने विषे शोजवा लाग्युं पढी विकल थर गयुं वे मन जेनुं एवी सुनंदा कपाले हाथ दइने तथा क्षणमात्र मनमां धीरज राखीने विचार करवा लागी. “ अहो ! प्रथम जाइए संयम - गीकार करो. पी पतिए पण चारित्र लीधुं छाने हवे श्रा पुत्र पण दीक्षा लेशे. तो पढी हुं एकली घरने विषे रहिने शुं करीश ? ” आवो विचार करी सुनंदा त्यांथी उठीने घेर गइ अने साधु पण वज्रकुमारने लइने पोताने उपाश्रये श्राव्या. " पढी संयमने विषे वे मति जेनी एवा वज्रकुमारे स्तनपान त्याग कयुं, एकं श्राश्चर्यकारी नहोतुं; कारण ते फक्त अवस्थाची न्हानो हतो, परंतु बुद्धिथी तेम नहोतो. गुरुए व्रतने इछता एवा कुमारने द्रव्यथी दीक्षा आपीने फरीथी साध्वीउने सोप्यो. सुनंदाए पण हर्षथी तेमनी पासे दीक्षा लीधी. पढी बुद्धिवंत एवा वज्रकुमारे समुद्र जेम नदीउने ग्रहण करे तेम साध्वी ज॑नां मुखधी सांजलेली एकादशांगीने धारण Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱՇ शीलोपदेशमाला. करी. अन्यदा श्राव वर्षनी वयवाला ते कुमारने साथै लइने उ यिनी तरफ गुरु विहार करता हता एवामां रस्ते वर्षाद थयो एटले ते ए sacate जीवोनी विराधना न थवा माटे एक मंडपमां निवास कस्यो. ए अवसरे वज्रकुमारनी परीक्षा करवा माटे तेना पूर्वजवना मित्र कोश क देवता वृष्टि थोडी बंध करी वणिक रूप धारण करीने त्यां घ्यावी सूरिनी विनंती करी के, " हे प्रजो ! श्रमारा श्राश्रममां साधुउने न्न वहोरवा मोकलो. " गुरुए जोयुं तो वर्षाद पडतो हतो; तेथी तेमणे उत्तर श्राप्यो नहीं. पती देवताए वृष्टि बंध करीने फरीबी विनंती करी एटले सूरीप वज्रकुमारने अन्न वहोरवा मोकल्या. वज्रकुमार पण पोतानी आवश्यकी क्रीया करीने पढी वीजा मुनिने साथै लइ गोचरी लेवा चाल्या. त्यां वणिकुरूप देवतानी कुंपडीमां नाना प्रकारना जक्ष्य, जोज्य ने मनोहर एवा शाकना समूहोने जोइने ते मुनि विस्मय पा म्या. द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री जोइने पढी कुमारे ते देवना सामुं जोयुं तो तेनां निमेषरहित नेत्र दीवगं. तेउपरथी वज्रकुमारे जाएंयुं के आ कोइ देवता बे. पी “मारे देवपिंड कल्पे नहीं." एम कदीने ते पाठा फरवा. ते वखते देवताए पोतानुं खरुं स्वरूप धारण करीने वज्रकुमारने वैयिलब्धि श्रापीने पढी ते तुरते अंतर्ध्यान यर गयो. या वात सांजलीने गुरु ते वज्रकुजारना कार्यथी अत्यंत आश्चर्य पाम्या. एकदा जेठ मासमां तेज जंजक देवता वणिक रूप धारण करीने वकुमारने घेबर वहोराववा श्राव्यो; परंतु " या देवपिंड बे " एम जापीने तेणे होया नहीं; ते उपरथी प्रसन्न थएला देवताए तेमने श्राकाशगामिनी विद्यापी. स्थिरमनवाला वज्रकुमारे अभ्यास करता एवा साधुना समूहथी सांजली साजलीने वज्रमणिना सरखा दृढ अंगवाली एका दिशांगीने पोताना हृदयमां धारण करी हती. वली गुरुए जणवाने माटे आज्ञा करेला ते पोतानी बुद्धिनो प्रकाश न करता बता गुरुए कहेला वचन स्पष्ट वाणीथी बोलता छाने अभ्यास करता एवा बीजा साधुना सूत्रने, जेम जलो रुधिरने ग्रहण करी लड़े तेम ते ग्रहण करी लेता. एक दिवस सर्वे साधु जिक्षा माटे गया हता. अने गुरुपण स्थं मिले गया हता. ते वखते वज्रकुमार उपाश्रयमां एकला होवाथी तेमणे सर्व Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववस्वामीनी कथा. २५ उपधि पोतानी श्रागल मूकी पोते जाणी गुरु होय नहिं सुं? एम वाचना श्रापवा मांडी. एवामां पाबा श्रावता एवा गुरुए दूरथी तेमनो शब्द सांजलीने पोताना मनमां विचार करवा मांड्यो के, “शुं थाजे साधु गोचरीथी वहेला श्राव्या ? के जे स्वाध्याय करता बता म्हारी वाट जुए .” बारणा पासे श्रावीने तेमणे जोयुं तो फक्त वज्र एकलाज के एम मालम पड्यु. वली ते अगीश्रार अंगनी वाचना सांजलीने विस्मय पाम्या अने कहेवा लाग्या के “ अमने धन्य डे के जे गबने विषे आवां पात्रो उत्पन्न थाय बे. निश्चय आ वज्रकुमार अगीयार अंग सांजलीनेज जण्यो .” वली गुरु विचार करवा लाग्या के “ जो हुँ उचिंतो अंदर जश्श तो ते शरमा जशे.” एम धारीने तेमणे बारणां श्रागल उन्ना रहीने उंचा स्वरथी नैषेधिकी कही. ते सांजलीने वज्रकुमार सर्व उपधि ठेकाणे मूकी तत्काल गुरुपासे श्राव्या अने तेमना चरणतुं मार्जन करवा लाग्या. पड़ी ते पोताना खरूपने गोपवीने चिंतामणिनी पेठे गुरु आगल बेग. .. एकदिवस पासेना गामडाउँमा विहार करवानी श्छा करता एवा गुरुने बीजा शिष्योए कां. "प्रनो ! श्रमने अहिं वाचना कोण श्रापशे.?" गुरुए "वज्र वाचना आपशे.” एम कहीने विहार कस्यो. पनी गुरुनी श्राज्ञा माननारा सर्वे साधु वाचनाने वखते गुरु बुद्धिथी वजकुमार पासे श्राव्या. वज्रमणिना सरखा दृढ हृदयवाला वज्रकुमार पण गुरुनीथाज्ञाने जाणीने विस्मित चित्तवाला ते सर्व साधुउने वाचना आपवा लाग्या. ते एवी रीते के जेटलुं गुरुनी पासे जणता घणा दिवस थाय तेटवू थोडा दिवसमां जाणी जवाय. वली तेमणे मंद बुद्धिवालाने पण सारी रीते बोध प. माड्यो. गुरु पांच दिवस विहार करीने पाळा श्राव्या एटले तेमणे सर्वे शिष्योने वाचनानुं सुख पूज्यु. ते उपरथी सर्वे शिष्योए हाथ जोडीने जक्ति पूर्वक कह्यु. “ हे प्रनो ! वज्रकुमारनी वाचनाथी श्रमने उत्तम बोध प्राप्त थाय ; माटे श्रमने एज वाचना आपो. वली प्रथम जेनी मूढपणाथी अमे आपनी पासे निंदा करता हता, तेज था वज्रकुमार शास्त्रनो जंगमकोश (दालतो चालतो नंडार) थयो .” पली गुरुजए आदरवंत वज्रकुमारने जे जे नहोतुं श्रावडतुं ते ते सर्व जणाव्युं अने तेनो Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० शीलोपदेशमाला. निरंतर बोध रहे एटला माटे उत्साहथी यथाविधि उत्सारकल्प पण जणान्युं वज्रकुमारे पण दृष्टिवाद विगेरे जेटला सूत्रनो समूह हतो, ते सर्वनो यास करचो. गुरु वज्रकुमार सहित विहार करता करता दशपुर नगर प्रत्ये श्राव्या. त्यां तेमणे वज्रकुमारने श्राज्ञा करी के " हे वत्स ! वशपूर्व ने धारण करनारा गुप्त सूरी पृथ्वी उदर विहार करता करता दवणां अवंति नगरीने विषे श्रावेला बे. तेमने श्रथवा व्हारा बिना म्हारे एवो बीजो कोई शिष्य नथी, के जे दशपूर्वोनो धारण करनारो थाय; माटे तुं जयिनी नगरी प्रत्ये जई दशपूर्वनो अभ्यास करवाने योग्य बे. कारण घणा जारने वहन करवाने दस्ति समर्थ बे, गधेडा नथी. हे वत्स ! समाधिवडे दशपूर्वनो अभ्यास करता एवा तने निश्चय शासन देवता सानिध्य करशे. "" पढी गुरुना वचनने प्रमाण करीने बे साधु सहित वज्रकुमार, जाणे गर्वने जीतवानी इछा करता होय नहिं शुं ? एम उऊ यिनी तरफ चाल्या. अनुक्रमे ते सायंकाले उजयिनी पहोच्या; तेथी तेमने रात्री ए नगरनी बहार रहेवुं पडयुं. हवे अहिं गुप्त श्राचार्यने एवं स्वप्न आव्युं के, “ जाणे कोई पुरुषे म्हारा हाथ मांथी दुधना नरेला पात्रने लई तृप्तिपर्यंत पीधुं. " रात्रीने ते श्राचार्य जागी उठया ने स्वप्नानी वात पोतानी पासेना साधुने निवेदन करीने कड़ेवा लाग्या के, "खाजे को बुद्धिवंत अतिथि साधु श्रवशे के जे म्हारी पासेथी सूत्र अने अर्थसहित दशपूर्व शीखशे. मने धन्य बे के म्हाराथी दशपूर्वनो विछेद नहीं थाय; कारण विद्यारूप उत्तम फल योग्य पात्रने विषे प्राप्त थशे. "" IT प्रकारे गुप्त श्राचार्य पोतानी पासेना साधुर्जने वात करे बे, एटलामां तो प्रजात कालने विषेज वज्रकुमारे नैषेधिकीनो उच्चार करीने उपराश्रयमां प्रवेश कस्यो. ते वखते श्राचार्य आकृति अने तेजथी 66 या वज्रकुमार बे. " एम निश्चय करीने अने तेने योग्य जाणीने अत्यंत हर्षपूर्वक जेवा बन्ने हाथथी आलिंगन करवा जाय बे, एवाज वज्रकुमारे पण तेमना चरणकमलने विषे नमस्कार कस्यो पढी तेमणे Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववस्वामीनी कथा. आलिंगन करी वज्रकुमारने संयमार्थ- कुशल पूब्युं अने कह्यु के,"हे वत्स! त्हारे गुरुना चरणकमलनो त्याग करीने था अवंतिमां शा कारण माटे श्रावq पडयुं ? ” गुरुनां वचन सांजली जक्तिथी नम्र थएला वज्र कुमारे उत्तरथाप्यो के “गुरुनी आज्ञाथी दश पूर्वनुं अध्ययन करवाने अहिं आपनी पासे श्राव्यो बुं. हे प्रजो ! जेम सूर्यने विषेज उत्तम एवं तेज रघु ने तेम आपने विषेज दशपूर्व रहेला ; माटे तेना दाने करीने म्हारा उपर प्रसन्न था." पनी वज्रकुमार गुरुना महात्म्यरूप सिद्धचूर्णना अनुनावश्री दशपूवना धारणहार थया. कारण जेने श्रन्यास करवानी अभिलाषा होय बेतेनेज विषे गुरुनी आज्ञा प्रवर्ते . वली दृष्टिवाद विगेरे सूत्रोनो पण एज अनुक्रम . अनुक्रमे वज्रकुमार दश पूर्वनो श्रन्यास करी जनगुप्त आचार्यनी रजा लश् दशपुर नगर प्रत्ये पोताना गुरुपासे गया. त्यां सिंहगिरि आचार्य प्रसन्न थश्ने तेमने गछना जारसहित श्राचार्यपद थाप्युं. ते वखते ए म्होटा महोत्सवमां वज्रकुमारना पूर्वजवना मित्र जंनक देवताए त्यां श्रावीने पुष्पवृष्टि करी. सिंह गिरि श्राचार्य पण अनशन व्रत धारण करीने खर्गलोके गया. पड़ी वज्रसूरि पांचसे साधु सहित पृथ्वी उपर विहार करवा लाग्या. कलाना जंडाररूप ते ज्या ज्यां विहार करे त्यां त्यां सर्वे मनुष्यो पुण्य. रूप श्राश्चर्यमां जाणे बूमी जता होय नहीं शुं ? एवा देखाता हता. हवे एम बन्यु के, श्री वज्रखामीनी केटलीक साध्वीए पाटलीपुर नगरमां धनशेउनी शालामां वसति लीधी हती. ते शेग्ने साध्वीउना संगथी अत्यंत विवेकवाली रुक्मिणी नामनी पुत्री हती. ते रुक्मिणी निरंतर वखाणने अवसरे साध्वीना मुखथी श्री वज्रखामीना शील शौजाग्यादि गुणोना समूहने सांजलती हती; तेथी ते ब्रमरीनी पेठे वनखामीनां सौदर्यरूप मद्यतुं पान करती रागरहित एवा ते सूरिने विषे अनुरागवाली थर. पडी तेणे मनमां निश्चय करीने साध्वी पासे एवी प्रतिज्ञा करी के, " जेम रोहिणीनो पति चंग डे तेम म्हारो पति श्री वज्रखामी था." आवां रुक्मिणीनां वचन सांजली साध्वीए कह्यु. "अरे मुग्धे ! श्री वनखामी तो विरक्त , जेथी त्हारो मनोरथ वृथा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ शीलोपदेशमाला. श्रशे. कारण मारवाडनी नूमीमा रहेनारी जमरीने कल्पवृक्षनी मंजरीनो लोग क्याथी मले?" श्रावी रीते साध्वीए प्रतिबोध करेली रु. क्मिणीए फरीथी कह्यु. “ जो एम होय तो पण म्हारे तो एमनां चरणकमलनुज शरण था." श्री वज्रखामीने विषे जे चित्तवृत्ति जेनी एवी ते रुक्मिणी वज्रलेपनी पेठे पोताना अनिलाषथी निवृत्ति पामी नहीं. को वखते वज्रस्वामी पोताना पांचसे साधु सहित विहार करता करता पाटलीपुत्र नगरना उद्यानमा समवसस्या. ते वात सांजलीने राजा नगरवासी जनोसहित तेमना सामो गयो. परंतु सूर्यना सरखा तेजवंत अने लावण्यना समुअरूप सर्वे साधुउने समान जोश्ने दीर्घकाल सुधी विचार कस्या पली तेणे ते तपरूप धनवाला मुनिउने पूब्यु के, “थापना मध्ये वज्रखामी कोण ?” तेजेए उत्तर प्राप्यो के, "टिंटोडाना सरखा अमारा समूहमां राजहंस समान वज्रस्वामीने उलखवामां तमने शा माटे ज्रम थाय ने ? हारना सरखी था साधुनी पंक्तिमा जे महाकांतिवाला नायकनी पेठे शोजता होय तेमने तमे श्री वज्रस्वामी जाणो.” पनी समान लावण्यवाला थने ताराउंथी विंटलाएला चंनी पेठे अनेक साधुसहित दूरथी श्रावता एवा श्री वज्रस्वामीने राजाए दीग एटले तेणे अनीष्ट वस्तुने जोनारी पोतानी दृष्टिने जाणे अमृतथी पूर्ण करी होय नहिं शुं ? एम श्री वज्रस्वामीने नक्तिपूर्वक प्रणाम कस्या. पली तेमणे परिवार सहित नगरमा प्रवेश करीने धर्मदेशना थापी. पनी श्राचार्यना दांतनी ज्योत्स्ना रूप जलनी धाराथी धोइ नाख्या ने मनना मल जेमणे एवा सर्वे माणसो पोत पोताना स्थानके गया. राजाए पण अंतःपुरमा जश्ने सूरिना रूप वैजवनी प्रशंसा करी; ते उपरथी सर्वे राणी पतिनी आज्ञा लश्ने मुनिने वंदन करवा श्रावी. ते वखते श्रीवजस्वामीने जोवाने उत्साहवंत थएली रुक्मिणी पण पोताना पिता पासे श्रावीने कहेवा लागी. "हे तात ! में जेमने पति मानेला ते अहिं श्राव्या बे, माटे हवे जमरना सरखी वृत्तिवाला ते जो म्हारो पाणी ग्रहण कस्या विना जता रहेशे तो हुँ निश्चय अग्निने शरण यश्श." पली धनशेठ, उत्तम वस्त्रालंकारोथी पोतानी पुत्रीने शणगारी तथा एक कोटी अव्य साथे लश् वज्रस्वामी पासे गयो. आचार्य पण नगर Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रस्वामीनी कथा. १६३ वासी जनोना चित्त दोन पामवाना जयथी पोतानुं स्वरूप गोपवी ने बेा हता, तेथी सर्व माणसो एम कड़ेवा लाग्या के, " अहो ! सर्व प्रकारनी कलाने सेवन करनारा अने विश्वना गुरु एवा श्र श्री वज्रस्वामीने दुष्ट ब्रह्माए तेमना गुणने योग्य एवी रूपलक्ष्मी आपी नहीं.” या प्रकारना जक्तोना चित्तने ज्ञानचक्षुधी जाणीने श्री वज्रस्वामीए जगत्ने श्राश्वर्य उत्पन्न करनारूं पोतानुं स्वाभाविक रूप प्रगट क. ते उपरथी सर्वे माणसो फरीथी कड़ेवा लाग्या के, " या एमनुं स्वाजाविक स्वरूप बे के जेने एमणे गोपवी राख्युं हतुं; ते हवणां आपणा उपर कृपा करीने प्रगट क बे. " यावी रीतना महिमाना ऐश्वर्यने जोश्ने संघ आनंद पावा लाग्यो. कयुं बे के मेघना शब्दथी मोरो शुं नथी नृत्य करता ? अर्थात् करेबे. पढी धनशेठ पोते धन्य मानतो बतो मनमां विचार करवा लाग्यो , " म्हारी पुत्रीने धन्य बे के, जेणे पोताना चित्तरूप सुवर्णने विषे वज्रमणिरूप वज्रस्वामीने धारण करी राख्या बे." कन्यानां दान अने वरना ध्यानमां चोटी गयुं बे चित्त जेनुं एवा ते धनशेठे, जेम कामी माणस शीलनी कथा सांजले नहीं तेम श्राचार्यनी धर्मदेशना सांजली नहीं. देशनाने ते तेथे उठीने विनंती करी के, " हे प्रजो ! जेम माधवी लता चैत्रमासने विषे आसक्त होय बे तेम श्र म्हारी पुत्री श्र पने अनुरक्त थली बे; तेथी आपनो अने एनो योग्य संबंध था. कारण ते करवाथी ब्रह्माने थलो श्रम सफल थशे. वली हे दयानिधि ! ते म्हारी पुत्रीए एवी प्रतिज्ञा करी बे के "म्हारो पति वज्रस्वामीथार्ज, अन्यथा म्हारे नि एज शरण बे. " कल्पवृने विषे श्रसक्त थरहेली मरीनी पेठे एणे वरवा श्रावेला अनेक पुरुषोनो तिरस्कार क यो बे. माटे हे स्वामिन्! सुवर्णमां रत्ननी पेठे सर्वातिशय रूपवाला तर तिथी पण अधिक रूपवाली या म्हारी पुत्रीने ग्रहण करीने म्हारामनने श्रानंद माडो. हुं आपने पाणीग्रहणने विषे असंख्य द्रव्य पीश. " वज्रस्वामीए कयुं. " कयो पुरुष व्रतरूप साम्राज्य पद त्याग करीने संसार धन थवानी इछा करे ? जोग सर्पना देह सरखा ने संसारिक सुख विष समान बे. लक्ष्मी तथा स्त्री ए बन्ने संसारना Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखा २६४ शीलोपदेशमाला मूलरुप बे. तो कयो विछान् पुरुष तेमनो स्वीकार करे ? वली चातुगतिक एवा था संसारमा परिज्रमणना कारणरूप अने किंपाक फलसमान एवा विषयने विषे कयो पुरुष अनुरक्त थाय ? माटे हे धनशेव ! जो श्रा त्हारी पुत्री म्हारे विषे गाढ अनुरागवाली होय तो मने प्रिय एवा संयमने हवणांज ग्रहण करे. कारण के नाशवंत स्वनाववाला, अल्प अने संसारथी उत्पन्न थएला एवा था संयोगवडे शुं ? मनुष्योए निरंतर मोक्षने अर्थे उद्यम करवो के ज्यां अनंत सुखनी प्राप्ति थाय .” __ इत्यादि वज्रसूरिनी देशनारूप अमृतना सिंचनथी शांत थडे मो. हनी पीडा जेनी एवी रुक्मिणीए तत्काल चारित्र धारण कखु. ए योग्य थयुं के जे धनशेठनी पुत्री रुक्मिणी मोहराजना बलथी वज्रस्वामीने पो ताना हाथने विषे ग्रहण करवाने श्छती हती; परंतु एज वज्रस्वामीए मोहरूप वृक्षनो नाश कस्यो. कारण जे थवानुहोय ते अन्यथा यतुं नथी. ते अवसरे श्री वज्रस्वामिनी देशनारूप जलथी सिंचित थएला अंकुरे करीने देदीप्यमान एवा केटलाक जव्य जनोरूप कल्पवृक्षने दीक्षा रूप फलो प्राप्त थयां. ___ पत्री श्री वज्रस्वामीए संघने अर्थे महापरिज्ञाध्ययनथी श्राकाशगा. मिनी विद्यानो उकार कस्यो. परंतु "श्रा विद्या मानुषक्षेत्र सुधीनी ." एम जाणीने तेमणे “ ते विद्या बापी शकाय एवी नथी.” एम संघने कडं. हवे तो श्री वज्रस्वामी श्रा आकाशगामिनी विद्याथी अने जंजक देवताए श्रापेली विद्याउँथी संघनेविषे महा प्रनाववंत थया. कोश व. खते विद्यार्जना जंगम समुज रूप ते अनुक्रमे सर्व देशमा विहार करता करता उत्तर दिशा तरफ गया. त्यां प्रजाउने पीडाकारी एवो महा दारुण उकाल पड्यो हतो; तेथी संघे श्रावीने तेमनी विनंती करी के, “ हे प्रनो! आ पुर्जिक रूप वनमां रांकरूप सेकडो सीयालो फरे जे; जेथी तेर्ड कोश्ने खावा देता नथी. वली अत्यारे तुधारूप राक्षसीनो मंत्र जागतो थयो के जेनाथी पिडा पामेला सर्वे धनवंत पुरुषो पण उपवास करे . तेमज योगी जेम परमात्मानुं ध्यान करे तेम सर्वे मनुष्यो, धान्यनुं ध्यान करे . ज्यारे ते धान्यने देखे जे; त्यारे तो जाणे परमा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रस्वामीनी कथा १६५ "" त्माज मल्या होय नहिं शुं ? एम अत्यंत आनंद पामे बे. वली कोइ साधु निक्षा लइने जता होय तेने जोइने सर्वे रांको जेम दहीना पात्रमां बलाडा पडे तेम तेना उपर पड़े छे तेमज निक्षाने श्रर्थे श्रावता एवा साधुने जोने नव्य जीवो पोतानां वारणा बंध करे बे. माटे हे नाथ ! या प्रकारना संकटथी संघनो उद्धार करो. कारण के जेम मणिर्जनुं स्थान रोहणाचल पर्वत बे तेम सर्व लब्धीर्जना स्थानरूप प्रापज बो. श्री घनी विनंती सांजली श्री वज्रस्वामी विचार करवा लाग्या के, " संघने अर्थे विद्यानो उपयोग करवो ए कं पाप नथी. " एम धारीने तेमणे विद्याना बलथी चर्मरत्नना सरखो म्होटो पह उत्पन्न कस्यो. पढी संघसहित तेमां बेसीने श्राचार्ये ते पटने विद्याना बलथी आकाशमां चलाव्यो. ते वखते ते पट्ट जाणे मूर्तिवंत योगज योय नहीं शुं ? एम मोक्षमार्गने देखाडतो बतो आकाशमां चाल्यो. " हवे ते वखते श्री वज्रस्वामीनो श्रेष्ठ शय्यातर दत्त नामनो ब्राह्मण के जे गोचरीने माटे गाममां गयो हतो ते आव्यो. तेथे श्री वज्रस्वामी तथा संघ आकाशमार्गे जता जोइने कयुं के, " हे यतीश्वर ! हुं आपनो शय्यातर हवणां साधर्मिक थयो बुं; ते मने अनाथने त्याग करीने तमे केम चाल्या जार्ज बो? ” तेनां एवां वचन सांजली ने तेने जोने दशपूर्वधारी श्री वस्त्रस्वामी या प्रमाणे सूत्रार्थनो विचार करवा लाग्या के, “जे साधर्मिकना वात्सल्यमां प्रेमवाला होय, स्वाध्यायमां तत्पर होय, प्रजावना करवामां प्रेमवाला छाने व्रतमां उद्यमवंता होय तेने सर्व प्रकारनी शक्तिवडे निश्चय तारवा जोइए. " आवा सूत्रार्थं स्मरण करीने श्रीवज्रस्वामीए ते शय्यातरने पोताना पट्टमां लइ लीधो. पी ते काश मार्गने विषे वायुची प्रेरेला मेघनी पेठे चाव्या ? रस्तामां नेक देवता वंदन करेला छाने संघना मनने विषे श्राश्चर्य उत्पन्न करता एवा श्री वज्रस्वामी अल्प कालमां महापुर नगरे श्राव्या. त्यां सुक्षि होवाथी श्री संघ सुखेथी दीवसोने निर्गमन करवा लाग्यो ' ने श्राचार्य पण धर्मकार्यनुं साधन करवा लाग्या. हवे ते महापुर नगरमां जैनधर्मी ने बौद्धधर्मी श्रावको वसता हता. ते धर्म कार्यने विषे एक बीजा उपर स्पर्धा करीने वैरनुं कारण Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. उत्पन्न करता. संघ श्राववाने लीधे घणा एका थएला जैन लोकोए प्रजाने श्रानंदकारी महा पूजादि उत्सवोए करीने बौछलोको उपर विजय मेलव्यो हतो; ते उपरथी बौछमार्गी एवा राजाए माली लोकोने एवो हुकम कस्यो के, “कोश्ए जैनधर्मीने एक पुष्प पण आपq नहीं." यावा राजाना आदेशथी सुलन एवां पुष्पो कोटी अव्यथी पण अप्राप्य थयां. पली धनाढ्य पुरुषो रत्नोथी अने कर्पूरादिक सुगंधीथी पंचवर्णना पुष्पनी पेठे समाधिवडे प्रजुनुं पूजन करवा लाग्या. श्रा प्रकारे प्रजुन पूजन करवाथी शत्रु उपर विजय मेलवनारा जैनधर्मी विशेष उत्कर्षने श्छता थका पुष्प मेलववाना उपाय शोधवा लाग्या. एवामां जैन शासनने अनीष्ट एवां वार्षिक पर्व आव्यां एटले प्रलुनुं पुष्पवडे पूजन करवा श्वता एवा संघे श्री वज्रखामीनी विनंती करी के, “ हे प्रनो ! कृत्रिम पुष्पोथी करेली पूजा केवी शोनशे ? \ रत्नना जोजनथी कुधानी निवृत्त थाय खरी? माटे हे स्वामिन् ! लब्धिना नंडाररूप तमे गुरु बतां कयो पुरुष हर्ष नहीं पामे ? घरमा रहेलो मणि अंधकारनो नाश करे बेज. माटे पुष्पने मेलववाथी श्री संघने हर्ष पमाडो. शं चंडविना बीजो को पोयणीने प्रफुल्लित करी शके खरो ?” संघनी श्रावी विनंती सांजलीने श्री वज्रखामी पदीनी पेठे तत्काल श्राकाशमार्गे चाल्या अने क्षणमात्रमा माहेश्वरी नगरी प्रत्ये आव्या, त्यां हुताशन नामना यदना उद्यानमां पोताना पिता ध. नगिरिनो मित्र तडित नामनो माली रहेतो हतो. ते प्रनात कालने विषे सूर्यना सरखा तेजवंत मुनिने जोश, वंदना करी अने कहेवा लाग्यो. "हे प्रजो ! हुं श्रापना मुखदर्शनथी अत्यंत हर्षवान् थयो ढुं. आपने जे कार्य होय तेनी मने आज्ञा करो.” आचार्ये कह्यु. “ हुँ सं. घना कार्य माटे पुष्पोने सेवा आव्यो बुं; माटे ते आपवाने तुं समर्थ ? ” मालीए उत्तर प्राप्यो के “श्रा उद्यानमां निरंतर वीश लद पुष्प थाय बे, ते श्राप ग्रहण करीने मने कृतार्थ करो” मुनिए कडं. "तुं ए पुष्पोने ऊट तैयार कर." एम तेने श्राझा करीने श्री वज्रखामी दुपहिमालय प्रत्ये गया. त्यां सिझना गणो सहित ते शाश्वती जि न प्रतिमाना दर्शन करीने पद्मखंडथी शुशोजित एवा लक्ष्मी देवीना वा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रस्वामीनी कथा. १६७ गमां श्राव्या. ज्यां राजहंसना समूहो मधुर शब्द बोली रह्या हता, ज्यां चमरा गुंजारव करी रह्या दता एवा ते वनमां मुनिए लक्ष्मीना मणिमय एवा गृहरूपी कमलने दीतुं. 66 पी लक्ष्मीदेवीनं पूजन करवानी इछाथी जेटलामां मुनिए पोताना दाथमां एक कमल लीधुं तेटलामां तो लक्ष्मीदेवीए वज्रखामी पासे श्रावने तेमने वंदना करीने दर्षथी कह्युं के, “ मने शी आज्ञा बे ? " वज्रखामी आशिष श्रापीने कयुं के, " म्हारे व्हारा हाथमां रहेला सहस्र पत्रवाला कमलनो खप डे. " लक्ष्मीए कयुं. “ प्रयोजन होयतो कहो, हुं आपने श्रा इंद्रवनमाथी लक्ष कमल थापुं.” एम कहीने लक्ष्मीए पोताना हाथमां रहेतुं कमल मुनिने श्राप्युं. पठी श्री वज्रखामी लक्ष्मीए आपेला कमलने लइने फरी थी हुताशन वनमां श्राव्या. त्यां तेमणे विद्याना बलथी रत्न जडित सुवर्णनुं वैमान बनावी मां पुष्पोना करंडीया जस्या. तेनी नींचेनी बेठकमां जाणे पोते बत्रनी नींचे बेसता होयनी ? तेम बेठा; तेथी ते ताराउंथी विंटलाएला चंद्रनी पेठे शोजवा लाग्या. पढी स्मरणथीज प्राप्त थयेला जंजक देवताए इंद्रनी पेठे सेवन करेला श्री वज्रखामी अनेक वाजिंत्रोना शब्दपूर्वक श्रने गंधर्वोना गायनपूर्वक घुघरीथी सुशोजित एवा वैमानमां बेसीने संघने यानंद करता बता तत्काल महापुर नगरमां श्राव्या. हवे अहिं महापुर नगरमा रहेला सर्वे बोलोको श्राकाश मार्गथी वैमानसहित श्रवता एवा वज्रस्वामीने जोइ विचार करवा लाग्या के, " निश्चय या एक बौद्धदर्शननो प्रत्यक्ष अनुभव बे के, इंद्र पोतानी महर्द्धि सहित श्रहिं श्रापणा बौद्ध मंदिरोमां थता उत्सवोने जोवा वे बे. " एम घारीने ते उंचा वृना फलनी पेठे उंचा मुख राखी ने जेटलामां श्राचार्य सामुं जुए बे; एटलामां तो श्री वज्रखामी जैनमंदिरमां उतस्या एटले ते सर्वे बौद्धलोको जाणे काजलधी श्याम मुखवाला यया होय नहिं शुं ? एवा देखाया. पढी जैनलोकोए पर्युषणादिक पर्वने विषे जिनालयोमां म्होटो उत्सव कस्यो. ते वखते श्री वज्रस्वामीना वा अद्भुत महिमाने जोइने सर्वे बौद्ध लोको घुमनी पेठे निरुद्यमी बन गया. वज्रस्वामीना तेजथी जेनो अज्ञानरूप अंधकार Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६न शीलोपदेशमाला. नाश धयो ने एवो राजा पण जैनधर्मी थयो. प्रजा पण जैनधर्मी थर. वली जिनालयने विषे रहेलां पुष्पोनी सुगंधथी थाकाशमां उडता एवा असंख्य नमरा जाणे बौद्ध धर्मना उष्ट यशनी निंदा करता होय नहिं शुं ? एम गुंजारव करवा लाग्या. पड़ी श्री वज्रस्वामीए तेज महापुर नगरमां आर्यरक्षित नामना मुनिने सामानव पूर्वनो श्रन्यास कराव्यो. पडी पगले पगले नविक जनोनां मनमा प्रजावनानां श्राश्चर्यने उत्पन्न करता एवा तेमणे दक्षिण दि. शामां विहार कस्यो. एकदिवस त्यां कफथी पीडा पामता एवा ते वजस्वामीए नोजन पड़ी खावाने माटे एक सुंठनो गांगडो पोताना कान उपर राखी मूक्यो. पठी जोजन करीने स्वाध्याय करवा लाग्या; तेथी कान उपर रहेला सुंठना गांगडाने नूली गया. राते प्रतिक्रमणने श्रवसरे कान उपर मुहपत्ति पढी खेहता नूमी उपर पडी गयेला सुंठना गांगडाने जोश्ने ते विचारवा लाग्या के, “धिकार ने मने ! के जे प्रमा. द मने पीडा उपजावे ; माटे निश्चय हवे हुं शरीरनो त्याग करीने बी. जा जवने साधुं." एवामां बार वर्षनो उकाल पड्यो; तेथी वज्रस्वामीए पोताना वज्रसेन नामना शिष्यने बीजा केटलाक साधु सहित अन्यस्थले विहार कराव्यो. त्यां पण ते निदा न मलवाथी गुरुए आपेला निदापीडने खावा लाग्या. __ एकदा वज्रस्वामीए पोताना शिष्योने कयु के “श्रा उकाल बार वर्ष सुधी रहेशे माटे अन्नने अर्थे उद्यम करवाथी संयमने बाध थशे. ए करतां तीर्थनो आश्रय करी अनशन धारण करीने प्राणने त्याग करवो ए सर्वोत्तम ." एम विचार करीने तेउँ केटलाक साधुसहित पर्वत उपर गया, पण पोतानी पाबल श्रावता एवा एक कुखक (बाल) साधुने दयाथी तेमणे बेतरीनेपासेना गाममां मूक्यो. पड़ी ते पर्वत उपर चड्या. अहिं बाल साधुए, गुरुने अप्रीति न थवाने माटे नीचे रहिनेज अनशन व्रत धारण कगुं. पली सूर्यना तापथी उगलता एवा माखणनी पेठे गलीजतो ते इंजियोना समूहने वश करीने मृत्युपामी स्वर्गप्रत्ये गयो. पली कुबकना शरीरनी क्रीया करवाने श्रावता एवा देवताउने जोश्ने साधुए तेनुं कारण गुरुने पूब्यु. गुरु(श्री वज्रस्वामी)ए ए वात उपयो Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रस्वामीनी कथा. १६ए गधी जाणीने शिष्योने कही; ए उपरथी साधु तेनां वखाण करवा ला ग्या के, “ जेणे आपणां पाउल दीक्षा लीधी हती, ते आपणां पड़ेलां थयो तो पढी श्रपणे शा माटे प्रमाद करवो जोइए ? " एम विचारीने तेमणे गुरुनी साथे अनशन व्रत धारण करूं. पढी कोइ मीथ्यावी देवताए तेमनी परीक्षा करवा माटे श्रावी कानुं रूप धारण करी तेने कयुंके, " या मोदकथी पारणुं करो. " देवाताए जोजन करवाना करेला श्रग्रही पीडा पामेला साधु ते पर्वतने त्याग करी बीजा पर्वत उपर गया. त्यां उत्तम प्रकारे समाधिथी अनशन व्रत पालीने ते सर्व मुनिर्ज स्वर्ग लोक पाया. या वात सांजलीने इंद्र त्यां श्रव्यो ने रथ उपर बेसीने तेणे पर्वतनी प्रदक्षिणा करी. त्यां रथना प्रहारथी जागी गएला वृक्षो हजी सुधी पण विद्यमान् बे . ए उपरथी ते पर्वतनुं " रथावर्त ” एवं नाम प्रसिद्ध थपलुं बे. इंडे तेनुं अंतकृत्य करीने चिताउने स्थानके सुवर्णमय स्तंना कराव्या. पढी ते वज्रस्वामीना गुणोनुं स्तवन करतो करतो स्वर्गे गयो. वे श्रहिं श्री वज्रस्वामीना शिष्य वज्रसेन विहार करता करता सोपारपुर प्रत्ये व्या. त्यां श्रावकोमां शिरोमणि सरखो जिनदत्त नामनो शेव वसतो हतो. तेने जैनधर्ममां चतुर एवी इश्वरी नामे स्त्री इती. तेजने चंद्र, देहिक, नागेंद्र ने विद्यानृत् ए नामना धर्म कर्ममां कुशल एवा चार पुत्रो हता. ते सर्वे डुकालने लीधे अन्न न मलवाथी डुर्मृत्युनी शंका पामता हता. तेथी ते लक्ष मूल्य श्रापी थोडं अन्न लावी तेमां विष लवीने जोजन करी मृत्यु पामवानी इछा करता हता. ते वखते वज्रसेन साधु निक्षाने अर्थे तेने घेर जाणे कर्मेज बोलाव्या होय नहिं शुं ? एम श्रावी पहोंच्या एटले ईश्वरी हाथ जोडीने साधुप्रत्ये कड़ेवा लागी. " हे प्रजो ! श्रा खीरमां विष नेलव्युं नथी एटलामां आप श्रावी पहोच्या ए बहु सारुं करयुं; माटे या खीरने ग्रहण करी अमने संसार समुद्रयी तारो. " पठी महात्मा वज्रसेन पण तेर्जना कार्यने जाणी याप्रमाणे शिक्षा देवा लाग्या. " तमे वृथा मृत्यु पामशो नहीं, कारण के सवारे सुजिक थशे. श्रमने महा ज्ञानवंत एवा श्री वज्र २२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० शीलोपदेशमाला. स्वामीए सुनिनुं लक्षण कहीने या देश तरफ मोकल्या बे. " आवां मुनिनां वचन सांजलीने ते सर्वे मृत्युची निवृत्ति पाम्या. पढी बीजे दिवसे सवारमां अन्य देशोमांथी धान्यथी नरेला घणां बढायो sari टले सुनि ययुं पढी जिनदत्त शेठना चारे पुत्रोए वज्रसेन श्राचार्य पासे मोहनी इछाथी चारित्र धारण कयुं. चारे जणाए पोतपोताना नामथी गो स्थाप्या के, जेथी या वज्रसेननी शाखा श्राज सुधी पण प्रवर्ते बे. या प्रकारे लब्धिना समुद्ररूपाने प्रजावक पुरुषोने विषे मुकुट सरखा श्री वज्रस्वामी देवलोकप्रत्ये गया पी श्रा लोकमां चोथुं संघयण ने दशमु पूर्व विछेद पाम्युं. ॥ इति श्रीवज्रस्वामीनी कथा ॥ हवे शील पालवामां सामर्थ्यवंत स्त्रीउनुं पण पूज्यपएं उपदेश करता सता क. पालयंती निजशीलं स्थापयंती शुद्धधर्ममार्गे पोलंती नियॅसीलं, वंति सुंदधम्ममग्गंमि ॥ रथनेमिमुनिमपि जगति सा पूज्या राजीमती आर्या रहेनेमिमुवि जंए, सॉ पुंजा राइम का ॥ ४३॥ शब्दार्थ - ( रहने मिमुवि के० ) रथनेमि मुनिने पण ( सुद्धधमंमग्गंमि के० ) शुद्ध धर्ममार्गने विषे ( ठगवंति के० ) स्थापन करती एवी तथा (नियसीलं के० ) पोताना शीलवतने ( पालती के० ) पालती एवी अने ( श्रद्धा के० ) तपरूप धनवाली ( सा के० ) ते ( राइम के० ) राजीमती (जए के० ) या जगत्ने विषे ( पुजा के० ) पूजवा योग्य थइ बे. ॥ ४३ ॥ विशेषार्थ - श्री नेमिनाथ जगवाने दीक्षा ग्रहण करया पढी पोते शीलवतने पालन करती, गिरनार पर्वतनी गुफाने विषे संकटमां पडी सती पण क्रिडा करवामां चतुर एवा रथनेमि मुनिने धर्ममार्गमां स्थापन करती ने तपरूप धनवाली उग्रसेन राजानी पुत्री राजीमती या जगतूने विषे शील पालनारी स्त्रीउंमां वखाणवा योग्य थइ बे. ॥ ४३ ॥ राजीमतिनी कथा श्रागल कहेमां श्रावी बे, माटे श्रहिं कहेता नथी. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगायान. १७१ हवे शीलवत पालनारा गृहस्थोनो पण उत्कर्ष कहेले. ते धन्याः गृहिणोऽपि खलु महर्षिमध्ये ये उदाहरणं ते धन्ना गिहिणोवि हु, महरिसिममि जे उदाहरणं॥ निरुपमशील विचारे प्राप्नुवंति प्रसिधमाहात्म्याः निरुवमसीलवियारे पावंति पेसिश्मादप्पा ॥४४॥ शब्दार्थ-(हु के०) निश्चे (पसिझमाहप्पा के०) प्रसिद्ध डे माहात्म्य एटले प्रजाव जेनो एवा (ते गिहिणोवि के०) ते गृहस्थिळ पण (धन्ना के) धन्य डे के, (जे के०) जे गृहस्थिळ ( महरिसिमसंमि के०) महर्षिउनी मध्ये ( निरुवमसीलवियारे के० ) उपमारहित एवा शीलवतनी परीदाने विषे ( उदाहरणं के) उदाहरण एटखे दृष्टांतने (पावंति के) पामे .॥४४॥ विशेषार्थ- जे प्रसिद्ध माहात्म्यवाला गृहस्थिळ महामुनिउनी मध्ये जेनी उपमा श्रापी शकाय नहि एवा शीलवतनी परीक्षामां दृष्टांत रूपे थाय , तेज गृहस्थिउने धन्य बे. ॥ ४ ॥ वली एज अर्थने दृष्टांते करी दृढ करे . शीलप्रनावप्रनावितसुदर्शनं तं सुदर्शनं श्राएं सीलपनावपनाविय-सुदंसणं तं सुदंसणं सहूं ॥ कपिलानृपदेवीच्यां अक्षोनितं नमत नित्यमपि कविलोनिवदेवीहिं, अखोहियं नमद निचंपि ॥४५॥ शब्दार्थ- हे जव्यजनो ! (सीलपजाव के०) शीलना प्रजाव थकी ( पनावियसुदंसणं के०) अतिशय प्रकाशित कमु ने जिनशासन जेणे एवा तथा ( कविलानिवदेवीहिं के०) कपिला ब्राह्मणी अने राजानी राणी अजया ते बे जणीथी पण (अखोहियं के) क्षोजने नहि पामेला एवा (तं के०) ते (सुदंसणं सर्ल्ड के०) सुदर्शन श्रावकने (निचंपि के ) निरंतर पण ( नमह के ) नमस्कार करो. ॥४२॥ विशेषार्थ-हे जव्यजीवो! ब्रह्मचर्यना माहात्म्यथी प्रकाशित कमु बे जिनशासन जेणे एवा तथा कपिला ब्राह्मणी अने अन्नया राणीथी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ शीलोपदेशमाला. पण चलाववाने अशक्य एवा ते सुदर्शन श्रावकने तमे निरंतर नमस्कार करो; कारण के, गृहस्थ पण साधुना सर दृढपणुं होवाथी नमस्कार करवा योग्य ३. ॥४५॥ सुदर्शन शेनी कथा. जाणे आकाशमां विजली होयनी ? एवी अंगदेशमां पृथ्वीना श्रानूषणरूप चंपा नामनी प्रसिक नगरी जे. त्यां जेनो यश क्षीर समुजना दूधनी पेठे मथन करवो अशक्य ने एवो इंजना सरखो दधिवाहन नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने जेना लावण्यरूप समुझे यशथी उज्वल एवा ते राजाने श्रासक्त बनावी दीधो हतो एवी श्रजया नामे स्त्री हती. त्यां अरिहंत प्रजुनां उपासक एवो षजदास नामे शेठ वसतो हतो. तेने जैनधर्ममां प्रीतिवाली अर्हदासी नामे स्त्री हती. तेउने सुनग नामे गोवाल हतो ते हमेशां शेउनी नेशुने वगडामां चारतो हतो. . को वखते माघ मासने विषे नेशु चरावीने पागा श्रावता ते सुजगे रस्तामा जेमणे कंश पण उढ्यु नथी एवा मुनिने कायोत्सर्गे उजा रहेला दीग. पोते घरे श्राव्यो पण "श्रा पुःसह टाढथी ए साधुनुं शुं थयुं हशे?" एम दयाथी विचार करता एवा तेणे रात्री महाकष्टथी निवृत्त करी. पडी सवारे वेहेलो उठी नेशुने आगल करीने जता एवा ते सु. जगे मुनिने तेवीज रीते उना रहेला दीग. पड़ी तो ते नमस्कार करीने तेमनी पासे कणवार बेठगे; एवामां जाणे ते मुनिनां पुण्यनुं बीज होय नहिं ? एवा सूर्यनो उदय थयो. पड़ी तीक्ष्ण एवा तपना तेजे करीने जाणे बीजा सूर्यज होय नहिं शुं ? एवा ते चारण मुनि “ॐ नमो अरिहंताणं" ए शब्दनो उच्चार करीने तत्काल आकाशमार्गे उड्या. पडी सुजगे “श्रा मंत्र आकाशगामिनी विद्यानो .” एम जाणीने तेने निर्मल मोतीना हारनी पेठे पोताना हृदयने विषे धारण कस्यो. वली तेणे दिवसे, रात्रीए, चालतां, बेसतां, सूतां, जागतां, घरे तथा बहार तेज मंत्रनुं ध्यान करवू शरूं कझुं. एक दिवस तेने झपनदास शेठे पूब्युं. " हे सुजग! दरिखी माणसने अव्यना नंडारनी पेठे उर्द्धन एवं श्रा पद तने क्याथी प्राप्त थयु ?" सुजगे उत्तर श्राप्यो के, “ था श्राकाशगामिनी विद्यानो मंत्र .” एम Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनशेग्नी कथा.. १७३ कहीने तेणे ते पद प्राप्त थवानी सर्व वात शेठने कही. पनी शेठे कडं. " ए केवल श्राकाशगामिनी विद्यानो मंत्र जे एम नथी; परंतु स्वर्ग अने मोदनुं कारण पण एज बे. वली त्रण नुवनमा जे जे वस्तु उर्द्धन बे, ते ते था मंत्रथीज प्राप्त थाय . हवे त्हारं " सुनग" ए नाम यथार्थ थयुं . पण या मंत्र त्हारे अपवित्रपणाने वखते जपवो नहीं." एम शीखामण पापीने शेठे तेने सर्व नवकार मंत्र नणाव्यो. सुनगे पण ते बराबर धारण कस्यो, एवामां मुसाफर लोकोने काल सरखो वर्षाकाल श्राव्यो. एक दिवस वर्षाद घणो वरसतो इतो; एवामां सुजग नेशुने चारवा माटे वनमा गयो. रस्ते नदीमां घणुं पूर श्राव्यु हतुं; पण नेंशु तो तेने तरीने सामे तीरे जश् कोश्ना खेतरमा पेठी, जेथी सुलग था कांठे उजो उनो विचार करवा लाग्यो के, “ म्हारा स्वामीने ठबको मलशे, माटे श्राकाशगामिनी विद्याथी सामे तीरे जश्ने नेशुने पानी वालु.” एम धारीने तेणे नवकार मंत्रनुं स्मरण करी नदीमां ऊपापात कस्यो एटले खीलाथी विंधाश्ने ते तत्काल मृत्यु पाम्यो. पडी नवकार मंत्रना प्रजावथी सुजगनो जीव जेम मान सरोवरमां राजहंस उतरे तेम उत्तम स्वप्नने सूचवतो तो रुषजदास शेउनी स्त्री अर्हदासीना उदरने विषे अवतस्यो. गर्न त्रण मासनो थयो एटले शेठे पोतानी स्त्रीना धर्ममय दोहदोने पूर्ण कस्या. पनी योग्य समये ते अईदासीए उत्तम लक्षणवाला पुत्रने जन्म प्राप्यो. पिताए महोत्सवपूर्वक तेनुं "सुदर्शन" एq नाम पाड्यु. पनी रुपनदासे अनुक्रमे सर्वकलाना श्रन्यासथी यौवनावस्था पामेला अने विवेकवाला ते पुत्रने मनोरमा नामनी कन्या साथे परणाव्यो. सर्वने आनंद पमाडनारो सुदर्शन पण बीजना चंनी पेठे राजवर्गमां अने मनुष्यवर्गमां घणुं मान्यपणुं पाम्यो. __ हवे सुदर्शन शेग्ने राजाना कपिल नामना पुरोहितनी साथे वसंत श्रने कामनी पेठे मित्रा थर; तेथी वातोरूप अमृतथी प्रसन्न थयां के अंतर जेमनां एवा ते बन्ने जणा रामलक्ष्मणनी पेठे दिवसोने निर्ग: मन करवा लाग्या. एक दिवस पुरोहितने तेनीस्त्री कपिलाएपूब्युं." हे खामिन् तमेदवणां Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ शीलोपदेशमाला. सर्व कार्यमां शिथिल थएला केम देखाउँ हो? " तेणे उत्तर श्राप्यो के, “म्हारे सुदर्शन नामनो प्राणप्रिय मित्र , तेनी वातोना सुखमां मन थएला मने कंश सांजरतुं नथी.” स्त्रीए कह्यु. “ ए कोण ? अने केवो ले?" पुरोहित कपिले फरीथी उत्तर श्राप्यो के, " ए पनदास शेग्नो महा बुद्धिवंत पुत्र . तेनां रूप, लावण्य, सौजन्य अने दादिएयादि गुणो आकाशना ताराऊना सरखा असंख्य बे. हे जजे! ज्यांसुधी तें गुणोना समुअरूप ए शेठना पुत्रने दीगे नथी, त्यांसुधी त्हारो जन्म वृथा ." श्रावां पतिनां वचन सांजलीने कपिला सुदर्शनने जोवाना उपायो शोधवा लागी. पबी को दिवसे राजानी श्राशाथी कपिल गुप्तरीते बीजे गाम गयो एटले कामथी विह्वल थएली कपिला सुदर्शनने घेर श्रावीने कदेवा लागी. “ हे सुदर्शन ! श्राजे तमारा मित्रने शरीरे सुख नथी; माटे तमे म्हारे घेर श्रावीने तेमने तमारी श्रमृत दृष्टिथी संतोष पमाडो.” तेनां श्रावां वचन सांजलीने सुदर्शन शेठ मित्रनी प्रीतिने लीधे तत्काल तेने घरे श्राव्या अने पूब्युं के " म्हारो मित्र क्या ?" कपिलाए उत्तर प्राप्यो के “ उरडानी अंदर ." पड़ी कपिलाए उरडानी अंदर गयेला सुदर्शनने जाणीने बारणुं बंध कमु भने निर्लज थश्ने विषयनी याचना करी. पनी हाजर जवाबी एवा सुदर्शन शेठे हसीने कडुं. “था संसारसमुअमां मनुष्योने युवावस्थानुं फल विषयज डे; परंतु विधाताए मने नपुंसक बनावीने विडंबना पमाड्यो ने माटे हे नामिनि ! फक्त पुरुषना रूपनेज धारण करनारा म्हारेविषे तुं मुख्या थएला वटेमाशु जेम ताल फलने विषे मिथ्या ब्रांति पामे तेम मिथ्या ब्रांति पामी बु.” __ पड़ी विलक्ष बनेली कपिलाए बारणुं उघाडीनेसुदर्शन शेग्ने रजा श्रापी एटले ते बुटी गयेला कर्मवाला जीवनी पेठे तृणसमान संसारनुं ध्यान करतो बतो सरल रस्ते थक्ष पोताने घेर आव्यो. पडी ते दिवसथी श्रारंनीने राक्षसीनी पेठे स्त्रीउथी जय पामता एवा सुदर्शन शेठे बीजा कोश्ना घर प्रत्ये न जवानो निश्चय कस्यो. वली वश्य आत्मावाला श्रने धर्मध्यानमां तत्पर एवा तेणे मूर्तिमंत योगनी पेठे धर्मनुंथाचरण करवा मांड्यु. एक दिवस दधिवाहन राजा, सुदर्शन शेग्ने अने कपिल पुरोहितने Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन शेग्नी कथा. २७५ साथे ल बागमां क्रीडा करवो गयो. पाउल अजयाराणी पण पुरोहि. तनी स्त्री कपिलाने साथे लश् शाणी जेम अनी पाउण जाय तेम राजानी पाबल ग. ते वखते शुदर्शन शेग्नी स्त्री मनोरमा पोताना 3 पुत्रो सहित जाणे गुणयुक्त साम्राज्य लक्ष्मी होय नहिं शुं ? एम रस्ते जती हती; तेने जोश्ने कपिलाए आश्चर्यथी अनयाराणीने पूब्युं. “श्रा उ पुत्रोसहित कोनी स्त्री जाय ?” अजयाराणीए कह्यु. “हे ब्राह्मए! तुं हुं एने पण ओलखती नथी.? ए गृह लक्ष्मीना सरखी सुदर्शन शेउनी स्त्री मनोरमा ." कपिलाए हसिने कह्यु. “ जो ए सुदर्शन शेउनी स्त्री ने तो तेने शेरडीनी पेठे शु फल प्राप्ती होय ? अर्थात् जेम शेरडीने फल थतुं नथी तेम एने पण पुत्ररूप फल होय नहीं; तो पबी था पुत्रो क्यांथी ?” अजयाए कडं. "अरे वाचाल ! एम अयोग्य केम बोले ? राजा श्रने रांक ए बन्नेनुं साधारण लक्षण तो पुत्रज जे.” पनी कपिलाए “ सुदर्शन शेठ नपुंसक .” एम कहेवाथी अजयाए तेने परीक्षा, कारण पूब्युं, ते उपरथी कपिलाए पोतानी सर्व वात कही बतावी. पनी अजयाए कडं. “अरे मुखर्जी ! सुदर्शन शेठे तने तरी बे; कारण धर्मवंत एवो ते शेव परस्त्रीउने विषे नपुंसक बे; परंतु पोतानी स्त्रीने विषे नपुंसक नथी. शुं कमलने संकोच पमाडनारो कुमुदिनीनो पति चंड पुषण श्रापवा योग्य ?" ए प्रकारे श्रजयाराणीए वांदरीनी पेठे इसी काढेली कपिला विलक्षपणुं पामीने पनी मंद मंद वाणीथी बोली. “सुदर्शन शेठे नपुंसकना दंनथी मूर्ख एवी मने बेतरी बे; परंतु हुँ त्हारी चातुरी त्यारे जाएं के, ज्यारे तुं एनी साथे क्रीडा करे.?" अनयाए गर्व धरीने कडं."अरे ! जो एम होय तो में तेनी साथे क्रीडा करेली जाण्य. कारण के जे अनेक एवी राजकन्याउँथी न वश्य थ शके एवो श्रा म्हारो पति दधिवाहन राजा म्हारी कुटीना फरकवाथी वांदराना बालकनी पेठे जमे बे. ज्यारे वैराग्यवंत एवा तापसो पण स्त्रीउनी साथे क्रीडा करे , तो पड़ी निरंतर स्त्रीने विषे श्रासक्त थ रहेला था सुदर्शन शेग्नुं तो शुं कहेवु ? स्त्रीउँना कटाक्षथी एकेंजि एवा वृदो पण पुष्पित थाय ने तो पड़ी चतुर एवा पंचेजिय पुरुषोने कोल पमाडवामां केटलो श्रम थवानो ने ? जो हुं एनी साथे क्रीडा नहिं करुं तो अमिमां Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ शीलोपदेशमाला. प्रवेश करीश." था प्रमाणे प्रतिज्ञा करती एवी ते अजयाराणी बागमां जर त्यां घणो वखत क्रीडा करीने पढ़ी अजया तथा कपिला सांजे पोतपोताने घेर गया. __पनी सुदर्शन शेग्ने विषे जे मन जेनुं एवी अजयाराणीए पोतानी प्रतिज्ञा पोतानी पंडिता नामनी धावमाताने कही एटते तेणे कयु के, " पुत्रि ! तें था सारं काम कझुं नथी; कारण के तुं महात्माउँना धैर्यने जाणती नथी. वली सामान्य श्रावक पण परस्त्रीने विषे बंधुजाव (नाश ब्हेननो नाव) धरावे जे; तो पड़ी सुदर्शन शेठनी तो वातज शी करवी ! ते निरंतर गुरुनी उपासना करनारो अने धर्मध्यानमां एक निश्चल बुद्धिवालो बे; जेथी तेने अहिं लाववो पण अशक्य , तो पड़ी कामनोगनी तो वातज शी करवी ? कयो बुद्धिवान् माणस कांजवाना जलने पीवानी श्छा करे ? अने शशलाना शिंगडा खोलवाने माटे वनमां नटके ? तेमज रूप सौजाग्यना गर्वे करीने पण कोण सुदर्शन शेउना शीलव्रतने नंग करवानो प्रयत्न करे ?” अजयाए फरीथी श्राग्रह करीने कडं. “ हे मात ! गमे तेम करीने तेने एकवार अहिं लाव्य. पली हुँ तने बीजा काममां जोडीश.” पंडिताए विचार करीने कडं. " जो त्हारो श्रावोज निश्चय होय तो में तेने अहिं लाववाने माटे एक उपाय शोधी काढ्यो ते एज के, श्रापम चौदश विगेरे पर्वना दिवसे ते शून्यग्रहने विषे कायोत्सर्गे रहे . ते वखते तेने अहिं लाववो. बीजी रीते तेनो मेलाप थशे नहीं.” अजयाए कडं. हे बुद्धिवंत पंडिते! तें बहु सारं धागुं. तुं यथार्थ नामवाली बे. हवे तो तेजप्रमाणे उपाय करवो. पंडिताए ते वात कबुल करी. पड़ी हमेशां सुदर्शन शेठना शरीर प्रमाण कृत्रिम मूर्तिने अंतःपुरमा लइ जती अने लावती एवी पंडिताए पेहेरेगीरोने विश्वास पमाड्या. ___ एवामां कौमुदी पर्व श्राव्यु; तेथी राजाए पट्टह वगडाबीने सर्व प्र. जाने वनमां क्रीडा करवा जवानी श्राझा करी; परंतु सुदर्शन शेव तो ते दिवसे चातुर्मासिक पर्व होवाथी राजानी श्राज्ञा लश् धर्म कृत्य करवा माटे घेर रह्या. अहिं पंडिताए अजया राणीने कह्यु. “ तमारे पण थाजे वनमां जq नहीं, के जेथी करीने धारेली प्रतिज्ञा सफल थाय." Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन शेग्नी कथा. १७७ ते उपरथी अजया राणी पण " श्राज म्हारं माथु फुःखे ” एवा मीषथी राजाने समजावी घेर रही. कर्वा डे के-"स्त्री सहसा बुद्धिना बलवाली होय . हवे अहिं सुदर्शन शेठ दिवसे देवपूजन विगेरे करीने रात्रीए शून्य घरने विषे कार्योत्सगे रह्या एटले पंडिता त्यां श्रावी तेमने पालखीमा बेसारी अजया राणी पासे लश् गइ. पली श्रृंगाररूप बाणना जाथाने धारण करनारी, कुटीरूप खेंचेला धनुष्यवाली अने कटाक्ष रूप बाणथी तैयार थ रहेली अजयाए ते शेठ उपर निशान मांड्युं. अजयाए कडं के, " हे ना ! घणा कालथी आचरण करेलुं था कुःसह तप श्राजे फलीत थएवं ने माटे हवे इष्ट कार्यने पुर्ण कर.” श्रा प्रमाणे हाश्यवचन बोलती अने अनेक प्रकारनी चेष्टा करती. एवी ते कामातुर थएली राणीए सुदर्शन शेग्ने पोतानी गतीमां घालीने श्रा लिंगन कलुं. ते वखते सुदर्शन शेग्नुं ध्यान वधारे उद्दीपित थवा लाग्यु. कडं जे के-प्रलय कालना वायुथी पण मेरु पर्वत झुंचलायमान थाय खरो ? फरीथी अजयाराणीए कह्यु. " अरे धूर्त ! तुं पोतानी आगल आवी रीते मने क्यांसुधी नचावीश ? हुँ कामरूप हस्तिथी नय पामीने त्हारे शरणे श्रावेली बु. म्हारी उपेदा न कर. त्हारे माटे घणा कालथी खेद पामुं बु. एवो कयो मूर्ख होय के प्राप्त थएला अमृतने वृथा त्याग करे?" धीर एवो सुदर्शन शेठ मनमा विचार करवा लाग्यो के “जो हुँ श्रा संकटथी मूकाईश तोज कार्योत्सर्गने पारीश. नहिं तो अनशन धारण करीश.” अजयाए बाप्रकारे प्रार्थना करतां बतां पण ज्यारे सुदर्शनशेठे न मान्यु, त्यारे तो उत्पन्न थयो ने क्रोध जेने एवी ते कदेवा लागी. " अरे अज्ञान ! तने धिक्कार था ! मने मिथ्या अपमान पमाडतो एवो तुं शुं नथी जाणतो के प्रसन्न श्रयेली स्त्री अमृतसमान डे अने क्रोधयुक्त थयेली स्त्री विष समान डे ? त्हारा श्रावा आचरणथी नि. श्चय हुं त्हारी यमदूती हूं." तेनां धावां वचनथी तो सुदर्शन शेठ महा ध्यानमां वधारे मग्न थयो. कडं बे के-शंकरना नेत्रना थाग्निनो संग उतां पण चंजमा तो अमृत मयज जे. पडी प्रजात थवाथी विलक्ष बनेली अजया पोताना अंगने विषे Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १ शीलोपदेशमाला. नखवडे उफरडा करी सोर करवा लागी एटले तत्काल पेहेरेगीरो श्रावी पहोंच्या अने तेमणे पडिमाधारी एवा शांत सुदर्शन शेठने दीग. पडी ते विचार करवा लाग्या के, “ जेम चंडने विषे विषना कबोलनो संजव थाय नहिं तेम था शेग्ने विषे था पापनो संजव थतो नथी." एम धारीने ते ए ए वात तत्काल राजाने कही; तेथी राजाने त्यां श्राव्यो. __ अजया रोती रोती गद गद् वाणीथी राजा प्रत्ये कहेवा लागी. “ हे देव ! हुं श्रापनी रजा लश्ने जेटलामां अहिं श्रावीने बेठी तेटलामां अवसर विनाना कुष्मांड ( कोला ) फलनी पेठे में थाने म्हारी आगल दीगे. वली ते पुष्ट, मधुर वाणीथी मने पोतानी साथे क्रीडा करवानुं कहेवा लाग्यो. में ना कही एटले तो तेणे बलात्कारथी नखवडे म्हारा शरीरे उऊरडा कस्या, तेथी हुँ शोर करवा लागी. कारण अमारा अबलाजनने विषे बीजुं बल शुं होय ? " राजाए " सुदर्शन शेग्ने विषे श्रा काम असंजवित बे.” एम मानता बता तेमने पूब्युं के “ था कृत्य तमे कमु ? ” सुदर्शन शेठे अजयानी दयाथी कंश पण उत्तर प्राप्यो नहीं. कडं बे के-पीली नाखेलो एवोय पण शेरडीनो सांगे मिष्ट रस आपे ३. पनी “ परस्त्रीगमन, अने चोरीनुं मौन एज लक्षण जे. (अर्थात् परस्त्रीगमन करनारा अने चोरी करनारा जवाब आपता नथी.” एम विचार करीने राजाए तेने विषे दोष थारोपण कस्यो. पठी तेणे क्रोधथी रदकोने आज्ञा करी के, “श्रा शेठना दोषने नगरमा जाहेर करी पड़ी तेने शूली उपर चडावो.” राजाना थावा श्रादेशश्री रदको सुदर्शन शेग्ने केश पकडी बहार लई गया. त्यां तेमना मस्तके करेणनां पांदडां बांध्यां; कंठमां लींबडानां पानना हारो बाध्यां;मशथी मुख श्याम कमु; शरीरे रातो रंग चोपड्यो; वट सुपडानी बत्री धारण करावी अने गधेडा उपर बेसारी वाजींत्रना शब्दपूर्वक सघला नगरमां फेरव्या. ते वखते राजाना रदको उद्घोषणा करवा लाग्या के, " अंतःपुरमां अपराध करनारा था सुदर्शन शे ने शूली उपर श्रारोपण करवा लश् जवाय .” शेग्नी श्रावी स्थीति जो नगरवासी सर्वे जनो विचार करवा लाग्या. " अहो ! राजाए श्रा सारं कडं नथी, कारण एनो श्रावो अपराध होय नहीं. ए कांश कुशील Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन शेनी कथा. १७ए नथी. अपराधीन मुख श्रावं न होय. ते तो निरंतर शून्य गृहने विषे शयन करे बे; माटे जाग्येज तेने अपराधवालो कस्यो बे. हवे शुं ए बहु अव्य श्रापवाथी पण मूकाय खरो ? " श्रा प्रकारे बोलता एवा सर्वे नगरवासी जनो जेटलामा हाहाकार करी रह्या अने खजनो रुदन करी रह्या डे; तेटलामा ते पोताना घर आगल श्राव्यो. तेने जोश्ने सती मनोरमा विचार करवा लागी. " अरे ! म्हारा पतिने आ योग्य ने ? जो चंथी अंगारानी वृष्टि थाय, अग्निथी वर्षाद पडे अथवा सूर्य पश्चिम दिशामां उगे तो पण था म्हारो पति उष्ट कृत्य करे नहीं.” ___ एम विचार करीने ते पोताना घरनी अंदर गश् अने जिनेश्वर प्र. जुनु पूजन करीने कायोत्सर्गे रही. ते एम धारीने के, “ ज्यारे शासन देवता था म्हारा निष्कलंकित पतिने प्राप्त थएलो उत्पात निवृत्त करी सानिध्य करशे त्यारेज हुँ कायोत्सर्गने पारीश. नहिं तो अमारे कुलस्त्रीने अनशन एज श्रेय .” ते वखते शासन देवताए आकाश वाणीथी कडुं. “ हे वत्से ! तुं खेद पामीश नहीं. हुं सुख उपजावीश. " श्रा आकाशवाणी कायोत्सर्गे रहेली मनोरमाए सांजली. हवे रदकोए सुदर्शन शेग्ने नगरमां फेरवीने पढ़ी शूली उपर चडाव्या एटले तो ते शूली मटीने सिंहासन थर गयु; तेथी ते (रक्षको ) तेमने खड्ग अने लाकडीवती प्रहार करवा लाग्या, पण ते प्रहार तो श्रेष्ठीना कंठने विषे हाररूप, मस्तके मुकुटरूप, बन्ने कानमां कुंडलरूप, हाथमां बाजु रूप अने पगमां कडलारूप थया. ते जोश्ने थाश्चर्य पामेला रक्षकोए ए वात राजाने निवेदन करी. ते उपरथी दधिवाहन राजा हाथणी उपर बेसीने त्यां श्राव्यो. पठी अत्यंत क्लेश पामेला शेग्ने आलिंगन करीने राजाए कह्यु. “ हे श्रेष्टिन् ! पोताना प्रजावधी जीवता रहेला तमने में श्राजे दीग ए म्हारां म्होटां लाग्य जे. जेनां अंगनुं रक्षण करवामां धर्मवासना जागृत रहे बे एवा पुरुषोने विषे दिव्य अस्त्रो पण बुंगं थइ जाय , तो पठी म्हारा सरखा पुरुषोनुं तो शुंज कहे. जे निरविवेकी पुरुष स्त्रीउनां वचनमा विश्वास करे बेते म्हारी पेठे क्लेशनो पात्र थाय जे. में बीजाऊना कहेवाथी आपनो जे अपराध कस्यो होय ते दमा करो.” एम कहिने राजा तेने हाथणी उपर Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० शीलोपदेशमाला. बेसारी महोत्सवपूर्वक नगरमां लाव्यो. ते वखते महाहर्षवंत यएला लोको मनोरमाने कड़ेवा लाग्या के, “ तुं पूर्ण सौभाग्यवाली बे, माटे कायोत्सर्गने पार. " पी राजा स्नेहसहित द्रव्य, पुष्प श्रने चंदन विगेरेथी सत्कार करी शेठने सर्व वात पूठी ते उपरथी तेथे यथार्थ वात कही दीधी. पी याने शिक्षा करवा माटे क्रोध पामेला राजाना चरणनो स्पर्श करीने शेठे श्रजयाने अजयदान आपवानी विनंती करी. राजा पण सुदर्शन शेठे देखाडी यापेली जिनधर्मनी प्रजावनाने जाणीने ते जैनधर्मने विषे सक्त थयो. पठी राजाए सुदर्शन शेठने हाथणी उपर बेसारी अनेक मासो सहित वाजते गाजते तेमने घेर पहोंचाड्या. या सघली वात अजयाए सांजली तेथी तेणे फांसो खाइने प्राणत्याग को पंडिता पण पाटलीपुत्र नगरमां जश्ने देवदत्ता नामनी वेश्याने घेर रही. कथं बे के - तेवां पात्रोने एवुंज स्थान योग्य d. पंडिता ते देवदत्ता वेश्यानी आगल सुदर्शन शेठनां हमेशा वखाण करती; ते उपरथी तेणे कथं के, " जो हुं तेने ( सुदर्शन शेवने ) देखुं तो पी मानुं. "" हवे अहिं सुदर्शन शेठे पण संसारथी वैराग्य पामीने चारित्र धारण क. एक दिवस ते विहार करता करता पाटलीपुत्र नगर प्रत्ये गया. त्यां देवदत्ता श्राविकानुं रूप धारण करी पारणाना मीषथी तेमने पोताने घेर थी वहोरवा तेडी गई. कयुं वे के साधु हमेंशा सरल स्वजाववाला होय . पी बारणुं बंध करी ते वेश्या मुनिने पीडा करवा लागी; परंतु जेम रत्ननो दीवो वायुथी विकृति पामे नहिं तेम ते मुनि वेश्याए करेला उपसर्गथी चलायमान थया नहीं. बेवट सांजे बोडी मूक्या तेथी ते महात्मा श्मशान प्रत्ये जश्ने कायोत्सर्गे रह्या. त्यां पण व्यंतरी थई रहेली अजयाए बीजी पोतानी सहचरी सहित क्लेशना कारणरूप वैर सेवा माड्यं एटले सुदर्शनमुनिने शुभध्यानथी केवलज्ञान उत्पन्न थयुं. ते वखते देवताए तेमनो केवल महोत्सव करयो; तेथी ते मुनि सहस्त्र पत्रवाला कमल उपर बेसीने धर्मदेशना देवा लाग्या. तेमणे मोना कारणरूप साधु ने श्रावकनो धर्म निरूपण करया पढी केटला - Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंकचूलनी कथा. ११ के चारित्र अंगीकार कलुं अने केटलाके श्रावक धर्म आदस्यो. व्यंतरी अजयाए पण ते वखते श्रावक धर्म अंगीकार कस्यो भने देवदत्ता वेश्या तथा पंडिता पण बोध पामी. ए प्रकारे सुदर्शन मुनि पृथ्वी उपर विहार करता बता अनेक जव्य जीवोने संसारसमुप्रथी तारी अने शीलव्रतना अतुल एवा प्रजावने स्थापन करी अंते मोदलक्ष्मीने पाम्या. ॥शति सुदर्शन शेउनी कथा समाप्ता॥ हवे चोर पण शील पालवाथी सुगतिर्नु पात्र थाय , ते कहे . यः अन्यायरतोऽपि एव नृपनार्याप्रार्थितोऽपि नापि क्षुब्धः जो अन्नायरवि हुँ, निवनजापबिनवि नवि ख़ुशे॥ शीलनियमानुकूलः सः वंकचूलः गृही जयतु . सीलनियमाणुकूलो, सँवंकचूलो गिदी जयन॥४६॥ शब्दार्थ-(जो के०) जे (अन्नायरवि के ) अन्यायने विषे प्रीतिवालो एवोय पण अने (निवनजा के०) राजानी स्त्रीए (पबिनवि के०) कामने माटे प्रार्थना करेलो एवो पण (हु के०) निश्च( नवि खुको के) न ज दोन पाम्यो. (स के०) ते (सीलनियमाणुकूलो के०) शीलव्रतना नियमने अनुसरीने रहेलो एवो तथा (गिही के०) गृहस्थाश्रामी एवो (वंकचूलो के०) वंकचूल ( जय के०) जयवंतो वत्तों. ॥ ४५ ॥ विशेषार्थ- जे चोरी करवामां प्रीतिवालो, चोरी करवा माटे राजाना घरमा पेठेलो अने राजाथी रीसाइ गएली पट्टराणीए विषयने माटे प्रार्थना करेलो उता पण ब्रष्ट थयो नहि तेज शील पालवामां केड बांधीने तैयार थएलो, गृहस्थाश्रमी एवो वंकचूल नामनो चोर था जगत्मां जयवंतो वत्तॊ. ॥४५॥ , वंकचूलनी कथा, श्रा जरत क्षेत्रमा समृजिवाला पुरुषोने पुण्यबीजना अंकुरनी पेठे सेवन करवा योग्य रथनूपुर नामर्नु नगर डे. त्यां जेना प्रतापरूप सूर्यनी आगल सूर्य पण अमिना तणखा शरखो देखातो हतो एवो भने शत्रु Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ शीलोपदेशमाला. ने ताप पाडनारो विमलयश नामनो राजा राज्य करतो हतो. ईने इंद्राणीनी पेठे ने शंकरने पार्वतीनी पेठे ते राजाने मांगल्य कलाना याश्रय रूप सुमंगला नामनी पट्टराणी हती. तेजने वकचूला नामनी पुत्री ने फुर्नयने लीधे श्रग्मिनी ज्वलाना सरखो क्रूर वंकचूल नामनो पुत्र हतो. अनुक्रमे ते पुत्र ज्यारे युवावस्था पाम्यो त्यारे पिता तेने चंद्रने रोहिणीनी पेठे रूप अने गुणथी अद्भुत एवी एक राजकन्या साये पराव्या. परंतु ते संताप करनार, दुःशील अने न्यायमार्गनो - जाण होवाथी पिताए तेने निर्गुण एवा अपयशनी पेठे घरमांथी काढी मूक्यो एटले तो बालवैधव्यथीज बली रहेली वंकचूला पण पोताना जाइना मोहथी जेम अन्यायनी साथै पापबुद्धि जाय तेम तेनी साथे चाली. वकचूल पोताना अंगना केटलांक वस्त्रालंकार लइ बहेन तथा ने साथे ते त्यांथी चाली नीकल्यो. अनुक्रमे ते जमतो जमतो एक म्होटा अरण्यमां श्रावी चड्यो. त्यां तेणे यमदूतना सरखा केटलाक धनुष्यधारी जिल्लोने दीठा. पती श्राकृतिथी राजा सरखो जाणीने सर्वे निल्लोए तेने नमस्कार करी श्रादरथी ववानुं कारण पूब्युं. कुमार वंकचूले पोतानी सर्व बात कही थापी; तेथ हर्ष पामेला सर्वे निलो तेने कहेवा लाग्या के, “ मारो स्वामी पल्लीपति मृत्यु पाम्यो बे; माटे हवे ते पद तमे अंगीकार करो. " वंकचूल तेज॑नां वचन अंगीकार करी पलीमां गयो ने पल्लीपति थयो. पबी ते पापकर्मना उदयश्री जिल्लोनी साथै पृथ्वी उपर लुंट करतो बतो परा क्रमे करीने म्होटी प्रसिद्धि पाम्यो. एकदा चंद्रयशा नामे सूरी सात साधुसहित सार्थवाहथी मूला पडीने जमतां जमतां त्यां यावी चड्या. एवामां प्रवासीउने कालसरखो वर्षाकाल व्यो ने स्तनोना नारथी नमी गयेली जुवान स्त्रीनी पेठे श्राकाश शोजवा लाग्युं. पृथ्वीमांथी खल पुरुषोना अपराधोनी पेठे अंकुरो उत्पन्न थवा लाग्या अने सर्वे मार्गों जीवना संचारवाला थ‍ गया. पी विहार करवो अयोग्य जाणीने सर्वे साधु पल्लीमां श्राव्या. राजपुत्र वंकचूले तेमने महाहर्षथी वंदना करी एटले साधुए तेने धर्मलान कही ने पढी तेनी पासे वसतिनी याचना करी ते उपरथी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंकचूलनी कथा. वंकचूले उत्तर श्राप्यो के, “इष्टस्थान ग्रहण करीने मरजीप्रमाण रहो, परंतु हे जगवंतो ! तमारे कृपा करीने म्हारं एक वचन अंगीकार कर, थने ते एज के, तमारे क्यारे पण अमने धर्मदेशना देवी नहीं; कारण के तमे हिंसारहित एवा धर्मनी देशना आपो बो अने अमारी हिंसा एज आजीविका .” साधुए ए वात कबुल करी थने तेणे आपेली वसतिमां निवास करी स्वाध्याय विगेरे धर्मकार्य- आचरण करता चार मास निवर्त कस्या. __पड़ी ते साधु राजपुत्रनी श्राझा लइ विहार करवा निकल्या. राजपुत्र पण धर्मदेशना न श्रापवारूप पोतानी आज्ञा पालवाथी प्रसन्न थश्ने सीमाडासुधी तेमनी पाउल गयो. पनी त्यांची पाढा वलता एवा ते राजपुत्रने साधुए मधुर वाणीश्री कयु. “ हे राजपुत्र ! अमे त्हारी सहाय्यथी आ गाममां चार मास सुखे करीने निवृत्त कस्या बे; माटे प्रीतिथी त्हारो उपगार करवाना कारणे तने था लोक अने परलोकमां शुज फल थापनारा नियम आपवानी श्छा करीए बीए." राजपुत्रे कझुं. हे जगवंत ! ते म्हाराथी शी रीते पाली सकाशे ?" मुनिए कडुं. “ शक्तिप्रमाणे ग्रहण करवा. बहु श्राग्रह करवो नही. १ ज्यारे तुं जीवनो वध करवानो उद्यम करे त्यारे सात पगलां पागे हठीने पळी त्हारी मरजीप्रमाणे श्राचर. २ जे फलनुं नाम तुं जाणे नहीं ते लक्षण करीश नहीं. (अजाण्यु फल खाइश नहीं.) ३ राजानी पट्टराणीने माताना सरखी गणवी. ४ को दहाडे कागडानुं मांस खावू नहीं. हे राजपुत्र ! था नियमो घणा पालवा योग्य ; माटे त्हारे प्रयत्नथी पालवा.” पड़ी राजपुत्रे (श्रा महाप्रसाद बे.) एम कहीने ते नियमोनो खी. कार कस्यो एटले महा गुणवंत एवा ते मुनिए विहार कस्यो. ___ को वखते उनालानी ऋतुमां पसीपति राजपुत्र वंकचूल केटलाक जिल्बोने साथे लश को एक गाम खुंटवा निकल्यो; पण तेना पहोंच्या पहेला गामना लोको खबर पडवाथी नासी गया हता; तेथी ते जुख्याने तरश्या बपोरना वखते पागा फख्या. पली दीन थर गयां ने मुख जेमना एवा केटलाक निलो रस्तामा एक वृक्ष नींचे बेग अने केटलाक फल तथा पाणीनी शोध करवा लाग्या. एवामां तेजेए पाकेला फ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ शीलोपदेशमाला. लोथी नमी रहे किंपाक वृद दी. पड़ी था फलो खावाश्री शं परिणाम थशे, ए वातथी श्रजाण्या एवा जिल्लोए ते फलो लावीने वंकचूल आगल मूक्यां. वंकचूले पण पोतानो थनिग्रह संजारीने ते ने पूब्यु. " था फलोनुं नाम शुं ? अने ते शेनां फल ?" जिल्लोए उत्तर श्राप्यो के, “ ते तो अमे जाणता नथी; पण था फलो घणां मीठां " वंकचूले कपु. “ हुँ अजाण्यां फल खातो नथी.” निबोए फरीथी कह्यु. "हे देव ! हवां जुखथी मरवानो वखत , माटे आ फलो खाउँ; कारण जो जीवता रहीशुं तो फरीथी पण नीयम लेवाशे.” वंकचूले धीरज राखीने कडं के, “ तमारे आवां वचन क्यारे पण बोलवां नही; कारण लक्ष्मीनो जले नाश था; प्राणो चाल्या जा; परंतु पोतानुं कहेवू मिथ्या न था." पली सर्वे निलो ते फलो खाइ एकांतमां जश्ने सूता. फक्त वंकचूले श्रने दाक्षिण्यताने लीधे एक सेवके ते फलो खाधां नहीं. पनी अरधि रातना वखते राजकुमारे उठीने पोताना सेवकने कत्युं. " जा सर्व जिहोने जगाड." सेवके निदो पासे श्रावीने जेटलामां जगाडवा मांड्या तेटलामां तेने मरी गयेला दीग. तेणे राजपुत्रने ए वात कही एटले ते पण विस्मय पाम्यो. पली हर्ष श्रने शोक युक्त थएलो ते वंकचूल हाथमां तरवार लइ पोताना घर तरफ चाल्यो. घरनी पासे श्राव्यो पण बारणां बंध होवाथी तेणे कमाडना बिउमाथी जोयुं तो अंदर दीवो बलतो हतो; तेथी तेणे को पुरुषनी साथे पोतानी स्त्रीने सूतेली दीठी. पळी ते अत्यंत क्रोध पामी तरवार खेंची परां उपर थर अंदर उतस्यो. पड़ी ते जेटलामा तरवार उगामी बन्नेने मारवा जाय तेटलामां सात पगला पाला हठवानो गुरुए श्रापेलो नियम संजारी ते सात पगलां पाबो हव्यो; जेथी उगामेली तरवार बारणमां अथडावाना शब्दश्री जागी उठेली वंकचूलाए तेने एकदम पूज्युं के, " तुं कोण जे ? श्रने अहिं केम श्राव्यो ?” वंकचूले ब्हेननो शब्द उलखी खड्ग संताडीने पूज्यु. " तें पुरुषनो वेश शाकारण माटे धारण कस्यो ?” तेणे उत्तर श्राप्यो के, " अवसरना अर्थी नट लोको नृत्य करवा श्राव्या हता. ते कोण ? साचा नटलोको डे के पसीने रेढी जाणीने लुट करवा था Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वकचूलनी कथा. ԵԱ वेला बीजा कोई दुश्मनो बे ? " श्रावा विचारथी हुं व्हारा लुगडां पहे पुरुषनो वेश धारण करी सजामां गइ. त्यां घणो वखत तेज॑नो नृत्य जोने पढी द्रव्य वस्त्र विगेरेथी तेउने संतोष पमाडी घरे श्रावी प्रमादने लीधे पुरुषनो वेश त्याग करया शिवाय हुं तेमनी तेमज म्हारी जोजाइ नेगी सुइ गइ. " कचूले क. " धन्य बे ते गुरुजने के, जेमणे मने तारवाने माटे नियमो श्राप्या बे. प्रथम अजाण्यां फल खावां ए नियम पवाथी तेमणे म्हारो पोतानोज उद्धार कस्यो बे. बीजी जीवहिंसा करतां सात पगला पाढा खसवाना नियमे करीने मने व्हेन तथा स्त्री हत्याथी बचाव्यो छे. अहो ! तेज महात्मा जाणवा के, जे पोते तरे वे अने बीजाने तारे बे. वली धिक्कार तो श्रमनेज बे के, जे श्रमोए तेमनो धर्मोप्रदेश पण सांजल्यो नहीं. " sa सर्वे म जवाथी पोते एकलो रहेलो वंकचूल शत्रुना ज यी पलीनो तृणनी पेठे त्याग करी उजयिनी नगरीमां आव्यो. त्यां पण कोइ शेठने घेर पोतानी बहेन तथा स्त्रीने मूकीने पोते चोरीनो धंधो करवा मांड्यो. चोरी करवामां कुशल एवो ते हमेशां धनवंतोनां घरमां खातर पाडतो; परंतु क्यारे पण पकडातो नहीं. एक दिवस तेणे विचार करयो के, " एक कोडीने माटे पण पोताना पुत्रोने मारनारा एवा वेपारीना धनने धिक्कार बे. परद्रव्यना लालचु एवा निक्कुक ब्राह्मणो पण उपेक्षा करवा योग्य वे तो पढी थोडामांथी थोडं चोरी लेनारा सोनी लोकोनी तो वातज शी करवी. वली उत्तम पुरुषोने निंदा करवायोग्य एव वेश्यानुं धन शा कामनुं बे ? कारण के, जे वेश्या धननी इछाथी कोढी या माणसने पण कुबेर सरखो माने बे. माटे हवे चोरी करवी तो राजाने घेरज करवी. कारण जो ते सफल थाय तो छा दय द्रव्य मले ने सफल न थाय तो दीर्घ कालनो यश मले. " एवो विचार करीने वर्षाकालने विषे ते वनमांधी एक धरोली लाव्यो अने तेना पुंडाने कालीने राजाना मेडेल उपर चढ्यो. त्यांथी ते तत्काल राजाने रहेवाना मंदिरमां गयो. त्यां तेने कोइ एक मनोहर स्वरूपवाली स्त्रीए दीठो ने पूब्यं के, “ तुं कोण बे ? ” वंकचूले जवाब थाप्यो के, २४ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ शीलोपदेशमाला " हुँ चोर हूं." स्त्रीए फरीथी पूज्यु. "तुं शुं लेवानी श्छा करे .?" तेणे उत्तर प्राप्यो के, “मणि श्रने रत्न विगेरे.” पठी वंकचूलनुरूप जोश्ने मोद पामेली स्त्रीए कह्यु. “ बीजा चोर तो रत्न विगेरेने चोरी से डे अने तें तो म्हारुं चित्त चोरी ली, जे तेथी तुं खरेखरो चोर बे. तुं म्हारी साथे क्रीडा करे तो हुँ तने अनेक रत्नो श्रापुं.” वंकचूले पूज्युं. "तुं कोण ?” स्त्रीए कह्यु के, “हुँ राजानी पट्टराणी बु. म्हारा सौजाग्यथी राजा गुस्से थयो बे; माटे स्त्रीरूप धनथी रहित एवो तुं मने अंगीकार करीने पोताना श्रात्माने सफल कर." पठी " राज्यस्त्री जोगववा योग्य नथी.” एम पोताना नियमनो विचार करीने वंकचूले तेने कह्यु. “तुं सर्व प्रकारे म्हारी माता समान . स्मार्तो पण कहे जे के राजपत्नी गुरोःपत्नी, मित्रपत्नी तथैवच ॥ पत्नीमाता स्वमाता, चपंचैता मातरःस्मृताः॥ अर्थ-राजानी स्त्री, गुरुनी स्त्री, मित्रनी स्त्री तेमज पोतानी स्त्रीनी मा अने पोतानी मा ए पांच माताऊं कही . राजानी स्त्रीए कडं. “ हे मूर्ख ! तुं वृथा उपेदा न कर. हुं त्हारा स्वाधिन थएली बु.” था प्रकारे घणी वार सुधी समजाव्या बता पण ज्यारे वंकचूल जरा पण दोन पाम्यो नहीं त्यारे तो तेणे क्रोध करीने कडं. "जो तुं म्हारी श्छा प्रमाणे नहीं करे तो तने पोताने बाजे यमराज कोप्यो जे एम जाणी तेने उत्तर श्रापवानो विचार कर. " श्रा सघली वात राजा नीचेना माले सूतो सूतो सांजलतो हतो. पनी राणीए नखवडे पोताना शरीरे उफरडा करी सोर करवा मांड्यो के, "श्ररे ! श्रा को पुरात्मा चोर के जार अहिं पेगे .” राणीनां श्रावां वचन सांजली खड्ग धारण करनारा केटलाक रदको श्रावी पहोच्या. "अरे क्या डे! क्यां ! ! जालो! कालो!!” एवा शब्दनो उच्चार करनारा ते सुजटोने राजाए थाज्ञा करी के, "एने मारशो नहीं; परंतु बांधी राखो.” पनी राजाए पण राणीना विचारमांज श्राखी रात्री निर्गमन करी. सवारे सजामां श्रावीने राजाए चोरने बोलायो एटले सुजटो तेने बंधनमांथी मुक्त करी त्यां लश् गया. पढी राजाए तेने पूज्युं के, " कोश माणसथी न जश् शकाय एवा म्हारा मेहेलमां तुं केम पेगे हतो ?" Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंकचूलनी कथा २७ वंकचूले उत्तर श्राप्यो के, “ हे देव ! बीजाउँने त्यां खातर पाडवाथी खेद पामेलो हुं अव्यना मोहथी घरोली- पुंकु काली आपना महेल उपर चड्यो हतो. त्यां बीलाडी जेम दूधने देखे तेम महादेवीए मने दीगे. हे राजन् ! श्राप म्हारा उपर दया करो; कारण पोते बलवंत बतां पड़ी विग्रह शो ?” राजाए कह्यु. " हुँ त्हारा उपर प्रसन्न थएलो बु; माटे श्रा म्हारी पट्टराणी तने आपुं बुं; तेने तुं ग्रहण कर.” चोरे कडं. “ हे देव ! जे श्रापनी पट्टराणी, ते म्हारे माता समान बे." तेनां श्रावां वचन सांजली राजाए क्रोधथी रक्षकोने श्राज्ञा करी के, “एने शूली उपर चडावी मारी नाखो.” राजाए श्राप्रमाणे कयुं तो पण ते चोर जेम सम्यक्त्वने धारण करनारो पुरुष न्यायथी चले नहीं तेम पोताना धारेला अनिग्रह (नियम) थी चल्यो नहीं. राजाए गुप्तरीते सुजटना नायकने समजाव्यो के, “ एने मारवो नथी; पण फक्त जय देखाडवो ." पड़ी चोरने नगरीमा फेरवी शूली पासे लश् गया थने तेना उपर चडाववाने माटे पण तैयार कस्यो उतां ते पोताना अनिग्रहने काली रह्यो, तेथी सुनटो तेने पालो राजा पासे लाव्या. राजाए प्रसन्न थ तेने पुत्रसमान मानी युवराज पदवी थापी. पड़ी तो ते वंकचूल पोतानी स्त्री अने ब्हेनसहित सुखेथी रहेवा लाग्यो. वली ते विचार करवा लाग्यो के, "मने धन्य डे; म्हारो मनुष्यजन्म सफल थयो बे; परंतु जो ते मुनिने फरीथी दे तो हुँ निश्चय तेमनी पासे उत्तम धर्म श्रादरूं.” था प्रमाणे ते विचार करतो हतो, एवामां ते चंयशा सूरि विहार करता करता त्यां श्राव्या. वंकचूले तेमनी वंदना करी धर्मोपदेश सांजल्यो. पली ते दिवसथी श्रारंजीने जेना अरिहंत प्रजु देव जे; साधु गुरु ने श्रने जीवदया धर्म . एवो ते वंकचूल श्रावकधर्म पालवा लाग्यो भने गीतार्थ श्रावक थयो. पड़ी तो साधु श्रने सामि श्रावक विगेरेना जक्त श्रने देवपूजा करवामां तत्पर एवा ते वंकचूलने उजायिनी नगरीनी पासेना शाली गाममा रहेनारा जिनदास नामना श्रावक साये घणी मित्रा थ. को वखते वंकचूले को एक महा जयंकर एवा पसीपतिनी साथे Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. रणसंग्राममां युद्ध करीने तेने मास्यो, परंतु पोते पण घणा घा वागवाथी जर्जरित थईने घरे श्राव्यो. घणां औषधो कस्यां पण पीडा तो वधारेने वधारे थवा लागी. वट वैद्योए कह्यु के, “ जो एने कागडानुं मांस खवरावे तो घा रुका जाय.” ए उपरथी राजाए कागडाने मारी तेनुं मांस लाववानो पोताना सेवकोने हुकम कस्यो. ते सांजली कुमार वंकचूले कडं. “मने कागडानुं मांस न खावानो नियम .” राजाए कह्यु. " हे वत्स ! जो तुं जीवतो रहीश तो वारंवार नियम लेवाशे; परंतु जो मृत्यु थयुं तो श्राज देह कागडा भने कुतराउने लक्षण करवा योग्य थशे.” राजानां आवां वचन सांजली कुमार वंकचूसे तो निश्चयथीज कडं के, “ जो म्हारं जीवित जतुं होय तो जवा यो, पण हुं ते काम तो करीशज नहीं.” ..पनी राजाए पोताना सेवकोने पूज्युं के, “ एनो कोश मित्र ने ? ” सेवकोए जवाब थाप्यो के, “ हा महाराज ! शाली गाममां रहेनार जि. नदास नामनो श्रावक एनो परम मित्र .” पली राजाए तेने बोलाववा माटे पोताना सेवकने मोकल्यो; तेथी मित्रने विषे प्रीतिवालो जिनदास पण घरेथी निकट्यो. रस्तामा एक वृदनी नीचे बेसीने रुदन करती एवी बेस्त्रीउँने जोश्ने तेणे पूज्युं के, "तमे शा माटे रुदन करो हो ?" तेजेए उत्तर थाप्यो के, “ अमे सौधर्म देवलोकमां रहेनारी अने पतिविनानी देवी बीए. जो वंकचूल कागडानुं मांस लक्षण कख्या विना मृत्यु पामशे तो ते श्रमारो पति यशे; परंतु तेने कागडानुं मांस लक्षण करवाने राजाए तने बोलाव्यो . हे ना ! हवे जो ते कागडानुं मांस जक्षण करशे तो ते अमारो पति थशे नहि, तेथी श्रमे पति विना रही सकशुं नहिं थाटला माटे अमे रुदन करीए बीए. पनी "हुं तेने का. गडाना मांस भक्षणनो उपदेश नहि करूं.” एम कहीने जिनदास उ जयिनी नगरीमा जश् श्रादरथी पोताना मित्रने मल्यो. राजाए जिनदासने कह्यु. “ आने समजावीने कागडानुं मांस जक्षण कराव्य. " जिनदासे वंकचूल सामुं जोश्ने राजाने कयु. “ महाराज ! आने धर्म रूप औषध करवू योग्य , तेमां पण वार करवा जेवू नथी." पली धर्मतत्वने जाणनारो वंकचूल श्राराधना पूर्वक साधर्मिकादिकने Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वकचूलनी कथा. १८९ विषे द्रव्य वापरतो, समाधिवडे पुण्यनुं अनुमोदन करतो, दुःष्कृतने निंदतो ने जीवोने खमावतो मृत्यु पामीने बारमा देवलोकमां बावीश सागरोपम श्रायुष्यवालो देवता थयो. " हवे मित्र जिनदास, कचूलनुं उत्तरकार्य करीने पढी पोताने गाम जवा निकल्यो. रस्तामां तेणे तेज वृक्षनी नींचे रुदन करती एवी तेज बे ने देखीने पूब्युं. “ में वंकचूलने कागडानुं मांस जक्षण कराव्युं नथी; बतां तमेशा माटे रुवो हो ? " स्त्रीउए उत्तर आप्यो के, " तमे मांस जप करावयुं नथी; परंतु एवं कस्युं बे के (अर्थात् एवो धर्मोपदेश दीधो के) ते अमने त्याग करीने बारमा अच्युत देवलोक प्रत्ये चाल्यो गयो. " पढी ते दिवसथी आरंभीने जिनदास जैनधर्ममां दृढ मनवालो थयो . कयुं बे के प्रत्यक्ष दीवा पढी कयो पुरुष शादिनी वाट जुए. ए प्रकारे राजानी स्त्रीने विषे शीलवतने पालन करवाथी म - हा समृद्धिवान् थलो कचूल ग्रहस्थाश्रममां रह्यो बतो या लोकमां ने परलोकमां सुखनो जोक्ता थयो. ॥ इति वंकचूलनी कथा ॥ हवे गृहस्थाश्रममां रहेली महासतीजना शीलप्रजाव कड़ेवा माटे ते स्त्रीजना गुणनुं चार गाथाए करी वर्णन करे बे. महिला धवलयति त्रिष्यपि कुलानि अलिय सीलविमला, महिला धवेलेइ तिन्निवि कुलाई ॥ अस्खलितशील विमला इह परलोकेषु तथा यशः असमसुखं च प्राप्नोति इद परलोएसु तेदा, जस मसमसुदं चं पावे ॥ ४७ ॥ शब्दार्थ - ( अरक लियसील विमला के० ) अखं मित एवा शीलेकरीने निर्मल एवी ( महिला के० ) स्त्री जे बे ते ( तिन्निवि कुलाई के० ) मा - ता, पिता ने ससराना त्रष्ये कुलोने पण ( धवलेश के० ) उज्वल करे d. ( च के० ) अने ( इह के० ) या लोकने विषे ( जसं के० ) जशने ( तहा के०) तथा (परलोएस के०) परलोकने विषे ( समसुदं के० ) जेनी बराबरी बीजं को यह शके नहि एवा सुखने ( पावेश के० ) पामे बे. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० शीलोपदेशमाला. विशेषार्थ- अतिचार रहित एवं श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यव्रत पासवाथी निर्मल यएली स्त्री माता, पिता अने ससराना ए त्रण्ये कुलोने निर्मल करे . अर्थात् त्रण्ये कुलोने प्रकाश करे जे. वली ते स्त्री कुलोनो प्रकाश करी पोतेज केवल वखाणवा योग्य थाय ने एम नहि, पण ते स्त्री थालोकमां कीर्ति श्रने परलोकमा जेनी बरोबर बीजं को पण सुख थश् शकतुं नथी एवा वर्ग अथवा मोदना सुखने पामे . अर्थात् था लोकमां ब्रह्मचर्यना माहात्म्यथी मनुष्योमां वखाण पामे बेथने परलोकमां ब्रह्मचर्यना सामर्थ्यथी वर्ग अथवा मोक्षना सुखने पामे ॥ ७ ॥ या निजकांतं मुक्त्वा स्वमेऽपि न ईहते नरं अन्य जानियेकंतं मुत्तं, सुविणेवि न ईईए नर अन्नं ॥ आबालब्रह्मचारिणां सा ज्ञषीणामपि स्तवनीया आबालबंनयारी-ण सो रिसीपि वणिजा॥४॥ शब्दार्थ- (जा के०) जे स्त्री (नियकंतं के०) पोताना खामीने (मुत्तुं के०) मूकीने अर्थात् पोताना स्वामी विना ( सुविणेवि के) स्वप्नने विषे पण (अन्नं नरं के०) बीजा पुरुषने ( न ईहए के०) नथी श्वती. ( सा के) ते स्त्री (थाबालबंनयारीण के०) जन्मथी मांडीने ब्रह्मचारी एवा ( रिसीणंपि के०) झषियोने पण (थवणिजा के०) स्तुति करवा योग्य .॥ ४ ॥ विशेषार्थ- जे स्त्री पोताना पतिने मूकीने अर्थात् पोताना स्वामी विना खप्नमां पण बीजा पुरुषने नथी श्वती. अर्थात् जे स्त्री जन्मथी मांडीने मन वचन कायाए करी पोताना पतिनेज सेवे. ते महासती स्त्री जन्मश्री मांडीने ब्रह्मचारी एवा महर्षि पुरुषोने पण स्तुति करवा योग्य थाय . ॥ ४ ॥ हवे शील नहि पालनारी स्त्री माटे कहे जे. परपुरुषसेविन्यः कुतरमण्यः नवंति यदि लोके परपुरिससेविणीन, कुलरमणी देवंति जर लोए तदा वेश्यादाशीनां प्रथमारेखा कुलवधूषु तो वेसीदासीणं, पढमारेदा कुलवदूसु ॥४॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए मूलगाथान. शब्दार्थ- (जर के० ) जो (लोए के० ) लोकने विषे (कुलरमणी के० ) कुलस्त्री जे जे ते ( परपुरिससे विणी के० ) अन्य पुरुषने सेवनारी ( हवंति के० ) थाय . ( ता के ) तो (कुलवहूसु के०) कुलस्त्री नेविषे (वेसादासीणं के० ) वेश्यास्त्रीउनी दासीनी ( पढमारेहा के ) प्रथम रेखा ( निशानी ) जाणवी. ॥ ४ ॥ विशेषार्थ- जो लोकने विषे कुलवंती स्त्री परपुरुषने सेवनारी थाय बे, तो कुलवंती स्त्रीउने विषे वेश्या दासीनी ते प्रथम रेखा (पहेली निशानी ) जाणवी. अर्थात् ज्यारे कुलस्त्री परपुरुषनी सेवा करे, त्यारे कुलस्त्रीउमां अने वेश्यानी दासीमां कांश फेर रहेतो नश्री. ॥४॥ हवे सहज निंदा करवा योग्य स्त्रीने प्रशंसानुं कारण कहे . तुम्बापि रमणिजातिः प्रशंसनीया सुरासुरनराणां तुबावि रमणिजाई, पसंसणिका सुरासुरनराणं ॥ विहिता महासतीनिः कानिरपि अतिविमलशीलानिः विहिया महासहिं, कादिवि अविमलसीलाहिं ॥५॥ शब्दार्थ- (अविमलसीलाहिं के०) अतिशय निर्मल शील जेमनां एवी ( काहिवि के) कोई पण (महासहिं के०) महासतीए करीने ( तुझावि के० ) तु एवीय पण ( रमणिजाई के०) स्त्रीजाति जे जे ते ( सुरासुरनराणं के० ) देव, दानव श्रने मनुष्योनी मध्ये ( पसं. सणिजा के० ) वखाणवा योग्य ( विहिया के० ) कही बे. अर्थात् म. हासती स्त्रीवडे तुब एवी स्त्रीजाति देव, दानव थने मनुष्योनी स. नामां वखाणवा योग्य थ . ॥ ५० ॥ विशेषार्थ- अतिशय निर्मल शीलवाली कोइ पण महासती स्त्रीए करीनेज तुछ एवी स्त्रीजाति देव, दानव अने मनुष्योनी सजामां वखाणवा योग्य थर . अर्थात् शीलनी परीक्षाने वखते आश्चर्य उत्पन्न करनारी महासती स्त्रीज स्त्रीजातिने त्रण लोकमां वखाणवा योग्य करे . बाकी स्त्रीजातिनुं निंद्यपणुं तो जगत्मा प्रसिक जे. ॥५०॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए शीलोपदेशमाला. हवे ते स्त्रीठमां सीतासतीनुं दृष्टांत कहे. निजशीलमहामंत्रेण प्रबखज्वलनं जलं कुर्वत्याः नियसीलमहामंते-ण पबैलजलणं जलं कुणंतीए ॥ शीलोद्घोषणपटहः अद्यापि धनत् ध्वनति सीतायाः सीलग्घोसणपडदो, अङवि ऊपदणसीयोए॥५१॥ शब्दार्थ- ( नियसीलमहामंतेण के० ) पोताना शीलवतरूप महामंत्रे करीने ( पबलजलणं के०) अतिशय धखेला खेरना थंगाराने (जलं कुणंतीए के०) जल (पाणी) करती एवी ( सीयाए के० ) सीताना (सीलग्घोसणपडहो के०) शीलनो उद्घोषण करतो एवोउंकुनि जे ते (श्रावि के) आज सुधी पण (ऊणदणश के) वागे . ॥५१॥ विशेषार्थ- रामचंअजीए रावणने मारीने पाठी लावेली पोतानी स्त्री सीता सतीने शीलव्रतना नंगनी शंका मटाडवा माटे अग्निमां प्रवेश कराव्यो; ते वखते पोताना शीलवतरूप महामंत्रना प्रजावधी अतिशय धखेला खेरना अंगाराने पण जल करती अर्थात् ते अग्निथी उत्पन्न थएखा पाणीनी उपर सुवर्ण कमलनी उपर तरती एवी जनकराजानी पुत्री सीतानो शीलवतथी उत्पन्न थएलो यशरूपी पटह जय जय शब्द करतो सतो थाजसुधी पण वागे जे ॥५१॥ श्रा सीतार्नु चरित्र श्रागल रावणना चरित्रमा कदेशे. हवे शीलवतना माहात्म्यना चमत्कारने कहे जे. चालनीधृतजलया संघमुखोद्घाटनं कृतं यया चौलणिधरियजलाए, संघमुहुग्घामणं केयं जीए॥ चपापारोदूघाटनमिषेण नंदतु सुजना सा. चंपोदारुग्धामण-मिसेण नंदन सुनहा सा ॥ ५॥ शब्दार्थ- ( चालणिधरियजलाए के० ) चालणीमां धारण कहुं डे जल जेणे एवी ( जीए के० ) जे सुनाए (चंपादारुग्घामणमिसेण के०) चंपानगरीना धार (दरवाजा) उघाडवाना मिषे करीने (संघमुहुग्धामणं कयं के०) संघना मुखने प्रकाशित कसु. (सा सुनद्दा केण्) ते सुजा ( नंदन के०) दीर्घ श्रायुष्यवाली थाउं.॥५५॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनशनी कथा. २९३ विशेषार्थ-सूतरना तांतणाथी बांधेली चालणीए करीने कूवामांथी पाणी काढी, चंपा नगरीना दरवाजा उघाडवाथी संघना मुखने प्रकाशित करनारी अर्थात् जिनशासननी प्रनावना करनारी जिनदत्त शेउनी पुत्री सुनसा दीर्घायुष्यवाली था. ॥ ५॥ ॥सुनजानी कथा ॥ जेमां पुण्यना अंकूरसरखी जैनमंदिरोनी पंक्ति शोजी रही हती एवं श्रा जरतक्षेत्रने विषे पृथ्वीना श्रानूषणरुप वसंतपुर नामर्नु नगर बे. त्यां कामदेवना सरखो रूपवंत जितशत्रु नामनो राजा राज्य करतो हतो. ते नगरमां प्रसिद्ध वैनववालो अने जेना गुणो सर्व को मनुष्योना हृदयमा हारनी पेठे क्रीमा करता हता एवो जिनदास नामनो श्रावक वसतो हतो. तेने जैनधर्ममां प्रीतिवाली, तत्वनी मालारूप अने शीलवतथी सुशोजित एवी जिनमति नामे स्त्री हती. तेउने प्रादनासरखी मधुर वाणीवाली अने जेनी स्पर्धा करवाथी समुज्ने पण खारु थर जवु पड्यु ! एवी सुनना नामनी पुत्री हती. राजहंसो जेम कमलीनीनो श्राश्रय करे तेम धर्मगुणोथी श्राश्रय करायेली ते सुनमा अनुक्रमे युवान पुरुषोना मनने मोह पमाडनारी युवावस्था पामी. पड़ी केटलाक युवावस्थावाला पुरुषोए तेनुं मागु कडं पण ते सर्वेने मिथ्यादृष्टि जाणीने जिनदास शेठे कागडाऊने जेम खीर न थापे तेम तेउमाथी एकने पण पोतानी पुत्री थापी नहीं. __को वखते चंपा नगरीथी बौद्धधर्ममां कुशल एवो बुझदास नामनो वणिक् ते नगरमा वेपारने माटे श्राव्यो. बीजे दिवस ते कंश कार्य प्रसंगे जिनदासना घेर थाव्यो. त्यां तेणे सुशोजित अलंकारोवाली सुनप्राने दीठी. पड़ी विवाहनो अर्थि ते बुझ्दास, बीजा माणसो पासेथी तेना विवाहनी वात सांजली रत्ननो अर्थि जेम समुन्ना तीरनुं सेवन करे तेम दंनथी साधुउनु सेवन करवा लाग्यो. पड़ी श्रद्धा विना पण साधुठनी सेवा करतो एवो ते बुद्धदास, साधुऊना संगथी जेम चंपाना संसर्गथी तिलवृद सुगंधवालां थाय तेम बोधिबीज पाम्यो. पड़ी तो ते जिनेश्वर प्रजु, पूजन, वंदन अने स्तवन विगेरे करवा लाग्यो. कह्यु डे के-रत्नने पामेलो कयो पुरुष प्रमाद करे ? पड़ी तेना विनयादि गु Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ शीलोपदेशमाला. णोए करीने प्रसन्न थएला जिनदास शेठे जेम गुरु शिष्यने शास्त्र श्रापे तेम पोतानी पुत्री साधर्मिक एवा ते बुझदासने आपी. जेम रोहिणी अने चंनो योग थाय तेम शुजमुहूर्तने विषे मनुष्योने प्रशंसा करवा योग्य एवो तेऊनो मंगलीक विवाह थयो. पडी त्यांज रदेलाने परस्पर गाढ प्रीतिवाला बनेला ते स्त्री पुरुषने सुख जोगवता केटलोक काल गयो. एक दिवस वेहेपारथी घणुं प्रव्य मेलवनारा अने पोताना घरप्रत्ये जवाने उत्साहवंत थएला बुझ्दासे विनयपणाथी जिनदासनी रजा मागी एटले तत्त्वने जाणनारा जिनदासे मधुर वचनथी कडं. "हे वत्स! तमे बहु सारं कडं; कारण माता पितानी सेवा करनारा पुत्रो प्रशंसा करवालायक थाय बे; परंतु तमारा मातापिता मिथ्यादृष्टी जे अने म्हारी पुत्री सुजना जैनधर्मवाली बे, तो तेउनो नेगो निर्वाह केम थशे ?" बुद्धदासे कडं. “तेने जूदा घरमा राखीश, तो पढ़ी जातिवंत सुवर्णने दोष श्रापवा कोण समर्थ थशे ?” पडी बुद्धदास पोताना सासरा जिनदासनी रजा ल सुजना सहित पोताने देश जवा निकल्यो अने अनुक्रमे पुरीसमान पोतानी चंपापुरीप्रत्ये श्रावी पहोच्यो. त्यां ते सुनसाने जूदा स्थानमा राखी पोते घेर गयो. __ पनी सासु श्रने नणंद सुनसाना बिज खोलवा लागी; परंतु सती सुनना तो निष्कपटपणे अरिहंत प्रजुनो धर्म पालती हती. वली तेना घरनेविषे साधु जक्त पान वहोरवा पण श्रावता हता. ते उपरथी सुजजानी सासु अने नणंद बुद्धदासने हमेशा कहेती के, “हे वत्स ! पोता. नी मरजीप्रमाणे चालनारी श्रा त्हारी स्त्री साधुऊनी साथे क्रीडा करे ." बुद्धदास पण कदेतो के “ए शीलवती बे, माटे तमारे एम कहेवू योग्य नथी." कह्यु के- सुवर्ण बहुकाले पण मलीन थतुं नथी. बुद्ध दासनां आवां वचन उपरथी तो ते बन्ने पुष्टाउँ सुनसाना बिन खोलवाने माटे वधारे ने वधारे तत्पर थ. एकदिवस कोशएक साधु सुनसाना घरे वहोरवा माटे श्राव्या हता; त्यां तेमना नेत्रमा पवनथी उडेलु तृण पड्युं; परंतु शरीरने विषे निस्पृह एवा तेमणे ते कढाव्यु नहीं. एवामां निदा वहोरावती एवी ते सतीए साधुनां नेत्रमा पीमा जोश्ने पोतानी जीजवती ते तृण काढी नांख्युं, परंतु पो. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनानी कथा. Ա ताना सेंथामां जरेला सिंदूरनो स्पर्श साधुना कपाले थर गयो. पढी साधुना कपालने विषे थला सिंदूरना स्पर्शने देखाडता बता बुद्धदासने तेनी माताए कयुं के, " हे वत्स ! जो श्र व्हारी सती स्त्री ?” बुद्धदासे पण ए निशानना बलथी ते वात साची मानी सुनानो त्याग कस्यो. कथं a, de कोनुं मन खंडित नथी करयुं ? वली ते विचार करवा लाग्यो के, " जो था महाभाग्यवाली स्त्री निंदित कर्म करशे तो पढी निराधार थएला सर्वे गुणो पातालमां पेसशे. " सती सुनद्रा पण निस्नेह थला पति ने जो विचार करवा लागी के, “ दोषना मूलरूप या गृहस्थाश्रम धर्ममां कलंक प्राप्त यतुं कं श्राश्चर्य नथी; परंतु सर्व उपाधिथी शुद्ध एवा था जिनेश्वर प्रजुना शासनमां अकस्मात् अपवाद प्राप्त थयो एज म्हारा हृदयमां खेद उपजावे बे; माटे ज्यांसुधी था जैन शासनने प्राप्त लुं कलंक नाश नहिं पामे त्यांसुधी हुं कायोत्सर्गने पारीश नहीं. " एम विचार करीने तेणे सायंकाले जिनेश्वरनुं पूजन करी अने शासन देवीनं ध्यान करी एकांते कायोत्सर्ग कस्यो. या प्रकारे ते एकाग्र चित्ते करीने जेटलामां कायोत्सर्गे रही तेटलामां तो तत्काल शासन देवीए प्रत्यक्ष थईने तेने कयुं. " हे वत्से ! तपनी पेठे व्हारा सत्वे प्रेरेली हुं श्री बुं; माटे तत्काल कहे, हुं व्दारुं शुं काम करूं ? " सुनाए कायोत्सर्ग पारीने हर्षथी प्रणाम करीने कयुं. " हे देवि ! जैन शासनने लागेलो कलंक उतारो. " शासन देवीए फरीधी कधुं. " हे वत्से ! खेद न कर, हुं सवारे त्हारी शुद्धिवडे धर्मप्रभावना करीश. " या प्रकारे आज्ञा करीने शासनदेवी अंतर्ध्यान थई गई. सुनझाए पण धर्मध्यान वडे बाकीनी रात्री निवृत्त करी. श्रा पढी सवार थइ एटले द्वारपालोए नगरीना दरवाजा उघाडवा मांड्या; पण ते उघड्या नहीं; घणुं जोर करयुं; परंतु कं वल्यु नहीं. तेथ नगरवासी जनो ने पशु सोर करवा लाग्या. राजा पण श्रकुल व्याकुल थइ त्यां श्रवी जाग्यनुं प्रबलपएं मानवा लाग्यो. पढी हा थ पग धोइ, पवित्र यश, हाथमां धूप लइ अने हाथ जोडीने राजाए क. " हे देव दानवो ! सांजलो. तमारामांथी जे कोइ क्रोध पाम्यो होय ते म्हारा उपर तत्काल प्रसन्न था.” राजानां श्रावां वचनथी तु Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ शीलोपदेशमाला. रत आकाशवाणी थइ के " कोइ महासती काचा सूतरना तांतणांची बांधेली चालनीवडे कूवामांथी पाणी काढी त्रण अंजली नगरना दरवाजाने बाटशे तो तरत उघडी जशे." यावी आकाश वाणी सांजलीने नगरनी सर्व तैयार थ; पण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ने शुनी स्त्री माथी कोइ एके एवी न नीकली के जे चालणीवडे कुवामांथी पाणी काढवामां विलक्षपणुं न पामी होय !!! अर्थात् केटलीक सूतरने बांधवाथी, केटलीक बांधीने चालवायी अने केटलीक कुवामां शींचवाथी तूटीजवाने लीधे विलक्षण पहुं पामी हती. वामां विनीत श्रात्मावाली सुनद्राए मधुर वाणीथी पोतानी सासुने क. " हे मात ! जो तमे मने रजा आपो तो हुं म्हारा आत्मानी प रीक्षा जोवा माटे जाऊं. " सासुए हसीने उत्तर आप्यो के " त्हारुं सतीपणुं श्रमे प्रथमथी जाएयुं बे, माटे तुं दवे श्रमने नगरवासी जनोमां वगोवीश नहीं. ए सर्वे सती पुरद्वार उघाडमां समर्थ थइ नथी, तो पढी निरंतर जैन साधुनी सेवा करनारी तुं खरेखरी ते कृत्य करवामां समर्थ थईश ! " सुनझाए कयुं. “ हे मात ! तमे कह्युं ते तो योग्य बे. कारण शीलवत पाल बहु दुर्व्वन बे; तो पण हुं तो पंचनी साक्षी ए आत्मपरीक्षा करीश. " ए प्रकारे कहने सासु तथा नणंद इर्ष्या करता दता तोपण ते सुना स्नान करी, पवित्र वस्त्र पेहेरी ने पंच परमेष्ठीना स्मरणपूर्वक नवकार जणी ज्यां सर्वे माणसो हता त्यां गइ पढी तेणे पोताना गुणसरखा काचा सूतरवडे चालणीने बांधी आश्चर्य सहित सर्वे मा सो जोता बता तेवडे कूवामांथी पाणी काढ्युं. ते वखते परिवारसहित राजा त्यां वी कहेवा लाग्यो. " हे सति ! तमे बहुसारं कस्युं ! बहुसारुक !! हवे नगरीना दरवाजाने तत्काल उघाडो.” पढी मंत्रि, सामंत, भूपति ने नगरवासी जनोए श्रगल करेली, जगत्ने जितनारा चालनी रूप यंत्रने हाथमां धारण करी रहेली, हस्तिना सरखी गतिवाली, प्रफुल्लित मुखवाली ने बंदिजनोए स्तवन करयो ने विजय जेनो एवी ते सुभद्रा पूर्व तरफना दरवाजा पासे ग. पी पंच परमेष्टी नमस्कारनो उच्चार करती एवी सुनद्राए ते जलनी त्रण अंजली नगरना दरवाजाने बांटी ते वखते जेम विषयी श्रांधला Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ सुनानी कथा. थर गएला माणसनां नेत्र जांगुली मंत्रना जपथी उघडी जाय तेम नगरीनुं धार उघडी गयुं; तेथी आकाशमां देव इंनि वागवा लाग्या. नगरवासी जनो तेनां वखाण करवा लाग्या अने देवता पण जैन धमनो जय जय शब्द करवा लाग्या. ए प्रकारे ते सुनाए दक्षिण तथा पश्चिम तरफना दरवाजाने उघाडी सासु तथा नणंद विगेरे उर्जन मा सोनां मुखने श्याम कस्यां. पली उत्तर तरफना दरवाजा पासे श्रावीने सुजनाए कह्यु. “ जो कोश बीजी स्त्री सती होय तोज था द्वार उघ. डशे.” महासती सुजमाना शीलवतना अतिशयने सूचवतुं ते चंपा न. गरी, उत्तर तरफनुं छार श्राज सुधी पण बंध . लोकमां सुजमाना शीलव्रतरूप एक अपूर्व दीपक प्रकाशे ने के, जे उर्जन माणसोए थापेला अपयशरूप जलना पूरथी पण होलवा जतो नथी. पनी गुणना समूहने गायन करता एवा नगरवासी जनोसहित ते सुजनाए चैत्य परिपाटी करी. राजाए महोत्सवपूर्वक सुजमाने तेना घरप्रत्ये पहोचाडी. त्यां सुनडाए नृपतिने जैनधर्मनो उपदेश दीधो. नूपति ते खीकारीने पोताना घेर गयो अने बीजा सर्वे लोको पण पोताना घरे गया. प्रथम तिरस्कार करवाथी पस्तावो करता एवा सासु नणंद विगेरे कुटुंबी जनो पण मान थापवा लाग्या. माता पिता पण तेना वखाण करवा लाग्या. वली बुझदासे तो तेना चरणमां पडी पोतानो अपराध क्षमाव्यो. पली महासती ते सुना गृहस्थ धर्मने पाली अंते चारित्र धारण करी सजति पामी. ॥ इति सुनसानी कथा. ॥ शीलनी रक्षा माटे राज्यादि सुखने विषे पण महासतीर्नु निलोजिपणुं कहे . निजशीलरक्षणार्थ तृणमिव राज्यमपि परिहरंत्याः नियसीलरकप तणंव रैऊंपि परिरंतीए॥ सकलसतीनां मध्ये इह रेखा मदनरेखायाः सयलसईणं मले इद रेदां मयणरेदाए ॥५३॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २एन शीलोपदेशमाला. शब्दार्थ-(श्ह के०)श्रा जगत्ने विषे ( नियसीलरकण के० ) पोताना शील रक्षणने माटे ( रजंपिके ) राज्यने पण ( तणंव के०) तृणनी पेठे (परिहरंतीए के) त्याग करती एवी (मयणरेहाए के०) मदनरेखानी ( सयलसईणंमले के०) सकल महासतीउनी मध्ये (रेहा के०) प्रतिष्ठा ने अर्थात् सर्वोत्कृष्टपणुं २ ॥५३॥ विशेषार्थ-श्राजगत्ने विषे पोतानाशीलवतनुं रक्षण करवामाटे राज्यने पण तृणनी पेठे त्याग करती एवी युगबाहु राजानी स्त्री मदनरेखा शील पालनारी सर्व महासतीउनी मध्ये रेखारूप थर ले. अर्थात् सकल महा सतीउँमा मदनरेखानी कीर्ति सर्वोत्कृष्टपणे वर्ते . ॥ ५३॥ मदनरेखानी कथा. ज्यां जोगी पुरुषोने तारा पण निर्माल्य पुष्पना समान देखाता हता एवं श्रवंती देशमां लक्ष्मीश्री मनोहर सुदर्शन नामर्नु नगर . त्यां आकाशमा रहेलो चंड पण जेना यशपिम सरखो शोजतो हतो एवो मणिरथ नामनो महा धर्मवंत राजा राज्य करतो हतो. तेनो युगबाहु नामनो न्हानो नाश् युवराज पदवी जोगवतो हतो. तेने पतिव्रताना गुपोए करीने प्रसिद्ध श्रने जेनां रूपनी संपत्ती जोक्ने काम पोतानी मेले बली मूवो बतां शंकरे कामदेवने बाल्यो एवो लोकमां शंकरने मिथ्या अपवाद अपाय एवी मदनरेखा नामनी स्त्री हती. __एक दिवस मणिरथ राजा पोताना न्हाना ना युगबाहुनी स्त्री मदनरेखाने जो कामदेवथी पीडा पामतो तो मनमा विचार करवा लाग्यो. " म्हारे कामदेवना जीवित रूप था स्त्रीने को पण उपायथी मेलववी.” श्राप्रमाणे विचार करीने तेणे मदनरेखाने माटे निरंतर जूदी जूदी नेटो मोकलवा मांडी. कर्वा डे के तं तोषयमिषेण प्राक्, यं वशीकर्तुमिछसि ॥ तत्खादबुब्धो यत्प्राणी, कार्याकार्य न विंदति ॥ अर्थ-हे ना ! तुं जेने वश करवाने श्छतो होय तेने प्रथम श्रपूर्व वस्तु आपीने संतोष पमाड्य. कारण के, ते वस्तुना खादमां बुब्ध थएलो प्राणी कार्याकार्यने जाणी शकतो नथी. महासती मदनरेखा पण Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनरेखानी कथा. रएए मणिरथ राजाए मोकलावेली पुष्प तांबूलादि नेटोने जेठना प्रसादरूप गणीने ग्रहण करती हती. __ पड़ी को एक दिवसे मणिरथ नूपतिए पोतानी पूती मदनरेखानी पासे मोकली; तेथी ते त्यां जश्ने कहेवा लागी के, “हे न ! त्हारा गुणोथी अनुरक्त थएला महाराजा तने एम कहे जे के,हे सुत्र! गोखमां उन्नेली तने ज्यारथी में दीठी त्यारथी मांडीने म्हारी एक घडी वर्ष समान जाय जे तो तुं मने पतिरूप मानीने पट्टराणी पद नोगव." आवां राजाए कहेलां वचन पूतीनां मुखथी सांजलीने धर्मनी जाण एवी मदनरेखाए कह्यु. “ केटलाक सत्पुरुषोनु मन परस्त्रीउमां जतुंज नथी अने तेवा केटलाक पुरुषोनुं मन तो पुत्रनी स्त्रीनेविषेपण शासक्ति पामे . स्त्रीउमां शीलव्रतरूप जगत्प्रसिझ महागुण जे. तेनो नाश थयाथी तो जीवरहित देहनी पेठे जीवq पण वृथा जे.जेने पोतानो नाश् ज्येष्ठबंधु तथा राज्यस्वामी मानीने निरंतर नमन करे बे; ते अ॒ म्हारी प्रार्थना करे खरो? हे ति ! त्हारे म्हारा वचनथी राजाने कदेवू के,तुं पोताना न्हाना जाश्नी स्त्रीने या प्रकारनो संदेशो मोकलतां लाज न पाम्यो ?" पूतीए था सर्व समाचार राजाने कह्या; परंतु जेम मद्यपान करनारो पोताना व्यसनने त्यजे नहीं तेम ते पोतानोश्राग्रह न त्यजता विचार करवा लाग्यो के, “ज्यांसुधी न्दानो ना जीवतोडे त्यांसुधी निश्चय ए स्त्री म्हारे वश्य थनारी नथी." एम धारीने ते पोताना न्हाना नाश्ने मारी नाखवाना उपायो शोधवा लाग्यो. ___ एवामां थांबानां अंकुरोधी मदोन्मत्त थएला कोकिलाना शब्दोए सूचवेलो भने युवराज कामदेवसहित वसंत नामनो ऋतुराजा श्राव्यो. अर्थात् वसंतऋतु श्राव्यो. ते वखते वृक्षनी वेलना समूहने विषे जाणे ते राजा वसंते साझा करेलो कोश् पुरुष होय नहिं शुं? एवो मलयाचलनो चतुर पवन फरवा लाग्यो. मदोन्मत थएला जमरो ऊंकार शब्दवडे गीत गावा लाग्या अने वृदो जाणे पसवोरूप हस्तने लांबा टुका करीने नृत्य करता होय नहिं शुं ? एम देखावा लाग्या. वली प्रफुद्धित थतां एवा कलीउना पुष्पोनी सर्वे वृदो जाणे वसंतने नेटुं श्रापता होय नहिं शुं ? एवा देखाता हता. ते वखते रातां पुष्परूप Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० शीलोपदेशमाला. कुसुंबी वस्त्रने धारण करनारी अने श्वेतपुष्पना हारवाली वनलक्ष्मी प्राप्त थर. पनी इंशाणीसहित उनी पेठे मदनरेखासहित युगबाहु वसंत लदमीने सफल करवा माटे उद्यानमां गयो. त्यां आखो दिवस पुष्पना समूहने एकठा करवा दिक क्रीडा करीने पड़ी ते रात्रीए प्रियासहित कदलीगृहमा निश्चिंतपणे सूतो. राजा मणिरथ पण अवसर जाणीने खड्ग लश् केटलाक माणसो सहित गुप्तरीते ते कदलीगृह प्रत्ये श्राव्यो. त्यां तेणे कुलनी मर्यादानो त्याग करी, यश, धर्म अने लगा वि. गेरेने बोडी दश पोताना बंधुना कंठने विषे खड्गनो प्रहार कस्यो. अरे धिकार ने कामना उदयने ! के,जेने वश थएला राजाए पोताना नाइने पण गण्यो नहीं! पड़ी मेदनरेखा करुणस्वरथी सोर करवा लागी एटले सेवको दोडी श्राव्या; पण राजा तो तत्काल बानी रीते पोताने घेर जतो रह्यो. पली प्राणने नाश करनारा प्रहारने जाणीने सती मदनरेखा पोताना पतिना कानमां कहेवा लागी. " हे महानाग! तमे जरा पण वृथा खेद पामशो नहीं; कारण के, सर्वे प्राणि पोताना पूर्वे करेला कर्मने जोगवे . मृत्यु पामवाने तैयार थर रहेला मनुष्य को उपर वेष करवो नहीं; कारण वेष करवाथी कंश वलतुं नथी; परंतु उलटो ते परलोकश्री ब्रष्ट थाय . हे नाथ ! मनने समाधीमा राखी जिनेश्वर प्रजुनुं शरण करो. ममतापणुं मूकी द्यो अने सर्वे प्राणिउने विषे मैत्री करो. वली एम पण चिंतवन करो के, “ म्हारे था लोकमां तथा परलोकमां अरिहंत प्रजु देव, साधु गुरु थने जिनेश्वर प्रणित धर्म था. हे प्राणवबन! सिकादि सादिवाला पोताना पुराचरणने नींदो अने सर्व स्थानकेथी मोहनो त्याग करी पंच नमस्कार- स्मरण करो. जेने माटे शास्त्रमा कडंडे के प्राणा यस्य नमस्कारं, स्मरतः प्रातमियति ॥ .. न याति यदि मोदं स, ध्रुवं वैमानिको जवेत् ॥ अर्थ-जे मनुष्यना प्राण नवकारनुं स्मरण करतां जाय . ते माणस कदापि जो मोक्ष न पामे तो ते निश्चय वैमानिक देवता तो थाय. वली हे नाथ ! पंच अणुव्रत, चार शिक्षाबत, अने त्रण गुणव्रत ए . रूप श्रावकना बार व्रतने ग्रहण करो. जगत्मां प्राणीउने मित्र, पुत्र Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनरेखानी कथा. २०१ अने स्त्री विगेरे को शरण नथी; परंतु श्रा लोकमां अने परलोकमां धर्म एकज रक्षण करनार . हे महामति ! था मनुष्यजव विगेरे सामग्री वारंवार मलवी बहु मुझन मानीने एना फलने ग्रहण करो. प्रमाद राखशो नहीं." - या प्रकारनां स्त्रीनां वचनथी शांत थयो ने क्रोध जेनो एवो ते युगबाहु ते सर्व अंगीकार करी अने वैराग्यथी मृत्यु पामीने ब्रह्मलोकमां देवता थयो. पली चंज्यश पुत्र अने बीजा माणसो रुदन करवा लाग्या. ते वखते मदनरेखा था प्रमाणे विचार करवा लागी के,"अरे ! हुंगर्नमांज केम न गली गइ ? के जेथी करीने म्हारं स्वरूप श्रावा अनर्थना कारण रूप थयुं ! जेम चंदन वृदना नाशनुं कारण सुगंधी थाय तेम था प्यारा पतिना नाशनुं कारण हुँ थपडी बु. अरे ! जे पुरात्माए म्हारे माटेज पोताना बंधुनो नाश कस्यो , ते पुरुष निश्चय म्हारा शीलवतनो नंग करशे; माटे हवे हुँ कोर पण उपायथी शील व्रतनुं रक्षण करूं." एम विचार करीने ते मदनरेखा पुत्र विगेरे राज्यने तृणनी पेठे त्याग करीने उदरमा गर्जने धारण करती उती रात्रीए नाशी ग. पूर्व दिशा तरफ जती वली पगमा कांकरानी ने कांटानी पीडाने सहन करती एवी ते एक महा अरण्यमां श्रावी पहोची. त्यां रात्री निर्गमन करी म. ध्यान्हने वखते कुःसह एवी लुधा तृषाने निवृत्त करवाने माटे तेणे फल फुल विगेरे नक्षण कस्या. पड़ी थागार सहित पच्चखाण लश् श्रमने दूर करवा माटे पंच नमस्कारनुं स्मरण करी एक लतागृहमां सूती. त्यां रात्रीए सिंहादि महाजयंकर सत्त्वोना शब्दने सांजली महा त्रास पामती ते सतीए सर्व अंगे करीने सुंदर लक्षणवाला एक पुत्रने जन्म थाप्यो. पनी बालकने रत्न कंबलमां विंटाली तेना हाथमां पिताना नामनी विंटी घाली पोते वस्त्र धोवाने माटे तलावे गश्. एवामां ते तलावमांथी को जलहस्तिए निकली तेने आकाशमां फेंकी. ते वखते श्राकाशमार्गे थश्ने नंदीश्वर छीपमा जता एवा विद्याधरना पतिए जेम सिंचाणो चकलीने जीले तेम तेने बीली लीधी. पडी रुदन करती एवी ते मदनरेखा विद्याधरना पतिने कहेवा लागी के, " हे बंधो ! था वनमा जे जन्म पामेलो म्हारो २६ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ शीलोपदेशमाला. पुत्र ; तेने कोश सिंह विगेरे पशु म्हारी नाखशे. वली स्तनपान वि. ना पण ते मृत्यु पामशे; माटे कृपा करीने तुं मने त्यां लक्ष जा अथवा तेने अहिं लावीथाप.” विद्याधरे कडं."जो तुं मने पति माने तो हुँ त्हारं काम करूं.वली तुं निश्चय जाणजे के, हुं हाराजाग्यने लीधेजयहिंथाकाशमा मली श्राव्यो बु. हुं चक्रवर्ती एवा मणिचूड विद्याधरनो पुत्र मणिप्रन नामनो सेनापति ढुं. हे शुन्ने ! चारित्र धारण करनारा पिताने वंदन करवा जता एवा में पोपट जेम प्रादाने देखे तेम तने दीठी के माटे हे चार्वगि! मने अंगीकार करीने विद्याधरपत्नि था; कारण के प्राप्त थएला कल्पवृक्षनो कोण अनादर करे ? वली त्हारा पुत्रनी वात कहुं ते सांजल. पुष्ट अश्वे हरण करीने ते वनमा आणेला मिथिला नगरीना पद्मरथ राजाए त्हारा पुत्रने लश् पोतानी स्त्री पुष्पमालाने सोंप्यो जे; तेथी ते पुष्पमाला पोताना पुत्रनी पेठे त्हारा पुत्रनुं पालन करे . ते त्यां सुखी ने. या सघली वात में प्रज्ञप्ति विद्याथी जाणी , माटे हे नसे! पुत्र संबंधी शोकने त्याग करी म्हारी सेवा कर.” श्रावां वियाधरनां वचन सांजली मनमां अत्यंत खेद पामेली मदनरेखा विचार करवा लागी के, “अहो ! हुं शीलवतनुं रक्षण करवामाटे देशनो त्याग करी बाटली दूर नूमी श्रावी उतां अहिं पण तेज शीलवतनो जंग थवानुं कारण थयु; परंतु म्हारे शीलवतनुं रक्षण तो गमे तेम करीने कर अने त्यां सुधी या कामी बनी गयेला विद्याधरने रोकवो.” एम धारीने ते मदनरेखाए कह्यु. “ हे महानाग ! तुं प्रथम मने नंदीश्वरनी यात्रा कराव्य. पनी हुं त्हारो मनोरथ पूर्ण करवाने यत्न करीश. " __ पड़ी प्रसन्न थएलो विद्याधर, मदनरेखा सहित नंदीश्वर प्रत्ये गयो. त्यां अनुक्रमे बावन चैत्योने विषे तीर्थपतिने वंदना करीने ते बन्ने जपाए मणिचूड मुनिने नमस्कार कस्यो. पनी चतुर्सानी एवा ते महात्मा मणिचूड मुनिए पण पुत्रना नावने जाणीने तेने देशनावडे एवो वैराग्य उत्पन्न कस्यो के, ते मणिप्रज तत्काल त्यांथी उठीने ब्हेननी बुद्धिथी सती मदनरेखाना पगमां पड्यो. पडी मदनरेखाए मुनिने पोताना पुत्रना समाचार पूज्या; ते उपरथी मुनिए तेना केटलाक पूर्वना नव सहित सर्व वात अनुक्रमे कही. एवामां बीजा सूर्यना सरखो अने जेनी पा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनरेखानी कथा. २०३ नेक देवांगना गायन करी रही हती एवो कोइ एक देव त्यां श्री वैमानमांथी नीचे उतस्यो. नम्र अंगवालो ते देव प्रथम त्रण प्रदक्षिणा करीने मदनरेखाना चरण कमलमां पड्यो पढी त्यांथी उठी मुनिने वंदना करी योग्य स्थानके बेवो. 66 श्रावो योग्य श्राचार देखी ने मणिप्रने देवताने पूब्युं. " तमे चतुर्झानी एवा साधुने उल्लंघन करी प्रथम स्त्रीने नमस्कार कस्यो !!! श्रावी रीते तमारा सरखा ज्यारे अन्याय करशे तो पढी अमारे शुं कहे ? " मणिप्रजानां वचन सांजली जेटलामां देवता उत्तर आपवा जाबे तेलामां चारणमुनिए तेने कयुं. या कृतज्ञ देवता बको श्रापवा योग्य नथी; कारण के ज्यारे या देवता पूर्व जवने विषे या मदनरेखानो पति युगबाहु हतो त्यारे तेने या सतीना लोजयी तेना म्होटा जाइए खगना प्रहारथी मास्यो हतो. युगबाहु क्रोध करवा लाग्यो, ते वखते या मदनरेखाए पोताना पतिने जिनधर्मनो उपदेश श्रापवारूप अमृत पान करावी शांत कस्यो हतो. पढी वृद्धि पाम्यो ने संवेग जेनो एवो ते युगबाहु मृत्यु पामीने पांचमा ब्रह्मलोकने विषे देवता थयो.” चारणमुनि मणिप्रमने कहे बे के, " हे विद्याधर ! तेज श्रा देवता! के जे पोताना धर्माचार्यनुं स्मरण थवाथी तत्काल श्रहिं श्रावी मुनिने त्याग करी प्रथम सती मदनरेखाने प्रणाम करयो डे. साधुए . थवा श्रावके जे पुरुषने जैनधर्मनो उपदेश दीधो एज तेनो धर्माचार्य कदेवाय ए निःसंशय बे. वली या लोकमां सम्यक्त्व एज डुन एवी सार वस्तु बे; माटे सम्यक्त्वनुं दान करनारा पुरुषे शुं न प्राप्यं कड़ेवाय ? अर्थात् सर्व श्रप्युं कड़ेवाय. " आवां चारणमुनिनां वचन सांजली मप्र ते देवता पासे क्षमा मागी . पी देवताए महासती मदनरेखाने कथं के, " हुं तमारुं शुं अभीष्ट करूं ? अर्थात् मने शी श्राज्ञा बे ?" मदनरेखाए उत्तर थप्यो के, "मने मिथिलानगरी प्रत्ये लइ जार्ज, के ज्यां म्हारो पुत्र बे पढी देवताए तेने आकाशमार्गवडे क्षणमात्रमां श्रीनमिनाथ ने मल्लिनाथना जन्मत्रते करीने पवित्र थली मिथिलानगरी प्रत्ये पदोचाडी. त्यां बन्ने जure चैत्योने वंदना करी साध्वी पासे जश्ने धर्मदेशना सांजली. प Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ शीलोपदेशमाला. बी देवताए सतीने कडं. " तुं म्हारी साथे चाल. हुँ तने पुत्र अपा." मदनरेखाए कयु. “श्रा अनादि संसारमा को कोश्न नथी; माटे हवे तो म्हारे चारित्र एज शरण जे.” पड़ी देवता साध्वीने तथा मदनरेखाने प्रणाम करी पोताने स्थानके गयो अने सतीए चारित्र धारण कयुं. हवे पद्मरथ राजाने पुत्रना प्रजावधी सर्वे राजा नमन करवा लाग्या, तेथी तेणे पुत्रनुं नाम नमिकुमार पाड्यु. अनुक्रमे युवावस्था पामेला ते कुमारने राजाए एकसोने आठ कन्या परणावी. बेवट पुत्रने राज्य सोंपी तेणे दीदा धारण करीने मोदलदमीनो स्वीकार कस्यो. हवे अहिं मणिरथ राजा जे रात्रीए पोताना न्हाना नाश् युगबाहुने मारी घेर श्राव्यो तेज रात्रीए तेने सर्पदंश थयो; तेथी ते रौष ध्यानश्री मृत्यु पामी चोथी नरके गयो. पड़ी मंत्रिए युगबाहुना म्होटा पुत्र चंअयशने राज्यासन उपर बेसास्यो. - एकदा नमिराजाना श्वेत कांतिवाला पट्टहस्तिने विंध्याचलर्नु स्मरण थयु; तेथी ते थालान स्तंचने उखेडी नाखी वनमां नासी गयो. त्यां तेने चं यश राजाए पकडी पोताना घरे श्राण्यो. दूतोए था वात नमिकुमारने कही एटले तेणे दूत मोकलीने चं यश राजा पासे पोतानो पट्ट हस्ति माग्यो. ते वखते चंज्यश राजाए दूतने कडं. “ नमिराजा निश्चय नीतिनो अजाण बे; कारण शुं ए नथी जाणतो के परहस्ते गयेली वस्तु फोगट मले खरी?" इत्यादि तिरस्कारना वचन कही तेणे दूतने काढी मुक्यो;तेथी ते बिचाराए नमिराजापासे श्रावीने सर्ववात निवेदन करी. ते उपरथी नमि राजा म्होटी सेना लश् युद्ध करवा गयो. चंगयशराजा पण पोता, असंख्य सैन्य लश् जेटलामां युद्ध करवा निकलतो इतो तेटलामां तेने अपशुकन थयां, तेथी ते पोताना सैन्यथी विं. टलाएलो बतां त्यांज उनो रह्यो. नमिराजाए पण पांसे श्रावीने चंद्रयशराजानी नगरीने घेरो घाख्यो. श्रा वात नमिराजानी माता के जेणे चारित्र धारण कडं हतुं ते मदनरेखाए सांजली; तेथी ते विचार करवा लागी के, “श्रा तो बन्ने जा थाय जे. तो पनी विनाकारण युद्ध करी श्रने अनेक जनोने दय पमाडी तेउँने नरकगतिमां शामाटे जवं जोए ?” एम धारीने ते Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनरेखानी कथा. २०५ नमिराजा पासे श्रावी. नमिराजाए पण सामा जश् श्रादर सत्कार करी तेमने उत्तम आसन उपर बेसाख्या. कह्यु के-घणे काले करीने पण अंतरनी प्रीति लोपाय खरी? अर्थात् नज लोपाय. पनी साध्वीए कडं. "हे राजें! लक्ष्मी जलना तरंगो समान चंचल , तो पड़ी तेनेमाटे युझनो श्रारंज करवो ए केवल नरके जवाना कारण रूप थाय . तेमां पण त्हारे तो विशेषे करीने म्होटा नाश्नी साथे दयना कारणरूप दारुण युक करवो ए तो योग्यज नथी." नमिराजाए विस्मय पामीने पूज्यु. “अहिं म्हारो मोटो ना कोण जे ?” साध्वीए उत्तर श्राप्यो के, "था चंअयश राजा.” पनी “ए म्हारो नाश् शी रीते?" एम नमिराजाए पूज्युं एटले मदनरेखाए सर्व संबंध कही संजलाव्यो; तेथी तो ते हर्ष शोकाकुल थर गयो. विशेष खात्री करवाने माटे तेणे पद्मरथराजानी स्त्री पुष्पमालाने पूब्युं एटले तेणे युगबाहुना नामवाली मुजा तथा रत्नकंबल देखाडी. आथी तो तेने अत्यंत प्रेम उत्पन्न थयो; परंतु ते युद्धथी पाडो फस्यो नहीं. कह्यु के के- मनखी पुरुषो पोताना प्राणने तृण स. मान माने . ___पड़ी मदनरेखा साध्वी चंजयशराजा पासे गश्. त्यां तेने जोर जेम चंडने जो समुनी वेला उनी थाय तेम सर्वे सामंतोसहित ते उजो थयो. पडी नक्तिवडे माताने प्रणाम करी हर्षथी जेनी आंखोमांथी श्रांसुनी धारा वहे डे एवा ते राजाए माताना मुखथी सर्व वात सांजली. वली ते नमिराजाने पोतानो ना जाणी जेम मेघनो शब्द सांजली मोर हर्ष पामे तेम हर्ष पाम्यो. पड़ी ते म्होटा आडंबरथी न्हाना नाश्ने मलवा चाल्यो. ते वात सांजली नमिराजा पोताना म्होटा नाश्ने सामो श्रावीने प्रीतिथी मल्यो. ते वखते ते सूर्य चंजनी पेठे अथवा नर नारायणनी पेठे शोजवा लाग्या. पड़ी ते बन्ने नाउँए महोत्सवथी नगरमां प्रवेश कस्यो. कोश् वखते चारित्र धारण करवानी इछावाला चंयश राजाए पोताना न्हाना नाश् नमिने कयु. “ हे बंधो ! पिताना मृत्यु पनी मने राज्यनी श्छा नथी; माटे तुं म्हारा राज्यने ग्रहण करी साम्राज्य पद जोगव अने मने कृतार्थ कर." इत्यादि वाक्यथी बोध पमाडी तेने पो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ शीलोपदेशमाला. तानुं राज्य सोंपी पोते चंद्रयशराजाए चारित्र ग्रहण करी आत्मसा धन कर. नमीराजा पण शत्रुर्जने वश्य करी अखंडित एवा बन्ने रा ज्यनुं पालन करवा लाग्यो. कोइ वखते तेना देहनेविषे पूर्व कर्मना योगथी व मासनो दाद उत्पन्न थयो एटले तेनी शांतिने माटे जे ए हाथमां रत्न जडित अनेक कंकणो धारण कस्या हता एवी अंतः पुरनी स्त्री तेना शरीरने विषे गोशीर्ष चंदननो लेप करवा लागी ; परंतु तेना कंकणोनो शब्द दाहथी उद्वेग पामेला ते राजाने जेम शोकवालाने वीणानो शब्द सुख करतो नयी तेम सुखकारी थयो नही. पढी राजा कंकणोनो शब्द न थवाने माटे सर्वे स्त्रीर्जना हाथमां एक एक रखाव बाकीना सर्वे कढावी नाख्या. एवामां तेने चारित्रांतरायना केटलाक कर्म बंधनो तूटी जवाथी शुभ श्रध्यवसाय उत्पन्न थयो; तेथी ते कंकणना द्रष्टां करीने विचारवा लाग्यो के, " घणां परिग्रहवालो जीव दुःख पामे बे; माटे एकला रहेवुं ए वधारे सारुं बे. हुं पण जो श्र रोगथी निवृत्त यश तो चारित्र धारण करीश. " यावा विचारमां तेने निद्रा वने तेमां तेणे स्वप्न दीतुं के, " जाणे हुं मेरुपर्वत उपर श्वेत हस्तिउपर बेठो ढुं." एवामां तेनी यांख उघडी गइ. पढी सवारे जेनी दाहशक्ति नाश पामी बे एवा अने जेने जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न थयुं बे एवा ते राजाए पुत्रने राज्यासनउपर बेसारी पोते दीक्षा ग्रहण करी. देवताए श्रपेला वस्त्र पात्र विगेरे उपकरने धारण करी जेटलामां ते मुनि नगरीनी बहार निकल्या तेटलामां तो तेमना त प्रतिबोधथी प्रसन्न ययेलो इंद्र ब्राह्मणनो वेष धरी तेमनी लावीने कड़ेवा लाग्यो. " हे महाभाग ! प्रथम श्र दीक्षा दया रुप मूलवाली बे, तो तमे व्रत धारण करयुं ते दुःखने लीधे सर्व प्रजा रोवे बे, जेथी ते व्रत लेवुं ए पूर्वापर विरोधवालुं बे; माटे प्रथम प्र जाने सुखी करीने पढी व्रत अंगीकार करो.” नमिए उत्तर प्राप्यो के, मां कोइ म्हारुं नथी; तेम हुं पण कोइनो नथी. वली ते म्हारे माटे दुःखी यता नथी; परंतु स्वार्थने माटे थाय बे. तो पढी म्हारे पण निर्ममतावाला चित्तवडे म्हारो पोतानो स्वार्थ साधवो जोइए. " "" या प्रकारनी युक्त ने प्रत्युक्तिना वचन वडे सुनिए पोताना नि Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ सुंदरीनी कथा. ममत्वपणाथी ते विप्ररूप इंजने निरुत्तर करी दीधो. पड़ी इंश पोतार्नु खरु स्वरुप धारण करी अने मुनिने प्रणाम करीने पोताना स्थानप्रत्ये गयो. मुनिए पण मोक्ष पद प्राप्त क. विविधप्रकारना तप रूप जले करीने पोताना कर्मरूप मेलने धोश नाखती अने पोतार्नु तथा परनुं हित करनारी शीलरेखाने धारण करती ते उत्तम बुद्धिवाली मदनरेखा पण मोक्ष लक्ष्मीने पामी. ॥ इति मदनरेखानी कथा समाता ॥ हवे शील पालनारी स्त्रीउनां दृष्टांत कहे . नंदतु शीलानंदितजनवृंदा सुंदरी महाजागा नंदन सीलोणंदिय-जणविंदा सुंदरी महानागा॥ ___अंजनासुंदरीनर्मदासुंदरीरतिसुंदर्यः च अंजणसुंदरि नम्मय-सुंदरि रसुंदरी ये ॥५४॥ शब्दार्थ- (सीलाणं दिय के०) शीलवते करीने आनंदित कस्या डे ( जणविंदा के०) मनुष्योना समूह जेणे श्रने ( महाजागा के०) पुण्यवाली एवी ( सुंदरी के०) सुंदरी जे जे ते (नंदन के०) जयवंती वत्तों. (च के० ) वली (अंजणसुंदरि के०.) अंजना सुंदरी, तथा (न. म्मयसुंदरि के० ) नर्मदासुंदरी श्रने ( रश्सुंदरी के०) रतिसुंदरी ते सर्वे पण जयवंती वत्तॊ. ॥४॥ विशेषार्थ- शीलव्रते करीने मनुष्योना समूहने थानंदित करनारी अने महानाग्यवति अर्थात् कलंक रहित एवी श्री रुपनदेवस्वामिनी पुत्री सुंदरी, अंजनकेतुराजानी पुत्री अंजनासुंदरी, सहदेव शेउनी पुत्री नर्मदासुंदरी अने वरकेसरी राजानी पुत्री रतिसुंदरी, ते सर्वे था जगत्मां जयवंती वत्तों. श्रा गाथामां “ महाजागा" एवं सतीर्नु विशेषण थाप्यु . महाजागा कोने कडेवाय डे ? के जेने खोटो अपयश लाग्यो नथी, ते महानागा कहेवाय ले. कर्वा डे के-, थाजन्ममरणांतं हि, यस्यावाच्यं न जायते ॥ सुसूदम सा महाजागा, विज्ञेया क्षितिमंडले ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. श्ररंजीने मरणपर्यंत जरापण अपयश लाग्यो JOG अर्थ-जेने जन्म नथी, तेने पृथ्वीमां महाजागा कही बे ॥ ५४ ॥ ॥ सुंदरीनी कथा. ॥ IT वसर्पिणी कालनी श्रादिमां नाजिराजाना पुत्र श्री कृषन प्रभु विनीतानगरीमां राज्य करता हता. तेमने सुमंगला ने सुनंदा नामनी वे स्त्री हती. एकदा सुमंगलाए निद्रामां चौद स्वप्न जोया. ए वात तेणे पोताना ज्ञानवंत पति रुषन प्रजुने कही. तेमणे कयुं के, " त्हारे चक्रवर्ती पुत्र थशे. "पढी ब लाख पूर्व गये बते सुमंगलाए जरत नामना पुत्रने तथा ब्राह्मी नामनी पुत्रीने एम एक जोडलाने जन्म आप्यो समुरुपासेथ ग्रहण करेली विद्या जेम ज्ञान ने वासनाने प्रगट करे तेम सुनंदाए पण बाहुबलि नामना पुत्रने तथा सुंदर श्राकृतिवाली सुंदरी नामनी पुत्री ने जन्म प्राप्यो. मणिनी खाण जेम रत्नना समूहने प्रगट करे तेम सुमंगलाए फरीथी जंग पचास जोडलाने जन्म श्राप्यो विंध्याचलमां वृद्धि पामता एवा कलज ( हस्तिना बालक ) नी पेठे वृद्धि पामता एवा ते परिवारथी विंटलाएला प्रभु यूथपतिनीपेठे शोजता हता. पठी प्रजुए लोकव्यवहारनी प्रवृत्तिने माटे सो शिल्पकला प्रगट करी. जरतने पुरुषनी बहोंतेर कला शीखवी ने बीजा पुत्रोने पण ते कलानो न्यास कराव्यो; तेथी ते कलारूप वीद्या सारा क्षेत्रमां वावेली डांगरनी पेठे अनेक प्रकारे वृद्धि पामवा लागी बाहुबलिने स्त्री, पुरुष, हस्ति ने श्रश्वना लक्षणो अनेक नेद सहित शीखव्या. ब्राह्मीने जमणा हाथथी अढार प्रकारनी लिपीनो अने सुंदरीने डाबा हाथश्री गणितनो अन्यास कराव्यो. पठी दीप थर गयां बे जोगावली कर्म जेमना छाने गली गयो बे मोहबंधन जेमनो एवा प्रभु संसारथ की वैराग्य पामीने विचार करवा लाग्या. एटलामां लोकांतिक देवताए श्रावने तेमनी विनंती करी के, " हे स्वामिन्! आपे जेवी लोकव्यवस्था करी ते प्रमाणे धर्म तीर्थ पण यापज प्रवर्तावो. " पढी प्रजुए जरतने चक्रवर्ती पद थापी, बीजाउने यथायोग्य देशो श्रापी ने सांवत्सरीना दानी लोकने प्रसन्न करी देवेंद्रे करेला महोत्सवपूर्वक चारित्र धारण - Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंदरीनी कथा. २०० क. हाथ रूप पात्रने धारण करनारा ने मौनधारी प्रजुए आर्य अने ना देशमां विहार करी एक वर्षे श्रेयांस कुमारने घरे प्रासुक एवा शेरडीना रसथी पारणं कस्युं. ते दिवसथी श्रेयांस कुमारना दृष्टांतयी दाधर्म विस्तार पाम्यो पढी उद्मस्थावस्थाथी सर्व देशमां विहार करता एवा प्रजुए एक हजार वर्ष लीला मात्रमां निवृत्त करुया. अयोध्यानी पासेना पुरीमताल पुरना शकटोयानमां न्यग्रोध ( वमवृक्ष )नी नींचे म तपधारी एवा प्रभुने केवलज्ञान उत्पन्न थयुं, जेथी देवतार्जए त्यां चवीने समवसरण रच्युं. श्रहिं चक्रवर्ती राज्य जोगवता एवा जरतराजानी सजामां यमक समक नामना बे पुरुषोए प्रवेश कस्यो. तेमां पहेलाए श्रीषन प्रभुने केवलज्ञान उत्पन्न यवानी वधामणी श्रपी ने बीजाए तेनी (जरतनी) श्रायुद्धशालामां चक्ररत्न उत्पन्न थवानी वधामणी श्रापी. पढी प्राणीना वधना कारणरूप चक्ररत्ननी पूजानी उपेक्षा करी भरत राजा ऋण लोकने य श्रापनारा पिता श्री कृषन प्रभुने वंदन करवा चाल्यो. त्यां उतर तरफना द्वारमांथी समवसरणमां प्रवेश करी सर्व माणसोसहित तेणे म्होटा आनंदथी तीर्थनाथने वंदना करी. पी जरत राजा हाथ जोगीने इंद्रना अर्धासन उपर बेठे ते प्रजुए सर्व प्राणीने पोतपोतानी जाषामां परिणमे एवी अमृत वाणीथी देशना दीघी. "ढे जव्यजनो ! जरावस्था, मनसंबंधी पीडा छाने देहसंबंधी पीमा इत्यादि मगरमच्छथी नरेला था संसाररूप कार समुद्रने विषे प्राणिने शुं सुख बे ? वली सेंकको दुःखोथी नरपूर एवा ने जेमां बिलकुल सुख नथी एवा या संसारने विषे मारवाड देशनी जूमिनी पेठे कयो पुरुष प्रीति करे ? खल पुरुषोनां वचन जेवा परिणामे क्रूर बे विषयो बे जेमां, तेमज पाकेला फलनी पेठे नाश पामवानो बे स्वभाव जेनो एवो बे प्रेम जेमां एवा या चातुर्गतिक संसारने दुःखरूप धारीने हे मनस्वीनो ! तमे सर्व प्रकारे मोहने माटे प्रयत्न करो; कारण के, सर्व प्रकारनी सावद्य विरति विना ते मोद दुर्व्वन बे. प्रजुनी यावी देशना सांजली जरत राजाना पांच पुत्रोए अने सात से पौत्रे ( पुत्रना पुत्रोए ) दीक्षा लीधी. जरते श्राज्ञा करेली ब्रा २७ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० शीलोपदेशमाला. ह्मीए पण चारित्र लीधुं. कयुं बे के श्रमृतनो कुंम पामीने पठी कयो पुरुष तरश्यो रहे ? अर्थात् कोइ न रहे. दीक्षा धारण करवाने छती एव सुंदरीने बाहुबलीए रजा आपी; परंतु जरतराजाए ना पामवाथी ते प्रजुनी पहेली भावीका थई. वली ते उत्तम रूपवंती ने लावण्यवाली होवाथी जरत राजाए स्त्रीरत्ननी छाथी तेने पोताने घेर राखी. पी जरत राजाए प्रजुनी पासे श्रावक धर्म अंगीकार करीने चक्ररत्ननी पूजा माटे युद्धशालामां प्रवेश कस्यो. त्यां चक्रनी पूजा, प्रदक्षिणा नमस्कार करी तेमज हा महोत्सव करी बेवढे दिग्विजय करवा निकल्यो. निरंतर शोल हजार यहोथी विंटलाएला तेणे जरतखंडना ब खंगने साध्या एटले चक्ररत्ल, बत्ररत्न, खड्गरत्न ने दंडरल ए चार एकेंद्रिय रत्नो तेनी श्रयुद्धशालामां उत्पन्न थया. ज्ञान, दर्शन अने चारित्र सरखा काकिनीरत्न, चर्मरल अने मणिरत्न ए त्रण रत्नो तेना कोषने विषे उत्पन्न थया वली सेनापतिरत्न, गृहपतिरत्न पुरोहित ने वार्द्धकी रत्न ए चार नररत्नो तेनी विनीता नगरीमां उत्पन्न थया. गजरत्न छाने अश्वरन ए वे वैताढ्य पर्वतना मूलजागमां उत्पन्न थया. बेवट स्त्रीरत्न उत्तर दिशामां विद्याधरोनी श्रेणीने विषे उत्पन्न थयुं. जेम गंगा छाने सिंधु विगेरे महा नदीथी या जंबूद्विप शोने बे तेम ते चौद रत्नोवडे जरत राजा शोजवा लाग्या. प्रकारे साठ हजार वर्षसुधी दिग्विजय करी सर्व प्रकारना ऐश्वर्ययुक्त जरतराजा पोतानी विनीता नगरी प्रत्ये श्राव्या. पढी बार वर्षपर्यंत चक्रवर्तीनो राज्याजिषेक करावी दर्शनना उत्सुक एवा पोताना वजनने मलवा चाल्या. एवामां तेमणे हिम पडवाथी करमाइ गयेली कमलीनी सरखी, सुकाइ गएली केलना सरखी, दिवसे चंद्रनी कलाना सरखी, ग्लानी पामी गएला रूप श्रने लावण्यवाली ने फक्त हाडकांज बाकी रहेला एवी सुंदरीने दीवी; तेथी ते पोताना अनुचरो प्रत्येकदेवा लाग्या के, "अरे ! शुं म्हारा घरने विषे पूर्वना सरखी धान्यनी संपत्ति नी ? शुं धान्यने उत्पन्न करनारी पृथ्वी निर्बीज थइ गइ बे ? शुं को लोभी माणस पुरुं खावानुं श्रापतो नथी ? शुं रसोइया पोतान क्रिया मूली गया बे ? अरे ! जो तेम थयुं होय तो तेने दूर करो. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंदरीनी कथा. २११. शुं म्हारा घरने विषे अरिजीना घरनी पेठे खजुर, खारेक, द्राक्ष, नालीपर ने बीज फलादिक वस्तु सुखथी खावाने माटे नथी ? शुं म्हारा उद्याननां वृक्षो वाकीयां ( फलरहित ) यर गयां बे ? अथवा कल्पवृक्षो पण पोतानो धर्म मूली गयां बे ? अरे ! शुं घडाना सरखा औवाली म्हारी गायो नथी कती ? ना ना एम होय नहीं. त्यारे शुं उनालाना जयंकर तापथी पण गंगा ने सिंधु विगेरे महानदी सुकाइ गइ ? जोज्यादि सर्व सामग्री बतां या सुंदरी खाती नथी, तो तेने कोइ रोग उत्पन्न यो बे ? अरे जो तेम होय तो शुं तेवा रोगनो नाश कवामां समर्थ एवा कोइ वैद्यो नथी ? के ते मरुस्थलमां कहेवा मात्र नदीना सरखा बनी गया बे ? वली शुं आपणां घरने विषे दिव्य - षधि नयी मलती ? के हिमाचल पर्वतज औषधि विमानानो वांकीट थ गयो बे ? अहो ! जन्मयीज मांडीने दुःखमां बली रहेलीनी पेठे अथवा एकांतना घरमां पुरी राखेली बकरीनी पेठे श्रा सुंदरी दुर्बल केम देखाय बे ? " सेवकोए जरतराजाने प्रणाम करीने उत्तर श्राप्यो के, " हे महाराज ! कल्पवृक्ष समान अपना घरने विषे कं दुर्व्वन नथी परंतु याप ज्यारथी दिग्विजय करवा निकल्या दता, त्यारथी ते सुंदरी बिलनो तप करे ठे वली दे देव ! चारित्र धारण करवाने इछती एव तेने तमे ना पाडी बे; तेथी तो ते, ते दिवसथी मांडीने जावथी साध्वीनी पेठे रही बे. " पती जरतराजाए सुंदरीने पूब्धुं. " हे कल्याणि ! तुं पितानी पासे चारित्र लेवानी इछा करे बे ?" सुंदरीए हा कही. ते उपरथी भरतराजाए फरीथी कयुं के, “ अहो ! में मुग्धपणाथी अथवा प्रमादथी श्र महासतीने व्रत लेवामां आटलो काल विघ्न कयुं बतां ते दवणां पोतानां इष्ट कार्यने साधे बे. वली मदीराथी उन्मत्त थयेलानी पेठे विषयमां आसक्त रहेला धने हिताहितने नहिं जाणनारा एवा श्रमनेज धिक्कार बे के, जे मे राज्यसंपत्तिमां मूर्छा पामी रह्या बीए. उत्तम पुरुषो नाशवंत एवा जे देहवडे मोक्ष साधे वे तेज देहवडे श्रमो अहिं रह्या बता नाश थर गयेली सुगंधीवाला पुष्पथी जोगनी वांछा करनारा पुरुषनी पेठे जोगनी इछा करीए बीए. मनसंबंधी पीडा, देहसंबंधी पीडा, वीष्टा, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. मूत्र, मल श्रने परसेवारूप था शरीर लशणना ककडानी पेठे सुगंधी. वा_ करी शकातुं नथी; माटे था देहवडे करीने उत्तम एवं चारित्ररूप फल ग्रहण करवं; कारण के बुद्धिवंत पुरुषोज रेतीमांथी सुवर्णना कणोने ग्रहण करे .” श्रावां जरतराजानां वचन सांजली व्रत धारण करवाने श्राज्ञा आपेली सुंदरी तपथी पुर्बल थर गयेली उतां पुष्ट शरीरसरखी शोजवा लागी. __ एवामां श्री षन प्रजु अनुक्रमे विहार करता करता जनालाना तापथी तपेल देशने विषे मेघनी पेठे अष्टापद पर्वत उपर समवसस्या. उद्यानपालकोए प्रजुना समवसरणनी अने धर्मदेशना श्रापवानी वात जरतराजाने निवेदन करी. विजयना हर्षथी पण अधिक हर्ष थापनारी प्रजुना समवसरणनी वार्ता निवेदन करनारने अत्यंत प्रसन्न थएला जरतराजाए साडा बार कोड सोना म्होर थापी. पडी तेणे सुंदरीने का के, “हे जसे ! खेतरमा स्वाति नक्षत्रना मेघनी पेठे त्हारो मनोरथ सिक करवाने माटे श्री जगगुरु श्रष्टापद पर्वत उपर समवसस्या ." पठी जरत राजानी आझाथी अंतःपुरनी अंगनाउँए सुंदरीने दीदा धा. रण करवानो अनिषेक कस्यो. सुंदरीए पण पोताना शरीरने विषे चंदननो विलेप करी प्रकाश जेम शरद् ऋतुना वादलांने धारण करे तेम सुं. दर पट्टकुलने धारण कस्यां. ते वखते सुंदरीना शरीरने विषे रहेला दि. व्य रत्नोना अलंकारोना समूहो जाणे तेना शीलव्रतरूप अलंकारना सेवको होय नहिं शुं ? एम देखावा लाग्या. सुंदरीना रूप सौंदर्यनी बागल सुजना नामर्नु स्त्री रत्न पण दासीना सरखं देखावा लाग्युं. पड़ी ते नादरवा मासनी मेघमालानी पेठे दीन जनोने शछित दान श्रापती सती पालखीमां बेठी. श्वेत रथी शोनती, चामरोथी पवन नखाइ रहेली, गंधर्व लोकोए गुणोथी गायन करेली, अंतःपुरनी स्त्रीउना समूहथी सुशोनित बनेली, हर्षित चित्तवाला जरत राजाए श्रागल चलावेली, बंधुऊनी स्त्रीए अत्यंत हर्षथी मंगल गीत गायन करायेली, उत्तम स्त्रीए पगले पगले ढुंण उतारेली अने वागतां एवां वाजींत्रोना शब्दथी आकाशने पूर्ण करी देती एवी ते महासती पिताना चरण कमलथी पवित्र थएला अष्टापद पर्वत प्रत्ये श्रावी पहोची. पनी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजनासुंदरीनी कथा. १३ वैराग्यनी वातोमां चतुर एवा जरतराजा अने सुंदरी समवसरणने विषे प्रजुना चरण पासे श्राव्या. त्यां जरते धर्म चक्रवर्ती एवा प्रजुने श्रादरथी नमस्कार कस्यो भने सुंदरी तो हाथ जोमी प्रजुने प्रमाण करी गद्गद् वाणीवडे कहेवा लागी. “ हे त्रिजगत्पति ! आपे घणां काले दर्शन थाप्यां ए श्रमारा म्होटा नाग्य, अमने घणां पुण्यना संचयथी थाजे आपनां दर्शन थयां. भरतराजाए आग्रहथी मने थाटला दिवस सुधी दीक्षा न लेवा दीधी; तेथी हुँ पोतानी मेले बेतरायली डं. म्हारी ब्हेन ब्राह्मीए, नाश्ना पुत्रोए अने तेमना पुत्रोए चारित्र धारण कडे, माटे ते सर्वेने धन्य . हे विश्ववत्सल ! हवे मने दीदा आपीने तारो, कारणके जगत्ने प्रकाश करनारो सूर्य शुं घरमां प्रकाश नथी करतो? पबी" हे महानागे ! हे माहासत्वे ! ते बहु सारं कह्यु; ! बहु सारूं कां!” एम प्रशंसा करता एवा प्रजुए तेमने संसार समुफ तारवामां नावरूप चारित्र धारण कराव्यु. पनी स्वधर्मने धारण करनारी अने धर्मरूप उद्यानमा फरनारी ते सुंदरीने प्रजुए देशना थापी एटखे पोताना श्रात्माने कृतार्थ मानती ते सुंदरी साध्वीऊना गणमां बेसवा लागी. देशनाने अंते जरतराजा पण प्रजुने, साधुउँने अने साध्वीउँने वंदना करी अत्यंत हर्ष पामता बता अयोध्या प्रत्ये श्राव्या. __ सुंदरी पण बे प्रकारनी शिक्षाने ग्रहण करी निरतिचारपणे चारित्र पालवा लागी. अनुक्रमे निरवद्य तप, आचरण करी घातिकर्मनो नाश करीने तेणे केवल ज्ञान प्राप्त कडं. अतुल्य शीलव्रतना प्रजावथी उत्पन थएला केवलज्ञानने दीर्घ काल सुधी पालीने अंते सुंदरीए अष्टापद पर्वत उपर अनंतसुखवाली मोदलक्ष्मीने अंगीकार करी. ॥इति सुंदरीनी कथा ॥ अंजना सुंदरीनी कथा श्रा जंबुद्धीपने विषे शाश्वत कल्याणना मंदिररूप अने विद्याधरना जोडलाउनी पंक्तिथी शुशोजित एवो वैताढय नामनो पर्वत बे. त्यां सिक नूमिना सर प्रसिक अने जाणे खर्गनूमिने जीतवाने माटे होयनी ? एवा ऊंचा उंचा महेलथी जरपूर एबुं प्रह्लाद नामे नगर Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ शीलोपदेशमाला बे. त्यां शत्रु ने शिक्षण करनारो श्रने जेना प्रतापरूप सूर्य श्राकाशमां निरंतर जमिरह्यो डे एवो प्रल्हाद नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने गुणे करीने मणिनी खाणरूप पद्मावती नामनी स्त्री अने जयंतना सरखो गुणवंत पवनंजय नामनो पुत्र हतो. ते पुत्र पोताना रुषनदत्तादिक मित्रोनी साथे उपवन, वाव्य अने बीजा विहारना स्थानकने विषे क्रीडा करतो हतो. - हवे तेज पर्वतनी बीजी श्रेणीए अंजनपुर नगरमां अंजनकेतु नामनो राजा उनी पेठे राज्य करतो हतो. मनखीजनोने पण मान्य एवी अंजनवती नामनी तेने स्त्री हती. तेउँने नेत्रमा अमृतना अंजन सरखी अंजनासुंदरी नामनी एक पुत्री हती. रूप गुण, अने सौंदर्यना सीमाडारूप ते पुत्री पिताना मनोरथ सहित वृद्धि पामती बती अनुक्रमे युवावस्थामा श्रावी पहोची. चोमासामा नदीना पुरनी पेठे ते अंजना सुंदरीनां रुप, गुण अने सौंदर्यनी वात सर्वे राजाउँमा वेगथी फेलाई, तेथी ते सर्वे राजाए पोताना अथवा पोताना कुमारोना पटो चितरारावीने प्रधानोनी साथे अंजनकेतु राजा पासे मोकल्या. अंजनकेतु राजा पण वय, रूप, कुल, ऐश्वर्य, विद्या, शील अने पराक्रमनी परीक्षा करवा माटे ते सर्वे राजाना पट्टने जोतो बतो जवेरी जेम वज्रमणिना गुणोनी परीक्षा करे तेम परीक्षा करवा लाव्यो. एक वखत दत्तकुमारनुं अने पवनंजयनुं रूप अंजनासुंदरीने मलतुं श्राववाथी अंजनकेतु रा. जाए ते बन्ने पट्टो हाथमां लश् प्रधानने थाप्या अने पूब्यु के, “श्रा बनोमां वधारे रूपवान् अने गुणवान कोण ?” प्रधाने कडं “हे देव ! रूप तो दत्तकुमारनुं वधारे डे; परंतु केवलीए कह्यु के-ते दत्तकुमारजन्मथी अढारमे वर्षे मोद जशे." पडी " अधिक गुणवान् बतां अल्पायुष्यने लीधे ते दत्तकुमारने कन्या आपी शकाय तेम नथी.” एम धारीने अंजनकेतु राजाए तेने पोतानी पुत्री थापी नहीं. एवामां नंदीश्वर द्वीपमा शाश्वत क्षेत्रनी यात्राने विषे म्होटि समृद्धिथी अनेक विद्याधरो एका थया हता. त्यां अंजनपुरना अधिपति प्रल्हाद राजाना पुत्र पवनंजयने जोश्ने अंजनकेतु राजाए पोतानी पुत्री अंजनासुंदरी तेने श्रापी. निमित्तियाए थोडा दिवसने आंतरे खमनो दिवस श्राप्यो; तेथी Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजनासुंदरीनी कथा. २१५ अंजनकेतु राजा श्रने प्रबहाद राजा पोतपोताने घेर जश् महोत्सव पूर्वक लग्मनी सामग्री करवा लाग्या. पडी अंजनकेतु राजाए प्रल्हाद राजाने जान लश् श्राववा माटे कंकोत्री लखी; ते उपरथी प्रल्हाद राजा पोताना सर्व खजनोने बोलावी जाननी तैयारी करवा लाग्यो. कह्यु डे के- समृद्धि बतां कया कया पुरुषो उद्यमवंत नथी थता ? अ र्थात् सर्वे थाय . ___ हवे झपनदत्ते पोताना मित्र पवनंजयने कयु. “ हे मित्र! श्रापण बन्नेनो परस्पर मित्रपणाथी थयेलो स्नेह हवे स्त्रीना प्रेमथी तूटशे." पवनंजये हसीने कडं. " हे सखे! मने कौतुक उत्पन्न थयु , माटे श्रापणे बन्ने जणा रात्रीए को न देखे तेवी रीते ते अंजनासुंदरीने जोश श्रावीए.” श्रावो विचार करीने ते बन्ने मित्रोए कालो पोषाक धारण करी, वैमान उपर बेसी, आकाशमार्गे थश्ने सासराना घरमा प्रवेश कस्यो अने ज्यां अंजनासुंदरी तथा सखिर्ड परस्पर वातो करती हती त्यां श्राव्या. ते वखते को एक सखि अंजनासुंदरीने कदेती हती के, "हे सखि! ते जे पति प्रथम धास्यो हतो, ते अल्प आयुष्य जोगवी मोद जनारो ने तो सारा पण अल्प आयुष्यवाला पतिए करीने शु? कारणके तृप्ति.विना पतिनो वियोग ए असह्य पुःखरूप बे. " अंजनासुंदरीए कडं. " सखि! श्रावी वात करवाथी शुं ? तें मुनश्री सांजव्युं के, अमृतनां गंटा पण घणां मुझन.” श्रावां तेनां वचन सांजली तिरस्कार करेला सिंहनी पेठे क्रोधथी जेनारातां नेत्र थ गयां डे एवो ते पवनंजय कुमार पोतानुं खड्ग उगामीने जेटलामां तेने मारवा माटे दोडतो हतो तेटलामां झपनदत्त मित्रे तेना हाथमांश्री खड्ग पा, खेंची लग्ने कयु. “ अरे मित्र! अयोग्य कार्यनो श्रारंज श्रेष्ठ पुरुषोने घटे खरो ? एक तो पारका घरमां श्राव्या बीए; बीजुं रातनो वखत ; तेमां वली स्त्रीनो वध करवाने तप्तर थायजे. ज्यां सुधी तुं एने परण्यो नथी; त्यांसुधी ते स्त्री दारी नथी; माटे तुं तेने मारवाने योग्य नथी. "श्रा प्रकारे मित्रे स्त्रीना वधथी निवृत्त करेलो पवनंजय खगने म्यानमां नाखी तेनाथी विरक्त चित्रवालो थयो थको पालो पोताने घेर गयो. हवे प्रल्हाद राजाए लग्मनो दिवस पासे श्रावेलो होवाथी अनेक ह Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ शीलोपदेशमाला. स्ति, अश्व, रथ अने पायदलवाली जाननी तैयारी करवा मांडी. मृदंग विगेरे अनेक वाजींत्रोना मंगलिक शब्द थवा लाग्या. ते वखते केटलीक सुवासीनी स्त्री पवनंजय कुमारने मंगल स्नान कराववाने तथा वस्त्राजरण धारण कराववाने त्यां श्रावी. कुमारे वेगयी थावेली ते स्त्रीउने जोश्ने तेउने तथा पोताना मित्रने पोतानो अभिप्राय दर्शाव्यो. “ तमे श्रा शो श्रारंन करो डो? जेम सजन माणस पुष्ट वातनी श्छा करतो नथी तेम हुँ पण श्रावा अयोग्य कर्म करवानी श्छा करतो नथी.” कुमारनां श्रावां वचन सांजली विलक्ष्य बनेली सर्व स्त्रीए ते वात पद्मा वतीने कही एटले ते पद्मावती सर्व स्त्री सहित त्यां श्रावी कुमारने कहेवा लागी. “ हे वत्स ! तें साधारण मनुष्योनी आशा पूर्ण करी , तो पठी प्रत्यारे तुं माताने निराश करवाने योग्य ने खरो ? " विवाहनी सामग्री एकठी करवामां व्याकुल चित्तवाला प्रल्हाद राजाए पण श्रा वात सांजली; तेथी ते पण कुमार पासे श्रावीने कहेवा लाग्यो. "अरे ! नीच माणसोने योग्य अने लजा पमाडनारुं श्रा शुं संजलाय ने ? शुं अमे श्रारंजेवं कार्य क्यारे पण शिथील थाय खरं ? अमे जी. वतां बतां ते कन्याने बीजो कोण परणशे ? जेम शंकरे चंजना ककडाने श्रादरथी धारण कस्यो , तेम कोइ पण श्रादरेला कार्यने बोडी दे खरो ?” श्रा प्रकारे क्रोध सहित अहंकारथी बोलता एवा प्रल्हाद रा. राए पवनंजय कुमारने हाथे पकडी वाहन उपर बेसास्यो. कर्वा डे केकुलवान् माणस लङाथी पण पूज्य पुरुषोनां वचनने मिथ्या करता नथी. पडी पवनंजय कुमार क्रोधने गुप्त राखी तेउनी साथे चाख्यो. ते वखते सुवासिनी स्त्रीउए उत्तम प्रकारेमंगल करेलो, मुकुट, हार, बाजुबंध वगेरे महामुख्यवालां श्राजुषणोथी सुशोनित थर रहेलो, चंद्रमंडलना सरखा श्वेत उत्रने धारण करतो, गंगानदीना तरंगो सरखा बन्ने बाजुए चंचल एवा चामरोयी सुशोजित थ रहेलो, दानश्री प्रसन्न थएला मागण जनोए उच्चार करेला जय जय शब्दने सांजलतो, दृष्टिथी सर्वनो सत्कार करतो; तांबुलथी सुशोजित मुखवालो अने जानमां सौनी श्रागल चालतो एवो ते कुमार, देवसेनाने विषे कार्तिकस्वामिनी पेठे अत्यंत शोजवा लाग्यो. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजना सुंदरीनी कथा. पढी कन्याना तरफथी म्होटा अधिकारी संबंधिठ सामैयुं करी जानने बलिराजाना यज्ञमंडप सरखी पोतानी नगरी प्रत्ये लश् गया. त्यां दान, मान, जोजन अने नेटो विगेरेथी सौने संतोष पमाडी विवादनुं मंगल कृत्य कयुं. ते समये योग्य अवस्थावाला अने योग्य रूपवाला ते पवनंजयकुमार अने अंजना कुमारी चंज अने रोहिणीने पेठे लोकमां अत्यंत प्रशंसा पाम्या. पली प्रहाद राजाए पोताने घेर श्रावी स्वजनोने तुष्टीदान श्रापी सौ सौने घरे जवाने विदाय कस्या. पड़ी शुद्ध कुलाचारमां परायण एवी अंजनासुंदरीए पोताना गुणेकरीने लदमीनी पेठे सर्व कुटुंबने प्रसन्न कलुं, परंतु केवल पूर्वना पुष्ट कमना परतंत्र पणाए करीने पतिए तेनो चांमालणीनी पेठे दृष्टिथी पण स्पर्श कस्यो नहीं. पतिने विषे नक्तिवाली, प्रीतिवाली अने महासती एवी ते अंजनाकुमारी, जेम रोगवालाने घीनुं जोजन हर्ष श्रापनालं यतुं नथी तेम पतिने हर्ष पमाडनारी थ नहीं. वली कर्मनी विकृतिने जाणती अने पतिनी नक्तिने उबंधन न करती एवी ते अंजनाकुमारीए समुपनी पेठे पोतानी मर्यादाने बोडी नहीं. एवामां विष्णुना प्रतिपदथी वरुणनी साथे युक करवा जता एवा रावणे पोतानी सहाय्य माटे प्रल्हाद राजाने बोलाववा माणसमोकट्युं. ते वखते युद्ध जोवामां आश्चर्यवाला तेणे पोतानुं सैन्य एकतुं करवाने माटे पटह वगडाव्यो. ते वात सांजली पवनंजय कुमार विचार करवा लाग्यो के, “म्हारा सरखा पुत्र बतां पिता युद्ध करवा जाय ए योग्य नथी.” पड़ी तेणे पिताने प्रणाम करीने बीहुं लीधुं. कर्वा के-धुरंधर पुत्र पिताने प्रयासनो हेतु थतो नथी. पनी मातानी आज्ञा लेवा जवाने श्कता एवा पतिने जाणीने खेदयुक्त मनवाली अंजनासुंदरी सासुना घर प्रत्ये श्रावीने एक बाजुए स्तंननो आश्रय करीने उनी रही. हवे पवनंजय कुमार पण बखतरने धारण करी, सैन्यने प्रयाण करवानी आज्ञा पापी पोते मातानी आशीष लेवाने माटे तेमना घर प्रत्ये श्राव्यो. त्यां पोताना चरणमां पडी प्रणाम करता एवा पुत्रने श्राशीष थापी माताए तेने योग्य शीखामण दर युद्धमा जवाने माटे आशा श्रापी. स्तंननो श्राश्रय करी निश्चलपणे उनी रहेली अने पतिनी ह २० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ शीलोपदेशमाला. ष्टिने श्रुती एवी ते अंजना सुंदरी रूपवडे पुतलीनी पेठे शोजती हती. पड़ी माताना घरेथी विदाय थता एवा कुमारे उदासीनी पेठे ते प्रियानो दृष्टिथी पण स्पर्श कस्यो नहीं; तेथी तो नेत्रनाजले करीने पृथ्वीने सिंचन करती अने शून्य चित्तवाली थएली ते कुमारी पाली पोताना घरे श्रावी. हवे कुमारे पण त्यांथी प्रयाण करी मानस सरोवरने कांठे सुखे पहेलो पडाव कस्यो. त्यां संध्या वखते चकलीउँनो कोलाहल शब्द सांनली तेणे पोताना मित्रने पूज्यु के, " हे ना! श्रा पदि शा माटे पोकार करे ?" मित्रे उत्तर प्राप्यो. “ हे देव ! जाग्यना वश्यथी आ पदीनां जोडलांउनो दिवसे संयोग थाय बे अने रात्रीए वियोग थाय . अत्यारे रात्री थवानो वखत , माटे पतिना वियोगनो शोक करती एवी चकली बांसुनी धाराऊने वरसावे . वली हे जाइ! जीवती बती मूवाना सरखी ते स्त्री सवारे पोताना पतिना मेलापनी श्छा करे . एवामां अंजना सुंदरीना जोगांतराय कर्मनो क्ष्य थवाथी पवनंजय कुमारे पोताना मित्रने कह्यु. “अरे मित्र ! पदिउँ पण एक रातनो विरह सहन करी शकता नथी, तो पड़ी में बार वर्ष थया त्याग करेली प्रियानी शी अवस्था थर हशे ? माटे हे सखे ! हुं तेने मलवानी श्छा करुं बुं. तो हुं हवणा जर तेने मली पाठो श्रावु बु.” मित्रे रजा श्रापवाथी कुमार तत्काल पोताने घरे आव्यो. क्षणवार बारणा आगल उ. जो रह्यो. तो तेणे विलाप करती एवी पोतानी महासती स्त्रीने दीठी. पडी तेणे पोताना पागा श्राववानी वात कही बारणुं उघडाव्यु. पली तेज दिवसे स्नान करेली ते महासतीरूप पोतानी स्त्रीने सेवन करी शांत चित्तवालो थएलो ते कुमार तेने एंधाण रूप पोतानी मुखिका (वीटी) आपी पाबो सेन्य प्रत्ये श्राव्यो. पतिना श्रादरथी हर्ष पामेली अने पूर्वनी पुर्दशा नूली गयेली अंजनासुंदरी पण पोताना श्रात्माने सफल मानवा लागी. कर्वा डे के- स्त्रीउने आशा (गर्न ) एज जस्कृष्ट सुखरूप . हवे अंजनासुंदरीने त्रीजे मासे कंश्क गर्न प्रगट थयो; तेथी “श्रा असती .” एम ससराए धातूं. पली शुक्ल पक्षना चंजनी पेठे जेम जेम दर्षने श्रापनारो गर्न वृद्धि पामवा लाग्यो तेम तेम लोकमां कलंक Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजनासुंदरीनी कथा. शए पण वधवा लाग्यो. गर्न पूर्ण वधवाथी पासेना माणसोए कलंक संबंधी वात अंजनासुंदरीने कही; तेथी तेणे पतिनी एंधाणवाली मुखिका सासुने बतावी. सासु पद्मावतीए कह्यु. “ म्हारा पुत्रे दृष्टिथी पण त्हारो सत्कार कस्यो नथी, तो पड़ी युद्ध करवा गयेला तेणे पागवलीने त्हारो अंगीकार कस्यो, ए त्हारं वचन मिथ्या केम नहीं होय ? अर्थात् ए हारं वचन मिथ्या . आवी रीते मिथ्या कलंकवाली थएली अने धिक्कार पामेली ते अंजनासुंदरीने सासुए घर बहार काढी मूकी. कह्यु डे के- दोषवालाने विषे पक्षपात करनारा वीरला होय . - पनी निराधार थएली ते पोतानी पूर्ण प्रेमवाली बालसखीनी साथे पिताना घर तरफ चाली. त्यां गया पली माता पिताए पण गर्जनी वात सांजलीने तेने काढी मूकी. कयु के के-दोषवालाने कोइ पोतानुं थतुं नथी. पनी वजने करेला अपमानथी अत्यंत लजा पामेली अने जीवितने विषे श्रादररहित थएली ते अंजनाकुमारी रुदन करती ती त्यांथी चाली निकली. लजाने लीधे को पण गाममां न जतां पोताना शुरू शीलव्रतथी रक्षण कराएली ते वनने विषेज जमवा लागी. कंद, मूल अने फलनो आहार करती, ऊरणाना जलनुं पान करती अने एक दासीनी सहायवाली ते सुंदरी वनने विषे निर्जयपणाथी रहेवा लागी. पनी अवसर प्राप्त थयो एटले जेम वैडुर्यनूमि वज्रमणिने जन्म आपे तेम अंजनासुंदरीए सूर्यना सरखा जाज्वल्यमान तेजवाला एक पुत्रने ते महावनमां एक स्थानके जन्म थाप्यो. सिंह, वाघ, हस्ति, चोर, जल अने अग्निवाला ते वनमां पण महासती अंजनासुंदरी पोताना शीलवत रूप शस्त्रथी निर्जयपणे वन वन प्रत्ये फरती हती. एक दिवस अंजनासुंदरीए पाणीनी शोधने माटे वनमां मोकलेली दासीए पर्वतना शिखर उपर कायोत्सर्ग करीने उन्ना रहेला मुनिने दीग. पली दासीए तेने वात कही एटले अंजनासुंदरी तृषाने नूली जश् पुत्र तथा दासीने साये लश् त्यां मुनिपासे गश् अने तेमने नक्तिथी वंदना करी. मुनिए कायोत्सर्ग पारीने धर्मलाल दीधो. पड़ी धर्मोपदेश सांजलवाने पोतानी श्रागल बेठेली ते महासतीने तेमणे धर्मोपदेश दीधो के,“ हे महानागे! आअपार छुःखथी जरेला संसारमां आशाने श्राधिन Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० शीलोपदेशमाला. थर रहेला प्राणिउने धर्मविना बीजु कोइ पण रक्षण करनार नथी. संयोग अने वियोग ए पण कर्मने श्राधिन , बतां मोहने वश थएलो प्राणी बीजाउने दोष आपे बे ते मिथ्या . जोगववा योग्य कर्मने को पण प्राणी फेरवी शकतो नथी. जीव पोते करेला कर्मने जोगवीने पड़ी श्ष्ट वस्तुने पामे बे. श्रावक अने यति ( साधु ) ना नेदयी धर्म बे प्र. कारनो कहेलो . ते धर्म स्वर्ग अने मोद मेलवी श्रापवानुं कारण तथा कुःखना नाशनुं कारण . श्रा प्रकारनो अरिहंतना धर्मनो उपदेश सांजलीने थयो ने वैराग्य जेने एवी ते अंजनासुंदरीए थनिग्रहसहित सम्यक्त्व धारण कगुं. पड़ी ते सतीए उपदेशथी महात्मानुं ज्ञानातिशयपणुं जाणीने पूज्यु के, “ हे जगवन् ! मने क्या कर्मवडे श्रावु फुःख उत्पन्न थयुं ?" महात्माए कडं. " हे नडे ! तुं पूर्वजवने विषे कोई एक शेउनी स्त्री हती. त्हारे जैनध मां प्रीतिवाली एवी बीजी शोक्य हती. तेने एवो अनिग्रह हतो के, ते हमेशां जिनेश्वर प्रजुनुं धूप दिप विगेरे अनेक उपहारथी पूजन करती हती; तेथी तुं तेना उपर वृथा आग्रहथी केष करती हती. एक दिवस शोक्य उपर ा करती एवी तें क्रोधथी जिनेश्वर प्रजुनी प्रतिमाने उकरमामां माटी दीधी, ते उपरथी श्राविका एवी त्हारी शोक्ये प्रजुनुं पूजन कस्या विना बार देणसुधी जोजन कझुं नही. ठेवटे तें तेने प्रजुनी प्रतिमा थापी. ते कर्मनुं था फल तने प्राप्त थयु डे के, जे तने बार वर्षसुधी पतिनो वियोग थयो. हवे ते फल जोगववानो थोमो वखत .” श्रावां महात्मानां वचन सांजली नक्तिथी हाथ जोडी अंजनासुंदरीए पूब्यु. “ हे स्वामिन् ! मने अनुसरी रहेली था दासी कया कर्मथी पीमा पामे ले ?” मुनिए उत्तर प्राप्यो के, “हे धर्मशीले । जे वखते तुं जिनेश्वर प्रजुनी प्रतिमाने उकरडामा माटती हती; ते वखते एक बाजुउँथी उघामी रही गएली ते प्रतिमाने जोश्ने था हारी धर्मचारिणीए तने वारंवार कयु हतुं के,श्रा प्रतिमा श्रानी तरफथी उघाडी रही जाय ." तेनां श्रावां वचनथी तें प्रजुनी प्रतिमाने वधारे ढांकी दीधी. ते कारण माटे या त्हारी दासी पण पूर्वना कर्मनुं फल नोगवे .” मुनिनां १ एकसोविश पल अथवा बे घडी. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजनासुदरीनी कथा. श्रावां वचन सांजली विस्मय पामेली सती अंजनासुंदरी सुख दुःखने विषे कर्मनुं प्रबलपणुं मानवा लागी. वली तेणे मुनिने पूज्यु, “ हे जगवन् ! म्हारा शुनकर्मनो उदय क्यारे थशे ? थने मने था जवमां पतिनो संग थशे के नहीं ? " मुनिए उत्तर प्राप्यो. “ हे महासत्वे ! हारूं पूर्वजन्मना पुराचरण- फल पूर्ण थवा श्राव्युं बे; माटे तुं अहिंज रहे. कारण के तने त्हारा मामानो मेलाप अहिं थवानो ने. वली तेना घरने विषे पिताना घरनी पेठे रहेली एवी तने त्हारा पतिनो मेलाप थशे." श्रा प्रकारना श्राश्वासनथी महात्मानी सेवामां तत्पर एवी ते महासती अंजनासुंदरी सत्वगुणनो आश्रय करीने तेज पर्वतना शिखर उपर रही. __ हवे तेनो मामो सूर्यकेतु विद्याधर नंदीश्वरनी यात्रा करीने पालो घेर जतो हतो, एवामां तेनुं वैमान चारणमुनिना प्रजावधी स्तंभित थर गयु. कयु डे के-क्यारे पण तीर्थनुं उबंधन यश् शकतुं नथी. विद्याधरे पण पर्वतना शिखर उपर उतरीने पुण्यना लाजश्री पोताना आत्माने धन्य मानता सता हर्षथी मुनिने वंदना करी. पठी साधर्मिकने वंदना करता एवा ते विद्याधर वाणी अने रूपना अनुमानथी पोतानी नाणेजने उलखीने अत्यंत आनंद पाम्यो. पनी तेनी सर्व वात सांजली दयाथी निंजार गएला हृदयवालो ते विद्याधर पोतानी जाणेजने साथे लक्ष त्यांथी घर तरफ चाख्यो. पोतानी जाणेजना पुत्रने मनोहर वाणीथी लाड लडावतो ते वैमानमां बेसीने आकाशमार्गे चालतो हतो ते वखते वागती एवी घुघरीउँना मनोहर शब्दश्री हर्ष पामेलो अने कान दश्ने ते शब्दने सांजलतो ते बालक ध्यानमा रहेला योगी पुरुषनी पेठे स्थिर थश्ने रहेतो हतो. ___ एक वखते ते बालक चपलपणाने लीधे हाथवके वैमाननी घुघरी ने खेचतो हतो, तेवामां ते मामाना खोलामांश्री नीचे पृथ्वीपर पडी गयो. ते जोश्ने अंजनासुंदरी शोक करवा लागी के, “ हा दैव! तुं मने या प्रकारचें कुःख आपतां बता पण तृप्ति न पाम्यो के, जेथी पुत्रना मुखने जोवारूप म्हारूं सुख हाराथी सहन थर शक्यु नहीं. हा ! सुखनी श्राशासहित था वैमानमां बेठेली हुं हणाएली डं, कारण के म्हारो बालक शिलाथी अथवा पाषाणथी निश्चय चूर्णरूप थर गयो हशे." नाणेज श्रा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. प्रकारे शोक करती हती, एवामां सूर्यकेतु विद्याधर तत्काल वैमानमांथी नींचे उतरीने जे ठेकाणे बालक पड्यो हतो, त्यां आव्यो अने तेणे जोडे तो वज्रना सरखा शरीरवाला कुमारना पमवाथी चूर्ण थर गयेली शिलानी रेतीमां ते बालकने रमतो दीठो. पड़ी तेणे बालकने मस्तकमां सुंघी स्नेहथी शरीरे हाथ फेरवी जेम कादवमांथी मणि लश् ले तेम तेने ल लीधो. पडी हाथरूप कमलमां राजहंसनी पेठे लाड लडावता एवा ते विद्याधरे पोतानी नाणेजने जाणे बालकनी नेट आपतो होय नहीं शुं ? एम ते पुत्र अर्पण कस्यो एटले सती अंजनासुंदरी अखंडित अंगवाला पुत्रने जोश्ने अत्यंत आनंद पामती ती प्राप्त थएला अव्यना जंडारनी पेठे तेनो वारंवार स्पर्श करवा लागी. सूर्यकेतु विद्याधरे पण " आ बालके शिलाने चूर्ण करी नाखी बे." एवं धारीने तेनु"शिलाचूर" एवं नाम पाड्यु. पनी ते उत्सवसहित पोतानी नाणेजने पोताने घरे तेडी गयो, कारण के बहुकाले खजननो मेलाप थवाथी कुटुंबी घj करीने हर्षवंत थाय जे. पली ज्यां त्यां दीन श्रने श्रनाथने दान श्रापवामां तत्पर एवी तेअंजनासुंदरी उत्तम धर्मकार्यश्री दिवसोने निर्गमन करवा लागी. सुकोमल अंगवालो कुमार शिलाचूर पण मामाने घेरे वसतो तो ताराउने विषे चंजमानी पेठे एक बीजाना हाथप्रत्ये फरवा लाग्यो. पड़ी तेउनी वात देशोदेश अने गामोगाम कस्तुरीना गंधनी पेठे चारे तरफ फेला ग. __ हवे अहिं पवनंजयकुमार वरुणने जीती विजयनां वाजिंत्रोने वगडावतो बतो पोताना नगरप्रत्ये श्राव्यो. त्यां तेणे पिताना चरणमां नमस्कार करी, मातानी श्राशीष लर, बीजी सुवासिनी स्त्रीउनी पण आशीष धारण करी सर्व जनोनो वाणीथी सत्कार कस्यो. पनी उत्सवने विषे पण उत्सव सरखा स्त्रीना मुखकमलने जोवानी श्याथी हाथी जेम पोताना निवासस्थानमां श्रावे तेम ते पवनंजयकुमार पण पोताना निवासगृहप्रत्ये श्राव्यो. त्यां देवरहित देवालयना सरखा प्रिया विनाना घरने जो विरहथी व्याकुल बनेलो ते चित्रशालाने ज्वालासमान, मंदिरने जंबाडीथासमान, राज्यने जोथा समान अने पोताना प्राणने तृणसमान मानतो बतो विलाप करवा लाग्यो. " हा कांते ! तुं क्यां ग डे ? हे शांते ! जे Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजनासुदरीनी कथा. २२३ रात्रीए श्रापणे मख्यां हतां, ते वखते पण तें कोई स्थानके जवानुं मने कडं न होतुं. म्हारा घरमांधी जती एवी तने विधात्राए पण रोकी नहीं; तेमज सारा विचारवाला मंत्रीप्रमुखे पण न रोकी ! अरे! कुछ एवा माता पिता पण ते दिवसथीज आपत्तिने विषे श्रावी पड्या ने के, जे म्हारा श्रावता सुधीमां तने रोकी शक्या नहीं. निश्चय ते मरी गई हशे अथवा तो कोई घातकी जीवोए नक्षण करी हशे! अरे खोवाइ गएबुं तेवं रत्न निर्जागी पुरुषने क्याथी मलशे ? हे न ! हे सुंदरि ! हे गुपसमुह ! हुं जीवीश त्यांसुधी त्हारा स्नेहनो देणादार मटी सकीश नहीं.” श्रावी रीते विलाप करता अने शोकथी पीमा पामेला पवनंजय कुमारे तत्काल बली मरवाने माटे चंदनना काष्टनी चिता रची, माता पिताए विविधप्रकारना वचनथी प्रतिबोध पमाडेला एवाय पण ते कुमारे वियोगरूप विषयी पीमा पामवाने लीधे पोताना मरणना आग्रहने बोड्यो नहीं. एवामां रुपनदत्त मित्रे त्यां श्रावी कुमारने श्रालिंगन करीने पड़ी कालादेप करवाने माटे त्रण दिवसनी मुदत मागी. वली तेणे कडं के, "अंजनासुंदरी पोताना शीलप्रनावथी जीवती हशे; माटे हुंज्यांसुधीमां तेनी शोध लावं, त्यांसुधी तुं वाट जो." श्रा प्रकारनी प्रतिज्ञा लश्कपत्नदत्त वैमानमां बेसी गरुडनी पेठे तत्काल आकाशमार्गे चाख्यो. शेहेर, उपवन, गाम अने नगरादिकने विषे नमतो तथा स्त्री बालकनी वातोने सांजलतो ते त्रीजे दिवसे सूर्यपुरना उद्यानमां श्रावी पहोच्यो, त्यां कीमा करती एवी स्त्रीउना मुखथी तेणे श्रावी वात सांजली के, “शिलाचूर कुमारना सरखो बीजो को बालक रूपवालो नथी." था वात सांजलीने झषनदत्त विचार करवा लाग्यो के, “श्रा वात अंजनासुंदरीना पुत्रनी होय एम जणाय ." पड़ी ते षजदत्त वातो करती एवी स्त्रीउनी पासे ज अंजनासुंदरी मामाने घरे श्रावी ते दिवसथी श्रारंजी थाजसुधीनी सर्व वातो सांजली श्रानंद पाम्यो. पड़ी ते सूर्यकेतु राजानी सनामां गयो. त्यां तेणे खोलामां पुत्रने लश्ने बेठेली अंजनासुंदरीने दीठी. महासती पण पोताना पतिनो मित्र श्राव्यो जाणीने लजाने लीधे ब्रम सहित उनी थइ. पली सूर्यकेतु राजाए अंजनासुंदरीनुं सर्व वृत्तांत कही Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ शीलोपदेशमाला. संजलायुं ते उपर महा आश्चर्य पामेला रुषजदत्तनो महासतीए आदर सत्कार करो. पी जनासुंदरी आली स्नान, पान ने जोजननी सामग्रीनो उपोग करीने हर्षथी व्याप्त थपला हृदयवाला रुषजदत्ते कयुं. " पुत्रसहित अंजनासुंदरीने जोवाथी म्हारो सर्व श्रम निवृत्ति पाम्यो बे. कथं वे के - सफल यएला कार्यवालाने श्रम श्यो ? कुमार पवनंजय वरुणने जीती स्नेह ने मनोरथसहित उत्सवपूर्वक पोताने घरे व्यो. पण ते प्रियाने न देखवाथी आकुल व्याकुल घने अग्निमां प्रवेश करवा मांड्यो हुं तेने त्रण दिवसनी मुदत थापी अंजनासुंदरीने शोधवामाटे निकल्यो तुं, माटे हवे तेने म्हारी साथे मोकलो, जेथी ते बन्ने जानुं कुशल थाय. वली सेंकडो कालोवालो या तमारा उपकाररूप वृक्ष पण निरंतर वृद्धि पामो रुषजदासनां श्रावां वचन सांगली समयने जाणनारा ते सूर्यकेतु राजाए तेनीसाथे पुत्रसहित पोतानी जाजने तेने सासरे मोकली. पढी दर्षना वेगथी महासतीने वैमानमां बेसारीने रुषजदास तत्काल प्रल्हाद राजाना नगरना उद्यानमां श्राव्यो. त्यां ते अंजनासुंदरीने राखी पोते राजापासे जइ पुत्रसहित अंजनासुंदरी श्राव्याना खबर कही तेने श्यानंद पमाड्यो, ते उपरथी दर्ष पामेला छाने संचमित मनवाला थएला सर्वे माणसो रुषजदत्तनी वाणीने जीवतरना औषधरूप मानवा लाग्या. पठी नविन उदय थएला चंद्रसरखा पवनंजय कुमारना पुत्रने जोवा माटे समुद्री पेठे सर्वे नगरवासी जनो तेना सामा जवा लाग्या. प्रल्हाद राजा म्होटा उत्सवपूर्वक पुत्रसहित वधु ( श्रंजनासुंदरी ) ने पोताना नगरमा प्रवेश कराव्यो. प्रसन्न चित्तवाली सासु पण अत्यंत प्रसन्न थने गुणो करीने परीक्षा करायली बहुने बहु मान यावा लाग. aja - खाणवायोग्य पुत्रवाली पतिव्रता स्त्री कोने हर्ष अपनारी यती नथी ? कल्पवेल जातेज श्रेष्ठ होय बे. तेमां वली फल याय एटले शुं कहे ? पठी शुद्ध वैराग्यना तरंगरूप अंजनासुंदरीए पूर्वना जन्मनुं स्मरण करीने अरिहंत प्रजुना धर्मने श्राचस्यो. पवनंजयना पुत्र शिलाचूरनं सर्व संबंधिजनोए हर्षथी "हनुमान" एवं नाम पाड्युं. प्र Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजनासुंदरीनी कथा. व्हाद राजाए पण निर्मल एवी पुण्यनी सामग्री प्राप्त करी अने पुत्रने राज्याभिषेक करी पोते दीक्षा लीधी. पली महापराक्रमवालो पवनंजय राजा लीलामात्रयी समग्र पृथ्वीनुं पालन करवा लाग्यो. जेवी रीते रामचंने सीता पट्टराणी हती अने इंजने इंसाणी पट्टराणी ने तेवीज रीते पवनंजय राजाने पण अंजनासुंदरी पट्टराणी थश. तेथी महापुण्यवालो ते पवनंजय अंजनासुंदरीनीसाथे धर्म अर्थ अने कामना साररूप राज्यसुखने जोगववा लाग्यो. युवावस्थारूप पुण्यना अंगोपांगे करीने मनोहर एवो हनुमान पण औदार्य, शौर्य अने गांभिर्य विगेरे गुणोनी साथे वृद्धि पामवा लाग्यो. हवे ते वखते विशमा तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत खामीना तीर्थने विषे केटलाक प्राचार्यों ते नगरने विषे विहार करता हता. तेमनी देशना सांजलीने वैराग्यवंत थएली अंजनासुंदरीए दीक्षा सेवा माटे पतिपासे प्रार्थना करी. पवनंजयकुमारे तेने बहु आग्रह करीने समजावी पण ज्यारे तेणे पोतानो आग्रह डोड्यो नहीं त्यारे पवनंजयकुमारे पण प्रियानी साथे चारित्र अंगीकार कह्यु. पठी ते स्त्री पुरुष निरतिचारपणाथी चारित्र पाली स्वर्गे गया. त्यांथी ते मोद पामशे. हे नव्यजनो! श्रा महासती अंजनासुंदरीना आश्चर्यकारी चरित्ररूप चंदनने हृदयमां धारण करी शीलव्रतरूप सुगंधि अव्यथी पोताना शरीरने शीतल करो. ॥ इति अंजनासुंदरीनी कथा ॥ ॥नर्मदासुंदरीनी कथा ॥ श्रा नरतत्रने विषे जे नगरनां देरासरो उपर रहेली ध्वजाउँ जाणे स्वर्गसंपत्तिनो तिरस्कार करती होय नहिं शुं ? एम शोजती हती एबुं लक्ष्मीए करी मनोहर वर्षमान नामे नगर ले. त्यां जेना शत्रुनी अपकीर्तिथी जाणे श्राकाश श्यामवर्णवालु थर गयुं होय नहिं शुं? एम देखातुं हतुं. त्यां रूपथी कामदेवना गर्वने नाश करनारो श्री संप्रति नामनो राजा राज्य करतो हतो. ते नगरमां षनसेन नामनो सार्थवाह रहेतो हतो. तेने जेम धर्मने स्त्री धीरज ने तेम वीरमती नामनी स्त्री हती. तेमने न्यायवंत एवा सहदेव अने वीरदास नामना बे पुत्रो तथा लाव २९ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ शीलोपदेशमाला. एयना जंडाररूप कृषिदत्ता नामनी पुत्री इती. षनसेन सार्थवादे पोतानी पुत्री, मागु करतां एवा पुरुषोने मिथ्यादृष्टिवाला जाणीने कोश्ने श्रापी न हती. __को एक दिवस रुजदत्त नामनो महाधनवंत वणिक् पुत्र रूपचंड नगरथी ते नगरमा वेपारने अर्थे श्राव्यो. ते पोताना मित्र कुबेरदत्तने घरे रहीने पोताना घरनी पेठे स्थिरचित्तथी वेदपार करवा लाग्यो. कोश वखते गोखमां बेठेलो ते रुदत्त पोतानी सखि सहित रस्ते जती, उचां स्तनवाली श्रने राजहंसना सरखी चालवाली ऋषिदत्ताने जोर चंड सामुं जो रहेला चातक पदीनी पेठे स्थीर थर गयो. पडी तेणे कुबेरदत्त पासेथीज “ए ऋषिदत्ता जैनधर्मिविना बीजाने मलवानी नथी. "एवी हकीकत सांजलीने तेना लोजथी पोते मिथ्यादृष्टि उतां जैनधर्म शीखवा मंड्यो. पनी माया ( कपट ) श्रने विवेकवडे वश कह्यू डे चित्त जेनुं एवा षजदत्ते पोतानी पुत्री ऋषिदत्ता रुदत्तने आपी. कयु डे के-धूर्त पुरुषोने दंज एज कल्पवृक्ष डे. पढी शुल दिवसे रुषजसेन सार्थवाहे केटलीक नेटोसहित पोतानी पुत्रीने अदत्तनी साथे परणावी.तेथीते ऋषिदत्ता जेम खेतरने सिंचन करवाथी घडो पोताना आत्माने कृतार्थ माने तेम कृतार्थ मानवा लागी. केटलाक मास वित्या पनी सासु ससरानी थाझा लश् शदत्त प्रियासहित पोताने गाम गयो. त्यां तेणे माता पिताने प्रणाम करीने पली बालक जेम रत्ननो त्याग करे तेम जैनधर्मनो त्याग कस्यो. ऋषिदत्ता पण तेऊना संसर्गथी मिथ्यात्वने सेवन करवा लागी. कह्यु डे के- शबने स्पर्शित थएलो वायु शुं पुगंधताने नथी पामतो ? अर्थात् पामे बे. पडी शुभ जैनधर्मवाला शषिदत्तानां माता पिताए ते वात सांजलीने पुत्रजन्म अथवा विवाह विगेरेना कार्य उपर पुत्रीने न बोलाववानो निश्चय कस्यो. पड़ी केटलाक काले कृषिदत्ताए महेश्वरदत्त नामना पुत्रने जन्म थाप्यो. अनुक्रमे ते पुत्र युवावस्था पाम्यो. हवे ऋषिदत्ताना म्होटा लाइ सहदेवनी स्त्री सुदरीएश्रेष्ठ स्वप्नसूचित गर्नधारण कस्यो, तेथी तेने नर्मदा नदीमां न्हावानो दोहद उत्पन्न थयो. सहदेव पोताना केटलाक सार्थवाहसहित तेने शुज दिवसे नर्मदा न Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्मदासुंदरीनी कथा. दीमां न्हावा तेडी गयो. त्यां यथाविधि पूजन करी ते बन्ने जणा नर्मदा नदीना जलमां क्रीडा करवा लाग्या. पडी पोताना वेपारथी सुखे रहेला तेणे नर्मदा नदीने कांठे नर्मदापुर नामर्नु नगर वसावी तेमां सम्यक्त्वरूप देहना पोषणने अर्थे जाणे पोतानो पुण्यपिंड होय नहिशें? एवं मेरुपर्वतना सरलुं जिनमंदिर कराव्यु. पोतपोताना स्थाननो त्याग करी केटलाक वेहेपारीए जमरा जेम कमलमां निवास करे तेम ते नगरमां निवास कस्यो. पनी वैमुर्यमणिनी नूमि जेम वैर्य शलाकाने प्रगट करे तेम सुंदरीए योग्य समये उत्तम लक्षणवाली एक पुत्रीने जन्म थाप्यो. पिताए पुत्रना सरखो जन्ममहोत्सव करीने तेनुं नाम “नर्मदासुंदरी" पाड्युं. जाणे पूर्वनवने विषेज थन्यास करी राख्यो होय नहि शुं ? एम सर्व कलाऊनो श्रन्यास करती ते नर्मदासुंदरी अनुक्रमे चंडना उदयश्री पूर्णिमाना सरखी यौवनावस्थामा श्रावी पहोची. ___ हवे पोताना जाश्नी पुत्री नर्मदासुंदरीना उत्तम रूपने सांजली ऋषिदत्ता पोताना महेश्वरदत्त नामना पुत्र अर्थे मागु करवानो निश्चय करी विचार करवा लागी के, "अहो ! सडी गएला पगनी पेठे स्वजनोए दूर करेली एवी मने धिक्कार जे. वली जिनधर्मनो त्याग करवाथी हवे म्हारे घj कष्ट सहन करवू पडशे. कारण के माता पिता विगेरे को स्वजन पर्व तिथिने विषे पण म्हारो सत्कार करता नथी, तो पड़ी ते म्हारा पुत्रने पोतानी पुत्री शी रीते श्रापशे ? श्रा प्रकारे विचार करीने रुदन करती एवी प्रियाने जोश रुदत्ते तेनुं कारण पूज्युं. ते उपरथी ऋषिदत्ताए पोतानी सघली वात पतिने कही. महेश्वरदत्त पण पासेज उन्नो हतो; तेथी तेणे ते वात सांजलीने पिताने कडं." हे तात ! मने थाज्ञा आपो, ढं त्यां जश् सर्वे स्वजनोने वश करी मामानी पुत्री साथे लग्न करीने म्हारी माताने हर्ष पमाडं." पिताए रजा श्रापी एटले महेश्वरदत्त थोडा दिवसमां नर्मदापुर नगरने विषे श्राव्यो. त्यां मातामह (मानो बाप) रूषनसेन विगेरे स्वजनोए तेनो लोकलजाथी आदर सत्कार कस्यो. कडं ले के- जैनधर्मवालाउँए क्यारे पण पोताना योग्य श्राचारने त्याग करवो नहीं. अहिं महेश्वरदत्ते पण पोताना धैर्य, गांनिर्य, औदार्य अने वय विगेरे Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श् शीलोपदेशमाला. उत्तम गुणोए करीने पारधी जेम मनोहर गायनथी मृगने संतोष पमाडे तेम ते सर्वे स्वजनोने संतोष पमाड्या. एकदा पोताना खोलामां बेठेला महेश्वरदत्तने मातामहे कयुं. " हे वत्स ! जेम सर्प जांगुली औषधी नो त्याग करे तेम तें मारा जैनधर्मनो त्याग कस्यो बे; माटे हवे अमे तने शुं पीने सुख पामीए ? मातामहनां यावां वचन सांजली महेश्वरदत्ते नर्मदासुंदरीनुं मायुं कर्तुं एटले रुषजदत्ते कयुं. " तें योग्य कयुं बे; परंतु हारुं कुल मिथ्यादृष्टि होवाथी श्रमारुं मन शंका पामे बे. " महेश्वरदत्ते कयुं. " कुल गमे तेवुं हो, तेनाथी शुं ? कारण कमलने धारण करनारा पुरुषो शुं कमलना उत्पत्ति स्थानने जुए खरा ? तमारे मने सर्व परीक्षाथी जैनधर्मि जाणवो.” या प्रमाणे तेणे अनेक सोगन खाइने पोते जैनधर्म एवो ते सर्वेने विश्वास कराव्यो. पढी शषनसेने गौरवपणाथी पोताना पुत्र सहदेवने आज्ञा करी; तेथी तेथे पोतानी पुत्री नर्मदासुंदरी ने महेश्वरदत्तनी साथै परणावी. महेश्वरदत्ते पण चित्र वेलना सरखा अंगवाली ते कन्यानो स्वीकार करी पोतानो मनोरथ पूर्ण कस्यो. नर्मदासुंदरीए पण मदोन्मत्त हाथीनी पेठे तेने धमोपदेशनां वाक्योथी सन्मार्गमां चालनारो अर्थात जैनधर्मि कस्यो. के - लोक काल वित्या पी सासु ससरानी श्राज्ञा लई महेश्वरदत्त पोतानी प्रियासहित हाथी जेम विंध्याचल प्रत्ये जाय तेम पोताना घरप्रत्ये गयो. त्यां पोताना पगमां नमी रहेली नर्मदासुंदरीने खोलामां बेसारी सासु रुषिदत्ता वर्षातुमां वननी लतानी पेठे अत्यंत श्रानंद पामी पढी नमदासुंदरीए स्वर्गगंगानी पेठे पोताना सुकृतरूप जले करीने सासराना घरमा रहेला मिथ्यात्वरूप कादवने धोइ नांख्यो. पतिने हास्योत्सवमां कल्लोला सरखी अने सर्व स्वजनोने मान्य एवी नर्मदासुंदरीए ए प्रकारे केटलोक काल सुखे निर्गमन कस्यो. एक दिवस गोखमां बेठेली, दर्पणमां मुख जोती अने तांबुल ज ण करती एवी ते नर्मदासुंदरी विलास करती बेठी हती. ते वखते गोखनी नींचेना राजमार्गमां थइने विहार करता एवा कोई एक साधुना मस्तक उपर ते जाणथी तांबुलनो रस नाख्यो. ते जोइने ज्ञानवंत साye क्रोधी कह्युं के, “ जेणे या प्रकारे अमारी श्राशातना करी दशे Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्मदासुंदरीनी कथा. तेनो पतिथी वियोग थशे. " मुनिनां श्रवां वचन सांजली अत्यंत खेद पामेली नर्मदासुंदरी तत्काल नींचे उतरीने साधुना चरणमां पडी अने विनंती करवा लागी के, “ हे मुनि ! निर्जाग्य श्रने दुष्ट आत्मावाली हुं आपना श्रापथी बली मूइ बुं; कारण के जे हुं जैनधर्मिणी बता में आपनो या प्रकारे अपराध कस्यो छे. महात्मा तो विश्वने वहाला अने दयारसना समुद्ररूप होय बे, माटे हे प्रजो ! म्हारा था अपराधने क्षमा करो. वली समान दृष्टिवाला मुनि शत्रु उपर क्रोध पामता नथी, स्वजनो उपर मोह पामता नथी छाने पोतानो अपराध करनारा उपर क्रोध पामीने तेने श्राप पण आपता नथी. अपुष्ट जाववाली म्हारे विषे आप क्षमा करो; कारण बेदातुं एवंय पण चंदननुं वृक्ष सुगंधिपणाने आपे बे. " सुनिए कयुं, " हे श्राविका ! सांजल्य. हे वत्से ! तुं वृथा खेद न पाम्य. कारण के जैन साधु क्यारे पण आप आपता नथी ने निग्रह पण करता नथी. में तने श्राप थाप्यो नयी; परंतु व्हारुं जविष्य कहेलुं बे. हे ! त्हारो कर्मना दोषथीज पतिनी साथे वियोग थवानो सृजेलो बे; तो पढी पोताना पूर्वना कर्मने जोगवतो एवो कयो विद्वान् पुरुष खेद पामे ?" या प्रमाणे नर्मदासुंदरीने प्रबोधीने अने तेने शांत करीने सुनिए त्यांथी विहार कस्यो पढी निरंतर निराबाध एवा जिनधर्मनुं पालन करती एवी नर्मदासुंदरी ए केटलोक काल सुखे करीने निर्गमन कस्यो. एक दिवस महेश्वरदत्त वेडेपार करवानी इछाथी अनेक जातना वासो लइ म्लेछ द्वीपने विषे जवा निकल्यो. तेणे पोतानी प्रिया नर्मदासुंदरीने घणा श्राग्रहथी घरे रहेवानुं कयुं, पण ते तो पोताना कदायदी वायुनी साथै पत्रपंक्तिनी पेठे महेश्वरदत्तनी साथे जवा तैयार इ. पढी ते बढ़ाणमां बेसी जेटलामां मध्यसमुद्रमां श्राव्या; तेटलामां ade मध्यरात्रीने वखते कोइनुं गायन सांजल्युं पढी स्वरना लक्ष्ण जाणवामां चतुर एवी नर्मदासुंदरीए मध्यरात्रीए यता एवा ते गायनने सांजलीने पोताना पतिने कधुं. " हे स्वामिन्! जे पुरुष मधुर वाणीथी गायन करे बे; ते श्याम अंगवालो, पुष्ट हाथ पग उपर वालवालो, बलवालो, गुह्यस्थान उपर मशवालो, रक्त नेत्रवालो, जमणा अंग उपर • Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० शीलोपदेशमाला. चिन्हवालो, बावीश वर्षनी उमरवालो अने विशाल गतिवालो होवो जोश्ए." स्त्रीनां श्रावां वचन सांजली महेश्वरदत्त पोताना मनमां विचार करवा लाग्यो के, “ निश्चे विश्वामित्रनी साथे मेनकानी पेठे श्रा म्हारी प्रिया पण कोई मदोन्मत्त पुरुषनी साथे श्रासक्त थएली जणाय . कारण के जो एम न होय तो अमृतने वरसावनारा चंजना वरूपने जाणनारी कमलिनी पेठे तेने बीजा पुरुषना देहना लक्षण- शान क्याथी होय? हुं तेने बाजे सुधी महासती जाणतो हतो; परंतु हवणां तो ते कुलनो बेद करवाने कालकेतुना सरखी जणाय . अरे ! कयो विछान् माणस शाकिनीना सरखी स्त्रीने विषे वि. श्वास करे? के जे स्त्री पोताना खार्थने माटे पति पुत्रादिकने तृणसमान गणे बे. हुं हवां था स्त्रीने उबिष्ट पदार्थनी पेठे समुखमां फेंकी दलं ! अथवा खड्गरूप दंडे करीने कदलीनी पेठे छेदी ना!" श्रावो विचार करीने जेटलामां ते दोषरहित एवी पोतानी प्रियाने विषे कांई पण उद्यम करवा मांडे बे; तेटलामां वहाणना शढ उपर रहेला निर्यामके (वहाण चलावनाराऊना उपरीए) ऊंचा शब्दथी कह्यु के, "अरे ! वहाणने फट उचुं राखो; शढने बांधी व्यो; सांकलोने पकडी ल्यो; कारणके, श्रापणे म्लेव बीपमा श्रावी पहोच्या बीए. वली जल अने काष्ट पण नरी ल्यो.” आवां उपरीनां वचन सांजलीने सर्वे खलासी ते प्रमाणे करवा लाग्या. हवे ते छीपमा रहेलो अने गुप्त मत्सरवालो महेश्वरदत्त एक वखत महासती एवी पोतानी प्रिया नर्मदासुंदरीने क्रीडा कराववाने एक म्होटा अरण्यमां तेडी गयो. त्यां धूर्त एवा महेश्वरदत्तनी साथे वनवन. प्रत्ये जमवाथी थाकी गयेली ते महासती तलावने कांठे वेतस वृदना गहन वनमां सूती. ते वखते पूर्वे संपादन करेला कुकर्मरूप प्राप्त थएली दूतिएज जाणे तेना नेत्रोने बंध करी नांख्या होय नहिं शु? एम तेने नीमा प्राप्त थई. पली महेश्वर विचार करवा लाग्यो के, “जो हुँ श्रा स्त्रीने खा विगेरेना प्रहारथी मारी नाखू तोपण पापनो पात्र थाउं नहीं" या प्रकारे पोताना अपराधने वारंवार स्मरण करता थने ते प्रियानुं मृत्यु श्छता ते महेश्वरदत्ते जेम आंधलो माणस सर्पनी भ्रांतिथी Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्मदासुंदरीनी कथा. २३१ पुष्पनी मालाने त्याग करे अने जेम पोपट फोतराथी ढंकाएला चोखाना ढगलानो त्याग करे तेम तेनो त्याग कस्यो पढी ते विलाप करतो करतो पाठो वा पासे व्यो. खला सिए तेने विलापनुं कारण पूब्धुं एटले तेणे उत्तर आप्यो के, " म्हारी प्रियाने वनमां कोईएक राक्षस क्षण करी गयो. पढी ते मने जण करवा श्रावतो हतो एटलामां हुं श्रहिं - तो रह्यो ढुं; माटे हवे तमे वहाणने जरीने ऊट चलावो . " महेश्वरनां aai वचन सांजलीने सर्व खलासी ते प्रमाणे करवा लाग्या. कयुं बे के- आत्मा कोने वहालो नथी ? अर्थात् सर्वने वहालो होय . पी महेश्वरदत्त कपटथी जाणे वहाणमां बेसवानुं न इछतो होय ? एम करी पराणे वाणमां बेसी पोताना मनमां विचार करवा लाग्यो. ፡ 'बुद्धिवंत एवा में वेश्यातुल्य स्त्रीनो त्याग करी लोकापवादथी श्रात्मानुं रक्षण कर्तुं ए सारुं कस्युं बे. " परंतु ते मूढ पुरुष एम नथी जाणतो के " म्हारो आत्मा जाग्यश्री पाएलो थयो बे. " पढी खलासी पण तेने स्त्रीना वियोगथी पीडा पामेलो जाणीने प्रतिबोध देवा लाग्या. अनुक्रमे महेश्वरदत्त पोताना नगरप्रत्ये श्रावी पहोच्यो. त्यां तेणे म्लेछ द्वीपनी वात, त्यां एलो लाज अने पोतानी प्रियाना मरणना खोटा समाचार कह्या. ते उपरथी अत्यंत दुःखी थएलां तेना माता पिताए वधू ( पुत्रनी वहु ) नुं उत्तरकार्य करीने पढी तेने बीजी स्त्री परणावी. वे हिं नर्मदा सुंदरी ए मोहसुख आपनारा पंच परमेष्ठीनुं स्मरण कलामां वीने जोयुं तो पतिनो दिवो नहीं एटले प्राणनाथे मकरी करेली मानीने ते कड़ेवा लागी. " हे नाथ ! ऊट पाढा श्रावो; हुं यावी मरकरीने वधारे वार सहन करी सकीश नहीं. " यावी रीते वारंवार बोलाव्या तां पण ज्यारे पति पाढो श्राव्यो नहीं, त्यारे पोतेज त्यांथी तत्काल ठीने खोवाइ गएला रत्ननी पेठे तीर प्रत्ये अने वृक्ष वृक्ष प्रत्ये प्राणनाथने खोलवा लागी घणो वखत एम करवाथी पण ज्यारे पतिने दीगे नहीं त्यारे तो क्रोध पामेला मृगोए पण दयाथी जोवाएली ते नर्मदासुंदरी गाढखरथी रुदन करवा लागी ते वखते वनमां पोताना रुदनना थला पडबंदाने सांजली ते महासती जांजवाना जनी प्रत्ये दोडती एवी मृगलीनी पेठे चारे तरफ दोडवा लागी. ते म Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३‍ शीलोपदेशमाला. हावनमां एवं कोइ वृक्ष, लता के गुफा न दती के जेमां ते नर्मदा सुंदरीए पोताना पतिने न खोल्यो होय. एवामां जाणे तेना शोकथीज होय नहिं शुं ? एम सूर्य अस्त पाम्यो. एटले ब्रह्माए तेने सुख उपजाववा माटे चंद्रने मोकल्यो. अर्थात् ते वखते सूर्यनोस्त ने चंद्रनो उदय थयो. पतिना वियोगना दुःखे करीने चंद्ररूप अग्निना कुंरुथी अत्यंत तप्त थएली ते महासती जयंकर पशुनी बीकथी एक लतागृहमां पेसी गइ. त्यां सेंकडो वर्षनां सरखी ते रात्रीने निर्गमन करीने पतिना गुणोनुं स्मरण करती एवी ते नर्मदासुंदरी रोवा लागी छाने वली कड़ेवा लागी के, " हे नाथ ! जेम कुमुदिनीने मूकीने चंद्र नाशी जाय तेम दीन ने प्रेमरूप अमृतमय एवी मने या एकांत प्रदेशमां सूती मूकीने क्यां नासी गया हो ? श्रावी रीते पोते रोती ने बीजा प्राणीउने रोवरावती वली पतिनी वार्तानो शोध करती ते महासती नर्मदासुंदरीए पांच दिवस निर्गमन करुया. " पीठे दिवसे पतिने खोलती एवी ते समुद्रना कांठाने विषे ज्यां पोतानुं वहाण उनुं रचुं हतुं त्यां श्रावीने जोयुं तो वहा विनानुं ते स्थान शून्य दीतुं, एटले वधारे निराश थने ते महासती मुनिना सत्य वचनने संजारती ती पोताना आत्माने बोध करवा लागी के, " हे श्रात्मन् ! पूर्वे करेला कर्मने जागव्य; परंतु खेद न पाम्य. ” एम कहीने ते महासतीए सरोवरमां स्नान करी, देवने वांदी ने फल विगेरेनो या हार करीने तापसीपणुं धारण क. पठी तेणे कोई एक गुफामां निवास करी, त्यां माटीनी अरिहंत प्रजुनी मूर्ति बनावीने पोतानी सन्मुख निश्चलपणाने माटे स्थापी तेनुं फल, फुल निवार ( वनना धान्य) विगेरेथी पूजन कर इंगुदीना तेलथी दीवा कश्या. या प्रकारे ते महासती हमेशां सवारे उठीने एकाग्र चित्तथी प्रजुनु पूजन, स्वाध्याय ने स्तवनादिके करीने कृतार्थ एवा दिवसोने निर्गम करवा लागी. एक दिवस जेम राजहंसी मानस सरोवर प्रत्ये जवानी इछा करे तेम नर्मदा सुंदरीए सङ्गतिना साधनरूप व्रत ग्रहण करवाने श्रर्थे जरत क्षेत्रप्रत्ये जवानी इछा करी, एवामां तेनो कोइएक विवेकबुद्धिवालो वीरदास नामनो पित्रा बर्बरकुल देशप्रत्ये जतो बतो त्यां श्रावी चड्यो. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्मदासुंदरीनी कथा. त्यां ते महासतीना पगलाने अनुसारे पर्वतनी गुफाना पासेना नागमां श्रावी पहोच्यो एटले तेणे जिनेश्वर प्रजुनी स्तुति करती एवी नर्मदासुंदरीनी वाणी सांजली. पड़ी केवल शब्दना अनुमानथी “ था नर्मदासुंदरी .” एम निश्चय करीने गुफामां पेठेला ते वीरदास पित्राइए पो. तानी दृष्टिना उत्सवरूप नर्मदासुंदरीने दीठी. महासती पण पोताना पित्राश्ने उलखीने तेना कंठे वलगी रोवा लागी. वीरदास पण स्नेहने लीधे हर्ष श्रने शोकथी व्याप्त थ गयो. ___ पड़ी " हे वत्से ! तुं श्रहिं क्याथी श्रावी हुँ ? अने एकली केम रहे ?” एम वीरदासे पूब्युं एटले नर्मदासुंदरीए पोतानी सर्व वात निवेदन करी. पनी लाग्यनी निंदा करतो एवो ते पित्राश् वीरदास महासतीने साथे लश् म्लेचकुलप्रत्ये गयो. त्यां गामनी बहार पोताना सार्थवाहने पडाव करावी अने एक उत्तम तंबुमां नर्मदासुंदरीने राखी पोते केटलीक नेटो लश् राजसनामा गयो. त्यां राजाए अर्धं दाण माफ करी सत्कार करेला वीरदासे नगरने विषे सेवा देवारूप वहेपार कस्यो. हवे ते नगरमा राजानी मानिती अने रूप सौलाग्यनी संपत्तिवाली हरिणी नामनी एक वेश्या रदेती हती. राजाए तेनी एवी व्यवस्था करी हती के, जे माणस नगरमां वहेपार करवा श्रावे तेनी पासेथी ते वेश्या एक हजारने श्राव सोना म्होर लहे. तेथी ए वेश्याए वीरदासने बोलाववा माटे एक दासीने मोकली. पण वीरदासे तो "अमे खदाराथी संतोष पामेला बीए.” एम कहीने तेने काढी मूकी. पनी राजाए हरिणीनी करी श्रापेली व्यवस्था दासीए वीरदासने कही. ते उपरथी तेणे दासीने एक हजार श्रने पाठ सोना म्होरो गणी आपी. पठी दासीए हर्ष पामतां ते लश्ने हरिणीने श्रापी एटले ते वेश्याए कमु. “ म्हारे अव्यनो शो खप ले ? हुँ तो गणिका बुं; माटे तुं वीरदासने अहिं तेडी लाव्य." हरिणीनां श्रावां वचन सांजली दासी वीरदासने तेना घर प्रत्ये तेडी लावी अने पढ़ी ते दासी एकांत प्रदेशमां हरिणीने कहेवा लागी के, " था शेठना घरने विष रूपे करीने देवांगनाउनो पण तिरस्कार करनारी तेनी बहेन, खी, के पुत्री के मारे जो हरिणीना सरखा नेत्रवाली Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ शीलोपदेशमाला. ते स्त्री व्हारी श्राज्ञा प्रमाणे चालनारी थाय तो तुं पोताना घरविषे कपवेल उगी बे एम जाए जे. "" पढी कपट बुद्धिवाली हरिणीए वातो करता करता वीरदासना हाथी गलीमांथी तेना नामवाली मुद्रिका (वींटी ) तेने रोकवा माटे ललीधी. पढी तेथे ए मुद्रिका दासीने श्रापी ने कांइ कानमां कयुं. पी दासीए वीरदासना पमावमां जर त्यां बेठेली नर्मदासुंदरी ने कयुं. " हे शोजने ! वीरदास शेठ श्रमारा घरने विषे बेठेला बे ने तमने बोलावे . तेमणे एंधाने माटे या मुद्रिका यापी बे, माटे ऊट त्यां चालो. ?" वीरदासना नामवाली मुडिका जोइने कपटनी जाण एवी नर्मदासुंदरी वेश्याना घरप्रत्ये श्रावी. त्यां दासीए तेने बीजा बारणामांथी प्रवेश करावी तरतज जयरामां उतारी दीधी. कृतार्थ मानती एवी ते वेश्याए वीरदासने तेनी मुद्रिका पाठी पी एटले अखंडित व्रत्तवालो ते पोताना पावप्रत्ये श्रव्यो. त्यां तेणे नर्मदासुंदरीने न देखवाथी सेवकोने पूब्युं के, “ नर्मदासुंदरी क्यां गइ बे. ? " तेज॑ए उत्तर आप्यो के, “ श्रमे जाणता नथी. " पढी विरदासे घणा उपायो करीने शोधवा मांडी पण जडी नहिं कथं वे के धूतारा माणसोए करेला गुप्त कार्यनो पार कयो पुरुष पामी शके ? अर्थात् कोइ पामी शकतो नथी. पी वीरदास विचार करवा लाग्यो के, " जेणे कपटथी सती स्त्रीनं हरण कर बे. ते हुं श्रहिं रहिश, त्यांसुधी तेने केम प्रगट करशे ? " एम धारीने ते वीरदास ते देशना वासणो विगेरे अनेक वस्तुउथी वहाण जरी, राजानी आज्ञा लइ नृगुकछ (नरूच) देशप्रत्ये श्राव्यो. त्यां तेणे उपायने जाणनारा ने उपासक एवा जिनदास नामना पोताना मित्रने सर्व वात कही तेने तुरत म्लेछ देशप्रत्ये मोकल्यो; तेथी जिनदास नर्मदासुंदरीने अर्थे केटलीक सामग्री लइ ते देशप्रत्ये गयो. दवे वीरदासपोताना देश तरफ गया पढ़ी धनने अर्थे हणायला मनवाली हरिणी वेश्याए नर्मदासुंदरीने कयुं." हे जड़े ! तुं वेश्याएं अंगी - कार करीने पोतानो जन्म सफल कर ने इंद्रने उर्वशीनी पेठे राजाने मानित था. " गणिकानां यावां वचनरूप अग्निश्री जाणे बलती होय नहिं शुं ? एम पोताना दाथने धूणावती एवी नर्मदासुंदरीए उत्तर Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्मदासुंदरीनी कथा. २३५ श्राप्यो के " अरे! हुँ जी, त्यांसुधीमां म्हारा शीलवतरूप माणिक्यने ग्रहण करवा कोण समर्थ ?” वेश्याए कह्यु, पृथ्वीने विषे श्रमारो जन्म सफल बे, कारण अमे अहिं रह्या बता रहित जोगने जोगवीए बीए. नर्मदासुंदरीए कडं, “ त्हारा विना बीजु कोण श्रा प्रकारना सुखे करीने पोताना आत्माने कल्याणथी नष्ट करे ? जे बालक ( मूर्ख ) होय तेज मणि थापीने चणाने खरीद करे ." आवां नर्मदासुंदरीनां वचन सांजलीने अत्यंत क्रोध पामेली हरिणीए पोतानुं शहित कार्य करवाने अर्थे जड ( लोढुं ) जेम चिंतामणि रत्नने मारे तेम तेने मारी एटले नर्मदासुंदरीए पंच नवकार- स्मरण कयुं, के जेना प्रजावधी हरिणी गणिका अकस्मात् मृत्यु पामी. हवे वेश्याना मरण पडी तेना स्थानने अंगीकार करवा माटे राजाए प्रधाननी साथे नर्मदासुंदरीने कराव्यु एटले प्रजुपणाने विषे पोतानी श्वाथी नाशी जवाना उपायनो विचार करीने ते नर्मदासुंदरीए हरि जेम पोतानुं स्त्रीपणुं माने तेम राजाना हुकमने मान्य कस्यो. पली प्रधानना मुखथी नर्मदासुंदरीना सौंदर्यादि गुणोने सांजली उत्सुकवंत थएला राजाए तेने बोलाववा माटे पालखी मोकली. महासमृद्धिवाला राजाना सेवको नर्मदासुंदरीने पालखीमां बेसारी श्रने मस्तक उपर बत्र धारण करी जेटलामां राजानी पासे लइ जायडे तेटलामां "शीलरदाने श्रर्थे गाड थर्बु ए ऊषधरुप बे." एम विचार करीने तेणे नगरनी म्होटी पथ्थरनी बांधेली खालमां पडतुं मूक्युं. पली "श्रा मलियागर चंदननो लेप करुंडे." एम कहेती एवी ते महासती जाणे लो. हनु कवच धारण करती होय नहिं शुं ? एम पोताना सर्व अंगने विषे कादवनो लेप करवा लागी अने सर्व लोकोना समद पोतानां वस्त्रोने पांदडांनी पेठे फाडवा लागी. वली ते महासती मंत्रवादीनी पेठे शीलव्रत रूप जीवितने नाश करनारा राजपुरुष रुप सोने त्रास पमाडवा माटे तेऊना सामे धूल उराडवा लागी अने व्यंतरोथी पण न निवारण थश् शके एवी जयंकर श्राकृतिने धारण करी पोताना शौर्यने लीधे श्रपूर्व एवं नृत्य करवा लागी. था वात राजाए सांजलीने पोताना मांत्रिको मोकल्या. तेउने पण महासती नर्मदासुंदरीए कुतराउने पथ्थरा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. मारवानीपेठे पथ्थराठ मारीने दूर काढ्या. पड़ी पथ्थर फेंकवाथी लोकोए दूर त्यजी दीधेली ते महासती पांदडांथी विटलायला वंटोलीयानी पेठे बालकोथी विंटलायली बती नगरने विषे जमवा लागी. __ हवे एकदिवस जिनेश्वरना रासने गाती, बालकोना समूहथी विंटलाएली अने फाटेला वस्त्रना ककडाने धारण करती ते महासतीने पेला जिनदासे दीठी एटले दयायुक्त थर गयुं के हृदय जेनुं एवा तेणे थागल जश्ने नर्मदासुंदरीने पूज्यु. “हे जडे! तुं कोण बुं ? व्यंतरोनी देवी ने ? अथवा जिनेश्वर नक्त ने ते मने कहे. ? नर्मदासुंदरीए उत्तर श्राप्यो के, जोतुं जैन होय तो मने एकांतमां बजे; पण श्रत्यारे था थएवा रंगना जंगरूप वैर करीश नहीं" पडी बीजे दिवसे वायु जेम पांदडाने विखेरी नाखे तेम बालकोने पथ्थर विगेरेथी मारीने दूर काढी मूकी पोते नर्मदासुंदरी को एक वनना एकांत प्रदेशमां जिनेश्वरनी स्तुति करवा लागी. एवामां तेना पाडल पाडल जिनदासे थावीने हाथ जोडीने पूब्यु के, “ हे जसे! धर्मने विषे एक मनवाली तुं कोण बु?" नर्मदासुंदरीए तेने श्रावक जाणीने पोतानी सर्व वात कही, तेथी हर्ष पामीने तेणे कयु. “बहु सारं थयुं के जे में तने बाजे दीठी; कारण के हे वंत्से! म्हारा मित्र वीरदासे मने जरूचथी अहिं हारी शोधने माटेज मोकलेलो ने तो हवे खेद पामीश नहीं सर्व सारं यशे, कारण समयने अनुसारी बुद्धिने शुं असाध्य होय जे ? हे जजे ! हवे श्राजे पण त्हारे राजमार्गमां हाथणीनी पेठे फरतां फरतां वेहेपारीउनावासण विगेरेने फोडवां." श्रा प्रकारे संकेत करीने जिनदास नगरमां श्राव्यो भने नर्मदासुंदरी पण गांडी थश्ने संकेतप्रमाणे सर्व वेहेपारीउना वासण विगेरेने फो. डवा लागी. एवामां राजसनामांगयेला जिनदासने राजाए कृपाथी कह्यु के,“अरे! नूतनीपेठे गांडी यएली श्रा स्त्रीए वांदरी जेम बगीचाने उपव करे तेम सर्व नगरने विषे उपव कस्यो बे; माटे उपजवथी अनर्थने करनारी तेने चित्रणीनी पेठे समुज्ने सामे तीर लश् जाऊ.” राजानी श्रावी यासाथी जिनदास नर्मदासुंदरीने सांकलवडे बांधीने वैद्य जेम दिव्य औषधीने लश् जाय तेम लश्ने चाल्यो. पड़ी तेणे कादवमांथीजडेला चिंतामणि रत्नना सरखी पुःप्राप्य एवी नर्मदासुंदरीने समुजनां Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्मदासुंदरीनी कथा. २३७ कांठे ल ज नंदपूर्वक स्नान करावी रेशमी वस्त्र धारण कराव्यां. त्यांची महामूख्यवाला पात्रनी पेठे वहाणमां बेसारी गुकछ देशमां rs वीरदास पीत्रासहित नर्मदापुर प्रत्ये श्राव्यो. पुत्रीने श्रावी जाणी सहदेव पिता विगेरे अनेक संबंधी मलवामाटे सामा गया. तेउने प्रणाम करीने तेमज कंठे वलगीने महासती घणुं रुदन करवा लागी . कषनसेन विगेरे पण जीवती एवी पुत्रीने जाणी घणोज हर्ष पाम्या. धने तेनो मंगलाचार पूर्वक करीबी जन्म महोत्सव कस्यो. वली जैनमंदिरोमां महापूजापूर्वक साधर्मिवात्सल्य विगेरे धर्मनां कार्यो करया. वामां दशपूर्वधारी श्रार्यसुदस्ति नामे आचार्य विहार करता करता नर्मदापुर नगरमा आव्या एटले माता, पिता ने पित्राइसहित नर्मदासुंदरी दूर करया बे जव जेमणे एवा ते साधुर्जने वंदन करवा माटे गई. त्यां गुरु धर्मला थापी उपदेश दीघो. देशना पूर्ण थया पछी वीरदासे गुरुने प्रणाम करीने पूब्धुं के, " हे प्रजो ! था नर्मदा सुंदरीए पूर्वजवने विषे एवं शुं कर्म कर हतुं के, जे था जवने विषे निर्दोष बता पण दु:खना पात्ररूप थइ ?” गुरुए श्रुतोपयोगथी जाणीने उत्तर श्राप्यो के, “प्रा जरतत्रने विषे जाणे पृथ्वी जरवानो मानदंड होय नहीं शुं ? एवो विंध्याचल नामे पर्वत बे. ते पर्वतमांथी नीकलेली श्रा तटी नामनी नदी के जेने अन्यदर्शनी लोको " नर्मदा " कहे बे. एक दिवस कायोत्सर्ग करीने जा रहेला धर्मरुचि नामना मुनिने द्वेषवाली ते नर्मदाए उपसर्गे करया; परंतु ज्यारे ते मुनि जरा पण चलायमान थया नहीं, त्यारे तो उलटी ते नर्मदा सम्यकदृष्टिवाली थइ गइ. तेज नर्मदा मृत्यु पामी जवने विषे व्हारी नर्मदासुंदरी नामे पुत्री य बे. पूर्वना - ज्यासथीज ते या पुत्री स्नान दोहदे करीने वृद्धि पामेली हती अने साधुने करेला उपसर्गरूप दूराचरणथी दुःख पामी हती.” D पठी उत्पन्न युं ने जाति स्मरण ज्ञान जेने एवी ते नर्मदासुंदरीए मुनिनी पासे दीक्षा बीधी पछी केटलक दहाडे तपनुं श्राचरण करती एवी ते महासतीने उज्वल एवं अवधिज्ञान उत्पन्न ययुं. अनुक्रमे प्रवतिनी पद पामी तपना आचरणथी दुर्बल जाती ते साध्वी अनुक्रमे विहार करती करती रुपचंद्र नगर प्रत्ये यावी पहोची. त्यां अनेक व्रतोने Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ शीलोपदेशमाला. धारण करनारी साध्वीउना समूहथी विंटलाएली ते महासती नर्मदासुंदरी पोतानी सासु ऋषिदत्ताए करावेला उपाश्रयमां घणा दिवस रही. त्यां ते हमेशां कर्मना मर्मने प्रगट करनारी धर्मदेशना देती हती के जेने झषिदत्तासहित महेश्वरदत्त सांजलवा आवतो हतो.. एक दिवसे नर्मदासुंदरीए वैराप्य उत्पन्न करवामां औषधरूप सर्व स्वरलक्षण महेश्वरदत्तने कडं. ते उपरथी पस्तावो करता एवा तेणे जाएयु के, "निश्चय श्राज म्हारी प्रिया हती. अरे ! अविवेकथी कलंकीत थएला अधर्मी अने अधम एवा मने धिक्कार ने के, जे में सती एवी प्रियाने वनमा एकली मूकी हती. अरे ! शीलवती एवी प्रियाने खूषण पमाडवाश्रीज हुँ निर्जागी बन्यो . अरे! था लोकमां म्हारा सरखो बीजो कोश पापी माणस हशे नहीं.” थावी रीते पस्तावो करता एवा ते महेश्वरदत्तने प्रवर्तिनी एवी नर्मदासुंदरीए कृपाथी कां, “ हे ! तेज हुँ नमैदासुंदरी बु; माटे तुं शोक करीश नहीं, कारण के सर्वे प्राणि पोतपोताना कमें करीनेज सुख कुःख जोगवे , तेमां को कोश्नो दोष नथी.” पड़ी स्फुरीत एवा वैराग्ये करीने प्रकाशित भएला महेश्वरदत्ते तेनी पासे दमा मागी अने आर्यसुदस्ति आचार्य पासे जश्ने दीदा सीधी. कृषिदत्ताए पण संसारथी वैराग्य पामीने चारित्र ग्रहण क. बन्ने जणा तपश्चर्या करीने स्वर्गसंपत्तिने पाम्यां. नर्मदासुंदरीए पण श्रवधिज्ञानथी आयुष्य पूर्ण थयुं जाणी अनशन व्रत अंगीकार करीने समाधिए मृत्यु पामीने ते देवलोकमां गश्. त्यांथी महा विदेह देत्रमा च्यवी, राज्यलक्ष्मीने नोगवी, दीक्षा धारण करी थने आठ कर्मनो क्षय करी निर्मल एवा शीलवतना योगथी अंते मोद पामशे. ॥ नर्मदासुंदरीनी कथा समाप्ता ॥ श्रथ रतिसुंदरीनी कथा ॥ श्रा जरतदेत्रने विषे जाणे लक्ष्मीनुं संकेतस्थान होय नहिं शृं? एवं साकेतपुर नामे नगर जे. जे नगरना वहेपारीनी स्त्रीउना मुख चंथी पण अधिक कांतिवाला शोजता हता. ते नगरमां शत्रुरूप हाथीने नाश करवामां केशरीसिंहना सरखो महा पराक्रमी श्रने जेना खड्गथी मरा Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसुंदरीनी कथा. २३० एला शत्रुरूप हाथीना कुंजस्थलमांथी निकलेलां मुक्ताफल जाणे थकाशमां रहेला ताराउंज होय नहिं शुं ? एम शोजता दता एवो नरकेसरी नामे राजा राज्य करतो हतो. ते राजाने कल्याणरूप गोत्रजनी लमीना विलासने विषेज धारण करयो ने श्रादर जेणे एवी कमलसुंदरी नामनी स्त्री हती. तेर्जने पवित्र आत्मावाली अने जाणे विधाताए पोतानी सृजवारूप कलानी चातुरी देखाडवा माटेज सौंदर्यनी लक्ष्मीना सर - खी बनावेली होय नहिं शुं ? एवी रतिसुंदरी नामनी पुत्री हती. एक दिवस ताराजी विंटलाएली चंद्रलेखानी पेठे सखियी विंटालाली रतिसुंदरी गुणश्री नामनी प्रवर्तिनीने वंदना करी पटले ते साध्वीए अमृतना सरखी मधुरवाणीए करीने तेने मुक्ताफलना हारसरखी उज्वल धर्मदेशना दीधी अनेकयुं के, “मेरु पर्वतना सरखा दुर्व्वज मनुष्य जन्मने पामीने बुद्धिवान् माणसोए धर्मरत्नने ग्रहण करवुं. रत्नथी रेल मंडार प्राप्त थये बते पण मूर्ख पुरुष जेम कोडीने खोले बे तेमज मोक्षफलने आपनारो या मनुष्यजव प्राप्त थये बते अज्ञानी पुरुष जोगनी इछा करे बे; माटे हे जड़े ! तुं सम्यक्त्वने ग्रहण कर अने संयमने पाल्य वली जीवितपर्यंत निर्मल एवा तपनुं आचरण करी संसारसमुद्रना अंतने पाम्य तपरूप अग्निथी तपेलो ने शीलव्रतरूप निर्मल जल सिंचित थलो जीव तपावेला सुवर्णनी पेठे कर्मना मेलने धोइ नाखे बे; माटे हे राजपुत्री ! तुं ज्यांसुधी जीव त्यांसुधी जिनेश्वरना ध ने विषे यत्न कर." या प्रकारे प्रवर्तिनीना मुखरूप चंद्रथी धर्मोपदेशरूप अमृतनुं पान करी उत्साहवंत थएली ज्ञानदृष्टिवाली राजपुत्री ए युं. " तमे मने या दोषरहित धर्मोपदेश दीधो ए बहु सारं क; परंतु हुं प्रमादी होवाथी या प्रकारनां व्रत धारण करवाने समर्थ नथी; माटे म्हारा उपर प्रसन्न इने दमन करवायोग्य बलदने जारनी पेठे गृहस्थाश्रमीने योग्य ने संसारसमुद्रमांथी तारवाने नावरूप धर्मनो युक्तिथी उपदेश करो. " पी प्रवर्तिनीए राजपुत्री रतिसुंदरीने सम्यक्त्वरूप व्रत श्रापीने कयुं. " हे वत्से ! शीलत्रत पालवं ए स्त्रीउनो उत्तम धर्म छे अने ते एज के परपुरुषनो त्याग करवारूप शीलव्रत पोते पालतुं ने बीजार्ड पासे प Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० शीलोपदेशमाला. "" लावुं. जेथी करीने स्त्रीउनी कीर्ति श्रा लोकमां सूर्य चंद्र रहे त्यांसुधी स्थिर थाने परलोकमां कल्याणना स्थानरूप मोक्ष पण प्राप्त थाय. मेघथी लताना अंकुरोनी पेठे शीलवतना प्रजावथी या जवने विषे उतम कुलनी स्त्रीजना सर्व मनोरथ सिद्ध थाय बे. राजाउने परलोकमां या संसारसंबंधी दुःख दुर्गतिनां खनेक संकटो घणाकाल सुधी सहन करवां पडे बे; माटे तुं वज्रना सरखी दृढ थइने परंपराधी मुक्तिने श्रापनारा सम्यक्त्व व्रतने पाल्य. यावां प्रवर्तिनां वचन सांजली उल्लास पाम्या रोमराय जेना एवी रतिसुंरीए घणा हर्षथी नियमने अंगीकार कस्यो. दवे नरकेसरी राजाए पोताना कंश कार्यने अर्थे मोकलेलो दूत चंद्रराजाना नंदन नगरमा गयो. त्यां देशना समाचार कड़ेवाने वखते चंद्रराजाए दूतना मूखथी रतिसुंदरीना उत्तम रूपनी वात सांजली एटले अनुराग कामित यएला तेणे रतिसुंदरीनुं मागं करवा माटे पोताना प्रधानने नरकेसरी राजापासे मोकल्यो. नरकेसरी राजाए पण योग्य संबंध मानी जेम ददे पोतानी पुत्री रोहिणीनो संबंध चंद्रनी साथे करयो हतो तेम रतिसुंदरीनो संबंध चंद्रराजा साथे कस्यो पढी शुभ दिवसे महासमृद्धिसहित तेणे रतिसुंदरीने महासंपत्तिवाला नंदनपुरमां मोकली; त्यां ते लक्ष्मी जेम कृष्णने वरी हती तेम चंद्रराजाने वरी. उत्तम मुहूर्त्तमां तेन धन्य विवाद थये बते मनोहर एवा नंदनपुरमां अत्यंत आनंद श्रपनारो महोत्सव थयो. नगरवासी जनो पण रतिसुंदरीना खरूपने जो आश्चर्यथी कड़ेवा लाग्या के, “शुं या कोइ देवी, विद्याधरी के नागकन्या बे ? " यावी ज्योत्स्नारूप प्रियाथी अलंकृत थलो त्रियरूप नक्षत्रोनो नायक चंद्रराजा सर्व थकी अधिक शोजवा लाग्यो. - एक दिवस कुरुदेशना बलवंत महेंद्र सिंह राजाए सिंह जेम सिंह उपर संदेशो मोकले तेम चंद्रराजाने दूत मोकलीने कड़ेवराव्यं के, " हे देव ! सूर्यनी साथे कमलोनी पेठे तमारी साथै श्रमारी प्रीति घणा कालयी चालती श्रावेली बे. जे पुत्रो पोताना पूर्वजोए मेलवेला महिमा - ना स्थानरूप संबंधने लोपता नथी तेज पुत्रोने कुलनो उद्योत करनारा जाणवा. वली अखंड रीते सौजन्यपणुं धारण करता एवा तमारे पोतानुं कार्य निश्चय माराचीज साधवा योग्य बे. वधारे शुं कहीए ? परंतु Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसुंदरीनी कथा. २४१ नवोढा एवी रतिसुंदरी श्रमने नेटमां श्रापो के, जेथी श्रमे तेनो सत्कार करीए. कारण जेनी साथे प्रीति होय तेना गौरवपणाने अर्थे प्रिया पण थापी शकाय . जुर्ड के वसिष्ठे आदर करेली अरुंधती कोने मानवा योग्य नथी?” दूतनां श्रावां वचन सांजली चंडराजाए जरा हसीने कडं. " चंज्योत्स्नाना सरखा सुजन मनुष्यो कोने वहाला नथी थता ? कह्यु बे के- परोपकार, मैत्री, दाक्षिण्य, प्रियनाषण, सौशीट्य, विनय अने त्यान ( दान) एटला सजन पुरुषोना गुणो . हे दूत ! त्हारा राजाए मने था सारं कडं . कुलिन पुरुषो समुनी पेठे पोतानी मर्यादा लो. पता नथी. हे दूत ! श्रमे जे तने कहीए ते तुं हारा राजाने कहेजे के, जीवितनी याचना करवानी पेठे देवी रतिसुंदरीनी याचना करवी ए पण प्रीतिनुं लक्षण नथी.” दूते कयु. “ तमारे महेंउसिंह महाराजानी श्राझा लोपवी ए योग्य नथी; कारण के कोमलपणाथी साधी सकाय एवा अर्थ (प्रयोजन) ने विषे कठोरपणुं राखq ए विवेकीपणुं कहेवाय नहीं. मर्यादाने लोपता एवा समुज्ने कोनाथी रोकी शकाय ? वली दोन पामेला समुफ बते पाल बांधवाने कयो पुरुष समर्थ थाय ? माटे तमारा हितने अर्थे ते महाराजानी श्छा पूर्ण करो." श्रावां दूतनां वचन सांजलीने क्रोधथी राता थर गएला चंजराजाए तेने कडं. “अरे दूत ! तें बहु सारं कह्यु. शुं बीजाटनी स्त्रीउँने मागनारो ते त्हारो कुलीन राजा पोतानी स्त्रीने बीजाना घरने विषे मोकले जे खरो ? सर्पराज जीवता बता तेना मस्तक उपर रहेलो मणि कोनाथी ग्रहण करी शकाय तेम ने ?” दूते फरीथी कह्यु. “ हे नूपति ! तत्व वचन सांजलो. जेम तेम करीने पण आत्म रक्षण करवं. ए राजनीतिना वचन, स्मरण करो. वली कयु डे के- सेवकथी अव्यनुं रक्षण करवं. सेवकथी अने अव्यथी स्त्रीनुं रक्षण करवू. परंतु श्रात्मानें तो सेवक, अव्य अने स्त्रीथी पण रद ण करवं.” इत्यादि वचन कहेता एवा ते दूतने कृपण माणस जेम जीखारीने काढी मूके तेम चंजराजाना सेवकोए ते दूतने गले पकडीने काढी मूक्यो. __ पड़ी ते दूते महेंउसिंह नूपति पासे जश्ने पोतानी सर्व वात निवेदन करी एटले ते मर्यादा मूकेला समुनी पेठे पोतार्नु असंख्य सैन्य लश Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ शीलोपदेशमाला. चंड राजा उपर चमी श्राव्यो; तेथी क्रोधे करीने व्याकुल थएलो चंड राजा पण तेना सामो थयो. अनुक्रमे बन्ने सेनानुं युक थतां थतां केशरीसिंहनी पेठे ते बन्ने राजा, पण युद्ध चाल्यु. पनी नाग्यना वशथी वृद्धि पामेला महेंडसिंहे राहु जेम चंडने ग्रहण करे तेम जीवता एवा चंजराजाने पकडीने बांध्यो. पली नासता एवा चंजराजाना सैन्यमां नासी जती एवी रतिसुंदरीने पारधी जेम मगलीने पकमी ले तेम महेंउसिंहे पकडी लीधी. पडी रतिसुंदरीना लाजथी संतोष पामेलो महेंउसिंह चंजराजाने बोडी दश पोताना नगर प्रत्ये श्राव्यो. त्यां कामरूप जिबथी पीडा पामतो ए. वो ते रतिसुंदरीने कहेवा लाग्यो के, “ हे सुच्चु ! जे दिवसे दूतना मुखथकी त्हारा रूपनुं वर्णन सांजव्युं ने तेज दिवसथी मालतीने विषेत्रमरनी पेठे म्हारं मन त्हारे विषे उत्साहवंत थयुं . हे न ! में त्हारा माटे आ श्रारंज कस्यो हतो; माटे हवे सर्व स्त्रीउमां पट्टराणीपदने खीकारी म्हारो मनोरथ सफल कर.” महेंउसिंहनां आवां वचन सांजली चंञप्रिया रतिसुंदरी पोताना मनमां विचार करवा लागी के, "अरे! धिक्कार म्हारा रूपने, के जेथी फलवाला वृदनी पेठे प्राणनाथनीश्रावी पुर्दशा थ.श्रा पुष्ट श्राचारवालो कामी, जेम जुगारी जुगटाने विषे उत्साह पामे तेम म्हारे विषे उत्साह पामेलो , तो हवे म्हारे कसाश्ने त्यां बांधेला बकरानी पेठे जीवितरूप शीलनुं शी रीते रक्षण करवू ? हा ! प्राणसंकटने विषे काल विलंब करवो ए श्रेयकारी ."एवां नीतिनां वचन- स्मरण करी रतिसुंदरीए नम्रपणाथी महेजसिंहने कह्यु. “ हे नरकुंजर ! तमे मने घणी प्रीतिवाली जाणी; माटे जो ना न कहो तो हुँ तमारी पासे कंश पण मागणी करूं." महेंअसिंहे कयु. “हे रंजोरु ! एवी शी प्रार्थना बे ते कहे ? कारण में हारा माटे प्राणने पण तृणसमान गणेला . हे सुच! जे मस्तक श्रापवा तैयार थाय , तेनी पासे नेत्रनी प्रार्थना करवी रहेतीज नथी; माटे हुं त्हारा उर्द्धन मनोरथने पूर्ण क. रीश.” रतिसुंदरीए कह्यु. " म्हारे परपुरुषनी साथे विषयसुख जोगव, नहीं एवो नियम ; माटे तमे चार माससुधी म्हारा ब्रह्मव्रत (शीलव्रत) नो जंग करशो नहीं, ए म्हारी प्रार्थना .” महेंउसिंहे कयु. “हे वरा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसुंदरीनी कथा. २४३ " ፡ नने ! हारुं वचन मने वज्रपातथी पण वधारे दारुण लाग्युं बे; तो पण ते हा श्रज्ञाने हुं फेरवीश नहीं. " दुःखरूप समुद्रमां कुबेली रतिसुंदरी महेंद्र सिंहना वचनरूप द्वीप (बेट) ने पामीने सूर्यना तापथी तपायमान थलो माणस जेम वृक्षनी बायाने पामीने हर्ष पामे तेम प्रसन्न इ. महेंद्र सिंह पण चार मास पी म्हाराज हाथमां बे. eat विचार करीने भूमिमां डाटी राखेला द्रव्यवाला गरीब माणसनी पेठे मनमां हर्ष पामवा लाग्यो. पठी निरंतर यांबील ने उपवास विगेरे तपना कृत्यथी पोताना शरीरनुं शोषण करती तथा त्याग करया बे स्नान, अंगराग अने आभूषण जेणे एवी ते रतिसुंदरी शिथील स्तनवाली, ग्लानी पामेला मुखकमलवाली, सुकाइ गएला रुधिर, मांस अने नासिकाना strateवाली तथा कठोर केशवाली थइ गए. एक दिवस मेलथी श्याम बनी गयेली, कार्यने विषे जयंकर ने हि मथी बली गयेली कमलीनीना सरखी ते रतिसुंदरीने जोइने राजा महेंद्रसिंहे पूj. " हे मृगादि ! त्हारी यावी व्यवस्था केम यइ गइ ? शुं द्वारा शरीरने विषे कंश रोग उत्पन्न थयो छे के चित्तने विषे कंपण दुःख उत्पन्न थयुं बे ?” रतिसुंदरीए उत्तर प्यो. " हे देव ! में श्रा फलरहित एवं व्रत वैराग्यश्री धारण करयुं बे; एथीज फागण मासना वननी पेठे म्हारुं शरीर सुकाइ गयुं बे. हे महाराज ! हवे म्हारे जेम ते करीने या व्रत पूर्ण करवुं बे; कारण के व्रतनो जंग करवाथी नरक गति प्राप्त था . "" महेंद्र सिंहे फरीथी पूब्युं. “तने श्रावो वैराग्यनो हेतु शाथी उत्पन्न यो के, जेने लीधे तें पुष्पनी मालानी पेठे जोगववा योग्य या शरीर तप रूप निमां फेंकी दीधुं ? " पतिव्रता रतिसुंदरीए कयुं. " हे राजेंद्र ! प्रथम शेकडो दोषवालुं तेमां पण एक वैराग्यने बंधन करनारुं या म्हारुं शरीर जर्ज के, जेना नवद्वारमांथी स्नायु, रुधिर, मांस, चरबी, हाडकां, पित्त, विष्ठा, मूत्र अने श्लेष्मने लीधे दुर्गंध निकले बे. वली ते शरीर वारंवार स्नान, सुगंधी चंदन ने धूप विगेरेथी संस्कार करया बता पण पोतानी डुगंधताने बोडतुं नथी. तेमज ए शरीरनी अंदर अने बहार विविध प्रकारना उपचार करीये तोपण खल पुरुषने करेला Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ शीलोपदेशमाला उपकारनी पेठे ते ते विरूपपणुं पामेला देखाय बे. फक्त उपरथीज मनोहर देखातुं पण अंदरथी तो अपवित्रताना समुद्र सरखं था शरीर गधेडाना बाणनी पेठे कोने वैराग्यना कारणरूप नथी थतुं ? वली बीजा पण श्रा तुन्छ शरीरना घणा दोषो में तो पठी कया वैराग्यवंत पुरुषो किंपाकवृदना फलना सरखा था देहने विषे मोह पामे ? " श्रा प्रकारनी रतिसुंदरीनी वैराग्यवाली देशनाथी पण जेम वर्षादनी धाराथी का. ला परनो पर्वत नरम थाय नहीं तेम महेंजसिंह पोताना विचारथी नरम थयो नही; परंतु ते तो उलटो पोताना मनमां विचार करवा लाग्यो के, “ तपथी उर्बल थ गएली था रतिसुंदरी तप पूर्ण थया पड़ी हती तेवी थशे.” एम धारीने ते “ हे मुग्धे ! खेद न पाम्य अने त्हारो नियम पूर्ण कर." ए, कहीने हसतो तो पाडो चाल्यो गयो. ___ व्रत पूर्ण थयुं एटले पारणाने अंते राजा महेंउसिंहे रतिसुंदरीने कयुं. "हे नझे ! श्राजे त्हारो संग करवाने हुँघणो उत्साहवंत थयो ढुं." रतिसुंदरीए कह्यु. “ हे देव ! सर्व प्राणीउने पोतानो स्वार्थ बलीष्ट होय . आजे में घणा दिवसे स्निग्ध अन्न खाधुं , तेथी म्हाळं शरीर श्राकुल व्याकुल थाय जे; माथु कुःखे बे; गतिमां शूल श्रावे जे अने शरीरना सर्वे सांधाउँ तूटे ." श्रा प्रमाणे कहीने ते रतिसुंदरीए गुप्त रीते मदनफल मुखमां नाखी खाधेलुं अन्न उकी काढ्यु अने पढी राजाने कडं. " हे राजन् ! था शरीरनुं कृतघ्नपणुं जुर्म के, जेणे में मनोहर जोजन कडं इतुं, तेने पण वणवारमा अपवित्र करी नाख्युं. आ पदार्थने बालक बुझिवाला हारा विना बीजो कयो नूख्यो पुरुष खावानी श्छा करे ? " महेंउसिंहे कडं. “ तुं एम केम कहे ? " महासतीए उत्तर श्राप्यो के, "आ प्रत्यक्ष दाखलो मव्या बता हवे कहेवा मात्रथी शुं ? अन्य पुरुषे जोगवेली स्त्रीथी बीजुं शुं निंदित ले ? अने तेवी स्त्रीनी इ. छा करनार तुं पण निंदाना पात्ररूप केम नहिं थाय.?" राजाए कह्यु. हे सुंदरी ! ते सर्व वात हुँ जाण्युं बुं, तो पण प्रीतिनी अधिकताने लीधेज त्हारो संग करवाने लोनायेलो बुं. महासतीए कयु. “श्रा रूपरहित थयेला अंगने विषे हवे राग श्यो ? ” पनी रतिसुंदरीना नेत्रना श्याम रंगथी प्रीतिवाला थएला राजाए फरीथी कडं. "त Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिसुंदरीनी कथा. २४५ पथी शुष्क थएला एवाय पण देहने विषे श्रा त्हारा बन्ने नेत्र जीर्णपात्रमा रहेला रत्ननी पेठे त्रण जगत्मा श्रमूख्यपणुं पाम्यां .” राजानां आवां वचन सांजली शील रक्षाने अर्थे बीजा को उपायने न जाणती एवी ते महासतीए पोतानां बन्ने नेत्रोने खेंची काढीने तत्काल राजीने अर्पण कस्यां. ते जोश्ने चमत्कार पामेला अने मूका गयुं ने रागरूप सर्पनुं फेर जेने एवा तथा वृद्धि पाम्यो संवेग जेने एवा ते राजाए संत्रमयी तेने कह्यु के, " अरे ! कृशोदरी ! तें था दारुण कर्म केम कमु ? अने म्हारा महा पुःखना कारणरूप केम थ?” रतिसुंदरीए कडं. “ हे देव ! रोगी माणसने तिक्ष्ण औषधनी पेठे था म्हारुं कृत्य आपणा बन्नेना सुखनुं कारण जाणो. !" पली रतिसुंदरीए देशनावडे करीने धर्मने विषे स्थिर करेला अने वैराग्य पामेला ते राजाए तेनी क्षमा मागी. पनी शीलव्रतना प्रजावधी शासनदेवीए ते रतिसुंदरीनां नेत्र फरीथी मनोहर कस्यां. पड़ी महेंजसिंदे पोताना प्रधाननी साथे रतिसुंदरीने नंदनपुरने विषे मोकलावी श्रने चंजराजाने कहाव्यु के, “ रतिसुंदरी म्हारी बहेन .” चंपराजाए वखाणेली रतिसुंदरी पण पोताना निर्मल शीलने पालीने अनुक्रमे मोक्ष सुख पामशे. ॥ इति रतिसुंदरीनी कथा समाप्ता ॥ हवे पतिए त्याग करेली महासतीउँना शीलनुं माहात्म्य कहे . ऋषिदत्ता वदंती कमला च कलावती विमलशीला रिसिंदत्ता दवदंती, कमला ये कलावई विमलसीला नामग्रहणजलेनापि कलिमलप्रक्षालनं कुरुत नामॅग्गहणजलेणवि, कलिमलपखालणं कुणद ॥ ५५॥ शब्दार्थ- ( विमलसीला के० ) निर्मल ने शीलवत जेनुं एवी (रिसिदत्ता के ) शषिदत्ता ( दवदंती के०) दवदंती (कमला के) कमला ( य के) अने ( कलावई के०) कलावती, ए सर्वे जयवंती वत्तॊ. हे जव्यजीवो ! ते सर्व शीलवत धारण करनारी महासतीउँना (नामग्गहणजलेणवि के०) माम ग्रहणरूप जसे करीने पण (कलि Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ शीलोपदेशमाला. मलपकालणं के ) कलियुगना अथवा क्लेशना पापने प्रक्षालन (कुगह के०) करो, अर्थात् धो नाखो. ॥ ५५ ॥ विशेषार्थ- हे नव्यजनो ! वली निर्मल शीलवंत एवी हरिषेण तापसनी पुत्री शषिदत्ता, जीमक राजानी पुत्री दवदंती,मेघराजानी पुत्री कमला, अने विजयसेन राजानी पुत्री कलावती ए सर्वे पण जयवंती वत्तों. हे जव्यप्राणि ! शीलव्रत धारण करनारी ते सर्व सतीनां नामग्रहणरूप जलेकरीने कलियुगना पापने तमे धोइ नांखो. ॥ ५५॥ शषिदत्तानी कथा. श्रा मध्यदेशने विषे रथमर्दन नामर्नु नगर . ज्यां वेपारीना मं. दिरने विषे कुबेर पण एक सामान्य वणिकपुत्रनी पेठे शोजतो हतो. त्यां जेनी खगरूप वति शत्रुनी स्त्रीउनां जनां एवां पण आंसुए करीने वृद्धि पामती हती एवो हेमरथ नामनो राजा राज्य करतो हतो. ते राजाने जेना नेत्रथी जाणे लजा पामेली हरिणी वननो श्राश्रय करीनेज रही होय नहिं शु? एवी सुयशा नामनी राणी हती. ते ने जेनी कीर्तिरूप स्त्री बाल बतां पण सर्व दिशाउँमा प्रसरी रही हती एवो कनकरथ नामनो महा समर्थ पुत्र हतो. ते वखते पृथ्वीरूप लक्ष्मीना केशपास सरखी कावेरी नगरीमां सुंदरपाणी नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने पतिव्रता स्त्रीउमां आनूषणरूप वासुला नामे स्त्री हती. जेम मेरुपर्वतनी नूमि कल्पवेलने प्रगट करे तेम तेणे रुक्मिणी नामनी पुत्रीने जन्म थाप्यो हतो. ते पुत्रीज्यारे श्रनुक्रमे यौवनावस्थामां आवी पहोची त्यारे सुंदरपाणी राजाए तेनो संबंध कनकरथ राजकुमारनी साथे कस्यो. पठी लग्नना अवसरे पितानी थाज्ञाथी कावेरी नगरी तरफ जता एवा ते कनकरथ राजकुमारे मार्गमा सिमामाना सर्वे राजाने पोताने ताबे कस्या. एम अनुक्रमे प्रयाण करता एवा ते राजकुमारे असंख्य वृदोथी गाढ एवा एक म्होटा अरण्यमां श्रावी पडाव कस्यो. एवामां पोते मार्ग जोवाने अगाउथी मोकलेला केटलाक सेवकोए श्रावीने वृदनी नीचे बेठेला ते राजकुमारने कयु. "हे देव ! तमारी थाज्ञाथी घणे दूर गएला श्रमोए जाणे दमानुं सुख होय नहिं शुं ? एवं कमलथी मनोहर एक तलाव दी. अमे जेटलामां Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . झषिदत्तानी कथा. ते तलावने कांठे गया तेटलामां तो चपलनेत्रवाली अने सुक्ष्म अंगवाली एक स्त्री अमारा जोवामां श्रावी. पड़ी ते स्त्री श्रमने जोश तत्काल नाशीने विद्याधरीनी पेठे वृक्षोनी घटामां संताग. अमे तेने घणो वखत खोली; पण दरीलिमाणसने चित्रवेलनी पेठे अमने ते प्राप्त थर नहीं.” कुमार ते सेवकोनी वात सांजली मेघनी गर्जनाथी जेम मोर हर्ष पामे तेम हर्ष पाम्यो अने ते सेवकोए बतावेला मार्गे ते वनमा जवाने चाल्यो. अनुक्रमे श्राम्रवनमा आवीने कुरंगपदिनीपेठे वृदोनी घटामां संताश् रहेला कुमारे चंचल नेत्रवाली ते स्त्रीने दीठी एटले विस्मय पामीने ते विचार करवा लाग्यो के, “ निश्चय मुनिना श्रापथी ज्रष्ट थयेली श्रा कोई देवांगना हशे! नहिं तो मारवाड सरखा निर्जल देशमां कल्पलताना सरखु स्त्रीरत्न अहिं क्याथी होय ?" था प्रकारे स्त्रीनुं रूप जोवाथी मूढ थर गएलो ते राजकुमार जेटलामा स्थिर उनो रहीने विचार करे ने तेटलामां सेनानो गाढशब्द सांजलीने ते स्त्री नासी ग. __पनी सरोवरने कांठे वृदोनी घटामा सेनाने पडाव करावी कामदेवना बाणश्री व्याप्त थ गएलो राजकुमार ते स्त्रीने शोधवा माटे वनमां जटकवा लाग्यो. शोध करता बहु दूर गयेला चंचल ह्रदयवाला कुमारे वनमां ऊंचा तोरणवालुं एक देरासर दीई एटले “ निश्चय नाशी गयेती कुरंगपदिना सरखा नेत्रवाली ते स्त्री या मंदिरमा हशे." एम धारीने राजकुमारे ते देरासरमा प्रवेश कस्यो. त्यां श्रादीश्वर प्रजुनी मूर्ति जोश् अचिंतित फल प्राप्त थवाथी पोताना आत्माने धन्य मानता एवा ते राजकुमारे वनना पुष्प विगेरेथी जेटलामां प्रजुनी पूजा करी तेटलामां ज्योत्स्ना सहित चंछनीपेठे म्होटी जटावाला कोश वृक्षमुनि ते कुमारी सहित त्यां श्राव्या. मुनिनी पुत्री राजकुमारने जो विचार करवा लागी के, “श्रा कोश्छ, चंड अथवा कामदेव .” विस्मित चित्तवाला राजकुमारे जिनेश्वर प्रजुने नमस्कार करीने पड़ी ते मुनिने प्रणाम कल्या. मुनिए पण “ दीर्घायुष्यवालो था.” एम श्राशीश श्रापी. मुनिए राजकुमारने पूज्यु. " हे ना! तमे कोण गे? तमाळं कुल शुं ? श्रने तमे क्याथी श्राव्या डो? ते कहो." पड़ी कुमारनी साथे रहेला सेवके कुमारनी सर्व हकीकत कही. कुमारे पण Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. पोताना नेत्ररूप चकोरने आनंद पमामवामां चंदनी ज्योत्स्ना सरखी कुमारीने जोश मुनिने पूब्यु के,"तमे कोण हो? या कन्या कोण ? श्रने श्रा मंदिरने विषे केम रहो बो ?” मुनिए उत्तर प्राप्यो के, “ हे वत्स ! श्रा म्होटी कथा बे; माटे हुं पूजा करीने श्राव्या पली कहीश. " कुमार "बहुसारु " एम कहीने बीजा मंडपमां बेगे अने मुनि ते कुमारी स. हित प्रजुगें पूजन करवा गया. ते वखते राजकुमार कुमारीने श्रने कुमारी राजकुमारने एम परस्पर पोतानां धवल चंचल नेत्रोथी वारंवार जोता हता. प्रजुनी पूजा करी रह्या पढ़ी मुनिए राजकुमारने पोतानी कुंपनीए तेडी जश्त्यां मधुपर्कथी पूजा करीश्रासन उपर बेसारीने कडं. हे वत्स! मंत्रितावति नामनी नगरीने विषे हरिषेण नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने यथार्थ नामवाली प्रियदर्शना नामनी स्त्री हती अने अजितसेन नामनो पुत्र हतो. ___ एक दिवस विनीत श्रश्व उपर चडीने फरवा निकलेला ते राजाने दुष्ट अश्व था वनमा हरण करी लाव्यो. पनी राजा तेने पिंपलाना वृ. साथे बांधीने श्रश्वथी पण वधारे वेगवालो पोते था वनमां श्राव्यो अने तलावने विषे हाथ पग धोर त्यां बेठेला विश्वनूति नामना साधुने नमस्कार करी नेमनी पागल बेगे एटले कल अने महाकड वंशना ध्वजरूप ते महामुनिए (श्रादीश्वर प्रजु रहारं कल्याण करो.) एम आशिष थापी. - पनी राजा श्रने मुनि परस्पर कुशल समाचार पूबता हता एवामां ते वनने विषे म्होटो कोलाहल शब्द थवा लाग्यो एटले सर्वे श्राश्रमवासी मुनि आश्चर्यथी कहेवा लाग्या के, “श्रा कोलाहल शेनो थतो हशे?" राजाए तो जाण्यु के, “निश्चय म्हारं सैन्य म्हारा पगले श्रावी पहोच्यु." पड़ी तेणे मुनिपासेथी उठीने पोताना सर्व सैन्यने शांत पमामी पोते मु. निनी सेवा करतो तो एक मास सुधी त्यांज रह्यो. त्यां तेणे पुण्यरूप समुज्ने वृद्धि पमाडवामां चंअसमान श्री आदीश्वर नगवाननुं ऊंचा तोरणवाटुं था मंदिर बंधाव्यु. पडी पोतानी नगरी प्रत्ये जवाने प्रया ण करता एवा ते राजाने कुलपति मुनिए सापना फेरने उतारवानो एक मंत्र आप्यो. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ाए शषिदत्तानी कथा. पली राज्यनुं पालन करता अने एक दिवस सन्जामां बेठेला ते हरिषेण राजानी को एक द्वारपाले श्रावीने विज्ञापना करी के, “ हे देव ! कल्याणकारी एवी मंगलावती नगरीमां महा तेजवंत प्रियदर्शन नामे राजा राज्य करे . तेने विजलीनी लताना सरखी विद्युत्प्रजा नामे स्त्री डे. तेजेने गुणे करीने पवित्र एवी प्रीतिमति नामनी पुत्री बे. ते पुत्रीने थाजे पुष्ट सापे दंश कस्यो बे; माटे प्रियदर्शन राजाए तमने खबर कहेवाने माटे मने अहिं मोकल्यो .” दूतनां श्रावां वचन सांजली परोपकारी बुद्धिवालो ते हरिषेण राजा वेगवाला हाथी उपर बेसीने मेंगलावती नगरी प्रत्ये गयो. त्यां तेणे प्रीतिमतीने सापना फेरथी मुक्त करी. पडी प्रसन्न थएला प्रियदर्शन राजाए पोतानी पुत्री हरिषेण नूपतिनी साथे परणावी. हरिषेण राजा पण तेने परणीने म्होटा उत्सवथी पोतानी नगरी प्रत्ये श्राव्यो. केटलोक काल वित्या पडी हरिषेण राजाए युवावस्थामांश्रावेला पोताना अजितसेन पुत्रने राज्य सोंपी पोते स्त्रीसहित विश्वजूति नामना तपखी पासे तापसी दीक्षा लश् अखं मित ब्रह्मव्रत पालवा लाग्यो. पनी ते प्रीतिमतिने पांचमे मासे स्त्रीमंत्रनीपेठे लजा पमाडनारो गर्न प्रगट थयो; ते जोश्ने हरिषेण राजाए स्त्रीने पूज्यु." हे जडे! कुल अने शीलने अयोग्य एवो था गर्न तने क्याथी प्रगट थयो?” प्रीतिमतिए उत्तर आप्यो के, “ दिदा लीधा पहेलानो बे; परंतु वादलामा रहेला चंजनी पेठे हुं तेने जाणी शकी नहीं." हरिषेणे कयु. “ हवे अहिं रहेवाथी आपणे तपस्वीऊमां धिक्कार पामशु; माटे सवार थये बीजा को स्थानके जता रहे." श्रावो विचार करता एवा ते स्त्री पुरुषे रात्री निर्गमन करी. पठी सवारे तेउए जोयुं तो दुष्ट जूते खोदी काढेला घरनीपेठे ते वन तपस्वी रहित दी एटले आश्चर्यवंत थएला ते स्त्रीपुरुषे पोताना चंचल नेत्रथी चारे तरफ जोवा मांड्यु तो सूका गएला पांदडावाला वृदने त्याग करीने जेम पदि उडी जाय तेम ते आश्रमने बोडी दश्ने बेवट चाव्या जता एवा एक वृद्ध मुनिने दीग. हरिषेणे मुनिपासे जर हाथ जोडीने पूज्यु के " हे जगवन् ! था पवित्र एवं तपोवन तपस्वी विनानुं शून्य केम थर गयुं ?" मुनिए उत्तर प्राप्यो के, “ हे वत्स! त Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० शीलोपदेशमाला. मारा निंदित कर्मने जो कोढीया माणसनी पेठे तमारो त्याग करीने सर्वे तपस्वी बीजा वनमां चाख्या गया बे." एम कहीने ते मुनि पण बीजे स्थानके गया. __ पनी खेद पामेलो हरिषेण राजा पोताना श्राश्रममां श्राव्यो. यति जेम लक्ष्मीनी निंदा करे तेम पोताना कर्मनी निंदा करता एवा ते स्त्री पुरुषे सेंकमो वर्षना सरखा फुःख आपनारा बीजा चार मास पण तेज श्राश्रममां निर्गमन कख्या. पनी पूर्ण मास थये प्रीतिमतीए इंछित फल थापनारी कल्पवेलना सरखी पुत्रीने जन्म प्राप्यो. “कषिर्जुना प्रसादथीज श्रा पुत्री थापणने प्राप्त थ .” एम मानता एवा ते माता पिताए पुत्रीनु उत्तम अर्थवावु “इषिदत्ता” एवं नाम पाड्यु. पडी प्रीतिमती मरण पामी एटले हरिषेण तापसे ते पुत्रीने पाली पोशीने आठ वर्षनी करी. पडी “श्रा रुपवति पुत्रीने कोश् वनचरो उपजव करशे." एवो विचार करीने तेणे पुत्रीना नेत्रमा अदृश्यना कारणरूप अंजन श्रांज्यु के जेथी तेने को देखी शके नहीं. (श्री शादीश्वर प्रजुना देराशरनी पासे रहेनारा मुनि कनकरथ राजकुमारने कहे डे के,) " हे राजकुमार ! तेज हुं हरिषेण राजा ९ अने श्रा म्हारी पुत्री ऋषिदत्ता बे, के जेने में अंजन आंजवाथी कोश देखी शकता नहोता पण तमे दीठी जे.” पडी राजकुमार कनकरथ अने शषिदत्ता परस्पर पोतानी स्निग्ध दृष्टिथी एक बीजाना शरीरने जोता एवा जाणीने तथा तेना नावने समजीने मुनिए राजकुमारने कयुं. “ हे परूणा ! था कन्या त्हारे योग्य बे; माटे तुं तेने ग्रहण कर.” राजकुमार ते वातने कबुल करी शंकर जेम पार्वतीने परण्या हता तेम तेने त्यांज परण्यो अने नवोढा एवी ते इषिदत्तासहित मालतीनी साथे जमरानी पेठे केटलाक दिवस तेज थाश्रममा रह्यो. पली वैराग्यमां परायण एवा हरिषेण मुनिए पुत्री तथा जमाश्नी रजा ल पंच परमेष्ठि- स्मरण करता उता अग्निमां प्रवेश कस्यो; तेथी ऋषिदत्ता पृथ्वी उपर बालोटवा अने विलाप करवा लागी. कुमार कनकरथ अमृतसमान वाणीथी तेने बोध पमाडी अने प्रथम पोताना नगरथी जेने परणवा जतो हतो, ते रुक्मिणीनो त्याग करी केवल ऋषिदत्ता Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिदत्तानी कथा. २५१ ने ग्रहण करी पालो पोताना नगरतरफ जवाने निकटयो. कृषिदत्ता पण हरिवर्षश्री श्राणेला अने सर्व झतुमां फलने प्रगट करनारा वृदोना बी. जने हारबंध वावती तेनी साथे चाली. विशाल नेत्रवालो कनकरथ कुमार पिताए करेला उत्सववाला रथमर्दन नामना पोताना नगरप्रत्ये केटलेक दहाडे श्रावी पहोच्यो. पड़ी पतिने मान्य एवी ऋषिदत्ताए पोतानां श्रेष्ठ श्राचरण अने विनयादि गुणोए करीने कुटुंबना सर्वे माणसोना चित्तने वश्य कस्यां. तेमज ते युवराज एवा पोताना पतिनी साथे राज्यनां अनेक सुखोने नोगववा लागी. हवे अहिं कावेरी नगरीमां सुंदरपाणी राजाने समाचार मख्या के, "रुक्मिणीने परणवा माटे आवतो एवो कनकरथ कुमार मार्गमा हरिषेण ऋषिनी पुत्री ऋषिदत्ताने परणी पाडो वली गयो.” यौवनना उन्मादथी धर्मद बनी गएली तथा कनकरथ कुमारनी साथे विषय सुखने श्वती एवी रुक्मिणी पण ते वातने सांजलीने उपाय शोधवा लागी. पड़ी तेणे मंत्र तंत्र जाणनारी तथा कोटी कपट करवामां चतुर एवी सुलसा नामनी कोई योगिनीने बोलावी प्रार्थनापूर्वक कडं के, “तुं कृषिदत्ताने माथे कलंक चडावी मने कनकरथ राजकुमारनो मेलाप कराव्य." रुक्मिणीनी ते वात अंगीकार करी बे जीजवाली सर्पणीना सरखी तथा पुष्ट हृदयवासी राक्षसीना सरखी सुलसा रथमर्दन नगरमां श्रावी. त्यां अग्निना सरखा हृदयवाली ते गाढ अंधकारने उत्पन्न करी, सर्व माणसोने निझावश करी, अने एक माणसने मारीने कनकरथना मंदिरप्रत्ये श्रावी. त्यां निभाने वश थएली ऋषिदत्तानां मुखने रुधिरथी खरडी थने तेने उशीके पेला मारी नाखेला माणसना मांसना करंडीयाने मूकी तथा मूकेली निशानुं हरण करीने पनी नासी गइ. अरे ! धिक्कार ले पुष्ट स्त्रीउना उरात्मपणाने के, जेने या प्रकारनो अन्याय करवामां पण विचार थयो नहीं. हवे सवार थइ एटले पेला मूवेला माणसना कुटुंबी कोलाहल शब्द करवा लाग्या; तेथी कुमार कनकरथ जागी उठ्यो अने जोयुं तो पोतानी प्रियानुं लोहीथी खरडाएलु मुख तथा तेने उशीके पडेलो मांसनो करंडी दीगे. पड़ी ते मनमा शंका लावी विचार करवा लाग्यो के, “मू Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्य शोलोपदेशमाला. वेला माणसो क्यारेक नूत, प्रेत अने राक्षस थएला संचलाय बे; तेम श्रा स्त्री पण तेवीज देखाय बे के शुं? हाय ! हाय ! शुं म्हारी प्राणप्रिया खरेखरी राक्षसी हशे ! ना ना एम संजवतुं तो नथी; कारण के ते तो अहिंज सूतेती बे. या प्रकारे प्रियासंबंधी संकल्प करता एवा ते रा. जकुमारे ऋषिदत्ताने जगामी. इषिदत्ता जागी उठी एटले कनकरथे कडं. “हे प्रिये ! जो तुं म्हाराथीबानुं न राखे तो हुँ तने कंश पूडं !” ऋषिदत्ताए उत्तर प्राप्यो के, "हुँ सत्यज कहीश; माटे जे पूq होय ते पूडो.” पनी राजकुमारे कडं. "हे प्रिये ! आज रातमा कोइए एक पुरुषने मारी नाख्यो डे अने वली रहारं म्हों लोदीथी खरमायेनुं बे; तो हे जसे ! तुं को राक्षसी मुनिनी पुत्रीपणाने पामेली बु ? था हारां प्रत्यद आचरण जोश तने रा. इसी कोण नहिं जाणे ?” - आ प्रकारनां पतिनां वचन सांजलीने अत्यंत जय पामेली अने पोतार्नु मुख जोश दीन नेत्रवाली बनेली ऋषिदत्ताए उत्तर प्राप्यो के,“ हे स्वामिन् ! जो हुँ प्रथमथी मांस खाती होत तो बाजे तेवी श्वा थात." पली कनकरथ कुमार मनमां विचार करवा लाग्यो के, “था स्त्री को पुरुषने मारी नाखे एवात संजवती नथी; कारण के जे तेवी वात बोलवामां समर्थ नथी तो पड़ी करवामां केम समर्थ थाय? माटे निश्चय पूर्व कमना अनुनावथी तेना को वैरीए था कामकखु .” इषिदत्ताए कह्यु. " हे स्वामिन् ! जो आपने म्हारो विश्वास न आवतो होय तो सर्प डशेला शरीरना एक नागनी पेठे तेनो तपास करो.” कृपाना समुअरूप अने विवेकी कुमारे कडं. "न! हुँ तने बीजना चंजनी पेठे दोषरहित जाणुं बुं.” श्रावी रीते खल पुरुषना मुखने मुजित करवाने अर्थे अमृतवाणीथी बोखता एवा ते राजकुमारे पोते ऋषिदत्ताना मुखने धोश् नाख्यु. पड़ी सुलसा योगिनी हमेशा एक माणसने मारी ऋषिदत्ताना मुखने रुधिरथी खरमी अने तेनी पासे मांस मूकी नासी जवा लागी. राजकुमार पण हमेशा मांसने फेंकी दर प्रियानां मुखने धोश नाखवा लाग्यो. एक दिवस हेमरथ राजाए क्रोध करीने प्रधानोने कयु के, "अरे Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिदत्तानी कथा. २५३ उमंत्री ! तमे नगरने विषे हमेशा थती एवी एक मनुष्यनी हिंसाने सांजलता बता केम विचार नथी करता ? शुं तमे नथी जाणता के शरी. रनी अंदर वधेला रोगनी पेठे जामेलो शत्रु सर्वनो नाश करनारो थाय ने ?” प्रधानोए कडं, " हे देव ! अमे सर्वे सावध उइए, उतां श्रापना नगरमां को मारी ( मरकी ) अथवा मांत्रिकी विगेरे अमारी नजरे पमतुं नथी; परंतु श्रमे धारीए बीए के, जो श्राप नगरमाथी सर्वे पाखंमी. उने बहार काढी मूको तो शांति थाय." प्रधाननां श्रावां वचन सांजली राजाए जैनदर्शनि शिवाय बाकीना सर्व दर्शनीने नगर बहार काढ्या. ते वखते मुराचारवाली, क्रूर हृदयवाली अने विछत्तानुं मान धरती एवी सुलसाए राजाने एकांतमां बोलावीने कयु के, "हे देव ! श्राजे मने कोश् देव खप्नामां एम कही गयो के,श्राजे राजा पोताना नगरमांथी पाखंडीउने बहार काढी मूकशे; माटे तुं राजापासे जश्ने तेनुं निरागपणुं निवेदन कर अने कहे के, दूध तो बीलाडी पी गश् अने तमे गायना वाबरडाने शा माटे मारो डो? तमारा पुत्रे वनमांधी आणेली स्त्रीरूप राक्षसीनुं निश्चे या कृत्य . एम कही ते देव अंतर्धान थर गयो. वली जो तमे था वातने साची न मानता हो तो आज रात्रीए तमारी जाते तपास करजो.” पनी ते दिवसे राजाए रात्रीने विषे पुत्रने पोतानी पासे सूवास्यो अने ऋषिदत्ताने माटे बाना पहेरा राख्या. हवे राजकुमार कनकरथ मनमा विचार करवा लाग्यो के, “निश्चे आजे प्रियानो दोषो उघाडो थशे तो हवे शुं करवु ? एक तरफथी न उबंधी शकाय एवी पितानी श्राज्ञा, बीजी तरफथी प्रियानो वियोग एम बे म्होटा संकटमां पडवू पडशे. एवामां सुलसाए पोतानी विद्याना बले करीने पूर्वनी पेठे ऋषिदत्तानां मुखने लोहीथी खरड्यु श्रने तेनी पासे मांसनो पीड मूक्यो. पढी सवारे राजपुरुषो लोहीथी खरडाएला मुखवालि झषिदत्ताने राजा पासे लश् गया. तेने जोश् क्रोध पामेला राजाए पुत्रनो तिरस्कार करीने कयु के, "अरे ! तुं प्रियाने राक्षसी जा. णतां बता पोताना घरमां केम राखे ? अरे पुराचारी ! क्रूर ! रादणीना पति ! तुं एनो त्याग कर. तें कुंदपुष्पना अने चंजना सरखा म्हारा निर्मल कुलने कलंकित कखु ." राजकुमारे नमन करीने कड्यु Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ शीलोपदेशमाला. देतात! स्त्रीने विषे या वात संजवती नयी. ते कृत्य कोई दुष्ट माणसनुं बे, माटे तमे क्रोध न पामो " राजाए फरीथी कयुं. " अरे मूढ ! जो तने विश्वास न यावतो होय तो त्यां जश्ने ए रादणीनं मोढुं जो. " 66 राजानी यज्ञाथी निस्तेज बनी गयेला राजकुमारे ग्लानी पामेला मुखवाली प्रिया पासे जश्ने मधुरवाणीथी कयुं. " हे प्रिये ! व्हारा पूना कर्मनो उदय थयो . हवे हुं शुं करूं ? कोइ योगिनीए राजानी थागल " तुं राक्षसी ढुं.” एम कह्युं बे. वली राजाए पण तने रुधिरथी खरडाएला मुखवाली दीठी बे; जेथी हवे हुं नयी जाणतो के कर्मना श्राधिनपणाथी शुं थशे ? ” पछी क्रोधवंत थएला राजाए ऋषिदत्ताने केश पकडी घर बहार काढी छाने वध करनाराउने सोंपीने कथं के, दुष्ट राक्षसीने नगरमा फेरवीने स्मशानमां लइ जइ मारी नांखो. राजानी यावी श्राज्ञा सांजली महाडुःखथी व्याप्त थपला कुमारे गले फांसो खावा मांड्यो . तेने राजाए घणी मूरकेली थी समजावीने बोमाव्यो. " श्र "" पढी वध करनारा रुषिदत्ताने काने सुपडां बांध्यां; चोटलो कापी नाखी मस्तक उपर बीलीनां फल बांध्यां; कंठे लींबमानां पांन ने ठीकरानी माला पहेरावी; मोढे मश लगामी सघलुं शरीर गेरुथी चितयुं. बेट गधेडा उपर बेसारी वाजते गाजते सघला नगरमां फेरवी. ते जोइ नगरना लोको हाहाकार करवा लाग्या वध करनारा ते महासती ने स्मशानमां लइ गया. त्यां एक निर्दय माणस पोताना क्रूर देवनुं स्मरण करी जेटलामां ते रूषिदत्ता उपर खड्गनो घा करवा जाय बे तेटलामां जय त्रास पामेली ते महासती मूर्छा श्राववाने लीधे पृथ्वी उपर पडी एटले ते हिंसक पुरुषो खगनो घा कस्या विनाज तेने मृत्यु पामेली मानीने तत्काल नगरतरफ चाया गया. हवे थोमी वारे शीतल पवनथी सचेत थएली ते महासती कृषिदत्ताए वी ने जोयुं तो ते स्थान मनुष्यो विनानुं शून्य दीतुं एटले जय पामती एव ते महासती पडबंदार्थी श्राकाशने पूरी देता एवा म्होटा सादथी रुदन करवा लागी ने विलाप करती करती कदेवा लागी के, " हे तात ! जो ते वखते दुर्बुद्धिवाली एवी में तमने त्यजी दीधा न होत तो Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिदत्तानी कथा. २५५ हुं यावा दुःखना पात्ररूप यात नहीं.” वली ते पोताना जीवने कड़ेवा लागी के, "हे जीव ! तें पूर्व जन्मने विषे एवं शुं कस्युं वे के, या जवने विषे तेना फलरूप तने श्रावुं कलंक प्राप्त थयुं ?" वली जर्ताने कड़े बे. "हे प्राणनाथ ! वृद्ध गायनी पेठे दुःखरूप म्होटी खाइमां पडेली या तमारी बहाली स्त्रीनुं रक्षण करो.” या प्रकारे विलाप करी ने शोकने jat करी ते महासती धीमे धीमे दक्षिण दिशामां पोताना पिताना श्राश्रम तरफ चाली. पोताना हाथथी वावेला वृक्षोनी पंक्तिथी मार्गना ज्ञानवाली ने दर्जना अग्रजागथी विधाता पगवाली ते थोडा दिवसमां पिताना श्रमप्रत्ये यावी पहोची. पी पिताना स्मशानने जोइ स्नेहश्री रुदन करती ते कड़ेवा लागी के, “हे तात! तमे क्यां ढो ? महाडु:खवाली मने दर्शन पो. अरे ! प्रथम पितानुं जे या तपोवन नगरसरखुं लागतुं दतुं तेज श्रा दमणां दुःखथी बलती एवी मने अमिना सरखुं देखाय बे. " पठी शोकने मूकी दइ कंद, मूल छाने फलनो आहार करती ते महासती पिताना श्राश्रमने विषे तपस्वीनी थश्ने रही. एकदा ते विचार करवा लागी के " रस्ताने विषे पाकेली बोरडीना सरखी हुं या तपोवनमां एकली केम रही शकीश ? वली स्त्रीउने परलोकमां सिद्धि पनारुं एक शीलवत कहेलुं वे तो तेनुं म्हारे करमाइ न गएली पुष्पनी मालानी पेठे कोइ पण उपायथी रक्षण करतुं जोइए.” पित्ता श्रावो विचार करती हती एवामां तेने याद श्राव्यं के, " हा पिता बतावेली औषधी या वनमां बे के, जेना प्रजावधी स्त्रीर्ड पण पुरुष रूपने धारण करे छे. " पी महासती ऋषिदत्ता ते औषधी लावी पोताना कानमां राखी पुरुषपणाने पामीने पी धारण करयो बे तपखीनो वेश जेणे एवी ते जिनेश्वर प्रनुं पूजन करती बती तेज श्राश्रममां निवास करीने रही. afe प्रियाना वियोगी व्याकुल थलो कनकरथ राजकुमार पण जाणे पोतानुं सर्वस्व खोइ बेठो होय नहिं शुं ? एम शून्य चित्तवालो थइ गयो. जेम चंडिकाने बकरानुं बलिदान श्रापी ने प्रसन्न करे तेम पोताना था. माने कृतार्थ मानती एवी सुलसाए पण पोते करेला विजयनी वधामणी रुक्मिणी श्रगल कहीने तेने प्रसन्न करी. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ शीलोपदेशमाला. . हवे कावेरी नगरीना अधिपति सुंदरपाणी राजाए एक वाचाल दूतने हेमरथ राजापासे मोकल्यो. दूते रथमर्दन नगरमां जश्ने हेमरथ रा. जाने कह्यु के, “ हे देव ! सुंदरपाणी महाराजा कहावे ने के, तमारो कुमार शा कारणमाटे रुक्मिणीने परणवा सारु न श्राव्या ? हवे मोकलो; कारणके विवेकी मनुष्यो सऊन पुरुषोने अपमान पहोचाडता नथी." दूतना वचननो सत्कार करी राजाए पुत्रने एकांतमां बोलावीने कडं. " हे वत्स ! तुं निरंतर शून्य घरनी पेठे निस्तेज केम रहे ? जो पू. वना कर्मथी कंश कष्ट पड्युं होय तो तेने दूर करी धीर पुरुषो कार्यने विषे फरीथी उद्यम करे जे ? हे पुत्र ! हवे तुं कावेरी नगरीना राजानी पुत्रीने परणवा जवानो प्रयाण करी म्हारा मनने थानंद पमाड्य." पढी पितानी थाझा लोपवाने असमर्थ होवाथी सैन्यना नारे करीने पृथ्वीना तलने कंपावतो अने फरीथी परणवामाटे जतो कनकरथ अनुक्रमे तेज वनमां श्रावीकृषिदत्ताने संजारीने खेदथी विचार करवा लाग्यो के, “ तेज था वन, तेज था देरासर थने तेज था तलाव तथा वृदो के, ज्यां हुँ अत्यंत स्नेहथी सुंदर नेत्रवाली इषिनी पुत्री (ऋषिदत्ता) ने परण्यो हतो. अरे! मने तेना विना था सर्व स्थान पुःख श्रापनारूं दे. खाय . हे धात ! अनिश्चिंत स्वजाववाला तें था शुं करी नाख्यु ? " श्रावी रीते विचार करतो एवो ते राजकुमार श्रादीश्वर प्रजुना मंदीरमां गयो के ज्यां पोतानुं प्रिय सुचवनारुं जमणुं नेत्र फरकवा लाग्युं; तेथी ते फरीने विचार करवा लाग्यो के, " अरे? हुँ या सर्व निष्फल विचार करुं बुं; कारण के, हवे ते म्हारी प्राणप्रिया अहिं क्याथी होय ? परंतु श्रा देरासर जेवं मने प्रथम प्रिय लागतुं हतुं तेवं आजे पण लागे .” कुमार श्रावो विचार करतो हतो एटलामा ऋषिदत्ता के जेणे पुरुषरूप तापसनो वेश धारण कस्यो हतो तेणे आवीने कुमारने पुष्प अर्पण कस्यां. प्रियाना मना स्पर्शथी कनकरथ कुमार पोतानी दृष्टिथी तेने जोतो बतो ते मुनिना हाथमाथी जाणे पोतानो विचार सत्य करतो होय नहिं शुं ? एम तेणे पुष्पनी मालाने ग्रहण करी. ते वखते गुप्त आकृतिवाला तपस्वीए जाणी ली, के, “ निश्चय आ म्हारो प्राणनाथ फरीथी रुक्मिणीने परणवा माटे जाय ." Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झषिदत्तानी कथा. २५७ पनी कुमार जिनेश्वर प्रजुने नमस्कार करी मुनिने साथे लइ पोताना श्राश्रममां श्राव्यो. त्यां तेणे मुनिने लोजन अने वस्त्र विगेरेथी सत्कार करीने पूज्यु के,“ हे मुनि ! तमे अहिं क्यारे अने क्यांथी श्राव्या बो ते सर्व तमारी वात मने कहो ?” मुनिए दांतनी कांतिरूप डांगरथी वनने मंगलकारी करतां कह्यु. “पूर्वे हरिषेण नामना मुनि अहिं रहेता हता. तेमने प्राणना सरखी वहाली ऋषिदत्ता नामे पुत्री हती. तेने को राजकुमार परणीने पोताना नगर तरफ गयो. मुनि पण अग्निमां प्रवेश करी देवलोकमां गया.ते वखते हुँ पृथ्वी उपर जमतो जमतो अहिंथावीचड्यो. हे राजकुमार ! मने श्रहिं श्राव्याने पांच वर्ष थ गयां डे; परंतु आजे तमारा दर्शनथी म्हारा सर्वे मनोरथो सफल थया ले.” राजकुमारे कडं. " हे मुनि ! आनंदयुक्त एवा तमने जोश जेम वरसादथी वन तृप्त न थाय तेम म्हारी दृष्टी जरा पण तृप्त थती नथी.” मुनिए कडं. "हे देव! जेम कमलने सूर्य अने पोयणीने चंड हर्ष करनारा थाय . तेम श्रा लोकने विषे को कोश्ने हर्ष करनार थाय ." __पड़ी कनकरथ राजकुमारे मुनिने श्राग्रहथी कडं." हे मुनि ! हमणां तमारा प्रेमरूप सांकलथी म्हारं मन बंधा गयुं बे; माटे तमे म्हारी साथे चालो श्रने वलती वखते था आश्रममा रहेजो.” मुनिए कडं. " हे देव ! साथे तेमी जवामां श्राग्रह करवो नहीं, कारणके मारे मु. निउँने सर्व प्रकारे राजानो समागम दोषवालो .” मुनिनां वचन सांजली सर्व जनो सहित राजकुमारे तेमने एवो श्राग्रह कयो के कृषिदत्ता मुनिने तेनी साथे जवान कबुल कख्या विना चाट्युं नहीं. पली श्रस्ताचल पर्वतना शिखर उपर श्रावी पहोचेला राता फलसरखा सूर्यने लीधे संध्याकालनां वादलांथी सर्व दिशा राती थइ ग. ते वखते ऋषिदत्ता महामुनिनो सत्कार करवा माटेज होय नहिं शुं ? एम सात ऋषिर्ड सहित चंड उदय पाम्यो, पढी संध्याकालनु नित्य कार्य करी प्रीतिनी वातोथी हर्षित मनवाला ते बन्ने जणाए एक शय्यामां सूश्ने रात्री विवृत्त करी. पड़ी ते अनुक्रमे रस्तामां अनेक प्रकारनी वातो करता, नवां नवां स्थानो जोता अने विचित्र एवा सुजाषित श्लोको बोलता कावेरी नगरीमा श्रावी पहोच्या. सुंदरपाणी राजाए महा हर्षश्री तेमने नगरमां Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 शीलोपदेशमाला. प्रवेश कराव्यो. पढी जोशीए आपेला शुभ मुहूर्तमां इंद्रना समान समृद्धिवाला सुंदरपाणी राजाए रुक्मिणीनो पाणी ग्रहण करावी कनकरथ कुमारने त्यां केटलाक दिवस राख्यो. वे एक दिवस विश्वास पामेली रुक्मिणीए कनकरथ कुमारने पू , " हे खामिन् ! मुनिनी पुत्री ऋषिदत्ता केवी हत्ती के, जेम ल्याए इंद्रना मनने संतोष पमाड्यं हतुं तेम तेणे तमारा मनने संतोष उपजाव्यो हतो ?” रुक्मिणीनां वचन सांजली जेनी श्रांखोमां यांसु श्रावी गयां दतां एवा कुमारे गद्गद् वाणीथी उत्तर थाप्यो के, " हे प्रिया ! वधारे शुं कहुं, पण त्रण लोकमां जेटली स्त्रीउ बे, ते सर्वने हुं तेना चरणरज समान गणुं बुं. अरे! तेनो वियोग थवाथीज में व्हारो पाणिग्रहण कस्यो बे. कयुं बे के निर्जल एवा मारवाड देशमां पण खारो कूवो हर्ष आपनारो थाय बे. ऋषिदत्तानी स्तुतिरूप राजकुमारनां वचन सांजली क्रोध पामेली रुक्मिणीए योगिनी सुलसाने मोकलवादिक पोतानुं सर्व पुरुषातनपणुं राजकुमारनी यागल कही बताव्युं. रुक्मिणीए कहेली या सर्व पोतानी वात बीजा पासेनां गुप्त स्थानमा रहेली कषिदत्ता मुनिए सांजली एटले पोताने माथे चडेला कलंकने उतारी सीतानी पेठे ते अत्यंत हर्ष पामी; परंतु तेनां एवां वचनथी क्रोधने लीधे रातां थइ गयां बे नेत्र जेनां एवा राजकुसारे दहिंना पात्रमां मुख नाखनारी कुतरीनी पेठे तेनो ( रुक्मि. नो ) तिरस्कार करीने कां. “ अरे पापीणी ! क्रूर अने म्हारी प्राणप्रियानो वियोग करावनारी एवी तने धिक्कार बे के, जे तें मने दुष्ट एवा चिंतारूप समुद्रमां फेंकी दीघो. अरे ! पोतानुंज सारुं करवानी इछा - वाली ने दुष्ट बुद्धिवाली तें बन्ने लोकमां नरकना कारणरूप दुष्ट श्राचरण करयुं . "" श्री प्रकारे तिरस्कार करी रुक्मीणीने काढी मूकी महा दुःखथी व्याप्त एलो कुमार कनकरथ चीता खडकी जेवो तेमां प्रवेश करवा जाय बे वो सुंदरपाणि राजाए हाथ काली तेने अटकाव्यो. रुदन करता एवा बीजा मनुष्यो पण निवारवा लाग्या; परंतु कुमार कोइना वचनथी निवृत्त यतो न हतो एवामां कृषिदत्ता मुनिए श्रावीने तेने कयुं. " हे ज Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शषिदत्तानी कथा. थिए गदाधार ! हे कुमार ! तें जे वात मने अहिं लावतां कही हती, ते तुं हुं जुली गयो ? वली त्हारा सरखा वीर पुरुष केवल स्त्रीने माटे मरण पामवा तैयार थाय खरा ? जेने त्हारा सरखो पति ने ते तो सदा जीवतीज बे. हे राजकुमार ! मृत्यु पामेली प्रियाना संगनी वात उझन बे; परंतु जो तुं जीवतो हश्श, तो ते को ठेकाणे तने मलशे.” राजकुमारे कडं. “ हे मुनि ! तमे पण मने बालकनी पेठे जोलवो बो के शुं ? जो मृत्यु पामेला पाठा मलता होय तो कोई दुःखी थायज नहीं.” मुनिए कडं. " हे महासत्व ! शंका न पाम्य. आ हारा धैर्यथी हारी प्रिया जीवती थशे. कारण तुं चिंतामणि रत्नसमान बु.” मुनिनां वचन सांजली प्रफुल्लित नेत्रवाला कुमारे फरीश्री पूज्यु. “ हे मुनि ! तमे तेने क्यांश दीनी जे ? अथवा सांजली ले ? जो एम थयु होय तो मने कहो.” मुनिए कयु. “ हे राजकुमार ! ज्ञानदृष्टिवाला मुनि झाने करीने सर्व जाणी शके डे; माटे हे ना! त्हारी प्रिया यम ( नियम-व्रत) ना स्थानमा रही बती सुखी जे.” राजकुमारे "ते अहिं शी रीते श्रावी शके ?” एम पूज्युं एटले मुनिए उत्तर प्राप्यो के, "हे देव ! हुं हारा च. रणने विषे श्रात्माने धारण करी ते सती स्त्रीने लावी थापीश.” स्त्रीनी श्राशाथी कुमारे मुनिने कडं, “ हे मित्र ! हवे वार शा माटे करो बो?" मुनिए कडं, "हुँ तमाएं हित करूं; तेना बदलामां तमे मने दक्षिणा शुं आपशो ?” राजकुमारे कडं, “ तमे प्रथमथी म्हारा चित्तने तो हरण कमु , तो हवे आत्मा थापीश. कारण मित्रने अर्थे शुं श्रापी शकातुं नथी ? अर्थात सर्व थापी शकाय जे.” मुनिए हसीने कडं. "हे राजकुमार ! श्रात्मा कोश्थी आपी शकातो नथी, पण वखत श्राव्ये हुँ जे माणु तेनी ना कहेशो नहीं.” राजकुमारे ते वात कबुल करी एटले मुनि घ. रनी अंदर गया. ते वखते कौतुक जोवा माटे अनेक लोको एकग थया हता. मागधलोको “ सती स्त्रीउँना सत्व, तप, ध्यान अने महात्म्य पृथ्वीमां जयवंता वर्ते बे." एम मधुर वाणीथी कहेता हता. हाथमां धारण करी पुष्पनी माला जेमणे एवा देवता श्राकाशमा उन्ना रही खेडु लोको जेम वर्षादनी वाट जुए तेम ऋषिदत्तानी वाट जोता हता, कुमार पण बीजा Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला सघलां कार्य मूकी दश् श्राश्चर्यथी प्रफुद्धित नेत्रवालो थश्जोर रह्यो हतो; एटलामा झषिदत्ता मुनिनो वेश उतारी, कानमा राखेली औषधी काढी नाखी अने पोतानां वस्त्रोधारण करीअनिमांथी निकलेली सुवर्णनी शलीनी पेठे शोजती बती तत्काल त्यां श्रावीने उनी रही एटले देवताए “हे पतिव्रता! तुं जयवंती था !! जयवंती था!!” एम शब्द करी पुष्पोनो वरसाद वरसाव्यो. पोताना रुपे करीने रुक्मिणीने दासी सरखी बनावती झषिदत्ताने तथा तेने विषे राजकुमारना आग्रहने जो सर्वे मनुष्यो तेउनां वखाण करवा लाग्या. सुंदरपाणी राजा पण पोताना जमाश्ना जीवितने औषधरूप कृषिदत्ताने जोश समुष जेम चंज्योत्स्नाने जोर श्रानंद पामे तेम श्रानंद पामी ते बन्ने जणाने हस्ति उपर बेसारी महोत्सवपूर्वक पोताना नगरमां तेडी गयो अने सुलसा योगिनीने नाक कान कापी देश बहार काढी मूकी. वली पुत्रीना गाढ स्नेहने लीधे कनकरथ कुमारने तथा ऋषिदत्ताने केटलोक वखत पोताना नगरमा राख्यां. - एक दिवस कनकरथ कुमारे शोकधी झषिदत्ताने कडं के, "हे प्रिये! में हारी शोधने माटे मोकलेला म्हारा प्रिय मित्र मुनि हजु पागा श्राव्या नहीं.” कुमारनां वचन सांजली ऋषिदत्ताए हसिने उत्तर श्राप्यो के, "हे दयानिधे ! खेद न पामो. ए सर्व में औषधीना प्रयोगथीज कमु हतुं, माटे हवे तमे ते वखते श्रापेलो वरदान श्रत्यारे श्रापो अने ते एज के " तमे म्हारे विषे जेटलो स्नेह राखो लो तेटलो रुक्मिणीने विषे राखो.” कुमारे कयु. “अहो ! पोताने माथे पाटर्बु श्राटदुं कस्या उतां पण जोयो तेनो विवेक! जा एम था.” एम कहीने तेने मधुर वाणीश्री संतोष पमाडी एटले ऋषिदत्ताए कनकरथनी आझाथी रुक्मिणीने पो. तानी पासे बोलावी. केटलेक दहाडे सासु ससरानी आज्ञा लश प्रीति अने रतियुक्त कामदेवनी पेठे बन्ने स्त्री सहित कनकरथ कुमार पोताना नगर प्रत्ये श्राव्यो. पिताए महोत्सवपूर्वक तेने नगरमा प्रवेश कराव्यो. पली शषिदत्तानी सर्व वात सांजली लजावंत थएलो हेमरथ राजा पोताना अपराधनी दमा मागी तेने सती स्त्रीउमां चूडामणी समान मानवा लाग्यो. वली कनकरथने राज्यासन उपर बेसारी जीतेंजिय एवा पोते जनाचार्यनी पासे दीक्षा धारण करी अंते मोद पाम्यो. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिदत्तानी कथा. २६१ दवे कनकरथ राजा पितानी पेठे प्रजानुं रक्षण करतो तो रुषिदत्ता थकी सिंहरथ नामना पुत्रने पाम्यो. एक दिवसे कृषिदत्तासहित गोखमां बेठेलो ते राजा नाशवंत खजाववाला वादलांने जोइ वैराग्य पाम्यो; तेथी ते पोताना उद्यानमां समवसरेला नद्रयशा सूरिने सांजली तत्काल परिवारसहित तेमने वंदन करवा गयो. त्यां तेर्जए मोहने नाश करनारी मुनिनी धर्मदेशना सांगली. पढी रुषिदत्ताए हाथ जोडीने पूब्युं के " हे जगवन् ! में पूर्व जवने विषे एवं शुं दुष्ट कर्म हतुं के, मने था rani राक्षसीनो कलंक लाग्यो ? " ज्ञान दृष्टिवाला मुनिए गंजीर वाथी उत्तर प्राप्यो के, " हे जड़े ! श्र जरत क्षेत्रने विषे गंगापुर नामे नगर बे. त्यां गंगदत्त नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने गंगा ना - मनी स्त्री ने गंगासेना नामनी पुत्री ( के जे जवने विषे तुंज ) हती. एक वखते ते नगरमां चंद्रयशा नामना साध्वी श्राव्या, तेमनी पासेथी धर्म जाणीने तें खल माणसनी पेठे सर्व प्रकारना विषयोनो तिरस्कार कस्यो. ते वखते संगा नामनी कोइ एक साध्वी पुष्कर तप करती हती; तेथी सर्वे माणसो तेना वखाण करता हता; परंतु मत्सरने लीधे तुं ते वखाने सहन करी शकी नहीं, तेथी तें ते साध्वीने माथे एवं कलंक चडाव्यं के, "श्री साध्वी दिवसे निःसंग थइने तप करेने अने रात्रीए स्मशानमांजर मूवेला माणसनु मांस खाय बे. " शमतारुप अमृत पूर्ण हृदयवाली ते महासतीए हारा था कलंकने सहन करयुं; तेथी दे वत्से ! तने या कर्मबंध थयो. पढी आलोचना न लेवाथी ते कर्मना फलरूप अनेक जवोमां जटकती एवी तुं श्रा गंगापुरमां राजपुत्री य‍ हती. ते जवमां दीक्षा धारण करी कपटथी तप करती एवी तुं इशानेंउनी स्त्रीपणाने पामी छाने त्यांथी चवीने हरिषेण राजाने घरे पुत्री पणे उत्पन्न इ ढुं. हे राजसुता ! था जवमां तने पूर्वना कर्मनुं कलंक प्राप्त थयुं बे; कारण के केवल वचन मात्रे उपार्जन करेलुं कर्म सेंकडो नवे करीने पण जोगव्या विना बुटतुं नथी. " एव ते वैराग्यरूप कल्पवृक्षने नंदनवननी भूमी सरखी मुनिनी देशना तथा पोताना पूर्वजवनी कथा सांजली थयुं वे जातिस्मरण ज्ञान जेने एवी ते ऋषिदत्ता पोताना पूर्वजवोनी सर्व वात जाणी अने क Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ शीलोपदेशमाला. मेथी जय पानी मुनिनी प्रार्थना करवा लागी के, " हे जगवन्! मने संसारसमुद्र तरनारी दीक्षा आपो. " राजा कनकर पण या सर्व वात सांजलीने हाथ जोमी दीक्षा धारण करवा माटे मुनिनी प्रार्थना करवा लाग्यो एटले मुनि कयुं. " पुण्यने अर्थे कोपण कार्यमां विलंब करवो नहीं. वली या असार संसारमां तप क्रिया एज मनुष्य जवनुं उत्तम फल बे. " मुनिनां यावां वचन सांजली कनकरथ राजाए पोताना सिंह्ररथ पुत्रने राज्यासन उपर बेसारी पोते स्त्रीसहित मुनिपासे दीक्षा ली. खजनी धारा समान चारित्रने पालता एवा तेर्जए कपटरहित शुद्ध तपोविधिने श्राचरवा मांड्यो पढी गुरुनी साथे विहार करता तेर्ज श्री शीतलनाथना जन्मे करीने पवित्र एवा नद्दिल नगरमां घ्यावी पहोच्या. त्यां तेd हाथीनी पेठे कर्मरूप वृक्षोने उखेडी नाखी शुद्ध ध्यानथी केवल ज्ञान पाम्या. अनुक्रमे चंद्रनी कलानी पेठे सर्व कर्मना कलंकना लेशनो नाश करी उत्तम प्रकारे व्रतने पाली ते मोक्षगति पाम्या. ॥ इति कृषिदत्तानी कथा समाप्ता ॥ दवदंतीनी कथा. जरतत्रने विषे धर्मवंत एवा कोशल देशमां जेनो किल्लो यत्न. विना पण देवतार्जनी स्त्रीउना दर्पणपणाने पाम्यो हतो एवी कोशला नामनी नगरी बे. त्यां जेनी खड्गरूप लाकडी श्यामवर्णवाली बता पण उज्वयशने प्रगट करती दती एवो अने शत्रुनी स्त्रीजना श्रृंगारने उतरावनारो निषेध नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने जेनी वाणीथी जीतायेली कोयल पण जडपणाने पामी इती एवी ने लावण्ये करीने मनोदर लावण्यसुंदरी नामे स्त्री हती. तेउने शत्रुर्जने दावानल समान तथा उत्तम बुद्धिवालो म्होटो नल नामनो ने बीजो पुष्ट हृदयवालो न्हानो कूबर नामनो एवा बे पुत्रो हता. ते वखते वैदर्भ देशने विषे लक्ष्मीए करीने मनोहर एवा कुंडिनपुर नगरने विषे महापराक्रमी एवो जीमक नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेनी पुष्पदंता नामनी प्रियाए श्वेत हस्तिना स्वप्नथी सूचित एवी लक्ष्मीना समान एक चतुर पुत्रीने जन्म थाप्यो पूर्वकर्मना योगे करी Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. २६३ ने ते पुत्रीना कपालमा उदयाचल पर्वत उपर रहेला सूर्यना प्रतिबिंबनी पेठे तिलक शोजतुं हतुं. बहीने दिवसे जागरण अने सूर्य चंजनां दर्शन कराववापूर्वक पिताए बारमे दिवसे स्वप्नाने श्रनुसारे तेनुं “ देवदंती" नाम पाड्यु. पडी खजावे करीने मनोहर एवी ते बालाने धावमाताउँ निरंतर मधुर वचनश्री तथा लीलाथी हसावती हती. कुमारी पण पगमा पहेरेला कांऊरना मधुर शब्द करती धावमाताऊनी अांगली काली चालवा लागी. अंतःपुरनी स्त्री हर्षथी पोताना ढींचणउपर दवदंतीने उनी राखीने धीमे धीमे कंपावती बती नृत्य करावती इती. या प्रकारे जागता सौजाग्यवाली ते कुमारीए बाल अवस्थाने उलंघन करता सर्व कलाउँनो श्रन्यास कस्यो. एक दिवस निवृति देवीए जविष्यकाले थनारा श्री शांतिनाथनी सु. वर्णमय प्रतिमा दवदंतीने श्रापीने कडं के, “हे कट्याणि ! हारे था कल्याणकारी मूर्ति निरंतर पूजन करवा योग्य जे." पड़ी दवदंती ते प्रतिमाने जाणे पोताना हृदयमांज मूकती होय नहिं शुं ? एम हर्षथी घरना देवमंदिरने विषे मूकी पूजन करवा लागी. एवामां तेने कामदेव राजाना नगररूप यौवन प्राप्त थयु के, जे यौवनमां अनुक्रमे करीने सर्व अंगनीमनोहर लक्ष्मी वृद्धि पामे . दवदंतीना मुखनी शोनाथी जीताएलो चंग गांडो थर जवाने लीधे होय नहिं शृं? एम श्राजसुधी शंकरना मस्तक उपर रहेलो . पुत्रीना योग्य वरनी प्राप्तिने अर्थे विचार करता एवा जीमक राजानी चिंतासहित ते दवदंती अनुक्रमे अढार वर्षनी थ. ___पनी प्रधानोए विज्ञप्ति करेला जीमक राजाए पुत्रीना वरनी प्राप्तिने अर्थे स्वयंवरनो श्रारंज कस्यो. तेमां अनुचरो मोकलीने बोलावेला इंशना सरखी समृद्धिवाला अनेक राजा मानस सरोवरमां एकग थएला हंसोनी पेठे नेगा थया. ते वखते नीमक राजाए मोकलेला दूते विज्ञप्ति करेलो निषध राजा पण नल अने कूबर नामना पोताना बन्ने पुत्रोसहित तत्काल त्यां श्राव्यो. इंजना समान समृद्धिवाला जीमक राजाए ते सर्वे राजाने अत्यंत श्रादर सत्कार करी उतारा थाप्या. ते वखते १ लोकमां एनुं बीजुं नाम “ दमयंती" संजलाय . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ शीलोपदेशमाला. कुंडिनपुरना निवासी कामदेवना समान रूपवंत नलने राजा मानी बीजाउंने केवल अनुचर ( दास ) रूप मानवा लाग्या. . पनी नीमक राजाए शिल्पलोको पासे सुवर्णना स्थंजवालो, सेंकडो सिंहासनवालो, नीलमणिनी जीतोवालो, पगथीबानी हारोवालो अने सुधर्मा सजाना सरखो मनोहर स्वयंवर मंमप रचाव्यो. स्वयंवर मंडपना कौतुकने जोवामाटे जाणे स्वर्गथी देवांगना श्रावी होय नहिं शुं ? एम स्तंनोने विषे सर्व अंगे करीने मनोहर कोरेली पुतली शोजती हती. ते वखते जीमक राजानी पुत्रीने अलंकृत करवानी श्छाश्री रत्न खेवाने माटे जाणे तारा विगेरेए स्तुति करवाथी होय नहिं शुं ? एम सूर्ये समुजप्रत्ये प्रवेश कस्यो. अर्थात् सूर्य अस्त थयो एटले "श्रमे जीमकनी पुत्रीने जोशकशुं नहिं” एवा खेदयी जाणे वृदो श्यामपणुं पामी जता होय नहिं झुं? एवा देखावा लाग्या. ते समये नीमक राजाने घेर स्वयंवर मंगपमां एका थएला राजाऊनी वात सांजलीने औषधीनो राजा चंड पण तारारूप अनेक अलंकारोथी सुशोजित थयो उतो जाणे त्यांज श्रावतो होय नहिं शुं ? एम देखावा लाग्यो. “सवारे अमारी दृष्टि नीमकपुत्रीने जोशे ए श्रमारां म्होटां जाग्य.” एवो विचार करता एवा राजाउने ते रात्रीने विषे निघा पण न श्रावी. पडी सवार थइ एटले विनूषणोथी सुशोजित एवा दवदंतीना मुखनी बागल जाणे लजा पामतो होय नहि शुं ? एम चंड अस्ताचल पर्वत तरफ नाशी जवा लाग्यो अने जाणे राजाए नामवडे प्रार्थना कराएलो होय नहिं शुं ? एवा उदयाचलपर्वते पोताना मस्तकउपर सूर्यना मंडलने प्रदर्शित करयुं. सूर्योने उदय थवाथी तलावमां कमलनी पेठे सर्व राजाना मुखकमलनी पंक्ति हर्ष पामी. पठी सर्वे राजा स्नान करी, विलेपन करी अने उत्तम वस्त्रालंकारोने धारण करी स्वयंवर मंडप तरफ दोडवा लाग्या. रत्नजडित सिंहासनो उपर बेठेला राजा जाणे नीमक राजाए कौतुकथी सर्व छीपनां थाजूषणो मगाव्यां होय नहिं \? एम शोजता हता. कल्पवृदनी पेठे योग्य अलंकारोने धारण करता एवा बन्ने पुत्रोसहित जेणे देवसंबंधी प्रातःकृत्य कमु बे एवो निषध राजा स्वयंवर मंडपमा जश् पोताना सिंहासन उपर बेगे. ते वखते आ लोक अने परलोकसं Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. २६५ बंधी लक्ष्मीना समूह सरखा निषध राजाना बन्ने पुत्रो (नल कुबर ) ने जो सर्वे राजानां मन दवदंती थकी निराश यर गयां विशेषे करीने तो कलाना समूह सरखा नलने जोइ सर्वे राजार्जए पोताना विवाहनी आशा दूर मूकी दीधी. हवे जीमक राजाना अंतः पुरनी सौभाग्यवंती उत्तम स्त्री दवदंतीने स्वयंवरमां लाववाना देतुथी अनेक प्रकारे शणगार पहेराववा लागी. दवदंतीना पगना तलने विषे चोपडेलो सरस यावकरस जाणे सर्वे राजार्जनो प्रत्यक्ष अनुराग लागेलो होय नहिं शुं ? एम शोजतो हतो. कपालने विषे कस्तुरीधी बनावेली पील जाणे कामदेवरूप राजानी जागती एव प्रशस्ति (स्तुति) होय नहिं शुं ? एम शोजती हती. चोटलाने विषे गुंथेला मल्लिका ने मालतीना पुष्पो जाणे तेना मुखरूप चंद्रनी सेवामाटे आवेला नक्षत्रो होय नहिं शुं ? एम शोजतां इतां. कानने विषे धारण करेला रत्नज मित्र कुंकलो जाणे राहुना जयश्री त्रास पामेला सूर्य ने चंद्र होय नहिं शुं ? एम शोजता हता. वली तेणे नेत्रने विषे धारण करेली अंजनरेखा कमलने विषे मरीना सरखी शोजती हती छाने ढेलुं श्वेत वस्त्र गंगाना कल्लोलसरखं शोभतुं हतुं. पढी जेनी पाउल अंतःपुरनी स्त्री मनोहर गायन करती हती, जेने माथे श्वेत छत्र शोजतुं हतुं, जेनी बन्ने बाजुए चामरो चलायमान थई रह्या हता, वली भ्रमयी शोजती एवी कमलिनीपेठे जेनी पाडल दासी - थी शोजती हती, जे वज्रमणी, मुक्ताफल श्रने बैकुर्यमणीना उत्तम - लंकारोथ सुशोजित बनेली हती, वली पालखी मां बेठेली, हाथमां पुपनी मालाने धारण करी रडेली ने कामपासनासरखी श्राचरणवाली ते दवदंती जाणे स्वर्गलोकमांथी उतरेली साक्षात् लक्ष्मीज होय नहिं शुं ? एम स्वयंवरमंडपमां श्रावी. चंद्रनी लेखारूप तेने जोइ दोन पामेला राजारूप समुद्रो विविध प्रकारना शृंगारने शोभावनारी चेष्टा करवा लाग्या. ते वखते दवदंतीनी श्रगल चालनारी अने जाणे पोतेज सरस्वती होय नहिं शुं ? एवी वाचाल द्वारपालिकाए सर्वे राजार्जुना वंश, शौर्य, न्याय तथा श्राचरणनुं वर्णन करवा मांड्यं. 66 हे राजकुमारी ! उत्तम कीर्तिथी आकाशने पूरी देनारो या अंग ३४ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ शीलोपदेशमाला. देशनो राजा वे के, जेना शरीरना मनोहर अवयवोथी जीताएलो कामदेव अंगरहित थयो छे. हे देवी! तेजना स्थानरूप था मगध देशनो राजा विराजे बे. हे सुनगे ! जेना यशरूप ताराना हारो खाका - शमां शोजी रह्या बे एवो था कलिंग देशनो महाराजा बेगे बे. हे राजसुता ! उत्तरोत्तर तेजनी लक्ष्मी थी प्रीतिनीपेठे श्राचरण करता एवा लाट, कर्णाटाने मेदपाट देशना राजा विराजे बे. " जेम पृथ्वी पर उगेला कमलोने जोई तेना उपर राजहंसी आदर न करे तेम ते राजानो दृष्टि पण आदर न करती एवी जीमक सुताने प्रतिहारि ए फरीथी कयुं. " हे देवी! त्हारी आगल श्री देवतानासरखा वैजववालो निषध देशनो राजा विराजे बे. जेना नल ने कूबर नामना ने पुत्र श्रश्विनीकुमारनी पेठे पासे पासेनां सिंहासनो उपर बेठा बे. ” पछी राजार्जरूप वनमां जमती दवदंतीनी दृष्टीरूप जमरी पुन्नागरूप नलकुमारने विषे विराम पामी एटले जेने रोमांच थयो बे एवी ते विचार करवा लागी के, “ जेम वृक्षोने विषे कल्पवृक्ष वखाणवायोग्य " ते सर्व राजा मां या नल एकज वखाणवायोग्य बे. विधाताए सृष्टीने बनाववारूप पोतानी चातुरीथी या नलने उत्पन्न कस्यो बे. वली सर्वे राजार्जमां या नल माणिक्यमां कौस्तुनमणिनी पेठे शोने बे. " प्रमाणे नलने वखाणती एवी ते दवदंतीए तेना ( नलना ) कंठने विषे वरमाला रोपण करी के, “ जेथी ते वरमाला मेरु पर्वतने विषे तारार्जुनी पंक्तिनीपेठे अत्यंत शोजवा लागी. दवदंती नलने वरी एटले तेने विषे स्पर्धावाला बीजा सर्वे राजा नलउपर चढी श्राव्या; पणजेम मंगलनो ग्रह वृष्टीने स्तंजावी दे तेम नले सर्वे राजाने बाण वृष्टिथी संजावी दीधा. नले सर्वे नूपतिर्जने पराजय पमाड्या एटले परस्पर प्रीतिवाला एवा निषेध ने जीमक राजाए नल तथा दवदंतीनो विवाहमहोत्सव कस्यो. हस्तमेलापना वखते नल छाने दवदंतीनुं चित्त परसेवाना मिषथी जाणे एकपणुं पामतुं होय नहिं शुं ? एम परस्पर मली गयुं. अनिने प्रदक्षिणा करया पढी हस्तमेलापने वखते जीमक राजा पोताना जमाने अनेक रत्न, घोडा, हाथी अने रथो श्राप्या. पी पुत्रने तथा वहुने साथे लई पोताना देशप्रत्ये जता एवा निषध Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. २६७ राजानी पाल जीमक राजा पण जेम सूर्यनी पाठल मंगल जाय तेम वलावा माटे चाल्यो. केटले दूर गयापढी " हे सुते ! पति दुःखी होय तोपण तेनेज अनुसरनारी थाजे. " एवी पुत्रीने शिखामण पी जी - मक राजा पोते पाठो पोताना देशप्रत्ये श्राव्यो. सती दवदंती पण पितानी शिखामणने माथे चडावी नलना रथ उपर बेठी. नवोढानी स्फुरणायमान कुटीने जोई आश्चर्य पामेलो नल मोहथी सारथीपासे रथने वला मार्गने विषे चलाववा लाग्यो पढी धूर्तने प्रिय एवा नल राजाए मार्ग विषे प्रसिद्ध एवा वृक्षादिकना प्रश्न करीने मुग्धा एवी दवदंतीनी लाने शिथिल करवा मांडी. दवदंतीने विषे रागवान् थएला नलने जाण। तेनी स्पर्धाथी सूर्य पण पोतानी अनुरागवाली संध्याने या लिंगन करवा लाग्यो. धूर्त सखीरूप संध्याए दवदंतीनी लगाने उठी करी, जेथे नल राजानुं मुखरूप कमल श्राश्वर्यकारी रीते प्रकाश पाम्युं. ते वखते निषेध राजानो पुत्र प्रगट थपला यौवनवाली दवदंतीने वास्यायने कड़ेली युक्तिवडे वैशाख मास जेम द्वाखने रमाडे तेम रमाडवा लाग्यो. "" पढी रात्री चालता ने अंधकारने सीधे पडता एवा सैन्यने जोई सुतेली प्रीयाने नलराजाए कयुं. “दे देवी! सूईश नहीं, जाग. वली दे प्रिये ! अंधकारनो नाश करवामाटे ! त्हारा तिलकने प्रगट कर. प्राणनाथनां यावां वचन सांजली जीमक सुताए पोताना कपालना के - शने उंचा करी तिलकने प्रगट क. सूर्यनासरखा तिलकना प्रकाशे करीने ते स्त्रीपुरुषे पोतानी नजीकमां कायोत्सर्ग करीने उजा रहेला एक मुनिने दीठा. पी वनना ऊरता मदवाला हाथीना घसाराना सुगंधथी जमता एवा जमरा जेमने उपद्रव करता हता एवा ते मुनिने पिता विगेरे सर्व मनुष्योसहित नल राजाए वंदना करी. मुनिए कायोत्सर्ग पारी धर्मलाज पीने देशना दीधी. पढी नल राजाए हाथ जोडी मुनिने दवदंतीना तिलकना प्रकाशनुं कारण पू. मुनिए उत्तर श्राप्यो के, “हे राजन् ! या दवदंतीए पूर्व जवने विषे चोवीश तीर्थकरोने उद्देशीने तप करयुं छे. वली तेथे ते तपना उद्यापन विषे रत्ना तिलको प्यां बे. एज कारणयी तेना कपालनेविषे सूर्यना ककडा सरखो महा तेजवंत तिलक शोजे बे. अनुक्रमे श्र Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ शीलोपदेशमाला. दवदंती सर्व कल्याणना पात्ररूप थशे.” मुनिनी श्रावी मनोहर वाणी सांजली आनंदयुक्त थएलो नल अनुक्रमे नगरवासी जनोए मंगलमय करेली पोतानी राजधानी प्रत्ये श्राव्यो. त्यां ते निर्लज मनवालो नल नवीन नवीन क्रीडावडे दिवसोने दीनसमान अने रात्रिने दणरूप करवा लाग्यो. पली निषध राजाए नलने राज्य सोंपी कूबरने युवराज पदवी थापी पोते अखंडित एवा चारित्रने पाली देवपदवी प्राप्त करी, त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम, )नुं साधन करवामां व्यग्र चित्तवाला नल राजाए सती दवदंती सहित पिताए श्रापेला अखंडित राज्य पालन करता अर्धा जरतक्षेत्रने पोताने स्वाधीन कमु; तेथी सर्वे राजाउँए एका थश्ने तेने कृष्णनी पेठे फरीथी राज्याभिषेक कस्यो. पड़ी पुष्ट हृदयवालो क्रूर कूबर राज्यनी श्वाथी शीयाल जेम सिंहना बिड खोले तेम निरंतर नल राजाना निज खोलवा लाग्यो. __एक दिवस निर्मल मनवालो अने बंधमोक्षादिकने जाणनारो नल राजा उष्ट हृदयवाला पोताना ना कूबरनी साथे सत्पुरुषोने खजा पमाडनारी द्युतक्रीडा करवा लाग्यो. गाम, गरास, नगर विगेरे सर्व हारी गया बता पण ते निवृत्ति पाम्यो नहीं. श्रावा पुष्ट श्राग्रहमा वलगी रहेला पोताना पतिने जाणीने नीमकसुता दवदंती पोते नलराजा पासे श्रावीने मधुर वाणीथी कहेवा लागी. " महेंना सरखा वैजववाला हे खामिन् ! तमारे द्यूतक्रीडामां आ व्यसन शुं ? कयो पुरुष दूध खाधीन बतां कांजी पिवामां थासक्त थाय ? हे नाथ ! पुष्ट हृदयवाला कूबरने खाधीन था पृथ्वी न करो ? तमे नथी जाणता के बगलो पाणीमां पेठा पली मत्स्योनी शी गति थाय जे?" या प्रकारे प्रियाए तथा प्रधान वर्गे निवाख्या बता पण नलराजा द्यूतथी निवृत्ति पाम्यो नहीं. कर्वा डे के-दैव कोप पामवाथी प्राणिउनी शी मति थाय ? अनुक्रमे दैवना योगथी नलराजा देहना थाजरणोने अने बेवटमां अंतःपुरसहित दवदंतीने पण हारी गयो. पड़ी हर्ष पामेला कूबरे नल राजाने कयु. “हे जाई! हवे तुं म्हारी पृथ्वीमां रहीश नहीं.” ए उपरथी नलराजा फक्त एक वस्त्र धारण करी त्यांची चाली निकल्यो. पड़ी पतिनी पाउल जती एवी जीमकपुत्रीने Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. शहए कूबरे कह्यु. “ हे न ! में तने नल पासेथी जीती बे; माटे तुं तेनी साथे न जतां म्हारा अंतःपुरनो श्राश्रय करीने रहे.” दवदंतीए तेम न करवाथी नगरवासी अने प्रधान विगेरे पुरुषोए कूबरनी विनंती करी तेने रथमां बेसारी नलनी पाबल मोकली; परंतु नलराजाए रथ विगेरेने साथे न राखता फक्त दवदंतीनेज पोतानी साथे राखी. दासी विगेरेनी आज्ञा लश्ने जती एवी दवदंतीए वर्षाऋतु जेम वनस्थलीने जीजवी दे तेम सर्व मनुष्योनां हृदयने नीजवी दीधां; तेथी सर्वे मनुष्यो कहेवा लाग्या के, " अरे विधि ! जो त्हारूं था प्रकारनुं कर्तव्य हतुं तो पनी नलराजाने अर्धा जरतक्षेत्रनो पति शा माटे कस्यो हतो? वली श्रापना जयथी जे सतीने सूर्य पण पोताना किरणो ए करीने स्पर्श करी शकतो न होतो, ते था सती पृथ्वीउपर केम चाली सकशे ? अरे! धिक्कार ले कूबरने के, जेणे पोताना म्होटा नाश्ने पण श्रावी दया उपजावनारी स्थितिए पहोचाड्यो.” - पली प्रधान विगेरे नगरना सर्वे माणसोए नवराजाने नेट आपवा मांडी; पण केवल पोताना उपरज श्राधार राखनारा अने जुज पराक्रमवाला तेणे कई पण लीधी नहीं. वृक्ष प्रधान विगेरे नलनी पाबल जवा मंड्या; परंतु तेउने तेणे पाबा नगरप्रत्ये मोकल्या. ज्यारे दवदंतीरूप लक्ष्मी नलराजानी पाउल गई त्यारे तो तेना विनानुं नगर तेजरहित देखावा लाग्यु. पढ़ी गद्गद् वाणीथी ते ते बाग बगीचानी शोजाने देखाडतो एवो नलराजा थाकी गएली पोतानी प्रियाने धीमे धीमे चलाववा लाग्यो. दवदंती पण ते वखते पतिनीसाथे चालवाथी जे हर्ष पामवा लागी तेवो हर्ष पूर्वे पमदानी अंदर बत्र धारण करीने चालती उती पण क्यारे पामी न होती.ज्यारे दवदंती श्रमथी परसेवायुक्त थायले त्यारे नलराजापोते तेने पत्रथी पवन नाखे ; ज्यारे थाकी जाय डे त्यारे पग चांपे जे अने ज्यारे तरशी थाय डे त्यारे कमलना पत्रमा जल लावीने पाय . वली क्यारेक पोते थाकी गयो होय डे ने दवदंती पग चांपवा मांडे जे त्यारे ते सत्व गुणनो आश्रय करीने तेने ना पाडे बे. मध्यान्हने वखते फलाहार करी सायंकाले थाकी गएला ते स्त्रीपुरुष कोई लताग्रहनो श्राश्रय करी रा. त्रीने निर्गमन करे . Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० शीलोपदेशमाला. या प्रकारे वनने विषे जता एवा ते दंपतीए एक दिवस जाणे तीदण सूर्यना तापथी त्रास पामीने केवल अंधकारनो श्राश्रय करीनेज रधुं होय नहिं शुं ? एवा एक म्होटा अरण्यमां प्रवेश कस्यो एटले ते ए एक म्होढुं तलाव दीव्रं. तेमां हाथ पग धोया पठी नलराजाए ग्लानी पामेली प्रियाने जोई विचार करवा मांड्यो के, “ छारे ! प्रवालना सरखी सुकोमल वा स्त्री क्यां ? अने दुःखनी पंक्तिवालो या मार्ग क्यों ? जेने पुष्पथी पण कोमल मोजडी पढेवी जोश्ती इती तेने श्र महा अरण्यमां टकवुं पडे बे. " पढी विश्रांति श्रर्थे नलराजाए एक म्होटी शिला उपर पल्लवोथी शय्या बनावी. वली दवदंती नुं शरीर दुःख न पामे एवा हेतुथी ते शय्याने विषे पोतानुं उत्तरीय वस्त्र पाथरी दीधुं. पी परमेष्ठीने नमस्कार करी मार्गमां चालवाथी थाकी गएला ते स्त्री पुरुषे परस्पर एक बीजाना हाथना शीका मूकी स्वेच्छाथी शयन क. पी रस्ताना दुःखे करीने अग्निनीपेठे बलतो ने जाणे ते वनमां रहेला हिंसक पशुना संगयी निर्दय बनी गएलो होय नहिं शुं ? एवो निषधपति मनमां विचार करवा लाग्यो के, “ अरे ! हुं आ स्त्रीनी साथे रह्यो तो मार्गरूप समुद्रनो पार केम पामी सकीश ? कारण पोतानी मरजीप्रमाणे चालनारा पुरुषोने स्त्री सांकलना समान बंधन करनारी बे. जो हुं जंघी गएली या स्त्रीने त्याग करी चाल्यो जाउं तो पढी ते सवारे पोताना पिताने अथवा दियरने घेर जशे." नूपति श्रावो विचार करतो हतो एवामां नविष्यनेविषे थनारा वियोगनी पीडानी दूतीरूप निद्रादेवीए नलप्रियाना नेत्रमां तत्काल प्रवेश करयो. पढी निद्रानो त्याग न करावता नलराजाए दवदंतीना उशी के रहेला पोताना हायने धीमे धीमे खेंची लीधा. ते वखते पोते पोताना श्रात्माने कदेवा लाग्यो के, “ अरे मूर्ख श्रात्मा ! या चांडालना सरखी चेष्टाने मूकी दे. जे तुं विश्वास पामेली, जंधी गएली ने एकली एवी श्रा स्त्रीने त्याग करवानी इछा करे बे. अरे दैव ! तुं म्हारीपासे या अयोग्य कर्म करावतां शुंला नथी पामतो ? ” वली दवदंतीनी नींचे पथरा - एला वस्त्रना ककडा करबा माटे हाथमां बरी लईने श्रसुखी जेनुं मुख व्याप्त थई रधुं बे एवो नलराजा पोताना हाथने कहेवा लाग्यो के, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. १७२ " अरे हाथ ! या स्त्रीनो पाणिग्रहण करवामां प्रथम तुं प्रवत्यों हतो तेज तुं संजोगने वखते मदद यापतो हतो. वली तेनो तेज तुं श्रजे प्रियानो वियोग कराववामां प्रथम जाग लेवा तैयार थयो बुं. "" पठी वखने कापी दवदंतीना श्वेत वस्त्रमां अक्षरो लखवामाटे पोताना शरीरमांधी रुधिर काढी पोताना दक्षिण ( जमणा) जुजने कड़ेवा लाग्यो के, “बे दक्षिण हस्त ! तुं पण वाम ( माबा ) हस्तनी पेठे दादिण्य विनानो देखाय बे खरो. जेने क्रूर एवा खड्गनो संग होय तेने दया अथवा दाक्षिण्य क्यांथी होय ?” पछी तेथे निर्दय एवा पोताना जमणा हाथथी प्रियाना वस्त्रने विषे रुधिरथी लख्यं के, " हे प्रिये ! श्र पासेना वडनी नींचे बे मार्ग बे. तेमां डाबी बाजुनो मार्ग कुंडिन नगनो ने जमणी बाजुनो मार्ग कोशला नगरीनो बे. हे गजगामिनी ! एबे नगरमां ल्हारी मरजी होय त्यां तुं जजे श्रने हुं म्हारुं मोढुं कोइने देखाडवाने शक्तिमान न होवाथी चाल्यो जानुं. " श्रावी रीते लखीने गुह्य दुःखी रोतो अने वारंवार पाठो वलीने प्रियाना मुखने जोतो ते चाली निकल्यो. " अरे विधि ! जो तें सर्वथी उत्तम रूपवाली या जीमक सुताने सृजी बे, तो पबी तेने दुःख शा माटे थापे बे ? कारण के पोते वावेली बोरडी पण कापी नाखवी ए योग्य नथी. हे वनदेवता ! तमे सर्वे म्हारा उपर कृपा करीने सांजलो. तमारे या जीमकपुत्री कोपण रीते दुःखी न थाय तेम करवुं. " या प्रकारे विलाप करतो अने जेनी डोक नमी गइ बे एवो ते नलराजा पाढो वली प्रियानां मुखने जोनेफरी एटले दूर जतो रह्यो के पी प्रियाना स्थानने जोइ शक्यो नहीं. वली "वनना हिंसक प्राणीची तेने कोइपण प्रकारनो उपद्रव न था, " एवा विचारथी पाठा वलेला ते नलराजाए कोमलपादडानी शय्यामां सूतेली प्राणप्रिया दवदंतीने दीवी; तेथी पोताना श्रात्माने कड़ेवा लाग्यो के," हे पुरात्मन् नल ! जेनी प्रिया या महा जयंकर वनमां सूती वो तुं स्मपणाने केम पामतो नथी ?” आवो विचार करता करता रात्री निवृत्त थवा खावी जेथी सर्व अंधकारे जाणे नलनां मनमां प्रवेश कस्यो होय नहिं शुं ? एम सर्व स्थानके प्रकाश थवा लाग्यो. जगत्ना मित्ररूप सूर्यने उदय यता जोइने चाली निकलेला नलराजाए केटलेक Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ शीलोपदेशमाला. दूर ज्वालारूप जटावाला दावानलने दीठो. तेमां बलता एवा वनना प्रापिना शब्दोमां मनुष्यनो शब्द सांजली नल राजा तेनी पासे गयो. "" " इक्ष्वाकु कुलरूप समुद्रने आनंद पमाडवामां चंद्ररूप दे नल राजा ! हे विश्वने वहाला ! हुं था दावानलमां बलुं बुं, माटे तुं म्हारुं रक्षण कर. या प्रकारना शब्दो जे तरफयी यावता हता ते तरफ नल राजाए जोयुं तो लताना यूथमां रहेला एक म्होटा सर्पने तेथे दीठो. पढी ते धीरज राखीने बोल्यो के, “डे महानाग! तें म्हारुं नाम शी रीते जाएंयुं ? वली तुं सर्प बता श्रा मनुष्यनी जाषा शी रीते बोली शके बे ते मने कहे ? " सर्पे उत्तर श्राप्यो. " हे महा जाग ! हुं पूर्व जन्मने विषे मनुष्य हतो. ते संस्कारथी मने मनुष्यनी जाषा यावडे बे. वली मने अवधिज्ञान प्राप्त थयुं बे; जेथी हुं या सर्व जगत्ने हाथेलीमां रदेला पदार्थनी माफक जोइ शकुं बुं. हे राजन् ! तुं म्हारुं रक्षण कर. हुं तने उपकारी यश. "" पी कुवामांची जेम पाणी काढे तेम वस्त्र नाखी दयावंत नलराजाए सर्पने लताना यूथमांथी खेंची काढ्यो एटले कृतन पुरुषनी पेठे ते सर्पे तत्काल नल राजाने दंश दीधो पछी नल राजाए सर्पने क. " हे वे जीवाला नाग ! में तने दावानलमांची मूकाव्यो तेनो तें मने आ सारो बदलो थप्यो ” एटलं कड़ेतामां तो सर्पनुं केर सर्व अंगे चडी गयुं; तेथी तेनुं सर्व यंग कुबडुं बनी गयुं. ते जोश्ने प्राप्त थएला वैराग्यवाला नल राजाए चारित्र लेवानो निश्चय कस्यो एटलामां ते सर्पे दिव्यरूप धारण करी नलराजाने कधुं “हे वत्स ! हुं व्हारो पिता निषध राजा तुं, माटे खेद न पाम्य हुं दीक्षाना प्रजावथी ब्रह्मलोकमां देवता थयो बुंने हारूं दुःख जोइ श्रावी मायाने धारण करीने अहिं श्राव्यो ढुं. या दारूं कुबडरूप हितने अर्थे वे एम जाएय. कारण के, रूपथी तने कोइ शत्रु उपद्रोह करी शकशे नहीं. हे वत्स ! हजु हारे अर्धा जरतत्रनुं राज्य जोगवनुं बाकी छे; माटे दीक्षानो अवसर श्रावशे त्यारे हुं तने कहीश. हे पुत्र ! श्रा बीलुं छाने करंडी ग्रहण कर नेते वस्तुनुं जीवितनीपेठे निरंतर रक्षण करजे. हे वत्स ! ज्यारे तने पोतानुं रूप धारण करवानी इछा थाय त्यारे श्रा श्रीफल उघाडी ते Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ दवदंतीनी कथा. मांथी रेशमी वस्त्रो काढीने पहेरजे तथा आ करंडिकामांथी अलंकारोने लश्ने धारण करजे के, जेथी तुं त्हारा मूल खरूपने पामीश." आ प्रकारे कही अने बन्ने वस्तु श्रापी देवताए नल राजाने फरीथी कडं. " हे वत्स ! हवे तने क्या जवानी श्छा , ते मने कहे ? हुँ तने त्यां तेडी जाउं.” पड़ी “ हे तात! मने सुसुमार नगर प्रत्ये तेडी जा." एवां नल राजानां वचन सांजली देवता तेने दणमात्रमा सुंसुमार नगरनी पासेना उद्यानमां मूकीने अंतर्धान थर गयो. - पड़ी हसता मुखवालो नल जेटलामां नगर तरफ जाय जे तेटलामां तेणे नगरमां यतो म्होटो कोलाहल सांजव्यो. "श्रा शुं हशे ?" एम भ्रांति पामीने ते जेटलामां दणवार उनो रह्यो. तेटलामां तो हाटोने पामता, वृदोने उखेडी नाखता, अनेक वस्तुउँने फेंकी देता अने प्रलय कालना अग्निनी पेठे सर्वमनुष्योने त्रासपमाडता कालना सरखा मदोन्मत्त हाथीने तेणे पोतानासामे थावतो दीगे. प्रजानो संहार करता एवा तेहाथीने थाखान स्तंन प्रत्ये लश् जवाने समर्थ एवा कोश् पुरुषने दीगे नहीं एटले पालथी राजाए उंचा हाथ करीने कडं के, " हे नगरवासी जनो ! जे माणस श्रा हाथीने वश्य करी बालान स्तंज साथे बांधशे; तेने हुं घणी संपत्ति श्रापीश." राजानां श्रावां वचन सांजली जागता पराक्रमवालो नलराजा हाथी सामो दोड्यो. तेने जोश्ने सर्वे नगरवासी लोको बोली उठया के, “अरे कुब्ज ! मरवाने माटे हाथी सामो न जा; कारण ए महा पुष्ट बे; तेथी तने मारी नाखशे.” नलराजा माणसोनां वचन सांजलतो बतो पवनना वेगथी हाथी पासे जश् तेने एक पथ्थर मारीने कहेवा लाग्यो. “अरे - रात्मन् मातंग ! तुं था स्त्रीने तथा बालकोने मार नहीं; कारण के मदनो नाश करवामां सिंहना सरखो पराक्रमी हुँ त्हारी पागल श्रावीने उनो बुं." पड़ी क्रोधथी बांधला थएला, उहत अने चारे तरफ दोडता एवा ते हाथीने नलराजाए पोतानी लघु गतिथी खेलाववा मांड्यो. घणो वखत तेम करवाथी थाकी गएला ते हाथीनी पासे नले पोतार्नु वस्त्र फेंक्यु; तेथी क्रोध पामेलो हाथी वांको वलीने मनुष्यनी ब्रांतिथी ते वस्त्रने पोताना दांतो मारवा लाग्यो एटखे लाघवपणाथी उबली तेनी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ शीलोपदेशमाला. पीठ उपर चमी गएला नलराजाए कुंजस्थलपर हाथ फेरवी घणे वखते तेने पोताने स्वाधिन कस्यो. पी दधिप राजाए तेने उत्तम पुरुष जाणी पोताना कंठनी रत्नमाला तेना कंठने विषे नाखी. नलराजा पण हाथीने खालान स्तंज साथे बांधी दधिपूर्ण राजा पासे श्रावीने बेठो राजाए तेने उत्तम वस्त्र ने लंकारोनी नेटो यापी कुल वंश विगेरे पूब्युं; ते उपरथी कुब्ज एवा नलराजाए . " हे भूपति ! म्हारी जन्मभूमी कोशला नगरी बे. त्यां म्हारुं सर्व कुटुंब कुशलपणाथी रहे बे. हुं नलराजानो हुंडीक नामे रसोइट ढुं अने रसोइ संबंधी सर्व कलाई जाएं बुं. वली नलराजा जे सूर्यपाक रसोइ जाणतो इतो तेने हुं पण तेनी कृपाथी जाएं तुं. हे राजन् ! वधारे शुं कहुं ? परंतु रसोइनी खरी परीक्षा एने हती; जेथी हुं तेने प्रसन्न यइ पढ्यो हतो. हे महीपति ! दुर्भाग्यने सीधे नलराजा पोताना न्हानाजाइ कूबर साथै द्यूत रम्यो. तेमां ते राज्यादि हारीजवाथी स्त्रीसहित वनमां गयो. वली ते त्यां मरी गयो एम पण में सांजल्युं बे. " आवां कुब्जनां वचन सांजली नलना गुणोने संजारता अने शोकमां बूडी गएला दधिपूर्ण राजा तेनुं प्रेतकार्य कयुं. एक दिवस दधिप राजाए कुब्जने प्रार्थना करीने कथं के, “ मने एकवार सूर्यपाक रसोइ जमाड. " ते उपरथी कुब्जे सूर्यविधानुं स्मरण करी चोखानी जरेली तपेली तडके मूकी. पठी सूर्यपाक रसवती करीने सर्वेने जमाड्या; तेथी प्रसन्न थएला राजाए तेने पांचसे गाम ने एक लक्ष टंक सोनुं श्यापवा मांड्यं; कुब्जे पण गाम न लेतां सोनुं लीधुं. वली एक दिवसे राजा फरीथी कुब्जने कयुं, " जे व्हारी मरजी होय ते मागी ले. " कुंब्जे कं. " हे देव ! जेटली पृथ्वीमां तमारुं राज्यबे तेटली पृथ्वीमांथी द्यूत, मद्य अने मृगया एत्रण क्रियाने बंध करो.” राजा दधिपर्णे कुब्जना कदेवा प्रमाणे पोताना राज्यमांत्री ए ए की याने दूर करीने तेनो आदर सत्कार कस्यो; जेथी ते सुखे करीने त्यांज दिवसोने निर्गमन करवा लाग्यो. एक दिवसे कुब्ज तलावने कांठे वृनी बायां बेठो हतो, एवामां कोइ एक परदेशी ब्राह्मण श्रवीने तेनी पासे बेठो, पढी प्रफुल्लित नेत्रवाला Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. ५ ते ब्राह्मणे कुब्जना सर्व अंगने जोश्ने ते बन्ने जणानी परस्पर वातो थती हती, तेना मध्ये गीतरूप था बे श्लोक कह्या. अनार्याणामलजानां, उर्बुद्धीनां हतात्मनाम् ॥ रेखां मन्ये नलस्येव यःसुप्तामत्यजप्रियाम् ॥ १॥ विश्रब्धां वलां स्निग्धां, सुप्तामेकाकिनी वने॥ त्यकुकामोऽपि जातः किं, तत्रैव हि न जस्मसात् ॥२॥ अर्थ- हुँनलराजानी रेखाने अनार्य, निर्लज, उर्बुद्धि श्रने हणाएमा श्रात्मावाला पुरुषोना सरखी मानुं बुं; कारण के जे नलराजाए सूतेली एवी पोतानी प्रियाने त्यजी दीधी बे. विश्वासवाली, वहाली, पोताने विषे आसक्त अने वनमा एकली सूतेली प्रियाने तजी देवानी श्छावालो ते शुं त्यांज जस्म पणाने नहिं पाम्यो होय? अर्थात् जस्मरूप थवो जोशए. पली "बहु सारं गान कझुं.” एम कहीने कुब्जे ते ब्राह्मण सामु जोश्ने पूब्युं. “तुं कोण जे ? क्याथीव्यो जे ? अने श्रा नलनी वात क्यां सांजली ? " ब्राह्मणे उत्तर श्राप्यो. “ हुं कुशल नामनो ब्राह्मण कुंडीन नगरथी श्राव्यो बुं अने में नलनी वात त्यांज सांजली हती. ब्राह्मणना वचन सांजली जेनुं मुख प्रफुल्लित थयु डे एवा कुब्जे फरीथी कडं. “ हे ब्राह्मण ! नलराजाए दवदंतीनो त्याग कस्यो त्यां सुधीनीवात में सांजली . बाकीनी जे वात होय ते मने कहे ?" ब्राह्मणे कडं. सूतेली एवी दवदंतीनो त्याग करी नलराजाचाख्या गया पडी थोडी रात्री बाकी हती ते वखते दवदंतीए खप्न दी के, “जाणे हुं श्रआंबा उपर फलो सेवा चडी होलं. एवामां को एक हाथीए श्रावी ते वृक्षने मूलमांथी उखेडी नाख्यु; जेथी हुँ ते वृद सहित पृथ्वी उपर पमी. एवामां सवार थवाथी जागी गएली तेणे जोयुं तो पतिने दीगे नहीं एटले महालय पामेली ते श्रबला दवदंती श्राम तेम चारे तरफ जोती मनमां विचार करवा लागी अने पोताना जाग्यने कहेवा लागी. "अरे - र्चाग्य ! कुःखथी बली रहेली एवी मने तुं हजु शुं करवानी श्छा करे ने ? जे हुं था प्रकारनी दशाने प्राप्त थया बता पतिने देखती नथी. शुं मुख धोवाने माटे तलावमां तो नहिं गया होय ? अथवा सौजाग्यना निधि रूप ते प्यारा पतिने कोश् वनदेवताए हरण कस्या तो नहिं होय? Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ शीलोपदेशमाला. शुं मने क्लेश कराववाने माटे लताना गुठोमां संताइ रह्या दशे ?” श्र प्रकारे विचार करती एवी ते महासती वृक्ष वृक्षने जोवा लागी; परंतु ज्यारे को स्थानके पतिने दीठो नहीं त्यारे तो ते चीराइ गएला हृदयवालानी पेठे सघली वनस्थलीने रोवरावती बती रुदन करता क रता मूर्छा पामी. पढी वनना शीतल पवनथी मूर्छा वली एटले ते स्वप्नानार्थनो विचार करवा लागी के, "जे में बानो वृक्ष जोयो इतो ते म्हारो सर्वोत्तम प्राणनाथ हतो. फलरूप राज्य लक्ष्मी अने हाथी रूप कूबर हतो. वली जे हुं पडी गइ तेज श्रा पतिनो वियोग हतो. " यावी रीते विचार करती ने पूर्वे करेला कर्मना फलने मानती एवी ते महासतीए पोतानां वस्त्रमां रुधिरथी लखेला अक्षरो दीवा; तेथी ते वांचीने विचार करवा लागी के, " निश्चय हजी सुधी तो वहाला पतिना मनरूप मान सरोवरने विषे राजहंसीरूप हुं रही तुं, कारणके जे प्राणनाथे पोताना रुधिरथी लखेला रोए करीने मने पिताने घेर अथवा दिारने घेर जवानी आज्ञा करी बे. हवे हुं वम पासेना मार्गे करीने पिताने घेर जइश; कारके पतिरहित एवी स्त्रीउने पिता एज शरण बे. पी ते दवदंती हरिणीनी पेठे जय पामती वने मंत्रनी पेठे नलरा जानुं स्मरण करती पीताना घर तरफ चाली. रस्ते अखंडित एवा दर्जना जागो पगमां वागवाथी निकलेला रुधिरे करीने जाणे पृथ्वीना तलने या - वकना रसथी शोजायमान करती होय नहिं शुं ? वली रस्ते चालवाना श्रमयी यएला परसेवामां उडेली धुल चोटवाथी धुसरी बनी जवाथी जाणे कादववाला पाणीमां न्हायेली हंसी होय नहिं शुं ? एवी ते दवदंती वनमां जती हती. सिंहो पर्वतनी देवी मानीने, सर्पों जांगुली औषधी मानीने ने हाथी सिंहण मानीने तेने कोइ प्रकारनो उपद्रव करी शकता नहोता. जेमां कोश्पण माणस नहोतुं एवा ते महा अरण्यमां जती एवी ते बलाने शीलवतना प्रजावधी हिंसक जीवो पण जाणे सहाय्यकारी यता होय नहिं शुं ? एवा देखता हता. पवनने लंघवाने कोइ पण उपाय शोधती एवी ते दवदंतीए जेमां अनेक गाडid जोडेलां दतां एवा एक सार्थवाहने दीठो. जेटलामां ते Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. 999 सार्थवाहने जो तेनुं मन स्वस्थ थयुं तेटलामां तो केटलाएक चोरोए aa विषय जेम कामी पुरुषने रोके तेम ते सार्थवाहने रोक्यो. ते जोने महासती दवदंती ए पोताना हाथ उंचा करीने चोरोने क. “छारे तस्करो ! नासी जार्ज ! नासी जार्ज ! ! कारण जेम पोपटे नाली येरने विषे करेलो श्रम फोगट जाय बे तेम या सार्थवाहने विषे करेलो तमारो श्रम फोगट जशे . " चोरोए दवदंतीनुं कहेतुं न मान्युं ने सार्थवाहने लुंटवा मांड्यो; तेथे ते दवदंतीए मंत्राक्षरना सरखा हुंकार शब्दथी चोरोने त्रास पमाड्यो एटले ते चोरो नासी गया. पी सार्थपति परिवार सहित दवदंतीनी पासे श्रव्यो ने कुलदेवतानी पेठे प्रणाम करीने बोल्यो. " हे कल्याणी ! तुं कोण बुं ? श्र निर्जन वनमां केम जमे बे ? घने मारा पुण्ययोगथी श्रहिं केम यावी चडी ढुं?" पछी दवदंतीए नलराजा द्यूत रम्यो त्यारथी श्ररंजीने पोतानी सर्व बात कही; ते उपरथी सार्थपती तेने नल प्रिया जाणीने पोतानी व्हेन समान मानवा लाग्यो. पढी सार्थवादना पटमंडप ( तंबु ) मां रहेती एवी ते महासती सुखथी मार्गनुं उलंघन करवा लागी. एवामां प्रवासीने अपराधी सरखो वर्षाकाल प्राप्त थयो एटले गाडां कादवमां खूचवा लाग्यां, तेथी सार्थपतिए सारुं उंचं स्थान जोइने त्यां पमाव कस्यो. एक दिवस "सार्थपति श्रहिं घणा दिवसो सुधी रहेशे.” एवं धारीने दवदंती तेने पूज्याविना गुप्तरीते चाली गई. रस्ते तेने एक मदा जयंकर मासना समान कांतिवालो ने विकराल दाढोवालो राक्षस मल्यो. राक्षसे क. "हुंघा दिवसनो मुख्यो बुं; माटे व्हारं जक्षण करी दुधाने निवृत्त करीश. " दवदंतीए कयुं. “ हे न ! सांजल धर्म बुद्धिवालाने मृत्युथ की जय क्यांथी होय ? परंतु तु परस्त्री एवी मने स्पर्श करतामां जस्मनूत थइ जश्श. दवदंतीनां यावां वचन सांजली तेना धैर्यथी प्रसन्न यएला राक्षसे कयुं. "व्हारी शी इछा बे ? जे होय ते कहे ?" दवदंती पूब्युं. "मने पतिनो मेलाप क्यारे यशे ? ” राक्षसे उत्तर आप्यो. " वार वर्षने अंते. " दवदंतीए हर्षथी कधुं. " तें म्हारुं इष्ठित कार्य कर बे; माटे व्हारुं कल्याण था. हवे तुं व्हारी मरजी प्रमाणे चाल्यो जा ने चिरकाल सुधी एक धर्म ग्रहण करजे.” पछी राक्षस दिव्य "" Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श् शीलोपदेशमाला. रूप धारण करीने अंतर्ध्यान थइ गयो अने दवदंतीए पण ज्यांसुधी नलराजानो मेलाप न थाय त्यांसुधी तांबुल, रक्तवस्त्र, पुष्प, आमरण अने अंजनादि एटली वस्तु न ग्रहण करवारूप अजिग्रह धारण कस्यो पढी अनुक्रमे चालता चालता बिला घासथी छाने वृक्षोथी सुशोजित एवी पर्वतनी एक गुफा यावी तेमां तेणे निवास कस्यो. त्यां मृतिकाथी शांतिनाथनी मूर्ति करी गुफानी एक बाजुए मूकी तेमनुं वननां पुष्पोथी पूजन करती, तप क्रिया करती, स्वजावथी नीचे पडेला वृक्षोना फलोवडे पारं करती, पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण करती श्रने निर्नय एवी तेणे एकMale केटलोक काल त्यांज निर्गमन कस्यो. हवे जेनी पासेथ। ते बानी रीते नासी गइ हती एवो सार्थपति “शुं तेनुं कोइए हरण करयुं हशे ? एवंी शंकाथी तेना पगले पगले चाल्यो केटले दहा पर्वतनी गुफा पासे के ज्यां दवदंती रहेती हती त्यां यावी पड़ोच्यो. त्यां तेणे जोयुं तो जिनेश्वरनुं पूजन करती एवी दवदंती दी. "तुं कोनुं पूजन करेबे ? " एम सार्थपतिए पूढवाथी दवदंतीए उत्तर प्यो के, “ शांतिनाथ नामना शोलमा जिनेश्वरनुं. " आ कारना सार्थपतिनो अने दमयंतीनो थतो कोलाहल सांजलीने केटलाक तापसो त्यां श्राव्या; तेउने दवदंतीए सविस्तर जिनधर्म कह्यो. पबी जेना कर्मबंध तूटी गयां बे एवो वसंत नामनो सार्थपति पण जिनधर्मनो अंगीकार करी सार्थसहित त्यांज रह्यो. एक वखते पासेना श्राश्रममा रहेनारा ते तपस्वी महा वर्षाद पडतो होवाथी याकुल व्याकुल थवा लाग्या एटले दवदंतीए तेज॑नां फरतुं चारे तरफ कुंडालुं करीने कयुं. " जो हं जिनेश्वरनी उपासना करनारी छाने महासती हो ं तो वर्षाद था कुंडालानी छंदर पडशो नहीं. ” पछी संकेतकरी राखेलानी पेठे वर्षाद कुंडालानी अंदर पडतो बंध थयो, जेथी सर्वे तापसो सुखे रहेवा लाग्या. पढी ते सर्वे तापसोए विस्मयर्थी “ 'श्रा को स्त्रीरूपे देवी बे" एम धारीने जैनधर्मनो स्वीकार कस्यो. सार्थपतिए पण तेज स्थानके एक मनोहर नगर वसावी तेमां उंचा तोरणवालुं श्री शांतिनाथनुं देरासर कराव्युं. दवदंती त्यां पांचसे तापसोने बोध कस्यो ते उपरथी ते नगरनुं नाम तापसपुर पाड्युं. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. २७ एक दिवस यशोज सूरी विहार करता करता ते पर्वत उपर गया. त्यां निर्मल बुद्धिवालो कूबरनो पुत्र सिंहकेशरी रहेतो हतो. तेथे सूरीने पूठी पोतानी पांच घडी आयुष्य जाणीने तेमनी पासे दीक्षा लीधी एटले तरतज तेने केवलज्ञान उत्पन्न थयुं सर्वे देवतार्ज तेनो केवल महोत्सव करवावा लाग्या; तेमने जोश्ने दवदंतीए पण पांचसे साधु सार्थपति सहित त्यां जइ केवलीनी देशना सांजली. केवलीए सापति ने तापसोने कां के, “ या वैदर्जी महासती, सत्यवाणी वाली, धर्मनी जाण ने अरिहंत प्रजुनी जक्त बे. " पछी ते केवल ज्ञानि मुनि सर्व कर्म दय थवाथी मोक्षपद पाम्या. हवे दवदंती ए पोतानो पूर्वजव यशोभद्रसूरीने पूढयो एटले तेम कधुं. " हे जड़े ! नलराजा पूर्व जवने विषे मम्मण नामे राजा हतो अतुं तेनी वीरमति नामे वहाली स्त्री हती. एक वखते तमे बन्ने जा क्यांश जता हता एवामां एक मुनि सामा मल्या; तेथी तमे अपशुकन थया मानीने क्रोधथी तेमने बार घडी रोकी राख्या पढी क्षणमात्रमां क्रोधने शमावी तमे बन्ने जणाए मुनिने खमाव्या. एज कारणथी तमने या बारवर्षनो वियोग थयो छे." आवां मुनिनां वचन सांजलीने दवदंती पाठी पोताने स्थानके यावी. या प्रकारे पर्वतनी गुफामां रहेती, जिनेश्वरनुं पूजन करती ने प्रजावना करती एवी तेणे त्यांज सात वर्ष पूर्ण करुया. कोइ वखते कोइ पुरुषे गुफाना बारणा वागल श्रावीने दवदंती ने कयुं के, " हे वैदर्जि ! में व्हारा पति नलराजाने श्रहिं पासेना वनमां chal बे; तेथी हुं तने कड़ेवा माटे श्राव्यो बुं. हवे हुं जाउं तुं; कारण के, म्हारो सार्थवाह जतो रहे बे. " पुरुषनां श्रावां वचन सांजली दवदंती नलनी शोध करवाने वाली अने ते महा अरण्यमां नूली पडी. एवामां तेणे एक म्होटी राक्षसी दीठी, पण तेने तो महासतीए पोताना शीलवतना प्रजावधी राक्षसनी पेठे दणवारमां स्तंजीत करी दीधी. वली तृषातुर थली ते दवदंतीए पृथ्वी उपर हाथ पछाडी जलप्रवाहवाली नदी प्रगट करीने तेमां पोते न्हाइने निर्मल पाणी पीधुं श्रावा शील प्रजाववाली ते महासती ने कोई एक दिवसे ते वनमां धनदेव नामनो सार्थवाद मख्यो; तेनी साथे ते अचलपुर नगर प्रत्ये गाने त्यां जाणे Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला श्राकाशथी पडी होय नहिं शुं ? एम निराधारपणे नगरनी ब्हार रही. ते नगरमां कतुपर्ण नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने चंयशा नामे स्त्री हती के, जे दवदंतीने मासी थती हती. एक वखते चंयशानी दासी पाणी जरवा जती हती, तेणे दवदंतीने देखीने चं यशानी श्रागल वात कही; जेथी चंज्यशाए दवदंतीने पोतानी पासे बोलावी; परंतु "था पोतानी ब्हेननी पुत्री ” एम ते उलखी शकी नहीं. तेम दवदंतीए पण पोतानी मासीने उलखाण करावी नहीं; तोपण चं यशाए तेने पोतानी पुत्रीनी समान मानीने पोतानी पासे राखी. पली दवदंतीए चंयशा (मासी)नी श्राझाथी दान देवा मांड्युं अने पोंगलक नामना एक चोरने फांशीनी शीदाथी बोडाव्यो एटले वसंत सार्थवाहनो सेवक ते पींगलक दवदंतीने उलखीने कदेवा लाग्यो के, "हे देवि ! तमे ज्यारे तापसपुरथी चाल्या गया, त्यारे वसंत सार्थवाह अन्नने त्यजी दर घणा खेदथी रुदन करवा लाग्यो. तेने यशोना सूरिए अने बीजा केटलाक जनोए प्रतिबोध करीने साते दिवसे पारणुं कराव्यु. पड़ी सुवर्ण अने रत्नोनी नेटुथी कूबर राजाने संतोष पमाडी वसंत सार्थवाह तापसपुरनो राजा थयो . हे मात ! तमारा प्रसादथीज कूबर राजाए वसंत सार्थवाहनुं वसंत शेखर नाम पाडी पोताना नगरथी तापसपुर प्रत्ये मोकल्यो बे." पींगलनां वचन सांजली दवदंतीए तेने कडं. "हे वत्स ! दीक्षा धारण कस्य.” पनी पांगलके लघु कर्मपणाथी दीक्षा लीधी. हवे " नाश्नी साथे द्यूत रमवाथी राज्य विगेरे सर्व हारी जश्नल राजा दवदंती सहित वनमा गयो बे. त्यां ते दवदंतीने त्यजी दर पोते एकलो चाल्यो गयो जे." एवी वात नीमक राजाए सांजली; तेथी ते अने दवदंतीनी माता पुष्पदंता रुदन करवा लाग्या. पड़ी जीमक रा. जाए दवदंतीनी शोधने माटे हरि मित्र ब्राह्मणने मोकल्यो; तेथी ते ब्राह्मण गामे गाम, शहेरे शहेर थने वने वन जोतो जोतोश्रचरपुर नगरमां श्राव्यो, त्यां तेणे तुपर्ण राजानी पासे जश्ने दवदंतीनी खबर पूड़ी. हरिमित्रे सर्व वात कही ते उपरथी ऋतुपर्ण राजा श्रने चंयशा शोक करवा लाग्या. पड़ी जुख्यो थएलो ते ब्राह्मण दानशालामा गयो. त्यां ते दवदंतीने जोश्ने आश्चर्य पाम्यो. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. पली ते विप्र दवदंतीने नमस्कार करीने कहेवा लाग्यो के, "हे जीमकसुता ! सर्व पृथ्वीमां नमता एवा में आजे तने दीठी ! हा! रत्न घरमां बते मुर्ख माणसज पृथ्वी उपर जमे .” पड़ी ते ब्राह्मणे “ तमारी दानशालाने विषे दवदंती .” एम ऋतुपर्ण राजाने अने चंग्यशाने वधामणी थापीने हर्ष पमाड्या. चंज्यशा पण तत्काल दानशालामा श्रावी दवदंतीने श्रालिंगन दश्ने कड़वा लागी. “हे वत्से! हुं हारा बलिरूप था. अरे ! धिक्कार डे मने के, जे हुँ व्हेननी पुत्री एवी तने उलखी शकी नहीं. हे वत्से ! तें पोतानी वात गुप्त राखीने मने केम तरी ?" पबी चंयशा दवदंतीने पोताना मंदिरमां तेडी गश्. त्यां तेने सुगंधि जलथी स्नान करावी, उत्तम हिरागल (रेशमी) वस्त्र पहेरावी अने पली राजा पासे तेडी गश्. राजा झतुपर्णे सर्व वात पूर्वी ते उपरथी दवदंती पोतानी राज्य हारी जवा विगेरे सर्व वात कहीने रोवा लागी.शतुपर्णे तेनां श्रासुने लुही नाखता उता कह्यु. “ हे वत्से ! एमां खेद शो करवो ? कारण के, कर्मनी गति एवीज होय .” या प्रकारे तुपर्ण अने दवदंती परस्पर वातो करे जे एवामां पोतानी कांतिथी सनाने प्रकाश करतो तो कोश् देव त्यां श्राव्यो अने दवदंतीने नमस्कार करीने बोल्यो. “ हे न ! हुं ते पींगलक नामनो चोर औं के, जेने तें फांशीनी शीदाथी मूकाव्यो हतो. वली जैनधर्मनो बोध करीने दीक्षा पण ग्रहण करावी हती. हे जसे! एक दिवस श्मसानमा कायोत्सर्ग करीने उनो रहेलो हुँ चितानी अग्निथी बली मरीने त्हारा प्रसादयीज सौधर्म देवलोकने विषे श्रेष्ठ देवपणाने पाम्यो बुं. हे महादेवि ! तुं दीर्घकालसुधी विजय पाम्य.” एम कहीने ते देवताए ऋतुपर्ण राजानी सनामां सात कोड सोना म्होरनी वृष्टि करी. श्रा प्रमाणे धर्मनुं फल जोश् हर्ष पामेला ऋतुपर्ण राजाए जैनधर्मनो स्वीकार कस्यो. __ पड़ी हरि मित्र ब्राह्मणे ऋतुपर्णने कयु. “हे राजन् ! दवदंती अहिं घणा दिवस रहि , माटे हवे तेने पिताना घर प्रत्ये मोकलो." ब्राह्मणनां वचन उपरथी ऋतुपर्ण राजाए दवदंतीने म्होटी सेनासहित पिताने घेर मोकली. पुत्रीने श्रावती सांजली नीमक राजा पुष्पदंता प्रिया सहित सामो गयो. तेउने जोश हर्षनां बांसुथी विव्हल बनेली दवदंती ३६ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश शीलोपदेशमाला. पिताने प्रणाम करी माताना कंठे वलगीने रोवा लागी. पली जीमक राजाए पुत्रीने नगरमा प्रवेश करावी सात दिवससुधी म्होटो उत्सव कस्यो. (तलावने कांठे वृक्षनी बायामां बेठेला कुब्जने मुसाफर ब्राह्मण कहे के ) "हे कुब्ज! सात दिवसनो उत्सव पूर्ण थया पड़ी एक दिवसे नीमक राजाए पुत्री दवदंतीने तेनी सर्व वात पूबी एटले तेणे पोतानी सर्व वात पिताने कही. ते वखते हुं त्यां बेठेलोहतो; तेथी में श्रा वात सांजली . पनी नीमक राजाए दवदंतीने कद्यु. “हे वत्से ! तुं थापणा घरे सुखेथी रहे. त्हारो मनोरथ पूर्ण थशे तेम हुँ करीश." पड़ी तेणे हरिमित्र ब्राह्मणने पांचसे गाम थाप्यां थने कह्यु के, “ नलराजा श्रावशे एटले तने अर्धं राज्य आपीश.” हवे एम बन्यु के, दधिपर्ण राजाए कंश कार्य प्रसंगे श्रा सुंसुमार नगर थकी पोताना बुद्धिवान् दूतने कुंडिनपुरमां नीमकराजा पासे मोकल्यो. राज्यकार्य करी रह्या पली सुखेथी रहेला ते दूते एक वखत प्रसंगने लीधे जीमक राजाने कयु के, “ हे देव ! दधिपर्ण राजानी पासे नलराजानो रसोछ श्रावेलो . ते शरीरे कुब्ज (वींगणो) उतां उत्तम सूर्यपाक रसवती करी जाणे . वली ते बीजी पण केटलीक कला जाणे बे." एवां ते दूतनां वचन सांजली दवदंतीए नीमक राजाने कडं. "हे तात ! सूर्यपाक रसवती तेना (नलराजाना) विना बीजो को जाणतो नथी.तो ऊंषधि, अथवा मंत्रके देवादिकनां माहात्म्यथी गोपवी राखेली आकृतीवालो तेज तमारो जमा (निषध राजानो पुत्र) होवो जोश्ए. पनी जीमक राजाए मने शीखामण थापीने तत्काल अहिं मोकल्यो , जेथी हे ना ! हुँ पूडतो पूढतो श्रहिं त्हारी पासे श्रावी चड्यो बुं. (तलावने कांठे बेठेला कुब्जने मुसाफर ब्राह्मण कहेने के) हे कुब्ज! तने जोश्ने खेद पामेला श्रात्मावालो हुँ विचार करुं बुं के, “ मुक्ताफल समान कांतिवाली दवदंती क्या ? देवना समान कांतिवालो अने लक्ष्मीना समूह सरखो नल राजा क्यां? अने धनुर्वाथी वांका थगएला अंगवालो तेमज श्याम मूर्तिवालो तुं क्यों ? क्यां कल्पवृक्ष ? अने क्या एरंडानुं काड ? वली क्यां मणि ? अने क्या पथ्थर ? हे कुब्ज! श्राजे तेने जोवाथी हुँ धारुं बुं के, दवदंतीनो मनोरथ पण कुब्ज (वांको अ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. ३ थवा अवलो) थयो. हा! मने जे शुभ शकुनो थया हता, ते सर्वे निफलपणाने पाम्या. अरे ! जो सर्वे माणसोनुं शठित कार्य थतुं होत तो को पुःखी थात नहीं." पड़ी कुब्ज पण " अरेरे पथिक ! था स्त्री पुरुषनो वियोग शा कारणमाटे थयो ?” एम कहीने मनमां पोतानी प्राणप्रियान स्मरण करीने रुदन करवा लाग्यो. वली ते कहेवा लाग्यो के, “ हे विप्र! तुं पूज्य . कारण के, तें म्हारी बागल श्रावी पवित्र कथा कही. चाल म्हारे घरे, हुँ त्हारो सत्कार करूं.” एम कहीने ते पोताने त्यां तेमी गयो. त्यां तेणे सूर्यपाक रसवतीथी ब्राह्मणने जमामी पूर्वे राजाए पोताने थापेबुं सघद्यु जव्य श्रापीने तेनो सत्कार कस्यो.. पळी ते ब्राह्मणे विदर्जनगरमां श्रावीने जीमक राजानी पासे दवदंती सांजलता बता पोताने थएलो कुब्जनो मेलाप, वात सांजलवाथी कुब्जनुं रुदन, सूर्यपाक रसवतीनुं नोजन अने पोताने थएला अव्यनो लाज, ए सर्व वात कही. पली दवदंतीए पिताने कयु. “ हे तात ! हवे कंश विचार करवा जेवू रह्यं नथी. निश्चय ए कुब्ज रूपथी तमारा जमा रह्यो . माटे तेने गमे ते उपाय करीने एक वखत अहिं बोलावो. हुं तेनां लक्षणे करीने नल अथवा अनलनी परीक्षा करीश." नीमक राजाए कयु. “ हे वत्से ! मिथ्या स्वयंवरनो श्रारंन करी सुंसुमार नगरना पति दधिपर्ण राजाने बोलाववा माटे माणसने मोकलीए. जो ते कुब्ज नल हशे तो राजानी साथे थावशे. कारणके, स्त्री/नो परानव पशुउने पण कुःसह होय . वली नलराजा अश्वविद्या जाणे , तो वयंवरनुं मुहूर्त पासे राखीए एटले ते विद्यानी पण परीक्षा थर जशे.” पली चैत्र शुदी पांचमनुं मुहूर्त राखी नीमक राजाए दधिपर्ण रा. जाने मिथ्या स्वयंवरमा बोलाववा माटे माणसो मोकल्या. दधिपर्ण राजा पण मुहूर्त नजीक श्राव्युं जाणी खेद करवा लाग्यो. तेने जोश्ने कुब्जे पूब्यु."हे देव ! केम शोकातुर जणा डो?” राजाए उत्तर थाप्यो के, "नल राजा मरी गयानी खबर सांजली दवदंती सवारे बीजो स्वयंवर करे बे; जेने फक्त उ पहोरनुं अंतर . मने दवदंती साथे पाणीग्रहण करवानी घणी श्छा डे; परंतु प्रजात थवाने हवे वार नथी; माटे खेद था Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ शीलोपदेशमाला. यडे. " कुब्जे कयुं. " हे देव ! खेद न करो. तमे मने इच्छित उत्तम घोडा ने रथ पो. हुं तमने सवारमां कुंमीनपुर पहोचता करीश. पढी दधिपर्ण राजाए तेने उत्तम घोडा अने रथ श्राप्यो ते कुब्जे तैयार कस्यो. तेमां राजा, बत्र धारण करनार, बडीदार, बे चामर नाखनार अने कुंब्ज ए ब जणा बेठा. वली कुब्जे नागे श्रापेलो करंकी ने बीलुंपण पोतानी साथे लइ लीधुं. पढी तेणे रथने चलाव्यो एटले ते महासमुमां पवनवडे ऊडपथी चालता वहाणनी पेठे चालवा लाग्यो. मां वायुना वेगथी दधिपर्ण राजानुं उत्तरीय वस्त्र ( पासे राख्यानुं) पृथ्वी उपर पडी गयुं; तेथी तेथे कुब्जने कयुं. “ रथ उज्जो राख्य; म्हारुं उत्तरीय वस्त्र पृथ्वी उपर पकी गयुं बे, ते हुं लइ लडं. " कुब्जे हसिने क. " हे देव ! ज्यां तमारुं उत्तरीय वस्त्र पडी गयुं बे; त्यांची पच्चीश योजन श्रागल यावता रह्या बीए. हजु श्रा मध्यम घोडार्ड बे; परंतु जो उत्तम घोमी होत तो निश्चय पचास योजन श्रगल निकली जात. रस्ता - "" 66 पछी रस्ते जता एवा दधिपर्ण राजाए फलवाला बेहडाना वृक्षने जोइने पोतानो उत्कर्ष बताववा सारुं सारथीने कझुं. “ श्रा वृना फलनी संख्या हुं गया विना जाणी शकुं बुं; पण ते कौतुक हुं तने आवतीवखते बतावी. कारणके, अत्यारे वार थइ जाय. " कुब्जे कयुं. " ते कौतुक मने अत्यारे बतावो वली हुं सारथी ढुं; त्यांसुधी तमारे विलंब थवानो जय राखवो नहीं " राजा दधिपर्णे कयुं. 66 ए वृक्ष उपर ढार हजार फलो बे.” पढी कुब्जे रथथी नींचे उतरी एक मुष्टी मारीने वृक्षने नीचे पाड्यं श्रने फलोने गणी जोयां तो बराबर तेटलांज थयां पढी दधिपूर्ण राजाए पोतानी गणितशास्त्रनी विद्या कुब्जने शीखवी ने कुब्जनी अश्वविद्या पोते शीख्यो. अनुक्रमे चलावेलो रथ सूर्योदय वखते कुंडिनपुरना दरवाजा आगल आवी पहोच्यो. वे हि दवदंती ते रात्रमां स्वप्न दीतुं हतुं; तेथी तेणे सवारमां वीने पोताना पिताने कयुं के, “ हे तात! श्राजे स्वप्नामा कोइ निवृति देवी मने कोशलपुरना उद्यानमां तेडी गइ. त्यां ते देवीना कड़ेवाथी हुं कोई रसाल फलवाला वृक्ष उपर चमी. वली तेणे म्हारा हाथ मां प्रफुलित कमल प्युं. एवामां ते वृक्ष उपरथी को पक्षी नींचे पी Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. गयु. एटलामां हुं जागी ग.” जीमक राजाए स्वप्नानी वात सांजलीने पुत्रीने कडं. " हे वत्से ! तें आ उत्तम स्वप्न दी . पूर्वना ऐश्वर्यनी प्राप्ति, पतिनो मेलाप अने कूबरनुं राज्यथी व्रष्ट थवं, ए सर्वश्रा स्वप्न सू. चवे ." श्रा प्रकारे पिता पुत्री परस्पर वातो करे ने एवामां मंगल नामना द्वारपाले श्रावीने तेउने वधामणि श्रापी के, “ दधिपर्ण राजा नगरना दरवाजे श्रावीने उना ." ___ पड़ी नीमक राजाए हर्षथी सामा जइ बहुमानपूर्वक तेमने नगरमां प्रवेश करावी उतारो आप्यो. त्यां दधिपर्ण राजाए कुब्ज पासे सूर्य पाक रसवती करावी जीमक राजाने कुंटुंबसहित जोजन कराव्यु. दवदंतीए पण सूर्यपाक रसवतीने मगावी जोजन करीने निश्चय कस्यो के, “ श्रा रसवती करनारो कुब्ज हो अथवा लुलो हो; परंतु नल तो एज डे. एमां हवे कांश संशय नथी. कारण ज्ञानीए कह्युबे के, “तेना विना बीजो को था प्रकारनी रसवती करवामां चतुर नथी.” निश्चय कुब्जरूप धारण करनारो एज निषध राजानो पुत्र . दवदंतीए पिताने कडं. "हे तात! ए कुब्जरूपधारी निषध राजानो पुत्र बे; कारण श्वेतांबर मुनिना वचन मिथ्या होय नहीं.” पड़ी नीमक राजाए कुब्जने पोताने घेर बोलाव्यो एटले दवदंतीए पिताने कयु. “ हे तात! ए नलराजा एवी सर्व प्रकारे खात्री थ चूकी ने बतां बीजो उपाय ए ने के, जो ए मने पोतानी अांगलीनो स्पर्श करे थने एनाथी मने रोमांच उत्पन्न थाय तो एने खरोखरो नल जाणवो.” पनी जीमक राजाए कुब्जने तेम करवानुं कडं एटले तेणे कडं. "हुँ जन्मथीश्रारंजीने ब्रह्मचारी ढुं, तो परस्त्रीनो स्पर्श केम करुं?" वधारे श्राग्रहथी कुब्जे ते वात कबुल करीने एक श्रांगलिवति दवदंतीना अंगने स्पर्श कस्यो, जेथी रोमांच उत्पन्न थवाने लीधे तेणे कुब्जने कडं. “ हे नाथ ! ते वखते हुं सूतेली होवाथी तमे मने त्याग करीने जता रह्या हता, परंतु प्रत्यारे तो जागती बु. तो शी रीते तेम बनशे ?" एम कहीने ते कुब्जने पोताना घरनी अंदर तेडी गश्. त्यां नल राजाए नागे श्रापेला वस्त्र तथा अलंकारोने धारण करी पोतानुं खरूं खरूप Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श६ शीलोपदेशमाला. प्रगट कखु; जेथी पतिव्रता दवदंती नलना जे स्वरूपनुं ध्यान करती हती तेज तेणे दी. पड़ी नलराजा बहार श्राव्यो एटले जीमक राजाए तेने घणा स्नेहथी मली अने पोताना सिंहासन उपर बेसारी हाथ जोमीने कडं. “हे राजेंड! था राज्य अने संपत्ति सर्व तमारुं . वली श्रमे पण तमारा हुकममा रहेनारा बीए; माटे जेम मरजी होय तेम करो. दधिपर्ण राजा पण संत्रांत थयो बतो नल राजाने नमस्कार करीने कहेवा लाग्यो. "हे देव ! में पण अज्ञानपणाथी जे कंश आपनो अपराध कस्यो होय ते क्षमा करो." एवामां सार्थपति धनदेव नीमक राजाने मलवा माटे श्राव्यो. तेनो राजाए पोताना बंधुनी पेठे आदर सत्कार कस्यो. दवदंतीना कहेवा उपरथी नीमक राजाए तापसपुरना अधिपति वसंतसार्थवाहने अने तुपर्ण राजाने पण पोताने घेर बोलाव्या. या प्रकारेमान आपता जीमक राजाए सर्वने पोताने त्यां एक मास सुधी राख्या; परंतु नविन नविन उत्सवोने लीधे तेज्ने एक मास रणनी पेठे चाल्यो गयो. एक दिवस को देवताए श्रावीने दवदंतीने कडं. “हे देवी! तुं मने उलखे ? हुँ ते तापसोनो अधिपति बु. तें मने प्रबोध पमाडीने अरिहंत संबंधी व्रत ग्रहण कराव्यु हतुं. अनुक्रमे हुँ मृत्यु पामीने सौधर्म देवलोकने विषे केसर नामनो देवता थयो . तुं तत्वथी म्हारो उपकार करनार ढुं” एम कहीने नमस्कारपूर्वक सात कोड सुवर्णनी वृष्टि करीने ते देवता अंतर्ध्यान थ गयो. पनी वसंत सार्थवाह, दधिपर्ण, ऋतुपर्ण अने नीमक विगेरे बीजा राजार्जए अग्निनासमान प्रौढ पराक्रमवाला नलराजाने राज्याभिषेक कस्यो एटले ते नल राजा, बीजा राजा सहित म्दोटा सैन्यथी पृथ्वीने कंपावतो बतो पोतानी कोशला नगरी तरफ चाख्यो. अनुक्रमे पोताना रतिवबन नामना उद्यानमां श्रावी पहोचेला नसराजाने सांजली माणस जेम कालथी जय पामे तेम कुबर तेनाश्री जय पामवा लाग्यो. __ पड़ी न्यायमा प्रविण एवा नलराजाए दूत मोकली कूबरने कहेवराव्युं के, “ हे बंधो ! हवे फरीथी पासाए खेलीए; नहिं तो पड़ी शस्त्रोश्री खेलीए.” दूतनां वचन सांजली कूबर धीरपुरुषोने साध्य एवी युक Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवदंतीनी कथा. JG9 क्रीयाथी जय पामी द्यूतक्रीया कबुल करी. कनुं बे के - दीवेल अर्थने विषे कयो पुरुष स्पृहावंत न थाय ? पढी बन्ने जाइ पाढा द्यूत रमवा बेठा; तेमां उपार्जीत करेला पुण्यना प्रजावथी नलराजा जीत्यो एटले तेणे राज्य स्वीकार करी कूबरने युवराज पदवी यापी; जेथी अर्धा जरत क्षेत्रना सर्वे राजा नलने नेटुं श्रपवा लाग्या. पढी प्राप्त थ‍ली लक्ष्मीवाला नलराजा ने दवदंती पोताना राज्यमां अमारी पटह arsal कोशला नगरीना जिनमंदिरोमां उत्सव अने जैनधर्मनी परजावना करावा लाग्या वली निरंतर दर्शन पूजन करवा माटे यववा लाग्या. या प्रकारे धर्म कार्य करता एवा ते राजाए हजारो वर्षसुधी पृथ्वी नुं पालन कर. एकदा निषध राजाए स्वर्गथी श्रवीने पोताना पुत्र नलराजाने कयुं. " हे वत्स ! राज्यना सारासारनी विवेचना शी बे ? वायुए जूदा जूदा फेंकी दीघेला वादलाना सरखी संपतिर्ज चंचल बे, तो पढी तेने विषे निर्मल मनवालो कयो पुरुष आसक्ति पामे. ? " एम कहीने निषध राजा पाठो स्वर्गे गयो पढी पुष्कल नामना पुत्रने राज्य सोंपी नलराजाए दवदंती सहित चारित्र ग्रहण कयुं. सत्तर प्रकारना संयमने पालता एवा ते स्त्री पुरुष गुरुनी साथे विहार करवा लाग्या; परंतु सुकोमल स्वजावने लीधे नल मुनि संयम पालवामां शीथील आदरवाला थवाथी निषेध राजाए फरी स्वर्गमांथी श्रवीने तेमने दृढ हृदयवाला कस्या . पी ते नल मुनि ! दवदंतीने विषे अनुरागवाला चित्तने महाकष्टथी वश्य करीने अनशन व्रत धारण करी मृत्यु पाम्या; अने त्यांथी उत्तर दिशाना कुबेर नामे अधिपति थया ने दवदंती पण अनशनयी मृत्यु पामी तेनी स्त्री . या प्रकारे पापरूप कादवनो नाश करती, निर्मल शीलव्रतने धारण करती ने कोइपण प्रकारनां अशुभ आचरणने न करती एव ते दवदंती या कुबेरपलिना जवने विषे पण सर्व कर्मनो कय करी निराबाध ने अगाध एवा मोक्षसुखने पामशे. ॥ इति दवदंतीनी कथा समाप्ता ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. कमलानी कथा श्रा एक रत्नाकर ( रत्नना नंडाररूप समुत) वाला जंबूद्वीपने जाणे लजा पमाडतो होय नहिं ? एम अनेक रत्नाकरो ( रत्नना जंडारो) श्री मनोहर एवा लाट देशने विषे नृगुकल नामर्नु नगर . जिनेश्वरोए पवित्र कमुळे उपवन जेनुं एवा ते नगरने जाणे नर्मदानदी पोताना श्रात्माने पवित्र करवाने अर्थे विंटलाश रही होय नहिं ? एम खाश्रूपे देखाय बे. ते नगरमां जेना प्रतापरूप सूर्य सर्व दिशाउँमा प्रकाश करी रह्यो डे एवो अने लक्ष्मी ने हर्ष करनारो मेघरथ नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने धर्म अर्थने विषे निर्मल बुद्धिवाली विमला नामनी स्त्री हती. तेउँने लक्ष्मीने पेठे हर्षना पात्ररूप सात पुत्र उपर ाठमी कमला नामनी पुत्री हती. सात बंधुनी न्हानी बहेन ते कमला ज्यारे युवावस्थामां श्रावी त्यारे युवान पुरुषोना मनने मोह पमाडवामां औषधीरूप थ. जेम कोयल वसंतरतुने संजारे, हस्ति विंध्याचलर्नु स्मरण करे, तेम अनेक राजपुत्रो कामदेवने वश थश्ने ते कमलानुं स्मरण करवा लाग्या. हवे ते वखते सोपारपुरमा जाणे सर्वे माणसोना चित्तने विषे निवास करनारो रतिवद्धन ( काम ) होयनहिं ? एवो रतिवद्वान नामनो राजा राज्य करतो हतो. ते राजा, मेघरथराजानी साथे मित्रता करवानी श्याथी हमेशां मेघरथराजा माटे जूदी दी जातनी नेटं मोकलतो हतो. निरंतर पत्र अने नेटनी वस्तु लइ जता अने लावता एवा ते राजाना तोथी ते बन्ने नूपतिउनी परस्पर प्रीति वधवा लागी. कह्यु के- दानथी, प्रशंसाना वचनथी श्रने अनुकूल नाषणथी शत्रुपण मित्रपणुं पामे बे, तो पली बीजानी तो वातज शी करवी. ___ एक वखते मेघरथ राजा विचार करवा लाग्यो के, "श्रावा विनयादि गुणोधी रतिवद्धन सरखो शुं बीजो को राजकुमार ने खरो? अर्थात् नथी. जेवो सर्वगुणयुक्त रतिवन २ तेवीज था म्हारी पुत्री कमला बे. तो सर्व माणसोने वखाणवा योग्य तेऊनो परस्पर विवाह करवो वधारे सारो बे.” ___ को वखत मेघराजा सनामां बेगे हतो, एवामां कमला कुमारी श्रावीने तेना खोलामां बेठी. मेघरथ राजाए सर्व बाजूषणोथी सुशोजित Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमलानी कथा. एनए पुत्रीने जोश तत्काल मनमां पुत्रीना वरनो विचार करतां मुख्य प्रधानोने का के, “रोहिणीने चंजनी पेठे था कमला कुमारीना योग्य वरने शोधी काढो.” पली प्रधानोए जेम पंडित पुरुषो शास्त्रना योग्य अर्थने शोधी काढे तेम सर्व प्रकारे शुद्ध अने कोश पण उषणरहित एवा रति वहनने शोधी काढ्यो. पनी राजा मेघरथ मनमां विचार करवा लाग्यो के, "तत्वना जाण प्रधानोए म्हारा चित्तना अनिप्रायने मलता श्रावीनेज कडं बे. पृथ्वीमां घणुं करीने राजा शणगार सजावीने सनामां शोजावी राखवा जेवा ; परंतु तात्पर्यथी राज्य तो प्रधानोना हाथमां रहे बे. राजाना नेत्र प्रधानो कहेवाय बे, ते खरूं जे. एटलाजमाटे बहु प्रधनोने लीधे छ हजार नेत्रवालो कहेवाय . राजा पासे राज्य. नां सर्व अंग संपूर्ण हो; परंतु प्रधाननुं बल सर्वथी श्रष्ठे गणाय बे.” श्रा प्रमाणे विचार करी मेघरथ राजाए प्रगटपणे प्रधानोने कयु. “ हे उत्तम प्रधानो! तमे म्हारा विचारने अनुसरीने हितकारी श्रने योग्य वचन कडं . हवे श्रापणे रतिवबन साथे कमलानो विवाह करवा माटे को सारा चतुर दूतने सोपारपुरमा मोकलवो जोशए.” था प्रमाणे विचार करीने बीजे दिवसे साल नामना दूतने सारी नेट श्रापी रतिवद्धन पासे मोकल्यो. रतिवन राजाए पण कमला (लदमी) ना सरखी कमलानो विवाह कबूल करी ते दूतने सत्कार करीने पाडो मोकट्यो. पली सारा मुहर्ते म्होटी समृद्धिथी श्रावीने रतिवद्धन राजा जेम कृम कमला (लदमी) ने परण्या हता तेम कमलाने परण्यो. हाथेवाला वखते मेघरथ राजाए रतिवद्धजने हाथी, घोमा, रत्न श्रने अलंकार विगेरे बहु समृद्धि थापी. पडी पोताना देशप्रत्ये जता एवा रतिवद्धजने सीमाडा सूधी वलावी मेघरथ राजा पाडो वव्यो. मार्गमा ठेकाणे ठेकाणे गामडाना लोकोए प्रवेशोत्सवथी सत्कार करेलो, नाट अने चारण लोकोए करेला जय जय शब्द सांजलतो, लोकोने दानथी संतोष करतो, वागता वाजिंत्रोना शब्दथी दिशाउने बेहेरी करी देतो अने मूर्तिमंत राज्यलदमीना सरखी कमलाथी शोजतो ते रतिवद्धन अनुक्रमे पोताना सोपारपुरमा श्राव्यो. त्यां ते राजहंसना सरखी गतिवाली अने सर्वे अंगे Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० शीलोपदेशमाला. करीने सुंदर एवी राज्यलक्ष्मीनी पेठे पोतानी कमला प्रियानी साथे जोग जोगववा लाग्यो. हवे ते वखते समुनी मध्ये गिरिवर्डन नामना नगरमां स्त्रीउने विषे शासक्त एवो कीर्तिवर्धन नामनो राजा राज्य करतो इतो. जेम माणस धंतूराने पीवाथी गांडो थर जाय तेम ते राजा एक दिवस कमखाना खरूपने सांजली कामथी गांगो बनी गयो; तेथी तेणे मंत्रविद्याना जाण एवा पोताना युगंधर नामना मित्रने एकांतमां बोलावीने कडं के, " हे मित्र ! त्हारा सरखा मित्रोनी विद्याथीथमने फल ? कार्य त्हारे स्वाधिन बे; तो पढी घरमां सर्व प्रकारनी संपत्ति बतां निर्जाग्य माणसनी पेठे हुँ श्रावु पुःख शा कारणमाटे सहन करूं?" पड़ी कीर्तिवर्धन राजाना इष्ट अर्थने जाणी विवेकथी चतुर एवा युगंधरे कडं. “हे मित्र ! स्त्री के प्रकारनी थाय बे. एक पतिव्रता स्त्री ने बीजी असती स्त्री. जो ते महासती हशे तो तेने लाववामाटे श्रम करवो ए फोगट डे अने जो असती दशे तो त्हारो मनोरथ सफल थवाने वार नथी.” कीर्तिवर्डने कह्यु. “ हे मित्र ! तुं पण कामथी मरी रहेला मने शामाटे मारे ले ? तुं तेने एक वखत अहिं लावी श्राप. पड़ी फल मलq अथवा न मलवू, ए म्हारे खाधिन .” पनी युगंधरे रात्रीए जोयरामां पेसी मंत्र जाप श्रने होमादि कार्य कगुं, जेथी वायुए खेंचेली पांदडानी पं. तिनी पेठे पोताने त्यां पलंगमां घी गएली कमला तेमनी तेमज त्यां श्रावी पहोची. पनी युगंधर विचार करवा लाग्यो के, “जो था महासती जागशे तो निश्चे पद्म नामनी नागणीनी पेठे शाप आपीने मने जस्मकरी नाखशे.” श्रावी रीते विचार करी ते तुरत जोयरामांथी बहार निकली गयो. कीर्तिवर्धन पण मंगल श्राजूषणवाली कमलाने जो विचार करवा लाग्यो के, “निश्चे था विश्वने मोह पमाडनारी जे. जेम उत्तम सुगंधीवाली कमलीनी राजहंसनो मनोरथ पूर्ण करे ने तेम सवारे जागी उठेली श्रा स्त्री म्हारो मनोरथ पूर्ण करशे." श्रावी उत्कंगथी ते बोली उठयो के, “ हे जजे! जाग्य ! जाग्य ! सूझ न रहे." कीर्तिवर्डननां श्रावां वचनथी जागी उठेली कमला यूथथी जूली पडेली हरिणीनी पेठे आमतेम जोवा लागी अने विचार करवा लागी के, “अरे ! हुं Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएर कमलानी कथा. क्यां ? श्रा स्थान क्यां? म्हारं घर क्या ? श्रने म्हारी मिश्रा क्या? था ते इंग्रजाल डे के खप्न ? ते म्हारा प्राणनाथ क्यां गया?" था प्रमाणे बोलती अने आकुल व्याकुल थ गयेली ते कमलाना पगमां पडीने कीर्तिवर्डने कह्यु के, “ हे जसे ! हुं कीर्तिवर्धन त्हारो पति बु. श्रा घर, श्रा स्थान, श्रा सघली संपत्ति अने बीजुं जे कांश ले ते सघ_ हारुंज डे. वली हुँ पण त्हारी आज्ञा प्रमाणे चालनारो .” कमलाए कोप करीने कद्यु. “अरे पुरात्मन् ! फुलनेविषे कलंक वधारनारो तुं कोण म्हारी सामे उन्नो ढुं ? जेम कागडो राजहंसीने जोगववानी श्छा करे डे तेम उर्बुकि एवो तुं रतिवहन राजानी पतिव्रता स्त्रीने जोगववानी श्छा करनारो कोण ढुं ? अरे! तुं जट मने म्हारा घरनेविषे पहोचती कर; नहिं तो म्हारा पतिनां बाणो त्हारा माथार्नु दश दिशामां नूतोने बलीदान श्रापशे.” कीर्तिवर्कने पण वचनरूप लाकडीवडे प्रहार करतां कडं के, " गजराज जेम वेलना समूहने तोडी पाडे तेम हुँ हारा सतीपणाने हवणांज जांगी नाखुं बु.” या प्रमाणे तिरस्कार करता एवा तेणे जाणे कर्मथी उत्पन्न थएला पुजलो होय नहिं ? तेम लोढानी सांकलवडे सर्व अंगे बांधीने ते कमलाने जाणे कामधेनु होय नहिं ? एम गुप्त स्थानके राखी. __ हवे अहिं सोपारपुरमा रतिवद्वज राजाए सवारे शय्याथी उठीने जोयुं तो जाणे चोर लोकोए सर्व प्रकारे चोरी करी होय नहिं ? एम पोतानी कमला प्रियाने दीठी नहीं थाम तेम जोयु; परंतु को ठेकाणे प्रियाने दीठी नही; तेथी जाणे वृक्षथी नूलो पडेलो वांदरो होय नहिं ? एम तेणे चोकीदारोने पूज्यु. तेउए पण विस्मय पामीने कयु के, "महाराज ! देवीने पगे चालीने जता श्रमे को ठेकाणे जोया नथी. वली अमे सवारसूधी बराबर जागता रहीने चोकी करी जे." __ पड़ी रतिवन राजाए दूत विगेरेने मोकली बीजा छीप अने राज्यस्थानोमां शोध करावी; परंतु को ठेकाणेथी कमलानी शोध मली नहीं. कडं डे के-शानथी जाणी शकाय एवी वस्तुउने बाह्य चलुवाला शी रीते जो शके ? पड़ी धर्मनेविषे चतुर एवा ते राजाए मनमां निश्चय कस्यो के, “निश्चय कोश विद्यादि सिह पुरुषे म्हारी प्रियानुं हरण Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएश शीलोपदेशमाला. कर्तुं . हवे धिक्कार ने था म्हारा निरर्थक राज्यने, सर्व संपत्तिने श्रने जुजबलने के, जे म्हारी प्राणप्रियानुहरण थयुं !!!जे कोश म्हारी प्रियानी शोध लावी श्रापशे; तेने हुँ थर्ड राज्य थापीश." था प्रमाणे पडह वगमावीने वली ते शोक करवा लाग्यो के, “ हाय ! हाय ! हुं जीवतो बतो मूवा सरखो बूं; कारण जेम जंघी गयेला माणसना माथा उपरथी मुगटनी चोरी थाय तेम म्हारी प्रियानी चोरी थ .” श्रावी रीते पोताना जुजबलनी निंदा करतो अने गुप्त क्रोधवालो ते रतिवहन उषधि श्रने मंत्रथी स्तंजित करी दीधेला सर्पनी पेठे मनमांज बलवा लाग्यो. हवे कमलानु हरण थया पांच मास पूरा थया; एवामां प्रियाना शोकथी व्याप्त एवा ते रतिवन राजाना उद्याननेविषे जाणे बीजा सूर्य होय नहिं ? एवा केवलज्ञानी मुनि समवसख्या. जेम वर्षाद श्राववाथी खेरु लोक हर्ष पामे एम मुनिना श्राववाथी हर्षित थयेला रतिवन राजाए तेमनी पासे जश्वैराग्य करनारी धर्मदेशना सांजली. देशनाने अंते राजा ए मुनिने पूब्युं के, “हे प्रनो! म्हारी प्रिया जीवती ने के मृत्यु पामी?" केवलज्ञानी मुनिए सर्ववृत्तांत यथार्थ कडं एटले फरी राजाए पूज्युं. "हे लगवन् ! था कया कर्मनुं फल प्राप्त थो? अने हवे ते स्त्री जीवती मने फरीश्री मलशे के केम?” केवलज्ञानी मुनिए कडं. - हे राजन् ! विस्मय नामना नगरमा पुर्जय नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने धन्या नामनी स्त्री हती. एक दिवस धन्याए क्रोध करीने पोतानी दासीने दोरडीवती बांधीने नूखी अने तरसी नोंयरामां पूरी दीधी. पड़ी थोडे दिवसे प्रसन्न थयेली धन्याए तेने बंधनथी गेमी दीधी. दासीने बांधी राखवाथी धन्याए महादारुण कर्म उपार्जन कलुं. पली अनेक गतिमां ते दारुणकर्मनुं फल जोगवीने हवणां ते धन्या त्हारी स्त्री कमला थ . तेने आ बेबी वखतनुं बंधन थयुं . वली तेणे पूर्वजवने विषे जे त्रण माससूधी पंचमीनो तप कस्यो बे; तेथी ते बंधनथी मुक्त थशे. पनी ते निश्चय तने मलशे; कारणके जोगवेला कर्म तुरत य पामे .” मुनिनी आवी कतकचूर्णनी पेठे प्राणीउँने निर्मल करनारी धर्मदेशना सांजली घणा जव्य जीवो पापरूप कादवथी मूका गया. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमलानी कथा. शए३ हवे रतिवद्धन राजा पोतानी प्रियाने बंधनमांधी बोमाववामाटे जेटलामां कीर्तिवर्डन राजानी साथे युक करवा जवासारु सैन्यनी तैयारी करे ने तेटलामां तेज महाबल नामना केवलज्ञानी मुनि विहार करता करता कीर्तिवर्डन राजाना गिरिवर्डन नगरने विषे गया. त्यां तेमना प्रजावधी कमलाने बांधेला सांकलना बंधो सिंञ्चार वृक्षना पुष्पनी पेठे तुरत तूटी गया. कीर्तिवन राजा परिवार सहित मुनिने वंदन करवा गयो. त्यां तेने मुनिए धर्मलाल थापीने विशेष प्रतिबोध करवामाटे तेना पूर्वजन्मना वृत्तांत सहित कमलानो प्रत्यद दृष्टांत कही संजलाग्यो भने कडं के, “श्रा शीलवृत्तरूप वृदनुं प्रत्यक्ष फल जुर्म के, जे प्रथम कमलाना शरीरे बांधेला सांकलनां बंधनो तूटी गया.” थावां मुनिनां वचन सांजली अत्यंत खेद पामेलो कीर्तिवर्धन राजा श्राश्चर्यथी विचार करवा लाग्यो के, “ हाय ! हाय ! बन्ने लोकमां विरुक एवं में श्रा शुंबाचमु !!! काममा आसक्त एवा में महासती एवी कमलाने विषे जे खोटुं चिंतव्यु हतुं,ते तेना शीलवृत्तथी निष्फल थयुं !" श्रावी रीते विचार करी ते त्यांथी उठी ज्यां कमलाने एकांत स्थानमा राखी हती त्यां श्रावीने तेना पगमां पडी पोताना करेला अपराधनी क्षमा मागीने कहेवा लाग्यो के, “ हे बहेन ! जेनुं मुख जोवा योग्य नथी एवो पापी, अने जगतमां निंदा करवा योग्य हुँ @ के, जे में तने श्रावं कष्ट श्राप्यु. वली तें प्रथम मने अकार्य करता वास्यो हतो; तेथी तुज म्हारो बंधु अने धर्माचार्य जे. हवे हुँ तने त्हारा नगरप्रत्ये पहोचाडीश. त्यां त्हारे रतिवन राजाए म्हारा उपर करेलो क्रोध दूर कराववो.” पड़ी महा मूल्यवाला रत्नोथी गामां नरी अने कमलाने साथे लश् कीर्तिवर्कन राजा त्यांथी चाली निकल्यो. अहिं सोपारपुरथी रतिवद्धन राजा पण म्होटी सेनाने साथे लश् जेटलामां सीमाडे श्राव्यो तेटलामां तेने कमलाए पत्र थापीने आगलथी मोकलेलो कासद सामो मल्यो. पड़ी तुरत क्रोध अने संतोषधी व्याप्त थयेलो रतिवद्धन राजा कमलाए लखेलो पत्र लश् वांचवा लाग्यो. ___ स्वस्तिश्री म्हारा हृदयमां निवास करी रहेला श्रीरतिवल्सन खामीने नमन करीने समुजना मध्यथी आपनी दासी कमला विनंती करे ने के, Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश शीलोपदेशमाला "हे स्वामिन् ! आपना प्रसादथी हुँ अखंडीत शीलवाली टुं. वली श्रा म्हारा हृदयमां निवास करी रहेला श्रापवडेज हुं निरंतर सनाथ ढुं. हुँ अहिंथी आपनुं दर्शन करवामाटे श्रावु बु थने म्हारीसाथे म्हारो कीर्तिर्वऊन नामनो नाश् आपने विषे पूर्ण नक्तिवालो बतो थापना चरणना दर्शन करवामाटे श्रावे .” श्रा प्रमाणे कमलाए लखेलो पत्र वाची रतिवद्धन राजा विचार करवा लाग्यो के, "अहो! कमलाना शीलनुं महात्म्य खरेखलं आश्चर्यकारी डे के, जेणे शत्रुने मित्र बनावी दीधो." पड़ी बन्ने राजा समुज्ने कांठे एका थया. त्यां तेमणे परस्पर एक बीजानो योग्य आदर सत्कार कस्यो. पली नगरवासी लोकोए नमस्कारादिकथी सत्कार करेला ते बन्ने राजाए कमलासहित सोपारपुरमा हर्षथी प्रवेश कस्यो. त्यां केटलाक दिवस गौरवपणे रह्या पली कीर्तिव. ईन राजा पोताना नगरे गयो. रतिवन राजाए पण सती कमलानी साथे त्रीवर्ग (धर्म-अर्थ अने काम)ना साररूप गृहस्थधर्म पूर्ण रीते पालीने पनी अनुक्रमे ज्यारे राज्यने धारण करवामां समर्थ पुत्र थयो त्यारे तेने राज्य शापीने पोते कमलासहित विषयसुखथी निवृत्त थयो. पछी दानवडे लोकने संतोष पमाडी, संघनो सत्कार करी ते बन्ने स्त्रीपुरुषे चंदनाचार्यपासे दीक्षा लीधी. अनुक्रमे दीक्षानुं पालन करता अने घातिकर्मनो क्ष्य करता ते बन्नेजणाने केवलज्ञान प्रगट थयु. जेम सूर्य कमलोने प्रबोध पमाने तेम अनेक जीवोने प्रतिबोध पमाडता रतिवद्धन केवली अनुक्रमे मुक्ति पाम्या. मदासती कमला पण विहारथी पृथ्वीतलने सुशोजित करीअने नृगुकछ नगरमां जश् त्यां पोताना मातापिताने तथा तेमना वंशना सर्व माणसोने प्रतिबोध पमाडीने मुक्तिपद पामी. इति कमलानी कथा. कलावतीनी कथा. श्रा जंबुद्धीपने विषे श्रपार लक्ष्मी, केलना वन अने उत्तम तिलकथी सुशोजित एवा जे देशे खर्गने पण तिरस्कार कखंडे एवो मंगल नामनो देश . ते देशमां शंखपुर नामनुं नगर जे. त्यां प्रजाना अनुकुल Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलावतीनी कथा. शएप कार्यने करनारो श्रने निर्मल मनवालो शंख नामनो राजा राज्य कस्तो हतो. युद्धमा अनेक शत्रुने जीतीने पोताने खाधिन करेली जाणे सती स्त्री होय नहिं ? एवी पृथ्वीने ते राजा जोगवतो हतो. एक दिवस सन्नामां बेठेला ते राजानी पासे को परदेश जश् थावेला गंगशेठना पुत्र दत्तशेठे नेट मूकीने हर्षथी प्रणाम कस्यो. पनी श्रापेला श्रासन उपर बेठेला ते दत्तशेठने भागता स्वागता करीने राजाए पूब्युं के, “ तमे देशने योग्य एवं कांश आश्चर्य दी होय तो कहो.” दत्तशेठे कडं. “ हे देव ! हुं समुपनी मध्ये देवशाल नगरमां वेपार करवा गयो हतो के, ज्यां वेपारथी श्रमारी लक्ष्मी वृद्धि पामे बे. हे राजन् ! लेवा देवारूप वेपारथी वृद्धि पामी डे लक्ष्मी जेनी एवो हुँ जेटलामां त्यांथी पाडो वस्यो तेटलामां में एक आश्चर्य दी, परंतु तेनो निर्णय करवाने हुं शक्तिमान् न होवाथी ते काम आपने सोपुं बुं." एम कहीने ते दत्तशेठे राजानी आगल एक चित्रपट्ट मूक्यो. राजाए ते चित्रपट्टमां श्रालेखेली को स्त्रीने जो तेने देवी मानता बता कयु के, " था को देवी के कारण माणस जातिमां श्रावू स्वरूप कोनुं होतुं नथी." पड़ी दत्तशेठे जरा हसीने कडं. “ महाराज ! था माणस जा. तिनी स्त्री ने बतां जो आप तेने देवी मानता हो तो तेने पट्टदेवी जापो." पड़ी जेम दरिजी माणस अव्यना नंडार सामु एक नजरथी जो३ रहे तेम राजा पण ते पट्टमां चितरेली मूर्तिने एक दृष्टिथी जोश दत्तशेठने कहेवा लाग्यो के, " माणसमां श्रावी रूप रेखा कोश्नी होती नश्री." दत्तशेठे कडं. “ राजें! निश्चय ते मनुष्य जातिनी स्त्री . ब्र. मानी चातुरीथी नहीं, परंतु घुणाकरन्यायथी ते एवी रूपवंती निवडी बे." पड़ी शंखराजाए पूब्यु के, " ते कोण ? " दत्तशे उत्तर श्राप्यो के, “ देवशाल नगरना महाराजा विजयसेननी श्रीमति राणीना उदरथी उत्पन्न थयेली कलावती नामनी ते कन्या . जगत्नी कला, सौजाग्य अने रूप विगेरेनी ते खरेखरी कसोटी बे.. जेम जेम कलावतीनी युवावस्थारूप लक्ष्मी वृद्धि पामवा लागी तेम तेम विजयसेन राजाना चित्तने विषे तेना वरनी चिंता पण वृद्धि पामवा लागी. एक १ लाकडाना जीवोए करडेला लाकडामां अक्षरोनुं कोरावं. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ शीलोपदेशमाला. · दिवस जैनजक्त एवी ते कलावतीए प्रतिज्ञा करी के, “जे म्हारां चार प्रश्नोनो जाप इशे, तेने हुंबरीश." पुत्रीनी यावी प्रतिज्ञाथी राजा तेना वरनी महाचिंतामां बूडी गयो ने पुत्रीना वरनी प्राप्ति माटे स्वयंवर मंडपनी तैयारी करवा लाग्यो. एवामां आपणां नगरथी देवशालनगरमां वेपार करवा माटे तो वो हुं एक होटा अरण्यमां जइ पहोच्यो. ते वखते त्यां विजयसेन राजाना पुत्र जयसेनने दुष्ट अश्व हरण करीने लाव्यो हतो. ते कुमार ते वनमां मूर्छा पामीने पड्यो हतो. तेने में उपचारथी जीवतो कस्यो. पढी राजकुमार मने पालखी मां बेसाडी पोताने घेर लइ गयो. राजा विजयसेन पण ते उपकारथी मने पुत्रनी पेठे मानवा लाग्यो. एक दिवस सजामां बेठेला मने विजयसेन राजाए श्राज्ञा करी के " दुष्ट अश्वे दरण करेला जयसेन कुमारने अरण्यमां बचावी तें जेवो म्हारा उपर उपकार को बे तेवोज या कलावती व्हेनना श्रेष्ठ वरनो विचार करीने तुं चिंतारूप समुद्रमांची म्हारो उद्धार करवारूप उपकार करवाने योग्यडे.” दत्तशेठ शंख राजाने कड़े बे के, महाराज ! ते वखते में विजयसेन राजाने कधुंके, “तमारी कन्याने योग्य शंखराजा बे.” या प्रमाणे विचार करी ने पट्ट उपर कलावतीनुं रूप चितरी हुं हिं श्राव्यो बुं. वली या पट्टमां चितरेली कलावतीनी मूर्ति फक्त आजास मात्र बे; कारण ते बराबर चितरी शकाय तेम नथी. जुर्ज के, सूर्यनी जेवी कांति बे तेवी प्रतिबिंबने विषे देखाती नथी." पढी शंखराजा योगीनी पेठे एक ध्यानयी क्षणमात्र पट्टमां चितरेली मूर्तिने जोइने दर्षी प्रफुल्लित नेत्रवालो थयो बतो पोतानुं मस्तक धूणावीने मधुर वचन दत्तशेने कडेवा लाग्यो. " हे वहाला मित्र ! प्रथम तें श्रा म्हारा उपर बहु सारो उपकार कस्यो बे; परंतु म्हारुं एवं जाग्य क्यांथी होय के, मने तेवा पात्रोनो समागम थाय ! !” दत्तशेठे आनंदी कयुं. “महाराज ! वृथा खेद न करो में शुकनथी जाणी लीधुं वे के, ते निश्चय तमारी स्त्री यशे; परंतु तमे सरखती देवीनी श्राराधना करो के, जेथे ते राजकन्याये धारेला चार प्रश्ननो निर्णय तमाराथी थइ शके.” पबी राजा ब्रह्मचर्यादि नियमयी सरस्वती देवीनी आराधना करी के, जेथी ते सरस्वती देवीए प्रगट थइने तेने कहुं के, “ हे राजन् ! व्हारा दा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलावतीनी कथा. IPI थना स्पर्शथी स्वयंवर मंडपनी पुतली ते कलावती राजकुमारीना चार प्रश्ननो तुरत निर्णय करशे.” शंखराजाए ते सरस्वतीनो प्रसाद बे हाथ जोडीने ग्रहण कस्यो. सरस्वती देवी पण ते सर्व कहीने तुरत अदृश्य थइ गया. पी कृतार्थ एलो शंखराजा दत्तशेवसहित सैन्यथी पृथ्वीने कंपावतो तो देवशाल नगर तरफ चाल्यो. तेने श्रावतो सांजली विजयसेन राजाए पोताना पुत्र जयसेनने तेना सामो मोकल्या. शंखराजा पण पोताने जोवा श्रावती नगरनी स्त्रीजनां नेत्रोना समूइयी नगरने नीलकमलमय करतो तो देवशाल नगरमां श्राव्यो. पठी कलावतीने वरवामाटे श्रावेला अनेक राजार्ज स्वयंवर मंडपमां श्रावी पोतपोताना सिंहासन उपर बेठा. शंखराजा पण पोताना उंचा सिंहासन उपर बेगे. पढी विचित्र एवा अलंकारोथी इंद्रधनुष्यनी रचना करती, चारे तरफ धूपघडी थी निकलता धूमाडाने लीघे मलिन देखातां वस्त्रवाली, जाणे साक्षात् कलानी अधिष्ठायक देवी होय नहिं ? अथवा तो मूर्तिवंत रति पोतेज होय नहिं ? वली विधाताए सर्व सुंदर वस्तुना सारने खेंची ने बनावेली होय नहिं ? एवी, तेमज नमरीजची विंटलायली कमलिनी पेठे सखी थी विंटलायली, दासीए बत्र धारण करेली, चालवायी नृत्य करता केशवाली, जाणे कामदेवना धनुष्यनी दोरी दोय नहिं ? एवी वरमाला दासीपासे धारण करावेली कलावती लक्ष्मीनी पेठे स्वयंवर मंडमां श्रावी. पढी जेना हाथमां समस्यानी पत्रिका हती एवी प्रतिहारिणी क के, " हे राजाउं ! श्रा चार प्रश्ननो उत्तर आपो. १ प्रश्न. देव कोण ? २ गुरु कोण ? ३ तत्व शुं ? ४ श्रने सत्व शुं ? तमे या कलावतीना चार प्रश्नने कद्देवाने योग्य बो. " पढी सर्वे राजार्जए पोतपोतानी बुद्धि प्रमाणे उत्तर श्राप्या; पण ते अर्हत् धर्मनी जाण एवी कलावतीए मान्य करुया नहीं. पढी शंखराजा द्रव्यनो भंडार जडेला पुरुपनी पेठे हर्षित थयो उतो कड़ेवा लाग्यो के, “ में म्हारा हाथथी स्पर्श करेली श्रा पुतली राजकन्याना प्रश्ननो उत्तर आपशे. " एम कहीने तेणे स्वयंवर मंडपना स्तंजनी पुतलीने माथे हाथवती स्पर्श करयो एएले पुतलीए उत्तर आप्यो के, “ १ वीतराग देव, २ महाव्रत धारण ३८ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୬୯g शीलोपदेशमाला. करनार गुरु, ३ जीवदया तत्वाने ४ इंडियनो निग्रह ए सत्व जाणवुं.” पी मनोरथ पूर्ण थवाने लीधे अत्यंत हर्षवंत यएली कलावतीए शंखराजाना कंठने विषे वरमाला रोपण करी. पी महापराक्रमवंत ने क्रोधयुक्त थला राजार्ज कलावतीना शीलप्रजावधी ते वखते शंखराजानो पराजव करी शक्या नहीं. पढी सारा मुहूर्तने विषे ते वरवदुनो कुलगोरे हस्तमेलाप कराव्यो. ते वखते विजयसेन राजाए शंख राजाने दस्ति, अश्व, वस्त्र, आभूषण विगेरेथी संतोष पमाड्यो. पठी शंख राजाए कलावतीने साथे लइ पोताना नगर तरफ प्रयाण करूं. जेनी श्रांखोमांची श्रांसु वदेतां इतां एवो विजयसेन राजा केटलेक दूर सूधी वलावा जइ अने पुत्रीने शिखामण द पावल्यो. विजयसेन राजानी श्राज्ञा पालवामां तत्पर एवो दत्तशेव पण कलावतीने प्रसन्न राखवामाटे शंखराजानी साथे गयो मार्गमां एक रथ उपर बेसीने जता एवा ते स्त्री पुरुषना दिवस, रात्री, पक्ष छाने मास एक पनी पेठे चाल्या गया. ऐरावत हाथी उपर बेठेला इंड ने इंद्राणीनी पेठे महासमृद्धिथी हाथी उपर बेठेला ते स्त्री पुरुषे पोताना शंखपुरमा प्रवेश कस्यो. त्यां तेणे कलावतीनी साथे राज्यसुख जोगवतां लीलामात्रमां बहुकाल निवृत्त कस्यो. एक दिवस शय्यामां सूतेली कलावतीए स्वप्नामां अमृतनो घडो दो. पढी तुरत जागी उठेली तेणे ते वात पोताना पतिने कही एटले हर्षथी रोमांचित थयेला शंख राजाए तेने कयुं के, " हे जड़े ! तने राज्यरूप हस्तिने स्तंजनी पेठे श्राधाररूप पुत्र थशे. " पढी बीप जेम मोति धारण करे तेम गर्नने धारण करती एवी राणीए आठ मासने विश दिवस काढ्या. पठी " स्त्री प्रथम प्रसूति पिताने घेर करे बे. एवो लोक व्यवहार होवाथी विजयसेन राजाए कलावतीने तेडवामाटे माणसो मोकल्या. ते वखते ते माणसोनी साथे जयसेन कुमारे पोतानी व्हेनने माटे जाणे मूर्तिवंत स्नेहज होयनहिं ? एवा बे बाजु मोकयां. माणसोए शंखपुरमां श्रावीने प्रथमयी जाणीता एवा दत्तशेठने ते बाजुर्ड श्राप्यां. ते पण ते बाजु ने समाचार कलावतीने श्राप्या. क लावतीए पण ते माणसोने सत्कार करीने रजा थापी पढी कलावतीए " "" Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलावतीनी कथा. शएए बंधु उपरना स्नेहने लीधे दासी पासे ते बाजु पोताने हाथे बंधाव्या श्रने बाजुश्री सुशोजित एवा पोताना हाथने जोश्ने हर्ष पामती ती सखीउनी साथे हास्यथी वातो करवा लागी. था वखते शंखराजा अं. तःपुरमां श्रावतो हतो, ते रस्तामां दूरथी कलावतीना हास्य वचन सांजली “श्रा शुं बोले ?” एवा विचारथी ते सांजलवामाटे गोखमां उनो रह्यो. कलावती पण हाथने विषे बांधेला बाजु सखीउने वारंवार देखाडती बती हर्षथी कड़वा लागी के, “हे सखी ! जेणे मने श्रा अद्भूत बाजु मोकल्यां ने ते दीर्घ आयुष्यवालानो म्हारे विषे घणो प्रेम बे. तेणे श्राजे घणे दिवसे मोकलेली वस्तु मने मली बे; परंतु ते पोते ज्यारे मने प्रत्यद मलशे त्यारे म्हारो जन्म सफल थशे." सखीए कडं. “ हे महादेवि ! जेवो चंजनो स्नेह पोयणी उपर होय जे तेवोज विश्वने वखाणवा योग्य एवाते पुरुषनो स्नेह त्हारा उपर .” था प्रमाणे कलावतीनां श्रने सखीउनां वचन सांजली क्रोधथी व्याप्त थएलो शंखराजा विचार करवा लाग्यो के, “निश्चय कलावती देवी बीजा कोश पुरुषने विषे शासक्त थयेली जणाय . फक्त चणोठीनी पेठे उपरथी रक्त ( राती) एवी था चपल इंडियोवाली स्त्री ने धिक्कार डे के, जे स्त्री वांदरानी पेठे कामना जाड्यपणाथी चपल एवा पुरुषनो आश्रय करे बे. वांदराना पुंछडानी पेठे फक्त देदने विषे शासक्त एवी था महाकुःख थापनारी स्त्रीने त्याग करूं.” या प्रमाणे विचार करी शंखराजा त्यांथी पाडो वव्यो. श्रा वखते कलावतीने त्यजी देवानो अवसर जाणीने जाणे ते जोवाने असमर्थ होय नहिं शुं ? एम राजाना विवेकनी साथे सूर्य अस्त थयो भने राजाना दूराशयनी पेठे चारे तरफ अं. धकार वृद्धि पाम्यु. पनी राजाए बे चांडालणीउने बोलावीने कां के, "वनमां त्यजी दीधेली देवी कलावतीना बाजुसहित बन्ने हाथ कापीने अहिं मारी पासे लाववा. एमां तमारे कांश पण विचार करवो नहीं." पली राजाए नाम अने परिणामथी निर्दय एवा शय्यापालकने थाझा करी के, “ को न देखे तेवी रीते श्रा राणीने वनमां लश् जश् त्यजी दे." पड़ी शय्यापालक वेगथी राणीने रथमां बेसारी वनमां लश् गयो. त्यां ते शोक करतो तो राणीनी सन्मुख उनो रहि गद्गद् वाणीथी Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० शीलोपदेशमाला. कड़ेवा लाग्यो के, " हे देवी! महाराजाए कोइ दोषथी तमने वनमां त्यजी दीधेला बे. " शय्यापालकनां श्रवां वचन सांजली राणी कलावती तुरत रथमांज मूर्छा पामी पढी ज्यारे वनना पवनथी महाकष्टे करीने सचेत थइ त्यारे ते वृक्षथी बेदायली मालनी पेठे तुरत रथथी पृथ्वी पर पडी गइ. पठी ते पितानुं ने जाइनुं वारंवार स्मरण करती ती गाढ स्वरथी रोवा लागी निर्दय एवो शय्यापालक पण पोताना आत्मानी निंदा करतो ने रोती एवी ते राणीनी पाउल रोतो बतो तेने त्यजी दइने प्रजात वखते पोताना नगरमां श्राववा तैयार थयो. ते वखते शय्या पालकनी साथे राणीए शंख राजाने संदेशो कडेवराव्यो के " हे राजन् ! दासी एवी म्हारे विषे श्रापे जे या श्राचरण करयुं बे, ते तमारा कुलने योग्य बे ? हे देव ! जो तमारा मनमां कां शंका होय तो मने दिव्य विगेरे कराववा इता. दशे ! जेम बनवानुं हतुं ते बन्युं ! तमारुं कल्याण था. " पढी जेनी श्रांखो धांसुथी जींजायली ते एवो शय्यापालक जेटलामां राणी कलावतीनी श्राश्वासना करतो बतो जो इतो तेटलामां जाणे मूर्तिमान् दुष्टपणुं दोय नहिं शुं ? एवी बे चांडालपी तुरत त्यां श्रावीने " अरे पापणी! तें व्हारा पतिने बेतस्यो बे, तेनुं तुं था फल जोगव.” एम कही ने बाजुसहित ते कलावतीना बन्ने हाय कापी लइने चाली गई. एक तो वियोगनुं श्रने बीजुं हाथ कपायानुं एम बे प्रकारना दुःखी दुःखी एली कलावती उबका सहित शंखराजाने कड़ेवा लागी के, " हे नाथ ! पाकेला चिजडानी पेठे फाटी जता एवा म्हारा हृदयनुं रक्षण करो.” आवी रीते विलाप करती एवी ते सती कलावती नदीने कांठे वन हतुं त्यां गइ. त्यां तेणे एवा दुःखमां सुखना कारण - रूप पुत्रने जन्म श्राप्यो पढी ते पुत्रने कड़ेवा लागी. " हे वत्स ! तुं पोतानी मेले सुखी ने दीर्घ श्रायुष्यवालो था; कारणके, दैवे म्हारी आशीष एज व्हारा पोषणनुं कारण बनाव्युं बे. अर्थात् म्हारे हाथ न होवाथी हुं दारुं पोषण करी शकुं तेम नथी. अरे ! एक दरिद्री कुटुं मां पुत्र जन्म थाय तो पण उत्सवो थाय बे ने हुं राजस्त्री बतां म्हारा पुत्रना जन्म निमित्ते उत्सवना लेशनो पण संशय थइ पड्यो बे." Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलावतीनी कथा. ३०१ कलावती श्रावी रीते विलाप करती हती ते वखते नदीनुं पुर एटवू बधुं वधवा लाग्युं के, जाणे पोताने कांठे रहेला कलावतीना पुत्ररूप कीडाने खेंची जवानी श्छा करतुं होय नहिं शुं ? एम देखावा लाग्युं. ते वखते कलावतीए पंचपरमेष्ठि नमस्कार- स्मरण करीने कर्वा के, "जो में मन, वचन अने कायानी शुछिए करीने उज्वल एवं शीलवत पादयु होय तो हे शासनदेवि ! म्हारा पुत्रने रक्षण करवानो उपाय अने जलनी शांति थजो." कलावतीए या प्रमाणे कडं एटले तुरत तेना शीलप्रजावथी बन्ने हाथ नवा थया तेमज नदीनो वेग पण शांती पाम्यो. वली ते वखते श्राकाशमांथी पुष्पवृष्टि थ. हनुमान जेम समुनो पार पामीने आश्चर्य पामे तेम शीलना प्रजावधी फुःखनो नाश थएलो जोश कलावती विस्मय पामी. था वखते को एक तापसे श्रावीने कलावतीने कयु. “ हे वत्से ! पुत्रने जन्म आपनारी स्त्रीए अहिं रहेतुं योग्य नथी; माटे श्रमारा थाश्रममां चाल.” एम कहीने ते तापस कलावतीने कुलपतिनी पासे तेडी गयो. पितातुल्य वृक्ष एवा ते कुलपतिए पण तेने सर्व वात पूर्वी एटले कलावतीए पोतानुं सर्व वृत्तांत कद्यु. कुलपतिए कह्यु. “ हे जले ! था खेद न पाम्य. हुं लक्षणोथी जाणुं बु के, तुं फरीथी इष्ट सुख पामीश." श्रा प्रमाणे कुलपतिए शांत करेली विजयसेन राजानी पुत्री कलावती तापसिउनी साथे पिताना घरनी पेठे सुखे त्यां रहेवा लागी. __ हवे अहिं चांडालणीए सवारना पहोरमां बाजु सहित कलावतीना बन्ने हाथ राजाने देखाड्या. ते वखते बाजुठ उपर जयसेननुं नाम जोश शंख राजा थाकुल व्याकुल थवा लाग्यो. पड़ी तेज रहित बनी गयेला तेणे दत्तशेठने बोलावीने पूज्युं के,"\श्राजे श्रथवा काले कोश् देवपुरथी अहिं आव्यु इतुं ?" दत्तशेठे उत्तर आप्यो के, “ हे महाराज ! गश् काले माणसो श्राव्या हता. वली ते माणसोनी साथे जयसेन राजकुमारे महादेवी कलावतीने माटे अद्भूत बे बाजु मोकल्यां इता. ते में अंतःपुरमा महादेवीने श्राप्यां .” दत्तशेठनां श्रावां वचन सांजली वज्रथी कपायला पर्वतनी पेठे कुःखथी व्याप्त थएलो राजा मू ने लीधे सिंहासन उपरथी पृथ्वी उपर पडी गयो. पड़ी शीतल चंदन अने Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ शीलोपदेशमाला जल विगेरेना उपचारोथी महा कष्टे सचेत थयो त्यारे ते पस्तावो करतो बतो था प्रमाणे कहेवा लाग्यो. " अहो ! म्हारं मूढपणुं अने मंदजाग्य पण आश्चर्यकारी . तेमजयविचारपणुं श्रने क्रूरपणुं पण आश्चर्यकारी बे. वली वित्ताने अयोग्यपणुं श्रने पुराचरणपणुं श्राश्चर्यकारी बे. बेवट नहिं देखातुं एवं वक्रपणुं अने कुशीलपणुं पण श्राश्चर्यकारी . पली प्रधानोए “ विलापनुं कारण पूज्युं एटले राजाए लङजा सहित अने पस्तावा सहित पोतार्नु क्रूर कर्म प्रधानोने कह्यु. वली तेणे कयु के, "हाय हाय ! हुं क्यां जाउं ? शुं कहुँ ? क्यां पेशी जाऊं ? अने झुं करूं ? के जे में पोतानी मेले पोतानो श्रात्मा फुःखने विषे नाख्यो . अरे ! इष्ट एवा में कुलाचारने त्यजी दश्ने पोताना योग्य कार्यनो विचार नहिं करीने अने धर्मनो थतो नाश न जोश्ने श्रा शुं श्राचखं ? हा हा !! चंजनी लेखाने विषे कलंक अने दूधमा पुरानो असंजव उतां में कल्पना करी . अरे! गर्भवती एवी प्रियाने तेना पिताने घेर मो. कलवी योग्य हती” बता में तेने त्यां मोकली नहीं अने माणस विनाना अरण्यमां शा माटे मोकली ? हुं म्हारं पोतानुं म्हों कोने देखाडी शकीश ? हवे तो हुं म्हारा प्राणने धारण करवायी खजा पामु बुं. म्हारे माटे म्होटी चिता तैयार करावो के,जेमां हुं स्त्री हत्याना पापथी मलिन थएला था म्हारा शरीरने बाली नाखं.” राजानां श्रावां आग्रहवालां वचन सांजली नगरवासी माणसो, गजशेठ ने मंत्री विगेरे तेने या प्रमाणे कदेवा लाग्या. “ हे देव ! प्रथम महादेवी कलावती पोताना कोइ कर्मथी मृत्यु पामी अने हवे तमे पोते पोताना मृत्युथी शुं प्रजानो नाश करवानी श्छा करो डो? वली हे खामिन् ! हवणां मृत्यु पामवामां तमारो आग्रह जाग्रत थये बते बिजवाला वैर्यमणिने विषे दोरानी पेठे शत्रुना गुणो तमारा राज्यने विषे प्रवेष करशे. माटे हे विवेकी महाराजा! मृत्यु पामवानो तमारो वृथा आग्रह त्यजी द्यो; कारण अग्मिने विष पतंगीया बली मरे बे; परंतु सुजट पुरुषो बली मरता नथी.” श्रावां सामंतादि सर्व लोकनां युक्तिवालां वचननो पण अनादर करीने शंखराजा मृत्यु पामवा निमित्ते वनमां नासी गयो. त्यां पण समयना जाण Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलावतीनी कथा. ३०३ एवा गजशेठे कालक्षेप करवामाटे तेने मधुर वचनथी कत्युं के, "हे देव ! जो तमारे कलावती महादेवीनी इच्छा होय तो पुण्य करो के" जे पुण्यना प्रजावी पूर्वजवने विषे मेलवेली म्होटी आपत्ति दूर थाय. वली या उद्यानने विषे चिंतित फल आपनारी श्रीजिनेश्वर प्रजुनी मूर्ति बे, तेनुं पूजन करो. तेमज श्रहिं महा तेजवंत एवा मुनीश्वर दवणां पोतानुं कल्याण करवानी इछाथी तप करे बे, तेमने वंदना करो.” गजशेवनां श्रावां वचन सांगली शंखराजा जिनेश्वरनुं पूजन करी ने मुनिराजने वंदना करी तेमना श्रगल बेठो पढी मोहनी इछावाला ते मुनिए राजानो जाव जाणीने मधुर वचनथी संसारनो नाश करनारी धर्मदेशना पी. ते या प्रमाणे हे नव्य जनो ! संसाररूप धरण्यने विषे पूर्वकर्मरूप वायुथी प्रेरायला जीवो ब्रांति पामेला मृगनी पेठे वृथा जमे बे. वली या सुख बे, श्रा सुख बे, एवी प्रांतिथी पगले पगले दुःखमां पडता जीवो संसारने विषे वायुए उराडेला खाखराना पांदमानी पेठे क्लेश पामे बे. हा ! संसारथी उद्वेग पामेलो एवो पण प्राणी, या लोकमां ने परलोकमां कल्पवृक्षनी पेठे सुख श्रापनारा जिनेश्वर प्रजुना उपदेशने सांजलतो नथी. माटे हे राजन् ! श्र दुर्व्वम एवा मनुष्य जवने पामीने तुं वृथा खेद न कर. वली तुं निश्चय थोमा वखतमां पृष्ट सुख पामीश. " मुनिराजनां वां वचन सांजली तुरत दर्ष पामेलो राजा विश्रांति माटे ते रात्री त्यांज रह्यो पछी पाडली रात्रीए स्वप्न जोश्ने जागी उठेलो राजा गुरुपासे जश्ने कदेवा लाग्यो के, " हे प्रजो ! काचा एक फलवाली वेल कल्पवृक्ष उपरथी पमी गइ अने पूर्ण फलवाली ते वेल फरी तेज कल्पवृक्ष उपर चडी गइ; एवं में आजे खप्न दीव्रं.” गुरुए कयुं. "हे राजेंद्र ! तुं कल्पवृक्ष बेने त्हारी प्रिया वेलरूप बे. पुत्रने जन्म श्रापनारी ते हारी प्रिया फरी तने प्राप्त यशे. " पी प्रसन्न थयेला राजाए तुरत पोताना नगरप्रत्ये श्रावीने पायदल ने खारोसहित दत्तशेठने पोतानी प्रियाने शोधी लाववानो हुकम को. दत्तशेठ पण चारेतरफ नजर राखी वनेवन ने वृदेवृक्ष प्रत्ये शोध करतो हतो एवामां तेणे समुद्रमां रहेलो माणस जेम बेट देखे Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ शीलोपदेशमाला. तेम तापसना आश्रमने दीगे. पनी तेणे त्यां जर तापसने पूज्युं के, "हे जगवन् ! तमे था वनमां को पुःखी एवी एक स्त्रीने दीठी जे?" तापसे कयु. “ हे ना! त्हारे तेनुं शुं प्रयोजन ?” दत्तशेठे उत्तर थाप्यो के, “म्हारे अग्निमां बली मरता एवा शंखराजाना प्राणते स्त्रीथी रक्षण करवू ." पड़ी तापसे “ राजानी सहाय्यथी मुनिर्जना श्राश्रममुं रक्षण थाय .” एम धारीने दत्तशेठने पुत्रसहित कलावती देखाडी. जागता शोकवाली कलावती पण दूरथी दत्तशेग्ने जोश्ने श्राकाशने पूरी देनारा एवा म्होटा शब्दे रोवा लागी. दत्तशेठे कयु. “ ब्देन ! तुं रोश्श नहीं; कारण तने श्रा पूर्वजवनुं फल प्राप्त थयु हतुं. जिनेश्वरो पण पूर्वजवने विषे करेला कर्मने जोगव्याविना मूका शकता नथी. माटे हे विवेकवाली ! हवे तुं धीरज राखी रथ उपर बेश अने त्हारा पोताना दर्शनरूप अमृतदृष्टिथी ऊट राजाने शांत कर. वली पस्तावो करता एवा शंखराजा तुरत श्रमिमां प्रवेश करवा तैयार थया हता; परंतु त्हारी आशाथी फक्त आजनो दिवस रोकी राख्या ." पली कुलीन एवी कलावती मान त्यजी दर पोताना पति उपर दया श्राववाथी कुलपतिनी रजा लश् त्यांथी चाली निकली. कलावतीनुं हित श्वनारा कुलपतिए पण थाशिष आपीने तेने रजा श्रापी. पड़ी पुत्रसहित कलावतीए दत्तशेग्नी साथे प्रयाण कखं. शंखराजाए पोताना नगर पासे कलावतीने श्रावी सांजली श्रांखोमां श्रांसुने वरसावतो तो तेना सामो जश्ने था प्रमाणे कहेवा लाग्यो. हे जले ! तुं निर्दोष बतां में तने विटंबना पमाडी . हे देवि ! में तने वनमां त्यजी दीधी ए म्हारा उराचरणने माफ कर.” या प्रमाणे कहेता एवा शंख राजाए अत्यंत प्रसन्न थश्ने महोत्सवपूर्वक पोतानी प्रियाने नगरमा प्रवेश कराव्यो. नगरवासी लोको अने अंतः पुरनी स्त्रीउथी घेरायली कलावती जयंत पुत्रसहित इंसाणीनी पेठे पुत्रसहित अंतःपुरमा श्रावी. पडी राजाए स्वप्नना अनुसारथी बारमे दिवसे पुत्रनुं पूर्णकलश एवं नाम पाड्युं. - एक दिवस एकांतमां बेठेली कलावतीए शंखराजाने कर्वा के, " हे खामिन् ! तमे कया दोषयी मने एवो दंड थाप्यो हतो?” राजाए खजाथी Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ कलावतीनी कथा. कडं. “ हे न ! तुं बीजना चंनी पेठे हमेशा निर्दोष बुं; परंतु तें पूर्वनवने विषे आचरेला कर्मना वश्यथी में ए अयोग्य कार्य आचखें हतुं श्रने तेनुं मूल कारण तो एज हतुं के, तें जयसेननुं नाम लीधा विना बाजु थापनारनां वखाण कस्यां हतां. वली दवणां श्रापणा नगरना उद्यानने विषे महा तेजवंत मुनि श्रावेला बे, तेमने पूबीने पूर्वकर्म जाणीए." श्रा प्रमाणे कहीने पढ़ी शंखराजा कलावतीने साये लश् मुनिने वंदना करवा माटे उद्यानमां गयो. त्यां प्रथम जिनमंदिरने विषे जश प्रजुनु पूजन करीने पढी वंदना करीने मुनिनी पागल बेगे. देशनाने अंते शंखराजाए मुनिने नमस्कार करीने पूब्युं के, “ हे जगवन् ! श्रा कलावतीए पूर्वनवने विषे एवं शुं काम कयुं हतुं के, ते निर्दोष बता में तेना हाथ कपावी नाख्या ? ” पनी मुनिए ज्ञानदृष्टिथी तेनो पूर्वजव जाणीने कडं. हे राजन् ! विदेह देशमां महेंज नामर्नु नगर ले. त्यां महा पराक्रमी एवो नरविक्रम नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने लीलावती नामे स्त्री हती. तेउँने सुलोचना नामनी पुत्री हती. ते पुत्री बाल्यावस्थाथीज धर्ममा रसीक अने कौतुकमां प्रीतिवाली हती. कलानी जाण एवी ते पुत्री मातापिताने प्रेमनुं पात्र हती. अनुक्रमे ते पुत्री बालयुवावस्था पामी. एक दिवस ते राजकुमारी राजसजामा पोताना पिताना खोलामां बेठी दती एवामां कोए एक मनोहर रोजपोपट राजाने नेट आप्यो. पड़ी आश्चर्यवंत एवा राजाए ते पोपटने बोलाव्यो एटले ते पोपटे पोतानो जमणो पग उंचो करी राजाने या प्रमाणे थाशिर्वाद थाप्यो. " हे राजन् ! स्फुरणायमान एवा अंधकारनो शत्रु थने राजतेजने वृद्धि करनारो तमारो प्रतापरूप सूर्य विश्वने प्रकाश करतो तो शोने ." पोपटनो श्रावो थाशिर्वाद सांजली प्रसन्न थयेला राजाए पोपट नेट थापनारने पोताना शरीरनां श्रानूषणो श्रापीने ते राजपोपट पोतानी पुत्रीने श्राप्यो. पड़ी मदोन्मत्त नेत्रवाली राजपुत्री सुलोचनाए पण जेम दरिडी माणसनो बोकरो लाडवो मलवाथी हर्ष पामे तेम वर्ष पामती बती तत्काल अंतःपुरने विषे जश् पोपटने सोनाना पांजरामा राख्यो अने साकरना ककडा, चोखा, दाडम अने जाखना रस विगेरेथी तेनुं Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ शीलोपदेशमाला. पोषण करवा लागी. राजकुमारी सुलोचना कोइ वखत तेने हाथ उपर बेसारीने कोइ वखत बाती उपर बेसारीने कोइ वखत खोलामा बेसारीने ने कोइ वखत पांजरामां राखीने जणावती बती क्रीडा करावती हती. जेम योगी पुरुष पोताना मननुं एकाग्रपणुं त्यजी दे नहीं तेम सुलोचना पण जोजन वखते, सूवा वखते, राजसज्जामां जती वखते, वादनमां बेसीने व्हार जती वखते धने उद्यानमां जती वखते ते पोपटने पोताथी जूदो राखती नहीं. एक दिवस ते राजपुत्री पोपटने साथै लइ अनेक दासी सहित उद्यानने विषे गई. त्यां ते श्रीमंधर स्वामीनी प्रतिमाने वंदना करवामाटे जिनमंदिरमां गई. पोपट पण जिनेश्वरनी प्रतिमाने जोइ पोताना मनमां विचार करवा लाग्यो के, “ में पूर्वे श्रावुं प्रतिबिंब कोई ठेकाणे जोयुं बे." या प्रमाणे बहु वखत ऊहापोह करता तेने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न युं; तेथी ते विचार करवा लाग्यो के, “ में पूर्वजन्मने विषे सुगतिना कारणरूप चारित्र लीधुं दतुं क्षयोपशमयी सर्व शास्त्रानो - न्यास कस्यो हतो, परंतु अभ्यास करवामां तत्पर एवा में साधुनी क्रिया करी होती, जेथी वस्त्रपात्र विगेरेमां मूर्छावंत एवो हुं परोपकार करवारूप कार्यने वृथा हारी गयो पढी ते व्रतने फोगट विराधी हुं श्रा वनने विषे मृत्यु पामीने राजपोपट थयो बुं. पूर्वजवने विषेज बहु शास्वाभ्यासना बली हुं तिर्यंच जवने विषे पण जणवामां कुशल थयो. हवे ज्ञानदिपक हाथमां प्राप्त थये बते चारित्रयी ऋष्ट घयेलो हुं श्रा तिथंच जन्मरूप समुद्रने विषे शामाटे पडी रहुं ? हवे पढी हुं या प्रभुने वंदना करीने हंमेशा जोजन करीश. " या प्रमाणे नियम लइ राजपोपट सुलोचनानी साथे अंतःपुरमां श्राव्यो. एक दिवस राजकन्या सुलोचना जेटलामां पोपटने दाथमां लइ जोजन करवा बेसे a तेलामां पोपटने पोतानो नियम सांजस्यो; तेथी ते 'नमो अरिहंताणं' एवो शब्द करी आकाशमार्गे उडीने उद्यानमां तीतिने नमस्कार करवामाटे श्राव्यो. त्यां ते त्रिवर्गनी शुद्धिश्री श्रीसीमंधर प्रभुने वा प्रमाणे नमस्कार करीने प्रसन्न य उद्यानमां फल फूल विगेरेने खावा लाग्यो. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलावतीनी कथा. ३०७ हवे अहिं पोपट उडी जवाथी राजकन्या सुलोचना आक्रोश करवा लागी; तेथी केटलाक सुजटो पोपटने पकडवामाटे गारुडीनी पेठे श्रामतेम दोडवा लाग्या. को सुनटे उद्यानमां जश् त्यां वृदनी डाल उपर बेवेला पोपटने पासथी बांधीने तुरत राजकन्याने सोंप्यो. पनी राजकन्या प्रेमयी तेने हाथमा खश मधुर वचनथी कहेवा लागी के, “अरे! मातानी तुल्य एवी मने त्यजी दश्ने तुं नाशी गयो हतो ? हवे हुँ त्हा. रो विश्वास करीश नहीं.” एम कहीने राजकन्याए ते उडी न शके एटलामाटे तेनी बे पाखोने तुरत तोडी नाखी. पढ़ी जाणे महा जयंकर कर्मवाला जीवने अपार एवा संसार समुजमां फेंकी देती होय नहिं शुं ? एम तेणे पोपटने पांजरामां घाल्यो. पोपट पण विचार करवा लाग्यो के, “ म्हारी पराधीनपणानी वेदनाने धिक्कार डे के, जे में ते पूर्वनवने विषे खाधिन एवी पण क्रिया करी नहीं. अरे जीव ! माटे तुं था वखते था गाढ एवी वेदना जोगव. वली पापकर्मवाला तने जिनेश्वरना मुखनुं दर्शन क्याथी होय ?" इत्यादि चिंताना संतापश्री व्याप्त थयेलो अने वैराग्यवासीत थएलो ते पोपट जाणे कर्मना पासने मूकतो होय नहीं शुं ? एम सुने वरसाववा लाग्यो. पडी ते राजपोपट श्रनशनथी केटलेक दिवसे मृत्यु पामीने सौधर्म देवलोकने विषे देवता थयो. राजकन्या सुलोचना पण पोपटना वियोगना पुःखथी अनशनवडे मृत्यु पामी सौधर्म देवलोकने विषे तेनीज स्त्री थर. त्यां ते बन्ने जणां सुख जोगववा लाग्यां. (ज्ञानि मुनिराज शंखराजाने अने कलावतीने कदे ने के,) हे राजन् ! पढी सौधर्म देवलोकश्री चवीने पोपटनो जीव तुं शंखराजा थयो श्रने सुलोचनानो जीव था कलावती थ जे. पूर्वजवने विषे कलावतीए पोपटनी पांखो कापी नाखी हती; ते कर्मना फखरूप तें तेना बन्ने हाथ काप्या बे. सारा अथवा खोटा सघला कर्मर्नु फलदश प्रकारे अथवा बहु प्रकारे लोगवाय . मुनिराजनां श्रावां वचन सांजली जातिस्मरण ज्ञान पामेला ते शंखराजा श्रने कलावती संयम लेवामा उद्यमवंत थर मुनिने नमस्कार करी पोताने घेर श्राव्या. पनी पूर्ण कलश नामना पोताना पुत्रने राज्या Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० शीलोपदेशमाला. सन उपर बेसारी ते स्त्रीपुरुषे झानि गुरु पासे दीक्षा लीधी. अनुक्रमे ते स्त्री पुरुष बहुकाल सुधी निरतिचार एवं चारित्र पाली स्वर्गने पामी अने त्यांची चवीने पनी कुकर्मने खपावी मोक्ष पामशे. इति कलावतीनी कथा समाप्ता. महर्षिउने पण गृहस्थाश्रममा रहेखि कोश् महासतीतुं स्तुति करवा योग्य शीलनुं माहात्म्य कहेजे. शीलवतीनंदयंतीमनोरमारोहिणीप्रमुख्याणां सीलवश्नंदयंतीमणोरमारोहिणीपमुकाणं ॥ शषिणोऽपि सदाकालं महासतीनां स्तुवंति गुणान् रिसिंगोवि सयाकोलं, महासईणं थुति गुणे ॥५॥ शब्दार्थ-(सीलवर के० ) शीलवती (नंदयंती के०) नंदवती (मपोरमा के०) मनोरमा थने (रोहिणी पमुकाणं के०) रोहिणी प्रमुख (महासणं के०) मयासतीउँना (गुणे के०) गुणोने (रिसिणोवि केआ) कषि पण (सयाकालं के०) सदा काल (थुणंती के०)स्तवे . ॥५६॥ विशेषार्थ- जिनदत्त शेउनी पुत्री शीलवती, नागदत्त शेउनी पुत्री नंदयंती, सुदर्शन शेग्नी स्त्री मनोरमा भने धनावह शेग्नी स्त्री रोहिणी विगेरे शीलवतने धारण करनारी महा सती था जगत्मां जयवंती वत्तॊ. के, जे महासतीउना गुणोने जन्मथी मांडीने शीलवत धारण करनारा झषि पण निरंतर स्तुति करे . ॥ ५६ ॥ शीलवतीनी कथा .. जंबूछीपना मुकुटमणि रूप नंदनवन नामर्नु नगर जे. जे नगरनी स्फटिक मणिमय हवेलीना अग्रजागनी उबलती कांतिना समूहथी हसायलो होय नहिं शुं? एवो चं आकाशने विषे वय पामतो जाय . ते नगरमां जेनो यशरूप चं उत्तम कांतिवालो बतो विश्वरूप मंडपमा शोजतो हतो एवो अरिमर्दन नामनो राजा राज्य करतो हतो. ते राजाने उत्तम आचारवालो रत्नाकर नामनो मान्यवंत शेठ हतो. ते शेग्ने उत्तम गुणवाली श्री नामनी स्त्री हती. तेजे बन्ने जणा उत्तम प्र Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलवतीनी कथा. ३०ए कारे श्रावक धर्म पालता बता उत्तर अवस्थामा श्रावी पहोच्या तो पण तेमने सुखना कारणरूप पुत्र विगेरे कांश पण संतान थयुं नहीं. एक दिवस पुत्र नहिं होवाथी महाकुःख पामती एवी श्रीए रत्नाकर शेठने कह्यु के, “ हे स्वामिन् ! श्रापणा नगरना उपवनने विषे श्रजितनाथ प्रजुना मंदिरनी पासे प्रगट महाप्रजाववाली अजितबला नामनी देवी . ते देवीनी सेवा नक्ति करनार जो पोते निर्धन होय तो धन, थपुत्र होय तो पुत्र श्रने नाग्यरहित होय तो सारु लाग्य पामे ; माटे हे आर्यपुत्र ! तमे ते देवीनी मानता करवा योग्य . कारण के, माणसो पुत्रने अर्थे पोताना प्राणनी पण नेट श्रापे .” पड़ी रत्नाकर शेठे ते देवीनी मानता राखी; जेथी तेमने एक उत्तम पुत्र थयो. कडं बे के-श्रारंजेली क्रिया नाग्ययोगथी अवसरे फलीनूत थाय . पड़ी जन्मोत्सव करीने रत्नाकर शेठे बारमे दिवसे देवीना महात्म्यने सूचवनारू पुत्रनुं अजितसेन नाम पाड्युं. अनुक्रमे बाल्यावस्थाने उबंधी युवावस्थाने प्राप्त थयेला ते अजितसेन कुमारनो सरस्वती अने लक्ष्मी ए बन्ने देवीए हरिफाश्थी एक वखते आश्रय कस्यो. पड़ी जेम विधान माणस शास्त्रार्थना संदेहने विषे विचार करे तेम रत्नाकर शेठ पुत्रने अर्थे योग्य कन्यानो विचार करवा लाग्यो के, “ जो श्रा म्हारो पुत्र पोताना गुणने तुल्य एवी कन्याने नहिं पामे तो ब्रह्मानो विश्वरचवानो श्रम निष्फल जाणवो. कडं डे के-" अविवेकी धणी, परवशपएं, उष्ट चाकर श्रने उष्ट एवी स्त्री ए चार माणसो मननां शल्य बे.” रत्नाकर शेठ था प्रमाणे विचार करतो हतो, एवामां तेणे प्रथम परदेश मोकलेलो कोश वणिक पुत्र श्रावीने तेनी पासे बेगे. शेठे तेने व्यवहारनुं स्वरूप पूब्युं एटले तेणे लाल अने खरच विगेरेना सर्व समाचार कह्या. वली तेणे कयुं के, “ हुँ मंगला नामनी नगरीने विषे गयो हतो. त्या म्हारे जिनदत्त शेठनी साथे वेपार थयो हतो. एक दिवस ते शेठना आग्रहथी हुँ तेने घेर जमवा गयो हतो, त्यां में तेना घरने विषे स्वर्गथी चवेली को देवांगना सरखी एक उत्तम कन्याने दी. ती. पडी श्राश्चर्य पामेला में ते शेग्ने पूज्युं के, " तमारा घरने विषे श्रा कन्या कोण ?" जिनदत्त शेठे उत्तर प्राप्यो के, “प्रत्यक्ष चिंताना Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० शीलोपदेशमाला. सरखी ए म्हारी पुत्री बे. चिंतानुं कारण ए के, ते योग्य वरने पामशे ? तेनुं इति यशे ? वली ते पोताना सासु ससरादि स्वजनोने पोताना गुपोथी हर्षित करशे ? ते उत्तम प्रकारे शील पालशे ? पुत्रने जन्म श्रापशे ? वली एने बीजी शोक्य न थार्ड ने देराणी जेठाणी विगेरेमां कलेश न था. एव पिताना मनमां हमेशां चिंता रह्या करे बे. या म्हारी पुत्री गुणरूप मणिनो साक्षात् रोहणाचल पर्वत बे. वली ते पक्षीर्जना शब्द जा वा सुधीनुं ज्ञान धरावे छे. या म्हारी शीलवती नामनी पुत्री रूप, कला ने गुणोए करीने प्रसिद्ध बे; माटे तेना योग्य वरनी चिंता म्हारामनने दुःख उपजावे बे. " तेनां श्रावां वचन सांजली में कयुं के, " तमे चिंता न करो; कारणके, नंदनपुरने विषे रत्नाकर शेठनो पुत्र जितकुमार तेनो योग्य वर बे पढी जिनदत्त शेठे कयुं " हे ज5 ! तें बहु सारुं कर्तुं ! बहु सारं कयुं ! ! कारण पुत्रीना योग्य वरनी चिंतारूप समुद्रमां बूडेला एवा म्हारो तें उद्धार कस्यो बे, " आ प्रमा कही पीते जिनदत्त शेठे पोतानी पुत्रीनो संबंध अजितसेन कुमारनी साथे करवा माटे पोताना जिनशेखर नामना पुत्रने म्हारी साथे मोकल्यो बे. बुझिनो समुद्र ते जिनशेखर पण म्हारी साथै श्रहिं श्रावेलो बे; माटे हे शेव ! ते कार्य करवानी मने श्राज्ञा श्रापो. " रत्नाकर शेठें कयुं. "दे महाभाग !! तें या म्हारो बहु सारो उपकार करयो बे. मने सर्व लाजथी या म्होटो लाज थयो बे. " पढी सत्कार सहित बोलावेला जिनदत्त शेठना पुत्र जिनशेखरे पोतानी न्हानी व्हेन शीलतीनो संबंध जितसेन कुमारनी साथे कस्यो. अजितसेन पण म्होटा आडंबरथी जिनशेखरनी साथे मंगलावती नगरी प्रत्ये गयो; त्यां ते म्होटी समृद्धिची शीलवतीने परणी पोताना नंदनपुरे श्रव्यो. त्यां तेणे पोतानी गृहलक्ष्मी सरखी तेमज पोताना गोत्रने विषे अमृतना कुंड सरखी शीलवतीनी साथे त्रिवर्ग ( धर्म, अर्थ छाने काम ) ना साररूप गृहस्थाश्रमने बहु वर्ष सुधी जोगव्यो. एक दिवस मध्यरात्रीने वखते सती शीलवती शीयालनो शब्द सांलीने माथे घडो लइ क्याहीं बहार गए. आ वखते जुवान स्त्रीए त्यजी दीघेला वृद्ध पुरुषनी पेठे निद्राए त्यजी दीधेलो शीलवतीनो ससरो Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलवतीनी कथा. ३११ रत्नाकर शेठ जागतो होवाथी तेणे महासती शीलवतीने व्हार जती दीती; तेथी ते विचाररूप समुउने विषे बढ्यो बतो चिंतवन करवा लाग्यो के, “ श्रावा लक्षणथी श्रावद कुशीला देखाय . सारा गोत्रमा उत्पन्न थएली तेमज गाढ रसना कबोलथी भरपूर उतां पण स्त्री घणुं करीने नदीनी पेठे नीची गतिने पामनारी दोय . सोनाथी रसेली बरीनी पेठे खार्थमां तत्पर एवी था सर्व स्त्री फक्त उपरथी मनोहर देखाय बे; परंतु अंदरथी बहु दारुण होय .” रत्नाकर शेठ श्रा प्रमाणे विचार करतो हतो एवामां शीलवती पोतार्नु उत्तम कार्य करी थने घडो ठेकाणे मूकी पोतानी शय्यामां सूक्ष गश्. जेम पाणीमां तुंबडं उबले तेम जेना हृदयमां अनेक तरंगो उठली रह्या हता एवो रत्नाकर शेठ थोडी रात बाकी रही ते वखते उत्साह सहित उठीने पोतानी स्त्रीने पूबवा लाग्यो के, " हे वृके ! तने शीलगुणे करीने वहु केवी लागे जे ?” स्त्रीए उत्तर प्राप्यो के, “वहु पोतानी मर्यादाने योग्य चाले ." रत्नाकर शेठे कडं. “ वहु पोतार्नु मुख वस्त्रथी ढांकीने चाले बे; तेथी तुं वहुनी चालने जाणती नथी. में तेने श्राज अधि रात्रीए एकली क्रीडा करवा जती जोश . बीजा सघला पूरावा करतां श्रा में खरेखरो पूरावो दीगे बे; माटे तुं चंजना शरीरनी पेठे था वहुने कलंकवाली जाण.” । था वखते प्रजात थवाथी अजितसेन पण पोतानां माता पिताने वंदन करवा माटे त्यां श्राव्यो. तेने पण रत्नाकर शेठे खेदसहित कयु के, “ हे वत्स ! हुं हुं कहुँ ? परंतु आपणा श्रांगणामां रोपायली पारीजीतक वेलने विधाता सहन करी शक्यो नथी. कारणके, जे तेवा उत्तम वंशने विषे उत्पन्न थयेली तथा श्रेष्ठ गुणवालानो समागम बता पण था वहु चपलपणाने धारण करे .” पड़ी लजासहित अजितसेने कडं के, “जो जिनधर्मने प्रीतिवाली था स्त्री पुष्ट चरित्रवाली ने तो पली सर्व गुणो हणायला जाणवा.” रत्नाकर शेठे कडं. “ हे पुत्र ! श्रापणा कुलमां हूं था वहुने करपवेल समान जाणतो हतो; परंतु हवणां ते विषनी वेल समान देखाय जे. कडं ले के को नाम स्त्रीषु विश्वासः, श्वासस्येव शरीरिणः। ... खार्थेकवशतः शीलं, यासां विद्युखतायते ॥ . Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ शीलोपदेशमाला. अर्थ- प्राणीना जीवीतनी पेठे स्त्रीउने विषे विश्वास शो ? कारण के, स्वार्थना वशपणाथी जे स्त्रीउनुं शील विजलीनी पेठे तुरत अदृश्य इ जाय बे. वली पण कयुं वे के, न बध्यंते गुणैः पत्युर्न लक्ष्यंते परीक्षकैः । धनेन न च धार्यते शीलत्यागोद्यताः स्त्रियः ॥ अर्थ- शीलनो त्याग करवामां उद्यमवंत थयेली स्त्री श्री बंधाती नथी, परीक्षकोथी जाणी शकाती नयी अने शकाती नथी. पतिना गुणोधनथी राखी हे पुत्र ! त्हारी स्त्री अधि रात्रीए पाणी लाववाना मीषधी क्यांइ गइ दती ने हुं जागतो हतो एटलामां एक पहोरे पाटी यावी हती. शाखमां संजलाय वे थाने लोकमां कड़ेवाय बे के, “कामथी विद्दल बनेली स्त्री पोताना पुराचरणने प्रगट करे बे. हे वत्स ! या पुराचरणवाली स्त्री त्याग करवा योग्य बे. एम जाण. " पढी माता पितानी श्राज्ञामां तत्पर एवो जितसेन पितानी श्राज्ञाने कबुल करी व्हार गयो. पढी सवारे रत्नाकर शेठे कपटथी शीलवतीने कां के, “ढे वत्से ! तने मलवाने उत्साहवंत एवा द्वारा पिताए तने बोलावी बे. " शीलवती पण चातुर्यपणाथी रात्रीनो वृत्तांत नाणीने पिताने घेर जवामाटे तैयार इ. कंबे के- जातिवंत सोनुं परीक्षामां शुं कंपे खरुं ? पछी शेव रथ तैयार करी शुकन जोवा विगेरे मंगल आचार करीने शीलवती सहित चाल्यो. रस्तामां नदी श्रावी एटले शेठें शीलवतीने कयुं के, " हे पुत्री ! पगमांथी जोडा काढी नाखीने पाणीमां चालजे. " शीaadi पण कis विचार करीने जोडा पड़ेरीने पाणी मां चाली तेथी रarer शेठ तेने प्रथमथी दुराचरणवाली मानतो हतो तेथी वधारे 5विनीत मानवा लाग्यो. यागल जता शेठे रस्तामां एक मगनुं खेतर फलेलं जोइ कयुं के, “ अहो ! श्रा खेतरना घणीना दाथमां हवे धान्यनी संपत्ति श्रावी गइ बे. " शीलवतीए कयुं. " हा ते एम बे; पण जो खेतरना धणीना हाथमां धान्य संपत्ति श्राव्या पडेलां कोश्थी न खवाइ जाय तो.” सीलवतीनां श्रावां वचनथी शेठ विचार करवा लाग्यो के, " निश्चय ए वहु श्रविचाखुं बोलनारी बे. " एम धारी तेणे र 66 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलवतीनीकथा.. ३१३ थने श्रागल चलाव्यो. रस्तामा समृद्धिथी जरपूर अने बहु माणसोवाढुं नगर आव्यु. तेने जोर शेठ पोतानुं मायूं धूणावतो तो ते नगरने वखाणवा लाग्यो एटले शीलवतीए कांश विचार करीने कयु के, “था नगर कांश सारं नथी.” शेठ विचारवा लाग्यो के, "अहो !! कुटिल बुद्धिवाली था वहु मने पण हसती लागे बे.” श्रागल जतां को एक सुजटने शत्रुर्जना प्रहारथी जर्जरित थयलो देखी शेठ तेना शूरवीरपणाना वखाण करवा लाग्यो. पठी ते सुजटने जोश जेम चैत्र मासमां कोयल बोले तेम शीलवती बोली के, " पामर पुरुषोए था कायर माणसने सारो कुटी नाख्यो लागे .” शीलवतीनां आवां वचन सांजली शेठ विचार करवा लाग्यो के, “श्रा कुराचारिणी वहु म्हारा केवाथी उलटुं बोले . वली प्रत्यक्ष जोया बता पण ते गांमानी पेठे श्रवकुंज कहे ." था प्रमाणे विचार करतो अने वहुने त्याग करवाश्री मनमां हर्ष पामतो रत्नाकर शेव रस्तामां को वडना फाडनी नींचे बेगे. शीलवती पण वडने त्यजी द तडकामां ऊंचे बुंगडं बांधी तेनी नीचे बेठी. पड़ी जिनदत्त शेठे वहुने कडं के, “हे ! जिनदत्तपुत्री ! तुं था बगपामां बेस.” शेठे था प्रमाणे कां तो पण शीलवतीए न सांजदयु होय नहिं शुं ? एम ते त्यांज बेसी रही; तेथी शेठ मनमां विचार करवा लाग्यो के, "अहो ! आ स्त्री कुशिष्यनी पेठे शिखामण आपवा योग्य नथी." श्राम धारी ते शेठ पोते सुखे बायाने विषे बेसी रह्यो. पड़ी श्रागल जतां शेठे को स्थानमांत्रण चार फुपडी जोश्ने ते गामने तुब गण्डे एटले उत्तम बुद्धिवाली शीलवतीए कांश विचार करीने म्होटा शब्दथी कयु के, “श्रा गाम माणसोथी नरपूर .” पली शेठ " श्रा वहु पुर्विनीत अश्वनी पेठे अवढं बोलनारी ." एम खेद पामतो तो विचार करे ने एटलामां ते गाममांथी शीलवतीनो मामो त्यां श्राव्यो अने ते रत्नाकर शेग्ने अने शीलवतीने आग्रह करी गाममां तेडी गयो. त्यां तेणे शेग्ने उत्तम रसोश जमाडी. शीलवतीना मामाए शेठने ते दिवस राखवा मांड्या; परंतु शीलवतीने तेना माबापने सोपवामां उत्साहवंत एवा रत्नाकर शेठे त्यां न रहेता जवाने माटे तैयारी करवामांडी. पली शीलवतीना मामाए वस्त्र विगेरेथी सत्कार करेला रत्नाकर Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ शीलोपदेशमाला. शेरो वहुसहित त्यांथी प्रयाण क. श्रागल जता कोश् वनने विषे वृक्षनी बायामां रथने बोडी शेठ रथ उपर बेसी नाथु खाइ विशामो खावा माटे सूझ गया. सारा श्राचारवाली शीलवती पण पोताना पितानुं घर पासे आव्यु जाणी हर्ष पामती ती नाथु खावा लागी. श्रा वखते पासेना केरडाना फाडनी उपर बेसीने को कागडो बोलवा लाग्यो. पक्षीउनी नाषा जाणवामां कुशल एवी शीलवती कागडानी नाषाने समजीने तेने कहेवा लागी के, “ हे काग! तुं शा माटे श्रा, कठोर बोले बे?" शीलवतीना आटला शब्द सांजली जागी उठेलो शेठ सूतो सूतो मनमां विचार करवा लाग्यो के, "अहो ! था वाचाल पुराचारिणी वहु पक्षीउनी साथे पण वातो करती लागे ." भावी रीते विचार करी शेठ कपट निसाथी सूतो सूतो वहुनी चेष्टा जोवा लाग्यो. करंबकने जो उत्साहवंत थएला कागडाने जाणी शीलवतीए अवसर जोश्ने कयु. “अरे काग! प्रथम शीयालना कहेवा प्रमाणे करवाथी हुँ पुराचारिणीनो अपवाद पामीने पतिनो वियोग पामी बुं श्रने हवणां त्हारा कहेवा प्रमाणे करूं तो पितानो मेलाप थवानो पण शंसय थर पडे.” पली जागता एवा शेठे या अभिप्रायवालुं वचन सांजलीने शीलवतीने पूज्युं के, “हे वत्से ! तुं पुर्विनीतपणुं केम कहे जे ?" शीलवतीए कयु. “ हे सासरा ! हुं साचुं कहुं बुं; कारण के, सर्व प्रकारे म्हारा गुणो चंदननी पेठे दोषने अर्थे थया ले. कर्वा के- पुष्पोनो समूह वृक्षनी डालोना जंगने अर्थे थाय जे अने सरल गतिवाला मोरने पीठानो नार वधने अर्थे थाय . वली सारी चालवालो अश्व बबदनी पेठे वारंवार रथमा जोडाय बे; माटे गुणवान् माणसने विषे गुणो निश्चय वैरी सरखा बे. हुं बाल्यावस्थामां म्हारा नाश्ना आग्रहथी सर्व शास्त्र नणीतुं, एटझुंज नहिं पण पदीउनी नाषा समजी शकवानुं शास्त्र पण जणी बु.” शीलवतीनां आवां वचन सांजली जेम सर्पथी दंश करायलो माएस गारुडीनां वचन सांजली तेनी पासे दोडी श्रावे तेम रनाकर शेठ फट रथमांथी नीचे उतरी ऊट शीलवतीदी पासे श्राव्यो. शीलवतीए कडं के, " ते दिवसे निर्लाग्य एवी हुँ मध्यरात्रीए तमारा जागता बता शीयालनो शब्द सांजलीने घडो लश् नदीए गश्. त्यां घ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलवतीनी कथा. ३१५ डाना आधारथी मध्य नदीमां जश्ने पाणीना पूरमां तणाता श्रावता मडदाने खेंचीने कांठे श्रावी. ते मडदानी केडे अमूख्य घरेणां श्रने सोना. म्होरो बांधी हती, ते लश्ने में मडई शीयाल बागल फेंकी दीधुं. ते घरेणां में तेमनां तेमज पृथ्वीमा डाटी राखेला बे. श्रा पुराचरणथी हुँ पतिनो वियोग पामीने थाटली नूमि श्रावी बु. वली अत्यारे श्रा कागडो करंबकने मागतो तो मने कहे जे के-श्रा केरडाना नोथानी नीचे दश लाख सोना म्होरो . आटलामाटेज हुँ कागडाने कडं बु के-“हे काग ! तुं श्रावं अपवित्र वचन वारंवार न बोल; कारण खारा खेतरमां धान्य वाववाथी शुं ?" __पनी संचमथी पोताना बन्ने कानने कंपावता एवा रत्नाकरशेठे पूब्यु के, “ हे वत्से ! तुं शुं आ साचुं कहे ?” शीलावतीए उत्तर श्राप्यो के, “एमां संशय शो ? " पठी पोते वृक्ष बता पण जुवान माणसनी पेठे केम बांधी, हाथमां कोदालो लश् अने खजननी पेठे कागमाने करंबक अपावी केरडानी नीचे खोदवा लाग्यो एटले जाणे शीलवतीना गुणो होय नहिं शुं ? एम लाख लाख सोनाम्होरथी जरेला दश घडा निकल्या. पनी रत्नाकरशेठ विचार करवा लाग्यो के, “अहो! था वहु म्हारा घरने विषे मूर्तिवंत लक्ष्मी पोतेज . थाज सुधी में काचनी ब्रांतिथी मरकतमणिनी अवगणना करी.” श्रावी रीते विचार करता एवा शेठे सोनाम्होरोना घडाने फट रथमां मूकी पोताना अपराधनी वहु पासे क्षमा मागी. वली वहुनां वखाण करतो एवो ते जेम को सुजट रणसंग्राममां विजय करी पाडो वले तेम पाडो घर तरफ वल्यो ते वखते शीलवतीए कह्यु. “ हे तात ! अहिंथी म्हारा पितानुं घर पासे डे, माटे तेमने मलवानो था योग्य अवसर जे." रत्नाकरशेठे कडं. “ हे वत्से ! तुं श्राग्रह न कर अने अमारा कुलने उज्वल कर. वली फट रथ उपर बेस अने अमारा मनोरथने पूर्ण कर." पड़ी शीलवती सासराना दाक्षिण्यपणाथी रथ उपर बेठी एटले हर्षित मनवाला शेठे रथने वेगथी घर तरफ चलाव्यो. हवे रत्नाकर शेठ शीलवतीए कहेला सर्व वचनने कारण सहित मानतो बतो ज्यां शीलवतीनो मामो रहेतो हतो ते गामनी पासे श्रावीने Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ शीलोपदेशमाला. मधुर वचनथी शीलवतीने कहेवा लाग्यो के, " हे वत्से ! हुँ त्हारा वचनने हेतु विनानुं मानतो नथी; तो तें आ उजम गामने माणसोथी जरपूर शामाटे कयु ?” शीलवतीए कडं. “ हे तात! श्राज स्थान प्रसिद्ध . म्होटागामथी शुं ? कारण के ज्यां को पण पोतानो माणस रहेतो होय ते गाम शून्य होय तो पण सुंदर जाणवू. जुजे के, तमने श्रहिं श्रावेला सांजली म्हारो मामो पोताने घेर तेडी गयो अने त्यां तेमणे तमारो सत्कार कस्यो; माटे थापणे तो था गाम माणसोथी जरपूर जाणवू." पडी रत्नाकर शेठ वहुनां वचनने चाणक्यनां वचननी पेठे सेंकडो हेतुवाला मानवा लाग्यो तेमज तेना चरित्रने पण अभिप्रायवालां मानवा लाग्यो. अनुक्रमे चालता प्रथमनो वम श्राव्यो के, जेनी नीचे शेठे विशामो लीधो हतो. वडने जोश शेठे वहुने पूज्यु के, “ हे वत्से ! तें ते वखते था वडनी गयानो शामाटे त्याग कस्यो हतो?" शीलवतीए कयु. “ हे शेठ ! तमे प्रथम को वखते एवं नयी सांजव्युं के, वडना वृद उपर बेठेलो कागमो स्त्रीना माथा उपर विष्टा करे तो ते स्त्रीनो पति उ मासनी अंदर मृत्यु पामे ? वली वृदना मूलमां सर्प विगेरेनी उत्पत्ति श्रादि घणा दोषो रहेला बे; तो ते उपाय विनाना विनोने खाधिन थq ए करता पोताने खाधिन रहेq ए वधारे सारं . श्रा प्रमाणे विचार करी हुँ वमनी डायानो त्याग करीने तडके बेठी इती." शीलवतीनां श्रावां वचन सांजली रत्नाकर शेठे कयु. “ सर्व नावने जाणनारी अने कुलने श्राधार रूप हे वहु ! तें था बहु सारं कडं . वली वृद्धावस्थाथी बुद्धि रहित एवा मने ते सारो बोध कस्यो ." श्रावी रीते वहुना वखाण करता एवा शेवे फरी शीलवतीने पूज्युं के, " हे वत्से ! तें पेला सुनटने कायर कहीने सारो कुटी नाख्यो , एम शा माटे कयुं हतुं ?” शीलवतीए कह्यु. “ हे तात ! सुनटने शत्रुना घा बातिमां वागे जे अने तेने पाबल वांसामा वाग्या हता; माटे तेणे नासी जता घा खाधा बे; तेथी में एम कडं हतुं." वहुनां आवां वचनथी चित्तमां चमत्कार पामेला शेठे तेने फरी पूज्युं के, “ ते माणसोथी जरपूर नगरने उजड शामाटे कयुं हतुं ? शीलवतीए उत्तर प्राप्यो के, " था सारा नगरथी थापणने शुं ? के जे नगरमा पोतानो को सगो Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० शीलवतीनी कथा. नथी के, जे सगो श्रापणने जोश्ने बोलावे. कधु ले के-खाजाविक स्नेहनी गाढ प्रिय एवा एक श्रात्मा विना माणसोथी जरपूर एवं था जगत् अरण्य समान देखाय बे. " पठी शेठे " हे वत्से ! तें था सर्व साचु कडं; परंतु पाकेला मगना खेतरने खवाश् गयेयूँ शा माटे कद्यु हतुं ?" माखना सरखी मधुर वाणीवाली अने मुग्ध एवी शीलवतीए उत्तर प्राप्यो के, “ हे ससरा ! एनो गुढ अर्थ सांजलो. पाकेला मगना खेतरमा जे खेडुत आमतेम जमतो हतो, ते खेतरनी रक्षामां श्रादरवालो न बता पोतानी मेले मगनी शीगोने खातो हतो. ते खेडुते श्रा खेतरना मुख्य धणी पासेथी व्याजे धन ली, दशे अने तेना बदलामां खेतरनो धणी तेनी पासे पोताना खेतरनी रदा करावतो दशे, तेथी ते श्रादर विनानो पुरुष “प्रथम खाधुं ते पोतानु,' एम धारीने मगनी शीगोने खातो हतो.” श्रावां शीलवतीनां वचन सांजली तेनी खात्री करवामाटे शेठे खेतरमा फरता एवा ते पुरुषने बोलावीने पूरी जोयुं, तेथी ते पुरुषे कह्यु. “ में शेव पासेथी व्याजे धन ली, बे, तेना बदलामां डं था काम करूं बुं, माटे जे खाधुं ते पोता, कारणके, खेतरमा जे धान्य पाकशे ते सघलु शेठ लश् जशे अने म्हारी मेहेनतनुं फल हुं श्रा खाऊंडं तेज" एम कहीने ते पुरुष चाल्यो गयो. पडी रत्नाकर शेठे नदी जोश्ने फरी शीलवतीने पूब्युं. “ हे जिनदत्तपुत्री! पाणीमां चालता तें जोडा शा कारणथी न काढ्या ?" शीलवतीए उत्तर प्राप्यो के, “ तेमां रहेला कांटादिकनो जय नजरे देखी शकातो नथी. एवो कोण मूर्ख होय के जे थोडाने माटे पोताना श्रात्माने महाकष्टमां नाखे.” __ावी रीतनां पुत्रनी स्त्रीनां युक्तिवालां वचन सांजली हर्षित मनवालो रत्नाकर शेठ नगरना माणसो जोता बता अनुक्रमे पोताने घेर श्राव्यो. पठी शीलवतीए पोते माटेला सर्व बाजूषणो काढी ससराने देखाड्यां; तेथी प्रसन्न थयेला शेठे वहुनुं सर्व वृत्तांत पोतानी स्त्री ने पुत्रने कयु. पनी शेठे शीलवतीने घरनुं अधिपतिपणुं श्राप्यु श्रने तेना कार्यश्री निरंतर पोताना घरनेविषे नवी नवी संपत्ति प्राप्त थइ. अनुक्रमे आयुष्यनुं चपलपणुं होवाथी रत्नाकर शेठ कालधर्म पास्यो भने वृदनी पाउल यानी पेठे तेनी पाउल तेनी स्त्री पण मृत्यु पामी. पड़ी कुटुंबनां Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ शीलोपदेशमाला. सर्वे माणसोए अजितसेनने कुटुंबनुं अधिपतिपणुं श्राप्यु. अजितसेने पण बहुकालसुधी गृहस्थधर्म पाख्यो. हवे अरिमर्दन राजाने चारसे नवाणुं प्रधान हता. तेणे पांचसेंमो मोटो. मुख्य प्रधान करवाना हेतुश्री नगरना सर्व माणसोनी परीक्षा करवामाटे प्रश्न पूज्यु के, “ जेणे मने पाटु मारी होय तेने शी शीक्षा करवी ?" सर्वे माणसोए उत्तर थाप्यो के, “तेनो शिरछेद करवो अथवा सर्व दंग श्रापवो.” अजितसेने पण राजानो श्रा प्रश्न पोतानी शीलवती प्रियाने कह्यो; तेथी तेणे कडं के, “जेणे राजाने पाटु मारी होय तेने राजाए पोताना सर्व बाजूषणो श्रापवा जोशए.” अजितसेने कj. “एम केम?" शीलवतीए का के, “ पोतानी स्त्रीविना राजाने बीजु कोण पाटु मारी शके ?” पनी अजितसेने राजाने कयु के, “ श्रापने जेणे पाटु मारी होय तेने आपे पोताना अंगना सर्व बाजूषणो श्रापवा जोश्ए.” अजितसेननां श्रावां वचनथी संतोष पामेला राजाए तेने मुख्य प्रधानपद थाप्यु. ___ एक दिवस अरिमर्दन राजाए ब प्रकार- सैन्य साथे लश् सीमाडाना सिंदरथ राजा उपर चडा करी. महासती शीलवतीना पूबवा उप रथी मनमां चिंता करता एवा अजितसेने तेने कडं के “ हे प्रिये ! जो के तुं उत्तम शीलवाली इं; तो पण तने एकली घरे मूकीने राजानी साथे जवा म्हारं मन उत्साह पामतुं नथी.” शीलवतीए कह्यु. “श्रापे राजकार्य योग्य रीते करवां जोशए अने म्हारा शीलने इंऽपण खंडन करवाने शक्तिवंत नथी; तो पण विश्वासने माटे था पुष्पनी माला तमारा कंठने विषे नाखुंडं के, जे मालाने तमे ज्यांसुधी करमा गएली न दे. खो त्यांसुधी मने अखंडित शीलवती जाणजो." या प्रमाणे कहीने शीलवतीए पोताना गुणोनी मालानी पेठे पुष्पनी माला अजितसेनना कंठने विषे अरोपण करी.अजितसेन पण हर्ष पामीने त्यांथी विदाय थयो. __ हवे अरिमर्दन राजा प्रयाण करतो करतो पुष्पविनाना अरण्यमां श्रावी पहोच्यो. त्यां तेणे अजितसेनना कंठमां प्रफुल्लित पुष्पमाला जोश्ने पूब्यु के, “श्रा पुष्परहित प्रदेशमां तमारा कंठने विषे आवी प्रफुद्धित पुष्पमाला क्याथी ?” अजितसेने पण प्रगट उत्तर प्यो के, " म्हारी प्रियाना शील प्रनावथी म्हारा कंठमां तेणे आरोपण करेली Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलवतीनी कथा. ३२ए श्रा पुष्पमाला हमेशां प्रफुल्लित रहे ." अजितसेन श्रा प्रमाणे कहीने पोताने स्थानके श्राव्या पली आश्चर्यवंत थएला विवेकी राजाए पोतानी पागल बेठेला माणसोने ते वात कही; तेथी कामांकुर नामना पुरुषे कडं ने के, " हे देव ! स्त्रीउने शील क्याथी होय ? " ललितांग नामनो बीजो को पुरुष पण बोली उठ्यो के. "हे देव ! ए कामांकुर, कहे सत्य जे.” रतिकेली नामना त्रीजा पुरुषे कयु. “ महाराज ! एमां कांश शंसय राखवा जेवू नथी.” अशोक नामनो चोथो पुरुष बोल्यो. " राजेंड! आ वातमां बापने संशय रहेतो होय तो ते संशय मटाडवामाटे मने अजितसेननी स्त्री शीलवती पासे मोकलो.” पली शीलवतीना शीलने खंडन करवामां कौतुकी एवा राजाए बहु धन थापीने अशोकने पालो मोकट्यो. अशोक पण उत्तम वेश धारण करी नंदन पुरमा श्राव्यो श्रने शीलवतीना घरनी पासे मकान राखीने रह्यो. पबीते हमेशां नमरानी पेठे पंचम रागन गायन करतो अनेकटादथी शीलवतीने जोतो आमतेम फरवा लाग्यो. सती शीलवती पण बहु प्रकारे चेष्टा करता एवा तेने जोश्ने विचार करवा लागी के, “था पुरुष म्हारा शीलने खंडन करवानी श्छा करे . निश्चय था मूर्ख केशरी सिंहनी केशवाल खेंचवानी ना करे . वली ए मूर्ख ज्वाजल्य मान एवा अग्निमां पेसवानी श्छा करे बे; परंतु प्रथम कौतुक तो जोड! जोर ते पुष्ट बुद्धिवालो केवी चेष्टा करे .” या प्रमाणे विचार करीने शीलवती पण तेने कटाक्षथी जोवा लागी. पनी अशोके शंकारहित थ पोतानो मनोरथ सिद्ध थयो मानी एक दूतीने शीलवती पासे मोकली. दूती पण शीलवती पासे आवीने कड़वा लागी के, “ हे जसे! त्हारो पति राजानी साथे परदेश जबाथी हारुं यौवन वनना पुष्पनी पेठे निष्फल जाय . हे जाग्यवती ! वली त्हारा नाग्यश्री खेचायलानी पेठे अहिं श्रावेलो था राजमान्य पुरुष प्रीतिथी त्हारो संग करवानी ना करे ." शीलवतीए कडं. “ यौवन लक्ष्मीनुं फल ले, योग्य बे; परंतु कुल स्त्रीउने परपुरुषनो संग करवो योग्य नथी, तो पण जो मन शछित पामीए तो ए पण आचरीए; कारणके फलने ग्रहण करनारो पुरुष अजय वस्तुने पण स्नेहथी अथवा तो लोजयी ग्रहण करे ." Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० शीलोपदेशमाला. दूतीए कयु. “ तुं केटबुं धन मागे जे ?” शीलवतीए कह्यु. " श्राजे पहैबुं बानुं श्रापवाने बदले अर्ध लद धन आपे आने श्राजथी पांचमे दिवसे बीजं अर्ध लद धन लश्ने थहिं आवे. जेथी हुँ तेनी सुखनी इछा पूर्ण करीश.” पली दूतीए हर्ष पामीने था सघली वात अशोकने कही. अशोके पण अर्ध लद धन दूतीने श्राप्युं, जेथी दूतीए ते धन शीलवतीने श्राप्यु. पनी उत्तम बुद्धिवाली शीलवतीए पण पोताना घरनी अंदर पोतानाज माणसो पासे एक ठंडी खा खोदावी अने तेमा दोरीथी नस्याविनानो पलंग मूकी तेना उपर उगड पाथस्यो. _हवे पांचमे दिवसे अर्ध लद धन साथे लश् मदोन्मत्त अने तांबुल ने हाथमां जेना एवो अशोक पोताना सौजाग्यथी जगत्ने तृणनी पेठे मानतो बतो शीलवंतीना घरने विषे आव्यो अने जेवो पलंग उपर बेसवा गयो तेवोज तुरत खाश्मां पड्यो. पड़ी शीलवती तेने दोरडाथी बांधेला माटीना वासणवती खावानुं श्रापवा लागी. जाणे नरकमां पडेलो को जीव होय नहिं शुं ? एम ते अशोकने शीलवतीए ते खाश्मांज राख्यो. हवे एक महिनो गया पड़ी थरिमर्दन राजाए पोताना माणसोने कडं के, " अशोक पोतानो मनोरथ सिझ करीने अथवा सिक कस्या विना पण दजी पाठो श्राव्यो नहीं !" पठी तेणे रतिकेवि नामना बीजा पुरुषने बहु धन थापी शीलवती साथे क्रीडा करवा माटे मोकल्यो. शीलवतीए तेनी पासेथी पण एक लक्ष धन लश तेने पण तेज खाश्मां पाड्यो. कडुं ने के- चतुर बुद्धिवालाथी शुं न यश् शके तेवु होय छे ? शीलवतीए एवीज रीते लद लद धन लश्ने कामांतुर तथा ललितांग नामना बीजा बे पुरुषने पण अनुक्रमे तेज खाश्मां पाड्या, तेथी शीलवतीए चातुर्गतिक संसारना कुःखोने जाणे चार पुरुषना दंनथी पातालमा नांख्या होय नहिं शुं ? एम ते चार पुरुषो देखावा लाग्या. हवे सिंहरथ राजाने जिती अरिमर्दन राजा नगरवासी लोकाए शपगारेला पोताना नगर प्रत्ये श्राव्यो ते वखते पेला खाश्मां पडेला चार पुरुषो नूखथी पीडा पामता उता शीलवतीने कहेवा लाग्या के, “जे पुरुषो पोताना श्रात्माने जाणता नथी, ते श्रमारी पेठे उःखनुं पात्र Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलवतीनी कथा. ३१ थाय . अमे हारुं महात्म्य जाएयुं नहोतुं. फक्त राजाना हुकम प्रमाणे चालनारा अमोने तुं श्रा नरकना सरखा कूवामांथी एकवार काढ." शीलवतीए कह्यु. “ जो तमे म्हारा कहेवा प्रमाणे करो तो हुँ तमने कूवामांथी काढुं.” ते पुरुषोए ते कबूल कयुं एटले शीलवतीए कह्यु के, “जे हुं बोढुं ते प्रमाणे तमारे पण कहे.” ते चार पुरुषोए कबूल कसु. पड़ी शीलवतीए ते चारे पुरुषोने कूवामांथी व्हार काढीने जे बोलवानुं हतुं ते शीखवाड्यु. ___ एक दिवस राजाने परिवार सहित पोताना घेर जमवामाटे अजितसेने निमंत्रण कयुं. राजा अरिमर्दन पण अवसरे परिवार सहित मुक्ताफलना उलेचथी सुशोनित एवा श्रजितसेनने घेर श्राव्यो. शी. लवतीए जोजननी सर्व सामग्री बनावीने गुप्त रीते एक बाजुए संताडी राखी हती. राजा परिवार सहित जमवामाटे श्रासन उपर बेठगे; परंतु ते कां पण रसोश्नी सामग्री न जोश्ने विचार करवा लाग्यो के, “श्रमने बोलाव्या जमवामाटे, पण रसोश तो कांश देखाती नथी तो श्रा कांश श्राश्चर्य के झुं !!!" _पड़ी शीलवती खाश्ना म्हों श्रागल श्रावीने आदरथी पेला खाश्मां रहेला चार पुरुषोनुं पुष्पथी पूजन करी उंचा शब्दथी बोली के, " अरे यदो! रसोश जलदी तैयार करो.” पली खाश्मां रहेला चार पुरुषो उंचा शब्दथी बोल्या के, “ एम था.” पड़ी शीलवतीए तुरत रसोश्ने प्रगट करी. राजा श्राश्चर्य पामी जोजन करवा लाग्यो. शीलवतीए पण यदोने “ हे यदो ! तांबूल तैयार करो, वस्त्र तैयार करो." एम यदोने बोलावी बोलावीने तांबूल, वस्त्र, अलंकार विगेरेथी राजानो सत्कार कस्यो. पठी राजाए " था खाश्मांथी निकलता वचनोनीज था कांश सिफिके; कारणके, ते वचनथी था जोजन विगेरे सर्व तैयार थयुं ." एम मानी तेणे शीलवतीने पूब्यु के, “ हे जड़े! त्हारा घरने विषे श्रा शुं श्राश्चर्य ? " शीलवतीए उत्तर श्राप्यो के, “ हे देव ! म्हारा घरने विषे चार यदो सिद्ध थया बे; तेथी या सर्व उत्पन्न थाय . " पली राजाए वस्त्र विगेरेथी शीलवतीनो सत्कार करी अने तेने पोतानी ब्हेन मानी तेनी पासे बहुमानथी यदोनी मागणी करी. शीलवतीए पण “हे Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ शीलोपदेशमाला खामिन् ! था अमारं जीवितपण श्रापर्नु ने तो पड़ी यक्षोनी शी वात? हे प्रजो! हुं ते तमारी आगल मूकीश.” एम कहीने तेणे कूवामां रहेला चार पुरुषोपासे पोतार्नु कहे कबूल करवानी प्रतिज्ञा करावी तेमने कूवामांधी बहार काढ्या. पठी नवरावी चंदननो लेप करी, पुष्पनी माला पहेरावीने चारेने वांसना करंमीयामां पूरी धूप करवापूर्वक राजानी पासे लइ जवामाटे मंत्रीने सोंप्या, मंत्री पण वाजिंत्रना शब्दपूर्वक तेउँने रथमां बेसारी नगरना सर्वे माणसो जोता बता राजानी सत्तामा लश् गयो. राजा पण बहुमानपूर्वक सामो श्रावी जाणे पोताना हाथमां त्रण जगत् रह्यु होय नहिं ? एम तेमने पोताना घरने विषे लश् गयो. त्यां तेणे रसोश्याने रसोश् करवानी ना पाडीने कधु के, “श्रा यदो तमने दिव्य जोजन श्रापशे." _ पड़ी जोजनना अवसरे राजाए पुष्पोथी करंडीयानुं पूजन करीने कद्यु के “ जोजन था.” ते वखते करंमीयामां रहेला पुरुषोए कयु के, " एम था.” राजा विगेरे सर्वे माणसो ते वखते उंचुं जोवा लाग्या; परंतु कांश नोजन मव्युं नहीं; तेथी विलक्ष बनेला राजाए करंडीया उघडावीने जोयुं तो तेमां पोतानी पासे रहेनारा अने शीलवतीनुं शील खंडन करवामाटे मोकलेला चार पुरुषोने दीग. प्रेत सरखा विकराल ते पुरुषोने जोश राजा पण "श्रा यदो नथी; परंतु राक्षसो .” एम कहीने त्यांची तुरत पाडो नासी गयो. पठी ते पुरुषोए कह्यु के, “हे देव! अमे यह नथी तेम राक्षस पण नथी; परंतु असे श्रापनीपासे रहेनारा कामांकुरादि चार पुरुषो बीए.” पड़ी राजाए बराबर जोश्ने अने उलखीने तेमने कह्यु के, " हे जरो ! रोगी कागडानी पेठे श्रा तमारी श्रवस्था शी?” ते पुरुषोए पोतपोतानी वात कही; तेथी राजा अरिमर्दन माथु धूणावतो तो शीलवतीना शीलनां वखाण करवा लाग्यो. तेणे शीलवतीने बोलावीने कयु के, “ हे पतिव्रता ! श्रा शील पालवाना यत्नथी तुं खरेखरी वखाणवा योग्य बुं. में ते वखते महा अरण्यमां पण अजितसेनना कंठमां निरंतर प्रफुल्लित एवी पुष्पमाला जोश्ने त्हारा शीलवतनुं स्पष्ट महात्म्य जाएयु हतुं; परंतु अज्ञानथी में जे श्रा कृत्य कसु ले तेने माटे हुं त्हारी पासे दमा माएं डुं. त्हारे बंधुरूप म्हारा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलवतीनी कथा. ३२३ उपर कोप करवो नहीं." सती शीलवतीए पण तेने जैनधर्मना उपदेशथी बोध माड्यो. पेला चार पुरुषोए पण परस्त्रीनो नियम लीधो. पढी राजाए सत्कार करेली शीलवती पोताना घेर श्रावी. राजकार्यमां धुरंधर एवो जितसेन पण विशेषे शीलवतीनी साथे धर्मकार्यमां कालने निवृत्त करवा लाग्यो. एक वखते ते नगरमां चार ज्ञानने धारण करनारा दमघोष मुनि याव्या. अजितसेन शीलवतीने साथे लइ तेमने वंदन करवा गयो. देशनाने ते मुनिए शीलवतीने कां के, “हे जये ! पूर्वजवना - ज्यासथी व्हारुं शील उज्वल शोभे बे.” अजितसेने 'एम केम ?' एम पूब्युं एटले मुनिए क.. कुसुमपुर नगरमां सुलस नामनो श्रावक रहेतो हतो. तेने सुयशा नामनी स्त्री इती. तेउने खनावथी जडक एवो दुर्गत नामनो चाकर हतो. तेने डुर्गिला नामनी स्त्री इती. एक दिवस दुर्गिला सुयशानी साथे उपाश्रये ग. त्यां दुर्गिला पोतानी शेठाणीने पुस्तकनुं पूजन करवामां तत्पर जोइ साध्वी ने पूढवा लागी के, “ आजे शुं पर्व बे ?" साध्वीए कयुं. "आजे प्रसिद्ध एवी ज्ञानपंचमी बे. जे माणस आ ज्ञानपंचमीने दिवसे उपवास करी पुस्तकनुं पूजन करवापूर्वक ज्ञाननी प्रजावना करेले ते बीजा जवमां सुख, सौभाग्य ने बुद्धि विगेरे पामीने अनुक्रमे शुद्ध शीलवान् थ‍ मोक्ष पामे बे. " प्रवर्त्तिनीनां यावां वचन सांजली दुर्गिलाए कयुं. " या म्हारी शेवाणीने धन्य बे. म्हारा सरखी निंद्य ने के, जे पोतानुं हित करवामां पण समर्थ नथी." साध्वीए कयुं. “ जो तुं दान खने तप करवा समर्थ न होय तो जावथी प्रधान एवा शीलवतने पाल. हे विवेकवाली ! परपुरुषनो त्याग कर. तेमज आठम ने चौदशे पोताना पतिने पण त्यजी दे. " पढी डुर्गिलाए ते अनिग्रह लइ हर्षथी घेर यावी पोताना पतिने कधुं. पतिए पण कर्मना लघुपणानेलीधे जावथी तेनो श्रादर कस्यो. अनुक्रमे ते बन्ने जपा जावशुद्धिथी समकीत पाम्या. दुर्गिलाए अनुक्रमे ज्ञानपंचमीनो तप कस्यो, पढी ते बन्नेजणा मृत्यु पामी सौधर्म देवलोकमां देवता थया. त्यांथी चवीने दुर्गतनो जीव तुं जितसेन थयो अने दुर्गिलानो जीव शीलवती थ. ज्ञाननी आराध Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ शीलोपदेशमाला. नाना पुण्यथी तमने उत्तम बुद्धि प्राप्त थ . पली जातिस्मरण ज्ञान पामेला ते बन्नेजणाए वैराग्यश्री चारित्र लीधुं. बहुकाल चारित्र पालीने ते बन्नेजणा पांचमां देवलोकमां गया. त्यांची चवीने निर्मल एवा शीलव्रतना योगथी केवलज्ञान पामीने सिकि पामशे. इति शीलवतीनी कथा. अथ नंदयंती सतीनी कथा. जेनी अनेक प्रकारनी लक्ष्मी जोश्ने जाणे समुष श्यामपणुं पामी गयो होय नहिं शुं? एवं कल्याणकारी अपार मनुष्योवालुं अने लक्ष्मीथी मनोहर श्रीपोतनपुर नाम, नगर जे. ते नगरने विषे जेतुं धाराने धारण करनारुं खड्ग शत्रुने तापकारी एवो श्रने जागता पराक्रमवालो नर विक्रम नामनो राजा राज्य करतो हतो. त्यां लक्ष्मीऊना यज्ञ सरखो सागरपोत नामनो शेठ रहेतो हतो. तेने पवित्र श्राचारमा चतुर एवो समुदत्त नामनो पुत्र हतो. पूर्वे उपार्जन करेला पुण्यथी तेणे बाल्य अवस्थामां पण परीक्षक जेम रत्नोने ग्रहण करे तेम सर्व कला ग्रहण करी हती. अनुक्रमे कामे करीने प्रफुल्लित थर ले लीला जेनी एवो ते समुदत्त जेम वननो हाथी विंध्याचलना वनने पामे तेम मदना मंदिररूप यौवनावस्था पाम्यो. हवे ते वखते सोपार नगरने विष महिमाना समुअरूप नागदत्त शेग्ने नंदयंती नामनी पुत्री हती. जिनधर्ममां श्रेष्ठ बुजिवाली श्रने शीलरूप माणिक्य मणिनी नूमि एवी ते पुत्री बाल्यावस्था उल्लंघी अनुक्रमे यौवनावस्था पामी एटले कामदेवरूप राजानी विज्रमवाली राजधानी सरखी थने युवान् पुरुषोना मनने श्रानंद पमाडनारी एवी ते नंदयंतीने सागरपोत शेठे पोताना पुत्र समुदत्तनी साथे परणावी; तेथी समुजदत्त पण पूर्ण प्रेमनी छावाली नंदयंतीने चित्रक वेलनी पेठे पामीने पूर्ण मनोरथवालो थयो. पनी सहदेव नामना बालमित्रनी साथे क्रीडा करता तेणे केटलोक काल लीलामात्रमांज काढी नाख्यो. एक दिवसे देश जोवामां अने अव्य उपार्जन करवामां आश्चर्यवाला समुदत्ते पो. ताना मित्र सहदेवने कहूं. “ हे मित्र ! जे पोते मेलवेली लक्ष्मी ने लोगवे Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदयंतीनी कथा. ३१५ " बे तेज पुरुष जाणवो; माटे चालो आपणे द्रव्य उपार्जन करवाने अर्थे बीजा देशमां जइए.” सहदेवे कयुं. " तुं पितानी आज्ञा लहे . ते उपरथी समुद्रदत्ते पितानी पासे ज5 परदेशमां वदेपार करवा माटे जवानी मरजी देखाडी एटले सागरपोत शेठे कयुं के, " हे वत्स ! आपणे घरे कोटी द्रव्य बे, तो तुं तेने जोगव्य; कारणके श्रागणामां कल्पवृक्ष फले बते कयो पुरुष वनमां जाय ? " समुद्रदत्ते क. " हे तात ! जे पूर्वजोए संपादन करेलुं द्रव्य जोगवे बे तेउने दलका पुरुषो जाणवा. वली पिताए मेलवेली लक्ष्मी यौवन अवस्थामां मातानी पेठे जोगववाने योग्य बे. " ए प्रकारनां पुत्रनां उत्सादथी मनोहर वचन सांजलीने शोक तथा आनंदधी व्याप्त थयेला सागरपोत शेठे गद्गद् वाणीथी क. " हे पुत्र ! पिताए मेलवेल द्रव्यथी मदोन्मत्त थ येला तथा दुर्मद एवा घणा पुत्रो बे; परंतु पोते मेलवेला द्रव्यने जोगवनारा तथा दान करनारा एवा तो कोइकज विरला पुत्रो होय बे. " इत्यादि वचनने कतो एवो सागरपोत शेठ पुत्रना वचनने प्रमाण करी हर्ष पायो. पी मित्रसहित उत्साहवाला समुद्रदत्ते सर्व स्वजनोनी श्राज्ञा लइ अनेक मालथी जरावेला वहाणमां बेसी सारा मुहूर्ते प्रयाण शरु कस्युं. ते वखते तेणे पोताना मित्रने कयुं के, " हे मित्र ! में सर्वे स्वजनोनी आज्ञा लीधी बे; पण एक रजखला धर्मवाली प्रियानी श्राज्ञा लीधी नथी ए म्हारा मनमां बहु लागे बे. सहदेव मित्रे क. " घणा गाढा स्नेहवालो हुं हारी पासे बुं बतां जो तने चिंता पीडा करती होय तो कल्पवृक्षनी सेवा करनारा दीन बनेला जाणवा. क बे- दाक्षिण्य, कुलमर्यादा अने लगायी बंधाइ गया वे आत्मा जेना एवा पुरुषोने तथा पोतानी प्रीतिना पात्ररूप पुरुषोने मित्रो थकी बीजुं कांई औषध नथी. समुद्रदत्त पण प्रीतिरूप समुद्रनी लेहेरने वश्य थयो तो रात्री कोइ न देखे तेवी रीते पोताना घरना बारणा श्रागल थाव्यो. त्यां सुरपाल नामनो द्वारपाल जागतो हतो; तेथी तेने पोताना नामवाली वीटी एंधाण माटे आपी ने कां गुप्त समाचार कही पोते घरनी अंदर आव्यो. पठी जालीयानी अंदरथी जोयुं तो थोडा जलमां मालीनी पेठे तेथे पोताना वियोगथी श्राकुल व्याकुल थयेली नं "" Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. दयंती प्रियाने दीठी. "था शी चेष्टा करे ?” ए जाणवाने माटे समुरुदत्त जेटलामां गनो उनो रहीने जूए ने तेटलामा घणो वखत थवाथी पण जेने निमा श्रावी नयी एवी नंदयंती शय्यामांथी उठीने उपवन ( बगीचा) मां गश् श्रने त्यां चंजनी कांतीथी उज्वल एवी शीलाने विषे सूती पण पतिना वियोगथी पीडा पामती अने दीन बनेली ते पतिव्रता शिलाने अंगाराथी तपेली गाडीना सरखी मानवा लागी तथा कोमल अशोकना पत्रोने पाथरीने सूती तो पण चंजना किरणोने दंड ( लाकडी) ना घा सरखा जाणवा लागी. वली बोलवा लागी के, “ हाय हाय! उतावलथी जता एवा पतिए मने बोलावी पण नहीं; तो हवे म्हारे जीवीने शुं करवू ?" पडी पतिना गुणोने वारंवार स्मरण करती अने वियोगथी विधुर बनेली नंदयंती फांसो खावाना विचारथी बगीचाना वृदनी पासे गश्. त्यां ते “ गुणनो समुझ ते समुदत्त म्हारो नवोनवने विषे पति था.” एम कहीने जेटलामा पोतार्नु उंढवानुं वस्त्र वृक्षनी डाले बांधीने पोताना गले बांधे जे तेटलामा समु. प्रदत्ते उबलीने ते वस्त्र कापी नाख्युं अने तेज दिवसे तुकालथी स्नान करेली तेने तत्काल उबलता स्नेहथी आलिंगन कझुं. पनी प्रसन्न थयेली वहाली प्रियानी रजा लश् समुदत्त पाहो वहाण प्रत्ये श्राव्यो अने कर्मना अनुकुलपणाथी समुज्ना सामे पार पहोच्यो. हवे अंतर्वनी (गर्भवती) सती नंदयंतीए पण उदरवृद्धि विगेरे गजना चिन्ह विना सुखथी त्रण मास निर्गमन कस्या. पली विदूर जूमिमां वैडूर्यनी शलाकानी पेठे अने नूमिमां डाटीराखेला धननी पेठे अनुक्रमे थोडे थोडे तेनो गर्न प्रगट थवा लाग्यो. सागरपोत शेठ पण वहुने जो विचार करवा लाग्यो के, “निश्चय म्हारा पुत्रनी था स्त्री असती बे; कारणके पुत्रना प्रस्थान वखते ते तुमती (रजखला) हती. का ले के- केवल उपरथी सारा आचरणवाली स्त्रीउनो विश्वास करवो नहीं; कारणके तेवी स्त्रीउनो विश्वास करवाथी किंपाक फल जक्षण करवानी पेठे घणुंज खराब फल मले . निश्चय था स्त्रीनो चांडालणीनी पेठे श्रमारी पंक्तिमाथी त्याग करवो जोश्ये, केमके कलंक रहित एवा श्रमारा कुलने विषे गलीनो डाघ न था.” एवो विचार करीने तत्काल Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदयंतीनीकथा. ३१७ पुत्रनी स्त्रीनो त्याग करवाने श्छता एवा शेठे एक निःकरुण नामना निदय माणसने कह्यु के, “श्रा स्त्रीने वनमा मृकी श्राव." पड़ी ते निःकरुण को मीषधी ते नंदयंतीने वनमां तेडी जश् मोतीनी मालानी पेठे त्यजीने कडु के, “ हे खाध्वी ! तने वनमा त्याग करी बे; माटे हवे त्हारी मरजी प्रमाणे जा." एम कहीने ते जेटलामां पाडो वट्यो तेटलामां आकस्मीक उत्पातथी जय पामेली ते महासती मूलमांथी कपायेली लतानी पेठे मूळ पामीने पृथ्वी उपर पडी. पडी वनना शीतल पवनथी जेनो चमोदय नाश थ गयो एवी ते नंदयंती " हाय हाय! शा अपराथी म्हारो त्याग कस्यो ?” एम कहीने रुदन करवा लागी. ते वखते निःकरुण वृदनीउथे उनो रहीने जोवा लाग्यो तो सिंह ने वाघ विगेरे हिंसक जीवो ते महासतीने नमन करीने बीजा मार्गे चाव्या जता तेना जोवामां श्रावता हता. पडी नंदयंतीए मरण पामवानी श्छायी विषनुं जक्षण कडं एटले शासनदेवीए तेनुं रक्षण कखु. गलाफांसो खावा मांड्यो तेने पण शासन देवीए तोडी नाख्यो. बेवटे पर्वतना शीखर उपर चडी पंच परमेष्ठीनुं स्मरण करी कंपापात कस्यो त्यां पण निंचे पलंग प्रगट करी शासन देवीएज रक्षण कमु. पडी ते महासती विचार करवा लागी के, “अरे! पति श्रने पितादिके त्याग करेली मने यम राजा पण ग्रहण करतो नथी, तो दैव मने था थकी पण बीजुं वधारे शुं पुःख श्रापवानो हशे?” ए प्रकारे पोताना जन्मादिकनी निंदा करती तथा नविष्य कर्मने न जाणती एवी ते सती नंदयंती यूथथी नष्ट थयेली हरिणीनी पेठे वनमा जटकवा लागी. एवामां जरुच नगरनो दयालु पद्मक राजा के जे मृगया रमवा निकट्यो हतो तेणे नंदयंतीने दीवी; तेथी पोतानी पासे बोलावी अने तेनुं चरित्र जाणी तथा तेने पोतानी बहेन मानी पोताना नगर प्रत्ये तेडी गयो. त्यां पद्मक राजाए तेने कयु के, “हे नगिनि ! दीन एवा याचक वर्गने दान श्रापो अने ज्यांसुधी तमारो पति न आवे त्यांसुधी यहीं रहो." एम कहीने तेने दानशालामां सुखथी राखी. उद्वेगवावू मन जेनुं एवी नंदयंती पण समयने अनुसरतो धर्म करती अने पतिनुं ध्यान करती सुखथी त्यांज रही. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ शीलोपदेशमाला. हवे निःकरुण पण नंदयंतीने वनमां मूकी तत्काल नगरमा श्राव्यो अने तेना शीलनी सर्व वात शेठने कही; एवामां शुरपाल के जेने समु. अदत्ते पोताना नामनी वीटि श्रापी दती, तेने सागरपोत शेठे नंदयती बतामां कांश पोताना कार्यने माटे सोपारपुर नगरमां नंदयंतीना पिता नागदत्तने घेर मोकल्यो हतो ते पाठो श्राव्यो. नागदत्ते पोतानी पुत्रीने माटे श्रापेलां घरेणां तेने श्रापवानी श्छाथी सुरपाले सागरपोत शेग्ने पूज्युं के, “नंदयंती केम देखाती नथी ? ” शेठे उत्तर थाप्यो के, " सारी चालनी न होवाथी तेने त्यजी दीधी बे.” शेग्नां एवां वचन सांजली सुरपाल रोतो तो कहेवा लाग्यो के, " अरे तमे पतिव्रता नंद. यंतीने वृथा त्यजी दीधी बे. कारणके, तमारो पुत्र प्रयाण कस्या पली रात्रीए बानी रीते श्रावी प्रियाने मली अने पालो वहाण प्रत्ये चाल्यो गयो बे. ते वखते तेणे पोताना नामनी वीटि मने एंधाण माटे श्रापी ३.” एम कहीने ते सुरपाले वींटि बतावी. ते उपरथी शोकरूप समु. अमां बूडेला सागरपोत शेठ पुत्रनी स्त्रीनी शोधने माटे तेने श्राझा करी अने पोते पण चाल्यो. एवामां सेवा देवारूप वेहेपारथी जेणे घणुं प्रव्य मेलव्यु बे एवो समुदत्त पण थोडा कालमां कुशलताथी पाडो घरे श्राव्यो. ते पण प्रियाना वृत्तांतने सांजली वेश फेरवी केटलांक माणसोने साथे लश् तेने शोधवा माटे चाली निकल्यो. जूदा जूदा गाम, नगर श्रने अरण्य नूमिमां जमतो, अनुचरोए त्यजी दीधेलो, एकलो तथा नंदयतीने मित्रनी पेठे स्मरण करतो वली नाथु खूटी जवाथी कंद, मूल, फल विगेरेने लक्षण करतो ते समुदत्त घणा कालसूधी पृथ्वीमां जम्यो, नमवाथी तेजरहित अने उबलो बनी गयेलो ते फरतो फरतो अनुक्रमे जरुच नगरप्रत्ये श्रावी पहोच्यो. त्यां जुखथी पीडा पामेलो ते दानशालामा गयो, ज्यां तेणे नेत्रने अमृत सरखी पोतानी प्रियाने दीठी. नंदयंती पण तेने जोश्ने आनंद पामी अने प्रगट एवा अनुरागथी " एज म्हारो पति डे." एम तेणे निश्चय कस्यो. पनी संत्रमथी उठीने पोतानुं योग्य कार्य करती अने जाणे तेने वधावती होय नहिं सुं? एम श्राग्रहथी जोवा लागी. पड़ी तेनां नेत्रोनो परस्पर मेलाप थए बते सती नंदयंती जादरवा मासना वर्षादनी पेठे आंसुने वरसाववा लागी. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदयंतीनी कथा. ३२ए ते वखते समुदत्त अमृतवृष्टीनी पेठे पोताना हाथरूप कमले करीने तेना नेत्रने धो नाखी धीरज थापवा लाग्यो. पठी घणां प्रवासथी खेद पामेलो एवो पण ते समुदत्त प्रियाना मुखरूप चंने जोवाथी समुनी पेठे श्रानंदरसना कबोलथी पुष्ट थयो. हवे नंदयतीना पतिने श्रावेलो सांजलीने पद्मक राजा कामदेव वसंतनी सामो जाय तेम आदरथी तेनी सामो गयो भने कुशल समाचार पूर्वी पोताना जाश्नी पेठे घरे तेडी लाव्यो. पनी सागरपोत शेठ अने सुरपाल बन्नेजणा प्राणीने कर्मोनी पेठे नंदयंतीनी शोध करता करता अनुक्रमे त्यांज एकग थया. एवामां झाने करीने सूर्यनासरखा ज्ञानजानु नामना केवली त्यां समवसख्या; तेथी समुदत्त पोताना सर्व माणसोसहित तेमने वंदन करवा गयो. देशनाने अंते नंदयंतीए केवलीने पोतानो पूर्वनव पूज्यो अने कह्यु के, " हे जगवन् ! कया कर्मथी मने आ कलंक प्राप्त थयुं ? केवलीए कह्यु. "पूर्वनवनेविषे यझना उत्सवमां निदाने अर्थे श्रावेला साधुने था नंदयंतीए “श्रा शूज .” एम दूषण आप्यु हतुं. ए उपरथी यज्ञमां रहेला तेना सासरादि सर्वे माणसोए तेना मतने अनुसरी साधुने शूज मानी तिरस्कार कस्यो हतो. तेज वखते आ नंदयंतीए सामुदायतुं कर्म उपार्जन कयुं हतुं; जेथी महासती एवी श्रा नंदयंतीने श्रा नवमां तेना सासरे खोटुं कलंक चडावेलुं . (केवली देशना आपे ) के, मनुष्योने नहिं बालोचना लीधेला पोताना अविचारी नावो तथा कर्मो इर्विनीत अश्वनीपेठे श्रा संसाररूप अरण्यमां जमावे . जे श्रीजिनेश्वर जगवाने कहेला धर्मनो श्रादर करी स्वर्ग तथा अपवर्ग (मोद)ना संगथी सारा नाग्यवाला थया बे. ते ने धन्य बे.” श्रावी संसारथी वैराग्य पमाडनारी केवलीनी देशना सांजली नंदयंतीए बीपनेविषे मोतीनी पेठे पोताना चित्तनेविषे व्रतना मनोरथने धारण कस्यो. पनी दीन मनुष्योना उकारादिक कर्मे करीने बार व्रतरूप गृहस्थ धर्मनो अंगीकार करी नागदत्त शेउनी पुत्री नंदयंतीए पोतानो जन्म सफल कस्यो. घणा कालसूधी गृहस्थधर्म पाली अंते व्रत धारण करी कर्मोनो क्षय करी महासती नंदयंती मोद पामी. इति नंदयंतीनी कथा समाप्त. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० शीलोपदेशमाला. महासती मनोरमा सुदर्शन शेउनी स्त्री थाय . ते महासतीना शी. लनुं महात्म्य तो सुदर्शन शेग्ने अनया राणीए करेला उपसर्गवखते ते मनोरमाए करेला कायोत्सर्गथी प्रसन्न थयेली शासनदेवीए करेली जिनधर्मनी प्रजावनाथी जाणी से. रोहिणीनी कथा. जेनी समृद्धिए करीने जाणे अव्यने धारण करनारो कुबेर मनमां खेद पामतो बतो कुरूप बनी गयो होय नहिं शुं ? एवं पाटलीपुत्र नामर्नु नगर . त्यां जेनी कीर्ति आकाशमां चंथी पण अधिक शोजी रही डे एवो तथा जेणे शत्रुउँने त्रास पमाड्या बे एवो श्रीनंद नामनो राजा राज्य करतो हतो. ते नगरमां बीजा छीपोनी लक्ष्मीना यज्ञमंगप सरखो तथा जाणे कुबेरने पण समृद्धिथी वणिपुत्र बनावतो होय नहि शुं? एवो धनवंत धनावह नामनो शेठ वसतो हतो. तेने सर्व अंगना सौंदर्यपणाथी जगत्ने मोह पमाडनारी तथा जाणे कलंकित चंजनो त्याग करीने रोहिणी पोतेज पृथ्वी उपर श्रावी होय नहि शु? एवी रोहिणी नामनी स्त्री हती. एक दिवसे धनावद शेठ प्रियानी रजा लश वहाणमां बेसी बीजा देशमां वेहेपार करवा गयो, कह्यु के-वेपारवाला घणुं करीने परदेशमा रहेनारा थाय बे. रोहिणी पण ते दिवसथी आरंजी पोताना चोटलाने जटानीपेठे धारण करी सखीसहित धर्मकार्यथी दिवसोने निर्गमन करवा लागी. अनुक्रमे धूल अने कदंब पुष्पोना रजना सहमूथी आकाशने मलीन बनावतो एवो उनालो श्राव्यो; तेथी बगीचामां कीमा करता जता एवा नंदराजाए परसेवाथी पीमा पामती श्रने जालीयामा उनी रदेली रोहिणीने दीठी. लांबा वखतथी पतिनो वियोग पामेली अने सुंदर लावण्यवाली तेने वारंवार जोतो एवो राजा कामथी बहु पीडा पामवा लाग्यो; तेथी बगीचानी क्रीडाने नूली जश् लजारहित मनवालो ने जेने बमणो संताप उत्पन्न भयो जे एवो ते राजा त्यांची तुरत पाडो घरे गयो. पड़ी कामज्वरथी दाई गयेला चित्तवाला ते राजाए दूतीने नेट श्रापी रोहिणीपासे मोकली. दूतीए पण रोहिणीपासे जश्ने Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीनी कथा. ३३१ कडं के, “ हे देवी! श्राजे तने कामदेव प्रसन्न थयो बे; कारणके, हे सुन्नु ! नंदराजा पोते त्हारी श्छा करे ने तो तुं तेमना संगथी पवित्र एवी यौवनावस्थाने सफल कर. दूतीनां एवां वचन सांजली रोहिणी रोषथी मनमा विचार करवा लागी. “अहो ! पोताना कुलनो विचार नहिं करनारो था राजा सांकलना बंधविनाना मदोन्मत्त हाथीनीपेठे म्हारा शीलव्रतरूप वृदने उखेडी नाखशे; माटे ते ज्यांसूधीमा पोतानी धारणा न बोडे त्यांसूधीमा उपायथी तेने समजावू." एम विचार करीने सती रोहिणीए मधुर वाणीथी दूतीने कडं. “ हे सखी ! स्त्री खजावधीज सारा पुरुषोनी श्छा करे ने अने था तो राजा पोते म्हारी प्रार्थना करे तो दूधमां साकर मख्या जेवू थयुं बे. वली राजानुं अने म्हारूं कुल निर्मल ; माटे सौजाग्यवंत राजा आजेज रात्रीनेविषे गुप्त रीते अहिं म्हारा घेर श्रावे.” ए प्रकारे प्रगट कहीने अने राजाए मोकलेली नेट लश्ने तथा पोते बीजी नेट सामी मोकलीने घणीज प्रीतिथी ते दूतीने पानी मोकली. दूतीए पण रोहिणीना समाचार कहीने राजाने आनंद पमाड्यो; जेथी तेने ते दिवस निर्गमन करवो सो वर्ष जेवो लाग्यो. पड़ी जाणे नंदराजाना हृदयधीज उत्पन्न थयेला होय नहिं शुं? एवा गाढ अंधकारथी सर्व दिशा व्याप्त थ एटले श्रृंगार धारण करीने नंदराजा फक्त एक माणसने साथे लई रोहिणीना घरे गयो. त्यां रोहिणीनी दासीउए तत्काल तेनो श्रादरसत्कार कस्यो एटले ते मनोरथनीपेठे उंचा सिंहासन पर बेगे अने दूतीनीपेठे पोतानी दृष्टिने त्रांसी रीते चारे तरफ फेरववा लाग्यो. पली पृथ्वी सामी राखी के दृष्टि जेणे एवी रोहिणी पण राजानी बागल श्रावीने उनी रही एटले दर्षनां बांसुथी व्याप्त, चकित श्रने चारेतरफ फरता एवा राजाना नेत्र मृगनासरखा नेत्रवाली ते रोहिणीने जोर जड बनी गया. पनी जेटलामा गर्वपj धारण करीने राजा रोहिणीने कां कहेवानी श्छा करे जे तेटलामां रोहिणीए सखीने आज्ञा करी के, “राजाने माटे रसोइ लावो." सखीउए पण जमवा माटे बेठेला राजानी आगल एक म्होटो थाल मूक्यो. एटले रोहिणीए जाणे पोताना गुणोथी ते थालने जरती होय नहि शुं ? एम मनोहर फलथी ते थाल जरी दीधो. श्रने पडी प्रथमयी Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ शीलोपदेशमाला. शीखवी राखेली सखीए नवा नवा वस्त्रथी ढांकी राखेला थालो राजानी श्रागल मूक्या. राजाए पण थातुरताथी रोहिणी पासे तेना लावण्य र. सने पीवानी श्खा बतावी. पड़ी जूदा जूदा थालोमांथी रसोश्ने जमता एवा राजाए सर्व रसोश्नो एक स्वाद जाणीने आश्चर्यथी रोहिणीने पूब्युं. “ हे मुग्धे ! शाकना खादनीपेठे था सर्वे पदार्थो जोवामां जूदा जूदा देखाय बे; पण परिणामे खाद तो एकज मालम पडे बे." रोहिणीए कह्यु. “ हे राजन् ! विवेकसहित विचारवाथी मालम पडशे के, काऊवाना जलप्रत्ये दोडता एवा मृगनीपेठे कया पुरुषनी मुग्धता ? जो स्थान अने ढांकणना नेदथी रसमां कां विशेष नथी तो पड़ी रूप अने वेषादिकना नेदथी स्त्रीउने विषे शो नेद ? जेम कोई माणस भ्रांतिथी आकाशनेविषे अनेक चंडो देखे , तेमज कामना व्रमथी ब्रांति पामेलो कामी पुरुष स्त्रीनेविषे मोह पामे . वली जेम सूर्य सामुं जो३ रहेवाथी तेजवंत पर बलतो देखाय जे. तेमज मूढ पुरुषोने स्त्रीना दर्शनथी कामानि उत्पन्न थाय बे. हे देव ! तमे प्रजाउँने पितातुल्य बो अने सर्वनुं सरखी रीते रक्षण करनार डो उतां जो तमाराथीज अन्यायनी प्रवृत्ति उत्पन्न थशे तो पड़ी अमृतना समूहथी अंगारानी वृष्टि थई एम कहेवाशे. विषय सुख नरकना फुःखोनी खाण, सुगति संपत्तिर्जनी ग्लानी अने पापीउने पडवानुं स्थानरूप ले. वली अन्यायमां पाडेलाने वधारे शें कहीये? माटे हे राजन् ! पोताना कुलाचार, स्मरण करी था श्रवला मार्गनो त्याग करो." रोहिणीनां श्रावां वचनो सांजलीने उघडी गयां के ज्ञान नेत्र जेना एवा राजाए अन्यायरूप लिने मटाडनारी एवी रोहिणीनी क्षमा मागी अने कह्यु के, " हे जड़े ! पगले पगले कुराचारनो उपदेश करनारा घणां होय बे; पण सारा आचारनो उपदेश करनारा कोश्कज होय . हवे आजथी तत्वे करीने तुं म्हारी बहेन अथवा गुरु बुं. कारणके ते उष्ट यशरूप अंधारा कूवामांथी तें म्हारो उद्धार कस्यो ने." ए प्रकारे सतीने कदेतो एवो नंदराजा तेना सत्कार करी अने तेना गुणोने संजारतो बतो पोताना घरप्रत्ये गयो. हवे बीजा द्वीपमां घणुं धन मेलवानारो धनावर घणा कालथी प्रि Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणीनी कथा. याने मलवानी उत्कंग पामतो उतो घरप्रत्ये श्राव्यो. रोहिणीए पण पतिना मुखरूप चंड ज्योत्स्नाना अमृतरसथी पोताना नेत्ररूप नील कमलने कृतार्थ कस्या. को दिवसे धनावह शेठ वाचाल दासीना मुखथी पोताने त्यां श्रावेला राजानी वात सांजली मनमां विचार करवा लाग्यो के, “ शुं नूख्यो थयेलो वांदरो प्राप्त थयेला मधपुडाने अने कागडो एकांतमां प्राप्त थयेला दहींनां पात्रने चाख्याविना डोडीदे खरो ? लावण्यरूप अमृतना घडासरखी था म्हारी प्रिया नंदराजानां नेत्रना अतिथीपणाने पामी तो पड़ी ते शुद्ध शीलवाली केम रही हशे ? " ए प्रकारे मनमां संकल्प विकल्प करतो एवो धनावद शेठ ते रात्रीने विषे सूतेला मघरवाला धरानीपेठे निश्चल थश्ने सूक्ष रह्यो. पठी चोमासामां ते शेग्ना चित्तना मेलने धोवामाटे तत्पर थया होय नहिं शं? एवा गाढ मेघो वरसवा लाग्या. ते वखते रोहिणीना शीलरूप सुवर्णनी परीक्षा करवामाटे ब्रह्माए जाणे कसोटी उत्पन्न करी होय नहिं शुं? एम विजली शोजवा लागी. सात दिवससूधी अखंड धाराये वर्षाद वरश्यो के जेथी गंगा नदीना पाणीनुं पूर गामना दरवाजापासे श्राव्यु, तेथी जाणे परचक्रीज जय पामेला होय नहिं शुं ? एम नगरना सर्व लोकोए ते पाणीना पूरने फल विगेरे अनेक पदार्थोवडे वधाव्यु; परंतु ते पाणीनुं पूर पाडं हव्युं नहीं, पण दरवाजानी नजीक श्रावी पहोच्यु. राजाए नगरीनो दरवाजो बंध कराव्यो. समुज जेम मर्यादाउपर चडवाने तैयार थाय तेम नदीना पाणीनुं पूर नगरीना कोटउपर चडवाने तैयार थयेयूँ जोश राजाए जयथी पोताना इष्ट देवतानुं स्मरण कझुं. ते वखते इष्ट देवताना कहेवा उपरथी राजाए तत्काल रोहिणीने बोलावीने नगरीना दरवाजा उपर चडावी. पडी रोहिणीए पंच परमेष्ठीने नमस्कार पूर्वक हाथमां जल लश्ने कयु के, “ हे गंगे! जो हुं मन, वचन . अने कायाए करी त्हारीपेठे शुरू सीलवाली हो तो गरुडश्री नागनी सेनानीपेठे था नगरथी निवृत्ति पाम्य.” एम कहीने जेटलामां ते पोताना हायनेविषे रहेढुं पाणी नदीमा नाखवामाटे तैयार थाय ने ते. टलामां मायानीपेठे ते पाणीनुं पूर अदृश्य थ गयुं अने लोकोना चित्तमांधी जय पण निवृत्त थयो. वली धनावह शेठना हृदयमांश्री वि Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ शीलोपदेशमाला. कल्प बुझिनो पण नाश थयो. ते वखते “ शीलनुं महात्म्य श्राश्चर्यकारी .” एम सर्व दिशामां ऊंचा शब्दथी देवता कहेवा लाग्या. पड़ी मिथ्यात्वने नाश करनारा रोहिणीना उपदेशथी नंदराजा जैन धर्मनेविषे प्रीतिवालो थयो भने चैत्य परिपाटी करवापूर्वक तेने म्होटा उत्सवथी तेना घरनेविषे तेडी गयो. प्रियाना निर्मल शीलथी गर्जना करता धनावह शेठे पण राजानो अने नगरवासी मनुष्यो सत्कार करी सौ सौने घरे मोकल्या. पली धनावद शेठ विगेरे सर्वे मनुष्योए शीलना महात्म्यने जोवाथी मोक्ष लक्ष्मीने थाकर्षण करनारा जैनधर्मनो अंगीकार कस्यो. ए प्रकारे रोहिणी जैनधर्मनी प्रनावना करी, पोताना मनुष्य जन्मने कृतार्थ करी उत्तम कर्मना फलरूप स्वर्गलोक प्रत्ये गश्. इति रोहिणीनी कथा समाप्ता. शीलवंतनो संग करवाथी पण घणा गुणो प्राप्त थाय ने, ते कहे . शीलकलितैः साई संगोऽपि एव बहुगुणावहो जवति सीलेकलिएहिं सैधि, संगोवि हूँ बेदुगुणावदो दो॥ कर्पूरसाध्यात्म्यमपि कुरुते वस्तूनां सुरजित्वं कॅप्पूरससत्तं,-पि कुँण, बबूण सुरदित्तं ॥५॥ शब्दार्थ- (सीलकलिएहिं के०) शीलव्रते करीने संयुक्त थएला अर्थात् शीलवालानी ( सर्कि के०) साथे करेलो (संगोवि के०) संग पण (हु के०) निश्चे (बहुगुणावहो के०) घणा गुणवालो (होश के०) थाय . त्या दृष्टांत कहे - (कप्पूरसश्चत्तंपि के०) करिनी सानो वास पण (क्रूण के०) स्पर्श थएली बीजी वस्तुउँने (सुरहित्तं के०) सुगंधवाली (कुण के०) करे . ॥ ५ ॥ विशेषार्थ- जेम करिना सुगंधथी स्पार्शत थएली बीजी वस्तु सुगंधवाली थाय डे, तेम शीलवंतनी साथे करेलो संग पण घणा गुणवालो थाय जे. अर्थात् शीलना गुणने प्रगट करनारो थाय . कडं ले केजो जारिसेण मित्तिं, करे अचिरेण तारिसो होश ॥ कुसुमेहिं सह वसंता, तिलावि तग्गंधिया ढुंति ॥ अर्थ-जे जेनी साथे मित्रा करे जे ते ते Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ३३५ नासरखो घोडा वखतमां घाय बे. जेम पुष्पनी साथे वसता तिलपुष्पो पण पुष्पनासरखी गंधवाला थाय बे. ॥ ५७ ॥ दवे शीलर हितने सर्व गुणोनुं दलकापएं कड़े बे. सकलोऽपि गुणग्रामः शीलेन विना न शोनां श्रवहति संयलो व सुंग्गामो, सीले विणा नं सोदमावंदई ॥ नयनविहिनं इव मुखं लवणविहीना रसवतीव नयविद्वणं वें मुदं, लवैणविणा रसवश्व ॥ ५८ ॥ शब्दार्थ - ( सयलोवि के० ) सकल एवोय पण ( गुणग्गामो के० ) गुणनो समूह जे बे ते ( सीखेण विया के० ) शीलवत विना (सोहं के० ) शोजाने ( न वह के० ) नथी प्रगट करतो. त्यां दृष्टांत कहे बे( न वि ० ) नेत्र विनाना ( मुहं व के० ) मुखनीपेठे अने (लवणवा के० ) मीठा विनानी ( रसवश्व के० ) रसवतीनीपेठे शीलरहित पुरुष शोजाने पामतो नयी. ॥ ५८ ॥ विशेषार्थ - जेम नेत्र विना मुख अने लवणविना रसोइ शोजती नथी, तेम उदारता, स्थिरता, गांजीर्य, ज्ञान ने विज्ञान विगेरे सर्व गुणोनो समूह पण शीलविना शोजतो नथी. कस् बे के - ( शार्दूल विक्रिडित वृत्तम्) ऐश्वर्यस्य विभूषणं मधुरता शौर्यस्य वाक्संयमो, रूपस्यो - पशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः ॥ अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रजवतो धर्मस्य निर्वाच्यता, सर्वेषामपि सर्वकाल नियतं शीलं परभूषणम् ॥ अर्थ - ऐश्वर्यनी शोमा मधुरता, शौर्यनी शोना वाणीनो नियम, रूपनी शोजा शांति, ज्ञाननी शोजा विनय, द्रव्यनी शोजा पात्रदान, तपनी शोमा अक्रोध, अधिपतीनी शोजा क्षमा, धर्मनी शोजा निर्वाच्यता (मौनपणुं ) अने सर्व माणसोनी शोजा सर्वकालने विषे नियमित शील बे. हवे शीलव्रत धारण करनाराउने प्रत्यक्ष फल कड़े बे. विषविषधरकरिकेशरी चौरा रि पिशाचशा किनी प्रमुखाः ॥ विसेविस दर करिकेसरी-चोरारिपिसायसाईणीपमुदा प्रजवंति न शीलवतां सेवेवि असुहनावा, पदवंति ने सीलवंताणं ॥ ५९ ॥ सर्वेपि अशुभजावाः Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ शीलोपदेशमाला. शब्दार्थ - (विस के० ) र ( विसहर के० ) सर्प विगेरे ( करि ० ) हस्ति ( केसरी के० ) केशरी सिंह ( चोर के० ) चोर ( श्ररि के० ) शत्रु ( पिसाय के० ) पिशाच श्रने ( साइणीपमुद्दा के० ) शाकिनी प्रमुख ( सवि के० ) सर्वे एवाय पण ( असुहनावा के० ) अ - शुनाव अर्थात् अमंगलिक पदार्थों जे बेते ( सीलवंताणं के०) शीलवतने धारण करनाराने ( न पवदंति के० ) पराजव करी शकता नथी. ए - विशेषार्थ - विष, सर्प विगेरे केरवाला जीवो, हस्ति, केशरी सिंह, चोर, वैरी, पिशाच छाने शाकिनी विगेरे सर्व अशुभ करनारा जावो शीलव्रत धारण करनाराने उपद्रव करी शकता नथी. अर्थात् ते शीलवंतनुं शुज करवाने समर्थ थता नथी. कथं बे के तोयत्यग्निरपिनजय हिरपि व्याघ्रोऽपि सारंगति, व्यालोऽप्यश्वति पर्वतोऽप्युपलति क्ष्वेडो - पिपीयूषति ॥ विघ्नोऽप्युत्सवति प्रियत्यरिरपि क्रीडातडागत्यपां नाथोऽपि स्वगृहत्यव्यपि नृणां शीलप्रजावाद ध्रुवम् ॥ १ ॥ अर्थ - शीलत्रतना प्रaar मासने निश्चय अग्नि जलसमान, सर्प पुष्पनी मालासमान, वाघ हरिणसमान, हस्ती अश्वसमान, पर्वत पचरसमान, विष अमृत समान, विघ्न उत्सवसमान, शत्रु मित्रसमान, समुद्र क्रीडा करवाना सरोवरसमान ने अरण्य पोताना घरसमान थाय बे ॥ २९ ॥ शीलवत लीधा पढी ष्ट एलानी दुर्गति कहे. शीलष्टानां पुनः ग्रहणमपि पापतरुबीजं सीलनठाणं पुण नामैग्गढ़पि पार्वतरुवीयं ॥ या पुनः तेषाः तु गतिः तां जानाति केवली भगवान् जा पुण 'तेसिं तु गई, 'तं जाइ केवली नैयवं ॥ ६० ॥ शब्दार्थ - (पुण के०) वली ( सीलप्नाणं के०) शीलनतथी नष्ट थ एलानुं ( नामग्गपि के० ) नाम ग्रहण करवुं ते पण (पावतरुबीयं के० ) पापरूप वृनुं बीज बे. (पुण के० ) वली ( ते सिंतु के० ) ते शीलथी भ्रष्ट थएलानी (जा गइ के०) जे गति थाय बे. (तं के० ) ते गतिने ( जयवं के० ) जगवान् एवा ( केवली के० ) केवलज्ञानी (जाइ के०) जाणे बे. ॥५०॥ विशेषार्थ - शीलवतथी भ्रष्ट थएलानुं नाम लेवुं, ते पण पापरूप वृ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ३३७ कनुं बीज ले. अर्थात् तेवा पुरुषोनुं नाम लेवाथी पण पाप लागे . तेवा पुरुषोनी संसारमा नमवारूप जे गति थाय बे ते गतिने तो जगवान् केवली जाणे बे, पण बीजा कोइ जाणी शकता नथी. ॥ ६० ॥ हवे शीलथी घ्रष्ट थएलाने आलोक परलोकमा जे पुःख प्राप्त थाय बे, ते कहे . बंधनबेदनतामनमारणप्रमुखानि विविधखानि बंधणयणतामण-मारणपमुदाइ विविदका ॥ इह लोकेऽपि तथा स्थिरं अयशः प्राप्नुवंति गतशीलाः ईद लोएवि तदा थिर- मंजसं पावंति प्रेयसीला ६१ दारियकुजव्याधिबट्पायुःकुरूपतादीनि अशुजानि दारिदखुद्दवादी-अप्पाजकुरूवया असुदाई॥ नरकांत्यान्यपि वसगानि गलितशीलानां परलोके नरयंता वि वसगा-६ गलियसीलाण परलोके ॥६॥ शब्दार्थ- (गयसीला के०) नाश थयां ने शीलवत जेमनां एवा पुरुषो (श्ह लोएवि के०) श्रा लोकने विषे पण ( बंधण के०) बंधन एटले दोरी विगेथी बंधावं (बेयण के ) बेदन एटले शस्त्र विगेरेथी नाक कान विगेरेनुं कपावं ( तामण के० ) ताडन एटले लाकडी विगेरेधी मरावं अने ( मारणपमुहार के०) मारण एटले जीवथी मारी नंखावq प्रमुख ( विविदछुकाई के०) अनेक प्रकारनां कुःखोने (तहा के०) तेमज (थिरं के) स्थिर एवा (अजसं के०) अपयशने ( पावंति के० ) पामे बे. ॥ ६१॥ तथा ( गलियसीलाण के० ) नाश थयां ले शीलव्रत जेमनां एवा पुरुषोने ( परलोए केप) परलोकने विषे ( दारिद्द के०) दारिज (खुद्दवाही के०) कुप्रव्याधि जयंकर रोग (अप्याउ के) श्रस्पायुष्य श्रने (कुरूवया के०) कुरूप विगेरे (असुहा के०) श्रशुज एवा ( नरयंतावि के०) नरकांतादिक अर्थात् जेना अंते नरकज प्राप्त थाय ठे एवाय पण कुःखो ( वसगा के०) वश्य रहेला बे श्रर्थात् हाथमा रहेला . विशेषार्थ- शीलवतथी व्रष्ट थएला पुरुषो था लोकने विषे दोरी वि Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ शीलोपदेशमाला. गेरेथी बंधावं, शस्त्रादिकथी नाक कान विगेरेनुं कपा, लाकमी विगेरेथी मरावं अने जीवथी मारी नखावं प्रमुख अनेक प्रकारनां पुःखोने तेमज घणा कालसूधी स्थिर थर रहे एवा अपयशने पामे ने अने परलोकने विषे दारिज, जयंकर रोग, अल्प आयुष्य अने कुरूप विगेरे श्रशुज एवा नरक विगेरेनां कुःखोने पामे . ॥ ६१॥ ६॥ __ हवे शीलथी व्रष्ट थएला पुरुष, दृष्टांत कहे . निरुपमतपोगुणरंजितसुरोऽपि सः कुलवालकः साधुः निरुवमतवगुणरंजिय-सुरोवि सो कूलवाल साढू॥ मागधिकासंगात् गलितव्रतः प्राप्तः कुगतिं मांगदियासंगान, गलियव पाविन कुगं॥३॥ शब्दार्थ-(निरुवम के०) जेनी उपमा श्रापी शकाय नहिं एवा (तवगुण के० ) तपना गुणे करीने (रंजियसुरोवि के ) रंजित कस्या डे देवता जेणे एवो ( सो के०) ते ( कूलवाल के० ) कूलवालक नामनो (साहु के० ) साधु जे जे ते ( मागहिया के०) मागधिका नामनी गणिकाना (संगा के ) संग थकी (गलियवर्ड के०) नाश थयुं ले चारित्रत जेनुं एवो थश्ने (कुग के०) कुगति एटले उर्गतिने ( पावि के) पाम्यो बे. ॥ ३ ॥ विशेषार्थ- जेनी उपमा श्रापी शकाय नहिं एवा तपना गुणथी देवताउने पण रंजन करनार अर्थात् वश्य करनार कूलवालक नामनो साधु, मागधिका गणिकाना संसर्गथी शीलवतथी नष्ट थयो बतो कुगति (न रक गति) ने पाम्यो. ॥ ३ ॥ कूलवालक मुनिनी कथा. जेमनी दमाने जो लडापामेलो नागपति शेषराज पातालमां पेशी गयो डे एवा क्षमावंत केटलाक श्राचार्यो हता. गडोनु पालन करता अने विधि प्रमाणे गुणोने धारण करता एवा ते श्राचार्योंने जेम श्रीमहावीर स्वामीने गोशालो पुर्विनीत शिष्य हतो तेम एक अविनीत शिष्य प्राप्त थयो हतो. खजावथी मुर्विनीत श्रात्मावाला, गुरुनी श्राझाने श्रवली माननारा, वांदरानी पेठे उद्वेग करावनारा अने अस्थिर एवा ते Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूलवालक कथा. ३३ए शिष्यने गुरुए कहेली सारणा वारणादिक शिक्षा तावथी पीमाता मा. एसोने जेम घी विष सर लागे तेम विष सरखी लागती हती. __को दिवसे घणा गुणवाला श्राचार्यों तीर्थयात्रा करवानी श्वाथी ते दूविनीत शिष्य सहित श्री गिरनार पर्वत उपर गया. त्यां यात्रा करवा माटे श्रावेली स्त्रीउना समूहने जोश्ने चंचल चित्तवाला थएला ते कुशिष्यने गुरुए वास्यो; तेथी ते कुशिष्य मनमां गुरु उपर क्रोध राखवा लाग्यो. पनी उतरती वखते गुरुनी पाउल चालता ते कुशिष्ये गुरुने चूरण करवा माटे ( मारवा माटे ) यमना गोला सरखो एक म्होटो पथ्थर पाड्यो, पण चतुर मुनिए पडता एवा ते पथ्थरना शब्दने सांजली पो. ताना पग पहोला करी नाख्या; जेथी कुशिष्ये धारेलो मनोरथ फोगट थयो. पडी प्रगट क्रोधवाला ते आचार्योए कुशिष्यने श्राप थाप्यो के, "हेडरात्मन् ! तुं स्त्रीउथी व्रतनंगने पामीश. " पड़ी “ हुँ ज्यां स्त्रीउना मुख नहीं देखुं एवा स्थानमा रहि गुरुना श्रापने मिथ्या करीश.” एवो विचार करीने ते दुष्ट बुद्धिवालो कुशिष्य तरश्यो माणसजेम तलाव प्रत्ये जाय अने अज्ञानी माणस जेम कुमार्ग प्रत्ये जायतेम गुरुनो त्याग करी कोर अरण्यमां चाल्यो गयो. त्यां नदीने कांठे तप करतो, कायोत्सर्ग करतो तथा पददमण अने मासदमण करतो एवो ते कुशिष्य ते मार्गे थश्ने जता आवता को सार्थादिक पासेथी अन्न लश् पारj करतो. हवे वर्षाकाल प्राप्त थयो एटले पर्वतथी निकलेली नदी कुलटा (वेश्या) स्त्रीनी पेठे पोतानी मरजी प्रमाणे वृद्धि पामवा लागी. नदीना कांगनो श्राश्रय करी रहेला तुझकनी पासे पाणीना पूरने श्रावतुं जोश जिनशासन देवी विचार करवा लागी के, निश्चय कृतघ्ननी पेठे सर्व प्रकारे वृद्धि पामतो एवो आ नदीनो प्रवाह मुनिने बूमामशे" एम धारीने शासनदेवीए नदीना प्रवाहने बीजी बाजु तरफ चलाव्यो, तेउपरथी लोकमां ते मुनिन “ कूलवालक" एवं नाम प्रसिद्ध थयुं. हवे श्री श्रेणिकराजाए हार, कुंमल अने वस्त्रसहित सेचनक नामनो हाथी हद विहलने नेट थाप्यो हतो अने पड़ी पोते मरण पाम्यो; जेथी तेनो पुत्र कोणिक राज्यासन उपर बेगे; पण ते पिताना शोकथी राजगृह नगरने विषे रही शक्यो नहीं; तेथी ते वास्तुशास्त्रमा पंमित एवा Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० शीलोपदेशमाला. पुरुषो पासे चंपानगरी करावी पोताना कालादिक दश जासहित त्यां रह्यो. पनी पद्मावती पट्टराणीना श्राग्रहथी कोणिक राजाए हर विहब्ब पासेथी पोताना पिताए आपेला हार, कुंमल वस्त्र अने सेचनक हाथी पला माग्या एटले बुद्धिवंत एवा ते बे नाळ ते कोणिकने अशुल बुद्धिवालो मानी श्रने सर्व सारवस्तुने लश् रात्रीने विषे विशाला नगरीमां नासी गया. त्यां बुद्धिवंत एवा मातामह (माना बाप) चेमा राजाए स्नेहथी ते ने पोताना युवराजना सरखा मान्या. हवे कोणिक राजाहर अने विहल चेडा राजानी शरणे गयेला जाणीने विचार करवा लाग्यो. "अरे! हुँतो बंधु अने रत्नो ए बेयथी नष्ट थयो;पण जो हुंश्रेणिक राजानो पुत्र बुं तो तेने त्यांथी त्याग करावं.” एम प्रतिज्ञा करीने तेणे चेमा राजापासे दूत मोकली हद विहरनी मागणी करी, पण चेमा राजाए पोतानी शरणे श्रावेला तेउने कोणिकराजाने स्वाधिन कस्या नहीं; जेथी क्रोध पामेला कोणिकराजाए पोताना असंख्य सैन्यथी विशाला नगरीने घेरो घाल्यो एटले महाबलवंत एवा कोणिक अने चेडा राजाने म्होटं युद्ध थयु. जेमां एक कोड अने एशी लाख वीर पुरुषो माख्या गया. वीर एवा हल वि. हब पण सेचनक हाथी उपर बेसी रात्रीए कोणिकनी सेनाने मारी तत्काल पाबा नाशी जता. कोणिकना सुजटो घणा उपायकरता, पण ते सेचनकने मारी नाखवाने अथवा पकडवाने समर्थ थया नहीं. बेवट अंगारानी खाश्ना प्रयोगथी सेचनक हाथी मरायो एटले संसारथी निस्पृह थएला अने श्री शासनदेवीए श्रीवीर लगवान् पासे पहोचाडेला तथा श्रात्मानुं साधन करनारा ते हव अने विदो दीदा धारण करी. महा बलवंत एवो श्रेणिकनो. पुत्र पण ज्यारे विशाला नगरी लेवाने समर्थ थयो नहीं त्यारे तेणे एवी प्रतिज्ञा करी के,“जो हुँ गधेडाथी जोडायेला हले करीने श्रा विशाला नगरी न खोदावी नाखू तो हुँ ऊपापात करी अथवा अग्निमां प्रवेश करी मृत्यु पामीश.” श्रावी प्रतिज्ञा कस्या बतां पण ज्यारे ते विशाला नगरी सेवा समर्थ थयो नहीं त्यारे मनमां घणोज खेद पामवा लाग्यो. श्रा वखते गुरुनी आझानो नंग करवाथी कूलवालकने विषे क्रोध पामेली शासनदेवीए श्राकाशमा उन्ना रहीने कोणिकने कयु के, गणियं चे मागधियं, समणे कूलवालके ॥ गमिद्य कूणिएलाए, तो वेसा Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूलवालकनी कथा. ३४१ लिं ग हिस्सदि ॥ १ ॥ अर्थ - जो फूलवालकमुनि मागधिका गणिका प्र त्ये गमन करशे, तो कोपिक राजा विशाला नगरीने ग्रहण करी शकशे." शासनदेवीनी ए प्रकारनी वाणी सांजलीने जयनी आशा पामेला कोकि राजा बहु मानपूर्वक मागधिका वेश्याने बोलावीने वस्त्रालंकारथी सत्कार करीने कयुं के, " हे जड़े ! तें जन्मयी श्रारंभीने अनेक पुरुषोनी बुद्धि जीवाडी बे; माटे तुं श्रमारुं कार्य करीने पोतानी कला सफल करने हे कलावती ! ते श्रमारुं कार्य ए वे के फूलवालक मुनिने अहिं तेडी लाव्य. " राजानी श्राज्ञा अंगीकार करी मागधिका asure कपट श्राविकनो वेष धारण कस्यो ने पी ते तीर्थयात्रा करती करती ज्यां फूलवालक मुनि रहेता हता त्यां आवी पहोची. वैराग्यना गाढवेषयी ते मुनिने वंदना करीने कयुं के, " हुं गीरनार विगेरेनी तीर्थयात्रा करवा निकली ढुं तेमां आपनां पण दर्शन थयां.” मुनिए डिमानो त्याग करी धर्मलाजनी आशिष थापी अने पछी ती वंदना करी पूयं के, " हे विवेकी नि ! तमे क्यांथी आव्या ? ” मागधिका कं. " हे नाथ ! धर्म एकज बे शरण जेने एवी हुं चंपानगरीय निकली तीर्थयात्रा करती करती जंगम तीर्थ ( हालता चालता तीर्थ ) रूप तमने वंदना करवानी इछाथी श्रहिं यावी . हे म हर्षे! म्हारी पासे बेतालीश दोषरहित नाथं बे; तेने ग्रहण करी म्हारा उपर अनुग्रह करो.” जक्तिथी वश थयो बे आत्मा जेनो एवा मुनि पण तेनाश्रममां गया ने त्यां ते वेश्याए प्रथमयीज नेपालानुं चूर्ण नाखी नाव राखेला लाडवा मूनिने वहोराव्या. मुनिने पण फक्त ते लाडवा खावाथीज एटलो बधो अतिसार (काडो) थयो के, पोतानुं शरीर शुद्ध करवाने पण समर्थ थया नहीं. बीजे दिवसे जाणे पूढवाने यावी होय नहि शुं ? एम मुनिपासे श्रावेली मागधिकाए तेमने तेवी स्थितिमां प डेला जोइने मुख श्राकुं वस्त्र राखी गद्गद् वाणीथी कयुं. " हे मुनि ! तमारी या अवस्था म्हाराथीज ययेली बे, तो साधुने या प्रकारे मृत्यु पनारी एवी मने धीक्कार बे. यावा कार्यथी मने नरकमां पण रहेवानुं स्थान नहिं मले. वली एकलाखने या प्रकारनी स्थितिये पहोचला तमने या मनुष्य रहित वनमां मूकीने हवे म्हारे बीजी तीर्थयात्रा करवा जवुं Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ शीलोपदेशमाला. ए योग्य नथी; माटे तमारी सेवाथी म्हारा आत्माने पवित्र करीश. " एम कदीने ते वेश्या वारंवारं औषध करवा लागी ने अनुक्रमे मुनिने तेवी रीते नवराववा लागी के, जेवी रीते मुनिना सर्व अंगनो स्पर्श याय. एप्रकारे सेवा करीने वेश्याए मुनिने पोताने स्वाधिन करी लीधा. कयुं वे केसंकटमां पडेला सर्वे माणसो सुखे वश्य करी शकाय बे. ए प्रमाणे कटाक्ष, मुखने मलकाव, वाणी युक्ति अने शरीरनी चेष्टाथी मुनिने तपथी ऋष्ट करी नाख्या. कह्युं बे के - स्त्रीजना संग खागल तप नकामुं बे पढी तेने निरंतर साथे वास, साथे जोजन छाने हास्य वचनथी स्त्री पुरुषनो व्यवहार बंधायो धिक्कार बे मोहनी चेष्टाने !!! पठी मागधिका दोरडीथी बांधेला मांकडानी पेठें कूलवालक मुनिने ज्यां चंपा नगरीनो राजा कोपिक हतो; त्यां तेी गइ ने कह्युंके, "हे देव ! हुं या कूलवालक मुनिने पति करी हिलावेली बुं, माटे हवे जे काम होय ते तेने कहो." atus गौरवणाथ कूलवालकने आज्ञा करी के " श्रा विशाला नगरी म तत्काल तुटी जाय तेम करो.” कूलवालक मुनिए राजानां वचननो दर करी तथा तापसीरूप धारण करी बगलो जेम तलावमां प्रवेश करे तेम विशाल नगरीमां प्रवेश कस्यो. कोणिक राजा पण विशाला नगरीने वधारे घेरो घालवा लाग्यो. मुनिए पण निरंतर नगरीना धनना संचयने जोवानी इछायी जमता जमता मुनि सुव्रतनाथना स्तूपने जो‍ विचार करवा मांड्यो के, “ निश्चय या स्तंजनी प्रतिष्ठाने विषे कोइ महा बलवालुं लग्न श्रावेलुं वे के, जेना प्रजावथी या नगरीने इंद्र पण जांगी सकशे नहीं. जो या स्तंन जखेडी नखाय तो धारेलुं काम थाय ! " एम विचार करता ते मुनि स्त्रीने पाणी जरवाना मार्गे वारंवार जमवा लाग्या. ते वखते नगरीने घेरो घालवानी परस्पर वातो करती एवी स्त्रीउए मागधिकाना पति एवा कूलवालक मुनिने जोइने पूब्यं के, " हे जगवन् ! नगरीने वह दिवसथी घेरो घालेलो होवाथी एमे घणां दुःखी थइए बीए, तो हवे ते घेरो क्यारे बंध यशे ते कहो ?” मुनिए कयुं. "ज्यांसूधी नग बहु मां या स्तं श्रखंडितपणाथी रह्यो बे त्यांसूधी खराब रोगनी पेठें ते घेरो बंध नार नथी. वल्ली तमे म्हारा वचनना विश्वासने माटे तेने थोडो पाडी जू के, जेथी समुद्रनी वेलानी पेठे ते घेरो दूर जवा लागशे अने Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ कूलवालकनी कथा. सर्व पाडी नाखवाथी तो कृतार्थ पणुं पामशो;कारणके, ए स्तंजर्नु मुहूर्त क्षय करनारा वखते थएलुं .” पड़ी केटलाक माणसोए प्रथम ते स्तंनने थोडो पामी नाखवा मांड्यो एटले कूलवालक मुनिए लोकोने विश्वास उपजाववा माटे कोणिक राजा पासे जश् तेनुं सैन्य थोडे दूर लश् जवानुं कह्यु. कोणिके तेम कडं; तेथी लोकोने पुरतो विश्वास आववाथी ते स्तंनने मूलमांथी उखेडी नांख्यो. पडी बार वर्षे कोणिक राजा विशाला नगरीने तोमी शक्यो. त्यांसूधि मुनि सुव्रतनाथना स्तंजनोप्रजाव चाख्यो. कोणिक अने चेमा राजाना युक सरखं बीजो को युद्ध था अवसर्णिने विषे प्रमथ क्यारे पण थयो नथी. पड़ी कोणिक राजाए पोताना देश प्रत्ये जता बता चेडाराजाने कर्वा के,"हे मातामह ! कहो, मने शी आज्ञा बे?" चेमाराजाए कह्यु. “हुं पुष्करिणी नदीमा स्नान करीने पालो श्रावू त्यांसूधी तुं श्रहिं रहे." कोणिके ते वात कबूल करी एटले शुजध्यानमां अखंमित बुद्धिवाला चेमा राजाए पोताना कंठने विषे प्रतिमा बांधी वाव्यमां पमतुं मूक्यु एटले साधर्मिकपणाथी धरणे तेने जीती लश् पोताने स्थानके तेकी गयो. त्यां अंतनी श्राराधना करी अनशनपूर्वक मरण पामी ते आठमे सहस्रार देवलोके देवता थयो. पडी चेमाराजानी पुत्री सुजेष्ठानो पुत्र सत्यकी के जे विद्याधर हतो, ते विशाला नगरीमां श्रावीने सर्व माणसोने नीलवंत पर्वत उपर लश् गयो एटले कोणिक राजाए गधेमाथी जोडेला हलोये करीने विशाल नगरीने खेमी पोतानी प्रतिज्ञा पुरी करी अने पळी ते महोटा उत्सव सहित पोतानी चंपा नगरी प्रत्ये गयो. मागधिकाना संगरूप तरंगवाला समुज्ने विषे बूमी गश्डे बुद्धि जेनी एवो कूलवालक मुनिपण शीलवतना खमनथी उत्पन्न थएला पापे करीने अनेक जन्मपर्यंत था संसारने विषे जटकशे. इति कूलवालक मुनिनी कथा, Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ शीलोपदेशमाला हवे विषयरसनी तृषायी श्रातुर थवामां तपना श्राचरणनुं पण निरक पकड़े बे. श्रमण्यपि खलु विषयरसात् पूर्वजवे द्रौपदी कृतनिदाना समणीव है विसयरसा, पुवनवे दोवेई कय नियाणा || शिवदायकमपि खलु तपः मुधा हारयामास धिक् मोहः सिंवदायगंपि ढुं तवं मुँदा हारिसुं ' है। 'मोहो ॥ ६४ ॥ 0 शब्दार्थ - ( पुवनवे के० ) पूर्वजवने विषे (दु के० ) निश्चे ( कयनिदाना के० ) क बेनियाएं जेणे एवी छाने ( समणीवि के० ) ग्रहण कखुं बे चारित्र जेणे एवीय पण ( दोवइ के० ) द्रौपदी, ते ( विसयरसा ho ) विषयना रसथकी (सिवदायगंपि के० ) मोने आपनारा एवाय पण ( तवं के० ) तपने ( हु के० ) निश्चे ( मुद्दा के० ) फोगट ( इहारिसु के० ) हारी गइ ! ते कारण माटे ( मोहो के० ) मोह ( ही के० ) धिक्कारवा योग्य बे ॥ ६४ ॥ विशेषार्थ- पूर्वजवमां पांच पुरुषोनी स्त्री थवानुं नियाएं करनारी अने चारित्रधारी एवी सागरदत्त शेवनी पुत्री सुकुमालिका के, जे या जवमां द्रौपद राजानी पुत्री द्रौपदी तेथे विषयना रसधी मोहने यापनारा तपने फोगट गमायुं माटे ते मोह खेदकारी बे. ॥ ६४ ॥ द्रौपदी नी कथा. जेनो मणिमय किल्लो देवस्त्रीउना दर्पणपणाने पामेलो बे एवी अने सर्व गर्वधारी शत्रुने कंपावनारी चंपा नामनी महा नगरी बे. तेमां स्थिर मनवाला सोमदेव, सोमनूति श्रने सोमदत्त नामना त्रण सगानाइ ब्राह्मणो जाणे त्रण गुणोज होय नहिं शुं ? एम वसता इता. तेर्जने नुक्रमे प्रेममां पुष्ट एवी नागश्री, नूतश्री अने यशश्री नामनी त्रण स्त्री हती. ते त्रणे जाइए एवी व्यवस्था करी इती के, ते एक घरने विषे नेगा जमता ने त्रणे स्त्री वारा फरती एक एक दिवसे रसोइ करती. एक दिवस हर्षित मनवाली नागश्रीए पोताना वाराने दिवसे नाना प्रकारना रस छाने शाक विगेरेथी मनोहर रसोइ बनावी; पण तेणे ज्ञानपणाथी क्यारे पण न पकाववा योग्य एवं कडवी तुंबडीनुं शाक Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौपदीनी कथा. ३४५ अनेक मशालाथी मनोहर देखाववायूँ करीनाख्यु. रसोइ करी रह्या पली खबर पड़ी तोपण मान प्रमाणे रसोश करनारी ते नागश्रीए पोताना कमना उर्विपाकथी ते कडवी तुबमीन शाक तेनी अंदर थएला पैसाना खरचने संजारी त्याग कलुं नहीं; पण खजावधी लोजणी एवी ते ब्राह्मणीए सर्प मशेली बांगलीनी पेठे ते कमवी तुंबडीना शाकने रसोडामां को वासणमा राखी मूक्यु. पड़ी कुटुंबने बीजा पदार्थोथी जोजन कराव्यु एटले पति अने दियर विगेरे जमीने तत्काल बहार गया. एवामां झाने करीने सूर्य समान एवा दमघोष सूरी ते पुरीना बगीचामांश्राव्या हता तेमनो धर्मरुचि नामनो शिष्य मासक्षमणाना पारणाने विषे कुतराना घरमां बकरानी पेठे नागश्रीना घरे वहोरवा माटे गयो. नागश्री पण “ मारे था साधुने बीजी बहु वस्तु फोगट श्रापवी न पडे अने निदाना श्रर्थी ते साधु संतोष थाय.” एम धारी जाग्यना वशथी पोते नरकमां पडवं सत्य करी आपती होय नहिं शुं ? एम तेणे राखी मूकेलु कडवी तुंबडीनुं शाक साधुने वहोराव्यु. धर्मरुचिए गुरुपासे श्रावीने ते शाक बताव्यु. तेने जोश्ने प्रेमयुक्त ह्रदयवाला गुरुर्जए कह्यु. “ नागश्रीए प्राणीऊना प्राणने तत्काल नाश करनारुं था कडवी तुंबमीनु शाक तने उष्टपणाथी अथवा अझानपणाथी आप्यु बे; माटे तुं तेने यत्नथी पृ. थ्वीमा पठवी दे." एवी गुरुनी श्राज्ञा पामी धर्मरूचि नगरनी बहार गयो. त्यां पात्रमांथी एक टी' पृथ्वी उपर पड्युं अने तेनो स्पर्श थवाथी हजारो कीमी मरण पामी. ते उपरथी धर्मरूचि विचार करवा लाग्यो के, "अहो ! था एक टीपाथी अनेक जीवोनो नाश थयो तो पड़ी श्रा सर्वथी केटला जीवोनो नाश थशे ? नले म्हारो एक जीव जाऊ; पण कोटि जीवोनी हिंसा न था." एम विचार करीने ते धर्मरूचि पोतेज हर्षयी सर्व शाक खा गयो अने आराधना पूर्वक समाधियी मृत्यु पामी सर्वार्थसिक देवलोकने विषे देवता थयो. हवे अहिं गुरु विचार करवा लाग्या के, "धर्मरूचिने वार केम लागी?” एम धारीने तेमणे केटलाक साधुउने तपास करवा मोकल्या. ते उपरथी मुनि नगरनी बहार गया तो तेमणे धर्मरूचिने त्यां तेवी स्थितिमां पडेला दीग एटले तेमना उपकरण गुरुनी पासे लावीने ते ए जेतुं दीतुं हतुं तेवं कडं. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ शीलोपदेशमाला. ते वात माणसोना मुखश्री सोमदेवादिक ब्राह्मणोए सांजली. ते उपरथी ade क्रोध करीने नागश्रीने तरत घरमाथी काढी मूकी. लोकमां निंदाना पात्ररूप एली ते नागश्री कुतरीनी पेठे जमवा लागी. वली ताव, स्वास ने अतीसार ( जामा ) ना रोगथी गलि गएला देहवाली, नरक जूमिनी वेदनाने अनुभवती, भूख तरशथी पीमा पामती श्रने रौद्र ध्या मां व्याप्त थली ते नागश्री मृत्यु पामीने उठी नरकने विषे गइ. त्यांथी मांडलाना जवमां श्रावीने पाठी सातमी नरके गए. त्यांथी फरी मांडलाना जवने पामी ने फरीने पण सातमी नरकमां गई. ए प्रकारे दुष्ट आत्मावाली ते नागश्री सर्व नरकने विषे बबेवार जमी ने पी पृथ्वी कायादि योनिमां उत्पन्न थर पढी पर्वतनी नदीना पथ्थरना न्यायथी ते नागश्रीनो जीव संसार समुद्रमां जटकी कर्मना लघुपणाथी चंपा नगरीमां सागरदत्त शेवनी स्त्री सुनझाना उदरथी सुकुमारीका नामनी पुत्रीपणे उत्पन्न थयो. तेज नगरमा जिनदत्त नामनो बीजो शेठ रहे तो हतो. तेने जड़ा नामनी स्त्री हती. तेउने कलाज्ञाननो पार पा मेलो सागर नामनो पुत्र हतो. . एक दिवसे जिनदत्त शेठ सागरदत्तना घरमा रहेली सुकुमारीकाने जोने " म्हारा पुत्रने योग्य बे.” एम विचार करवा लाग्यो. पढी तेणे पोताना बंधुवर्गने साथे लइ गौरव पणाथी सागरदत्त शेठना घरे जइ पोताना पुत्रने माटे सुकुमारीकानी मागणी करी एटले सागरदत्ते उत्तर प्यो के, "तेम बहु सारूं कयुं. कारण म्हारे तेने परणाववी बे. पण ते पुत्री मने प्राण थकी पण वधारे वहाली बे, जेथी हुं क्षणमात्र तेनाथी जूदो रही शकतो नथी. जो तमारो सागर पुत्र म्हारो घर जमाई थने रहे तो हुं तेने म्हारी पुत्री परणा. " पछी जिनदत्त शेठ " हुं पुत्री साथे विचार करी जोउं. " एम कही घरे श्राव्यो अने सागर पुत्रने सर्व बात कही. सागर पण बोल्याविनाज उनो रह्यो " जे कांइ उत्तर नापे तेने कहेली वात मान्य वे. " एम धारीने जिनदत्त शेठे सागरदत्त शेठ पासे खावीने कत्युं के, " म्हारो पुत्र तमारो घर जमाइ थइने रहेशे." पछी तेनो म्होटी समृद्धिथी विवाह महोत्सव थयो. - स्तमेलाप वखते सागरदत्त शेवे सागरने घणुं द्रव्य श्राप्युं पढी सुवा Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ौपदीनी कथा. ३४० सिनी स्त्रीए योग्यरीते शणगारेला घरने विषे ते बन्ने जणा (सागरकुमार तथा सुकुमारिका) सूवामाटे गया. संजोगनी सर्व सामग्री उतां पण पूर्वकर्मना संस्कारथी सागरने ते सुकुमारीकाना अंगनो स्पर्श अंगारा सरखो लाग्यो. जयंकर उनालानी ऋतुमां बलता एवा अग्निमां होय नहिं. शुं ? एम सागरने एक क्षणमात्र पण वर्षना सरखु लाग्यु. पली निसाने वश थयेली सुकुमारिकाने त्याग करी सागर पोताना घरे नाशी गयो; तेथी पति रहित ते सुकुमारिका हारलेखानी पेठे शय्यामांज सूझ रही. पतिए निखामां त्यजी दीधेली सुकुमारीका जागीने थामतेम वारंवार जोवा लागी; पण पतिने दीगे नहीं एटले यूथथी जूली पडेली मृगलीनी पेठे रोवा लागी. ते सांजलीने दासीए त्यां श्रावी श्रने जोयु तो पतिए त्यजी दीधेली एवी सुकुमारीकाने दीठी, तेथी ते दासीए सुनाने वात करी अने सुनाए पति (सागरदत्त शेठ) ने वात करी. सागरदत्ते पण ते वात जिनदत्त शेठने कही; तेथी ते निंदासहित पुत्रनो तिरस्कार करवा लाग्यो अने कहेवा लाग्यो के, “ हे धैर्यना समुज! सागर ! कुलीन एवा तें आ साकं कमु नथी, कारण के खजनो अपमान थापवा लायक होता नथी. कुलीन माणस, सुगुणने अथवा निर्गुणने जेने अंगीकार करे ले तेने त्यजी देता नथी. जो के शं. करे अंगीकार करेलो चंछ कलंकवालो अने वांको , तो पण तेमणे तेने त्याग कस्यो नश्री; माटे हे वत्सल ! त्यां जश् अने सुकुमारिकानो श्रादर करी आपणां दोष रहित कुलमां स्वजनोनी अवाथी उत्पन्न थएला नविन दोषने नाश कर.” पितानां श्रावां वचन सांजली सागर कुमारे स्पष्ट कह्यु. “ हुँ खुशीश्री अग्निमां प्रवेश करीश, पण तेना घरे नहीं जाउं.” ए वात सांजली सागरदत्त शेठ रोता उता पुत्री पासे श्रवीने रदेवा लाग्यो. “ हे वत्से ! सागर त्हारे विषे एटलो बधो शा कारण माटे विरक्त थयो ने के,जे तने अंगारानी गाडीनी पेठे स्वप्नमां पण श्वतो नथी? खेर, हुं म्हारी पुत्रीने माटे बीजो वर शोधिश; कारण के,” गामडाना अजाण लोकोए दूषित करेलु रत्न कांश अमूल्य यतुं नथी. ___ एक दिवस गोखमां बेठेला सागरदत्त शेठे हाथमा खप्पर धारण करी रहेला, जमती मांखीउना समूहथी व्यात, खराब यौवन अवस्था Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ शीलोपदेशमाला. वाला थने फक्त केड उपर एक वस्त्रवाला कोई एक निखारीने जाणे मूर्तिमान दारिजपणुंज होय नहिं शुं ? एम दीगे. पड़ी तेने पोताने घरे बोलावी, स्नान करावी, चंदन चोपडी अने उत्तम वस्त्र धारण करावीने शेठे कडं के, “लक्ष्मीना सरखी था म्हारी सुकुमारीका पुत्रीने विलास करावतो तो सुखेथी अहिंज रहे.” शेग्नां एवां वचन सांजली हर्ष पामेलो ते निखारी जाणे पोते देवतार्नु सुख पाम्यो होय नहिं ? एम मानतो तो शेठना घर जमाश्नी पेठे त्यां रह्यो. रात्रीए शृंगार धारण करेली सुकुमारीका सहित शयन गृहमां गएला ते निखारीने तेना अं. गनो स्पर्श अग्निना सरखो लाग्यो; तेश्री ते “श्रा राक्षसी . "एम मानी तुरत उठी पोतानुं पात्र लहीने नाशी गयो. पठी सुकुमारीका रोवा लागी. ते सांजलीने शेठे धीरज श्रापता उतां पुत्रीने कां के, " श्रा त्हारा पूर्वकर्मनुं फल उत्पन्न थयुं . जो के सूर्य श्राकाशमां जमे बे; गुणवंत जटकीने खावानुं मेलवे ने अने मूर्ख संपत्तिने जोगवे ने ए सर्व पूर्वना कर्मनुज फल माटे हवे मिथ्या शोक न करतां पोताना कर्मनो नाश करवाने अर्थे यत्न कर श्रने दीन मनुष्योने दान श्रापती उती शांत थश्ने म्हारा घरने विषे रहे." पठी समाधिये करीने निश्चल इंडियोवाली अने पोताना कर्मना मर्मने जाणती ते सुकुमारीका जिनेश्वर नगवाने कहेला धर्मर्नु आचरण करती उती पिता सागरदत्त शेषना घ. रने विषे रही. ___ एक दिवस शेउना घरने विषे केटलीक साध्वी गोचरीने अर्थे श्रावी. तेने सुकुमारीकाए नक्तिथी शुझ नात पाणी बहोराव्यु अने पड़ी निर्धन माणस जेम मणि ग्रहण करे तेम विरक्त आत्मावाली ते सुकुमारी. काए साध्वी पासे कर्मरूप वेलने बेदन करनारं चारित्र ग्रहण कसु. वली कर्मने मूलमाथी उखेडी नाखवाने माटे उद्यमवंत थयेली तेणे म्होटुं तप करवानो श्रारंज कस्यो. - एक दिवसे सर्वश्री उग्र एवं तप करवानी श्वाथी स्वस्थ चित्तवाली सुकुमारीकाए वंदना करीने प्रवर्तनी (गुरुणी) ने पूब्यु के, "हुं म्हारा पूर्वना पुष्ट कर्मनो नाश करवा माटे उद्यानमा एकांते रहीने तथा सू. यसामी दृष्टि राखीने तप करवानी इछा करूं तुं.” प्रवर्तनीए उत्तर Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौपदीनी कथा. ३४० प्यो के, “उपाश्रयथी बहार मार्गमां तप कर ए आपणो धर्म नथी. साधुर्जने पण तेवुं तप को वखते करतुं कल्पे बे, पण साध्वीउने कल्पतुं नथी. " पढी सुकुमारीका प्रवर्तनीनां वचननो अनादर करीने नगरनी पासेना बगीचामां जइ जेटलामां सूर्यसामी दृष्टि राखीने तप करवानो प्रारंभ करे बे तेटलामां तेथे एक पुरुषना खोलामां जेना पग बे, बीजो पुरुष जेनो आधार थयो बे, त्रीजो पुरुष जेने पवन नाखे बे, चोथो पुरूष जेना शींगारूप थयो बे ने पांचमो पुरुष जेना मस्तक उपर बत्र धारण करी रह्यो बे एवी देवदत्ता नामनी गणिकाने त्यां आवेली दीवी. ते गणिकाना श्रेष्ठ जाग्यना उत्तमपणानो वैजव जोइने जेनी जोग इछा पूर्ण य नथी एवी सुकुमारीकाए एवं नीश्राएं बांध्युं के " में आचरण करेला या तपनुं जे कांइ फल बे तेना प्रजावथी हुं यावता जवने विषे देवदत्ता गणिकानी पेठे पांच पतिवाली थानं " सुकुमारीका या प्रमाणे नीयाएं करवा पूर्वक तप करती दती ने प्रवर्तनी तेने तेम करतां रोकती हती; तेथी ते सुकुमारीका या प्रमाणे विचार करवा लागी के-" प्रथम या प्रवर्तनी स्वजननी पेठे मने मान श्रापती ने दवणां विना कारणे वैरिणीनी पेठे म्हारो तिरस्कार करे बे. " एम चिंतवीने पोतानी मरजी प्रमाणे चालवाथी जैनमार्गनुं मलिनपणुं एकतुं करती ते सुकुमारीका जूदा उपाश्रयने विषे एकली रहीने व्रतनुं पालन करवा लाग. त्यां माससूधी विधिप्रमाणे संलेखना करी ने पढी मृत्यु पामीने ते सौधर्म देवलोकने विषे नवपल्योपम श्रायुष्यवाली देवी थइ. त्यांथी चवीने ते सुकुमारीकानो जीव, कांपीव्य देशना द्रुपद राजानी मेनका नामनी देवांगनाथी पण अधिक रूपवाली दौपदी नामनी पुत्रीपणे उत्पन्न थइ. अनुक्रमे ते पुत्र यौवन अवस्थाने पामी एटले तेणे पितानी आगल उतम वरनी छायी राधावेध करनारने वरवानुं पण लीधुं. द्रुपद राजाए पण स्वयंवर मंगप श्रारंजी तेमां दूतोने मोकली अनेक राजाउने बोलाव्या. ते वखते पांच पांवो ( युद्धिष्ठिर, जीम, अर्जुन, नकुल सहदेव) पण स्वयंवर मंरूपरूप मानसरोवरने विषे इंसोनी पेठे श्राव्या. पढी अर्जुने राधावेध करवाथी तेने वरवाने तैयार थएली द्रौपदीए लगाथी पोतानी दासीना हाथे अर्जुनना कंठने विषे वरमाला आरोपण करी. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० शीलोपदेशमाला. दिव्य प्रजावथी (पूर्वे बांधेला नीश्राणाना उदयथी) वरमाला एक उता पण पांचे पांडवोना कंठने विषे जूदी जूदी आरोपण करेली देखा. ते वखते "पुण्यवाली था राजकन्या सारं वरी! सारं वरी!!" एम आकाशवाणी थश्. “ हुं था एक कन्या पांचे जणाने शी रीते आपीश, अथवा जो थापीश तो सर्वेना हास्यपणाने पामीश, वली वरमाला एक उतां पांचेना कंठने विषे देखाय ने तेमज आकाशवाणीए पण आ वातनो श्रादर कस्यो ने तो हवे शुं थशे?" ए प्रकारनी चिंतारूप महा समुखमां बूडेलो श्रने योग्य कार्य करवामां मूढ बनी गएलो झुपद राजा जेटलामां क्षणमात्र विचार करवा लाग्यो तेटलामां आकाशमार्गथी चारण मुनिए श्रावी प्रौपदीना पूर्वजवना नीश्राणानी वात झुपद राजाने कही तेना संदेहने निवृत्त कस्यो. पडी हर्षित चित्तवाला पांमु अने उपद राजाए पांमवोनो अने प्रौपदीनो विवाहमहोत्सव कस्यो. ए प्रकारे मोद लक्ष्मीना परिणामरूप तीव्र तपना नीश्राणाथी उपद राजानी पुत्री सौपदी पांसुराजाना पांच पुत्रोनी प्रिया थ; माटे विषयनी श्वाने धिक्कार . इति प्रौपदीनी कथा. म्होटा एवाय पण परस्त्री गमन करनार पुरुष, हलकापणुं कहे . अमरनरासुरविसहसपौरुषचरित्रोऽपि पररमणीरसिकः अमरनरअसुरविसरिस-पोरिसचरिवि पररमणिरेसि॥ विषमदशां संप्राप्तः लंकाधिपतिःअपि रंकश्व विसमंदसं संपत्तो, लंकादिवविरंकुवें ॥६६॥ शब्दार्थ- (श्रमर के०) देवता (नर के०) मनुष्य अने (असुर के०) जुवनपति, तेमना ( विसरिस के०) सरखा (पोरिसचरिवि के०) पुरुषार्थना चरित्रवालो एवोय पण अने ( पररमणिरसिउँ के० ) परस्त्रीने विषे प्रीतिवालो (लंकाहिवईवि के०) लंकानो अधिपति (रावण) पण (रंकुच के०) रंकनी पेठे (विसमदसं के ) विसमदशाने (संपत्तो के०) पाम्यो बे. ॥६५॥ विशेषार्थ- वीर पुरुषो पण परस्त्रीलंपट थवाथी विषम दशाने पा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६३ नूपुरपंडितानी कथा. ३५१ म्या जे. जेम के, देवता, मनुष्य अने जुवनपतिना सरखा पराक्रमवालो अर्थात् त्रण जगत्ने जीतवाना पराक्रमवालो अने सीताना हरणथी वि. जिषणादिक बंधुवर्गे त्यजी दीधेलो लंकानो अधिपति रावण, राम श्रने अने लक्ष्मणनी साथे युद्ध करवाथी रणनूमिमांनीखारीनी पेठे मरणपाम्यो. था रावण- विशेष चरित्र आगल महासती सीतानुं चरित्र कहेवाशे ते उपरथी जाणी लेवं. शीलखंडन करवाथी उर्गतिनुं फुःख तो होय, परंतु या नवमां प्रसरेलो पुष्ट अपवाद बंध थतो नथी, ते कहे . नूपुरपंमितादत्तकहिताप्रमुखानां अद्यापि जगति नेजरपंमियदत्तय-उदियापमुदाण अविजयंमि॥ असतीत्वघोषघंटाटंकारः विरमति न तारः असईत्तिघोसँघंटा-टंकारो विरमश नं तारो॥६६॥ शब्दार्थ- ( जयंमि के०) जगत्ने विषे (नेउरपंमिय के०) नूपुरपं. मिता श्रने ( दत्तयपुहियापमुहाण के०) दत्तकपुहिता प्रमुख असती स्त्रीउनो (तारो के०) घणो म्होटो एवो (असईतिघोस के) असतीपणारूप जे शब्द, ते रूप (घंटाटंकारो के) घंटानो टंकार (अजावि के०) श्राजसूधी पण (न विरम के०) विराम पामतो नथी. ॥ ६६ ॥ विशेषार्थ- साधारण घडियाल विगेरेना शब्दो थोडीवार पड़ी तुरत बंध थाय बे, परंतु अपवाद रूप घडियालोना शब्दो तो शेकडो वर्ष वी. त्या बता पण बंध नहिं पडता तेवाने तेवाज वाग्या करे . जुर्डके, जेने जगत्मां संकडो वर्ष वीती गयां ले एवी नूपुरपंडिता अने दत्तकहिता (शृंगारमंजरी) विगेरेना असतीपणा रूप घडियालनो म्होटो शब्द श्राजसूधी पण विराम पामतो नथी.॥ ६६ ॥ नूपुरपंडितानी कथा. जेनी ऊंची हवेली उपर बेठेली मुग्ध स्त्री मुक्ताफलना लोजथी नक्षत्रोने ग्रहण करवानी श्वा करती हती एवं राजगृह नामर्नु नगर . ते नगरमां सुवर्णना कुंडल बनाववामां कलावान् एवो देवदत्त नामनो उतम बुद्धिवालो सोनी रहेतो हतो. जेम राजहंसो मानसरोवरनो श्रा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ शीलोपदेशमाला. श्रय करे तेम जेना मनरूप मानसरोवरनो विवेक मार्ग रूप चांचो. वाला राजहंसरूप गुणोए श्राश्रय कस्यो हतो एवो देवदिन्न नामनो पुत्र हतो, तेने रूप, सौजाग्य, श्रृंगार अने विकारोए थाश्रय करेली तथा प्रतिबंध रहित पुर्गिला नामनी स्त्री हती. ___ एक दिवस कामदेवे करीने उन्मत्त एवी ते स्त्री कमलना सरखां नेबना विज्रमे करीने युवान् पुरुषोना मनने मथन करती उती नदीने विषे न्हावा माटे गश् अने त्यां अलंकारोए करीने सूर्यथकी पण बमणी कांतिवाली ते स्त्रीए लक्ष्मी जेम समुजना कांगने शोजावे तेम नदीना कांगने सुशोजित बनाव्यो. पली कंचुकी त्याग करी थने केशपास बूटो मूकीने नदीने तरवा माटे जाणे बे स्तनोरूप घडानेज धारण कस्या होय नहिं झुं? एवी ते स्त्रीए पोताना बे हाथ पहोला करीने चंचल तरंगोवाली नदीमा प्रत्ये प्रवेश कस्यो. गतिए करीने नारे एवी ते जुगिला पोताना बे हाथरूप पांखोने चलावती अने तट तट प्रत्ये फरती बती राजहंसीनी पेठे तरवा लागी; तेथी सर्व अंगने विषे विंटला गयेली शेवाल जाणे तेनो केश पाश होय नहिं शुं ? एम शोनवा लागी. जीणा अने नीना वस्त्रवाली तथा प्रत्यद देखातुं ने सर्व अंग जेनुं एवी ते स्त्रीने जोश को उःशील पुरुष दोनथी पृथ्वी उपर पड़ी गयो. पठी ते पुरुषे था पुर्गिला स्त्रीने कडं के, “हे चपल नेत्रवाली ! तें सुखेथी स्नान कहुं ? एम नदी तथा वृदो तने पू . वली हुं पण त्हारा चरणकमलने प्रणाम करतो तो पण तेमज पूर्बुदु." पुर्गिलाए कडं. "म्हारुं सुख स्नान पूजनाराऊ मध्ये नदीनुं कल्याण था; वृदो थानंद पामो अने हारुं मनशठित कार्य करीश.” एवां तेनां वचनश्री जाणे कामदेवेज थाज्ञा करी होय नहिं शुं ? एम गाढ आनंदरसथी पूर्ण थएलो ते पुरुष मूळ पाम्या सरखो थर गयो. पठी वृद उपर दृष्टि जेमनी एवा अने फल पाडवानी छावाला केटलाक ठोकराउने फल पाडी आपीने संतोष पमाडी ते पुरुषे पूब्युं के, तमे श्रहिं केम श्राव्या बो ?” बोकराउए उत्तर प्राप्यो के, “श्रा देवदत्त सोनीना पुत्र देव दिन्ननी प्रिया बे. श्रमेतेना घर पासे रहिएडीए अने तेने जोवा माटे अहिं श्राव्या बीए.” पुर्गिला पण दणमात्र जलमां क्रीडा करीने पठी योगिनीनी पेठे ते पुरु Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूपुरपंडितानी कथा. ३.५३ धनुं ध्यान करती पोताने घरे गइ. ते पुरुष पण तेना शृंगाररूप - गारानुं निरंतर मनमां ध्यान करतो बतो क्यारे पण सुख पाम्यो नहीं. परस्पर रात्री दिवसनी पेठे श्रासक्त थएला ने वियोगथी पीडा पामता ते बन्ने जाए चकला चकलीनी पेठे दुखेकरीने केटलोक काल निर्गमन करो. एक दिवसे ते नागरिके कुलनी देवतारूप कोइ कुलटा तापसिने विनंती पूर्वक दुर्गिला पासे मोकली. तापसी पण तेर्जना परस्पर स्नेहने जाणी निक्षाना मिषथी देवदत्त सोनीने घरे गइ. त्यां मायावी एवी ते तापसीए वासण मांजती एवी दुर्गिलाने एकांतमां कथं के, “नदीमां स्नान करती एवी तने ज्यारथी ते युवान् पुरुषे दीठी बे त्यारथीज द्वारा गुणमां श्रासक्त थलो ते पुरुष बीजी स्त्रीउने नथी जाणतो. " एवां तेनां वचन सांजली ते पुरष उपर आसक्त एवी चतुर दुर्गिलाए पोताना शरीरने ढांकतां तापसीने कधुं. " अरे कुशीले ! तुं कुलीन एवी मने 5पित करवाने योग्य बे ? जेम वज्रमणिने विषे कोइ शस्त्र प्रवेष करी शकतुं नथी तेम रहारुं पुष्कर वचन म्हारे विषे निष्फल यशे. एम कही डुर्गिलाए पोतानो मशवालो हाथ तापसीना वांसामां मारयो, पढी डुगिलाना जिप्रायने न जाणनारी एवी तापसीए ते युवान पुरुषने क के," तुं पोताने विषे ते कुलीन स्त्रीने अनुरागवाली न बता पण अनुरागवाली जाणे बे. रे ! वल्ली सत्यवचनवाली ते स्त्रीने दवणां असत्य वचनवाली करे . कंबे के मणिउने बनावनारो घणो चतुर माणस पण परने विषे शुं करे ? अर्थात् कां न करी शके. वली कादवयुक्त हाथवाली ते दुर्गीलाए घरनी बहार नीकलती एवी मने अपराधी माणसनी पेठे लपडाक मारी बे. ” एम कही ने ते तापसीए पोतानो वांसो देखाड्यो एटले ते पुरुष तापसीना वांसामां पांच यांगला पडेला जोइ विचार करवा लाग्यो के," ते चतुरस्त्रीएमने अंधारी पांचमनो वायदो थाप्यो बे. कं a - धूर्त माणसोना गुप्त चरित्रने धूर्तज जाणी शके बे. “हा तेथे मने मलवानुं कथं ते खरं पण कये ठेकाणे ? ते कधुं नथी. " एम विचार करीने धूर्त एवा ते पुरुषे फरीथी तापसीने क. " निश्चय ते मनोहर नेत्रवाली म्हारे विषे श्रासक्त बे; पण कोइ कारणने लीघे तेथे व्दारा - ४५ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ शीलोपदेशमाला. उपर क्रोध कस्यो बे; माटे म्हारुं कहेतुं मानीने फरीथी तुं तेनी पासे एक वार जा. कांबे के - माणसो अशक्य वस्तुउने पण उपायथी मेलवी शके बे. कहुं. a. " तापसीए कं. " दुर्गिला सती बे. कारणके, जे व्हारा नामने पण सहन करती नथी. माटे जेम लवणनी खाणमांथी माणिक्य मलवु दुर्व्वन ने तेम हारे पण तेनीपासेथी इछित पदार्थ मेलव ए पण ईन बे; तोपण माली पासथी रत्नमालानी पेठे जो म्हाराथी व्हारा मनोरथनी सिद्धि यती होय तो फरीथी हूं या जाउं " एम कहीने ते तापसीए फरीथी दुर्गिला पासे जइ हसिने कहां के, " हे सुछु ! ल्हारे विषे आसक्त थला ने विश्वास पामेला ते युवान् पुरुषनुं अपमान कर नहीं. " दुर्गिला पण “ स्थान जाणवाने माटे तेने फरीची मोकली बे." एम समजीने जाणे क्रोध पामेली होय नहिं शुं ? एवी रीते ते तापसी ने घर पढवाडेना अशोक वनना बारणा तरफथी काढी मूकी. दीन थ‍ गयुं बेमुख जेनुं एवी तापसीए पण सर्व वात ते पुरुषने कही, तेथी ते पण मेलापना स्थानने जाणीने मनमां बहु हर्ष पामवा लाग्यो अने पढी तेणे पोतानो अभिप्राय तापसीने जणावीने कयुं के, " म्हारा माटे तने बहु वेठवुं पड्युं बे, पण या वात व्हारे कोइने कड़ेवी नहीं. " पठी ते पुरुष अंधारी पांचमने दिवसे रात्री ए अशोक वनमां गयो. तेने देखीने डुर्गिला पण त्यां श्रवी नेत्ररूप पडियाए करीने परस्पर प्रेमरूप अमृतनुं पान करता, वेगथी हृदयने दबाववापूर्वक आलिंगन करता ने जोगरूप श्रमृतमय घणा कालना दर्शनथी उत्पन्न यएला स्नेहनी वारता करता ते बन्ने जणाने एक घडीनी पेठे बे पहोर त्यां विती गया. जाणे पोताना कर्मे करीनेज थाकी गएला होय नहिं शुं ? एम क्रीडाथी थक गएला ते बने जणां परस्पर हाथना उशींगा मूकी त्यांज उंघी गयां. एवामां कायचिंताथी अशोकवनमां गएला देवदत्त सोनीए पोताना पुत्रनी स्त्रीनी साथै सूतेला जारने दीगे; तेथी तेणे "आ जार बे.” एम निश्चय करवाने घरे जश्ने जोयुं तो पोताना पुत्रने शय्यामां सुतेलो दीठो. पढी ते विचार करवा लाग्यो के, “ म्हारो पुत्र पोतानी स्त्रीनी असती पणानी वात मानशे नहीं. " एम धारी ते देवदत्त एंधापने माटे सुतेली दुर्गिलाना पगमांथी एक कांकर काढी लइने चाल्यो Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूपुरपंडितानी कथा. ३५५ गयो. दुर्गिला पण लाघवपणाथी सासरे काढी लीला कांऊरने जाणी जागी गइ. कयुं बे के -" कामिने जय पामेलानी पेठे निश्चल निद्रा होती नथी." पी दुर्गिलाए जारने उठाडीने कथं के, "आपण बन्नेने म्हारा सासराए दीवा बे; माटे तुं म्हारी साहाय्य करजे. जार पण ते वातने कबुल करी वस्त्र पढेरी पोताने घरे चाल्यो गयो अने दुर्गिला पण घरमां जइ पतिनुं आलिंगन करीने सुइ गइ. थोडीवार पढ़ी जाणे ताप लागवाथी होय नहिं शुं ? एम ते कामिनीए पतिने जगाडीने कं के, " हे स्वामिन्! श्रहिं ताप लागवाथी मने निद्रा श्रावती नथी; माटे पare शीतल एवा शोक वनमां चालो. " देवदिन्न पण प्रियानां एवां वचन सांजलीने त्यांथी अशोकवनमां गयो अने त्यां पण ते तुरतज निजाने वशथयो. कांबे के सरल श्रात्मावाला मनुष्योने पुण्य लक्ष्मीनी पेठे निद्रा सुलन होय बे दुर्गिला पतिना सर्व अंगनुं आलिंगन करीने सूती, पण तेने निद्रा स्रावी नहीं. कथं वे के, “जेम दरिद्री माणसोने लक्ष्मी दुर्व्वन होय बे तेम कामी मनुष्योने निद्रा पण दुर्व्वमज होय बे-पढी धूर्त एव दुर्गिला पतिने जगाडीने कथं के, "अरे तमारा कुलमां था केवो खराब रीवाज के, जे सासरो पोतानी वधू ( पुत्रनी वहु ) ना कांकरने काढले. नहिं ढांकेला शरीरवाली एवी मने धीकार बे के, जे निलक एवो सासरो म्हारा काबा पगमांथी कांऊर काढी लइने चाल्यो गयो.” देवदिने कयुं. " हे जये! तपी जा नहीं. क्षणमात्र सूइ रहे. सवारे पितानो तिरस्कार करीने कांऊर पाहूं खपावीश. ” दुर्गिलाए कयुं. हे मूर्ख ! शुं तमे नथी जाणता के, ते सवारे कांइ बीजुं कदेशे ? अने ते एज के में वधू (पुत्रनी बहु ) ने जारनी साथै सुतेली दीठी इती. तमारी या आलसे करीने म्हारो प्राणांत यशे; माटे हे प्रिय ! हवणांज जश्ने ते वृद्ध पांसेथी कांकर लइ श्रावो. " पतिए कयुं. " हे प्रिये ! तुं शंसय पामीश नहीं, कारण के म्हारा मनमां कांपण शंका नथी. वली हुं सवारे ते वृद्धने जे कहुं ते तुं सांजलजे. ” पढी " तमे पिताना मुखने जोशो नहीं. नहिंतो तमने बीजुं समजावशे. वल्ली म्हारा जीवितने पण धिक्कार बे. " एम कही ने रोती तथा कलंकथी जय पामती प्रियाने देवदिन अनेक प्रकारे धीरज देवा लाग्यो छाने पोते पिताने तीरस्कार पू Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ शीलोपदेशमाला. र्वक कदेशे, एम विश्वास पमावा माटे बहु सोगन खावा लाग्यो. कयुं a - स्त्रीने स्वाधिन थपला पुरुषो शुं नयी करता ? पढी सवारे देवदिने क्रोध करीने पिताने कयुं. “अरे ! तमे वधू ( पुत्रनी बहु ना कांकर काढवा रूप निर्लज काम शुं कस्युं ? वृद्ध पिताए क. "डुःशील एवी वधू रात्री अशोकवनमां जारनी साथै सूती हती; तेनुं एंधाण राखवाने माटे में आ काम कस् बे . " पुत्रे कयुं. “एतो हुं सूतो हतो, बीजो कोइ नहोतो, तमने वुं योग्य काम करतां लाज श्रावी नहीं ? जो वृद्धपं श्रातुं नेतुं जालवी राखनुं होय तो म्हारा सूता बतामां काढी लीलुं कांऊर तेने पाहुं आपी द्यो, कारणके ते निश्चय सती बे. " पि. ताए कयुं, " ज्यारे हुं तेनुं कांकर लइने घरमां श्राव्यो त्यारे में तने घरमां सूतेलो दीगे हतो. " दुर्गिलाए कयुं हुं श्रा अयोग्य कलंकने सहन क रीश नहीं. दैवीक कर्मे करीने हुं म्हारा श्रात्माने पवित्र करीश. कार पके, जातिवंत रत्न उपर पकेला पाणीना टीपानी पेठे अल्प कलंक पण कुन माणसने दूषण माडे बे. अहिं शोजन नामनो यक्ष बे; तेनी जांघ बच्चे ने हुं नीकली जश्श. जे माणस अपवित्र होय बे ते तेनी जांघ बच्चे थर नीकलवाने समर्थ थतो नथी. संकल्प विकल्पमां बूमी रहेला ससरानी समक्ष छाने निःशंक एवा पतिनी समझ कुटिल एवी ते स्त्री ए ए प्रमाणे प्रतिज्ञा लीधी. पठी स्नान करी श्वेत वस्त्र परी अने हाथमां पुष्प धूप, दीप, बलिदान लइ सर्व लोकनी समक्ष दुर्गिला यनुं पूजन करवा गए. मार्गमां प्रथम संकेत करी शखेलो पेलो जार वांदरानी पेठे तेना कंठे वलगी पड्यो. “ अहो ! श्रतो गांडो बे. " एम कहीने लोके तेने काढी मूक्यो अने दुर्गिला पण फरीधी स्नान करी य ने पूजीने याप्रमाणे कहेवा लागी. " हे यक्ष ! श्रहिं श्रावतां रस्तामां म्हारा कंठने विषे वलगी पडेलो था गांडो, के जेने सर्वे माणसो जाणे बेते तथा बीजो म्हारो पति ए वे शिवाय जो कोइ अन्य पुरुषे म्हारो स्पर्श न कस्यो होय तो दे दयानिधे ! मने महासतीने शुद्धि आपनारो था. " ए प्रकारनां वचन सांजलीने यक्ष "दवे शुं कर." एम विचार करे बे एवामां ते धूतारी तेनी जांघ वच्चेथी तुरत निकली गइ एटले तेज कणे सर्वे माणसोए "श्र शुद्ध बे ! श्र शुद्ध बे !!" एवो शब्द कस्यो Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूपुरपंडितानी कथा. ३५७ अने राजपुरुषोए तेना कंठमां पुष्पनी माला धारोपण करी. पली वांजिंत्रो वागते ते स्वजनोथी विंटलायेली पुर्गिला हर्ष पामेला देवदिन्न सहित पोताना घरे गइ. ज्यारथी पुर्गिलाए कांकर काढी लेवाथी पोताने लागेला कलंकने उताऱ्या त्यारथी लोको तेने " नूपुरपंडिता' कहेवा लाग्या. वधूना श्रावा चरित्रे करीने विस्मय पाम्युं मन जेनुं एवो देवदत्त सोनी तेज चिंताने लीधे योगिनी पेठे निखा रहित थर गयो. पड़ी श्रपूर्व कार्यों करवामां तत्पर अने निखारहित एवा ते देवदत्तने जाणीने राजाए तेने पोताना अंतःपुरनो रक्षक निम्यो. __ हवे हाथीना महावतनी साथे बुब्ध थयेली को एक राणी रात्रीने विषे वारंवार उठी जागता एवा ते सोनीने जोश पाली वली जती हती. पली चतुर एवो देवदत्त सोनी पण तेना चरित्रने जाणवाने माटे घुर घुर शब्द करतो तो कपट निसाथी सूतो एटले ते राणी चोरनी पेठे उगीने श्राम तेम चारे तरफ जोती उती हंमेश प्रमाणे एक उंचा गोख उपर चमी. त्यां नीचे बांधेला राजाना पट्ट हस्तिए तेने सूंढवडे उपाडीने नींचे नूमि उपर मूकी. पड़ी मोडी श्राववाथी क्रोध पामेला महावते हाथीने बांधवानी लोढानी सांकले करीने दासीनी पेठे तेने मारी तेथी राणीए कह्यु. “श्राजे अंतःपुरनुं रक्षण करवाने माटे राजाए को नवा माणसने मोकल्यो बे, ते जागतो होवाथी हुँ वेहेली श्रावी शकी नथी. हमणां ते पुरात्मा दणमात्र सूझ रह्यो , जेथी हुँ तुरत श्रावेली बुं, माटे हे स्वामिन् ! म्हारा उपर मिथ्या कोप न करो.” ए प्रकारे रा. णीए तेने समजाव्यो एटले कामातुर एवो ते महावत पोतानी स्त्रीनी पेठे राजानी राणीसाथे क्रीमा करवा लाग्यो. रात्री विती जवा श्रावी एटले पट्टहस्तिए फरीथी गोखमां मूकेली ते राणी तरत पोताने स्थानके गइ. ते जोश्ने निर्मल बुद्धिवालो देवदत्त सोनी विचार करवा लाग्यो के, "अहो ! मेघनी गर्जना सरखं स्त्रीउनु चरित्र कोण जाणी शके ? जो के अंतःपुरनी बहार नहिं जनारी एवी राजानी स्त्रीनु पण शीलवत जंग थाय ने तो पड़ी जे हमेशां पोताना घरकार्यमाटे मरजी प्रमाणे नगरमां फरती फरे ले तेवी सामान्य स्त्रीउनुं शीलवत जंग थाय तेमां तो शुं श्राश्चर्य ? अर्थात् कांश नहीं.” ए प्रकारे विचार करी तथा वहुना Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ शीलोपदेशमाला. पुराचारथी उत्पन्न थएला क्रोधने त्याग करी जेम को मजुर माथे र. हेलो जार निंचे मूके जंघी जाय तेम ते देवदत्त नीश्चल निसाथी उघी गयो. सवार थक्ष पण ते जाग्यो नहीं एटले सेवकोए राजाने कडं. ते उपरथी राजाए तेउने कयुं के, “ ते कांश कारणथी सूझ रह्यो हशे, माटे ज्यारे जागे त्यारे तेने म्हारी पासे लावजो." एवी राजानी आज्ञा सांजली सेवको चाख्या गया. वृक्ष सोनी पण आज घणे दहाडे वखत मलवाथी एकी वखते सात दिवस सूधी सूश रह्यो. पनी बाग्मे दिवसे जाग्योएटले सेवको तेने राजा पासे लश् गया. त्यां राजाए तेने पूब्युं के, “हे सोनी! तुंसात रात्री सूधी केम सूक्ष रह्यो ? जे कारण होय ते साचे साचुं कहे ? हुँ तने अजय वचन श्रापुं बु.” ते उपरथी देवदत्ते रात्रीनु राणी, हाथी अने महावत्तनुं सर्व वृत्तांत कही संजलाव्यु एटले प्रसन्न थएला राजाए सत्कार करीने तेने रजा आपी. हवे पोतानी पुराचारी राणीनी परीदा करवा माटे राजाए सुतार पासे लाकडानो एक हाथी कराव्यो. पनी अंतःपुरनी सर्व स्त्रीने बोलावीने कडं के, " श्राजे में एवं स्वप्न जोयुं के, सर्व राणीउए म्हारी समद नग्न थश्ने था लाकडाना हाथी उपर बेस.” ए उपरथी सर्व राणीउए राजाना जोतां बतां ते प्रमाणे क; पण पेली एक कुलटा रापीए कह्यु के, “ हुँ तो आ हाथीथी नय पामुं बु.” राणीनां एवां वचन सांजली क्रोध पामेला राजाए तेने कमलदंडनो प्रहार कस्यो, तेथी ते मूळ पाम्यानी पेठे ढोंग करी पृथ्वी उपर पडी ग. ते उपरथी राजाए निश्चय कस्यो के, वृक्ष सोनीए कहेली तेज था पुराचारीणी .” पड़ी तेना वांसामा सांकलना चिन्हो जोश्ने राजाए हास्यपूर्वक कह्यु के, “तुं मदोन्मत्त हाथीनी साथे क्रीडा करे अने था लाकडाना हाथथी जय पामे ? वली सांकलना मारथी खुशी थाय ने अने कमलदंडना प्रहारथी मूळ पामे जे?" एम कहीने क्रोध पामेला राजाए वैनार पर्वत उपर जश त्यां राणी, महावत अने हाथीने बोलावीने कडं के “ तमे था पर्वतना शिखर उपर चडीने कंपापात करो के, जेथी करीने म्हारा त्रिवर्ग (धर्म अर्थ, काम) सफल थाय.” राजानी एवी आशा सांजली महावत ह. स्तिने वैजार पर्वतना उंचा शिखर उपर लश् गयो. त्यां तेने एक पग उंचो Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूपुरपंडितानी कथा. . रखावी त्रण पगे उन्नो राख्यो.ते जोश्ने खोको हाहाकार शब्द करी राजाने कहेवा लाग्या के, “ हे खामिन् ! था थाज्ञाकारी गजराजने मारी नाखवो योग्य नथी.” लोकोनां एवां वचननो अनादर करीने राजाएको. धथी कडं के, " अरे तेने पाडीज नाखो.” ते उपरथी महावते हस्तिने बे पगे उनो राख्यो एटले लोको "हे देव! हाथीनो वध करशो नहीं" एम कहेवा लाग्या; तोपण राजाए तेनो तेज आदेश कस्यो, जेथी महावते हाथीने एक पगे उन्नो राख्यो. पली कारण विना रत्नरूप हाथीनो वध न जो शकवाथी सर्व लोको ऊंचा हाथ करीने राजाने कहेवा लाग्या के, "हे देव ! था सर्व लक्षणवालो अने सारी रीते शिक्षण श्रापेलो हाथी पुर्खन , माटे श्रने मारी नाखवो ए योग्य नथी. वली तमे अपराधीउने शिक्षा करवा समर्थ बो, ए कारण माटे प्रसन्न थश्ने रत्नरूप हाथीनुं यत्नथी रक्षण करो.” लोकोनां एवां वचन सांजलीने राजाए तेउने का. “ तमे म्हारीवती ए महावतने कहो के, तुं हाथीनुं रक्षण करीने पाडो उतारी सकीश.” ते उपरथी लोकोए महावतने तेज प्रमाणे पूज्यं एटले महावते उतर आप्यो के, “जो राजा अमने बन्नेने अजय वचन श्रापे तो हुँ ए हाथीने कुशल पाडो उतारूं." लोकोना कहेवाथी राजाए तेने अजय वचन श्राप्युं एटले महावते हाथीने धीमे धीमे नीचे पृथ्वी उपर उतास्यो. पली राजाए तेउ बन्नेने हाथीनी पीठ उपरथी उतारीने कडं के, “ तमे म्हारो देश त्यजी द्यो. ते उपरथी ते बन्ने जणा चात्यां गयां. अनुक्रमे चालता चालता ते संध्या समये एक गाम पासे श्रावी पहोच्या अने त्यां एक शूना देवालयमां सूता. पली श्र/रात्रीने समये कोई एक चोर ते गाममां चोरीकरीने नागे, पण पाबल श्रावता एवारक्षक पुरुषोने जाणी ते तेज देवालयमां पेगे के, ज्यां राणी अने महावत सता हता. रदको पण "चोर देवालयमा पेगे .” एम जाणीने तथा "तेने सवारे निश्चय पकडणुं.” एम धारीने देवालयने घेरो घाल्यो. हवे चोर पण महा अंधकारथी बांधलानी पेठे फरतो फरतो ज्यांराणी अने महावत सूता हता त्यां श्राव्यो अने गाढ निशाने वश थएला महावतने अजाणतां अथडी पड्यो बतां ते जाग्यो नहीं; पण राणी तो तेना हाथनो जरा स्पर्श थवाथी जागी गश् अने आसक्त पण थइ गडः Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० . शीलोपदेशमाला. तेथी तेणे धीमेथी पूज्यु के, "तुं कोण ढुं?" चोरे उत्तर श्राप्यो के, “हुँ चोर बुं. हमणां रदको म्हारी पाबल आवे बे; माटे प्राण- रक्षण करवानी श्वाथी अहिं पेठो बु.” पनी अनुरागथी ते कुराचारिणीए कह्यु के, "जो तुं म्हारुं शखित करे तो हुँ तने निश्चय बचावं.” चोरे कां."हे नसे! तुं म्हारा प्राण- रक्षण करवाथी म्हारो जीवितपर्यंत उपकार करनारी थश्श, जेथी मने सोनुं अने सुगंधि बने प्राप्त थवा जेवू थयु. परंतु हे शुजानने ! तुं कर युक्तिथी म्हारुं रक्षण करीश ? ते मने कहीने शांत कर; कारणके,तुं मने लाग्यश्रीज प्राप्त थश्वं.” राणीए कह्यु. “सवारे थावेला रदकोने हुँकहीश के,"था म्हारोपति बे.” चोरे कडं. "बहु सारूं." पली सवारे श्रायुध सहित रदको देवालयमां श्राव्या अने वकुटी चडावीने ते त्रणे जणाने पूब्यु के, “तमारामां चोर कोण ?” ते वखते सादात् मूर्तिमान् कुराचारिणीए चोरनो हाथ पकडीने कयु के,“श्राम्हारो प्राणपति जे.” वली तेणे एम पण कधु के, “एमे बीजे गाम जता हता; पण रात्री थर जवाथी अहिं देवालयमा रह्या बीए.” एवां तेनां वचन सांजली रक्षको परस्पर विचार करवा लाग्या के, "लुंट करवारूप वृत्तिवाला चोरने घेर श्रावं स्त्री रत्न होय नहीं. जेने सादात् लक्ष्मीना सरखी श्रावी उत्तम प्रिया ने ते पुरुष चोर वृत्तिथी श्राजीवीका चलावे ए वात योग्य नथी; माटे या त्रीजोज चोर ने.” एम कहीने महावत उपर चोरीनो आरोप मूकी तेए तेने तुरत शूलिए चडाव्यो. त्यां शूखि उपर तेने तृषा लागवाथी ते रस्ते जता थावता जेनेजेने देखे तेनी तेनी पासे पाणी मागवा लाग्यो; पण कोए राजाना जयथी तेने पाणी पायुं नहीं. एवामां जिनदास नामनो श्रावक ते रस्ते थश्ने निकल्यो. तेने जोश माहवते पाणीनी याचना करी. चोरने जोश्ने जिनदासे कयु के, “ जो तुं म्हारा कहेवा प्रमाणे करे तो हुँ तने पाणी लावी श्रापुं अने ते एज के ज्यांसूधीमा हुँ पाणी लावी श्रापुं त्यांसूधी हारे "नमो अरिहंताणं" ए शब्दनो उचार करवो.” महावते पाणीनी श्वाथी ते वात कबूल करी जिनदासना कहेवा प्रमाणे उच्चार करवा लाग्यो अने जिनदास पण राजानी थाझा लश्ने पाणी लश् श्राव्यो. कयु डे के, दयावान् पुरुषो प. रोकारने माटे हर्षथी यत्न करे दे. पड़ी दूरथी पाणी श्रावतुं जो शांत Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूपुरपंडितानी कथा. ३६१ थएलो महावत 'नमो अरिहंताणं' ए शब्दनो उच्चार करतां करतां मृत्यु पाम्यो. ते धर्मनुं तत्व जाणतो न होतो, पण केवल नवकारना प्रजावथी श्रने अंत समये अकामनिर्जराना योगथी व्यंतर देवता थयो. हवे उराचारिणी राणी पण त्यांथी चोरनी साथे श्रागल चालवा लागी; एवामां रस्ते पाणीना पूरथी जयंकर एक नदी श्रावी. ते जोश्ने चोरे राणीने कयु के, “ हे प्रिये ! वस्त्र अने अलंकारो सहित तने एकी वखते सामे पार लइ जवाने हुँ शक्तिमान नथी; माटे तुं त्हारां वस्त्र अने श्रलंकारो मने थाप. ते ढुं सामे तीरे मूकी आवीने पड़ी तने सुखेथी लश् जश्श. हुं ज्यां सूधीमां आईं त्यां सूधी तुं निर्जय थश्ने था शरना समूहमां संता रहे. हे प्राणेश्वरी ! हुँ तरतज श्रावीश अने म्हारा पीठ उपर बेसारी गरूडनी पेठे तने त्यां सामे तीरे पहोचाडीश.” पनी म्होटा अपराधथी जाणे दैवेज दंड कस्यो होय नहिंशुं ? एम राणीए पोतानुं सर्व चोरने श्रापी पोते नग्न थश्ने शरना समूहमां बेठी. पड़ी चोर दणमात्रमा सामे पार जश्ने विचार करवा लाग्यो के, “जेणे म्हारा उपरना स्नेहने लीधे पोताना पतिने पण मरावी नाख्यो ते स्त्री मने पण मरावी नाखे ए निःशंसय ." एम विचार करीने ते चोर पाई वालीने जोतो जोतो जाणी पदीनी पेठे उडतो होय नहिंशुं ? एमनाशी जवा लाग्यो. कडंडे के-धूर्त माणस पोतानो स्वार्थ साध्या पली बीजानी अपेक्षा करतो नथी. __ पड़ी नग्न अने गात्रनग्न एवी राणी पोताने बेतरीने नाशी जता एवा चोरने जो उंचा हाथ करी कहेवा लागी. "अरे ! नग्न एवी मने त्याग करीने तुं क्यां नाशी जाय ?" चोरे उत्तर प्राप्यो. "हे पुराचारिणी ! शरना वनमां राक्षसीनी समान नग्न एवी तने एकलीने अने त्हारा कृत्यने जोश हुं जय पामुं बु.” एम कहीने ते चोर मृगनी पेठे क्यांश नाशी गयो भने बन्ने बाजुथी व्रष्ट थएली ते पुराचारिणी तो त्यांज रही. __ हवे महावतनो जीव के जे देवपणाने पाम्यो हतो तेणे अवधि ज्ञानश्री पुराचारिणी एवी राणीने श्रावी स्थितिमा जोश, तेथी ते देवे पोताना पूर्वजन्मनी स्त्रीरूप तेने बोध देवाने माटे मोढामां मांसना ककमावालु शियालनुं रूप धारण कमु.पली नदीने कांठे ज्यां राणी हती त्यां श्रावीने Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ शीलोपदेशमाला. मुखमां रहेला मांसना ककमाने नींचे मूकी पाणीनी बहार उंचुं मुख रा. खीने रहेला एक मत्स्यने लेवा माटे दोड्युं एटले ते मत्स्य पाणीमां पेसी गयुं अने तेणे व्हार मूकेला मांसना ककडाने समली लश् गइ. श्रा प्रकारना कौतुकने जो नदीने कांठे शरना वनमां बेठेली राणी उःखी बता पण बोली के, “हे धर्मति ! तें मांसने त्याग करी मत्स्यनी श्ता करी तो बन्नेथी भ्रष्ट थयो बुं. माटे हे शियाल ! हवे झुंजुए बे?" शियाले कयु. “ हे नग्न स्त्री ! पतिने त्याग करी जार पतिनी उपर श्रासक्त थएली तुं पण ते बन्नेथी नष्ट थई , तो तुं शुं जुए के ?" एवां देवनां वचन सांजली जय पामती एवी ते स्त्रीने जोर व्यंतर देवे पोतानुं दिव्य स्वरूप धारण करीने कडं. " हे पापे! ते मरावी नाख्यो हतो तेज हुँ महावत जैनधर्मना प्रसादे करीने देवपणाने पाम्यो बु. तुं मने मरावी नाखनारी बुं बता हुं तने कृपाथी कहुं हुं के, तुं पापने नाश करनारा जैनधर्मनो स्वीकार कर. स्त्रीए ते वात कबुल करवाथी व्यंतर देवे तेने साध्वी पासे लइ जश्ने दीक्षा लेबरावी. ए प्रकारे शीलवतरूप रत्नथी नष्ट थएली नूपुरपंडिताना असतीपणाथी उत्पन्न थएली पुष्ट कीर्तिरूप बाजित्रनो शब्द आज सूधी सर्व दिशाउने विषे संजलाय . शति नूपुरपंडिता कथा समाप्ता. दत्तपुहिता (शृंगारमंजरी)नी कथा. जेनी ऊंची हवेलीनां शिखरो देवताउनी विश्रांतिने अर्थे थता हता एवं तथा लदमीना मंदिर सरखं मनोहर जयपुर नामर्नु नगर ले. त्यां जेना खजरूप कमलने विषे निरंतर लदमी वसती इती एवो महा पराक्रमी जयरथ नामनो धर्मवंत राजा राज्य करतो हतो. तेने महा बुद्धिवालो दत्त नामनो प्रधान हतो. तेने कामवृदनी मंजरीना सरखी शृंगारमंजरी नामनी पुत्री इती; जे पुत्री कामी पुरुषोना मनने पोताने विषे लय पमाडती हती. वली प्राप्त थयुं यौवन जेने एवी ते पुत्री कामरूप केशरीसिंहना पराक्रमे करीने विश्वना मनने जमावनारा पुष्ट स्तनरूप पर्वतोने धारण करवा लागी; परंतु ते पुत्री पूर्वजवना कर्मने लीधे मतिथी तथा चेष्टाथी असतीपणाना मार्गप्रत्ये चालवा लागी. कडं Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्तङदितानी कथा. ३६३ बे के सती स्त्री मार्गमां जती बती त्रांसी दृष्टिथी परपुरुषोने जूए बे, वली न बोलताने पण कठोर शब्दोथी बोलावे बे. एक दिवसे उपवनमां क्रीडा करवाने माटे जता एवा जयरथ राजाए गोखमां बेठेली शृंगारमंजरीने दीठी. ते वखते परवश चित्तवाला यएला राजाने जाणीने जिल्ल जेम गानने वश थइ रहेला मृगने मारे तेम कामदेवे पोताना पुष्यरूप बाणे करीने तेने विंध्यो एटले उपवननी क्रीडा मूली गलो ने कामदेवने वश थलो जयरथ राजा पोपट जेम पांजरामां पेसे तेम पाठो घरप्रत्ये व्यो. जयरथ राजा बीजा प्रधाननी मारफते दत्त प्रधान पासे शृंगारमंजरीनुं मा कस्युं. कयुं बे के - श्रात्मरसथी बोध पामेलो पुरुष शुं बीजानी इछा राखे बे ? अर्थात् नथी राखतो. पढी दत्तप्रधाने पोतानी पुत्र राजानी साथै परणावी, तेथी हर्षित थलो राजा जेम योगी निवृत्तनी साथे एकपणुं पामे तेम एकपएं पाम्यो; पण शृंगारमंजरी तो पोताना स्वजात्रना चंचलपणाथी जाणे राजा वृद्ध होय नहिं शुं ? एम धूर्त पणाने लीधे फक्त उपरथी पोताना चित्तनुं श्रसक्त पणुं देखाडती हती. प्रिया वश थलो राजा पण क्यारेक उपवनमां, क्यारेक क्रीडा पर्वत उपर, क्यारेक सातमालना महेलमां तेनी साथे क्रीडा करतो तो अने पोतानी मरजी प्रमाणे चालवानी इवावाली, नाना प्रकारना विलासमां दरवाली तथा कामदेवे करीने आतुर मनवाली प्रियाने लक्ष्मीनी पेठे रमाडतो हतो. सात मालना महेलने विषे सर्व शोक्योथी जूदी राखेली श्रृंगारमंजरीना, चपलपणाथी उद्यमने, वाचाल पणार्थी वाक्चातुरीने, निर्लज पाथी प्रेमना स्थिरपणाने अने वातोथी कोमलपणाने प्रगट करतो तो ते जयरथ राजा प्रियाने श्रानंद पमाडतो हतो. शृंगारमंजरी पण पतिना वहालपणाथी स्नान, पान, थाने जोजनादिक सर्व क्रिया त्यांज क रती बती देवनी पासे देवीनी पेठे पतिनी पासेज रहेती हती. एक दिवस कामदेवना सरखो रूपवंत कोइ धनंजय नामनो वणिक्पुत्र ते सात मालना महेलनी नींचेना राजमार्गमां यइने जतो हतो. तेने जोइ कामदेवने वश थयेली शृंगारमंजरीए तेना कंठने विषे हस्त Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ शीलोपदेशमाला. पाशनी पेठे उपरथी पुष्पमाला नाखी. पड़ी तेना जावने जाणनारा ते धनंजये गुप्तरीते पोताना घरथी उपवन सूधी अने उपवनथी राजमहेल सूधी पोताना माणसो पासे सुरंग खोदावी, जेथी कामे करीने आकुल थएली श्रृंगारमंजरी त्यां जवा श्राववानुं करती ती इडित सुख जोगववा लागी. ___ एक दिवसे राजवाडीए जता एवा राजाए उपवनमां क्रीडा करती एवी पोताना प्रियाने दीठी; तेथी ते त्यांथीज पाठो वलीने उतावलो पो. ताने घेर गयो. चतुर एवी श्रृंगारमंजरी पण ते वात जाणी गश्; तेथी ते पण सुरंग मार्गे थश्ने राजाना पहेलां पोताना मंदिरमा श्रावी अने राजाना सामी दृष्टि राखीने गोखमा उनी रही. राजापण जेवामां उतावलथी महेल उपर चड्यो तेवामां ते पोताना सामु जोश्ने उनी रहेली प्रफुलित मुखवाली प्रियाने जोश हर्ष पाम्यो. हवे एक दिवसे रात्रीने वखते केटलाक गंधर्वो राजानी बागल गान करवा आव्या. राजा ताल, मान, लय, ग्राम, मूर्बना अने स्वरोथी मनोहर तेमज वाजिंत्रोथी सुंदर एवं तेनुं गान सांजलवा लाग्यो. ते व. खते श्रृंगारमंजरी पण गानने सांजलवा माटे राजाथी गुप्तरीते त्यां श्रावी हती अने ज्यारे गान बंध थयुं त्यारे पोताना घरप्रत्ये गश्तेम राजापण त्यां गयो तो तेणे मदथी घूर्णित नेत्रवाली शय्यामांएकली सूतेली तथा बगासां खाती एवी प्रियाने जोश्ने मनमां थयेली शंकाने निवृत्त करी. को वखते वसंत समयमां जयरथ राजा नगरवासी जनोसहित अंतःपुरने साथे लश् उपवनमां क्रीडा करवा गयो. त्यां पुष्पोना रोडवाथी थाकी गएला ते दंपती ( जयरथराजा अने श्रृंगारमंजरी राणी) रात्रीये जेटलामा कोइएक वेलना मंडपमा निश्चल थश्ने सूता तेटलामां कालरूप सर्प राणीने दंश कस्यो; तेथी ते तरत पोकार करती जागी उठी. पनी जेवामां राजाए मंत्रवादीउनेबोलाव्या तेटलामां राणी फेरना वेगथी मूर्ग खाश्ने पृथ्वी उपर पडी गइ. (अर्थात् मृत्यु पामी.) पड़ी मंत्रवादीउए श्रावीने फेर उतारवाने माटे घणा उपायो कख्या, पण खल पुरुषने करेला उपकारनी पेठे ते सर्वे नीष्फल थया. पबी प्रियाना प्रेमथी विव्हल थएलो जयरथ राजा धीरपणुं त्याग Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्तउदितानी कथा. ३६५ करी राज्यने जीर्णघास सरखं मानतो तो विलाप करवा लाग्यो भने प्रधान विगेरे नगरना माणसोए वाख्या बतां पण प्रियानी साथे चंदनना काष्ठथी बनावेली चितामा प्रवेश करवा तैयार थयो. एवामां नंदी. श्वरनी यात्रा करवा जतो एवो को गंधर्व श्राकाशमार्गथी ते माणसोना समूदने जो अकस्मात् त्यां उतस्यो अने सपेंडशेली प्रियाना प्रेमना वशथी अमिमां प्रवेश करवाने तैयार थएला राजाने जोश दयावंत थयो. पडी अग्निमां प्रवेश करवा रूप सहसा कार्यथी राजाने निवृत्ति पमाडी तेगंधर्वेतेनी प्रियानेजल बांटी जीवती करी; तेथी राजाश्रानंद पाम्यो; मनुप्यो गावा लाग्या; मृदंगो (वाजिंत्रो) वागवा लाग्या अने सर्व जगत् हर्षमय थयु. पली राजाए सर्व प्रकारना गुणोना श्रादरे करीने श्रकृ. त्रिम उपकार करनार गंधर्वनो सत्कार कस्यो एटले ते गंधर्व पोताना इलित स्थाने चाल्यो गयो तथा राजा तेज स्थानने विषे रात्री रहीने बीजे दिवस सवारे पोताना स्थानके श्राव्यो. कर्वा ले के- कामदेवथी जीवनारा पुरुषो मृत्यु पमाडनारा स्थानने सेवे . _हवे धनंजय पूर्वना संकेत स्थान प्रत्ये गयो. कयु डे के- मनुष्योनुं मन ज्यां चोट्युं होय ते स्थान दूर होय तो पण दूर लागतुं नथी. शृंगारमंजरी पण त्यां श्रावीने धनंजय प्रत्ये कहेवा लागी के, “आपणने अहिं राजाना जयथी पुरतुं सुख जोगवी सकातुं नथी; माटे चालो परदेश नासी जश्ए. धनंजये कह्यु. “ हे मुग्धे ! ए वात न कर. कारणके, नयंकर सर्पना माथे रहेला मणिने सेवा माटे कयो पुरुष लांबो हाथ करे ? था राजा जीवतो तो तने मारी नाखशे श्रने खगरूप अग्निमां होमी देशे. श्रृंगारमंजरीए कह्यु. “ हुँ एने मोरी ना." एम कहीने ज्यां राजा सूतो हतो त्यां श्रावी अने राजाने मारवानी बाथी तेणे हाथमां तरवार लीधी. पनी जेटलामा म्यानमांथी तरवार खेंचीने राजा उपर घा करवा जाय ले तेटलामां धनंजये श्रावीने तेनी तरवार पकडी लीधी अने विचार करवा लाग्यो के, “ जेणे था स्त्रीने पट्टराणीना पद उपर बेसारी . वली जेणे या स्त्रीने सर्पडंश थवाथी पोताना प्राणोने अर्पण कस्या हता तेज था महा जाग्यवंत राजाने था कुलटा स्त्री मारी नाखवाने तैयार थर तो पड़ी ते स्त्री मने मारी नाखे एमां कांश आ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ शीलोपदेशमाला. श्चय नथी: माटे विषनी वेल सरखी या अनर्थनी खाइरूप स्त्रीनो हवे म्हारे खप नयी अने आटला काल सूधी विचारया विना तेनो संग क स्यो; तेथी म्हारा श्रात्माने पण धिक्कार बे. जे तपखी पुरुषो सूका घासनी पेठे संसारनो त्याग करी धर्मरूप फलने विषे आदर करे बे तेज पुरुषोने धन्य बे. हा ! जेने माटे अनुत्तर देवलोकमा रहेनारा देवतार्ज पण तप करे बे ते प्राप्त थएला मनुष्यपणाने मूढ पुरुषो फोगट हारी जाय बे." इत्यादि संसारथी वैराग्यने उपजावनारा वचनोने कहेता ने सर्व विरक्त बुद्धिवाला धनंजये तत्वना जाणपणाथी जैनी दीक्षा धारण करी अने राजा पण सवारे पोताने घेर जइ सुखेधी राज्य करवा लाग्यो. "" एक दिवसे जयरथ राजा सजामां बेठो हतो एवामां घोडाने वेचनारो केटलाक सोदागरो श्राव्या. राजाए ते घोडाउंमां एक उत्तम लक्षमणवाला ने उंचा एवा घोडाने जोइ कुतुहलथी तेना उपर बेसवा - नो विचार कस्यो. " विद्वान् माणसे सबल, निर्बल एवा मनुष्य अथवा पशुनी परीक्षा करया विना तेनी साथे काम पाडवुं नहीं. " ए प्रकारे कहीने प्रधानो वास्या बतां राजा हाथे करीने केशवाली खेंचीने घोडा उपर बेगे. लगाम ढीली मूकी तो पण घोडो धीमे धीमे चाल्यो; पण ज्यारे कांक खेंची त्यारे तो वायुवेगे चाल्यो. "श्रा जाय, या जाय. एमलोको कवा लाग्या एटलामां तो ते दृश्य यइ गयो. राजा पण विचार करवा लाग्यो के, " या घोडो मने बहु दूर वनमां लाव्यो बे; परंतु जे थवानुं होय तेज थाय बे. एम विचार करीने तेथे लगाम ढीली मूकी एटले घोडो उनो रह्यो पढी कुशिक्षित अश्वने जाणी राजा नींचे उतस्यो ने मुख तथा तरशथी आकुल व्याकुल थएलो ते वनमां जमवा लाग्यो. एवामां तेणे मोहरूप अंधकारने नाश करवामां सूर्य समान, तपथी दुर्बल शरीरवाला तथा काउसग्ग करीने रहेला मूर्तिमान् धर्मना सरखा मुनिने दीठा एटले अमृतना स्नानथी हर्ष पामेलानी पेठे श्रानंद पामेला राजाए मुनिने वंदना करी. मुनिए पण काउसग्ग पारीने धर्मलाजनी आशीष दीधी. पढी व्रत ग्रहण करवाने इछता एवा ते राजाने जाणीने मुनिए देशना आपी के, "हे राजन् ! साररहित, क्रूर तथा जेमां निरंतर दुःख र हेलुं बे एवा श्रा संसारमां जिनेश्वरे कहेला धर्म " Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० दत्तउदितानी कथा. विना बीजु कोइ रक्षण करनार नथी.” इत्यादि देशनाथी उत्पन्न थयो डे वैराग्य जेने एवा जयरथ राजाए राज्यने तृण सर मानी दीदारूप मनोरथने धारण कस्यो अने मुनिने पूज्युं के, “हे जगवन् ! जोगने योग्य तथा मनोहर वय बतां तमने व्रत ग्रहण करवामां वैराग्यनुं कारण शुं थयुं हतुं ?" मुनिए कपु. “हे राजन् ! म्हारा वैराग्यनुं कारण तुंज दूं." राजाए कडं. “हुँ बापने वैराग्यनुं कारण केम थयो ?” मुनिए कह्यु. " हे जनाधिप ! जे वखते त्हारी राणीने सर्प दंश कस्यो हतो अने प्रेमना वशथी तुं तेनी पाबल बली मरवाने तैयार थयो हतो ते वखते श्राकाशमार्गेथी विद्याधरे श्रावीने तेने जीवती करी हती एटले अत्यंत हर्ष पामेलो तुं तेनी साथे तेज उपवनमां रात्री रह्यो. ते वखते कृतघ्ननी पेठे राणी तने त्याग करीने म्हारी पासे श्रावी अने कहेवा लागी के, "ज्यां सूधी राजा जीवतो जे त्यां सूधी आपणने पुरुं सुख मलवानुं नश्री; माटे राजाने मारी ना." एम कहीने इष्ट हृदयवाली ते राणी हाथमा तरवार लश् त्हारी पासे दोडी श्रावी श्रने तरवार हाथमां लश जेटलामा जंघी गएला त्हारा उपर घा करवा जाय ले तेटलामां वेगथी तेनी पाल श्रावीने में तरवार खेंची लीधी. पड़ी हुँ विचार करवा लाग्यो के, “ धिक्कार था राणीने, धिक्कार ने मने अने धिक्कार ने संसारनी विटंबनाने के, जे राणीपोताना उपर अत्यंत स्नेह राखनारा राजाने पण मारवा माटे तैयार थर तो पड़ी मने मारवाने माटे तैयार थाय एमां तो शुं आश्चर्य ?" हे नूपाल ! एम विचार करीने उद्वेग पाम्यो श्रात्मा जेनो एवो हुँ विषना समूहनी पेठे तेनो त्याग करी तथा दीदा धारण करी था तप करुं बुं." मुनिनां एवां वचन सांजली वैराग्यवंत थएलो राजा पोतानी पाउल श्रावेला सैन्यसहित ध्वजा पताकादिकथी सुशोनित करेला पोताना नगर प्रत्ये गयो. त्यां तेणे पुत्रने राज्य सोंपी दीक्षा धारणकरी. __ हवे अनुक्रमे जाण्यो बे वृत्तांत जेमणे एवा स्वजनोए तथा बीजाउँए काढी मूकेली अने तिरस्कार करेली दत्तहिता (श्रृंगारमंजरी) अत्यंत दुःख पामी तथा अंते निकाचित कर्म बांधी हस्तिए खेंचेली पारधीनी जालनी पेठे अधोगति (नरकगति)ने पामी. त्यांची निकली ति Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ शीलोपदेशमाला च जातिमां उत्पन्न इ. ते नवमां पण अनेक प्रकारनां पापनुं याचरण करी शील खंडन करवाथी जयंकर जववाली ते शृंगारमंजरीनो जीव नेक जव सूधी या संसारमां जटकशे ए प्रकारे समान जावना वि. परीतपणाथी निरंतर दुष्ट कर्म करनारी तथा महा पापवाली दत्तपुहिता संसाररूप महा समुद्रने विषे घणा काल सूधी नटकशे. इति दत्तपुहिता कथा समाप्ता. हवे उपरनी कथाना उपदेशने निरुपण करता बता कहे बे. एवं शीलाराधन विराधनानां च सुखदुःखानि एवं' सीलाराढण- विराढणाणं चें सुस्करकाई ॥ जोजव्याः मा शिथिला : जवत शीले इति ज्ञात्वा इयं जायि नोनवाँ, मीं शिढिलां दोदि सीलंमि ॥ ६७ ॥ " शब्दार्थ - ( एवं के० ) ए प्रकारे ( सीलाराण के० ) शीलनुं धाराधन एटले शील पालवं ते, छाने ( विराहाणं के० ) शीलनुं विराधन एटले शीलत्रतनुं खंडन करवुं ते, तेना फलरूप ( सुरकपुरका के० ) सुख दुःखने एटले शील पालवाथी थएला सुखने अने शील खंडन क वाथी एला दुःखने ( इयजापिय के० ) ए प्रकारे जाणीने ( जोजवा ho ) हे जव्य जनो ! तमे ( सीलंमि के० ) शीलवतने विषे ( सिढि - ला के० ) शिथिल - ढीला ( मा होहि के० ) न था. अर्थात् शील व्रत सुखनुं कारण बे एम जाणीने शील पालो. ॥ ६७ ॥ विशेषार्थ- पूर्वे कट्टेली गाथा उपरथी सिद्ध थाय छे के, मनुष्योने शीलवत पालवाथी सुखनी अने खंडन करवाथी दुःखनी प्राप्ति थाय बे. एम जाणीने हे नव्यजीवो ! श्रा लोक अने परलोकमां सुखनुं कारण तो शीलज बे, एम जाणीने शील पालवामां ढीला न था. अर्थात् शीलवत पालवामां तत्पर था. ॥ ६७ ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाया. ३६१० दवे शीलत्रत धारण करनारा पुरुषोने स्त्रीनो संग वर्जवानुं कहता ता कहे. ब्रह्मव्रतधारिणां नारी संगः प्रस्ता बंजवर्यधारीणं, नारीसेंगे अपचारी ॥ मूषकानामिव मार्जारी, इति निषिद्धं च सूत्रेऽपि मूसाव मंजारी, इयं निर्सि६ चे सुतेवि ॥ ६८ ॥ शब्दार्थ - (बंजवयधारीणं के० ) ब्रह्मव्रत ( शीलत्रत ) धारण करनाराने ( नारीसंग के० ) स्त्रीजनो संग ( अपचारी के० ) अनर्थन करनारो बे. अर्थात् शीलवतनो नाश करनारो डे. त्यां दृष्ठांत कड़े ah - ( मंजारी के० ) बिलाडी ( मूसाणव के० ) जंदरने जेम नर्थ करे म. ( इय के० ) ए कारण माटे ( सुतेवि के० ) दशवैका लिका दिक सुत्रने विषेपण (निसिद्ध के० ) निषेध कस्यो बे. (च) समुच्चयने छार्थे जावो. ॥ ६८ ॥ विशेषार्थ जेम बिलाडी उंदरोना दयनुं कारण बे तेम ब्रह्मचर्य व्रत रूप शरीरना कयनुं कारण स्त्रीनो संग बे. एज कारण माटे सिद्धांतने विषे पण शीलव्रत धारण करनारउने स्त्रीउने संग निषेध कस्यो बे ॥६८॥ तेजवात कड़े. (अनुष्टुपवृत्तम्) विजुषा स्त्रीसंसर्गः प्रणितः सनोजनं विभूसा इविसग्गी, पेणीयं रसनोयणं ॥ नरस्य श्रात्मगवेषकस्य विषं तालपुढं यथा नेरस्सऽत्तगवेसिंस्स, विसं तालनडं जदा ॥ ६९ ॥ शब्दार्थ - (अत्तगवे सिस्स के० ) तत्वना जाए एवा (नरस्स के० ) माणसने ( विसा के० ) उगट वस्त्रालंकारथी शरीरने शणगारयुं, ( इके० ) उनो समागम, (पणीयं के० ) स्निग्ध आहार अने (रसोय के० ) विगने सेवन करवुं श्रर्थात् जेथी विकार उत्पन्न याय तेवा पदार्थने जोजन कर ए सर्व (विसं के०) विष बे. ( जहा के० ) जेम ४७ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० शीलोपदेशमाला. (तालउडं के०) तालपुट नामनुं विष जे ते प्राणिनुश्रहित करे ॥६॥ विशेषार्थ- जेम तालपुट नामनुं विष माणसोनुं अहित करनार में, तेम तत्वना जाण माणसने उन्नट वस्त्र अने घरेणां विगेरेथी शरीर शपगार, स्त्रीउनो समागम करवो, स्निग्ध श्राहार जमवो अथवा विगयर्नु नोजन करवू ए सर्व श्रहित करनार (शीलवतने खंडन करनार) . अर्थात् तत्वज्ञानि माणसे उन्नट वेष, स्त्रीनो संग, स्निग्ध श्रादार श्रने विगयनुं जोजन ए सर्व तालपुट विषनी पेठे त्यजी देवु. ॥६ए ॥ ... तेज वातने दृष्टांतथी दृढ करे. यथा कुर्कुटपोतस्य नित्यं कुललात् जयं जैदा कुकुडपोप्रस्स, निचं कुललन यं ॥ एवं खलु ब्रह्मचारिणः स्त्रीविग्रहात् जयं एवं खं बंनयारिस्स, बिविग्गनयं ॥ ७० ॥ शब्दार्थ- (जहा के०) जेम ( कुक्कुडपोधस्स के०) कुकडाना बालकने ( निच्चं के०) निरंतर (कुलल के०) बिलाडाथी (जयं के०) जय ने. (एवं के) एज प्रमाणे (खु के) निश्चे (बंजयारिस्स के०) ब्रह्मचारिने (शनिविग्गदर्ज के०) स्वीना शरीरथी (नयं के०) जय जे. विशेषार्थ- जेम बिलामो बलथी कुकडाना बालकने पकडीने मारीनाखे ने थने तेज कारणथी कुकडाना बालकने बिलामाथी हमेशा जय रदे तेम ब्रह्मचारि पुरुषोने हमेशां स्त्रीउना शरीरथी जय रहे. श्रर्थात् स्त्रीउना शरीरने जोवाथी ब्रह्मचारिने कामदेव प्रगट थाय .॥७॥ विज्रम करनारं स्त्रीउनुं स्वरूप तो दूर रह्यु; परंतु जीत उपरचितरेबुं स्त्रीनुं रूप पण ब्रह्मचारिए न जोवं, ते कहे . चित्रनित्तिं न ध्यायेत् नारी वा समलंकृतां चित्तनित्तिं न निनाए, नारि वा समलंकियं ॥ जास्करमिव दृष्टवा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् नरकरंपिव दहणं, दिहिं पर्मिसमादरे ॥ १॥ शब्दार्थ-ब्रह्मचारिए (चित्तमित्ति के०) जीत उपर चितरेली स्त्रीनी Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथा. मूर्ति (न निनाए के०) न जोवी. (वा के०) अथवा (समलं कियं के०) सारी रीते सुशोजित थएली (नारिं के० ) स्त्रीने पण न जोवी. कदापि अजाणथी स्त्री रूप जोवा जाय तो (जस्करंपिव के०) सूर्यनी पेठे एटले जेम आपणे सूर्यने जो ऊट दृष्टिने बीजी तरफ करीए बीए, तेम (दहुणं के०) स्त्रीने जोश्ने (दिहिं के०) दृष्टिने (पमिसमाहरे के०) पाली खेंची लेवी. ॥१॥ विशेषार्थ- ब्रह्मव्रत धारण करनारा पुरुषे जीत उपर चितरेली बीनी मूर्तिने न जोवी तेमज वस्त्र तथा घरेणां विगेरेथी सुशोजित बनेली स्त्रीनेपण न जोवी. था ठेकाणे कोश्ने एम शंका थाय के "स्त्रीनुं स्वरूप न जोवं, एम तो क्यारे पण बनी शके नहीं. कारण के, चकुजियना चपलपणाथी मार्गादिकने विषे क्यारेक जोवा जवाय.” ए ठेकाणे समाधान आपे के, जो कोइ वखते स्त्रीस्वरूप जोवा जाय तो सू. र्यनी पेठे एटले जेम थापणे सूर्यने जोर दृष्टिने खेंची लश्ए बीए, तेम स्त्रीना स्वरूपने जोश्ने तुरत दृष्टिने पाली खेंची लेवी. ॥ १ ॥ हवे स्त्रीउना प्रसंगथी थता दोषने दूर राखवा माटे स्त्रीचें नाम पण न ले, ते वात कहे जे. हस्तपादपरिजिन्नां कर्णनासाविकस्पितां . दबपीयपलिबिन्नं, कंनैनासविगप्पियं ॥ अपि वर्षशतां नारी ब्रह्मचारी विवर्जयेत् अवि वाससयं नारिं, बंनंयारी विवजए॥७॥ शब्दार्थ- (बंजयारी के०) ब्रह्मव्रत धारण करनारा पुरुषे (हबपायपलिडिन्नं के०) हाथ पग कपाश्गएली(कंननास विगप्पियं के०) कान नाक बेदार गएली अने (वाससयं अवि के०) सो वर्षनी एवीय पण (नारि के०) स्त्रीने (विवाए के०) त्यजी देवी. ॥ ७॥ विशेषार्थ- शुद्ध ब्रह्म व्रतधारी पुरुषे कपाश् गएला हाथपगवाली, बेदार गएला नाककानवाली अने सो वर्षनी एटले बहु वृष थएली एवी पण स्त्रीने त्याग करवी. अर्थात् रूप, वेषयने वर्षादिकथीन श्वा लायक एवी स्त्रीनुं पण नाम त्यजी देवं. ॥ ७ ॥ . Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ शीलोपदेशमाला. था ठेकाणे कोइ एम शंका करे के,“ तत्वना जाण शीलवंत पुरुषोने स्त्रीनुं स्वरूप न जोवा माटे श्राटलो बधो श्राग्रह शा माटे करवो जोशए ? त्यां कहे डे के (आर्या वृत्तम्.) विषमा विषयपिपासा अनादिनवनावनया जीवानां विसमा विसयपिवासा, अंगाश्नवनावणा जीवाणं॥ अतिउर्जेयानि च इंजियाणि तथा चंचलं चित्तं अंङआणि ये-दियाणि तह चंचेलं चित्तं ॥७३॥ स्तोकं असारं सत्वं मोहनवतयः महिलाः अपि "थोवमसारं सैतं, मोहणवल्लीअ मंदिलिआनवि॥ इति कथमपि चखितचितः स्थापयेत् एवं आत्मानं कदवि चलियचित्तो, गवए ऐवमप्पाणं॥॥युग्म। शब्दार्थ- (जीवाणं के०) जीवोने (श्रणानवजावणा के०) श्रअनादि एवा अन्यासपणाए करीने (विसमा के०) उस्तर एवी (विसयपिवासा के०) नोगनी तृष्णा बे. (य के०) अने (अश्ोत्राणि के०) अति उर्जय एवी (इंदिआणि के०) रसनादि इंजिन . ( तह के०) तेमज (चंचलं के०) चपल एवं (चित्तं के०) चित्त बे. वली (थोवं के०) बहु थोडं अने (असारं के०) सार रहित एटले दणनंगुर एबुं (सत्तं के०) सत्व होय . तेमज (महिलिथावि के०) स्त्री पण (मोहणवबीथ के०) खजावथीज मोहने उत्पन्न करनारी लताऊ . ( के०) ए प्रकारे करीने (चलियचित्तो के०) चपल चित्तवालो प्राणी (कहवि के०) महाकष्टे करीने (एवं के०) पूर्वे कहेला स्त्रीसमागमने त्यजी दे. वाना नांगाए करीने (अप्पाणं के०) पोताना आत्माने (गवए के०) स्थापन करे. स्थिर करे. अर्थात् शीलवतनो जंग न करे. ॥७३-७४ ॥ विशेषार्थ-जीवोने अनादि कालना अभ्यासथी उस्तर (पुःखे करीने पण न तरी शकाय एवी) जोगनी इच्छा, अति उर्जय (उःखे करीने न जीति शकाय) एवी रसनादि इंजिर्ज, चपल चित्त, थोडं अने सारविनानुं धैर्य अने मोहने उत्पन्न करवामां लता सरखी स्त्री . Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ३७३ श्रावा प्रकारना अनेक उपवो रहेला बे, तेथी करीने चपल चित्तवाला प्राणीए पूर्वे कहेला स्त्रीना संगने त्यजी देवारूप जांगाए करीने पोताना श्रात्माने शीलवतमा स्थापन करवो. अर्थात् शीलवतनो नंग न थाय तेम पाचारण करवू. ॥ ७३–७४ ॥ . . हवे पोते जीवनेज उपदेश करता उता कहे . रे जीव समयकल्पितनिमेषसुखलालसः कथं मूढ 'रे जीव समयकप्पिय-निमेससुदलालसो कई मूढ ॥ शाश्वतसुखं . असमतमं हारयसि शशिसोदरं च : यशः सासयसुदमेसमतमं, दारसि सँसिसोयरं च जसंजय॥ शब्दार्थ-(रे मूढ जीव के०) *अरे मूर्ख जीव! (समयकप्पियनीमेससुहलालसो के०) श्रवसरे फक्त कल्पनाथी मानेला निमेषमात्र सुखनेविषे लालचु थएलो तुं, (असमतमं के०) जेनी समान बीजु को पण सुख नथी एवा (सासयसुहं के०)फक्त शीलवत पालवाथी मेलवीशकाय एवा अक्षयमोक्षसुखने (चके०)श्रने (ससिसोयरंके०)चंजना सरखा उज्वल एवा (जसं के०) यशने (कहं के०)शा कारणमाटे (हारसि के०) हारी जाय . विशेषार्थ-अरे मूर्ख जीव! फक्त विषयसेवाने अवसरे कल्पनाथी मानेला क्षणमात्रना सुखने विषे लालचु थर रहेलो तुं, जेनी बराबर बीजुं कोपण सुख नथी एवा फक्त शीलवतथी मेलववा योग्य मोक्षसुखने श्रने चंड़ समान उज्वल यशने शाकारणमाटे हारी जाय ? अर्थात् तेवं सुख तुं न हारी जा. ॥ ३५ ॥ कह्यु डे के दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटदो गोत्रे मषीकूर्चकः, चारित्रस्य जलांजविर्गुणगुणारामस्य दावानलः ॥ संकेतः सकलापदां शिवपुरछारे कपाटो दृढः, कामातस्त्यजति प्रबोधयति वा खस्त्रीं परस्त्रीं न यः॥१॥ *श्रा ठेकाणे 'हे जीव' एवं संबोधन न आपतां 'रे जीव' एवं अधम संबोधन श्रापवान कारण ए ने के, जीवने शीलव्रतादि उत्तम धर्म सहाय्यकारी , उतां ते तेवा धर्मने मूकीने बीजा दाणमात्रना सुखमां लालचु श्र रहेलो , माटे तेवं संबोधन आप्यु जे. १ आंखने बंध करीने उघाडवी तेने निमेष कद्देवाय . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ शीलोपदेशमाला. अर्थ- कामथी पीडाएलो जे माणस पोतानी स्त्रीने बोलावतो नथी अने परस्त्रीने तजतो नथी, तेणे जगत्ने विषे अपकीर्तिरूप ढोल वगडाव्यो बे, पोताना कुलने मशी (मेश) नो कूचो दीधो बे, संयमने जलांजलि थापी बे, गुणरूप उद्यानने वीषे दावानल सलगाव्यो बे, सर्व आपत्तिउने पोतानी पासे श्राववानो संकेत कस्यो ने अने मोक्षरूप नगरीना कारने विषे कमाड मजबूत बंध कस्यां बे.. हवे कामने विषे आसक्त थएलानां दूषणो कहे . कलिमलपरतिश्रबुजुदाव्याधिदाहादि विविधासुखानि कलिमलअरश्अनुका-वाहीदादाइ विविदअसुहाई॥ मरणमपि खलु विरहादिषु संपद्यते कामतप्तानां मरणंपि विरदाश्सु, संपऊ कामतवियाणं ॥१६॥ शब्दार्थ- ( कामतवियाणं के०.) कामथी तप्त थएला पुरुषोने (कलिमल के०) लंपटपणाथी विषयनी अप्राप्तिमां चित्तनो दोन, (अर के०) अतिशय चित्तमा उठेग, (अनुस्का के०) ते ते प्रकारनी चिंताथी अंतरना व्याकुलपणाने लीधे अरूचि, (वाही के०) ताव विगेरेनी उत्पति अने ( दाह के०) ताप ( श्रादि शब्दथी चूर्जा विगेरे ग्रहण करवा.) एवा ( विविद असुहा के०) विविध प्रकारना फुःख अने ( विरहा. इसु के०) वियोगादिकने विषे (हु के०) निश्चय (मरणं पि के०) मरण पण (संपङा के०) प्राप्त थाय . ॥ ६ ॥ विशेषार्थ-कामथी तप्त थएला पुरुषने चित्तनो दोज, उद्वेग,अरूचि, ताव, दाह अने मूळ विगेरे विविध प्रकारनां कुःख अने वियोगादिश्रवस्थामां मरण पण थाय जे. अर्थात् प्राणी कामदेवना व्याकुलपणाथी मरणांत श्रवस्थाने पण अनुजवे . ॥ ६ ॥ हवे विषयवंत प्राणीउने बहु दुःख प्राप्त थायबे,तेज फरीथी कहे . विषयिणां कुरकलाक्षाणि विषयविरक्तानां असमशमसौख्यं विसईण उरकलका, विसैयविरत्ताण मसमसमसुकं ॥ यदि निपुणं परिचिंतयसि तत् ममापि अनुजवः एषः जैश निजणं परिचिंतसि, ता मनवि अणुनवो एसो॥७॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ३ जयं शब्दार्थ - ( विसर्पण के० ) विषयवंत प्राणीउने (दुःका के० ) लाखो दुःख प्राप्त थाय बे ने ( विसय विरत्ताणं के० ) विषयथी विरक्त थरला प्राणीने (असम समसुरकं के० ) जेनी बराबर बीजुं कोइ पण सुख न थइ शके एवं मोक्षनुं सुख प्राप्त थाय बे. हे नव्य जीव ! ( ज‍ के० ) जो तुं (निएं के० ) निपुणपणाए करीने ( परिचित सि के० ) विचार करे बे, ( ता के० ) तो ( मनवि के० ) मने पण अने पोताने पण (एसो ho ) ए पूर्वेकहेलो सर्व ( अणुवो के० ) अनुभव थशे. ॥ ७७ ॥ विषेशार्थ - कामदेवथी आकुल व्याकुल थएला प्राणीउने लाखो दुःख ने कामदेव विरक्त थरलाने उपमा रहित एवं मोक्षसुख प्राप्त थाय छे. हे जव्य जीव ! जो तुं प्रविणपणाथी विचार करीश तो पोताने पण एज अनुव थशे. कथं बे के तीरात्तीरमुपैति रौति करुणं चिंतां समालंब्यते, किंचिख्यायति निश्चलेन मनसा योगीव मुक्तेक्षणः ॥ स्वां छायामवलोक्य कूजति पुनः कांतेति मुग्धः खगो, धन्यास्ते विये निवृत्तमदना धिग्दुःखिताः कामिनः ॥ १ ॥ अर्थ- मूर्ख पक्षी नदीना एक कांठेथी बीजे कांठे जाय बे, बीजाने दया उपजे तेम रोवे बे, विचार करे बे ने योगिनी पेठे दृष्टिने स्थिर राखी निश्चल मनथी कां ध्यान करे बे. वली पोतानी बायाने जोइने 'हे कांते!' एम शब्द करे बे. माटे पृथ्वी उपर जे कामथी निवृत्ति पाम्या बे तेमज धन्य बे ने डुखि एवा कामी पुरुषोने धिक्कार बे. ॥9॥ या प्रमाणे विषयनी आशाने दूर करी ज्ञाननो उपदेश कहे बे.. यासां च संगवशतः यशोधर्मकुलानि द्वारयसि मूढ जासि च सर्गेवसन, जैसधम्मकुलाई दारसे मूढ ॥ तासामपि किमपि चित्ते चिंतय नारीणां दुश्चरितं तासिंपि किंपि "चित्ते, चिंतंसु नारीण च्चरियं ॥ ७८ ॥ शब्दार्थ - ( मूढ के०) हे मूर्ख प्राणी ! तुं (जा सिं के० ) जे (नारीण के ० ) ना (संग्रवस के० ) संगना वश्यपणाथी ( जसधम्मकुलाई के० ) यश, धर्म अने कुलने (दारसे के० ) हारी जाय बे. ( ता सिंपि के० ) ते Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ शीलोपदेशमाला. स्त्रीजना पण ( किंपि के० ) कांइ पण (दुच्चरियं के०) डुराचरणने ( चि. ते ० ) चित्तमां ( चिंतय के० ) चिंतवन कर ॥ ७८ ॥ विशेषार्थ - हे मूर्ख प्राणी ! तुं जे स्त्रीउनो संग करवायी यश, धर्म छाने कुल हारी जाय ते, ते स्त्रीउंना पुराचरणनो व्हारा पोताना चित्तमां विचार कर. कja के रक्त, दुष्ट, मूढ, बंधाएलो ए चार उपदेशना शत्रु बे, माटे मध्यस्थपणे रहेतुं श्रर्थात् ते उपदेशने योग्य बेतेथी मध्यस्थपणुं राखीने क्षणमात्र विचार कर ॥ ७८ ॥ - वे स्त्रीउना दोषो कड़े बे. 'चपलाः कुटिलाः वंचन निरताः दुष्टधृष्टाः चैवलान कैडिलान, वर्चेण निरयान उधिद्वान ॥ तथा नीचगामिन्यः याः तास्वपि कः मोहः .तेंद नीं प्रगामिणीन जोन, तासिंपि को मोदो ॥ १ ॥ 9 शब्दार्थ - ( जार्ज के० ) जे स्त्रीर्ड (चवलाई के० ) चंचल खन्नाववाली (कुडिलाई ho) मायावी ( वंचण निरयाउँ के० ) परपुरुषना चितने प्रसन्न करवामां निश्चयवाली ( कुछ के० ) बीजाने दुःखमां पाडवामां चतुर (विधा के० ) निर्व्व (तह के० ) तेमज ( नीखगामि dho) कुपात्र, दास, नट विगेरेने विषे प्रीतिवाली होय बे; तो ( तासिंपि के ० ) तेवी स्त्रीउने विषे ( को मोहो के० ) मोद श्यो ? || ८ || विशेषार्थ - जे स्त्री चंचल स्वभाववाली, मायावी, परपुरुषनी चित्तने प्रसन्न करवामां तप्तर, बीजाउने दुःखमां पाडवामां चतुर अने लगारहित वली कुपात्र, दास, नट विगेरे हलकी जातना पुरुषोने विषे श्रा - सक्त होय छे. तेवी स्त्रीउने विषे मोह श्यो ? कयुं छे के उन्मार्गगामिनी सांड, रसौघनिचितांतरा ॥ स्त्री नदीवनित्येव, कूले कूले इव क्षणात् ॥ १ ॥ अर्थ- जेम श्रावला मार्गे (नींचेमार्गे) जनारी अने गाढ जलरूप रसना समूहथी जरपूर एवी नदी क्षणमात्रमां कांठे कांठे नेदाय बे, ते वला मार्गे (कुमार्गे) जनारी अने गाढ श्रृंगारादि जूदा जूदा रसना समूद्धी जरपूर मनवाली स्त्री क्षणमात्रमां नींच कूल कूलने विषे जे Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथाने. ३७१ दाय बे. माटे तेवी स्त्रीने विषे शामाटे मोह करवो जोइए ? कधुं वे के - अनुरागो वृथा स्त्रीषु, स्त्रीषु गर्वो वृथेति वा ॥ प्रियोऽहं सर्वदाप्यस्या, ममेषा सर्वदा प्रिया ॥ २ ॥ अर्थ - " हुं तेने हंमेशा प्रिय तुं अने ते हंमेशा मने प्रिय बे." एवी स्त्रीने विषे प्रीति राखवी ते फोकट बे. तेमज स्त्रीउने विषे गर्व करवो पण फोगट d. ॥ २ ॥ कारण स्त्रीउने निरंतर स्नेहविनानी जाणवी. वली पण बे - एता इति च रुदति च कार्यहेतोर्विश्वासयंति च परं न च विश्वसंति ॥ तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मसानघटिका श्व वर्जनीयाः॥३॥ अर्थ- स्त्री पोताना स्वार्थ माटे इसे बे घने रुवे छे. बीजाने विश्वास करावे अने पोते विश्वास करती नथी; माटे कुल अने शीले करीने युक्त एवा पुरुषे श्मशानना घडानी पेठे स्त्रीउने त्यजी देवी ॥३॥ हवे स्त्रीउनुं दणरागीपएं कहे बे. चंचल चित्ता वर्जयित्वा गुणसागरमपि पुरुषं गुंणसायरंपि पुरिसं, चंचल चित्तान वैनिं पापा पोवा ॥ मलायाः रज्यते निरक्षरेsपि खलु नीचत्वं श्रहो बच्चs निरंकरेवि हुँ, नीतमंदो मंदेलाए ॥८०॥ शब्दार्थ - ( चंचल चित्तान के० ) चपल चित्तवाली ने (पावा के० ) डुरराचारिणी एवी स्त्री ( गुणसायरं पि के० ) गुणना समुद्र एवाय पण ( पुरिसं के० ) पुरुषने ( वढिं के० ) त्यजी दइने (दु के० ) निश्चय ( निररकरे वि के ० ) मूर्ख एवाय पण पुरुषने विषे ( वच्चइ के० ) रागवाली थाय बे, माटे ( अहो के० ) आश्चर्यकारी बे ( महेलाए के० ) स्त्रीनुं ( नातं के० ) नीचपणुं ॥ ८० ॥ विशेषार्थ - चपल चित्तवाली ने दुराचारिणी एवी स्त्री, गुणना समुद्र अर्थात् बहु गुणवाला पोताना पतिने त्याग करीने निश्चे मूर्ख एवाय पण परपुरुषने विषे प्रीति धरे बे; माटे खीतुं नीचपणुं श्राश्चर्यकारी डे. re Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ शीलोपदेशमाला. एव स्त्रीउने विषे विरक्त थरला पुरुषोने वारंवार उपदेश करता Tea. पृथ्वीश्वरमपि रूपोपहसितमकरध्वजमपि रूवोवंद सियमयर- ६यंपि पुदवी सरंपि इतरनरेऽपि प्रसज्यते धिक् धिक् महिलानां अधमत्वं इयरेंनरेवि पर्सेकर, हीदी महिला एमदमत्तं ॥ ८१ ॥ शब्दार्थ - स्त्री (रूवोवद सिय के० ) रूपे करीने इसी काढयो बे (मयरद्वयं पि के० ) कामदेव जेणे एवाय पण ( पुहवी सरंपि के० ) राजाने. पण (परिहरिजं के० ) त्याग करीने ( इयरनरेव के० ) बीजा रूपरहित पुरुषने विषे पण ( पसइ के० ) आसक्त थाय बे, माटे (महिलाएं के० ) स्त्रीउना ( श्रहमत्तं के० ) श्रधमपणाने (ही ही के० ) धिक्कार था ! धिक्कार था ! ! ॥ ८१ ॥ परिहृत्य परिहरिजं विशेषार्थ - स्त्री कामदेवधी अधिक रूपवंत एवाय पण राजाने त्यजी द बीजा रूपरहित पुरुष उपर श्रासक्त थाय बे, माटे स्त्रीजना अधमपणाने धिक्कार था ! धिक्कार था !! अर्थात् कामदेवथी व्याकुल थ येली स्त्री रूप छाने पात्र रहित एवा जे ते पुरुष उपर यासक्त थाय बे. क - जो वयस्य यदि स्वस्य, प्रशस्यमपि वांसि ॥ कृषेरन्यत्र माकार्षीः, प्रमाणं नायकामुखं ॥ १ ॥ अर्थ- हे मित्र ! जो तुं पोतानुं कुशल इच्छतो होय तो पृथ्वीरूप स्त्री विना बीजी स्त्रीना मुखने प्रमाण करीश नहीं. ॥ १ ॥ वे स्त्रीनुं स्वरूप दुःखे करीने पण जाणी शकातुं नथी, ते कहे. धीरा व कातरा वा नारी मुग्धा इव बुद्धिमती वा धीरा व कायरा वा, नारी मुछा व बुद्धिमता वा ॥ रक्ता इव विरक्ता वा सरला कुटिला इव नो जानामि रेता वै विता वा, सरला कैमिला वैं "नो जाणे ॥ ८२ ॥ शब्दार्थ - ( नारी के०) स्त्री (धीराव के०) धीर सरखी बे ? ( वा के०) अथवा (कायरा के० ) बीकण स्वभाववाला जेवी बे ? ( मुद्धाव के० ) " ! Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ३७ मूर्ख सरखी बे ? ( वा के० ) अथवा ( बुद्धिमंता के० ) बुद्धिवंत सरखी a. ( रत्ताव के० ) आसक्त यएला सरखी बे ? ( वा के० ) अथवा (विरत्ता के० ) विरक्त सरखी बे ? ( सरला व के० ) सरल सरखी बे ? ( कु डिला के० ) खोटा श्राचरणवाली बे ? ते हुं ( नो जाणे के० ) नथी जातो. ॥ ८२ ॥ विशेषार्थ - स्त्री धीरजवाली बे के बीकण बे ? मूर्ख बे के बुद्धिवंत बे ? म्हारा उपर प्रीतिवाली बे के बीजा उपर प्रीतिवाली बे ? सन्मार्गे चानारी बे के खोटा आचरणवाली बे. ते हुं विशेष जाणी शकतो नश्री. ॥ ८२ ॥ कयुं बे के प्राणप्रदा देहहरा नराणां जीरुखजावाः प्रविशति वन्दौ ॥ क्रूराः परं पल्लवपेशलांग्यो, मुग्धा विदग्धानपि वचयंति ॥ १ ॥ अर्थ- प्राण श्रापनारी, पुरुषोना देने हरण करनारी अने बीकण स्वनाववाली एवी स्त्री पण अनिने विषे प्रवेश करे बे. वली क्रूर बता नवांकुरनासरखा कोमल अंगवाली ते मुग्ध स्त्री चतुर पुरुषोने पण बेतरे बे. ॥ ८२ ॥ " बुद्धिवंत पुरुषो पण स्त्रीचरित्रने जाणी शकता नथी, ते कहे बे. निजमतिमहात्म्येन ये सकलं त्रिभुवनं परिकसंति नियैमइमाहप्पेणं, 'जे सयलं तिहुँयणं परिकलंति ॥ नारी चरित्र विचारे तेऽपि खलु मूढाश्व मूकाश्व नारी चरियवियारे तेवि हुँ मूढव मूव ॥ ८३ ॥ शब्दार्थ - ( ये के० ) जे बुद्धिमंत पुरुषो ( नियमश्माद्दाप्पेणं के० ) पोतानी बुद्धिना माहात्म्ये करीने ( सयलं के० ) सर्व एवा ( तिहुयणं ho ) त्रण भुवनने अर्थात् त्रण जगत्ना स्वरूपने ( परिकलं ति के० ) जाणे . ( ते वि के० ) ते बुद्धिमंत पुरुषो पण ( नारीचरीय वियारे के० ) स्त्रीना चरित्रनो विचार करवामां (दु के० ) निश्चय ( मूढब के० ) मूढना सरखाने ( मूव के० ) मूंगाना सरखा बे. ॥ ८३ ॥ विशेषार्थ - जे महाबुद्धिमंत पुरुषो, पोतानी बुद्धिना बलची सर्व त्रण जगत्ना स्वरूपने जाणे बे, ते बुद्धिमंत पुरुषो पण स्त्रीना चरित्रनो वि Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० शीलोपदेशमाला. चार करवामां एटले 'श्रा स्त्री सुशीला के उःशीला डे' एनो निर्णय करवामां मूढ सरखा ने अने कांश्क जाणता होय तो कहेवाने असमर्थ होवाथी मूंगाना सरखा . अर्थात् बुद्धिमंत पुरुषो पण स्त्रीना चरित्रने जाणी शकता नथी भने कांश्क जाणे ने तो प्रगट नहीं होवाथी कही शकता नथी. कह्यु डे के चत्वारः सृजता पूर्व, मुपायास्तेन वेधसा ॥ नसृष्टः पंचमः कोऽपि, गृह्यते येन योषितः ॥१॥ अर्थ-विश्वने सृजनारा ते ब्रह्माए प्रथम चार उपाय सरजा ; परंतु कोइ पण पांचमो सरजो नथी के, जेथी स्त्रीउने पकडी शकाय. ॥ ३ ॥ मनुष्यपणुं साधारण बतां ए स्त्री एवी केम होय बे ? त्यां कहेडे. ___ अन्यं रमते निरीक्षते अन्यं चिंतयति लापते अन्य अन्नं रेम निरिकश, अन्नं चिंते नासए अन्नं ॥ अन्यस्य ददाति दोषं कपटकुटी कामिनी विकटा अन्नस्स देई दोस, कवडकुमी कामिणी विमा ॥४॥ शब्दार्थ- स्त्री ( अन्नं के० ) बीजानी (रम के०) स्पृहाथी श्या करे बे. (अन्नं के०) बीजाने (निरिकर के) व्याकुलपणाथी जोवे बे. (अन्नं के०) बीजाने (चिंतेश् के०) चिंतवे . (अन्नं के०) बीजानी साथे (जासए के०) वातो करे . वली (अन्नस्स के०) बीजाने (दोसं के०) दोष-अपवाद (देश के०) आपे बे; माटे (कामिणी के०) स्त्री (विश्रमा के०) म्होटी एवी (कवडकुमी के०) कपटनी कुपनी बे॥॥ विशेषार्थ- स्त्री एक पुरुषनी स्पृहाथी श्छा करे बे, बीजाने व्याकुलपणाथी जोवे , त्रीजानो मनमां विचार करे जे अने चोथानी साथे वातो करे बे. वली रागरहित एवा को बीजाज पुरुषने पुराचारीपणानो अपवाद श्रापे बे; माटीस्त्री खरेखरी म्होटी कपटनी ऊपडी. कडं बे के जल्पंति सामन्येन, पश्यंत्यन्यं सवित्रमा ॥ हमतं चिंतयत्यन्यं, न स्त्रीणामेकतो रतिः॥१॥ अर्थ- स्त्री एकनी साथे वात करे डे; कटाक्ष सहित बीजाने जुए के; Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगा था. ३८२ बली हृदयमां रहेला त्रीजानो विचार करे बे; माटे स्त्रीने एक पुरुषयी प्रीति नयी ॥ ८४ ॥ दवे पोताना उपर श्रासक्त एवी स्त्रीउनो पण विश्वास न करवो, ते कड़ेबे.. यत्र अनुरक्त चिता सखिघनदेशादिकमपि मुंचति जैत्यापुरत्तचित्ता, सहिधैणदेसाइपि बैडे ॥ तमपि खलु दिपति दुःखे महिला मंठस्य नृपर्या तैं प हूँ खिंवेइ डुके, मंदिला मिंठैस्स निवनीं ॥ ८५ ॥ शब्दार्थ - ( महिला के० ) स्त्री ( जत्थ ) जे पुरुषने विषे ( रत्तचित्ता के० ) श्रासक्त चित्तवाली थाय बे, ते स्त्री ( सहिधणदेसाइअं पि ० ) सखि - नपणी, धनाने देशादिकने पण ( बड़े के० ) त्यजी दे बे. वल्ली ते स्त्री ( तंपि के० ) ते पुरुषने पण ( हु के ० ) निश्चे (डुरके ho) दुःखने विषे ( खिवेश के० ) फेंकी दे बे. दाखलो कड़े ने के, जेम ( निवनका के० ) राजानी स्त्रीए (मिंग्स्स के० ) मंग्ने ( हाथीना मावतने) दुःखमां नाख्यो. ॥ ८५ ॥ विशेषार्थ- पुरुषने विषे श्रासक्त थला चित्तवाली स्त्री. ब्देन पणीने, धन ने देश विगेरेने पण त्यजी दे बे. एटलुंज नहिं परंतु जे पुरुष उपर आसक्त एली होय बे तेज पुरुषने निश्चे दुःखमां नाखे बे. जेम राजानी स्त्री महाव्रतनी साथे प्रीति करीने कुटुंब, धन, राज्य छाने स्वजन विगेरेने त्यजी दइ ते महावतनी साथे चाली गई. रस्तामां चोरने पति करी महावतने पण शूली उपर चडाव्यो या कथानुं स्वरूप नूपुरपंडितानी कथामां कवायतुं बे, त्यांची जाणी लेवुं ॥ ८५ ॥ वे स्त्रीdai विरक्त चित्तवालाने बखाणे बे. कुटिलां महिलां ललितां परिकलय्य विमलबुद्धयः धीराः कैमिलं मंदिलां लेलियं, पैरिकलिडं विमेलबुझिणो धीरी ॥ धन्याः विरक्त चित्ताः जवंति यथा गडदत्तादि धन्ना विरतचित्ता, देवंति जंद गडेदत्ताई ॥ ८६ ॥ शब्दार्थ - ( ललिश्रं के० ) मनोहर एवी ( महिलां के० ) स्त्रीने (कु Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ शीलोपदेशमाला मिलां के०) मगरनी दाढनी पेठे वांका हृदयवाली (परिकलि के०) जाणीने (विमलबुद्धिणो के०) निरमल बुद्धिवाला अने (धीरा के०) धीरजवंत एवा (धन्ना के०) केटलाक पुण्यवंत पुरुषो (विरत्तचित्ता के०) वैराग्यवंत चित्तवाला (हवंति के० ) थाय जे. (जह के०) जेम (अगडदत्ताई के०) अगडदत्त विगेरे थया रे तेम. ॥ ६ ॥ विशेषार्थ- रूपादिकथी मनोहर एवी पण स्त्रीने मगरनी दाढनी पेठे वांका हृदयवाली पुराचरणी जाणीने निरमल बुद्धिवाला श्रने मेरुपर्वतना सरखा धीरजवंत केटलाक पुण्यवंत पुरुषो अगडदत्त, शालिजज अने जंबूखामी विगेरेनी पेठे वैराग्यवंत थाय . ॥ ६ ॥ अगडदत्तनी कथा. जेनी संपत्ति जोश्ने देवताउँ पण लक्ष्मीथी स्वर्गने बेतरायेधुं मानता हता एबुं शंखपुर नामर्नु नगर . त्यां जेना हाथरूप कमलने विषे ब्रमरनी पंक्तिना सरखं खड्ग शोजतुं हतुं एवो अने महा रूपवंत सुंदर नामनोराजा राज्य करतो हतो.तेने त्रास पामेला मृगना सरखा नेत्रवाली सुलसा नामनी स्त्री हती के, जे स्त्री गुणोए करिने सारा दंडवाली ध्वजानी पेठे अत्यंत शोजती हती. तेउने संपूर्ण दोषना स्थानरूप अगडदत्त नामनो पुत्र हतो. एक दिवसे राजा सनामां बेगे हतो, ते वखते अगडदत्त पण श्रावीने बेठो. एवामां केटलाक नगरवासी जनोए श्रावीने राजाने कडं के, “हे देव ! था तमारो पुत्र अगडदत्त प्रजाने बहु संतापे ; तेथी श्रमे नगरमा रहेवाने असमर्थ बीए." प्रजानां एवां वचन सांजलीने क्रोधथी रातां थयां ने नेत्र जेनां एवा राजाए कह्यु के, “ मनुष्योने वांजीया रहेQ ए घणुंज सारं बे; पण कुर्विनीत पुत्रथी पुत्रवंत कहेवरावq ए सारं नथी. सणवाला पुत्रोथी सामान्य कुल शोजा पामे श्रने कुपुत्रोथी उज्वल कुल कलंकित थाय ." ए प्रकारे राजाए तिरस्कार करेलो कुमार अगडदत्त रात्रीने विष सिंहनी पेठे निर्णय बतो पिताना नगरथी चाल्यो गयो. अनुक्रमे ते वाराणसी नगरीये पहोच्यो अने त्यां इंथी पण अधिक लक्ष्मीवंत पुरुषोनी संपत्ति जोवा लाग्यो. पड़ी अनुक्रमे फरता फरता ते सरल मनवालो राजकुमार विद्यार्थिउने जणवानी Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगडदत्तनी कथा. ३०३ पाठशालामां गयो अने त्यां पवनचंड उपाध्यायने नमस्कार करी तेमनी पासे बेगे. उपाध्याय श्राकृतिमंत ते राजकुमारने जोश्ने हर्षथी पूज्यु के, “तुं कोण बुं ? क्याथी श्राव्यो बु? श्रने श्राववानुं कारण शुं ?" उपाध्यायनां एवां वचन सांजली राजकुमारे पोतानी सर्व वात कही एटले उपाध्याये तेने प्रसन्न करता उता स्नेहयुक्त वाणीथी कयु. “हे राजकुमार ! पुत्रोए माता पिताने त्याग करवां ए योग्य नथी; कारणके, ते. मणे जेटला आपणा उपकार कस्या तेटला पृथ्वीमां रजकणो पण नथी. हे वत्स! जो स्तनपानादिक अनेक प्रकारना उपकार करनारा मा. ता पिताने त्याग करे तो पड़ी पशुमां अने मनुष्योमां फेर श्यो? अर्थात् कांश फेर नहीं." राजकुमारे कडं. “ तमाराथी हुँ सारी रीते बोध पाम्या बुं. माता पिता पुत्रने जन्म श्रापे श्रने गुरु ज्ञान थापे ,माटे मने कांश कार्यनी आज्ञा करो.” ए प्रकारे कहेता एवा ते राजकुमारने उपाध्याये पोताना घरप्रत्ये तेडी जर स्नान जोजन विगेरे कराव्युं अने पड़ी कयु के, “ हे वत्स! पिताना घरनी पेठे श्रा म्हारा घरने विषे रहे अने पुत्रनी पेठे आ म्हारी लक्ष्मीने कृतार्थ कर." ते वात अंगीकार करीने विनयवंत राजकुमारे अनुक्रमे सर्व शस्त्र तथा शास्त्रादिक कलानो अन्यास कस्यो. एकदिवसे उपवनमा बाणोथी क्रीडा करता एवा ते अगडदत्त राजकुमारने वांसामा अकस्मात् पुष्पनो दडो वाग्यो एटले जेवामां ते पावं वालीने जुए के तेवामां तेणे एक युवान् रूपवंती स्त्रीने पोतानी पासे दीती. 'शुं था कामवीर ?' एम विचार करीने कटाक्षरूप बाणोना मीषथी युद्ध करवाने तैयार थाय बे एवामां व्रकुटीरूप धनुष्यथी बुटेला नेत्ररूप बाणे करीने नेदा गयुं मन जेनुं एवा राजकुमारने जाणीने ते स्त्रीए कह्यु. “ हे सुजग ! ज्यारथी में श्रा नेत्रोथी तने दीगे डे त्यारथी निर्दय एवो कामदेव मने प्रहारे करे माटे हे नाथ ! तमे था म्हारी याचनाने फोगट करवाने योग्य नथी.” एवां ते स्त्रीनां वचन सांजली राजकुमारे कयुं. “ तुं कोण डं? अने कोनी पुत्री ?” स्त्रीए कह्यु. “हुँ बंधुदत्त शेग्नी वहाली पुत्री . म्हारं नाम मदनमंजरी . वली में न्हान पणथीज सर्व शास्त्रनो अन्यास कस्यो . पिताए मने परणावी , पण Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ शीलोपदेशमाला. कृपण माणस जेम लक्ष्मीने विटंबना पमाडे तेम कृपण पतिए मने विटं. बना पमाडी डे; जेथी हुँ दोरी रहितधनुष्यनी लाकडीनी पेठे पिताना घरने विषे रडं बुं. कयु डे के-चतुर स्त्रीने मूर्ख पति, बुद्धिवंत शिष्योने जड गुरु तथा शूर पुरुषोने कायर अधिपति मृत्यु थकी पण व. धारे उःखकर्ता बे. हे नाथ ! तरश्याने तलावनी पेठे तमे घणे दहाडे म्हारी दृष्टिये प्राप्त थया बो; माटे म्हारा जीवनरूप पति तमेज बो." पली राजकुमारे मनोहर वाणीवाली ते स्त्रीना रूपथी मोहित थश्ने का. "हे रंजोरु ! वखत श्रावे हुं त्हारो मनोरथ सफल करीश." कुमारनां एवां वचन सांजली अत्यंत श्रानंद पामेली ते स्त्री पोताने घेर गश् श्रने राजकुमार पण अश्व उपर चडीने नगर तरफ चाल्यो. रस्ते मनुष्योना कोलाहल शब्दने सांजली तथा शून्य बजारोने जोर कुमारे जेटलामां सामी दृष्टि करी तेटलामा सात स्थानथी करता एवा मदथी पृथ्वीने पलालतो, उंचो कस्यो ने झुंडरूपी दंड जेणे एवो तथा क्रोधथी अंध बनेलो श्रने वली पोतानी सन्मुख श्रावतो एवो हाथी दीठो. पठी घोडा उपरथी उतरी वेगयी हाथीना सामो दोडी पो. ताना पासे राखवावें वस्त्र हाथ उपर वींटीने हाथवती हाथीने प्रहार कस्यो एटले क्रोध पामेलो ते हाथी सोंढने उबालतो तेना सामो दोड्यो. सर्वलोको हाहाकार करवा लाग्या. राजकुमार अगडदत्ते फरीथी पण हाथीने पुबना मूलमां मास्यो तेमज पोतानुं पासे राखवानुं तेना सामुं फेंकीने तेने नमाव्यो भने नमेला हाथी उपर वेगथी चडी जर महावतोए स्तुति करेला राजकुमारे तेने आलातस्थंन साथे बांध्यो. पली नुवनपाल राजाए द्वारपाल मोकली श्रगडदत्तने पोतानी पासे बोलाव्यो. राज सजामां श्रावीने प्रणाम करवा एवा तेने गाढ आलिंगन करी र. जाए पोताना पासे बेसास्यो अने कयु के, " हे वत्स ! जो के में गुणोए करीने त्हारं कुल जाण्युं , तो पण विशेष जाणवाने माटे म्हारं मन उतावल करे .” राजानां एवां वचन सांजली जेटलामां राजकुमार नींL मुख राखीने बेसी रहे तेटलामां पवनचंग उपाध्याये तेनुं सर्व वृत्तांत राजाने कही संजलाव्यु. “ जो राजा ने तो ते म्हारा राज्य Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गडदत्तनी कथा. ३८५ पदने योग्य बे. " एम कहीने भुवनपाल राजाए वस्त्र ने अलंकारो यापी गडदत्तनो सत्कार करयो. ፡፡ एवामां नेट लइने श्रावेला केटलाक नगरवासी जनोए राजाने विनंती करी के, "हे देव! या तमारी नगरी बुद्ध चोरथी पीमा पामेले. तमे रक्षण करनार बतां कोई अदृश्य चोर ज्यारे श्र नगरीने पीडा करे त्याने चंद्रथी अमृत वर्षावाने बदले विष वर्षवा जेवुं थायडे. " न गरवासी जनोनां एवां वचन सांजली राजाए तलारने तिरस्कारपूर्वक नगरनुं रक्षण करवानुं कयुं एटले तलारे नमस्कारपूर्वक राजाने कह्युं के, हे देव ! ए चोर निश्चय को सिद्ध अथवा मांत्रिक होवो जोइए; कारण, मेघा दिवस यया तेने शोधीए बीए, तो पण ते श्रमारी नजरे तो नथी. " पछी चोरने पकडवाना उपायने शोधवाथी थाकी गयेला राजाने जाणी राजकुमार अगदत्ते कयुं. " हे तात! तमे ते वातनी चिंता त्यजी दइ ते काम मने सोंपो. श्रज्ञाकारी हुं हाजर बतां ते काम तमारे बीजा कोइने कड़ेवा जेतुं नथी. कारणके, कफनो नाश करनार शुंत हाजर होय तो कयो पुरुष रसायननो उपयोग करे ? " पी राजा आज्ञा करी एटले हर्ष पाम्यो बे आत्मा जेनो एवा ते कुमारे श्री पवनचंड उपाध्यायनी रजा लक्ष् जुगारी, माली, कलाल, वेश्या ने कंदोश्नी बजारोमां चोरने शोधता शोधता व दिवस निर्ग - मन करा. पढी सातमे दिवसे राजकुमार अगदत्त विचार करवा लाग्यो के, " चोरने शोधतां व दिवस गया; परंतु तेनी वात पण संजलाती थी. वे फक्त श्राजनो एकज दिवस बाकी रह्यो बे तेमां म्हारी प्रतिज्ञा शी रीते पुरी यशे ? " एवो विचार करीने हाथमां बे तरवार जेना एवो ते राजकुमार प्रेतवन ( स्मशान ) नो आश्रय करीने जेटलामां एक वडना वृक्षनी नींचे बेसे बे तेटलामां तेणे रुद्राक्षनी मालाना अलंकारोने धारण करेला, जगवा लुगडांवाला, दंड ने पात्रथी कंपता बे हाथ जेना एवा, वली विशाल कपाल, रातां नेत्र, लांबा हाथ अने लांबी जांघवाल एवा कोइ संन्यासीने धावतो दीो. " श्रा चोर बे. " एम राजकुमार जेटलामां निश्चय करे बे तेटलामां ते पाखंडि सन्यासीए श्रवीने तेने पूब्युं के, " तुं कोण ढुं ? ” राजकुमारे कयुं. " हुं द्यूतथी ४९ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ शीलोपदेशमाला. दारिने पामेलो परदेशी तुं, अने नाशी गइ बे गाय जेनी एवा गोवालनी पेठे द्रव्यने माटे ज्यां त्यां जटकुं बुं." पाखंडिए कयुं. " जो तुं म्हारी साथे वे तो हिम जेम कमलिनीना वननो नाश करेबे तेम हुं हारा दारिद्रनो नाश करूं. " राजकुमारे ते वात कबूल करी एटले तेने त्यांज बेसारी पोते संन्यासी स्मशानमां गयो. त्यांथी बे कोश ने एक तरवार लइ पाठो राजकुमार पासे श्राव्यो ने राजकुमारने पोतानी साथे लइ उतावलो नगर तरफ चाल्यो. पछी ते पाखंडि संन्यासीए मंत्रविद्याना बलथी नगरवासी लोकोने निद्रावश करी को धनवंतना घरने विषे खातर पाड्यं. त्यांची रत्न, जर ने वस्त्रोथी नरेली अनेक पेटी लइ कुमारसहित ते संन्यासी तरत एक देवालयमां गयो. त्यां सूतेला परदेशी मुसाफरोने धनना लोथी दूर काढी मूकी पोते ते शून्य देवालयमां सर्व पेटीट लाग्यो. पठी सर्व 'सूता एटले ते दंनी पण सूतो. ते वखते सूता सूता राजकुमार विचार करवा लाग्यो के, “ यानुं दुरात्मपणुं श्राश्चर्यकारी बे; माटे म्हारे एनो विश्वास करो नहीं." एम धारीने ते राजकुमार पोतानी पथारीने वस्त्र ढांकी तरवार हाथमां लइ वडना कोटरमां संताइ रह्यो . संन्यासीए पण सुतेला सर्वे परदेशीउने तरवारथी मारी नाखीने पढी राजकुमारनी पथारी उपर घा करी ढांकेला वस्त्रना ककडा करी नांख्या. पण पथारी शून्य मालम पडवाथी ते जेटलामां श्रामतेम जोवा लाग्यो तेलामा तरवार ने हाथमां जेने एवा राजकुमार अगदत्ते तेने क. " अरे दुराशय चोर ! घणा कालथी चोरी करनारो तुं हवे क्यों नाशी जवानो बे ? " एम कहीने तेथे तरवारवडे ते संन्यासीना बन्ने पग कापी नाख्या. पढी चोरे क. " हे महाजाग ! व्हारा शौर्यपणाथी प्रसन्न एलो हुं हितकारी उपदेश करूं ते सांजल या मंदिरनी पाबल उंच वडनुं बे. तेना कोटरने विषे म्हारुं पातालभुवन बे. त्यां " वीरवती " एवो शब्द करीने शीलाथी ढांकेलुं बारएं उघडावजे ने संकेतने माटे या म्हारी तरवार तेने श्रापवा सारु ग्रहण कर. हे नरोत्तम ! तुं ते म्हारी न्हानी व्हेनने परणजे के, जेथी तने म्हारो द्रव्यनो जंकार देखामशे.” पी राजकुमार अगमदत्त तेज प्रमाणे करीने तेना घरने विषे पेगे श्रने Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गडदत्तनी कथा. ३८७ वीरवतीने जोइ विस्मय पाम्यो पढी तेना रूपथी मोह पामेला राजकु मारे तेना जानुं सर्व वृत्तांत कही ने निश्चय यवाने माटे संन्यासीए पेली तरवार तेने पी. हर्षथी प्रफुलित नेत्रवाली वीरवती पण यादर सत्कारथी तेने पलंग उपर बेसारी घरनी उपर बीजे माले गइ एटले " शत्रुनो विश्वास करवो योग्य नथी. ” एम विचार करीने राजकुमार पलंगनो त्याग करी एक खुणामां संताई गयो. हवे उपर गएली वीरवतीए यंत्रे करीने एक म्होटी शीला पलंग उपर पड़ती मूकी; जेथी राजकुमारना जोतां तामां तेना ककमा थ‍ गया. पबी निःशंकपणाथी नीचे उतरती ने " म्हारा जाने मा रीने अत्यारसूधी जीवनारो तुं कोण ? ” एम कहेती ते वीरवतीने केशे पकमी राजकुमार गडदत्त बहार लाव्यो ने जेम हतुं तेम शीलाथीघरनुं बारणु बंध करावी प्रजाते तेने साथे लइ जइने तेणे राजाने प्रणाम कस्यो. राजा पण आश्चर्यसहित कुमारना शौर्यनुं वखाण करता चोरे चोरी करेलुं धन नगरवासी जनोने पातुं श्राप्युं. पढी प्रसन्न यएला राजाए एक हजार हाथी, दश हजार जातीवंत घोमा, वस्त्र, अलंकाराने रत्नसहित एक क्रोड सोना महोरो, दश लाख गामवालो देश, पालखी ने मनोहर श्रसनोसहित भंडार अगडदत्तने पीने कमलसेना नामनी पोतानी पुत्री परणावी. राजकुमार पण स्वजनसहित जूदा महेलमा रहेतो थने पवनचंड उपाध्यायनी आराधना करतो तो वनपाल राजाने पिताना सरखो मानवा लाग्यो. एक दिवसे कोई एक स्त्रीए गडदत्तने कर्तुं के, "हे सुजग ! तें वचन श्रापीने यानंद पमाडेली शेठनी पुत्री मदनमंजरी हस्तिने दमन, राजाने नंद, चोरने निग्रह ने राजपुत्रीनो विवाद ते रूप व्हारी वात सांलीने घणोज हर्ष पामी बे अने तेणे मने हारी पासे मोकली डे. " एम कहीने ते स्त्री राजकुमारना कंठने विषे पुष्पनो हार अर्पण करयो ने फीक के, " तेणे कयुं वे के, ढुं निर्भाग्य बुं; कारणके, फरीथी तमे मने संजारी पण नथी. " कुमारे कयुं. “ तेणे कांइ खेद करवो नहीं. में जेक बे ते बीजी रीते थवानुं नथी. हुं ज्यारे देशमां जइश त्यारे 66 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३नत शीलोपदेशमाला. तेने साथे तेडी जश्श.” एम कहीने तेनो सत्कार करी रत्नजमित विंटीनी नेट श्रापी पाली मोकली. ___एक दिवसे द्वारपाले श्रावीने अगडदत्तकुमारनी विनंती करी के, "हे देव ! शंखपुरथी श्रावेला बे माणसो आपणा धारने विषे उन्ना अने श्रापना दर्शननी श्छा करे .” राजकुमारे आज्ञा आपवाथी द्वारपाले तेने प्रवेश कराव्यो एटले सुवेल तथा सुवेग नामना ते प्रणाम करता एवा पोताना बे प्रधानोने उलखीने तेणे अत्यंत थालिंगन करी पोता. नी पासे बेसास्या. पनी राजकुमारे पितानुं कुशल पूज्युं एटले सुवेगे कयुं के, “हे देव ! सर्वे कुशल बे; पण एक तमारो वियोग छःसह जे." सुवेगनां एवां वचन सांजली जेनी आंखमांथी सुनी धाराउ पडवा लागी हती एवा कुमारे कयुं के, "धिकार डे म्हारा सरखा शत्रुरूप पुत्रोने, के जेना स्मरणथी पिताने पुःख थाय . में पिताने पासे रहे. वाथी श्रने परदेश जवाथी छुःखज कलुं बे." एम कहीने खेद पामता एवा कुमारने सुवेगे फरीथी कयु के, " गुणवंत पुत्रनो प्रवास पिताने पुःखरूप थतो नथी, पण ज्यारे फरीथी सहवास थायडे त्यारे सुगंधी सुवर्णनी प्राप्ति जेवू बने, माटे हे देव ! पोताना गुणोए करीने माता पिताने प्रसन्न करो.” घणा कालना वियोगश्री माता पिताने मलवाने माटे उत्साहवंत थएलो कुमार वस्त्र अने अलंकारोनी नेटथी सत्कार करेला तेउँने साथे लइ जुवनपाल राजा पासे गयो भने सुवेगना मुखथी सर्व वृत्तांत तेने संजलाव्युं एटले नुवनपाल राजाए अगडदत्त राजकु. मारने तेना देशप्रत्ये जवानी श्राझा करीअने पोतानी पुत्री कमलसेनाने घणी सारी शीखामण श्रापी. पड़ी उपाध्यायनी आज्ञा लश्सासुये कगुंडे मांगलिक जेने एवा ते राजकुमारे परिवार सहित प्रयाण शरु कगुं. सैन्ये प्रयाण कस्या पली राजकुमारे रात्रीये पाला वली पोतानो रथ दूतीना घरपासे राख्यो भने मदनमंजरीने रथमां बेसारी तरत उतावलथी प्रयाण कडं. पड़ी भागल जता विंध्याचलना वनने विषे पडाव करीने रहेला ते कुमार उपर जीम नामना पल्लीपतिनुं धाडं पड्यु, तेथी कुमार अगडदत्तनुं सैन्य वायुए उराडेला खाखराना पांदडानी पेठे नाशी जवा लाग्यु. बेवट श्रगडदत्त राजकुमार श्रने नीमनुं युद्ध थयु. तेमां पण को Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगडदत्तनी कथा. ३नए इए विजय लक्ष्मी मेलवी नहीं. पडी पतिनो जय श्चती एवी मदनमंजरी राजकुमारनासारथीने ठेकाणे बेठी एटले तेने जोश मोह पामवाथी निर्बल थएला पहिपतिने राजकुमारे मारी नाख्यो. त्यांची राजकुमार श्रागल चाख्यो. अर्धे मार्गे जतां तेने कोश बे पुरुषो मल्या. तेमने शंखपुरनो मार्ग पूबवाथी ते ए राजकुमारने कर्वा के, “ था वडना वृक्ष पासेथी शंखपुर जवाना बे मार्गो . तेमां जमणि बाजुने मार्गे शंखपुर घणुं दूर बे; पण तेमां कांश नय नथी श्रने डाबी बाजुने मार्गे नजीक ; पण तेमां उर्योधन नामनो चोर, एक हस्ति श्रने एक सिंह बे; जेथी ते मार्ग घणोज कठण .” एवां तेनां वचन सांजलीने राजकुमार हंमेशना श्रन्यासथी तेज मार्गे चाल्यो अने तेनी साथे बीजा केटलाक व. टेमार्ग पण चाव्या. श्रागल जता उत्तम बुद्धिवाला ते राजकुमारने, कपालनी मालारूप अलंकारवाला, हाथमां धारण कयुं कमंडल जेणे एवा श्रने शब्द करती घुघुरीउथी जागता जटाजूथरूप श्राजुषणवाला को कापालिके (बावाये) आगल आवीने आशिर्वादपूर्वक कर्वा के, " तीर्थयात्राने माटे जतो एवो हुँ त्दारा संगाथनी प्रार्थना करुं बं." राजकुमारे ते वातनी हा कहेवाथी कापालिक तेना रथनी पाउल पाडल चाल्यो. श्रागल जतां एक गाम श्राव्युं ते जोश्ने कापालिके राजकुमारने कयु. “हे धर्मज्ञ ! श्रा वर्षने विष हुँ वर्षाऋतुमां था गामने विषे रह्यो हतो; माटे सर्वे माणसो म्हारा जवाथी प्रसन्न थशे. हे विवेकि ! तुं पण या सर्व माणसो सहित त्यां चाव्य.” राजकुमारे कडं. "श्रमारे मुनिउनी साथे नोजन करवू योग्य नथी,” एम ना कह्या बतां पण कापालिके कपटथी विष नेलवेलुं केटलुक जुध श्रने दही लावी थाप्यु ते खाश्ने सर्वे माणसो एक वृक्षनी नीचे सूता. पनी कुमार नाथु काढीने जेटलामां खावा बेसे तेटलामां ते कापालीक हाथमा तरवार लश कुमारनी पासे श्रावी कहेवा लाग्यो, " अरे ! तेज हुँ उर्योधन नामनो चोर डं. शुं तें म्हारं नाम सांजव्यु नथी ? अरे ! हवे तुं म्हारी श्रागलथी लक्ष्मीना सरखी प्रियाने लश्क्यां नाशी जवानो के ? में त्हारी साथेनां माणसोने विष खवरावी मारी नाख्या के अने या तरवारथी तने पण मारी नाखीश.” एम कहीने ते तरवार खेंचीने कुमार सामो दो Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० शीलोपदेशमाला. ड्यो. ते जोश्ने आश्चर्य पामेला राजकुमारे पोतानी तरवारथी पाकेलि काकडीनी पेठे तेनुं मस्तक कापी नाख्यु. पड़ी तृषावंत थएला चोरने राजकुमारे पाणी पायुं एटले राजकुमारना गुणोथी प्रसन्न थएला चोरे तेने कयु. हे सुत्नग ! था पर्वतना कुंजने विषे गुफा . तेमां मनोहर घर बे. त्यां सुंदरी नामनी म्हारी प्रिया अने प्रव्यनो भंडार बे, तेने तुं म्हारी थाज्ञाथी ग्रहण कर. कुमारे पण त्यां जश् अने तेनी प्रियाने सर्व वात कही. रतिना सरखी ते स्त्रीने जोश्ने अने कामदेवना सरखा राजकुमारने जोश्ने परस्पर ते बन्ने जणा अनुरागवंत थया. कडं ले के- शुं काम योग्य कार्यनो विचार करे ले ? अर्थात् नथी करतो. पड़ी ते ने परस्पर प्रीतिवाला थएला जाणीने मदनमंजरी बहु क्रोध पामी; पण तेणे पोतानी मर्यादा त्यजी दीधी नहीं. राजकुमार पण सुंदरी अने धननो त्याग करी रथ उपर बेसी आगल चाल्यो. रस्तामां म्होटा अरण्यने विषे तेने कूर कालना सरखी श्राकृतिवालो वननो हाथी मट्यो; पण तेने तो तेणे फक्त रमतमांज वश्य कस्यो. वली पागल जतां तेणे दाढोथी जयंकर सिंह दीगे, पण तेने तो वस्त्रथी विटालेलो पोतानो हाथ तेना मुखमां घाली तरवार वती मारी नाख्यो. पड़ी श्रेष्ठ झानी जेम संसाररूप समुत्रने उलंघन करे तेम अनुक्रमे अरण्यने उलंघन करी आगल गयो एवामां मदरहित एवा तेणे मोदसुखना सरखं पोतानुं सैन्य दी. पली सैन्यना मुख्य माणसोने राजकुमारे प्रथमथी सर्व वात पूर्वी एटले तेए कह्यु के, “ हे देव ! पछिपति मृत्यु पाम्यो एटले अमने कोइएक पुरुषे कयु के, "राजकुमार बागल गया.” ते उपरथी अमे सैन्यने तथा कमलसेनाने लश् थाटले दूर श्राव्या; पण तमने दीग नहीं, तेथी अहींज रह्या." पठी सैन्यसहित अगडदत्त कुमार माता पिताना मनोरथने पूर्ण करतो तो शंखपुर प्रत्ये श्राव्यो. कुमारने श्रावेलो जाणीने हर्षित एवा सुंदर राजाए श्राझा करेला श्रेष्ठ सामंतोए कुमारने नगरवासी जनोए मांगलिक करेला पुरप्रत्ये प्रवेश कराव्यो. कुमारे पण उत्साहथी पिताना चरणने विषे प्रणाम कस्यो भने राजा पण रोमांचित थएला पोताना पुत्रने अत्यंत स्नेहथी मल्यो. त्यांथी कुमारे अंतःपुरमां Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गडदत्तनी कथा. ३०१ जने माताने प्रणाम कस्यो एटले जाणे सुनी धाराउंथी स्नान ककरावती होय नहीं शुं ? एम तेणे पुत्रना अंगनो स्पर्श कस्यो. बेवटे प्रधान ने नगरवासी जनोनो यथायोग्य सत्कार करीने पिताए श्राज्ञा करेलो राजकुमार पोताना घरप्रत्ये गयो. पी उत्तम दिवसे राजाए कुमारने युवराज पी पी तेथी, तेणे पोताना गुणोए करीने सर्व प्रजाने यानंद पमामी. कुमारे प्रेमने लीधे मदनमंजरीने म्होटी ने कमलसेनाने न्हानी मानी, जेथी ते सर्व कार्य मां मदनमंजरीने प्रथम गणतो, तो पण कमलसेना जराय ईर्ष्या करती नहीं. पठी कोकिलाना शब्दोथी मनोहर एवी वसंतऋतु श्रावी एटले सुंदर राजा अंतःपुरसहित श्रानंदकारी उपवनमां क्रीडा करवा गयो. कांतिश्री कामदेवना गर्वने दूर करनारो अगमदत्त कुमार पण मदनमंजरी - नी साथे त्यां गयो. त्यां खो दिवस क्रीडा करवायी थाकी गएलो राजकुमार जरा दूर जश्ने प्रियानी साथे रथमांज सूइ गयो. निद्राना arat रथनी बहार लांबा थएला मदनमंजरीना हाथने दैवयोगथी जाणे पूर्वना मूर्तिमान् कर्मेज होय नहीं शुं ? एम कोइ सापे दंश कस्यो, एटले तत्काल ते " मने सापे करडी, मने सापे करडी. " एम पोकार करती जागी उठी छाने कुमारे पण जोयुं तो साप दीठो. एवामां विषथी प्रियाने मूर्छा यावी ते जोइने कुमार पण मूर्छा पाम्यो. थोमो वखत गया पी कुमार वननो पवन लागवाथी सचेत थयो छाने प्रिया यश नहीं एटले ते मांत्रिकोने बोलावी उपाय करवा मांड्या; पण तेटलामां ते मदनमंजरी मरण पामी; तेथी ते प्रियाने पोताना खोलामा बेसारी विलाप करवा लाग्यो ने प्रियानी साथे अग्निमां प्रवेश करवामाटे चिता करवा मंड्यो. एवामां तीर्थयात्राने व जतो एवो कोइ विद्याधर कोलाहल सांजलीने त्यां श्राव्यो पढी कुमारे प्रार्थना करेला ते विद्याधरे मंत्रेतुं पाणी त्रणवार मदनमंजरीने बांटी जीवती करी; तेथी आनंद पामेला तेथे विद्याधरनो सत्कार कस्यो एटले ते विद्याधर पोइति स्थान चाल्यो गयो ने राजकुमार मदनमंजरीने साथे लइ देवालयमां श्राव्यो. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए शीलोपदेशमाला. पली “मने बहु टाढ लागे .” एम मदनमंजरीये कडं एटले राजकुमार अगडदत्त वनमां जश् श्ररणीना काष्टने मथन करी अग्नि लश्याव्यो. हवे जे देवालयमां प्रियाने मूकी राजकुमार काष्ठ लेवा गयो हतो, ते देवालयमां गामने विषे चोरी करीने पांच चोरो संताइ रह्या हता. तेए अजाणपणाथी दीवो कस्यो एटले मदनमंजरी ते ने मध्ये न्हानाने देखीने मोह पामी अने कहेवा लागी के, “ जो तुं म्हारो आदर करे तो हुँ त्हारी साथे श्रावु.” चोर ते वातनी हा कही एवामां कुमार काष्ठ लश्ने श्राव्यो भने शंकाथी प्रियाने पूज्युं के, “दीवो शेनो हतो?" मदनमंजरीये उत्तर थाप्यो के, “ हे खामिन् ! तमे अरणिना काष्ठनो अग्नि पामता हता तेनुं तेज जीत उपर लाग्युं तेनुं ए प्रतिबिंब हतुं." कुमार ते वात मानी पोतानी तरवार प्रियाना हाथमा श्रापी पोते अ. निने प्रगट करवा लाग्यो एटले मदनमंजरीए तरवार उघाडी करीने पति उपर पडती मूकी; पण तेने ते वागी नहीं. कुमारे शंकाथी प्रियाने पूज्यु के, " तरवार केम पडी गई ?” मदनमंजरीये उत्तर श्राप्यो के, "हुँ तरवार उघामती हती; पण टाढने लीधे पमी ग .” पनी थग्नि प्रगट करीने कुमारे प्रियानी टाढ निवृत्त करी. सवारे सुंदर राजा सर्व जन सहित नगरमां श्राव्यो. राजकुमार अगमदत्त पण पोताना घरप्रत्ये श्राव्यो अने इंजियोने वश करी न्यायधर्ममां तत्पर थर अनुक्रमे त्रिवर्ग (धर्म अर्थ श्रने काम ) नुं पोषण करवा लाग्यो. ___ एक दिवसे युवराज सजामां बेगे हतो एवामां को सोदागर तेने घोडा देखावा लाग्यो. तेमां विशाल बातिवाला, समान पीठवाला, न्हाना कानवाला, पुष्ट वांसावाला, वेगथी चपल पगवाला अने दशलक्षणोथी युक्त एवा एक घोडाने जोश तेना उपर ते राजकुमार बेगे अने तेनी चपलगति रोकवाने माटे तेणे लगाम खेंची एटले ते अश्व पंचमी गति चालवा लाग्यो, जेथी तेनी पाउल जता एवा केटलाक घोडा थाकीने पाढा वल्या अने केटलाक तेनी पायल जवा लाग्या. परंतु ते घोडो तो कुशिष्य जेम गुरुने अवला मार्गे लइ जाय तेम राजकुमारने क्षण मात्रमा म्होटा अरण्यने विषे लश् गयो. पड़ी कुमारे Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अगडदत्तनी कथा. ३५३ जेटलामा लगाम ढीली मूकी एटले वननी प्राप्ति करवामां शत्रुरूप ते घोडो तत्काल पृथ्वी उपर पडी गयो. __ हवे वनमा फरता एवा ते राजकुमारे आदीश्वर लगवाननुं एक मं. दिर दी. पठी मंदिरनी श्रागल रहेली वाव्यमां स्नान करीने पवित्र थ मंदिरमा प्रवेश करी तथा तत्काल फल श्रापनारा जिनेश्वर जगवानने वंदना करी बहार श्रावेला तेणे धर्मदेशना श्रापता एवा एक जैन साधुने दीगा. अगडदत्त मुनिने पण प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करी तेमनी पागल बेठगे, एवामां तेणे व्रतधारण करवामां उत्साहवंत थयेला केटलाक पुरुषोने देखीने साधुने पूज्युं के, “दे जगवान् ! था हाथ जोडी रहेला तथा दीदा धारण करवामां उत्साहवंत थयेला कोण ? अने तेमने वैराग्य, कारण शुं ?” मुनिए कडं “हे न ! सांजल्य. विंध्याटवीमा रहेनारा नीम नामना पल्सीपतिना था पांच जार्ज बे. एक दिवसे त्यां को राजपुत्रे पोताना सैन्यने पडाव कराव्यो, ते उपरथी तेने पतिपतिनी साथे म्होटो युक थयो. तेमां राजकुमार कांश्क आकुल व्याकुल थयो एटले श्रृंगार धारण करनारी ते राजकुमारनी स्त्री पोते तेनो सारथ थश्ने बेठी. पड़ी तेना विज्रमथी ब्रांति पामेला पहीपतिनो नाश करीने राजकुमार पोताने देश चाल्यो गयो. हवे प. द्वीपतिना था पांच जाळ क्रोध करीने पोताना जानुं वेर लेवा माटे राजकुमारनी पाल चाट्या; पण ते वनने विषे युद्ध करवा समर्थ थया नहीं, तेथी ते एक देवालयमां गुप्तरीते रह्या. पड़ी एक दिवसे ते राजकुमारनी साथे उपवनमां क्रीडा करवा गयेली तेनी प्रिया मदनमंजरीने सर्प डश्यो, तेथी ते मरण पामी एटले राजकुमार तेनी साथे अग्निमा प्रवेश करवा तैयार थयो. एवामां को विद्याधरे ते मदनमंजरीने जीवाडी. पड़ी ते बन्ने जणा एक देवालयमां गया के, ज्यां पूर्वे कहेला पांच चोरो संताश् रह्या हता. मदनमंजरीए पतिने कडं के, “ मने बहु टाढ लागे ." ते उपरथी राजकुमार श्रग्नि लेवा गयो. पनी चोरोए दीवो करीने राजकुमारनी पथारी जोवा मांडो, एवामा मदनमंजरीये ते चोरोना न्हाना जाने दीगे अने तेणे मदनमंजरीने दीठी; तेथी ते बन्ने जणा परस्पर प्रेमवंत थया. कह्यु के-का Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ शीलोपदेशमाला. मिठने लजा क्यांथी होय ? पनी प्रार्थना करती एवी मदनमंजरीने चोरे कडं के,“हे शुने! पति जीवता बतां तने ग्रहण करवाने कोण समर्थ थाय?" मदनमंजरीये कह्यु. “ जो एम होय तो हुँ पतिने मारी तने निःशस्य करूं." ए प्रकारे ते परस्पर वात करे ने एवामां राजकुमार अनि सश्ने श्राव्यो अने प्रियाने पूज्यु के, “दीवो शेनो हतो ?” प्रियाये ज. त्तर आप्यो. “ तमारा हाथमा रहेला अग्नि- ए प्रतिबिंब हतुं.” पली प्रियाना हाथमा तरवार आपीने राजकुमार जेवामां अग्निने प्रगट करवा जाय जे तेवामां ते स्त्री पण पतिने मारवा माटे तैयार थर. ते जोश्ने चोर विचार करवा लाग्यो के, “ धिक्कार बेा स्त्रीना पुष्ट विचारने! के जेणे म्हारे विषे क्षणिक रागना हेतुथी पोताना पतिने मारवानो विचार कस्यो. जेणे ते स्त्रीने माटे मरण स्वीकार करां हतुं; तेनो त्याग करनारी था स्त्री म्हारे विषे केम स्थिरता करशे ? हा ! शौर्यना समुषरूप था नररत्नने मरावी नाखीने हुँ केटली पुष्टगतिमां जश्श !!!” एम विचार करीने ते चोरे स्नेहयुक्त बंधु जेम आपत्तिनो नाश करे तेम तत्काल ते मदनमंजरी पासेथी तरवार पडावी नाखी.” । एवां साधुनां वचन सांजली राजकुमार मनमां विचार करवा लाग्यो के, "अहो! स्त्रीने धिक्कार ने अने म्हारा साहसपणाने पण धिक्कार बे. कारण के, जे में तेने अग्रेसर करी ! में मोहथी जातिवंत पुष्पनी मालाने त्याग करी धंतुराना पुष्पने माथे चडाव्युं के, जे धर्मप्रियाने त्याग करी ते पुष्ट स्त्रीने पट्टराणी मानी.” (मुनि राजकुमार अगडदत्तने कहे डे के,) हे सुजग ! पनी मदनमंजरीये तरवार कुमार उपर पडती मूकी, पण तेने वागी नहीं एटले राजकुमारे पूब्युं के, “तरवार केम पडी गश्?" प्रियाए उत्तर प्राप्यो के, " टाढने लीधे पडी गइ.” पली पसीपतिना पांचे नाल वैराग्यथी पो. ताना नानुं वेर मूकी दश हितनी श्वाथी विचार करवा लाग्या. “ जे स्त्रीने माटे पुरुषो पोताना प्राणोने तृण सरखा करीने सुख जोगवे बे; ते स्त्रीउनुं श्रा, चेष्टित .!!!" इत्यादि संसार थकी वैराग्य पामीने पोतानी स्त्रीने मारवानी श्छा करीने जता एवा ते था चोरो म्हारी दे. शना सांजलीने व्रत ग्रहण करवाने तैयार थया ." Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गडदत्तनी कथा. ३५ इत्यादि मुनिना मुखथी सर्व वृत्तांत सांजलीने राजकुमारे कधुं." दे प्रभु ! तमे या सर्व वृत्तांत म्हारुंज कयुं. ते राजकुमार हुं अने ते म्हारी प्रिया हती. हे मुनि ! जेवी रीते बहारना अंधकाररूप शत्रुनो नाश करवा मां सूर्य समर्थ बे तेवी रीते म्हारा अंदरना मोहरूप शत्रुनो कय करवामां तमे समर्थ बो. वली विरोधना दंजधी या पांच चोरो म्हारा बंधु थयेला ab, जेमणे म्हारा प्राणोनुं रक्षण करेलुं बे. या अरण्यने धन्य बे के, ज्यां मने जिनेश्वरजगवान् देव, तत्वज्ञानाने सकुरु ए रूप ऋण रत्न प्राप्त थयां अनर्थना समुद्ररूप था संसारने सर्व प्रकारे धिक्कार था ! धिक्कार था !! अने म्हारे चारण मुनिना चरणनुं शरण हो. " एम कहीने ते राजकुमार गडदत्त मुनिने वंदना करीने सर्व माणसो सहित पोताने घेर गयो ने पढी तेथे कमलसेना सहित दीक्षा धारण करी. स्त्रीना वैराग्यथी वृद्धि पामी बे श्रद्धा जेनी एवो ते राजकुमार दी - र्घकाल सूधी चारित्रनी श्राराधन करी ने कर्मोंने निर्मूल करी मोहना सुखने पाम्यो. इति अगदत्त कुमारनी कथा. वे स्त्रीउनो विश्वास करनारने दुर्दशा प्राप्त थाय बे, ते कहे बे. मुखमधुरासु निर्घृण मानुषनारीषु मुग्ध विश्वासं मुहमहुरासु निग्धि. माणुसनारीसु भुंइ वीसा ॥ यान् लप्स्यसे अवश्यं प्रदेशिराज इव विषमदशां जंतो दसि वस्सं. पए सिराज विसंमदसं ॥ ८७ ॥ शब्दार्थ - ( निग्धिण के० ) हे निर्दय ! ( मुद्ध के० ) हे मूर्ख ! ( मुहमुहरासु के० ) फक्त रंजने विषे मधुर एवी ( माणुसनारीसु के० ) मानुष्य जातिनी स्त्रीने विषे ( वीसासं के० ) विश्वासने (जंतो के० ) पामतो वो तूं ( वस्सं के० ) निश्चे ( पए सिराज के० ) प्रदेशी राजानी पेठे ( विसमदसं के० ) विषम दशाने ( लह सि के ० . ) पामीश ॥ ८७ ॥ विशेषार्थ - हे निर्दय ! हे मूर्ख ! जो तुं फक्त शरुवातमां मधुर पवी Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ शीलोपदेशमाला. मानुष्य जातिनी स्त्रीउने विषे विश्वास करीश तो निश्चय प्रदेशी राजानी पेठे महा विषम दशाने पामीश. ॥ ७ ॥ .. प्रदेशी राजानी कथा. जेमां धनवंत रूप अने कल्पवृदो शोनी रह्या हता एवी आमल कस्पा नामनी नगरी ने. एक दिवसे ते नगरने विषे समवसरेला श्रीमहावीर स्वामीनी को सूर्यान नामना देवताए श्रावीने विनंती करी के, " हे स्वामिन् ! श्राजे हुँ था गौतमादि महर्षिउने नवी नाट्य विधि देखा. डवामाटे श्रावेलो इं.” ए प्रकारे ते देवताए श्री महावीर स्वामीनी त्रण वखत विज्ञप्ति करी; तो पण प्रजुए तेने कांश उत्तर प्राप्यो नहिं. का बे के-बुद्धिवंत पुरुषो बीजाउँने पुःख थाय तेवं कांश करता नथी. पडी ते देवताए ईशान दिशामा उना रहीने पोताना हाथमाथी एक सो ने श्राप देवताने तथा एक सो ने श्राप देवीउने काढीने नाटक देखाड्युं. वली बत्रीश प्रकारना बीजा नाटक देखाडीने ते देवता वीजलीनी पेठे खर्गमां चाल्यो गयो. पली श्री गौतम खामीए बीजा लोकोने बोध करवा माटे श्री महावीर प्रजुने पूज्यु. “ हे नगवंत ! था देवता कोण हतो? तथा तेने श्राटर्बु बोधी अने श्रा प्रकारनी संपति क्याथी प्राप्त थ?” श्री महावीर स्वामीए कद्यु. “ हे वत्स्य गौतम ! सांजल्य. __ था क्षेत्रने विषे श्वेतवती नामनी नगरी बे. त्यां प्रदेशी नामनो नास्तिक राजा राज्य करे . तेने सूर्यकांता नामनी स्त्री, सूर्यकांत नामनो पुत्र श्रने जैनधर्मने विषे प्रीतिवालो चित्रनामनो उत्तम प्रधान . ___ एक दिवसे ते चित्र प्रधान कां राज्य कार्यना प्रसंगथी श्रावस्ती न. गरीमा जितशत्रु राजा पासे गयो. त्यां तेणे केशी गणधरने देखीने प्रणाम कस्यो. राज्य कार्य करी रह्या पली प्रधान केशीगणधरने पोतानी श्वेतवती नगरीमां श्राववानी विनंती करी पालो पोतानी नगरीप्रत्ये आव्यो. हवे केशी गणधर पण पृथ्वी उपर विहार करता करता अनुक्रमे श्वेतवती नगरीना उद्यानमां समवसस्या. एटले उद्यानपालके श्रावीने प्रधानने कयु. प्रधान पण हर्ष पामतो तो मनयी ते गणधरने नमस्कार करी विचार करवा लाग्यो. “ हुं प्रधान बतां जो राजा नरकने विषे ग. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी राजानी कथा. ३ए ति करनारो थाय; तो तेणे श्रापेला था प्रधान पदरूप प्रसाद- म्हारे माथे कण रही जाय. तो कुपुत्रनी पेठे तेम केम थाय ? माटे को उपायथी एने गुरुनी वाणी संजलावं.” एवो विचार करीने ते बुद्धिवंत प्रधान राजाने अश्व खेलाववाना मीषथी उद्यान तरफ लश् गयो. राजा अश्व खेलाववाथी थाकी गयो एटले एक वृदनी नीचे गयामां बेठो. त्यां ते गुरुनी देशनानी वाणी सांजली रोगी माणस जेम वीणानो शब्द सांजली उछेग पामे तेम उद्वेग पामवा लाग्यो; तेथी तेणे मुख मरडीने चित्र प्रधानने पूज्यु. “ रोगथी पीडाता माणसनी पेठे श्रा कोण रस विनानी वाणी बोले ? " प्रधाने कयु. “ हुँ जाणतो नथी. चालो जश्ने निश्चय करीये के ते कोण ?” एम कहीने प्रधान राजाने केशी गणधरना आश्रमनी पासे ले गयो एटले राजा त्यां एक बाजुये उनो उनो देशना सांजलवा लाग्यो. केशी गणधर देशना आपे डे के- “ हा हा! नाना प्रकारना योग्य अर्थथी मधुर एवा तत्वने न जाणनारा मूर्ख जीवो अश्रद्धाथी पोताना जीवीतने मिथ्या हारी जाय . वली मीथ्या कदाग्रहथी नरकना अतिथिपणाने पामे के; परंतु तत्वनो आश्रय करीने शुन एवी अर्ध्वगति पामता नथी !!! " अमे अधिपति (राजा) बीए.” फक्त एटलुंज बोलनारा अज्ञानी जीवो अन्य वस्तुना प्रमाणने अप्रमाणने तथा निषेधने कही शकवाने पण समर्थ थता नथी अने योगी पुरुषतो प्रत्यक्षपणाथी अथवा अनुमानथी पोताना आत्मानी साथे बीजा माणसोना आत्माने सरखावे . श्छा, वेष अने प्रयत्नादि दृष्टिथी देखी शकाता नथी, तो पण यंत्रथी निर्मुक्त थयेली (चिंचोडा. मां पीलाइ गयेली) शेरडीनी पेठे तेमांथी चैतन्य जतुं रहेतुं नथी. जो के जीवने विषे ज्ञान अने विज्ञान- तारतम्यपणुं श्ष्ट बे; तो पण तेना जोया विना कोना चित्तने विषे नाव नथी रहेतो? नेत्रथी फलादिक जोयां पण खाधां विना तेना रसनो खाद कोनाथी जाणी शकाय ? श्रर्थात् कोश्थी न जाणी शकाय. तेमज इंडियोथी जूदो एवो कोश् श्रव्यक्त दर्शी पुरुष के. जे योग्य एवा रसना स्वादने (मोदादि सुखना स्वादने) अहिं वारंवार स्मरण करे जे. वली तेणे वृछादि अवस्थामा परिमाणना नेदयी स्मृतिनो योग ते होवाने सीधे को गुप्त कर्ता अनुमान Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एन शीलोपदेशमाला. कराय . नेत्रोथी कोइ पण पदार्थने जोये बते द्वेष तथा रागादिक विकार उत्पन्न थाय बे; पण ते वेष तथा रागादिकने उत्पन्न करनार पुरुष प्रसिद्ध बता अदृश्य कहेवाय . रूपादिकनी पेठे सुखादिकने पण गुणपणुं निश्चय बे. अर्थात् रुपादिकना सरखं सुखादिकमां गुणपणुं रहेढुं बे; परंतु तेमां जो गुणी जोश्ये तो अदृश्य एवो श्रात्मा एकज . थामा प्रत्यद थये ते " हुं सुखी बु अथवा पुःखी बुं.” एवी संसार सं. बंधी वेदना वृथा देखाय . माटे हे जव्यजनो! तेवा मोहनो त्याग करो. सत्यवादनी युक्तिथी चंड सूर्यना उपराग (गृहण) विगेरेनो श्रनुमानथी अग्निनी पेठे विचार करवो. सर्वज्ञ पुरुष जाणपणाना अनुमानथी बीजापुरुषनी मनना झंडा वीचारोने जीतनी अंदर रहेली वस्तुनी पेठे निश्चय जाणी शके बे. वजन पुरुषोनां वाक्यथी अने अनुमानथी सर्वज्ञपणुं प्राप्त करीने तेए कहेला उत्तम मार्गनो मोद लदमीने माटे आश्रय करवो.” __ एवी केशी गणधरनी तत्व गर्जितवाणीथी शीथील थयो ने श्राग्रह जेनो एवो तथा संदेहथी दोलायमान थयुं चित्त जेनुं एवो ते प्रदेशी राजा तत्काल ते सजामां आव्यो. त्यां उधनी धाराना सरखी सूरीनी स्नेह ष्टिथी धोवाइ गयो मननो मेल जेनो एवा ते प्रदेशी राजाए मधुरवाणीथी सूरीने कडं. “ हे जगवन् ! म्हारो पिता बहु पाप करनारो होवाथी तमारा मत प्रमाणे नरकमां गएलो होवो जोश्ये अने म्हारी माता तमारा धर्मनी जाण होवाथी ते तमारा मत प्रमाणे स्वर्गमां गयेली होवी जोश्ये. वली हुँ जेवो तेने वहालो हतो तेवो बीजा कोइने नथी, जेथी म्हारां मात पिता पोतानां सुख कुःखनी वात मने केम कही जतां नथी?” सूरीए कह्यु. “पोताना कर्मरूप दोरीथी पशुनी पेठे बंधाएलो अने परखाधिन रहेलो प्राणी नरकमांथी पोतानी मरजी प्रमाणे अहिं श्रावी शकतो नथी. वली विषयमा आसक्त अने परस्पर गाढ प्रीतिवाला खर्गमां रदेला देवताउने पण था लोकमां श्राववानी घणी मरजी होय बे, परंतु ते रस्तो जाण्या विना शी रीते श्रावी शके ? था मृत्युलोकनी पुगंध चारसे ने पांच योजन सूधी जंचे जाय , जेथी देवता अहिं आवी शकता नथी, पण फक्त अरिहंतना Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी राजानी कथा. ३ पांच कल्याणकने विषे तथा कोइना तपना बलथी ते अहिं पृथ्वी उपर यावे बे. बीजे कोइ वखते यावता नथी. हे राजन् ! एज कारणथी नरकमा गएलो हारो पिता ने स्वर्गमां गयेली व्हारी माता पोतपोतानां दुःख सुखनी वातो कड़ेवा माटे व्हारी पासे यावी शकतां नथी. " राजा फरीथी पूब्j. " हे प्रजो ! मे एक चोरने कोठीमां घाली कोaaj बारं बंध करायुं. थोडा दिवसो गया पढी ते चोरने बहार कGoat तो तेने जव रहित अने तेनुं शरीर अनेक जीवथी व्याप्त थयेलुं दी. में प्रथमथी जोयुं हतुं तो तेमां कोइ जीव पेशी शके अथवा बहार नीकली शके तेम न होतुं तो कहो ते चोरनो जीव कये रस्ते थइने गयो ने बीजा जीवो कये रस्ते थइने श्राव्या ? वली में एक बीजा चोरने पकडी तेना शरीरनुं चूर्ण करावी नाख्युं; पण तेमांथी कोई जीव म्हारे हाथ श्राव्यो नहीं तेम में अथवा बीजा कोइए दीठो पण नहीं तो कहो ते चोरनो जीव केम नहीं देखायो ? तेमज में त्रीजा चोरने पकडी तेने तोल्यो. पढी श्वास रोकीने मारी ने फी तोल्यो. तो जेटलो जीवतां थयो हतो तेटलोज ते मरी गया पी पण यो जीवतां छाने मूवामां कां फेर पड्यो नहीं. तो कहो जीवनो तोल केम कांइ न थयो ? " सूरीए क. " जेम बिज विनानी कोठीमां पूरेलो माणस शंखने बगाडे अने ते शब्द बहार उनेला माणसो सांजले बे तेमज मूर्ति विनानो जीव कोठीमांथी बहार निकलो गयो. अर्थात् शब्दना सरखा शरीरवालो जीव शूक्ष्मपणाथी पण देखी शकतो नथी. शब्दना पुलपणाथी उत्पन्न यएला बीजा शब्द पुलो कोठीने नेदीने बहार निकली जाय बे, जेथी तेमना निकलवानो मार्ग देखी शकातो नथी. जेम छारणीना काठमां अनि रह्यो बे aai d काष्ठोने जांगी नाखीये तो पण ते देखातो नथी. तेमज जीव श रन अंदर रहेलो बे बतां शरीरना ककडा करी नाखीये तो पण देखातो नथी. हे तूप ! जेम पवनथी नरायेली अथवा न जरायेली चामानी मशकमां तोलनो फेर पडतो नयी तेम जीववाला अथवा जीव रहित एवा देहमां तोलनो फेर पडतो नथी. ए प्रकारे सूक्ष्म अथवा बादार देनी पण एवीज गति बे. हे महाराज ! श्रात्माने चैतन्यमय, सू Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० शीलोपदेशमाला. क्ष्म, कर्मथी बंधायेला अने महाबलवाला जाणीने तुं श्री जैन शासनने विषे बुद्धि कर.” पली प्रदेशी राजाए पोताना कुलमां परंपरायी चालता आवेल नास्तिक पणानो त्याग करी अने सुवर्णनी पेठे जैनधर्मनी परी. का करी तेनोज श्राश्रय कस्यो तथा मिथ्यात्वनो त्याग करी सम्यक्त्व. ना मूलरूप बार व्रत धारण कस्या. वली तेणे बाह्य अने आत्यंतर विषयोने विषे वैराग्य धारण कस्यो. ते वखते पर पुरुषने विषे अनुरागवाली श्रयेली तेनी स्त्री सूर्यकांताए तेने पौषधना पारणामां विष दीधुं. राजाए तेनुं ते कृत्य जाण्यु; पण द्वेष कस्या विना परमेष्ठिने नमस्कार पूर्वक ते चित्तने विषे मोहने त्याग करी महाव्रत धारण करी अने मृत्यु पामी सौधर्म देव लोकने विषे सूर्याजनामना वैमानमां देवता थयो. इति प्रदेशीराजानी कथा समाप्ता. हवे स्त्रीनो विश्वास न करवो ते कहे जे. अनुकूलसप्रेम्लामपि रमणीनां मा कुर्याः विश्वास अण्कूलसपिम्माणवि, रमणीणं मा करित वीसासं ॥ यथा रामलक्ष्मणान्यां सूर्पणखायाः महारण्ये जद रामलकणादिं, सुप्पणदाए महारमे ॥ ॥ शब्दार्थ- (श्रणुकूलस पिम्माणवि के०) अनुकुल एवा प्रेम सहित ए. वी (रमणीणं के०) स्त्रीउना (वीसासं के०) विश्वासने (मा करिजा के०) न कर. (जह के०) जेम (महारले के०) म्होटा अरण्यमां (दंडकारण्यमां) (रामलकणाहिं के०) राम अने लक्ष्मणे (सुप्पणहाए के) सूर्पणखानो विश्वास न कस्यो. ॥ ७ ॥ विशेषार्थ- जेम दंडकारण्यमां कामनी श्वाथी वरवा श्रावेली सूर्पणखानो राम अने लक्ष्मणे विश्वास न कस्यो तेमज अनुकूल प्रेमयुक्त ए. वी पण स्त्रीउनो विश्वास न करवो. ॥ ७ ॥ कयु डे के न नारीषु न मूर्खेषु, न विराधेषु शत्रुषु ॥ न चाप्यातशीलेष, विश्वसंति मनीषिणः॥१॥ अर्थ- डाह्यापुरुषो स्त्रीउने विषे, मूर्खने विषे, राक्षसनेविषे, शत्रुनेविषे थने नथी जाएयुं शील जेनुं एवाने विषे विश्वास करता नथी. ॥ ७ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ४०१ सूर्पनखानुं टुंकुं दृष्टांत एम बे के जेना पुत्र शंबूकने लक्ष्मणे मारी नाख्यो होवाथी पुत्रना शोकने सीधे महावनमां जटकती एवी रावनी बेन शूर्पनखा पंचवटीना वनमां निवास करीने रहेला राम थने लक्ष्मणने जोइ तेमना रूप अने सौभाग्यथी मूढ बनी तथा पुत्रनो शोक मूली जइ तेमनी इछा करवा लागी पढी प्रथम ते राम पासे गइ; पण रामे तो " म्हारे स्त्री बे." एम कहीने तेने काढी मूकी, तेथी ते लक्ष्मण पासे गई. लक्ष्मणे पण " तुं प्रथम म्हारा म्होटा जाइ पासे ग; माटे म्हारी जोजाइ बरोबर थ5. " एम कदीने विवेकी एवा लक्ष्मणे पण रजा थापी या शुर्पनखानुं विशेष चरित्र श्रागल सीतानी कथामां क - देवाशे, माटे त्यांची जाणी बेवुं. पूर्वनी वातने विशेष कड़े. पररमणी प्रार्थनायां दाक्षिण्यादपि मुह्य मा मूढ पररमणीपणा, दकिन्नानवि मुझे म भूढ || पतिष्यसि अनर्थे किं किल दाक्षिण्यं राक्षसी निः समं पंडसि किं किर्ल, देखिन्नं रकेस्सीदिं समं ॥ ८ ॥ शब्दार्थ - ( मूढ के० ) हे मूढ ! तुं ( पररम पिणार्ड के० ) पर - स्त्रीनी प्रार्थना करवामां ( दरिकन्नावि के० ) दाक्षिण्यपणाथी पण एटले निपुणपणाथी पण ( मा मुन के० ) न मोह पाम. कारण के, परस्त्री प्रार्थना करवा ( श्रत्थे के ) दुःखने विषे ( पमसि के० ) पडी - श, (किल के० ) निश्चय ( रकस्सीहिं के० ) राक्षसीनी ( समं के० ) साथै ( दरिकनं के० ) दाक्षिण्यपएं ( किं के० ) शुं ? ॥ ८ए ॥ विशेषार्थ - अरे मूर्ख ! तुं परस्त्रीनी प्रार्थना करवामां चतुराईथी पण मोद न पाम. अर्थात् परस्त्रीने विषे चतुराइयी क्रीडा न कर. कारण के, परस्त्रीनी प्रार्थना करवाथी निश्चय तुं दुःखमां पडीश. वली एरासीनी साथे चतुराइ शी ? स्त्रीउने प्रत्यक्ष राक्षसीपणुं बे. कह्युं बे केदर्शने हरते प्राणान्, स्पर्शने हरते बलम् ॥ मैथुने हरते कार्य, स्त्री हि प्रत्यक्षराक्षसी ॥ १ ॥ अर्थ- फक्त दर्शनथी प्राणने हरे बे, स्पर्शथी बलने हरे ने अने मै ५१ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ शीलोपदेशमाला. थुनथी शरीरने हरी जाय बे; माटे निश्चय स्त्री प्रत्यक्ष राक्षसी . ॥॥ हवे परस्त्रीउना संगथी पोतानुं सौजाग्य माननाराने तिरस्कार करता बता कहे . पररमणीरंगात् सौजाग्यं मा गणयस्व निर्जाग्य । पररमणीरंगान, सोदग्गं माँ गणेसु निग्ग ॥ यदि सिजिवधूरंगं करोति तदा मन्यस्व सौजाग्यं जश सिविंदरंगं, करे तो मुंणसु सोबैग्गं ॥ ए॥ शब्दार्थ- (निजग्ग के०) हे निर्जाग्य ! (पररमणीरंगाउँ के०) परस्त्रीना रंगथी (सोहग्गं के०) पोताना रूपादिकना गर्वने (मा गणेसु के०) न गण. (जश के०)जो (सिछिबदरंग के०) मोक्ष लक्ष्मीने विषे रंगने (करे के०) करे ने, (ता के०) तो (सोहग्गं के०) पोताना रूपादि गर्वने (मुणसु के०) मान्य. ॥ ए॥ विशेषार्थ- अरे निर्जाग्य ! परस्त्री हारा उपर प्रीतिवाली थाय; तेथी तुं पोताना रूपादिना गर्वने न पाम. परंतु जो मोद लदमीरूप स्त्री त्हा. रा उपर प्रीति करे, तो पोताना रूपादि गर्वने धारण कर.॥ ए० ॥ हवे संसारना अनिलाषी माणसने मोदनुं उर्खजपणुं कहे . बहुमहिलासु प्रसक्तं शिवलक्ष्मीः कथं त्वां समीहेत बढुम दिलासु पसतं, सिवलचि केंद तुम समीदेश॥ इतरापि प्रौढमहिला अन्यासक्तं न हिते इयरावि पो.महिला, अंनासत्तं न ईदे ॥१॥ शब्दार्थ-हे मूर्ख ! ( सिवलछि के०) मोक्षलक्ष्मी जे जे ते ( बहु महिलासु के०) घणी स्त्रीने विषे ( पसत्तं के०) आसक्त थयेला (तुमं के०) तने ( कह के०) केम ( समीदेश के०) श्छे ? अर्थात् न श्वे. कारण के, (श्यरावि के० ) बीजी एवी पण (पोढमहिला के०) म्होटी अथवा म्होटा कुलनी स्त्री ( अंनासत्तं के ) परस्त्रीने विषे थासक्त थयेला पुरुषने (न ईहेश के० ) नथी श्वती. ॥ १ ॥ विशेषार्थ-हे मूर्ख ! मोहलक्ष्मी, घणीस्त्रीउने विष आसक्त थयेला Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ४०३ तने शी रीते श्छे ? कारण के, म्होटी अथवा म्होटाकुलमा उत्पन्न थ. येली बीजी सामान्य स्त्री पण परस्त्रीने विषे आसक्त थयेला पुरुषने श्वती नथी. कयु के अन्यान्यरमणीरक्तश्चक्रवर्त्यपि मा वरः॥ परस्त्रीसंगविरतो, दाखिकोऽपि वरं वरः॥१॥ अर्थ-नवी नवी परस्त्रीने विषे शासक्त एवो चक्रवर्ति पण श्रेष्ठ नथी अने परस्त्रीना संगरहित एवो खेडु पण श्रेष्ठ वर .अर्थात् निर्मल शील पालवाथी मोद प्राप्त थाय .॥ १ ॥ तेज वातनो उपदेश करतां कहेडे. शाश्वतसुखश्रीरम्यां अविघटप्रेमाणं समृद्धिसिद्धिवर्धू सासयसुदसिरिरमं, अविदेडपिम्मं समिद्धिसिद्धिवढुं॥ यदि ईहसे तत् परिहर इतराः तुबमहिलाः जर ईदसि ता परिदर ईयरान तुबमदिलान॥ ए॥ शब्दार्थ-( ज के०) जो ( सासयसुहसिरिरंमं के ) अविनाशी सुखनी संपत्तिए करीने मनोहर श्रने (अविहडपिम्मं के०) निश्चल डे प्रेम जेनो एवी ( समिद्धिसिद्धिवढं के० ) समृद्धिवाली मोक्षलक्ष्मीरूप स्त्रीने (हिसे केस.) श्छे बे, (ता के०) तो ( श्यराज के०) बीजी (तुबमहिला के०) था तु स्त्रीने (परिहर के० ) त्यजी दे. अर्थात् मोदलदमीनी श्छा होय तो निर्मल एवं शीलवत पाल.॥ ए॥ विशेषार्थ-हे प्राणी ! जो तुं अविनाशी सुखनी संपत्तिथी मनोहर अने निश्चल ने प्रेम जेनो एवी समृद्धिवाली मोक्षलक्षिरूप स्त्रीने श्छे बे, तो बीजी श्रा प्रत्यद देखाती एवी तुछ स्त्रीउँने त्याग कर. अर्थात् जो मोदलक्ष्मीनी श्छा होय तो निर्मल एवं शीलवत पाल. ॥ ए॥ .. कामथी पीडा पामता पुरुषोने पुःखज थायडे, ते कहे. रम्याः रमणीः दृष्ट्वा विविधाः कामतप्तस्य रेम्मान रमणीन, दैहुं विविहान कामतवियस्स॥ कुत्र सुखं तव नविष्यति जणितं इदं आगमेऽपि यतः कब सुदं तुद दोदी, नैणियमिणे आगमेवि जनाए३॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ शीलोपदेशमाला. -: शब्दार्थ - ( विविहार्ड के० ) विविध प्रकारवाली अने (रम्मार्ज के०) मनोहर एवी ( रमणी के० ) स्त्रीउने ( दहुं के० ) जोने ( कामतविस्स के० ) कामथी तप्त थयेला ( तुह के० ) तने ( सुदं के० ) सुख जे ते ( a ho ) क्यांथी ( होही के० ) थशे ? ( जर्ज के० ) कारण के, ( श्रागमेवि के० ) श्रगमने विषे पण ( इणं के० ) या प्रमाणे ( जयिं के० ) कयुं बे. ॥ ९३ ॥ विशेषार्थ - हे प्राणी ! अनेक प्रकारनी मनोहर स्त्रीने जोइने कामयी तत ययेला तने सुख क्यांथी यशे ? कारण श्रागममां पण या प्रमाणे क े. ॥ ३ ॥ तेज वात कड़े. ( अनुष्टुप्रवृत्तम् ) 8 यदि त्वं करिष्यि जावं याःयाः प्रक्षसि नारी: ज‍ तें कादिसि नावं, जाजा देवसि नारि ॥ वातोद्धतः इव वृक्षः अस्थिरात्मा भविष्यसि वायादुव देढो, चिप्पा भविस्ससि ॥ ९४ ॥ शब्दार्थ - हे प्राणी ! ( जइ के० ) जो ( तं के० ) तुं ( जाजा के० ) जे जे ( नारि के० ) स्त्रीने ( दवसि के० ) जोवे बे. ते स्त्रीउने विषे ( जावं के० ) जावने ( का हिसि के० ) करीश तो ( वायाइव ढो ho ) वायुए कंपावेला वृनी पेठे ( श्रिप्पा के० ) अस्थिर श्रात्मावालो (जविससि के० ) यश. ॥ ७४ ॥ विशेषार्थ - हे प्राणी! जो तुं जे जे स्त्रीने जोवे बे ते ते उपर जाव करीश, तो निचे वायुए कंपावेला वृक्षनी पेठे अस्थिर श्रात्मावालो थ श. अर्थात् नरकादि कुगतिने विषे जमनारो थइश ॥ ए४ ॥ हवे स्त्रीना शरीरने विषे पण वैराग्यनुं कारण देखामता बता कहे बे रमणीयां देहावयवानां यां श्रियं र रमणीणं रमणीयं देहावयवाण सिरिं सरंसि ॥ यौवन वर वैराग्यदायिनीं . तां चिंतय स्मृत्वा विरमे वरं -ग्गदाइणि तें चिये संरेसु ॥ए॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ मूलगाथान. शब्दार्थ- (रमणीणं के०) स्त्रीना (देहावयवाण के०) शरीरना हाथ, पग, मुख विगेरे अंगोनी (रमणीयं के०) मनोहर एवी (जं के०) जे (सिरि के) शोजाने (सरसि के०) संजारे बे; परंतु (अवणवीरमे के०) युवावस्था विराम पामे बते अर्थात् वृद्धावस्थामां (वेरग्गदारणिं के०) वैराग्य थापनारी (तं के०) ते शोजाने (सरेसु के०) सं. जारीने (चिय के०) विचार कर. ॥ एए॥ विशेषार्थ- हे प्राणी! तुं स्त्रीऊना शरीरना हाथ, पग, मुख विगेरे अंगोनी मनोहर एवी जे शोजाने संजारे , परंतु तेज शोजा वृक्षावस्थामां वैराग्य उत्पन्न करनारी तेनो विचार कर. वृद्धावस्थामां सू. काई गयेला पांदडावाली लतानी पेठे शीथल अंगवाली स्त्रीने जो सर्वे विराग पामे ; माटे ते वृद्धावस्थानी दशाने आ युवावस्थामां संजारीने शीलवतने पाल. ॥ एए॥ हवे शीलवंतनुं माहात्म्य श्रने शीलरहितनी निंदा कहे बे.. शीलपवित्रस्य . सदा किंकरलावं कुर्वति देवाःअपि शीलेपवित्तस्स सँया, किंकरनावं करंति देवावि॥ शीखनष्टः नष्टः परमेष्ठीअपि खलु यतः जणितं शीलनको नहो, परॅमिहीवि हुँ जैन भणियाए॥ शब्दार्थ- (देवावि के०) देवता पण (शीलपवित्तस्स के०) शीलव्रतथी पवित्र एवा पुरुषy (किंकरलावं के०) दासपणुं (सया के०) निरंतर (करंति के०) करे अने (शीलनहो के०) शीलवतश्री नष्ट थयेलो (परमिहीवि के०) ब्रह्मा पण (हु के०) निश्चे (नहो के०) नाश पाम्यो . (जर्ड के०) एज कारणमाटे (नणियं के) शास्त्रमा कडं . ॥ ए६॥ विशेषार्थ- देवता पण शीलवतथी पवित्र श्रयेला पुरुषy दासपणुं निरंतर करे बने शीलव्रतथी व्रष्ट थयेलो ब्रह्मापण लोकमां सर्व प्र. कारे वगोवायो जे. एज कारणमाटे शास्त्रमा पण कडं . ॥ ए६ ॥ शास्त्रमा जे कयु डे ते कहे जे. यदि स्थानी यदि मौनी यदि मुंडी वटकली तपस्वी वा जैश गणी जैश मोणी, जैश मुंडी वली तव॑स्सी वा ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ शीलोपदेशमाला. प्रार्थयन् च श्रब्रह्म ब्रह्मापि न रोचते मां पबितो ये अंबंनं, बंभावि न रोचए मैंन । ए॥ शब्दार्थ- सर्वज्ञ प्रनु कहे जे के- (यदि के०) जो (गणी के) कायोत्सर्ग करनारो होय (जश के० ) जो (मोणी के०) वाणीने नियममा राखनारो होय (जश के०) जो (मुंडी के०) लोच करनार होय (वक्कली के०) जो जाडनी बालरूप वस्त्रने धारण करनार होय (तवस्सी के०) जो निरंतर तप करनार होय (वा के०) तेवं जाति अथवा कुल होय (च के०) पण (श्रबंनं के) मैथुननी (पडितो के०) प्रा. र्थना करनारो (बंगावि के०) ब्रह्मा होय तो ते पण (मन के०) मने (न रोचए के०) नथी रुचतो. ॥ ए ॥ विशेषार्थ- श्रीसर्वज्ञ प्रजु कदेडे के- गमे तो कायोत्सर्ग करनारो होय के, वाणीने नियममा राखनारो होय, गमे तो लोच करनारो होय के, फाडनी डालने पहेरनारो होय, वली निरंतर तप करनारो होय के तेवु को जाति के कुल होय जेवट ब्रह्मा पोते होय, परंतु जो ते मैथुननी प्रार्थना करनारो होय तो ते मने रुचतो नथी. तो सामान्य माणसनी तो वातज शी! वली मूल गाथामां वारंवार 'यदि' शब्द मूक्यो बे, तेथी सर्व गुणवालो माणस होय, परंतु शीलरहित होय तो ते कांश नथी, एवो अतिशय देखाडवामाटे . ॥ ए॥ __ सामान्य उपदेश कह्यो. हवे नाम बतावी ते उपदेश कहे . इति जावयन् जावं स्वयोगगुप्तः जितेंजियः धीरः इत्र नौवंतो नोवं, सजोगेंत्तो जिंदिन धीरो॥ रक्षति मुनिः गृहीअपि खलु निर्मलनिजशीलमाणिक्यं रकैश मुंणी गिदीवि दु, निम्मलनिअंसीलमाणिकं ॥एन॥ शब्दार्थ- (श्न के०) पूर्वे कहेला (जावं के०) जावने (जावंतो के) लावतो (सजोगकुत्तो के०) पोताना मन, वचन श्रने कायाने रोकनारो (जिदि के) जितेंजिय श्रने (धीरो के०) निश्चल चितवालो एवो (मुणी के०) मुनि अथवा (गिही वि के०) गृहस्थ पण (हु के०) निश्चे (निम्मल के०) मलरहित एवा (निश्रसीलमाणिकं Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-बार वीरेने अने निरंतर (परिवजा ब्रह्मचर्य मूलगाथान. ១០១ के०) पोतानां शीलरूप माणिक्यरत्नने (रकर के०) रक्षण करे बे.॥ए विशेषार्थ- पूर्वे कहेला जावने जावनारो, पोतानां मन, वचन अने कायाने रोकनारो, इंजियने जितनारो श्रने निश्चल चित्तवालो मुनि होय अथवा गृहस्थ होय तो पण ते निश्चय पोताना निर्मल शीलरूप माणिक्य रत्नने रक्षण करे जे. ॥ ए हवे मुनिने शीलनुं रक्षण करवानो उपाय कहे . एकांते मंत्रादि पार्श्वस्थादिकुसंगमपि सततं एंगते मंतोई, पासवाईकुसंगमवि सययं ॥ परिवर्जयन् नवविधब्रह्मगुप्तिगुप्तः चरेत् साधुः परिवेकंतो नवविद-बंनगुत्तिगुत्तो चरे साँदु ॥एए॥ शब्दार्थ- (एगंते के०) एकांतने विषे (मंताई के०) स्त्रीने साथे वात श्रथवा विचार वीगेरेने अने (पासबाश्कुसंगमवि के ) पासलादिना कुसंगने पण (सययं के०) निरंतर (परिवऊंतो के०) त्यजी देतो एवो भने (नवविहनगुत्तिगुत्तो के०) नव प्रकारना ब्रह्मचर्यनी गुप्तिथी रक्षण करायेलो ( साहु के०) साधु (चरे के०) विचरे. ॥ एए॥ विशेषार्थ- एकांत स्थानमा स्त्रीनी साथे वात अथवा विचार वि. गेरेने अने पासबादिकना कुसंगने निरंतर त्यजी देतो तथा स्त्रीउनी व. स्तीमां न रहे, स्त्रीउनी कथा न सांजली, तेमना आसन उपर न बेस विगेरे नव प्रकारना ब्रह्मचर्यनी गुप्तिथी रक्षण करायलो साधु था पृ. थ्वी उपर विहार करे . मूल गाथामा “ पासबास्थादि" एमां श्रादि शब्द थापेलो बे; माटे आदि शब्दथी कुशीलीया अथवा तेमनो संग करनारा, मरजी प्रमाणे चालनाराउनो संग, स्त्रीउने रहेवाना स्थाननो संग पण त्यजी देवो. कयु डे के। खणमवि न खमं कालं, अणाययणसेवणं सुविहियाणं ॥ जग्गंधं होश वणं, तग्गंधो मार वाई ॥१॥ १ पासला बे प्रकारना जे. एक सर्वपासना अने बीजा देशपासला. जे ज्ञानदर्शन अने चारित्रनी उपासना करे ने उता पण जेने ते ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्पर्शं नथी, ते सर्व पासना जाणवा अने जे कारण विना सजातरे आणे, अन्न, राजानुं अन्न विगेरेने जोजन करेने ते देश पामचा जाणवा. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ដូចច शीलोपदेशमाला. । अर्थ- सुविहित पुरुषोए बीजाना निवासस्थानमां क्षणमात्र पण निवास करवो नहीं. अष्टांत कहे डे. वनमा जे जे गंध होय . त्यां त्यां वायु ते ते गंधवालो वाय . ॥ एए॥ गृहस्थने पण शीलनुं रक्षण करवानो उपाय कहे. वेश्यादास्यसतीप्रमुखाणां अशेषऽष्टनारीणां वेसादासीअसई-पमुदाणमसेसनारीणं॥ शीलवतरक्षणार्थ गृही अपि संग विवर्जयेत् सीलेवयरकपबं, गिहीवि संगं विर्वजिजा ॥ १० ॥ शब्दार्थ- (गिहीवि के०) गृहस्थे पण (सीलवयरकण के०) शीलव्रतना रक्षणने अर्थे (वेसादासीअसईपमुहाणं के०) वेश्या, दासी, असती विगेरे (असेसनारीणं के०) समस्त पुष्ट स्त्रीउना (संगं के०) संगने (विव जिजा के०) त्यजी देवो. ॥ १० ॥ विशेषार्थ- गृहस्थाश्रममा रहेला पुरुषे पण शीलवतनुं रक्षण करवा माटे वेश्या (पैशा श्रापीने जोगववा योग्य स्त्री) दासी (काम करनारी) श्रने असति (पतिने बेतरी बीजा पुरुषनी साथे क्रीडा करनारी) विगेरे सर्व पुष्ट स्त्रीउना संगने त्यजी देवो. ॥ १० ॥ कयु डे के उमंत्र्यानृपतिर्विनश्यति यतिःसंगात्सुतो लालनाछिप्रोऽनध्ययनात् कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात् ॥ मैत्री चाप्रणयात्समृफिरनयात् स्नेहःप्रवासाश्रयात्, स्त्री मद्यादनपेक्षणादपि कृषिस्त्यागात्प्रमादानम् ॥१॥ अर्थ- राजा पुष्टमंत्रीथी, साधु संगथी, पुत्र लाड लडाववाथी, ब्राह्मण अजण रहेवाथी, कुल खराब चालवाला बोकराथी, शील खलनी सोबतथी, मैत्री अविनयथी, समृद्धि अन्यायथी, स्नेह प्रवासथी, स्त्री मद्यथी, खेति तपास न राखवाथी श्रने धन दान अथवा प्रमादयी नाश पामे ॥१॥ हवे मुनिने श्रने गृहस्थने शिखामण श्रापे . वेश्यादासीश्वरीपरांगनालिंगिनीनां सेवा वेसादासीईत्तर-परंगणालिंगिणीण सेवा॥. . Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ए वर्जयेत् उत्तरोत्तरं एताः दूष्याः विशेषेण वजिऊ उत्तरुत्तर, एए दोसाँ विसेसेण ॥११॥ शब्दार्थ- ( वेसा के०) पैशा श्रापीने जोगववा योग्य स्त्री (दासी के) काम करनारी स्त्री (इत्तर के) धन गृहण करवानी श्वाथी परपुरुषना संकेतस्थाने क्रीडा करवामाटे जनारी स्त्री (परंगणा के०) धन, रूप, सौजाग्य विगेरेने विषे शासक्त थयेली स्त्री अने (लिंगिणीण के०) व्रतधारी स्त्री ए सर्वे स्त्रीउनी ( सेवा के०) सेवा (उत्तरोत्तर के०) श्रधिक अधिक (वजिज के०) त्यजी देवी. कारण के, (एए के०) ए स्त्री (विसेसेण के०) विशेषे करीने (दोसा के०) दूषित करनारी बे. ॥११॥ विशेषार्थ- पैशा श्रापीने जोगववा योग्य स्त्री, काम करनार दासी, धन ग्रहण करवानी श्वाथी परपुरुषना संकेतस्थानके क्रीडा करवा जनारी स्त्री, परपुरुषना धन, रूप, सौजाग्य विगेरेने विषे आसक्त थयेली स्त्री ने व्रतधारी स्त्री ए सर्व स्त्रीउनी सेवा अधिक अधिक त्यजी देवी; कारण के, ए सर्वे स्त्री विशेषे दूषित करनारी . ॥ ११॥ हवे मुनिने श्रने गृहस्थने कुसंग त्यजी देवानो उपदेश कहे जे. द्यूतकारपारदारिकनटविटप्रमुखैः सह कुमित्रः जूरपारेदारिअ-नडविडपमुदहिं सैद कुमित्तेहिं ॥ संगं वर्जयेत् सदा संगात् गुणाःअपि दोषा अपि संगं वजित संया, संगान गुणावि दोसावि॥१०॥ शब्दार्थ- (जूश्रार के०) जूगारी (पारदारिश्र के) परस्त्री गमन करनार (नड के०) नाटककरनार(विड के०) जार अथवा धूर्त (पमुहेहिं के०) ए विगेरे (कुमित्तेहिं सह के०) कुमित्रनी साथे (संगं के०) संगने (सया के०) निरंतर (वङिाऊ के०) त्यजी देवो. कारण के, (संगा के०) संगथी एटले सारा संगथी (गुणावि के०) गुण पण थाय ने श्रने खोटा संगथी (दोसावि के०) दोषो पण थाय . ॥ १२ ॥ विशेषार्थ- बुद्धिवान् माणसे जुगटु रमनार, परस्त्री गमन करनार, ५२ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० शीलोपदेशमाला. नाटक करनार, जार अथवा धूर्त विगेरे कुमित्रनी साथे क्यारे पण संग करवो नहीं; कारण के, सारा संगथी माणसने सारा गुणो प्राप्त थाय डे श्रने खोटा संगथी दोषो पण प्राप्त थाय बे. ॥ कयु डे के गुणागुणज्ञेषु गुणीनवंति, ते निर्गुणं प्राप्य नवंति दोषाः ॥ सुखातोयप्रनवा हि नद्यः, समुडमासाद्य नवंत्यपेयाः ॥१॥ अर्थ- गुणो गुणना जाणने विषे गुणसमान थाय बे; पण ते गुणो निर्गुणने पामीने दोषरूप थाय बे. दृष्टांत कहे डे के, उत्तम खादवाला पाणीवाली नदी दार समुज्ने पामीने पीवा योग्य पाणीवाली रहेती नथी. अर्थात् खारी थर जाय . ॥ १० ॥ हवे स्त्रीउना गुणो कहे जे. मितन्नाषिणी सुखका कुलदेशवयोनुरूपवेषधरा मीयनासिणी सुलजा कुलदेसवयाणुरूववेसधरा॥ . अत्रमणशीला त्यक्तासतीसंगा भवेत् नारीअपि अर्नेमणसीला चत्ता-संश्संगा ढुंज नारीवि ॥१०३ ॥ शब्दार्थ- (मीयत्नासिणी के० ) थोडं बोलनारी (सुलजा के०) सारी लाजवाली (कुलदेसवयाणुरूववेसधरा के०) कुल, देश श्रने अवस्थाने योग्य एवा वेषने धारण करनारी (अनमणसीला के०) नथी जमवा. नो खन्नाव जेनो एवी तथा (चत्तासश्संगा के०) त्याग कस्यो बे असतिस्त्रीनो संग जेणे एवी (नारीवि के०) स्त्री पण (हुऊ के० ) होय जे. विशेषार्थ- थोडं बोलनारी, सारी लाजवाली, देश, कुल अने श्रवस्थाने अनुसरतो वेष धारण करनारी, पोताना घरना आंगणे रहेनारी श्रने असती स्त्रीउनो संग त्यजी देनारी एवी पण स्त्री होय . ॥१३॥ स्त्रीए सारी लाज राखवी जोशए. न राखे तो हानी थाय ने कह्यु के असंतोषात् हिजा नष्टाः, संतोषेण तु पार्थिवाः ॥ सलजा गणिका नष्टा, निर्लजाश्च कुल स्त्रियः॥१॥ अर्थ- ब्राह्मणो असंतोषथी, राजा संतोषथी, गणिका लाजवाली होवाथी अने कुलस्त्री निर्लङ्ग होवाथी हानी पामे बे. ॥१॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ४११ 'वली स्त्रीए पोताना घरनुं आंगणुं त्यजीने न जq जोइए, कारण जवाथी अपवाद लागे . कयु डे के, जे स्त्री पोताना घर- श्रांगणुं त्यजी दश्ने बहार फरे , ते स्त्री सारा कुलमां उत्पन्न थयेली होय तो पण तेने पुराचारिणी जाणवी. अर्थात् उपर गाथामां कहेला गुणवाली स्त्री वखपाय ॥ १०३॥ वली स्त्रीउँना गुणोनेज वखाणे जे. देवगुरुपितृस्वसुरादिकेषु जक्ता स्थिरा वरविवेका देवगुरुपियरससुरा-इएसु नत्ता थिरी वरै विवेया॥ कांतानुरक्तचित्ता विरला महिला सुदृढचित्ता कंतारत्तचित्ता, विषैला महिला सुदिचित्ता ॥ १०४॥ शब्दार्थ- (देव के०) अरिहंतदेव (गुरु के०) सुसाधुगुरु ( पियर के०) माता पिता श्रने (ससुराश्एसु के०) सासु सासरा दिकने विषे (नत्ता के०) नक्तिवाली ( थिरा के०) स्थिर स्वनाववाली ( वरविवेया के०) सारा विवेकवाली ( कंताणुरत्तचित्ता के०) पतिने विषे प्रीतिवाली अने (सुदिढचित्ता के०) शीलनुं रक्षण करवामां दृढचित्तवाली एवी (महिला के०) स्त्री ( विरला के०) बहु थोडी होय . ॥ १०४ ॥ विशेषार्थ- अरिहंत देव, सुसाधु गुरु, मातापिता, अने सासुससरो वली दियर अने पतिना मित्र विगेरेने विषे नक्तिवाली, स्थिर खनाववाली, सारा विवेकवाली, पतिने विषेप्रीतिवाली अने पोताना शीलन रक्षण करवामां दृढ चित्तवाली एवी स्त्री था जगत्मां बहु थोडी . ॥ हवे महासतीऊना शीलवतनुं दृढपणुं कहे बे. निर्मलमहासतीनां सीलव्रतं खंडयितुं . न शक्रोऽपि निम्मलमहासईणं, सीलवयं खंडिनें न सकोवि॥ शक्तः येन तासां , जीवात् शीलं अन्यधिक संकेश जेण ताणं, जीवान सीलमनदियं ॥२०॥ शब्दार्थ-(निम्मलमहासईणं के०) पवित्र एवी महासतीऊना (सीलवयं के०) शीलवतने (खंडिज के०) खंडन करवाने ( सकोवि के०) रो विशेषार्थ- श्राव ( विरवा के रक्षण करवामां Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ शीलोपदेशमाला इंपण (न सकेश के०) समर्थ नथी. (येन के०) कारणके, (ताणं के0) ते महासतीउँने (जीवा के० ) जीवितथी (सील के०) शीलवत (श्रपहियं के) अधिक . ॥१५॥ विशेषार्थ- पोते पण पवित्र एवी महासतीना शीलवतने खंडन करवा समर्थ नथी; कारण के, ते महासतीउँने पोताना जीवितथी शीलव्रत अधिक . अर्थात् शीलनुं रक्षण करवामाटे पोताना प्राणना नाशने पण सहन करे बे. कर्वा के वरं ब्रांतावर्ते सनयजलमध्ये प्रविशनं, वरं सर्पाकीणे तृणगहनकूपे प्रपतनम् ॥ वरं विंध्याटव्यामनशनतृषार्तस्य मरणं, न शीलानिंशो, नवति कुलजानामिह पुनः॥१॥ अर्थ- नमरीउवाला जयंकर पाणीमा पेस ते सारु, सर्पवाला अने घासथी गाढ एवा कुवामा पडतुं ते सारु, वली विध्याटवीमां अन्न श्रने पाणी विना पीडा पामीने मरी जवु सारूं, परंतु या लोकमां कुलवंती स्त्रीउने शीलव्रतथी नष्ट थर्बु ते सारं नथी. ॥ १०५ ॥ हवे सती शब्दनुं यथार्थ नाम कहे जे. सा एव सतीति जएयते या विधुरेपि एव न खंडयति शीलं संच्चिय संशति नन्नर, जो विदुरेवि हुँ ने खंडए सीलं ॥ तत् किल कनकं कनकं यत् ज्वलनात् विमलतरं "तं किले कर्णय कर्णेयं, 'जं जलपान विमलयरं॥ १०६॥ शब्दार्थ- (सच्चिय के०) तेज स्त्री (सति के०) सती एम (जन्न के०) कदेवाय . के (जा के०) जे स्त्री ( विहुरेवि के०) दुःखने विषे पण (हु के०) निश्चे (सील के० ) शीलने (न खंडए के०) नथी खंडन करती. दृष्टांत कहे जे के, (तं के०) तेज (कणयं के०) सोनुं (किल के) निश्चे (कणयं के०) सोनुं कहेवाय बे के (जं के०) जे (जलणार्ड के०) अग्निथी (विमलयरं के०) वधारे निर्मल थाय . ॥ १०६ ॥ विशेषार्थ- जे स्त्री उखमां पण पोताना शीलवतने खंडन करती नथी तेज स्त्री सती कडेवाय . दृष्टांत कहे जे के, तेज सोनुं निश्चे सोनुं Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगा था. ४१३ कवाय के, जे सोनुं श्रग्निथी वधारे निर्मल थाय. एवीरीते स्त्रीपण बीजाने स्वाधिन या बता पण पोताना शीलवतने बराबर साचवी राखे तेज सती कड़ेवाय. कधुं वे के रहो नास्ति कृणो नास्ति, नास्ति प्रार्थयिता नरः ॥ तेन नारद नारीणां सतीत्वमुपजायते ॥ १॥ अर्थ - एकांत नथी, वसर नथी ने र्थना करवायोग्य पुरुषपण नथी. हे नारद! एटलाजमाटे स्त्रीने सतीपणुं उत्पन्न याय बे. अर्थात् एकांत, अवसर अने प्रार्थना करवायोग्य पुरुष मले तो स्त्रीउने सतीपएं पालवं ते मुश्कलधाय. दवे सतीने बीजानुं दुष्टपणं कदे बे. पापाः निजसत्ववर्जिताः नित्र्यसेत्तव कियान, पावोन नराणां दूषणं ददति नरौ दूर्से "दिति ॥ वयं निरर्गलाः किं कुर्मः किं कामो म्हे, निरंगला येन इमे पुरुषाः जेर्णिमे पुरिसां ॥ १०७ ॥ शब्दार्थ - (नि के० ) पोतानुं ( सत्त के० ) शीलनं दृढपएं तेणेकरीने ( वार्ड के० ) रहित तथा ( पावार्ड के० ) दुष्ट श्राचरणवाली tad ( नरा के० ) पुरुषोने ( दूसणं के० ) दोष ( दिंति के० ) आपे बे. वली कहे बेके, (अम्हे के० ) मे (किं कहामो के० ) शुं करीए ? ( जेण के० ) जे कारणमाटे ( इमे के० ) या ( पुरिसा के० ) पुरुषो ( निगला के० ) पोतानी इछा प्रमाणे चालनारा बे ॥ १०७ ॥ विशेषार्थ- पोताना शीलना दृढपणाए करीने रहित एवी दूराचरवाली स्त्री पुरुषोने दोष आपे बे ने कहे बे के, अमे शुं करीए ? कारण या पुरुषो पोतेज पोतानी मरजी प्रमाणे चालनारा बे. अर्थात् या पुरुषोनो दोष ने अमारो दोष नथी. ॥ १०७ ॥ दवे पोतानुं कलुं महासतीर्जना दृष्टांतथी दृढ करता बता कहे बे. त्रिभुवनप्रभुणापि एव रावणेन यस्याः न रोममात्रमपि तिदुखपदुणावि ढुं, रावणेण जैसे नं रोमंमित्तंपि ॥ संचालितं न तस्याः चरित्रं चित्रमिति सीतायाः संचालियं नै तीर्थ, चैरियं "चितिति' सीओए ॥ २०८ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ शीलोपदेशमाला. शब्दार्थ- (तिहुश्रणपहुणावि के०) त्रण जुवनना अधिपति एवा पण (रावणेण के०) राक्षसोना अधिपति एवा रावणे (हु के०) निश्चय (जीसे के०) जेनुं (रोममित्तंपि के०) एक रुवाडं मात्र पण (नसंचालियं के०) न चलाव्यु. (तीए के०) ते (सीश्राए के०) सीतार्नु (च. रियं के०) चरित्रं (न चितिति के०) नथी आश्चर्यकारी? अर्थात् श्राश्चर्यकारी . ॥ १७ ॥ विशेषार्थ-त्रण जुवननो अधिपति एवो रावण पण जेनुं एक रुवाडं मात्रपण चलावी शक्यो नथी. ते सीतानुं चरित्र शुं श्राश्चर्यकारी नथी? अर्थात् आश्चर्यकारी . महासती सीतानी कथा. जेने विषे रहेनारा सर्वे पुण्यवंत मनुष्यो अनी राजधानीमां पण जवानी श्छा करता नथी एवं मिथिला नामर्नु नगर ले. त्यां इंजना सरखो पराक्रमी अने महायशवंत जनक नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने जेना देहना सौंदर्यथी सर्व स्त्री विदेह (वैराग्यवंत) थर हती एवी विदेहा नामनी स्त्री हती. ते स्त्रीये जेम सारीरीते अभ्यास करेली उत्तम राज्यनीति यशने अने लक्ष्मीने जन्म आपे तेम एक पुत्रने अने एक पुत्रीने साथे जन्म श्राप्यो. तेमांथी पूर्व नवना वैरने लीधे ग. रुड जेम सर्प, हरण करे तेम देवताए तरत जन्मेला ते पुत्रने हरण करी तेजना समूहनी पेठे वैताढ्य पर्वत उपर मूक्यो. त्यांथी पडता एवा ते पुत्रने दक्षिण श्रेणिना रथनुपुर नगरना अधिपति चंद्रशेखर विद्याधरे ग्रहण करीने पुत्ररुप मानी पालन कमु थने तेनुं जामंडल नाम पाडयु. पडी नामंडल नामनो ते पुत्र बालचंजनी पेठे वृद्धि पामवा लाग्यो अने विदेहाये पण पुत्रनुं हरण थवाथी तेनो दीर्घकाल सूधी शोक कस्यो. पड़ी माता पिताए जोडलामा उत्पन्न थयेला पुत्रनुं हरण थवाथी पुत्रीनुं नाम सीता पाडयु; जेथी ते सीताना नामथी प्रसिद्ध थ. वली पुत्रना हरणथी शंका पामेला माता पितादि स्वजनोए पृथ्वीमा डाटी राखेली ते पुत्रीनें “नूसुता" एवं पण नाम कहेवाय . पली कलाउँए करीने अने वये करीने वृद्धि पामती एवी ते पुत्री युवान् पुरुषोना मनने उन्माद करनारी यौवन श्रवस्थाने पामी; जेथी जनक राजा पुत्रीना वरने अर्थे Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदासती सीतानी कथा... मनमां चिंता करवा लाग्यो. श्रा वखते सीमाडाना म्ब राजा बने गते जनक राजाना देश उपर चडा करी. हवे अयोध्या नगरीने विषे जनक राजानो मित्र दशरथ राजा राज्य करतो हतो. तेने कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी अने सुप्रना नामनी चार स्त्रीयो हती. तेऊना अनुक्रमे राम, लक्ष्मण, जरत अने शत्रुघ्न एवा ना. मना चार पुत्रो हता. तेमां राम पद्मना नामथी प्रसिद्ध हतो. जे श्राठमो बलदेव कहेवाय डे अने नारायणना महाप्राणरूप लक्ष्मण अर्धा चकी थयो हतो. ___ पड़ी जनक राजाए पोतानो एक दूत दशरथ राजा पासे मोकट्यो. ते दूत पण दशरथ राजानी सनामां श्रावीने उनो रह्यो एटले दशरथ राजाए पोताना मित्र जनक राजानुं कुशल पूड़ी ते कयु." हुं जाएंबुं के, तने जनक राजाए म्हारा श्रेयने माटे श्रहीं मोकल्यो ; तो पण हे दूत! त्हारे थहिं श्राववानुं जे कारण होय ते ऊट कही दे.” दूते कडं. "हे राजन् ! म्हारा राजाने हजारो मित्र ; तो पण शत्रुना पुःखने विषे तेमणे तमने पोताना बंधुनी पेठे संजाख्या बे. वैताढ्य अने कैलास पर्वतोनी मध्ये जाणे देहने धारण करनारो क्लेश होय नहीं शुं ? एवो अर्धबर्बर नामनो देश जे. तेमां मायूरशाला नामना नगरने विषे महातृष्णाना ज्वररूप अांतरगत नामनो उर्जय म्लेडराजा राज्य करे बे. तेने राज्यनो नार धारण करवामां समर्थ एवा हजार पुत्रो जे. जेउं वेज, नालेज अने कांबोज विगेरे देशोने बलात्कारथी जोगवे . वली ते हमणां तमारा था मित्रना देशने उपव करवानी श्छा करे बे; माटे तमारे विलंबनो त्याग करीने योग्यरीते प्रयत्न करवो.” दूतनां एवां वचन सांजली दशरथ राजा प्रयाणनो पटह वगडावी तैयार थवा लाग्यो. एवामां रामे श्रावीने प्रणाम करी पिताने ना पाडी अने पोते लक्ष्मण सहित सेनाने लश मिथिला नगरी गया. त्यां तेमणे सूर्य जेम अंधकारनो नाश करे तेम म्लेछना अधिपतिनो नाश करी जनकराजाने संतोष पमाडयो. ते उपरथी जनकराजाए पोतानी पुत्री सीताने रामनी साथे परणाववानो विचार कस्यो. एवामां कौतुक जोवा. ना हेतुश्री नारद जनक राजाना अंतःपुरमा श्राव्या. केवल कोपीनने Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ शीलोपदेशमाला. धारण करनारा, पिला वर्णना केशवाला अने त्र धारण करनारा नारदने नयंकर श्राकृतिवाला जोश्ने नय पामेली सीता संता ग. ते उपरथी रीसाइने जता एवा नारदने दासीए घणा समजाव्या तोपण तेमणे तो क्रोधथी वैताढय पर्वत उपर जश्ने चित्रपट्टमां सीतार्नु खरूप बालेखी चंडशेखर विद्याधरना पुत्र नामंडलने देखाडयु. पली जामंडलने चित्रपट जोवाथी अत्यंत कामात थयेलो जाणीने चंडशेखर विद्याधरे ते चित्रपट्टमां श्रालेखेली सीतार्नु नाम गम विगेरे सर्व जाणी लीधुं. पनी नारदने रजा आपी तेणे नामंमलने कडं के, "हे वत्स! खेद पाम्य नहीं, हुं सीताने त्हारी साथे परणावीश.” पड़ी चंडशेखर विद्याधरे रातमां चपल गति नामना विद्याधरने मो. कली तत्काल जनकराजाने तानी पासे बोलावी नामंगल पुत्रने माटे सीतानुं मायु कयुं. "में रामने थापी जे.” एम जनकराजाए कडं एटले चंद्रशेखरे जनकने कयु के, “ जो तमे मित्रपणाथी नहिं आपो तो हुँ हरण करवाने समर्थ बुं अथवा रामनो पराजय करीने ते कन्याने म्हारो पुत्र परणशे. वली सर्वने योग्य एवं म्हारं वचन सांजलो. म्हारा घरने विषे जूदा जूदा सहस्त्रो यदोए थाश्रित करेलुं वज्रावर्त नामर्नु तथा अर्णवावर्त नामर्नु एवां बे देवताए आपेलां धनुष्य . ते धनुष्यने जे पु. रुष चडावे ते सीताने परणे एवं पण करो. जो ते धनुष्यने राम चडावी शके तो तेणे अमने जितेला जाणवा. पडी तेनी साये सीताने परणाववा श्रमारे कांपण हरकत नथी.” एवां विद्याधरनां वचन सांजली क्षणमात्र विचार करी कालदेप करवानी छाथी जनक राजाए "एम था." ए प्रकारे तेने कयु. पनी वज्रार्णव तथा अर्णवावर्त धनुष्य काढी थापीने चंडशेखर विद्याधरे जनकराजाने तेनी मिथिला नगरीमा पहोचाड्यो. बीजे दिवसे सवारे जनकराजाए सीताना स्वयंवरनो श्रारंज कस्यो. तेमां अनेक राजा तथा अनेक विद्याधरो श्राव्या अने ते पोतपोताने श्रासने बेठा. राम तथा लक्ष्मण दशरथराजानी पासे बेग. पली श्रलंकारोथी सुशोजित एवी सीता स्वयंवर मंडपमा श्रावी एटले तेने सर्वे राजा जोवा लाग्या. एटलामा प्रतिहारिणीये कयु के, “हे नृ. पेंसो! तमारामांधी जे पुरुष आ वजावर्त धनुष्यने चमावशे तेने या उ. Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासती सीतानी कथा. ४१७ तम कन्या निश्चय परणशे. " एवां प्रतिहारिणीनां वचन सांजलीने सर्वे राजा मृगना बालकनी पेठे धनुष्यनी पासे दोड्या. तेमां केटलाक तो धनुष्यने जोवाने पण समर्थ थया नहीं; केटलाक स्पर्श करवाने समर्थ यया नहीं छाने केटलाक तो चडावतां पृथ्वी उपर पमी गया. पती हर्ष सहित सीताये जोयेला रामे पितानी श्राज्ञाथी धनुष्यने अनेक राजाdना मुख सहित नमाव्यं; सीताना हृदय सहित खेच्युं ने पढी उता एटले सीताये रामने वरमाला पहेरावी. लक्ष्मणे पण ते अर्णवावर्त धनुष्यने धारण कयुं. ते उपरथी विद्याधरोए पोतानी ढार पुत्री लaruने परणावी. या सर्व रीतने जोवाथी क्रोध पामेला जामंडलने कोइ मुनिए " साथै जन्मेली या व्हारी व्हेन बे.” एम कहीने बोध पमाड्यो. पी जनकराजाए हस्ति, अश्व, वस्त्र ने अलंकारोथी सत्कार करेला राम तथा सर्वे राजार्ज पोतपोतानी राजधानी प्रत्ये गया. हवे वृद्ध एवा दशरथ राजाए रामने राज्यानिषेक करवानो विचार ral एवामां कैकेयी ए पूर्वे स्वीकारेलो वरदान दशरथ राजापासे माग्यो धुंके, “राम वनवास मोकली म्हारा पुत्र जरतने राज्य आपो.” एवां कैकेयीनां वचन सांजलीने खेद करता एवा दशरथ राजाए रामने बोलावी ने कहांं के, " हे वत्स ! पूर्वे सारथीना कार्यथी प्रसन्न थयेला में स्वयंवर inuni पेलो वरदान कैकेयी पोताना पुत्र जरतने राज्य पवा रूप मागे बे.” दशरथनां एवां वचन सांजली विनयवंत रामे दर्षथी उत्तर श्राप्यो के, “ हे तात! तमारे तो हुं छाने जरत बन्ने पुत्रो सरखाज बीये, माटे जरतने राज्य आपो एम म्हारो मत बे. कारण के, एक पुष्प मस्तकने निषे धारण करये बाते बाकीनां पुष्पो शुं नथी शोजतां ? " एवां रामनां वचन सांजलीने दशरथराजाए जरतने राज्यानिषेक करवानी श्राज्ञा करी एटले जरते रामने कयुं के, " हुं तो तमारी साथे वनमां यावीश; म्हारे राज्यनुं काम नथी.” दशरथे कधुं. " तुंराज्याने ग्रहण करीने माता पितानी प्रतिज्ञा पूर्ण कर; कारण के, व्हारी माताने पूर्वे पेलो वरदान तेथे तने राज्य पाववारूप मागेलो बे. रामे पण जर क के, " हे बंधो ! तमारे राज्यनी इछा नथी, तोपण पितानी प्रतिज्ञा पूर्ण करवाने माटे दवणां राज्यने ग्रहण करो.” जरते "" ५३ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ शीलोपदेशमाला. प्रणाम करी रामने गद्गद् वाणीथी कयुं. " पिता म्होटा नाइने राज्य पवा योग्य बे. मने श्रापवा योग्य नथी. " पछी राम मनमां विचार करवा लाग्या के, “ ज्यां सुधी हुं अहिं रहीश त्यां सुधी आ जरत राज्य ग्रहण करशे नहीं. कारण के, कुलिन पुरुषो विनयना क्रमने बोsar नथी. " पी रामे पिताने नमस्कार करी उत्तम धनुष्यबाण हाथमां लइ माता पासे श्रावी अने प्रणाम करीने कयुं. " हे मात ! तमारे साची वृत्ती जरतने म्हारा सरखा जाणवा. कारणके, म्हारा पिताए पोतानी प्रतिज्ञा पूर्ण करवाने माटे जरतने राज्य श्राप्यं बे. वली हुं अहिं रहीश त्यां सुधी जरत राज्यने ग्रहण करशे नहीं; माटे हुं वनप्रत्ये जवानी इछा करूं तुं. " एवां पुत्रनां वचन सांजली कौशल्या मूर्छा पामीने पृथ्वी उपर पडी गइ पछी पवन छाने शीतल जलना उपचारोथी सचेत थयेली कौशल्या विलाप करती कड़ेवा लागी के, “ हुं रामना वियोगनी पीडा केम सहन करी शकीश ?” रामे कां. " हे मात ! तमे या दीनता केम करो बो ? सिंहनो बालक वनमां गये बते शुं तेनी मा दुःखणी थाय बे ? पिताए कैकेयी ने वरदानरूप ण ( देवुं ) - प जोइये, तो सत्य प्रतिज्ञावाला पिताना देवाने निवृत्त करवा माटे हुं उत्साहवंत केम न थाउं ? " ए प्रकारे माताने बोध पमाडी अन्य माताने प्रणाम करी सिंहनी पेठे निःशंक एवा राम वन प्रत्ये गया. एटले सताये पण दशरथनी आज्ञा लइ ना कह्या बता पोतानां पतिनी पाल जवाने माटे तिथी सासुनी श्राज्ञा मागी; तेथी जेनी यांखमांथी श्रसुनी धारा पडवा लागी हती एवी कौशल्याये सीताने पोताना खोलामा बेसारीने कं. " हे वत्से ! व्हारो पति सर्वने सहन करनारो बे. तो तेने पुष्कर शुं बे ? हे बाले ! तुं जातिवंत पुष्पोनी माला समान बुं; जेथी वायुए करीने पण ग्लानी पामे बे; तो पढी वनवासना म्होटा कष्टने शी रीते सहन करीश ? तोपण संकटमां पतिनी पाबल जती एवी पतिव्रताने रोकवाने हुं असमर्थ तुं. " सीताये कधुं. " हे मात ! म्हारे त्यां सर्व सुखकारि के, ज्यां हुं कायर ययाविना तमारा पुत्रनी सेवा करीश. " ए प्रकारे सासुना वर्गने उत्तम प्रीतिथी प्रणाम करीने सीता समुद्रनी वेला जेम चंद्रप्रत्ये जाय तेम तत्काल पतिनी पाउल गइ. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदासती सीतानी कथा. ४१ए लक्ष्मण पण रामने वनमां गयेला सांजलीने श्राकुल व्याकुल थयो तो मनमां विचार करवा लाग्यो के, “अहो ! कालरात्रीना सरखी जयंकर श्राकृतिवाली कैकेयी ने के,जेणे श्रावा समये उत्पात करावनारा वरदानने माग्यो. पिता बरतने राज्य आपी ज्ञण ( देवा )थी मूकाया . तो हवे तेनी पासेथी राज्य लश् रामने श्रापुं अथवा जो ते बलवंत नरत पोतानी मेले रामने राज्य नहीं थापे तो हुँ कुलना विरोधपणाने त्याग करी रामनी पाबल जश्श." ए प्रकारे विचार करीने पितानीआज्ञा लश सुमित्रा अने कौशल्याने प्रणाम करीने लक्ष्मण सीतायुक्त एवा रामनी पाबल गयो. पडी अपार बांसुनी धारावाला नगरवासी जनोए जोवायेला अने प्रफुल्सिन मुखवाला ते त्रणे जणा अयोध्या नगरी थकी नीकल्या. सीता अने लक्ष्मण सहित राम पृथ्वी उपर फरता फरता दंडका नामना अरण्य ( वन )मां जश्ने पर्वतनी गुहामा रह्या. त्यां बेमासना उपवासी एवा कोश बे महामुनि अन्न वहोरवा श्राव्या; तेमने सीताये प्रासुक एवं अन्न वहोराव्यु एटले देवताए वाजिंत्रोना शब्दपूर्वक सुगंधी जलनो वर्षाद वरसाव्यो. एवामां कोई एक उष्ट गंधवाला कोढना रोगी पक्षीए आवीने मुनिना चरणने प्रणाम करी स्पर्श कस्यो; तेथी गंध नामनो ते पक्षीराज रत्नना अंकुर सरखी जटावालो, सुवर्णना सरखी पांखो वालो अने रोग रहित थयो. तेने जोश्ने रामे मुनिने नमस्कार करीने पूज्युं के, “श्रा दूष्ट आत्मावालो पक्षी तमारा चरणनो स्पर्श करवाथी तत्काल रोगरहित केम थयो ? ” मुनिए कयु. “पूर्वे था स्थानके कुंजकारकृत् नामनुं नगर हवं. तेमां दंडकि नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने पालक नामनो प्रधान हतो. एक दिवसे ते प्रधाने दंनथी स्कंदकाचार्यने पीडा करी; तेथी ते आचार्य मृत्यु पामीने वन्हिकुमार देवलोकमां देवता थया, पण तेमणे क्रोधथी राजा श्रने प्रजासहित ते नगर बाली नाख्यु. एज कारणथी "दंडकारण्य” ए नामनुं श्रा वन प्रसिद्ध थयुं . हवे दंडकि राजा संसारमा जमतो जमतो कोढना रोगवालो था पक्षी थयो. ते जाति स्मरणथी अमने जोश्ने तत्काल अ. मारी पासे श्राव्यो अने रोगरहित थयो . वली ते जटायु दयारूप सारवाला जैनधर्ममां तत्पर थश्ने तमारो साधर्मिक थयो .” पनी Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० शीलोपदेशमाला. राम पण ते पदीने पोताना बंधु सरखो मानीने सीता, लदनण श्रने तें पदी सहित त्यांची चाली गोदावरी नदीने कांठे पंचवटी नामना वनमां लतानुं घर करीने त्यां रह्या. एक दिवसे नदीने कांठे क्रीमा करता एवा लक्ष्मणे वांसना यूथमां एक खज दी. पनी कौतुक सहित ते खगने हाथमां लइ तेणे वासना यूथने कमलना तंतुनी पेठे कापी नाख्युं एटले तेमांधुमाडा सहित एक कुंक, एक मस्तक अने एक धड ( मस्तक विनानुं शरीर ) दी; तेथीते लक्ष्मण विचार करवा लाग्यो के, “ हा ! में कोई श्रायुध विनाना निरपराधी पुरुषने मायो!” एम दीर्घ कालसुधी शोक करता एवा लदमणे ते सर्व वात रामने कही एटले रामे लदमणने कयु के, “हे बंधो! श्रा सूर्यहास, ए नामनुं खज जे. तें एना साधन करनाराने माख्यो बे; परंतु तेनुं को रक्षण करनार हशे.” एवामां पाताललंकाना अधिपति खर राक्षसनी स्त्री के, जे रावणनी ब्देन थती हती ते चंदनखा पोताना पुत्रने जोवा माटे श्रावी. त्यां तो तेणे कपायेली वंशलताना ढगलामां पुत्रना धडने दी. ते जोश्ने “हे वत्स ! तने कोणे मास्यो ? तने कोणे मास्यो?" एम कहेती उती ते विलाप करवा लागी. पडी ते चंदनखा लदमणनां पगला जोती जोती राम लक्ष्मणना श्राश्रमां गश्, त्यां ते बन्ने नाश्ने जोश्ने तेणे पुत्रनो शोक मूकी दीधो. पठी कामने वश थडे इंजियो जेनी एवी ते चंडनखाये पोतानुं स्वरूप कन्याना सर करीने रामनी साथे पाणिग्रहण करवानी (परणवानी) याचना करी. ते उपरथी रामे तेने कर्वा के, “हे जडे! म्हारी पासे तो आ स्त्री जे; माटे तुंम्हारा न्हाना ना लदमण पासे जा.” पड़ी ते लक्ष्मण पासे गश्. लक्ष्मणे कडं. “ तुं म्हारा मोटा जाश्नो श्राश्रय कर के, जेथी पुत्रवाली थश्श,' ए प्रकारे लदमणे तिरस्कार करेली चंडनखा फरीथी रामपासे गश्. त्यां सीताये हसी काढली ते क्रोधथी जयंकर स्वरूप धारण करीने तत्काल पोताना पति खर राक्षस पासे जश् शंबूक पुत्रना वधनी वात कहेवा लागी. ते उपरथी खर राक्षस चौद हजार सुनटोने साथे लश् क्रोधथी राम लक्ष्मणनी साथे युद्ध १ आ चंऽनखानुं बीजं नाम सुर्पनखा ने. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ महासती सीतानी कथा. करवा चाल्यो. लक्ष्मणे पण कौतुकथी तेउनी साथे युद्ध करवा माटे रामनी आज्ञा मागी. रामे “ ज्यारे तने संकट पडे त्यारे सिंहनादथी मने खबर आपजे.” एम कहीने रजा श्रापी, तेथी लक्ष्मण गरुम जेम सपोने मारवा तैयार थाय तेम राक्षसोने मारवा माटे तैयार थयो. पली चंपनखा पतिनी सहाय करवानी श्छाथी त्रिकुट पर्वत उपर जइने रावणने कहेवा लागी. “हे बंधो! दंडकारण्यनेविषे दशरथ राजाना बे पुत्रो श्रावेला बे. तेमणे त्हारा नाणेजनुं बलिदान यमराजाने आप्यु बे, जेथी क्रोध पामेलो त्हारो बनेवी केटलाक राक्षसोने लश् तेउनी साथे युक करवा गयो बे; पण तेउनी साथे तो निर्जय एवो लक्ष्मण एकलोज युक करे डे अने राम तो लक्ष्मणना शौर्य तथा पराक्रमथी गर्वने धारण करतो तो हस्तिनी पेठे सीता नामनी पोतानी स्त्रीनीसाथे मरजी प्रमाणे क्रीडा करे . वली हे बंधो ! त्हारे घरे सीताना सरखं स्त्रीरत्न नथी तेमज पुर्मद एवा राम अने लदमण हाराथी जिताय तेम पण नथी; जेथी त्हारी बडा टिंटोडाना सरखी मानुं बुं.” ए प्रकारनां चंजनखा ब्हेननां वचन सांजलीने कामातुर थयेलो रावण तकाल पुष्पक वैमानमां बेसीने दंडकारण्यमां श्राव्यो. त्यां तेणे रामनी पासे बेठेली सीताने दीठी, पण हरण करवाने समर्थ थयो नहीं. तेथी ते सर्प जेम नागदमणथी दूर उनो रहे तेम दूर उनो रह्यो. ___ पनी रावणे स्मरणथी अवलोकिनी विद्याने बोलावीने कयु के, “तुं सीतार्नु हरण कर.विद्याये कह्यु.” त्हारीश्राझाथीमने कां अशक्य नथी; तोपण तने उपाय बताईं डं के, “ रामने आने लक्ष्मणने सिंहनादनो संकेत बे; माटे सिंहनाद करवाथी राम सीताने मूकी लक्ष्मणनी पाबल जशे एटले सीतार्नु हरण करी सकाशे.” रावणे ते वातनी थाज्ञा आपवोथी अवलोकिनी विद्याए सिंहनाद कस्यो, ते सांजलीने राम "अरे था शुं ?" एम कहेवा लाग्या. सीताये कयु. “ हे स्वानिन् ! हजु वार केम करोगे? ऊट जाउँ अने संकटथी लक्ष्मण, रक्षण करो." ए प्रकारे सीताये बलात्कारे कहेवाथी राम तत्काल धनुष्य बाण लश्ने लाणनी पाबल चाल्या. पड़ी रावणे पृथ्वी उपर उतरीने लक्ष्मणनी चिंताथी थाकुल व्याकुल Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ शीलोपदेशमाला थयेली सीताने बलात्कारे वैमानमां बेसारी एटले सीता रोवा लागी; ते सांजलीने जटायुए त्यां श्रावीने सीताने कयु के, “ हे वत्से ! लय पामीश नहीं.” एम कहीने ते पोताना कठोर नखना प्रहारथी रावणने मारवा लाग्यो एटले रावणे पोताना खझे करीने तेने पृथ्वी उपर पाडी नाख्यो. पबी सीताने वैमानमां बेसारी रावण श्राकाशमार्गे चालवा लाग्यो एटले सीता विलाप करती उती कहेवा लागी के, " हे जात नामंडल ! हे राम! हे लक्ष्मण ! म्हारं रक्षण करो, रक्षण करो!!!" एवामां नामडलनो को अनुचर श्राकाश मार्गे जतो हतो. ते सीताना रुदनने सां. जलीने रावणनी साथे युद्ध करवा आव्यो; पण तेने तो रावणे पृथ्वी उपर पाडी नाख्यो. रस्तामां लंकाना अधिपति रावणे सीताने कर्वा के, “हे जानकि! त्रण लोकनो अधिपति हुँ त्हारो श्राज्ञाकारी बतां तुं शामाटे रुदन करे ? देवताउने पण ऽर्द्धन एवा था लंकाना उद्यानमा सुवर्ण अने रत्न जडित्र शिलातलनेविषे लजानो त्याग करीने क्रीडा कर. वनमा रहेनारा रामना श्राश्रयथी शु? यौवनथी उन्मत्त एवा म्हारो श्राश्रय कर. चमरी नंदनवन प्राप्त थये बते शुं मरुदेशनुं स्मरण करे खरी ?” ए प्रकारे कहेतो एवो रावण रुदन करती एवी सीताने समुजना सामे तीरे लश् गयो; पण सीताये तो पोताना मुखथी “ राम राम" ए प्रकारनुं वचन त्याग कहुं नहीं. पड़ी रावणे पोताना पिता पौलस्त्यना चरणमां प्रणाम कस्यो. ते वखते सीताये परपुरुषना स्पर्शनी शंकाथी पोताना अंगने संकोच्यु. रावणे वारंवार सीतानी प्रार्थना करवाथी पतिव्रता एवी ते सीताये तेने श्राप थाप्यो के, “श्रा परस्त्रीनी श्छाथी तने मृत्युरूप फल प्राप्त थशे.” पली “श्रा जानकी मने जोती ती धीमे धीमे प्रसन्न थशे.” एवी आशाथी हर्ष पामेलो रावण लंकानेविषे श्राव्यो. कडं डे के-वणिक, वेश्या, चोर, जुगारी श्रने कामी एटला परचित्तने न जाणता बता हर्ष पामे . पनी सीताये प्रतिज्ञा करी के “हुँ ज्यांसुधी राम लक्ष्मणने कुशल नहीं देखु त्यांसुधी जोजन करीश नहीं.” रावणे पण सीताने त्रिजटा राक्षणीना रक्षण नीचे अनेक सेवकोथी रक्षण करायेला देवरमण उद्यानमां अशोक वृतना नीचे राखी. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासती सीतानी कथा. ४२३ हवे अहिं पोतानीपासे श्रावता एवा रामने जोश्ने ब्रांति पामेला लक्ष्मणे कयुं. “हे आर्य! तमे सीताने एकली मूकीने केम श्राव्या ?" रामे कह्यु. "त्दारा सिंहनादने सांजलीने श्राव्यो बुं." लक्ष्मणे कयु. “हे जात! में सिंहनाद कस्यो नश्री. ऊट पाला जा. तमने कोश्ये बेतरेला ले. हुं शत्रुना समूहने मारीने तमारी पाउल आईं बुं.” एवां लक्ष्मणनां वचन सांजली राम जेटलामा पोताना श्राश्रममा श्राव्या तेटलामां सीताने न देखवाथी ते चिंताना तापे करीने कपायेला वृक्षनी पेठे मूळ खाश्ने पृथ्वी उपर पडी गया. पढी वनना पवने करीने प्राप्त थ डे स्मृति जेने एवा रामे वनमां श्रामतेम फरता उतां घायल थयेला जटायुने जोश्तेनाथी सीताना हरणनी वात सांजली. रामे जटायुने पंचनवकार संजलाव्यो, तेथी अरिहंतनो श्रेष्ठ उपासक ते जटायु मरीने माहेंज देवलोकनेविषे देवता थयो. अरण्य, वृद, कुंज, पर्वत अने गुंफामां सीताने शोधता एवा राम तेने कोइ स्थानके न देखवाथी मूळ पामीने पृथ्वी उपर पडी गया. एवामां विद्याधर सहित लक्ष्मण त्यां श्राव्यो,तो तेणे मूर्जाथीपृथ्वी उपर पडेला रामने दीग.पली लक्ष्मणेांसुना जलोथी बांटेला भने वृदना पडवोथी पवन नाखेला राम संज्ञा पामीने जाणे सीताना वियोगथी गांडा थर गया होय नहीं झुं ? एम कडेवा लाग्या. “हे वनदेवी! सर्व ठेकाणे जोया बता पण में जानकीने दीठी नहीं. जो तमे दीठी होय तो शामाटे मने कहेता नथी? अहो ! हुं वनमां तेने एकली मूकी लक्ष्मणनी पाबल गयो. लदमणे तेने माटे मने पाडो श्राश्रममां मोकल्यो. धिकार था म्हारी सुष्टबुद्धिने! ए प्रकारे विलाप करता एवा राम वारंवार पृथ्वी उपर पडवा लाग्या, जेथी पक्षि अने हरिणो पण आश्चर्य पाम्या. ___ लक्ष्मणे नमस्कार करीने कद्यु. “हे आर्य! तमे श्रा शुं बोलो बो? कारण जित्या के शत्रु जेणे एवो हुँ तमारो स्नेहवंत जाइ लक्ष्मण श्रागल उनो बुं.” एवां लक्ष्मणनां अमृत सरखां वचन सांजलीने हर्षवंत थयेला रामे तेने वारंवार पोतानी बाती साथे दबाव्यो. लक्षणे कडं. "हवणां खेद करवानो वखत नथी, माटे कपटथी हरण थयेली सीतानी खोल करीये. वली विशेष कहुं ते सांजलो. में हवणां जे खर राक्ष Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ शीलोपदेशमाला. सने मारो बे तेहनो शत्रु विराध पाताल लंकानो अधिपति हतो; तेने खरराक्षसे काढी मूकीने राज्य लइ लीधुं हतुं; पण में तेने मारीनाख्यो एटले मुख्य पाताललंकाना अधिपति विराधे श्रवीने म्हारी साथे मि त्राइ बांधी बे; माटे चालो तेने पोताना पितानुं राज्य सोंपीये." लक्ष्मणनां एवां वचन सांजली रामे तेने पाताल लंकानुं राज्य आप्युं एटले जय पामेला शुंद ने चंद्रनखा रावणनो श्राश्रय करीने रह्या. पढी रामे रयुद्धमां सुग्रीवने मारीने पोतानी शरणे यावेला किष्कंधाना खरा राजा सुग्रीवने तेनुं राज्य श्राप्युं. ते उपरथी प्रसन्न थयेला सुग्रीवे रामने - ढा कन्यासा पाणिग्रहण करवानुं (परणवानुं ) कयुं; पण रामे ते वात न स्वीकारतां सुग्रीवने सीतानी शोधमाटे आज्ञा करी. पढी प्रसन्न थ येला सुग्रीवे पोताना अनेक सुजटोने दशे दिशामां जाणे रामना मनोरथोने मोकलतो होय नही शुं ? एम सीतानी शोधने माटे मोकल्या ने पोते कंबुद्वीप तरफ चाल्यो. रस्तामां तेथे जामंडल विद्याधरनो - नुचर रत्नजटी के, जेने रावणे सीताने लइ जती वखते युद्ध करवाथी पृथ्वी उपर नाखी दीघो हतो तेने दीठो. सुग्रीव तेने रामनी पासे लाव्यो एटले रत्नजटीये रावणे करेलुं सीतानुं हरण ए विगेरे सर्व वृत्तांत रामनी पासे क. रावणे सीतानुं हरण कस्युं. एवात जाणीने दर्ष पामेला राम सुग्रीवने वारंवार पूढवा लाग्या के, “ ते लंका केटले दूर बे ? ” सुग्रीवादिके कयुं. “ दूर होय तेनी शी चिंता ? पण त्रण लोकमां सुनट एवो ते पापी रावण दुर्जय बे. ' "" रामे कह्युं . " तेनाथी जय अथवा पराजयनो विचार न करो. " लक्ष्मने पूछो के, जेनाथी बल जाणी सकाशे. लक्ष्मणे तिरस्कार सहित कं. “शुं तेनुं पुरुषातन ? के जे कागडो जेम रोटलाने लइने नाशी जाय तेम सीतानुं हरण करीने नाशी गयो. "पढी सुग्रीवना मंत्री जांबुवाने लक्ष्मणने कह्युं . " जे कोटिशिलाने उपामी सकशे ते रावणने मारशे." पी सर्वे नेगा थइने लक्ष्मणने समुद्रने तीरे तेडी गया . त्यां लक्ष्मणे कोटिशिला उपाडी एटले देवतार्जए जय जय शब्द करीने पुष्पवृष्टि करी. पी कोटिशिला ने जिनेश्वरोने नमस्कार करीने राम लक्ष्मण विगेरे सर्वे वैमानमां बेसीने पाठा किष्किंधा नगरी प्रत्ये श्राव्या. ते वखते के Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासती सीतानी कथा. ४२५ टलाक वृक्ष वानरो कहेवा लाग्या के, “ तमाराथी रावणनो दय थशे, तोपण नीतिनुं मान्य करीने हवणां रावण पासे दूत मोकलीने वष्टि करावो.” पली “बहु सारूं.” एम कहोने सुग्रीवे सर्व कर्ममां समर्थ एवा हनुमानने सूर्यपत्तन (सूरत)थी तेडाव्यो. पड़ी हनुमानने आगल करीने सुग्रीवे कडं. “हे देव ! अर्जुनना रथनी ध्वजा उपर बेसनारो था हनुमंत म्हारा राज्य- जीवीत जे; माटे तेने सीतानी शोधने अर्थे मो. कलो.” सुग्रीवनां एवां वचन सांजली रामे संकेतने माटे मुखिका (वींटी) श्रापी अने कह्यु के, “ हे हनुमंत ! तुं लंकामां जश्ने था मुछिका सीताने संकेतने माटे आपीने कहेजे के, “हारा विना राम सर्व जगत्ने त्हारामय देखे . वली तुं म्हारा वियोगश्री प्राणोने त्याग करीश नहीं. कारण जो म्हारुं नाम राम हशे तो हुँ तने पाळी लावीश." एवां रामनां वचननो स्वीकार करीने अने नमन करी हनुमान श्राकाशमार्गे थश्ने लंकामां श्रावी अने विनीषणने कहेवा लाग्यो के, "हे जात! श्रा कुलने विषे त्दारी पागल न्याय अने अन्याय कहेवा योग्य ; माटे तने कहुं बुं के, जो तुं त्हारा नाश्तुं कुशल श्छतो होय तो रामनी स्त्री सीताने बोडावी मूक. वली त्हारो बलवान् नाश् रावण जेना काराग्रह (केदखाना)मा रह्यो हतो, तेनोपण नाश करनारा रामने जाणीने तकाल सीता तेमने स्वाधिन कराव्य." विनीषणे कडं. "तुं नगरमा रहीने अमारा नाश्नी एवी वात कहे ? हवे फरीथी कहीश नहीं; कारणके, प्राणीउमा पोतानुं श्रेय कोने वहालुं नथी.” एवां विनीषणनां वचन सांजलीने हनुमान तरत देवरमण उद्यान (वाडी)मां गयो. त्यां तेणे लांबा निशासा मूकती, कुर्बल अंगवाली, महेला वस्त्रवाली, “ राम राम” एम बोलती, योगिनीनी पेठे ध्यान धरती श्रने रूदन करती एवी सीताने अशोक वृदनी नीचे बेठेली दीठी. पठी हनुमाने ध्यान करती एवी सीताना खोलामां रामे संकेतने माटे श्रापेली मुजिका मूकीने प्रणाम कस्यो एटले सीताये हर्षना आंसुश्री जाणे स्नान करावती होय नहीं झुं? एम मुखिकाने पूब्युं. "हे मुलिके! लक्ष्मण सहित राम कुशल ?" हनुमाने उत्तर आप्यो के, “तमारी शोधने माटे प्रजुए मने मोकव्यो अने हवे हुं त्यां जश्श एटले शत्रुनो नाश करनारा श्री राम Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ शीलोपदेशमाला. श्रहिं श्रवशे." सीताये पूब्युं. " हे वत्स ! तें समुद्र शी रीते उलंघन कस्यो ?” दनुमाने कयुं. “विद्याधरनी विद्याथी. " पी सीताये रामनी कुशल वार्ता पूर्वी एटले हनुमाने रामे कहेला समाचार विगेरे सर्व कुशल वार्ता कहीं अने कथं के, “रामने विश्वास माटे तमारुं चूडारत्न श्रापो. " सीताये हनुमानने चूडारन श्रापीने क. ፡ 'दे वत्स ! श्रहिंथी ऊट चाल्यो जा. कारणके, जेथी या निर्दय एवा राक्षसोना स्थानकांहारो अनर्थ न थाय." हनुमाने कयुं. "हे मात ! प्रेमवाला हृदयमां मारी शंका न करो. कारणके, रामना चरणनुं पतिपएं देखाडीने पढी हुं जश्श. एम कही नेते सीताने नमस्कार करो. पी अशोकवननो नाश करी, राक्षसोने मारी, लंकाना घरोने पाडी, पोताने थयेला बंधनने तोमी, रावणना मुकुटनुं चुर्ण करी ने बेवट लंकाने बाली रामनी पासे श्रावेला हनुमाने सीतानुं चूडारल अर्पण कर. रामे पण घणा स्नेहश्री हनुमानने नेटीने सीतानी वात पूर्वी एटले तेणे सीताना कुशल समाचार अने लंकाना घरोने बालवा विगेरेनी सर्व वात कही. "" पठी विराध, जांबुवान्, नील, जामंडल, नल ने अंगद विगेरे - नेक सुटो सहित रामे लंका उपर चडाइ करी. ते वखते सुग्रीव विगेरे अग्रेसर सुनटोए नियममां राखेली रामनी सेना समुद्र उपर चाली. रस्तामां नल ने नीले मध्य समुद्रना एक बेटना राजा एवा समुद्र ने सेतुने बांधीने रामनी पासे आया. रामे तेर्जने फरीथी राज्यासन उपर बेसाख्या; तेथी ते रामनी सेवा करवाने तैयार थया. वली सुचेल पर्वत उपर रहेला चेल राजाने पण जीतीने पोतानी साथे लीधो अने लंकानी पासेना हंसीपना हंसरथ राजाने जीतीने त्यां केटलाक दिवसो रह्या. हवे यावता एवा रामने सांजली युद्धमां जयंकर एवो रावण कुदृष्टि माणस जेम दुर्गतिने एकठी करे तेम पोतानी सेनाने एकठी करवा लाग्यो. ते जोइने विजीषणे रावणने कयुं. " हे जात ! प्रसन्न था छाने पोताना शुभ परिणामनो विचार कर. तें प्रथमथीज परखीना हरणे करीने कुलने लजाव्यं बे, तो हवणां सर्व कुलनो दय न कर थाने जानकी रामने स्वाधीन कर." इत्यादि वचनोथी क्रोध पामेला रावणे विजीquat तिरस्कार कस्यो: तेथी ते पोताना परिवार सहित रामचंद्रने श Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदासती सीतानी कथा. रणे गयो. समयने जाणनारा रामे पण तेने सत्कारथी पोतानी पासे राख्यो अने निश्चय कस्यो के, श्रा शुज परिणामवाला विनीषणने हुँ संकानुं राज्य थापीश. पली रामनी थाझाथी सर्व वानरोए प्रकृति जेम गुणना स्थानरूप जीवने रोके तेम क्षणमात्रमा लंकाने घेरो घाल्यो एटले हस्त, प्रहस्त, मारीच, शुक श्रने सारण विगेरे केटलाक सेनापति युद्ध करवानेमाटे लंकाथी बहार निकल्या. पण ते ने तो युद्ध करता एवा महा बलवंत वानरोए दोल पमाड्या; जेथी राक्षसोनुं सैन्य वायुथी जेम डांगरना फोतरा उडी जाय तेम नाशी गयु. एवामां कुंजकर्ण सहित रावण युक करवा श्राव्यो एटले राम, लक्ष्मण श्रने जामंडलादिक तेनी सामा थया. युद्धना वाजिंत्रो वागवा मांडये बते राम श्रने रावणर्नु खङ्गथी अने बापोथी घणा वखत सुधी युक चादयु; तेने जोश्ने देवता पण आश्चर्य पाम्या. क्रोधथी व्याप्त थयेला रावणे विनीषण उपर त्रिशुल फेक्युं, पण तेने तो शुनध्यानवालो माणस जेम कर्मनुं चूर्ण करी नाखे तेम लक्ष्मणे चूर्ण करी नाख्यु; जेथी अत्यंत क्रोध पामेला रावणे लक्ष्मणनी बातीमा शक्ति मारी; तेथी ते मूळ खाश्ने पृथ्वी उपर पडयो. ते वखते राम सहित सर्व सैन्य शोक करवा लाग्युं श्रने रावण विजयना वाजिंत्रोने वगडावतो बतो लंकामां गयो. या सर्व वात सीताये सांजली, तेथी ते मूळथी पृथ्वी उपर पडी गइ. पडी विद्याधरीयोए जल गंटीने सचेत करी एटले ते सीता विलाप करीने कदेवा लागी के, "अरे! पुरात्मा अने मंद नाग्यवाली हुं बालपणमां केम न मरी गइ ? जेने माटे पतिने तथा दियरने श्रा प्रकारचं महा पुःख प्राप्त थयु.” इत्यादि विलाप करती एवी सीताने को विद्याधरीये कयु." हे देवि ! शोक न कर; त्हारो दियर सवारे मुख रहित थशे.” एवां विद्याधरीनां वचन सांजली सूर्यना उदयनुं ध्यान करती एवी सीता खस्थ थ. __हवे युद्धमां पडेला एवा लक्ष्मणने जो राम पण मूर्ग खाश्ने पड्या. मूर्नाने अंते राम लक्ष्मणने कहेवा लाग्या के, “हे वत्स! तुं था श्रयोग्य अवसरे बोल्या विना केम पडी रह्यो बुं ? श्रा त्हारा अनुचरोनों वाणीथी अने दृष्टिथी सत्कार कर. हे वत्स ! तें लंका, राज्य विनीषणने Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. श्रापवानी प्रतिज्ञा करी जे ते जुली गयो ? अरे बंधो? तुं उन्नो रहे. हुँ तने मारनारने मारी त्हारी पाउल श्रावु बुं.” एम कहीने राम पोताना धनुष्यनो टंकार करी रावणनी पाबल चाव्या. एवामां विनीषणे रामने हाथ कालीने कडं. “हे नायक! मोदनो नाश करी धीरजने धारण करो. कारण के, शक्तिथी हणायेलो पुरुष पण सूर्योदय सुधी जीवी शके बे; माटे मंत्र तंत्रादिकनो का उपाय करो.” रामे विनीषणनां वचननो स्वीकार करी लक्ष्मणनी चारे बाजुये जगामेला शस्त्रवाला सुग्रीवादिक सुनटोने बेसास्या. एवामां प्रतिचं नामना विद्याधरे श्रावीने रामने कडं. "हे प्रनो ! शक्तिने निकलवानो श्रा अनुलवेलो उपाय साजलो. जरतनो मामो प्रोण नामनो राजा बे. तेने विशया नामनी कन्या . तेना स्नानना जलथी शक्ति पोतानी मेले शरीरमांथी बहार निकले जे." एवां प्रतिचंनां वचन सांजलीने रामनी श्राज्ञाथी नामंडलादिके विशस्याना जलथी लक्ष्मणने स्नान कराव्युं एटले सूर्यना सरखी जाज्वल्यमान शक्ति लक्ष्मणना हृदयमांथी बहार निकली, जेथी रामना सैन्यने विषे वाजिंत्रोना शब्दो थवा लाग्या. हवे बीजे दिवसे सवारे अपशुकनोए वास्या बता पण जेम बालक सवारमा लोजन करवा श्रावे तेम रावण रणांगणमां युद्ध करवाने माटे श्राव्यो. त्यां राम अने रावणनो फरीथी म्होटो युक थयो. जेमां वानरो राक्षसोना मस्तकने गोलानी पेठे ग्रहण करी करीने फेंकवा लाग्या. एवामां लक्ष्मणे उठीने रामने प्रणाम कस्यो श्रने शक्तिनी वेदनाने त्यागकरी युद्ध करवानी श्छाथी उनो थयो. पडी जेनुं शौर्य वृद्धि पाम्यु हतुं एवा लक्ष्मणने जोश तेने जितवानी श्याथी रावणे बहुरुपकारी (घणां रूपने करनारी) विद्यानुं स्मरण कऱ्या, जेथी तेना हजारो रूप थयां. पती लक्ष्मणे आगलथी, पालथी, पडखेथी, पृथ्वी उपरथी अने श्राकाशमांथी शस्त्रोना वरसादने वरसावनारा रावणने दीगे एटले तेणे पण गरुड उपर बेसीने पोताना तिदण बाणोथी अनेक रावणोने पृथ्वी उपर पाड्या. पड़ी अर्धचक्री एवा रावणे चक्रने स्मरण करीने हाथमां धारण कऱ्या श्रने जमावीने लक्ष्मण उपर मूक्यु; पण ते चक्रे तो “ था श्राठमो वासुदेव जे.” एम कहीने लक्ष्मणना जमणा हाथनो आश्रय कस्यो. पठी ब Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदासती सीतानी कथा. ए क्ष्मणे तेज चक्रथी रावणर्नु मस्तक बेदी नाल्यु. ते वखते देवताए आकाशमांथी लक्ष्मणना उपर पुष्पनो वर्षाद वरसाव्यो. पली राम विनीषणने लंकानुं राज्य थापी सीताने ग्रहण करवा माटे परिवार सहित उद्यानमां श्राव्या. त्यां दूरथी राम लदमणने श्रावता जोर हर्षथी प्रसन्न थयेली सीता नवा मेघथी बंटाएला वननी पेठे शोजवा लागी अने देवता पण “अहो! था सती सीताने धन्य ." एम कहेवा लाग्या लक्ष्मणादिकेसीताने प्रणाम कस्यो भने सीताये तेउँने थाशीष श्रापी. रोहिणीथी जेम चंद शोने अने कमलीनीथी जेम सूर्य शोने तेम ते वखते महासती सीताथी राम शोजवा लाग्या. पली सुग्रीव, जामंडल अने विनीषणादिक अनेक सुनटो सहित राम पुष्पक विमानमां बेसीने तत्काल साकेत नगर (अयोध्या ) प्रत्ये श्राव्या. त्यां सुमित्र सहित जरते सामा श्रावीने सीता सहित रामने प्रणाम कस्यो. लक्ष्मण पण ते नमन करता एवा बन्ने जाने प्रथम गाढ स्नेहथी मल्यो. पड़ी तेजेए अनेक वाजिंत्रोना शब्दपूर्वक राज्यमंदिरमा प्रवेश कस्यो. त्यां सासुए सीताने “वीर पुत्रने जन्म आपनारी था.” एवी श्राशीष थापी. रामे लक्ष्मणने अर्धचक्रीन राज्य श्राप्युं अने पनी सुग्रीवादिक राजाउँने पोतपोताना देशमां जवानी श्राझा पापी. हवे सीताये हस्तिना बालकना स्वप्न सूचित गर्न धारण कस्यो, तेथी तेने समेत शिखर यात्रा जवानो दोहद उत्पन्न थयो. एवामां तेनुं जमणुं नेत्र फरकवा लाग्युं, तेथी तेणे आश्चर्य पामीने रामने कहूं. रामे उत्तर श्राप्यो के, “हे जसे! था पुनिमितने प्रगट करनारुं बे; माटे मंदिरमां जर देवताउँनु पूजन करीअने पात्रोने दान श्रापो." सीताये प. तिनां शिक्षारूप वचन सांजलीने ते प्रमाणे कगुं. एवामां नगरने विषे रहेनारा कोई वृद्ध पुरुषे श्रावीने रामने कह्यु. “हे देव ! लोकमां सत्य अथवा असत्य जे कदेवाय बे,ते शठित अथवा अनिहित होय तोपण विद्वानोए श्रद्धाथी सांजलq जोए अने ते एज के, “स्त्रीउने विषे चपल एवा रावणे हरण करेली सीताने एकली पोताना घरमा उ मास सुधी राखी. हवे ते सीता रावण उपर श्रासक्त हती के न दती ते तो जाणी शकातुं नथी, पण रावणे तो तेने बलात्कारे जोगवी . एम कोण Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० शीलोपदेशमाला. शंका नहीं करे ? पाणीमां पडेलां तेलना टिपांना सरखो श्रा युक्तिवालो वाद , माटे हे राम ! लोकोथी सर्व ठेकाणे प्रसिद्ध थयेली वातने सइन न करो. हे राघव ! पवननी पेठे चारे तरफ प्रसरता एवा था कलंकनी तमे उपेक्षा करशो नहीं. कारण के, जे कलंकयी पोतानुं कुल श्रमासना सर मलीन थाय .” ए प्रकार- सीताने विषे कलंक सांजसीने राम क्षणमात्र स्थीर थश्ने बोल्याविना उन्ना रह्या. पड़ी धीरज धारण करीने रामे तेमने कडं. “ तमोए था वात मने कही ए बहु सारं क. हुं स्त्री थकी पण प्राप्त थयेला अपयशने सहन करीश नहीं." एम कहीने रामे तेमने रजा श्रापी. पली वीर पुरुषोनी पेठे रात्रीने विषे नगरमां फरता एवा राम जेटलामा एक चमारना घरपासे श्रावीने उना रह्या तेटलामां ते चमार मोडी रात्रीये घरमा श्रावेली पोतानी स्त्रीने पाटु मारीने तिरस्कार सहित कहेवा लाग्यो. "तुं श्रत्यार सुधी क्यां रही हती?” स्त्रीये कह्यु. तुं बहु नारे नवो पुरुष! शुं रावणे पोताना घरमां मास सुधी राखेली सीताने रामे न ग्रहण करी ? तेणे तो सीतानो वियोग ब मास सुधीसहन कस्यो अने तुं क्षणमात्र पण नथी रही शकतो?" चमारे कयुं."राम तो स्त्रीश्रीजीतायेलो बे. हुं तेनाजेवो नथी,माटे केम सहन करुं ?"श्रा सर्व वात राम बहार उन्ना उजा सांजलता हता, तेथी ते उःखथी विचार करवा लाग्या के, “अहो ! स्त्रीने वश्य थयेला एवा मने धिक्कार डे के, जे नीच माणसोए कहेला धिक्कारना शब्दोने में पोतेज सांजल्या. निश्चय सीता पतिव्रता , रावण उःशील ने श्रने म्हारुं कुल निष्कलंक बे; तो हवे शुं करवू ?” एम चितवन करता एवा रामे घरने विषे जश् लक्ष्मणनेबोलावी एकांतमा विचार करवा मांड्यो एटले लक्ष्मणे कडं. “हे आर्य ! लोकोना कहेवाश्री सीता महा सतीनो त्याग करशो नहीं. कारणके, माणस स्वजावधीज बीजाउंना दोष कहेवामां रसीक बे, माटे जे महात्माउने उपेक्ष्य बे, तेज राजाउँने शिक्षणीय बे.” ए प्रकारे लक्ष्मणे घणी रीते समजाव्या बतां पण रामे पोताना कृतांत नामना सेनापतीने तेडावीने कयु के, “सीताने वनमा मूकी थाव्य. कारण के, लोक जे बोबे डे ते घणुं करीने सत्य होय जे. तो यशस्वी पुरुषोए विरूद्ध अर्थनो त्याग Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासती सीतानी कथा. ४३२ करवो जोइए. सीताने समेत शिखर यात्रा जवानो दोहद उत्पन्न थयो वे, माटे तेने तेज मीषथी गंगाना सामे तीरे मूकी श्राव्य. "" कृतांत सेनापति पण रामने नमस्कार करी स्वामिना हुकमश्री सीताने रथम बेसारी समेत शिखरनी यात्रा करावी थाने वलते फेरे तेने म्होटा यमां मूकीने कड़ेवा लाग्यो. "हे देवी! लोकोनां श्रपवादथी रामे तमारो त्याग कस्यो बे. हा ! श्रावा क्रूर कर्मने विषे स्वामीये मने श्राज्ञा करी. " एवां सेनापतीनां वचन सांजली सीता मूर्छा खाइने रथमांथी पृथ्वी उपर पडी गइ घणीवार थया पढी सचेत थयेली ते प्रतिव्रता रामने कडेवा लागी. “जो तमने लोकोना अपवादथी जय बे तो जगना अने म्हारा समक्ष आकाशवाणीये ते केम कयुं हतुं ? क्रूरथी पण क्रूर एवं या कर्म तमारा कुलमां शुं योग्य बे जे, एकली अने गर्जवती प्रियाने वनमां त्यजी दीधी ? तोपण या वनमां हुं जेम तेम करीने रहीश ने लक्ष्मण सहित राम पण दीर्घ कालसुधी विजयवंत वर्तो. " एम कही ने सीताये सेनापतिने जवानी श्राज्ञा करी एटले जेनी यांखोमांधी यांनी धारा पकती हती एवो ते सीताने प्रणाम करीने पाठो नगर तरफ चाल्यो. जानकी पण पूर्वजवने विषे आचरण करेला पोताना कर्मने निंदती बती यूथथी जूली पडेली मृगलीनी पेठे वनवन प्रत्ये जमवा लागी. एवामां त्यां श्रावेलो वज्जजंघ राजा तेने बढेन मानीने पोताना पुंडरीक नामना नगरने विषे तेडी गयो. sa कृतांत सेनापतिए अयोध्यामां आवीने सीतानी सर्व वात रामने कही; तेथी ते सीताना वीयोगनी पीडा सहन न करी शकवाथी तेनीज साथै पाठा वनमां श्राव्या ने सीताने सर्व स्थानके शोधवा मांडी; पण क्या दीवी नहीं; तेथी आशा मूकीने पाठा घरे श्राव्या तथा " सीता मरी गई.” एम धारीने रामे तेनी प्रेतक्रीया करी. पढी "सीता, सीता, ” एम सीतानुं ध्यान छाने जप करता एवा ते राम कालने निर्ग - " मन करवा लाग्या. दवे सीताये पण त्यां नंगलवण तथा मदनांकुश नामना बे पुत्रोने जन्म श्राप्यो. तेथी वज्रजंघ राजाए पोताना पुत्रनी पेठे तेज॑नो जन्म Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ शीलोपदेशमाला. महोत्सव कस्यो. सीताना ते बन्ने पुत्रो “ लव श्रने कुश” एवा हुलामपाना नामथी प्रसिद्ध थया. अनुक्रमे ते बन्ने पुत्रो कला अने शास्त्रोनो संपूर्ण अभ्यास करी यौवन अवस्था पाम्या; ते वखते ते इं अने उपेजने पण जयकारी एवा महा बलवंत थया. पड़ी वज्रजंघ राजाए पोतानी शशिचूला नामनी पुत्रीने अने बीजी बत्रीश पुत्रीउने अनंगलवण (लव)नी साथे परणावी अने अंकुश (कुश)ने माटे पृथुराजानी पुत्रीनी याचना करी एटले पृथुराजाए उत्तर प्राप्यो के, “हुंम्हारी पुत्री अजाण्या वंशना पुत्रनी साथे परणावीश नहीं.” ते उपरथी वज्रजंघने अने पृथुराजाने म्होटुं युद्ध थयुं, तेमां लव कुशना बाणोथी पृथुराजानुं सैन्य नाशी गयुं श्रने पृथुराजा पोते पण नाशवा लाग्यो तेने जोश्ने लव कुशे कयं. “अरे थजाण्या वंशमां उत्पन्न थयेला श्रमाराथी प्रसिद्ध वंशमां उत्पन्न थयेलो तुं केम नाशी जाय ?" पृथुराजाए पाबा वलीने कडं. " में शौर्यथीज तमाळं कुल जाएयुं .” एम कहीने पड़ी तेणे वज्रजंघनी साथे संधी करी. एवामां त्यां नारद श्राव्या. तेमने सर्व राजा सहित वज्रजंघे नमस्कार करीने पूब्युं. "हे मुने! था पृथुराजा पोतानी पुत्री कुशने श्रापे बे; माटे ते बन्ने जाऊनो वंश कहो, जेथी पृथुराजा संतोष पामे.” नारदे हसीने उत्तर श्राप्यो. "कयो पुरुष था बन्ने नार्जना कुलने नथी जाणतो? रावणनो नाश करनारा राम लक्ष्मण जेमना पिता . लोकापवादना जयथी रामे श्रा बन्ने पुत्रो गर्नमां हताते वखते सीताने गहन वनमां त्यजी दीधी .” एवां नारदनां वचन सांजली कुशे का. “ हे ब्रह्मन् ! रामे था काम कांश सारं कडं नथी. लोकवाणीनो विचार कस्या विना तेमने ते काम करवू योग्य नहोतुं.” लवे कयु. "ते नगरी केटलेक दूर ले के, ज्यां राम लक्ष्मण वसे ?” नारदे कयु. “अहिंथी एकसो ने वीश योजन.” पली पृथुराजाए पोतानी कनकमाला नामनी पुत्री कुशनी साथे परणावी. पडी माताना त्यागथी क्रोधवंत थएला ते बन्ने नार्ज वज्रजंघ मामानी तथा सीता मातानी आज्ञा लश् केटलाक सैन्य सहित त्यांथी निकल्या. अनुक्रमे तेए अयोध्यानी पासे श्रावीने रणस्तंज रोप्यो. ते Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासती सीतानी कथा. ४३३. वात सांजलीने सैन्य सहित राम लक्ष्मण पण युद्ध करवाने सामा श्राव्या. तेर्जुनो परस्पर युद्ध यये बते लव कुशे लीलामात्रे करीने रामना सैन्यने दीनदशा पमाडयुं. पठी राम लक्ष्मण श्रने लव कुशने म्होढुं युद्ध युं. तेमां लक्ष्मणे क्रोध करीने कुरा उपर चक्र फेयुं; पण चक्रतो वेगथी कुशनी प्रदक्षिणा करी जेम पूर्वे करेलुं कर्म करनारनेज प्राप्त थाय बे तेम फरीने लक्ष्मणनी पासे श्राव्युं एटले राम ने लक्ष्मण खेद पामता बता विचार करवा लाग्या के, “पृथ्वीमां नर नारायण ते के श्रमे ? एवामां जामंडल सहित नारद श्रव्या ने खेद पामेला राम लक्ष्मणने जोइने तेमणे इसीने कयुं. "हे राघव ! तमे हर्ष पामवाने ठेकाणे खेद कम करो हो ? पोताना महा पराक्रमवंत पुत्रने जोइ कया पुरुषं चित्त यानंद न पामे ? सीताना उदरथी उत्पन्न थयेला या बन्ने पुत्रो तमारा बे. ते युद्धना मीषथी तमारा दर्शन करवा याव्या बे. तमारा कुलने जा नारा या चक्रे तेर्जनो नाश कस्यो नथी. वली स्वगोत्र रहित पुरुष उपर फेंकेलं श्रा चक्र क्यारे पण निष्फल यतं नथी.” पी पुत्रना स्नेहथी राम लक्ष्मण दर्षे करीने लव कुशनी पासे वेगथी चाल्या. नम्र एवा लव कुशे पण तत्काल रथथी नीचे उतरी पिताना चरणमां प्रणाम कस्यो, जेथी राम लक्ष्मणे गौरव सहित तेनां मस्तक सुंध्यां. ते वखते बन्ने सैन्य हर्षमय थया. पी रामे पुष्पक वैमानमां बेसीने महा संपत्तिवाली श्रायोध्यानगरी प्रत्ये प्रवेश कस्यो तथा लक्ष्मण सुग्रीव, वज्रजंघाने बिजीषणनी विनंतीथी सीताने तत्काल तेडावी. यावती एवी सीताने लक्ष्मणे सामा जश्ने प्रणाम कस्यो छाने कथं के, "हे देवी! आपना प्रवेशथी या नगरीने पवित्र करो.” सीताये कयुं ज्यांसुधी म्हारो अपवाद शांति पाम्यो नथी त्यांसुधी हुं शुद्धि कस्या विना नगरी प्रत्ये प्रवेश नहीं करूं ने घर प्रत्ये पण प्रवेश नहीं करूं में शुद्धिने माटे पांच दिव्य धारया बे. ते एज के, "जो कहो तो ज्वालासहित एवा श्रग्निमां प्रवेश करूं. १ चोखा चावुं. २ तपेली कोस मुखमां नाखुं ३ श्राजवामां तोलानं. ४ जीने करीने तपावेली हलना फालने चाटु. ए. जे कहो ते करुं.” रामे ते सर्व वात सांजलीने सीताना अत्यंत श्रमयी ज्वाला ५५ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ शीलोपदेशमाला. सहित अग्निमां पेसवानी वात मान्य करी. पनी रामे त्रणसें हाथ लांबी अने बे माथोडां उंडी खाइ खोदावी. तेमां चंदननां काष्ठ ज. रावीने सलगाव्यां. ज्यारे देदिप्य ज्वाला प्रगट थर त्यारे निर्मल मनवाली सीताये पंच नवकारर्नु स्मरण करीने कडं. “हे लोकपालो! सांजलो. जो में राम वीना अन्य पुरुषने मनमां पण स्मरण कस्यो होय तो था अग्नि मने बालज्यो. नहीं तर तेज अनि मने अमृतना कुंड सरखो थज्यो.” एम कहीने तेणे अनिमां ऊंपापात कीधो ए. टले तरत अग्नि शांत थ गयो अने क्रीडानी वाव्यना सरखी पाणीथी जरेली खाश् थ गश्. वली पाणीना मध्ये रहेला सहस्त्रदलकमलरूप सिंहासनमां बेठेली सीता शीलना प्रजावथी लक्ष्मीनी पेठे शोजवा लागी. ते वखते जानकीना मस्तक उपर देवताए पुष्पनो वर्षाद वरसाव्यो श्रने माणसो “शील श्राश्चर्य करनालं.” एम कहीने तेनां वखाण करवा लाग्या. माताना महिमाने जोश थानंद पामेला लव कुशे राजहंसोनी पेठे तेना पगमां प्रणाम कस्यो लक्ष्मण विगेरे सर्वे माणसोए जक्तिथी वंदना करी श्रने रामे तो प्रेमपूर्वक नेटिने तथा हाथ जोडीने कह्यु. “हे देवी! में वनमा त्याग करेली तुं पोताना प्रजावधीज जीवी बुं. वली तेज श्राश्चर्य थयुं के, हुं तने जाणी शक्यो नहीं. हे न ! म्हारो सर्व अपराध क्षमा कर अने पुष्पक वैमानमां बेसी घरे चाल. वली था राज्य लक्ष्मीने सफल कर." सीताये कयु. एमां तमारो अथवा बीजा कोश्नो दोष नथी, कारण के, जीवे पूर्वे करेला कर्मनुं फल जोगवq जोश्ये. हवे म्हारे संसारमा रहे योग्य नथी, माटे संसारना उछेदने अर्थे चारित्र धारण करीश. पबी सीताये उत्सव पूर्वक चारित्र धारण कडं श्रने रामे क्लेशनो नाश करवामाटे तेना केश ग्रहण कस्या. सीता दीर्घकालसुधी चारित्र पाली श्रच्युत देवलोकमां देवताना अधिपतिपणाने पामी अने राम पण अनुक्रमे निर्मल ध्यानथी कर्मने धोश नाखी मोक्ष गतिने पाम्या. इति महासती सीतानी कथा समाप्ता. Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथा. ४३५ हवे महासतीनुं लक्षण कहे. या शीलनंगसामग्रीसंजवे निश्चला सती. एषा जो सीलनंगसोम-ग्गिसंनवे निचला संई एसौ ॥ इतराः महासत्यः गृहेगृहे सति प्रचुराः श्यरा महासईन, घरेघरे 'संति पनरो॥१०॥ शब्दार्थ- (या के०) जे स्त्री (सीखनंगसामग्गिसंजवे के०) शीलव्रतना नंगनी सामग्री बते (निचला के०) निश्चल . (एसा के०) एज स्त्री (सई के०) सती जाणवी. (श्यरा के०) बीजी (महा सर्च के०) महा सती (घरे घरे के०) घर घरने विषे (पउराठ के०) घणी (संति के) . ॥ १० ॥ विशेषार्थ- जे स्त्री शीलव्रत जंगनी सर्व सामग्री उतां एटले एकांत स्थान, स्नेह, मोह अने प्रार्थना इत्यादिक संकटमा श्रावी पडे बते पण पोताना शीलवतनुं रक्षण करवाने घणा श्राग्रहवाली , तेजसती कहेवाय बे; पण ज्यां सुधी बीजा कोशए प्रार्थना करी नथी अने संकटमां श्रावी पडी नथी त्यां सुधी शील पालवामां तत्पर एवी बीजी महा सती तो घरे घरे घणी बे. कयु डे के- विरला महिला शील-कविताः कति संकटे ॥ प्रायोऽनन्यर्थिता एव, सांप्रतं हि पतिव्रताः॥१॥ अर्थ- कलेशकारी संकट श्रावी पडवाढतां शुद्ध शीलवंत स्त्री बहु थोडी बे; परंतु श्रत्यारे तो घणुं करीने प्रार्थना करनार न मलवाने लीधे पतिव्रता .॥ हवे शीलवतने रक्षण करवानो उपाय कहे . तथापि एव एकांतादिसंगः नित्यमपि परिहर्तव्यः तदवि हूँ एगेंताई-संगो निश्चंपि परिरेयेवो ॥ येन च विशमः इंजियग्रामः तुम्बानि सत्वानि जेण ये विसमो इंदिय-गामो तुगइ सताई॥ ११०॥ शब्दार्थ- जो के शीलवत पालq बहु कठीन ने (तहवि के०) तो पण (एगंता के० ) एकांतादि (संगो के०) संग ( निचं के) निरंतर (परिहरेयवो के) त्याग करवो. (हु के०) निश्चय. (जेण के०) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ शीलोपदेशमाला. जे कारण माटे (इंदियगामो के०) इंजियनो समूह (विसमो के०) रक्षण करवो अशक्य २ (य के० ) अने ( सत्ता के०) प्राणी (तुछार के०) चित्तनी दृढ शक्ति रहित .॥ ११० ॥ विशेषार्थ-जो के शीलवत पालq बहु कठीण बे, तोपण एकांत, स्नेह, विगेरेनो निरंतर त्याग करवो. कारण के, इंडियनो समूह रक्षण करवो अशक्य अने प्राणी चित्तनी अल्प दृढतावाला जे; माटे पोताना संबंधीनी साथेपण एकांतमां बेस नहीं. कह्यु बे के- मात्रा वस्त्रा उहित्रा वा, न विविक्तासनो जवेत् ॥ बलवानिंजियग्रामो, विद्वांसमपि कर्षति ॥ १॥ पुरुषे माता, बहेन श्रथवा पुत्रीनी साथे एकांतमां बेसवु नहीं. कारण के, बलवान् एवो इंडियनो समूह विद्वान् पुरुषने पण वश्य करी नाखे बे. ॥ ११० ॥ पोते निर्दोष होय तो पण स्त्रीना संगथी अपवाद . तो लागे , ते वात कहे जे. यद्यपि एव न प्रतजंगः तथापि एव संगात् नवेत् अपवादः जवि हुँ नो वयनंगो, तवि द्वे संगीन दोई अववान॥ दोषनिजालननिपुणः सर्वः प्रायः जनः येन दोसनिॉलणनिजणो, सेबो पीयं जैणो जेणें ॥ १११॥ शब्दार्थ- (जवि के०) जो के निष्कपटपणे शीलवत धारण करनार पुरुषने (संगाउ के०) संगथी (वयचंगो के०) शीलवतनो जंग (हु के०) निश्चे (नो होश के०)न थाय (तहवि के०) तोपण (अववा के०) अपवाद (हु के०) निश्चे थाय. (जेण के०) जे कारण माटे (पायं के०) घणुं करीने (सबो के०) सर्वे (जणो के०) माणस (दोसनिहालणनिउणो के०) बीजाना दोष जोवामां डाह्या होय जे. ॥ १११ ॥ विशेषार्थ- जो के निष्कपटपणे शीलवतधारी महात्मा पुरुषना - तनो नंग कदापी न थाय, तोपण निश्चे अपवाद तो लागे जे. कारण के, घणुं करीने सर्वे माणसो पारको दोष जोवामां चतुर होय . ॥ १११ ॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथान. ४३७ हवे फल देखावा पूर्वक शीलनो उपदेश पूरी करता बता कहे बे. तस्मात् सर्वथापि शीले उद्यम तथा कुरुत जोजव्याः तो सबैदावि सील-मि उङमं तह करेइँ नोनवा ॥ यथा प्राप्नुत लघुएव संसारं ता शिवसुखं जद पौवेद लहुच्चिय, संसारं तरिय सिवसुकं ॥ ११॥ शब्दार्थ- (जो नवा के०) हे जव्यजनो ! (ता के०) ते कारणमाटे (सबहापि के०) मन, वचन श्रने कायाये करीने पण (सीलंमि के०) शीलव्रतने विषे (तह के०) ते प्रकारे (उऊमं के०) उद्यमने (करेद के०) करो के, (जह के०) जेम तमे (बहुच्चिय के०) ऊट ( संसारं के) संसारने (तरिय के० ) तरीने (सिवसुहं के०) मोक्षसुखने (पावेद के०) पामो. ॥ ११ ॥ विशेषार्थ- हे जव्यजनो! ते कारणमाटे मन, वचन श्रने कायाये करीने शीलवतने विषे तेवीरीते उद्यम करो के, जेथी तमे संसार समुज तरी कट मोद सुख पामो. श्रा गाथामां 'जवा' एवं सामान्य संबोधन प्राप्यु बे, तेथी शीलवत पालवाथी स्त्री अने पुरुष बन्ने मोदना श्रधिकारी थाय ने अने ते उपदेश तत्त्वने योग्य बे. अजव्य जनोने हि. तने माटे उपदेशेढुं तत्त्ववचन तेमना हृदयमां प्रवेश करतुं नथी. श्री अरिहंत प्रजुए कह्यु डे के- मिथ्यादृष्टि जीव, उपदेशेला तत्त्ववचनने श्रद्धथी सांजलता नथी, परंतु उपदेशेला अथवा न उपदेशेला अस नावने श्रमाथी सांजले . ॥ ११ ॥ हवे ग्रंथ करनार गर्वने त्यजी देवापूर्वक शीलवतने विषे प्रवर्तवं अने शीलव्रतना नंगथी निवर्तवू इत्यादि उपदेशनी परंप राने पूर्ण करता बता कहे जे. इति शीखनावनया नावयन् नित्यमेव श्रात्मानं श्य सीलनावणाए, नावंत्तो निच्चमेवे अपाणं ॥ धन्यः धरेत् ब्रह्म धर्ममहानुवनस्थिरस्तंनं धन्नो धरिज बं धम्ममहानवणथिरथंनं ॥११३॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ शीलोपदेशमाला. शब्दार्थ- (श्य के०) ए प्रकारे (सीलनावनया के०) शीलवतनी जावनाये करीने (निचंएव के०) निरंतरज (अप्पाणं के०) पोताना आत्माने (जावंतो के०) जावतो अर्थात् दृढ करतो एवो (धन्नो के०) धन्य पुरुष जे जे ते (धम्ममहाजवण के०) धर्मरूप म्होटा महेलने श्राधार एवा ( थिरथनं के) निश्चल थांजला सरखा (बंनं के०) शीलव्रतने (धरिज के०) धारण करे . ॥ ११५॥ विशेषार्थ-पूर्वे कहेला उपदेशनी श्रका सहित शीलवतनी नावनावडे निरंतर पोताना श्रात्माने शीलपालवामां दृढ करतो एवो कोश धन्य पुरुष धर्मरूप म्होटा मेहलने उनो करी राखवामां निश्चल थांजला सरखा शीलवतने धारण . अर्थात् धन्य पुरुष शीलवतने धारण करवा समर्थ डे; पण मारा सरखो पापी ते व्रतने पालवा समर्थ नथी. एम ग्रंथ करनार पोते कहे. ॥ ११४ ॥ धनश्रीनी कथा. जेनी हवेली उपर रहेला सुवर्णना कलशो कल्याणना समूह सरखा शोने के एवी लक्ष्मीना स्वस्तिवाद सरखी उड़ा यिनी नामनी नगरी . त्यां जेना हाथरूप स्तंब (कमलना नाल )ने विषे पंचाल देशनी पृथ्वी रूप लक्ष्मी लय पामी हती अर्थात् पंचाल देशनो अधिपति एवो जितशत्रु नामनो महा प्रतापी राजा राज्य करतो हतो. ते नगरमा सागर चंड नामनो शेठ वसतो हतो. पुण्यरूप चंझे करीने जेनुं चित्त हमेशा आनंदमय हतुं एवी चंपश्री नामनी तेने स्त्री हती. तेउने समुदत्त नामनो बुद्धिवंत पुत्र हतो. तेने माता पिताये कलाऊनो श्रन्यास करवा माटे गुरुने त्यां मूक्यो हतो. __एक दिवस अध्यापक (गुरु )नी साथे खुब्ध थयेली पोतानी माताने जाणीने स्त्री थकी विरक्त थयेला समुदत्ते विवाहनो अनिग्रह पोताना मनमा धारण करी राख्यो. पढी अनुक्रमे युवावस्था पामेला ते पुत्रने माटे पिता सागरचंझे रूप, गुण अने कुलवंती एवी सेंकडो कन्याउने शोधी राखी; परंतु जेम साधु पुरुष खदमीनो आदर करे नहीं, तेम तेणे ते कन्याउँनो स्वीकार कस्यो. नहीं. श्रा प्रमाणे विरक्त थयेला ते समुषदत्तनो काल योगिनी पेठे जवा लाग्यो. एक दिवस तेनो पिता सागरचंड Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनश्रीनी कथा. ४३० कंश कार्य प्रसंगे सौराष्ट्र (सोरठ) देशमा गयो भने ते त्यां गिरिपुर नगरमां धनसार्थवाहने घरे रह्यो. घर संबंधी कार्य करी रह्या पड़ी तेणे पोताना पुत्र समुदत्तने माटे धनसार्थवाहनी पुत्री धनश्रीनुं मागं कलु अने पड़ी ते पोताना घर प्रत्ये श्राव्यो. __ को एक दिवसे तेणे पुत्र समुदत्तने कलुं के, “ देवत्स ! गिरिपुर नगरमां म्हारां केटलांक वासणो पड्यां बे; माटे तुं त्यां जश्ने ते लश् श्राव्य. वली तेणे पोतानो मनोरथ पूर्ण करवाने माटे समुदत्तना मित्रने गुप्तरीते विवाह संबंधी सर्व वात निवेदन करीने समजाव्यो. पनी समुदत्त पोताना मित्रसहित पितानी आज्ञा प्रमाण करवाने त्यांची चाख्यो. अनुक्रमे ते जेम पुण्यवान् पुरुष इष्टवस्तुने पामे तेम गिरिपुर नगरना उद्यानमां श्रावी पहोच्या. पळी मित्रे धनसार्थवाहने समुजदत्तना आगमननी खबर मोकलावी ते उपरथी धनसार्थवाह विवाहसंबंधी तैयारी करी, परिवार सहित सामो श्रावीने समुदत्तने पोताने घरे तेडी गयो. त्यां तेणे कपटथी पुत्री धनश्रीनो पाणिग्रहण करावी जमाश्ने घणुं अव्य श्रापी संतोष पमाड्यो. पड़ी मित्रोए योग्य क्रीया करेलो समुजदत्त निवास गृहप्रत्ये गयो. त्यां ते धनश्रीने जोर जेम शियाल पाणीने जो पालो वले तेम पाडो वल्यो अने ज्यां मित्रो सूता हता त्यां श्रावीने सूतो. सवार थवानो वखत थयो एटले ते बहार जवाना (काडे जवाना) मिषथी क्यांश नाशी गयो. ते वात मित्रे धन सार्थवाहने करी; तेथी तेणे सर्व स्थानके शोध करी पण क्यांश्थी जमाश्नी शुकि मली नहीं. श्रा वात सागरचंडशेठे जाणी; तेथी ते पण तकाल त्यां आव्यो भने थोडा दिवस रह्या पडी पोतानी नगरी प्रत्ये गयो. बार वर्षने अंते दृष्ट पुष्ट बनेलो समुदत्त कापडीनो वेश धारण करीने फरी ते नगरमां श्राव्यो अने पोताना घरना उद्यानमां बेठेला धनसार्थवाहने कहेवा लग्यो के, “मने उद्याननुं रक्षण करवा माटे राखशो ?” सार्थवाहे हा कही, तेथी वृदोनां वैदांने जाणनारा तेणे तेउद्यानने अनुक्रमे नंदन वनना सरखं बनाव्यु. एक दिवस सर्व ऋतुऊनां फलथी सुशोनित एवी उद्याननी लक्ष्मीने जोश्ने आनंदमां मग्न थयेलो धनसार्थवाद मनमां विचार करवा लाग्यो Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ყმ शीलोपदेशमाला. के, " या प्रकारनी कलानो पात्र या यावा कार्यमां योग्य नथी. शं चिंतामणि रत्न बकरीना गलाने विषे बांधवो योग्य बे ?” आवो विचार करीने सार्थवादे तेने काननां कार्यमां जोड्यो; तेथी ते त्यां काम करवा लाग्यो. कचुंबे के चाकरो हमेशां परतंत्र होय ते. पठी लक्ष्मीने वश्य करवामां औषधरूप एवो ते सर्वने विश्वासपात्र थयो ने विनीतक एवा नामी प्रसिद्ध पण थयो. "आ सर्व गुणनो पात्र बे. एवी जो राजाने मालम पमशे तो ते आने पोताने त्यां लइ जशे . " एवं धारीने शेठे ते विनीतकने पोताना घरनुं सर्व कार्य सोंप्युं ने पोतानुं इष्टकार्य करनारा एवा तेने पोताना पुत्रथी पण अधिक मान्यो. कथं वे केगुणो कोने मान श्रापनारा नथी यता ? अर्थात् सर्वने थाय बे. सर्व प्रकाना कार्य करनारो, विनीत ने सत्यरूप धननी संपत्तिवालो ते विनी - तक अनुक्रमे सर्वने विश्वासपात्र थयो. एक दिवस गोखमां उजेली धनश्रीने जोइ कामदेवयी अत्यंत पीडा पालो तला सर्व विश्वने धनश्रीमय देखवा लाग्यो पढी कामी एवा तेणे निरंतर धनश्रीनी पासे रहेनारा विनीतकने प्रार्थनापूर्वक तेनी पासे मोकल्यो. विनीतके पण अवसर मलवाथी तलारे कडेला समाचार धनश्रीने का. कयुं बे के बीजानी वस्तुने ग्रहण करवानी इछावाला धूर्त पुरुषो शीशी चेष्टा नथी करता ? अर्थात् सर्व प्रकारनी चेष्टा करे a. पी सती धनश्रीये पोतानुं मस्तक धूणावतां धूणावतां तेने कयुंके, " हे विनीतक ! तुं मने प्राणथी वधारे वहालो बे; परंतु या संदेशो लावारूप कर्म थी तो जयंकर शत्रु जेवो यइ पड्यो बे. कारण म्हारा शीरूप मणिने तुं दूषित करवानी इछा करे बे. में मन, वचन छाने का या करीने तेने पति मानेलो बे के माता पिताए सर्वनी साक्षीमां मने जे समुद्रदत्त सोंप्ये बे. " , “ धनश्रीनां यावां वचन सांजली मनमां दर्ष पामेला विनीतके कयुं. 'हे नये ! जेम कृपण माणस धनने वृथा हारी जाय बे, तेम तुं पण पोतानुं जीवित शा माटे वृथा हारी जाय बे ? जेने विषे तुं श्रासक्त थइ इती ते तो तने त्यजीने चाल्यो गयो बे के जेनी शुद्धि पण लागती नथी; माटे हवे तो तुं तेनामाटे वृथा जीवित दारी जाय बे. " धनश्री ये Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ धनश्रीनी कथा. कडं. “ तुं विनीत बतां पण अविनीत देखाय . कारणके, जे तुं पग्रीनीने कीणां जलकण सहित हेमंत ऋतुना पवननी पेठे मने आवां वचनो संजलावे जे. कुलवंत स्त्री ने शीलवतज था लोकनुं श्रने परलोकनु जीवित . शीलवत नाश थया पड़ी तो जीवतां बतां पण मुवां सरखां बे. घणा दिवसना परिचयथी हवणां तने जीवतो जवा दलं बुं; पण हवे जो फरीथी एवं कहीश तो सर्व प्रकारे शिदा करीश." या प्रकारे धन सार्थवाहनी पुत्री धनश्रीये विनीतकनो तिरस्कार कस्यो; तेथी तेणे धनश्रीना पगमां पीने कडं के, “ म्हारो अपराध क्षमा कर." वली तेणे पूज्युं के "त्हारो पति समुदत्त कोण बे ते मने कहे ?" धनश्रीये कह्यु. " उजायिनी नगरीमा सागरचंड नामना शेग्नो ए पुत्र बे; के, जे रनोनी खाणरूप समुनी पेठे गुणोनी खाणरूप अने कलाउँना स्थानरूप . विनीतके कडं. “ हुं हारा गुणोए करीने प्रसन्न थयो बु; माटे हवे त्हारा पतिने ज्यां त्यांची शोधी लावीश.” एम कहीने ते धनश्रीना शीलने वखाणतो तो त्यांथी चाली निकल्यो. वली तेणे ज्ञानी पुरुषोनी पेठे स्त्रीउने विषे पुःशीलना श्राग्रहने पण त्यजी दीधो. पड़ी ते समुदत्त माता पिताना मनने यानंद पमाडतो बतो उऊ. यिनी नगरी प्रत्ये गयो एटले सागरचंडे पण पोताना पुत्रनुं श्रागमन धनसार्थवाहने जणाव्युं. माता पिता तथा सासु ससरो तेने फरीथी जन्म पामेला सरखो मानवा लाग्या अने बन्ने स्थानके वधाश्ना महोत्सव थवा लाग्या, पडी समुदत्त म्होटी समृद्धि सहित गिरिपुर नगर . प्रत्ये गयो. त्यां योगी पुरुष जेम संसार समुज्ना तीरने जोश्ने श्रानंद पामे तेम जमाश्ने जोश्ने सर्वे थानंद पाम्या. पढ़ी सती धनश्री पण पोताला निष्कलंक शीलवतना प्रजावथी उत्पन्न थयेला अजुत वैनवे करीने दीर्घ कालसुधी था लोक अने परलोक संबंधी सर्व प्रकारना कल्याणनां सुखने पामी. ॥ इति सती धनश्रीनी कथा ॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४‍ शीलोपदेशमाला. वे ग्रंथ समातिमां ग्रंथकार पोताना नाम गर्जित मंगल आशिष कहे. कृतां एनां इति जयसिंहमुनीश्वर विनेयजयकीर्तिना श्ये जयसिंह मुणी सर - विनेयजय कित्तिणा कैयं ऐयं ॥ शीलोपदेशमाला आराध्य खजध्वं बोधसुखं शीलोवएसमालं, खारादिय लदद बोदिमुँहं ॥ ११४॥ 50 शब्दार्थ - हे जव्योजनो ! ( इय के० ) ए प्रमाणे (जह सिंहमुनी सर ho ) श्री जय सिंह नामना मुनीश्वरना ( विनेय के० ) विनयवंत शिष्य एवा (जय कित्तिणा के० ) जयकीर्तिमुनिए ( कयं के० ) रचेली एवी (एयं के० ) था ( सीलोवएसमालं के० ) शीलोपदेशमालाने ( श्राराfor ho) खाराधीने (बोहिसुखं के०) बोधिसुखने ( लहद के० ) पामो. विशेषार्थ - हे नव्यजनो! तमे ए प्रकारे श्री जय सिंह मुनीश्वरना विनयवंत शिष्य जयकीर्ति मुनिए रचेली या शीलोपदेशमालाने धाराधीने अथवा तो शीलना उपदेशरूप पुष्यनी मालाने धारण करीने स मतिथी प्राप्त थता एवा मोक्षसुखने पामो ॥ ११४ ॥ अथ प्रशस्तिः विद्यासत्रं पवित्रं प्रथितगुणगणानेकपात्रं प्रतिष्टासिद्धांताम्नाय सिंधुर्निरवधिनिरहंकारतारत्नखानिः ॥ विश्वजाय द्विहारोद्यमनवमरसप्रोद्यडुद्दाम कीर्तिनिर्देशः सन्महिम्नां जगति विजयते रुद्रपल्लीयगछः ॥ १ ॥ - विद्या पवित्र स्थान, प्रसिद्ध एवा अनेक गुणोनुं पात्र, करवा योग्य कार्यना सिद्धांतना उपदेषनो समुद्र, अंतरहित निरनिमानरूप रत्नोनी खाण, चारे तरफ जागता विहारना उद्यमरूप नवमा रसे करीने देदीप्यमान कीर्तिवालो ने उत्तम महिमाना स्थानरूप रुद्रपल्ली गठ जगत्मां विजयवंत वर्तो ॥ १ ॥ चांद्रे कुलेऽभून्मुनिचक्रवर्ती, गुरुः क्रमेणाश्रजयदेवसूरिः ॥ निधानवद्येन नवांगवृत्तिर्नवीकृता निर्हुतडुःखमेण ॥ २ ॥ अर्थ - चंद्रकुलने विषे मुनिमां चक्रवर्ती एवा अजय देवसूरि गुरु Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ती. ४४३ अनुक्रमे थया. त्याग कमु ने निंदा करवा योग्य कार्य जेमणे एवा जे गुरुए निधाननी (अव्यना जंडारनी) पेठ नव अंगनी टीका नवी रची.॥ संविज्ञचूडामणयो न केषां, स्युर्ववजाः श्रीजिनवबजास्ते ॥ मूर्त्तापियजीविनाममूर्त्तमात्मानमुत्तुंगगुणैः ससंज ॥३॥ अर्थ- श्रीजिनेश्वर ने प्रीय जेमने एवा ते झाने करीने चूडामणि रत्न समान मुनि कोने वहाला नहोय ? के जेमनी मूर्तिवंत एवी पण वाणी नव्यजीवोना अमूर्तवंत एवा आत्माने उत्कृष्ट गुणोए करीने वखाणे . ॥३॥ सोमत्वेन हृतस्वतत्त्व श्व यैः शून्यत्रमी चंउमाः॥ स श्रीमान् गुणशेखरः परमतध्वंसी पराचीनवित् ॥ जातस्तत्वमतिस्ततस्ततमहाः श्रीपाचं प्रजु-॥ र्यत्प्रज्ञाप्लवनादिवाप गुरुरप्यस्तातिचारचमान् ॥४॥ अर्थ- जेमना शीतलपणाथी जाणे पोतानुं तत्व नाश थयुं होय नहिं शुं एम चंद्रमा निरंतर श्राकाशने विषे ब्रमण करे डे एवा अने गुपोथी मनोहर, परमतनो नाश करनारा तथा नविष्यकालना जाण एवा तेमज विस्तारवंत यशवाला तत्वबुद्धिवाला पद्मचं जे अजयदेव सू. रिना शिष्य थया. वली जे पनचंद्र गुरुनी बुद्धिना वेगथी गुरु पण सूर्यना जमने “श्रा शुं सूर्य ? " एवा जमने पाम्या. ॥४॥ तत्पट्टे विजयेंकुरिंकुविमला हेतोर्पणादेव य कीर्तिः शुद्धगुणोनवा धवलयत्ययापि विश्वत्रयीम् ॥ श्रीमंतोऽजयसूरयो मम मुदे ते कासिनूमिपते रास्थानिमनिसेनिरेऽथ विरुदं ये वादिसिंहा इति ॥५॥ अर्थः- तेमना पदने विषे विजयचंद्रमुनि थया. हेतुना गुणथी जेमनी शुरू णने लीधे उत्पन्न थयेली श्रने चंजना सरखी निर्मल एवी कीर्ति श्राज सुधीपण त्रण लोकने उज्वल करे . ते श्रीमान् अनयसूरिनी पाटे थयेला मुनि मने हर्षने अर्थे थाउँ के, जे मुनिए सनामां काशी राजा पासेथी 'वादिसिंह' एवं बिरुद धारण कखं . ॥५॥ __तत्पदोदयशैलवासरमणिः श्रीदेवचं प्रजु येनायं गुरुणापि तूलकलया तीणों जवांनोनिधिः॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. तत्पादांबुजचंचरीकचरितः श्रीमत्प्रजाणंद 5त्यासीद्यस्य गुणाः सीता अपि जगच्चेतोऽनुरक्तं व्यधुः ॥ ६ ॥ अर्थ - तेमनी पाटरूप उदयाचल पर्वतने विषे सूर्य समान श्रीदेवचंद्र गुरु या. जे गुरु श्रा संसाररूप समुद्रने तूलना अंशनी पेठे तरी - गया. श्रीदेवचंद्र गुरुना चरणकमलने विषे चमर सरखा श्री प्रमाणंद मुनि घया. जे मुनिना उज्वल गुणोए था जगत्नुं चित्त पोताने वश करयुं हतुं ॥ ६॥ श्री श्रीचंद्रगुरुः प्रसिद्धमहिमा शुद्धाः स्फुटा यकुणाः, नैर्गुण्यानि निवेशिनः कणजुजो मुंजंति वाचालताम् ॥ तद्वंधुर्विमलेंडुसूरिरुदजूदापीय यद्देशना - მმმ मानंदाय लंजतो जुवि जना मुक्तात्मतां मेनिरे ॥ ७ ॥ अर्थ - श्री प्रजाणंद गुरुना शिष्य प्रसिद्ध महिमावाला श्रीचंद्र गुरु थया. जेमना शुद्ध अने प्रकट एवा गुणो निर्गुणपणाने श्राश्रय करी रहेला बालको ( श्रज्ञानी ) ने वाचालपएं प्रगट करता हता. ते चंद्रगुरुना बंधु विमलचंद्र सूरि थया. जेमुनिनी देशना सांजलीने पृथ्वी उपर रहेला माणसो श्रद्वय एवा श्रनंदना लाजथी पोताना श्रात्माने मुक्त मानता हता. ॥ ७ ॥ ( वसंततिलकावृत्तम् ) वादांगणे प्रतिहता प्रतिवादिनो यैनम्रा नखेषु पदयोः प्रतिफे लिवांसः ॥ प्राप्ताः शरण्यमिव रेजुरमी मुनींद्रा, ज्ञानं दिशंतु गुरवो गुणशेखराह्वाः ॥ ८ ॥ - जे वादमा प्रतिवादीउनो पराजव कस्यो बे, एटला हेतुथी जे तेमना पगना नखने विषे नम्र बनीने जाणे शरणे श्रावेला होय नहिं शुं ? एम शोजता हता. ते गुणशेखर नामना या मुनीश्वर गुरु श्रमने ज्ञान आपो. ॥ ८ ॥ ( पृथ्वीवृत्तम् ) तदीयचरणयी सरसिजैकपुष्पंधयः, स संघ तिलकप्रभुर्जयति सांप्रतं गवराट् ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ प्रशस्ती. शकक्षितिपबोधकृत्प्रनुजिनप्रजोऽनुग्रहा त्ववाप्तगणनृत्पदप्रमुखतत्वविद्यागमः ॥ ए॥ अर्थ- ते गुणशेखरमुनिना बे चरणकमलने विषे मररूप ते श्रीसंघतिलकगुरु हवणां गबना राजा जयवंता वर्ते बे. श्रीजिनेश्वर प्रजुनी कृपाथी शक राजाने बोध करनारा ते श्री संघतिलकगुरु गणधर पद पामवा विगेरे तत्वविद्याना पार पामेला थया हता.॥ ए॥ (आर्यावृत्तम् ) तत्पादपद्महंसो, विवृत्तिं शीलोपदेशमालायाः ॥ श्रीसोमतिलकसूरिः, श्रीशीलतरंगिणीं चक्रे ॥ १० ॥ अर्थ- ते संघतिलक गुरुना चरणकमलने विषे हंस सरखा श्रीसोमतिलकसूरि थया के, जेमणे शीलोपदेशमालानी शीलतरंगिणी ना. मनी टीका करी ॥१०॥ (स्रग्धरावृत्तम् ) । लालासाधोस्तनुजः प्रगुणगुण निधिः साधुसेढानुमत्या, बानूः शीलोपदेशस्त्रजममलधिया सूत्रतोऽधीत्य सम्यक् ॥ अर्थ विज्ञातुमस्यायुगनिधिसरवो वत्सरे विक्रमांके, वृत्तिं नव्यां स विद्यातिलकमुनिवरात्कारयामास साधुः ॥ ११ ॥ अर्थ- लालासाधुना पुत्र, बहु गुणोना नंडार एवा गजू नामना साधुए सेढ मुनिनी अनुमतिथी निर्मल बुद्धिवडे था शीलोपदेशमालानी मूल गाथानो सारी रीते अभ्यास करीने तेनो अर्थ जाणवा माटे विक्रम संवत १३ए४ मां बीजी विद्यातिलक मुनि पासे था शीलोपदेशमालानी नवी टीका करावी .॥ १९॥ (उपजातिवृत्तम् ) प्रमाददोषादथ बुद्धिमांद्यानास्त्रे निबकं यदयुक्तमत्र ॥ मेधावतामंजलिरेष बद्धः, प्रसद्य ते तन्मयि शोधयंतु ॥ १५॥ अर्थ- प्रमादना दोषथी अथवा बुद्धिना जाड्यपणाथी था शास्त्रमा जे कांश अशुद्ध लखायुं होय तो हुं बुद्धिमान् पुरुषोनी पासे हाथ जोडं बुंके, जेथी तेमणे प्रसन्न थर म्हारी बेलोने सुधारी लेवी. ॥ १२ ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलोपदेशमाला. ( शार्दूलविक्रीडितम् ) जीवाजीव विचारवारिविचरत्पत्रावलीमंडितं, तत्त्वज्ञानमधुप्रमेडुरतमं शुद्ध क्रियाकेशरम् ॥ यावजैन मतांबुजं मुनिमरालोघैः समाश्रीयते, तावन्नंदतु वाच्यमानमृषिभिः शास्त्रं श्रियो मंदिरम् ॥ १३ ॥ अर्थ- जीव अने अजीवना विचाररूप पाणीमां विचरती एवी प त्रोनी पंक्तिथी सुशोजित, तत्वज्ञानरूप मकरंदथी अतिशय स्निग्ध अने शुद्ध क्रियारूप परागवालुं जैनमतरूप कमल ज्यांसुधी मुनिरूप इंसना समूहोथी सेवन कराय डे त्यांसुधी मुनिर्जए अभ्यास करेलुं श्रा लक्ष्मीना मंदिररूप शास्त्र आनंद पामो. ॥ १३ ॥ ४४६ ( उपजातिवृत्तम् ) राजीमतिं राज्यमतिं विहाय, विवादयस्तां दयितां दयाख्याम् ॥ जुजाबलापास्त विप्रपः श्रियेऽस्तु नेमिः शमकल्पवृक्षः ॥ १४ ॥ अर्थ- जेमणे राजीम तिने अने राज्यने त्यजी दइ दया नामनी स्त्रीनी साथे विवाद करेलो . वली जुजाना बलथी शत्रुना पहनो नाश करनारा ने शमताना कल्पवृक्ष एवा श्री नेमिनाथ लक्ष्मी ने अर्थ था. ॥१४॥ ॥ इति शीलोपदेशमाला प्रशस्ती समाप्ता ॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ २६ जंपूद्वीप सूर्यनो धुवेवा समूहथी प्रमुखाणां शुद्धिपत्र. ४४७ दृष्टिदोषथी अथवा मतिदोषथीथयेली मूल्योनुं शुद्धिपत्र. पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृ पंक्ति । अशुद्ध १५ अभयदेवसूरि सोमतिलकसरि १९२/२२ सी ३ ११ जिनकीर्तिजयकीर्ति २०१२८ छीली झीली जंबूद्वीप २३६/१७ वत्से वत्से १६ | ३ आपि अपि २६४२२ सूर्योने १६ १९ महामणि महामुणिणो २६६/२३ संभावी स्तंभावी मूरती छायां छायामां १ त्रीजो जीजा २८९/११ श्रष्ठे ५५ १७ प्रलिद्ध प्रसिद्ध |३०५/१९ रोजपोपट राजपोपट ७२ १६ जडीने चडीने ३१७/ २ स्नेहनी स्नेहथी ७८ ५ कालऽस्य कालस्य ३३०/२० सहमूथी ११८/२९ घुवेवा ३४० ४ प्रमुखानां १२५/१२ साहित सहित ३७४ ४ गुणरूप गुणनासमूहरूप १३६, ८ ययढका जयढक्का ३९९२९ बादार बादर १३६/१५ जसढका जयढक्का |४०७/ २ पासबास्थादि पासवादि १६९ ६ देवाताए देवताए |४३५/१६ कलि संकटे कलिसंकटे १७७२८ आनिनो अग्निनो १२० पृष्टे रहेली गाथा अहिं दाखल करी बे. हवे शील पालवाने दृढ करे .. श्रीमसिनेमिप्रमुखाः स्वाधीनशिवा अपि ब्रह्मव्रतलीनाः सिरिमझिंनेमिपमुदा, साहीसिवावि बनवयंलीणा ॥ यदि तावत् किं अन्यजीवाः सिथिलाः संसावसगा अपि जर ता किं-मन्नँजीवा, सिढिला संसारवसगावि ॥ ४०॥ शब्दार्थ- हे नव्यजनो ! ( जश् के०) जो (ता के० ) प्रथम ते (साहीणसिवावि के० ) पोताने खाधीन कस्यो डे मोद जेणे अर्थात् तेज नवने विषे मोदे जनारा एवाय पण (सिरिमसिनेमिपमुहा के०) श्री मदिनाथ प्रमुख जे जे ते (बंजवयलीणा के०) ब्रह्मचर्य व्र. तने विषे श्रासक्त श्रयेला बे, त्यारे ( संसारवसगावि के०) संसारना व्यापारने विषे परायण थयेला एवाय पण ( अन्नजीवा के०) बीजा Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 447 सामान्य प्राणि जे जे ते (किं सिढिला के० ) शील पालवामां शा माटे शिथिल थाय डे ? // 40 // विशेषार्थ- जो तेज जवने विषे मोद जनारा एवा श्री मलिनाथ श्रने नेमिनाथ विगेरे पाणिग्रहण (विवाह )नो त्याग करीने ब्रह्मचर्यनेज सेवन करनारा थया, तो संसारना व्यापारमा पराधीन थयेला एवा सामान्य प्राणि ब्रह्मचर्य पालवामां शा माटे शिथिल थाय डे ? अर्थात् जो तेज नवमां मोक्षसिद्धिने पामनारा पुरुषोए ब्रह्मचर्य व्रत पाल्यु , तो संसारमा बूडी रहेला सामान्य प्राणिए मोदसि हिना फलने माटे तो विशेषधीज ब्रह्मचर्य व्रत पालवं जोश्ए. // 40 // JAMMAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAL समाप्तेयं शीलोपदेशमाला.