Book Title: Shighra Bodh Part 16 To 20
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ravatmal Bhabhutmal Shah
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૯૭ શીધ્રબોધ ભાગ ૧૬ થી ૨૦ : દ્રવ્ય સહાયક: શ્રી ક્ષારસૂરિજી સમુદાયના પૂ. સા. શ્રી પૂર્ણદયાશ્રીજી મ. ની પ્રેરણાથી કારસૂરિજી આરાધના ભવન, એમ.એમ. જૈન સોસાયટી, સાબરમતીના શ્રાવિકાઓની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧ ઈ. ૨૦૧૫ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार પૃષ્ઠ ___84 ___810 010 011 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी | पू. विक्रमसूरिजी म.सा. 238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी | पू. जिनदासगणि चूर्णीकार 286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम् | पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 162 | 012 | काश्यशिल्पम् श्री विनायक गणेश आपटे 302 प्रासादमजरी श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र श्री नारायण भारती गोंसाई 352 | शिल्पदीपक श्री गंगाधरजी प्रणीत 120 | वास्तुसार श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા 498 | जैन ग्रंथावली श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१ श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१ पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा. 452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ श्री एच. आर. कापडीआ 500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह श्री बेचरदास जीवराज दोशी 454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः | श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य 188 | 027 | शक्तिवादादर्शः | श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री 214 | क्षीरार्णव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई ___192 013 454 226 640 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 030 031 032 033 034 035 036 037 038 039 040 041 042 043 044 045 046 047 048 049 050 051 052 053 054 शिल्परत्नाकर प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ (?) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२) (૩) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમન્નરી ભાગ-૨ તિલકમન્નરી ભાગ-૩ સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ સપ્તભઙીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ બૃહદ્ ધારણા યંત્ર જ્યોતિર્મહોદય श्री नर्मदाशंकर शास्त्री पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 824 288 520 578 278 252 324 302 196 190 202 480 228 60 218 190 138 296 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '075 374 238 194 192 254 260 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ 238 260 ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 114 '084. 910 436 336 087 2૩૦ 322 (089/ 114 એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार क्रम 272 240 सं. 254 282 466 342 362 134 70 316 224 612 307 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ बादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ बादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी | वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला | गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर | पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिविजयजी सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स पी. पीटरसन | भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम् | जिनविजयजी सं. जैन सत्य संशोधक 514 454 354 सं./हि 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 सं./गु 414 400 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 754 194 3101 276 69 100 136 266 244 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम कर्ता / संपादक भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२ हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ पी. पीटरसन अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) शील खंड सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः ब्रह्मदेव सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।। जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ सोमविजयजी | शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) रत्नचंद्र स्वामी प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २ कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) मेघविजयजी सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि कल्याण वर्धन सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 274 168 282 182 गुज. 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार | पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम कर्ता/संपादक विषय | भाषा संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य व्याकरण संस्कृत पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक भामाह व्याकरण प्राकृत जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन साहित्य हिन्दी जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा संस्कृत चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१ शिवाचार्य न्याय संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२ शिवाचार्य न्याय संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी | संस्कृत/हिन्दी | लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध । शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत भगवानदास जैन ज्योतिष प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह अंबालाल शर्मा ज्योतिष | गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता 264 144 256 75 488 | 226 365 न्याय संस्कृत 190 480 352 596 250 391 114 238 166 संस्कृत 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | विषय पहा पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत | भाषा संस्कृत 181 364 182 काव्यप्रकाश भाग-२ 222 183 काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३ संस्कृत संस्कृत संस्कृत 330 संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री 184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१ 156 248 पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव संस्कृत संस्कृत /हिन्दी 504 185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक संस्कृत/अंग्रेजी 448 440 616 | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग 190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती | श्री सारंगदेव 632 नारद 84 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 192 श्री हीरालाल कापडीया मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला । श्री चंद्रशेखर शास्त्री 220 संस्कृत हिन्दी 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 422 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 304 पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 446 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा | 414 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 409 199 | अध्यात्मसार सटीक 476 एच. डी. वेलनकर संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट 200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया 444 श्री डी. एस शाह 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका 207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक 210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक 212 रायपसेणिय सूत्र 213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १ 214 धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह 219 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची । 220 221 वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) | वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ) वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्त्ता / टिकाकार भाषा श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री मलयगिरि गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री धर्मसूरि सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत श्री हेमचंद्राचार्य आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती आ. श्री वरदराज संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत संपादक / प्रकाशक श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री बेचरदास दोशी श्री बेचरदास दोशी राजकीय संस्कृत पुस्तकालय महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 78 112 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पु० नं० ५२ शीघ्र बोध भाग १६ वां संग्रहक मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = = = = =०= =0 श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्य नं० ५२ श्री यक्षदेव सूरीश्वर सद्गुरूभ्यो नमः अथश्री शीघ्र बोध भाग १६ वां संग्रहक श्रीमदुपकेश (कमला) गच्छीय मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी (गयवरचन्दजी) · द्रव्य साहयक और प्रकाशक:- . शाहा रावतमलजी भभूतमलजी कानुगाः मु०-फलोधी (मारवाड) 1. प्रथमावृति १०.. बीर संबतू २४४८ ॥ विक्रम संवत् १९७८ =0 - - - . ©= = = = = - = - - b - = - - - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका । नं. विषय. १ प्रश्नोत्तर २२.... .... ..... ब्रह्मचार्य व्रतकि नौ वाड .... ३ ब्रह्मचार्य व्रतकि ३२ औपमा.... .... ४ बहुश्रुतिजीको ११ औपमा .... ५ च्यार समोसरणके १६३ मत्त.... ६ मायुष्यबन्धको अधिकार ..... ७ अगुरूलघुके भांगा.... ८ आस्तिकाय .... ...... भासी विषाधिकार .... चौमांगी ४९ .... ११ कांक्षा मोहनियाधिकार.... .... १२ पुनः कांक्षामोहनियाधिकार .... Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरत्नप्रभ मूरि सदगुरुभ्यनमः अथ श्री शीघ्र बोध, भाग १६ वा प्रश्नोत्तर नं०६ (सूत्र श्री उपवाइजीसे प्रश्न २२) चम्पानगरीके पूर्णभद्र नामका उधानमें भगवान वीर प्रमु अपने शिष्य मंडलसे पधारे । उन्ही समय देवतोंके इन्द्र और देवदेवो तथा विधाघर भगवानकों वन्दन करनेकों आये थे तथा राना कोणक बडे ही आडम्बरसे च्यार प्रकारको शैनाके साथ वन्दन करनेकों आया। और नगर निवासी लोग भी आनन्द चित्त होके भगवानकि देशनाका अमृतपान करनेकों आये थे उन्हीं बारहा प्रकारकि परिषदकों भगवान्ने जगतारक विचित्र प्रकारकि देशना फरमाइ, जिसमें मौख्य मोक्षमार्ग आराधन करनेके लिये साधु धर्म और श्रावक धर्म का विवरण कर सुनाया। परिषदा धर्म देशना श्रवण कर आनन्द चित्तसे यथाशक्ति त्याग वैराग धारण कर स्वस्वस्थानकों गमन करती हुई । - भगवान गौतमस्वामि सविनय . परमेश्वर वीर प्रभुसे शंकाकि निवृत्ति और ज्ञान वृद्धिके हेतुसे प्रश्न किया वह भन्यातमावोंके बोधके लिये यहांपर लिखते है। (१) प्रश्न हे तरूणासिन्धु । इस आरा पार संसारके अंदर । १ असंयतिनोव-संघम करके रहित । '.. २ अवृति जीव व्रत करके रहित । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) ३ प्रत्याख्यान करके पाप कर्मोको रोका नहीं है । ४ पाप वैपार रूपक्रिया करके सहीत । ५ संबर करके आत्माकों संबरी नहीं है । ६ एकांत दंड-मन वचन कायाके योगोंसे दंडा रहा है। . ७ एकान्त मोह कर्मकि धौर निद्रामें सुता हूवा है। ऐसा बाल अज्ञानी जीव सदैव पाप कर्मोकों बान्धते है ? (उत्तर) हा गौतम उक्त जीव सदैव पाप कर्मों का बन्ध करता है । आत्माके साथ कर्म दल तीव्र रससे, कर्म स्थितिकों बढाते हुवे भवान्तरमें दुःखोंका अनुभव करेगा। (२) हे भगवान । इस घौर संसारके अंदर जो कीव असंयति, अवती, प्रत्याख्यान कर आते हूवे पाप कर्मों को रोका नहीं है, पाप कर्म सहित क्रिया, आतमा,. संवर रहित असंबरीत, एकान्त दडी (त्री दंडसे आत्माकों दंडावे ), एकान्त बाल अज्ञानी, एकान्त मोह निंद्रामें सुत्ता हुवा जीव मोहनिय कर्मका बन्ध करे ? (उ) हा गौतम उक्त नीव मोहनिय कर्मका धन बन्ध करते है । क्योंकि प्रथम गुणस्थान पर जीव चिकण रस अर्थात् छठानिया रसके साथ मोहनिय कर्मका बन्धन करता है। (३) हे दयाल । समुचंच जीव मोहनिय कर्म वेदता हूवा क्या मोहनिय कर्म बन्धे या वेदनिय कर्म बान्धे ? (उ) हे इन्दभुति-मोहनिय कर्म वेदता हुवा जीव मोहनिय कम बान्धे और वेदनिय कर्मभी बान्धे । परन्तु चरम मोहनिय कर्म वेदता हुवा जीव वेदनीय कर्म बन्धे परन्तु मोहनिय Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म न बान्धे । कारण चरम मोहनियकर्म दशचे गुणस्थानतक वेदता है और मोहनिय कर्मका बन्ध नवमा गुणस्थान तक है अर्थात् दशवा गुणस्थानमें मोहनिय । कर्मका बन्ध नहीं है वास्ते चरम मोहनियकर्म वेदने वाला मोहनियकर्म नहीं बान्धता है। (४) प्रश्न-हे भगवान । इस संसारके अंदर असंयति यावत एकान्त मोहनिद्रामें सुत्ता हुंचा जीव अज्ञानके प्रेरणासे बाहुल. तापेक्षा त्रप्स प्राणी जीवोंकि घात करनेवाले नारकीमे जाते है ? (उत्तर) हों गौतम- जो पूर्वक्त जीव वसपाणीयोंकि घात करनेवाला बाहुलतापक्षे नरकमें ही जाते है । कारण त्रस प्राणी जीवोंकि घात करने वालों के परिणाम महान रौद्र रहते है जिसमें भी असंयती यावत एकान्त मोह निद्रामें सुने वालोका तो केहना ही क्या । वास्ते वह नरक में ही जाता है। (५) प्रश्न-है सर्वज्ञ इस संसारके अंदर जो भीव असंयती अवती प्रत्याख्यान कर पापको नहीं रोका हो वह जीव यहांसे : मरके देवतावोंमें भी जा सका है। (उ) हाँ गौतम एसे जीव कितनेक देवतावोंमें जा भी सके है । और कितनेक जीव देवतोंमें नहीं भी जाते हैं। . तर्क हे भगवान इसका क्या कारण है। समाधान-है गौतम । एसे भी जीव होते है कि .. (१)ग्राम-जहांपर स्वरूप वस्ती हो । हेमला पेमला मूल धूला एसी हलकी भाषा हो जब ज्वारादिका खाना हो । बुद्धिवान भोकोंकि बुद्धि मलीन होनाती हो. इत्यादि उन्हों को ग्राम कहते है Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) आगर-नहापर सुवर्ण चांदी रत्नादिकि खाणो हो । (३) नगर-किसी प्रकारका कर न हों सेहर पन्ना गोलाकार हों उसे नगर केहते है तथा लम्बीजादा चोडी कम हो उसे नगरी (४) निगाम-जहा वैश्यलोंकाधिकहो अन्यलोक कम हो (५) राजधानी-जहापर रान तक्तहो राजानिवास करता हो। (६) खेड-सेहार बाहीर धूलका प्रकोटा हो । (७) करवट-जहा कुश्चित लोक वसते हो। (८) मंडव अढाई अढाई कोषपर ग्राम न हो। (९) दोणीमुख-जल और स्थल दोनों रहता हो । (१०) पट्टण-तुलमा नपमा गीणमा और परखमा यह च्यार प्रकारका माल मीलता हो और बाहा से आनेपर विक्रय भी हो जाता हो उसे पट्टण कहते है। (१९) आश्रम=नहापर तापसोके निवास वाले आश्रम हो। (१२) संव्रत-पतोंके नजीक करसानोका संव्रत हो । (१३) घोषस-गोपालकादिका निवास हो। (१४) पन्थस-पन्थीलोक आते जाते निवास करते हो। (१५) बह्मस=दुष्कालादिसे अन्यदेशोंके लोकनिवाप्त किया हो (१६) सनिवेस-सब जातीके लोकोंका स्वल्प निकास हो । ...इन्हींके सिवाय जंगलादिमें जो प्राणियों होते. हे वह Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) (१) विना मनसे क्षूद्या को सेहन करता है अर्थात् क्षुद्या कागनेपर भोजनादि करने कि पूर्ण अभिलाषा है परन्तु भोजन मीलता नहीं हैं तथा कीसी भी कारण से कर नही शके उन्होंको "अकम" कहते हैं । (२) विनामन पीसा सहेन करते हैं । ( ३ ) विनोमन ब्रह्मचार्य पलन करते हो । जैसे स्त्रि न मिले तथा मिलनेपर भी रोगादिके कारणसे । (४) मन होनेपर भी पाणी न मीलनेसे स्नान न करे । (५) वस्त्रादिन भी मोलने से शीत ताप दंससादिका सेहन करना । (६) मेल परिसेवा आदिको विना मन सेहन करे । इत्यादि निमनसे स्वल्पकाल या दीर्घकाल अपनी आत्माक कलेस उत्पन्न करता हुवा कालके अवसर में कालकर बाणमिंत्र देवarah अन्दर दश हजार वर्षोंकि स्थितिवाले देवता होते है उन्हीं देवतावोंके मनुष्यकि अपेक्षा बड़ी भारी ऋद्धि ज्योती क्रन्ति बल प्राक्रम होता है । (तर्क) वह देवता पर भवका आराधी हो शक्ता है ? ( सम०) परभवका आराधीक नहीं हो शक्ता है । अर्थात अकाम कलेस सेहन करनेसे मजुरीवाले पौदगलीक सुख मील जाते है परन्तु आत्मीक सुखों का एक अंस तक भी नहीं मीलता है एसे पौदमलीक सुख चैतन्यको अनन्तीवार मील चुका है परन्तु इन्हीसे आत्म कल्याण नहीं है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) प्रश्न हे भवतारक । इस घौर संसारके अन्दर प्राणी जो ग्राम नगर यावत् संनिवेस तक १६ नाम पूर्ववत् समझना वहांपर कितनेक लोक कारागृह-केदखानामें पडा हूवा काष्टके खोडामें जिन्होंका पावडारा हूवा है हाथोंमें चाखडीयों पेराइ है पगोंमें लोहा कि वेडी डाली है भाकसीमें डाला हो हास्त पग नाक नयनादि अंगोपांग जिन्होंका छेदा हो भनेक प्रकारसे मरणन्त कष्ट देता हो, शरीरका खंड खंड करते हैं ग णोमें पील देते हो, हस्तीके पग और सिंहको पुच्छके बांदके मारे, शुली देके मारे, तथा संयम व्रतसे भ्रष्ट होंके मरे, पांचों इन्द्रि यके वप्त होके मरे । वाल तप तथा तपका निदान कर मरे । मायादि शल्य सहित मरे । पर्वतसे गिरके मरे । वृक्षके लटकके, अन्नपाणी न मिलने से मरे । विष खाके मरे, शस्त्रसे मरे, ग्रीदपीठमें प्रवेश. होके मरे इत्यादि बाल मरण यावत् अर्तध्यान करता हुआ मरे हे भगवान एसा जीव अकाम मरण भरके कहापर जावे । . (उ) हे गौतम बाणमित्र देवतावोंमें बारह हजार वर्षोकी स्थितिवाला देवता होते है परन्तु परलोकका आराधी नहीं होता है। (७) है भगवान ! इस लौकमें केई मनुष्य प्रकृतिके भद्रीक प्रकृतिके विनयवान स्वभावसे ही क्रोधमानमायालोभ उपशम =पतला पडा हो स्वभावसे ही कोमलता मधुरता प्राप्तो हुई हो। स्वभावे विषयसे विरक्त, अपने माता पिताकी सुश्रुषा करनेवाला माता पिताकी आज्ञा पालन करनेवाला स्वभावसे अल्पारम्भी अल्पपरिग्रहसे अपनी आजीवका चलानेवाला होता है वह अपना: आयुष्य पूर्णकर कहा जाते है ? Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) (३) हे गौतम उक्त मनुष्य माता पिताकी सेवा करने वाला काल करके वाणमित्र देवतोंमें चौदा हजार वर्षोकी स्थितिवाला देवता होता है पुर्ववत परलोकका आराधी नहीं होता है । (८) हे भगवान! ग्राम नगर यावत सन्निवेसके अन्दर एकेक स्त्रियों होती है वह मोटे घर गजा महाराज सैठ सेनापति आदिके अन्तेःवर महल प्रसाद तथा घरोंके अन्दर रेहने वाली जिन्होके पति प्रदेश गया हो तथा परलोक (मृत्यु) गया हो वह बाल विधवा हो अथवा पति लग्न करके छोड़ दि हों इत्यादि कामाभिलापो स्त्रियां अपने माता पिता भाई सुसरादिके रक्षण (बंधोबस्त ) से तथा जतिकुलको मर्यादा से कहा पर भी जा नहीं शक्ती है। 1 तथा अच्छे वस्त्रभूषण काजल टीकी पुष्पमालादिका उपभोग करना बंध कर दिया है और दूध दही घृत शकर गुल तेल मांस मदिरा आदि काम वृद्धक पदार्थों को छोड दिया है और स्नान मजन तेल उपटणादि करना भी छोड़ दिया है इन्होंमें मेल पशेना आदिको सहन करती है तथा अल्प इच्छावाली है अल्प भारंभ परिग्रहवाली है अपने सज्जन के केहने में चलनेवाली है विनामन ब्रह्मचार्य पालनेवाली है वह स्त्रियों अपने आचार विचारका पालन करती हुई आयुष्य पुणेकर कहा जाती है । ( उ हे गौतम उक्त स्त्रियों विनामन ब्रह्मचार्य व्रतको पालन करती हुईं अकाम निर्जरा करके बाणमित्र देवतोंके अंदर ६४००० वर्षों की स्थिति वाले देवभव में उत्पन्न होते है पूर्ववत परन्तु परलोक में आराधी नहीं होते है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) - (९) हे भगवान । इस लोकके अन्दर ग्राम यावत् सन्निवे सके अन्दर एकेक मनुष्य होते है जो कि फक्त. अन्न और पाणी यह दोयद्रव्यके, भोगवनेवाले एसे तीनद्रव्य, सातद्रव्य, इग्यारे द्रव्य, भोगवनेवाले, गायके पालनेवाले, गौके पीछे चलनेवाले, धर्म पुन्य कार्यादिके शिक्षक, शास्त्रके पढनेवले, गृहस्थ धर्म सन्ध्यामान जप अर्चनादि भक्ति करनेवाले, और उन्हों को दही धृत माखन तेल फणीत रस मधु मंस मदिरा खाना नहीं कल्पते हैं किन्तु एक सरसबका तैल खाना कल्पते हैं अल्पइच्छा एसा मनुष्य अल्पारम्भ परिग्रहवाला पूर्ववत आयुष्य पुरण कर कहा जाता है ? (उ०) हे गौतम वह म: प्य बाणमित्र देवते के अन्दर ८४ ० ० ० वर्षवाला देवता होता है ऋद्धि पूर्ववत् परन्तु परलोकका आराधी नही होता है। (१०) हे भगवान ! जो ग्रामयावत सन्निवेमादिमें एकेक वनवास रेहनेवाले तापस होते है यथा-अग्निहोत्र करनेवाले, एक वस्त्र रखनेवाले, मटीके खाडामे रेहनेवाले, यज्ञ कर भोजन करनेवाले, अपने धर्मके श्रद्धालु, तापस सम्बन्धी पात्र रखनेवाले, केवल फलाहार, एक दफे पाणीमें, बहुत दफे पाणीमें तथा पाणीमें निवास करनेवाले, सर्व वस्तु पाणीसे धो के खानेवाले, शरीरके मटी लागके स्नान करनेवाले, गंगाके दक्षिण तथा उत्तर कांटे रेहनेवाले, संख बजाके; खडा रेहके भोजन करनेवाले मृगमसके हस्तीमंसके भोजन करनेवाले, दंड रखनेवाले, दिशपोषण करनेवाले इत्यादि कन्दमुलादिके भोजन करते हुवे-अनेक प्रकारसे कष्ट क्रिया करनेवाले तापस लोक आयुष्य पूर्णकर कहा जाते है ? Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (उ०) उक्त तापत महान कष्टक्रिया कर उत्कृष्ट ज्योतीषी देवोंके अन्दर उत्पन्न होते है वहां पर उत्कृष्टी एकपल्योपम और एकलक्ष वर्षकी स्थिति होती है परन्तु परभवके आराधी नही होते हैं अर्थात अज्ञान कष्ठ करनेसे अकाम निर्जरा होती है इन्होंसे देवतोंका पौद्गलीक सुख मीलता है किन्तु धर्मपक्षमें निस नही होती है। (११) हे भगवान ! ग्रामादि के अन्दर जो जैन दीक्षा लेनेवाले प्रवृजित, साधु कदर्प करनेवाले, कुचेष्टा करनेवाले असंबन्ध 'विषयकारी भाषा बोलनेवाले और जिन्होंको हमेशों गीत गायन श्रीय है, और आचार जिन्होंका निर्मल नहीं है इसी माफक बहुतसे काल दीक्षाप लके आलोचना न करते हुवे कालकरके काहा जाते है। (उ) हे गौतम । उक्त कदादि करनेवाले मरके प्रथम सौ धर्म देवलोकके अन्दर कदप जातिके देवतोंमे एक पल्योपम एक लक्ष वर्षोंकि स्थितिमे देवता पणे उत्पन्न होते हैं, किन्तु परलोकमे आज्ञाका आराधी नही होता है। (१२) हे भगवान । ग्रामदिके अन्दर एकेक परिव्रजक होते है संखमति जो अहंकारादि पांच तत्वकर जगतोत्पत्ति माननेवाले, योगि-अष्टांग निमित्त जाणकर कपीलमत्तिः भरविकमत्त, हंस जो नग्न प्रामादिमें रहै, परम हंस जो नग्न परन्तु वनवाप्त करे, स्थानान्तर गमन करने वाले, घरमें रहेके योग वृत्ति पाले, कृष्ण परिजनक नारयणके उपासक, इन्होंमें अष्ट ब्रह्मणोंकि जातिके परिव्रजक है जैसे । कृष्ण, करकंट, अबड, पारासर, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करसन, दीपायन, देवगुप्त, नारद, और अष्ट क्षत्री जातिके आचार्य है वह ऋजुवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अर्थवणवेद इन्हीं च्यार वेद और इतिहास तथा पुरण वेद्यक ज्योतिष गीणत आदि अपने मत्तके सर्व शास्त्रोंके परम रेहस्य जानने में आगेश्वर है। __वह परिव नक दानधर्म शौचधर्म तीर्थ अभिषेश धर्म परूपते हुवे केहते है कि जब हम किंवत् ही अशुच होते है तब मट्टी लेपनकर स्नान करनेसे हम शौच होते है और उन्हीं परिवनकोंको तलाव कुवा समुद्र नदी आदिमें प्रवेश होन नहीं कल्पते है किन्तु रहस्तेमें आ जावे तो उत्तर शक्ते हैं और उन्होंकों कीसी प्रकारकी सवारी करना भी नहीं कल्पते है नाटक. ख्याल तमाप्ता देखना भी नहीं कल्पने है। हरीकायको पावोंसे चांपनी भी नहीं कल्पती है । च्यार प्रकारकि विकथावों तो वह अनर्थके हेतु समझते है । वह धातु लोहा पीतल कांप्ती सुवर्ण चान्दी आदि के वातन भी नहीं रखते है । मात्र एक तुंबाका पात्र मटीका पात्र और काष्टके पत्र खते है उन्होंके भी धातुका बंधन देना भी नहीं कल्पते है । वस्त्र जो रखते है वह भी नाना प्रकारके रंगके नहीं किन्तु धातु रंग ( भगवे वस्त्र ) के भी स्वल्प मूल्यवाले रखते है, उन्हीं परिवनिको को कीसी प्रकारके भूषण हार कुंडलादि पेहरना रखना नहीं कल्पते है किन्तु एक तांकि पवित्री ( वीटो) रखना कल्पता है। उन्ही परि० कीसी प्रकारकि पुप्पोंकि माला धारण करना नहीं कल्पता है किन्तु एक कानोंपर रखनेका पुप्प रखता है। और किसी प्रकारका लेपन चंन्दनादिका नहीं करते है किन्तु एक गंगाकी मट्टीका लेप करते है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) ., उन्ही परिवनिकोंको एक मागद देशका पाथा ( भानन विशेष १६ सेरपाणीवाला ) परिमाण पाणी वहभी वेहता हूवा, निर्मल स्वच्छ प्रश्नता होतो वहभी वस्त्रसे छाणके दातारके दीया हूवा लेने वहभी अपने पीनेके काम लेवे किन्तु हाथ पग उपकरण धोनेके लिये नहीं । और आदा पाथ परिमाण पाणी पूर्ववत् हाथपग उपकरण धोनेको लेते है इन्होंसे ज्यादा पाणी नहीं लेते है । तथा आहापाथा परिमाण पाणी स्नान करनेकों लेते है । इसी माफीक वरताव रखते हुवे बहुत कालतक परिवानिकोंकि पर्याय पालते हुवे कालकर कहापर जाते है। ___ (उ) हे गौतम, उक्त परिवर्मिक उत्कृष्ट पंचमें ब्रह्मदेवलोंकमें उत्पन्न होते हैं वहा पर उत्कृष्ट दश सागरोपमकि स्थिति होती है परंतु परलोकके आराधी नहीं होते है । उचे जेते है वह मात्र कष्टक्रियाके बलसे जाते है अन्य मतियोंकी उर्व जानेमें पंचवा देवलोक तक गति है। (नोट) उस समय अम्बड परिवर्निक ७०० शिष्य रामऋतुके समय जेष्ट मासमें गंगा नदीके तटपर कपीलपुर नगरसे पुरमताल नगरकों जा रहे थे । रहस्ते में पेइला संग्रह किया हूवा पाणी सव पीगये जब बहुत पीपासा लगी गंगाका पाणी था परन्तु दातार न होनेसे वह पाणीले नहीं शके | दातारकी गवेषणा करनेपर भी दातार मीला नहीं । जब सर्व एकत्र होके बिचारा कि अपनि प्रतिज्ञा है कि विना दातारके दिये हुवे पाणी न लेना। वास्ते इस आपदामें अपना नियम मजबुत रस्त्रनेको अपने सवकों पादुगमन संस्थारा करना ही उचित है । वस एसा ही कर एक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार सिद्धोंको दुसरा भगवान वीरप्रभुकों तीसरा · अपना धर्माचार्य अभ्याडको दे'के अठारा पापस्थान और चार प्रकारके आहारका प्रत्याख्यान कर पादुगमन संस्थारा करा जो कि यह शरीर इप्टकांत था उन्होंके श्वासोश्वासको बोसिराते हुवे । वह बहुतसे भक्त अनसन कर अंतिम आलोचना कर समाधिसे काल कर पंचवा देवलोकमें दश सागरोपमकि स्थितिमें देवपणे उत्पन्न हू । परमवके आराधी हवे। (प्रश्न) हे मगवान । बहुतसे लोक कहते है कि अम्बड परिवर्जिक सो-सो घरोंमें पारण करता है यह केसे है। (उ०) हे गौतम । यह बात सची है । मैं भी एसा ही कहता हूं। - (प्रश्न) हे भगवान । यह बात केसे है कि सो- सो घर पारण करे। (उ०) हे गौतम-अम्बड ५० प्रकृतिका भद्रीक विनयवान है । छट छट पारणा और तपश्चर्यमें आतापना लेतों एक रोन शुभाध्यवशाय प्रसस्थ लेश्या होनेसे कर्मोंका क्षोपशम होते हि अम्बड को वीर्यलब्धि, वेक्रियलब्धि अवधिज्ञानलब्धि, प्राप्ति हुई थी उन्ही लब्धिके प्रभाव विम्होंसेसौ-सौ घरमें पारणा करते है । (प्र) हे भगवान् । अम्बड श्रावक आपके पास दीक्षा लेगा। (उ) हे गौतम ! अम्बड मेरे पासे दीक्षा तो नही लेगा। हे गौतम यह अम्बड परिवार्नक श्रावक है इन्होंने जाना हैं जीवाजीव पुन्य पाप आश्रव संवर बन्ध निर्जरा मोक्षत था अधिकरणादि क्रियावोंका ज्ञाता है। सुत्रार्थकों ग्रहन किया है निग्रंथके Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) प्रवचनक ही अर्थ और परमार्थ समझता है । शेषको अनर्थ समझते है । देवादि मी समर्थ नही है कि निग्रन्थके वचनोंसे क्षोभ करा शके यावत श्रावक व्रत पालता हुआ अपनि आत्मरमनत में रमन करता हुआ विचरे है । इतना विशेष है कि इसके घर न होनासे अभंग द्वार नहीं तथा पर घर प्रवेशमे प्रतित और हृदय स्फटक था वास्ते पाठ नही है और श्रावक व्रतमें स्थुल प्रणातिपात विरमाण यावत् स्थल परिग्रह परिमाण कीये हुवे है किन्तु मैथुन सर्वता प्रकारे त्याग है शेषाचार परिवर्मिकोंके माफीक समझना । और भी अब कि कठिनता बतलाते है । अब श्रावक नही पते है जेसे आहार पाणी* आदा कर्मि उपदेशक मिश्राहार पुतीकर्म अज्जोयर क्रितगढ़ पांमिच अणि - शिट अभिठ रचित स्थापित कन्तार दुर्भिक्ष गल्याण बद्दल पाहुण | मूल कंद यावत् बीजादिका भोजन करना नहीं कल्पते हैं । और 1 पाणी कल्प पहेले कि माफिक समझना । तथा अनर्थदडक भी परित्याग किया था । आम्बड प०को नहीं कल्पते है अन्यतीर्थी और अन्यतीर्थीयोंका देव हरि हलधरादिकों तथा स्वतीर्थीयोंके चैत्य ( जिन प्रतिमा) अन्यतीर्थीयोंने अपनाकर अपने देवालय में अपने कबजे करा हो इन्हीं तीनोंकों वंदन नमस्कार सेवा भक्ति उपासना करना अम्बडको नहीं कल्पते है । अब जो वल्पे वह बतलाते है कि अरिहंत भगवान् और अरिहंतोंकि शान्त मुन्द्रा जिन प्रतिमा *यह जो आहार पाणीके दोष हैं वह विस्तार पूर्वक देखो शीघ्रबोध आग चतुर्थ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) इन्होंको वंदन नमस्कार सेवा भक्ति करना कल्पता है। (प्रश्न) हे भगवान् । अम्बड ५० काल कर कहा जावेगा। (उ०) हे गौतम | बहुतकाल तक श्रावकका व्रत प्रत्याख्यान शील क्षमादि गुणों का पालन कर पतिम एक मासका अनसन कर आलोचना कर समाधि पूर्वक काल कर पंचमा ब्रह्मदेवकोकमें देवता पणे उत्पन्न होगा वहांपर दश सागरोपमकि स्थिति होगा। __(प्रश्न) हे भगवान | अम्बडदेव वहांने कहा जावेगा। ... (उ०) हे गौतम | अम्बडदेव दश सागरोपम देवतोंका सुख अनुभवी वहांसे महाविदह क्षेत्रमें बड़ा भारी विसाल कुल जो बल रूप यश कांति धाम धान्यादि विस्तार वाले कुलमें दृढ़ पइन्ना नाम कुमर पणे उत्पन्न होगा वहांपर केवली परूपीत धर्मको स्वीकार कर दीक्षालेके, क्षीण करेगा मोहिनी कमको; केवल ज्ञानोत्पन्नकर सर्व कर्मोंसे मुक्त होके शिव मंदिरमें अव्याबाद सुखोंमें जा विराजेगा। (१३) हे भगवान् | ग्रामादिकमें दीक्षा ग्रहण किये हुवे कीतनेक साधु आचार्योपध्यायोंके प्रत्यनिक (वैरी-दुस्मन) जो जिन्होंके पास धर्म-दीक्षा-ज्ञान प्राप्ती कीया है उन्होंसे ही प्रतिकुल रेहना तथा अवगुणबाद बोलना एसा जो प्रत्यनिक तथा कुल बहुताचार्योकेशिष्य, गण-बहुताचार्यके छते यश नहीं करणेचाले, छते गुणनहीं करने वाले, छती कीर्ति नहीं करनेवाले अर्थात् अपयश अवगुण अकीर्ति करनेवाले अशुद्ध भावना रखके अभिनिवेस मिथ्यात्वको अंगीकार कर अपनी आत्मा तथा बहुतसे पर आत्मावोंको डुबाते हुवे दीर्घ संसारी बनाते हुवे बहुतसे कालकक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) साधु पर्याय पालन कर आलोचना नहीं करते हुवे काल कर कहा जाता है। (उ०) हे गौतम । उक्त साधु आलोचना नहीं करते हुवे कालकर छाटा लातंक नामके देवलोक मैं कीलवेपो देव पणे उत्पन्न होता है वहां उत्कृष्ट तेरह सागरोपमकि स्थिति होती है परन्तु परलोकका आराधो नहीं होता है । (१४) हे भगवान् । ग्रामादिकमें जो सज्ञीपांचेन्द्रिय तीर्थच प्रर्याप्ता होता है यथा जलचर स्थलचर खेचर इन्होंके अन्दर कितनेक तीर्यचोंको शुपाध्यधशाय; निर्मल परणाम विशुद्ध लेश्या होनेसे ज्ञानावर्णीय कमका क्षोपशम होनेसे जाति स्मरण ज्ञान होता है वह पूर्व मनुष्य के भवमें पहेला मिथ्यात्वमें तीर्य चका आयुष्य बान्ध लेने के बादमें सम्यक्त्वके साथ श्रावक व्रत लीया था उन्हों को जातिम्मरणसे जानके वह तीर्यचके भवमें आप स्वयमेव श्रावक व्रतोंकों धारण करता है बहुतसे कालनियम व्रतशील गुण पोषदोपवासकर अनसनकर समाधि पूर्वक काल करके कांहापर जाता हैं। (उ) हे गौतम ! उक्त तीर्यच वहांसे समाधि पूर्वक कालकर माठवा सहस्त्र नामका देवलोकमे उत्कृष्ट अठारा सागरोपम कि स्थितिमें देवपणे उतान्न होता है और परभवका आराधी होता है। (१५) हे भगवान् ! ग्रामादिकके अन्दर मो अनीवकामति अर्थात गौसाला मति साघु होता है वह दोय घरोंके अन्तरसे मिक्षा लेनेवाला, तीन घरोके भन्तरसे भिक्षा एवं सात घरोके अन्तरसे भिक्षा लेने वाला होता है । कमलके विटोंका भक्षण करे, बहुत घरोंसे भिक्षा ग्रहन करे। विद्युत् चमके को मिला। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) मट के बड़े बरतन में प्रवेश कर तपश्चर्य करे. इत्यादि अभिग्र करते हुवे बहुतसे काल तक विचरे अन्तमें काल कर काहा जावे। (उ) हे गौतम । उक्त आनीवकामत्ति अन्तिम काल कर बारह वा देवलोकमे उत्कृष्ट बावीस सागरोपम कि स्थितिमें उत्पन्न होता है । परन्तु परभवका आराधीक नही हो शक्ता है क्रियाके बलसे पौदगलीक सुख मीलता है परन्तु सकाम निर्जर नहोनासे संसारका अन्त नही कर शक्ता है । (१६) हे भगवान । ग्रामादिके अंदर एकेक एसा भी साधु होता है कि जैन दीक्षा लेनेके बाद में उत्कृष्टा हूं। इन्होंसे पारका अवगुण बाद बोले परक निंद्या करनेवाले, भूतिकम मिंत्र यंत्र तंत्र चुरणादि करनेवाले, हासी ठठा मीसारी कोनुकादि करनेवाले बहुतसी क्रिया करते हूवे बहुतसे काल दीक्षां पाले परन्तु आलोचना नहीं करे वह कोनसे स्थानमें जाते है। (उ) हे गौतम । उक्त सधु आलोचना नहीं करते हुवे काल करके बारहवा देवलोकमें अयोगीक-आदेशमें रहनेवाले कितूहल करनेवाले देवतापणे उत्पन्न होते है उत्कृष्ट बावीस सोगरोपमकि स्थिति होती है परन्तु परलोकके आराधीक नहीं होता है । __ (१७) हे भगवान । ग्रामादिकके अन्दर दीक्षा लेनेके बाद प्रवचनके नन्हव होते है। - (१) बहुस्था-बहुत समयमें कार्य होता है किंतु एक समयमें कार्य न होवे एसा मत्त जमाली अनगारका था । . (२) जीव प्रदेशीक-जीवके एक प्रदेशमें नीव माननेवाला तीस गुप्तका मत्त । .. ..... Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) (३) अव्वत्तिया-साधुवोंमें चौरादिककि शंका से साधु है * नहीं ऐसा आषाढाचार्यके शिष्यक्त . (१) सामुच्छिया-नरकादिक जीव क्षणक्षीणमें विच्छेद होता है एसा माननेवाला अश्वमित्रवत् १. (५) दो किरिया-एक समयमें दो क्रिया लगति है एसा माननेवाला गंर्गाचार्यवत् ६ (६) तेरासिया-जीवरामी, अनीवरासी, जीवानीवरासी, सह तीनरासी माननेवाला गोष्ट गलीकावत (७) सव्वाठिया-जीवकों कर्म सर्प कचुकवत लगते हैं एसा माननेवाला प्रन्याप तवत् समझना : विशेष कथावों देखो उववाई तथा स्थानायांगसूत्रों से । यह सात प्रवचनके निन्हव थे इन्होंके मात्र लिंग ही अवका था परन्तु श्रद्धा विप्रीत थी वास्ते अभिनिवेप्स मिथ्यात्वके उदय स्वयं अपनि आत्मा और अन्य परात्मावोंको सद रहस्तेसे भ्रष्टकर उन्मर्गमे लेजाता इव वह बहुतसे काल तपश्चर्यदि काय कलेस भरता हूवा अनालोचनासे मृत्यु धर्मको प्राप्त हो कहा जाते है। ___(उ) हे गौतम । उक्त सातों प्रकारके प्रवचन नन्हव क्रियाके पूर्ण बलसे उत्कृष्ट नवोमि ग्रीवैग तक जाते है वहांपर एकतीस सागरोपमकि स्थितिवाले देवता होते है किन्तु परभवका आराधी नहीं हो शक्ते है ऐसे नौग्रीवैगमे जीव अनन्तीवार जा जाके माया है परन्तु भव भ्रमणसे मही छूटता है वास्ते माराधीकपणेको, शीष आवश्य करना चाहिये इसमें मौख्य वीतरागकि आजा गान करनासे ही आराधीपणा आशक्ता है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) (१८) हे भगवान ! ग्रामादिकेके अन्दर कितनेक मनुष्य अल्पारम्भीक अल्पपरिग्रहवाले जो धर्मी धर्मके पीछे चलनेवाले धर्मकेअर्थी, धर्मकेकेहनेवाले धर्मपालनेवाले धर्मकिसमाचारीके अन्दर चिन्तवना करनेवाले अच्छे सुद्धाचार सुंदरव्रत दुसरेके मला होनेमें आप मानन्द माननेवाले वह प्रणातिपातादि जो पाप वैपार तथा गृहकार्य आरम्भ सारम्भ संभारम्भादिकोसे कीतनेक अंस निवृति हुवा है कीतनेक अंस निवृत नही भी हूवा है अर्थात् स्थुलस्थुल कार्योंसे निवृति हुवा है शेष गृहकार्य करते भी है। एसा जो श्रादक है वह जीवानीव पुन्यपापाश्रवसंवर निर्जरा बन्ध मोक्ष यह नवतत्व और काइयादि पचवीस क्रियावोंकों गुरू महाराजसे हेतु सहित धारण करी है अर्थात ठोक तरहेसे जाणपाणा कीया है जिन्होंसे श्रावकोंकि श्रद्धा र मजबुत है वह श्रावक कीसी प्रकारके देवता दानव'दिकसे कीसी कीस्मकि साहिता नही इच्छते है और हजारों लाखो क्रोडोगम देवता एकत्र हो जानेपर भी उन्ही श्रावकोंकों धर्मसे क्षोभीत नही कर शके। वीतरागों के प्रवचनके अन्दर निःशंक है किसी भी परत्तकि इच्छा नही करते है। करणीका फकि किंचन् हो शंका नही है । और भी वे श्रावक लोग आगोंके अर्थकों ठीक तरेहसे प्राप्त किये है, ग्रहन किये है आगमोंके अथकी, शंका होनेसे या समझमे नही मानेसे पुच्छाकर निर्णय किया है, जिन्होंसे विशेष ज्ञाता होते हुवे सर्व शमयको च्छेदन किया है इन्होंसे हाड और हाइकि मींनी धर्म के अन्दर पूर्ण शासन रंगमे रंग दोवी है । वह श्रावक जो अर्थ तथा परमार्थ समझते है तो Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरों के धर्मकों ही समझते है शेष पाखड तथा गृहस्त बर्य इन्ही सर्वको अनर्थका हो हेतु समझते है । उन्ही श्रावकोंके हृदय स्फटक माफक उज्वल मायाशल्य रहित निर्मल है । उदास्ता है कि घरके द्वार हमेशों खुले रहेते है अर्थात् उन्होके घरपर मानासे कोई मी भिक्षु निरास होके नही जाते है । उदारता एक शासनका भूषण है । राजाके अन्तेवर तथा धनाड्यके भंडारमे चले जानेपर भी उन्होंकि अप्रतित नहीं है अर्थात् चौरी नारीके कुविशन उन्ही श्रावकोंसे हनार हाथ दुरे रहते है । धर्मकरणीमें भी दृढ है जो चतुर्दशी अष्टमि पूर्णमावश्यके रोन पौषद करते है अर्थात् प्रतिमास छेछे पौषद करते है । और साधु महात्मावोंकों निर्दोष फासुक असन पान खादिम सादिम वस्त्र पात्र कम्बल मोहरन पाठफलग सय्या ( मकान ) सस्यारा ( तृणादि ) औषद वैसज्ज एवं १४ प्रकारका दान देते हुवे आपनि आत्म मानना निर्मल रखते हुवे विचरते है । एसा श्रावक बहुत काल श्रावक व्रत पालते हूवे आलोचना कर समाधि मरण मरके कहां जाते है। (3) हे गौतम ! उक्त श्रावक समाधि पूर्वक काल कर उत्कृष्ट बारहवा देवलोकमें उत्कृष्ट बावीस सोगरोपमकि स्थिति वाला देवता होता है वह परलोगका आराधी होता है। भवान्तरके अन्दर आवश्य मोक्ष जावेगा। (१९) हे भगवान् ! प्रामादिके अन्दर एकक एसे भी मनुप्व होते है कि अनारंभी अपरिग्रह अर्थात् द्रव्य और मावसे प्रारंभ परिग्रहको त्यागन किया हो वह धर्मी यावत् धर्म कि चितवन करनेवाला । सर्वते प्रकारे प्रणातिपातादि सर्व पापोंकर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) तथा संसार संबन्धि सर्व सम्बद्य वैपारको त्याग किया है एसा जो अनवार - साधु-मुनि इर्यासमिति यावत् सर्व मुनिगुण संपन' हो जहातहा वीतरागोंका प्रवचनको आगे कर विचरता है एसे महात्मानोंके तपश्चर्य करते हुवे कीतनोंककों केवलज्ञान उत्पन्न होते हैं फीर बहुत काल केवलज्ञान पर्याय पालते हुवे अनेक भ्रव्यात्मावका उद्धार करते हुवे मोक्ष पधार जाते हैं । जो कितनेक 1 महात्मावोंको पहले केवल ज्ञान नही होते है किन्तु अन्तिम समय केवल ज्ञान हो जाते हैं फीर मोक्ष जाते है और कितनेक महामावोंके शेष रह जाते है वह कांहा जाते है ? (उ) मुनिपदका आराधी हो सर्वार्थसिद्धि विमानमें जाते हैं वह परलोक के आराधी है और एक ही भव करके सिद्धामोक्षमे जावेगा ॥ १९ ॥ ( ) ग्रामादिकके अन्दर एकेक मनुष्य होते है वह सर्व कामसे विरक्त सर्वरागसे विरक्त सर्व प्रकारे संगसे रहित सर्व tarra stant क्षय कीया है एसे ही सर्व प्रकार से मान माया लोभ और सर्व प्रकार के कर्म ( अष्टकमका ) को क्षय किया है । वह महा भाग्यशाली अपनि आत्माकों सर्वते प्रकार से निर्मल कर लोकप्रभाग में विराजमान हो गये है । यहांपर एकेक मनुष्य कहा है वह पूर्व भावापेक्षा ही कहा है। हे भव्य जीवों मोक्षपद प्राप्तीमें विघ्नभूत रूप शत्रु जो क्रोध मान माया लाभ है इन्होंकों मूलसे नष्ट करनेका प्रयत्न आवश्य करना चाहिये । इन्हीं प्रश्नोंद्वारा शास्त्रकारोंने स्पष्ट बतला दिया है किं अनेक कष्ट किया करने पर भी सम्यग्दर्शन रहित जीवोंकों भवमरूपी जो संसार है वह कदापि छूट नहीं शक्ता है वास्ते • Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) पेस्तर सम्यक दर्शन के लिये प्रयत्न करना चाहिये । कारण विन कार्यक प्राप्ती नहीं हो शक्ती है। वास्ते सम्यकूदर्शनका कारण सत्संग है, सत्संगका कारण तत्व विचार है और तत्त्व विचारसे अज्ञानका नाश होता है, अज्ञानका नाश होना से संसारका नाम होता है वास्ते सम्यक्दर्शन प्राप्तीकि कोशीष आवश्य करना चाहिये । शम् | नम्बर ७ सूत्र श्री उत्तराध्ययनजी अध्ययन १६ ( ब्रह्मचार्य व्रत ) भगवान वीरप्रभुने मुनियोंके पंच महाव्रतरूप धर्म फरमाया है जिसमे ब्रह्मचार्य पालनरूप चतुर्थ व्रतका व्याख्यान खुब हि atraौरसे किया है। यह व्रत पालन करना कायर पुरुषों को बडा हि दुष्कर है। जिन्ही महान पुरुषोंने एक ब्रह्मचार्य व्रत ही पालन किया है उन्होंकों मानो हजारो गुणोकों प्राप्त कर लिया है कारण यह व्रत सर्व के सीवर समान है। जो सच्चे दीकसे इस व्रतका आराधन करते है उन्होंकों जो दुनीयोंमें दुसाद्य विद्यावो है वह अपने स्थानपर आके चरणोंमें नमस्कार करती है । वचन fe और अनेक लfor तों सहेजमें हो प्राप्ती हो शक्ती है। इतना हि नहि किन्तु ब्रह्मचारी पुरुषोंका शरोर भी दुनियोंकि दवाइ अर्थात रोग नष्टमें आग्रेश्वर औषधिरूप हो जाते है तथा ब्रह्मचारी पुरुषोंके शरीरका स्पर्श होते ही रोगीयोंके रोग कुंच कर जाते है" किमधिकम् " Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) ब्रह्मचार्य व्रतकि मजबुतिके लिये शास्त्रकारोंने नव वाड और दशवा कोट बतलाया है । यथा- . (१) पहेली वाड-जहापर पशु नपुंसक और स्त्रीयों रेहती हो तथा और भी विषय विकारोत्पन्न करनेवाले चित्र या कोई भी पदार्थ हो एसा मकानमे ब्रह्मचारीयोंकों न ठेरना चाहिये । कारण आत्मा निमित्तवासी है । उक्त पदार्थ देखनेसे चित्त वृती मलीन होती है अनेक संकल्प विकल्पोत्पन्न होते है । इन्होंसे ब्रह्मचार्यपालन करनेमें भी शंका होती है विषय सेवनरूप कांक्षा होती हैं भवान्तरमें फल होगा या न होगा एसी विगिच्छा होती है याघत शरीरमें रोगोत्पन्न हो जाते हैं वेभान हो जाते है और केवली परूपित धर्मसे भ्रष्ट हो जाते है वास्ते उक्त स्थानों में ब्रह्मचारी पुरुषोंकों न ठेरना जेसे द्रष्टान्त किसी मकानमें बीलाडी (मञ्जार) रेहती हो वहा अगर 'भूषा' निवासा करे तो उन्हींके जीवकों आवश्य नुकशान पहुंचती हैं। उक्तं च-जहा विराला व सहस्स मूले। न मूसगाणं वसही पसत्था ॥ एमेव इत्थी निलयस्स मज्झे । न बंभयारिस्स संम्भे निवासो॥१॥ () दुसरी वाड-ब्रह्मचार्य पालन करनेवाले महा पुरुषोंकों स्त्री संबन्धी अंगोपाग हास्य विनोदं श्रृगारादि कथा वार्तावों न करना चाहिये कारण अनादि कालसे जीव विषय विकारसे परिचित है वास्ते हास्य विनोद श्रृंगार के साथ स्त्रीयोंके रूपयोवन लावण्य और अंगोपांगकि कथावों करनेसें चित्तवृती मलीन हो Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) बसी है यह बात प्रसिद्ध है कि निंबुका नाम लेते ही मुह पाणी आ जाता है । वास्ते उक्त कथावों न करे अगर करेंगे तो पूर्वोक्त केवली परूपत धर्मसे भ्रष्ट हो जावेगा । (३) तीसरी वाड = जहां पर स्त्रीयों वेठी हो उन्ही स्थान पर कमसे कम दो घड़ी तक ब्रह्मचारीयोंकों नहीं बेठना चाहिये । इसी माफोक ही जहा पुरुष बेठा हो उन्ही स्थान पर ब्रह्मचारजीमोंकों न बेठना चाहिये । कारण कि उन्ही स्थानके परमाणुकें . विषश्मय होजाते है जैसे जिस स्थान पर अग्नि प्रज्वलत हुई है. वह अग्नि उठा लेने के बाद भी ठपा हुवा कठन वृत रखा जावें तो वह घृत अपने कठनता से पीगल जावेगा वास्ते उक्त स्थान पर न बैठे अगर कोई बेठेगा तो पूर्वोक्त धर्मसे भ्रष्ट होगा । (४) चोथी वाड - ब्रह्मचारी पुरुषों स्त्रीयोंके मनोहर सुंदर शर रके अवश्य जैसे नेत्र मुख स्तनादि अंगोपागकों राग दृष्टिसे न देखे । कारण उक्त स्त्रीर्थोके अंदर देखने से चित्तवृती मलीन होती है। अनादि कालका परिचत काम विकारोत्पन्न होता है जैसे किसी पुरुषने अपने नेत्रोंकि कारो कराई है वह सूर्यके सन्मुख देखनेसे नेत्रोंको आवश्य नुकशान होगा यावत् धर्मसे भ्रष्ट हो जायगा । (५) पांचवी वाड = भीत ताटी कनातके अन्तरे स्त्रीयोंके हास्या शब्द, काम क्रीडाके शब्द, रूइन करते शब्द, विलास शब्द, और भी कीसी प्रकारके शब्द जो कि चित्तवृती मलीन और विषय विकारोपन करता हो एसा शब्द श्रवण नही करना चाहिये अर्थात् प्रथमसे ही जहापर स्त्रीजन परिचय हो वहपर टेरनाही नही चाहिये कारण उक्त शब्द सुनते ही जेसे गान सुनते ही मयूर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *म हो बोलने लग जाते है इसी माफीक उक्त शब्द श्रवण करते ही कामविकार सचेतन होजाता है वास्ते वह शब्द कानोद्वार श्रवण नही करना चाहिये । अगर सुनेगा तो पूर्ववत धर्मसे भ्रष्ट होगा। . (६) छटी वाड-ब्रह्मचार्य व्रत धारण कियां पेहला जो संसारभे विषयभोग विलासादि सेवन कियाथा उन्होंकों फीस्से समरण न करना चाहिये । कारण अनाभोग विष सेवन किये हुवे को फीर स्मरण करनेसे मनुष्य मृत्यु धर्मकों प्राप्त होजाते है जेसे एक मटियारके वह दो मुसाफर आये थे रवाने होते हुवेको उन्ही मटीयारने छास पीलाइथी वह मुसाफर तो चलेगये पीच्छेसे देखे तों रात्रीमें छास भीलोइ थी जीम्मे सर्प था खे । यह मुपाफर १२ वर्षोंसे पीछे उन्हीं भटीयारके वहा आके अ ना नाम बत. लाया तो उन्ही भटियारने कहा क्या पुत्रों तुम अबो तक जीवते हो ? उन्ही मुपाफरोंने एसा केहने का कारण पुच्छा । तब भटसारने कहा कि हे बन्धु मेने जो तुमको छाप पीलाइ थी उन्हीके अन्दर सर्पका विष था इतने सुनते ही वह मुसाफर एक दम 'हे' करते परलोक पहुंच गये । वास्ते गतकालके काम भोगोंकों स्मरणमें नहीं लाना चाहिये । अगर करेगा तो पूर्व० भ्रष्ट होगा। - (७) सातवी वाड-ब्रह्मचारीयोंकों प्रतिदिन 'प्रणीत आहार" सरसाहार अर्थात् दुइ दही घृत पकवान मिष्टानादिका आहार नहीं करना चाहिये वारण उक्त आहार काम विकारकों उतेज्जन देता है जेसे कि सन्निपातके रोगवालोंकों दुद्ध मिश्री पीलानेसे रोगकि वृद्धि होती है वास्ते सरसाहार नही करते हुवे शरीरको वाडा तुल्य लुखा सुखा ही माहार करना चाहिये । अगर करेगा तो पूर्ववत् भ्रष्ट होगा। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) आठवी वाड-लुखा सुखाहार करता हो वह भी पि माणसे अधिक न करना, कारण अधिक आहार करनेसे शरीर में - उन्माद होता है आलस प्रमाद होता है यह सब विकार उत्पन करनेवाला है जैसे शेर धान्य पचाने योग्य मटोकि हांडीमे सवा शेर पचाया जाये तों हाडी फुट जाती है वास्ते ब्रह्मचारीयोंको निःरसाहर भी अनोदरी करते हुवे भोजन करे तांके कीसी प्रकारकि व्याधि न होवे | अ० करेगा० पूर्व० भ्रष्ट होगा । (९) नववी वाढ - ब्रह्मचारीयोंकों अपने शरीरकि विभूषा -- - स्नान करना मालस करना अत्तर तैल चंदनादिका लगाना सुन्दर भूषण के पेहरना इत्यादि शृंगार शोभा न करना कारण यह भी विषयविकार कामदेवका आदर करना है जैसे कि कजलकि कोटडी में निवास करनेसे किसी प्रकारसे काला कलंकसे बच नही शक्ता वास्ते ब्रह्मचारीयोंको शरीर विभूषा न करनि चाहिये । पूर्ववत् । (१०) दशवा क्रोट- ब्रह्मचारीयोंको अच्छे शब्दों पर कुशी और बुरे शब्दों पर नाराजी न लानी चाहिये, एवं सुन्दर रूप देखके कुशी खराब रूप देखके नाराजी न करना, एवं अच्छे सुवासीत पदार्थों पर कुशी और दुर्गंध पदार्थोंपर नाराजी न करना, एवं स्वादीष्ट मनोज्ञ भोजनों पर कुशी और अमनोज्ञ पर नाराजी न करना, एवं अच्छ कोमल मनोज्ञा स्पर्शपर कुशी और अमनोज्ञ पर नाराजी न करना चाहिये अर्थात् जो काम विकारोत्पन्न करने योग्य तथा इन्द्रियों पोषक पदार्थ हे उन्हो पर - रागद्वेष न करना चाहिये क्युकि यह नासमान पौदगलोंसे यह जीव अनादि कालसे नरक निगोदके दुःखोंका अनुभव कर राहा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कबी भी पुद्गलोंसे तृप्तो न आइ और न आवेगा। जो महा पुरुन षों इन्ही सडन पडन विध्वंसन स्वभावाले पुद्गलोंसे अरूची करने हुवे ही संसारका पार किया है वास्ते उक्त पुद्गलोंमें राचना नहीं चाहिये । यह नव वाड और दशवा कोटका पूरण जाबता रखते हुये मन वचन और कायासे ब्रह्मचार्यव्रत पालन करेगा करावेगा करते हुवे को साहिता और अनुमोदन · देगा वह जीव शीघ्र ही 'मोक्षमें जावेगा। ... देखिये नारद ऋषियों के प्रकृतिका ही स्वभाव होता है कि अनेक इदर उदरकी बातों कर टंटा पेप्ताद करा देते है परन्तु सर्व गुण शीरोमणी एक ही ब्रह्मचार्यका गुण होनेसे शास्त्रकारोंने मोक्षगामी काहा है। ब्रह्मचार्य व्रतका महात्व शास्त्रकारोंने खुब ही विस्तार पूर्व किया है परन्तु यहां पर कण्ठस्थ करनेके लिये स्वरूप मात्र सूचनारूप ही बतलाया है। ___ गृहस्थ पुरुषोंने अपनी चित्तवृति स्थिरता माफीक ब्रह्मचार्य व्रतको धारण करना चाहिये कारण गृहस्थोंका भी फर्ज है कि पर स्त्री वैश्यादिका तो जावजीवशुद्धि बोलकुल ही त्याग करे और स्वस्त्रि संबंधी बन शके तो सर्वता त्याग करे न बने तो अष्टमि चतुर्दशी पुर्णमावश्यादि पर्व तीथीका तो आवश्य त्याग करे जिस दिन त्याग हो उन्ही दिन धर्मशाला या एकान्त मकानमें ही शयन करे तांके ब्रह्मचायं ठोक तरेहसे पालन होशके इतिशम्। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्बर । ॥ सूत्र श्री प्रश्न व्याकरण अध्ययन ९ वां ॥ (ब्रह्मव्रतको ३२ औपमा) इप्त आरा पर संसारके अन्दर विषयाभिलाषी चक्रवर्त वासुदेव प्रतिवासुदेव, युगलमनुष्य, मंडलीकराजा, और स्ठ सेनापति आदि बडे २ सत्वधारी होने पर भी इस काम भोगसे अतृप्त होते हुवे काल धर्मको प्राप्त हुवे है वह चौरासीकि मोन करते चौरासीमें नमण करते है परन्तु उन्हों कि गीनती आन इन्ही संसारमें कोई भी नहीं करता है परन्तु गीनती उन्हों कि की जाती है कि वह चाहे महाऋद्धिवान हो चाहे स्वल्प ऋद्धिव न हो किंतु जिन्हों महापुरुषोंने यह ब्रह्मचार्यव्रतको धारण कर नव वाड विशुद्ध पालन कर संभूरमण समुद्रको तीरके शेष गंगा नदीके किनारे मा पहुंचे है वह ही जगतमें वीर पुरुष केहलाते है। क्युकि शास्त्रकारोंने इसी प्रभावशाली व्रतकों ३२ ओपमा द्वारे वर्णन किया है वह संक्षप्त यहापर लिखा जाता है। १ जेसे गृहगण नक्षत्र और तारोंके समुहसे आश्वन मासका चन्द्र शोभताहै इसी माफी अन्य सदगुण समुहसे निर्मल ब्रह्मचार्य व्रत शौभनिक है । और ब्रह्मचार्य व्रत हेसो पूर्णमाके चन्द्रकि माफिक निष्कलंक महात्ववाला है। ." (२) जेसे सर्व प्रकारकि धातुओ के आगरोंभे सुवर्णकै आगर महत्ववाला प्रधान होताहै इसी माफिक सर्व व्रतोंमें महात्ववाला प्रधान हे तो एक बह्मचार्य व्रत ही है। .. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) (३) जेसे सर्व जातिकि रत्नोंके अन्दर वैडूय जातिके रत्न महात्ववाले बहु मूल्य और शोभनिक= प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत अमूल्य शोभनिक और प्रधान है। (१) जेसे सर्व जातिके भूषणोंमें मस्तकका मूकट महात्ववाला प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें मुगटमणि सामान शोमनिय हे तो एक ब्रह्मचार्य व्रत ही प्रधान है। ... (५) जेसे सर्व वस्त्रकि जातिमें खेमयुगल ( कपासका ) वस्त्र प्रधान शोभनिय और महात्ववाला है इसी माफोक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत महात्व शोभनिय और प्रधान है । . (६) जेसे सर्व जातिके चन्दनोंमे बावना (गोसीस ) चन्दन सुगन्ध और शीलता देनेमे महात्व और प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमे कषायको शीतल करनेमें और तीन लोकमें यशोकीर्तिसे सुवातीत हे तो एक ब्रह्म वार्य व्रत ही महत्ववाला प्रधान है। (७) जेसे सर्व जातिके पुष्पोंके अन्दर अरिबिंद जातके पुष्प महात्ववाले सुन्दराकार सुवासीत और प्रधान है इसी माफोक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत महात्ववाला सुन्दराकार सर्व जगतके मनको आनन्द करनेवाला आत्म रमणतामें सुगन्धसे सुवासीत शिवसुन्दरीको मोहित करनेवाला प्रधान है। (८) जेसे सर्व पर्वतोंमें औषधीश्वर चुलहेमवन्त पर्वत प्रधान है इसी माफीक सर्व वनोंमें कर्मरूपी रोग नासक औषधीश्वर चैतन्यकों बलवान बनाने में अप्रेश्वर ब्रह्मचार्य व्रत ही प्रधान है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) जेसे सर्व नदीयोंमें (चौदा लक्ष छपन्न हजार नेड नदी) खानदी (५१२००० नदीयोंका परिवार युक्त) और सीतोंदा बदी ( ५३२००० नदीयोंके परिवार युक) विसाल परिवार महत्ववाली प्रधान है । इसी माफीक सर्व व्रतमें ब्रह्मचर्य व्रत अनेक गुण समुहके परिवारसे महत्ववाला प्रधान है। ... 1, (१०) जेसे सर्व समुद्रोंमें अनेक जातिके रत्नकर सयंभूरमण मुद्र महात्ववाला प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत क्षान्त्यादि अनेक गुणोंसे महत्ववाला प्रधान है। (११) जेसे सर्व उच ईवाला पर्वतोंमें मेरू पर्वत च्यार वनादि से महत्ववाला प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य बत स्वद्यय ध्यानदि गुणों के परिवारकर महात्ववाला प्रधान है। . (१२) जेसे सर्व हस्तीयोंकि जातिमें एरावण जातका हस्ती दन्ताशुलॊकर प्रधान है । इसी माफीक सर्व बोंमें ब्रह्मचार्य व्रत स्थाहादरूपी दन्ताशुलकर प्रधान है। ___ (१३) जेसे चतुष्पदों में केसरोसिंह दुर दन्ता महासत्ववाला प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत अध्वशायरूपी सुभदन्ता मोहशत्रुकों नडामूलसे नष्ट करने में महसत्ववाला प्रधान है। (१४) जेसे भुवनपतियोंमें नागकुमार कि जातिये धरेन्द्रि कान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत अनेक समऋद्धि कर प्रधान है। .....(१५) जेसे सुवर्णकुमार कि बातिमें वेणु देवेन्द्र प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत प्रभाव है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) (१६) जेसे उध्वं लोकके देवलोकोंमें पांचमा देवलोक विस्तार में महत्ववाला प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें विस्तारसे महत्ववाला ब्रह्मचर्य व्रत है । (१७) जेसे सर्व समावों में सौधर्मी सभा प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत प्रधान है । (१८) जेसे सर्व स्थितिमें लवसतमादेवा (सर्वार्थ सिद्ध वैमान वासी देव) प्रधान है इसी माफिक सर्व व्रतोंमें अक्षय स्थितिवाला ब्रह्मचर्य व्रत महात्ववाला प्रधान है । (१९) जेसे सर्व दानोंमें अभयदान महात्ववाला है इसी माफीक सर्व व्रतों में ब्रह्मचार्य व्रत प्रधान है । (२०) जेसे सर्व रंग प्रधान है इसी माफोक सर्व चार्य व्रत प्रधान है । करमची रंग (जले पण जावे नहीं ) व्रतोंमें अप्रवृतन रंगवाला ब्रह्म (२१) जेसे सर्व संस्थानों में समचतुखसंस्थान प्रधान है इसी माफी सर्व व्रतों में ब्रह्मचार्य व्रत प्रधान है । (२२) जेसे सर्व संहनन में बज्रऋषभनाराच संहजन प्रधान है । इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत महात्ववाला प्रधान है। (२३) जैसे सर्व लेश्यावों में शुक्ल लेश्या प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतों में ब्रह्म० प्रधान है । (२४) जैसे सर्व ध्यानोंमें शुक्ल ध्यान प्रधान है इसी माफोक सर्व व्रतों ब्रह्म• प्रधान है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) जैसे सर्व ज्ञानमें केवल ज्ञान प्रधान है इसी माफीक कि प्रतों में ब्रह्म प्रधान है। (२६) जैसे सर्व क्षेत्रोंमें महविदह क्षेत्र प्रधान विसाल है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्म प्रधान है। (२७) जेसे सर्व साधुवोंमें तीर्थकर भगवान प्रधान है इसी माफोक सर्व ब्रोंमें ब्रह्म प्रधान है। . (२८) जेसे सर्व गोल जातिके पर्वतोंमें कुंडलपर्वत विस्तारचाला प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रों में ब्रह्मचार्य व्रत महात्वावाला प्रधान है। (२९) जेसे वृक्षोंके अन्दर सुदर्शन नामका वृक्ष प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें ब्रह्म प्रधान है। (३०) जेसे सर्व जातिके वोंमें नन्दनवन रमणिय प्रधान है इसी माफीक सर्व ब्रतोंमें ब्रह्मचार्य व्रत रमणिय प्रधान है। (३१) जेसे सर्व ऋद्धियोंमें चक्रवतं कि ऋद्धि प्रधान है इसी माफीक सर्व बोंमें ब्रह्मचार्य व्रत प्रधान है । (३२) जेस सर्व जतिका सग्रामीक स्वमें दुबननय नामका वासुदेवका रथ प्रधान है इसी माफीक सर्व व्रतोंमें कर्मरूप दुर्जनोकों पराजय करनेमें ब्रह्मचार्य व्रत प्रधान है। .. यह ३२ औपमा अलंकृत ब्रह्मचार्यव्रत मोह नरेन्द्रकी शेन्याको पराजय करनेमे महा समर्थ है वास्ते हे भव्य यथाशक्ति ब्रह्म व्रतका माराधन कर अपने मनुष्य जन्मको पवित्र बनायो। मस्तु । शम् । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्बर ९। श्री उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ११ । ( बहुश्रुति) (१) सद् विद्या करके रहीत हो एसे मनुप्योकों। (२) कुविद्यावोंको धारण करनेवाला ।" (३) विद्या पढ़के अभिमान करनेवाला हो।" (४) पांचों इन्द्रियोंकि विषयमें ग्रीद्धी हो ।" (५) वार वर असंबन्ध भाषाका बोलनेवाला हो।" इन्हों पांचोंको अविनय और अबहुश्रुति केहते हैं।" (१) स्थंभ कि माफीक अभिमान करनेवाला हो । (२) अग्निके माफीक क्रोध करने वाला हों। (३) येहदीकी माफीक प्रमाद करनेवाला हो । (४) ज- मसेहि रोगी हो तथा प्रतिदिन रोग वाला हो । (१) दिन रात्री आलसके घरमें निवास करता हो । इन्हीं पांचोंकों शिक्षा देना व्यर्थ है अर्थात शिक्षाके अयोग है। (१) जिन्होंका ज्यादा हसा ठठा मोस्करीका स्वभाव न हो (२) पांचो इन्द्रियोंकों अपनेकबजे रखनेवाला हो। (३) गंभीर-धीर्यवान् किंसीका मर्म प्रकाश न करे। (१) चरित्रके सर्व विराधीक न हो। (५) चरित्रके देश विराधी कभी न हो। (६) इन्द्रियोंकि लोलपताके वसीभूत न हो। (७अक्रोधी-क्रोध न करे अमर हवा भी होतो उपशमा दे। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) सत्व माषाके बोलने में निःशंक हो। यह आठ गुणोंवाला शिक्षा देने योग्य होता है । (१) वार वार क्रोध करनेवाला हो। (२) दीर्घकाल क्रोधको धारण करनेवाला हो । (३) मित्रद्रोही राजद्रोही कृतनी हो । (४) ज्ञान प्राप्तकर अभिमान करनेवाला हो या ज्ञान दातासे द्रोह रखे। (९) अपना अप्राध दुसरोंके शिर डालनेवाला हो। १६) सज्जन या मित्रपर विनोकारण कोणतुर हो। (७) मित्रों के मुहपर मीठा पुठपर अवगुन बोलनेवाला हो। (८) असंबद्ध भाषा या शांकामे भी निश्चय भाषा भाषो हो । (९) दुसरे जीवोंका द्रोह-अहित करनेवाला हो। (१०) अभिमानसे दूसरेको हलका पाडनेवाला हो। (११) रस लोलुपताके प्रासादमें रमनेवाला हो। . (१२) अपनि इन्द्रियोंकों मनमानि मोज करानेवाला हो। (१३) आहार पाणी आदिका संविभाग न करनेवाला हो । (१४) अप्रतितके कार्यमें प्रवृति करनेवाला हो । इन्ही १४ बोलोवाले को अविनित केहते है। - (१) नितीवान गुरुसे नम्रतापूर्वक व और गुरु महाराजसे. विचे आसनपर बेठनेवाला हो। . (२) चपलता रहीत शरीरचपलता, स्थान चपलता, भाषाच. पता, मावचपलता (सुत्रादि लेनेदेनमें) इन्ही चपलतासे मुक्त हो हरेक कार्य करे वह धीयता के साथ करे। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) माया कपटाइ रहित सरल समावी हो। (४) अकितूहल-इन्द्रनालादि कीतूहलरहीत हों। (१) तीस्थर वचन न बोले किंतु मधुर वचन बोले । (६) अक्रोधी-क्रोधको अपने कब्जे कर रखा हो। दुसरोंके क्रोध होनापर आप शांति करनेवाला हो। (७) कृतज्ञ-दुसरेका उपकार मानते हुवे समय पाके प्रति उपकार करे गुणीयोंका गुण ग्रहन करे ।। (८) श्रुत ज्ञान प्राप्तीकर अभिमान न करे किन्तु जगत मीवोका उद्धार करे दुसरोंको ज्ञान ध्यानमें साहिता करे। ___(९) अपना दोष कीसी दुमरे पर न डाले । (१०) अपने पर विश्वास रखनेवालोंसे द्रोहीपना न करे घोखामें न उतारे नेक सलाहा देवे । (११) कबी मित्र सज्जनोंकि मूल भी हो जावे तो गंभीरतासे माफी देवे किन्तु अवगुन न बोले । (१२) परदुःखकारी असम्य भाषा न बोले । (१३) धीर्यवान नितीवान बुद्धिवानोंकि सत्संग कर भाप मी इन्हीं गुणोंकि प्राप्ती करे। . . (१४) लज्जावान-लौकिक लोकोत्तर लज्जा रूप वस्त्रोंकों धारण करनेवाला हो । (१५) नित्य गुरूकुलवास सेवन कर गुरु आज्ञा माफीक चलनेवाला हो। गुरुके पास संकुचित शरीरसे बेठनेवाला हो। इन्ही पन्दरे गुणोवालोंको शास्त्रकारों बहुश्रुति और विनयवान काहा है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) जैनशासनमें बहुश्रुतियोंका बड़ा भारी महात्व बतलाया है कारण शासनका आधार ही बहुश्रुतियोंपर है बहुश्रुति स्वपर आत्माका कल्याणमें एक असाधारण कारणभूत है वास्ते ही शास्त्रकारोंने बहुश्रुतियोंको १६ औपमासे अलंकृत किये है वह यहाँपर लिखी जाती है। ___ बहुश्रुतिनी महाराजको १६ औपमा । (१) जेसे दुद्ध स्वयं उज्वल और निर्मल होता है तद्यपि दक्षिणावृतन संख्खके अन्दर रहने से अधिक शोभायमान होता है और भी दुद्ध संख्खमें रहनेसे खाटा न पडे, मलीन न होवे, विनास भी न होवे इसी माफीक तीर्थकरोंके फरमाये हुवे श्रुतज्ञान म्वयं निर्मठ है तद्यपि बहुश्रुति रूप संख्खमें रेहनेसे अधिक शोभनिय होता है कारण बहुश्रुति आगमोंकि रहस्यके ज्ञाता होनेसे स्याहाद उत्सर्गोपवाद अनेक नय प्रमाणसे उन्ही ज्ञानके संरक्षण करते हुवे जैन शासनकि प्रभावनाके साथ भव्य जीवोंका उद्धार करें, वास्ते ज्ञान बहुश्रुतियोंकि नेश्राय रहा हुवा ही शोभनिय होता है। (२) जेसे सर्व जातिके अोंके अन्दर कम्बोज देशके आकर्णी जातीके अश्व अच्छे सुन्दर होते है वह राजा (असवार) कि मरनी माफीक वैगसे चलते हुवे अनेक उपसर्गोसे त्रास नही पांमनेवाले शोभाको प्राप्ती करता है । इसी माफीक बहुश्रुतिनी महाराज अन्य मुनिवरों में अग्रेश्वर जिन प्रणीत आगमोंसे सुन्दर भतिश्यवान जिनाज्ञानुसार वस्तु धर्मप्रकाश करनेमें और पाखंडियों के उपसर्गको सहन करने सत्वधारी शोभायमान होते है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) (३) जेसे दृढ प्राक्रमवान अप्तवार आकर्णी जातके अश्वपरारूढ हो, शास्त्रसंयुक्त और वात्रिके नादसे शत्रुवोंका पराजय करते हुवे शोमें, इसी माफीक मुनिमंडल में सिद्धान्तरूपी अश्वपरारूढ हो सुत्रों का पठन पाठनरूपी वार्जित्रके नादसे कर्मरूपी शत्रुवों तथा अन्यमतियों रूपी वादीयोंका पराजय करता शासन की प्रभावना करते हुवे शोभे । (४) जेसे अनेक हस्ताणियोंके वृन्दमें युवक हस्ती अपने व्यपरिमत प्राक्रमसे अन्य हस्तीयोंकों पराजय करता हूवा शोभे इसी माफीक बहुश्रुति महाराजरूपी गन्ध हस्ती प्यार प्रकारकि बुद्धि और तर्क वितर्क समाधानरूपी परिवार से स्वाद्वादरूपी प्राक्रमसे अन्ववादीयोंरूपी हस्तीयोंका पराजय करता हुवा शासनमें शोभनिक होता है । (५) जेसे तीक्षण श्रृंग करके मरूस्थल देशका वृक्षम अन्य देशोंका वृक्षभोंमें प्राक्रमी और शोभनिय होता है इसी माफोक मुनिमंडल में स्वमत्त परमत्तके ज्ञातारूप शृंग तथा उत्सर्गोपवादरूपी तीक्षण शृंगोंकर अन्य नास्तिकादि बादीयोंका पराजय करते हूवे चतुर्विध संघका समुहके अन्दर शोभनिक होते है । (६) जैसे तीक्षण दाढोकरके सिंह महान वनके अंदर अन्य पशुवोंमें स्वप्राक्रमसे सर्व वनमें गर्जना करता हुवा कीसी से भी पराभव नहीं होते है । इसी भाफीक मुनिमंडल में बहुश्रुतिजी महाराज स्वज्ञान प्राक्रम और नैगमादि सातनयरूपी तीक्षण दाडोसे सत्य तत्व परूपणारूपी गर्जना करते हुवे अन्य वादियोंरूपी प्रशुवको पराजय करते हुवे शासन में अधिक शोभायमान होते है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) जेसे सङ्क गदा चक्र और सग्रामीक स्थ करके अनेक रामा महाराजावोंका मानको मर्दन करता हूवा वासुदेव शोभता है। इसी माफीक मुनिमंडलमें बहुश्रुतिनी महाराजा सिद्धोतरूपी रथ ज्ञान गदा दर्शनचक्र संयमरूप सङ्क और निज मतिरूपी भुनावोंसे वादीयोंपर विजय करता हुवा शासनमें शोभनिय होता है । (८) जेसे अश्व गन रथ चौरासी चौरासी लक्ष तथा छीनवक्रोड पैदल नवनिधान चौदारत्न करके, भुमंडलके च्यारो दिशाके वादीयोंपर दिग्विजय कर लेता है । इसी माफीक मुनिमंडलमें बहुश्रुतिजी महारान द्रव्यानुयोग गणतानुयोग चरणाणुयोग धर्मकथानुयोग रूपी शैन्य चवदा पूर्वरूपी चवदारत्न नव तत्त्व रूपी नवनिधान पंच महाव्रतरूपी एरावण नामका गन्ध हस्तीके शुक्ल ध्यानरूपी दन्ताशुल, शुक्ललेश्या रूपी अंबाडी, स्याद्वादरूपी होने तर्फ गंटाके नाद तथा अठावीस लंब्धि रूपी महान् ऋद्धिके परिवारसे जिनेन्द्राज्ञा रूपी सुदर्शन चक्र और नववाड विशुद्ध ब्रह्मचार्य रूपी स्नहा बक्तरसे सज्ज होके चार गसिके भव भ्रमन रूप जो शत्रु तथा दुनियोंकों उलटे रहस्ते लेजाने वाले पाखंडी रूपी बादीयोंका पराजयके साथ शासनकि प्रभावना करते हुवे बहुश्रुतिमी महाराज शोभनीय होते है। (९) जेसे सहस्र चक्षुवाला मौधर्मेन्द्र सामानीकदेव, परषदा- १ सौधर्मेन्द्र पूर्व क्रतीक सेठके भवमें १००८ गुमास्तोंके सायें १ दीक्षा ली थी जिस्मे ५०० मुनी इन्द्रके सामानीक देव पणे उत्पम हवे थे वह सभाके अन्दर साथ रहने से उन्हों के १००० चक्षु इन्द्र ही के माने जानेसे सहस नेत्रोंवाला कहा है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केदेव, अनकाकेदेव, अग्रमहेषीदेवांगनाओं आदिके परिवारसे हाथमें वजधारण कीये हुवे दैत्य देवोके पुरको भागता है। इसी माफीक मुनी मंडलमें बहुश्रुतिनी महाराज श्रुतज्ञानरूपी सहस्रचक्षु और निनाज्ञा रूपी वज्र और क्षात्यादि अनेक उमारावोंके साथ परमत्तिरूपा दैत्योंका पराजय करनेमें कटीबद्ध हूवे शोभते है।। (१०) जेसे सहस्र कीर्णकर प्रकाश करता हूवा सूर्य अन्धकारका नाश करते हैं और जेसे जेसे सूर्य तापक्षेत्रके मध्यभागमें आवे वेसे वेसे अपनि तेनका अधिकाधिक प्रकाश जाज्वळामान करते हुवे अपनि लेश्याकों छोडते है । इसी माफीक बहुश्रुतिनी महाराज आत्मशक्ति रूपी कर्णो सहित ज्ञान रूपी सूर्यसे मिथ्यात्व और अज्ञान रूपी अन्धकारका नास करते है। जेसे २ ज्ञान पर्यव और संयम श्रेणी परिणाम बडते है वेसे वेसे शत्रु (कम) वों पर प्रज्वलन तेज पडते ही शत्रु भस्म समान हो जाते है और प्रसस्थ लेण्याद्वारे पाखंडी अधर्म परूपोंका पराजय करते हुवे शासन प्रभावीक बहुश्रुतिजी महाराज सुशोभायमान होते है। (११) जेसे गृहगण नक्षत्र तारावोंके समुहसे पूर्णमासीका चन्द्र शोभनिक होता है इसी माफीक बहुतसे पद्विधर मुनि तथा शिष्य प्रशिष्यके परिवारसे ज्ञान समऋद्धिसे बहुश्रुतिजी महाराज शोभनिय होते है। (१२) जेसे चौरादिके भय रहित स्थान भंडार कोठरादिमें गृहस्थोंका धन धान्यादि बादा रहीत शोभनिय होता है इसी माफीक प्रमादादि चोरोंका भय रहीत बहुश्रुतिजी महाराज श्रुत धर्म चरित्र धर्म और क्षात्यादि नाना प्रकारका जो भावसे . ... ... .. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन धान्य है वह अव्यावादसे शोभनिय होता है। .. — (१३) जेसे सर्व वृक्षोके अन्दर अनहित देवका भुवन कर सुदर्शन नामका वृक्ष मनोहर सुंदर आकृतिवाला देवोंको भी रमणीय है इसी माफीक अन्य मुनिमंडलमें बहुश्रुतिजी महाराज अनेक नय विक्षेप स्वादाद धर्मरूपी भुवनकर शोभनिय है। (१४) जेसे अन्य नदीयोंके अन्दर निलवन्त पर्वतके केसरी बहसे निकलके बडहीं विस्तारसे अन्य ५३२००० नदीयोंके परिवारसे सीतानदी लवण समुद्र के अन्दर प्रवेस होती शोमनिय है। इसी माफीक अन्य मुनिमंडलमें नो राजादि उत्तम कुलसे निकले हूवे बहुत परिवारसे प्रवृत और श्रुत ज्ञानरूपी विसाल और निर्मल जलसे मोक्षरूपी महान् गंभीर तथा अक्षय स्थानमें प्रवेस होते हूवे बहुश्रुतिजी महाराज शोभनीय होते है। .. ____ (१५) जेसे अन्य पर्वतोंके अन्दर उर्ध्व गमनापेक्षा केलासगिरि (मेरू) पर्वत जो कि सनीवनि आकाशगामनि चित्रावेली विषहरणी शस्त्रनिवारणी रोगनासक रससादक बसीकरण रोहमी आदि औषधियों संयुक्त तथा अनेक उदंड वायुके चलनेपर भी क्षोभ न पानेवाला और देवतोके मानन्दका सुन्दर मन्दिर चार प्रभावशाली वनोंकर सुमेरू मिरि शोमनिय है। इसी माफिक मुनिमंडलमें। अमोसही नलोसही विप्पोसही सव्वासही आदि अनेक लब्धियोंरूपी औषथियोंसे अलंकृत तथा हजारों बादीयोंका वेग चलनेपर तथा अनेक परिसहसे क्षोभ नहीं पामता हूवा चतुर्विध संघको आनन्दका स्थान और द्रव्यानुयोग गीणतानुयोग चरणाणुयोग धर्मक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) भानुयोग तथा दानशील तप भावना रूपी च्यार बनो करके शासनमे बहुश्रुतिनी महाराज शोभनिय होते है। (१६) जेसे सामान समुद्रोंके अन्दर महान् पदसे भूषीत अनेक रत्नोंका खजाना और अथाग जलसे भरा हुवा सयंभूरमण समुद्र अनेक कमलोंसे शोभायमान है, इसी माफीक अन्य साधुवोंके अन्दर महान् पद भोक्ता और ज्ञानादि अनेक रत्नोंका खजाना रूप तथा श्रुतज्ञानरूपी अथाग और निमल जलसे परिपूर्ण तथा चतुर्विध संघ और देवता विद्याधरों जो कि जिनवाणीरूपी सुवासीत कमलोंकि सुगन्ध ग्रहन करनेको भ्रमर सादृश एसे समुहके परिवारसे बहुश्रुतिनी महाराज प्रतिदिन अधिकाधिक शोभते हुवे शासनमें सिंह गर्जनकि माफीक अपना सद्ज्ञानद्वारे चादीयोंका पराजय करते शासनकि प्रभावनाको प्रकाश करते है । यह १६ औपमा, नाम मात्रसे ही बतलाई है परन्तु दीर्घदृष्टि से विचार करनेसे ज्ञात होता है कि शासनका आधार ही बहुश्रुतियों पर रहा हुवा है वास्ते बहुश्रुतियोंकी सेवा उपासना कर स्याद्वाद नय निक्षेप उत्सर्गोपवाद सामान्य विशेषादिका ज्ञान हासिल कर बहुश्रुति बननेकि कोशीष आवश्य करना चाहिये । तांके स्वपरात्माका कल्यान शीघ्र हो । शम् । नं. १० सूत्र श्री सूयघडायांगदिसे । ( च्यार समौसरणीयोंके ३६३ भेद ) श्री तीर्थकर भगवानने स्याद्वादरूपी शासन फरमाया है Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण एक पदार्थमें अनेक धर्म है उन्होंको स्याहाद द्वारा कथन करनेसे ही धर्मोसे ज्ञात हो शक्ते है परन्तु जगतमे कितनेक अल्पज्ञ अपनि मान प्रतिष्टा न करानेके लिये अपने मनमें आई ऐसी ही परूपणाकर विचारे मुग्धजीवोंको हठकदाग्रहमें डालके दीर्घ संसारके पात्र बना देते हैं वास्ते पेस्तर वस्तु धर्मको समझनेकि खास जरूरत है कि कोनसे मत्तवाले तत्वोंकों कीस रीतीसे मानते है और ऐसा मानने में क्या युक्ति या परिमाण है । यद्यपि इसी विषयमें बहुतसे ग्रन्थ बना हूवा है परन्तु साधारण मनुष्य स्वल्प परिश्रमद्वारा ही लाभ उठाशके इस वास्ते यहां पर संक्षेप्तसे ही ३६३ मतोंका हम परिचय करा देते है। समौसरण च्गर प्रकार के है। (१) क्रियाबादी (२) अक्रियाबादी (३) अज्ञानबादी (४) विनयबादी । अब इन्होंका विवरण करते हैं । (१) क्रियाबादीयोंका मत्त है कि जो जीवोंकों सद्गति प्राप्ती होती है यह क्रियावोंसे ही होती है। किन्तु ज्ञानादिसे नही कारण पत्थरकि शोला चाहे कीतने ही चित्रोंसे चित्री हुई क्यों न हो परन्तु पाणी में रखने पर तो वह शीघ्र ही रसतलका राज ही करेगी अर्थात् पाणीमें डुब जावेगी इसी माफीक कीतना ही ज्ञान क्यु न पढ़ा हो परन्तु मरने पर तो अधोगति ही होगा । वास्ते क्रिया ही प्रधान है एसी परूपणा क्रिया बादीयों. कि है और उन्होंके भी तो १८० मत अलग अलग है यथा (१) कालबादी (२) स्वभाववादी (३) नियतवादी (४) पूर्व कर्म- . बादी (१) पुरुषार्थबादी। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२ ) (१) कालबादीयोंका मत्त काळवादी कहते हैं कि सर्व पदार्थों कि उत्पति कालसे ही होती है जैसे कालसे ओरतों गर्भधारण करती है, कालसे ही पुत्रका जन्म होता है कालहीसे वह पुत्र चलता है, बोलता है युवक होता है वृद्ध होता है, कालहीसे दुद्धका दही बनता है, कालसे ही षट् ऋतुवोंका भिन्न भिन्न परिणाम होना फलका देना और इन्ही जगतके अन्दर अवतारी पुरुष माना जाते है वह भी काळसे ही होते है ऐसेही चक्रवर्त वासुदेव बलदेवादि महान् पुरुष होते है वह सव कालसे ही होते है अगर कालके सिवाय होते ओरतों ऋतु धर्मके सिवाय गर्भ क्यु नही धारण करती है यावत कलीकालमें अवतारीक चक्रवर्त वासुदेवादि क्युं नही होते है वास्ते सर्व पदार्थ कालसे ही होते है यह हमारा मत्त सुन्दर है, सर्व जन समुहको मनन करने योग्य है । (२) स्वभावबादी - स्वभावबादीयोंका मत्त है कि काल कि अपेक्षाकी क्या जरूरत है । जगतमें जितने पदार्थ है वह सब स्वभावसे उत्पन्न होते है और स्वभावसे ही विनास होते हैं। जेसे युवक स्त्रि अपने पतिके साथ भोग विलास करती है ऋतुधर्म भी होती है तद्यपी कीतनीक बद्य अर्थात् गर्भ धारण नही करती है वास्ते कालकि आवश्यक्ता नही है परन्तु स्वभाव ही प्रधान है। देखिये स्त्रीयोंके दाडीमुच्छके केस न होना हताली में रोम न होना निंबके वृक्ष आम्रका फल न लगना, मयूरकि पांखोंके चित्र, सायंकालमें वादलोंका पंच रंग होना धनुषका खंचना बंबुल के कंटे तीक्ष्ण होना मृगके नयन रमणीय होना अग्निकि ज्वालाका उर्ध्व गमन पर्वतोंका स्थिर रहेना वायुका चलना जलकि तरंगो, Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) माकाशमें पक्षीयोंका गमन होना, सूर्यकि आताप, चन्द्रके शीतता, और कोलका मधुर स्वर यह सर्व पदार्थ स्वभावसे ही होते है बास्ते कालकि अपेक्षा करना बड़ी भारी भूल है सिवाय स्वभाबके कोई भी पदार्थ नहीं है वास्ते हमारा मत्त सबमें अच्छा है। :: (३) नियत बादी - नियत बादीयोंका मत्त है कि काल स्वभाबकि आवश्यक्ता नहीं है जो भवतव्यता हो बह ही कार्य होता है। उन्हीकों महान् समर्थ इन्द्रादिक भी मीटा नहीं सक्ते है और मोन होना योग्य कार्यको कोई अवतारादि भी करने को समर्थ नहीं है जैसे करसान लोक मूमिमें बीज बोते है उन्हीं में कीतनेक तो मूत्र से ही नष्ट हो जाते है कितनेक अंकुरे उगते ही नष्ट हो जाते है और भवितव्यता होते है वह फल द्वारा प्राप्त होते है । इसी माफीक वृक्ष और गर्भके जीव भी समझ लेना । तथा अभव्या जीवोंको काळ और जातीभव्य जीवोंको स्वभाव प्राप्ती होनेपर भी सोक्ष न जाना यह भी तो एक भवितव्यता ही है। ऋषि मुनि ध्यान लगाके प्रयत्नोंके साथ मनको अपने कब्जे करना इमेश चाहते है । परन्तु भवतव्यता हो जब ही साधन होता है रोग नष्टके लिये हजारों औषधियों लेते है परन्तु भवीतव्यता बिनो रोग नष्ट नहीं होते है इत्यादि सर्व पदार्थ भवितव्यता के ही अधिन है सिवाय भवीतव्यता के कुच्छ भी करने समर्थ कोई भी नहीं है वास्ते हमारा मानना अच्छा है | (४) कर्मबादी = कर्मबादीयोंका मत है कि मो कुच्छ होता Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४ ) है वह पूर्वकर्मोकी प्रेरणासे ही होते है जेसे दो मनुष्य एक ही कीमा पार करते है जिसमें एकको लाभ दुसरेको नुकशान हो यह पूर्वकमका ही फल है एसे ही एक पिताके दो पुत्र है एक राज करता हजारोंपर हुकम चलाते है दुसरेको उदर पोषणको ना ही कष्टसे मीलता है, दो करसानि क्षेती करे जिसमें एकको मौद्ध धान होता है दुसरेकों कुच्छ भी नही यह भी पूर्व कर्मोंकाही फल है। एसा भी नही मानना चाहिये कि इस्मे उद्यम करना प्रधान है क्युकि एक मूषकने अपने उदर पोषणके लिये एक छाक काटना सरू कीया उन्ही छाबके अन्दर एक सर्पथा छायकों काटके मूषक अन्दर गया तो सर्पने मूषकका भक्षण करलिया अलम् उद्यम भी कुच्छ फल दाता नहीं है किन्तु फल दाता पूर्व कृत कर्म ही है तथा अवतारी पुरूष चक्रवर्त बलदेव वासुदेव सेठ इत्यादि जो दुःखी सुखी रोगी निरोगी यश अयश आदय भनादय सुस्वर दु:स्वर सुशील दुशील चातुर्य मूर्खता इत्यादि होना सब पूर्वकृतकर्म है सिवाय कर्मोंके कुच्छ भी नही होता है वास्ते हमाराही मानना सुन्दर है । (५) पुरुषार्थबादी - पुरुषार्थबादीका मत्त है कि न काल न स्वभाव, न नियत और न कर्म, जो कुच्छ होता है वह सब पुरुषार्थ से ही होता है जेसे दुद्धसे वृत निकलना हो उन्हीमें काल स्वभाव नियत और पूर्वकर्म कि जरूरत क्या है वह घृत पुरुषार्थसे ही प्राप्ती हो शक्ता है न कि पूर्वकर्म कर बैठ जानेपर दुइसे वृत निकल शकता है एसे तीलोसे तेल, पुष्पोंसे अत्तर, धुलसे धातु, पृथ्वीसे पाणी नीकालना, क्षेती कर धान्य पैदास करना यह सब Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) कार्य पुरुषार्थसे ही प्राप्ती हो शक्ते है । और अनेक कला कौशल्य जान ध्यानादि सब पुरुषार्थसे ही होता है इतना ही नही बरके क्षुषा लागनेपर भोजन बनाना भी पुरुषार्थसे ही बनता है न कि पूर्व कर्मोसे, वास्ते सर्वकार्यों कि सिद्धि पुरुषार्थसे ही होती है गास्ते हमारा ही मत अच्छा है । * क्रियावादीयोंके १८० भेद है यथा । कालबादीयोंका मूल च्यार भेद है यथा । (१) एक काल * यह काल, स्वभाव, नियत, पूर्वकर्म और पुरुषार्थ, पांचों वादियों एकेक समवयकों मानते हुवे दुसरे च्यारच्यार बादीयोंको असत्य ठेराते है परन्तु उन्होंको यह ख्याल नहीं है कि एकेक . समवयसे कबी कार्यकि सिद्धि होती है अर्थात् नहीं होबे वास्ते ही शास्त्रकारोंने एकान्त बादवालों को मिथ्यात्वी केहते है । और उक्त पाचों समवय परस्पर अपेक्षा संयुक्त माननेसे कार्यकि सिद्धि होती है उन्हींकों ही सम्यग्धष्टी कहे जाते है जैसा कि एकले काळसे सिद्धि नहीं परन्तु साथमें स्वभाव भी होना आवश्य है काल स्वभाव दोनोंसे भी सिद्धि नहीं किन्तु साथमें नियत भी होना चाहिये । कालस्वभाव और नियत इन्ही तीनोंसे सिद्धि नहीं परन्तु साथमें पूर्वकर्म भी होना चाहिये । इन्ही च्यारोंमे मी सिद्धि नहीं किन्तु साथमें पुरुषार्थ भी होना चाहिये एवं जैन दर्जनमें कालस्वभाव नियत पूर्वकर्म और पुरुषार्थ इन्हीं पांचोंको सायमें रखके ही कार्यकि सिद्धि मानी गई है। नकि एकेकसे । इसी वास्ते एकान्त एकेकको माननेवालों को मिथ्यात्वी कहा है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. (४६) . बादी जीवको अपनि अपेक्षासे नित्य मानते है (२) दुसरे काल. बादी जीवकों अपनी आपेक्षा अनित्य मानते हैं (३) तीसरा कालबादी पर की अपेक्षा जीवकों नित्य मानते है (४) चौथा कालबादी परकी अपेक्षा नीवकों अनित्यमानते है इसी माफोक अभीव पुन्य पाप आश्रव संबर निर्जरा बन्ध मोक्ष इन्ही नव पदार्थोंकों च्यार च्यार प्रकारसे माननेसे ३६ मत्त कालवाद योंके है इसी माफीक स्वभावबादीयोंके ३६ नियत बादीयोंके २६ पूर्व कर्मवादीयोंके ३६ पुरुषार्थ वादीयोंका ३६ सर्व मीलके १८. भेद क्रियवादीयोंके होते है। (२) अक्रियावादी प्रक्रियावादीयोंके मत्त है कि साधनकार्योंमें क्रियाकि आवश्यक्ता नहीं है। किया तो वालजीवोंको पापका भय और पुन्यकि लालचा देखाके केवल पक तरहका कष्ट ही देना है इन्हीं कष्टसे कोई भी प्रयोजन साधन नहीं होता है वस्ते हमारा मत्त ही श्रेष्ट है कि अक्रियसे ही सिद्धि होती है इन्हीं अक्रिय बादियोंके भी अनेक मत्त है जैसे। मीमंसि मतवालोकि मान्यता है कि सर्व लोक व्यापत आत्मा एक ही है और अलग २ शरीरमें जैसे हमार पात्र में पाणी है ओर एक ही चन्द्रका प्रतिबिंब सब पात्रों में देखाई देते है, इसी माफीक एक आत्मा अलग २ शरीरमें दीखाई देते है। जब आत्मा (ईश्वर) का एकेक अंस घरीरमें दीखाई देता है वह पुनः इश्वरके रूपमें समा झावेगा तब मुख दुःख रूपी जो पुण्य पाप कहे जाते है उसका मुक्ता कोई भी नहीं रहेगा कारण पाप तथा पुन्य करनेवाला तो इश्वरके रूपमें मील जावेगा। वास्ते कष्ट . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) किया करना निष्फल है इसीसे हयार भक्रिय मत्त ही ठीक है। - नैयायिक मत्त एक इश्वर ही को जीव मानते हैं शेष पंचभुत बादियोंका मत्त है कि पंचभुतसे ही यह पण्ड (नीवात्मा) बनता है जैसे कि । (१) पृथ्वी तत्वसे-हाड हाडकिमीनी दान्तादि । (२) अपतत्वसे-लोही (रौद्र) मेदचरबी आदि। (३) तेनस तत्वसे-तेजस या जेष्टाराग्नि । (३) वायु तत्वसे-श्वासोश्वासादिका लेना। (५) आकाश तत्वसें सबको स्थानका देना। इन्ही पांचों तत्वसे पुतला बनता है और यह तत्व अपने अपने रूपमें भी मीलनानेपर पुन्य पाप रूपी मुख दुःखका भुक्त कोई भी नहीं होगा वास्ते क्रिया, कष्ट सामन्य है और मेरा हो मानना ठीक है। क्षणकबादीयोंका मत्त है कि जीवादि सर्व पदार्थ क्षणक्षणमे उत्पन्न होते है और क्षणक्षणमें नष्ट होता है जब सर्व पदार्थ ही क्षणक्षणमें पलटते जाते हैं तो पुन्य पाप कोन करे और कोन भुक्ते वास्ते क्रिया करना कष्ट ही है । इत्यादि । _ अक्रियावादीयोंका ८४ मत्त है। (१) कालबादी (२) स्वभाववादी (३) नियतबादी (४) पूर्वकर्मवादी (५) पुरुषार्थवादी इन्होंका विस्तार क्रियावादीयों कि माफीक समझना परन्तु यह लोक भौख्तामें क्षणक्षणमें पदार्यका उत्पन और विनास होना मानते है और छटा यद् इच्छा (ना. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) स्मात्र) अर्थात् इच्छानुस्वार पदार्थ होते है एवं ६ बादीयों स्वपक्ष जीवोंको अनित्य मानते है और छे बादीयो परपक्ष जीवोंको अनित्य मानते है एवं १२ बादीयोंकि जीव मन्यता है इसी. माफीक अजीव अश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, और मोक्ष, इस साव तत्वको १२ बादीयों अलग अलग मानते है वास्ते बारहकों सात गुणा करनेसे ८४ मत होते है अक्रियावादी पुन्य और पापकों नहीं मानते है शेष ७ तन्वमानते है। (३) अज्ञानबादी-अज्ञानवादीका मत है कि जगतमें अज्ञान है वह ही अच्छा है कारण अज्ञान बालोंको कभी रागद्वेषरूपी संकल्प विकल्प न होते है एसा होनेसे अध्यवशायों का मलीनपणा भी नहीं होता है वास्ते अज्ञान ही अच्छा है और ज्ञान तो प्रसिद्ध ही कर्मबन्धका हेतु है कारण दुनियोंके अन्दर जो ज्ञानी है उन्होंके सन्मुख कोई भी अनुचित कार्य करता होगा तो ज्ञानीयोंको अवश्य संकल्प विकल्प होगा देखिये यह केसा मूर्ख आदमि है कि अनुचित कार्य करता है और भी हिताहितका विचारमें ही आयुष्य पुरण कर देता है अर्थात ज्ञानीयोंका चित्त स्थिर रहेना असंभव है और चित्त कि चंपलता है वह ही कर्म बन्धका हेतु है यह बातों नितिकारोंन भी स्वीकारकरी है कि मनानसे किसी प्रकारका गुन्हा हूवां हो तो इतनी शक्त सज्जा नहीं होती है और जानके नुकशाना किया हो उन्होंकों शक्त सजा होती हैं वास्ते अज्ञान ही अच्छा यह हमारा मनना सुन्दर है। .. अझानबादीयोंका ६७ मत्त है। ..... (१) जीबका सत्यपणा (९) जीवका असत्यपणा (३) जीवका Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) पीसत्यपणा (१) जीवका अवाच्यपणा (५ जीवका सत्यावच्य (६) जीवका असत्यावच्यपणा (७) जीवका सत्यासत्यवाच्यपा। इन्ही सात प्रदोंमें अज्ञान मौख्य है। जैसे जीवपर ७ वोक है इसी माफोक अजीव, पुन्य, पाप, आश्रव, संकर, निजरा, बन्ध, मोक्ष एवं नवतत्वको सात सात प्रकारसे माननेसे ६३ मत्त होते हैं और पदार्थकों सत्यपणे, असत्यपणे, सत्यापत्यपणे और अयाच्यपणे एवं ४ पूर्व ६ ३ में मीला देनेसे ६७ मत्त अज्ञानबादीयाका होता है। (४) विनयवादी-विनयवादीयोका मत्त है कि क्रिया हो चाहे अक्रिय हो चाहे अज्ञान हो इन्होंसे कार्य कि सिद्ध नहो है। जो कुच्छ कार्य कि सिद्धि होती है वह विनयसे ही होती है। विनयसे माता पिता गुरू देवता और रानादि सर्व विनयसे हो प्रश्न होते है वास्ते विनय ही कारणा शोभा यश कीर्ति मान पूना भवान्तर में ऋद्धि प्राप्तीका पूर्ण साधन है इन्ही विनयवादीयोंका १२ मत्त है । यथा=(१) माताका विनय करना (:) पिताका विनय करना (३) गुरुका विनय करना (४) धर्मका विनय (५) जानका विनय (६, राजाका विनय (७) मर्यका विनय (८) श्रमण गादि वडोका विनय । एवं इन्हो आठोका मनसे, वचनसे, कायासे, दान सन्मान देनेसे यह च्यारों प्रकार के विनय करनेसे ८x१=३२ प्रकारका विनयवादीयोका मत्त है। . (१) क्रियावादीयोंका मत १८० (३) अज्ञानवादीयोंका सत्र १७ (२) मक्रियाबादीयोंका मत १ (४) विनयवादीयोंका मच ३२ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) पूर्वोक मत्तवादीयोंने जीवादि नव तत्व माना है. इन्होंका खास कारण यह है कि कीसी समयमें जैनोंक अन्दरसे निकलके अपने अपने मनः कल्पना कर अपना अपना मत्तको स्थापन किया है। ___ "पदर्शन जिन अंगमणिजे ". परमयोगीराज महात्मा आनन्दघनजी महारानके महावाक्यसे सिड होता है कि षट्दर्शन है वह एक अपेक्षासे जैनोंका एकेक अंग है परन्तु इन्ही बादीयोंने एकान्त नयकि अपेक्षासे अपने माप सत्य और दुसरोंकों असत्य ठेराते है वास्ते इन्ही एकान्तबादीयोंको मिथ्यात्वी केहते है। ___ श्री वीतराग तीर्थकर भगवानोंने केवलज्ञान केवलदर्शन द्वारे सर्व लोकालोकके पदार्थों को हस्ताम्बलकि माफीक देखके भव्य मीयोंकि कल्याणार्थे पदार्थकि परूपणा करी है वह स्याहाद अने. कान्तवाद सापेक्षपरूपणा करी है उन्होंको सम्यक् प्रकारे बहुश्रुतिः मी महाराजसे विनयपूर्व श्रवण कर सच्च अदना रखनेसे ही इस बारापार संसारका पर होगा। इति शम् । थोकडा नम्बर ११ सत्र श्री भगवतीजी शतक १ उदेशो ८ वा (आयुष्य बन्ध) (१०) हे भगवान् । जीव कितने प्रकारके है। (उ०) जीव तीन प्रकार के है यथा (१) बालजीव, प्रथम, दुसरा, तीसरा, और चोथागुणस्थान वर्तता जीव इन्ही च्यार गुणस्थानोंकि जीवोंको व्रत अपेक्षा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) बाल काहा है कारणके च्यार गुणस्थाने व्रत नहीं होता है। वास्ते एकान्त बाल भी कहते है। (२) पंडित बीव छटेसे चौदहवां गुणस्थानक यह नव गुणस्थानके जीव सर्व व्रती है वास्ते इन्होंको एकान्त पंडित (1) बालपंडित जीव-पांचवे गुणस्थान जो व्रताव्रती (श्रावक ) हे इन्होंको बालपंडित, कहते है। - (प्र०) हे भगवान् । एकान्त बालजीव आयुष्य कीस गतिम कन्धते है। (उ०) एकान्त बालनीव, नरक, तीर्यच, मनुष्य, देव इन्ह यारोंगतिका आयुष्य बन्धता है परन्तु इतना विशेष है कि चोथे गुणस्थान वृति नारकी देवता तो मनुष्यका मायुष्य और तीर्यच, मनुष्य, वैमानी देवका आयुष्य बान्धता है। (१०) एकान्त पंडित जीव भायुष्य काहाका बन्धता है।' ___ (उ०) एकान्त पंडित जीव स्यात आयुष्य बान्धे स्वात नहीं मि बान्धे क्योंकि एकान्त पंडित जीव कर्म क्षयकर मोक्ष मि जाता है वास्ते अयुष्य नहीं भी बान्धे । बगर बन्धे तो केवल वैमानिक, देवोका ही आयुष्य बान्धे । . (पभ) बाल पंडित जीव-आयुष्यहाका बन्धे ? (उ०) बालपंडित (श्रावक) वैमानिक देवतावोंका ही मायुष्य बन्यता है और जो जीव जीस गतिका मायुष्य बांधता है नोव उसी गतिमें उत्पन्न होता है यह सर्वत्र समझता। ' (प्रश्न) हे भगवान् वीर्य कितने प्रकारका है ? Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (उ०) वीर्य दोय प्रकारका है (१) सकरण वीर्य जो कि उस्थानादि कर्म कीया जाय, उनोसे योगोंका व्यापार कि प्रवृति होती है (२) अकरण वीय जो कि आत्माका निमगुण प्रगट हो उस्थानादि अपेक्षा रहीत होता है। यहांपर जो प्रश्न करते है वह सकरण वीयकि अपेक्षासे ही करते है । (प्र०) हे भगवान ! जीव सर्वयं है या अवीर्य है ? (उ०) जीव मवीर्य तथा अवीर्य दोनों प्रकारके है ? . (प्र०) हे करुणसिन्धु । इसका क्या कारण है। (उ०) जीव दोय प्रकरके है (१) सिद्ध (२) संसारी निस्मे सिड हे सोतों कारण वीर्य अपेक्षा अवीय है क्युकि उन्होंको तों उस्थानादि योग्य व्यापार क्रिया हे ही नहीं। और संसारी जीवोंके दोय मेद है । (१) सलेश प्रतिपन्न चौदह वा अयोग गुण थान व ले जी अव य है (२) असलेश प्रतिपन्न प्रथमसे तेरहवा गुणस्थ नके जीव सवीर्य है इसमें भी प्रथम दुमरा और चोथा गुणस्थान परभव गमन समय होते है उसमें जो विग्रह गति करते है इतने समय लब्धिवीर्य अपेक्षा सवीय है और करण वीर्य अपेक्षा अवीर्य है। (प्र) हे भगवान् । नारकी क्या सवीर्य है या अवीय है । (उ) सवीर्य है परन्तु परभव गमनापेक्षा लब्धिवीर्य अपेक्षा सवीर्य और करणवीर्य अपेक्षा अवीर्य है शेष समय सवीर्य है एवं मनुष्य वर्जके शेष २३ दंडक सादृश ही समझना । मनुष्यका दंडक समुच्चय सुत्रकि माफिक समझना, मावना पूर्ववत समझना। इति । सेवं भंते सेव भंते तमेव सचम् । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) थोकडा नं० १२ श्री भगवती सूत्र श० १ उद्देशो ९ (अगरुं लघु) - (प्र.) हे भगवान् । जीव भारी ( कर्मकरके ) किस कारनसे होता है ? - (उ०) प्रणातिपात (जीवहिंसा : मृषावाद ( झूठ बोलना) अदत्ता दान ( चोरी ) मैथून, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान ( झूठा कलंक ) पैशुन । चुगली) रति, मरति, पर परिवाद, माया मृषाबाद, और मिथ्यात्व शल्य इन अठारह पापस्थानसे जीव भारी होता है। (५०) हे भगवान् । जीव हलका कीस कारनसे होता है ? . (उ०) पूर्वोक्त अठारह पापस्थानका घिरमण ( निवृति) करनेसे जीव कर्मले हलका होता है। (५०) हे भगवान् ! जीव संसारकी वृद्धि किपसे करता है ? (उ०) अटारह. पापस्थानके सेवन करनेसे (५०) हे भगवान् ! संसारका परत जीव किससे करता है ? (उ०) अठारह पापस्थानसे निवृति होनेसे (प्र०) दीर्घ संसार किससे करता है ? (उ०) अठारह पापस्थानके सेवन करनेसे (१०) अल्प संसार किससे करता है ? (उ०) अठारह पापस्थानसे निवृत्त हानेसे .' (प्र०) संसारमें परिभ्रमण किससे करता है ? (उ०) अठारह पापस्थानके सेवन करनेसे Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) (प्र०) संसारसे कैसे तरता है ? ( उ० ) अठारह पापस्थान से निवृत्त होने से अगरुलघुके ४ भांगे | (१) गरु== पत्थरादि (९) लघु = घूमादि निश्चय नयकी अपेक्षा सबसे हलका और सबसे भारी द्रव्य नहीं हो सक्ता कारन जो अरुपी और (३) गुरुलघु = वायु आदि (४) अगरु लघु = भाकाशादि चार स्पर्शवाले द्रव्य हैं वे अगरुलघु होते हैं और शेष माठ स्पर्शवाले रुपी द्रव्य, गुरुलघु होते हैं। परंतु व्यवहार नयकी अपेक्षा पूर्ववत गुरु, लघु, गुरुलघु, जगरुलघु, ये चार भागे बन सक्ते हैं इस लिये यहां व्यवहार नयकी अपेक्षासे कहते हैं । (प्र०) हे भगवान् ! सातमी नरकका आकाशान्तर में गुरु, आदि चार भागों में से कौनसे भागे में हैं ? ( उ ) ० केवल एक अगरुलघु भागा है शेष तीन मार्ग नहीं । (प्र) ० सातमी नारकी तन वायुकी पृच्छा ? ( उ ) ० गुरुरघु है शेष तीन भागे नहीं । एवं घन वायु, धनोदधि, और पृथ्वी पिंड भी समझना । यह पांच बोल सातमि नारकीके कहे हैं। इसी तरह सातो नारकीके ५-५ वोल लगा. - वैसे ३५ बोल हुवे । जिसमें सात भाकाशांतर में चोथा भागा। - शेष २८ बोलों में तीसरा भागा एवं असंख्यात द्वीप और असंख्याता समुद्र में भी तीजा भांगा समझना । नरकादि १४ दंडक के जीव और कार्मण शरीरकी अपेक्षा चौथा भांगा समझना । शेष अपने २ शरीरापेक्षा तीसरा भागा पावे । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, माकाशास्ति और जीवास्तिजाबमें चोथो मांगो, पुद्गलास्तिकायमें परमाणुसे सुक्ष्म अनंतप्रदेशी पौसी स्कन्ध और कालके समबमें चौथा भागा। शेषमें तीमा भागा। आठ कर्म, छे भाव लेश्या, तीन दृष्टि, चार दर्शन, पांच शान, तीन मज्ञान, चार संज्ञा, कार्मण शरीर, मन वचनके योग, साकार, अनाकार उपयोग, मूत, भविष्य, वर्तमान काल इन ४१ बोलोंमें चौथा भागा पावे। .... छे द्रव्प लेश्या, कार्मण शरीर वनके चार शरीर और कायके बोम्य इन ११ बोलोंमें भागा तीमा पावे और सर्व द्रव्य, सर्व प्रदेश, सर्व पर्यायमें स्यात तीना स्यात चौथा भागा पावे। भावार्थनहीं मरूपी तथा रूपीमें च्यार स्पर्शवाले बोलोंमें 'अगुरुमधुर भागा है और रूपी मठ स्पर्शवाले बोलोंमें 'गुरु धु' मांगा समझना । इति । . (०) आधा कर्मी आहारादि भोगवनेसे साधु क्या करे। क्या बांधे क्या चिमे इत्यादि ? . (३०) आधा कर्मी भोगनेवाला सात कर्म स्थिल बांधा हो तो खुब जोरसे धन वान्थे । अल्प कालकी स्थितिको दीर्घकालकी स्थिति करे; अल्प प्रदेश हो तो बहुत प्रदेश करे । मंद रसवान हो तो तीव्र रसवाला करे। मायुष्य कर्म स्यात् वान्धे स्यात् न बांये परंतु असाता वेदनी वारंवार वांधे । जिस संसारका आदि और अंत नहीं उसमें वारंवार परिषटन करे। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... (प.) आधा कर्मीमें आपने इतना जबरदस्त पाप. बताया इसका क्या कारण है ? 6 (उ०) आधा कर्मी भोगता हुवा आत्मीक धर्मका उलंघन करता है । कारन पहिले प्रतज्ञा करी थी कि में आधा कर्मी आहार न करूंगा। और जो आधा कर्मी आहारादि भोगनेवाला है वह पृथ्वी काय यावत् त्रस कायकी दयाको छोड देता है । और जिस जीवोंके शरीरसे आहार बना है उन जीवोंका भी उसने जीवित नहीं इच्छा इस वास्ते वह संसारमें परिअटन करता है। (प्र०) जो साधु फासुक एसणीय (निर्वद्य ) आहार करे उसको क्या फल होता है ? . (उ०) पूर्वसे विप्रीत अच्छा फल होता है । यावत् शीघ्र संसारको पार करता है। कारन वह अपनी प्रतिज्ञाका पालन करता है । जीवोंका जीवित चाहता है इस लिये संसारको शीघ्र पार करता है। सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम् । थोकड़ा नं. १३ - श्री भगवती सूत्र श०२ उ०१० ( अस्तिकाय ) । (प्र०) हे भगवान् ! अस्ति काय कितने प्रकारकी है ? . (उ०) अस्तिकाय पांच प्रकारकी है । यथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गला स्तिकाय । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) धर्मास्किाय. अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श, अरुपी, अमीब, आस्वत, अवस्थित, लोकद्रव्य सम्पूर्ण लोक व्यापक है । जिसका संक्षेपसे पांच भेद है । यथा-(१) द्रव्यसे एक द्रव्य (२) क्षेत्रसे लोक प्रमाण (३) कालसे अनादि अनन्त (४) भवसे वर्णादि रहित (५) गुणसे चलण गुण पानीमें मछलीका दृष्टान्त । एवं अधर्मास्तिकाय परंतु गुणसे स्थिर गुण वृक्षपन्थीका दृष्टान्त । एवं आकाशा. स्तिकाय परंतु क्षेत्रसे लोकालोक प्रमाण, गुणसे आकासमें विकास गुण पानीमें पताका दृष्टान्त एवं जीवास्तिकाय परंतु द्रव्यसे अनन्ता दम, क्षेत्रसे लोक प्रमाण, गुणसे उपयोग गुण चंद्रकी कलाका दृष्टान्त एवं पुट्टलास्तिकाय परंतु वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सहित, द्रव्यसे अनन्ता द्रव्य भावसे वर्णादि सहित गुणसे गलण मिलन बादलका दृष्टान्त । (प्र०) धर्माम्ति कायके एक प्रदेशको धर्मास्ति काय कहना ? ' (उ०) नहीं कहना (प्र०) क्या कारन ? (उ०) जैसे खडित चक्रको सम्पूर्ण चक्र नहीं कह सकते ऐसे ही छत्र चामर, दंड वस्त्रादि ख ण्डतको सम्पूर्ण नहीं कहते वैसे ही धर्मास्तिकायके दोय प्रदेश तीन च्यार यावत असंख्याते प्रदेश और एक प्रदेश न्यूनको धर्मास्तिकाय नहीं कहते __(प्र०) हे भगवान् तो किपको धर्मास्तिकाय कहना -- (उ०) धर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेश वह मी सर्व लोक मापक हो उसीको धर्मास्ति काय कहना एवं अधर्मास्तिकाय और Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) .माकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुदगलास्तिकायको प्रदेश पृच्छामें प्रदेश अनन्त तककी पृच्छा करना, यह निश्चयापेक्ष है वास्ते स्मपूर्ण वस्तुको ही वस्तु कहना चाहिये। . (प्र०) हे मगवान् ! जीव उत्थान, कम्म, वल, वीर्य पुरुषाकार करके आत्मा माव ( उठना, बैठना, हलना, चलना, भोजन करना इत्यादि) जीवको दर्शावे अर्थात् उत्थानादि कर जीवको कृत क्रियामै प्रवृति करावे । (८०) हां उत्थानादि सहित जीव आत्मा भाव जीवको प्रवृतावे। (५०) क्या कारन है ? (3.) जीव है वह मनन्ते मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, भवधिमान, मनःपर्यव ज्ञान, केवलज्ञान, मतिमज्ञान, श्रुतिअज्ञान, विभग ज्ञान, चक्षु दर्शन, अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन और केवल दर्शन इन १२ उपयोगोंके प्रत्येक अनन्ता अनन्ता पर्यय है यह जीवका गुण है उसके जारिये जीव उत्थानादि कर जीव भाव दर्शता हुवा क्रिया में प्रवृति करावे। (प्र०) आकाश कितने प्रकारका है ! " (उ०) आकाश दो प्रकारका है (१) लोकाकाश (१) मलोकाकाश । (प्र०) लोकाकाशमें क्या नीव है, जीवके देश है । जीवके प्रदेश हैं । अजीव है अजीवके देश है, अजीबके प्रदेश हैं ! (उ०) जीव है बावत भजीवके प्रदेश हैं। एवं १ बोल हैं। जिसमें जीव है सो एकेन्द्रियसे यावत् पंचेद्रिय और अनेद्रिय है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) एवं छे. का.देश छेका प्रदेश कुल १८ बोल हुवा । और जो अजीब है वह रुपी भरुपी दो प्रकारसे हैं । जिसमें रुपीके चार भेद है। स्कंध, स्कन्धदेश, स्कंभप्रदेश और परमाणु । और वरुपी है वह ५ प्रकार है । धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय देश नहीं किंतु प्रदेश है । एवं मधर्मास्तिकायके दो भेद और कालका एक समय एवं १८-१-५ सर्व २७ बोल लोकाकाशमें पावे । (प्र.) भलोककी इच्छा ! (उ०) अलोकमें जीव नहीं यावत् अजीव प्रदेश नहीं है किन्तु एक मजीव द्रव्य अनंत अगरु लघु पर्याय संयुक्त सर्व माकाशसे अनंतमें भाग उणा (न्यून ) अर्थात् अशोकमें केवळ भाकाश है वह भी सर्व भाकाशसे लोकाकाश जितना न्यून है। (०) हे भगवान् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा है? . :. (उ०) लोक जितना अर्थात् जितना लोक हैउसके सर्व खानपर धर्मास्तिकाय है एवं अधर्मास्तिकाय, लोकानाशास्तिकाय, नीवास्तिकाय, पदलास्तिकाय भी समझना।। (प्र०) अधोलोक धर्मास्तिकायको कितने भागमें स्पर्श किया? (उ०) माधी धर्मास्तिकायको कुछ अधिक। (प्र०) तिरछा लोक धर्मास्तिकायको किनने भागमें स्पर्श किया है। (उ०) धर्मास्तिकायका असंख्यात्मा माग स्पर्श किया है। __(प्र०) उर्द्धलोक धर्मास्तिकायको कितने मागमें पर्श किया है। ... (उ०) आधेसे कुछ न्यून स्पर्श किया है। .. ... (१०) रत्न प्रभा नारकी. धर्मास्तिकायको संख्यातमें भाग Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) * स्पर्शी है ? असंख्यातमें भाग स्पर्शी हैं । घणा संख्यातमें भाग असं ० में भाग तथा सर्वधर्मास्तिको स्पर्शी हैं ? ( उ० ) केवल दूजे भागे धर्मास्तिकाय के असं ० में भाग स्पर्श किया है एवं घनोदधि, धन वायु, तन वायु और अवकाशांतर सं० में भाग स्पर्शी है एवं यावत् सातमी नरक समझना और इसी तरह जम्बू द्वीपादि द्वीप, लवण समुद्रादि समुद्र, सौधर्मादि कल्प बैमान यावत् इत् पभारा पृथ्वी तक सर्व धर्मास्तिकायके असं० में भाग स्पर्श किया है। शेष नहीं । सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् । थोकडा नं० १९४ श्री भगवती सूत्र श० ८ ३०२ ( आसी विष ) हे भगवान् ! आसी विष कितने प्रकारका है ? आसी विष दो प्रकार के हैं । एक जाति आतीविष दूसरा कर्म आसीविष जिसमें जाति आसीविष योनी में स्वाभावसे ही होता है जिनके चार भेद हैं (१) विच्छू (२) मंडूक (२) सर्प (४) मनुष्य विच्छू आसविषका कितना जहर होता है ? यथा कोई पुरुष अर्द्धभरत प्रमाण ( २३८ योजन ३ कला ) शरीर बनाके सोता हो उसको वह विच्छू काटे तो सारे शरीरमें जहर व्याप्त होजाय इतना जहर विच्छू में होता है परन्तु ऐसा न कबी हुवा न होता है न होगा मगर केवलीयोंने अपने केवलज्ञानसे देखा वैसा फरमाया है इसी माफक मेंडक भी समझना परन्तु विष Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) सम्पूर्ण भरत प्रमाणे कहना एवं सर्प परन्तु विष जंबूद्वीप प्रमाणे और मनुष्य में अढईद्वीप ( मनुष्य लोक ) प्रमाणे विष कहना | कर्म आसविष तपश्चर्यादिसे जिसको आसीदिष लब्धी उत्पन्न होती है उसकी पृच्छा | हे भगवान ! कर्म आसीविष क्या नारकीको होता है । तिर्यच, मनुष्य देवताओंको भी होता है ? नारकी में नहीं होता किंतु तिर्यंच, मनुष्य, देवताओं में होता है जिसमें तिर्यंच में केवल संज्ञी पचेंद्री प्रर्माप्ति को होता है और मनुष्य में संज्ञी पंचेंद्री संख्याते वर्ष आयुषवालोंको होता है। देवताओं में लब्धी मासीविष नहीं है परन्तु मनुष्य, तिर्यचमें आसी विष लब्धी उत्पन्न होती है और वह तिर्यंच लब्धी सहित मृत्यु पाके देवता में उत्पन्न होता है, वहां पर अपर्यप्ती अवस्था में पूर्व Haider of met for कहा जाता है वे भुवनपती, व्यन्तर, ज्योतिषो यावत् आठवें देवलोक तक देवतापने होते है कारण तीची गती आठवें देवलोक तक है । इति । इस विषयको ज्ञानायोंने जाना है परंतु छदमस्त नहीं देखते। दश बोल छदमस्त नहीं जानते यथा धर्मास्थिकाय, अघर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीर रहित जीव, परमाणु, पुद्गल, शब्दके पुद्गल, गंधके पुद्गल और वायु काय यह जीव जिन होगा मान होगा यह जीव मोक्ष जावेगा या न जावेगा । इति १० बोल केवली देखे । सेवं सेव भंते तमेव सचम् । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) थोकड़ा नं. १६ श्री भगवती सूत्र श० ३ उ० ३ ( ४९ चौमंगी ) (प्र०) हे भगवान अनगार, भवित्तात्मा, अवधिज्ञान, संयुक्त, अपने ध्यान में खड़ा है वहांसे एक देवता, वैक्रय, समुदघात, कर मानमें बैठके जा रहा था उस वैमान सहित देवताको वह भावित आत्मा मुनि जानता है । ( उ ) वह मुनि उस देवता और बैमानको चार प्रकारसे देख शक्ता है यथा C (१) देवताको देखे किन्तु वैमानको न देखे (२) देवताको न देखे किन्तु वैमानको देखे (३) देवताको देखे और वैमानको भी देखे (४) देवता को भी न देखे और वैमानको भी न देखे कारन अवधिज्ञान विचित्र प्रकारका होता है एवं देवी वैमानके साथ एवं देवी देवता वैमानके साथ ३ (प्र) भवितात्माका घणी ( अवधिज्ञानवान ) एक वृक्ष है उसके अन्दरका सत्व जाने या बाहिरकी त्वचा जाने ? (१) अन्दरसे जाने बाहिरसे न जाने (१) अन्दर से न जाने बाहिरसे जाने (१) अन्दर से जाने बाहिरसे भी जाने (१) अन्दरसे नहीं जाने बाहिरसे भी नहीं जाने कारन अवधिज्ञानके असंख्याते भेद होते हैं इसके लिये नन्दी सूत्रमे Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) कहा है कि संबन्धवाले पदार्थको भी जाने असंबन्धवाले पदार्थको भी जानते हैं। __वृक्षके १ ० अंग होते हैं मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, साखा परवाक, पत्र, पुष्प, फल, बोन इसके संयोगसे चौभंगी लिखी माती है। (१) वृक्षका मूल जाने कन्द न जाने (२) , मूल न जाने कन्दको जाने (३) , मूल जाने कन्द भी जाने (४) , मूल न जाने कन्द भी न आने इस माफक मूल और स्कन्ध ७ मूल-त्वचा (८) मूल-साखा ९ मूल पखाल १० मूल पत्र ११ मूल पुष्प १२ मूल फल १३ मूल बीन १४ कन्दस्कन्द १५ कन्द त्वचा १६ कन्द साखा १७ कन्द परवाल १८ कन्द पत्र १९ कन्द पुष्प २० कन्द फल २१ कन्द बीन २२ स्कन्ध त्वचा २३ स्कन्ध साखा २४ स्कन्छ पखाल २६ स्कन्धपत्र २६ स्कन्ध पुष्प २७ स्कन्ध फल २८ रून्य चीज २९ त्वचा साखा ३० त्वचा परवाल ३१ त्वाचा पत्र ३२ त्वचा पुष्प ३३ त्वचा फल ३१ त्वचा बीन ३५ साखा परवाल ३६ साखा पत्र ३७ साखा पुष्प १८ साखा फर ६९ साखा चीन ४० परवाल पत्र ४१ परवाल पुष्प ४२ परवाल फल १६ परवाल बीज ११ पत्र पुप्प ४५ पत्र फल ४६ पत्र बीन १७ पुष्प फल १८ पुष्प बीन १९ फल बीन एवं ४९ चौभंगी। ऊपर बताई हुई चौभमीके माफक ४९ चौभंगी उपयोगसे लगा लेना। सेवं मंते सेवं भंते तमेव सच्चम् । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) थोकडानाबद १६ सूत्र श्री भगवतीजी शतक १ उमेशो ३ . (कांक्षा मोहनिय ) (प.) हे भगवान् ! श्रमण निनाथ ( साधु ) भि कांक्षा मोहनिय कर्मकों वेदते है अर्थात् जिन वचनों में शंका कांक्षाकरते है ? (उ०) हे गौतम : व.बी कमी साधु भी कांक्षामोहनिवेदते है। (प्र०) हे दयाला । क्या कारण हैं सो साधु भि कांक्षामोह निवेदे। . (उ०) हे गौतम । सर्वज्ञ प्रणित शास्त्र अति गंभिर स्याद्वाद उत्सर्गोपवाद सामान्य विशेष गौणमौरव नय निक्षप प्रमाणकर भने आन्त बाद है कीसी पदार्थका कीसी सबंधसे एक स्थानपर सामान्य विवरण कीया है, उसी पदार्थका कीसी संबन्ध पर विशेष व्याख्यान किया हों जिम्मे भि नयज्ञानकी गति बड़ी ही दुर्गम्य है कि साधारण मुनियोंको गुरुगम्य विनों समझमें आना मुशकिल हो जाता है । जब एक ही पदार्थका भिन्न स्थलों पर भिन्न भिन्न अधिकार देखके साधुवोंको भी शंका उत्पन्न हो जाती है तब वह कांक्षा मोहनियको वेदने लग जाते है कि यह बात कीस तरह होगा । इत्यादि । इसीका संक्षप्तसे यहां पर उलेख किया जाता है। (१) ज्ञान विषय शंका । ज्ञान पांच प्रकारके है. जिसमें अवधिज्ञान तीसरे नम्बरमें है वह जघन्य अंगुलके असंख्यात भाग और. उत्सव सम्पुरण लोकके रूपी पदार्थोके जानते है और चोथा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) नम्बरमें मनःपर्यव है वह केवल अढाइद्विप दोय समुद्रमें रहे हुवे संज्ञी पांचेन्द्रियके मनोगत भावकों ही जानता है । यहापर शंका उत्पन्न होती है कि जब सम्पुर्ण लोकके रूपी पदार्थोकों अविधि शान जानता है तो मनोद्रव्य भी रूपी है उस्कों भी अवधिज्ञानगाला जानशक्ता है तो फीर मनःपर्यव ज्ञानको अलग कहनेका क्या कारण है । अल्पज्ञ मुनि एसी शंका वेदते है। इसी माफोक सर्व स्थानपर समझना । ___ समाघांन-अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान दोनोंका स्वभाव स्वामि और विषय भिन्न भिन्न है । मनःपर्यवज्ञानका स्वभाव केवल मनपणे प्रणम्य पुद्गलोंकों ही देखनेका है स्वामि अपमतमुनि है विषय अढाइ द्विपकि है और भि इसका महात्व है कि किसी दर्शन कि साहित्य नहीं है आप स्वतंत्र अधिकारी है । अवधिज्ञान का स्वभाव रूपी द्रव्य देखने का है। स्वामि च्यारों गतिके जीव है विषय जघन्य अंगुलके असंख्यते भाग उत्कष्ट सम्पुणे लोकको देखे परन्तु अवधिज्ञानके साथ अवधिदर्शन कि पूर्ण साहित्य है। जास्ते मनःपर्यवज्ञान अलग है ओर अवधिज्ञान अलग है । ____ (२) दर्शन विषय शंका-क्षोपशमसमकित सामान्यतासे उदयप्रकृतिका क्षय और अनोदय प्रकृतीयोंका उपशमाना होता है और औपशम समकित जो सर्व प्रकृतियोंका उपशम करता है। एसा होनेपर भी क्षोपशम असंख्याते वार आति है और उपशम. पांचवारसे अधिक नही आति । यह शंका उत्पन्न होती है । -: समाधान-क्षोपशम समक्ति, जो अनोदय उपशम है वह विपाकों उपशम है परन्तु प्रदेशो मिथ्यात्व रहता है और Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशम वालोंके विपाकों तथा प्रदेशों मिथ्यात्व नहीं रहेता हैवास्ते पांच वारसे ज्यादा नहीं आते है। - दर्शन विषय दुसरी शंका । दर्शन देखना इसकों सामान्य ज्ञान कहते है । जिसमें इन्द्रिय निमत्त, और अनेन्द्रिय निमत्त, तो फिर चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन यह भेद करनेकि क्या आवश्यक्ता थी। मगर एसा भेद करना हो तो श्रोतदर्शन घणदर्शन रसदर्शन स्पर्शदर्शन मनदर्शन भि करनाथा क्योंकि इन्होंसे मितों सामान्य ज्ञान होता है यह शांका है। समाधान-वस्तुका निर्देश दोय प्रकारसे किये जाते है (१) सामान्यतासे (२) विशेषतासे, यहा चक्षुदर्शनका निर्देश सामान्यता है और अचक्षुदर्शनका निर्देश विशषता है कारण चक्षुः दर्शनका ज्ञान चक्षुइन्द्रियसे ही होते हैं शेष च्यार इन्द्रिय और मनका ज्ञान है वह अचक्षु दर्शनका है । (३) चारित्र विषयशंका । सावध योगोंकि प्रवृतिसे निवृति होना उस्का नाम चारित्र है । जब सामायिक चारित्र ग्रहन करनेसे सावध योगोंसे निवृति होगई तो फीर छदोपस्थापनि चारित्र देनेकि क्या जरूरत है। समाधान-चारित्रके दोय भेद करना यह व्यवहारनयवि अपेक्षा है कारण प्रथम निनके साधु रूजु जड है चरम जिनवे साधु वक्र और जड है उन्होंकों अस्वासना देनेके लिये दो मे बतलाये है, प्रथम सामायिक चरित्र देनेपर दोष लगनावेतो आतु रता न होने के लिये उन्होंको छदोपस्थापनिय चारित्र दोया जात है इसीसे भविष्य के लिये अस्थिरता न होय और क्षोभ रहेता है Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (६७) (४) लिंग विषय शंका । साधुका वेष वस्त्र पात्र रजोहरणादि उसीकों लिंग केहते है । जिस्मे प्रथम और चरम जिनोंके साधु श्वेतमनोपते स्वल्पमूल्यवाले वस्त्रादि रखते है और बावीस तीर्थकरोंके साधु पांचो वर्णके वस्त्र वह भि अपरिमित स्वल्प व बहुमूल्यवाले भी राख शक्ते है इसका क्या कारण है । दोनो मोक्ष मार्ग साधन करनेकों दीक्षा ली है तो यह अन्तर क्यो ? समाधान-वावीस तीर्थंकरोंके साधु रूजु ओर प्रज्ञाबान्त होनेसे किसी प्रकारके उपकरण रखनेमें उन्होंको ममत्वभावतृष्ण वृद्धि नहीं होती है और प्रथम तथा चरमजिनोंके साधुवों रूजु नढ, वक्रजढ होनेसे श्वेत मानोपेत आदिका कल्प बतलाया है । वस्त्र पात्रादि है वह मोक्ष मार्ग साधनमें एक निमत्त कारण है । न कि उपाधान कारण। (२) प्रवचन ( महाव्रत ) विषय शंका । बावीस तीर्थयरों के साधुओंके च्यार महाव्रत और प्रथम, चरम, जिनोंके साधुओंके पांच महाव्रत । जब सर्वज्ञ पुरुषोंने मोक्ष मार्ग साधनके लियेव्रत बतलाया है तो इस्में दो मत क्यों होना चाहिये। . समाधान-बाविस जिनोंके साधु ऋजु और प्रज्ञावान है उन्होंके लिये च्यार महाव्रत कहनासे वह स्वयं हि समझ सके है कि जब परिग्रहका त्याग कर दीया तब स्त्रितों ममत्वका घर है वह आप हीसे त्याग हो गया, वास्ते इन्होंके च्यार महाव्रत है और शेष ऋजु अढ या वक्र मढ होनेसे अलग अलग कहा है। इसीमें वस्तु तत्वमें भेद नहीं है दोनोंका मतलव एक ही है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) (६) प्रवचनिक विषय शंका-प्रवचन भणे तथा जाने उसकों प्रवचनीक कहते है । तथा बहुश्रुतियोंकों प्रवचनिक कहते है, वह एक दुसरोंकि कल्प क्रिया प्रवृतिमें भिन्नता देखनेसे शंका होती है कि दोनों गीतार्थ होनेपर यह तपावत क्यो होना चाहिये । - समाधान-चारित्र मोहनियके यथा क्षापेशम उत्सर्गोपवाद समयकालकि अपेक्षा तथा छदमस्तपणके कारण प्रवचनिकों कि प्रवृतिमें भिन्नता दीखाइ दे तो भी अलठ्ठ आचरण हो वह स्वीकार करने योग होती है। (७) कल्प विषय शंका=निनकल्पी मुनि नग्न रहते है और बिलकुल निवृति मार्गमें अनेक प्रकारके कष्ट सहन करते हुवे को भी मोक्ष (केवलज्ञान) नहीं होता है और स्थिवर कल्पी वस्त्रपा. त्रादि रखते हुवेकों तथा स्वल्प कष्टसे भि केवलज्ञान कि प्राप्ती बतलाई इसका क्या करण होगा। .. समाधान-कल्प है वह व्यबहारमें मोक्षसाधक निमत्त है परन्तु निश्चयमें कष्टक्रिया साधनभूत नहीं है मोक्ष मार्गमें आत्माध्यवसाय ही साधनभूत है अगर कष्टहीकों साधन माना जावे तों बहुतसे मुनि कष्ट करने पर भी केवलज्ञान नहीं पाये और कित. नेके बिनों कष्ट हीसे केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है वास्ते कल्प हे सो व्यवहार है तथा जिन कल्प उत्सर्ग मार्ग है और स्थिवरकल्प है वह अपवाद मार्ग है तथा मोक्ष होना वह परिणाम विशेष है। (८) मार्ग विषय शंका मार्ग-पुरुष परम्परासे चला आया समाचारीरूप मार्ग जिस्मे एकाचार्य कि समाचारिमें आवश्यकादि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचारीमें दोय चैत्यवन्दन और अनेक काउत्सर्ग करते है। नब दुसरे आचार्य उन्होंसे कुच्छ न्यूनाधिक करत है इसीसे, शंका होती है कि जब दोनों प्राचार्य पुरुष परम्परा कहते है तो क्या तीर्थकरोंके शासनमें भि एसी भिन्न भिन्न समाचारीयों थी। ___समाधांन-सब आचार्योंकि समाचारी निनाज्ञा विरुद्ध नही है इसी माफीक सब समाचारी जिनाज्ञा संयुक्त मि नही है और तीर्थकरों के शासन में एसे भिन्न भिन्न समाचारीयों भी नहीं थी। प्रश्न यह रहा कि कोनसी समाचारीको सत्य मानना ? जो समाचारी आगमप्रमाणसे अबाधित है । तथा देशकालसे उत्पन्न हुई है। जिन्होंके उत्पादक निःस्टही असढ हों वाही समाचारी आचरण करने योग है। (९) मत्त विषयशंका-एकहि तीर्थकरोंके आगम माननेवालोंके अलग अलग अभिप्राय, जेसे सिद्धसेन दिवाकराचार्यका मत्त है कि केवलीकों केवल ज्ञान और केवल दर्शन युगपात् समय उत्पन्न होता है क्युकि बारहवें गुणस्थान ज्ञानावर्णिय और दर्शनावर्णिय कर्मोका क्षययुगपात् समय होना शास्त्रकारोंने कहा है अगर एसा न माना जावे तो केवलीको ज्ञानावर्णिय कर्मका क्षय होना ही निर्थक होगा। और जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण कहते है कि केवलीको ज्ञान और दर्शन भिन्न समय होता है । क्याकि जीवका स्वभाव ही एसा है तथा केवल ज्ञान होता है वह साकार उपयोगमे होता है। जेसे मति ज्ञान श्रुतिज्ञान यह दोनौ सहचारी है तद्यपि कमसर होता है । इसी माफीक केवल ज्ञानदर्शनमें भी समझना, यह दो मत्त देख शंका होती है ! Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-सिद्धसेन दिवाकर वीरात् पांचमि शताब्दीमें हुवे है और जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण वीरत् दशवी शताब्दीमें हुवे है वास्ते आचार्योका क्षोपशम जुदा जूदा है परन्तु राग द्वेषको क्षय किये हुवे तीर्थंकरोंका मत एक ही होता है केवलज्ञान केवल दर्शन यूगपात् समय होना यह भी शास्त्रकारोंका मत्त है परन्तु इसमें कोनसा नयकी अपेक्षा है तथा केवलज्ञान दर्शन भिन्न समय यह भी शास्त्रकारोंका मत्त है ? "यत् ज समय जाणइ नो तं समय पासइ " इस्मे कोनसी नयकी अपेक्षा है उसी अपेक्षाकों समझाना गीतार्य बहु श्रुतिजी महाराजका काम है इस विषयमें प्रज्ञापना सूत्र पासणिय पदमें खुलासा अच्छा है वहासे देखना चाहिये। (१०) भंगा विषय शंका-हिंसा और अहिंसाका शास्त्रका. रोंने च्यार मांगा बतलाया है यथा (१) द्रव्यसे हिंसा और भावसे अहिंसा । (२) भावसे हिंसा और द्रव्यसे अहिंसा . (३) द्रव्यसे अहिंसा और भावसे मि अहिंसा (४) द्रव्यसे हिंसा और मावसे भि हिंसा - प्रथम और दुसरे भागोंमें शांका उत्पन्न होती है। समाधान-(१) जो मुनि इर्या समितिसे यत्ना पूर्वक चलतों मगर कोई जीव मर भी जावे तो द्रव्यहिंसा है परन्तु परिणाम शुद्ध होनेसे भावसे हिंसा नहीं है । (२) जो मुनि मनोपयोगसे चलतों जीव नहीं मरे तो भि द्रव्यसे अहिंसा है। परन्तु निनाज्ञाका अनादर और उपयोग सुन्य अयत्ना होनेसे भावसे हिंसाहीका भागी है शेषदोय भोग सुगम् है ) .. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) नय विषय शंका- द्रव्यास्तिक नयके मतसे सर्वं वस्तु सास्वती है और पर्यायास्तिक नयके मत से सर्व वस्तु असास्वती है। यह एक वस्तु विरुद्ध धर्म क्यो होना चाहिये । तथा सिद्धसेन. दिवाकर तीन नयकों द्रव्यास्ति और प्यार नयकों पर्यायास्तिक मानते है और जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, च्यार नय द्रव्यास्तिक और तीन नय पर्यायस्तिक माने है यह शंका= समाधान - नयका मानणा ठीक है क्युकि वस्तुमें अनेक धर्म है वह ज्ञान नय. द्वारा हि होता है। नयका मुख्य दो भेद है (१) द्रव्यास्तिक (२) पर्यायास्तिक, द्रव्यास्तिक नय द्रव्यको ग्रहणकर वस्तुकों सास्वती मानते है कारण कि द्रव्यका तीन काहमें नाश नहीं होता है। और पर्यायास्तिक नय वस्तुकी पर्यायकों ग्रहन करते है और पर्यायका धर्म ही पलटन है वास्ते असास्वत माना है। इसमें कोई प्रकारका बिरुद्ध नहीं है। तथा सिद्धसेन दिवाकर रूजो सुत्र नयकों पर्यायास्तिक मानते है क्यू कि चोथी नय वर्तमान परिणामग्रही हैं और जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण चोथी नवकों द्रव्यास्तिक मानते हैं वह शुद्धोपयोग रहित होनासे वास्ते इसमें कोई तरेहका तफावत नहीं है। (१२) नियम विषय शंका | नियम (अभिग्रह) जैसे सर्व व्रतरूप सामायिक अर्थात् सर्वथा सावद्य योगोंका प्रत्याख्यान कर लेनेपर भी पौरसी आदिके पञ्चखाण क्यो कीया जाता है। समाधान - सर्व सावध योगोका प्रत्यख्यान करने से जीवोंक संबंर गुणकि प्राप्ती होती है परन्तु प्रत्यख्यान तो इच्छा का निरूद्ध करना तथा प्रमाद नाशक और अप्रमाद वृद्धक वृती कर्म Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) निर्जराका हेतु भूत होनेसे यह आचरण अगीकार करने योग्य है । (११) प्रमाण विषय शंका जब प्रत्यक्ष प्रमाण है तो फीर अन्य प्रमाणें कि क्या आवश्यक्ता है । जेसे प्रत्यक्ष प्रमाणसे सूर्योदय होता है वह भूमि से निकलता हुआ दीखाई देता है और आगम प्रमाण कहता है कि भूमि से सूर्य ८०० योजन उचा है एसा तफावत क्यो ? समाधान- कितनेक पदार्थों का निर्णय आगमादि प्रमाणसे होता है वास्ते सर्व प्रमाण मानने योग्य है । सूर्य ८०० योजन उच्चा है यह आगम प्रमाण सत्य है और प्रत्यक्ष प्रमाणसे भूमिसे निकलता है इसका कारण यह है कि सूर्य तों ८०० उंचा ही है परन्तु यहासे दूर बहुत है वास्ते चरम चक्षुवाले मनुष्योंकों मालम होता है कि सूर्य भूमिसे निकलता है । उपर लिखे १३ बोल तथा इन्हीके सिवाय और भी बोलोंमें अज्ञातपणे से शंका होती है कि यह केसे । कांक्षा होती है कि कुच्छ अन्य लोकों का कहना ठीक होगा। वित्गीच्छा भेद समाचन्न कुल ष समावन्न इत्यादि मलीनता होनासे साधु भि कांक्षा मोहनिय कर्म वेदता है इस संबन्धपर हमने समाधान भि साथके साथ मे लिख दिया है कि पढनेवालोंकों कांक्षा मोहनियकों अपने हृदय स्थान देना ही नही पडे इति । सेवं भंते सेवं भंते तìव सच्चम् । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) थोकडा नम्बर १७ श्री भगवतीजी सूत्र शतक र उद्देशा ३ ' (कांक्षा मोहनिय ) कांक्षा मोहनिय-जीवके अज्ञानात्मीक मलीन अध्यवशायों, तस्वपर अरूचि मतत्वपर श्रद्धा वस्तुकी वीप्रीत श्रद्धनासे कर्म दलक एकत्र हो आत्म प्रदेशोंपर बन्ध होना इसका नाम कांक्षा मोहनिय है जिस्का भी दोय भेद है (१) चरित्र मोहनिय-चारित्र परिणाम होना न देवे (२) दर्शन मोहमिनय तत्व अरूची, अन्य दर्शनकी अभिलाषा, _ यहांपर शास्त्रका ने दर्शन मोहनियका ही अधिकार बत- . लाया है इस्को मिथ्यात्व मोहनिय भी केहते हैं । . जहां कालकी व्याख्या होती है वहां काल तीन प्रकारके, भूत, भविष्य, और वर्तमान, गीना जाता है परन्तु यहांपर च्यार प्रकारके काल, भूत, भविष्य, वर्तमान और ओध, (समुच्चय ) माना गया है। ... (प्र०) समुच्चय नीव कांक्षा मोहनिय कर्म ओघकालापेक्षा कृत कम है ? (उ०) हाँ कृत कर्म है। __(प्र०) जीवको आत्म प्रदेशपर कांक्षा मोहनिय कर्मों का दलकलीप्त होता है वह कीस प्रकारसे होता है। — (उ०) जीवोंक अनादिकालसे खीरनीरके माफीक आत्मप्रदेशोंके साथ कर्म परमाणुवोंका बन्ध है, पूर्वकर्म स्थिति परिपक्क Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) होनासे वेदके निर्जरा करते है नये कम दलक संग्रह करते है इस्का भांगा च्यार है यथा-(१) आत्माके एक देश (विभाग) से कांक्षामोहनियका एक देशका बन्द होता है ? (उतर) नहि होवे। कारण जो मध्यवसाय उत्पन्न होता है वह आत्माके सर्व (मसख्याते) आत्मप्रदेशोंसे उत्पन्न होते है और जो अध्यवसायके हेतु कारणसे कांक्षामोहनिय कर्मदल एकत्र हुवे है वह भी सबके सब ही आत्मप्रदेशोंके साथ बन्ध होते है वास्ते 'देशसे देश' बन्धनही होता है। (२) आत्माके एक देश और कांक्षा मोहनिय कर्म दल सव का बन्ध होता है ? ( उत्तर ) नहीं होवे भावना पूर्ववत् ।। . (३) मात्माका सर्व प्रदेश और कांक्षा मोहनियके एक देशसे बन्ध होता है ? (उत्तर) नहीं होवे | भावना पूर्ववत् । (४) मात्माका सर्व प्रदेश और कांक्षा मोहनीय ग्रहन किये सर्व दलकसे बन्ध होवे ? हां हो शक्ते है भावना पूर्ववत् । तात्पर्य च्यार भांगोंसे प्रथमके तीन मांगा निषेदकीये है और चोथा भांगा सर्वसे सर्वका वन्ध होता इसी माफीक नरकादि २१ दंडकके जीवोंका भी प्रश्नोत्तर समझना एवं २५ मलापक हुवे । इसी माफीक। १५ भूत कालका समुच्चय जीव और २४ दंडक २५ भविष्य कालका , " " " २५ वर्तमान कालका , " " " - एवं १०० अलापक कांक्षा मोहनि कर्म बन्ध अध्यवसायकि अपेक्षा बन्धके हुवे । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) जेसे दीवाल (भीस) बनानेके लिये खडे (पत्थर) चुनादि न करते है इसी माफीक कर्मकधमे भी कर्मपद्दल अनुभाग रस.. मादि समग्री एकत्र होती है उसीकों शास्त्रकारोंने 'चय' काहा 1 जेसे च्यार कालापेक्ष समुच्चय जीव और चौवीस दंडकके . १०० अलापक बन्धके बतलाये है इसी माफीक "चय" का भी १०० मलापक समझना। ___जेसे खड़ा चुनादि लेपसे मनबुत बन्ध करते है इसी माफीक धर्मपुद्गल भी अनुभाग रससे अजबुत बन्ध करते है उसको शास्त्रकारों "उपचय" कहेते है इसीका भी पूर्ववत् १०० अलापक होता है एवं ३०० अलापक हुवे । ___जो कर्म दलक उदयमें नहीं आये है परन्तु उदय माने योग्य है उन्होंको किसी प्रकार के निमत्त कारणसे उदयावलिकाके अन्दर ले माना उसे शास्त्रकारोंने " उदिरण" कहा है। वह भी पूर्ववत् “ सबसे सर्व " चोथा भागासे होती है। समुच्चय जीन और चौवीस दंडक एवं १५ सुत्र, भूतकालके, २५ सुत्र भविष्यकालके, २५ सुत्र, वर्तमानकालके । एवं ७५ अलापक समझना परन्तु यहा समुच्चयकाल नहीं गीना है कारण ' उदिरणामें औषकालकी आवश्यक्ता नहीं होती है।। ___जो कर्म दलक अवादा काल पक जानेसे स्वभावीक उदय भाते है तथा निमित्त कारणसे उदिरणाकर उदयमें लाते है जब जीवकर्म दल विपाकरस सुख तथा दुःख रूप अनुभव करते है उसको शास्त्रकारोंने " वेदे " काहा है उदिणकि माफीक इसका मी ७५ अलापक होता है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) जो कर्म दलक वेदके निरस कर आत्म प्रदेशोंसे छोडते है उसकों शास्त्रकारोंने “निर्जरा" काहा है इसका भी पूर्ववत ७५ मलापक होता है । एवं २२५ और पूर्वके ३०० मीलानेसे ५२५ अलापक हुवे । (प्र०) हे भगवान् । जीव कांक्षामोहनिय कम वेदे ? (उ०) हाँगौतम । जीव कांक्षामोहनिय कर्म वेदता है । (प्र०) हे करूणासिन्धु । कीस कारणसे वेदता है। - (उ०) हे वत्स । एकेक कारण ‘जेसे कुशास्त्रका श्रवण मिथ्यात्वी लोकोंका अधिक परिचय करनेसे अध्यवसायोंका मलीनता होना कारण आत्मा निमत्त वासी है जेप्सा जेसा निमत्त मीलता है जेसी जेसी जीवोंकि प्रवृति होती है खराब प्रवृति होनेसे जीवकों . . (१) शांका-स्वतीर्थीकि वचनमे शांका का होना। (२) कांक्षा-पर दर्शनीयों के आडंबर चमत्कार देख वच्छा । (३) वितगीच्छा-धर्म करणीके फलमें शंसय होना । (४) भेद समावना-वस्तु विचारमें मतिका भेद होना । (६) कुलस समावन्ना-सत्य वस्तुमें विप्रीत दृष्टीका होना। इस वातोंसे जीव कांक्षा मोहनिय कर्म वेदता है । ... (प्र०) हे प्रभो ! कीसी जीवोंके ज्ञानवरणियोदय इतना ज्ञान नहीं है कि तत्व वस्तुका पूर्ण निर्णय कर सके । इतना पुरुषार्थ न हों, आजीवका निमित्तसे इतना समय न मीले । आयुष्य समय नजीक आगया हो इत्यादि परन्तु दर्शन मोहनियका क्षोपशम होनेपर वह जीव कहता है कि 'तमेव सच्च' जो सर्वज्ञ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) फरमाते है या न ह सत्य है एसा कहनेसे निनाज्ञाका बाराधीक हो सक्ते है ? ___ (उ०) हा गौतम पूर्ववत् "तमेवसञ्चं" कहदेनेसे आराधी हो जाता है क्युकि नेमका अन्तकारण श्रद्धा निनवचनोंपर मजबुत है और यह केहना भवान्तरमें भी आराधीपदकों साहिक होगा वास्ते जहातक बने वहातक तो वस्तुतत्त्व समझनेका प्रयत्न करना अगर न बने तो “तमेवसच्च" कहदेना चाहिये। एसेही हृदयमे धारना चाहिये एसही करना। एसाही मन स्थिरभूत रखनासे यावत् निनाज्ञाका आराधी हो सकते है। (प्र०) हे दयानिधि ! जीव कांक्षामोहनिय क्यों बान्धता है। . (उ०) हे गौतम । कांक्षामोहनिय कर्मबान्धनमे मूल हेतु प्रमाद है और इन्ही के अन्दर योगोंका निमत्तकारण आवश्य मीलता है । यहापर मौख्यतामें प्रमादको लिया है। क्युल मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, और योगके आगमनमें मौख्य कारण प्रमादही है वास्ते मिथ्यात्वादिकों गोगतामे रख प्रमादकों मौख्यता बतलाया है। (प्र) प्रमादकों उत्पन्न करनेवाला कौन है ? ... (ड) योग है-मन वचन कायाके योगोंकि अशुभ प्रवृत्ति अर्थात् खाना पोना भोग विलास सुख शेलीयापना होना यह सब प्रमाद आनेका दरवाना है। . (प) योगोंको कोन प्रेरणा कर वरताते है । (उ) वीर्य-यहापर सकरण वीर्य समझना चाहिये। क्युकि वीर्यकी प्रेरणासे योगोंका वैपार होता है। ... ... Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) . (प्र) वीर्य कीस कारणसे उत्पन्न गता है। (उ) वीर्य शरीरसे होता है । तेजस कारमाण यह दो शरी, तो जीवोंके अनादी कालसे संबन्धवाला है । परन्तु औदारिकादि शरीरके साथ सकरण वीर्यका धनष्ट न वास्ते वीर्यका कारण शरीर है। . (५) शरीरको उत्पन्न कोन करता है ? (उ०) शरीरकों जीव इत्पन्न करता है। क्युकि जीवके अनादिकालसे कर्मोका सबन्ध है और कर्मोसे अच्छा तथा खराब अध्यवसाय होता है.। उस निमत्तकारणसे नयेनये शरीरको धारण करते है वास्ते शरीर उत्पन्न करनेमे निमत्त कारण जीव ही है। (प्र०) हे भगवान् । इस शुद्ध निनानन्द चैतन्यके, शरीर, वीर्य, योग, प्रमाद, क्यो होता है। (उ) हे गौतम ! इस जीवके खीर नीर, तीलतेल, कना पाषाण, की माफीक, जडतासे संयोग है उन्होंसे उस्थांन कर्म बड़ वीर्य पुरुषार्थ इन्होंकि प्रेरणासे शरीर, वीर्य, योग, और प्रमादको प्राप्ती हो जीव कांक्षा मोहनिय कर्म बांधता है। (प्र०) हे भगवान् ! कांक्षा मोहनिय कर्मकि उदिरणा कोन करता है ? ". (उ०) हे गौतम । यह जीव स्वयं ही करता है। इसी माफीक कांक्षा मोहनिय कर्मकि गृहना (निंदा) भी स्वयं करता है। क्षोपशम मारसे माते हुवे कांक्षा मोहनिक कप दलकको रोकावट भी स्वयं जीव ही करता है। .. ... .. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) हे भगवाई यह जीव उदिरण करता है तो क्या भय आये कोंकि उदिरण करे । उदय नहीं आये कोंकि बदिरणा करे, कि उदय माने योग्य कर्मोकि उदिरण करे । (0) उदय माने योग्य कर्मोंकि उदरण करे शेषकि नहीं। (6) उदिरणों करता है सो क्या उस्थानादिसे करता है। या विनों उत्थानादि कर्म करनेसे करता है जेसे गोसालावत् । . (उ) जीव उदिरणा करता है वहा उस्थानादिसे करते है । (१) उस्थान-जैसे उठके खडा हाना । ' (२) कर्म-इदर उटर फोरना =फैकना । (३) बल-शरीरकी गक्त (सक्ती) (४) वीर्य-जीवका उत्साव भाव । (५) पुरुषार्थ पाक्रम होम्मत । - यहांपर गौसालादिके मत्तका निराकार किया है क्युकि गौसा लके मतमें उस्थानादि · नहीं माना जाता है वास्ते इन्होंका खंडन किया है। (घ) कांक्षा मोहनिय कर्मको उपशमाता है तो क्या उदय माये हुवेको उपशमाता है या उदय नहीं आयाको उपशमाता है कि उदय आने योग्यको उपशमाता है। .. (उ) उदय नहीं आयेको उपशमाता है कारण उदय आने. चालेको तो वेदना ही पडेगा और उदय भानेवाले अवश्य उदय आवेगा वास्ते उदय नहीं आया हुवेकों ही उपशमावे वह भी पूर्ववत उस्थानादिसे उपशमावे। ........... Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (60) . इसी माफीक कांक्षा मोहनिय वा परन्तु उदय आये हवेको न वेदे । एवं निर्जरा परन्तु उदय या पीछे वेदके निर्जरा करते है सो मी पूर्ववत् उस्थानादिसे निकर ममञ्चय जीवका अलापक कहा है इसाफीक नजर देना परन्तु एकेन्द्रिय बक लेकिन निसंज्ञा तथा इतनी प्रज्ञा नहीं है कि वह जीव कांक्षा में जानके वेद, निर्जरा, करे परन्तु अव्यक्तपणे... कांक्षा मोहनिय कर्म बन्ध उदय उदिरणा वेदे और निज्जरा हो. माती है क्युंकि बन्धक मिथ्यात्वादिका सदभव हैं इति ॥ शम् सवं भंते सेवं भते तमाम Page #95 --------------------------------------------------------------------------  Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कुशखबर। श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला ओफीस मु० फलोधीसे स्वरूप समयमें ६० पुष्प प्रकाशित हो चुके है । कार्य चलु है। (१) जैन सिद्धान्तोंके तत्त्वज्ञानमय शीघ्र बोध भाग १-२ ३-४-५-६-७-८-९-१०-११-१२-१३-१४ १५-१६ तैयार है भाग १७-१८-१९-२० छप रहे हैं। (२) हिन्दी टइप, वडीया कागद, सुन्दर टैटल मय परमा त्मा सीमंदिरस्वांमिकों कागद, हुन्डी, पेठ, परपेठ और मेझर नामो साथमे तीन निर्नामा लिखोका उत्तर मि दीया गया है। (३) द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका पाठशालादिको भेट दी जाती है। इप्त संस्थाने ज्ञानवृद्धि के लिये पुस्तकों कि किंमत बिलकुल कम रखो है और कितनीक पुस्तकों भेट भी देते है । पत्ता-श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुप्पमाला मुः फलोधी (मारवाड) मुद्रक-मूलचंद किसनदास कापडया, "जैनविजय” प्रि. प्रेस-परत । प्रकाशक-भभूतमल कानुगा, श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला कार्यालय, फलोधी (मारवाड) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ st*******************to. ___ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला ॥ श्री रत्नप्रभ सूरीश्वर सदगुरुभ्यो नमः ॥ __अथ श्री शीघ्रबोध नाग १७-१८-१६-२०-२१-२२ * ***************** ******** भाषांतरकर्ता श्रीमदुपकेश गच्छीय मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी ( गयवरचन्दजी) -**-- प्रकाशक श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला ओफीस-(फलोधी) - के मेनेजर शाहा जोरावरमल वैद. ******** *** प्रथमावृति १००० वीर संवत २४४९ ** मूल्य. 亲亲弟弟 - सर K - * - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुस्तक छपाने में जिन महानुभावोंने साहाय - ता दी है उनका यह संस्था सहर्ष उपकार मानती है और धन्यवाद देती है । १००) शा. हीराचन्दजी फूलचन्दजी कोचर - मु० फलोबी. १००) मुताजी गीशुलालजी चन्दन मलजी - मु० पीसांगण. ८४१) सं. १६७६ के सुपनों कि आवादांनी का. शेष खरचा श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला ऑफीस फलोधी दीया गया है. भावनगर — धी आनंद प्रिन्टींग प्रेसमां शाह गुलाबचंद लल्लुभाइ ए छाप्युं. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. प्यारे पाठकन्द ! __ चरम तीर्थंकर भगवान वीर प्रभुके मुखाविदसे फरमाइ हुइ स्याद्वादरूपी भवतारक अमृत देशना जिस्में देवदेवी. मनुष्य आर्य अनार्य पशु पक्षी आदि तीर्यच यह सब अपनि अपनि माषामें समजके प्रतिबोध पाकर अपना आत्मकल्याण करते थे । उस वीतराग वाणिको गणधर भगवानोंने अर्ध मागधि भा. पासे द्वादशांगमें संकलित करी थी जीसपर जीस जीस समयमें जीस नीस भाषाकि आवश्यक्ता थी उस उस भाषा (प्राकृत संस्कृत ) में टीका नियुक्ति भाष्य चूर्णि आदिकि रचना कर भव्य मोषोंपर महान उपकार कीया था। इस समय साधारण मनुष्योंकों वह भाषा भी कठीन होने लग गइ है क्योंकि इस समय जनताका लक्ष हिन्दी भाषाकि तर्फ बढ़ रहा है वास्ते जैनसिद्धान्तोंकि भी हिन्दी भाषा अवश्य होनी चाहिये. इस उद्देशकि पुरतीके लिये इस संस्थाद्वारा शीघबोध भाग १ से १६ तक प्रकाशित हो चुके है जिसमें श्री भगवती पन्नवणा जैसे महान् सूत्रोंकि भाषा कर थोकडे रूपमें छपा दीया है जो कि ज्ञानाभ्यासीयोंकों बडेही सुगमतासे कण्ठस्थ कर समज. नेमे सुभीता हो गया है। इस बखत यह १२ बारह सूत्रोंका भाषान्तर आपके कर क. मलोमें रखा जाता है आशा है कि आप इसको आद्योपान्त पढके लाभ उठायेंगे। इस लघु प्रस्तावनाको समाप्त करते हुवे हम हमारे सुसजमोसे यह प्रार्थना करते है कि आगमोंका भाषान्तर करने में तथा प्रुफ शुद्ध करने में अगर दृष्टिदोष रह गया हो तो आप लोग सुधारके पढ़ें और हमे सूचना करे तांके द्वितीयावृति में सुधारा करा दीया जावेगे-अस्तु कल्याणमस्तु. 'प्रकाशक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका. (१) शीघ्रबोध भाग १७ वां [१] श्री उपासक दशांग सूत्रका भाषान्तर. (१) अध्ययन पहला आनन्द श्रावक । १ वांणिया ग्राम नगर २ आनन्द गाथापतिका वर्णन ३ भगवान वीरप्रभुका आगमन ४ आनन्द देशना सुनके व्रतग्रहन ५ सवाविशवा तथा पुणाउगणीस विशवादया ६ पांचसो हलवेकी जमीन ७ अभिग्रह ग्रहन | अवधिज्ञानोत्पन्न ८ गौतम स्वामिसे प्रश्न ९ स्वर्ग गमन महाविदहमें मोक्ष (२) अध्ययन दुसरा कामदेव श्रावक १ कामदेव श्रावक व्रतग्रहन २ देवताका तीन उपसर्ग ३ भगवान ने कामदेवकी तारीफ करी ४ स्वर्ग गमन विदेहक्षेत्रमें मोक्ष (३) अध्ययन तीसरा चुलनिपिता श्रावक १ बनारसी नगरी चुलनिपिता वर्णन १२ १५ १६ १७ १७ २१ २२ २२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ देवताका उपसर्ग ३ स्वर्ग गमन विदेह क्षेत्रमें मोक्ष (४) अध्ययन चोथा सूरादेव श्रावक (५) अध्ययन पांचवा चुलशतक श्रावक (६) अध्ययन छटा कुंडकोलीक श्रावक १ कपीलपुर नगर कुंडकोलीक भावक २ देवता के साथ चर्चा ३ स्वर्ग गमन । विदह क्षेत्र मे मोक्ष (७) अध्ययन सातवां शकडाल पुत्र श्रावक १ पोलासपुर मे गोशालाको भाषक शकडाल २ देवताके वचनोसे गोशालाका आगमन जाना ३ भगवान वीरप्रभुका आगमन ४ मट्टीके वरतन तथा अग्रभीताका दृष्टान्त ५ शकडाल श्रावकव्रत ग्रहन ६ भगवानका विहार, गोशालाका आगमन ७ शकडाल और गोशालाकि चर्चा. ८ देवताका उपसर्ग ९ स्वर्गगमन और मोक्ष (८) अध्ययन आठवां महाशतक श्रावक. १ राजग्रह नगर महाशतक श्रावक २ रेवतीभार्याका निमत्त कहना ३ गौतमस्वामिको महाशतक के वहां भेजना ४ स्वर्गगमन और मोक्ष ૨૩ २४ २६ २६ २७ २८ २९ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३७ ३७ ૨૮ ३९ ४१ કર Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) अध्ययन नौवां नन्दनिपिता श्रावक (१०) अध्ययन दशवां शालनिपिता श्रावक (क) दश श्रावकोंका यंत्र [२] श्री अन्तगढदशांगमूत्र. " " (१) वर्ग पहला अध्ययन पहला. १द्वारामति नगरी वर्णन २ रेवंतगिरि पर्वत नन्दनवनोद्यान ३ श्रीकृष्ण राजा आदि ४ गौतम कुमरका जन्म ५ गौतम कुमरको आठ अन्तेवर ६ श्री नेमिनाथ प्रभुका आगमन ७ गौतम कुमर देशना सुन दीक्षा ग्रहन ८ गौतम मुनिकि तपश्चर्या ९ गौतममुनिका निर्वाण १० समुद्रकुंमरादि नौ भाइयोंका मोक्ष (२) वर्ग दुसरा अक्षोभकुंमरादि आठ अन्तगढ केवलीयोंका आठ अध्ययन (३) वर्ग तीसरा अध्ययन तेरहा १ भहलपुर नागशेठ सुलशा 'अनययश' का जन्म २ कलाभ्यास ३२ अन्तेवर ३ श्री नेमिनाथ पासे दीक्षा ४ छहों भाइ अन्तगढ केवली Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ सारणकुमार अन्तगढ केवली ६ देवकी राणीके वहां तीन सिंघाडे छ मुनिओंका आगमन. ७ दो मुनियों और छे भाइयोंकि कथा ८ देवकीराणीका भगवानसे प्रश्न ९ श्रीकृष्ण माताको वन्दन करना १० कृष्णका अष्टम तप और गजसुकुमालका जन्म ११ कृष्ण भगवानको वन्दन निमत्त जाना १२ गजसुकुमालके लिये शोमा ब्रह्मणीका ग्रहन १३ गजसुकुमालका भगवानके पास दीक्षा लेना १४ सोमल ब्राह्मणका मुनिके शीर अग्नि धरना १५ गजसुकुमाल मुनिका मोक्ष होना १६ सोमल ब्राह्मणका मृत्यु १७ सुमुहादि पांच मुनियोंको केवलज्ञान (४) वर्ग चोथा अध्ययन दस १ जालीकुमरादि दश भाइओ नेमिनाथ प्रभुके पास दीक्षा ग्रहन कर अन्तगढ केवली हुवे (५) वर्ग पांचवा दस अध्ययन १ द्वारामति विनाशका प्रश्न २. कृष्ण वासुदेवकि गतिका निर्णय ३ कृष्ण भविष्यमें अमाम नामा तीर्थकर होगा। ४ दिक्षा लेनेवालोंको साहिताकि घोषणा ५ पद्मावती आदि दश महासतीयोंका दीक्षा ग्रहन ७४ ... (६) वर्ग छठा अध्ययन सोला १ मकाइ गाथापतिका Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कोकम गाथापतिका ३ अर्जुनमाली बन्धुमतीभार्या मोगर पाणियक्ष , . ७६ ४ छे गोटीले पुरुष बन्धुमतीसे अत्याचार ५ मालीके शरीरमे यक्ष प्रवेश ६ प्रतिदिन सात जीवोंकि घात ७ सुदर्शन शेठकि मजबुती ८ अर्जुनमाली दीक्षा अन्तगढ केवली ९ कासवादि गाथापतियोंका ११ अध्ययन १० ऐमन्त मुनिका अधिकार ११ अलखराजा अन्तगढ केवली , (७) वर्ग सातवां--प्रेणिकराजाकि नन्दादि तेरहा राणीयो। भगवान वीरप्रभुके पास दीक्षा ले मोक्ष गइ (८) वर्ग आठवां श्रेणिकराजाकि काली आदि दस राणीयो १ कालीराणी दीक्षा ले रत्नावली तप कीया ८ २ सुकालीराणी दीक्षा ले कनकावली तप कीया ८९ ३ महाकालीराणी दीक्षा ले लघु सिंहगति तप कीया ९० ४ कृष्णाराणी दीक्षा ले महासिंह तप कीया ५ सुकृष्णाराणी दीक्षा ले सतसतमियाभिक्ष प्रतिमा ९० ६ महाकृष्णाराणी दीक्षा ले लघुसर्वतोभद्र तप ९१ ७ वीरकृष्णाराणी दीक्षा ले महामर्वतोभद्र तप ९२ ८ रामकृष्णराणी दीक्षा ले भद्रोत्तर तप कीया ९२ ९ पितृसेन कृष्णा , मुक्तावली तप कीया ९२ १० महासेनकृष्णा , अंबिल वर्धमान तप कीया ९३ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ [३] श्री अनुत्तरोत्रवाइसूत्र वर्ग ३ (१) वर्ग पहला अध्ययन दश-जालीकुंमरादि दश कुमर भगवान वीरप्रभुके पास दीक्षा (२) वर्ग दुसरा अध्ययन तेरहा-श्रेणिकराजाके दीर्घश्रेणादि तेरहा कुंमर, भगवान पासे दीक्षा (३) वर्ग तीसरा अध्ययन दश १ कार्कदीनगरी धन्नोकुमर बत्तीस अन्तेवर २ वीरप्रभुकी देशना सुन धन्नो दीक्षा ली ३ धन्नामुनिकि तपस्या और गोचरी ४ धनामुनिके शरीरका वर्णन ५ राजग्रह पधारना श्रेणिकराजाका प्रभ ६ धन्ना मुनिका अनसन-स्वर्गवास [२] शीघ्रबोध भाग १८ वां. (१) श्री निरयावलिका सूत्र. १ चम्पानगरी-भगवानका आगमन, १०८ २ कालीराणीका प्रश्नोत्तर. १०९ ३ कालीकुमारके लीये गौतमस्वामीका प्रश्न. ४चेलनाराणी सगर्भवन्तीको दोहला. ५ अभयकुमारकी बुद्धि दोहलापूर्ण. ६ कोणककुंमरका जन्म. ७ कोणकके साथ काली आदि दश कुंमर. ११८ ८ श्रेणिकराजाको बन्धन. ११९ ९ श्रेणिक काल. कोणक राजगादी. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १२० ૧૨૫ ૧૨૮ १२९ १३१ १३२ १३३ १३४ १३४ १३५ १३६ १० सींचाणक गन्धहस्तीकी उत्पत्ति. ११ अठारा सरीयो दिव्यहारकी उत्पत्ति. १२ वहलकुमरका वैशालानगरी जाना. १३ दुतको वैशालानगरी भेजना. १४ चेटक और कोणककी संग्राम तैयारी. १५ पहला दिन कालीकुमारका मृत्यु. १६ दश दिनोमें दशों भाइयोंका मृत्यु. १७ कोणक अष्टमतप कर दो इन्द्रोंको बुलाना. १८ दो दिनों का संग्राममें १८०००००० का मृत्यु. १९ चेटकराजाका पराजय. २० हारहाथीका नाश, वहलकुमारकी दीक्षा. २१ कुलबालुका साधु वैशाला भंग. २२ चेटकराजाका मृत्यु. २३ कोणकराजाका मृत्यु. २४ सुकाली आदि नौ भाइयोका अधिकार. । (२) श्री कप्पवडिंसिया सूत्र.. १ पद्मकुमारका अधिकार. २ पद्मकुमार दीक्षा ग्रहन करना. ३ स्वर्गवास जाना विदेहमें मोक्ष. ४ नौ कुमरोंका अधिकार. (३) श्री पुप्फिया सूत्र. १ राजगृहनगरमें भगवानका आगमन. २ चन्द्र इन्द्र सपरिवार वन्दन. ३ भक्तिपूर्वक ३२ प्रकारका नाटिक. ४ चन्द्रका पूर्वभव. ५ सूर्यका अधिकार. अध्य०२ १३७ १३७ 씨씨 १४१ १४१ १४२ १४३ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ १५५ १५७ अध्ययन तीजा. ६ शुक्र महाग्रहका नाटक पूर्वभव पृच्छा ७ सोमल ब्राह्मणका प्रश्न. ८ श्रावक व्रत ग्रहन. ९ श्रद्धासे पतित मिथ्यात्वका ग्रहन १० तापसोका नाम. ११ सोमल तापसी दीक्षा. १२ देवतासे प्रतिबोध देवपणे. अध्ययन चोथा. १३ बहुदुतीया देवीका नाटक. १४ पूर्वभवको पुच्छा और उत्तर. १५ घातीकर्म स्वीकार देवी होना. १६ सोमा ब्राह्मणीका भव मोक्षगमन. १७ पांचमा अध्ययन पूर्णभद्र देवका. १८ मणिभद्रादि देवोंका. ५ अध्ययन. (४) श्री पुप्फचूलिया सूत्र. १ श्रीदेवीका आगमन नाटक. २ पूर्वभव भूता नामकी लडकी, ३ भूताकी दीक्षा शरीर शुश्रुषा. . ४ विराधीकपणे देवी, विदेहमें मोक्ष. ५ हरी आदि नौ देवीयों. (५) श्री विन्हिदशा सूत्र. . १ बलदेव राजाका निषेढकुमर. २ निषेढकुमर श्रावक व्रत ग्रहन. २६१ १६३ १६४ १६६ d १७१ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ३ निषेढकुमरका पूर्वभव. १७२ ४ निषेढकुमर दीक्षा ग्रहन. १७२ ५ पांचवे देवलोक विदहमें मोक्ष. १७५ [१६] श्री शीघ्रबोध भाग १६ वा. (१) श्री वृहत्कल्पसूत्र १ छेद सूत्रोंकि प्रस्तावना (१) पहलो उद्देशो. २ फलप्रहन विधि ३ मासकल्प तथा चतुर्मासकल्प ४ साधु साध्वी ठेरने योग्य स्थान ५ मात्राका भाजन रखने योग्य ६ कषाय उपशान्त विधि ७ वस्त्रादि याचना विधि ८ रात्रीमें अशनादि तथा वस्त्रादि० ग्रहन निषेध ९ रात्रीमें टटी पैसाब परठणेको जाने कि विधि । . १० साधु साध्वीयोंका विहार क्षेत्र ( २ ) उद्देशा दुजा. - ११ साधु साध्वीयोंको ठरनेका स्थान १२ पांच प्रकारके वस्त्र तथा रजोहरण (३) तीजा उद्देशा. १३ साधु साध्वीयोंके मकानपर जाना निषेध १४ चर्म विगरे उपकरण १५ दीक्षा लेनेवालोंका उपकरण Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ गृहस्थोके घर जाके बेठना निषेध १७ शय्या संस्तारक विधि १८ मकानकि आज्ञा लेनेकी विधि १९ जाने आनेका क्षेत्र परिमाण ( ४ ) चोथा उद्देशा. २१ मूल अणुठप्पा पारंचीया प्रायाश्चित्त २२ दीक्षाके अयोग्य योग २३ सूत्रोंकि वाचना देना या न देना २४ शिक्षा देने योग्य तथा अयोग्य २५ अशनादि ग्रहन विधि २६ अन्य गच्छमें जाना न जाना २७ मुनि कालधर्म प्राप्त होने के बाद २८ कषाय-प्रायाश्चित्त लेना २९ नदी उतरणेकि विधि ३० मकान में ठेरने योग्य (५) पांचवा उद्देशा. ३१ देव देवीका रुपसे ग्रहन करे. ३२ सूर्योदय तथा अस्त होते आहार ग्रहम १३ साध्वीयोंकों न करने योग्य कार्य ३४ अशनादि आहार विधि (६) उद्देशो छठो. ३५ नही बोलने लायक छ प्रकारकी भाषा ३६ साधुषोंके छे प्रकारके पस्तारा ३७. पावोंमे कांटादि मांगे तो अन्योन्य काढसके ३८ छ प्रकारका पलीमथु Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] श्री शीघ्रबोध भाग २० वा. (१) श्री दशाश्रुतस्कन्ध छेद सूत्र. १ वीस असमाधिस्थान २ एकवीस सबलास्थान ३ तेतीस आशातनाके स्थान ४ आचार्य महाराजकि आठ मपदाय ५ चित्त समाधिके दश स्थान ६ भाषककि इग्याराप्रतिमा ७ मुनियोंकि बारहाप्रतिमा ८ भगवान् वीर प्रभुके पांच कल्याणक ९ मोहनिय कर्मबन्धके तीस स्थान १० नौ निधांन (नियाणा) अधिकार २१] श्री शीघ्रबोध भाग २१ वां. (१) श्री व्यवहार छेद सूत्र. १ प्रायश्चित्त विधि २ प्रायाश्चित्तक साधुका विहार ३ गच्छ त्याग एकल विहारी ४ स्वगच्छसे परगच्छमे जाना ५ गच्छ छोडके व्रत भंग करे जीस्कों ६ आलोचना कीसके पास करना ७ दो साधुवोंसे एकके तथा दोनोंके दोष लगेतो ८ बहुत साधुवोंसे कोई भी दोष सेवेतो .. ९प्रायःधित बहता साधु ग्लानहो तों ... १. प्रायः वालकों फोरसे दीक्षा केसे देना : . १० १५ १४२ १६ १४ १४६ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ ११ एक साधु दुसरे साधुपर आक्षेप ( कलंक १४७ १२ मुनि कामपीडत हो संसारमे जावे १३ निरापेक्षी साधुको स्वल्पकालमे भी पति १५८ १४ परिहार तप वाला मुनि १४९ १५ गण ( गच्छ ) धारणकरनेवाले मुनि १५० १६ तीन वर्षों के दीक्षित अखंडाचारीको उपाध्यायपणा १५१ १७ आठ वर्षों के दीक्षित ,. आचार्यपद १८ एकदिनके दिक्षितकों आचार्यपद १५२ १९ गच्छवासी तरुण साधु २० वेश में अत्याचार करने वालेको २१ कामपिडित गच्छ त्याग अत्याचारकरे २२ बहुश्रुतिकारणात् मायामृषाबाद बोले तो २३ आचार्य तथा साधुवोंको विहार तथा रहना २४ साधुवोंको पनि देना तथा छोडाना २५ लघुदीक्षा वडीदिक्षा देने का काल २६ ज्ञानाभ्यासके निमत्त पर गच्छ में जाना २७ मुनि,विहारमें आचार्यकि आज्ञा २८ लघु गुरु होके रहना १६३ २९ साध्वीयोंको विहार करनेका ३० साध्वीयोंके पद्विदेना तथा छोडाना ३१ साधु साध्वीयों पढाहुवा ज्ञान विस्मृत हो जावे १६६ ३२ स्थवीरोंको ज्ञानाभ्यासे ३३ साधु साध्वीयोंकि आलोचना १६८ ३४ साधु साध्वीयोंकों सर्प काट जावे तो १६८ ..३५ मुनि संसारी न्यातीलोंके वहांगोचरी जाये तो १६९ ... ३६ शात या अज्ञात मुनियोंके रहने योग्य ३७ अन्यगच्छसे आइ हा साध्वी १५७ १६० દર Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ १७५ १७७ ३८ साधु साध्वीयोंका संभोगको तोडदेना . ३९ साधु साध्वीयोंके वास्ते दीक्षा देना ४० प्रामादिकमें साधु २ कालकर जावे तो ४१ ठेरे हुवे मकानकि पहले आज्ञा लेना ४२ स्थवीरोंके अधिक उपकरण ४३ अपना उपकरण कहां भी भूला हो तो ४४ पात्र याचना तथा दुसरेको देना ४५ उणोदरी तप करने की विधि. ४६ शय्यातर संबंधी अशानादि आहार ४७ साधुवोंके प्रतिमा वहान अधिकार, ४८ पांच प्रकारका व्यवहार ४९ चौभंगीयों ५० तीन प्रकारके स्थवीर तथा शिष्यभूमि ५१ छोटे लडकेको दीक्षा नही देना ५२ कोतने वर्षोंकि दीक्षा ओर कोनसे सूत्रपढाना ५३ दश प्रकारकि वैयावचसे मोक्ष [२२] श्री शीघ्रबोध भाग २२ वां. (१) श्री लघु निशिथमूत्र ( छेद ) १निशिथसूत्र २ उद्देशो पहलो बोल ६० का प्रायश्चित्त ३, दुसरो ,,, १ , तीजो , ८२ ५, चोथो ,१६८ ... ६, पांचवो , ७८ , १९९ २०१ ૨૦૮ २१५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ २३५ २३८ २५ २५. २५७ ८ सातवां , , ९ , आठवां ,, १९ १० ॥ नौवां , २६ , दसवां , ४८ , इग्यारवां,,१९७ ३, बारहवां ४८ , तेरहवां , ७६ चौद , ५० पन्दरवां,,१७२ सोलवां , ५१ सतरवां ,,२६८ अठारवां,, ९३ उन्नीसवां,,३९ २१ , बीसवां , ६५ २२ आलोचनाकि विविध विषय २७१ ૨ા २८. २९१ ३२१ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहर्ष निवेदन. -+k@kश्री रत्नप्रभाकर बानपुष्पमाला ऑफीस फलोधीसे प्राज स्वन्प समय में ७० पुष्पोद्वारा १४०००० पुस्तके प्रकाशित हो चुकि है जिस्में जैन सिद्धान्तोंका तत्वज्ञान संचित सुगमतासे समजाया गया है वह साधारण मनुष्य भी सुख पूर्वक लाभ उठा सक्ते है पाठक वर्ग एकदफे मंगवाके - वश्य लाभ लेंगे. पुस्तक मीलनेका ठीकाना. मेनेजर श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला. मुः-फलोधी-( मारवाड) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ नमः ॥ ॥ स्वर्गस्थ पूज्यपाद परमयोगी सतांमान्य प्रभाते स्मरणीय मुनि श्री श्री श्री १००८ श्री श्रीमान् रत्नविजयजी महाराज साहबके कर कमलोंमें सादर समर्पण पत्रिका | पूज्यवर ! आपने भारत भूमिपर अवतार ले, असार संसारको जलांजली दे, बाल्यकालमें ( दश वर्षकी अल्पावस्थामें ) जन्मोद्धारक दीक्षा ले, जैनागमोंका अध्ययन कर, सत्यसुगंधीको प्राप्त कर, अशुभ असत्य ढूँढक वासनाकी दुर्गंधसे घृणित हो अठावीस वर्षकी अवस्थामें समुचीत मार्गदर्शी श्रीमान विजयधर्मसूरीश्वरजीके चरणसरोजमें भ्रमरकी तरह लिपट गए. ऐसी आपकी सत्यप्रियता ? इसी सत्यप्रियताके आधीन हो मैं इन आगमरूपी पुष्पोंकों आपके आगे रखता हूँ. क्यों कि आपके जैसा सत्यनिष्ट और अनेकागमावलोकी इस पामरकों कहीं मिलेगा ? परमपुनीत पूज्य ? आपने गिरनार और आबू जैसे गिरिवरोंकी गुफाओ में निर्भीकतासे निवाश कर, अनेक तीर्थ स्थानोंकी पुनीत भूमीओंमें रमण कर, योगाभ्यासकी जैनोंमें से गई हुई कीर्तिको अह्वाहन कर पुनः स्थापीत कर गए. इसलिए आपके सूक्ष्मदर्शिताके Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० गुणोंमें मुग्ध हो ये पुष्प आपके आगे रखनेकी उत्कट. इच्छा इस दासको हुई है. मेरे हृदयमंदिरके देव? आपने अति प्राचीन श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर स्थापीत उपकेश पट्टनस्थ ( ओशीयांमें ) महावीर प्रभुके मंदिरके जीर्णोद्धारमें अपूर्व सहाय कर जैनबालाश्रम स्थापीत कर जैनागमोंका संग्रहीत ज्ञानभंडार कर मरूभूमीमें अलभ्यलाभ कायम कर जैननातिकी सेवा कर अपूर्व नाम कर गए. इन कारणोंसे लालायीत हो ये आगमपुष्प आपके सन्मुख रखू तो मेरी कोई अधीकम नहीं है. ___भव्योहारक ! इस दासपर आपकी असीम कृपा हुई है इससे यह दास आपका कभी उपकार नहीं भूल सकता. मुझे आपने मिय्याजालमेंसे छूडाया है, सन्मार्ग बताया है, ढूंढकोंके व्यामोहसे दृष्टि हटा कर ज्ञानदान दिया है, साध्वाचारमें स्थिर किया है. यह सब आपका ही प्रताप है. इस अहसानको मानकर इन बारे सूत्रोंका हिन्दी अनुवादरूपी पुष्पोंको आपकी अनुपस्थितिमें समर्पण करता हूँ. इसे सूक्ष्म ज्ञानद्वारा स्वीकार करीएगा. यही हार्दिक प्रार्थना है. किमधिकम्. आपश्रीके चरणकमलोंका दास मुनि ज्ञानसुन्दर. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्री ज्ञानसुन्दरजी पूज्यपाद श्रीमान् सर माजकेकरकमलोमें आभिनन्दनपत्रम्. शान्त्यादि गुणगणालंकृत पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय मुनि श्री श्री १००८ श्री श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराजसाहिब ! आपश्री बडे ही उपकारी और ज्ञानदान प्रदान करनेमें बडे ही उदारवृत्तिको धारण कर आपश्रीकी प्रशंसनीय व्याख्यान शैली द्वारा भव्यजीवोंका कल्याण करते हुवे हमारा सद्भाग्य और हमारी चिरकालकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये आपश्रीका शुभागमन इस फलोधी नगरमें हुवा, जिसके वजरिये फलोधी नगरकी जैन समाजको बडा भारी लाभ हुवा है. बहुतसे लोग आपश्रीकी प्रभावशाली देशनामृतका पानसे सद्बोधको प्राप्त कर पठन-पाठन, शास्त्रश्रवण, पूजा, प्रभावना, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषधादि, त्याग, वैराग और अपूर्व ज्ञान-ध्यान करते हुवे आपश्रीके मुखार्विदसे श्रीमद् श्राचारांगादि ३७ आगम और १४ प्रकरण श्रवण कर अपना आत्माको पवित्र बनाया यह आपश्रीके पधारनेका ही फल है. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हे करूणासिन्धु ! आपश्रीने इस फलोधी नगरपर ही नहीं किन्तु अपने पूर्ण परिश्रम द्वारा जैन सिद्धान्तोंके तत्वज्ञानमय ७५००० पुस्तकें प्रकाशित करवाके अखिल भारतवासी जैन समाज पर बड़ा भारी उपकार किया है. यह आपश्रीका परम उपकाररुपी चित्र सदैवके लिये हमारे अन्तःकरणमें स्मरणीय है। हे स्वामिन् ! फलोधीसे गत वर्षमें जैसलमेरका संघ निकला, उस्में भी आप सरीखे अतिशयधारी मुनिमहाराजोंके पधारनेसे जैन शासनकी अवर्णनीय उन्नति हुइ, जो कि फलोधी वसनेके बाद यह सुअवसर हम लोगोंको अपूर्व ही मीला था। . हे दयाल ! आपश्रीकी कृपासे यहांके श्रावकवर्ग भगवानकी भक्तिके लिये समवसरणकी रचना, अठ्ठाइमहोत्सव, नित्य नवी २ पूजा भणवाक वरघोडा और स्वामिवात्सल्यादि शुभ कार्योंमें अपनी चल लक्ष्मीका सदुपयोगसे धर्मजागृति कर शासनोन्नतिका लाभ लिया है वह सब आपश्रीके बिराजनेका ही प्रभाव है । ___आपश्रीके बिराजनेसे ज्ञानद्रव्य, देवद्रव्य, जिर्णोद्धारके चन्दे आदि अनेक शुभ कार्योका लाभ हम लोगोंको मीला है । अधिक हर्षका विषय यह है कि यहांपर कितनेक धर्मद्वेषी नास्तिक शिरोमणि धर्मकार्योमें विघ्न करनेवालोंको भी आपश्रीके जरिये अच्छा प्रतिबोध (नशियत) हुवा है, आशा है कि अब वह लोग धर्मविघ्न न करेंगे। अन्तमें यह फलोधी श्रीसंघ आपनीका अन्तःकरणसे परमो Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकार मानते हुवे भक्तिपूर्वक यह अभिनन्दनपत्र आपश्रीके करकमलोंमें अर्पण करते है, आशा है कि आप इसे स्वीकार कर हम लोगोंको कृतार्थ बनावेंगे। ___ता०क०-जैसे आपश्रीके शरीरके कारणसे आप यहांपर तीन चातुर्मास कर हम लोगोंपर उपकार किया है. अब तक भी आपके नेत्रोंका कारण है, वहांतक यहां पर ही बिराजके हम लोगोंपर उपकार करे. उमेद है कि हमारी विनति स्वीकार कर आपके कारण है वहांतक आपश्री अवश्य यहां पर ही बिराजेंगे । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । । संवत् १९७९ का कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी जनरल सभाम आपश्रीके चरणोपासक फलोधी श्री संघ. Page #120 --------------------------------------------------------------------------  Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROCODEOS श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प न० ५३ श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्योनमः __ अथश्री शीघ्रबोध या थोकडाप्रबन्ध. भाग १७ वां RECEMrDroSor@DRESS .. संग्राहक. श्रीमदुपकेश गच्छीय मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी ( गयवरचन्दजी) ----*ORKe---. द्रव्यसहायक श्रीसंघ फलोधीसुपनोंकीआमदनीसे प्रकाशक. शाह मेघराजजी मुणोत मु० फलोधी प्रथमावृत्ति १००० वीर संवत् २४४८ विक्रम सं. १९७९ RECOR@ CHORDERMA Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनगर-धी · आनंद प्रीन्टींग प्रेस , म शा. गुलाबचंद लल्लुभाईए छाप्युं. '.. . ..... Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री रत्नप्रभसरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः शीघ्रबोध या थोकमा प्रबन्ध भाग १७वा. -**-- देवोऽनेक भवार्जिताऽर्जित महा पाप प्रदीपानलो। देवः सिद्धिवध विशाल हृदयालंकार हारोपमः ।। देवोऽष्टादशदोष सिंधुरघटा निर्भद पंचाननो । भव्यानां विदधातु वांछित फलं, श्री वीतरागो जिनः ॥१॥ श्री उपासक दशांग सूत्र अध्ययन १ (आनंद श्रावकाधिकार) चोथे आरके अन्तिम समयकी बात है कि इस भारतभूमीको अपनी ऊंची २ ध्वजा पताकाओं और सुन्दर प्रसादके मनोहर शिखरोंसे गगनमंडलको चुम्बन करता हुवा अनेक प्रकारके धन, शान्य और मनुष्यों के परिवारसे समृद्ध ऐसा वाणी य ग्राम नामका Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक नगर था । उस नगरकं बाहिरी भागमें अनेक जातिके वृक्ष, पुष्प और लताओंसे अति शोभनीय दुतीपलास नामका उद्यानं (बगीचा ) था। और वहां अनेक शत्रुओंका अपनी भुजाओंके बलसे पराजय करके प्रजाको न्याय युक्त पालन करता हुवा जय. शत्रु नामका राजा उस नगरमें राज्य करता था। और वहां आनंद नामका एक गाथापति रहता था। जिसको सिवानंदा नामकी भार्या थी वह बडा ही धनाढय और नीती पूर्वक प्रवृत्ति करके ज्यायोपार्जित द्रव्य और धन धान्य करके युक्त था। जिसके घर चार करोड सोनया धरतीमें गडे हुयेथे । चार करोड मोनयाका गहना आदि ग्रह सामग्री थी। ओर चार करोड सोनेये वाणिज्य व्यापारमें लगे हुवे थे । और दश हजार गायोंका एक वर्ग होता है ऐसे चार वर्ग याने ४०००० गायोंथी। इसके सिवाय अनेक प्रकारकी सामग्री करके समृद्ध और राजा, शेठ, सेनापती आदिको बड़ा माननीय और प्रशंसनीय. गुंज और रहस्यकी बातोंमें नेक सलाहका देनेवाला, व्यापारीयोंमें अग्रेसर था। हमेशा आनंद चित्तसे अपनी प्राणप्रिया सुशीला सिवानंदाके साथ उचित भोग-विलास व. ऐश्वर्य सुखोंको भोगवता हुवा रहता था । उस नगरके बाहिरी भागमें एक कोलाक नामका सन्नीवेश (मोहल्ला) था। वहांपर आनन्द गाथापतीके मजन संबंधी लोक रहते थे। वेभी बडे ही धनाढय थे। एक समय भगवान त्रैलोक्य पूजनीय वीर प्रभु अपने शिज्यवर्ग-परिवार सहित पृथ्वी मंडलको पवित्र करते हुवे, वाणीयग्राम नगरके दुतीपलास नामके उद्यान में पधारे। . यह खबर नगरम होते ही जहां दो, तीन, चार या बहुतसे. रस्ते एकत्रित होते हैं। ऐसे स्थानोंपर वहुतसे लोक आपसमें स. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I हर्ष वार्तालाप कर रहे हैं कि अहो ! देवानुप्रिय ! यथा रूपके अ रिहंत भगवन्तां नाम मात्र श्रवण करनेसे ही महाफल होता है. वही श्रमण भगवान महावीर प्रभुका पधारना आज दुतीपलास नामके उद्यानमें हुवा है तो इसके लिये कहनाही क्या है । चलो भगवन्तको वन्दन- नमस्कार करके श्री मुख से देशना श्रवण कर प्रश्नादि करके वस्तुका निर्णय करें। ऐसा विचार करके सब लोक अपने २ घर जाके स्नान कर वस्त्राभूषण जो बहू मुल्यके थे वे धारण कीये । और शिरपर छत्र धराते हुवे कितनेक गज, अश्व, रथादिपर और कितनेक पैदल जाने को तैयार हो रहेथे। इतने में जयशत्रु राजाको वनपालकने खबर दीकि आप जिनके दर्शनकी अभिलाषा करतेथे वे परमेश्वर वीरप्रभु उद्यानमें पधारे हैं। यह सुनके राजाने उस वनपालकको संतोषित कर बहुत द्रव्य इनाम दिया और स्वयम चार प्रकारकी सेना तैयार कर बहुत से मनुष्यों के परिवारसे कोणक राजाकी माफीक नगरश्रृंगार के बड़े ही हर्ष - उत्साह और आडम्बरके साथ भगवानको वन्दन करनेको गया । समोसरण में प्रवेश करते ही प्रथम पांच प्रकारके अभिगम-विनय करते हुवे भगवानके पास पहुंच गये । राजा और नगर निवासी लोक भगवानको प्रदक्षिणा दे वन्दननमस्कार कर अपने २ योग्य स्थान पर बैठ गये । आनन्द गाथापति भी इस वातको श्रवण करते ही स्नानमज्जन कर शरीर पर अच्छे २ बहुमूल्य वस्त्राभूषण धारण कर शिरपर छत्र धराते हुवे और बहुतसे मनुष्यवृन्द के परिवार से भगवानको वन्दन करने को आये । वन्दन- नमस्कार कर योग्य स्थान पर बैठ गया । भगवान ने भी उस विशाल पर्षदाको धर्मदेशना देना प्रारंभ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। जिसमें मुख्य जीव और कर्मोंका स्वरूप बतलाया कि हे भव्यात्माओ ! यह जीव निर्मल ज्ञानादि गुणयुक्त अमूर्त है और सद् चिदानन्दमय है परन्तु अज्ञानसे पर वस्तुओंको अपनी कर मानी है । इन्हीसे उत्पन्न हुवा राग-द्वेषके हेतुसे कमका अनादि कालसे चय - उपचय करता हुवा इस अपार संसारके अन्दर परि भ्रमण कर रहा है । वास्ते अपनी निजसत्ताको पहिचान के जन्म. जरा, मृत्यु आदि अनन्त दुःखोंका हेतु यह अनित्य असार संसारके बन्धन से छूटना चाहिये । इत्यादि देशना देके अन्त में फरमाया कि मोक्षप्रातिके मुख्य कारण दोय है (१) साधु धर्म-सर्वथा निर्वृत्ति । (२) श्रावक धर्मजो देशसे निवृत्ति, इस दोनों धर्मसे यथाशक्ति आराधना करनेसे संसार का पार हो के स्वसत्ताका राज मील सक्ता है। यह अमृतमय देशना देवता, विद्याधर और राजादि श्रवण कर सहर्ष बोले कि हे करुणासिन्धु ! आपने यह भवतारक देशना दे के जगत के जीवोंपर अमूल्य उपकार किया है । इत्यादि स्तुति कर अपने २ स्थान पर गमन करते हुवे । आनन्द गाथापति देशना सुनके सहर्ष भगवानको वन्दननमस्कार कर बोला कि हे भगवान! मैं आपकी सुधारस देशना अवण कर आपके वचनोकी अन्तर आत्मासे श्रद्धा हुइ है । और मेरे वो प्रतीति होनेसे धर्म करनेकी रुचि उत्पन्न हुइ है, परन्तु हे दीearth? धन्य है जगतमें राजा, महाराजा । शेठ सेनापति आदि को जो कि राजपाट, धन, धान्य, पुत्र, कलत्रका त्याग कर आप के समीप दीक्षा ग्रहण करते है परन्तु मैं ऐसा समर्थ नहीं हूं । हे प्रभो ! मैं आपसे गृहस्थ धर्म अर्थात् श्रावकके बारह व्रत ग्रहण करूंगा । भगवानने फरमाया कि "जहा सुखं" हे आनन्द ! ' जैसा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमको सुख हो वैसा करो परन्तु जो धर्मकार्य करना हो उसमें समय मात्र भी प्रमाद मत करो'। ऐसी आज्ञा होने पर आनन्द श्रावक भगवान के समीप श्रावक व्रतको धारण करना प्रारंभ किया। (१) प्रथम स्थूल प्राणातिपात अर्थात् हलता चलता त्रिस जीवोंको मारने का त्याग जायजीवतक, दोय करन स्वयं कीसी १ आनन्दने प्रथम व्रतमें बस जीवोंको हणनेका प्रत्याख्यान दोय करण और तीन योगम किया है. जैसे कि हालमें सामायिक पौषधर्म दाय करण और तीन योगसे प्रत्याख्यान करते हैं विशप इतना है कि सामायिक पोसहमें सर्व सावा कात्याग हैं और आनन्दजीने त्रस जीवोंको माग्नेका त्याग कीया था। बहुतस ग्रन्धोंमें श्रावकक सवा विसवा दया कही गइ हैं उन्हीमें स्थावर जीवों की दश विसवा दया तो श्रावकम पल ही नहीं सके और बस जीवोमें भी निर्विकल्पके पांच विसवा, अपराधीक अढाई. आकुटीका सवा एवं १८॥ विसवा बाद करतां सवा विसवा दया श्रावकके होती हैं । यह एक अपेक्षास सत्य है कि जिन्होंने छठा, सातवां, आठवां व्रत नहीं लिया है जिसको १४ राजलोकके स्थावरजीव खुल्ले हैं। जो श्रावक वस जावाको मारनेका कामी नहीं है. उन्होंक १० दश विसवा दया वस जीवांकी होती है और स्थावर जीवोंके लिय छा व्रतकी मयादा करते हैं तो मयांदके बहारके असंख्यात कोडानुकोड अर्थात् मर्याद के सिवाय चौदह राजलोकके स्थावर जीवोंको मारने का भी श्रावक त्यागी है वास्ते पांच विसवा दया पल सकती है। अब मर्यादाकी भूमिकामें बहुतम द्रव्य है जिसमें सातवां व्रतमें उपभोग परिभोगकी मर्यादा करनेमे द्रव्य रखने के सिवाय सब स्थावर जीवोंकी दया पल जानेसे अढाई क्सिवा दया होती है जब द्रव्यादिकी मर्याद करी थी उन्होंमें भी अनर्थदंडके प्रत्याख्यान करनेसे सवा वीसवा दया पल जाती है एवं १०-५... २ ।।--१। मीलके १८॥ वीसवा ढया बाराव्रती श्रावकसे पल सकती है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवको मारना नहीं, औरों के पास मरवाना भी नहीं और तीन योग मनसे वचनसे और कायसे । इस व्रतमें “जाणी अगर यह प्रश्न किया जाय कि श्रावक गृहकार्य के लिये तथा संग्रामादिमें त्रस जीव मारते हैं । उत्तर-हां, गृहकार्यादिमें त्रस जीव मरत है परन्तु श्रावक बस जीव मारनेका कामी नहीं है जैसे कि साधुको नदी उतरतां बस स्थावरोंकी हिंसा होती है परन्तु मारनेका कामी न होने वीस विसवाही दया मानी गई है । भगवती सूत्र ७ श० उ० १ में कहा है कि त्रस जीवांको मारनका त्याग करने पर पृथ्वी खोदतां वय जीव मर जाव तो श्रावकको व्रतमें अतिचार नहीं लगता है । अगर श्रावकों के स्थावर जीवोंकी वाल्कुल दया नहीं, गिनी जावे तो फिर श्रावक छट्ठादिग् परिमाण व्रत करता है उन्होंका क्या फल हुवा ? सातमा व्रतमें द्रव्यादिका संक्षेप करता है उसका क्या फल हवा ? चौदह नियम धारते है। उन्हों का क्या लाभ हुवा ! कारण कि स्थावर जीवोंकी दया तो उन्होंके गीना ही नहीं जाती है। और त्रस जीवोंके तो पहेले ही त्याग हो चुका था फिर छटा, यातवां, आठवां व्रत लेनेका क्या लाभ हुवा ? (प्रश्न) साधु और श्रावकक क्या सवा विसवा दयाका ही फरक है ! (उत्तर) और क्या है ? देखिये श्रावकों के शास्त्रकारोंने कैसा महत्व बतलाया है " एसअठे एसपमछे संसाअगढ़े x x x अप्पाणं भावेमाण विहरड'' गृहवासमें रहते हुवे श्रावकका यह लक्ष है कि वीतरागका धर्म है वह अर्थ और परमार्थ है ! शेष गृह कार्य अनय है । सदैव आत्माको भावता हुवा विचरता है । सोचना चाहिये कि साधु और श्रावको क्या फरक है। द्रव्यमे श्रावक गृहवासमें प्रवृत्ति करता है इसके लिये ही सवा वीसवा कम रखी गई है । अगर कोइ आजके श्रावकोंकी स्थिति देख प्रश्न करते हो तो हम कह सकते हैं कि जैसे हालमें साधु है वैसे ही श्रावक हैं। परन्तु हमने तो अपने कर्तव्यमें चलनेवालोंकी बात लिखी है । देखिये, श्रावक प्रतिमा बहन करते हैं तब साधु माफिक रहते है तो क्या उसको मवा विसवा ही दया कही जावेगी? कभी नहीं । जो पूर्व महाऋषियोंने सवा विसवा कही है उन्हीको हम केवल बम जीवोंकी अपेक्षाको सत्य मानते है । तत्व केवली गम्यं ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीच्छी उदेरी संकुटी अनापराधी' आगार होते हैं वह देखो जैन नियमावलीसे। (२) दूसरे स्थूल मृषाबाद-तीव्र राग द्वेष संक्लेषोत्पन्न कर. नेवाला मृषाबाद तथा राजदंडे या लोकभंडे ऐसा मृषाबाद बोलनेका त्याग जावजीव तक दोय करण और तीन योगसे पूर्ववत् । (३) तीसरे स्थूल अदत्तादान-परद्रव्य हरन करना, क्षेत्र क्षणादिका त्याग जावजीवतक दोयकरण और तीन योगसे। (४) चोथे स्थूल मैथुन-स्वदारा संतोष जिसमें आनन्दने अपनी परणी हुई सिवानन्दा भार्या रखके शेष मैथुनका त्याग कियाथा। (4) पांचमें स्थूल परिग्रहका परिमाण करना। (१) सुवर्ण, रूपेके परिमाणमें बारह कोड जिसमें च्यार कोड धरतीमें, च्यारकोड व्यापारमें, च्यार क्रोड घरमें आभूषण व. खादि घर विक्रीम। इन्होंके सिवाय सर्व 'त्याग किया। (२) चतुष्पदके परिमाणमें च्यारवर्ग अर्थात् चालीस हजार गौ(गायों) के सिवाय सर्व, त्याग किये (३) भूमिकाके परिमाणमें पांचसो हल जमीन रखी शेषभूमिका परिमाण किया। (४) १ जा रखे हुवे व्यापारमें धनवद्धि होती हैं वह पर्व अपनीही मर्योदामें मानी जातीथी। ..• च्यार गोकल ( वर्ग ) की वृद्धि हो वह इसी मर्यादामें हैं। ३ दशहाथ परिमाण एक वांस और बीस वांस परिमाणका एक नियत और सौ नियतका एक हल एसे पांचम हल जमीन रखीथी उन्हों के १२५० गाउ होता है। बस, छलावतकी मर्यादाभी इसी भूमीकाम आगईथी वास्ते छठा व्रतका अलापक अलग नही कहा हैं । किन्नु अतिचार छठे व्रतका अलग कहा है । और अनन्दीकी सिंध (कविता) में ५०० हलवत खडते हैं ऐसा भी लिखा हैं । अगर पांचसो हल खेती समझी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकट-गाडाके परिमाणमें पांचसो गाडा जहाजों पर माल पहुंचानेके लिये तथा देशांतरसे माल लाने के लिये और पांचसो गाडा अपने गृहकार्य के लिये खुल्ला रखके शेष शकट-गाडाओंका त्याग कर दिया (५) बहाण पाणीके अन्दर चलनेवाले जहाजके परिमाणमें च्यार बडे जहाज दिशाधरोंमें माल भेजनेका ओर च्यार छोटे जहाज खुले रखके शेष बहाणका त्याग कीया । छठा बत पांचवेव्रतके अन्तर्गत है। (७) सातवां उपभोग-परिभोग व्रतका निम्न लिखित परिमाण करते हुवे। (१) अंगपूंछनेका रूमालमें गन्ध कर्षीत वन रखा है। (२) दातणमें एक अमृति-जेटीमधका दातण ।। (३) फलमें एक क्षीर आंवलाका फल ( केशधोनेको ) (४) कसरत करने पर 'मालिस' करनेके लिये सौपाक और हजार पाक तेल रखाथा । सौ औषधिसे पकावें उसको सौपाक और हजार औषधिसे पकावे उसको हजार पाक कहते है तथा मौ मोनैयाका एक टकाभर ऐसा कीमतवाला तैल रखा था। (५) उघटना एक सुगन्ध पदार्थ कुष्टादिका रखा है। (६) स्नान मजन-आठ घडे पाणी प्रतिदिन रखा है। (७) वस्त्रोंकी जातिमें एक क्षेमयुगल कपासका वस्त्र रखा है। जावे तो छठा दिशावत बीलकुलही नहीं रखाथा तो उन्होंक च्यार बंड वहाण च्यार छोटे वहाण किस दिशामें चलतेथ ऐसा प्रश्न स्वाभाविक उत्पन्न होता है । आनन्दको व्यवहार (व्यापार) में कुशल कहा है और पांचम व्रतमें च्यार क्रोड द्रव्य व्यापारके लिये खा था । वास्ते संभव होता है कि पांचस हलकी जमीन खीथी उसीमें छद्रावतका भी समावेश होगया हो । तत्वं केवली गम्यं । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) विलेपन-अगर कुंकुंम चन्दनका विलेपन रखा था। (९) पुष्पकी जातिमें शुद्ध पद्म और मालतिके पुष्पोंकी माला। (१०) आभरण-कानोंके कुंडल ओर नामांकित मुद्रिका रखीथी) (११) धूप-अगर तगगदि सुगन्ध धूप रखा था । (१२) पेज-घृतमें तलीया हुवा चावल पुवा । (१३) भोजन-घृत पुरी और खांड खाजा रखा था। (१४) ओदन-कलम जातिके शाली चावल रखा था। (१५) सूप-दालमें मूंग. उडदकी दाल रखी थी। (१६) घृतमें शरदऋतुका घृत अर्थात् सवेरे निकाला हुवा। (१७) शाक, शाकमै बथुवाकी भाजीका तथा मंडुकी वनस्पतिका शाक रखा था। (१.८) मधुर फलमें एक वली फल पालंग फल रखा था। (१९) जेमण, जिमणविधि द्रव्य विशेष रखा था। (२०) पाणीकी जातिमें एक आकाशका पाणी, टांकादिका (२१) मुखवासमें इलायची लवंग कपुर जावंतरी जायफळ यह पांच वस्तु तंबाल में रखी थी ! सर्व आयुष्य में एवं २१ बोलोके द्रव्य रखे थे। (८) आठवां व्रतम अनथदंडका त्याग किया था यथा-स्वार्थ विना आतध्यान करनका त्याग । प्रमादके वश हो, घृत, तेल, दूध, दही, पाणी, आदिका भाजन खुल्ला रख देना, औरभी प्रमादाचरणका त्याग । हिंसाकारी शस्त्र एकत्र करनेका त्याग । पापकारी उपदेश देने का त्याग यह च्यार प्रकारसे अनर्थदंड सेवनकरनेका त्याग। यह आठ व्रतोंका पग्मिाण करनेपर भगवान महावीर Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामि बोले कि हे आनन्द जो सम्यक्त्य सहित व्रत लेते हैं उ. सको पेस्तर व्रतोंके अतिचार जो कि व्रतोंके भंग होने में मददगार है उसको समझके दूर करना चाहिये । यहां पर सम्यक्त्वके ५ और बारह व्रतोंके ६० कर्मादानके १५ संलेखनाके ५ एवं ८५ अतिचार शास्त्रकारोंन बतलाये हैं। किन्तु वह अतिचार प्रथम जैन नियमावली में लिखे गये है वास्ते यहांपर नहीं लिया है। जिसको देखना हो वह " जन नियमावली" से देखे । ___ आनन्द गाथापति भगवान् वीरप्रभुसे सम्यक्त्व मूल बारह व्रत धारण करके भगवानको वन्दन-नमस्कार करके बोला कि हे भगवान ! अब आज मैं सच्चे धर्मको ममझ गया हूं । वास्ते आजसे मुझे नहीं कल्पे जो कि अन्यतीर्थी श्रमण.शाक्यादि तथा अन्यतीर्थीयोंके देव हरि, हलधरादि और अन्यतीर्थीयोंने अरिहंतकी प्रतिमा अपने देवालयमें अपने कबजे कर देव तरीके मान रखी है. इन्ही तीनोंको वन्दन-नमस्कार करना तथा श्रमणशाक्यादिको पहिले बुलाना, एकवार या वारवार उन्होंसे वार्तालाप करना और पहिलेकी माफिक गुरु समजके धर्मबुद्धिसे आसनादिचतुर्विधाहा. रका देना या दूसरोंसे दिलाना यह सर्व मुझे नहीं कल्पते हैं । परन्तु इतना विशेष है कि मैं संसारमें बैठा हे वास्ते अगर (१) गजाके कहनेसे (२) गणसमूह-न्यातके कहनेसे (३) बलवन्तके कहनेसे (४) देवताओंके कहनेसे (..) मातापितादिके कहनेसे (६) सुखपूर्वक आजीविका नहीं चलती हो। अर्थात् ऐसी हालतमें किसी आजीविकाके निमित्त उक्त कार्य करना भी पडे यह रे प्रकारके आगार है। अब आनन्द श्रावक कहता है कि मुझे कल्पे माधु-निर्ग्रन्थ को फासुक, निर्जीव, निर्दोष अशन पान खादिम स्वादिम वस्त्रपात्र Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंबल रजोहरण पीठ फलगशय्या संस्थारक औषध भैषज देता हुवा बिचरना । ऐसा अभिग्रह धारण कर भगवानको वन्दन कर प्रश्नादि पूछके अपने स्थानको गमन करता हुवा । आनन्द श्रावक अपने घरपर जायकं अपनी भार्या सिवानन्दाको कहता हुवा । हे देवानुप्रिय ! मैं आज भगवान वीरप्रभुकी अमृत देशना श्रवण कर सम्यक्त्व मूल बारह व्रत धारण किया है वास्ते तुम भी भगवानको वन्दन कर बारह व्रत धारण करो। सिवानन्दा अपने पतिका वचन सहर्ष स्वीकार कर स्नान-मजन कर शरीरको वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत कर अपनी दामीयां आदि परिवार सहित भगबान्के निकट आइ। वन्दन कर श्रावकके १२ व्रतोंको धारण कर अपने स्थानपर आके अपने पतिकी आज्ञाको सुप्रत करती हुइ । .. भगवानको वन्दन कर गौतमस्वामिने प्रश्न कियो कि हे भगवन् ! यह आनन्द श्रावक आपके पास दीक्षा लेगा? भगवान्ने उत्तर दिया कि हे गौतम ! आनन्द दीक्षा न लेगा, किन्तु बहुतसे वर्ष श्रावक व्रत पालके अन्त में अनशन कर प्रथम देवलोकमें अरूणनामका विमानमें उत्पन्न होगा। गौतमस्वामि यह सुनके वन्दना कर आत्मरमणतामै रमण करने लगे। . भगवान् एक समय वाणीयाग्राम नगरके उधानसे बिहार कर अन्य देशमें विहार करते हुवे विरचने लगे। .. आनन्द श्रावक जीव, अजीव, पुन्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष और क्रिया अधिकरणादिका जानकार हुवा जिसकी श्रद्धाको देवादिक भी क्षोभित न कर सके। यावत् निजात्मामें रमण करते हुए विचरने लगा। .. आनन्द श्रावक उच्च कोटीके व्रत प्रत्याख्यानादि पालन करते हुवे साधिक चौदह वर्ष पूरण कीये उसके बाद एक Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय रात्रीमें धर्मजागरना करते हुवे यह भासमान हुवा कि में वाणीयाग्राम नगरम गजा उपराजा शेठ सेनापति आदिके मानने योग्य हुं परन्तु भगवानके पाम दीक्षा लेनेको असमथ हुँ, वास्ते कल सूर्यादय होते ही विस्तरण प्रकारका आसनादि तैयार करवाके न्यात जातिको बोलके उन्होंको भजन कराके ज्येष्ठ पुत्रको कुटुम्बके आधारभूत स्थापन कर में उक्त कोल्लाक मन्निवेशमें अपने मकान पर जाके भगवानसे प्राप्त किये हुवे धर्मसे मेरा आत्मा कल्याण करता हुआ विचरूं। एमा विचार कर सूर्योदय होनेपर वह ही कीया, अपने ज्येष्ठ पुत्रको थरका कारभार सुप्रत कर आप कोल्लाक सन्निवेशमें जा पहुंचा। अब आनन्द श्रावक उसी पौषधशालाको प्रमार्जन कर उच्चार पासवण भूभिको प्रमार्जन कर भगवान वीरप्रभुसे जो आत्मीक ज्ञान प्राप्त कीया था उसके अन्दर रमणता करने लगा। आनन्द श्रावक वहांपर श्रावककी ११ प्रतिमा ( अभिग्रह विशेष ) को धारण करके प्रवृत्ति करने लगा। इन्होंका विस्तार शीघ्रबोध भाग ४ से देखो यावत् साढे पांचवर्ष तक तपश्चर्या करके शरीरको कृश बना दीया अर्थात् शरीरका उस्थान बल कर्मवीर्य और पुरुषार्थ बिलकुल कमजोर हो गया, तब आनन्द श्रावकने विचारा कि अब अन्तिम अनशन ' मलेखना' करना ठीक है । बस, आनन्दने आलोचना करके-अनशन करके अठारा पापस्थान और च्यार आहारका पचखान कर आत्मध्यानमें रमणता करता हुवा। शुभाध्यवसाय-अच्छे परिणाम प्रशस्त लेश्या होनेसे आनन्दको अवधिज्ञान उत्पन्न हुवा सो पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशा लवणसमुद्रमें पांचसो पांचसो योजन क्षेत्र और उत्तरमै चुलहेमवन्त पर्वत तक देखने लग गया। उर्ध्व सौधर्मदे Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाक और अधी रत्नप्रभा नरकके लोलुच पात्थडाके चौरासी हजार वर्षों की स्थितिवाले नरकावासको देखने लग गया। . उस समय भगवान वीरप्रभु दुतिपलासोद्यानमें पधारे । उन्हों के समीप रहनेवाले गौतमस्वामि जिन्होंका शरीर गौर वर्ण, प्रथम संहनेन संस्थान, सात हाथ देहमान, च्यार ज्ञान चौदहपूर्व पारगामि, छठतपकी नपश्चर्या करनेवाले एक ममय छठतपके पारणे भगवानकी आज्ञा लेके वाणीयाग्राम नगरमे समुदाणी भिक्षा कर कोल्लाक मनिवेशके पास होके पीछा भगवानके पास आ रहे थे। इतने में गौतमने सुना कि भगवान् वीरप्रभुका शिष्य आनन्द श्रावक अनशन किया है यह बात सुन गौतमस्वामि आनन्दके पास गये । आनन्दने भी गौतमस्वाभिको आते हुवे देखके हर्षके साथ वन्दन-नमस्कार किया और बोला कि हे भगवान ! मेरी शक्ति नहीं है वास्ते आप अपना चरणकमल नजीक क रावे।ताके मैं आपके चरणकमलोंका स्पर्श कर मेरा आत्माको पवित्र करूं । तब गौतमस्वामिने अपना चरणकमल आनन्दकी तर्फ कीया आनन्दने अपने मस्तकसे गौतमस्वामिके चरण स्पर्श कर अपना जन्म पवित्र किया । आनन्दने प्रश्न किया कि हे भगवान गृहावा. समें रहा हुवा गृहस्थोंको अवधिज्ञान होता है ? गौतमस्वामिने उत्तर दिया कि हे आनन्द गृहस्योकोभी अवधिज्ञान होता है। आनन्द बोला कि हे भगवान मुझे अवधिज्ञान हुवा है जिसको ज. रिये मैं पुर्व पश्चिम और दक्षिण इन्ही तीनों दिशा लवणसमुद्र में पांचसो पांचसो योजन तथा उत्तर दिशामें चुल हेमवन्त पर्वत तक उर्ध्व सौधर्मकल्प, अधो रत्नप्रभा नरकका लोलुच पात्थडा देखता 'हुँ। यह सुनके गौतम स्वामि बोलेकि हे आनन्द! गृहस्थको इतना विस्तारवाला अधिज्ञान नही होता है धास्ते हे आनन्द ! इस बा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तकी आलोचना कर प्रायश्चित लेना चाहिये । आनन्दने कहा कि हे भगवान ! क्या यथा वस्तु देखे उतना कहनेवालेको प्रायश्चित आता है अर्थात क्या सत्य बोलनेवालोंकोभी प्रायश्चित आता है। गौतम बोला कि हे आनन्द सत्य बोलनेवालोंको प्रायश्चित नहीं आता है। आनन्दने कहा कि सत्य बोलनेवालोंको प्रायश्चित नहीं आता हो तो हे भगवान! आपही इस स्थानको आलोचन कर प्रायश्चित लो। इतना सुन गौतमस्वामिको शंका हुइ । तब सीधाही भगवानके पास जाके सर्व वार्ता कही। भगवानने फरमाया कि हे गौतम तुमही इस वातकी आलोचना करो। गौतमस्वामि आलोचना करके आनंद श्रावकके पास आये और क्षमत्क्षामणा करके अपने स्थानपर गमन करते हुवे । आनन्द श्रावकने साढे चौदह वर्ष श्रावक व्रत पाला, साढे पांच वर्ष प्रतिमाको पालन किया अन्तमें एक मासका अनशन कर समाधि संयुक्त कालकर सौधर्म नामका देवलोकमें अरूणवैमानमें च्यार पल्योपमके स्थितिवाला देव हुवा। उन्ही देवताका भव आयुष्य स्थितिको पुर्ण कर वहांसे महाविदेह क्षेत्रमें अच्छे उत्तम जाति-कुलके अन्दर जन्म धारण कर दृढपइन्नेकी माफीक केवली धर्मको स्वीकार कर अनेक प्रकारके तपसंयमसे कमे क्षय कर केवळज्ञान प्राप्त कर मोक्षम जावेगा। इसी माफीक श्रावकमर्गकोभी अपने आत्म कल्याण करना । शम इति आनन्द श्रावकाधिकार संक्षिप्त सार समाप्तम् । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) अध्ययन दुसरा कामदेव श्रावकाधिकार । .. चम्पानगरी पुर्णभद्र उद्यान जयशत्रुराजा, कामदेव गाथापति जीसके भद्राभार्या, अठारा क्रोड सोनैयाका द्रव्य-जिसमें छ क्रोड धरतीमें, छ क्रोडका व्यापार, छे क्रोडकी घरविक्री और छ वर्ग अर्थात् साठ हजार गौ (गायों) यावत् आनन्दकी माफीक थी-भगवान वीरप्रभुका पधारना हुवा, राजा और नगरके लोक धन्दनको गये कामदेवभी गया । भगवानने देशना दी। कामदेवने आनन्दकी माफीक स्वइच्छा मर्यादा रखके सम्यक्त्व मूल बारह व्रत धारण किया । यावत् अपने ज्येष्ठपुत्रको गृहस्थभार सुप्रत कर आप पौषधशालामै अपनी आत्म रमणतामे रमण करने लगे। एक समय अर्ध रात्रिके समयमें कामदेवके पास एक मि ध्यादृष्टि देवता उपस्थित हुवा, वह देवता एक पोशाचका रूप जो कि महान भयंकर- देखनेसे ही कायरोंके कलेजा कंपने लग जाता है, एसा रौद्र रूप वैक्रियलब्धिसे धारण कर जहांपर कामदेव अपनी पौषधशाला में प्रतिमा ( अभिग्रह ) धारण कर बैठे थे, यहांपर आया और बडे ही क्रोधसे कुपित हो, नैत्रोंको लाल बनाये और निलाडपर तीनशल करके बोलता हुवा कि भो कामदेव! मरणकी प्रार्थना करनेवाले, पुन्यहीन कालीचतुर्दशी के दिन जन्मा हुवा, लक्ष्मी और अच्छे गुनरहित तुं धर्म पुन्य स्वर्ग और मोक्षका कामी हो रहा है। इन्होंकी तुझे पीपासा लग रही है । इस बातकी ही तुं आकांक्षा रख रहा है परन्तु देख ! आज तेरेको तेग धर्म जो शील व्रत पञ्चखाण पौषध और तुमारी प्रतिज्ञासे Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलना-क्षोभ पामना-भंग करना तेरेको नहीं कल्पता है। किन्तु मैं आज तेरा धर्मसे तुजे क्षोभ करानेको भंग करानेको आया हुं। अगर तुं तेरी प्रतिज्ञाको न छोडेगा तो देख यह मेरा हाथ में नि. लोत्पल नामका तीक्ष्ण धारायुक्त खड्ग है इन्हींसे अभी तेरा खंड खंड करदूंगा जीससे तुं आर्तध्यान, रौद्रध्यान करता हुआ अभी मृत्युको प्राप्त हो जायगा। कामदेव श्रावक पिशाचरूप देवका कटक और दारूण शब्द श्रवण कर आत्माके एक प्रदेश मात्रमें भय नहीं, त्रास नहीं, उद्वेग नहीं, क्षोभ नहीं, चलित नहीं, संभ्रांतपना नहीं लाता हुवा मौन कर अपनी प्रतिज्ञा पालन करता ही रहा । पिशाचरूप देवने कामदेव श्राक्कको अक्षोभीत धर्मध्यान करता हुवा देखके और भी गुस्साके साथ दो तीनवार वही वचन सुनाया। परन्तु कामदेव लगार मात्र भी क्षोभित न होकर अपने आत्मध्यानमे ही रमणता करता रहा। मायी मिथ्यादृष्टि पिशाचरूप देवने कामदेव श्रावकपर अत्यन्त क्रोध करता हुवा उन्ही तीक्ष्ण धारावाली तलवार (खडग) से कामदेव श्रावकका खंड खंड कर दिया उस समय कामदेष श्रावकको घोर वेदना-अत्यन्त वेदना अन्य मनुष्योंसे सहन करना भी मुश्कील है एसी वेदना हुइ थी। परन्तु जिन्होंने चैतन्य और जडका स्वरूप जाना है कि मेरा चैतन्य तो सदा आनन्दमय है इन्हीकों तो किसी प्रकारको तकलीफ है नहीं और तकलीफ है इन्ही शरीरकों वह शरीर मेरा नहीं है। एसा ध्यान करनेसे जो अति वेदना हो तो भी आर्तध्यानादि दृष्ट परिणाम नहीं होते है। वीतरागके शासनका यही तो महत्त्व है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिशाचरूप देवने कामदेवको धर्मपरसे नहीं चला हुवा देखके आप पौषधशालासे निकलकर पिशाचरूपको छोडके एक महान हस्तीका रूप बनाया। यह भी बडा भारी भयंकर रौद्र और जिसके दन्ताशुल बडे ही तीक्ष्ण थे । यावत् देव हस्तीरूप धारण कर पौषधशालामें आके पहेलेकी माफीक बोलता हुवा कि भो कामदेव ! अगर तुं तेरा धर्मको न छोडेगा तो मैं अभी तेरेको इस सुंढ द्वारा पकड आकाशमें फेंक दूंगा ओर पीछे गीरते हुवे तुमको यह मेरी तीक्षण दन्ताशुल है इसपर तेरेको पो दूंगा और धरतीपर खुब रगडुंगा तांके तुं आर्तध्यान रौद्रध्यान करता हुवा मृत्यु धर्मको प्राप्त होगा। ऐसा दो तीन दफे कहा, परन्तु कामदेव श्रावक तो पूर्ववत् अटल-निश्चल आत्मध्यानमें ही रमण करता रहा भावना सर्व पूर्ववत् ही समझना। .. हस्तीरूप देवने कामदेवको अक्षोभ देखके बडाही क्रोध करता हुवा कामदेवको अपनी सुंढमें पकड आकाशमें उछाल दीया और पीछे गीरते हुवेको दन्ताशुलसे जैसे त्रीशुलमें पो देते हैं इसी माफीक पकडके धरतीपर रगडके खुब तकलीफ दी परन्तु कामदेवके एक प्रदेशको भी धर्मसे चलित करनेको देव समर्थ नहीं हुवा। कामदेवने अपने बान्धे हुवे कर्म समझके उन्ही उज्वल वेदनाको सम्यक् प्रकारसे सहन करी। देवने कामदेवको अटल-निश्चल देखके पौषधशालासे निकल हस्तीके रूपको छोड वैक्रिय लब्धिसे एक प्रचन्ड आशीविष सर्पका रूप बनाके पौषधशालामें आया। देखने में बडाही भयंकर था, वह बोलने लगा कि हे कामदेव ! अगर तुं तेरा धर्म नहीं छोडेगा तो मैं अभी इस विष सहित दाढोंसे तुजे मार डालूंगा इत्यादि दुर्वचन बोला परन्तु कामदेव विलकुल क्षोभ न पाता Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुवा अटल-1 - निश्चल रहा। दुष्ट देवने कामदेवको बहुत उपसर्ग किया परन्तु धर्मबीर कामदेवको एक प्रदेश मात्र में भी क्षोभित करनेको आखीर असमर्थ हुवा । देवताने उपयोग लगाके देखा तो अपनी सब दुष्ट वृति निष्फल हुई। तब देवताने सर्पका रूप छोड के एक अच्छा मनोहर सुन्दराकार वस्त्राभूषण सहित देव रूप धारण किया और आकाशके अन्दर स्थित रहके बोलता हुवा कि हे कामदेव ! तुं धन्य है पूर्व भव में अच्छे पुन्य कीया है। है कामदेव ! तुं कृतार्थ है । यह मनुष्य जन्मको आपने अच्छी तरहसे सफल किया है। यह धर्म तुमको मीला ही प्रमाण है । आपकी धर्मके अन्दर दृढता बहुत अच्छी है । यह धर्म पाया ही आपका सार्थक है । हे कामदेव ! एक समय सौधर्म देवलोक की सौधर्मी सभा के अन्दर शक्रेन्द्रने अपने देवताओंके वृन्दमें बैठा हुवा आपकी तारीफ और धर्मके अन्दर दृढताकी प्रशंसा करीथी परन्तु मैं मूढमति उस वातको ठीक नही समजके यहांपर आके आपकी परिक्षाके निमत्त आपको मैंने बहुत उपसर्गे किया है परन्तु हे महानुभाव ! आप निर्ग्रन्थ के प्रवचनसे किंचतू भी क्षोभायमान नही हुवे । वास्ते मैंने प्रत्यक्ष आपकी धर्म दृढताको देखली है । हे आत्मवीर अब आप मेरा अपराधकी क्षमा करे, ऐसी वारवार क्षमा याचना करता हुवा देव बोला कि अब ऐसा कार्य मैं कभी नहीं करूंगा इत्यादि कहता हुवा कामदेवको नमस्कार कर स्वर्गको गमन करता हुवा | तत्पश्चात् कामदेव श्रावक निरूपसर्ग जानके अपने अभि ग्रह ( प्रतिज्ञा ) को पालता हुवा | जिस रात्रीके अन्दर कामदेव श्रावकको उपसर्ग हुवा था Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसीके प्रभातकालमें सूर्योदय के बरूत कामदेवको समाचार आया कि भगवान वीरप्रभु पूर्णभद्र उद्यानमें पधारे हैं। कामदेवने विचारा कि आज भगवानको वन्दन-नमस्कार कर देशना श्रवण करके ही पौषध पारेंगे। ऐसा विचार करते ही अच्छे सुन्दर वस्त्राभूषण धारण कर भगवानको वन्दन करनेको गया। राजादि और भी परिषदा आइ थी। उन्होंको भगवानने जगतारक देशना दी। देशना देनेके बादमें भगवान वीरप्रभु कामदेव श्रावक प्रति बोले कि हे कामदेव! आज रात्रीके समय देवताने पिशाच, हस्ति और सर्प इम तिन रूपको बनाके तेरेको उपसर्ग कीया था ? कामदेव ने कहा कि हां, भगवान यह बात सत्य है । मेरेको तीनों प्रकारसे देवने उपमर्ग किया था। - भगवान धीरप्रभु बहुतसे श्रमण-निर्ग्रथ-साधु तथा साध्वीयोको आमन्त्रण करके कहते हुवे कि हे आर्य! यह कामदेवने गृहस्थावासमें रह कर घोर उपसर्ग सम्यक् प्रकारसे सहन किये हैं। तो तुम लोगोंने तो दोक्षाप्रत धारण कीये हैं और द्वादशांगीके ज्ञाता हो वास्ते तुम लोगोंको देव, मनुष्य और तिर्यचके उपसगोको अवश्य सम्यक प्रकारसे सहन करना चाहिये। यह अमृतमय वचन श्रवण कर साधु साध्वीयोंने विनय सहित भगवानके वचनोको स्वीकार कीया। - कामदेव भगवानको प्रभादि पुछ, बन्दन-नमस्कार कर अपने स्थान प्रति गमन करता हुना। और भगवान भी वहांसे बिहार कर अन्य देशमें विहार करते हुवे । कामदेव श्रावकने १४॥सढे चौदह वर्ष गृहस्थाबासमे श्रावक धर्मका पालन किया और ५॥ साढेपांच वर्ष प्रतिमा पहन करी। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तमें एक मासका अनशन कर आलोचना कर समाधिमे काल कर सौधर्मदेवलोकमें अरूण नामका विमानमें च्यार पल्योपम स्थितिवाला देव हुवा। वहांसे आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्रमें मोक्ष जावेगा ॥ इतिशम् ॥२॥ (३) अध्ययन तीसरा चुलनिपिताधिकार. बनारसी नगरी कोष्टक उद्यान, जयशत्रु राजा राज करता था। उस नगरीमें एक चुलनिपिता नामका गाथापति बडाही धनाढ्य था। उसको शोभा नामकी भार्या थी। चोवीस क्रोड सोनेयाका द्रव्य था। जिसमें आठ क्रोड धरतीमें, आठ क्रोड व्यापारमें और आठ क्रोडका घर वीक्रिमें था। और आठ वर्ग अर्थात् एंसी हजार गौ (गायों ) थी। आनन्दके माफीक नगरीमें बडा माननीय था। भगवान वीरप्रभु पधारे । राजा और चुलनिपिता वन्दन करनेको गये। भगवानने धर्मदेशना दी। आनन्दकी माफीक चुलनिपिताने भी स्वइच्छा परिमाण रखके श्रावकके व्रत धारण कर भगवानका श्रावक बन गया। एक समय पौषधशालामें ब्रह्मचर्य सहित पौषध कर आत्म रमणता कर रहा था। अर्द्ध रात्रीके समय एक देवता हाथमें निलोत्पल नामकी तलवार ले के चुजनिपित श्रावक के पास आया ओर कामदेवकी माफीक चुलनिपिताको भी धर्म छोडने की अनेक धभकीयां दी । परन्तु चुल० धर्मसे क्षोभायमान नहीं Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ हुवा। तब देवताने कहा कि अगर तु धमैं नहीं छोडेगा तो मं आज तेरे ज्येष्ठ पुत्रको तेरे आगे मारके खंड २ कर रक्त, मेद, और मांस तेरे शरीरपर लेपन कर दूंगा, और उसका शेषमांसका शुला बनाके तैलकी कडाइमें तेरे सामने पकाउंगा। उसको देखके तूं आर्तध्यान कर मृत्यु धर्मको प्राप्त होगा । तब भी चुलनिपिता क्षोभायमान न हुवा । देवताने एसाही अत्याचार कर देखाया। पुत्रका तीनतीन खंड कीया। तथापि चुलनीपिताने अपने आत्मध्यान में रमणता करता हुवा उस उपसर्गको सम्यक् प्रकार से सहन किया। क्योंकि देवताने धर्म छोडानेका साहस किया था । पुत्रादि अनन्तिवार मीला है वह भी कारमा संबंन्ध है । धर्म है सो निजवस्तु है । चुलनिपिताको अक्षोभ देख देवताने पहेले की माफीक कोपित होके दुसरे पुत्रको भी लाके खंड २ किया, तो भी चुलनिपिता अक्षोभ होके उपसर्गको सम्यकू प्रकारसे सहन किया। तीसरी दफे कनिष्ट ( छोटा ) पुत्रको लाके उसका भी खंड २ किया । तो भी चुलनिपिता अक्षोभ ही रहा । देवने कहाकि हे चुलनिपिता ! अगर तुं धर्म नहीं छोडेगा तो अब मैं तेरी माता जो भद्रा तेरे देवगुरु समान है उसको मैं तेरे आगे लाके पुत्रोंकी तरह अबी मारुंगा । यह सुनके चुलनिपिताने सोचा कि यह कोइ अनार्य पुरुष ज्ञात होता है कि जिन्होंने मेरे तीन पुत्रोंकों मार डाला । अब जो मेरे देवगुरु समान और धर्ममें सहायता देनेवाली भद्रा माता है उसको मारनेका साहस करता है तो मुझे उचित है कि इस अनार्य पुरुषको मैं पकड लूं। ऐसा विचार कर पकडनेको तैयार हवा । इतने में देवता आकाशमें गमन करता हुवा । और चुलनिपिताके हाथमें एक स्थंभ आगया और कोलाहल हुवा । इस हेतु भद्रा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता पौषधशालामें आके बोली कि हे पुत्र! क्या है ? चुलनिपिताने सब बात कही । तब माता बोली कि हे पुत्र ! तेरे पुत्रोंको किसीने भी नहीं मारा है किन्तु कोइ देवता तुझे क्षोभ करनेकी आवाथा उसने तुझे उपसर्ग किया है ! तो हे पुत्र ! अब तुं जो रात्रीमें कोलाहल कीया है उससे अपना नियम-प्रत पौषधका भंग हुषा है वास्ते इसकी आलोचना कर अपने ब्रतको शुद्ध . करना । चुलनिपिताने अपनी माताका वचनको स्वीकार कीया। . चुलनिपिताने साढाचौदह वर्ष गृहस्थावास में रहके श्रावक व्रत पाला, साढे पांच वर्ष इग्यारे प्रतिमा वहन करी, अन्तमें एक मासका अनसन कर समाधि सहित कालकर सौधर्म देवलोकमें अरूणप्रभ नामका देवविमानमें च्यार पल्योपमकी स्थितिघाला देव हुवा है । वहांसे आयुष्य पूर्णकर महाविदेह क्षेत्रमें मनुष्य हो दीक्षा ले केवलज्ञान प्राप्त हो मोक्ष जावेगा ॥ इतिशम् ॥ ३॥ (४) चोथा अध्ययन सूरादेवाधिकार. - बनारसी नगरी, कोष्टक उद्यान, जयशत्रु राजा था। उस नगरोमें सुरादेव नामका गाथापति था। उसको धन्ना नामकी भार्या थी। कामदेवके माफीक अठारा क्रोड द्रव्य और माठ हजार गायों थी। किसीसे भी पराजय नहीं हो सका था। भगवान वीरप्रभु पधारे। राजा प्रजा और सूरादेव वन्दनको गया। भगवानने धर्मदेशना दी। सूरादेवने आनन्दके माफीक स्वइच्छा मर्यादा कर सम्यक्त्व मूल बारह व्रत धारण किया । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक रोज सूरादेव पौषधशालामें पौषध कर अपना आत्मध्याव कर रहा था। अर्ध रात्री के समय एक देवता आया। जैसे चुलनिपिताकां उपसर्ग कीया था इसी माफीक सुरादेवको भी कीया । परन्तु - इन्होंके एकेक पुत्रका पांच पांच खंड किया था और चोथीवार. कहने लगा कि अगर तुं तेरा धर्म नहीं छोडेगा तो मैं आज तेरे . शरीरमें जमगममगादि सोलह बड़े रोग है वह उत्पन्न कर दूंगा। यह सुनके सूरादेव चुलनिपिताकी माफीक पकडनेको प्रयत्न किया । इतने में देवने आकाशगमन किया। हाथमें स्थंभ आया । कोलाहाल सुनके धन्ना भार्याने कहा हे स्वामिन्! आपके तीनों पुत्र धरमे सुते हैं परन्तु कोई देवने आपको उपसर्ग किया है। यावत् आप इस स्थानकी आलोचना करना इस बातको सूरादेवने स्वीकार करी । . सूरादेव श्रावकने साढेचौदह वर्ष गृहस्थावासमें रह कर श्रावक व्रत पाला, साडेपांच वर्ष तक इग्यारे प्रतिमा वहन करी । अन्तमें आलोचना कर एक मासका अनशन कर समाधिपूर्वक काल कर सौधर्मदेवलोक में अरूणकन्त नामका वैमानमें च्यार पल्योपमकी स्थितिवाला देवता हुवा | वहांसे महाविदेहक्षेत्र में मोक्ष जावेगा ॥ इतिशम् ॥ ४ ॥ (५) पांचवा अध्ययन चुलशतकाधिकार. आलंभीया नगरी, संखवनोद्यान, जयशत्रु राजा था। उस नगरीमें चुलशनक नामका गाथापति वसता था । उसको बाहुला Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकी भार्या थी और अठारह क्रोडका द्रव्य, साठ हजार गायों यावत् बडाही धनाढ्य था । भगवान वीरप्रभु पधारे। राजा, प्रजा और चुलशतक बन्दनको गये । भगवानने अमृतमय देशना दी। चुलशतक आनन्द की माफीक स्वइच्छा मर्यादा कर सम्यक्त्व मूल बारह व्रत धारण कीया। चुलनिपिताकी माफीक इसको भी देवताने उपसर्ग कोया। परन्तु एकेक पुत्रके सात सात खंड किया। चोथी बखत देवता कहने लगा कि अगर तुं धर्म नहीं छोडेगा तो मैं तेरा अठारा क्रोड सोनयाका द्रव्य इसी आलंभीया नगरीके दो तीन यावत् बहुतसे रास्तेमे फेकदंगा कि जिन्होंके जरिये तुं आर्तध्यान करता हुआ मृत्यु पामेगा। यह सुनके चुलशतकने पूर्ववत् पकडने का प्रयत्न कीया इतने में देव आकाश गमन करता हुवा । कोलाहल सुनके बहुला भार्याने कहा कि आपके तीनों पुत्र घरमें सुते हैं यह कोड देवने आपको उपसर्ग किया है । वास्ते इस बातकी आलोचना लेना । चुलशतकने स्वीकार किया। चुलशतकने साढे चौदह वर्ष गृहवासमें श्रावकपणा पाला, साढे पांच वर्ष इग्यारा प्रतिमा वहन कीया; अन्तमें आलोचना कर एक मास अनसन कर समाधिमें काल कर सौधर्म देवलोकके अरूणश्रेष्ट वैमानमें च्यार पल्योपमकी स्थितिमें देवपणे उत्पन्न हुवा । वहांसे आयुष्य पूर्णकर महाविदहमें मोक्ष जावेगा। अतिशम् ॥ ५॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ (६) छट्टा अध्ययन कुडकोलिकाधिकार. कपीलपुरनगर, सहस्र आम्र उद्यान, जयशत्रुराजा, उसी नगमें कुंडकोलिक नामका गाथापति बडाही धनाढ्य वसता था । उसको पुंसा नामकी भार्याथी, कामदेवकी माफीक अठारा क्रोड सनैया और साठ हजार गार्यो थी । भगवान वीरप्रभु पधारे, राजाप्रजा ओर कुंडकोलिक वन्दन करनेको गया । भगवानने धर्मदेशना दी । कुंडकोलिकने स्वइच्छा मर्यादाकर सम्यक्त्व मूळ बारह व्रत धारण कीया । एक समय मध्यान्हकालकी बखत कुंडकोलिक श्रावक अशोक वाडी में गयाथा, सामायिक करनेके इरादासे नामांकित मुद्रिकादि उतारके पृथ्वी शीलापटपर रखके भगवानके फरमाये हुवे धर्म चितवन कर रहा था । उस समय एक देवता आया । वह पृथ्वी शीलापटपर रखी हु नामांकित मुद्रिकादि उठाके देवता आकाशमें स्थित रहा हुवा कुंडकोलीका श्रावक प्रति ऐसा बोलता हुवा | भो कुंडोलिया ! सुन्दर है मंखली पुत्र गोशालाका धर्म क्योंकि जिन्होंके अन्दर उस्स्थान ( उठना) कर्म ( गमन करना ) वल ( शरीरादिका) वीर्य ( जीवप्रभाव ) पुरुषाकार (पुरुषार्थाभिमान ) इन्होंकी आवश्यकता नहीं है। सर्व भाव नित्य है अर्थात् गोशाला के मत में भवितव्यताको ही प्रधान माना है वास्ते उत्स्थानादि क्रिया कष्ट करनेकी आवश्यक्ता नहीं है । और भग'वान महावीर स्वामिका धर्म अच्छा नहीं है क्योंकि जिसके अन्दर उत्स्थान, कर्म. बल, वीर्य ओर पुरुषाकार बतलाये हैं Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् सर्व कार्यकी सिद्धि पुरुषार्थसे ही मानी है वास्ते ठीक नही है। - यह सुनके कुंड कोलिक श्रावक बोला कि हे देव ! तेरा कहना है कि गोशालाका धर्म अच्छा है और धीरप्रभुका धर्म खराब है। अमर उत्स्थानादि विना कार्यकी सिद्धि होती है तो मैं तुमको पुछता हूं कि यह प्रत्यक्ष तुमको देवता संबन्धी ऋद्धि मीली है यह उत्स्थानादि पुरुषार्थसे मीली है या विना पुरुषार्थसे मीली है ? वह प्रत्यक्ष तेरे उपभोगमें आई है । देवने उत्तर दिया कि मेरेको यह ऋद्धि मीली है वह अनुस्थान यावत् अपुरुषार्थसे मीली है। यावत् उपभोगमें आई है । श्रावक कुंडकोलिक बोला कि हे देव ! अगर अनुस्थान यावत् अपुरुषार्थसे ही जो देवऋद्धि मीलती हो तो जिस जीवाँका उत्स्थानादि नहीं है ( एकेन्द्रियादि) उन्होंको देवऋद्धि क्यों नहीं मीलती है। इस वास्ते हे देव! तेरा कहना है कि गोशालाका धर्म अच्छा और महावीर प्रभुका धर्म खराब यह सब मिथ्या है अर्थात् झुठा है। यह सुनके देव वापस उत्तर देने में असमर्थ हुवा और अपनी मान्यतामें भी शंका कंक्षादि हुइ । शीघ्रतासे वह नामांकित मुद्रिकादि वापस पृथ्वीशीलापटपर रखके जिस दिशासे आया था उसी दिशामें गमन करता हुवा ।। भगवान धीरप्रभु पृथ्वी मंडलकी पवित्र करते हुवे कपील्लपुर नगरके सहस्राम्रोद्यानमें पधारे । कामदेवकी माफीक कुंडकोलिक श्रावक वन्दनको गया। भगवानने धर्मकथा फरमाइ । तत्पश्चात् भगवानने कुंडकोलिक श्रावकको कहा कि हे भव्य! कल मध्यान्हमें एक देवता तुमारे पास आया था यावत् हे श्रमणोपासक! तुमने ठीक उत्तर देके उस देवका पराजय किया। कामदेवकी माफीक Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानने कुंडकोलिक श्रावककी तारीफ करी । बाद में बहुतसे साधु साध्वीयाँको आमन्त्रण करके भगवान ने कहा कि हे आर्यों: यह गृहस्थने गृहवासमें रहते हुवे भी हेतु द्रष्टान्त प्रश्नादि करके अन्य तीर्थ अर्थात् मिथ्यावादीयोंका पराजय किया है । तब तुम लोग तो द्वादशांगके पाठी हो वास्तं तुमको तो विशेष मिथ्यावादीयोंका पराजय करना चाहिये । इन्ही हितशिक्षाको सर्व साधुआंने स्वीकार करी। पीछे कुंडकोलिक श्रावक भगवानसे प्रश्नादि पुछ और वन्दन-नमस्कार कर अपने स्थान प्रति गमन करता हुवा। और भगवान भी अन्य जनपद-देशमें विहार करते हुवे। .. . कुंडकोलिक श्रावकने साढेचौदह वर्ष गृहवासमें श्रावक व्रत पालन किया और साढे पांच वर्ष प्रतिमा वहन करी। सर्वाधिकार कामदेवकी माफीक कहना अन्तमें आलोचना कर एक मासका अनशन समाधि सहित कालधर्म प्राप्त हुवा । वह सौधर्मदेवलोक के अरूणध्वज नामका वैमानमें च्यार पल्योपम स्थितिवाला देव हुवा। वहांसे आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्रमें आनन्दकी माफीक मनुष्यभवमें दीक्षा लेके केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगा। (७) सातवां अध्ययन शकडालपुत्राधिकार. . पोलासपुरनगर, सहस्र वनोद्यान, जयशत्रुराजा, उस नगरके अन्दर शकडालपुत्र नामका कुंभकार था, उसको अग्रमित्ता नामकी भार्याथी. तीन क्रोड सोनेया द्रव्य था। जिसमें एक क्रोड धरतीमें, एक क्रोड व्यापारमें. एक क्रोड घर विक्री में था और Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक वर्ग अर्थात् दशहजार गायोंथी। तथा शकडालपुत्रके पोलासपुर बाहीर पांचसो कुंभकारकी दुकानेंथी । उसमें बहुतसा नोकर-मजुर थे कि जिसमें कितनेकको तो दिन प्रत्ये नोकरी दि जाति थी कितनेकको मास प्रति-वर्ष प्रति नोकरी दी जाती थी. वह बहुतसे नोकरों में कीतनेक मट्टीके घडे, अधघडे, झारी, कलंजरा, आदि अनेक प्रकारके बरतन वनातेथे, कितनेक नोकर पोलासपुरके राजमार्गमे बैठके वह घडादि मट्टीके वरतन प्रतिदिन बेचा करतेथे, इमीपर शकडालकुंभकारकी आजीविका चलतीथी। शकडालकुंभकार आजीवका मतिथा अर्थात् गोशालाका उपासक था। वह गोशालेका मतके अर्थको ठीक तौरपर ग्रहण कियाथा यावत् उसकी हाडहाड की मीजी गोशालाके धर्म में प्रेमानुरागता हो रहीथी, इतना हि नहीं बल्के जो अर्थ तथा परमार्थ जानताथा तो एक गोशालाका मतको ही जानताथा, शेष सर्व धर्मवालोंको अनर्थ ही समझता था, गोशालेका.धर्ममें अपना आत्माको भावता हुवा सुखपूर्वक विचरताथा। एकदिन मध्याहके समय शकडालकुंभकार अशोक वाडीमे जाके गोशालेका मत था उसी माकाक धर्म प्रवृत्ति में वर्त रहा था। उस समय एक देवता शक डालके पास आया, वह देव आकाशमें रहा हुवा जिन्होंके पावोंमें धुघर गमक रहीथी। वह देव शकडालकुंभकार प्रति बोलता हुवा कि हे शकडाल ! महामहान जिसको उत्पन्न हुवा है केवलज्ञान केवल दर्शन तथा भून भविष्य वर्तमानको जानने वाले, जिन = अरिहंत = केवली सर्वज्ञ, त्रैलोक्य पूजित, देव मनुष्य असुरादिको अर्चन वन्दन पूजन करने योग्य, उपासना-सेवा-भक्ति करने योग्य, या Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत् मोक्षके कामी, कल यहांपर पधारेंगे । हे शकडाल! उसका तुम वन्दना करना यावत् सेवा-भक्ति करके पाट, पाटला, मकान संस्तारक आदिका आमन्त्रण रना। एसा दो तीनवार कहके यह देवता जिस दिशासे आयाथा उस दिशामें चला गया। . दुसरे ही दिन भगवान वीरप्रभु अपने शिष्य मंडल-परिवारसे युक्त पृथ्वी मंडल पवित्र रते पोलासपुर नगरके बहार सहसाम्रोधानमे पधारे। राजा,प्रजा भगवानको वन्दन करनेको गये। यह वात शकडालको मालुम हुइ तब शकडाल गोशालाका भक्त होने पर भी स्नान कर सुन्दर वस्त्राभूषण सज बहुतसे मनुष्योंको साथ ले के पालासपुर नगरके मध्य बजारसे चलता हुवा भगवानके समीप आये । वन्दन नमस्कार कर योग्य स्थानपर बैठा । भगवानने उस विस्तारवाली परिषदाको धर्मदेशना सुनाइ जब देशना सम्गप्त हुई तब भगवान। शकडालपुत्र कुंभकार गोशालाके उपासकसे कहते हुवे कि हे शकडाल कल अशोकवाडीमे तेरे पास एक देवता आयाथा, उसने तुमकों कहाथा कि कल महामहन्त आवेगा यावत् उन्होंको पांचसो दुकानों ओर शय्या संथाराका आमन्त्रण करना । क्या यह वात सत्य है ? हां, भगवान् यह वात सत्य है मुझे ऐसाही कहाथा । हे शकडाल! देवताने गोशालाकी अपेक्षा नही कहाथा। इस पर शकडालने विचार किया कि जो अरिहंत केवली-सर्वज्ञ है तो भगवान वीरप्रभु ही है । वास्ते मुझे उचित है कि मेरी पांचसो दुकानों ओर पाट पाटला शय्या संस्थारा भगवानसे आमन्त्रण करुं । शकडालने अपनी दुकानों आदिकी आमन्त्रण करी ओर भगवानने भविष्यका लाभ जानके स्वीकार कर पोलासपुरके बहार पांचसो दुकानों ओर शय्या संथाराको पडिहारा “ लेके पीछा देना" ग्रहन करा। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. एक समय शकडाल अपने मकानके अन्दरमै बहुतसे मट्टीके वरतनोको बाहार धूपमे रख रहाथा, उन्ही समय भगवान शग'डालसे पुच्छा कि हे शकडाल! यह मटीके बरतन तुमने कैसे बनाया है ? । शकडालने उत्तर दिया कि है भगवान पहिले हम लोग मटी लायेथे फीर इन्होंके साथ पाणी राखादिक मीलाके चक्रपर चडाके यह वरतन बनाये हैं। ____ हे शकडाल ! यह मटीके वरतन तेयार हुवा है वह उस्थानादि पुरुषार्थ करनेसे हुवे है कि विन पुरुषार्थसे। ... हे भगवान! यह सर्व नित्यभाव है भवीतव्यता है इसमें उस्थानादि पुरुषार्थकी क्या जरूरत है। __ हे शकडाल ! अगर कोई पुरुष इस तेरे मटीका वरतनकों कीसी प्रकारसे फोडे तोडे इधर उधर फेंक दे चौरीकर हरन करे तथा तुमारी अग्रमित्ता भार्यासे अत्याचार अर्थात भोगविलास करता हो, तो तुम उन्ही पुरुषको पकडेगा नही दंड करेगा नही यावत् जीवसे मारेगा नही तब तुमारा अनुस्थान यावत् अपुरुषार्थ ओर सर्व भाव नित्यपणा कहना ठीक होगा, ( ऐसा परताव दुनियांमे दीसता नहीं है। यह एक कीस्मकी अनीति अत्याचार है और जहांपर अनीति अत्याचार हो वहांपर धर्म केसे हो सक्ता है ) अगर तुम कहोगा कि मैं उन्ही नुकशान कर्ता पुरुषको मारुंगा पकडुंगा यावत् प्राणसे घात करूंगा तो तेरा क. हना अनुस्थान यावत् अपुरुषाकार सर्व भाव नित्य है वह मिथ्या होगा । इतना सुनतेही शकडाल को ज्ञान हो गया कि भगवान फरमाते है वह सत्य है क्यों कि पुरुषार्थ विना कीसी भी कार्यकी सिद्धि नही होती है। शकडालने कहा कि है भगवान मेरी इच्छा है कि मैं आपके मुखाविन्दसे विस्तारपूर्वक धर्म Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवण करुं तब भगवानने शकडालको विस्तारसे धर्म सुनाया। वह शकडालपुत्र गोशालेका भक्त, भगवान वीरप्रभुकी मधुर भाषासे स्यावाद रहस्ययुक्त आत्मतत्व ज्ञानमय देशना श्रवण कर बडे ही हर्षको प्राप्त हुवा, बोला कि हे भगवान! धन्य है जो राजेश्वरादि आपके पास दीक्षा ग्रहन करते है मैं इतना समर्थ नहीं हुं परन्तु मैं आपकि समीप श्रावक धर्म ग्रहन करना चाहता हूं । भगवानने फरमाया कि जैसे सुख हो वैसा करो परन्तु धर्म कार्य में विलम्ब करना उचित नही है । तब शकडाल पुत्र कुंभकारने भगवानके पास आनन्दकी माफीक सम्यक्त्व मूल. बारह व्रतको धारण कीया परन्तु स्वाच्छा परिमाण किया. जिस्में द्रव्य तीन क्रोड सोनैया तथा अग्रमित्ता भार्या ओर दुकानादि मोकली रखी थी। शेष अधिकार आनन्दकी माफीक समझना । भगवानको वन्दन नमस्कार कर पोलासपुरके प्रसिद्ध मध्य बजार हो के अपने घरपे आया, और अपनी भार्या अग्रमित्ताको कहा कि मैंने आज भगवान वीरप्रभुके पास बारह व्रत प्रहन कीया है तुम भी जाओ भगवानसे धन्दन नमस्कार कर बारह व्रत धारण करो। यह सुनके अग्रमित्ता भी बड़े ही धामधूम आडम्बरसे भगवानको वन्दन करनेको गइ और सम्यक्ष मूल बारह व्रत धारण कर भगवानको वन्दन नमस्कार कर अपने घरपे आके अपने पतिको आज्ञा सुप्रत करती हुइ । अब दम्पति भगवानके भक्त हो भगवानके धर्मका पालन करते हुवे आनन्दमें रहने लगे। भगवान भी वहांसे विहार कर अन्य देशमें गमन किया। शकडाल कुंभकार और अनमित्ता भार्या यह दोनों जीवाजी- . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व आदि पदार्थके अच्छे ज्ञाता हो गये थे। और श्रावकव्रतको अच्छी तरहसे पालते हुवे भगवान की आज्ञाका पालन कर रहे थे । - यह वार्ता गोशालाने सुनि कि शकडाल० वीरप्रभुका भक्त बन गया है तव वहांसे चलकर पोलालपुरको आया । उसका वि. चार था कि शकडालको समज्ञाके पीछा अपने मतमे ले लेना। गोशालाने अपने भंडोपकरण रखके सिधा ही शकडाल पुत्र श्रावकके पास आया। किन्तु शकडाल श्रावकने गोशालाको आदर-सत्कार नहीं दिया, इतना ही नहीं किन्तु मनमें अच्छा भी नहीं समझा और बुलाया भी नहीं तब गोशालाने विचारा कि इन्हीके दुकानों सिवाय कोइ उताराकी जगा भी नहीं है इसके लिये अब भगवान महावीर स्वामिका गुण किर्तन करने के विना अपनेको उतारनेको स्थान मीलना मुशकील है। एसा विचार कर गोशाला, शकडाल श्रावक प्रति बोला-क्यों शकडाल पुत्र! यहांपर महा महान् आये थे ? शकडाल बोला कि कौनसा महा महान ? गोशालाने कहा कि भगवान वीरप्रभु महा महान् । शकडाल वोला कि कीस कारणसे महामहान् ? ... गोशाला बोला कि भगवान महावीर प्रभु उत्पन्न केवलज्ञान केवल दर्शनके धरनेवाले त्रैलोक्य पूजनीय यावत् मोक्षमें पधारने वाले हैं (जिसका उपदेश है कि महणो महणो) वास्ते भगवान वीरप्रभु महामहान है। गोशाला बोला कि हे शकडाल! यहां पर महागोप आये थे ? शकडालने कहा कि कौन महागोप ? गोशालाने कहा कि भगवान धोरप्रभु महागोप ? Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकडालने कहा किस कारण महागोप है ? गोशालाने कहा कि संसार रूपी महान् अटवी है जिस्म बहनसे जीव, विनाशको प्राप्त होते हुए छिन्न भिन्नादि खराब दशा को पहुंचते हुवे को धर्मरूपी दंड हाथ में ले के सिधा सिद्धपुर पाटणके अन्दर ले जा रहे है वास्ते महागोप वीरप्रभु है। गंशालाने कहा कि हे शकडाल! यहां महासार्थवाह आये थे? शकडालने कहा कि कोन महासार्थवाह ? गोशालाने कहा कि भगवान् वीरप्रभु महासार्थबाहा है। शकडालने कहा कि कीस कारणसे ? गोशालाने कहा कि संसाररूपी महा अटवीमें बहुतसे जीव नासते हुवे-यावत् पिलुपत हुवे को धर्मपन्थ बतलाते हुवे निवृतिपुरमें पहुंचा देते है। वास्ते भगवान वीरप्रभु महासार्थ वाह है। गोशाला बोला कि है शकडाल ! यहां पर महाधर्मकथक आये थे ? शकडालने कहा कि कोन महाधर्म कथा कहनेवाले । गोशालाने कहा कि भगवान धीरप्रभु । शकडालने कहा कि किस कारणसे । गोशालाने कहा कि संसारके अन्दर बहुतसे प्राणी नाश पामते यावत् उन्मार्ग जा रहे है. उन्हों को सन्मार्ग लगाने के लिये महाधर्म कथा केहके चतुर्गति रूपी संसारसे पार करनेवाले भगवान वीरप्रभु महाधर्म कथाके केहनेवाले है। ____ गोशालाने कहा कि हे सकडाल! यहां पर महा निर्जामक आये थे? Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकडालने कहा कि कौन महा निर्जामक ? - गोशालाने कहा भगवान् वीरप्रभु महा निर्जामक है।। शकडालने कहा किस कारणसे ! गोसालाने कहा कि संसार समुद्र में बहुतसा जीव दुबते हुवे को भगवान् वीरप्रभु धर्मरूपी नावमें बेठाके नितिपुरीके सन्मुख कर देते है वास्ते भगवान् वीरप्रभु महा निर्जामक है। शकडाल बोला कि हे गोशाला ! इस बखत तुं मेरे भगवानका गुणकीर्तन कर रहा है यथा गुण करनेसे तुं नितिज्ञ है विज्ञानवन्त है तो क्या हमारे भगवान वीरभुके साथ विवाद ( शाखार्थ ) कर सकेमा ? गोशालाने कहा कि मैं भगवान वीरप्रभुके साथ विवाद करनेको समर्थ नहीं हुं। शकडाल बोला कि किस कारणसे असमर्थ है। गोशाला बोला कि हे शकडाल ! जैसे कोइ युवक मनुष्य बलवान यावत् विज्ञानवन्त कलाकौशल्यमें निपुण मजबुत स्थिर शरीरवाला होता है वह मनुष्य एलक, सूवर, कुकड, तीतर, भटेवर, लाहाग, पारवा, काग, जलकागादि पशुवोंके हाथ, पग. पांख, पुच्छ, श्रृंग, चर्म, रोम आदि जो जो अवयव पकडते है वह मजबुत ही पकडते है । इसी माफीक भगवान वीरप्रभु मेरे प्रश्न हेतु वगरणादि जो जो पकडते है उन्हीमें फीर मुझे बोलनेका अवकाश नहीं रहते है। अर्थात् उन्होंके आगे मैं कोनसी चीज हुँ । वास्ते हे शकडाल ! मैं तुमारे धर्माचार्य भगवान वीरप्रभुने साथ विवाद करनेको असमर्थ हुँ । यह सुनके शकडालपुत्र श्रावक बोला कि हे गोशाला! तुं Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज साफ हृदयसे मेरे भगवानका यथार्थ गुण करता है वास्ते मैं तुझे उतरनेको पांचसो दुकानें और पाटपाटला शय्या संथागकी आज्ञा देता हूं किन्तु धर्मरूप समझके नहीं देता हुं, वास्त जावो कुंभकारकी दुकानों आदि भोगवो (काममें लो)। बस । गोशालो उन्ही दुकानों आदिको उपभोगमें लेता हुवा और भी शकडाल प्रत्ये हेतु युक्ति आदिसे बहुत समझाया । परन्तु जिन्होंने आत्मवस्तु तत्त्वज्ञान कर पहेचान लिया है। उन्होंको मनुष्य तो क्या परन्तु देवता भी समर्थ नहीं है कि एक प्रदेशमात्रमें क्षोभ कर सके। गोशालेकी सर्व कुयुक्तियोंको शकडाल श्रावक न्यायपूर्वक युक्तियों द्वारा नष्ट कर दी। बादमें गोशाला वहांसे विहार कर अन्य क्षेत्रोमें चला गया। शकडालपुत्र श्रावक बहुत काल तक श्रावक व्रत पालते हुवे । एक दिन पौषधशालामें पौषध किया था. उन्ही समय आधी रात्रिमें एक देव आया, और चुलगी पिताकी माफीक तीन पुत्रका प्रत्येकका नौ नौ खंड किया, और चोथीवार अग्रमित्ता भार्या जो धर्मकार्यो में सहायता देती थी उन्होंको मारणेका देवने दो तीन दफे कहा तब शकडा. लने अनार्य समझके पकडनेको उठा यावत् अग्रमित्ता भार्या कोलाहल सुन सर्व पूर्ववत् साढाचौदा वर्ष गृहस्थावासमें श्रावक व्रत, माढापांच वर्ष प्रतिमा अन्तिम आलोचनापूर्वक एक मासका 'अनशन कर समाधिसहित काल कर सौधर्म देवलोकके आरूणभूत वैमानमें च्यार पल्योपमकी स्थितिवाला देवता हुवा। वहांसे आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्रमें उत्तम जाती-कुलमें उत्पन्न हो . फीर दीक्षा लेके केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगा ॥ इतिशम् ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) आठवा अध्ययन महाशतकाधिकार । .. राजगृह नगर, गुलशीला उद्यान, श्रेणिक राजा, उन्ही नग रमें महाशतक गाथापति बडा ही धनान्य था. जिन्होंके रेवंती आदि तेरा भार्यावों थी। चौवीस क्रोडका द्रव्य था, जिन्हों में आट कोड धरतीमें, आठ क्रोड चैपारमें, आठ क्रोड घरविखरामें और आठ गोकुल अर्थात असी हजार गायों थी । और महाश. तकके रेवंती भार्याके बापके घरसे आठ क्रोड सोनैया और असी हजार गायो दान में आइ थी तथा शेष बारह भार्यावकि बापके घ. ग्से एकेक क्रोड सोनैया और दश दश हजार गायो दानमें आड़ श्री : महाशतक नगरमें एक प्रतिष्ठित माननिय गाथापति था। - भगवान वीरप्रभुका पधारणा राजगृह नगरके गुणशील उ. द्यान में हुवा । श्रेणिक राजा तथा प्रजा भगवानको वन्दन करनेको गये।महाशतक भी बन्दन निमित्त गया। भगवानने देशना दी। महाशतकने आनन्दकी माफीक सम्यक्त्व मूल बारह व्रतोच्चारण कीया, परन्तु चौवीस क्रोड द्रव्य और तेरह भावों तथा कांसीपात्रमे द्रव्य देना पीच्छा दुगुनादि लेना, एसा वैपार रखा. शेष त्याग कर जीवादिपदार्थका जानकार हो अपनि आत्मरमणताक अन्दर भगवानकी आज्ञाका पालन करता हुवा विचरने लगा। .. एक समय रेवंती भार्या रात्रि समय कुटुम्ब जागरण करती एमा विचार किया कि इन्ही बारह शोक्योंके कारणसे मैं मेरा पति महाशतकके साथ पांचो इन्द्रियोंका सुख भोगविलास स्वतंप्रतासे नहीं कर सकुं, वास्ते इन्ही बारह शोक्योंको. अग्निविष तथा शत्रके प्रयोगसे नष्ट कर इन्होंके एकेक क्रोड सोनैया तथा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकेक वर्ग गायोंका मैं अपने कबजे कर मेरा भरतारके साथ मनुप्य संबन्धी कामभोग अपने स्वतंत्रतासे भोगवती हुइ रहुं। _ एसा विचार कर छे शोक्योंको शस्त्र प्रयोगसे और छ शोक्योंको विष प्रयोगसे मृत्युके धामपर पहुंचा दी अर्थात् मार डाली। और उन्हाँका बारह क्रोडी द्रव्य और बारह गोकुल अपने कबजे कर महाशतकके साथमें भोगविलास करती हूर स्वतंत्रतासे रहने लगी । स्वतंत्रता होनेसे रेवंतीनि, गाथापतिने मांस मदिरा आदि भक्षण कराना भी प्रारंभ कर दीया। एक समय राजगृह नगरके अन्दर श्रेणिक राजाने अमारी पडह बजवाया था कि किसी भी जीवको कोई भी मारने नहीं पावे। यह बात सुनके रेवंतीने अपने गुप्त मनुष्योंको बोलाके कहा कि तुम जावो मेरे गायोंके गोकुलसे प्रतिदिन दोय दोय घोणा (वाछरू ) मेरेको ला दीया करो। वह मनुष्य प्रतिदिन दोय दोय घाछरू रेवंतीको सुप्रत कर देना स्वीकार किया. रेयंती उन्होंका मांस शोला बनाके मदिराके साथ भक्षण कर रही थी। महाशतक श्रावकसाधिक चौदा वर्ष श्रावक व्रत पालके अ. पने जेष्ट पुत्रको घरभार सुप्रत कर आप पौषधशालामें जाके धर्ममाधन करने लग गया। इदर रेवंती मंसमदिरादि आचरण करती हुइ कामविकारसे उन्मत्त बनके एक समय पौषधशालमें महाशतक श्रावकके पासमें आइ ओर कामपिडित होके स्वइच्छा श्रृंगारके साथ स्त्रीभाव अर्थात् कामक्रीडाके शब्दोंसे महाशतक श्रावक प्रति बोलती हुइ कि भो महाशतक तुं धर्म पुन्य स्वर्ग और मोक्षका मी हो रहा है, इन्होंकि पिपासा तुमको लग रही है इसकी ही तुमको कंक्षा लग रही है जिससे तुम मेरे साथ मनुष्य सम्बन्धी काम Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० भोग नही भोगवते हो । एमा वचन सुनके महाशतक रेवंतीके वचनोंको आदरसत्कार नहीं दीया और बलाभी नही और अच्छा भी नही जाना, मौन कर अपनी आत्मरमणतामें ही रमण करने लगा। कारण यह सर्व कर्मो की विटम्बना है अज्ञानके जरिये जीव क्या क्या नहीं करता है सर्व कुच्छ करता है। रेवंतीने दो तीन बार कहा परन्तु महाशतकने बीलकुल आदर नही दीया वास्ते रेवंती अपने स्थान पर चली गई। महाशतकने श्रावककि इग्यारा प्रतिमा बहन करने में साढा पांच वर्ष तक घोर तपश्चर्या कर अपने शरीरको सुके भुखे लुखे बना दीया अन्तिम आलोचना कर अनशन कर दीया । अनशनके अन्दर शुभाध्यवशाया विशुद्ध परिमाण प्रशस्थ लेश्या होनेसे महाशतकको अवधि ज्ञानोत्पन्न हुवा। सो पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशामें हजार हजार योजन और उत्तर दिशामें चुल हेमवन्त पर्वत उर्ध्व सौधर्म देवलोक अधी प्रथम रत्नप्रभा नरकका लोलुच नामका पाथडाकि चौरासी हजार वर्षोंकि स्थिति तकके क्षेत्रकों देखने लगा। ___ रेवंती और भी उन्मत होके महाशतक श्रावक अनशन करा था, वहां पर आइ और भी एक दो तीन वार असभ्य भाषासे भोग आमन्त्रण करी। उन्ही समय महाशतकको क्रोध आया और अवधिज्ञानसे देखके बोलाकि अरे रेवंती! तुं आजसे सात अहो. रात्रीमें अलसके रोगके जरिये आर्तरौद्र ध्यानसे असमाधि काल करके प्रथम रत्नप्रभा नरकके लोलुच नामके पात्थडे में चौरासी हजार वर्षोंकि स्थितिवाले नैरियेपने उत्पन्न होगी। यह वचन सुनके रेवंतीको बडा ही भय हुवा त्रास पामी उद्वेग प्राप्त हुवा विचार हुवा कि यह महाशतक मेरे पर कुपित हुवा है न Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाने मुझे कीसकुमौत मारेगा वास्ते पीच्छी हटती हुइ अपने स्थान चली गइ । बस, रेवंतीको सात रात्री उक्त रोग हो के काल कर लोलुच पात्थडे में चौरासी हजार वर्षकी स्थितिघाले नैरियापने नारकीमें उत्पन्न होना ही पडा। भगवान वीरप्रभु राजग्रह नगरके गुणशीलोद्यानमें पधारे राजादि वन्दनको आये, भगवानने धर्मदेशना दी। भगवान गौनम स्वामीको आमन्त्रण कर कहते हुवे कि हे गौतम ! तुम महाशतक श्रावकके पास जावों और उन्होंको कहो कि अनशन किये हुवेको सत्य होने पर भी परमात्माको दुःख हो एसी कठोर भाषा बोलनी तुमको नहीं कल्प और तुमने रेवंती भार्याको कठोर शब्द बोला है वास्ते उन्हीकी आलोचना प्रतिक्रमण कर प्रायश्चित ले अपनी आत्माको निर्मळ बनावो। गौतमस्थामीने भगवानके बचनोंको सविनय स्वीकार कर वहांसे चलके महाशतक श्रावकके पास आये। महाशतक, भगवानगौतमस्यामीको आते हुवे देख सहर्ष वन्दन नमस्कार किया । गौतमस्वामीने कहा कि भगवान वीर प्रभु मुझे आपके लीये भेजा है वास्ते आपने रेवंतीको कठोर शब्द कहा है इसकी आलोचना करो। महाशतकने आलोचन कर प्रायश्चित लेके अपनी आत्माको निर्मल बनाके गौतमस्वामी को धन्दन नमस्कार करी फीर गौतमस्वामी मध्य बजार होके भगवानके पास आये। भगवान फीर वहांसे विहार कर अन्य क्षेत्रमें गमन करते हुवे। महाशतक श्रावक एक मासका अनशन कर अन्तिम स माधिपूर्वक काल कर सौधर्म देवलोकके अरुणवतंसिक वैमानमें च्यार पल्योपम स्थितिवाले देवता हवा, वहांसे आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्रमें मोक्ष जावेगा । इतिशम । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર (E) नववा अध्ययन नन्दनीपिताधिकार | सात्थी नगरी कोष्टकोद्यान जयशत्रु राजा । उन्ही नगरीमें नन्दनीपिता गाथापती था उन्होंके अभ्वनि नामकी भार्या थी और बारह कोड सोनइयाका द्रव्य तथा चार गौकुल अर्थात् चालीस हजार गायो थी जैसे आनन्द । भगवान पधारे आनन्दकी माफीक श्रावक व्रत ग्रहण किये arfan चौदा वर्ष गृहस्थावास में श्रावक व्रत पालन कीये साढा पांच वर्ष श्रावक प्रतिमा वहन करी अन्तिम आलोचन कर एक मासका अनशन कर समाधिपूर्वक काल कर सौधर्म देवलोकके अरुणग्रवे वैमान में च्यार पल्योपम स्थितिके देवता हुवा | वहांसे आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में मोक्ष जावेगा । इतिशम् । →→£(@»*•(१०) दशवां अध्ययन शालनीपिताधिकार | साथी नगरी कोष्टकोद्यान जयशत्रु राजा । उन्ही नगरी में शालनीपिता नामका गाथापति वसता था । उन्होंके फाल्गुनि नामकी भार्या थी । बारह कोड सोनइयाका क्रय और चालीस हजार गायों थी । भगवान पधारे आनन्दकी माफीक श्रावक व्रत ग्रहण किये । साढा चौदा वर्ष गृहस्थावासमें श्रावक व्रत, सादा पांच वर्ष श्रावक प्रतिमा वहन करी अन्तिम आलोचन कर एक मासका अनशन कर समाधिपूर्वक काल कर सौधर्म देवलोक में अरुणकिल aurat aort पल्योपमकी स्थितिमें देवतापणे उत्पन्न हुवे वहां Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ से आयुष्य पुर्ण कर महाविदेह क्षेत्रमें मोक्ष जावेगा नववां और दशai श्रावकको उपसर्ग नही हुवा था । इतिशम् । ॥ इति दश श्रावकों का संक्षिप्ताधिकार समाप्तं || ग्राम. श्रावक. भार्यानाम. द्रव्यकोड. वाणीयाग्रांम आनन्द चम्पापुरी कामदेव भद्रा बनारसी चुलनीपिता सोमा बनारसी सूरादेव धन्ना आरंभीया चुलशतक बहुला कपिलपुर कुंडकोलीक फुसा पोलासपुर शकडाल अग्रमित्ता राजगृह महाशतक रेवत्यादि१३२४ सावत्थी नन्दनीपिता अश्वनी १२ सेवानन्द १८ " १२ कोड ४०००० अरुण ६००००) अरुणाभ ८००००) अरुण प्रभा そ 27 मात्थी शालनिपिता फाल्गुनी १२ १८ ६०००० अरुणवन्त १८ ६०००० अरुणश्रेष्ट "" "" "" १८ ६०००० अणध्वज दिवसेचचा "" गोकुल ( गायों ) "" मान नाम. उपसर्ग. 95 -XLOK देवकृत १०००० अरुणभूत देवकृत ८०००० अरुणवन्तेस रेवंतीका ४०००० अणग्रव ४०००० अणकील 0 0 आचार्य सबके वीरप्रभु है गृहवासमें श्रावक व्रत सादाचौदे वर्ष प्रतिमा साढापांच वर्ष एवं सर्व बीस वर्ष श्रावक व्रत पालन कर एकेक मासका अनसन समाधिमें कालकर प्रथम सौधर्म देवलोक च्यार पल्योपमस्थिति महा विदेहक्षेत्र में मोक्ष जावेगा ! इतिशम् इति उपासगदशांग सार-संक्षप्त समाप्तम् Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्री अन्तगडदशांगसूत्रका संक्षिप्त सार. (१) पहेला वर्ग जिस्का दश अध्ययन है । प्रथम अध्ययन-चतुर्थ आरेके अन्तिम यादवकुलश्रृंगार बालब्रह्मचारी बावीसमा तीर्थकर श्री नेमिनाथ प्रभुके समयकी बात है कि इस जम्बूद्विपकी भारतभूमिके अलंकार सामान्य बा. रह योजन लम्बी नव योजन चोडी सुवर्णके कोट रत्नोंके कंगरे गढमढ मन्दिर तोरण दरवाजे पोल तथा उंचे उंचे प्रासाद मानी गगनसेही वातों न कर रहेहो और बडे बडे शीखरवाले देवालय. पर विजय विजयन्ति पताकावोंपर अवलोकन किये हुवे सिंहा. दिके चिन्ह जिन्होंके डरके मारे आकाश न जाने उर्ध्व दिशामें गमनकरतेके पीच्छ अति वेगसे जारही हो तथा दुपद चतुष्पद ओर धन धान्य मणि माणक मोती परवाल आदिसे समृद्ध ओर भी अनेक उपमा संयुक्त एसी द्वारामती (द्वारका ) नामकी नगरीथी । वह नगरी धनपति-कुबेर देवताकि कलाकौशल्यसे रची गइथी शास्त्रकार व्याख्यान करते है कि वह नगरी प्रत्यक्ष देवलोक सदृश मानों अलकापुरी ही निवास कीया हो जनसमु. हके मनकों प्रसन नेत्रोको तृप्त करनेवाली वडीही सुन्दराकार म्व. रूपसे अपनी कीर्ति सुरलोक तक पहुंचादीथी । नगरीके लोक व. डेही न्यायशील स्वसंपत्ती स्वदारासेही संतोष रखतेथे वहलोक परद्रव्य लेने में पंगु थे, परस्त्री देखने में अन्धे थे, परनिंदा सुनने को बेरे थे, परापवाद बोलमेको मुंगे थे, उन्ही नगरीके अन्दर दंडका नाम फक्त मन्दिरों के शिखर पर ही देखा जाते थे और Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्धका नाम औरतोंकि वेणी पर ही पाये जाते थे। वह नगरी के लोक सदैवके लिये प्रमुदित चित्तसे कामअर्थधर्म मोक्ष इन्ही च्यारों कार्य में पुरुषार्थ करते हुवे आनन्दपुर्वक नगरीकी शोभामें वृद्रि करते थे। द्वारकानगरी के बाहार पूर्व और उत्तर दिशाके मध्य भाग इशानकोनमें सिखर टुंक गुफावों मेखलावों कन्दरों निझरणा और अनेक वृक्षलतावोंसे सुशोभनिक रेवन्तगिरि नामका पर्वत था। द्वारकानगरी और रेवन्तगिरि पर्वत के विचमें अनेक कुँवे वापी सर द्रह और चम्पा, चमेली, केतकि, मोगरा, गुलाब, जाइ, जुइ, हीना, अनार, दाडिम, द्राक्ष, खजुर, नारंगी, नाग पुनागादि वृक्ष तथा शामलता अशोकलता चम्पकलता और भी गुच्छा गुल्म वेल्लि तृण आदि लक्ष्मीसे अपनी छटाकों दीखाते हुवा. भोगी पुरुषों को विलास और योगिपुरुषोंको ज्ञान ध्यान करने योग्य मानो मेरूके दूसरा वनकि माफीक 'नन्दन' वन नामका उद्यान था वह छहों रुतुके फल-फूलके लिये बडा ही उदार-दा तार था। . उसी नन्दनवनोद्यानमें बहुतसे देवता देवीयों विद्याधर और मनुष्यलोक अपनी अरतीका अन्त कर रतिके साथ रममता करते थे। - उसी उद्यानके एक प्रदेशमें अच्छे सुन्दर विशाल अनेक स्थानोपर तोरण, रंभासी मनोहर पुतलोयोंसे मंडित सुरप्पीय यक्षका यक्षायतन था । वह सुरप्पीय यक्ष भी चीरकालका पुराणा था बहुतसे लोकोंके वन्दन पुजन करने योग्य था अगर भक्तिपूर्वक जो उसीका स्मरण करते थे उन्होंके मनोकामना पूर्ण कर अच्छी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्टाको प्राप्त कर अपना नाम "देवसच्चे" एसा विश्व व्यापक कर दीया था। उसी यक्षायतनके नजीकमे सुन्दर मूल स्कन्ध कन्द शाखा प्रतिशाखा पत्र पुष्प फलसे नमा हुवा श्रमको दुर करनेवाला शीतल छाया सहित आशोक नामका वृक्ष था । जीसके आश्रयमें दुपद चतुष्पद पशु पंखी अति आनंद करते थे। उसी अशोक वृक्षके नीचे मेघकी घटाके माफीक श्याम वर्ण सुन्दराकर अनेक चित्रविचित्र नाना प्रकारके रुपोंसे अलंकृत सिंहासनके आकार पृथ्वीशीला नामका पट था। इन्ही सर्वका वर्णन उववाई सूत्रसे देखना। द्वारका नगरीके अन्दर न्यायशील सूरवीर धीर पूर्ण पराक्रमी स्वभुजावोंसे तीन खंडकी राज्यलक्ष्मीको अपने आधिन कर लीथी । सुरनर विद्याधरोंसे पूजित जिन्होंका उज्वल यश तीन लोकमें गर्जना कर रहा था । उत्तरमें वैतादयगिरि और पूर्व पश्चिम दक्षिणमें लषण समुद्र तक जिन्होंका राजतंत्र चल रहा है एसा श्रीकृष्ण नामका वासुदेव राजा राज कर रहा था। जिस धर्मराज्यमें बडे बडे सत्वधारी महान् पुरुष निवास कर रहे थे। जैसे कि समुंद्रविजयादि 'दश दसारेण राजा, बलदेव आदि पंच महावीर, प्रद्योतन आदि साढा तीन क्रोड केसरीये कुमर, साम्ब आदि साठ हजार दुर्दात राजकुमार। - महासेनादि छपन्नहजार बलवन्त वर्ग, वीरसेनादि एकवीसहजार वीरपुरुष उग्गरसेनादि सोलाहजार मुगटबन्ध राजा हा .... १ समुद्रविजय, अक्षोभ, स्तिमीत, सागर, हेमवन्त, अचल, धरण, पुरण, अभिचन्द वसुदेव इन्ही दशों भाइयोंको शास्त्रकारोंने दश दसारेणके नामसे ओलखाया हैं। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ قا जरीमें रहते थे। रुखमणी आदि सोलाहजार अन्तेवर तथा अनेक सेना आदि अनेक हजारों गणकापों और भी बहुतसे राजेश्वर युगराजा तालंधर मांडबी कोटंबी शेठ इप्भशेठ सेनापति मत्थयहा आदि नगरीके अन्दर आनन्दमें निवास करते थे । उसी द्वारकानगरीके अन्दर अन्धकावृष्णि राजा अनेक गुणोंसे शोभित तथा उन्होंके धारणी नामकी पट्टराणी सर्वांग सुन्दराकार अपने पतिसे अनुरक्त पांचेन्द्रियोंका सुख भोगवती थी। - एक समय कि बात है कि धारणी राणी अपने सुने योग्य सेजामे सुती थी आधी रात्रीके रखतमें न तो पूर्ण जगृत है म पुर्ण निद्रा में है एसी अवस्था राणीने एक सुपेत मोत्योंके हारके माफीक सुपेत । सिंह आकाशसे उत्तरता हुषा और अपने मुहमें प्रवेश होता हुवा स्वप्न में देखा । एसा स्वप्न देखते ही राणी अपनि सेजासे उठके जहां पर अपने पतिकि सेजा थी यहांपर आई । राजाने भी राणीका बडा ही सत्कार कर भद्रासन पर बेठनेकि आज्ञा दि । राणी भद्रासन पर बेठी और समाधि के साथ बोली के हे नाथ! आज मुझे सिंहका स्वप्न हवा है इसका क्या फल होगा । इस बातको ध्यानपूर्वक श्रवण कर बोला कि है प्रिया! यह महान् स्वप्न अति फलदाता होगा । इस स्वप्नसे पाये जाते है कि तुमारे नब मास परिपूर्ण होनेसे एक शूरवीर पुत्ररत्नकी प्राप्ति होगी। राणीने राजाके मुखसे यह सुनके दोनों करकमल शिरपर चढाके बोली "तथास्तु" राजाकी रजा होनेसे राणी अपने स्थानपर चली गइ और विचार करने लगी कि यह मुझे उत्तम स्वप्न मीला है अगर . १ पति और पत्नीकी सजा अलग अलग थी तबी ही आपस आपसमें स्नेहभावकी हमेशों वृद्धि होती थी नहीं तो " अति परिचयादवज्ञा " Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ યુ. अब निद्रा लेने से कोइ खराब स्वप्न होगा तो मेरा सुन्दर स्वप्नका फल चला जावेगा वास्ते अब मुझे निद्रा नहीं लेनी चाहिये । किन्तु देवगुरुका स्मरण ही करना चाहिये। एसा ही कीया। इधर अन्धकवृष्णि राजा सूर्योदय होते ही अनुचरोसें कचेरोकी अच्छी श्रृंगारकी सजावट करवाके अष्ट महानिमित्तके जाननेवाले सुपनपाठकोंको बुलवाये उन्होंका आदर सत्कार पूजा करके जो धारणी राणीको सिंहका स्वप्न आया था उन्होंका फल पुच्छा | स्वप्नपाठकोंने ध्यानपुर्वक स्वप्नको श्रवण कर अपने शास्त्रोंका अवगाहन कर एक दुसरेके साथ विचार कर राजासे निवेदन करने लगे कि हे धराधिप ! हमारे स्वप्नशास्त्रमें तीस स्वप्न महानू फल और बेंयालीस स्वप्न सामान्य फलके दाता है एवं सर्व बहुत्तर स्वप्न है जिसमें तीर्थंकर चक्रवर्त्तिकी मातावों तीस महान् स्वप्नसे चौदा स्वप्न देखे । वसुदेवकी माता सात स्वप्न देखे । बलदेवकी माता च्यार और मंडलीक राजाकी माता एक स्वप्न देखे । हे नाथ ! जो धारणी राणी तीस महान स्वप्न के अन्दर से एक महान् स्वप्न देखा है तो यह हमारे शाant बात निःशंक है कि धारणी राणीके गर्भदिन पुर्ण होनेसे महान शूरवीर धीर अखिल पृथ्वी भोक्ता आपके कुलमें तीलक ध्वज सामान्य पुत्ररत्नकी प्राप्ति होगी । यह बात राणी धारणी भी कीनात अन्तरमें बैठी हुई सुन रही थी । राजा स्वप्नपाठकोंकी बात सुन अति हर्षित हो स्वप्नपाठकोंको बहुतसा द्रव्य दीया तथा भोजन कराके पुष्पोंकी माला विगेरा देके रवाना किया । बादमें राजाने राणीसे सर्व बात कही, राणी सहर्ष बात की स्वीकार कर अपने स्थान में गमन करती हुई । I राणी धारणी अपने गर्भका पालन सुखपूर्वक कर रही है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन मासके बाद राणीको अच्छे अच्छे दोहले उत्पन्न हुवे जिस्को राजाने आनन्दसे पुर्ण किये। नव मास साडेसात रात्रि पुर्ण होनेसे अच्छे ग्रह नक्षत्र योग आदिमे राणीसे पुत्रका जन्म हुवा है। राजाको खबर होनेसे केदीयोंको छोड दीया है माप तोल बढा दीया था और नगरमें बडा ही महोत्सव कीया था। ___ पहले दिन सुतीका कार्य किया, तीसरे दिन चन्द्रसूर्यका दर्शन, छठे दिन रात्रिजागरण, इग्यारमे दिन असूचिकर्म दूर किया, बारहवे दिन विस्तरण प्रकारके अशांन पान खादिम स्वादिम निपजाके अपने कुटुम्ब-न्याति आदिको आमन्त्रण कर भोजनादि करवाके उस राजपुत्रका नाम "गौतमकुमार" दीया। पंचधावोंसे वृद्धि पामतो बालक्रिडा करते हुवे जब आठ वर्षका राजकुमार हो गया। तब विद्याभ्यासके लिये कलाचार्यके वहां भेजा और कलाचार्यको बहुतसा द्रव्य दिया। कलाचार्य भी राजकुमारको आठ वर्ष तक अभ्यास कराके जो पुरुषोंकी ७२. कला होती है उन्होमें प्रविन बनाके राजाको सुप्रत कर दिया। गजाने कुमारका अभ्यास और प्राप्त हुइ १६ वर्षकी युधकावस्था देख विचार किया कि अब कुमारका विवाह करना चाहिये, जब राजाने पेस्तर आठ सुन्दर प्रासाद कुमराणीयोंके लिये और आठोंके बिचमें एक मनोहर महेल कुमारके लिये बनवाके आठ बडे राजाओंकी कन्याओं जो कि जोबन, लावण्यता, चातुर्यता, वर्ण, वय तथा ६४ कलामें प्रविण, साक्षात सुरसुन्दरीबोंके माफीक जिन्होंका रूप है एसी आठ राजकन्याओंके साथ मौतमकुमारका विवाह कर दिया। आठ कन्याओंके पिताने दात (हायजो) कितनो दियो जिस्का विवरण शास्त्रकारोंने बडा ही विस्तारसे किया है (देखो भगवतीसूत्र महाबलाधिकार) एकसो Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाणु (१९२) बोलोको दायचो जिन्होंकी क्रोडों सोनयोंकी किंमत है एसी राजलीलामें दम्पति देवतावोंकी माफीक कामभोग भोगवने लगे। तांके यह भी मालम नहीं पड़ता था कि वर्ष, मास, तीथी और धार कोनसा है। ____एक समयकी बात है कि जिन्होंका धर्मचक्र आकाशमें चल रहा है। भामंडल अज्ञान अन्धकारको हटाके ज्ञानोद्योत कर रहा है। धर्मध्वज नभमें ल्हेर कर रही है सूवर्णकमल आगे चल रहे है। इन्द्र और करोडों देवता जिन्होंके चरणकमलकी सेवा कर रहे है एसे बावीसमा तीर्थकर नेमिनाथ भगवान अठारे सहस्र मुनि और चालीश सहस्र साध्वीयोंके परिवारसे भूमंडलको पवित्र करते हुवे द्वारकानगरीके नन्दनवनोद्यानको पवित्र करते हुवे। वनपालकने यह खबर श्री कृष्णनरेश्वरको दी कि है भूनाथ ! जिन्हींके दर्शनोंकी आप अभिलाषा करते थे वह तीर्थकर आज नन्दनवनमें पधार गये है यह सुनके श्रीखंडभोक्ता कृष्ण वासुदेवने साढेबारह लक्ष द्रव्य खुशीका दिया और आप सिंहासनसे उठके वहांपर ही भगवानको नमोत्थुणं करके कहा कि हे भगवान् ! आप सर्वज्ञ हो मेरी वन्दना स्वीकार करावें। श्रीकृष्ण कोटवालको बोलायके नगरी श्रृंगारनेका हुकम दिया और सेनापतिको बोलाके च्यार प्रकारकी सैना तैयार करनेकी आज्ञा देके आप स्नानमजन करनेको मजनघरमें प्रवेश करते हुवे । इधर द्वारकानगरीके दोय तीन च्यार तथा बहुत गस्ते एकत्र होते है। वहां जनसमुह आपस आपसमें वार्तालाप कर रहे थे कि अहो देवानुप्रिय! श्री अरिहंत भगवानके नाम गोत्र श्रवण Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेका भी महाफल है तो यहाँ नन्दनवन में पधारे हुवे भगवानको वन्दन-नमस्कार करनेको जाना, देशना सुनना प्रभादि पुच्छना। इस फल (लाभ) का तो कहना ही क्या? वास्ते चली, भगवानको वन्दन करनेको । बस! इतना सुनते ही सब लोक अपने अपने स्थान जाके स्नानमन्जन कर अच्छार बहुमूल्य आभूषण वस्त्र धारण कर कितनेक गज, अश्व, रथ, सेविक, समदानी, पिजस, पालखी आदि पर और कितनेक पैदल चलनेको तैयार हो रहे थे। इधर बडे ही आडंबरके साथ श्रीकृष्ण च्यार प्रकारकी सैन्य लेके भगवानको वन्दनकों जा रहा था। द्वारकानगरीके मध्य बजारसे बड़े ही उत्सवसे लोग जा रहे थे, उन्ही समय इतनी तो गडदी थी कि लोगोंका बजारमें समावेश नहीं होता था। एक दुसरेको बोलाने में इतना तो गुंश शब्द हो रहा था कि एक दुसरेका शब्द पूर्ण तौरपर सुन भी नहीं सक्ते थे। जिस समय परिषदा भगवानको वन्दन करनेको जा रही थी, उस समय " गौतमकुमार" अपने अन्तेवरके साथ भोगविलास कर रहा था। जब परिषदाकी तर्फ द्रष्टिपात करते ही कंचुकी (नगरीकी खबर देनेवाला) पुरुषको बुलायके बोला-क्या आज द्वारकानगरीके बाहार किसी इन्द्रका महोत्सव है । नागका, यक्षका, भूतका, वैश्रमणका, नदी, पर्वत, तलाव, कुवा आदिका महोत्सव है तांके जनसमुह एक दिशामें जा रहा है ? कंचुकी पुरुषने उत्तर दिया कि हे नाथ ! आज किसी प्रकारका महोत्सव नहीं है । आज यादवकुलके तीलक समान बाधीशमा तीर्थकरका आगमन हुवा है, वास्ते जनसमुह उन्ही भगवानको वन्दन करनेको जा रहा है। यह सुनके गौतमकुमारकी भावना हुइ के इतने Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक जा रहे है तो अपने भी चल कर वहां क्या हो रहा है वह देखेंगे। आदेश करते ही रथकारद्वारा च्यार अश्ववाला रथ तैयार हो गया, आप भी स्नानमन्जन कर वखाभूषणसे शरीरको अलंकृत कर रथपर बैठके परिषदाके साथ हो गये । परिषदा पंचाभिगम धारण करते हुवे भगवान के समोसरण में जाके भगवानको तीन प्रदक्षिणा देके सब लोग अपने अपने योग्यस्थानपर बैठ गये और भगवानकी देशना पानकी अभिलाषा कर रहे थे। भगवान् नेमिनाथ प्रभुने भी.उस आइ हइ परिषदाको धर्मदेशना देना प्रारंभ किया कि हे भव्य जीवो! इस अपार संसारके अन्दर परिभ्रमण करते हुवे जीव नरक, निगोद, पृथ्वी. अप, तेउ, वायु, वनस्पति और त्रसकायमें अनन्त जन्म-मरण किया है और करते भी है। इस दुःखोंसे विमुक्त करने में अग्रेश्वर समकितदर्शन है उन्हीको धारण कर आगे चारित्रराजाका सेवन करो तांके संसारसमुद्रसे जलदी पार करे। हे भव्यात्मन् : इस संसारसे पार होने के लिये दो नौका है (१) एक साधु धर्म (सर्वव्रत) (२) श्रावक धर्म (देशव्रत) दोनोंको सम्यक् प्रकारसे जाणके जैसी अपनी शक्ति हो उसे स्वीकार कर इस्में पुरुषार्थ कर प्रतिदिन उच्च श्रेणीपर अपना जीवन लगा देंगे तो संसारका अन्त होने में किसी प्रकारकी देर नहीं है इत्यादि विस्तारपूर्वक धर्मदेशनाके अन्तमें भगवानने फरमाया कि विषय-कषाय, रागद्वेष यह संसारवृद्धि करता है। इन्हींको प्रथम त्यागो और दान, शील, तप, भाव, भावना आदिको स्वीकार करो, सबका सारांश यह है कि जीतना नियम व्रत लेते हो उन्होंको अच्छी तरहसे पालन कर आराधीपदको प्राप्त करो तांके शिघ्र शिवमन्दिरमें Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ पहुंच जावे । कृष्णादि परिषदा अमृतमय देशना श्रवण कर अत्यन्त हर्षसे भगवानको वन्दन- नमस्कार कर स्वस्थान गमन करती हुई । गोतमकुमार भगवानकी देशना श्रवण करते ही हृदयकमलमें संसार कि असारता भासमान हो गई । और विचार करने लगा कि यह सुख मैंने मान रखा है परन्तु ये तो अनन्त दुखोंका एक बीज है इस विषमिश्रत सुखोंके लिये अमूल्य मनुष्यभवको खो देना मुझे उचित नहीं है। एसा विचारके भगवानको वन्दन नमस्कार कर बोला कि हे त्रैलोक्य पूजनीय प्रभु! आपका वचनकि मुझे श्रद्धा प्रतित हुई और मेरे रोमरोम में रूच गयें है मेरी हाड - हाडकी मीजी धर्मरंग रंगाइ गइ है आप फरमाते हे एसाही इस संसारका स्वरूप है। हे दयालु ! आप मेरेपर अच्छी कृपा करी हैं मैं आपके चरणकमलमें दीक्षा लेना चाहता हूं परन्तु मेरे मातापिताको पुछके मैं पीछा आता हुँ । भगवानने फरमाया कि “जहासुखम” गौतमकुमार भगवानको वन्दन कर अपने घर पर आया और माताजी से कहता हुवा कि हे माताजी! मैं आज भंगवनका दर्शन कर देशना सुनी है जिससे संसारका स्वरूप जानके मैं भय प्राप्त हुवा हुं अगर आप आज्ञा देवे तो मैं भगवान के पास दीक्षा ले मेरा आत्माका कल्याण करूं । माता यह वचन पुत्रका सुनते ही मूर्छित हो धरतीपर गीर पडी दासीयोंने शीतल पाणी और वायुका उपचार कर सचेतन करी । माता हुसीयार होके पुत्र प्रति कहने लगी। कि हे जाया ! तुं मारे एक ही पुत्र है और मेरा जीवनही तेरे आधारपर है और तुं जो दीक्षा लेने की बात करता है वह मेरेको श्रवण करनाही कानोंको कंटक तुल्य दुःखदाता है। बस, | आज तुमने यह बात करी है परन्तु आइंदा से हम एसी बातें Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनना मनसे भि नही चाहती है । जहाँतकतुमारे मातापिता जीवे वहाँतक संसारका सुख भोगवो। जब तुमारे मातापिता कालधर्म प्राप्त हो जाय बाद में तुमारे पुत्रादिकि वृद्धि होनेपर तुमारी इच्छा हो तो खुशीसे दीक्षा लेना। माताका यह वचन सुन गौतमकुमार बोला कि हे माता ! एसा मातापिता पुत्रका भव तो जीव अनन्तीवार कीया है इन्होंसे कुछ भी कल्यान नहीं है और मुझे यह भी विश्वास नही है कि में पहेला जाउंगा कि मातापिता पहिले जावेगा अर्थात् कालका विश्वास समय मात्रका भी नही है वास्ते आप आज्ञा दो तो मैं भगवानके पास दीक्षा ले मेरा कल्यान करूं। माता बोली हे लालजी! तुमारे बाप दादादि पूर्वजोंके संग्रह कीया हुवा द्रव्य है इन्हीको भोगविलासके काममें लो और देवांगना जेसी आठ राजकन्या तुमको परणाइ है इन्होंके साथ कामभोग भोगवों फीर यावत् कुलवृद्धि होनेसे दीक्षा लेना। कुमार बोला कि हे माता! में यह नहीं जानता हूं कि यह द्रव्य ओर स्त्रियों पहले जावेगी कि मैं पहला जाउंगा। कारण यह धन जोबन स्त्रियांदि सर्व अस्थिर है ओर में तो थीरवास करना चाहता हुं वास्ते आज्ञा दो दीक्षा ले उंगा। ___ माता निराश हो गइ परन्तु मोहनीकर्म जगतमें जबरदस्त है माता बोली कि हे लालजी! आप मुझे तो छोड जावोगा परन्तु पहला खुब दीर्घदृष्टीसे विचार करीये यह निग्रन्थके प्रवचन एसे ही है कि इन्होंका आराधन करनेवालोंको जन्मजरा मृत्यु आदिसे मुक्तकर अक्षय स्थानको प्राप्त करा देता है परन्तु याद रखो संजम खांडाकी धारपर चलना है, वेलुका कवलीया जेसा असार है, म. यणके दान्तोंसे लोहाका चीना चाश्ना है नदीके सामे पुर चलना Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है समुद्रको भुजासे तीरना है हे वत्स! साधु होने के बाद शिरका लोच करना होगा। पैदल विहार करना होगा, जावजीव स्नान नही होगा घरघरसे भिक्षा मांगनी पडेगी कबी न मीलनेपर 'सं. तोष रखना पडेगा। लोगोंका दुर्वचन भी सहन करना पडेगा आधाकर्मी उदेशी आदि दोष रहीत आहार लेना होगा इत्यादि बावीस परिसह तीन उपसर्ग आदिका विवरण कर माताने खुब समझाया और कहा कि अगर तुमको धर्मकरणी करना हो तो घरमें रहके करलो संयम पालना वडाहो कठिन काम है। पुत्रने कहा हे माता! आपका कहना सत्य है संयम पालना बडाही दुष्कर है परन्तु वह कीसके लिये ? हे जननी ! यह संयम कायरोंके लिये दुष्कर है जो इन्ही लोगके पुद्गलीक सुखोंका अभिलाषी है । परन्तु हे माता ! में तेरा पुत्र हु मुझे संजम पालना किंचित् भी दुष्कर नही है कारण में नरक निगोदमें अनन्त दुःख सहन कीया है। ... इतना वचन पुत्रका सुन माता समज गई कि अब यह पुत्र घरमें रहनेवाला नही है । तब माताने दीक्षाका बड़ा भारी महोत्सव कीया जेसेकि थावञ्चापुत्र कुमारका दीक्षा महोत्सव कृष्णमहाराजने कीया था (ज्ञातासूत्र अध्य०५ वे)इसी माफीक कृष्णवासुदेव महोत्सव कर गौतमकुमारको श्री नेमिनाथ भगवान पासे दीक्षा दरादी । विस्तार देखो ज्ञातासे। . श्री नेमिनाथ प्रभु गौतमकुमारको दीक्षा देके हितशिक्षा दी कि हे भव्य! अब तुम दीक्षित हुवे हों तो यत्नासे हलनचलन आदि क्रिया करना ज्ञान ध्यानके सिवाय एक समय मात्र भी प्रमाद नही करना। गौतममुनिने भगवानका वचन सप्रमाण स्वीकार कर स्वल्प Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमें स्थिवरोंकी भक्ति कर इग्यारा अंगका ज्ञान कण्ठस्थ कर लिया। बादमे श्री नेमिनाथप्रभु द्वारकानगरीसे विहार कर अन्य जनपद देशमें विहार करते हुवे।। गौतम नामका मुनि चोथ छठ अठमादि तपश्चर्या करता हवा एक दिन भगवान् नेमिनाथको वन्दन नमस्कार कर अर्ज की कि हे भगवान! आपकी आज्ञा हो तो में “मासीक भिखु प्रतिमा" नामका तप करं, भगवानने कहा “जहासुखम्” एवं दो मासीक तीन मासीक यावत् बारहवी एकरात्रीक भिखुप्रतिमा नामका तप गौतममुनिने कीया और भी मुनिकी भावना चढ जानेसे वन्दन नमस्कार कर भगवानसे अर्ज करी कि हे दयालु ! आपकी आज्ञा हो तो में गुणरत्न समत्सर नामका तप करुं। "जहासुखं" जब गौतममुनि गुणरत्न समत्सर तप करना प्रारंभ कीया । पहेले मासमें एकान्तर पारणा, दुसरे मासमें छठ छठ पारणा, तीसरे मासमें अठम अठम पारणा एवं यावत् सोलमे मासमें सोलार उपवासका पारणा एवं सोला मास तक तपश्चर्या कर शरीरको बीलकुल कृष अर्थात् सूका हुषा सर्पका शरीर माफीक हलते चलते समय शरीरकी हडीका अवाज जेसे काष्टके गाडाकी माफीक तथा सूके हुवे पत्तोंकी माफीक शब्द हो रहा था। एक समय गौतम मुनि रात्रीमें धर्मचिंतषन कर रहा था उसी समय विचारा कि अब इस शरीरके पुद्गल बिलकुल कमजोर हो गये हैं हलते चलते बोलते समय मुझे तकलीफ हो रही है तो मृत्युके सामने केसरीया कर मुझे तैयार हो जाना चाहिये अर्थात् अनशन करना ही उचित है। बस, सूर्योदय होते ही १ भिखुकी बारह प्रतिमाका विस्तारपूर्वक विवरण दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रमें है वह देखो शीघ्रबोध भाग चोथा । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 भगवानसे अर्ज करी कि में श्रीशनंजय तीर्थ (पर्वत) पर जाके अनशन करुं । भगवानने कहा “जहासुखम्" बस, गौतममुनि सर्व साधुसाध्वीयोंको खमाके धीरे धीरे शत्रुजय तीर्थ पर स्थिवरोंके साथ जाके आलोचना कर सब बारह वर्षकी दीक्षा पालके अनशन कर दोया. आत्मसमाधिमे एक मासका अनशन पूर्ण कर अन्त समय केवल ज्ञान प्राप्त कर शत्रुओंका जय करनेवाले शत्रु'जय तीर्थ पर अष्ट कर्मोसे मुक्त हो शाश्वता अव्याबाध सुखोंके अन्दर सादि अनन्त भांगे सिद्ध हो गये । इति प्रथम अध्ययन । इसी माफीक शेष नव अध्ययन भी समझना यहां पर नाम मात्र ही लिखते है । समुद्रकुमार १ सागरकुमार २ गंभिरकुमार ३ स्तिमितकुमार ४ अन्वलकुमार ५ कपिलकुमार ६ अक्षोभकुमार ७ प्रश्नकुमार ८ विष्णुकुमार ९ एवं यह दश ही कुमार अन्धक विष्णु राजा और धारणी राणीका पुत्र है। आठ आठ अन्तेवर और राज त्याग कर श्रीनेमिनाथ प्रभु पासे दीक्षा ग्रहण करी थी तपश्चर्या कर एक मासका अनशन कर श्रीशजय तीर्थ पर कर्मशत्रुओंको हटाके अन्तमें केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये थे इति प्रथम वर्ग समाप्तम्। (२) दुसरा वर्ग जिसके आठ अध्ययन है। - अक्षोभकुमर १ सागरकुमर २ समुद्रकुमर ३ हेमवन्तकुमर ४ अचलकुमर ५ पूरणकुमर ६ धरणकुमर ७ और अभिचन्द्रकुमर ८ यह आठ कुमारोंके आठ अध्ययन "गौतम" अध्ययनकी माफीक विष्णु पिता धारणी माता आठ आठ अन्तेवर त्यागके श्रीनेमि. नाथ भगवान समीपे दीक्षा ग्रहण गुणरत्नादि अनेक प्रकारके तप Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर कुल सोला वर्ष दीक्षा पालके अन्तिम श्रीशत्रुजय तीर्थ पर एक मासका अनशन कर अन्तमें केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षमें पधार गये इति द्वितीवर्गके आठ अध्ययन समाप्त। . (३) तीसरा वर्गके तेरह अध्ययन है। (प्रथमाध्ययन) भूमिके भूषणरुप भद्रलपुर नामका नगर था। उस नगरके इशान कोणमे श्रीवन नामका उद्यान था और जयशत्रु नामका राजा राज कर रहा था वर्णन पूर्वकी माफीक समझना। उसी भद्रलपुर नगरके अन्दर नाग नामका गाथापति निवास करता था वह बडाही धनाढ्य और प्रतिष्ठित था जिन्होंके गृहश्रृंगाररुप सुलसा नामकी भार्या थी वह सुकोमल ओर स्वरुपवान थी। पतिकी आज्ञा प्रतिपालक थी। नागगाथापति और सुलसाके अंगसे एक पुत्र जनमा था जिसका नाम " अनययश" दीया था वह पुत्र पांच धातृ जेसे कि (१) दुध पीलानेवाली (२) मजन करानेवाली (३) मंडन काजलकी टीकी वस्त्राभूषण धारण करानेवाली (४) क्रीडा करानेवाली (५) अंक-एक दुसरेके पास लेजानेवाली इन्ही पांचो धातृ मातासे सुखपुर्वक वृद्धि जेसे गिरिकंदरकी लताओं वृद्धिको प्राप्ति होती है एसे आठ वर्ष निर्गमन होने के बाद उसी कुमरको कलाचार्यके वहां विद्याभ्यासके लीये भेजा आठ वर्ष विद्याभ्यास करते हुवे ७२ कलामें प्रवीण हो गये नागगाथापतिने भी कलाचार्यको बहुत द्रव्य दीया जब कुमर १६ वर्षकी अवस्था अर्थात् युवक वय प्राप्त हुवा तब मातापिताने वत्तीस Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इभ सेठोंकी ३२ वर तरुण जोबन लावण्य चातुर्यता युक्त वय सर्व कुमरके सदृश देखके एकही दिनमें ३२ वर कन्याओंके साथ कुमरका पाणिग्रहण ( विवाह ) कर दीया उसी बत्तीस कन्या ओंके पिताओं नागसेठको १४२ वालोंका जेसे कि बत्तीस क्रोड सोनइयाका, बत्तीस कोड रुपइया, बत्तीस हस्ती, बत्तीस अश्व, रथ दाश दासीयों दीपक सेज गोकल आदि बहुतसा द्रव्य दीया नागशेठके बहुओं पगे लागी उसमें वह सर्व द्रव्य वहुओको दे दीया नागशेठने बत्तीस बहुवोंके लीये बत्तीस प्रासाद और बीच में कुमरके लीये बडा मनोहर महेल बना दीया जिन्होंके अन्दर बत्तीस सुरसुन्दरीयोंके साथ मनुष्य सम्बन्धी पंचेन्द्रिय के भोग सुखपुर्वक भोगवने लगे। . बत्तीस प्रकारके नाटक हो रहे थे मर्दगेके शिर फुट रहे थे जिन्होंसे काल जानेकि मालम तक कुमरकों नही पडती थी यह सब पूर्व किये हुवे सुकृतके फल है । पृथ्वी मंडलको पवित्र करते हुवे बावीसमा तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान सपरिवार-भद्रलपुर नगरके श्रीवनोद्यानमें प. धारे । राजा च्यार प्रकारकी सैनासे तथा नगर निवासी बडे ही आडम्बरके साथ भगवानकों वन्दन करनेको जा रहे थे । उस समय अनवयशकुमर देखके गौतमकुमर कि माफीक भगवानको वन्दन करनेकों गया भगवान की देशना सुन बतीस अन्तेवर और धनधान्य को त्यागके प्रभु पासे दीक्षा ग्रहण करके सामायिकादि चादे पूर्व ज्ञानाभ्यास कीया। बहुत प्रकारकि तपधर्या कर सर्व वीस वर्ष कि दीक्षापालनकर अन्तमें श्री शत्रुजय तीर्थपर एक मासका अनसनकर अन्तिम केवलज्ञान प्राप्त कर शास्वते सिद्धपदको वरलीया इति प्रथमाध्ययन। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० इसी माफीक अनंतसेन ( १ ) अनाहितसेन (२) अजितसेन (३) देवयश (४) शत्रुसेन (५) यह छेवों नागसेठ सुलसा शेठाणी के पुत्र है बत्तीस बत्तीस रंभावोंको त्याग नेमिनाथ प्रभु पासे दीक्षा ले चौदा पूर्व अध्ययनकर सर्व वीस वर्ष दीक्षा व्रत पाल अन्तिम सिद्धाचलपर एकेक मासका अनसनकर चरम समय केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष गया इति छे अध्ययन | सातवा अध्ययन - द्वारका नगरी में वसुदेव राजा के धारणी राणी सिंह स्वप्न सूचित-सारण नामका कुमरका जन्म पूर्ववत् ७२ कलाप्रविण ५० राजकन्यावका पाणीग्रहण पचास पचास बोलका दत्त भोगविलासमें मग्न था। नेमिनाथप्रभु कि देशना सुण दीक्षा ले चौदा पूर्वका ज्ञान । वीस वर्ष दीक्षापाल के अन्तिम श्री सिद्धाचलजी पर एक मासका अनसन अन्तमें केवलज्ञान प्राप्तीकर मोक्ष गये । इति सप्रमाध्ययन समाप्त | आठवाध्ययन - द्वारका नगरीके नन्दनवनोद्यानमें श्री नेमिनाथ भगवान समोसरते हुवे । उस समय भगवान्के छे मुनि सगे भाइ सदृशत्वचा वय वडेही रूपवन्त नलकुबेर (वैश्रमणदेव ) सदृश जिस समय भगवान पासे दीक्षा ली थी उसी दिन अभिग्रह किया था कि यावत्जीव छठ तप- पारणा करना । जब उन्ही छवों मुनियोंके छठका पारणा आया तब भगवानकि आज्ञा ले दो दो साधुओंके तीन संघाडे हो के द्वारका नगरीका सहस्र वनोद्यानसे निकल द्वारका नगरीमें समुदाणी भिक्षा करते हुवे प्रथम दो साधुवोंका सिघाडा वसुदेव राजा कि देवकी नाम कि राणीका मकानपर आये । मुनियोंकों आते हुवे देख के देवकी राणी अपने आसन से उठके सात आठ पग सामने गद्द और भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार कर जहाँ भात-पा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णीका घर था वहां मुनिको ले गइ वहां पर सिंह केसरिया मोदक उज्वल भावनासे दान दीया बादमें सत्कारपूर्वक विदा कर दीये । इतने में दुसरे सिंघाडे मि समुदाणी भिक्षा करते हुवे देवकीराणीके मकान पर आ पहुंचे उन्होंको भी पूर्वके माफीक उज्वल भावनासे सिंह केसरिये मोदकका दान दे विसर्जन किया। इतनेमें तीसरे सिंघाडेवाले मुनि भि समुदाणी भिक्षा करते देव. कीराणीके मकानपर आ पहुंचे। देवकीराणीने पुर्वकी माफीक उज्वल भावनासे सिंह केसरिये मोदकोंका दान दीया। मुनिवर जाने लगे। उस समय देवकीराणी नम्रतापूर्वक मुनियोंसे अर्ज करने लगी कि हे स्वामिनाथ! यह कृष्ण वसुदेवकी द्वारकानगरी जो बारह योजनकि लम्बी नव योजनकि चोडी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक सदृश जिन्होंके अन्दर बडे बडे लोक निवास करते है परन्तु आश्चर्य यह है कि क्या श्रमण निग्रन्थोंको अटन करने पर भि भिक्षा नहीं मिलती है कि वह बार बार एक ही कुल (घर) के अन्दर भिक्षाके लिये प्रवेश करते है ?* मुनियोंने उत्तर दिया कि हे देवकीराणी. एसा नहीं है कि द्वारकानगरीमें साधुवोंको आहारपाणी न मीले परन्तु हे श्राविका तुं ध्यान दे के सुन भद्रलपुर नगरका नागशेठ और सुलसाभार्याके हम छ पुत्र थे हमारे माता-पिताने हम छेवों भाइयांको बत्तीस बत्तीस इभ शेठोंकि पुत्रीयों हमकों परणाइथी दानके अन्दर १९२ बोलोंमे अगणित द्रव्य आया था हम लोग संसारके सुखोमें इतने तो मस्त बन गयेथे कि जो काल जाता था उन्होंका हमलोगोंको ख्याल भी नहीं था। एक समय जादवकुल श्रृंगार बावीसमा तिर्थकर नेमिनाथ * मुनियोंने स्वप्रज्ञास जान लिया कि हमारे दोय सिंघाडे भी पेहला यहांसे ही आहार-पाणी ले गये होंगे वास्ते ही देवकीराणीने यह प्रश्न कीया हैं तो अब इन्होंकी शंकाका पूर्ण ही समाधान करना चाहीये। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान वहांपर पधारे थे उन्हों कि देशना सुन हम छेवों भाइ संसारके सुखोंकों दुःखोंकि खान समझके भगवानके पासमें दीक्षा ले अभिग्रह कर लिया कि यावत् जीव छठ छठ पारणा करना। हे देवकी! आज हम छवों मुनिराज छठके पारणे भगवानकि आज्ञा ले द्वारका नगरीके अन्दर समुदाणी भिक्षा करने को आये थे हे बाइ! जो पेहले दोय सिंघाडे जो तुमारे वहां आगये थे वह अलग है और हम अलग है अर्थात् हम दोय तीनवार तुमारे घर नहीं आये है। हम एक ही वार आये है एसा कहके मुनि तो वहांसे चलके उद्यान में आ गये। बाद में देवकीराणीकों एसे अध्यवसाय उत्पन्न हुवे कि पोलासपुर नगरमें अमंता नामके अनगारने मुझे कहा था कि हे देवकी! तुं आठ पुत्रोंकों जनम देगी वह पुत्र अच्छे सुन्दर स्वरूपवाले जेसे कि नल-कुबेर देवता सदृश होगा, दुसरी कोइ माता इस भरतक्षेत्रमें नहीं है । जोकि तेरे जैसे स्वरूपवान पुत्रको प्राप्त करे । यह मुनिका वचन आज मिथ्या ( असत्य) मालुम होता है क्यों :कि यह मेरे खन्मुख ही ६ पुत्र देखने में आते है कि जो अभी मुनि आये थे । और मेरे तो एक श्रीकृष्ण ही है देवकीने यह भी बिचार कीया कि मुनियोंके वचन भी तो असत्य नहीं होते है । देवकी राणीने अपनी शंका निवृत्तन करनेकी भगवान नेमिनाथजीके पास जानेका इरादा कीया। तब आज्ञाकारी पुरुषोंकों बुलवायके आज्ञा करी कि चार अश्ववाला धार्मीक रथ मेरे लीये तैयार करो। आप स्नान मन्जन कर दासीयों नोकर नाकरोंके वृन्दसे बडेही आडम्बरके साथ भगवानको वन्दन करनेको गइ विधिपुर्वक वन्दन करनेके बादमें भगवान फरमाते हुवे कि हे देवकी ! तुं छे मुनियोंको देखके Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमन्ता मुनिके वचनमें असत्यकी शंका कर मेरे पास पुछनेको आइ है। क्या यह बात सत्य है ? हाँ भगवान यह बात सत्य है में आपसे पुछनेको ही आइ हुँ । भगवान नेमिनाथ फरमाते है कि हे देवकी ! तुं ध्यान देके सुन | इसी भरतक्षेत्रमें भद्दलपुर नगरके अन्दर नागसेठ और सु. लसा भार्या निवास करते थे । सुलसाको बालपणे में एक निमतीयेने कहा था कि तुं मृत्यु बालकको जनम देवेगी उस दिनसे सुलसाने हिरणगमेसी देवकी एक मूर्ति बनाके प्रतिदिन पुजा कर पुष्प चडाके भक्ति करने लगी। एसा नियम कर लीया कि देव की पुजा भक्ति विना किये आहारनिहार आदि कुछ भी कार्य नही करना । एसी भक्तिसे देवकी आराधना करी। हिरणगमेसी देव सुलसाकी अति भक्तिसे संतुष्ट हुवा । हे देवकी ! तुमारे और सुलसाके साथही में गर्भ रहता था और साथही में पुत्रका जन्म होता था उसी समय हिरणगमेषी देव सुलसाके मृत बालक तेरे पास रखके तेरा जीता हुवा बालकको सुलसाको सुप्रत कर देता था । वास्ते दरअसल वह छवों पुत्र सुलसाका नही किन्तु तुमारा ही है। एसे भगवानके वचन सुन देयकीको बडे ही हर्ष संतोष हुवा भगवानको वन्दन नमस्काह कर जहाँ पर छे मुनि था वहां पर आई उन्होंको वन्दन नमस्कार कर एक दृष्टि से देखने लगी इतनेमें अपना स्नेह इतना तो उत्सुक हो गया कि देवकीके स्तनोमे दुध वर्षने लगा और शरीरके रोम रोम वृद्धिको प्राप्त हो देह रोमांचित हो गइ । देवकी मुनिओंको वन्दन नमस्कार कर भगवानके पास आके भगवानको प्रदक्षिणापुर्वक वन्दन करके अपने रथ पर बेठके निज आवास पर आगह । देवकीराणी अपनि शय्याके अन्दर बेठीथी उन्ही समय Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसा अध्यवसाय उत्पन्न हुवाकि में नलकुबेर सदृश सातपुत्रोंकों जन्म दीया परन्तु एक भी पुत्रको मेरे स्तनोंका दुध नही पीलाया लाडकोड नही कीया रमत नही रमाया खोलेमे-गोदमें नही हुलराया बच्चोंकि मधुर भाषा नही सुनी इत्यादि मेने कुच्छभी नही कीया, धन्यहे जगतमें वह माताकि जो अपने बालकोंको रमाते है खेलाते है यावत् मनुष्यभवकों सफल करते है। मैं जगतमें अधन्या अपुन्या अभागी हु कि सात पुत्रों में एक श्रीकृष्णको देखती ह सो भी छे छे माससे पगवन्दन मुजरा करनेको आता है। इसी बात कि चिंतामे माता बैठीथी। - इसनेमें श्री कृष्ण आया और माताजी के चरणों में अपना शिर जुकाके नमस्कार किया; परन्तु देवकितो चिंताग्रस्तथी। उन्होंकों मालमही क्यों पडे । तब श्री कृष्ण बोलाकि हे माताजी अन्यदिनोंमें मैं आताहुं तब आप मुझे आशिर्वाद देते हैं मेरे शिरपर हाथ धरके बात पुछते हो ओर आज में आया जिस्की आपको मालमही नहीं है इसका क्या कारण है ? देवकी माता बोली कि हे षुत्र ! भगवान नेमिनाथद्वारा मालुम हुइ है कि मैं सात पुत्र रत्नको जनम दिया है जिस्में तुं एकही दीखाई देताहै । छ पुत्रतो सुलसाके वहां वृद्धिहोके दीक्षा ले लि| तुं भी छे छे माससे दीखाइ देता है वास्ते धन्य है वह माताओंको कि अपने पुत्रोंको बालवयमे लाड करे. . श्रीकृष्ण बोलाकि हे माताजी आप चिंता न करो। मेरे छोटाभाइहोगा एसा मे प्रयत्न करूगा अर्थात् मेरे छोटाभाइ अवश्य होगा उसे आप खेलाइये ( एसे मधुर वचनोंसे माताजीकों संतोष देके श्री कृष्ण वहांसे चलके पौषदशालामे गया हरण गमेषी देवकों अष्टम कर स्मरण करने लगा। हरणगमेषी देव आयके बोला हे Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीखंडभोक्ता! आपके लघु बन्धव होगा परन्तु बलभावसे मुक्त होके श्री नेमिनाथ भगवानके पास दीक्षा लेगा। दोय तीनवार एसा कहके देव नीज स्थान चला गया। श्री कृष्ण पौषद पार माताजी पास आके कह दीया कि मेरे लघु बन्धध होगा तदनंतर श्रीकृष्ण अपने स्थान पर चले गये। - देवकी राणीने एक समय अपने सुखसेजाके अन्दर सुती हुए सिंहका स्वप्ना देखा । तदनुसार नव मास प्रतिपूर्ण साडा सात रात्री वीत जाने पर गजके तालव, लाखकेरस, उदय होता सूर्य के माफीक पुत्रको जन्म दीया. सर्व कार्य पूर्ववत् कर कुमरका नाम “गजसुकुमाल" दे दीया। देवकी राणीने अपने मनके मनोरथोंको अच्छी तरह पूर्ण कर लीया । गजसुकुमाल ७२ कलामें प्रवीण हो गया, युवक अवस्था भी प्राप्त हो गइ।... . द्वारका नगरी में सोमल नामका ब्राह्मण जिसको सोमश्री नामको भाके अंगसे सोमा नामकी पुत्री उत्पन्न हुइ थी वह सोमा युवावस्थाको धारण करती हुइ उत्कृष्ट रुप जोबन लावण्य चतुरता को अपने आधिन कर रखा था. एक समय सोमा स्नानमन्जन कर वबाभूषण धारण कर बहुतसे दातीयोंके साथ राजमार्गमे कीडा कर रही थी। द्वारका उद्यानमें श्रीनेमिनाथ भगवान पधारे। खबर होने पर नगरलोक वन्दनको जाने लगे। श्रीकृष्ण भी बडे ठाठसे हस्ती पर आरूढ हो गजसुकुमालको अपने गोदके अन्दर बेठाके भगवान को वन्दन करने को जा रहा था। रस्तेमें सोमा खेल रही थी उन्हीका रूप जोबन लावण्य देख विस्मय हो श्री कृष्णने नोकरोंसे पुछा कि यह कीसकी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लडकी हैं ? आदमी बोले कि यह सोमल ब्राह्मणकी लडकी हैं कृष्णने कहा कि जावो इसको कुमारे अन्तेवरमें रख दो गजेसुकुमालके साथ इसका लग्न कर दीया जावेगा। आज्ञाकारी पुरुषोंने सोमाके बापकी रजा ले सोमाको कुमारे अन्तेवरमें रख दी। कृष्णवासुदेव गजसुकुमालादि भगवान समीप वन्दन नमस्कार कर योग्य स्थान पर बेठ गये। भगवानने धर्मदेशना दी. है भव्य जीवों! यह संसार असार है जीव राग द्वेष के बीज बोके फीर नरक निगोदादीके दुःखरुपी फलोंका आस्वादन करते हैं “खीणमत्त सुखा बहुकाल दुःखा" क्षणमात्रके सुखोंके लीये दीर्घकालके दुःखोंको खरीद कर रहे है। जो जीव बाल्यावस्था में धर्मकार्य साधन करते है वह रत्नोंके माफीक लाभ उठाते है जोजीव युवावस्थामें धर्मकार्य साधन करते है वह सुवर्णकी माफीक और जो वृद्धावस्था में धर्म करते है वह रुपेकी माफीक लाभ उठाते है। परन्तु जो उम्मरभरमें धर्म नहीं करते है वह दालीद्र लेके परभव नाते है वह परम दुःखको भोगवते है। वास्ते हे भव्य ! यथाशक्ति आत्मकल्याणमे प्रयत्न करो इत्यादि देशना श्रवण कर यथाशक्ति त्याग-प्रत्याख्यान कर परिषदा स्वस्थान गमन करती हुइ । गजसुकुमाल भगवानकी देशना सुन परम वैराग्यको धारण करता हुवा बोला कि हे भगवान् ! आपका फरमाया सत्य है मैं मेरे मातपिताओंसे पुछके आपके पास दीक्षा लेउंगा ? भगवानने कहा "जहासुखम्" गजसुकुमाल भगवानको वन्दन कर अपने घरपर आया मातासे आज्ञा मांगी यह बात श्रीकृष्णको मालुम हुइ कृष्णने कहा हे लघु बान्धव! तुम दीक्षा मत लो राज करो। गजसुकुमाल बोला कि यह राज, धन, संप्रदा सभी कारमी है और में अक्षय सुख चाहता हुं अनुकूल प्रतिकूल बहुतसे प्रभ हुवे परन्तु जिसको आन्तरीक वैराग्य हो उसको कोन मीटा सकते Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । आखीरमें श्री कृष्ण तथा देवकी माताने कहा कि है लालजी अगर तुमारा एसाही इरादा हो तो तुम एक दिनका राज्यलक्ष्मी को स्वीकार कर हमारा मनोरथको पुरण करो। गजसुकुमालने मौन रखी । बडे ही आडम्बरसे राज्याभिषेक करके श्रीकृष्ण बोला कि. हे भ्रात आपक्या इच्छते है ? आदेश दो गजसुकमालने कहा कि लक्ष्मीके भंडारसे तीन लक्ष सोनइया नीकालके दोलक्षके रजीहरण पात्रे और एक लक्ष हजमको दे दीक्षायोग हजाम करायो । कृष्ण नरेश्वरने महाबलकी माफीक बड़ा भारी महोत्सव करावं नेमिनाथजीके पास गजसुकुमालको दीक्षा दिरा दी। गजसुखमाल मुनि इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्य पालन करने लगा । उसी दिन गजसुकुमाल मुनि भगवानको वन्दन कर बोला कि हे सर्वज्ञः आपकी आज्ञा हो तो में महाकाल नामके स्मशानमें जाके ध्यान करुं। भगवानने कहा “जहासुखं" भगवानको वन्दन कर स्मशानमें जाके भूमिका प्रतिलेखन कर शरीरको किंचित् नमार्क साधुकी बारहवी प्रतिमा धारण कर ध्यान करने लग गया । इधर सोमल नामका ब्राह्मण जो गजसुकुमालजीके सुसग था वह विवाहके लिये समाधिके काष्टतृण दुर्वादि लानेको नगरी बाहार पेहला गया था सर्व सामग्री लेके पीछा आ रहाथा वह महाकाल स्मशानके पाससे जाता हुवा गजसुकुमाल मुनिकों देखा ( उस बखत श्याम (संजा) काल हो रहाथा) देखते ही पूर्व भवका वैर स्मरणमें होते ही क्रोधातुर हो बोला कि भो गजसुकुमाल! हीणपुन्या अंधारी चवदसके जन्मा हुवा आज तेरा मृत्यु आया है कि मेरी पुत्री सोमाकों विनोही दुषण त्यागन कर तुं शिरको मुंडाके यहां ध्यान किरता है एसा वचन बोलके दिशा. चलोकन कर सरस मट्टी लाके मुनिके शिरपर पाल बाधी मानोके Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसराजी शिरपर एक नवीन पेचाही बंधा रहा है। फीर स्मशानमे खेर नामका काष्ट जल रहाथा उन्हीका अंगार लाके वह अग्नि गजसुकुमालके शिरपर धर आप वहांसे चला गया । गजमुकमालमुनिको अत्यन्त वेदना होनेपरभी सोमल ब्राह्मण पर लगारभी द्वेष नही कीया । यह सब अपने किये हुवे कमेकाही फल समझके आनन्दके साथ करजाको चुका रहाथा । एसा शुभा ध्यवसाय, उज्वल परिणाम, विशुद्ध लेश्या, होनेसे च्यार घातीयां कर्माका क्षयकर केवलज्ञान प्राप्ती कर अन्तगढ केवली हो अनन्ते अव्यावाध शास्वत सुखोंमे जाय विराजमान होगये अर्थात गजसुकुमालमुनि दीक्षा ले एकही रात्रीमें मोक्ष पधार गये। नजीकमें रेहनेवाले देवतावाने वडाही महोत्सव कीया पंचवर्णके पुष्पों आदि ५ द्रव्यकि वर्षा करी और वह गीत-गान करने लगे। इधर सूर्योदय होतेही श्रीकृष्ण गज असवारीकर छत्र धरावाते चमर उढते हुवे बहुतसे मनुष्योंके परिवारसे भगवानको वंदन करनेको जा रहाथा। रहस्तेम एक वृद्ध पुरुष बडी तकलीफके साथ एकेक ईठ रहस्तेसे उठाके निज घरमें रखते हुवेकों देखा। कृष्णको उन्ही पुरुषकी अनुकम्पा आइ आप हस्तीपर रहा हुवा 'एक ईट लेके उन्ही वृद्ध पुरुषके घरमें रखदी एसा देखके सर्व लोकोंने एकेक ईट लेके घरमें रखनेसे वह सर्व ईटोंकी रासी एकही साथमें घरमें रखी गई फीर श्री कृष्ण भगवानके पासे जाके वन्दन नमस्कार कर इधर उधर देखते गजसुकुमालमुनि देखनेमे नही आया तब भगवानसे पुच्छा कि हे भगवान मेरा छोटाभाइ गजसुकुमाल मुनि कहां है मे उन्होंसे वन्दन करू ? भगवानने कहाकि हे कृष्ण! गजसुखमालने अपना कार्य सिद्ध कर लिया। कृष्ण कहाकि केसे । भगवान ने कहाकि गज Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकुमाल दीक्षा ले महाकाल स्मशानमे ध्यान धरा वहां एक पुरुष उन्ही मुनिकों सहायता अर्थात् शिरपर अग्नि रख देणेसे मोक्ष गया. कृष्ण बोलाकि हे भगवान उन्ही पुरुषने केसे सहायता दी। भगवानने कहाकि हे कृष्ण! जेसे तु मेरे प्रति बन्दनकों आ राहा था रहस्तेमे वृद्ध पुरुषको साहिता दे के सुखी कर दीया था इसी माफीक गजसुखमालकों भी सुखी कर दीया है। हे भगवान् एसा कोन पुन्यहीन कालीचौदसका जन्मा हुत्रा है कि मेरा लघु बांधवकों अकाल मृत्युधर्म प्राप्त करा दीया अब में उन्ही पुरुषको केसे जान सकु । भगवानने कहा हे कृष्ण तुं द्वारामतीमें प्रवेश करेगा उस समय वह पुरुष तेरे सामने आते ही भयभ्रांत होके धरतीपर पडके मृत्यु पामेगा उसको तुं समजना कि यह गजसुखमालमुनिकों साज देनेवाला है। भगवानकों वन्दनकर कृष्ण हस्तीपर आरूढ हो नगरीमें जाते समय भाइकी चिंताक मारे राजरहस्तेको छोडके दुसरे रहस्ते जा रहाथा । इधर मोमल ब्राह्मणने विचारा कि श्रीकृष्ण भगवानके पास गये है और भगवान तो सर्व जाणे हे मेरा नाम बतानेपर नजाने श्री कृष्ण मुजे कीस कुमौत मारेगा तोमुझे यहांले भाग जाना ठीक है यहभी राजरहस्ता छोडके उन्ही रहस्ते आया कि जहांसे श्रीकृष्ण जा रहाथा । श्री कृष्णको देखते ही भयभ्रांत हो धरतीपर पडके मृत्यु धर्मके शरण हो गया श्री कृष्णने जानलियाकि यह दुष्ट मेरे भाइको अकाल मृत्युका साहाज दीया है फीर श्रीकृष्णने उन्ही सोमलके शरीरकी बहुत दुर्दशा कर अपने स्थानपर गमन करता · हुधा । इति तीजा वर्गका अष्टमा गजसुकुमालमुनिका अध्ययन समाप्तम्। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० नवमाध्ययन- द्वारका नगरी बलदेवराजा धारणी राणीके सिंह स्वप्न । सूचित सुमुह नामका कुमरका जन्म हुवा कलाप्रविण पचास राजकन्याओं के साथ कुमारका लग्न कर दीया दतदायजो पूर्व गौतम माफीक यावत् भोगविलासोंमे मग्न हो रहाथा। श्री नेमिनाथ भगवानका आगमन । धर्म देशना श्रवण कर सुमुह कुमार संसार त्याग दीक्षाव्रत ग्रहन कीया चौदा पूर्व ज्ञान बीस वरस दीक्षा व्रत एक मासका अनसन श्री शत्रुंजय तीर्थपर अन्तिम केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गया । इसी माफीक दशवा ध्ययनमें दुमुहकुमार इग्यारवा ध्ययनमें कोवीदकुमार यह तीनो भाइ बलदेवराजा धारणी राणीके पुत्र दीक्षा लेके चौदाह पूर्व ज्ञान ate वर्ष दीक्षा एक मास अनसन शत्रुंजय अन्तगढ केवली हो मोक्ष गये । और बारहवा दारुणकुमार तेरवा अनाधीठकुमार यह वासुदेवराजा धारणीराणीके पुत्र पचास अन्तेवर त्याग दीक्षा ले सुमुहकि माफीक श्री सिद्धाचल तीर्थपर अन्तगढ केवली हो मोक्ष गया । इति तीजा वर्गके तेरवां अध्ययन तीजा वर्ग समाप्तम् । 2000 (४) चोथा वर्गका दश अध्ययन | द्वारामती नगरी पूर्ववत् वर्णन करने योग्य है। द्वारामतीमें वसुदेवराजा धारणी राणी सिंह स्वप्न सूचित जाली नामका कुमारका जन्म हुवा मोहत्सव पूर्ववत् कलाचार्य से ७२ कलाभ्यास जोबन वय ५० अन्तेवरसे लग्न दतदायजो पूर्ववत् । श्री नेमिनाथ भगवानकी देशनासुन दीक्षा लोनी द्वादशांगका ज्ञान साला वर्ष दीक्षापाली शत्रुंजय तीर्थपर एक मासका अनसन अन्तिम केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष गया इति । इसी माफीक Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) मयालीकुमर (३) उवपायालीकुमर (१) पुरुषसेन (५) वारिसेन यह पांचो वासुदेव धारणीसुत (६) प्रजुनकुमार परन्तु कृष्णराजा रूक्मिणी सुत (७) सम्बुकुमार परन्तु कृष्णराजा जंबुवन्ती राणीका पुत्र (८) अनिरुद्धकुमर परन्तु प्रजुन पिता वेदरवी माता (९) सत्यनेमि (१०) द्रढनेमि परन्तु समुद्रविजय राजा सेवादेवीके पुत्र है । यह दशों राजकुमार पचास पचास अन्तेवर त्याग बावीशमा तीर्थंकर पासे दीक्षा द्वादशांगका ज्ञान सोले वर्ष दीक्षा शव॑जय तीर्थ पर एक मासका अनशन अन्तिम केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये इति चोथो वर्ग दश अध्ययन समाप्त। (५) पांचमा वर्गके दश अध्ययन. - द्वारिका नगरी कृष्णवासुदेव राजा राज कर रहा था यावत् पुर्षकी माफक समझना । कृष्ण राजाके पनावती नामकी अग्र महिषी राणी थी । स्वरुप सुन्दराकार यावत् भोगविलास करती आनन्दमे रहेती थी। श्रीनेमिनाथ भगवानका आगमन हुवा कृष्णादि बडे ही ठाठ से वन्दन करनेको गये पद्मावती राणी भी गइ । भगवानने धर्मदेशना फरमाइ । परिषदा श्रवण कर यथाशक्ति त्याग वैराग कर स्वस्वस्थाने गमन कीया, कृष्ण नरेश्वर भगवानको वन्दन नमस्कार कर अर्जकरी कि हे भगवान सर्व वस्तु नाशवान है तो यह प्रत्यक्ष देवलोक सहश द्वारिका नगरीका विनाश मूल कीस कारण से होगा? भगवानने फरमाया हे धराधिप द्वारिका नगरीका विनाश Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदिरा प्रसंग द्विपायमके कारण अनिके योगसे द्वारिका नष्ट होगा। . यह सुनके वासुदेवने बहुत पश्चाताप किया और विचारा कि धन्य है जालीमयाली यावत् दृढ नेमिको जो कि राज धन अन्तेवर त्यागके दीक्षा ग्रहण करी । में जगतमें अधन्य अपुन्य अभाग्य जो कि राज अन्तेवरादि कामभोगमें गृहीत हो रहा है ताके भगवान के पास दीक्षा लेने में असमर्थ हुँ । कृष्णके मन की बातोंको ज्ञानसे जानके भगवान बोले कि क्युं कृष्ण तेरा दोलमें यह विचार हो रहा है कि में अधन्य अपुन्य हुं यावत् आर्तध्यान करता है क्या यह बात सत्य है? कृष्णने कहा हाँ भगवान सत्य है । भगवानने कहा हे कृष्ण ! यह बात न हुइन होगा कि वासुदेव दीक्षा ले। कारण सब वासुदेव पुर्व भव निदान करते है उस निदानके फल है कि दीक्षा नहीं ले सके। कृष्णने प्रश्न किया कि हे भगवान! में जोआरंभ परिग्रह राज अन्तवरमें मुर्छित हुवा हुं तो अब फरमाइये मेरी क्या गति होगी? ___ भगवानने उत्तर दीया कि हे कृष्ण यह द्वारिका नगरी मदिरा अग्नि और द्विपायणके योगसे विनाश होगी, उसी समय मातपिताको निकालनेके प्रयोगसे कृष्ण और बलभद्र द्वारिकासे दक्षिणकी वेली सन्मुख युधिष्ठिर आदि पांच पांडवों की पंडु मथुरा होके कसुंबी वनमें वड वृक्षके नीचे पृथ्वीशीला पटके उपर पीत वस्त्रसे शरीरको आच्छादित कर सुवेगा, उस समय जराकुमार तीक्ष्ण बाण वाम पांवमें मारनेसे काल कर तीसरी वालुकाप्रभा पृथ्वीमें जाय उत्पन्न होगा। यह बात सुन कृष्णको बडा ही रंज हुषा कारण में एसी Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहिबीकाधाणी आखीर उसी स्थानमें जाउंगा। एसा आर्तध्यान कर रहा था। एसा आर्तध्यान करता हुवा कृष्णको देखके भगवान बोल कि हे कृष्ण तुं आर्तध्यान मत कर तुम त्रीजी पृथ्वीमें उज्वल बेदना सहन कर अन्तर रहीत वहांसे नीकलके इसी जम्बुद्वीपक भरतक्षेत्रकी आवती उत्सर्पिणीमें पुंड नामका जिनपद देशमै सत्यद्वारा नगरीमें 'बारहवा अमाम नामका तीर्थकर होगा। वहां बहुत काल केवलपर्याय पाल मोक्षमें जावेगा। कृष्ण नरेश्वर भगवानका यह वचन श्रवण कर अत्यंत हर्ष। संतोषको प्राप्त हो खुशीका सिंहनाद कर हाथलसे गर्जना करता हुवा विचार करा कि में आवती उत्सर्पिणीमें तीर्थंकर होउंगा तो बीचारी नरकवेदना कोनसी गीनतीमें है। सहर्ष भगवन्तको वन्दन नमस्कार कर अपने हस्ती पर आरूढ हो वहां से चलके अपने स्थान पर आया सिंहासन पर विराजमान हो आज्ञाकारी पुरुषोंको बुलवाके आदेश कीया कि तुम जावे । मारिका नगरीका दोय तीन चार तथा बहुतसा रस्ता एकत्र मीले यहां पर उदघोषणा करो कि यह द्वारिका नगरी प्रत्यक्ष देवलोक सरखी है वह मदिरा अग्नि और द्विपायन के प्रयोगसे विनाश होगा वास्ते जो राजा युमराजा शेठ इभशेठ सेनापति सावत्यवहा आदि तथा मेरी राणीयों कुमार कुमारीयों अगर भगवान नेमिनाथजी पासे दीक्षा ले उन्होंको कृष्ण महाराजकी आज्ञा है अगर कीसीको कोइ प्रकारकी सहायताकी अपेक्षा हो तो कृष्ण महाराज करेगा पीछेले कुटुम्बका संरक्षण करना हो तो १ वसुदेव हंडादि ग्रन्थों में कृष्णका ३ भव तथा ५ भव भी लीखा है परन्तु यहां तो अन्तरा रहीत नीकलके तीर्थकर होना लिखा है। नत्वंकेवलीगम्य । . • Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ . कृष्ण महाराज करेगा दीक्षाका महोत्सव भी बडा आडम्बर से कृष्ण महाराज करेगा । द्वारका विनाश होगी वास्ते दीक्षा जल्दी लो । पसी पुकार कर मेरी आज्ञा मुझे सुप्रत करो । आज्ञाकारी कृष्ण महाराजका हुकमको सविनय शिर चढाके द्वारकामें उदूकर आज्ञा सुप्रत कर दी। इधर पद्मावती राणी भगवानकी देशना सुन हर्ष - संतोष हो बोली कि हे भगवान्! आपका वचनमें मुझे श्रद्धा प्रतित आइ श्रीकृष्णको पुछके में आपके पास दीक्षा द्रडंगा | भगवानने कहा " जहासुखं. "" पद्मावती भगवानको वन्दन कर अपने स्थानपर आइ, अपने पति श्रीकृष्णको पुछा कि आपकी आज्ञा हो तो में भगवानकी पास दीक्षा ग्रहन करूं "जहासुखं" कृष्णमहाराजने पद्मावती राणी का दीक्षाका बडा भारी महोत्सव किया। हजार पुरुषसे उठाने योग्य सेबीकामें बैठाके बडा वरघोडाके साथ भगवान्के पास जाके वन्दन कर श्रीकृष्ण बोलता हुवा कि हे भगवान् ! यह पद्मावती राणी मेरे बहुतही इष्ट यावत् परमवल्लभा थी, परन्तु आपकी देशना सुन दीक्षा लेना चाहती है। हे भगवान् ! में यह शिष्यणीरूपी भिक्षा देता हूं आप स्वीकार करावे । पद्मावती राणी वस्त्राभूषण उतार, शिरलोच कर भगवानके पास आके बोली हे भगवान् ! इस संसारके अन्दर अलीता-पलीता लग रहा है आप मुझे दीक्षा दे मेरा कल्यान करे। तब भगवानने स्वयं पद्मावती राणीको दीक्षा दे यक्षणाजी साध्विकी शिष्याणी बनाके सुप्रत कर दी फीर यक्षणाजीने पद्मावतीको दीक्षा- शिक्षा दी । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मावती साध्वि इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्य पालती क्षणाजी के पास एकादशांग सूत्राभ्यास किया, फीर चोथ छठ अठमादि विस्तरण प्रकारसे तपस्या कर पूर्ण वीश वर्ष दीक्षा पाल एक मासका अनशन कर, अन्तिम केवलज्ञान प्राप्त कर, अपना आत्मा कार्यको सिद्ध कर मोक्षमें विराजमान हो गइ । इति प्रथमाध्ययन समाप्तं । इसी माफीक ( २ ) गोरीराणी, (३) गंधारीराणी, (४) लक्षमणा, (५) सुसीमा, (६) जांबवती, (७) सत्यभामा (८) रूखमणी. यह आठों कृष्णमहाराजकी अग्रमहिषी पट्टराणीयो परमवल्लभ थी । वह नेमिनाथ भगवानके पास दीक्षा ले केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षमें गई । ( ९ ) मूलश्री, (१०) मूलदत्ता, यह दोय जांबवतीका पुत्र सांबुकुमारकी राणीयां थी । कृष्णमहाराज दीक्षामहोत्सव कर परमेश्वर के पास दीक्षा दीराइ । पद्माaarat माफी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । इति पंचमवर्गके दशाध्ययन समाप्तं । पंचमवर्ग समाप्तं । 1 (६) छट्टा वर्गके सोलाध्ययन. प्रथम अध्ययन - राजगृह नगरके बहार गुणशीला नामका उधान था वहां पर राजा श्रेणिक न्यायसंपन्न अनेक राजगुणोंसे संयुक्त था जिन्होंके चलणा नामकी पटराणी थी । राजतंत्र चलानेमें बडा ही कुशल, शाम, दाम, भेद, दंडके ज्ञाता और बुद्धिनिधान एसा अभयकुमार नामका मंत्री था। उसी नगर में बडा ही धनान्य और लोगोमें प्रतिष्ठित एसा माकार नामका गाथा -पति निवास करता था । उसी समय भगवान वीरप्रभु राजगृह नगरके गुणशील Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यके अन्दर पधारे, राजा श्रेणिक, चेलणा राणी और नगरजन भगवानको वन्दन करनेको गये, यह बात माकाइ गाथापति श्रवण कर वह भी भगवानको वन्दन करनेको गये । भगवानने उस आइ हुइ परिषदाको अमृतमय धर्मदेशना दी । श्रोतागण सुधारस पान कर यथाशक्ति त्याग-वैराग धारण कर स्वस्थान गमन किया। माकाइ गाथापति देशना सुन संसारको असार जान कर अपने जेष्टपुत्रको कुटुम्बभार सुप्रत कर भगवानके पास दीक्षा ग्रहन करी। माकाइमुनि इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्यको पालन करता हुवा तथारूपके स्थिवर भगवन्तोंकी भक्ति विनय कर एकादशांगका ज्ञानाभ्यास किया। बादमें बहुतसी तपश्चर्या करते हुवे महामुनि गुणरत्न संवत्सर तप कर अपने शरीरको जर्जरित बना दीया। सर्व मोला वर्ष दीक्षा पालके अन्तिम विपुल (व्यवहारगिरि) गिरि पर्वतके उपर एक मासका अनशन कर केवलज्ञान प्राप्त कर शाश्वत सुखको प्राप्त हुवे । इति प्रथम अध्ययन । इसी माफीक किंकम नामका गाथापति भगवान समीपे दीक्षा ले व्यवहारगिरि तीर्थपर मोक्षप्रामि करी । इति दुसरा अध्ययन समाप्तं । तीसरा अध्ययन-राजगृह नगर, गुणशीला उद्यान, श्रेणिक राजा, चेलणा राणी वर्णन करने योग्य जेसे पूर्व कर आये थे। उसी राजगृह नगरके अन्दर अर्जुन नामका माली रहता था जिन्होंके बन्धुमती नामकी भार्या अच्छे स्वरूपवन्ती थी। उसी नगरके बहार अर्जुन मालीका एक पुष्पाराम नामका बगेचा था यह पंच वर्णके पुष्पोरूपी लक्ष्मीसे अच्छे सुशोभीत था। उसी बगेचाके अति दूर भी नहीं अति नजीक भी नहीं एक मोगरपाणी यक्षका यक्षायतन था। वह अर्जुन मालीके बापदादा परदादा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 आदि वंशपरंपरा चीरकालसे उसी मोगरपाणी यक्षकी सेवाभक्ति करते आये थे और यक्ष भी उन्होंकी मनकामना पुर्ण करता था। मोगरपाणी यक्षकी प्रतिमाने सहस्रपल लोहसे बना हुवा मुद्गल धारण कर रखा था । अर्जुनमाली बालपणेसे मोगरपाणी यक्षका परम भक्त था। उन्हीको सदैवके लिये एसा नियम था कि जब अपने घरसे प्रतिदिन बगेचेमें जाके पांच वर्णके पुष्प चुटके एकत्र कर अपनी बन्धुमती भार्या के साथ पुष्प ले मोगरपाणी यक्षके देवालयमें जाके पुष्पो चढाके ढींचण नमाके परिणाम कर फीर राजगृहनगरके राजमार्गमें वह पुष्पोंका विक्रय कर अपनी आजीविका करता था। राजगृह नगरके अन्दर छ गोटीले पुरुष वस्ते थे, वह अच्छे और खराब कार्य में स्वेच्छासे वीहार करतेथे । एक समय राजगृह नगर महोत्सव था! वास्ते अर्जुनमाली अपने घरसे पुष्प भरणेकी छाबों ग्रहणकर पुष्प लानेकों अपनी वन्धुमती भार्याकों साथ ले बगेचामें गयेथे । वहांपर दम्पति पुष्पोंकों चुटके एकत्र कर रहेथे। . उसी समय वह छ गोटीले पुरुष क्रीडा करते हुवे मोगर पाणी यक्षके देवालयमें आये इदर अर्जुनमाली अपनी भार्याके साथ पुष्प ले के मोगरपाणी यक्षके मन्दिरकि तर्फ आ रहेथे । जब छे गोटीले पुरुषोंने बन्धुमती मालणका मनोहर रूप देखके विचार किया कि अपने सव एकत्र हो इस अर्जुनमालीको निबिड बन्धनसे बान्ध कर इस बन्धुमती भार्या के साथ मनुष्य - संबन्धी भोग ( मैथुन ) भोगवे । एसा विचार कर छे वों गोटीले पुरुष उस मन्दिरके किंवाडके अन्तरमे अनबोलते हुवे गुपचुप छिपकर बेठ गये। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदरसे अर्जुनमाली ओर बन्धुमती भार्या दोनों पुष्प लेके मोगरपाणी यक्षके पासमें आये। पुष्पोंका ढेर कर ( चढाके अर्जुनमाली अपना शिर झुकाके यक्षकों प्रणाम करता था इतनेमें तो पीच्छेसे वह छे गोटीले पुरुष आके अर्जुनमालीको पकड निबिड (धन) बन्धनसे बान्ध कर एक तर्फ डाल दीया ओर बन्धुमतीमालणके साथ वह लंपट भोग भोगवना । मैथुन कर्म सेधन करने लग गये ) शरू कर दीया। अर्जुनमाली उस अत्याचारको देखके विचार कीयाकि मैं बालपणेसे इस मोगरपाणी यक्ष प्रतिमाकी सेवा-भक्ति करता हूं और आज मेरे उपर इतनी विपत्तपडने परभी मेरी साहिता नहीं करता है तो न जाणे मोगरपाणी यक्ष हे या नही । मालम होता है कि केवल काष्टकी प्रतिमाही बेठा रखी है इसी माफीक देवपर अश्रद्धा करता हुवा निराश हो रहा था। इदर मोगरपाणी यक्षने अर्जुनमालीका यह अध्यवसाय जानके आप ( यक्ष ) मालीके शरीरमे आके प्रवेश किया । बस । मालीके शरीरमे यक्षका प्रवेश होते ही वह बन्धन एकही साथ में तुट पडे और जो सहस्र पलसे बना हुवा मुद्गल हाथमे लेके छ गोटीले पुरुष और सातवी अपनी भार्या उन्होंका चकचुर कर अकार्यका प्रत्यक्षमे फल देता हुवा परलोक पहुंचा दिया। अर्जुन मालीको छे पुरुष और सातवी स्त्रीपर इतना तो द्वेष हो गया कि अपने शरीरमें यक्ष होनेसे सहस्रपलवाले मुद्गल द्वारा प्रतिदिन छे पुरुष और एक स्त्रीको मारनेसे ही किंचित् संतोष होता था अर्थात् प्रतिदिन सात जीवोंकी घात करता था। यह बात राजगृह नगरमें बहुतसे लोगों द्वारा सुनके राजा श्रेणिकने मगरमें उदूघोषणा करा दी कि कोई भी मनुष्य तृण, काष्ट, पाणी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ आदिके लिये नगरके बहार न जावे कारण वह अर्जुन माली यक्ष इष्टसे सात जीवोंकी प्रतिदिन घात करता है वास्ते बहार जानेवालोंके शरीरको और जीवको नुकशान होगा वास्ते कोइ भी बहार मत जावो । राजगृह नगर के अन्दर सुदर्शन नामका श्रेष्ठी वसता था । वह बडा ही धनाढ्य और श्रावक, जीवाजीवका अच्छा ज्ञाता था । अपना आत्माका कल्याणके रस्ते वरत रहा था । उसी समय भगवान वीरप्रभु अपने शिष्यरत्नोंके परिवा raisest for noते हुवे राजगृह नगरके गुणशीलोबान समवसरण किया । अर्जुन मालीके भयके मारे बहुत लोग अपने स्थानपर ही भगवानको वन्दन कर आनन्दको प्राप्त हो गये । परन्तु सुदर्शन श्रेष्ठी यह बात सुनी कि आज भगवान् बगेचेमें पधारे है । वन्दनको जानेके लिये मातापिताको पुछा तब मातापिताने उत्तर दीया कि हे लालजी ! राजगृह नगरके बहार अर्जुनमाली सदैव सात जीवोंको मारता है । वास्ते वहां जानेमें तेरे शरीरको बादा होगा वास्ते सब लोगोंकी माफीक नुं भी यहां ही रह कर भगवानको वन्दन कर ले। वह भगवान् सर्वज्ञ है तेरी वन्दना स्वीकार करेंगे। सुदर्शन श्रेष्ठीने उत्तर दीया कि हे माता ! आज पवित्र दिन हे कि वीरप्रभु यहां पधारे है तो मैं यहां रहके वन्दन कैसे करूं ? आपकी आज्ञा हो तो मैं तो वहांही जायके भगवानका दर्शन कर वन्दन करूं। जब पुत्रका बहुत आग्रह देखा तब मातापिता ने कहा कि जैसे तुमको सुख होवे वैसे करो । सुदर्शन श्रेष्ठी स्नानमज्जन कर शुद्ध वस्त्र पहेरके पैदल ही भगवानको वन्दन करनेको चला, जहां मोगरपाणी यक्षका मन्दिर Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था वह आता था, इतनेमें अर्जुन माली सुदर्शनको देखक बडा भारी कुपित होकर हाथमें सहस्रपल लोहका मुद्गल लेके मुदर्शमको मारनेको आरहा था। श्रेष्ठीने मालीको आता हुवा देखके किंचित् मात्रभी भय क्षोभ नहीं करता हुवा वस्त्राचलसे भूमिकाको प्रतिलेखन कर दोनों कर शिरपे लगाके एक नमुत्थुणं सिद्धोंको और दुसरा भगवान् वीरप्रभुको देके बोला कि मैं पहलेही भगवावानसे व्रत लिये थे और आज भी भगवानकी साक्षीसे सर्वथा प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन एवं अठारा पाप और च्यारों प्रकारके आहारका प्रत्याख्यान जायजीवके लीये करता हुं परन्तु इस उपसर्गसे बच जाउं तो यह सागारी संथारा पारना मुझे कल्पे है अगर इतने में काल करजाउं तो जावजीवका अनशन है एसा अभिग्रह धारण कर आत्मध्यानमें मग्न हो रहा था, शेठीजीने यह भी विचार किया था कि अज्ञानपणे बिषयकषायके अन्दर अनन्तीवार मृत्यु हुवा है परन्तु एसा मृत्यु आगे कबी भी नहीं हुवा है और जितना आयुष्य है वह तो अवश्य भोगवना ही पडेगा वास्ते ज्ञानमें ही आत्मरमणता करना ठीक है। वर्जुनमाली सुदर्शनाश्रेष्ठीके पास आया क्रोधसे पूर्ण प्रज्वलत हो के मुगलसे मारना बहुत चाहा परन्तु धर्मके प्रभाव हाथ तक भी उंचा नहीं हुवा मालीजीने शेठीजीके सामने जाया इतने में जो मालीके शरीरमें मोगरपणि यक्ष था वह मुद्गल ले के यहां मे विदा हो गये अर्थात् निज स्थानमें चला गया । शरीरसे यक्ष चले जाने पर माली कमजोर हो के धरतीपर गीर पडा, इधर शेठीजीने निरूपसर्ग जांनके अपनी प्रतिमा पालन कर अनसन पारा । इतने में अर्जुनमाली सचेत हो के बोला कि आप कोन है और कहां पर जाते है । शेठीजीने उत्तर दिया कि Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं सुदर्शन शेठ भगवान वीरप्रभुको वन्दन करनेको जाता हुँ । माली बोला कि मुझे भी साथमे ले चलो। शेठजी बोला कि बहुत अच्छी वात है । दोनों भगवानके पास आके वन्दन नमस्कार कर योग्य स्थान बेठ गये । इतनेमें तो उपसर्गरहीत रस्ता नानके ओर भी परिषदा समोसरनमें एकत्र हो गइ। परन्तु सुदर्शनकी धर्मश्रद्धा कीतनी मजबुत थी। एसैको दृढधर्मी कहते है। - भगवान वीर प्रभुने उसी परिषदाको बडे ही विस्तारपूर्वक धर्मदेशना सुनाइ अन्तिम फरमाया कि हे भव्य जीवों! अनन्ते भवोंके किये हुवे दुष्कर्मोसे छोडानेवाला संयम है इन्हीका आराधन करो वह तुमको एकही भवमें आरापार संसारसमुद्रसे पार कर अक्षय स्थान पर पहुंचा देगा। सुदर्शनादि देशनापान कर स्वस्वस्थान पर गये । अर्जुन मालीने विचार कीया कि में पांच मास तेरह दिनोंमें ११४१ जीवोंकी घात करी है तो एसा घोर अत्याचारोंके पापसे निवृत्ति होनेका कोइ भी दुसरा रस्ता नहीं है। वास्ते मुझे उचित है कि भगवान वीरप्रभुके चरणकमलोमे दीक्षा ले आत्मकल्याण करुं । एसाविचारके भगवानके पासे पांच महाव्रतरुपी दीक्षाधारण करी। अधिकता यह है कि जिस दिन दीक्षा ली थी उसी दीन अभिग्रह कर लीया कि मुझे जावजीव तक छठ छठ तप पारणा करना। प्रथम ही छठ कर लीया । जब छठ तपका पारणा था उस रोज पेहले पहोरमें सझाय, दुसरे पहोरमे ध्यान, तीसरे पहोरमें मुहपत्ती आदि प्रतिलेखन कर वीरप्रभुकी आज्ञा ले राजगृह नगरके अन्दर समुदाणी भिक्षाके लिये अटन कर रहे थे। - अर्जुनमुनिको देखके बहुतसे पुरुष स्त्रीयों लडके युवक और Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ वृद्ध कहने लगे कि अहो। इस पापीने मेरे पिताको मारा था. कोइ कहते है कि मेरी माताको मारी थी । कोइ कहते है कि मेरे भाइ बहेन औरत पुत्र पुत्री और सगे-सम्बन्धी ओकों मारा था इसीसे कोइ आक्रोष वचन तो कोइ हीलना पथरोंसे मारना तर्जना ताडना आदि दे रहे थे । परन्तु अर्जुन मुनिने लगार मात्र भी उन्हों पर द्वेष नहीं कीया मुनिने विचारा कि मैंने तो इन्होंके संबन्धीयोंके प्राणोंका नाश कीया है तो यह तो मेरेको गालीगुप्ता ही दे रहे है । इत्यादि आत्मभावनासे अपने बन्धे हुवे कर्मोंको सम्यक् प्रकार से सहन करता हुवा कर्मशत्रुओंका पराजय कर रहा था । अर्जुन मुनिको आहार मीले तो पाणी न मीले, पाणी मीले तो आहार न मीले । तथापि मुनिश्री किंचित् भी दीनपणा नही लाता था वह आहारपाणी भगवानको दीखाके अमूर्छितपणे कायाको भाडा देता था, जैसे सर्प बीलके अन्दर प्रवेश करता है इसी माफीक मुनि आहार करते थे। एसेही हमेशांके लीये छठर पारणा होता था । एक समय भगवान राजगृह नगरसे विहार कर अन्य जनपद देशमें गमन करते हुवे । अर्जुनमुनि इस माफीक क्षमा सही घोर तपश्चर्या करते हुवे छ मास दीक्षा पाली जिसमें शरीर को पुर्णतया जर्जरित कर दीया जेसे खंदकमुनिकी माफीक । अन्तिम आधा मास अर्थात् पन्दरा दीनका अनशन कर कर्मोंसे विमुक्त हो अव्याबाघ शाश्वत सुखोंमें विराजमान हो गये मोक्ष पधार गये इति । चोथा अध्ययन - राजगृह नगर गुणशीलोद्यान श्रेणीक राजा चेलना राणी । उसी नगरमें कासव नामका गाथापति बडाही धनाढ्य वसता था । भगवान पधारे मकाईकी माफिक दीक्षा ले Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ एकादशांग ज्ञानाभ्यास सोला वर्षकी दीक्षा एक मासका अनशन पालके वैभार गिरि पर्वत पर अन्तसमय केवल ले मोक्ष गये। इति ४ एवं क्षेमनामा गाथापति परन्तु वह काकंदी नगरीका था 1५। एवं घृतहर गाथापति काकंदीका।६। एवं कैलास गाथापति परन्तु संकेत नगरका था और बारह वर्षकी दीक्षा ।७। एवं हरिचन्द गाथापति । ८ । एवं वरतनामा गाथापति परन्तु वह राजगृह नगरका था। ९ । एवं सुदर्शन गाथापति परन्तु वाणीया ग्राम नगरका था वह पांच वर्षकी दीक्षा पाल मोक्ष गया। १० ! एवं पुर्णभद्रगाथा । ११ । एवं सुमनभद्र परन्तु सावत्थी नगरीका बहुत वर्ष दीक्षा पाली थी। १२ । एवं सुप्रतिष्ट गाथापति सावत्थी नगरीका सत्तावीश वर्षकी दीक्षा पाल मोक्ष गया । १३ । मेघ गाथापति राजगृह नगरका था वह बहुत वर्ष दीक्षा पाल मोक्ष गया । १४ । यह सब विपुलगिरि-व्यवहारगिरि पर्वतपर मोक्ष गये है। इति। पन्दरवा अध्ययन-पोलासपुर नगर श्रीवनोधान विजय नामका राजा राज करता था, उस राजाके श्रीदेवी ना. मकी पट्टराणी थी। उस राणीको अतिमुक्त-अमंतो नामका कुमार था वह बडाही सुकुमाल और बाल्यावस्थासे ही वडा होशीयार था भगवान वीरप्रभु पोलासपुरके श्री वनोधानमें पधारे । वीरप्रभुका बडा शिष्य इन्द्रभूति-गौतमस्वामि छठके पारणे भगवानकी आज्ञाले पोलासपुर नगरमे समुदायी भिक्षाके लिये अटन कर रहेया। - उस समय अमंतो कुमार स्नान मजन कर सुन्दर बना भूषण धारण कर बहुतसे लडके लडकीयों कुमर कुमरियोंके साथ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रीडा करनेको रास्तेमे आता हुवा गौतमस्वामिकों देखके अ.. मन्तों कुमर बोलाकि हे भगवान! आप कोनहो ओर कीस वास्ते इधर उधर फीरते हो? गौतमस्वामिने उत्तर दीयाकि हे कुमर हम इर्यासमिति यावत् ब्रह्मचर्य पालने वाले मुनि हे ओर समुदाणी भिक्षाके लिये अटन कर रहे है। अमन्तोकुमार बोलाकि है भगवान हमारे वहां पधारे हम आपको भिक्षा दीरावेगे,, एसा कहके गौतमस्वामिकी अंगुली पकड़के अपने घरपर ले आये श्री देवीराणी गौतमस्वामिकों आते हुवे देखके हर्ष संतोषके साथ अपने आसनसे उठ सात आठ पग सन्मुख गई वन्दन नमस्कार कर भात्त पाणीके घरमे ले जायके च्यार प्रकारका आहारका सहर्ष दान दीया। ___ अमन्तोकुमर गौतमस्वामिसे अर्ज करी कि हे भगवान आप कहांपर विराजते हो? हे अमन्ता! इस नगरके बाहार श्रीवनोद्यानमे हमारे धर्माचार्य धर्मकी आदिके करनेवाले श्रमण भगवान वीरप्रभु विराजते है उन्होंके चरण कमलोमें हम निवास करते है। अमन्तोकुमरबोलाकि हे भगवान! में आपके साथ चलक आपके भगवान वीर प्रभुका चरण वन्दन करू " जहा सुखं । " तव अमन्तों कुमर भगवान गौतमस्वामिके साथ होके श्रीवनोद्यानमे आके भगवान वीरप्रभुकों वन्दन नमस्कार कर सेवा भक्ति करने लगा। भगवान गौतमस्वामि लाया हुवा आहार भगवानको वता पारणो कर तप संयममे रमनता करने लगा। १ ढुंढीये लोक कहते है कि एक हाथमे गौतमके झोलीथी दुसरे हाथकि अंगुली अमन्तेने पकडली तो फीर खुले मुहवातों केसे करी वास्ते मुहपति वन्धनेकोंथी ? उत्तर एक हाथकि कुणीपर झोळी औरहाथमे मुहपत्तीसे यत्ना वरीथी दुसरे हाथकी अंगुली अमन्ताने पकडीथी आजभी जैन मुनि ठीक तौरपर बोल सकते हैं । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञ वीर प्रभु अमन्ताकुमारकों धर्म देशना सुनाइ। अ. मन्तीकुमर बोलाकी हे करूणासिंधु आपकि देशना सुनमें संसारसे भयभ्रांत हुवा में मेरे मातापिताको पुच्छके आपके पास दीक्षा ले उंगा “जहा सुखं " प्रमाद मत करों। अमन्तोंकुमर भगवानकों चन्दनकर अपने मातापिताके पास आया और बोलाकि हे माता आजमें धीरप्रभुकि देशना सुनके जन्ममरणके दुःखोंसे मुक्त होनेके लिये दीक्षा लेउंगा । ऐसीवाते सुनके दुसरोंकि मातावोंकों रंज हुवा करता था परन्तुयहां अमन्ताकुमार कि माताको विस्मय हुवा और बोली की हे वत्स! तुं दीक्षा और धर्मकों क्या जानता है ? कुमरजीने उत्तर दिया कि हे माता! में जानता हूं उसको तो नहीं जानता हूं और नहीं जानता हु उसको जानता हु । माताने कहा कि यह केसा? हे माता! यह में निश्चिंत जानता हूं कि जितने जीव जन्मते है वह अवश्य मृत्युको भी प्राप्त होते है परन्तु में यह नहीं जानता हुं कि किस समयमे किस क्षेत्रमें और किस प्रकारसे मृत्यु होगी । हे माता! में नहीं जानता हूं कि कोनसा जीव कीस कर्मों से नरकं तीर्यच मनुष्य और देवगतिमें जाता है, परन्तु यह बात में निश्चय जानता हूं कि अपने अपने किये हुवे शुभाशुभ कर्मासे नारकी तीर्यच मनुष्य और देवतोमें जाते हैं। इस वास्ते हे माता! में जानता हुं वह नहीं जानता और नहीं जानता वह जानता हुं । बस! इतने में माता समझ गई कि अब यह मेरा पुत्र घरमें रहेनेवाला नहीं है। तथापि मोहप्रेरित बहुतसे अनुकुल-प्रतिकुल शब्दोंसे समझाया, परन्तु जिन्होंकों असली वस्तुका भान हो गया हो वह इस कारमी मायासे कबी लोभीत नही होता है अमन्ताकुमार को तो शिवसुन्दरीसे इतना बडा प्रेम हो रहा था कि में कीतना जल्दी जाके मीलु । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. माताजी ने कहा कि हे पुत्र ! अगर आप दीक्षा ही लेना चाहते हो तो एक दिनका राज कर मेरे मनोरथकों पूर्ण करों । अमन्तोकुर इस बातको सुनके मौन रहा। जब माता-पिताने बडा ही आडम्बर कर कुमरका राजअभिषेक कर बोले कि हे लालजी आप कि क्या इच्छा है आज्ञा करों । कुमरने कहा कि तीन लक्ष सोनइया लक्ष्मीके भंडारसे निकाल दो लक्षके रजोहरण पात्रा और एकलक्ष हजामकों दे मेरे दीक्षा कि तैयारी कराबों । जेसे महाबलकुमरके दीक्षाका महोत्सव कीया इसी माफीक वडे ही महोत्सव पूर्वक भगवानके पास अमन्ताकुमरको भी दीक्षा दराइ । तथारूपके स्थिवरों के पास एकादशांगका ज्ञान कीया । * बहुत वर्ष दीक्षा पाली गुणरत्न समत्सरादि तप कर अन्तमे व्यवहार गिरिपर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गया ।। १५ । 1 सालवा अध्ययन - वनारसी नगरी काम वनोद्यान अलख नामका राजाथा, उस समय भगवान वीरप्रभुका आगमन हुवा कोणकको माफीक अलखराजाभी वन्दन करने को गया । धर्म * भगवतीसूत्र शतक ५ उ०४ में लिखा हैं कि एक समय बडी वरसाद वर्ष के बादमें स्थिवरों के साथ में अमन्तोबालऋषि स्थंडिले गया था स्थिवर कुच्छ दूर गये थे अमन्तोॠषि पीच्छे आते समय पाणीक अन्दर मट्टीकी पाल बान्ध अपने पासकी पातरी उस्मे डाल तीरती हुइ देख बोलता है कि यह मेरी नइया ( नौका ) तिर रही है | दुर स्थिवरोंने देखा उसी समय स्थिवरोंकों बडा ही विचार हुवा कि देखो यह बालऋषि क्या अनुचित कीडा कर रहा है। वह एक तर्फसे भगवानक समिप आंके पुच्छा कि हे भगवान! आपका शिष्य अमन्तो बालऋषि कितना भव कर मोक्ष जावेगा । भगवनने उत्तर दिया की हे स्थिवरों अमन्ताऋषि कि हीलना मत करों यावत् अमन्तोऋषि चरम शरीरी अर्थात् इसी भवमें मोक्ष जावेगा । वास्ते तुम सब मुनि बालऋषिकि व्यावच करो | इति । / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशना सुन अपने जेष्ठ पुत्रको राज देके उदाई राजाकी माफीक दीक्षा ग्रहन करी एका दशांग अध्ययन कर विचत्र प्रकारकि तपश्चर्या करते हुवे वहुतसे वर्ष दीक्षा पाल अन्तमे विपुलगिरि (व्यवहारगिरि) पर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये इति सोलवाध्ययन । इति छट्ठावर्ग समाप्त। . (७) सातवा वर्गके तेरह अध्ययन राजग्रह नगर गुणशीलाधान श्रेणिकराजा चेलनाराणी अभयकुमारमंत्री भगवान वीरप्रभुका आगमन, राजा श्रेणककावन्दनको जाना यहसर्वाधिकर पूर्वके माफीक समझना । परन्तु श्रेणकराना कि नन्दानामकि राणी भगवानकि धर्मदेशना श्रवण कर श्रेणिकराजाकि आज्ञा लेके प्रभु पासे दीक्षा ग्रहनकर चन्दनबालाजीके समिप रहेतीहुइ एकादशांगका अध्ययन कर विचित्र प्रकारकी तपश्चर्या करती हुइ कर्मशत्रुवोंका पराजयकर केवलज्ञान पाके मोक्षगइ इति 1१। एवं ( २) नन्दमती (३) नन्दोतरा (४) नन्दसेना (५) मरुता (६) सुमरुता (७) महामरूता (८) मरूदेवा (९) भद्रा (१०) सुभद्रा (११) सुजाता (१२) सुमाणसा (१३) भुतादिना यह तेरहा राणी या अपने पति श्रेणकराजाकि आज्ञासे भगवान वीर प्रभुके पास दीक्षा लेके सर्वने इग्यारे अंगका ज्ञान पढा। बहुतसी तपस्याकर अन्तमे केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष गह है इति सातवा वर्ग समाप्तं । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૮ ( ८ ) आठवा वर्गके दश अध्ययन है । चम्पानगरी पुर्णभद्र उद्यान कोणक नामका राजा राज कर रहाथा। उसी चम्पानगरीमें श्रेणीक राजाकि राणी कोणक राजाकि चुलमाता 'कालीनामकि राणी निवास करतीथी. भगवान वीरप्रभुका आगमन हुवा नन्दाराणीकि माफीक कालीराणी भी देशना सुन दीक्षा ग्रहन कर इग्यारे अंग ज्ञानाभ्यासकर चोत्थ छठ्ठादि विचित्र प्रकारले तपश्रर्याकर अपनि आमाकों भागती हुइ वीचर रहीथी। एक समय काली साध्विने आर्य चन्दन बाला साध्विको वन्दन कर अर्ज करी कि आपकी रजा हो तो में रत्नावली तप प्रारंभ करु ? जहासुखम् । आर्या चन्दन बालाजीकी आज्ञा होनेसे काली साध्वीने रत्नावली तप शरु किया । प्रथम एक उपवास किया पारणेके दिन " सव्वकामगुण" सर्व विगइ अर्थात् दूध दहीं घृत तैल मीठा इसे जेसे मीले वेसाही आहारसे पारणो कर सके । सब पारणेमें एसी विधि समझना । फिर दोय उपवास कर पारणो करे। फिर तीन उपवास कर पारणो करे बादमें आठ छठ ( बेला ) करे पारणो कर, उपवास करे, पारणो कर, छठ करे, पारणो कर अठम करे, पारणो कर च्यारोपास, पारणो कर पांचोउपवास पारणो कर छ उपवास, पारणो कर सात उपवास, पारणो कर आठ उपवास, एवं नव दश इग्यारा बारह तेरह चौदा पन्दर सोला उपवास करे, धारण कर लगता चौतीस छठ करे, पारणो कर फीर १ कालीराणीका विशेषाधिकार निरयावलिका सूत्रकि भाषामें लिखा जावेगा । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोला उपवास करे, पारणो कर पन्दरा उपवास करे, एवं चौदा तेरह बारह इग्यार दश नव आठ सात छे पांच चार तीन दोय ओर पारणो कर एक उपवास करे। बादमे आठ छठ करे पारणो कर तीन उपवास करे, पारणो कर छठ करे, ओर पारणो कर एक उपवास करे, यह प्रथम ओली हुइ अर्थात् इस तपके हारकी पहेली लड हुइ इसको एक वर्ष तीन मास और बावीस दिन लगते है जिसमें ३८४ दिन तपस्या और ८८ पारणा होता है पारणे पांचों विगइ सहीत भी कर सकते है। इसी माफीक दुसरी ओली ( हारकीलड ) करी थी परन्तु पारणा विगह वर्ज करते थे। इसी माफीक तीसरी ओली परन्तु पारणा लेपालेप वर्ज करते थे । एवं चोथी ओली परन्तु पारणे आंबिल करते थे। यह तपरुपी हारको च्यार लडकों पांच वर्ष दोय मास अठ्ठावीस दिन हुवे जिसमें च्यार वर्ष तीन मास छे दिन तपस्याके और इग्यार मास बावीस दिन पारणेके एसे घऔर तप करते हुवे काली साध्वीका शरीर सुक्के लुरूरवे भुरूखे हो गया था चलते हुवे शरीरके हाड खडखड शब्दसे वाजने लग गया अर्थात् शरीर ब्रीलकुल कृष बन गया तथापि आत्मशक्ति बहुत ही प्रकाशमान थी। गुरुणीजिकी आज्ञासे अन्तिम एक मासका अनशन कर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गई इति । इसी माफीक दुसरा अध्ययन सुकालीराणीका है परन्तु रत्नावली तपके स्थान कनकावली तप कीया था रत्नावली और कनकावली तपमे इतना विशेष है कि रत्नावलीतपमे दोय स्थान पर आठ आठ छठ एक स्थानपर चौतीस छठ किया था वहां कनकावली तपमे अठम तप कीया है वास्ते तपकाल पंच वर्ष • नष मास और अटारा दिन लगा है शेष कालीराणीकी माफीक कर्म क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त हो मोक्ष गई।२। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी माफीक महाकालीराणी दीक्षा ले यावत् लघु सिंहकी चाली माफीक तप करा यथा--एक उपवास कर पारणा कीया फीर दोय उपवास कीया पारणा कर, एक उपवास पारणा कर तीन उपवास पारणा कर दोय उपवास, पारणोकर च्यार उपवास पारणो कर तीन उपवास, पारणो कर पांच उपवास, पारणो कर च्यार उपवास, पारणो कर छे उपवास, पारणो कर पांच उपवास, पारणो कर सप्त उपवास, पारणो कर छे उपवास, पारणो कर आठ उपवास करे, सात उपवास करे०, नव उप०, आठ उपः, नव उप०, सात उप०, आठ उप०, छे उप०, सात उप०, पांच उ०, छे उ०, च्यार उ०, पांच उ०, तीन उ०, च्यार उ०, दोय उ०, तीन उ०, एक उ०, दोय उ०, एक उ०, एक ओलीकों १८७ दिन लागे पूर्ववत् च्यार ओलीकों दोय वर्ष अठावीश दिन लागे । यावत् सिद्ध हुई ॥३॥ इसी माफीक कृष्णाराणीका परन्तु उन्होंने महासिंह निकस तप जो लघुसिंह० वडते हुवे नव उपवास तक कहा है इसी माफीक १६ उपवास तक समझना एक ओलीको एक वर्ष छ मास अढारा दिन लगा था । च्यार ओली पूर्ववत्कों छे वर्ष दोय मास मारह दिन लगा था यावत् मोक्ष गइ ॥ ४ ॥ ___ इसी माफीक सुकृष्णराणी परन्तु सत्त सत्तमियों कि भिक्षु प्रतिमा तप कीया था यथा-सात दिन तक एक एक आहार कि दात' एकेक पाणीकी दात । दूसरे सात दिन तक दो आहार दो १ दातार देते समय बिचमे धार खंडित न हो उसे दात केहेते हैं जैसे मोदक दते समय एक बुर पड जाये तथा पाणी देते समय एक बुंद गिर जावे तो उसे भी दात कहते हैं । अगर एक ही साथमे थालभर मोदक ओर घडाभर, पाणी देतो भी एकही दात हैं Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणीकी दात । तीसरे सात दिन तीन तीन आहार तीन तीन पाणीकी दात यावत् सातमे सातदिन, सात सात दात आहार पाणी कर लेते है एवं एकोणपचास दिन और एकसो छीनव दात आहार एक सो छीनव दात, पाणी की होती है। फीर बादमें अट अठमिया भिक्षु प्रतिमा तपकरा वह प्रथम आठ दिन एकेक दात्त आहार एकेक दात्त पाणी कि एवं यावत् आठवे आठ दिन तक आठ आठ दात्त आहारकी आठ आठ दात्त पाणीकी सर्व चौसठ दिन और दोय सो इठीयासी दात आहार दोय सो इठीयासी दात पाणीकी होती हैं । बादमें नव नवमियों कि भिक्षु प्रतिमा तप पूर्ववत् इकीयासी दिन और च्यारसो पंच दात्त संख्या होती है । बादमें दश दशमियां भिक्षु प्रतिमा तप करा जिस्का एक सो दिन और साढापांचसो दात्त संख्या होती है। यह प्रतिमा सर्व अभिग्रह तप है बादमें ही बहुतसे मास क्षमणा. दि तप कर केवलज्ञान प्राप्त कर अन्तिम मोक्षमें जा विराजे इति ॥५॥ इसी माफीक महाकृष्णा राणी परन्तु लघु सर्वतों भद्र तप कराथा यथा यंत्र प्रथम ओलीकों तीनमास दशदिन एवं च्यार ओलीकों क वर्ष एकमास दशदिन, पारणा सब रत्नावली तपकि माफीक समझना । अन्तिम मोक्ष मे विराजमान हुवे।६। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी माफीक वीर कृष्णा राणी परंतु महा सर्वतो भद्र तप कीया था। यथा यंत्र एक ओलीने आठ मास पांच दिन एवं च्यार ओलीने दोय वर्ष आठ मास और वीस दिन लगा था। पारणमे भोजनविधि. सर्वरत्नावली तपकि माफीक समजना औरभी विचित्र प्र. कारसे तपकर केवलज्ञान प्राप्त कर मो. क्षमें विराजमान हुथे इति । ७। - इसी माफीक रामकृष्णा राणी परन्तु भद्रोत्तर प्रतिमा तप कीयाथा । यथा यंत्र एक ओलीकों छे मास ओर वीस दिन तथा च्यार ओलीकों दोय वर्ष दोय मास ओर विसदिन औरभी बहुत तप कर केवलज्ञान प्राप्त कर मो. क्षमें विराजमान हुवे इति । इसी माफीक पितुसेन कृष्णाराणी परन्तु मुक्तावली तप कीया यथा-एक उपवास कर पारणा कर छठ कीया पारणा कर एक Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपवास पारणा कर तीन उपवास पारणाकर एक उपवास च्यार उप० एक उप० पांच उप० एक उप० छ उप० एक उप० सात उप० एक उप० आठ उप० एक उप० नव उप० एक० दश एक० इग्यारे० एक० वारह० एक० तेरह एक० चौदा० एक० पंदरा० एक० सोला उपवास इसी माफीक पीछा उतरतां सोला उपवाससे पक उपवास तक कीया । एक ओलीको साढाइग्यारे मास लागे और च्यारो ओलीको तीन वर्ष ओर दश मास काल लगा पारका भोजन जेसे रत्नावली तपकि माफीक यावत् शाश्वता सुखमे विराजमान हो गये इति । ९।। इमी माकीक महासेण कृष्णा परन्तु इन्होंने आंबिल वर्द्धमान नामका तप किया था । यथा-एक आंविल कर एक उपवास दो आंबिल कर एक उपवास, तीन आंबिल कर एक उपवास एवं च्यार आंविल एक उपवास पांच आंबिल कर एक उप० छे आंविल एक उप० सात आंबिल इसी माफोक एकेक आंबिलकि वृद्धि करते हुवे यावत् नियाणवे आंबिल कर एक उपबास कर सो आंबिल कीये इस तप पुरा करनेको चौदा वर्ष तीन मास विसदिन लगा था सर्वसतरा वर्षकी दीक्षा पालके अन्तिम एक मासका अनसन.कर मोक्ष गया ॥१० ।। ____ यह श्रेणिकराजा कि दशों राणीयों वीरप्रभुके पास दीक्षा लि । इग्यारा अंगका ज्ञानाभ्यास कर, पूर्व वतलाइ हुइ दशों प्रकारकि तपश्चर्या कर अन्तिम एकेक मासका अनसन कर कर्मशत्रुका पराजय कर अन्तगढ केवली हो के मोक्षमै गइ इति । ॥ इति आठवांवर्गके दशाध्ययन समाप्तम् ।। ...' इति अन्तगढ दशांगसूत्र का संक्षिप्त सार समाप्तम् । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अनुत्तरोववाइ सूत्रका संक्षिप्त सार. (प्रथम वर्गके दश अध्ययन है.) (१) पहला अध्ययन-राजगृह नगर गुणशीलोद्यान श्रेणिक राजा चेलनाराणी इसका विस्तार अर्थ गौतमकुमारके अध्ययन से समझना। श्रेणकराजा के धारणी नामकी राणीकों सिंह स्वप्न सूचित आली नामक पुत्रका जन्म हुवा महोत्सवके साथ पांच धायांसे पालीत आठ वर्षका होने के बाद कलाचार्यसे बहुत्तर कलाभ्यास यावत् युवक अवस्था होने पर बडे बडे आठ राजावाँकी आठ कन्यावों के साथ जालीकुमारका विवाह कर दीया दत दायजो पूर्ववत् समझना । जालीकुमार पूर्व संचित्त पुन्योदय आठ अन्तेउरके साथ देवतावों कि माफीक सुखोंका अनुभव कर रहा था। __ भगवान धीरप्रभुका आगमन राजादि वन्दन करने को पूर्ववत् तथा-जालीकुमर भी वन्दनकों गया देशना श्रवण कर आठ अन्तेवर और संसारका त्याग कर माता-पिताकी आज्ञा ले वडे ही महोत्सवके साथ भगवान वीरप्रभुके पास दीक्षा ग्रहण करी, विनयभक्तिसे इग्यारा अंगका ज्ञानाभ्यास कर चोत्थ छठ अठमादि तपस्या करते हुवे गुणरत्न समत्सर तपकर अपनि आत्माको उज्वल बनाते हुवे अन्तिम भगवानको आज्ञा ले साधु साध्वीयोंसे क्षमत्क्षामणा कर स्थिवर भगवानके साथे विपुलगिरि पर्वत पर अनसन किया सर्व सोला वर्षकी दीक्षा पाली। एक मास Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५. के अनसनके अन्तमें काल कर उर्ध्व सौधर्मइशान यावत् अच्युत देवलोकके उपर नव ग्रीवैक से भी उर्ध्व विजय नामका वैमान में उप्तन्न हुवे । जब स्थिवर भगवान जालीमुनि काल प्राप्त हुवा जानके परि निर्वणार्थ काउस्सगकीया ( जाली मुनिके अनसनकि अनुमोदन ) काउस्सगकर जालीमुनिका वस्त्र पात्र लेके भगवान के समिप आये वह वस्त्र पात्र भगवान के आगे रखा गौतम स्वा प्रश्न किया है भगवान ! आपका शिष्य जाली अनगार प्रकृतिका भद्री विनित यावत् कालकर कहां पर उत्पन्न हुवा होगा भगवान ने उतर दीयाकि मेराशिष्य जाली मुनिं यावत् विजय मानके अन्दर देव पणे उप्तन्न हुवा है उन्होंकी स्थिति बत्तीस सागरोपमकि है । गौतमस्वामिने पुच्छाकि हे भगवान जालिदेव विजय वैभानसे फोर कहां जावेगा ? भगवानने उत्तर दीयाकि हे गौतम! जालीदेव. वहांसे कालकर महाविदेह क्षेत्रमें उत्तम जाति कुल के अन्दर जनम लेगा वहांभी केवल परुपित धर्मका सेवनकर दीक्षाले केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष जावेगा इति प्रथमाध्ययन समाप्तं । इसी माफीक ( २ ) मयालीकुमर ( ३ ) उवघालीकुमर (४) पुरुषसेन ( ५ ) वीरसेन ( ६ ) लठदन्त ( ७ ) दीर्घदंत यह सातों श्रेणिक राजाकि धारणी राणीके पुत्र है और ( ८ ) वहेलकुमर (९) विहासे कुमार यह दोय श्रेणकराजाकि चलना राणी के पुत्र है (१०) अभयकुमार श्रेणक राजाकि नन्दाराणीका पुत्र है एवं दश राजकुमर भगवान वीरप्रभु पासे दीक्षा ग्रहन करी थी । इग्यारा अंगका ज्ञानाभ्यास । पहले पांच मुनियोंने १६ वर्ष दीक्षा पाली क्रमसे छठ्ठा, सातवां, आठवां, बारह वर्ष दीक्षा पाली नववां दशवां पाँच वर्ष दीक्षा पाली । गतिपहला विजयवैमान, दुसरा विजयन्त वैमान, तीसरा जयन्त Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमान, चोथा अप्राजत वैमान, पांचवा छटा सर्वार्थसिद्ध वैमान। शेष च्यार मुनि विजय वैमानमे उत्पन्न हुवे । वहांसे चवके सव महाविदेह क्षेत्रमें पूर्ववत् मोक्ष जावेगा। इति प्रथम वर्गके दशाध्यायन समाप्तम् । प्रथम वर्ग समाप्तम् । (२) दुसरे वर्गका तेरह अध्ययन है । प्रथम अध्ययन-राजगृह नगर श्रेणिकराजा धारणी राणी सिंह सुपनसूचित दीर्घसेन कुमरका जन्म वाल्यावस्था कलाभ्यास पाणीग्रहन आठ राजकन्यावोंके साथ विवाह यावत् मनुष्य संबंधी पांचो इन्द्रियके सुख भोगवते हुवे विचर रहाथा । भगवान वीर प्रभुका आगमन हुवा धर्मदेशना सुनके दीर्घसेन कुमार दीक्षा ग्रहण करी सोला वर्षकी दीक्षा पालके विपुलगिरि पर्वत पर एक मासका अनसन कर विजय वैमान गये वहांसे एकही भव महाविदेह क्षेत्रमें उत्तम जाति कुलमें जन्म ले के फीर केवली प्ररूपित धर्म स्वीकार कर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगा। इति प्रथमाध्ययन समाप्तम् । १। - इसी माफीक (२) महासेन कुमर (३) लठदन्त (४) गूढ दन्त (५) सुद्धदन्त (६) हलकुमर (७) दुम्मकु० (८) दुमसेन कुछ (९) महादुमसेन (१०) सिंह (११) सिंहसेन (१२) महासिंहसेन (१३) पुन्यसेन यह तेरह राजकुमर श्रेणिक राजाकि धारणी राणीके पुत्र थे भगवान समिप दीक्षा ले १६ वर्ष दीक्षा पाळी विचित्र प्रकारकि तपश्चर्या कर अन्तिम विपुलगिरि पर्वतपर अनसन करके क्रमःसर दोय मुनि विजयवैमान, दोय मुनि विजयन्त वैमान, दोय मुनि जयन्त वैमान शेष सात मुनि स Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थसिद्ध पैमानमें देवपणे उत्पन्न हुवे वहांसे तेरहही देव एक भव महाविदेह क्षेत्रमें करके दीक्षा पाके केवलज्ञान प्राप्त कर मो. क्षमें जावेगा । इति दुसरे वर्गके तेरवाध्ययन समाप्तम् । २। इति दुसरा वर्ग समाप्तम् । (३) तीसरे वर्गके दश अध्ययन है । - प्रथम अध्ययन-काकंदी नामकी नगरी सहस्राम्रवनोद्यान जयशत्रु नामका राजा । सबका वर्णन पूर्ववत् समझना । काकंदी नगरीके अन्दर बडीही धनाढ्य भद्रा नामकी सार्थवाहिणी वसती थी वह नगरीमें अच्छी प्रतिष्ठित थी। उस भद्रा शेठाणीके एक स्वरूपवान धन्नो नामको पुत्र थो, उस्के कला आदिका वर्णन महाबलकुमारकी माफीक यावत् बहोंतेर कलामें प्रविन युवक अवस्थाको प्राप्त हो गया था। जब भद्रा शेठाणीने उस कुमारको बत्तीस इप्भशेठोंकी कन्यावोंके साथ विवाह करने का इरादासे बत्तीस सुन्दराकार प्रासाद बनाके विचमे धन्नाकुमारका महेल बना दिया। उस प्रासाद महेलोंके अन्दर अनेक स्थंभ पुतलीयो तोरणादिसे अच्छे शोभनिय बना दीया था उसी प्रासादोंका शिखरमानो गगनसे बातीही न कर रहा हो अर्थात् देवप्रासादके माफीक अच्छा रमणीय था। बत्तीस इभशेठोंकी कन्यावों जो कि रूप, यौवन, लावण्य, चातुर्यता कर ६४ कलावोमें प्रविन कुमारके सःश वयवाली बत्तीस कन्यावोंका पाणीग्रहण एकही दिनमे कुमारके साथ करा दिया उन्ही बत्तीस कन्यावोंका मातापिता अपरिमित दत दायजो दियो थो यावत् बत्तीस रंभावोंके साथ धन्नोकुमार मनुष्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबन्धी कामभोग भोगव रहा था अर्थात् बत्तीस प्रकारके नाटक आदि से आनन्दमें काल निर्गमन कर रहा था । यह सब पूर्व सुकृतका ही फल है। पृथ्वीमंडलको पवित्र करते हुवे बहुत शिष्योंके परिवारसे भगवान वीरप्रभुका पधारना काकंदी नगरीके सहस्राम्रवनोचानमें हुवा। कोणक राजाकी माफीक जयशत्रु राजा भी च्यार प्रकारकी सैनाके साथ भगवानको वन्दन करनेको जा रहा था, नगरलोक भी स्नानमजन कर अच्छे अच्छे वस्त्राभूषण धारण कर गज, अश्व, रथ, पिंजस, पालखी, सेविका समदाणी आदिपर सवार हो और कितनेक पैदल भी मध्यबजार होके भगवानको चन्दन करनेको जा रहे थे। - इधर धन्नोकुमार अपने प्रासादपर बैठो हुवो इस महान् परिषदाको एकदिशाम जाती हुइ देखके कंचुकी पुरुषसे दरियाफ्त करनेपर ज्ञात हुवा कि भगवान् वीरप्रभुको वन्दन करनेको जनसमुह जा रहे है । बादमें आप भी च्यार अश्ववाले रथपर बैठके भगवानको वन्दन करनेको परिषदाके साथमें हो गये। जहाँ भगवान विराजमान थे वहां आये सवारी छोडके पांच अभिगम कर तीन प्रदक्षिणा दे वन्दन नमस्कार कर सब लोग अपने अपने योग्य स्थानपर बेठ गये । आये हुवे जनसमुह धर्माभिलाषीयोंको भगवानने खुब ही विस्तार सहित धर्मदेशना सुनाइ । जिस्मै भगवानने मुख्य यह फरमाया था कि.. हे भव्य जीवो! यह जीव अनादिकालसे संसारमें परिभ्रमन कर रहा है जिस्का मूलहेतु मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योग है इन्होंसे शुभाशुभ कर्मोका संचय होता है तब कभी राजा महाराजा Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ सेनापति होके पुन्यफलको भोगवता है कभी रंक दरिद्री पशुधादि होके रोग-शोकादि अनेक प्रकारके दुःख भोगवता है और अज्ञानके वस हो यह जीव इन्द्रियजनित क्षण मात्र सुखोंके लिये दीर्घकाल तक दुःख सहन करते है। इसी दुःखोंसे छुडाने वाला सम्यक् शान दर्शन चारित्र है वास्ते हे भव्य जीवों! इसी सर्व सुख संपन्न चारित्रको स्वीकार कर इन्हींका ही पालन करों तांके आत्मा सदैवके लिये सुखी हो। __ अमृतमय देशना श्रवण कर यथाशक्ति त्याग वैरागको धारण कर परिषदाने स्व स्थ स्थान गमन कीया। धन्नोकुमर देशना श्रवणकर विचार किया कि अहो आज मेरा धन्य भाग्य है कि एसा अपूर्व व्याख्यान सुना। और जगतारक जिनेन्द्र देवोने फरमाया कि यह संसार स्वार्थका है पौदगलीक सुखोंके अन्ते दुःख है क्षण मात्रके सुखोंके लिये अज्ञानी जीवों चीर कालके दुःख संचय करते है यह सब सत्य है. अब मुझे चारित्र धर्मका ही सरणा लेना चाहिये । धन्नोकुमार भगवानसे वन्दन नमस्कार कर बोला कि हे करुणासिन्धु । मुझे आपका प्रवचन पर श्रद्धा प्रतीत आइ और यह वचन मुझे रुचता भी है आप फरमाते है एसे ही इस संसारका स्वरुप है मैं मेरी माताको पुच्छके आपके पास दीक्षा ग्रहन करुगा “जहासुखम्" परन्तु हे धन्ना । धर्म कार्यमें प्रमाद नही करना चाहिये । धन्नोकुमर भगवान कि आज्ञाकों स्वीकार कर वन्दन नमस्कार कर अपने च्यार अश्वके रथपर बेठके स्व स्थानपर आया निज मातासे अर्ज करी कि हे माता आज में भगवानकि देशना • श्रवण कर संसारसे भयभ्रांत हुवा हुं । वास्ते आप आज्ञा देवे मैं भगवानके पास दीक्षा ग्रहन करूं। माताने कहा कि हे लालजी Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुं मेरे एक ही पुत्र है तुझे बत्तीस ओरतो परणाई है और यह अपरिमत्त द्रव्य जो तुमारे बापदादावोंके संचे हुवे है इसको भोगवो बाद में तुमारे पुत्रादिकी वृद्धि होनेपर भुक्त भोगी हो जावोंगे फीर हम काल धर्मको प्राप्त हो जावे बादमें दीक्षा लेना।। · कुमरजीने कहा कि हे माता यह जीव भव भ्रमन करते हुवे अनेक वार माता पिता स्त्रि भरतार पुत्र पितादिका संबन्ध करता आया है कोइ कीसीको तारणेको समर्थ नही है धन दोलत राजपाट आदि भी जीवको बहुतसी दफे मीला है इन्हीसे जीवका कल्याण नही है । वास्ते आप आज्ञा दो में भगवानके, पास दीक्षा लुंगा। माताने अनुकुल प्रतिकुल बहुत समझाया परन्तु कुमरतो एक ही वातपर कायम रहा आखिर माताने यह विचारा कि यह पुत्र अब घरमे रहेनेवाला नहीं है तो मेरे हाथसे दीक्षाका महोत्सव करके ही दीक्षा दिरादुं । एसा विचार कर जेसे थाषचा शेठाणी कृष्णमहाराजके पास गइ थी ओर थावचा पुत्रका दीक्षामहोत्सव कृष्णमहाराजने किया था इसी माकीक भद्रा शेठाणीने भी जयशत्रुराजाके पास भेटणो (निजरांणा) लेके गइ और धनाकुमारका दीक्षामहोत्सव जयशत्रुराजाने कीया इसी माफीक यावत् भगवान वीरप्रभुके पास धन्नोकुमर दीक्षा ग्रहनकर मुनि वनगया इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्य व्रतको पालन करने लग गया. जिस दिन धन्नाकुमारने दीक्षा लीथी उसी दिन अभिग्रह धारण कर लीयाथा कि मुझे कल्पे है जावजीव तक छठ छठ तप पारणा ओर पारणेके दिन भी आंबिल करना । जब पारणेके दिन आंबिलका आहार संस्पृष्ट हस्तोंसे देनेवाला देवे । यह भी बचा हुवा अरस निरस आहार वह भी श्रमण शाक्यादि माहण ब्राह्मणादि अतीथ कृपण वणीमंगादि भी उस आहारकी इच्छा न करे Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ एसा पारणे आहार लेना । इस अभिग्रहमें भगवानने भी आज्ञा देदी कि 'जदासुखं'। ___ धन्ना अनगारके पहला छठ तपका पारणा आया तब पहले पहोरमें स्वाध्याय करी दुसरे पहोरमें ध्यान (अर्थचिंतवन) कीया तीसरे पहोरमें मुहपत्ती तथा पात्रादि प्रतिलेखन किया बादमें भगवानकी आज्ञा लेके काकंदी नगरीमें समुदाणी गौचरी करने में प्रयत्न कर रहे थे । परन्तु धन्ना मुनि आहार केसा लेता था कि बिलकुल रांक वणीमग पशु पंखी भी इच्छा न करे इस कारणसे मुनिकों आहार मीले तो पाणी नही मीले और पाणी मीले तो आहार नही मीले तथापि उसमें दीनपणा नही था व्यग्रचित्त नही शुन्य चित्त नही कुलुषित चित्त नही विषवाद नही, समाधिचित्तसे यत्नाकी घटना करता हुवा एषणा संयुक्त निदोषाहारकी खप करता हुवा यथापर्याप्ति गौधरी आ जानेपर काकंदी नगरीसे नी. कल भगवान के समिप आये भगवानको आहार दीखाके अमूछीत अहित सर्प जेसे वीलमे शीघ्रता पूर्वक जाता है इसी माफीक स्वाद नही करते हुवे शीघ्रता पूर्वक आहार कर तप संयममे रमणता कर रहाथा इसी माफीक हमेशां प्रति पारणे करने लगे। एक समय भगवान वीरप्रभु काकंदी नगरीसे विहार कर अन्य जनपद देशमे विहार करते हुवे धन्नो अनगार तपश्चर्या करता हुवा तथा रूपके स्थिवर भगवानका विनय भक्ति कर हग्यारा अंगका ज्ञान अभ्यासभी कियाथा । धन्ना अनगारने प्रधान घोर तपश्चर्या करी जिसका शरीर इतना तो कृष-दुर्बल बन गयाकि जिस्का व्याख्यान खुद शास्त्रकारोंने इस मुजब कीया है। (१) धन्ना अनगारका पग जेसे वृक्षकि शुकी हुइ छाली तथा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काष्टकी पावडीयों ओर जरग (पुराणे जुते ) कि माफीक था. वहांभी मांस रुधीर रहीत केवल हाड चमसे विंटा हुषाही देखाव देताथा। (२) धन्ना अनगारके पगकि अंगुलीयों जैसे मुग उडद चोलादि धान्यकि तरूण फलीको तापमें शुकानेपर मीली हुइ होती है इसी माफीक मांस लोही रहीत केवल हाडपर चर्म विंटा हुवा अंगुलीयोंका आकारसा मालुम होता था। (३) धन्ना मुनिका जांघ (पीडि) जेसे काफनामकि वनस्पति तथा वायस पक्षिके जंघ माफीक तथा कंक या ढोणीये पक्षि विशेप है उसके जंघा माफीक यावत् पूर्वमाफीक मांस लोही रहीत थी। (४) धन्नामुनिका जानु (गोडा) जेसे कालिपोरें-काकजंध वनस्पतिविशेष अर्थात् बोरकी गुटली तथा एक जातिकी बनस्पतिके गांट माफीक गोडा था यावत् मांस रहित पुर्ववत् । (५) धन्नामुनिके उरू (साथल) जेसे प्रियंगु वृक्षकी शाखा, बोरडी वृक्षकी शाखा, संगरी वृक्षकी शाखा, तरुणको छेदके धुपमें शुकानेके माफीक शुष्क थी यावत् मांस लोही रहित । (६) धन्ना अनगारके कम्मर जेसे ऊंटका पाँव, जरखका पाँव, भैसका पाँधके माफीक यावत् मंस लोही रहित। (७) धन्नामुनिका उदर जेसे भाजन-सुकी हुइ चर्मकी दीवडी, रोटी पकानेकी केलडी, लकडेकी कठीतरी इसी माफीक यावत् मंस रक्त रहित । (८)धनामुनिकी पांसलीयों जेसे वांसका करंडीया, वांसकी टोपली, वांसके पासे, वांसका सुंडला यावत् मंस रक्तरहित थे। (९) धन्नामुनिके पृष्टविभाग जेसे वांसकी कोठी, पाषाणके गोलोंकी श्रेणि इत्यादि मंस रक्त रहित । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ (१०) धनामुनिका हृदय (छाती) बीछानेकी चटाइ, पत्तेका पंखा, दुपडपंखा, तालपत्तेका पंखा माफीक यावत् पूर्ववत् । (११) धन्नामुनिके बाहु जेसे समलेकी फली, पहाडकी फली. अगल्थीयांकी फली इसी माफीक यावत् मंस रक्त रहित । (१२) धन्नामुनिका हाथ जेसे सुका छाणा, वडके पत्ते, पोलासके पत्तेके माफीक यावत् मंस रक्त रहित। (१३) धन्नामुनिकी हस्तांगुलीयों जेसे तुवर, मुग, मठ, उडदकी तरुण फली, काठके अतापसे सुकाइके माफीक पुर्ववत् । (१४) धन्नामुनिकी ग्रीवा ( गरदन ) जेसे लोटाका गला, कुडाका गला, कमंडलके गला इत्यादि मंस रहित पुर्ववत् । . (१५) धन्नामुनिके होठ जेसे सुकी जलोख, सुका श्लषम, लाखकी गोली इसी माफीक यावत् (१६) धन्नामुनिकी जिह्वा सुका बडका पत्ता, पोलासका पत्ता, गोलरका पत्ता, सागका पत्ता यावत् (१७) धन्नामुनिका नाक जेसे आम्रकी कातली, अंबाडीकी गुठली, बीजोरेकी कातली, हरीछेदके सुकाइ हो इस माफीक (१८) धन्नामुनिकी आंखो (नेत्र) वीणाका छिद्र, वांसलीके छिद्र, प्रभातका तारा इसी माफीक (१९) धन्नामुनिका कान मूलेकी छाल, खरबुमेकी छाल, कारेलाकी छाल इसी माफीक (२०) धनामुनिका शिर ( मस्तक ) जेसे तुंबाका फल, कोलाका फल, सुका हुवा होता है इसी माफीक-- - (२१) धन्नामुनिका सर्व शरीर सुखा, भुखा, लुखा, मांस रक रहित था। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ इन्ही २१ बोलोमें उदर, कान, होठ, जिह्वा ये च्यार बोलमें हर नहीं था। शेष बोलोमे मंस रक्त रहित केवल हाडपर चरम विटा हुवा नशा आदिसे बन्धा हुवा शरीर मात्रका आकार दीखाइ दे रहा था । उठते बेठते समय शरीर कडकड बोल रहा था। पांसली आदिकी हड्डीयों मालाके मणकोंकी माफीक अलग अलग गीनी जाती थी, छातीका रंग गङ्गाकी तरंग समान तथा सुका सर्पका खोखा मुताबिक शरीर हो रहा था, हस्त तो सुका थोरोंके पंजे समान था, चलते समय शरीर कम्पायमान हो जाता था, मस्तक डीगडीग करता था, नेत्र अन्दर बेठ गया था, शरीर निस्तेज हो रहा था, चलते समय जेसे काष्टका गाडा, सुके पत्तेका गाडा तथा कोडीयोंके कोथलोंका अवाज होता है इसी माफीक धन्नामुनिके शरीरसे हड्डीयोंका शब्द होता था हलना, चलना, बोलना यह सब जीवशक्तिसे ही होता था। विशेषाधिकार खंदकजीसे देखो ( भगवती सूत्र श० २ उ०१) इतना तो अवश्य था कि धन्नामुनिके आत्मबलसे उन्होंका तपतेजसे शरीर बडा ही शोभायमान दीखाइ दे रहा था। ___ भगवान् वीरप्रभु भूमंडलको पवित्र करते हुवे राजगृह नगरके गुणशीलोद्यानमें पधारे।श्रेणिकराजादि भगवानको वन्दनको गया। देशना सुनके राजा श्रेणिकने प्रश्न किया कि हे करुजासिन्धु! आपके इन्द्रभूति आदि चौदा हजार मुनियोंके अन्दर दुष्कर करणी करनेवाला तथा महान् निर्जरा करनेवाला मुनि कोन है ? भगवानने उत्तर फरमाया कि हे श्रेणिक! मेरे चौदा हजार मुनियोंके अन्दर धन्ना नामका अनगार दुष्कर करणीका करनेवाला है महानिर्जराका करनेवाला है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५. श्रेणिकराजाने पुछा कि क्या कारण है ? भगवान ने फरमाया कि हे धराधिप ! काकंदी नगरीमें भद्रा शेठाणीका पुत्र बत्तीस रंभावोंके साथ मनुष्य संबन्धी भोग भोगव रहा था। वहांपर मेरा गमन हुवा था, देशना सुन मेरे पास दीक्षा लेके छठ छठ पारणां, पारणे आंबिल यावत् धन्नामुनिका शरीरका संपूर्ण वर्णन कर सुनाया । " इस वास्ते धन्ना० 29 श्रेणिकराजा भगवानको वन्दन - नमस्कार कर धन्नामुनिके पास आया, वन्दन - नमस्कार कर बोला कि हे महाभाग्य ! आपको धन्य है पुर्वभवमें अच्छा पुन्योपार्जन कीया था कृतार्थ है आपका मनुष्यजन्म, सफल किया है आपने मनुष्यभव इत्यादि स्तुति कर वन्दन कर भगवानके पास आया अर्थात् जेसा भगवान ने फरमायाथा वेसा ही देखनेसे बडी खुशी हुई भगवानको वन्दकर अपने स्थानपर गमन करता हुषा । नोमुनि एक समय रात्रीमें धर्म चितवन करता हुवा एसा feere fकया कि अब शरीर से कुच्छ भी कार्य हो नहीं सका है पौद्गल भी थक रहा है तो सूर्योदय होते ही भगवानसे पूछके त्रिपुलगिरि पर्वत पर अनसन करना ठीक है सूर्योदय होते ही भगParafts आज्ञा ले सर्व साधु साध्वियों से क्षमत्क्षामणा कर स्थिवर मुनियोंके साथ धीरे धीरे विपुलगिरि पर्वतपर जाके व्यारो आहारका त्याग कर पादुगमन अनसन कर दीया आलोचन पूर्वक एक मासका अनसनके अन्तमे समाधिपूर्वक काल कर उ लोकमें सर्व देवलोकोंके उपर सर्वार्थ सिद्ध वैमानमें तीन सागरोपमकी स्थितिवाले देवता हो गये अन्तर महुर्त में पर्याप्ता भावको प्राप्त हो गया । स्थिवर भगवान धन्ना मुनिको काल किया जानके परि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ निर्धानार्थ काउस्सग्ग कर धन्ना मुनिका वस्त्रपात्र लेके भगवानके पास आये वस्त्रपात्र भगवानके आगे रखके बोले कि हे भगवान आपका शिष्य धन्ना नामका अनगार आठ मासकि दीक्षा एक मासका अनसन कर कहां गया होगा? भगवानने कहा कि मेरा शिष्य धन्ना नामका अनगार दुष्कर करनी कर नव मासकि सर्व दीक्षा पाल अन्तिम समाधी पुर्वक काल कर उर्ध्व सर्वार्थसिद्ध नामका महा वैमानमें देवता हूवा है । उसकी तेतीस सागरोपमकि स्थिति है। गौतमस्वामिने प्रश्न किया कि हे भगवान धन्ना नामका देव देवलोकसे चवके कहां जावेगा ? भगवानने उत्तर दीया। महाविदेहक्षेत्रमें उत्तम जातिकुलके अन्दर जनम धारण करेगा वह कामभोगसे विरक्त होके और स्थिवरोंके पास दीक्षा लेके तपश्चर्यादिसे कर्मोका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगा। इति तीसरे वर्गका प्रथम अध्ययन समाप्तं । इसी माफीक सुनक्षत्र अनगार परन्तु बहुत वर्ष दीक्षा पाली सर्वार्थसिद्ध वैमानमें देव हुवे महाविदेहक्षेत्रमे मोक्ष जावेगा। इति ॥२॥ इसी माफीक शेष आठ परन्तु दो राजगृह, दो श्वेतंबिका, दो वाणीया ग्राम, नवमो हथनापुर दशमो राजग्रह नगरके ( ३ ) ऋषिदाश (४) पेलकपुत्र (५) रामपुत्रका (६) चन्द्रकुमार (७) पोष्टीपुत्र (८) पेढालकुमार (९) पोटिलकुमार (१०) वहलकुमारका। धनादि नव कुमारोंका महोत्सव राजावोंने ओर बहलकु. मारका पिताने कीयाथा। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ धन्नो नवमास, बेहलकुमर मुनि छे मास, शेष आठ मुनियो बहुत काल दीक्षा पाली । दशो मुनि सर्वार्थसिद्ध वैमान तेतीस सागरोपम कि स्थिति में देवता हुवे वहांसे चवके महाविदह क्षेत्रमे मोक्ष जावेगा इति श्री अनुत्तरो वाइसूत्रके तीसरे वर्गके दशा ध्ययन समाप्तं । इति श्री अनुत्तरोववाह सूत्रका मूलपरसे संक्षिप्त सार । saat शीघ्रबोध भाग १७ वा समाप्तम्. ঊ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पु. नं. ६१ श्री कक्कसूरीश्वर सदगुरुभ्यो नमः । अथ श्री शीघ्रबोध भाग १८ वां wr-wo-wwewr-o-rrror wr श्रीसिद्धसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः अथश्री निरयावलिका सूत्र. ( संक्षिप्त सार) -*Okeपांचमा गणधर सौधर्मस्वामि अपने शिष्य जम्बुप्रते कह रहे है कि हे चीरंजीव जम्बु ! सर्वज्ञ भगवान वीरप्रभु निरयाघलिका सूत्रके दश अध्ययन फरमाये है वह मैं तुझ प्रति कहता हुँ । इस जम्बुद्विपमें भारतभूमिके अलंकाररूप अंगदेशमें अलकापुरी सदृश चम्पा नामकि नगरी थी. जिस्के बाहार इशानकोनमे पुर्णभद्र नामका उद्यान. जिसके अन्दर पुर्णभद्र यक्षका यक्षायतन. अशोकवृक्ष और पृथ्वीशीलापट्ट. इन सबका वर्णन 'उववाद सूत्र' में सविस्तार किया हुषा है शास्त्रकारोंने उक्त सूत्रसे देखनेकि सूचना करी है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ उस चम्पानगरीके अन्दर कोणक नामका राजा राज कर राहाथा जिसके पद्मावति नामकि पट्टराणी अति सुकुमाल ओर सुन्दराङ्गी, पांचेन्द्रिय परिपूर्ण महीलावोंके गुण संयुक्त अपने पति के साथ अनुरक्त भोग भोगव रहीथी । उस चंपा नगरी में श्रेणकराजाका पुत्र काली राणीका अंगज. काली नामका कुँमर वसताथा। एक समयकि वात है कि कालीकुमार तीन हजार हस्ती. तीन हजार अभ्व. तीन हजार रथ. और तीन क्रोड पेदलके परिवार से. कोणकराजा के साथ रथमुशल संग्राममे गया था । काली कुमारकी माता कालीराणी एक समय कुटम्ब चिंता में वरतती हुइ एसा विचार कियाकि मेरा पुत्र रथमुशल संग्राम में गया है वह संग्राममें जय करेगा या नहीं ? जीवेगा या नही ? में मेरा कुँमरकों जीता हुषा देखुगा या नही ? इस वातोंका आर्तध्यान करने लगी । भगवान् वीरप्रभु अपने शिष्य समुदायके समुहसे पृथ्वीमंडलकों पवित्र करते हुवे चम्पानगरीके पुर्णभद्र उद्यानमे पधारे। परिषदावृन्द भगवन्कों वन्दन करनेकों गये. इदर कालीराणीने भगवन् के आगमनकि वार्ता सुनके विचार किया कि भगयान सर्वज्ञ है चलो अपने मनका प्रश्न पुच्छ इस वातका निर्णय करे कि यावत् मेरा पुत्र जीवताकों मैं देखुगी या नही । कालीराणीने अपने अनुचरोंकों आदेश दीया कि मैं भगवानकों वन्दन करने के लिये जाती हु वास्ते धार्मीक प्रधानरथ. अच्छी सजावटकर तैयार कर जल्दी लावों । कालीराणी आप मज्जन घरके मज्जन कर अपने धारण करने योग अन्दर प्रवेश किया स्नान वस्त्राभूषण जोकि बहुत किं Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति थे वह धारणकर बहुतसे नोकर चाकर खोजा दास दासीयोके परिवारसे बहारके उत्स्थान शालमें आइ, वहांपर अनुचरोने धार्मीक रथको अच्छी सजावट कर तैयार रखा था, कालीराणी उस रथपर आरूढ हो चम्पानगरीके मध्यबजारसे निकलंके पूर्णभद्रोद्यानमें आइ, रथसे उतरके सपरिवार भगवानको वन्दननमस्कार कर सेवा-भक्ति करने लगी। - भगवान् वीरप्रभुने कालीराणी आदि श्रोतागणोंको विचित्र प्रकारसे धर्मदेशना सुनाइ कि हे भव्य ! इस अपार संसारके अन्दर जीव परिभ्रमन करता है इसका मूल कारण आरंभ और परिग्रह है। जबतक इन्होंका परित्याग न किया जाय. वहांतक संसारके जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक इत्यादि दुःखसे छुटना नहोगा, वास्ते सर्वशक्तिवान् बनके सर्व व्रत धारण करो अगर एसा न बने तो देशव्रती बनो, प्रहन किये हुवे व्रतोंको निरतिचार पालनेसे जीव आराधि होता है. आराधि होनेसे ज० तीन उत्कृष्ट पन्दरा भवमें अवश्य मोक्ष जाता है इत्यादि देशना दी। धर्मदेशना श्रवण कर श्रोतागण यथाशक्ति त्याग वैराग्य धारण किया उस समय कालीराणी देशना श्रवण कर हर्ष संतोषको प्राप्त हो वोली कि हे भगवान् ! आप फरमाते है वह सब मत्य है. मैं संसारसमुद्रके अन्दर इधर उधर गोथा खा रही हूँ। हे करूणासिन्धु ! मेरा पुत्र कालीकुमार सैन लेके कोणकराजाके साथ रथमुशल संग्राममे गया है तो क्या वह शत्रयोंपर विजय करेगा या नहीं? जीवेगा या नहीं? हे प्रभो! में मेरा पुत्रको जीवता देदुंगी या नहीं? ___ भगवान ने उत्तर दिया कि हे कालीराणी! तेरा पुत्र तीन बजार हस्ती, तीन हजार अश्व, तीन हजार रथ और तीन कोड Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ पैदलके परिवार से रथमुशल संग्राम में गया है। पहले दिन चेटक ' नामका राजा जो श्रेणिकराजाका सुसरा चेलनाराणीका पिता, कोकराजाके नानाजी कालीकुमारके सामने आया कालीकुमारने कहा कि हे वृद्धवयधारक नानाजी ! आपका बाण आने दिजिये. नहीं फीर बाण फेंकनेकी दिलहीमें रहेगी । चेटकराजा पार्श्वनाथजीका श्रावक था वह वगर अपराधे किसीपर हाथ नहीं उठाते थे। कालीकुमारने धनुषवाणको खुब जोर से चढाया. अपने ढींचणको जमीनपर स्थापन कर धनुष्यकी फाणचको कानतक लेजाके जोर से बाण फेंका परन्तु चेटकराजाको बाण लगा नहीं. आता हुवा बाणको देख चेटकराजाको बहुत गुस्सा हुवा | अपना अपराधि जानके चेटकराजाने पराक्रम से बाण मारा जिससे जेसे पर्वतकी ट्रंक गीरती है इसी माफीक एकही बाणमें कालीकुमार मृत्युधर्मको प्राप्त हो गया। बस, सामंत शीतल हो गये, ध्वजापताका निचे गिर पडी वास्ते हे कालीराणी ! तुं तेरा कालीकुमार पुत्रको जीवता नही देखेगी । कालीराणी भगवानके मुखाविन्दसे कालीकुँमर मृत्युकि वात श्रवणकर अत्यन्त दुःखसे पुत्रका शोक के मारे मुच्छित होके जेसे छेदी हुइ चम्पककी लता धरतीपर गिरती है इसी माफीक कालीराणी भी धरतीपर गिर पडी सर्व अंग शीतल हो गया. * महुर्त्तादि कालके बाद में कालीराणी सचेतन होके भगवान से १ चेटकराजाको देवीका वर था वास्ते उनका बाण कभी खाली नहीं जाता था। * छद्मस्थोंका यह व्यवहार नही है कि किसीको दुख हो एसा कहे परन्तु सभविष्यका लाभ जाना था. कल्पातितोंके लिये कीसी प्रकारका कायदा नही होता है । इसी कारण से कालीराणीने दीक्षा ग्रहन करी थी । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहने लगी कि हे भगवान आप फरमाते हो वह सत्य है मेने नजरोंसे नही देखा है तथापि नजरोसे देखे हुवे कि माफीक सत्य है एसा कह वन्दन नमस्कार कर अपने रथपर बेठके अपने स्थानपर जाने के लिये गमन किया। नोट- अन्तगढ दशांग आठवे वर्गमें इस कारणसे वैरागको प्राप्त हो भगवानके पास दिक्षा ग्रहन कर एकावली आदि तपश्वर्या कर कर्म रिपुको जीत अन्तमें केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गइ है एवं दशो राणीयो समझना। भगवानने कालीराणीको उत्तर दीयाथा उस समय गौतमस्वामि भी वहां मोजुद थे. उत्तर सुनके गौतमस्वामिने प्रश्न किया कि हे भगवान । कालीकुमार चेटक राजाके बाणसे संग्राममें मृत्यु धर्मको प्राप्त हुवा है तो एसे संग्राममें मरनेवालोंकि क्या गति होती है अर्थात् कालीकुँमर मरके कौनसे स्थानमें उत्पन्न हुवा होगा? . भगवानने उत्तर दिया कि हे गौतम! कालीकुमार संग्राममें मरके चोथी पंकप्रभा नामकि नरकके हेमाल नामका नरकावासभे दश सागरोपमकि स्थितिवाला नैरियापणे उत्पन्न हुवा है। हे भगवान ! कालीकुमारने कोनसा आरंभ सारंभ समारंभ कोया था. कोनसा भोग संभोगमे गृद्धित, मुञ्छित और कोनसा अशुभ कमौके प्रभावसे चोथी पंकप्रभा नरकके हेमाल नरकावा समें नैरियापणे उत्पन्न हुवा है। उत्तरमें भगवान सविस्तारसे फरमाते है कि हे गौतम! जिस समय राजगृह नगरके अन्दर श्रेणिकराजा राज कर रहा था. श्रेणिकराजाके नन्दा नामकि राणी सुकुमाल सुन्दराकारथी उसी नन्दाराणीके अंगज अभय नामका कुमर था। वह च्यार. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ बुद्धि संयुक्त साम, दाम, दंड, भेदका जाणकार, राजतंत्र चलानेमें बडाही दक्ष था. श्रेणिकराजाके अनेक रहस्य कार्य गुप्त कार्य करने में अग्रेश्वर था। राजा श्रेणिकके चेलना नामकिराणी एक समय अपनि सुखशय्या के अन्दर न सुती न जागृत एसी अवस्थामै राणीने सिंहका स्वप्न देखा. राजासे कहना. स्वप्नपाठकोंको बोलाना. स्वप्नोंके अर्थ श्रवण करना. यह सर्व गौतमकुमारके अधिकारसे देखना। गणी चेलनाको साधिक तीन मास होनेपर गर्भके प्रभावसे दोहले उत्पन्न हुवे. किं धन्य है जो गर्भवन्ती मातावों जिन्होंका जीवित सफल है कि राजा श्रेणिकके उदरका मांस जिसकों तेलके अन्दर शोला बनाके मदिरा के साथ खाती हुइ भोगवती हुइ रहे अर्थात् दोहलाको पूर्ण करे । एसा दोहलेको पुर्ण नहीं करती हुइ चेलना राणी शरीरमें कृष बन गइ. शरीर कम जोर. पंडररंग. बदन पिलखा. नेत्रोंकि चेष्टा आदि दीन वन गइ औरभी चेलनाराणी, पुष्पमाला गन्ध वस्त्र भूषण आदि जो विशेष उपभोगमें लिये जातेथे-उसको त्यागरूप कर दिया था और अहोनिश अपने गालोंपर हाथ दे के आतेध्यान करने लगी। .. उस समय चेलना राणीके अंगकि रक्षा करनेवाली दासीयोंने चेलना राणीकि यह दशा देखके राजा श्रेणकसे सर्व वात निवेदन कि । राजा सर्व शत सुनके चेलनाराणीके पास आया और चेलना राणीको सुखे लुखे भूखे अर्थात् शरीरकि खराब चेष्टा देख बोलाकि हे प्रिये! आपका यह हाल क्यो हो रहा है. तुमारे दोलमें क्या वात है वह सब हमकों कहो. ? राणी राजाका वचन सुना, परन्तु पीच्छा उत्तर कुच्छभी न दीया. वातभी ठीक है कि उत्तर देने योग्य वातभी नहीथी। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ... राजाश्रेणिकने और भी दोय तीनवार कहा परन्तु राणीने कुच्छ भी जवाब नही दीया । आखिर राजाने कहा, हे राणी! क्या तेरे एसी भी रहस्यकी बात है कि मेरेकेां भी नही कहती है ? राणीने कहा कि हे प्राणनाथ मेरे एसी कोइ भी वात नही है कि मैं आपसे गुप्त रखुं परन्तु क्या करूं वह वात आपको केहने योग्य नहीं है । राजाने कहा कि एसी कोनसी बात है कि मेरे सुनने लायक नहीं है मेरी आज्ञा है कि जो बात हो सो मुझे कह दो। यह सुनके राणीने कहा कि हे स्वामि! उस स्वप्न प्रभावसे मेरे जो गर्भ के तीन मास साधिक होने से मुझे दोहला उत्पन्न हुवा है कि मैं आपके उदरके मांसके शुले मदिराके साथ भोगवती रहुं । यह दोहला पुर्ण न होनेसे मेरी यह दशा हुई है। राजा श्रेणिक यह बात सुनके बोला कि हे देवी! अब आप इस बात कि बिलकुल चिंता मत करो. जिस रीतीसे यह तुमारा दोहला सम्पूर्ण होगा. एसा ही में उपाय करुंगा इत्यादि मधुर शरोसे विश्वास देके राजाश्रेणिक अपने कचेरीका स्थान था वहां पर आ गये। राजाश्रेणिक सिंहासन पर बैठके विचार करने लगा कि अब इस दोहले को कीस उपायसे पूर्ण करना. उत्पातिक, विनयिक, कर्मीक, परिणामिक इस च्यारों बुद्धियोंके अन्दर राजाने खुब उपाय सोच कर यह निश्चय किया कि यातो अपने उदरका मांस देना पडेगा. या अपनि जबान जावेगा. तीसरा कोइ उपाय राजाने नही देखा। इस लिये राजा शुन्योपयोग होके चिंता कर रहा था। - इतनेमें अभयकुंमर राजाको नमस्कार करनेके लिये आया, राजाको चिंताग्रस्त देखके कुंमर बोला। हे तातजी! अन्य Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनोंमे जब मैं आपके चरण कमलों में मेरा शिर देता हुं तब आप मुझे बतलाते है राज कि वार्ता अलाप करते है। आजतो कुच्छ भि नही, इतना ही नही बल्के मेरे आनेका भि आपको स्याद ही ख्याल होगा। तो इसका कारण क्या है मेरे मोजुदगीमें आपको इतनि क्या फीकर है ? राजाश्रेणिकने चेलनाराणीके दोहले सबन्धी सब वात कही हे पुत्र ! मैं इसी चिंतामें हुं कि अब राणी चेलनाका दोहला केसे पुर्ण करना चाहिये। यह वृत्तान्त सुनके अभयकुमार बोला हे पिताजी! आप इस बातका किंचित् भी फीकर न करे, इस दोहलाको मैं पुर्ण करूगा यह सुन राजाको पूर्ण विसवास होगया. अभयकुमार राजाको नमस्कार कर अपने स्थानपर गया. वहां जाके विचार करने पर एक उपाय सोचके अपने रहस्यके कार्य करनेवाले पुरुषोंकों बुलवाये। और कहेने लगे कि तुम जाथों मांस वेचनेवालोंके वह तत्कालिन मांस रुधिर संयुक्त गुप्तपणे ले आवो. इदर राजा श्रेणिकसे संकेत कर दीया कि जब आपके रदय पर हम मंस रखके काटेंगे तब आप जौरसे पुकार करते रहना, राणी चेलनाकों एक किनातके अन्तरमे बेठादी इतनेमे वह पुरुष मांस ले आये. बुद्धिके सागर अभयकुमरने इसी प्रकारसे राणी चेलनाका दोहला पुर्ण कर रहाथा कि राजाके उदर पर वह लाया हुवा मंस रख उसको काट काटके शुले बनाके राणीको दीया राणी गर्भके प्रभावसे उस्को आचरण कर अपने दोहलेको पुर्ण कीया। तब राणीके दीलको शान्ति हुइ । नोट-शास्त्रकारोंने स्थान स्थान पर फरमाया है कि है भव्य जीवो! कीसी जीवोंके साथ वैर मत रखो. कर्म मत बान्धो बजाने वह वैर तथा कर्म किस प्रकारसे कीस बखतमें उदय Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ होगा. राजा श्रेणिक और चेलनाके गर्भका जीव एक तापसके rai कर्म उपार्जन कीयाथा वह इस भवमें उदय हुवा है। इस कथानिक सबन्धका सार यह है कि कीसीके साथ वैर मत रखो. कर्म मत बान्धो. किमधिकम् । एक समय राणीने यह विचार किया कि यह मेरे गर्भका जीव गर्भ में आते ही अपने पिताके उदर मांसभक्षण कीया है, तो न जाने जन्म होने से क्या अनर्थ करेंगा. इस लिये मुझे उचित है कि गर्भही में इसका विध्वंस करदुं । इसके लिये अनेक प्रयोग किया परन्तु सबके सब निष्फल हो गये । गर्भके दिन पुर्ण होने से चेलनाराणीने पुत्रको जन्म दिया। उस बखत भी चेलनाराणीने विचार किया कि यह कोई दुष्ट जीव है. जो कि गर्भ में आते ही fuare उदरका मांसभक्षण कीया था, तो न जाने बडा होनेसे कुलका क्षय करेगा या और कुच्छ करेगा. वास्ते मुझे उचित है कि इस जन्मा हुवा पुत्रको कीसी एकान्त स्थानपर ( उखरडीपर) डाल | एसा विचार कर एक दासीको बुलाके अपने पुत्रको एकान्तमें डालने की आज्ञा दे दी। वह हुकमकी नोकर- दासी उस राजपुत्रको लेके आशोक नामकी सुकी हुइ वाडी में एकान्त जाके डालदीया । उस राजपुको भनवाडीमें डालती ही पुत्रके पुन्योदय से वह वाडी नवपल्लवित हो गइ । उसकी खबर राजाके पास आइ । नोट- दासीने विचारा कि में राणीके कहने से कार्य किया है परन्तु कभी राजा पुच्छेगा तो में क्या जवाब दूंगी. वास्ते यह सब हाल राजासे अर्ज करदेना चाहिये । दासीने सब हाल राजासे कहा. राजाने सुना । फिर राजा श्रेणिक अशोकवाडीमें आया. वहांपर देखा जाये तो Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ तत्काल जन्मा हुवा राजपुत्र एकान्त स्थानमें पडा है, देखतेही राजा बहुत गुस्से हुवा, उस पुत्रको लेके राणी चेलनाके पास आया. राणी चेलनाका तिरस्कार करता हुवा राजाने कहा कि हे देवी! यह तुमारे पहला ही पहले पुत्र हुवा है, इसका अनुक्रमे अच्छी तरहसे संरक्षण करो. राणी चेलना लज्जित होके राजाके वचनोंको सविनय स्वीकार कर अपने शिरपे चढाये और राजा श्रेणिकके हाथसे अपने पुत्रको ग्रहन कर पालन करने लगी। जब राजपुत्रको एकान्त डालाथा, उस समय कुमारकी एक अंगुली कुर्कुटने काटडाली थी. उसीमें रौद्रविकार होके रद हो गह. उस्के मारा वह बालक रौद्र शब्दसे रूदन कर रहा था. राणीने राजाके कहनेसे पुत्रको स्वीकार कीया था। परन्तु अन्द रसे तो वह भी व्रती थी. जब पुत्रका रूदन शब्द सुन खुद राजा श्रेणिकपत्रके पास आके उस सडे हुवे रौद्रको अपने मुहमे अंगुलीसे चुस चुसके बाहर डालता था. जब कम वेदना होनेसे वह पुत्र स्वल्प देर चुप रहता था और फीर सदन करने लगजाता था. इस माफीक राजा रातभर उस पुत्रका पालन करने में खुबही प्रयत्न किया था। नोट-पाठकवर्गको ध्यान रखना चाहिये कि मातापिताचौका कितना उपकार है और वह बालककी कितनी हिफाजत रखते है। उस बालकको तीजे दिन चन्द्र-सूर्यके दर्शन कराये, छठे दिन रात्रिजाग्रन किया, इग्यारमे दिन असूचि कर्म दूर किया, बारहवें दिन असनादि बनायके न्यात-जातवालोंको बुलायके उस कुमारका गुणनिष्पन्न नाम जोकी इस बालकको जन्मसमय Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकान्त डालनेसे कुर्कटने अंगुली काटडाली थी, वास्ते इस कुमारका नाम " कोणक " दीया था. . .. क्रमसर वृद्धि होते हुवेके अनेक महोत्सव करते हुवे. युवक भवस्था होनेपर आठ राजकन्यावोंके साथ विवाह कर दिये, मावत् मनुष्य संबन्धी कामभोग भोगवता हुवा सुखपूर्वक काल निर्गमन करने लगा. - एक समय कोणककुमारके दिलमें यह विचार हुवा कि श्रेणिकराजाके मोजुदगीमें मैं स्वयं राज नहीं करसक्ता हुं, वास्ते कोई मोका पाके श्रेणिकराजाको निवडबन्धन कर मैं स्वयं राज्याभिषेक करवाके राज करता हुवा विचरं । केह दिन इस बातकी कोशीष करी, परन्तु एसा अवसर ही नहीं बना। तब कोणकने काली आदि दश कुमारोंको बुलवायके अपने दीलका विचार सुनाके कहा कि अगर तुम दशो भाइ हमारी मददमें रहो तो में अपने राजका इग्यारा भाग कर एक भाग मैं रखुंगा और दश भाग तुम दशो भाइयोंको भेंट दूंगा। दशो भाइयोंने भी राजके लोभमें आके इस बातको स्वीकार कर कोणककी मददमें हो गये। “परिग्रह दुनियोंमें पापका मूल कारण है परिग्रहके लिये केसे केसे अनर्थ किये जाते है." . एक समय कोणकने श्रेणिकराजाको पकड निवडबन्धन बांधके पिंजरे में बन्ध कर दिया, और आप राज्याभिषेक करवाके स्वयं राजा बन गया. एक दिन आप स्नानमन्जन कर अच्छे वस्त्राभूषण धारण कर अपनी माता चेलनाराणीके चरण ग्रहन करनेको गया था. राणी चेलनाने कोणकका कुच्छ भी सत्कार या आशिर्वाद नहीं दिया। इसपर कोणक बोला कि हे माता! आज तेरे पुत्रको राज प्राप्त हुवा है तो तेरेको हर्ष क्यों नहीं Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। चेलनाने उत्तर दिया कि हे पुत्र! तुमने कोनसा अच्छा काम किया है कि जिस्के जरिये मुझे खुशी हो। क्यों कि मैं तो गर्भमें आया था जबहीसे तुझे जानती थी, परन्तु तेरे पिताने तेरेपर बहुतही अनुराग रखा था जिस्का फल तेरे हाथोंसे मीला है अर्थात् तेरे देवगुरु तुल्य तेरा पिता है उन्होंको पिंजरेमें बन्ध कर तुं राजप्राप्त कीया है, यह कितने दुःखकी वात है. अब तुंही कह के मुझे किस बातकी खुशी आवे । ____ कोणकके पूर्वभवका वैर श्रेणिकराजासे था वह निवृत्ति हो गया. अब चेलनाराणीके वचनका कारण मीलनेसे कोणकने पुच्छा कि हे माता! श्रेणिकराजाका मेरेपर केसा अनुराग था. तब गर्भसे लेके सब बात राणी चलनाने सुनाइ । इतना सुनतेही अत्यन्त भक्तिभावसे कोणक बोला कि हे माता! अब मैं मेरे हाथसे पिताका बन्धन छेदन करुंगा। एसा कहके कोणकने एक कुरांट (फी) हाथमें लेके श्रेणिकराजाके पास जाने लगा। उधर राजा श्रेणिकने कोणकको आता हुवा देखके विचार किया कि पेस्तर तो इस दुष्टने मुझे बन्धन बांधके पिंजरामें पुर दीया है अब यह कुरांट लेके आरहा है तो न जाने मुझे कीस कुमौतसे मारेगा. इससे मुझे स्वयंही मर जाना अच्छा है, एसा विचारके अपने पास मुद्रिकामे नंग-हीरकणी थी वह भक्षण कर तत्काल शरीरका त्याग कर दीया. जब कोणक नजदीक आके देखे तो श्रेणिक निःचेष्ट अर्थात् मृत्यु पाये हुवे शरीरही देखाइ देने लगा. उस समय कोणकने बहुत रूदन-विलाप किया परन्तु भव्यताको कोन मीटा सके. उस समय सामन्त आदि एकत्र होके कोणकको आश्वासना दी. तब कोणकने रूदन करता हुवा तथा अन्य लोक मीलके श्रेणिकका निर्वाण कार्य अर्थात् मृत्युक्रिया करी। बत्पश्चात् कितनेक रोजके बाद कोणकराजा राजगृहीमें निवास Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० करते हुवेको बडाही मानसिक दुःख होने लगा. बखत बखतपर दीलमें आति है कि मैं केसा अधन्य हुँ, अपुन्य हुँ, अकृतार्थ हुँ, कि मेरे पिता-देवगुरुकी माफीक मेरेपर पर्ण प्रेम रखनेवाले होनेपर भी मेरी कितनी कृतघ्नता है । इत्यादि दीलको बहुत रंज होनेके कारणसे आप अपनी राजधानी चम्पानगरी में ले गये और वहांही निवास करने लगा। वहांपर काली आदि दश भाइयोंको बुलायके राजके इग्यारा भाग कर एक भाग आप रखके शेष दश भाग दश भाइयोंको भेट दीया, और राज आप अपने स्वतंत्रतासे करने लगगये, और दशों भाइओंने कोणककी आज्ञा स्वीकार करी। चम्पानगरीके अन्दर श्रेणिकराजाका पुत्र चेलनाराणीका अंगज वहलकुमार जोके कोणकराजाके छोटाभाइ निवास करता था श्रेणिकराजा जीवतो 'सीचांणक गन्ध हस्ती और अठारे सरोंवाला हार देदीया था। सींचाणक गन्ध हस्ती केसे प्राप्त हुवा यह बात मूलपाठमें नही है तथापि यहां पर संक्षिप्त अन्य स्थलसे लिखते है। ____एक वनमें हस्तीयोंका युथ रहता था उस युथके मालीक हस्तीको अपने युथका इतना तो ममत्व भाव था कि कीसी भी हस्तणीके बच्चा होनेपर वह तुरत मारडालता था कारण अगर यह बच्चा बडा होनेपर मुझे मारके युथका मालिक बन जावेगा। सब हस्तणीयोंके अन्दर एक हस्तणी गर्भवन्ती हो अपने पेरोंसे लंगडी हो १-२ दिन युथसे पीच्छे रेहने लगी, हस्तीने विचार किया कि यह पावोंसे कमजोर होगी। हस्तणीने गर्भ दिन नजीक जानके एक तापसके वृक्षजालीके अन्दर पुत्रको जन्म दीया. फीर आप युथमें सेमल हो गइ । तापसोंने उस हस्ती बचेको पोषण कर बडा किया और उसके सुंदके अन्दर एक Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालटी डालके नदीसे पाणी मंगवायके बगेचेको पाणी पीलाना शरू कर दीया बगेचेकों पाणी सींचन करनेसे ही इसका नाम तापसोने सींचाणा हस्ती रखाथा। कितनेक कालके बाद हस्ती बच्चा, मदमें आया हुवा, उन्ही तापसोंके आश्रम और बगेचेका भंग कर दीया, तापस क्रोधके मारा राजा श्रेणिक पास जाके कहा कि यह हस्ती आपके राजमे रखने योग्य है राजाने हुकम कर हस्सीकों मंगवायके संकल डाल बन्ध कर दीया उसी रहस्ते तापस निकलते हस्तीको उदेश कर बोला रे पापी ले तेरे कीये हुवे दुष्कृत्यका फल तुजे मीला है जो कि स्वतंत्रतासे रहेनेवाले तुझको आज इस कारागृहमें बन्ध होना पड़ा है यह सुन हस्ती अमर्षके मारे संकलोको तोड जंगल में भाग गया. राजा श्रेणिकको इस बातका बडाही रंज हुवा तब अभयकुमार देवीकि आराधना कर हस्तीके पास भेजी देवी हस्तीको बोध दीया और पुर्वभव व. हलकुमरका संबन्ध बतलाया इतनेमें हस्तीको जातिस्मरण ज्ञान हुषा, देवीके कहनेसे हस्ती अपने आप राजाके वहां आ गया. राजा मी उसको राज अभिशेष कर पट्टधारी हस्ती बना लिया इति । ___ हारकि उत्पत्ति-भगवान् वीरप्रभु एक समय राजगृह: नगर पधारे थे राजा श्रेणिक बडाही आडंबरसे भगवानको चन्दन करनेको गया। ___ सौधर्म इन्द्र एक बखत सम्यकवकि दृढताका व्याख्यान करते हुवे राजा श्रेणिककि तारीफ करी कि कोई देव दानव भि समर्थ नही है कि राजा श्रेणिकको समकितसे झोभित करसके । ___ सर्व परिषदोंके देवोंने यह बात स्वीकार करलीथी. परन्तु होय मिथ्यादृष्टी देवोंने इस पातकों न मानते हुवे अभिमान कर मृत्युलोकमे आने लगे। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... राजाश्रेणिक भगवान कि अमृतमय देशना श्रवणकर वापीस मगरमें जा रहा था. उस समय दोय देवता श्रेणिकराजांकि परिक्षा करने के लिये एकने उदरवृद्धि कर साध्विका रूप बनाया. दुकान दुकान सुंठ अजमाकि याचना कर रहीथी. राजा श्रेणिकने देख उसे कहा कि अगर तेरेको जो कुच्छ चाहिये तो मेरे वहां से लेजा परन्तु यहां फीरके धर्मकि हीलना क्यों करती है। साध्विने उत्तर दीया कि हे राजन् ! मेरेजेसी ३६००० है तुं कीस कीसको सामग्री देवेगा। राजाने कहाकी हे दुष्टा! छतीस हजार हे वह सर्व रत्नोंकि माला है तेरे जेसी तो एक तुंही है। दुसरा देव साधु बन एक मच्छी पकडनेकि जाल हाथमे लेके जाताको राजा देख उसे भी कहा कि तेरी इच्छा होगा वह हमारे यहां मील जायगा। तब साधु बोलाकि एसे १४००० है तुम कीस कीसको दोगे. राजा उत्तर दीया कि १४००० रत्नोकि माला है तेरे जेसा तुंही है यह दोनों देवतोने उपयोग लगाके देखा तो राजाके एक आत्मप्रदेशमें भी शंका नही हुइ. तब देवतावोंने बडीही तारीफ करी। एक मृत्युक (मटी) का गोला और एक कुंडलकि जाडी यह दो पदार्थ देके देव आकाशमे गमन करते हुवे । राजा श्रेणिकने कुंडल युगल तो नंदाराणीको दीया और मटीका गोला राणी चेलनाको दीया। चेलना उस मटीका गोलाको देख अपमानके मारी गोलाको फेक दीया, उस गोलाके फेक देनेसे फूटके एक दीव्य हार नीकला इति। . इस हार और सींचाण हस्तीसे वहलकुमारका बहुतसा प्रेमथा इस धास्ते राजा श्रेणिक ओर राणी चेलनाने जीवतो हार और हस्ती वहलकुमरको दे दीया । पहलकुमर अपने अन्तेवर साथमे लेके चम्पानगरीके मध्य भागसे निकलके गंगा महा नदी पर जातेथे. वहांपर सीचांना Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धहस्ती वहलकुमारकि राणीको शुंडसे पकड जल क्रीडा करता हुवा. कबी अपने शिरपर कबी कुंभस्थलपर कबी पीठपर इत्यादि अनेक प्रकारकि क्रिडा करताथा. एसे बहुतसे दिन निर्गमन हो गये। इस बातकी चम्पानगरीके दोय तीन चार तथा बहुतसे रहस्ते एकत्र होते है वहांपर लोक श्लाघा करने लगे कि राजका मोजमजा सुख साहीबी तो वहलकुमर ही भोगव रहा है कि जिन्होंके पास सीचांनक गन्धहस्ती और अठारा सर वाला दिव्य हार है। एसा सुन राजाकोणकके नही है क्यु कि उसके शिर तो सब राजकि खटपट है इत्यादि लोक प्रवाह चल रहाथा। __नगर निवासी लोगोंकी वह वार्ता कोणकराजाकी राणी पद्मावतिने सुनी, ओरतोंका स्वभावही होता है कि एक दुसरेकी संपत्तिको शान्तदृष्टिसे कभी नहीं देख सक्ती है, तो यहां तो देराणी-जेठाणीका मामला होनेसे देखही केसे सके । पद्मावती राणी हारहस्ती लेने में बड़ी ही आतुरता रखती हुइ. उसी बखत राजा कोणकके पास जाके अच्छी तरह राजाका कान भर दिया कि यह दुनियोंका .अपवाद मुझसे सुना नहीं जाता है, वास्ते आप कृपा कर हारहस्ती मुझे मंगवा दो। राजा कोणक अपनी राणीकी बात सुनके बोला कि हे देवी! इस बातका कुच्छ भी विचार न करो. हारहस्ती मेरे पितामाताकी मोजुदगीमें वहलकुमारको दीया गया है और वह मेरा लघुबन्धव है, तो वह हारहस्ती मेरे पास रहे तो क्या और पहलकुमारके पास रहे तो क्या. अगर मंगाना चाहुंगा तबही मंगा सकुंगा । इत्यादि मधुरतासे उत्तर दिया। दुनियां कहती है कि " वांका पग बाइपदमोंका है" राणी पञ्चावतीको संतोष न हुवा। फीर दोय तीनवार राजासे अर्ज Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ करी परन्तु राजाने तो इस बातपर पूर्ण कान भी नहीं दिया । जब राणीने अपना स्त्रीचरित्रका प्रयोग किया, राजासे कहा कि आप इतना विश्वास रख छोडा है. भाइ भाइ करते है परन्तु आपके भाइका आपकी तर्फ कितना भक्तिभाव है ? मुझे उमेद नहीं है कि आपके मंगानेपर हार-हस्ती भेज देवे. अगर मेरे कहने पर आपका इतबार न हो तो एक दफे मंगवाके देख लिजिये । एसा तूनाके मारा राजा कोणक एक आदमीको वहलकुमारके पास भेजा, उसके साथ संदेशा कहलाया था कि हे लघुभ्रात ! तु जाणता है कि राजमे जो रत्नादिकी प्राप्ति होती है वह सब राजाकी ही होती है, तो तेरे पास जो हारहस्ती है वह मेरेको सुप्रत कर दे, अर्थात् मुझे दे दो। इत्यादि । वह प्रतिहार जाके कोणकराजाका संदेशा वहलकुमारको सुना दिया। __वहलकुमारने नम्रताके साथ अपने वृद्धभ्रात (कोणकराजा) को अर्ज करवाइ कि आप भी श्रेणिकराजाके पुत्र, चेलनाराणीके अंगज हो और मैं भी श्रेणिकराजाके पुत्र-चेलनाराणीके अंगज हूँ और वह हारहस्ती अपने मातापिताकी मोजदगीमें हमको दिया है इसके बदले में आपने राजलक्ष्मीका मेरेको कुच्छ भी विभाग नहीं देते हुवे आप अपने स्वतंत्र राज कर रहे हो। यद्यपि आपके मातापितावोंने किया हुवा विभाग नामंजुर हो तो अबी भी आप मुझे आधा राज दे देवे और हारहस्ती ले लिजिये। प्रतिहारी कोणकराजाके पास आके सर्व वार्ता कह दी. जब राणी पद्मावतीको खबर हुइ, तब एक दो ना और भी मारा कि लो, आपके भाइने आपके हुकमके साथ ही हारहस्ती भेज दिया है इत्यादि। राजा कोणकने दोय तीन दफे अपना प्रतिहारके साथ कह Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाया, परन्तु वहलकुमर कि तर्फसे वह ही उत्तर मीला कि यातो अपने मातापिताके इन्साफ पर कायम रेहे, हारहस्ती मेरे पास रेहने दो, आप अपने राजसे ही संतोष रखो, अगर आपको अपने मातापिताके इन्साफ मंजुर न रखना हो तो आधा राज हमको देदो और हारहस्ती लेलो इत्यादि । राजा कोणक इस बात पर ध्यान नही देता हुवा हारहस्ती लेनेकि ही कोशीष करता रहा। बहलकुमरने अपने दीलमें सोचा कि यह कोणक जब अपने पिताको निवड बन्धन कर पिंजरेमें डालनेमे किंचत् मात्र शरम नहीं रखी तो मेरे पाससे हारहस्ती जबर जस्ती लेले इसमें क्या आश्चर्य है ? क्यों कि राजसत्ता सैन्यादि सब इसके हाथमें है। इस लिये मुझे चाहिये कि कोणककि गेरहाजरीमें मैं अपना अन्तेवर आदि सब जायदाद लेके वैशालानगरीका राजा चेटक जो हमारे नानाजी है उन्होंके पास चला जाउं। कारण चेटकराजा धर्मिष्ट न्यायशील है वह मेरा इन्साफ कर मेरा रक्षण करेगा। अलम् । अवसर पाके पहलकुमर अपने अन्तेवर और हारहस्ती आदि सब सामग्री ले चम्पानगरीसे निकल वैशालानगरी चला गया. वहां जाके अपने नानाजी चेटकराजाको सब हकिकत सुनादि. चेटकराजाने वहलकुमारका न्यायपक्ष जान अपने पास रख लिया। - पीच्छेसे इस वातकी राजा कोणकको खबर हुइ तब बहुत ही गुस्सा किया कि वहलकुमरने मुझे पुच्छा भी नही और वैशाला चला गया उसी बखत एक दूतको बोलाया और कहा कि तुम वैशालानगरी जाओ हमारे नानाजी चेटकराजा प्रत्ये हमारा नमस्कार करो और नानाजीसे कहो कि वहलकुमर कोणकराजाको Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ विगर पुच्छा आया है तो आप कृपाकर हारहस्ती और वहलकुमारको वापीस भेज दीरावे । दूत वैशाला जा के राजा चेटकको नमस्कार कर कोणकका संदेसा कह दीया उसके उत्तरमें राजा चेटक बोला कि हे दूत ! तुम कोणकको कहदेना कि जेसे श्रेणिकराजाका पुत्र चेलना देवीका अंगज कोणक है एसाही श्रेणिकराजाका पुत्र चेलना. राणीका अंगज वहलकुमार है इन्साफ कि वात यह है कि हारहस्ती अवल तो कोणकको लेना ही नही चाहिये क्यों कि वहलकुमर कोणकका लघु भ्रात. है और माता पितावोंने दिया हुवा है अगर हारहस्ती लेना ही चाहते हो तो आधा राज वहलकुमरको दे देना चाहिये। इस दोनों बातोंसे एक बात कोणक मंजर करता हो तो हम वहलकुमरको चम्पानगरी भेज सक्ते है इतना कहके दूतको वहांसे विदाय कर दीया। दूत वैशाला नगरीसे रवाना हो चम्पानगरी कोणकराजाके पास आयके सब हाल सुना दिया और कह दिया कि चेटकराजा वहलकुमारको नही भेजेगा. इसपर कोणकराजाको और भी गुस्सा हुवा. तब दूतको बुलायके कहा कि तुम वैशाला नगरी जावो. चेटकराजा प्रत्ये कहना कि आप वृद्ध अवस्थामें ही राजनीतिके जानकार हो. आप जानते हो कि राजमें कोई प्रकारके पदार्थ उत्पन्न होते है. वह सब राजाका. ही होता है तो आप हारहस्ती और वहल कुमारको कृपा कर भेज दीरावे. इत्यादि कहके दूतको दुसरीवार भेजा. दूत कोणकराजाका आदेशको सविनय स्वीकार कर दुसरी फे वैशाला नगरी गया. सब हाल चेटकराजाको सुना दिया. दुसरो दफे चेटकराजाने वही उत्तर दिया कि मेरे तो कोणक Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ और बहल दोनों सरखा है. परन्तु इन्साफकी बात है कि आधा राज दे दे और हारहस्ती ले ले. एसा कहके दूतको रवाना किया। दूत चम्पानगरी आके कोणकराजाको कह दिया कि सिवाय आधा राजके हारहस्ती और वहलकुमारको नहीं भेजेगा. एसा आपके नानाजी चेटकराजाका मत है । यह सुनके कोणकराजाको बहुत ही गुस्सा हुवा. तब तीसरीवार दूतको बुलायके कहा कि जावो, तुम वैशाला नगरी राजा चेटकके सिंहासन पादपीठको डाबे पगकी ठोकर देखें भालाके अन्दर पोके यह लेख देनेके बाद कह देना कि हे चेटकराजा ! मृत्युकी प्रार्थना करनेको साहसिक क्यो हुवा हैं. क्या तु कोणकराजाको नहीं जानता है अगर या तो तुं हारहस्ती और हलकुमारको कोणकराजाकी सेवा में भेजदे नहीं तो कोणकराजासे संग्राम करने को तैयार हो जाव. इत्यादि समाचार कहना । दूत तीसरी दफे वैशाला नगरी आया. अपनी तर्फसे चेटकराजाको नमस्कार कर फीर अपने मालिक कोणकराजाका सब हुकम सुनाया। दूतका वचन सुनके चेटकराजा गुस्सेके अन्दर आके दूतसे कहा कि जब तक आधा राज कोणक वहलकुमारको न देवेंगा, arine हारहस्ती और वहलकुमार कोणकको कभी नहीं . मीलेगा । दूतका बडा ही तिरस्कार कर नगरकी बारी द्वारा निकाल दिया । दूत चम्पानगरी आके राजा कोणकको सर्व बात निवेदन कर कह दिया कि राजा चेटक कबी भी हारहस्ती नहीं भेजेगा । यह बात सुन कोणकराजा अति कोपित हो काली आदि दश भाइयोंको बुलवायके सर्व वृत्तान्त सुनाया और बेटकराजासे Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ संग्राम करनेको तैयार होनेका आदेश दिया. काली आदि दशो भाइ राजके दश भाग लिया था वास्ते उन्होंको कोणकका हकम मानके संग्रामकी तैयारी करना ही पडा । राजा कोणकने कहा कि है बन्धुओ ! आप अपने अपने देशमें जाके तीन तीन हजार गज, अश्व, रथ और तीन कोड पैदलसे युद्धकि तैयारी करो, एसा हुकम कोणकराजाका पा के अपने अपने राजधानीमें जा के सैना कि तैयारी कर कोणकराजाके पास आये । कोणकराजा दशों भाइयोंको आता हुवा देखके आप भी तैयार हो गया, सर्व सैन्य तेतीस हजार हस्ती तेतीस हजार अश्व, तेतीस हजार संग्रामीक रथ, तेतीस क्रोड पैदल इस सब सैनाको एकत्र कर अंगदेशके मध्य भागसे चलते हुवे विदेह देशकि तर्फ जा रहाथा। इधर चेटकराजाको ज्ञात हुवा कि कोणकराजा कालीआदि दश भाइयोंके साथ युद्ध करनेको आ रहा है। तब चेटकराजा कासी, कोशाल, अठारा देशके राजावो जो कि अपने स्वधर्मी थे उन्होंकों दूतों द्वारा बुलवाये । अठारा देशके राजा धर्मप्रेमी बुलवाने के साथ ही चेटकराकी सेवामे हाजर हुवे । और बोले कि हे स्वामि : क्या कार्य है सो फरमाए । __ चेटकराजाने वहलकुमारकी सब हकिकत कह सुनाइ कि अब क्या करना अगर आप लोगोंकी सलाह हो तो वहलकुमरको दे देवे. और आप लोगोकी मरजी हो तो कोणकसे संग्राम करे। यह सुनके कर्मवीर अठारा देशोंके राजा सलाह कर बोले कि इन्साफके तौरपर न्यायपक्ष रख सरणे आयाका प्रतिपालन क. रना आपका फर्ज है अगर कोणक राजा अन्याय कर आपके उपर युद्ध करनेकों आता हो तो हम अठारा देशोंके राजा आपकि तर्फ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ से युद्ध करनेकों तैयार है । चेटक राजाने कहा कि अगर आपकि एसी मरजी हो तो अपनि अपनि राजधानीमें जाके स्व स्व सैना तैयार कर जलदी आजाओ । इतना सुनतेही सब राजा स्वस्थ स्थान गये. वहांपर तीन तीन हजार हस्ती, अश्व, रथ, और तीन तीन क्रोड पैदल तैयार कर राजा चेटकके पास ओ पहुंचे , राजा चेटक भी अपनी सैना तैयार कर सर्व सतावन हजार हस्ती. सतावन हजार अश्व. सतावन हजार रथ सतावन क्रोड पैदल का दल लेके रवाना हुआ वहभि अपने देशान्त वि. भागमें अपना झंडा रोप पडाव कर दिया। उधर अंग देशान्त विभागमें कोणक राजाका पडाव होगया है। दोनों दलके निशांन ध्वजा पताकाओं लगगइ है । संग्रामकि तैयारी हो रही है हस्ती वालोंसे हस्तीवाले. अश्ववालोंसे अश्ववाले. रथवालों से रथवाले पैदल सुभटोंसे पैदलवाले. इत्यादि सादृश युगल बनके संग्राम प्रारंभ समय योद्धा पुरुषोंका सिंहनादसे गगन गर्जना कर रहा था अनेक प्रकार के वाजिंत्र वाज रहे थे. कर्म सूराओंका उत्साव संग्रामके अन्दर वढ रहा था. आपसमे शस्त्रोंकि वर्षाद हो रहीथी अनेक लोकोंका शिर पृथ्वीपर गिर रहाथा, रौद्रसे धरतीपर कीच मचरहा था हां हां कार शब्द होरहा था. कोणक राजाकी तर्फसे सेनापति कालीकुमार नियत कियागया था. इधरकि तर्फसे चेटकराजा सैनाका अग्रेश्वर था दोनों सैमापतियोंका आपसमें संबाद होते चेटक राजाने कहाकि में विनो अपराधिकों नही मारताहु, यह सुन कालीकुमार कोपित हो, १ चेटक राजाकि सैनाकि रचना शकटके आकारपर रचि गई थी. - २ कोणक राजाकि सैना स्थमुशळ तथा गरुडके आकारपर रची गइ थी. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अपने धनुष्यपर बांणको चढाके बडे ही जौरसे बांण फेंका किन्तु चेटक राजाका बांण लगा नही परन्तु अपराधि जाणके चेटकराजाने एकही बांण में कालीकुमारको मृत्युके धामपर पहुंचा दिया जब कालीकुमार सेनापति गिर पडा. तब उस रोज संग्राम बन्ध हो गया। भगवान् फरमाते है कि हे गौतम! कालीकुमारने इस संग्रामके अन्दर महान् आरंभ, सारंभ, समारंभ कर अपने अध्यवसायोंको मलीन कर महान् अशुभ कर्म उपार्जन कर काल प्राप्त हो. चोथी पंकप्रभा नरकके अन्दर दश सागरोपमकी स्थितिवाला नैरिया हुवा है । गौतमस्वामिने प्रश्न किया कि हे भगवान्! यह कालीकुमा रका जीव चोथी नरकसे निकल कर कहां जावेगा । भगवानने उत्तर दिया कि हे गौतम! कालीकुमारका जीव नरकसे निकलके महाविदेह क्षेत्र में उत्तम जाति - कुलके अन्दर जन्म धारण करेगा. (कारण अशुभ कर्म बन्धे थे वह नरकके अन्दर भोगव लिया था ) वहांपर अच्छा सत्संग पाके सुनियोंकी उपासना कर आत्मभाव प्राप्त हो, दीक्षा धारण करेगा. महान् तपश्चर्या कर घनघातीयां कर्म क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर अनेक भव्य जीवोंको उपदेश दे. अपने आयुष्यके अन्तिम श्वासोश्वासका त्याग कर मोक्षमें जावेगा. यह सुन भगवान् गौतमस्वामी प्रभुको वन्दन- नमस्कार कर अपनी ध्यानवृत्तिके अन्दर रमणता करने लगगये । इति निरयावलिका सूत्र प्रथम अध्ययन | (२) दुसरा अध्ययन - सुकालीकुमारका. इन्होंकी माताका नाम सुकालीराणी है. भगवानका पधारणा, सुकालीका पुत्रके लिये Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न करना. भगवान् उत्तर देना. गौतमस्वामिका प्रश्न पुछना. भगवान् सविस्तर उत्तर देना. यह सब प्रथमाध्ययनकी माफीक अर्थात् प्रथम दिनके संग्राममें कालीकुमारका मृत्यु हुधा था और दुसरे दिन सुकालीकुमारका मृत्यु हुवा था । इति । (३) तीसरा अध्ययन-महाकालीराणीका पुत्र महाकालीकुमारका है। (४) चोथा अध्ययन-कृष्णाराणीके पुत्र कृष्णकुमारका है । (२) पांचवा अध्ययन-सुकृष्णाराणीका पुत्र सुकृष्णकुमारका है। (६) छठा अध्ययन-महाकृष्णाराणीके पुत्र महाकृष्णकुमारका है। (७) सातवां अध्ययन-वीरकृष्णाराणीके पुत्र वीरकृष्णका है। (८) आठवां अध्ययन-रामकृष्णाराणीका पुत्र रामकृष्णका है। (९) नववां अध्ययन-पद्मश्रेणकृष्णाराणीके पुत्र पद्मश्रेणकृष्णकुमारका है। (१०) दशवां अध्ययन महाश्रेण कृष्णा राणीके पुत्र महाश्रेण कृष्णका है। यह श्रेणिक राजाकी दश राणीयोंके दश पुत्र है. दशों पुत्र चेटकराजाके हाथसे दश दिनोमें मारा गया है. दशों राणीयोंने भगवानसे प्रश्न किया है. भगवानने प्रथमाध्ययनकी माफीक उत्तर दीया है. दशों कुमार चोथी नरक गये है. महाविदेहमें दशों जीव मोक्ष जावेगा. काली आदि दशों राणीयों पुत्रके निमित्त वीर वचन सुन अन्तगढ दशांगके आठवा वर्गमें दीक्षा ले तपश्चर्या कर अन्तिम केवळज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गइ है. इति निरयावलीका सूत्रके दश अध्ययन समाप्त हुघे. नोट:-दश दिनों में दश भाइ खतम हो गये फिर उस Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रामका क्या हुवा, उसके लिये यहां पर भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा ९ से सबन्ध लिखा जाता है. ____नोट-जब दश दिनो कोणक राजाके दशों योद्धा संग्राममें काम आगये तब कोणकने विचारा कि एक दीनका काम और है क्योंकि चेटक राजाका बाण अचुक है. जेसे दश दिनों में दश भाइयोंकी गति हुइ है वह एक दिन मेरे लीये ही होगा वास्ते कुच्छ दूसरा उपाय सोचना चाहीये. एसा विचार कर कोणक राजाने अष्टम तप ( तीन उपवास ) कर स्मरण करने लगा कि अगर कीसी भी भवमें मुझे वचन दीया हो, वह इस बखत आके मुझे सहायता दो एसा स्मरण करनेसे 'चमरेन्द्र' और 'शकेन्द्र यह दोनों और कोणक राजा कीसी भवमे तापस थे उस बखत इन दोनो इन्द्रोने वचन दीया था, इस कारण दोनों इन्द्र आये, कोणकको बहुत समझाये कि यह चेटक राजा तुमारा नानाजी है अगर तुं जीत भी जायगा तो भी इसीके आगे हारा जेसाही होगा वास्ते इस अपना हठको छोड दे । इतना कहने पर भी कोणकने नहीं माना ओर इन्द्रोंसे कहा कि यह हमारा काम आपको करना ही होगा । इन्द्र वचनके अन्दर बन्धे हुवे थे। वास्ते कोणकका पक्ष करना ही पडा। भगवती सूत्र-पहले दिन महाशीलाकंटक नामका संग्राम के अन्दर कोणक राजाके उदयण नामके हस्तीपर चम्मर ढोलाता हुवा कोणक राजा बेठा और शक्रेन्द्र अगाडी एक अभेद नामका शस्त्र लेके बेठ गया था जिसीसे दूसरोंका बाणादि शस्त्र कोणकको नही लगे और कोणककी तर्फसे तृण काष्ट कंकर भी फेंके तो चेटक राजाकी सेना पर महाशीलाकी माफीक मालम होता था। इन्द्रकी सहायतासे प्रथम दिनके संग्राममें ८४००००० मनुष्योंका क्षय हुवा Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस संग्राममें कोणककी जय ओर चेटक तथा अठारा देशोंके राजाओंका पराजय हुवा था। प्रायःसर्व जीव नरक तथा तीर्यचमें गये। दुसरे दिन भूताइन्द्र हस्ती पर, बीचमें कोणक राजा आगे शकेन्द्र पीछे चमरेन्द्र एवं तीन इन्द्र संग्राम करनेको गये. इस संग्रामका नाम रथमुशल संग्राम था दूसरे दिन ९६००००० मनुप्योंकी हत्या हुइ थी जिस्म १०००० जीव तो एक मच्छीकी कुक्षी में उत्पन्न हुवे थे. एक वर्णनागनत्वों देवलोकमे और उसका बाल मित्री मनुष्य गतिमें गया शेष जीव बहुलता नरक तीर्यच गतिमें उत्पन्न हुवा। उत्तराध्ययन सूत्रकी टीका शेषाधिकार है तथा कीतनीक बाते. श्रेणिक चरित्रमें भी है प्रसंगोपात कुच्छ यहां लिखी जाती है। जब कासी-कोशाल देशके अठारा राजाओंके साथ चेटक राजाका पराजय हो गया तब इन्द्र ने अपने स्थान जानेकी रजा मांगी. उस पर कोणक बोला कि में चक्रवति हुं। इन्द्रोंने कहा कि चक्रवर्ति तो बारह हो चुके है, तेरहवा चक्रवर्ति न हुवा न होगा, यह सुनके कोणक बोला कि में तेरहवा चक्रवर्ति होउंगा, वास्ते आप मुझे चौदा रत्न दीजीये दोनो इन्द्रोंने बहुतसा समझाया परन्तु कोणकने अपना हठको नहीं छोडा तब इन्द्रोंने एकेन्द्रियादि रत्नकृतव्वी बनाके दे दीया और अपना संबन्ध तोडके, इन्द्र स्वस्थान गमन करते कह दीया कि अब हमको न बुलाना न हम आवेगे यह बात एक कथाके अन्दर है. अगर कोणकने दिगविजयका प्रयाणके समय कृतव्य रत्न बनाया हो तो. भी बन सक्ता है. जब चेटकराजाका दल कमजोर होगया और वहभि जान Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयाथा कि कोणकको इन्द्र साहिता कर रहा है । तब चेटकराजा अपनि शेष रही हुइ सैना ले वैशाला नगरी में प्रवेश कर नगरीका दरवाजा बंध कर दीया वैशाला नगरीमें श्री मुनिसुव्रत भगवानका स्थुभ था, उसके प्रभावसे कोणकराजा नगरीका भंग करनेमें असमर्थ था वास्ते नगरीके वहार निवास कर बेठा था अठारा देशके राजा अपने अपने राजधानीपर चले गयेथे। वहलकुमर रात्रीके समय सीचानकगन्ध हस्तीपर आरूढ हों, कोणकराजाकि सैना जो वैशाला नगरीके चोतर्फ घेरा दे रखाथा उसी सैनाके अन्दर आके बहुतसे सामन्तोंको मार डालता था. एसे कीतनेही दीन हो जानेसे राजा कोणकको खबर हुइ तब कोणकने आगमनके रहस्ते के अन्दर खाइ खोदाके अन्दर अग्नि प्रज्वलित कर उपर आछादीत करदीया इरादाथाकि इस रस्ते आते समय अग्निमें पडके मर जायगा, “क्या कर्मोंकि विचित्र गति है. और केसे अनर्थ कार्यकर्म कराते है" रात्री समय वहलकुमार उसी रहस्तेसे आ रहाथा परन्तु हस्तीको जातिस्मरण ज्ञान हो. नेसे अग्निके स्थानपर आके वह ठेर गया. वहलकुँमरने बहुतसे अंकुश लगाया परन्तु हस्ती एक कदमभी आगे नही धरा वहलकुँमार बोला रे हस्ती ! तेरे लिये इतना अनर्थ हुवा है अब तू मुझे इस समय क्यों उत्तर देता है यह सुनके हस्ती अपनि सुंढसे पहलढुमरको दूर रख, आप आगे चलता हुवा उस अच्छादित अग्निमे जा पडा शुभ ध्यानसे मरके देवगतिमे उत्पन्न हुवा. वहलढुमरको देवता भगवानके समौसरणमें ले गया वह वहांपर दीक्षा धारण करली अठारा सरवालाहार जिस देवताने दीया था वह वापीस ले गया। पाठकों! संसारकी वृत्तिको ध्यान देके देखिये जिसहार और Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ हस्तिके लिये इतना अनर्थ हुवाथा वह हस्ती आगमे जल गया, हार देवता ले गया, वहलकुँमर दीक्षा धारण करली है । तथापि कोणक राजाका कोप शान्त नही हुवा । कोणक राजा एक निमत्तियाकों बुलवायके पुच्छा कि हे नैमित्तीक इस वैशाल नगरीका भंग केसे हो सक्ता है, निमित्तीयाने कहाकि हे राजन् कोइ प्रतित साधु हो वह इस नगरीकों भांग कर साहित हो सक्ता है राजा कोणकने यह बात सुन एक कमललता वैश्याको बुलवाके उसको कहा कि कोई तपस्वी साधुकों लावों, वैश्या राजाका आदेश पाके वहांसे साधुकि शोध करने को गइ तो एक नदी के पास एक स्थानपर कुलवालुक नामका साधु ध्यान करताथा उस साधुका संबन्ध एसा है कि कुलवालुक साधु अपने वृद्ध गुरुके साथ तीर्थयात्रा करनेकों गया था एक पर्वत उत्तरतों आगे गुरु चल रहेथे. कुशीष्यने पीच्छे से एक पत्थर (वडोशीला ) गुरुके पीछे डाली. गुरुका आयुष्य अधिक होने से शीलाको आति हुइ देख रहस्तेसे हुर हो गये, जब शिष्य आया तब गुरुने उपालंभ दीयाकि हे दुरात्मन् मेरे मारने का विचार कीया था, जा कीसी औरतके योग्य से तेरा चारित्र भ्रष्ट होगा एसा कहके उस कुपात्र शिष्यको निकाल दीया. वह शिष्य गुरुके वचन असत्य करनेकों एकान्त स्थानपर तपश्चर्या कर रहा था | वहां पर कमललता वैश्या आके साधुकों देखा. वह तपस्वी साधु तीन दिनोंसे उतरके एक शीलाकों अपनि जबां से तीनवार स्वाद लेके फीर तपश्चर्याकि भूमिकापर स्थित हो जाता था, वैश्याने उस शीलापर कुच्छ औषधिका प्रयोग (लेपन) कर दीया जब साधु आके उस शीलापर जबानसे स्वाद लेने लगा वह स्वाद मधुर होनेसे साधुकों विचार हुबाकि Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहमेरे तपच्चर्याका प्रभाव है, उस औषधिके प्रयोगसे साधुकों टटी और उलटी इतनी होगइ कि अपना होश भुलगया, तब वेश्याने उस साधुकि हीफाजितकर सचैतनकिया.साधुउसका उपकार मानके बोलाकि तेरे कुच्छ कामदोतो मुझे कहे, तेरे उपकार कावदला देउ । वैश्या बोलीके चलीये । वस । राजा कोणके पास ले आइ, कोणकने कहाकि हे मुनि इस नगरीका भंग करा दो। वह साधु वहांसे नगरीमें गया नगरीके लोक १२ वर्ष हो जानेसे बहुत व्याकुल हो रहे थे. उस निमत्तीयाका रूप धारण करनेवाले साधुसे लोकोंने पुच्छा कि हे साधु इस नगरीको सुख कब होगा । उत्तर दिया कि यह मुनि सुव्रतस्वामिका स्थुभको गिरा दोगे तव तुमकों सुख होगा । सुखाभिलाषी लोकोंने उस स्थुभको गिरा दीया. तब राजा कोणकने उस नगरीका भंग करना प्रारंभ कर दीया, मुनि अपना फर्ज अदा कर वहांसे चलधरा । यह वात देख चेटकराजा एक कुँवाके अन्दर पड आपघात करना शरू कीया था, परन्तु भुवनपति देव उसको अपने भुवनमें ले गया वस । चेटकराजाने वहां पर ही अनसन कर देवगति को प्राप्त हो गये। राजा कोणक निराश हो के चम्पानगरी चला गया, यह संसारकि स्थिति है कहां हार, कहां हस्ती, कहां वहलकुमर, कहां चेटकराजा, कहां कोणक, कहां पद्मावती राणी, क्रोडों मनुष्यों की हत्या होने पर भी कीस वस्तुका लाभ उठाया ? इस लिये ही महान पुरुषोंने इस संसारका परित्याग कर योगवृत्ति स्त्रीकार करी है। चम्पानगरी आनेके बाद कोणक राजाको भगवान वीर प्रभुका दर्शन हुवा और भगवानका उपदेशसे कोणकको इतना तों Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असर हुबा कि भगवानका पूर्ण भक्त बन गया. उपपातिक सूत्र में पसा उल्लेख है कि कोणक राजाकों एसा नियम था कि जबतक भगवान कहां विराजते है उसका निर्णय नही हो वहांतक मुंहपे अन्न जलभी नही लेता था. अर्थात् प्रतिदिन भगवानकि खबर मंगवाके ही भोजन करता था। जब भगवान चम्पा नगरी पधारतेथे तब वडा ही आडम्बरसे भगवानकों वन्दन करनेकों जाता था । इत्यादि पुर्ण भक्तिवान था। वन्दनाधिकार में जहां तहां कोणक राजाकि औपमा दि जाती है. इसका सविस्तार व्याख्यान उवषाइ सूत्र में है। ___ अन्तिम अवस्था में कोणक राजा कृतव्य रत्नोंसे आप चक्रवर्ति हो देश साधन करनेकों गया था तमस्रप्रभा गुफाके पास जाके दरवाजा खोलनेकों दंडरत्नसे कीमाड खोलने लगा. उस बखत देवतापोंने कहा कि बारह चक्रवर्ति हो गया है. तुम पीच्छे हटजावों नही तो यहां कोइ उपद्रव होगा. परन्तु भवितव्यताके आधिन हो कोणकने वह बात नही मांनी तब अन्दरसे अग्निकि जाला निकली जीससे कोणक वहां ही कालकर छठी तमःप्रभा नरकमे जा पहुंचा। . एक स्थलपर एमाभि उल्लेख है कि कोणकका जीव चौदा भव कर मोक्ष जावेगा तत्व केवली गम्य । प्रसंगोपात संबंध समाप्तं । इति श्रीनिरयावलिकामूत्र संक्षिप्त सार समाप्तम् । . १ कोणक १६ वर्ष कि अवस्थामें राजगादी बैठाथा ३६ वर्षो कि सर्व आयुष्य थी। एसा उल्लेख कथामें है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अथश्री कप्पवडिसिया सूत्र. (दश अध्ययन) प्रथमाध्ययन-चम्पा नगरी पुर्णभद्र उद्यान पुर्णभद्रयक्ष कोणक राजा पद्मावती राणी श्रेणक राजाकि काली राणी जिस्के काली कुमार पुत्र इस सबका बर्णन प्रथम अध्ययनसे समझना। - कालीकुमार के प्रभावति राणी. जिसको सिंह स्वप्न सूचित पद्मनामका कुमारका जन्म हुवा. माता पिताने घडाही महोत्सव किया. यावत् युवक अवस्था होनेसे आठ राजकन्यावोंके साथ पाणिग्रहन करा दिया. यावत् पंचेन्द्रियके सुख भोगवते हुवे काल निर्गमन कर रहे थे। भगवान वीर प्रभु अपने शिष्य मंडलके परिवारसे भव्य जीवोंका उद्धार करते हुवे चम्पानगरी के पुर्णभद्र उद्यान में पधारे। कोणक राजा वडाही उत्सावसे च्यार प्रकारकी सेना ले भगवानको वन्दन करनेकों जारहा था, नगर निवासी लोगभी एकत्र मीलके भगवानकों वन्दन निमत्त मध्य बजारमें आरहे थे. इस मनुष्यों के वृन्द को पद्मकुमार देखके अपने अनुचरोंसे पुच्छा कि आज चम्पानगरी के अन्दर क्या महोत्सव है ? अनुचरोंने उत्तर दीया कि हे स्वामिन् आज भगवान वीर प्रभु पधारे है वास्ते जनसमूह एकत्रहो भगवानको वन्दन करनेको जारहे है। यह सुनके पनकुमार भी च्यार अश्वोके रथपर आरूढ हो भगवानकों वन्दन करनेकों सर्व लोकोंके साथमें गया भगवानकों प्रदिक्षणा दे वन्दना कर अपने अपने योग्य स्थानपर बेठ गये। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ भगवान् वीरप्रभुने उस विस्तारवाळी परिषदाकों विचित्र प्रकार से धर्मदेशना सुनाइ, मौख्य यह उपदेश दीयाथा कि हे भव्य जीवो! इस घोर संसारके अन्दर परीभ्रमन करते हुवे प्राणीयोंकों मनुष्यजन्मादि सामग्री मीलना दुर्लभ्य है अगर कीसी पुन्योदय से मील भी जावे तो उसको सफल करना अति दुर्लभ्य eared यथाशक्ति व्रत प्रत्याख्यान कर अपनि आत्माको निर्मल बनाना चाहिये | इत्यादि परिषदा वीरवाणीका अमृतपान कर यथाशक्ति त्याग वैराग धारण कर भगवानको वन्दन नमस्कार कर अपने अपने स्थानपर गमन करने लगे । " पद्मकुमार भगवानकि देशना श्रवणकर परम वैरागको प्राप्त हुवा. उठके भगवानकों वन्दन नमस्कार कर बोलाकि हे भगवान आपने फरमाया वह सत्य है मैं मेरे मातापितावकों पुच्छ आपक समिप दीक्षा लेउंगा, भगवानने फरमाया 66 जहा सुखं जैसे गौतम कुँमर ने मातापितावोंसे आज्ञा ले दीक्षा लोथी इसी माफीक पद्मकुम भी मातापितावोंसे नम्रता पूर्वका आज्ञा प्राप्त करी, मातापितावोंने बडाही महोत्सव कर पद्मकुमारकों भगवान के पास दीक्षा दरादी । पद्म अनगार इर्यासमिति यावत् साधु बन गया. तथा रूपके स्थविरोंके पास विनय भक्ति कर इग्यारा अङ्गका अध्ययन कीया. ओरभी अनेक प्रकार कि तपश्चर्या कर अपने शरीtat खदककी माफक कृष वना दीया. अन्तिम एक मासका अनन कर समाधि पूर्वक कालकर प्रथम सौधर्म देवलोक में दोय araduate स्थितिवाला 'देवता हुवा. वह देवतोंके सुखोंका १ देवता शय्या में उत्पन्न होते है उस समय अंगुलके असंख्यातमें भाग प्रमाण अवगाहना होती है । अन्तर महुर्तमें आहार पर्याप्ती, शरीर पर्याप्ती, इन्द्रिय पर्याप्ती, श्वासोश्वास पर्याप्ती, भाषा और मनपर्याप्ती साथही में बान्धते है वास्ते शास्त्रकारोंनें Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभवकर महाविदह क्षेत्रमे उत्तम जाति-कुलमे जन्म धारण कर फीर वहांभी केवलीप्ररूपीत धर्म सेवनकर दीक्षा ग्रहनकर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगा इति प्रथम अध्ययन समाप्तं। नं० कुमारक अध्ययन. माताका नाम. पिताका नाम. दवलोक गये. दीक्षाकाल. भद्र 'मद्रा सुभद्र १ : पद्म कुमार | पद्मावती | काली कुमार | सौधर्म देवलोक | महापद्म , महापद्मावती मुकाली ,, इशान महाकाली,, | सनत्कुमार सुभद्रा कृष्ण , माहेन्द्र पद्मभद्र पद्मभद्रा मुकृष्ण ,, पद्मश्रेन ,, पद्मना महाश्रेण ,, लान्तक पद्मगुल्म ,, पद्मगुल्मा वीरश्रेण ,, महाशुक्र | निलनिगु०,, निलनिगुल्मा रामकृष्ण ,, सहस्त्र | आनन्द ,, आनन्दा पद्मश्रेणकृ०, प्राणत . , १० | नन्दन , नन्दना महाश्रेणकृ०, अच्युत ,, यह दशों कुमार श्रेणक राजाके पोते है भगवान वीर प्रभुकी देशना सुन संसारका त्याग कर भगवानके पास दीक्षा ग्रहण कर अन्तिम एकेक मासका अनशन कर देवलोकमे गये है। वहांसे सीधे ही महाविदेह क्षेत्रमें मनुष्यभव कर फीर दीक्षा ग्रहन कर कमरीपुको जीत केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगा. इति । इतिश्री कप्पवडिंसीया सूत्र संक्षिप्त सारं समाप्तम् । Owor पांच पर्याप्ती अन्तर महुर्तमें बान्धक एदकम युवकावय धारण कर लेना कहा है जहाँ देवपणे उत्पन्न होनेका अधिकार प्रात्रे वहांपर एसाही समझना । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অথখ। पुफिया सूत्रम्। ( दश अध्ययन) (१) प्रथम अध्ययन । एक समयकी बात है कि श्रमण भगवान वीरप्रभु राजगृह नगरके गुणशील उद्यानमें पधारे। राजा श्रेणिकादि पुरवासी लोक भगवानको वन्दन करनेको गये। वि. द्याधर तथा चार निकायके देव भी भगवानकी अमृतमय देशनाभिलाषी हो वहां पर उपस्थित हुवे थे। भगवान वीरप्रभु उस बारह प्रकारकी परिषदाको विचित्र प्रकारका धर्म सुनाया. श्रोतागण धर्मदेशना श्रवण कर त्याग वैराग्य प्रत्याख्यान आदि यथाशक्ति धारण कर स्वस्वस्थान गमन करते हुवे। उसी समयकी बात है कि च्यार हजार सामानिक देव, सो. लाहजार आत्मरक्षक देव, तीन परिषदाके देवों च्यार महत्तरिक देवांगना सपरिवार अन्य भी चन्द्र वैमानवासी देवता देवीयोंके वृन्दमें बेठा हुवा ज्योतीषीयोंका राजा ज्योतीषीयोंका इन्द्र अपना चंद्रवतंस वैमानकी सौधर्मी सभामें अनेक प्रकारके गीत ग्यान वाजींत्र तथा नाटकादि देव संबन्धी ऋद्धिको भोगव रहा था । ___ उस समय चन्द्र अवधिज्ञानसे इस जम्बुद्वीपके भरतक्षेत्रमें राजगृह नगरके गुणशीलोद्यान में भगवान वीरप्रभुको विराजमान देखके आत्मप्रदेशोंमें बडाही हर्षित हुवा, सिंहासनसे उठके जिस दिशामें भगवान विराजते थे उस दिशामें सात आठ कदम Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सामने जाके भगवानको वन्दन नमस्कार कर बोला कि हे भगवान आय वहां पर विराजमान है मैं यहां पर बेठा आपको वन्दन करता हुं. आप मेरी वन्दन स्वीकृत करावे । यहां पर सब अधिकार सूर्याभ देवताकी माफीक कहना। कारण देव आगमनके अधिकारमें सविस्तर अधिकार रायप्पसेनी सूत्र सूर्याभाधिकारमें ही कीया है. इतना विशेष है कि सुस्वर नामकी घंटा बजाइ थी वैक्रयसे एक हजार योजन लंबा चौडा साडा बासठ योजन उंचा वैमान बनाया था, पचवीस योजनकी उंची महंद्र ध्वजा थी. इत्यादि बहुतसे देवी देवताओंके वृन्दसे भगवानको वन्दन करनेको आया, वन्दन नमस्कार कर देशना सुनी. फिर सूर्याभकी माफीक गौतमादि मुनियोंको भक्तिपूर्वक बत्तीस प्रकारका नाटक बतलाके भगवानको वन्दन नमस्कार कर अपने स्थान जानेको गमन किया। भगवानसे गौतमस्वामिने प्रश्न किया कि हे करुणासिन्धु यह चन्द्रमा इतने रूप कहांसे बनाये. कह प्रवेश कर दीये । प्रभुने उत्तर दिया कि हे गौतम! जेसे कुडागशाल (गुप्तघर) होती है उसके अन्दर मनुष्य प्रवेश भी हो सक्ता है और निकल भी सक्ता है इसी माफीक देवोंको भी वैक्रिय लब्धि है जिससे वैक्रिय शरीरसे अनेक रूप बनाय भि सके और पीछा प्रवेश भी कर सके। पुनः गौतमस्वामिने प्रश्न किया कि हे दयालु ! इस चन्द्रने पूर्वभवमें इतना क्या पुन्य किया था कि जिसके जरिये यह देवरुद्धि प्राप्त हुइ है ? ... भगवानने उत्तर दिया कि हे गौतम ! सुन । इस जम्बुद्विपका भरतक्षेत्रके अन्दर सावत्थी नामकी नगरी थी वहां पर जय Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ शत्रु नामका राजा राज करता था उसी नगरीके अन्दर आगतिया नामका एक गाथापति वसता था वह बडा ही धनाक्ष्य और नगरीमें एक प्रतिष्ठित था " जेसे आनन्द गाथापति" उस समय तेवीसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रभु विहार करते सावत्थी नगरीके कोष्टवनोद्यानमें पधारे. राजादि सब लोग भगवानको वन्दन करनेको गये. इधर आगतिया गाथापति इस वातको श्रवण कर वह भी भगवानको वन्दन करनेकों गया। भगवानने धर्मदेशना फरमाइ संसारका असार पना और चारित्रका महत्व बतलाया. आगतिया गाथापति धर्म सुनके संसारको अ. सार जाण अपने जेष्टपुत्रको गृहकार्यमें स्थापन कर आप गंगदत्त कि माफीक वडे ही महोत्सवके साथ भगवानके पास च्यार महाव्रत रूप दीक्षा धारण करी। आगतिया मुनि पांचसमिति समता, तीन गुप्तीगुप्ता यावत् ब्रह्मगुप्ति ब्रह्मचर्य व्रत पालन करता हुवा, तथा रूपके स्थवीरोंके पास सामायिकादि इग्यारा अंगका ज्ञानाभ्यास किया । बादमें बहुतसी तपश्चर्या करते हुवे बहुत वर्षों तक चारित्रपर्याय पालन करके अन्तमें पन्दरा दिनोंका अनसन किया, परन्तु जो उत्तर गुणमें दोष' लगा था उसकी आलोचना नहीं करी वास्ते, विराधिक अवस्थामें काल कर ज्योतिषियोंके इन्द्र ज्योतिषीयोंके राजा यह चन्द्रमा हुवा है पूर्वभवमें चारित्र ग्रहण करनेका यह फल हुवा कि देवता सम्बन्धी रुद्धि ज्योती कान्ती यावत् देव भव उदय हुवा है परन्तु साथमे विरोधि होनेसे ज्योतिषी होना पडा है कारण आराधि साधुकि गति वैमानिक देवतावों कि है। १ मूल पांच महाव्रत है इसके सिवाय पिंडविशुद्धि तथा दश प्रत्याख्यान. पांच समिति. प्रतिलेखनादि यह सर्व उत्तरगुणमें है चन्द्र सूर्यने जो दोष लगाया था वह उत्तरगुणमें ही लगाया था। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ गौतमस्वामिने प्रश्न किया कि हे भगवान! चन्द्रदेवको स्थिति कितनी है। हे गौतम! एक पल्योपम और एकलक्ष वर्षकि स्थिति चन्द्रकी है। पुनः प्रश्न किया कि हे भगवान! यह चन्द्रदेव ज्योतिषीयों का इन्द्र यहांसे भव स्थिति आयुष्य क्षय होने पर कहां जावेगा? हे गौतम ! यहांसे आयुष्य क्षय कर चन्द्रदेव महाविदेह क्षेत्रमें उत्तम जाति-कुलके अन्दर जन्म धारण करेगा। भोगविलाससे विरक्त हो केवली प्ररूपीत धर्म श्रण कर संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण करेगा । च्यार घनघाती कर्म क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर सिधा ही मोक्ष जावेगा। इति प्रथम अध्ययन समाप्तम् । (२) हुसरा अध्ययनमें, ज्योतिषीयोंका इन्द्र सूर्यका अधिकार है चन्द्रकि माफीक सूर्यभि भगवानकों वन्दन करनेको आयाथा बत्तीस प्रकारका नाटक कियाथा, गौतमस्वामिको पृच्छा भगवानका उत्तर पूर्ववत् परन्तु सूर्य पूर्वभवमें सावत्थी नगरीका सुप्रतिष्ट नामका गाथापति था । पार्श्वप्रभुके पास दीक्षा, इग्यारा अंगका ज्ञान, बहुत वर्ष दीक्षा पाली, अन्तिम आधा मासका अनसन, विराधि भावसे कालकर सूर्य हूवा है एक पल्योपम एकहजार वर्षकि स्थिति. वहांसे चवके महाविदह क्षेत्रमें चन्द्रकि माफीक केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगा इति द्वितीयाध्ययन समाप्तम् ॥ (३) तीसरा अध्ययन । भगवान वीर प्रभु राजगृह नगर गुणशीला चैत्यके अन्दर पधारे राजादि वन्दनकों गया। चन्द्रकि माफीक महाशुक्र नामका गृह देवता भगवानकों वन्दन करने को आया यावत् बत्रीस प्रकारका नाटक कर वापिस चला गया। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ गौतमस्वामिने पूर्वभवकी पृच्छा करी भगवानने उत्तर फरमाया कि हे गौतम ! इस जम्बुद्विप के भरत क्षेत्रमें बनारस नामकि नगरी थी । उस नगरी के अन्दर बडाही धनाढय व्यार वेद इतिहास पुराणका ज्ञाता सोमल नामका ब्राह्मण वसता था. वह अपने ब्राह्मणोंका धर्म में बडाही श्रद्धावन्त था । उसी समय पार्श्व प्रभुका पधारणा बनारसी नगरी के उद्यानमें हुवा था. च्यार प्रकार के देवता, विद्याधर और राजादि भगवानको वन्दन करनेको आयाथा । भगवानके आगमन कि वार्ता सोमल ब्राह्मणने सुनके विचारा कि पार्श्वप्रभु यहां पर पधारे हैं तो चलके अपने दीलके अन्दर जो जो शक है वह प्रश्न पुच्छे । एसा इरादा कर आप भगवान के पास गया ( जैसे कि भगवती सूत्र में सोमल ब्राह्मण वीरप्रभुके पास गया था ) परन्तु इतना विशेष है कि इसके साथ कोई शिष्य नहीं था । सोमल ब्राह्मण पार्श्वनाथ प्रभुके पास गया था: परन्तु बन्दन-नमस्कार नहीं करता हुवा प्रश्न किया । हे भगवान्! आपके यात्रा है ? जपनि है? अव्याबाध है ? फासुक विहार है । भगवानने उत्तर दिया हां सोमल ! हमारे यात्रा भी है. जपनि भि है. अव्वाबाध भि है और फासुक विहार भी हैं । सोमलने कहा कि कोनसे कोनसे है ? भगवान ने कहा कि हे सोमल १० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) हमारे यात्रा-जो कि तप नियम संयम स्वध्याय ध्यान आवश्यकादि के अन्दर योगोंका व्यापार यत्न पुर्वक करना यह यात्रा है । यहां आदि शब्द में औरभी बोल समावेश हो सकते हैं। ( २ ) जपनि हमारे दोय प्रकारकि है (१) इन्द्रियापेक्षा (२) नोइन्द्रियापेक्षा । जिसमें इन्द्रियापेक्षाका पांच भेद है (१) श्रोत्रेन्द्रिय (२) चक्षुइन्द्रिय (३) घ्राणेन्द्रिय (४) रसेन्द्रिय (५ ) स्पर्शेन्द्रिय यह पांचो इन्द्रिय स्व स्व विषयमें प्रवृत्ति करती हुइको ज्ञानके जरिये अपने कब्जे कर लेना इसको इन्द्रिय ज. पनि कहते है, और क्रोध मान माया लोभ उच्छेद हो गया है उसकि उदिरणा नही होती है अर्थात् इस इन्द्रियं ओर कषाय रूपी योधोकों हम जीतलिये है। (३) अव्याबाध ? जे वायु पित कफ सन्निपात आदि सर्व रोग क्षय तथा उपसम है किन्तु उदिरणा नहीं है। (४) फासुक विहार । जहां आराम उधान देवकुल सभा पाणी वीगेरे के पर्व, जहां नि नपुंसक पशु आदि नहो एसी वस्ती हो वह हमारे फासुक विहार है । (प्र०) हे भगवान ? सरसव आपके भक्षण करणे योग्य है या अभक्ष है ? (उ०) हे सोमल ? सरसव भक्षभी है तथा अभक्ष भी है। ( प्र०) हे भगवान! क्या कारण है ? ( उ०) हे सोमल ? सोमलको विशेष प्रतितिके लिये कहते है कि तुमारे ब्राह्मणोंके न्यायशास्त्र में सरसव दो प्रकारके है (१) मित्र सरसवा (२) धान्य सरसवा । जिसमें मित्र सरसवाका तीन भेद है (१) साथमें जन्मा (२) साथमे वृद्धिहुइ (३) साथमें धूलादिमें खेलना । वह तीन हमारे श्रमण निग्रन्थोंको अभक्ष है और Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ 1 जो धान्य सरसव है वह दोय प्रकार के है (१) शस्त्र लगा हुवा अनि प्रमुखका । जिससे अचित हो जाता है । (२) शस्त्र नही लगाहो ( सचित ) वह हमारे श्र० नि० अभक्ष है । जो शस्त्र लगाहुवा है उसका दो भेद है (१) एषणीक बेयालास दोष रहीत (२) अनेषणीक, जो अनेसणीक है वह हमारे श्र० नि० अभक्ष है । जो एबणीक है उसका दोय भेद है (१) याचीहुइ ( २ ) अयाचीहुइ, जो, अयाचीहुई है वह श्र० नि० अभक्ष है। जो याचीहुई है उसका दो भेद है (१) याचना करनेपर भी दातार देवे वह लडिया और नदेवे वह अलद्धिया, जिसमें अलडिया तो श्र० नि० अभक्ष है ओर efer है वह भक्ष है इस वास्ते हे सोमल सरसव भक्षभि है अभक्षभि है । ( प्र०) हे भगवान ! माला अपको भक्ष है या अभक्ष है ? ( उ० ) हे सोमल ! स्यात् भक्ष भी है स्यात् अभक्ष भी है । ) क्या कारण है एसा होनेका ? ( प्र० ( उ० ) हे सोमल ! तुमारे ब्रह्मणोंके न्याय ग्रंथमें मासा दोय प्रकारके है (१) द्रव्यमासा (२) कालमासा, जिसमें कालमासा तो श्रावणमासा से यावत् आसाढमासा तक एवं बारहमासा श्र० नि० अभक्ष है और जो द्रव्यमासा है जिस्का दोय भेद है (१) अर्थमासा (२ धान्नमासा. अर्थमासा तो जेसे सुवर्ण चांदी के साथ तोल कया जाता है वह श्र० नि० अभक्ष है और धान्नमासा ( उडद ) सरसवकी माफीक जो लद्धिया है वह भक्ष है । इसवास्ते हे सामल मासा भक्ष भी है अभक्ष भी है। ( प्र०) हे भगवान ! कुलत्थ भक्ष है या अभक्ष है 1 ( उ० ) हे सोमल ? कुलत्थ भक्ष भी है अभक्ष भि है । ( प्र०) हे भगवान ! एसा होनेका क्या कारण है ? Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છૂટ उ० ) हे सोमल ! तुमारे ब्राह्मणोंके न्यायशास्त्र में कुलत्थ दो प्रकारका कहा है ( १ ) स्त्रिकुलत्थ ( २ ) धान्न कुलत्थ । जिसमें त्रिकुलत्थके तीन भेद है । कुलकन्या, कुलवहु, कुलमाता, यह श्रम निग्रन्थोंकों अभक्ष है और धान्नकुलत्थ जो सरसव धान्नकि माफक जो लद्धिया है वह भक्ष है शेष अभक्ष है इसवास्ते हे सोमल कुलत्थ भक्ष भी है तथा अभक्ष भी है । ( प्र०) हे भगवान ! आप एकाहो ? दोयहो ? अक्षयहो ? अवेद हो ? अवस्थितहो ? अनेक भावभूतहो ? ( उ० ) हां सोमल ! मैं एक भिहुं यावत् अनेक० । ( प्र० ) हे भगवान ! एसा होनेका क्या कारण है । ( उ० ) हे सोमल ! द्रव्यापेक्षामें एक हूं। ज्ञानदर्शनापेक्षामें दोय हूं. आत्मप्रदेशापेक्षा में अक्षय, अवेद, अवस्थित हूं० और उपयोग अपेक्षा अनेक भावभूत हूं, कारण उपयोग लोकालोक व्यात है वास्ते हे सोमल एक भी मैं हु यावत् अनेक भावभूत भी मैं हु. इस प्रश्नोंका उत्तर श्रवणकर सोमल ब्राह्मण प्रतिबोधीत होगया | भगवान को वन्दन नमस्कार कर बोला कि हे प्रभु! मैं आपकि वाणीका प्यासा हूं वास्ते कृपाकर मुझे धर्म सुनावों. भगवानने सोमलको विचित्र प्रकारका धर्म सुनाया. सोमल धर्म श्रवणकर बोला कि हे भगवान ! धन्य है आपके पास संसारीक उपाधियों छोड़ दीक्षा लेते है उन्हको । हे भगवान | मैं आपके पास दीक्षा लेने में तो असमर्थ हूं । किन्तु मैं आपके पास श्रावकव्रत ग्रहन करूंगा । भगवानने फरमाया कि " जहासुखं सोमल ब्राह्मण परमेश्वर पार्श्वनाथजीके "" Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ समिप श्रावकव्रत ग्रहनकर भगवानको वन्दन नमस्कार कर अपने स्थानपर गमन करता हुवा। तत्पश्चात् पार्श्वप्रभु भी बनारसी नगरीके उद्यानसे अन्य जनपद देशमें विहार कीया भगवान पार्श्वप्रभु विहार करने के बाद में कीतनेही समय बनारसी नगरीमें साधुवांका आगमन नही होनेसे सोमल ब्राह्मणकी श्रद्धा शीतल होती रहा, आखिर यह नतीजा हुवाकि पूर्वकी माफिक ( सम्यक्त्वका त्यागकर ) मिथ्यात्वी बन गया। एक समय कि बात है कि सोमलको रात्रीकि बखत कुटम्बध्यान करते हुवे एसा विचार हुवा कि मैं इस बनारसी नगरीके अन्दर पवित्र ब्राह्मणकुलमें जन्म लिया है विवाह-सादी करी है मैरे पुत्रभि हुवा है मैं वेद पुराणादिका पठनपाठनभि कीया है अश्वमेदादि पशु होमके यज्ञभि कराया है। वृद्ध ब्राह्मणोंको दक्षणादेके यज्ञस्थंभ भि रोपा है इत्यादि बहुतसे अच्छे अच्छे कार्य किया है अबीभि सूर्योदय होनेपर इस बनारसी नगरीके बाहार आम्रादि अनेक जातिके वृक्ष तथा लतावो पुष्प फलादिवाला सुन्दर बगेचा बनाके नामम्बरीकरू । एसा विचारकर सू. र्योदय क्रमसर एसाही कीया अर्थात् बगेचा तैयार करवायके उस्की वृद्धि के लिये. संरक्षण करते हुवे, वह बगेचा स्वल्पही समयमै वृक्ष लता पुष्प फलकर अच्छा मनोहर बनगया । जिससे सोमल ब्रह्मणकि दुनियांमे तारीफ होने लग गइ । तत्पश्चात सोमलब्राह्मण एक समय रात्रीमे कुटम्ब चितवन करताहवाको एसाविचार हुवा कि मैंने बहुतसे अच्छे अच्छे काम करलिया है यावत् जन्मस लेके वगेचे तक । अब मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होतेही बहुतसे तापसो संबन्धी भंडोपकरण बनवायके बहुतसे प्रकारका अशनादि भोजन वनवाके न्यातजातके लोकोंको भो Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जनप्रसाद करवायके मेरा जेष्टपुत्रको गृहभार सुप्रतकरके । ताप. सो संबन्धी, भंडोमत्त कारण, बनवाकर जो गंगा नदीपर रहेने. वाले तापस है उसके नाम (१) होमकरनेवाले (२) वस्त्र धारण करनेवाले (३) भूमि शयन करनेवाले (४) यज्ञ करनेवाले (५) जनोइ धारण करनेवाले (६) श्रद्धावान (७) ब्रह्मचारी (८) लोहेके उपकरणवाले (९) एक कमंडल रखनेवाले (१०) फलाहार (११ एकवार पाणी में पेसनिकल भोजन करे (१२) एवं बहुतवार० (१३. स्वल्पकाल पाणीमे रहै (१४) दीर्घकाल रहै (१५) मटी घसके स्नान करे (१६) गंगाके दक्षिण तटपर रहेनेवाले (१७) एवं उत्तर तटपर रहेनेवाले (१८) संख वाजाके भोजन करे (१९) गृहस्थके कुलमे जाके भोजन करे (२०) मृगा मारके उसका भोजन करे (२१॥ हस्ती मारके उसका भोजन करे (२२) उर्ध्वदंड रखनेवाले (२३) दिशापोषण करनेवाले (२४) पाणीमे वसनेवाले (२५। बील गुफावासी (२६) वृक्षनिचे वसनेवाले (२७) वल्कलके वस्त्र वृक्षकि छालके वस्त्र धारण करनेवाले (२८) अंबु भक्षणकरे (२९) वायु भक्षण करे (३०) सेवाल भक्षण करे (३१) मूल कन्द त्वचा पत्र पुष्प फल बीजका भक्षण करनेवाले तथा सडे हुवे विध्वंसे हुवे एसा कन्दमूल फल पुष्पादि भक्षण करनेवाले (३२) जलाभिशेष करनेवाले (३३) यंस कावड धारण करनेवाले (३४) आतापना लेनेवाले (३५) पंचाग्नि तापनेवाले (३६) इंगाले कोलसे, कष्टशय्या इत्यादि जो कष्ट करनेवाले तापस है जिस्के अन्दर जो दिशापोषण करनेवाले तापस है उन्होंके पास मेरे तापसी दीक्षा लेना और साथमे एसा अभिग्रहभि करना, कि कल्पे मुझे जावजीव तक सूर्यके सन्मुख आतापना लेताहुवा छठ छठ पारणा करना आन्तरा रहीत, पारणाके दिन च्यारोतर्फ क्रमःसर दिशावोंके मालक देवीदेव है उन्होंका पोषण करना जैसे जिसरोज छठका पारणा आवे उस Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोज आतापनाकि भूमिसे निचा उतरणा वागलवस्त्र पहेरके अपनि कुटी (जुपडी ) से वांसकि कावड लेना पूर्वदिशोके मालक सोमनामके दिगपालकि आज्ञा लेना कि हे देव यह सोमल महानऋषि अगर तुमारी दिशामे जोकुच्छ कन्दमूलादि ग्रहन करे तो आज्ञा है । एसा कहके पूर्व दिशामे जाके वह कन्दमूलादिसे कावड भरके अपनि कुटीपे आना कावड वहांपर रख डाभका तृण उसके उपर रखे । एक डाभका तृण लेके गंगानदीपर जाना वहांपर जलमन्जन, जलाभिशेक, जलक्रीडाकर परमसूचि होके, जलकलस भर, उसपर डाभतृण रखके पीच्छा अपनि कुटीपर आना। वहांपर एक वेलु रेतकी वेदिका बनाना, अरण्यके काष्टसे अग्नि प्रज्वलित करना समाधिके लकडी प्रक्षेप करना अग्निके दक्षिणपासे दंडकमंडलादि सात उपकरण रखना, फीर आहुती देताहुआ घृतमधु तंदुल आदिका होम करना. इत्यादि प्रर्थाना करताहुवा बलीदान देनेके बाद वह कन्दमूलादिका भोजन करना एसा विचार सोमलने रात्री समय किया. जेमा विचार कियाथा वेसाहि सूर्योदयहोतेही आप तापसी दीक्षालेली छठ छठ पारणा प्रारंभ करदीया । प्रथम छठके पारणा सब पूर्व वताइहुइ क्रियाकर फीर छठका नियमकर आतापना लेने लगगया, जब दुसरा छठका पारणा आया तब वहही क्रिया करी परन्तु वह दक्षिण दिशा यमलोकपाल कि आज्ञा लीथी । इसी माफीक तीसरे पारणे परन्तु पश्चिमदिशा वरूण लोकपालकी आज्ञा और चोथे पारणे उत्तरदिशा कुबेरदिगपालकि आज्ञा लीथी, इसीमाफीक पूर्वादि च्यारों दिशीम क्रमासर पारणा करताहुवा. मोमल माहणऋषि विहार करता था। एक समय कि बात है कि सोमल माहणभृषि रात्री समय में अनित्य जागृणा करते हुवेको एसा विचार उत्पन्न हुवा कि मैं बनारसी नगरीके अच्छे ब्राह्मणकुल में जन्म पाके सब अच्छे काम Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कया है यावत् तापसी दीक्षा लेली है तो अब मुझे सूर्योदय होतेही पूर्वसंगातीया तापस तथा पीच्छेसे संगती करनेवाला तापस ओरभि आश्रमस्थितोंकों पुच्छके वागलवस्त्र; वांसकि कावड लेके, काष्टकि मुहपति मुहपर बन्धके उत्तरदिशाकि तर्फ मुह करके प्रस्थान करू एसा विचारकरा । सूर्योदय होतेही अपने रात्री में कियाहुवा विचारमाफीक वागलवस्त्र पहेरके बांसकी कावड लेके. काष्टकि मुहपति से मुहबन्धके उत्तरदीशा सन्मुख मुहकरके सोमल महाणऋषि चलना प्रारंभकीया उस समय औरभि अभिग्रह करलिया कि चलते चलते, जल आवे, स्थल आवे, पर्वत आवे, खाडआवे, दरी आवे विषमस्थान आवे अर्थात् कोइ प्रकारका उपद्रव आवे तोभी.. पीच्छा नही हटना. एसा अभिग्रहकर चला जाते जाते चरम प होरहुवा उससमय अपने नियमानुसार अशोकवृक्षके निचे एक वेलुरेतीकी वेदका रची उसपर कावडधरी डाबतृण रखा. आप गंगानदीमें जाके पूर्ववत् जलमज्जन जलक्रीडा करी फीर उस अशोकवृक्ष के नीचे आके काष्टकि मुहपति से मुहबन्ध लगाके चूपचाप बैठगया । आदी रात्री के समय सोमल ऋषिके पास एक देवता आया. वह देवता सोमलऋषिप्रते एसा बोलताहुवा । भो ! सोमल माहऋषि ! तेरी प्रवृजा (अर्थात् यह तापसी दीक्षा) है वह दुष्ट प्रवृजा है. सोमलने सुना परन्तु कुच्छभी उतर न दीया, मौन कर ली । देवताने दुसरी-तीसरीवार कहा परन्तु सोमल इस बातपर ध्यान नही दीया । तब देव अपने स्थान चला गया. सूर्योदय होतेही सोमल वागलके वस्त्र पहेर कावडादि उपकरण ले काष्टकी मुहपतिसे मुहबन्ध उत्तरदिशाकों स्वीकारकर चलना प्रारंभ करदीया, चलते चलते पीच्छले पहोर सीतावनवृक्ष Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ के निचे पूर्वक रीती निवास कीया, देवता आया पूर्ववत् दोय तीनवार कहके अपने स्थान चलागया. एवं तीसरे दिन अशोकवृक्ष के निचे वहांभी देवताने दोतीनवार कहा, चोथेदिन. वडवृक्ष के निचे निवास किया वहांभी देव आया दोतीन दफे कहा. परन्तु सोमहतो मौनमेंही रहा. देव अपने स्थान चला गया। पांचमेदिन उम्बरवृक्ष के निचे सोमलने निवास कीया सब क्रिया पहेले दिन के माफीक करी । रात्री समय देवता आया और बोला कि हे सोमल ! तेरी प्रवृजा हे सो दुष्ट प्रवृज्जा है एसा दोय तीनवार कहा. इसपर सोमलमहाणऋषि विचार कियाकि, यह कोन है और feared मेरी उत्तम तापसी प्रवृज्जाको दुष्ट बतलाता है ? ared मुझे पुच्छना चाहिये. सोमल० उस देवप्रते पुच्छाकि तुम मेरी उत्तम प्रवृजाको दुष्ट क्यों कहते हो ? उत्तरमे देवता जबाब दिया कि हे सोमल. पेस्तर तुमने पार्श्वनाथस्वामिके समिप श्राand व्रत धारण कियाथा. बाद में साधुवोंके न आनेसे मिथ्याFat लोकोंकि संगतकर मिथ्यात्वी बन यात्रत् यह तापसी दीक्षा ले अज्ञान कष्टकर रहा है तो इसमे तुमकोक्या फायदा है तु. साधु नाम धरा के अनन्तजीवों संयुक्त कन्द मूलादिका भक्षण करते. अग्नि जलके आरंभ करते. वास्ते तुमारी यह अज्ञानम प्रवृजा दुष्टप्रवृजा है । सोमल देवताका वचन सुनके बोलाकि अब मेरी प्रवृजा केसे अच्छी हो सकता है, अर्थात् मेरा आत्मकल्याण केसे होसकता है। देवने कहा कि हे सोमल अगर तुं तेरा आत्मकल्याण करना . चाहता है तो जो पूर्व पार्श्वप्रभुकेपास श्रावकके बारह व्रत धारण किये थे. उसको अबी भि पालन करो और इस दुगी कर्तव्यको Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ छोड दे. तब तुमारी सुन्दर प्रवृजा हो सकती है। देवने अपने ज्ञानसे सामलके अच्छे प्रणाम जान वन्दन नमस्कारकर निजस्थानको गमन करता हुवा। सोमलने पूर्व ग्रहन किये हुवे श्रावकव्रतोंको पुनः स्वीकारकर अपनि श्रद्धाको मजबुत बनाके, पार्श्वप्रभुसे ग्रहन किया हुवा तत्वज्ञानमे रमणता करताहुवा विचरने लगा। सोमल श्रावक बहुतसे चोत्थ छठ अठम अर्धमास मासखमणकी तपश्चर्या करता हुवा. बहुत कालतक श्रावकवत पालता हुवा अन्तिम आधा मास (१५ दिन) का अनसन किया परन्तु पहले जो मिथ्यात्वकी क्रिया करीथी उसकी आलोचना न करी, प्रायश्चित नलिया. विराधिक अवस्था में कालकर महाशुक्र वैमान उत्पात सभाकि देवशय्याम अंगुलके असंख्यात भागकि अवगाहनामे उत्पन्न हुवा, अन्तरमहुर्तमें पांचों पर्याप्तीको पूर्णकर युवक वय धारण करता हुवा देवभवका अनुभव करने लगा। हे गौतम! यह महाशुक्र नामका गृह देवकों जो ऋद्धि ज्योती क्रान्ती मीली है यावत् उपभोगमै आइ है इसका मूल कारण पूर्व भवमें वीतरागकि आज्ञा संयुक्त श्रावकवत पालाथा। यपि श्रावककी जघन्य सौधर्म देवलोक, उत्कृष्ट अच्युत देवलोककि गति है परन्तु सोमलने आलोचना न करनेसे ज्योतीषी देवो में उत्पन्न हुवा है । परन्तु यहांसे चवके महाविदेह क्षेत्रमें ‘दृढपइना' कि माफीक मोक्ष जावेगा इति तीसराध्ययन समाप्तम् । (४) अध्ययन चोथा-राजग्रहनगर के गुणशीलोद्यानमें भगवान वीरप्रभुका आगमन हुवा. राजा श्रेणकादि पौरजन भगवानको वन्दन करनेको गये। - उस समय च्यार हजार सामानिकदेव सोला हजार आत्म Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षकदेव, तीन परिषदाके देव, च्यार महत्तरीक देवीयों और भि बहुपुत्तीया वैमानवासी देव देवीयोंके वृन्दसे परिवृत बहुपुत्तीया नामकि देवी. सौधर्म देवलोकके बहुपुत्तीय वैमानकी सौधर्मी सभाके अन्दर नाना प्रकारके गीतग्यान नाटकादि देवसंबन्धी सुख भोगव रही थी, अन्यदा अवधिज्ञानसे आप जम्बुद्विपके भरतक्षेत्र राजग्रहनगरका गुणशीलोचानमें भगवान वीरप्रभुको विराजमान देख, हर्ष-संतोष को प्राप्त हो सिंहासनसे उ. तर सात आठ कदम सन्मुख जाके वन्दन नमस्कार कर बोली कि, हे भगवान! आप वहांपर विराजते है. मैं यहांपर उपस्थित हो आपको वन्दन करती हूं आप सर्वज्ञ है मेरी वन्दन स्वीकार करावे । बहुपुत्तीयादेवीने भगवन्तको वंदनकी तैयारी जेसे सूरियाभदेवने करीथी इसी माफीक करी । अपने अनुचर देवोंको आज्ञा दि कि तुम भगवानके पास जाओ हमारा नाम गौत्र सुनाके वन्दन नमस्कार करके एक जोजन परिमाणका मंडला तैयार करो. जिसमे साफकर सुगन्धी जल पुष्प धूप आदिसे देव आने योग्य बनावों. देव आज्ञा स्वीकारकर वहां गये और कहनेके माफीक सब कार्यकर वापीस आके आज्ञा सुप्रत कर दी. बहुपुत्तीयादेवी एकहजार जोजनका वैमान बनायके अपने सब परिवारवाले देवता देवोयोंको साथ ले भगवानके पास आइ. भगवानको वन्दन नमस्कारकर सेवा करने लगी. भगवानने उस बारह प्रकारको परिषदाको विचित्र प्रकारका धर्म सुनाया। देशना सुन लोकोंने यथाशक्ति व्रतप्रत्याख्यान • 'कर अपने अपने स्थान जानेकी तैयारी करी । बहुपुत्तीयादेवी भगवानसे धर्म सुन भगवानको वन्दन नम Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कार कर बोली कि हे भगवान ! आप सर्वज्ञ हो मेरी भक्तिको समय समय जानते हों परन्तु गौतमादि छदमस्थ मुनियोंको हम हमारी भक्तिपूर्वक बत्तीस प्रकारका नाटक बतलावेगी. भगवानने मौन रखीथी। भगवानने निषेध न करने से बहुपुत्तीयादेवी एकान्त जाके बैक्रिय समुद्घातकर जीमणी भूजासे एकसो आठ देवकुमार डाबी भुजासे एकसो आठ देवकुमारी और भी बालक रूपवाले अनेक देवदेवी वैक्रिय बनाये तथा ४९ जातिके वाजींत्र और उन्होंके वजानेवाला देवदेवी बनाके गौतमादि मुनियों के आगे बतीस प्रकारका नाटककर अपना भक्तिभाव दर्शाया, तत्पश्चात् अपनी सर्व ऋद्धिको शरीरमें प्रवेशकर भगवानको वन्दन नमस्कारकर अपने स्थान गमन करती हुइ। गौतमस्वामिने प्रश्न किया कि हे भगवान! यह बहुपुत्तीया. देवी इतनि ऋद्धि कहांसे निकाली और कहां प्रवेश करी । भगवानने उत्तर दिया कि हे गौतम! यहां वैक्रिय शरीरका महत्व है कि जेसे कुडागशालामें मनुष्य प्रवेश भी करसक्ते है और निकल भी सक्ते है । यह द्रष्टान्त रायपसेनीसूत्रमें सविस्तार कहा गया है। गौतमस्वामीने औरभी प्रश्न किया कि हे करूणासिन्धु ! इस बहुपुत्तीयादेवीने पुर्व भवमें एसा क्या पुन्य उपार्जन कियाथा कि जिस्के जरिये इतनि ऋद्धि प्राप्त हुई है। भगवानने फरमाया कि हे गौतम ! इस जम्बुद्विपके भरतक्षेत्रमें बनारसी नगरीथी, उस नगरीके बाहार आम्रशाल नामकाउद्यान था, बनारसी नगरीके अन्दर भद्र नामका एक बडाही धनाव्य सेठ (सार्थवाह) निवास करता था, उस भद्र सेठके सुभद्रा नाम Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ की सेठाणि थी। वह अच्छी स्वरूपवान थी परन्तु वैध्या अर्थात् उसके पुत्रपुत्री कुच्छ भी नही था । एक समय सुभद्रा सेठाणी रात्रीमें कुटुम्ब चिंता करती हुइको एसा विचार हुवा कि मैं मेरा पति के साथ पंचेन्द्रिय संबन्धी बहुत कालसे सुख भोगव रहीहु परन्तु मेरे अभीतक एकभी पुत्रपुत्री नही हुवा है, वास्ते धन्य है वह जगतमें कि जो अपने पुत्रको जनम देती है-बालक्रीडा कराती है-स्तनोंका दुध पीलाती है-गीतग्यानकर अपने मनुष्यभवको सफल करती है, मैं जगतमें अधन्य अपुन्य अकृतार्थ हूं, मेरा जन्मही निरर्थक है कि मेरेको एक भी बचा न हुवा एमा आत ध्यान करने लगी। उसी समयकी बात है कि बहुश्रुति बहुत परिवारसे विहा र करती हुइ सुव्रताजी नामकी साध्विजी बनारसी नगरीमें पधारी साध्विजी एक सिंघाडेसे भिक्षा निमित्त नगरीमें भ्रमन करती सुभद्रा सेठाणीके वहां जा पहुंची। उस साध्विजीको आते हुवे देख आप आसनसे उठ सात आठ कदम सामने जा वन्दन कर अपने ची कामें ले जायके विविध प्रकारका अशन-पाण-स्वादिम' खा. दिम प्रतिलाभा ( दानदीया )" नितीज्ञ लोगोमें विनयभक्ति तथा दान देनेका स्वाभावीक गुन होता है " बादमें साध्विजीसे अर्ज करी कि हे महाराज मैं मेरे पति के साथ बहुत कालसे भोग भोगबनेपर भी मेरे एकभी पुत्रपुत्री नही हुवा है तो आप बहुत शास्त्रके जानकर है, बहुतसे ग्राम नगरादिमें विचरते है तो मुझे कोइ एसा मंत्र यंत्र तंत्र वमन विरेचन औषध भैसन्ज बतलावों कि मेरे एकाद पुत्रपुत्री होवे जिससे मैं इस बंध्यापणके कलंकसे मुक्त हो जाउं । उत्तरमेंसाध्विजीने कहा कि हे सुभद्राहम श्रमणि निग्र. न्थी इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी है हमारेको एसा शब्द अरणोद्वारा श्रवण करनाही मना है तो मुंहसे कहना कहा रहा? Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ हमलोग तो मोक्षमार्ग साधन करने के लिये केवली प्ररूपीत धर्म सुनानेका व्यापार करते है। सुभद्राने कहा कि खेर!अपना धर्मही सुनाइये। तब साध्विजीने उस पुत्रपीपासी सुभद्राकों खडे खडे धर्मसुनाना प्रारंभ किया हे सुभद्रा यह संसार असार है एकेक जीव जगतके सब जीवोंके साथ माताका भव. पिताका भव. पुत्रका भव. पुत्रीका भव इत्यादि अनन्ती अनन्तीवार संबन्ध कीया है अनन्तीवार देवतावोंकी ऋद्धि भोगवी है अनन्तीवार नरक निगोदका दुःख भी सहन किया है. परन्तु वीतरागका धर्म जिस जीवोंने अंगीकार नही कीया है वह जीव भविष्यके लिये ही इस संसारमे परिभ्रमन करता ही रेहगा. वास्ते हे सुभद्रा !तुं इस संसारको अनित्य-असार समज वीतरागके धर्मको स्वीकार करता जीससे तेरा कल्याण हो इत्यादि। यह शान्ति रसमय देशना सुन सुभद्र हर्ष-संतोषको प्राप्त हो बोली कि हे आर्य! आपने आज मुझे यह अपूर्व धर्म सुनाके अच्छी कृतार्थ करी है। हे आर्य! इतना तो मुझे विचार हुवा है कि जो प्राणी इस संसारके अन्दर दुःखी है, तृष्णाकि नदीमें झल रहे है यह सब मोहनियकर्मकाही फल है । हे महाराज! आपका वचनमें श्रद्धा है मुझे प्रतित आइ है मेरे अन्तरआत्मामें रूची हुइ है धन्य है आपके पास दीक्षा लेते है । मैं इस बातमे तो असमर्थ हुं परन्तु आपके पास में श्रावकधर्मको स्वीकार करुंगी। साध्विजीने कहा कि हे बहन!सुखहो एसा करो परन्तु शुभकार्यमें विलम्ब करना ठीक नहीं है। इसपर सुभद्रा सेठाणीने श्रावकके बारह व्रतको यथा इच्छा मर्यादकर धारण करलिया। . सुभद्राको श्रावकव्रत पालन करते कितनाएक काल निर्ग Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ मन होनेसे यह भावना उत्पन्न हुइ कि मैं इतने काल मेरे पतिके साथ भोग भोगवनेपर मेरे एकभी बालक न हुवा तो अब मुझे साध्वीजीके पास दीक्षा लेनाही ठीक है । एसा विचारकर अपने पति भद्रसेठसे पुच्छा कि मेरा विचार दीक्षालेनेका है आप मुझे आज्ञा दीरावे. भद्रसेठने कहा हे सेठाणी!दीक्षाका काम वडाहि कठिन है सुम हालमें मेरे साथ भोग भोगवों फीर भुक्तभोगी होनेपर दीक्षा लेना। इत्यादि बहुत समजाइ परन्तु हठ करना स्त्रियोंके अन्दर एक स्वाभावीक गुण होताहै | वास्ते अपने पतिकी एक भी बातकों न मानि. तब भद्रसेठ दीक्षाका अच्छा मोहत्सवकर हजार पुरुष उठावे एसी शीविकाके अन्दर बेठाके वडेहीमोहत्सवके साथ साध्विजीके उपासरे जाके अपनी इष्ट भार्याको साध्वियोंकों शिष्यणीरूप भिक्षा अर्पण करदी अर्थात् सुभद्रा सेठाणी सुव्रतासाध्विजीके पास दीक्षा लेली। सुभद्राने पहले भी कुच्छ ज्ञान ध्यान नही कीया था अब भी ज्ञान ध्यान कुछ भी नही केवल पुत्रके दुःखके मारी. दुःखगर्भित वैरागसे दीक्षा ली थी पेस्तर एक स्वघरमें ही निवास करती थी, अब तो अनेक श्रावक श्राविकावोंका घरोंमे गमनागमन करने का अवसर प्राप्त हो गया था। - सुभद्रासाध्वि आहारपाणी निमित्त गृहस्थ लोगोंके घरों में जाती है वहां गृहस्थोंके लडके लडकियोंको देख अपना स्नेहभावसे उसको अपने उपासरेमें एकत्र करती है फीर उस बच्चोंके लिये बहुतसा पाणी स्नान करानेको अलताका रंग उस बच्चोंके हाथपग रंगनेको. दुध दहीं खांड खाजा आदि अनेक पदार्थ उस बच्चोंके खीलानेके लिये तथा अनेक खेलखीलुने उस बच्चोंको खेलनेके लिये यह सब गृहस्थीयोंके यहांसे याचना करलाना प्रारंभ करदीया । अर्थात् सुभद्रासाध्वि उस गृहस्थोंके लडके लर Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीयाँको रमाडना खेलाना स्नानमज्जन कराना काजलटीकी करना इत्यादि घातिकर्ममें अपना दिन निर्गमन करने लगी.' यह बात सुव्रतासाध्विजीकों खबर पडी तब सुभद्राको कहने लगी । हे आर्य! अपने महाव्रतरूप दीक्षा ग्रहनकर श्रमणी निग्रन्थी गुप्त ब्रह्मचर्यव्रत पालन करनेवाली है तो अपनेको यह गृह स्थकार्य धृतीपणा करना नही कल्पते है इसपरभी तुमने यह क्या कार्य करना प्रारंभ कीया है ! क्या तुमने इस कार्योके लियेही दीक्षा ली है ? हे भद्र इस अकृत्यकार्य कि तुम आलोचना करी और आगेके लिये त्याग करो । एसा दोय तीनवार कहा परन्तु सुभद्रासाध्धि इस वातपर कुच्छ भि लक्ष नही दीया। इसपर मर्व साध्वियों उस सुभद्राकों वार वार रोक टोक करनेलगी अर्थात कहने लगीकि हे आर्य! तुमने संसारको असार जानके त्याग कीया हे तो फीर यह संसारके कार्यको क्यों स्वीकार करती हो ? इत्यादि. सुभद्रासाध्विने विचार किया कि जबतक मैं दीक्षा नही ली थी तबतक यह सब साध्वियों मेरा आदरसत्कार करती थी. आज मैं दीक्षा ग्रहन करने के बाद मेरी अवहेलना निंदा घृणा कर मुझे वार वार रोक टोक करती है तो मुझे इन्होंके साथही क्यों? रहना चाहिये कल एक दुसरा उपासराकि याचना कर अपने वहांपर निवास करदेना । वस ! सुभद्राने एक उपासरा याचके आप वहांपर निवास करदीया । अब तो कीसीका कहना भि न रहा। हटकना वरजना भि न रहा इसीसे स्वछंदे अपनी इच्छानुसार वरताव करनेवाली हो के गृहस्थोंके बालबचोंको लाना खेलाना रमाना स्नान मज्जन कराना इत्यादि कार्यमें मुच्छित बन गइ । साधु आचारसेभी शीथिल हो गइ। इस हालत में बहुतसे वर्ष तपश्चर्यादिकर अन्तिम आधा मासका अनसन किया परन्तु Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस धातिकर्मके कार्यकी आलोचना न करती हुइ विराधिभावमें कालकर सौधर्म देवलोकके बहुपुत्तीया वैमानमें बहुपुत्तीया देवीपणे उत्पन्न हुइ है वहांपर च्यार पल्योपमकी स्थिति है. हे भगवान! देवतावों में पुत्रपुत्री तो नहीं होते है फीर इस देवीका नाम बहुपुत्तीया कैसे हुआ! हे गौतम! यह देयी शकेन्द्रकी आज्ञाधारक है। जिस बखत शकेन्द्र इस देवीको बोलाते है उस समय पूर्वभवकी पीपासावालीदेवी बहुतसे देवकुँमर देवकुँमारी बनाके जाती है इसवास्ते देवतावोंने भी इसका नाम बहुपुत्तीया रख दीया है । हे भगवान! यह बहुपुत्तीयादेवी यहांसे चवके कहां जावेगी? हे गौतम! इसी जम्बुद्विपके भरतक्षेत्रमे विद्याचल नामका पर्वतके पास वैभिल नामका सन्निवेसके अन्दर एक ब्राह्मणकुलमे पुत्रीपणे जन्म लेगी. उसका मातापिता मोहत्सवादि करता हुवा सोमा नाम रखेगा अच्छी सुन्दर स्वरूपवन्त होगी. यह लडकी यौवन वय प्राप्त करेगी उस समय पुत्रीका मातापिता अपने कुलके भाणेज रष्टकुटके साथ पाणीग्रहन करा देगा। रष्टकुट उस सोमा भार्याको बड़े ही हिफाजतके साथ रखेगा । सोमा भार्या अपने पति रष्टकुटके साथ मनुष्य संबधि भोग भोगवते प्रतिवर्ष एकेक युगलका जन्म होनेसे सोला वर्ष में उस सोमाब्राह्मणीके बत्तीस पुत्र पुत्रीयोंका जन्म होगा । जब सोमा उस पुत्र पुत्रीयोंका पुरण तौरपर पालन कर न सकेगा। वह बत्तीस बालक सोमामातासे कोइ दुद्ध मांगेगा कोई खांड मांगेगा. कोइ खाजा मांगेगा, कोइ हसेगा. कोइ छींकेगा, कोइ सोमाको ताडना करेगा, कोइ तरजन करेंगा. कोइ घरमे ११ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ aat करेगा. कोइ पेशाब करेगा. कोइ श्लेष्म करेगा इस पुत्र पुत्रीयोंके मारे सोमा महा दुःखणि होगी. उसका घर वडाही, दुर्गन्ध वाला होगा. इस बाल बचके अबादासे सौमा अपने पति रष्टकुटके साथ मनोइच्छित सुख भोगवनेमें असमर्थ होगी । उस समय सुव्रता नामकि साध्वी एक सिंघाडासे गौचरी आवेगी, उसको भिक्षा देके वह सोमा बोलेगी कि हे आर्य ! आप बहुत शा का जानकर हो मुझे वडाही दुःख है कि में इस पुत्र पुत्रीयोंके मारी मेरे पति के साथ मनुष्य संबधि भोग भोगव नही सक्ती हु वास्ते कोइ एसा उपाय बतलावों कि अब मेरे बालक नहो इत्यादि, साध्वि पूर्ववत् केवली प्ररूपित धर्म सुनाया. सोमा धर्म सुन दीक्षा लेनेका विचार करेगी साध्विजी से कहा कि मेरे पतिकी आज्ञा ले मैं दीक्षा लेहुगी । पतिसे पुच्छने पर ना कहेगा कारण माता दीक्षा ले तो बालकोंका पौषण कोन करे सोमा साध्विजी के वन्दन करनेकों उपासरे जावेगी धर्मदेदेशना सुनेगी श्रावकधर्म बारह व्रत ग्रहन करेगी। जीवादि पदार्थका अच्छा ज्ञान करेगी । साध्वि वहांसे विहार करेगी. सोमा अच्छी जानकार हो जायगी. कितने समय के बाद वह सुव्रता साध्विजी फीर आवेगी. सोमा श्राविका वादनको जावेगी धर्म देशना श्रवणकर अपने पतिकि अनुमति लेके उस साध्विजीके पास दीक्षा धारण करेगी. विनय भक्तिकर इग्यारा आंगका अभ्यास करेगी। बहुत से चोथ छठ, अष्टम मासखमण अदमासखमणादि तपश्चर्या कर अन्तिम आलोचन कर आदा मासका अनसन कर समाधिमें काल कर सौधर्म देवलोक शकेन्द्रके सामानिक देव दो सागरोपमकि स्थिति में देवपणे उत्पन्न होगी। वहांपर देवसंबन्धि सुखोंका Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभोगकर चवेगी वह महाविदेह क्षेत्रमें उत्तम जातिकुलमें अवतार लेगी वहां भी केवली प्ररूपित धर्म स्वीकार कर कर्मशत्रुवोका पराजय कर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगी । इति चतुर्थाध्ययनं समाप्तम् । (५) अध्ययन-भगवान वीरप्रभु राजग्रहन करके गुणशी. लोद्यान में विराजमान है परिषदाका भगवानकों वन्दन करनेको जाना भगवानका धर्मदेशना देना यह सब पूर्ववत् समझना। उस समय सौधर्म कल्पके पूर्णभद्रवमान में पूर्णभद्रदेव अपने देव देवीयोंके साथ भोगविलास नाटक आदि देव संबधि सुख भोगव रहाथा। पूर्णभद्र देव अवधिज्ञानसे भगवानकों देखा सूरियाभदेवकि माफीक भगवानकों वन्दन करनेकों आना. बतीस प्रकारका नाटक कर पीच्छा अपने स्थानपर गमन करना । गौतमस्वामिका पर्वभव पृच्छाका प्रश्न करना. उसपर भगवानके मुखाविन्दसे उत्तर का देना यह सर्व पूर्वकि माफिक समझना । ___ परन्तु पर्णभद्र पूर्वभवमें । मणिवति नगरी चन्द्रोत्तर उद्यांन. पूर्णभद्र नामका घडा धनाढ्य गाथापति. स्थिवर भगवानका आगमन. पूर्णभद्र धर्मदेशना श्रवण करना जेष्ट पुत्रकों गृहभार सुप्रतकर आप दीक्षा ग्रहन करके इग्यार अंगका ज्ञानाभ्यासकर अन्तिम आलोचना पुर्वक एक मासका अनसन कर समाधि पुर्वक काल कर सौधर्म देवलोकमे पुर्णभद्र देव हुवा है। हे भगवान! यह पुर्णभद्र देव यहांसे चवके कहा जावेगा? हे गौतम! महा विदहक्षेत्रमें उत्तम जाति कुलके अन्दर जन्म धारणकर केवली परूपीत धर्मको अंगीकार कर, दीक्षा धारणकर. केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगा. इति पांचमाध्ययन समाप्तम्। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) इसी माफीक मणिभद्र देवका अध्ययन भी समझना, यह भि पुर्वभवमें मणिवति नगरीमें मणिभद्र गाथापतिथा स्थिवरोंके पास दीक्षा लेके सौधर्म कल्पमे देवता हुवाथा. वहांसे महाविदेहमें मोक्ष जावेगा इति । ६।। (७) एवं दत्तदेव (८) बलनाम देव (९) शिवदेव (१०) अनादीत देव पुर्वभवमें सब गाथा पति थे दीक्षा ले सौधर्म देवलोकमे देव हुवे है. भगवानकों वन्दन करनेको गयेथे, बत्तीस प्रकारके नाटक कर भक्ति करीथी देवभवसे चवके महा विदेह क्षेत्रमें सब मोक्ष जावेगा इति । १० । ॥ इति श्री पुफिया नामका सूत्रका संक्षिप्त सार । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ ॥ अथश्री ॥ पुप्फचूलिया सूत्रका संक्षिप्त सार. ( दश अध्ययन ) ( १ ) प्रथम अध्ययन । श्री वीरप्रमु अपने शिष्य मंण्डलके . परिवार से एक समय राजग्रह नगरके गुणशीलोद्यानमें पधारे. च्यार जातिके देवता, विद्याधर, राजा श्रेणक और नगर निवासी लोक भगवानकों वन्दन करनेको आये । उस समय सौधर्मकल्पके, श्रीवतंस वैमानमें च्यार हजार सामानिक देव, सोलाहजार आत्म रक्षक देव, च्यार महत्तरिक देवीयों और भी स्वत्रैमानवासी देवदेवीयोंके अन्दर गीतग्यान Treatदि देव संबन्धी भोग भोगवती श्रीनामकि देवी अवधिज्ञान से भगवानकों देख यावत् बहु पुत्तीयादेवीकि माफीक भगवानकों वन्दन करनेको गइ बतीस प्रकारका नाटककर अपने स्थानपर गमन किया। गौतमस्वामिने उस श्रीदेवीका पूर्वभव पुच्छा | भगवान ने फरमाया । कि इसी राजग्रह नगरके अन्दर जयशत्रुराजा राज करता था उस समयकि वात है कि इस नगरीमे वडाही धनाढ्य और नगर मे प्रतिष्टत एक सुदर्शन नामका गाथापति निवास करता था उसके प्राया नामकि भार्या थी और दम्पतिसे उत्पन्न हुइ भूतानामकि पुत्री थी वह पुत्री केसी थी के युहोनेपर भी वृद्धवय सादश जिस्का शरीर झंझरसा दीखाई देता Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था जिस्का कटिका भाग नम गया था जंघा पतली पड गई थी. स्तनका अदर्श आकार अर्थात् वीलकुलही दीखाई नही देता था इत्यादि, जिस्कों कोइभी पुरुष परणनेकि इच्छाभी नही करता था. उसी समय, निलवर्ण, नौ-कर (हाथ) परिमाण शरीर, देवादिसे पुजित तेवीसवां तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु सोल हजार मुनि अडतीस हजार साध्वियोंके परिवारसे पृथ्वी मंडलकों पवित्र करते हुवे राजग्रहोद्यानमें पधारे । राजादि सर्व लोक भगवानकों वन्दन करनेको गये। यह वात भूतानेभी सुनी अपने माता पिताकि आज्ञा ले स्नान मजनकर च्यार अश्वका रथ तैयार करवाके बहुतसे दास दासीयों नोकर चाकरोंके परिवारसे राजग्रह नगरके मध्यभागसे निकलके वगेचेमे आइ भगवानके अतिशय देखके रथसे निचे उत्तर पांचाभिगमसे भगवानकों वन्दन नमस्कार कर सेवा क रने लगी. उस विस्तारवालो परिषदाकों भगवानने विचित्र प्रकारसे धर्मदेशना सुनाइ अन्तिम भगवानने फरमायाकि हे भव्यजीवों ! संसारके अन्दर जीव-सुख-दुःख राजारंक रोगी निरोगी, स्वरूपकुरूपवान, धनाढ्य दालीद्र उच गौत्र निच गौत्र इत्यादि प्राप्त करते है वह सब पुर्व उपार्जन किये हुवे सुभासुभ कर्मोंकाही फल है। वास्ते पेस्तर कर्मस्वरूपको ठीक ठीक समझके नवा कर्म आनेके आश्रव द्वार है उसको रोकों ओर तपश्चर्या कर पुराणे कर्मों को क्षय करो तांके पुनः इस संसारमें आनाही न पडे इत्यादि । देशना श्रवण कर परिषदा आनन्दीत हो यथाशक्ति व्रत प्रत्याख्यान कर वन्दन नमस्कार स्तुति करते हुवे स्व स्त्र स्थान गमन करने लगे। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ भूता कुमारी देशना श्रवण कर हर्ष संतुष्ट हो बोलीकि हे भ गवान आपका केहना सत्य है सुख और दुःख पुर्वकृत कर्मोकाही फल है परन्तु अपने कर्म क्षय करने का भी उपाय अच्छा वतलाया है मैं उस रहस्तेकों सचे दीलसे श्रद्धा है मुझे प्रतितभी आइ है आपका केहना मेरे अन्तर आत्मामें रूच भी गया है हे करूणा सिन्धु! मैं मेरे मातापितावोंको पुच्छके आपकि समिप दीक्षा ग्रहन करुंगा। भगवानने फरमाया — जहा सुखम् ' भूता भगवानको वन्दन नमस्कार कर अपने रथ परारूढ हो अपने घरपर आइ । मातापितावोंसे अर्ज करीकि मैं आज भगवान कि अमृतमय देशना सुन संसारसे भयभ्रात हुइ हु अगर आप आज्ञा देवे तो मैं भगवानके पास दीक्षा ग्रहन कर मेरी आत्माका कल्याण करू? मातापितावोंने कहाकि खुशीसे दीक्षा लो। ____ नोट-संसारकी केसी स्वार्थवृति होती है इस पुत्रीके साथ मातापिताका स्वार्थ नही था बल्के इसीकों कोइ परणताभी नही था. इस हालतमे खुशीसे आज्ञा देदोथी। भूताका दीक्षा लेनेका दील होते ही मातापितावोंने (लग्नके वदलेमे) वडा भारी दीक्षा महोत्सवकर हजार मनुष्य उठावे एसी सेविकाके अन्दर भूताको बेठा कर वडाही आडम्बरके साथ भगवानके पास आये और भगवानसे वन्दन कर अर्ज करीकि है प्रभु यह मेरी पुत्री आपकी देशना सुन संसारसे भयभ्रात हो आपके पास दीक्षा लेना चाहति है हे दयालु! मैं आपकों शिष्यणी रूपभिक्षा देता हु आप इसे स्वीकार करावे. .. भूताने अपने वस्त्र भूषण अपने मातापिताकोंदे मुनिवेषको धारणकर भगवान के समिप आके नम्रता पुर्वक अर्ज करी हे भगवान संसारके अन्दर अलीता (जन्म) पलिता (मृत्यु) का म. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हान् दुःख है जैसे किसी गाथापतिके गृह जलता हों-उसके अन्दरसे असार वस्तु छोडके सार वस्तु निकाल लेते हैं वह सारवस्तु गृहस्थोंकों सुखमे सहायता भूत हो जाती है एसे मैं भी असार संसार पदार्थीको छोड संयम सार ग्रहन करती हु इत्यादि वीनती करी। भगवानने उस भूताको च्यार महाव्रतरूप दीक्षा देके पुप्फचूला नामकि साध्विजीकों सुप्रत करदि। भूतासाध्वि दीक्षा लेनेके बाद फासुक पाणी लाके कबी हाथ धोवे, कबी पग धोवे, कबी खांख धोवे, कबी स्तन धोवे, कबी मुख नाक आंखे शिर आदि धोना तथा जहांपर बेठे उठे वहांपर प्रथम पाणीके छडकाव करना इत्यादि शरीरकि सुश्रुषा करना प्रारंभ कर दीया। पुप्फचूलासाध्विजी भूतासाध्विसे कहाकि हे आर्य! अपने श्रमणी निग्रन्थी है अपनेकों शरीरकि सुश्रुषा करना नही कल्पता है तथापि तुमने यह क्या ढंग मंड रखा है कि कबी हाथ धोती है कबी पग धोती है यावत् शिर धोती है हे साध्वी ! इस अकृत्य कार्य कि आलोचन करो ओर आइंदासे एसे कार्यका परित्याग कर एसा गुरुणीजीके कथन को आदर न करती हुइ भूताने अपना अकृत्य कार्यको चालु ही रखा । इसपर बहुतसी साध्वियों उस भूताको रोकटोक करने लगी हे साध्वि! तुं बडेही आडम्बरसे दीक्षा ग्रहन करीथी तो अब इस तुच्छ सुखोंके लिये भगवान आज्ञाकि विराधि हो अपने मोला हुवा चारित्र चुडामणिकों क्यो खो रही है ? गुरुणिजी तथा अन्य साध्वियोंकि हितशिक्षाको नही मानती सोमाकि माफीक दुसरा उपासराके अन्दर निवासकर स्व Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ इच्छा स्वछंदे पासत्थपणे विहार करती हुइ बहुत वर्षों तक तपचर्या कर अन्तमे आदा मासका अनसनकर पापस्थान अनाआलोचीत कालकर सौधर्म देवलोक में श्रीवतंस वैमानमें श्री देवीपणे उत्पन्न हुइ है वहां च्यार पल्योपमका आयुष्य पुरण कर महावि देह क्षेत्रमें उत्तम जाति कुलमें उत्पन्न होगा. केवली परूपित धर्म स्वीकार कर दीक्षा ग्रहन करेगी शुद्ध चारित्र पालके केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगी इति प्रथमाध्ययनं समाप्तम् । एवं हूरीदेवी, धृतिदेवी, कीर्तिदेवी, बुद्धिदेवी, लक्ष्मिदेवी, एलादेवी, सुरादेवी, रसादेवी, गन्धादेवी. यह दशों देवीयों भगवानकों वन्दन करनेकों आइ. बतीस प्रकारका नाटक किया. गौतमस्वामि इन्होंके पूर्वभवकि पुच्छा करी भगवानने उत्तर फरमाया दशों पूर्व भवमें गाथापतियों के पुत्रीयों थी जेसेकि भूता. दशों पार्श्वनाथ प्रभुके पास दिक्षा ग्रहन कर शरीरकि सुश्रुषा कर विराधि हो सौधर्म देवलोक गइ वहांसे चवके महाविदह क्षेत्र आराधिपद ग्रहन कर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जावेगी । इति दशाध्ययनं । ॥ इति पुप्फचूलिया सूत्र संक्षिप्त सार समाप्तम् || Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथश्री ।। विन्हिदसा सूत्र संक्षिप्तसार। - (बारहा अध्ययन.) (१) प्रथम अध्ययन-चतुर्थ आराके अन्तिम परमेश्वर नेमिनाथप्रभु इस भूमंडलपर विहार करतेथे उस समयकि वात है कि, द्वारकानगरी, रेवन्तगिरि पर्वत् , नन्दनवनोद्यान, सुरप्पिय यक्षका यक्षायतन, श्रीकृष्णराजा सपरिवार, इस सबका वर्णन गौतम कुंमराध्ययनसे देखों। उमद्वारकानगरीमे महान् प्राक्रमी बलदेव नामका राजाथा उस बलदेवराजाके रेवन्ती नामकि राणी महिलागुण संयुक्त थी। एक समय रेवन्ती राणी अपनि सुखशय्याके अन्दर सिंहका स्वप्न देखा यावत् कुमरका जन्म मोहत्सव कर निषेढ नाम रखाथा ७२ कला प्रविण होनेसे ५० राजकन्यावोंके साथ पाणि ग्रहन दत्ता दायचों यावत् आनन्द पुर्वक संसारके सुख भोगव रहाथा जेसे गौतमाध्ययने विस्तारपुर्व लिखा है वास्ते वहांसे देखना चाहिये। यादवकुल श्रृंगार देवादिके पजनिय बावीसवे तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवानका पधारना द्वारकानगरीके नन्दनवनमें हुवा। श्रीकृष्ण आदि सब लोक सपरिवार भगवानकों वन्दन करनेको गया उस समय निषेढकुमर भी गौतम कि माफीक वन्दन करनेकों गये। भगवानने उस विशाल परिषदाकों विचित्र Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ प्रकारसे धर्मदेशना दी अन्तमे फरमाया कि हे भव्य जीवों इस संसारके अन्दर पौदगलीक, अस्थिर सुखॉकों, दुनिया सुख मान रही है परन्तु वस्तुत्व यह एक दुःखका घर है. वास्ते आत्मतत्व वस्तुको पेछान इस करमे सुखोंका त्यागकर अपने अबाधित सुखोंकों ग्रहन करों. अक्षय सुखोंकों प्राप्त करनेवालेको पेस्तर चारित्र राजासे मीलना चाहिये अर्थात् दीक्षा लेना चाहिये। इत्यादि। श्रोतागण देशना सुन यथाशक्ति व्रत प्रत्याख्यान ग्रहनकर भगवानको वन्दन नमस्कार कर निज स्थान गमन करते हुवे । निषेढकुमर देशना सुन वन्दन नमन कर बोला कि हे भगवान आप फरमाया वह सत्य है यह नाशमान पौदगलीक सुख दुःखोंका खजाना ही है । हे प्रभु धन्य है जो राजा महाराजा सेठ सेनापति जोकि अपके समिप दीक्षा लेते है, हे दयाल मैं दीक्षा लेने में असमर्थ हु परन्तु मैं आपकि समीप श्रावकधर्म अर्थात् बारहव्रत ग्रहन करूंगा। भगवान ने फरमाया कि “ जहासुखम् " निषेढकुँमर स्वइच्छा मर्याद रखके श्रावकके बारह व्रत धारण कर भगवान को वन्दन न कर अपने रथ परारूढ हो अपने स्थान पर चला गया । . भगवान नेमिनाथ प्रभुका जेष्ट शिष्य वरदन नामका मुनि भगवानकों वन्दन नमस्कार कर प्रश्न करता हुवा कि हे प्रभो! यह निषेढ कुमर पुर्व भवमें क्या पुन्य किया है कि बहुतसे लोगोंकों प्रिय लगता है सुन्दर स्वरूप यश कीर्ति आदि सामग्री प्राप्त हुई है। भगवानने फरमायाकि हे वरदत्त! इस जम्बुद्विपके भरतक्षे Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में धन धान्यसे समृद्ध एसा राइसडा नामका नगर था, जि. . सके बाहार मेघवनोद्यान, मणिदत्त नामके यक्षका सुन्दर यक्षायतन था। उस नगरमें वडाही प्राक्रमी न्यायशील प्रजापालक महाबल नामका राजा राज करता था। जिस राजाके महिला गुण संयुक्त सुशीला पद्मावती नामकि रांणी थी। उस राणीके सिंह स्वप्न सूचित कुंमरका जन्म हुवा. अनेक गहोत्सव कर कुंमरका नाम 'वीरंगत्त' दीया था सुख पुर्वक चम्पकलताकि माफीक वृद्धिकों प्राप्त होता बहोत्तर कलामे निपुण हो गया। .. जब वीरंगत्त कुंमरकि युवक अवस्था हुइ देखके राजाने बत्तीस राज कन्यावोंके साथ पाणिग्रहन करा दिया. इतनाही दत्त आया, कुंमर निराबाधित सुख भोगव रहाथा कि जिस्को काल जानेकि खबरही नही थी। ___उसी समय केसी श्रमणके माफीक बहु श्रुति बहुत शिष्योंके परिवारसे प्रवृत सिद्धार्थ नामका आचार्य महाराज उस रोहीसडे नगरके उद्यानमें पधारे. राजादि नगरलोक और वीरंगत्त कुंमर आचार्य महाराजकों वन्दन करनेकों गये। आचार्यश्रीने विस्तार पुर्वक धर्मदेशना प्रदान करी । परिषदा यथाशक्ति त्याग वैराग धारण कर विसर्जन हुइ।। वीरंगत राजकुमार, देशना सुन परम वैराग रंग रंगाहुवा माता-पिताकि आज्ञापुर्वक वडेही मोहत्सवके साथ आचार्यश्रीके पास दीक्षा ग्रहन करी इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने लगा विशेष विनय भक्ति कर स्थिवरोंसे इग्यारा अं. गका ज्ञानाभ्यास कीया । विचित्र प्रकार तपश्चर्या कर अन्तमे आलोचना पुर्वक ४५ वर्ष दीक्षा पालके दोय मासका अनसन कर Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि पुर्वक काल कर पांचवां ब्रह्मदेवलोकमे दश सागरोपमकि स्थितिके स्थान देवतापणे उत्पन्न हुवा। वहांसे आयुष्य पुर्ण कर इस द्वारकानगरीमें बलदेवराजाकि रेवन्ती नाम की राणीके पुत्रपणे उत्पन्न हुवा है हे वरदत्त पुर्व भवमे तप संयमका यह प्रत्यक्ष फल मीला है। वरदत्तमुनिने प्रश्न कीयाकि हे भगवान यह निषढॉमर आपके पास दीक्षा लेगा? भगवानने उत्तर दीयाकि हां यह वरदत्त मेरे पास दीक्षा लेगा । एसा सुन वरदत्त मुनि भगवानकों वन्दन नमस्कार कर आत्मध्यानमे रमनता करने लगा। अन्यदा भगवान वहांसे बिहार कर व अन्य देशमें विचरने लगे। निषेढकुंमर श्रावक होनेपर जाना है जीवाजीव पुन्य पाप आश्रव संवर निजेरा बन्ध मोक्ष तथा अधिकरणादि क्रियाके भेदोंको समझा है यावत् । श्रावक व्रतोंका निर्मल पालन करने लगा। एक समय चतुर्दशी आदि पर्व तीथीके रोज पौषदशालामे युबदु कुमारकि माफीक 'पौषदकर धर्म चितवन करतो' यह भावना व्याप्त हुइकि धन्य है जिस ग्राम नगर यावत् जहांपर नेमिनाथप्रभु विहार करते है अर्थात् उस जमीनको धन्य हे कि जहांपर भगवान चरण रखते है । एवं धन्य है जिस राजा महाराजा सेठ सेनापतिकों की जो भगवानके समिप दीक्षा लेते है। धन्य है जो भगवानके समीप श्रावक व्रत धारण करते है। धन्य है जो भगवानकि देशना श्रवण करते है । अगर भगवान यहांपर पधार जावे तों में भगवानके पास दीक्षा ग्रहन करू एमा विचार रात्रीमें हुवाथा। . सूर्योदय होते ही भगवान पधारणे कि वधाइ आगइ, राजा प्रजा और निषेढकुंमर भगवानकों वन्दन करनेको गया. भगवा. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ नने देशना दी. निषेढकुंमर देशना सुनि मातापिता कि आज्ञा प्राप्त कर वडे ही आर्डम्बर के साथ मातापिताने थावचा पुत्र कुंमर कि माफीक मोहत्सव कर भगवान के समिप दीक्षा दीरादी । निषेदमुनि सामायिकादि इग्यारा अंगका ज्ञानाभ्यास कर पुर्ण नौ वर्ष दीक्षा पाल अन्तिम आलोचना पुर्वक इकवीस दिनका अनसनकर समाधि सहीत कालकर सर्वार्थसिद्ध नामका महावैमान तेतीस सागरोपमकि स्थितिमें देवपणे उत्पन्न हुवा | वहां देवतावांसे आयुष्य पुर्णकर महाविदेहक्षेत्र में उत्तम जातिकुल विशुद्ध वंसमे कुंमरपणे उत्पन्न होगा भोगों से अरुची होगा केवल प्ररूपित धर्म स्वीकारकर, दीक्षा ग्रहनकर घौर तपचर्या करेगा जिस कार्यके लिये वह दीक्षाके परिसह सहन करेगा उस कार्यको साधन करलेगा अर्थात् केवलज्ञान प्राप्तकर अन्तिम श्वासोश्वास ओर इस ' संसारका त्यागकर मोक्ष पधार ' जावेगा इति प्रथम अध्ययनं समाप्तं । 1 इसी माफीक (२) अनिवहकुंमर (३) वहकुंमर (४) अगतिकुंमर (५) युक्तिकुंमर (६) दशरथकुंमर (७) दृढरथकुंमर ( ८ म हा कुंमर (९) सप्तधणुकुंमर (१०) दशधणुकुमर (११) नामकुमर ( १२ ) शतधणुकुंमर । यह बारहकुंमर बलदेवराजाकि रेवन्तीराणी के पुत्र है पचास पचास अन्तेवर त्याग श्री नेमिनाथ प्रभु पासे दोक्षा ले अन्तिम सर्वार्थसिद्ध वैमान गये थे वहांसे चवके महाविदेह क्षेत्र में निषेढकी माफीक सब मोक्ष जावेगा । इति श्री विन्हिदसासूत्रका संक्षिप्त सार समाप्तम् . Page #295 --------------------------------------------------------------------------  Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति श्री शीघ्रबोध भाग १७ व १८ वां pppppppp& QQQQQQQQQ7 ॥ समाप्तम् ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. इस समय जैनशासन में प्रायः ४५ आगम माने जाते हैं. यथा-ग्यारह अंग, बारह उपांग, दश पयन्ना, छे छेद, चार मूल, नंदी और अनुयोग द्वार एवं ४५. यहां पर हम छे छेद सूत्रों के विषय में ही कुछ लिखना चाहते है. लघु निशिथ, महानिशिथ, और पंचकल्प इन तीन सूत्रों के मूल कर्ता पंचम गणधर सौधर्मस्वामी हैं. तथा वृहत्कल्प, व्यवहार और दशा श्रुतस्कंध इन तीन सूत्रों के मूल कर्ता भद्रबाहु स्वामी हैं. इन सूत्रों पर नियुक्ति, भाष्य, बृहत्भाष्य, चूर्णि, अवचूरी और टिप्पनादि भिन्न २ आचार्योंने रचे हैं. इन छ छेदोंमें प्रायः साधु, साध्वीयोंके आचार, गोचार, कल्प, क्रिया और कायदादि मार्गोका प्रतिपादन किया है. इसके साथ २ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, उत्सर्ग, अपवादादि मार्गोकाभी समयानुसार निरुपण किया है. और इन छओं छेदोंके पठन पाठनका अधिकार उन्हींको है जो गुरुगम्यता पूर्वक गंभीर शैलीसे स्याद्वादमार्गको अच्छी तरहसे जाने हुवे है और गीतार्थ महात्मा है और वेही अपने शिष्योंको योग्यता पूर्वक अध्ययन व पठन पाठन करवाते है। ___भगवान् वीरप्रभुका हुकम है कि जबतक आचारांग और लघुनिशिथ सूत्रोंका जानकार न हो तबतक उन मुनिराजोंको आगेवान Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होके विहार करना, भिक्षाटन करना और व्याख्यान देना नहीं . कल्पंता. __आचारांग, लघुनिशिथ सूत्रसे अनभिज्ञ साधु यदि पूर्वोक्त कार्य करे तो उसे चतुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है. और गच्छनायक आचार्यादि उक्त अज्ञात साधुवोंको पूर्वोक्त कार्योंके विषय आज्ञा भी न दे. और यदि दे तो उन आज्ञा देनेवालोंकोभी चतुर्मासिक प्रायश्चित होता है. इसलिये सर्व साधु माध्वियोंको चाहिये कि वे योग्यता पूर्वक गुरुगमतासे इन छे छेदोंका अवश्य पठन पाठन करें, विना इनके अध्ययन किये साधु मार्गका यथावत् पालन भी नहीं कर सक्ने. कारण जबतक जिस वस्तुका यथावत् ज्ञान न हो उसका पालन भी ठीक ठीक कैसे हो सक्ता है? अगर कोइ शीथिलाचारी खुद खछन्दताको विकार कर अपने माधु साध्वियोंको आचारके अन्धकारमें रख अपनी मन मानी प्रवृत्ति करना चाहे, उनको यह कहना आसान होगा कि साधु साध्वियोंको छेदसूत्र न पढाने चाहिये. उनसे यह पूछा जाय कि छेदसूत्र है किस लिये ? अगर ऐमाही होता तो चौरासी आगमोंमेंसे पैंतालीश आगमका पठन पाठन न रखकर उन चालीसका ही रख देते तो क्या हरन थी? अब सवाल यह रहा कि छेद सूत्रोंमें कइ वातें ऐसी अपवाद है कि वह अल्पज्ञोंको नही पढाइ जाती ( समाधान ) मूल सूत्रोंमे तो ऐसी कोइभी अपवादकी वात नहीं है कि जो साधुवोंको न पढाई Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाय. अगर भाप्य चूर्णि आदि विवरणों में द्रव्य क्षेत्र समयानुसार दुप्कालादिके कारणसे अपवाद मार्गका प्रतिपादन किया है वह “ असक्त प्ररिहार " उस विकट अवस्थाके लिये ही है; परन्तु सूत्रोंमें "सुत्थो खलु पढमो" ऐसाभी तो उल्लेख है कि प्रथम सूत्र और सूत्रका शब्दार्थ कहना. इस आदेशसे अगर मूल सूत्र और सूत्रका शब्दार्थसे ही शिष्यको छेद सूत्रोंकी वाचना दे तो क्या हर्ज है ? क्योंकि इतनेसे मुनियोंको अपने मार्गका मामान्यतः बोध हो सक्ता है. ___ वहोतसे ग्रन्थोमें छेदसूत्रोंके परिमाणकी आवश्यकता होनेपर मूल सूत्रोंका पाठ लिख उसका शब्दार्थ कर देते हैं. इस तरह अगर सम्पूर्ण छेद सूत्रोंकी भाषा कर दी जाय तो मेरे ख्यालसे कोइ प्रकारकी हानी नहीं है, बल्कि अज्ञानके अन्धेरेमें गिरे हुवे महात्माओंके लिये मूर्यके समान प्रकाश होगा. दूसरा सवाल यह रहा कि छेदसूत्रोंके पठन पाठनके अधिकारी केवल मुनिराज ही होते हैं और छपवाके प्रसिद्ध करा दिये जानेपर सब साधारण (श्रावक) लोकभी उनके पढने के अधिकारी हो जावेंगे. इस वातके लिये फिकर करनेकी आवश्यकता नहीं है. यह कायदा जबकि सूत्रोंकी मालकी अपने पास थी. याने सूत्र अपनेही कबजे रक्खे हुवे थे, तब तकचल सक्ती थी; परन्तु आज वे सूत्र हाथोहाथ दिखाई देते है. तो फिर इस बातकी दाक्षिण्यता क्यों ? अन्य लोक भी जैनशास्त्रोंको पढते है तो फिर श्रावक लोगोंने ही क्या नुकसान किया है कि उनकों सूत्रोंकी भाषा भी पढनेका अधिकार नहीं. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रों में ऐसा भी पाठ दिखाई देता है कि भगवान् वीरप्रभुने वहुतसे साधु साध्वि, श्रावक, श्राविका, देव और देवांगनाओंकी परिषदामें इन सूत्रोंका व्याख्यान किया है अगर ऐसा है तो फिर दूसरे पढेंगे यह भ्रांति ही क्यों होनी चाहिये ? छेदसूत्रों में जैसे विशेषतासे साधुवोंके आचारका प्रतिपादन है. वैसे सामान्यतासे श्रावकों के आचारका भी व्याख्यान है. श्रावकों के सम्यक्त्व प्रतिपादनका अधिकार जैसा छेदसूत्रों में है, वैसा सायद ही दूसरे सूत्रोंमें होगा और श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाका सविस्तार तथा गुरुकी तेतीस आशातना टालना और किसी आचार्यको पदवीका देना वह योग्य न होनेपर पछिका छोडाना तथा आलोचना करवाना इत्यादि आचार छेदसूत्रों में है. इसलिये श्रावकभी सुननेके अधिकारी हो सकते हैं. अब तीसरा सवाल यह रहा की श्रावकलोक मूल सूत्र वांके अधिकारी है या नहीं ? इस विषय में हम इतना ही कहेंगे कि हम इन छेद सूत्रों की केवल भाषाही लिखना चाहते हैं. और भाषाका अधिकारी हरएक मनुष्य हो सक्ता है. प्रसंगतः इन छेदसूत्रोंका कितनाक विभाग भिन्न २ पुस्तकोंद्वारा प्रकाशित हो चुका है. जैसे सेनप्रश्न, हीरप्रश्न, प्रश्नोत्तरमाला, प्रश्नोत्तर चिन्तामणी, विशेषशतक, गणधर सार्द्धशतक और प्रश्नोत्तरसाईशतकादि ग्रन्थोंमें आवश्यकता होनेपर इन छेदसूत्रोंकें कार्तपय मूलपाठोंको उत कर उनका शब्दार्थ और विस्तारार्थसें उल्लेख किया है. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमे जैन समाजको बडाही लाभ हुवा और यह प्रवृत्ति भव्यात्मावों के बोधके लिये ही की गईथी. इस लिये अब क्रमशः सम्पूर्ण सूत्रोंको भाषाद्वारा प्राकाशित करवा दिया जाय तो विशेष लाभ होगा, इसी हेतुसे इन सूत्रोंकी भाषा की जाती है. इसको लिखते समय हमको यह भी दाक्षिण्यता न रखनी चाहिये कि सूत्रोंमें बडे ही उच्च कोटीसे मूर्तिमार्गको बतलाया है. और इस समय हमसे ऐसा कठिन मार्ग पल नहीं सक्ता, इसलिये इन सूत्रोंकी भाषा प्रकाशित न करे. आज हम जितना पालते हैं, भवि-. प्यमें मंद संहननवालोंमे इतनाभी पलना कठिन होगा, तथापि सूत्र तो यही रहेंगे. शास्त्रकारोंने यह भी फरमाया है कि "जं सकतं करह जं न सकंतं सहह, सद्दह माणे जीवो पावई सासयठाणं " भावार्थजितना बने उतना करना चाहिये, अगर जो न बन सके उसके लिये श्रद्धा रखनी चाहिये, श्रद्धा रखनेहीसे जीवोंको शाश्वत स्थानकी प्राप्ति हो सक्ती है. उत्कृष्ट मुनिमार्गका जो प्रतिपादन आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण, ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति आदि सूत्रोंके छपनेसे जाहेर हो चुका है, तो फिर दूसरे सूत्रोंका तो कहनाही क्या ? - कितनीक तो रुढी भ्रांतियें पड़ जाती है. अगर उसे दीर्घ द्रष्टी• ‘से देखा जाय तो सिवाय नुकशानके दूसरा कोइ भी लाभ नहीं है. हम हमारे पाठक वर्गसे अनुरोध करते हैं कि आप एक दफे Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन शीघ्रबोधभागोंको क्रमशः आद्योपान्त पढीये. इसके पढनेसे आपको ज्ञात हो जायगा कि सूत्रोंमें ऐसा कौनसा विषय है कि जो जनसमाजके पढने योग्य नहीं हैं ? अर्थात् वीतरागकी वाणी भव्यजीवोंका उद्धार करनेके लिये एक असाधारण कारण है, इसके आराधन करनेहीमे भव्यजीवोंको अक्षय सुखकी प्राप्ति हुई है-होती है-ओर होगी. अन्तमें पाठकोंसे मेरा यह निवेदन है कि छद्मस्थोंसे भूल होनेका स्वाभाविक नियम है. जिसपर मेरे सरीखे अल्पज्ञसे भूल हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? परन्तु सजन जन मेरी भूलकी अगर सूचना देगे तो में उनका उपकार मान कर उसे खीकार करुंगा और द्वितीयावृत्तिमें सुधारा वधारा कर दिया जावेगा. इत्यलम् लेखक. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं. ६२ । । श्रीककसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः । शीघ्रबोध नाग १७वां. श्रीबृहत्कल्पसूत्रका संक्षिप्त सार. ( उद्देशा ६ छे.) प्रथम १ उद्देशा-इस उद्देशामें मुख्य साधु साध्वीयोंका आचारकल्प है । जो कर्मबंधके हेतु और संयमको बाध करनेवाले पदार्थ है, उसको निषेध करते हुवे शास्त्रकारोंने " नो कप्पइ" अथात् नहि कल्पते, और संयमके जो साधक पदार्थ है, उसको 'कप्पइ" अथात् यह कल्पते है। वह दोनो प्रकार 'नो कप्पइ" "कप्पइ" इसी उद्देशामें कहेंगे । यथाः-- - (१) नहि कल्पै-साधु साध्वीयोंको कच्चा तालवृक्षका फल ग्रहण करना न कल्पै । भावार्थ-यहां मूलसूत्रमें तालवृक्षका फल कहा है यह किसी देश विशेषका है। क्यों कि भिन्न भिन्न देशमें भिन्न २ भाषा होती है । एक देशमें एक वृक्षका अमुक नाम है, तो दुसरे देशमें उसी वृक्षका अन्यही Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ नाम प्रचलित है। यहां पर तालवृक्ष के फलकी प्रकृति लंबी और गोल समझनी चाहिये । प्रचलित भाषा में जैसी केलेकी कृति होती है । साधु साध्वीयोंको ऐसा कच्चा फल लेना नहि कल्पै । (२) कल्प - साधु साध्वीयोंको कच्चा तालवृक्षका फल, जो उस फलकों छेदन भेदन करके निर्जीव कर दिया है, अथात् वह अचित्त हो गया हो तो लेना कल्पै । (३) कल्पै - साधुवोंको पक्का तालवृक्षका फल; चाहे वह छेदन भेदन कीया हुवा हो, चाहे छेदन भेदन न भी कीया हो, कारण - वह पका हुवा फल अचित्त होता है । (४) नहि कल्पै - साध्वीयोंको पका तालवृक्षका फल, जो उसको छेदन भेदन नहि कीया हो, कारण- उस पूर्ण फलकी आकृति लंबी और गोल होती है। (५) कल्पै - साध्वीयोंको पका तालवृक्षका फल, जीसको छेदन भेदन कीया हो, वह भी विधिसंयुक्त छेदन भेदन कीया हुवा हो, अथात् उस फल ऊभा नही चीरता हुवा, बीच से टुकडे किये गये हो, ऐसा फल लेना कल्पै । (६) कल्पै – साधुवोंको निम्न लिखित १६ स्थानों, शहरपना (कोट) संयुक्त और शहरके बहार वस्ती न हो, अर्थात् उस शहरका विभाग अलग नहीं हुवे ऐसा ग्रामादिमें साधुको शीतोष्णकालमें एक मास रहना कल्पै । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ स्थानोंके नाम. - (१) ग्राम - जहां रहनेवाले लोगोंकी संख्या स्वल्प है, खान, पान, भाषा हलकी है. और जहांपर ठहरनेसें बुद्धिमानोंकी बुद्धि मलिन हो जाती है, वो ग्राम कहा जाता है। (२) आकर -- जहां पर सोना, चांदी और रत्नोंकी खाणों हो । (३) नगर - शहरपना (कोट) से संयुक्त होके गोलाकार हो, वो नगर कहा जाता है और लम्बी जादा, चौडी कम हो वो नगरी कही जाती है। (४) खेड - धूलकोट तथा खाइ संयुक्त हो । (५) करवट -- जहां पर कुत्सित मनुष्यों वसतें है । (६) पट्टण - जहां पर व्यापारी लोगोंका विशेष निवास हो । (१) गीनती नालीयरादि (२) तोलसें गुल शर्करादि, (३) मापसे कपडा कीनारी इत्यादि, (४) परीक्षार्से रत्नादि - ऐसा चार प्रकार के पदार्थ मिले और विक्रयभी हो सके, उसे पट्टण कहतें है । (७) मंडप - जिसके बहार अढाइ अढाइ कोशपर ग्राम न हो । (८) द्रोणीमुख - जहां पर जल और स्थलका दोनों रस्ता मोजूद हो । . (६) आश्रम - जहां पर तापसका बहुत आश्रम हो । (१०) सन्निवेश - बडे नगरके पासमें वस्ती हो । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) निगम-जहांपर प्रायः वैश्य लोगोंकी अधिक वस्ती हो। (१२) राजधानी-जहांपर खास करके राजाकी राजधानी हो। (१३) संवहम-जहांपर प्रायः किरसानादिककी वस्ती हो। (१४) घोषांसि-जहांपर प्रायः घोषी लोगों वस्ते हो । (१५) एशीयां-जहांपर आये गये मुसाफिर ठहरतें हैं। : (१६) पुडभोय-जहां खेतीवाडीके लीये अन्य ग्रामोंसे लोंगों आकरके वास करते हो। भावार्थ-एक माससे अधिक रहनेसें गृहस्थ लोगोंका अधिक परिचय होता है और जिससे राग द्वेषकी वृद्धि होती हैं। सुखशीलीयापना बढ़ जाता हैं । वास्ते तन्दुरस्तीके कारन बिना मुनिकों शीतोष्ण कालमें एक माससे अधिक नहि ठहरना। __ (७) पूर्वोक्त १६ गढ, कोट शहरपनासें संयुक्त हो । कोटके बहार पुरा आदि अन्य वस्ती हो, ऐसे स्थानमें साधुको शीतोष्ण कालमें दोय मास रहेना कल्प, एक मास कोट की अंदर और एक मास कोटकी ब्हार; परंतु एक मास अन्दर रहे वहां भिक्षा अन्दर करे, और बहार रहे तब भिक्षा बहारकी करे । अगर अन्दर एक मास रहेते हुवे एक रोजही बहारकी भिक्षा करी हो, तो अन्दर और बहार दोनो स्थानमें एकही मास रहेना कल्पनीय है । अगर अन्दर एक मास रहके बहार Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहते हुवे अन्दरकी भिक्षा लेवे, तो कल्पातिक्रम दोष लगता है। वास्ते जहां रहे वहांकी भिदा करनेकीही आज्ञा है । (८) पूर्वोक्त १६ स्थानोंकी बहार वस्ती न हो, तो शीतोष्णकालमें साध्वीयोंको दो मास रहेना कल्पै, भावना पूर्ववत् । (ह) पूर्वोक्त १६ स्थान कोट संयुक्त हो, बहार पुरादि वस्ती हो, तो शीतोष्ण कालमें साध्वीयोंकोच्यार मास रहेना कल्पै । दो मास कोटकी अन्दर और दो मास कोटकी बहार। अन्दर रहे वहांतक भिक्षा अन्दर करे और बहार रहे वहांतक भिक्षा बहार करे। (१०) पूर्वोक्त प्रामादिके एक कोट, एक गढ, एकही दरवाजा, एकही निकाश, प्रवेशका रस्ता हो, ऐसा ग्रामादिमें साधु, साध्वीयोंकों एकत्र रहेना उचित नहि । कारण-दिन और रात्रिमें स्थंडिलादिकके लीये ग्रामसें बहार जाना हो, तो एकही दरवाजेसे आने जानेमें परिचय बढता है, इस लीये लोकापवाद और शासन लघुतादि दोषोंका संभव है। . (११) पूर्वोक्त ग्रामादिके बहुतसे दरवाजे हो, निकास, प्रवेशके बहुतसे रस्ते हो, वहांपर साधु, साध्वी, एक ग्राम में निवास कर सक्ते है । कारण-उन्होंकों आने जानेको अलग अलग रस्ता मिल सकता है। (१२) बाजारकी अन्दर, व्यापारीयोंकी दुकानकी Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्दर, चोरा ( हथाइकी बैठक ), चौकके मकानमें और जहाँ पर दोय तीन च्यार तथा बहुतसे रस्ते एकत्र होते हो, ऐसे मकानमें साध्वीयोंकों उतरना और स्वल्प या बहुत काल ठहरना उचित नहीं हैं । कारण एसे स्थानों में रहनेसे ब्रह्मचर्यकी गुप्ति ( रक्षा ) रहनी मुश्कील हैं। भावार्थ-जहांपर बहुतसे लोगोंका गमनागमन हो रहा है, वहांपर साध्वीयोंको ठहरना उचित नहि है। (१३) पूर्वोक्त स्थानों में साधुवोंको रहना कल्पे । (१४) जिस मकानके दरवाजोंके किवाड न हो अर्थात् रात दिन खुला रहेते हो, ऐसे मकान में साध्वीयोंको शीलरक्षाके लीये रहेना कल्पे नहीं। (१५) उक्त मकानमें साधुवोंको रहेना कल्पै । (१६) साध्वीयों जिस मकानमें उतरोहो उसी मकानका किवाड अगर खुला रखना चाहती हो तो एक वस्त्रका छेडा अन्दर बांधे और दुसरा छेडा व्हार बांधे । कारण-अगर कोइ पुरुष कारणवशात् साध्वीयोंके मकानमें आना चाहता हो, तोभी एकदम वो नहीं आसकता । भावार्थ-यह सूत्र साध्वीयोंके शीलकी रक्षाके लीये फरमाया है। (१७) घडाके मुख माफिक संकुचित मुखवाला मात्राका Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाजन अन्दरसे लीपा हुवा, साधुवों को रखना कल्पे नहीं । कारण-पिसाब करते बखत चित्तवृत्ति मलिन न हो। (१८) उक्त भाजन साध्वीयोंको रखना कल्पै । (१६) उपरसे सुपेतादिसे लिप्त किया हुवा नालीका प्राकार समान मात्राका भाजन साध्वीयोंको रखना कल्पे नहीं। भावना पूर्ववत् । (२०) उक्त मात्राका भाजन साधुओंको कल्प। (२१) साधु साध्वीयोंको वस्त्रकी चलमीली अर्थात् आहारादि करते समय मुनिको वो गुप्त स्थानमें करना चाहिये। अगर ऐसा मकान न मिले तो एक वस्त्रका पडदा बांधके आहार करना चाहिये । उस वस्त्रको शास्त्रकारोंने चलमील (२२) साधु, साध्वीयोंको पाणीके स्थान जैसे नदी, तलाव, कुवा, कुण्ड, पाणीकी पोवाआदि स्थानपर बैठके नीचे लिख हुवे कार्य नहीं करना । कारण-इसीसे लोगोंको शंका उत्पन्न होती है कि साधु वहांपर कचा पानीका उपयोग करते होंगे? इत्यादि । (१) मलमूत्र (टटी पेसाब ) वहांपर करना, (२) बैठना, (३) उभा रहेना, (४) सोना. (५) निद्रा लेना, (६) विशेष निद्रा लेना, (७) अशनादि च्यार प्रकारके आहार करना, (११) स्वाध्याय करना, (१२) ध्यान करना, (१३) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कायोत्सर्ग करना, (१४) आसन लगाना, (१५) धर्मदेशना देना, (१६) बाचना देना, (१७) बाचना लेना - यह १७ बोल जलाश्रय पर न करने के लीये है । (२३) साधु साध्वयों को सचित्र - अर्थात् नाना प्रकार के चित्रोंसे चित्रा हुवा मकानमें रहना कल्पे नहीं । भावार्थ - स्वाध्याय ध्यानमें वह चित्र विघ्नभूत है, चित्तवृत्तिको मलिन करनेका कारण है । (२४) साधु साध्वीयोंको चित्र रहित मकान में रहेना कल्पै | जहांपर रहनेसे स्वाध्याय ध्यान समाधिपूर्वक हो सके। (२५) साध्वीयोंको गृहस्थोंकी निश्रा विना नहीं रहेना, अर्थात जहां आसपास गृहस्थोंका घर न हो ऐसे एकांतके मकान में साध्वीयोंको नहीं रहेना चाहिये । कारण- अगर केह ऐसेभी ग्रामादि होवे कि जहांपर अनेक प्रकारके लोग वसते है, अगर रात दिनमें कारण हो, तो किसके पास जावे । बास्ते आसपास गृहस्थोंका घर होवे, ऐसे मकाम में साध्वीयोंको रना चाहिये । (२६) साधुवोंको चाहे एकान्त हो, चाहे आसपास गृहस्थोंका घर हो, कैसाही मकान हो तो साधु ठहर सके। कारण - साधु जंगलमें भी रह सकता, तो ग्रामादिकका तो कहना ही क्या ? पुरुषकी प्रधानता है। (२७) साधु साध्वीयोंको जहां पर गृहस्थोंका धन-द्रव्य, Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूषणादि कीमती माल होवे, ऐसा उपाश्रय-मकानमें रहेना कल्पे नहीं । कारण अगर कोइ तस्करादि चोरी कर जाय तो साधु रहेनेके कारणसे अन्य साधुवोंकी भी अप्रतीति हो जाती है, इसलीये दुसरी दफे वस्ती (स्थान) मुश्केलीसे मिलता है। (२८) साधु साध्वीयोंको जो गृहस्थोंका धन, धान्यादिसे रहित मकान हो, वहांपर रहेना कल्पै ।। ___ (२६) साधुवोंको जो स्त्री सहित मकान होवे, वहां नहीं ठहरना चाहिये । (३०) अगर पुरुष सहित होवे तो कल्पै भी। (३१) साध्वीयोंको पुरुष संयुक्त मकानमें नहीं रहेना। (३२) अगर ऐसाही हो तो स्त्रीसंयुक्त मकानमें ठहर सके । भावार्थ-प्रथम तो साधु साध्वीयोंको जहां गृहस्थ रहेते हो, ऐसा मकानमें नहीं रहना चाहिये । कारण-गृहस्थसें परिचयकी बिलकुल मना है । अगर दूसरे मकानके अभावसे ठहरना हो तो उक्त च्यार सूत्रके अमलसे ठहर सके । (३३) साधुवोंको जो पासके मकानमें ओरतां रहेती हो ऐसा मकानमें भी ठहरना नहीं चाहिये। कारण-रात्रिके समय पेसाब विगेरे करनेको आते जाते बखत लोगोंकी अप्रतीतिका कारण होता है। ... (३४) साध्वीयों उक्त मकानमें ठहर सकती है। ... (३५) साधुवोंको जो गृहस्थोंके घर या मकानके बीचमें हो के आने जानेका रस्ता हो, ऐसा मकानमें नहीं ठहरना Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये । कारन-गृहस्थोंकी बहिन, बेटी, बहुवोंका हरदम वहां रहेना होता है । वह किस अवस्थामें बैठ रहेती है, और महिला परिचय होता है। (३६) साध्वीयोंको ऐसा मकान हो, तो भी ठहरना कल्यै । (३७) दो साधुवोंको आपसमें कषाय ( क्रोधादि ) हो गया होवे, तो प्रथम लघु ( शिष्यादि ) को वृद्ध (गुर्वादि ) के पास जाके अपने अपराधकी क्षमा याचनी चाहिये । अगर लघु शिष्य न जावे तो वृद्ध गुर्वादिको जाके क्षमा देनी लेनी चाहिये । वृद्ध जावे उस समय लघु साधु उस वृद्ध महात्माका आदर सत्कार करे, चाहे न भी करे; उठके खडा होवे चाहे न भी होवः वन्दन नमस्कार करे चाहे न भी करे, साथमें भोजन करे, चाहे न भी करे, साथमें रहे, चाहे न भी रहे। तोभी वृद्धोंको जाके अपने निर्मल अन्तःकरणसे खमावना चाहिये। प्रश्न-स्थान स्थान वृद्धोंका विनय करना शास्त्रकारोंने बतलाया है, तो यहाँपर वृद्ध मुनि सामने जाके समावे इसका क्या कारन है ? उत्तर-संयमकासार यह है कि क्रोधादिको उपशमाना, यहांपर बडे छोटेका कारन नहीं है।जो उपशमावेगा-खमतखामणा करेगा, उसकी आराधना होगी; और जो वैर विरोध रक्खेगा अर्थात् नहीं खमावेगा, उसकी आराधना नहीं होगी । वास्ते सर्व जीवोंसे मैत्रीभाव रखना यही संयमका सार है । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) साधु साध्वीयोंको चतुर्मासमें विहार करना नहीं कल्पे। कारन-चातुर्मासमें जीवादिककी उत्पत्ति अधिक होती है। (३६) शीतोष्णकालमें आठ मास विहार करना कल्पै । (४०) साधु साध्वीयोंको जो दोय राजावोंका विरूद्ध पक्ष चलता हो, अर्थात् दोय राजाका आपसमें युद्ध होता हो, या युद्ध की तैयारी होती हो, ऐसे क्षेत्र में बार बार गमनागमन करना नहीं कल्पे । कारन-एक पक्षवालोंको शंका होवे कि यह साधु बार बार आते जाते है, तो क्या हमारे यहांके समाचार परपक्षवालोंको कहते होंगे? इत्यादि । अगर कोई साधु साध्वी दोय राजावोंके विरुद्ध होनेपर बार बार गमनागमन करेगा, उसीको तीर्थंकरोंकी और उस राजावोंकी आज्ञाका भंग करनेका पाप लगेगा, जिससे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित आवेगा। (४१) साधु गृहस्थोंके वहां गोचरी जाते है । अगर वहां कोइ गृहस्थ वस्त्र, पात्र, कंबल रजोहरनकी आमंत्रणा करे, तो कहना कि यह वस्तु हम लेते है, परन्तु हमारे प्राचार्यादि वृद्ध मुनियों के पास ले जाते हैं। अगर खप होगा तो रख लेगें खप न होगा तोतुमको वापिस ला देंगे। कारन-आहारादि वस्तु लेने के बाद वापिस नहीं दी जाती है, परन्तु वस्त्र पात्रादि वस्तु उस रोजके लिये करार कर लाया हो, तो खप न होनेपर वापिस भी दे सकते है । वस्त्रादि लाके आचा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि वृद्धाको सुप्रत कर देना, फिर वह आज्ञा देनेगर वह वस्त्रादि काममें ले सकते है । भावार्थ-यहां स्वच्छदताका निषेध, और वृद्ध जनोंका विनय बहुमान होता है । (४२) इसी माफिक विहारभूमि जाते हुवेको, स्वाध्याय करनेके अन्य स्थानमें जाते हुवेको आमंत्रणा करे तो । (४३) एवं साध्वी गोचरी जाती हो। (४४) एवं साध्वी विहारभूमि जातीको आमंत्रणा करे, परन्तु यहां साध्वीयों अपनी प्रवर्तिनी-गुरुणीके पास लावे और उसीकी आज्ञासे प्रवर्ते । नोट:-इस दोयसूत्रमें विहारभूमिका लिखा है, तो वि. हार शब्दका अर्थ कोइ स्थानपर जिनमंदिरका भी कीया है। साधु स्वाध्याय तो मकानमें ही करते है, परन्तु जिनमंदिर दर्शनके लीये प्रतिदिन जाना पडता है । वास्ते यहांपर जिनमंदिर ही जाना अर्थ ठीक संभव होता है। (४५) साधु साधीयोंको रात्रिसमय और वैकालिक (प्रतिक्रमण समय ) अशनादि च्यार आहार ग्रहन करना नहीं कल्पै । कारन-रात्रि-भोजनादि कार्य गृहस्थोंके लीये भी महापाप बतलाया है, तो साधुवांका तो कहना ही क्या? । रात्रिमें जीवांकी जतना नहीं हो सकती । अगर साधुवोंको निर्वाह होने योग्य ठहरनेको. मकान नहीं मिले उस हालतमें कपडे आदिके व्यापारी लोग दुकान मंडते हो, उसको देनेमें दृष्टि Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिलेखन करी हो, तो वह दुकानों रात्रिमें ग्रहन कर सुनेके काममें ले सकते है। (४६ ) साधु साध्वीयोंको रात्रिसमय और वैकालिक समय वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरन लेना नहीं कल्पै । परन्तु कोइ निशाचर साधुवाँके वस्त्रादि चोरके ले गया हो, उसको धोया हो, रंगा हो, साफ गडीबंध करा हो, धूप दीया हो, फिर उसके दिलमें यह विचार हो कि 'साधुवोंका वस्त्रादि नहीं रखना चाहिये' एसा इरादासे वह दाक्षिण्यका मारा दिनको नहीं आता हुवा रात्रिमें आके कपडा वापिस देवे तो मुनि रात्रि में भी ले सकता है । फिर वह वस्त्रादि किसी भी काममें क्यों न लो, परन्तु असंयममें नहीं जाने देना। वास्ते यह कारनसे वो रात्रिमें भी ले सके। (४७) साधु साध्वीको रात्रिमें विहार करना नहीं कल्पै । कारन-रात्रिमें इर्यासमितिका भंग होता है, जीवादिकी रक्षा नहीं होती है। . (४८) साधु साध्वीको किसी प्रामादिमें जिमणवार सुनके-जानके उस गामकी तर्फ विहार करना नहीं कल्पै । इससे लोलुपताकी वृद्धि, लोकापवाद और लघुता होती है । (४९) साधुवोंको रात्रि समय और वैकालिक समयपर स्थाण्डिल या मात्रा करनेको जाना हो तो एकलेको जाना नहीं कल्प। कारन-राजादि कोइ साधुको दखल करे, या Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० एकेला साधु कितना बख्त और कहांपर जाते हैं इत्यादि । वास्ते चाहिये कि आप सहित दो या तीन साधुवोंको साथ जाना । कारन - दूसरेकी लज्जा से भी दोष लगाते हुवे रुक जाते है। तथा एक साधुको राजादिके मनुष्य दखल करता हो, तो दूसरा साधु स्थानपर जाके गुर्वादिको इतल्ला कर सकता है। (५०) इसी माफिक साध्वीयां दोय हो तो भी नहीं कल्पे, परन्तु आप सहित तीन च्यार साध्वीयोंको साथमें रात्रि या वैकालमें जाना चाहिये । इसीसे अपना आचार (ब्रह्मचर्य) व्रत पालन हो सकता है । ( ५१ ) साधुसाध्वीयों को पूर्व दिशामें अंगदेश चंपा - नगरी, तथा राजगृह नगर, दक्षिण दिशा में कोसम्बी नगरी, पश्चिम दिशामें स्थूणा नगरी, और उत्तर दिशामें कुणाला नगरी, च्यार दिशा में इस मर्यादा पूर्वक विहार करना कल्यै । कारन - यहांपर प्रायः आर्य मनुष्यों का निवास है. इन्हके सिवा नार्य लोगोंका रहेना है, वहां जानेसे ज्ञानादि उत्तम गुनोंका घात होता है, अर्थात् जहां पर जानेसे ज्ञानादिकी हानि होती हो, वहां जाने के लीये मना है । अगर उपकारका कारन हो, ज्ञानादि गुणकी वृद्धि हो, आप परीषह सहन करने में मजबूत हो, विद्याका चमत्कार हो, अन्य मिथ्यात्वी जीवोंको बोध देने में समर्थ हो, शासनकी प्रभावना होती हो, अपना चरित्रमें दोष न लगता हो, वहां पर विहार करना योग्य है । । इतिश्री बृहत्कल्पसूत्रमें प्रथम उद्देशाका संक्षिप्त सार । -500000 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ दूसरा उद्देशा. (१) साधु साध्वी जिस मकान में ठहरना चाहते है. उस मकान में शालि आदि धान इधर उधर पसरा हुवा हो, जहांपर पांव रखनेका स्थान न हो, वहांपर हाथ की रेखा सुझे इतना बखत भी नहीं ठरना चाहिये। अगर वह धानका एक तर्फ ढंग किया हो, उसपर राख डालके मुद्रित किया गया हो, कपडेसे ढका हुवा हो, तो साधुको एक मास और साध्वीको दोय मास ठहरना कल्पैः परन्तु चातुर्मास ठहरना नहीं कल्पै । अगर उस धानको किसी कोठेमें डाला हो, ताला कुंचीसे जाबता किया हो, तो चातुर्मास रहेना भी कल्पै । भावार्थ -गृहस्थका धानादि अगर कोइ चोर ले जाता हो तो भी उसको रोक-टोक करना साधुको कल्पे नहीं । गृहस्थको नुकशान होनेसे साधुकी प्रतीति हो और दुसरी दफे मकान मिलना दुष्कर होता है । प्रश्न- जो ऐसा हो तो साधु एक मास कैसे ठहर सकता है १ । उत्तर - आचारांगसूत्र में ऐसे मकान में ठहरनेकी बिल - १ गृहस्थ लोग अपने उपभोगके लीये बनाया हुवा मकान में गृहस्थोंकी लेके साधु ठहर सकता है। उस मकानको शास्त्रकारोंने उपासरा ( उपाश्रय ) कहा है | Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल मना की गइ है, परन्तु यहांपर अपवाद है कि दुसरा मकान न मिलता हो या दुसरे गाम जानेमें असमर्थ हो तो ऐसे अपवादका सेवन करके मुनि अपना संयमका निर्वाह कर सकता है। (२) साधु साध्वीयों जिस मकानमें ठहरना चाहते है, उस मकानमें सुरा जातिकी मदिरा, सोवीर जातिकी मदिराके पात्र ( बरतन ) पडा हो, शीतल पाणी, उष्ण पाणीके घडे पडे हो, रात्रि भर अग्नि प्रज्वलित हो, सर्व रात्रि दीपक जलते हो, ऐसा मकानमें हाथकी रेखा सुझे वहां तक भी साधु साध्वीयोंको नहीं ठहरना चाहिये । अपने ठहरनेके लिये दुसरा मकानकी याचना करनी । अगर याचना करनेपर भी दुसरा मकान न मिले और ग्रामान्तर विहार करनेमें असमर्थ हो, तो उक्त मकानमें एक रात्रि या दोय रात्रि अपवाद सेवन करके ठहर सकते है, अधिक नहिं । अगर एक दो रात्रिसे अधिक रहै तो उस साधु साध्वीको जितने दिन रहै, उतने दिनका 'छेद तथा तपका प्रायश्चित होता है । ३ । ४ । ५ । (६) साधु साध्वीयों जिस मकानमें ठहरना चाहे उस मकानमें लड्डु, शीरा, दुध, दही, घृत, तेल, संकुली, तील, पापडी, गुलधाणी, सीरखण आदि खुले पडे हो ऐसा मकानमें हाथकी रेखा सुझे वहांतक भी ठहरना नहीं कल्पे । भा १-दीक्षाकी अन्दर छेद कर देना अर्थात् इतने दिनोंकी दीक्षा कम समजी जाती है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वना पूर्ववत् । अगर दुसरा मकानकी अप्राप्ति होवे, तो वहां लडु आदि एक तर्फ रखा हुवा हो, राशि आदि करी हुइ हो तो शीतोष्ण कालमें साधुको एक मास और साध्वीयोंको दोय मास रहेना कल्पे । अगर कोठेमें रखके तालेसे बंध करके पका बंदोबस्त किया हो वहांपर चातुर्मास करना भी कल्पे. इसमें भी लाभालाभका कारन और लोगोंकी भावनाका बिचार विचक्षण मुनियोंको पेस्तर करना चाहिये। (७) साध्वीयोंको ११) पन्थी लोग उतरते हो एसा मुसाफिरखानेमें, (२) वंशादिकी झाडीमें, (३) वृक्षके नीचे, और (४) चोतर्फ खुला हो ऐसा मकानमें रहेना नहीं कल्पै । कारन-उक्त स्थान पर शीलादिकी रक्षा कभी कभी मुश्कीलसे होती है। (८) उक्त च्यारों स्थान पर साधुओंको रहेना कल्प। (8) मकानके दाता शय्यातर कहा जाता । ऐसा शय्यातरके वहांका आहार पाणी साधु साध्वीयोंको लेना नहीं कल्पै । अगर शय्यातरके वहां भोजनादि तैयार हुवा है उन्होने अपने वहांसे किसी दुसरे सजनको देने के लिये भेजा नहीं है और सजनने लिया भी नहीं है, केवल शय्यातर एक पात्रमें रख भेजनेका विचार किया है, वह भोजन साधु साध्वीयोंको . लेना नहीं कल्पै । कारन-वह अभी तक शय्यातरका ही है । (१०) उक्त आहार शय्यातरने अपने वहांसे सज्जनके Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वहां भेज दीया, परन्तु अभी तक सजनने पूर्ण तोर पर स्त्रीकार नहीं कीया हो, जैसे कि-भोजन आनेपर कहते है कि यहां पर रख दो, हमारे कुटुम्बवालोंकी मरजी होगी तो रख लेंगे, नहीं तो वापिस भेज देंगे ऐसा भोजन भी साधु साधीयोंको लेना नहीं कल्प। (११) उक्त भोजन सजनने रख लिया हो, उसके अन्दरसे नीकला हो, और प्रवेश किया हो तो वह भोजन साधु साध्वीयोंको ग्रहण करना कल्पै । ( १२ ) उक्त भोजनमें सजनने हानि वृद्धि न करी हो, परन्तु साधु साध्वीयोंने अपनी आम्नायसे प्रेरणा करके उसमें न्यूनाधिक करवायके वह भोजन स्वयं ग्रहण करे तो उसको दोय आज्ञाका अतिक्रम दोष लगता है, एक गृहस्थकी और दुसरी भगवान्की आज्ञा विरुद्ध दोष लगै। जिसका गुरु चतुमासिक प्रायश्चित होता है। (१३) जो दोय, तीन, च्यार या बहुत लोग एकत्र होके भोजन बनवाया है, जिस्में शय्यातर भी सामेल है, जैसे सर्व गामकी पंचायत और चन्दाकर भोजन बनवाते है, उसमें शय्यातर भी सामेल होता है, वह भोजन साधु साध्वीयोंको ग्रहण करना नहीं कल्पै । अगर शय्यातर सामेल न हो तथा उसका विभाग अलग कर दीया हो, तो लेना कन्पै । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५ ... (१४ ) जो कोइ शय्यातरके सजनने अपने वहांसे सुखडी प्रमुख शय्यातरके वहां भेजी है, उसको शय्यातरने अपनी करके रख ली हो, तो साधु साध्वीयोंको लेना नहीं कन्पै । (१५) अगर शय्यातरने नहीं रखी हो तो कल्पै । (१६) शय्यातरने अपने वहांसे सुजनके (स्वजनके) वहां भेजी हो वह नहीं रखी हो तो साधुको लेना नहीं कल्पै । ( १७ ) अगर रख ली हो तो साधुको कल्पै । ( १८ ) शय्यातरके मिजबान कलाचार्य विगेरे आये हो उसको रसोइ बनवानेको शय्यातरने सामान दीया है, और कहा कि-'आप रसोइ बनाओ, आपको जरूरत हो वह आप काममें लेना, शेष बचा हुवा भोजन हमारे सुप्रत कर देना। उस भोजनसे अगर वो शय्यातर देवे, तो साधुओंको लेना नहीं कल्पै । - (१९) मिजवान देवे तो नहीं कल्पै । (२०) सामान देते वखत कहा होवे कि 'हमें तो आपको दे दिया है अब बचे उस भोजनको आपकी इच्छानुनुसार काममें लेना' । उस आहारसे शय्यातर देता हो तो साधुको नहीं कल्पै । कारन-दुसराका श्राहार भी शय्यातरके हाथसे साधु नहीं ले सकते है। (२१) परन्तु शय्यातरके सिवा कोई देता हो तो साधु Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओंको कल्प ग्रहन करना। शय्यातरका इतना परेज रखनेका कारन-अगर जिस मकानमें साधु ठहरे उसके घरका आहार लेने में प्रथम तो आधाकर्मी आदि दोष लगनेका संभव है, दुसरा मकान मिलना दुर्लभ होगा इत्यादि। (२२ ) साधु साध्वीयोंको पांच प्रकारके वस्त्र ग्रहन करना कल्पै (१) कपासका, (२) उनका, (३) अलसीकी छालका, (४) सणका, (५) अकैतूलका । ( २३ ) साधु साध्वीयोंको पांच प्रकारके रजोहरन रखना कल्पै (१) उनका, (२) ओटीजटका, (३) सणका, (४) मुंजका, (५) तृणोंका। । इति श्री बृहत्कल्पसूत्रमें दूसरा उद्देशाका संक्षिप्त सार । तीसरा उद्देशा. (१) साधुओंको न कल्पै कि वो साध्वीयोंके मकान पर जाके उभा रहै, बैठे, सोवे, निद्रा लेवे, विशेष प्रचला करे, अशन, पान, खादिम, स्वादिम करे, लघुनीति या बडी नीति करे, परठे, स्वाध्याय करे, ध्यान या कायोत्सर्ग करे, आसन लगावे, धर्मचिन्तन करे-इत्यादि कोइ भी कार्य वहां पर नहीं करना चाहिये । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ( २ ) उक्त कार्य साध्वीयों भी साधुके मकान पर न करे-कारन इसीसे अधिक परिचय बढ जाता है। दूसरे भी अनेक दूषण उत्पन्न होते है । अगर साधुओंके स्थान पर व्याख्यान और आगमवाचना होती हो, तो साध्वीयों जा सकती है, व्यवहारसूत्रमें एसा उल्लेख है। (३) साध्वीयोंको रोमयुक्त चर्मपर बैठना नहीं कल्प। भावार्थ-अगर कोइ शरीरके कारनसे चर्म रखना पडे तो भी रोमसंयुक्त नहीं कल्प। (४) साधुओंको अगर किसी कारणवशात् चर्म लाना हो तो गृहस्थोंके वहां वापरा हुवा, वह भी एक रात्रिके लिये मांगके लावे । वह रोमसंयुक्त हो तो भी साधुओंको कल्पै । (५) साधु साध्वीयोंको संपूर्ण चर्म, (६) सम्पूर्ण वस्त्र, (७) अभेदा हुवा वस्त्र लेना और रखना-बापरना नहीं कल्पै । भावार्थ- सम्पूर्ण चर्म और वस्त्र कीमती होता है, उससे चौरादिका भय रहेता है, ममत्वभावकी वृद्धि होती है, उपधि अधिक बढती है, गृहस्थोंको शंका होती है । वास्ते । ८) चर्मखण्ड, (६) वस्त्रखण्ड, (१०) अगर अधिक खप होनेसे सम्पूर्ण वस्त्र ग्रहण किया हो तो भी उसका काममें आने योग्य खण्ड, खण्ड करके साधु रख सकता है। ... (११ ) साध्वीयोंको काच्छपाट ( कच्छपटा) और कंचुवा रखना कल्पै । स्त्रीजाति होनेसे शीलरक्षाके लिये Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) यह दोनो उपकरण साधुओंको नहीं कल्प। (१३ ) साध्वीयोंको गोचरी गमन समय अगर वस्त्र याचनाका प्रयोग हो तो स्वयं अपने नामसे नहि, किन्तु अपनी प्रवर्तिनी या वृद्धा हो उसके नामसे याचना करनी चाहिये । इसीसे विनय धर्मका महत्व स्वच्छन्दताका निवारण ओर गृहस्थोंको प्रतीति इत्यादि गुण प्राप्त होते है । (१४) गृहस्थ पुरुषको गृहवासको त्याग करनेके समय (१) रजो हरण (२) मुखवास्त्रिका ( ३.) गुच्छा ( पात्रोपर रखनेका ) झोली 'पात्र तीन संपूर्ण वस्त्र इसकी अंदर सब वस्त्र हो सकते है। (१५) अगर दीक्षा लेनेवाली स्त्री हो तो पूर्ववत् । परन्तु वस्त्र च्यार होना चाहिये । इसके सिवा केइ उपकरण अन्य स्थानों पर भी कहा है । केइ उपगृही उपकरण भी होते है। अगर साधु साधीयोको दीक्षा लेनेके बाद कोइ प्रायश्चित स्थान सेवन करनेसे पुनः दीक्षा लेनी पडे तो नये उपकरण याचनकी आवश्यकता नहीं। वह जो अपने पास पूर्वसे ग्रहण किये हुवे उपकरण है, उन्होसे ही दीक्षा ले लेनी चाहिये ऐसा कल्प है। (१६) साधु साधीयोंको चतुर्मासमें वस्त्र लेना नहि १ पात्र तीन । २ एक वख २४ हाथका लंबा, एक हाथका पना एवं ७२ हाथ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पै । भावार्थ-चतुर्मास क्षेत्रवाले लोगोंको भक्ति के लिये वस्त्रादि मगवाना पडता, उससे कृतगढ आदि दोषका संभव है। (१७) अगर वस्त्र लेना हो, तो चतुर्मासिक प्रतिक्रमण करनेसे पहिले ग्रहण कर लेना, अर्थात् शीतोष्णकाल आठ मासमें साधु साध्वीयोंको वस्त्र लेना कल्पै । ___ (१८) साधु साध्वयोंको उपयोग रखना चाहिये कि वस्त्रादि प्रथम रत्नत्रयसे वृद्ध होवे उन्होंके लिये क्रमशः लेना । एवं (१६) शय्या-संस्तारक भी लेना। (२०) एवं प्रथम रत्नादिको वन्दन करना। इसीसे विनय धर्मका प्रतिपादन हो सकता है । (२१) साधु साध्वीयोंको गृहस्थके घरपे जाके बैठना, उभा रहेना, सो जाना, निद्रा लेना, प्रचला (विशेष निद्रा) करना, अशनादि च्यार आहार करना, टटी पेसाब जाना, सज्झाय ध्यान, कायोत्सर्ग और आसन लगाना तथा धर्मचिंतन करना नहीं कल्पै । कारन-उक्त कार्य करनेसे साधु धर्मसे पतित होगा । दशवैकालिकके छठे अध्ययन-आचारसे भ्रष्ट, और निशीथसूत्रमें प्रायश्चित कहा है। अगर कोई वृद्ध साधु हो, अशक्त हो, दुर्बल हो, तपस्वी हो, चक्कर आते हो, व्याधिसे पीडित हो-ऐसी हालतमें गृहस्थोंके वहां उक्त कार्य कर सकते है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) साधु साध्वीयोंको गृहस्थके घरपे जाके चार पांच गाथ (गाथा) विस्तार सहित कहना नहीं कल्पै । अगर कारण हो तो संक्षेपसे एक गाथा, एक प्रश्नका उत्तर एक वागरणा (संक्षेपार्थ) कहेना, सो भी उभा रहके कहेना, परन्तु गृहस्थोंके घर पर बैठके नहीं कहेना । कारण-मुनिधर्म है सो निःस्पृही हैं। अगर एकके घरपे धर्म सुनाया जाय तो दुसरेके वहां जाना पडेगा, नहीं जावे तो राग द्वेषकी वृद्धि होगी। वास्ते अपने स्थान पर आये हुवेको यथासमय धर्मदेशना देनी ही कल्पै । (२३) एवं पांच महाव्रत पचवीश भावना संयुक्त वि. स्तारसे नहीं कहेना । अगर कारन हो तो पूर्ववत् । एक गाथा एक वागरणा कहना सो भी खडे खडे । (२४) साधु साध्वीयोंने जो गृहस्थके वहाँसे शय्या (पाट पाटा ), संस्तारक, (तृणादि ) वापरनेके लिये लाया हो, उसको वापिस दिया बिना विहार करना नहीं कल्पै । एवं उस पाटो पर जीवोत्पत्तिके कारनसे लेप लगाया हो, तो उस लेपको उतारे बिना देना नहीं कल्पै । अगर जीव पड गया हो, तो जीव सहित देना भी नहीं कल्पै । (२६) अगर उस पाटादिको चोर ले गया हो, तो साधुको उसकी तलास करनी चाहिये, तलास करने पर भी मिल जावे, तो गृहस्थसे कहके दुसरी बार आज्ञा लेनी, अगर नहीं मिले तो गृहस्थसे कह देना कि-'तुमारा पाटादि चौर ले गया हमने तलास की परन्तु क्या करे मिला नहीं । एसा कहके दुसरा पाटादिकी Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याचना करनी कल्पै । कारन-जीवोंकी यतना और गृहस्थोंकी प्रतीति रहै। (२७) साधुवों जिस मकानमें ठहरे है, उसी मकानसे शय्या, संस्तारक अाज्ञासे ग्रहण किया था, वह अपने उपभोगमें न आनेसे उसी मकानमें वापिस रख दिया, उसी दिन अन्य साधु आये और उन्हको उस शय्या संस्वारककी आवश्यकता हो, तो प्रथमके साधुसे रजा लेके भोगवे । कारनपहिलेके साधुने अबतक गृहस्थको सुप्रत नहीं कीया । अगर पहिलेके साधुवोंका मास कल्पादि पूर्ण हो गया तो पुनः गृहस्थोंकी आज्ञा लेके उस पाटादिको वापर सकते है, तीसरे व्रतकी रक्षा निमित्ते । (२८) पहिलेके साधु विहार कर गये हो, उन्होका वस्त्रादि कोइभी उपकरण रह गया हो, तो पीछेके साधुवाँको गृहस्थकी आज्ञासे लेना और जब वो साधु मिलजावे अगर उन्हका हो तो उसको दे देना चाहिये अगर उन्हका न हो, तो एकान्त स्थानपर परठ देना । भावार्थ-ग्रहण करते समय पहिले साधुवोंके नामपर लिया था, अब अपना सत्यव्रत रखनेके लिये आप काममें नहीं लेते हुवे परठना ही अच्छा है। (२६ ) कोइ ऐसा मकान हो कि जिसमें कोइ रहता • न हो, उसकी देखरेख भी नहीं करता हो, किसीकी मालिकी न हो, कोइ पंथी (मुसाफिर) लोक भी नहीं ठहरता हो, उस Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मकानकी आज्ञा भी कोई नहीं देता हो, अर्थात् वह मकानमें देवादिकका भय हो, देवता निवास करता हो, अगर ऐसा मकानमें साधुओंको ठहरना हो, तो उस मकान निवासी देवकी भी आज्ञा लेना, परंतु आज्ञा बिना ठहरना नहीं । अगर कोइ मकान पर प्रथम भिक्षु ( साधु ) उतरे हो, तो उस भितुवोंकी भी आज्ञा लेना चाहिये. जिससे तीसरे व्रतकी रक्षा और लोक व्यवहारका पालन होता है । (३१) अगर कोइ कोट (गढ) के पासमें मकान हो, भीत, खाइ, उद्यान, राजमार्गादि किसी स्थानपरके मकानमें साधुवोंको ठहरना हो तो जहांतक घरका मालिक हो, वहांतक उसकी आज्ञासें ठहरे, नहि तो पूर्व उतरे हुवे मुसाफिरकी भी आज्ञा लेना, परंतु बिना आज्ञा नहीं ठहरना । पूर्ववत्. (३२) जहां पर राजाकी सैनाका निवास हो, तथा सार्थवाहके साथका निवास हो, वहां पर साधु-साध्वी अगर भिक्षाको गया हो, परंतु भिक्षा लेनेके बाद उस रात्रि वहां ठहरना न कल्पै । कारण-राजादिको शंका हो, आधाकर्मी दोषका संभव है, तथा शुभाशुभ होनेसे अप्रतीतिका कारण होता है। ऐसा जानके वहां नहीं ठहरे। अगर कोइ ठहरे तो उसको एक तीर्थंकरोंकी दुसरी राजा और सार्थवाह-इन्ह दोनों की आज्ञाका अतिक्रम दोष लगनेसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित होता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ ( ३३ ) जिस ग्राम यावत् राजधानी में रहे हुवे साधुसाध्वीयोंको पांच गाउ तक जाना कल्पै कारण- दोय कोश तक तो गोचरी जाना आना हो सकता है, और दोय कोश जाने के बाद आधा कोश वहांसे स्थंडिल ( बडी नीति) जा सकता है. एवं अढाइ कोश पश्चिमका मिलाके पांच कोश जाना आना कल्पै | अधिक जाना हो तो, शीतोष्य कालमें अपने भद्रोपकरण लेके विहार कर सकते है । इति ॥ इतिश्री बृहत्कल्पसूत्र - तीसरा उद्देशाका संक्षिप्त सार । 0 चौथा उद्देशा. ( १ ) साधु-साध्वीयों जो स्वधर्मीकी चौरी' करे, परधर्मा चौरी करे, साधु आपसमें मारपीट करे - इस तीनो का - रणों से आठवां प्रायश्चित्त अर्थात् पुन: दीक्षा लेनका प्रायवित्त होता है. ( २ ) हस्तकर्म करे, मैथुन सेवे रात्रिभोजन करे, इस तीन कारणों से नौवां प्रायश्चित, अर्थात् गृहस्थलिंग करवाके पुनः दीक्षा दी जावे. १ चौरी १ सचित्त - शिष्य, २ अचित्त वस्त्रपात्रादि द्रव्य, . ३ मिश्र - उपधि सहित शिष्य अर्थात् बिगर आशा कोइ भी वस्तु लेना, उसको चौरी कहते है. ३ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ (३) दुष्टता-जिसका दोय भेद. (१) कषाय दुष्टता जैसा कि एक साधुने मृत-गुरुका दांत पत्थर से तोडा. (२) विषय दुष्टता-जैसा कि राजाकि राणी और साध्वीसे विषय सेवन करे. प्रमाद-जो पांचवी स्त्याना निद्रावाला, वह निद्रामें संग्रामादिभी कर लेता है. अन्योन्य-साधु-साधुके साथ अकृत्य कार्य करे. इस तीनों कारणों से दशवां प्रायश्चित्त होता है, अर्थात् गृहस्थलिंग करवाके संघको ज्ञात होनेके लीये दुकानोंसे कोडी प्रमुख मंगवाना, इत्यादि. भावार्थमोहनीय कर्म बडाही जबरजस्त है. बडे बडे महात्मावोंको श्रेणिसे गिरा देता है. गिरनेपरभी अपनी दशाको संभालके प्रश्चात्ताप पूर्वक आलोचना करनेसे शुद्ध हो सकता है. जो प्रायश्चित्त जनसमूहकी प्रसिद्धिमें सेवन कीया हो तो उन्होके विश्वास के लीये जनसमूहके सामने हि प्रायश्चित देना शास्त्रकारोंने फरमाया है. इस समय नौवां दशवां प्रायश्चित्त विच्छेद है. आठवां प्रायश्चित्त देनेकी परंपरा अबी चलती है. . (४) नपुंसक हो, स्त्री देखनेपर अपने वीर्यको रखनेमें असमर्थ हो, स्त्रीयोंके कामक्रीडाके शब्द श्रवण करते ही कामातुर हो जाता हो, इस तीन जनोंको दीक्षा न देनी चाहिये. अगर अज्ञातपनेसे देदी हो, पीछेसे ज्ञात हुवा हो, तो उसे मुंडन न करना चाहिये. अज्ञातपनेसे मुंडन कीया हो तो शिष्यशिक्षा न देना चाहिये. एसा हो गया हो तो उत्थापन अर्थात् बडी दीक्षा न देनी चाहिये. असाभी हो गया हो, तो Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथमें भोजन न करना चाहिये. भावार्थ-असे अयोग्यको गच्छमें रखनेसे शासनकी हीलना होती है. दुसरे साधुवोंको भी चेपी रोग लग जाता है. वास्ते जिस समय ज्ञात हो कि तीनों दुर्गुणोंसे कोइभी दुर्गण है, तो उसे मधुर वचनों द्वारा हित शिक्षा देके अपनेसे अलग कर देना. विशेष विस्तार देखो प्रवचन सारोद्धार. (५) अविनयवंत हो, विगइके लोलुपी हो, निरंतर कषाय करनेवाला हो, इस तीन दुर्गणोंवालोंको आगम वाचनादि ज्ञान नहीं देना चाहिये. कारण-सर्पको दुध पीलानाभी विषवृद्धिका कारण होता है. (६) विनयवान हो, विगइका प्रतिबंधी न हो, दीर्घ कषायवाला न हो, इस तीन भव्य गुणोंवालोंको आगम ज्ञानकी वाचना देना चाहिये. कारण-वाचना देना, यह एक शासनका स्तंभ-आलंबन है. (७) दुष्ट-जिसका हृदय मलीन हो, मूढ-जिसको हिताहितका ख्याल न हो, और कदाग्रही-इस तीनोंको बोध लगना असंभव है. ___(0) अदुष्ट, अमूढ और भद्रिक-सरल स्वभावी-इस तीनोंको प्रतिबोध देना सुसाध्य है. .. (६) साधु बीमार होनेपर तथा किसी स्थानसे गिरिते हुवेको दुसरे साधुके अभावसे उसी साधुकी संसार अवस्थाकी Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ माता बहिन और पुत्री - ऊस साधुको ग्रहण करे. उसका कोमलस्पर्श हो तो अपने दिल में अकृत्य ( मैथुन ) भावना लावे तो गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है. (९०) एवं साध्वीको अपना पिता, भाइ या पुत्र ग्रहण कर सकें. (११) साधु-साध्वीयोंको जो प्रथम पोरसीमें ग्रहण कीया हुवा अशनादि च्यार प्रकारके आहार, चरम ( बेल्ली ) पोरसी तक रखना तथा रखके भोगवना नहीं कल्पै. अगर अनजान (भूल) से रहभी जावे, तो उसको एकांत निजींव भूमिका देख परठे और आप भोगवे या दुसरे साधुवाँको देवे तो गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है. (१२) साधु-साध्वीयोंको जो अशनादि च्यार प्रकार के आहार जिस ग्रामादिमें किया हो, उसीसे दोय कोस उपरांत ले जाना नहीं कल्पै. अगर भूलसे ले गया हो, तो पूर्ववत् परठ देना, परंतु नहीं परके आप भोगवे या अन्य साधुवों को देवे तो गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित आता है. (१३) साधु-साध्वी भिक्षा ग्रहण करते हुवे, अगर अनजानसे दोषित आहार ग्रहण कीया, बादमें ज्ञात होनेपर उस दोषित आहारको स्वयं नहीं भोगवे, किन्तु कोइ नव दिक्षित साधु हो ( जिसको अबी बडी दीक्षा लेनी है ) उसको देना कल्पै. अगर भैसा न हो तो पूर्ववत् परठ देना चाहिये. (१४) प्रथम और चरम तीर्थंकरों के साधुवोंके लीये Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी गृहस्थोंने माहार बनाया हो तो उस साधुवोंको लेना नहीं कल्पै. (१५) मध्यके २२ जिनोंके साधुवोंको प्रज्ञावंत और ऋजु ( सरल ) होनेसे कल्पै. (१६) मध्य जिनोंके साधुवोंके लीये बनाया हुवा अशनादि बावीश तीर्थंकरोंके साधुवोंको लेना कल्पै. (१७) परन्तु प्रथम-चरम जिनोंके साधुवोंको नहीं कल्पै. (१८) साधु कबी औसी इच्छा करे कि मैं स्वगच्छसे नीकलके परगच्छमें जाउं, तो उस मुनिको (१) आचार्य-गच्छनायक, (२) उपाध्याय-आगमवाचनाके दाता, (३) स्थविर-सारणा वारणा दे. अस्थिरको मधुर वचनोंसे स्थिर करे. (४) प्रवर्तक-साधुवोंको अच्छे रस्तेमें चलनेकी प्रेरणा करे. (५) गणी-जिसके समीप आचार्यने सूत्रार्थ धारण कीया हो. (६) गणधर-जो गच्छको धारण करके उसकी सार-संभाल करते हो, (७) गणविच्छेदक-जो च्यार, पांच साधुवोंको लेकर विहार करते हो. इस सात पद्वीधरोंको पुछने बिगर अन्य गच्छमें जाना नहीं कल्पै. पूछनेपर भी उक्त सातों पद्वीधर विशेष कारण जान, जानेकि आज्ञा देवे, तो अन्य गच्छमें जाना कल्पै. अगर आज्ञा नहीं देवे तो, जाना नहीं कल्पै. ( १६) गणविच्छेदक स्वगच्छको छोडके परगच्छमें Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानेका इरादा करे तो उसको अपनी पद्वी दुसरको दीयाः । बिगर जाना नहीं कल्पै, परंतु पद्वी छोडके सात पद्वीवालोंको पूछे, अगर आज्ञा दे, तो अन्य गच्छमें जाना कल्पै, आज्ञा नहीं देवे तो नहीं कल्पै. (२०) आचार्य, उपाध्याय, स्वगच्छ छोडकर परगच्छमें जानेका इरादा करे, तो अपनी पद्वी अन्यको दीया बिना अन्य गच्छमे जाना नहीं कल्पै. अगर पद्वी दुसरेको देनेपरभी पूर्ववत् सात पद्वीवालोंको पूछे, अगर वह सात पद्वीधर आज्ञा दे, तो जाना कल्प, आज्ञा नहीं देवे तो जाना नहीं कल्पै. भावार्थ-अन्य गच्छके नायक कालधर्म प्राप्त हो गये हो पीछे साधु समुदाय बहुत है, परंतु सर्व साधुवोंका निर्वाह करने योग्य साधुका अभाव है, इस लीये साधु गणविच्छेदक तथा आचार्य महालाभका कारण जान, अपने गच्छको छोड उपकार निमित्त परगच्छमें जाके उसका निर्वाह करे. आज्ञा देनेवाले अन्य गच्छका आचार धर्म आदिकी योग्यता देखे तो जानेकी आज्ञा देवे, अथवा नहींभी देवे. (२१) इसी माफिक साधु इरादा करेकि अन्य गच्छवासी साधुवोंसे संभोग ( एक मंडलेपर साथमें भोजनका क. रना ) करे, तो पेस्तर पूर्ववत् सात पद्वीधरोंसे आज्ञा लेवे, अगर आचारधर्म, क्षमाधमे, विनयधर्म अपने सदृश होनेपर आज्ञा देवे, तो परगच्छके साथ संभोग कर सके, अगर आज्ञा नहीं देवे, तो नहीं करे. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) एवं-गणविच्छेदक. (२३) एवं-प्राचार्योपाध्यायभी समझना.. ( २४ ) साधु इच्छा करेकि मैं अन्य गच्छमें साधुवोंकी वैयावच करनेको जाउं, तो कल्पै-उस साधुवोंको, पूर्ववत् सात पद्वीधरोंको पूछे, अगर वह आज्ञा देवे तो जाना कल्प, आज्ञा नहीं देवे तो नहीं कल्पै. ( २५ ) एवं गणविच्छेदक. (२६) एवं प्राचार्योपाध्याय. परन्तु अपनी पद्वी अ. न्यको देके जा सक्ते है. (२७) साधु इच्छा करे कि मैं अन्य गच्छमें साधुवोंको ज्ञान देनको जाउं, पूर्ववत् सात पद्वीधरोंको पूछे, अगर आज्ञा देवे तो जाना कल्पै. और आज्ञा नहीं देवे तो जाना नहीं कल्पै. (२८) एवं गणविच्छेदक. (२९) एवं आचार्योपाध्याय. परन्तु अपनी पद्वी दुसरेको देके आज्ञा पूर्वक जा सकते है. भावार्थ-अन्य गच्छके गीतार्थ साधु काल धर्म प्राप्त हो गये हो, शेष साधुवर्ग अगीतार्थ हो, इस हालतमें अन्याचार्य विचार कर सकते हैं, कि मेरे गच्छमें तो गीतार्थ साधु बहुत है, मैं इस अगीतार्थ साधुवाले गच्छमें जाके इसमें ज्ञानाभ्यास करनेवाले साधुवोंको ज्ञानाभ्यास करा के योग्य पदपर स्थापन कर, गच्छकी अच्छी व्यवस्था करदु Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसीसे भविष्यमें बहुत ही लाभका कारन होगा. इस इरादेसे अन्य गच्छमें जा सकते है. (नोट ) इन्ही महात्मावोंकी कितनी उच्च कोटिकी भावना और शासनोन्नति, आपसमे धर्मस्नेह है. भैसी. प्रवृति होनेसे ही शासनकी प्रभावना हो सकती है. (३०) कोइ साधु रात्रीमें या वैकाल समयमे कालधर्म प्राप्त हो जाय तो अन्य साधु गृहस्थ संबंधी एक उपकरण (वांस ) सरचीना याचना करके लावे और कंबली प्रमुखकी झोली बनाके उस वांससे एकांत निर्जीव भूमिकापर परखै. भावार्थ-वांस लाती बखत हाथमें उभा वांसको पकडे, लाते समय कोइ गृहस्थ पूछ कि-'हे मुनि ! इस वांसको आप क्या करोगे ? ' मुनि कहै-' हे भद्र ! हमारे एक साधु कालधर्म प्राप्त हो गया है, उसके लीये हम यह वांस ले आते है. इतनेमे अगर गृहस्थ कहै कि-हे मुनि ! इस मृत मुनिकी उत्तर क्रिया हम करेंगे, हमारा आचार है. तो साधुवोंको उस मृत कलेवरको वहांपर ही बोसिराय देना चाहिये. नहि तो अपनी रीति माफिक ही करना उचित है. (३१) साधुवोंके आपसमें क्रोधादि कषाय हुवा हो तो उस साधुवोंको बिना खमतखामणा-(१) गृहस्थों के घरपर गौचरी नहीं जाना, अशनादि च्यार प्रकारका आहार करना नहीं कल्पै. टटी पैसाब करना, एक गामसे दुसरे गाम जाना, और एक गच्छ छोडके दुसरे गच्छमे जाना नहीं कल्पै. अलग Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास करना नहीं कल्पै. भावार्थ-कालका विश्वास नहीं है. अगर असीही अवस्थामें काल करै, तो विराधक होता है. वास्ते खमतखामणा कर अपने आचार्योपाध्याय तथा गीतार्थ मुनियों के पास आलोचना कर प्रायश्चित्त लेके निर्मल चित्त रखना चाहिये. (३२) आलोचना करने परभी राग-द्वेषके कारणसे आचार्यादि न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देवे, तो नहीं लेना, अगर सत्रानुसार प्रायश्चित्त देनेपर शिष्य स्वीकार नहीं करता हो, तो उसको गच्छके अन्दर नहीं रखना. कारण-झैसा होनेसे दुसरे साधुभी असाही करेंगे इसीसे भविष्यमें गच्छ-मर्यादा, और संयम व्रत पालन करना दुष्कर होगा, इत्यादि. (३३ ) परिहार विशुद्ध (प्रायश्चित्तका तप करता हुवा) साधुको आहार पाणी एक दिनके लीये अन्य साधु साथमें जाके दिला सकै, परन्तु हमेशां के लीये नहीं. कारण एक दिन उसको विधि बतलाय देवे. परन्तु वह साधु व्याधिग्रस्त हो झुंझर हो, कमजोर हो, तो उसको अन्य दिनोंमें भी प्राहार-पाणी देना दिलाना कल्पै. जब अपना प्रायश्चित्त पूर्ण हो जावे, तब वैयावच्च करनेवाला साधु भी प्रायश्चित्त लेवे, व्यवहार रखनेके कारणसे. (३४ ) साधु-साध्वीयोंको एक मासकी अन्दर दोय, तीन, च्यार, पांच महानदी उतरणी नहीं कल्पै. यथा-(१) गंगा, (२) यमुना, (६) सरस्वती, (४) कोशिका, (५) मही, Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર इस नदीयोंकी अन्दर पाणी बहुत रहेता है, अगर आधी जंघा प्रमाण पानी हो, कारणात् उसमें उतरणा भी पडे, तो एक पग जलमें और दुसरा पगको उंचा रखना चाहिये. दुसरा पग पाणीमें रखा जावे तब पहिलाका पग पाणीसे निकाल उंचा. रखे, जहांतक पाणीकी बुंद उस पगसे गिरनी बंध हो जाय, इस विधिसे नदी उतरनेका कल्प है. इसी माफिक कुनाला देशमें अरावंती नदी है. (३५) तृण, तृणपुंज, पलाल, पलालपुंज, आदिसे जो मकान बना हुवा है, और उसकी अन्दर अनेक प्रकारके जीवॉकी उत्पत्ति हो, तो असा मकानमें साधु, साध्वीयोंको ठहरना नहीं कल्पै. (३६.) अगर जीवादिरहित हो, परन्तु उभा हुवा मनुष्यके कानोंसे भी नीचा हो, असा मकानमें शीतोष्ण काल ठहरना नहीं कल्पै. कारण उभा होनेपर और क्रिया करते हर समय शिरमें लगता, मकानको नुकशानी होती है. (३७) अगर कानोंसे उंचा हो, तो शीतोष्ण कालमें ठहरना कल्पै. (३८) उक्त मकान मस्तक तक उंचा हो तो वहां चातुर्मास करना नहीं कल्पै. (३६) परन्तु मस्तकसे एक हस्त परिमाण उंचा हो तो साधु साध्वीयोंको उस मकानमें चातुर्मास करना कल्पै. । इति श्री बृहत्कल्पसूत्रका चौथा उद्देशाका संक्षिप्त सार । - Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा उद्देशा. (१) किसी देवताने स्त्रीका रुप वैक्रिय बनाके किसी साधुको पकडा हो, उसी समय उस वैक्रिय स्त्रीका स्पर्श होनेसे साधु मैथुनसंज्ञाकी इच्छा करे, तो गुरु चातुर्मासिक प्रायचित्त होता है, (२) एवं देव पुरुषका रुप करके साध्वीको पकडने पर भी. ( ३ ) एवं देवी स्त्रीका रुप बनाके साधुको पकडै तो. ( ४ ) देवी पुरुषरुप चनाके साध्वीको पकडने पर भी समझना. भावार्थ-देव देवी मोहनीय कर्म-उदीरण विषय परीषह देवे, तो भी साधुवोंको अपने व्रतोंमें मजबुत रहना चाहिये. (५) साधु आपसमे कषाय-क्रोधादि करके स्वगच्छसे नीकलके अन्य गच्छमें गया हो तो उस गच्छके आचार्यादिकोंको जानना चाहिये कि उस आये हुवे साधुको पांच रोजका छेद प्रायश्चित्त देके स्नेहपूर्वक अपने पासमें रखे. मधुर वचनोंसे हितशिक्षा देके वापिस उसी गच्छमें भेज देवे. कारण असी वृत्ति रखनेसे साधु स्वच्छन्द न बने. एक दुसरे गच्छकी प्रतीति विश्वास बना रहै, इत्यादि. • (६) साधु-साध्वीयोंकी भिक्षावृत्ति सूर्योदयसे अस्त तक है. अगर कोइ कारणात् समर्थ साधु निःशंकपणे-अर्थात् Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ बादला या पर्वतका आडसे सूर्य नहीं दिखा, परन्तु यह जाना जाता था कि सूर्य अवश्य होगा. तथा उदय हो गया है, इस इरादासे आहार-पानी ग्रहण कीया. बादमें मालुम हुवा कि सूर्य अस्त हो गया तथा अभी उदय नहीं हुवा है, तो उस आहारको भोगवता हो, तो मुंहका मुंहमे हाथका हाथमें और पात्रका पात्रमें रखे, परन्तु एक बिन्दु मात्र भी खावे नहीं, सबको अचित्त भूमिपर परठ देना चाहिये, परन्तु आप खावे नहीं, दुसरेको दे नहीं, अगर खबर पडने के बाद आप खावे, तथा दुसरेको देवे तो उस मुनियोंको गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आवै. (७) एवं समर्थ शंकावा. (८) एवं असमर्थ निःशंक. (६) एवं असमर्थ शंकावान् । भावार्थ-कोइ आचा. र्यादिक वैयावच्च के लीये शीघ्रता पूर्वक विहार कर मुनि जा रहा है. किसी ग्रामादिमे सबेरे गोचरी न मिलीथी श्यामको किसी नगरमें गया. उस समय पर्वतका आड तथा बादलमें सूर्य जानके भिक्षा ग्रहण की और सबेरे सूर्योदय पहिले तक्रादि ग्रहण करी हो, ग्रहन कर भोजन करनेको बेठने के बाद ज्ञात हुवा कि शायद सूर्योदय नहीं हुवा हो अथवा अस्त हो गया हो असा दुसरोंसे निश्चय हो गया हो तो उस मुंहका, हाथका और पात्रका सब आहारको निर्जीव भूमिपर परठ देनेसे आज्ञाका उन्लंघन नहीं होता है. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अगर रात्रि या वैकाल समय में मुनिको भात - पाणीका उगाला या गया हो, तो उसको निर्जीव भूमिपर यतनापूर्वक परठ देना चाहिये. अगर नहीं परठे और पीछा गले उतार देवे, तो उस मुनिको रात्रि भोजनका पाप लगनेसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है. (११) साधु-साध्वीयोंको जीव सहित आहार- पानी ग्रहन करना नहीं कल्पै. अगर अनजानपणे या गया हो, जैसे साकर - खांडमे कीडी प्रमुख उसको साधु समर्थ है कि जीवोंको अलग कर सके. तो जीवोंको अलग करके निर्जीव आहारको भोगवे कदाच जीव अलग नहीं होता हो तो उस आहारको एकान्त निर्जीव भूमिका देखके यतनापूर्वक परठे. (१२) साधु-साध्वी गौचरी लेके अपने स्थानपर था रहे है, उस समय उस आहारकी अन्दर कचे पानी की बुंद गिर जावे, अगर वह श्रहार गरमागरम हो तो आप स्वयं भोगवे दुसरेको भी देवे. कारण - उस पानी के जीव उष्णाहारसे चव जाते है. परन्तु आहार शीतल हो तो न आप भोगवे, और न तो अन्य साधुवों को देवे. उस आहारको विधिपूर्वक एकांत स्थानपर जाके परठै. (१३) साध्वी रात्रि तथा वैकाल समय टटी - पेसाब करते समय किसी पशु-पक्षी श्रादिके इंद्रिय स्पर्श हो, तो आप हस्त कर्म तथा मैथुनादि दुष्ट भावना करें, तो गुरु चातुमासिक प्रायश्चित्त होता है. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४ एवं शरीर शुद्धि करते वखत पशु-पक्षीकी इंद्रियसे अकृत्य कार्य करनेसे भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त होता है. यह दोनों सूत्र मोहनीय कर्मापेक्षा है. कारण-कर्मोकी विचित्र गति है. वास्ते असे अकृत्य कार्योंके कारणोंको प्रथम ही शास्त्रकारोंने निषेध कीया है. (१५) साध्वीयोंको निम्नलिखित कार्य करना नहीं कल्पै. (१६) एकेलीको रहना, (१७) एकेलीको टटी-पैसाव करनेको जाना (१८) एकेलीको विहार करना, (१६) वस्त्ररहित होना, (२०) पावरहित गौचरी जाना, (२१) प्रतिज्ञा कर ध्यान निमित्त कायाको वोसिरा देना, ( २२ ) प्रतिज्ञा कर एक पसचा (वा)डे सोना, ( २३ ) ग्राम यावत् राजधानीसे बाहार जाके प्रतिज्ञापूर्वक ध्यान करना नहीं कल्पै.अगर ध्यान करना हो तो अपने उपासरेकी अन्दर दरवाजा बन्ध कर ध्यान कर सकते है. (२४) प्रतिमा धारण करना, ( २५ ) निषद्या-जिसके पांच भेद है-दोनों पांव बराबर रख बैठना, पांव योनिसे स्पर्श करते बैठना, पांवपर पांव चढाके बैठना, पालटी मारके बैठना, अद पालटी मारके बैठना, ( २६ ) वीरासन करना, (२७) दंडासन करना, Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ ( २८) ओकड्ड आसन करना, ( २६ ) लगड आसन करना, (३० ) आम्रखुजासन करना, ( ३१ ) उर्ध्व मुख कर सोना, (३२) अधोमुख कर सोना, (३३) पांव उर्च करना, ( ३४ ) ढींचणोंपर होना-यह सर्व साध्वीके लीये निषेध कीया है. वह अभिग्रह-प्रतिज्ञाकी अपेक्षा है. कारणप्रतिज्ञा करने के बाद कितने ही उपसर्ग क्यों नहीं हो ? परन्तु उससे चलित होना उचित नहीं है. अगर असे आसनादि करनेपर कोइ अनार्य पुरुष अकृत्य करनेपर ब्रह्मचर्यका रक्षण करना आवश्यक है. बास्ते साध्वीयोंको असे अभिग्रह करनेका निषेध कीया है. अगर मोक्षमार्ग ही साधन करना हो तो दुसरे भी अनेक कारण है. उसकी अन्दर यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिये. (३५) साधु उक्त अभिग्रह-प्रतिज्ञा कर सकते है. . (३६) साधु गोडाचालक ही लगाके बेठ सकता है. (३७) साधीयोंको गोडाचालक ही लगाके बेठना नहीं कल्प.. ... (३८) साधुवोंको पीछाडी पाटो सहित (खुरसीके आकार) पाटपर बेठना कल्पै. Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ( ३६ ) असे साध्वीयोंको नहीं कल्पै. (४०) पाटाके शिरपर पागावोंका आकार होते है, असा पाटापर साधुवोंको बेठना सोना कल्पै. (४१) साध्वीयोंको नहीं कल्पै. (४२ ) साधुवोंको नालिका सहित तुंबडा रखना और भोगवना कल्पै. (४३) साध्वीयोंको नहीं कल्पै. . (४४) उघाडी डंडीका राजेहरण ( कारणात् १॥ मास ) रखना और भोगवना कल्पै. (४५) साध्वीयोंको नहीं कल्प. (४६ ) साधुवाँको डांडी संयुक्त पुंजणी रखना कल्पै. (४७ ) साध्वीयोंको नहीं कल्पै. (४८)साधु-साध्वीयोंको आपसमें लघु नीति (पेसाब) देना लेना नहीं कल्पै. परन्तु कोइ अतिकारन हो, तो कल्यै भी. भावार्थ-किसी समय साधु एकेला हो और सादिका कारण हो, असे अवसरपर देना लेना कल्पै भी. (४६ ) साधु साध्वीयोंको प्रथम प्रहरमे ग्रहन कीया हुवा अशनादि आहार, चरम प्रहरमे रखना नहीं कल्यै. परन्तु अगर कोइ अति कारन हो, जैसे साधु बिमार होवे और बतलाया हुवा भोजन दुसरे स्थानपर न मिले. इत्यादि अपवादमें कल्पै भी सही. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) साधु-साध्वीयोंको ग्रहन कीये स्थानसे दो कोश उपरांत ले जाना अशनादि नहीं कल्पै. परन्तु अगर कोई विशेष कारण हो तो-जैसे किसी प्राचार्यादिकी वैयावच्च के लीये शीघ्रतापूर्वक जाना है. क्षुधासहित चल न सकै, रस्तेमें ग्रामादि न हो, तो दोय कोश उपरांत भी ले जा सक्ते है. (५१) साधु-साध्वीयोंको प्रथम प्रहरमे ग्रहन कीया हुवा विलेपनकी जाति चरम प्रहरमे नहीं कल्पै. परन्तु कोई विशेष कारन हो तो कल्पै. (५२ ) एवं तेल, घृत, मखन, चरची. ( ५३ ) काकण द्रव्य, लोद्र द्रव्यादि भी समझना. ( ५४ ) साधु अपने दोषका प्रायश्चित कर रहा है. अगर उस साधुको किसी स्थविर ( वृद्ध) मुनियोंकी वैयाबच्चमें भेजे, और वह स्थविर उस प्रायश्चित तप करनेवाले साधुका लाया आहार पानी करै, तो व्यवहार रखनेके लीये नाम मात्र प्रायश्चित उस स्थविरोंको भी देना चाहिये. इससे दुसरे साधुवोंको क्षोभ रहेता है. (५५) साध्वीयों गृहस्थोके वहां गौचरी जानेपर किसीने सरस आहार दीया, तो उस साध्वीयोंको उस रोज इतना ही आहार करना, अगर उस आहारसे अपनी पूरती न हुइ, ज्ञान-ध्यान ठीक न हो, तो दुसरी दफे गौचरी जाना. भावार्थ-सरस आहार आने पर प्रथम उपासरेमें आना चाहिये. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे पूछना चाहिये. कारण - फिर ज्यादा हो तो परठते में महान दोष है. वास्ते उणोदरी तप करना. ॥ इति श्री बृहत्कल्प सूत्रका पांचवा उद्देशाका संक्षिप्त सार ॥ हा उद्देशा. (१) साधु-साध्वीयों किसी जीवोंपर (१) अछता - कूडा कलंक देना, (२) दुसरे की हीलना - निंदा करना, (३) किसीका जातिदोष प्रगट करना, (४) किसीको भी कठोर वचन बोलना, (५) गृहस्थोंकी माफिक हे माता, हे पिता, हे मामा, हे मासी - इत्यादि मकार चकारादि शब्द बोलना. (६) उपशमा हुवा क्रोधादिककी पुनः उदीरणा करनी यह छे वचन बोलना साधु-साध्वीयों को नहीं कल्पै. कारन - इससे परजीवोंको दुःख होता है, साधुकी भाषासमितिका भंग होता है. (२) साधु-साध्वीयों अगर किसी दुसरे साधुवोंका दोपको जानते हो, तोभी उसकी पूर्ण जाच करना, निर्णय करना, गवाह करना, बादही मे गुर्वादिकको कहना चाहिये. अगर ऐसा न करता हुवा एक साधु दुसरे साधुपर याक्षेप कर देवे, तो गुर्वादिकको जानना चाहियेकि श्राप करनेवालेको प्राय Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्चित देवे अगर प्रायश्चित न देवेगा तो, कोइभी साधु किसीके साथ स्वल्पही द्वेष होनेसे आक्षेप कर देगा. इसके लीये कल्पके छे पत्थर कहा है. (१) कोइ साधुने आचार्यसे कहाकि अमुक साधुने जीव मारा है. जीस साधुका नाम लीया, उसको आचार्य पूछेकि हे आर्य ! क्या तुमने जीव मारा है ? अगर वह साधु स्वीकार करेकि-हां महाराज ! यह अकृत्य मेरे हाथसे हुवा है, तो उस मुनिको आगमानुसार प्रायश्चित देवे, अगर वह साधु कहैकि-नहीं, मैंने तो जीव नहीं मारा है. तब श्राक्षेप करनेवाले साधुको पूछना, अगर वह पूर्ण साबुती नहीं देवे, तो जितना प्रायश्चित्त जीव मारनेका होता है, उतनाही प्रायश्चित्त उस आक्षेप करनेवाले साधुको देना चाहियेकि दुसरी बार कोइभी साधु किसीपर जूठा आक्षेप न करै. भावार्थनिर्बल साधु तो जूठा आक्षेप करेही नहीं, परन्तु कौकी विचित्र गति होती है. कभी द्वेषका मारा करभी देवे, तो गच्छ निर्वाहकारक आचार्यको इस नीति का प्रयोग करना चाहिये. (२) एवं मृषावाद आक्षेपका, (३) एवं चौरी आक्षेपका, (४) एवं मैथुन आक्षेपका, (५) एवं नपुंसक आक्षेपका (६) एवं जातिहीन आक्षेपका-सर्व पूर्ववत् समजना. ___ (३) साधुके पावमें कांटा, खीला, फंस, काच-आदि भांगा हो, उस समय साधु निकालनेको विशुद्धि करनेको असमर्थ हो, औसी हालतमें साध्वी उस कांटा यावत् काचखंडको पसे निकाले, तो जिनाज्ञा उल्लंघन नहीं होता है. भावार्थ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ गृहस्थोंका सर्व योग साव है, वास्ते गृहस्थोंसे नहीं निकलवाना, धर्मबुद्धिसे साध्वीयोंसे नीकलाना चाहिये. कारन - ऐसा कार्यतो कभी पड़ता है. अगर गृहस्थोंसे काम करानेंमें छुट होगा, तो आखिर परिचय बढनेका संभव होता है. (४) साधुके आँखों (नेत्रों) मे कोइ तृण, कुस, रज, बीज या सुक्ष्म जीवादि पड़ जावे, उस समय साधु निकालनेमें असमर्थ हो, तो पूर्ववत् साध्वीयों निकाले, तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता है. ( कारणवशात ) एवं ( ५-६ ) दोय लाप साध्वयों कांटादि या नेत्रोंमे जीवादि पड जानेपर साध्वीयों असमर्थ हो तो, साधु निकाल सक्ता है, पूर्ववत्. ( ७ ) साध्वी अगर पर्वत से गिरती हो, विषम स्थानसे पडती हो, उस समय साधु धर्मपुत्री समज, उसको आलंबन दे, आधार दे, पकड ले, अर्थात् संयम रक्षण करता हुवा जिनाज्ञाका उल्लंघन नहीं होता है. अर्थात् वह जिनाज्ञाका पालन करता है. (८) साध्वीयों पाणी सहित कर्दममें या पाणी रहित कर्दममें खुंची हो, आप व्हार निकले में असमर्थ हो, उस साधु धर्मपुत्री समज हाथ पकड चाहार निकाले तो भगवानकी आज्ञा उल्लंघन नहीं करै, किन्तु पालन करे. ( ९ ) साध्वी नौकापर चढती उतरती, नदी में डूबती को साधु हाथ पकड निकाले तो पूर्ववत् जिनाज्ञाका पालन करता है, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) साध्वीयों दत्तचित्त (विषयादिसे ), (११) क्षित चित्त ( क्षोभ पानेसे ), (१२ ) यक्षाधिष्ठित, (१३) उन्मत्तपनेसे, (१४ ) उपसर्ग के योगसे, (१५) अधिकरण-क्रोधादिसे, (१६ ) सप्रायश्चित्तसे. (१७) अनशन करी हुइ ग्लानपनासे, ( १८ ) सलोभ धनादि देखनेसे, इन कारणोंसे संयमका त्याग करती हुइ, तथा आपघात करती हुइको साधु हाथ पकड रखे, चित्तको स्थिर करे, संयमका साहित्य देवे तो भगवानकी आज्ञाका उल्लंघन न करे, अर्थात् आज्ञाका पालन करे. . (१६) साधु साधुवीयोंके कल्पके पलिमन्थु छे प्रकार के होते है. जैसे सूर्यकी कांतिको बादले दबा देते है, इसी प्रकार छ बातों साधुवोंके संयमको निस्तेज कर देती है. यथा (१) स्थान चपलता, शरीर चपलता, भाषा चपलता-यह तीनों चपलता संयमका पलिमन्थु है. अर्थात् (कुकइ ) संयमका पलिमन्थु है. (२) बार बार बोलना, सत्यभाषाका पलिमन्थु है. (३) तुण तुणाट अर्थात् आतुरता करना गोचरीका पलिमन्थु है. (४) चक्षु लोलुपता-इर्यासमितिका पलिमन्थु है. (५) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा लोलुपता अर्थात् तृष्णाको बढाना, वह सर्व कार्योका. पलिमन्थु है. (६) तप-संयमादि कृत कार्यका बार बार निदान (नियाणा) करना, यह मोक्ष मार्गका पलिमन्थु है. अर्थात् यह छ वातों साधुवोंको नुकशानकारी है. वास्ते त्याग करना चाहिये. (२०) छे प्रकार के कल्प है. (१) सामायिक कल्प, (२) छेदोपस्थापनीय कल्प, (३) निवट्टमाण, (४) निवडकाय, (५) जिनकल्प, (६) स्थविरकल्प इति. ' इति श्री बृहत्कल्पसूत्र-छट्ठा उद्देशाका संक्षिप्त मार. * इति श्री बृहन्कल्पसूत्रका संक्षिप्त सार समाप्त. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला-पुष्प नं०६३ । - ॥ श्री देवगुप्तसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः ॥ अयश्री शीघ्रबोध नाग २० वा। अथश्री दशाश्रुतस्कन्धसूत्रका संक्षिप्त सार. (अध्ययन दश.) (१) प्रथम अध्ययन-पुरुष अपनी प्रकृतिसे प्रतिकूल आचरण करनेसे असमाधिका कारण होता है. इसी माफिक मुनि अपने संयम-प्रतिकूलं आचरण करनेसे संयमअसमाधिको प्राप्त होता है. जिसके २० स्थान शास्त्रकारोंने बतलाया है. यथा(१) आतुरतापूर्वक चलनेसे असमाधि-दोष. (२) रात्रि समय विगर पुंजी भूमिकापर चलनेसे असमा धि दोष. (३) पुंजे तोभी अविधिसे कहांपर पुंजे, कहांपर नहीं पुंजे ... तो असमाधि दोष. (४) मर्यादासे अधिक शय्या, संस्तारक भोगवे तो अस० दो० Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) रत्नत्रयादिसे वृद्ध जनोंके सामने बोले, अविनय करे तो अस० दो० (६) स्थविर मुनियोंकी घात चिंतवे, दुर्धान करे तो अस० दोष (७) प्राणभूत जीव-सत्त्वकी घात चिंतवे, तो अस० दोष. (८) किसीके पीछे अवगुण-वाद बोलनेसे अस० दोष.. (६) शंकाकारी भाषाको निश्चयकारी बोलनेसे अस० दोष. (१०) वार वार क्रोध करनेसे अस० दोष. (११) नया क्रोधका कारण उत्पन्न करनेसे अस० दोष. (१२) पुराणे क्रोधादिकी उदीरणा करनेसे अस० दोष. (१३) अकालमे सज्झाय करनेसे अस० दोष. (१४) प्रहर रात्रि जानेके बाद उंच स्वरसे बोले तो अस० दोष लगे. (१५) सचित्त पृथ्व्यादिसे लिप्त पावोसे आसनपर बैठे तो अस० दोष लगे. (१६) मनसे झूझ करे किसीका खराब होना इच्छे तो अस० दोष. (१७) वचनसे झूझ करे, किसीको दुर्वचन बोले तो अस० दोष लगे. (१८) कायासे झूझ करे अंग मोडे कटका करे, तो अस० दोष. (१६) सूर्योदयसे अस्ततक लाना, खानेमे मस्त रहे तो अस० दोष. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) भात-पाणीकी शुद्ध गवेषणा न करनेसे अस० दोष. इस बोलोकों सेवन करनेसे साधु, साध्वीयोंको असमाधि दोष लगता है. अर्थात् संयम असमाधि ( कमजोर ) को प्राप्त करता है. वास्ते मोक्षार्थी महात्मावोंको सदैवके लीये यतना पूर्वक संयमका खप करना चाहिये. ॥ इति प्रथम अध्ययनका संक्षिप्त सार ॥ (२) दूसरा अध्ययन. जैसे संग्राममें गये हुवे पुरुषको गोलीकी चोट लगनेसे अथवा सबल प्रहार लगनेसे बिलकुल कमजोर हो जोता है; इसी माफिक मुनियों के संयममें निम्न लिखित २१ सबल दोष लगनेसे चारित्रं बिलकुल कमजोर हो जाता है. यथा(१) हस्तकर्म ( कुचेष्टा ) करनेसे सवल दोष. (२) मैथुन सेवन करनेसे सबल दोष. (३) रात्रिभोजन करनेसे ,, , (४) आदाकर्मी आहार, वस्त्र, मकानादि सेवन करनेसे स बल दोष. (५) राजपिंड भोगनेसे सबल दोष. (६) मूल्य देके लाया हुवा, उधारा हुवा, निर्बलके पाससे __* रानपिंड-(१) राज्याभिषेक करते समय, (२) राजाका 'बलिष्ठ आहार ज्यों तत्काल वीर्यवृद्धि करे, (३) रानाका भोजन समये बचा हुवा आहारमें पंडे लोगोंका विभाग होता है. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबरदस्तीसे लाया हुवा, भागीदारकी विगर मरजीसे लाया हुवा, और सामने लाया हुवा-असे पांच दोष संयुक्त आहार-पाणी भोगनेसे सबल दोष लगे. (७) प्रत्याख्यान कर वार वार भंग करनेसे सबल दोष. (८) दीक्षा लेके छे मासमें एक गच्छसे दुसरे गच्छमें जा. नेसे सबल दोष लगे. (8) एक मासमें तीन उदग (नदी) लेप लगानेसे स बल दोष. (१०) एक मासमें तीन मायास्थान सेवे तो सबल दोष. (११) शय्यातरके वहांका अशनादि भोगनेसे सबल दोष, (१२) जानता हुवा जीवको मारनेसे सबल दोष लगे. (१३) जानता हुवा जूठ बोले तो सबल दोप. (१४) जानता हुवा पृथ्व्यादिपर बैठ-सोवे तो सबल दोष लगे. (१६) स्नाघ पृथ्व्यादि पर बैठ, सोवे, सज्झाय करे तो स बल दोष. (१७) त्रस, स्थावर, तथा पांच वर्णकी नील, हरी अंकुरा यावत् कलोडीये जीवोंके झालोंपर बैठ, सोवे तो सबल दोष लगे. (१८) जानता हुवा कची वनस्पति, मूलादिको भोगनेसे स बल दोष. (१६) एक बरसमें दश नदीके लेप लगानेसे सबल दोष. + लेप-देखो कल्पसूत्रमें. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ (२०) एक वर्षमें दश मायास्थान सेवन करनें से सबल दोष. (२१) सचित्त पृथ्वी - पाणीसे स्पर्श हुवे हाथोंसे भात, पाणी ग्रहण करे तो सबल दोष लगता है. दोषोंके साथ परिणामभी देखा जाता है और सब दोष सदृश भी नहीं होते है, इसकी आलोचना देनेवाले बडेही गीतार्थ होना चाहिये. इस २१ सबल दोषों से मुनि महाराजोंको सदैव वचना चाहिये. इति श्री दशा श्रुत स्कन्ध- दुसरे अध्ययनका संक्षिप्त सार. (३) तीसरा अध्ययन. गुरु महाराजकीतेतीस आशातना होती है. यथा(१) गुरु महाराज और शिष्य राहस्ते चलते समय शिष्य गुरुसे आगे चले तो आशातना होवे. --- (२) बराबर चले तो आशातना, (३) पीछे चले परन्तु गुरुसे स्पर्श करता चले तो आशातना, एवं तीन - शातना बैठनेकी, एवं तीन आशातना उभा रहनेकीकुल शातना है । (१०) गुरु और शिष्य साथमे जंगल गये कारणवशात् एक पात्रमे पाणी ले गये, गुरुसे पहिला शिष्य शूचि करें तो शातना, (११) जंगल से श्रायके गुरु पहिला शिष्य इरिया ही प्रतिक्रमे तो आशातना. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० (१२) कोइ विदेशी श्रावक आया हुवा है, गुरु महाराज से वार्तालाप करनेके पेस्तर उस विदेशीसे शिष्य वात करे तो आशातना. (१३) रात्रि समय गुरु पूछते है - भो शिष्यो ! कौन सोते कौन जागते हो ? शिष्य जाग्रत होने पर भी नहीं बोले. भावार्थ - शिष्यका इरादा हो कि अबी बोलुंगा तो लघुनीति परठनेको जाना पडेगा. आशातना. (१४) शिष्य गौचरी लाके प्रथम लघु साधुवोंको बतलावे पीछे गुरुको बतलावे तो शातना. (१५) एवं प्रथम लघु मुनियोंके पास गौचरी की आलोचना करे पीछे गुरु के पास आलोचना करें तो आशातना. (१६) शिष्य गौचरी लाके प्रथम लघु मुनियों को आमंत्रण करे और पीछे गुरुको आमंत्रण करे तो आशातना. (१७) गुरुको विगर पूछे अपना इच्छानुसार आहार साधुवों को भेट देवे, जिसमे भी किसी को सरस आहार और कि सीको नीरस आहार देवे तो आशातना. (१८) शिष्य और गुरु साथमे भोजन करनेको बैठे. इसमे शिष्य अपने मनोज्ञ भोजन कर लेवे तो आशातना. (१९) गुरुके बोलानेसे शिष्य न बोले तो आशातना. ( २० ) गुरुके बोलाने पर शिष्य आसनपर बैठा हुवा उत्तर देवे तो श्राशातना. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) गुरुके बोलानेपर शिष्य कह-क्या कहते हो ? दिन भर क्या कहे तो हो ? आशातना. (२२) गुरुके बालानेपर शिष्य कहे -तुम क्या कहते हो ? तुं क्या कहे ? असा तुच्छ शब्द बोले तो आशातना. (२३) गुरु धर्मकथा कह शिष्य न सुने तो आशातना. (२४) गुरु धर्मकथा कहै, शिष्य खुशी न हो तो आशातना. (२५) गुरु धर्मकथा कहै शिष्य परिषदमें छेद भेद करे, अर्थात् आप स्वयं उस परिषदको रोक रखे तो आशातना. (२६) गुरु कथा कह रहे है, आप बिचमे बोले तो आशातना. (२७) गुरु कथा कह रहे हैं, आप कहे-असा अर्थ नहीं, इसका अर्थ आप नहीं जानते हो, इसका अर्थ असा होता है. आशातना. (२८) गुरुने कथा कही उसी परिषदमे उसी कथाको विस्ता रसे कहके परिपदका दिलको अपनी तर्फ आकर्षण करे तो आशातना. (२६) गुरुके जाति दोषादिको प्रगट करे तो आशातना. (३०) गुरु कहै-हे शिष्य ! इस ग्लान मुनिकी वैयावच्च करो, तुमको लाभ होगा. शिष्य कहै-क्या आपको ___ लाभ नहीं चाहिये ? असा कहै तो आशातना. (३१) गुरुसे उंचे आसनपे बैठे तो आशातना. (३२) गुरुके आसनपर बैठे तो आशातना. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) गुरुके आसनको, पाव आदि लगनेपर खमासना . दे अपना अपराध न खमावे तो शिष्यको आशातना लगती है. इस तेतीस ( ३३ ) आशातना तथा अन्य भी आशातनासे बचना चाहिये. क्योंकि आशातना बोधिबीजका नाश करनेवाली है. गुरुमहाराजका कितना उपकार होता है, इस संसारसमुद्रसे तारनेवाले गुरुमहाराज ही होते है. ॥ इति दशाश्रुतस्कन्ध तीसरा अध्ययनका संक्षिप्त सार । (४) चौथा अध्ययन. आचार्य महाराजकी आठ संप्रदाय होती है. अर्थात् इस आठ संप्रदाय कर संयुक्त हो, वह आचार्यपदको योग्य होते है. वह ही अपनी संप्रदाय (गच्छ ) का निर्वाह कर सक्ते है. वह ही शासनकी प्रभावना-उन्नति कर सक्ते है. कारण-जैन शासनकी उन्नति करनेवाले जैनाचार्य ही है. पूर्वमें जो बडे २ विद्वान् आचाय हो गये, जिन्होने शासनसेवाके लिये कैसे २ कार्य किये है, जो आजपर्यंत प्रख्यात है. विद्वान् प्राचार्यों बिना शासनोन्नति होनी असंभव है. इसलिये आचार्यों में कौन २ सी योगता होनी चाहिये और शास्त्रकार क्या फरमाते है, वही यहांपर योग्यता लिखी जाती है. इन योग्यताओंके होनेही से शास्त्रकारोंने आचार्यपदके योग्य कहा है. यथा (१) आचार संपदा, (२) सूत्र संपदा, (३) शरीर Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपदा, (४)वचन संपदा, (५) वाचना संपदा, (६) मति संपदा, (७)प्रयोग संपदा, (८) संग्रह संपदा-इति. (१) आचार संपदा के चार भेद. (१) पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति, सत्तर प्रकारके संयम, दश प्रकारके यतिधर्मादिसे अखंडित आचारवन्त हो, सारणा, धारणा, वारणा, चोयणा, प्रतिचोयणादिसे संघको अच्छे प्राचारमें प्रवावे. (२) आठ प्रकारके मद और तीन गारवसे रहित-बहुत लोकोंके माननेसे अहंकार न करे और क्रोधादिसे अग्रहित हो. (३) अप्रतिबंध-द्रव्यसे भंडोमत्तोपगरण वस्त्र-पात्रादि, क्षेत्रसे ग्राम, नगर उपाश्रयादि, कालसे शीतोष्णादि कालमे नियमसर जगह रहना और भावसे राग, द्वेष ( एकपर राग, दूसरेपर द्वेष करना) इन चार प्रकारके प्रति बंध रहित हो. (४) चंचलता-चपलता रहित, इंद्रियोंको दमन करे, हमेशां त्यागवृत्ति रख्खे, और बडे आचारवंत हो. (२) सूत्र संपदाका चार भेद. यथा (१) बहुश्रुत हो (क्रमोत्क्रम गुरुगमसे वांचना ली हो) (२) स्वसमय, परसमयका जाननेवाला हो. याने जिस कालमें जितना सूत्र है, उनका पारगामी हो. और वादी प्रतिवादी को उत्तर देने समर्थ हो. (३) जितना आगम पढे या सुने . . उसको निश्चल धारण कर रक्खे, अपने नाम माफिक कभी न भूले. (४) उदात्त, अनुदात्त, घोष-उच्चारण शुद्ध स्पष्ट हो. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) शरीर संपदाके चार भेद. यथा- .. (१) प्रमाणोपेत (उंचा पूरा) शरीर हो. (२) दृढ संहननवाला हो. (३) अलज्झत शरीर हो, परिपूर्ण इंद्रियांयुक्त हो. (४) हस्तादि अंगोपांग सौम्य शोभनीक हो, और जिनका दर्शन दूसरोंको प्रियकारी हो. हस्त, पादादिमे अच्छी रेखा वा उचित स्थानपर तील, मसा लसण निगेरे हो.. . (४) वचन संपदाके चार भेद. यथा (१) आदेय वचन-जो वचन आचार्य निकाले, वह निष्फल न जाय. सर्वलोक मान्य करे. इसलिये पहिलेहीसे विचार पूर्वक बोले. (२) मधुर वचन, कोमळ, सुस्वर, गंभीर और श्रोतारंजन वचन बोले. (३) अनिश्रित-राग, द्वेषसे रहित द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर बोले. (४) स्पष्ट वचन-सब लोक समझ सकै वैसा वचन बोले परन्तु अप्रतीतकारी वचन न बोले. (५) वाचना संपदाके चार भेद. यथा(१) प्रमाणिक शिष्यको वाचना देनेकी आज्ञा दे [वाचना उपाध्याय देते हैं] यथायोग. (२) पहिले दी हुइ वाचना अच्छी तरहसे प्रणमावे. उपराउपरी वाचना न दे. क्योंकि ज्यादा देनेसे धारणा अच्छी तरह नहीं हो सक्ती. (३) वाचना लेनेवाले शिष्यका उत्साह बढावे, और वाचना Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ क्रमशः दे, बीचमें तोडे नहीं, जिससे संबंध बना रहे. ( ४ ) जितनी वाचना दे, उसको अच्छी शैतिसे भिन्न २ कर समजावे. उत्सर्ग, अपवादका रहस्य अच्छी तरहसे बतावे. (६) मति संपदाका चार भेद यथा (१) उग्ग ( शब्द सुने), (२) इहा (विचारे), (३) पाय ( निश्चय करे ), (४) धारणा ( धारणा रखे ). ( १ ) उग्ग - किसी पुरुषने या कर आचार्यके पास एक बात कही, उसको आचार्य शीघ्र ग्रहण करे. बहुत प्रकार से ग्रहण करे, निश्चय ग्रहण करे, अनिश्रय ( दूसरोंकी सहाय बिना) पहिले कभी न देखी, न सुनी हो, भैसी बातको ग्रहन करे. इसी माफिक शास्त्रादि सब विषय समझ लेना. ( २ ) इहा - इसी मा फिक सब विचारणा करे. (३) अपाय - इसी माफिक वस्तुका निश्चय करे. ( ४ ) जिस वस्तुको एकवार देखी या सुनी हो, उसको शीघ्र धारे, बहुत विधि से धारे, चिरकाल पर्यंत धारे, कठिनता से धरने योग्य हो उसको धारे, दूसरोंकी सहाय बिना धारे. (७) प्रयोग संपदाके चार भेद. यथाair वादके साथ शास्त्रार्थ करना हो, तो इस रीतिसे करे - ५ g Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) पहिले अपनी शक्तिका विचार करे, और देखे कि में इस वादीका पराजय कर सकता हूं या नहीं ? मुझमें कितना ज्ञान है और वादीमें कितना है ? इसका विचार करे. (२) यह क्षेत्र किस पक्षका है. नगरका राजा व प्रजा सुशील है या दुःशील है. और जैनधर्मका रागी है वा द्वेषी है ? इन सब बातोंका विचार करे. (३) स्व और परका विचार करे. इस विषयमें शास्त्रार्थ करता हुं परन्तु इसका फल (नतीजा) पीछे क्या होगा? इस क्षेत्रमें स्वपक्षके पुरुष कम है, और परपक्षवाले ज्यादे है, वे भी जैनपर अच्छा भाव रखते है, या नहीं? अगर राजा और प्रजा दुर्लभबोधि होगा तो शास्त्रार्थ करनेसे जैनोंका इस क्षेत्रमें आना जाना कठिन हो जायगा. ऐसी दशामें तीर्थादिकी रक्षा कौन करेगा ? इत्यादि बातोंका विचार करे. (४) बादी किस विषयमें शास्त्रार्थ करना चाहता है. और उस विषयका ज्ञान अपनेमें कितना है ? इसको विचार कर शास्त्रार्थ करे. ऐसे विचार पूर्वक शास्त्रार्थ कर वादीका पराजय करना. (८) संग्रह संपदाके चार भेद. यथा (१) क्षेत्र संग्रह-गच्छके साधु ग्लान, वृद्ध, रोगी आदिके लीये क्षेत्रका संग्रह याने अमुक साधु उस क्षेत्रमें रहेगा, तो वह अपनी संयम यात्राको अच्छी तरहसे निर्वहा सकेगा और श्रोतागणकोभी लाभ मिलेगा. (२) शीतोष्ण या वर्षा Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालके लिये पाट-पाटलादिका संग्रह करे, क्योंकि आचार्य गच्छके मालिक है. इस लिये उनके दर्शनार्थी साधु बहुतसे आते हैं, उन सबकी यथायोग्य भक्ति करना आचार्यका काम है. और पाट-पाटलाके लीये ध्यान रखे कि इस श्रावकके वहां ज्यादाभी मिल सक्ता है. जिससे काम पड़े जब ज्यादा फिरनेकी तकलीफ न पडे. (३) ज्ञानका नया अभ्यास करते रहे. अनेक प्रकारके विद्यार्थीओंका संग्रह करे. और शासनमें काम पडनेपर उपयोगमें लाये. क्योंकि शासनका आधार आचार्यपर है. (४) शिष्य-जोकि शासनको शोभानेवाले हो, और देशों देशमें विहार करके जैनधर्मकी वृद्धि करनेवाले असे सुशिष्योंकी संपदाको संग्रह करे. इति आचार्यकी आठ संपदा समाप्त. आचार्यने सुविनीत शिष्यको चार प्रकारके विनयमें प्रवृत्ति करानी चाहिये. यथा-१) आचार विनय, (२) सूत्रविनय, (३) विक्षेपण विनय, (४) दोष निग्घायणा विनय. (१) आचार विनयके ४ भेद. (१) संयम सामाचारीमें आप वर्ते, दूसरेको वर्तावे, और वर्ततेको उत्तेजन दे. (२) तपस्या आप करे, दूसरोंसे करवावे ओर तपस्या करनेवालोंको उत्तेजन दे. (३) गणगच्छका कार्य आप करे, दूसरोंसे करवावे और उत्तेजन दे. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) योग्यता प्राप्त होनेसे अकेला पडिमा धारण करे, करवावे, और उत्तेजन दे. क्यों कि जो वस्तुओंकी प्राप्ति होती है, वह अकेलेमें ध्यान, मौनादि उग्र तपसे ही होती है. (२) सूत्र विनयके ४ भेद. (१) सूत्र वा सूत्रकी वाचना देनेवालोंका बहु मानपूर्वक विनय करे, क्यों कि विनय ही से शास्त्रोंका रहस्य शिष्यको प्राप्त हो सकता है. (२) अर्थ और अर्थदाताका विनय करे. (३) सूत्रार्थ या सूत्रार्थको देनेवालोंका विनय करे. (४) जिस सूत्र अर्थकी वाचना प्रारंभ करी हो, उसको आदि-अंत तक संपूर्ण करे. (३) विक्षेपणा विनयका ४ भेद. ( १ ) उपदेश द्वारा मिथ्यात्वीके मिथ्यात्वको छुडावे. (२) सम्यक्त्वी जीवको श्रावक व्रत या संसारसे मुक्त कर दीक्षा दे. (३) धर्म या चारित्रसे गिरतेको मधुर वचनोंसे स्थिर करे. ( ४ ) चारित्र पालनेवालोंको एषणादि दोषसे बचा कर शुद्ध करे. (४) दोष निग्घायणा विनयके ४ भेद. ११) क्रोध करनेवालेको मधुर वचनसे उपशांत करे. (२) विषयभोगकी लालसावालेको हितोपदेश करके संयमगुण और वैषयिक दोष बता कर शांत करे. (३) अनशन किया Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुवा साधु असमाधि चित्तसे अस्थिर होता हो उसको स्थिर करे या मिथ्यात्वमें गिरते हुए को स्थिर करे. (साहित्य दे.) (४) स्वयं ( आप ) शांतपणे वर्ते और दूसरोंको वर्तावे. इति. और भी आचार्यके शिष्यका ४ प्रकारका विनय कहा है. (१) साधुके उपगरण विषय विनयका ४ भेद. (१) पहिलेके उपगरणका संरक्षण करे और वस्त्र, पात्रादि फुटा, तुटा हो उसको अच्छा करके वापरे ( काममें लावे ). ( २ ) अति जरुरत हो तो नवा उपगरण निर्वद्य लेवे. और जहांतक हो वहांतक अल्प मूल्यवाला उपगरण ले. (३) वस्त्रादिक फाट गया हो तो भी जहांतक बने वहांतक उसीसे काम ले. मकानमें ( उपासरे ) जीर्ण वस्त्र वापरे. बाहर आना-जाना हो तो सामान्य वस्त्र (अच्छा ) वापरे. इसी माफिक आप निर्वाह करे, परन्तु दूसरे साधुको अच्छा वस्त्र दे. (४) उपगरणादि वस्तु गृहस्थसे याच के लाया हो, उसमेंसे दूसरे साधुको भी विभाग करके देवे. (२) साहिबीय विनयके ४ भेद. (१) गुरुमहाराजके बुलानेपर तहकार करता हुवा नम्रतापूर्वक मधुर बचनसे बोले. (२) गुरुमहाराजके काममें अपने शरीरको यतनापूर्वक विनयसे प्रवर्तावे. (३) गुरुमहाराजके कार्यको विश्रामादि रहित करे, परन्तु विलंब न करे. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) गुरुमहाराज या अन्य साधुवोंके कार्यमें नम्रतापूर्वक प्रवते. (३) वण्ण संजलणता विनयके ४ भेद. (१) प्राचार्यादिका छतागुण दीपावे. (२) प्राचार्यादिका अवगुण बोलनेवालेको शिक्षा करे ( वारे ) याने पहिले मधुर बचनसे समझावे और न माननेपर कठोर वचनसे तिरस्कार करे, परन्तु आचार्यादिका अवगुण न सुने. (३) प्राचार्यादिके गुण बोलनेवालेको योग्य उत्तेजन दे या साधुको सूत्रार्थकी वाचना दे. (४) आचार्यके पास रहा हुवा विनीत शिष्य हमेशां चढते परिणामसे संयम पाले. (४) भारपञ्चरुहणता विनयके ४ भेद. (१) संयम भार लीया हुवा स्थितोस्थित पहुंचावे (जावजीव संयममें रमणता करे ), और संयमवंतकी सारसंभाल करे. (२) शिष्यको आचार-विचारमें प्रवावे, अकार्य करतेको वारे और कहे-भो शिष्य ! अनंत सुखका देनेवाला यह चारित्र तेरेको मिला है, इसकी चिन्तामणि रत्नके समान यतना कर, प्रमाद करनेसे यह अवसर निकल जायगा-इत्यादिक मधुर बचनोंसे समझावे. (३) स्वधर्मी, ग्लान, रोगी, वृद्धकी वैयावच्च करनी. (४) संघ या साधर्मीकसे क्लेश न करे, न करावे, कदाचित् क्लेश हो गया हो तो मध्यस्थ (कोइका पक्ष न करते) होकर क्लेशको उपशांत करे. इति. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह आठ प्रकारकी संपदा आचार्यकी तथा आठ प्रकारका विनय शिष्यके लिये कहा. क्योंकि विनय प्रवृत्ति रखनेहीसे शासनका अधिकारी और शासनका कुछ कार्य करने योग्य हो सक्ता है. इस प्रवृत्तिमें चलना और चलाना यह कार्य आचार्य महाराजका है. इति श्री दशाश्रुत स्कंध-चतुर्थाध्ययनका संक्षिप्त सारे. (५) पंचम अध्ययन. चित्त समाधिके दश स्थान है - वाणियाग्राम नगरके दुतिपलासोद्यानमें परमात्मा वीरप्रभु अपने शिष्यरत्नोंके परिवारसे पधारे, राजा जयशत्रु च्यार प्रकारकी सेना संयुक्त और नगर निवासी लोक बडेही आडम्बरके साथ भगवानको वन्दन करने आये. भगवानने उस विशाल परिषदको विचित्र प्रकारसे धर्मकथा सुनाइ. जीवादि पदार्थका स्वरुप समजाते हुवे आत्मकल्याणमें चित्तसमाधिकी खास आवश्यक्ता बतलाइथी. परिषदने प्रेमपूर्वक देशना श्रवण कर आनन्द सहित भगवानको वन्दन नमस्कार कर आये जिस दिशामें गमन कीया. भगवान् वीरप्रभु अपने साधु-साध्वीयोंको आमंत्रण कर आदेश करते हुवे कि-हे आर्यो ! साधु, साध्वी पांच स Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिति तीन गुप्ति यावत् ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले आत्मार्थी, स्थिर आत्मा, आत्माका हित, आत्मयोगी, आत्म पराक्रम, खपक्षके पोषक, तथा पाक्षिक पौषधकारक, सुसमाधिवंत, शुक्लध्यान, धर्मध्यानके ध्याता, उन्होंके लिये जो दश चित्त समाधि के स्थान, पेस्तर प्राप्त नहीं हुवे ऐसे स्थान दश है, उसको श्रवण करो. (१) धर्म-केवली, सर्वज्ञ, अरिहंत, तीर्थंकर, प्रणीत, नयनिक्षेप प्रमाण, उत्सर्गापवाद, स्याद्वादमय धर्म, जो नवतत्व, षद्रव्य आत्मा और कर्म आदिका स्वरुप चिन्तवनरुप जो धर्म, आगे (पूर्वे) नहीं प्राप्त हुवाको इस समय प्राप्त होनेसे वह जीव ज्ञानात्मा करके है. स्व समय, परसमयका जानकार होता है. जिससे चित्तसमाधि होती है. ऐसा पवित्र धर्मकी प्राप्ति होनेके कारण-सरल स्वभाव, निर्मल चित्तवृत्ति, सदा समाधि, दुर्ध्यान दूर कर सुध्यान करना, देव, गुरु के वचनोंपर श्रद्धा, शत्रु मित्रपर समभाव, पुद्गलोंसे अरुचि, धर्मका अर्थी, परिसह तथा उपसर्गसे अक्षोभित, इत्यादि होनेसे इस लोकमें चित्तसमाधि और परलोकमें मोक्ष सुखोंको प्राप्त करता है. प्रथम समाधिध्यान. (२) संज्ञीजीवोंको उत्पन हो, उसे संज्ञीज्ञान अर्थात जातिसरण ज्ञान, जो मतिज्ञानका एक विभाग है. ऐसा ज्ञान पूर्वे न उत्पन्न हुवा, वह उत्पन्न होनेसे चित्तसमाधि होती है. कारण उस ज्ञानके जीरवे उत्कृष्ट नौसों ६००) भव संज्ञीपंचेंद्रियका Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतकालमें किये भव संबन्धको देख सक्ते है. उसीसे चित्तसमाधि होती है. जातिस्मरणज्ञान किसको होता है कि भूतकालमें संज्ञीपणे किये हुवे भवका संबन्धको किसी वस्तुके देखनेसे तथा किसीके पास श्रवण करनेसे, समाधि पूर्वक चिन्तवन करनेसे प्रशस्ताध्यवसाय होनेसे जातिस्मरणज्ञान होता है. जैसे महाबल कुमरको हुवा था. (३) अहा तचं स्वप्नी-जैसे भगवान् वीरप्रभुने दश स्वम देखे थे तथा मोक्षगमन विषय चौदा स्वप्न कहा है, ऐसा स्वप्न पूर्वे न देखा हो उसको देखनेसे चित्तसमाधि होती है, ऐसे उत्तम स्वम किसको प्राप्त होता है ? कि जो संवृतात्माके धारक मुनि यथातथ्य स्वमा देख सकता है. वह इस घोर संसार-समुद्रसे शीघ्रतासे पार होकर मोक्षको प्राप्त कर लेता है. (४) देवदर्शन-जैसे देवताओं संबंधी ऋद्धि, ज्योति, कान्ति (क्रान्ति । प्रधान देवसंबंधी भाव पूर्वे नहीं देखा, वह देखनेसे चित्तको समाधि होती है, ऐसा देवदर्शन किसीको होता है ? मुनि जो प्राप्त हुवे आहार-पाणी तथा सरसनीरस आहार और वस्त्र-पात्र जीर्णादिको समभावे भोगनेवाले तथा पशु, नपुंसक, स्त्री रहित शय्या भोगनेवाले ब्रह्मचर्यगुप्ति पालन करनेवाले, अन्प आहारभोजी, अल्प उपधि रखनेवाले, पांचों इन्द्रियों को अपने कब्जे करी हो, छे कायकी यतना करनेवाले इत्यादि जो श्रेष्ठ गुणधारकों सम्यग्दृष्टि देवका दर्शन होता है, उसीसे चित्त समाधिको प्राप्त होते हैं. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) अवधिज्ञान--पूर्वे उत्पन्न नहीं हुवा ऐसा उत्पन्न होनेसे जघन्य अंगुलके असंख्याते भागे उत्कृष्ट संपूर्ण लोकको जाने, जिससे चित्तसमाधि होती है. अवधिज्ञान किसको प्राप्त होता है ? जो तपस्वी मुनि सर्व प्रकारके कामविकार, विषयकषायसे विरक्त हुवा हो; देव, मनुष्य, तिथंचादिका उपसगोको सम्यक् प्रकारसे सहन करे, ऐसे मुनियोंको अवधिज्ञान होनेसे चित्तसमाधि होती है. (६) अवधिदर्शन-पूर्व उत्पन्न न हुवा ऐसा अवधिदर्शन उत्पन्न होनेसे जघन्य अंगुलके असंख्याते भागे और उत्कृष्ट लोकके रुपीद्रव्योंको देखे. अवधिदर्शनकी प्राप्ति किसको होती है ? जो पूर्व गुनोंवाले, शांत स्वभावी, शुभ लेश्याके परिणामवाले मुनि उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्छालोकको अवधिज्ञान द्वारा रुपीपदार्थोंके देखनेसे चित्तमें समाधि उत्पन्न होती है. (७) मनःपर्यवज्ञान-पूर्व प्राप्त नहीं हुवा एसा अपूर्व मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होनेसे अढाइद्वीपके संज्ञीपर्याप्ता जीवोंका मनोभावको देखते हुवे चित्तसमाधिको प्राप्त होता है. मनःपर्यवज्ञान किसको उत्पन्न होता है ? सुसमाधिवन्त, शुक्ललेश्यावन्त, जिनवचनमें निःशंक, अभ्यन्तर और बाह्य परिणहका सर्वथा त्यागी. सर्व संगरहित, गुणोंका रागी इत्यादि गुण संयुक्त हो, उस अप्रमत्त मुनिको मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है. (८) केवलज्ञान-पूर्वे नहीं हुवा वह उत्पन्न होनेसे Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तको परम समाधि होती है. केवलज्ञानकी प्राप्ति किसको होती है ? जो मुनि अप्रमत्त भावसे संयम आराधन करते हुवे ज्ञानावरणीय कर्मका सर्वांश क्षय कर दीया है, ऐसा क्षपकश्रेणिप्रतिपन्न मुनियोंको केवलज्ञान उत्पन्न होता है. वह सर्व लोकालोकके पदार्थोंको हस्तामलककी माफिक जानते है. (E) केवलदर्शन-पूर्वे नहीं हुवा ऐसा केवलदर्शन होनेसे लोकालोकको देखते हुवेको चित्तसमाधि होती है. केवलदर्शनकी प्राप्ति किसको होती है ? जो मुनियों अप्रमत्त गजारूढ हो, आपकश्रेणि करते हुवे बारहवे गुणस्थानके अन्तमें दर्शनावरणीय कर्मका सर्वांश क्षय कर, केवलदर्शन उत्पन्न कर लोकालोकको हस्तामलककी माफिक देखते है.. (१० ) केवलमृत्यु-(केवलज्ञान संयुक्त ) पूर्वे नहीं हुवा ऐसा केवलमृत्युकी प्राप्ति होनेसे चित्तमें समाधि होती है. केवलमृत्युकी प्राप्ति किसको होती है ? जो बारह प्रकारकी भिक्षुप्रतिमाका विशुद्धपणेसे आराधन कीया हो और मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय कीया हो, वह जीव केवलमृत्यु मरता हुवा, अर्थात् केवलज्ञान संयुक्त पंडित मरण मरता हुवा सर्व शारीरिक और मानसिक दुःखोंका अंत करते, वली समाधि जो शाश्वत, अव्याबाध सुखोमें विराजमान हो जाता है. मोहनीय कर्म क्षय हो जानेसे शेष कर्मोका जोर नहीं चलता है. इस पर शास्त्रकारोंने दृष्टान्त बतलाया है. जैसेकि (१) तालवृक्षके फलके शिरपर सुइ (सूचि) छेद चिटका Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम वह तत्काल गिर पडता है, इसी माफिक मोहनीय कर्मका शिरच्छेद करनेसे सर्व कौका नाश हो जाता है (२) सैनापति भाग जानेसे सेना स्वयंही कमजोर होकर भग जाती है. इसी माफिक मोहनीय कर्मरुप सेनापति क्षय होनेसे शेष काँरुपी सैन्य स्वयंही भाग जाता है (क्षय हो जाता है.) ( ३ ) धूम रहित अग्नि इन्धनके अभावसे स्वयं क्षय होता है इसी माफिक मोहनीय कर्मरुप अग्निको राग-द्वेषरुप इन्धन न मिलनेसे क्षय होता है. मोहनीयकर्म क्षय होनेपर शेष कर्मक्षय होता है. (४) जैसे सुके हुवे वृक्षके मूल जल सिंचन करनेसे कभी नवपल्लवित नहीं होते है इसी माफिक मोहनीयकर्म सूक (क्षय) जानेपर दूसरे कर्मोंका कभी अंकुर उत्पन्न नहीं हो सक्ता है. (५) जैसे बीजको अग्निसे दग्ध कर दीया हो, तो फिर अंकुर उत्पन्न नहीं हो सक्ता है. इसी माफिक कौका बीज (मोहनीय) दग्ध करनेसे पुनः भवरुप अंकुर उत्पन्न नहीं होते है. इस प्रकारसे केवळज्ञानी आयुष्यके अन्तमे औदारिक, तैजस, और कार्मण शरीर तथा वेदनीय, आयु, नामकर्म और गोत्रकर्मको सर्वथा छेदन कर कर्मरज रहित सिद्धस्थानको प्राप्त कर लेते हैं भगवान् वीरप्रभु आमंत्रण कर कहते है कि-भो आयुष्मान् ! यह चित्त समाधिके कारण बतलाये है. इसको वि. शुद्ध भावोंसे आराधन करो, सन्मुख रहो, स्वीकार करो. इ. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीसे मोक्षमन्दिरके सोपानकी श्रेणि उपागत हा, शिवमन्दिरको प्राप्त करो. इति दशाश्रुत स्कंध-पंचम अध्ययनका संक्षिप्त सार. [६] छठा अध्ययन. पंचम गणधर अपने ज्येष्ठ शिष्य जम्बू अणगारको श्रावकोंकी इग्यारा प्रतिमाका विवरण सुनाते है. इग्यारा प्रतिमाकी अन्दर प्रथम दर्शनप्रतिमाका व्याख्यान करते है.* वादीयोंमें अज्ञानशिरोमणि, नास्तिकमति, जिसको अक्रियावादी कहते हैं. हेय, उपादेय कोई भी पदार्थ नहीं है, ऐसी उन्होंकी प्रज्ञा है, ऐसी उन्होंकी दृष्टि है. वहां सम्यक्त्व वादी नहीं है, नित्य ( मोक्ष ) वादी भी नहीं है. जो शाश्वतें पदार्थ है उसको भी नहीं मानते है. उस अक्रियावादी नास्तिकोंकी मान्यता है कि यहलोक, परलोक, माता, पिता, अरिहंत, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, नारक, देवता कोइ भी नहीं है, और सुकृत करनेका सुकृत फल भी नहीं है. दुष्कृत करनेका दुष्कृत फल भी नहीं है, अर्थात् पुण्य-पापका फल नहीं है. न परभवमें कोई जीव उत्पन्न होता है, वास्ते नरक * प्रथम मिथ्यात्वका स्वरुप ठीक तोरपर न समझा जावे, वहांतक मिध्यात्वसे अरुचि और सम्यक्त्वपर रुचि होना असंभव है.. इसी लिये शास्त्रकारों दर्शनप्रतिमाकी आदिमें वादीयों के मतका परिचय कराते है. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ नहीं है, यावत् सिद्ध भी नहीं है. अक्रियावादीयोंकी ऐसी प्रज्ञा-दृष्टि प्ररुपणा है. ऐसा ही उन्होंका छंदा है, ऐसा ही उन्होंका राग है, और ऐसा ही अभीष्ट है, ऐसे पाप-पुण्यकी नास्ति करते हुवे वह नास्तिकलोक महारंभ, महापरिग्रहकी अन्दर मूच्छित है. इसीसे वह लोक अधर्मी, अधर्मानुचर, अधर्मको सेवन करनेवाले, अधर्मको ही इष्ट जाननेवाले, अधर्म बोलनेवाले, अधर्म पालनेवाले, अधर्मका ही जिन्होंका आचार है, अधर्मका प्रचार करनेवाले, रातदिन अधर्मका ही चिंतन करनेवाले, सदा अधर्मकी अन्दर रमणता करते है. नास्तिक कहते है-इस अमुक जीवों को मारो, खड्गादिसे छेदो, भालादिसे भेदो, प्राणोंका अंत करो, ऐसा अकृत्य कार्य करते हुवे के हाथ सदैव लोही (रौद्र ) से लिप्त रहते है. वह स्वभावसे ही प्रचंड क्रोधवाले, रौद्र, क्षुद्र पर दुःख देनेमें तथा अकृत्य कार्य करने में साहसिक, परजीवोंको पाशमे डाल ठगनेवाले, गूढ माया करनेवाले, इत्यादि अनेक कुप्रयोगमें प्रवृत्ति करनेवाले, जिन्होंका दुःशील, दुराचार, दुर्नयके स्थापक, दुव्रतपालक, दूसरोंका दुःख देखके आप आनन्द माननेवाले, आचार, गुप्ति, दया, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास रहित है. असाधु, मलिनवृत्ति, पापाचारी, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति अरति, मायामृषावाद और मिथ्यात्वशल्य-इस अठारा पापोंसे Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवृत्त नहीं, अर्थात जावजीवतक अठारा पापको सेवन करनेवाले, सर्व कषाय, स्नान, मजन, दन्तधावन, मालीस, विलेपन, माला, अलंकार, शब्द, रुप, गंध, रस, स्पर्शसे जावजीवतक निवृत्त नहीं अर्थात् किसी कीस्मका त्याग नहीं है. सर्वप्रकारकी असवारी गाडी, गाडा, रथ, पालखी, तथा पशु, हस्ती, अश्व, गौ, महिष [ पाडा] छाली, तथा गवाल, दासदासी, कामकारी-इत्यादिसेभी निवृत्ति नहीं करी है. सर्व प्रकारके क्रय-विक्रय, वाणिज्य, व्यापार, कृत्य, अकृत्य तथा सुवर्ण, रुपा, रत्न, माणिक, मोती, धन, धान्य इत्यादि, तथा सर्व प्रकारसे कुडा तोल कुडा मापसेभी निवृत्ति नहीं करी है. सर्व प्रकारके आरंभ, सारंभ, समारंभ, पचन, पचावन, करण, करावण, परजीवोंको मारना, पीटना, तर्जना करना, वध बंधनसे परको क्लेश देना-इत्यादिसे निवृत्ति नहीं करी है. जैसा वर्णन किया है, वैसेही सर्व सावध कर्त्तव्य के करनेवाले, बोधिबीज रहित, परजीवोंको परिताप उत्पन्न करनेसे जावजीव पर्यंत निवृत्त नहीं है. जैसे दृष्टान्त-कोइ पुरुष वटाणा, मसूर, चीणा, तील, मुंग, उडद-इत्यादि अपने भक्ष्यार्थ दलते है, चूरण करते है. इसी माफिक मिथ्यादृष्टि, अनार्य, मांसभक्षी ज्यों तीतर, वटेवर, लवोक, पारेवा, कपीजल, मयूर, मृग, सूबर, महिष, काच्छप, सर्प-आदि जानवरोंको Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विना अपराध मार डालते है. निध्वंस परिणामी, किसी प्रका.. रकी घृणा रहित ऐसे अनार्य नास्तिक होते है.. ऐसे अक्रियावादीयोंके बाहिरकी परिषद जो दासदासी, प्रेषक, दूत, भट्ट, सुभट, भागीदार, कामदार, नोकर, चाकर, मेता, पुरुष, कृषीकार-इत्यादि जो लघु अपराध कीया हो, तो उसको बडा भारी दंड देते है. जैसे इसको दंडो, मुंडो, तर्जना, ताडना करो, मारो, पीटो मजबूत बन्धन करो. इसको खाडेमें भाखसीमें डाल दो, इसके शरीरकी हडीयों तोड दो-एवं हाथ, पांव, नाक, कान, ओष्ठ, दान्त-आदि अंगोपांगको छेदन करो, एवं इसका चमडा निकालो, हृदयको भेदो, आंख, दान्त, जीभको छेदन करो, शूली दो, तलवारसे खंड खंड करो, इसको अग्निमें जला दो, इनको सिंहकी पूछमें बांधो, हस्तीके पांव नीचे डालो, इत्यादि लघु अपराध करनेपर अपराधीको अनेक प्रकारके कुमोतसे मारनेका दंड देते है. ऐसी अनार्य नास्तिकोंकी निर्दय वृत्ति है. आभ्यन्तर परिषद् जैसे माता, पिता, बान्धव, भगीनी, भायो, पुत्री, पुत्रवधू-इत्यादि. इन्होंसे कभी किंचिन्मात्र अपराध हो जाय, तो आप स्वयं भारी दंड देते है. जैसे शीतकालमें शीतल पाणी तथा उष्णकालमें उष्ण पाणी इसके शरीरपर डालो, अग्निकी अन्दर शरीर तपावों, रसीकर, वेंत कर, नाडीकर, चाबक कर, छडीकर, लताकर, शरीरके पसवाडे प्रहार करो, चामडीको उखेडो, हडीकर, लकडीकर, मुष्टिकर, Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंकर कर, केह लू कर, मारो, पटिो, परिताप करो, इसी माफिक खजन, परजन, परको स्वल्प अपराधका महान् दंड करनेवाले, ऐसे क्रुर पुरुषों से उन्होंके परिवारवाले दूर निवास करना चाहते है. जैसै बीलीसे चुहें दूर रहते है. ऐसे निर्दय अनार्योंका इस लोकमें अहित होता है, हमेशा कोपित रहता है, और परलोकमें भी दुःखी होता है. अनेक क्लेश, शोक, संताप पाता है. वह अनार्य दूसरोंकी संपत्ति देख महान् दुःख करता है. उसको नुकशान पहुंचानेका इरादा करता है. वह दुष्ट परिणामी उभय लोकमें दुःखपरंपराको भोगवता है. . ऐसा अक्रियावादी पुरुष, स्त्री संबंधी ( मैथुन) कामभोगोंमें मूछित, गृद्ध, अत्यंत आसक्त, ऐसा च्यार, पांच, छे दश वर्ष तथा स्वल्प या बहुतकाल ऐसे भोगोपभोग भोगवता हुवा बहुत जीवोंके साथ वैर-विरोध कर, बहुत जबर पापकर्म उपार्जन कर, कृतकर्म-प्रेरित तत्काल ही उस पापकर्मोंका भोक्ता होता है. जैसे कि लोहाका गोला पानीपर रखने से वह तत्काल ही रसातलको पहुंच जाता है. इसी माफिक अक्रियावादी वज्रपापके सेवनसे कर्मरुप धूली और पापरुप कर्मसे चीकणा बन्ध करता हुवा बहुत जीवोंके साथ वैर, विरोध, धूर्तबाजी, माया, निबिड मायासे परवंचन, आशातना, अयश, अप्रतीतिवाले कार्य करता हुवा बहुत त्रस, स्थावर प्राणीयोंकी घात कर दुर्ध्यान अवस्थामें कालअवसरमें Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल कर घोर अंधकार व्याप्त धरणीतले नरकगतिको प्राप्त होता है. वह नरकाबास अन्दरसे वर्तुल ( गोलाकार ) बाहरसे चोरस है. जमीन छुरी-अस्तरे जैसी तीक्षण है. सदैव महा अन्धकार व्याप्त, ज्योतिषीयोंकी प्रभा रहित और रौद्र, मांस, चरबी, मेद, पीपपडलसे व्याप्त है. श्वान, सर्प, मनुष्यादिक मृत कलेवरकी दुर्गन्धसे भी अधिक दुर्गन्ध दशों दिशामें व्याप्त है. स्पर्श बडा ही कठिन है. सहन करना बडा ही मुश्कील है. अशुभ नरक, अशुभ नरकवाला वहांपर नारकीके नैरिय किंचित भी निद्रा-प्रचला करना, सुना, रतिवेदनेका तो स्वम भी कहांसे होवे ? सदैवके लिये विस्तरण प्रकारकी उज्वल, प्रकृष्ट, ककेश, कटुक, रौद्र, तीत्र, दुःख सहन कर सके ऐसी नारककी अन्दर नैरिया पूर्वकृत कर्मोंको भोगवते हुवे विचरते है. जैसे दृष्टान्त-पर्वतका उन्नत शिखरपरसे मूल छेदा हुवा वृक्ष अपने गुरुत्वपनेसे नीचे स्थान खाडे, खाइ, विषम, दुर्गम स्थानपर पडते है, इसी माफिक अक्रियावादी अपने किये हुवे पापकर्मरुप शस्त्रसे पुन्यरुप वृक्षमूलको छेदन कर, अपने कर्मगुरुत्व कर स्वयं ही नरकादि गतिमें गिरते है. फिर अनेक जाति-योनिमें परिभ्रमण करता हुवा एक गर्भसे दूसरे गर्भ में संक्रमण करता हुवा दक्षिणदिशागामी नारकी कृष्णपक्षी भविष्यकालमें भी दुर्लभबोधि होगा. इति अक्रियावादी. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) क्रियावादी-क्रियावादी आत्माका अस्तित्व मानते है. आत्माका हितवादी है. ऐसी उसकी प्रज्ञा है, बुद्धि है. आत्महित साधनरुप सम्यग्दृष्टिपना होनेसे समवादी कहा जाते है. सर्व पदार्थोंको यथार्थपने मानते है. सर्व पदार्थोंको द्रव्यास्तिक नयापेक्षासे नित्य और पर्यायास्तिक नयापेक्षासे अनित्य मानते है. सत्यवाद स्थापन करनेवाले है, उन्होंकी मान्यता है कि यह लोक, परलोक अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव है. अस्तिरुप सुकृतका फल है, दुष्कृतका भी फल है, पुण्य है, पाप है. परलोकमें जीव उत्पन्न होते है. पापकर्म करनेसे नरकों और पुन्यकर्म करनेसे देवलोकमें उत्पन्न भी होते है. नरकसे यावत् सिद्धि तक सर्व स्थान अस्तिभाव है. ऐसी जिसकी प्रज्ञा, दृष्टि, छन्दा, राग, मान्यता है; वह महारंभी यावत् महा इच्छावाला है. तथापि उत्तर दिशाकी नरकमें उत्पन्न होता है. शुक्लपक्षी, स्वल्प संसारी भविष्यमें सुलभबोधि होता है. नोटः-आस्तिक सम्यग्वादी होनेपर क्या नरकमें जाते है ? ( उत्तर)-प्रथम मिथ्यात्वावस्थामें नरकायुष बांधा हो, पीछेसे अच्छा सत्संग होनेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुइ हो. वह जीव नरकमें उत्तर दिशामें जाता है. परन्तु शुक्लपक्षी होनेसे भविष्यमें सुलभबोधि होता है. इसी प्रकार प्रक्रियावादीयोंका मिथ्यामत, और क्रियाचादीयोंका सम्यक्त्वका जानकार हो, उत्तम धर्मकी अन्दर Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुचिवान् बने, तीर्थंकर भगवानने फरमाये हुवे पवित्र धर्ममें दृढ श्रद्धा रखे. जीवादि पदार्थका स्वरुपको निर्णयपूर्वक समझे. हेय, ज्ञेय और उपादेयका जानकार बने. यह प्रथम सम्यक्त्व प्रतिमा. चतुर्थ गुण स्थानवी जीवोंको होती है. सम्यक्त्वकी अन्दर देवादि भी क्षोभ नहीं कर सके. निरतिचार सम्यक्त्वका आराधन करे. परन्तु नवकारसी आदि व्रत प्रत्याख्यान जो जानता हुवा भी मोहनीय कर्मके उदयसे प्रत्याख्यान करनेको असमर्थ है. इति प्रथम सम्यक्त्व प्रतिमा. (२) दूसरी व्रत प्रतिमा-जो पूर्वोक्त धर्मकी रुचिवाला होते है, और शील-प्राचार, व्रत-नवकारसी आदि दश प्रत्याख्यान, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषध (अवैपारादि), ज्ञानादि गुणोंसे आत्माको पुष्ट बनानेको उपवास कर सकते परन्तु प्रत्याख्यानी मोहनीय कर्मोदयसे सामायिक और दिशावगासिक करनेको असमर्थ है. इति दूसरी प्रतिमा. (३) सामायिक प्रतिमा-पूर्वोक्त सम्यक्त्वरुचि व्रत, प्रत्याख्यान, सामायिक, दिशावगासिक सम्यक प्रकारसे पालन कर सके, परन्तु अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावास्या, ( कल्याणक तिथि ) प्रतिपूर्ण पौषध करनेमें असमर्थ है इति तीसरी सामायिक प्रतिमा. (४) चोथी पौषध प्रतिमा-पूर्वोक्त धर्मरुचिसे यावत् प्रतिपूर्ण पौषध कर सके, परन्तु एक रात्रिकी जो प्रतिमा (एक Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिका कायोत्सर्ग करना). यहां पांच बोल धारण करना पडता है. वह करनेमें असमर्थ है. यह प्रतिमा जघन्य एक दोय, तीन रात्रि, यावत् उत्कृष्ट च्यार मास तककी है. इति चौथी पौषध प्रतिमा. (५) पांचवी एक रात्रिकी प्रतिमा-पूर्वोक्त यावत पौषध पाल कर और पांच बोल जो-(१) स्नान मजनका त्याग. (२) रात्रिभोजन करनेका त्याग. (३) धोरीकी एक वाम राड बीरा धरे. ( ४ ) दिनको कुशीलका त्याग. (ब्रह्मचर्य पालन करे ) (५) रात्रि ममय मर्यादा करे. इस पांच नियमोंको पालन करे. इति पांचवी प्रतिमा उत्कृष्ट पांच मास धरे. (६) छठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा--पूर्वोक्त सर्व कर्म करते हुवे सर्वतः ब्रह्मचर्यव्रत पालन करे. इति छठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा. छ मास धारण करे. (७) सचित्त प्रतिमा-पूर्वोक्त सर्व पालन कर और सचित वस्तु खानेका त्याग करे, यावत् सात मास करे. इति सातवी सचित्त प्रतिमा. (८) आठवी आरंभ प्रतिमा-पूर्वोक्त सर्व नियम पालन करे और अपने हाथोंसे आरंभ न करे यावत् आठ मास करे. इति आठवी आरंभ प्रतिमा. ... (६) नौवी सारंभ प्रतिमा-पूर्वोक्त सर्व नियम पाले, और अपने वास्ते आरंभादि करे, वह पदार्थ अपने काममें Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ नहीं आवे. अर्थात् त्याग करे. यावत् नव मास करे. इति नौवी सारंभ प्रतिमा. (१०) प्रसारंभ प्रतिमा - पूर्वोक्त सर्व नियम पाले और प्रतिमाधारीके निमित्त अगर कोइ आरंभ कर अशनादि देवे, तोभी उसको लेना नही कल्पै. विशेष इतना है कि इस प्रतिमाका आराधन करनेवाले श्रावक खुरमुंडन - शिरमुंडन कराके हजामत करावे, परन्तु शिरपर एक शिखा (चोटी) रखावे ताके साधु श्रावककी पहिचान रहें. अगर कोई करम्बवाला के पूछे उस पर प्रतिमाधारीको दो भाषा बोलनी कल्पै. अगर जानता हो तो कहे कि मैं जानता हूं और न जानता हो तो कहे कि मैं नहीं जानुं ज्यादा बोलना नहीं कल्पै यावत् दश मास धरे. इति दशवी प्रतिमा. (११) श्रमणभूत प्रतिमा - पूर्वोक्त सर्व क्रिया साधन करे खुरमंडन करे. स्वशक्ति शिरलोचन करे. साधुके माफिक वस्त्र, पात्र रखे, आचार विचार साधुकी माफिक पालन करते हुवे चलता हुवा इर्यासमिति संयुक्त च्यार हस्त प्रमाण जमीन देखके चले अगर चलते हुए राहस्ते त्रस प्राणी देखें तो यत्न करे. जीव हो तो अपने पात्रको उंचा नीचा तिरछा रखता हुवा अन्य मार्ग में प्राक्रम करे. मिक्षा के लिये अपना पेजबन्ध मुक्त न होनेसे अपने न्यातके घरोंकी भिक्षा करनी कल्पै. इसमें भी जिस घरपे जल है, पूर्वे चावल तैयार हो और दाल तैयार पीछे से होती रहे, तो चावल लेना कल्पै, दाल Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं कल्पै. अगर पूर्वे दाल तैयार हुइ हो, तो दाल लेना कल्प, तथा पूर्व दोनों तैयार हुवा हो, तो दोनों लेना कल्पै. और पूर्वे कभी तैयार न हुवा हो तो दोनों लेना नहीं कल्पै. जिस कुलमें भिक्षा निमित्त जाते है वहांपर कहना चा. हिये कि-मैं प्रतिमाधारक श्रावक हुं, अगर उस प्रतिमाधारी श्रावकको देख कोइ पूछे कि तुम कोन हो ? तब उत्तर देना चाहिये, मैं इग्यारमी प्रतिमाधारक श्रावक हूं. इसी माफिक उत्कृष्ट इग्यार मास तक प्रतिमा आराधन करे, इति. नोट-प्रथम प्रतिमा एक मासकी है. एकान्तर तपश्चर्या करे. दूसरी प्रतिमा उत्कृष्ट दोय मासकी है. छठ छठ पारणा करे. एवं तीसरी प्रतिमा तीन मासकी, तीन तीन उपवासका पारणा करे. चौथी प्रतिमा च्यार मासकी-यावत् इग्यारवी प्रतिमा इग्यारा मासकी और इग्यार इग्यार उपवासका पा. रणा करे. . ___आनन्दादि १० श्रावकोंको इग्यारा प्रतिमा बहानेमें साढे पांच वर्षकाल लगाथा. इसी माफिक तपश्चर्याभी करीथी. प्रथमकी च्यार प्रतिमा सामान्य रुपसे गृहवासमें साधन होती है. पांचवी प्रतिमा कार्तिकशेठने १०० वार बहन करीथी. प्रायः इग्यारवी प्रतिमा वहनकर आयुष्य अधिक हो तो दीचा प्रहन करते है. इति. इति छठा अध्ययनका संक्षिप्त सार. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. (७) सातवां भिक्षुप्रतिमा नामका अध्ययन, (१) प्रथम एक मासकी भिक्षु प्रतिमा. (२) दो मासकी भिक्षु प्रतिमा. (३) तीन मासकी भिक्षु प्रतिमा. (४) च्यार मासकी भिक्षु प्रतिमा. (५) पांच मासकी भिक्षु प्रतिमा. (६) छे मासकी भिक्षु प्रतिमा. (७) सात मासकी भिनु प्रतिमा. (८) प्रथम सात अहोरात्रिकी आठवी भिक्षु प्रतिमा. (8) दूसरी सात अहोरात्रिकी नौवी भिक्षु प्रतिमा. (१०) तीसरी सात अहोरातकी दशवी भिक्षु प्रतिमा. (११) अहोरातकी इग्यारवी भिक्षु प्रतिमा. (१२) एक रात्रिकी बारहवी मिनु प्रतिमा. (१) एक मासकी प्रतिमा स्वीकार करनेवाले मुनिको एक मास तक अपने शरीरकी चिंता (संरक्षण ) करना नहीं कल्पै. जो कोइ देव, मनुष्य, तिथंच, संबन्धी परीषह उत्पन्न हो, उसे सम्यक् प्रकारसे सहन करना चाहिये. . (२) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिको प्रतिदिन एक दात भोजनकी, एक दात आहारकी लेना कल्पै. वह भी अज्ञात कुलसे शुद्ध निर्दोष लेना, आहार ऐसा लेना कि जिसको बहुतसे दुपद, चतुष्पद, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, मंगा भी नहीं इच्छता हो, वह भी एकला भोजन करता हो वहांसे लेना कल्पै. परन्तु दोय, तीन, च्यार, पांच या बहुतसे भोजन करते हो, वहांसे लेना नहीं Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पै. तथा गर्भवतीके लिये, बालकके लिये किया हुवा भी नहीं कल्पै. जो स्त्री अपने बच्चेको स्तनपान कराती हो, उन्हके हाथसे भी लेना नहीं कल्पै. दोनों पांव डेलीकी अन्दर हो, दोनों पांव डेलीकी बाहार हो, तो भी भिक्षा लेना नहीं कल्पै. अगर एक पांव बाहार, एक पांव अन्दर हो तो भिक्षा लेना कल्पै. (३) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिको गौचरी निमित्ते दिनका आदि, मध्यम और अन्तिम-ऐसे तीन काल कल्पै. जिसमें भी जिस कालमें भिक्षाको जाते है, उसमें भिक्षा मिले, न मिले तो इतनेमें ही सन्तोष रखे. परन्तु शेषकालमें भिक्षाको जाना नहीं कल्पै. (४) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिको छे प्रकारसे गौचरी करनी कल्पै-(१) पेला सम्पूर्ण संदुकके आकार च्यारों कौनोंके घरोंसे भिक्षा ग्रहन करे. (२) अदपेला, एक तर्फके घरोंसे भिक्षा ग्रहन करे. (३) गौमूत्रिका-एक इधर एक उधर घरोंसे मिक्षा ग्रहन करे. ( ४ ) पतंगीयापतंगकी माफिक एक घर किसी महोलाका तो दूसरा किसी महोलाका घरसे भिक्षा ग्रहन करे. (५) संखावर्तन-एक घर उंचा, एक घर नीचासे भिक्षा ग्रहन करे. (६ ) समसीधा-पंक्तिसर घरोंकी भिक्षा करे. (५) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिको Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहांपर लोग जान जावे कि यह प्रतिमाधारी मुनि है, तो वहां एक रात्रिसे अधिक नहीं ठहर सके, अगर न जाने तो दोय रात्रि ठहर सके. इसीसे अधिक जितने दिन ठहरे उतना ही छेद या तपका प्रायश्चित होते है. यहांपर ग्रामादि अपेचा है, न कि जंगलकी. (६) मासिक प्रतिमा स्वीकार कीये हुवे मुनिकों च्यार प्रकारकी भाषा बोलनी कल्पै. (१) याचनीअशनादिककी याचना करना. (२) पृच्छना-प्रश्नादि तथा मार्गका पूछना. (३) अणवणि-गुर्वादिकी आज्ञा तथा मकानादिकी आज्ञाका लेना. (४) पूछा हुवा प्रश्नादिका उत्तर देना. (७) मासिक प्रतिमा स्वीकार कीये हुवे मुनिको तीन उपासरोंकी प्रतिलेखना करना कल्पै. (१) आराम-गीचोंके बंगलादिके नीचे. (२) मंडप-छत्री आदि विकट स्थानोमें. ( ३) वृक्षके नीचे.. (८) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिको उक्त तीनों उपासरोंकी आज्ञा लेना कल्पै. (8) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिकों उक्त तीनों उपासरोंमें निवास करना कल्पै. (१०) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिकों तीन संथारा ( बिछाना ) कि प्रतिलेखना करना कल्पै (१) Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीशिलाका पट. (२) काष्ठका पाट. (३) यथा तैयार किया हो वैसा. (११) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनि जिस मकानमें ठहरे हो, वहांपर कोई स्त्री तथा पुरुष आया हो तो उसके लिये मुनिको उस मकानसे नीकलना तथा प्रवेश करना नहीं कल्पै. भावार्थ-कोइ पुन्यवान् आया हो, उसको सन्मान देना या दबाबके लिये उस मकानसे अन्य स्थानमें नीकलना तथा अन्य स्थानमें प्रवेश करना नहीं कल्पै. (१२) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनि ठहरा हो उसी उपाश्रयमें अग्नि प्रज्वलित हो गइ हो तो भी उस अग्निके भयसे अपना शरीरपर ममत्वभावके लिये वहांसे नीकलना तथा अन्य स्थानमें प्रवेश करना नहीं कल्पै. अगर कोइ गृहस्थ मुनिको देखके विचार करे कि इस अग्निमें यह मुनि जल जायगा. मैं इसको निकालं. ऐसा विचारसे मुनिकी बांह पकडके निकाले तो उस मुनिको नहीं कल्पै कि उस निकालनेवाले गृहस्थको पकडके रोक रखे. परन्तु मुनिको कल्पै कि आप इयोसमिति सहित चलता हुवा इस मकानसे निकल जावे.. . भावार्थ-प्रतिमाधारी मुनि अपने लिये परिषह सहन करे, परन्तु दूसरा अपनेको निकालनेको आया हो, अगर उस समय आप नहीं नीकले, तो आपके निष्पन्न उस गृहस्थकों Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुकशान होता है. वास्ते उस गृहस्थ के लिये आप जल्दी नीकल जावे. (१३) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिके पगमें कांटा, खीला, कांकर, फंस भांग जावे तो, उसे नीकालना नहीं कल्पै. परिषहको सहन करता हुवा इर्या देखता चले. (१४) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिकी आंखमें कोइ जीव, रज, फुस, कचरा पड जावे तो उस मुनिको निकालना नहीं कल्पै. परीषहको सहन करता हुवा विहार करे. (१५) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनि चलते हुवे जहांपर सूर्य अस्त हो, वहांपरही ठहर जाना चाहिये. चाहे वह स्थल हो, जल हो, खाड, खाइ, पहाड, पर्वत. वि. पमभूमि क्यों न हो, वह रात्रि तो वहांही ठहरना, सूर्यास्त होनेपर एक पविभी नहीं चलना. जब सूर्य उदय हो, उस समय जिस दिशामें जानेकी इच्छा हो, वहांपरभी जा सकते है. ___ (१६) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिको जहां पासमें पृथ्व्यादि हो, वहां ठहरके निद्रा या विशेष निद्रा करना नहीं कल्पै. कारण-सुते हुवाका हस्तादिका स्पर्श उस पृथ्व्यादिसे होगा तो जीवोंकी विराधना होगी, वास्ते दूसरा निर्दोष स्थानको देख रहै, वहांपर आनाजाना सुख पूर्वक हो सकता है. मुनिको लघुनीत, वडीनीतकी बाधाकोभी रोकना नहीं कल्पै. कारण यह रोगवृद्धिका कारण है. इस वास्ते पेस्तर Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ भूमिकाका प्रतिलेखन कर कारण हो उस समय वहां जाके निवृत्त होना कल्पै. फिर उसी स्थानपर आके कायोत्सर्ग करे. (१७) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनि विहार कर आया हो उसके पांव सचित्त रज, पृथ्व्यादि संयुक्त हो, उस समय गृहस्थों के कुलमें भिक्षा के लीये जाना नहीं कल्पै. अगर जैसा मालुम हो कि वह सचित्त रज पसीनेसे, मैलसे कर्दमसे उसके जीव विध्वंस हो गये है, तो उस मुनिको गृहस्थोंके कुलमें भिक्षा के लिये आनाजाना कल्पै. (१८) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिको शीतल पानीसे तथा गरम पानीसे हस्त, मुख, दान्त, नेत्र पांवादि शरीर धोना नहीं कल्पै. अगर शरीर के अशुचि मलमूत्रादिका लेप हो, तो धोना कल्पै तथा भोजन के अंत मे हस्त, मुखादि साफ करे.. • (१६) मासिक प्रतिमा स्वीकार किये हुवे मुनिके सामने अश्व, हस्ती, बैल, भैंसा, सूवर, कुत्ता, व्याघ्र, सिंह तथा मनुष्य जो दुष्ट र स्वभाववाला और उन्मत्त हुवा आता हो, तो प्रतिमाधारी मुनि चलता हुवाकों पीछा हठना नहीं कल्पै. अर्थात् अपने शरीर की रक्षा निमित्त पीछा न हठे. अगर अदुष्ट जीव हो, मुनिको देख भागता हो, भीडकता हो तो उस जीवोंकी दया निमित्ते मुनि युग ( च्यार हस्त ) पीछा हठ सकते हैं. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) मासिक प्रतिमा स्वीकार कीये हुवे मुनिको 'धू. पसे छायामें आना और छायासे धूपमें जाना नहीं कल्पै. धूप, शीतके परीपहको सम्यक्प्रकारसे सहन करनाही कल्पै. निश्चय कर यह मासिक भिक्षु प्रतिमा प्रतिपन्न अनगारको जैसे अन्य सूत्रोंमे मासिक प्रतिमाका अधिकार मुनियों के लीये बतलाया है, जैसे इसका कल्प है, जैसे इसका मार्ग है, वैसेही यथावत् सम्यक् प्रकारसे परीपहोंको कायाकर स्पर्श करता हुवा, पालता हुवा, अतिचारोंको शोधता हुवा, पार पहुंचाता हुवा, कीर्ति करता हुवा जिनाज्ञाको प्रतिपालन करता हुवा मासिक प्रतिमाको आराधन करे. इति. (२) दो मासिक भिक्षु प्रतिमा स्वीकार करनेवाले मुनि दोय मास तक अपनी काया (शरीर) की सार संभाल को छोड देते है. जो कोइ देव, मनुष्य, तिर्यच संबन्धी परीषह उत्पन्न होते है, उसे सम्यक प्रकारसे सहन करे, शेष अधिकार मासिक भिक्षु प्रतिमावत् समझना, परन्तु यहां दोय दात आहारकी, दोय दात पाणीकी समझना. इति । २। ___ (३) एवं तीन मासिक भिक्षु प्रतिमा. परन्तु भोजन, पाणीकी तीन तीन दात समझना. ( ४ ) एवं च्यार मासिक भिक्षु प्रतिमा परंतु भोजन पाणिकी च्यार च्यार दात समझना. (५) एवं पांच मासिक भिक्षु प्रतिमा. परन्तु पांच पांच दात समझना. (६)छे मासिक. दात छे छे. (७) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ एवं सात मासिक भिक्षु प्रतिमा. परन्तु भोजन पाणीकी दाता सात सात समझना. शेषाधिकार मासिक प्रतिमावत् समझना. इति । ७ । (८) प्रथम सात रात्रि नामकी आठवी भिक्षु प्रतिमा. सात अहोरात्र शरीरको बोसिरा देते हैं. बिलकुल निर्मम, निःस्पृही रहते हैं. पानी रहित एकान्तर तप करते है. ग्राम यावत् राजधानी के बाहार दिन में सूर्य के सन्मुख आतापना और रात्रि में ध्यान करते है वह भी आसन लगाके ( १ ) चिते सुता रहेना. ( २ ) एक पसवाडेसे सोना. ( ३ ) सर्व रात्र कायोत्सर्ग में बैठ जाना. उस समय देव, मनुष्य, तिर्थंच के उपसर्ग हो, उसे सम्यक् प्रकारसे सहन करना परन्तु ध्यानसे चोभित होना नहीं कल्पै. अगर मल-मूत्रकी बाधा हो तो पूर्व प्रतिलेखन करी हुई भूमिकापर निर्वृत्त हो, फिर उसी आसन से रात्रि निर्गमन करना कल्पैं. यावत् पूर्ववत् अपनी प्रतिज्ञा का पालन करने पर आज्ञाका आराधक हो सकता है ॥ ८ ॥ ( ६ ) दूसरे सात रात्रि नामकी नौवी भिक्षु प्रतिमा स्वीकार करनेवाले मुनियोंको यावत् रात्रिमें दंडासन, लगड आसन ( प्रजातिके ढांचा आकार शिर और पांव भूमिपर और सर्व शरीर उर्ध्व होता है. ) उक्कड आसन से कायोत्सर्ग करे. शेषाधिकार पूर्ववत् यावत् आज्ञाका आराधक होता है ॥६॥ (१०) तीसरे सात रात्रि नामकी दशवी भिक्षु प्रतिमा Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत् रात्रिमें आसन ( १ ) गोदोहासन, जैसे पांवोंपर बेठके गायको दोते है. ( २ ) वीरासन, जैसे खुरसीपर बेठनेके बाद खुरसी निकाल ली जावे. ( ३ ) आम्रखुज, जैसे अधोशिर और पांव उपर. यह तीन आसन करे. शेषाधिकार पूर्वकी माफिक. यावत् आराधक होता है.. (११) अहोरात्र नामकी इग्यारवी भिक्षु प्रतिमा. छठ तप कर ग्रामादिके बाहार जाके ध्यान करे. कुछ शरीरको नमाता हुवा दोनों पांवोके आगे आठ अंगुल, पीछे सात अंगुल अन्तर रख ध्यानारुढ हो. वहांपर उपसर्गादि हो उसे सम्यक् प्रकारसे सहन करे. यावत् पूर्वकी माफिक आराधक होता है. (१२) एक रात्रि नामकी बारहवी भिक्षु प्रतिमा-अहम तप कर ग्रामादिके बाहार श्मशानमें जाके शरीर ममत्व त्याग कर पूर्वकी माफिक पांवोंको और दोनों हाथोंको निराधार, एक पुद्गलोपर दृष्टि स्थापनकर आंखोंको नहीं टमकारता हुवा ध्यान करे. उस समय देव, मनुष्य, तियेच संबन्धी उपसर्ग हो उसे अगर सम्यक् प्रकारसे सहन न करे, तो तीन स्थानपर अहित, असुख, अकल्याण, अमोक्ष, अननुगामित होते है. वह तीन स्थान-(१)उन्माद (वेभानी), (२) दीर्घ कालका रोगका होना, (३) केवली प्ररुपित धर्मसे भ्रष्ट होता है. अगर एक रात्रिकी भिक्षु प्रतिमाको सम्यक् प्रकारसे आरा. धन करे, उपसगाँसे क्षोभित न हो, तो तीन स्थान-हित, Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७. सुख, कल्याण, मोच, अनुगामित होते हैं. (१) अवधिज्ञानकी प्राप्ति, (२) मनः पर्यवज्ञानकी प्राप्ति, (३) केवळज्ञानकी प्राप्ति होती है. इसी माफिक एक रात्रिकी भिक्षु प्रतिमाको जैसे इसका कल्पमार्ग यावत् आज्ञाका आराधक होते है. इति । १२ । नोट-मुनियों की बारहा प्रतिमा यहांपर बतलाई है. इसके सिवायभी सात सतमीया, आठ आठमीया, नौ नौमीया, दश दशमिया भिक्षु प्रतिमा जनमञ्ज, चन्द्रमञ्ज, भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा, सर्वोत्तर भद्रप्रतिमा, आदि भिक्षु प्रतिमा शास्त्रकारों ने बतलाइ है. प्रायः प्रतिमा वह ही धारण करते है, कि जिन्होंके वज्र ऋषभ नाराच संहनन होते है. प्रतिमा एक विशेष अभिग्रहको कहते हैं. शरीर चले जाने - मरणान्त कष्ट होनेपर भी अपने नियमसे चोभित न होना उसीका नाम प्रतिमा है. इति दशाश्रुत स्कन्ध सातवा अध्ययनका संक्षिप्त सार. [6] आठवा अध्ययन. ते काले इत्यादि तस्मिन् काले तस्मिन् समये, काल चतुर्थ चारा, समय - चतुर्थ आरेमें तेवीश तीर्थंकर हुवे है. उसमें यह बात कौनसे समयकी है, इसका निर्णय करनेको कहते हैं कि समय वह है कि जो भगवान् वीर प्रभु विचर रहेथे. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् वीरप्रभुके पांच हस्तोत्तर नक्षत्र (उत्तरा फाल्गुनि नक्षत्र था)(१) हस्तोत्तरा नक्षत्र में दशवा देवलोकसे चचके देवानंदा ब्राह्मणीकी कुक्षिमें अवतार धारण किया. (२) हस्तोचरा नक्षत्रमें भगवानका संहरण हुवा, अर्थात् देवानंदाकी कुखसे हरिणगमेषी देवताने त्रिशलादे राणीकी कुखमें संहरण कीया. (३) हस्तोत्तरा नक्षत्रमें भगवानका जन्म हुवा (४) हस्तोत्तरा नक्षत्रमें भगवानने दीक्षा धारण करी. (५) हस्तोत्तरा नक्षत्रमें भगवानको केवळज्ञान उत्पन्न हुवा. यह पांच कार्य भगवानके हस्तोत्तरा नक्षत्रमें हुवा है. और स्वांति नक्षत्रमे भगवान् वीर प्रभु मोक्ष पधारेथे. शेषाधिकार पर्युषणाकल्प अर्थात् कल्पसूत्रमें लिखा है. श्रीभद्रबाहुस्वामी यह दशाश्रुत स्कन्ध रचा है. जिसका आठवा अध्ययनरुप कल्पसूत्र है. उसके अर्थरुप भगवान वीरप्रभु बहुतसे साधु, साध्वीयों, श्रावक, श्राविका, देव, देवीयोंके मध्यमे विराजमान हो फरमाया है. उपदेश किया है. विशेष प्रकारसे प्ररुपणा करते हुवे वारवार उपदेश किया है. इति आठवा अध्ययन. [९] नौवा अध्ययन. महा मोहनीय कर्म बन्धक ३० स्थान है. चंपानगरी, पूर्णभद्रोद्यान, कोणिकराजा, जिसकी धारिणी राणी, उस नगरीके उद्यानमें भगवान् वीर प्रभुका भाग Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन हुवा, राजा कोणिक सपरिवार च्यार प्रकारकी सेना सहित तथा नगरीके लोक भगवानको वन्दन करनेको आये. भगवानने विचित्र प्रकारकी धर्मदेशना दी. परिषद देशनामृतका पान कर पीछे गमन कीया. भगवान् अपने साधु, साध्वीयोंको आमंत्रण कर कहते हुवेकि-हे आर्यो ! महा मोहनीय कर्मबन्धके तीस स्थान अगर पुरुष या स्त्रीयों वारवार इसका आचरण करनेसे समाचरते हुवे महामोहनीय कर्मका बन्ध करते है. वहही तीस स्थान मैं आज तुमको सुनाता हूं, ध्यान देके सुनो (१) त्रस जीवोंको पाणीमें डुबा डूबा के मारता है. वह जीव महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है. (२) त्रस जीवोंका श्वासोश्वास बन्धकर मारनेसे-(३) त्रस जीवोंको अनि या धुमसे मारनेसे--(४) सर्व अंगमें मस्तक उत्तम अंग है, अगर कोइ मस्तकपर घाव कर मारता है, वह जीव महा मोहनीय कर्म उपार्जन करता है. (५) मस्तकपर धर्म वीटके जीवोंको मारता है, वह महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है. (६) कोइ वावले, गूंगे, लूले, लंगडे या अज्ञानी जीवोंको फल या दंडसे मारे या हांसी, ठटा, मरकरी करते है, वह महा मोहनीय कर्म पान्धता है. (७) जो कोइ प्राचारी नाम धराता हुवे, गुप्तपणे अनाचारको सेवन करे, अपना अनाचार गुप्त रख'नेके लीये असत्य बोले तथा वीतरागके वचनोंको गुप्त रख आप उत्सूत्रोंकी प्ररुपणा करे, तो महा मोहनीय कर्म बांधे. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० (८) अपने किया हुवा अपराध, अनाचार, दुसरेके शिरपर लगादेनेसे—(6) आप जानते है कि यह बात जूठी है तो भी परिषदकी अन्दर बैठके मिश्र भाषा बोलके क्लेशकी वृद्धि करनेसे-(१०) राजा अपनी मुखत्यारी प्रधानको तथा शेठ मुनिमको मुखत्यारी देदी हो, वह प्रधान, तथा मुनिम उस राजा तथा शेठकी दोलत-धन तथा स्त्री आदिको अपने स्वाधीन करके राजा तथा शेठका विश्वासघात कर निराधार बना उन्हका तिरस्कार करे, उसके कामभोगामें अन्तराय करे, उसको प्रतिकूल दुःख देवे, रुदन करावे, इत्यादि. तो महामोहनीय कर्म उपार्जन करे. (११) जो कोइ बाल ब्रह्मचारी न होनेपरभी लोगोंमे बालब्रह्मचारी कहाता हुवा स्त्रीभोगोंमे मूछित बन स्त्रीसंग करे, तो महा मोहनीय कर्म उपार्जन करे. (१२) जो कोइ ब्रह्मचारी नहीं होनेपरभी ब्रह्मचारी नाम धराता हुवा स्त्रीयोंके कामभोगमें आसक्त, जैसे गायोंके टोलेमें गर्दभकी माफिक ब्रह्मचारीओंकी अन्दर साधुके रुपको लजित-शरमिंदा करनेवाला अपना आत्माका अहित करनेवाला, बाल, अज्ञानी, मायासंयुक्त, मृषावाद सेवन करता हुवा, कामभोगकी अभिलाषा रखता हुवा महा मोहनीय कर्म उपार्जन करे. (१३) जो कोइ राजा, शेठ तथा गुर्वादिकी प्रशंसासे लोगोंमे मानने पूजने योग्य बना है, फिर उसी राजा, शेठ तथा गुर्वादिकके गुण, यश कीर्तिको नाश करनेका उपाय करे, अर्थात् उन्होंसे प्रति: कूल बर्ताव करे, तो महा मोहनीय कर्म उपार्जन करे, (१४) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कोइ अनीश्वरको राजा अपना राज्य लक्ष्मी दे के तथा नगरके लोक मिलके उसको मुखीया ( पंच ) बनाया हो फिर राज्य-लक्ष्मी आदिका गर्व करता हुवा उस लोगोंको दंडे मारे, मरवावे तथा उन्होंका अहित करे, तो महा मोहनीय कर्म बान्धे. (१५) जैसे सर्पिणी इंडा उत्पन्न कर आपही उसीका भक्षण करे, इसी माफिक स्त्री भर्तारकों मारे, सेनापति राजाकों मारे, शिष्य गुरुको मारे, तथा विश्वासघात करे, उन्होंसे प्रतिकूल बरते तो महा मोहनीय. (१६) जो कोइ देशाधिपति गजाकी घात करनेकी इच्छा करे तथा नगरशेठ आदि महा पुरुषों की घात चिन्तये तो महा मोहनीय -(१७) जैसे समुद्रमें द्वीप आधारभूत होते है, इसी माफिक बहुत जीवोंका आधारभूत ऐसा बहुत में देशोंका राजाकी घात करने की इच्छावाला जीव महामोहनीय. (१८) जो कोइ जीव परम वैराग्यको प्राप्त हो, सुममाधिपन्त साधु बनना चाहे अर्थात् दीक्षा लेना चाहे, उसको कुयुक्तियोंसे तथा अन्य कारणों से चारित्रसे परिणाम शीतल करवा दे, तो महा मोहनीय. (१६) जो अनंत ज्ञान-दर्शनधारक सर्वज्ञ भगवानका अपर्णवाद बोले तो महा मोहनीय { २० ) जो सर्वज्ञ भगवंत तीर्थंकरोंने निर्देश किया हुवा स्याद्वादरुप भवतारक धर्मका अवर्णवाद बोले, तो महामोहनीय. (२१) जो आचार्य महाराज, तथा उपाध्यायजी महाराज, दीक्षा, शिक्षा तथा सूत्रज्ञानके दातार, परमोपकारीके अपयश करे, हीलना, निंदा, खीं Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सना करे, वह बाल अज्ञानी महा मोहनीय-(२२) जो आचार्योपाध्यायके पास ज्ञान, ध्यान कर आप अभिमान, गर्वका मारा उसी उपकारी महा पुरुषोंकी सेवा भक्ति, विनय, वैयावच्च, यश कीर्ति न करे तो महा मोहनीय. (२३) जो कोइ अबहुश्रुत होनेपरभी अपनी तारीफ बढाने कारण लोगोंसे कहैकिमैं बहुश्रुत अर्थात् सर्व शास्त्रोंका पारगामी हुं, ऐसा असद्वाद वदे तो महा मोहनीय. (२४) जो कोइ तपस्वी होनेका दावा रखे, अर्थात् अपना कृश शरीर होनेसे दुनीयाँको कहै कि मैं तपस्वी हूं-तो महा मोह. (२५) जो कोइ साधु शरीरादिसे सुदृढ सहननवाला होनेपरभी अभिमानके मारे विचारोकिमैं ज्ञानी हूं, बहुश्रुत हूं, तो ग्लानादिकी वैयावच क्यों करुं ? इसनेभी मेरी वैयावच्च नहीं करीथी, अथवा ग्लान, तपस्वी, वृद्धादिकी वेयावच्च करनेका कबूल कर फिर वैयावच्च न करे तो महा मोहनीय कर्म उपार्जन करे. (२६) जो कोइ चतुर्विध संघमें क्लेशवृद्धि करना, छेद, भेद डलाना, फुट पाड देनाऐसा उपदेश दे कथा करे करावे तो महा मोहनीय-(२७) जो कोइ अधर्मकी प्ररुपणा करे तथा यंत्र, मंत्र, तंत्र, वशीकरण प्रयुंजे ऐसे अधर्मवर्धक कार्य करे, तो महामोहनीय. (२८) जो कोई इस लोक-मनुष्य संबन्धी परलोक-देवता संबन्धी, कामभोगसे अतृप्त अर्थात् सदैव कामभोगकी अभिलापारख, जहाँ मरणावस्था आगइ हो, वहांतकभी कामाभिलाप रखे, तो महा मोहनीय. (२६) जो कोइ देवता महाऋद्धि, ज्योति, कान्ति, महाबल, महायशका धणी देव है, उसका अवर्णवाद बोले, Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ निन्दा करे, कथवा कोई व्रत पालके देवता हुवा है, उसका अवर्णवाद बोले तो, महामोहनीय. (३०) जिसके पास देवता नहीं आता है, जिन्होंने देवतावोंको नहीं देखा हो और अपनी पूजा, प्रतिष्ठा मान बढानेके लीये जनसमूहके आगे कहेकिच्यार जातिके देवतावोंसे अमुक जातिका देवता मेरे पास आता है, तो महामाहेनीय कर्म उपार्जन करे. __ यह ३० कारणों से जीव महा मोहनीय कर्म उपार्जन (बन्ध ) करता है. वास्ते मुनिमहाराज इस कारणोंको सम्यक् प्रकारसे जानके परित्याग करे. अपना आत्माका हितार्थ शुद्ध चारित्रका खप करे. अगर पूर्वावस्थामें इस मोहनीय कर्म बन्धके स्थानोंको सेवन कीया हो, उस कर्मक्षय करनेको प्रयत्न करे. आचारवन्त, गुणवन्त, शुद्धात्मा क्षान्त्यादि दश प्रकारका पवित्र धर्मका पालन कर पापका परित्याग, जैसा सर्प कांचलीका. त्याग करता है, इसी माफिक करे. इस लोक और परलोकमें कीर्तिभी उसी महा पुरुषोंकी होती है कि जिन्होंने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप कर इस मोहनरेन्द्रका मूलसे पराजय कीया है. अहो शूरवीर ! पूर्ण पराक्रमधारी ! तुमारा अनादि कालका परम शत्रु जो जन्म, जरा, मृत्युरुप दुःख देनेवालाका जल्दी दमन करो. जिससे चेतन अपना निजस्थानपर गमन करता हुवेमें कोइ विध्न न करे. अर्थात् शाश्वत सुखोंमे विराजमान होवे. ऐसा फरमान सर्वज्ञका है. ॥इति नौवा अध्ययन समाप्त ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ (१०) दशवां अध्ययन. नौ निदानाधिकार. राजगृह नगर, गुणशीलोद्यान, श्रेणिक राजा, चेलणा राणी, इस सबका वर्णन जैसा उपवाइजी सूत्रके माफिक समझना. एक समय राजा श्रेणिक स्नान मजन कर, शरीरको चन्दनादिकका लेपन किया, कंठकी अन्दर अच्छे सुगन्धिदार पुष्पोंकी मालाको धारण कर सुवर्ण अादिसे मंडित, मणि आदि रत्नोंसे जडित भूषणों को धारण किये, हाथों की अंगु. लियोमें मुद्रिका पहनी, कम्मरकी अन्दर कंदोरा धारण किया है, मुगटसे मस्तक सुशोभनीक बना है, इत्यादि अच्छे वस्त्रभूषणोंसे शरीरको कल्पवृक्ष की माफिक अलंकृत कर, शिरपर कोरंटवृक्ष की माला संयुक्त छत्र धरापता हुमा, जैसे ग्रहगण, नक्षत्र, तारों के सुपरिवारसे चन्द्र आकाशमें शोभायमान होता है. इसी माफिक भूमिके भूगणरुप श्रेणिक नरेन्द्र, जितका दर्शन लोगोंको परमप्रिय है. यह एक समय बाहार की प्रास्थानशालाकी अन्दर आ कर राजयोग्य सिंहासनपर बैठके अपने अनुचरोंको बुलवायके ऐसा आदेश करता हुवातुम इस राजगृह नगरकी बाहार आराममें जावो, जहां स्त्री-. पुरुष क्रीडा करते हो, उद्यान जहां नानाप्रकारके वृक्ष, पुष्प, पत्रादि होते है. कुंभकारादिकी शाला, यतादिके देवालय, Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ सभाके स्थानोमें पाणीके पर्वकी शाला, करियाणेकी शाला, वैपारीयोंकी दुकानोमें, रथोंकी शालाप्रोमें, तुनादिकी शालामें, सुतारोंकी शालामें, तुनारोंकी शालामें, इत्यादि स्थानोमें जाके कहो कि-राजा श्रेणिक ( अपरनाम भंभसार ) की यह आज्ञा है कि श्रमणभगवन्त वीरप्रभु पृथ्वीमंडलको पवित्र करते हुवे, एक ग्रामसे दूसरे ग्राम विहार करते हुवे, सुखे सुखे तप-संयमकी अन्दर अपनी आत्माको भावते हुये, यहांपर पधार जावे तो तुम लोग उन्हों को बड़ा आदरसत्कार करके स्थानादि जो चाहिये उन्होंकी आज्ञा दो, भक्ति करो, बादमे भगवान् पधारनेका खुरा खबर राजा श्रेणिकको शीघ्रता पूर्वक देना, ऐसा हुकम राजा श्रेणिकका है. आदेशकारी पुरुषों इस श्रेणिकराजाका हुकमको सविनय सादर कर-कमलोंसे अपना शिरपर चढाके बोलेकि हे घराधिप ! यह आपका हुकम मैं शीघ्रता पूर्वक सार्थक करुंगा. ऐसा कहके वह कुटम्बीक पुरुष राजगृह नगरके मध्य भाग होके नगरकी बाहार जाके जो पूर्वोक्त स्थानोंमे राजा श्रेणिकका हुकमकी उद्घोषणा कर शीघ्रतासे राजा श्रेणिकके पास आके माज्ञाको सुप्रत करदी. उसी समय भगवान् वीरप्रभु, जिन्होंका धर्मचक्र आकाशमें चल रहा है, चौदा हजार मुनियों, छत्तीस हजार साध्वीयों कोटिगमे देव-देवीयों के परिवारसे भूमंडलको पवित्र करते हुवे राजगृह नगरके उद्यानमें समवसरण करते हुये. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ राजगृह नगरके दो, तीन, च्यार यावत् बहुतसे राहस्तेपर लोगोंको खबर मिलतेही बडे उत्साहसे भगवान को वन्दन करनेको गये. वन्दन नमस्कार कर, सेवा भक्ति कर अपना जन्म पवित्र कर रहेथे. भगवानको पधारे हुवे देखके महत्तर वनपालक भगवान्के पास आया, भगवानका नाम-गोत्र पूछा और हृदयमें धारण कर वन्दन नमस्कार कीया. बादमे वह सब वनपालक लोक एकत्र मिल आपसमे कहने लगे-अहो ! देवाणुप्रिय ! राजा श्रेणिक जिस भगवानके दर्शनकी अभिलाषा करते थे वह भगवान् आज इस उद्यानमें पधार गये है, तो अपनेको शीघ्रता पूर्वक राजा श्रेणिकसे निवेदन करना चाहिये. सब लोक एकत्रं मिलके राजा श्रेणिक के पास गये. और कहेते हुने कि-हे स्वामिन् ! जिस भगवानके दर्शनकी आपको प्यास थी अभिलाषा करते थे, वह भगवान् वीरप्रभु आज उद्यानमें पधार गये है. यह सुनकर राजा श्रेणिक बडाही हर्ष संतोषको प्राप्त हुवा सिंहासनसे उठ जिस दिशामे भगवान् विराजमान थे, उसी दिशामें सात पाठ कदम जाके नमोत्थुणं देके बोला कि-हे भगवान् ! आप उद्यानमें विराजमान हो, मैं यहांपर रहा आपको वन्दन करता हूं आप स्वीकार करीये. बादमें राजा श्रेणिक उस खबर देनेवालोंका बडाही Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ आदर, सत्कार कीया और बधाइकी अन्दर इतना द्रव्य दीया कि उन्होंकी कितनी परंपरा तक भी खाया न जाय. बादमें उन्होंको विसर्जन किया और नगर गुतीया ( कोटवाल ) को बुलायके आदेश करते हुवे कि- तुम जावों राजगृह नगर अभ्यंतर और बाहारसे साफ करवाओं, सुगन्धि जलसे छंटकाव करवाओं, जगे जगेपर पुष्पोंके ढेर लगवावो, सुगन्धि धूपसे नगर व्याप्त कर दो-इत्यादि आज्ञाको शिरपर चढाके कोटवाल अपने कार्यमें प्रवृत्ति करता हुवा. ___ राजा श्रेणिक सेनापतिको बुलाके आज्ञादि कि तुम जावे-हस्ती, अश्व, रथ और- पैदल-यह च्यार प्रकारकी सैना तैयार कर हमारी आज्ञा वापीस सुप्रत करो. सैनापति राजाकी आज्ञाको सहर्ष स्वीकार, अपने कार्यमें प्रवृत्ति कर आज्ञा सुप्रत कर दी. राजा श्रेणिक अपने रथकारको बुलवाय हुकम किया कि-धार्मिक रथ तैयार कर उत्थानशालामें लाके हाजर करो. राजाके हुकमको शिरपर चढाके सहर्ष रथकार रथशालामें जाके रथकी सर्व सामग्री तैयार कर, बहेलशालामें गया. वहांसे अच्छे, देखनेमें सुंदर चलनेमे शीघ्र चालवाले युवक वृषभोंको निकाल, उसको स्नान कराके अच्छे भूषण वस्त्र ( झूलों) धारण करा रथके साथ जोड, रथ तैयार कर, राजा श्रेणिकसे अर्ज करी कि-हे नाथ! आपकी आज्ञा माफिक यह रथ तैयार है. रथकारकी यह बात श्रवण कर अर्थात् रथकी सजवटको देख Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कर राजाश्रेणिक बडाही हर्षको प्राप्त हुवा आप मजन घरमें प्रवेश करके स्नान मजन कर पूकी माफिक अच्छे सुन्दर वस्त्रमाण धारण कर, कल्पवृक्षकी माफिक बनके जहाँपर चेलणाराणी थी, वहांपर आया और चेलणा राणीसे कहा कि-हे प्रिया ! आज श्रमणभगवान् वीरप्रभु गुणशीलोद्यानमें पधारे हुवे है. उन्होंका नाम-गोत्र श्राण करने का भी महाफल है, तो भगवान्को वन्दन करना, नमस्कार करना और श्रीमुखसे देशना श्रयण करना इसके फलका तो कहेना ही क्या ?, वासे चलो भगवान्को वन्दन-नमस्कार करे, भगवान् महामंगल है. देवताके चैत्यकी माफिक उपासना करने योग्य है, राणी चेलणा यह वचन सुनके बडा ही हर्पको प्राप्त हुइ. अपने पतिकी आज्ञाको शिरपे चढाके आप मजन घरमें प्रवेश किया. वहांपर स्वच्छ सुगन्धि जल से सविधि स्नान--मञ्जन कर शरीरको चन्दनादिसे लेपन कर ( कृतवलिकर्म-देवपूजन करी है ) शरीरमें भूषण, जैसे पायोंमें नेपुर, कम्मरमें मणिमंडित कंदोरा, हृदयपर हार. कानोमें चमकते कुंडल, अंगुलीयों में मुद्रिका, उत्तम खलकती चुडीयें, मांदलीये--इत्यादि रत्नजडित भूषणोंसे सुशोभित, जिसके कुंडलोंकी प्रभाने वदनकी शोभामे वृद्धि करी है. पेहने है कान्तिकारी रमणीय, बडा ही सुकुमाल जो नाककी हवासे उड जावे, मकीके जाल जैसे वस्त्र, और भी सुगन्धि पुष्पोंके बने हुवे तुरे गजरे, सेहरे, मालावों आदि धारण किया है. चर्चित चन्दन कान्तिकारी है दर्शन जिन्होंका, जिसका रुप Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलास आश्चर्यकारी है-इत्यादि अच्छा सुन्दर रुप शृंगार कर बहुतसे दास-दासीयों नांजर फोजोंके परिवारसे अपने घरसे नीकले बाहारकी उत्थानशालामें चेलणा राणी आइ है. राजा श्रेणिक चेलणा राणी साथमें रथपर बैठके राजगृह नगरके मध्य बाजार होके जैसे उववाइजी सूत्रमें कोणिक वन्दनाधिकारमें वर्णन किया है. इसी माफिक बडे ही आडम्बरसे भगवानको वन्दन करनेको गये. भगवान के छत्रादि अतिशयको देख आप सवारीसे उतर पैदल पांच अभिगम धारण करते हुवे जहां भगवान् विराजमान थे वहांपर आये. भगवानको तीन प्रदक्षिणा दे वन्दन-नमस्कार कर राजा श्रेणिकको आगे कर चेलणा आदि सब लोग भगवानकी सेवा-भक्ति करने लगे. उस समय भगवान् वीरप्रभु राजा श्रेणिक, राणी चेलणा आदि मनुष्य परिषद, यति परिषद, मुनि परिषद, देव परिषद, देवी परिपद-इत्यादि १२ प्रकारकी परिषदकी अन्दर विस्तारसे धर्मकथा सुनाइ. विस्तार उववाइजी सूत्रसे देखे. परिषद भगवान्की मधुर अमृतमय देशना श्रवण कर बडा ही आनन्द पाया, यथाशक्ति व्रत, प्रत्याख्यान कर अपने अपने स्थानकी तर्फ गमन किया. राजा श्रेणिक राणी चेलणा भी भगवानकी भवतारक देशना सुन, भगवान्को वन्दननमस्कार कर अपने स्थानपर गमन किया. वहांपर भगवान्के समवसरण में रहे हुवे कितनेक साधु Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीयों राजा श्रेणिक और राणी चेलणाको देखके उसी साधु साध्वीयोंके ऐसे अध्यवसाय, मनोगत परिणाम हुवाकिअहो ! आश्चर्य ! यह श्रेणिक राजा बडा महड्डिक, महाऋद्धि, महा ज्योति, महाकान्ति, यावत् महासुखके धणी, जिन्होंने किया है स्नान मजन, शरीरको वस्त्र भूषणसे कल्पवृक्ष सदृश बनाया है. और चेलणा राणी यहभी इसी प्रकारसे एक शृंगारका घर है. जिसके राजा श्रेणिक मनुष्य संबन्धी कामभोग भोगवता हुवा विचर रहा है. हमने देवता नहीं देखे है, परन्तु यह प्रत्यक्ष देव देवीकी माफिकही देख पडते है. अगर हमारे तप, अनशनादिसंयम व्रतरुप तथा ब्रह्मचर्यके फल हो, तो हमभी भविष्यकालमे राजा श्रेणिककी माफिक मनुष्य संबन्धी भोग भोगवते विचरे अर्थाद हमकोभी श्रेणिक राजा सदृश भोगोंकी प्राप्ति हो । इति साधु-साधुवोंने ऐसा निदान (नियाणा) कीया. ___ अहो ! आश्चर्य ! यह चेलणा राणी स्नान मजन कर यावत् सर्व अंग सुन्दर कर शृंगार किया हुवा, राजा श्रेणिकके साथ मनुष्य संबन्धी भोग भोग रही है. हमने देवतोंको नहीं देखा है, परन्तु यह प्रत्यक्ष देवताकी माफिक भोग भोगवते है. इसलीये अगर हमारे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो हमभी भविष्यमें चेलणा राणीके सदृश मनुष्य संवन्धी सुख भोगवते विचरे. अर्थात् हमकोभी चेलणा राणीके जैसे भोग Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलास मिले । साध्वीयोंने भगवानके समवसरणमें ऐसा निदान किया था. भगवान् वीर प्रभु समवसरण स्थित साधु, साध्वीयोंके यह अकृत्य कार्य (निदान) को अपने केवलज्ञान द्वारा जानके साधु, साध्वीयोंको आमंत्रण कर (बुलवाय कर) कहेने लगेमहो ! आर्य ! आज राजा श्रेणिकको देखके तुमने पूर्वोक्त नि. दान किया है. इति साधु, हे साधीयों ! आज राणी चेलणाको देख तुमने पूर्वोक्त निदान किया है । इति साध्वीयों. हे साधु साध्वीयों ! क्या यह बात सची है ? अर्थात् तुमने पूर्वोक्त निदान किया है ? साधु, साध्वीयोंने निष्कपट भावसे कहा-हां भगवान् ! आपका फरमान सत्य है हम लोगोंने ऐसाही निदान कीया है. हे आर्य ! निश्चयकर मैंने जो धर्म ( द्वादशांगरुप ) प्ररुपा है, वह सत्य, प्रधान, परिपूर्ण, नि:केवल राग द्वेष रहित शुद्ध-पवित्र, न्यायसंयुक्त, सरल, शल्य रहित, सर्व कार्यमें सिद्धि करनेका राहस्ता है, संसारसे पार होनेका मार्ग है, निवृतिपुरीको प्राप्त करनेका मार्ग है, अवस्थित स्थानका मार्ग है, निर्मल, पवित्र मार्ग है, शारीरिक मानसिक दुःखोंका अन्त करनेका मार्ग है, इस पवित्र राहस्ते चलता हुवा जीव सर्व का. याँको सिद्ध कर लेता है लोकालोकके भावोंको जाना है, स. कल काँसे मुक्त हुवे है. सकल कषायरुप तापसे शीतलाभूत हुवा है. सर्व शारीरिक मानासिक दुःखोका अंत किया है. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इस धर्मकी अन्दर ग्रहण और आसेवन शिक्षाके लीये सावधान साधु, क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि अनेक परीषह-उपसर्गको सहन करते, महान् सुभट कामदेवका पराजय करते हुबे संयम मार्गमे निर्मल चित्तसे प्रवृत्ति करे, प्रवृत्ति करता हुवा उग्रकुलमें उत्पन्न हुवा उग्रकुलके पुत्र, महामाता अर्थात् उंच जाति की मातावोंसे जिन्होंका जन्म हुवा है. एवं भोगकुलोत्पन्न हुवा पुरुष जो बाहारसे गमन कर नगरमें आते हुवे को तथा नगरसे बाहार जाते हुवे को देखे. जिन्हों के आगे महा दासी दास, नोकर चाकर, पैदलोंके परिवारसे कितनेक छत्र धारण किये है. एवं भंडारी, दंडादि, उसके आगे अश्व, असवार, दोनो पास हस्ती, पीछे रथ, और रथधर, इसी माफिक बहुतसे हस्ती, अश्व रथ और पैदलके परिवारसे चलते है. जिसके शिरपर उज्ज्वल छत्र हो रहा है, पासमे रहे के श्वेत चामर ढोलते है, जिसको देखने के लीये नर नारीयों घरसे बाहार आते है, अन्दर जाते है, जिन्होंकी कान्ति-प्रभा शोभनीय है, जिन्होंने किया है स्नान, मञ्जन, देवपूजा, यावत् भूषण वस्त्रोंसे अलंकृत हो महा विस्तारवन्त, कोठागार, शा. लाके सामान्य मकानकी अन्दर यावत् रत्न जडित सिंहासनपर रोशनीकी ज्योतिके प्रकाशमें स्त्रीयोंके वृन्दमे, महान् नाटक, गीत, वार्जित्र, तंत्री, ताल, तूटीत, मृदंग, पहडा-इत्यादि प्रधान मनुष्य संबन्धी भोग भोगवता विचरता है. वह एक मनुष्यको बोलाता है, तब च्यार पांच स्त्री पुरुष आके खडे Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते है. वह कहते है कि हे नाथ ! हम क्या करे ? क्या मापका हुकम है ? क्या आपकी इच्छा है ? किसपर आपकी रुचि है ? इत्यादि उस कुलादिके उत्पन्न हुवे पुरुष पुण्यवन्तकी ऋद्धिका ठाठ देख अगर कोइ साधु निदान करोकि हमारे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो भविष्यमें हमको मनुष्य संवन्धी ऐसे भोग प्राप्त हो. इति साधु । हे श्रमण ! आयुष्यवन्त ! अगर साधु ऐसा निदान कर उसकी आलोचना न करे, प्रतिक्रमण न करे, पापका प्रायश्चित न लेवे और विराधक भावमें काल करे, तो वहांसे मरके महा अद्धिवन्त देवता होवे. वहांपर दिव्य ऋद्धि ज्योति यावत् महा सुखोंको प्राप्त करे. उस देवतावों संबन्धी दीर्व काल सुख भोगवके, वहाँसे चवके इस मनुष्य लोकमें उप कुलमें उत्तम वंशमे पुत्रपणे उत्पन्न हुवे. जो पूर्व निदान कियाथा, ऐसी ऋद्धि प्राप्त हो जावे यावत् स्त्रीयोंके वृन्दमें नाटक होते हुवे, वाजिंत्र बाजते हुवे मनुष्य संबन्धी भोग मोगवते हुवे विचरे.. हे भगवन् ! उस कृत निदान पुरुषको केवली प्रापित धर्म उभयकाल सुनानेवाला धर्मगुरु धर्म सुना शके १ । हां, धर्म सुना शके, परन्तु वह जीव धर्म सुननेको अयोग्य होते है. वह जीव महारंभ, महा परिग्रह, स्त्रीयोंका कामभोगकी महा इच्छा, अधर्मी, अधर्मका व्यापार, अधर्मका सं Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प यावत् मरके दक्षिणकी नरकमे जावे. भविष्यके लीयेभी दुर्लभ बोधी होता है. हे आयुष्यवंत श्रमणो ! तथारुपके निदानका यह फल हुवा कि वह जीव केवली प्ररुपित धर्म श्रवण करनेके लीयेभी अयोग्य है. अर्थात् केवली प्ररुपित धर्मका श्रवण करनाही दुष्कर हो जाता है. इति प्रथम निदान.. .. (२) अहो श्रमणों ! मैंने जो धर्म प्ररुपित कीया है, वह यावत् सर्व शारीरिक और मानसिक दुःखोंका अन्त करनेवाला है. इस धर्मकी अन्दर प्रवृत्ति करती हुइ सामीयों बहुवसे परीपह-उपसर्गोंको सहन करती हुइ, काम विकारका पराजय करनेमे पराक्रम करती हुइ विचरती है, सर्व अधिकार प्रथम निदानकी माफिक समझना. - एक समय एक स्त्रीको देखे, वह स्त्री कैसी है कि जगतमे वह एकही अद्भुत रुप लावण्य, चतुराइवाली है, मानो एक मातानेही ऐसी पुत्रीको जन्म दीया है. रत्नोंके आभरण समान, तेलकी सीसीकी माफिक उसको गुप्त रीतिसे संरक्षण कीया है, उत्तम जरी खीनखाप आदि वस्त्रकी सिंदुककी माफिक उन्हका संरक्षण कीया है, रत्नोंके करंडकी माफीक परम अमूल्य जिन्हको सर्व दुखोंसे बचाके रक्षण कीया है. वह स्त्री अपने पिताके घरसे निकलती हुइ, पतिके घरमें जाती हुइ, जिसके आगे पीछे बहुतसे दास, दासी, नोकर, चाकर, यावत् एकको Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ बुलानेपर च्यार पांच हाजर होते हैं. यावत् सर्व प्रथम निदानकी माफिक उस स्त्रीको देख साध्वीयों निदान करेकि-मेरे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो मैं भविष्यमें इस स्त्रीकी माफिक भोग भोगवती विचलं. इति साध्वीका निदान. ... हे आर्य ! वह साध्वीयों निदान कर उसकी आलोचना न करे, यावत् प्रायश्चित्त न ले, विराधक भावमें काल कर महर्द्धिक देवतापणे उत्पन्न होवे, वहांसे जो निदान किया था, ऐसी स्त्री होवे, ऐसाही सुख-भोग प्राप्त करे, यावत् भोग भोगवती हुइ विचरे, उस स्त्रीको दोनों कालमें धर्म सुनानेवाला मिलने परभी धर्म नहीं सुने, अर्थात् धर्मश्रवण करनेकोभी अयोग्य है. वह महारंभ यावत् कामभोगमें मूच्छित हो, कालकर दक्षिण दिशाकी नारकीमें उत्पन्न होवे, भविष्यमेंभी दुर्लभ बोधि होवे. हे मुनियों इस निदानका यह फल हुवाकि केवली प्ररुपित धर्मका श्रवण करनाभी नहीं बने, अर्थात् धर्म श्रवण करनेके लीयेभी अयोग्य होती है. (३) हे आर्य ! मैं जो धर्म प्ररुपण कीया है, उसकी अन्दर यावत् पराक्रम करता हुवा साधु कोइ स्त्रीको देखे, वह अति रुप-यौवनवती यावत् पूर्ववत् वर्णन करना. उसको देख, साधु निदान करेकि निश्चय कर पुरुषपणा बडाही खराब है, कारण, पुरुष होनेसे बडे बडे संग्राम करना पडता है. जिसकी अन्दर तीक्षण शस्त्रसे प्राण देना पडता है. औरभी व्यापार Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ करना, द्रव्योपार्जन करना, देश देशान्तर जाना, सब लोगों (आश्रितों ) का पोपण करना-इत्यादि पुरुष होना अच्छा नहीं है. अगर हमारे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो भविप्यमें हम स्त्रीपनेको प्राप्त करे, वहभी पूर्ववत् रुप, यौवन, लावण्य, चतुराइ, जोकि जगतमें एकही पाइ जाय ऐसी. फिर पुखोंके साथ निर्विप्रतासे भोग भोगवती विचरे. । इति साधु । यह निदान साधु करे. उस स्थानकी आलोचना न करे, यावत् प्रायश्चित्त न लेवे. विराधक भावसे काल कर महर्द्धिक देवतावॉमें उत्पन्न हुने. वह देव संबन्धी दिव्य सुख भोगके आयुष्य पूर्ण कर मनुष्य लोकमे अच्छा कुल-जातिको अच्छे रुप, योवन, लावण्यको प्राप्त हुइ, उस पुत्रीको उंच कुलमें भार्या करके देवे, पूर्व निदानकृत फलसे मनुष्य संबन्धी कामभोग भोगवती आनन्दमें विचरे. - उस स्त्रीको अगर कोइ दोनो काल धर्म सुनानेवाला मिले, तोभी वह धर्म नहीं सुने, अर्थात् धर्म सुननेके लीये अयोग्य है. बहुत काल महारंभ, महा परिग्रह, महा काम भोगमें गृद्ध, मूञ्छित हो काल कर दक्षिणकी नारकीमें नैरियापने उत्पन्न होगा. भविष्यके लीयेभी दुर्लभबोधि होगा. हे आर्य ! इस निदानका यह फल हुवाकि वह धर्म सुननेके लीयेभी अयोग्य है. अर्थात् धर्म सुननाभी उदय नहीं आता है. । इति । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) हे आर्य ! मैं धर्म प्ररुपण कीया है. वह यावत् सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है. इस धर्मको धारण कर साध्वीयों अनेक प्रकारके परीषह सहन करती हुइ किसी समय पुरुषोंको देखे, जैसे उग्र कुलकी महामातसे जन्मा हुवा, भोगकुलकी महामातासे जन्मा हुवा, नगरसे जाते हुवे तथा नगरमें प्रवेश करते हुवे जिन्होंकी ऋद्धि-साहिबी, पूर्वकी माफिक एकको बोलानेपर च्यार पांच हाजर होवे ऐसे ऋद्धिवन्त पुरुषोंको देख, साध्वी निदान करेकि-अहो ! लोकमें स्त्रीयोंका जन्म महा दुःख दाता है. अर्थात् स्वीपना है, वह दुःख है. क्योंकि ग्राम यावत् राजधानी सनिवेशकी अन्दर खुल्ला रहके फिर सके नहीं. अगर फिरे तो, स्त्री जाति कैसी है. सो दृष्टान्त-आम्रके फल, आंबलिके फल, बीजोरके फल, मंसपेसी, इतुके खंड, संबलीवृक्षके सुन्दर फल, यह पदार्थों बहुतसें लोगोंको आस्वादनीय लगते है. इस पदार्थोंको बहुत लोक खाना चाहते हैं, बहुत लोक इसकी अपेक्षा रखते हैं, बहुत लोक इसकी अभिलाषा रखते है. इसी माफिक स्त्री जातिकी बहुतसे लोक आस्वादन ( भोगवना) करना चाहते है. यावत् स्त्रीजातिको कहांभी सुख-चेन नहीं है. सर्व गृहकार्य करना पड़ता है. औरभी स्त्रीजातिपन एक दुःखका खजाना है. वास्ते स्त्रीपन अच्छा नहीं है. परन्तु पुरुषपन जातमें अच्छा है, स्वतंत्र है. अगर हमारे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो भविष्यमें हम पुरुष उग्र कुल, भोगकुल यावत् महा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋद्धिवान् पुरुष हो. स्त्रीयोंके साथ मनुष्य संबन्धी भोग भोगवते विचरे. इति साध्वी निदान कर उसकी आलोचना न करे यावत् प्रायश्चित्त न लेवे. काल कर महर्द्धिक देवपने उत्पन्न हो. वह देवसंबन्धी सुख भोग प्रायुप्यके अन्तमे वहांसे चवके कृतनिदान माफिक पुरुषपने उत्पन्न होवे, वह धर्म सुननेके लीये अयोग्य अर्थात् धर्म सुननाभी उदय नहीं आता. वह कृत निदान पुरुष महारंभ, महापरिग्रह, महा भोग भोगवनेमें गृद्ध मूञ्छित हो, अन्तमे काल कर दक्षिण दिशाकी नारकीमे नैरियपने उत्पन्न हुवे. भविष्यमेभी दुर्लभ बोधि होवे. हे आर्य ! इस निदानका यह फल हुवाकि यह जीव केवली प्ररुपित धर्मभी सुन नहीं सके. अर्थात् धर्म सुननेकोभी अयोग्य होता है. । इति । (५) हे आर्य ! मैं जो धर्म प्ररुपित किया है. यावत् उस धर्मकी अन्दर साधु-साध्वी अनेक परीषह सहन करते हुवे, धर्ममे पराक्रम करते हुवे मनुष्य संबन्धी कामभोगोंसे विरक्त हुवा ऐसा विचार करेक-अहो ! आश्चर्य ! यह मनुष्य संबन्धी कामभोग अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, सडन पडन विध्वंसन इसका सदैव धर्म है. अहो ! यह मनुष्यका शरीर मल मूत्र, श्लेष्म, मंस, चरबी, नाकमेल, वमन, पित्त, शुक्र, रक्त, इत्यादि अशुचिका स्थान है, देखनेसेही विरुप दिखाता है. उश्वास निश्वास दुर्गन्धिमय है. मल, मूत्र कर भरा हुवा है. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधिका खजाना है. वहभी पहिले व पीछे अवश्य छोडना पडेगा. इससे तो वह उध्र्वलोक निवास करनेवाले देवता. वों अच्छे है, कि वह देवता अन्य किसी देवतावोंकी देवीयोंको अपने वशमें कर सर्व कामभोग उस देवीके साथ भोगवते है. तथा आप स्वयं अपने शरीरसे देवरुप और देवीरुप बनाके उसके साथ भोग करे तथा अपनी देवीयोंके साथ भोग करे. अर्थात् ऐसा देवपना अच्छा है. वास्ते मेरे तप, सं. यम, ब्रह्मचर्यका फल हो तो भविष्य कालमें मेंभी यहांसे मरके उस देवोंकी अन्दर उत्पन्न हो. पूर्वोक्त तीनों प्रकारकी देवीयोंके साथ मनोहर भोग भोगवते हुवे विचलं. । इति । हे आर्य ! जो कोइ साधु-साध्वीयों ऐसा निदान कर उसकी आलोचना न करे, यावत् पापका प्रायश्चित्त न लेवे और काल करे, वह देवोंमें उत्पन्न हुवे. वह महर्द्धिक, महाज्योति यावत् महान् सुखवाले देवता होवे. वह देवता अन्य देवतावोंकी देवीयोंको तथा अपने शरीरसे वैक्रिय बनाइ हुइ देवीयोंसे और अपनी देवीयोंसे देवता संबन्धी मनोवांछित भोग भोगवे. चिरकाल देवसुख भोगवके अन्तमें वहांसे चक्के उग्रकुलादि उत्तम कुलमें जन्म धारण करे यावत् आते जातेके साथे बहुतसे दास-दासीयों, वहांतककी एक बुलानेपर च्यार पांच आके हाजर होवे. हे भगवन् ! उस पुरुषकों कोइ केवली प्ररुपित धर्म सुना सके ? हां, धर्म सुना सकते है. हे भगवन् ! वह धर्म भोग भोगवनम कुल में जन्म हातककी एक . Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रवण कर श्रद्धा प्रतीत रुचि कर सके ! धर्म सुन तो सके, परन्तु श्रद्धा प्रतीत रुचि कर सके ? धर्म सुन तो सके परन्तु श्रद्धा प्रतीत रुचि नहीं ला सके. वह महारंभी, यावत् कामभोगकी इच्छावाला मरके दक्षिणकी नरकमें उत्पन्न होता है. भविष्य में दुर्लभबोधि होगा. आर्य ! उस निदानका यह फल हुवा कि वह धर्म श्रवण करनेके योग्य होता है, परन्तु धर्मपर श्रद्धा प्रतीत रुचि नहीं कर सके. ॥ इति ॥ (६) हे आर्य ! मैं जो धर्म प्ररुपा है. वह सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है. इस धर्मकी अन्दर साधु-साध्वी पराक्रम करते हुवेकों मनुष्य संबन्धि कामभोग अनित्य है. यावत पहिले पीछे अवश्य छोडने योग्य है। इससे तो उर्ध्वलोकमें जो देवों है, वह अन्य देवतावोंकी देवीयोंको वश कर नहीं भोगवते है, परन्तु अपनी देवीयोंको वश कर भोगवते है. तथा अपने शरीर से वैक्रिय देव-देवी बनाके भोग भोगवते है. वह अच्छे है. वास्ते हमारे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो तो हम उस देवोंमें उत्पन्न हुवे. ऐसा निदान कर आलोचना नहीं करता हुवा काल कर वह देवता होते है. पूर्वकृत निदान माफिक देवतावों संबन्धी सुख भोगवके वहांसे चवके उत्तम कुल - जातिमें मनुष्यपणे उत्पन्न होते है. यावत् महाऋद्धिवन्त जहांतक एकको बोलानेपर पांच आके हाजर हुवे. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ हे भगवन् ! उसको केवलीप्ररुपित धर्म सुना सके ? हां, धर्म सुना सके. हे भगवन् ! वह धर्म श्रवण कर श्रद्धा प्रतीत रुचि करे ? नहीं करे. परन्तु वह अरण्यवासी तापस तथा ग्राम नजदीकवासी तपस्वी रहस्य ( गुप्तपने ) अत्याचार सेवन करनेवाले विशेष संयमत्रत यद्यपि व्यवहार क्रियाकल्प रखते भी हो, तो भी सम्यक्त्व न होनेसे वह कष्टक्रिया भी मज्ञानरुप है, और सर्व प्राणभूत जीव-सत्त्वकी घातसे नहीं निर्वृति पाइ है, अपने मान, पूजा रखनेके लीये मिश्रभाषा चोलते है, तथा आगे कहेंगे-ऐसी विपरीत भाषा बोलते है. हम उत्तम है, हमको मत मारो, अन्य अधर्मी है, उसको मारो. इसी माफिक हमको दंडादिका प्रहार मत करो, परि. ताप मत दो, दुःख मत दो, पकडो मत, उपद्रव मत करो, यह सब अन्य जीवोंको करो, अर्थात् अपना सुख वांछना और दूसरोको दुख देना, यह उन्होंका मूल सिद्धान्त है, वह बाल, अज्ञानी, स्त्रीयों संबन्धी कामभोगमें गृद्ध मूछित हुवे काल प्राप्त हो, आसुरीकाय तथा किल्विषीया देवोंमें उत्पन्न हो, वहांसे मरके वारवार हलका बकरे (मींढे ) गुंगे, लूले, लंगडे, बोबडेपनेमें उत्पन्न होगा. हे आर्य! उक्त निदान करनेवाला जीव धर्मपर श्रद्धाप्रतीत रुचि करनेवाला नहीं होता है. ॥ इति ॥ (७) हे आर्य ! मैं जो धर्म कहा है, वह सर्व दुःखोंका Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરર अन्त करनेवाला है. उस धर्मकी अन्दर पराक्रम करते हुवे मनुष्य संबन्धी कामभोग अनित्य है, यावत् जो उर्वलोकमें देवों है, जो पारकी देवीकों अपने वश कर नहीं भोगवते है तथा अपने शरीरसे बनाके देवीको भी नहीं भोगवते है. परन्तु जो अपनी देवी है, उसको अपने वशमें कर भोगवते है. अगर हमारे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो हम उक्त देवता हुवे. ऐसा निदान कर आलोचना न करे, यावत् प्रायश्चित्त न करते हुवे काल कर उक्त देवोंमें उत्पन्न होते है.. वहां देवतावों संबन्धी चिरकाल सुख भोगवके वहांसे काल कर उत्तम कुलजातिकी अन्दर मनुष्य हुवे. वह महर्द्धिक यावत् एकको बुलानेपर च्यार पांच आहे हाजर हुवे. हे भगवन् ! उस मनुष्यकों कोइ श्रमण महान् केवली प्ररुपित धर्म सुना शके ? हा, सुना सके. क्या वह धर्मपर श्रद्धाप्रतीत रुचि करे ? हाँ, करे. वह दर्शन श्रावक हो सके. परन्तु निदानके पाप फलसे वह पांच अणुव्रत, सात शिक्षाबत यह श्रावकके बारहा व्रत तथा नोकारसी आदि प्रत्याख्यान करनेको समर्थ नहीं होते है. वह केवल सम्यक्त्वधारी श्रावक होते है. जीवादि पदार्थका जानकार होते है. हाडहाड किमीजीधर्मकी अन्दर राग जागता है. ऐसा सम्यक्त्वरुप श्रावकपणा पालता हुवा बहुत कालतक आयुष्य पाल वहांसे मरके देवोंकी अन्दर जाते है. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ हे आर्य ! इस निदानका यह फल हुवाकि वह समर्थ नहीं है कि श्रावकके पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत, और नोकारसी आदि तथा पौषध, उपवासादि करनेको समर्थ न हो सके. । इति । (E) हे आर्य ! मैं जो धर्म कहा है, वह सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है. इस धर्मकी अन्दर साधु, साध्वी पराक्रम करते हुवे ऐसा जानेकि-यह मनुष्य संबन्धी कामभोग अनित्य, अशाश्वत, यावत् पहिले या पीछे अवश्य छोडने योग्य है. तथा देवतावों संबन्धी कामभोगभी अनित्य, अशाश्वत है, वह चल चलायमान है. यावम् पहिले या पीछे अवश्य छोडनाही होगा. मनुष्य-देवोंके कामभोग विरक्त हुवा ऐसा जानेकिमेरे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो भविष्यमें मैं उग्र कुल, भोगकुलकी अन्दर महामाता ( उत्तम जाति ) की अन्दर पुत्रपणे उत्पन्न हो, जीवादि पदार्थका जानकार बन, यावत् साधु, साध्वीयोंको प्रासुक, निर्दोष, एषणिक, निर्जीव, अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि चौदा प्रकारका दान देता हुवा विचलं. ऐसा निदान कर आलोचना न करे, यावत् प्रायश्चित्त न लेवे ओर काल कर वह महाऋद्धि यावत् महा सुखवाला देवता हुवे, वहां चिरकाल देवताका सुख भोगवके, वहाँसे मरके उत्तम जाति-कुलकी अन्दर मनुष्य हुवे. वहां पर केवली प्ररुपित धर्म सुने, श्रद्धाप्रतीत रुचि करे, सम्यक्त्व सहित बा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરક रहा व्रतोंको धारण कर सके; परन्तु निदानके पापोदयसे 'मुंडे भविता' अर्थात् संयम-दीक्षा लेनको असमर्थ है, वह श्रावक हो जीवादि पदार्थोंका जान हुवे, अशनादि चौदा प्रकारका प्रासुक, एषणीय आहार साधु साध्वीयोंको देता हुवा बहुतसे व्रत प्रत्याख्यान पौषध, उपवासादि कर अन्तमे पालोचना सहित अनशन कर समाधिमें काल कर उंच देवोंमे उत्पन्न होता है. हे आर्य ! उस पाप निदानका फल यह हुवाकि वह सर्व विरति-दीक्षा लेनको असमर्थ अर्थात् अयोग्य हुवा. । इति । ____(8) हे आर्य ! मैं जो धर्म कहा है, वह सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है. उस धर्मकी अन्दर साधु साध्वी पराक्रम करते हुवे ऐसा जानेकि-यह मनुष्य संबन्धी तथा देवसंबन्धी कामभोग अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत है, पहिले या पीछे अवश्य छोडने योग्य है. अगर मेरे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो भविष्यमें मैं ऐसे कुलमें उत्पन्न हो. यथा-- (१) अन्तकुल-स्वल्प कुटंब, सोभी गरीब. (२) प्रान्तकुल-बिलकुल गरीब कुल. (३) तुच्छकुल-स्वल्प कुटंबवाले कुलमें. (४) दरिद्रकुल-निर्धन कुटंबवाला. (५) कृपणकुलधन होनेपरभी कृपणता. (६) भिक्षुकुल-भिक्षाकर आजीविका करे. (७) ब्राह्मणकुल-ब्राह्मणोंका कुल सदैव भिनु. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे कुलमें पुत्रपणे उत्पन्न होनेसे भविष्यमें मैं दीक्षा लेउंगा, तो मेरा दीक्षाका कार्यमें कोई भी विघ्न नहीं करेगा. वास्ते मेरेको ऐसा कुल मिले तो अच्छा. ऐसा निदान कर आलोचना न करे, यावत् प्रायश्चित्त न लेता हुवा काल कर उर्ध्वलोकमें महर्द्धिक थावत् महासुखवाला देवता दुवे. वहाँ चिरकाल देवसुख भोगवके वहांसे चवके उक्त कुलोमें उत्पन्न हुवे. उसको धर्मश्रवण करना मिले. श्रद्धाप्रतीत रुचि हुवे. मावत सर्वविरति-दीक्षाको ग्रहन करे. परन्तु पापनिदानका फलोदयसे उसी भवमें केवलज्ञानको प्राप्त नहीं कर सके. वह दीक्षा ग्रहन कर इर्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्य पालन करते हुवे बहुत वर्ष चारित्र पालके अन्तमें आलोचनापूर्वक अनशन कर काल प्राप्त हो उर्ध्वगतिमें देवतापणे उत्पन्न हुवे. वह महर्डिक यावत् महासुखवाला हुवे. हे आर्य ! इस पापनिदानका फल यह हुवा कि दीक्षा तो ग्रहन कर सके, परन्तु उसी भवकी अन्दर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जानेमें असमर्थ है. ॥ इति ॥ (१०) हे आर्य ! मैं जो धर्म कहा है, वह धर्म, शारीरिक और मानसिक ऐसे सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है. उस धर्मकी अन्दर साधु-साध्वीयों पराक्रम करते हुवे सर्व प्रकारके कामभोगसे विरक्त, एवं राग द्वेषसे विरक्त, एवं Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री आदिके संगसे विरक्त, एवं शरीर, स्नेह, ममत्वभावसे विरक्त सर्व चारित्रकी क्रियावोंके परिवारसे प्रवृत्त, उस श्रमण भगवन्तको अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन, यावत् अनुत्तर निर्वाणका मार्गको संशोधन करता हुवा अपना आस्माको सम्यक्प्रकारसे भावते हुवेकों जिन्होंका अन्त नहीं है ऐसा अनुत्तर प्रधान, जिसको कोइ बाध न कर सके, जिसको कोइ प्रकारका आवरण नहीं आ सके, वह भी संपूर्ण, प्रतिपूर्ण, ऐसा महत्ववाला केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होते है. वह श्रमण भगवन्त अरिहंत होते है. वह जिन केवली, सर्वज्ञानी, सर्वदर्शनी, देवता मनुष्य, असुरादिकसे पूजित, यावत् बहुत कालतक केवलीपर्याय पालके अपना अवशेष आयुष्य जान, भक्त पानीका प्रत्याख्यान अर्थात् अनशन कर फिर चरम श्वासोश्वासकों बोसिराते हुवे सर्व शारीरिक और मानसिक दुःखोंका अन्त कर मोक्ष महेलमे विराजमान हो जाते है. ..... हे आर्य ! ऐसा अनिदान अर्थात् निदान नहीं करनेका फल यह हुवाकि उसी भवमें सर्व कर्मोंका मूलोंको उच्छेदन कर मोक्षसुखोंको प्राप्त कर लेते हैं. ऐसा उपदेश भगवान् वीरप्रभु अपने शिष्य साधु-साध्वीयोंको आमंत्रण करके दीया था, अर्थात् अपने शिष्योंकी डूबती नौकाको अपने करकमलोंसे · पार करी है. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ तत्पश्चात् वह सर्व साधु-साधीयों भगवानकी मधुर देशना-हितकारी देशना श्रवण कर बडा ही हर्षको-आनन्दको प्राप्त हो, अपने जो राजा श्रेणिक और राणी चेलणाका स्वरुप देख निदान किया गया था, उसकी आलोचना कर, प्रायश्चित ग्रहन कर, अपना आत्माको विशुद्ध बनाके भगवानको वन्दन-नमस्कार कर अपना आत्माको अन्दर रमणता करते हुवे विचरने लगे. ___ यह व्याख्यान भगवान महावीरप्रभु राजगृह नगरके गुणशीलोद्यानमें बहुतसे साधु, बहुतसी साधीयों, बहुत श्रावक, बहुतसी श्राविकावों, बहुतसे देवों, बहुतसी देवीयों, सदेव मनुष्य असुरादिकी परिषद के मध्य बिराजमान हो आख्यान, भाषण, प्ररुपण, विशेष प्ररुपण ( आत्माको कर्मबन्ध निदानरुप अध्ययन ) अर्थ सहित, हेतु सहित, कारण सहित, सूत्र सहित, सूत्रके अर्थ सहित, व्याख्या सहित यावत् एसा उपदेश वारवार किया है. ।इति निदान नामका दशवा अध्ययन । नोट-निदान दो प्रकारके होते है (१) तीत्र रसवाला (२) मन्द रसवाला, जो तीव्र रसवाला निदान कीया हो, तो के निदानवालाको केवली प्ररुपित धर्मको प्राप्ति नहीं होती है, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 अगर मन्द रसवाला निदान हो तो छ निदानमें सम्यक्त्वादि धर्मकी प्राप्ति होती है. जैसे कृष्ण वासुदेव तथा द्रौपदी महा सतीको सनिदानभी धर्मकी प्राप्ति हुइथी.. इति श्री दशाश्रुतस्कंध-दशवा अध्ययन. इति श्री दशाश्रुत स्कंध सूत्रका संचिप्त सार / / शीघ्रबोध भाग 19 वा समाप्त / /