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प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला, ग्रन्थ १
नेमिचन्द्र भंडारी-विरचित पष्टिशतक प्रकरण
त्रण बालावबोध सहित
MERSITY
NAJIRA
JA SAYA
THE MANAP
OF BARODA
सत्यं शिवं सुन्दरम
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा
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महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय,
वडोदरा-संचालित प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला
सामान्य संपादक डॉ. भोगीलाल ज. सांडेसरा,
एम. ए., पीएच. डी. अध्यक्ष, गुजराती विभाग, म. स. विश्वविद्यालय, वडोदरा.
ग्रन्थ १
नेमिचन्द्र भंडारी-विरचित पष्टिशतक प्रकरण त्रण बालावबोध सहित
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नेमिचन्द्र भंडारी - विरचित पष्टिशतक प्रकरण
aण बालावबोध सहित
प्रस्तावना, परिशिष्ठो अने शब्दकोश साथे संपादक
डॉ. भोगीलाल ज. सांडेसरा
श्रीमती हंसाबन मेहता, वाइस चान्सेलर, म. स. विश्वविद्यालय-वडील,
एमना आमुख सहित
SAYAJIRA UNIVERSITY
THE MAHARAJA
सत्यं शिवं सुन्दरम्
डीसिड
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा
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प्रकाशक : .. डा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, अध्यक्ष, गुजराती विभाग, . म. स. विश्वविद्यालय,
वडोदरा.
आवृत्ति पहेली
वि. सं. २००९ ई. स. १९५३
प्रत ५००
मल्य पांच रूपिया
प्राप्तिस्थान प्राच्य विद्यामन्दिर,
वडोदरा.
मुद्रक
रमणलाल जी. पटेल, व्यवस्थापक, साधना प्रेस, रावपुरा, वडोदरा.
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आमुख
प्राच्य विद्यामंदिर तरफथी मुख्यत्वे संस्कृत हस्तलिखित पोथीओ मेळवी एमाथी योग्य पोथी- प्रकाशन वर्षोथी चाली रह्यु छे. ' गायकवाड ओरियेन्टल सिरीझ' मां एवां सो उपरांत पुस्तको प्रसिद्ध थयां छे. जूना गुजराती साहित्यनो हस्तलिखित भंडार पण विपुल छे. एमाथी योग्य साहित्यनुं प्रकाशन पण इच्छवा योग्य छे. आ हेतु लक्षमा राखी, वडोदरा विश्वविद्यालयना गुजराती विभाग द्वारा प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमालानी योजना तैयार करवामां आवी छे. ए योजना अनुसार आ प्रथम पुस्तक बहार पडे छे, अने एवं एक पुस्तक दर वर्षे बहार पाडवानी आशा रखाय छे.
आ प्रकारना संशोधननो उपयोग एकदम पहेली नजरे चढे नहि ए स्वाभाविक छे. परंतु भाषानी दृष्टिए तेम ज सामाजिक इतिहासनी दृष्टिए आ प्रकारनां संशोधनो पुष्कळ प्रकाश पाडे छे अने माटे ज उपयोगी छे. आ पुस्तकना निवेदनमां डॉ. सांडेसरा लखे छे के :" आ ग्रन्थमालामां प्रसिद्ध थती कृतिओ तथा एना शब्दकोशो ऐतिहासिक गुजराती शब्दकोश माटे सामग्री पूरी पाडशे तथा अन्य भगिनीभाषाओना प्राचीनतर युगोना अध्ययनमां पण उपयोगी थशे एवी आशा छे.” पुस्तक पाछळ जे शब्दकोश आप्यो छे ते भाषानी दृष्टिए अतिशय उपयोगी थई पडशे एमां तो जरा पण शंका नथी. आशा छे के आ प्रकाशननो गुजरातना विद्वानो तेम ज अन्य भाषाशास्त्रीओ योग्य सत्कार करे.
ता. १४-२-५३.
हंसा महेता
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अनुक्रम
आमुख
निवेदन
प्रस्तावना
जूनुं गुजराती गद्य -४; ' बालांवबोध' एटले शुं ? - ७; ' षष्टिशतक प्रकरण अने तेनो कर्ता - ९; ' षष्टिशतक 'ना बालावबोधकारो - ( १ ) सोमसुन्दर सूरि - १३; (२) जिनसागरसूरि - १४; (३) मेरुसुन्दर उपाध्याय - १५; ' षष्टिशतक' ना अन्य बालावबोधो - २२; हाथप्रतो अने संपादन२४; अनुलेख-२८.
षष्टिशतक प्रकरण - त्रण बालावबोध सहित....
परिशिष्ट १. नेमिचन्द्र भंडारी - विरचित
ܕ
जिनवल्लभसूरि गुरुगुणवर्णन.....
परिशिष्ट २. नेमिचन्द्र भंडारी - विरचित पार्श्वनाथ स्तोत्र....
' षष्टिशतक ' नी प्राकृत गाथाओनी सूचि
शब्दकोश
....
मुखपृष्ठ - उपयोगमा लेवायेली हस्तप्रतोमांथी त्रणना फोटा
:
१-३
४-२९
१-१६०
१६१-६५
१६६
१६७-६९
१७०-९३
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पृष्ठ
पंक्ति
८०
१८
शुद्धिपत्रक
अशुद्ध दीक्षादि वरावी नाणनी आंगी गमइं आज्ञारइितहूई आंगीगमई ए. व.
दीक्षा दिवरावी जाणनी आंगीगमई आज्ञारहितहूई आंगीगमई ब. व.
१७५
१७
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निवेदन वडोदराना म. स. विश्वविद्यालयनी कार्यवाहक सभाए (सीन्डिकेटे) मंजूर करेली योजना अनुसार, आ 'प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला' शरू थाय छे. प्राचीन गुजराती साहित्यनी अप्रसिद्ध कृतिओनी समीक्षित वाचनाओनुं प्रकाशन सामान्य रीते एमां थशे, परन्तु आ पहेलां छपाई गयेली छतां जेनां शास्त्रीय संपादनो न थयां होय एवी विशिष्ट रचना
ओनी समीक्षित वाचनाओने तथा प्रसिद्ध के अप्रसिद्ध रचनाओमांथी अभ्यासनी दृष्टिए करेला समुच्चयोने पण एमां स्थान रहेशे. प्रत्येक संपादन साथे प्रस्तावना उपरांत ते ते कृतिमां प्रयोजायेला नोंधपात्र शब्दोनो एक कोश आपवामां आवशे, जेमां ए शब्दो उपर व्युत्पत्ति तेम ज अर्थविकासनी दृष्टिए संक्षिप्त टांचणो अपाशे. जूना गुजराती भाषासाहित्यना तुलनात्मक अध्ययनमा उपयोगी थाय ए प्रकारना स्वाध्यायग्रन्थोने पण प्रसंगोपात्त आ ग्रन्थमालामां अवकाश रहेशे. .
. विक्रमना बारमा शतकमां थयेला, अपभ्रंश व्याकरणकार आचार्य हेमचन्द्रना समयथी मांडी ओगणीसमा शतक सुधी जूना गुजराती साहित्यमां रचायेला सेंकडो ग्रन्थो हजी अप्रसिद्ध छे. ए विपुल साहित्यभंडारमाथी पसंद करेली, जुदा जुदा साहित्यप्रकारोनी प्रतिनिधिरूप गद्यपद्यात्मक कृतिओनुं प्रकाशन ते ते कृतिरूपे अगत्यनु होवा उपरांत ते ते साहित्यप्रकारना विकासना अध्ययनमा घणुं उपयोगी छे. __शक सं. ६९९ ( वि. सं. ८३४ )मा ' कुवलयमाला' नामे सुप्रसिद्ध प्राकृत कथा रचनार दाक्षिण्यांक उद्योतनसूरिए गुर्जरोनी भाषानो एक नानो नमूनो टांक्यो छे, पण छेल्लां लगभग साडा. आठसो वर्ष थयां तो
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प्राचीन गुर्जर साहित्य बहोळा प्रमाणमां उपलब्ध छे. काळना प्रवाहमा घj नाश पाम्युं हशे, परन्तु जे बच्युं छे ते पण विपुल छे. विक्रमना बारमा शतकथी आ तरफ आवतां एक पण शताब्दी एवी नथी, जेमां जूना गुजराती साहित्यमा विकसेला विविध साहित्यप्रकारोना प्रतिनिधिरूप नमूना मळता न होय. गुजराती भाषानो शताब्दीवार सिलसिलाबंध इतिहास उकेलवा माटे, जगतनी कोई पण भाषाने ईर्ष्या आवे एवी वैविध्यपूर्ण अने सुसंगोपित पुष्कळ साधनसामग्री बहुसंख्य हस्तप्रतोरूपे विद्यमान छे एने एक सद्भाग्य गण, जोईए. गुजराती भाषा माटे ऐतिहासिक सिद्धान्तानुसार रचायेला बृहद् कोशनी जरूरियात घणा समयथी ऊभेली छे—एवो कोश, जेमां बहोळो शब्दसंचय के क्रमिक व्युत्पत्ति आपी होय एटलं ज नहि, पण साहित्यिक प्रमाणो अने अवतरणोने आधारे कालानुक्रमिक अर्थविकास बतावेलो होय. पण एवा कोशना व्यवस्थित कार्यनो आरंभ थाय त्यार पहेलां केटलांक भूमिकारूपं कामो—जूना ग्रन्थोनी शास्त्रीय वाचनाओ अथवा ते ते ग्रन्थना अने विशिष्ट युगोना शब्दकोशनी रचनानां तथा विशिष्ट शब्दो के शब्दसमूहोना कालानुक्रमिक अध्ययननां कामो—थवां जोईए. आ ग्रन्थमालाना प्रकाशनमां आ रीतनुं भूमिकारूप अध्ययन रजू करवानो ख्याल पण रहेलो छे. आ ग्रन्थमालामां प्रसिद्ध थती कृतिओ तथा एना शब्दकोशो ऐतिहासिक गुजराती शब्दकोश माटे सामग्री पूरी
* छेवटना केटलांक वर्षोमां आ देशमां तेम ज परदेशमां थयेला नव्य भारतीय आर्यभाषाना जूना ग्रन्थोनां संपादनोमां संपादित कृतिना प्रत्येक शब्दनी सूचि अपाती घणी वार जोवामां आवे छे. ज्यारे छूटक छूटक रूपे एकाद कृतिनुं संपादन थतुं होय त्यारे आ प्रकारनी संपूर्ण शब्दसूचिनी उपयोगिता खरी, पण एक ग्रन्थमालाना प्रत्येक ग्रन्थ माटे जो एम करवामां आवे तो बीजा ज प्रकाशनथी एमां बिनजरूरी पुनरावृत्तिनो दोष अनिवार्य रीते आवे अने संपादकना समयनो अने मुद्रणनां नाणांनो निरर्थक व्यय वधे. आथी पसंद करेला शब्दोनो कोश
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पाडशे तथा अन्य भगिनीभाषाओना प्राचीनतर युगोना अध्ययनमा पण उपयोगी थशे एवी आशा छे.. ___ आम साहित्य तेमज भाषाना तुलनात्मक अने ऐतिहासिक अभ्यासनो द्विविध उद्देश आ ग्रन्थमालाना प्रकाशनमां छे. आ विषयना विद्यार्थीओ अने अभ्यासीओने आ रीते जुदा जुदा दृष्टिकोणथी उपयोगी थाय एवां प्रकाशनो आपवा माटे अमे सतत प्रयत्नशील रहीशं. योग्य सूचनो द्वारा तथा प्रकाशनोनां विवेचनो द्वारा आ कार्यमा सहकार आपवा तज्ज्ञोने विनंती छे. 'अध्यापकनिवास,' )
भोगीलाल जयचंदभाई सांडेसरा वडोदरा.
सामान्य संपादक. कार्तिकी पूर्णिमा, सं. २००९. .
आपवानी पद्धति सामान्य रीते आ संपादनोमा रहेशे. जो के ढूंकी तेम ज कोई एक अपेक्षाए विशिष्ट कृतिना संपादनमां, जरूर जणाये, सर्व शब्दोनो कोश न आपी शकाय एवं नथी.
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प्रस्तावना
जूनुं गुजराती गद्य जूना गुजराती साहित्यमां गद्य लखाणो अणछतां के विरल हतां एवो एक सामान्य ख्याल प्रवर्ते छे, पण जूना साहित्यनी शोध थती जाय छे तेम तेम ए ख्याल प्रमाणपुरःसर नथी ए निश्चित थाय छे. ठेठ विक्रमना चौदमा शतकथी मांडी जूनी गुजरातीमां ( अथवा डॉ. टेसीटरीए प्रचलित करेलो शब्द वापरीए तो जूनी पश्चिम राजस्थानीमां ) * गद्यसाहित्य मळे छे अने उत्तरोत्तर एनुं वैपुल्य वधतुं जाय छे. अर्वाचीन काळमां गद्य साहित्यना घणाखरा प्रकारोनुं वाहन बन्युं छे
* सोळमा सैकामां तथा त्यार पहेलांना समयमां 'जूनी गुजराती' अने 'जूनी पश्चिम राजस्थानी' ए बन्ने शब्दप्रयोगो वडे एक ज वस्तुनो बोध थाय छे. संभवित बोलीभेदोवाळी एक ज सामान्य भाषा गुजरात अने राजस्थानमां-खास करीने पश्चिम राजस्थानमां-बोलाती हती. आ भाषाकीय एकताना कारणमां पूर्वकाळनो राजकीय तेम ज सांस्कृतिक इतिहास रहेलो छे, जेनी वीगतमां ऊतरवू अहीं प्रस्तुत नथी. पण गुजरातनुं एक वार- पाटनगर श्रीमाल अत्यारे राजस्थानमा गणाय छे अने गुजरातनी अनेक ब्राह्मण, वणिक अने कारीगर ज्ञातिओनां नामो सूचित करे छे के एक काळे ए बधो प्रजासमूह अत्यारे जेने पश्चिम राजस्थान कहेवामां आवे छे ए प्रदेशमांथी अत्यारना गुजरातमां आवीने वस्यो हतो, एवी केटलीक हकीकत लक्षमा राखवा जेवी छे. आ ऐतिहासिक पार्श्वभूमिका जो ख्यालमां न होय तो 'जूनी गुजराती' अने 'जूनी पश्चिम राजस्थानी' जेवा प्रयोगो वास्तविक अर्थबोधमां थोडो संभ्रम ऊभो करे खरा. एथी आपणी भाषानी ए प्राचीन भूमिका माटे श्री. उमाशंकर जोषीए ‘मारु-गुर्जर' एवो शब्द सूचव्यो हतो. आजे पण राजस्थाननी भाषा एना बंधारणनी दृष्टिए हिन्दी करतां गुजरातीने वधारे मळती छे ए वस्तु आ ऐतिहासिक परिस्थितिना प्रत्यक्ष समर्थनरूप छे. आ ' प्राचीन गुर्जर ग्रन्थमाला'मां आपणी भाषाना आ 'मारु-गुर्जर' युगनी पण केटलीक कृतिओ प्रसिद्ध थशे-अने आ प्रथम पुष्प तो ए युगर्नु ज छे--ए कारणे आटलुं स्पष्टीकरण के विषयान्तर जरूरी गण्युं छे.
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एंबुं जो के ए समयमा नहीतुं, गद्यनुं प्रयोगक्षेत्र सीमित हतुं, तो पण ए सीमित क्षेत्रमा ये थोडाक अलग अलग प्रकारो मळे छे. संस्कृत के प्राकृत ग्रन्थोना अनुवाद के टीकारूप बालावबोधो; अक्षरना रूपना मात्राना अने लयना बंधनथी मुक्त छतां पद्यमां लेवानी बधी छूट भोगवता प्रासयुक्त गद्य-बोली 'मां रचायेलां 'पृथ्वीचंद्रचरित्र' (सं. १४७८) जेवां गद्यकाव्यो के 'सभाशृंगार' जेवा वर्णकसंग्रहो; अज्ञातकर्तृक
कालकाचार्य कथा' (सं. १५५० आसपास)* जेवी, क्वचित् अलंकारप्रचुर अने क्वचित् सहेला रसळता गद्यमां रचायेली कथाओ अने 'कादंबरी कथानक ' (वि.ना १८मा शतकनो पूर्वार्ध)+ जेवा कथासंक्षेपो दार्शनिक चर्चाओ, वादविवादो अने प्रश्नोत्तरीओ; 'औक्तिक ' तरीके ओळखाता, गुजराती द्वारा संस्कृत शीखवा माटेना संख्याबंध व्याकरणग्रन्थो-जेमां संग्रामसिंहकृत 'बालशिक्षा' (सं. १३३६ ) अने कुलमंडनगणिकृत 'मुग्धावबोध औक्तिक ' (सं. १४५०) जेवां भाषाना इतिहासनां सीमाचिह्नोनो समावेश थाय छे—ए जूना गद्यसाहित्यना प्राप्त विविध प्रकारो छे. अत्यारे उपलब्ध थतुं जूनुं गद्य पण एटलं विपुल छे के एनुं प्रकाशन करवामां आवे तो 'बृहत्काव्यदोहन 'ना सुप्रसिद्ध ग्रन्थो जेवडा ओछामां ओछा सो ग्रन्थो तो सहेजे भराय. जो के जुदा जुदा प्राचीन ग्रन्थभंडारो अने संग्रहोमा जे गद्यसाहित्य मारा जोवामां आव्यु छे ए विचारतां मने लागे छे के आ विधानमा संभव अत्युक्तिनो नहि पण अल्पोक्तिनो छे. ___ आ गद्यसाहित्यनो मात्र एक अल्प अंश अत्यार सुधीमां बहार आव्यो छे. गायकवाड्झ ओरियेन्टल सिरीझमां ए ग्रन्थमाळाना आद्य संपादक श्री. चिमनलाल डाह्याभाई दलाले छपावेल 'प्राचीन गुर्जर
* प्रसिद्ध, मारा वडे संपादित, 'प्रस्थान,' फागण-चैत्र, सं. १९८८ + प्रसिद्ध, सं. आचार्य जिनविजयजी, 'पुरातत्त्व,' पुस्तक ५, अंक ४.
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काव्यसंग्रह 'मां तथा आचार्य जिनविजयजी-संपादित 'प्राचीन गुजराती गद्यसन्दर्भ'मां उपलब्ध प्राचीनतम गद्यसाहित्यनी उत्तम वानगी छे. डॉ. टी. एन. दवेए लंडन युनिवर्सिटी समक्ष रजू करेला पोताना बृहनिबंधमां (A Study of the Gujarati Language in the 16th Century V. S.) सं. १५४३मां रचायेला 'उपदेशमाला'ना बालावबोधनुं संपादन करेलुं छे. त्यार पछी बृहन्निबंधरूपे आवां एकबे संपादनो थयां छे, पण ते हजी प्रकाशित थयां नथी. गुजरात तथा राजस्थानमाथी बहार पडतां सामयिकोमा केटलीक नानीमोटी प्राचीन गद्यकृतिओ प्रसंगोपात्त प्रसिद्ध थई छे. प्राचीन गद्यनां प्रेरक बळो अर्वाचीन गद्यनां प्रेरक बळोथी विभिन्न छे, अने परिणामे ए बन्ने युगमां विकसेला गद्य-साहित्यप्रकारो पण विभिन्न छे. वळी अर्वाचीन युगमां साहित्य- मुख्य वाहन गद्य बन्युं छे अने ए रीते एनुं महत्त्व वध्युं छे. पण जूनामां जूनी उपलब्ध गद्यकृतिओथी मांडी प्राचीन युगना छेल्ला प्रतिनिधि दयारामकृत ' सतसैया' उपरनी स्वरचित गुजराती टीका तथा स्वामीनारायणनां 'वचनामृतो' सुधीनी गद्यरचनाओ उपरथी जूना गुजराती गद्यनां बंधारण अने शैलीनो ऐतिहासिक दृष्टिए कालानुक्रमिक अभ्यास थाय त्यारे विचारोनी स्पष्ट अने रुचिर अभिव्यक्ति माटे जूना गद्यनुं सातत्य अर्वाचीन गद्यमां केटले अंशे रहेलुं छे तथा कई अने केवी नवी लढणो भाषामां विकसी छे ए चोकस स्वरूपे समजी शकाय. वळी पद्य करतां गद्य ए बोलाती भाषानुं विशेष निकटवर्ती होय, ए कारणे पण अभ्यास माटे एनुं एक खास महत्त्व छे. आ दृष्टिए नेमिचन्द्रकृत प्राकृत 'पष्टिशतक प्रकरण' उपरना-अनुक्रमे सोमसुन्दरसूरि, जिनसागरसूरि अने मेरुसुन्दर उपाध्यायकृत-त्रण प्राचीन गुजराती बालावबोधोना संपादन- आ ग्रन्थमालाना प्रथम पुष्परूपे थतुं प्रकाशन अभ्यासीओने उपयोगी थशे एवी आशा छे.
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'बालावबोध' एटले. शुं ? ___ आ प्रस्तावनाना प्रारंभमां कयुं छे के बालावबोध ए मूळ संस्कृत के प्राकृत ग्रन्थना अनुवाद के टीकारूपे होय छे. 'बाल' एटले वयमां नहि, पण समज के ज्ञानमां बाल. एना — अवबोध' माटे थयेली रचनाओ ते 'बालावबोध'. गुजरातीनुं जूनामां जूनुं गद्यसाहित्य जैन शास्त्रग्रन्थोना बालावबोधरूपे छे. बालावबोध आम जो के जैन साहित्यनो शब्द छे, पण एनो अर्थ सहेज विस्तारीने ‘भागवत,' 'भगवद्गीता,'' गीतगोविन्द,'' चाणक्य नीतिशास्त्र, ' ' योगवासिष्ठ,' 'सिंहासनबत्रीसी,' 'पंचाख्यान,' 'गणितसार' आदि जे बीजी अनुवादरूप रचनाओ मळे छे ते माटे पण साहित्यना इतिहासमां ए शब्द प्रयोजी शकाय, केम के आ बधा गद्यानुवादोनो उद्देश एक ज छे. बालाबबोधमां केटलीक वार मूळ ग्रन्थोनुं भाषान्तर होय छे, तो केटलीक वार दृष्टान्तकथाओ के अवान्तर चर्चाओ द्वारा मूळनो अनेकगणो विस्तार करेलो होय छे. पण 'बालावबोध 'नो जे एक उत्तरकालीन प्रकार 'स्तबक ' अथवा 'टवा 'रूपे ओळखाय छे एमां मात्र शब्दशः भाषान्तर ज होय छे. एमां 'स्तबक 'नी पोथीओनी लेखनपद्धति कारणभूत छे. बालावबोधना वाचको करतां पण जेमनु शास्त्रज्ञान मर्यादित होय एवा वाचकोने ध्यानमा राखीने 'स्तबक 'नी रचना थयेली छे. एमां पोथीना प्रत्येक पृष्ठ उपर त्रण के चार पंक्ति मोटा अक्षरोमां मूळ शास्त्रग्रन्थनी लखवामां आवती अने प्रत्येक पंक्तिनी नीचे झीणा अक्षरोमां एनो अर्थ लखवामां आवतो, जेथी वाचकने प्रत्येक शब्दनो भाव समजवामां सरळता थाय. आ प्रकारनी लेखनपद्धतिने कारणे प्रत्येक पृष्ठ उपर नाना अने मोटा अक्षरोमां लखायेली पंक्तिओनां जाणे के ' स्तबक '
-झूमखां रचायां होय एम जणातुं. ए उपरथी आ प्रकारना अनुवादो माटे 'स्तबक ' शब्द वपरायो, जेमाथी गुजराती — टबो' व्युत्पन्न थयो.
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बालावबोधना कर्ताओ पोताना विषयना जाणकार विद्वानो हता; ए कारणे एमना अनुवादो शिष्ट होय छे अने शब्दोनी पसंदगी मूळने अनुसरती तेम ज समुचित अर्थनी वाहक होय छे. एमनो प्रथम उद्देश साहित्यिक आनंद आपवानो नहि, पण वाचकने मूळ वस्तुनुं ज्ञान कराववानो छे, छतां तरुणप्रभसूरिकृत 'षडावश्यक बालावबोध' (सं. १४११) जेवी केटलीक रचनाओनां कथानकोमा वर्णकशैलीना अलंकारप्रचुर गद्यना आगमननी अंधाणीओ वरताय छे खरी. परन्तु मूळ ग्रन्थने सादी भाषामां समजाववानो 'बालावबोध 'ना साहित्यप्रकारनो प्रथम उद्देश छे ते तो भाग्ये ज कोई बालावबोधमां असफल रहेलो जणांशे. जूना गुजराती साहित्यमां बालावबोध पांच-पचीस नहि पण कुडीबंध छ; अने संस्कृत-प्राकृत भाषाओमां संघरायेला शास्त्रज्ञानने लोकभाषाओ द्वारा बहुजनसमाज समक्ष सरल स्वरूपमा मूकवानी जे प्रवृत्ति मध्यकाळमां समस्त भारतवर्षमा नजरे पडे छे ए ज आ बालावबोधोनी बहोळी अनुवादप्रवृत्तिमां पण एक चालक बळरूपे छे एम कहेवामां भाग्ये ज अतिशयोक्ति गणाशे. - एक ज मूल ग्रन्थना एक करतां वधु बालावबोधो जेमां साथोसाथ प्रसिद्ध थता होय एवं, मने ख्याल छे त्यां सुधी, आ पहेलु ज प्रकाशन छे. एक ज मूल षष्टिशतक प्रकरण 'नो त्रण जुदा जुदा विद्वानोए करेलो अनुवाद एमां एक साथे जोई शकाशे. ए त्रणे विद्वानो लगभग एक ज समयमां थयेला छे; सोमसुन्दरसूरिनो बालावबोध विक्रमना पंदरमा शतकना अंतमां रचायेल छे, ज्यारे जिनसागरसूरि अने मेरुसुन्दर उपाध्यायना बालावबोधो विक्रमना सोळमा शतकना प्रारंभमां रचाया छे. रचना उपरथी जणाय छे के त्रणेनो आशय मूळनी अनुवादरूप समजूती आपवानो छे; जो के कोई कोई स्थळे त्रणेए थोडोक विस्तार करी दीधो छे. मूळ प्राकृत गाथा तथा ते उपरना त्रणे य बालावबोधो एक साथे छापेला.
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होवाथी आवां स्थानो अनायासे जोई शकाशे. केटलाक विस्तृत बालावबोधोमां आवे छे एवी अवान्तर चर्चाओं के दृष्टान्तो प्रस्तुत अनुवादोमां नथी. त्रण समसामयिक विद्वानोए एक ज मूल ग्रन्थना करेला त्रण जुदा जुदा गद्यानुवादो मूलना त्रिविध भाषान्तर उपरांत एक ज भावना वाचक विविध शब्दो तेम ज एक मूल शब्दनी तत्कालीन जुदी जुदी अर्थच्छायाओ तथा एना रूपभेदो—–जेमां तत्कालीन बोलीभेदोनुं प्रतिबिंब पण पड्युं होय एवो पूरी संभव छे—जाणवामां उपयोगी थशे.
षष्टिशतक प्रकरण ' अने तेनो कर्ता
धर्म के तत्त्वज्ञानने लगता कोई एक विषय उपर प्राकृत पद्यमां रचायेली संक्षिप्त कृतिओने जैन साहित्यमां ' प्रकरण' कहे छे. ' षष्टिशतक' आवुं एक प्रकरण छे, अने एमां १६० गाथाओ छे ( १६१मी गाथा केवल पुष्पिका रूप छे), ते उपरथी एने ' षष्टिशतक ' नाम आपवामां आवे छे.* एना कर्त्ता नेमिचन्द्र भंडारी नामे श्रावक गृहस्थ छे. आ कृतिनुं चोकस रचनावर्ष मळतुं नथी, पण विक्रमना तेरमा शतकमां नेमिचन्द्र विद्यमान हता ए निश्चित छे. जैन श्वेतांबर संप्रदायना खरतर गच्छनी विविध पट्टावलीओमां तेमज मेरुसुन्दर उपाध्यायकृत बालावबोध (पृ. २) मां उल्लेख छे ते प्रमाणे, तेओ मारवाडमां मरोट
6
* मूल ' षष्टिशतक ' ते उपरनी तपोरत्न अने गुणरत्ननी टीका (सं. १५०१ ) सहित जैन सत्यविजय ग्रन्थमाळाना छठ्ठा पुष्प तरीके अमदावादथी ई. स. १९२४मां प्रसिद्ध थयेल छे. गुजराती अनुवाद साथे ' षष्टिशतक' मूल सं. १९७६मां जामनगरवाळा पं. हीरालाल हंसराजे छपावेल छे, वळी मोहनलालजी जैन ग्रन्थमाळाना बीजा पुष्प तरीके ई. स. १९१७मां बनारसथी एनो मूळ पाठ बहार पडेल छे. उपर
धेली, तपोरत्न अने गुणरत्ननी संस्कृत टीका उपरांत ' षष्टिशतक' उपर सहजमंडनकृत व्याख्यान, धर्ममंडनगणिकृत टीका तथा कोई अज्ञात कर्तारचित अवचूरि जाणवामां आवे छे (जुओ प्रो. वेलगकरकृत 'जिनरत्न कोश', पृ. ४०४ ).
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गामना वतनी हता. ए काळे जैन संप्रदायमां चैत्यवासी यतिओनुं प्राबल्य हतुं अने महावीरे प्रबोधेला आकरा संयममार्गनी अपेक्षाए एमनामां ठीक ठीक शिथिलाचार प्रवर्ततो हतो. आथी — द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावना मेळथी' सद्गुरुनी शोध करता नेमिचन्द्र पाटणमां आव्या तथा त्यां खरतर गच्छना आचार्य जिनपतिसूरि (सं. १२१०-१२७७ )नी चर्या जोई, परम संयमी गुरु तरीके एमना आचारोनुं अवलोकन करी, एमनो उपदेश सांभळीने व्रतो स्वीकार्यां. पछी पोताने वतन पाछा आवीने पोताना पुत्र आंबडने नेमिचन्द्र जिनपतिसूरि पासे लई गया, अने तेमनी पासे पुत्रने महोत्सवपूर्वक दीक्षा अपावी. नेमिचन्द्रना आ पुत्र दीक्षित थया पछी आचार्य जिनेश्वरसूरि (सं. १२४५-१३३१ ) तरीके प्रसिद्ध थया. आ जिनेश्वरसूरिनी दीक्षानुं वर्णन विक्रमना चौदमा शतकमां थयेला कवि सोममूर्तिकृत 'जिनेश्वरसूरि संयमश्री विवाहवर्णन ' ए नामना ३३ कडीना संक्षिप्त काव्यमां छे ( प्रसिद्धः श्री. जिनविजयजी संपादित 'जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्यसंचय 'मां तथा श्री. अगरचंद नाहटा संपादित ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह 'मां ). - षष्टिशतक 'नी गाथाओमां शुद्ध धर्म, मिथ्यात्व, सदाचार, सद्गुरु, कुगुरु आदिनुं स्वरूप कर्ताए मुखपाठे करी शकाय एवी गाथाओमां संक्षेपमां समजाव्यु छे. निरूपणमा जे अभिनिवेश अने शिथिलाचार सामेनो प्रकोप जणाय छे एनुं कारण उपर सूचवी छे तेवी ए समयनी धार्मिक-सामाजिक परिस्थितिमा रहेलं छे. - वळी आ प्रकरणनी रचनामां नेमिचन्द्रथी थोडा ज समय पूर्वे
थई गयेला आचार्य जिनवल्लभसूरि ( स्वर्गवास सं. ११६७ )कृत ‘पिंडविशुद्धि प्रकरण 'वाचन पण एक प्रेरक कारण हतुं. जिनवल्लभसूरि पहेला कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी जिनेश्वरसूरिना शिष्य हता. पण एक
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वार ‘दशवैकालिक सूत्र' वाचतां, सावध औषध आदि करता पोताना अति प्रमादी गुरुने जोई तेओ उद्वेग पाम्या, अने पछी शुद्ध क्रियानिधि, नवांगी वृत्तिकार-जैन आगमसाहित्यनां नव अंगो उपर प्रमाणभूत संस्कृत टीकाओ रचनार-अभयदेवसूरि (विक्रमना बारमा शतकनो पूर्वार्ध) पासे जई शास्त्राध्ययन कर्यु अने एमना शिष्य थया, तथा ‘पिंडविशुद्धि प्रकरण', 'सार्ध शतक' आदि संख्याबंध ग्रन्थो रच्या.* जिनवल्लभसूरिए जे चैत्यो बंधाव्यां एने ‘विधिचैत्य' नाम आपी एमां शास्त्रविरुद्ध कार्य थाय नहि ए प्रकारना श्लोको तेमणे कोतराव्या.+ नेमिचन्द्रने पोताना अनुभव अने अवलोकनने परिणामे जे कहेवानुं हतुं एने आ
* ‘खरतर गच्छ पट्टावली संग्रह' (सं. जिनविजयजी), पृ. १०-२४. + सामाजिक इतिहासनी दृष्टिए रसप्रद एवा, एमांना बे श्लोक नीचे प्रमाणे छे
अत्रोत्सूत्रजनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि । जातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमि
त्याज्ञाऽत्रेयमनिश्रिते विधिकृते श्रीजैनचैत्यालये ॥ (अर्थात् अनिश्राए विधिपूर्वक थयेला आ जैन चैत्यमां एवी आज्ञा छे के एमां उत्सूत्र जनोनो संचार नथी, एमां रात्रे स्नात्र-नान नथी, साधुओए एमां ममतापूर्वक रहेवानुं नथी, एमां राने स्त्रीओने प्रवेश नथी, एमां जाति अने ज्ञातिनो कदाग्रह नथी, अने एमां श्रावकोए तांबूल खावानुं नथी.)
इह न खलु निषेध : कस्यचिद् वन्दनादौ श्रुतविधिबहुमानी त्वत्र सर्वोऽधिकारी । त्रिचतुरजनदृष्ट्या चात्र चैत्यार्थवृद्धि
व्ययविनिमयरक्षाचैत्यकृत्यादि कार्यम् ॥ ( अर्थात् अहीं कोईने पण वंदनादिनो निषेध नथी, शास्त्रविधिने मान आपनार सौ कोईनो अहीं अधिकार छे, आ चैत्यना धननी वृद्धि व्यय विनिमय रक्षा तथा धार्मिक कार्यों त्रणचार जणनी नजर नीचे करवानां छे.)
'षष्टिशतक 'नी १६१मी गाथामां 'विधिमार्गरत भव्य ' जनो माटे पोते ए रचना करी होवार्नु नेमिचन्द्रे का छे ते आ साथे सरखाववा जेवू छे.
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કુર'
पूर्वकालीन आचार्येना जीवनकार्य अने ग्रन्थरचनाओमांथी अनुमोदन मळ्युं अने परिणामे तेणे ' षष्टिशतक ' नी गाथा १०७- ८मां तथा १२९मां जिनवल्लभसूरिने बहुमानपूर्वक बिरदाव्या छे अने 'प्रभु जिनवल्लभ जेवा तो मात्र जिनवल्लभ छे' ( पहु जिणवल्लाहसरिस पुणो वि जिणवलहो चेव) एम कहीने एमना प्रत्येनो पोतानो अनन्य भक्तिभाव दर्शाव्यो छे. गाथा १२९ स्पष्ट रीते पुरवार करे छे के नेमिचन्द्र जिनवल्लभसूरिने प्रत्यक्ष मळ्या नहोता, पण जिनवल्लभना ग्रन्थोए ज नेमिचन्द्रना हृदय उपर ऊंडी असर करी हती. * विक्रमना तेरमा शतकनी उत्तरकालीन अपभ्रंशमां नेमिचन्द्रे रचेलं ' जिनवल्लभसूरि गुरुगुणवर्णन ' नामे ३५ कडीनुं काव्य पण एज वस्तु पुरवार करे छे (जुओ परिशिष्ट १ ). नेमिचन्द्रनी बीजी एक रचना पण उपलब्ध छे, अने ते नव गाथाओनुं प्राकृत ' पार्श्वनाथ स्तोत्र' आ ग्रन्थना परिशिष्ट २ मां ते पहेली ज धार प्रकाशित थाय छे.
एक पूर्वकालीन प्रकरणग्रन्थ, धर्मदास गणिकृत प्राकृत ' उपदेशमाला 'नो + मानभेर उल्लेख नेमिचन्द्रे ' षष्टिशतक' नी ९६ मी गाथामां
* — उपमितिभव प्रपंच कथा ' ( सं. ९६२ ) ना कर्ता सिद्धर्षिए पोताथी थोडा ज समय पूर्वे थई गयेला हरिभद्रसूरिनो उल्लेख पोताना ' धर्मबोधकर गुरु' तरीके कर्यो छे अने तेमणे 'ललितविस्तरा' वृत्ति अनागतनो विचार करीने पोताने माटे ज निर्मी होवानुं बहुमानपूर्वक नोध्युं छे. एक पूर्वकालीन विद्वाने पोतानी आध्यात्मिक दृष्टि बराबर रुचे एवी कृति लखी ए माटे सिद्धर्षिना ए प्रशंसाना उद्गारो छे. नेमिचन्द्रनो जिनवल्लभसूरि साथेनो आध्यात्मिक संबंध लगभग ए प्रकारनो ज गणी
शकाय.
+ जैन अनुश्रुति प्रमाणे, धर्मदासगणि महावीरना शिष्य हता. परन्तु ' उपदेशमाला 'नी भाषा तो उत्तरकालीन जैन महाराष्ट्री छे ए जोतां आ अनुश्रुतिने केटले अंशे प्रमाणभूत गणवी ए ग्रश्न छे. विक्रमना दशमा सैका करतां तो ए प्राचीनतर छेज, केम के ए समये थयेला सिद्धर्षिए ' उपदेशमाला' उपर टीका रचेली छे.
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कों छे. 'पष्टिशतक'नी सामान्य उपदेशात्मक गाथाओ उपर 'उपदेशमाला'नी असर छे, अने ' षष्टिशतक 'ना बालावबोधकारो पण एमांथी वखतोवखत अवतरणो टांके छ (पृ. १५, २२, ५१, ६१, ७०, ९६, ९७, ११६, १२५, १३०, १४१, १५४, १५५). 'षष्टिशतक' ना बालावबोधकारो-(१) सोमसुन्दरसूरि
सोमसुन्दरसूरि (सं. १४३०-१४९९) ए तपागच्छना सुप्रसिद्ध आचार्य छे. प्रकांड पंडित होवा साथे तेओ एक शिष्ट ग्रंथकार छे, अने संस्कृत तेम ज गुजरातीमां पद्यात्मक तेम ज गद्यात्मक एमनी संख्याबंध रचनाओ जाणवामां आवेली छे. 'भाष्यत्रयचूर्णि,' 'कल्याणक स्तव,' 'रत्नकोश,' 'नवस्तवी' आदि एमनी संस्कृत धार्मिक कृतिओ छे. गुजराती पद्यमां ‘आराधना रास' अने 'नेमिनाथ नवरसफाग' तथा गद्यमां 'उपदेशमाला' (सं. १४८५), ' योगशास्त्र, ' षडावश्यक,' 'आराधना पताका,' 'नवतत्त्व,' 'भक्तामर स्तोत्र' आदि उपर तेमणे बालावबोधो रच्या छे.* एमनो 'पष्टिशतक' बालावबोध, एना अंतमा उल्लेख छे ते प्रमाणे, सं. १४९६मां रचायेलो छे. आ प्रतिष्ठित आचार्ये तत्कालीन धार्मिक प्रवृत्तिओमां हमेशां आगेवानी लीधी हती अने पाटण तथा खंभातना सुप्रसिद्ध प्राचीन पुस्तकभंडारोनी सुव्यवस्था करी हती अने ताडपत्र उपर लखायेला प्राचीनतर ग्रन्थोनुं कागळ उपर संस्करण देवसुन्दरसूरि अने सोमसुन्दरसूरिना मंडळे कर्यु हतुं. सोमसुन्दरसूरिना बहोळा शिष्यमंडळनी साहित्यसेवा पण अनेक दृष्टिए नोंधपात्र छे. एमना केटला ये शिष्यो प्रसिद्ध वादीओ, उपदेशको
* 'उपदेशमाला' अने 'योगशास्त्र'ना बालावबोधोमांथी कथाओ आचार्य जिनविजयजी-संपादित 'प्राचीन गुजराती गद्यसन्दर्भ 'मां लेवामां आवी छे.
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१४.
अने ग्रन्थकारो हता. एमना एक शिष्य प्रतिष्ठासोमे रचेला संस्कृत ' सोमसौभाग्य' महाकाव्यमा एमनुं जीवनचरित गूंथेलं छे.*
(२) जिनसागरसूरि बीजा बालावबोधकार जिनसागरसूरि खरतर गच्छनी पिप्पलक शाखाना आचार्य छे. तेमणे सं. १५०१मां — षष्टिशतक' उपर बालावबोध रच्यो हतो.+ गुजरात अने राजस्थानमा जुदे जुदे स्थळे एमणे करावेली मूर्तिओनी प्रतिष्ठाविधिना संख्याबंध लेखो सं. १४९१थी सं. १५१० सुधीनां जुदां जुदां वर्षना मळे छे. 'षष्टिशतक 'ना बालावबोध उपरांत तेमणे संस्कृतमां केटलीक ग्रन्थरचना करेली छे. पंडित उदयशील गणिना आग्रहथी तेमणे 'हैमलघुवृत्ति'ना चार अध्यायनी दीपिका रची हती. वळी एमणे — कर्पूरप्रकरण' उपर अवचूरि रचेली छे, जेनो प्रथमादर्श एमना विद्वान शिष्य तथा राजशेखरकृत — कर्पूरमंजरी' अने सोमप्रभाचार्यकृत 'सिन्दूरप्रकर 'ना टीकाकार धर्मचन्द्रे लख्यो हतो.' जिनसागरसूरिना हस्ते विद्याविस्तारनी केटलीक प्रवृत्ति थयाना उल्लेख पण मळे छे. उदाहरण तरीके, एमना उपदेशथी सं. १४९२मां मेवाडना देवकुलपाटकपुरमा (अर्थात् देलवाडा गाममां) एक ऊकेशवशीय श्रावके ‘आवश्यक बृहवृत्ति' लखावी होवानो निर्देश मळे छे. वळी एमना
* आ प्रभावशाली आचार्य अने एमना शिष्यमंडळनी प्रवृत्तिओ माटे जुओ श्री. मोहनलाल द. देसाईकृत : जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास,' पृ. ४५१-७१. ____ + ए ज, पृ. ४८६ उपर श्री. देसाईए एनुं रचनावर्ष सं. १४९१ नोंध्युं छे, पण में उपयोगमा लीधेली हाथप्रतमां सं. १५०१नो स्पष्ट उल्लेख छे.
$ — जैन गुर्जर कविओ,' भाग २, पृ. ६९४. + ‘जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास,' पृ. ४७५, ५१५
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उपदेशथी सं. १४९५मां लखायेली ' धर्मोपदेशमाला वृत्ति 'नी प्रति डीना ग्रन्थभंडारमां सचवायेली छे.*
( ३ ) मेरुसुन्दर उपाध्याय
जूना गुजराती साहित्यमां मेरुसुन्दर उपाध्याय बालावबोधकार तरीके सुप्रसिद्ध छे. तेओ विक्रमना सोळमा शतकना पूर्वार्धमा थई गया. तेओ खरतर गच्छना आचार्य पांचमा जिनचन्द्रसूरि (सं. १४८७१५३० ) ना शिष्य हता, अने ' षष्टिशतक 'नो बालावबोध एमना पोताना ज कथन प्रमाणे (पृ. ३), एमणे गुरुनी आज्ञाथी बनारसमां रच्यो हतो. मेरुसुन्दरे ' शत्रुंजय स्तवन 'नो बालावबोध सं. १५१८मां तथा तरुणप्रभसूरिकृत ' षडावश्यक बालावबोध ने अनुसरीने ए ज ग्रन्थ उपरनो नवो बालाववोध सं. १५२५मां मांडवगढ ( मांडु )मां रच्यो हतो. बळी 'शीलोपदेशमाला, ' ' पुष्पमाला प्रकरण, ' ' भक्तामर - स्तोत्र, ' ' वृत्तरत्नाकर, ' ' भावारिवारण, कल्पप्रकरण,’ ‘कर्पूरप्रकर', योगशास्त्र, ' ‘ पंचनिर्ग्रन्थी ' आदि ग्रन्थो उपरना एमना बालावबोधनी प्रतो आ पहेलां जाणवामां आवेली छे. + ' षष्टिशतक 'ना बालावबोधमां रचनावर्ष नथी, पण उपरनी वीगतो जोतां विक्रमना सोळमा शतकना पूर्वार्धमा एनी रचना थया विषे शंका नथी. मूळ ग्रन्थना भावने सरल गुजराती गद्यमां, संक्षेपमां रजु करवानी मेरुसुन्दरनी हथोटी प्रशंसापात्र छे, अने एमनी ' उपाध्याय ' पदवी उपरथी अनुमान थाय छे के तेओ शिष्योने भणाववानुं कार्य करता हशे अने ए कार्य करतां करतां शिष्यहितार्थे आटला बधा मूळ ग्रन्थोने गुजरातीमां उतारवानुं एमने सूझ्युं हशे .
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(
* 'जैन गुर्जर कत्रिओ,' भाग २, पृ. ६९४.
+ एज, भाग १, पृ. ६०१-२; भाग ३, पृ. १५८२-८५; 'जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पृ. ५२२..
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उपर जणावेली रचनाओ उपरांत नेमिचन्द्रकृत एवा बे बालावबोधो जाणवामां आव्या छे, जेनी नोंध आ पहेलां कोई विद्वाने करी नथी. एक छे गुजराती आलंकारिक सोमपुत्र वाग्भटकृत 'वाग्भटालंकार' (विक्रमना १२मा शतकनो उत्तरार्ध )नो बालावबोव तथा बीजो बौद्ध विद्वान धर्मदासगणिकृत अलंकारग्रन्थ 'विदग्धमुखमंडन 'नो बालावबोध. आ बन्ने कृतिओ खास नोंधपात्र एटला माटे छे के संस्कृत अलंकारग्रन्थोना बालावबोधो जबल्ले ज मळे छे. 'वाग्भटालंकार 'नो बालावबोध मेरुसुन्दरे सं. १५३५ मां रचेलो छे; ए ज वर्षमां लखेली एनी २७ पत्रनी शुद्ध प्रति में लगभग अढी वर्ष पहेलां जोधपुरना महाराजाना पुस्तकालयमां जोई हती अने एमांथी थोडी जरूरी नोंध करी लीची हती. ‘विदग्धमुखमंडन 'ना बालावबोवनी जोधपुरना जैन भंडारनी एक अपूर्ण हस्तलिखित पोथी उपाध्याय विनयसागरजीए उपयोग माटे मोकली हती. ए प्रति लिपि उपरथी सत्तरमा शतकमां लखायेली जणाय छे. आ बन्ने कृतिओ, उपर कयु ते प्रकारे, महत्त्वनी होवाथी एमांथी केटलांक नमूनारूप अवतरण अहीं आपुं छु. पहेलां वाग्भटालंकार बालावबोधनो आदि-अंत जोईएआदि॥०॥ उँ नमः श्रीश्रुतदेवतायै ॥ सिद्धं सिद्धिदमीश्वरं मघवता संस्तूयमानं परं स्फूर्जत्संसृतिदुस्तराब्धितरणे चञ्चत्तरीसुन्दरम् । . आनन्दामलवल्लरीप्रविलसत्प्रत्यग्रधाराधरं वन्दे नाभिनरेन्द्रनन्दनमहं श्रीमद्युगादीश्वरम् ॥ १ ॥ अनेकसाधुसाध्वीभिः श्रावकश्राविकादिभिः । पूरितोऽस्ति धराख्यातो गच्छः खरतराभिधः ॥२॥
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तस्मिन् बभूवुरमी नानालब्धिसमाश्रिताः । सौभाग्यभाग्यनिलयाः श्रीजिनभद्रसूरयः ॥ ३ । तेषां गुरूणामुदिते सुपट्टे नानागुणालंकृतचारुवर्मणः । प्रसन्नचित्ता जयिनस्तु सन्ति भट्टारकाः श्रीजिनचन्द्रसूरयः ॥ ४ ॥ आसाद्य तत्प्रसादं करोति सरलं स्फुटार्थवररचितम् । इह मेरुसुन्दरगणिर्वाग्भटबालावबोधनं चारु ॥५॥
इहादौ सकलकल्याणमालाललितवल्लरीसजलजलधरसंनिभं विविधार्थसिद्धिवितरणकुशलममलगुणचक्रवालकलितकलेवरं श्रीयुगादीश्वरं स्तुवन्नाह ।
श्रियं दिशतु वो देवः श्रीनाभेयजिनः सदा । मोक्षमार्ग सतां ब्रूते यदागमपदावली ॥१॥ श्रीनाभेयजिनो देवः श्रीआदिनाथः । वो युष्मभ्यं सदा श्रियं दिशतु ददातु । श्रीनाभेयजिनदेव श्रीआदिनाथ तम रहई सदा श्री लक्ष्मी दिउ। यदागमपदावली सतां सत्पुरुषाणां मोक्षमार्ग ब्रूते । जेह जिनना आगम सिद्धांतना पद वाक्यनी आवली श्रेणि सत्पुरुष रहई मोक्षमार्ग बोलइ । अन्यस्य कस्यचित् पदानां पङ्क्तिर्दृष्टा सती सतां सत्पुरुषाणां मार्ग प्रकाशयति। अनेराइ कहि पुरुषना पद चरणनी श्रेणि दीठी हूती सत्पुरुषनइ मार्ग प्रकासइ । इसिउ उक्तिलेश जाणिवउ ॥ छ ।
साधुशब्दार्थसन्दर्भ गुणालङ्कारभूषितम् ।
स्फुटरीतिरसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तये ॥२॥ ___ कविः काव्यं कुर्वीत । कवीश्वर काव्य करइ । किमर्थं । कीर्तये । कीर्तिनइ आर्थेि । किंविशिष्टं काव्यम् । साधुशब्दार्थसन्दर्भम् । साधु दोषरहित शोभन छइं जे शब्द नइ अर्थ तेह तणु सन्दर्भ रचनाविशेष छइं । पुन: किंविशिष्टं काव्यम् । गुणालङ्कारभूषितम् । गुण सौंदर्यादिक अलंकार उपमादिक तेहिं भूषित अलंकृत छइ । पुनः किंविशिष्टं काव्यम् । स्फुटरीतिरसोपेतम् । स्फुट प्रकट छइ जे रीति पांचाल्यादिक अनइ
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रस शृंगारादिक तेहिं उपेत संयुक्त छइ । तत्र रीतिनामुद्देशः कथ्यते । उक्तं च।
द्वित्रिपदा पाञ्चाली लाटीया पश्च सप्त वा यावत् । शब्दाः समासवंतो भवति यथाशक्ति गौडीया ॥
असमस्तपदा वैदर्भी रीतिः । इति रीतिचतुष्कम् ॥ द्वित्रीणि वा यदानि यस्यां रीतौ सा पाञ्चाली। बि त्रिणि वा पद हुई जेणई रीतिइं ते पांचाली रीति जाणिवी। पंचभिः सप्तभिः पदैलाटीया रीतितिव्या। पांचि अथवा साति पदि लाटीया रीति जाणिवी । यथाशक्ति समासवंतः शब्दा गौडीया रीतिर्भवति। यथाशक्तिइं समाससंयुक्त शब्द हुइ ते गौडीया रीति जाणिवी। असमस्तपदा पृथक्पदा वैदर्भी रीतितिव्या । समस्त पदि जूइ जूइ पदि वैदर्भी रीति जाणिवी । ईणइ परिई रीति च्यारिइ जाणिवी । एहिं रीतिसंयुक्त काव्य कीर्तिनइ आर्थ हुइ। एतद्विपरीतं तु काव्यं विपरीतफलमेव स्यादिति तात्पर्यार्थः । एह तु विपरीतकाव्य विपरीतफल हुइ इसु तात्पर्यार्थ जाणिवु ॥ छ ।
अंत. अथ बीभत्समाह ॥
बीभत्सः स्यात् जुगुप्सातः सोऽहृद्यश्रवणेक्षणात् । निष्ठीवनास्यभङ्गादिः स्यादत्र महतां न च ॥ ३० ॥ जुगुप्सातः बीभत्सरसः स्यात् । जुगुप्सा कुत्सित वस्तुनु बीभत्स रस हुइ । विभावादिनस्योपदिशति । स बीभत्सः अहृयश्रवणेक्षणात् । निष्ठीवनास्यभङ्गादिः स्यात् । ते बीभत्स रस अहृद्य सूगामणो सांभलिवानु अनइ जोइवानु । निष्ठीवन यूंकिवू , आस्यभंग मुख मोडवू इत्येवमादिक हुइ । च अन्यत् अत्र महतां निष्ठीवनास्यभंगादयः प्रायो न वक्तव्या इति ॥ च अनइ महांत गुरूआनई निष्ठीवन आस्यभंगादिक प्राय सहाजिइ न हुई ॥छ.॥ . .
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शांतरसमाह || सम्यग्ज्ञानसमुत्थानः शान्तो निःस्पृहनायकः ।
रागद्वेषपरित्यागात् सम्यग्ज्ञानस्य चोद्भवः ॥ ३१ ॥ सम्यग्ज्ञानसमुत्थानः शान्तो रसः स्यात् । सम्यक् ज्ञाननु ऊपनु शांत रस हुइ। कीदृशः । निःस्पृहनायकः। निःस्पृह निराकांक्षी नायक छइ। च अन्यत् रागद्वेषपरित्यागात् सम्यक् ज्ञानस्य उद्भवो भवेत् । रागद्वेषना परित्याग छांडिवातु सम्यक् ज्ञाननु उद्भव उत्पत्ति हुइ ॥ छ ।
उपसंहरन्नाह ॥ दोषैरुन्झितमाश्रितं गुणगणैश्वेतश्चमत्कारिणं नानालङ्कृतिभिः परीतमभितो रीत्या स्फुरन्त्या सताम् । तैस्तैस्तन्मयतां गतं नवरसैराकल्पकालं कविस्रष्टारो रचयन्तु काव्यपुरुषं सारस्वतध्यायिनः ॥ ३२ ॥
कविस्रष्टार आकल्पकालं कल्पान्तं यावत् काव्यपुरुषं रंचयन्तु निष्पादयन्तु । कविस्रष्टा आकल्प कल्पांत जाण काव्यपुरुष रचउ नीपजावउ। कीदृशं । दोषैः श्रुतिकट्वादिभिः उज्झितम् । दोष श्रुतिकट्वादिके उज्झित त्यक्त छइ। तथा गुणगणैः औदार्यादिभिः आश्रितम् । तथा गुणना समूहे औदार्यादिके आश्रित छइ । तथा चेतः चमत्कारिणं । चित्तनइं चमत्कार करतु छइ । नानालङ्कतिभिः परीतम् । नानाविध अलंकारे परीत युक्त छइ । तथा सतां सत्पुरुषाणां विदुषां वा अभितः स्फुरन्त्या रीत्या तैस्तैः नवरसैः तन्मयतां गतम् । तथा संत विद्वांसनी सवितुं प्रकारि स्फुरंती उल्लसंती रीतिइं करी तेह तेह नवरसि करी तन्मयतागत प्राप्त छइ । किंलक्षणाः कवयः । सारस्वतध्यायिनः । सारस्वतमंत्रनू ध्यान करता छ।।
श्रीमत् खरतरगच्छे श्रीमज्जिनभद्रसूरींद्राः तत्पट्टे विजयंते जिनचंद्रजितीश्वरा गुरवः ।।
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तेषामंतेवासी वाचकवरमेरुसुंदरः शुचिवाक् । . . चक्रे वाग्भटविहितालंकारस्य प्रवरविवृतिम् ॥ . बाणाग्निबाणशशिधरसंख्ये वर्षे विशुद्धतरदिवसे ।
ग्रन्थः समर्थितोऽयं नंदतु यावज्जगति मेरुः ॥ . संवत् १५३५ वर्षे श्रीखरतरगच्छे* श्रीमेरुसुंदरोपाध्यायैः वाग्भटालंकारबालावबोधः कृतोऽयं चिरं नंदतात् ] ॥ छ ॥ छ ॥ कल्याणमस्तु ॥ आ० कालासुत श्रीवत्सलखितं ॥ छ ॥ छ ॥ छ ॥ श्री ॥ छ ॥संवत् १५३५ वर्षे द्वितीय श्रावणे सुदि पंचमी गुरुवासरे इंद्रीग्रामे ऊकेशगच्छे श्रीसिद्धाचार्यसंताने भ. श्रीसिद्धसूरिविजयराज्ये पं० जयरत्नानामुपदेशेन लिखापितोऽयं वाग्भटालंकारबालावबोधः ॥ ० ॥ ओसवालज्ञातीय मं० तारा भा० रम्माई पु० मं. जगाकेन पु० पहिराजयुतेन भा० रंगूश्रेयसे ॥ शुभं भूयात् दायिकवाचकयोः ॥ श्रीरस्तु ॥
'विदग्धमुखमंडन 'ना बालावबोधनी जे एक मात्र प्रति जाणवामां आवेली छे एमां ३५ पत्र मळे छे, पण प्रति अधूरी छे. जो के छेवटना मात्र छ श्लोकनो ज बालावबोध एमां न होई प्रतिने अखंडितकल्प गणी शकाय. अर्थात् मूळ प्रतिनुं छेल्लु एकाद पत्र गूम थयेलं होवू जोईए. आथी विदग्धमुखमंडन बालावबोधना प्रारंभौथी थोडो नमूनो जोईए
तस्मिन् वराः श्रीजिनभद्रसूरयः सिद्धान्तवारांनिधिपूर्णचन्द्राः । सरोषकन्दर्पविमुक्ततीक्ष्णबाणावलीगर्वहरा बभूवुः ॥ ३ ॥ तेषां महानन्दजुषां गुरूणां विशिष्टपट्टे जयिनस्तु सन्ति । सरस्वतीदत्तवरा अनेकशिष्याश्रिताः श्रीजिनचन्द्रसूरयः ॥ ४ ॥ * मूळ प्रतमां आ अर्धी पंक्ति उपर कोइए हरताळ फांसेली छे.
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संप्राप्य सिद्धिकारणमादेशे मेरुसुन्दरस्तेषाम् । ' कुर्वे बालकबोधं विदग्धमुखमंडनस्य ॥ ५ ॥ शास्त्रारम्मे शास्त्रकारो विशिष्टेष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मङ्गलाचरणं करोति। इह तु धर्मदासगणिः विशिष्टेष्टदेवं शौद्धोदनि स्तुवन् वक्ति । तस्यायमादिश्लोकः ।
सिद्धौषधानि भवदुःखमहागदानां . . पुण्यात्मनां परमकर्णरसायनानि । प्रक्षालनैकसलिलानि मनोमलानां
शौद्धोदनेः प्रवचनानि चिरं जयन्ति ॥ १ ॥ शौद्धोदनेबौद्धस्य प्रवचनानि चिरं चिरकालं यावत् जयन्ति सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते । शौद्धोदनि बौद्धनां वचन चिरकाल सीम जयवंत वर्त्तम् । किंविशिष्टानि प्रवचनानि । भवदुःखमहागदानां सिद्धौषधानि । भव संसार तणां छइ जे दुःख तेह जि भणित रोग तेह टालिवानइ आर्थ सिद्ध औषध छइ । छ। पुनः किंलक्षणानि वचनानि । पुण्यात्मनां परमकर्णरसायनानि । पुण्यवंतना कर्णनइ विषयि रसायन समान छइ । तथा मनोमलांनां प्रक्षालनैकसलिलानि । मनोमल मनना तापक पषालवानइ अर्थि एक सलिल पाणी छइ । छ। जयन्ति सन्तः सुकृतकभाजनं परार्थसम्पादनसव्रतस्थिताः। करस्थनीरोपमविश्वदर्शिनो जयन्ति वैदग्ध्यभुवः कवेगिरः ॥२॥
संत साधु जयवंत वर्त्तई । किंविशिष्टा: संतः। सुकृतकभाजनं । सुकृत पुण्यनूं एक भाजन पात्र छई। किंविशिष्टाः संतः। परार्थसम्पादनसद्बतस्थिताः। पर अनेरानां अर्थसंपादन कार्यकरण तेह जि भणित सद्बत तेहनइ विषयि स्थित रह्यां छई। तथा करस्थनीरोपमाविश्वदर्शिनः । कर हस्तनइ विषयि स्थिर रह्यु छइ जे नीर पाणी तेहनी परिइं अनित्य विश्व देषता छइं। तथा कोर्गिरः जयन्ति। कवीश्वरनी वाणी जयवंत वर्त्तम् । कथंभूता गिरः। वैदग्ध्यभुवः । वैदग्ध्य चतुरमानी भू उत्पत्तिस्थानक छइ। छ।
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आक्रान्तेव महोपलेन मुनिना शप्तेव दुर्वाससा सातत्यं बत मुद्रितेव जतुना नीतेव मूर्च्छा विषैः । बद्धेवातनुरज्जुभिः परगुणान् वक्तुं न शक्ता सती जिह्वा लोहशलाकया खलमुखे विद्वेव संलक्ष्यते ॥ ३ ॥ जिह्वा परगुणान् वक्तुं अशक्ता सती खलमुखे एवंविधा संलक्ष्यते । जीभ पर अनेराना गुण बोलिवा अशक्त हूंती दुर्जननइ मुखि एहवी दीसा | उत्प्रेक्ष्यते । महोपलेन महादृषदा आक्रान्ता इव । जाणीव महांत मोट पाषाणिइ चांपी हुइ जिसी । उत्प्रेक्ष्यते । दुर्वाससा मुनिना शप्ता इव । जाणी किरि दुर्वासा ऋषीश्वरि शपी हुई जिसी । बत इति खेदे | सातत्यं निरंतरं जतुना मुद्रिता इव । अनइ बत इसिई खेदिं । सदाई लाई मूंद्री हुई जिसी । तथा विषैः मूर्च्छा नीता इव । विषिं हालाहल मूर्च्छा पमाडीहुइ जिसी । उत्प्रेक्ष्यते । अतनुरज्जुभिर्ब्रद्धा इव । जाणीइ किरि मोटे दोरे बांधी हुइ- जिसी । उत्प्रेक्ष्यते । लोहशलाकया विद्धा इव । जाणीइ किरि लोहनी शिलाकार बांधी हुई जिसी । छ ।
आ बे बालावबोधोमां मूळना श्लोको समजावतां संस्कृत अने गुजरातीनुं जे मिश्रण करवामां आव्युं छे ते ए समये शिष्योने आ प्रकारना ग्रन्थो भणाववानी पद्धतिमां सामान्य होवुं जोईए. जैन आगम - ग्रन्थो उपरनी चूर्णिओना गद्यमां केटलीक वार प्राकृत साथै संस्कृतनो संकर जोवा मळे छे ते आ साथै सरखावी शकाय. जो के उपर्युक्त बालावबोधोमां संस्कृत अने गुजराती वाक्यो साथसाथ आवतां होवा छतां परस्परथी तद्दन अलग छे; कोई पण वाक्य एमां मिश्रभाषामय ( Macaronic ) भाग्ये ज जोवा मळशे.
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षष्टिशतक 'ना अन्य बालावबोधो
उपर्युक्त त्रण लेखको-सोमसुन्दरसूरि, जिनसागरसूरि अने मेरुसुन्दर उपाध्याय कृत बालावबोधो उपरांत ' षष्टिशतक 'ना बीजा केटलाक बालावबोध जाणवामां आव्या छे. सने १९५०मां मारा विद्यागुरु पू.
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मुनिजी पुण्यविजयजीना सौजन्यथी मने जेसलमेरनी ज्ञानयात्रा करवानो अवसर मळ्यो त्यारे त्यांना किल्लाना भंडारमा ‘षष्टिशतक' ना एक बालावबोधनी २४ पत्रनी पोथी जोवामां आवी हती. एमां कानू नाम नथी, पण आ ग्रन्थमा समावेला उपर्युक्त त्रणे बालावबोधोथी ते भिन्न छे. षष्ठीना मारु-गुर्जर अनुग ' रहइं' अने ' हूई 'ने स्थाने अहीं मारवाडी प्रत्यय 'रउ' ( अर्वाचीन 'रो'), 'री' मळे छे, अने ए त्रणे बालावबोध करतां आनी रचना केटलाक दसका पछीथी थई होवानो तर्क थाय छे. लिपि उपरथी पोथी विक्रमना सत्तरमा सैकामां नकल करायेली जणाय छे. आ पुस्तकमां प्रकाशित थयेला बालावबोधो साथे तुलना माटे एनो आदि-अंत अहीं उतारुं छु. आदि.. प्रणम्य मारुदेवावं जिनं निर्जितमन्मथम् ।
करोमि षष्टिशतके वार्ता सौख्यावबोधिनीम् ॥ ... अरिहं देवो सुगुरु सुद्धं धम्मं च पंचनवकारो।
धन्नाण कयत्थाणं निरंतरं वसइ हिययम्मि ॥१॥ इये गाथानइ विषइ च्यार बोल सारभूत छइ ते कहीइ । किहा ते च्यार बोल । अरिहं देवो कहतां अरिहंत देव । सुगुरु क० तीर्थकररी आज्ञाई करी सहित जे गुरू २। सुद्धं धम्मं च क० सूधउ वीतरागनउ भाष्यउ धर्मइ, पंचनवकारो क० पांच परमेष्टिनमस्कार । ए च्यारेइ बोल धन्नाण क. जे धन्य भाग्यवंत, कयत्थाणं क० कीध्या छइ साध्या छइ जीए अर्थ एहवा जे जीव तियांरइ हीयानइ विषइ निरंतरं क० निरंतर सदा सर्वदा ए च्यारेइ वाना वसइ क० वसइ ।
हिव बि गाहाइ आपणा आत्मानइ सीख कहइ छइ । अंत___ इणइ प्रकारइ भंडारी नेमिचंद क० नेमिचंद्र भंडारीयइ साजण तणइ पुत्रइ श्रीजिनेश्वरसूरि तणइ पिताइ रइयाउ क० नवी जोडी केतली
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एक गाहाउ क० गाथा १६१ प्रमाण । जि के विहिमग्गरया क० वीतराग देवरउ भाष्यउ मार्ग तीयइ मार्गिइ चालिवा सावधानइ हवा भव्वा क० भव्यजीव ते पढंतु क० भणंतु । जाणंतु क० अर्थ जाणउ जिम सम्यक् प्रकारइ भणतां थकां गुणतां थकां वली मनमाहि अर्थ भावतां थकां अहो जीवो तुम्हे जंतु सिवं शाश्वता अनंतो मोष्यरा सुख पामउ i॥ १६१ ॥
इति श्रीनेमिचन्द्रभंडारिकविरचितषष्टिशतकप्रकरणस्य बालावबोध समाप्त ॥ शुभं भवतु ॥
आ उपरांत जेसलमेर अने बीकानेरना प्राचीन ग्रन्थभंडारोमां 'षष्टिशतक' उपरना केटलाक स्तबक (टबा) पण जोवामां आवे छे. क्षमारत्नना शिष्य धर्मदेवे सं. १५१५ मां रचेला बालावबोधनी तथा जयसोमकृत स्तबकनी नोंध मळे छे, पण ए कृतिओनी हाथप्रतो मारा जोवामां आवी नथी. प्रायः विक्रमना १९ मा शतकमां थयेला मोहनकृत 'षष्टिशतक 'नो दूहामय अनुवाद जैन सत्यविजय ग्रन्थमाळाना 'षष्टिशतक 'ना संस्करण साथे बहार पडेलो छे.
हाथप्रतो अने संपादन आ ग्रन्थना संपादनमां कुल चार हस्तलिखित प्रतोनो उपयोग करवामां आव्यो छे. एमां सोमसुन्दरसूरिना बालावबोधनी प्रतो बे छे, ज्यारे जिनसागरसूरि तथा मेरुसुन्दरना बालावबोधनी एक-एक प्रत छे. प्रत्येक प्रतमां बालावबोध उपरांत मूल प्राकृत 'षष्टिशतक 'नो पण ते ___ * 'जिनरत्नकोश,' पृ. ४०४. 'मंत्रीकर्मचन्द्रवंशावलीप्रबन्ध 'ना कर्ता खरतरगच्छीय जयसोम विक्रमना १७मा शतकमां थई गया तथा छ कर्मग्रन्थो उपर बालावबोध (सं. १७१६) रचनार तपागच्छीय जशसोम-शिष्य जयसोम १८मा शतकमां थई गया. परन्तु ए बेमांथी कया जयसोमे आ स्तबक रच्यो छे ते 'जिनरत्नकोश'मा जे ट्रंकी नोंध छे ते उपरथी कही शकाय नहि.
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ते बालावबोधकारने संमत एवो पाठ आपेलो छ.. आ चारे हस्तलिखित प्रतो पाटणना प्रसिद्ध श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिरमा राखवामां आवेला संघना भंडारनी छे, बधी ज प्रतो जैन धाटीनी देवनागरी लिपिमां लखायेल छे.. ... (१) सोमसुन्दरसूरिना बालावबोधनी बे प्रतो पैकी 'पहेली प्रतनी अनुक्रमांक १३४९ छे. एर्नु कद १०॥४४॥” छे अने पत्र २५ छे. प्रत्येक पृष्ठ उपरं नियमित रीते १५ पंक्तिओ लखायेली छे. आ प्रतिनी नकल सं. १५१३मां थयेली छे.
(२) सोमसुन्दरसूरिना बालावबोधनी बीजी प्रतनो अनुक्रमांक १३५० छे. एर्नु कद १०॥४४॥ छे अने पत्र ४२ छे. जो के एनुं १२मुं पत्र मळतुं नथी. प्रत्येक पृष्ठ उपर ११ पंक्ति लखेली छे. आ प्रतिमां नकल कर्यानुं वर्ष नथी, पण लिपि उपरथी ते सोळमा सैकानी लागे छे. आ प्रत पहेलीनी तुलनाए अशुद्ध छे. मूळ प्रतीक वांचीने लखवामां पण लहियानी घणी भूलो थयेली छे. जेम के-चतुर्थी अने षष्ठी विभक्तिनो अर्थ व्यक्त करता हूइ 'ने स्थाने तेणे सर्वत्र 'हुई' लख्युं छे. केटलीक वार तो आखी पंक्तिओ लहियाना प्रमादने लीधे पडी गयेली छे, जेनो यथास्थान निर्देश कयों छे.
(३) जिनसागरसूरिना बालावबोधनी प्रतनो अनुक्रमांक १०१५ छे. एर्नु कद १२० x ४॥” छे अने पत्र १४ छे. मात्र 'पहेला पृष्ठ उपर २० पंक्ति लखेली छे, बाकीनां बधां पृष्ठ उपर १९ पंक्तिओ छे. 'षष्टिशतक 'नो बालावबोध आ पोथीमां १२मा पत्रना पहेला पृष्ठ उपर पहेली पंक्तिमां पूरो थाय छे; ए पछी पोथीना अंतभाग सुधी ‘गौतमपृच्छा 'नो बालावबोध लखायेलो छे, जेमां कर्तानुं नाम नथी. आ प्रतिमां लिपिनो मरोड घणो सुन्दर छे.
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लेखनवर्ष नथी, पण लिपि उपरथी प्रति सोळमा शतकमां लखायेली जणाय छे.
(४) मेरुसुन्दर उपाध्यायना बालावबोधनी प्रतनो अनुक्रमांक ३८८२ छे. एर्नु कद १०x४॥" अने पत्र १६ छे. प्रत्येक पृष्ठ उपर १५ पंक्तिओ लखेली छे. प्रति शुद्ध छे. लेखनवर्ष नथी, परन्तु लिपि उपरथी ते पण सोळमा सैकामां लखायेली जणाय छे.
आम सोमसुन्दरसूरिकृत बालावबोधनी ज बे प्रतो होवाथी ए ज बालावबोधनां पाठान्तरो नोंधी शकायां छे. एमां सं. १५१३ वाळी प्रतने मुख्य प्रत तरीके स्वीकारी छे अने बीजी प्रतना पाठभेदो टिप्पणमां टांक्या छे. पण 'धरीइ-धरीइं,' 'अनइ-अनइं,' 'तीणइ-तीणइं,' 'विषइविषई,' ए प्रकारना पाठभेदो के जे जूनी गुजरातीमां बहु विपुल छे ते नोंध्या नथी. .. षष्टिशतक 'नी मूल प्राकृत गाथानी बालावबोधकारोए करेली प्रस्तावना, पछी मूळ गाथा तथा ते पछी अनुक्रमे त्रण बालावबोधो ए प्रमाणेनो क्रम मुद्रणमा राखेलो छे. एमां [सो.], [जि.] अने [मे.] ए संक्षेपो वडे अनुक्रमे सोमसुन्दर, जिनसागर अने मेरुसुन्दर ए त्रण बालावबोधकारो समजवाना छे. ___ षष्टिशतक 'नी मूल गाथाओनो पाठ पण सं. १५१३ वाळी प्रत प्रमाणे स्वीकारीने बीजी प्रतमां क्वचित् मळता अन्य पाठो नोंध्या छे. एमां पण 'एअं-एयं,' 'सअल-सयल,' जेवा पाठो जेमां उवृत्त स्वरनो लघुप्रयत्न 'य'कार थई जाय छे ए नोंध्या नथी. सोमसुन्दरसूरिना बालावबोधनी आ बीजी प्रतनो निर्देश कां तो वीगतथी अथवा 'सो.' एम संक्षेपथी टिप्पणमां कयों छे. मूळ गाथाओनां पाठान्तरो जिनसागरसूरि अने मेरुसुन्दरमां कवचित् मळे छे त्यां एमनो उल्लेख 'जि.'
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तथा 'मे.' ए प्रमाणेना संक्षेपना निर्देशपूर्वक कर्यो छे. बालावबोधकारोए आपेलां अवतरणोनां मूळ स्थानो ज्यां. खोळी शकायां छे त्यां तेमनो निर्देश कौंसमां को छे. ___श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिरनी आ बधी हाथप्रतो उपयोग माटे मेळवी आपवा माटे पू. मुनिश्री पुण्यविजयजीनो तथा ज्ञानमन्दिरना व्यवस्थापकोनो हुं उपकार मानुं छु. - परिशिष्टो-अगाउ कयु छे ते प्रमाणे, नेमिचन्द्र भंडारीनी बे कृतिओ आ ग्रन्थना परिशिष्ट तरीके लेवामां आवी छे—एक छे उत्तरकालीन अपभ्रंशमां रचायेलं 'जिनवल्लभसूरि गुरुगुणवर्णन' अने बीजी छे प्राकृत : पार्श्वनाथ स्तोत्र.' . (१) 'जिनवल्लभसूरि गुरुगुणवर्णन' जेसलमेरना बडा भंडारमांनी बे पानानी प्रतमाथी मळ्युं छे. ए बे पत्र उपर पत्रांक ८९-९० लख्या छे, तेथी अनुमान थाय छ के ते कोई सळंग मोटी हाथप्रतनो अंश छे. . ९० अंकवाळा पत्रना बीजा पृष्ठनो अर्धा करतां वधारे भाग कोरो छे, तेथी लागे छे के मूळ सळंग पोथी आ छेल्लु पत्र हशे. लिपि उपरथी प्रति पंदरमा सैकामां लखायेली जणाय छे. एनी पुष्पिकामां खरतरगच्छना जे आचार्योनां नाम आप्यां छे एमां छेल्लु नाम सागरचन्द्रसूरिनुं छे, तेथी ए आचार्यना जीवनकाळमां एनी नकल थई हशे एवो स्वाभाविक तर्क थाय छे. सागरचन्द्रसूरिनुं अवसान सं. १४६१मां थयु हतुं ( 'खरतरगच्छ पट्टावलीसंग्रह,' पृ. ३२), एटले एनाथी थोडां वर्ष पहेलां प्रति लखाई हशे. ... श्री. अगरचंद नाहटासंपादित 'ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह' (पृ. ३६९-७२ )मां आ काव्य छपायुं छे. जो के एमां उपयोगमा लेवायेली प्रति करतां जेसलमेरवाळी प्रति निःशंकपणे जूनी छे. श्री. नाहटानी वाचनानां पाठान्तरो टिप्पणमां नोंध्यां छे.
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(२) नेमिचन्द्र भंडारीकृत " पार्श्वनाथ स्तोत्र' अहीं प्रथम वार प्रसिद्ध थाय छे.. गुजरात विद्यासभा (अमदावाद )ना हस्तलिखित पुस्तकसंग्रहमां एक प्राचीन जैन संग्रहपोथीनां ३६१ थी ३९४ सुधीमा पत्र छे, 'जेमा प्रकीर्ण संस्कृत-प्राकृत स्तोत्रादि लखेला छे. एमां पत्र ३७८-७९ उपर आ ' पार्श्वनाथ स्तोत्र' छे.
आ पोथीना पत्र ३९४ उपर ‘महावीर स्तुति 'नी नकल पूरी थाय छे तेने अंते नीचे प्रमाणे पुष्पिका छ
. श्रीमहावीरस्तुतिः । कृतिरियं श्रीदेवमूर्युपाध्यायानां संवत् १३८७ वर्षे कार्तिक शुदि १० सोमवारे....भसापुरे श्रीजिनप्रबोधसूरिशिष्येण आनन्दमूर्तिना लिखितं ॥
पार्श्वनाथ स्तोत्र' तो आनी पहेलां, पत्र ३७८-७९ उपर, लखायेलं छे, एट्रले एनी नकल पण .सं. १३८७ ना कारतक सुद १० पहेलां क्यारेक थयेली होवी जोईए.
त्रणे घालावबोधो तथा — जिनवल्लभसूरि ‘गुरुगुणवर्णन 'मांना नोंधपात्र शब्दोनो कोश पुस्तकने अंते उमेर्यों छे. वडोदरा विश्वविद्यालयना गुजराती विभागना श्री. इन्द्रवदन अंबालाल दवे, एम. ए. एमणे शब्दकोश तैयार करवामां केटलीक सहाय करी हती :ए वस्तुनी अहीं साभार नोंध लेवामां आवे छे.
अनुलेख प्रस्तावनानां पृ. २०-२२नां बीबां गोठवाई गया पछी, ऊंझाना महाजनना हस्तलिखित पुस्तकभंडारमांथी, पू. मुनिश्री पुण्यविजयजीना सौजन्यथी 'विदग्धमुखमंडन' ना मेरुसुन्दर उपाध्यायकृत बालावबोधनी सं. १६७२ मां नकल थयेली एक संपूर्ण प्रति मळी छे. जोधपुरवाळी
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प्रति अपूर्ण होवाथी एमाथी आ कृतिनो अंतभाग मळतो नहोतो, ते आमाथी मळे छे. ऊंझानी प्रति अनुसार, आ बालावबोधनो अंतभाग नीचे प्रमाणे छे—
सदागतीत्यादि । अयं दीनः अस्तं एष्यति । ए दीप अस्त पामिसिइ । कीदृशः । सदागतिहतोच्छ्रायः सदा नित्यमेव गति गमनि करी हत हणिउ उच्छाय उद्यम छइ । तमसः वश्यता। तमहइं वश्यपणूंउ छइ । विधुरेकः शिवस्थितः । विधुर विह्वल तां कुण शिवस्थित कल्याणवंत ते । अपि तु नही को । द्वि० । अयं दीपः अस्तं एष्यति । ए दीप अस्त पामिसिइ । कीदृशः । सदागतिहतोच्छ्रायः। सदागति वायुइ हत हणिउ उच्छ्राय छइ । तमसो वश्यतां गतः । तम अंधारहूई वश्यतां पामिउ छइ । एको विधुः शिवस्थितः । एक विधु चंद्रमा शिव श्रीमहादेवनइ विषयि स्थित छइ ॥ छ । ६९ ॥
पूर्णचन्द्रेत्यादि । निर्मलांबरा कामिनी कस्य स्वांतं मनः एकान्तमदनोत्तरं न करोति । अपि तु सर्वस्यापि करोति । निर्मल अंबर वस्त्र इसी कामिनी स्त्री काहिंन स्वांत मन एकांति मदनोत्तर मदनाधिक्य न करइ । अपि तु सविहुनूं करइ । कीदृशी। पूर्णचंद्रमुखी । पूर्णिमाना चंद्रमावत् मुख छइ । रम्या मनोहरा द्वि० यामिनी रात्रि: कस्य स्वान्तं एकान्तमदनोत्तरं न करोति । अपि तु सर्वस्यापि करोति । कीदृशी । पूर्णचन्द्रमुखी। संपूर्णचंद्र जि भणित मुख छइ । रम्या रमणीया निर्मलांबरा। निर्मल अंबर आकाश छइ ॥ छ । ७० च्युतदत्ताक्षरजाति ॥ छ ।
इति श्रीधर्मदासविरचितविदग्धमुखमंडनकाव्यस्य वृत्तिरियं समाप्ता। ग्रंथाग्रं १४५४ संवत् १६७२ वर्षे ।
* ऊंझानी हाथप्रतमां मूलना आखा श्लोको नहि आपतां आ प्रमाणे केवळ मूलनां प्रतीको टांक्यां छे.
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अनाअतिधर्मरदिततेदत्तपावलीगुरुयतिकुदिकदमछायरिताविकणएवानदयरुकरिजधसामिनोजहसा मगिसुजोगाजल्युलदहाइमएमज्ञावालावि०ऽसिनविमासीनसरुवहारमशामीपणानिमयटीस॥ रकरिजाजमनागलियमसामयारूड्योगधामूमन जिममनुष्यपणनमुलतथाकाहासिहातमा दियदजिबोलगादाइले कहियाछत्रावनधरमशाडिलढाणिजचणीमाएससुईसहारासंजमंमिश्रावी। रित्याश्तथाधनाणविद्रियोगोविदिपरकाराहगासयाधनाविहिवाणीधनाविदिपरकत्रसाधना॥२ए दलंडास्थिनेभिवंटाध्यापकदिगादानावि दिमागरयातबापटमुजाण्जेसिवाए०७मइसारण इनेमिचंदडारीवीकीधीएकतली5/१६ गायाऊलवाजीवरवराविधिमानवियतत्यरीतयम नए वर्थजाएगाठासम्यग्याराधीमुकामाक्षरिजाजानतसुरवलदालियछिशतबाला बोधासमाप्तोविरविता ॥श्रीसोमखंदरसीर पादेसर्वजनोयकरण्यामाखंडातऊंडविठयमितका १४ संवसस्थीतथागोरुसोमसुंदरखर रावायेमुथरियावानोतिर्विहिताहितायकृतिनीसम्यकवीजन लाष्टिपछिपताशताक्ष्ययकरणगारव्याविरनंदवाएयासिननकायमदात्माननकीधारीवनापरवर्ष रंपायरझाकाराल भडपदुग
रखायनान
श्रीसत्वनी सेनामाटार
सोमसुन्दरसूरि कृत बालावबोधनी सं. १५१३मां लखायेली हस्तप्रतनुं अंतिम पत्र
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रुपजामदा मोफयाविहारप्रतिशघटिवाकरलालोकपलिशाना संस्थाई श्रावणावियानोपक्षिनशारदरताचा किनाराजरिवाहाकिमन ईनसारित । त्याहया जिभवमरियाहत्तद्यानाकदिवामानासविनशडामशिनाबाबोधादाततिामणिनासविदितगुरुपकवर्सिवामदागाराधकारिमा शानिमागरमरिणाबालानामवावाक्षया Xमानवियनाइडागारिकरुवयधाशनप्रकरणावरुणावामारुविनासावधासमववाहापानावरनद्या अक्षवाकल्याणमलिविताना ॥श्री श्रmanx
साक्षिणा दिनमादेवाणहानदयायायायालयवाग्रबुदाणवाक्षणबंधमाधमलाश्रीमानमधामगणधरनीधमाधधामदाबारनमकराणतनशतभश्रीमहाधारदिवका वामनावालाकाविबाधिवासणाधमाधमननफलपूछातयद्वियवश्थामुवियनाचाण्याश्याणसमाश्मवियकिनिरिए मुविधाळमायामादापाशवसगानदीका. 'जीवकणकर्मलीनरशिडाशिमारजीवकणकर्थलगायाजामास्साईडावलणकमलगाहियचमाक्षिकएकशसाईलीकिमुस्तमनुशहाशामुहियामाधारिश्माशमुहिय जीवनसमाहाशप्रयापदादाकदाइछानागाण्यातागायशाश्मधारकावळणकर्मलगायघाशायमाडाकिमुनाजाकिडवावाप्तमकदाजाकणकर्म समकावाधामीक्षायणमकिपडावा किसालानालामामाहाहायके दमगीतामायादाराशकणवमुवनबायाशकाफमाणदादाशिकरणवमहाकुन्ता वरदाकदवाराहानाकिसाकमखगाजावासासाथवतजशवकर्मस्वगाडावदानागाजाहाकिमाकर्मलमाजावबुद्विवेवाशयाकहकर्मलपावहिरक्षिा ऊयावहाडिमयपरिक्षारक्षकांधकामगादामरकश्यकवा
शराश्यकताकदविद्यानिफनाश्मफलाशापकिमीवएडिसकिमाकर्म लमरडीवमहामधदाइकिमाकामलगाधानिसयककिणिकर्मिबीना क समानाधिद्यानिष्फलुढा६२०किमुबलाविद्यासकालकरडीवNamom धवासासाकदवासभिवश्वकदाधारादाशमाहाकणानकाय पाहावाकणवावदिारा।किसाकर्मलायलकामासार किसाकर्मलगाजतीलामि लइश्वयाभाऊंवालाकिमुधिरनिश्चलडकिसाकर्मला उपप्रशाधsasuथकिमानधामाधवकिसाकर्मलगाडादवदिरमामाकणारा पाकणवालिङतरस्मयकणवाडी यक्कादाशकणधकामणदामाजभिसाकोलगाडावडामकिणिकर्मिनाकनकाधनेसरशनदीमध३२०किमा कम्मलगाडावधाऊण्कबडमकिसुशकशिकमिडावदासवाणयाASIRanकामाशापारासाशकाणकाममायादाइकणवारागाडायास्वागविला गावाकणा३६॥जकिसाकर्मलगाडावदारवादाइकिमाकमेलगीलादेवाहाकिमाकमलमासदारागाच्याकमकामामधारामरदिप्तजना घामकहाणगान छाकणक्षकाममाऊंडन कणसरुवाबायारूविविझावकणशकिसाकमलगोहानामादाकिसकामाबाबत किसिकर्मिटाडावक
शकमरकामपायलाघा50 किणिकम्भिकीवरुपयघाइपकिमुश्कमिसिएशक्षितधाशवाकणकाव्यगानाधकमावकामगावणधिमाकामयादिवशदानाका शविणामदिनदाइभ किसाकरलगीकारवाहिकमाकर्मलगावक्षनाकरादयकवाकमाकमलगामध्ययावाश्यपणनलबहाकरालापाकाध्यमाझियाड
जिनसागरसूरिकृत बालावबोधनी हस्तप्रतनुं अंतिम पत्र [त्रीजी पंक्तिमा पुष्पिका समाप्त थाय छे.]
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गावा जाएगातादिवपदपामवाअनंतखलहगाबाशतिननिरंपलंडारीविरवितवष्टियातकस्पविवरणकृति त्यनाथहरखरतरगवायवावाकनश्रीमरुभुदारणाबावामयबालावाबाधारव्यमभरवत्तसारातालिरिवर्तनिक एयायावाध्यसाहाछाहतावाश्यवविहिर्तकत्रविबुध्याधीनरूपणापायधकृतबाऊल्पान्नादापातमाकम चायतच्यात्नासघस्याः ॥ एषणा गंधसंख्याश्लोकशतक्ष्यणाबाजानीजन
19739
श्रीलडीला पाउन
मा-रप६०
Prama
दाचाय जैन
भानना
श्रीसंघनो जैन मानभंडार
मेरुसुन्दरकृत बालावबोधनी हस्तप्रतनुं अंतिम पत्र
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नेमिचन्द्र भंडारी-विरचित पष्टिशतक प्रकरण
त्रण बालावबोध सहित
[सो.] सिरिवद्धमाणजिणवरपाए निअगुरुपए य नमिऊण ।
सहिसयस्स य एवं वक्खाणं किंपि जंपेमि ॥१॥ नात्रोक्तिमेलो न विभक्तियुक्तिः क्रियादियोगोऽपि च नो विलोक्यः । भावार्थसारैर्विधीयतैषा वृत्तिर्मया मुग्धविबोधनार्थम् ॥२॥
नेमिचन्द्र भंडारी पहिलङ तिस्यउ' धर्म न जाणतउ । 5 पछइ श्रीजिनवल्लभसूरिना गुण सांभली अनइ तेहना कीधा पिंडविशुद्धिप्रमुख ग्रंथनई परिचई साचउ धर्म जाणिउ । तउ तीणं श्रीधर्म सघलाइना मूल भणी श्रीसम्यक्त्वनी शुद्धि अनइ तेहनी दृढतानइ काजि १६० गाथा कीधी । सारभूत तिहां पहिलं सर्व धर्ममाहि सारतत्त्वभूत च्यारि बोल पहिली गाहई कहि छइ ॥ 10 [जि.] श्रीगुणवितः फलिनः सुरद्रुसदृशोऽभितो महात्मानः ।
विजया भूवृषभाद्या अपि ददतां मंगलं नित्यम् ॥ १॥* श्रीनेमिचन्द्रविरचितचंचद्वैराग्यरङ्गकस्यैषा । श्रीजिनसागरप्रभुणा बालावबोधाख्या ॥२॥ षष्टिशताख्यप्रकरणव्याख्या प्रस्तूयतेऽत्र नव्येयम् । 15
भव्यजनबोधहेतोर्वार्त्तारूपा विशुद्धा च ॥३॥ १ तिस्यउं. २ संभाली. ३ तीणइ. ४ गाहइ. ५ कइ. * आ तथा आ पछीनो श्लोक मूल प्रतमां आम अशुद्ध ज प्राप्त थाय छे.
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षष्टिशतक प्रकरण
तथा हि । श्रीखरतरगच्छ श्रीजिनेश्वरसूरिनइ पिताई श्रीनेमिचन्द्र भंडारी श्रावकि विधिपक्षस्थापक ए साठिसउ ग्रन्थ कीउ । तिहां धुरि सर्व विघ्नोपशान्त्यर्थ इष्टदेवतानमस्काररूप नामग्रहणपूर्वक सम्यक्त्वस्थापक ग्रन्थकार प्रथम गाथा कहइ छइ ॥
5
[.] सयलसुरासुरनमियं पासजिणं पणमिऊण भावेणं । बालाण बोहणत्थं पयडं विवरेमि सहिसणं ॥ १ ॥
इहां श्रीखरतरगच्छ निरुपमगुणनिधान श्रीजिनवल्लभसूरिनइ पाटि श्रीजिनदत्तसूरि । तेहनइ पाटि श्रीजिनचन्द्रसूरि । तत्पट्टालंकार श्रीजिनपत्तिसूरि श्रीपन्तननगरमाहि विजयवंत वर्त्त । 1. इस प्रस्तावि मरुदेशमंडन मरोटि नगरि श्रीनेमिचन्द्र भंडारी भार्या लषमिणि पुत्र आंबड सहित सुखिई बसई । अन्यदा प्रस्तावि गाथा १ नेमिचन्द्र भंडारीह व्याख्यान माहि सांभलि । ति किसी ।
1
अक्खंडिय चारित्तो वयगहणाउ जो भवे निच्चं ।
तस्स सगासे दंसण वयगहणं सोहि गहणं च ॥ १ ॥
15
ए गाथा सांभलीनह आलोअगनी इच्छाई बार वरस सीस-सुगुरुनी परीक्षा जोअतर २ पतन नगरि आव्यउ । सगली पोसालं द्रव्य क्षेत्र काल भावना मेलि सुगुरु अणलहतर मनमाहि चिन्ता धरत हाट एकनइ थडइ बइठउ छइ । इस प्रस्तावि श्रावक पांच-सात श्रीजिनपप्तिसूरिना गुण वर्णवता सांभली पूछ्या । तुम्हे केहना गुण कहउ 20छउ ! तेहे श्रीजिनपत्तिसूरिना गुण कया । पछद तींह श्रावकां - संघाति पोसालई आवी गुरुनी देसना सांभली । गुरुनां लक्षण ईर्यासमिति प्रमुख जोअतउ रात्रि पोसालनइ षूणइ सूतउ २ चींतवइ । एतां दिवसमाहि प्रमादनउं कारणु न दीठउं । रात्रिं तउ पउंजता जइणाई हीडई छई । सिध्याइं ध्यान करई छई । पणि वार २ महातमा ढूंढीमाहि
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त्रण बालावबोध सहित
जाइं। तिहां कांइ कारण संभावीइ । पछइ पाछिली रात्रिनी पोरसिइंतेहमाहि पइसी राष वेलू तेल देषी। थोडी थोडी वस्तु गांठिं बांधी सूतउ । प्रभाति पोसाल बाहिरि जई जउ जोअइ तउ वेलू राष तेल दीठा । विस्मय ऊपनइ भोलउ चेलउ पूछिउ । ए सिइ काजि आवइ ? चेलइ सर्व वात कही । वेलू वर्तिनानइ काजि । रक्षा जीवजइणानइ काजि । 5 तेल लेपनइ काजि । इम संदेह भागउ । पच्छइ प्रगट हुई सिद्धांततत्त्व सांभली श्रीसम्यक्त्वमूल बार व्रत पडिवजी मराठि पाछउ आवी जान करी आंबड पुत्रनइं साथिं लेई गुरु समीपि आवी महामहोत्सवपूर्वक पुत्रनई दीक्षादि वरावी । ते ऋमिई २ भणतां गुणतां चारित्र पालतां श्रीजिनेश्वरसूरि हूया । पछइ नेमिचन्द्र भंडारीइं श्रीजिन-10 पत्ति सूरिनी रीति देषी । श्रीजिनवल्लभमरिना कीधा पिंडविशुद्धिप्रमुख ग्रन्थ सांभली ते गुरुनां वचन सर्व सिद्धान्तनइं मिलतां जाणी आस्था ऊपनी । सम्यक्त्वनी दृढतानइ काजि परोपकार भणी साठिसउ गाथारूप ग्रन्थु कीधउ । हिव ते गाथा लोकनइं समझाविवा भणी श्रीजिनचन्द्र सूरिनइ आदेसि वणारीसि मेरुसुन्दरि गणिइं वार्ता बालावबोध संक्षेपिं कीजइ । तिहां धुरि च्यारि बोल सारभूत कहीइं॥
জাবি শ্রী সুস্থ স্তম্ভ স্ব স্ব লক্ষ্য। धन्नाण कयस्थाणं निरंतर बसाइ हिययस्मि ॥१॥
[सो.] एक श्रीअरिहंत वीतरागदेव' बीजा सुगुरु शुद्ध२० चारित्रिया शुद्धमार्गप्ररूपक गुरु बीजउ शुद्ध धर्म जीवदयामूल कर्मक्षयहेतु धर्म चउथउ पंचपरमेष्ठिनमस्कार सर्व सिद्धांतमाहि सार सर्वपापक्षयंकर महामंत्र नउकार । ए च्यारि बोल सर्व जगत् अनइ सर्व धर्ममाहि सार कुणह एक धन्य उत्तम भव्य अनइ कृतार्थ भाग्यवंत
१ देवा. २ गरु. ३ जग.
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षष्टिशतक प्रकरण
आसन्नसिद्धि कइजिनइ हियइ निरंतर सदैव वसइ । अभागीआ अभव्य दूरभव्य जीव ए एकइ बोल न प्रामइं ॥१॥
[जि.] समस्त धर्ममाहे मूलिगउ सम्यक्त्व धर्म तिणि कारणि सम्यक्त्व जाणावइ । अरिहंत देव ते किसु । राग द्वेष मोह मद मत्सर 5 अहंकार प्रमुख दोष जेह माहे न हुई। अंतरंग वइरी जिणि जीता हण्या ते अरहंत कहीइ । अनइ सुगुरु सुसाधु गुरु जे नीराग निःस्पृह क्षमावंत शान्त दान्त जितिंद्रिय निःकाम तपि करी दुर्बल । सम तृण मणि लोष्टु कांचन । सम शत्रु मित्र । साचउ धर्माक्षरनउ कहणहार । चातुर्गतिक संसार हूंतउ अहर्निश संजम चारित्र अभिग्रह पालइ । ते 1०सुगुरु कहीइ । तथा चोक्तं ।
अक्खरु अक्खड़ कंपि न ईहइ। चउग्गइ भवसंसारह बीहइ । संजम नियमह खणि नवि चूकइ । ए साधम्मिय सुहगुरु वुच्चइ ॥१॥ सुद्धं धम्मं । जीवदयामूल धर्म । तथा चोक्तं ।
___ दुःखं पापात् सुखं धर्मात् सर्वदर्शनसंमतम् । 15 न कर्त्तव्यमतः पापं कर्त्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः ॥२॥ ए त्रिहुं मिली सम्यक्त्व कहीइ। अनइ वली नउकारहूई मोटाइ देखालिवा भणी पंच नवकारो पंचपरमेष्टिनमस्कार चऊद पूर्वनउं सार कहीइ । ए च्यारइ अरहंत सुसाधु गुरु जिनप्रणीत धर्मरूप सम्यक्त्व अनइ नउकार। कयत्थाणं कृतार्थ कृतकृत्य धन्नाणं २०धन्य भाग्यवंत पुरुषने हिय वसइ । निरंतर सदैव ॥१॥
[मे.] अरिहंत देव सुसाधु गुरु अनइ सूधउं वीतरागनउं भाषिउं धर्म पंचपरमेष्टि नवकार ए च्यारि बोल धन्य भाग्यवंत कृतार्थ कीधा अर्थ संसार संबंधीया जेहे तीहनइ हीइ सदाइ वसइ । पणि बहुल संसारी जीवनइ हीइ कांई वसइ नहीं ॥१॥
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त्रण बालावबोध सहित
[सो.] हिव जे जीव घणु धर्म करी न सकइं तेहहूइ तत्त्व कहीइ छ।।
[जि.] सम्यक्त्वहूइं सुखाराध्यपणउं कहइ ।
[मे.] हिव आत्मानई सीष कहइ । जइ न कुणसि तवचरणं न पढसि न गुणेसि देसि नो दाणं। 5 ता इत्तियं न सकसि जं देवो इक अरिहंतो ॥२॥
[सो.] रे जीव ! जिम आगइ वरसी छमासी मासक्षपण आचाम्लादिक तप करता । केई हवडाइं करइं छइं । ते तउं करी न सकइं तउ म करेसि । जिम एकि अनेक आंग पूर्व प्रमुख सिद्धांत पठता गुणता हिवडाइं पढइ छइ । ते जउ पढी न सकों तउio म पढेसि । जिम आगइ चउद पूर्व प्रमुख अग्यार आंग बिहु घडीमाहि पाधरां उपराठां गुणता हवडाइं अनेकि कोडि लाख आखा गणइं छई। तिम जउ गुणी न सकअं तउ म गुणेसि । जिम आगइ सांवत्सरिक दान साढवार कोडि सुवर्णादिकनां दान देता हवडाई शक्तिमानिई दिइं छइं तिम जउ दान देई न सकअं तउ म देसि ।।5 ता इत्तियं० पुण तउं एतलडं करी न सकइं? । जं देवो० जं देव एक अरिहंत वीतराग इति बीजउ नहीं" ॥२॥
[जि.] अहो पुरुष ! जइ तवचरणं तपश्चरण न करई । नवउ कांई भणइ नही । आगिलउं भणिउं गुणइ नही । दानई न दिइं। एतलां तपश्चरण भणिवउं गुणिवउं दान देवउं दुःसाध्य छइ । ता तउ20
१ कही. २ मे. इकु. ३ जि. अरहंतो. ४ सकइं. ५ आंगु. ६ तेम. ७ संवच्छरिक. ८ हेवडाइं. ९ सकअं. १० वीतरागइ जि. ११ बीजी प्रतमां आटलं वधारे छे-जउ एतलउ देवत्त्वइनउ मनि निश्चउ आणअं तउ ताहरउं काज सरइ । ए सम्यक्त्वनउं मूल बीज इसिउ भाव ।
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· षष्टिशतक प्रकरण
इत्तियं एतलउं न सक्कई जउ माहरउ एकु जि अरहंत देव । बीजउ नही। इणि कारणि सम्यक्त्व पालतां सुहेलउं ॥२॥
[मे.] अहो जीव ! जउ तउं वरसी छमासी प्रमुख तपु करी न सकइं । कालनइ अनुसारि सूधउं चारित्र पाली न सकइं । सिद्धांत5 प्रकरणप्रमुख पाठ जउ पढी न सकइं। जइ तउं आगम गुणी न सकइं । दान सुपात्र विषइ देइ न सकई । तउ तउं एतूंअइ करी न सकइ जि देवु तउ एक अरिहंतइ जि । बीजा हरिहरादिक नहीं ॥२॥
[सो.] को कहिसिइ इहलोकनां सुखनइ काजि बीजा देव आराधीइं छइं । तेह आश्री कहइ छ । 10 [जि.] इसुं कही जिनधर्मना करणहारहूई गुण कहइ छइ ।
[मे.] कांइ ते कहइ। रे जीव ! भवदुहाई इकं चिअ हरइ जिणमयं धम्मं । इयराणं पणनंतो सुहकले मूढ ! मुसिओ स्थित ॥३॥
[लो.] रे जीव ! जिन वीतरागनउ धर्म एकलउ जि एकाग्रI5मनि आराधीतउ हुंतउ भवसंसारनां दुःख फेडइ। सर्व सुख करई निश्चइं । इयराणं इहलोकनां सुखनइं काजिइं इतर देव रागद्वेषाद्याक्रान्त क्षेत्रपाल वाराही प्रमुखहूई नमतउ अनेक उपायनां मानतउ रे मृढ ! मूर्ख ! मुसीअं छ। तेहे कर्म ऊपहरउं कांई कराइ नहीं। मुहियां धर्म चूक छअं ॥३॥ 20 [जि.] रे जीव ! एकु जि जिनमत जिनभाषित धर्म भवदुहाई संसारनां दुःख हरइ स्फेडइ ! तिणि कारणि हे मूढ ! .
१ रागद्वेषाद्याक्रान्ता. २ अनेक नउयाना. ३ छअं मुहिआं. ४ चूकउं.
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त्रण बालावबोध सहित
मूर्ष ! अनेरा देवहूई प्रणमतउ हूंतउ मुसिउ छई। सम्यक्त्वरूपिउ धन तेहना हारवइतउ ॥३॥
[मे.] रे जीव ! एकल अ जि जिनमत जिनभाषित धर्म आराधतां हूंतां भव संसारना दुक्खनइं फेडइ। अनइ इतर हरिहरादिकनई प्रणमतां थोडा सुखनइ काजि मूढ ! मूर्ख ! मुसाणउ छइ । 5 धर्म हूंतउ चूकइ छइ ॥ ३॥
[जि.] जिनधर्मनउ प्रभाव कही सम्यक्त्ववंतहूई मोक्षपदप्राप्ति बोलइ छइ । देवेहिं दाणवेहिं य सुओ न मरणाओ रक्खिओ कोइ। दढकयजिणसंमत्ता बहुअ बि अयरामरं पत्ता ॥४॥ 10
[लो.] देव-दानवे जाष शेष क्षेत्रपाल आसपाल गोगा विणायग चामुंडादिके को मरणतउ राखिउ किहांई न सांभलिउ । तेहे को मरणतउ न रखाई। निकाचित कर्म कुणइं टाली न सकीइं। जउ एहे को मरणतउ राखिउ हुइ तउ को किहांई जीवतउ देखीइ । पुण नथी । घणाइ देवदेवता आराधी जमारउ सघलउ मिथ्यात्वनां सई 15 करीनइ मूआइ जि । आघाई घणा संसारना जन्ममरण जि. उपार्जियां । दृढकय दृढ वीतरागनउं सम्यक्त्व पालीनइ बहु० घणाइ अनंता जीव अजरामरपणइ पहुता। मोक्ष पाम्या । जन्मजरामरणरहित हूया ॥४॥
[जि.] देवे दानवे पुण कोई लोक मरण हूंतउ राखिउ सांभलिउ ?20 अपि तु कोई न सांभलिउ । कोई अमर हूतउ सांभलिउ ? दृष्टीकृत - १ वीजी प्रतोमां नथी. २ रक्खइं. ३ सकाई: ४ मरतउ. ५ कोहि. ६ सइं. ७ अनंता. ज. ८ प्राम्या. ९ मरणा. . . . . . . . .
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षष्टिशतक प्रकरण
जिनसम्यक्त्व हुई ते घणाई अजरामरपद पाम्या । एतलइ सम्यकत्वधारक सघलाई अमर हुइं ॥४॥
[मे.] देव दानव गोत्रज क्षेत्रपालप्रमुखे किहांई सांभलिउ जे मरणतउ कोई राषिउ ? अपि तु को राषिउ नहीं। पणि दृढ कीधउं 5 जिन ऊपरि सूधउं मन, सम्यक्त्व खरउं जे जीवे पालिउं ते जीव घणा
अजरामरपदि मोक्षपदि पहुता ॥ ४॥
[जि.] हिव सम्यकत्वनउं प्रमाण कही मिथ्यात्वनउं प्रमाण कहइ छ।। जह कुवि वेसारत्तो मुसिजमाणो वि मन्नए हरिसं। तह मिच्छवेसमुसिया गयं पि न मुणंति धम्मनिहिं ॥५॥
[सो.] जिम कोएक मूर्ख वेश्या अधम निस्नेह स्त्री तेहनइ व्यसनि वाहिउ तेहहूइं आपणी लक्ष्मी पूरतउ पोतउ' हारतउइ मुसितउइ तुच्छ सुखनइं लोभिई हर्ष मानइं तिम ए अजाणी' जीव कूडउ धर्म मिथ्यात्व तेह वेश्या तुच्छ मोहनइं कीधइं इहलोकना 15चमत्कारमात्रना वाहिया हुंता धर्मरूपिउं निधान गिउंइ जाणइ नहीं । मूर्ख इसिउं न जाणइ ईणइ मिथ्यात्व करी अम्हारउ सघलउ धर्म जाइ छइ। परलोकि अम्हे दुःखिया थासि ॥५॥
[जि.] जिम कोई वेश्यासक्त पुरुष वेश्याइं मुसीतई हूंतउ हर्ष मानइ तिम मिथ्यात्वरूप वेश्याइं मुस्या हूंता धर्मरूपिउं निधान २०गमिउंई न जाणइं ॥५॥ __ [मे.] जिम कोई वेश्यानइ विषइ अनुरक्त रातउ थोडास्या
१ पोतउंईं. २ अजाण. ३ तेहरूपिणी. ४ मिथ्यात्त्वि. ५ थासिअं.
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अण. बालावबोध सहित
विषयनइ काजि धनादिक मुसीतउ हर्ष मानइ तिम मिथ्यात्वरूपिणी वेश्याइं मुसीतउ जीव धर्मरूपीउं निधान गयउं न जाणइ ॥५॥
[सो.] को इसिउं कहिसइ । आपणइ वडांनइं कुलाचारि चालीइ। एतलउ धर्म । बीजउ विचार कांई न कीजइ। तेह : आश्री कहइ छइ ।
[जि.] कुलक्रमागत भावइ तिसु धर्म न करिवउं । ए वात प्रकासइ छ।। लोअपवाहे सकुलकमस्मि जइ होइ मूढ धम्मु त्ति । ता मिच्छाण वि धम्मो थक्का य अहम्मपरिवाडी ॥६॥
[सो.] रे मूढ ! जउ लोकनइ प्रवाहि आपणइ २ कुलाचारि० चालतां धर्म हुइ तउ कुणएक धर्मवंत नहीं ? सघलाइ खाटकी, माछी, वेश्या, घांची, मोची, ठठार प्रमुख सहू आपणइ २ कुलाचारि चालई छई। आगिला वडा पूर्वज जे काम करता ते पाछिला' करई छई । ता मिच्छाण वि धम्मो० तउ जे पापी हिंसाना करणहार कुमार्गना चालणहार म्लेच्छ तेहहूई धर्म हूउ। तेहइ धर्मवंत हुआ। थका०15 अधर्म पापनी परिपाटी परंपरानी वातइ नाठी । अधर्म किहांइं छइ नही । सहू धर्मवंतइ जि हूउं। एतलइ इसिउ भाव । कुलाचार जूउ । धर्मनउ मार्ग जूउ। कुलाचार किहनउ केतलउ पुण्यमय हुइ। किहनउ पापमय हुइ। पुण्य धर्मनउ आचार जिहां जीवदया सत्यवचन ब्रह्मचर्यादिक गुण तिहां जि छइ । अनेथि नथी । केती वारइं पूर्वज दालिद्री३० हुसिई तउ संतानीइ किसिउं लक्ष्मी आवती न लेवी ? अथवा को पूर्वज कूअइ पडी मूउ हुसइ तउ संतानीअई किसिउं कूअइ पडी . १ कहिसिइ. २ एतलई. ३ ते. ४ जि. धम्म त्ति... पाछिलाई. ६ हुइ.
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षष्टिशतक प्रकरण
मरिवउं ? एह भणी कुलाचारनउ कांइ नहीं । सूधउ धर्म जि जाण हूंतइ लेबउ ॥ ६ ॥
[जि.] लोकनइ प्रवाहिकरी आपणइ कुलऋमि हे मूढ ! धर्म इसिउं जइ हुइ तर पछइ मिच्छाण वि म्लेच्छनउ धर्म | अहम्म" परिवाडी अधर्मनी परिपाटी श्रेणि थाकी रही ॥ ६ ॥
[मे. ] रे मूर्ख ! लोकप्रवाहि आपणा २ कुलनइ आचारि चालतां जउ धर्म्म हुइ तउ म्लेच्छ खाटकी वेश्या ते सहू आपणइ २ कुलाचारि चालइ छइ । तउ तेहनइ धर्म होसि । एतइ अधर्मनी परंपरा नाठी । अधर्म्म किहांइं नथी । सहू धर्म्मवंतइ जि हूउं ॥ ६ ॥
ર.
[जि.] दृष्टान्तनइ बलि करी धर्म्महई मोटाई देखाइ । लोयम्मि रायनीईनायं न कुलक्कमम्मि कइया वि । किं पुणतिलोअपहुणो जिणंद धम्माहिगारम्मि ॥ ७ ॥ [सो.] लोकइ माहि राजनीतिनउ न्याय कुलक्रम माहि नावई । राजनीतिनउ मार्ग जूउ । कुलाचार जूउ । तउ पाधरी राजनीति माहि 15 कुलाचार न जोइ । तिहां राजाज्ञाइ जि जोवी । किं पुण० त्रैलोक्य' त्रिभुवनना प्रभु ठाकुरु श्रीजिनेन्द्र वीतरागना धर्मन अधिकारि कुलाचार न जोइ । तिहां सर्वथा जोवा न आवहं । तिहां खरी वीतरागनी आज्ञाइ जि लेईनइ धर्म करिव । इसिउ भाव ॥ ७ ॥
3
10
[ जि . ] लोकइ माहि राजनीति मोटी । नायं ज्ञातं दृष्टान्त । 20 कुलक्रमिकइया विकिवारई नीति न्यायमार्ग प्रमाण नहीं । एलइ राजनीति जिम प्रमाण तिम जिनधर्म जि प्रमाण । जइ लोक माहे इसु छइ त त्रैलोक्यन स्वामी श्रीजिनेन्द्र तेहनउ धर्मन अधिकारि
.१ जिनिंद . २ मे. 'धम्माहियारम्मि ३ तउ त्रैलोक्य ४ ठाकुर. ५ किम.
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त्रण बालावबोध सहित किसुं कहिवउं ? जिम राजा ति आगलि सामान्य लोकनउ न्यायमार्ग प्रमाण नहीं तिम जिनधर्म आगलि कुलक्रमागत अनेरा धर्म प्रमाण नहीं ॥७॥
[मे.] लोकमाहि राजनीतिनउ न्याय कुलक्रम माहि कहीइ नावइ । काई बेवइ मार्ग जूआ । तउ पछइ त्रैलोक्यनउ प्रभु ठाकुरु जिनेन्द्र 5 तेहना धर्मनइ अधिकारि कहिवउं किसउं ? ॥७॥
[सो.] जीवहूइ संसार ऊपरि वैराग्य आवता दुहिलउ छइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] वली जिनधर्मनी मोटाई प्रकासइ । जिणवयणवियन्नूण वि जीवाणं जं न होइ भवविरई। 10 ता कह अवियन्नूणं मिच्छत्तयाण पासम्मि ॥८॥
[सो.] जे श्रीजिनवचन सिद्धांत तेहना विज्ञ जाण छई तेहइ जीवहूई जउ संसारनी विरति वैराग्य नावइं । ता कह० तउ अविज्ञ अजाण जे मिथ्यात्विइं करी हणिया वाहिया छइं ते कन्हलि संसारनी विरति निवृत्ति किम आवइ ? जाणहूई मिथ्यात्वादिका पापनी निवृत्ति नथी आवती तउ अजाण मिथ्यात्वीहूइं किम आवई ? विरतिनउं आविवउं गाढउं दुहिलउं छइ । इसिउ भाव ॥ ८॥
[जि.] जिनवचन तणा जाणहार जीवईहूइं जइ भवविरति संसार हूंतउं विरमण न हुई। अवियन्नूणं अजाणता अज्ञान अनइ [ मिथ्या ]त्वहत मिथ्यात्वव्याप्या जीव तेहनइ पासि कन्हई किमु२० संसारनउ मेल्हिवउं हुइ ? अपि तु न हुई। एतलई जिनधर्म लगी
१ तेइ. २ मिथ्यात्वि. ३ ' वाहिया' नथी.
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- षष्टिशतक प्रकरणे
जीवहूई वैराग्य ऊपजइ । मिथ्यात्व लगी सांमुहउ जीव संसार वधारइ ॥ ८॥
[मे.] जे जिनवचननउ जाण मनुष्य तेहनइ जि भव संसार तेहनी विरति नथी आवती तउ कहउ न, अजाणनई किम विरति 3 आवइ ? जे मिथ्यात्विं करी हत हण्या जे जीव छइं तेहनइं पासइ रहइ तेहनइं विरति आवतां गाढी दोहिली छइ । इसउ भाव ॥ ८॥
[जि.] जिनधर्म साचउ इसुं जाणी सम्यग्दृष्टिहूई मिथ्यात्वी देखी जकाई मनमाहि ऊपजइ तकाई कहइ छइ ।
विरयाणं अविरए जीवे दळूण होइ मणतायो । 10 हा हा कह भवकूवे बुडता पिच्छ नचंति ॥९॥
[सो.] जे विरत पापतउ निवा' जीव छइं तेहहूई अविरत पाप करता देखी मनमाहि संताप थाइ । हा हा० अहा ! ए अविरत जीव संसाररूपिआ कूआ माहि बूडता देखि किम नावइ ? ए बापडा पाप करी नवनवी गतिइं नवनवे प्रकारि रुलिस्यइ, किम 15थासिइं इम खेद प्रामइं ॥ ९ ॥
[जि.] विरत सम्यग्दृष्टि जीवहूई अविरत मिथ्यात्वी जीव दळूण देखी करी मणतावो मनि संताप हुइ । किसु संताप ए । हा हा खेदे ! रे जीव ! पिच्छ। जोइ संसाररूपीउ कूउ तेह माहे बूडता बापडा किमु नाचई छई ? एतलइ सम्यक्त्वी इसुं जाणइ । जउ ५०संसारमाहे कोई जीव बूडइ नहीं तउ भलउं । तिणि कारणि संसारमाहे बूडता जीव देखी मनि संताप करइं । इसु भाव ॥९॥
१ जि. भवकूपे. २ निवृत्त्या. ३ अविरत जीव. ४ मनमाहि चित्तमाहि.
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त्रण बालायबोध सहित
[मे.] जे विरत पाप हूंता निवर्त्या छइं जीव तेही अविरतनउं स्वरूप देषी मनमाहि किम परिताप नाणइं ? काई होइस्यइ ? खेदि । अविरत जीव संसाररूपीआ कूआमाहि बूडता, देषउ, किम नाचई छइं ॥९॥
[सो.] केती वारइं बीजा आरंभ न मूकारई तउ मिथ्यात्व 5 कांई छांड नहीं ? जेह भणी मिथ्यात्वनउ मोटउ अवगुण छइ ते कहइ छ।।
[जि.] आरंभ लगी जीव दुःखी हुइ इसुं जाणवइ छइ । .
[मे.] किवारइं बीजा आरंभ न मूकई तउ मिथ्यात्व काई न छांडइं?
- 10 आरंभजम्मि पावे जीवा पावंति तिक्खदुक्खाई। जं पुण मिच्छत्तलवं तेणं न लहंति जिणबोहिं ॥१०॥
[सो.] वाहण प्रवहण क्षेत्रकरसणादिक आरंभनां जे पाप छई तेह लगइ जीव आवते भवांतरि तीक्ष्ण गाढां दुक्ख प्रामइ । पुण धर्मनउ अणलहिवउं न हुई। जं पुण. पुण जं जिनधर्म ऊपरि द्वेष:5 करतउ मिथ्यात्वनउ लवलेशइ करइ तीणइ आवतइं भवि जिनधर्मइ जि न लहइं। बोधिबीजइ जि दुःप्राप थाइ । तीणइ घणउ काइ संसारि रुलई ॥१०॥
[जि.] आरंभ षड्विधजीवनिकायविनाशनरूपि पापि कीजतइ. हूंतइ जीव अज्ञानी तिक्खदुक्खाई तीक्ष्ण नरकादिकनां दुःख० प्रामइं। जे वली जीवहूई मिथ्यात्वनउ लवलेश छइ तिणि मिथ्यात्वनइ लेशि करी जीव जिनबोधि वीतरागनउं सम्यक्त्व न लहई । एतलइ
१ मूकाई. २ छाडउं. ३ मे. मिच्छित्त. .
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पष्टिशतक प्रकरण
जिनधर्मि गाढउ करी आरंभ वर्जिउ छइ । जइ ते आरंभ करइ तउ दुःख लहइ । जिणि कारणि जीव मिथ्यात्व करइ तिणि कारणि जीव सम्यक्त्व न लहइ। जिहां आरंभ तिहां सुख नहीं अनइ जिहां मिथ्यात्व तिहां सम्यक्त्व नहीं । वली धर्म कीजइ तउ अरहंत देवई5 नउ । अनेरउ धर्म न करिवउ । यत उक्तं
श्रोतव्यः सौगतो धर्मः कर्तव्यः पुनरार्हतः । . वैदिको व्यवहर्तव्यो ध्यातव्यः परमः शिवः ॥ १० ॥
[मे.] आरंभ क्षेत्रकरसणादिकइंतउ ऊपनउं जे पाप तेहतर जीव तीव्र दुक्ख पामई । पणि तिहां धर्मनउं अणलहिवउं न हुई । Ioपणि वली जे मिथ्यात्वनउ लवलेशमात्र करइं तेह लगी आवतइ भवि जिनबोधि जिनधर्म न लहई ॥१०॥
[सो.] हिव जे गाढा तप नियम क्रिया करई छई पुण उत्सूत्र प्ररूपई छई तेह आश्री कहई छई ।
[जि.] सघलाई जीवहूई जिनबोधिनउं अप्राप्तिकारण कहइ 15छइ। - [मे.] हिव जे गाढी क्रिया करइ अनइ उत्सूत्र प्ररूपइ तेह आश्रई कहइ । जिणवरआणाभंगंउम्मग्ग उस्सुत्तलेसदेसणयं ।
आणाभंगे पावं ता जिणमयदुक्करं धम्मं ॥११॥ 20 [सो.] उन्मार्ग व्यवहार सामाचारी विरुद्ध उत्सूत्र
श्रीसिद्धान्तनी - आज्ञा विरुद्ध जे लेशमात्र थोडु उपदेश तेहतउ जिणवर० वीतरागनी आज्ञानु भंग हुइ। यत उक्तं श्रीआवश्यके
१ आ गाथा सो. नी बीजी प्रतमां लखावी रही गयेली छे. २ जि. अमग्ग'. ३ 'उन्मार्ग...सामाचारी विरुद्ध ' ने स्थाने 'जिण.' ४ थोडउ.
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aण बालावबोध सहित
उस्सुत्तमायरंतो' उस्सुत्तं चैव पन्नवेमाणो । एसो अ अहाछंदो इच्छाछंदु त्ति एगट्टा ॥ १ ॥
મ
( उपदेशमाला, गा. २२१ )
5
उम्मम्गदेसणार चरणं नासंति जिणवरिंदाणं । बावन्नदंसणा खलु न हु लब्भा तारिसा दुट्ठे ॥२॥ ( आवश्यक, गा. ११५२ ) इति वचनात् । ' पयमवि असतो सुत्तत्थं मिच्छदिट्टीओ' इति सिद्धान्तवचनाच्च । आणा मंगे० जु' आज्ञाभंग कीधर हूंतई महापाप । घणी क्रिया अनुष्टानकष्टादिक करतउड़ अनाराधिक जि हुइ । ता जिण० तेह भणी श्रीजिनशासननउ धर्म्म आराधतां गाढउ दुक्कर | गाढी क्रिया 10 करतां वीतरागनी आज्ञा पाखइ आराधिंवउ न हुइ काज न सरई । बीजा पाधरा ठाकुराइनी आज्ञा भागीरं महादोष कहीइं । ' आज्ञाभङ्गो नरेन्द्राणामशस्त्रवधमुच्यते ' इति वचनात् । तउ त्रिभुवनस्वामीं वी - रागनी आज्ञानहं भांजिवर दोषन सिउं कहीइ ? ॥ ११ ॥
[जि.] अमार्ग कुमार्ग तेहना कहिवातउ उत्सूत्र सिद्धान्त s विरुद्ध वचन तेहनउ लवमात्र उपदेसतउ श्रीजिनाज्ञानउ भंगालाप हुइ । आज्ञानइ भंगि हूंतइ पावं पाप हुई । ता तउ पच्छइ पापनइ उदइ हूंतइ जीवहूई जनमत जिनभाषित धर्म दु:कर दुःप्राप हुइ ॥ ११ ॥
[मे.] उन्मार्ग सेवतां उत्सूत्र सिद्धान्त विरुद्ध तेहनउ लेशमात्र उपदेश देतां जिनवर वीतरागनी आज्ञानउ भंग हुई । ते आज्ञाभंग 20 लगी महापाप हुइ । तेह पाप लगी जिनधर्म्म गाढउ दुक्कर हुइ ॥ ११ ॥
१- आ गाथा " आवश्यक 'मां जोवामां आवती नथी, पण 'उपदेशमाला 'मां छे. २ 'जु' नथी. ३ अनाराधक.
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. षष्टिशतक प्रकरण
[सो.] वली अह जि वात कहइ छइ ।
[जि.] वली प्रकारान्तरि जिनधर्मनी प्राप्ति दुर्लभ कहइ छइ । . जिणवरआणारहिअं वद्धारंता ति केवि जिणदव्वं ।
बुडंति भवसमुद्दे मूढा मोहेण अन्नाणी ॥१२॥ ३ [सो.] जिणवर० वीतरागनी आज्ञारहित देवद्रव्य वधारतांइ हुंतां मूढ मूर्ख केतलाइ मोहिइ धर्मनइं भ्रमि अज्ञानी अजाण संसारसमुद्र माहि बूडइं । एहनउ इसिउ भाव । देवद्रव्य वधारिवानी बुद्धिइं घणइं लाभिइ पाटकी माछी वागुरीप्रमुख अधर्म रहइं आपइ ।
अथवा शालि दालि घृत पक्वान्नादिक अथवा देवद्रव्य वस्त्रादिक जइ 1०घणइं मूलिई आपणइ घरि वावरइ । अनेराइ श्रावकहूई दिइ । अर्थ महात्मा दर्शनी थिकु देवद्रव्य वधारी प्रासादादिके वेचइ । अथवा रूडीइ धुरहूई ग्रहणा पाषइ व्याजिइ देवद्रव्य आपई । इत्यादिकि अनेकि प्रकारि करी अविधिइं देवद्रव्य वधारतांई संसार
समुद्र माहि बूडई । जे देवद्रव्य विधिइं सुस्थानकि स्थापइं रक्षा करई 15वृद्धि लिइं तेहई महाफल हुई। यत उक्तं दिनकृत्ये.. जे पुणो जिणदव्वं तु वुडिं निंति सुसावया । ताण रिद्धि पवड्डेइ कित्ती सुक्खं बलं तहा ॥१॥
(गा. १३७) जिणपवयणवुद्धिकरं पभावगं नाणदसणगुणाणं । वहृतो जिणदव्वं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥२॥ एवं नाऊण जिणदव्वं बुद्धिं निंति सुसावया ।
जरामरणरोगाणं अंतं काहिंति ते पुणो ॥३॥ (गा. १४४-४५) .. १ जि. वद्धावरित्ता वि देइ जिणदव्वं. २ अधर्मी. ३ आपइ. ४ अर्थ. ५ वृद्धिई. ६ तेहहूइं.
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त्रण बालावबोध सहित
[जि.] जे जीव जिणवरेन्द्रनी आज्ञा पाषइ जिनद्रव्य चैत्यद्रव्य व्याजि देई वधारताई हूंता मूढ मूर्ख भवसमुद्र माहे मोहि करी अज्ञानी अजाण हूंता बूडइं । तिणि कारणि तेहांहूइं जिनधर्म दुर्लभ ॥ १२ ॥ __ . [मे.] जिनवरनी आज्ञारहित देवद्रव्य केई वधारता हूंता मूढ मूर्ख अजाण संसारसमुद्र माहि बूडइं ॥ १२ ॥
[सो.] जे 'महारउ देव ! महारउ गुरु !' इसिं कदाग्रहि वाह्या. छइं।
[जि.] अथ अयोग्यहूई जे धर्मोपदेस दिइ तेह उपदेसता उद्देसी कहइ। . [मे.] सूधा धर्मनां अभिलाषीआ न हुई तेहनइं उपदेसु न देवउ । ते आगिली गाहइं कहइ। कुग्गहगहगहियाणं मूढों जो देइ धम्मउवएसं ।
सो चम्मासीकुकुरवयणम्मि खिवेइ कप्पूरं ॥१३॥ .. . [ सो.] कुग्गह० जे कदाग्रहरूपीउ ग्रह कहीइ भूतप्रेतादिकनउ छल तीणं करी ग्रहिया गहिला कीधा छई तेहहूई मूढो जोड मूढ अजाण जे धर्मनउ उपदेश दिइं, शुद्ध देवगुरुधर्मनां स्वरूप कहइं
सो चम्मासी० ते चांबडाना खाण्हार कूकर भुंडीउ तेहनइ वयणि मूहडइ कपूर घातइं । रूडी वस्तु कुस्थानकि घातइं । सोनानी झाल कादवमाहि लांषइं । एतलइं इस्यउ भाव ॥१३॥ . [जि.] 'ए माहरउ देव ! ए माहरउ गुरु !' इसिउ देव०० कुगुरु ऊपरि कदाग्रह तिणि करी ग्रहीत व्याप्त पुरुषहूई जे पुरुष मुग्ध
१ जि. मुद्धो. २ करी जे. ३ ग्रहिया. ४ आ पछी सो. नी बीजी प्रतमां 'कदाग्रहीहूई उपदेश न देवउ' एटलुं वधारे छे. . . . . . . .
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प्रष्टिशतक प्रकरण
-
भोलड़ सरल स्वभावि हूंतड़ शुद्ध धर्मोपदेश दिइ ते पुरुष चम्मासी चर्मभक्षक कुकुरमइ वदनि मुखि कपूर क्षिपइ पालइ। जिम कुतिरानइ मुहि कपूर घालिउं हूंतउं निःफल थाइ तिम अयोग्यहूई धर्मोपदेस
दीधड़ हूंतउ निःफल । एतावता अयोग्यहूई धर्मोपदेस न देवउ ॥१३॥ 3 [मे.] जे कदाग्रहरूपीउ ग्रह तीणइं करी जे ग्रह्या छल्या छई तेहनइं जे मूढ अजाण धर्मनउ उपदेश दिइं, सूधउं देवगुरुधर्मनउं स्वरूप कहई ते चर्मासी चांबडानउ खाणहार कूतिरउ तेहनइ मुखि कपूर घातई । रूडी वस्त कुथानकि घातई । एतइ कदाग्रहीनई उपदेश न देवा ॥१३॥
० [सो.] सुद्ध प्ररूपकनी रीसइ रूडी। उत्सूत्रभाषकनी क्षमाइ विरुई । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ गुरुनउ कोपई भलड़ । केहीएकनी क्षमाई भली नही । इसुं जणावइ छइ ।
मे.] सूधा कहणहारनी रीसइं रूडी, पणि उत्सूत्रभाषीनी इक्षमाइं पाडूइ । ए वात कहइ ।
रोसो वि खमाकोसो सुत्तं भासंतयस्स धन्नस्स । - उस्सुस्तेण खमा वि य दोसमहामोहआवासो ॥१४॥ - [सो.] रोसो वि० जे धन्य उत्तम सूत्र श्रीसर्वज्ञभाषित सिद्धांत तेह भासंत बोलतां आपणा खरपणई वलि साचउ विचार कस्तां केती वारं रोस ऊपजइ । ते रोसइ क्षमानउ कोश भंडार जाणिवङ । ते रीस रूडी इसिङ भाव । उस्सुत्तेण अनइ उत्सूत्र सिद्धान्त, विरुद्ध जे बोलई तेहनी क्षमाइ दोषइ जि कहीइ, विरूईइ जि
१ खरपणवइं. २ वार. .३, सोसा...
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or बालावबोध सहित
कही, जेह भणी महामोह महाअजाणिवउं तेहनउ आवास स्थानक छइ । चंडरुद्र आचार्य सरीषा सुद्ध प्ररूपकनी रीसह रूडीं । जमालि सरीषा उत्सूत्रप्ररूपकनी क्षमाइ विरूई इसिउ भाव । यत उक्तं गच्छाचारप्रकीर्णके—
जीहाए वि लिहतो न भइओ जत्थ सारणा नत्थि ।
दंडेण वि तातो स भद्दओ सारणा जत्थ ॥ १४ ॥ ( गा. १७ ) [ जि.] सूत्र भाषता उपदेश देता भणावता गुरुनी रोसो वि रोषई धन्नस्स धन्य पुरुषहूई क्षमानउ भंडार हुई । जिम क्षमा भली तिम गुरुनी रीसई परमार्थवृत्ति हितकारिक हूंती भली क्षमारूप जाणिवी । जिम चंडरुद्राचार्यनी रीस नवदीक्षित महात्मा हूई 10 केवल ज्ञान भणी हुइ । उत्सूत्रि करी क्षमाई कीधी हूंती दोष महाअज्ञान तेहनउ आवास स्थानक हुइ ॥ १४ ॥
१९
[ में . ] तेहनउ रोसु क्षमानउ कोसु जाणिवउ, जे सूत्र सिद्धान्त खरडं बोलइ, धन्य भाग्यवंत इंतउ । अनइ उत्सूत्र सिद्धान्त विरुद्ध जे बोलs तेहनी क्षमाइ दोषइ जि हेतु कहींइ, जेह भणी ते उत्सूत्र -15 प्ररूपक महामोह अजाणिवउं तेहनउ आवास स्थानक छइ । चंद्ररुद्राचार्य सरीषा सुद्ध प्ररूपकनी रीसह रूडइ । जमालि सरीषा उत्सूत्रप्ररूपकनी क्षमाइ विरुई ॥ १४ ॥
[सो.] हिव' जिनधर्मनउं दुर्लभपणउं कहई छ ।
[ जि. ] ' मोक्षि सुख छन् कि नथी ?' ए वातनउ निश्चय •
कहइ छइ ।
[मे.] हिव जिनधर्म्मनउं दुर्लभपण कहई ।
१ हेव.
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[ सो.] इक्को वि० एकइ थोडउ लगारइ ए वातनउ संदेह नथी, जं जिनधर्मिईं करी मोक्षसुख छ । जीवदयामूल जिनधर्म 5 आराधतां मोक्षसुख लाभइ जि । ए वातनउ वरांसउ नथीइ जि । तं पुण० ते जिनधर्म दुविणे० जाणतां दोहिलउ । कहिहूइ ? अइउक्क० अतिउत्कट गाढा मोटा पुण्य भाग्यरहित कदाही उन्मार्ग वांकी बुद्धिना धणी जीवहूई । अति गाढा भाग्यवंत जीवहूइं मार्गानु - सारिणी बुद्धिना धणीहूइं जाणतां सोहिलउ जि छइ ॥ १५ ॥
षष्टिशतक प्रकरण
इक्को वि न संदेहो जं जिणधम्मेण अस्थि मुक्खसुहं । तं पुण दुब्विण्णेयं अइउक्कडपुण्णरहियाणं ॥ १५ ॥
10
[ जि. ] जउ जिनधम्मि करी मोक्षनउ सुख छइ । अथ नथी इस संदेह कई नही। किंतु निःसंदेह मोक्षसुख छइ । नैयायिकवैशेषिकादिकने मते मोक्षि सुख नथी । आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्तिर्मोक्ष: । इस्या मोक्षलक्षणना कहिवातउ दुःखानुषंगिपणातउ सुखई दुःख । तेह दुःखस्वरूपनउ उच्छेद अत्यंत अभाव मोक्ष । इस्या सांभलव संदेह । पुंण संदेह न करिवउ । किमु । जउ मोक्षसुख न हुई तउ कोई जाण बांछइ नही । जिम करणंक । तिणि कारणि मोक्ष सहू वांछइ । तर सही मोक्षि सुख छइ । इसिह अनुमानि करी मोक्षसुख छइ । तथागमे प्रोक्तं
न जरा जन्म नो यत्र न मृत्युर्न च बन्धनम् । न देहो नैव च स्नेहो नास्ति कर्मलवोऽपि च ॥ केवलं केवलं यत्र यत्र दर्शनमक्षयम् ।
अक्षयं च सुखं यत्र वीर्यं सम्यक्त्वमक्षयम् ॥
तं पुण० तें पुण मोक्षसुख अतिउत्कृष्ट पुण्यरहित पुरुषे दुविष्णेयं दुर्ज्ञेय जाणतां दुहिउं ॥ १५॥
20
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प्रण बालावबोध सहित
[मे.] एकइ थोडउइ ए वातनउ संदेह नथी जे जिनधर्म आराधतां मोक्षनां सुख छइ जि । पणि ए वात जाणी न सकीइं जे अति उत्कट पुण्यरहित जीव मोक्ष पामिस्यइं ॥१५॥
[सो.] जिनधर्मना दुर्लभपणाइज़िनी वात कहइ छइ। ....
[जि.] मोक्षसुख स्थापी जिनमतई जि जाणीतां दुहिलउं इसुं 5 प्रकटइ छइ ।
[मे.] जिनधर्मना दुर्लभपणानी' वात कहइ । सव्वं पि वियाणिजइ लब्भइ तह चउरिमाइ जणमझे। इक्कं पि भाय दुलहं जिणमयविहिरयणसुविआणं ॥१६॥
[सो.] सव्वं पि० बीजउं सहू जाणतां सोहिलउं । संसारनां० विज्ञान कला गीत नृत्यादिक । तथा वली लोकमाहि चतुरपणउं बोलवइ व्यवसाय वाणिज्यनइ विषइ डाहपण ते सहू सोहिलउँ । इक पि० हे भ्रात ! बांधव ! एकइ जि जगमाहि दुर्लभ जिणमय० श्रीजिनमत श्रीवीतरागना शासननी विधि आचार तेह रूपीआ रत्ननुं सम्यक् जाणिवउं । धर्मनी कुशलाई दुर्लभ । यत उक्तं- 15
धन्नाणं विहिजोगो विहिपक्खाराहगा सया धन्ना ।
विहिबहुमाणी धन्ना विहिपक्खअदूसगा धन्ना ॥ वली श्रीजिनवचन उत्सर्गापवादबहुल छइ। तेह भणी लाभ-छेहन जाणिवउं दोहिलङ । जिम श्रीधर्मनी वृद्धि हुइ तिमइ जि कीधउं जोईइ । यत उक्तं श्रीउपदेशमालायां
20 १ दुर्लभपणाइजिनी. २ कहइ छइ. ३ आ आखी गाथा. सो. नी बीजी प्रतमाथी पडी गई छे. जो के ते उपरनो बालावबोध एमां छे. ४ सोहिलं. ५ छेहानउं.
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पष्टिशतक प्रकरण
तम्हा सव्वाणुना सव्वनिसेहो अ पवयणे नस्थि । आयं वयं तु लिज्जा लाहाकंखि ब्व वाणियओ ॥ (गा. ३९२)
[जि.] सघलउंइ विज्ञान जाणीइ । लोकमाहे तेह तथा च वली चउरिमा चतुरिमा पंडिताई लब्भइ लहीइ। पुण हे भाय ! 5 भ्रात बांधव संबोधने । एकइ जु जिनमत विधिरूपीउं रत्न तेहनउं
सुविज्ञान सम्यग् प्रकारि साचउं जाणिवउं दुहेलउं । भाग्य हुइ तउ जिनधर्म जाणीइ ॥१६॥
[मे.] 'सघलूइ जाणीइ परीछीइ' तिम लोकमाहि चउरिमाई बोलिवउंइ सोहिलउं । पणि हे भाई! एक जि दोहिलउं जे श्रीजिनमत 1०वीतरागना शासननी विधि आचाररूप रत्न तेहनउं साचउं जाणिवउं
॥१६॥ , .
[सो.] सूधा धर्मनउं जाणिवउं परहूं छउ । कहिणहारहूई सांप्रत कालि कहिवुइ दुहिलउं । ए वात कहि छइ।
[जि.] अथ साचउं सम्यक्त्व कहिवउं दृष्टांति करी दुःप्राप 15कहइ छ।। मिच्छत्तबहुलयाए विसुद्धसम्मत्तकहणमवि दुलहं। जह वरनरवइचरिअं पावनरिदस्स उदयम्मि ॥१७॥
[सो.] मिथ्यात्वनी बहुलता घणा जीव प्राहिइं भला भला तेहइ मिथ्यात्वी जि तीणई करी विसुद्ध० खरा सम्यक्त्वना स्वरूपनउ 2०कहिवउइ दुर्लभ । साचा सम्यक्त्वनी बात कही न सकइं। जह वर० जिम वारू, न्यायी धर्मवंत आगिला रायनुं चरित्र पावनरिंद० . पापी अन्यायी अधर्मी रायनइ उदइ वर्ततइ कही न सकीइं। बीहता
१ कहइ. २ °कहणमिव. ३ 'अन्यायी' नथी. ४ उदय.
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त्रण बालावबोध सहित
भणी ते राय अगमता भणी कुपिउ अनर्थ करइ। तिम खरा सम्यक्त्वनु' कहिवूई लोकनउंई अगमतुं थाइं । तेह भणी कहिवूइ दुर्घट। इसिउ भाव ॥ १७॥
[जि.] मिथ्यात्वनी बहुलता प्रचुरता तिणि करी विशुद्ध सम्यक्त्वनउं कथनई कहिवउंइ दोहिलउं। जिम पापी नरेन्द्रनइ 3 उदइ वरनरवरचरियं प्रधान राजेन्द्र श्रीरामादिक तेहy न्यायरूप चरित्र कहिताई दोहिलउं हुइ ॥ १७ ॥
[में.] मिथ्यात्वनी बहुलता लगी भलाइ जीवनइं सूधा सम्यक्त्वनउं कहिवउंइ दोहिलउं। साचा सम्यक्त्वनी वातइ कही न सकीइं । केहनी परिइं। जिम न्याई राजानउं चरित्र पापी राजानइ. उदयि तेहनी ठकुराई कही न सकीइं। कांइ । ते अणगमती वातई कोप धरइ । तिम मिथ्यात्वी आगलि सूधा सम्यक्त्वनउं कहिवउं अरुचि ऊपजावइ ॥१७॥
. [सो.] केती वारइं को गुरुइ उत्सूत्रभाषी हुइ । तउ सिउं करिवं, ते कहइ छ।।
[जि.] अथ विद्यावंतई कूडाबोलउ मेल्हिवउ। इसु दृष्टांति करी स्थापइ छइ । बहुगुणविज्ञानिलओ उसुत्तभासी तहा विमुत्तब्यो। जह वरमणिजुत्तो वि हु विग्घकरो विसहरो लोए ॥१८॥
[सो.] बहु० घणा गुण अनइ विद्यानऊ निलय घर स्थानक गुरु छड् । गाढउ विद्यावंत गाढउ गुणवंतु छइ । पुण उत्सूत्रभाषी __१°ना स्वरूपनउं. २ कहिवउंइ दुर्लभ साचा सम्यक्त्व नौकाहिqइ. ३- लोकनइ. ४ गुणवंत,
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- षष्टिशतक प्रकरण
श्रीसर्वज्ञनउं वचन न मानइ ऊथापइ । तहा विमुत्तव्यो० ते गुरुइ तिम मूकिवउ' छांडिवउ, जिम विषधर साप वरमणि० माथइ वारू विषापहार मणि करी सहित हुइ तेऊ विघ्न मरणकरणहार भणी दूरि
मेल्हीइ तिम ते गुरुइ उत्सूत्रभाषी अनंत संसारनां मरण देन्हार भणी 5 दूरि त्यजवउ परहउ छांडिवउ ॥ १८ ॥
.. [जि.] बहु घणा गुण जिहां छइ इसी विद्या तेहनउ निलय गृह एहवउंइ उत्सूत्रभाषी हूंतउ तहा वि तथापिहिं मूकिवउ । जिम लोकमाहि प्रधान मणिसंजुत्तई हूंतउ हु निश्चइं विघ्नकर मृत्युकारक विषधर मेल्हीइ ॥१८॥ 10. [मे.] बहु घणा गुण विद्या तेहनउ निलय स्थानक गुरु छइ, पणि उत्सूत्र वचननउ भाषणहार बोलणहार तथापि मूंकिवउ । कहिनी परई । जिम वर प्रधान मणि सहितइ साप विघ्नकारक मरणदायक लोकमाहि हुइ तिम उत्सूत्रभाषी गुरु पणि मोक्षनइं विघ्नकारक हुइ ॥१८॥
[सो.] लोक प्राहई सगपण अनइ लक्ष्मीइजिनइं लोभिई 45लीजइ । धर्मनउं प्राहइं कांई न गणइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ मोहनु प्रभाव कहइ छइ । सयणाणं वा मोहे लोआ धिप्पंति अत्थलोहेण ।
नो धिप्पंति सुधम्मे रम्मे हा मोहमाहप्पं ॥१९॥ ... . [ सो.] सयणाणं० लोआ० ए. लोक सगानइ मोहिइं 10अथवा लक्ष्मीनइ लोभिई लीज़इ । तेन्हा देव गुरु मानइं तेह सिउ नात्रा संबंध करई। धर्म कांई न जोअइं। नो धिप्पंति० सुधर्म ख़रउ धर्म जे रूडउ ते न लिइं, तिहां न राचई। हा कहीइ अहो !
१ मूंकवउ. २ त्यजिवउ. ३ 'ए' नथी. ४ नात्रां.
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त्रण बालावबोध सहित
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मोहमाहप्पं० संसारनउ मोह अजाणिवउं तेहनउं ए माहात्म्य महिमा छइ । कुणइ काई' थाई ? ॥ १९॥
[जि.] स्वजन सगा तेहनइ मोहि वा वली अथवा द्रव्यनइ लोभि लोक लीजइ । पण रम्य प्रधान सुधर्म जिनधर्म तिहां नो धिप्पंति न लीजइं । हा खेदे मोहनउं माहात्म्य प्रमाण ॥ १९॥ 5
[मे.] स्वजनादिकनइ अर्थना लोभ लगी लोक संसारनइ व्यापारि घातइं । हाट पाटणि वणिजव्यापार सीपवई । पणि सूधा स्वामीना भाष्या धर्मनइ मार्गि न घातइं । जे धर्म रम्य प्रधान छइ । हा इसइ खेदे । ते मोहनउं माहात्म्य जाणिवउं ॥ १९॥
[सो.] अधर्मी अनइ धर्मी जीव रहइं बेई ज वीसामानां० स्थानक छइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ गृहस्थहूई वीसामानउं स्थानक कहइ। " गिहवावारपरिस्समखिन्नाण नराण वीसमणठाणं । एगाण होइ रमणी अन्नेसि जिणिंदवरवाणी ॥२०॥
[सो.] गिहवावार० दिन सघलउ जे गृहस्थनउ व्यापार-5 व्यवसाय वाणिज्य काजकाम तेहनइं श्रमिइं करी जे पुरुष खिन्न ऊसना छइ, तेहहूई वीसमण वीसामानां स्थानक बेइ जि छइ । एगाण. एक जे अधर्मी संसाराभिलाखी जीव तेहहूइं रमणी स्त्री वीसामानउं स्थानक । तेह आगलि आपणउं काजकाम मंत्र गूझ कही समाधि प्रामई । उक्तं च श्रीउपदेशमालायां-' गुरु गुरुतरो अइगुरुः० पियमाइयअवच्चपियजणसिणेहो०'। अन्नेसिं बीजा विवेकी
१ कांई न थाइ. २ जि. जिणिंदवरधम्मो, मे, जिणंदवरधम्मो. ३ ते इं. ४ संसाराभिलाषी.
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षष्टिशतक प्रकरण
धर्मवंतहूई जिनेन्द्र श्रीवीतरागनी वर प्रधान वाणी' श्रीसिद्धांत धर्ममय वचन तेह जि विश्रामनउं स्थानक हुइ। सिद्धांतना अर्थ विचारतां' जोतां तेहनउं मन महासमाधि लहइ । इसिउ भाव ।।
[जि.] गृहव्यापार घरनउ व्यापार तेहनउ परिश्रम करिवउं 5 तिणि करी खिन्न थाका तेह नर मनुष्यहई वीसामानुं स्थानक हुई। एक
संसारी जीवहूई रमणी स्त्री विश्रामस्थानक हुई। अनेरा कोई भव्य श्रावकहूइं श्रीसर्वज्ञोक्त वरधर्म वीसामास्थानक हुइ ॥२०॥
[मे.] गृहनउ व्यापार व्यवसायादिक तेहनइं श्रमिं जि नर ऊसना छइं, तीह रहइं वीसामानां स्थानक बिह जि । एकनइं रमणी 1०स्त्री वीसामानउं स्थानक । कांइं ते आगलि आपणां काजकाम वात कही समाधि पामइ । ए संसारी जीवनी स्थिति । अनइ अनेरा विवेकी जीवनइ सामायक पडिकमणा जिनपूजा प्रमुख धर्मकार्य तेहइ जि वीसामाना स्थानक हुइ ॥२०॥
[सो.] धर्मवंतनइं अनइ अधर्मवंतनई संसारना काज करतांई 15वडउ विहरउ पडइ छइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अजाण अनइं जाण ते बिहुंनइ पेट भरवानउं फल कहइ।
तुल्ले वि उअरभरणे मूढ-अमूढाण पिच्छसु विवागं ।
एगाण नरय-दुक्खं अन्नसिं सासयं सुक्खं ॥२१॥ 20 [सो.] जे जगमाहि मूढ मूर्ख अविवेक अधर्म अनइ जे अमूढ धर्मवंत विवेकिया ते बिहु रहई उदरनउं भरिवलं, आपणा
१ प्रधान जे. २ श्रीसिद्धांतोक्त. ३ विचार. ४ कहै. ५ बीजी प्रतमां नथी.
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त्रण बालावबोध सहित
कुटुंबनउं' भरणपोषण करिवउं तुल्यइ जि छइ, सरिखउई जि छइ । पुण पिच्छसु० आगलि फलनउ केवडउ वहिरउ'
आंतरउ पडइ छइ । देखि । एगाण. एक जे मूढ पापी खाटकी माछी कुलाल घांची प्रमुख बीजाइ अधर्मी पेटनइ कारणि अनेक जीवहिंसादिक पापकर्त्तव्य कुवाणिज्य कुव्यवसाय करी मरी नरकनउं 5 दुःख प्रामई छई । अन्नेसिं० बीजा जे धर्मवंत तेहनई कांई भूष्या रहिता नथी, पुण रूडा जीवदया सत्य वचन सहित शुद्धा व्यवसाय वाणिज्य करी लक्ष्मी ऊपार्जी उदरभरण कुटुंबनां भरणपोषण करई छई। अनइ धर्मइ आराधई छई । ते आगलि शाश्वत सुख प्रामई छई । अजाण नई जाणहूई एवडउ आंतरउ छइ ॥२१॥
10 [जि.] पेटि भरिवइ सरीषइ जि हूंतइ कर्मविपाक जोउ, मूढ मूर्ष, अमूढ पंडित ज्ञाततत्त्व तेह बिहुं तणउ। एगाण० एक मूढहूई नरकदुःख जोइ । अन्नेसिं० अनेरा अमूढहूई शाश्वत सौख्य जोइ ॥२१॥
[मे.] पेटनउं भरिवउं मूर्ख पंडित बिहुनई सरीषउं । पणि फलनउ विपाक जोउ । किसउ । एक जे स्त्रीपुत्रादिक कन्हइ जइ15 वीसामउ लिई तेहनइं नरकनां दुक्ख । अनेरा जे वीतरागनइ धर्मि वीसामउ लिइं तेहनइं शाश्वतां सुख ॥ २१ ॥
[सो.] सांभलिवाइ थिकु" धर्म लाभइ । ए वात कहइ छइ । बिहुँ गाहे करी।
[जि] अथ जिणि अनुक्रमि सम्यक्त्व हुइ । 20
१ कुडुंबनउ. २ °नउं. ३ तुलिइ. ४ सरिखउंइ. ५ विहरउ. ६ अंतरउ. ७ घाची. ८ तेहइ. ९ उदरभरणपोषण. १० सांभलवाइ. ११ थकउ,
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षष्टिशतक प्रकरण
जिणमयकहापबंधो संवेगकरो जिआण सव्यो कि। संवेगो सम्मत्ते सम्मत्तं सुद्धदेसणया ॥२२॥ ता जिणआणपरेणं धम्मो सोअव्व सुगुरुपासम्मि ।
अह उचिअं सड़ाओ तस्सुवएसस्स कहगाओ ॥२३॥ 5 [सो.] जिणमय० जिनमत श्रीसर्वज्ञना शासननी कथानउ प्रबंध विस्तार सघलउइ' भव्य जीवहूई संवेगकारी वैराग्यहेतु छइ । अनेरे दर्शन एबउ नथी । तिहां राग शृंगारयुद्धादि दोषमय जि छई। तेहे सांभले संवेगो कांई न ऊपजई । संवेगो० ते संवेग वैराग्य
ज्ञानगर्भ साचउं सम्यक्त्व इछतइ हुइ। मिथ्यात्वी रहइं जे वैराग्य ते 1०कलत्रपुत्रादिकना विगोग थकउ ऊपनउ दुःखमोहगर्भ जि हुइ । ते सम्यक्त्व :पुण शुद्ध देशना साचा जिनवचननई सांभलिवइं जि लाभई । ते जिनवचन सुगुरुइ जि कन्हइ लाभइ । ता जिण आण. तेह भणी धर्म गुरु कन्हइ सांभलिवउँ । अथवा उचित योग्य जिम हुतिम सडाओ श्रावक कन्हलि" तस्सुवएसस्स जिननउ 1ऽसिद्धांतनउ जे उपदेश तेहनउ कहणहारु सम्यग् जिनमार्गप्ररूपक
जे सड़ा श्रावक ते कन्हलि सांभलिवउ । मिथ्यात्वी अथवा उत्सूत्रप्ररूपक तेह कन्हलि न सांभलिवउ ॥ २२-२३ ॥
[जि.] जिनमतनउ कथाप्रबंध सघलउई जीवहूई संवेग वैराग्यकारक हुइ । शुद्धी देसनाई करी सम्यक्त्व हुइ। ता० तउ २०जिनाज्ञापरि श्रीवीतरागनी आज्ञाप्रतिपालकि पुरुषिइं सुगुरुपासम्मि
१ सघलुइ. २ रहूइं. ३ दर्शने. ४ ऊपनं. ५ 'जि' नथी. ६ प्रवचनई. ७ सुगुरु. ८ आ पछी बीजी प्रतमां आटलुं वधारे छे–' इसी जे जिननी आज्ञा तेहनइ विषयइ तत्परिपालतइ जाणि सुगुरु सुसाधु पासि धर्म सांभलिबउ.' ९ हुइ. १० तेह श्रावक. ११ 'कन्हलि...सांभलिवउ'ने स्थाने बीजी प्रतमां 'कन्हलि धर्म सांभलिवउ' एटलं ज छे.
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अण बालावबोध सहित
सद्गुरु समीपि धर्म सोअव्व सांभलिवउ । अह अथवा उचिअं उचित योग्य जिम हुइ तिम सडाओ श्रावकसमीप श्रीजिनधर्म सांभलिवउ । किसु छइ श्रावक । तस्व एसस्स कहगाओ तेह जिननउ सिद्धांत तणउ उपदेस तेहनउ कहणहार जिनमार्गप्ररूपक ॥२२-२३॥
5 [मे.] जिनमतनउ कथाप्रबंध सघलउइ भव्य सघलाइ जीवनइं संवेगकारी वैराग्यहेतु हुइ । अनइ संवेग वैराग्य साचइ सम्यक्त्व थकइ हुइ । तेह भणी सम्यक्त्व सूधी देसनाई जि लाभइ । अनइ ते सुद्धदेसना सुगुरइ जि करइ । तेह भणी जिननी आज्ञा तत्पर सावधान जीवि धर्म सुगुरु पासि सांभलिवउ । अथवा उचित योग्य श्रावका कन्हलि सांभलिवउ । पणि ते श्रावक केबउ । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सारी सूद्धा उपदेशनउ कथकु हुइ ॥ २२-२३ ॥
[सो.] कहिवउं नइ सांभलिवउं जिम सफल थाइ तिम कहइ
छइ ।
. [जि.] अथ सुगुरु समीपि अथवा शुद्ध श्रावक कन्हई धर्मा सांभलिइ हूंतइ सांभलणहारहूइं जिसउ गुण हुइ । स कहा सो उवएसो तं नाणं जेण जाणए जीवो। . सम्मत्तमिच्छभावं गुरुअगुरु धम्मलोअठिई ॥२४॥ .
[सो.] ते कथा कही प्रमाण, ते उपदेश सांभलिवउ' प्रमाण, ते जाणिउं प्रमाण, जीणइं करी जीव एतला बोल जाणइ । सम्मत्त०२० आ सम्यक्त्व, आ मिथ्यात्व, आ गुरु, आ कुगुरु, आ धर्मनी स्थिति, आ लोकव्यवहारनी स्थिति कहीइ ए विहरउ जाणइ । जीणइं उपदेशइं
१ सांभलिउ.
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षष्टिशतक प्रकरण
सांभलिई सम्यक्त्व- मिथ्यात्व, गुरु-अगुरु, धर्ममार्ग - लोकमार्गनउ विहरउ न जाणई, तीणइं सांभलिई सिउं छइ ? कांइ न हुइ ॥ २४ ॥
[जि.] ते जिनकथा प्रमाण, ते जिनोपदेश प्रमाण, ते ज्ञान प्रमाण, जेण जिणि वातरं जिणि उपदेसई, जिणि जाणिव करी जीव 5 सम्यक्त्व अनइ मिथ्यात्व जाणइ, गुरु अनइ अगुरु कुगुरु जाणइ, धर्म जाणइ अनइ लोकस्थिति जाइ ॥ २४ ॥
३०
[ मे. ] ते कथा कही प्रमाण, ते उपदेस सांभलिउ प्रमाण, ते ज्ञान प्रमाण जी जाणिव करी सम्यक्त्व - मिथ्यात्व, गुरु अनइ कुगुरु, धर्ममार्ग - लोकमार्गनी स्थिति जाणइ ॥ २४ ॥
[सो. ] केतल' अभागिआंहूइ जिनमत जाण्याइ पूठिइ मिथ्यात्व न जाइ । ए वात दृष्टांति करी कहइ छ ।
IO
[ जि . ] केई एक अधमहूई सुगुरु कन्हई उपदेस सांभलिइ हूंतइ मिथ्यात्व न जाइ । ए वात दृष्टांति करी कहइ छइ । जिणगुणरयणमहानिहि लहूण वि किं न जाइ मिच्छत्तं । अह पत्ते विनिहाणे किवणाण पुणो वि दारिद्दं ॥ २५ ॥
[ सो.] जिण० वीतरागना जे गुण, परमेश्वरनउ धर्म तेहरूपीउं रत्नभरिउं निधान लही इनइ किसिउं केतला अभागी जीव रहई मिथ्यात्वनउ मननउ परिणाम जातउ न देषीइ ? ते कांई न जाई ? ते अभाग्यजिनउं कारण । तेह ऊपरि दृष्टांत कहइ छइ । अह पत्ते ० 20 अथवा अभागीइं कृपणि निधान लाधउं हुइ, पुण वेची वावरी न सकई, तेह भणी वली दारिद्री जि कही । तिम सम्यक्त्व लहीइनइ धर्म
१ केतलाइ २ हुई. ३ जाइइ. ४ जि. मे. किविणाण. ५ लहीनइ. ६ मनतणउ.
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त्रण बालावबोध सहित
नाराधइ, मिथ्यात्व जि करइ ते तेह सरीषउ जाणिवउ । इसिउ भाव ॥२५॥
३१
[ जि . ] जिणगुण सर्वज्ञगुण तेहरूपिडं रत्ननउं महानिधान तेही कदी मिथ्यात्व कांई न जाइ ? अथ जाणिवउं । निधानि पामिर हूंत कृपणांहूई पुणो वली दारिद्र्य हुइ । तथैवोक्तं
5
दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङे तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ तिणि कारणि सम्यक्त्वरूपिउं महानिधान लही मिथ्यात्वी जीवरूपिया कृपणहूइं मिथ्यात्वरूप दारिद्य न जाई ॥ २५ ॥
[मे. ] जिन वीतरागना गुणरूप रत्नभरिउं महानिधान लहीन 10 मिथ्यात्व कांइ न जाई ? जीव मिथ्यात्व कांइं न मूकई ? अथवा लाधइ निधानि कृपणनई वली दालिद्र जि हुइ । कांइ वेची वावरी न सकई ह भणी दालिद्री कही ॥ २५॥
[ सो.] जिनशासननां पर्वइ उत्तम । ए वात कहइ छइ । [ जि.] अथ जिनधर्मपर्व प्ररूप ।
सो जयउ जेण विहिया संवच्छरचाउमासिअसुपव्वा । निधसाण जायइ जेसिं पभावओ धम्ममई ॥ २६ ॥
15
[सो.] सो जयउ० ते जिन जयवंत वर्त्तउ, जीण संवच्छरी वरसी चाउम्मासी प्रमुख सुपर्व रूडां पर्व, अमारिप्रवर्त्तन तपनियम ब्रह्मचर्य पोसह प्रभावनादिक केवल पुण्यमय जि सुपर्व रूडां पर्व कीधां | 20 निधसाण० जेह पर्वना प्रभावतउ जे' गाढा निर्द्धवस अधर्मी ह
१ जि.
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३२
षष्टिशतक प्रकरण.
केतला रहइं धर्मनी मति ऊपजइ । तेहइ केतला तेहे पर्वे उपवास दानादिक करता देखीइं ॥ २६ ॥
[जि.] ते जयवंतु हुइ, जिणि वीतरागि सांवत्सरि चातुर्मासिक सुपर्व मनोहर पर्व विहिया कीधां । जिहां जिनोक्त सांवत्सरिकादिक 5 पर्वना प्रभाव इंतउ निद्वेधसाण सर्वदा पापशक्तई जीवहूरं धम्ममई धर्म करवानी बुद्धि जायइ हुइ ॥ २६ ॥
',
[.] ते श्रीजिन जयवंत वर्त्तउ, जीणई ए शोभन भलां पर्व कीधां, संवत्सरी चउमासी प्रमुख, जिहां तपनियमप्रभावनादिक पुण्य कीज | गाढाई निर्बंध अधर्मीनइ पणि जेह पर्वना प्रभावइतउ 10 धर्मनी मति ऊपजइ ॥ २६ ॥
[ सो.] मिथ्यात्वीनां पर्व आश्री बात कहइ छइ ।
[ जि. ] अथ मिथ्यात्व पर्वना करणहारनउं स्वरूप कहइ छइ । नामं पि तस्स असुहं जेण निदिट्ठाई मिच्छपब्वाई । जेसिं अणुसंगाओ धम्मीण वि होइ पावमई ॥ २७ ॥
15
[सो. ] नाम पि तस्स० तेहनउं नामइ अशुभ विरूउं, नामइ तेह पापीनरं न लेवउं, लेवा नावई, जीणई ए होली बलेव नवरात्र प्रमुख मिथ्यात्वपर्व कीधां । जेहे पर्वे धूलिनउं ऊडाडिवउं, गालिनउं देवडं जीवहिंसादिकन करिवउं प्रवर्त्त । जेसिं० जेह
5
पर्वना अनुषंग योगतउ धर्मवंतइनइ मनि पापनी मति आवइ । तेह 20 गहिलाई करई, मन विरूआं थाइ, वचन' यथातथा बोलइ ॥ २७ ॥
[ जि . ] तेहनउं नामई असुभकारिउं अग्राह्य, जिणई मिच्छपव्वाईं मिथ्यात्वपर्व निदिट्ठाई कह्यां । किसा भणी तेहनउं नाम
१ वचनइ.
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त्रण बालावबोध सहित
३३
असुभ ? जेसिं अणुसंगाओ जेहां मिथ्यात्वनां पर्वनां संग लगी धम्मीण वि धर्मवंतईहूई पाप करवानी बुद्धि हुइ ॥ २७ ॥
[मे. ] तेहनउं नामइ अशुभ पाडूउं, जीणइं मिथ्यात्वीनां पर्व होली बलेव नवरात्री प्रमुख उपदेश्यां । जिहां धूलि ऊडाडीइ, हिंसा कीजइ । जे पर्वना अनुषंग योगइतर धर्मवंतइ मनि पापमति 5 ऊपजइ ॥ २७ ॥
[ सो.] संसर्गि करी केतलानइ विहरंड पडइ, केतलानइ न पडइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि. ] अर्थ पर्वसंसर्ग कही उत्कृष्ट धर्मवंतहूई अनइ गाढा पापीहूई सुसंसर्ग कुसंसर्ग कांई न करई । ए वार्ता प्रकट |
मज्झठिई पुण एसा अणुसंगेणं हवंति गुणदोसा । उक्किपुण्णपावा अणुसंगेणं न धिप्पंति ॥ २८ ॥
TO
[ सो.] मज्झ० मध्यम पुरुषनी स्थिति जं तेह रहई अणु. संगेणं संगतिनइ विशेषिरं गुणइ हुई, दोषइ हुई । गुणवंतनी संगति गुणवंत' थाइ । पापनी संगतिई दोषवंत थाई । ए मध्यम जीवनां विशेष | 15 उक्कि० उत्कृष्ट जे पुण्यना धणी गाढा उत्तम, अनइ उत्कृष्ट पापना धणी गाढा मिथ्यात्वी ते बे संगति' न लीजई । संगतिनउ विहरउ न पडइं । धर्मी ते धर्मी जि । पापी ते पापीइ जि । काच नइ रत्न वारिसना सई एकठा रहई । साप अनइ सापनउ मणि घणउ काल एकठां रहइ । पुण जे जिसउं ते तिसि जि । संगतिनउ विहरउ न पडई | 20 इसिउ भाव ॥२८॥
४
१ गुणवंत २ संगतिई ३ धम्मी ४ धम्मीइ.
v
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षष्टिशतक प्रकरण
[ जि.] पुण बली ए मध्यम स्थिति मध्यम पुरुषनी अवस्थिति जाणिवी । ए किसी जु? अणुसंगेणं हवंति गुणदोसा । संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति । सुसंसर्ग लगी गुण हुइ । कुसंसर्गतउ दूषण हुई । मनुष्य त्रिविधा । उत्तम मध्यम जघन्यरूप | उक्किपुण्णपावा 5 उत्कृष्ट पुण्यवंत उत्कृष्ट पापवंत सुसंसर्गि कुसंसर्गिइं न धिप्पति न लीज ॥ २८ ॥
३४
[ मे. ] या मध्यम स्थिति । अनुषंग कहतां संसर्ग तेह लगी गुणन दोस ऊपजइ । अनइ उत्कृष्ट पुण्य नइ पापना धणी कुणहइनइ संसर्गि छीपई नहीं । उत्कृष्ट पापीनई धर्मवंतनउ संसर्ग न लागई । 1० उत्कृष्ट धर्मवंतनइ पापीनउ संसर्ग न लागई जि ॥ २८ ॥
[सो.] वली एह जिवात कहइ छइ । [जि.] किम जाणीइ ए बात । अइसयपावियपावा धम्मिअपव्वेसु तो वि पावरया । न चलति सुद्धधम्मा धन्ना किवि पावपव्वे ॥ २९ ॥ 15 [सो.] अइसय० अतिशयप्रापितपापा गाढा पापी जीव धमि० धर्ममय पर्व आवइ तउ पापइजिनई' विषई रत हुई । पाप जि करई । धर्म ऊपरि मन नावई । न चलति ० केतलाइ धन्य पापपर्विद आविइ' आपणा सुद्धधम्मः चोप्य धर्मतउ चलई नहीं, क्षुभ नहीं । तेहना मन लगारइ धर्मतउ डौलइ नहीं । तेह भाणी उत्कृष्ट 20 पुण्यवंत अनह उत्कृष्ट पापवतहूइ संसर्गिह कांई विशेष न हुई ॥ २९ ॥ [जि.] अतिशयप्रापितपाप । उत्कृष्ट पापर्यंत पुरुष धम्मियपव्वे तो वि धार्मिक पर्वे सांवत्सरादिकेइ पावरया पापरत पापई
1
१ पापज़िनइ, २ 'विषइ' नथी. ३ ' आविइ' नथी.
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श्रण वालावबोध सहित
जु करई । धन्ना किवि केई एक धन्य कृतपुण्य पुरुष पावपब्वेसु. पापोत्सविइ आविइ हूंतइ सुद्ध धर्म हूंतउ जीक्दयामूल धर्म हूंतउ न चलंति न डोलई । तिणि कारणि उत्तम अनइ जघन्य संसर्गि न लीजइ ॥२९॥
[मे.] उत्कृष्ट पापना धणी धार्मिक पर्युषणाप्रमुख पर्व आव्ये हूंते 5 पापनइ विषइ रत हुई। केई एक धन्य कृतार्थ पापपर्व आव्ये. हूंते धर्म हूंता न चालई न डोलई ॥२९॥
- [सो.] हव लक्ष्मी ऊपरि वात कहई।
[जि.] लक्ष्मीना बे भेद देखालइ । लच्छी वि हवइ दुविहा एगा पुरिसाण खवई गुणरिद्वी ।० एगा य उल्लसंती अपुण्णपुग्णाणुभावाओ॥३०॥
[सो.] लच्छी वि० लक्ष्मीइ संसारमाहि बिहु प्रकारि हुइ। एगा. एक लक्ष्मी आवती हुंती पुरुषहूई गुणरूपिणी ऋद्धि क्षेपइ नीगमइ । लक्ष्मी हुइ, पूठिई हियानउ धर्म जाइ। अनइ विनय विवेक गांभीर्य दाक्षिण्यादिक पुर्ण जाइं । गर्वांधित थिउ हीडइ । एगा य०15 अनइ एक भाग्यवंतनइ लक्ष्मी हुइ, पूठिइं विनय विवेक दाक्षिण्यादिक गुण उल्लंसई । धर्म ऊपरि मन आवइ । भारेखम गंभीरपणउं आवई । बिहु रिद्धिनउं कारण कहइ छइ। अपुण्ण जे अभागीआनई लक्ष्मी हुइ छइ ते पाछिलइ भवि कांइ पापनउँ बंधिउं जीवदयारहित पंचाग्नि माघस्नानादिक अज्ञान कष्टरूप पुण्य तेहनई प्रभाविई हुई । तेह लंगी० पाप करी आघउ मरी दुर्गतिइं जाई । संसारि रुलई । अनइ जे धर्म
१ कहइ छइ. २ खिवइ. ३ रहइं ४ पूठि. ५ गांभीर्यादि. ६ गुण. ७ भारेखमी. ८ पापानुबंधिउं. ९ पुण्यनइं.
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. पंष्टिशतक प्रकरण ।
वंतनइ घरि लक्ष्मी हुइ तेह लगइ अनेक तीर्थयात्रा प्रासाद संघभक्ति दानादिक अनेक पुण्य करी मरी परलोकि सुगतिइं जाई । आघउ संसार तरइ ॥३०॥
[जि.] लक्ष्मी द्विविध हवइ हुइ। एगा एक लक्ष्मी पुरुषनी 5 गुणरिद्धि दक्षदाक्षिण्यादिक गुणलक्ष्मी क्षिपावइ नीगमइ । एगा एक लक्ष्मी गुणश्रेणि उल्लसावइ । किसातउ ? अपुण्य अनइ पुण्य तेह बिहुंनउ अनुभाव प्रभाव तेहतउ । एतलइ पापानुबंधिनी लक्ष्मी पुरुषनी गुणश्रेणि विणासइ। बीजी पुण्यानुबंधिनी लक्ष्मी गुणश्रेणि वधारइ ॥३०॥
[मे.] लक्ष्मी पुणि बिहु प्रकारि हुई। एक लक्ष्मी आवती 1०हूंती पुरुषनई औदार्यादिक गुण अनइ ऋद्धि बिहुँनई क्षपावइ नीगमइ । एक लक्ष्मी आवती हूंती विनयविवेकादिक गुणनइ उल्लसावइ । ते पाप नइ पुण्यनउ अनुभवु जाणिवउ ॥ ३०॥
[सो.] हेव कुगुरु कुश्रावक स्वरूपु कहइ छइ ।
[जि.] अज्ञान गुरु-श्रावकनउँ स्वरूप कहइ छइ । 15गुरुणो भट्टा जाया सड्ढे थुणिऊण लिंति दाणाई। दुन्नि वि अमुणियसारा दूसमसमयम्मि बुडंति ॥३१॥
. [सो.] गुरुणो० ईणई दुःषमाकालि संप्रति गुरु भाट थ्या। जिम भाट छंद छप्पया करी. लोक रीझवी दान लिइ तिम गुरुइ वंश पूर्वज गोत्र वर्णवी श्रावक रंजवी आहारवस्त्रादिकना दान २०लिइं । दुन्नि वि बे गुरु अनइ श्रावक अमुणिय० 'दुल्लहा हु
- १ हुइ ते पाछिलइ भवि जीवदया सहित जिनधर्म आराधिउ हुइ तेह पुण्यानुबंधिया पुण्यनइ प्रभाविइ हुई. २ अनेकि. ३ मुं. ४ स्वरूप. ५ जि. दोन्नि.. ६. दुःखमाकालि. ७ छपाया. ८ 'दुल्लहा...एहवउं' सुधीनो अंश सो. नी पहेली प्रतमाथी पडी गयेलो होइ बीजी प्रतमांथी लीधो छे.
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त्रण बालावबोध सहित मुहादाई मुहाजीवी वि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी दो वि गच्छंति सुग्गइं। एहवउं जिनवचननउं रहस्य अजाणतां बूडइं । संसारसमुद्रमाहि घणउं रुलई ॥३१॥ .. [जि.] गुरु भाट कीर्तिपाठक जाया हूया। सड्ढ़ श्रावक स्तवीनइं दानादिक लिइं। दोन्नि वि० ते बेई लेणहार 5. देणहार अमुणियसारा अज्ञातजिनवचनरहस्य हूंता दूसमयम्मि दुःषमाकालि बूडई ॥३१॥ - [मे.] जे गुरु श्रावकनइं वषाणी दानादिक लिइ ते गुरु भाट सरीषा जाणिवा । ते बिन्हइ वीतरागना वचनरहस्य अजाणता हूंता दुक्खमाकालमाहि बूडइ ॥ ३१॥
[सो.] हिवडां संसारना' जाण, धर्मना जाण, सांभलणहार नइ कहिणहार थोडा ए वात कही छइ ।
[जि.] अथ दुःखमाकालस्वरूप कहइ । मिच्छपवाहे रत्तो लोओ परमत्थजाणओ थोवो। .
गुरुणो गारवरसिया सुद्धं धम्म निगृहंति ॥ ३२॥ ॐ - [सो.] मिच्छपवाहे० घणउ लोक जे मिथ्यात्वप्रवाह कूडंउ गुणना विचार पाखइ आपणा कुलक्रमागत देव गुरु धर्मनइं प्रवाहि रातउ. छइ । परमत्थ० परमार्थ गुण जोई देव गुरुधर्मनउं बोलर्ड तेहनउ जाण थोडउ । अनइ जे गुरु छड् तेहइ गारव० मान, महत्त्व, प्रतिष्ठा, जिह्वाना रस, सयरनां सुख एढे गारवने रसे वाहिया
१ . संसारना जाण' नथी. २ कहणहार जाण. ३ कहइ. ४ गारवरहिय. ५ जि.मे. मग्गं. ६ लेवउं. ७ महत्त्व.
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: षष्टिशतक प्रकरण
सूधउ धर्म खरउ मार्ग निगृहंति गोपवइ । साचउं प्रकास नहीं ॥३२॥
[जि.] मिथ्यात्वप्रवाहि रक्त लोक छइ । परमार्थतत्त्वनउ जाण लोक थोवो थोडउ छइ । अनइ गुरु गारवरसिक सुखलंपट हूंता 5.सुद्धं मर्ग सुद्धउ मार्ग महाकष्टतपःसाध्य मार्ग निगृहंति छपावइ । ते दुःषमाकालनउं प्रमाण ॥ ३२ ॥
[मे.] लोक प्रवाहइं मिथ्यात्वनइ प्रवाहि रातउ छइ । पणि परमार्थनउ जाण थोडउ । कांइ देव गुरुना विचार जोई आस्ता आणइं ते थोडा । तेही गुरु ऋद्धिगारव, रसगाव, सातागारव रसे पूरिया हूंता सूधउ मार्ग धर्मनउ प्रकासई नही ॥ ३२ ॥
[सो.] देव-गुरुनां स्वरूप जाणतां दोहल्या । ए बात कई छइ।
[जि.] अथ देव-गुरुनउं स्वरूप दुर्जेय इसुं कहइ छइ. । सब्वो वि अरिहं देवो सुगुरु गुरु भणइ नाममित्तण । उतेसि सरूवं सुहयं पुण्णविहूणा न पावंति ॥३३॥ - [सो.] सव्वो वि ए सघलाइ श्रावक लोक नाममात्रि इम कहइं- अम्हारइ अरिहंत देव सुसाधु गुरु । अरिहंतो मह. देवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो इति वचनात् ।' तेसि सरूवं पुण ते देवगुरुनउं स्वरूप सुहयं शुभहेतु साचउं । पुण भाग्यरहित जीव न २०प्रामई । न ओलखइं ।। ३३ ॥ . १ कहइ. २. सुपुन्नविहूणा. ३ मे. पाविंति. ४ 'ए' नथी. ५ नाममात्रइ. ६ सुरूप. ७ न उलषइं.
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त्रण बालावबोध सहित
[जि.] सघलउड् लोक 'अरिहंत देव, सुसाधु गुरु' इसुं नाममात्रि करी भणइ । तेह देवगुरुनउं स्वरूप सुहयं सुखज्ञेय जाणतां सुहेतलडं, पुण पुण्यरहित हूंता पुण्य विणु न पावंति न लहई लोक । तेही दुःषमाकालनउं प्रमाण ॥ ३३॥
[म.] सघलाइ लोक इम कहइं, 'अम्हारइ अरिहंत देव, 5 सुसाधु गुरु ' इम नाममात्र कहइं। पणि ते देवगुरुनउं स्वरूप सुखदायक पुण्यरहित जीव न पांमइं ॥ ३३ ॥
. [सो.] वली एह जि वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ मूर्ष जिनाज्ञाप्रतिपालक ऊपरि द्वेष वहइ । इसु कहइ छइ ।
10 सुद्धा जिणआणरया केसि पावाण हुति सिरसूलं। जैसिं ते सिरसूलं तेसिं मूढाण ते गुरुणो ॥३४॥
[सो.] सुद्धा जि० जे महात्मा सूधा खरा जिन वीतरागनी आज्ञा पालइ छई, खरउं चारित्र पालई छई। ते महात्मा केतलाइ पापी भ्रष्टाचार रहई सिरिसूल मस्तकसूल थाई। जेसिं ते15 जे भ्रष्टाचार रहइं सुविहित सिरिशूल थाइं। तेसिं० केतलाइ मूढ मूर्खलोकनइ तेह जि गुरु भणी मानीई ॥ ३४॥ . .
[जि.] शुद्धा प्रांजल सरलचित्त निर्मल जिणआणरया जिनाज्ञारत पुरुष केही पापियाहूइं सिरसूलं मस्तकशूल समान होंति हुई। एतावता जिनाज्ञापालक पुरुष देखी द्वेष लगी माथइ त्रिसूल20 चडावइं पापी जीव । जेसिं ते सिरसूलं० जेहां पापीयांनइंते मस्तकशूल हुइ तहां मस्तकशूलधारक मूढ मूर्ख तणा ते जिनाज्ञारत
१ जि. होति. २ सिरि सूलं. ३ सिरि सूल..
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: षष्टिशतक प्रकरण
गुरु हुई। ते मूढ इसुं मानइं जु जिनाज्ञारक्त गुरु हुइ । अनेरा नही। मिथ्यात्वीइ जैन गुरु मानइं। इति भावः ॥ ३४॥ .
[मे..] जे सूधी वीतरागनी आज्ञा पालई, खरउं चारित्र पालई ते केतलां पापीनइ मस्तकि सूल समान हुई। जीयांनइ मस्तकि ते 5 सुगुरु सूल समान हुई, केतलांएक मूर्खनइ तेही गुरु करी मानीइ ॥३४॥
[सो.] ए वात दृढइ छ।।
[जि.] अथ मिथ्यात्वप्रबलता प्रकाशइ । हा हा गुरुअ अकजं सामी न हु अत्थि कस्स पुक्करिमो। कह जिणवयणं कह* सुगुरु सावया कह इअअकजं ॥३५॥ 10 [सो.] आहा गुरुऊ ए मोटुं अकार्य विरूऊ । स्वामी ठाकुर को नथी, जे शिक्षा दिइ । कस्स० कहइ आगलि पोकारि कीजइ । कह जिणवयण० किहां एहउं जिनवचन निष्कलंक अनइ किहां सुविहित सद्गुरु अनइ किहां उत्तम श्रावक । कह इअ० किहां ए
अकार्य । एहा भ्रष्टाचार अब्रह्मचारी गुरुनउं आराधिवउं । ए मोटउ 15वरासउ । इसिउ भाव । - [जि.] हा हा इति खेदे । गुरुअ अकजं मोटउं अकार्य। स्वामी न हु निश्चइं नथी । कस्स पुकरिमो किह आगलि पूकारां । ते किसुं अकार्य ? कह जिणवयण. किहां जिनवचन, किहां
सुगुरु, ते श्रावक किहां, जे सुगुरु श्रावक जिनवचनरहस्य जाणई । इसिउं २०अकार्य । जिम किसीइ अपूर्व वस्तु गमी हूंतीइ ठाकुर पाखइ किह
* सो. नी बीजी प्रतनुं १२ मुं पत्र नहीं होवाथी आ स्थानथी मांडीने ४०मी 'गाथाना बालावबोधनी प्रथम पंक्तिमा 'सिउं कीजइ' शब्दो सुधीनां पाठान्तर नोंधी शकायां नथी.
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त्रण बालावबोध सहित
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आगलि पुकार कीजइ । तिम इणि दुषमाकालि जिनरहस्य सुगुरु श्रावक थोडा ॥ ३५॥ . . . . . . . . .. . [मे.] हा इसिइ खेदि । ए मोटउं अकार्य । स्वामी तीर्थकर केवली नहीं । कहि आगलि पुकार कीजइ । किहां ते जिनवचन सूधां। किहां ते सुविहित गुरु । किहां ते सूधा श्रावक, जे गुरुनी परीक्षा न 5 करइ । ए मोटउं अकार्य ॥ ३५॥ ..
[सो.] कुगुरु आश्री वात कहइ छइ । [जि.] अथ लोकप्रवाह कहइ छइ ।
[मे.] हिव कुगुरु भणी वात कहइ । सप्पे दिवइ नासइ लोओ न हु किंपि कोइ अक्खेइ । 10 .. जो चयइ कुगुरुसप्पं हा मूढा भणइ तं दुढे ॥ ३६॥
[सो.] सप्पे० साप दीठइ लोक नासइ । अनइ कोइ काइ न कहई ‘विरूउं कीधउं ।' जो चयइ० जो जाणीनइ कुगुरुरूपिउ साप छांडइ । हा मूढा० अहो मूढ केतलाइ मूर्ख इम कहइ, 'ए. दुष्ट विरूउं कीधउं । आपणा गुरु मूकी अनेरउ गुरु आश्रियउ' ॥ ३६॥5
[जि.] सापि दीठइ लोक नासइ । पुण अनेरउ कोइ लोक नासणहार रहइं किंपि कांई न हु अक्खेइ न कहई । जो चयइ कुगुरुसप्पं० जे पुरुष त्यजइ कुगुरुरूपिउ साप तेहहूई मूढ मूर्ख तं दुटुं अयुक्तुं भणइ जु 'इणिइ आपणउ गुरु मेल्ही अनेरउ गुरु कीधउ, तिणि कारणि ए दुट्ट' इसिउं कहई। इसिउ न जाणइं जु०० इणिइं कुगुरु मेल्ही सुगुरु आश्रउ ॥ ३६॥
१ जि. मे. भणहि. २ जि. दटुं.
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षष्टिशतक प्रकरण
[मे] सापिं दीठइँ लोक नासइ । तेहनइं लोक पणि काई न कहई जि - विरूअउं कीधउं ।' जे कुगुरुरूपीउ साप छांडई त्यजई।
हा इसिइ खेदि। मूढ मूर्ख केतलाइ इम कहइ, 'ए दुष्ट ईणइं विरूअउं कीधउँ' ॥३६॥
। [सो.] साप पाहइं कुगुरु अधिकउ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] सापई य पाहिइं कुगुरु दुष्ट । इसिउं देखालइ छइ । सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अणंताई देइ मरणाई । तो वर सप्पं गहिअं मा कुगुरुसेवणं भद्द ॥ ३७॥
[सो.] सप्पो० साप डसइतउ एक जि वार मरण दिइ । ३०कुगुरु० भ्रष्टाचारी गुरु अनेक कुमार्ग प्ररूपतउ सेवक रहइ अनंता मरणं दिइं। घणउ संसार वधारइं । तो वर० तेह भणी अहो भंद्र ! उत्तम साप लीधउ सूडउ । मा कुगुरु० पुणे कुगुरुनउं सेंविवउं रूडूं नहीं ॥ ३७॥
[जि.] सर्प इकं एक मरण दिइ सेविउ हूंतउ । कुगुरु उंसेविउ हूंतउ अणंतां घणां मरण दिइं । तो तेणि कारणि सापनउँ लेवउं रूडउँ । पुण कुगुरुनउं सेविवउं रूडउं नही, हे भद्र ! हे सुज्ञ ! ॥ ३७॥
[म.] साँपु कुपिउ हूंतउ एक वार मरण दिइ अनइ कुगुरु सेविउ अनंता मरण दिइ । तेह भणी साप झालिउ, ग्रहिउ भलउ । हे भद्र ! कुगुरुनउं सेविवउं रूडउं नहीं ॥ ३७॥
४० [सो.] एहा कुगुरु जीव छांडइ नहीं । किसिउं कीजइ । ए वात कहइ छ।।
१ जि. वरि,
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त्रण बालावबौध्र सहित
[जि.] अथ लोक गड्डरिकापवाहि पड़िउ हूंतड़ कांई न मानइं। इसुं कहइ लइ । जिणआणा वि चयंता गुरुणो भणिऊया जं नमिवति । ता किं कीरइ लोओ छलिओ गड्डरिपवाहेण ॥ ३८॥ .'
[सो.] जिण. जे जिन वीतरागनी आज्ञा छांडई छ । विराधिइ छई, तेहइ गुरु भणी लोक जं नमस्करीइं वांदीई वांदणां दीजइं। ता किं० तउ सिउं थाइ । लोक गड्डरिकाप्रवाहि छलिङ व्यापिउ छइ । जेहि एक गाडरी जाइं तीहि बीजीइ गाडरी जाई । तिम एक लोक करता देखी बीजाइ ति करई ॥ ३८॥
[जि.] जिणआणा वि० जिननी आज्ञा त्यजता मूकता जे हुई तेही गुरुणो भणिऊण गुरु करी जत् जे नमिजंति नमस्करीई वांदणां दीज़इं । ता तउ पछइ गड्डरिकाप्रवाहि करी छलिउ हूंत लोक किं कीरइ । अपि तु लोक कांइ न जाणइं । जिम गाडरपशु गाडर केडइ जाइ, तत्त्वातत्त्वविचार काई न जाणइं, तिम लोकई ॥ ३८॥
[मे.] जिननी आज्ञा छांडता जे छइ तेहनइं जे गुरु करी नमई, तउ लोक बापडउ किसउं करइ । सघलयइ गड्डरीप्रवाहि छलिउ । जिहां एक गाडरु काई देषीनइ जाइ तिहां सघली गाडरी प्रवाहि पडी जाइं तिम लोक तत्त्वार्थ अणजाणतां एकि माहूरा करीनइ जाई । अनइ बीजा प्रवाहि देषावेषिं जाई मानई ॥३८॥
२॥ २८॥
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[सो.] कुगुरु छांडतां लोक दाक्षिण्यं करई । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] लोक कुगुरु मेल्हत दाक्षिण्य करइ । अनेरइ स्थानकि दाक्षिण्य न करई । इसुं कहइ ।
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षष्टिशतक प्रकरण
निक्खिण्णो लोओ जइ कुवि मग्गेइ रुहिआखंडं । कुगुरूण संगचयणे दक्खिण्णं ही महामोहो ॥ ३९ ॥
[ सो.] निद्दक्खिण्णो० लोक एहवउ निर्दाक्षिण्य, जइ कोइ रोटीन खंड कटकर मागइ तउ न दिहं । थोडइ काजि दाक्षिण्य न 5. करइ । कुगुरूण० अनइ कुगुरुनउ संग एवडा अनर्थन हेतु ते छांडतां दाक्षिण्य करई । काणि आणइ । ही महामोहो आहा ! ए महामोह, मोटउं अजाणिवउं, गाढउं मूर्खपणउं कही ॥ ३९ ॥
[जि.] लोक निर्दाक्षिण्य गुणरहित छइ । जइ कुवि जह कोई रोटीन कटक मागई, तउ दाक्षिण्य मेल्ही रोटीकुटकई न दिहं । 20 कुगुरु भ्रष्ट गुरुनउ संसर्ग तेहनइ मेल्हिवड़ दाक्षिण्य करइ । ही खेदे । महामोहो मोटउं अजाणिवउं ॥ ३९ ॥
[ मे. ] लोक एहवउ निर्दाक्षिण्य । जइ को रोटीन खंड मागइ तउ हिं नापरं । अनइ कुगुरुना संगनउं त्यजिवउं तिहां दाक्षिण्य करई । कहई, 'हउं आपणा प्रियागत गुरु किम मूंकडं । पणि ही इस खेदि ए सह महामोहनउं विलसित ॥ ३९ ॥
[ सो.] वली कुगुरु आश्री कहइ छइ ।
[ जि. ] अथ मिथ्यात्वीनउं विलसित देखाइ ।
किं भणिमो किं करिमो ताण हयासाण धिट्ठदुट्ठाणं । "जे दंसिऊण लिंगं खिवंति नरयम्मि मुद्धजणं ॥ ४० ॥
1
9
[ सो.] किं भणिमो० सिउं बोलीइ । सिउं कीजइ । तेहहूई हताश अभागिया रहई, घीठ रहइ, दुष्टचित्तहूइ जे दंसिऊण० जे लिंग महात्मानउ वेष आपणपामाहि देखाडीनइ
१ रहई. २ रहईं.
20
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ar बालावबोध संहित
२
खिवंति० मुग्धजन लोला' लोकनइं कुमार्ग सीषवीनइ नरगि घाली इ छ । दुर्गति पडई छई ॥ ४० ॥
१५
[ जि . ] तेहां हताश भग्नाश घेठा महादुष्ट मिथ्यात्वी तणउं किसुं भणां । तेह्र किसुं करां । जे मिथ्यात्वी लिंग दर्शनीनउ वेषमात्र देखालीनई मुद्रणं मुग्ध लोला लोकहूई नरकमाहे घातई ॥ ४० ॥ s
[मे. ] किसउं भणां । केहां किसउं करां । हत हणी आश जेहनी ते हताश तीयां हताशनइ दुष्टांनई घेठांनई । ते करण । जे ओघउ मुहपत्ती रूप वेष देषाडीनह मुग्ध भोला लोकनई नरकमाहि षेपई ॥ ४० ॥
3
[ सो.] कुगुरु आश्री. निंदास्तुति ग्रंथकार कहइ छ ।
[ जि . ] भव्यलोकहूइं कुगुरु देखी सुगुरु ऊपरि गाढी भक्ति - उल्लेसइ । इसुं जणावइ ।
कुगुरु वि संसिमो हं जेसिं मोहाइ चंडिमा दहुँ । सुगुरुण उवरि भत्ती अइनिविडा होइ भव्वाणं ॥ ४१ ॥
*
ro
[ सो.] कुगुरु वि० ते कुगुरुइ वषाणउं भलई दीठा | 15 जेसिं० जेहनी मोहादिक चेष्टा अब्रह्मचारीपणुं अनइ क्रोधादिके करी.... क्रूरपणउं देखीनई सुगुरुण० सुगुरु सुविहित चारित्रीया ऊपर अति गाढी भक्ति भव्य रहइं उपजइ । कुमति दीठी पाषइ भाति ऊपरि मन न बसई ॥ ४१ ॥
ε
[ जि . ] ईहां ग्रंथकार श्रीनेमिचंद्र भंडारी कहइ छइ | 20 जउ हउं कुगुरु भ्रष्टचारित्रीया गुरुई संसिमो प्रसंसउं वर्णवउं ।
१ भोला. २ घातई. ३ ' छइ ' नथी. ४ अइनिवडा. ५ पणउं. ६ भव्य जीव.
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: षष्टिनातक प्रकरण : जेसिं जेहां कुगुरुनी मोहादिक चंडिमा क्रूरता हूँ देखी करी सुगुरु सुविहित ऊपरि भक्ति अतिनिबिड अतिगाढी भविक जीवहूई हुई। जिम अभति दीठीई भातिइं मन रहइ ॥ ४१॥ - [मे.] ते कुगुरु वखाणउं हूं भलई दीठउ । जेहनी अब्रह्म3 सेवादिक कुचेष्टा देषी अनइ सुगुरु ऊपरि भक्ति अतिनिबिड हुई । भविक जननइ कारणि ॥४१॥ .
[सो.] विरूउ काल देखी जाणहूई विशेष सम्यक्त्व उल्लसइ । ए वात कहइ छ।। ६ [जि.] अथ मिथ्यालोदग्निई हूंतइ भव्य जीवहूई सम्यक्त्व 19उल्लसइ । ए बात कहइ । जह जह तुदृइ धम्मो जह जह दुट्ठाण होइ अइउदओ। सम्महिद्दिजियाणं तह तह उल्लसइ सम्मत्तं ॥४२॥
[सो.] ईणइं पांचमइ आरइ दुःखमाकालि जिम जिम धर्म • त्रूटइ ओछउ थाइ । जह जहू दुट्टाण० अनइ जिम जिम दुष्ट 15पापी जीव रहई अतिउदन ठाकुराई ऋद्धि मान महत्त्व हुइ ।
सम्मद्दिट्टि तिम तिम सम्यग्दृष्टि जाण जीव रहइं सम्यक्त्व गाढ़उं गाढउं उल्लसइ दृढ थाइ । जिसिङ्गं परमेश्वरि दुःखमाकालनउँ स्वरूप कहिउं हूतउं तिसिउंइ जि देखीइ छइ । इम परमेश्वरना वचन अपरि
आस्था आवइ । जिम ए साचउँ तिम बीज़ाई परमेश्वरनां वचन साचां । २०इसी परि सम्यक्त्व दृढ थाइ ॥ ४२ ॥
१ जि. इह उदओ. २ उछाउ.
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त्रण बालावबोध सहित
... [जि.] जिम जिम धर्म तूटइ। बली जिम जिम दुट्ठाण दुष्टाशयहुई इह दुःषमाकालि उदओ अति प्रौढिमा हुइ तिम तिम सम्यग्दृष्टि जीवहूई सम्यक्त्वं उल्लसह वाधइ ॥ ४२ ॥ .
[मे.] ईणि दुःखमाकालि जिम जिम धर्म त्रूटइ ओछउँ थाइ तिम तिम पापी जीव दुष्टनई उदय महत्त्व हुइ । अनइ सम्यग्दृष्टि 3 जीवनइं सम्यक्त्व गाढउं उल्लसइ दृढ थाइ ॥ ४२ ॥ . . . . .
[सो.] हवडांनइ कालि धर्मना धणीनइं जं उदय नही । ते कारण कहइ छइ ।
[जि.] सम्यग्दृष्टि जीवहूइ सम्यक्त्व वाधतई हूंतइ अति उदय न दीसइ।
10 [मे.] हिवडांनइ कालि धर्मवंतइं उदयु नहीं ते कहइ । . जयजंतुजणणितुल्ले अइउदओ जं न जिणमए होइ । तं किढकालसंभवजिआण अइपावमाहप्पं ॥४३॥
[सो]. जयजंतु० जगना जीव रहई जननी माता समान छइं ए जिनमत सर्व जीवहूई सुखदायक हितकारक भणी। एहवा जिनमतमाहि जं जीव रहइं अतिउदय नही, ऋद्धि मनि महत्त्व ठाकुराई नही । तं किट्ठ० ते क्लिष्टकाल विरूउ दुःखमाकाल हुंड अवसर्पिणी भस्मक ग्रहनइं उदय करी सहित एवहिं कालि ऊपना जे मारेकम्मी' जीब तेहना पाछिल्या भवनां अतिपापनउँ माहात्म महिमा जाणवउ । जे धर्म लहहं छई ते भव्य जीव आगलि केतलई कालि मोक्ष जाणहार : इसिउं जाणिवउं ॥४३॥
१ भारीकम्मी. २ जाणिवउ. ३ जाणहार भणी.
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४८
.. षष्टिशतक प्रकरण :
. [जि.] जय० जगजंतु त्रिभुवनना जीव तेहहूइं जननी माता तेह समान जिनमत । तेहमाहे अतिउदय जं न होइ जउ न हुइ ते क्लिष्टकालसंभव दुःषमाकालोत्पन्न जीवहूइं पापनउं माहात्म्य जाणि
वउं ॥ ४३॥ 5 [मे.] जगत्रयनां जंतुनइं जननी माता समान सुखदायक एवहा जे जिनमत जिनशासननइं जे उदयु नहीं हुतउ ते क्लिष्टकालिइं ऊपना जे जीव तीयां जीवना अतिपापनउं माहात्म्य ॥४३॥
[सो.] केवलु' जीव बाह्यवृत्तिं डाहउ देखीइ । पुण विपरीतबुद्धि हुइ । तेहू पापजिनु उदय । इसिउं जाणिवउं । 10 [जि.] अथ क्लिष्टकालसंभवजीवमाहात्म्य प्रकासइ । . . . धम्मम्मि जस्स माया मिच्छत्तगहो उस्मुत्ति नो संका। कुगुरु वि करइ सुगुरु विउसो वि स पावपुण्ण त्ति ॥४४॥
[सो.] जेह रहई धर्म करतां माया आवइ । मनि अनेरुं हुइ, देखाडइ अनेरउं । मिच्छत्तगहो अनइ मिथ्यात्व किमहइं मूंकइ 15नही । उस्सुत्ति नो संका। उत्सूत्र बोलतां करतां मनि शंका पापनउ भय नही। कुगुरु० कुगुरु भ्रष्टाचार तेहइ सुगुरु भणी मानइ थापइ। विउसो वि० ते लोकमाहि विदुष डाहु भणी प्रसिद्ध हुइ तउ ते पापपूर्ण पापिइं भरिउ जाणिवउ । अथवा जे कुगुरु भणी मानइं ते पाप पुण्य करी मानई। आगलि तेह रहइं निश्चइं रूडूं ०नथी। हवडां पाछिल्या भवनइं अज्ञान कष्टनई प्रमाणि ड्राहपण चतुराइ आवी छइ ॥४४॥
१ केतलु. २ डाहाउ,
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त्रण बालावबोध सहित
.४९
[जि.] धर्मकार्य ऊपरि जेहहूई माया कपट हुइ अनइ जेहहूई मिथ्यात्वनउ ग्रह कदाग्रह हुइ, जे वली कुगुरु भ्रष्ट गुरु ईसु गुरु करइ ते पुरुष पाप पुण्य जिम पुण्य करी मानइ ॥४४॥
[मे.] धर्मकार्यनइ विषइ जेहनइं माया अनइ मिथ्यात्वनउ जेहनइ ‘कदाग्रहु, उत्सूत्र बोलतउ जे शंका नाणइं अनइ कुगुरु रहइं। सुगुरु करी मानइ ते विदुष डाहउ हूंतउ पाप पुण्य करी मानइ ॥४४॥
- [सो.] धर्मकर्त्तव्य वीतरागनी आज्ञाई जि कीजतउं रूडउं । ए वात कहइं। .
[जि.] अथ जिनेन्द्रनी आज्ञाइं कीधउं धर्मकार्य सफल हुइ । इसुं कहइ। किचं पि धम्मकिचं पूआपमुहं जिणिंदआणाए। ... भूअमणुग्गहरहि आणाभंगाओ दुहदायं ॥४५॥
[सो.] किच्चं पि० करिवा योग्य जे धर्मना कर्त्तव्य देवपूजा प्रासाद दानादिक तेहइ वीतरागनी आज्ञाइ जि करतां सफल थाई।
अन्यायनी लक्ष्मीइं करी कहइ रहई गाढउ ऊचाट संताप करी जिहां पंचेन्द्रिय जीवना वध हुइं एह्वा मोटा आरंभ करी स्पर्धा कीर्तिनई
अभिलाखइं जे धर्मकर्त्तव्य कीजइं ते आज्ञारहित कहीइं। एह जि वात कहइ छइ । भूअमणुग्गह० भूत जीव तेहनउ अनुग्रह अनुकंपा जे धर्मइ करतां नही। निर्द्धधसपणउंई जि हुइ। ते वीतरागनी आज्ञाना" भंग भणी दुःखदाई जि थाइ । जिम मिथ्यात्वीनां एंवडां० धर्मकर्तव्य जीवदयारहित दुःखदायीआइ जि थाइं ॥४५॥ ....
१ दुहादाई. जि. दुहदाइं. २ यात्रादिक. ३ रइं. ४ पणउं जि. ५ आन्याना.
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षष्टिशतक प्रकरण
[जि.] जिनेंद्रनी आज्ञाई जि करी पूआपमुहं पूजाप्रमुख धर्मकार्यई किच्चं करिवउं । अनेरउं किसुंउं कहिवउं । जइ जिनपूजादिक धर्मकार्य वीतरागनी आज्ञाई करइ तउ सफल । अन्यथा निष्फल इति भावः । भूयमणुग्गहरहिअं आणाभंगाउ दुहदायं । जिनाज्ञा5 भंगइतउ जीवानुकंपारहित हूंतउं धर्मकार्य कीधउंई सामुहुँ दुःखदायक हुइ ॥ ४५॥
[मे.] कर्त्तव्य धर्मनां करणीय वांदणां पडिक्कमणां पूजाप्रमुख वीतरागनी आज्ञाई जि करतां सफल थाई । भूत प्राणी तेहनउ अनुग्रह
अनुकंपा तिणि करी रहित ईणिहि जि कारणि आज्ञानउ भंग । अनइ roतेह आज्ञाभंग लगी धर्मनां कर्त्तव्य दुःखदायक हुइं ॥ ४५ ॥
.. [सो.] एक जीव घणाई धर्मकर्त्तव्य करइं। पुण कांई मिथ्यात्व न छांडइ । एह ऊपरि कहइ छइ ।
[जि.] अथ मिथ्यात्वी लोकहूई हितवचन बोलइ । कट्ठे करंति अप्पं दमंति व्वं चयंति धम्मत्थं । 15 इकं न चयंति मिच्छत्तविसलवं जेण बुडुति ॥४६॥ .. [सो.] कटं करंति० एक जीव छट्टट्ठम मासक्षपणादिक अनेक तपनां कष्ट करई । अप्पं दमंति आपणपउं दमइं । शील पालइं.। अनेक खावापीवाना नियम पालई । दव्वं चयंति० धर्मनइ कारण लक्ष्मी सइ सहस लाष कोडिप्रमाण वेचइ। इन चयइ० पुण 2०एक मिथ्यात्वरूपिआ विसनउ लव न मूंकइ । कांई कांई मिथ्यात्व
करई जि । जेण बुड्डुति जीणइं मिथ्यात्वि' करी संसारसमुद्रमाहि "बूडाई ॥ ४६॥
१ जि. धम्मत्थी. २ मे. चयहिं. ३ कारणि, ४ विसनु. ५ मिथ्यात्व. •६ बूडई..
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श्रण बालावबोध सहित
[जि.] कष्ट करइ । आपणपउं दमई । धर्मार्थी लोक द्रव्य गृह सर्वस्वसार चयंति त्यजइं । एतलडं पूर्वोक्त करई । पुण एक उत्सूत्रविषलव न त्यजई, जिणि उत्सूत्रविषलवि करी जीव संसारसमुद्रि बूडइं । तिणि कारणि उत्सूत्र बोलिवउं नही ॥ ४६॥
[मे.] कष्ट करई । आपणपउं दमई । इंद्रिय कशि करई ।। धर्मनइ काजि शत सहस्र धन वेचइं । पणि एक उत्सूत्रनउ लवलेश न. मूंकइं, जेह लगी संसारसमुद्रमाहि बूडइं ॥ ४६॥
[सो.] धर्मवंति सुगुरुनी संगति करिवी । ए वात कहइ छइ । [जि.] अथ सुसंसर्गि धर्मोपराग वाधइ इसुं. कहइ ।
[मे.] पुण्यवंते सुगुरुनी संगति करिवी । सुद्धविहिधम्मराओ वड्ढइ सुद्धाण संगमे सुअणा। सोविअअसुद्धसंगे निउणाण विगलइ अणुदिअहं ॥४७॥
[सो.] सुद्धविहिः सूधी विधि खरु आचारु खरउ धर्म तेह ऊपरि अनुराग बांधइ । सुद्धाण सं० जु सूधा खरा चारित्रिया । गुरु अथवा खरा श्रावकनी संगति करइ । हे सुजन ! सो विअ० ते 5 खरी विधि खरा धर्मनउ अनुराग असुद्ध भ्रष्टाचारु गुरु भ्रष्ट श्रावकनी संगति करइ ते निउणाग वि डाहाइ रहई गलइ जाइ । निरंतर उछउ थाइ । यत उक्तं श्रीउपदेशमालायां
आलावो संवासो वीसंभो संथवो पसंगो अ।
हीणायारेहि समं सव्वजिणिंदेहिं पडिकुट्टो । १ जि. मे. सुयणु. २ 'खरा चारित्रिया गुरु अथवा' एटलु नी. ३ असुद्ध जु. ४ नियंतर.
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, षष्टिशतक प्रकरण
. . अन्नुन्नजंपिएहिं हसिउद्बुसिएहिं खिप्पमाणो अ। .... पासत्थमज्झयारे बला वि जई वाउली होइ ॥ (गा. २२३-२४ ) - [जि.] हे सयण स्वजन ! सुद्धाण संगमे शुद्ध गुरुनइ संजोगि सुद्ध विधि निर्मलाचार धर्मानुराग वाधइ । सो विअ ही जु शुद्धविधिधर्मानुराग अशुद्ध भ्रष्टचारित्रियानइ प्रसंगि निउणाण वि निपुण डाहांईनउ अनुदिन प्रतिदिन गलइ विणसइ । मूर्षनउ धर्मानुराग कुसंसर्गि विणसइ । तेहनउं किसुं ॥ ४७॥
[मे.] सूधी वीतरागनी भाषी विधि तेहनइ विषइ अनुराग वाधइ । सुद्ध खरा चारित्रिया तेहनइ संगमि । हे स्वजन ! ते पुण ०असूधा उत्सूत्रना बोलणहार तेहनइ संगिइं निपुण डाहाइनइ विषइ धम्मनी मति गलइ । अनुदिवस निरंतर ॥४७॥
[सो.] जिहां भ्रष्टाचारनुं बल हुइ तिहां धर्मवंतिइ न वसिवउं । ए वात बिहु गाहे कहइ छइ ।
: [जि.] मिथ्यात्वीमाहे श्रावकि न वसिवउं । इसुं कहइ । 15. [मे.] जिहां कुचारित्रिया वसई रहई तिहां धर्मवंते वसिवर्ड • नहीं । ए संबंध बिहुँ गाहे कहइ ।
जो सेवइ सुद्धगुरू असुद्धलोआण सो महासत्तू । तम्हा ताण सयासे बलरहिओ मा वसिजासु ॥४८॥
[सो.] जे सुद्ध गुरु सुविहितचारित्रिया तेहनी सेवा करई ते २०असुद्धलोआण० असुद्ध मिथ्यात्वी भ्रष्टाचार रहई जे आश्रित लोक ८ छइं तेह रहइं ते महावइरी जेह भणी ते तेहरई उच्छेदिवा जिवांछइ । तम्हा ताण. तेह भणी मिथ्यात्वी भ्रष्टाचाराश्रित लोक कन्हइ
१ रहइं. २ 'जि' नथी.
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श्रण बालावबोध सहित श्रावकि बलरहित हुतई न वसिवऊँ । जु काई ठाकुर महूंता प्रधाननउं बल हुइ तउ वसिवउं ॥४८॥
[जि.] जे पुरुष सुद्ध गुरु सेवइ ते शुद्ध गुरु सेवणहार श्रावक असुद्धलोआण मिथ्यात्वाश्रितहूई महासत्तू महावइरी । तम्हा तिणि कारणि ताण सगासे तेहां असुद्ध लोकनइ समीपि बलरहिओ 5 नीबल हूंतइ श्रावकि न विसवउं । किंतु साहम्मीमाहे वसिवउं ॥ ४८॥
[मे.] जे सूधा गुरुनई सेवइं ते अशुद्ध लोक मिथ्यात्वी भ्रष्टाचारीनइं ते महावयरी जेह भणी तेहनई उच्छेदिवा वांछइ। तम्हा तेह भणी भ्रष्टाचारी मिथ्यादृष्टि आश्रित लोक कन्द श्रावकि बलरहित हूंतइ वसिवउं नहीं ॥४८॥
[जि.] एह जि अर्यु प्रकारान्तरि के समयविऊ असमत्था सुसमत्था जत्थोजिर्णमए अविना तत्थ न वदृइ धम्मो पराहवं लहइ गुणरागी ॥४९॥
[सो.] समयविऊ सिद्धांतना जाण धर्मवंत जिहां असमर्थ हुई। सुसमत्था० अनइ जिहां जिनमतना अजाणा5 मिथ्यात्वी भ्रष्टाचारी अतिसमर्थ हुई । तत्थ न वदृइ० तिहां धर्म न वर्तइ । चालइ नहीं। तिहां पराहवं० गुणनउ अनुरागी धर्मी जीव पगि पगि पराभवइ जि लहइ । अपमान जि प्रामइ ॥ ४९॥
[जि.] जिणि स्थानकि समयविऊ सिद्धांतना जाण जैन असमर्थ हुई अनइ वली जिणमए अविऊ सिद्धांतना अजाण०० मिथ्यात्वी लोक जिहां सुसमत्था अतिसमर्थ सबल वसई तिहां
१ मे. पराभवं. २ धर्मार्थी. ३ पराभव.
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पष्टिशतक प्रकरणं
वसता श्रावकनउ धर्म न वाधइं। किंतु सामुहउं धर्मानुरागी श्रावक पराभव लहइं ॥ ४९॥
[मे.] समय सिद्धांत तेहना जाण जिहां असमर्थ हुइं अनइ जिनमतना अजाण जिहां गाढा समर्थ हुई तिहां धर्म वाधइ नहीं । 5 तिहां गुणानुरागी धर्मवंत पगि पगि पराभव लहइ । हलूपण पामइं ॥४९॥
[सो.] कुमार्गी पापी समर्थ हुंतउ जं धर्मना काज माहि न मिलइ तउ रूडउं । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] मिथ्यात्वी लोक धर्मवंत न हुइ तउ भलउं । तेहनउं 1०कारण कहई।
जं न करइ अइभावं कुमग्गसेवी' समत्थओ धम्मे। ता लढें अह कुजाता पीडइ सुद्धधम्मत्थी ॥५०॥
[सो.] जं न करइ० जं अमार्गसेवी कुमार्गी मिथ्यात्वी खुंट खरड' राजादिकि मानिउ समर्थ हूंतउ धर्मनइ विषइ अतिभाव न 15करई, धर्मना काजमाहि न मिलई ता लढें तु रूडउं । जु धर्मनां काजमाहि मिलइ, माहिल्या मर्म जाणइ तउ ता पीडइ० शुद्ध धर्मार्थी रहइं चाडी भाडीइं करी पीडइ । अथवा. जं ते मिथ्यात्वी समर्थ हुंतउ आपणा धर्म मिथ्यात्व म्लेच्छादिकना मत उपरि अतिभाव न
करइ, बरड बटींगइ जि जउ हुइ तउ भलउ । जउ ते आपणा मत 20ऊपरि घणउ भाव करइ तउ आपणा मतनइं कदाग्रहइं बीजाइहूई
१ 'ए...छइ' नथी. २ जि. उमग्गसेवी, मे. अमग्गसेवी. ३ खरड चाड, ४ माहिला. ५ चाडीवच्चाडीइं. ६ मिथ्यात्वी:
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aण बालावबोध सहित
आपणा मत मनाविधा भणी शुद्ध धर्मार्थी रहई पीड । आपणउ धर्म करावइ बलात्कारिहं ॥ ५० ॥
५५
[ जि] उन्मार्गसेवी मिथ्यात्वी समर्थ सबल हूंतउ धर्म ऊपरि अत्तिभाव गाढी वासना ज न करई ता लठ्ठे ते भलउं । अह अथवा मिथ्यात्व धर्म ऊपर आदर करइ ता तर पछइ सुद्धधम्मत्थी 5 निर्मल धर्मकरणहार हूई पीडह दूहवइ ॥ ५० ॥
[ मे. ] जे कुमार्गनउ सेवणहार समर्थइ इंतउ धर्मन विषइ अतिभाव न करइ धर्मना काममाहि मिलद नहीं ता लठ्ठे तउ रूडउं । अथ जउ किमइ करइ तर आपणा मत मनाविवा भणी सुद्ध धर्मार्थीनइं चाडीहनी करी पीडइ । आपणउ धर्म बलात्कारि करावइ - ०
॥ ५० ॥
[ सो.] जह सर्व श्रावकहूई एकपणु हुई तउ धर्मनई ' पराभव करी न सकई । ए बात कहइ छइ ।
[ जि. ] श्रावकहूई वसिवानउ प्रकार कही साहम्मीमा हे समेला होउं । इसुं कहइ छइ ।
6
15
जइ सव्वसावयाणं एगन्तं हुत मिच्छवायम्मि । धम्महियाण सुंदर ता कह णु पराहवं कुज्जा ॥ ५१ ॥
[ सो. ] जइ सव्व० जइ सर्व पक्षना श्रावक रहई मिथ्यात्त्वना वादनt विषइ एकमत हुइ । सविहून मनु एक सरिखड मिथ्यात्व निर्लोठवा अथवा जिनमत स्थापवा ऊपरि हुइ त 20 धम्मट्टियाण० धर्मार्थी लोक रहइ हे सुन्दर ! ता कह० तः मिथ्यात्वी पराभव अपमान किम करत ? न करत | पुणे कालनइ
१ रहई. २ धर्म रहनं. ३ जि. कहण.
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षष्टिशतक प्रकरण
विशेषिई माहोमाहि जि जूजूआं मन । तीणइं करी मिथ्यात्वी पराभव करई ॥५१॥
[जि.] जइ किमइ सर्व श्रावकहूई एकमत एकधर्मीपणउं हुंत होयते ता तउ हे सुन्दर ! मिथ्यात्ववादमाहे धर्मार्थी धर्मवंत 5 श्रावकहूई कहण कउण एक पराभव अपमान कुजा करत ? अपि
तु श्रावकहूई कोइ पराभव न करत । किं तु सहू कोई मानत ॥५१॥ __ [मे.] जउ किमइ सर्व पक्षना श्रावक मिथ्यात्वी साथि विवादि ऊपनइ हूंतइ एकई मति हुई तउ हे सुंदर ! धर्मार्थी धर्मस्थित तेहनइ, कहउ न, कउण पराभव करत ? अपि तु कोई न करत ॥५१॥
10 [सो.] जे पुरुष महर्द्धिक धर्मनु आधार हुई तेहनी प्रशंसा करई छई। .
[जि.] अथ श्रावकाहे मोटा श्रावकहूई गरूयडि देखालइ । तं जयई पुरिसरयणं सुगुणड्डे हेमगिरिवरमहग्छ ।
जस्सासयम्मि सेवइ सुविहिरओ सुद्धजिणधम्मं ॥५२॥ 15 [सो.] ते पुरुषरूपिउं रत्न जयवंत वर्तउ। सुगुणडं
उत्तमगुणे करि आढ्य पूरिउं । हेमगिरि० सोनानउ पर्वत मेरु तेहनी परि महार्घ ते पुरुष सर्वोत्तम कहिवाइ। जस्सासयम्मि जेहनइ आश्रइ जेहनइ वलि' सांनिध्यइं करी सुविहिरओ सुविधिरत साचा धर्मनउ आराधक सूधउ निष्कलंक जिनधर्म सेवइ आराधइ । जेहनइ २०बलि धर्म चालइ, जे पुरुष धर्मवंतनइं आधार दिइ ते पुरुष गाढ उत्तम कहीइं ॥५२॥ . .
१ जि. मे. जयउ. २ सोनानु. ३ महर्म्यं. ४ बलि. ५ गाढ.
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त्रण बालावबोध सहित
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[जि.] ते पुरुषरत्न जयवंतु हुउ । किसउ छइ पुरुषरत्न ? मुगुणड़े सु भला परोपकारादिक गुण तेह करी आढ्य समृद्ध भरिउ पूरिउ । वली किसु छइ ? हेमगिरिवर मेरु पर्वत तिह सरीषउ महर्घ्य पूज्य मानीतउ। मोटाई करी मेरुपर्वत सरीषउ। ते पुरुषरत्न कउण ? जस्सासयम्मि जेह पुरुषरत्ननइ आश्रयि आधारि सुविधिरत इ. सन्मार्गसेवणहार सुश्रावक सुद्धजिणधम्मं निर्मलउ जिनधर्म सेवइ ॥५२॥
[मे.] ते पुरुषरत्न जयवंतउ हुउ, जे सोभन भला गुण तिणि करी आढ्य सहित । वली ते पुरुष केवहउ ? मेरुपर्वत तेहनी परि महर्घ्य । जेहनइ आश्रइ सांनिध्य लगी सुविधि भली विधि तेहनइ विषइo तत्पर हूंतउ सूधउ जिनधर्म सेवइ आराधइ ॥ ५२ ॥
[सो.] वली एह जि वात कहइ छइ ।
[जि.] बली संधि पुरुषिहूई मोटाई प्रकासइ । सुरतरुचिंतामणिणो अग्धं न लहंति तस्स पुरिसस्स । जो सुविहिरयजणाणं धम्माधारं सया देइ ॥५३॥ 15
[सो.] कल्पद्रुम चिंतामणि लोकमाहि मनोवांछित देनहार' भणी अति उत्तम कहीइं। पुण तेह पुरुषनउ ते अर्घ मूल न लहइ । ते पुरुष तेहइ पई गाढउ' उत्तम । जो सुविहि० जे पुरुष सुविधिरत खरी विधि खरी सामाचारीना आराधण्हार' लोक रहई धर्माधार सदैव दिइं। कल्पद्रुम चिंतामणि एकइ जि भविं इह२० लोकनु उपकार मात्र करई । आ पुरुष धर्मनु उपकार करतउ .
१ दिन्हार. २ पाहइं. ३ गाढ. ४ आराधन्हार, ५ एक.
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षष्टिशतक प्रकरण
स्वर्गमोक्षादिकनां सुख दिनं । तेह भणी कल्पद्रुम चिंतामणि सरीषु किम कहिवाइ ? || ५३॥
५८
[ जि. ] तेह पुरुषहूइं सुरतरु कल्पवृक्ष चिंतामणि रत्न अर्घ पूजा न हई | तेह पुरुष सरीषा न हुई । किं तु कल्पवृक्ष चिंतामणि पाह 5 अधिक दातारपणात ते पुरुष मोटउ ते किसु ? जे पुरुषरत्न सुविधिरत जनहू सन्मार्गतत्पर लोकहूहूं धर्मनु अवष्टंभ दि ॥ ५३ ॥
[मे. ] कल्पवृक्ष चिंतामणि प्रमुख पदार्थ धर्माधार पुरुष आगलि मूल कांई न हई | समवडि न पामई । जे सुविधि भली विधि तेहन रत जन लोक तेन सदा धर्मनउ आधार दिनं ॥ ५३ ॥
IO
छइ
[सो. ] को कहिसिइ 'ते' पुरुषनई वर्णविवई' सिउं काज ए बात ऊपरि कहई' ।
[ जि.] तिणि कारणि तेहां सत्पुरुषनां नामग्रहण करिवउं । पवित्र होइवा भणी | इसुं कहइ |
लजंति जाणिमो हं सप्पुरिसा निअयनामगहणेणं । पु तेसिं कित्तणाओ अम्हाण गर्लति कम्माई ॥ ५४ ॥
[ सो. ] लज्जंति० ए वात जाणउं" । जं सत्पुरुष आपणा नाम लेव, कोई तेहनउं नाम लेई वषाणइ तु लाजई जि । नीचुं साहुं जोई। पुण तेसिं० पुण तऊ तेहनुं कीर्त्तन गुण बोलउं छउँ । ते कारण ए तीणई करी अम्हारां कर्म गलई पाप फीट । कर्मनिर्जरा 20हुइ। आपणाइ जि लाभ भणि की जई छ । इस्यु भाव ॥ ५४ ॥
१ तेह. २ वर्णव इं. ३ कहइ छइ. ४ जाणउं छउं . ५ जे. ६ बोलई. ७ छई.
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मण बालावबोध सहित
[जि.] हउं इसुं जाणउं । सत्पुरुष धर्माधारनउ दातार पुरुष निजक नामग्रहण करी लाजइं । जइ लाजइं तउ लाजउ । पुण तेसिं कित्तणाओ पुण तेह सत्पुरुषनां नामकीर्तनइतउ बोलिवातउ अम्हारां कुकर्म गलई फीटइं । सत्कर्म उदय पामइं ॥ ५४॥
[मे.] हउं इसउं जाणउं जे सत्पुरुष आपणा नामग्रहणि लीजतइ लाजइं । पणि तेहनउं कीर्तन वषाण करतां अम्हारां कर्म गलई । एह भणी सत्पुरुषनउं नामु लीजइ ॥५४ ॥
[सो.] धर्मइ करतां जि धर्म न हुइ । ए बात कहइ छइ । [जि.] जिनाज्ञा पाषइ धर्म कीधउ निःफलु । इसुं कहइ । आणारहिअं कोहाइसंजुअं अप्पसंसणत्थं च। ० धम्म सेवंताणं न य कित्ती नेव' धम्म च ॥ ५५॥
[सो.] जे धर्म आराधइं पुण वीतरागनी आज्ञारहित निह्नवादिकनी परि । अनइ क्रोधादिकिइं करी संयुत धर्म करई । यावज्जीव वरिस चउमास ऊपहिरा क्रोध मान माया लोभ धरई । परइ धर्मक्रिया करई । तथा अप्पसंसणत्थं च । को आपणी प्रशंसा भणी धर्मग्5 करइ । जिम · लोक मू रहई वषाणइ । हुं लोकमाहि रूडउ भावउं' इसी बुद्धिइं धर्म करइ । धम्मं० ईणइ प्रकारइ धर्म करतांइं एहूई न य कित्ती० इह लोकि कीर्तिइ नही । परलोकि धर्मऊ नही । कर्मक्षय न हुई । काज काई सरइ नहीं ॥ ५५ ॥
[जि.] जिनाज्ञारहित, क्रोध मान माया लोभप्रमुखसंजुक्त५० आत्मप्रशंसानइ अर्थि धर्म सेवता धर्म करता पुरुषहई न य कित्ती लोकमाहे वर्णनाइ नही । अंतरंगमाहे धर्म नही ॥५५॥
१ जिम. २ जि. मे. नेय. ३ एहई.
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. षष्टिशतक प्रकरण
., [मे.] आज्ञाइं करी रहित, क्रोधादिसंयुक्त, आपणी प्रसंसानइ अर्थि धर्म सेवता हूंता कीर्ति पणि न हुइ । धर्म पणि न हुई ॥ ५५ ॥
[सो.] वली उत्सूत्रभाषी ऊपरि बि गाह कहइ छइ । - [जि.] अथ उत्सूत्रभाषी पुरुषनउं स्वरूप कहइ। . 5 [मे.] वली उत्सूत्रभाषी ऊपरि बि गाह कहइ। इअरजणसंसणाए घिट्टा उस्सुत्तभासिए न भयं । ही ही ताण नराणं दुहाई जइ मुणइ जिणनाहो ॥५६॥
[सो.] इअरजण. इतरजन सामान्य अजाण लोक तेहनी प्रशंसा करइं । 'ए भला' इम वषाणइं । तीणइं करी धीरष्ट हुंता ioअभिमानि चड्या उत्सूत्र बोलतां मनमाहि भय न आणइ । भावइ तिस्यां उत्सूत्र प्ररूपई । ही ही० अहाहा ! तेह पुरुष रहइं परलोकि दुर्गति ग्यां हुंतां जे दुःख हुसिइं ते दुःखनुं स्वरूप जिननाथ श्रीसर्वज्ञ जि जाणइ । अनेरउ' को न जाणइ । ति दुःख जिह्वाए केतलीए न बोलाइं ॥५६॥ 15 [जि.] इतर जन सामान्य लोक तेहनी प्रसंसाइं करी हिट्ठा साहंकार आपणपउं मोटा मानइं जे अनइं जेहहूई उस्मुत्तभासिए उत्सूत्रसिद्धांते न कूडउं तेहनउं भाषण बोलिवउं तेह हूतउ भय नही । कूडउं बोलतां जेहहूई पापनउ भय नहीं। ही ही खेदे। तेहे सगर्व तणां
उत्सूत्रभाषक नर तणां दुहाई हउणहार दुःख जइ किमइ मुणइ जाणइ 20तउ जिणनाहो श्रीसर्वज्ञदेव जाणइ । दुःखहूई प्रचुरपणातउ अनेरउ छद्मस्थ जाणी न सकइं । जे सगर्व हूंतु उत्सूत्र बोलइ तेहहूइं अनंतां दुःख हुइ । जिम' मरीचिह्इं उत्सूत्र भाषणतउ घणां हूयां ॥५६॥
१ जि. मे. हिट्ठा. २ दुःखनउं. ३ अनेरु.
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or aroraati सहितं
- ६१
[ मे. ] इतर जन सामान्य लोक तेहनी प्रसंसा सांभली हृष्ट हर्षित हूंता अहंकारि चड्या उत्सूत्र बोलता भय नाणई । भावइ तिम उत्सूत्र बोलई । ही ही इसइ खेदि । ते पुरुषनइ परलोक जे दुक्ख होsस्य ते वीतरागइ जि जाइ ॥ ५६ ॥
[ जि.] अथ उत्सूत्रभाषणनं फल कहइ ।
उत्त भागाणं बोहीनासो अनंतसंसारो । पाणचए वि धीरा उस्सुत्तं ता' न भाति ॥ ५७ ॥ [ सो.] उत्त० उत्सूत्रना बोलनहार रहई बोधिबीजनउ नाश हुइ । आवते भवे सम्यक्त्व लहइ' नहीं । अनंतर संसार वाधई । अनंता भवनां दुःख भोगवइ । पाणचए वि० तेह भणी प्राणत्याग 10 जीवतव्यनइ संकटि पड जे धीर धर्मवंत ते उत्सूत्र न बोलई ॥ ५७ ॥
४
[ जि. ] उत्सूत्रभाषक पुरुषहू बोधि सम्यक्त्व तेहनउ नास हुइ । तिणि कारण बोधि पाषइ अनंतर संसार | ता तिणि कारणि प्राणत्यागई प्राणई जातइ हुंतइ धीर धर्मपर साहसिक उत्सूत्र न भाषई न बोल । वरि प्राणई नीगमई । पुण कूडउं न बोलई । तथा चोक्तं s श्रीउपदेशमालायां—
जीअं काऊण पणं तुरुमिणि दत्तस्स कालियज्जेणं ।
अवि य सरीरं चत्तं न य भणियमहम्मसंजुत्तं ॥ (गा. १०५ ) [.] उत्सूत्रना बोलणहारनई बोधिबीजनउ नाश हुइ । अनंतउ संसार हुइ । ते भणी प्राणनइ त्यागिनं धर्मवंते उत्सूत्र न बोलिवउं 20
॥ ५७ ॥
१ ते २ बोलन्हारु. ३ लहं. ४ पडिइ.
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६२
' षष्टिशतक प्रकरणं
[सो.] अविधि वखाणवउ नहीं। ए वात कहइ छइ ।
[जि.] उत्सूत्रभाषणनिषेध करी असन्मार्गनी वर्णनाइ न करिवी । इम कहइ छ।। मुद्धाण रंजणत्थं अविहिपसंसं कयाइन करिजा। 5 किं कुलवहुणो कत्थ वि थुणंति वेसाण चरिआइं॥५८॥ १ [सो.] मुद्धाण. मुग्ध लोला तेहना रंजववा आवर्जवा भणी अविहि. उन्मार्गमेलु कोई करतु हुइ तेहनी प्रशंसा जाणि कहीई न करिवी । दृष्टांत कहइ छइ । किं कुल० उत्तम कुलनी वधू स्त्री महासती ते किहांइं वेश्या अधम स्त्री असती तेहनां चरित्र 1०वखाणइ ? न वषाणइं जि । तिम* उत्तम उन्मार्गनी प्रशंसा न करइं
जि ॥ ५८॥ . [जि.] मुग्ध मूर्ष तेह रंजिवानइ अर्थि कारणि अविधिप्रसंसा
कुमार्गाचारनी वर्णना कयावि किवारई सत्पुरुष न करिजा न करई । किं कुलवहुणो कुलवधू कुलस्त्री वेसाण चरियाई वेश्यानां 15चरित्र कर्त्तव्य कत्थ वि किहाई स्तवइं वर्णवइ ? अपि तु न स्तवइं । कुमार्गनी प्रसंसाई कीधी हूंती दोष भणी हुइ इति भावः ॥५८॥
[मे.] मुग्ध लोला लोक तेहनइ रंजिवा भणी अविधिनी प्रसंसा कहीइ न करिवी। किसउं कुलवधू किवारई वेश्या असतीनां २०चरित्र वषाणइं? अपि तु न वषाणई । तिम उत्तम उन्मार्गनी प्रशंसा न करइं जि ॥ ५८॥
१ अवधि. २ जि. मे. कयावि. ३ जि. थुवंति. ४ भोला. ५ रंजवा. ६ कहीइहि. ७ करवी. ८ ते.
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त्रण बालावबोध सहित [सो.] वीतरागनी आज्ञा जि ऊपरि वात कहइ छइ ।
[जि.] किसा जीव जिनाज्ञा न भांजइ । किसा भांजइ । इसी व्यक्ति करइं। जिणआणाभंगभयं भवसयभीआण होइ जीवाणं । भवभयअभीरुआणं जिणआणाभंजणं कीडा ॥५९॥ 5
[सो.] जिण० जिन वीतरागनी आज्ञानु भंग तेहनु भय तेह रहई हुइ । भवसय. जे संसार बांधिवानइं भई करी बीहता हुइं जीव तेह रहइ हुइ । ते इसिउं जाणइं । 'वीतरागनी आज्ञा भांजीनइ राधे घणा संसारमाहि रुलुई।' जे भवभय० जे संसारना भय थिकु नथी बीहता, धीरठपणुं करइं तेहरई जिन वीतरागनी आज्ञानुं जे भाजिवउं ते क्रीडामात्र । लीलाइं भाजइं । भांजता वार कांई न लागइ ॥ ५९॥
[जि.] भवसयभीयाण जन्मनां शत तेह हूंता भीत बीहता जे जीव तेह जीवहूइं जिनाज्ञानउ भंग भय छइ । जन्ममरण दुःख हूंता जे बीहइ ते जीव जिनाज्ञा न भांजइ । अनइ वली जे15 जन्ममरण हूंता अभीरुक अभीहता तेहनी कीडा रामति जिणआणाभंजणं जिनाज्ञालोपमय जि । जे दुःख हूंता न बीहई ते जिनाज्ञा भांजइ ॥ ५९॥
[मे.] जिन वीतराग तेहनी आज्ञानउ भंग तेहनउ भयु केहनइं हुइ ? जे भव संसारना भय तेहनइ विषइ बीहई । अनइ जे संसार हूंता० बीहता नथी तेहनइं जिनआज्ञानउं भांजिवउं क्रीडामात्र । हेलाइं भांजइं ॥ ५९॥
१°भय'. मे. भय . २ तेहनउं. ३ रई. ४ रखें. ५ थिकुउ. ६ तेह रहइं.
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६४.
षष्टिशतक प्रकरण
[सो.] हिव कहइ. छइ । मूर्खनउ' सिउ दोष ? जे जाण छइ तेह अहंकारि चड्या वीतरागनी आण विराधता देखई नही । ए वात कहइ छ।।
[जि.] जिणिइं जिनाज्ञा भंजाइ ते कर्मपरवशता जीवनी कहइ। 5 को असुआणं दोसो जं सुअसहिआण चेअणा नहा। धिद्धी कम्माण जओ जिणो वि लद्धो अलद्धत्ति ॥६०॥
[सो.] को असुआणं० अश्रुत अपढ मूर्ख तेहनउ कउण दोस ? जं सुअ० जेह भणी श्रुतसहित पाठना धणी तेह' रहई
चेतना नाठी। जाणताइ करता ते वीतरागनी आज्ञारहित उत्सूत्र 10प्ररूपई । धिद्धी० पापियां कर्म जि रहई धिग पडु जेहे कर्मे इम जाणइ रोलवीइं। जिणो वि० जीणइ करी वीतराग देव लाधु अणलाधु थाइ। उत्सूत्र बोलतां परमेश्वर ओलषिउइ अणओलषिउ' थाइ ॥६०॥
. [जि.] असुआणं० अश्रुत सिद्धांतना अजाण तेहनड़ किमु उदोष ? अपि तु न कोई । कांइं ? जं जंउ श्रुतसहितनी ज्ञानवंतनी चेतना नाठी, जिम वाइं हाथीयाई उडइं जइ तउ पूणी ऊडिवानउं किसुं दूषण ? जिहां पंडितई विरांसीइं तिहां मूर्षनउ किसु दोष ? जेह कर्म लगी श्रुतना जाणई भोलवीइं तेह कर्महई धिक्कार पडउ। किम ? जउ . जिणो वि श्रीवीतराग देव लाधुई अणलाधउ करइ । इति इसा २०कारणतउ कर्म नंद्य ॥ ६०॥ . . - [मे.] अश्रुत अपढ तेहनउ कउण दोस ? जउ किमइ श्रुत
१ 'मूर्खनउ......कहइ छइ' एटलो पाठ बीजी प्रतमांथी पडी गयेलो छे. २ मे. अलद्धो. ३ पाढना. ४ तेहइ. ५ अथवा पापियां. ६ लाधुइ. ७ उलषिउइ. ८.अणउलिषिउः . . . . . . . . . . ... .
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प्रण बालावबोध सहित
सिद्धांत तेहनी चेतना नाठी । अथवा धिन्धिःकारक कर्मइजिनइ हु। जेह भणी जिन वीतराग लाधउइ अणलाधउ । कांइं ? उत्सूत्र बोलतां वीतराग अणओलषिउ हूउ ॥ ६० ॥
[सो.] केतलाइ मूर्ख पंडितंमन्य हूंता सूधा धर्मना करणहार रहइ हसइं । ए वात कहइ छइ। - [जि.] अथ जिनधर्म हास्यस्थानक नही । इसुं कहइ । . . [मे.] केतला सूधा धर्मना करणहारनई हसइं । ते कहइ । इअराण वि उवहासं तमजुत्तं भाय कुलपसूआणं । ; एस पुण कोवि अग्गी जं हासं सुद्धधम्मम्मि ॥ ६१॥ ... [सो.] इअराण० इतर अधर्म मूर्ख तेहर्नु जं हासुं० कीजइ, हे भ्रात बांधव ! कुलीन जे पुरुष छइ तेहनइ अयुक्तउं। कुलीन रहई तेहइ करिखा' नावई । एस पुण० ए पुण मोटउ आगि गाढउ विरूउ । जंहासं० जं शुद्ध निष्कलंक धर्मना आराधक रहई हसीइ ॥ ६१॥ . , . [जि.] हे भाय हे भ्रातः-! इअराण वि मूर्षइनउं उपहास्याऽ जे हुइ ते उपहास्य कुलप्रसूतहूई अयुक्तउं । एतावता अकुलोत्पन्ननउं हासउं मूर्षई न करई । एषः पुनः कोऽपि अग्निः। आ कोई वली आगि जउ शुद्धइ निर्मलइ धर्मि हासउं ॥ ६१ ॥
[मे.] इतर पामर लोक तेहनूइ हासउं कुलना प्रसूत तेहनई हे बांधव ! युक्तउं नहीं। ए कोई मोटउ आगि जे सूबा जिनधर्मनउं20 हासउं कीजइ ॥ ६१॥
१°मन्यइ. २ तीहनुं ३ हासं. .४ जेह. ५ कहिवा, . .
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षष्टिशतक प्रकरण
[ सो.] गाढा मिथ्यात्वी पापीई' रहइ उत्तम हित करिवउँ चवई' । ए बात कहइ छ । बिहु गा करी ।
[ जि . ] अथ सत्पुरुष दुष्टईहूई हित करई । इसे जाणावइ । दोसो जिदिaaणे संतोसो जाण मिच्छपावस्मि । 3 ताणं पि सुद्धहियया परमहिअं दाड़मिच्छंति ॥ ६२ ॥
[सो. ] दोसो० जेह रहइ जिनेन्द्रना वचन ऊपरि वीतरागना धर्म ऊपर दोष अनइ मिथ्यात्व पाप ऊपर संतोष छह, मन तिहां बइठूं छइ । ताणं पि० जेहनां हियां सुधां निष्कषाय निर्मल छई ते तेहइ" रहई धर्महित देवा वांछ । धर्मनु लाभ करिवु चीतवइ | जाण ० किन्हई ए" बापडा धर्म मिलई तू रूडउं ॥ ६२ ॥
[जि.] जाण जेहहू जिनेन्द्रनां वचन ऊपरि द्वेष हुइ, वली जेई मिथ्यात्ववाद ऊपरि संतोष हुइ, एतावता जिनवचन जे न मानई, किं तु मिथ्यात्व मानई तेहईहूई शुद्धहृदय निर्मलचित सत्पुरुष परम हित देवा वांछइ ॥ ६२ ॥
$5
[.] जेहन जिनेन्द्रनां वचन ऊपरि द्वेष हुइ, जेहनइ ट मिथ्यात्व ऊपर संतोष हुई, तीयांइनई सुद्धहृदय निर्मल चित्तना धणी परम हित देवा वांछइ ॥ ६२ ॥
^ [ जि . ] अथ पूर्वोक्त अर्थ युक्तउ करी स्थापई ।
८५
• अहवा सरलसहावा सुअणा सव्वाथ हुंति अविअप्पा | 20 छतविसभराण' वि कुणंति करुणं दुजीहाणं ॥ ६३ ॥
१ पापी. २ चीतइ. ३ मिच्छवायम्मि ४ द्वेष. ५ तेहरईं. ६ करिवउ. ७ एहइ. ८ मे सुहावा. ९ जि. मे. छड्डति'.
C
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भ्रण बालावबोध सहित
[सो.] अहवा० अथवा जे सुजन हुइं ते सविहुं ऊपरि सरलस्वभाव हूंता किहांइ विकल्प नाणइ । रूडा' नइ विरूआइ सविहुं ऊपरि हित चीतवइ । छडूंत. जे द्विजिह्व साप विषना भर समूह छांडइं गरलइ जि मूकई ते ऊपरि उत्तम दयाइ जि करइं। जे चाड दुर्जन कुवचन बोलई ते ऊपरि उत्तम 'ए बापडउ किमइ पुण्य 5 प्रामिसिइ ? ' इसी दया जि करई ॥ ६३ ॥
[जि.] अथवा सरलस्वभाव स्वजन सगा सर्वत्र अविकल्प विकल्परहित हुई। जिम लोक आपणां लोचन ऊपरि विकल्प भेद
आंतरउं कांई न करइं। तथा ते वली सर्परूप द्विजिह्वहूइं करुणा दया करई । जिम श्रीपार्श्वनाथि सर्प ऊपरि दया कीधी ॥ ६३॥ १०
[मे.] अथवा सरलस्वभाव जे स्वजन ते सघले किहांई विकल्प नाणई । समभाव आणइं । विषना भर गरल छांडई छई जे द्विजिह्व सर्प तीहइं ऊपरि करुणा आणइं । जे चाड दुर्जन कुबोल बोलई तेहइ ऊपरि उत्तम चीतवई जि 'ए बापुडउ किमही पुण्य पामिस्यइ ?' इसी जे दया करई ॥ ६३ ॥
... [सो.] सम्यक्त्व गाढू दुर्लभ छइ । ए वात कहइ छइ ।
[सो.] अथ विरला केई एकहूई सम्यक्त्व छइ । न सघलाईहूई । इसुं कहइ।
[मे.] सम्यक्त्व गाढउं दुर्लभ छइ । ए वात कहइ । गिहवावारविमुक्के बहुमुणिलोए वि नस्थि सम्मत्तं । २० आलंबणनिरयाणं सड्ढाणं भाय किं भणिमो॥६४॥
१ रूडाइ. २ 'जि' नथी. ३ तेहइ. ४ दया. ५ जि. मे. गिहि. ६ जि. निलयाणं.
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६८
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षष्टिशतक प्रकरण
[सो.] गिह० घर कुटुंबना व्यापार जेहे छांड्या छइं ते घणा मुनिलोक महात्माइ. माहि सम्यक्त्व नथी । जेहनइ काजकाम कांई नथी तेहनां मन रोगि कष्टि' आवि मिथ्यात्व करिवा लहबई ।
आलंबण. जे श्रावक गृहस्थ जेहनइ अनेक छोरू बेटा बेटी विवाह 5 वृद्धि व्यवसाय काजकामनां आलंबन छइं तेहनइ मिथ्यात्वनइ विषय लहबहिवा, अहोभ्रात ! किसिउं कहीइ ? ॥ ६४॥
[जि.] गृहस्थव्यापार गृहप्रारंभादिक तिणि करी विमुक्त रहित एवहा बहु प्रचुर मुनिलोक तेहइमाहे सम्यक्त्व नथी । हे
भाय हे भ्रातः ! आलंबननिरत श्रावकहूइं किसु भणां ? जिहां 1०सर्वसंगविनिर्मुक्त महात्माईहूइं सम्यक्त्व न हुई तिहां श्रावकहूई किहां हूतूं ? इति भावः ॥६४॥
[मे.] जेहे घरना व्यापार मूक्या छइं एवहा घणा जे मुनिलोक तेहनइं सम्यक्त्व नथी । ए भ्रात ! रोगि काष्टिं पीड्या हूंता आलंबनना निलय जे श्रावक ते जउ सम्यक्त्व थका लहबहई तिहां सिउं कहिवउं ? 15|| ६४॥
[सो.] उत्सूत्र बोलतउ जीव संसारमाहि पडइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जीव उदिसी कि उपदेस बोलइ । न सयं न परं कोवा जइ जिअ उस्मुत्तभासणं विहि। aता बुड्डसि निभंतं निरत्ययं तवफडाडोवं ॥६५॥
[सो.] न सयं० आपणपइं अथवा अनेरइं कुणहिं कांई न थाइ । कोवा० कोप लगइ अहंकारि चडिउ जउ रे जीव ! उत्सूत्र
१ कष्टि दुःखि. २ भ्रात बांधवइ. ३ कुणहई.
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त्रण बालावबोध सहित श्रीजिनवचन' विरुद्ध बोलिसि ता तउ निब्भंतं निश्चिइ संसारसमुद्रमाहि बूडिसि । कुणहिं रखाइसि नहीं। जउ विरासइं अजाणिवा लगइ काई उत्सूत्र बोलइ अनइ पछइ जाण्या पूठिइ मिच्छा मि दुक्कड दिइ, आलोइ तु छूटई । इसिउ भाव । निरत्थयं० उत्सूत्र बोलता तप क्रिया नियम सामाचारीनु स्फटाटोप आडंबर निरर्थक 5 जाणिवउ । तीणइ करी संसारमाहि बूडता न रहीइं ॥६५॥
[जि.] कोई आपणउई नही अथवा पर अनेरउ कोई नथी । रे जीव ! जइ तइं उत्सूत्रभाषण कीधउं ता तउ पछइ निभ्रांत निःसंदेह बूडिसि । तपनउ स्फुटाटोप आडंबर निरर्थक । तूं जाणइ छ। 'तपनइ आडंबरि नही बूडउं' ए फोकट जाणि । तिणि कारणि उत्सूत्रा० म बोले ॥६५॥
[मे.] न आपणपइं न परपाहंति अथवा कोप लगी अहंकारवशि रे जीव ! जउ उत्सूत्रनउ भाषण कीधउं तउ तउं भ्रांतिरहित संसारसमुद्रमाहि बूडिसि। उत्सूत्र बोलतां तप नियम क्रिया सामाचारी स्फटाटोप आडंबर निरर्थक फोक जाणिवउ ॥६५॥
15
[सो.] साचा धर्मना धणीनइ हिइ बइसइ नही बीजउ धर्म । ए वात कहइ छ।।
[जि.] अथ जिनेन्द्रनउं वचन हियामाहि धरिवउं। इसुं कहइ। जह जह जिणंदवयणं सम्मं परिणमइ सुद्धहिअआणं । तह तह लोअपवाहे धम्मो पडिहाइ नडचरिअं॥६६॥ 20
१ श्रीसिद्धांत जिनवचन. २ बोलसिइ. ३ निश्चइ. ४ बूडिसिइं. ५ रखासइ. ६ 'पूठिई...न रहीइं' एटलो पाठ सो.नी पहेली प्रतमांथी पडी गयेलो छे. ते बीजीमांथी लीधो छे. ७ गाथा ६६ अने ६७ तथा ते उपरनो बालावबोध पण सो.नी पहेली प्रतमाथी लहियानी चूकथी पडी गयेलो जणाय छे. तेथी ते भाग बीजी प्रतमाथी लीधो छे. ८ जि. जिणिंद. ९ मे. धम्म.
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'षष्टिशतक प्रकरण
[सो.] जह० जिम जिम जिनेन्द्रवचन श्रीसर्वज्ञनु धर्म साचउ चोषा हीयाना धणी मनि परिणमइ तह तिम तिम लोकरा प्रवाहिनु धर्म गुण विचार पाषइ ' आपणा देव, आपणा गुरु' इत्यादि कदाग्रहरूप नटावाइजिना चरित्र सरीपुं प्रतिभासइ । बाह्य मंडाण जि छइ । ; लोकरंजना मात्र जि छइ । अभ्यंतर धर्म कांई नथी। यत उक्तं श्रीउपदेशमालायां--- __पढइ नडो वेरग्गं निविज्जिज्जा य बहुजणो जेण ।
पढिऊण तं तह सढो जालेण जलं समोअरइ ॥ (गा. ४७४)
[जि.] जिम जिम सुद्धहृदयने हृदयि जिनेन्द्रनउं वचन सम्यक् i०प्रकारि परिणमइ वसइ तिम तिम निर्मलहृदय तणउं लोकप्रवाहि धर्म मिथ्यात्वधर्म नटचरित्र सरीषउं पडिहाइ प्रतिभइ शोभइ । जिम नटवानुं चरित्र फोकट तिम लोकप्रवाहि धर्म फोकट इसुं मानइ ॥६६॥ .. [मे.] जिम जिम जिनेन्द्रनां वचन सम्यग् प्रकारि परिणमई कहिनइं सुद्ध हृदयना धणीनई तिम तिम लोकनउ प्रवाह नटावाना 15चरित्र सरीषउ प्रतिभासइं। कांइ ? 'ए सहू बाह्य मंडाण । लोकरंजना मात्र, पणि आभ्यंतरि नहीं ॥६६॥
[सो.] वली एह जि वात कहइ छइ । [जि.] अथ जिनधर्मप्रमाण बोलइ ।
[मे] वली एह जि वात कहइ । २०जाण जिणिदो निवसइ सम्मं हिययम्मि सुद्धनाणेणं । ताण तिणं व विरायइ समिच्छधम्मो जणो सयलो ॥६॥
[सो.] जाण० जेहनइ हीअइ साचइं जाणवई करी सम्यग् दृढ श्रीजिनेन्द्र वसइ, वीतरागनु धर्म जेहनइ मति साचउ बइठउ हुइ
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aण बालावबोध सहित
ताण० तेह रहई मिथ्यात्वधर्म सहित लोक सघलउ तृणा सरिषउ असार प्रतिभासइ । जाणइ ए कांई नही ॥ ६७ ॥
[जि. ] जाण जेहना हियामा हे निर्मलइ ज्ञानि करी सम्यक् प्रकार श्रीजिनेन्द्र वस ताण तेहांहूई समिथ्यात्वि धर्मि करी सहित मिथ्यात्वी लोक सघलई तिणं व तृणवत् तृण सरीषउ निःसार अ विराजति शोभ ॥ ६७ ॥
[ मे. ] जेहन ही यह साचइ जाणिव करी सूधउ वीतरागनउ धर्म व तेह मनुष्यन मिथ्यात्त्वधर्मसंयुक्त लोक सघलड़ तृणा सरीषउ असार प्रतिभासइ | जाणइ जि ए काई नहीं ॥ ६७ ॥
[सो.] लोकनइ प्रवाहिई' केतलाई जाणई' क्षुभई । ए वात ४०
कहइ छइ ।
[ जि. ] अथ सम्यक्त्व पाषs श्रावकपणउं निरर्थक | इसुं बोल |
लोअप्रवाहसमीरणउद्दंड पडचंड लहरीए । दढसम्मत्त महाबलंरहिआ गुरुआ वि हलंति ॥ ६८ ॥ *s [ सो.] लोअपवाह० लोकनउ जे प्रवाह तेहरूपीआ 'समीरण जे वायु तेहनी प्रचंड गाढी लहरि करी दढ० दृढ निश्चल सम्यक्त्व रूपीआ आराधननउ जे छइ महाबल तीणई करी रहित गुरुआइ हल्लति डोलई । घणा लोक कांई मिथ्यात्त्व बोलता करता ' देषी मोटाइनां मन लहबहइं ॥ ६८ ॥
.20
[ जि. ] दृढ सम्यक्त्वरूप महाबल तिणि करी रहित पुरुष गुरुया वडाइ हूता ह ंति डोलई । किसइ करी ? लोकप्रवाहरूपउ १ प्रवाह २ जाण. ३. वायुनी. ४. आधारनउं. ५ बोलइ. ६. कहता.
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षष्टिशतक प्रकरण
समीरण वायु तेहनी उद्दंड प्रचंड रौद्र लहरी कंल्लोल तिणि करी । जिम वाउनी रौद्र लहरि करी मूल विणु नीबल वृक्ष डोलइ । तिणि - कारण नश्चल सम्यक्त्व धरिवउं ॥ ६८ ॥
७२
[मे. ]. लोकप्रवाहरूपी ं समीरण वाय तेहनी उद्दंड प्रचंड 5 गाढी लहरिं करी दृढ सम्यक्त्वना रूप महाबल तिणि करी रहित गरुयाना मन हालई डोलई । मोटांइनां मन लहबहई ॥ ६८ ॥
[सो.] धर्मनी अवज्ञाना करणहार रहई जे दुःख हुई ते स्मरतां हिउं धूजइ । ए बात कहइ छइ ।
[ जि . ] जिनमतनी थोडी अवहेलना न करिवी । इसुं कहइ
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जिणमयअवहीलाए जं दुक्खं पाउणंति अन्नाणी । नाणीण तं सरिता भएण हिअअं थरत्थरइ ॥ ६९ ॥
[ सो.] जिण० जिनधर्मनी हीलाई निंदाई करी अज्ञानी अजाण जीव नरक तिर्यच गतिमाहि ग्यां हुंता जे दुःख प्रामइ ते दुःख - ज्ञानी जाणहूई सिद्धांतनई बलि जाणी संभारतां भई करी ही उं -थरथर कांपइ || ६९॥
[ जि. ] श्रीजिनमतंनी लगारएक अवहेलाई करी अज्ञानी मूर्ख दुःख पाउणति पामहं ते अज्ञानीनरं दुःख संभरित्ता संभारीनई भरण भय करी नाणीण ज्ञानवंतनउं हृदय थरत्थरइ कांपइ ॥ ६९ ॥
"20
[मे. ] जिनमतनी अवहीलना निंदा लगी अज्ञानी जीव अजाण जीव जे दुःख पामई ते ज्ञानी जाण सिद्धांतनइ बलि निंदा सांभरतां थकां भइ करी हीयउं थरहरइ कांपइ || ६९ ॥
१. संभरित्ता, जि. संभरित्ता २ हीला. ३ निंदा.
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त्रण बालावबोध सहित
[सो.] वली श्रीसम्यक्त्व लहतां गाढउं दुर्लभ हुइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ आपणा जीव देसहूई उपदेस दिइ छइ । . रे जीव अनाणीणं मिच्छट्टिीण नियसि किं दोसा। अप्पा वि किं न याणसि नजई कटेण सम्मत्तं ॥७०॥ 5
[सो.] रे जीव ! अज्ञानी मूर्ख मिथ्यात्त्वी तेहना दोष स्या भणी देखइं ? आपणपूं जि किसिउं न जाणई ? नजइ० सम्यक्त्व गाढइं कष्टिइं जाणइं लहइं । नेमिचंद्र भंडारी कहइ छइ । रे जीव! तइं एवडइं कष्टिइं सम्यक्त्व लाधउं । मिथ्यात्त्वी बापुडा किम लहइं ? सम्यक्त्व लहतां गाढउं दोहिलउं छइ । इस्यउ भाव। 10
[जि.] रे जीव ! हे आत्मन् ! अनाणीणं मूर्ष मिथ्यादृष्टिना दोसा दोष किं नियसि किसु जोयइ ? अप्पा वि आपहणी किं न याणसि न जाणइं ? जउ कष्टिइं सम्यक्त्व नजइ जाणीइ । एतावता रे जीव ! मिथ्यात्त्वीना किसुं दूषण जोइ ? आपहणी तूं जाणइ छि ? जउ सम्यक्त्व जाणता गाढउं दुहेलउं ॥ ७० ॥ 15
[मे.] नेमिचंद्र भंडारी कहइ। रे आत्मन् ! अज्ञानी मिथ्यादृष्टि तेहना दूषण सिइ काजि जोइ छइ ? अप्पा० आपणपइं तू किसुं न जाणइं ? जे तइं महाकष्टि करी समिक्त्त्व जाणिउं छई। तउ मिथ्यात्त्वी बापुडा किम लहिस्यई ? ॥ ७० ॥
[सो.] केतलाइ मिथ्यात्त्व करताइ जिनधर्म वांछइ। तेह०० आश्चर्य कहि छइ।
१ लहातां. २ अन्नाणीणं. ३ मे. दोसे, ४ निजइ. ५ केतला. ६ आश्री.
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षष्टिशतक प्रकरण
[जि.] जे मिथ्यात्त्वइं करइं सम्यक्त्व वांछइ । तेह उद्दिसी कहइ। मिच्छत्तमायरंत वि जे इह वंछंति सुद्धजिणधम्मं ।
ते घत्था वि जरेणं भुत्तुं इच्छंति खीराई ॥७१॥ 5 [सो.] मिच्छत्त० मिथ्यात्त्व कर्तव्य करताइ हुंता जे जीव
सुद्ध धर्म वांछइं । जाणइं — अम्हे सूधउ धर्म करूं ।' ते घत्था वि० ते जाणे ज्वरि ग्रस्याइ हुंता खीर खांड खावा वांछइ । ज्वर सरिधूं मिथ्यात्त्व खीर खंडे सरिखउ जिनधर्म। जिम ज्वरि छतइ खीर खंडादिक
खाधां हुतां गुण न करइ, साम्हु अवगुण करइ तिम मिथ्यात्त्विइ 1०छतइ जिनधर्म गुणकारिउ न हुई । सामहा विराधक थाइं ॥ ७१ ॥
[जि.] ये श्रावक मिथ्यात्त्व आंचरतई हूंतउ शुद्ध जिनधर्म इह संसारमाहे वांछइ ते घत्था वि जरेणं ते श्रावक ज्वरिइं ग्रस्या हुंता खीराई क्षीर खांड घृत भुत्तुं जीमिवा भणी वांछइ । जिम
ज्वरिया पुरुषहूई घृतादिकनउं जीमवउं विषप्राय हुइ तिम मिथ्यात्त्व 15ग्रस्या हूंता सम्यक्त्व धरइं तउ सामुहउ अतिचार दोष पामइं। तिणि कारणि सर्वथा मिथ्यात्त्व मेल्ही सम्यक्त्व पालिवउं ॥ ७१॥ .
[मे.] मिथ्यात्त्व आचरतां हूंतां केईएक जीव सूधउ जिनधर्म वांछइ । ते जाणे ज्वरि ग्रस्या हूंता खीर खांड ची प्रमुख भोजन जिमिवउं. वांछइं ॥७१ ॥.
२० [सो.] केतलाइ मिथ्यात्त्व करतांई कहइं — अम्हे अमुका गुरुना श्रावक ।' तेह आश्री कहइ छइ ।
[जि.] अथ कुगुरु आश्री कहइ । १ मे. के. २. जि. मे. भुत्तं. ३ मे. खीराई. ४. सुद्धउ. .
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अण बालावबोध सहित
जह केई सुकुलवहुणो सीलं मयलिंति लिंति कुलनाम। मिच्छत्तमायरंत वि वहति तह सुगुरुकेरत्तं ॥७२॥
[सो.] जिम कोएक उत्तम कुलवधू हुइ। सील' आपणउं मइलु करइ विराधइ अनइ नाम कुलनउं लिइं। आपणइ कलंकिइं करी कुलहूई कलंक आपइं, 'अम्हे अमुका कुलनी।' मिच्छत्त० तिम 5 केतलाइ मिथ्यात्व करता हुंता कहइ, 'अम्हे अमुका सद्गुरुना श्रावक शिष्य ।' ते आपणइं दोषिइं गुरु रहई दोष आणइं। इसिउ भाव ॥ ७२॥
[जि.] जह केवि जिम केई सुकुलवहुणो सुकुलि ऊपनी वधू स्त्री आपणउं सील मइलउं करइ सील भांजइं अनइ अनेरइ माणसि पूछीतां हूंती आपणा कुलनउं नाम लिई । — अम्हे मोटा कुलनी' इसुं कहइ। तह तिणि दृष्टांति करी केईएक मिथ्यात्त्व समाचारताई हूंता सुगुरुकेरत्तं सुगुरुना केडाइतपणउं वहइं । ' अम्हे अमुका सुगुरु अनई केडई ' इसुं कहता आपणा सुगुरु पूर्वज लावई ॥७२॥
15 [मे.] जिम केईएक भला कुलनी वधू सील आपणउं मइलउं करई अनइ नाम कुलनउं लिइं, 'अम्हे अमुकानी कुलवधू' तिम जीव मिथ्यात्त्व आचरतउ हूंतउ कहइ, 'अम्हे अमुका सुगुरुना श्रावक ।' आपणइ दोषि गुरुनई दोष आणइं ॥ ७२ ॥
[सो.] वली एह जि वात कहइ छइ । [जि.] अथ कुत्सित श्रावक उद्दिसी बोलइ ।
१ मे. जइ. २ जि. मे. केवि. ३ जि. मे. मइलंति. ४ जि. लंति. ५ मे. मिच्छित्त. ६ सीली. ७ मइलउं. ८ आणइ. ९ करताइ.
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. षष्टिशतक प्रकरण
उस्सुत्तमायरंत वि ठवंति अप्पं सुसावगत्तम्मि । ते रुद्दरोरघत्थ वि तुलंति सरिसं धणडेहिं ॥७३॥
[सो.] उस्सुत्त० उत्सूत्र श्रीसर्वज्ञवचन विरुद्ध कर्त्तव्य आचरताई हुंता आपणपउ सुश्रावकमाहि थापइं । ' अम्हेऊ श्रावक" 5 इम कहई । ते किसिउं करइं? ते रुद्द० ते रौद्र रौर दालिद्रि ग्रस्याइ हुंता गाढा दालिद्रीइ हुंता आपणपउ धनाढ्य महालक्ष्मीवंत सरीषउ मानइं ॥७३॥
[जि.] केईएक उत्सूत्र सिद्धांत विरुद्ध वचन आचरता करताई हूंता धनाढ्य अप्पं आपणपउं सुसावगत्तम्मि सुश्रावकआपणा10माहे ठवंति स्थापइं । ते लोक रुद्दरोरघत्थ वि रौद्र दारिद्यई प्रस्याई हूंता धनाढ्य लक्ष्मीवंत तेह सरीषउं आपणपउं गणइं ॥ ७३ ॥
[मे.] उत्सूत्र आचरताइ हूंता जीव आपणपउं श्रावकमाहि थापइं । कहइं अम्हे पणि श्रावक ।' ते राद्र रोर दालिद्रिइं ग्रस्या हूंता आपणपउं धनाढ्य श्रीवंत साथिं तोलई ॥७३॥
15. [सो.] लोकमार्ग अनइ धर्ममार्ग रहइं एवडउ विहरउ छइ । तेउ ते मूर्ख न जाणइं । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जाण अनइ अजाणनउं आंतरउं प्रकटइ। . किवि कुलकमम्मि रत्ता किवि रत्ता सुद्धजिणवरमयम्मि। इअ अंतरम्मि पिच्छह मूढा नायं न जाणंति ॥७४॥ २० [सो.] किवि० केतलाइ आपणइ कुलमि जि राता कुलाचारनइ प्रवाहि पड्या छई । केतलाई सूधउ खरउ जिनधर्म तिहां राता
१ मे. धणिड्डहिं. २ रोर. ३ लक्ष्मीवंत. ४ याणति. जि. मे. याणंति.
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त्रण बालावरोध सहित
छइ । कुलक्रम' कांई नथी करता । इअ० ए बिहुँनई आंतरं ए एवडउं छइ । एकि कुलक्रम करताइ नरक तिर्यचमाहि जाइं छई । बीजा जिनधर्म आराधतां देवलोकि अथवा मोक्ष जि जाई । एवडइ
आंतरइ छतइ ते मूढा मूर्ख युक्ति न्याय न जाणइं । कुलक्रमजिनु कदाग्रह लेई रहई । सूधउ धर्म न करई ॥ ७४ ॥
[जि.] किवि केईएक अजाण कुलक्रमि राता छइं। केईएक जाण जिणवरनइ मति राता। इअ ए आंतरउं पिच्छह जोयउ । जाण-अजाणनउ ए विहरउ देषउ । मूर्ष नायं न याणंति न्याय न जाणइं । जे जिनमति राचई ते युक्तायुक्तविचार जाणी जाण कहावइ अनइ मूढ न्यायरीति न जाणइ । कुलक्रमि रंजीइं । साचउं-कूडउं ना० जाणइं ॥ ७४ ॥
[मे.] केतलाइ जीव कुलक्रमि कुलाचारि राता छई। केतलाइ जीव सूधा जिनवरना मतनइ विषइ राता छइं । जाणई छई : सूधा धर्म लगइ मुक्ति पामीस्यइ । पाडूइ कुलक्रमि संसारमाहि भमीसिइ ।' एवडइ अंतरि छतइ, जोउ, मूर्ख नाणिउं जे न जाणइं । कुलक्रमनउ15 कदाग्रहु न मूंकई ॥ ७४ ॥
[जि.] अथ अजाणनी वात बिहुँ गाथाइं करी कहइ । संगो वि जाण अहिओ तेसिं धम्माइं जे पकुव्वंति।। मुत्तूण चोरसंगं करंति ते चोरिअं पावा ॥७॥ - [सो.] जीहं मिथ्यात्त्वी दर्शनीनी संगतिइ अहितकारिणी20 करिवा' नावई । पुण तेहनउ उपदेसिउ जे धर्म ते करई । मुत्तूण.
१ 'कुलक्रम...जाई छई' एटलो पाठ सो.नी बीजी प्रतमाथी पडी गयेलो छे. २ मोक्षि. ३ जि. मोत्तण. ४ जि. करेंति, मे. करिति. ५ कारिवा. ६ तेनु. ...
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षष्टिशतक प्रकरण ।
ते चोर अन्यायी पापीनउ संसर्ग मेल्हीनइ आपणपई जि चोरी करइ । पापीया जे मिथ्यात्त्वीनू संसर्ग न करइ, पुण' मिथ्यात्त्व करइ ते जाणे चोरनी संगति न करई, पुण आपणपइं जि चोरी करइं छइं ॥ ७५ ॥
[जि.] अजाण जेहांनउ संगई अहित विरूयाकारण हुइ तेसिं 5 तेहना अहितकारकनां उपदिस्यां जे पुरुष धर्म करई ते पुरुष पावा पापिष्ट हूंता चोरनउ संसर्ग मेल्ही आपहणी चोरी करइ ॥ ७५ ॥
[मे.] जेहनउ संसर्गइ अहितकारीउ हुइ अनइ तेहना भाष्या धर्म जे करइं ते केवहा जाणिवा ? चोरनउ संसर्ग मूंकीनइ आपणइ डीलि पापि चोरी करई । ते एवहा जाणिवा ।। ७५ ॥
10 जत्थ पसुमहिसलक्खा पव्वे होमंति पावनवमीए ।
पूअंति तंपि सड्ढा हा हीला वीयरायस्स ॥७६॥
[सो.] जीणइं पर्वि आसो चैत्रनी पापमय महानउमिइं पशु बोकडा भइंसाना लक्ष होमई मिथ्यात्त्वी राजादिक । पूअंति० केतलाइ
श्रावकइ हुई ते पर्व पूजइं मानइं । गोत्रजपूजनादिक करई । ते पर्वना 15करावणहार ब्राह्मणादिक रहई पुण पूजई । दानादिक दिई । हा हीला. अहो ! केवडी ए हीला अवज्ञा आशातना वीतरागहई । एक जीवदयामूल वीतरागनू धर्म आराधीइ अनइ परई महाहिंसामय पर्व मानीइं । ए' आज्ञालोप भणी अवज्ञाइ कही ।। ७६ ॥
[जि.] जत्थ जिणि पर्वि पापनवमीनइ दिवसि सामान्य २०देहाडीनइ दिनि पशु छाला महिसु भइंसा तेहना लक्ष हम्मंति होमीइं विणासीइं। तिणि दिहाडइ श्रावक जइ पूजइ तउ श्रीवीतरागनी ही
१ 'पुण मिथ्यात्त्व...न करई' एटलो पाठ सो.नी बीजी प्रतमांथी पडी गयेलो छे. २ जि. मे. हम्मंति. ३ वीतरागनउ, ४ 'ए' नथी. ५ अवज्ञा.
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त्रण बालावबोध सहित
खेदे हीला । जे श्रावक श्रीवीतरागदेवनइं मानइं अनई मिथ्यात्त्व पुण साचवइं ते श्रावक श्रीवीतरागनी अवहेला करइं । तिणि कारणि ते श्रावक केई अजाण जाणिवा ॥ ७६ ॥ - [मे.] जिहां आसोजी चैत्री पापनवमीइं पशु छाला महिस भइंसा तेहना लक्ष लाष हणीइं अनइं तीणइं दिहाडइ श्रावक हुइनइ 5 गोत्रजनी पूजा करइ तउ हा इसइ खेदि तीए वीतरागनी हीला कीधी। परमेश्वर अवहेल्या ॥ ७६॥ --
जो गिहकुटुंबसामी संतो मिच्छत्तरोवणं कुणइ । तेण सयलो वि वंसो पक्खित्तो भवसमुद्दम्मि ॥ ७७॥
[सो.] जे कुटुंबनायक मूलगउ हुई कांई मिथ्यात्त्वनउ बोला० धरि रोपई थापइ । पाछिलाइ संतानीआ सघला तेहना थाप्या भणी मूकी न सकइं । तेण तीणइं आपणउ सघलुइ केडिल वंस संसारसमुद्रमाहि घातिउ पाड्या' भणी ॥ ७७॥
[जि.] जे गृहकुटुंबनउ स्वामी धणी संतो हूंतउ मिथ्यात्त्वरोपण करइ । तेण तिणि गृहकुटुंबस्वामीई सयलो वि सघलउइ वंस:5 भव संसार तेहरूपिउ समुद्र तेहमाहे पक्खित्तो प्रक्षिपउ घालिउ ॥७७॥
[मे.] जे पुरुष गृहस्थ कुटुंबनउ स्वामी होईनइ आपणा संतानीयानइं मिथ्यात्वनउं आरोपण करई तीणइं सघलुइ वंसु संसारसमुद्रमाहि प्रक्षेपिउ घातिउ ॥ ७७ ॥
कुंडचउत्थी नवमी बारसी पिंडदाणपमुहाई। . मिच्छत्तभावगाई कुणंति तेसिं न सम्मत्तं ॥७८॥ १ जि. कुटुंब. २ मे. मिच्छित्त'. ३ कुडंब. ४ पज्या. ५ मिच्छित्त.
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पष्टिशतक प्रकरण
[सो.] कुंडचउत्थी० विणायगचउत्थि महानउमि वत्सबारसि बीजाई पर्व सीअलसत्तमि द्रोअट्ठमि शिवरक्ति नागपंचमि काजलीत्रीज आमलीइग्यारसि अविलोअपांचमि' अमांस षष्टीजागरण नवसती पितस्पिंडदान नवोदकि पीपल-जलदांन अमावस जमाई-भोजनप्रमुख 5 मिच्छत्त. अनेक एहवा मिथ्यात्त्वपोषक पर्व करइ करावइ । तेसिं तेहहूई इसिउं जाणिवउं । सम्यक्त्व नथी ॥ ७८ ॥
[जि.] जे श्रावक कुंडचतुर्थी महानवमी अनइ बारसि तेहना पिंडदानप्रमुख मिथ्यात्त्वधर्मना भावक पोषक मिथ्यात्त्व करई तेसिं तेहां श्रावकहूई सम्यक्त्व नहीं । लगारइ मिथ्यात्वनउ लवलेश करइ सु 10अजाण इति भाव ॥ ७८ ॥
[मे.] कुंडचउथि कहतां विणाइगचतुर्थी महणिमनी नवमी वत्सबारसि सीयलसप्तमी द्रोअष्टमी शिवरात्रि नागपंचमी काजलीत्रीज आमलीइम्यारसि अविलोआपंचमी अमासः षष्टीजागरण प्रमुखे पिंडदानप्रमुख जे मिथ्यात्वनइ भावक उपजावणहार जे करइ तेहनइ सम्यक्त्व 1ऽनही ॥ ७८॥
[सो.] केतलाइ उत्तम आपणउं कुटुंब मिथ्यात्वतउ काढह । ए वात कहइ छइ ।
[मे.] अथ नाणनी बात कहइ । जह अइकुलम्मि खुत्तं सगडं कइंति केवि घुरधवला। तह मिच्छाओ कुडंबं अह विरला केवि कति ॥७९॥
[सो.] जिम कादमना गाढा कलमाहि गाडउं खूतउं हुइ ते १ अविलोवा पंचमि. २ एला. ३ अइकालमि, मे. अइकलंमि. ४ धुरि.
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त्रण बालावबोध सहित
केतलाइ धोरी धवल मूलगा वृषभ तेह जि काढई । बीजे वृषभे न काढई । तह० तिम मिथ्यात्त्वरूपिआ कादममाहि कलिउं आपण' कुटुंब विरला० के एक समर्थ उत्तम उपाइं करी काढई। मिथ्यात्त्व छंडावी साचइ धर्मि लगाडई ॥७९॥
[जि.] जिम केईएक धवला धोरी मूलगा सबलबल अतिकर्दमना 5. कलणमाहे खुत्तं खूतउं हूंतउं सगड गाडडं काढइं तह तिम इह संसारमाहि विरला केईएक पुरुष मिच्छाओ मिथ्यात्त्व हूंतउं कुटुंबपरिवार काढइं । साचइ जिनधर्म लगाडइं ॥ ७९ ॥
[मे.] जिम अतिकलण कादममाहि खूतउं गाडउं केईएक धोरी वृषभ हुई तेही जि काढी सकइं, सामान्य वृषभ काढी न सकइं तिमro मिथ्यात्त्वरूपीया कलणमाहे कुटुंब पूतउं थकउं इहां विरला कोईएक काढइ ॥ ७९॥
।०ाता
[सो.] केतलाएक वीतराग सर्वज्ञ सर्वज्ञदेवने लक्षणे' सहितइ न ओलखइ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ श्रीसर्वज्ञदेवनी अप्राप्तिकारण कहइ। 15 जह वद्दलेण सूरं महियलपयड पि नेव पिच्छंति । मिच्छत्तस्स य उदए तहेव न निति जिणदेवं ॥८॥
[सो.] जिम वादलि आडइ छतइ पृथ्वीमंडलमाहि प्रकट सूर्य न देखीइ तिम मिथ्यात्त्वरूपिइ वादलि आडइ छतइ जिनदेव श्रीसर्वज्ञदेव विश्वमाहि प्रकट प्रमाणइ छतु न निति न देषइं ॥ ८० ॥20
[जि.] जह जिम वादलिइ करी महियलपयडं पि जगत्रयहूई प्रत्यक्षई हूंतउ सूर सूर्य नेय पिच्छंति न देषइं तहेव
१ आपणु. २ लागई. ३ लक्षण ए. ४ उलषइं. ५ मिच्छित्तस्स. ६ प्रकटइ. ७ मिथ्यात्त्वनइ उदया मिथ्यात्त्वरूपिइ. . .. . . ...
११
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षष्टिशतक प्रकरण .
तिम जि मिथ्यात्त्वनइ उदइ जिनदेव श्रीसर्वज्ञदेव न नियंति न पश्यन्ति न देखइं । सकललोकप्रत्यक्ष सूर्य सरीषउ सर्वज्ञदेव । अनइ वादलसरीषउं मिथ्यात्त्व छइ । तिणि कारणि मिथ्यात्त्वव्यापिउ जीव
श्रीसर्वज्ञदेव सकल आराध्यपणइं न देखइं ॥ ८०॥ । 5 [मे.] जिम वादलइ करी सूर्य पृथ्वीमंडलमाहि प्रगट जाणीतउ हूंतउ पणि दीसइ नहीं तिम मिथ्यात्त्वरूपीइ वादलि आडइ हूंतइ जिन वीतरागदेव न देषइं ॥ ८०॥
" [सो.] मिथ्यात्त्वीनउ जन्म वृथा । ए बात कहइ छइ ।
[जि] अथ मिथ्यात्त्वीना जन्मनी निरर्थकता कहइ । 10किं सो विजणणिजाओ जाओ जणणीइ किंगओवुडिं
जइ मिच्छरओ जाओ गुणेनु तह मच्छरं वहइ ॥ ८१॥ - [सो.] कि सो ते पुरुष माइ कां जाइउ ? अथवा जु जाइउ तउ वृद्धिइं कां गिउ ? जइ० जउ मिथ्यात्त्वरत कूडा देवगुरु धर्मनइ विषइ आस्थावंत हुउ । अनइ गुणवंत साचा धर्मना आराधक इतेह ऊपरि वली मच्छर वहइ । एतलई तेहनउ जन्म निरर्थक । मुहिआं पृथ्वी रहइं भारइ जि करण्हार । तेहनी वृद्धिविस्तार सहूइ अकज इसिउ भाव ॥ ८१॥ ' [जि.] ते पुरुष कांई जणणिजाओ माताई जणिउ ? जउ माताई जन्मिउ किं गओ विडिं तउ वृद्धिई कां गउ ? मोटउं २०कां हूउ ? पहिलउं जन्मीतउई नही। जइ किवारई जणिउ तउ वधारिउ काई ? इति भाव । कांइ ? जइ मिथ्यात्त्वरत जाओ हूउ
१ जि. जणणीय. २ जि. मे. विडिं. ३ तेहजिनउ. ४ महिआ. . .
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त्रण बालावबोध सहित
तह तिम जि गुणवंत ऊपरि मात्सर्य सद्वेषभाव वहइ । जइ जन्मिउ न हुत, जइ मोटउ न थाउ तउ आगलि जातउ मिथ्यात्त्वी न हुत । अनइं वली गुणवंत ऊपरि . मात्सर्य न वहत । तिणि कारणि विद्वेषी भणी मिथ्यात्त्वीना जन्मनउं काई नही ॥ ८१ ॥
[मे.] ति पुरुष जननी माताई कांई जायउ ? अनइ जउ 5 जायउ तउ वृद्धिइं कांइ गयउ ? जइ मिथ्यात्वनइ विषइ रत आस्थावंत हूउ तिम गुणवंत धर्मवंत ऊपरि मत्सरु वहइ । एतलइ तेहनउ जन्म फोक ॥ ८१॥
[सो.] जिम जिम मिथ्यात्त्वि वाहिउ जापल सेषलनी पूजा करइ तिम तिम ते घणउ घणेरडउ व्यापीइं । अनइ दृढ धर्म जे हुइro तेह रहइं कांई करी न सकइं । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ नीचानउं स्वरूप कहइ छइ । वेसाण बंदियाण य माहणटुंबाण जक्खसिक्खाणं । भत्ता भक्खहाणं बिरयाणं जंति दूरेणं ॥ ८२॥
[सो.] वेसा वेश्या नगरनायिका' बंदी भट्ट ब्राह्मण.5 कुलगुरुप्रमुख डुंब गायन जापलसेषल गोत्रज पितरप्रमुख देहरडा एतलां ऊपरि जे भक्ता हुइं तेहहूई द्रव्य पूरइ । पूजा जिमण लापसी बलीबाकुलादिक करइ । ते लोक वेश्या भट्टादिक रहइ भक्ष्यस्थानक सदैव थाइ । वलि वलि वरसि वरसि पर्वि पर्वि सदैव वांछइं । बलात्कारिइं लिई, दापउं थापइ, लक्ष्मी नीगमइ । विरयाणं० अनइ जे विरत हुई,२०
१ घणउ' नथी. २ नाइका. ३ पालसी. ४ तीह वेश्या. ५ 'पर्वि पवि'
नथी
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· षष्टिशतक प्रकरण
जे ब्रह्मचारी विषयनिवृत्त हुइ, जे आपणी कीर्ति न वांछइ, जे दृढ सम्यक्त्वना धणी हुई, जे दुःखिइ आवइ कातर न हुई, एह्वा दृढ धर्मना धणीहूइं ए वेश्यादिक संघलाइ दूरि जाइं। आपणु लाग कांई देखई नहीं। एह भणी तेहहूई उचाटइं पुण काई न करइं । साम्हा 5प्रसन्न थाइं ॥ ८२॥ ..
[जि.] वेश्या तणा, बंदी भाट तणा, माहण ब्राह्मण तणा, डुंब तणा, यक्षभूतादिक तणा, भत्ता भक्तिकरणहारइ जि पुरुष भक्खहाणं भक्ष्यस्थानक । एतलइ जे वेश्यादिकहूई भक्ति करई तेह जि भक्तिकरणहारहूई देणहारहूई वेश्यादिक पाई। विरयाणं विरत 1०हूंता अणमानता पुरुष हूंता दूर वेगला जाइं नासइं । विरयाणमित्यत्र पंचम्यर्थे षष्टी प्राकृतत्वात् ॥ ८२॥
[मे.] वेश्या बंदी भाट ब्राह्मण डूंब यक्ष सेष थाकता गोत्रज पितर प्रमुख उपरि जे भक्ता हुई, बलि बाकुलि लापसीई करी
भक्ति करइं एतला भक्तिना करणहारजिनइ खाइं । वरसि वरसि ते 15वांछा करइ । अनइ ईया हूतां जे विरता छइ ते हूंता वेश्यादिक दूरि जाई । तेहनइ काई पाडूउं करी न सकइं ॥ ८२ ॥
[सो.] अकुलीन धर्म करई ते आश्चर्य । ए बात कहइ छइ ।
[जि.] अथ केई एकलूधर्मी जीवनउं स्वरूप प्ररूपइ । सुद्धे मग्गे जाया सुहेण गच्छंति सुद्धमग्गम्मि । २० जे पुण अमग्गजाया मग्गे गच्छंति तं चुजं ॥ ८३॥
[सो.] सुद्धे० जे शुद्धि मार्गि उत्तम सुश्रावकनइ कुलि जाया
१ निवृति. २ 'जे आपणी.....धणी हुई' एटलो पाठ सो. नी बीजी प्रतमाथी पडी गयो छे. ३ आविइ.
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८५
त्रण बालावबोध सहित ते सूधा मार्ग खरा धर्मनइ विषइ सुखिइं चालई । तेहनइं धर्मनु मार्ग कुलक्रमिइ जि आगइ चालिउ आवइ छइ । एह भणी तेहहूई धर्म करतां काई दोहिलं नही। जे पुणः पणि जे अमार्गि जाया विरूइ' अधर्म कुलि ऊपना तेहइ केतला जे मार्गि चालइ धर्म करइं तेहनइ कुलक्रमागत धर्म न हुई । ते जं धर्म करइं तं चुनं ते आश्चर्य ॥ ८३ ॥ 5
[जि.] सुद्धइ निर्मलइ मार्गि जात ऊपना द्विजात जे हुई ते सुखिइं समाधिइ भली परिइं शुद्धइ निःपाप मार्गि गच्छंति चालइ ते आश्चर्य नही । भला अनइ भलइ मार्गि हीडइ। जिम रोहणाचलि रत्ननउं आश्चर्य नही । जिम लंकाई सोना होवानउं आश्चर्य नही । पुण जे अमार्गजात त्रिजातई हुई ते मार्गि मार्गि जइ चालई तउ ते आश्चर्य ।।० जिम उकरडी माहे रत्न ऊपनउं हूंतउं आश्चर्य भणी हुइ ॥ ८३॥
[मे.] जे सूधइ मार्गि श्रावकनइ कुलि ऊपना सुखिइं समाधि सूधा मार्ग खरा धर्मनइ विषइ चालई । पणि जे अमार्गि अधम - कुलि जाया अनइ जे धर्ममार्गि चालइ ते आश्चर्य कउतिग ॥ ८३ ॥
[सो.] धर्म करतां कांई लगारइ विघ्न ऊपजइ । अजाण लोक:5 ते लेई धर्म रहइं लगाडइं । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ पापिष्ट मिथ्यात्त्वीनउं स्वरूप कहइ छइ । मिच्छत्तसेवगाणं विग्धसयाई पि बिति नो पावा । विग्घलवम्मि वि पडिए दढधम्माणं पणचंति ॥८४॥
[सो.] मिथ्यात्त्वना करन्हारनई अनेराइं संसारनां काज-20 व्यवसाय विवाहादिक करतां विघ्न अंतराय दुःख उपसर्गनां सइं पडई ।
१ विरूअइ. २ अधर्मि. ३ षिवंति, मे. पि बंति. ४ करण्हारनइं.
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८६.
- षष्टिशतक प्रकरण
तेउ पापी लोक ते बोलई नही । विग्घलवम्मि० अनइ जे दृढ धर्म खरा धर्मनां कर्त्तव्य करइ छइं तेहहूई केती वारइं विघ्नलवलेश मात्र थो अइ अंतराय दुःख पडइ तउ मूर्ख लोक नाचई, 'एहहूई धर्म करतां आम हूउं ।' इसिउं न जाणइं, 'निश्चिइ धर्म करतां रूडूं जि 5 हुइ ।' धर्मइं विघ्न विलइ जाइं जिम आगि पाणी करी उल्हाइ जि । पुण मापु जाणिवउं । जु थोडउ अंगारमात्र आगि हुइ तु चलूइ मात्रि पाणीइं ओल्हाई। पणि दवानल ज्वलतउ हुइ तउ थोडइं पाणी कांई नही । जु मेघ वरिसइ घणउं पाणी पडइ तउ ओल्हाइ। तिम थोडउं पाछिला भवनुं पापकर्म थोडिइ धर्मिइ विलइ जाइ। पुण कर्म घणउ हुइ 10अनइ धर्म थोडउ हुइ तु किम तीणइं धर्मिइं घणउं कर्म विलइ जाइ ? पुण एक निश्चय जि जाणिवू । जं धर्मि करी पाप विलइ जाइ जि । जिम सूर्य थिकउ अंधारां नासइ जि । जं धर्म करतांइं विघ्न नथी टलतां ते थोडा धर्मनुं कारण । एक मूर्ख अजाणपणइं 'धर्मनइं दोषिई' इसिउं कहई, ‘अम्हारइ कुलि ए धर्म सहइ नही ।' अनइ पापीहूई घणाई Iऽदुःख पडइं पणि बोलई नहीं ॥ ८४ ॥
. [जि.] पावा पापिष्ट पुरुष मिथ्यात्त्वसेवकहांहूई विघ्न उपद्रव तेहनां शतई पड्यां नो चिंति न बोलई । पुण दृढ धर्म निश्चल धर्मवंतहूई विघ्ननइ लवलेशिइ पडिइ हूंतइ पणचंति प्रनृत्यति ॥ ८४ ॥
[मे.] मिथ्यात्वना सेवणहारनइ विघ्ननां सई ऊपजइं पणि ते २०पापीइ मन नाणइ जि 'अम्हनइ मिथ्यात्त्व सेवतां विघ्न ऊपनां ।' अनइ
जे दृधर्म खरउ धर्म करइ तेहनइ विघ्ननउ लवु मात्र ऊपनई पापी लोक पचारइं ॥ ८४ ॥
१ धम्मिइं. २ कर. ३ उल्हाइ. ४ तउ जि. ५ उल्हाइ. ६ थकउ.
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त्रण बालावबोध सहित
८७
. [सो.] धर्म सहित दुःखऊ रूडउं । मिथ्यात्त्वसहित सुखइ विरूउं । ए वात कहइ छइ । . [जि.] अथ सम्यक्त्वधारकनी दृष्टाई त्रिहुं गाथा करी बोलइ । सम्मत्तसंजुआणं विग्धं पि हु होइ उच्छवसरिच्छं। परमुच्छवं पि मिच्छत्तसंजुअं अइमहाविग्धं ॥८५॥ 5 ., [सो.] सम्मत्त जे सम्यक्त्विई करी सहित छइं, खरउ धर्म आराधई छई तेहहूई केती वारइं विघ्न दुःख पडई ते दुःख उत्सव सरीपुं हुइ। ते तीणई दुःखिइं करी पाछिला भवनां पापकर्म क्षपीनइ खरा धर्मनइ प्रसादिइं आगलि मनुष्यनां देवलोकनां सुख प्रामइं । तेह भणी उत्सव समान । परमुच्छवं पि० मिथ्यात्त्विा० करी जे सहित छइं तेहरई केतीवारइं परम उत्सव हुइ । राज्य ऋद्धि लक्ष्मी भोगसुख प्रामइं । तेहइ अतिमहाविघ्न जाणिवू । तेह ऋद्धिनइं प्रमाणि ते मिथ्यात्त्व आरंभ पाप करी आगलि नरकतिर्यंचादिक दुर्गतिइं जाई । संसारमाहि रुलई । तेह भणी तेहनु उत्सव महाविघ्न समान कहीइ ॥ ८५॥
[जि.] सम्यक्त्वसंयुक्त पुरुषहूई विघ्नई हु निश्चइ उत्सवसदृश महोत्सव सरीषउं हुइ । परमुच्छचम्मि प्रकृष्ट महोत्सवमाहे मिथ्यात्त्वसंयुक्त हूंतउ अइमहाविग्धं अतिमहाविघ्न हुइ । एतलइ सम्यक्त्वधारकहूई सम्यक्त्वइ जु तत्त्व । माया काई नही ॥ ८५॥
[मे.]. सम्यक्त्विइं . करी. जे सहित तेहनइ किवारइं. विघ्न20 ऊपजइ तउ उत्सव करी मानइं । कांई कहइ ? ' भवांतरि कर्म क्षय गयां वली नही आवइ ।' तेह भणी उत्सव समान मानइं । वली जे
१ मे. उत्सव. २ नि. परसुच्छवम्मि, मे. परमुत्सवं. ३ सम्यक्त्वइं. ४ तेह रहइं. ५ जाणिवलं. ६ तेह' नथी. ... . . . . . .
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षष्टिशतक प्रकरण
मिथ्यात्त्वि करी सहित छ तेहनइं परम उत्सवइ अतिविघ्न करी मानिवा । कांई ? तीहा उत्सवे मिथ्यात्त्वनां कारण घणां हुई । अनइ ते मिथ्यात्वनइ प्रमाणि नरगि जाई । तेह भणी उत्सव विघ्न समान गिणीइं ॥ ८७ ॥
८८
[सो.] जेहहूइं धर्मनी दृढाई हुइ तेहहूइं देवइ प्रणाम करई । ए बात कहइ छइ ।
इंदो वि ताण पणमइ हीलंतो निययरिद्धिवित्थारं । मरणं विहु पत्ते सम्मत्तं जे न छडुंति ॥ ८६ ॥
[सो.] इंद्र तेहहूई प्रणाम करइ | हीलतो. आपणी देवन ० राज्यऋद्धिना' विस्तार निंदतउ हूंतउ' । जाणइ ए ऋद्धि' कांई नहीं । ईणी ऋद्धि मोटपण कोई नही । मरणंते वि० मरणांति पहुतइ जे गाढइ संकटि पडिइ' आपणउं सम्यक्त्व न छांडइ, मिथ्यात्त्व न कर ते इंद्रादिक देवइ नमस्करई ॥ ८६ ॥
५
[ जि. ] निययरिद्भिवित्थारं आपणी लक्ष्मीनउ विस्तार 15हीतर निंदतर हूंत इंद्र तेहां सम्यक्त्वधारक पुरुषहूई प्रणमइ । तेहां केहांहूइं ? मरणांतई पामिइ हूंतइ जे सम्यक्त्व हु निश्च न छांड | ताणेत्यत्र द्वितीयार्थे प्राकृतत्वात् ॥ ८६॥
[मे. ] इंद्रह तींहां पुरुषांनई प्रणाम करइ, आपणी रिद्धिनउ विस्तार अवहेलत हूंतउ । पणि ते जीव केवहा छ ? जे मरणांति २० सम्यक्त्व छांडई नहीं ॥ ८६ ॥
[ सो.] वली एह जि बात कहइ छ ।
१ 'रिद्धिना. २ ' हूंतउ ' नथी. ३ रिद्धि. ४ ईणइ. ५ पडइ.
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त्रण बालावबोध सहित छडुति निथयजीअंतणं व मुक्खत्थियो न उण सम्म। लगभइ पुणो वि जीअं सम्मत्तं हारिअं कुत्तों ॥८७॥ . [सो.] छडुति जे जीव मोक्षार्थी आसन्नसिद्धिक हुई ते तृणनी परि आपणउं जीवतव्य छांडइं । दुःखि पडइ मरण आंगमई, पुण सम्यक्त्व न छांडई । मिथ्यात्त्व न करइं। लब्भइ० इसिउं जाणई। 5 ए जीवितव्य अनंते भवे वली वली लाभई, पुण सम्मत्तं० ए सम्यक्त्व जु हारिउं नीगमिउं तु वली किहां लाभइ ? अनंते भवे दुर्लभ थाइ ॥ ८७॥
[जि.] मोक्षार्थी पुरुष निययजीअं निजक जीवित आपणउं जीवितव्य तृणवत् तृणनी परि छांडई, पुण सम्यक्त्व न छांडइ। किसा:० भणी ? पुनरपि वलीइ जीवितव्य लाभइ, पुण सम्यक्त्व हारि नीगमिउं हूंतउं कत्तो किहां हूंतउं लाभइ ? अपि तु न लाभई । सम्यक्त्व महादुःप्राप मोक्षदायक छइ । तिणि कारणि सम्यक्त्वनी दृढाई धरइ ॥ ८७॥
[मे.] मोक्षार्थी जीव तृणनी परिइं आपणउं जीवितव्य छांडइ 15 कष्टि पडिइं मरण आंगी गमई, पणि सम्यक्त्व न छांडइं । काइं ? वली जीवितव्य लाभइ, पणि सम्यक्त्व हारिउं वली किहां पांमीइ ? ॥ ८७॥
[सो.] ए सम्यक्त्वइ जि धन कहीइ। बीजुं बाह्य धन ते कांई धन नही । ए वात कहइ छड्।।
[जि.] अथ सम्यक्त्वहूई महाबहुमूल्यपणउं कहइ। 20 १ जि. मे. तिणं. २ जि. नि. ३ जि. मे. कत्तो. ४ जाणिइं.
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षष्टिशतक प्रकरण . . गयविहवा वि संविहवा सहिआ सम्मत्तरयणराएणं । सम्मत्तरयणरहिआ संते वि धणे दरिद्द त्ति ॥८८॥ ... . [ सो.] गयविहवा० गतविभव लक्ष्मीरहित दालिद्रीइ छता तेह सविहवा सद्रव्य सलक्ष्मीवंत' जाणिवा, जे श्रीसम्यक्त्व5 रूपिइं रत्नराजि महारनि अमूल्यक रनि करी सहित हुई, खरउं सम्यक्त्व पालई । सम्मत्त. जे सम्यक्त्वरूपिइं रत्नि करी रहित छई, जेहनइ हीयइ सम्यक्त्व नथी, मिथ्यात्वीइ जि छइं संते वि० ते लक्ष्मी घणीइ छती दालिंदी जि जाणिवा । दालिद्रीइ जु सम्यक्त्व पालइ तउ आवतइ भवि इंद्रादिक महर्द्धिक देवादिकपदवी प्रामइं । 1०अनइ. चक्रवर्त्यादिक महर्द्धिक जु मिथ्यात्वी हुइ तु आवतइ भवि “नरकतिर्यंचादिक हीनगतिइं ग्यउ हूंतउ दुःखीउ थाइ, महादालिद्री थाइ । इसिंउ भाव । एह ज भणी इम कहिउं श्रीहेमाचार्ये
जिनधर्मविनिर्मुक्तो मा भूवं चक्रवर्त्यपि । .... स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि जिनधर्माधिवासितः ॥ 15 [जि.] गतविभवइ निर्द्रव्यई हूंता सविभव सद्रव्य हुई, जे
सम्यक्त्वरत्नराज तिणि करी सहित हुइ । एतावता जे पुरुष सम्यक्त्वरूपिउं रत्नराज चिन्तामणि धरई ते पुरुष निर्द्रव्यई सद्रव्य हुई अनइं जे सम्यक्त्व रत्न तिणि करी रहित हुई ते पुरुष संते वि धणे छतई धनि दरिद्री कहीइं। तिणि कारणि सम्यक्त्व मोटउं रत्न ॥ ८८ ॥ २० [मे.] ते पुरुष निर्द्धनइ थका धनवंत जाणिवा जे सम्यक्त्वरूपीइ . रत्नराजिइ सहित हुई। अनइ जे सम्यक्त्वरत्न तिणि करी
१ गइविहवा. २ जि. सुविहवा. ३ दरिद्द त्ति. ४ दारिद्रीइ. ५ समृद्ध लक्ष्मीवंत. ६ लीक्ष्मी. ७ दालिद्री. ८ 'जि' नथी. ९ जाणिवी. १० 'इन्द्रादिक महर्द्धिक...आंवतइ भवि' एटलो पाठ बीजी प्रतमांथी पड़ी गयेलो छे. ११ महादारिद्री.
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त्रणं बालावबोध सहित
१
रहित धनि करी सहितइ हूंता ति दालिद्री जि जाणिवा । काई ? मिथ्यात्वनइ प्रमाणि संसारमाहि रुलिस्यइं ॥ ८८ ॥
[सो.] जिनधर्मना जाण लक्ष्मीइ पाहि धर्म अधिकउ देखइं । ए वात कहइ छ।।
[जि.] अथ श्रीवीतरागनी पूजा साची वर्णवइ । जिणपूअणपत्थावे जइ को सड्ढाण देइ धणकोडिं। मुत्तूण तं असारं सारं विरयंति जिणपूअं ॥८९॥ .
[सो.] जिणपूअण० गाढा धर्मना जाण श्रावकहूई चउमास पजूसणादिक पर्व आविइ जिन वीतरागनी पूजा स्नात्र पडिकमण पोसहादिकनइ प्रस्तावि अवसरि जइ को धन द्रव्यनी कोडि दिइ, इमा कहइ 'ए मूकीनइ अमकइ थानकि आवि, अमुकउं व्यवसायादिक काज करी तूहूई लक्ष्मीनी कोडिनउ लाभ हुस्यइ ।' मुत्तूण तउ ते जाण श्रावक ते द्रव्य असार जाणता मूंकीनइ सार जिनपूजाइ जि करइं । जिनधर्मइ जि आराधई । इसिउं जाणइं 'ईणं द्रव्यई एकइ भव सुखिया थइसिइं । अथवा नहीं थईई। पुण वीतरागनी पूजाइ.5 जिनधर्म आराधतां निश्चइं आगलि अनंत सुख लामिसिइं जि' ॥ ८९ ॥
[जि.] जइ कोईएक जिनपूजननइ प्रस्तावि श्रीवीतरागदेवपूजानी वेलाई श्रावकहूई धननी कोटि दिइं, तं असारं निःसार ते धननी कोडि मेल्ही सार प्रधान अनंती धननी कोटि देणहारि जिनपूजा विरचई करई ॥ ८९॥
20 [मे.] जिन वीतरागनी पूजानइ अधिकारि जे कोइ श्रावकनइं धननी कोडि दिइ अनेक लाभ दिषाडइ, पणि ते श्रावक असार धन ·
१ जि. मे. कुवि. २ थईए.
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१२
, षष्टिशतक प्रकरण
मूंकीनइ सार प्रधान एकइ जि जिननी पूजा करइ। कांई ? धन लगी एकई जि भवनां सुख हुई । अनइ जिनपूजा लगी अनंतां सुख पांमीइं । ए भावु जाणिवउ ॥ ८९॥
[सो.] वीतरागनी पूजा साचइं भाविई जि कीजती गुणहेतु 5 हुइ । ईम्हई न हुई । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जिनपूजानउ गुण कहइ । तित्थयराणं पूआ सम्मत्तगुणाण कारणं भणिआ। सा विय मिच्छत्तयरी जिणसमए देसिअअपूआ ॥९॥
[सो.] तित्थयराणं० तीर्थंकरदेवनी पूजा साचा परमेश्वरना 10गुण जाणी परमतत्त्व भणी देषतउ, इहलोक-परलोकनां फल अणवांछतउ, कर्मक्षयजिनी बुद्धिइं एकाग्रचित्तिइं करइ तउ सम्यक्त्वनउं करण थाई। सम्यक्त्व निर्मल करइ अनइ अनंत सुखहेतु हुइ । सा वि य० अनइ तेह जि वीतरागनी पूजा, ‘परमेश्वर ! तुं मुझहूई साजउ करिजे । अथवा ऋद्धि पुत्रादिक संतानादिक देजे । एतलाएक 15द्रव्यनी पूजा तुझहूई करिसु ।' जंजिणवर इम मानी ईंछी करइ । जे पूजा जिनशासनि मिथ्यात्त्वनी करणहार कहीइ ते देवगत मिथ्यात्त्व कहीइ ॥९०॥
[जि.] तीर्थकरनी पूजा सम्यक्त्वना गुणनउ कारणरूप भणी जिम जिम जिनपूजा कीजइ तिम तिम सम्यक्त्वना गुण ऊपजावइ । सा २०वि य ते जिनपूजाइ जिणसमए श्रीजिनशासनि मिथ्यात्त्वसहित हूंती अपूजा देसिअ कही। जइ जिनपूजा मिथ्यात्त्वसहित करइ तउ
१ पूजाइ. २ भावि. ३ 'जि' नथी. ४ गुणहेत. ५ अणवांछितउ. ६ कारण. ७ पुत्तसंतानादिक. ८ 'जं जिणवर' नथी. ९ ते.
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त्रण बालावबोध सहित
कीधीइ अणकीधी, जेह भणी सम्यक्त्वगुण न ऊपजावइ । मिथ्यात्त्वसहितपणातउ जिहां जिहां मिथ्यात्त्व तिहां तिहां सम्यक्त्व नहीं, जिम संगमादेवमाहे । अनइ जिहां जिहां सम्यक्त्व तिहां तिहां मिथ्यात्वं नही, जिम श्रेणिकमहाराजमाहे । तिणि कारणि मिथ्यात्व मेल्ही जिनपूजा करिवी, जिम सम्यक्त्वगुण ऊपजावइ ॥९०॥ ...
[मे.] तीर्थंकरनी पूजा सम्यक्त्वना गुणनइ कारणि भणी । वली तेहइजि पूजा जिनसमय-अनुपदिष्ट अदेशित अविधि कीधी मिथ्यात्वनइ कारणि हुइ ॥९०॥
5
[सो.] परमेश्वरनी आज्ञाइ जि तत्त्व । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जिनतत्त्वनउ जाणणहारनी वात कहइ। 10 जं जं जिणआणाए तं चिय मन्नईन मन्नए सेसं। जाणई लोअपवाहे न हु तत्तं सोय तत्तविज ॥ ९१॥
[सो.] जं जं जिण. जे उत्तम, जे जे बोल वीतरागनी आज्ञाइं करी सहित हुई तेह जि मानई । न मन्नए० थाकतउं बीजउं कांई न मानइ । जाणइ लोअ० इसिउं जाणइ, 'लोकप्रवाहमाहि15 काई नथी ।' यतो लोकेऽप्युक्त
गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः ।
पश्य ब्राह्मणमूर्खेण हारितं ताम्रभाजनम् ॥ एहनु अर्थ । एक मूर्ख ब्राह्मण नदीइं पुण्यहेतु स्नान करिवा लागउ ।
१ जि. मन्नेइ. २ गाथानो आ उत्तरार्ध जि. मां नथी. लहियानी भूलथी पड़ी गयेलो छे. ३ 'एहनु अर्थ 'थी मांडी — ढिग कीधा' सुधीनो पाठ बीजी प्रतमां नीचे प्रमाणे प्रकारान्तरे छे—एक मूर्ख ब्राह्मण नदीहइ गुणहेतु स्नान करिवा गिउ । त्रिभाणउं धूलिनउ ढग अहिनाण करी नदीनइ तटि सातिउं । नदीमाहि स्नान करिका
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षष्टिशतक प्रकरण
पूठि बीजा लोकना सहस्र लाख आवता हूता तीणंई धूलि ढिग करत दीउ । तीण लोके चींतविडं ' धूलिनउ ढग करी नाहीइं तउ घणउं पुन्य हुइ ।' सविहु लोके धूलिना ढिग कीधा । ते मूर्ख ब्राह्मण नदीमा हि नाही आपणइ अहिनाणि त्रिभाणु जोवा लागउ । देखइ तउ ढिगला s सहस्र लाख हुआ । त्रिभाणूं लाभ नही । इसिउ भाव । जे इम जाणइ सो य तत्तविक तत्त्व जाण कही ॥ ९१ ॥
९४
[ जि. ] शेष थाकतउ जिनाज्ञारहित धर्म न मानइ । वली लोकप्रवाहि तत्त्व नथी इसुं जे जाणइ सो य तत्तविऊ ते श्रावक तत्त्ववित् तत्त्वनउ जाण ॥ ९१ ॥
[मे. ] जे जे वचन वीतरागनी आज्ञाई सहित हुई तेहइ जि मान, सेष थाकत काई न मानई । इसउं जाण जि लोकप्रवाहमा हि तत्त्व कांई नथी इम जाण ते तत्त्व जाण ॥ ९१ ॥
IO
[ सो.] वली एह जिवात कहइ छइ । [ जि.] अथ जिनाज्ञास्वरूप कहइ ।
जिण आणा धम्मो आणारहिआण फुड अहम्मु त्ति । इअ मुणिऊण' तत्तं जिणआणाए कुणह धम्मं ॥ ९२ ॥
[सो.] जिणआणाए० वीतरागनी आज्ञाइं जिं चालतां
लागाउं । पूठि बीजा लोकना सहस्र लाष आवता हूंता तीणइ धूलिनउ ढिग करतउ दीठ । तीणई लोकिईं चींतविउं । धूलिनउ ढिग करी नाहीइ तउ घणउ पुण्य हु | सवे लोके धूलिना ढिग कीधा ।
१ ते तत्त्वनु. २ जि.नी प्रतमां जेम गाथानो उत्तरार्ध नथी तेम ते उपरना बालावबोधनी पण एक पंक्ति पडी गयेली छे. एटले गाथाना पूर्वार्धनो पूरो अनुवाद मळतो नथी. ३ मणिऊण, जि. मे. मुणिऊण य. ४ 'जि' नथी.
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rr. बालावबोध सहित
धर्म हुइ । आज्ञारहितपणई स्फुट' प्रकटपणई' अधर्म हुई । इअ मुणिऊण० इसिउं तत्त्व जाणीनइ वीतरागनी आज्ञाइं जि हे भव्य जीव' ! धर्म करउ ॥ ९२ ॥
¿ [जि.] श्रीजिनाज्ञाइं जिनधर्म छन् । आज्ञारहितहूई स्फुट प्रकट अधर्म पापइ जि हुइ । इअ इसुं तत्त्व रहस्य मुणीनहं जाणीनइ अहो 5 भविक लोको ! जिननी आज्ञाई धर्म करउ ॥ १२ ॥
९५
[ मे. ] जिननी आज्ञा पालतां धर्म हुइ । आज्ञारहित धर्म करतां स्फुट प्रकट अधर्मइ जि हुइ । इसउं जाणीनइ तत्त्व हइ जि जे जिननी आज्ञाई धर्म करउ ॥ ९२ ॥
[सो.] जे गुरुनइ जोगि छतइ धर्म न सांभलई ते अधर्मी Lo कही । ए वात कहइ छइ ।
[ जि. ] तत्त्वनाजानी बात कही घेठा पुरुषनी बात कहइ
छइ ।
साही गुरुजोंगे जे न हु निसुणंति सुद्धधम्मत्थं । ते दुध चित्ता असुहडा भवभयविहूणा ॥ ९३ ॥ 15
[ सो.] साहीणे० सद्गुरुयोग कहइएकहूई स्वाधीन स्ववश्य आपणई भाग्यई करी लाउ छइ । तीणई छतई जे न हु० जे न सुणई न सांभलई खरा धर्मनउ विचार, सद्गुरु कन्हइ खरउ धर्म पूछी परीछी लिइं नही ते दुट्ठ० ते दुट्ठ धीरट्ठ' चित्त हूं सुभट संसारनई भई करी रहित ते धीरठपणई इम बोलई
ढ
.
न मे दिट्ठे परे लोए चक्खुदिट्ठा इमा रई । हत्यागया इमे कामा कालिआ जे अणागया ॥
१ स्फट. २ प्रगटपणइ. ३ जीवउ. ४ योगि. ५ धीड. ६ हूंतां.
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20
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. षष्टिशतक प्रकरण
को जाणइ परे लोए अत्थि वा नत्थि वा पुणो । ..जणेण सद्धिं होक्खामि इय बाले पगब्भई ॥ .
(उत्तराध्ययन सूत्र, अध्य. ५) सत्तमियाओ अन्ना अट्टमिया नत्थि नरयपुढवि त्ति इत्यादि 5 बोलतां मरी दुर्गतिइं जाई । यत उक्तं श्रीउपदेशमालायां
जस्स गुरुम्मि परिभवो साहूसु अणायरो खमा तुच्छा । .. . धम्मे य अणहिलासो अहिलासो दुग्गईए उ॥ (गा. २६३ )
[जि.] सुगुरुनइ जोगि स्वाधीन स्ववशि हूंतइ जे पुरुष शुद्ध निर्मल धर्मनउ अर्थ हु निश्चइं न निसुणंति सांभलई नही ते पुरुष 1०धेठा जाणिवा । किसा छइं ? दुष्ट सदोष निर्दय धृष्ट निर्लज चित्त मन
जेहनां हुइ ते दुष्टधृष्टचित्त कहीइ । वली किसा छइं ? संसारनउ भय तिणि.. करी रहित हूंता अतिसुभट छइं। ते परमार्थवृत्तिइं अभागिया ॥९३॥
[मे.] गुरुनइ योगि स्वाधीन मिलिइ हूंतइ जे इहां संसारमाहि 15सूधउ धर्मनउ अर्थ न सांभलई ते जीव दुष्टचित्त हूंता अति गाढा सुभट
जे संसार हूंता न बीहइ ॥९३ ॥
. [सो.] केतलाइ उत्तम गुरुनउ जोग' प्रामी मोक्ष लहइ', सघलाइ काज साधई । ए वात कहइ छइ ।। ... [जि.] अथ गुणवंतनउं स्वरूप बोलइ । 2० मुद्धकुलधम्मजा अवि गुणिणो नरमंति लिंति जिणदिक्खं। तत्तो वि य परमतत्तं तओ वि उवयारओ मुक्खं ॥९४॥
[सो.] सुद्ध० केतलाइ सुद्ध खरउ धर्म जिहां वापरइ एहइ कुलि ऊपनाइ हूंता गुरुनइ योगि विनय विवेक वैराग्यादिक गुणवंत
१ योग, २ लगइ, .
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त्रण बालावबोध सहित
९५ थाइं । न रमंति० संसारना विषयसुखनइ विषइ न राचइं। लिंति० जिन वीतरागनी दीक्षा लिइं । ते दीक्षामाहि परम तत्त्व पांच महाव्रत पांच समिति त्रिणि गुप्तिरूप आराधइं । ते आराधी स्व-परलोक नासइं हुई । धर्मनउ उपकार करई । उपकारक केवलज्ञान प्रामी मोक्ष लहई। यत उक्तं श्रीउपदेशमालासिद्धान्ते
आसन्नकालभवसिद्धियस्स जीवस्स लक्खणं इणमों। . · विसयसुहेसु न रज्जइ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ॥ (गा. २९०)
[जि.] सुद्ध निर्मल मोटा जे कुल धर्मलक्ष्मीवंत कुल तिहां जात उप्पन्नाई हूंता गुणवंत न रमई । संसारना भोग न भोगवइ । किंतु जिनोक्त दीक्षाव्रत लिइं । तेह जिनदीक्षानउं किसुं प्रमाण? तत्तो वि० य परमतत्तं । तेह जिनदीक्षा हूंतउ परम तत्त्वज्ञान ऊपजइ । तओ वि तेह परमतत्त्व हूंत उवयार लोकहूइं उपगार हुइ । अथवा आपणपाहूइं उपगार हुइ। भलां धर्मानुष्टान करइं। अनेरा. पाहइं कारावई । मुक्खं तेह उपगार हूंतउ मोक्ष हुइ । मोक्षि अनिर्वचनीय अप्रतिपातिया शाश्वतां सुख छइं । तेह भणी गुणवंत दीक्षा लिइं ॥९४ ॥5
[मे.] जीणइ कुलि वीतरागनउ धर्म वापरइ तीणइ कुलि ऊपना हूंता विनयविवेकादिक गुणसहितइ हूंता संसारना सुखनइ विषइ न राचइं । अनइ जिनदीक्षा लिइं । तिवार पछइं परम तत्त्व ओलखइ । ते आराधता हूंता ऋमिहिं मोक्ष पामइं ॥९४॥
20
[जि.] अथ नारकी कहइ ।
, वन्नेमि नारयाओ जेसिं दुक्खाइं संभरंताणं। . भव्वाण जणइ हरिहररिद्धि समिद्धी वि उद्घोसं॥९५॥
१ उपकारी. २ °रिद्ध. १३
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षष्टिशतक प्रकरण
.. [सो.] वन्नेमि० ते नारकीइ वर्णवउं, जे नारकीनां दुःख सिद्धांतनइं बलिई जाणीनइ स्मरतां हुंतां भव्वाण भव्य जीवहई हरिहर विष्णु ईश्वरादिकना सरीषीइ ऋद्धिनउ विस्तार उद्घोसं ऊकांटउ करइ । जाणइं एह रिद्धि लगइ जीव पाप ऊपार्जी नरगि 5जाइं। एह्वां दुःख प्रामइं। इम चीतवतां भय लगइ सयर धूजइं । संसारना सुख उपरि वैराग्य ऊपजइ ॥९५॥
[जि.] नारकीइ वर्णवउं हउं, जहां नारकीना दुःख संभारता स्मरता हूंता भव्वाण भव्य जीवहूई हरि विष्णु हर ईश्वर तेहनी
ऋद्धि समृद्धि लक्ष्मीनउ विस्तार उद्धोसं उद्धर्षण रोमांच जणइ 1०करइ । एतलई एवहां कांई नारकीहूई दुःख छइं, जे दुःख संभारताई ज हूंतां अति भय लगी कंप ऊपजावइं । कंप लगी रोमांच ऊपजइ । अनइ जि को संसारनां दुःख हूंतउ बीहइं ति ए न करइं । तिणि कारणि अम्हे नारकीनां दुःख संभारता हूंतां पाप न करां । तिह भणी नारकी वर्णवां । जिम चोरनां बंधमरणादिक दुःख देखी साधु माणस लगाई चोरी अन्याय न करई ॥९५॥
[मे.] ते नारकीइ वर्णवीइं, जे नारकीनां दुक्ख संभारतां हूंतां भव्य जीवहूई हरिहरांदिक देवतानी ऋद्धिनउ विस्तार उद्घोस कहतां रोमांच ऊकांटउ करइ । जाणइ एह रिद्धि लगी नरगि दुःख पांमीस्यई ॥९५॥
20 [सो.] केतलाइ उपदेशमालानु अर्थ मानइ, पुण करई नहीं । तेह आश्री कहइ छइ ।
[जि.] अथ बिहुँ गाथाई श्रीउपदेशमाला वर्णवई । १ नरकि. २ श्रीउपदेशमालनउ,
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त्रण बालावबोध सहित
सिरिधम्मदा सगणिणा रइयं उपदेसमालसिद्धंत' । सव्वे व समणसड्ढा मन्नंति पढंति पाढंति ॥ ९६ ॥ तं चैव वि' अहमा छलिया अहिमाणमोहभूएणं । किरियाए हीलता ही ही दुक्खाई न गणंति ॥ ९७ ॥
९९
[ सो.] सिरिधम्मदास० श्रीधर्मदासगणिआचार्य 5 श्रीमहावीर विजईया छतां श्रीउपदेशमाला सिद्धांत" रचिउ क्रीधर, अनेक महात्मा श्रावक आश्री उपदेश विचाररूप | सच्चे वि० ते अर्थ' सविहु गच्छना महात्मा श्रावक मानई पढइ प्रढावई ॥ ९६ ॥
तं चेव० पुण तेह जि माहि केतलाइ अधम अभिमान अहंकार अनइ मोह अज्ञान तेहरूपिइं भूति छल्या, अहंकार अजाणिवाना वाह्या 10 तेह जि श्रीउपदेशमालाहूई क्रिया करी हीलई । अवज्ञाई' करई । ही ही ० आहा ! ते बापडा आगलि आपण पाहूई दुःख आवतां गणता नथी । ते मूर्ख इसिउं नथी जाणता जे ईणं सिद्धांतनी अवज्ञा करी अनंत संसारमाहि रुलिस्युं । अनंता दुःख प्रामिस्य ॥ ९७ ॥
[जि. ] श्रीधर्मदासगणि नामाचार्यहं रचड़ की उ15 श्री उपदेशमालासिद्धांत सव्वे वि संघलाई श्रमण महात्मा सड्ढ श्रावक मान पढ पढावई ॥ ९६ ॥
एक अधम पुरुष अतिमान मोह रूपिया भूत प्रेत तेहे छल्या हूंता ही ही खेदे आपण पाहूहूं दुःखई न गणई न चींतवई । किसा छइ अधम ! तं चेव श्रीउपदेशमालासिद्धांत अवगणां ते अधम 20 भूते छल्या पुरुष सरीषा जाणिवा । जिम भूतव्यापिउ लोक माथउं पेट
१ जि. उवएसमाल', मे. उवएसमालसम्मत्तं. २ जि. किवि. ३ जि. 'भूएहिं . ४ 'माल'. ५ अहींथी मांडी ९७ मी गाथाना बालावबोधमां ' अहंकार अनइ मोह' सुधीनो पाठ सोनी बीजी प्रतमांथी पडी गयेलो छे. ६ अवज्ञा.
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१००
· पंष्टिशतक प्रकरण
आहणतउ मरणपीडादिक दुःख न चीतवइ तिम सिद्धांतनिंदक पुरुष अहंकारि हूंतउ दुःखीउ थाइ ॥९७ ॥
[मे.] श्रीधर्मदासगणिइं श्रीमहावीर जीवताइ जि श्रीउपदेशमालाप्रकरण सिद्धांत जाईउ रचिउ सव्वे वि सघलाइ 5 महात्मा श्रावक मानइं पढई पढावइं ॥९६॥
तेह जि उपदेशमाला केईएक अधम अभिमान अनइ मोह रूपीइ भूति छल्या हूंता क्रियांई करी अवहेलता हूंता ही ही इसिइ खेदि आगामियां नरकनां दुःख गणइं नहीं । ते मूर्ख जाणता नथी जि संसारमाहि रुलीस्यइ ॥ ९७॥
10. [सो.] वीतरागनी आज्ञाभंगि मोटउं पाप । ए बात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जिनेन्द्रनउ आज्ञाप्रताप वर्णवइ । इयराणं ठकुराणं आणाभंगेण होइ मरणदुहं ।
किं पुण तिलोयपहुणो जिणिंददेवाहिदेवस्स ॥९८॥ . [सो.] इयराणं० इतर सामान्य ठाकुराईनी आज्ञाभंगि इतेहना आदेशनइ लोपि मरणदुःख प्रामीइ। ते रीसाविउ ठाकुरु मारइ । किं पुण. त्रैलोक्यनउ प्रभु ठाकुर जे जिनेन्द्रदेवाधिदेव सविहूंनउ नायक तेहनी आज्ञानइ लोपि एक मरणदुःखनउं सिउं कहीइ ? अनंतां मरणदुःख प्रामइ ॥ ९८॥
[जि.] इतर पाधरा ठाकुरनी आज्ञा भांजिवइ मरणादिक दुःख २०हुई, तउ पछइ त्रिलोकप्रभु त्रिलोकनायक श्रीजिनेन्द्रदेव तेहनी आज्ञा भांजिवइ करी महादुःख हुई तेहनउं सिउं कहिवउं ? ॥९८॥
.१ जि. मे. इयराण. २ जि. मे. ठकुराण. ३ जिणंद, मे. जिणंद'. ४ ठाकुरनी. ५ ठाकुर. .
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त्रण बोलावबोध सहित
[मे.] इतर पाधरा ही ठाकुरनी आज्ञानइ भंगि मरणादिक दुःख ऊपजइं । पछइ त्रैलोक्यनउ प्रभ जिनवरेन्द्र देवाधिदेव तेहनी आज्ञानइ भंगि जे दुक्ख उपजइं ते किम कही सकीइं? ॥९८ ॥
[सो.] वली एह जि वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जिनवचननउ गुण कहइ । जगगुरुजिणस्स वयणं सयलाण जियाण होइ हियकरणं । ता तस्स विराहणया कह धम्मो कह णु जीवदया ॥१९॥
[सो.] जगगुरु० जगत्त्रयनउ गुरु श्रीजिनेन्द्र वीतराग तेहनउं वचन सर्व जगना जीवहूई हितकारि छइ । ता तस्स० तउ तेहनी विराधना जउ करइ, तेहनउं वचन न मांनइं, अप्रमाण करइं० तउ कह धम्मो तेहहूई धर्म किहां छइ ? कह णु जीवदया अनइ तेहहूई जीवदया किहां छइ ? तेह भणी वीतरागनइं वचनइं जीव ओलखाइ', जीवदयानु प्रकार पुण जाणीइ । वीतरागनां वचनइ जि उपरि आस्था नही तउ किम जीव अनइ जीवदया जाणीइ ? ॥ ९९ ॥
[जि.] जगत्त्रयनउ गुरु जे जिन श्रीवीतरागदेव तेहनउं वयणा5 वचन सयलाण जियाण सघलाई जीवहई हितकारक हुइ। ता तिणि कारणि तस्स तेह जिनवचन तणी विराधनाइं आशातनाइं करी कह किमु धर्म हुइ ? अपि तु न हुइ। णु प्रश्ने। कह किमु जीवदयाइ हुइ ? जीवदया पुण न हुई। तिणि जि कारणि जिनवचननी विराधना न करिवी । किं तु पालना करिवी, जिम जीवहूई रूडउं हितक० हुइ ॥ ९९॥
१ जगुगुरु. २ हिइकरणं. ३ मे. कहण. ४ उलखाइ. ५ जु आस्था.
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षष्टिशतक प्रकरणे [मे.] जगगुरु जिनेश्वर तेहनदं वचन सघलाइ जीवनइ सुखकारक हुइ । तउ ते परमेश्वरना वचननी विराधनाइं कीधीइं किहां धर्म, किहां जीवदया ? ॥ ९९॥
[सो.] केतलाइ शुद्धा चारित्रियानी अवज्ञानई काजिइं जमलउ बाह्य क्रियाडंबर मांडइं । ते वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ सिद्धांत हूंतु विरुद्ध अधिक क्रियाडंबर जे धरई ते उदिसी कहइ।
किरियाइफडाडोवं' अहियं साहंति आगमविहूणं ।
मुद्धाण रंजणत्थं सुद्धाणं हीलणहाए ॥१००॥ 10 [सो.] किरियाइ० केतलाई बाह्य तप क्रियादिकनड़
फटाटोप आडंबर चारित्रियाइ पाहइ अधिकउ कहइ दिषाडइं, आगम सिद्धांतनी आज्ञारहित आपणी बुद्धिइं कल्पीनइ मुद्धाण० मुग्ध भोला लोकने रंजविवानइ काजिइं। सुद्धाणं० शुद्धचारित्रियां तेहहूई
अपमाननइं काजिई, तेहे ठउडवा इम करई । पुण जाण हुई ते तेन्हे 15न वाहीइं ॥ १०॥
[जि.] आगमविहणं सिद्धांत जे नथी कहिउं तेह क्रियादिकनउ स्फुटाटोप प्रकट आडंबर अधिक साधई करई । किसा भणी ? मुग्ध लोला सिद्धांतरहस्यना अजाण तिहहूई रंजिवा भणी अनइं वली सुद्ध सदाचारी पुरुष तेहूइं हीलनार्थि अवहेलनानिमित्ति । एतावता २०सिद्धांत पाषइ क्रिया तपनउ आडंबर घणउ करइं । तेहहूइं मुग्धरंजन मात्र फल छइ । सामुहउं सदाचारीनी अवहेलाइं करी पाप हुई। ए
१ शुद्ध. २ जि. मे. °फुडाडोवं. ३ सायंति. ४ केतला. ५ ‘आडंबर' नथी. ६ लोक ते. ७ ठउजावा.
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त्रण बालावबोध संहित
१०३
कष्टई करई अनइ आगलि पापइ जु उपार्जइं। एहां एह जु ऊषाणउ साचउ हुइ-एगं च मालपडणं अन्नं लउडेण सिरि घाओ ॥ १०॥
[मे.] क्रियानउ फटाटोप बाह्य तपनउं करिवउं चारित्रिया पहिति अधिकउं देषाडइ । आगमविहीन सिद्धांतनी आज्ञाई रहित आपणी बुद्धिई मुग्ध भोला लोकनइं रंजिवानइ काजि अनई सुद्ध 5 चारित्रिया तेहना अपमाननइ काजि, हीलानइ हेति ॥ १०॥
. [सो.] जे धर्मनउ उपदेश दिइ ते गाढउ हितूउ । ए वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जिनधर्मनउ देणहार पुरुषनउं स्वरूप कहइ । जो देइ सुद्धधम्म सो परमप्पा जयम्मि न हु अन्नो। to किं कप्पमसरिसो इयरतरू होइ कइया वि॥१०१॥
[सो.] जो देइ० संसारना काजकाम व्यवसाय वाणिज्यनइ विषइ प्रेरणा सहूइको मा बाप सगा सणीजा करइ । पुण जे सूधउ खरउ धर्म उपदेशिई देखाडइ ते परमात्मा जगमाहि परमहितूउ कही। अनेरउ न कहीई । किं कप्पद्दम० जिम बीजा धव खइर पलासादिक-5 घणाइ वृक्ष हुइ, पुण मनोवांछित पूरण्हार कल्पद्रुम सरीसउ एक वृक्ष न हुइ । तिम कल्पद्रुम सरीखउ धर्म दिण्हार। इह लोकना काजना प्रेरण्हार बीजा वृक्ष सरीषा जाणिवा ॥ १०१॥
[जि.] जे सुद्धउ साचउ धर्म दिइ सीखवइ ते पुरुष परमात्मा गाढउ मोटउ जयम्मि जगत्माहे । तेह सरीखउ न हु अन्नो०० अनेरउ मोटउ कोई नही । किसुं ? कल्पद्रुम सरीषउ अपर वृक्ष
१ उपदिसइं. २ हितूउ, ३ एकइ. ४ देण्हार, ५ इ..
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१०४
षष्टिशतक प्रकरण
कइया वि कदापि किवारई हुइ ? अपि तु न हुइ। कल्पद्रुम सरीषउ शुद्ध धर्मदायक जाणिवउ ॥ १०१॥ - [मे.] सम्यक्त्वमूल बार व्रतनउ सूधउ धर्मनउ उपदेश जको
दिइ तेहइ जि परमात्मा। जगत्त्रयमाहि परमपुरुष अनेरउ कोई नहीं । 5 किसउं ? कल्पवृक्ष सरीषउ इतर बीजउ को वृक्ष हुइ कहीइ ? अपि तु नहीं ॥ १०१॥
[सो.] जे गुणवंतना गुण अनइं दोषवंतना दोष न ओलखइं' ते आश्री कहइ छइ ।'
[जि.] अथ पंडित अनइ मूर्षहूई गाढउं आंतरउं कहइ । गजे. अमुणिअगुणदोसा ते कह विबुहाण हुति मज्झत्था। अह ते विहु मज्झत्था ता विसअमिआण तुल्लत्तं ॥१०२॥
[सो.] जे अमुणिअ० जे गुणवंतहूइं गुणवंत भणी ओलखइं' अनइ दोषवंतहूई दोषवंत भणी न जाणई। गुणवंत अनइ दोषवंतइ बिहइं सरीषाइ जि देखइ । इम कहइ 'अम्हारइ सघलाई 15देव, सघलाइ गुरु सरीखाइ जि । अम्हारइ रागद्वेष नही। अम्हे मध्यस्थ ।' ते जाणइ नहीं मध्यस्थ भणी किम बइसइ ? ते गाढा अजाणइ जि कहीइं । जेह भणी तेहहूई बि दोष लागइ, जेह भणी गुणवंतना गुण छताई अछता करई। दोषवंतमाहि अछता गुण
आरोपइ छ । ए बि दोष तेहहूई लागई। अह ते. जउ तेहू २०मध्यस्थ कहवराई ता वि० तउ विख अनइ अमृत तथा रत्न अनइ काच, आंबउ अनइ लीब, साप अनइ फूलमाल, अंधारउं अनइ अजूआलू
१ उलषइ. २ तेह विबुहाण, ३ उलषइं. ४ सघला. ५ नहीइ. ६ छता. ७ दोषवंतना. ८ 'छइ' नथी...
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त्रण बालावबोध सहित
एहई तोल' तेहहूई सरीषइ जि थिया। एहइ माहि रूडउं विरूउं कहतां मध्यस्थपणउं जासिइ । तेह भणी इसिउं जाणिवउं ए अजाणिवू जि कहीइ, पुण मध्यस्थपणउं न कहीई । इसिउ भाव ॥ १०२॥ . . [जि.] जे पुरुष अमुनित अज्ञात गुण अनइ दोष छइं ते अमुनितगुणदोष पुरुष मूर्ष मध्यस्थ हुई, पंडितमाहे गणाई ता तउ 5 पछइ विस अनइं अमृतहई तुल्यत्वं सरीषा हुई। एतलइ विस सरीषउ मिथ्यात्त्वी मूर्ष अनइ अमृत सरीषउ तत्त्वज्ञ पंडित जाणिवउ । इणि कारणि ए बिहुंहूई घणउ आंतरउ ॥ १०२॥ .... ___ [मे.] जीए गुण नइ दोष नहीं जाण्या ते किम बुध पंडितमाहि मुख्यपणउं लहइं ? अथवा तेहइ गुणदोषना अजाण जु मध्यस्था० विद्वांसमाहि मुख्यपणउं लहइ तउ विष नइ अमृत बिहुंनइं तुल्यपणउं हूउं ॥१०२॥
... [सो.] धर्मइ जि आपणउ, बीजउ काई नहीं । ए वात कहइ
छइ । . [जि.] अथ सम्यक्त्व विवरइ । . . ...13 ., मूलं जिणिंददेवों तव्वयणं गुरुजणं महासयणं । . सेसं पावट्ठाणं परमप्पाणं च वजेमि ॥१०३॥ . [सो.] मूलं. पहिलउं जिनेंद्र वीतरागदेव जीणं धर्म देषाडिउः। अनइ परमेश्वरनउं वचन सिद्धांत । त्रीजउं ते सिद्धांतना प्रकासण्हार श्रीगुरुजन पूज्य आचार्य साधु श्रावक । ए त्रिणिइ महा-20 स्वजन गाढा सगा। सेसं० बीजउं सहू धर्मरहित । आपणउं पुत्र. १ एह जि. २ बोल. ३ सरीषा. ४ कहइ. ५ जिणंद'. मे. जिणंद. ६ जि. परमप्पयणं.. .७ अनइ बीजउं ते.. ८.त्रीजु. ९ आचार्य उपाध्याय. १४
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१०६
पष्टिशतक प्रकरण
कलत्रमित्रादिक पर अनेराइ लोक मिथ्यात्त्वी भणी पापस्थानक' भणी वर्जू त्यजूं । तेह ऊपरि मोह न करउं ॥ १०३ ॥
[जि.] मूलं पहिलउ जिनेन्द्रदेव । बीजउं तब्वयणं तेह जिनेन्द्रनउं वचन, जिनप्रणीत धर्म । त्रीजउ गुरुजन सुसाधु गुरु । 5 ए बिन्हइ महास्वजन मोटा सगा। सेसं पावट्ठाणं शेष थाकतउं स्वजन पापस्थानक पापनउं कारण हूंतउं पारकउं अवइ आपणउं वर्जङ ॥ १०३॥
[मे.] मूलि तां पहिलउं जिनेन्द्रदेव । पछइ तेहनउं बचन । वली गुरुजन सुसाधु गुरु । ए त्रिन्हइ महामोटा सगा । सेष थाकता ५०पर अनेरा मिथ्यात्वी अनइ ज्ञानदर्शनचारित्ररहित आपणपउं त्यजउं
॥ १०३ ॥
[सो.] वली गुरुनउं स्वरूपु कहइ छइ । ... [जि.] अथ. प्रकारान्तरि गुरुपरीक्षा बोलई, बिहुँ गाथाई करी।
अम्हाण रायरोसो कस्सुवरि नत्थि इत्थ गुरुविसए। जिणआणरया गुरुणो धम्मत् सेस वोसिरिमो॥१०४॥
[सो.] अम्हाण. कवि कहइ छइ । ईहां गुरुनइं विषइ अम्हहूई रागरोस कहि ऊपरि नथी । 'आ गुरु रूडउ, आ गुरु विरूउ' इम कांई रागद्वेष नथी । जिण जे गुरु जिन वीतरागनी
खरी आज्ञा पालई छई, खरउं चारित्र आराधइ छई ते गुरु धर्मनई ६०काजिई कर्मक्षय निमित्त सेवू । तेहइ इहलोकनइ कारणि न सेवउं ।
सेस० सेष बीजा गुरु सघलाइ बोसिरावउं छांटुं ॥ १०४ ॥ . १ पापस्थान. २ स्वरूप. ३ जि. मे. रायरोसं. ४ नस्थि अत्थ, जि. इत्थ नृस्थि, ५ रागदोस. ६ कहइ. ७ नत्थी, ८ खरूं. १ छांडं.
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त्रण वालावबोध सहित .
[जि.] इत्थ संसारमाहे गुरुनइ विषइ कस्सुवार कही ऊपर अम्हाण अम्हहूई राग अनइ रोषई नथी । एक गुरु ऊपरि राग द्वेष इसुं नहीं । किं तु अम्हे धर्मनइ अर्थि जिनाज्ञारत जिनाज्ञाप्रतिपालकई ज गुरु सेवां । सेष थाकता अनेरा जिनाज्ञा थोडी पालइ ते गुरु वोसिरां मेल्हां ॥ १०४ ॥
[मे.] कवि कहइ । अम्हनइ कुणही गुरु ऊपरि सगरोस नथी इहां गुरुनइ विषइ । जे जिननी आज्ञानइ विषइ तत्पर तेहइ जि धर्मनइ काजि गुरु । सेष थाकता वोसिरउं छांडउं ॥ १०४ ॥
10
[सो.] वली एह जि वात कहइ छ।। .
[जि.] मेल्हिवानउं कारण कहइ । नो अप्पणा पराया गुरुणो कइया वि हुंति सड्ढाणं । जिणवयणरयणमंडणमंडियं सव्वे विते सुगुरु॥१०५।।
[सो.] नो अप्पणा० श्रावकनइ ‘आ आपणा गुरु, आ पिराया गुरु' ए वात कहीइं नथी । ए वात अजाण मिथ्यात्वीनी 'आ माहरउ गुरु ।' जेह भणी मातंग म्लेच्छ ठठार चमार वेश्यादिक-15 इनइ एकेकउ गुरु' छइ । ते अजाणपणई 'माहरउ ए गुरु' इम कहइं, पणि मोक्षार्थी श्रावक इम न कहई । तेहनइ जिणक्यण. जिनवचन सिद्धांत तेहरूपिउं रत्नमंडन रत्नमय आभरण तीणं करी जे मंडित छई', जे वीतरागनी आज्ञा सिद्धांत साचउ जाणई मानई प्रकासई, आपणी शक्ति अणगोपवता करई आराधइं ते सघलाइ०० सुगुरु कहींइ । ते गुरु भणी आराधिवा ॥ १०५॥
१ जि. जिणवयणमंडण. २ पराया. ३ नत्थी. ४ कुलगुरु. ५ अजाणई. ६ छई जि. ७ जि.
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... षष्टिशतक प्रकरण ।
[जि.] शुद्ध श्रावकहूई कदापिहिं आपणा अनइ पारका गुरु न हुई। किं तु श्रावकहूइं ते सघलाई सुगुरु हुइं । ते कुण ? जिनवचनरूपियां रत्न तेहनउ मंडन अलंकार तेहे करी मंडित अलंकर्या । एतलइ
जे महात्मा जिनवचन मानइं ते सुगुरु ॥ १०५॥ 5 [मे.] धर्मार्थी श्रावकनइ 'गुरु आपणा-पारका' ए वात कहिवा नावइं । काइं ? जे जिनवचनरूप रत्न तेहे करी मंडित सूधउं प्ररूपई, सूधउं चारित्र पालइं ते सघलाइ सुगुरु करी मानिवा ॥ १०५॥
[सो.] जेहनी संगतिइ धर्म लाभई तेह' सुगुरुइ जि जाणिवु । .. ए वात कहइ छइ । 10 [जि.] अथ सज्जन वर्णवइ । . बलि किजामो सजणजणस्स सुविसुद्धपुन्नजुत्तस्स। . जस्स लहु संगमेण वि सुधम्मबुद्धि समुल्लसइ ॥१०६॥ ... [सो.] बलि० अम्हे ते सज्जन जन उत्तम लोकहूई बलि
कीजउं, ऊतारणउं कीजउं । सुविसुद्ध० जे सुविसुद्ध निर्मल पुण्यिइं 15करी युक्त सहित छइं । जस्स० जेहनइं संगमि संयोगिई करी लहु
तत्काल सुधम्म० खरा धर्मनी बुद्धि उल्लसइ ऊपजइ । जेह थिकउ साचा धर्मनी बुद्धि आवइ तेहनइ ज गुरु कहीइ । इसिउ भाव । यत उक्तं श्रीसिद्धान्ते. जे जेण सुद्धधम्मम्मि ठाविओ संजएण गिहिणा वा । २० . सो चेव तस्स जायइ धम्मगुरु धम्मदाणाओ ॥
[जि.] सुविसुद्ध अतिनिर्मल पुण्य तेहे करी युक्त सज्जन. लोकहूइं अम्हे बलि किजामो बलिहारइ कीजां, ऊतारणइं कीजां।...
१ तेहू. २ गुरुइ. ३ मे. तस्स. ४ तेहू.
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aण बालावबोध सहित
जस्स जेह सज्जन जन तणइ संगमि संयोगमात्रइ जि लघु उतावली सुधर्मबुद्धि समुल्लसंह प्रकट हुइ ॥ १०६ ॥
१०९
[ मे. ] ते सज्जन उत्तम जननई बलिहारी कीजउं । पणि ते केवहा छ ? निर्मल पुण्य करी युक्त छइ । जेहनइ संसर्गि लघु शीघ्र भी धर्मनी बुद्धि ऊपजइ उल्लसइ ॥ १०६ ॥
[सो.] तीणई' कालि ए कविनइ मनि श्रीजिनवल्लभसूरिई. जि खरा भणी बइठा हुंता । तेह' आश्री बि गांह कहइ छ ।
5.
[ जि . ] अथ बिहुं गाथाइं श्रीजिनवल्लभसूरि वर्णवइ । अज्ज वि गुरुणो गुणिणो सुद्धा दीसंति तडयडा केवि । पहु जिणवल्लह सरिसो पुणो वि जिणवल्लहो चेव ॥ १०७ ॥ २० वयणे वि सुगुरुजिणवल्लहस्स केसिं न उल्लसइ सम्मं । अह कह दिणमणितेयं उलुयाणं हरइ अंधत्तं ॥ १०८ ॥
[सो.] अज वि० अजी केतलाइ सुगुरु गुणवंत तपि नियमि करी कडकडता' देखीइं । पुण पहु प्रभु श्रीजिनवल्लभसूरि सरीषउ गुरु श्रीजिनवल्लभइ जि हुइ । बीजउ एव्हउ शुद्ध प्ररूपक s चारित्रीउ न हुई ॥ १०७॥
वयणे० श्रीजिनवल्लभसूरि गुरुहूई' वचनि केतलाइ अभागिआनइ सम्यक्त्व न ऊपजई : अह० अथवा सूर्यनउं तेज उलूक घूअडहूइं अंधण" किम फेडई ? जिम सूर्यहं ऊगिइं घूअड न देखई तिम as " गुरुनइ वचनि धर्म न ओलखइ " । इसिउ भाव ॥ १०८ ॥ 20 १ तीणं. २ तेह भणी तेह आश्री. ३ मे. केई. ४ जि. पर, मे. पुण. ५ अलूयाणं. ६ कडकडाता. ७ एहवउ ८ गुरुनई. ९ वचनइ १० अंधपणउं. ११ एह्वाई. १२ उलषइ.
1
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पष्टिशतक प्रकरणः
[जि.] अद्यापि आज लगइ तडयडा कडकडा शुद्ध निर्दोष गुणवंत केईएक गुरु दीसइं । पर केवल प्रभु श्रीजिनवल्लभसूरि सरीषउ: वली जिनवल्लभसूरिइ जि । अनेराना अभावइतउ
अन्योन्योपमा छाजइ. ॥ १०७॥ 5 गुरु श्रीजिनवल्लभसूरिनइ वचनइ कहीएकहूई सम्मं सम्यक्त्व नइ उल्लसइ न प्रकट हुइ। अथ पछइ दिनमणितेज सूर्यनां किरण उलूक घूयड तेहनउं अंधत्व अंधपणउं किसउं हरइ ? अपि तु न हइ । सूर्यना तेज सरीषउं विश्वप्रकासक श्रीजिनवल्लभसूरिनलं वचन
अभागिया पुरुषरूपिया घूयड तेहनउं अज्ञानरूपिउं अंधपणउं न फेडइं 1०तउ ते अभागिया घूयडना कर्मइजिनऊ दूषण ॥ १०८॥
मे.] अजी एवहइ तीर्थकालि द्रव्य क्षेत्र काल भावनइ मेलि गुरु गुणवंत सूधा क्रियावंत आकरा दीसइं। पणि श्रीजिनवल्लभसूरि सरीषा वली श्रीजिनवल्लभसूरि जि ईणइं कालि दीसई ॥ १०७ ॥ .. श्रीजिनवल्लभसुगुरुने वचने कहिनई सम्यक्त्व उल्लसइ नहीं ? 15अपि तु भव्य जीव सेवाकारक संघलाइंनइं. सम्यक्त्व उल्लसइ । अथवा
वली सूर्यनउं तेज धूअडनई अंधपणउं किमझ फेडइं ? अपि तु न फेडई। तिम जे अभव्य दुरभव्य छई ते गुरुने वचने सम्यक्त्व न ओलखइं । इसउ भाव ॥ १०८॥
- [सो.] संसारनउं मरणादिक स्वरूप देखीनइ केतलाइंहूई 20वैराग्य न ऊपजई। ए वात कहइ छइ । .
[जि.] अथ तेह ज अभागियानउं स्वरूप कहइ । तिहुअणजणं मरंतं दट्ठण निति जे न अप्पाणं । विरमंति न पावाओ घिद्वी धिट्टत्तणं ताणं ॥१०९॥ १ 'केतलाई हुई ' नथी.
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त्रण बालावबोध सहित
[सो.] तिहुअण० त्रिभुवननउ लोक एवडउ सघलउइ मरइ छइ । को रहिउ नहीं, रहिसिइ नही । एव्हउं स्वरूप देषीनइ आपणपउं न जोइ, ' अम्हहूई मरण आवइ छड्, धर्म करउं ।' विरमंति० पाप थिकउ विरमई नहीं, ऊहटइ नहीं । घिद्धी० तेहना धीरष्टपणा प्रतिइं धिग् पडउ, जेह भणी लगारइ मरणमय गणता नथी ॥ १०९॥ 5
[जि.] जे पुरुष त्रिभुवननउ लोक मरतउ देखी आपणपउं न निअंति न चीतवइं, वैराग्य न पामइं अनइं पाप हूंतउ विरमई नहीं तेहां पुरुषां तणउं घेठपणउं तेहहूई धिग् धिग् ॥ १०९॥
[मे,] त्रिभुवनना लोक मरता देषीनइ आपणषउं जोइं नहीं जि 'अम्हेई मरिस्यउं ।' एवहउं देषी जे पाप हूंता विरमइं नहीं तेहना:० धेठपणानई धिग् धिक्कार पडउ ॥ १०९॥
[सो.] वली एह जि वात कहइ छइ, बिहु गाहे।
[जि.] अथ कुत्सित स्नेहपणानउँ फल बिहुँ गाथाई कहइ । सोएण कंदिऊणं कुटेऊणं सिरं च उअरं च । अप्पं खिवंति नरए ते पि हु घिद्धी कुनेहत्तं ॥ ११० ॥ 15 एगं पिअमरणदुई अन्नं अप्पा वि खिप्पए नरए। एगं च मालपडणं अन्नं लउडेण सिरि घाओ ॥११॥
[सो.] को सगउं मरइ तउ अजाण जि शोकिई करी आनंद करइ अनइ माथउं पेट कूटइ। तीणइं करी गाढडं मोहनीय कर्म ऊपार्जीनइ आपणपउं नरगि घातई । तं पि० तेहइ कुस्नेह विरूआ40 स्नेह प्रतिइं धिग पडउ ॥ ११०॥
१ जि. मे. सिरघाओ. २ शोकइं. ३ नरकि.
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षष्टिशतक प्रकरण
एगं० एक तां प्रिय अभीष्ट मूउ ते दुःख । बीजउं वली शोक करी पाप ऊपार्जी नरगि' जाइ । बीजउ ते दुःख । दृष्टांत कहइ छइ । एक तां ऊंचा माला थकउ पडिउ । बीजउ लडइ' करीइ माथइं आहणिउ । ए लोकिक दृष्टांत ॥ १११ ॥
5
११२
[जि.] अज्ञानी लोक शोकि करी कंदी रोई सिर माथउं उअर पेट पुण कूटीनां आपणपउं नरगि क्षिपई घालई । तं पि० ते कुत्सित स्नेहपणाहूई धिक्कार पडउ ॥ ११० ॥
एक तउ प्रिय वाल्हउ तिहनउं मरणदुःख आगइ छइ अनइं बीजउं आपणपउं नरगि क्षिप घालीइ । एक तउ माल हूंतर पडण 10 पडिवउं । अनेरउं वली ऊपरि माथइ लउडानउ घाउ । इणि कारणि शोक न करिवउ, जिम नरगि न पीडाई ॥ १११ ॥
[मे.] स्वजनादिकनइ मरणि ं शोक आनंद करीनइ, शिर कूटीन, हीउं ताड़ीनइ आपणपरं नरगनइ विषइ क्षिपइं । तर तेहर कुस्नेहनई धि धिक्कार हुउ ॥ ११० ॥
एक तां प्रियतम वाल्हा तेहना मरणनउं दुक्ख । बीजउं आपणपउं नरकनइ विषइ क्षेपइ । तउ ए वात साची हुई । एक माला हूंतउं पडिवउं । वली लकुटनउ घाउ माथइ वाजइ ॥ १११ ॥
15
[ सो.] साचा धर्मना धणी गुरु नइ श्रावकइ दुर्लभ । ए
बात कहइ छंइ ।
20
[ जि . ] ' स्नेहमूलानि दुःखानि ' इसुं स्थापी सांप्रत दुःखमा कालनउं स्वरूप कहइ ।
१ नरकि. २ लउडइं. ३ गुरुइ.
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त्रण बालावबोध सहित
संपर दूसमकाले धम्मत्थी सुगुरु सावया' दुलहा । नामगुरु नामसड्डा सरागदोसा बहू अस्थि ॥ ११२ ॥
११३
[सो.] संपइ० हवडा दुःखमा कालि पांचमइ आरइ वर्त्तते' निष्केवल धर्मार्थी सुगुरु अनई सुश्रावक दुर्लभ थिया, जे आपणउं पिरायुं कांई न जोअई' । एकलउ धर्म जि जोई एहवा अति थोडा । 5 नामगुरु० नामिदं करी गुरु । नामिदं करी श्रावक । सराग० जेहहू आपणा विरूआ ऊपरि राग, बीजा गुणवंत ऊपरि द्वेष, बहू अस्थि हा ' छई ॥ ११२ ॥
[ जि. ] संप्रति हिवडां दुःषमाकालि धर्मार्थी धर्मना करणहार सुगुरु श्रावक दुर्लभ छ । तिणि कारणि सरागदोसा रागद्वेषसहित 10 हूंता नामगुरु नामधारक घणाइ छ । ते दुःषमा कालनउं प्रमाण ॥ ११२ ॥
[.] सांप्रत दुःखमा कालि धर्मार्थी सुगुरु नइ श्रावक दोहिला पांमीई । पणि नामिं गुरु, नामिं श्रावक रागद्वेषसहित घणाइ दीस ॥ ११२ ॥
15
[ सो.] धर्म छ भाग्याधीन । ए बात कहइ छइ । [ जि.] अथ धन्य अनइ अधन्यनउ स्वरूप कहर | कहिअं पि सुद्धधम्मं काहि' वि धन्नाण जणइ आणंदं । मिच्छत्तमोहिआणं' होइ रई मिच्छधम्मेसु ॥ ११३ ॥
[ सो. ] कहिअं पि० केतलाइ धन्य उत्तम जीवहूई खरउ 20 धर्म कहि सांभलिउ हर्ष करई । धर्म करतां देखी कहिवुं किसिउं ?
१ जि. मे. सावगा. २ वर्त्ततइं. ३ जोईउं. ४ ' जेहहूई ' नथी. ५ विरूयाइ. ६ घणाइ ७ मे. काह. ८ मे. मिच्छित्त..
१५
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११४
षष्टिशतक प्रकरण
मिच्छत्त० ये निबिड मिथ्यात्त्वि करी मोह्या वाह्या छई तेहहूई साचउ धर्म सांभलिउ दीठउ' हर्ष न करई। तेहहूई मननी रति मिथ्यात्त्वधर्मइ जि ऊपरि हुइ । ते आपणा आपणा कर्मनउ विशेष । ते अभव्य दूरभव्य तीहनुं कारण ॥११३॥ 5 [जि.] केईएक धन्यहूई सुद्ध निर्मल धर्म कथितमात्र हूंतउ
आणंद जणइ ऊपजावइ । अनइं अधन्यहूई मिथ्यात्त्वई मोहित हूंता मिथ्यात्त्वधर्मनइ विषइ रति संतोष हुइ ॥ ११३॥
[मे.] कहिउंइ हूंतउ सूधउ धर्म केतलाई भाग्यवंतनइं आणंद ऊपजावइ अनइ मिथ्यात्त्वमोहित जीवनइं मिथ्यात्त्वधर्मनइ विषइ 1०रति हुइ ॥ ११३॥
[सो.] केतलाइ जीव धर्मनी बुद्धिई पाप करइं छइं । ते आश्री कहइ छइ।
[जि.] अथ जिनधर्मीनउं स्वरूप बिहुं गाथाई करी कहइ । : इक पि महादुक्खं जिणसमयविऊण सुद्धहिययाणं । 15 जं मूढा पावाई धम्मं भणिऊण सेवंति ॥११४॥
[सो.] इकं पि० जिनवचनना जाण निर्मल मनना धणी तेहनइ मनि एह जि एक महादुःख, जं मूढा० जं मूढ मूर्ख बापडा मिथ्यात्वी धर्म भणी' धर्मनी बुद्धिइं पाप सेवइं । यागादिक करई । पापइ पुण्य भणी मानइं । एव्हउं असमंजस देखी जिनधर्मना जाणनई २०मनि असमाधि ऊपजइं ॥ ११४ ॥ . [जि] निर्मलहृदय अनइ जिनसिद्धांतना जाण तेहांहूई एकू ज मोटउं दुक्खं जे मूढा मिथ्यात्त्वी धर्म भणी धर्मबुद्धिइं पापहिंसादिक
१ दीठउइ, २ करण. ३. 'धर्म भणी' नथी. ४ जाणइनइ.
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त्रण बालावबोध सहित
सेवइं । एतलउं जि एकु दयालूपणइं दुःख । बीजउं लगाई दुःख नही। जितेंद्रपणातउ ॥ ११४॥
[मे.] जिनसमयना वेत्ता सूधा हीयाना धणीनइं ए मोटउं दुःख । ए किसिउं ? जे मूर्ख लोक पापनइ धर्म करीनइ सेवई । मुखि कहइ 'अम्हे धर्म करउं छउं' अनइ करइं पाप ॥ ११४ ॥
[सो.] सम्यक्त्वना पालण्हार थोडाइ जि हुई । ए वात कहइ छइ । थोवा महागुभावा जे जिगवयणे रमंति संविग्गा। तत्तो भवभयभीया सम्मं सत्तीइ पालंति ॥११५॥ .
[सो.] थोवा० ते महानुभाव गुरुया भाग्यवंत थोडा, जे० जिनवचननइ' विषइ संवेग वैराग्यवंता हूंता रमई। रात्रिदिवस श्रीसिद्धांतनी आस्था मनि आणइं । तत्तो० तेहइ पालइ जे संसारमाहि पडिवानइ भयं बीहतां हुंता सम्यग् साचउं जिनवचन आपणी शक्तिनइं मानिइं खरूं क्रियां करी पालई । एह्वा ते अति थोडा ॥११५॥
[जि.] जे जिनधर्मी थोडा महानुभाव गरिष्ट हूंता श्रीजिनवचन-15 नइ विषइ संविग्न सावधान थिका रमई, स्नेह करई । तिणि कारणि जिनवचनकारक पुरुष संसारना भय हूंता बीहता सक्तिई करी सम्यक्त्व पालई ॥११५॥
[मे.] ते महानुभाव थोडिला, जे जिननां वचन तेहनइ विषइ संवेगी थका रमइं । तिवार पछा ते भव संसारना भय थका बीहता० सम्यक्त्व यथाशक्तिं करी पालई ॥ ११५॥
१ जिनवचन श्रीसर्वज्ञना वचननइ. २ रात्रि दीस. ३ भइं.
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: षष्टिशतक प्रकरण ..
[सो.] सम्यक्त्व पाषइ श्रीधर्म खरउ न हुइ । ए वात कहइ छइ। सव्वंग पि हु सगडं जह न चलइ इकबडयलारहियं । तह धम्मफडाडोवं न चलई सम्मत्तपरिहीणं ॥११६॥ 5 [सो.] सव्वं० जिम सगड गाडउँ धुरी चूंसर समइल प्रमुख सर्व आंगे करी सहित हुइ, पुण एक बडइल न हुई तु न चालई । तह धम्म तिम धर्मनउ फटाटोप मंडाण घणूंइ करइ, तप नियम क्रिया दान सील कष्टानुष्टानादिक करई । पुण सम्यक्त्व नथी तउ कांई चालइ नही । अल्प फल थाइ । अज्ञान कष्टइ जि थाइं । जिम तामलि रिषिनइं घणउ तप कष्ट कीघउं, अल्प फल हूउं । सद्धिं वाससहस्सा तिसत्तखुत्तो दएण धोएणं । अणुचिन्नं तामलिणा अन्नाणतवुत्ति अप्पफलो ॥ (उपदेशमाला, गा. ८१)
[मे.] सघले अंगे संयुक्त हूंतउ शकट एक बडहिल रहित न चालइ । तिम धर्मनउ स्फटाटोप एक सम्यक्त्व रहित फलदायन न 15हुइ ॥ ११६॥
[सो.] जे जीव सिद्धांत न सांभलई, हित-अहित न जाणइं ते आश्री कहइ छ।।
[जि.] अथ तत्त्वज्ञ पुरुष मूर्ष उपरि रीस न धरई । ति वात कहइ। २०न मुगंति धम्मतत्तं सत्यं परमत्थगुणहिअं अहिअं। बालाण ताण उवरिं कह रोसो मुणितत्ताणं ॥११७॥
१ आ गाथा तथा तेनो बालावबोध जि.मां नथी. २ मे. बडहिला. ३ मे. फलइ. ४ अंगे. ५ स्फटाटोप. ६ 'जि थाइं' नथी. ७ मे. परमप्प. ८ जि. मुणिधम्माणं. मे. भुणिअधम्माणं.
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or बालrasोध सहित
[ सो.] न मुणंति० जेहमाहि धर्मनउं तत्त्व कहिउं छह तेव्हउं सिद्धांतशास्त्र न जाणइं अनइ जे परमार्थगुणि हित' अनइ अहित वस्तु, रूडउं-विरूउं, पुण्यपाप न जाणई, बालाण० ते बापडा मूर्ख अजाणपणई पाप करतां उपरि मुणिअ० ज्ञाततत्त्वहूइं रोष किम हुई ? 'ए बापडा अजाण धर्म न जाणई, तु सिउं जाणई ? ' इम तेह ऊपर करुणाइ जि आवइ । इम कहइ, 'सुच्चा ते जिअलोए जिणत्रयणं जे नरा न याणंति' इत्यादि ॥ ११७ ॥
5
[ जि. ] जे सूर्ष धर्मतत्त्व न जाणई अनई वली परमार्थगुणि करी हितकारीउं सत्थ शास्त्र, अहिअं अहितकारिडं न जाणई। ताज बालाणं तेहां बालकां ऊपर मूर्ष ऊपरि मुणिअतत्ताणं ज्ञाततत्र ० तत्त्वना जाणहार पुरुषहूहूं किसउ रोस ? अपि तु कोई रोस नही । बाल शब्द मूर्ष कहाइ अनई आंचलि धावणउ बालकई कही । तेह भणी जिम बालक तत्त्वातत्त्वविचार न जाणइं, हिल-अहित न जाणई । तेह बालकां ऊपरि डाहीयार लोक रीस न करई ॥ ११७ ॥
[मे.] जे न जाणई धर्मनउं रहस्य अनइ शास्त्र, जे पर आप नई हित नइ अहित, पुण्य नइ प्राप तेहनइ अधिक गुणकारक न जाणई ते बाल मूर्ख ऊपर धर्मना जाणनई रोस क्रिम करिवउ आवइ ? ॥ ११७ ॥
[ सो.] जे आपणउं हित न करइ ते पर रहई किम हितू आ हुसिई ? ए बात कहइ छन् ।
[ जि.] मूर्ख दयावंत न हुई । ए बात स्थापई ।
१ 'हित... न जाणइ' ए पाठने स्थाने बीजी प्रतमां नीचे प्रमाणे छे"हित अनइ अहित न जाणई । अथवा परमप्प इसिइ पाठि आपणपा अनइ परइहूई गुणकारिडं हितु वस्तु अनइ अहित वस्तु, रूडउं- विरूउं पुण्यपाप न जाणई. '
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षष्टिशतक प्रकरण
अप्पा वि जाण वइरी तेसिं कह होइ परजिए करुणा। चोराण बंदियाण' य दिटुंतेणं मुणेअव्वं ॥११८॥ ... [सो.] अप्पा० जेहनइ आपणउ आत्माइ वइरी । आपणा जीवइनूं हित नथी करतां तेव्हा पाप करई छई। जेव्हा आपणउ 3 आत्माइ गाढउ संसारमाहि रुलइ । तेहहूई अनीरा' जीवनइ विषइ करुणा किम हुइ ? चोराण० जिम चोर अथवा जे माणस बंदि धरइं तेहनइ दृष्टांतिइं जाणिवं । जिम ते चोरी करतां, बंदि धरतां, परहूई अनर्थ करतां आपणउं न चीतवई । 'अम्हे धरीसिउं, मारीसिउं, अनर्थ प्रामिस्यउं' ए वातं. कांई विमासई नहीं। तिम तेहइ पाप करता 1०चीतवइं नहीं ॥ ११८॥
[जि.] जाण. जेहां पुरुषहूई आपणपउ आत्मा वइरी, आपणा जीवइहूई हित न करइं तेसिं तेहां पुरुषहहूई परजिए पारका जीव ऊपरि किमु करुणा दया हुइ ? अपि तु न हुई । ए वात
चोराण चोरनइ दृष्टांति, बंदियाण य बंदी बंदोर बांदि झाल्या लोक 15ते बिहुने दृष्टांति जाणिवी । जिम चोर आपणा जीवइ ऊपरि दया
अणकरतउ हूंतउ पारका जीव ऊपरि दया न करई । जइ चोर आपणाई जीवहूई विरूउं चीतवी लोकइहूई परद्रव्य लेता मारइ । अनइं जे जे आपणा जीवहूई हित न करइं ते ते पारका जीव ऊपरि दयाई न करई । जिम चोर। अनइं जे जे पारका जीव ऊपरि दया करइं ते ते आपणाइ ५०जीवहूई हित करई। जिम सुसाधु लोक । इसुं प्रमाणिकनउं वचनई जाणितउं ॥ ११८॥
[मे.] जेहनइ आपणउ आत्मा वयरी, आपणा आत्मा ऊपरि दया न ऊपजइं तेहनइ अनेरा जीव ऊपरि करुणा दया किम हुइ ?
१ बंदियाणइ. २ करय. ३ जेहे. ४ अनेरा.
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त्रण बालावबोध सहित
११९
इहां चोर नइ बंदीना दृष्टांत जाणिवा । जिम चोरु चोरीइं पइसइ अनइ मरिवाइतउ बीहइ नहीं । बंदियाण बंदि झालिवा पइसइ तिम जाणिवउं ॥११८॥
[सो.] जीव उत्तम, मध्यम, अधम त्रिहु प्रकारे हुई । ए वात बिहु गाहे कहइ छइ । . . - [जि.] अथ सुश्रावकि दयावंति मोटा पापव्यापार न करिवा । इसुं कहइ। जे रजधणाईणं कारणभूआ हवंति वावारा। ... ते वि हु अइपावजुआ धन्ना छडुति भवभीया ॥११९॥
[सो.] जे धन्य उत्तम छइं ते जेहे व्यापारे राज्य लाभइ, धना० धान्य समृद्धि मान महत्त्व लाभइ ते वि हु० तेहइ व्यापार अति पापमय' जाणी छांडइ। संसारना दुःखभए बीहते दीक्षा लेई आपणां काज साधइं ॥ ११९॥
[जि.] जे व्यापार राज्यधनादिकहूई कारणभूत हुई, जेह व्यापार हूंता राज्य धन धान्य सुवर्ण रूप्य रत्नादिक ऊपार्जीइं ते वि.5 तेहई व्यापार हु निश्चई अतिपापसंयुक्त हुई। तउ धन्य कृतपुण्य संसार हूंता बीहता ते व्यापार छांडइ ॥ ११९॥
[मे.] जे राज्यधनादिक ऊपार्जिवानइ कारणभूत व्यापार हुइ तेहइ अतिपापयुक्त व्यापार भव संसार हूंता बीहता छांडइं । तेही धन्य जाणिवा ॥ ११९॥
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१ पापमइ.
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षष्टिशतक प्रकरण
... [जि.] उत्कृष्ट पुरुषनी बात कही मध्यमनी बात कहइ । बीया' य सत्तरहिआ धणसयणाईहिमोहिआ लहा। सेवंति पावकम्मं वावारे उयरभरणढे ॥१२०॥ .
[सो.] बीया० बीजा जे मध्यम पुरुष घरबार छांडी दीक्षा 5 लेवानइं साहसि करी रहित धन लक्ष्मी अनइ पुत्रकलत्रादिक स्वजन घरादिकनई मोहिई मोह्या लोभि वाह्या पेट भरवानइं कारणि पापव्यापार व्यवसाय वाणिज्य क्षेत्रादिकनउ व्यापार करई, कांई कांई गृहस्थधर्म आराधता हूंता । ए बीजा मध्यम पुरुष कहीइं ॥ १२०॥ .
[जिं.] बीजा मध्यम पुरुष सत्त्वरहित धण द्रव्य अनइ स्वजन 1०पुत्र तेहे मोह्या लुद्धा लोभिया हूंता व्यापारमाहे उदरभरणार्थि पेट
भरिया भणी पावकम्म पापकर्म सेवई समाचरई । ते मध्यम पुरुष जाणिवा ।। १२०॥
[मे.] बीजाइ वली सत्त्वि करी रहित धनस्वजनादिके मोहित हूंता लोभियां हूंता पापकर्म सेवई । स्या भणी ? उदर भरिवानउ 15व्यापार तेहनइ अर्थि ॥ १२०॥
[जि.] अर्थ अधम पुरुष कहइ । तईया अहमाण अहमा कारणरहिआ अनाणगव्वेणं । जे जति उसुत्तं तेसिं घिद्धी त्थु पंडित्तं ॥१२१॥
[सो.] तईया० त्रीजा ए अधम पाहिं अधम काजकाम २०पाषइ आपणइं अजाणवई गर्वि पूरिया जे जंपति० उत्सूत्र बोलइ,
१ बिइआ, मे. बीयाइ. २ मे. लद्धा. ३ मे. पावकम्मे. ४ भरणहा. ५ पापव्यापार नइ. ६ जि. तईयाहमाण अहमा, मे. तइया अहमाणहमा. ७ मे.
-
पंडित्ते. ८ एक.
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त्रण बालावबोध सहित
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सिद्धांत विरुद्ध भाषइं । तेसिं० तेहना पंडितपणाहूई धिग् धिग् हउ । ते आपणइं मनि डाहा थई बोलई छई, पुण उत्सूत्र भाषवई आगलि आपणइ घणउ संसारमाहि रुलिसिइं ॥ १२१॥
[जि.] तईया त्रीजा अधमाधम कारणरहिआ कारण विणु काज पाखइ अनाणगव्वेणं अज्ञानगर्व करी, कूडइ अहंकारि 5 करी जे पुरुष उत्सूत्र सिद्धांत विरुद्ध वचन जंपति बोलई तेसिं तेहां अधमाधम पुरुष तणा पांडित्यहूई धिगस्तु धिक्कार हु। ते पारकइ पीटणइ आपणा गाल तोडइं ॥ १२१ ॥
[मे.] हिव त्रीजा अधमहइ पाहति अधम कारण पाषइ अज्ञानगर्वि गर्वित हूंता जे उत्सूत्र बोलई तेहना पंडितपणानई धिग् धिक्कार:० पडउ ॥ १२१॥
[सो.] वली एह जि वात ऊपरि मरीचिनउं दृष्टांत. कहइ छइ।
[जि.] अथ ते अधमाधम उत्सूत्र भाषकहूई सरीषउ दृष्टांत देखालइ।
15 जं वीरजिणस्स जीओ मरिई उस्सुत्तलेसदेसणओ। . सागरकोडाकोडिं हिंडइ अइभीमभवगहणे ॥१२२॥
[सो.] जं वीर० श्रीमहावीरनु जीव मरीचिनइ भवि लगारएक उत्सूत्र कपिल क्षत्रियहूई, 'ए त्रिदंडियापणाइ माहि कांई धर्म छइ कि नथी ? ' इम पूछतां 'कविला! इत्थंपिइहयं पि' इसिउं० उत्सूत्रमात्र उपदिसीनइ कोडाकोडि सागरोपम जं संसाररूपीआ अति
१ पंडतपणाहूइं. २ आपणपइ. ३ 'वली' नथी, ४ मिरिई. जि. मिरिईभवे, मे. मिरिई. ५ भवरन्ने.. ६ त्रिदंडीयाइंपणा. . ... .
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षष्टिशतक प्रकरण
बीहामणा अरण्यमाहि' भमइं। असंख्यातउ काल नवनवे भवांतरे रुलइ । तेह भणी उत्सूत्रप्ररूपणा विरूई । यत उक्तं श्रीवीरस्तुती
अहह सयलन्नपावेहिं वितहपन्नवणमणुमवि दुरंतं । जं मरिइभवअज्जिअदुक्कयअवसेसलेसवसा ॥ सुरथुयगुणो वि तित्थंकरो वि तिहुअणअतुल्लमल्लो वि । गोवाईहि वि बहुसो कयत्थिओ तिजयपहु ! तं सि ॥ थीगोबंभणभूणंतगा वि केवि इह दढपहाराई ।
बहुपावा वि पसिद्धा सिद्धा किर तम्मि चेव भवे ॥ १२२ ॥
[जि.] जंजिणि कारणि श्रीमहावीरदेवनउ जीव मरीचि1०नइ भवि, श्रीआदिनाथनउ पोत्रउ, श्रीभरतचक्रवर्तिनउ बेटउ मरीचि उस्लुत्तलेसदेसणओ ' अम्हई कन्हई कांई थोडउ धर्म छइ' इसुं उत्सूत्रनउ लबलेसना कहिवातउ अइभीमभवगहणे अतिरौद्र संसाररूपिउं गहन वन तेह माहि सागरोपमनी कोडाकोडि हिंडइ भमइ । ते उत्सूत्रनउं प्रमाण ॥ १२२ ॥ 15 [मे.] जे श्रीमहावीरदेव तणउ जीव मिरीचि नामिइं
उत्सूत्रनउ लेस एक तेहनी देसनाई करी एक कोडाकोडि सागरोपम भीम रौद्र संसाररूप वन गहनमाहि हीडिउ भमिउ ॥ १२२ ॥
[जि.] तेह जि उत्सूत्रभाषक भारेकर्मउ । इसुं बिहुँ गाथा प्रकासइ। 20 ता जे इमं पि वयणं वारंवारं सुणिन्तु समयम्मि । दोसेण अवगणित्ता उस्तुत्तपयाई सेवंति ॥१२३॥ १ माहाइ. २ जइ, जि. मे. जइ. ३. मुणित्तु, जि. मुणित्त.
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त्रण बालावबोध सहित
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ताण कहं जिणधम्मो कह नाणं कह दुहाण वेरग्गं । कूडाभिमाणपंडियनडिया बुझंति नरयम्मि ॥१२४॥ . [सो.] ता० तु जइ एव्हं मरीचिनउं उत्सूत्र वचननउं स्वरूप वली वली सांभली दोषेण द्वेष लगइ ते अवगणीनइ जे उत्सूत्रपद सेवइ, श्रीसर्वज्ञनी आज्ञा विरुद्ध बोल कहइं थापई, जे 5 अभिमानना वाह्या एव्हं उत्सूत्र बोलइं. तेहहूई जिनधर्म किहाँ छइ ? अनइ दुःखनउ वैराग्य किहां छइ ? जेह भणी संसारनउ दुःख आंगमीनइ उत्सूत्र प्ररूपई छई। कुडाभिमाण० कूडा आपणा पंडितपणाना अभिमान तीणं करी नड्या वाह्या नरगइ जि माहि बूडई छई ॥१२३-२४॥
10 [जि.] ता तउ पच्छइ जइ किमइ समयम्मि सिद्धांतमाहे इमं पि वयणं उत्सूत्रवर्जन पूर्वोक्त वचन वार वार सुणी सांभलीनइं पछइ कूडइ दोषि करी सिद्धांतनउं वचन अवगणीनइं ते अधम उत्सूत्रपद सेवई । तेहां उत्सूत्रपदसेवणहारहूई कहं किमु जिनधर्म हुइ ? अपि तु न हुइ । अनइं तेहांहूई नाणं तत्त्वज्ञान किमु हुइ ? वली दुःखनउं:5 वैराग्य किमु हुइ ? अनइं ते अधम कूडउ अभिमान अहंकार तिणि : करी पंडित तेहे नटित नचाव्या हूंता नरकमाहे बूडई । कूडी पंडिताई करी नरगि पडइं ॥ १२३-२४ ॥
[मे.] तउ जइ किमइ मरीचिनउं उत्सूत्रवचननउं स्वरूप वार वार सांभलीनइ सिद्धांतमाहे कहिउं हूंतउं ते वचन द्वेष लगी० अवहेलीनइ उत्सूत्रनां पद स्थानक सेवई, सिद्धांत विरुद्ध बोलई, तीयांनइ जिनधर्म किहां, ज्ञान किहां ? तेहनइ दुक्खनउ वैराग्य किहां ?
१ मे. जिणधम्मं. २ एहुं. ३ अवगुणीनइ. ४ किहांइ. ५ बीजी प्रतमां आटलु वधारे छे—'अनइ ज्ञाननउं जाणिवउं किहां छइं.'
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7
षष्टिशतक प्रकरण
जेह भणी संसारना दुक्ख आंगमी कूडइ अभिमानि, कूडी पंडिताई नड्या हूंता नरग माहि बूडई ॥ १२३-२४ ॥
१३४
ए वात कहइ छइ ।
5.
[ सो.] कर्मबहुल जीवहूइं हितोपदेश दीधर कांई काज नावई ।
[ जि. ] एवहा निकाचितकर्मी जीवहूहूं, उपदेसनी अयोग्यता
कहइ ।
मा मा जंपह बहुअं जे बद्धा चिकणेहिं' कम्मे हिं । सव्वे सिं जाय हिओवएसो महादोसो ॥ १२५ ॥
15
1
[ सो.] मा मा० घणउं काई म बोलिस्यउ । बीजां कांई 10 कारण म कहिस्यउ । जं केतलाई जीवहूई हितोपदेश कांई न लागईं । जे जीव चीकणे कर्मे करी बाधा छइ गाढा कर्मबहुल छइ, तेहं सविहुं जीवहि हितोपदेश दीधउइ महादोषहेतुइ जि थाइ । काई गुणि न आवइ । यत उक्तं
अप्रशान्तमतौ शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् ।
दोषायाभिनवोदीर्णे शमनीयमिव ज्वरे ॥ १२५ ॥
[ जि . ] अहो उपदेशना देणहारो पुरुषो ! बहुअं घणउं मति बोलउ । जे जीव चिकण चीकणां अवश्यभोक्तव्य कर्म तेहे बाधा व्याप्या हुई ते सघलाई जीवहूइं हितोपदेस धर्मनउ कहिवरं महादोषरूप, मुखहूई थूक सोस जि भणी हुइ । कांई लागई नही । ति निकाचित 20 कर्मनउं प्रमाण | जीवनां चतुर्विध कर्म छई । एक स्पृष्ट कर्म । बीजउं बद्ध कर्म । त्रीजरं निधत्त कर्म । चउथउं निकाचित । जिम छोहि दीधी भीतिइं सांमुही चूनानी डली मूकी लांखीइ । अनइं त्या चूनानी सूकी १ चिक्कणिहिं. २ जीवहुई.
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त्रण बालावबोध सहित
१२५ डली भीतिई लागी पाछी पडइ । भीतिमाहि कांई न रहई । तिम स्पृष्ट कर्मनउं स्वरूप जाणिवउं । लगारएक लागइ ते तत्काल विलइ जाइ ते स्पृष्ट कर्म । वली जिम सूकी छोहपंकित भीति । तेह ऊपरि नीली चूनानी डली लांखीइ । पछइ कोई एक सूकी पूठई भीति हूंती ऊखेली लांखइ । भीतिइं सूकी भणी लगारई न रहइं । तिम बद्धकर्म जीवहई कर्म 5 लागइ, केतलीएक वेला रहइ। पछडइ उपक्रमि करी फीटइ। ते बद्धकर्म । वली जिम नीली भीतिनी छोह माहे सूकउ चूनानउ खंड घालीयइ । पछइ कालांतरि दोहिलउ नीकलइ । तिम निधत्त कर्म । जीवहूई कर्म लागइ । जीव भोगवइ । कालांतरि गाढइ उपक्रमि जे कर्म फीटइ ते कर्म निधत्त नाम जाणिवउं । अनइ जिम नीली छोहि सउं भीति चिणी:० हुइ अनइ भीतिनी छोहि सूकी पूठिई वज्र एकपणउं हुइ तिम निकाचित कर्म । जीव नइं कर्म एक हूयां । जूजूयां न थाई। जां जीवइ जीव तां ते कर्म भोगवइ । गाढ अनंते उपक्रमे कीधे न जाई । संपूर्ण कर्म भोगवीइ ते निकाचित कर्म । तथा चोक्तं
कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि ।
अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ इत्यादि कर्मस्वरूप कर्मग्रंथशास्त्रतउ जाणिवउं । एतलई जे चीकणे कर्मे लीप्या तेहां जीवांहूई उपदेश न लागई। यदुक्तं श्रीउपदेशमालायांउवएससहस्सेहि वि बोहिजंतो न बुज्झई कोई।
20 जह बंभदत्तराया उदायिनिवमारओ चेव ॥ १२५॥ (गा. ३१)
[मे.] मा मा० घण घण घणउं म बोलउ। जे जीव चीकणे कर्मे बांध्या छइं तीयां सघलांनइ विषइ हितोपदेश महादोष समान हुई ॥ १२५॥
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१२६
षष्टिशतक प्रकरण
: [सो.] वली एह जि वात कहइ छइ । - [जि.] एह जि वात प्रकारांतरि करी वली कहइ । . हिअयम्मि जे कुसुद्धा ते किं बुज्झंति धम्मवयणेहिं ।
ता ताण कए गुणिणो निरत्थयं दमहि अप्पाणं ॥१२६॥ 5. [सो.] हिअयस्मि० जे जीव हिअइ कुसूधा अधर्म मायाविया हुई ते धर्मने वचने किम बूझइं ? घणाइ धर्मोपदेश दिउ, पणि ते न बूझइं । ता० तेह भणी तेहहूइ बूझववानइ कारणि जें
खप करइ ते आपणपउं निरर्थक दामई', क्लेश करई। तेह अयोग्यहूइ - ‘खप कीधी निरर्थक थाइं । काई गुण न करइ । यत उक्तं- . 10 ये वैनेया विनयनिपुणैस्ते क्रियन्ते विनीता
नावैनेया विनयनिपुणैः शक्यते संविनेतुम् । ... - दाहादिभ्यः समलममलं स्यात्सुवर्ण सुवर्ण
नायस्पिण्डो भवति कनकं छेददाहक्रमेण ॥ १२६ ॥ - [जि.] जे पुरुष हियामाहे कुसुद्ध दुष्ट हुई ते किम धर्मने 15वचने करी प्रतिबूझइ ? सरलचित्तई ज धर्माक्षरे करी प्रतिबूझइं । ता
तउ पछइ गुणवंत परोपकारी पुरुष ताण कए तेहां दुष्टांने कीधइ निरर्थक आपणपउं दमइं खेदावई ॥ १२६॥
[मे.] जे मनुज हीयामाहि कुसूधा छइं ते धर्मने वचने किम प्रतिबूझइं? ते ते जीव प्रतिबूझवानइ कारणि गुणवंत निरर्थक आपणपउं २०दमई, क्लेश करइं। तिहां क्षप कीधी वृथा थाइ ॥ १२६ ॥
१ जि. बुझिति. २ दमइ. ३ 'न बूझई......तेहहूई' एटलो पाठ बीजी .. प्रतमांथी पडी गयो छे. ४ जि. ५ दमइ. ६ तेहं.
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त्रण बालावबोध सहित
१२७
[सो.] धर्मनी आस्था जीवहूई पाप फेडई। ए वात कहइ छइ।
[जि.] जइ दुष्ट भारेकर्मा जीवने हिययइ जिनधर्मोपदेश न लागई तउ पछइ किसुं जिनधर्म प्रमाण ? इसी शंका फेडिवा. भणी जिनधर्मनउं प्रमाण बोलइ । दूरे करणं दूरम्मि साहणं तह पभावणा दूरे। जिणधम्लसदहणं पि तिक्खदुक्खाई निवइ ॥१२७॥
[सो.] दूरे० श्रीजिनधर्मनउं करिवउं आराधिवउं ते दूरि परहउं छइ अनइ जिनधर्मर्नु साहणं कहिवउं, थापिवळं, अनेरानइ हिअइ आणिवउं तेहइ परहउं छउ। तथा श्रीजिनशासननी प्रभावना० लोकमाहि रूडउं भवाडिवउं, बाह्य लोकइ पाहिँ वखणाविq तेहइ परहउं छउ । तेह एके जीव तीर्थंकरपदवी .गणधरपदवी केवलज्ञान . मोक्ष : लगइ ऊपार्जइ । जिणधम्म० बीजउं काई म करिस्यउ। जिनधर्मनउं सद्दहण मात्र करइ, आस्थाइ जि मनि आणइ तेउ तिक्खदुक्खाई तीक्ष्ण गाढां पोतनां पाप नीठवइ क्षपइ, हलूअकर्मउ थाइ ॥ १२७ ॥ 15
[जि.] जिनधर्मनळं करणं करिवउं दूरि वेंगलउं हुउ अनइं जिनधर्मनउं साधन तपश्चरणादि प्रमाणि चडावण पुण दूरि हउ। तह तथा जिनधर्मनी प्रभावना द्रव्य वेची जिनशासनि प्रोत्सर्पणा तेहीइ वेगली छइ। श्रीजिनधर्म सांचउ रूडउ खरउ। इसुं जिनधर्मनउं श्रद्दधानई तीक्ष्ण तीत्र दुक्खहूई निराकरइ निवइ फेडइ ॥ १२७ ॥ ३०
१ आस्थाइ. २ आ 'फेडइ' शब्दथी मांडी वाकीनो बालावबोध के १२७ मी गाथा सो.नी बीजी प्रतमा नथी. मात्र आ गाथा उपरना बालावबोधना छेला बे शब्दो 'हलूअकर्मउ थाइ' तेमां छे. अर्थात् १२७ मी गाथा अने ते उपरना बालावबोधने स्थाने सो.नी बीजी प्रतमा मात्र आटलुं छे–'धर्मनी आस्थाइ जीवद्इं पाप [वच्चेनो बधो पाठ पडी गयो छे] हलूअकर्मउ थाइ.' :..:
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षष्टिशतक प्रकरण
[मे.] वीतरागना धर्मनउं करिवउं दूरि रहउ । क्रियानउं साधिवउं दूरि रहउ । तिम शासननी प्रभावना पणि दूरि रहउ । एक जे जिनधर्मनउं सद्दहिवउं ते तीक्ष्ण गाढा पोतना पाप थकी जे दुक्ख तेहनइं नींठवइं ॥ १२७॥
5 [सो.] धर्म साभलिवाना मनोरथ कहइ छइ ।
[जि.] अथ सुश्रावकनी धर्मचिन्ता कहइ । कइया होहि दिवसो जइया सुगुरूण पायमूलम्मि । उस्सुत्तलेसविसलवरहिओ निसुणेमि जिणधम्मं ॥१२८॥
[सो.] कइया. ते दिहाडउ मझहूई कहिइं हुसिइ, जहीइं 1०हुं उत्तम चारित्रिया सुगुरुनइ पदमूलि उत्सूत्रलेश लगारइ उत्सूत्ररूपिउ विषलव विसनउ लेस तीणं करी रहित खरउ श्रीजिनधर्म सांभलिसु ? जेह भणी जिनवचननइं सांभलिवइं जीवहूई मोटउ गुण ऊपजइ । यत उक्तं
नवि तं करेइ देहो न य सयणा नेव वित्तसंघाओ । जिणवयणसवणजणिया जं संवेगाइया लोए ॥ १२८॥ [जि.] कइया कदा किवारई दिवसो दिहाडउ होहि होसिइ, जइया यदा जिवारइं सद्गुरुनइ पादमूलि चरणकमलि जिनधर्म निसुणिसु सांभलिसु ? किसुउ हूंतउ ? उत्सूत्रनउ लेस तेह रूपिउ विषलव तिणि करी रहित हूंतउ । एतलइ ते दिहाडउ किहीइं २०होसिइ ? जिणि दिहाडइ गुरुनइ पदकमलसमीपि जिनधर्म सांभलिसु ते दिन कृतार्थ ॥ १२८॥
१ °रिहिउं. २ निसुणेसु, जि. निसुणेमु, मे. निसुणेसु.
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त्रण बालावबोध सहित
१२९
[मे.] कहीइं ते दिहाडउ मुझनई होइसिइ, जहीइं सुगुरु सुद्ध प्ररूपकनइं पादमूलि उत्सूत्रलेसरूप विषलव तिणि करी रहित हूंतउ जिनधर्म सांभलिसु ? ॥ १२८॥
[सो.] वली गुरु आश्री' कहइ छइ ।
[जि.] अथ गुरुचिन्ता आश्री कहइ छइ । दिवा वि केवि गुरुणो हिअए न रमंति मुणितत्ताणं । केवि पुण अदिट्ठ चिय रमंति जिणवल्लहो जेम ॥१२९॥
[सो.] दिट्ठा० केतलाइ गुरु साक्षात् दीठाइ हुंता तत्त्वना जाणनइ मनि रमइ नही। हीयइ हर्ष न करइ। केवि० अनइ केतलाइ पुण गुरु अणदीठाइ हुंता हीइ रमई वसई । तेहना' गुण 10 सांभलीनइ हीइ हर्ष ऊपजइ। जिम श्रीजिनवल्लभसूरि । ते जिनवल्लभसूरि नेमिचंद्र भंडारीथा पहिला हुआ भणी अदृष्टइ हूंता नेमिचंद्र भंडारीनइ मनि तेहनां कीधां पिण्डविशुद्धि आदिक प्रकरण देषतां वस्या । इसिउ भाव ॥ १२८॥
[जि.] मुणितत्ताणं ज्ञाततत्त्वांने हियइ केईएक गुरु:5 दीट्ठाई हूंता न रमई, न वसई, न गमई । अनइ वली केईएक अदीठाई गुरु हीयइ रमइ। किहनी परि ? श्रीजिनवल्लभसूरिनी परि। जिम श्रीजिनवल्लभसूरि अणदीठाई हूंता श्रीनेमिचंद्र भंडारी प्रमुख ज्ञाततत्त्व श्रावकने हीए सुगुरुपणइ करी वस्या तिम केईएक सुगुरु हीइ अणदीठाई वसई । एतावता श्रीजिनवल्लभसूरि पहिल हूउ ।२० तिणि कारणि श्रीनेमिचंद्र भंडारीइ न दीठा । पुण तउ हीइ जाणे किरि दीठाई ज छइ । जइ हियामाहे वसइ छइ ।
१ आश्रिय. २ 'वसई' नथी. ३ तेहइना, ४ गुणइ. . .
१७
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१३०
षष्टिशतक प्रकरण .
दूरस्थोऽपि समीपस्थो यो यस्य हृदि वर्तते ।
चन्द्रः कुमुदखण्डानां दूरस्थोऽपि प्रबोधकः ॥ १२९॥ [मे.] दीठाइ हूंता केतला गुरु धर्मतत्त्वना जाण छई तेहनइ हीयइ रमइ नहीं, गमई नहीं। अनइ केतलाइ गुरु अणदीठाइ हूंता 5 जाणना हीयानइं रुचई । श्रीजिनवल्लभसूरिनी परिइं । किम ?
श्रीजिनवल्लभसूरिनां कीधां पिंडविशुद्धिप्रमुख प्रकरण देषीनइ जिम नेमिचंद्र भंडारीनइ मनि अदृष्टिं हर्ष ऊपनउ ॥ १२९॥
[लो.] हव कुगुरु ऊपरि बात कहइ छड्।
[जि.] अथ धर्मबाह्य पुरुषनी बात कहइ छइ । 10 अजया अइपाविठ्ठा सुद्धशुरू जिणवरिंदतुल्ल त्ति। जो इह एवं मन्नइ सो विमुहो सुद्धधम्मस्त ॥ १३०॥
[सो.] अजया जे गुरु अजयणावंत छई, जीवनी विराधना करइ छ।।
• दगपाणं पुष्फफलं अणेसणिजं गिहत्थकिच्चाई । अजया पडिसेवंति जइवेसविडंबगा नवरं ॥ .
(उपदेशमाला, गा. ३४९) ईणं श्रीउपदेशमालानी गाहां जे कहिया छइं, अइपाविट्ठा अतिपापिष्ट पाप बोलतां करतांई जेहहूई शंका. नथी एव्हाइ गुरु शुद्धचारित्रिया गुरु भणी मानइं, 'ए अम्हारइ जिनवरेंद्र तीर्थकर समान ।' 20जो इह. जे अजाणइ इम मानई ते सूधा धर्महूई विमुख ऊपराठउ . जाणिवउ । तेहहूई धर्म केहांइं टूकडउ नथी ॥ १३० ॥ : [जि.] अजया इन्द्रियजयरहित अनइ पापिष्ट आरंभना करणहार हुई एवहा अनइ एवहा जाणइ जु 'ए गुरु शुद्धचारित्री
१ टूकड़इ,
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त्रण बालावबोध सहित
हूंता जिनवरेन्द्र तुल्य श्रीजिनवरेन्द्र सरीषा' इति । जे श्रावक अथवा जे महात्मा अथवा अनेरउई कोई इह संसारमाहे एवं इसुं पूर्वोक्त मानइ ते पुरुष सुद्ध धर्महूई विमुख ऊपराठउ बाह्य ॥ १३०॥
[मे.] जयणारहित, अति पापिष्ट, पापमइ वचन बोलतां संकाई नहीं एवहाइ गुरु सुद्धचारित्रिया कही मानइं। कहइं ‘अम्हारइ ए 5 तीर्थकर समान ।' जे अजाण इम मानइं ते सूधा धर्मनइ सर्वज्ञना वचननइ विषइ विमुख ऊपराठउ जाणिवउ ॥ १३०॥
[सो.] एह जि वात ऊपरि कहइ छइ ।
[जि.] तेही ज धर्मबाह्य अजाण श्रावकनइ उपदेश दिइ छइ । जई तं वंदसि पुज्जसि वयणं हीलेसि तस्स रागेण। 10 ता कह वंदसि पुज्जलि जणवायठिई पि न मुणेसि ॥१३॥
[सो.] जइ तं० रे बापडा जीव ! जइ तूं तीर्थंकर देव वांदइ छइ, पूजइ छइ, स्तवइ छइ, तु तूं ते परमेश्वरनउं वचन 'सुसाहुणो गुरुणो पांचंदिअसंवरणो० पंचमहव्वयजुत्तो' इत्यादिक काई अवगणइ ? दृष्टिरागि वाहिउ तेहतेहवा आपणा गुरुनइ अनुरागिः5 वाहिउ हूंतउ । परमेश्वरि कहिउ छइ । 'एहवा भ्रष्टाचारनु आलावो संवासो वीसंभो संथवो पसंगो य० एतलां वानां न करिव' इसिउं परमेश्वरनुं वचन जइ हीलइ छइ, अवगणइ छइ, मानतु नथी ता कह० तू परमेश्वरहूई वांदइ कांइ, पूजई काई ? जणवाय लोकव्यवहारइनी स्थिति न जाणइं छइं ॥ १३१॥
१ जि. जा, मे. जो. २ जि. मे. जिणवायठियं पि. ३ जउ. ४ पंचमहुव्वय. ५ अवगुणइ. ६ दृष्टिइरागि. ७ 'वचन' नथी.
20
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षष्टिशतक प्रकरण
[जि.] अहो श्रावक अजाण ! जड़ किमइ तूं जिनहूई वांदइ नमस्करि घरि पूजई अनई वली मिथ्यात्वीनि रागि करी तस्स तेह जिननउं वचन अवहेलिसि अवगणिसि न मानहं ता तउ अहो श्रावक मुग्ध ! तर तूं जिनहूई कांई वांदइ ? काई पूजइ ? जिनवाद 5 जिनवचन तेहनी स्थिति आचारई किसुं न जाणई ? सिद्धांतमाहे इसुं कहिउं, ' श्रावकि जिनवचन मानिवउं, अवहेलिवउं नही।' इसुं जिनवचनई न जाणई तूं ॥ १३१ ॥
१३२
[ मे. ] जइ तउं देवनई वांदइ पूजइ अनइ वली तेहइ जि तीर्थंकरना वचननई हीलइ राग लगी तउ त तेह परमेश्वरनई कांइ 1० वांद, कांइ पूजइ ? किसउं लोकव्यवहारनी स्थिति न जाणई ? ॥ १३१ ॥
[ जि. ] सिद्धांतरीतिइं अजाण श्रावकहूई उपदेश देई वली लोकरीति उपदिसइ |
लोए वि इमं भणिअं जो आराहिज्ज' सो न कोविज्जा' । मनिज्ज तस्स बघणं जइ इच्छसि इच्छिओं काउं ॥ १३२ ॥
[ सो.] लोए० लोकइमाहि इसिउं कहीइ । जे आराधीइ ते कोपविवु नही, अवगणिव नही । तेह भणी मन्निज्ज० तेहनुं वचन मानिवडे, जउ तेहना मननउं गमतुं करिया वांछइ । जउ तेहनूं वचन आराधिवउं, तु ते मानिउ पूजिउ । जउ तेहनुं वचन न मानी तउ बाह्य पूजिइ कांई न तूसइ । साहु कूपइ । लोकइ ए वात 20 कहइ ॥ १३२ ॥
15
१ जि. मुणिउं, मे. सुणियं. २ आराहिजइ. ३ कुपिज्जा ४ इच्छिउं . ५ ' मानिव उं... तेहनुं वचन न' एटलो पाठ सोनी बीजी प्रतमांथी पडी गयो छे. ६ सामुहु.
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त्रण बालावबोध सहित [जि.] अहो भोला श्रावक ! लोकइमाहे इसुं न सांभलिउंजो आराहिज सो न कोविजा ? जे आराधीइ ते न कोपवीइ । लोकई इसुं कहइ। तिणि कारणि मनिज तस्स वयणं तेह आराध्यनउं वचन मानीइ मानिवउं, जइ किमइ वांछित करिवा लहिवा वांछइ ॥ १३३॥
[मे.] लोकमाहि इसउं सांभलीइ । जे आराधीयइ ते विराधीयइ नहीं, कोपवियइ नही । केवलउं तेहनउं वचन मानिवउं । जउ किमइ आत्मानई ईप्सित वांछित करिवा वांछइ ॥ १३३ ॥
[सो.] वली सम्यक्त्वनी दृढाई ऊपरि कहइ छइ ।
[जि.] अथ सम्यक्त्वीनी सम्यक्त्वनिश्चलता बोलइ । दूसमदंडे लोए सुदुक्खसिट्ठम्मि दुट्ठउदयम्मि । धन्नाण' जाण न चलइ सम्मत्तं ताण पणमामि ॥१३३॥
[सो.] दूसम० ईणई दुःखमाकालि पांचमा आरारूपिइ दंडि पडीइ हुँतइ सुदुक्ख० शिष्ट उत्तम धर्मवंत गाढा दुःखिया थिया । दुट्ठ० दुष्ट पापी अधमी चाडादिक तेह रहइ उदय मान महत्त्वा5 लक्ष्मी हुई । एहवइ विरूअइ ऊपराठइ कालि । अथवा सुदुक्खसिद्धम्मि दुक्खउदयम्मि इसिइं पाठि सु अतिशयई दुःखिइ पूर्वभव ऊपार्जीई सीधउं नीपनउं जे दुःखनउ उदय तीणंइ छतइ जे धन्य भाग्यवंतनुं सम्यक्त्व चलइ नही, धर्म ऊपरि लगारइ अभावडि न थाइ, धर्मतु मन डोलइ नहीं, ए तेहवा उत्तम रहइं पणमउं२० नमस्करउं ॥१३३॥
१ सम्यक्त्वदृढाइ. २ जि. दूसमदंदे, मे. दूसमदंडिय. ३ जि. मे. सदुःख. ४ जि. धम्माउ. ५ थाय. ६ रई. ७ ते.
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.' षष्टिशतक प्रकरण ।
- [जि.] दूसमि दुःखमाकालिइ दंडे दंडिइ लोकि हूंतइ । वली स्वदुःखसिद्ध आपणा दुःखई नीपनउ दुःखनउ उदय तिणि हूंतइ । एतलइ एकतउ दुषमाकालि लोक दंडिउ । वली दुःखइ ऊपरि दुःख एहे बिहुं हूंते जेहां पुरुषांनउं धर्म हूंतउ सम्यक्त्व न चालई तेहां 5 भाग्यवंता पुरुषांनउं हउं नेमिचंद्र भंडारी सम्यक्त्व प्रणमउं नमस्करउं ॥ १३३॥ . - [मे.] ईणई दुक्खमाकालि लोक दंडिइ हूंतइ शिष्ट उत्तम लोके गाढे दुक्खीए हूंते अनइ दुष्टनइ उदइ हूइ हूंतइ । एवहइ छतइ
धन्य ते जेहनां चित्त हूंतउं सम्यक्त्व न चालई तेहनइं हउं प्रणाम 10करउं ॥ १३३॥
[सो.] वली गुरु आश्री वात कहइ छइ । ... [जि.] अथ गुरुपरीक्षारूप कहइ । निअमइअणुसारेणं ववहारनएण समयसुद्धीए।
कालखित्ताणुमाणेण परिक्खिओ जाणिओ सुगुरू ॥१३४॥ 15 [सो.] कवि कहइ छइ । आपणी बुद्धिनइ अनुसारि, व्यवहारनयइं करी, सिद्धांतना वचननइ अनुसारि, कालक्षेत्रनइ अनुमानि, कालक्षेत्र संघयणादि जिस्यां छई तेहनइं मानिइं चारित्र क्रियानी सर्व शक्ति खप करइ छइ । तेहनइं अनुमानिइं परीषी गुरु लीधउ अनइ मानिउ
छइ ॥ १३४ ॥ 20 [जि.] निजमतिनइ अनुसारि करी आपणाइ बुद्धिप्रागल्भ्यनइ प्रमाणि करी, वली व्यवहार लोकाचार तेहनउ नय न्यायरीति तिणि करी अनइ वली त्रीजउं समयबुद्धीए सिद्धांतनी बुद्धिइं करी
१ जि. बुद्धीए. २ शक्तिइं.
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अण बालावबोध सहित
सिद्धांतनी रीतिइं करी, वली चउथउं कालनइ अनुमानि करी, वर्षाकाल टाली अनेरइ सीयालइ उन्हालइ कालि विहार करिवानइ अनुमानि करी, वली पांचमइ क्षेत्रनइ अनुमानि करी, जिणइं क्षेत्रिइं बइतालीस दोषविवर्जित शुद्ध आहार लाभइ तिणइं क्षेत्रि विहार करिवानइ देषिवइ करी एह पांच परीक्षाई करी परीक्षिउ हूंतउ सुगुरु जाणिउ 5 मानिउ ॥ १३४॥
[मे.] निज आपणी मतिनइ अनुसारि, व्यवहारनइं ज्ञाइं करी, सिद्धांतना वचननइ अनुसारि, द्रव्य क्षेत्र काल भावनइ अनुमानि परीषीनइ सुगुरु जाणिवउ ॥ १३४॥
[जि.] तउहीइ गुरु मोटइ पुण्यइं लाभई । इसी वात कहइ ।० तह वि हुनियजडयाए कम्मगुरुत्तस्स नेव वीससिमो। धन्नाण कयत्थाणं सुद्धगुरू मिलइ पुण्णेहिं ॥१३५॥
[सो.] तह० तऊ आपणउं जडता मूर्खपणउं । कम्मगुरु० अनइ आपणा भारेकर्मीपणानु वीसास न कराई । कुण जाणइ केतीवारइं गुरुइ परीषतउ वरासिउ हउ। जेह भणी सुद्ध० सुद्ध खरउ15 गुरु धन्य धन्य कृतार्थ भाग्यवंतइ जि रहई, मोटा पुन्यनइ उदइ मिलइ ॥ १३५॥
[जि.] तथापि हिं नियजडयाए निज आपणी जडता मूर्खपणउं तिणि करी कर्मगुरुत्त्वहूई मारेकर्मी जीवहूई सुगुरु जाणिवानउ विश्वास नही । पुण धन्य भाग्यवंत अनइ कृतार्थ कृतपुण्य पुरुषहूइं पुण्य५० करी सुद्ध गुरु चारित्री आचार्य मिलई ॥ १३५॥
१ मे. ह. २ हउं हउं. ३ उदय.
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षष्टिशतक प्रकरण
[मे० ] तथापि हि आपणी जडता मूर्खाई तिणि करी अनइ कर्मनउं गुरु भारीपणउं तिणि करी वेसास न करिवउं । पणि ते धन्य कृतार्थ जेह रहई पुण्यनइ योगि सूधउ गुरु मिलइ ॥ १३५ ॥
१३६
[ जि० ] इणी जि कारणि सुगुरुप्राप्ति दुर्लभ कहइ ।
5
अहयं पुणो अन्नो ता जइ पत्तो अह न पत्तो य । तह विहु सो मह सरणं संपइ सो जुगप्पहाणं' गुरू ॥१३६॥
[ सो०] अहयं ० हुं पुण अपुण्य अभागीउ छउं । ता जइ० तु जइमई गुरु प्रामिउ छइ अथवा नथी प्रामिउ, तउ नश्चिई मू रहइ तेह जि प्रमाण ॥ १३६॥
[ जि० ] श्रीनेमिचंद्र भंडारी गामि गामि नगरि नगरि गुरुपरीक्षा करत हूंतउ फिरइ, पुण सुगुरु न लहई । तिवारइं सुं कहइ ? अहयं पुणो अहनो० । अहयं हउं पुण अधन्यपुण्य छउं । ता तउ पछइ जइ किमइ सुगुरु पामि तउ पामि । अह न पत्तो य अथवा न पामिउ । तह वि तथापि तउही हु निश्वई मह
सो तेह जि सुगुरु शरण आराध्यपणइ आधार । जे गुरु संप्रति हिवडानइ कालि जुगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि युगप्रधान गुरुना पग शरण । इति भावः ॥ १३६ ॥
10
[मे० ] हउं तउ अकृतपुण्णीयउ । जउ मई ते सूधउ गुरु पामिउ छइ अथवा नहि पामिउ । तथापि जे युगप्रधान गुरु छइ ते ... मुझनई शरणि ॥ १३६ ॥
१ जि. जुगपहाण, मे. जुगुपहाण. २ निश्वई.
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त्रण बालावबोध सहित
[जि.] अथ जिनधर्म तणउ जाणिवानउ प्रकार कहइ । जिणधम्म दुन्नेअं अइसयनाणीहि नज्जए' सम्म। तह वि हु समयहिइए ववहारजएण नायव्वं ॥१३७॥
[सो.] जिण जिनधर्म जाणतां गाढइउ दोहिलउ छइ । . अइसय० अतिशयज्ञानी जे मनोगत भाव जाणइ, सम्यग् एहे जि.5 जाणइ जं 'एहमाहि धर्म छइ ।' तह विहु० तऊ बीजे छद्मस्थे सिद्धांतमाहि जिसी परीक्षा कही छइ तिसी स्थितिई करी व्यवहारनयई धर्म जाणी लेवउ । सर्वथा अनास्था न करिवी ॥ १३७॥ .
[जि.] जिनधर्म दुर्जेय जाणतां दुहेलउ, पुण अतिशय ज्ञानवंत पुरुषे सम्भं सम्यक् प्रकारि साचउं जाणीइ । तह बि तउहीइ.० निश्चई समयहिइए सिद्धांतनी स्थितिइं अनई क्वहारनएण लोकव्यवहारनइ न्यायि करी लोके जिनधर्म जाणिवउ । 'अहो सिद्धांतनी रीतिइं धर्म जाणीइ ते प्रमाण, पुण लोकव्यवहारइं धर्म जाणीइ ते किम प्रमाण ? ' इसु म कहे । ' लोगविरुद्धच्चाओ' इसा सिद्धांतना वचनइतउ । जिम सिद्धांतस्थिति प्रमाण तिम लोकव्यवहारई प्रमाण । तथा:5 चोक्तंलोक म रूसउ, लोक जि तूसउ, लोक लेई परमारथि पइसउ । . जइ तूं जोगी त्रिभुवनसार, तइ तू न मेल्हे लोकाचार ॥ १३७॥
[मे.] जिनधर्म जाणतां गाढउं दोहिलउं। जे अतिशयवंत ज्ञानी हुई तेह जि सम्यक्त्व जाणीई जु 'एह माहि धर्म छइ ।'30 तथापि व्यवहारनइ ज्ञाइ सिद्धांतनी परीक्षाइ सम्यग् करी जाणी लेवउ । अनास्था न करिवी ॥ १३७॥
१ मे. निजए. २ मे. ह. ३ समयठिईए, जि. मे. समय ठिईए. ४ गाढउं. ५ एह. ६ ‘नयई करी.
१८
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१३८
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षष्टिशतक प्रकरण
..10
[जि.] अथ जिनेन्द्रनइ वचनि जिनधर्म जाणिवानउं फल कहइ। जम्हा जिणेहिं भणिअं सुअववहारं विसोहयंतस्स। जायइ विसुद्धबोही जिणआणाराहगत्ताओ ॥१३८॥
[सो.] जम्हा० जेह भणी जिन श्रीसर्वज्ञइ इम कहिउँ छइ । श्रुतव्यवहार सिद्धांतनउ मार्ग जोईनइ देवगुरुधर्म लिइं, जायइ० तु विशुद्ध बोधि निर्मल सम्यक्त्वनी प्राप्ति हुइ। जिण० जिननी आज्ञाना आराधक भणी । यदुक्तं श्रीआवश्यक सामाचार्या
निच्छयओ दुन्नेअं को भावे कम्मि वट्टए समणो । ववहारओ उ कीरइ जो पुवट्ठिउ चरित्तम्मि ॥ ववहारो वि हु बलवं जं छउमत्थं पि वंदई अरहा ।
जा होइ अणाभिन्नो जाणतो धम्मयं एयं ॥ (गा. ७१६-७१७) सिद्धांतनउ व्यवहार प्रमाण करतउ केवलइं जे छद्मस्थि सिद्धांतनइ "व्यवहारि जोई चाही खरउ निर्दोष भणी आणिउ हुइ. पुण ते आहार 15छइ आधाकर्मी । तउ ते जिमइ । केवली इम न कहइ, 'ए आधाकर्मी छइ' । इम कहितां सिद्धांतना व्यवहार ऊपरि अनास्था थाइ । तेह भणी न कहइ ॥ १३८॥
[जि.] जम्हा यस्मात् जिणि कारणि जिने इसुं कहिउं । सुअववहारं श्रुतव्यवहार सिद्धांतनी स्थिति विशोधता समाचरता २०पुरुषहूई विशुद्ध निर्मली बोधि जिनसम्यक्त्वप्राप्ति जायइ हुइ । किसा हेतुइतउ ? जिनाज्ञाराधकत्त्वात् । जिननी आज्ञानउ आराधकपणातउ । कोई जिनाज्ञाप्रतिपालक पुरुष देषी बोधिफल प्रतिइं संदेह करइ । तेह पुरुष प्रतिई जिणआणाराहगत्ताओ इसुं पद हेतुरूप थाइ ।
१ मे. विसोहियंतस्स. २ मे. राहगुत्ताओ.
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aण बालावत्रोध सहित
१३९ :
किमु ! श्रुतव्यवहार समाचरता पुरुषहूई विसुद्ध बोधि हुई । इसी प्रतिज्ञा किसातउ ? जिननी आज्ञानउ आराधकपणातउ । एहे तु जे जे जिननी आज्ञाना आराधक हुई तेहां तेहां पुरुषहूहूं विसुद्ध बोध हुई । इसी अन्वयव्याप्ति । जिम श्रीश्रेणिक महाराजहूई । इसु दृष्टांत । तिम एही जिनाज्ञाराधक । ए उपनय । तिणि कारण विसुद्ध बोधि हुई ज । वली 5 अप्रत्यक्ष बोधिफल प्रति संदेहकारक पुरुष वादी इसुं कहइ, 'अहो प्रतिवादिन् ! हेतु हुउ, साध्य म हुउ । विपक्षि किसु बोध ? ' इसिइ कहि हूंत प्रतिवादी ऊतर दिइ, 'अहो वादिन् ! जेहाहूइं विसुद्ध बोधि न हुइ तेहाहूई जिनाज्ञाराधकपणउंई न हुई, जिम मिथ्यात्त्वीहूइं । तेही परि ए नही । तिणि कारणि श्रुतव्यवहार समाचरता पुरुषहू 1 विसुद्ध बोधिफल हुइ जि ।' इसिह पंचावयवरूप अन्वयव्यतिरेकी अनुमानप्रमाणि करी जिनमार्गप्रवर्तक जीवहूई बोधिफल स्थापई ॥ १३८ ॥
[.] जेह भणी वीतरागदेवे कहिउ श्रुतसिद्धांत तेहनउ व्यवहारमार्ग साधतां हूतां विसुद्ध सूधी जिनधर्मनी प्राप्ति हुई । उ जिननी आज्ञाना आराधकपणात ॥ १३८ ॥
[सो.] श्रीगुरु आश्री वीतरागनी आज्ञा कहइ छइ । [ जि.] अथ सुगुरु-दुर्लभता कहइ ।
जे जे दीसंति गुरू समयपरिक्खाइ ते न पुज्जंति । पुणमेगं सद्दहणं दुप्पसहो जाव जं चरणं ॥ १३९ ॥
15
[ सो. ] जे जे ० कवि कहइ छइ । हिवडांना कालि जे जे 20 गुरु देखी ते ते सिद्धांतनी परीक्षाई न पहुचई । कहिमाहि सघलाई गुरुना गुण देखी नही । पुणमे गं० पुण एक वातनुं निश्चि सद्दहिवुं जाणिवुं जं परमेश्वरि इम कहिउं छइ । पांचमा आरानइ
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१४०.
ases' श्रीदुपसह आचार्य युगप्रधान हुसिहं । तेह लगइ भरतक्षेत्रि चारित्र वर्त्तसि । तीणइ सिउं जाणीइ ? निश्चि को को चारित्रीउ गुरु भरत क्षेत्रमाहिं छइ, जि हुं ऊलखतउ नथी ॥ १३९ ॥
[ जि. ] जे जे गुरु दीसहं ते ते समय सिद्धांत तेहनी परीक्षाई 5 न पूजई न पुचई । पुण एक श्रद्दधान आस्ता छइ । किसुं श्रद्दधान ते? दुप्पसहो जाव जं वरणं । जं जउ दुःप्रसहाचार्य लगइ चरण चारित्र थोडउं थोडेरउं होसिइ जि । इसी आस्ता छन् । पुण जुगप्रधान गुरु टाली बीजउ कोई गाढउ सुगुरु दीस नही । इति
भावः ।। १३९ ।।
[ मे. ] कवि कहइ । हिवडांनइ कालि जे जे गुरु दीस ते ते सिद्धांतनी परीक्षाइं न पहुच । कांई ? आपणपानई सूधा ज्ञाननउ अवबोध नही | अनइ असूधा घणा, सुधा थोडा ते भणी जाणी न सकी ईं । पणि एक वातनी सद्दहणा करिवी । जां दूपसहसूरि तां सीम चारित्र छइ ।। १३९ ॥
S
15
1
'षष्टिशतक प्रकरण
[ जि० ] तिणि कारणि ते जुगप्रधान गुरु जाणिवानउ उपाय
कहइ ।
ता एगो जुगपवरो मज्झत्थपणेहिं समयदिट्ठीए । सम्भं परिवो मुत्तृण पवाहहलबोलं ॥ १४० ॥
[सो.] ता एगो० तेह भणी एह भरतक्षेत्रमाहि एक को 20 युगप्रवर युगमाहि उत्कृष्टउ चारित्रीउ मध्यस्थ मन थईन परीक्षिवउ | समय० सिद्धांतनी रीति सम्यग् जोई लेवु । मुत्तण० लोकनउ प्रवाह कलकल ' आमाहरउ, आ ताहरउ गुरु ' इस्याउ लोकनउ प्रवाह
१ छेहडइ २ इसिउं ३ पोह
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श्रण बालावबोध सहित
तेहरूपिआ हलाबोल द्रहबोल मेल्ही करी । जिम द्रहबोलमाहि वस्तु पडी न लाभई तिम लोकप्रवाहि तत्त्वातत्त्वविचार न लाभई । तेह भणी ते छांडीनइ तत्त्ववृत्तिई गुरु जोईनइ लेवु ॥ १४० ॥
[जि.] ता तउ पछइ एक अद्वितीय युगप्रवर युगप्रधान गुरु मध्यस्थमनोभिः मध्यस्थ उदासन पुरुषे समय सिद्धांत तेहनी दृष्टि जोइवउं 5 तिणि करी । अथवा सिद्धांतरूपिणी दृष्टि लोचन तिणि करी सम्भ सम्यक् साचउ परिक्खियध्वो परीखिवउ । किसुं करी ? प्रवाह लोकप्रवाह तेहरूपिउ द्रहबोल मेल्ही करीनइ । जिम द्रहबोलमाहि वस्तु पडी न लाभई तिम लोकप्रवाहि तत्त्वातत्त्वविचार न लाभई । तिणि कारणि लोकप्रवाह मेल्ही मध्यस्थेई जि पुरुषे सुगुरु परीखिवउ,० न तु आग्रहवंते पुरुषे । यदुक्तं
आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा ।
x x x युक्तिर्यत्र यत्र मतिरेति निवेशं ॥ .. सिद्धांतनी दृष्टि किसी ?
पडिरूवो तेयस्सी जुगप्पहाणागमो महुरवको । 15 गंभीरो धीमतो उवएसपरो य आयरिओ॥ अप्परिस्सावी सोमो संगहसीलो अभिग्गहमई य । अविकत्थणो अचवली पसंतहियओ गुरू होइ ॥
( उपदेशमाला, गा. १०-११) इत्यादि सिद्धांतदृष्टिई जुगप्रधान उलषी आदरिवउ ॥ १४०॥ १०
[मे.] तेह भणी एह भरतक्षेत्रमाहि एकेकउ युगप्रधान अनुक्रमिइं दुप्पहसूरिसीम बिसहस्र चडोत्तर होसिइं । एह भणी
१६ आ श्लोकचं त्रीजु चरण मूळमा आम बेटित छे.
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१४२
“पष्टिशतकं प्रकरण
रागद्वेष मूकी मध्यस्थपणइ समय सिद्धांतनी दृष्टिं सम्यग् प्रकारि गुरु परीषी लेवउ, पणि लोकनउ प्रवाह कलकल 'ए माहरउ, ए ताहरउ' एवहउ हलबोल मूकीनइ ॥ १४० ॥
- [सो.] ईणइं लोकप्रवाहिइं हिवडां जाणइ क्षुभई छई। ए वात 5 कहइ छ।।
[जि.] अथ पूर्वोक्त लोकप्रवाहनउं स्वरूप कहइ । संपई दसमच्छेरयनामायरिएहि जणिअजणमोहा । सुयधम्माओं निउण विचलंति बहुजणपवाहाओ॥१४१॥
[सो.] संपइ० हिवडां अस्संजयाण पूआ इसिउं दसमुं अछेरुं उ०प्रवर्तइ छइ । ईणं करी गुणरहित नामिइं आचार्य घणा थिया । तीणइं करी जणिअजण लोक रहइं मोह कहीइ भ्रम वरांसउ पडिउ । न जाणीइ केहउ गुरु । इसिइं छतई जे निपुण डाहा चतुर तेहइ घणा लोकना प्रवाहमाहि पडिआ हुंता साचा धर्मतउ चूकई चलई छई, साचा गुरुनइ अणलहिवई ॥ १४१॥ 15 [जि.] संप्रति हिवडां दसमइ आश्चर्यि ऊपना नामायरिएहिं नामधारक आचार्य तेहे जनित ऊपजाविउ जन अज्ञाततत्त्व लोक तेहना सरीषउ मोह अज्ञानपणउं जेहां निपुणांहूई छई ते जनितजनमोह । एवहा हूंता निउण वि निपुणई ज्ञाततत्त्वई सुभधर्म हूंता चालई । किसा प्रमाणइतउ ? बहुजणपवाहाओ बहु घणा जण लोक तेहना १०प्रवाहइतउ । एक नामधार आचार्य मोह ऊपजावइ । लोकप्रवाह पुण शुभधर्म हूंतउ डाहाई भोलवइ । तिणि कारणि लोकप्रवाह मेल्हिवउ ॥ १४१॥
१ जि. मे. संपय. २ तह धम्माओ. ३ जि. नियण. ४ वर्तइ. ५ परिउ.
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aण बालावबोध सहित
१४३
[.] सांप्रत दसमा अच्छेरा जे कला तेहमाहि दसमा अच्छेरानइ प्रस्तावि नामाचार्ये लोकनई जे व्यामोह ऊपजावि तेह लगी घणा लोकना प्रवाहमाहि पड्या हूंता निपुण डाहाइ लोक सुधा धर्म हूंता चालई भ्रष्ट हुई, साचा गुरु अणलहता थका ॥ १४१ ॥
[ सो . ] जे लोकनइ प्रवाहि पडिआ तेहनुं आलंबन लेई कुगुरु 5 कुधर्म से | तेह आश्री कहइ छ ।
[ जि.] अथ मिथ्यात्वी सम्यक्त्वी बिहुँना लक्षण कहइ । जाणिज मिच्छदिट्ठी जे पडणालंबणाई गिण्हति' । जे पुण सम्मद्दिट्ठी तेसि मणो चडणपयडीए ॥ १४२ ॥
[ सो. ] जाणिज० निश्चयनयनी अपेक्षा ते मिथ्यात्त्वीइ जि 10 कहीइं, जे पडवानां आलंबन लिई । ' अमुक प्रमाद कुमार्गादिक कर छइ, हुंइ करूं ' इम तेहनां आलंबन लिई । जे' साचा सम्यग्दृष्टि साचा सम्यक्त्वना धणी तेहनुं मन चडवाइजिनी पगथी हुइ । खरउ धर्म करता हुइ तेहनु आलंबन लेईनइ आपणपई खरूंइ जि करइ । यदुक्तं श्री आवश्यके वंदनकनियुक्त -
15
आलंबणाण लोओ भरिओ जीवस्स अजउकामस्स । जं जं पिच्छइ लोए तं तं आलंबणं कुणइ || जे जत्थ जयाजईआ बहुस्सुआ चरणकरणपब्भट्ठा । जं ते समायरंति आलंबण मंदसड्ढाणं ॥ जे जत्थ जयाजईया बहुस्सुआ चरणकरणसंपन्ना । जं ते समायरंति आलंबण तिव्वसड्ढाणं ॥ १४२ ॥
20
( गा. १९८८-८९-९० )
१ घिप्पंति. २ जि . चेत्र पडणीए ३ ' जे साचा सम्यग्दृष्टि...... तेहनु आलंबन' एटलो पाठ सोनी बीजी प्रतमांथी पडी गयो छे..
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षष्टिशतक प्रकरण
[जि.] ते मिच्छदिट्ठी मिथ्यात्वीदृष्टि जाणिज जाणिवउ, जे पतित धर्म हूंता भ्रष्ट हूया तेहनां आलंबन ओठंभ लिइं, भ्रष्टनी विसमसि करई । 'एहइ तप नथी करतउ, हउंइ नही करउं' इत्यादि आलंबन लिइं। अथ सम्यक्त्वी लक्षण। जे पुण 5 सम्मदिट्ठी जे वली सम्यग्दृष्टि हुई तेसि मणो तेहनां मन चडते पावडीया लेहु । मोटा तपस्वी प्रमुख पुरुष तेहना अवष्टंभ आदरइं ॥ १४२॥
[मे.] ते जाणिवा मिथ्यादृष्टि जे पडियालंबण पतितनउं आलंबन लिई । जे वली जीव सम्यग्दृष्टि छइं ते चडियालंबननी पावडी ०चडइं । जे रूडी क्रिया करइं तेहनी पयडीइ चडइं ॥ १४२॥
[लो.] उत्तम संयोग दुर्लभ ए वात कहइ छइ । सव्वं पि जए सुलहं सुवन्नरयणाइवत्थुवित्थारं ।
निच चिय मेलावं सुमग्गनिरयाण' अइदुलहं ॥१४३ ॥ . [सो.] सव्वं पि० बीजउं सहू सुवर्ण रत्न आभरणादिक वस्तु ऋद्धिनउ विस्तार सुलभ । यत उक्तं
सर्वे भावाः सर्वजीवैः प्राप्तपूर्वा अनंतशः ।
बोधिन जातुचित्प्राप्तो भवभ्रमणदर्शनात् ॥ राज्यऋद्धि धनकनकादिक घणीइ वार अनंते भवे लाभइ, पुण सन्मार्गनिरत खरा उत्तम धर्मना आराधक उत्तम पुरुष तेहनउ सदैव मेलावउ २०ते अतिदुर्लभ । तेहइ जि भणी सदैव जयवीअरायमाहि प्रार्थीइ छइ, 'सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा आभवमखंडा' ॥ १४३ ॥
१ आ गाथा तथा ते उपरनो बालावबोध जि. मां नथी. २ निउणाण.
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त्रण बालावबोध सहित
१४५
[मे.] सघलीइ वस्तु पृथ्वीमाहि सुवर्णरत्नादिक वस्तुनउ विस्तार सोहिलउ । पणि नित्य सर्वदा सन्मार्गनइ विषइ निरत, खरा धर्मना प्ररूपक तेहनउ मेलावउ अति दुर्लभ । जयवीअरायमाहि 'सुहगुरुजोगो तव्ययणसेवणा' एह जि वस्तुनी प्रार्थना मागी ॥ १४ ॥
[सो.] केतलाइ ' आ माहरउ देव, आ माहरउ गुरु । ए टाली 5 बीजा गुणवंतइ कांई नही । हुं एह जि मानउं ।' इसिउं अभिमान वहइ । तेह आश्री कहइ छइ ।
[जि.] अथ देवां गुरांहूई सगर्वपणइ करी कर्मबहुलता बोला। अहिमाणविसोवसमत्थयं च थुव्वंति देवगुरुणो अ। तेहिं पि जओ माणो ही ही तं पुव्वदुचरिअं ॥१४४॥०
[सो.] अहिमाण. अहंकाररूपिआ विसना विकार उपशमाववा देवगुरु कहीइ । देवगुरु सेवतां अहंकारादिक विकार जाई । तेहिं पि० तेहे जि देवगुरे करी केतलांहूई मान अहंकार आवइ । ही ही० आहा ! ते पूर्वदुश्चरित पाछिला भवना पाप तेहनूं प्रमाण, जं गुणागुण कांई जोतउ नथी । दृष्टिरागिइं वाहिउ — आपणाइ जि देवगुरु:5 रूडा' इसिइं गर्विइं गर्यु हीडइ छइ ॥ १४४॥ - [जि.] लोक परमार्थवृत्तिइं च वली बाह्यवृत्तिइं पुण अभिमान अहंकार तेहनइ वशि देवां गुरुईहूई वर्णवइं। जउ देवगुरुई अहंकारी छइं इसिइं स्तवइं। स्तवितां छतउई गुण, अछतई गुण वर्णवइ । पुण तेहां देवांगुरांहूई जउ माण अहंकार हूउ साचउ, तउ20 तेहां देवगुरुनां पूर्वकृत दुश्चरित जाणिवउं ॥ १४४ ॥
१'आ माहरउ देव ' सो.नी बीजी प्रतमां नथी. २ आ गाथा जि.मां नथी, पण ते उपरनो बालावबोध छे. ३ मे. जाओ. ४ °दुच्चिरिअं. ५ अभिमान अहंकार. ६ केतलाई.
१९
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षष्टिशतक प्रकरण ,
[मे.] अहंकार रूपीया विसना विकार तेहनइं उपशमाविवानइं काजि देवगुरुनी स्तुति कीजइ । कांई ? ते स्तवतां अहंकार जाइ । अनइ तेही जि देवगुरु हूंतउ जे अभिमान ऊपजइ तउ ही इसिइं खेदि ते पूर्वदुश्चरित्र पापनउं प्रमाण जाणिवउं ॥ १४४ ॥
5 [सो.] लोकना आचार करतउ जे आपणपउं जिनभक्त . कहावइ ते आश्री वात कहइ छइ ।
[जि.] अथ जे जैन आचारि करी बीजा जैनहूई न मिलई तेह जैनहूई ओलंभउ दिइ। जो जिणआयरणाए लोओ न मिलेइ तस्स आयारे । हा हा मूढ करंतो कह अप्पं भणसि जिणपणयं ॥१४५॥
[सो.] जो जिण. जिन श्रीवीतरागनी आचरणासिउं जे लोकनउ आचार न मिलई । मूढ मूर्ख ! ते आचार समाचरतउ हूंतउ आपणपू' जिनभक्त किम जिनभक्त कहं छं ? ' अन्नस्स कडि चडिओ, अन्नस्स वि होइ थणपाणं' ए लोकनउ उषाणउ साचउ करें 15छं ॥ १४५॥
- [जि.] अथ जे लोक जिननी आचरणाई करी तस्स तेह जिननइ आचारि न मिलई, जिननी आचरणा अनइं जिननउ आचार तेह बिहुंहूई भिन्नता जाणई । अनइं जिनाचरण-जिनाचारहूई भेद नही। हे मूह ! हा हा खेदे । भेद करतउ, लोकाचार करतउ हूंतउ आपणपउं 20जिनप्रणत जिनभक्त किमु भणइ, कांइं कहइ ? ॥ १४५॥
[मे.] जे जिननी आचरणाइं लोक न मिलई ते लोकनउ
१ आपणपुं. २ करुं छं.
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प्रण वालावबोध सहित .
आचार जे लोक करई। हा हा इसिइ खेदि । ते मूढ मूर्ख ते आचार करतउ आपणपउं जिनभक्तपणउं किम कहइ ? ॥ १४५॥
.. [सो.] वीतरागइजिनुं वचन मानइ ते थोडा । ए वात कहइ छइ।
[जि.] एवडउ जैनभेद कांई ? तेहनउं कारण कहइ। .. 5 जं चिअ लोओ मन्नइ तं चिअ मन्नंति सयल लोआ वि। जं मन्नइ जिणणाहोतं चिअ मन्नंति किवि विरला ॥१४६॥
[सो.] जं चिअ० एक लोक जे बोल मानइं तेह जि बोल सघलाइ लोक मानइं । प्रवाहि पड्या प्राहि' संसाराभिलाषी सविहुं: जीवनां मन सरीषांइ जि हुई । जं मन्नइ० जे जिननाथ तीर्थंकरदेवा० जे बोल मानई कहई, केवलज्ञानि करी जाणीनइ, तेहू जि श्रीसर्वज्ञना वचन जे मानइं, लोकनउ प्रवाह कांई न मानइ ते केतलाइ विस्लाइ जि थोडाइ आसन्नसिद्धिक हुई ॥ १४६॥
[जि.] जे आचार लोक मानइ तेही ज आचार सघलाई लोक मानइं । पुण जे आचार जिननाथ मानइ ते आचार विरला थोडा केईएक भाग्यवंत मानइं ॥ १४६॥
[मे.] जे वस्तु मिथ्यात्वादिक प्रवाहि लोक मानइं ते सकल लोकमाहि मानीइ । अनइ जे जिननाथ मानइ कहइ ते जइ विरलउ कोई एक भव्य जीव मानइ ॥ १४६॥
[सो.] निश्चय नय आश्री श्रीसम्यक्त्वनूं स्वरूप कहइ। १
[जि.] अथ जे साहम्मी उपरि गाढउ स्नेह न करइं तेह उदिसी कहइ।
१ ते. २ जि. के, मे. कवि. ३ प्राहिई. ४ सर्वज्ञहैं. ५ कहइ छइ.
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षष्टिशतक प्रकरण
साहम्मिआओ अहिओ बंधुसुआईस' जाण अणुराओ । तेसिं न हु सम्मत्तं विनेयं समयनीईए ॥ १४७ ॥
१४८
[सो.] साहम्मि० जेहहूई साहम्मी" पाहिं बांधव पुत्र कलत्र मित्रादिक स्वजन ऊपरि अनुराग घणउ अधिकउ हुई । साम्मी उपरि 5 स्नेह थोडउ अनइ आपणां सगा कुटुंब ऊपरि घणउ स्नेह हुइ, मोह लगइ । तेसिं० सिद्धांतनी रीतिइं जोतां निश्चयइं" तेहहूइं सम्यक्त्व नथी इसिउं मानउं । जउ सम्यक्त्व दृढ हुइ तर धर्मवंत ऊपर अनुराग गाउ जोईइ । इह लोकना सगपण ऊपरि थोडउ जोईइ । इसिउ
भाव ॥ १४७ ॥
To
[ जि. ] जेहां पुरुषहूई साहम्मी पाहई बंधु स्वजनादिक ऊपरि अधिकउ - अनुराग स्नेह हुइ तेहं पुरुषहूई सम्यक्त्व नही । इस सिद्धांतनी नीति विन्नेयं जाणिवउं ॥ १४७ ॥
[.] जेह जीवनई साधर्मी पांहति बांधव पुत्र कलत्र मित्र ऊपरि अधिक अनुराग हुइ ते जीवन सिद्धांतनी रीतिइं जोतां सम्यक्त्व नथी । Ashis ? जुसम्यक्त्वदृढ हुइ तउ साहम्मीनउ अनुराग गाढ हुई || १४७ ॥
[ सो.] शुद्ध सम्यक्त्वनउ धणी लोकाचारनउ धर्म कांई न गणइ । ए बात कहइ छइ ।
[ जि.] अथ मिथ्यात्त्वीनइ पक्षि हूउ जि मानइ तिहहूइं ओलंभउ दिइ ।
* जर जाणसि जिणणाहो लोआयारा विपक्खए हूओ । ता तं तं मन्नतो कह मन्नसि लोअआयारं ॥ १४८ ॥
१ जि. मे. साईसु. २ मन्ने ३ सिद्धंतनीईए. ४ साहम्म. ५ निश्चयनइं ६ जि. मे.. लोआयाराण पक्खए. ७ में. ता तव तं. ८ मे. 'आयारे.
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aur बालावबोध सहित
[ सो.] जइ० अहो भव्य जीव ! तूं जउ इसिउं जाणं छं'जिननाथ श्रीसर्वज्ञ लोकिक आचार थिकउ विपक्षभूत अलग छन् । लोकाचार जूउ अनइ श्रीसर्वज्ञनउ' आचार जूउ छइ ।' ता तं तं० तेह्भणी तुं ते श्रीवीतरागनई मानतउ इंतर लोकनउ आचार धर्म भणी कांई मानअं छअं ? जे ' लोगविरुद्धच्चाओ' इसिउं कहिउं छइ 5 प्रसिद्ध लोक आचार धर्म सिउं अविरुद्ध अणकरतां लोक पाप ऊपार्जइ । ते छांटा' आभोषादिक करिवुं । पणि तेहइ धर्म भणी कांई 1 न मानिव ॥ १४८ ॥
१:४९
[जि.] लोकाचारनइ पक्खड़ हूउ हूंतउ मानतउ जड़ जिननाथ जाणइ, मनमाहि धरइ, तर पछइ तूं ते जिन मानतउ हूंत लोकाचार कांइं मानइ ? ।। १४८ ॥
[मे. ] अरे जीव ! जउ तउं इम जाणइ छइ जि ' जगन्नाथ वीतराग लोकना आचारनइ विपक्षभूत अलग छ । लोकाचार जूउ, वीतरागनउ आचार जूउ । ' तउ तउं वीतरागनई मानतुइ हूंतउ लोक आचार धर्म भणी काई मानइ ? || १४८ ॥
15
[सो.] वली सम्यक्त्वइ जि ऊपरि ४ गाह कहइ छ । [जि.] अथ जिन मानीनई पछइ अन्य देव मानइ तेह उद्दिसी
कहइ |
जे मन्नेव जिणंद पुणो वि पणमंति इअरदेवाणं । मिच्छत्तसन्निवायगघत्थाणं ताण को विज्जो ॥ १४९ ॥ २०
[ सो.] जे मन्नेवि० जे जिनेन्द्र श्रीसर्वज्ञ साच देव
१ श्रीसर्वज्ञआचार. २ मानई छई. ३ छाट. ४ आश्री. ५ जि. 'सन्निवाइग, मे. संनिवार्य.
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- षष्टिशतक प्रकरण
वीतराग मानी तेहनी आज्ञा पडिवजीनइ पुणो वि० वली इतर देव बीजा संसारिक देव नमइ मिथ्यात्त्वरूपिइ सन्निपात रोगिई करी प्रसिया अचेत जाणिवा । तेहहूई कुण वैद्य हुई ? तेहहूई. कुण साजा करई ? जे अमृत पीईनइं विस पीइं तेहहूइं सिउं प्रतिकार 5हुइ ? ॥ १४९॥ .. . .. [जि.] जे पुरुष जिनेन्द्र मानी पछइ इतर देव हरिहरादिक प्रणमई तउ मिथ्यात्त्वरूपिउ संनिपातक रोग तिणिइं घत्थ ग्रस्या व्याप्या हूंता ताण तेहां पुरुषहंहूई कुउण वैद्य ह ? अपि तु न कोई ॥ १४९॥ . 10. [मे.] जे सर्वज्ञ साचउ देव मानी तेहनी आज्ञा पडिवजीनइ इतर बीजा. संसारिक देवनइं मानइं ते मिथ्यात्वरूपीइं संनिपाति रोगि ग्रस्या हूंता अचेत हुई । तेहनई कउण वैद्य साजा करइ ? ॥ १४९॥
- [सो.] वली सम्यक्त्वइ जि ऊपरि कहइ छइ ।
[जि.] एक श्रावक गुरु नानाविध चैत्यद्रव्य माहोमाहि न 15वेचावइं।
एगों सुगुरू एगा वि सावगा चेईयाणि विविहाणि । तत्थ य जं जिणदव्वं परुप्परं तं न विचंति ॥१५०॥
[सो.] एगो० गुरु एकइ जि अनइ श्रावक एकइ जि छइं । पुण चैत्य देहरां जूआं जूआं अनेरा अनेरानां कराव्यां छइ । तिहां जे २०द्रव्य छइ ते परस्परिई न वेचई। पेला देहरानु उलिइ देहरइ, ओल्या
देहरानु पेलइ देहरइ न वेचइ । मनि भेद आणइ ॥ १५० ॥ . १ संनिपाति. २ आ गाथानी प्रथम पंक्ति जि. मां नथी. ३ अनेरा. ४ 'पेला देहरानु...न वेचइ' एटलो पाठ सो.नी बीजी प्रतमांथी पड़ी गयो छे.
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त्रण बालावबोध सहित
[जि.] एक जि सुगुरु । एकइ जि सघला श्रावक । चैत्य जिनदेवगृह विविध नानाप्रकार छइं । तत्थ तेहे विविध चैत्ये जं जे जिनद्रव्य ऊपजइ ते जिनद्रव्य देवद्रव्य परस्परइं एक चैत्यनउं द्रव्य बीजइ चैत्यि जे सुगुरु श्रावक न वेचावई ॥ १५०॥ ।
[मे.] एक सुगुरु, एक श्रावक छइ अनइ देहरां जूजूआं 5 छइं। अनइ तिहां जे द्रव्य छइ ते परस्परइं न वेचइं । मनि भेद आणइ ॥ १५०॥
ते न गुरू नवि सडा न पूइओ तेहिं होई जिणनाहो । मूढाणं मोहठिई सा नजई समयनिउणेहिं ॥१५१॥
[सो.] ते न० ते गुरु नहीं, ते श्रावक नहीं, जे इम देहरानी:० जूजूआई करई । एक ना गणइं तेहे वीतराग देवइ पूजिउ नहीं। साचउ वीतराग पूजिउ तु कहीइ, जउ वीतरागना प्रासादबिंब - एकइ जि देषइ । जे जूजूउं देखिq ते मूढनी मोहस्थिति अजाणिवू जि जाणीइ ॥ १५१॥
[जि.] ते गुरु नही । ते श्रावक नहीं । तेहे गुरु-श्रावके 5 जिननाथ वीतराग देव किवारइं न पूजिउ । कांइं ? तेहे गुरु-श्रावक समयनिउणेहिं समय सिद्धांत तेहना निपुण जाण एवहई सा ते चैत्यद्रव्यनी परस्परई अणवेचिवानी रीति ते मूढ मूर्षनी मोहस्थिति नजइ जाणीइ । नाना चैत्यपदनउ द्रव्य भावइ तिमइ जिनचैत्यि वेचिवउं । दूषण नही, सामुह महाधर्म । इसी सिद्धांतरीति न जाणइं,२० किंतु पूर्वोक्त मूर्षस्थिति जाणइं तेह भणी ते अजाण ॥ १५१ ॥
[मे.] ते गुरु नहीं; ते श्रावक नहीं, जे देहरां एक न गिणइं। - १ जि. कहवि. २ मे. निजइ. ३ न. ४ देवउ.. . . . . . .
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षष्टिशतक प्रकरण
1
तेहे वीतराग पूजिउ नहीं । जे प्रासाद-बिंब आपणा पारका करी देषई ते मूढनी मोहस्थिति अजाणिवउं समय सिद्धांतने निपुणे ॥ १५१ ॥
१५२
[ सो.] वली एह जि बात कहइ छ । [ जि.] एह ज वात प्रकारांतरि वली कहइ । 5 सो न गुरू जुगपवरो जस्स य वयणम्मि बहए भेओ । चिअभवणसड्डगाणं' साहारणदव्वमाईणं ॥ १५२ ॥
[ सो.] सो न० ते गुरु युगप्रधान न कहीहं, जेहनइ वचनि उपदेशि एतलांनु भेद थाइ । चैत्यभवन देहरां अनइ श्रावक तथा साधारण द्रव्य देवद्रव्यादिकनी जूजूआई थाई, माहिमाहि विरोध ग्०पडइ ॥। १५२ ।।
[ जिं. ] जे गुरु जुगप्रवर नही, जस्स य जेह गुरुनइ वचनि चैत्यभवन देवगृह तेहना द्रव्यहूई अनइ श्रावकना द्रव्यहूई वली साधारण द्रव्य भेद भिन्नता वर्त्त ॥ १५२ ॥
[ मे. ] ते गुरु युगप्रधान न कहीहं, जेहनइ वचनि एतलांनउ भेद थाइ । चैत्य देहरा, श्रावक तिम साधारण द्रव्य देवद्रव्यादिकनी जूजूआइ थाइ, माहोमाहि विरोध पडइ ॥ १५२ ॥ .
[सो.] वली कवि गुरुनी भक्ति कहइ छइ । [ जि.] अथ मिथ्यात्त्वन माहात्म्य बोलs | संपर पहुवणेण वि जाव न उल्लसइ विहिविवेअत्तं । 20 ता निबिडमोहमिच्छत्तगंठिआदुट्टमाहप्पं ॥ १५३ ॥
१ भुवण २ जि. वियणेण. ३ जिं. विहिविवेगत्तं.
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त्रण बालावबोध सहित
[सो.] संपइ० हिवडां प्रभु श्रीजिनवल्लभसूरिनई वचनिई जां धर्मनी परी विधि अनइ साचा विवेकनउं' जाणिवउं न उल्लसई न ऊपजइ ता निबिड० ते निबिड मोह अजाणिवउं अनइ मिथ्यात्त्वनी ग्रंथि तेहनउं गाउं माहात्म्य गाढउ महिमा । ते गाढा अजाण अनइ गाढा मिथ्यात्त्वी कही ॥ १५३ ॥
१५३
[ जि.] संप्रति हिवडां प्रभु श्रीजिनवल्लभसूरि तेहनइ वचनिई जउ विधिविवेकपणउ न उल्लसइ, विधि जिनसिद्धांत कर्त्तव्य तेहनउं विवेकपणउं, पापपुण्यनउं जाणिवापणउं जउ न ऊपजइ ता तउ पछइ निबिड मोह अज्ञान तद्रूप मिथ्यात्त्वग्रंथिका मिथ्यात्वन गांठ तेहउं माहात्म्य प्रभाव जाणिव ॥ १५३ ॥
IO
[.] सांप्रत प्रभु श्रीजिनवल्लभसूरिनइ वचनिई जेहनउं चित्त खरी विधि ऊपरि अनइ साचउ विवेक तेहनउं जाणिवउं तेह ऊपरि चित्त उल्लसह नहीं, तेहनई निबिड मोह अजाणिवउं वली मिथ्यात्त्वनी ग्रंथि तेहनउं गाउं महादुष्ट मोहनउं माहात्म्य जाणिवरं ॥ १५३ ॥
15
[ सो.] परमेश्वरना वचननी आशातनानुं करिवूं ते गाढउं विरूउं ।
[ जि.] अथ जिननी आशातना करिवानउं फल कहइ । बंधणमरणभयाई दुहाई तिक्खाई नेव दुक्खाई । दुक्खाण' दुहनिहाणं पहुवयणासायणाकरणं ॥ १५४ ॥ २० [सो.] बंधण० बांधिव, मारिवउँ अनेराइ भय एहवा जि' तीव्र दुःख ते दुःख न कही । ते थोडेसी' वेला" सहियां अनइ
C
१ विवेकनुं. २ जाणिवुं. ३ भयाई. ४ मे. दुक्खाई. ५ जि. मे. पहुवयणासायणं करणं. ६ बांधिवुं. ७ ' मारिवउं ' नथी. ८ जे. ९ थोडिसी. १० वेलां..
२०
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षष्टिशतक प्रकरण
फीटी' जाई। दुक्खाण० पुणे प्रभु तीर्थंकरदेवनां वचननी आशांतनानुं करिकुं तें सर्व दुःखनउ निधान । अनंता संसारमीहि अनंते भवे अनंता दुःख दिइ । वीतरागनी वचन जें ऊथपिइं ते घणुं आगलि दुःखिया थाई ॥ १५४ ॥
5
[जि.] बंधनमरणभयप्रमुख दुःख तीव्रई हूंता पुण दुःख न कहीइं । स्वल्प नान्हपणातउ । जइ बंधनमरणादिक दुःख नही, जिनवचन आशांतना करिबउं किसउं दुःख ! पहुवयणा० प्रभु स्वामी जिन तेहनी आशातनानउं दुःखनिधान दुःखस्थानक । अतिउत्कृष्टपणातउ । जिनवचन आशांतना करिवइ तर अनंता मोटा गांढां दुःख ऊपजइ । तेह' भणी जिनवचन आशातना न करिवी । किन्तु मानिवउं करिव पुण जिनवचन, जिम नानाविध मनोज्ञ सुख हुई ॥ १५४ ॥
IO
[.] बंधणमरणभयादिक जे दुक्ख ते तीव्र दुक्ख कहीहं थोडीसी वेलां सां पंछी विलइ जाई । पंणि प्रभु तीर्थंकरदेवना वचननी आशातनानडं करिवउं तें सर्व दुक्खनउं मिधान, जेह लेगी 15 अनंतां दुक्ख पामी ॥ १५४ ॥
१५४
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25
[सो.] हिव कवि आपणी निन्दा करइ छ ।
[ जि. ] अर्थ सुश्रावकत्त्व आजन्म पालिवउं । इसुं कहइ । पहुवयणविहिरहस्सं नाऊणं जाव दीसए अप्पा | ता कह सुसावत्तं जं चिन्नं धीरपुरिसेहिं ॥ १५५ ॥ [ सो० ] पहु० प्रभु तीर्थंकरदेव तेहने वचने, सुविणिच्छिएगमई धम्मम्मि अनन्नदेव अ पुणो । नय कुसमए सुरज्जई पुव्वावर वाहयत्सु ॥ दणं कुलिंगीण तसथावर भूअमद्दणं विविहं । धम्माओं न चार्लिजई देवेहिं सइदंएहिं प ||
( उपदेशमाला, गा. २३१-३२ )
१ फीडी. २ जिं. में. नाऊण वि. ३ में. सुसावयत्तं.
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श्रणालानयो सहित
दढ़सीलबसनियमो पोसहआवस्सएसु अक्खलिओ० ।
(उपदेशमाला, गा. २३.४ ) इत्यादिके जे श्रावकनउं रहस्य बोलिउं छइ ते जाणीनइ जेती वारइं आषणपउं जोईइ ता कह० तु किहां आपणपासाहि सुश्रावकाएं ? जं चिन्नं० जे आगलि धीर पुरिषे आनंद कामदेवादिके समाचरिउं 3 तेहनु लवलेश आपणप्रामाहि नथी ॥ १५५ ॥
[जि.] प्रभु परमेश्वर तेहनउं वचन 'विधि रहस्य नाऊण विजाणई अनइ जाव जां लगइ आत्मा ब्रह्मस्वरूप दीसइं तां लगइ किम सुश्रावकपणउं ? जे सुश्रावकपणउं धीरपुरुषे आचीर्ण आचरिउं ॥१५५॥
[मे०] प्रभुरतन वीतरागदेव तेहनी भाषी विधि तेहनउं रहस्या० जाणीनइ जउ आपणउं आत्मानउं स्वरूप जोईइ तउ किहां सुश्रावक-* पणउं ? कांइं ? आगइ जे आनंद कामदेवादिक धीर पुरुष श्रावक हूआ तेहनउ तउ लवलेश मात्र आपणपामाहि नहीं दीसता ॥ १५५ ।।
[सो.] हिव आपणु मनोरथ चिहु गाहे कवि कहइ छइ ।
[ज़ि०] अथ श्रीनेमिचंद्र भंडारी पांचे ,गाथाई आपणाः5 मनोरथ प्रकासइ । जइवि हु उत्तमसावयपयडीए चडणकरणअसमत्थो । तह वि पहुवयणकरणे सणोरहो मज्झ हिअअम्मि ॥१५६॥
[सो.] जइ वि० यद्यपि उत्तम श्रावकनी पगथीइं चडवू. करी न सकुं, तीणइं वहिरइ असमर्थ छउं तह वि० तउ प्रभु३० तीर्थकरनां वचन आराधिवानइ विषइ माहरइ हिअइ मनोरथइ छइ । किमइ वीतरागनी आज्ञा आराधाइ तु रूडउं ॥ १५६ ॥ ___ १ बिहु. २ 'कवि' नथी. ३ यद्यपिई. ४ वहरइ. ५ विषय. ६ मनोर्थ. ७ किमहइ.
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षष्टिशतक प्रकरण ।
[जि०] जइवि यद्यपि हु निश्चई उत्तमसावयपयडीए सुजाण श्रावकनइ पावडियालइ हूंतउ चरणकरणि चारित्रपालननइ विषइ असमर्थ, दीक्षा पाली न सकउं तह वि तथापिहिं मज्झ हिअअम्मि माहरा हियामाहे प्रभुवचन करिवानइ विषइ यतिधर्म 5 पालिवानइ विषइ मनोरथ होज्यो ॥ १५६ ॥
[मे०] जउ किमइ उत्तम श्रावकनी पगथीइं चडिवानइ विषई असमर्थ छउं, पणि तउ ही प्रभु वीतराग तेहना वचननउं करिवउं तेहनइ विषइ मनोरथ माहरइ हियइ छइ ॥ १५६ ॥
ता पहु पणमिअ चलणे इक्कं पत्थेमि परमभावेणं । "तुह वयणरयणगहणे अइलोहो मज्झ हुज सया॥१५७॥ . [सो.] ता पहु० तेह भणी प्रभु परमेश्वर वीतरागनां चलण नमस्करीनइ एक वानउं प्रार्थडे मागउं साचइं भाविइं। तुह० हे स्वामी ! ताहरां वचन रूपियां रत्न लेवानइ विषइ मूहरई सदैव
अतिलोभ हुज्यो। श्रीसिद्धांतवचन उपरि आस्था आदर आवियो । 15एतलइ काज सरइंसिं ॥ १५७ ॥
[जि.] ता तउ पछइ पहु प्रभु जिन तेहना प्रणमित नमस्करिया चरण पदकमलि जिणइं मइं एतावता प्रभु तणा चरणकमल नमस्करी प्रभु कन्हां परम भावि मोटी भक्तिइं करी एक वस्तु प्रार्थउं । हे प्रभो ! ताहरां वचनरूपिया रत्न तेह लेवा सर्वदैव मूहूई अतिलोभ ०होज हुउ ॥ १५७॥ " [मे.] तउ तेह भणी प्रभु वीतरागना चरण नमीनइ परम भावि करीनइ एक वायूँ मागउं । ताहरा वचनरूपीयां रत्न लेवानइ विषइ मरहइं सदैव अतिलोभ हुज्यउ ॥ १५७ ॥
१ पित्थेमि. २ जि. होज. ३ चरण. ४ सरिसिइ.
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त्रण बालावबोध सहित
[जि.] इसुं प्रभु आगलि प्रार्थी आपणी मनोगत चिंती कहइ । अइमिच्छवास निकिट भावओ गलिअगुरुविवेआणं । अम्हाण कह सुहाइं संभाविजंति सुविणे वि ॥१५८॥
[सो.] अति गाढउ घणा कालनु मिथ्यात्वनु वास संस्कार तीणइं करी जे ऊपनु निकृष्ट भाव मइलु परिमाण तीणं करी गलिउ 5 गिउ गुरु विवेक छइ अम्हारउ एहवा अम्ह रहई सुहणाइमाहि शुभ पुण्य किहां संभावीइ ? अथवा सुख मोक्षसुख किहां संभावीइ ? ते गाढउं दुर्लभ ॥ १५८॥
[जि.] इह संसारमाहे एवहां अम्हहूई सुमिणे वि सुहणाईमाहि किसु सुख संभावीइ ? अपि तु न संभावीइ । अम्हे किसा छां ?ro मिच्छवास मिथ्यात्त्वनउ संस्कार तिणि करी निकृष्ट विरउ भाव तेहतउ गलिउ गुरु गुरुउ विवेक तत्त्वातत्त्वविचार जेहनउ छइ ॥१५८||
[मे.] इहां घणा कालनउ मिथ्यात्त्ववासनउ जे निकृष्टभाव तीणइ गलिउ गरुउ विवेक एवहा अम्हे तेहनई सुइणाइमाहि परम सुख मोक्षसुख किम संभावीयइं ? ॥ १५८ ॥
15
[सो.] वली कवि कहइ छइ ।
[जि.] वली कांई मनोगत कहइ । जं जीविअमित्तं पि हु धरेमि नामं च सावयाणं पि । तं पि पहु महाचुजं अइविसमे दूसमे काले ॥१५९॥.
[सो.] जं इसिइ अतिविषमि दुःखमाकालि वर्ततइ जीवितव्यः० मात्रई धरीइ अनइ श्रावकनुं नामइ जं धरीइ तेहइ हे प्रभु ! महा आश्चर्य । जेह भणी ए काल अपार अनर्थबहुल अतिधर्मरहित तेह भणी ॥ १५९॥
१ जि. मे. इह मिच्छवास. २ जि. निकट्ट. ३ जि. मे. सुमिणे. ४ गाढु. ५ 'वास संस्कार...अम्हारउ एहवा' एटलो पाठ सो.नी बीजी प्रतमाथी पडी गयो छे.
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प्रष्टिशतक प्रकरण -
[जि.] हु निश्चई जे जीवितव्य मात्रई धरेसि धरउं, च वली एहि विषमि दुःखदायकि दुःषमाकालि साययाणं पि श्रावकई नाम धरउं, हे प्रभो जिन ! तं पि तेहइ महाचुखं महा
आश्चर्य ॥ १५९॥ 5 [मे.] ईणइं कालि जे जीवितव्यमात्र धरउं अनइ हउं वली श्रावकनउं नाममात्रइ बहउं, हे प्रभो ! हे स्वामी ! ते महाआश्चर्य जे अतिविषम दुक्खमाकालि ॥ १५९॥
[सो.] वली गुरु प्रति कवि कहइ छइ ।
[जि.] अथ तात्त्विकाचंता कहइ । परिभाविऊण एवं तह गुरु करिज अम्ह सामित्तं । जह सामगिसुजोगो जह सुलह होइ मणुअत्तं ॥१६०॥
सो.] परिभाविळण. इसिउं विमासीनइ सद्गुरु ! अम्हारउ स्वामीपणउं तिम अम्हारी सार करिजो, जिम आगलि अम्हे धर्मसामग्रीनु रूडउ योग नामुं अनइ जिम मनुष्यपणउं सुलभ थाइ । 15जेह भणी सिद्धांतमाहे एह जि बोल गाढा दुर्लभ कहिया छइं- .
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणि अ जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि अ वीरिअं ॥
(उत्तराध्ययन, अध्ययन ३, गा. १) तथा-- 20 धन्नाणं विहिजोगो विहिपक्खाराहगा सया धन्ना ।
_ विहिबहुमाणी धन्ना विहिपक्खअदूसगा धन्ना ॥ १६० ॥
[जि.] देव आगलि वीनती करी गुरु आगलि वीनती करइ । हे गुरो! इसुं पूर्वोक्त गाथास्वरूप परिभाविऊण परिभावी विमासीनई तह तिम अम्ह सामित्तं अम्हारी धणीप करिज करिजो ।
१ पहु. २ जि. सुजोगे, मे. 'सजोगे. ३ जि. सलहं, मे. सहलं. ४ जि. -सम्मत्तं. ५ धर्मसामग्री.
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त्रण बोलावबोध सहित
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जह जिम पहुसामग्गि जैन सामग्री तेहनई सँयोगि हूंतइ अम्हा रहई सम्यक्त्व सुलभ हुइ ॥ १६० ॥
[मे.] इसिउं विमासीनइ हे सुगुरु ! अम्हारउं स्वामीपणउं तिम करउ, जिम स्वामीनी सामग्रीनइ जोगिइं अम्हारडं मनुष्यपणउं सफल सुलभ थाइ ॥१६०॥
[जि.] अथ श्रीनेमिचंद्र भंडारी स्वनामांकित गाथा कहइ। एवं भंडारिअनेमिचंदरइयाओ कइवि' गाहाओ। विहिमग्गरया भव्वा पर्दतु जाणंतु जंतु सिवं ॥१६१ ।।
[सो.] एवं० इम इसी रहिई नेमिचंद्र भंडारी-रची कीधीं ए केतलीइ १६० गाथा जे भव्य जीव खरों विधिमार्गनइ विषई तत्पर:० छंइं ते ए पढउ । एहनु अर्थ जाणउ । सम्यग् आराधीनइ मोक्षपदि जाउ । अनंतं सुख लहउ ॥ १६१॥
[जि.] एवं इणि प्रकारि भांडागारिक श्रीनेमिचंद्रई रचित कीधी केतलीएक गाथा विधिमार्गरतं भव्य जीवं पंढउं । तेंह गाथानउ अर्थ जाणउ । किम शिव मोक्षि निरुपद्रवि स्थानकि जंतु जाउ । भणहार जाणहार पुरुषहूई महापुण्यफलप्राप्ति हुई ॥ १६१ ॥
[मे.] इसी परिइं भंडारी श्रीनेमिचंद्रिई केतलीएक गाथा रची । अनइ जे विधिमार्ग खरी विधि तेहनइ विषइ रत में भव्यं जीव छइं ते ए पढउ । एहनउं अर्थ जाणउ । अनई आराधतां भणता जाणता शिवपद पामउ । अनंत सुख लहउँ ॥ १६१ ॥
[सो.] इति षष्टिशतकबालावबोध : समाप्तो विरचितः श्रीसोमसुन्दरसूरिपादैः सर्वजनोपकाराय ।
१ जि. में. कहवि. २ रहणई. ३ 'ते' नथी. ४ सो. नी बीजी प्रतमा मात्र आटली ज पुष्पिका छे-" इति षष्टिशतकबालावबोध समाप्ता॥ छ । श्रीः ॥ गंथान १०९६ श्लोकाः ॥ श्री। श्री। छ।”
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षष्टिशतक प्रकरण
क्ष्माखंडामृत कुंडविष्टपतेि १४९६ संवत्सरे श्रीतपागच्छेन्द्रैर्गुरुसोमसुन्दरवरैराचार्यधुर्यैरियम् । वार्त्ताभिर्विहिता हिताय कृतिनां सम्यक्त्वबीजे सुधावृष्टिः षष्टिशताह्वयप्रकरणव्याख्या चिरं नन्दतु ॥ 5 ए प्रशस्तिनउं काव्य महात्मानउं की उं । संवत्श[ र ] १५१३ वर्षे ॥ ग्रन्थाग्रं ९९८ श्लोकाः ॥ छ ॥ मंडपदुर्गे
[ जि. ] इति श्रीषष्टिशतकप्रकरणवार्त्तारूपवृत्तिः ॥ छ ॥ संवत् १५०१ वर्षे श्रावण वदि १० भौमदिने श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनवर्द्धनसूरिस्तत्पट्टे श्रीजिनचन्द्र1. सूरिपट्टे भव्याम्भोजदिवामणिना संविद्मचूडामणिना बावांच्यार्थ ( ? ) द्रानचिन्तामणिना सुविहितगुरुचक्रवर्त्तिना महापरोपकारिणा श्रीजिनसागरसूरिणा बालानामवबोधाय श्रीनेमिचन्द्र भांडागारिककृतस्य षष्टिशतकप्रकरणस्य स्वरूपा वार्त्तारूपा वृत्तिः कृता । सा च श्रीसंघेन वाच्यमाना चिरं नन्द्यात् ॥ छ ॥ शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु ॥ 15 लिषितं ॥ छ ॥ श्री ॥ श्री ॥ छ ॥
१६०
[ मे. ] इति श्रीनेमिचन्द्र भंडारीविरचितषष्टिशतकविवरणं । कृतिरियं श्रीवृद्धखरतरगच्छीय वाचकेन श्रीमेरुसुन्दरेण ॥ छ ॥
शास्त्रं बालावबोधाख्यममरप्रभसूरिभिः । लिखितं निजपुण्याय शोध्यसाहाय्यहेतवे ॥ यदत्र विहितं कर्त्रा स्वबुद्ध्यार्थनिरूपणम् । प्रायः प्राकृतबाहुल्यान्न दोषोऽस्माकमत्र च ॥
शुभं भूयात् श्रीसंघस्य ॥ छः ॥ ५० ॥ ग्रंथसंख्या श्लोकशत ६०० ॥ छ ॥ .छ । श्रीजन ........
20
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a
परिशिष्ट १ ... . नेमिचन्द्र भंडारी-विरचित
जिनवल्लभसूरि गुरुगुणवर्णन पणमवि सामिय' वीर जिण, गणहर गोयम सामि। .. सुधर्म' सामिअ न लगि सरणि जुगप्रधान सिवगामि ॥१॥ तित्थुधरणु सु मुणिरयण, जुगप्रधान क्रमि पत्तु । जिणवल्लहसूरि जुगपवरो, जसु निम्मलउं चरित्तु ॥२॥ . तसु सुहगुरु गुणकित्तणइ, सुरराउ वि असमत्थु। . . तो भत्तिब्भर तरलियउ कह" हंउ कहि" सकयत्थों ॥३॥ कह भवसायर दुहपवर, कह पत्तउ मणयत्तु । किह जिणवल्लहसूरि वयणु, जाणउ“ समय पवित्तु ॥४॥ कह सबोहि" मणु" उल्लसिउ, कह सुद्धउ संमत्तु । जुगसमला" नाएण मइं, पत्तउ जिणविह तत्तु ॥५॥ जिणवल्लभसूरि सुहगुरह, बलि किजिसु गुरराय । जसु वयणेण विजाणीयए, तुट्टइ कुमय' कसाय ॥ ६॥ . मूढा मिल्हहु मूढ पहु, लग्गहु सुद्धइ धम्मि । . जो जिणवल्लहसूरि कहिउ,३ गच्छउ जिम सिवरंमि" ॥ ७॥ ..
१ सामि. २ जिणु. ३ सुधरम. ४ तुलनि. ५ सरणु. ६ तित्थु रणछु. ७ °रयणु. ८ जुगपवर. ९ सुहगुरु. १० सुरराओ: ११ असमत्थो. १२ भत्तिभर. १३ तरलिओ.. १४ कहिउ. १५ कहिसु. १६ हियत्थु. १७ °पवरु. १८ जाणिउं. १९ पवित्तओ. २० सुबोह. २१ मण. २२ उल्लसिय. २३ सामन्न.. २४ °समिला. २५ °विहि. २६ गुरुहे. २७ किजउ. २८ सुरगुरुराय. २९ वयणे. ३० विजाणियइ. ३१.कमय. ३२ लागहु. ३३ कहिओ. ३४ गच्छहुं. ३५ सिवघरंमि. २१
IO
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________________
है
षष्टिशतक प्रकरण
२
अथिर' माइ पिय बंधवइ,' अथीर' रिद्धि गिहवासु | जिणवल्ल सूरि पय नमउं, तोडउ' भवदुह-पासु ॥ ८ ॥ परमपणई' न के वि गुरु निम्मल धम्मह हुंति । सव्विति सुहगुरु मन्नियहिं, जे जिणवयण मिलंति ॥ ९ ॥ 5 'गुरु गुरु' गायवि" रंजियहि, " मूढउ" लोउ अयाणु । न मुणइ जं जिण आण विणु, गुरु हुइ" सत्तु समाणु ॥ १० ॥ जिम सरणाइय" माणुसहं, कोई करइ सिरछेउ" । न मुणइ जं जिणभासियउ, " तिम कुगुरह संजोउ ॥ ११ ॥ हुंड " विसप्पणि" भसम गुहु, " दूसम कालु कलि " । जिणवल्लहसूरि भडु नमहु, जिणि जा" जंहि" कुलगुरु आवियउ, " ते तहि भक्ति" करंत" । विरला जोइवि जिणवयण, जहि गुण तहि रचंति ॥ १३ ॥
१७
.२१
२३
२४
सत्तु निसि ॥ १२ ॥
२५
३०
१६२
10
३४
हा हा दसम कालबल, खल- वक्कत्तण जोइ ।
नामेणि " सुविहिय तण, मित्तु वि वयरीय" होइ ॥ १४ ॥
ar
15 तहि चेडाहिव" हउं नमउं, " सुमणिय परमत्थांह" ।
हीयड " जिणवर इक्कपर, अनु सुद्धउ गुरु" जांह" ॥ १५ ॥
१ अथीर. २ बंधवह. ३ अथिर. ४ नमओ. ५ तोडइ. ६ परमप्पणय. ७ सव्व. ८ दसपुर. ९ मन्नियई. १० गाइविं. ११ रंजियइं. १२ मूढा. १३ होई. १४ संरुणाईंय. १५ शिरछेओ. १६ जिणभासियओ. १७ संजोओ. १८ हुंडा १९ अवसप्पणि, २० गहु. २१ किलिडु. २२ जेणउ. २३ सुत्तु. . २४ नसिउ २५ जो. २६ जिह. २७ आइयउ ३० जिणवयणु. ३१ जहिं. ३२ तहिं. ३३ रच्यंति
२८ भत्ति. २९ करंति.
३४ दूसम. ३५ नामेणइ.
३६ वयरिओ ३७ तिहि ३८ चेडा हिवि. ३९ नमओ. ४० सुमुणिय. ४१ परम उछाह ४२ हियडिइ. ४३ नाहटाजीनी प्रतमां ' जिण विहिक्कु पर
एवो पाठ छे, पण ए लहियानी भूल ज लागे छे. ४४ गुण. ४५ जाह,
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' परिशिष्ट ।
जिणि जिणवर पहु हीलियइ, जणु रंजियइ सहासु। सो वि सुगुरु पणमंतयह, फूटि' न हिया हयासु ॥ १६ ॥ मिरियभवे जिउ वीर जिण इक्क उसत्त" लवेण । कोडाकोडि सागर भमिउ, किं न मणह मोहेण ? ॥ १७ ॥ तव संजम सुत्तेण सहु, सव्वु'" वि सहलउ होइ। 5 सो वि उसुत्तलवेण सह, भवदुह-लक्खई देइ ॥ १८ ॥ माया मोह चएहर जण, दुलहउ" जिणविह" धम्म । जो जिणवल्लहसूरि-कहिउ, सिग्ध देउ" सिवसंमु ॥ १९ ॥ संसउ कोइ म करहु मणि, संसइ होइ" मिच्छत्तु । जिगवल्लहसूरि जुगपवर, नमहु सु तिजग-पवित्तु ॥ २० ॥ - 10 जइ जिणवल्लहसूरि गुरु, नह दिट्ठउ नयणेहिं । जुगपहाण तउ जाणीयइ, निच्छइ"गुण-चरिएहिं ॥ २१॥ ते धन्ना सुकयस्थ नर, ते संसारु" तरंति । जे जिगवल्लहसूरि तणीए,“ आण सिरेण धरंति ॥ २२ ॥ तह न रोगु, दोहग्गु नह, तह मंगल कल्लाण"। 15 जे जिणवल्लह गुरु नमइ, तिन्नि संझ सुविहाण ॥ २३ ॥
१ जे. २ जिणवरु. ३ हयासुं ४ पणमंतह ५ कुट्टेिल. ६ हियइ. ७ मरिय. ८. जिओ. ९ जिणु. १० इकि. ११ उसुत्तलवेणु. १२ भमिओ. १३ सुणहु, १४ सउ. १५ सव्व. १६ सउ. १७ लक्खई. १८ चएउ. १९ दुलहउं, २० जिणविहि. २१ धम्मुं. २२ कहिओ. २३ सिग्घं. २४ देइ. २५ शिवसंमुं.. २६ संसओ. २७ हुइ. २८ जुगपवरु. २९ त्रिजग-पवित्त. ३० जई. ३१ नय. ३२ दिठओ ३३ जुगपहाणउ. ३४ विजाणियए. ३५ निछई. ३६ नरा. ३७ संसार. ३८ तणिय. ३ आणा. ४० सिरेण. ४१ वहंति. ४२ तेहिं. ४३ रोगो. ४४ तहु. ४५ कल्लाणु. ४६ सूरि. ४७ थुणिहि. ४८ सुविहाणु.
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षष्टिशतक प्रकरण
सुविहिय मुणिचूडारयण, जिणवल्लह बहु राउ'।। इक्क जीह किम संथुणउ, भोलउ' भत्तिसहाउ ॥ २४ ॥ संपइ ते मन्नावि गुरु, उग्गइ उग्गइ सूरि । जो जिणवल्लह पहुँ, कहइ, गमइ उमग्गु" सुदूरि ॥२५॥
इकि जिणवल्लह जाणीयइ, सव्वु" मुणियइ धम्मु"। ... अनु सुहगुरु" सवि मंनियइ, तित्थु जि धरहिं सुहम्मु ॥२६॥
इय जिणवल्लह-थुइ भणिय, सुणियइ करइ कल्लाणु । देउ बोहि चउवीस जिण, सासई" सखनिहाणु" ॥२७॥ जिणवल्लह - ऋमि जाणियउ, हिव मइ तासु सुसीसु। . जिणदत्तसूरि जुगपवरो, उद्धरियउ गुरुवंसो ॥२८॥ तिणि निय पइ पुण ठावियउ, बालउ सीहकिसोरु" । परमइ-मइगल-बलदलणु, जिणचंदसूरि मुणि सारु ।। २९॥ तसु" सुपट्टि हिव गुरु जयउ,६ जिणपत्तिसूरि मुणिराउ ।
जिणमय-विहि-उज्जोयकरु, दिणयर जिम विक्खाउ ॥३०॥ . 15 पारतंतु विहि विसयसुहु, वीरजिणेसर वयणु ।
जिणवइसूरि गुरु हिब कहइ, निच्छइ अंनु न कवणु ॥ ३१ ॥
१ चूडारयणु. २ तुह. ३ गुणराओ. ४ संथुणेउं. ५ भोलओ. ६ भक्तिसुहाओ. ७ मन्नामि. ८ सूर. ९ पउ १० कहहि. १.१ अमग्गउ. १२ दूरि. १३ इक्क. १४ सव्वु वि. १५ धम्मुं. १.६ अन. १७. सुहगुर. १८ मनियइ.. १९ तित्थ.. २० जिम. २१ धरइ. २२ सुहंमु. २३ देओ. २४ सासय. २५ सोलु. २५-अ नाहटाजीनी वाचनामां 'जिणवल्ह' पछी 'गुरु' शब्द वधारानो छे. २६ जाणियइ. २७ तसु. २८ सुशीसु. २९ ठावियओ. ३० बालओ. ३१ सींहकिसोरु. ३२ पर. ३३ मयगल. ३४ मुणीसरु. ३५ तस. ३६ जयओ. ३७ जिणपतिसूरि.. ३८ मुणिराओ. ३९ विक्खाओ. ४० कहओ.. ४.१ मिच्छइ. ४२ अन्नुन्न.
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परिशिष्ट १ धन्न ति पुरवरपट्टणइं, धन्न ति देस विचित्त । जिहि विहरइ जिणवइ सुगुरु, देसण करइ पवित्त ॥ ३२॥ कवणु' सु होसइ दिवसडउ, कवणु सु तिहि सुमुहुत्तु ।। जिहि वंदिसु जिणवइ सुगुरु, निसुणिसु धम्मह तत्तु ॥ ३३ ॥ सल्लुद्धारु' करेसु हउ, पालिसु दिदु संमत्तु । नेमिचंदु" इम वीनवइ, सुहगुरु-गुणगण-रत्तु ॥ ३४॥ . नंदउ विहि जिणमंदिरइं, नंदउ विहिसमुदाउ“। नंदउ जिणपत्तिसूरि गुरु, विहि जिणधम्म-पसाउः ॥ ३५॥
जिनेश्वरसूरि, जिनप्रबोधसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनकुशलसूरि, जिनपद्मसूरि, जिनलब्धिसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनोदयसूरि, जिनराजसूरि,० जिनवर्द्धनसूरि, श्रीसागरचन्द्रसूरि । शुभमस्तु ॥ छ ।
१ तइं. २ देश.. ३ जहिं. ४ कवण. ५ देसडओ. ६ कवण. ७ समुहुत्त. ८ जहीं. ९ निसुणि. १० तत्त. ११ सल्लुद्धार. १२ सुदड्ढ. १३ सम्मत्तो. १४ नेमिचंद. १५ विनवइए. १६ रत्त ( रत्तो). १७ मंदिरहिं. १८ समुदाओ. १९ पसाओ... . . . .
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परिशिष्ट २ नमिचन्द्र भंडारी-विरचित
पार्श्वनाथ स्तोत्र भवभयवणगणदणं दरिदोगारिदुरियनिद्दलणं । सिद्धिपुरकयनिवासं सया वि सुमरामि जिणपासं ॥ १ ॥ इह संसारअरन्ने भीमे पडियाण मुद्धजंतूणं । तुज्झ विणा जयबंधव सरणं न हु को वि दुहियाणं ॥२॥ तं माया तं च पिया तं सामी बंधवो गुरू देवो । तं चिय परमनिहाणं किं बहुणा मज्झ तं इक्को ॥ ३ ॥ न सरामि देवयाओ नो विज्जाओ न मंतमूलीओ। जं सामिय तं पत्तो अउव्वविप्फुरियमाहप्पो ॥ ४ ॥ तुह आणाभंगाओ दुहाई बहुयाई जाइं जायाइं । ताई तुम चिय निहणसु अन्नो कइया वि न समत्थो ॥ ५॥ जइ वि पराभवठाणं जइ दीणो दुत्थिओ अहं देव । तह वि तुह पय सरंतो मन्नामि न को वि अप्प समो ॥ ६ ॥ उल्लसियाई सुहाई दुहाई खीणाई ताण निब्भंतं । जाण मणम्मि विवसिओ विहिणा तं पासजिणनाह ॥ ७ ॥ ता हरसु मज्झ चिंता संतावं माणसम्मि संकंतं । विहिजिणसुहगुरुजोगं सिवसुहयं देहि अणवरयं ॥ ८ ॥ इय पासनाहदेवं सरियं सज्जणसुएण अप्पहियं । जो तं सरइ तिसंझं सो पावइ वंछियसुहाइं ॥९॥
भ० नेमिचन्द्रमुश्रावककृतं श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रं ॥
15
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' षष्टिशतक 'नी प्राकृत गाथाओनी सूचि
[ गाथाओनां प्रतीको सामेनो अंक पृष्ठांक सूचवे छे. ]
..अङ्गमिच्छवास निक्किट्ठ अइसयपावियपावा
अजया अपाविट्ठा सुद्धगुरू
अज्ज वि गुरुणो गुणिणो
. अप्पा वि जाण वइरी . अम्हाण रायरोसो कस्सुवरिं
अरिहं देवो सुगुरु सुद्धं
अयं पुणो अहन्नो ता
अवा सरलसहावा सुअणा अहिमाणविसोवसमत्थयं च
आणारहि कोहाइसंजुअ आरंभजम्मि पावे जीवा
अरजण संसणा घट्ठा
इराण वि उवहासं तमजुत्तं इको विन संदेहो जं
'इक्कं पि महादुक्खं इराणं ठकुराणं आणाभंगेण - इंदो वि ताण पणमइ हीलंतो
उस्सुत्तभास गाणं बोहीनासो उस्सुत्तमायरंत विठवंति
एगो सुगुरू गा वि सावगा एगं पिअमरणदुहं एवं भंडारि अनेमिचंदरइयाओ
१५७
३४
१३०
१०९
१.१८ • किरिया फडाडोवं अहियं
१०६ | किवि कुलकमम्मि रत्ता
किं भणिमो किं करिमो
किं सो वि जणणिजाओ
६६. कुग्गहगह गहियाणं मूढो
१४५
कुगुरु वि संसिमो हं
कुंड उत्थी नवमी बारसी
को असुआणं दोसो जं
३
१३६
५९
१३
६०
६५
२०
११४
१००
८८
कइया होहि दिवसो जइया
कट्ठे करंति अप्पं दमंति
कहिअं पिसुद्धधम्मं काहि
किच्चं पि धम्मकिचं
६१
७६
गयविहवा वि सविहवा सहिआ गिहवावार परिस्सम खिन्नाण गिवावारविमुक्के बहुमुणि लोए गुरुण भट्टा जाया सड्ढे
छति निययजीअं तणं व
जर जाणसि जिणणाहो
जइ तं वंदसि पुज्जसि वयणं
जइ न कुणसि तवचरणं
१५० | जइवि हु उत्तमसावयपयडीए जइ सव्वसावयाणं एगत्तं १५९ | जगगुरुजिणस्स वयणं सगलाण
१११
१२८
५०
११३
४९
१०२
७६
४४
८२
१७
. ४५
७९
६४
९०
२५
६७
३६
८९
१४८
१३१
५ १५५
५५
१०१
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________________
षष्टिशतक प्रकरण
१२०
१२२
4.
९२
जत्थ पसुमहिसलक्खा ७८ ] जो गिहकुटुंबसामी संतो जम्हा जिणेहिं भणिों. १३८ जो जिणआयरणाए लोओ १४६ जयजंतुजणणितुल्ले अइउदओ जो देइ सुद्धधम्म सो परमप्पा १०३ जह अइकुलम्मि खुतं ..
जो सेवइ सुद्धगुरू . जह कुवि वेसारत्तो जह केइ सुकुलवहुणो सीलं ७५ तईया अहमाण अहमा जह जह जिणंदवयणं सम्म | तह वि हु नियजडयाए जह जह तुट्टइ धम्मो ४६ / तं चेव केवि अहमा छलिया ..जह वद्दलेण सूरं महियलपयड ८१ / तं जयइ पुरिसरयणं जं चिअ लोओ मन्नइ तं १४७ | ता एगो जुगपवरो
१४० जं जीविअमित्तं पि हु धरेमि १५७ | ता जिणआणपरेणं धम्मो . २८ जं जं जिणआणाए तं चिय ९३ | ता जे इमं पि वयणं जं न करइ अइभावं
५४ | ताण कहं जिणधम्मो १२३ जं वीरजिणस्स जीओ मरिई १२१ / ता पहु पणमिअ चलणे जाण जिणिंदो निवसइ सम्म ७० तित्थयराणं पूआ जाणिज मिच्छदिट्ठी जे १४३ तिहुअणजणं मरंतं दट्टण जिणआणाए धम्मो आणारहिआण ९४ | तुळे वि उअरभरणे जिणआणाभंगभयं ६३ ते न गुरू नवि सड्ढा न १५१ जिणआणा वि चयंता गुरुणो ४३ जिणगुणरयणमहानिहि ३० | थोवा महाणुभावा जे जिणधम्म दुन्ने
१३७ जिणपूअणपत्थावे जइ को ९१ | दिहा वि केवि गुरुणो हिअए १२९ जिणमयअवहीलाए ज दुक्खं ७२ / दूरे करणं दूरम्मि साहणं १२७ जिणमयकहापबंधो संवेगकरो २८ दूसमदंडे लोए सुदुक्खसिट्ठम्मि १३३ जिणवयणवियन्नूण वि जीवाणं ११ देवेहिं दाणवेहिं य सुओ जिणवरआणाभंग
१४ दोसो जिणिंदवयणे संतोसो ६६ जिणवरआणारहिअं वद्धारंता जे अमुणिअगुणदोसा ते १०४ | धम्मम्मि जस्स माया ४८ जे जे दीसंति गुरू जे मन्नेवि जिणंद
१४९ / न मुणंति धम्मतत्तं सत्थं जे रजधणाईणं कारणभूआ ११९ | न सयं न परं कोवा जइ
११०
११५
१३९
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'षष्टिशतक'नी प्राकृत गाथाओनी सूचि .
. १६९
४१
my"
२३
२४
१४४
my
२१
२२
नाम पि तस्स असुहं ३२ | वन्नेमि नारयाओ जेसिं . ९७ निअमइअणुसारेणं
१३४ . वयणे वि सुगुरुजिणवल्लहस्स १०९ निद्दक्खिण्णो लोओ जइ कुवि ४४ विरयाणं अव्विरए जीवे १२ नो अप्पणा पराया गुरुणो १०७ वेसाण बंदियाण य : परिभाविऊण एवं तह गुरु १५८ स कहा सो उवएसो तं पहुवयणविहिरहस्सं नाऊणं १५४ | सप्पे दिइ नासइ लोओ
सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु बलि किजामो सजणजणस्स १०८
समयविऊ असमत्था बहुगुणविजानिलओ
सम्मत्तसंजुआणं विग्धं बंधणमरणभयाइं दुहाई १५३
सयणाणं वा मोहे लोआ बीया य सत्तरहिआ
१२० सव्वंगं पि हु सगडूं.
११६ मज्झठिई पुण एसा
सव्वं पि जए सुलहं मा मा जंपह बहुअं . १२४
सव्वं पि वियाणिजइ मिच्छत्तबहुलयाए
सव्वो
३८
वि अरिहं देवो मिच्छत्तमायरंत वि
संगो वि जाण अहिओ मिच्छत्तसेवगाणं विध्सयाई
| संपइ दसमच्छेरयनामायरिएहिं १४२
संपइ दूसमकाले धम्मत्थी ... ११३ मिच्छपवाहे रत्तो लोओ
संपइ पहुवयणेण वि जाव १५२ मुद्धाण रंजणत्थं अविहिपसंस
साहम्मिआओ अहिओ १४८ मूलं जिणिंददेवो तव्वयणं
साहीणे गुरुज़ोगे जे, न हु ९५ रे जीव अनाणीणं
सिरिधम्मदासगणिपा रइयं रे जीव ! भवदुहाई इक
सुद्धकुलधम्मजा अवि रोसो वि खमाकोसो सुत्तं
सुद्धविहिधम्मराओ वड्ढइ
सुद्धा जिणआणरया केसि लच्छी वि हवइ दुविहा
| सुद्धे मग्गे जाया सुहेण लजंति जाणिमो हं
सुरतरुचिंतामणिणो अग्धं लोअपवाहसमीरणउदंडपयंडचंड़
सोएण कंदिऊणं कुट्टेऊणं १११ लहरीए
. ७१ / सो जयउ जेण विहिया लोअपवाहे सकुलकमम्मि
सो न गुरू जुगपवरो लोए वि इमं भणिअं १३२ | हा हा गुरुअ अकजं सामी लोयम्मि रायनीईनायं न . . १० | हिअयम्मि जे कुसुद्धा २२
८४
५८
१५२
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शब्दकोश
शब्दना अर्थ इत्यादिनी पछी नोंघेला अंको अनुक्रमे पृष्ठ अने पंक्ति सूचवे छे. उदाहरण तरीके, अणलहतउ शब्द पछी २ १७ ए प्रमाणे अंकनिर्देश छे. अर्थात् ए शब्द पृ. २ उपर १७मी पंक्तिमां छे. १५३-३-१३ ए प्रकारे एक करतां वधु अंकनो निर्देश होय त्यां पहेलो अंक पृष्ठनो अने बीजा बधा अंक पंक्तिओना समजवाना छे. एक ज पृष्ठ उपर कोई शब्द एक करतां वधु वार प्रयोजायानो निर्देश ए रीते करेलो छें.
संक्षेपसूचि नीचे मुजब छे:
अ.
अनु.
अप.
ए. व.
अ. वि.
का.
कृ.
क्रि. वि.
ग्रा. गुज.
जू. गुज.
ॐ वं नও तूও চিঁ Ê b b) F
दे.
द्वि.
अव्यय
अनुग
अपभ्रंश
एकवचन
अंगविभक्ति
काठियावाडी (बोली)
कृदन्त
क्रियाविशेषण
ग्राम्य गुजराती
चतुर्थी विभक्ति
जूनी गुजराती
तृतीया विभक्ति
देश्य
द्वितीया विभक्ति
नपुंसक लिंग
पालि
पुरुष
पुंलिंग पंचमी विभक्ति प्रथमा विभक्ति
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शब्दकोश
फा.
ब.व.
भू.कृ.
म.
प्राकृत फारसी बहुवचन भूत कृदन्त मराठी मारवाडी वर्तमान कृदन्त विशेषण षष्ठी विभक्ति सप्तमी विभक्ति सर्वनाम
व.कृ.
संस्कृत
संबंधक कृदन्त स्त्री लिंग हिन्दी
हेत्वर्थ कृदन्त अ निश्चयार्थ अव्यय. ७-३. [सं. च > प्रा. य > अप., जू. गुज. इ] जुओ आ शब्दकोशमां इ तथा ई. केटलीक वार पादपूरक तरीके पण प्रयोजाय छे. उदाहरण तरीके-'नयणडां विचि बिहु नीली अटीली अ करी अ कस्तूरि, आपुं पान संयोगसुं सूडी अ फोफलचूरि; नैवेद्य आगलि नव करी पुत्री अ लागी अ पाइ, अबला आयस मागि अ मया म छंडेसि माई' (वीरसिंहकृत 'उषाहरण, पं. २३०-३४); वहिली अ करी अ सजाई अ माइ अ धू सिणगारी (एज, पं. ९७०), इत्यादि.
भक्खइ 'कहे छे.' वर्तमान बीजो पु. ए. व. ४-११. [सं. आख्याति > प्रा. अक्खइ]
अक्खरु 'अक्षर'. द्वि. ए. व. पुं. ४-११. [सं. अक्षर > प्रा. अक्खर ]
अछेलं 'अचरज.' प्र. ए. व. न.. १४२-९. अंगरूप अच्छेरा १४३-१. [सं. आश्चर्य > प्रा. अच्छेरय ]
अजयणावंत 'जयणा विनाना.' वि. प्र. ब. व. पुं. १३०.१२.. जुओ जयणारहित.
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१०२
अजाणिवजं
अजूआलूं ' अजवालुं.' प्र. ए. व. न. १०४-२१. [ सं. उज्ज्वलायितम् > प्रा. उज्जलाइअं > अप उज्जलाइउं > * उज्जुलाइउं > जू. गुज, उजुयालउं, अजुयालउं सर० गुज. ' ऊजळु. ']
८
अणलहतउ नहि मेळवतो.' व. कृ. प्र. ए. व. पुं. २- १७. अंगरूप अणलहता १४३-४ [सं. अन + √ लभ् > प्रा. अणलह ]
6
,
अल हिवउं नहि मेळवते, अप्राप्ति. ' प्र. ए. व. न. १३-१५, १४-९. अणलाधउ अणलाध्यो. ' ६५-२. वि. प्र. ए. व. पुं. जुओ लाधउ.
षष्टिशर्तक प्रकरण
अज्ञान. प्र. ब. व. न. १५२-२, १५३-३-१३. जुओ जाणं.
८
अनइ उभयान्वयी १-६ . [ सं . अन्यानि > प्रा. अण्णई > जू. गुज. अनई, अस्वरित प्रथमश्रुतिलोपथी नई, अर्वाचीन गु. अने-ने. ]
अनीरा ११८-५. जुओ अनेरा
'
अनेथि 'बीजे. ' अ. ९-२०. [सं. अन्यत्र > प्रा. अण्णत्थ ].
ܕ
"
अनेर 'बीजो. ' वि. प्र. ए. व. पुं. १४-५, ४१-१६, ६०-१३-२०, ६९-७, १०३-१५-२१, १३१-२. अनेरजं द्वि. ए. व. नं. ४८-१४, ५०-२. वळी जुओ अनेरहूं तु. ए. व. ६८-२१; अनेरइ स. ए. व. ४३-२२, ७५-११. [ सं . अन्यतर > प्रा. अण्णयर ] अनेरउनुं उत्तरकालीन अनेरुं रुप पण छे. प्र. ए. व. न. ४८-१३. अनेरे स. ए. व. नं. २८-७ वळी जुओ अनेरा १६- १०, २६-६-११, ४०-१, ९७-१३, १०६ - ११, १०७-४, ११८-२३, १५०-१९, १५३-२१; अनेरानइ १२७-९; अनेराना ११० - ३. अर्वाचीन गुजरातीमां 'अनेरो' शब्दमां ' अनन्य, 'असाधारण' एवो अर्थ विकस्यो छे ए नोंधपात्र छे. अभव्य ' मोक्षनो अनधिकारी. ' वि. प्र. ब. व. पुं. ११०-१७. आ. - जैन धार्मिक परिभाषानो शब्द छे.
9 ८
अभावड अप. स्वार्थिक प्रत्यय डि ].
अमुनित ' जाणवुं ' ].
6
C
,
अभाव, अणगमो. 'द्वि. ए. व. स्त्री. १३३-१९ [सं. अभाव +
अमकइ 'अमुकमां. ' वि. स. ए. व. न. ९१-११. [सं. अमुके, अप.
अमुक ].
अज्ञात'. भू. कृ. द्वि. ब. व. पुं. १०५०४ [ प्रा. मुण
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· शब्दकोश
०२.०.
अयाणु 'अजाण.' वि. प्र. ए. व. पु. १६२-५. [सं. अज्ञानिन् > प्रा. अजाणि, अजाण].
अलगउ 'अलग, अळगो.' वि. प्र. ए. व. पु. १४९-२-१३. [सं. अलग्नकः > प्रा. अलग्गओ].
असमत्थु 'असमर्थ.' वि. प्र. ए. व. पुं. १६१-५. [सं. असमर्थ > प्रा. असमत्थ].
असमाधि 'अशान्ति, अस्वस्थता.' प्र. ए. व. स्त्री. ११४-२०.
महिनाण ‘एंधाण.' द्वि. ए. व. न. ९३-२३. अंहिनाणि तृ. ए. व. नं. ९३-४. [सं. अभिज्ञान > प्रा. अहिण्णांण ]
अंधण 'अंधापो.' द्वि. ए. व. न. १०९-१९. 'अंधण'नु पाठान्तर 'अंधपणउ ' मळे छे, एंटले एना अर्थ विषे संदेह रहेतों नथी.
आगि ‘आग.' प्र. ए. व. पु. ६५-१२. [सं. अग्नि > प्रा. अग्गि > जू. गुज. आगि. एनुं लघु प्रयत्न 'य'कारवाळू रूप 'आग्य' थया पछी अर्वाचीन गुजराती 'आग' थाय छे.]
आचाम्ल 'व्रत विशेष, जेमां लूखू सूकुं खावानुं होय छे,' गुज. 'आंबेल.' द्वि. ए. व. न. ५-८. [प्रा. आयंबिल]. आ जैन धार्मिक परिभाषानो शब्द छे. . ___आणिउ ‘लावेलो, गुज. 'आण्यो.' भू. कृ. द्वि. ए. व. पुं. १३८-१४. [सं. आनीत : > प्रा. आणिओ] __ आधाकर्मी 'साधु माटे खास तैयार करेलु भोजन, जे जैन साधु माटें लेवानुं निषिद्ध छे.' १३८-१५. वि. प्र. ए. व. पुं. [आ शब्द- प्राकृत रूप आहाकम्मिय. ए जैन धार्मिक परिभाषानो शब्द छे. ]
भानंद भगवान महावीरना दस सुप्रसिद्ध उपासक श्रावकोमांनो एक. प्र. . ए. व. पु. १५५-५-१२.
आपण 'पोतान.' सर्व. द्वि. ए. व. न. ८१-२. आपणई तृ. ए. व. न., ७५-४, ७८-८. वळी जुओ ऑपणउ ६९-७, ११४-३-४. आपणउं ७५-३, ४९.१५, १०५-२१, ११७-१८, ११८-८; आपणा ७०-३, ११३-७, ११४-३, ११४-१६-१९, १५२-१, १५५-१५; आपणां ११९.१२; आपणी १३५-१८, १३६-१, १५४-१६; आपहणी ७३.१३-१४, ७८-६; आ छेल्ला शब्द साथे गुज.
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१७४
षष्टिशतक प्रकरण
'आफणी,' 'आफणिये' ('पोते') शब्द सरखावो. [सं. आत्मनः > प्रा. अप्पणो. अर्वाचीन गुजरातीमां थयेलो आ शब्दनो अर्थविस्तार नोंधपात्र छे, केम के 'आपणुं' एटले ‘पोतार्नु' तेम ज वक्ता समेत बीजां अनेकनु.]
आपणपउ 'पोतानो.' सर्व. द्वि. ए. व. पु. ११८-११. आपणपउं 'पोतानी जात.' द्वि. ए. व. न. ५१-१-५, ६०-१६, ७६-९-११, १०६-१०, १११-२-९, ११२-६, १२६-१७, १४६-५-१९, १४७-२, १५५-४. आपणपइं तृ. ए. व. न. ६२-१२, ७३-१७, ७८-१-२. वळी जुओ आपणपा ९७-१३, ९९-१२; आपणपानइं १४०-११; भापणपामाहि १५५-४-६-१३; आपणपू १४६-१३; आपण' ७३-७ [सं. आत्मन् + आत्मन् > प्रा. अप्पण + अप्प. अथवा सं. आत्मत्व > प्रा. अप्पप्प].
आराधण्हार 'आराधना करनार.' द्वि. ए. व. पु. ५७-१९. [सं. आराधन + कार > प्रा. आराधण + आर > 'ह'ना प्रक्षेपथी आराधणहार. सर० सरजनहार, खेवनहार, तारणहार, इत्यादि. 'ह'नो लोप थतां 'आराधनार,' इत्यादि. आ ज ग्रन्थमा मूल पाठमां जुओ करणहार ६-१०, ९-१४, ६५-४, ८२-१६, ९२-१६, ११३-९, १३०-२३, इत्यादि. वळी करन्हार एवं एमांथी व्युत्पन्न थयेलं रूप पण छे ( ८५-२० ), जेमांथी अर्वाचीन गुजराती ' करनार' आवे. वळी जुओ 'कहणहार' (= कहेनार) ४-८, २९-४, ८४-९; कहिणहार ३७-१२, २२-१२. खाणहार (= खानार < प्रा. खाअणआर < सं. खादनकार ) १८-७; एमांथी ज व्युत्पन्न थयेल खाण्हार १७-१७. चालणहार (= चालनार) ९.१५. जाणणहार (= जाणनार) ९३-१०. जाणहार (= जानार ) ४७-२०, १५९-१६. दिण्हार (= देनार) १०३-१७, देणहार ३७-६, ८४-९, १०३-९; देनहार ५७-१३; देन्हार २४-४. नासणहार (= नासनार) ४१-१७. प्रकासण्हार (= प्रकाशनार) १०५-२०. पालण्हार (= पाळनार ) ११५-६. पूरणहार (= पूरनार) १०३१३. प्रेरण्हार (= प्रेरणा करनार ) १०३-१८. बोलणहार (= बोलनार ) २४११, ६१-८. भणहार (= भणनार) १५९-१६. लेणहार ( = लेनार ) ३७-५. सांभलणहार (= सांभळनार) २७-११, २९-१६. सेवणहार (= सेवनार) ८६-१९. हउणहार (= होनार, थनार) ६०-१९.
आलोइ 'आलोचना करे छे.' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. ६९-४. [सं. आलोच् > प्रा. आलोअ. प्रायश्चित्त करवा माटे पोताना अपराध गुरुने कहेवा ते, आलोचना.] आ जैन पारिभाषिक शब्द छे.
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शब्दकोश .
__ मासोजी 'आसो मासनी.' ष. ए. व. स्त्री. ७९-४. [सं. अश्वयुक्.> प्रा. अस्सोअ > गुज. आसो.] 'जी'.अहीं, कच्छी अने सिन्धीनी जेम, षष्ठीना प्रत्यय तरीके छे ए. नोंधपात्र छे...
आस्ता 'आस्था, श्रद्धा.' प्र. ए. व. स्त्री. १४०-५-७, ३८-८. द्वि. ए. व. स्त्री. ३८-८. [सं. आस्था ] ... आहणतउ 'घा करतो.' व. कृ. प्र. ए. व. पु. १००-१. [सं. आहन् > प्रा. आहण] . आहणिउ 'घा करवामां आवेलो.' भू. कृ. प्र. ए. व. पु. ११२-४ [सं. आहन् > प्रा. आहण ]
आंग 'अंग, जैन आगमसाहित्यनो एक विभाग. ' द्वि. ए. व. न. ५-९-११. [सं. अङ्ग > (अनुनासिक कोमल थवाथी) आंग]. आगमसाहित्यमा 'अंग' तरीके ओळखाता बार ग्रन्थो हता, पण एमांनु बारमुं अंग ‘दृष्टिवाद' लुप्त थयुं छे; अगियार अंगो विद्यमान छे.
आंगमइ ‘स्वीकारे छे, भोगवे छे.' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. ८९-४. आंगमी सं. कृ. १२४-१. आंगमीनइ सं. कृ. १२३-७-८. [सं. अङ्ग +/ गम् उपरथी. जुओ आंगीगमइ.]
आंगीगमई ‘स्वीकारे छे, भोगवे छे.' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. ८९-१६. आ रुप ' आंगी' (अंगमां) अने ‘गमइ' (जाय छे) एवा बे शब्दोनुं बनेलं छे, अने ते उपर सूचवेली व्युत्पत्तिनुं समर्थन करे छे. जुओ आंगमइ.
आंगे 'अंगो वडे.' तृ. ब. व. न. ११६-६. [सं. अङ्ग > प्रा. आंग].
इ निश्चयार्थ अव्यय. केटलीक वार पादपूरक तरीके पण प्रयोजाय छे. ६-७, ७-१६, ८-१२-१३-१५, ९-११-१७, १०-९-१५-१८-१९-२१, १५-९, १६-५, १७-२, १८-१०-२२, १९-१५-१७-१८, २०-५, २१-१-५-१९, २२-३-५९-१३-२०, २३-२-५-८, २४-१-७-१२, २६-१२, २७-१-४-९-१८, २८-६, २९-६, ३३-३, ३९-१, ४३-१७, ४६-१८, ४९-१९-२१, ५७-७-२०, ५९-८, ६४-१२, ६५-२-१२-१९, ६७-४, ६८-८, ७१-८-१०, ७४-५-२०, ७७-१२, ८१-१-१३२०, ८२-१६, ८४-३-७, ८५-४, ८७-१, ८९-११, ९०-६-७-८-१५-२०, ९१-१३-४-१३-१४, ९२-१, ९३-९, ९५-५-८, ९६-१८-२३, ९८-३, १०२-११, १०४-१७, १०७-५, ..१०८-७-८, . १.०९-१:६, १११-५, ११२-१८, ११३-७,
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षष्टिशतक प्रकरण.
११४-३, ११५-६,.११७-६-१२,..१२९-१०, १५२-४, १४३-१२-१४, १४४-३, १४५-१५, १४७-१२, १४९-१४, १५५-२१, १५७.२१, इत्यादि. जुओ अ.
इकि 'एक.' वि. प्र. ए. व. पु. १६४-५. [सं. एक] इक एक.' वि. तृ: ए. क. पुं. १६३-३, १६४-२. [सं: एक ]
इस्यउ 'आ प्रकारनो.' वि. प्र. ए. व. पु. ७३-१०. द्वि. ए. व. १४०-२२. वळी जुओ इसी २४-६; इसु ६५-६, ६६-३, १५७-१. [सं. ईशिक > पा. ईदिस > प्रा. ईइस > जू. गुज. इसिउ ]
ई निश्चयार्थ अव्यय. केटलीक वार पादपूरक तरीके पण प्रयोजाय छे. ५-८-१२, १८-१४-१५, ७६-४, ८१-२२, ८४-४, ८६-१२, ८७-६. जुओ अ.
ई निश्चयार्थ' अव्यय. केटलीक वार पादपूरक तरीके पण प्रयोजाय छे. ८-२-२०, १९-८-९-११, २३-५-७-१६, २४-८, २८-१८, ३४-२२, ५०-५, ६४-१७-१८, ६६-१३, ६७-१७, ६९-७, ७४-११, ७५-१३, ७६-८-११, ८७-१६, ८८-१६, ९०-१५-१७-१९, ९७-९, ९८-१०-१४, ९९-१९, १०१-१६, १०३-१, १०७-२-४, १०८-२, ११५-१, ११७-१२, ११८-१८, १२९-१६-१८२०, १३३-३, १.३७-१५, १३९-९, १४१-१०, १४.२-१८-२.१, १४५-१९, १४७-१४, १५४-५, १५७-२१, १५८-१-२, इत्यादि: जुओ अ. - ईणं 'एनाथी.' सर्व. तृ. ए. व. न. ९१-१४, ९९-१३, १३०-१७ [सं. एतेन > प्रा. एएण > जू. ईण. वळी जू. गुज. मां ' ईणई' एवं रूप पण मळे छे, जेनो आ — ईणं' संक्षेप छे. अर्वाचीन. 'गुज. ' एणे,' लोकबोलीमां (खास करी उत्तर गुजरातमां) 'एण.' आ छेल्ला शब्दना अंतिम 'ण'नो अकार प्लुत छे.] ...ईहइ ‘इच्छे छे.' वर्तमान बीजो पु. ए. व. ४-११. [सं. v. ईह्] ' , उषाण 'कहेवत.' द्वि. ए. व. पु. १४६-१४. दीर्घ 'ऊ' वाळं रूप ऊखाणड पण मळे छे-प्र. ए. व. १०.३-१. [सं. उपाख्यान > प्रा. उवक्खाण. अर्वाचीन गुज. ' उखाणू,' म. 'उखाणा.. सोळमा शतकमा थयेलो गुजराती कवि मांडण पोतानी 'प्रबोधवत्रीसी'मां प्रयोजेली बहुसंख्य कहेवतोने ‘उखापा' कहे छे. जेमके-'उखाणा बहु आदर करी, जोयो अर्थ विधि विस्तरी' (पं. ६४१). वळी हाथप्रतमा ए काव्यनो 'मांडण बंधाराना उखाणा तरीके निर्देश के. अर्वाचीन गुज, मां ' उखागुं'तो ' समस्या' एवो अर्थः वधारे प्रचलित छ.] . . . .
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शब्दकोश
८
उज्जयकरु 'प्रकाश करनार. वि. प्र. ए. व. पुं. १६४- १४. [सं.
उद्योतकर]
उदासन तटस्थ. 'वि. प्र. ए. व. पुं. १४१-५. [ सं . उदासीन ]
उपायनां 'मानता, आखडी.' प्र. ब. वं. न. ६ १७. [ सं . उपायन ] उमग्गु आडो मार्ग. ' द्वि. ए. व. पुं. १६४-४. [सं. उन्मार्ग प्रा. उम्मग्ग ]
(
"
"
उलषी ओळखीने. ' सं. कृ. १४१-२०. [सं. उपलक्षयति उवलक्खइ उपरथी ]
उलिइ 'पेलामां, ' का. 'ओल्यामां.' सर्व. स. ए. व. १५०-२० [ व्युत्पत्ति निश्चित थई शकी नथी. ] जुओ ओल्या.
१७७
२३
कांट ' रोमांच. ' द्वि. ए. व. पुं. ९८-४-१८ [सं. उत्कण्टकः > प्रा.
:
उक्कंटउ ]
ऊखेली ' उखेडीने. ' सं. कृ. १२५-४. [ प्रा. उक्खाल< सं. उत्क्षाल् ]
प्रा.
ऊतारणउं ' ऊतारणुं, ऊतारीने फेंकी देवुं ते.' द्वि. ए. व. न. १०८-१४. कारण तु. ए. व. १०८-२२. [सं. उत्तारणकम् ].
ऊपहरउं अलग,' गुज. ' ऊफरुं.' अनुग. ६-१८. [ जू. गुज. उपर + हरउं ? जो एम होय तो आ ' हरउं ' ने चतुर्थी अने षष्ठीना अनुग ' रहई 'नं रूपान्तर गणवं जोईए. ]
6
ऊभति 'खराब भात - चित्रामण. ' स. ए. व. स्त्री. ४६-३. [सं. उद् + भक्ति > प्रा. ऊभत्ति. सर० गुज. 'भात्य, [भात. ' ]
36
ऊलखतउ ओळखतो. ' व. कृ. प्र. ए. व. पुं. १४०-३. जुओ उलषी.
ओठंभ 'आलंबन. 'द्वि. ए. व. न. १४४ २. [सं. अवष्टम्भ > प्रा. अवभ ]
ओलंभउ ' उपालंभ, ' गुज. ' ओळंभो.' द्वि. ए. व. पुं. १४६-८, १४८१९. [सं. उपालम्भ >> प्रा. उवालंभ ].
ओल्या ' पेला, ' अंगरूप. १५०-२०, जुओ उलिहू.
"
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षष्टिशतक प्रकरण
"
कइजिनइ ' कोइकना ज.' सर्व, स. ए. व. न. ४-१. निश्चयार्थ अव्यय 'जि' अहीं ' कइ ' सर्वनाम अने 'नइ' प्रत्ययनी वचमां आवेलो छे ए नोंधपात्र छे. खास करी जूना गुजराती गद्यमां आ प्रकारना संख्याबंध प्रयोगो मळे छे.
कउतिग आश्चर्य.' प्र. ए. व. न. ८५-१४. [सं. कौतुक ]
कड़कडता ' शुद्ध, निर्दोष. ' व. कृ. प्र. ब व. पुं. १०९-१४. आ ज अर्थमां जुओ कडकडा १०९-१४.
薯切花
८
कन्हइ 'पासे, 'गुज. ' कनें, ' सप्तमीनो अनुग. २७-१५, २८-१२-१३, ५२-२२, ५३-९, ९५-१८. कन्हई २९-१५, ३०-१२, १२२-११. कन्हलि ११-१५, २८-१४-१७, २९-११. कन्हां १५६-१८. [सं. कर्णस्मिन् > अप. कहिं > कन्हइ. कन्ह + ल ( स्वार्थिक प्रत्यय ) + इ = कन्हलि. ' कन्हां 'मां सप्तमीनो 'आं' प्रत्यय छे. अर्वाचीन गुजराती ' कने' अथवा 'कणे ' = पासे सं. कर्णे > प्रा. को उपरथी छे. ]
कर्मइजिनइ ' कर्मने ज. ' द्वि. ए. व. न. ६५-१. कर्मइजिनउं ' कर्मनुं ज. ' ष. ए. व. न. ११०-१०. कर्म' नाम अने एना प्रत्ययनी वचमां 'इ' अने 'जि' एवा बे अव्ययो आवे छे ए नोंधपात्र छे. जुओ कइ जिनइ.
"
कलि 'क्लिष्ट, हलको. ' वि. प्र. ए. व. पुं. १६२-९. [सं. क्लिष्ट > प्रा. किलिट्ठ ]
कहं ' तुं कहे (छे ) . ' वर्तमान बीजो. पु. ए. व. १४६-१३.
द कादव. ' स. ए. व. पुं. ८१ २. [सं. कर्दम > प्रा. कदम. गुजरातीनी केटली बोलीओमां हजी ' कादम ́ बोलाय छे. ]
(
कुउण 'कोण, ' ग्रा. गुज. 'कुण. ' सर्व. प्र. ए. व. पुं. १५०-८. [सं. कः पुनः > प्रा. कउण > अर्वाचीन गुज. ' कोण. '] 'करण' एवं जू. गुज. मां व्यापक रीते प्रचलित रूप पण वारंवार मळे छे - ४५-७, ५६-५-९, ५७-४, ६४-७-२१, १५०-१२, इत्यादि. कुण पण छे - १०८ - २, १३५-१४, १५०-३, इत्यादि.
कूतिरउ ' कूतरो. ' द्वि, ए. व. पुं. १८-७ कुतिरानड् ' कूतराने ( मुखे ). ' स ए. व. पुं. १८-२. [सं. कुंकुर प्रा. कुत्तुर. जो के कुक्कुर शब्द ज आर्येतर मूळनो होय ए संभवे छे. अहीं ' क ' नुं ' त 'मां परिवर्तन थाय छे ए साथै सरखावी
*
6
'कुकु, ' ' तुतु' जेवा गुज. शब्दो. साहित्यिक प्राकृतमां पण ' कुत्त' शब्द छे. ]
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शब्दकोश ।
कुभति खराब भात-चित्रामण.' द्वि. ए. क. स्त्री. ४५-१८. [सं. कुभक्ति > प्रा. कुभत्ति ] जुओ ऊभति.
कूकर कूतरों.' द्वि. ए. दः पुं. १७-१७. [सं. कुक्कुर ] सोमसुन्दरसूरि आ शब्दनो 'भुंडीउ' (भुंड) एवो अर्थ करे ,, एटले ए अर्थ पण प्रचलित हशे एम गणवू जोईए. .. केडाइतपणउं 'अनुयायीपणु,' द्वि.. ए. व. नं. ७५-१३. वळी. जुओ केडिलु 'पाछळनो,' द्वि. ए. व. पु. ७९-१२. [ 'केड, केडी, 'केडो' वगेरे. शब्दोनी व्युत्पत्तिने सं. कटि साथे संबंध हशे ? ]
कोडि 'करोड.' द्वि. ए. व. स्त्री. ९१-१०. [सं. कोटि > प्रा. कोडिं. एमां 'र'नो प्रक्षेप थतां जू. गुज. 'क्रोडि' अने अर्वाचीन गुंजे.. 'क्रोडे' अने 'करोड.'] वळी जुओ कोडाकोडि 'एक करोडने एक करोडे गुणवाथी थाय एटली संख्या.' द्वि. ए. व. स्त्री. १२१-२१, १२२-१३-१६, १६३-४.
क्षप 'श्रम.' द्वि. ए. व. स्त्री. १२६-२०. क्षपइ.' खपावे छे, दूर करे छे.'. वर्तमान बीजो पु. ए. व. १२७-१५. क्षपीनइ ‘खपावीने.' सं. कृ. ८७-९, [सं. / क्षप् उपरथी ] जुओ खप. __खबर 'खेरनुं झाड.' प्र. ए. व. पु. १०३-१५. [सं. खदिर'> प्रा. खईर.]
खप 'श्रम, प्रयत्न.' द्वि. ए. व. स्त्री. १२६-८-९, १३४-१८. 'खप'नो 'उपयोग, जरूर' एवो तुलनाए अर्वाचीन अर्थ आमांथी निष्पन्न थयेलो छे, जुओ क्षप. __ . खरड तृ. ए. व. पु. ५४-१४. [ मात्र एक ज प्रयोग उपरथी आ शब्दनो स्पष्ट अर्थ समजातो नथी, पण सन्दर्भ जोतां ' खरड 'मां निकृष्ट कोटिनी व्यक्तिनों भाव रहेलो छ.]
खाणहार 'खानार.' प्र. ए. व. पुं. १८-७. [सं. खादन + कार > प्रा. खाअणआर.] आ प्रकारना अन्य प्रयोगो माटे जुओ आराधण्हार शब्द नीचे.
खंट 'निरंकुश माणस.' तृ. ए. व. पुं. ५४-१३. [ 'सांढ' ए अर्वाचीन अर्थ लक्षणाथी आव्यो जणाय छे. ]
षेपई 'फेंके छे.' वर्तमान बीजो पु. ब. व. ४५-९. [सं. क्षेप > खेप. जूनी हाथप्रतोमां लखेला 'ष'नो उच्चार घणुं खरं 'ख' करवानो होय छे.]
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षष्टिशतक -प्रकरण
गणहर गणधर, महावीरना पट्टशिष्य. ' द्वि. ए. व. पुं. १६१-१.
[ सं . गणधर ]
१८०
"
गरुड 'मोटो, ' गुज. ' गरवो. ' वि. प्र. ए. व. पुं. १५७-१४. गुरुउ प्र.
"
ए. व. पुं. १५७-१२. गुरया प्र. ब. व. पुं. ७१-२२. गरुयाइंना 'मोटाओना
,
पण. ष. ब. व. पुं. ७२-६. [सं. गुरुकः > प्रा. गुरुओ, गरुओ ]
"
गरूड 'मोटाई. ' द्वि. ए. व. स्त्री. ५६-१२. [सं. गुरुक > प्रा. गरुअ + ( अप. स्वार्थिक प्रत्ययं ) डि ]
6
गाह 'गाथा. ' द्वि. ब. व. स्त्री. ६०-३-५. गाहहं 'गाथामां' स. ए. व. स्त्री. १ १०. गाहे . ' गाथाओ वडे ' तृ. ब. व. स्त्री. ५२-१३-१६, १५५-१४. हां' गाथामां. 'स. ए. व. स्त्री. १३०-१७. [सं. गाथा > प्रा. गाहा ]
-C
,
गुणता 'पुनरावृत्ति करता, भणता, ' अर्वाचीन गुज. " गणता. व. कृ. प्र. ब. व. पुं. ५-१२. गुणतां व. कृ. प्र. ए. व. पुं. ३-९. गुणिवउं ' गणवुभंगवु. ' द्वि. ए. व. न. ५-२०.
गुरां ' गुरुओने. ' द्वि. ब. व. पुं. १४५-८-२०.
,
ग्यउ ' गयेलो. ' भू. कृ. प्र. ए. व. पुं. ९०-११. [सं. गतः > प्रा. गओ > अंप. गिउ. का. ' गियो,' अर्वाचीन गुज. 'ग्यो. '] वळी जुओ गओ 'गयो, ' भू. कृ. प्र. ए. व. पुं. ८२-१९. गिउ ( गयो. ' प्र. ए. व. पुं. ८२-१३. द्वि. ए. व. पुं..८-१५.
."
ग्रहणा ' घराणुं, अडाणुं.' अं. वि. ए. व. न. १६-१२. [सं. ग्रहणकम् ] घात नाखे छे.' गुज. ' घाले छे.'. वर्तमान त्रीजो पु. ब. व. १७-१८, १८-८, २५-७-८, ४५-५, १११-२०. घातिउ ' नाख्यो, घाल्यो. ' भू. कृ. प्र. ए. व. पुं. ७९-१३-१९. [ प्रा. घत्त ' फेंकवुं. ']
afr
च ' देव, मानव, नारक अने तिर्यंच ए प्रमाणे चार प्रकारनी गति. ' पं. ए. व. स्त्री. ४-११. [सं. चतुर्गति > प्रा. चउग्गइ ]
चडवाइंजिनी ' चढवानी. ' ष. ए. व. स्त्री. १४३ - १३. 'इ' अने 'जि' ए अव्ययो नाम अने प्रत्ययनी वचमां आवी गया छे.ए नोंधपात्र छे. [ प्रा. चड. संस्कृतमां एक चट् क्रियापदनो प्रयोग हे खरे, पण ए प्राकृत उपरथी लेवायुं होवानो संभव वधारे छे. ]
"
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: शब्दकोश '...
१८१
चलइ “चांगळाभी.' तृ. ए. व. न. ८६-६. [सं. चुलुकेन > अप. चुलुअइ] . चाड . 'दुर्जन, कपटी.' प्र. ए. व. पुं. ६७-१३. [ दे. चाड] __चाही ‘जोईने.' सं. कृ. १३८-१४. [ प्रा. चाह 'इच्छवू.' जूनी गुजरातीमां 'चाह 'नो प्रयोग ‘जोवा' ना अर्थमां छे–'अखा आणी. मंदिरिमाहि, चित्रसालि परि परिनि चाहि' (वीरसिंहकृत 'उषाहरण,' पंक्ति ३३८); चतुरपणूं अति चाहवा नारि जंपिइ-नाह' (ए ज, पंक्ति ६००). सरखावो अर्वाचीन गुजराती 'चाहन' (सौ जुए तेम, खुल्ली रीते), 'चाहीने' (जाणी जोईने ), इत्यादि. अलबत्त, 'चाहवू'नो 'इच्छवु' ए अर्थ पण जूनी गुजरातीमा छे ('सम चाहु सारुं ए हाथ, दीइ न जां को दूजण बाथ'-वीरसिंहकृत 'उषाहरण,' पंक्ति १०५), अने अर्वाचीन गुजरातीमां तो ए अर्थ सामान्य छे.]
चिणी 'चणेली' (भीत.) भू. कृ. प्र. ए. व. स्त्री. १२५-१०. [सं. चिनोति > प्रा. चिणइ उपरथी चिण > चण क्रियापद व्युत्पन्न थयेल छे.] .
छमस्थ 'अ-सर्वज्ञ.' प्र. ए. व. पु. ६०.२१. [सं. छद्मस्थ. केवली-सर्वज्ञ न होय ते बधा छद्मस्थ कहेवाय. आ जैन पारिभाषिक शब्द छे.] . .
छाला 'बकरा.' अं. वि. ब. व. पुं. ७८-२०, ७९-४. [सं. छागल > प्रा. छाअल.]
. . .
. छेडहह 'छेडे.' स. ए. व. पुं. १४०-१. [सं. छेद > प्रा. छेअ> अप. छेह. स्वार्थिक प्रत्यय “ड' तथा सप्तमी प्रत्यय 'इ' लागतां छेहडइ, व्यत्ययथी छेडहइ. एनुं पाठान्तर 'छेहडइ' मळे छे ए नोंधपात्र छे.] ___ छेहनउं 'नुकसान.' ष. ए. व. न. २१-१८. [ व्युत्पत्ति माटे जुओ छेहडइ. बन्ने शब्दोनी व्युत्पत्ति एक ज मूळमांथी होवा छतां बन्नेनो विभिन्न अर्थविकास ध्यान खेंचे छे.]
. छोह 'चूनानी छो.' स. ए. व. स्त्री. १२५-७. छोहि प्र. ए. व. स्त्री. १२४-११, १२५-११. छोहि तृ. ए. व. स्त्री. १२५-१०. [सं. सुधा > प्रा. छुहा, छोहा.]
जमलउ । साथे.' अ. १०२-४. [सं. यमल > प्रा. जमल. जूनी गुजरातीमां अराढमा सैका सुधी 'जमलउ-जमलो 'नो प्रयोग छे. सर०. म. 'जवळ ' = पासे.]
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१८२
षष्टिशतक प्रकरण
. जमारउ 'जन्मारो.' द्वि. ए. वं. पुं. ७-१५. [सं. जन्म + करि > प्रा. जम्मआर]
जयणारहित 'हिंसा टाळवाना प्रयत्नथी रहित.' वि. प्र. ए. व. पुं. १३१-४. [सं. यतनारहित ] जुओं अजयणावंत.
जाल° ‘यक्ष.' ष. ए. व. पुं. ८३-९. स. ए. व. पु. ८३-१६. [सं. यक्ष > प्रा. जक्ख > अप. जाख (ष) + स्वार्थिक 'ल.' जुओ पाल्हण कविकृत 'आबुरास' (सं. १२८२)ने अंते-' राखइ जोषु जु आछइ खेडइ, राखइ, ब्रह्मसंति मुंढेरइ.'] जू. गुज.मां अन्यत्र थाय छे तेम, अहीं पण"ष'नो उच्चार 'ख' करवानो छे.
जाण 'ज्ञानी.' प्र. ए. व. पु. ९३.१० जाणनी ष. ए. व. पु. ८०-१८. [सं. जानन् > प्रा. जाणं. सर० गुज. 'अजाण.'].
जाणं ('तुं ) जाणे छे.' वर्तमान बीजो पु. ए. व. १४९-१.. .. • जाणिवउ 'जाणवो.' विध्यर्थ कृ. प्र. ए. व. पु. ६९-६-१५. जाणिवउं विध्यर्थ कृ. प्र. ए. व. न. ८०-६, ८६-६. [सं. जानाति > प्रा. जाणेइ, जाणइ ]
जान 'वाहन.' द्वि. ए. व. न. ३-७ [सं. यान. सर० गुज. ( वरनी) जान.' आ ग्रन्थमा प्रयोजायेला 'जान' शब्दमां केवळ 'वाहन' ए अर्थ उपरांत समारंभपूर्वक समूहमां जवानो अर्थ पण छे ए स्पष्ट जणाय छे.]
जि निश्चयार्थ अव्यय. अर्वाचीन गुज. ज.' ६-१४, ७-३-१६, ९-२०, १०-९-१५-१८, १५-९, १६-१, १८-२२, १९-१५, २०-५-९, २१-२-१९, २५-१७, २६-९, २७-२-११, २८-७-११-१२, २९-४, ३१-१-१२-२०, ३४-१०११-१७, ४६-१८, ४९-१४-१७-१९-२०-२१, ५०-८-९-२१, ५३-१८, ५७-१२, ५९-८, ६०-१२, ६२-२१, ६३-१, ६५-१, ६७-४, ७०-४-५-१७-१९, ७३-७, ७७-१, ८१-१, ८३-१, ८४-७, ८६-११, ९१-१३, ९२-२-४-११, ९३-९, ९४-१३, ९५-५-८, १०१-४, १०४-१७, १०७-७-९, १०८-८, १०९-१-७, ११४-३, ११५-६, ११७-६, १२६-१, १३५-१६, १३६-९, १३७-१७, १३९-११, १४०-७, १४१-१०, १४७-११, १४९-१६, १५०-१३, १५१-१, इत्यादि. [सं. एव; प्रा. य्येव, जेव, जे; अप. जि.]
.
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· शब्दकोश
- जिणिउ ‘जीत्यो.' भू. कृ. तृ. ए. व. पुं. १६२-१०. [सं. * जिनाति > जिणइ. सर० जिन (तीर्थकर )] . जिमइ ‘जमे.' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. १३८-१५, जिमण ‘भोजन, जमण.' द्वि. ए. व. न. ८३-१७. जिमिवउं 'भोजन, जमवं.' द्वि. ए. व. न. ७४-१९. जीमवर्ड प्र. ए. व. न. ७४-१४. जीमिवा 'जमवाः ' हे. कृ. ७४-१३. [प्रा. जिमइ, जेमइ. म. जेवणे. केटलाक विद्वानो आ माटे *जेमति एवं संस्कृत रूप कल्पे छे. पण खरु जोतां, कोई अजाण्या मूळनो आ शब्द (भोजन करवाना अर्थना संस्कृत / भुज् ने स्थानभ्रष्ट करीने प्रचलित थयो एम मानQ बिधारे
योग्य छे. ]
ज्ञाइ 'न्याय वड़े.' तृ, ए. व. पुं. १३७-२१. ज्ञाइं तृ: ए. च. पुं. १३५-७. [सं. न्यायेन]
उडवा 'अपमान करवा माटे.' हे. कृ. १०२-१४. [ व्युत्पत्ति अनिश्चित ]
डली ‘लचको.' द्वि. ए. व. स्त्री. १२४-२२, १२५-४. प्र. ए. व. स्त्री. . १२५-१. [ दे.] दयारामे आ ज अर्थमां आ शब्दनो प्रयोग कर्यो छे-'मन थयु
माटीनी डली' ('रसिकवल्लभ,' पद ३, कडी ५.) - डाहउ ‘डाह्यो.' वि. प्र. ए. व. पुं. ४८-८, ४९०६. डाहपण 'डहापण.'
प्र. ए. व. न. ४८-२०. वळी जुओ डाहा ५१-१७, १२१-२, १४२-१२, १४२-२१, १४३-३. डाहाइनइ ५२-१०. डाहांईनउ ५२-६. डाहु ४८-१७. [सं. दक्षः> प्रा. दक्खो, दाखो, * दाहो. श्री नरसिंहराव दिवेटिया सं. दक्षिणकः > प्रा. दाहिणउ उपरथी ( 'ण'नो लोप करीने ) 'डाह्यो 'नी व्युत्पत्ति बतावे छे. डॉ. टी. — एन. दवे सं. दग्ध > प्रा. दग्घ उपरथी सूचवे छे. ] .. डाहीयार 'डाह्या.' वि, प्र. ब. व. पुं. ११७-१४. [सं. दक्ष + कार > * दाहआर. जुओ उपर डाहउ.]
डीलि ‘जात वडे, गुज, डिले.' तु. ए. व. न. ७८.९. [प्रा. डिल्ल. जो के प्राकृतमा एनो प्रयोग एक प्रकारना जळजंतु माटे छे, पण जूनी गुजरातीमा 'डील' शब्द 'जात-शरीर 'ना. अर्थमां सुप्रचलित छे.]
ढिग 'ढग, ढगलो,' द्वि. ए. व. पुं. ९४-१-२-३-१८-१९-२०. ढिगला 'ढगला.' द्वि. ब. व. पुं, ९४-९. [ दे..] . . . . .
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षष्टिशतक प्रकरण
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. . °तउ पं. ए. व. नो प्रत्यय. ७-१२, ८-४, १५-१५-१६, २०-१३, ३१-२१, ३४-३-१८-१९, ३६-६-७, ५९-३, ६०-२०-२२, ८०-१६, ११०-३ ११९-२, १२२-१२, १२५-१७, १३२-४-९, १३४-३, १३८-२१, १३९-२, १५४-६, १५७-१२, इत्यादि. [सं. °तः] ..... थडइ 'थडा उपर, दुकानना अग्रभाग उपर.' स. ए. व. न. २-१८. [प्रा. थुड] . . . थाकतउ 'बाकीनो' वि. द्वि. ए. व. पु. ९४-७. थाकतउं 'बाकी,' द्वि. ए. व. न. ९३.१४, ९४-११, १०६-५. थाकता 'बाकीना.' द्वि. ब. व. पु. १०६-९, १०७-४-८. [सं. *स्थकित > प्रा. थकित, थाकित] . . थाकी 'रही.' भू. कृ. प्र. ए. व. स्त्री..१०.५. [सं. *स्थकिता. > प्रा. थक्किआ] जुओ थाकतउ. ..... थिकु पंचमीनो अनुग, गुज, 'थको.' २७-१८. [सं. * स्थक्कितः > प्रा.
थकिओ > अप. थकिउ ] जुओ थाकतउ, थाकी. .. थुइ ‘स्तुति.' प्र. ए. व. स्त्री. १६४-७. [सं. स्तुति] . . ___ . दुक्कर 'दुष्कर.' वि. प्र. ए. व. पु. १५-१०-२१. [ सं. दुष्कर] . ...देवां 'देवोने.' द्वि. ब. व. पुं. १४५-१८-२० . . ।। देसण 'उपदेश.' द्वि. ए. व. स्त्री. १६५-२. [ सं. देशना > देसणा-] • दोहग्ग 'दुर्भाग्य, गुज. दोहग.' प्र. ए. व. न. १६३-१५. [ सं. दौर्भाग्य "> दोहग्ग] - धणीप 'स्वामित्व.' द्वि. ए. व. स्त्री. १५८-२४. [सं. धनित्व > प्रा. धणित्त-प्प] - धीर धीट.' वि. प्र. ब. व. पु. ९५-१९. वळी जुओ धीरटपण ९५-२०; धीरठपणुं ६३-१०; धीरष्टपणा १११-४; धेठपणानइं १११-११; धेठा ९५-१२, ९६-१०; धेठांनई ४५-७. [सं. धृष्ट > प्रा. *धरह > घिरट्ठ. ए ज प्रमाणे सं. धृष्ट > प्रा. धिट्ठ.]. ___ न भारदर्शक अव्यय, अर्वाचीन गुज. 'ने' (जेम के कहो ने, बोलो ने, इत्यादि). १२-४, ५६-९.. . .
नह निषेधार्थ अव्यय. १६३-११-१५.[ सं. नहि ].. .
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' शब्दकोश .
नात्रा'संबंध, गुज. नातरां.' द्वि. ब. व. न. २४-२१. [सं. ज्ञान. आ शब्द तथा एना तद्भवोनां रूपान्तरो अने अर्थान्तरो माटे जुओ ‘संस्कृति', जान्युआरी १९५० मां मारो लेख ‘नातलं अने नात.']
नापइं 'न आपे.' वर्तमान त्रीजो पु. ब. व. ४४-१३. [सं. न + अपर्यति > प्रा. न + अप्पइ]
नाराधइ 'न आराधे.' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. ३१-३. [सं. न + आराधयति].
नाव न आवे.' वर्तमान बीजो पु. ए. व. १२४-३. ब. व. ६.५-१२, ७७-२१. [छेल्ला बे प्रयोगोमां न करी शके' एवी अर्थच्छाया पण छे. जेम के 'करिवा नावई' एटले 'नथी करी शकता.' सं. न + आयाति > अप. न + आवइ.]
निकाचित कर्म ‘अत्यंत निबिड कर्म.' प्र. ए. व. न. १२५-१२-१४. वळी जुओ निकाचित १२४-११. निकाचित कर्मनऊ १२४-१९-२०. निकाचितकर्मी १२४-५. [आ जैन धार्मिक परिभाषानो शब्द छे.] ..
निधत्त कर्म ‘एक प्रकारनुं बंधायेनुं कर्म.' प्र. ए. व. न. १२४-२१, १२५-८.
पई ‘करतां.' अ. ५७-१८. [सं. प्रति > प्रा. पइ. प्रस्तुत स्थळे पइंर्नु पाठान्तर पाहइं छे; आथी नीचे प्रमाणे व्युत्पत्ति पण शक्य लागे छे--सं. पक्षे > प्रा. पक्खे > अप. पाखइं-पाहइं > पाई-पई.]
पट्टणइं 'नगरो.' प्र. ब. व. न. १६५-१. जुओ पाटणि.
पणि 'पण, वळी.' अ. २४-११-१३, ७०-१६, ८२-६, ८६-१५, १०९-३, ११३-१४, १३६-२, १४०-१३, १४२-२, १४९-७, १५६-७, इत्यादि. [सं. पुनः अपि > प्रा. पुणवि > जू. गुज. पुणि. सर० हि. पुनि. ] जुओ पुण.
परहउ 'दूर.' वि. प्र. ए. व. पुं. २४-५. परह प्र. ए. व. न. १२७-९१०-११. परहूं प्र. ए. व. न. २२-१२. [सं. परस्मिन् > अप. परहिं. सर० गुज. 'अरुं परुं.'] . परीनिवउ 'परखवो. ' विध्यर्थ कृ. प्र. ए. व. पु. १४१-१०. परीक्षिवउ विध्यर्थ कृ. प्र. ए. व. पुं. १४०-१०. परीषतउ ‘परीक्षा करतो, परखतो.' वर्तमान कृ. प्र. ए. व. पु. १३५-१५. परीषी परखीने.' सं. कृ. १३४-८, १४२-१. परीषीनइ सं. कृ. १३५-८. [सं. परीक्ष > प्रा. परिक्ख ] जुओ परीछी. २४
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षष्टिशतक प्रकरण
. परीछी 'परीक्षा करीने, गुज. प्रीछीने.' सं. कृ. ९५-१९. परीछीइ 'परखाय छे.' कर्मणि प्रयोग, वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. २२-८. [ सं. परीक्ष् > प्रा. परिच्छ] जुओ परीखिवउ.
प्रभ 'मालिक.' प्र. ए. व. पुं. १०१-२ [सं. प्रभु ]
प्रमुख 'इत्यादि, वगेरे.' अ. १-७, ३-१२, ४-५, ५-११, ६-३-१७, ३२-८, ३३-४, ८०-४, ८३-१६, १२९-१८, १५४-४, इत्यादि.
पाखइ ‘सिवाय.' अ. १५-११, ३७.१७, ४०-२०, १२१-५. [सं. पक्षे > प्रा. पक्खे > अप. पक्खइ-पाखइ-पाहइ. गुज. 'पाखे-पखे. '] जुओ पाहइ.
· पाषइ 'सिवाय.' अ. १६-१२, ४५-१८, ७०-३, १२१-९. उच्चारणमां 'पाखंइ' अने 'पाषइ' अभिन्न छे. जुओ पाखइ.
पाटणि 'शहेरमां.' स. ए. व. न. २५-७. [सं. पत्तन > प्रा. पट्टण. सामान्य नगरवाचक आ शब्द पाछळथी विशिष्ट नगरवाचक बन्यो छे ए नोंधपात्र छे.] जुओ पट्टणइं.
पाडूइ 'अशुभ.' वि. प्र. ए. व. स्त्री. १८-१५. पाडूउं प्र. ए. व. न. ३३-३; द्वि. ए. व. न. ८४-१६. [सं. * पातुकम् > प्रा. पाडुअं. आ प्रयोग जूनी गुजरातीमां आ अर्थमां व्यापक छे. ]
पाधरा 'सादासीधा, सामान्य.' वि. अं. वि. ब. व. पुं. १५-१२, १००-१९. पाधरां ‘सीधां' ('अवळां'थी ऊलटां) द्वि. ब. व. न. ५.१२. पाधरी 'सीधी'. स. ए. व. स्त्री. १०-१४. [ दे. पद्धर. गुज. 'पाधलं.' सर० 'अद्धर पद्धर.'] - पापइजिनइ 'पापने 'ज (विषे).' स. ए. व. न. ३४-१६. 'पाप' ए नाम अने 'नइ' प्रत्ययनी वच्चे बे अव्ययो दाखल थई गया छे ए नोंधपात्र छे.
पाहइ ‘करतां.' अ. १०२-११. पाहई ४२-५, ५८-४, ९७-१३, १४८-१०. पाहति ‘करतां.' १२१-९. पाहि ९१-३. पाहिइं४२-६. पाहंति 'पासे, द्वारा'. ६९-१२, १०३-४. पाहिं १४८-३, १२०-१९. पांहति १४८-१३. [सं. पक्षे > प्रा. पक्खे > अप. पक्खइ-पाखइ-पाहइ. 'पाहति' इत्यादि प्रयोगोनी व्युत्पत्ति सं. पक्षतः > अप. पक्खतउ-पाहतउ-पाहतइ ए रीते संभवित छे. ] जुओ पाखइ. • प्रामइ ‘पामे छे.' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. १३-१४, ५३-१८, ७२-१४, १००-१८.. प्रामई वर्तमान बीजो पु. ब. व. १२-१५, २७-६-९, ३८-२०,
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- शब्दकोश ..
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८७-१०-१२, ९८-५. प्रामई वर्तमान बीजो पुः ए. व. २५-२०. वळी जुओ प्रामिउ १३६-८. प्रामिसिइ ६७-६. प्रामिस्यउं ९९-१४, ११८-९. प्रामी ९६-१७, ९७-४. प्रामीइ १००-१५. प्रामु १५८-१४. [सं. प्राप्नोति > पा. * प्रापुणति > प्रा. * प्राउणइ, प्रावइ > जू. गुज. प्रामइ.] 'र' कार विनानुं रूप जे अर्वाचीन भाषामा व्यापक छे ते पण मळे छे-पामइ २६-११. पामइं ५४-५, ७४-१५, ९७-१९, पामउ १५९-२०. पामिउ १३६-१३-१९. पामिस्यई ६७-१४, ७७-१४. पांमीइ ९२-२, ११३-१४. पांमीस्यइ .९८-१८. [सं. प्राप्नोति > पा. पापुणति > प्रा. पाउणइ, पावइ > जू. गुज. पामइ].
प्राहइं 'गुं करीने, मोटे भागे' अ. २४-१४-१५. प्राहि १४७-९. प्राहिई २२-१८. [सं. प्रायः]
प्रियागत 'वंशपरंपरागत.' वि. द्वि. ए. व. पु. ४४-१४. [सं. प्रजागत > परजागत, परयागत. सर० अर्वाचीन गुज. परियागत.' गुजरातीनी केटलीक बोलीओमां ‘परिया' शब्द 'प्रजा'ना अर्थमां वपराय छे. 'प्रजा' शब्दना आ 'परिया' अने ' प्रिया' रूपान्तरो नोंधपात्र छे. ]
पुण 'पण, वळी.'. अ. २३-२१, ३३-२०, ४१-१६, ५५-२२, ७८-२; ९८-२०, १२७-१७, १२९-१०, १३७-९-१३, १३९-२२, १४०-५-७, १४१-२१, १४५-२०, १४७-१५, १५०-१९, १५४-१-५, १६४-११, इत्यादि. [सं. पुनः । > प्रा. पुणो > अप. पुण] जुओ पणि.
पूजइ 'पहोंचे.' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. १४०-५. [सं. पूर्यते > प्रा. पुजइ. 'ज' नो 'ग' थवाथी जूनी गुज. मां ‘पूगई,' अर्वाचीन गुज. मां 'पूगे.']
__ पूर्व ‘जैन शास्त्रोनो एक विभाग.' द्वि. ब. व. न. ५-९-११. [आगमसाहित्यना अंगविभागमा बारमुं अंग ‘दृष्टिवाद' नामे हतुं, एमां चौद 'पूर्व ' हतां. दृष्टिवाद तेम ज पूर्वो घणा समय पहेलां लुप्त थई गयां होवानी परंपरा छे.]
फलदायन ‘फलदायक.' वि. प्र. ए. व. पुं. ११६-१४. बटींग 'मूर्ख. वि. प्र. ए. व. पुं. ५४-१९.
बडइल ‘गाडानी धरीनी अंदरनो खीलो.' प्र. ए. व, स्त्री. ११६-६. वळी जुओ बडहिल ११६-१३.
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षष्टिशतक प्रकरण
— बंदोर बंदीवान, केदी.' प्र. ब. व. पु. ११८-१४. [सं. तेम ज फा.मां 'बंदी' शब्द 'केदी 'ना अर्थमां छे. 'बंदोर' शब्द सं. बन्दी + कार > प्रा. बंदियार-मांथी उच्चारणभेदे थयो हशे? जू. गुज.मां अन्यत्र पण क्वचित् आ शब्द मळे छे, जेम के ' कान्हडदेप्रबन्ध' (सं. १५१२)मां-'एक लूस्या दीसइ बंदोर' ( खंड २, कडी ७.). जो के अहीं ए काव्यना संपादक श्री. डाह्याभाई देरासरीए ' बंदोर 'नो अर्थ · बंदर' एवो आप्यो छे ए बंधबेसतो नथी. जिनसागरसूरिना बालावबोधमां ' बंदी बंदोर बांदि झाल्या लोक' एवो अर्थ समजाव्यो छे, तेम ज सन्दर्भ उपरथी पण 'बंदोर 'नो 'केदी' ए अर्थ देखीतो छ.] . बांदि 'केदीपणामां.' स. ए. व. स्त्री. ११८-१४. [ सं. बन्दि ].
भट्ट 'भाट.' द्वि. ब. व. पु. ८३-१५-१८. [सं.] भणां 'कहुं.' वर्तमान पहेलो पु. ए. व. ४५-४, ६८-९. [ सं. / भण्]
'भणी' 'माटे, तरफ.' अनुग. १-८, ४-१७, १९-१-१५, २४-३-४, ४८-१६, ८३-३, ८५-११, ८७-१०-१४, ९७-१५, १०२-१७, १०७-२१, १०९-७, १४०-१२, १४१-२१-२२, १४९-१५, १५६-२१, १५७-२२. [ 'भण' क्रियापदनुं आ संबंधक कृदन्त छे. एनो अनुग तरीकेनो प्रयोग एक विशिष्ट अर्थविकासनुं उदाहरण छे. ' भणी' एटले ‘बोलीने' अर्थात् ' माटे, खातर.'] . भवाडिवर्ड · शोभा देखाडवी ते.' द्वि. ए. व. न. १२७-११. [आ प्रयोगर्नु अर्वाचीन गुज. रूपान्तर ‘भवाडवू' एवं थाय. पण अर्वाचीन काळमां एनो अर्थ नीचे ऊतर्यो छे; 'भवाडो' ( फजेतो) शब्द एजें. उदाहरण छे. * कान्हडदेप्रबन्ध 'मां भवाड' क्रियापद सारा अर्थमां छे–'चहूआणनूं गिरूउं राज, रूडूं अह्म भवाई आज' (खंड २, कडी १४८). सं. भू (भव् ) धातुमांथी एनी व्युत्पत्ति हशे. गुजराती लोकनाट्यना वाचक ‘भवाई' शब्दनो व्युत्पत्तिगत संबंध आ बधा प्रयोगो साथे होय ए असंभवित नथी. ]
मइगल° 'हाथी.' ष. ब. व. पु. १६४-१२. [सं. मदकल > प्रा. मयगल. सर० गुज. 'मेगळ.' ' मेगळ' विशेष नाम पण छे. 'ध्रुवाख्यान 'नो कर्ता मेगळ नामे एक गुजराती कवि विक्रमना १७मा सैकामां थई गयो छे. ]
महूंता ‘मंत्री, गुज. महेता.' अं. वि. ब. व. पुं. ५३-१. [सं. महत् , प्रा. महंत, अप. महंतउ. जूनी गुज.मां महंतउ, महतउ, महुतउ, महितउ, महितु आदि एनां स्वरूपान्तरो छे. सर० हिं. महता, मा. मुंता. चौलुक्ययुगीन गुजरातना
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शब्दकोश
शिलालेखो, ग्रन्थपुष्पिकाओ आदिमां व्यक्तिविशेषोनां नामो पूर्वे 'महं. ' पदवी मूकेली होय छे एने अप. ' महंतउ 'नो संक्षेप गणवी जोईए. ]
मानअं ' ( तुं ) माने छे.' वर्तमान बीजो पु. ए. व. १४९-५. [ सर ० उत्तर गुजरातनी अर्वाचीन बोलीमांनुं कोमल अनुस्वार सहित 'मान' एवं उच्चारण. ] जुओ सकअं.
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मुहिम ' व्यर्थ, निरर्थक. ' अ. ८२-१६. [सं. मुधा > प्रा. मुहा. देश्य प्राकृतमां ' मुघिका ' ( ' विना मूल्य ' ) शब्द छे, एमांथी अवान्तर रूप ' मुहिआ ' द्वारा आ वधारे सारी रीते व्युत्पन्न थई शके. ]
मूलगा ' मुख्य.' प्र. ब. व. पुं. ८१-१-५. [सं. मूलगतः > प्रा. मूलगओ. सर ० ' मूळगो' शब्दनां अर्वाचीन अर्थान्तरो. ]
रई द्वितीया, चतुर्थी अने षष्टीनो अनुग, जे घसाईने प्रत्ययनुं रूप पामे छे. ५२-२१, ८७-११. जुओ रहइं अने हुई.
रहइ द्वितीया, चतुर्थी अने षष्ठीनो अनुग, जे घसाइने प्रत्ययनुं रूप पामे छे. ४२-१०, ४४-२१, ६३-८, ६५-५, ६६-६, ८३-१८, १३३-१५, १३६-८. रहइं एवं अनुस्वार सहित रूप पण मळे छे: १६-८, २५-१०, २६-९, २८-९, ३२-१, ३३-१३, ४१-१७, ४५-१८, ४७-१४, ४९-५-१५, ५१-१७, ५५-१-१८, ६३-७, ६४-८, ६५-१-१३, ६६-९, ७६-१५, ८२-१६, ८४-४-८-९, ८५-१६, १३३-२०, १३५-१६, १३६-३, १४२-११, १५६-२३, १५७-६, १५९-२, इत्यादि. [सं. 'अपरस्मिन् > अप. अवरहिं. श्री. टी. एन. दवे एनी व्युत्पत्ति सं. गृहे > प्रा. घरम्मि > अप. घरहिं, 'हरहिं ए प्रमाणे आपे छे. जूनी गुजरातीमां ' हूई ' ए अनुग आ ‘ रहइ-रहईं 'नो संक्षेप छे. सत्तरमा सैकाथी आ तरफना जूना गुजराती साहित्यमां आ अनुगोनो प्रयोग भाग्ये ज नजरे पडशे. अर्वाचीन गुजरातीमां, 'अमारे, तमारे' जेवां सार्वनामिक रूपोना अंत्याक्षरोने गणतरीमां न लईए तो, आ अनुगोना अवशेष रह्या नथी, ज्यारे अर्वाचीन मारवाडीमां षष्ठीना 'रो' प्रत्ययरूपे ए चालु छे. आ ग्रन्थमां छापेला सोमसुन्दरसूरिकृत बालावबोधमां, पंदरमा शतक जेटला प्राचीन काळमां ' लोकरा' ( = लोकना ) एवं रूप मळे छे ए नों पात्र छे. ] जुओ 'रई अने हूइ.
<
रमत.' प्र. ए. व. स्त्री. ६३-१६ [सं. * रम्यति प्रा. रम्मति ]
रामति S लद्द रखडे. ' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. ११८०५, १२२-१. रुलई
"
वर्तमान त्रीज पु. ए. व. १३-१८, ३५-२१; ब. व. ३७-३, ८७-१४. वळी जुओ
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षष्टिशतक प्रकरण
रुलिसिहं १२१-३. रुलिस्यइ १२-१४. रुलिस्यई ९१ २. रुलिस्युं ९९-१४. रुलीस्यइ १०० ९. रुलुं ६३-९. [सं. लुटति > प्रा. रुलइ ] .
*
१९०
"
कुटकई टुकडो पंण. ' द्वि. ए. व. पुं. ४४-९ [सं. कृत्तक > प्रा. कुट्टक ] कटकउ पण छे. ४४-९.
हूइ द्वितीया, चतुर्थी अने षष्ठीनो अनुग, जे पाछळथी घसाईने प्रत्ययनुं रूप पामे छे. ५-१, ३०-१०, ३४-२०, ३५-१३, ४४-२१, १२६-८. हूई ४-१६, ५-३, ६-१०-१७, ८-१२, ९-१५, १० १०, ११-१३-१५-१६-१८, १२-७-११, १३-२१, १४-१४, १६-१०-१२, १७-३-८-१५-१७-२१, १८-३-४, १९-८-१०, २०-८-९, २५-१२-१७-१८, २६-६-७, २७-१०-१२-१३ २८-६-१८, २९-१६, ३०-१२, ३२-५, ३३-९-१०, ३९-१९, ४१-१८, ४५-४-५-११, ४६-२-७, ४७-२-१५, ४८-१-३, ५०-१३, ५३-४, ५५-६, ५६-३-६-१२, ५७१३, ५८-३-६, ५९-१७-२१, ६०-२० २१ २२, ६१-१२, ६४-१८, ६५-१६, ६६-१११२-१३, ६७-९-१७-१८, ६८-९-१०, ७१-४, ७२-१६, ७३-३, ७८-१६, ८०-६, ८१-२२, ८३-१७, ८५-२, ८६-२-३-१४, ८७-७-१६-१९, ८८-५-९-१३१५-१६, ८९-२०, ९१-८-१२, ९२-१३-१५, ९५-१६, ९७-१२-१३, ९८-२८-१७, ९९-१२, १०१-९-११-१२-१६-२०, १०२-१३-१८-१९, १०४-९-१२१३-१७, १०५-१-६-८, १०६-१७, १०७ २, १०८-१-२-१३, १०९-१७-१९, ११०-५-१९, १११-३-८, ११२-७, ११३-७-२०, ११४-१-२-६, ११७-४-११, ११८-५-७-११-१२-१७, १२१-१-७ १४-१९, १२३ १५, १२४-३-५-१९, १२५५-८-१८, १२०-१, १२८-९-१२, १३० - १८-२१, १३१-३-१९, १३२-१-४-११, १३५-१९-२०, १३६-१५, १३८-२०, १३९-१-३-८-९-१०-१२, १४२-१७, १४५-८-१३-१८-२०, १४६-७-१८, १४८-३-६-१०-११-१८, १५०-३, १५२-१०, १५६-१९, १५७-९, १५९-१६, इत्यादि. हिंहं १२४ - १२. जुओ 'रई अने रहइ.
लउडईं ' लाकडी वडे. ' तृ. ए. व. पुं. १२१-२२. लेउडानउ ' लाकडीनो. ष. ए. व. पुं. ११२-१०. [ सं . लकुट > प्रा. लउड ]
(
लगइ ं ' ने कारणे, त्यांथी मांडीने. ' पूर्वमर्यादासूचक अनुग. ३६-१, ६८२२, ६९-३, १४०-१, १४८- ६. सुधी' एवो उत्तरमर्यादासूचक अर्थ पण एमां केटलीक वार आवे छे: १४०- ७, १५५-८. आनुं ज रूपान्तर लगी आ ग्रन्थमां वारंवार मळे छे, पण एना बधा ज प्रयोगो पूर्वमर्यादासूचक छे: ११-२१, १२-१, १.३-८, १५-२१, २३-८, ३३-१, ३४-३-७, ३५-२०, ३९ २०, ५० - १०,
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शब्दकोश
१९१
५१-७, ६४-१८, ६९-१२, ९२-१, १३२-९, १५४-१४. [सं. * लग्नस्मिन् > अप. लग्गहिं. भाषाना जूना थरमां आ अनुगनो पूर्वमर्यादासूचक अर्थ व्यापक छे
–व्युत्पत्ति पण ए ज अर्थ सूचवे छे-पण जेम अर्वाचीन काळ तरफ आवीए तेम उत्तरमर्यादासूचक अर्थ वधारे प्रचलित थतो देखाय छे, ते एटले सुधी के त्रणेक सैकाथी भाषामां लगी 'नो अर्थ 'सुधी' एटलो ज समजाय छे. ]
लीब ‘लीवु.' प्र. ए. व. न. १०४-२१. [सं. निम्बु > प्रा. लिंबु] . . लोला ‘समज विनाना, अज्ञानी.' वि. द्वि. ब. व. पु. ४५-१-५, ६२-६, १०२-१८. [सं. लोल 'चपळ, अस्थिर.' आ शब्दमां थयेलो अर्थपलटो नोंधपात्र छे. 'षष्टिशतक 'ना बालावबोधकारोए 'मुग्धजन 'नो अर्थ 'लोला लोक' एवो आप्यो होई ए विशे कशो संदेह रहेतो नथी.]
लांषइ ‘नाखे छे.' वर्तमान बीजो पु. ए. व. १७-१९, १२५-५. लांखीइ 'नंखाय.' कर्मणि वर्तमान चीजो पु. ए. व. १२५-४. [सं. निक्षिपति > प्रा. निक्खिवइ > जू. गुज. नाखइ. डॉ. टर्नर एनी व्युत्पत्ति जुदी रीते आपे छे.* नक्षति > प्रा. नंखइ > जू. गुज. नांखइ. 'न'नो 'ल' थवाथी ' लांखवू.' 'न'नुं आ प्रकारे 'ल'मां परिवर्तन ए हालमां दक्षिण गुजरातनी बोलीनी लाक्षणिकता गणाय छे, पण उपर निर्देशेला प्रयोगो बतावे छे के एक काळे उत्तर गुजरात तथा मारवाडनी बोलीमां पण ए प्रचलित हती. ] ... वक्कत्तण 'वक्रता, वांकापणुं.' द्वि. ए. व. न. १६२-१३. [सं. वक्रत्वन > प्रा. वक्कत्तण. आ साथे सर० पुरुषातन, अहेवातण, शूरातन, वीरातन (जू. गुज.) आदि शब्दोनो अंत्य प्रत्यय.]
वर्णवां (९) वर्णवू.' वर्तमान पहेलो पु. ए. व. ९८-१४. - वीतरागइजिनुं वीतरागर्नु ज.' ष. ए. व. पुं. १४७-७. प्रत्यय अने नामनी वच्चे बे अव्ययो दाखल थई गया छे ए ध्यान खेंचे छे.
विरउ 'हलको, गुज. वरवो.' वि. प्र. ए. व. पु. १५७-११. विरुइ 'हलकी.' प्र. ए. व. स्त्री. १८-११, १९-३-१८; द्वि. ए. व. स्त्री. १८-२२. वळी जुओ विरुअइ १३३-१६. विरुअर्ड ४२-२-४. विरूआ १११-२०, ११३-७. विरूआं ३२-२०. विरूइ ८५-३. विरूई १२२-२. विरूड ४६-७, ६५-१३; १०६-१८. विरूड ४१-१३-१५, ८७-२, १०५-१, ११७-३, ११८-१७, १५३. १७. विरूऊ ४०-१०. विख्या ७८-४. [सं. विरूप > प्रा. विरूअ > अप: विरूउ]
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षष्टिशतक प्रकरण
विसम
'आलंबन. ' द्वि. ए. व. स्त्री. १४४-३.
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वेचइ
व्यय करे छे. ' वर्तमान त्रीजो पु. ए. व. १६-११, १५०-२१. वेचङ्कं १५०-२०, १५१-६. [ प्रा. वेच्च 'व्यय करवो.' जैनोमां धार्मिक परिभाषामां
आ शब्द आजे पण आ अर्थमां चालु छे. ]
१९२
सइ 'सो, गुज. से सें. ' द्वि. ब. व. न. ७-१५. सई प्र. ब. व. नं. ८५-२१. स. ब. व. ३३-१९. [सं. शत> प्रां. सय ]
सकक्षं ' ( तुं ) शके . ' वर्तमान बीजो पु. ए. द. ५-१०-१५. [ सर० उत्तर गुजरातनी बोलीमांनुं कोमल अनुस्वार सहितनुं 'सकेँ' एवं उच्चारण. ] जुओ मानअं.
सकयत्थो ' कृतार्थ. ' वि. प्र. ए. पुं. १६१ ६. [ सं . सकृतार्थ > प्रा. सकयत्थ. ]
सणीजा स्नेहीओ.' प्र. ब. व. पुं. १०३-१३. [सं. स्निह्यकः > प्रा. सिणिज्झओ. सर० गुज. 'सणेजो. ' ]
सयर 'शरीर' प्र. ए. व. न. ९८-५ सयरनां 'शरीरनां. ' ष. ब. व. न. ३७-२०. [सं. शरीर > जू. गुज. सइर असंयुक्त ' र 'नो आ प्रकारे लोप गुज. मां अन्यत्र पण थाय छेः परिमल > पीमळ, सरिज्जल सइजल > सैजळ, करीर > कर > कॅर, इत्यादि. ]
<
सलवारु ' ( अधर्मरुपी ) शल्य दूर करवुं ते.' द्वि. ए. व. पुं. १६५-५. [सं. शल्योद्धार. ]
संझ
सुं > प्रा. संधुणइ ]
(
संध्याए.' स. ए. व. स्त्री. १६३-१६. [सं. संध्या प्रा. संज्ञा ]
८
स्तुति करूं. ' वर्तमान पहेलो पु. ए. व. १६४ २. [सं. संस्तुनोति
संतानी ' वंशजे. ' तृ. ए. व. पुं. ९-२१. संतानीभई तृ. ए. व. पुं. ९-२२. [सं. संतानिक > प्रा. संताणिअ ]
साठिसउ
[ सं . षष्टिशत > प्रा. सहिसअ ]
6
'एकसो साठ ( गाथावाळो ग्रन्थ ) . ' द्वि. ए. व. पुं. २-२, ३-१४
•
सातिउं
संताड्युं. ' भूत त्रीजो पु. ए. व. ९३-२३. [सं. सिञ्च् उपरथी हृशे ? सांच्यं ( सांत्युं ) - संघर्यु, ए अर्थमां ? जूना साहित्यमा अन्यत्र पण आ
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शब्दकोश
१९३+३०=२२३
क्रियापदनो आ ज अर्थमा प्रयोग छे. जैम के फूढकृत 'पांडवविष्टि' (सं. १६७७)मां ____'जेद्रथ शांत्यो भोंएरे, कौरवे दी, तालु' ( पं. ४४८); सविता ढांक्यो चालणी, उट लेइ शांतु ओटि' (पं. ४५४ ).]
- साधम्मिय 'समान धर्मना अनुयायी. ' वि. द्वि. ब. व. पुं. ४-१२. साधर्म द्वि. ब. व. व. १४८-१३. जुओ साहम्मीनउ.
साहम्मीनउ 'समान धर्मना अनुयायीनो.' वि. ष. ए. व. पुं. १४८-१५. जुओ-साहम्मीमाहे ५३-६, साहम्मी पाहइ १४८-१८, साहम्मी पाहि १४८-३, इत्यादि. [ सं: साधर्मिन् > प्रा. साहम्मी. सर० अर्वाचीन गुज. 'साहमी ( सामी) भाई,' 'साहमीवच्छल' (साधर्मिकवात्सल्य ). आ जैन परिभाषानो शब्द छे.]
सिग्ध 'जलदी.' अ. १६३.८. [सं. शीघ्र > प्रा. सिग्घ ]
सिध्याइं 'स्वाध्याय. ' द्वि. ए. व. न. २-२४. [सं. स्वाध्याय. एमांथी प्रा. स्वाध्याय > गुज. सज्झाय शब्द आवेलो छे. ]
सुलंभ 'सुलभ.' वि. द्वि. ए. व. न. १५९.५. [ सं. सुलभ ]
सुहेतलडं 'सहेलं.' वि. द्वि. ए. व. न. ३९-३. [सं. / शुभ् > प्रा. सुह उपरथी ?]
सुहेलडं 'सहेर्नु, गुज. सोह्यलं ('दोह्यलु 'थी ऊलटुं).' वि. द्विः ए. व. न. [सं. / शुभ् > प्रा. सुह उपरथी ? ] जुओ सोहिलउ.
सेषल 'नागदेवता.' स. ए. व. पुं. ८३-१६. सेषलनी ष. ए. वः पुं. ८३-९. [सं. शेष + ल. जूनी गुजरातीमा 'ष'नो उच्चार घगुंखरूं 'ख' थाय छे ए ध्यानमा राखवा जेवू छे. ]
सोहिलउ 'सहेलो, गुज. सोह्यलो.' वि. प्र. ए. व. पुं. १४५-२. द्वि. ए. व. पुं. २०-९. सोहिलङ प्र. ए. व. न. २१-१०-१२, २२-९. [सं. शोम > प्रा.. सोह उपरथी ? ] जुओ सुहेलउं.
हलअकर्मउ 'जेनां अल्प कर्म अवशिष्ट रह्यां होय एवो, शीघ्र मुक्तिगामी, गुज. हळुकर्मी.' वि. प्र. ए. व. पुं. १२७-१५. [सं. लघु > प्रा. लहु, व्यत्ययथी हलु + कर्मा. आ पण जैन धार्मिक परिभाषानो शब्द छे. ] • हलपण 'हळवापj.' द्वि. ए. व. न. ५४.५. [सं. लघुत्वन > प्रा. लहुत्तण-प्पण > हलुप्पण]]
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