Book Title: Savay Pannatti
Author(s): Haribhadrasuri, Balchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
Catalog link: https://jainqq.org/explore/022026/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्रसूरि-विरचित वृत्तिसमन्वित सावयपन्नत्ती (श्रावकप्रज्ञप्ति) सम्पादन-अनुवाद पं. बालचन्द्र शास्त्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावयपन्नती (श्रावकप्रज्ञप्ति) आचार्य गृद्धपिच्छ या उमास्वामी के 'तत्त्वार्थसूत्र' का आधार लेकर आठवीं शताब्दी के आचार्य हरिभद्रसूरि ने ४०१ गाथाओं में प्राकृत भाषा में निबद्ध इस 'सावयपन्नती' ( श्रावकप्रज्ञप्ति) श्रावकाचार ग्रन्थ की रचना की । श्रावकाचार का अर्थ है- सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का साधु-सन्त के निकट शिष्ट जनों के योग्य आचरण (समाचारी) को सुनना । इस बात में कहीं कोई मतभेद नहीं है कि बिना सम्यग्दर्शन के कोई श्रावक नहीं हो सकता है। सम्यग्दर्शन श्रावकधर्म का मूल है। समाचारी सुनने से व्यक्ति को जिन अपूर्व गुणों की प्राप्ति होती है उनका उल्लेख भी ग्रन्थकार ने किया है। श्रावकधर्म बारह प्रकार का कहा गया है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ यह मानती हैं कि व्रतों के पालन करने पर ही सम्यग्दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति श्रावक कहलाता है। बारह व्रतों में पाँच अणुव्रत मुख्य हैं। वे हैं - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | श्रावकधर्म के अन्तर्गत मूल और उत्तर गुणों के विभाग में अन्तर है। आठ प्रकार के मूलगुण (५ अणुव्रतों का पालन या ५ उदुम्बरादि फलों का त्याग और मद्य, मांस, मधु का त्याग) में मद्य, मांस, मधु का सेवन नहीं करना जहाँ प्रधान है, वहीं अहिंसा - अणुव्रत की रक्षा के लिए कन्दमूल, वनस्पति आदि के सेवन का भी निषेध किया गया है । यह सब इसलिए कहा गया है क्योंकि श्रावक बनने पर अहिंसा धर्म का पालन जीवन में अनिवार्य हो जाता है। जैन धर्म में आचार-सम्बन्धी विभिन्न परम्पराओं के अध्ययन के लिए इस ग्रन्थ की विशेष उपयोगिता मानी गयी है। विवेचन-पद्धति एवं शैली में भी इसकी नवीनता द्रष्टव्य है । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOORTIDEVI GRANTHAMALA : Prakrit Grantha No18 HARIBHADRA SŪRI'S SĀVAYAPANNATİ [ ŚRĀVAKA-PRAJŇAPTI ] with Introduction, Hindi Translation and Index of the verses etc. Edited and Translated by PT. BAL CHANDRA SHASTRI CE BHARATIYA JNANPITH Second Edition : 1999 Price Rs. 90.00 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ ( स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७०, विक्रम सं. २०००, १८ फरवरी, १६४४) स्व० पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में स्व० साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित - एवं उनकी धर्मपत्नी स्व० श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध-विषयक जैन-साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं। ग्रन्थमाला सम्पादक (प्रथम संस्करण) सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ १८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली- ११०००३ मुद्रक : आर. के. ऑफसेट, दिल्ली- ११००३२ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MOORTIDEVI GRANTHAMALA : Prakrit Grantha No18 HARIBHADRA SŪRI'S SĀVAYAPANNATI [ ŚRĀVAKA-PRAJŇAPTI ] with Introduction, Hindi Translation and Index of the verses etc. Edited and Translated by PT. BAL CHANDRA SHASTRI OSPEDAL BHARATIYA JNANPITH Second Edition : 1999 O Price Rs. 90.00 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHARATIYA JNANPITH Founded on Phalguna Krishna 9, Vira N. Sam. 2470 Vikrama Sam. 2000. 18th Feb. 1944 MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA Founded by Late Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his late Mother Smt. Moortidevi and promoted by his benevolent wife late Smt. Rama Jain In this Granthamala Critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts available in Prakrit, Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc., are being published in the respective languages with their translations in modern languages. Also being published are catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies, art and architecture by competent scholars, and also popular Jain literature. General Editors (First Edition) Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri Dr. Jyoti Prasad Jain Published by Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003 Printed at : R. K. Offset, Delhi-110032 All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय (प्रथम संस्करण, १९८१ से) 'सावयपन्नत्ती' या 'श्रावकप्रज्ञप्ति' अपने नाम के अनुसार श्रावकाचार विषयक प्राचीन रचना है। यह प्राकत गाथाबद्ध है और उस पर संस्कृत टीका है। न तो मल ग्रन्थ में और न उसकी टीका में ग्रन्थकार का तथा टीकाकार का नाम दिया है। फिर भी कुछ उल्लेखों के आधार पर, जिनका निर्देश प्रस्तावना में किया गया है, श्रावकप्रज्ञप्ति को आचार्य उमास्वाति की कृति माना जाता है। यह उमास्वाति वही माने जाते हैं जिनकी कृति 'तत्त्वार्थसूत्र' पाठभेदों के साथ दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में वर्णित श्रावकाचार ही विस्तार से इस ग्रन्थ में वर्णित है फिर भी दोनों कृतियों का एककर्तृक होना सन्दिग्ध है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि श्रावकप्रज्ञप्ति का आधार तत्त्वार्थसूत्र का सातवाँ अध्याय होना चाहिए। सम्यग्दर्शन, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत तथा अन्त में समाधिमरण यह पूर्ण श्रावकाचार समस्त जैन-परम्परा को मान्य है। तत्त्वार्थसूत्र में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को गुणव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में विभाजित न करके सातों का निर्देश व्रतरूप में किया है। किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के रूप में उनका कथन किया है। तथा प्रथम दिग्व्रत के पश्चात् भोगोपभोगपरिमाणव्रत का कथन गुणव्रतों में और देशव्रत का कथन भोगोपभोगपरिमाण व्रत के स्थान में न कर शिक्षाव्रतों में किया है। यह दोनों में अन्तर है। स्व. पं. सुखलाल जी ने अपने तत्त्वार्थसूत्र के विवेचन के पाद-टिप्पण में लिखा है 'सामान्यतः भगवान् महावीर की समग्र परम्परा में अणुव्रतों की पाँच संख्या, उनके नाम तथा क्रम में कुछ भी अन्तर नहीं है। परन्तु उत्तरगुणरूप में माने हुए श्रावक के व्रतों के बारे में प्राचीन तथा नवीन अनेक परम्पराएँ हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ऐसी दो परम्पराएँ देखी जाती हैं-पहली तत्त्वार्थसूत्र की और दूसरी जैनागमादि अन्य ग्रन्थों की। पहली में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत को न गिनाकर देशविरमणव्रत को गिनाया है। दूसरी में दिग्विरमण के बाद उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत गिनाया है तथा देशविरमणव्रत सामायिक के बाद गिनाया है।' पण्डित जी के उक्त कथन के प्रकाश में यह स्पष्ट है कि श्रावकप्रज्ञप्ति की रचना श्वेताम्बर-मान्य आगमों के अनुसार की गयी है अतः उसके रचयिता तत्त्वार्थसूत्रकार से भिन्न होना चाहिए। दोनों कृतियों में भाषाभेद तो है ही। तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर-मान्य पाठ पर जो भाष्य है-जिसे सूत्रकारकृत माना जाता है उसके अन्त में कर्ता की विस्तृत प्रशस्ति पायी जाती है किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में कर्ता का नाम तक नहीं है। श्रावकप्रज्ञप्ति (गा. १०७) में स्थूल प्राणिवध के दो भेद किये हैं-संकल्प से और आरम्भ से। उनमें से प्रथम अणुव्रत का धारक श्रावक संकल्प से ही त्याग करता है, आरम्भ से नहीं। इस प्रकार का भेद तत्त्वार्थसत्र और उसकी टीकाओं में उपलब्ध नहीं होता। रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्रथम अणुव्रती को संकल्पी हिंसा का त्यागी अवश्य कहा है। अमितगति ने अपने श्रावकाचार में हिंसा के दो भेद किये Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः हैं-आरम्भी और अनारम्भी। तथा लिखा है, जो घरवास से निवृत्त है वह दोनों प्रकार की हिंसा का त्याग करता है। किन्तु जो गृहवासी है वह आरम्भी हिंसा नहीं छोड़ सकता। अतः श्रावकप्रज्ञप्ति उत्तरकाल की रचना होनी चाहिए। श्रावकप्रज्ञप्ति की कई चर्चाएँ पं. आशाधर के सागारधर्मामृत में मिलती हैं और ये चर्चाएँ हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र में भी हैं। योगशास्त्र पं. आशाधर के सामने था यह तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है, अतः आशाधर ने श्रावकप्रज्ञप्ति को भी देखा हो यह असम्भव नहीं है। श्रावकप्रज्ञप्ति की चर्चाएँ मननीय हैं। यह श्रावकाचार का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और इसमें ऐसी भी अनेक चर्चाएँ हैं जो दिगम्बर श्रावकाचारों में नहीं पायी जातीं। प्रस्तावना में पं. बालचन्द्र जी ने उनका कथन किया है। १. गाथा ७२ में जिनका संसार अर्धपुद्गलपरावर्त मात्र शेष रहा है उन्हें शुक्लपाक्षिक और शेष को कृष्णपाक्षिक कहा है। २. गाथा ७७ की टीका में तीर्थंकरों को भी स्त्रीलिंग से सिद्ध हुआ कहा है किन्तु प्रत्येकबुद्धों को पुल्लिंगी ही कहा है। अनुवाद में यह अंश छूट गया है। ३. कर्म और जीव में कौन बलवान् है इसका निरूपण करते हुए कहा है कत्थइ जीवो वलियो कत्थइ कम्माइ हुंति वलियाई। जम्हा णंता सिद्धा चिटुंति भवमि वि अणंता ॥ १०१॥ यदि कहीं जीव बलवान् है तो कहीं पर कर्म बलवान् है। क्योंकि अनन्त जीव सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं और अनन्त जीव संसार में वर्तमान हैं। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा के कथन से, जिसमें केवल कर्म की बलवत्ता बतलायी है, उक्त कथन अधिक संगत प्रतीत होता है। ४. अहिंसाणुव्रत के सम्बन्ध में शंका-समाधानपूर्वक जो विवेचन किया गया है वह महत्त्वपूर्ण है। उसी की कुछ झलक पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के अहिंसावर्णन में पायी जाती है। वह वर्णन गाथा १०७ से २५९ तक है। इसमें एक शंका यह की गयी है कि आत्मा तो नित्य है उसका विनाश होता नहीं, तब अहिंसाव्रत निरर्थक क्यों नहीं है? इसके उत्तर में कहा है तप्पज्जायविणासो दुक्खुप्पाओ अ संकिलेसो य। एस वहो जिण भणिओ तज्जेयव्वोपयत्तेण ॥ १९१॥ इसी गाथा की छाया सागारधर्मामृत के नीचे लिखे श्लोक में है दुःखमुत्पद्यते जन्तोर्मनः संक्लिश्यतेऽस्यते। तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नतः॥४.१३ ॥ जिसमें जीव को दुःख होता है, उसके मन में संक्लेश होता है और उसकी वह पर्याय नष्ट हो जाती है, उस हिंसा को प्रयत्न करके छोड़ना चाहिए। अहिंसा पालन के लिए पडिसुद्धजलग्गहणं दारुय घनाइयाण तह चेव। गहियाण वि परिभोगो विहीइ तसरक्खणवाए ॥ २५९॥ त्रस जीवों की रक्षा के लिए वस्त्र से छाना हुआ त्रसरहित शुद्ध जल ग्रहण करना चाहिए। उसी प्रकार ईंधन और धान्य आदि भी जन्तुरहित लेना चाहिए। तथा गृहीत जलादि का भी उपभोग विधिपूर्वक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय करना चाहिए। इसमें पाँचवें अणुव्रत का नाम इच्छापरिमाण दिया है। 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में भी यह नाम आता है। गुणव्रतों से लाभ बतलाते हुए रत्नकरण्ड में भी श्रावक को 'तत्तायोगोलकल्प' कहा 1 इसमें भी ' तत्तायणोलकप्पो' पद दिया है। ७ ५. उपभोगपरिभोगपरिमाण का कथन करते हुए इसमें उसके दो भेद किये है- भोजन और कर्म । तथा उन दोनों के अतिचार अलग-अलग कहे हैं। भोजन सम्बन्धी उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के तो वही अतिचार हैं जो तत्त्वार्थसूत्र में सचित्त आहार आदि कहे हैं और कर्मविषयक भोगोपभोगपरिमाण के अतिचार वे ही हैं जिनका कथन सागारधर्मामृत के पाँचवें अध्याय में खरकर्म के अतिचाररूप से करके उसका निराकरण किया है, अस्तु, ग्रन्थ बहुत उपयोगी है और पं. बालचन्द्र जी सिद्धहस्त अनुवादक हैं। स्वाध्यायप्रेमियों को इसका स्वाध्याय करना चाहिए। - कैलाशचन्द्र शास्त्री - ज्योतिप्रसाद जैन ग्रन्थमाला सम्पादक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १. प्रति-परिचय १. अ-यह प्रति श्री ला. द. भा. संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद की है। वह हमें श्री पं. दलसुख भाई मालवणिया की कृपा से प्राप्त हुई थी। उसकी लम्बाई-चौड़ाई १०=x४ इंच है। उसकी पत्र-संख्या ५१ है। अन्तिम श्वाँ पत्र नष्ट हो गया है, जिसके स्थान पर मुद्रित प्रति के आधार से लिखकर दूसरा पत्र जोड़ दिया गया दिखता है। इसके प्रत्येक पत्र में दोनों ओर १५-१५ पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४५-५५ अक्षर हैं। प्रत्येक पत्र के ठीक मध्य में कुछ स्थान रिक्त रखा गया है। प्रति देखने में सुन्दर दिखती है, पर है वह अत्यधिक अशुद्ध। इसके लेखक ने उ, ओ, तु और न ए, प और य; त्त और न्त, त और न; च्छ, त्य; च, द और व; भ और स; सु और स्त तथा द्द और द्ध इन अक्षरों की लिखावट में प्रायः भेद नहीं किया है। इ के स्थान में बहुधा ए लिखा गया है। आ (1) और ए () मात्रा के लिए बहुधा 'T' इसी मात्रा का उपयोग किया गया है। पूर्व समय में ए की मात्रा के लिए विवक्षित वर्ण के पीछे 'T' इसका उपयोग किया जाता रहा है। प्रस्तुत प्रति में यह पद्धति आ और ए के लिए अतिशय भ्रान्तिजनक रही है। जैसे- 'वाहा' इसे 'वहो' के साथ 'वाहा' भी पढ़ा जा सकता है। यदि इसे 'वाहा' ऐसा इस रूप में लिखा जाता तो प्रायः भ्रान्ति के लिए स्थान नहीं रहता। प्रति में बीच-बीच में स्वेच्छापूर्वक लाल स्याही से दण्ड (।) दिये गये हैं। बहुधा गाथा के अन्त में उसके पृथक्करण के लिए न कोई चिह्न दिया गया है और न संख्यांक भी दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त अधिकांश पत्रों में बीच-बीच में प्रायः १-२ पंक्तियाँ लिखने से रह गयी हैं। कहीं-कहीं पर तो कुछ आगे का और तत्पश्चात् उसके अनन्तर पीछे का पाठ अतिशय अव्यवस्था के साथ लिखा गया है। (उदाहरणार्थ देखिए गाथा ३२५ के पाठभेद)। प्रति का प्रारम्भ ॥६०॥ नमः सिद्धेभ्यः ॥' इस वाक्य के अनन्तर हुआ है। अन्तिम पत्र के नष्ट हो जाने से उसमें लेखनकाल और लेखक के नाम आदि का निर्देश रहा या नहीं, यह ज्ञात नहीं होता। २. प-यह प्रति भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना की है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई ११४४- इंच है। पत्र संख्या उसकी २४ (२४वाँ पत्र दूसरी ओर कोरा है) है। इसके पत्रों में पंक्तियों की संख्या अनियमित है-प्रायः २१-२८ पंक्तियाँ पायी जाती हैं। प्रत्येक पंक्ति में लगभग ६०-७० अक्षर पाये हैं। कागज पतला होने से स्याही कछ फट गयी है, इसलिए पढ़ने में भी कहीं-कहीं कठिनाई होती है। यह भी अशुद्ध है तथा पाठ भी जहाँ-तहाँ कुछ लिखने से रह गये हैं, फिर भी पूर्व प्रति की अपेक्षा यह कुछ कम अशुद्ध है और पाठ भी कम ही छूटे हैं। गाथाओं के अन्त में गाथांक प्रायः २४५ (पत्र १५) तक पाये जाते हैं, तत्पश्चात् वे उपलब्ध नहीं होते। जहाँ गाथांक नहीं दिये गये हैं वहाँ गाथा के अन्त में दो दण्ड (1) कहीं पर दिये गये हैं और कहीं वे नहीं भी दिये गये हैं। इस प्रति में एकार की मात्रा (') इसी रूप में दी गयी है, पर कहीं-कहीं उसके लिए अक्षर के पीछे दण्ड (1) का भी उपयोग किया गया है। 'ओ' को वहाँ 'उ' इस रूप में लिखा गया है, जबकि पूर्व प्रति में उ और ओ दोनों के लिए 'उ' ही लिखा गया है। प्रति का प्रारम्भ ॥ ८०॥ श्री गुरुभ्यो नमः' इस वाक्य के अनन्तर किया गया है। अन्तिम पुष्पिका Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस प्रकार है-"॥ इति दिक्प्रदा नाम श्रावकप्रज्ञप्तिटीका ॥ समाप्ता ॥ कृतिः सितपटाचार्य जिनभद्रपादसेवकस्याचार्य हरिभद्रस्येति ॥छ॥ ॥ संवत् १५८३ वर्षे लिखितमिदं पुनं वाच्यमानं मुनिवरैश्चिरं जीयात् ॥ ॥छ॥ श्री स्तात् ॥ ॥श्रीः॥ ॥" विशेष-हमें खेद है कि इस प्रति से पाठभेद ले लेने पर भी वे प्रस्तुत संस्करण में दिये नहीं जा सके। कारण यह है कि उनकी पाण्डुलिपि स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये के पास कोल्हापुर भेजी गयी थी, पर वह वहाँ से वापस नहीं मिल सकी। २. ग्रन्थ-परिचय जैसा कि मंगलगाथा के पूर्व उसकी उत्थानिका में टीकाकार के द्वारा सूचित किया गया है, प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम सावयपनत्ती (श्रावकप्रज्ञप्ति) है। यह गाथाबद्ध ग्रन्थ प्राकृत भाषा में रचा गया है। गाथाओं की समस्त संख्या ४०१ है। इनमें कुछ गाथाएँ प्राचीन ग्रन्थान्तरों से लेकर उसी रूप में यहाँ आत्मसात् की गयी भी दिखती हैं (जैसे-३५-३७, ६८, ११६-१८, २२३, २९९, ३२९ और ३९०-९१ आदि)। जैसा कि ग्रन्थ का नाम है, तदनुसार उसमें श्रावकधर्म के परिज्ञापनार्थ बारह प्रकार के श्रावकधर्म की प्ररूपणा की गयी है। मंगलस्वरूप प्रथम गाथा में ही ग्रन्थकार ने यह निर्देश कर दिया है कि मैं प्रकृत ग्रन्थ में गुरु के उपदेशानुसार बारह प्रकार के श्रावकधर्म को कहूँगा। इस बारह प्रकार के धर्म का मूल चूँकि सम्यक्त्व है और उसका सम्बन्ध कर्म से है, इसीलिए यहाँ सर्वप्रथम संक्षेप में कर्म का विवेचन करते हुए प्रसंगवश उस सम्यक्त्व और उसके विषयभूत जीवादि तत्त्वों की भी प्ररूपणा की गयी है। पश्चात् अणुव्रतादिस्वरूप उस श्रावकधर्म का यथाक्रम से निरूपण किया गया है। स्थूलप्राणिवधविरति के प्रसंग में वहाँ हिंसा-अहिंसा के विषय में अनेक शंका-समाधान के साथ विस्तार से विचार किया गया है (१०७-२५६)। सामायिक शिक्षापद के प्रसंग में एक शंका के समाधानस्वरूप शिक्षा, गाथा, उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्धक, वेदक, प्रतिपत्ति और अतिक्रम इन द्वारों के आश्रय से साधु और श्रावक के मध्यगत भेद को दिखलाया गया है (२६५-३११)। साथ ही आगे यहाँ श्रावक के निवास, दिनचर्या, यात्रा और संलेखना आदि के विषय में भी प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ इसके पूर्व संस्कृत टीका के साथ ज्ञानप्रसारक मण्डल बम्बई से संवत् १६६१ में प्रकाशित हो चुका है। उसका केवल संक्षिप्त गुजराती भाषान्तर भी ज्ञानप्रसारक मण्डल बम्बई से संवत् १६६७ में प्रकाशित हुआ है। ३. ग्रन्थकार ग्रन्थ में कहीं ग्रन्थकार से सम्बन्धित कुछ प्रशस्ति आदि नहीं है। इससे प्रस्तुत ग्रन्थ का कर्ता कौन है, यह निर्णय करना कुछ कठिन प्रतीत होता है। जैसा कि ज्ञानप्रसारक मण्डल द्वारा प्रकाशित प्रकृत ग्रन्थ के आमुख में निर्देश किया गया है, ग्रन्थ की कुछ हस्तलिखित प्रतियों के अन्त में 'उमास्वाति विरचिता सावयपनत्ती संमत्ता' यह वाक्य पाया जाता है। इसके अतिरिक्त पंचाशक के टीकाकार अभयदेव सूरि ने 'वाचकतिलकेन श्रीमतोमास्वातिवाचकेन श्रावकप्रज्ञप्तौ सम्यक्त्वादि श्रावकधर्मो विस्तरेणाभिहितः' इस वाक्य के द्वारा वाचक उमास्वातिविरचित श्रावकप्रज्ञप्ति की सूचना की है। इसी प्रकार धर्मबिन्दु के टीकाकार मुनिचन्द्र ने भी वहाँ यह कहा है-तथा च उमास्वातिवाचकविरचितश्रावकप्रज्ञप्तिसूत्रम् । १. देखिए. 'अनेकान्त' वर्ष १८, किरण-१ में पृ. १०-१४ पर 'श्रावकप्रज्ञप्ति का कर्ता कौन' शीर्षक लेख। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः यथा-अतिथिसंविभागो नाम अतिथयः साधवः, साध्व्यः श्रावकाः श्राविकाच, एतेषु गृहमुपागतेषु भक्त्याऽभ्युत्थानासनदान- पादप्रमार्जन-नमस्कारादिभिरर्चयित्वा यथाविभव-शक्ति-अन्न-पानवस्त्रौषधादिप्रदानेन संविभागः कार्य इति (ध. वि. टीका ३-१८, पृ. ३५)। इस सबसे वाचक उमास्वाति के द्वारा श्रावकप्रज्ञप्ति के रचे जाने का संकेत मिलता है। पर इससे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति ही वाचक उमास्वाति के द्वारा रची गयी है। सम्भव है उनके द्वारा संस्कृत में कोई श्रावकप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ रचा गया हो और वह वर्तमान में उपलब्ध न हो। अथवा तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के सातवें अध्याय में जो श्रावकधर्म की प्ररूपणा की गयी है उसे ही श्रावकप्रज्ञप्ति समझ लिया गया हो। प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति के उमास्वाति द्वारा रचे जाने में अनेक बाधक कारण हैं जो इस प्रकार हैं १. जैसा कि पाठक पीछे प्रतिपरिचय में देख चुके हैं, प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति की दो हस्तलिखित प्रतियाँ हमारे पास रही हैं-एक ला. द. भाई भारतीय विद्यासंस्कृति मन्दिर अहमदाबाद की और दूसरी, जिसका लेखनकाल संवत् १५६३ है, भाण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना की। इन दोनों ही प्रतियों के आदि-अन्त में कहीं भी मूल ग्रन्थकार के नाम का निर्देश नहीं किया गया है (पहली प्रति का अन्तिम पत्र नष्ट हो गया दिखता है)। २. धर्मबिन्दु की टीका में जिस श्रावकप्रज्ञप्ति के सूत्र को उद्धृत किया गया है वह प्राकृत गाथाबद्ध इस श्रावकप्रज्ञप्ति में नहीं है। इतना ही नहीं, उस सूत्र में जो साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका को अतिथि कहा गया है वह मूल श्रावकप्रज्ञप्ति में तो सम्भव ही नहीं है, साथ ही वह उसकी हरिभद्रसूरि विरचित टीका में भी नहीं है। उसकी टीका में हरिभद्र सूरि के द्वारा ग्रन्थान्तर से उद्धृत एक श्लोक के । अतिथि का लक्षण प्रकट किया गया है उसके अनुसार तो श्रावक और श्राविका को अतिथि ही नहीं कहा जा सकता। हाँ, तदनुसार उन्हें अभ्यागत कहा जा सकता है। इस प्रकार धर्मबिन्दु के टीकागत उक्त उल्लेख से प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति उमास्वाति के द्वारा रची गयी सिद्ध नहीं होती। ३. वाचक उमास्वाति प्रायः सूत्रकार ही रहे दिखते हैं और वह भी संस्कृत में, न कि प्राकृत में। प्राकृत में न उनका कोई अन्य ग्रन्थ उपलब्ध है और न कहीं अन्यत्र वैसा कोई संकेत भी मिलता है। ४. उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के ७वें अध्याय में जिस श्रावकाचार की प्ररूपणा की गयी है, उससे इस श्रावकप्रज्ञप्ति में अनेक मतभेद पाये जाते हैं जो एक ही ग्रन्थकार के द्वारा सम्भव नहीं हैं। इन मतभेदों को आगे तुलनात्मक विवेचन में 'श्रावकप्रज्ञप्ति और तत्त्वार्थाधिगम' शीर्षक के अन्तर्गत देखा जा सकता है। वहाँ उनकी विस्तार से चर्चा की गयी है। इस प्रकार का कोई मतभेद उमास्वाति विरचित प्रशमरतिप्रकरण में देखने में नहीं आता। उदाहरणार्थ तत्त्वार्थसूत्र में गुणव्रत और शिक्षापद का विभाजन किये बिना जिस प्रकार और जिस क्रम से दिग्वत आदि सात व्रतों का निर्देश किया गया है उसी प्रकार और उसी क्रम से उनका निर्देश प्रशमरति में भी किया गया है, जबकि प्रस्तत श्रावकप्रज्ञप्ति में उनका निर्देश गुणव्रत और शिक्षापद के रूप में भिन्न क्रम से किया गया है। यथा - १. स्थूलवधानृत-चौर्य-परस्त्रीरत्यरतिवर्जितः सततम् । दिग्व्रतमिह देशावकाशिकमनर्थदण्डविरतिं च ॥ सामायिकं च कृत्वा पौषधमुपभोगपारिमाण्यं च। न्यायागतं च कल्प्यं विधिना पात्रेषु विनियोज्यम् ॥-प्रशमरतिप्रकरण ३०३-४। २. गुणव्रत और शिक्षापद के विभाजन के लिए देखिए टीका में गा. २८० और २९२ की उत्थानिका तथा गाथा २८०, २८४, २८९, २८२, ३१८, ३१९, ३२१-३२२ और ३२५ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाई च हुंति तिन्नेव। सिक्खावयाई चउरो सावगधम्मो दुवालसहा ॥६॥ ५. गाथा ३३४ में 'ता कह निज्जुत्तीए' इस प्रकार से आचार्य भद्रबाहु द्वितीय (५-६ठी शती) विरचित नियुक्ति का उल्लेख किया गया है जो कि वाचक उमास्वाति के बाद की रचना है। ६. उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में, जहाँ कि श्रावकाचार की प्ररूपणा की गयी है, श्रावक प्रतिमाओं का कोई निर्देश नहीं किया, जब कि श्रावकप्रज्ञप्ति (३७६) में उनका विशेष करणीय के रूप में उल्लेख किया गया है। ७. उमास्वाति के समक्ष संलेखना के विषय में कुछ मतभेद रहा नहीं दिखता-वहाँ (७-१७) उसे श्रावक के द्वारा ही अनुष्ठेय सूचित किया गया है, जब कि श्रावकप्रज्ञप्ति (३८२-३८४) में तद्विषयक मतभेद देखा जाता है। इस मतभेदस्वरूप वहाँ उस संलेखना में साधु अधिकृत है यह भाव प्रकट किया गया है। ___इन बाधक कारणों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति वाचक उमास्वाति के द्वारा रची गयी है। इसके विपरीत कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वोपज्ञ टीका के साथ स्वयं हरिभद्र सूरि के द्वारा रची गयी है। वे कारण इस प्रकार हैं १-हरिभद्र सूरि की प्रायः यह पद्धति रही है कि वे अभीष्ट ग्रन्थ की रचना के पूर्व में यह अभिप्राय व्यक्त करते हैं कि मैं अमुक ग्रन्थ को गुरु के उपदेशानुसार रचता हूँ।' तदनुसार प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में (गाथा १) भी यही अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि मैं यहाँ बारह प्रकार के श्रावकधर्म को गुरु के उपदेशानसार कहँगा। इसके अतिरिक्त हिंसाजनक होने से जिनपूजा का निषेध करनेवालों के अभिमत, जो उन्होंने निराकरण किया है, वह गुरु के आश्रय से किया है। यथा आह गुरू पूयाए कायवहो होइ जइ वि जिणाणं। तह वि तई कायव्वा परिणामविसुद्धि हेऊओ ॥ ३४६ ॥ पूर्व गाथा ३४५ के साथ यह गाथा समन्तभद्र विरचित स्वयम्भूस्तोत्र के इस पद्य से कितनी प्रभावित है, यह भी ध्यान देने योग्य है। उससे इसका मिलान कीजिए पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ। दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥ ५८॥ हरिभद्र सूरि समन्तभद्र के बाद हुए हैं। वा. उमास्वाति के ऊपर समन्तभद्र का कुछ प्रभाव रहा हो, यह कहना शक्य नहीं दिखता। पर हरिभद्र सूरि के ऊपर उनका प्रभाव अवश्य रहा है-उनके शास्त्रवार्तासमुच्चय के ७वें स्तव में जो २ और ३ संख्या के अन्तर्गत दो कारिकाएँ हैं वे स्वामी समन्तभद्र की आप्तमीमांसा (५६-६० ) से वहाँ आत्मसात् की गयी हैं। १. सपरुवगास्ट्ठाए जिणवयणं गुरूवदेसतो णाउं। वोच्छामि समासेणं पयडत्थं धम्मसंगहणिं ॥-ध. सं. ३ णमिऊण महावीरं जिणपूजाए विहिं पवक्खामि। संखेवओ महत्थं गुरूवएसाणुसारेणं।।-पंचाशक १४५ पंचाशक में आगे २९५, ५९५ और ६४५ गाथाओं द्वारा भी यही भाव प्रकट किया गया है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः इसके अतिरिक्त प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति की गाथा १२२ का उत्तरार्ध भी आप्तमीमांसा की उक्त कारिका ६० से प्रभावित है। 2-कहीं वे प्रकारान्तर से यह भी कहते हैं कि अमुक विषय को मैं सूत्रनीति-श्रुत या परमागम के अनुसार कहूँगा। 3-कहीं वे अपनी प्रामाणिकता व निरभिमानता को व्यक्त करते हुए यह कहते हैं कि यदि यहाँ मेरे द्वारा अज्ञानता के वश कुछ आगमविरुद्ध व्याख्यान किया गया हो तो बहुश्रुत विद्वान् क्षमा करें। ये दोनों (२-३) विशेषताएँ भी प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति की अन्तिम (४०१) गाथा में प्रकट हैं। ४-प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति में ऐसी बीसों गाथाएँ हैं जो हरिभद्र सूरि द्वारा विरचित अन्य ग्रन्थों में प्रायः उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं। जैसे-धर्मसंग्रहणि, पंचाशकप्रकरण, समराइच्चकहा और श्रावकधर्मप्रकरण आदि। इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे उन-उन ग्रन्थों के साथ श्रावकप्रज्ञप्ति की तुलना करते हुए किया जानेवाला है, अतः जिज्ञासु जन वहीं पर उसे देख लें। ५-हरिभद्र सूरि विरचित पंचाशक प्रकरण की टीका में अभयदेव सूरि (१२वीं शती) ने 'पूज्यैरेवोक्तम्' ऐसा निर्देश करते हुए प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति की ‘संपत्तदसणाई' इत्यादि गाथा (२) को उद्धृत किया है। इससे यही प्रतीत होता है कि अभयदेव सूरि इसे हरिभद्रसूरि विरचित मानते रहे हैं। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि हरिभद्र सूरि के द्वारा रचे गये ग्रन्थों के अन्त में किसी न किसी रूप में 'विरह' शब्द का उपयोग किया गया है जो इस श्रावकप्रज्ञप्ति में नहीं देखा जाता है। इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि हरिभद्र सूरि के अधिकांश ग्रन्थों में उक्त 'विरह' शब् अवश्य पाया जाता है, फिर भी उनके 'योगविंशिका' आदि ऐसे भी ग्रन्थ हैं जहाँ उस 'विरह' शब्द का उपयोग हुआ भी नहीं है। इन कारणों से यही प्रतीत होता है कि प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति स्वयं हरिभद्र सूरि के द्वारा स्वोपज्ञ टीका के साथ रची गयी है। उसके ऊपर जो संस्कृत टीका की गयी है वह हरिभद्र सूरि के द्वारा की गयी है, यह निर्विवाद सिद्ध है। इसमें यदि कुछ शंकास्पद है तो वह यह है कि प्रकृत श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका में हरिभद्र सूरि ने ग्रन्थकर्ता के लिए कहीं-कहीं 'तत्र चादावेवाचार्यः' (गाथा १ की उत्थानिका) 'इत्ययमप्याचार्यो न हि न शिष्टः' (गाथा १ की टीका), 'अवयवार्थं तु महता प्रपञ्चेन ग्रन्थकार एव वक्ष्यति' (गाथा ६ की टीका), 'भावार्थं तु स्वयमेव वक्ष्यति' (गाथा ६५ की टीका) तथा 'एतत् सर्वमेव प्रतिद्वारं स्वयमेव वक्ष्यति ग्रन्थकारः' ( २९५ की टीका) जैसे प्रथम पुरुष के सूचक पदों का प्रयोग क्यों किया, जब कि वे स्वयं मूल ग्रन्थ के भी निर्माता थे। इनके स्थान में कहीं पर वे ऐसे शब्दों का भी उपयोग कर सकते थे कि जिससे ऐसा प्रतीत होता कि वे स्वयं अपने द्वारा निर्मित ग्रन्थ पर टीका कर रहे हैं। पर इसमें कोई विशेष विरोध १. खीरविगइपच्चक्खाणे दहियपरिभोगकिरियव्व ॥ २. पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। ___ अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ ३. देखिए पंचाशक गाथा १, ४४५, ६६५, ८४७ और ८९७ तथा षोडशक १६-१६। ४. यदिहोत्सूत्रमज्ञानाद् व्याख्यातं तद् बहुश्रुतैः। क्षन्तव्यं कस्य संमोहश्छद्मस्थस्य न जायते ॥-नन्दीसूत्रवृत्ति (समाप्ति १) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १३ नहीं दिखता, क्योंकि टीकाकार ग्रन्थकार के रूप में अन्य पुरुष के सूचक 'आह ग्रन्थकारः' अथवा 'वक्ष्यति' जैसे पदों का प्रयोग कर सकता है । ४. विषय - परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ अपने सावयपन्नत्ती (श्रावकप्रज्ञप्ति) इस नाम के अनुसार श्रावक के कर्तव्य कार्यों का विवेचन करनेवाला है। इसमें समस्त गाथा संख्या ४०१ है । यहाँ ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम मंगल के रूप में अर्हन्त परमेष्ठियों को नमस्कार करते हुए गुरु के उपदेशानुसार बारह प्रकार के श्रावकधर्म के प्ररूपण की प्रतिज्ञा की है तथा उस धर्म के अधिकारी श्रावक का निरुक्ति के अनुसार यह स्वरूप बतलाया है - संप्राप्तदर्शनादिर्यो यतिजनात् प्रतिदिवस सामाचारीं शृणोति तं श्रावकं ब्रुवते ।' अर्थात् जो सम्यग्दृष्टि जीव प्रतिदिन मुनिजन के पास सामाचारी को -शिष्ट जनों के आचार को - सुनता है वह श्रावक कहलाता है । 'संप्राप्तदर्शनादि' पद यह भाव प्रदर्शित किया गया है कि जिसने सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं किया है ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव श्रावक कहलाने का अधिकारी नहीं है (२) । उक्त सामाचारी के सुनने से जीव को जिन अपूर्व गुणों की प्राप्ति होती है उन गुणों का भी यहाँ निर्देश कर दिया गया है (३-५)। वह श्रावकधर्म बारह प्रकार का है - ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षापद (या शिक्षाव्रत ) । इस श्रावकधर्म का मूल कारण चूँकि क्षायोपशमिकादि तीन भेदरूप सम्यग्दर्शन है, अतः ग्रन्थकार ने प्रस्तुत श्रावकधर्म के निरूपण के पूर्व यहाँ उस सम्यग्दर्शन के निरूपण की आवश्यकता का अनुभव करते हुए प्रथमतः उससे सम्बद्ध जीव व कर्म के सम्बन्ध के निरूपण की प्रतिज्ञा की है (७-८) व तत्पश्चात् कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों का नामोल्लेख करते हुए उनकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गयी (६-३०) । ज्ञानावरणादि आठ कर्म-प्रकृतियों में मोहनीय कर्म प्रमुख है । उसकी उत्कृष्ट स्थिति - जीव के साथ सम्बद्ध रहने की कालमर्यादा -सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण निर्दिष्ट की गयी है। इस उत्कृष्ट कर्मस्थिति में से जब घर्षण - घूर्णन के निमित्त से - अनेक प्रकार के सुख-दुःख का अनुभवन करने से - एक कोड़ाकोड़ी मात्र स्थिति को छोड़कर शेष सब क्षय को प्राप्त हो जाती हैं तथा अवशिष्ट रही उस एक कोड़ाकोड़ी में भी जब पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र स्थिति और भी क्षय को प्राप्त हो तब इस बीच ग्रन्थि अभिपूर्व रहती है (३१-३२) । जिस प्रकार वृक्ष की ग्रन्थि (गाँठ ) अतिशय दुर्भेद्य होती है- कुल्हाड़ी आदि के द्वारा बहुत कष्ट के साथ काटी जाती है-उसी प्रकार कर्मोदयवश जीव का जो तीव्र राग-द्वेषस्वरूप परिणाम होता है वह भी उक्त ग्रन्थि के समान ही चूँकि अतिशय दुर्भेद्य होता है इसी कारण उसको 'ग्रन्थि ' इस नाम से निर्दिष्ट किया गया है । भव्य और अभव्य के भेद से जीव दो प्रकार के हैं । उनमें भव्य जीवों के यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीनों ही करण सम्भव हैं; पर अभव्य के एक यथाप्रवृत्तकरण ही होता है। अर्थ परिणाम है। जीव का जो परिणाम यथाप्रवृत्त है - अनादिकाल से कर्मक्षपण के लिए प्रवृत्त है - उसका नाम यथाप्रवृत्तकरण है। जिस प्रकार पर्वतीय नदी में पड़े हुए पाषाणखण्ड उपयोग से रहित होते हुए भी परस्पर के संघर्षण (रगड़) से अनेक प्रकार के आकार में परिणत हो जाते हैं उसी प्रकार इस यथाप्रवृत्तकरण के द्वारा जीव उक्त प्रकार की विचित्र कर्म स्थितिवाले हुआ करते हैं । प्रकृत करण के आश्रय से उत्कृष्ट कर्मस्थिति को क्षीण करते हुए जब वह एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम में भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग से Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ . श्रावकप्रज्ञप्तिः हीन हो जाती है इस बीच अभिन्नपूर्व ग्रन्थि होती है। दूसरा अपूर्वकरण परिणाम स्थितिघात व अनुभागघात आदि रूप अपूर्व कार्य को-जो पूर्व में कभी नहीं हुआ था-किया करता है। वह चूँकि अनादि काल से अब तक जीव को कभी पूर्व में नहीं प्राप्त हुआ था, इसीलिए इसे अपूर्वकरण कहा गया है। इस अपूर्वकरण परिणाम के द्वारा पूर्वोक्त कर्मग्रन्थि का भेदन होता है। जिसकी निवृत्ति सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने तक नहीं होती है उसका नाम अनिवृत्तिकरण है। यह तीसरा करण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अभिमुख हुए जीव के ही होता है। ये तीनों ही आत्मपरिणाम उत्तरोत्तर अधिकाधिक विशुद्धि को प्राप्त होते गये हैं। इनमें से अभव्य जीवों के केवल एक यथाप्रवृत्तकरण ही हुआ करता है, शेष दो करण उनके सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार अपूर्वकरण के द्वारा उस कर्मग्रन्थि के हो जाने पर प्राणी को मोक्ष के हेतुभूत उस सम्यग्दर्शन का लाभ होता है और तब वह उत्कृष्ट स्थितियुक्त कर्म को फिर कभी नहीं बाँधता है (३३)। यहाँ प्रसंगवश यह शंका उपस्थित की गयी है कि जब तक जीव के उस सम्यग्दर्शन का लाभ नहीं हो जाता है तब तक चूंकि उसके बहुतर बन्ध होनेवाला है, अतएव उसके उस ग्रन्थिस्थान तक कर्मस्थिति की हीनता आदि का जो निर्देश किया गया है वह सम्भव नहीं है। इस शंका का तथा इसके ऊपर से उद्भूत कुछ दूसरी शंकाओं का भी यहाँ अनेक दृष्टान्तों के आश्रय से समाधान किया गया है (३४-४२)। इस प्रकार प्रसंगप्राप्त कर्म के भेद, उनको उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के साधनों की प्ररूपणा करके आगे उस सम्यग्दर्शन के विविध भेदों और उसके अनुमापक उपशम-संवेगादिरूप कुछ बाह्य चिह्नों की भी प्ररूपणा की गयी है (४३-५९)। तत्पश्चात् इस सबका उपसंहार करते हुए तत्त्वार्थश्रद्धानरूप उस सम्यग्दर्शन के विषयभूत जीवाजीवादि तत्त्वार्थों व उनके भेद-प्रभेदों का विशदतापूर्वक विवेचन किया गया है (६०-८३)। प्रकृत सम्यग्दर्शन का परिपालन करते हुए जिन पाँच अतिचारों का परित्याग करना चाहिए वे ये हैं-१ शंका. २ कांक्षा. ३ विचिकित्सा. ४ परपाषण्डप्रशंसा और ५ परपाषण्डसंस्तव। यहाँ प्रसंगप्राप्त इन अतिचारों के स्वरूप, उनकी अतिचारता और उनसे आविर्भूत होनेवाले पारलौकिक व ऐहिक दोषों का भी दिग्दर्शन कराया गया है। ऐहिक दोषों का कथन करते हुए यहाँ क्रम से ये उदाहरण भी दिये गये हैं१. पेयापेय (दो श्रेष्ठिपुत्र), २. राजामात्य, ३. विद्यासाधक श्रावक व श्रावक-पुत्री, ४. चाणक्य और सौराष्ट्र श्रावक (८६-९३)। गाथा ८६ में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से यहाँ इनके अतिरिक्त अन्य अतिचारों की भी सम्भावना प्रकट की गयी है। यथा-साधर्मिकानुपबृंहण और साधर्मिक-अस्थितीकरण आदि (९४-९५)। सातिचार सम्यग्दर्शन चूँकि मुक्ति का साधक नहीं हो सकता है, अतएव प्रकृत अतिचारों के परित्याग की प्रेरणा करते हुए यहाँ उन अतिचारों की असम्भावनाविषयक शंका को उपस्थितर करके उसका सयुक्तिक समाधान किया गया है (९६-१०५)। इस प्रकार इस प्रासंगिक कथन को समाप्त करके प्रस्तुत बारह प्रकार के श्रावकधर्म के निरूपण का उपक्रम करते हुए यहाँ सर्वप्रथम स्थूलप्राणिवधविरमण आदि पाँच अणुव्रतों का निर्देश किया गया है व उनमें प्रथम स्थूलप्राणिघातविरमणरूप अणुव्रत का विवेचन करते हुए उस स्थूलप्राणिघात की सम्भावना संकल्प व आरम्भ के द्वारा दो प्रकार से बतलायी गयी है। गृहस्थ चूँकि आरम्भ में रत रहा करता है, अतएव वह उक्त स्थूलप्राणिवध का परित्याग केवल संकल्पपूर्वक कर सकता है। हाँ, यह अवश्य है कि आरम्भकार्य को भी वह इतनी सावधानी से करता है कि उसमें निरर्थक प्राणिवध नहीं होता। प्रकृत अणुव्रत को वह मोक्षाभिलाषी होकर गुरु के पादमूल में चातुर्मास आदि रूप कुछ नियत काल तक अथवा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जीवनपर्यन्त के लिए भी स्वीकार करता है (१०६-१०८)। प्रसंग पाकर यहाँ यह शंका की गयी है कि जब श्रावक के परिणाम स्वयं देशविरतरूप होते हैं तब गरु के समक्ष उस व्रत का ग्रहण करना निरर्थक एवं गरु व शिष्य दोनों के लिए दोषकारक है। इस शंका का युक्तिपूर्वक सुन्दर समाधान किया गया है (१०९-११३)। तत्पश्चात् दूसरी शंका यह उठायी गयी है कि जो गुरु मन, वचन और काय तीनों प्रकार से प्राणिघात का परित्यागी होकर पूर्णतया महाव्रती होता है वह यदि श्रावक को स्थूलप्राणातिपात का ही परित्याग कराता है तो इससे उसकी सूक्ष्मप्राणातिपात में अनुमति समझनी चाहिए और तब इस प्रकार से उसका अहिंसामहाव्रत कैसे सुरक्षित रह सकता है। इस शंका का समाधान यहाँ सूत्रकृतांग का अनुसरण करके एक सेठ के छह पुत्रों का दृष्टान्त देकर किया गया है (११४-११८)। इसी प्रकार की और भी अनेकों शंकाओं को उपस्थित करके उनका युक्ति और आगम के आश्रय से समाधान करते हुए प्रस्तुत स्थूलप्राणातिपातविरमण अणुव्रत का विशदतापूर्वक विस्तार के साथ विवेचन किया गया है (११९-२५६)। तत्पश्चात् उसका निर्दोष परिपालन कराने के उद्देश्य से उसके पाँच अतिचारों का निर्देश करके उनके परित्याग के साथ त्रसरक्षण के लिए अन्यान्य प्रयत्न करने की ओर भी सावधान किया गया है (२५७-२५९)। इस प्रकार प्रथम अणुव्रत का विस्तार से निरूपण करके तत्पश्चात् यथाक्रम से स्थूलमृषावादविरति, स्थूलअदत्तादानविरति, परदारपरित्याग व स्वदारसन्तोष और सचित्ताचित्त वस्तुविषयक इच्छापरिमाण इन शेष चार अणुव्रतों का (२६०-२७९); दिग्व्रत, उपभोग-परिभोगपरिमाण और अनर्थदण्डविरति रूप तीन गुणव्रतों का (२८०-२९१); तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधव्रत और अन्नादिदान (अतिथिसंविभाग) इन चार शिक्षापदों का (२९२-३२७) अतिचारों के उल्लेखपूर्वक वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में संस्कत टीकाकार ने कहीं पर्वोक्ताचार्यविधि. कहीं वृद्धसम्प्रदाय और कहीं सामाचारी आदि का निर्देश करके आगमिक परम्परा के अनुसार यथास्थान इन व्रतों व उनके अतिचारों का प्रायः विस्तार के साथ स्पष्टीकरण किया है। सामायिक के प्रकरण में यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि सामायिक को स्वीकार करनेवाला गृहस्थ जब कुछ समय के लिए समस्त सावध योग का परित्याग कर देता है तब उसे साधु ही समझना चाहिए। इसके उत्तर में उस समय उसके इसकी असम्भावना प्रकट करके साधु और श्रावक के मध्य में दो प्रकार की शिक्षा, 'सामाइयंमि उ कए' इत्यादि गाथा, उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, वेदना, प्रतिपत्ति और अतिक्रम; इन द्वारों के द्वारा भेद बतलाया गया है (२९३-३११)। इस बारह प्रकार के श्रावकधर्म में पाँच अणुव्रतों व तीन गुणव्रतों को यावत्कथिक-एक बार स्वीकार करके जीवनपर्यन्त परिपालनीय और चार शिक्षापदों को इत्वर-अल्पकालिक-निर्दिष्ट किया गया है (३२८)। गृहस्थ जो प्रत्याख्यान करता है उसके मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना इनके पारस्परिक संयोग से समस्त भंग १४७ होते हैं। यहाँ यह आशंका उठायी गयी है कि गृहस्थ चूँकि देशव्रती है अतः उसके जब अनुमति का निषेध सम्भव नहीं है तब प्रकृत प्रत्याख्यान के वे १४७ भंग कैसे हो सकते हैं। इस शंका का भगवतीसूत्र के अनुसार समाधान करने पर जो प्रत्याख्यान नियुक्ति के आश्रय से दूसरी शंका उपस्थित हुई उसका तथा इसी प्रकार की अन्य शंकाओं का भी समुचित समाधान किया गया है (३२९-३३८)। ___ श्रावक को ऐसे स्थान पर रहना चाहिए जहाँ पर साधुओं का आगमन होता रहता हो, चैत्यालय हों और अन्य साधर्मिक बन्धुजन भी रहते हों (३३९-३४२)। वहाँ रहते हुए उसे विधिपूर्वक ही रहना चाहिए। यथा-प्रातःकाल में उठने के साथ नमस्कार मन्त्र का उच्चारण करते हुए शय्या को छोड़ना, व्रतादि का Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रावकप्रज्ञप्तिः अनुस्मरण करना व उसमें उपयुक्त होना, चैत्यवन्दना व गुरु आदि की वन्दना करते हुए विधिपूर्वक प्रत्याख्यान को ग्रहण करना, तत्पश्चात् चैत्यालय में जाकर जिनपूजादि करना व ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान को साधु के समक्ष ग्रहण करना आदि। प्रसंगवश यहाँ पूजा के विषय में उठनेवाली शंकाओं का समाधान करके उसे अवश्य करणीय सिद्ध किया गया है ( ३४३-३५०) । तत्पश्चात् यहाँ गुरु की साक्षी में प्रत्याख्यान के ग्रहण में क्या लाभ है, इसे प्रकट करते हुए श्रावक की दैनिक चर्या का तथा सोते से उठकर क्या विचार करना चाहिए, इसका वर्णन किया गया है ( ३५१-३६४) । अन्त में साधु व श्रावक की विहारविषयक सामाचारी (३६४-३७६), अन्य अनुपालन करने योग्य प्रतिमा आदि (३७६), मारणान्तिकी सल्लेखना की आराधना ( ३७७-३८५) और जिनोपदिष्ट क्षान्ति आदि गुणों की भावना; इत्यादि विशेष करणीय क्रियाओं का विवेचन (३८६ -४००) करके अन्त में ग्रन्थकार ने यह भी निर्देश कर दिया है कि मैंने सूत्र, सूत्रकार एवं आचार्यपरम्परा से प्राप्त तत्त्व का उद्धार मात्र किया है। यदि इसमें कदाचित् कुछ विरुद्ध हुआ हो तो परमागम के ज्ञाता क्षमा करें (४०१ ) । ५. दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदायों में श्रावकाचार विषयक समानता जैसा कि पाठक पीछे विषयपरिचय व तुलनात्मक विवेचन में देख चुके हैं श्रावकाचार के विषय में दि. और श्वे. सम्प्रदायों में कोई विशेष मतभेद नहीं रहा, तद्विषयक समानता ही उनमें अधिक दिखती है । यथा १. श्रावकधर्म का अनुष्ठान सम्यक्त्व के ऊपर निर्भर है, इसे दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से स्वीकार किया गया है। उस सम्यक्त्व विषयक विवेचन भी प्रायः दोनों सम्प्रदायों में समान रूप में उपलब्ध होता है । २. पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रतों के स्वरूप आदि का विवेचन उक्त दोनों सम्प्रदायों में समान रूप में किया गया है । गुणव्रत और शिक्षाव्रत के विषय में जो कुछ मतभेद रहा है वह उन दोनों सम्प्रदायों में से प्रत्येक में भी पाया जाता है। जैसे- दि. तत्त्वार्थसूत्र (७-२१) में जहाँ गुणव्रत और शिक्षाव्रत का भेद न करके सामान्य से दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागव्रत इनका उल्लेख शीलव्रतों (७-२४) के रूप में किया गया है, वहाँ रत्नकरण्डक में दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण इन तीन को गुणव्रत (६७) तथा देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्त्य ( अतिथिसंविभागव्रत ) इन चार को शिक्षाव्रत (९१) कहा गया है | चारित्रप्राभृत में शिक्षाव्रतों के मध्य में देशावकाशिकव्रत को ग्रहण न करके उसके स्थान में सल्लेखना को ग्रहण कर उन चार को शिक्षाव्रत कहा गया है (२६) । इस प्रकार चारित्रप्राभृत में सल्लेखना को बारह व्रतों के ही अन्तर्गत कर लिया गया है। यह रत्नकरण्डक की अपेक्षा यहाँ इतनी विशेषता है। दि. सम्प्रदाय के अनुसार श्वे. सम्प्रदायसम्मत तत्त्वार्थसूत्र (७-१६ व १९) में भी उक्त दिव्रतादि सात व्रतों का उल्लेख शीलव्रतों के रूप से ही किया गया है, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का विभाग नहीं किया गया। उवासगदसाओ में (१-१२, पृ. ६ व १-५८, पृ. १२-१३ ) गुणव्रत का निर्देश न करके उक्त दिग्ग्रतादि सात का उल्लेख 'शिक्षापद' के नाम से किया गया है । परन्तु प्रस्तुत श्रा. प्र. (गा. ६ तथा गा. २८० व २९२ की उत्थानिका) आदि में दिव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अनर्थदण्डव्रत इन तीन को गुणव्रत तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग इन चार को शिक्षाव्रत कहा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १७ गया है। उक्त सातों व्रतों का क्रमविन्यास उवासगदसाओ और श्रा. प्र. आदि में समान व तत्त्वार्थसत्र से कुछ भिन्न है। इस प्रकार देशावकाशिक या देशव्रत के विषय में उक्त दोनों सम्प्रदायों में तथा प्रत्येक में भी मतभेद रहा है। ___३. किसी-किसी व्रत के अतिचारों के विषय में जैसे एक ही सम्प्रदाय में कुछ मतभेद उपलब्ध होता है वैसे ही वह उभय सम्प्रदायों के मध्य में भी देखा जाता है। यथा-दि. सम्प्रदाय में उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के पाँच अतिचारों के विषय में त. सूत्र (७-३५) और रत्नकरण्डक (९०) के मध्य में जैसा मतभेद रहा है वैसा ही मतभेद श्वे. सम्प्रदाय में भी उक्त उपभोगपरिभोगपरिमाण के अतिचारों के विषय में त. सूत्र (७-३०) और उवा. द. (१-५१) एवं श्रा. प्र. (२८७-२८८) के अनुसार भी कुछ अन्य प्रकार का रहा है। पौषधोपवास-विषयक अतिचारों के विषय में भी त. सू. (७-२९) और उवा. द. (५५) तथा श्रा. प्र. (३२३-३२४) के अनुसार कुछ मतभेद देखा जाता है। विशेषता-१. श्रावकधर्म के अन्तर्गत मूल और उत्तर गुणों का विभाग जैसा दि. सम्प्रदाय में देखा जाता है वैसा वह श्वे. सम्प्रदाय में दृष्टिगोचर नहीं होता। उदाहरणार्थ दि. सम्प्रदाय के रत्नकरण्डक (६६) में पाँच अणुव्रतों के साथ मद्य, मांस और मधु के त्याग को आठ मूल गुण कहा गया है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (६१) में मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलों के त्याग को आठ मूल गुण बतलाकर अहिंसाणुव्रत के संरक्षणार्थ प्रयत्नपूर्वक इनके परिपालन की प्रेरणा की गयी है। आगे वहाँ (६२-७४) उक्त मद्यादि आठों के दोषों को कुछ विस्तार से दिखलाते हुए उनका परित्याग कर देने पर प्राणी जिनधर्मदेशना के पात्र होते हैं, ऐसा भी स्पष्ट निर्देश किया गया है। सा. ध. (२-३) में प्रथम पाक्षिक श्रावक के लिए ही जिनवाणी के श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) पूर्वक उक्त. पु. सि. में निर्दिष्ट उन मद्यादि आठ के परित्याग को अहिंसाव्रत की सिद्धि के लिए आवश्यक बतलाया गया है। वहाँ (२-३ व २-१८) इन मूल गुणों के विषय में जो कुछ थोड़ा मतभेद रहा है उसका भी उल्लेख कर दिया गया है। उपासकाध्ययन (३१४) और सा. ध. (४-४) में पाँच अणुव्रतों', तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों इन बारह व्रतों को श्रावक के उत्तरगुण कहा गया है। ये चूंकि मूल गुणों के अनन्तर सेवनीय हैं तथा उनसे उत्कृष्ट भी हैं, इसीलिए उन्हें उक्त श्लोक की स्वो. टीका में उत्तर गुण कहा गया है। त. भाष्य में दिग्व्रतादि सात को जो उत्तरव्रत कहा गया है, सम्भव है उससे भाष्यकार को अहिंसादि पाँच अणुव्रत मूलव्रत के रूप में अभीष्ट रहे हों। २. पद्मनन्दिपंचविंशति (६-७, ४०३) आदि कुछ दि. ग्रन्थों में देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह को प्रतिदिन अनुष्ठेय गृहस्थ के छह आवश्यक कर्म कहा गया है। श्वे. ग्रन्थों में कहीं ऐसे दैनिक आवश्यक कर्मों का उल्लेख किया गया या नहीं यह मुझे देखने में नहीं आया। ३. श्रावकधर्म के अन्तर्गत ग्यारह प्रतिमाओं के पालन का उल्लेख उक्त दोनों ही सम्प्रदायों में किया गया है। सर्वप्रथम देशविरत रूप में इन प्रतिमाओं के परिपालन का उल्लेख चारित्रप्राभृत (२२) में दृष्टिगोचर होता है। इसके पश्चात्कालीन रत्नकरण्डक (१३६-१४७) में श्रावकपद भेदों के रूप में उन ग्यारह प्रतिमाओं का निर्देश करते हुए पृथक्-पृथक् उनके स्वरूप को भी प्रकट किया गया है। बाद के तो १. सा. ध. की इस स्वो. टीका में मतान्तर से रात्रिभोजन व्रत का भी उल्लेख अणुव्रत के रूप में किया गया है। यथा-अस्य पञ्चधात्वं बहुमतत्वादिष्यते। क्वचित्तु रात्र्यभोजनमप्यणुव्रतमुच्यते। सा. ध. स्वो. टीका ४-४। २. एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरव्रतैः सम्पन्नोऽगारी व्रती भवति। त. भाष्य ७-१६ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ . श्रावकप्रज्ञप्तिः कितने ही दि. ग्रन्थों में-जैसे कार्तिकेयानुप्रेक्षा, उपासकाध्ययन, चारित्रसार, अमितगतिश्रावकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचार और सागारधर्मामृत आदि में-उनका विवरण उपलब्ध होता है। श्वेता. सम्प्रदाय में इनका निर्देश संक्षेप में प्रस्तुत श्रा. प्र. में किया गया है (३७६)। वहाँ टीका में 'दसण-वय' इत्यादि रूप से उनसे सम्बद्ध एक गाथा के प्रारम्भिक अंश को उद्धृत किया गया है। यह गाथा चारित्राप्राभृत में इस प्रकार उपलब्ध होती है दसणवयसामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य। बंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ट देसविरदो य ॥ २२ ॥ श्रा.प्र. के टीकागत निर्देश के अनुसार वह गाथा इसी रूप में हरिभद्र के सामने रही है या कुछ भिन्न रूप में, यह कहा नहीं जा सकता। सम्भव है प्रत्याख्याननियुक्ति में वह गाथा हो और वहाँ से हरिभद सूरि ने उसके उतने अंश को उद्धृत किया हो, अथवा उक्त चारित्रप्राभृत से ही उन्होंने उसे उद्धृत किया हो। ६. श्रा. प्र. से सम्बद्ध पूर्वोत्तरकालवर्ती साहित्य हम अब यहाँ यह विचार करना चाहेंगे कि प्रस्तुत श्रा. प्र. पर अपने पूर्ववर्ती किन-किन ग्रन्थों का प्रभाव रहा है तथा उसका भी प्रभाव पश्चाद्वर्ती किन ग्रन्थों पर रहा है। इसके लिए यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से कुछ विचार किया जाता है। (१) श्रावकप्रज्ञप्ति और प्रवचनसार प्रवचनसार आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शती प्रायः) विरचित आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसके तीसरे चारित्राधिकार में निम्न गाथा उपलब्ध होती है जं अण्णाणी कम्म खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं। तंणाणी तिहिं गुत्तो खवेइ उस्सासमेत्तेण ॥ ३-३८ ॥ यह गाथा श्रा. प्र. (१५६) में इस प्रकार है जं नेरइओ कम्मं खवेइ बहुआहि वासकोडीहिं। . तन्नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेण ॥ दोनों गाथाओं का उत्तरार्ध सर्वथा समान है। पर्वार्ध में प्र. सार में जहाँ 'अण्णाणी' है वहाँ श्रा. प्र. में उसके स्थान में 'णेरइओ' है जो प्रसंग के अनुसार परिवर्तित हो सकता है। श्रा. प्र. में वहाँ प्रसंग नारक जीवों का है, अतः 'अण्णाणी' के स्थान में 'णेरइओ' पद उपयुक्त है। हरिभद्र सूरि ने ध्यानशतक की अपनी टीका में इस गाथा को उद्धृत किया है। वहाँ 'अन्नाणी' के स्थान में श्रा. प्र. 'बहुआहि वासकोडीहिं' ही पाठ है, 'नेरइओ' पाठ वहाँ नहीं है (दखिए ध्या. श. गा. ४५ की टीका)। भवसयसहस्सकोडीहिं' है। दोनों ही पाठ काल की अधिकता के सूचक हैं। हो सकता है प्रकृत गाथा अन्यत्र कहीं नियुक्तियों आदि के भी अन्तर्गत हो। (२) श्रावकप्रज्ञप्ति और मूलाचार मूलाचार आचार्य वट्टकेर (१-२ शती) विरचित, मुनि के लिए आचारविषयक, महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। बारह अधिकारों में विभक्त इसके सातवें आवश्यक अधिकार में सामायिक आवश्यक के प्रसंग में निम्न गाथा प्राप्त होती है Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सामाइयम्मि दु कदे समणो इर सावओ हवदि जम्हा। एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ ७-३४ ॥ यह गाथा प्रकृत श्रा. प्र. (२९९) में भी उपलब्ध होती है। विशेष इतना है कि मूलाचार में जहाँ 'इर' है वहाँ श्रा. प्र. में उसके स्थान में 'इव' है। श्रा. प्र. में प्रसंग सामायिक शिक्षापद का है। वहाँ एक शंका के समाधान में दो प्रकार की शिक्षा गाथा, उपपात आदि १० द्वारों के (२९५) आश्रय से साधु और श्रावक के बीच भेद प्रकट किया गया है। उक्त गाथा 'गाथा' नामक दूसरे द्वार के प्रसंग में प्राप्त होती है। इससे इतना तो निश्चित है कि वह मूल ग्रन्थ की गाथा न होकर ग्रन्थान्तर से वहाँ प्रस्तुत की गयी है। प्रकृत गाथा आवश्यकनियुक्ति (५८४) और विशेषावश्यकभाष्य (३१७३) में भी उपलब्ध होती है। जिस शंका (२९३) के समाधान में साधु और श्रावक के मध्य में भेद दिखलाया गया है वह शंका यही थी कि श्रावक जब नियमित काल के लिए समस्त सावधयोग का परित्याग कर चुकता है तब वह साधु ही है। मूलाचार में जो 'इर (किल) पाठ है वह शका के अनुरूप दिखता है। (३) श्रावकप्रज्ञप्ति और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र वाचक उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ग्रन्थ से संक्षिप्त होकर भी अर्थ से विशाल एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। वह दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में लब्धप्रतिष्ठ है। उसमें मोक्ष के मार्गभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का विवेचन करते हुए प्रसंगप्राप्त जीवादि सात तत्त्वों एवं नय-प्रमाणादि विविध विषयों की प्ररूपणा की गयी है। उसके सातवें अध्याय में आस्रव तत्त्व का विचार करते हुए व्रतों की प्ररूपणा में सामान्य से व्रत के अणुव्रत और महाव्रत ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। वहाँ कहा गया है कि जो माया, मिथ्या व निदान इन तीन शल्यों से रहित हो वह व्रती होता है। वह अगारी-गृह में निरत श्रावक, और अनगारी-गृह से निवृत्त श्रमण-के भेद से दो प्रकार का सम्भव है। इनमें जिसके वे व्रत अणुरूप में (देशतः) सम्भव होते हैं वह अगारी -उपासक या श्रावक कहलाता है। वह उन अणुव्रतों के साथ दिग्वतादि सात शीलों या उत्तरखतों से सम्पन्न होता है। उक्त बारह व्रतों का परिपालन करते हुए वह मारणान्तिकी सल्लेखना का भी आराधक होता है। इस प्रकार यहाँ श्रावक के बारह व्रतों के पश्चात् अन्त में अनुष्ठेय सल्लेखना का भी उल्लेख करके आगे सम्यग्दृष्टि और तत्पश्चात् यथाक्रम से उन बारह व्रतों के साथ सल्लेखना के भी अतिचारों का निर्देश किया है। तत्त्वार्थसूत्र से श्रावकप्रज्ञप्ति की विशेषता प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति में इन व्रतों की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। वहाँ अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य से सर्वथा समानता रखते हैं, पर वहाँ कुछ ऐसे भी प्रसंग हैं जो उक्त से अपनी अलग विशेषता रखते हैं। यथा १. सूत्र ७-२। २. सूत्र ७-१३। ३. सूत्र ७-१४। ४. सूत्र ७-१५। ५. सूत्र ७-१६ । ६. सूत्र ७-१७। ७. सूत्र ७-१८ । १. तत्त्वार्थसूत्र ७, १९-३२। २. जैसे-अतिथिसंविभागो नाम न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां (च) द्रव्याणां देशकाल-श्रद्धा- सत्कार-क्रमोपेतं परयाऽऽत्मानुग्रहबुद्धया संयतेभ्यो दानमिति। (तत्त्वार्थभाष्य ७-१६) नायागयाण अन्नाइयाण तह चेव कप्पणिज्जाणं। देसद्धसद्ध-सक्कार-कमजुयं परमभत्तीए।। (श्रावकप्रज्ञप्ति ३२५) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः १. तत्त्वार्थसूत्र में गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का विभाग न करके सामान्य से शीलव्रतों के रूप में उन दिग्वतादि सात व्रतों का उल्लेख किया गया है तथा भाष्य में उनका निर्देश उत्तरव्रतों के रूप में किया गया है। परन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में उक्त गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का विभाग स्पष्ट रूप में किया गया है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा श्रावकप्रज्ञप्ति में उनका क्रमव्यत्यय भी देखा जाता है। २. सम्यक्त्व के दूसरे अतिचारस्वरूप कांक्षा का लक्षण तत्त्वार्थभाष्य में इस प्रकार कहा गया है-ऐहलौकिक-पारलौकिकेषु विषयेष्वाशंसा कांक्षा। तत्त्वार्थभाष्य ७-१८ । परन्त श्रावकप्रज्ञप्ति में उसका स्वरूप कछ भिन्न रूप में इस प्रकार कहा गया है-कंखा अन्नन्नदंसगणग्गाहो । (गाथा ८७) ३. तत्त्वार्थसूत्र (७-२१) में सत्याणुव्रत के अतिचारों में जहाँ न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद को ग्रहण किया गया है वहाँ श्रावकप्रज्ञप्ति (२६३) में उनके स्थान में सहसा-अभ्याख्यान और स्वदारमन्त्रभेद इन दो अतिचारों को ग्रहण किया गया है। ४. तत्त्वार्थसूत्र (७-२७) में जहाँ अनर्थदण्डव्रत के अतिचारों में 'असमीक्ष्याधिकरण' को ग्रहण किया गया है वहाँ श्रावकप्रज्ञप्ति (२९१) में उसके स्थान में 'संयुक्ताधिकरण' को ग्रहण किया गया है। ५. तत्त्वार्थसूत्र (७-२९) में पौषधोपवासव्रत के अतिचार इस प्रकार कहे गये हैं-अप्रत्यवेक्षित और अप्रमार्जित उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित आदान-निक्षेप, अप्रत्यवेक्षित-अप्रमार्जित संस्तारोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान। परन्तु श्राः प्र. (३२३-३२४) में ये अतिचार कुछ भिन्न रूप में इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं-अप्रतिलेखित-दुःखप्रतिलेखित शय्या-संस्तारक, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्या-संस्तारक, अप्रतिलेखितदुःप्रतिलेखित उच्चारादिभू, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित उच्चारादिभू और सम्यक् अननुपालन। ६. त. सूत्र व उसके भाष्य (७-१६) में पौषधोपवास के उन आहारपौषधादि चार भेदों का उल्लेख नहीं किया गया जिनका निर्देश श्रा. प्र. (३२१) में पौषधोपवास के लक्षण के रूप में ही किया गया है। ७. इसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के अतिचार भी कुछ भिन्न रूप में पाये जाते हैं। जैसे सचित्त, सचित्तसम्बद्ध, सचितसंमिश्र, अभिषव और दुष्पक्व आहार। (त. सू. ७-३०) सचित्ताहार, सचित्तप्रतिबद्धाहार, अपक्व, दुष्पक्व और तुच्छौषधिभक्षण। (श्रा. प्र. २८६) १. व्रत-शोलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम्। तत्त्वार्थसूत्र ७-१६ । २. एभिश्च दिग्वतादिभिरुत्तरव्रतैः सम्पन्नोऽगारी व्रती भवति। (तत्त्वार्थभाष्य ७-१६) ३. श्रावकप्रज्ञप्ति ६। ४. तत्त्वार्थभाष्य (७-१६)-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, पौषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण, अतिथिसंविभागव्रत। श्रावकप्रज्ञप्ति-दिग्वत (२८०), उपभोगपरिभोगपरिमाण (२८४), अनर्थदण्डविरति (२८६), सामायिक (२९२), देशावकाशिक (३१८-१९), पौषधोपवास (३२१), अतिथिसंविभाग (३२५-३२६)। ५. श्रावकप्रज्ञप्ति के अन्तर्गत यह गाथा भाष्यगाथा के रूप में निशीथचूर्णि (१-२४) में उसी रूप में उपलब्ध होती है। तत्त्वार्थसूत्र के वृत्तिकार सिद्धसेन गणि ने उक्त कांक्षा के लक्षण में दर्शन को भी ग्रहण कर लिया है। यथा-प्रकर्षाप्रकर्षवृत्तित्वात् अन्यान्यदर्शने सति ग्राहोऽभिलाषस्तद्विषयः, आशंसा प्रीतिरभिलाषः काक्षेत्यनान्तरम्, दर्शनेषु वा। तथा चागमे-कंखा अण्णण्णदंसणग्गाहो। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ ८. त. सू. (७-३२) में सल्लेखना के अतिचार जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये पाँच कहे गये हैं । परन्तु श्रा. प्र. (३८५) में वे इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं- इहलोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग, जीविताशंसाप्रयोग, मरणाशंसाप्रयोग और भोगाशंसाप्रयोग । ९. त. सूत्र और उसके भाष्य में श्रावक की दर्शन व व्रत आदि प्रतिमाओं का कहीं कुछ निर्देश नहीं किया गया जब कि श्रा. प्र. (३७६) में उनका उल्लेख भी विशेष करणीय के रूप में किया गया है। १०. त. सूत्र में बारह व्रतों और सल्लेखना के पश्चात् दान व उसकी विशेषता का भी अलग से निर्देश किया गया है (७, ३३-३४) । पर उसका विधान श्रा. प्र. में कहीं नहीं किया गया । (४) श्रावकप्रज्ञप्ति और आचारांग अंगसाहित्य का निर्माता गौतम गणधर अथवा सुधर्मा स्वामी को माना जाता है। वर्तमान में जो आचारांग आदिरूप अंग साहित्य उपलब्ध है वह अपने यथार्थ स्वरूप में उपलब्ध नहीं है । उसे साधुसमुदाय की स्मृति के आधार पर वी. नि. सं. ९८० के आसपास वलभी में तीसरी वाचना के समय आचार्य देवर्द्धि गणि (५वीं शती) के तत्त्वावधान में पुस्तक रूप में ग्रथित किया गया है। आचारांग यह १२ अंगों में प्रथम है । प्रकृत श्री. प्र. (६१) जो 'जं मोणं तं सम्मं' आदि गाथा अवस्थित है वह आचारांग के सूत्र १५६ (पृ. १९२) से प्रभावित है । इसकी टीका में हरिभद्र सूरि ने 'उक्तं चाचारांगे' ऐसा निर्देश करते हुए 'जं मोणं ति पासहा' आदि उक्त सूत्र को अपनी टीका में उद्धृत भी कर दिया है। विशेष इतना है कि आचारांग में जो उसका पूर्वार्द्ध है वह यहाँ उत्तरार्द्ध के रूप में और जो वहाँ उत्तरार्द्ध है वह यहाँ पूर्वार्द्ध के रूप में उपलब्ध होता है। प्रस्तावना (५) श्रावकप्रज्ञप्ति और सूत्रकृतांग सूत्रकृतांग बारह अंगों में दूसरा अंग है । वह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अन्तर्गत नालन्दीय नामक अन्तिम अध्ययन में इन्द्रभूति गणधर के द्वारा पार्श्वपत्यीय पेढालपुत्र उदक निर्गन्थ के प्रश्नानुसार गृहस्थधर्म की प्ररूपणा की गयी है । प्रकृत में श्रा. प्र. की गाथा ११५ में अहिंसाणुव्रत के प्रसंग में एक शंका का समाधान करते हुए किसी गृहपति के पुत्र चोरों के ग्रहण और मोचन का उदाहरण दिया गया है। इस गाथा की टीका में हरिभद्र सूरि ने उससे सम्बद्ध कथानक को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि यह केवल अपनी बुद्धि से की गयी कल्पना नहीं है । सूत्रांग में भी यह कहा गया है-गाहावइसुयचोरग्गहण - विमोक्खणयायेत्ति । ऐसी सूचना करते हुए उन्होंने आगे 'एतत्संग्राहकं चेदं गाथात्रयम्' ऐसा निर्देश करके उक्त कथानक से सम्बद्ध उन तीन (११६-११८) गाथाओं का भी उल्लेख कर दिया है। इन गाथाओं में उक्त कथानक की संक्षिप्त सूचना मात्र करते हुए दृष्टान्त की संगति दात से बैठायी गयी है। इस प्रकार श्रावकप्रज्ञप्ति के अन्तर्गत वह शंका-समाधान पूर्णतया सूत्रांग (२, ७, ७५, पृ. २६७-२६८) से प्रभावित है। आगे श्रा. प्र. (११९-१२३) में वादी के द्वारा नागरकवध का दृष्टान्त देते हुए सामान्य से की जाने वाली त्रसप्राणघातविरति को अनिष्ट बतलाकर यह कहा गया है कि इसीलिए सामान्य से त्रसप्राणघातविरति को न कराकर विशेष रूप में त्रसभूतप्राणघातविरति को करना चाहिए । इस शंका का समाधान करते हुए आगे (१२३ - १३२ ) वादी के द्वारा उपन्यस्त 'भूत' शब्द के अर्थ-विषयक उपमा और तादर्थ्यरूप दो विकल्पों को उठाकर उन दोनों ही विकल्पों में 'भूत' शब्द के Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रावकप्रज्ञप्तिः उपादान को निरर्थक सिद्ध किया गया है। यह सब कथन भी उक्त सूत्रांग से प्रभावित है। विशेष इतना है कि सूत्रकृतांग के टीकाकार शीलांकाचार्य ने प्रसंगप्राप्त उस सूत्र (२, ७, ७५) की व्याख्या में प्रकृतकथा को स्पष्ट करते हुए प्रथमतः यह कहा है कि किसी गृहपति के छह पुत्र थे। उन्होंने उस प्रकार के कर्म के उदय से पिता व पितामह के क्रम से चली आयी प्रचुर सम्पत्ति के होते हुए भी राजवंश के भाण्डागार में जाकर चोरी की। भवितव्यता के वश वे राजपुरुषों द्वारा पकड़ लिये गये। उक्त टीकाकार आगे प्रकृत कथानक के विषय में मतान्तर को प्रकट करते हुए कहते हैं कि अन्य आचार्य प्रकृत कथानक का व्याख्यान इस रूप में करते हैं-रत्नपुर नगर में रत्नशेखर नाम का राजा था। उसने सन्तुष्ट होकर रत्नमाला पटरानी आदि समस्त अन्तःपुर को कौमुदी उत्सव मनाने के लिए इधर-उधर जाने-आने की अनुमति दे दी। - इसी प्रसंग में श्रा. प्र. की उक्त गाथा (११५) की टीका में जो कथा दी गयी है उसमें निर्दिष्ट नाम आदि उससे कुछ भिन्न हैं। वहाँ कहा गया है-वसन्तपुर नगर में जितशत्रु राजा व उसकी धारिणी नाम की पत्नी थी। किसी प्रकार से रानी के ऊपर सन्तुष्ट होने पर राजा ने उससे कहा कि बोलो तुम्हारा क्या भला करूँ। इस पर रानी ने कहा कि रात में इच्छानुसार घूम-फिरकर कौमुदी महोत्सव मनाने की प्रसत्रता प्रकट कीजिए। राजा ने उसे स्वीकार कर नगर में यह घोषणा करा दी कि आज रात में नगर के भीतर जो भी पुरुष रहेगा उसे मेरे द्वारा भयानक शारीरिक दण्ड दिया जायेगा। आगे की कथा का प्रसंग प्रायः समान है। इस प्रकार प्रकत कथा के विषय में तीन मत दष्टिगोचर होते हैं। इनमें प्रथम मत सत्रकतांगगत उक्त सूत्र के साथ संगति को प्राप्त है। कारण यह कि सूत्र में उल्लिखित चोरपद की सार्थकता इसी मत से घटित होती है। (६) श्रावकप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र) १२ अंगों में पाँचवाँ है। श्रा. प्र. (३३३) में गृहस्थधर्म सम्बन्धी १४७ प्रत्याख्यानभेदों के प्रसंग में शंका के रूप में कहा गया है कि कितने ही जैन मतानुसारी यह कहते हैं कि गृहस्थ के कृत-कारितादि रूप तीन प्रकार के सावध का प्रत्याख्यान तीन प्रकार से सम्भव नहीं है। इस मत का निराकरण करते हुए वहाँ कहा गया है कि तीन प्रकार से तीन प्रकार के सावध का वह प्रत्याख्यान गृहस्थ के भी सम्भव है, क्योंकि प्रज्ञप्ति-व्याख्याप्रज्ञप्ति में उसका विशेष रूप में निर्देश किया गया है। इस प्रकार यहाँ 'प्रज्ञप्ति' के नाम से ग्रन्थकार ने व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवतीसूत्र की ओर संकेत किया है। टीका में 'प्रज्ञप्ति' से 'भगवती' को ग्रहण किया गया है तथा वहाँ 'तिविहं पि' इत्यादि रूप से उस सूत्र की ओर संकेत भी किया गया दिखता है। ग्रन्थ समक्ष न होने से हम उस सूत्र को नहीं खोज सके। (७) श्रावकप्रज्ञप्ति और उवासगदसाओ उवासगदसाओ १२ अंगों में सातवाँ अंग है। वह १० अध्ययनों में विभक्त है, जिनमें क्रम से आनन्द आदि १० उपासकों का जीवनवृत्त वर्णित है। उसके प्रथम अध्ययन में जिस आनन्द उपासक का जीवनवृत्त है वह श्रमण भगवान् महावीर की धर्मसभा में पहुँचा। वहाँ उसने विनयपूर्वक भगवान् की वन्दना की और उनसे धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् उसने अपने मुण्डित होने-निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने की Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २३ असमर्थता प्रकट करते हुए उनसे उपासक धर्म के ग्रहण करने की प्रार्थना की। तदनुसार भगवान् की अनुमति पाकर उसने उनके समक्ष बारह प्रकार के उपासक धर्म में से प्राणातिपातादिरूप प्रत्येक व्रत का नामनिर्देश करते हुए किस व्रत का वह देशरूप में कहाँ तक पालन करेगा, इसका विशदतापूर्वक स्पष्टीकरण किया व तदनुसार प्रतिज्ञा की। इच्छापरिमाण नामक पाँचवें अणुव्रत में तो उसने पृथक्-पृथक् सोना-चाँदी, गाय-भैंस आदि, दासी-दास आदि, वस्त्राभूषण और भोजन के विविध प्रकारों में प्रत्येक का प्रमाण किया। इस प्रकार प्रस्तुत उवासगदसाओ में श्रावक के व्रतों का स्वरूप जिस प्रकार से निर्दिष्ट किया गया है ठीक उसी प्रकार से वह श्रावकप्रज्ञप्ति में भी उपलब्ध होता है। उवासगदसाओ में श्रमण महावीर ने आनन्द श्रावक को लक्ष्य करके सर्वप्रथम उसे श्रमणोपासक के रूप में निरतिचार सम्यक्त्व के पालन करने का उपदेश देते हुए उसके पाँच अतिचारों का उल्लेख किया है। प्रस्तुत श्रा. प्र. में भी सर्वप्रथम (गा. २) श्रावक के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसे सम्यक्त्व से सम्पन्न होना अनिवार्य बतलाया है। आगे (८६) वहाँ सम्यक्त्व के जिन पाँच अतिचारों का निर्देश किया गया है वे उवासगदसाओ में निर्दिष्ट (१-४४) उन अतिचारों से सर्वथा समान हैं। यहाँ (८७-९९) उनका विस्तार से विशदीकरण भी किया गया है। बारह व्रतों का स्वरूप व उनके अतिचार भी दोनों ग्रन्थों में प्रायः समान रूप में उपलब्ध होते हैं। यथा विषय उवा. श्रा. प्र. १-४५ १-४६ १-४७ १०६-१०७ २५७-२५९ २६० २६३ २६५ २६८ २७०-२७१ २७३ २७५-२७६ २७८ २८० १-१६ व ४८ १-४८ १. स्थूलप्राणातिपातविरति उसके अतिचार २. स्थूलमृषावादविरति अतिचार ३. स्थूलअदत्तादानविरति अतिचार ४. स्वदारसन्तोष अतिचार ५. इच्छापरिमाण अतिचार ६. दिग्व्रत अतिचार ७. उपभोगपरिभोगपरिमाण अतिचार ८. अनर्थदण्डव्रत अतिचार ९. सामायिक अतिचार १०. देशावकाशिक १-४९ १-५० २८३ २८४ १-५१ २८६-२८८ २८९-२९० २९१ २९२ ३१२ ३१८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रावकप्रज्ञप्तिः १-५५ अतिचार ११. पौषधोपवास अतिचार १२. अतिथिसंविभाग अतिचार १३. संलेखना अतिचार १-५६ ३२० ३२१-३२२ ३२३-३२४ ३२५-३२६ ३२७ ३७८-३८४ ३८५ श्रावकप्रज्ञप्ति की विशेषता यह प्रायः सुनिश्चित है कि किसी संक्षिप्त प्राचीन ग्रन्थ के पश्चात् उसके आधार से जो अन्य ग्रन्थ रचा जाता है देशकाल की परिस्थिति एवं ग्रन्थकार की मनोवृति के अनुसार उससे उसमें कुछ विशेषता रहा ही करती है। प्रकृत में उवासगदसाओ यह एक अंगश्रुत के अन्तर्गत ग्रन्थ है, भले ही उसे पुस्तकारूढ़ पीछे किया गया हो; फिर भी उसके विषयविवेचन की पद्धति में प्राचीनता देखी जाती है। वह प्रस्तुत श्रा. प्र. की रचना का आधार हो सकता है। उससे श्रा. प्र. में जो कुछ विशेषताएँ दिखती हैं वे इस प्रकार हैं १. प्राणातिपातविरतिरूप प्रथम अणुव्रत के प्रसंग में प्रकृत श्रा. प्र. में अनेक शंका-समाधानों के साथ हिंसा-अहिंसाविषयक महत्त्वपूर्ण विचार भी किया गया है। (१०७-२५९)। २. चतुर्थ अणुव्रत के प्रसंग में जहाँ उवासगदसाओ में स्वदारसन्तोष का ही विधान किया गया है वहाँ श्रा. प्र. में पापस्वरूप होने से परदारगमन का भी परित्याग कराया गया है (२७०-२७१)। यहाँ इस व्रत के दो रूप हो गये दिखते हैं-एक परदारपरित्याग और दूसरा स्वदारसन्तोष। टीकाकार के अभिप्रायानुसार परदारपरित्यागी वेश्या का परित्याग नहीं करता तथा स्वदारसन्तोषी वेश्यागमन नहीं करता। ३. उवासगदसाओ में इच्छापरिमाणव्रत के अतिचारों का निर्देश इस प्रकार किया गया हैक्षेत्र-वास्तु-प्रमाणातिक्रम, हिरण्य-सुवर्णप्रमाणातिक्रम, द्विपद-चतुष्पदप्रमाणातिक्रम, धन-धान्यप्रमाणातिक्रम और कुप्य-प्रमाणातिक्रम। पर श्रा. प्र. में वास्तु, सुवर्ण, चतुष्पद और धान्य इनका निर्देश न करके उनके स्थान में 'आदि' शब्द का उपयोग किया गया है। यथा-श्रेत्रादिप्रमाणातिक्रम, हिरण्यादिप्रमाणातिक्रम, धनादिप्रमाणातिक्रम और द्विपदादिप्रमाणातिक्रम। इससे ग्रन्थकार को सम्भवतः वास्तु, सुवर्ण, धान्य और चतुष्पद के अतिरिक्त तत्सम अन्य वस्तुएँ भी अभीष्ट रही हैं। ४. उवासगदसाओ में जहाँ दिग्वत आदि सात उत्तखतों का उल्लेख केवल 'शिक्षापद' के नाम से किया गया है (सूत्र १२ व ५८) वहाँ श्रा. प्र. में दिग्वत, उपभोग-परिभोगपरिमाण और अनर्थदण्डविरमण इन तीन का उल्लेख गुणव्रत के नाम से तथा शेष सामायिक आदि चार का उल्लेख शिक्षापद के नाम से किया गया है (देखिए गा. ६, २८०, २८४, २८९, २९२, ३१८, ३२१, ३२६ और ३२८)। ५. उ. द. में सामायिक शिक्षापद का स्वरूप संक्षेप में प्रकट किया गया है, परन्तु प्रकृत श्रा. प्र. में उसका विवेचन बहुत कुछ विस्तार से किया गया है। यहाँ सर्वप्रथम सावद्ययोग के परिवर्जन और असावद्ययोग के आसेवन को सामायिक का स्वरूप प्रकट करते हुए यह आशंका व्यक्त की गयी है कि सामायिक में अधिष्ठित गृहस्थ जब परिमित समय के लिए समस्त सावधयोग को पूर्णतया छोड़ देता है तब वस्तुतः उसे साधु ही मानना चाहिए। इस आशंका के उत्तर से उसे साधु न मानते हुए यहाँ शिक्षा, गाथा, उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्धक, वेदक, प्रतिपत्ति और अतिक्रम इन द्वारों के आश्रय से गृहस्थ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना की साधु से भिन्नता प्रकट की गयी है (२९२-३११) । आगे यहाँ सामायिक के अतिचारस्वरूप मनोदुष्प्रणिधान आदि को भी पृथक्-पृथक् स्पष्ट किया गया है (३१२-३१७) । ६. उ. द. में जिन अपध्यानादि चार अनर्थदण्डों का परित्याग इच्छापरिमाणव्रत (४३) के प्रसंग में कराया गया है उनका परित्याग श्री. प्र. (२८९) में अनर्थदण्डविरति के अन्तर्गत कराया गया । यह विधान इच्छापरिमाण की अपेक्षा अनर्थदण्डविरति से अधिक संगत प्रतीत होता है । ७. श्रा. प्र. में पौषध के प्रसंग जिन आहारपौषधादि चार भेदों का उल्लेख किया गया है ( ३२१-३२२) उनका निर्देश उ. द. (५५) में नहीं किया गया । ८. उ. द. (५६) में चतुर्थ शिक्षापद का उल्लेख अथासंविभाग के नाम से किया गया है जब कि श्रा. प्र. (३२५-३२६) में उसके नाम का कहीं कोई निर्देश नहीं किया गया, यहाँ उसका उल्लेख अन्तिम शिक्षापद के रूप में किया गया है। टीका में अवश्य उसका निर्देश अतिथिसंविभाग के नाम से किया गया है ( गा. 6 की उत्थानिका व गा. ३२६ ) । २५ ९. श्री. प्र. में पूर्वोक्त 12 व्रतों के पश्चात् श्रावक के निवास, दिनचर्या, चैत्यवन्दन, प्रत्याख्यानग्रहण, चैत्यपूजा और विहारविषयक सामाचारी का निरूपण करते हुए अन्य अभिग्रह और प्रतिमा आदि को भी अनुष्ठेय कहा गया है। (८) श्रावकप्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना श्यामार्य वाचक विरचित इस प्रज्ञापना (पन्नवणा) सूत्र को चौथा उपांग माना जाता है। वह प्रज्ञापना आदि ३६ पदों में विभक्त है । श्रा. प्र. की ५२ वीं गाथा में यह कहा गया है कि 'समय' में सम्यक्त्व के अन्य जिन दस भेदों का निरूपण किया गया है वे प्रकृत क्षायोपशमिकादि भेदों से भिन्न नहीं हैं - उनके ही अन्तर्गत हैं। 'समय' शब्द से यहाँ सम्भवतः प्रकृत प्रज्ञापनासूत्र का अभिप्राय रहा है। वहाँ ११५-१३० गाथसूत्रों में सम्यक्त्व के उन इस भेदों का निरूपण किया गया है।' श्रा. प्र. की इस गाथा की टीका में हरिभद्रसूरि ने 'यथोक्तं प्रज्ञापनायाम्' ऐसा निर्देश करते हुए उन दस भेदों के सूचक प्रज्ञापनागत 'निसग्गुवएसरुई' आदि गाथासूत्र को उद्धृत भी कर दिया है। (९) श्रावकप्रज्ञप्ति और उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन- यह मूलसूत्रों में प्रथम माना जाता है । ३६ अध्ययनों में विभक्त यह किसी एक की रचना नहीं है। महावीर निर्वाण से लेकर हजार वर्षों के भीतर विभिन्न स्थविरों के द्वारा उसके उन अध्ययनों का संकलन किया गया दिखता है। इसके २८वें अध्ययन में भी सम्यक्त्व के उन दस भेदों की प्ररूपणा की गयी है ( २८, १६-३१) जो शब्दशः उपर्युक्त प्रज्ञापना के ही समान है । (१०) श्रावकप्रज्ञप्ति और जीवसमास जीवसमास - यह एक प्राचीन ग्रन्थ है । किसके द्वारा रचा गया है, यह ज्ञात नहीं होता। इसमें सत्संख्यादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से जीवसमासों की प्ररूपणा की गयी है । श्रा. प्र. में गा. ६८ के द्वारा अनाहारक जीवों का निर्देश किया गया है। यह गाथा जीवसमास (१-८२ ) में पायी जाती है। इसे १. सम्यक्त्व के इन दस भेदों का निरूपण कुछ थोड़े से परिवर्तन के साथ तत्त्वार्थवार्तिक ( ३, ३२, २) आदि अन्य ग्रन्थों में भी किया गया है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्रावकप्रज्ञप्तिः आचार्य वीरसेन द्वारा षट्खण्डागम की टीका धवला (पु. १. पृ. १५३ ) में उद्धृत किया गया है। यह गो. जीवकाण्ड (६६५) और प्रवचनसारोद्धार ( १३१९) में भी उसी रूप में उपलब्ध होती है। (११) श्रावकप्रज्ञप्ति और प्रत्याख्याननियुक्ति आचार्य भद्रबाहु द्वितीय (छठी शताब्दी) नियुक्तिकार के रूप से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने आवश्यकसूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रुत, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र, सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित इन ग्रन्थों की निर्युक्ति करने की प्रतिज्ञा की है ।' प्रकृत में आवश्यकसूत्र के छठे अध्ययनस्वरूप प्रत्याख्यान आवश्यक की नियुक्ति अपेक्षित है । श्रा. प्र. गा. ३३४ में शंकाकार ने गृहस्थ के लिए अनुमति का निषेध है, इसे नियुक्ति के आधार से पुष्ट किया है। उसकी टीका में हरिभद्र सूरि ने 'निर्युक्ति' से प्रत्याख्याननिर्युक्ति अपेक्षित है, यह स्पष्ट कर दिया है। जहाँ तक मेरा अपना विचार है, प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति, की रचना का प्रमुख आधार आवश्यकनिर्युक्ति और आवश्यकचूर्णि रही है । दशवैकालिक चूर्णि (पृ. २११ ) में भी कहा गया है कि इस बारह प्रकार के श्रावकधर्म का व्याख्यान प्रत्याख्याननियुक्ति के समान करना चाहिए - एतस्स बारसविहस्स सावगधम्मस्स वक्खाणं जहा पच्चक्खाणणिज्जुत्तीए । सम्यक्त्व के शंका आदि अतिचारों के स्पष्टीकरण में श्रा. प्र. की टीका में जो कथाएँ दी गयी हैं वे प्रायः ज्यों की त्यों आवश्यकचूर्णि (पृ. २७९-२८१) में पायी जाती हैं। इसी प्रकार टीका में जहाँ-तहाँ जो पूर्वोक्ताचार्योक्तविधि, वृद्धसम्प्रदाय और सामाचारी आदि के उल्लेखपूर्वक विवक्षित विषय का स्पष्टीकरण किया गया है वह भी सम्भवतः आवश्यकचूर्णि के अनुसार किया गया है । हरिभद्र सूरि ने दशवैकालिक नियुक्ति १८६ (पृ. १०२ ) की अपनी टीका में शंका- कांक्षा आदि सम्यक्त्व के अतिचारों को स्पष्ट करते हुए 'उदाहरणं चात्र पेयापेयकौ यथावश्यके' ऐसी सूचना करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि इनका विवेचन जैसा आवश्यकसूत्र में किया गया है वैसा ही प्रकृत में समझना चाहिए। ये उदाहरण वे ही हैं जो श्रा. प्र. गा. ९१ और ९३ की टीका में दिये गये हैं। (१२) श्रावकप्रज्ञप्ति और निसी चूर्णि श्री. प्र. की टीका के अन्तर्गत सम्यक्त्वातिचारों से सम्बद्ध जो कथाएँ आवश्यकचूर्णि में उपलब्ध होती हैं वे लगभग उसी रूप में निसीथचूर्णि (१, पृ. १५ आदि) और पंचाशकचूर्णि (पृ. ४४ ) में भी उपलब्ध होती हैं । श्रा. प्र. की 'संसयकरणं संका' आदि गाथा (८७) प्रकृत निसीथचूर्णि (१-२४ ) में भाष्यगाथा के रूप में उपलब्ध होती है । (१३) श्रावकप्रज्ञप्ति और विशेषावश्यकभाष्य विशेषावश्यकभाष्य यह जिनभद्रक्षमाश्रमण ( ७वीं शती) विरचित एक महत्त्वपूर्ण विशाल ग्रन्थ है । वह आवश्यकसूत्र के अन्तर्गत प्रथम सामायिक अध्ययन मात्र पर लिखा गया है। उसमें आ. भद्रबाहु विरचित नियुक्तियों की विस्तार से व्याख्या की गयी है। इसमें प्रसंगानुसार आगम के अन्तर्गत अनेक विषयों का समावेश हुआ है। प्रस्तुत श्रा. प्र. में यथाप्रसंग चर्चित कितने ही विषय इस भाष्य से प्रभावित हैं तथा उसकी कुछ गाथाएँ भी इसमें उसी रूप में अथवा कुछ शब्दपरिवर्तन के साथ पायी जाती हैं। यथा १. देखिए मलयगिरि विरचित वृत्ति सहित आवश्यकसूत्र, प. १००, गा. ८३-८६ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वि. भाष्य में सामायिक लाभ के प्रसंग में पल्य, गिरिसरित् पिपीलिका, तीन मनुष्य, पथ, ज्वर, कोद्रव, जल और वस्त्र इनके दृष्टान्त दिये गये हैं । (वि. भा. १२०१, निं. १०७) । आगे वहाँ इन दृष्टान्तों को यथाक्रम से स्पष्ट भी किया गया है। श्रा. प्र. की गा. ३५-३७ में पल्य का उदारहण देकर बन्ध और निर्जरा की हीनाधिकता को दिखलाया गया है। ये तीनों गाथाएँ वि. भाष्य की स्वोपज्ञ वृत्ति (१२०२-३) में ‘असंयतस्य च बहुतरस्य चयः अल्पतरस्य चापचयः, यतोऽभिहितम्' यह कहते हुए उद्धृत की गयी हैं । श्रा. प्र. की गा. ३१-३३ में यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि कर्म की जो स्थिति पूर्व में कही जा चुकी है उसमें जब जीव घर्षण और घूर्णन के निमित्त से एक कोड़ाकोड़ी को छोड़कर शेष सब सागरोपम कोड़ाकोड़ियों को क्षीण कर देता है तथा शेष रही उस एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थिति में भी जब स्तोक मात्र - पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और भी क्षीण कर देता है, तब तक जीव की कर्मग्रन्थि - कर्मजनित घन राग-द्वेषरूप परिणाम - अभिन्नपूर्व ही रहता है । पश्चात् उसका अपूर्वकरण परिणाम के द्वारा भेदन कर देने पर परम पद के हेतुभूत सम्यक्त्व का नियम से लाभ होता है । श्रा. प्र. का यह अभिप्राय विशेषावश्यक भाष्य की ११८८-९३ गाथाओं से प्रभावित है। गा. ३२ की टीका में तो हरिभद्र सूरि ने 'उक्तं च तत्समयज्ञैः' ऐसा निर्देश करते हुए वि. भा. की 'गंडित्ति सुदुब्भेओ' आदि गाथा (११९३) को उद्धृत भी कर दिया है। श्रा. प्र. की ये गाथाएँ वि. भाष्य में उपलब्ध होती हैंगाथांश केई भांति गिहिणो श्रा. प्र. वि. भा. ४२६८ ४२६९ १२१९ १२२० ता कह निज्जुत्ती सम्मत्तम्मिय लद्धे एवं अप्परपडिए ३३३ ३३४ ३९० ३९१ ६०७-२३ ७४४-४७ ७५१-५२ २७ (१४) श्रावकप्रज्ञप्ति और धर्मसंग्रहण ग्रन्थकार के सम्बन्ध में विचार करते हुए यह पहले कहा जा चुका है कि श्रा. प्र. में ऐसी बीसों गाथाएँ हैं जो हरिभद्र सूरि विरचित अन्य ग्रन्थों में अभिन्न रूप में उसी क्रम से पायी जाती हैं। उनमें प्रथमतः हम धर्मसंग्रहण को लेते हैं । यह हरिभद्र सूरि के द्वारा प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। इसमें समस्त गाथासंख्या १३६९ है । रचनाशैली प्रायः दार्शनिक है । यथाप्रसंग इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गयी है । ऐसी यहाँ अनेक गाथाएँ हैं जो श्रावकप्रज्ञप्ति में प्रसंगानुसार उसी क्रम से पायी जाती हैं। यथाधर्म सं. श्रा. प्र. १०-२६ धर्मसं. ७५४-६३ ७८० ७९९-८१४ श्रा. प्र. ३३-४२ १०१ २७-३० ३१-३२ ४३-६१ इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में लगभग ५४ गाथाएँ समान रूप में उपलब्ध होती हैं। इनमें गा. १०-२६ कर्म की मूल - उत्तर प्रकृतियों से, २७-३० कर्मस्थिति से, ३१-३२ कर्मग्रन्थि से, ३३-४२ सम्यक्त्वलाभ व तद्विषयक शंका-समाधान से, १०१ जीव व कर्म की बलवत्ता से और ४३ - ६१ सम्यक्त्वभेद व उसके चिह्नों से सम्बद्ध हैं । (१५) श्रावकप्रज्ञप्ति व पंचाशक प्रकरण पंचाशक यह हरिभद्र सूरि द्वारा विरचित ग्रन्थ श्रावकधर्म व जिनदीक्षाविधि आदि १९ पंचाशकों में विभक्त है | गाथासंख्या उसकी ९४० है । उसका प्रथम पंचाशक श्रावकधर्म से सम्बद्ध है। अधिकांश Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः गाथाएँ उसकी तथा कुछ अन्य पंचाशकों की श्रा. प्र. में जैसी की तैसी पायी जाती हैं। इनमें पूर्वार्ध-उत्तरार्ध से मिलकर भी कोई गाथा बन गयी है, किसी-किसी में एक-आध चरण भिन्न है अथवा कुछ शब्दपरिवर्तन ही है। यहाँ ऐसी कुछ गाथाओं के अंक दिये जा रहे हैं जो दोनों ग्रन्थों में समानरूप से उपलब्ध होती हैं। इनमें पंचाशक के गाथांक साधारण रूप से तथा श्रा. प्र. के गाथांक कोष्ठक में दिये जा रहे हैं ७ (१०६). ८ (१०७). ६ (१०८). १० (२५८), ११ (२६०), १२ (२६३). १३ (२६५-६६), १४ (२६२), १६ (२७३), २३ (२८९). २४ (२९३), २५ (२९२). २६ (३१२). २७ (३१८). २८ (३२०), २९ (३२१-२२). ३२ (३२७). ३९ (३२८), ४० (३७८). ४१ (३३९). ४२ (३४३).५० (३४४ व ३६४). १८५ (३४५) १८८ (३४८), १८९ (३४९), १९० (३५०), ४५६ (२९९). ४५९ (३२१), ४६० (३२३)। यहाँ यह स्मरणीय है कि पंचाशक में केवल 50 गाथाओं द्वारा श्रावकधर्म की प्ररूपणा की गयी है, जब कि श्रा. प्र. में ४०१ गाथाओं के द्वारा उसकी प्ररूपणा की गयी है। (१६) श्रावकप्रज्ञप्ति और समराइच्चकहा हरिभद्र सूरि के द्वारा विरचित समराइच्चकहा यह एक प्रसिद्ध पौराणिक कथाग्रन्थ है। इसमें उज्जैन के राजा समरादित्य के नौ पूर्व भवों के चरित्र का चित्रण बड़ी कुशलता से ललित भाषा में किया गया है। राजा समरादित्य का जीव प्रथम भव में क्षितिप्रविष्ट नगर में पूर्णचन्द्रके राजाके यहाँ गुणेसन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसी नगर में एक यज्ञदत्त नाम का पुरोहित रहता था। उसके एक अग्निशर्मा नाम का कुरूप पुत्र था। उसे गुणसेन कौतूहलवश नचाता व गधे पर बैठाकर वादित्रों की मधुर ध्वनि के साथ राजमार्ग में घुमाया करता था। इससे पीड़ित होकर अग्निशर्मा ने आर्जव कौण्डिन्य नामक तापस कुलपति के आश्रम में जाकर तापस दीक्षा ले ली। आगे चलकर उत्तरोत्तर कुछ ऐसी ही अनपेक्षित घटनाएँ घटती गयीं कि जिससे वह अग्निशर्मा आगे के भवों में गुणसेन का महान शत्रु हुआ। उसने उस समय क्षुधापरीषह से पीड़ित होकर यह निदान किया कि यदि इस तप का कुछ फल हो सकता है तो उसके प्रभाव से मैं प्रत्येक जन्म में गुणसेन का वध करूँगा। एक दिन क्षितिप्रविष्ट नगर में विजयसेन नामक आचार्य का शुभागमन हुआ। इस शुभ समाचार को जानकर गुणसेन राजा उनकी वन्दना के लिए गया। वन्दना के पश्चात् उसने विजयसेनाचार्य की रूपसम्पदा को देखकर उनके विरक्त होने का कारण पूछा। तदनुसार उन्होंने अपने विरक्त होने की घटना उसे कह सुनायी। उसका प्रभाव गुणसेन के हृदय-पटल पर अंकित हुआ। तब उसने उनसे शाश्वत स्थान और उसके साधक उपाय के सम्बन्ध में प्रश्न किया। उत्तर में उन्होंने परमपद को शाश्वत स्थान बतलाकर उसका साधक उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रस्वरूप धर्म को बतलाया। इस धर्म का उन्होंने गृहिधर्म और साधुधर्म के भेद से दो प्रकार का बतलाकर उसकी मूल वस्तु सम्यक्त्व निर्दिष्ट किया। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वह सम्यक्त्व अनादि कर्मसन्तान से वेष्ठित प्राणी के लिए दुर्लभ होता है। इस प्रसंग में उन्होंने ज्ञानावरणादि आठ कर्मों व उनकी उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का भी निर्देश किया। उक्त कर्मस्थिति के क्रमशः क्षीण होने पर जब वह एक कोड़ाकोड़ी मात्र शेष रहकर उसमें भी स्तोक मात्र-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण-और भी क्षीण हो जाती है तब कहीं जीव को उस सम्यक्त्व की प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रसंग में जो वहाँ गद्यभाग उपलब्ध होता है उसकी तुलना श्रा. प्र. की गाथाओं से की जा सकती है। दोनों में शब्दशः समानता है एयस्स उण दुविहस्स वि धम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं। (स. क., पृ. ४३) एयस्स मूलवत्थू सम्मत्तं तं च गंठिभेयम्मि। (श्रा. प्र. ७) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २९ एवंठिइयस्स इमस्स कम्मस्स अहापवत्तकरणेण जया घसण-घोलणाए कहवि एगं सागरोवम-कोडाकोडिं मोत्तूण सेसाओ खवियाओ हवंति। (स. क., पृ. ४४) एवंठिइयस्स जया घसण-घोलणनिमित्तओ कहवि। खविया कोडाकोडी सव्वा इक्कं पमुत्तूणं ॥ (श्रा. प्र. ३१) वहाँ सम्यग्दृष्टि के परिणाम की विशेषता को दिखलाते हुए जो आठ गाथाएँ (७२-७९) उद्धृत की गयी हैं वे प्रस्तुत श्रा. प्र. में उसी क्रम से ५३-६० गाथासंख्या से अंकित पायी जाती हैं। तत्पश्चात् वहाँ विजयसेनाचार्य के मुख से यह कहलाया गया है कि पूर्वोक्त कर्मस्थिति में से भी जब पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र स्थिति और भी क्षीण हो जाती है तब उस सम्यग्दृष्टि जीव को देशविरति की प्राप्ति होती है। इतना निर्देश करने के पश्चात् वहाँ अतिचारों के नामनिर्देशपूर्वक पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का भी उल्लेख किया गया है। पश्चात् वहाँ यह कहा गया है कि इस अनुरूप कल्प से विहार करके परिणामविशेष के आश्रय से जब पूर्वोक्त कर्मस्थिति में से उसी जन्म में अथवा अनेक जन्मों में भी संख्यात सागरोपम मात्र स्थिति और भी क्षीण हो जाती है तब जीव सर्वविरतिरूप यतिधर्म को-क्षमामार्दवादिरूप दस प्रकार के धर्म को-प्राप्त करता है। इस प्रसंग में जो दो गाथाएँ (८०-८१) वहाँ उद्धृत की गयी हैं वे श्रा. प्र. में ३९०-९१ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं। ये दोनों गाथाएँ सम्भवतः विशेषावश्यकभाष्य (१२१९-२०) से ली गयी हैं। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रस्तुत श्रा. प्र. में जिस क्रम से व जिस रूप में श्रावकधर्म का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है, ठीक उसी क्रम से व उसी रूप में उसका विवेचन स. क. में गुणसेन राजा के प्रश्न के उत्तर में आचार्य विजयसेन के मुख से भी संक्षेप में कराया गया है। स. क. का प्रमुख विषय न होने से जो वहाँ उस श्रावकधर्म की संक्षेप में प्ररूपणा की गयी है वह सर्वथा योग्य है। परन्तु वहाँ जिस पद्धति से उसकी प्ररूपणा की गयी है वह श्रा. प्र. की विवेचन पद्धति से सर्वथा समान है-दोनों में कुछ भी भेद नहीं पाया जाता है। इस समानता को स्पष्ट करनेके लिए यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते हैं १. जिस प्रकार श्रा. प्र. गा. ६ में श्रावकधर्म को पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के भेद से बारह प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है उसी प्रकार स. क. में भी उसे बारह प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। यथा तत्य गिहिधम्मो दुवालसविहो । तं जहा-पंच अणुब्बयाई तिण्णि गुणव्वयाई चत्तारि सिक्खावयाई ति। (स. क., पृ. ४३) २. श्रा. प्र. गा.७ में यदि इस श्रावकधर्म की मूल वस्तु सम्यक्त्व को बतलाया गया है तो स. क. में भी उसकी मूल वस्तु सम्यक्त्व को ही निर्दिष्ट किया गया है। यथा एयस्स उण दुविहस्स वि धम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं। (स. क., पृ. ४३) ३. श्रा. प्र. गा. ८-३० में जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध को उस सम्यक्त्व का निमित्त बतलाकर जिस प्रकार से आठों कर्मों की प्ररूपणा की गयी है ठीक उसी प्रकार से स. क. में भी वह प्ररूपणा की गयी है। यथा तं पुणो अणाइकम्म संताणवेढियस्स जन्तुणो दुल्लहं हवइ त्ति। तं च कम्मं अट्ठहा। तं जहा-णाणावरणिज्जं दरिसणावरणिज्जं.....सेसाणं भिन्नमहत्तं ति। (स. क., पृ. ४३-४४) ४. आगे श्रा. प्र. गा. ३१-३२ में जिस प्रकार घर्षण-घोलन के निमित्त से उस उत्कृष्ट कर्मस्थिति के क्षीण होने पर अभिन्नपूर्व ग्रन्थि का उल्लेख किया गया है उसी प्रकार स. क. में भी उसका उल्लेख किया गया है। यथा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः एवंठिइयस्स य इमस्स कम्मस्स अहपवत्तकरणेण जया घंसण- घोलणाए कहवि एगं सागरोवमकोडाकोडिं मोत्तूण सेसाओ खवियाओ हवंति तीसे वि य णं थोवमित्ते खविए तया घणराय-दोसपरिणाम.... कम्मगंठो हवइ । (स. क., पृ. ४४ ) ५. श्री. प्र. गा. ३२ की टीका में प्रसंगवश जिस प्रकार 'गंठि त्ति सुदुब्भेओ' आदि विशेषावश्यक भाष्य की गा. ११९५ उद्धृत की गयी है उसी प्रकार वह स. क. (पृ. ४४ ) में भी उद्धृत की गयी है । ६. इसके अतिरिक्त जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा चुका है कि स. क. में प्रसंगानुसार जिन अनेकों गाथाओं को उद्धृत किया गया है वे प्रस्तुत श्रा. प्र. में उसी प्रकार से उपलब्ध होती हैं। जैसे- श्रा. प्र. ५४-६० और स. क. ७५-८१ (पृ. ४५-४६) । ३० (१७) श्रावकप्रज्ञप्ति और पंचवस्तुक हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित इस पंचवस्तुक ग्रन्थ में समस्त गाथाएँ १७१४ हैं । इसके पाँच अधिकारों में प्रव्रज्याविधि, दैनिक अनुष्ठान, व्रतविषयक प्रस्पापना, अनुयोगगणानुज्ञा और संलेखना इन पाँच वस्तुओं की प्ररूपणा की गयी है, इसीलिए पंचवस्तुक यह उसका सार्थक नाम है । श्रा. प्र. के अन्तर्गत ३५६-५९ ये चार गाथाएँ उक्त पंचवस्तुक में १५३-५९ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं । 'जइ जिणमयं पवज्जइ' इत्यादि गाथा पंचवस्तुक में १७१वीं गाथा के रूप में अवस्थित है। यह गाथा प्रस्तुत श्रा. प्र. की टीका (६१) में हरिभद्र के द्वारा उद्धृत की गया है। उक्त गाथा समयप्राभृत की अमृतचन्द्रसूरि द्वारा विरचित आत्मख्याति टीका ( १२ ) में भी पायी जाती है । वहाँ उसका उत्तरार्ध कुछ भिन्न है । (१८) श्रावकप्रज्ञप्ति और धर्मबिन्दु हरिभद्रसूरिविरचित यह धर्मबिन्दु प्रकरण एक सूत्रात्मक ग्रन्थ है, जो संस्कृत में लिखा गया है। वह आठ अध्यायों में विभक्त है । गद्यात्मक समस्त सूत्रों की संख्या उसकी ५४२ है । प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ और अन्त में ३-३ अनुष्टुप् श्लोक भी हैं, जिनकी संख्या ४८ है । इसके तीसरे अध्याय में अणुव्रतादिरूप विशेष गृहस्थधर्म की जो प्ररूपणा की गयी है वह प्रायः श्रा. प्र. के ही समान है । जैसे जिस प्रकार धर्मबिन्दु में अणुव्रतादि द्वादशात्मक गृहस्थधर्म में दिव्रत, भोगोपभोगप्रमाण और अर्थदण्डव्रत इन तीन को गुणव्रत (३-१७) तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभागव्रत इन चार को शिक्षापद (३-१८) निर्दिष्ट किया गया है उसी प्रकार श्रा. प्र. में भी उक्त दिव्रतादि तीन को गुणव्रत ( २८०, २८४ व २८९) तथा उक्त सामायिक आदि चार को शिक्षापद (२९२, ३१८, ३२१ व ३२९-२६) कहा गया है। इनके स्वरूप और अतिचारों आदि का निरूपण भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप में पाया जाता है, जबकि तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (७-१६) में इनका उल्लेख गुणव्रत और शिक्षापद के नाम से नहीं किया गया तथा क्रम में भी वहाँ कुछ भिन्नता है। इसके अतिरिक्त धर्मबिन्दु में श्रावक के लिए नमस्कारमन्त्र के उच्चारणपूर्वक जागने (३-४३), विधिपूर्वक चैत्यवन्दन (३-४४), चैत्य - साधुवन्दन ( ३-५०), गुरु के समीप में प्रत्याख्यान के प्रकट करने और जिनवाणी के सुनने (३-५२) आदि का जिस प्रकार विधान किया गया है उसी प्रकार श्री. प्रज्ञप्ति में भी कुछ आगे-पीछे इन सबका विधान किया गया है ( ३३९-५२) । (१९) श्रावकप्रज्ञप्ति और प्रवचनसार की जयसेनवृत्ति आ. कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार के ऊपर आ. जयसेन (१२वीं शती) की एक वृत्ति है। इसमें Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (३-१८) 'उच्चालयम्मि पाए' इत्यादि गाथा के साथ 'न य तस्स तन्निमित्तो' इत्यादि दूसरी गाथा भी उद्धृत की गयी है। ये दोनों गाथाएँ प्रकृत श्रा. प्र. में २२३-२४ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं। (२०) श्रावकप्रज्ञप्ति और स्थानांगवृत्ति अभयदेवसूरि (१२वीं शती) विरचित स्थानांग की वृत्ति (२, २, २९, पृ. ५५) में श्रा. प्र. की 'जेसिमवड्ढो पुग्गल' इत्यादि गाथा (७२) को उद्धृत किया है। __ इसके अतिरिक्त उन्होंने पंचाशक की अपनी वृत्ति में भी श्र.प्र. की 'संपत्तदंसणाई' इत्यादि गाथा (२) को 'पूज्यैरेवोक्तम्' इस आदरसूचक वाक्य के साथ उद्धृत किया है। (२१) श्रावकप्रज्ञप्ति और योगशास्त्रविवरण __ आचार्य हेमचन्द्र द्वारा विरचित (१२-१३वीं शती) योगशास्त्र के ऊपर उनके द्वारा स्वयं टीका की गयी है जो स्वो. विवरण के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें सम्यग्दर्शन के प्रसंग में (२-१५, पृ. १८२-८३) उपशमसंवेग आदि से सम्बद्ध जिन पाँच गाथाओं को उद्धृत किया गया है वे प्रस्तुत श्रा. प्र. में ५५-५९ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं, जो सम्भवतः वहीं से उद्धृत की गयी हैं। इसी प्रकार श्रा. प्र. की ३४८-४९ ये दो गाथाएँ भी वहाँ (३-१२०, पृ. २०५) उद्धृत की गयी हैं। (२२) श्रावकप्रज्ञप्ति और आवश्यकसूत्र की मलयगिरि-वृत्ति आवश्यकसूत्रगत नियुक्तियों की विस्तृत व्याख्या मलयगिरि (१२-१३वीं शती) सूरि के द्वारा अपनी वृत्ति में की गयी है। वहाँ (नि. १०७, पृ. ११३-१४) पर श्रा. प्र. की क्रम से ३५-४१ गाथाओं को उद्धृत किया गया है। इसी सिलसिले में ३९०-९१ गाथाओं को भी उद्धृत किया गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ये दोनों गाथाएँ विशेषावश्यकभाष्य में १२१६ व १२२० गाथांकों में उपलब्ध होती हैं। उक्त मलयगिरि सूरि ने 'जेसिमवड्ढो पुग्गल' इत्यादि श्रा. प्र. की गाथा (७२) को अपनी पंचसंग्रह की वृत्ति (२-१३, पृ. ५४) में भी उद्धृत किया है। (२३) श्रावकप्रज्ञप्ति और सागारधर्मामृत सागारधर्मामृत यह पं. आशाधर (१३वीं शती) विरचित एक विस्तृत श्रावकाचारविषयक ग्रन्थ है। इसकी रचना में पं. आशाधर ने अपने पूर्ववर्ती प्रायः सभी श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थों का-जैसे आ. समन्तभद्र-विरचित रत्नकरण्डक, प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति, अमृतचन्द्रसूरिविरचित पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सोमदेव सूरिविरचित उपासकाध्ययन, आ. वसुनन्दी विरचित श्रावकाचार और हेमचन्द्र सूरिविरचित योगशास्त्र इत्यादि का उपयोग किया है। यह ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है। पं: आशाधर ने सम्पूर्ण गृहस्थ धर्म का एक श्लोक (१-१२) में निर्देश करते हुए कहा है कि निर्मल सम्यक्त्व; निर्मल अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत तथा मरणसमय में सल्लेखना; यह सम्पूर्ण गृहस्थ धर्म है। पं. आशाधर ने उपलब्ध समस्त श्रावकाचारों का परिशीलन करके प्रकृत सागारधर्मामृत की रचना में अपनी स्वतन्त्र बुद्धि का भी कुछ उपयोग किया है। उदाहरणार्थ उन्होंने श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ये जो तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं (१-२०) वे इस प्रकार से सम्भवतः दूसरे ग्रन्थ में नहीं मिलेंगे। १. देखिए अनेकान्त वर्ष २, किरण ३-४ में प्रकाशित 'सागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव' शीर्षक लेख। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ . श्रावकप्रज्ञप्तिः श्रा. प्र. में सामान्य से जिस बारह प्रकार के श्रावकधर्म की प्ररूपणा की गयी है वह यहाँ नैष्ठिक (द्वितीय) श्रावक के धर्म के अन्तर्गत है। यहाँ नैष्ठिक-निष्ठापूर्वक श्रावकधर्म के परिपालक-श्रावक के दर्शनिक आदि ग्यारह स्थान-जिन्हें श्रावकप्रतिमा कहा जाता है-निर्दिष्ट किये गये हैं। (३. २-३)। इनमें प्रथम दर्शनिक श्रावक का वर्णन यहाँ तीसरे अध्याय में विस्तार से किया गया है। दूसरे व्रती श्रावक के प्रसंग में पूर्वोक्त पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के श्रावकधर्म की चर्चा चौथे और पाँचवें इन दो अध्यायों में की गयी है। छठे अध्याय में द्वितीय (नैष्ठिक) श्रावक की दिनचर्या का निर्देश करते हुए अन्त में उसे निर्वेदादिभावना के लिए प्रेरित किया गया है। तीसरे से लेकर ग्यारहवें श्रावक तक की प्ररूपणा यहाँ सातवें अध्याय में की गयी है। अन्तिम आठवें अध्याय में समाधिमरण (सल्लेखना) को सिद्ध करनेवाले तीसरे साधक श्रावक का विस्तार से विवेचन किया गया है। अब हम यहाँ श्रा. प्र. से इसकी कहाँ तक समानता है, इसका संक्षेप में विचार करना चाहेंगे। यहाँ यह स्मरणीय है कि पं. आशाधर ने जिस योगशास्त्र का पर्याप्त उपयोग किया है उसका आधार प्रस्तुत श्रा. प्र. भी रही है। सर्वप्रथम यहाँ हम उस विशेषता पर विचार करेंगे जो श्रा. प. में तो नहीं देखी जाती, पर यहाँ अनिवार्य रूप से वह देखी जाती है। वह यह है श्रा. प्र. में कहीं किसी भी प्रसंग में उन मद्य, मांस, मधु और रात्रिभोजन आदि की चर्चा नहीं की गयी जिन्हें जैन सम्प्रदाय में निकृष्ट माना गया है। हाँ, उसकी टीका (२८५) में वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार उपभोग-परिभोगपरिमाण के प्रसंग में उत्सर्ग व अपवाद के रूप में भोजन के विधान को दिखलाते हुए अशनादिरूप चार प्रकार के आहार में उक्त मद्य, मांस व मधु आदि का परिहार अवश्य कराया गया है। योगशास्त्र में भी उनका हेयरूप में विस्तृत वर्णन देखा जाता है (३. ६-७०)। इसी प्रकार इस सागारधर्मामृत में भी यथाप्रसंग उनकी निकृष्टता को बतलाकर उनके परिहार की प्रेरणा की गयी है। यहाँ दूसरे अध्याय में प्रथम पाक्षिक-देशसंयम को प्रारम्भ करनेवाले-श्रावक के आठ मूलगुणों में ही उक्त मद्यादि की सदोषता का विचार करते हुए उनका परित्याग कराया गया है (२, २-१९)। श्रावकप्रज्ञप्ति से प्राचीन रत्नकरण्डक (६६) में भी उनके परित्याग को आठ मूलगुणों के अन्तर्गत निर्दिष्ट किया गया है तथा आगे चलकर भोगोपभोगपरिमाणव्रत में पुनः उनके परित्याग की प्रेरणा की गयी है। सा. ध. में भी इसी प्रकार से उनक भोगोपभोगपरिमाणव्रत के प्रसंगमें (५-१५) पुनः परित्याग कराया गया है। इसके पूर्व प्रथम दार्शनिक श्रावक के लिए भी वहाँ उपर्युक्त मद्यादि तथा उनसे सम्बद्ध अन्य मद्यपायी आदि के संसर्ग आदि को भी हेय बतलाया गया है (३, ६-१३)। प्रकृत श्रा. प्रज्ञप्ति के साथ सा. ध. की जो समानता दिखती है वह इस प्रकार है १. श्रा. प्र. और योगशास्त्र में बारह व्रतों के स्वरूप व उनके अतिचारों का जिस प्रकार से निरूपण किया गया है उसी प्रकार सा.ध. (अध्याय ४-५) में भी द्वितीय नैष्ठिक श्रावक के अनुष्ठान के रूप में उनका निरूपण कुछ विस्तार से किया गया है। २. सा. ध. की स्वो. टीका में जो व्रतातिचारों को विशेष विकसित किया गया है वह प्रस्तुत श्रा. प्र. अथवा ऐसे ही किसी अन्य ग्रन्थ के आधार से किया गया है। कहीं-कहीं तो वह छायानुवाद-जैसा दिखता है। उदाहरणस्वरूप अहिंसाणुव्रत के अतिचारों के प्रसंग में इस सन्दर्भ का मिलान किया जा सकता है तदत्रायं पूर्वाचार्योक्तविधिः-बंधो दुविहो दुपयाणं चउप्पयाणं च अट्ठाए अणट्ठाए। अणट्ठाए ण वट्टए बंधिउं। अट्ठाए दुविहो सावेक्खो णिरवेक्खोय।णिरवेक्खो णिच्चलं धणियं जंबंधइ। सावेक्खो १. श्रावक के मूलगुणों का निर्देश सम्भवतः किसी श्वे. ग्रन्थ में नहीं किया गया है। हाँ, त. भाष्य (७-१६) में जो दिग्वतादि सात को उत्तर व्रत कहा गया है उससे पाँच अणुव्रतों को मूल व्रत कहा जा सकता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जं दामगंठिणा, जं च सक्केइ पलिवणगादिसु मुंचिउं छिंदिउं वा।......(श्रा. प्र. २५८ की टीका) ___अत्रायं विधिः-बन्धो द्विपदानां चतुष्पदानां वा स्यात् । सोऽपि सार्थकोऽनर्थको वा। तत्रानर्थकस्तावच्छावकस्य कर्तुं न युज्यते। सार्थकः पुनरसौ द्वेधा सापेक्षो निरपेक्षश्च । तत्र सापेक्षो यो दामग्रन्थ्यादिना विधीयते, यश्च प्रदीपनादिषु मोचयितुं छेत्तुं वा शक्यते। निरपेक्षो यन्निश्चलमत्यर्थममी बध्यन्ते.......(सा. ध. स्वो. टीका ४-१५) । यहाँ पूर्वोक्त श्रा. प्र. गत सन्दर्भ के अधिकांश पदों का संस्कृत में प्रायः रूपान्तर किया गया है व अभिप्राय दोनों का सर्वथा समान है। ___३. श्रा. प्र. (२६०-२६१) में सत्याणुव्रत के स्वरूप का निर्देश करते हुए कन्या-अलीक, गो-अलीक-भू-अलीक, न्यासहरण और कूटसाक्षित्व को परित्याज्य निर्दिष्ट किया गया है। सा. ध. (४-३६) में भी उसके स्वरूप को प्रकट करते हुए उन पाँचों को प्रायः उन्हीं शब्दों में गर्भित कर लिया गया है। उसकी स्वो. टीका में पृथक्-पृथक् उनका स्वरूप भी उसी रूप में निर्दिष्ट किया गया है। ४. श्रा. प्र. गा. ३२६ की टीका में अतिथि का स्वरूप प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो भोजन के लिए भोजनकाल में उपस्थित हुआ करता है उसे अतिथि कहा जाता है। अपने निमित्त से भोजन को निर्मित करनेवाले गृहस्थ के लिए साधु ही अतिथि होता है। ऐसा निर्देश करते हुए वहाँ आगे 'तिथि-पर्वोत्सवाः सर्वे' इत्यादि श्लोक को उद्धृत किया गया है। सा. ध. (५-४२) में उक्त अतिथि शब्द के निरुक्त अर्थ को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो ज्ञानादि की सिद्धि के कारणभूत शरीर की स्थिति के निमित्त भोजन को प्राप्त करने के लिए स्वयं श्रावक के घर जाता है (यस्तनुस्थित्ययान्नाय यत्नेन स्वयम् अतिति सोऽतिथिः) वह अतिथि कहलाता है। प्रकारान्तर से यहाँ यह भी कहा गया है कि अथवा जिसके लिए कोई तिथि नहीं है उसे अतिथि जानना चाहिए। यह कहते हुए प्रकृत श्लोक की स्वो. टीका में उक्त 'तिथि-पर्वोत्सवाः सर्वे' इत्यादि श्लोक को भी उद्धृत किया गया है। यह प्रसंग उक्त श्रा. प्र. की टीका से प्रभावित रहा दिखता है। ५. श्रा. प्र. (३२९-३०) में बारह व्रतों को प्ररूपणा के पश्चात् गृहिप्रत्याख्यान के कृत, कारित व अनुमत इन तीन करणों तथा मन, वचन व काय इन तीन योगों के साथ वर्तमान, भूत और भविष्यत इन तीन कालों के संयोग से १४७ भंगों का निर्देश किया गया है। सा. ध. (४-५) में भी सामान्य से पाँच अणुव्रतों के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमत इनके आश्रय से स्थूल वध आदि से विरत होने पर क्रम से अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत होते हैं। प्रकृत श्लोक की स्वो. टीका में इसका स्पष्टीकरण करते हुए मन, वचन और काय इनमें से प्रत्येक के आश्रित कृत, कारित और अनुमत इनके संयोग से ४९ भंग दिखलाये गये हैं। वे चूँकि वर्तमान, भूत और भविष्यत् इन तीन कालों से सम्बद्ध रहते हैं, इसलिए उन्हें तीन कालों से गुणित करने पर अहिंसाणुव्रत के वे समस्त भंग १४७ (४६४ ३) होते हैं। ___इस प्रकार दोनों ग्रन्थों के इस विवेचन में पर्याप्त समानता है। विशेष इतना है कि श्रा. प्र. में जहाँ ह व्रतों का निरूपण कर चुकने के पश्चात् प्रत्याख्यान के रूप में प्रत्येक व्रत के ये भंग दिखलाये गये हैं वहाँ सा. ध. में प्रथम अहिंसाणुव्रत के प्रसंग में इन ही भंगों को दिखलाकर उसके समान सत्याणुव्रत आदि शेष अन्य व्रतों में भी इनको योजित करने का निर्देश कर दिया गया है। यथा-एते च भङ्गा अहिंसाणुव्रतवद्वतान्तरेष्वपि द्रष्टव्याः। इस प्रसंग में श्रा. प्र. की टीका में अन्यत्र कहीं से तीन गाथाओं को उद्धृत कर उनके द्वारा उक्त ४६ भंगों को तीन कालों से क्यों गुणा किया जाता है, इसका स्पष्टीकरण जिन शब्दों में किया गया है Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः लगभग वैसे ही शब्दों में उसका स्पष्टीकरण सा. ध. की इस स्वो. टीका में भी इस प्रकार से किया गया है-त्रिकालविषयता चातीतस्य निन्दया साम्रतिकस्य संवरणेनानागतस्य च प्रत्याख्यानेनेति। ६. श्रा. प्र. गा. ३४३-४४ में श्रावक की दिनचर्या को दिखलाते हुए कहा गया है कि प्रातःसमय में नमस्कार मन्त्र के उच्चारण के साथ शय्या से उठकर 'मैं श्रावक हूँ' ऐसा स्मरण करते हुए व्रतादि में योग देना चाहिए व विधिपूर्वक चैत्यवन्दन करके प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार प्रातःकालीन कृत्य को स्वयं घर पर करके तत्पश्चात् चैत्यों की पूजा आदि करे और तब साधु के समीप में उस प्रत्याख्यान को प्रकाशित करे जिसे पूर्व में स्वयं ग्रहण किया था। लगभग यही अभिप्राय सा. धा. (६, १-११) में भी कुछ विस्तार से प्रकट किया गया है। उसका प्रथम श्लोक यह है ब्राझे मुहूर्त उत्थाय वृत्तपंचनमस्कृतिः। कोऽहं को मम धर्मः किं व्रतं चेति परामृशेत् ॥ वैसे इस प्रसंग में श्रावकप्रज्ञप्ति की अपेक्षा योगशास्त्र (३-१२२) का अनुसरण सा. ध. में अधिक किया गया प्रतीत होता है। ७. श्रा. प्र. (२८५) में उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत के भोजन व कर्म की अपेक्षा दो भेदों का निर्देश करके आगे की दो गाथाओं (२८७-८८) में कर्म के आश्रय से अंगारादि १५ निषिद्ध कर्मों के परित्याग की प्रेरणा की गयी है। इस प्रसंग में सा. ध. (५, २१-२३) में किन्हीं श्वे. आचार्यों के अभिमतानुसार खरकर्म-प्राणिविघातक क्रूर कर्म-के व्रत का उल्लेख करते हुए वनजीविका व अग्निजीविका आदि उन १५ मलों (अतिचारों) के छोड़ने की प्रेरणा की गयी है व आगे इसी प्रसंग में यह कहा गया है कि ऐसा कितने ही श्वे. आचार्य कहते हैं। पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसे सावद्यकर्म अगणित हैं, अर्थात् उनकी कोई सीमा न होने से उक्त १५ कर्मों का ही निषेध करना उचित नहीं है। फिर आगे विकल्परूप में यह भी कह दिया है कि अथवा अतिशय जड़बुद्धियों को लक्ष्य करके उनका प्रतिपादन करना भी उचित है। इसका आधार सम्भवतः श्रा. प्र. का उपर्युक्त प्रसंग रहा है। कारण यह कि वहाँ उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के प्रसंग में कर्म की अपेक्षा उन पन्द्रह कर्मों का उल्लेख करते हुए उन्हें हेय कहा गया है। वहाँ गा. २८८ की टीका में 'भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादेव अवसेयः, स चायम्' इस प्रकार की सूचना करते हुए सम्भवतः आवश्यकचूर्णि द्वारा उन कर्मों के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। पूर्वोक्त सा. ध. की टीका में भी उनका स्वरूप लगभग उसी प्रकार निर्दिष्ट किया गया है। अन्त में श्रा. प्र. की उक्त टीका में यह भी कहा गया है कि इस प्रकार के सावध कर्मों का यह प्रदर्शन मात्र है-इसे उनकी सीमा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार के बहत-से सावध कर्म हेय हैं, जिनकी गणना नहीं की जा सकती है। सा. ध. की स्वो. टीका में जो विकल्प रूप में उक्त अभिप्राय प्रकट किया गया है वह श्रा. प्र. के टीकागत उस अभिप्राय से सर्वथा मिलता हुआ है। ८. बारह व्रतों, दिनचर्या और विहारादिविषयक सामाचारी के निरूपण के पश्चात् श्रा. प्र. (३७८-८५) में एक शंका-समाधान के साथ अन्तिम अनुष्ठानस्वरूप संलेखना की भी प्ररूपणा की गयी है। ___ यह संलेखना या सल्लेखना की प्ररूपणा सा. ध. के अन्तिम 8वें अध्याय में बहुत विस्तार से की गयी है। पूर्वसूचित श्रावक के तीन भेदों में अन्तिम भेदभूत साधक श्रावक के लिए उसका वहाँ विधान किया गया है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७. टीका और टीकाकार हरिभद्र सूरि प्रस्तुत श्रावकप्रज्ञप्ति के ऊपर हरिभद्र सूरि के द्वारा एक संक्षिप्त टीका लिखी गयी है जो प्रस्तुत संस्करण में मूल ग्रन्थ के साथ प्रकाशित की जा रही है। जैसा कि टीका का 'दिक्प्रदा' यह नाम है, तदनुसार वह दिशा का बोधमात्र कराती है। उसमें प्रायः व्याख्येय तत्त्व का विशेष स्पष्टीकरण न करके गाथागत पदवाक्यों को उद्धृत करते हुए शब्दार्थमात्र किया गया है। अभिध्येय का अभिप्राय उसमें बहुत कम प्रकट किया गया है। उदाहरणार्थ, इस गाथा की टीका को देखिए तं जाविह संपत्ती न जुज्जए तस्स निग्गुणत्तणओ। बहुतरबंधाओ खलु सुत्तविरोहा जओ भणियं ॥ ३४ ॥ टीका-तं ग्रन्थिम्, यावदिह विचारे, संप्राप्तिर्न युज्यते न घटते, कुतः? तस्य निर्गुणत्वात्-तस्य जीवस्य सम्यग्दर्शनादिगुणरहितत्वात्, निर्गुणस्य च बहुतरबन्धात्, खलुशब्दोऽवधारणे-बहुतरबन्धादेव, इत्यं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, सूत्रविरोधात् अन्यथा सूत्रविरोध इत्यर्थः, कथमिति आह-यतो भणितं यस्मादुक्तमिति। सर्वसाधारण के लाभ के लिए टीका में कुछ अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता थी। पर हरिभद्र सूरि की प्रायः यह पद्धति ही रही है, भले ही चाहे वह स्वोपज्ञ टीका हो अथवा किसी अन्य ग्रन्थकार द्वारा निर्मित ग्रन्थ की टीका हो। हरिभद्र सूरि की अपेक्षा मलयगिरि सूरि विरचित टीकाओं में कुछ विशेषता देखी जाती है। उन्होंने अपनी टीकाओं में व्याख्येय तत्त्व को यथासम्भव अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। किन्तु हरिभद्र सूरि ने जहाँ कुछ अधिक कहने की आवश्यकता समझी वहाँ अपनी ओर से कुछ विशेष न कहकर पूर्व परम्परा से प्राप्त सन्दर्भो को जैसा का तैसा उद्धृत कर दिया है। ऐसा सम्भवतः उन्होंने अपनी प्रामाणिकता को सुरक्षित रखने की दृष्टि से किया है, ऐसा प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ, प्रस्तुत श्रा. प्र. की ही गा. १३ में निर्दिष्ट दर्शनावरण के निद्रादि भेदों के स्वरूप को अपने शब्दों में न व्यक्त करके किसी प्राचीन ग्रन्थ से दो गाथाओं को उद्धृत करके उनके द्वारा प्रकट किया गया है। इसी प्रकार गा. ९१ में 'पेयापेय' तथा गा. ६३ में राजा व अमात्य, विद्यासाधक श्रावक व श्रावकसुता, चाणक्य और सौराष्ट्र श्रावक ये पाँच उदाहरण शंका-कांक्षादि अतिचारों के स्पष्टीकरण में दिये गये हैं। हरिभद्र सूरि ने अपनी टीका में इनकी कथाओं को अपने स्वयं के शब्दों में न लिखकर सम्भवतः उन्हें किसी अन्य ग्रन्थ से उधत कर दिया है। यही बात गा. ११५ में निर्दिष्ट 'गाथापति-सुत-चोरग्रहण-मोचन' विषयक कथा के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। इस गाथा की टीका के अन्त में तो उन्होंने अपनी प्रामाणिकता को सुरक्षित रखते हुए यह स्पष्ट भी कर दिया है कि यह अपनी बुद्धि से कल्पना नहीं की गयी है, सूत्रकृतांग में वैसा कहा गया है, इत्यादि। इसी प्रकार आगे भी उन्होंने 'तत्र वृद्धसम्प्रदायः' (२८३), 'तथा च वृद्धसम्प्रदायः' (२८५), 'भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादेव अवसेयः स चायम्' (२८८), 'इह च सामाचारी, एत्थ सामायारी, एत्थ सामायारी, एत्थ वि सामायारी' (२९१), 'एत्थ पुण सामायारी' (२९२), 'भावत्थो पुण इमो' (३२२), 'एत्थ भावणा' (३२४), 'एत्थ सामायारी' (३२६), '...भणितमागमे, तच्चेदं (३८४) इत्यादि प्रकार की सूचना करते हुए कितने ही सन्दर्भो को उद्धृत किया है जो सम्भवतः आवश्यकचूर्णि आदि के हो सकते हैं। हरिभद्र सूरि ___ उपर्युक्त टीका के कर्ता हरिभद्र सूरि हैं, यह निश्चित है। जैसी कि पीछे 'ग्रन्थकार' शीर्षक में पर्याप्त विचार-विमर्श के साथ सम्भावना व्यक्त की गयी है, हरिभद्र सूरि मूल ग्रन्थ के भी कर्ता हो सकते हैं। हरिभद्र सूरि जन्मतः वैदिक धर्मानुयायी ब्राह्मण विद्वान थे। निवासस्थान उनका चित्रकूट रहा है। सूर मूल ग्रन्थ के भी कता हो सकते है Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्रावकप्रज्ञप्तिः उन्होंने वैदिक साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया था । सौभाग्य से एक बार उन्हें याकिनी महत्तरा नाम की विदुषी साध्वी के दर्शन का सुयोग प्राप्त हुआ। उसके साथ जो उनकी धार्मिक चर्चा हुई उससे वे बहुत प्रभावित हुए। इस प्रकार से वे वैदिक सम्प्रदाय को छोड़कर जैनधर्म में दीक्षित हो गये। उनके दीक्षादाता गुरु जिनदत्त सूरि रहे हैं । हरिभद्र सूरि विरचित आवश्यकसूत्र की टीका की समाप्तिसूचक अन्तिम पुष्पिका में उन्हें श्वे. आचार्य जिनभट के निगदानुसारी और विद्याधरकुलतिलक आचार्य जिनदत्त का शिष्य निर्दिष्ट किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि हरिभद्र सूरि के विद्यागुरु जिनभट और दीक्षागुरु जिनदत्त रहे हैं। संस्कृत भाषा के तो वे पूर्व में ही अधिकारी विद्वान् रहे हैं। पश्चात् जैनधर्म में दीक्षित हो जाने पर उन्होंने प्राकृत का भी अच्छा अभ्यास कर लिया था। उनकी जैनागमविषयक कुशलता स्तुत्य रही है। इतर दर्शनों का अध्ययन उनका पूर्व में ही रहा है। इस प्रकार प्रखर प्रतिभा से सम्पन्न वे बहुश्रुत विद्वान् हुए । संस्कृत और प्राकृत के अधिकारी विद्वान् होने से उन्होंने इन दोनों ही भाषाओं में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। दर्शन, साहित्य, न्याय और योग जैसे अनेक विषयों में उनकी प्रतिभा निर्बाध गति से संचार करती रही है । यही कारण है जो उनके द्वारा विरचित इन सभी विषयों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। । मूल ग्रन्थों की रचना के साथ उन्होंने आवश्यकसूत्र, प्रज्ञापना और दशवैकालिक आदि अनेक आगम ग्रन्थों पर टीका भी की है। इन टीकाओं में उन्होंने सैकड़ों प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं, जिनसे उनकी बहुश्रुतता का परिचय सहज में मिल जाता है । याकिनी महत्तरा को उन्होंने अपनी द्वितीय जन्मदात्री धर्ममाता माना है। उसके इस महोपकार की स्मृतिस्वरूप उन्होंने प्रायः सभी स्वनिर्मित ग्रन्थों और टीकाओं के अन्तिम पुष्पिका वाक्यों में अपने को श्वेताम्बर मतानुयायी याकिनी महत्तरा का सूनु निर्दिष्ट करके कृतज्ञता का भाव व्यक्त किया है। उनका समय ई. सन् ७०० से ७७० माना जाता है। कुवलयमाला (शक सं. ७००, ई. सन् ७७८) के कर्ता उद्योतन सूरि के वे कुछ समकालीन रहे हैं । उनके द्वारा निर्मित कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ और टीकाएँ इस प्रकार हैं १. धर्मसंग्रहणी २. पंचाशकप्रकरण ३. पंचवस्तुकप्रकरण ४. धर्मबिन्दुप्रकरण 1. अष्टकप्रकरण ६. षोडशकप्रकरण १. नन्दीसूत्र २. पाक्षिक सूत्र ३. प्रज्ञापना सूत्र मूल ग्रन्थ ७. सम्बोधिप्रकरण ८. उपदेश पद ९. षड्दर्शनसमुच्चय १०. शास्त्रवार्तासमुच्चय ११. अनेकान्त जयपताका १२. अनेकान्तवादप्रवेश टीका ग्रन्थ ४. आवश्यक सूत्र ५. दशवैकालिक ६. पंचसूत्र १३. लोकतत्त्वनिर्णय १४. सम्बोधिसप्ततिप्रकरण १५. समराइच्चकहा १६. योगविंशिका १७. योगदृष्टिसमुच्चय १८. योगबिन्दु ७. अनुयोगद्वार ८. ललितविस्तरा ९. तत्त्वार्थवृत्ति 00 १. श्रीहरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णयः, पृ. १-२३ ( जैन साहित्यशोधक समाज, पूना) जैन साहित्य संशो, भाग १, अंक १, पृ. ५८ तथा 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' भाग ३, पृ. ३५९ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची गाथांक विषय १ अरहन्तों की वन्दनापूर्वक बारह प्रकार के श्रावकधर्म के कहने की प्रतिज्ञा। २ श्रावक का निरुक्तिपूर्वक लक्षण। ३-५ जिनवाणी के श्रवण से प्राप्त होनेवाले गुण। ६ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार के श्रावकधर्म का निर्देश। ७ श्रावकधर्म की मूल वस्तु के रूप में सम्यक्त्व का उल्लेख तथा उसके तीन भेदों का निर्देश। ८ सम्यक्त्व के प्रसंग में प्रथमतः जीव एवं कर्म के संयोग के कहने की प्रतिज्ञा। ९ ज्ञानावरणादि कर्मों से संयुक्त अनादिनिधन जीव का निर्देश करते हुए कर्म के आठ भेदों की सूचना। १०-११ कर्म की मूल प्रकृतियों का नामनिर्देश। १२-२६ यथाक्रम से उनकी उत्तर प्रकृतियों के नाम। २७-३० अष्ट कर्मों की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति। ३१-३३ उक्त स्थिति से युक्त कर्म की स्थिति में कुछ नियमित स्थिति के क्षीण होने पर जीव के अभिन्नपूर्व ग्रन्थि के होने का निर्देश करते हुए उसके भेदन में सम्यक्त्व की प्राप्ति की सूचना। ३४-४२ सम्यक्त्वप्राप्ति के विषय में शंका और उसका समाधान। ४३ सम्यक्त्व के क्षायोपशमिकादि तीन भेदों का निर्देश करते हुए उसके कारक आदि अन्य भेदों की सूचना। ४४ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का स्वरूप। ४५-४७ औपशमिक सम्यक्त्व का स्वरूप और उसकी प्राप्ति। ४८ क्षायिक सम्यक्त्व का स्वरूप। ४९ कारक और रोचक सम्यक्त्व का स्वरूप। ५० दीपक सम्यक्त्व का स्वरूप। ५१ मिथ्यात्व परमाणुओं के उस प्रकार के क्षयोपशम आदि के कारण सम्यक्त्व की विचित्ररूपता। ५२ उपाधि के भेद से सम्यक्त्व के अन्य दस भेदों का निर्देश। इन्हीं में उनके अन्तर्भाव की सूचना। ५३-५९ आत्मपरिणामस्वरूप उस सम्यक्त्व के अनुमापक उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चिह्नों के निर्देशपूर्वक उनका पृथक्-पृथक् लक्षण। ६० सम्यग्दृष्टि के उक्त प्रशमादि परिणामों से संयुक्त होने का निर्देश। ६१ निश्चय नय की अपेक्षा मुनिवृत्त और सम्यक्त्व की अभेदरूपता तथा व्यवहार नय की अपेक्षा सम्यक्त्व हेतु के भी सम्यक्त्व का निर्देश। ६२ तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व का लक्षण बतलाते हुए उसके होने पर नियमतः प्रशमादिकों के सद्भाव की सूचना। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः ६३-६४ तत्त्वार्थों के नामोल्लेखपूर्वक जीव के भेद-प्रभेद । ६५ संसारी जीवों की प्ररूपणामें भव्यादि द्वारों का निर्देश । ६६-६७ भव्य द्वार में भव्य - अभव्य जीवों का स्वरूप । ३८ ६८-६९ आहारक द्वार में आहारक - अनाहारक जीवों का निर्देश करते हुए उनके काल का उल्लेख । ७०-७१ पर्याप्त द्वार में अपर्याप्त और पर्याप्त जीवों का उल्लेख । ७२-७३ शुक्लपाक्षिक द्वार में शुक्लपाक्षिक व कृष्णपाक्षिक जीवों का स्वरूप व उत्पत्ति-स्थान । ७४-७५ सोपक्रम द्वार में निरुपक्रम और सोपक्रम जीवों का उल्लेख । ७६-७७ मुक्त जीवों के तीर्थंकरादि भेदों का उल्लेख । ७८ धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार अजीवों का स्वरूप । ७९ आस्रव का स्वरूप व उसके दो भेद । बन्ध का स्वरूप व उसके चार भेद 1 ८० ८१ संवर का स्वरूप व उसके हेतु । ८२ निर्जरा का स्वरूप । ८३ मोक्ष का स्वरूप । ८४-८५ इन तत्त्वार्थों के श्रद्धान- अश्रद्धान से होनेवाले गुणों व गुणाभाव की सूचना । ८६ सम्यक्त्व के शंकादि पाँच अतिचार । ८७ शंका, कांक्षा और विचिकित्सा का स्वरूप । ८८ परपाषण्डप्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव का स्वरूप । ८९-९१ शंका की अतिचारता को प्रकट करते हुए उससे सम्भव पारलौकिक और ऐहिक दोषों का दिग्दर्शन | ९२-९३ कांक्षा आदि शेष चार की अतिचारता को प्रकट करते हुए सोदाहरण उनके दोषों का दिग्दर्शन । ९४-९५ साधर्मिक - अनुपबृंहण आदि अन्य अतिचारों की भी सूचना । ९६ मुमुक्षु को इन अतिचारों के छोड़ देने की प्रेरणा । ९७ सम्यक्त्वरूप शुभ परिणाम के होने पर संक्लेश के अभाव में अतिचारों की असम्भावनाविषयक शंका । ९८-९९ उक्त शंका का समाधान । १०० - १०५ इस प्रसंग में शंकाकार की प्रतिशंका का समाधान करते हुए प्रमाद के छोड़ देने की प्रेरणा । १०६-१०७ पाँच अणुव्रतों का निर्देश करते हुए प्रथम अणुव्रत का स्वरूप एवं संकल्प तथा आरम्भ से होनेवाले वध में संकल्प से उसके छोड़ देने की प्रेरणा । १०८ अणुव्रतग्रहण की विधि का निर्देश करते हुए उसके पालन की प्रेरणा । १०९-११० शंकाकार द्वारा देशविरति परिणाम के होने व न होने पर दोनों पक्षों में दोषोद्भावन । १११-११३ शंकाकार द्वारा उद्भावित दोषों का निराकरण । ११४- ११८ प्रथम अणुव्रत में स्थूलप्राणातिपात का प्रत्याख्यान करानेवाले साधु के सूक्ष्मप्राणातिपात में अनुमति के होने की शंका को उठाते हुए उसका समाधान । ११९-१२३ सामान्य से त्रसघातविरति के कराने पर त्रसकाय से स्थावरकाय को प्राप्त हुए जीवों के वध से व्रत के भंग होने की सम्भावना के कारण सामान्य से करायी गयी त्रसघातविरति को सदोष बतलानेवालों का पूर्वपक्ष । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १२३-१३२ उपर्युक्त पूर्वपक्ष का निराकरण। १३३-१६३ पाप के कारण संसार में परिभ्रमण करनेवाले दुखी जीवों के वध की निवृत्ति कराना उचित नहीं है, किन्तु सुखी जीवों के ही वध की निवृत्ति कराना उचित है, इस संसारमोचकों के मत का अनेक शंका-समाधानपूर्वक निराकरण। १६४-१७५ कुछ वादी आगन्तुक दोषों की सम्भावना से-जैसे हिंस्र सिंहादि के वध की निवृत्ति से उनके द्वारा किसी युगप्रधान के भक्षित होने पर उसके अभाव में होनेवाली तीर्थहानि की सम्भावना से-प्राणिवध की निवृत्ति को पापजनक मानते हैं, उन अभिमत को प्रकट करते हुए उसका निराकरण। १७६-१९१ जीव के नित्य-अनित्य व शरीर से भिन्न-अभिन्न पक्षों में वध की निवृत्ति को निर्विषय बतलानेवाले कितने वादियों के अभिमत का अनेक शंका-समाधानपूर्वक निराकरण। १९२-२०८ अकालमरण के असम्भव होने से प्राणिवध की निवृत्ति को वन्ध्यापुत्र के मांसभक्षण की निवृत्ति के समान निरर्थक ठहरानेवालों के अभिप्राय को दिखलाते उसका निराकरण। २०९-२२० अन्य कितने ही वादियों का कहना है कि जिसने जो कर्म किया है उसे उसका फल सहकारी कारणों की अपेक्षा करके अवश्य भोगना पड़ेगा, इस प्रकार उसके वध में निमित्त होनेवाले वधक का कोई दोष नहीं है, अपराध उसी वध्य प्राणी का है जिसने उसके निमित्त से मरने का वैसा कर्म किया है, इसीलिए वध-निवृत्ति का कुछ फल सम्भव नहीं है। इन वादियों के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए उसका निराकरण। २२१-२३४ कुछ वादियों का अभिमत है कि बाल व कुमार आदि के वध में अधिक कर्म का उपक्र से पाप अधिक और वृद्ध आदि के वध में कर्म का अल्प उपक्रम होने से पाप अल्प होता है, उनके इस अभिमत को स्पष्ट करते हुए उसका निराकरण । २३५-२५५ अन्य कुछ का कहना है कि कृमि-पिपीलिका आदि प्राणियों का वध सम्भव है. उनके वध की निवृत्ति कराना उचित है, किन्तु नारक आदि का वध असम्भव है, उनके वध की निवृत्ति का कुछ फल सम्भव नहीं है, उनके अभिमत को प्रकट करते हुए उसका निराकरण। २५६ इस प्रकार मिथ्यादर्शन के वशीभूत होकर कितने ही वादी जो अयुक्तिसंगत मत व्यक्त करते हैं उसे निःसार समझ लेने की प्रेरणा। २५७-२५९ व्रत को स्वीकार करके व उसके अतिचारों को जानकर उनके परिहार की प्रेरणा करते हुए प्रथम अहिंसाणुव्रत के अतिचारों के निर्देशपर्वक त्रसरक्षा के उपायों का दिग्दर्शन। २६०-२६४ द्वितीय अणुव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार । २६५-२६९ तृतीय अणुव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार। २७०-२७४ चतुर्थ अणुव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार। २७५-२७९ पाँचवें अणुव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार। २८०-२८३ प्रथम गुणव्रत का स्वरूप, उससे होनेवाला लाभ और उसके अतिचार। २८४ द्वितीय गुणव्रत का स्वरूप। २८५-२८६ द्वितीय गुणव्रत के दो भेदों का उल्लेख करते उसके अतिचारों का निर्देश। २८७-२८८ कर्माश्रित उपभोग-परिभोगपरिमाण के प्रसंग में अंगार कर्म आदि १५ अतिचारों का निर्देश। २८९-२९१ तृतीय गुणव्रत का स्वरूप और उसके अतिचार। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्रावकप्रज्ञप्तिः २९२ प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत का स्वरूप। २९३-२९४ सामायिक में अधिष्ठित श्रावक की साधुता के विषय में शंका व उसका समाधान। २९५-३११ दो प्रकार की शिक्षा, गाथा, उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, वेदना, प्रतिप अतिक्रम इन दस द्वारों के आश्रय से क्रमशः साधु और श्रावक के मध्यगत भेद का प्रदर्शन। ३१२-३१७ सामायिक के पाँच अतिचारों का स्वरूप। ३१८-३२०. द्वितीय देशावकाशिक शिक्षाव्रत का स्वरूप व उसके अतिचार। . ३२१-३२२ तृतीय शिक्षाव्रत का स्वरूप व उसके आहारपौषध आदि चार भेदों में प्रत्येक के देश व सर्व । की अपेक्षा दो भेदों का निर्देश करते हुए उनमें सामायिक के करने व न करने की विशेषता। ३२३-३२४ तृतीय शिक्षाव्रत के अतिचार।। ३२५-३२७ अन्तिम (चतुथ) शिक्षाव्रत का स्वरूप व उसके अतिचार । ३२८ उक्त अणुव्रतादि में यावत्कथिक कौन और इत्वर कौन, इसका निर्देश। ३२९-३३१ श्रावकधर्म में १४७ प्रत्याख्यान भेदों का निर्देश। ३३२ उक्त प्रत्याख्यान भेदों में श्रावक की अनुमति के विषय में शंका और उसका समाधान। ३३३-३३५ इस प्रसंग में मतान्तर का उल्लेख व उससे सम्बद्ध अन्य शंका-समाधान। ३३६-३३८ मन से करने, कराने व अनुमति के विषय में शंका और उसका समाधान। - ३३९-३४२ श्रावक कैसे स्थान में निवास करे, उसकी विशेषता को प्रकट करते हुए उससे होनेवाले लाभ ' का दिग्दर्शन। ३४३-३४४ श्रावक सोते से उठते हुए क्या करे। ३४५-३५० चैत्यपूजा में होनेवाले कुछ प्राणिवध से तथा उससे पूज्यों का कुछ उपकार भी न होने से उसका निषेध करनेवालों की आशंका का समाधान। ३५१ धर्म गुरुसाक्षिक होता है, इसीलिए पूर्व में स्वयं ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान के गुरुसाक्षी में पुनः ग्रहण करने की प्रेरणा। ३५२-३६४ साधु के समीप में धर्म को सुनकर तत्पश्चात् श्रावक क्या करे। ३६४-३७५ विहारकालीन विधि। ३७६ अन्य आभिग्रहों के साथ प्रतिमादिकों की विधेयता। ३७७ चारित्रमोह के उदयवश दीक्षा के अभाव में मरणकाल के उपस्थित होने पर विधिपूर्वक मारणान्तिक संलेखना के आराधन का विधान। ३७८-३८१ संलेखना का आराधक श्रावक जब समस्त आरम्भ आदि क्रियाओं को छोड़ देता है, तब वह दीक्षा को ही क्यों नहीं स्वीकार करता, इस शंका का समाधान। ३८२-३८४ कितने ही आगम से अनभिज्ञ यह कहते हैं कि संलेखना को चूँकि बारह प्रकार का गृहस्थधर्म नहीं कहा गया, इससे उसमें यति को अधिकृत समझना चाहिए, न कि गृहस्थ को इस अभिप्राय का निराकरण। ३८५ संलेखना के अतिचारों का निर्देश करते हुए संसारपरिणाम के चिन्तन की प्रेरणा। ३८६-४०० जन्मपरिणामादिरूप संसारपरिणाम का चिन्तन किस प्रकार करे, इसे स्पष्ट करते हुए उससे होनेवाले लाभ का दिग्दर्शन। ४०१ ग्रन्थकार द्वारा अपनी निरभिमानता का प्रकट करना। 00 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्रसूरिविरचितवृत्तिसमन्विता श्रावकप्रज्ञप्तिः (सावयपन्नत्ती) स्मरणं यस्य सत्त्वानां तीव्रपापौघशान्तये। उत्कृष्टगुणरूपाय तस्मै श्रीशान्तये नमः॥१॥ स्वपरोपकाराय श्रावकप्रज्ञप्त्याख्यप्रकरणस्य व्याख्या प्रस्तूयते । तत्र चादावेवाचार्यः शिष्ट. समयप्रतिपालनाय विघ्नविनायकोपशान्तये प्रयोजनादिप्रतिपादनार्थ चेदं गाथासूत्रमुपन्यस्तवान्-- अरहंते वंदित्ता सावगधम्म दुवालसविहं पि । वोच्छामि समासेणं गुरूवएसाणुसारेणं ॥१॥ इह हि शिष्टानामयं सभयो यदुत शिष्टाः क्वचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सन्त इष्टदेवता. नमस्कारपूर्वकं प्रवर्तन्त इति । अयमप्याचार्यो न हि न शिष्ट इत्यतस्तत्समयप्रतिपालनाथ, तथा श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्तीति, उक्तं च श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि। अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ।। इदं च प्रकरणं' सम्यरज्ञानहेतुत्वाच्छेयोभूतं वर्तते अतो माभूद्विघ्न इति विघ्नविनायकोपशान्तये, तथा प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रयोजनादिविरहेण न क्वचित्प्रवर्तन्त इत्यतःप्रयोजनादिप्रतिपादनार्थ च। तत्र अरहन्ते वंदित्ता इत्यनेनेष्टदेवतानमस्कारमाह, अयमेव विघ्नविनायकोपशमहेतुः । सावगधम्ममित्यादिना तु प्रयोजनादि त्रयम्, इति गाथासमुदायार्थः॥ ग्रन्थको प्रारम्भ करते हुए आचार्य यहाँ सर्वप्रथम शिष्टाचारके परिपालन, विघ्नोंके निराकरण और प्रयोजन आदिको प्रकट करनेके लिए यह गाथासूत्र कहते हैं ___ मैं ( ग्रन्थकार ) अरहन्तोंको वन्दना करके गुरुके उपदेशानुसार संक्षेपमें बारह प्रकारके श्रावक धर्मको कहँगा। विवेचन-शिष्ट जनको यह पद्धति रही है कि वे जब किसी अभीष्ट कार्यमें प्रवृत्त होते हैं तब वे प्रथमतः अपने अभीष्ट देवको नमस्कार किया करते हैं। तदनुसार ग्रन्थकारने भी यहाँ सर्वप्रथम अपने अभीष्ट देव अरहन्तोंको नमस्कार किया है। यह प्रायः प्रसिद्ध है कि श्रेयस्कर कार्यमें बहुतसे विघ्न आया करते हैं। वे विघ्न यहाँ कल्याणकर इस श्रावक प्रज्ञप्ति प्रकरणके रचनेमें १. अ प्रकीणं । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१___ अवयवाथस्तु अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीत्यहन्तस्तीर्थकरास्तानहतः। वन्दित्वा अभिवन्ध। श्रावका वक्ष्यमाणशब्दार्थाः, तेषां धर्मस्तम। किंभूतम? द्वादश विधाः प्रकारा अस्येति द्वादशविधस्तं द्वादशविधमपि संपूर्ण नाणुव्रतायेकदेशप्रतिबद्धमिति । वक्ष्येऽभिधास्ये । ततश्च यथोदितश्रावकधर्माभिधानमेव प्रयोजनम् । स एवाभिधीयमानोऽभिधेयम् । साध्य-साधनलक्षणश्च संबन्धः। तत्र साध्यः प्रकरणार्थः, साधनमिदमेव वचनरूपापन्नमिति ॥ आह-यद्येवं नार्थोऽनेन, पूर्वाचार्यैरेव यथोदितश्रावकधर्मस्य ग्रन्थान्तरेष्वभिहितत्वात् । उच्यतेसत्यमभिहितः प्रपञ्चेन, इह तु संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहार्थ समासेण संक्षेपेणं वक्ष्ये। किं स्वमनीषि कया ? नेत्याह-गुरूपदेशानुसारेण-गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुस्तस्मादुपदेशो गुरूपदेशस्तदनुसारेण तन्नोत्येत्यर्थः॥१॥ श्रावकधर्मस्य प्रकान्तत्वात्तस्य श्रावकानुष्ठातृकत्वाच्छावकशब्दार्थमेव प्रतिपादयति संपत्तदंसणाई पइदियहं जइजणा सुणेई य । सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बिन्ति' ॥२॥ संप्राप्तं दर्शनादि येनासौ संप्राप्तदर्शनादिः। दर्शनग्रहणात्सम्यग्दृष्टिरादिशब्दादणुव्रतादिपरिग्रहः । अनेन मिथ्यादृष्टेव्यु दासः। स इत्थंभूतः। प्रतिदिवसं प्रत्यहम्। यतिजनात्साधुलोकात् । शृणोतीति शृणोत्ये । किम् ? सामाचारों परमाम् । तत्र समाचरणं समाचारः शिष्टाचरितः क्रियाकलापः, तस्य भावो गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि व्यञ् सामाचार्यम्, पुनः स्त्रीविवक्षायां उपस्थित न हों, इस उद्देश्यसे ग्रन्थकर्ताने प्रथमतः अरहन्तोंको नमस्कार किया है। जो अशोकवृक्ष आदि आठ प्रातिहार्यादि स्वरूप पूजाके योग्य होते हैं वे अरहन्त कहलाते हैं। यह 'अरहन्त' का निरुक्तार्थ है । इस प्रकार मंगलके करनेसे पूर्वोक्त शिष्ट जनको उस पद्धतिका परिपालन हो जाता है। ग्रन्थ रचनाका प्रयोजन श्रावक धर्मको प्ररूपणा है, इसकी सूचना भी प्रकृत मंगल गाथामें कर दी गयी है। साथ ही इस गाथामें जो 'गुरूपएसाणुसारेण' यह निर्देश किया गया है उससे ग्रन्थकारने अपनी प्रामाणिकताको प्रकट करते हुए यह भी सूचना कर दी है कि मैं जो इसमें श्रावकधर्मका व्याख्यान कर रहा हूँ वह गुरु परम्परासे प्राप्त ही उस श्रावकधर्मका व्याख्यान कर रहा हूँ, न कि अपनी कल्पनासे । इस श्रावकधर्म के प्ररूपक अन्य ग्रन्थ भी यद्यपि ग्रन्थकारके समक्ष .विद्यमान थे, पर उनसे संक्षेपमें रुचि रखनेवाले शिष्योंको लाभ नहीं हो सकता था, इससे ग्रन्थकारने संक्षेपमें इस ग्रन्थके रचनेका उपक्रम किया है ॥१॥ आगे 'श्रावक' शब्दके अर्थका प्रतिपादन करते हैं जो सभ्यग्दर्शन आदिको प्राप्त करके प्रतिदिन मुनि जनसे उत्कृष्ट सामाचारीको सुनता है उसे श्रावक कहते हैं! विवेचन-गाथामें जो 'सपत्तदंसणाई' ऐसा कहा है उससे यह अभिप्राय प्रकट कर दिया है कि प्रकृत श्रावक धर्मके अनुष्ठानका अधिकारी सम्यग्दृष्टि श्रावक ही होता है, मिथ्यादृष्टि उसके अनुष्ठानका अधिकारी नहीं है । 'दर्शन' के साथ जो 'आदि' शब्दको ग्रहण किया गया है उससे अणुव्रत आदिका ग्रहण भी अभीष्ट रहा है। शिष्ट जनके द्वारा आचरित जो क्रियाकलाप साधु १. अ बेंति । २. म त् शृणोत्येव । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४] श्रावकस्वरूपम् षिद्गौरादिम्यश्चेति टाप् यस्येत्यकारलोपः, यस्य हल इत्यनेन तद्धित-यकारलोपः, परगमनं सामाचारी, तां सामाचारीम् । परमां प्रधानाम्, साधु-श्रावकसंबद्धामित्यर्थः। यः खलु य एव शृणोति । तं श्रावकं ब्रवते तं श्रावकं प्रतिपादयन्ति भगवन्तस्तीथंकरगणधराः। ततश्चार्य पिण्डार्थः-अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्साधूनामगारिणां च सामाचारों शृणोतीति श्रावकः इति ॥२॥ सांप्रतं श्रवणगुणान् प्रतिपादयति नवनवसंवेगो खलु नाणावरणखओवसमभावो। तत्ताहिगमो य तहा जिणवयणायन्नणस्स गुणा ॥३॥ नवनवसंवेगः प्रत्यग्रः प्रत्यग्नः संवेगः आन्तिःकरणता। मोक्षसुखाभिलाष इत्यन्ये । खलुशन्वः पूरणार्थः, संवेगस्य शेषगुणनिबन्धनत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थो वा । तथा ज्ञानावरणक्षयोपशमभावः ज्ञानावरणक्षयोपशमसत्ता संवेगादेव । तत्त्वाधिगमश्च तत्त्वातत्त्वपरिच्छेदश्च । तथा जिनवचनाकर्णनस्य तीर्थकरभाषितश्रवणस्यैते गुणा इति । तीर्थकरभाषिता चासौ सामाचारोति ॥३॥ किं च देह-स्वजन-वित्तप्रतिबद्धः कश्चिदहृदयो न शृणोतीत्येषामसारताख्यापनाय जिनवचनश्रवणस्य सारतामुपदर्शयन्नाह न वि तं करेइ देहो न य सयणो नेय वित्तसंघाओ। जिणवयणसवणजणिया जं संवेगाइया लोए ॥४॥ और श्रावकसे सम्बद्ध होता है उसका नाम सामाचारो है । अभिप्राय यह है कि जिसने सम्यग्दर्शनके साथ अणुव्रत आदिको स्वीकार कर लिया है तथा जो प्रतिदिन साधु जनसे मुनि व श्रावकके आचारको सुनता है उसे श्रावक समझना चाहिए ॥२॥ . अब जिनागमके सुननेसे प्राप्त होनेवाले गुणोंका निर्देश किया जाता है नवीन-नवीन संवेग, ज्ञानावरणका क्षयोपशम और तत्त्वका परिज्ञान ये जिनवचनके सुननेके गुण हैं। विवेचन-यहां जिन देवके द्वारा उपदिष्ट उस सामाचारीके सुननेसे क्या लाभ होता है, इसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि उत्तरोत्तर आविर्भूत होनेवाली हृदयकी निर्मलताके साथ नवीन नवीन संवेगका प्रादुर्भाव होता है। अन्तःकरणकी आर्द्रता-निर्मल परिणतिका नाम संवेग है । अन्य आचार्यों के अभिमतानुसार मोक्षसुख की जो अभिलाषा हुआ करती है उसे संवेग कहा जाता है। इस संवेगके साथ उक्त जिनवाणोके सुननेसे ज्ञानके आवारक ज्ञानावरण कर्मका विशिष्ट क्षयोपशम भी होता है, जिससे श्रोताको तत्त्व-अतत्त्वका विवेक भी प्रादुर्भूत होता है। यह उस जिनवाणीके सुननेका महान् लाभ है ॥३॥ निःसार शरीर आदिकी अपेक्षा जिनवचन श्रवणकी श्रेष्ठता लोकमें जिनवाणीके सुननेसे प्रादुर्भूत संवेग आदि जिस शाश्वतिक सुखको उत्सन्न करते हैं उसे न तो शरीर उत्पन्न कर सकता है, न कुटुम्बी जन उत्पन्न कर सकते हैं, और न धन-सम्पत्तिका समुदाय भी उत्पन्न कर सकता है। १. मति डोप् (टाप् ) यस्य । २. अ 'प्रधानाम्' नास्ति। ३. अ व्रतेपि । ४. हि। ५. म गुणनवनवत्वेन । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः .. [५ - नापि तत्करोति देहो न च स्वजनो न च वित्तसंघातः जिनवचनश्रवणजनिता यत्संवेगावयो लोके कुर्वन्ति । तथाहि-अशाश्वतः प्रतिक्षणभङ्गरो देहः, शोकायासकारणम्, क्षणिकसंगमश्च स्वजनः, अनिष्टितायासव्यवसायास्पदं च वित्तसंघात इत्यसारता। तीर्थकरभाषिताकर्णनोद्भवाश्व संवेगादयो जाति-जरा-मरण-रोग-शोकायुपद्रवतातरहितापवर्गहेतव इति सारता। अतः श्रोतव्यं जिनवचनमिति ॥४॥ अथवा होइ दढं अणुराओ जिणवयणे परमनिव्वुइकरम्मि । सवणाइगोयरो तह सम्मदिहिस्स जीवस्स ॥५॥ यद्वा किमनेन ? निसर्गत एव भवति जायते । दृढमत्यर्थमनुरागः प्रीतिविशेषः। का? जिनवचने तीर्थकरभाषिते । किविशिष्टे ? परमनिर्वृतिकरे उत्कृष्टसमाधिकरणशीले। किंगोचरो विवेचन-शरीर स्वभावतः अपवित्र, रोगोंका स्थान व विनश्वर है। कुटुम्बी जनका संयोग भी सदा रहनेवाला नहीं है। जिस प्रकार पक्षी इधर-उधरसे आकर रात्रिमें किसी एक ही वृक्षके ऊार निवास करते हैं और सवेरा हो जानेपर वे अपने-अपने कार्यके वश विभिन्न दिशाओं में चले जाते हैं उसी प्रकार माता-पिता, स्त्री व पुत्र आदि अपने-अपने कर्मके अनुपार कुछ समयके लिए एक कुटुम्बके रूप में एकत्र अवस्थित रहते हैं तथा आयुके पूर्ण हो जानेपर वे यथासमय विभिन्न पर्यायोंको प्राप्त होकर विभक्त हो जाते हैं ( इष्टोपदेश ८-९ )। इसके अतिरिक्त जबतक परस्परमें एक दूसरेका स्वार्थ सधता है तबतक तो उनमें स्नेह बना रहता है, किन्तु स्वार्थके विघटित होनेपर उन्होंमें परस्पर शत्रुताका भाव भी उदित हो जाता है। इस प्रकारसे वे संद श्री कारण बन जाते हैं। धन भी वस्तुतः सुखका कारण नहीं है। प्रथम तो उस धनके उपार्जनमें अतिशय परिश्रम करना पड़ता है, इसके अतिरिक्त उसके उपार्जनमें न्याय-अन्यायका भी विवेक नहीं रहता। तत्पश्चात् संचित हो जाने पर उसके संरक्षणको चिन्ता व्यथित करती है। फिर रक्षाका प्रयत्न करनेपर भी यदि वह चोर आदिके द्वारा अपहृत कर लिया जाता है तो अतिशय कष्टका कारण बन जाता है। (क्षत्रचूडामणि २-६७ ) इसके अतिरिक्त जब परस्परमें उसके विभाजनका समय उपस्थित होता है तब वही पिता-पुत्र व भाई-भाईमें प्रबल वैरभावका भी कारण बन जाता है। इस प्रकार यथार्थताका विचार करनेपर उपर्युक्त शरीर, कौटुम्बिक जन और धन आदि चूंकि स्पष्टतः दुखके कारण हैं, अतएव वे असार ही हैं। इसके विपरीत जिनवाणोके श्रवणसे जो संवेग आदि प्रादुर्भूत होते हैं जन्म, जरा, मरण एवं रोग-शोकादिको दूर कर चूंकि शाश्वतिक व निर्बाध मुक्तिसुखक कारण होते हैं, इसलिए वे ही वस्तुतः सारभूत हैं। यही कारण है जो यहाँ उन सारभूत संवेगादिकी प्राप्तिके लिए जिन वचनके श्रवणकी प्रेरणा की गयी है ।।४।। अथवा सम्यग्दृष्टि जीवके उत्कृष्ट सुखको कारणभूत जिनवाणीके सुनने आदि विषयक दृढ़ अनुराग स्वयं होता है। विवेचन -पीछे गा. २ में 'श्रावक' शब्दकी निरुक्तिपूर्वक यह बतलाया था कि जो यति जनसे धर्मको सुना करता है उसका नाम श्रावक है। तत्पश्चात् आगे गा. ३ में उस जिनवाणीके सुननेसे उत्पन्न होनेवाले गुणोंका निर्देश करते हुए यह कहा गया था कि जिनवाणीके सुननेसे चूंकि संवेग आदि गुण प्रकट होते हैं, इसीलिए श्रावक उसके सुनने में प्रवृत्त होता है। अब यहाँ १. अंतासद्वयव । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवचनश्रवणमाहात्म्य ऽनुरागो भवतीत्यत्राह-श्रवणादिगोचरः श्रवण-श्रद्धानानुष्ठानविषय इत्यर्थः । तथा तेन प्रकारेण । कस्येत्यत्राह-सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य, प्रक्रान्तत्वाच्छावकस्येत्यर्थः। अतोऽसौ श्रवणे प्रवर्तत एव । ततश्च शृणोतीति श्रावक इति युक्तम्, इति गाथाभिप्रायः ॥५॥ निरूपितः श्रावकशब्दार्थः । सांप्रत द्वादशविधं श्रावकधर्ममुपन्यस्यन्नाह पंचेव अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं च हुंति तिन्नेव । सिक्खावयाई चउरो सावगधम्मो दुवालसहा ॥६॥ पञ्चेति सङ्ख्या। एवकारोऽवधारणे-पञ्चैव, न चत्वारि षड्वा । अणूनि च सानि व्रतानि चाणुनतानि, महावतापेक्षया चाणुत्वमिति, स्थूलप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपाणीत्यर्थः। गुणव्रतानि च भवन्ति त्रीण्येव, न न्यूनाधिकानि वा । अणुव्रतानामेवोत्तरगुणभूतानि व्रतानि दिग्वत-भोगोपभोगपरिमाणकरणानर्थदण्डविरतिलक्षणानि, एतानि च भवन्ति त्रीण्येव । शिक्षापदानि च शिक्षावतानि वा--तत्र शिक्षा अभ्यासः, स च चारित्रनिबन्धनविशिष्ट क्रियाकलापविषयस्तस्य पदानि स्थानानि, तद्विषयाणि वा व्रतानि शिक्षाप्रतानि । एतानि च बत्वारि सामायिक-देशावकाशिक-प्रोषधोपवासातिथिसंविभागाख्यानि । एवं श्रावकधर्मो द्वादशमा द्वादशप्रकार इति गाथासमासार्थः । अवयवाथं तु महता प्रपञ्चेन ग्रन्थकार एव वक्ष्यति ॥६॥ तथा बाहप्रकारान्तरसे यह दिखलाते हैं कि सभ्यग्दृष्टि जीवका अनुराग उस जिनवाणीके सुनने, श्रद्धान करने और तदनुसार आचरण करने में स्वयमेव हुआ करता है । इसीसे वह उसके सुनने में संवेगादि गुणोंकी अपेक्षा न करके भी स्वयं प्रवृत्त होता है। इसलिए जो जिनवाणीको सुनता है वह श्रावक कहलाता है, यह जो श्रावकका लक्षण कहा गया था उसे सार्थक ही समझना चाहिए। यहां यह स्मरणीय है कि श्रावक सम्यग्दृष्टि ही होता है, बिना सम्यग्दर्शनके यथार्थतः कोई श्रावक नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टि जीवके वैसा धर्मानुराग सम्भव नहीं है ।।५।। इस प्रकार श्रावकके लक्षणको दिखलाकर अब उसके बारह प्रकारके धर्मका निर्देश किया जाता है पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकारसे वह श्रावक धर्म बारह प्रकारका है। विवेचन-स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म (मैथुन) और परिग्रह इसके परित्यागका नाम अणुव्रत है। ये अणुव्रत पांच ही होते हैं, हीनाधिक नहीं होते, यह गाथामें 'पंच' शब्दके साथ उपयुक्त 'एव' पदके द्वारा सूचित कर दिया गया है । 'अणुव्रत'में जो 'अणु' विशेषण है वह महाव्रतोंकी अपेक्षा इन व्रतोंकी अणुताको सूचित करता है। कारण यह कि श्रावकके ये व्रत मुनिके महाव्रतोंकी अपेक्षा अल्प मात्रामें ही हुआ करते हैं। वह मुनिके समान उक्त हिंसादि पापोंका पूर्ण रूपसे त्याग नहीं कर सकता, किन्तु स्थूल रूप में ही वह उनका त्याग कर सकता है । इन अणुव्रतोंके उत्तर गुणस्वरूप व्रतोंका नाम गणव्रत है। वे दिग्व्रत, भोगोपभोगपरिमाणकरण और अनथदण्ड विरतिके भेदसे तीन ही हैं। 'शिक्षा' का अर्थ अभ्यास और 'पद' का अर्थ स्थान होता है। तदनुसार जो व्रत चारित्रसे सम्बद्ध विशिष्ट क्रियाकलापविषयक शिक्षाके स्थान होते हैं या उसको विषय करते उन्हें शिक्षापद या शिक्षाव्रत कहा जाता है । वे चार हैं-सामायिक, देशावकाशिक, १. अहोति । २. अ अतोऽग्रेऽग्रिम शिक्षावतानि'पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः एयस्स मूलवत्थू सम्मत्तं तं च गंठिभेयम्मि । खयवसमाइ तिविहं सुहायपरिणामरूवं तु ||७|| एतस्यानन्तरोपन्यस्तस्यं श्रावकधर्मस्य । मूलवस्तु सम्यक्त्वम् - वसन्त्यस्मिन्नणुव्रतादयो गुणास्तद्भावभावित्वेनेति वस्तु, मूलभूतं च तद्वस्तु च मूलवस्तु । किं तत् ? सम्यक्त्वम् । उक्तं चमूलं द्वारं प्रतिष्ठानमाधारो भाजनं निधिः । [ ७ द्विषट्कस्यास्य धर्मस्य सम्यक्त्वं परिकीर्तितम् ॥ १ ॥ तच्च सम्यक्त्वं ग्रन्थिभेदे वक्ष्यमाणलक्षणक मंग्रन्थिभेवे सति भवति, नान्यथेति भावः । तच्च क्षायोपशमिका दिभेदात् त्रिविधम् - क्षायोपशमिकमौपशमिकं क्षायिकं च यद्वा कारकादि । शुभात्मपरिणामरूपं तु - शुभः संक्लेशर्वाजित आत्मपरिणामो जीवधर्मो रूपं यस्य तच्छुभात्मपरिणामरूपम् । तुरवधारणे - शुभात्मपरिणामरूपमेव । अनेन तद्वद्यतिरिक्तलिङ्गाविधर्मardच्छेदमाह, व्यतिरिक्तधर्मत्वे तत उपकारांयोगादिति ॥७॥ जं जीवकम्मजोए जुज्जइ एयं अओ तयं पुबि । वोच्छं तओ कमेणं पच्छा तिविहं पि सम्मत्तं ||८|| प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग । इस प्रकारसे श्रावक धर्मं बारह ( ५+३+४) प्रकारका है ||६|| अब उस श्रावक धर्मका आधार सम्यग्दर्शन है, इसे दिखलाते हैं इस बारह भेदरूप श्रावक धर्मकी मूल वस्तु सम्यक्त्व है । वह ग्रन्थिके—कर्मरूप गांठ— भेदे जानेपर सम्भव है । शुभ आत्मपरिणामस्वरूप वह सम्यक्त्व क्षायोपशमादिके भेदसे तीन प्रकारका है । विवेचन - यहां सम्यक्त्रको उपर्युक्त श्रावक धर्मंकी मूल वस्तु कहा गया है । 'वसन्ति अस्मिन् अणुव्रतादयो गुणा इति वस्तु' इस निरुक्तिके अनुसार जिसके होनेपर अणुव्रत आदि रूप गुण निवास करते हैं उसे वस्तु कहा जाता है। तदनुसार जब उस सम्यक्त्व के होनेपर उसके आश्रयसे हो वे अणुव्रत आदि गुण रहते हैं और उसके बिना नहीं होते तब वैसी अवस्था में उक्त सम्यक्त्व को श्रावक धर्मकी मूल वस्तु कहना संगत ही है । अभिप्राय यह है कि आत्माके शुभ परिणामस्वरूप वह सम्यक्त्व जब प्रकट हो जाता है तब कहीं अणुव्रतादिरूप वह श्रावक धर्म हो सकता है, उसके बिना उसका होना सम्भव नहीं है । जीव-अजोवादिरूप तत्त्वार्थों के श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है । वह अपूर्वकरण परिणामके द्वारा कर्मरूप गाँठके भेदे जानेपर ही प्रादुर्भूत होता है, उसके बिना उसका होना सम्भव नहीं है । वह तीन प्रकारका है - क्षायोपशमिक, ओपशमिक और क्षायिक | अथवा प्रकारान्तरसे उसके ये अन्य तीन भेद भी निर्दिष्ट किये गये हैं- कारक, रोचक और व्यंजक | आगे इन सम्यक्त्व भेदोंका कथन ग्रन्थकार स्वयं करनेवाले हैं (४३-५० ) । प्रकृतमें जो उस सम्यक्त्व - को निर्मल आत्मस्वरूप बतलाया गया है उससे आत्मपरिणति से भिन्न बाह्य लिंग (वेष ) आदिका निषेध कर दिया गया है । कारण यह है कि बाह्य लिंगादिस्वरूप मान लेनेपर उसके द्वारा आत्माका उपकार सम्भव नहीं है ||७|| वह सम्यक्त्व चूँकि जीव और कर्मका सम्बन्ध होनेपर ही घटित होता है, अतः पहले यहाँ उस जीव और कर्मके सम्बन्धके कथनकी प्रतिज्ञा १. अ धर्म्मलिंगव्यवं । २. अ जुज्जए एयं अउ तयं पुव्धं । ३. अतउ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा यतों यस्मात् कारणात् । जीव-कर्मयोगे जीवकर्मसंबन्धे सति । युज्यते एतत् घटते इदं सम्यक्त्वम्, कर्मक्षयोपशमादिरूपत्वात् । अतोऽस्मात्कारणात् । तकं जीवकर्मयोगम् । पूर्वमादौ । वक्ष्येऽभिधास्ये। ततस्तदुतरकालम् । क्रमेण परिपाट्या । पश्चास्त्रिविधमपि क्षायोपशमिकादि सम्यक्त्वं वक्ष्य इति ॥८॥ तत्राह जीवो अणाइनिहणो नाणावरणाइकम्मसंजुत्तो। मिच्छत्ताइनिमित्तं कम्मं पुण होइ अविहं ॥९॥ जीवतीति जीवः । असौ अनादिनिधनः अनावपर्यवसित इत्यर्थः । स च ज्ञानावरणादिकर्मणा समेकीभावेनान्योन्यव्याप्त्या युक्तः संबद्धो ज्ञानावरणादिकर्मसंयुक्तः। मिथ्या | मिथ्यात्वादिनिमित्तं मिथ्यात्वादिकारणम्, मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतव इति वचनात् । कर्म पुनर्ज्ञानावरणादि भवत्यष्टविधमष्टप्रकारमिति ॥९॥ तथा चाह पढम नाणावरणं बीयं पुण होइ सणावरणं । तइयं च वेयणीयं तहा चउत्थं च मोहणियं ॥१०॥ प्रथममाद्यम् । ज्ञानावरणम् आवियतेऽनेनावृणोतीति वावरणम्, ज्ञानस्यावरणं ज्ञानावरणम्, ज्ञानं मतिज्ञानादि । द्वितीयं पुनर्भवति दर्शनावरणम्-पुनःशब्दो विशेषणार्थः, सामान्यावबोधावारकत्वात् । दर्शनं चक्षुर्दर्शनादि । तृतीयं च वेदनीयं--सातासातरूपेण वेद्यत इति वेदनीयम्, रूढशब्दात्पङ्कजादिवत् । तथा चतुथं कर्म किम्, अत आह मोहनीयम्-मोहयतीति मोहनीयम्, मिथ्यात्वादिरूपत्वादिति ॥१०॥ आऊअ नाम गोयं चरमं पुण अंतराइयं होइ । मूलपयडीउ एया उत्तरपयडी अओ वुच्छं ॥११॥ यतः वह सम्यक्त्व जीव और कर्मका सम्बन्ध होनेपर घटित होता है, अतः यहां पहले उस जीव और कर्मके सम्बन्धका निरूपण करेंगे और तत्पश्चात क्रमसे उस तीन प्रकारके सम्यक्त्वका वर्णन किया जायेगा ।।८।। जीवका ज्ञानावरणादि कर्मों के साथ संयोग जीव अनादि व अनिधन होकर ज्ञानावरणादि कर्मोंसे संयुक्त है। मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे बन्धको प्राप्त होनेवाला वह कर्म आठ प्रकारका है ।।९।। कर्मको आठ मूल प्रकृतियोंमें प्रथम चार प्रकृतियोंका नामोल्लेखप्रथम ज्ञानावरण, दूसरा दर्शनावरण, तीसरा वेदनीय और चौथा मोहनीय ॥१०॥ शेष चार मूल प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हुए उत्तर प्रकृतियोंके कथनकी प्रतिज्ञा आयु, नाम, गोत्र और अन्तिम अन्तराय, ये उस कर्मको शेष चार मूल प्रकृतियां हैं। अब आगे उत्तर प्रकृतियोंका निरूपण करेंगे ॥११॥ १. अदसणस्सावरणं । २. अ वेयणिज्जं । ३. अ आउय णामं । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ - आयुष्कं नाम गोत्रम् — तत्रेति याति वेत्यायुरननुभूतमेत्यनुभूतं च यातीत्यर्थः । सर्वमपि कर्मैवंभूतम्, तथापि प्रक्रान्तभवप्रबन्धाविच्छेदादायुष्कमेव गृह्यते, अस्ति च विच्छेदो मिथ्यात्वादिषु । तथा गत्यादिशुभाशुभनमनाम्नामयतीति नाम । तथा गां वाचं त्रायत इति गोत्रम् रूढिषु हि क्रिया कर्म व्युत्पत्यर्था । नार्थक्रियार्था इत्युच्चैर्भावादिनिबन्धनमदुष्टमित्यर्थः । चरमं पुनः पर्यन्तवति, तत्पुनरन्तरायं भवति, दानादिविघ्नोऽन्तरायस्तत्कारणमन्तरायमिति । मूलप्रकृतय ८ श्रावकप्रज्ञप्तिः विवेचन - प्रकृत सम्यग्दर्शन जीवका परिणाम है जो कर्मके क्षय-उपशम आदिके भेदसे तीन प्रकारका है, यह पहले (गा. ७) कहा जा चुका है । इससे सिद्ध है कि उस सम्यग्दर्शनका सम्बन्ध जीव और कर्मके संयोगके साथ है । इसलिए उक्त सम्यग्दर्शनके परिज्ञानके लिए ग्रन्थकार प्रथमतः कर्मको प्ररूपणाको उपयोगी समझकर पहले कर्मका निरूपण कर रहें हैं, तत्पश्चात् वे यथाक्रमसे उक्त सम्यग्दर्शनके उन भेदोंका निरूपण करेंगे, इसे उन्होंने गा. ८ में स्पष्ट कर दिया है । जो तीनों कालोंमें द्रव्य व भाव प्राणोंसे जीता है वह जीव कहलाता है । वह अनादि व अनिधन होकर ज्ञानावरणादि कर्मोंसे संयुक्त है। उसके इस कर्मबन्धके कारण मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं। कर्म मूलमें आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । वस्तु सामान्य विशेषात्मक हैं । उनमें जो विशेष ( भेद ) को विषय करता है उसे ज्ञान और जो सामान्य ( अभेद ) को विषय करता है उसे दर्शन कहा जाता है। इनमें जो कर्म ज्ञानका आवरण करता है उसका नाम ज्ञानावरण और जो दर्शनका आवरण करता है उसका नाम दर्शनावरण कर्म है। जिसका वेदन सात ( सुख ) ओर असात ( दुख ) रूपसे किया जाता है वह वेदनीय कर्म कहलाता है । यद्यपि इस निरुक लक्षण के अनुसार सब ही कर्म वेदनीय ठहरते हैं, फिर भी इस ' वेदनीय' संज्ञाको कर्मविशेषमें रूढ़ मान लेनेसे कुछ विरोध प्रतोत नहीं होता । लोकव्यवहार में भी ऐसे प्रयोग देखे जाते हैं । जैसे - पंकज | 'पंकाज्जातम् इति पंकजम्' इस निरुक्ति के अनुसार 'पंकज' का अर्थ कीचड़से उत्पन्न हुआ होता है। इस प्रकारसे जहाँ पंकज ( कमल) कीचड़ से उत्पन्न है वहीं अन्य भी कितने ही वनस्पति उस कीचड़से उत्पन्न होते ऐसी अवस्थामें उक्त लक्षण यद्यपि अतिव्याप्त होता है तो भी 'पंकज' को कमलमें रूढ़ मान लेनेसे 'कुछ दोष नहीं माना गया है । यही अभिप्राय प्रकृत 'वेदनीय' कर्मके विषय में भी ग्रहण करना चाहिए । जो आत्माको मोहित करता है--सत्-असत् या हेय उपादेय के विवेकसे विमुख करता है— उसे मोहनी कहते हैं । 'एति याति वा इति आयु:' इस निरुक्तिके अनुसार जो कर्म अननुभूत होकर आता है या अनुभूत होकर जाता है - निर्जीर्ण होता है-उसका नाम आयु हैं । उपर्युक्त 'वेदनीय' के समान उस 'मोहनीय' संज्ञाको भी कर्मविशेष (पांचवें कर्म) में रूढ़ समझना चाहिए। अभिप्राय यह है कि जिसके आश्रयसे जीवके भवप्रबन्धका विच्छेद नहीं हो पाता — जन्मसे मृत्यु पर्यन्त विवक्षित भवमें ही रहना पड़ता है-वह आयुकर्म कहलाता है । 'नामयतीति नाम' इस निरुक्तिके अनुसार जो कर्म शुभ या अशुभ गति आदि पर्यायोंके अनुभवनके प्रति नमाता है उसे नामकर्म कहा जाता है । 'गां वाचं त्रायते इति गोत्रम्' इस निरुक्ति के अनुसार यद्यपि गोत्रका अर्थं वचनका रक्षण करनेवाला होता है, तो भी रूढ़िमें क्रियाका प्रयोजन कर्मव्युत्पत्ति है, अर्थक्रिया नहीं; ऐसा मानकर 'गोत्र' संज्ञाको भी कर्मविशेष में रूढ़ समझना चाहिए । अथवा 'गूयते शब्द्यते उच्चावचैः शब्देः आत्मा यस्मात् तत् गोत्रम्' इस निरुक्ति के अनुसार जिसके आश्रयसे जीव ऊंच या नीच शब्दों से कहा जाता है उसका नाम गोत्र है । इस प्रकार उसका 'गोत्र' यह नाम सार्थक भी कहा जा सकता है । अथवा जो पर्यायविशेष ऊंच या नीच कुलमें उत्पत्तिको प्रकट करनेवाली है उसका Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा एताः सामान्यप्रकृतये इत्यर्थः । उत्तरप्रकृतीरेतद्विशेषरूपा । अतो वक्ष्ये अत ऊध्वर्मभिधास्य इति । क्रमप्रयोजनं प्रथमगुणघातादि, यथा कर्मप्रकृति संग्रहण्यामुक्तं तथैव द्रष्टव्यम्, ग्रन्यविस्तरभयाद्वस्तुतोऽप्रक्रान्तत्वाच्च न लिखितमिति ॥११।। तथा पढमं पंचवियप्पं मइसुयओहिमणकेवलावरणं । बीयं च नववियप्पं निदापण दंसणचउक्कं ॥१२।। इह सूत्रक्रमप्रामाण्यात्प्रथममाद्यं ज्ञानावरणम् । पञ्चविकल्पमिति पञ्चभेदम् । तानेव भेदानाह-मति-श्रतावधि-मनःकेवलावरणम, मतिज्ञानाद्यावरणमित्यर्थः। द्वितीयं च दर्शनावरणं नवविकल्पं निद्रापञ्चकं दर्शनचतुष्कं चेति ॥१२॥ निद्रापञ्चकमाह-- निद्दा निद्दानिद्दा पयला तह होइ पयलपयला य । थीणड्ढी औं सुरुद्दा निद्दापणगं जिणाभिहियं ॥१३॥ नाम गोत्र है और उस रूपसे जिस कर्मका वेदन किया जाता है उसका नाम गोत्रकर्म है । दानादिविषयक विघ्नका नाम अन्तराय है, इस अन्तरायके कारणभूत कर्मको भी अन्तराय कहा जाता है। अथवा 'अन्तरा एति अन्तरायः' इस निरुक्ति के अनुसार जो जीव और दानादिके मध्य में अन्तरा अर्थात् व्यवधान रूपसे उपस्थित होता है उसे अन्तराय कर्म जानना चाहिए । यहाँ ज्ञानावरणादिका जो क्रम रहा है उसका प्रयोजन प्रथम गुणके घात आदिका रहा है। इसकी टोकामें हरिभद्र सूरिने यह सूचना कर दी है कि कर्मविषयक व्याख्यान कर्मप्रकृति संग्रहणी ग्रन्थमें विस्तारसे किया गया है, अतः विशेष जिज्ञासुओंको उसे वहां देख लेना चाहिए। संक्षिप्त ग्रन्थ होनेसे यहां उसकी विस्तारसे चर्चा नहीं की गयी है। दूसरी बात यह भी है कि प्रस्तुत ग्रन्थ श्रावकाचारकी विशेष रूपसे प्ररूपणा करनेवाला है, इससे यहां कर्मकी विस्तृत प्ररूपणा प्रकरणसंगत भी नहीं है।।८-११॥ आगेकी गाथामें ज्ञानावरणके पांच भेदोंको दिखलाते हुए. दूसरे दर्शनावरणके नौ भेदोंका निर्देश किया जाता है उपर्युक्त आठ कर्मों में प्रथम ज्ञानावरण पाँच प्रकारका है-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण । "दूसरे दर्शनावरणके नौ भेदोंमें पांच निद्रा और चार दर्शन हैं। विवेचन-पांच इन्द्रियों और मनके आश्रयसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है उनका नाम मतिज्ञान और जो उसका आवरण करता है उसका नाम मतिज्ञानावरण है । मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थक विषयमें जो विशेष ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान और इसका जो आवरण करता है उसे श्रुतज्ञानावरण कहते हैं । इन्द्रिय और मनको अपेक्षा न करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिये हुए जो रूपी पदार्थविषयक ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान और उसके आवारक कर्मको अवधिज्ञानावरण कहा जाता है। इन्द्रिय व मनकी अपेक्षा न करके जो दूसरेके मनोगत भावका बोध होता है उसे मनःपर्ययज्ञान और उसके आवारक कर्मको मनःपर्ययज्ञानावरण कहते हैं। तीनों काल और तीनों लोक सम्बन्धी समस्त पदार्थों का जो अतीन्द्रिय व स्पष्ट बोध होता है उसका नाम केवलज्ञान और उसके आवारक कर्मका नाम केवलज्ञानावरण है ।।१२।। अब पूर्व गाथामें निर्दिष्ट पांच निद्राओंके नामोंका निर्देश किया जाता है१. अ सामान्यविशेषप्रकृतय । २. अ णव । ३. अनिद्दा ३ पयला। ४. अ य सुरोद्धा। .. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १४ - निद्रादीनां स्वरूपम् - सुबह निद्दा दुहपडिबोहा य निद्दनिद्दा य । पयला होइ ठियस्स उ पयलापयला य चंक्कमओ ॥ अकिलिमाणुवेयणे होइ थी गिद्धी उ। महनिद्दा दिचितियवावारपसाहणी पायम् ॥ अत्थंभूतेनिद्रादिकारणं कर्म अनन्तरं दर्शनविघातित्वाद्दर्शनावरणं ग्राह्यमिति ॥ १३ ॥ दर्शनचतुष्टयमाह - यहि केवलदंसणवरणं चउव्विहं होइ । सायासाय दुभेयं च वेयणिज्जं मुणेयव्वं ॥ १४ ॥ नयनेतरावधिकेवलदर्शनावरणं चतुविधं भवति । आवरण-शब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । नयनं लोचनं चक्षुरिति पर्यायाः, ततश्च नयनदर्शनावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं वेति चक्षुःसामान्योपयोगावरणमित्यर्थः । इतरग्रहणादचक्षुदर्शनावरणं शेषेन्द्रियदर्शनावरणमिति । एवमवधि-केवलयोरपि योजनीयं । सातासातद्विभेदं च वेदनीयं मुणितव्यं - सात वेदनीयमसातवेदनीयं च । आह्लाद निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और अतिशय भयानक स्त्यानद्धि ये जिन भगवान् के द्वारा पांच निद्राएं कही गयी हैं । विवेचन - जिस निद्रा में प्राणी सुखपूर्वक जग जाता है उसका नाम निद्रा है । जिस निद्रामें प्राणी कठिनता से जगता है उसे निद्रानिद्रा कहते हैं । जिस निद्रामें प्राणी बैठा-बैठा सो जाता है उसे प्रचला कहा जाता है । जिस निद्रामें प्राणी चलते-चलते सो जाता है वह प्रचलाप्रचला कहलाती है | अतिशय संक्लिष्ट कर्मका उदय होनेपर प्राणीको जो निद्रा आती है उसका नाम स्त्यानद्धि है । इस नींदकी अवस्था में प्राणी सोते-सोते उठकर दिन में चिन्तित दुष्कर व्यापारको भी प्रायः सिद्ध करता है । इस प्रकारकी इन पांच निद्राओंके कारणभूत जो कर्म हैं उन्हें यथाक्रमसे उक्त निद्रादि पाँच दर्शनावरण जानना चाहिए। ये सब प्राप्त दर्शन के विनाशक और अप्राप्त दर्शनके चूंकि रोधक हैं, इसलिए इन्हें दर्शनावरणके रूपमें ग्रहण किया गया है || १३॥ आगे चार दर्शनों और उनकी आवारक प्रकृतियोंके निर्देशके साथ साता - असातारूप दो वेदनीय प्रकृतियोंका भी निर्देश किया जाता है नयन ( चक्षु ) दर्शनावरण, इतर ( अचक्षु ) दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इस प्रकार ये चार दर्शनों के रोधक चार दर्शनावरण हैं । सातावेदनीय और असातावेदनीयके भेद से वेदनीय कर्मको दो प्रकार जानना चाहिए । विवेचन - गाथा में उपयुक्त नयन शब्द चक्षु वाचक है । चक्षु इन्द्रियजन्य सामान्य उपयोगका जो आवरण किया करता है उसे चक्षुदर्शनावरण कहते हैं। चक्षुसे भिन्न अन्य इन्द्रियोंसे होनेवाले सामान्य उपयोगके आवरक कर्मको अचक्षुदर्शनावरण कहा जाता है। इसी प्रकार अवधि और केवलरूप सामान्य उपयोगके रोधक कर्मको क्रमसे अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण जानना चाहिए | धवला (पु. ६, पृ. ३२ आदि) में आ. वीरसेनके द्वारा दर्शन व उसके इन भेदोंका स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया है-ज्ञानके उत्पादक प्रयत्न से संबद्ध आत्मसंवेदनका नाम दर्शन है, जिसे आत्मविषयक उपयोग कहा जा सकता है। चक्षु इन्द्रियजन्य ज्ञानके उत्पादक प्रयत्नसे १. अत्रेत्थंभूत । २. अ अह्लाद । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१५] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा रूपेण यद्वेद्यते तत्सातवेदनीयम् । परितापरूपेण यद्वद्यते तदसातवेदनीयम् । मुणितव्यं ज्ञातव्यमिति ॥१४॥ दुविहं च मोहणियं दंसणमोहं चरित्तमोहं च । दसणमोहं तिविहं सम्मेयरमीसवेयणियं ॥१५॥ ___ द्वे विधेऽस्य तद्विविधं द्विप्रकारम् । चः समुच्चये। मोहनीयं प्रानिरूपितशब्दार्थम् । द्वविध्यमेवाह-दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च। तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनम्, तन्मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् । चारित्रं विरतिरूपम्, तन्मोहयतीति चारित्रमोहनीयम् । तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिविधं त्रिप्रकारं सम्यक्त्वेतर-मिश्रवेदनीयम् । सम्यक्त्वरूपेण वेद्यते यत्तत्सम्यक्त्ववेदनीयम् । इतरग्रहणान्मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते यत्तन्मिथ्यात्ववेदनीयम् । मिश्रग्रहणात्सम्यग्मिथ्यात्वरूपेण वेद्यते यत्तत्सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीयम् । एवमयं वेदनीयशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। इदं च बन्धं प्रत्येकविधमेव सत्कर्मतया त्रिविधमिति । आह-सम्यक्त्ववेदनीयं कथं दर्शनमोहनीयम् ? न हि तद्दर्शनं मोहयति, तस्यैव दर्शनत्वात् । उच्यते-मिथ्यात्वप्रकृतित्वादतिचारसंभवादौपशमिकादिमोहनाच्च दर्शनमोहनीयमिति ॥१५॥ सम्बद्ध आत्मसंवेदनमें 'मैं रूपके देखने में समर्थ हूँ' इस प्रकारको सम्भावनाका जो कारण है उसे चक्षुदर्शन कहा जाता है। इसी प्रकार चक्षुसे भिन्न अन्य चार इन्द्रियों और मनके आश्रयसे होनेवाले ज्ञानके उत्पादक प्रयत्नसे सम्बद्ध आत्मसंवेदनका नाम अचक्षुदर्शन है। अवधिज्ञानके उत्पादक प्रयत्नसे सम्बद्ध आत्मसंवेदनको अवधिदर्शन कहते हैं। तीनों कालोंसे सम्बद्ध अनन्त पर्यायोंके साथ जो आत्मस्वरूपका संवेदन होता है वह केवलदर्शन कहलाता है (पु. १०, पृ. ३१९) गाथामें जिन वेदनीयके दो भेदोंका निर्देश किया गया है उनमें जिसका वेदन सुखस्वरूपसे होता है या जो सुखका वेदन कराता है उसे सातावेदनीय कहते हैं। इसी प्रकार जिसका वेदन दुखस्वरूपसे होता है या जो दुखका वेदन कराता है उसे असातावेदनीय जानना चाहिए ॥१४॥ आगे मोहनीय कर्मके मूल दो भेदोंका उल्लेख करते हुए उनमें दर्शन मोहनीयके तोन भेदोंका निर्देश किया जाता है दर्शनमोह और चारित्रमोहके भेदसे मोहनीय दो प्रकारका है। इनमें दर्शनमोह तीन प्रकारका है-सम्यक्त्व, इतर ( मिथ्यात्व ) और मिश्र ( सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ) वेदनीय । विवेचन - 'दर्शन' से यहाँ सम्यग्दर्शन अभिप्रेत है। तत्वार्थश्रद्धानरूप उस सम्यग्दर्शनको जो मोहित किया करता है उसका नाम दर्शनमोह है । वह दर्शनमोह तीन प्रकारका है-सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय और मिश्रवेदनीय । जिसका वेदन ( अनुभवन ) सम्यक्त्व रूपसे हुआ करता है उसे सम्यक्त्ववेदनीय कहते हैं। इसके विपरीत जिसका वेदन मिथ्यात्व-अतत्त्वश्रद्धान-के रूप में हुआ करता है उसका नाम मिथ्यात्ववेदनीय है। जिसका वेदन मिश्र रूपसे- सम्यक्त्व व मिथ्यात्व उभय रूपसे हुआ करता है उसे मिश्र ( सम्यक्त्व-मिथ्यात्व) वेदनीय कहा जाता है । यह दर्शनमोहनीय बन्धको अपेक्षा तो एक ही प्रकारका है, पर सत्कर्मको अपेक्षा वह पर्वोक्त रूपमें तीन प्रकारका है। यहां यह शंका उपस्थित होती है कि सम्यक्त्ववेदनीय स्वयं सम्यक्त्वरूप होनेसे जब दर्शनको मोहित नहीं करती है तब उसे दर्शनमोहनीय कैसे कहा जा सकता है ? इसके उत्तरमें कहा जाता है कि मिथ्यात्व प्रकृति होनेसे चूंकि उसके आश्रयसे १. अ अतोऽग्रेऽग्रिम 'चारित्रमोहनीयं' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ . श्रावकप्रज्ञप्तिः [१७दुविहं चरित्तमोहं कसाय तह नोकसायवेयणियं । सोलस-नवमेयं पुण जहासंखं मुणेयव्वं ॥१६॥ द्विविधं द्विप्रकारम् । चारित्रमोहनीयं प्राङ्निरूपितशब्दार्थम् । कषायवेदनीयं तथा नोकषाय. वेदनीयं चेति । वेदनीयशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । तत्र क्रोधादिकषायरूपेण यद्वद्यते तत्कषायवेदनीयम् । तथा स्त्रीवेदादिनोकषायरूपेण यद्वेद्यते तन्नोकषायवेदनीयम् । अस्यैव भेदानाह-षोडशनवभेदं पुनर्यथासङ्खयेन मुणितव्यं षोडशभेदं कषायवेदनीयं नवभेदं नोकषायवेदनीयम् । भेदाननन्तरं वक्ष्यत्येवेति ॥१६॥ तत्र कषायभेदानाह अण अप्पच्चक्खाणा पच्चक्खाणावरणा य संजलणा। कोहमणमायलोहा पत्तेयं चउवियप्पत्ति ॥१७॥ अण इति सूचनात्सूत्रम् इति कृत्वा अनन्तानुबन्धिनो गृह्यन्ते, इह पारंपर्येणानन्तं भवमनुबर्बु शीलं येषामिति अनन्तानुबन्धिनः उदयस्थाः सम्यक्त्वविघातिन इति कृत्वा। अविद्यमानप्रत्याख्याना अप्रत्याख्याना, देशप्रत्याख्यानं सर्वप्रत्याख्यानं च नैषामुदये लभ्यते इत्यर्थः। प्रत्या. ख्यानमावृण्वन्ति मर्यादया ईषद्वेति प्रत्याख्यानावरणाः, आङ्मर्यादायामोषदर्थे वा-मर्यादायां अतिचारकी-सम्यक्त्वके मलिन होनेको सम्भावना है इससे तथा औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शनको मोहित करने के कारण भी उसे दर्शनमोहनीय कहा गया है ॥१५।। आगे चारित्रमोहके दो भेदोंका निर्देश करते हुए उन दो भेदोंके अवान्तर भेदोंकी संख्याका निर्देश किया जाता है चारित्रमोह दो प्रकारका है-कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। इनके यथाक्रमसे सोलह और नो भेद जानना चाहिए ॥१६॥ अब पूर्वनिर्दिष्ट कषायवेदनीयके उन सोलह भेदोंका निर्देश किया जाता है अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन चारोंमें प्रत्येक क्रोध, मान, माया और लोभके रूपमें चार-चार प्रकारके हैं। विवेचन-जो विरतिरूप चारित्रको मोहित किया करता है उसका नाम चारित्रमोह है। वह कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीयके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें जिसका वेदन क्रोधादि कषायके रूपसे हआ करता है उसे कषायवेदनीय और जिसका वेदन स्त्रीवेदादि नोकषायके रूपसे हुआ करता है उसे नोकषायवेदनीय कहा जाता है। कषायके मूलमें चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें से प्रत्येक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनके भेदसे चार-चार प्रकारका है । गाथामें जो 'अण' शब्द प्रयुक्त हुआ है वह अनन्तानुबन्धो अर्थका सूचक है । जिनके आश्रयसे जीवके अनन्तं भवोंकी परम्परा चला करती है उन्हें अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषाय कहा जाता है। जिनके उदित होनेपर जीवको देश प्रत्याख्यान और सर्वप्रत्याख्यानका लाभ नहीं हो सकता है वे अप्रत्याख्यान क्रोधादि कहलाते हैं। प्रत्याख्यानावरणके अन्तर्गत 'आवरण' में जो आङ् उपसर्ग है उसका मर्यादा भी अर्थ होता है और ईषत् अर्थ भी होता है। जो प्रत्याख्यानका आवरण करते हैं-उसे प्रकट नहीं होने देते हैं उनका नाम प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि है। ये मर्यादामें महाव्रतस्वरूप सर्वविरतिको ही आच्छादित करते हैं, न कि देशविरतिको । ईषत् अर्थमें भी वे सर्वविरतिको ही अल्प मात्रामें आच्छादित किया करते हैं, देशविरतिको १. अ भेदाऽनंतरं। २. अलोभा। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१८] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा सर्वविरतिमावृण्वन्ति न देशविरतिम्, ईषदर्थेऽपि ईषवृण्वन्ति सर्वविरतिमेव न देशविरतिम् । देशविरतिश्च भूयसी, स्तोंकादपि विरतस्य देशविरतिभावात् । चः समुच्चये। ईषत्परीषहादिसन्निपातज्वलनात्संज्वलनाः, सम्-शब्द ईषदर्थे इति । एवं क्रोध-मान-माया-लोभाः प्रतीतस्वरूपाः । प्रत्येकं चतुर्विकल्पा इति क्रोधोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदाच्चतुविकल्पः, एवं भानादयोऽपीति । स्वरूपं चैतेषामित्थमाहुः जल-रेणु-पुढवि-पव्वयराईसरिसो चउम्विहो कोहो । तिणसलयाकट्ठट्ठिय-सेलत्थंभोवमो माणो ॥१॥ माया-वलेहि-गोमुत्तिमिढसिंगघणंवसमूलसमा। लोहो हलिद्द-खंजण-कद्दम-किमिरागसारित्थो ।।२।। पक्ख-चउम्मास-वच्छरजावजीवाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारयगतिसाहणहेयवो भणिया ॥३।। इति अधुना नोकषायभेदानाह इत्थीपुरिसनपुंसगवेयतिगं चेव होइ नायव्वं । हास रइ अरइ भयं सोग दुगंछा य छक्कं ति ॥१८॥ नहीं। कारण इसका यह है कि देशविरति बहुत-सी है, जो अल्पहिंसादिसे भी विरत होता है उसके देशविरतिका सद्भाव रहता है । 'संज्वलन में 'सम्' का ईषत् अर्थ है । तदनुसार जो परोषह आदिके होनेपर चारित्रवान्को भी किंचित् जलाते हैं-~सन्तप्त किया करते हैं-वे संज्वलन क्रोधादि कहलाते हैं। अथवा 'सम' का अर्थ एकोभाव भी होता है, तदनुसार जो चारित्रके साथ एकीभूत होकर जलते हैं-प्रकाशित रहते हैं-अथवा जिनके उदित रहनेपर भी चारित्र प्रकाशमान रहता है-उसे वे नष्ट नहीं करते हैं-उनको संज्वलन क्रोधादि समझना चाहिए। यहां यह शंका हो सकती है कि जब ये संज्वलन क्रोधादि चारित्रको नष्ट नहीं करते हैं तब उन्हें चारित्रमोहके अन्तर्गत क्यों किया गया? इसका उत्तर यह है कि ये प्रमादको प्राप्त (प्रमत्त) संयतके चारित्रमें दोष उत्पन्न करते हैं व यथाख्यात चारित्रको प्रकट नहीं होने देते हैं, इसीलिए उन्हें चारित्रमोहके अन्तर्गत किया गया है। इन संज्वलन क्रोधादिका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-संज्वलन क्रोधका स्वभाव जलकी रेखाके सदृश, प्रत्याख्यान क्रोधका स्वभाव धुलिकी रेखाजैसा, अप्रत्याख्यान क्रोधका स्वभाव पृथिवीकी रेखाके समान और अनन्तानुबन्धो क्रोधका स्वभाव पर्वत ( शिला) की रेखा-जैसा है। उपर्युक्त चार प्रकारके मानका स्वभाव क्रमसे तृणशलाका (तिनका), काष्ठ, हड्डी और पत्थरके स्तम्भके समान उत्तरोत्तर अधिक कठोरताको लिये हुए है। उपर्युक्त चार प्रकारको मायाका स्वभाव क्रमसे खुरपा, गोमूत्र, मेढेके सींग और सघन बांसकी कुटिलताके समान उत्तरोत्तर अधिक कुटिलताको प्राप्त है । इसी प्रकार उक्त चार प्रकारके लोभका स्वभाव क्रमसे हलदो, खंजन पक्षी, कीचड़ और कृमिरागकी गहराईके समान उत्तरोत्तर तीव्रताको लिये हए है। एक पक्ष, चार मास, एक वर्ष और जीवन पर्यन्त प्राणीका पीछा करनेवाल ये संज्वलनादि कषायें क्रमसे देव, मनुष्य, तियंच और नरकगतिको कारण कही गयो हैं ॥१७॥ आगे पूर्वनिर्दिष्ट नोकषाय वेदनीयके नौ भेदोंका निर्देश किया जाता है स्त्रो, पुरुष और नपुंसक ये तीन तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा ये छह इस प्रकार ये नोकषाय वेदनोयके नो भेद जानना चाहिए। १. भ मुत्तमेण्हसिंग घणवंसि० । २. अ भेयं सोय दु० । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१९ - स्त्रीपुरुषनपुंसकवेदत्रिकं चैव भवति ज्ञातव्यम्, नोकषायवेद्यतयेति भावः। तत्र वेद्यत इति वेदः-स्त्रियः स्त्रीवेदोदयात्पुरुषाभिळाषः, पुरुषस्य पुरुषवेदोदयात्स्यभिलाषः, नपुंसकस्य तु नपुंसकवेदोदयादुभयाभिलाषः। हास्यं रतिः अरतिर्भयं शोको जुगुप्सा चैव षट्कमिति-तत्र सनिमित्तमनिमित्तं वा हास्यं प्रतीतमेव । बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रीतिः रतिः । एतेष्वेवाप्रीतिररतिः। भयं त्रासः। परिदेवनादिलिङ्गं शोकः। चेतनाचेतनेषु वस्तुषु व्यलोककरणं जुगुप्सा। यदुदयादेते हास्यादयो भवन्ति ते नोकषायाख्याः मोहनीयकर्मभेदा इति भावः। नोकषायता चैतेषामाद्यकषायत्रयविकल्पानुवतित्वेन । तथाहि-न क्षीणेषु द्वादशस्वमीषां भाव इति ॥१८॥ आउं च एत्थ कम्म चउन्विहं नवरं होइ नायव्यं । नारयतिरियनरामरगईभेयविभागओ भणि ॥१९॥ आयुष्कं च प्रानिरूपितशब्दार्थम्, अत्र प्रक्रमे । क्रियत इति कर्म । चतुर्विधं चतुःप्रकारम् । भवति ज्ञातव्यं । नवरमिति निपातः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः । चातुविध्यमेवाह-नारक-तिर्यङ्न विवेचन--'नोकषाय' में 'नो' का अर्थ ईषत् है। तदनुसार जिनका वेदन ईषत् कषायके रूपसे हुआ करता है उन्हें नोकषाय वेदनीय कहा जाता है । अथवा 'नो' को साहचर्यका बोधक मानकर यह भी कहा जा सकता है कि जो प्रथम बारह कषायोंके साथ रहा करती हैं व उन अनन्तानुबन्धी क्रोधादिरूप बारह कषायोंके क्षीण हो जानेपर जिनका सदभाव नहीं पाया जाता है वे नोकषाय कहलाती हैं । उन स्त्रीवेदादि नोकषायके रूप में जिसका वेदन किया जाता है उसे नोकषायवेदनीय समझना चाहिए। उसके नौ भेद हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा। जिसके उदय से स्त्रोके पुरुषकी अभिलाषा हुआ करती है उसे स्त्रीवेद कहते हैं। जिसके उदयसे पुरुषके स्त्रीकी अभिलाषा हुआ करती है उसे पुरुषवेद कहा जाता है । जिसके उदयसे स्त्री व पुरुष उभयकी अभिलाषा हुआ करती है उसका नाम नपुंसकवेद है। जिसके उदयसे प्राणीके किसी निमित्तको पाकर या बिना निमित्तके भी हंसी आती है वह हास्य कहलाता है। जिसके उदयसे बाह्य व अभ्यन्तर वस्तुओंमें प्रीति हुआ करती है उसे रति और जिसके उदयसे उनमें अप्रोति ( द्वेष ) हुआ करती है उसे अरति कहा जाता है। जिसके उदयसे किसो निमित्तके मिलनेपर या बिना किसी निमित्तके ही प्राणी अपने संकल्पके अनुसार डरा करता है उसे भय नोकषाय कहा जाता है। जिसके उदयसे प्राणी किसी इष्ट जनके वियोग आदिमें अनेक प्रकारसे विलाप करता है वह शोक नोकषाय कहलाती है। जिसके उदयसे चेतन व अचेतन वस्तुओंमें घृणा उत्पन्न होती है उसे जुगुप्सा नोकषाय कहा जाता है। इस प्रकार पूर्वोक्त सोलह कषाय और नो नोकषाय ये सब मिलकर पचीस भेद चारित्र मोहनीय कर्मके हो जाते हैं ॥१८॥ अब क्रमप्राप्त आयुकर्मके भेदोंका निर्देश किया जाता है____यहां आयुकर्म चार प्रकारका जानना चाहिए। वह नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन गतिभेदोंके विभागसे चार प्रकारका कहा गया है। विवेचन-जिसके उदयसे ऊर्ध्वगमन स्वभाववाले जीवका नारक पर्याय में अवस्थान होता है उसे नारकायु, जिसके उदयसे उसका तिथंच पर्याय अवस्थान होता है उसे तिर्यगायु, जिसके उदयसे उसका मनुष्य पर्यायमें अवस्थान होता है उसे मनुष्यायु और जिसके उदयसे उसका देव १. भ गति । २. अ भणियं । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २० ] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्म प्ररूपणा १५ रामगतिभेदविभागतो गतिभेदविभागेन । भणितमुक्तं तीर्थंकरगेणधरैः । तद्यथा - नारका क तिर्यगाथुष्कं मनुष्यायुष्कं देवायुकमिति ॥ १९ ॥ नामं दुचत्तभेयं गइजाइ सरीरअंगुवंगे य । बंधन - संघायण - संघयण संठाणनामं च ॥ २० ॥ नाम प्रागभिहितशब्दार्थं द्विचत्वारिंशत्प्रकारम् । भेदानाह गतिनाम यदुदयान्नरकादिगतिर्गमनम् । जातिनाम यदुदयादेकेन्द्रियादिजात्युत्पत्तिः । आह-स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमसद्भावादेकेन्द्रियादित्वं नाम चौदयिको भावः तत्कथमेतदिति । उच्यते - तदुपयोगादिहेतुः पर्याय में अवस्थान होता है उसे देवायु कहा जाता है । इस प्रकार ये आयुकर्मके चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । गाथा में जो 'नवरं' इस निपातको ग्रहण किया गया है वह नारकायु आदिके अन्य अवान्तर भेदोंका सूचक है ||१९|| आगे नामकर्मके ४२ भेदोंमें गतिको आदि लेकर संस्थान पर्यन्त आठ भेदोंका निर्देश किया जाता है नामकर्म बयालीस प्रकारका है - उनमें १. गतिं, २. जाति, ३. शरीर, ४. अंगोपांग, ५. बन्धन, ६. संघातन, ७. संहनन और ८. संस्थान ये प्रथम आठ भेद हैं । विवेचन -जिसके उदयसे जीव नरकादि गतिको प्राप्त होता है उसे गति नामकर्म कहते हैं । वह नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगतिके भेदसे चार प्रकारका है। जिसके उदयसे जीव नरकगतिको प्राप्त होता है उसका नाम नरकगति नामकर्म है । इसी प्रकार शेष तीन गतिनामकर्मों का भी स्वरूप समझना चाहिए। जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें उत्पन्न होता है उसे जातिनामकर्म कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि जीवोंमें जो एकेन्द्रियत्व आदिरूप सदृश परिणाम हुआ करता है उसका नाम जाति है । वह जिस कर्मके उदयसे हुआ करती है उसे भी कारण में कार्यका उपचार करके जातिनामकर्म कहा जाता है । वह एकेन्द्रिय आदिके भेदसे पाँच प्रकारका है । उनमें जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय जातिमें उत्पन्न होता है वह एकेन्द्रिय जातिनामकर्म और जिसके उदयसे वह द्वोन्द्रिय जातिमें उत्पन्न होता है वह द्वीन्द्रिय जातिनामकमं कहलाता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति नामकर्मोंका भी स्वरूप समझना चाहिए। यहां शंका उपस्थित होती है कि स्पर्शन आदि इन्द्रियावरणोंके क्षयोपशमके सद्भावसे एकेन्द्रिय अवस्था होती है, ऐसी अवस्था में उसे औदयिक कैसे माना जा सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि क्षयोपशम उनके उपयोग आदिका कारण है तथा ऐकेन्द्रिय आदि संज्ञाका कारण नामकर्म है । ऐसा होने से यहाँ दोषको सम्भावना नहीं है । जिसके उदयसे जीवके दारिक आदि शरीरका सद्भाव होता है उसे शरीर नामकर्म कहते हैं । वह पांच प्रकारका है - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस ओर कार्मण । जिसके उदयसे जीव औदारिक शरोरके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण कर उन्हें औदारिक शरीर के रूपमें परिणमाता है उसे औदारिक शरीर नामकर्म कहते हैं । इसी प्रकार शेष वैकियिक आदि चार शरीर नामकर्मों का भी स्वरूप जानना चाहिए। जिसके उदयसे शिर आदि अंगों को और श्रोत्र आदि अंगोपांगों की रचना होती है वह अंगोपांग नामकर्म कहलाता है । शिर, वक्ष, पेट, पीठ, दो हाथ और ऊरु ( पांव ) ये आठ हैं । अंगुलि आदिकों को उपांग और शेष ( अंगुलियों के पर्व आदि ) को अंगोपांग माना जाता है । यह १. अ भणितं तीर्थकर । २. म गति गमनं । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रावकप्रज्ञप्तिः २०क्षयोपशम एकेन्द्रियादिसंज्ञानिबन्धनं च नामेति न दोषः। शरीरनाम यदुदयादौदारिकादिशरीरभावः। अङ्गोपाङ्गनाम यदुदयादङ्गपाङ्गोनिवृत्तिः शिरःप्रभृतीन्यङ्गानि श्रोत्रादीन्यङ्गोपाङ्गानि । उक्तं च सीसमुरोदरपिट्ठी दो बाहू ऊरुभयाय अठेंगा। अंगुलिमाइ उवंगा अंगोवंगाई सेसाई ।। बन्धननाम यत्सर्वात्मप्रदेशैर्गृहीतानां गृह्यमाणानां च पुद्गलानां संबन्धजनकं अन्यशरीरपुद्गलैर्वा जतुकल्पमिति । संघातननाम यदुदयादौदारिकादिशरीरयोग्यपुद्गलग्रहणे शरीररचना अंगोपांग नामकर्म औदारिक शरीरांगोपांग, वैक्रियिक शरीरांगोपांग और आहारक शरीरांगोपांगके भेदसे तोन प्रकारका है। जिसके उदयसे औदारिकशरीर रूपसे परिणत पुद्गलोंका अंग, उपांग और अंगोपांगोंके रूप में विभाजन होता है वह औदारिकशरीरांगोपांग कहलाता है। इसी प्रकार वैक्रियिक और आहारक शरीरांगोपांग नामकोका भी स्वरूप समझना चाहिए। तैजस और कार्मण इन दो शरीरोंके अंगोपांगोंकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि वे जीवप्रदेशोंके समान होते हैं । जिसके उदयसे समस्त आत्मप्रदेशोंके द्वारा पूर्व में ग्रहण किये गये तथा वर्तमान में ग्रहण किये जानेवाले पुद्गलोंका परस्पर अथवा अन्य शरीरगत पुद्गलोंके साथ लाखके समान सम्बन्ध होता है उसका नाम बन्धन नामकर्म है। वह औदारिकशरीरबन्धन आदिके भेदसे पाँच प्रकारका है। जिसके उदयसे समस्त आत्मप्रदेशों के द्वारा पूर्व में ग्रहण किये गये तथा वर्तमानमें ग्रहण किये जानेवाले औदारिक शरीरगत पुद्गलोंका परस्परमें तथा अन्य शरीरगत पुद्गलोंके साथ एकता रूप सम्बन्ध होता है उसे औदारिक शरीरबन्धन नामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार शेष चार बन्धन नामकर्मोंका भी स्वरूप जानना चाहिए। जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण होनेपर उन शरीरोंकी रचना होती है उसे संघातन नामकर्म कहते हैं । वह भी औदारिक आदि शरीरोंके भेदसे पांच प्रकारका है। जिसके उदयसे औदारिक शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण होनेपर औदारिक शरीरकी रचना होती है उसे औदारिक शरीर संघातन नामकमं कहा जाता है। इसी प्रकार शेष चार संघातन नामकर्मों का भी स्वरूप जान लेना चाहिए। जो वज्रऋषभनाराच आदि संहननोंका कारण है उसे संहनन नामकर्म कहा जाता है। वह छह प्रकारका है-वज्रर्षभनाराच, अर्धवज्रर्षभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सपाटिका संहनन नामकर्म । वज्रका अर्थ कीलिका, ऋषभका अर्थ परिवेष्टन पट्ट और नाराचका अर्थ उभयतः मर्कटबन्ध है। तदनुसार जिसका उदय होनेपर उभयतः मर्कटबन्धसे बंधी हुई व पट्टके आकार तीसरी हड्डोसे वेष्टित दो हड्डियोंके ऊपर उन तीनों हड्डियोंको भेदक कीलिकासंज्ञक वज्र नामक हड्डी हुआ करती है उसे वज्रर्षभनाराचसंहनन नामकर्म कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे हड्डियोंके बन्धनविशेष में वज्र, ऋषभ और नाराच आधे होते हैं उसे अर्धवज्रर्षभनाराचसंहनन नामकर्म कहा जाता है । जिस कर्मके उदयमें हड्डियोंके बन्धनमें केवल उभयतः मर्कटबन्धरूप नाराच ही रहता है उसे नाराचसंहनन नामकर्म कहते हैं । जिस कर्मका उदय होनेपर हड्डियोंके परस्पर बन्धनमें आधा नाराच ( मर्कटबन्ध ) रहता है उसे अर्धनाराचसंहनन नामकर्म कहा जाता है । जिस कर्मके उदयसे हड्डियां परस्पर कीलिका मात्रसे सम्बद्ध रहा करती हैं उसका नाम कीलिका संहनन नामकर्म है। जिस कर्मका उदय होनेपर हड्डियां दोनों ओर चमड़े, स्नायु और मांससे सम्बद्ध रहा करती हैं वह सृपाटिकासंहनन नामकर्म कहलाता है । जो कर्म चतुरस्रादिरूप शरीर संस्थानका कारण है उसे संस्थान नामकर्म कहा जाता है। वह समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, १. अ शिरःप्रवृत्तीत्यंगानि । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २१] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा भवति । संहनननाम वज्रऋषभनाराचादिसंहनननिमित्तम्। संस्थाननाम समचतुरस्रादिसंस्थानकारणम् । चः समुच्चय इति गाथार्थः ॥२०॥ तह वन्नगंधरसफासनामगुरुंलहू य बोद्धव्वं । उवधायपराघायाणुपुविऊसासनामं च ॥२१॥ तथा वर्णनाम यदयात्कृष्णादिवर्णनिवृत्तिः। एवं गन्ध-रस-स्पर्शेष्वपि स्वभेदापेक्षया भावनीयमिति । अगुरुलघु च बोद्धव्यं अत्रातृस्वारदीर्घत्वेऽलाक्षणिके सुखोच्चारणार्थे तूपन्यस्ते । तत्रागुरु. साचि, सादि या स्वाति, कब्ज, वामन और हण्ड संस्थानके भेदसे छह प्रकारका है। जिसके उदयसे प्राणियोंके समचतुरस्रसंस्थान उत्पन्न होता है उसे समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म कहते हैं। समचतुरस्रसंस्थान वह कहलाता है जिसमें प्राणियोंके शरीरके अवयव चारों दिशाओंमें सामुद्रिक शास्त्र में निर्दिष्ट प्रमाणसे यक्त होते हैं-हीनाधिक प्रमाणवाले नहीं होते। जिसके उदयसे न्यग्रोध ( वटवृक्ष ) के आकारमें नाभिके ऊपरके सब अवयव समचतुरस्रसंस्थानरूप समुचित प्रमाणसे यक्त होते हैं, पर नीचेके अवयव ऊपरके अवयवोंके अनुरूप नहीं होते हैं उसे न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान नामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे नाभिके नीचेके सब अवयव समचतुरस्रसंस्थानस्वरूप सुन्दर, पर ऊपरका भाग तदनुरूप नहीं होता है उसे साचि, सादि या स्वातिसंस्थान नामकर्म कहा जाता है। सादि या साचिका अर्थ शाल्मली वृक्ष होता है। उसके आकारमें शरीरके अवयवोंकी रचना होनेसे इस संस्थानको साचि या सादि संस्थान कहा गया है। तत्त्वार्थवार्तिक (८, ११, ८) और धवला ( पु. ६, प.७१ ) आदिमें जहाँ इसका उल्लेख 'स्वातिसंस्थान' के नामसे किया गया है वहां 'स्वाति' से सांपकी बामी या शाल्मली वृक्षको भी ग्रहण किया गया है। अभिप्राय प्रायः वही रहा है। जिसके उदयसे शिर, ग्रीवा व हाथ-पांव आदिके यथोक्त प्रभाणमें होनेपर भी वक्ष, उदर व पीठ आदि तदनुरूप न होकर प्रचुर पुद्गलके संचयसे युक्त होते हैं उसे कुब्जसंस्थान नामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे वक्ष और पेट आदि योग्य प्रमाणमें होते हैं, पर हाथ-पांव छोटे होते हैं वह वामनसंस्थान नामकर्म कहलाता है। जिसके उदयसे शरीरके सब ही अवयव ठीक प्रमाणमें न होकर बेडौल होते हैं उसका नाम हण्डसंस्थान है ॥२०॥ स प्रकार नामकर्मके प्रथम आठ भेदोंका निर्देश करके अब आगे उसके वर्णादि अन्य नौ भेदोंका निर्देश किया जाता है ९ वर्ण, १० गन्ध, ११ रस, १२ स्पर्श, १३ अगरुलघु, १४ उपघात, १५ पराघात, १६ आनुपूर्वी और १७ उच्छ्वास ये उसके आगेके अन्य नौ भेद हैं। विवेचन-इनका पृथक्-पृथक् स्वरूप इस प्रकार है-जिसके उदयसे शरीरमें कृष्ण आदि वर्णों की रचना होती है उसे वर्ण नामकर्म कहते हैं। वह कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्लके भेदसे पांच प्रकारका है । इनमें जिसके उदयसे शरीरमें कृष्णवर्णका प्रादुर्भाव होता है वह कृष्णवर्ण नामकर्म कहलाता है। इसी प्रकार शेष नील आदि चार नामकर्मों का भी स्वरूप समझ लेना चाहिए। जिसके उदयसे शरीरमें गन्धका प्रादुर्भाव होता है उसे गन्ध नामकर्म कहा जाता है दो प्रकारका है-सुरभिगन्ध नामकर्म और असुरभिगन्ध नामकर्म । जिसके उदयसे शरीरमें सुरभिगन्ध ( सुगन्ध ) का प्रादुर्भाव होता है उसे सुरभिगन्ध और जिसके उदयसे शरीरमें असुरभिगन्ध ( दुर्गन्ध ) का प्रादुर्भाव होता है उसे असुरभिगन्ध नामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे शरीरमें रसका प्रादुर्भाव होता है उसे रस नामकर्म कहा जाता है। वह तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२१लघुनाम यदुदयान्न गुरु पि लघुर्भवति देह इति एकान्ततदभावे सदा निमज्जनोर्ध्वगमनप्रसंगः । उपघातनाम यदुदयादुपहन्यते। परघातनाम यदुदयात्परानाहन्ति । आनुपूर्वीनाम यदुदयादपान्त. रालगतौ नियतदेशमनुश्रेणिगमनम्, नियत एवाङ्गविन्यास इत्यन्ये । उच्छ्वासनाम यदुदयादुच्छ्वासनिःश्वासौ भवतः। आह-ययेवं पर्याप्तिनाम्नः क्वोपयोग इति ? उच्यते-पर्याप्तिः करणशक्तिः उच्छ्वासनामवत एव तन्निवृत्तौ सहकारिकारणं इषुक्षेपणशक्तिमतो धनुर्ग्रहणशक्तिवत् । एवमन्यत्रापि भिन्नविषयता सूक्ष्मधियावसेया। चः समुच्चये इति ॥२१॥ और मधुर रस नामकर्मके भेदसे पांच प्रकारका है। इनमें जिसके उदयसे शरीरमें तिक्त (तीखा) रसका प्रादुर्भाव होता है वह तिक्त रस नामकर्म कहलाता है। इसी प्रकार शेष कटुक आदि चारचार रस नामकर्मोंका भी स्वरूप जानना चाहिए। जिसके उदयसे शरीरमें स्पर्शका प्रादुर्भाव होता. है उसे स्पर्श नामकर्म कहा जाता है। वह कर्कश, मद, गरु. लघ. स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण नामकर्मके भेदसे आठ प्रकारका है। इनमें जिसके उदयसे शरीरमें कर्कश ( कठोर ) स्पर्शका प्रादुर्भाव होता है वह कर्कश नामकर्म कहलाता है। इसी प्रकार शेष मृदु आदि सात स्पर्श नामकर्मोका भी स्वरूप जानना चाहिए। जिसके उदयसे शरीर न तो भारी होता है और न हलका भी उसे अगरुलघु नामकर्म कहते हैं। यदि यह कर्म न होता तो प्राणीके शरीरके निमज्जन-नीचे गिर जाने-अथवा ऊर्ध्वगमनका प्रसंग दुनिवार होता। जिसके उदयसे प्राणी अपने शरीरके भीतर बढ़नेवाले प्रतिजिह्वा, गलवृन्द और चोर दांत आदि अवयवोंके द्वारा पीडाको प्राप्त होता है उसे उपघात नामकर्म कहा जाता है। जिसके उदयसे प्राणी दूसरोंका घात किया करता है वह परघात नामकर्म कहलाता है। जिसके उदयसे प्राणी अपान्तरालगति ( विग्रहगति )में श्रेणिके अनुसार नियत देशको जाता है उसका नाम आनुपूर्वी नामकर्म है। अन्य किन्हीं आचार्योंके मतानुसार जिसके उदयसे निर्माण नामकर्मके द्वारा निर्मित शरीरके अंग-उपांगोंके विनिवेश क्रमका नियमन होता है उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहा जाता है। अन्य किन्हीं आचार्योंके अभिमतानुसार आनुपूर्वी या आनुपूयं नामकर्म वह कहलता है जिसके कि उदयसे विग्रहगतिमें वर्तमान जीवके पूर्व शरीरके आकारका विनाश नहीं होता ( स. सि. ८-११ ) । इस प्रकार आनुपूर्वीके लक्षणके विषयमें अनेक उपलब्ध होते हैं। ( देखिए जैन लक्षणावलीमें 'आनुपूर्वी' और 'आनुपूयं ये दो शब्द )। वह आनुपूर्वी नामक नरकगत्यानुपूर्वो, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपर्वीके भेदसे चार प्रकारका है । जिसके उदयसे नरकभवके अभिमुख हुए जीवके विग्रहगतिमें पूर्व शरीरका आकार बना रहता है-वह नष्ट नहीं होता है-उसे नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी कहते हैं। गर्गमहर्षि विरचित कर्मविपाक (१२२) के अनुसार नरकायका उदय होनेपर मोडा लेकर गमन करते हए जीवके उस विग्रहवाली गतिमें नरकानुपूर्वीका उदय होता है, ऋजुगतिमें उसका उदय नहीं होता। इसी प्रकार शेष तीन आनुपूर्वियोंके स्वरूपको भी समझना चाहिए। जिस कर्मके उदयसे उच्छ्वास और निःश्वास होते हैं वह उच्छ्वास नामकर्म कहलाता है। यहां शंका उपस्थित होती है कि यदि उच्छ्वास-नि:श्वास उच्छ्वास नामकर्मके उदयसे होते हैं तो फिर उच्छ्वास पर्याप्तिका उपयोग कहां होगा ? इसके उत्तर में कहा जाता है कि पर्याप्ति तो करणशक्ति है जो उच्छ्वास नामकर्मसे युक्त जीवके ही उसकी रचनामें सहकारी कारण है। इसके लिए यह उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार बाणके चलानेकी शक्तिसे युक्त धनुषधारीके धनुष ग्रहणको शक्ति उसमें सहायक होती है ॥२१॥ अब उस नामकर्मके आतप आदि आगेके अन्य नौ भेदोंका निर्देश किया जाता है Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा आयवउज्जोयविहायगई' य तसथावराभिहाणं च । बायरसुहुमं पज्जत्तापज्जत्तं च नायव्वं ॥२२॥ आतपनाम यदुदयादातपवान् भवति पृथिवीकाये आदित्यमण्डलादिवत् । उद्योतनाम यदुदयादुद्योतवान् भवति खद्योतकादिवत् । विहायोगतिनाम यदुदयाच्चंक्रमणम् । इदं च द्विविध प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् । प्रशस्तं हंस-गजादीनाम्, अप्रशस्तमुष्ट्रादीनामिति । त्रसनाम यदुदयाच्चलनं स्पन्दनं च भवति । त्रसत्वमेवान्ये । स्थावराभिधानं चेति स्थावरनाम यदुदयादस्पन्दनो भवति । स्थावर एवान्ये। चः समुच्चये। बादरनाम यदुदयाबादरो भवति, स्थूर इत्यर्थः। इन्द्रियगम्य इत्यन्ये । सूक्ष्मनाम यदुदयात्सूक्ष्मो भवति अत्यन्तश्लक्ष्णः, अतीन्द्रिय इत्यर्थः। पर्याप्तकनाम यदुदयादिन्द्रियादिनिष्पत्तिर्भवति। अपर्याप्तकनाम उक्तविपरीतं यदुदयात्संपूर्णपर्याप्त्यनिवृत्तिन त्वाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्त्यनिवृत्तिरपि। यस्मादागामिभवायुष्कं बध्वा नियंत सर्व एव दोहनः, तच्चाहार-शरारेन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तानामेवै बध्यत इति ॥२२॥ १८ आतप, १९ उद्योत, २० विहायोगति, २१ त्रस, २२ स्थावर नामक, २३ बादर, २४ सूक्ष्म, २५ पर्याप्त और २६ अपर्याप्त , इस प्रकार यहाँ तक उसके २६ भेद हो जाते हैं। विवेचन-इन आतप आदिका पृथक् स्वरूप इस प्रकार है जिसके उदयसे पृथिवीकायमें जीवका शरीर सूर्यमण्डलके समान आतपसे युक्त होता है उसे आतप नामकर्म कहते हैं । जिसके उदयसे जुगुनू आदिक समान जीवका शरीर उद्योतसे युक्त होता है उसे उद्योत नामकर्म कहा जाता है। जिसके उदयसे जीवका गमन होता है वह विहायोगति नामकर्म कहलाता है। वह प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें प्रशस्त विहायोगतिका उदय हंस और हाथी आदिके तथा अप्रशस्त विहायोगतिका उदय ऊंट आदिके हुआ करता है। जिसके उदयसे चलना और परिस्पन्दन होता है वह त्रस नामकर्म कहलाता है। अन्य आचार्यों के मतानुसार इस त्रस नामकर्मके उदयसे कवल त्रसत्व-त्रस अवस्था हो-होतो है। जिसके उदयसे प्राणो स्पन्दनसे रहित होता है उसे स्थावर नामकर्म कहा जाता है। अन्य आचायों के अभिमता.नुसार इस स्थावर नामकमके उदयसे जोव स्थावर-स्थिर स्वभाववाला-ही होता है। जिसके उदयसे जोवका शरीर बादर (स्थूल ) होता है उसे बादर नामकर्म कहते है। अन्य आचार्यों के अभिप्रायानुसार जिसके उदयसे जाव इन्द्रियगाचर होता है उसे बादर नामकर्म कहा जाता है। जिसके उदयसे जीवका शरीर सूक्ष्म, अर्थात् अतिशय श्लक्ष्ण या अतीन्द्रिय होता है उसका नाम सूक्ष्म नामकर्म है। जिसके उदयस इन्द्रिय आदिकी उत्पत्ति होतो है उसे पयाम नामकर्म कहत ह। इसके विपरीत जिसके उदय से समस्त पर्याप्तियोंका निवृत्ति ( रचना या उत्पत्ति ) नहीं होता है उसे अपर्याप्त नामकर्म कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि अपर्याप्त नामकर्मका उदय होनेपर आहार, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्तियोको निवृत्ति तो सम्भव है, पर समस्त पर्याप्तियोंका निवृत्ति उसके उदयमें सम्भव नही है। इसका कारण यह है कि सब ही प्राणी आगामी भवको आयुको बाँध करके ही मरते हैं और उस आयुका बन्ध आहार, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवोंके हो होता है ॥२२॥ अब उसके प्रत्येक आदि आगेके दस भेदोंका निर्देश किया जाता है१. अ उज्जोवविहायगती । २. अ बायरमहुत्तमपज्जत्ता० । ३. अ तथाहारशरीरेंद्रियपर्याप्तानामेव । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AO श्रावकप्रज्ञप्तिः [२३ - पत्तेयं साहारण-थिरमथिरसुहासुहं च नायां । सुभगभगनामं सूसर तह दूसरं चेव ॥२३॥ प्रत्येकनाम यदुदयादेको जीव एकमेव शरीरं निवर्तयति । साधारणनाम यदुदयाद् बहवो जीवा एकं शरीरं निवर्तयन्ति । स्थिरनाम यदयाच्छरीरावयवानां शिरोऽस्थि-दन्तादीनां स्थिरता भवति । अस्थिरनाम यदुदयात्तदवयवानामेव चलता भवति कर्णजिह्वाहीनाम् । शुभाशुभं च ज्ञातव्यम्-तत्र शुभनाम यदुदयाच्छरीरावयवानां शुभता, यथा शिरसः। विपरीतमशुभनाम, यथा पादयोः । तथा शिरसा स्पृष्टस्तुष्यति, पादाहतस्तु रुष्यति । कामिनीव्यवहारे व्यभिचार इति चेत् न, तस्य मोहनीयनिबन्धनत्वात्, वस्तुस्थितिश्चेह चिन्त्यत इति । सुभगनाम यदुदयात्काम्यो भवांत । तद्विपरीतं च दुर्भगनामेति । सुस्वरनाम यदुदयात्सोस्वयं भवति श्रोतुः प्रीतिहेतुः। तथा दुःस्वरं चैवेति सुस्वरनामोक्तविपरीतमिति ॥२३॥ आइज्जमणाइज्ड जसकित्तीनाममजसकित्ती य । निम्माणनाममउलं चरमं तित्थयरनामं च ॥२४॥ आदेयनाम यदुदयादादेयो भवति-यच्चेष्टते भाषते वा तत्सर्व लोकः प्रमाणीकरोति । २७ प्रत्यक, २८ साधारण, २९ स्थिर, ३० अस्थिर, २१ शुभ, ३२ अशुभ, ३३ सुभग, ३४ दुर्भग, ३५ सुस्वर ओर ३६ दुःस्वर जानना चाहिए। इस प्रकार यहाँ तक प्रकृत नाम कमके ३६ भेद हो जाते हैं। विवेचन-इनका पथक स्वरूप इस प्रकार है-जिसके उदयसे एक जीव एक हो शरीरकी रचना करता है उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं। जिसके उदयसे बहुतसे जोव एक शरीरको रचना करते हैं उसे साधारण नामकर्म कहा जाता है । जिसके उदयसे शरीरके अवयवभूत सिर, हड्डी और दांत आदिकी स्थिरता होती है उसे स्थिर नामकर्म तथा जिसके उदयसे उस शरीरके कान और जीभ आदि अवयवोंकी ही अस्थिरता या चंचलता होती है उसे अस्थिर नामकर्म कहा जाता है। जिसके उदयसे शरीरगत अवयवोंकी उत्तमता, जैसे शिरकी उत्तमता होती है वह शुभ नामकर्म और इसके विपरीत जिसके उदयसे उन अवयवाम-जैस पांवों में-हीनता होती है वह अशुभ नामकर्म कहलाता है। लोकव्यवहारमें यह देखा भी जाता है कि यदि किसीका सिरसे स्पर्श किया जाता है तो वह प्रसन्न होता है तथा इसके विपरीत यदि किसीको पावसे ताड़ित किया जाता है तो वह रुष्ट हाता है। जिसके उदयस प्राणी दूसरोके द्वारा अभिलषनीय या प्रशंसनीय होता है उसे सुभग और इसके विपरीत जिसके उदयसे वह दूसरोंके द्वारा अनभिलषनीय या निन्दनीय नामकर्म कहते है। जिसके उदयस प्राणाका सुन्दर स्वर श्रोताको प्रीतिका कारण होता है वह सुस्वर ओर इसक विपरीत जिसके उदयसे उसका स्वर श्रोताको अप्रीतिकर होता है वह दुःस्वर नामकर्म कहलाता है ।।२३।। अब प्रकृत नामकर्म के शेष रहे आदेय आदि छह भेदोंका निर्देश किया जाता है ३७ आदेय, ३८ अनादेय, ३९ यशःकोति, ४० अयशःकीर्ति, ४१ निर्माण और ४२ अन्तिम अनुपम तीर्थंकर नामकर्म । इस प्रकार उस नामकर्मके गा. २०-२४ में निर्दिष्ट ४२ भेद हो जाते हैं। विवेचन-जिसके उदय से प्राणो दूसरोंके लिए ग्राह्य होता है उसे आदेय नारकर्म कहा १. अ आयज्जमणाएज्ज । २. अमजस कित्तं च। ३. अ प्रमाणं करोति । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- २६ ] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा २१ तद्विपरीतमनादेयम् । यशः कीर्तिनाम यदुदयाद्यशः कीर्तिभावः । यशः कीत्यविशेषः - दानपुण्यफला कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः । अयशः कीर्तिनाम चोक्तविपरीतम् । निर्माणनाम यदुदयात्सर्वजीवानां अङ्गोपाङ्गनिवेशो भवति । जातिलिङ्गाकृतिव्यवस्था नियम इत्यन्ये । अतुलं प्रधानम् । चरमं प्रधानत्वात्सूत्रक्रमप्रामाण्याच्चेति । तीर्थकरनाम यदुदयात्सदेवमनुष्यासुरस्य जगतः पूज्यो भवति । चः समुच्चये इति ॥२४॥ गोयं च दुहियं उच्चागोयं तहेव नीयं च चरमं च पंचभेअं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ २५ ॥ गोत्रं प्राङ्गनिरूपित शब्दार्थ भवति । द्विविधं द्विप्रकारम् । उच्चैर्गोत्रं तथैव नीचं चेति नोचैर्गोत्रं च । तत्रोच्चैर्गोत्रं यदुदयादज्ञानो विरूपोऽपि सत्कुलमात्रादेव पूज्यते । नीचैर्गोत्रं तु यदुदयाज्ज्ञानादियुक्तोऽपि निन्द्यते । चरमं च पर्यन्तवति च सूत्रक्रमप्रामाण्यात् । पञ्चभेदं पञ्चप्रकारम् । प्रज्ञप्तं प्ररूपितं वीतरागैरर्हद्भिरिति ॥ २५ ॥ तं दाणलाभभोगोवभागविरियंतराइयं जाण । चित्तं पोग्गलरूवं विन्नेयं सव्वमेवेयं ॥ २६॥ तद्दान- लाभ-भोगोपभोग-वोर्यान्तरायं जानीहि । तत्र दानान्तरायं यदुदयात्सति दातव्ये जाता है । इस कर्मका उदय होनपर प्राणी जैसी कुछ प्रवृत्ति करता है बोलता है उस सबको लोग प्रमाण करते हैं, इसके विपरीत जिसके उदयसे प्राणी दूसरोंके लिए अग्राह्य होता है वह अनादेय नामकर्म कहलाता है । इस कर्मका उदय होनेपर प्राणा युक्तिसंगत बालता है, फिर भी लोग उसे प्रमाण नहीं करते तथा आदरके योग्य होनेपर भा उसका आदर नहीं किया जाता। जिसके उदयसे प्राणीका यश और कीर्ति फैलती है उसका नाम यश: कोति नामकर्म है । दान जनित पुण्यके फल से कीर्ति और पराक्रम के प्रभावसे यशका प्रादुर्भाव होता है, यह इन दानों में भेद समझना चाहिए। उसके विपरीत जिस कर्मके उदयसे प्राणी के यश व कीर्तिका प्रसार नहीं होता है उसे अयशःकीर्ति नामकर्म कहा जाता है । जिसके उदयसे सब जीवोंकी जाति में अंग- उपांगों का निवेश होता है उसे निर्माण नामकर्म कहत हैं । अन्य किन्हीं आचार्योक मतानुसार जो जाति, लिंग और आकृतिका नियमन करता है उसे निर्माण नामकर्म कहा जाता है। जिसका उदय होनेपर जीव देव, पनुष्य और असुरोंसे परिपूर्ण समस्त लोकका पूज्य होता है उसे तीर्थंकर नामकर्म कहते हैं ॥ २४ ॥ अब गोत्र कर्म के दो भेदों को दिखलाते हुए अन्तराय कर्मके भेदोंकी संख्याका निर्देश किया जाता है— गोत्रकर्म दो प्रकारका है— उच्चगोत्र और नीचगोत्र । अन्तिम अन्तराय कर्म वीतराग जिनके द्वारा पाँच प्रकारका कहा गया है। पूर्वोक्त गोत्र कर्म के दो भेदों में जिसके उदयसे जीव अज्ञानी व विरूप होकर भी केवल उत्तम कुछके कारण पूजा जाता है उसे उच्चगोत्र और जिसके उदयसे वह ज्ञानादि गुणोंसे सम्पन्न होता हुआ भी निन्दाका पात्र बनता है उसे नीचगोत्र कहा जाता है ||२५|| आगे अन्तराय कर्म के पूर्व निर्दिष्ट पाँच भेदोंका नामनिर्देश किया जाता है उस अन्तरायको दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य अन्तरायके रूपमें पांच प्रकारका १. भ विरयंतरायं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रावकप्रज्ञप्तिः प्रतिग्राहके च पात्रविशेषे दानफलं च जानन्नोत्सहते दातुम् । लाभान्तरायं तु यदुदयात्सत्यपि प्रसिद्धे दातरि तस्यापि लभ्यस्य भावे याञ्चाकुशलोऽपि न लभते । भोगान्तरायं तु यदुदयात्सति विभवे अन्तरेण विरतिपरिणामं न भुंक्ते भोगान् । एवमुपभोगान्तरायमपि । नवरं भोगोपभोगयोरेवं विशेषः - सकृद्भुज्यत इति भोगः आहार- माल्यादिः पुनः पुनरुपभुज्यत इत्युपभोगः भवन - वलयादिः । उक्तं च १ सइ भुज्जइत्ति भोगों सो उण आहार - फुल्लमाईसु । उवभोगो उ पुणो पुण उवभुज्जइ भुत्रणव- लयाई ॥ [ २७. - वीर्यान्तरायं तु यदुदयान्निरुजो वयस्थश्चात्पवीर्यो भवति । चित्रं पुद्गलरूपं विज्ञेयं सर्वमेवेदम् - चित्रमनेकरूपं चित्रफलहेतुत्वात्, पुद्गलरूपं परमाण्वात्मकं न वासनादिरूपममूर्तमिति, विज्ञेयं ज्ञातव्यं भिन्नालम्बनं पुनः क्रियाभिधानमदुष्टमेव । सर्वेदं ज्ञानावरणादि कर्मेति ॥ २६ ॥ यस एग परिणामसंचियस्स उठिई समरकाया । - उक्को सेयरभेया तमहं वुच्छं समासेणं ||२७|| एतस्य चानन्तरोदितस्य कर्मणः । एकपरिणामसंचितस्य । तु शब्दस्य विशेषणार्थत्वात्प्रायः क्लिष्टैक परिणामोपात्तस्येत्यर्थः । स्थितिः समाख्याता सांसारिका शुभफलदातृत्वेनावस्थानम् । उक्तमागम इति गम्यते । उत्कृष्टेतरभेदादुत्कृष्टा जघन्या च समाख्यातेति भावः । तां स्थितिमहं जानना चाहिए । यह सब ही ज्ञानावरणादि रूप कर्म पुद्गल परमाणुस्वरूप अनेक प्रकारका जानना चाहिए । विवेचन-इन पाँच अन्तराय कर्मों का स्वरूप इस प्रकार है-जिसके उदयसे देने योग्य द्रव्य और ग्रहण करनेवाले विशिष्ट पात्र के रहते हुए तथा दानके फलको जानता हुआ भी जीव देने के लिए उत्साहित नहीं होता है उस दानान्तराय कहते हैं । जिसके उदयसे प्रसिद्ध दाता और उसके पास प्राप्त करने योग्य वस्तुके होनेपर भा तथा मांगनेमे निपुण होता हुआ भी प्राणी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त नहीं कर पाता उसका नाम लाभान्तराय है । जिसके उदयसे जीव वैभवके होनपर भी तथा विरतिरूप परिणामके न होते हुए भो भोगोंको नहीं भोग सकता है वह भोगान्तराय कहलाता है । इसी प्रकार उपभागरूप वस्तुओंके होनेपर तथा विरतिरूप परिणामके न होनेपर भी जिसके उदयसे जोव उनका उपभोग नहीं कर पाता है उसे उपभोगान्तराय कहते हैं । जो वस्तु एक ही बार भागने में आता है उसे भोग कहा जाता है - जैसे आहार व माला आदि । इसके विपरीत जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहा जाता है - जैसे महल व चूड़ी आदि आभूषण । जिसके उदयसे प्राणी नीरोग व योग्य अवस्थाको प्राप्त होकर भी होन वीर्यवाला हुआ करता है उसका नाम वीर्यान्तराय है । प्रस्तुत कर्म चूँकि दिया करता है इसीलिए उसे यहाँ चित्र - अनेक प्रकारका – कहा गया है। रूप कहकर उसको अमूर्तिकता को प्रकट करते हुए वासनादि रूपताका गया है ||२६|| अनेक प्रकारके फलको साथ ही उसे पुद्गलनिषेध भी कर दिया आगे इस कर्म की स्थिति के कहने की प्रतिज्ञा करते हैं एक परिणाम से संचित - क्लिष्ट एक परिणाम से उपार्जित - इस कर्मकी जो आगम में १. अ विलयादि । २. अ भुज्जतु इति भोगो । ३. अ विलयाई । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३०] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा वक्ष्ये अहमित्यात्मनिर्देशे, वक्ष्येऽभिधास्ये। समासेन संक्षेपेण, न तूत्तरप्रकृतिभेदस्थितिप्रतिपादनप्रपञ्चेनेति ॥२७॥ आइल्लाणं तिन्हं चरमस्स य तीस कोडिकोडीओ। आयराण मोहणिजस्स सत्तरी होइ विन्नेया ॥२८॥ आद्यानां त्रयाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीयानां चरमस्य च सूत्रक्रमप्रामाण्यात्पर्यन्तवतिनोऽन्तरायस्येति त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोट्यः । अतराणामिति सागरोपमानाम् । मोहनीयस्य सप्ततिर्भवति विज्ञेया सागरोपमकोटिकोट्य इति ॥२८॥ नामस्स य गोयस्स य वीसं उक्कोसिया ठिई भणिया। तित्तीससागराइं परमा आउस्स बोद्धव्वा ॥२९॥ नाम्नश्च गोत्रस्य च विशतिः, सागरोपमकोटिकोटय इति गम्यते। उत्कष्टा स्थिति णिता सर्वोत्तमा स्थितिः प्रतिपादिता तीर्थकर-गणधरैरिति । त्रयस्त्रिशत्सागरोपमानि परमा प्रधानायुःकर्मणा बोद्धव्येति ॥२९॥ अधुना जघन्यामाह वेयणियस्स य बारस नामागोयाण अट्ठ उ मुहुत्ता । सेसाण अहन्नठिई भिन्नमुहुत्तं विणिद्दिट्ठा ॥३०॥ वेदनीयस्य कर्मणो जघन्या स्थितिरिति योगः, द्वादशमुहूर्ताः। नामगोत्रकर्मणोरष्टौ मुहूर्ताः, इत्थं महर्तशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। द्विघटिको मुहर्तः। शेषाणां ज्ञानावरणादीनाम् । जघन्या स्थितिभिन्नमुहूतं विनिर्दिष्टान्तर्महतं प्रतिपादितेति ॥३०॥ प्रकृतयोजनायाहउत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारकी स्थिति कही गयी है उसे मैं ( ग्रन्थकार) संक्षेपसेकेवल मूल प्रकृतियोंके हो आश्रयसे-कहँगा ॥२७॥ अब कृत प्रतिज्ञाके अनुसार उस कर्मस्थितिका निरूपण करते हए यहां प्रथम तीन कर्मोंके साथ अन्तिम अन्तराय और मोहनीय कर्मकी भी उत्कृष्ट स्थितिका निर्देश किया जाता है आदिके तीन-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय-को तथा अन्तिम अन्तराय वमकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागरोपम है। मोहनीय कमंकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण जानना चाहिए। कर्म जितने समय तक सांसारिक शुभाशुभ फलके दातारूपसे अवस्थित रहता है उतने समय प्रमाणको उसकी स्थिति जानना चाहिए ॥२८॥ आगे शेष तीन कर्मोको उत्कृष्ट स्थितिका निर्देश किया जाता है नाम और गोत्र कर्मको उत्कृष्ट स्थिति बोस कोडाकोड़ी सागरोपम कही गयो है। आयुकर्मको उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम मात्र जानना चाहिए ॥२९॥ अब उन कर्मोंकी जघन्य स्थितिका निर्देश किया जाता है जघन्य स्थिति वेदनीय कर्म बारह मुहूर्त, नाम व गोत्र कर्मको आठ मुहूर्त तथा शेषज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयु और अन्तराय-कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र कही गयो है॥३०॥ १. भ क्रमप्रमाणात् । २. अ कोट्याकोट्य इति । ३. अ 'य' नास्ति। ४. म नामग्गोयाण । . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३१ - एवं ठिइयस्स जया घंसण-घोलणनिमित्तओ कहवि । खविया कोडाकोडी सव्वा इक्कं पमुत्तणं ॥३१॥ एवंस्थितेरस्य कर्मणः । यदा यस्मिन् काले । घर्षण-घूर्णननिमित्ततो नानायोनिषु चित्रसुखदुःखानुभवनेनेत्यर्थः । कथमपि केनचित्प्रकारेण । क्षपिताः प्रलयं नीताः । कोटिकोट्यः सर्वाज्ञानावरणादिसंबन्धिन्यः एका विमच्य विहायेति ॥३१॥ नीई विथ थोवमित्ते खविए इत्थंतरम्भि जीवस्स । हवइ हु अभिभावो गंठी एवं जिणा बेति' ।।३२॥ तस्या अपि च सागरोषमकोटिकोट्याः स्तोकमात्रे पल्योपमासङ्येयभागे। क्षपितेऽपनीते । अत्रान्तरेऽस्मिन् भागो । जीवस्यात्मनः। भवति-अभिन्नपूर्वो [ह] शब्दस्यावधारणार्थत्वाद्वयवहितो. पन्यासाचाभिन्नपूर्व एव । शान्थिरिव ग्रन्थि?ःखेनोद्वेष्टयमानत्वात् । एवं जिना ब्रुवत एवं तीर्थकराः प्रतिपादयन्तीति । उक्तं च तत्समाय: गंट्ठि त्ति सुदुब्भेउ कक्खडघणरूढगूढगंढि व्व । जीवस्स कम्मजणिओ घणरागद्दोसपरिणामो ।। इति ।।३२।। भिन्नामि तंमि लामो जायइ परमपयहेउणो नियमा। सम्मत्तस्स पुणो तं बंधेण न बोलइ कयाइ ॥३३॥ भिशेऽपूर्वकरणेन विद्यारित । तस्मिन् ग्रन्थावात्मनि लाभः प्राप्तिर्जायते संपद्यते। परमपद. हेतो क्षकारणस्य । नियमालियमेनावश्यंभावतायेत्यर्थः । कस्य ? सम्यक्त्वस्य वक्ष्यमाणस्वरूपस्य । इस प्रकार प्रसंगप्राप्त कर्मकी संक्षेपमें प्ररूपणा करके अब आगेकी दो गाथाओंमें प्रकृतको योजनाके लिए यह कहा जाता है इस प्रकारकी स्थितिवाले उस कर्मकी स्थितिमें जब किसी प्रकारसे घर्षण और घोलन (घूर्णन ) के निमित्तसे एक कोडाकोडीको छोड़कर शेष सब कोड़ाकोडियोंको क्षीण कर दिया जाता है तथा शेष रही उस एक कोडाकोड़ी मात्र स्थिति में भी जब स्तोक मात्र-पल्योपमके असंख्यातवें. भागकी और भी-क्षोण कर दिया जाता है। इस बीचमें ग्रन्थि अभिन्नपूर्व ही रहती है, ऐसा जिन भगवान् कहते हैं ॥३१-३२॥ आगे यह सूचित किया जाता है कि सम्यक्त्वकी प्राप्ति इस ग्रन्थिके भेदे जानेपर ही सम्भव है उस ग्रन्थिके भेदे जानेपर नियमसे मोक्षके कारणभूत सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनसे युक्त हुआ जीव उस ग्रन्थिका कर्मबन्धके द्वारा कभी अतिक्रमण नहीं करता है- उत्कृष्ट स्थितिसे युक्त कर्मोंको नहीं बांधता है। विवेचन-ग्रन्थिका अर्थ गांठ होता है। जिस प्रकार किसी वृक्षविशेषको कठोर व सघन सूखी गांठ तोड़ने के लिए अतिशय कष्टप्रद होती है, अथवा रस्सी आदिमें लगायो गयी दृढ़तर गांठ खोलने में क्लेशकर होती है, उसी प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी सहायतासे मोहनीयकर्मके द्वारा निर्मित जो दृढ़तर राग-द्वेषरूप परिणाम अतिशय दुर्भेद्य होता है उसे यहां अन्यिके समान दुर्भेद्य होनेके कारण प्रन्थि कहा गया है। पूर्व में (२८-२९ ) जो ज्ञानावरणादि कर्मोंको उत्कृष्ट स्थिति निर्दिष्ट की गयो है उसे अधःकरण परिणामको प्राप्त यह जोव जब घर्षण १. अ एक्क पमोत्तण । २. अ कोटोकोट्यः । ३. अ तिय । ४. थेवमिते । ५. कत्थंतरम्मि । ६. म बिन्ति । . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३५] युक्ति- प्रत्युक्तिपुरःसरं सम्यक्त्व प्राप्तिविचारः २५ पुनस्तं ग्रन्थिमवाप्तसम्यग्दर्शनः सन् बन्धेन कर्मबन्धेन । न व्यवलीयते नातिक्रामयति । कदाचित्कमरिचकाले । न ह्यसावुत्कृष्ट स्थितीनि कर्माणि बध्नाति तथाविधपरिणामाभावादिति ॥३३॥ अत्राह - तंजाविह संपत्ती न जुञ्जए तस्स निग्गुणत्तणओ | बहुतरबंधाओ खलु सुत्तविरोहा जओ भणियं ॥ ३४ ॥ तं ग्रन्थिम् । यावदिह विचारे । संप्राप्तिर्न युज्यते न घटते । कुतः ? तस्य निर्गुणत्वात्तस्य जीवस्य सम्यग्दर्शनादिगुणरहितत्वात् । निर्गुणस्य च बहुतरबन्धात् । खलुशब्दोऽवधारणे - बहुतरबन्धादेव । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् । सूत्रविरोधादन्यथा सूत्रविरोध इत्यर्थः । कथमिति आहे - यतो भणितं यस्मादुक्तमिति ||३४|| किमुक्तमित्याह पल्ले महइमहल्ले कुंभं पक्खिवइ सोहऐ नालिं । अस्संजए अविर बहु बंधइ निज थोवं ॥ ३५ ॥ पल्लवत्पल्यस्तस्मिन् पल्ये । महति महल्ले अतिशयमहति । कुम्भं लाटदेशप्रसिद्धमानरूपम्, 'धान्यस्येति गम्यते । प्रक्षिपति स्थापयति । सोधयति' नालि गृह्णाति सेतिकाम् । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः - योऽसंयतः सकलसम्यक्त्वादिगुणस्थानेष्व संयतत्वान्मिथ्यादृष्टिः परिगृह्यते । अविरत: काकमांसादेरप्यनिवृत्तः । बहु बध्नाति निर्जरयति स्तोकं स्तोकतरं क्षपयति, निर्गुणत्वात् । गुणनिबन्धना हि विशिष्ट निर्जरेति ॥३५॥ घूर्णन के निमित्तसे - नाना योनियों में अनेक प्रकारके दुख-सुखका अनुभव करते हुए - उत्तरोत्तर क्षीण करता हुआ जब एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण कर देता है तथा शेष रही इस एक Satta सागरोपम प्रमाण स्थितिमें भी जब पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्रको और भी क्षीण कर देता है तब तक भी वह ग्रन्थि अभिन्नपूर्व - पूर्वमें कभी न भेदी गयी के रूपमें - हो अवस्थित रहती है । पश्चात् जो जीव उसके भेदने में समर्थ होता है वह जब उसे अपूर्वकरण परिणामके द्वारा भेदता है-निर्मूल कर देता है - तब कहीं उसे अनिवृत्तिकरणके आश्रयसे मुक्तिका कारणभूत वह सम्यक्त्व प्राप्त होता है। इस सम्यक्त्व के प्राप्त हो जानेपर फिर कभी वह उपर्युक्त उत्कृष्ट स्थिति से संयुक्त कर्मको नहीं बांधता है ||३३|| यहाँ शंकाकार कहता है ग्रन्थि तक यहां उसकी प्राप्ति घटित नहीं होती, क्योंकि तब तक जीवके निर्गुणसम्यग्दर्शनादि गुणोंसे रहित- होनेके कारण अधिकसे अधिक कर्मबन्ध होनेवाला है । और यदि ऐसा न माना जाये तो आगमका विरोध दुर्निवार होगा, क्योंकि आगममें ऐसा कहा गया है ||३४|| आगम में क्या कहा गया है, इसे आगे तीन गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हुए प्रथमतः उदाहरणपूर्वक असंयत कर्मबन्धको प्रकट किया जाता है अतिशय महान् पल्य (कुठिया - धान्य रखने के लिए मिट्टीसे निर्मित एक बड़ा बर्तन ) में कुम्भ ( लाट देश प्रसिद्ध धान्य मापनेका एक उपकरण ) को तो स्थापित करता है और नालि १. अ 'च' नास्ति । २. अ कथमित्यत्राह । ३. अ पक्खिवए सोहइ । ४. अ अविरइ । ५. महते । ६. अ साधयति । ४ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रज्ञप्तिः पल्ले महइमहल्ले कुंभं सोहेइ पक्खिवे नालि | जे संजऐ पत्ते बहु निज्जरे बंधए थोवं ||३६|| पल्ले अतिशय महति । कुम्भं सोधयति प्रक्षिपति नालिम् । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः - यः संयतः सम्यग्दृष्टिरीषत्प्रमादवान् प्रमत्तसंयत एव नान्ये । बहु निर्जरयति बध्नाति स्तोकं, सगुणत्वादिति ॥३६॥ पल्ले महइमहल्ले कुंभं सोहेइ पक्खिवइ न किंचि । २६ [ ३६ - जे संजए अपमत्ते बहु निज्जरे बंधइ न किंचि ॥३७॥ पल्लेऽतिशय महति कुम्भं सोधयति प्रक्षिपति न किचित् । एष दृष्टान्तो ऽयमर्थोपनयः - यः संयतोऽप्रमत्तः प्रमादरहितः साधुरित्यर्थः । बहु निर्जरयति, बध्नाति न किचिद्विशिष्टतरगुणत्वात् ( एक छोटा माप ) को निकालता है । इसी प्रकारसे असंयत - मिथ्यादृष्टि जीव-जो काकमांस आदिके व्रत से भी रहित है वह बहुत कर्मको बांधता है और निर्जरा थोड़े कर्मकी करता है || ३५॥ प्रमत्त संयत के लिए एक दूसरा उदाहरण अतिशय महान् पल्यके भीतरसे कुम्भको निकालता है और नालिको स्थापित करता है । ठीक इसी प्रकारसे प्रमत्त संयत जीव बहुत कर्मकी निर्जरा करता है, पर बाँधता थोड़े कर्मको है ||३६|| अप्रमत्त संयत के लिए अन्य एक उदाहरण - अतिशय महान् पल्यके भीतरसे कुम्भको निकालता है, पर स्थापित उसमें कुछ नहीं करता है । ठीक इसी प्रकारसे अप्रमत्त संयत जीव कर्मको निर्जरा तो बहुत करता है, पर बाँधता कुछ भी नहीं है ||३७|| 1 विवेचन - शंकाकारका अभिप्राय यह है कि जब तक वह अभिन्नपूर्व ग्रन्थि विद्यमान है इस बीच जो कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको क्षीण करते हुए उसे एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमसे भी कुछ (पल्योपमका असंख्यातवां भाग ) हीन करनेकी प्रक्रिया दिखलायी गयी है ( ३१-३२ ) वह योग्य नहीं है । इसका कारण यह है कि जीव जबतक सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे हीन रहता है तबतक उसके अधिकाधिक ही कर्मबन्ध हुआ करता है । ऐसी स्थिति में उसके लिए उक्त प्रकारसे उत्कृष्ट कस्थितिका हीन करना सम्भव नहीं है। ऐसा स्वीकार न करनेपर आगमसे विरोध दुर्निवार होगा । कारण यह कि आगममें ऐसा कहा गया है कि जिस प्रकार किसी धान्य रखने के बड़े बर्तन में कुम्भ प्रमाण धान्यके रखने और नालि प्रमाण उसमेंसे निकालने उसमें उत्तरोत्तर नियमसे अधिक धान्यका संचय होता है उसी प्रकार सर्वथा व्रतसे रहित असंयत मिध्यादृष्टि जीव कर्मको बांधता तो बहुत है ओर निर्जरा उसकी थोड़ी करता है । अत: उसके कर्मका संचय अधिक हो होनेवाला है । इस स्थितिमें उसके उक्त प्रकारसे कर्मस्थितिका हीन होना सम्भव नहीं है । इसके साथ आगम में यह भी कहा गया है कि उसी धान्यके बर्तन मेंसे यदि कुम्भ प्रमाण धान्यको निकाला जाता है और नालि प्रमाण उसमें रखा जाता है तो जिस प्रकार उस बर्तन में धान्यका प्रमाण उत्तरोत्तर हीन होता जाता है उसी प्रकार अप्रमत्त संयत जीव कर्मकी निर्जरा तो बहुत करता है, पर बाँधता कम है, इस प्रकारसे उसके कर्म की हानि उत्तरोत्तर अवश्य होनेवाली है । १. भ संजये । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९] युक्तिप्रत्युक्तिपुरःसरं सम्यक्त्वप्राप्तिविचारः २७ बन्धकारणाभावादिति ॥३७॥ गुरुराह एयमिह ओहविसयं भणियं सव्वे न एवमेव त्ति । अस्संजओ उ एवं पडुच्च ओसन्नभावं तु ॥३८॥ एतदिति पल्ले महइमहल्ले इत्यादि । इहास्मिन् विचारे। ओघविषयं सामान्यविषयम् । भणितमुक्तम । सर्वे न एवमेवेति सर्वे नैवमेव बध्नन्ति । अस्यैव विषयमुपदर्शयति-असंयतस्त्वेवं मिथ्याटिरेव एवं बध्नाति. नान्य इति। असावपि प्रतीत्याजीकृत्य। ओसन्नभावं बाहल्य. भावम् । तुरवधारणे-ओसन्नभावमेव, न तु नियममिति ॥३८॥ नियमे दोषमाह पावइ बंधाभावो उ अन्नहा पोग्गलाणभावाओ। इय वुढिगहणओ ते सव्वे जीवेहि जुज्जति ॥३९॥ प्राप्नोति आपद्यते । बन्धाभावस्तु बन्धाभाव एव । अन्यथान्येन प्रकारेण सर्वे असंयता एवं बध्नन्तीत्येवंलक्षणेन । किमित्यत्रोपपत्तिमाह-पुद्गलानामभावाद्बध्यमानानां कर्मपुद्गलानामसंभवात् । तेषामेवाभावे उपपत्तिमाह-इति वृद्धिग्रहणतः एवमनन्तगुणरूपतया वृद्धिग्रहणेन । ते इसके अतिरिक्त उसी बर्तनमें से कुम्भ प्रमाण धान्यको निकाला जाता है और रखा उसमें कुछ भी नहीं जाता है तब जिस प्रकार यथासमय वह बर्तन धान्यसे रहित हो जाता है ठीक उसी प्रकारसे जो अप्रमत्त संयत जीव कर्मको निर्जरा तो बहुत करता है और बांधता कुछ भी नहीं है वह कर्मसे यथासमय मुक्त हो जाता है। प्रकृत अप्रमत्त संयतके बन्ध इसलिए नहीं होता कि वह बन्धके कारणभूत मिथ्यादर्शनादिसे रहित हो चुका है। इस आगमके आधारसे उक्त शंकाकारका यह कहना है कि मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे रहित होनेके कारण जब कर्मका अधिकाधिक ही बन्ध होनेवाला है तब ऊपर बतलायी गयी कर्मस्थितिकी हानि उसके सम्भव नहीं है ॥३४-३७॥ आगे इस शंकाका समाधान किया जाता है उक्त प्रकारसे आगममें जो बन्ध और निर्जराके क्रमका निर्देश ,किया है वह सामान्यसे किया गया है। कारण कि सब जोव इसी प्रकारसे कर्मको नहीं बांधते हैं, किन्तु व्रत रहित मिथ्यादृष्टि असंयत ही उस प्रकारसे कर्मको बांधता है। वह भी बहुलताकी अपेक्षासे वैसे बांधता हैसब ही मिथ्यादृष्टि असंयत उस प्रकारसे नहीं बांधते हैं ॥३८॥ वैसा न माननेपर जिस आपत्ति की सम्भावना है उसे आगे प्रकट करते हैं मिथ्यादृष्टि असंयत भी बहुलतासे ही अधिकाधिक कर्मको बांधते हैं, यदि ऐसा न माना जाये तो बन्ध योग्य पुद्गलोंका अभाव हो जानेके कारण बन्धके अभावका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा। इसका कारण यह है कि उक्त प्रकार अनन्तगुणी वृद्धिके साथ कर्मपुद्गलोंके ग्रहण किये जानेपर वे सब पुद्गल जीवोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त हो सकते हैं। विवेचन-पूर्वोक्त शंकाके समाधानमें यहां यह कहा गया है कि आगममें जो असंयतके अधिकाधिक कर्मबन्धका निर्देश किया गया है वह सामान्यसे किया गया है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि सभी असंयत जीव उक्त प्रकारसे कर्मका बन्ध नहीं किया करते हैं, किन्तु असंयत मिथ्यादृष्टि जीव ही उक्त क्रमसे कर्मका बन्ध अधिक और निर्जरा उसकी अल्प मात्रामें किया १. भ असंयतस्त्वेव। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [४०कमपुद्गलाः सर्वे जीवैर्युज्यन्ते कालान्तरेण सर्वे जीवैः संबध्यन्ते, प्रभूततरग्रहणादल्पतरमोक्षाच्च, सहस्र मिव प्रतिदिवसं पञ्चरूपकग्रहणे' एकरूपकमोक्षे च दिवसत्रयान्तः पुरुषशतेनेनि ॥३९॥ आह चोदकः मोक्खो ऽसंखिज्जाओ कालाओ ते अजं जिएहिंतो। भणिया र्णतगुणा खलु न एस दोसो तओ जुत्तो ॥४०॥ मोक्षः परित्यागः। असङ्घययात्कालादसङ्ख्येयेन कालेन उत्कृष्टतस्तेषां कर्मपुद्गलानाम्, तत ऊध्वं कर्मस्थितेः प्रतिषिद्धत्वात् । ते च कर्माणवः। यतो यस्माज्जीवेभ्यः सर्वेभ्य एव । भणिताः प्रतिपादिता अनन्तगुणाः । खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वादनन्तगुणा एव । नैष दोषोऽनन्तरोदितो बन्धाभावप्राप्तिकाललक्षणः। ततो युक्तो बहुतरबन्धः, प्रभूततरग्रहणेऽल्पतरमोक्षे च सत्यपि तेषामनन्तत्वात् स्तोककालाच्च मोक्षादिति। न हि शीर्षप्रहेलिकान्तस्य राशेः प्रतिदिवसं पञ्च. करता है। मिथ्यादृष्टि असंयतके लिए भी यह ऐकान्तिक नियम नहीं है, वह भी बहुलतासे उस प्रकारके अधिक कर्मबन्धको करता है, नियमतः वैसा नहीं करता। यदि ऐसा न मानकर यही माना जाये कि सभी असंयत जीव नियमसे कर्मके बन्धको अधिक और निर्जरा थोड़ी किया करते हैं तो फिर अनन्तगुणित वृद्धिसे कर्मबन्धके होनेपर बध्यमान वे सब कर्मपुद्गल कालान्तरमें जावाक साथ सम्बद्ध हो जावेंगे। कारण यह कि उनका ग्रहण तो प्रचुरतर मात्रामें होता है और निर्जरा अल्पतर मात्रामें होती है। तब वैसी अवस्थामें सब कर्मपुद्गलोंके समाप्त हो जानेपर अनिवार्यतः कर्मबन्धके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। उदाहरणस्वरूप हजार संख्यामेंसे प्रतिदिन यदि सो पुरुषोंके द्वारा पांच-पांच अंक ग्रहण किये जाते हैं और एक-एक छोड़ा जाता है तो वह राशि तीन दिनके भीतर ही समाप्त हो जाने वाली है। अतएव उक्त आगमका यही अभिप्राय समझना चाहिए कि सभी असंयत जीव उक्त क्रमसे अधिक कर्मबन्धको नहीं करते हैं, किन्तु असंयत मिथ्यादृष्टि हो और वह भी बहुलतासे उक्त प्रकार अधिक कर्मबन्धको करता है। इस प्रकार शंकाकारके द्वारा प्रदर्शित वह दोष सम्भव नहीं है ।।३८-३९॥ इसपर शंकाकार पुनः यह कहता है उन कर्मपुद्गलोंका मोक्ष तो असंख्यात कालमें ही होता है, जब कि वे ( कर्मपुद्गल) सब जीवोंसे अनन्तगुणे कहे गये हैं। ऐसी परिस्थिति में यह जो दोष दिया गया है कि उन पुद्गलोंके समाप्त हो जानेसे बन्धका अभाव प्राप्त होगा, वह उचित नहीं है। विवेचन-शंकाकारकी पूर्व शंकाका निरसन करते हुए यह कहा गया था कि आगममें जो वह बन्धकी प्रक्रिया निर्दिष्ट की गयी है वह सामान्यसे निर्दिष्ट की गयी है, विशेषरूप में केवल कोईकोई असंयत मिथ्यादृष्टि जीव और वह भी बहुलतासे, न कि नियमसे, प्रचुरतर कर्मपुद्गलोंको बांधता है, सभी असंयत उस प्रकारसे नहीं बांधते। ऐसा न होनेपर उक्त प्रकारको बन्ध प्रक्रिय कालान्तरमें सब कर्मपुद्गलोंके समाप्त हो जानेसे बन्धके अभावका प्रसंग अनिवार्य होगा। इस समाधानको असंगत ठहराता हुआ वह शंकाकार पुनः यह कहता है कि बन्धयोग्य वे सब पुद्गल जब समस्त जोवराशिसे अनन्तगुणे हैं तथा मोक्ष (निर्जरा) उनका असंख्यात कालके भीतर ही हो जाता है, क्योंकि असंख्यात काल ( सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम) से अधिक कर्मस्थिति सम्भव नहीं है, तब वैसो अवस्थामें न वे समाप्त ही हो सकते हैं और न इसीलिए बन्धका अभाव भी १. अपंचकरूपक । २. मोक्षव दिवसः त्रयांतः । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१] युक्तिप्रत्युक्तिपुरःसरं सम्यक्त्वप्राप्तिविचारः ग्रहणे एकरूपकमोक्षे च सति वर्षशतेनापि पुरुषशतेन योगो भवति, प्रभूतत्वात् । एवं दान्तिके भावनीयमिति ॥४०॥ इत्थं चोदकेनोक्ते सति गुरुराह गहणमणंताण न किं जायइ समएण ता कहमदोसो । आगम संसाराओ न तहा गंताण गहणं तु ॥४१॥ ग्रहणं कर्मपुद्गलानामादानम् । अनन्तानामत्यन्तप्रभतानाम न किमिति गाथाभङभयाद्वयत्ययः-किं न जायते समयेन, जायत एवेत्यर्थः। समयः परमनिकृष्टः काल उच्यते। यतश्चैवं तत्कथमदोषो दोष एव, शीर्षप्रहेलिकान्तस्यापि राशेः प्रतिदिवसं शतभागमात्रमहाराशिग्रहणेऽल्पतरमोक्षे च वर्षशतादारत एव पुरुषशतेन योगोपपत्तेः। एवं वान्तिकेऽपि भावना कार्या । स्यादेतदागमसंसारान्न तयानन्तानां ग्रहणं तु । आगमस्तावत् “जाव णं अयं जीवे एयइ धेयइ चलह फंदइ ताव णं अट्ठविहबन्धए वा सत्तविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा" इत्यादि । सम्भव है। उदाहरणार्थ शीर्ष प्रहेलिकान्त राशि ( असंख्येय कालकी पराकाष्ठा ) में-से प्रतिदिन • सौ पुरुषोंके द्वारा पांच रूपोंके ग्रहण करने और एक रूपके छोड़नेपर उनका संयोग सौ वर्षमें भी उनके साथ नहीं हो सकता है, क्योंकि वे प्रचुर प्रमाणमें बने रहनेवाले हैं । यही प्रक्रिया उन कर्मपुद्गलोंके बन्ध-मोक्षकी भी है । तदनुसार प्रचुर कर्मपरमाणुओंके बने रहनेसे बन्धका अभाव कभी हो नहीं सकता-वह निरन्तर चलता रहनेवाला है ।।४०॥ शंकाकारके इस कथनपर उक्त दोषको असम्भवताका परिहार करते हुए उसकी तदवस्थताको प्रकट करनेपर शंकाकारका पुनः स्पष्टीकरण क्या प्रतिसमयमें अनन्त कर्मपुद्गलों का ग्रहण नहीं होता है ? होता ही है । तब वैसी अवस्थामें पूर्वोक्त बन्धाभाव रूप दोषको कैसे टाला जा सकता है ? नहीं टाला जा सकता हैवह तो तदवस्थ रहनेवाला है। इसपर शंकाकार पुनः कहता है कि आगम व संसारसे भी वैसे अनन्त कर्मपुद्गलोंका ग्रहण सम्भव नहीं है। विवेचन-वादीके द्वारा बहुतर बन्धके स्वीकार करनेपर उस परिस्थितिमें बन्धके अभावका प्रसंग पूर्वमें दिया गया था। इसपर वादोने यह कहकर कि वे कर्मपुद्गल समस्त जीवोंसे अनन्तगुणे हैं और मोक्ष उनका असंख्यांत कालमें ही हो जाता है, उक्त बन्धाभावके प्रसंगका निराकरण किया था। इसपर यहां उस बन्धाभावके प्रसंगको तदवस्थ ठहराते हुए यह कहा जा रहा है कि जब प्रत्येक समय में अनन्त कर्म पुद्गलोंका ग्रहण होता है तब उस अवस्थामें उन कर्म पुद्गलोंकी समाप्ति सुनिश्चित है। अतः कालान्तरमें कर्मपुद्गलोंके अभावमें जो बन्धके अभावका प्रसंग दिया गया है उसका निराकरण नहीं किया जा सकता-वह तदवस्थ रहनेवाला है। शीर्ष प्रहेलिकान्त राशिमें-से भो यदि प्रतिदिन सौवें भागमात्र महाराशिको ग्रहण किया जाता है और अल्पतर राशिको छोड़ा जाता है तो वह सौ वर्षके पूर्व ही सौ पुरुषोंसे सम्बद्ध हो जावेगी व आगेके लिए कुछ नहीं रहेगा। इस उदाहरणसे भी पूर्वोक्त बन्धके अभावका प्रसंग निर्बाध सिद्ध होता है । इसपर वादीका कहना है कि आप जो प्रत्येक समयमें अनन्त पुद्गलोंका ग्रहण बतलाते हे वह असंगत है, क्योंकि उसकी सिद्धि न तो आगमसे होती है और न संसारके स्वरूपसे भी होती है। आगममें यही कहा है कि जबतक यह जीव आता-जाता व चलता-फिरता है तबतक वह आठों प्रकारके, सात प्रकार आयुको छोड़ करके, छह प्रकार आयु और मोह को छोड़ करके १. अमणंताण किं । २. ॐ कालोच्यते । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० - श्रावकप्रज्ञप्तिः [४२संसारस्तु प्रतिसमयबन्धकसत्त्वसंसृतिरूपः प्रतीत एव । एवमागमात्संसाराच्चन तथानन्तानां ग्रहणमेव भवति यथा बध्यमानकर्मपुद्गलाभावाद् बन्धाभाव एवेति ॥४१॥ एवं पराभिप्रायमाशङ्कयाह आगम मुक्खाउ ण किं विसेसविसयत्तणेण सुत्तस्स । तं जाविह संपत्ती न घडइ तम्हा अदोसो उ ॥४२॥ आगममोक्षात् कि न विशेषविषयत्वेन सूत्रस्य 'पल्ले' इत्यादिलक्षणस्य । तं ग्रन्थि यावविह विचारे संप्राप्तिन घटते। द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमथं गमयत इति कृत्वा घटत एव । तस्माददोषस्तु यस्मादेवं तस्मादेष दोष एव न भवति य उक्तस्तं यावदिह संप्राप्तिन युज्यते इत्यादि । तत्रागमस्तावत् “सम्मत्तंमि उ लद्धे" इत्यादि । मोक्षस्तु प्रकृष्टगुणानुष्ठानपूर्वकः प्रसिद्ध एव । अतो अथवा एक प्रकार ( मात्र वेदनीय ) के कर्मका बन्धक है; इत्यादि । रहा संसार सो वह प्रतिसमय बन्ध व सत्त्वरूप प्रतीत ही है। इस प्रकार जब उक्त आगम और संसारसे अनन्त कर्म पुद्गलोंका ग्रहण ही सम्भव नहीं है तब भला उन बध्यमान कर्मपुद्गलोंका अभाव कैसे हो सकता है, जिससे प्रसंग प्राप्त उस बन्धके अभावका निराकरण किया जा सके। इस प्रकार उस दोषके बने रहनेसे उपर्युक्त आगमका यही अभिप्राय संगत माना जायेगा कि सभी असंयत जीव बहुतर कर्मका बन्ध नहीं करते, किन्तु असंयत मिथ्यादृष्टि हो, और वह भी बहुलतासे, बहुतर कर्मका बन्ध करता है । इस प्रकार पूर्वोक्त कर्मस्थितिकी हानि निर्बाध सिद्ध होती है ॥४॥ इस प्रकार शंकाके रूप में वादीके अभिप्रायको प्रकट करके आगे उसका प्रतिवाद किया जाता है पूर्वोक्त आगम (३५-३७) का विशेष विषय होनेके कारण आगम और मोक्षसे उस ग्रन्थि पर्यन्त इस विचार कोटि में क्या उसको प्राप्ति घटित नहीं होती है ? अवश्य घटित होती है। इस कारण उसको प्राप्तिमें जो दोष दिया गया था वह चरितार्थ नहीं होता। विवेचन-पूर्वमें (३४) वादोने कहा था कि ग्रन्थि पर्यन्त विचार किये जानेके प्रसंगमें कर्मको पूर्वोक्त हानिके साथ अपूर्वकरण परिणामके द्वारा उस ग्रन्थिके भेदे जानेपर सम्यक्त्वका लाभ होता है, यह जो कहा गया है वह योग्य नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर आगम (३५-३७) से विरोध होनेवाला है। इस प्रकार वादोके द्वारा प्रदर्शित उस आगम विरोधका निरसन करते हए यहां यह कहा गया है कि पूर्वोक्त आगममें जो प्रचरतर कर्मबन्धका निर्देश किया वह सामान्यसे कहा गया है। विशेष रूपमें उसका यही अभिप्राय है कि असंयत मिथ्यादृष्टि ही उक्त प्रकारसे प्रचुरतर कर्मका बन्धक है और वह भी बहुलतासे ( अधिकांशमें ) है, न कि नियमतः । अतएव आगमसे जो विरोध दिखलाया गया है वह उचित नहीं है। इसके विपरीत आगम (३८९-९१) से ही यह सिद्ध है कि गुणोंके सामर्थ्यसे बन्धके ह्रास और पूर्वबद्ध कर्मके क्षयसे मोक्ष होता है। इस प्रकार सम्यक्त्वका लोभ हो जानेपर पल्योपम पृथक्त्व कालमें श्रावक भी हो जाता है, इत्यादि । मोक्ष प्रकृष्ट गुणोंके अनुष्ठान पूर्वक होता है, यह भी प्रमाणसिद्ध है। इससे यही स्वीकार करना चाहिए कि उक्त आगमका विशेष विषय रहा है, जिसका कि पूर्वमें निर्देश किया जा चुका है । यदि ऐसा न हो तो आगे (३७) उसी आगममें जो यह भी कहा गया १. अ बंधकर्मत्वसंसृतिरूपः प्रतीत एवमात्संसाराच्च। २. अ विसयत्तेणेण । ३. अ आदोसो । ४. म संप्राप्तिमं घटते । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४३] सस्वरूपं सम्यक्त्वस्य त्रैविध्यम् यथोक्तविशेषविषयमेव तत्सूत्रमिति इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् । अन्यथा तदधिकारोक्तमेव "पक्खिवे न किंचि" इत्येतद्विरुध्यते । अप्रमत्तसंयतस्यापि बन्धकत्वात् । यथोक्तम् अपमत्तसंजयाणं बंधट्टिती होइ अट्ठमुहुत्ता।' उक्कोसा उ जहन्ना भिन्नमुहृत्तं नु विन्नेया ॥१॥ इत्यादि तस्मादोघविषयमेवैतदिति ॥४२॥ अवसितमानुषङ्गिकम्, अधुना प्रकृतं सम्यक्त्वमाह संमत्तं पि य तिविहं खओवसमियं तहोवसमियं च । खइयं च कारगाइ व पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥४३॥ सम्यक्शब्दः प्रशंसार्थः अविरोधार्थो वा, तद्भावः सम्यक्त्वम्, प्रशस्तः मोक्षाविरोधी वात्मधर्म इत्यर्थः। अपि तत्रिविधं एतच्चोपाधिभेदात् त्रिप्रकारम् । अपि-शब्दाच्छावकधर्मस्य प्रकृतत्वात्तच्चारित्रमप्योघतोऽणुव्रत-गुणवत-शिक्षापदभेदात् त्रिविधमेव । च-शब्दः स्वगतानेकभेदसमुच्चयार्थः । उक्तं च-तं च पंचहा सम्मत्तं उवसमं सासायणं खओवसमं वेदयं थइयं । त्रैविध्यमुपदर्शयति-क्षायोपशमिकं तथौपशमिकं क्षायिकं च । कारकादि वा कारकं आदि ख ३ शब्दाद्रोचक-व्यञ्जकपरिग्रहः। एतच्च वक्ष्यत्येवेति न प्रतन्यते। इदं च प्रज्ञप्तं प्ररूपितं वीतरागैरहद्धि-रिति ॥४३॥ है कि अप्रमत्त संयत निर्जरा बहुत करता है और बांधता कुछ भी नहीं है वह विरोधको प्राप्त होता है, क्योंकि आगममें अप्रमत्तसंयतको भी बन्धक कहा गया है (गा. ४२ की टोका)। इससे यही सिद्ध होता है कि आगममें वैसा सामान्य से ही निर्देश किया गया है। यदि उक्त प्रकारसे होनेवाली कर्मको हानि व ग्रन्थिभेदको न माना जाये तो सम्यक्त्वके साथ मोक्ष भी असम्भव हो जायेगा, क्योंकि अन्यथा उस बन्धकी परम्परो तो चलती हो रहेगी। इस प्रकारसे विचार करनेपर वादीके द्वारा प्रदर्शित दोष प्रकृतमें लागू नहीं होता ॥४२॥ ____ इस प्रकार प्रसंगप्राप्त जीव और कर्मके सम्बन्धकी प्ररूपणा करके प्रकृत सम्यक्त्वका विवेचन करते हुए उसके तीन भेदोंका निर्देश किया जाता है वीतराग सर्वज्ञके द्वारा सम्यक्त्वको भी तीन प्रकारका कहा गया है-क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक । अथवा वह कारक आदि (रोचक और व्यंजक) के भेदसे भी तीन प्रकारका कहा गया है। विवेचन–'सम्यक् शब्दके आगे 'भाव' अर्थमें 'त्व' प्रत्यय होकर 'सम्यक्त्व' शब्द निष्पन्न हुआ है । सम्यक् शब्दका अर्थ प्रशंसा अथवा अविरोध है। तदनुसार प्रशस्त अथवा मोक्षके अविरोधी आत्मधर्मको सम्यक्त्वका स्वरूप समझना चाहिए। वह सम्यक्त्व कर्मरूप उपाधिके भेदसे तीन प्रकारका है-क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक । गाथामें जो 'अपि (भी)' शब्द प्रयुक्त हुआ है उससे यहां श्रावक धर्मका प्रकरण होनेसे उसके चारित्रके भी इन तीन भेदोंकी सूचना कर दी गयी है-अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षापद । प्रकृत गाथामें ही उस 'अपि' शब्दके आगे जो 'च' शब्दका भी उपयोग किया गया है वह सम्यक्त्वके अन्तर्गत अन्य अनेक भेदोंका समुच्चायक है। जैसे उसके ये पांच भेद-उपशम, सासादन, क्षयोपशम, वेदक और क्षायिका इत्यादि ॥४३॥ १. अ अट्र उ महत्ताउ । २. अ मोक्षविरोधी । ३. अ वेदयीयं खईयं । ४. अ 'च' नास्ति। . Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रावकप्रज्ञप्तिः सांप्रतं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमभिधित्सुराह ૪ ๆ मिच्छत्तं जमुदिन्नं तं खीणं अणुइयं च उवसंतं । मसभा परिणयं वेयिज्जंतं खओवसमं ॥ ४४ ॥ 3 [ ४४ - मिथ्यात्वं नाम मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म तत् । यदुदीर्णं यदुद्भूतशक्ति, उदयावलिकायां व्यवस्थितमित्यर्थः । तत्क्षीणं प्रलयमुपगतम् । अनुदितं च अनुदीर्णं चोपशान्तम् । उपशान्तं नाम विष्कम्भतोदयमपनीत मिथ्यात्वस्वभावं च, विष्कम्भितोदयं शेष मिथ्यात्वमपनीत मिथ्यात्वस्वभावं मदनकोद्रवोदाहरण त्रिपुजिन्यायशोधितं सम्यक्त्वमेव । आह-इह विष्कम्भितोदयस्य मिथ्यात्व - स्यानुदीर्णता युक्ता, न पुनः सम्यक्त्वस्य, विपाकेन वेदनात् । उच्यते - सत्यमेतत्, कि त्वपनीतमिथ्यात्वस्वभावत्वात्स्वरूपेणानुदयात्तस्याप्यनुदीर्णोपचार इति । यद्वानुदीर्णत्वं मिथ्यात्वस्यैव युज्यते, सम्यक्त्वस्य । कथम् ? मिथ्यात्वं यदुदीर्णं तत् क्षीणम् । अनुदीर्णमुपशान्तं चेति च शब्दस्य आगे गाथा में निर्दिष्ट सम्यक्त्वके उन तीन भेदोंमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्वके स्वरूपका निर्देश किया जाता है जो मिथ्यात्व मोहनीय उदयको प्राप्त है वह क्षीण हो चुका और जो उदयको प्राप्त नहीं है व उपशान्त है, इस प्रकार मिश्रभाव - क्षय व उपशमरूप उभय अवस्था - में परिणत होकर अनुभव में भी जो आ रहा है उसका नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है । विवेचन - जो सम्यक्त्व अपने रोधक मिथ्यात्वके क्षयोपशमसे प्रादुर्भूत होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । गाथामें उस मिथ्यात्वके क्षयोपशमके स्वरूपको प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो मिथ्यात्व उदयावली में प्रविष्ट है वह क्षयको प्राप्त हो चुका और अनुदित हैउदयावली में प्रविष्ट नहीं है वह उपशान्त है । उपशान्तका अर्थ है उदयका निरोध व उसके मिथ्यात्व स्वभाव – सम्यक्त्वके प्रतिबन्धक स्वरूप -का हट जाना । जिस प्रकार चक्की में दलने से कोदों (एक तुच्छ धान्य ) के तीन भाग हो जाते हैं- भूसा, कण और चूरा; उसी प्रकार परिणाम - विशेषसे उस मिथ्यात्व के तीन भाग हो जाते हैं- मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिश्र ( सम्यग् - मिथ्यात्व ) । इनमें जो मिथ्यात्व स्वभावको छोड़कर शुद्धिको प्राप्त होता हुआ प्रदेशरूपसे उदयको - प्राप्त है वह सम्यक्त्व ही है । अभिप्राय यह है कि उदय प्राप्त मिथ्यात्व के क्षय, उदयमें नहीं प्राप्त हुए उसीके उपशम तथा मिथ्यात्व स्वभावसे रहित होकर प्रदेशोदयके रूपमें वर्तमान उसके उदय; इस प्रकारकी उस मिथ्यात्वकी अवस्थाका नाम क्षयोपशम है । इस क्षयोपशमके आश्रयसे होनेवाले सम्यक्त्वको क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि जिस मिथ्यात्वका उदय रुका हुआ है उसे तो अनुदीर्णं कहना संगत है, किन्तु जो सम्यक्त्व विपाकरूपसे अनुभव में आ रहा है उसे अनुदोर्ण कैसे कहा जा सकता है ? इसके समाधान में कहा गया है कि यह ठीक हैं, परन्तु उसे जो अनुदोर्ण कहा गया है वह मिध्यात्व स्वभावसे रहित होकर अपने स्वरूपसे उदयमें न आनेके कारण उपचारसे कहा गया है। वस्तुतः अनुदीर्ण तो मिथ्यात्वको ही कहना चाहिए, न कि सम्यक्त्वको । इस अभिप्रायके अनुसार गाथाको संगतिको बैठाते हुए टीका में कहा गया है कि जो मिथ्यात्व उदीर्ण है वह क्षयको प्राप्त है और जो उदयको प्राप्त नहीं है वह उपशान्त है, इस प्रकार अनुदीर्ण एवं उपशान्त मिथ्यात्वको सम्यक्त्व कहा गया है। तदनुसार १. अ अणुदीयं । २. अ मीसभाव । ३. अ वेयज्जंतं । ४ अ 'न तु' अतोऽग्रे 'मिथ्यात्वमुपशान्तं च ' पर्यन्तः पाठो नोपलभ्यते । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५] सस्वरूपं सम्यक्त्वस्य त्रैविध्यम् ३३ व्यवहितप्रयोगः । ततश्चानुदीणं मिथ्यात्वमुपशान्तं च सम्यक्त्वं परिगृह्यते। भावार्थः पूर्ववत् । तदेवं मिश्रीभावपरिणतं क्षयोपशमस्वभावमापन्नम् । वैद्यमानमनुभूयमानं मिथ्यात्वं प्रदेशानुभवेन सम्यक्त्वं विपाकेन क्षयोपशमाभ्यां निवृत्तिमिति कृत्वा क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते आह-इदं सम्यक्त्वमौदयिको भावः, मोहनीयोदयभेदत्वात्, अतोऽयुक्तमस्य क्षायोपशमिकत्वम् ? न, अभि. प्रायापरिज्ञानात्सम्यक्त्वं हि सांसिद्धिकमात्मपरिणामरूपं ज्ञानवत्, न तु क्रोधादिवत् कर्माणुसंपकंजम् । तथा हि -तावति मिथ्यात्वधनपटले क्षीणे तथानुभवतोऽपि स्वच्छाभ्रकल्पान् सम्यक्त्वपरमाणून् तथाविधसवितृप्रकाशवत् सहज एवासौ तत्परिणाम इति । क्षायोपशमनिष्पन्नश्चायम् , तमन्तरेणाभावात् न ादीणक्षयादनुवीर्णोपशमव्यतिरेकेणास्य भावः । क्रोधादिपरिणामः पुनरुपधानसामर्थ्यापादितस्फटिकमणिरक्ततावदसहज इति । आह-यदि परिणामः सम्यक्त्वं ततो मिश्रीमावपरिणतं वेद्यमानं क्षायोपशमिकमित्येतद्विरुध्यते मोहनीयभेदयोरेव मिश्रीभावपंरिणतयोर्वेद्यमानत्वात् ? न विरुध्यते, तथाविधपरिणामहेतुत्वेन तयोरेव सम्यक्त्वोपचारात् । कृतं विस्तरेणेति ॥४४॥ क्षायोपशमिकानन्तरमौपशमिकमाह उवसमगंसेढिगयस्स होइ उक्सामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ॥४॥ मिश्र अवस्थासे परिणत-क्षय व उपशम स्वभावको प्राप्त-एवं वेद्यमान-प्रदेशानुभवसे अनुभूयमान सम्यक्त्वको क्षय और उपशमसे निवृत्त होनेके कारण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा गया है। यहां फिर यह शंका होती है कि मोहनीयका उदयभेद होनेके कारण उस सम्यक्त्वको औदयिक भावके अन्तर्गत होना चाहिए, तब ऐसी अवस्थामें उसे क्षायोपशमिक कहना असंगत है। इसके उत्तर में कहा गया है कि सम्यक्त्व ज्ञानके समान आत्माका परिणाम है, वह कुछ क्रोधादिके समान कर्मपरमाणुओंके सम्पर्कसे नहीं उत्पन्न होता है। इसीलिए उसे औदयिक नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार सघन काले मेघसमूहके हट जानेपर कूछ स्वच्छ मेघोंके रहते हए भी सूर्यका कुछ स्वाभाविक प्रकाश फैला रहता है उसी प्रकार मिथ्यात्वके हट जानेपर सम्यक्त्वपरमाणुओंका अनुभव होनेपर भी वह सम्यक्त्वरूप आत्माका स्वाभाविक परिणाम क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, उदीर्णके क्षय और अनुदीर्णके उपशमरूप क्षयोपशमके बिना उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। इससे भिन्न कर्मरूप उपाधिके सामर्थ्यसे उत्पन्न होनेवाले क्रोध आदि परिणाम स्वाभाविक नहीं हैं, किन्तु जपाकुसुम आदि उपाधिके आश्रयसे उत्पन्न होनेवाली स्फटिक मणिको लालिमाके समान वे अस्वाभाविक हैं। यहाँ फिर यह शंका होती है कि यदि सम्यक्त्व आत्माका परिणाम है तो उसे क्षायोपशमिक कहना असंगत है, क्योंकि मिश्रीभावपरिणत उक्त दोनों मोहनीयके भेद ही तो उसमें वेद्यमान हैं । इसके समाधानमें कहा गया है कि उस प्रकारके आत्मपरिणामके हेतु होनेसे उन दोनोंको ही उपचारसे सम्यक्त्व कहा गया है, अतः उसमें कुछ विरोध नहीं है ।।४३.४४।। __ अब औपशमिक सम्यक्त्वका निरूपण करते हुए वह किसके होता है, यह आगेकी गाथामें दिखलाते हैं जो उपशम श्रेणिपर आरूढ़ है उसके औपशमिक सम्यक्त्व होता है, अथवा जिसने मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और उभय ( सम्यमिथ्यात्व ) रूपसे तीन पुंज नहीं किये हैं या मिथ्यात्वका क्षय नहीं किया है वह ओपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥४५।। १. अ ताविधि मिथ्यात्वघटनपटले । २. अ सामग । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [४६ - उपशमकश्रेणिगतस्य औपशमिकी श्रेणिमनुप्रविष्टस्य। भवत्यौपशमिकमेव सम्यक्त्वम् । तुरवधारणे । अनन्तानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयस्य चोपशमेन निवृत्तमिति कृत्वा औपशमिकम् । यो वा अकृतत्रिपुञ्जस्तथाविधपरिणामोपेतत्वात्सम्यङमिथ्यात्वोभयानिवतितत्रिपुञ्ज एव। अक्षपितमिथ्यात्वोऽक्षीणमिथ्यात्वदर्शनः, क्षायिकव्यवच्छेदार्थमेतत् । लभते प्राप्नोति सम्यक्त्वम्, तदप्यौपशमिकमेवेति ॥४५॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह खीणमि उइन्नमि अ अणुइज्जते अ सेसमिच्छत्ते । अंतोमुत्तमित्तं उवसमसम्म लहइ जीवो ॥४६॥ क्षीण एवोदोणे, अनुभवेनैव भुक्त इत्यर्थः । अनुदीर्यमाणे च मन्दपरिणामतया उदयमगच्छति सति । कस्मिन् ? शेषमिथ्यात्वे, विष्कम्भितोदय इत्यर्थः। अन्तर्मुहूर्तमानं कालम्, तत ऊवं नियामकाभावेन नियमेन मिथ्यात्वप्राप्तेः। एतावन्तमेव कालमिति किम् ? औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते जीव इति ॥४६॥ इदमेव दृष्टान्तेना स्पष्टतारनभिधित्सुराह ऊसरदेसं दड्दिल्लयं व विज्झाइ वणदवो पप्प ॥ इस मिच्छरसाणुदए उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥४७॥ ऊपरदेशं ऊपरविभागम् । ऊषरं नाम यत्र तृणादेरसंभवः । दग्धं वा पूर्वमेवाग्निना। विध्यायति वनहको दावानल प्राप्य । कुतः ? तत्र दाह्याभावात् । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः औपशमिक सम्यक्त्व कब और कितने कालके लिए होता है, यह आगे स्पष्ट किया जाता है उदयावली में प्रविष्ट मिथ्यात्वके क्षीण हो जाने जोर शेष मिथ्यात्वके उदयको न प्राप्त होनेपर जीव अन्तर्मुहूर्त मात्र काल तक उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥४६॥ आगे औपशमिक सम्यक्त्वको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया जाता है जिस प्रकार ऊषर-तृणादिकी उत्पत्तिके अयोग्य-अथवा जले हुए प्रदेशको पाकर दावानल स्वयं बुझ जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्वके उदयाभावमें जीव उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥४७॥ विवेचन--चार अनन्तानुबन्धी कषायों और दर्शनमोहनीयका उपशम होनेपर जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है उसे औपमिक सम्यक्त्व कहा जाता है। वह उपशम श्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके होता है। गा. ४५ में जो 'तु' शब्दको ग्रहण किया गया है उससे यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि उपशम श्रेणिमें वह औपशमिक ही सम्यक्त्व होता है, न क्षायिक व क्षायोपशमिक । इसके अतिरिक्त जिस जीवने उस प्रकारके परिणामसे युक्त होनेके कारण दर्शनमोहनीयके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और उभय ( सम्यग्मिथ्यात्व ) रूप तीन खण्ड नहीं किया है और मिथ्यात्वका क्षय भी नहीं किया है उसके भी वह औपशमिक सम्यक्त्व होता है। मिथ्यात्वका क्षयकर देनेपर क्षायिक सम्यक्त्व होता है, न कि औपशमिक । अतः उस क्षायिक सम्यक्त्वको व्यावृत्तिके लिए यहाँ 'जिसने मिथ्यात्वका क्षय नहीं किया है' इतना विशेष कहा गया है। यह सम्यक्त्व उस अवस्थामें होता है जब कि उदयावलीमें प्रविष्ट मिथ्यात्वका अनुभवपूर्वक क्षय हो जाता है तथा शेष मिथ्यात्व उदयों नहीं रहता है। काल उसका अन्तर्मुहूर्त मात्र है। कारण इसका यह Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =४८ ] सस्वरूपं सम्यक्त्वस्य त्रैविध्यम् ३५ इय एवं तथाविधपरिणामात् मिथ्यात्वस्यानुदये सति औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते जीव इति । वनदवकल्पं ह्यत्र मिथ्यात्वम्, ऊषरादिदेशस्थानीयं तथाविधपरिणाम कण्डकमिति । आह- क्षायोपशमिकादस्य को विशेष इति उच्यते-- तत्रोपशान्तस्यापि मिथ्यात्वस्य प्रदेशानुभवोऽस्ति, न त्वौपशमि । अन्ये तु व्याचक्षते - श्रेणिमध्यवर्तिन्येवौ पशमिके प्रदेशानुभवो नास्ति, न तु द्वितीये; तथापि तत्र सम्यक्त्वाण्वनुभवाभाव एव विशेष इति ॥४७॥ औपशमिकानन्तरं क्षायिकमाह खीणे दंसणमोहे 'तिविमि वि भवनियाणभूमि । निष्पच्चवायमउलं सम्मत्तं खाइयं होइ ॥ ४८ ॥ क्षपक श्रेणिमनुप्रविष्टस्य सतः क्षीणे दर्शनमोहनीये एकान्तेनैव प्रलयमुपगते । त्रिविधेऽपि मिथ्यात्व - सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व भेदभिन्ने । किविशिष्टे ? भवनिदानभूते भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तनः प्राणिन इति भवः संसारस्तत्कारणभूते । निःप्रत्यपायम् । अतिचारापायरहितम् । अतुलमनन्यसदृशम्, आसन्नतया मोक्षकारणत्वात् । सम्यक्त्वं प्राङ्गनिरूपितशब्दार्थं क्षायिकं भवति, मिथ्यात्वक्षयनिबन्धनत्वात् इति ॥४८॥ है कि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् नियामक न होनेसे जीव नियमसे मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है । उक्त औपशमिक सम्यक्त्वको स्पष्ट करते हुए यहां यह दृष्टान्त दिया गया है कि जिस प्रकार ऊषर देशको अथवा पूर्व में जले हुए भूमिप्रदेशको पाकर वनाग्नि दाह्य तृणादिके अभाव में स्वयमेव शान्त हो जाती है उसी प्रकार ऊषर देश जैसे परिणामको पाकर मिध्यात्वरूप वनाग्नि के उपशान्त हो जानेपर जीव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । पूर्वोक्त क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में उपशमको प्राप्त हुए मिथ्यात्वका प्रदेशोदय रहता है, परन्तु प्रकृत ओपशमिक सम्यक्त्वमें वह नहीं रहता, यह इन दोनों में विशेषता है, अन्य आचार्योंकी व्याख्याके अनुसार उस उपशान्त मिथ्यात्वका प्रदेशोदय केवल उपशम श्रेणिके मध्यवर्ती ओपशमिक सम्यक्त्वमें नहीं रहता है, किन्तु द्वितीय औपशमिकमें वह रहता ही है । फिर भी उसमें सम्यक्त्व परमाणुओं के अनुभागका अभाव विशेष ही हुआ करता है ॥४५-४७॥ आगे क्रमप्राप्त क्षायिक सम्यक्त्वके स्वरूपका निर्देश किया जाता है- संसारके कारणभूत तीनों ही प्रकारके दर्शन मोहके क्षयको प्राप्त हो जानेपर अपाय रहित ( निर्बाध ) अनुपम क्षायिक्त सम्यक्त्व होता है । विवेचन – संसारपरिभ्रमणका कारण दर्शनमोहनीय कर्म है । कारण यह कि सम्यक्त्वका विघातक होनेसे वह जीवको सत्-असत् व हेय उपादेयका विवेक प्रकट नहीं होने देता । गाथामें संसारका पर्यायवाची भव शब्द प्रयुक्त हुआ है । ' भवन्ति अस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः इति भव:' इस निरुक्ति के अनुसार जिसमें प्राणी कर्मके वशीभूत हुआ करते हैं उसका सार्थक नाम भव है । उक्त दर्शनमोहनीय मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके भेदसे तीन प्रकारका है । क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके जब यह तीनों प्रकारका दर्शन मोहनीय कर्म सर्वथा विलीन हो जाता है तब उसके प्रकृत क्षायिक सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है । यह निर्मल सम्यक्त्व सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होकर मोक्षका निकटवर्ती कारण है, इसीलिए उसे अतुल ( अनुपम ) कहा गया है । गाथामें यद्यपि सामान्यसे इतना मात्र कहा गया है कि तीनों प्रकार के दर्शनमोह १. भ श्रेणिमधिवत्तिन्यौप । २. अ तिविहंमि य भवणिदाणभूयं विणियन्ववाय । ३. मिथ्यात्वसम्यक्त्वभेदं । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्रावकप्रज्ञप्तिः क्षायिकानन्तरं कारकाद्याह जं जह भणियं तं तह करेइ सइ जमि कारगं तं तु । रोयगसम्मत्तं पुण रुइमित्तकरं मुणेयव्वं ॥४९।। यद्यथा भणितं सूत्रेऽनुष्ठानं तत्तथा करोति सति यस्मिन् । सम्यग्दर्शने परमशुद्धिरूपे । कारकं तत्तु कारयतीति कारकम् । रोचकसम्यक्त्वं पुनः रुचिमात्रकरं मुणितव्यम्, विहितानुष्ठाने तथाविधशुद्धयभावात्, रोचयतीति रोचकम् ॥४९॥ सयमिह मिच्छद्दिट्ठी 'धम्मकहाईहि दीवइ परस्स । सम्मतमिणं दीवग कारणफलभावओ नेयं ॥५०॥ स्वयमिह मिथ्यादृष्टिरभव्यो भव्यो वा कश्चिदङ्गारमर्दकवत् । अथ च धर्मकथादिभिधर्मकथया मातस्थानानुष्ठानेनातिशयेन वा केनचिट्टीपयतीति प्रकाशयति । परस्य श्रोतः। सम्यक्त्वमिदं व्यञ्जकम् । आह -मिथ्यादृष्टः सम्यक्त्वमिति विरोधः। सत्यम्, किन्तु कारणफल भावतो ज्ञेयं तस्य हि मिथ्यादृष्टेरपि यः परिणामः स खलु प्रतिपत्तुसम्यक्त्वस्य कारणभावं प्रतिपद्यते तैद्भावभावित्वात्तस्य, अतः कारणे एव कार्योपचारात्सम्यक्त्वाविरोधः यथायुघृतमिति ॥५०॥ क्षीण हो जानेपर क्षायिक सम्यक्त्व होता है। पर उसकी व्याख्या करते हुए हरिभद्र सूरिने इतना विशेष कहा है कि क्षएक श्रेणिमें प्रविष्ट होते हुए जीवके दर्शनमोहनीयका क्षय होनेपर वह क्षायिक सम्यक्त्व होता है। षट्खण्डागम ( १, १, १४५-पु. १, पृ. ३९६ ), सर्वार्थसिद्धि (१-८) और तत्त्वार्थवार्तिक (९, ७, १२) आदिमें इस क्षायिक सम्यक्त्वका सद्भाव चतुर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली ( चौदहवें ) गुणस्थान तक बतलाया गया है ॥४४॥ अब पूर्वनिर्दिष्ट (४३) कारकादि सम्यक्त्व भेदोंमें कारक और रोचक इन दोका स्वरूप कहा जाता है जिस सम्यक्त्वके होनेपर प्राणी आगममें जिस अनुष्ठानको जैसा कहा गया है उसे उसी प्रकारसे करता है उसका नाम कारक सम्यक्त्व है। अभिप्राय यह है कि जो सम्यक्त्व 'कारयतोति कारकम्' इस निरुक्तिके अनुसार आगमविहित अनुष्ठानको उसी रूपमें कराता है उसे कारक सम्यक्त्व कहत है। रोचक सम्यक्त्वको रुचिमात्र करनेवाला जानना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि आगविहित अनुष्ठान करने में जीव यद्यपि उस प्रकार की शुद्धिके अभावमें असमर्थ होता है, तो भा इस सम्यक्त्वके होनेपर उसके उक्त अनुष्ठान-विषयक रुचि अवश्य रहती है। इससे उसका 'रोचक' यह सार्थक हो नाम है ।।४९॥ आगे दीपक सम्यक्त्वका स्वरूप कहा जाता है प्राणी यद्यपि स्वयं मिथ्यादृष्टि है, फिर भी वह धर्मकथा आदिके द्वारा दूसरेके सम्यक्त्वको प्रकाशित करता है, ऐसे सम्यक्त्वको कारण-कार्यभावसे दीपक जानना चाहिए। विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि कोई जीव यद्यपि भव्य या अभव्य होकर स्वयं मिथ्यादृष्टि होता है फिर भी वह धर्मचर्चाके आश्रयसे, माता जैसे विशिष्ट अनुष्ठानसे अथवा किसी अतिशय विशेषसे दूसरेके सम्यक्त्याको प्रकट करता है। उसकी इस प्रकारकी परिणतिको कारणमें १. अधम्मक हादीहिं । २. अ मिथ्यादृष्टिरभन्बो वा । ३. अ ते ताहि भावित्वात्तस्स । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५२ ] कारकादिसम्यक्त्वानां लक्षणम् समस्तस्यैव भावार्थमुपदर्शयति तव्विहखओवसमओ तेसिमणूणं अभावओ चैव । एवं विचित्तरूवं सनिबंधणमो मुणेयव्वं ॥ ५१ ॥ ३७ तद्विषयोपशमतस्तेषामणूनाम्, मिथ्यात्वाणूनामित्यर्थः । अभावतश्चैव तेषामेवेति वर्तते । एवं विचित्ररूपं क्षायोपशमिकादिभेदेनेति भावः । सनिबन्धनमेव सकारणं मुणितव्यम् । तथाहित एव मिथ्यात्वपरमाणवस्तथाविधात्मपरिणामेन क्वचित्तथा शुद्धिमापद्यन्ते यथा क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति, तत्रापि क्वचित्सातिचारं कालापेक्षया, क्वचिन्निरतिचारम्, अपरे तथा यथौपशमिकं, क्षयादेव क्षायिकमिति ॥५१॥ अपरेऽप्यस्य भेदाः संभवन्तीति कृत्वा तानपि सूचयन्नाह - " किं चेहुबाहिभेया दसहावीमं परूवियं समए । ओहेण तं पिमेसि भेयाणमभिन्नरूवं तु ॥ ५२ ॥ कि चेहोपाधिभेदादाज्ञादिविशेषण भेदादित्यर्थः । दशधापीदं दशप्रकारमप्येतत्सम्यक्त्वं प्ररूपितं समये आगमे । यथोक्तं 'प्रज्ञापनायाम् - सिग्गुवसरु आणरुई सुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेव घम्मरुई || कार्यका उपचार करके दोपक सम्यक्त्व कहा गया है । लोकव्यवहार में घोको आयु इसीलिए कहा जाता है कि वह उस आयुकी स्थिरताका कारण है, स्वयं आयु नहीं है । यही अभिप्राय इस दीपक सम्यक्त्वके विषय में भी समझना चाहिए ॥ ५० ॥ आगे, इस सभी आशयको दिखलाते हैं न मिथ्यात्व परमाणुओंके उस प्रकारके अभाव से भी इस प्रकारके विचित्र स्वरूपवाले उस सम्यग्दर्शनको सकारण ही जानना चाहिए। अभिप्राय यह है कि जीवके उस जाति के परिणाम विशेष से मिथ्यात्व माहनीयके परमाणु किसोके इस प्रकारकी शुद्धिको प्राप्त होते हैं कि जिसके आश्रयसे सातिचार अथवा निरतिचार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है । तथा किसी पशमिक सम्यक्त्व प्रकट होता है । उनके ही क्षयसे किन्हीं के क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है ॥५१॥ आगे इस सम्यक्त्वके जो अन्य भेद भी सम्भव हैं उनकी सूचना की जाती है उपर्युक्त भेदोंके अतिरिक्त उपाधिके भेदसे इस सम्यक्त्वको आगममें दस प्रकारका भी कहा गया है । वह भी सामान्यसे पूर्वोक्त क्षायोपशमिकादि भेदोंसे अभिन्न स्वरूपवाला है - उनसे भिन्न नहीं है, उन्हीं के अन्तर्गत है । विवेचन - प्रज्ञापना (गा. ११५ ) व उत्तराध्ययन ( २८- १६ ) आदि आगम ग्रन्थोंमें दर्शनआर्यके प्रसंगमें सम्यक्त्वके उपर्युक्त क्षायोपशमिकादि व कारकादि भेदोंके अतिरिक्त अन्य दस भेद भी निर्दिष्ट किये गये हैं । उनको पूर्वोक्त भेदोंसे भिन्न नहीं समझना चाहिए - वे यथा १. अ सुणिबंधणमो । २. अ क्षयोपशमकास्तेषां । ३. अ कि चेहुवायभेया दसहावि संरूविहं सम ए । ४. अ प्रज्ञापनायां आणiरुइत्तरु इत्यादि । निसग्गु । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA श्रीवकप्रज्ञप्तिः [५२आह-तदेवेह कस्मान्नोक्तमिति । उच्यते-ओपेन सामान्येन तदपि दशप्रकारममीषां भेदानां क्षायोपशमिकादीनामभिन्नरूपमेव, एतेषामेव केनचिद्भवेन भेदात्। संक्षेपारम्भश्चायम्, अतोन तेषामभिधानमिति ॥५२॥ सम्भव उक्त क्षायोपशमिकादि भेदोंमें से किसी-किसीके अन्तर्गत हो सकते हैं। प्रकृत ग्रन्थके संक्षिप्त होने के कारण उन दस भेदोंका निरूपण यहां नहीं किया गया है। वे दस भेद ये हैं-निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि । इनका स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है-(१) जो परमार्थ स्वरूपसे जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पापा, आस्रव और संवरके विषयमें आत्मसम्मतमतिसे--परोपदेश निरपेक्ष जातिस्मरणादिरूप प्रतिभासे--रुचि या श्रद्धा करता है वह निसर्गदर्शन आर्य कहलाता है। प्रकारान्तरसे भी इसके लक्षणमें यह कहा गया है कि जो जिनदष्ट चार प्रकारके पदार्थों के वि. इसी प्रकारका है, अन्यथा नहीं है' ऐसा श्रद्धान करता है उसे निसर्गरुचि दर्शन आर्य जानना चाहिए। यह लक्षण प्रज्ञापना व उत्तराध्ययनके अनुसार निर्दिष्ट किया गया है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (१-३ ) में निसर्गसम्यग्दर्शनके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि जोव स्वकृत कर्मके वश अनादिकालसे चतुर्गतिस्वरूप संसारमें परिभ्रमण करता हुआ अनेक प्रकारसे पुण्यपापके फलका अनुभव कर रहा है, ज्ञान-दर्शनोपयोगरूप स्वभाववाले उसके उन-उन परिणामाध्यवसायस्थानान्तरोंको प्राप्त होते हुए अनादि मिथ्यादृष्टि होनेपर भी परिणामविशेषसे उस प्रकारका अपूवकरण हाता है कि जिससे बिना किसी प्रकारके उपदेशके सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसके इस सम्यग्दर्शनका नाम ही निसर्गसम्यग्दर्शन है। तत्त्वार्थवार्तिक ( १, ३, ८) में कहा गया है कि जिस प्रकार कुरुक्षेत्रमें कहीं पर बाह्य पुरुषप्रयत्नके बिना ही सुवर्ण उत्पन्न होता है उसी प्रकार बाह्य पुरुषके उपदेशपूर्वक जो जीवादि पदार्थोंका अधिगम होता है उसके विना ही जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे निसगंजसम्यग्दर्शन कहते हैं। (२) अन्य किसी छद्मस्थ या जिनके द्वारा उपदिष्ट जीव-अजीवादि पदार्थों का जो श्रदान करता है उसे उपदेशरुचि जानना चाहिए। तत्त्वार्थवार्तिक ( ३-३६ ) के अनुसार तीर्थंकर और बलदेव आदिके चरितके उपदेशके आश्रयसे जिनके तत्त्वश्रद्धा उत्पन्न होती है उन्हें उपदेशरुचि दर्शनआर्य कहा जाता है। (३) जिसका राग, द्वेष, मोह व अज्ञान हट चुका है तथा जिसके जिनवाणीके आश्रयसे तत्त्वविषयक रुचि प्रादर्भत हई है उसका नाम आज्ञारुचि है। (४) जो सत्रका अध्ययन करता हआ अंगश्रतसे अथवा बाह्यश्रुतसे सम्यक्त्वका अवगाहन करता है उसे सूत्ररुचि जानना चाहिए । (५) एक पदके आश्रयसे जिसका सम्यक्त्व-तत्त्वरुचि-पानीमें डाले गये एक तेलबिन्दुके समान अनेक पदोंमें फैलती है उसे बीजरुचि कहा जाता है। (६) जिसने अर्थस्वरूपसे ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवादरूप श्रुतज्ञानको देख लिया है-अभ्यस्त कर लिया है-उसे अभिगमरुचि कहते हैं। (७) अंग-पूर्व श्रुतके विषयभूत जीवादि पदार्थ विषयक प्रमाण-नयादिके आश्रयसे विस्तारपूर्वक किये जानेवाले निरूपणसे जिन्हें श्रद्धान प्राप्त हुआ है वे विस्ताररुचि दर्शन आर्य कहलाते हैं (त. वा. ३, ३६.२)110) दर्शनविनय. ज्ञानविनय, चारित्रविनय और तपविनयके विषयमें तथा समिति व गुप्तियोंके विषयों जो अन्तःकरणपूर्वक अनुष्ठानविषयक रुचि होती है उसका नाम क्रियारुचि है। (९) अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टिको संक्षेपरुचि जानना चाहिए। वह प्रवचन में विशारद ( कुशल ) न होकर शेष मिथ्यामतोंके विषयमें अनभिग्रहीत होता है-उनके आश्रयसे मिथ्यात्वको नहीं ग्रहण करता है। (१०) जो जिनप्रणीत श्रुतधर्म, अस्तिकायधर्म, और चारित्रधर्मका श्रद्धान करता है उसे धमरुचि जानना चाहिए ॥५२॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५४ ] उपशम-संवेगादिस्वरूपम् इदं च सम्यक्त्वमात्मपरिणामरूपत्वाच्छमस्थेन दुर्लक्ष्यमिति लक्षणमाह-- तं उवसमसंवेगाइएहि लक्खिज्जई उवाएहिं । आयपरिणामरूवं बझेहिं पसत्थजोगेहिं ॥५३॥ तत्सम्यक्त्वमपशमसंवेगादिभिरिति-उपशान्तिरुपशमः, संवेगो मोक्षाभिलाषः, आदिशब्दानिर्वेदानुकम्पास्तिक्यपरिग्रहः । लक्ष्यते चिहन्यते एभिरुपशमादिभिर्बाःिप्रशस्तयोगैरिति संबन्धः। बाह्यवस्तुविषयत्वाबाह्याः, प्रशस्तयोगाः शोभनव्यापारास्तैः । किविशिष्टं तत्सम्यक्त्वम् ? आत्मा परिणामरूपं जीवधर्मरूपमिति ॥५३॥ तथा चाह इत्थं य पॅरिणामो खलु जीवस्स सुहो उ होइ विन्नेओ । किं मलकलंकमुक्कं कणगं झुजि सापलं होइ ॥५४॥ अत्र चे सम्यक्त्वे सति । किम् ?, परिणामोऽध्यवसायः । खलुशब्दोऽवधारणार्थ:-जीवास्थ्य शुभ एव भवति विज्ञेयो न त्वशुभः । अथवा किमत्र चित्रमिति ? प्रतिवस्तूपमामाह-कि मलकलङ्करहितं कनकं भुवि ध्यामलं भवति ? न भवतीत्यर्थः। एकलवापि मलकलङ्कस्थानीयं प्रभूतं क्लिष्टं कर्म, ध्यामलत्वतुल्यस्त्वशुभपरिणामः, स प्रभूते क्लिष्ट कर्मणि क्षीणे जीवस्या न भवति ॥५४॥ प्रशमादीनामेव बाह्ययोगत्वमुपदर्शयन्माह आगे दुर्लक्ष्य आत्मपरिणामरूप उस सम्यक्त्वके अनुमापक कुछ चिह्नोंका निर्देश किया जाता है आत्मपरिणामस्वरूप वह सम्यक्त्व बाह्य प्रशस्त व्यापाररूप उपशम व संवेग आदि . उपायोंसे लक्षित होता है-जाना जाता है ।।५३॥ इसे स्पष्ट करते हुए आगे उसके कारणका निर्देश किया जाता है-- कारण इसका यह है कि इस सम्यक्त्वके होनेपर जीवका परिणाम (व्यापार या आचरण) उत्तम ही होता है-निन्द्य आचरण उसका कभी नहीं होता है। सो ठोक भी है, क्या लोकमें कभी मल-कलंक-कीट-कालिमासे रहित सुवर्ण मलिन हुआ है ? नहीं। विवेचन-प्रकृत सम्यक्त्व अतीन्द्रिय आत्माका परिणाम है, अतः छद्मस्थके लिए उसका परिज्ञान नहीं हो सकता। इससे यहीं उसके परिचायक कुछ बाह्य चिह्नोंका निर्देश किया गया है। वे चिह्न ये हैं-प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । ये सब बाह्य प्रवृत्ति रूप हैं । जिस जीवके उक्त सम्यक्त्व प्रादुर्भूत हो जाता है उसकी बाह्य प्रवृत्ति प्रशस्त होती है, वह कभी निन्द्य आचरण नहीं करता। इसीसे उक्त प्रशम-संवेगादिरूप प्रवृत्तिको देखकर उसके आश्रयसे किसीके उस सम्यक्त्वका अनुमान किया जा सकता है। इनके होते हुए वह सम्यक्त्व हो भी सकता है और कदाचित् नहीं भी हो सकता है, पर इनके बिना उस सम्यक्त्वका अभाव सुनिश्चित समझना चाहिए । कारण इसका यह है कि वैसी प्रवृत्ति अन्तःकरण पूर्वक न होकर कदाचित् कपटसे भी की जा सकती है ॥५४॥ आगे उन प्रशमादिकोंके स्वरूपका निरूपण करते हुए प्रथमतः प्रशमके स्वरूपको प्रकट किया जाता है १. अलक्खिज्जए। २. अ जोएहि । ३. अ एत्थ । ४. म परिणामः। ५. अ ब्यामलं । ६. 'भ'च' नास्ति । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकज्ञप्तिः [ ५५पयईइ व कम्माणं वियाणिउं वा विवागमसुहं ति । अवरद्धेवि न कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥५५॥ प्रकृत्या वा सम्यक्त्वाणुवेदकजीवस्वभावेन वा । कर्मणां कषायनिबन्धनानाम् । विज्ञाय वा विपाकमशुभमिति । तथाहि-कषायाविष्टोऽन्तमुहूर्तेन यत्कर्म बध्नाति तदनेकाभिः सागरोपमकोटाकोटिभिरपि दुःखेन वेदयतीत्यशुभो विपाकः, एतत् ज्ञात्वा, किम् ? अपराद्धयेऽपि न कुप्यति अपराध्यत इति अपराध्यः प्रतिकूलकारी, तस्मिन्नपि कोपं न गच्छत्युपशमतः उपशमेन हेतुना। सर्वकालयपि यावत्सम्यक्त्वपरिणाम इति ॥५५॥ तथा-- नरविबुहेसम्सुक्खं दुक्खं चिय भावओ य मन्नतो । संवेगओ न मुक्खं मुत्तणं किंचि पत्थेइ ॥५६॥ नर-विबुधेश्वरसौख्यं चक्रवर्तीन्द्रसौख्यमित्यर्थः। अस्वाभाविकत्वात् कर्मजनितत्वात्सावसानत्वाच्च दुःखमेव। भावतःपरमार्थतो मन्यमानः। संवंगतः संवेगल हेतूना। न मोक्ष स्वाभाविकजीवरूपम्मकर्मजमपर्यवसान मुक्त्वा किंचित्प्रार्थयतेऽभिलषतीति ॥५६॥ 'सम्यक्त्वसे विभूषित जीव उपशम (प्रशम) के आश्रयसे स्वभावतः अथवा कर्मों के अशुभ विपाकको जानकर सदा अपराधी प्राणीके ऊपर भी क्रोध नहीं किया करता है। कर लेनेपर जीवका स्वभाव इस प्रकारका हो जाता है कि यदि कोई प्राणी प्रतिकूल होकर उसका अनिष्ट भी करता है तो भी वह उसके ऊपर कभी क्रोध नहीं करता । ऐसे समयमें वह यह भी करता है कि क्रोधादि कषाय हो तो कर्मबन्धके कारण हैं। कषायके वशीभूत होकर प्राणी अन्तमुहर्नमें जिस कर्मको बांधता है उसके फलको वह अनेक कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल तक कष्टके साथ सहता है। इस प्रकार कर्मके अशुभ फलको जानकर वह अपराध करनेवालेके ऊपर भी जब क्रोध नहीं करता है . तब भला वह निरपराध प्राणीके ऊपर तो क्रोध कर ही कैसे सकता है ? इस प्रकारसे जो सम्यक्त्वके प्रभावसे उसके क्रोधादि कषायोंकी स्वभावत: उपशान्ति होतो है उसीका नाम प्रशम है ॥५५॥ अब क्रमप्राप्त संवेगका स्वरूप कहा जाता है सम्यग्दृष्टि जीव संवेगके निमित्तसे चक्रवर्ती और इन्द्रके सुखको भी यथार्थमें दुख ही मानता है। इसीसे वह मोक्षको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं चाहता है। विवेचन यथार्थ सुख उसे ही कहा जा सकता है जहाँ कुछ भी आकुलता न हो । चक्रवर्ती और इन्द्र आदिका सुख स्थायी नहीं है--विनश्वर है, अतः वह आकुलतासे रहित नहीं हो सकता। इसीलिए सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्र व चक्रवर्ती आदिके सातावेदनीयजन्य उस सुखको विनश्वर व पापका मूल जानकर दुख ही मानता है। वास्तविक सुख परावलम्बनके बिना होता है। कर्मोदयके बिना प्राप्त होनेवाला स्वाधीन व शाश्वतिक वह सुख मोक्षमें ही सम्भव है। अतएव सम्यग्दृष्टि जोव क्षणनश्वर, पराधीन व परिणाम में दुःखोत्पादक सांसारिक सुखकी अभिलाषा न करके निर्बाध व शाश्वतिक सुखके स्थानभूत मोक्षकी ही अभिलाषा करता है। इस मोक्षको अभिलाषाका नाम ही संवेग है जो उस सम्यक्त्वके प्रकट होनेपर स्वभावतः होता है ॥५६॥ १. अ पइती इव । २. अ अविरुद्ध । ३. अ उ । ४. अ मकर्मजपर्यवसानां (अत्र 'मुक्त्वा किंचि' इत्यतोऽग्रे ५७ तमगाथायाः टीकान्तर्गत 'सर्वेष्वेव निर्वेध' 'पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति)। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५९] उपशम-संवेगादिस्वरूपम् नारयतिरियनरामरभवेसु निव्वेयओ वसइ दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्तविसवेगरहिओ वि ॥५७॥ ____नारक-तिर्यनरामरभवेषु सर्वेष्वेव । निर्वेदतो निर्वेदेन कारणेन वसति दुःखम् । फिविशिष्टः सन् ? अकृतपरलोकमार्गः अकृतसदनुष्ठान इत्यर्थः । अयं हि जीवलोके परलोकानुष्ठानमन्तरेण सर्वमेवासारं मन्यते इति । ममत्वविषवेगरहितोऽपि तथा ह्ययं प्रेकृत्या निर्ममत्व एव भवति, विदिततत्त्वत्वादिति ॥५७॥ तथा दट्टण पाणिनिवहं भीमे भवसागरंमि दुक्खतं । अविसेसओ णुकंपं दुहावि सामत्थओ कुणइ ।।५८॥ दृष्ट्वा प्राणिनिवहं जीवसंधातम् । क? भीमे भयानके । भवसागरे संसारसमुद्रे । दुःखातं शारीर-मानसैदुःखैरभिभूतमित्यर्थः । अविशेषतः सामान्येनात्मीयेतरविचाराभावेनेत्यर्थः । अनुकम्पां दयाम् द्विधापि द्रव्यतो भावतश्च-द्रव्यतः प्राशुकपिण्डादिदानेन, भावतो मार्गयोजनया। सामर्थ्यतः स्वशक्त्यनुरूपं करोतीति ॥५८॥ मन्नइ तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहि पन्नत्तं । सुहपरिणामो सव्वं कंक्खाइविसुत्तियारहिओं ॥१९॥ आगे निर्वेदका स्वरूप कहा जाता है ममतारूप विषके वेगसे रहित भी प्राणी परलोकके मार्गको न करके-उत्तम परलोकके कारणभूत सदाचरणको न करके निर्वेदके आश्रयसे नारक, तिथंच, मनुष्य और देव पर्यायोंमें दुखपूर्वक रहता है। " विवेचन–नारक, तियंच और कुमानुष अवस्थाका नाम निर्वेद है (दशवे. नियुक्ति २०३)। तत्वार्थाधिगमभाष्यको सिद्धसेन गणि विरचित वृत्ति (१-३) के अनुसार विषयोंमें जो अनासक्ति होती है उसे निर्वेद कहा गया है । यहींपर आगे (७-७) पुनः यह कहा गया है कि शरीर, भोग, संसार और विषयोंसे जो विमुखता, उद्वेग अथवा विरक्ति होती है उसका नाम निर्वेद है। प्रकृत थाका अभिप्राय यह है कि सम्यग्दष्टि जीव निर्वेदके आश्रयसे नारक आदि भवोंमें दुखपूर्वक रहता है । वह ममत्वभावसे रहित होता हुआ भो यद्यपि उत्तम परलोकके योग्य आचरण नहीं कर पाता है, फिर भी वह उन्हें कष्टकर मानता है व उनको ओरसे विमुख रहता है ।।५७|| ...... आगे अनुकम्पाके स्वरूपको दिखलाते हैं अ सम्यग्दृष्टि जीव भयानक संसाररूप समुद्र में दुःखोंसे पीड़ित प्राणीसमूहको देखकर बिना किसी विशेषताके-समानरूपसे यथाशक्ति द्रव्य व भावके भेदसे दोनों प्रकारको अनुकम्पाको करता है । अभिप्राय यह है कि चारों गतियोंमें परिभ्रमण करते हुए प्राणी अनेक प्रकारके शारीरिक व मानसिक दुखोंसे पीड़ित रहते हैं। उन्हें इस प्रकार दुखी देखकर सम्यग्दृष्टि जीव स्वभावतः उनके दुखको अपना समझता हुआ यथायोग्य उन्हें प्रासुक भोजनादि देकर जहां द्रव्यसे अनुकम्पा करता है वहां उन्हें सन्मार्गमें लगाकर वह भावसे भी अनुकम्पा करता है। यह अनुकम्पाका कार्य वह अपना व परका भेद न करके सभीके प्रति समान रूपसे करता है। उपर्युक्त प्रशमादिकके समान यह भी उसके सम्यक्त्वका परिचायक है ॥५८॥ १. अ तथा प्र । २. अ तत्त्वादिति । ३. म विसोत्तियारहित । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [६०मन्यते प्रतिपद्यते । तदेव सत्यं निःशहू शङ्कारहितम् । यज्जिनः प्रज्ञप्तं यत्तीर्थकरैः प्रतिपादितम् । शुभपरिणामः सन् साकल्येनानन्तरोदितसमस्तगुणान्वितः। सर्व समस्तं मन्यते, न तु किंचिन्मन्यते किंचिन्नेति; भगवत्यविश्वासायोगांत् । पुनरपि स एव विशिष्यते। किविशिष्टः सन् ? कांक्षादिविश्रोतसिकारहितः कांक्षा अन्योन्यदर्शनग्राह इत्युच्यते, आदिशब्दाद्विचिकित्सापरिग्रहः, विश्रोतसिका तु संयम-शस्यमङ्गीकृत्याध्यवसायसलिलस्य विश्रोतो गमनमिति ॥५२॥ उपसंहरन्नाह एवंविहपरिणामो सम्मदिही जिणेहिं पन्नत्तो। एसो य भवसमुदं लंघइ थोवेण कालेण ॥६॥ एवंविधपरिणाम इत्यनन्तरोदितप्रशमादिपरिणामः । सम्यग्दृष्टिजनैः प्रज्ञप्त इति प्रकटार्थः । अस्यैव फलमाह-एष च भवसमुद्रं लंधयति अतिक्रामति । स्तोकेन कालेन, प्राप्तबीजत्वादुत्कृष्टतोऽप्युपार्धपुद्गलपरावर्तान्तः सिद्धिप्राप्तेरिति ॥६०॥ अब सम्यग्दृष्टिके आस्तिक्य गुणके अस्तित्वको दिखलाते हैं आस्तिक्य आदि रूप शुभ परिणामसे युक्त सम्यग्दृष्टि जीव कांक्षा आदि विश्रोतसिकाप्रतिकूल प्रवाह-से रहित होकर जिनदेवके द्वारा जो भी वस्तुका स्वरूप कहा गया है उस सभीको सत्य मानता है। विवेचन-जीवादि पदार्थ यथासम्भव अपने-अपने स्वभावके साथ वर्तमान है, इस प्रकारको बुद्धिका नाम आस्तिक्य है, (त. वा. १, २, ३० । 'आत्मा आदि पदार्थ समूह है' इस प्रकारकी बद्धि जिसके होती है उसे आस्तिक और उसकी इस प्रकारको परिणतिको आस्तिक्य कहा जाता है । यह गुण सम्यग्दृष्टि जीवमें स्वभावतः होता है। जिन भगवान्के द्वारा जीवादि पदार्थोंका जैसा स्वरूप कहा गया है उसे हो वह यथार्थ मानता है। कारण यह कि वह यह जानता है कि जिन भगवान् सर्वज्ञ व वीतराग हैं, अतः वे वस्तुस्वरूपका अन्यथा कथन नहीं कर सकते । असत्य वही बोलता है जो या तो अल्पज्ञ हो या राग-द्वेषके वशीभूत हो। सो जिन भगवान्में इन दोनोंका . हो अभाव है। अतएव उनसे असत्यभाषणको सम्भावना नहीं की जा सकती। ऐसा सम्यग्दृष्टिके दृढ़ विश्वास हुआ करता है। यही आस्तिक्य गुणका लक्षण है। सम्यग्दृष्टि जीव इस आस्तिक्य गुण के साथ पूर्वनिर्दिष्ट प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पासे संयक्त होता है। साथ ही वह सम्यक्त्वको मलिन करनेवाले कांक्षा व विचिकित्सा आदि अतिचारोंसे रहितं भी होता है। इन अतिचारोंका स्वरूप ग्रन्थकारके द्वारा आगे स्वयं निर्दिष्ट किया जानेवाला है। (८७-८८)। यहां कांक्षा आदिको विश्रोतसिका कहा गया है। उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार खेतमें बोयी गयी फसलको वृद्धिके लिए उसका जलसे सिंचन किया जाता है, पर सिंचनके लिए उपयुक्त जलका प्रवाह यदि विपरीत दिशामें जानेवाला हो तो उससे फसलका संरक्षण व संवर्धन नहीं हो सकता है, ठीक इसी प्रकार संयमका संरक्षण व संवर्धन करनेवाला वह सम्यक्त्व यदि कांक्षा आदिसे मलिन हो रहा हो तो उससे स्वीकृत संयमका संरक्षण व संवर्धन नहीं हो सकता है। इसीसे सम्यग्दृष्टिको उनसे रहित कहा गया है ॥५९॥ अब इस सबका उपसंहार किया जाता है इस प्रकार जिन देवके द्वारा सम्यग्दृष्टि जीवको उक्त प्रकारके प्रशम-संवेगादिरूप शुभ परिणामोंसे युक्त कहा गया है। इस प्रकारकी उत्तम परिणतिसे युक्त यह सम्यग्दृष्टि ही थोड़े Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६१] सम्यक्त्वस्वरूपम् ४३ एवंविधमेव सम्यक्त्वं इत्येतत्प्रतिपादयन्नाह जं मोणं तं सम्मं जं सम्मं तमिह होइ मोणं ति । निच्छयओ इयरस्य उ सम्म सम्मत्तहऊ वि ॥६१॥ मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः तपस्वी, तद्भावो मौनम्, अविकलं मुनिवृत्तमित्यर्थः । यन्मोनं तत्सम्यक् सम्यक्त्वम् । यत्सम्यक् सम्यक्त्वं तदिह भवति मौनमिति । उक्तं चाचाराङ्गे जं मोणं ति पासहा तं सम्म ति पासहा । जं सम्म ति पासहा तं मोणं ति पासहा ।। इत्यादि निश्चयतः परमार्थेन निश्चयनयमतेनैव एतदेवमिति, जो जहवायं न कुणइ मिच्छट्टिी तओ हु को अन्नो। वड्ढेइ य मिच्छत्त परस्स संकं जणेमाणो । इत्यादिवचनप्रामाण्यात् । इतरस्य तु व्यवहारनयस्य सम्यक्त्वं सम्यक्त्वहेतुरपि अर्हच्छासनप्रीत्यादि, कारणे कार्योपचारात् । एताप शुद्धचेतसां पारम्पर्येणापवर्गहेतुरिति । उक्तं चसमयमें अधिकसे अधिक उपार्धपुद्गलपरावर्त कालके भीतर ही संसाररूप समुद्र को लांघता है-- वह भयानक चतुर्गतिस्वरूप संसारसे शीघ्र मुक्त हो जाता है ॥६॥ आगे मुनिधर्मको ही सम्यक्त्वका निर्देश किया जाता है यथार्थमें यहां निश्चयनयकी अपेक्षा जो मुनिका चारित्र है. वह सम्यक्त्व है और जो सम्यक्त्व है वह मुनिका चारित्र है । पर व्यवहार नयको अपेक्षा सम्यक्त्वका जो कारण है उसे भी सम्यक्त्व कहा जाता है। विवेचन-प्रकृत गाथामें निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंकी अपेक्षा सम्यक्त्वके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि निश्चयसे जो मुनिधर्म है वही सम्यक्त्व है और जो सम्यक्त्व है वही मुनिधर्म है-दोनोंमें कुछ भेद नहीं है। कारण यह कि निश्चयसे आत्म-परविवेकका होना ही सम्यक्त्व है जो उस मुनिधर्मसे भिन्न नहीं है। इस आत्म-परविवेकके प्रकट हो जानेपर प्राणीको हेय और उपादेयका ज्ञान होता है, जिसके आश्रयसे वह पापाचरण कर संयममें प्रवृत्त होता है। 'मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः' इस निरुक्तिके अनुसार मुनिका अर्थ है तोनों कालकी अवस्थाको समझनेवाला तपस्वी। इसीसे निश्चयनयकी अपेक्षा इन दोनोंमें भेद नहीं किया गया। टीकामें इसकी पुष्टि आचारांग सूत्र (१५६, पृ. १९२ ) से को गयो है। जो यथार्थ आचरण नहीं करता है उससे अन्य मिथ्यादृष्टि और कौन हो सकता है ? उसे ही मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। ऐसा मिथ्यादृष्टि शंकाको उत्पन्न करता हुआ दूसरेके भी मिथ्यात्वको बढ़ाता है। व्यवहारनयसे जो जिनशासन विषयक अनुराग आदि सम्यक्त्वके कारण हैं उन्हें भी कारणमें कार्यके उपचारसे सम्यक्त्व कहा जाता है, क्योंकि परम्परासे वे भो मुक्तिके कारण हैं। जैनशासनकी यह एक विशेषता है कि वहां वस्तुतत्त्वका विचार दुराग्रहको छोड़कर अनेकान्त दृष्टिसे -निश्चय व व्यवहार नयोंके आधारसे-किया गया है। परस्पर सापेक्ष इन दानों नयोंके बिना वस्तुके स्वरूपको यथार्थमें समझा ही नहीं जा सकता। इसीसे आगम में यह कहा गया है कि जो आत्महितैषो भव्य जीव जिनमतको स्वीकार करता १. जहावायं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्राप्तिः [६२जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छए मुयह । ववहारनय उच्छेए तित्थुच्छेओ जोऽवस्सं ॥ इत्यादीनि ॥६॥ वाचकमुख्येनोक्तम्--तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तदपि प्रशमाविलिङ्गमेवेति दर्शयन्नाह तत्तत्थसद्दहाणं सम्मत्तं तंमि पसममाईया । पढमकसाओवसमादविक्खया हुति नियमेण ॥६२॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं' सम्यक्त्वम् । तस्मिन् प्रशमादयोऽनन्तरोदिताः। प्रथमकषायोपशमाघ. पेक्षया भवन्ति नियमेन । अयमत्र भावार्थ:-न ह्यनन्तानुबन्धिक्षयोपशमादिमन्तरेण तत्त्वार्थश्रद्धानं भवति । सति च तत्क्षयोपशमे तदुदयवद्भधः सकाशादपेक्षयास्य प्रशमादयो विद्यन्त एवेति तत्त्वार्य श्रद्धानं सम्यक्त्वमित्युक्तम् ॥२॥ के एते तत्त्वार्था इत्येतदभिर्धित्सयाह जीवाजीवासवबंधसंवरा निज्जरा य मुक्खो य । तत्तत्था इत्थं पुण दुविहा जीवा समक्खाया ॥६३॥ जीवाजीवात्रवबन्धसंवरा निर्जरा च मोक्षश्च तत्त्वार्था इति । एषां स्वरूपं वक्ष्यत्येव । असमासकरणं गाथाभंगभयाथं निर्जरामोक्षयोः फलत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थ चेति । अत्र पुनस्तत्त्वार्थचिन्तायाम् । द्विविधा जीवाः समाख्यातास्तीर्थकरगणधरैरिति ॥३॥ है उसे व्यवहार और निश्चयनयोंको नहीं छोड़ना चाहिए। इसका कारण यह है कि व्यवहार नयके छोड़ देनेपर जैसे तीर्थका-धर्मप्रवर्तनका-विनाश अवश्यम्भावी है वैसे ही निश्चयनयके छोड़ देनेपर तत्त्वका-वस्तुव्यवस्थाका--विनाश भी अनिवार्य है। अतः तत्त्वको समझनेके लिए मुख्यता व गौणता या विवक्षा व अविवक्षाके आधारसे यथासम्भव उक्त दोनों नयोंका उपयोग अवश्य करना चाहिए ॥६॥ __ आगे वाचक उमास्वातिके द्वारा जिस सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्वार्थश्रद्धान निर्दिष्ट किया गया है वह प्रशम-संवेगादिका हेतु है, इसे दिखलाते हैं जीवाजीवादि तत्त्वार्थों के श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है। उसके हो जानेपर प्रथम कषायके उपशम आदिकी अपेक्षासे पूर्वोक्त प्रशम-संवेग आदि नियमसे होते हैं। विवेचन-तत्त्वार्थाधिगम सत्र (१-२) में जीव-अजीव आदि सात तत्त्वार्थों के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा गया है। जिस जीवके तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप यह सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है उसके पूर्वोक्त प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये गुण नियमसे होते हैं। इसका कारण यह है कि वह तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन प्रथम अनन्तानुबन्धी कषायके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके होनेपर ही होता है-उसके बिना नहीं होता। उक्त प्रशमादि भी प्रकृत कषायके उपशमादिकी अपेक्षा रखते हैं। यही कारण है जो उसके उदय युक्त जीवोंके असम्भव वे प्रशमादि भाव सम्यग्दृष्टिके नियमसे होते हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शनके अविनाभावी वे प्रशमादिक उस ( सम्यग्दर्शन ) के परिचायक होते हैं ॥६२॥ आगे उन तत्त्वार्थों का निर्देश किया जाता है१. अ 'तत्त्वार्थश्रद्धानं' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम-'तत्त्वार्थश्रद्धानं' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ त एते वत्वार्थाः इति तदभि । ३. अ एत्थ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६४] सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा द्वैविध्यमाह संसारिणो य मुत्ता संसारी छबिहा समासेण । पुढवीकाइअमादि तसकायंता पुढोभेया ॥६४॥ च-शब्दस्य व्यवहित उपन्यासः-संसारिणो मुक्ताश्चेति । तत्र संसारिणः षविधाः षदप्रकाराः। समासेन जातिसंक्षेपेणेति भावः। षड्विधत्वमेवाह-पृथिवीकायिकादयस्त्रसकायान्ताः। यथोक्तम्-पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया पृथग्भेवा इति स्वातन्त्र्येण पृथग्भिन्नस्वरूपाः, न तु परमपुरुषविकारा इति ॥६४॥ जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये वे तत्त्वार्थ हैं। इनमें जीव दो प्रकारके कहे गये हैं। इनका स्वरूप आगे कहा जानेवाला है ।।६३।। आगे वे दो प्रकारके जीव कौनसे हैं, इसका निर्देश किया जाता है जीव दो प्रकारके हैं-संसारी और मुक्त। इनमें संसारी जीव संक्षेपमें पृथिवीकायिकको आदि लेकर त्रसकाय पर्यन्त पृथक्-पृथक् भेदवाले छह प्रकारके हैं। विवेचन-यहां जीवोंके सामान्यसे दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-संसारी और मुक्त । जन्म और मरणका नाम संसार है। जो जीव निरन्तर जन्म और मरणको प्राप्त होते हुए तिर्यंच, मनुष्य, नारक और देव भवोंका अनुभव किया करते हैं उन्हें संसारी कहा जाता है। इसके विपरोत जो जीव समस्त ज्ञानावरणादि कर्मोंसे रहित होकर उस जन्म-मरणरूप संसारसे मक्त हो चुके हैं वे मुक्त-सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। उनमें यहां जातिको अपेक्षा संसारी जीवोंके छह भेद कहे गये हैं-पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । इस प्रकारसे यहां सामान्यसे संसारी जीवोंके छह भेदोंका निर्देश करके उनमें स्थावर जीव कौन हैं और त्रस कोन हैं, इसे स्पष्ट नहीं किया गया। उनके विषयमें कुछ मतभेद रहा है। यथा--तत्त्वार्थभाष्यसम्मत सूत्रपाठके अनुसार जहाँ तत्त्वार्थसूत्र ( २, १३-१४ )में पृथिवा, अम्बु और वनस्पति इनको स्थावर तथा तेज, वायु और द्वीन्द्रिय आदि जीवोंको इस कहा गया है वहां उसी तत्त्वार्थसूत्र (२, १३-१४ ) में सर्वार्थसिद्धिसम्मत सूत्रपाठके अनुसार पृथिवी, अप, तेज, वायु और वनस्पति इनको स्थावर तथा द्वीन्द्रिय आदि जोवोंको त्रस कहा गया है। प्रकृत तत्त्वार्थसूत्र व उसके भाष्यमें उन दोनोंके स्वरूपका कोई निर्देश नहीं किया गया है। सर्वार्थसिद्धि ( २, १३-१४ ) में त्रस व स्थावर जीवोंके स्वरूपका निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि जो जीव त्रस नामकर्मके वशीभूत हैं वे त्रस और जो स्थावर नामकर्मके वशीभूत हैं वे स्थावर कहलाते हैं । इन नामकर्मोंके भी स्वरूपको दिखलाते हुए यही कहा गया है कि जिसके उदयसे द्वीन्द्रिय आदि जीवोंमें जन्म होता है उसे त्रस नामकर्म और जिसके उदयसे एकेन्द्रिय जीवोंमें जन्म होता है उसे स्थावर नामकर्म कहा जाता है। लगभग यही अभिप्राय तत्वार्थवातिककारका भी रहा है ( २, १२, १ व ३ तथा ८, ११, २१-२२)। इन दोनों ग्रन्थोंमें इस मान्यताका निषेध किया गया है कि जो जीव चलते हैं वे त्रस और जो स्थानशील-गमनक्रियासे रहित-होते हैं वे स्थावर कहलाते हैं। इसका कारण वहां आगमका विरोध बतलाया गया है । इसे स्पष्ट करते हुए वहां यह कहा गया है कि आगममें कायमार्गणाके द्वीन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त त्रस जीवोंका अस्तित्व कहा गया है। तत्त्वार्थवार्तिक ( २, १२, २-१) में १. भ तथोक्तं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः संसारिण एव प्रतिपादयन् द्वारगाथामाह भव्वाहारगपज्जत्तसुक्कसोवक्कमाउया चेव । सप्पडिपक्खा एए भणिया कमट्ठमहणेहिं ॥६५॥ त्रस्त–'उद्वेगके वश होकर अन्यत्र गमन करनेवालोंको त्रस कहना चाहिए' इस शंकाका समाधान करते हुए कहा गया है कि वैसा माननेपर जो जीव गर्भ में स्थित हैं, अण्डज हैं, मूछित हैं अथवा सोये हुए हैं; इत्यादिके बाह्य भयके निमित्तके उपस्थित होनेपर गमन क्रिया चूंकि सम्भव नहीं है, अतएव उनके अत्रसत्व (त्रसभिन्नता) का प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा। इसी प्रकार स्थानशील-एक ही स्थानपर स्वभावतः स्थित रहनेवाले-जीवोंको स्थावर मान लेनेपर वायु, तेज और जल इनका देशान्तरमें गमन देखे जानेसे उनके अस्थावरत्व (स्थावरभिन्नता) का प्रसंग भी दुनिवार होगा। इसपर यदि यह कहा जाये कि वायु आदिके अस्थावरता तो अभीष्ट ही है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस अवस्थामें उनके आगमकी अनभिज्ञता प्रकट होती है। इसका कारण यह है कि सत्प्ररूपणामें कायानुवादसे द्वीन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवली पर्यन्त त्रस जीवोंका सद्भाव कहा गया है, ऐसी आगमकी व्यवस्था है। वह सत्प्ररूपणाका सूत्र इस प्रकार है तसकाइया वीइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति। षट्खण्डागम १, १, ४४-प्र. १, पृ. २७५ । तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके आधारसे तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (२-१२) के टीकाकार सिद्धसेन गणिका भी यहो अभिप्राय रहा है कि त्रस नामकर्मके उदयसे जीव अस और स्थावर नामकर्मके उदयसे जीव स्थावर होते हैं। इस प्रकारसे उन्होंने पृथिवी आदि पांचोंको ही स्थावर माना है। ___ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ( ८-१२ ) में त्रस व स्थावर नामकर्मों के प्रसंगमें इतना कहा गया है कि जो कर्म त्रस पर्यायका निवर्तक है उसे त्रस नामकर्म और जो स्थावर पर्यायका निवर्तक है उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं। वहां त्रस और स्थावर पर्यायका कुछ स्पष्टीकरण नहीं . किया गया। योगशास्त्रके स्वो. विवरण (१-१६) में भूमि, अप, तेज, वायु और महीरुह (वनस्पति) इन एकेन्द्रिय जीवोंको स्थावर कहा गया है। इसी प्रकार प्रज्ञापनाकी मलयगिरि विरचित वृत्ति ( २२३, पृ. ४७४ ) में स्थावर नामकर्मके स्वरूपका निर्देश करते हुए कहा गया है कि जिसके उदयसे उष्णतासे सन्तप्त होनेपर भी उस स्थानके छोड़नेमें असमर्थ पृथिवी, अप्, तेज, वायु और वनस्पति जीव हुआ करते हैं वह स्थावर नामकर्म कहलाता है। जीवाभिगम सूत्रकी मलयगिरि विरचित वृत्ति (९, पृ. ९) में त्रस जीवोंके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि जो उष्ण आदिसे सन्तप्त होते हुए विवक्षित स्थानसे त्रस्त-उद्विग्न होकर छाया आदिके आसेवनार्थ स्थानान्तरको जाते हैं वे त्रस कहलाते हैं। इस व्युत्पत्तिसे त्रस नामकर्मके उदयके वशवर्ती जीव ही सरूपसे ग्रहण किये जाते हैं, शेष-स्थावर नामकर्मके उदयके वशवर्ती जीव नहीं ॥६४॥ ___ अब आगेकी गाथामें उन दस द्वारोंका निर्देश किया जाता है जिनके द्वारा प्रकृत संसारी जीवोंकी यथा-क्रमसे प्ररूपणा की जानेवाली है Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~६७] सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा भव्या आहारकाः पर्याप्ताः, शुक्ला इति शुक्लपाक्षिकाः, सोपक्रमायुषश्चैव सप्रतिपक्षा एते भणिताः। तद्यथा-भव्याश्चाभव्याश्चाहारकाश्चेत्यादि । कैर्भणिता इत्याह। अष्टकर्ममथनैः तीर्थकरैरिति गाथाक्षरार्थः॥ भावार्थ तु स्वयमेव वक्ष्यति ॥६५॥ तत्राद्यद्वारमाह भव्वा जिणेहि भणिया इह खलु जे सिद्धिगमणजोगाउँ । ते पुण अणाइपरिणामभावओ हुति नायव्वा ॥६६॥ भव्या जिनर्भणिता इह खलु ये सिद्धिगमनयोग्यास्तु-इह लोके य एव सिद्धिगमनयोग्याः खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् तुशब्दोऽप्येवकारार्थ:-योग्या एव । न तु सर्वे सिद्धिगामिन एव । यथोक्तम् "भव्वा वि न सिज्जिस्सन्ति केई" इत्यादि। भव्यत्वे निबन्धनमाह-ते पुनरनादि. परिणामभावतो भवन्ति ज्ञातव्याः। अनादिपारिणामिभव्यभावयोगाद भव्या इति ॥६६॥ विवरीया उ अभव्वा न कयाइ भवन्नवस्स ते पारं। गच्छिसु जंति व तहा तत्तु च्चिय भावओ नवरं ॥६७॥ _ विपरीतास्त्वभव्याः। तदेव विपरीतत्वमाह-न कदाचिद्भवार्णवस्य संसारसमुद्रस्य ते पारं पर्यन्तं गतवन्तो यान्ति वा, वाशब्दस्य विकल्पार्थत्वात् यास्यन्ति वा । तथेति कुतो निमित्ता ___ साठ कर्मोंको निर्मूल कर देनेवाले तीर्थंकरोंके द्वारा ये संसारी जीव यथाक्रमसे अपने प्रतिपक्ष-अभव्य, अनाहारक, अपर्याप्त, कृष्णपाक्षिक और निरुपक्रमायु-के साथ भव्य, आहारक, पर्याप्त, शुक्ल ( शुक्लपाक्षिक ) और सोपक्रमायुके भेदसे दस प्रकारके कहे गये हैं ॥६५॥ आगे भव्यत्व द्वारका निरूपण करते हुए प्रथमतः भव्योंका स्वरूप निर्दिष्ट किया जाता है-- यहां लोकमें जो जीव सिद्धि ( मुक्ति ) प्राप्त करनेके योग्य हैं उन्हें जिन भगवान्ने भव्य कहा है । वे अनादि पारिणामिक भावसे भव्य होते हैं, ऐसा समझना चाहिए। विवेचन-जिन जीवोंमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रको प्रकट करके मोक्ष करनेकी योग्यता है उन्हें भव्य कहा जाता है। वे अनादि पारिणामिक भावभूत भव्यत्वके आश्रयसे भव्य होते हैं, न कि किसी कर्मके उदयादिकी अपेक्षा। यहाँ गाथामें उपयुक्त ' 'खलु' और 'तु' शब्द अवधारणार्थक हैं । इससे यह समझना चाहिए कि जो मुक्ति गमनके योग्य ही होते हैं उन्हें यहां भव्य कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि मुक्ति गमनके योग्य उन भव्योंमें सभी मुक्तिको जाननेवाले नहीं हैं। आगममें भी यह कहा गया है कि मुक्ति प्राप्त करने योग्य होते हुए कुछ भव्य भी उस मुक्तिको प्राप्त नहीं करेंगे ॥६६॥ ___अब अभव्योंका स्वरूप कहा जाता है पूर्वोक्त भव्योंसे विपरीत अभव्य हैं। वे कभी संसाररूप समुद्रके पार न गये हैं और न जाते हैं। भव्योंके समान वे अभव्य भी उसी भावसे-अनादि पारिणामिक अभव्यत्व भावसे--- होते हैं। विवेचन-जिन जीवोंमें मुक्ति प्राप्त करनेकी योग्यता नहीं है वे अभव्य कहलाते हैं। वैसी योग्यता न होनेसे वे तीनों कालोंमें कभी भी मुक्तिको प्राप्त नहीं कर सकते । गाथामें यद्यपि मुक्ति प्राप्त न करनेके विषयमें अतीत और वर्तमान कालका ही निर्देश किया गया है, फिर भी उसमें प्रयुक्त विकल्पार्थक 'वा' शब्दसे भविष्यत् कालकी भी सूचना कर दी गयी है। इससे यही समझना १. अ जोगो उ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** [ ६८ दिति आह - तत एव भावात् तस्मादेव अनादिपारिणामिकादभव्यत्वभावादिति भावः । नवरमिति साभिप्रायकम्, अभिप्रायश्च नवरमेतावता वैपरीत्यमिति ॥६७॥ श्रावक प्रज्ञप्तिः भव्यद्वारानन्तरमाहारकद्वारमाह विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समुहया अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥ ६८ ॥ विग्रहगतिमापन्ना अपान्तरालगतिवृत्तय इत्यर्थः । केवलिनः समवहताः समुद्घातं गताः । अयोनिश्च केवलिन एव शैलेश्यवस्थायामिति । सिद्धाश्च मुक्तिभाजः । एतेऽनाहारकाः, ओजाद्याहाराणामन्यतमेनाप्यमी नाहारयन्तीत्यर्थः । शेषा उक्तविलक्षणाः । आहारका जीवा ओज-लोमप्रक्षेपाहाराणां यथासंभवं येन केनचिदाहारेणेति ॥ ६८ ॥ तेऽपि यावन्तं कालमनाहारकाः तांस्तथाभिधातुकाम ग्रह चाहिए कि अभव्य जीव उस प्रकारकी योग्यता न होनेसे तीनों ही कालों में कभी मुक्त नहीं हो सकते, उनका संसार अनादि अनन्त है ||६७|| आगे कोन जीव आहारक होते हैं और कौन अनाहारक, इसे स्पष्ट किया जाता हैविग्रहगतिको प्राप्त, समुद्घातगत केवली, अयोगिकेवली और सिद्ध जीव ये अनाहारक होते हैं। शेष सब जीव आहारक होते हैं । विवेचन - ओदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों तथा छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलपिण्डका नाम आहार है। जो जीव इस आहारको ग्रहण करते हैं वे आहारक और जो उसे नहीं ग्रहण करते हैं वे अनाहारक कहलाते हैं । विग्रहका अर्थ शरीर है, शरीर के लिए - पूर्वं शरीरको छोड़कर नवीन शरीर धारण करनेके लिए जो जीवकी गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं । अथवा विग्रहका अर्थ मोड़ भी होता है, इस मोड़से युक्त या उसकी प्रधानतासे जो गति होती है उसे विग्रहगति जानना चाहिए। इस विग्रहगति में वर्तमान जीव उस आहारको नहीं ग्रहण करते हैं । दण्ड, कपाट, प्रतर ( मन्थ ) ओर लोकपूरणके भेदसे केवलिसमुद्घात चार प्रकारका है । उनमें प्रतर, लोकपूरण और पुनःप्रतर ( लौटते हुए ) इनमें वर्तमान सयोगिकेवली प्रकृत - समुद्घातके तीसरे, चौथे और पांचवें समय में आहारको ग्रहण नहीं करते । शैलेश्य- शैलेश ( मेरु पर्वत) के समान निश्चलता - अवस्थाको प्राप्त अयोगिकेवली और सिद्ध परमात्मा भी उक्त आहारको नहीं ग्रहण किया करते हैं । इनको छोड़कर शेष सब जीव ओज, लोम और प्रक्षेप इन आहारों में से यथासम्भव किसी आहारके ग्रहण करनेके कारण आहारक होते हैं । जिस प्रकार अतिशय तपे हुए बर्तनको पानी में डालनेपर वह सब प्रदेशोंके द्वारा पानीको ग्रहण किया करता है, अथवा तपे हुए घी में प्रथम समयमें छोड़ा गया अपूप ( दुआ ) जिस प्रकार सब प्रदेशोंसे घीको ग्रहण किया करता है, उसी प्रकार अपर्याप्त अवस्था में प्रथमोत्पत्ति के समय जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक कार्मण शरीरके द्वारा जो सब प्रदेशोंसे पुद्गलोंको ग्रहण किया करता है; इसका नाम ओज आहार है । शरीर पर्याप्तिके पश्चात् जीव बाहरी चमड़ीसे रोमोंके द्वारा जिस आहार ( पुद्गलfeos ) को ग्रहण किया करता है उसे लोमाहार कहा जाता है । कवल ( ग्रास ) के रूपमें जिस भोजन-पान आदिका मुखके भीतर प्रक्षेप किया जाता है वह प्रक्षेपाहार या कवलाहार कहलाता है । उपर्युक्त विग्रहगति में वर्तमान आदि चार प्रकारके जीवोंको छोड़कर अन्य सब जीव इन तीन प्रकारके आहारों में से किसी न किसी आहारको ग्रहण किया करते हैं, इसीसे उन्हें आहारक कहा जाता है ॥६८॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७० सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा एगाइ तिन्निसमया तिन्नेवऽन्तोमुहुत्तमित्तं च । साई अपज्जवसियं कालमणाहारगा कमसो ॥६९॥ एकाद्यांस्त्रीन् समयान् विग्रहगतिमापन्ना अनाहारकाः। उक्तं च-एक द्वौ वानाहारकः इति । वाशब्दास्त्रिसमयग्रहः। त्रीनेव समयाननाहारकाः समुद्घाते केवलिनः । यथोक्तम् कामणशरीरयोगो चतुर्थके पञ्चमे तृतोये च। समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥१॥ अन्तर्मुहूतं चानाहारका अयोगिकेवलिनः, तत ऊर्ध्वमयोगिकेवलित्वाभावादपवर्गप्राप्तः। साद्यपर्यवसितं कालमनाहारकाः सिद्धा व्यक्त्यपेक्षया तेषां सादित्वादपर्यवसितत्वाच्च । अत एवाह क्रमश एवंभूतेनैव क्रमेणेति गाथार्थः ॥६९॥ व्याख्यातमाहारकद्वारम्, सांप्रतं पर्याप्तकद्वारमाह नारयदेवा तिरिमणुय गब्भया जे असंखवासाऊ । एए ये अपज्जत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा ॥७॥ ___ नारकाश्च देवाश्च नारकदेवास्तथा तिर्यमनुष्याः तिर्यञ्चश्च मनुष्याश्चेति विग्रहः । गर्भजा गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, संमूच्छिमव्यवच्छे दार्थमेतत् । ते च सङ्घयेयवर्षायुषोऽपि भवन्ति, तद्वयवच्छेदार्थमाह-येऽसङ्घयेयवर्षायुष' इति । एते चापर्याप्ता आहार-शरीरेन्द्रिय-प्रागापान. भाषा-मनःपर्याप्तिभी रहिताः। उपपात एव उत्पद्यमानावस्थायामेव बोद्धव्या विजेयाः, न तूतर. कालं पर्याप्ता लब्धितोऽपोति । पूर्वगाथामें निर्दिष्ट विग्रहगतिको प्राप्त आदि वे जीव कितने समय तक अनाहारक रहते हैं, इसे आगेकी गाथा द्वारा स्पष्ट किया जाता है वे क्रमसे एकको आदि लेकर तोन समय तक, तीन ही समय, अन्तर्मुहूर्त मात्र और सादिअपर्यवसित काल अनाहारक रहते हैं। विवेचन-पूर्व गाथामें जिस क्रमसे अनाहारक जीवोंका निर्देश किया गया है, प्रकृत गाथामें उसी क्रमसे उनके अनाहारक कालका निर्देश किया गया है। तदनुसार यह अभिप्राय हुआ कि विग्रहगतिको प्राप्त जीव एक समय, दो समय अथवा तीन समय अनाहारक रहते हैं। इसकी पुष्टि “एकं द्वौ त्रीन् वानाहारकाः" इस सूत्र ( त. सू. २-३१ ) से भी होतो है। प्रशमरति प्रकरण ( २७५-७६ ) के अनुसार समुद्घातको प्राप्त केवली कार्मग काययोगसे युक्त होते हुए तीसरे, चौथे और पांचवें इन तीन समयोंमें अनाहारक होते हैं। अयोगिकेवली अन्तर्मुहूर्त काल अनाहारक होते हैं, तत्पश्चात् वे मुक्तिको प्राप्त कर लेते हैं । सिद्ध ( मुक्त ) जीव मुक्त होनेके अनन्तर अनन्तकाल अनाहारक रहते हैं। इस प्रकार उनका अनाहारक रहनेका काल सादि अपर्यवसित है ॥६९। गे पर्याप्तक द्वारकी प्ररूपणा करते हुए जो जीव उपपात काल में ही अपर्याप्त होते हैं, उनका निर्देश करते हैं नारक, देव और असंख्येय वर्षायुष्क (भोगभूमिज ) गर्भज तिथंच व मनुष्य ये उपपात कालमें ही-उत्पन्न होते समय अपर्याप्त होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥७॥ १. अ तिन्निवि गत्तोमहत्तमेतं वा। २. अ सादी अपज्जवसीयं काले मणाहारणा। ३. अ 'असंखवासाऊ' नास्ति । ४. अ 'य' नास्ति । ५. अतोऽग्रेऽग्रिमगाथायाष्टीकान्तर्गतः 'संख्येयवर्षायुषश्च' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७१ - श्रावक प्रज्ञप्तिः सेसा उ तिरियमणुया लद्धिं पप्पोववायकाले य । उभओ विअ भइअन्वा पज्जत्तियरेत्ति जिणवयणं ॥ ७१ ॥ शेषास्तु तिर्यङ्मनुष्याः संमूर्छनजाः सङ्खयेयवर्षायुषश्च गर्भजाः । किम् ? लब्धि प्राप्य पर्याप्तकलब्धिमधिकृत्य । उपपातकाले चोत्पद्यमानावस्थायां च । किम् ? उभयतोऽपि भाज्या विकल्पनीयाः पर्याप्तका इतरे वापर्याप्तकाः । एतदुक्तं भवति - लब्धितोऽपि पर्याप्ता अपर्याप्तका अपि भवन्ति । उपपातावस्थायां त्वपर्याप्तका एव । इति जिनवचनं इत्येष आगम इति ॥७०-७१॥ व्याख्यातं पर्याप्तकद्वारं, तदनन्तरं शुक्लपाक्षिकद्वारमाहजेसिमवड्ढो पुग्गल परियो सेसओ उ संसारो । ते सुक्कपक्खि खलु अहिए पुण किन्हपक्खीयां ॥ ७२ ॥ येषामुपाद्गपरावर्त एव शेषः संसारस्तत ऊर्ध्वं सेत्स्यन्ति ते शुक्लपाक्षिकाः क्षीणप्रायसंसाराः । खलुशब्दो विशेषणार्थः - प्राप्तदर्शना वा अप्राप्तदर्शना वा सन्तीति विशेषयति । अधिके पुनरुपार्धपुद्गलपरावर्ते संसारे कृष्णपाक्षिकाः क्रूरकर्माण इत्यर्थः । पुद्गलपरावर्तो नाम त्रैलोक्य अब उन शेष जीवोंका निर्देश किया जाता है जो लब्धिको प्राप्त होकर और उपपात कालमें भी पर्याप्त व अपर्याप्त होते हैं शेष - सम्मूर्छन जन्मवाले और संख्येय वर्षायुष्क - तियंच व मनुष्य लब्धिको प्राप्त करके और उत्पत्तिकाल में भी पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों रूपोंमें विकल्पके योग्य हैं - वे कदाचित् पर्याप्त भी होते हैं व कदाचित् अपर्याप्त भी होते हैं, ऐसा आगम वचन है । विवेचन - जो जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय, प्राणापान, भाषा और मन इन पर्याप्तियोंसे रहित होते हैं वे अपर्याप्त तथा जो यथासम्भव उनसे सहित होते हैं वे पर्याप्त कहलाते हैं । नारक, देव और असंख्यात वर्षको आयुवाले ( भोगभूमिज ) तियंच व मनुष्य ये उत्पन्न होने के समय में ही अन्तर्मुहूर्त काल तक अपर्याप्त (निवृत्यपर्याप्त) होते हैं, तत्पश्चात् वे उक्त पर्याप्तियोंसे पूर्ण होकर पर्याप्त हो जाते हैं । उपर्युक्त देवादिकोंको छोड़कर शेष रहे सम्मूर्छन जन्मवाले तथा. संख्यात वर्षकी आयुवाले ( कर्मभूमिज ) गर्भंज तियंच और मनुष्य ये उत्पत्तिकाल में तो अपर्याप्त हो होते हैं, पर पर्याप्तकलब्धिकी अपेक्षा वे पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं - उनमें से कितने ही जन्म ग्रहण के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में अपने योग्य पर्याप्तियोंको पूरा करके पर्याप्त हो जाते हैं और कितने ही मरणको प्राप्त होते हुए उन पर्याप्तियोंको पूर्ण न कर सकने के कारण अपर्याप्त ( लब्ध्यपर्याप्त ) ही बने रहते हैं || ७०-७१ ॥ आगे शुक्ल पाक्षिक द्वारका निरूपण करते हुए शुक्लपाक्षिक व कृष्णपाक्षिक जीवों का स्वरूप . कहा जाता है— जिनका संसार उपार्धपुद्गलपरावर्त मात्र शेष रहा है वे शुक्लपाक्षिक ओर जिनका संसार उससे अधिक शेष रहा है वे कृष्णपाक्षिक कहलाते हैं । विवेचन - तीनों लोकोंमें अवस्थित समस्त पुद्गलोंको औदारिक आदि शरीरोंके रूपसे ग्रहण कर लेने में जितना काल बीतता है उतने कालका नाम पुद्गलपरावर्त है । अर्धपुद्गल परावर्तसे कुछ कम कालको उपार्धपुद्गल परावर्त कहा जाता है। जिन जीवोंका संसार प्रायः १. अ जेसि अवढो । २. अ सक्कुपक्षिया । ३. अ अहिगे पुण किण्हपक्खीउ । - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७४ ] सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा गतपुदलानामौदारिकादिप्रकारेण ग्रहणम् । उपार्धपुद्गलपरावर्तस्तु किंचिन्यूनोऽर्धपुद्गलपरावर्त इति ॥७२॥ एतदद्वारोपयोग्ये च वक्तव्यताशेषमाह पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धिया वि दाहिणिल्लेसु । नेरइय-तिरिय-मणुया सुरा य ठाणेसु गच्छंति ॥७३।। प्राय इह क्रूरकर्माणः, बाहुल्येनैतदेवमिति दर्शनार्थ प्रायोग्रहणम् । भवसिद्धिका अप्येकभवमोक्षयायिनोऽपि । दक्षिणेषु नारकतिर्यङ्मनुष्याः सुराश्च स्थानेषु गच्छन्ति । अत एवोक्तम्"दाहिणदिशिगामिए किल्पक्खिए नेरइए" इत्यादि । एतदुक्तं भवति-नरक-भवन-द्वीप-समुद्रविमानेषु दक्षिणदिग्भागव्यवस्थितेषु कृष्णपाक्षिका नारकादय उत्पद्यन्त इति । आह-भारतादितीर्थकरादिभिर्व्यभिचारः ? न, तेषां प्रायोग्रहणेन व्युदासादिति ॥७३॥ शुक्लपाक्षिकद्वारानन्तरं सोपक्रमायुारमाह देवा नेरइया वा असंखवासाउआ य तिरि-मणुया । उत्तमपुरिसा' य तहा चरमसरीरा य निरुवकमा ।।७४॥ क्षयको प्राप्त होनेवाला है उनका नाम शुक्लपाक्षिक है। ऐसे शुक्लपाक्षिक जीव, चाहे सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर चुके हैं अथवा उसे न भी प्राप्त किया हो, अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्तकाल तक हो संसारमें रहते हैं, तत्पश्चात् वे नियमसे मुक्तिको प्राप्त कर लेते हैं। इनके विपरीत जो अतिशय क्रूर कर्म करनेवाले जीव हैं उन्हें कृष्णपाक्षिक कहा जाता है। उनके संसारपरिभ्रमणका काल अर्धपुद्गलपरावतंसे अधिक होता है ।।७२।। आगे कृष्णपाक्षिक जीवोंके उत्पत्तिस्थानका निर्देश किया जाता है भवसिद्धिक होते हुए भी जो नारक, तियंच, मनुष्य और देव प्रायः क्रूर कर्म करनेवाले होते हैं वे दक्षिण स्थानोंमें जाते हैं । विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि प्रायः क्रूर कर्म करनेवाले नारक, तियंच, मनुष्य और देवोंमें यदि एक भवमें मोक्षगामो भी हों तो भी वे दक्षिण दिशाभागमें अवस्थित नारकबिलों, भवनवासी देवोंके भवनों, द्वोपों, समुद्रों और विमानोंमें उत्पन्न हुआ करते हैं। यहां यह शंका हो सकती थी कि द्वीपके दक्षिण दिशागत भरत क्षेत्रादिमें तो तोर्थंकर आदि भी उत्पन्न होते हैं, पर वे क्रूर कर्म करनेवाले नहीं होते; अतः यह कहना ठीक नहीं है कि दक्षिण दिशागत स्थानोंमें क्रूर कर्म करनेवाले जीव उत्पन्न होते हैं। इस शंकाको लक्ष्यमें रखते हुए गाथामें 'प्रायः' शब्दको ग्रहण किया गया है। उसका अभिप्राय है कि अधिकांशमें क्रूर कर्म करनेवाले जीव उन स्थानोंमें उत्पन्न होते हैं । इससे प्रकृतमें उत्तम प्रवृत्ति करनेवाले उन तीर्थंकरों आदिकी व्यावृत्ति हो जाती है ॥७३॥ अब क्रमप्राप्त सोपक्रमायु द्वारका निरूपण करते हुए निरुपक्रम कौन होते हैं, इसका निर्देश करते हैं देव, नारक, असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य, उत्तम पुरुष और चरमशरीरी ये सब जोव निरुपक्रमायुष्क होते हैं। १. मु पुरिहा। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ७५ देवा नाराचैते सामान्येनैव । असङ्खधेयवर्षायुषश्च तिर्यङ्मनुष्या एतेन सङ्खयेय. वर्षायुषां व्यवच्छेदः । उत्तमपुरुषाश्चक्रवर्त्यादयो गृह्यन्ते । चरमशरीराश्चाविशेषेणैव तीर्थकरादयः । निरुपक्रमा इत्येते निरुपक्रमायुष एव अकालमरणरहिता इति ॥७४॥ ५२ सेसा संसारत्था भइया सोवक्कमा व इयरे वा । सोवक्कम-निरुवक्कमभेओ भणिओ समासेणं ॥ ७५ ॥ शेषाः संसारस्था अनन्तरो दितव्यतिरिक्ताः संख्येयवर्षायुष अनुत्तमपुरुषा अचरमशरीराश्च । च एते भाज्या विकल्पनीयाः । कथम् ? सोपक्रमा वा इतरे वा कदाचित् सोपक्रमाः कदाचिन्निरुपक्रमा उभयमप्येतेषु संभवतीति सोपक्रम-निरुपक्रमभेदो भणितः । समासेन संक्षेपेण, न तु कर्मभूमिजादिविभागविस्तरेणेति ॥७५॥ विवेचन - आयुके विघातक विष, अग्नि व शस्त्र आदिरूप कारणकलापका नाम उपक्रम है। इस उपक्रमसे जो जीवरहित होते हैं उन्हें निरूपक्रमायुष्क कहा जाता है । वैसे कारणकलापसे भी उनका कभी अकालमें मरण सम्भव नहीं है । गाथा में निर्दिष्ट देव आदि इसी प्रकार के जीव हैं, जिनका कभी अकाल में मरण सम्भव नहीं है । जम्बूद्वीप, धातकोखण्ड और पुष्करार्धद्वीप इन अढ़ाई द्वीपों में स्थित पांच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु, लवण और कालोद समुद्रों में अवस्थित rator आदि मनुष्योंके निवासस्थानभूत अन्तरद्वीप, पांच हैमवत, पाँच हरिवर्ष, पांच रम्यक और पांच हैरण्यवत इन अकर्मभूमियों में उत्पन्न होनेवाले, मनुष्य व तिर्यंच, अढाई द्वीपोंके आगे असंख्यात द्वीप समुद्रों में अवस्थित तियंच तथा पांच भरत और पांच ऐरावत रूप कर्मभूमियोंके भीतर भी प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालवर्ती मनुष्य व तिच ये सब असंख्यात वर्षकी आयुवाले होते हैं जो नारकी ओर देवोंके समान कभी अकालमें मरणको प्राप्त नहीं होते । चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव ये उत्तम पुरुष माने जाते हैं । चरम शरीर से अभिप्राय उस अन्तिम शरीर से उसी भव में मुक्तिको प्राप्त कर लेनेवाले जीवोंका है। चरमशरीरी उन्हें इसलिए कहा जाता है कि अब आगे उन्हें अन्य शरीर नहीं धारण करना पड़ेगा, यही उनका अन्तिम शरीर है जिससे वे मुक्तिको प्राप्त कर लेनेवाले हैं। टीकामें चरमशरीरियों में सामान्यसे तीर्थंकर आदिकोंको ग्रहण किया गया है । तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ( २-५२ ) में तीर्थंकरोंको उत्तम पुरुषों में सम्मिलित किया गया है । साथ ही वहाँ चरमशरीरियों को सोपक्रमायु और निरुपक्रमायु दानों कहा गया है, जब कि प्रकृत गाथा में उत्तम पुरुष और चरमशरोरी दोनोंको निरुपक्रम ही कहा गया है । यह गाथा मूल तत्वार्थाधिगमसूत्रका अनुसरण करनेवाली प्रतीत होती है ||७४ || आगे उपर्युक्त देवादिकोंके अतिरिक्त शेष सब संसारी जीवों में दोनों प्रकारके होते हैं, इसे स्पष्ट किया जाता है उपर्युक्त देवादिकोंसे शेष रहे संसारी जीव - संख्यात वर्षकी आयुवाले ( कर्मभूमिज ) मनुष्य व तिर्यंच, अनुत्तम पुरुष तथा अचरम शरीरी ये- सोपक्रम और निरुपक्रम दोनों में विकल्पनीय हैं - वे कदाचित् सोपक्रम ( अकालमरणवाले ) और कदाचित् निरुपक्रम भी होते हैं । इस प्रकार संक्षेप में यहां सोपक्रम और निरुपक्रमका भेद कहा गया है ॥ ७५ ॥ १. अ कर्म्मभूनुजादि । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७६ ] सम्यक्त्वविषयभूतस्य जीवतत्त्वस्य प्ररूपणा उक्तं सोपक्रमद्वारम्, तदभिधानाच्च संसारिणो जीवाः । सांप्रतं मुक्तानभिधित्सुराह - मुत्ता अगभेया तित्थ - तित्थयर - तदियरा चेव । सय- पत्तेयविबुद्धा बुहबोहिय सन्नगिहिलिंगे ॥७६॥ ५३ मुक्ताश्च सिद्धाः, ते चानेकभेदा अनेकप्रकाराः तीर्थंतीर्थंकरतदितरे चेति, अनेन सूचनासूत्रमिति कृत्वा तीर्थसिद्धा अतीर्थसिद्धास्तीर्थंकर सिद्धा अतीर्थकर सिद्धाश्व गृह्यन्ते । तत्र तीर्थे सिद्धास्तीर्थं सिद्धाः । तोथं पुनश्चातुर्वर्णः श्रमण संघः प्रथमगणधरो वा । तथा चोक्तं- तित्थं भंते तित्थं तित्थगरे तित्थं गोयमा अरहं ताव नियमा तित्थंकरे तित्थं पुण चाउव्वन्नो समण संघो पढमगणधरो वा इत्यादि । ततश्च तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः । अतीर्थे सिद्धा अतीथंसिद्धास्तीर्थान्तरसिद्धा इत्यर्थः । श्रूयते च - जिणंतरे साहुवोच्छेउ त्ति । तत्रापि जातिस्मरणादिना अवाप्तापवर्गमार्गाः सिध्यन्ति एवम् मरुदेवीप्रभृतयो वा अतीर्थसिद्धास्तदा तीर्थस्यानुत्पन्नत्वात् । अतीर्थंकरसिद्धा अन्ये सामान्यकेवलिनः । स्वयंप्रत्येकबुद्धा इत्यनेन स्वयंबुद्धसिद्धाः प्रत्येक बुद्धसिद्धाश्च गृह्यन्ते । तत्र स्वयं बुद्ध सिद्धाः स्वयं बुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः । प्रत्येकबुद्धसिद्धाः प्रत्येकबुद्धासन्तो ये सिद्धा इति । अथ स्वयं बुद्ध प्रत्येकबुद्धयोः कः प्रतिविशेष इति । उच्यते - बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः । तथाहि - स्वयं बुद्धा बोह्यप्रत्ययमन्तरेणैव बुध्यन्ते, प्रत्येकबुद्धास्तु न इस प्रकार उपर्युक्त पांच द्वारोंमें संसारी जीवोंकी प्ररूपणा करके अब मुक्त जीवोंका निरूपण किया जाता है मुक्त जीव अनेक प्रकारके हैं-तोर्थसिद्ध, तीर्थंकरसिद्ध, तदितरसिद्ध - अतीर्थसिद्ध व अतीर्थकर सिद्ध, स्वयंबुद्धसिद्ध, प्रत्येकबुद्ध सिद्ध, बुद्धबोधितसिद्ध, स्वलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध और गृहिलिंग सिद्ध । विवेचन - जो जीव आठ प्रकारके कर्मरूप बन्धन से छूट चुके हैं वे मुक्त कहलाते हैं । यह मुक्त जीवोंका सामान्य लक्षण है, इस सामान्य स्वरूपको अपेक्षा उनमें परस्पर कुछ भेद नहीं है । पर सिद्धि के अन्य अन्य कारणोंकी अपेक्षा उनमें कुछ भेद भी है। वह इस प्रकारसे - (१) तीर्थं सिद्ध - जो किसी तीर्थकरके तीर्थ में सिद्ध हुए हैं-आठ कर्मोंसे निर्मुक्त हुए हैं - वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं । तीर्थनाम चातुर्वणं श्रमण संघ अथवा प्रथम गणधरका है । इस प्रकारके तीर्थके उत्पन्न होनेपर जो सिद्ध हुए हैं उन्हें तीर्थसिद्ध कहा जाता है । (२) अतीर्थसिद्धजो अतीर्थ में, तीर्थके अन्तराल में सिद्ध हुए हैं वे अतोर्थसिद्ध कहलाते हैं । आगम में भो सुना जाता है कि जिनोंके अन्तराल में साधुओंका व्युच्छेद - उनकी परम्पराका अभाव - हुआ है । इस प्रकारके अतोर्थमें जो जातिस्मरण आदिके आश्रयसे मोक्षमार्गको पाकर सिद्ध होते हैं उन्हें, अथवा मरुदेवो आदिके समान जो तोर्थके उत्पन्न होनेके पूर्व हो मुक्तिको प्राप्त हुए हैं उन्हें अतीर्थसिद्ध कहा जाता है । (३) तीर्थकर सिद्ध - तोर्थ कर सिद्ध तोर्थंकर ही हुआ करते हैं । (४) अतीर्थंकरसिद्ध - तीर्थंकर से भिन्न जो अन्य सामान्य केवली मुक्तिको प्राप्त हुए हैं वे अतीर्थकरसिद्ध कहलाते हैं । (५) स्वयं बुद्ध सिद्ध - जो स्वयं ही प्रबोधको प्राप्त होकर मुक्तिको प्राप्त होते हैं उन्हें स्वयं बुद्धसिद्ध कहा जाता है । (६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध - प्रत्येक बुद्ध होकर – एक अपनी आत्माके आश्रयस - जो सिद्ध होते हैं वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध कहलाते हैं । यहाँ शंका सकती है कि इस प्रकारका लक्षण करने पर स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्धमें क्या विशेषता रहेगी ? इसके १. अ अतोऽग्रे 'तथाहि-- स्वयं बुद्धा' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ बुद्धा न बाह्य । ३. अ मंतरेणाव । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७ - ५४ श्रावकप्रज्ञप्तिः तद्विरहेण, श्रूयते च बाह्यप्रत्ययवृषभादिसव्यपेक्षा करकंड़वादीनां प्रत्येकबुद्धानां बोधिरिति । उपधिस्तु स्वयंबुद्धानां द्वादशविधः पात्रादिः, प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवजः। स्वयंबुद्धानां पूर्वाधोतश्रु तेऽनियमः, प्रत्येकबुद्धानां नियमतो भवत्येव । लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयंबुद्धानामाचार्यसन्निधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छतीत्यलं विस्तरेण । बुद्धबोधिता इति बुद्धबोधितसिद्धाः, बुद्धा आचार्यास्तैर्बोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते इह गृह्यन्ते । स्वान्य-गृहिलिङ्गा इति स्वलिङ्गसिद्धा अन्यलिङ्गसिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धाः। तत्र स्वलिङ्गसिद्धा द्रव्यलिङ्गं प्रति रजोहरण-गोच्छकधारिणः। अन्यलिङ्गसिद्धाः परिवाजकादिलिङ्गसिद्धाः। गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेवीप्रभृतय इति ॥७६॥ इत्थीपुरिसनपुंसग एगाणेग तह समयभिन्ना य । एसो जीवसमासो इतो इयरं पवक्खामि ॥७७।। एते च सर्वेऽपि केचित् स्त्रीलिङ्गसिद्धाः केचित् पुंलिङ्गसिद्धाः केचिन्नपुंसकलिङ्गसिद्धाः। आह-कि तीर्थकरा अपि स्त्रीलिङ्गसिद्धा भवन्ति ? भवन्तोत्याह-यत उक्तं सिद्धप्राभूतेसव्वत्थोवा तित्यगरिसिद्धा, तित्थगरितित्थे नोतित्थसिद्धा असङ्घयेयगुणा, तित्थगरितित्थे णोतित्थगरिसिद्धाउ असङ्खचेयगुणाउ तित्थगरितित्थे णोतित्थगरसिद्धा असङ्खयेयगुणा इति । न समाधानमें कहा गया है कि उन दोनों में बोधि, उपाधि, श्रत और लिंग जनित विशेषता होती है। जैसे-स्वयंबुद्ध जहां बाह्य निमित्तके बिना ही प्रबोधको प्राप्त होते हैं वहां प्रत्येकबुद्ध बिना बाह्य निमित्तके प्रबुद्ध नहीं होते, करकण्डु आदि प्रत्येकबुद्धोंके बोधिकी प्राप्ति बाह्य निमित्तभूत वृषभ आदिको अपेक्षासे सुनी भो जाती है। उपधि जहां स्वयंबुद्धोंके पात्र आदि बारह प्रकारको होती है वहाँ प्रत्येकबुद्धोंके वह प्रावरणको छोड़कर नो प्रकारकी होती है। स्वयंबुद्धोंके पूर्व अधीत श्रुतके विषयमें कुछ नियम नहीं है, प्रत्येकबुद्धोंके वह नियमसे होता हो है । स्वयंबुद्धोंके लिंगकी प्रतिपत्ति आचार्यके समीपमें भी होती है, पर प्रत्येक बुद्धोंके लिए उसे देवता प्रदान करती है। इस प्रकार उन दोनोंमें भेद है हो। (७) बुद्धबोधितसिद्ध-जो बुद्धों (आचार्यों ) से प्रबोधको प्राप्त होते हुए मक्तिको प्राप्त हए हैं उन्हें बद्धबोधितसिद्ध कहा जाता है। (८) स्वलिंगसिद्ध-जो द्रव्यलिंग अपेक्षा रजोहरण और गोच्छक ( पात्र पोछनेका वस्त्रखण्ड) को धारण करते हुए मुक्त हुए हैं उन्हें स्वलिंगसिद्ध जानना चाहिए। (९) अन्यलिंगसिद्ध-जो परिव्राजक आदि अन्य साधुओंके वेषको धारण करते हुए सिद्धिको प्राप्त हुए हैं वे अन्यलिंगसिद्ध कहलाते हैं। (१०) जो गृहस्थके वेषमें मुक्त हुए हैं उन्हें गृहिलिंगसिद्ध कहा जाता है - जैसे मरुदेवो आदि ॥७६।। आगे उपर्युक्त सभी मुक्त जीवोंको कुछ अन्य भी विशेषताओंको प्रकट किया जाता है उनमें कुछ स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुषलिंगसिद्ध व नपुंसकलिंगसिद्ध, कुछ एकसिद्ध व अनेकसिद्ध तथा समय भिन्न - कुछ प्रथमसमयसिद्ध व अप्रथमसमयसिद्ध; इस प्रकारसे भी उनमें भेद है। इस प्रकार जीवोंका यह संक्षेप है। आगे अजीव समासको कहता हूँ। विवेचन-इन सब मुक्त जीवोंमें कुछ स्त्रीलिंगसे सिद्ध हुए हैं, कुछ पुल्लिगसे सिद्ध हुए हैं और कुछ नपुंसकलिंगसे सिद्ध हुए हैं। यहां शंका की जा सकता है कि तीर्थकर भी क्या स्त्रीलिंगसे सिंद्ध होते हैं ? इसके उत्तरमें कहा जाता है कि हाँ, तीर्थकर भी स्त्रीलिंगसे सिद्ध होते हैं। कारण यह कि सिद्धप्राभृत में सिद्धोंके अल्पबहुत्वके प्रसंगमें ऐसा कहा गया है-तीर्थकरोसिद्ध सबसे १. असो एत्तो इयं प । २. अ केचिन्नपुंसगसिद्धा ग्रहिलिंगसिद्धा इत्याह किं । ३. अ असंखेज्जगुगा। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७८] अजीवतत्वप्ररूपणा नपुंसकलिङ्ग सिद्धाः। प्रत्येकबुद्धास्तु पुंलिङ्गा एव । एकानेक इति-एकसिद्धा अनेकसिद्धाश्चे। तत्रैकसिद्धा एकस्मिन् समये एक एव सिद्धः । अनेकसिद्धा एकस्मिन् समये द्वयादयो यावदष्टशतं सिद्धमिति । उक्तं च बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोधव्या । चुलसीई छन्न उइ दुरहिय अठुत्तरसयं च ॥ तथा समयभिन्नाश्चेति-प्रथमसमयसिद्धा अप्रथमसमयसिद्धा इत्यादि । तत्र अप्रथमसमयसिद्धाः परस्परसिद्धिविशेषणप्रथमसमयतिनः सिद्धत्वद्वितीयसमयतिन इत्यर्थः, ज्यादिषु तु द्विसमयसिद्धादयःप्रोच्यन्ते। यद्वा सामान्येन प्रथमसमयसिद्धाभिधानं विशेषतो द्विसमयादिसिद्धाभिधानमिति । आह-तीर्थातीर्थसिद्धभेदद्वय एवान्तर्भावादलं शेषभेदैरिति, न आद्यभेदद्वयादेवोत्तरभेदाप्रतिपत्तेः, शिष्यमतिविकाशार्थश्च शास्त्रारम्भ इति । एष उक्तलक्षणो जीवसमासो जीवसंक्षेप, उक्त इति वाक्यशेषः। अत ऊर्ध्वमजीवसमासं प्रवक्ष्यामीति गाथार्थः ॥७॥ धम्माधम्मागासा पुग्गल चउहा अजीव मो एए। गइठिइअवगाहेहिं फासाईहिं च गम्भंति ॥७८॥ अल्प हैं, तीर्थकरीतीर्थमें नोतीर्थसिद्ध उनसे असंख्यातगुणे हैं, तीर्थकरीतीर्थमें नोतीर्थकरीसिद्ध उनसे असंख्यातगुणे हैं, तीर्थकरीतीर्थमें नोतीथंकरसिद्ध उनसे असंख्यातगुणे हैं। इससे सिद्ध है कि तीर्थकरोके रूपमें स्त्रीलिंगसे भी सिद्ध होते हैं व उनका तीर्थ भी चलता है। उन्हीं मुक्त जीवोंमें कितने ही एकसिद्ध व कितने ही अनेकसिद्ध होते हैं—एक समयमें जो एक ही सिद्ध होता है उसे एकसिद्ध तथा एक समय में जो दोको आदि लेकर एक सौ आठ तक सिद्ध होते हैं उन्हें अनेकसिद्ध कहा जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि सिद्धिगमनमें जब अधिकसे अधिक छह मासका अन्तर होता है तब शेष आठ समयोंमें छह सौ आठ जीव निरन्तर सिद्ध होते हैं। वे इस प्रकारसेप्रथम समयमें बत्तीस, द्वितीय समयमें अड़तालीस, तृतीय समयमें साठ, चतुर्थ समयमें बहत्तर, पाँचवें समयमें चौरासी, छठे समयमें छियानबै, सातवें समयमें एक सौ आठ और आठवें समयमें एक सौ आठ (३२ + ४८ + ६० + ७२ + ८४ +९६+ १०८+ १०८= ६०८)। यहाँ अन्तमें ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकारसे जीव तत्त्वका संक्षेपमें निरूपण किया गया है (६३-७७ )। आगे अजीव तत्त्वका वर्णन किया जाता है। साक्षात् सिद्धिकी अपेक्षा प्रथमसमयसिद्ध कहलाते हैं तथा परम्परासिद्धिकी अपेक्षा सिद्ध होनेके द्वितीय आदि समयवर्ती जीवोंको अप्रथमसमयसिट कहा जाता है । अथवा सामान्यसे प्रथमसमयसिद्ध और विशेषरूपसे द्वितीयादि समयसिद्ध कहा गया है, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। यहाँ शंका उपस्थित होती है कि जब उपर्युक्त मुक्त जीवोंका अन्तर्भाव तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध इन दो प्रथम भेदोंमें ही होता था तब शेष भेदोंका निरूपण क्यों किया गया? उसका उत्तर यह है कि आदिके उन दो भेदोंसे आगेके भेदोंका ज्ञान नहीं हो सकता था तथा शास्त्रका आरम्भ शिष्योंकी बुद्धि के विकासके लिए किया जाता है। इसीलिए उनका पृथक्से कथन किया गया है ।।७७॥ अब कृत प्रतिज्ञाके अनुसार अजीव तत्त्वका व्याख्यान करते हुए धर्माधर्मादि चार अजीव द्रव्योंका परिचय कराया जाता है १. मु अनेकसिद्धाः । . अ प्रथमसमयत्तिनः सिद्धाभिधानं । ३. अ अजीवा ए चैते । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [७९तत्र धर्माधर्माकाशा गति-स्थित्यवगाहैगम्यन्ते, पुद्गलाश्च स्पर्शादिभिः । असमासकरणं धर्मादीनां त्रयाणामप्यमूर्तत्वेन भिन्नज्ञातीयख्यापनार्थम् । इत्येष गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु धर्मादिग्रहणेन पदैकदेशेऽपि पदप्रयोगदर्शनाद्धर्मास्तिकायादयो गृहयन्ते । स्वरूपं चैतेषाम् - जीवानां पुद्गलानां च गत्युपष्टम्भकारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥ जीवानां पुद्गलानां च स्थित्युपष्टम्भकारणम् । अधर्मः पुरुषस्येव तिष्ठासोरवनिस्समा ।। जीवानां पुद्गलानां च धर्माधर्मास्तिकाययोः । बादरापां घटो यद्वदाकाशमवकाशदम् ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दा मूर्तस्वभावकाः । संघातभेदनिष्पन्नाः पुद्गला जिनदेशिताः ॥ इति कृतं विस्तरेण ॥७॥ उक्ता अजीवाः सांप्रतमास्रवद्वारमाह काय-वय-मणोकिरिया जोगो सो आसवो सुहो सो अ । पुन्नस्स मुणेयव्वो विवरीओ होइ पावस्स ||७९॥ धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस प्रकारसे अजीव चार प्रकारका है। ये धर्मादि अजीव यथाक्रमसे गति, स्थिति, अवगाह और स्पर्श आदिकोंसे जाने जाते हैं। विवेचन-गाथामें उपयुक्त धर्म आदि शब्दोंसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकायको ग्रहण करना चाहिए। कारण यह कि पदके एक देशमें भी पदका प्रयोग देखा जाता है । धर्मास्तिकायका परिज्ञान जीव-पुद्गलोंको गतिसे, अधर्मास्तिकायका उनकी स्थितिसे, आकाशका उनके अवगाहनसे तथा पुद्गलोंका स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णके द्वारा होता . है। यहां गाथामें धर्म, अधर्म और आकाश इन पदोंके मध्यमें द्वन्द्व समास करके भी जो पुद्गल - शब्दको पृथक् रखा गया है-उसके साथ समास नहीं किया गया है। उससे यह सूचित किया गया है कि उक्त धर्मादि तीन अमर्त अस्तिकाय उस मर्त पूगल अस्तिकायसे भिन्न है। उनका स्वरूप इस प्रकार है-जिस प्रकार चक्षु इन्द्रियसे युक्त प्राणीके लिए पदार्थों के देखने में दीपक उदासीन कारण होता है उसी प्रकार जो गतिपरिणत जीवों और पुद्गलोंके गमनमें अप्रेरक कारण होता है उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं । इसी प्रकार जैसे ठहरनेके इच्छुक पुरुषके लिए पृथिवी अप्रेरक कारण होती है वैसे ही जो स्थितिपरिणत जीवों व पुद्गलोंके स्थित होनेमें अप्रेरक कारण होता है उसका नाम अधर्मास्तिकाय है । जिस प्रकार घड़ा स्थूल जल को स्थान दिया करता है उसी प्रकार जो जीवों, पुद्गलों तथा धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायको स्थान देता है वह आकाश कहलाता है । जो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दसे युक्त होते हुए मूर्त स्वभावके धारक होकर संघात, भेद और संघात-भेदसे उत्पन्न होते हैं उन्हें जिन देवने पुद्गल कहा है ।।७८॥ आगे क्रमप्राप्त आस्रव तत्त्वका स्वरूप कहा जाता है काय, वचन और मनकी क्रियाका नाम योग है। इस योगको आस्रव कहा जाता है। पुण्य कर्मके उस आस्रवको शुभ और पापके उस आस्रवको विपरीत ( अशुभ ) जानना चाहिए। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८०] आस्रवादीनां प्ररूपणा कायवाङ्मनःक्रिया योगः क्रिया कर्म-व्यापार इत्यनान्तरम् । युज्यत इति योगः, युज्यते वानेन करणभूतेनात्मा' कर्मणेति योगो व्यापार एव । स आस्रवः, आस्रवत्यनेन कर्मेत्यास्रवः सरःसलिलावाहिस्रोतोवत् । शुभः स चास्रवः पुण्यस्य मुणितव्यो विपरीतो भवति पापस्येति । आत्मनि कर्माणुप्रवेशमानहेतुरास्रव इति ॥७९॥ उक्त आस्रवः, सांप्रतं बन्ध उच्यते सकषायत्ता जीवो जोगे कम्मस्स पुग्गले लेइ । सो बंधो पयइठिईअणुभागपएसभेओ ओं ॥८॥ कषायाः क्रोधादयः, सह कषायैः सकषायः, तद्भावः तस्मात् सकषायत्वाज्जीवो योग्यानुचितान् । कर्मणः ज्ञानावरणादेः। पुद्गलान् परमाणून् । लात्यादत्ते गृह्णातीत्यनान्तरम् । स बन्धः योऽसौ तथास्थित्या त्वादानविशेषः स बन्ध इत्युच्यते । स च प्रकृतिस्थित्यनुभाव-प्रदेशभेद एव भवति । प्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणादिप्रकृतिरूपः। स्थितिबन्धोऽस्यैव जघन्येतरा स्थितिः । अनुभावबन्धो यस्य यथायत्यां विपाकानुभवनमिति । प्रदेशबन्धस्त्वात्मप्रदेशैर्योगस्तथा कालेनैव . विशिष्टविपाकरहितं वेदनमिति ॥८॥ विवेचन-क्रियाका अर्थ व्यापार है। 'यज्यते अनेनेति योगः' इस निरुक्तिके अनुसार जीव जिस व्यापारके द्वारा कर्मसे सम्बद्ध होता है उस काय, वचन और मनके व्यापारका नाम योग है । इस योगको ही आस्रव कहा जाता है। कारण यह कि 'आस्रवति अनेन कम इति आस्रवः' इस निरुक्तिके अनुसार जिसके द्वारा तालाबमें पानीको लानेवाले स्रोतके समान आत्मामें कर्म आता है उसे आस्रव कहा जाता है। यह आस्रव शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें पुण्य कर्मका जो आस्रव होता है उसे शुभ और पाप कर्मका जो आस्रव होता है उसे अशुभ आस्रव कहते हैं। यह आस्रव केवल आत्मामें कर्मपरमाणुओंका प्रवेश कराता है ॥७२॥ आगे बन्ध तत्त्वका स्वरूप कहा जाता है कषाय सहित होनेके कारण जोव जो कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण किया करता है उसे बन्ध कहते हैं। वह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है। विवेचन-जिस प्रकार सन्तप्त लोहेके गोलेको पानीमें डालनेपर वह सब ओरसे पानीको ग्रहण किया करता है उसी प्रकार क्रोधादि कषायोंसे सन्तप्त हा जीव जो सब ओरसे कर्मके योग्य युद्गलोंको ग्रहण किया करता है उसे बन्ध कहा जाता है। वह चार प्रकारका है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें ज्ञानावरणादि रूप स्वभावको लिये हुए जो कर्म पुद्गलोंका जीवके साथ सम्बन्ध होता है, इसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। ज्ञानावरणादि रूप एन पुद्गलोंके मूल व उत्तर प्रकृतियोंके रूपमें आत्माके साथ सम्बद्ध रहनेके उत्कृष्ट और जघन्य कालको स्थितिबन्ध कहा जाता है। उन्हीं कमपुलोंमें जो होनाधिक फलदान शक्तिका प्रादुर्भाव होता है, जिसे आगामी कालमें यथासमय भोगा जाता है, उसका नाम अनुभागबन्ध है। इन्हीं कर्मपरमाणुओंका आत्माके प्रदेशोंके साथ जो एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध होता है तथा समयानुसार विशिष्ट विपाकसे रहित वेदन किया जाता है, यह प्रदेशबन्ध कहलाता है। उक्त चार प्रकारके बन्धमें प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगके आश्रयसे तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायके आश्रयसे हुआ करते हैं ।।८०॥ १. अ वानेन प्रकारेण भूतेनात्मा । २. अ बंधोच्यते । ३. ज पयतिट्ठितिअणु । ४. अ भेउ उ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [८१उक्तो बन्ध इदानीं संवरमाह आसवनिरोह संवर समिईगुत्ताइएहि नायव्यो । कमाणणुवायाणं भावत्थो होइ एयस्स' ॥८॥ आश्रवनिरोधः संवरः-आश्रव उक्त एव, तनिरोधः कात्स्न्येन निश्चयतः सर्वसंवर उच्यते । शेषो व्यवहारसंवर इति । स समिति-गुप्त्यादिभितिव्यः। उक्तं च-स समितिगुप्तिधर्मानप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः इत्यादि । कर्मणामनुपादानं भावार्थो भवत्येतस्य संवरस्य । इह यावानेवांशः कर्मणामनुपादानहेतुधर्मादीनां तावानेवेह गद्यते, शेषस्य तपस्येवान्तर्भावात तस्य च प्रागुपात्तक्षयनिमित्तत्वादिति । अत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रत्वादारम्भस्येति ॥८॥ उक्तः संवरः, सांप्रतं निर्जरोच्यते तवसा उ निज्जरा इह निज्जरणं खवणनासमेगहा। कम्माभावापायणमिह निज्जरमो जिना विति ॥८२॥ तपसा तु निर्जरा इह-अनशनादिभेदभिन्नं तपः तेन प्रागुपातस्य कर्मणो निर्जरा भवति । निर्जराशब्दार्थमेवाह-निर्जरणं क्षपणं नाश इत्येकार्थाः पर्यायशब्दा इति । नानादेशजविनेयगणप्रतिपत्त्यर्थ अज्ञातज्ञापनार्थ चैतेषामुपादानमदुष्टमेव । अस्या एव भावार्थमाह-कर्माभावापादानमिह निर्जरा जिना ब्रुवते प्रकटार्थमेतदिति ॥८२॥ अब बन्धके अनन्तर संवरके स्वरूपका निर्देश किया जाता है समिति और गुप्ति आदिके द्वारा जो पूर्वोक्त आस्रवका निरोध होता है उसे संवर जानना चाहिए। नवीन कर्मोंका ग्रहण न होना संवर है, यह उसका भावार्थ है। विवेचन-जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र (९-२) में निर्देश किया गया है, वह संवर-कर्मागमनका निरोध-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रके आश्रयसे होता है। वह सर्वसंवर और व्यवहारसंवरके भेदसे दो प्रकारका है। कर्मागमके कारणभूत मिथ्यात्वादि परिणामोंका पूर्णतया अभाव हो जानेपर जो संवर होता है उसे निश्चयसे सर्वसंवर कहा जाता है, जो बादर व सूक्ष्म योगके निरोधके समय होता है। शेष-चारियप्रतिपत्तिके प्रारम्भसे लेकर शेष समयमें जो संवर होता है वह-व्यवहारसंवर कहलाता है। यहां इतना विशेष समझना चाहिए कि उक्त गुप्ति-समिति आदिका जितना अंश कर्मोंके न आनेका कारण होता है उतने मात्र अंशको हो संवरके रूपमें ग्रहण करना चाहिए, शेष अंशको-जो कर्मनिर्जराका कारण होतपके अन्तर्गत जानना चाहिए ॥८१|| __ अब निर्जराका निरूपण करते हैं__ तपसे निर्जरा होती है। निर्जरण, क्षपण और नाश ये समानार्थक शब्द हैं। तदनुसार कर्मों के अभावके आपादनको यहां जिन भगवान् निर्जरा कहते हैं। विवेचन-इच्छाके निरोधको तप कहा जाता है। वह बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें अनशन व ऊनोदर आदिको बाह्य तप तथा प्रायश्चित्त व विनय आदिको अभ्यन्तर तप जानना चाहिए। इस तपके द्वारा जो पूर्वसंचित कर्मका देशतः क्षय-आत्मासे पृथग्भाव होता है उसे निर्जरा कहा गया है ।।८२।। १. अहोइ कायस्स । २. सर्वसंवरोच्यते । ३.भ हेतोर्धम्मादीनां । ४. अणियर सो जिणा । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८४] सम्यग्दृष्टिस्वरूपम् उक्ता निर्जरा, इदानों मोक्षमाह नीसेसकम्मविगमो मुक्खो जीवस्स सुद्धरूवस्स'। साई अपज्जवसाणं अव्वाबाहं अवत्थाणं ॥८३।। निःशेषकर्मविगमो मोक्षः, कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्ष इति वचनात् जीवस्य शुद्धस्वरूपस्य कर्मसंयोगापादितरूपरहितस्येत्यर्थः। साद्यपर्यवसानं अव्याबाधं ज्याबाधावजितमवस्थानमवस्थितिः जीवस्यासौ मोक्ष इति । साद्यपर्यवसानता चेह व्यक्त्यपेक्षया, न तु सामान्येन । मोक्षस्यापि अनादिमत्त्वमिति ॥८॥ उक्तं तत्त्वम्, अधुना प्रकृतं योजयति___ एयमिह सद्दहंतो सम्मट्ठिी तओ अ नियमेण । भवनिव्वेयगुणाओ पसमाइगुणासओ होइ ।।८४॥ एतदनन्तरोदितं जीवाजीवादि, इह लोके प्रवचने वा, श्रद्दधानः एवमेवेदमित्यान्तःकरणतया प्रतिपद्यमानः सम्यग्दृष्टिरभिधीयते अविपरीतदर्शनादिति, तकश्च नियमेनासाववश्यंतया, भन्दनिर्वेदगुणात् संसारनिर्वेदगुणेन, प्रशमादिगुणाश्रयो भवति उक्तलक्षणानां प्रशमादिगुणानामाधारी भवति । भवति चेत्थंज्ञाने संसारनिर्वेदगुणः, तस्माच्च प्रशमादयः । प्रतीतमेतदिति ॥८४॥ अस्यैव व्यतिरेकमाह आगे अन्तिम मोक्ष तत्त्वका स्वरूप कहा जाता है समस्त कर्मों के विगम-आत्मासे पृथक् हो जाने का नाम मोक्ष है जो शुद्धरूप-कर्मके संयोगसे प्राप्त विभाव भावसे रहित स्वाभाविक स्वरूपसे युक्त-जीवके सादि-अपर्यवसन निर्बाध अवस्थानरूप है। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जीवके साथ जबतक कर्मका सम्बन्ध रहता है तबतक उसका स्वाभाविक स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता, वह समस्त ज्ञानावरणादि कर्मों के आत्मासे पथक हो जानेपर ही प्रादुर्भूत होता है। यह जो जीवके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति है उसीका नाम मोक्ष है। यह मोक्षरूप जोवको अवस्था सादि होकर अनन्तकाल तक रहनेवाली है तथा बाधक कर्मोके हट जानेसे वह निराकुल निर्बाध सुखसे सम्पन्न है ॥८३।। इस प्रसंगप्राप्त जोवादि तत्वोंका व्याख्यान करके अब सम्यग्दृष्टिके स्वरूपका निर्देश करते हुए उसके गुणोंको प्रकट किया जाता है इस प्रकारसे यहां श्रद्धान करता हुआ-प्रवचनमें प्रतिपादित जीवादि तत्त्व 'इसी प्रकार हैं, अन्यथा नहीं हैं। इस प्रकार निर्मल अन्तःकरणसे श्रद्धान करनेवाला-जीव सम्यग्दृष्टि होता है। वह संसारसे होनेवाली विरक्तिरूप गुणसे नियमतः पूर्वोक्त (५३-६०) प्रशमादि गुणोंका आश्रय (भाजन ) होता है ।।८४|| आगे इससे विपरीत अवस्थामें क्या स्थिति होती है, इसे स्पष्ट किया जाता है ३. अ अतोऽग्रे 'जीवस्यासी मोक्ष'पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । १. अ अद्धरूवस्स । २. असोइ। ४. अप्रकृते । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः विवरीय सहाणे मिच्छाभावाओ नत्थि केइ गुणा । अभिनिवेस उ कयाइ होइ सम्मत्तहेऊ वि ॥ ८५ ॥ विपरीतश्रद्धाने उक्तलक्षणानां जीवादिपदार्थानामन्यथा श्रद्धाने । मिथ्याभावान्न सन्ति केचन गुणाः, सर्वत्रैव विपर्ययादिति भावः । विपरीतश्रद्धानेऽप्यनभिनिवेशस्तु । एवमेवैतदित्यनध्ययसायस्तु कदाचित्कस्मिश्चित्काले यद्वा कदाचित् न नियमेनैव भवति । सम्यक्त्वहेतुरपि जायते सम्यक्त्वकारणमपि । यथेन्द्र-नागादीनामिति ॥ ८५ ॥ इदं च सम्यक्त्वमतिचाररहितमनुपालनीयमिति अतस्तानाहसम्मत्त सइयारा संका कंखा तहेव वितिमिच्छा । परपासंडपसंसा संथवमाई य नायव्वा || ८६ ॥ [ ८५ - सम्यक्त्वस्य प्राङ्गनिरूपितशब्दार्थस्यातिचारा अतिचरणानि अतिचारा असवनुष्ठान विशेषाः यैः सम्यक्त्वमतिचरति विराधयति वा । ते च शंकादयः । तथा चाह - शंका कांक्षा तथैव विचिकित्सा परपाषण्डप्रशंसा संस्तवादयश्च ज्ञातव्याः | आदिशब्दादनुपबृंहणा स्थिरीकरणादिपरिग्रहः । शंकादीनां स्वरूपं वक्ष्यत्येवेति ॥ ८६ ॥ संसकरणं संका कंखा अन्नन्नदंसणग्गाहो । संतंमि विवितिमिच्छा सिज्झिज्ज न मे अयं अट्ठो ॥८७॥ संशयकरणं शङ्का - भगवदहंत्प्रणीतेषु पदार्थेषु धर्मास्तिकायादिष्वत्यन्त गहनेषु मतिदौर्बल्यात्सम्यगनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः । किमेवं स्यान्नैवमिति । सा पुनद्वभेदा देश सर्वभेदात् । जैसा कि जीवादि तत्त्वोंका स्वरूप कहा गया है, उसके विपरीत श्रद्धान करनेपर मिथ्याभावके कारण कोई भी गुण नहीं होते । किन्तु अनभिनिवेश - विपरीत श्रद्धा के होनेपर भी 'यह इसी प्रकार ही है' ऐसे दुराग्रहरूप अध्यवसायका अभाव - किसी समय या अनियत रूपमें सम्यक्त्वका कारण भी हो जाता है । जैसे - इन्द्र - नागादिकोंके ॥८५॥ आगे सम्यक्त्वके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है शंका, कांक्षा, उसी प्रकार विचिकित्सा, परपाषण्डप्रशंसा और संस्तव इत्यादि उस सम्यक्त्व के अतिचार - उसको मलिनित करनेवाले दोष जानना चाहिए। अतिचारसे अभिप्राय ऐसे असदाचरण विशेषोंका है जिनसे उस सम्यक्त्वकी विराधना होती है। आदि शब्दसे यहां अनुपबृंहण एवं अस्थिरीकरण आदि अन्य अतिचारोंकी भी सूचना की गयी है ॥८६॥ अब आगेकी गाथा द्वारा उक्त अतिचारों में प्रथम तीन अतिचारोंका स्वरूप कहा जाता हैपूर्वोक्त जीवादि तत्त्वोंके विषय में सन्देह करनेका नाम शंका है। भिन्न-भिन्न दर्शनों (मतों) के विषय अभिलाषा रखना, यह कांक्षाका लक्षण है । समोचीन पदार्थके विषय में भी जो 'यह अर्थ मुझे सिद्ध होगा या नहीं' इस प्रकारसे फलके विषय में व्यामोह होता है, इसे विचिकित्सा कहा जाता है। विवेचन - भगवान् जिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट पदार्थों में जो धर्मास्तिकाय आदि अत्यन्त गहन पदार्थ हैं उनके विषय में बुद्धिकी दुर्बलतासे ठीक-ठोक निश्चय न हो सकने के कारण 'क्या यह १. अ संथवमादी । २. अ ' बृंहणास्थि -' इत्यतोऽग्रेऽग्रिमगाथायाष्टीकान्तर्गत 'भगवदर्हतप्रणीते -' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८७] सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा ६१ देशशङ्का देशविषया, यथा किमयमात्माऽसङ्ख्येयप्रदेशात्मकः स्यादथ निःप्रदेशो निरवयवः स्यादिति । सर्वशङ्का पुनः सकलास्तिकाय व्रात एवं किमेवं स्थान्नैवमिति । कांक्षाऽन्योन्यदर्शनग्राहः सुगतादिप्रणीतेषु दर्शनेषु ग्राहोऽभिलाष इति । सा पुनद्वभेदा देश- सर्वभेदात् । देशविषया एकमेव सौगतं दर्शनमाकांक्षति - चित्तजयोऽत्र प्रतिपादितोऽयमेव च प्रधानो मुक्तिहेतुरिति, अतो घटमानकमिदं न दूरापेतमिति । सर्वकांक्षां तु सर्वदर्शनान्येव कांक्षति - अहिंसाप्रतिपादनपराणि सर्वाण्येव कपिल-कणभक्षाक्षपाद - मतानि इह लोके च नात्यन्तक्लेशप्रतिपादनपराणि, अतः शोभनान्येवेति । सत्यपि विचिकित्सा - सिध्येत न मेऽयमर्थं इति । अयमत्र भावार्थ: - विचिकित्सा मतिविभ्रमो युवत्यागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति संमोहः किमस्य महतस्तपः क्लेशायासस्य सिकताकणकवलकल्पस्थ कनकावल्यादेरायत्यां मम फलसंपद्भविष्यति किं वा नेति । उभयथेह क्रियाः फलवत्यो निष्फलाश्च दृश्यन्ते कृषीबलानाम् । न चेयं शङ्कातो न भिद्यते इत्याशङ्कनीयम्, शंका हि सकलासकलपदार्थ भाक्त्वेन द्रव्य-गुणविषया, इयं तु क्रियाविषयैव । तत्त्वतस्तु सर्वं एते प्रायो इसी प्रकार है या वैसा नहीं है' इस प्रकारका जो सन्देह रहता है, इसे शंका कहा जाता है । यह सम्यवत्वको मलिन करनेवाला उसका एक अतिचार है। अतिचार, व्यतिक्रम और स्खलित ये समानार्थक शब्द हैं । अभिप्राय यह है कि विवक्षित व्रतादिसे देशतः स्खलित होना या उसे प्रतिकूल आचरणके द्वारा मलिन करना, इसे अतिचार समझना चाहिए। वह शका देशशंका और सर्वशंकाके भेदसे दो प्रकारकी है । 'क्या यह आत्मा असंख्यात प्रदेशवाला है अथवा प्रदेशोंसे रहित निरवयव है' इस प्रकार उक्त अस्तिकायों में से किसी एकके विषय में सन्देह बना रहना, इसका नाम देशशंका है । सभी अस्तिकायोंके विषय में हो 'क्या इस प्रकार है अथवा वैसा नहीं है' इस प्रकार - जो सन्देह बना रहता है उसे सर्वशंका कहते हैं । बुद्ध आदिके द्वारा प्रणीत दर्शनविषयक अभिलाषाका नाम कांक्षा है | वह देशकांक्षा और सर्वकांक्षाके भेदसे दो प्रकारकी है । इन दर्शनोंमें किसी एक ही बौद्ध आदि दर्शनविषयक जो अभिलाषा होती है वह देशकांक्षा कहलाती है । जैसे-बौद्ध दर्शन में चित्तके जयका प्रतिपादन किया गया है, यहो मुक्तिका प्रमुख कारण है, अत: वह युक्तिसंगत है; इस प्रकार एक बौद्ध दर्शनकी ही अभिलाषा करना । कपिल, कणाद और अक्षपाद आदि महर्षियोंके द्वारा प्रणीत सभी दर्शन अहिंसाका प्रतिपादन करनेवाले हैं तथा उनमें अतिशय क्लेशका भी प्रतिपादन नहीं किया गया है, अतः वे उत्तम हैं; इस प्रकार सभी दर्शन विषयक अभिलाषाको सर्वकांक्षा कहा जाता है । यह उस सम्यक्त्वका दूसरा अतिचार है । यह अर्थ मुझे सिद्ध हो सकता है या नहीं, इस प्रकारसे युक्ति व आगमसे संगत यथार्थ भी पदार्थ के विषय में जो फल की प्राप्तिविषयक बुद्धिभ्रम होता है उसे विचिकित्सा कहते हैं । इस प्रकारकी विचिकित्सा के वशीभूत हुआ प्राणी यह विचार करता है कि बालुकणों के ग्रासके समान महान् तपजनित क्लेश और परिश्रमके जनक जो यह कनकावली आदि तप हैं उनसे भविष्य में क्या मुझे कुछ फलसम्पत्ति प्राप्त होगी या नहीं, कारण यह कि किसानों आदिकी क्रियाएँ सफल और निष्फल दोनों प्रकारकी देखी जाती हैं, इत्यादि । इस प्रकार के बुद्धिभ्रम से उस सम्यग्दर्शनकी विराधना होती है । यह सम्यग्दर्शनका तीसरा अतिचार है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि इस प्रकारके बुद्धिभ्रमको शंकासे भिन्न नहीं कहा जा सकता, अतः उससे इसका पृथक् निर्देश करना उचित नहीं है । इसके समाधानमें यह कहा गया है कि वह शंका के अन्तर्गत नहीं हो सकती । इसका कारण यह है कि १. अ कायव्रतते । २. अ ' सर्वदर्शनान्येव कांक्षति' इत्येतावान् पाठो नास्ति । ३ अ सिद्धित । ४. अ प्रति सम्मो प्रतिपादनपराण्यवाह किमस्य । ५. अ कनकोवल्यो आयात्यां । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [८८मिथ्यात्वमोहनीयोदयतो भवन्तो जीवपरिणामविशेषाः सम्यक्त्वातिचारा उच्यन्ते । न सूक्ष्में क्षिका अत्र कार्येति । अथवा विचिकित्सा विद्वद्जुगुप्सा-विद्वांसः साधवो विदितसंसारस्वभावाः परित्यक्तसर्वसङ्गास्तेषां जुगुप्सा निन्दा । तथाहि-तेऽस्नानात्प्रस्वेदजलक्लिन्नमलिनत्वात् दुर्गन्धवपुषो भवन्ति, तान्निन्दति, को दोषः स्याद्यदि प्राशुकेन वारिणाङ्गप्रक्षालनं कुर्वीरन् भगवन्त इति । इयमपि न कार्या, देहस्यैव परमार्थतोऽशुचित्वादिति ॥८॥ परपाषंडपसंसा सक्काइणमिह वनवाओ उ । तेहिं सह परिचओ जो स संथवो होइ नायव्यो ।।८८|| परपाषण्डानां सर्वज्ञप्रणीतपाषण्डव्यतिरिक्तानां प्रशंसेति समासः, प्रशंसनं प्रशंसा स्तुतिरित्यर्थः । तथा चाह-शाक्यादीनामिह वर्णवादस्तु । शाक्या रक्तभिक्षवः आदिशब्दात्परिव्राजकादिपरिग्रहः। वर्णवादः प्रशंसोच्यते-पुण्यभाज एते सुलब्धमेभिर्मानुजं जन्म दयालव एत इत्यादि। तैः परपाषण्डैरनन्तरोदितेः सह परिचयो यः स संस्तवो भवति ज्ञातव्यः, परपाषण्डसंस्तव इत्यर्थः। संस्तव इह संवादजनितः परिचयः संवसन-भोजनालापादिलक्षणः परिगृह्यते, न स्तवरूपः। तथा च लोके प्रतीत एवं संपूर्वः स्तौतिः परिचय इति “असंस्तुतेषु प्रसभं भयेषु" इत्यादौ इति ॥८॥ शंका जहां समस्त व असमस्त पदार्थोंक आश्रित होनेसे द्रव्य और गुणको विषय करती है वहीं यह विचिकित्सा क्रियाको हो विषय करती है, यह उन दोनोंमें भेद समझना चाहिए। वास्तवमें तो मिथ्यात्व मोहनीयके उदयसे होनेवाले ये सब जीवके परिणाम विशेष सम्यक्त्वके अतिचार कहे जाते हैं, अतः उनके विषयमें इतना सूक्ष्म विचार करना योग्य नहीं है। अथवा विचिकित्साको विद्वज्जुगुप्साके रूप में ग्रहण करना चाहिए। विद्वान्से यहाँ अभिप्राय उन साधुओंका है जो संसारके स्वभावको जानकर समस्त परिग्रहका परित्याग कर चुके हैं, उनकी इस प्रकारसे निन्दा करना कि स्नान न करनेके कारण इनका शरीर पसीनेके पानीसे मलिन व दुर्गन्धको फैलानेवाला है, यदि ये प्रासुक जलसे शरीरको धो लिया करें तो क्या दोष होगा, इत्यादि । यह विद्वज्जुगुप्सा भी चूंकि उस सम्यक्त्वको मलिन करनेवाली है अतः उसका भी परित्याग करना उचित है। वास्तवमें तो शरीर स्वभावतः स्वयं अपवित्र है, उसे स्नानादिके द्वारा बाह्यमें हो कुछ स्वच्छ किया जा सकता है, भीतरी भागमें तो वह मल-मूत्रादि अपवित्र पदार्थोंसे परिपूर्ण हो रहनेवाला है ॥८७॥ आगे उस सम्यग्दर्शनके अन्य दो अतिचारोंका स्वरूप कहा जाता है शाक्य आदिकोंके वर्णवाद ( प्रशंसा ) का नाम परपाषण्डप्रशंसा है। उन्हींके साथ जो परिचय होता है उसे परपाषण्डसंस्तव जानना चाहिए। विवेचन-पाषण्डका अर्थ पापको खण्डित करनेवाला सदाचरण या संयम होता है। इस प्रकारके संयमसे जो सम्पन्न होते हैं उन्हें यथार्थतः साधु समझना चाहिए। इनसे भिन्न अन्य शाक्य (रक्तभिक्षु) व परिव्राजक आदिको परपाषण्ड कहा गया है। उनको जो प्रशंसा की जाती है कि ये बहुत भाग्यशाली हैं, इन्हें सुन्दर मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ है, ये दयालु होते हैं, इसे परपाषण्डप्रशंसा नामक उस सम्यग्दर्शनका चौथा अतिचार जानना चाहिए। इन्हीं परपाषण्डोंके साथ जो एक साथ रहने, भोजन करने व सम्भाषण करने आदिरूप संवादजनित परिचय किया जाता है उसे परपाषण्डसंस्तव कहा जाता है। संस्तवसे यहां उक्त प्रकारके परिचयको ही ग्रहण करना चाहिए, न कि स्तुतिरूप स्तवको। यह उसका पांचवां अतिचार है ।।८८।। १. सवकाईणमिह वन्नवादो उ । २. अ प्रसंसेति प्रसंसा समासः । ३. अ 'एव संपू' इत्यतोऽग्रे 'अधुना शंकादीनामतिचारतामाह' पर्यन्तः पाठस्त्रुटितोऽस्ति । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ९० ] सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा अधुना शंकादीनामतिचारतामाह inte मालिनं जायt चित्तस्स पच्चओ अ जिणे सम्मत्ताणुचिओ खलु इइ अइआरों भवे संका ||८९ ॥ ६३ शङ्कायामुक्तलक्षणायां सत्याम् ? मालिन्यं जायतेऽवबोधश्रद्धाप्रकाशमङ्गीकृत्य ध्यामलत्वं जायते । कस्य ? चित्तस्य । अन्तःकरणस्याप्रत्ययश्च अविश्वासश्च । क्व ? जिनेऽर्हति । जायत इति वर्तते । न ह्याप्ततया प्रतिपन्नवचने संशयसमुद्भवः । सम्यक्त्वानुचितः खलु अयं च भगवत्यप्रत्ययः सम्यक्त्वानुचित एव न हि सम्यक्त्वमालिन्यं तदभावमन्तरेणैव भवति । इत्येवमनेन प्रकारेण । अतिचारो भवति शङ्का, सम्यक्त्वस्येति प्रक्रमाद्गम्यते । अतिचारश्चेह परिणामविशेषान्नयमतभेदेन वा सत्येतस्मिन् तस्य स्खलनमात्रं तदभावो वा ग्राह्यः । तथा चान्यैरप्युक्तम् एकस्मिन्नर्थे संदिग्धे प्रत्ययोऽर्हति हि नष्टः । मिथ्या च दर्शनं तत्स चादिहेतुर्भवगतीनाम् ॥ इति ॥ ८९ ॥ प्रतिपादितं शङ्काया अतिचार त्वम् । अधुना दोषमाह - नाes इमीइ नियमा तत्ताभिनिवेस मो सुकिरिया य । तत्तो अ बंधदोसो तम्हा एयं विवज्जिज्जा ॥ ९० ॥ आगे शंकाको अतिचार क्यों माना गया, इसे स्पष्ट किया जाता है शंकासे चित्तको मलिनता होती है तथा सर्वज्ञ जिनके विषय में अविश्वास भी उत्पन्न होता है | यह सम्यक्त्व के लिए अनुचित हो है । इसी कारण वह शंका सम्यग्दर्शनका अतिचार है । विवेचन - आप्त ( विश्वस्त ) स्वरूपसे जिस वचनको स्वीकार किया गया है उसके विषय में कभी अविश्वास नहीं उत्पन्न होता, और यदि वह उत्पन्न होता है तो विश्वास चला जाता है । इस प्रकार जिनवाणीविषयक सन्देह जिनदेवके विषयमें अविश्वासका सूचक है । वह तत्त्वार्थश्रद्धानरूप उस सम्यक्त्वका विराधक है। इससे चित्त भी मलिन होता है-उसका ज्ञान व श्रद्धारूप प्रकाश धूमिल होता है । कारण यह कि वीतराग सर्वज्ञ जिनके विषय में जबतक अविश्वास उत्पन्न न हो तबतक सम्यक्त्व मलिन हो नहीं सकता। इस कारण सम्यवत्वकी विराधक या उसे मलिन करनेवाली होनेसे शंकाको उस सम्यक्त्वका अतिचार कहा गया है । सम्यक्त्वके होते हुए परिणाम विशेषसे अथवा नयविषयक मतभेदके कारण उससे स्खलित होना अथवा उसका अभाव होना, इसे अतिचार समझना चाहिए । अन्योंके द्वारा भी यह कहा गया है कि यदि एक भी अर्थ विषय में सन्देह उत्पन्न होता है तो अरहन्तके विषय में विश्वास नष्ट हो जाता है और दर्शन मिथ्या हो जाता है । अरहन्त विषयक वह अविश्वास चतुर्गतिस्वरूप संसार में भ्रमण करनेका प्रमुख हेतु होता है ॥ ८९ ॥ आगे उस शंकाको दोषरूप भी दिखलाते हैं इस शंका के रहनेपर नियमतः तत्त्वविषयक अभिनिवेश – सम्यक्त्वपरिणाम — और उत्तम क्रिया (- सदाचरण ) भी नष्ट होती है। इस कारण उससे बन्धका दोष - कर्मबन्धका अपराधहोता है, इसलिए उसे छोड़ना चाहिए । १. भ संपाकमालिन्नं जायए । २. अ खलु इति इय आरो । ३. तत्ताहिणिवेस । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ९१ - नइत्यनया शंकया हेतुभूतया, अस्यां वा सत्याम् । नियमान्नियमेनावश्यंतया । तवाभिनिवेशः सम्यक्त्वाध्यवसायः, श्रद्धाभावादनुभवसिद्धमेतत् । मो इति पूरणार्थो निपातः । सुक्रिया च शोभना चात्यन्तोपयोगप्रधाना क्रिया च । नश्यति श्रद्धाभावात् । एतदपि अनुभवसिद्धमेव । ततश्च तस्माच्च तत्त्वाभिनिवेश-सुक्रियानाशात् । बन्धदोषः कर्मबन्धापराधः । यस्मादेवं तस्मादेनां शङ्कां विवर्जयेत् । ततश्च मुमुक्षुणा व्यपगतशङ्केन सता मतिदौर्बल्यात्संशयास्पदमपि जिनवचनं सत्यमेव प्रतिपत्तव्यं, सर्वज्ञाभिहितत्वात्तदन्यपदार्थवदिति ॥९०॥ उक्तः पारलौकिको दोषः, अधुनैहलौकिकमाह ૬૪ लोग विदिट्ठो संकाए चेव दारुणो दोसो । अविसयविसयाए खलु पेयायी उदाहरणं ।। ९१ ।। इह लोकेऽप्यास्तां तावत्परलोक इति । दृष्ट उपलब्धः । शङ्काया एव सकाशाद् । दारुणो दोषः रौद्रोऽपराधः । किमविशेषणशङ्कायाः । नेत्याह- अविषयविषयायाः खलु । खलुशब्दोऽव- धारणे । अविषयविषयाया एव । अविषयो नाम यत्र शङ्का न कार्यैव । पेयापेयावुदाहरणं । तच्चेदम्-जहा एगंमि नगरे एगस्स सेट्ठिस्स दोन्नि पुत्ता लेहसालाए पढन्ति । सिहा' माया मा कोइ मुच्छिही अप्पसागारिए मइमेहाकारि ओसहपेयं देहि । तत्थ परिभुंजमाणो चेव एगो चितेइ णूणं-मच्छियाउ एयाउ । तस्स य संकाउ पुणो पुणो वमंतस्स विवेचन - सर्वज्ञ व वीतराग जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वके विषय में सन्देहके रहनेपर तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व और अशुभके परिहारपूर्वक शुभ प्रवृत्ति रूप चारित्र भी नष्ट होता है। साथ ही सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञानकी यथार्थता भी नष्ट होनेवाली है । इस प्रकार शंका के द्वारा कर्मबन्धके रोधक रत्नत्रयके अभाव में मिथ्यात्व व अविरति आदिके निमित्तसे कर्मका बन्ध अवश्यम्भावी है । यह जो बड़ा अपराध उस शंकाके द्वारा होनेवाला है वह उस शंकाका दोष है । इस प्रकार शंकाको अनर्थ परम्पराका मूल कारण जानकर उसका परित्याग करना श्रेयस्कर है । छद्मस्थ होने से यदि बुद्धिको मन्दतासे किसी सूक्ष्म तत्त्वका निर्धारण नहीं होता है तो यह समझकर कि सर्वज्ञ वीतराग प्रभु अन्यथा व्याख्यान नहीं कर सकते, अत: उनके द्वारा उपदिष्ट वस्तुस्वरूप यथार्थ है, इस प्रकार सन्देहसे रहित होकर उसपर विश्वास करना योग्य है ||१०|| इस प्रकार शंकासे होनेवाले पारलौकिक दोष की सूचना करके अब उसके द्वारा होनेवाले इस लोक सम्बन्धी अहितको दिखलाते हैं— विषय -- शंकाके अयोग्य विषयको विषय करनेवाली उस शंकाके ही आश्रयसे इस लोकमें भी भयानक दोष देखा गया है। इसके लिए पेय-अपेयका उदाहरण प्रसिद्ध है । विवेचन - जो विषय शंकाके योग्य हो उसमें यदि शंका रहती है तो उचित है । किन्तु जो विषय शंकाके योग्य नहीं है या जहां शंका नहीं रहनी चाहिए वहाँ भी यदि वह शंका बनी रहती है तो वह हानिकर ही होती है। इसकी पुष्टि में यहाँ पेय-अपेय का उदाहरण दिया गया है । यथाकिसी एक नगर में एक सेठ रहता था । उसकी पत्नी एक पुत्रको जन्म देकर मरणको प्राप्त हो गयो । तब उसने दूसरा विवाह कर लिया । इस दूसरी पत्नीके भी एक पुत्र हुआ । उसके वे दोनों पुत्र लेखशाला में पढ़ते थे । भोजन के समय पाठशालासे आकर वे दोनों घरके भीतर प्रविष्ट १. अ पेयापया । २. अ शंकया । ३. अ ' खलु' नास्ति । ४. अ पेयापायावुदाहरणं । ५. असणेहयाए एसि । ६. अमुच्छिही अत्थसोगारिए या मए मेहाकरि । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वविचारप्ररूपणा वग्गुलीवाही जाओ, मओ य, इहलोगभोगाण अणाभागी जाओ। अवरो न माया अहियं चितेइ त्ति णिस्तंको पियइ, णिरुएण य गहिओ विज्जाकलाकलावो, इहलोगिय भोगाण य, आभागी जाउ त्ति । उपनयस्तु कृत एवेति ॥११॥ सांप्रतं कांक्षादिष्वतिचारत्वमाह एवं कंखाईसु वि अइयारत्तं तहेव दोषा य। जोइज्जा नाए पुण पत्तेयं चेव वुच्छामि ॥९२॥ एवं कांक्षादिष्वपि यथा शङ्कायामतिचारत्वम् । तथैव दोषांश्च योजयेत् । यतः कांक्षायामपि मालिन्यं जायते चित्तस्य, अप्रत्ययश्च जिने, भगवता प्रतिषिद्धत्वात् । एवं विचिकित्सादिष्वपि भावनोयम् । तस्मान्न कर्तव्याः कांक्षादयः । ज्ञातानि पुनः प्रत्येकमेव कांक्षादिषु वक्ष्येऽभिधास्य इति ॥१२॥ रायामच्चो विज्जासाहगसड्ढगसुया य चाणक्को । सोरट्ठसावओ' खलु नाया कंखाइसु हवन्ति ॥९३॥ ___तत्र कांक्षायां राजामात्यो-राजकुमारामच्चो य अस्सेणावहरियाँ अडविं पविट्टा छुहाहुए। उस समय माताने उन्हें मासकणोंसे स्फोटित-उड़दके दानोंसे छोंका गया-एक पेय दिया। तब उनमेंसे जिसको माता मर चुकी थो वह उसे लेकर विचार करता है कि ये निश्चित ही मक्खियां हैं। इस शंकाके साथ पान करनेपर उसे बार-बार वान्ति हुई व वग्गुलि व्याधि (रोगविशेष ) हो गयी, जिससे वह मरणको प्राप्त होकर इस लोक सम्बन्धी भोगोंसे वंचित हो गया। इसके विपरीत दूसरा पुत्र विचार करता है कि माता कभी अहितको नहीं सोच सकती, उत्तम पेय समझता हुआ निःशंक होकर पी लेता है। ऐसा करनेपर वह नोरोग रहकर विद्याकलापको ग्रहण करता हुआ इस लोक सम्बन्धी भोगोंका भोक्ता होता है ॥९१।। ____ आगे शंकाके समान अन्य कांक्षा आदिको भी अतिचार व दोषरूप जानना चाहिए, यह निर्देश किया जाता है इसी प्रकार-शंकाके समान-कांक्षा आदि अन्य अतिचारोंके विषय में भी अतिचारता और उसो प्रकारसे दोषोंको भो योजना करनी चाहिए। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार शंकासे चितको मलिनता और भगवान जिनेन्द्र के विषय में अविश्वासका भाव होनेसे वह सम्यक्त्वके अतिचाररूप है उसी प्रकार उस चित्तको मलिनता और जिन भगवान्पर अविश्वासके जनक होनेसे उन कांक्षा आदिकोंको भी सम्यक्त्वके अतिचाररूप जानना चाहिए। गाथाके अन्तमें ग्रन्थकार उनसे प्रत्येकके उदाहरण कहने का निर्देश करते हैं ॥१२॥ तदनुसार आगे क्रमसे उन कांक्षा आदिके उदाहरणोंका निर्देश किया जाता है पूर्वोक्त कांक्षा आदिकों के विषयमें ये उदाहरण हैं-राजा व अमात्य, विद्यासाधक श्रावक व श्रावकसुता, चाणक्य और सौराष्ट्रश्रावक । विवेचन-गाथोक्त इन उदाहरणोंमें प्रथम राजा और अमात्यका उदाहरण कांक्षासे सम्बद्ध है। उसकी कथा इस प्रकार है-किसी समय राजा और उसका कुमार अमात्य घोड़ेके १. मु दोषाश्च । २. अषु विधास्य इति । ३. अदृसदृ [ड्ढ] गो। ४. अ राजाकुमारामयो यः आसेणा । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [९३ - परट्टा वणफलाणि' खायंति । पडिणियत्ताणं राया चितेइ लड्डुय-पूयलगमाईणि सव्वाणि खामि । आगया दोवि जणा। रन्ना सूयारा भणिया जं लोए पयरइ तं सव्वं सव्वे रंधेह। तेहिं रंधित्ता उवटवियं रन्नो सो राया पेच्छरायेदिटुंतं करेइ कप्पडियावलिएहि धाडिज्जंति एवं मिट्ठस्स अवगासे होइ ति कणग कुंडगाईणि डेराणि वि खइयाणि । तेहिं सूलेण मओ। अमच्चेण पुण वमण-विरेयणाणि कयाणि सो भोगाणं आभागी जाओ ति। विचिकित्सायां विद्यासाधकसावगो नंदीसरवरगमणं दिव्वगंधाणं देवसंसग्गेण मित्तस्स पुच्छणं विज्जाए पदाणं साहणं मसाणे चउपायगसिक्कयं हेढा इंगालखायरोयस्तलो अट्ठसयवारा परिजवित्ता पादो सिक्कगस्स च्छिज्जइ। एवं बोओ तइओ य च्छिज्जइ । चउत्थे छिन्ने आगासेण वच्चइ। तेण सा विज्जा गहिया । कालच उद्दसिरति साहेइ मसाणे। चोरो य णयरारक्खिएहिं पारद्धो (पेल्लिओ) परिभममाणो तत्थेव अइगओ। ताहे वेढेउं मसाणं ठिया पभाए घिप्पिही । द्वारा अपहृत होकर जंगलके भीतर प्रविष्ट हुए । वहां दोनों भूखसे व्याकुल होकर वनके फलोंको खाते हैं। वापस आते समय राजा सोचता है कि लड्डू और पूयलग आदि सब खाऊँगा । दोनोंके घर आ जानेपर राजाने रसोइयोंको बुलाकर कहा कि जो-जो लोकमें उत्तम भोज्य पदार्थ प्रचलित हैं उन सबको रांधो । आज्ञानुसार उन रसोइयोंने सब राँधकर राजाके सामने उपस्थित कर दिया। तब राजा कांक्षाके वश होकर..................(?) इस प्रकारसे मीठेके लिए अवकाश प्राप्त होगा, ऐसा विचार करते हुए कणग व कुंडग आदि तथा उंडेरों (?) को भी खा डाला। उनसे उत्पन्न हुई शूलको वेदनासे व्यथित होकर वह मर गया। परन्तु अमात्यने कांक्षासे रहित होकर वमन व विरेचन करते हुए उन दूषित फलों आदिको उदरसे बाहर निकाल दिया। इससे वह जीवित रहकर भोगोंका भोक्ता हुआ। इस उदाहरणमें उक्त प्रकारसे कांक्षा और अनाकांक्षाके फलको प्रगट किया गया है। ___ तीसरे अतिचारमें विचिकित्सा और विद्वज्जुगुप्साके रूपमें दो विकल्प हैं। यहां दोनोंके ही पृथक्-पृथक् उदाहरण दिये गये हैं। उनमें प्रथम उदाहरणभूत विद्यासाधक श्रावकका कथानक इस प्रकार है-एक श्रावक नन्दीश्वर द्वीपको गया था। उसके शरीरका दिव्य गन्ध हो गया। इस दिव्य गन्धको देखकर उसके एक मित्र श्रावकने उससे पूछा। उत्तरमें उसने यथार्थ स्थिति कहकर उसे वह विद्या दे दो व उसके साधनेको विधिको समझाते हुए कहा कि इसे श्मशानमें जाकर सिद्ध करना पड़ता है । इसके लिए वहाँ चार पादोंका सींका बांधकर व उसके नीचे खदिर वृक्षको लकड़ीकी अग्नि और शूल आदि अस्त्रोंको रखकर उस सीकेपर चढ़ जाना चाहिए। पश्चात् उसके ऊपर स्थित रहकर एक सौ आठ बार मन्त्रको जपते हुए उसके एक-एक पादको काटना चाहिए। इस क्रमसे पहले, दूसरे और तीसरे पादके कट जानेपर जब चौथा पाद काटा जायेगा तब आकाशसे गमन होता है-आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार कहनेपर मित्र श्रावकने विद्याको ग्रहण कर लिया। फिर वह उसे सिद्ध करनेके लिए कृष्णचतुर्दशीके दिन श्मशान में जाकर निर्दिष्ट विधिके अनुसार उसके सिद्ध करने में प्रवृत्त हुआ। इस १. मु वणफलादिणि । २. अतं सव्वे सव्वं । ३. अ उववियं वि ए रन्नो। ४. अ राया पेत्थ (च्छ) णयदिदंतं करेइ कप्पडियावलेहि। ५. अ विरेयणाणि सो। ६. गंधाणं संथमेणं । ७. अ साहणं समाहेण चउ । ८. अ (पल्लिओ)' नास्ति । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वा तिचारप्ररूपणा ६७ सो' य भमंतो तं विज्जासाहगं पेच्छइ । तेण पुच्छिओ सो भइ विज्जं साहेमि । चोरो भणइ केण ते दिण्णो । सो भणंइ सावगेणं । चोरेण भणियं इमं दव्वं गिण्हाहि, विज्जं देहि । सो सड्ढो विचिकित्स सिझेज्जा न व इत्ति । तेणं दिन्ना । चोरो चितेइ सावगो को डियावि पावं नेच्छइ, सच्चमेयं । सो साहिउमारद्धो,' सिद्धा । इयरो सलोद्दो ( सलुत्तो ) गहिउँ । तेण आगासगएण लोगो भेसिओ, ताहे सो मुक्को । दोवि सावगा जायति ॥ विद्वज्जुगुप्सायां श्रावक सुताउदाहरणे एगो सेट्ठी पढवंते वल्लइ ( तल्लइ ) । तस्तै धूया - विवाहे कहवि साहुणो आगया । सा पिउणा भणिया-पुत्तिए, पडिलाभेहि साहुणो । सा is साहिया पडिलाइ । साहूण जल्लागंधो तीए आघातो । सा चितेइ - अहो अणवज्जो भट्टारगेहि धम्मो सिओ, जइ पुण फासुएण पाणीएण व्हाएज्जा को दोसो होज्जा । सा तस्स स अणालो अडिक्वता कालं काऊणं रायगिहे गणियापाढे ' समुत्पन्ना । गब्भगया - ९३ ] प्रकार सींका बांधने आदिको समस्त क्रियाको करके वह यह निश्चय नहीं कर सका कि विद्या . सिद्ध होगी भी या नहीं। इस बीच एक चोर, जिसका पीछा नगरके आरक्षक ( कोतवाल आदि ) कर रहें थे, भागता हुआ वहाँ आया । नगरारक्षकोंने श्मशानको घेरकर वहां स्थित होते हुए विचार किया कि इसे सवेरे गिरफ्तार कर लेंगे। उधर चोरने वहां घूमते हुए उस श्रावकको अस्थिरचित्त देखकर उससे पूछा कि यह क्या कर रहे हो। इसपर उत्तरमें श्रावकने कहा कि मैं विद्याको सिद्ध कर रहा हूँ । तब चोरके पुनः यह पूछनेपर कि इसे तुम्हें किसने दिया है श्रावकने कहा कि इसे मेरे एक मित्र श्रावकने दिया है । इसपर चोर बोला कि इस द्रव्य ( हार) को ले लो और विद्या मुझे दे दो । तब 'वह मुझे सिद्ध होगो या नहीं' इस प्रकार बुद्धिभ्रमसे युक्त श्रावक उसे वह विद्या दे दी । चोरने विचार किया कि श्रावक क्रीड़ामें भी पापकी इच्छा नहीं करता है, यह सत्य है । इस प्रकार स्थिरचित्त होकर चोरने उसे सिद्ध करना प्रारम्भ कर दिया । वह उसे सिद्ध भी हो गयी । उधर प्रातःकालके हो जानेपर नगरारक्षकोंने चोरके द्वारा दिये गये उस द्रव्यके साथ श्रावकको चोर समझकर गिरफ्तार कर लिया, तब उस विद्याके प्रभावसे आकाशमें गये हुए उस चोरने नगरारक्षकों को डराया धमकाया । इस प्रकार उससे भयभीत होकर उन्होंने उसे छोड़ दिया । तब दोनों ही श्रावक हो गये । इस प्रकार विचिकित्सा के कारण श्रावक जिस विद्यासिद्ध नहीं कर सका वह उस चोरको विचिकित्सा के अभाव में अनायास ही सिद्ध हो गयी । द्वितीय विकल्पभूत विद्वज्जुगुप्सा के उदाहरण में श्रावकसुताका कथानक इस प्रकार हैएक सेठ प्रत्यन्त ( अनार्यदेश ) में रहता था । उसकी पुत्रीके विवाह के समय कहीं से साधु आये । तब पिता पुत्री से भोजन आदिके द्वारा उनका स्वागत करने के लिए कहा । तदनुसार वह वस्त्राभूषणादिसे सुसज्जित होकर उनके स्वागत के लिए उद्यत हुई। उस समय उसे साधुओं के पसीने मलिन शरीरसे फैलती हुई दुर्गन्ध सुँघने में आयी । तब उसने विचार किया कि भगवान्ने निर्मल धर्मका उपदेश दिया है । यदि ये प्रासुक जलसे स्नान कर लिया करें तो कौनसा दोष होगा। इस प्रकार उसने साधुओं की निन्दा की । तत्पश्चात् वह साधुनिन्दाजनित उस अपराधकी आलोचना व प्रतिक्रमण न करके मरणको प्राप्त होती हुई राजगृह नगर के भीतर एक वेश्याके पेटमें आयो । १. अ पमाए घहि सो । २. अ केण इ दिण्णा । ३. मुसो विचिकिच्छइ । ४. अ सोहेउमारद्वा । ५. अ इयरो सलुत्तो गहिओ । ६ अ पन्ते तस्सइ तस्स । ७ अ लोइय पडिक्कंता । ८. भ गणियापोढे | Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [९३ - चेव अरइंजणेइ, गब्मसाडणेहि' य ण सडइ। जाया समाणी उज्जि[ज्झि]या। सा गंधेण तं वनं वासेइ । सेणिओ तेण पदेसेण णिगच्छइ सामिणो वंदिउ। सो खंधावारो तीए गंधं ण सहइ । रन्ना पुच्छयं कि एयं । तेहिं कहियं दारियाए गंधो । गंतूणं दिट्ठा भणइ एस एवं पढम पुच्छ त्ति । गओ वंदित्ता पुच्छइ। तओ भगवया तीए उढाणपारियावणियया कहिया। तओ राया भणइ -कहिं एसा पच्चणुभविस्सइ सुहं वा दुवखं वा। सामी भणइ-एएण कालेण वेइयं, इयाणि सा तव चेव भज्जा भविस्सइ अग्गमाहसी। अट्ट संवच्छराणि जाय तुम्भं रममाणस्स पट्रीएहं सो लीलं काहिह, तंजाणिज्जसूर्वविता गओ। सा य अवगयगंधा आहीरेण गहिया, संवड्ढिया जोवणत्था जाया । कोमुइचारं मायाए समं आगया। अभओ सेणिओ य पच्छन्ना कोमुइचारं पेच्छंति । तीए दारियाए अंगफासेण सेणिओ य अजोववन्नो। नाममुदं दसिया। तीऐ बंधइ । अभयस्स कहियं नाममुद्दा हरिया, मग्गाहि। तेण मणुस्सा दारेहि बद्धेहि ठविया । एक्केकं माणुस्सं पलोएऊण णीणिज्जइ। सा दारिया दिट्ठा चोरित्ति गहिया परिणीया य। अन्नया य वस्सोकेण रमंति रायणं राणियाउ, पोत्तेण वाहिति । इयरी पोत्तं दाउं विलग्गा वह गर्भ में स्थित होतो हुई ही अरति ( खेद ) को उत्पन्न कर रही थी। गर्भ गिरानेवालोंके द्वारा प्रयत्न करनेपर भी वह गिरी नहीं । अन्तमें उत्पन्न होनेके साथ ही उसका परित्याग कर दिया गया। तब वह जिस वनमें स्थित थो उसे दुर्गन्धसे व्याप्त कर रही थी। एक समय राजा श्रेणिक भगवान महावीरको वन्दनाके लिए जाता हुआ वहाँसे निकला। उसका सैन्य समूह उसकी दुर्गन्ध ह सका। तब राजा श्रेणिकने पूछा किय ह दुर्गन्ध कहांसे आ रही है। उत्तरमें सैनिकोंने कहा कि यह महान् दुर्गन्ध एक लड़कीके शरीरसे आ रही है। तब उसने जाकर उस लड़कोको देखा और कहा कि भगवान् महावीरके समक्ष मेरा यही प्रथम प्रश्न रहेगा। तत्पश्चात् श्रेणिकने जाकर भगवान् महावीरकी वन्दना की व उनसे उस दुर्गन्धाके विषयमें प्रश्न किया। उत्तरमें भगवान्ने उसके परितापजनक कर्मबन्धको उत्पत्तिको कथा-पूर्वोक्त मुनिनिन्दाका वृत्त-क दिया। पश्चात् श्रेणिकने पुनः प्रश्न किया कि वह कितने काल तक सुख अथवा दुखका अनुभव करेगी। इसपर महावार स्वामीने कहा कि इतने कालमें उसने अपने उस पूर्वाजित कर्मका फल भोग लिया है। अब वह तुम्हारी पत्नी होकर पटरानी भी होगी। आठ वर्ष तुम्हें रमाते हुए तुम्हारे पृष्ठ भागपर हंसोलियोको (?) करेगी, इससे तुम जान सकोगे कि यह वही है। श्रेणिक महावीर स्वामीको वन्दना कर चला गया। तत्पश्चात् वह दुर्गन्धसे रहित हो गयी। तब उसे एक अहीर ( ग्वाला) ने ग्रहण करके उसका संवर्धन किया। इस प्रकारसे वह यौवन अवस्थाको प्राप्त हो गयी। एक समय वह शरत् पूणिमाके उत्सवको देखने के लिए माताके साथ आयी थी। उस समय अभयकुमार और राजा श्रेणिक छिपकर उस उत्सवको देख रहे थे। उस समय उस लड़कीके शरीरका स्पर्श हो जानेसे श्रेणिक उसके ऊपर आसक हो गया। तब उसने अपने नामसे अंकित अंगूठीको उसके वस्त्रसे बांध दी ओर अभयकुमारसे कहा कि मेरे नामकी अंगूठो खो गयो है, तुम उसको खोज करो। इसपर अभयकुमारने द्वारोंपर मनुष्योंको नियुक्त कर दिया। वे प्रत्येक मनुष्यको देखकर जाने देते थे। उन्हें वह लड़की मुंदरीके साथ दिखी, जिसे चोर समझकर पकड़ लिया। अन्तमें राजा श्रेणिकने उसके साथ विवाह कर लिया।................राजाको १. मु गब्भसाउणेहि। २. अ एसेव । ३. अ तउ भगवती तू उट्ठाणे पारिया वेणिया। ४. अ सा ते च भज्जा। ५. अ पट्ठीए हंसोलीण काहिए तं। ६. अ नासामुदं दसया तिए । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९३ ] सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा रन्ना सरियं मुक्का' य पव्वइया। परपाषण्डप्रशंसायां चाणक्यः। पाडलिपुत्ते चाणक्को, चंदगुत्तेण भिक्खुकाण वित्ती हरिया। ते तस्स धम्मं कहेंति । राया तुस्सई चाणक्कं पलोएइ , ण पसंसइ, तेण न देई। तेहि चाणक्कभज्जा उलग्गिया। तोए सो करणी गाहिउ । तेहि कहिए भणियं सुहासियं । रन्ना तं च अन्नं च दिन्नं। बोयदिवसे चाणक्को भणइ किस ते दिन्नं । राया भणइ तुमहिं पसंसियंति । सो भणइ ण मे पसंसियंति सधारंभपब्धता कहलोयं पत्तियावेति। पच्छाठिउँ केतिया एरिसंत्ति । परपाषंडसंस्तवे सौराष्ट्रश्रावकः। सो दुन्भिक्खे भिक्खुएहि समं पयट्टो भत्तं से देति । अन्नया विसूइयाए मओ। चोवरेण पच्छाइओ अविसुद्धोहिणा पासणं भिक्खुगाणं दिव्वबाहाए आहारदाणं । सावगाणं खिसा। जुगपहाणाण कहणं विराहियगुणो त्ति आलोयणं नमोकारपठणं पडिबोहो केत्तिया एरिसन्ति ॥१३॥ स्मरण हो गया। तब उसने उसे छोड़ दिया। इस प्रकारसे मत होकर उसने दोक्षा स्वीकार कर ली। यह उस मुनिनिन्दाका परिणाम था जो उसे कुछ समय तक दुर्गन्धा होकर कष्ट सहना पड़ा। परपाषण्ड प्रशंसामें चाणक्यका उदाहरण दिया गया है। उसकी कथा इस प्रकार हैलिपुत्र नगरमें चाणक्य नामका विद्वान् ब्राह्मण रहता था। राजा चन्द्रगुप्तने भिक्षओंकी आजीविकाको अपहृत कर लिया था। वे उसे धर्मका उपदेश करते थे। राजा सन्तुष्ट होकर चाणक्यकी ओर देखता था। परन्तु वह उनकी प्रशंसा नहीं करता था। इससे राजा उन्हें कुछ नहीं देता था। तब भिक्षुओंने चाणक्यकी पत्नीकी सेवाशुश्रूषा की..................... उनके द्वारा कहनेपर उसने कहा यह सुभाषित है तब राजाने उसे दिया और दूसरोंकी भी दिया। दूसरे दिन चाणक्यने राजासे पूछा कि उनको क्यों दिया। उत्तरमें राजाने कहा कि तुमने प्रशंसा की थी, इसलिए दिया है। इसपर चाणक्यने कहा कि मैंने प्रशंसा नहीं की। कारण यह कि जो सब प्रकारके आरम्भमें प्रवृत्त हैं वे लोगोंके विश्वासपात्र कैसे हो सकते हैं ? इससे उसे पश्चात्ताप हुआ। ऐसे कितने हैं ? ___ पांचवें पाषण्डसंस्तव अतिचारके विषय में सौराष्ट्र देशके श्रावकका उदाहरण दिया गया है। उसका कथानक इस प्रकार है-वह श्रावक दुभिक्षके समय भिक्षुओंके साथ प्रवृत्त होकर उन्हें भोजन देता था। पश्चात किसी अन्य समयमे उसे विसचिका रोग हो गया. जिससे होकर वह मृत्युको प्राप्त हो गया। तब उसे वस्त्रसे आच्छादित कर दिया गया। उस समय उसने अविशुद्ध (विभंग ) अवधिज्ञानके द्वारा भिक्षुओंको दिव्य ( देवता निर्मित) भोजनका दान, श्रावकोंकी निन्दा तथा युगप्रधान आचार्योंके कथनकी विराधनाको देखा। इससे वह आलोचनापूर्वक नमस्कार मन्त्रका पाठ करता हुआ प्रतिबोधको प्राप्त हुआ। ऐसे जन कितने हैं ? विरले ही होते हैं ।।९३॥ १. अ अन्नाया य वन्भोकेण रमंति रायाणं राणियाउ पुर्णत्ते वाहिये इयरी पुत्तं दाऊं वि गल्ला रन्ना सरीयं मुक्का। २. अत्तस्सइ । ३. अ पुलोयइ । ४. अ इ ति ण देइ । ५. भ भुज्जा उलग्गिया तीए । ६. अ सुहासीयं । ७. अ वीयदिन्नं से चाणक्को भणइ तब्भेहि पसंसीयंति । ८.५ पच्छाविउ केत्तिया । ९. अ दिव्ववाहाए दाणं । १०. अ आभोगणं । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्रावकप्रज्ञप्तिः अन्ने यि अइयारा आइसण सूइया इत्थ । साइंमिअणुववृणमथिरीकरणाइया ते उ ॥ ९४ ॥ 1 [ ९४ = अन्ये ऽपि चातिचारा आदिशब्देन सूचिता अत्र - अत्रेति सम्यक्त्वाधिकारे 'सम्मत्तस्सइयारा' इत्यादिद्वारगाथायामादिशब्देनोल्लिङ्गिता इत्यर्थः । समानधार्मिकानुपबृंहणास्थिरीकरणादयस्ते तु - अनुस्वारो ऽलाक्षणिकः, समानधामिको हि सम्यग्दृष्टेः साधुः साध्वी श्रावकः श्राविका च । एतेषां कुशलमार्गप्रवृत्तानामुपबृंहणा कर्तव्या । धन्यस्त्वं पुण्यभाक्त्वं कर्तव्यमेतद्यद्मवतार - धमिति तद्भाव उपबृंहितव्यः । अनुपबृंहणे ऽतिचारः । एवं सद्धर्मानुष्ठाने विषीदन् धर्म एव स्थिरीकर्तव्यः । अकरणे प्रतिचारः । आदिशब्दात्समानधार्मिक वात्सल्य - तोर्थप्रभावनापरिग्रहः । समानधार्मिकस्य ह्यापद्गतोद्धरणादिना वात्सल्यं कर्तव्यं । तदकरणे ऽतिचारः । एवं स्वशक्त्या धर्मकथादिभिः प्रवचने प्रभावना कार्या । तदकरणे ऽतिचार इति ॥९४॥ आगे पूर्व गाथा ८६ में उपयुक्त 'आदि' शब्दसे सूचित कुछ अन्य अतिचारोंका भी निर्देश किया जाता है 'संथवमाई य नायव्वा' यहाँ ( ८६ ) उपयुक्त आदि शब्दके द्वारा अन्य भी अतिचारोंकी सूचना की गयी है । वे साधर्मिक अनुपबृंहण और साधर्मिक अनुपगूहन आदि हैं । विवेचन --- पूर्व गा. ८६ में शंका आदि पाँच अतिचारोंका निर्देश करके 'आदि' शब्द के द्वारा जिन अन्य अतिचारों की सूचना की गयी है वे साधर्मिक अनुपबृंहण, साधर्मिक अस्थितिकरण, साधर्मिक-अवात्सल्य और अतोर्थप्रभावना आदि हैं । साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ये समान धर्मका आचरण करनेके कारण सम्यग्दृष्टि के लिए सधार्मिक हैं । सम्यग्दृष्टिको श्रेयस्कर मार्ग में प्रवृत्त इन सबकी 'आप धन्य व विशेष पुण्यशाली हैं, आपने जो यह सदनुष्ठान आरम्भ किया है वह स्तुत्य है, उसे पूरा करना ही चाहिए' इत्यादि रूपसे प्रशंसा करके उनके उत्साहको बढ़ाना चाहिए। यह सम्यक्त्व का उपबृंहण नामका एक गुण ( अंग ) है, जिसके आश्रयसे वह पुष्ट होता है | इसके न करनेपर उस सम्यक्त्वको मलिन करनेवाला उसका साधर्मिक अनुपबृंहण नामक अतिचार होता है । जो साधर्मिक समीचीन धर्मके आचरणसे खिन्न है व उसमें प्रमाद करता है उसे सदुपदेश आदिके द्वारा उसमें दृढ़ करना चाहिए। यह सम्यक्त्वका स्थितिकरण नामका एक गुण है, जिससे वह पुष्ट होता है। इसके विपरीत यदि सम्यग्दृष्टि धर्मसे च्युत होते हुए स्वयं अपनेको या अन्यको उसमें स्थिर नहीं करता है तो वह उसके सम्यक्त्वको कलुषित करनेवाला साधर्मिक अस्थिरीकरण नामका एक अतिचार होता है । सम्यग्दृष्टिका यह भी कर्तव्य है कि जिस प्रकार गाय अपने बछड़े से स्वाभाविक प्रेम किया करती है उसी प्रकार वह अपने साधर्मिक जनोंसे निश्छल अनुराग करता हुआ उनकी आपत्ति आदिको यथासम्भव दूर करे। यह सम्यक्त्वका पोषक उसका एक वात्सल्य नामका गुण है । यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसका सम्यक्त्व साधर्मिक- अवात्सल्य नामक अतिचारसे दूषित होता है । सम्यग्दृष्टिके द्वारा जो यथाशक्ति धर्मंकथा आदिके द्वारा तीर्थको - जैन शासनको - प्रसिद्ध किया प्रभावना नामका एक गुण है। उससे सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है । यदि सम्यग्दृष्टि ऐसा नहीं करता है तो उसके सम्यक्त्वको दूषित करनेवाला तार्थ प्रभावना नामका अतिचार होता है ||१४|| 1 जाता है, यह सम्यक्त्वका तीर्थं १. अ य अइणया आईसद्देण । २. अ ह्याद्धरणादिना । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ९७] सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा ७१ तथा चाह नो खलु अप्परिवडिए निच्छयओ मइलिए व समत्ते । होइ तओ परिणामो जत्तो णुववूहणाईया ॥१५॥ न खल्विति नैव । अप्रतिपतितेऽनपगते। निश्चयतो निश्चयनयमतेन मलिनीकृते वा व्यवहारनयमतेन । सम्यक्त्वे उक्तलक्षणे भवति तकः परिणामो जायते भावात्मस्वभावः यतो यस्मात्परिणामादनुपबृंहणादयो भवन्तीति । उक्ताः सम्यक्त्वातिचाराः। एते मुमुक्षुणा वजनीयाः ॥९५॥ किमिति जं साइयारमेयं खिप्पं नो मुक्खसाहगं भणिों । तम्हा मुक्खट्ठी खलु वज्जिज्ज इमे अईयारे ॥९६॥ यद्यस्मात् । सातिचारं सदोषमेतत्सम्यक्त्वं क्षिप्रं शीघ्रम् । न मोक्षसाधकं नापवर्गनिर्वतकम् । भणितं तीर्थकरगणधरैः, निरतिचारस्यैव विशिष्टकर्मक्षयहेतुत्वात् । तस्मात् मोक्षार्थी अपवर्गार्थो खल्विति खलुशब्दोऽवधारणे मोक्षायेंव। वर्जयेन्न कुर्यादेतानति चारान् शङ्कादीनिति ॥ ॥९६॥ आह सुहे परिणामे पइसमयं कम्मखवणओ कह णु । होइ तह संकिलेसो जत्तो एए अईयारा ॥९७।। आगे इसीको स्पष्ट किया जाता है निश्चयसे उस सम्यक्त्वके पतित न होनेपर-तदवस्थ रहते हुए-अथवा अमलिनितदूषित न होनेपर-वह परिणाम नहीं होता है जिसके कि आश्रयसे उक्त अनुपबृहण आदि अचिचार हुआ करते हैं। विवेचन-प्रकृत गाथाको व्याख्यामें यह कहा गया है कि निश्चय नयको अपेक्षा यदि वह सम्यक्त्व पतित नहीं होता है अथवा व्यवहार नयके मतसे यदि वह मलिन किया जाता है तो उस प्रकारका आत्मपरिणाम ही नहीं उत्पन्न होता कि जिससे उपयुक्त अनुपबृहणादि अतिचार सम्भव हो सकें। गाथामें 'निच्छयओ मइलिए' इस पाठमें ग्रन्थकारको सम्भवतः 'अमलिए (ऽमलिए )' ऐसा पाठ अभीष्ट रहा है, ऐसा हमें प्रतीत होता है। तदनुसार उसका यह अभिप्राय निकलता है कि उपर्युक्त अनुपबृहण आदिके आश्रयसे या तो वह सम्यक्त्व पतित हो जाता है या फिर मलिनित होता है, इसीलिए उन्हें भी उस सम्यक्त्वके अतिचार सममना चाहिए ॥१५॥ आगे इन अतिचारोंके छोड़ देनेके लिए प्रेरणा की जाती है अतिचार सहित यह सम्यक्त्व चूंकि शीघ्र ही मोक्षका साधक नहीं ऐसा तीर्थंकर एवं गणधर आदिके द्वारा कहा गया है, इसीलिए मोक्षके अभिलाषी भव्य जीवको इन अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए ॥१६॥ यहाँ शंकाकार कहता है कि शुभ परिणामके होनेपर जब प्रतिसमय कर्मका क्षय होता है तब भला वैसा संक्लेश कैसे हो सकता है कि जिससे ये अतिचार सम्भव हो सकें। १. अ मोक्ख । २. अ मोक्खट्टी। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [९८ एवं सातिचारे सम्यक्त्वे उक्ते सति पर आह-शुभे परिणामे सम्यक्त्वे सति प्रशमसंवेगादिलक्षणे। प्रतिसमयं समयं समयं प्रति । कर्मक्षपणतः विशिष्टकर्मक्षपणात् मिथ्यादृष्टः सकाशात् सम्यग्दृष्टिविशिष्टकमक्षपणक एवेत्युक्तम् । कथं केन प्रकारेण ? नु इति क्षेपे। भवति तथा संक्लेशो जायते चित्तविभ्रमः। यतोय स्मात्संक्लेशादेते शंकादयोऽतिचारा भवन्ति ततश्चानुत्थानमेवैतेषामिति पराभिप्रायः-अत्र गुरुर्भणति ॥९७॥ नाणावरणादुदया तिव्वविवागा उ भंसा तेसिं । सम्मत्त पुग्गलाणं तहासहावाउ किं न भवे ।।९८॥ ज्ञानावरणाधुदयात् । किविशिष्टात ? तीव्रविपाकात, न तु मंदविपाकात्तस्मिन् सत्यपि अतिचारानपपत्तेः, सम्यग्दनिनामपि मन्दविपाकस्य तस्य उदयात. अतस्तोतानुभावादेव। भ्रंशनां स्व-स्वभावच्युतिरूपा । तेषां सम्यक्त्वपुद्गलानाम् । तथास्वभावत्वान्मिथ्यात्वदलिकत्वात् । जायत इति वाक्यशेषः । अतः किं न भवत्यसौ संक्लेशो यत एतेऽतिचारा भवन्त्येवेत्यभिप्रायः । उक्तं च प्रज्ञापनायां कर्मप्रकृतिपदे बन्धचिन्तायाम् कहनं भंते जीवे अट्टकम्मप्पगडीउ बंधइ ? गोयमा, णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंशणावरणिज्ज कम्मं नियच्छइ। दंसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदयेणं दंसणमोहणिज्जं कम्सं नियच्छइ । दसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छइ। मिच्छत्तेणं उदिन्नेणं एवं खलु जीवे अटुकम्पएगडीउ बंधइत्ति ॥९८॥ तत्र विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय यह है कि पूर्व में (गा. ५३-६०) यह स्पष्ट कहा जा चुका है कि सम्यक्त्व यह आत्माका परिणाम है। उसके प्रादुर्भूत होनेपर सम्यग्दृष्टिकी प्रशमसंवेगादिरूप समस्त बाह्य प्रवृत्ति उत्कृष्ट ही होती है। अतः प्रशमादि परिणामस्वरूप उस सम्यक्त्वके होते हुए वैसा संक्लेश हो ही नहीं सकता कि जिसके आश्रयसे वे शंकादि अतिचार सम्भव हो सकें। इतना ही नहीं, उस सम्यक्त्वके प्रभावसे तो मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिके विशिष्ट कर्मक्षय भी होता है। ऐसी स्थितिमें जब वे अतिचार सम्यग्दृष्टिके सम्भव ही नहीं हैं तब उनके परित्यागकी प्रेरणा करना निरर्थक है ॥१७॥ आगे इस शंकाका समाधान किया जाता है तीव्र विपाकवाले ज्ञानावरणादिके उदयसे उन सम्यक्त्वरूप पुद्गलोंकी भ्रंशना होती हैवे अपने स्वभावसे भ्रष्ट हो जाते हैं, क्योंकि वैसा उनका स्वभाव है। अतएव उस प्रकारका संक्लेश क्या नहीं हो सकता है ? अवश्य हो सकता है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि ज्ञानावरणादि कर्मोंका जब तीव्र विपाकसे युक्त उदय होता है तब वे सम्यक्त्वरूप पुद्गल मिथ्यान्वके प्रदेशरूप होनेसे अपने स्वभावसे च्युत हो जाते हैं। अतएव उनसे उक्त अतिचारोंका जनक संक्लेश हो सकता है। हाँ, यह अवश्य है यदि उन ज्ञानावरणादिका उदय मन्द विपाकसे संयुक्त होता है तो उसके होनेपर भी वे सम्यक्त्वपुद्गल अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं, अतः वेसो अवस्थामें सम्यग्दृष्टि जीवोंके भी उन अतिचारोंकी सम्भावना नहीं रहती। परन्तु उनके तीव्र विपाकोदयमें वैसा संक्लेश सम्भव है, अतः उसके आश्रयसे होनेवाले अतिचारोंका परित्याग कराना उचित हो है ।।९८॥ १. अ यस्मा संक्लेशादयो अतिचारा। २. अ उ तंभणो। ३. भ अतोऽग्रे 'सम्यक्त्वपुद्गलानाम् । तथा' पर्यन्तः पाठस्त्रटितोऽस्ति । ४. अ बंधइ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ -१०१] सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा नेगेतेणं चिय जे तदुदयमेया' कुणंति ते मिच्छं । तत्तो हुतिइयारा वज्जेयव्वा पयत्तेणं ॥१९॥ नैकान्तेनैव न सर्वथैव । ये तदुदयभेदा ज्ञानावरणाद्युदयप्रकाराः। कुर्वन्ति तान् सम्यक्त्व. पुद्गलान् मिथ्यात्वं, अपि तु भ्रंशनामात्रमेव । ततस्मात् ज्ञानावरणाद्युदयात् । भवन्त्यतिचाराः शङ्कादयः, ते च वर्जयितव्याः प्रयत्नेनेति ॥१९॥ जे नियमवेयणिज्जस्स उदयओ होन्ति, तह कहं ते । वज्जिजंति इह खलु, सुद्धेणं जीवविरिएणं ॥१०॥ स्यादेतत् ये शङ्कादयो नियमवेदनीयस्य ज्ञानावरणादेरुवयतो भवन्ति । तथा तेन प्रकारेण । कथं पुनस्ते वर्जन्ते। इह प्रक्रमे प्रस्तावे खलुशब्दादन्यत्रापि चारित्रादौ तत्कर्मणो अफलत्वप्रसङ्गात्, इति आशङ्कयाह-शुद्धेन जीववीर्येण कथंचित्प्रादुर्भूतेन प्रशस्तेनात्मपरिणामेनेति ॥१००॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह कत्थइ जीवो बलीओ, कत्थइ कम्माइ हुँति बलियाई । जम्हा जंता सिद्धा, चिट्ठति भवंमि वि अणंता ॥१०॥ www wwwwwww आगे उसमें और भी कुछ विशेषता प्रकट की जाती है पूर्वोक्त ज्ञानावरणादिके जो उदयभेद हैं वे उन सम्यक्त्वपुद्गलोंको सर्वथा मिथ्यात्वरूप नहीं करते हैं-सम्यक्त्व स्वभावसे च्युत होनेरूप केवल भ्रंशना मात्र वे करते हैं। इसलिए उनके निमित्तसे वे अतिचार ही होते हैं-सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता। अतः प्रयत्नपूर्वक उन अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए ॥१९॥ इसपर उपस्थित हुई शंकाको प्रकट कर उसका समाधान किया जाता है जो वे शंकादि अतिचार नियमसे अनुभव करने योग्य उन ज्ञानावरणादि कर्मोंके उदयसे होते हैं उन्हें कैसे छोड़ा जा सकता है ? नहीं छोड़ा जा सकता है। इस शंकाके समाधानमें कहा जा रहा है कि उन्हें शुद्ध जीवके सामर्थ्यसे छोड़ा जा सकता है। - विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय है कि जब उन ज्ञानावरणादि कर्मोंके उदयजन्य फलको अवश्य ही भोगना पड़ता है तब उनके उदयसे होनेवाले उन अतिचारोंको कैसे छोड़ा जा सकता है ? नहीं छोड़ा जा सकता है-उन्हें सहना ही पड़ेगा। और यदि बिना अनुभव किये उन्हें छोड़ा जा सकता है तो इस प्रकारसे चारित्र आदिको दूषित करनेवाले कर्मके भी निष्फल होनेका प्रसंग दुनिवार होगा। तब वैसी स्थितिमें उनके परित्यागका यह उपदेश निरर्थक सिद्ध होता है। इस शंकाके समाधानमें यहां यह कहा गया है कि किसी प्रकारसे उत्पन्न हुए जीवके प्रशस्त परिणामसे उन्हें बिना फलानुभवनके भी छोड़ा जा सकता है ॥१००॥ आगे इसीको स्पष्ट किया जाता है यदि कहींपर जीव बलवान् होता है तो कहींपर कर्म भी बलवान् हुआ करते हैं। यही कारण है जो अनन्त जीव मुक्तिको प्राप्त हो चुके हैं और अनन्त जीव संसारमें ही स्थित हैं। १. अ तदुभयभेया। २. अ ए। ३. अ होतइयारा । ४. अ सर्वार्थेव ये तदुभयभेदज्ञाना। ५. अ कहं तेहं. उ । ६. अरुद्भवतो। १० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१०२ क्वचिज्जीवो बली स्ववीयतः क्लिष्टकर्माभिभवेन सम्यग्दर्शनाद्यवाप्त्या अनन्तानां सिद्धत्वश्रवणात् । क्वचित्कर्माणि भवन्ति बलवन्ति यस्मादेवं वीर्यवन्तोऽपि' ततोऽनन्तगुणाः कर्मानुभावतः संसार एव तिष्ठन्ति प्राणिन इति । तथा चाह-यस्मादनन्ताः सिद्धास्तिष्ठन्ति । भवेऽप्यनन्ता इति ॥१०१॥ एतदेव प्रकटयति अच्चंतदारुणाई कम्माइं खवित्तु जीवविरिएणं । सिद्धिमणंता सत्ता पत्ता जिणवयणजणिएणं ॥१०२॥ अत्यन्तदारुणानि क्लिष्टविपाकानि । कर्माणि ज्ञानावरणादीनि । क्षपयित्वा जीववीर्येण प्रलयं नीत्वा शुभात्मपरिणामेन । सिद्धि मुक्तिम् । अनन्ताः सत्त्वाः प्राप्ताः जिनवचनजनितेन जीववीर्येण । इह वैराग्यहेतुः सर्वमेव वचनं जिनवचनमुच्यत इति ॥१०२।। तत्तो गंतगुणा खल कम्मेण विणिज्जिआ इह अडति । सारीरमाणसाणं दुक्खाणं पारमलहंता ॥१०३॥ ततः सिद्धिमुपगतेभ्यः सकाशादनन्तगणा एव कर्मणा विनिर्जिताः सन्त इह संसारेऽटन्ति, यस्मादनादिमतापि कालेनैकस्य निगोदस्यानन्तभागः सिद्धः, असङ्खयेयाश्च निगोदा इति । विवेचन-अभिप्राय यह है कि जीवोंमें बहतसे इतने बलवान होते हैं कि वे बाधक कर्मों को नष्ट करके प्राप्त हुए सम्यग्दर्शनादि गुणोंके प्रभावसे मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे अनन्ते जीव हैं जिनका वृत्तान्त शास्त्रोंमें सुना जाता है। इसके विपरीत अनन्ते जीव ऐसे भी हैं जो अपनेसे बलिष्ठ उन कर्मोंसे अभिभत होकर संसारमें ही परिभ्रमण कर रहे हैं। ऐसे संसारमें परिभ्रमण करनेवाले जीव उन सिद्धिको प्राप्त हुए जीवोंसे अनन्त गुणे हैं ।।१०१।। आगे इसे और भी स्पष्ट करते हुए उसी जीववीर्यको दिखलाते हैं जिन भगवान्के वचनसे-परमागमके प्रसादसे-उत्पन्न जीवके सामर्थ्यसे-अपने निर्मल आत्मपरिणामके आश्रयसे-क्लेशजनक भयानक विपाकसे युक्त कर्मोका क्षय करके अनन्त जीव सिद्धि ( मुक्ति) को प्राप्त हो चुके हैं। यहां वैराग्यके कारणभूत सभी वचनको जिनवचन समझना चाहिए ॥१०२॥ आगे कर्मको भी बलिष्ठताको दिखलाते हैं ऊपर निर्दिष्ट उन मुक्तिप्राप्त जीवोंसे अनन्तगणे ऐसे भी जीव हैं जो कमसे जीते जाकरउसके वशीभूत होकर-शारीरिक और मानसिक दुःखोंके पारको न पाकर यहां संसारमें हो परिभ्रमण कर रहे हैं। विवेचन-यहां कर्मको बलवत्ताको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि जितने जीव अपनी आत्मशक्तिको प्रकट करके उसके आश्रयसे मुक्तिको प्राप्त हो चुके हैं उनसे भी अनन्तगुणे जीव दुनिवार उन ज्ञानावरणादि कर्मोसे अभिभूत होकर चतुर्गतिस्वरूप संसार में परिभ्रमण करते हुए ज्वर व कोढ़ आदि रोग जनित अपरिमित शारीरिक कष्टोंको तथा इष्टवियोग व अनिष्टसंयोग आदि जनित मानसिक कष्टोंको भी सह रहे हैं। आगममें कहा गया है कि एक ही निगोदशरीरमें जितने जीव अवस्थित होते हैं उनके अनन्तवें भाग ही अनादि कालसे अब तक सिद्ध हुए हैं। फिर ऐसे निगोदशरीर तो असंख्यात हैं जिनमें रहनेवाले अनन्तानन्त जीव अनन्त काल में १. अ वोर्यवतोपि । २. अ निगोदस्यानंतर्भावः सिद्धो असं । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०५] प्रथमाणुव्रतस्वरूपम् कथमटन्तीत्यत्राह-शारीरमानसानां दुःखानां पारमलभमानाः। तत्र शारीराणि ज्वरकुष्ठादीनि, मानसानीष्टवियोगादीनि ॥१०३॥' उपसंहरन्नाह तम्हा निच्चसईए बहुमाणेणं च अहिगयगुणमि । पडिवक्खदुगंच्छाए परिणइ आलोयणेणं च ॥१०४॥ यस्मादेवं तस्मानित्यस्मृत्या सदा अविस्मरणेन । बहुमानेन च भावप्रतिबन्धेन च। अधिकृतगुणे सम्यक्त्वादौ । तथा प्रतिपक्षजुगुप्सया मिथ्यात्वाद्युद्वेगेन । परिणत्यालोचनेन च तेषामेव मिथ्यात्वादीनां दारुणफला एते इति विपाकालोचनेन चेति ॥१०४॥ तीत्थंकरभत्तीए सुसाहुजणपज्जुवासणाएं य । उत्तरगुणसद्धाए अपमाओ होइ कायव्वो ॥१०॥ तथा तीर्थकरभवत्या परमगुरुविनयेन । सुसाधुजनपर्युपासनया च भावसाधुसेवनया। तथोत्तरगुणश्रद्धया च सम्यक्त्वे सत्यणुव्रताभिलाषेण, तेषु सत्सु महावताभिलाषेणेति भावः। एवमेतेन प्रकारेणाप्रमादो भवति कर्तव्य एवमप्रमादवानियमवेदनीयस्यापि कर्मणोऽपनयति शक्तिमित्येष शुद्धस्य जीववीर्यस्य करणे उपाय इति ॥१०५॥ भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं । इसे कर्मकी ही बलवत्ता समझना चाहिए। इस प्रकार कहीं जीवकी बलवत्ता और कहीं कर्मकी बलवत्ताका विचार करनेपर उपयुक्त शंकाका समाधान हो जाता है ।।१०३।। अब आगेको दो गाथाओं द्वारा इसका उपसंहार किया जाता है इसीलिए-उस संसारपरिभ्रमणसे छुटकारा पानेके लिए-अधिकारप्राप्त उन सम्यक्त्व आदि गुणोंके विषयमें सदा स्मरण रखने, उनके प्रति आदरका भाव रखने, उनके प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व आदिकी ओरसे उद्विग्न रहने और उनके (मिथ्यात्व आदिके) परिणाम-दुःखोत्पादकताका विचार करनेसे प्रमादको दूर करना चाहिए ॥१०४।। इसके अतिरिक्त तीर्थकरकी भक्ति-कल्याणकारो जिनेन्द्र व सद्गुरु आदिके गुणोंमें अनुराग, उत्तम साधुजनोंकी उपासना ओर उत्तर गुणोंकी श्रद्धासे भो प्रमादको दूर करना चाहिए। विवेचन-यह पूर्व में (१००) कहा जा चुका है कि जीववीर्यसे-जीवको आत्मशक्तिके द्वारा-नियमसे अनुभवके योग्य भी कर्मके विपाकको क्षोण किया जा सकता है। वह आत्मशक्ति किस प्रकारसे प्राप्त की जा सकती है, इसे स्पष्ट करते हुए यहां कहा गया है कि मोक्षके उपायभूत सम्यक्त्व आदि गणोंका स्मरण उनके प्रति विनयका व्यवहार. मिथ्यात्व आदि संसारपरिभ्रमणके कारणोंसे उद्वेग, उनके दुष्परिणामका विचार, वीतराग जिनेन्द्र आदि परमगुरुओंके गुणोंमें अनुराग, उत्तम साधुजनोंका सेवा, तथा सम्यक्त्वके प्रादुर्भूत हो जानेपर अणुव्रतोंकी अभिलाषा व उनके होनेपर महाव्रतोंकी अभिलाषा; इत्यादि ये ऐसे उपाय हैं जिनके आश्रयसे प्रमादको दूर कर उस आत्मशक्तिको प्रकट किया जा सकता है ।।१०५।। १.अ ज्वरकुष्ठादीनिति उपसंहरन्नाह। २. अ भावप्रबंधेन। ३. अ सुसाहगुणपज्जवासणाए। ४. अ सत्सु व्रताभि । ५. भ एवमनेन । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १०६ - सांप्रतं द्वादशप्रकारं श्रावकधर्ममुपन्यस्यता यदुक्तं पञ्चाणुव्रतादीनीति तान्यभिधित्सुराह - पंच उ अणुव्वयाई थूलगपाणिवहविरमणाईणि । तत्थ पढमं इमं खलु पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ १०६ ॥ पञ्च त्वणुव्रतानि -तुरेवकारार्थः । पञ्चैव । अणुत्वमेषां सर्वविरतिलक्षणमहाव्रतापेक्षया । तथा चाह-स्थरप्राणवधविरमणादीनि स्थूरक प्राणिप्राणवधविरमणमादिशब्दात्स्थूरमृषावादादिपरिग्रहः । तत्र तेष्वणुव्रतेषु । प्रथममाद्यमिदं खल्विति इदमेव वक्ष्यमाणलक्षणं, शेषाणामस्यैव वस्तुत उत्तरगुणत्वात् । प्रज्ञप्तं वीतरागैः प्ररूपितमर्हद्भिरिति ॥१०६ ॥ थूलपाणि[C] वहस्स [स्स ] विरई, दुविहो अ सो वहो होइ । संकप्पारं भेहि य, वज्जइ संकप्पओ विहिणा || १०७॥ प्राणविरतिः स्थूरा एव स्थूरका द्वोन्द्रियादयस्तेषां प्राणाः शरीरेन्द्रियोच्छ्वा सायुर्बललक्षणास्तेषां वधः जिघांसनं तस्य विरतिनिवृत्तिरित्यर्थः । द्विविधश्चासौ वधो भवति । कथम् ? संकल्पारम्भाभ्याम् । तत्र व्यापादनाभिसंधिः संकल्पः कृष्यादिकस्त्वारम्भः । तत्र वर्जं अब बारह प्रकारके श्रावक धर्मके निरूपणका उपक्रम करते हुए पूर्व में (६) जिन अणुव्रतादिका निर्देश किया गया था उनमें प्रथमतः पांच अणुव्रतोंको प्रकट किया जाता है स्थूल प्राणिवधविरमणको आदि लेकर अणुव्रत पांच ही हैं। उनमें वीतराग जिनके द्वारा प्रथम अणुव्रत इसे कहा गया है जिसका कि स्वरूप आगेकी गाथा में निर्दिष्ट किया जा रहा है । विवेचन -- स्थूल प्राणिवधविरमण, स्थूल मृषावादविरति, स्थूल अदत्तादानविरति, परदारपरित्याग व स्वदारसन्तोष तथा पांचवां इच्छापरिमाण इस प्रकार ये वे पांच अणुव्रत हैं । इन व्रतों में जो 'अणु' यह विशेषण दिया गया है वह सर्वविरतिरूप महाव्रतोंकी अपेक्षासे दिया गया है । उसका अभिप्राय यह है कि महाव्रतोंमे जिस प्रकारसे प्राणिवधादिरूप पांच पापोंका परित्याग सर्वथा - मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदनासे - किया जाता है उस प्रकार - प्रकृत अणुव्रतोंमें उनका सर्वथा परित्याग नहीं किया जाता, किन्तु देशतः ही उनका त्याग किया जाता है । कारण यह कि आरम्भादि गृहकार्यों को करते हुए गृहस्थके उनका पूर्ण रूपसे त्याग करना शक्य नहीं है, वह तो स्थूल रूपमें ही उनका परित्याग कर सकता है ॥ १०६ ॥ जैसा कि पूर्व गाथामें संकेत किया गया है, अब आगेको गाथा द्वारा उस प्रथम अणुव्रतका स्वरूप कहा जाता है स्थूल प्राणियों के वध से विरत होनेका नाम स्थूलप्राणिवधविरति अणुव्रत है । वह वध संकल्प और आरम्भके भेदसे दो प्रकारका है । उसमें प्रकृत प्रथम अणुव्रतका धारक श्रावक आगमोक्त विधिके अनुसार संकल्पसे ही उस वधका परित्याग करता है । विवेचन-स्थूल नामकर्मके उदयसे जिनका शरीर स्थूल ( प्रतिघात सहित ) होता है उन्हें स्थूल और सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे जिनका शरीर सूक्ष्म ( प्रतिघात रहित ) होता है उन्हें सूक्ष्म कहा जाता है । प्रकृतमें स्थूल प्राणियोंसे अभिप्राय द्वीन्द्रियादि जीवोंका है। उनके शरीर, इन्द्रिय, उच्छ्वास, आयु और बल प्राणोंके विघातका परित्याग करना, इसे स्थूल प्राणवधविरति कहते हैं । यह उन पांच अणुव्रतों में प्रथम है। प्रथम अणुव्रती श्रावक उस वधका परित्याग संकल्पसे ही १. अ 'स्थूरप्राणवध' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम' प्राणवधू' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ प्राणिवेध्यस्य । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०९] देशविरतिपरिणामविषये शंका-समाधानम् ७७ यति संकल्पतः परिहरति असौ श्रावकः प्राणवधं' संकल्पेन, न त्वारम्भतोऽपि, तत्र नियमात् प्रवृत्तेः। विधिना प्रवचनोक्तेन वर्जयति, न तु यथाकथंचिदिति ॥१०७॥ स चायं विधिः ___ उवउत्तो गुरुमूले संविग्गो इत्तरं व इयरं वा। अणुदियहमणसरंतो पालेइ विसुद्ध परिणामो ॥१०८॥ उपयुक्तोऽन्तःकरणेन समाहितः। गुरुमूले आचार्यसन्निधौ। संविग्नो मोक्षसुखाभिलाषी न त रिद्धिकामः। इत्वरं चातुर्मासादिकालावधिना। इतरता यावत्कथिकमेव । प्राणवधं वर्जयतीति वर्तते । एवं वर्जयित्वानुदिवसमनुस्मरन्, स्मृतिमूलो धर्म इति कृत्वा । पालयति विशुद्धपरिणामः, न पुनस्तत्र चेतसापि प्रवतंत इति ॥१०८॥ अत्राह देसविरइपरिणामे सइ किं गुरुणा फलस्सभावाओ। उभयपलिमंथदोसो निरत्थओ मोहलिंगं तु ॥१०९॥ ___ इह धावको यदाणुव्रतं प्रतिपद्यते तदास्य देशविरतिपरिणामः स्याद्वा न वा ? किं चात उभयथापि दोषः। तमेवाह । देशविरतिपरिणामे सति । स्वत एव तथाविधाणुव्रतरूपाध्यवसाये सति कि गुरुणा। किमाचार्येण यत्संनिधौ तद्गृह्यते । कुतः ? फलस्याभावात्तत्संनिधावपि । प्रतिपत्तः स एव फललाभः, स च स्वत एव संजात इत्यफलोगुरुमार्गणा। किं च उभयपलिमन्यकरता है । निरन्तर आरम्भमें प्रवृत्त रहनेवाला वह गृहस्थ श्रावक आरम्भसे उसका परित्याग नहीं कर सकता है। प्राणिविघातका जो अभिप्राय रहता है उसका नाम संकल्प है। आरम्भसे अभिप्राय खेती आदि कार्योंका है। इस प्रकार गृहमें स्थित रहते हुए श्रावक उस आरम्भको नहीं छोड़ सकता है, अतः उसके आरम्भजनित हिंसाका होना अनिवार्य है। हां, यह अवश्य है कि आरम्भ कार्यको करते हुए भी वह उसे सावधानीके साथ करता है, तथा निरर्थक आरम्भसे भी बचता है । पर संकल्पपूर्वक वह कभी प्राणिविघात नहीं करता- इस प्रकारसे उसका वह स्थूल प्राणवधविरति अणुव्रत सुरक्षित रहता है ॥१०७।। अब जिस विधिके साथ व्रतको स्वीकार किया जाता है उस आगमोक्त विधिका निर्देश किया जाता है व्रतका इच्छुक श्रावक मोक्षसुखकी इच्छासे गुरुके पादमूलमें उपयोगसे युक्त ( सावधान ) होकर नियत काल-चातुर्मास आदि के लिए अथवा जीवन पर्यन्तके लिए स्वीकृत व्रतका प्रतिदिन स्मरण करता हुआ पालन करता है ॥१०८। यहां शंका व्रतके इच्छुक श्रावकके देशविरति परिणामके होनेपर गुरुसे क्या प्रयोजन है ? कुछ भो नहीं, क्योंकि उसका कुछ फल नहीं है। इसके अतिरिक्त गुरु और शिष्य दोनोंके ही उस व्यर्थ व्यापारका दोष भी होता है, जो निरर्थक व मोहका हेतु है। विवेचन-यहां शंकाकारका कहना है कि इस प्रथम अणुव्रतके इच्छुक श्रावकके उस देशविरतिके ग्रहणका परिणाम है या नहीं है। यदि है तो फिर आचार्यके समीपमें उसके ग्रहण करनेका क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं, क्योंकि वेसे परिणामके होनेपर गुरुको समीपताके बिना भी वह उसका पालन करनेवाला ही है। इससे गुरुका व्रतको ग्रहण करना और शिष्यका गुरुके १. अ प्राणिवधं । २. अ प्रवर्तत इत्यताह । ३. अ सति । ४. अ 'चात' नास्ति । ५. अ भावात्सन्निधावपि प्रतिपत्तु स एव संज्ञान इत्यफला। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रज्ञप्तिः [ ११० - दोषः तथाविधाणुव्रतरूपाध्यवसाये सत्येव गुरुसंनिधौ तत्प्रतिपत्त्यभ्युपगमे उभयोराचार्यशिष्योर्मुधाव्यापारदोषः । स च निरर्थको मोहलिंग एव न हि अमूढस्य प्रयोजनमन्तरेण प्रवृत्तिरिति ॥ १०९ ॥ द्वितीयं विकल्पमुररीकृत्याह - ७८ दुहवि' मुसावाओ तयभावे पालणस्स वि अभावो । न य परिणामेण विणा इच्छिज्जइ पालणं समए ॥ ११० ॥ यदि न देशविरतिपरिणाम एव तर्हि द्वयोरपि प्रतिपत्तप्रतिपादकयोः शिष्याचार्ययोः । मृषावादः शिष्यस्यासदभ्युपगमाद्गुरोश्चासदभिधानादिति । कि च तदभावे देशविरतिपरिणामस्याभावे । पालनस्यापि व्रतसंरक्षणस्याप्यभावः । एतदेव स्पष्टयन्ति न च नैव । परिणामेनान्तरोदितेन । विना इष्यतेऽभ्युपगम्यते । पालनं संरक्षणं, व्रतस्थेति प्रक्रमाद् गम्यते । समये सिद्धान्ते, परमार्थेन तस्यैव व्रतत्वादिति ॥११०॥ एवं पराभिप्रायमाशङ्कय पक्षद्वयेऽप्यदोष इत्यावेदयन्नाह - समीपमें उसे ग्रहण करना, इस प्रकारकी वह दोनोंकी प्रवृत्ति निरर्थक सिद्ध होनेके साथ अज्ञानताकी भी सूचक है, क्योंकि कोई भी विचारशील व्यक्ति प्रयोजनके बिना किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है ॥१०९॥ आगे शंकाकार दूसरे पक्ष में भी दोषको दिखलाता है वह कहता है कि यदि स्वीकृत देशविरतिके पालनका उसका परिणाम नहीं है तो शिष्य और गुरु दोनोंके ही असत्यभाषणका प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि उस व्रतके पालनके परिणामके अभाव में उसका पालन करना सम्भव नहीं है । आगम में भी परिणामके बिना व्रतका पालन स्वीकार नहीं किया गया है । विवेचन - व्रत के इच्छुक श्रावकके उसके पालनका परिणाम है या नहीं, उन दो विकल्पोंमें से प्रथम विकल्प में गुरुको समोपताको शंकाकार निरर्थक बता चुका है । अब दूसरे विकल्पमें भी दोषको दिखलाते हुए वह कहता है कि यदि व्रतके पालनका परिणाम नहीं है तो गुरुके समीप में व्रत ग्रहण करनेपर उन दोनोंके असत्यवादका प्रसंग प्राप्त होता है । कारण यह कि उस देशविरति व्रत परिणामके विना ही जब शिष्य उसे ग्रहण कर रहा है तब स्पष्ट हो उसका वह आचरण असत्यता से परिपूर्ण है । साथ ही व्रतपालनका परिणाम न होनेपर भी गुरु जो उसे व्रत दे रहा है, यह उसका भी प्रकटमें असत्य आचरण है। इसके अतिरिक्त जब शिष्यके उस व्रत पालनका परिणाम ही नहीं है तब वह उसका पालन भी क्यों करेगा ? नहीं करेगा । आगम में भी परिणामके बिना व्रतका ग्रहण करना व कराना स्वीकार नहीं किया गया। इस प्रकार व्रतको ग्रहण करनेवाले श्रावकके चाहे उसके पालनका परिणाम हो भी और चाहे वह न भी हो, दोनों ही अवस्था में गुरुको समीपता निरर्थक सिद्ध होती है । इस प्रकारसे शंकाकारने गुरुके समीप व्रत ग्रहणकी निरर्थकताको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है ॥ ११० ॥ अब शंकाकारके द्वारा उभय पक्षमें दिये गये दोषोंका निराकरण करते हुए गुरुकी समीपताका प्रयोजन बतलाते हैं १. अ दोहवि । २. अ ण परिं । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ - ११३ ] स्थूलप्राणातिपातप्रत्याख्याने शंका-समाधानम् संते विय परिणामे गुरुमूलपवज्जणंमि एस गुणो। दढया आणाकरणं कम्मखओवसमवुड्ढी य ॥१११॥ सत्यपि च परिणाम देशविरतिरूपे। गुरुमूलप्रतिपादने आचार्यसन्निधौ प्रतिपत्तिकरणे । एष गुण एषोऽभ्युच्चयः । यदुत दृढता तस्मिन्नेव गुणे दाढयं । तथाज्ञाकरणं अहंदाज्ञासंपादनम्, यतस्तस्यैष उपदेशो गुरुसन्निधौ व्रतग्रहणं कार्यमिति । तथा कर्मक्षयोपशमवृद्धिश्च तथाकरणे दाढििसंपादनशुभपरिणामतः अधिकतरक्षयोपशमोपत्तेरिति ॥१११॥ इय अहिए फलभावे न होइ उभयपलिमंथदोसो उ । तयभावम्मि वि दुन्हवि न मुसावाओवि गुणभावा ॥११२॥ इय एवमधिके फलभावे पूर्वावस्थातः अभ्यधिकतरायां फलसत्तायाम्, न भवति न जायते। उभयपलिमन्थदोषः शिष्याचार्ययोर्नुधाव्यापारदोष इत्यर्थः । एवं परिहृतः प्रथमो विकल्पः। द्वितीयमधिकृत्याह-तदभावेऽपि देशविरतिपरिणामाभावेऽपि । द्वयोरपि प्रत्याख्यात-प्रत्याख्यापयित्रोर्गुरु-शिष्ययोः। न मृषावादोऽपि प्राक्चोदितः । कुतो गुणभावाद्गुणतंभवादिति ॥११२।। गुणभावमेवाह तग्गहणउ च्चिय तओ जायइ कालेण असठभावस्स । इयरस्स न देयं चिय सुद्धो छलिओ वि जइ असढो ॥११३॥ शिष्यके देशविरतिके पालनका परिणाम होनेपर भी गुरुके समीपमें उसे स्वीकार करनेपर यह गुण ( लाभ ) है-ऐसा होनेपर उक्त व्रतके परिपालनमें दृढ़ता होती है, साथ ही उससे जिनाज्ञाका भी पालन हो जाता है। कारण यह कि 'गुरुके समीपमें ही व्रतको स्वीकार करना चाहिए' ऐसी जिनागमकी आज्ञा है। इसके अतिरिक्त दृढ़तापूर्वक व्रतके पालन करने और उस जिनाज्ञाका सम्पादन करनेसे कर्मके क्षयोपशममें वृद्धि भी होती है ॥११॥ इस प्रकार गुरुके समीपमें व्रतके ग्रहणके लाभको दिखलाकर आगे शंकाकारके द्वारा निर्दिष्ट गुरु व शिष्य दोनोंके उस व्यापारको निरर्थकता व असत्यभाषण दोषोंका निराकरण किया जाता है ___ इस प्रकार गुरुके समीपमें व्रतके ग्रहणसे अधिकतर फलके सद्भावमें गुरु व शिष्य दोनोंके उस व्यापारको निरर्थकताका वह दोष प्रकृतमें सम्भव नहीं है। व्रतपरिपालनपरिणामके न होनेपर जो दूसरे पक्षमें दोनोंके लिए असत्यवादका दोष प्रकट किया गया था वह भी सम्भव नहीं है। कारण यह कि गरुके समोपमें व्रतके ग्रहणसे गणको ही सम्भावना विशेष है, इसीलिए दोनोंके उस कार्यको असत्यतापूर्ण नहीं कहा जा सकता ।।११२॥ आगे वह गुण कौन-सा है, इसे ही स्पष्ट किया जाता है यदि व्रतको ग्रहण करनेवाला श्रावक शठता ( धूर्तता ) से रहित है तो विधिपूर्वक गुरुके समीपमें उसके ग्रहणसे ही समय पाकर उसके उस स्वीकृत व्रतके पालनका वह परिणाम भी हो सकता है। इतरको-शठतासे युक्त धूर्त व्यक्तिको व्रतका देना अवश्य योग्य नहीं है। पर यदि कोई धूर्त प्रत्याख्यान करानेवाले सरल हृदय साधुको धोखा देता है तो भी वह साधु शठतासे रहित होनेके कारण शद्ध ही है-उसे व्रतके देने में कोई दोष नहीं है। १. मु. दृढया । २. अ दोहवि । ३. अMपाध्याव्यार । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [११४ तद्ग्रहणत एव विधिना गुरुसन्निधौ व्रतग्रहणादेव । तको जायते कालेन असौ देशविरतिपरिणामो भवति कालेन तत् गुरुसन्निधिकारणत्वादित्यर्थः। किविशिष्टस्य ? अशठभावस्य श्राद्धस्य सत्वस्य । शठविषयं दोषमाशङ्कयाह-इतरस्य शठस्य' न देयमेव-व्रतम्, अस्थानदाने भगवदाशातनाप्रसङ्गात् । तदज्ञानविषयं दोषमाशङ्कयाह-शुद्धः छलितोऽपि यतिरशठः छद्मस्थप्रत्यपेक्षणयाँ कृतयत्नो मायाविना कथंचिद्वयंसितोऽपि विप्रतारितोऽप्याजवः साधुरदोषवानेव, आज्ञानतिक्रमादिति ॥११३॥ अपरस्त्वाह थलगपाणाइवायं पच्चक्खंतस्स कह न इयरंमि । होइणमइ जइस्स वि तिविहेण तिदंडविरयस्स ॥११४॥ स्थूरकप्राणातिपातं द्वीन्द्रियादिप्राणजिघांसनम् । प्रत्याचक्षाणस्य तद्विषयां निवृत्ति कार. यतः । कथं नेतरस्मिन् कथं न सूक्ष्मप्राणातिपाते। भवत्यनुमतिर्यतेर्भवत्येवेत्यभिप्रायः। किं. विशिष्टस्य यतेस्त्रिविधेन त्रिदण्डविरतस्य मनसा वाचा कायेन सावधं प्रति कृत-कारितानुमति विवेचन-इन सबका अभिप्राय यह है कि आचार्यके समीपमें विधिपूर्वक व्रतके ग्रहण करने पर उसका परिपालन दृढ़ताके साथ होता है। साथ ही जिनागमका जो यह विधान है कि गुरुकी साक्षीमें व्रतको ग्रहण करना चाहिए, उसका अनुसरण करनेसे जिनदेवके प्रति श्रद्धाभाव भी प्रगट होता है। इस सरल परिणतिके कारण बाधक कर्मका कुछ विशेष क्षयोपशम भी होता है। यदि कदाचित् व्रतको स्वीकार करनेवालेका उसके पालनका परिणाम भी न हो तो भी यदि वह सरलहृदय है तो गुरुकी समीपतामें ग्रहण करनेसे कभी उसका परिणाम भी उसके पालनका हो सकता है। हां, यदि वह धर्त है और गरुको उसकी धर्तताका पता लग जाता है तो निश्चित ही उसे व्रत नहीं ग्रहण कराना चाहिए, अन्यथा जिनकी आशातना प्रसंग दुनिवार होगा। पर यदि सरल हृदय साधुको उसकी धूर्तताका पता नहीं चलता है तो व्रतके ग्रहण करानेमें वह विशुद्ध परिणामवाला होनेके कारण दोषका भागी नहीं होता। इस प्रकार गुरुके समीपमें व्रतके ग्रहणसे इतने लाभके होनेपर गुरु व शिष्यको इस प्रक्रियाको न तो व्यर्थ ठहराया जा सकता है और न उनके इस विशुद्ध आचरणमें असत्यवादका भी प्रसंग दिया जा सकता है ॥१११-१३।।. इस प्रसंगमें अन्य कोई शंका करता है जो यति तीन प्रकारसे त्रिदण्डसे विरत है-मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनसे पापका परित्याग कर चुका है-वह जब किसीको स्थूल प्राणियोंके प्राणविघातका प्रत्याख्यान कराता है तब उसकी अनुमति इतरमें-स्थूल प्राणियोंसे भिन्न सूक्ष्म प्राणियोंके विघातमें-कैसे अनुमति न होगी? विवेचन-जो महाव्रती मुनि मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे स्वयं समस्त सावध कर्मका परित्याग कर चुका है वह यदि किसीको स्थूल प्राणियोंके विघातका व्रत ग्रहण कराता है तो उससे यह सिद्ध होता है कि उसकी सूक्ष्म प्राणियों के विघातविषयक अनुमति है । अन्यथा वह स्थूलोंके साथ सूक्ष्म प्राणियोंकी भी हिंसाका परित्याग क्यों नहीं कराता। १. भइतरशठस्य । २. अ प्रसंगात् विषमाशंक्याह । ३. यतिरशब्दः छद्मस्थ्यप्रपेक्षणया। ४. अहोयणमतो जइस्सा तिविहेण । ५. अभवत्यनुमतिर्भवत्ये। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११५ ] स्थूलप्राणातिपातप्रत्याख्याने शंका-समाधानम् ८१ विरतस्य । तथा चान्यत्रापि निषिद्ध एव यतेरेवं जातीयोऽर्थः । यत उक्तम्- 'माणुमती केरिसा तुम्हे ति ॥११४॥ अत्रे गुरुराह - afaate हो चि विहीर नो सुयविसुद्धभावस्स । गाहावसु अचोरग्गहण - मोअणा इत्थ नायं तु । ११५ ॥ अविधिना भवत्येव अणुव्रतग्रहणकाले सम्यगनाख्याय संसारासारताख्यापनपुरःसरं साधुधमं प्रमादतोऽणुव्रतानि यच्छतो भवत्येवानुमतिः । विधिना पुनः साधुधमंकथनपुरःसरेण । नेति न भवत्यनुमतिः । किविशिष्टस्य ? श्रुतविशुद्धभावस्य तत्त्वज्ञानान्मध्यस्थस्येत्यर्थः । अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तमाह - गृहपतिसुत चोरग्रहण-मोचना अत्र ज्ञातमिहे उदाहरणमित्यर्थः । तच्चेदम् वसंतउरं नगरं जियसत्तू राया, धारिणी देवी, दणट्ठातिसएग (?) परितुट्ठो से भत्ता । इस प्रकार सूक्ष्म प्राणियोंकी हिंसाविषयक अनुमति के होनेपर उसका महाव्रत भंग होता है । यह interest अभिप्राय है ॥ ११४ ॥ आगे इस शंकाका समाधान किया जाता है यदि स्थूल प्राणियोंके घातका प्रत्याख्यान करानेवाला वह यति आगमोक्त विधिके बिना उसे उसका प्रत्याख्यान कराता है तो निश्चित ही उसकी सूक्ष्म प्राणियोंके घातमें अनुमति होती है । पर श्रुतसे विशुद्ध अन्तःकरणवाला वह यदि विधिपूर्वक ही उसे उसका प्रत्याख्यान कराता है तो सूक्ष्म प्राणियों के घातमें उसकी अनुमति नहीं हो सकती । यहाँ चोरके रूपमें पकड़े गये गृहपति के पुत्रोंके ग्रहण और मोचनका उदाहरण है । विवेचन - प्रत्याख्यान करानेकी सामान्य विधि यह है कि जो आत्महितैषी व्रतको ग्रहण करना चाहता है उसे आचार्य प्रथमतः संसारको असारताको दिखलाकर साधुधर्मका उपदेश दे । इसपर यदि व्रतग्रहणका इच्छुक श्रावक साधुधर्मके ग्रहण में अपनी असमर्थताको प्रकट करता है तो फिर उस स्थिति में उसे अणुव्रतोंका उपदेश देकर प्रथम अणुव्रतको ग्रहण कराते हुए स्थू प्राणियों की हिंसाका परित्याग करावे । इस विधिके अनुसार ही यदि आचार्य प्रथम अणुव्रत में प्राणियोंको हिंसाका परित्याग कराता है तो उसकी सूक्ष्म प्राणियोंके घातमें अनुमति नहीं हो सकती । पर यदि वह इस प्रत्याख्यान विधिकी उपेक्षा कर उसे प्रारम्भमें ही अणुव्रतोंका उपदेश देते हुए स्थूल प्राणियोंकी हिंसाका परित्याग कराता है तो उसके लिए अवश्य हो उस सूक्ष्म जीवों घातविषयक अनुमतिका प्रसंग प्राप्त होता है । आचार्य अमृतचन्द्रने प्रथमतः मुनिधर्मका उपदेश न देकर गृहस्थधर्मंका उपदेश करनेवाले साधुको अल्पबुद्धि कहकर उसे निग्रहका पात्र बतलाया है ( पु. सि. १७-१८ ) । विधिपूर्वक स्थूल जीवोंकी हिंसाका प्रत्याख्यान करानेवाले आचार्यकी अनुमति सूक्ष्म प्राणियों के घातमें कैसे नहीं होती है, इसके स्पष्टीकरण में यहाँ एक सेठके छह पुत्रों का उदाहरण दिया जाता है जो चोरीके अपराधमें पकड़े गये थे व जिनमें से एक बड़े पुत्र को ही सेठ छुड़ा सका था। वह कथा इस प्रकार है वसन्तपुर नगर में एक जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम १. अ 'अत्र' नास्ति । २. अ मोचनार्थ ज्ञातमिह । ३. अ देवी गट्ठा तुसिएण परितुट्ठा । ११ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [११५ - भणिया य णेण, भण किं ते पियं कीरउ । तीए भणियं-कोमुदीए अंतेउराणं जहिच्छापयारेण निसि ऊस्सवपसाउत्ति। पडिसुयमणेण। सपागओ सो दियहो। कारावियं च अणेण भोसणं जहा जो एत्थ अज्ज पुरिसो वसिही तस्स मए सारीरो णिग्गहो कायव्वो, उग्गदंडो य रायत्ति। ततो गिरगया' सव्वे पुरिसा। णवरमेगस्स सेट्टिणो छ पुत्ता संववहारवावड्याए लहु गणिग्गया। ढक्किया पोलिओ। भएण तत्थेव खुसिया वत्तो रयणीऊसवो। बीयदिवहे य पउत्ता चारिया गवेसह को ण णिग्गउत्ति । तेहिं निउण्णबुद्धीए गवेसिऊण साहियं रन्नो, अमुगसेट्रिस्स छसुया ण णिग्गय त्ति । कुविओ राया। भणियं चाणेण वावाएह ते दुरायारे । गहिया ते रायपुरिसेंहिं। एयं वायं णिऊण गरवईसमीवं समागओ तेसि पिया। विन्नतो यण राया-देव, खमसु एगमवराह, मुयह एक्कवारं मम एए मा अन्नो वि एवं काहित्ति ण मुयई राया। पुणो पुणो भन्नमाणेण मा कुलखओ भवउ ति मुक्को से जेट्टपुत्तो, वावाइया इयरे । ज य समभावस्स सव्वपुत्तेसु सेठिस्स सेसवावायणेसु अणुमई ति। एस दिळंतो। इमो एयस्स उवणओ-रायातुल्लो सावगो, वादाइज्जमाणवणियतुल्ला जीवणिकाया, पियतुल्लो साहू, विन्नवणतुल्ला अणुवयगहणकाले साधुधम्मदेसगा। एवं च असुयणे वि सावगस्त, ण साधुस्स धारिणी देवी था। एक समय राती धारिणी देवीके दनदातिशय(?)से सन्तुष्ट होकर राजाने उससे पूछा कि बोल तेरा कौन-सा अभीष्ट पूरा किया जावे? इसपर उसने कहा कि पूर्णिमाके दिन रातमें इच्छानुसार घूम-फिरकर अन्तःपुरकी रानियोंको कोमुदो ( रजनी) उत्सव मनानेकी प्रसन्नता प्रकट कीजिए। राजाने उसे स्वीकार कर लिया। वह उत्सवका दिन आ गया। तब राजाने नगरमें यह घोषणा करा दी कि आज जो पुरुष यहाँ रहेगा उसे मैं शारीरिक दण्ड कराऊंगा जो भयानक होगा। राजाकी इस घोषणाको सुनकर सब पुरुष नगरसे निकल गये, केवल एक सेठके छह पुत्र व्यवहार कार्यमें व्याप्त होनेसे शोघ्र नहीं निकल सके । पश्चात् जब उन्होंने राजाको उस घोषणापर ध्यान दिया तब भयभीत होकर वे वहीं छिप गये। रजनी उत्सव समाप्त हो गया। दूसरे दिन गुप्तचरोंको इस बातके खोजने में प्रवृत्त किया गया कि कौन पुरुष नगरसे नहीं निकला है। उन्होंने अपने बुद्धिचातुर्यसे खोजकर राजासे कह दिया कि अमुक सेठके छह पुत्र नहीं निकले। इसपर राजा क्रोधको प्राप्त हुआ। तब उसने कहा कि उन दुराचारियोंको मार डालो। तदनुसार राजपुरुषोंने उनको पकड़ लिया। इस वृत्तको जानकर उनका पिता राजाके समीप गया। उसने राजासे प्रार्थना की कि हे देव ! इनके एक अपराधको क्षमा कर दीजिए और इन मेरे पुत्रोंको छोड़ दीजिए । परन्तु राजा 'अन्य भी कोई ऐसे अपराधको न करे' इस विचारसे उन्हें नहीं छोड़ रहा था। जब सेठने बार-बार कहा तब 'वंशका क्षय न हो' इस विचारसे राजाने उसके बड़े पुत्रको छोड़ दिया और शेष पांच पुत्रोंको प्राणदण्ड दे दिया। सेठ अपने उन छहों पुत्रोंमें समान अनुराग रखता था। पर राजाने जब उन सबको न छोडा तब सेठने एक बड़े पुत्रको छडाया। इससे सेठको अन्य पुत्रोंके घातमें अनुमति नहीं रहो, बाध्य होकर ही उसे एक पुत्रको छुड़ाना पड़ा। यह दृष्टान्त है । इसका उपनय इस प्रकार है-प्रकृतमें श्रावक राजाके समान है, जीवनिकाय मारे भानेवाले सेठ पुत्रोंके समान हैं, साधु पिताके समान है तथा अणुव्रत ग्रहणके समयमें साधुके द्वारा दिया जानेवाला उपदेश सेठको विज्ञप्तिके समान है। इस प्रकार श्रावकके असुजन (धूर्त) होनेपर १. अ उग्रदंजोराय त्ति णिग्गया। २. अ ढक्कीया पलीउ । ३. अ तत्येण । ४. अ को णिग्रउत्ति । ५. अ. 'ते' नास्ति । ६. म गहियो राय । ७. अ 'ते' नास्ति । ८. अ समागउ सिंथिया । ९. अ य य । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११८] ___स्थूलप्राणातिपातप्रत्याख्याने शंका-समाधानम् ८३ वोसो। न चैतत्स्वमनीषिकया परिकल्पितम् । उक्तं च सूत्रकृताङ्गे-पाहावइसुयचोरगहणविमोक्खणयाएत्ति । एतत्संग्राहकं चेदं गाथात्रयम् देवीतुट्ठो राया ओरोहस्स निसि ऊसवपसाओ । घोसण नरनिग्गमणं छव्वणियसुयाणनिखेवो ॥११६॥ चारियकहिए वज्झा मोएइ पिया न मिल्लई राया। जिट्टमुयणे समस्स उ नाणुमई तस्स सेसेसु ॥११७॥ राया सड्ढो वणिया काया साहू य तेसि पियतुल्लो। मोयइ अविसेसेणं न मुयइ सो तस्स किं इत्थ ॥११८॥ एतद्गतार्थमिति न व्याख्यायते णवरमोरोहो अंतेउरं भन्नइ । सांप्रतमन्यद्वादस्थानकम् - भी वह दोष उस श्रावकका ही है, साधुका कुछ दोष नहीं है। यह वृत्तान्त कुछ हमारी बुद्धिके द्वारा कल्पित नहीं है, क्योंकि सूत्रकृतांगमें कहा भी है-गाहावइसुयचोरग्गहणविमोक्खण. याएत्ति। इस वृत्तान्तको संग्राहक ये तीन गाथाएं हैं राजा अपनी पटरानीपर सन्तुष्ट हुआ, इससे उसने उसकी इच्छानुसार रातमें उत्सव मनानेके विषयमें अन्तःपुरकी प्रसन्नता प्रकट की। इसके लिए उसने पुरुषोंके लिए नगरसे बाहर निकल जानेके विषयमें घोषणा करा दी। उस समय छह वणिकपुत्र नगरके बाहर नहीं निकल सके ॥११६॥ गुप्तचरोंके कहनेपर राजाने उनका वध करनेकी आज्ञा दे दी। तब पिता उनको छुड़ाता है, पर राजा उन्हें नहीं छोड़ता है। तब सब पुत्रोंके विषयमें समान भाव रखनेवाला सेठ ज्येष्ठ पुत्रको छुड़ाता है। इससे उसकी शेष पांच पुत्रोंके वधमें कुछ अनुमति नहीं रही ॥११७॥ राजा श्रावक जैसा है, वणिक्पुत्र जीवनिकाय जैसे हैं, साधु उनके पिता जैसा है। पिता समान रूपसे सबको छुड़ाना चाहता है, पर राजा नहीं छोड़ता है। इस परिस्थितिमें सेठका क्या दोष है ? अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सेठ अपने सभी पुत्रोंको छुड़ाना चाहता है, पर उसके बहुत प्रार्थना करनेपर भी जब राजा उन्हें नहीं छोड़ता है तब सब पुत्रोंमें समबुद्धि होता हुआ भी वह एक बड़े पुत्रको हो छुड़ाता है। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उसको अन्य पुत्रोंके वध कराने में अनुमति रही है। ठीक इसी प्रकार साधु श्रावकसे स्थूल व सूक्ष्म सभी जीवोंके वधको छुड़ाना चाहता है, पर श्रावक जब समस्त प्राणियोंके वधके छोड़नेमें अपनी असमर्थता प्रकट करता है तब वह उससे स्थल प्राणियोंके ही वधका प्रत्याख्यान कराता है। इससे समस्त प्राणियों में समबुद्धि उस साधुके अन्य सूक्ष्म प्राणियोंके वधविषयक अनुमतिका प्रसंग कभी भी नहीं प्राप्त हो सकता ॥११८॥ ___अब जिनको उक्त त्रस प्राणियोंके घातका वह व्रत अभीष्ट नहीं है उनके अभिप्रायको स्पष्ट किया जाता है १. अ ण मेल्लई । २. अद्वादशकस्यानं । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [११९ - तसपाणघायविरई तत्तो थावरगयाण वहभावा । नागरगवहनिवित्तीनायाओ केइ नेच्छंति ॥११९।। त्रेसप्राणघातविरति द्वीन्द्रियादिप्राणव्यापत्तिनिवृत्तिम् । ततस्तस्मात् त्रसकायात् । स्थावरगतानां पृथिव्यादिसमुत्पन्नानाम् । वधभावाद्वयापत्तिसंभवान्नागरकवनिवृत्तिज्ञाततो नागरकवधनिवृत्युदाहरणेन । केचन वादिनो नेच्छन्ति नाभ्युपगच्छन्तीति गाथाक्षरार्थः ॥११९॥ भावार्थ त्वाह पच्चक्खायंमि इहं नागरगवहम्मि निग्गयं पि तओ। तं वहमाणस्स न किं जायइ वहविरइभंगो उ ॥१२०॥ प्रत्याख्याते इह परित्यक्ते अत्र । कस्मिन् ? नागरकजिघांसने। निर्गतमपि निःक्रान्तमपि । ततो नगरात् । तं नागरकम् । घ्नतो व्यापादयतोऽन्यत्रापि । न कि जायते वधविरतिभङ्गः प्रत्याख्यानभङ्गो जायत एवेति ॥१२०॥ इत्थं दृष्टान्तमभिधाय अधुना दार्टान्तिकयोजनां कुर्वन्नाह इय अविसेसा तसपाणघायविरई काउ तं तत्तो। थावरकायमणुगयं वहमाणस्स धवो भंगो ॥१२१॥ इय एवमविशेषात्सामान्येनैव सप्राणघातविरतिमपि कृत्वा तं त्रसम् । ततस्त्रसकायात् द्वीन्द्रियादिलक्षणात् । स्थावरकायमनुगतं विचित्रकर्मपरिणामात्पश्चात्पृथिव्यादिषूत्पन्नम् । घ्नतो व्यापादयतो ध्र वो भङ्गोऽवश्यमेव भङ्गो निवृत्तेरिति । संभवति चैतद्यत्त्रसोऽपि मृत्वा श्रावका. रम्भविषये स्थावरः प्रत्यागच्छति, स च तं व्यापादयतीति ॥१२॥ ततश्च विशेष्यप्रत्याख्यानं कर्तव्यमनवद्यत्वादिति । आह च कितने ही वादी नागरिकवधको निवृत्तिके उदाहरणसे उस त्रस प्राणियोंके घातकी विरतिको इसलिए नहीं स्वीकार करते हैं कि उससे त्रस अवस्थाको छोड़कर स्थावरोंमें उत्पन्न हुए उन प्रस जीवों के घातकी सम्भावनासे स्वीकृत व्रत भंग हो सकता है ॥११९|| . आगे पूर्वनिर्दिष्ट उस नागरिकवधनिवृत्तिन्यायको ही स्पष्ट किया जाता है यहाँ किसीके द्वारा नागरिकवधका प्रत्याख्यान करनेपर जब नगरसे निकले हुए किसीका वह वध करता है तब क्या उसका वह वधका व्रत भंग नहीं हो जाता है ? वह भंग होता ही है ।।१२०॥ ____ अब इस दृष्टान्तको योजना दान्तके साथ की जाती है ... इस प्रकार सामान्य रूपसे त्रसप्राणघातविरतिको करके उससे-द्वोन्द्रियादिरूप त्रस प.यिसे-स्थावरकायको प्राप्त हुए उस त्रसका घात करते हुए श्रावकका वह व्रत निश्चित हो भंग होता है ।।१२१॥ इसलिए वादीके अभिमतानुसार विशेषित करके प्रत्याख्यान करना चाहिए, तभी वह निर्दोष रह सकता है । किस प्रकारसे विशेषित करे, इसे वह आगे स्पष्ट करता है १. भणेच्छंति । २. अ तत्र प्राण । ३. अ ततस्त्रस । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२२] त्रसप्राणघातविरतो शंका-समाधानम् तसभूयपाणविरई तब्भावमि वि ने होइ भंगाय । खीरविगइपच्चक्खातदेहियपरिभोगकिरिय व्वं ॥१२२॥ त्रसभूतप्राणविरतिस्त्रसपर्यायाध्यासितप्राणवनिवृत्तिः। तद्भावेऽपि स्थावरगतव्यापत्तिभावेऽपि । न भवति प्रत्याख्यानभङ्गाय, विशेष्यकृतत्वात् । किंवत् ? क्षीरविकृतिप्रत्याख्यातदधिपरिभोगक्रियावत् । न हि क्षीरविकृतिप्रत्याख्यातुर्दधिपरिभोगक्रिया प्रत्याख्यानभङ्गाय, क्षीरस्यैव दधिरूपत्वापत्तावपि विशेष्यप्रत्याख्यानादिति ॥१२२॥ उपसंहरन्नाह त्रसभूत-त्रस पर्यायसे अधिष्ठित प्राणियोंके वधका व्रत त्रस पर्यायसे स्थावरको प्राप्त उन प्राणियोंका वध करनेपर भी विनाशके लिए नहीं होता है। जैसे दूधरूप विकार ( गोरस ) का प्रत्याख्यान करनेपर दहोरूप विकारका उपभोग करते हुए वह विनाशके लिए नहीं होता है ॥१२२॥ विवेचन-वादोका अभिप्राय यह है कि यदि सामान्यसे त्रस प्राणियोंके घातका व्रत कराया जाता है तो वैसी अवस्थामें जो द्वोद्रियादि त्रस जोव मरकर स्थावरों में उत्पन्न हुए हैं उनका आरम्भमें प्रवृत्त हुआ श्रावक घात कर सकता है । इस प्रकार स्थावर अवस्थाको प्राप्त हुए उन स जीवोंका घात होनेपर श्रावकका वह व्रत भग हो जाता है। इसके लिए नागरिकवधकी निवत्तिका उदाहरण भी है-जैसे किसीने यह नियम किया कि 'मैं किसी नागरिकका घात नहीं करूंगा'। ऐसा नियम करनेपर यदि वह नगरसे बाहर निकले हए किसी नागरिकका वध करता है तो जिस प्रकार उसका वह व्रत भंग हो जाता है उसी प्रकार जिस श्रावकने सामान्यसे 'मैं त्रस जीवोंका घात नहीं करूंगा' इस प्रकारके व्रतको स्वीकार किया है वह जब त्रस पर्याय को छोड़कर वर पर्यायको प्राप्त हए उन त्रस जोवोंका प्रयोजनके वश घात करता है तब उसका भी वह व्रत भंग होता है। और यह असम्भव भी नहीं है, क्योंकि कुछ त्रस जाव मरणको प्राप्त होकर उस त्रस पर्यायसे स्थावर पर्यायका प्राप्त हो सकते हैं। अतः सामान्यसे त्रस जीवोंके घातका व्रत कराना उचित नहीं है। तब किस प्रकारके विशेषणसे विशेषित उन त्रस जोवोंके घातका व्रत कराना उचित है, इसे स्पष्ट करता हुआ वादो कहता है कि 'भूत' शब्दसे विशेषित त्रसभूत-- त्रस पर्यायसे अधिष्ठित-उन त्रसोंके विघातका व्रत करानेपर त्रस पर्याय को छोड़कर स्थावरोंमें उत्पन्न हुए उन जोवोंका घात करनेपर भी वह उसका स्वोकृत व्रत भंग होनेवाला नहीं है। कारण यह कि तब वे त्रसभूत-त्रस पर्यायसे अधिष्ठित नहीं रहे। इसके लिए वादोके द्वारा उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य क्षोरभूत गोरसका प्रत्याख्यान करके यदि दहीका उपभोग करता है तो उसका वह व्रत भंग नहीं होता है। कारण यह कि गोरसके रूपमें दोनोंके समान होनेपर भी दही क्षीरभूत नहीं रहा । यही अभिप्राय प्रकृतमें समझना चाहिए ।।११९-२२।। आगे वादो अपने अभिमतका उपसंहार करता है तथा सिद्धान्त पक्ष द्वारा उसके निराकरणका उपक्रम किया जाता है १. अ विरउ । २. अणि.। ३. म पच्चक्खाणेद । ४. अ व्वा । ५. अख्यानाविति । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१२३ - तम्हा विसेसिऊणं इय विरई इत्थ होइ कायव्वा । अब्भक्खाणं दुन्ह वि' इय करणे नावगच्छति ॥१२३॥ यस्मादेवं तस्माद्विशिष्य भूतशब्दोपादानेन । इय एवं। विरतिनिवृत्तिरत्र प्राणातिपाते भवति कर्तव्या, अन्यथा भङ्गप्रसङ्गात् । इति पूर्वपक्षः। अत्रोत्तरमाह-अभ्याख्यानं तद्गुणशून्यत्वेऽपि तद्गुणाभ्युपगमलक्षणम् । द्वयोरपि प्रत्याख्यात प्रत्याख्यापयित्रोराचार्यश्रावकयोः । इयकरणे भूतशब्दसमन्वितप्रत्याख्यानासेवने । नायगच्छन्ति नावबुध्यन्ते पूर्वपक्षवादिन इति ॥१२३॥ तथा चाह ओवंमे तादत्शे व हुज्ज एसित्थं भूयसद्दो त्ति । उमओ पओगकरणं न संगयं समयनीईए ॥१२४॥ औपम्ये तायें वा भवेदेषोऽत्र प्रत्याख्यानविधौ भूतशब्द इति । उभयथापि प्रयोगकरणमस्य न संगतम् । समयनीत्या सिद्धान्तव्यवस्थयेति गाथाक्षरार्थः ॥१२४॥ भावार्थमाह ओमे देसो खलु एसो सुरलोयभूय मो एत्थ । देखें च्चिय सुरलोगो न होइ एवं तसा तेवि ॥१२५॥ ___ औपम्ये उपमाभावे भूतशब्दप्रयोगो यथा-देशः खल्वेष लाटदेशादिः ऋध्यादिगुणोपेतत्वा. सुरलोकोपमः भो इत्यवधारणार्थो निपातः-सुरलोकभूत एव । अत्रास्मिन् पक्षे। देश एव सुरलोको न भवति, तेनोपनीयमानत्वाद्देशस्य एवं प्रसास्ते ऽपि यद्विषया निवृत्तिः क्रियते ते ऽपि साना भवन्ति, त्रसभूतत्वात् सैरुपमीयमानत्वादिति ॥१२५॥ ततः किमित्याह इसलिए-उक्त दोषको दूर करनेके लिए विशेषताके साथ-'भूत' शब्दके उपादानपूर्वकत्रसभूत प्राणियोंके घातका यहां व्रत कराना चाहिए, न कि सामान्यसे त्रस प्राणियोंके घातका । इस प्रकार यहाँ तक वादोने अपने पक्षको स्थापित किया है। आगे ( १२३ उत्तरार्ध) उसका निराकरण करते हुए कहा जाता है कि ऐसा करनेपर भूत शब्दसे विशेषित उन त्रस जीवोंके घातका प्रत्याख्यान करनेपर-विवक्षित गुणसे रहित होनेपर भी उसी गुणके स्वीकार करनेरूप जिस अभ्याख्यानका प्रसंग दोनोंको-प्रत्याख्यान करनेवाले व उसके करानेवालेको प्राप्त होता है उसे वे वादी नहीं समझते हैं ॥१२३॥ आगे इसोको स्पष्ट किया जाता है यह 'भूत' शब्द या तो उपमा अर्थमें व्यवहृत होता है या तादर्थ्यमें । सो आगम व्यवस्थाके अनुसार दोनों ही प्रकारसे उसका प्रयोग करना संगत नहीं है ।।१२४॥ आगे उसके अभिप्रायको स्पष्ट किया जाता है उपमा अर्थमें जैसे—यहां यह देश निश्चित ही 'सुरलोकभूत' है। ऐसा कहनेपर वह देश ही कुछ सुरलोक नहीं हो जाता है। इसी प्रकार प्रकृतमें 'त्रसभूत' कहनेपर वे त्रस जीव भीजिनके घातका प्रत्याख्यान कराया जाता है-त्रस नहीं रहेंगे, किन्तु त्रसकी समानताको प्राप्त हो जावेंगे जो वादीको भी अभीष्ट नहीं है ।।१२५।। इससे क्या हानि होनेवाली है, इसे आगे बतलाया जाता है १. भ दोहवि । २. अ तस्माद्विशेष्य । ३. अ तादेत्थे व्व होज्ज इसोत्थ । ४. अ नीतीए । ५. भ देसे । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A७ - १२७] त्रसप्राणघातविरती शंका-समाधानम् अतसवहनिवित्तीए थावरचाए वि पावए तस्स । वहविरइभंगदोसो अतसत्ता थावराणं तु ॥१२६॥ उक्तन्यायावत्रसवधनिवृत्तौ सत्याम् । स्थावरवधेऽपि कृते । प्राप्नोति तस्य निवृत्तिकर्तुबंधविरतिभङ्गदोषः । कुतः ? अत्रसत्वात्स्थावराणामेव अत्रसाश्च त्रसभूता भवन्तीति ॥१२॥ अवसितः औपम्यपक्षः, सांप्रतं तादथ्यपक्षमाह तादत्थे पुण एसो सीईभूयमुदगंति निद्दिद्यो । तज्जाइअणुच्छेया न य सो तसथावराणं तु ॥१२७॥ इस प्रकार अत्रसवधको निवृत्तिके होनेपर अर्थात् उपमार्थक 'भूत' शब्दसे विशेषित करनेपर जो यथार्थमें त्रस हैं। वे तो त्रस नहीं रहेंगे, किन्तु जो सोंके समान हैं-अत्रस हैं-वे त्रस माने जायेंगे, इस प्रकार वह त्रसवधनिवृत्ति न होकर अत्रसवधनिवृत्ति ही प्रसक्त होगी। ऐसा होनेपर स्थावर जीवोंके घातमें भी उस अत्रसवधनिवृत्ति व्रतके भंग होनेका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा, क्योंकि वे घाते जानेवाले स्थावर अत्रस ( त्रसभिन्न ) ही तो हैं ॥१२६॥ विवेचन-वादीने सामान्यसे त्रसजीवोंके वधका प्रत्याख्यान करनेपर व्रतके भंग होनेका प्रसंग प्रदर्शित करते हुए जो उसके परिहाराथे 'भूत' शब्दसे त्रसको विशेषित करने की प्रेरणा की थी उसे असंगत बतलाते हुए यहां वादीसे पूछा गया है कि 'भूत' शब्दका प्रयोग उपमा और तादर्थ्य ( तदर्थता या तद्रूपता) इन दो अर्थों में हुआ करता है। इनमें से यदि उसका प्रयोग आपको उपमा अर्थमें अभीष्ट है तो उससे आपका अभीष्ट सिद्ध न होकर अनिष्टताका ही प्रसंग प्राप्त होनेवाला है। उदाहरणार्थ 'यह देश (लाट आदि ) सुरलोकभूत है' यहाँ उपमा अर्थमें उस भूत शब्दका उपयोग हुआ है। उससे देश कुछ स्वयं सुरलोक नहीं हो जाता। किन्तु वह ऋद्धि आदि गुणोंसे सम्पन्न होनेके कारण सुरलोकके समान है, यही अभिप्राय प्रकट होता है। इसी प्रकार प्रकृतमें भी त्रसके साथ उपमार्थक उस भूत शब्दका उपयोग करनेपर 'त्रसभूत' से जिन त्रस जीवोंके घातका प्रत्याख्यान कराना अभीष्ट है वे स्वयं त्रस न रहकर त्रस समान हो जानेसे अत्रसत्व (त्रसभिन्नता) को प्राप्त हो जावेंगे। तब उस स्थितिमें प्रकृत प्रसवधका प्रत्याख्यान अत्रसवध प्रत्याख्यानके रूपमें परिणत हो जावेगा। इस प्रकार अनिष्टका प्रसंग प्राप्त होनेपर तदनुसार प्रयोजनवश स्थावर जीवोंके घातमें प्रवृत्त होनेपर उसका वह अत्रसत्ववधनिवृत्ति व्रत अवश्य भंग हो जानेवाला है। कारण यह कि उपमार्थक उस भूत शब्दके उपयोगसे वे त्रसभूत स्थावर भी त्रस समान ( अत्रस ) सिद्ध होते हैं। इस प्रकार उनका घात होनेपर प्रसंगप्राप्त वह अत्रसवधनिवृत्ति व्रत भी सुरक्षित नहीं रह सका-भंग हो गया। यह वादीके लिए अनिष्ट प्रसंग प्राप्त होता है। इससे त्रसके साथ उपमार्थक उस भूत शब्दका उपयोग असंगत ही ठहरता है ।।१२३-२६।। अब दूसरे विकल्पमें भी दोष दिखलाया जाता है १. अत्यावरत्थाए वि पावती। २. अ अस्या गाथाया अयमुत्तरार्धभागः स्खलितोऽस्ति । ३. अ न्यायादत्र संबंधनिवृत्तौ ('उक्त' नास्ति) । ४. अ अत्र स्थावरां । ५. अ भवंति । ६. अ औपम्यः पक्षः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१२८तादर्थ्य पुनस्तदर्थभावे पुनरेष भूतशब्दप्रयोगः, शीतीभूतमुदकमुष्णं सत्पर्यायान्तरमापन्नम् । इति निर्दिष्टस्तल्लक्षणः एवं प्रतिपादितः, तज्जात्यनुच्छेदात् अत्रापि तदुदकजात्यनुच्छेदेनैवोष्णं सच्छीतीभूतम् । न चासौ जात्यनुच्छेदस्त्रस-स्थावरयोभिन्नजातित्वादिति ॥१२७|| सिय जीवजाइमहिगिच्च अस्थि किं तीइ अपडिकुट्ठाए । भूअगहणेवि एवं दोसो अणिवारणिज्जो ओ ॥१२८।। स्याज्जीवजातिमधिकृत्यास्ति जात्यनुच्छेदः, द्वयोरपि जीवत्वानुच्छेदादित्याशङ्कयाह-कि तया जीवजात्या अप्रतिकुष्टया अनिषिद्धया, न तेन जीवजातिवधविरतिः कृता येन सा चिन्त्यते । ततश्च भूतग्रहणेऽप्येवमुक्तन्यायात् दोषोऽनिवारणीय एवेति ॥१२८।। किं च तसभूयावि तसच्चिय जं ता किं भूयसद्दगहणेणं । तब्भावओ अ सिद्धे हंत विसेसत्थभावम्मि ॥१२९॥ त्रसभता अपि वस्तुस्थित्या त्रसा एव, नान्ये । यद्यस्मादेवं तत्तस्मात् । किं भूतशब्दग्रहणेन, न किंचिदित्यर्थः । तद्भावत एवं त्रसभावत एव सिद्ध हन्त विशेषार्थभावे सपर्यायलक्षणे न हि त्रसपर्यायशून्यस्य त्रसत्वमिति ॥१२९।। किं च तादर्थ्य में उस 'भूत' शब्दका प्रयोग करनेपर जैसे 'यह शीतोभूत जल उष्ण है' ऐसा कहा जाता है, यहां जो शोतीभूत जल उष्णताको प्राप्त हुआ है उसमें जलत्व जातिका विनाश नहीं हुआ है-शीत भी जल ही था और उष्ण भी जल ही है, इस प्रकार जलपना दोनों ही अवस्थाओंमें समानरूपसे बना रहता है। इसीलिए यहाँ तादर्थ्य में उस 'भूत' शब्दका प्रयोग संगत है। वैसे ही यदि उस 'भूत' शब्दका प्रयोग प्रकृतमें त्रसके साथ किया जाता है तो यहां जातिका अविनाश सम्भव नहीं है, क्योंकि त्रस और स्थावर ये दोनों भिन्न जातियां हैं। इस प्रकार प्रकृतमें तादर्थ्यके असम्भव होनेपर त्रसके साथ उस 'भूत' शब्दका प्रयोग संगत नहीं कहा जा सकता ॥१२७|| आगे प्रकृतमें भी जातिके अविनाशविषयक शंकाको उठाकर उसका भी समाधान किया जाता है यदि कहा जाये कि प्रकृतमें भी-त्रस और स्थावर जीवोंमें भी-जीव जातिका अविनाश है हो तो इसके समाधानमें कहा जाता है कि ठीक है, उसका निषेध नहीं किया गया है, परन्तु उस अनिषिद्ध जीव जातिसे प्रकृतमें क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? कुछ भी नहीं, क्योंकि यहां जीवजातिके वधका प्रत्याख्यान नहीं कराया गया है, किन्तु सवधका प्रत्याख्यान कराया गया है । अतएव तादर्थ्यमें भी उस 'भूत' शब्दका प्रयोग असंगत है। इस प्रकार 'भूत' शब्दके ग्रहण में भी दोषका निवारण नहीं किया जा सकता है ।।१२८॥ दूसरे भत शब्दके ग्रहण करनेपर चकि त्रसभत भी वे जीव त्रस ही तो होंगे, अन्य तो नहीं हो सकते, अतएव उस भूत शब्दके ग्रहणसे क्या लाभ है ? कारण यह कि त्रसभावसे ही जब विशेष अर्थता-त्रस पर्याय-सिद्ध है तब खेद है कि उस भूत शब्दके ग्रहणसे कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है, क्योंकि त्रस पर्यायसे रहित जीवोंमें त्रसता सम्भव नहीं है ॥१२९।। आगे प्रकारान्तरसे भी त्रस व स्थावर जीवोंमें भेदको प्रकट किया जाता है१. शेषशब्दभूतप्रयोगः । २. अं स्तल्लक्षणैरेवं । ३. अ तसावओ उ सिद्धे हित । ४. अ तद्भाव एव । ५. अ एवं सिद्धे हित वशेशार्थभावे । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३१] त्रसप्राणघातविरती शंका-समाधानम् थावरसंभारकडेण कम्मणा जं च थावरा भणिया। इयरेणं तु तसा खलु इत्तो च्चिय तेसि भेओउ ॥१३०॥ स्थावरसंभारकृतेन पृथिव्यादिनिचयनिवतितेन । कर्मणा। यच्च यस्माच्च स्थावरा भणिताः, परममुनिभिरिति गम्यते। इतरेण तु त्रससंभारकृतेनैव । त्रसाः खल्विति सा एव, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । अत एवास्मादेव निमित्तभेदात्तयोस्त्रसस्थावरयोर्भेदः, तस्मिन् सति अनर्थको भूतशब्द इति ॥१३०॥ इदानीं दृष्टान्तदान्तिकपयोर्वैषम्यमाह नागरगंमि वि गामाइसंकमे अवगयंमि तब्भावे । नत्थि हु वहे वि भंगो अणवगए किमिह गामेण ॥१३१॥ नागरकेऽपि दृष्टान्ततयोपन्यस्य इदं विन्त्यते-ग्रामादिसंक्रमे तस्य किमसौ नागरकभावो. ऽपैति वा न वा ? यद्यपैति ततो ग्रामादिसंक्रमे सति । अपगते तद्भावे नागरकभावे। नास्त्येव वधेऽपि भङ्गः प्रत्याख्यानस्य तथाभिसन्धेः । अथ नापैत्यत्राह-अनपगते आपुरुषमभिसन्धिना अनिवृत्ते नागरकभावे । किमिह ग्रामेण तत्रापि वधविरतिविषयस्तथापुरुषभावानिवृत्तेरिति ॥१३१॥ इसके अतिरिक्त स्थावरसम्भारकृत-पृथिवी आदि निकाय रूपसे निर्वतित-कर्मके निमित्तसे चूंकि स्थावर कहे गये हैं तथा इसके विपरीत त्रस नामकर्मके निमित्तसे त्रस कहे गये हैं, इसी कारणसे उन दोनों में भेद है। इस प्रकारसे भो उन दोनोंमें भेदके होनेपर उसके लिए भूत शब्द का प्रयोग करना निरर्थक है ।।१३०॥ अब पूर्वमें वादीके द्वारा जो नागरिकवधका दृष्टान्त दिया गया था उसकी विषमता दिखलाते हैं वादीके द्वारा दृष्टान्तरूपसे उपस्थित किये गये नागरिकके ग्राम आदिमें पहुँचने पर यदि उसकी नागरिकता न हो जाती है तो फिर उसके वधमें भी व्रत भंग होनेवाला नहीं है और यदि वहाँ भी उसको नागरिकता बनी रहती है तो फिर ग्रामसे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? कुछ भी नहीं। विवेचन-वादीने नागरिकका दृष्टान्त देते हुए यह कहा था (११९) कि जिस प्रकार नगरसे बाहर ग्राम आदिमें गये हुए नागरिका वध करनेपर नागरिकवधका प्रत्याख्यान करनेवालेका व्रत भंग होता है उसी प्रकार मरणको प्राप्त होकर त्रस पर्यायसे स्थावर पर्यायको प्राप्त हुए त्रस जीवोंका वध करनेपर त्रसवधका प्रत्याख्यान करनेवाले श्रावकका भी वह व्रत भंग होता है, अतः विशेषताके साथ त्रसवधका प्रत्याख्यान कराना चाहिए, न कि सामान्य रूपसे । इसपर यहाँ वादोसे यह पूछा गया है कि नगरके बाहर जानेपर उसकी नागरिकता नष्ट होती है या तदवस्थ बनी रहती है ? यदि वह नष्ट हो जाती है तब तो उसका वहाँ वध करनेपर भी उसका वह नागरिकवधका व्रत भंग नहीं होता है, क्योंकि वह उस समय नागरिक नहीं रहा-उसकी नागरिकता वहाँ वादीके अभिप्रायानुसार समाप्त हो जाती है। इसपर यदि यह कहा जाये कि उसकी नागरिकता वहाँ भी बनी रहती है तो फिर गाँव में जानेके निर्देशसे क्या लाभ है, क्योंकि नागरिकताके वहां भो तदवस्थ रहनेसे वह वहां भी उसके लिए अवध्य है। इस प्रकार वादोके द्वारा उपन्यस्त वह नागरिकवधका दृष्टान्त यहाँ लागू नहीं होता ॥१३१।। १. अ कम्मुणा। २. अ एत्तो। ३. थावरसंहारकृतेन । १२ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१३२ - न य सइ तसभावंमि थावरकायगयं तु सो वहइ । तम्हा अणायमेयं मुद्धमइविलोहणं नेयं ॥१३२॥ न च सति त्रसभावे नैव विद्यमान एव त्रसत्वे । स्थावरकायगतमसौ हन्ति', अपरित्यक्ते त्रसत्वे स्थावरकायगमनाभावात् । तस्मादज्ञातमेतत् उक्तन्यायादनुदाहरणमेतत् । मुग्धतिविलो. भनं ज्ञेयं ऋजुमतिविस्मयकरं ज्ञातव्यमिति ॥१३२॥ इदानीम् अन्यद्वादस्थानकम् अन्ने उ दुहियसत्ता संसारं परिअडंति पावेण । वावाएयव्वा खलु ते तक्खवणट्ठया विति ॥१३३॥ अन्ये तु संसारमोचका ब्रुवत' इति योगः। किं ब्रुवत इत्याह-दुःखितसत्त्वाः कृमि पिपीलिकादयः। संसारं पर्यटन्ति संसारमवगाहन्ते । पापेनापुण्येन हेतुना । यतश्चैवमतो व्यापादयितव्याः खलु ते । खल्वित्यवधारणे-व्यापादयितव्या एव ते दुःखितसत्वाः । किमर्थमित्याह- तत्क्षपणार्थ पापक्षपणनिमित्तमिति ॥१३३॥ ता पाणवहनिवित्तो नो अविसेसेण होइ कायव्वा । अवि अ सुहिएसु अन्नह करणिज्जनिसेहणे दोसो ॥१३४।। इसीको आगे कूछ और स्पष्ट किया जाता है इसके अतिरिक्त सघातका प्रत्याख्यान करनेवाला वह श्रावक त्रस अवस्थाके रहनेपर कुछ उस स्थावरकायको प्राप्त हुए जीवका घात नहीं करता है। इसलिए यह नागरिकवधका उदाहरण वस्तुतः उदाहरण न होकर मूढ़बुद्धियोंको लुब्ध करनेवाला अनुदाहरण हो समझना चाहिए । .. विवेचन-यह पूर्वमें (१३०) कहा जा चुका है कि जिन जीवोंके त्रस नामकर्मका उदय रहता है वे त्रस कहलाते हैं। इससे जो जीव मरणको प्राप्त होते हुए स्थावरकायको प्राप्त होते हैं वे त्रस नहीं रहते, किन्तु स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर होते हैं। इस प्रकार त्रस पर्यायके विनष्ट हो जानेपर यदि त्रस प्राणिवधका प्रत्याख्यान करनेवाला कोई श्रावक प्रयोजनवश उनका घात करता है तो इससे उसका वह व्रत भंग होनेवाला नहीं है। वादीके अभिमतानुसार 'भूत' शब्दका प्रयोग करनेपर भी वे त्रस नहीं हो सकते, किन्तु स्थावर नामकर्मके उदयसे वे स्थावर ही रहनेवाले हैं। कारण यह कि त्रस पर्यायके रहते हुए कोई जीव स्थावर हो ही नहीं सकता। इससे यह निश्चित है कि नागरिकवधका वह उदाहरण यथार्थमें उदाहरण नहीं है। इस प्रकार प्रथम अणुव्रतको ग्रहण कराते हुए जो श्रावकसे त्रस प्राणियोंके वधका प्रत्याख्यान कराया जाता है वह सर्वथा निर्दोष है, यह सिद्ध होता है ।।१३२॥ अब यहां अन्य वादियोंके अभिमतको दिखलाते हैं अन्य कितने ही वादो (संसारमोचक ) यह कहते हैं कि दुखी प्राणी चूंकि पापसे संसारमें परिभ्रमण करते हैं अतएव उनका उस पापके क्षयके निमित्त घात करना चाहिए ।।१३३। इससे उन वादियोंको क्या अभीष्ट है, इसे आगेकी गाथा द्वारा स्पष्ट किया जाता है इससे प्राणियोंके प्राणवधका प्रत्याख्यान बिना विशेषताके-सामान्यसे-नहीं कराना १. भ हवंती। २. अ मुखमति । ३. भ इदानी द्वादशस्थानकं । ४. अ वेति । ५. अ व्रतते । ६. अ हेतुना नायचस्सैव । ७. भ धारणे व्यापादनीया एव । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्येन प्राणवधविरती शंका समाधानम् ९१ यस्मादेवं तत्तस्मात् । प्राणवधनिवृत्तिर्नाविशेषेण भवति कर्तव्या, अपि च सुखितेंषु सुखितविषये कर्तव्या, तद्व्यापादन एव दोषसंभवात् । अन्यथा यद्येवं न क्रियते ततः । करणीयनिषेधने दोषः कर्तव्यो हि परलोकार्थिना दुःखितानां पापक्षयः, तन्निवृत्तिकरणे प्रव्रज्यादिदाननिवृत्तिकरणवद्दोष इत्येष पूर्वपक्ष: ॥ १३४ ॥ अत्रोत्तरमाह - १३६ ] भावे पावक्खओ त्ति न उ अट्टज्झाणओ बंधो । सिमिह किं प्रमाणं नारगनाओवगं वयणं ॥ १३५ ॥ तथा तेन प्रकारेण । वधभावे व्यापत्तिकरणे । पापक्षय एव न त्वार्तध्यानतो बन्धस्तेषां दुःखितानामपि । कि प्रमाणम् ? न किचिदित्यर्थः । अत्राह - नारकन्यायोपगं वचनं नारकन्यायानुसारि वचनं प्रमाणमिति ॥ १३५ ॥ एतदेव भावयति तेसिं वहिज्जमान वि परमाहम्मिअसुरेहि अणवरयं । रुदज्झाणगयाणवि न तो बंधो जहा विगमो ॥ १३६ ॥ | चाहिए, किन्तु सुखी जीवोंके विषय में उस वधके प्रत्याख्यानको कराना चाहिए, अन्यथा कर्तव्य कार्यका निषेध करनेपर दोषका होना अनिवार्य है । विवेचन - इस प्रसंग में संसारमोचकों का कहना है कि सामान्यसे प्राणियोंके वधका परित्याग कराया जाता है वह उचित नहीं है । परित्याग वास्तवमें सुखी जीवोंके वधका कराना चाहिए था, न कि कृमि-पिपीलिका आदि उन दुखी जीवोंके वधका भी जो पापके कारण संसारमें परिभ्रमण कर रहे हैं । कारण यह कि उनके वधसे जिस पापके कारण वे संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं उस पापका क्षय होनेवाला है । अतएव यह कर्तव्य कार्यके अन्तर्गत है । इस वस्तुस्थिति के होनेपर भी यदि सुखी व दुखोकी विशेषता न करके सामान्यसे ही प्राणियों के प्राणवधका परित्याग कराया जाता है तो इससे दुखी प्राणियोंके वधका भी, जो अवश्य करणीय था, निषेध हो जाता है । इस अवश्य करणीय कार्यका निषेध करना, यह ऐसा दोषजनक है जैसा कि दीक्षा आदि सत्कार्यो का निषेध । इस अपराधसे बचनेके लिए विशेषताक साथ सुखी जीवोंके हो वधका परित्याग कराना उचित है, न कि दुखी जीवोंके वधका, क्योंकि जीवित रहनेपर वे उस पाप से छुटकारा नहीं पा सकते हैं ॥ १३३-३४॥ वादीके इस पूर्वपक्ष निषेधके प्रसंग में वादीका प्रत्युत्तर इस पूर्वपक्ष के प्रसंग में वादीसे पूछा जाता है कि उस प्रकारसे दुखी जीवोका वध करनेपर उनके पापका क्षय ही होगा, किन्तु आतंध्यानके निमित्तसे उनके कर्मका बन्ध नहीं होगा, इसमे क्या प्रमाण है ? इस प्रश्नके प्रत्युत्तर में वादी कहता है कि उसमें नारकन्यायका अनुसरण करनेवाला वचन ही प्रमाण है ॥ १३५ ॥ आगे वादी इस नारकन्याय वचनको ही स्पष्ट करता है परम अधार्मिक सुरोंके द्वारा - अतिशय संक्लिष्ट, अम्ब व अम्बरीष आदि पन्द्रह प्रकार के असुरकुमार देवोंके द्वारा - निरन्तर पीड़ित किये जानेपर रौद्रध्यानको प्राप्त होनेपर भी उन १. भ तेशि वहअताण वि परमाहंपियसुरेहि । २. भ दोटूज्जाणवण तहा । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्ति: तेषां नारकाणाम् । वध्यमानानां हन्यमानानामपि । कै: ? परमाधार्मिकसुरैरम्बादिभिः । अनवरतं सततम् । रौद्रध्यानगतानामपि न तथा बन्धो यथा विगमः कर्मणी दुःखानुभवादिति गाथार्थः ॥१३६॥ ។ ९२ कथमेतन्निश्चीयत इत्यत्राह - नरगाउबंधविरहा अनंतरं तंमि अणुववत्तीओ । " तदभावे वि य खवणं परुप्परं दुक्खकरणाओ ॥१३७॥ [ १३७ अपट्टा मिवि संकिलेसओ चैव कम्मखवणं त्ति । न हि तयभावंम सुरो तत्थ वि य खवेइ तं कम्मं ॥ १३८ ॥ - नरकायुबन्धविरहात् न कदाचिन्नारको नरकायुर्बध्नाति । अत्रैव युक्तिमाह - अनन्तरं नरकोद्वर्तनसमनन्तरमेव तस्मिन्नरक एवानुत्पत्तेरनुत्पादात् न चाव्यवहितमुत्पद्यत इति सिद्धान्तः । ततश्च यथेदं न बध्नाति तथान्यदपीत्यभिप्रायः । तदभावेऽपि च परमाधामिकाद्यभावेऽपि च पङ्कादिपृथिवीषु । क्षपणं कर्मणस्तेषां परस्परं दुःखकरणादन्योन्य पीडाकरणेन, परस्परोदीरितदुःखा इति वचनात् नान्यनिमित्त क्षेपणमिति ॥ १३७ ॥ स्यादप्रतिष्ठाने नान्यनिमित्तमित्येतदाशङ्कयाह नारकियोंके वैसा बन्ध नहीं होता जैसो कि निर्जरा होती है । अभिप्राय यह है कि तीसरे नरक तक असुरकुमार ( भवनवासियों को एक जाति ) देवोंके द्वारा सताये जानेपर रौद्रध्यानके वशीभूत होनेपर भी वहां नारकियोंके कर्मका बन्ध तो अल्प होता है, पर दुखानुभवन से उसकी निर्जरा ही अधिक होती है। इस नारकन्यायसे सिद्ध है कि दुखी जीवोंका वध करनेपर उनके पापका क्षय अधिक होता है ॥१३६॥ इसका कैसे निश्चय किया जा सकता है कि उनके पापका क्षय अधिक होता है, इसे वादी द्वारा आगे स्पष्ट किया जाता है उन नारकियोंके नारकायुका बन्ध नहीं होता है, इसीसे निश्चित है कि उनके पापका क्षय हो जाता है । नारकायुका बन्ध न होने का भी कारण यह है कि अनन्तरनरक से निकलकर अव्यवहित अगले भवमें - वे नरकमें उत्पन्न नहीं होते । कर्म सिद्धान्त में भो नारकियोंके नारकायुक्रे बन्धका निषेध किया गया है। यहाँ यह शंका हो सकती थी कि चौथी आदि पृथिवियों में, जहां असुरकुमारोंका गमन सम्भव नहीं है, वहाँ उन नारकियों के पापका क्षय कैसे होता है, इस आशंकाको हृदयंगम करके वादी कहता है कि वहां उन नारकियों के पापका क्षय परस्परमें एक दूसरेको दिये जानेवाले दुःखके अनुभवन से होता है ॥१३७॥ अप्रतिष्ठान नरक में कर्मक्षपणका अन्य निमित्त तो नहीं है, तब वहां वह कैसे होता है, इस शंकाका उत्तर वादी आगे देता है सातवीं पृथिवीमें स्थित अप्रतिष्ठान नरक में संक्लेशसे ही वहां उत्पन्न होनेपर जन्मभूमिसे नीचे गिरकर ऊपर उछलने आदिके कष्टके अनुभवन से ही - वहाँके नारकियोंका कर्मक्षय १. अ· मपि के सुरैरेषादिभि । २. अ तयभावे । ३. अस्या प्रतिष्ठाने नानिमित्तं क्षपणमिति स्याथतिष्ठाने मानिमित्तमित्येतदा । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३९] सामान्येन प्राणवधविरतौ शंका-समाधानम् अप्रतिष्ठानेऽपि सप्तमनरकपृथिवीनरके' । संक्लेशत एव तथोत्क्षेपनिपातजनितदुःखादेव । कर्मक्षपणमिति, नान्यथा। न यस्मात्तदभावे संक्लेशाभावे । सुरो देवस्तत्रापि नरके यथासंभवं कथंचिद्गतः सन् । चशब्दादन्यत्र च संक्लेशरहितः। क्षपयति तत्कर्म यत्प्रवाहतो नरकवेदनीयमिति ॥१३८॥ उपसंहरन्नाह तम्हा ते वहमाणो अट्टज्झाणाइसं जणंतो वि । तक्कम्मक्खयहेऊ न दोसवं होइ णायव्वो ॥१३९॥ यस्मादेवं तस्मात्तान् दुःखितान् प्राणिनः। नन् व्यापादयन् । आतंध्यानादिकं जनयन्त आर्त-रौद्रध्यानं चित्रं च संक्लेशं कुर्वन्नपि। तेषां कर्मक्षयहेतुस्तेषां दुःखितानां कर्मक्षयनिमित्तमिति कृत्वा । न दोषवान् भवति ज्ञातव्यः संसारमोचक इति अयमपि पूर्वपक्षः॥१३९॥ ___ अत्रोत्तरमाह होता है । यहो कारण है जो उस संक्लेशके अभावमें वहाँ पहुँचा हुआ नारको उस कर्मका क्षय नहीं करता है। विवेचन-वादीके कहनेका अभिप्राय यह है कि सातवीं पृथिवीगत अप्रतिष्ठान नरकमें स्थित नारकियोंके नरकमें अनुभव करने योग्य उस कर्मके क्षयका यद्यपि दूसरा कोई निमित्त नहीं है फिर भी वहाँ नारक बिलके ऊपर स्थित जन्मभूमि में उत्पन्न नारकी उस ऊंची जन्मभूमिसे स्वभावतः नीचे गिरकर गेंदकी तरह पुनः पुनः उछलते हैं और गिरते हैं। इससे जो उन्हें महान् कष्ट होता है उसीके अनुभवनसे उनके उस कर्मका क्षय होता है। यही कारण है जो नरकों में कुछ समयके लिए जानेवाले देवोंके उस जातिके संक्लेशके न होनेसे उस कर्मका क्षय नहीं होता ।।१३८॥ आगे वादो इस सबका उपसंहार करता है इस कारण उन दुखी जीवोंका वध करनेवाला व्यक्ति उनके आर्त और रौद्र ध्यानको उत्पन्न करता हुआ भी उनके पापके क्षयका ही वह कारण होता है। इसीलिए वह दोषवान् ( अपराधी ) नहीं है, ऐसा जानना चाहिए। विवेचन-संसारमोचकोंका मत है कि जो कीट-पतंग आदि दुखी जीव हैं वे संसारमें परिभ्रमण करते हुए दुख भोग रहे हैं। उनका वध करनेसे वे उस दुखसे छुटकारा पा सकते हैं । इस प्रकार मारे जानेपर उनके यद्यपि आर्त व रौद्ररूप दान हो सकता है. फिर भी चकि मार देनेपर उनके पापका क्षय होता है. इसलिए मारनेवाला दोषी नहीं होता, अपित उनके पापके क्षयका कारण हो वह होता है। इस वस्तुस्थितिके होनेपर प्रथम अणुव्रतमें सामान्यसे स्थूल प्राणियोंके घातका प्रत्याख्यान न कराकर विशेषरूपमें सुखी प्राणियोंके ही प्राणघातका प्रत्याख्यान करना चाहिए । अन्यथा, दुखी प्राणियोंके भी प्राणघातका परित्याग करानेसे वे जीवित रहकर उस पापजनित दुखको दीर्घ काल तक भोगते रहेंगे, जबकि इसके विपरीत मारे जानेपर वे उस पापसे छुटकारा पा जावेंगे। इस प्रकार यहां संसारमोचकोंने अपने पक्षको स्थापित किया है।।१३९।। आगे उसका निराकरण करते हुए वादीसे यह पूछते हैं कि उनके कर्मक्षपणसे घातकको क्या लाभ होनेवाला है १. सप्तमनरके । २. म हेउं । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः चिट्ठउ ता इह अन्नं तक्खवणे तस्स को गुणो होइ । कम्मक्खउ त्ति तं तुह किंकारणगं विणिदिटुं ॥१४॥ तिष्ठतु तावदिह प्रक्रमेऽन्यद्वक्तव्यम् । तत्क्षपणे दुःखितसत्त्वकर्मक्षपणे तस्य क्षेपयितुदुःखितसत्त्वव्यापादकस्य । को गुणो भवति, न हि फलमनपेक्ष्य प्रवर्तते प्रेक्षावानिति । अथैवं मन्यसे कर्मक्षय इति कर्मक्षयो गुण इत्याशङ्कयाह-तत्कर्म तव हे वादिन् किंकारणं किंनिमित्तं निर्दिष्टं प्रतिपादितं शास्त्र इति ॥१४०॥ अन्नाणकारणं जइ तदवगमा चेव अवगमो तस्स । किं वहकिरियाए तओ विवज्जओ तीइ अह हेऊ ॥१४१।। अज्ञानकारणं अज्ञाननिमित्तं यदि, एतदाशङ्कयाह-तदपगमादेवाज्ञाननिवृत्तेरेवापगमस्तस्य निवृत्तिस्तस्य कर्मणः, कारणाभावात् कार्याभाव इति न्यायात् । किं वधक्रियया, ततः अप्रतिपक्षत्वातस्या विपर्ययः तस्या वधक्रियायाः अथ हेतुरवधक्रियैवेति ॥१४१॥ एतदाशङ्कयाह मुत्ताण कम्मबंधो पावइ एवं निरत्थगा मुत्ती । अह तस्स पुन्नबंधो तओ वि न अंतरायाओ॥१४२॥ मुक्तानां कर्मबन्धः प्राप्नोति, तस्यावधक्रियानिमित्तत्वात् मुक्तानां चावधक्रियोपेतत्वात्, एवं निरर्थका मुक्तिबन्धोपद्रुतत्वात् । अथैवं मन्यसे-तस्य दुःखितसत्त्वव्यापादकस्य । पुण्यबन्धो गुणो न तु कर्मक्षय इत्येतदाशङ्कयाह-तकोऽपि न असावपि गुणो नान्तरायाकारणादिति ॥१४२॥ इस प्रसंगमें अन्य कथन तो रहे, हम वादोसे पूछते हैं कि उन दुखी जीवोंके कर्मक्षयमें उनका वध करके कर्मक्षय करानेवाले को क्या लाभ है ? इसके उत्तरमें यदि कहा जाये कि उसको उसके कर्मके क्षयका होना ही लाभ है तो इसपर पुनः प्रश्न किया जाता है कि तुम्हारे मतानुसार उस कर्मका कारण आगममें क्या निर्दिष्ट किया गया है जिसका क्षय अभीष्ट है ॥१४०॥ आगे इसी प्रसंगमें और भी उत्तर-प्रत्युत्तरका क्रम चल रहा है इसपर वादी कहता है कि उस कर्मका कारण अज्ञान है। इसके उत्तरमें वादीसे कहा जाता है कि तब तो उस अज्ञानके विनाशसे ही उस कर्मका क्षय हो सकता है, अर्थात् कारणके अभावसे कार्यका अभाव होता है, ऐसा जब न्याय है तब तदनुसार कारणभूत उस अज्ञानके दूर करनेसे ही कार्यभूत कर्मका विनाश सम्भव है। ऐसी स्थितिमें उन दुखी जीवोंका वध करनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? उससे वधकको कुछ भी लाभ होनेवाला नहीं है। इसपर वादी कहता है कि उस वक्रियाका विपर्यय-उन दुखी जीवोंका वध न करना-ही उस कर्मबन्धका कारण है ॥१४१॥ आगे वादीके द्वारा निर्दिष्ट उस कर्मबन्धको कारणभूत अवध क्रियामें दोष दिखलाते हैं यदि वादी अवध क्रियाको कर्मबन्धका कारण मानता है तो वैसी अवस्थामें मुक्त जीवोंके कर्मबन्धका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होनेवाला है, क्योंकि उनके द्वारा किसी भी प्राणीका वध नहीं किया जाता है । तब ऐसी स्थितिमें मुक्ति निरर्थक हो जावेगी। इसका परिहार करते हुए वादी कहता है कि उस वधकके उन दुखी जीवोंके वधसे पुण्यका बन्ध होता है। इसका भी निरसन १. म ते । २ अक्षपयितुं दुःखित । ३. म किरियाह । ४. अ वषः क्रियायाः इति हेतु। ५. म णो। . . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४३ ] सामान्येन प्राणवधविरतो शंका-समाधानम् एतदेव भावयति वहमाणो ते नियमा करेइ वहपुन्नमंतरायं से । ता कह णु तस्स पुन्नं तेसिं ख्वणं व हेऊओ ॥१४३॥ घ्नन् व्यापादयंस्तान् दुःखितसत्त्वान् । नियमादवश्यमेव करोति निर्वर्तयति असौ व्यापादकः। वधपुण्यान्तरायममीषां दु:खितसत्त्वानाम, जीवन्तो हि तेऽन्यदुःखितवधेन पुण्यं कुर्वन्ति । व्यापादने च'तेषां अन्यवधाभावात्पुण्यान्तरायम् । यस्मादेवं ततस्मात्कथं नु तस्य व्यापादकस्य पुण्यं, नैवेत्यर्थः। कुतः ? अहेतुकत्वादिति योगः। न ह्यन्यपुण्यान्तरायकरणं पुण्यहेतुरिति सिद्ध एव हेतुः। दृष्टान्तमाह-तेषां क्षपणवत् तेषां दुःखितसत्वानां व्यापाद्यमानानां कर्मक्षपणवदिति । करते हुए कहा जाता है कि उसके वह पुण्यबन्ध भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इस प्रकारसे वह दुखी जीवोंका वध करके उनके पुण्यबन्ध में अन्तराय करता है ॥१४२।। वह कैसे अन्तराय करता है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है कारण इसका यह है कि वह उनका वध करता हुआ उनके अन्य जीवोंके वधसे होनेवाले पुण्यके बन्धमें अन्तराय करता है। और तब वैसी स्थिति में-दूसरोंके पुण्यबन्धमें स्वयं अन्तराय बन जानेपर-उस वधकके पुण्यका बन्ध कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है। जैसे उनके कर्मक्षयमें-जो दूसरोंके कर्मक्षयमें स्वयं अन्तराय करता है उसके कर्मका क्षय भी जिस प्रकार असम्भव है। इस प्रकार वादीने जिसे पुण्यबन्धका हेतु माना है वह वस्तुतः अहेतु है-उसका हेतु नहीं है ।।१४३।। विवेचन-संसारमोचकोंके पूर्वोक्त मतका निराकरण करते हुए यहां उनसे पूछा गया है कि तुम जो दुखी जीवोंके कर्म क्षयार्थ उनके वधसे वधकर्ताके कर्मक्षयका लाभ मानते हो वह युक्तिसंगत नहीं है। इसका कारण यह है कि कारणके अभावमें कार्यका अभाव होता है, ऐसा न्याय है। तदनुसार यहां यह विचारणीय है कि उस कर्मका कारण क्या है ? यदि उस कर्मका कारण अज्ञान माना जाता है तब तो उसका क्षय उस अज्ञानके विनष्ट हो जानेपर ही सम्भव है, न कि दुखो जोवोंके उस वधसे; क्योंकि वह उसका प्रतिपक्षभूत नहीं है। जो कर्मका प्रतिपक्षभूत होगा उसीसे उसका विनाश हो सकता है। इसलिए प्राणिवधको कर्मक्षयका कारण मानना न्याय-संगत नहीं है । इसपर यदि वादो यह कहे कि कर्मका कारण दुखो जोवोंके वधका न करना ही है, तो ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर मुक्त जीवोंके कमंबन्धका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा। इसका कारण यह है कि तुम ( संसारमोचक ) जिस अवधक्रियाको कर्मबन्धका कारण मानते हो उससे वे मुक्त जीव सहित हैं-उनके द्वारा कभी किसी जीवका वध सम्भव नहीं है। फिर जब इस प्रकारसे मुक्त जीवोंके भी कर्मबन्ध होने लगा तब उस मुक्तिका प्रयोजन हो क्या रहा? वह निरर्थक सिद्ध होती है। इसपर वादो यदि यह कहता है कि दुखी जीवोंके वधसे वधकर्ताके कर्मका क्षय तो नहीं होता है, किन्तु उससे उसके पुण्यका बन्ध होता है, तो उसको यह मान्यता भी युक्तिके विरुद्ध है। इसका कारण यह है कि वादी जब यह स्वीकार करता है कि दुखी जीवोंके वधसे वधकर्ताके पुण्यका बन्ध होता है तब वैसी स्थितिमें जिन जीवोंका वह वध करता है वे भी यदि जीवित रहते तो अन्य जीवोंका वध १. अ सत्त्वानां जीवानां ते अन्य । २. अ तेषामन्यभावा पुण्यांतरायां । ३. अ 'तत्तस्मात क' इत्यतोऽग्रे 'भीखां दुःखितसत्त्वानां' इत्यादि-पुण्यांतरायं' पर्यन्तः पूर्वलिखितसंदर्भः पुनः पुनः प्रतिलिखितोऽस्ति । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः अयमत्र भावार्थ:-दुःखितसत्त्वव्यापत्त्या कर्मक्षय इत्यभ्युपगमः, ततश्च व्यापाद्यमानानामन्यव्यापादनाभावादहेतुकत्वात्कुतः कर्मक्षय इति ॥१४३॥ अह सगयं वहणं चिय हेऊ तस्स त्ति किं परवहेणं । अप्पा खलु हंतव्यो कम्मक्खयमिच्छमाणेणं ॥१४४।। अथैवं मन्यसे-स्वगतमात्मगतम् । हननमेव जिघांसनमेव । हेतुस्तस्य कर्मक्षयस्यैतदा. शङ्कयाह इति किं परवधेन एवं न किंचित्परव्यापादनेनात्मैव हन्तव्यः कर्मक्षयमिच्छता, स्वगत. वधस्यैव तन्निमित्तत्वादिति ॥१४४॥ अह उभयक्ख यहेऊ वहु त्ति नो तस्स तन्निमित्ताओ। __ अविरुद्ध हेउजस्से य न निवित्ती इयरभावे वि ॥१४५॥ अथैवं मन्यसे-उभयक्षयहेपूर्वधः व्यापाद्य-व्यापादककर्मक्षयहेतुळपादनम्, कर्तृ कर्मभावेन तदुभयनिमित्तत्वादस्येत्येतदाशङ्कयाह-नैतदेवम्। कुतः ? तस्य कर्षणम्तन्निमित्तत्वात्तद्विरुद्धवधक्रियाजन्यत्वात् । यदि नामैवं ततः किमिति ? अत्राह -अविरुद्धहेतुजस्य च निवृत्तिहेतुत्वाभिमताविरुद्धकारणजन्यस्य च वस्तुनो न निवृत्तिन विनाशः। इतरभावेऽपि विनाशकारणाविरोधिपदार्थभावेऽपीति ॥१४५॥ एतदेव भावयति । करके पुण्यका बन्ध कर सकते थे। इस प्रकारसे जो उन जीवोंके पुण्यबन्धमें स्वयं अन्तराय बनता है उसके भला पुण्यका बन्ध कैसे हो सकता है ? असम्भव है वह, क्योंकि दूसरोंके पुण्यबन्धमें अन्तराय करना कभी पुण्यबन्धका हेतु नहीं हो सकता। यहां जो कर्मक्षयका उदाहरण दिया गया है उसका अभिप्राय यह है कि दुखी जीवोंके वधसे कर्मका क्षय होता है, इस मान्यताके अनुसार कर्मक्षयके लिए जिन जीवोंका वध किया जा रहा है वे भी जीवित रहनेपर अन्य जीवोंका वध करके अपने कर्मका क्षय कर सकते थे। इस प्रकार जो अन्य जोवोंके कर्मक्षयमें अन्तराय बन रहा है उसके कर्मका क्षय असम्भव ही है। इससे सिद्ध होता है कि दूसरोंके कर्मक्षयमें बाधक होना स्वयंके कर्मक्षयका हेतु नहीं हो सकता। इससे यह निष्कर्ष निकला कि दुखी जीवोंके वधसे वधकर्ताके न तो कर्मका क्षय सम्भव है और न पुण्य का बन्ध भी सम्भव है। इसके अतिरिक्त दुखी जीवोंके वधसे उनके पापका क्षय होता है, इसका निराकरण भो आगे (१५६ आदि) किया जानेवाला है ॥१४०-४३॥ आगे आत्मवध कर्मक्षयका कारण है, इस वादोंके अभिमतका निराकरण किया जाता है यदि वादीको यह अभीष्ट है कि अपना वध हो उस कर्मक्षयका हेतु है तो वैसी स्थितिमें अन्य प्राणियोंके वधसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? कुछ भी नहीं, उक्त मान्यताके अनुसार तो कर्मक्षयको इच्छा करनेवालेको निश्चयसे अपना ही घात करना उचित है, क्योंकि, वही तो कर्मक्षयका कारण है ॥१४४॥ आगे वादोके अभिप्रायान्तरका भी निषेध किया जाता है यदि वादी यह कहना चाहता है कि वह वध वध्य और वधक दोनोंके ही कर्मक्षयका कारण है तो ऐसा कहना भी संगत नहीं है, क्योंकि वह कर्म उसो वधके निमित्तसे बाँधा जाता है। इस प्रकार वह वध जिस कर्मका अविरुद्ध हेतु है वह कर्म अपने विनाशके कारणके अविरोधो १. अ अतोऽग्रेऽग्रिम 'कर्मक्षय'पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ हेउस्स । ३. अ ापादन कर्मक्षतभावेन दुभयमित्तत्वादस्य। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४७] सामान्येन प्राणवषविरतौ शंका-समाधानम् हिमजणियं सीयं चिय अवेइ अनलाओ नायवो वेइ । एवं अणभुवगमे अइप्पसंगो बला होइ ॥१४६॥ हिमजनितं शीतमेवापैत्यनलात्, शीतकारणविरोधित्वादनलस्य। नातपोऽपैति, तत्कारणाविरोधित्वादनलस्य । एवमनभ्युपगमे कारणविरोधिनः सकाशान्निवृत्तिरित्यनङ्गीकरणे। अतिप्रसङ्गो बलाद् भवति तन्निवृत्तिवत्तदन्यनिवृत्तिलक्षणा अव्यवस्था नियमेनापद्यत इति ॥१४६॥ एतदेवाह तब्भावंमि अजं किंचि वत्थु जत्तो कुओ वि न हविज्जा । एवं च सव्वऽभावो पावइ अन्नुन्नविक्खाए ॥१४७॥ तद्भावेऽपि चातिप्रसङ्गभावे च । यत्किचिदत्र वस्तुजातम् । यतः कुतश्चित्सकाशान्न भवेत्, अप्रतिपक्षादपि निवृत्त्यभ्युपगमात् । अत्रानिष्टमाह-एवं च सति सर्वाभावः प्राप्नोति अशेषपदार्थापदार्थके रहनेपर भी उस अविरुद्ध हेतुभूत वधसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता है-उसका विनाश विरुद्ध कारणसे ही सम्भव है, न कि अविरुद्ध कारणसे ॥१४५।। इसीको आगे उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है हिम (बर्फ) से उत्पन्न हआ शैत्य ही अग्निके निमित्तसे नष्ट होता है. आतप उसके निमित्तसे नष्ट नहीं होता है । इस सामान्य नियमको न माननेपर अतिप्रसंग अनिवार्य होगा। विवेचन-यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि जो जिसके कारणका विरोधी होता है उसकी समीपतामें वह नष्ट हो जाता है। जैसे-अग्नि यदि शीतताके कारणभूत हिमको विरोधो है तो उसकी समीपतामें वह हिमसे उत्पन्न हई शीतता स्वभावतः नष्ट होती हई देखी जाती है। इ विपरीत जो जिसके कारणका विरोधी नहीं होता है उसकी समीपताके होनेपर भी वह उसके आश्रयसे नष्ट नहीं होता है। जैसे--वहो अग्नि चूंकि आतपकी कारणभूत सूर्यको किरणोंको विरोधी नहीं है, इसीलिए उसके समीप रहनेपर भो वह आतप ( उष्णता ) नष्ट नहीं होता है। प्रकृतमें वधक्रिया चूंकि कर्मके कारणभूत अज्ञान आदि की विरोधी नहीं है इसीलिए उस वधक्रियाके आश्रयसे वह अज्ञानजनित कर्म नष्ट नहीं हो सकता है। इतना स्पष्ट होनेपर भी यदि उपर्युक्त सर्वसम्मत सिद्धान्तको नहीं स्वीकार किया जाता है तो फिर जिस किसीके भी सद्भाव में जो भी कोई नष्ट हो सकता है, इस प्रकारसे जो अव्यवस्था होनेवालो है उसका निवारण नहीं किया जा सकता है ॥१४६॥ आगे उस अतिप्रसंगसे होनेवाली अव्यवस्थाको दिखलाते हैं और उस अतिप्रसंगके सद्भावमें जो कोई भी वस्तु जिस किसीके निमित्तसे नहीं हो सकेगो। तब वैसी स्थिति में परस्परको अपेक्षासे सब ही पदार्थों के अभावका प्रसंग बलात् प्राप्त होगा। विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि किसी वस्तुका विनाश उसके विरोधीके द्वारा ही होता है. जैसे शीतका विनाश उसको विरोधो अग्निके द्वारा। पर वादो जब इस स्वभावसिद्ध नियमको न मानकर अविरोधी पदार्थके निमित्तसे भी विवक्षित वस्तुका विनाश स्वीकार करता है तब वैसी अवस्थामें जो किसी वस्तुकी उत्पत्तिका कारण है वह तो अविरोधी होता हुआ भी १. अ अइप्पसंवेगो। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १४८ - भाव आपद्यते । कुतोऽन्योन्यापेक्षया अविरोधिनमप्यन्यमपेक्ष्यान्यस्य निवृत्तिरन्यं पान्यस्येति शून्यतापत्तिरिति ॥१४७॥ अह तं अहेउगं चिय कहं नु अत्थि त्ति अवगमो कह य । नागासमाइयाणं कुओवि सिद्धो इह विणासो ॥१४८॥ ___ अथैवं मन्यसे तत्कर्माहतुकमेव निर्हेतुकमेवेत्येतदाशङ्कयाह-कथं त्वस्तीति नैवास्ति, तदहे त्वात् खरविषाणादिवत् । आकाशादिना अहेतुकेन सता व्यभिचारमाशङ्कयाह-अपगमः कथं विनाशश्च कथमस्येति । एतदेव भावयति-नाकाशादीनां नाकाशधर्मास्तिकायप्रभृतीनाम् । कुतश्चिल्लकुटादेः सिद्ध इह विनाशः, अहेतुकत्वेन नित्वत्वादिति ॥१४८॥ इत्तु च्चिय असफलत्ता नो कायव्वो वहु त्ति जीवाणं । वहहेउगं चिय तयं कहं निवित्ती तओ तस्स ॥१४९॥ अतोऽपि चाहेतुककर्माविनाशित्वेन । अफलत्वात् कर्मक्षयफलशून्यत्वात् । न कर्तव्यो वधो जीवानामिति । वधहेतुकमेव तत्स्याद्वधनिमित्तमेव तत्कर्मेत्येतदाशङ्कयाह-कथं केन प्रकारेण । वादीके अभिमतानुसार विनाशका कारण सम्भव है। इस परिस्थितिमें किसी वस्तुको उत्पत्ति तो होती नहीं और विनाश उनका होता रहेगा, तब इस प्रकारसे समस्त वस्तुओंका अभाव हो जानेपर शून्यताका प्रसंग दुनिवार होगा। इससे विरोधीके द्वारा ही किसी वस्तुका विनाश मानना उचित है न कि अविरोधीके द्वारा। इस प्रकार प्राणिवध अविरोधी होनेसे कर्मके क्षयका कारण नहीं हो सकता ॥१४७॥ आगे कर्मको अहेतुक माननेपर उसके विषयमें भी दोष दिखलाते हैं यदि वादीके अभिमतानुसार वह कम अहेतुक है-कारणसे रहित है-तो वह 'है' ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता-वैसा स्वीकार करनेपर उसका खरविषाण आदिके समान निर्हेतुक होनेसे अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा। इसपर यदि यह कहा जाये कि निर्हेतुक आकाशादिके समान उसके अस्तित्वमें कुछ बाधा सम्भव नहीं है, तो इसपर कहा गया है कि तब उसका विनाश कैसे होगा ? नहीं हो सकेगा। अभिप्राय यह है कि अहेतुक नित्य आकाश व धर्मास्तिकाय आदिका जिस प्रकार किसी दण्ड आदिके द्वारा विनाश सिद्ध नहीं है उसी प्रकार उस अहेतुक कर्मका भी आपके मतानुसार विनाश नहीं हो सकेगा ॥१४८।। ___ इसका क्या परिणाम होगा, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है इससे-नित्य आकाश आदिके समान उस कर्मका विनाश न हो सकनेके कारण-निष्फल होनेसे जीवोंके वधको नहीं करना चाहिए। इसपर यदि यह कहा जाये कि वह कम वधहेतुक हो है तो इसके उत्तर में वादोसे कहा गया है कि वैसा होनेपर वधके आश्रयसे होनेवाले उस कर्मकी निवृत्ति उसी वधके द्वारा कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है। विवेचन--यह पूर्वमें कहा जा चुका है कि यदि वादो कर्मको अकारणक मानता है तो उसका नित्य आकाश आदिके समान विनाश असम्भव हो जायेगा। और जब इस प्रकारसे उसका विनाश ही असम्भव होगा तब वादीने जो अपना अभिमत प्रकट करते हुए यह कहा था कि दुखी जीवोंके वधसे उनके कर्मका क्षय होता है, यह असंगत ठहरता है। इसीलिए कर्मक्षयके उद्देश्यसे १. भ गोगासमाइणं कुईयो। २. अ एत्तो। ३. अ कायव्वा वाहो त्ति । ४. अ कर्मविनाशहेतुत्वेन । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५२ ] सामान्येन प्राणवधविरती शंका-समाधानम् निवृत्तिावृत्तिस्ततस्तस्माद्वधात्तस्य कर्मणः। न हि यद्यतो भवति तत्तत एव न भवति, भवनाभावप्रसङ्गादिति ॥१४९॥ तम्हा पाणवहोवज्जियस्स कम्मस्स क्खवण हेउत्ता। तन्विरई कायव्वा संवररूव त्ति नियमेणं ॥१५०॥ यस्मादेवं वधहेतुकमेव तत्तस्मात् । प्राणवधोपाजितस्य कर्मणः क्षपणहेतुत्वात्तद्विरतिवंधविरतिः कर्तव्या संवररूपेति वधविरतिविशेषणा नियमेनावश्यतयेति ॥१५०॥ कि च सुहिएसु वि वहविरई कह कीरइ नत्थि पावमह तेसु । पुन्नक्खओ वि हु फलं तब्भावे मुत्तिविरहाओ ॥१५१॥ सुखितेष्वपि प्राणिषु । वधविरतिापादननिवृत्तिः। किं क्रियते भवद्भिः ? नास्ति पापं क्षपणीयमथ तेषु सुखितेषु पुण्यनिमित्तत्वात्सुखस्य, एतदाशङ्कयाह-पुण्यक्षयोऽपि तद्वपापत्तिजनितः फलमेव, अतस्तेष्वपि वध[धा] विरतिप्रसङ्गः । कथं पुण्यक्षयः फलम् ? तदभावे पुण्यभावें मुक्तिविरहात् मोक्षाख्यप्रधानफलाभावात् पुण्यापुण्यक्षयनिमित्तत्वात्तस्येति ॥१५॥ अह तं सयं चिय तओ खवेइ इयरं पि किं व एमेव । कालेणं खवइ च्चियं उवक्कमो कीरइ वहेण ॥१५२॥ जीवोंका कभी वध नहीं करना चाहिए। इसपर यदि वादी उस कर्मको अहेतुक न मानकर उसे वधके निमित्तसे मानना चाहे तो वह भी असंगत होगा। कारण यह कि जो जिसके निमित्तसे उत्पन्न होता है वह उसोके निमित्तसे कभी नष्ट नहीं हो सकता है, यह एक अनुभवसिद्ध बात है । तदनुसार जीववधके आश्रयसे बँधनेवाला कर्म कभी उसो जीववधसे नष्ट नहीं हो सकता है ॥१४९।। इससे जो निष्कर्ष निकलता है, उसे आगे दिखलाते हैं इसलिए प्राणवधसे उपाजित कर्मके क्षयकी कारण होनेसे नियमतः संवरस्वरूप उस वधको विरति (परित्याग ) करना हो उचित है। अभिप्राय यह है कि जिसके आश्रयसे कर्म आता है उसे आस्रव और उसके निरोधको संवर कहा जाता है। तदनुसार प्राणवधसे चाक कर्म आता है, अतः उसके निरोधस्वरूप संवरका कारण होनेसे उस प्राणवधका परित्याग करना हा श्रेयस्कर है ॥१५०॥ वादीने सुखी जीवोंके वधको विरतिको जो अवश्यकरणीय कहा था उसके भी विषय में आगे दोष दिखलाते हैं सुखी जीवोंके वधको विरतिको भी किस लिए किया जाता है ? उसे भी नहीं करना चाहिए । इसपर वादी यदि यह कहता है कि उनके क्षय करनेके योग्य पाप नहीं है, इसीलिए उनके वधकी विरति करायो जाती है। इसके उत्तरमें यह कहा गया है कि उनके पुण्य ता है जिसके निमित्तसे वे सुखको प्राप्त हैं, अतः वादीके मतानुसार पुण्यका क्षय भी उनके वधका फल ठहरता है। कारण यह कि पुण्यके सद्भावमें भी मुक्ति प्राप्त होनेवाली नहीं है, क्योंकि वह मुक्ति पुण्य और पाप दोनोंका क्षय होनेपर ही सम्भव है ॥१५॥ १. अखविइ च्चिय । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रावकप्रज्ञप्तिः [१५३ - ___ अथैवं मन्यसे-तत्पुण्यं स्वयमेव तक आत्मनैवासौ सुखितः। क्षपयत्यनुभवेनैव वेदयतीत्येतदाशङ्कयाह-इतरदपि पापं कि न एवमेव किं न स्वयमेव दुःखितः क्षपयति, क्षपयत्येवेत्यर्थः । अथैवं मन्यसे-कालेन प्रदीर्घण क्षपयत्येव, नानान्यथाभावः। उपक्रमः क्रियते वधेन तस्यैव प्रदीर्घकालवेद्यस्य पापस्य स्वल्पकालवेद्यत्वमापाद्यते व्यापत्तिकरणेनेति ॥१५२॥ एतदाशङ्कयाह इयरस्स किं न कीरइ सुहीण भोगंगसाहणेणेवं । न गुण त्ति तंमि खविए सुहभावो चेव तत्तुत्तिं ॥१५३॥ इतरस्येति पुण्यस्य । किन क्रियते उपक्रमः ? सुखिना भोगाङ्गसाधनेन काश्मीरादेः कुंकुमादिसंपादनेन ? अथैवं मन्यसे-एवमुपक्रमद्वारेण न गुण इति तस्मिन् पुण्ये क्षपिते। कुतः ? सुखभावादेव तत् इति ततः पुण्यात्सुखस्यैव प्रादुर्भावादिति ॥१५३॥ एतदाशङ्कयाह निरुवमसुक्खो मुक्खो न य सइ पुन्ने तओ त्ति किं न गुणो । पावोदयसंदिद्धो इयराम उ निच्छओ केण ॥१५४॥ निरुपमसौख्यो मोक्षः, सँकलाबाधानिवृत्तरुभयसिद्धत्वात् । न च सति पुण्ये तकोऽसौ, पुण्यक्षयनिमित्तत्वात्तस्य । इति एवं कथ न गुणः ? पुण्योपक्रमकरणे गुण एव । अथैवं मन्यसे सुखी जीवोंके पुण्यक्षयके विषय में वादों के अभिमतको दिखलाते हुए उसका निराकरण सुखी जीव उस पुण्यको स्वयं ही क्षीण करता है, अर्थात् सुखोपभोगपूर्वक वह उस पुण्यका क्षय स्वयं करता है, अतः उसके लिए उसका वध अनावश्यक है, ऐसा यदि वादीका अभिमत है तो उसके उत्तरमें यह भी कहा जा सकता है कि इसी प्रकारसे दुखो जीव भी अपने पापको दुःखोपभोगपूर्वक क्यों नहीं स्वयं क्षीण कर दे ? इसपर यदि वादी यह कहे कि वह उस पापको क्षीण तो करता ही है, पर उसे वह दीर्घकालमें क्षीण कर पावेगा, जब कि वधके द्वारा उसका उपक्रम किया जाता है-दीर्घकालमें भोगने योग्य उसे अल्पकालमें भोगने योग्य कर दिया जाता है । इससे दुखी जीवोंके वधका परित्याग कराना उचित नहीं है, किन्तु सुखी जीवोंके वधका परित्याग कराना उचित है । इस प्रकार वादीने अपने अभिमतको व्यक्त किया है ॥१५२।। वादीके इस अभिमतका निराकरण व उसपर वादीकी पुनः आशंका___ इसके उत्तरमें यहां कहा गया है कि सखो जीवोंके भोगोपभोगके साधनभत कश्मोरी कूकम आदिको सम्पादित कराकर उनके पुण्यका भी उपक्रम क्यों नहीं कराया जाता? इसपर वादीका कहना है कि उससे-उपक्रम द्वारा पुण्यका क्षय करानेसे-कुछ लाभ नहीं है, क्योकि उस पुण्यसे उनको सुखकी ही प्राप्ति होनेवाली है, अतः दुखी जावोंके पापका उपक्रम कराना ही उचित है, न कि सुखी जीवोंके पुण्यका उपक्रम कराना ॥१५३॥ ___ आगे वादीकी इस शंकाका समाधान किया जाता है मोक्ष अनुपम सुखसे संयुक्त है, वह पुण्यके रहते हुए सम्भव नहीं है, इस प्रकार उपक्रम द्वारा उस पुण्यका क्षय करानेमे लाभ क्यों नहीं है ? मोक्ष प्राप्त करा देना ही उसका बड़ा लाभ है। इसपर वादो यदि यह कहे कि पुण्यका उपक्रम करनेपर वह पापके उदयसे सन्दिग्ध है, अर्थात् १. अ किन्न एवमेव दुःखितः पयत्येवेत्यर्थः । २. अ वेद्यकालस्य स्वल्पं । ३. अ गुणो। ४. अ तत्तो -ति । ५. भ सोक्खो मोक्खो ण य सति । ६. असंदिरो। ७. म सकलावधा। ८. अनेव सति । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAA - १५६] सामान्येन प्राणवधविरतो शंका-समाधानम् १०१ पापोदयसंदिग्धोऽसौ न ात्र निश्चय उपक्रमेण पुण्ये क्षपिते तस्य मोक्ष एव भविष्यति न तु पापोदय इति, एतदाशङ्कयाह-इतरस्मिन् तु दुःखितपापक्षपणे निश्चयः केन यदुत तस्यैवमेवार्थो न पुनरनर्थ इति ॥१५४॥ एतदेव भावयति दुहिओ वि नरगगामी वहिओ सो अवहिओ बहू अन्ने । वहिऊण न गच्छिज्जा कयाइ ता कह न संदेहो ॥१५५॥ दुःखितोऽपि मत्स्यबन्धादिर्नरकगामी हतः सन् कदाचित्स्यादिति योगः, नरकसंवर्तनीयस्य कर्मणः आसकलनसभवात्, वेद्यमानोपक्रमे च तदुदयप्रसङ्गात् । स एवाहतोऽव्यापादितः सन् बहूनन्यान् दुःखितान् हत्वा त्वन्मतेनैव पापक्षयान्न गच्छेत् कदाचित् । यस्मादेवं तस्मात्कथं न संदेहः ? दुःखितपापक्षपणेऽपि संदेह एवेति ॥१५५॥ अधुना प्रागुपन्यस्तं नारकन्यायमधिकृत्याह नेरइयाण वि तह देहवेयणातिसयभावओ पायं । नाईवसंकिलेसो समोहयाणं व विन्नेओ ॥१५६॥ नारकानामप्युदाहरणतयोपन्यस्तानाम् । तथा तेन प्रकारेण नरकवेदनीयकर्मोदयजनितेन । देहवेदनातिशयभावतः शरीरवेदनायास्तोवभावेन । प्रायो बाहुल्येन । नातोवसंक्लेशः क्रूरादि. पुण्यका उपक्रम करानेपर उसके मोक्ष ही होगा और पापका उदय नहीं होगा, यह सन्देहापन्न है, अतः पुण्यका उपाकम कराना उचित नहीं है। इस प्रकार वादोके कहनेपर उत्तरमें यह भी कहा जा सकता है कि दुखी जीवोंके पापका उपक्रम करानेपर भविष्यमें उनके पापका उदय न होकर पुण्यका ही उदय होगा, जिससे वे दुखी न होकर सुखो ही होंगे, इसका निश्चय भी कैसे किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता है। अतः वध करके उपक्रम द्वारा उनके पापका क्षय कराना भी युक्तिसंगत नहीं है ॥१५४॥ इसे ही आगे स्पष्ट किया जाता है-- दुखी जीव-मछलियोंके घातक धीवर आदि-भी मारे जाकर कदाचित् नरकगामी हो सकते हैं तथा इसके विपरीत वे न मारे जाकर-जीवित रहते हुए-आपके मतानुसार अन्य बहुतसे जीवोंका वध करके कदाचित् पापका क्षय हो जाने से नरकमें न भी जायें। इस परिस्थिति. में दुखी जीवोंके पापक्षयमें कैसे सन्देह नहीं है ? उसके विषय में भी वह सन्देह तदवस्थ है ।।१५५।। आगे वादीने जिस नारकन्यायके अनुसार दुखी जीवोंके वधको उचित बतलाया था उस नारकन्यायके सम्बन्धमें विचार किया जाता है नारकी जीवोंके भी उस प्रकारसे-नरकमें वेदनके योग्य कर्मके उदयसे-जो अतिशय तीव शारीरिक वेदना होतो है उसके निमित्तसे वेदनासमुद्घातको अथवा मूर्छाको प्राप्त जीवोंके समान प्रायः अत्यन्त संक्लेश नहीं होता है, ऐसा जानना चाहिए। विवेचन-वादीने पूर्वमें ( ३५-३८ ) नारकियोंका उदाहरण देते हुए दुखी जीवोंके वधसे उनके पाप कर्मका क्षय होता है, इस अपने अभिमतको पुष्ट किया था। उसे दूषित करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि नारको जोवोंको भी प्रायः अतिशय तीव्र शरीरको वेदनासे अभिभूत होनेके मूर्छाको प्राप्त हुए जीवोंके समान अन्तःकरणके व्यापारसे रहित हो जानेके कारण अतिशय १. भ पुनरर्थ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रावकंप्रज्ञप्तिः [१५७परिणामलक्षणः । समवहतानामिव विजेयः वेदनातिशयेनान्तःकरणव्यापाराभिभवादिति ॥१५६॥ एतदेवाह इत्थ वि समोहया मूढचेयणा वेयणाणुभवखिन्ना। तंमित्तचित्तकिरिया न संकिलिस्संति अन्नत्थ ॥१५७।। अत्रापि तिर्यग्लोके । समवहता वेदनासमुद्घातेनावस्थान्तरमुपनीताः। मूढचेतना विशिष्टस्वव्यापाराक्षमचैतन्याः। वेदनानुभवखिन्नाः तीव्रवेदनासंवेदनेन श्रान्ताः । तन्मात्रचित्तक्रिया वेदनानुभवमात्रचित्तव्यापाराः। न संक्लिश्यन्ते न रागादिपरिणाम यान्ति । अन्यत्र स्त्र्यादौ, तन्त्रव निरोधादिति ॥१५७॥ ता तिव्वरागदोसाभावे बंधो वि पयणुओ तेसि । सम्मोहओं च्चिय तहा खओ वि णेगंतमुक्कोसो ॥१५८॥ ___ यस्मादेवं तत्तस्मात् । तोवरागद्वेषाभावे बन्धोऽपि प्रतनुस्तेषां समवहतानाम्, निमित्तदौर्बल्यात् । सम्मोहत एव तथा क्षयोऽपि बन्धस्य नैकान्तोत्कृष्टस्तेषां सम्यग्ज्ञानादिविशिष्टतत्कारणाभावादिति ॥१५८॥ संक्लेश नहीं होता है । अतएव पूर्वमें जो यह कहा गया है कि अधम असुरकुमार देवोंके द्वारा अथवा परस्परमें एक दूसरेको दिये गये दुखको सहते हुए नारकियोंके रोद्रध्यानको प्राप्त होनेपर भी बन्धकी अपेक्षा कमकी निर्जरा ही अधिक होतो है, वह युक्तिसंगत नहीं है ॥१५६|| आगे इसे ही पुष्ट किया जाता है यहांपर-मध्यलोक-में भी वेदनासमुद्घातको प्राप्त होकर अवस्थान्तरको प्राप्त होनेपर जिनको चेतना-अन्तःकरणका व्यापार-किसी कार्यके करने में असमर्थ हो चुका है ऐसे जीव वेदनाके अनुभवसे व्याकुल होकर केवल उसी वेदनाके अनुभवमें अपने चित्तके व्यापारको संलग्न करते हैं, इसोसे अन्यत्र-अन्य विषयोंमें-संक्लेशको प्राप्त नहीं होते हैं ॥१५७।। इसका क्या परिणाम होता है, इसे आगे स्पष्ट करते हैं___ इसीलिए-तीव्र वेदनाके अनुभवसे–चेतनाके विमूढ़ होनेके कारण-तीन राग-द्वेषके अभावमें उनके मू के निमित्तसे बन्ध भी अतिशय कम होता है तथा उस कमेका क्षय भी सर्वथा उत्कृष्ट नहीं होता। विवेचन-लाकमें देखा जाता है कि जो प्राणी तोव वेदनासे अभिभूत होते हैं वे मूछित हो जाते हैं, इससे उनका चित्त एकमात्र वेदनाके अनुभवमे संलग्न रहनेके कारण अन्य विषयोंमें राग-द्वेषको प्राप्त नहीं होता। इसीलिए उनके बन्ध जेसे कम होता है वैसे हो निर्जराके कारणभूत विशिष्ट सम्यग्ज्ञानादिके अभावमें कर्मकी निर्जरा भी कम ही होती है। यही बात उन नारकियाके विषयमें भी समझना चाहिए । वे भी वेदनासे अभिभूत होकर जब अन्यत्र राग-द्वेषसे रहित होते हैं तब उनके भी बन्ध और निर्जरा अल्प मात्रामें ही सम्भव है। अतएव वादोका जो यह कहना है कि नारकियोंके जैसे कर्मका बन्ध कम और पापका क्षय अधिक होता है वैस ही दुखो जीवोका वध करनेसे उनके भी बन्ध कम और पापका क्षय अधिक सम्भव है, यह युक्तिसंगत नहीं ॥१५८॥ १. म तम्मत्त । २. अ संकिलेसंति । ३. अ 'अन्नत्थ' नास्ति । ४. अ समोहन । ५. अमुक्षोसो। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६१] सामान्येन प्राणवधविरतौ शंका-समाधानम् १०३ यथा नोत्कृष्टक्षयस्तथा चाह जं नेरइओ कम्मं खवेइ बहुआहि वासकोडीहिं । तन्नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेण ॥१५९॥ यन्नारकः कर्म क्षपयति बह्वीभिर्वर्षकोटीभिस्तथा दुःखितः सन् क्रियामात्रक्षपणात् तज्ज्ञानी तिसृभिगुप्तिभिगुप्तः क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण, संवेगादिशुभपरिणामस्य तत्क्षयहेतोस्तीवत्वात् ॥१५९॥ निगमयन्नाह एएण कारणेणं नेरइयाणं पि पावकम्माणं । तह दुक्खियाण वि इहं न तहा बंधो जहा विगमो ॥१६०॥ एतेनानन्तरोदितेन कारणेन नारकाणामपि पापकर्मणां तथा तेन प्रकारेण दुःखितानामपोह विचारे न तथा बन्धो यथा विगमः, प्रायो रौद्रध्यानाभावादिति ॥१६०।। अह उ तहाभापि हु कुणइ वहंतो न अन्नहा जेण । ता कायव्वो खु तओ नो तप्पडिवक्खबंधाओ ॥१६१।। उनके उत्कृष्ट क्षय क्यों नहीं होता, इसका कारण आगे बतलाया जाता है जिस कर्मको नारको जीव बहुत-सी वर्षकोटियों में अनेक करोड वर्षों में क्षीण करता है उसे ज्ञानी जीव तीन गप्तियोंसे सुरक्षित होकर उच्छवास मात्र कालमें ही क्षीण कर देता है। अभिप्राय यह है कि कर्मक्षयका कारण सम्यग्ज्ञानके साथ संवेगादिरूप शुभ परिणाम हैं। उनके होनेपर सम्यग्ज्ञानी जीव जिस क्लिष्ट कर्मका क्षय अल्प समयमें ही कर डालता है उसका क्षय नारको जीव उक्त परिणामोंके बिना असह्य वेदनाका अनुभव करते हुए करोड़ों वर्षों में भी नहीं कर पाते हैं। इसीलिए वादीके द्वारा दिया गया नारकियोंका वह उदाहरण प्रकृतमें लागू नहीं होता ।।१५९॥ इससे निष्कर्ष क्या निकला, इसे आगे प्रकट किया जाता है--- इस कारण पापकर्मसे संयुक्त नारकियोंके तथा दुखी जीवोंके भी यहां-प्रकृत विचारमेंवैसा बन्ध नहीं होता जैसा कि विनाश होता है। अभिप्राय यह है कि जैसे अतिशयित वेदनासे व्यथित नारकियोंके अधिक संक्लेश न होनेके कारण न बन्ध अधिक होता है और न पापकर्मका क्षय भी अधिक होता है वैसे ही दुखी जीवोंके भी वधजनित म की अवस्थामें अभावमें न बन्ध अधिक होता है और न पापक्षय भी उत्कृष्ट होता है। इसीलिए पापक्षयके उद्देश्यसे दुखी जीवोंका वध करना कभी उचित नहीं ठहरता ॥१६०॥ आगे वादीके द्वारा जो पुनः शंका की जाती है उसका भी समाधान किया जाता है इसपर वादी कहता है कि जिस कारण वध करता हुआ प्राणी उस प्रकारके भावकोअल्प बन्धके साथ कर्मक्षयकी कारणभूत मूर्खाको-भी करता है, क्योंकि उसके बिना कर्मक्षय सम्भव नहीं है, इसीलिए उस वधको करना ही चाहिए। इसके समाधानमें यह कहा गया है कि वैसा हो नहीं सकता। कारण यह कि वधसे कर्मक्षयके माननेपर उसके प्रतिपक्षभूत अवधसेवध न करनेसे-बन्धका प्रसंग प्राप्त होता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रावकप्रज्ञप्तिः . [१६२ - अथैवं मन्यसे-तथाभावमपि सम्मोहभावमपि प्रतनुबन्धेन कर्मक्षयहेतुं करोति । नन्नेव व्यापादयन्नेव,नान्यथा। येन कारणेन। तत्तस्मात्कर्तव्य एव तको वध इत्याशङ्कयाह-नो नैतदेवं । तत्प्रतिपक्षबन्धाद्वधप्रतिपक्षोऽवधस्तस्माद्बन्धादन्यथावधात्तत्क्षयानुपपत्तिरविरोधादिति ॥१६॥ एवं च मुत्तबंधादओ इहं पुव्ववन्निया दोसा । अणिवारणिज्जपसरा अब्भुवगमबाहगा नियमा ॥१६२॥ एवं चावधाद्बन्धापत्तौ । मुक्तबन्धादय इह पूर्ववणिता दोषा अनिवारितप्रसरा अभ्युपगमबाधका वधात्कर्मक्षय इत्यङ्गोकृतविरोधिनो नियमेन अवश्यतयेति ॥१६२॥ उपसंहरन्नाह इय एवं पुव्वावरलोगविरोहाइदोससयकलियं । मुद्धजणविम्हयकर मिच्छत्तमलं पसंगेणं ॥१६३॥ इय एवमेतत्पूर्वापरलोकविरोधादिदोषशतकलितं मुग्धजनविस्मयकरं संसारमोचकमतं मिथ्यात्वम् अलं पर्याप्तं प्रसङ्गेनेति ॥१६३।। विवेचन—यहां वादी शंका करता है कि जब दुखी जीवोंका वध किया जाता है तब वे मूर्छाको प्राप्त हो जाते हैं। इस मूर्छाकी अवस्था में उनके अल्प बन्धके संक्लेशके अभावमें साथ कर्मका क्षय होता है। इस कारण उनका वध करना श्रेयस्कर है, क्योंकि वधके बिना उनके कर्मक्षयका अन्य कोई कारण सम्भव नहीं है। वादीकी इस शंकाके समाधानमें यहां यह कहा गया है कि वैसा सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि कर्मका बन्ध और क्षय ये दो कार्य परस्पर विरुद्ध है, अतः इनके कारण भी परस्पर भिन्न होने चाहिए। ऐसी परिस्थिति में वादो यदि वधसे कमका क्षय मानता है तो कर्मबन्धका कारण उसका प्रतिपक्षो अवध-वधका न करना-ठहरता है। यह वादीके लिए अनिष्टका प्रसंग है। इसे टालने के लिए यदि वादी अवधको कर्मबन्धका कारण नहीं मानना चाहता है तो फिर वह वध कर्मक्षयका भी कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि विरोधी ही विवक्षित वस्तुके विनाशका कारण होता है। तदनुसार वध कुछ कर्मका विरोधी नहीं है ।।१६१॥ ___ उपर्युक्त अवधसे कर्मबन्धके प्रसंगमें और क्या अनर्थ हो सकता है, इसे भी आगे स्पष्ट किया जाता है इस प्रकार-अवधसे कर्मबन्धका प्रसंग प्राप्त होनेपर-मुक्त जीवोंके भी कर्मबन्धका प्रसंग अनिवार्य होगा, इत्यादि जिन दोषोंका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है उनके प्रसारको नहीं रोका जा सकेगा। ये सब दोष 'वधसे कर्मका क्षय होता है,' इस वादीको मान्यतामें नियमसे बाधक हैं ॥१६२॥ अब आगे इस प्रकरणका उपसंहार करते हैं इस प्रकारसे पूर्वापर विरोध और लोक विरोध आदि सैकड़ों दोषोंसे युक्त यह मिथ्यात्वसंसारमोचकोंका मिय्यामत केवल मूढ़ जनों के लिए आश्चर्यचकित करनेवाला है-वास्तवमें वह असंगत व अहितकर होनेसे आत्महितैषियोंके लिए अग्राह्य है ।।१६३।। १. अप्रतिपक्षबंधो सत्तस्मादबंधा । २. अ बंबादहो अहे घुम्वन्निया । ३. अतोऽग्रे टोकागत "विस्मयकर' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । ४. अ 'प्रसङ्गेनेति' नास्ति । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनिवृत्तिनिरर्थकत्ववादिनामभिमतनिरासः अधुनान्यद्वादस्थानकमाह अन्ने आगंतुगदोससंभवा बिति वहनिवित्तीओ । दोण्ह वि जणाण पावं 'समयंमि अदिट्ठपरमत्था ॥१६४॥ अन्ये वादिनः आगन्तुकदोषसंभवात्कारणात् । ब्रुवते। किम् ? वनिवृत्तेः सकाशाद्वयोरपि जनयोः प्रत्याख्यात-प्रत्याख्यापयित्रोः । पापं समये आगमे । अदृष्टपरमार्था अनुपलब्ध. भावार्था इति ॥१६४॥ आगन्तुकदोषसंभवमाह सव्ववहसमत्थेणं पडिवनाणुव्वएण सिंहाई । __ण घाईओ त्ति तेणं तु घाइतो जुगप्पहाणो उ ॥१६५॥ सर्ववधसमर्थेन सिंहादिक्रूरसत्त्वव्यापादनक्षमेण । प्रतिपन्नाणुव्रतेन सता। सिंहादिः सिंहः शरभो वा । न घातित इति । तेन तु सिंहादिना। घातितो युगप्रधानोऽनुयोगधर एक एवाचार्यः। संभवत्येतदिति ॥१६५॥ तत्तो तित्थुच्छेओ धणियमणत्थो पभूयसत्ताणं । ता कह न होइ दोसो तेसिमिह निवित्तिवादीणं ॥१६६॥ ANM अब इस प्रकरणको समाह कर आगे अन्य किन्हीं वादियोंके अभिमतको दिखलाते हुए उसका निराकरण किया जाता है आगममें परमार्थको न देखनेवाले-परमागमके रहस्यको न समझनेवाले अन्य कितने ही वादी वधको निवृत्तिसे होनेवाले आगन्तुक-भविष्यमें आनेवाले-दोषोंकी सम्भावनासे प्रत्याख्यान करनेवाले और उसे करानेवाले इन दोनों ही जनोंके पाप बतलाते हैं ॥१६॥ उक्त आगन्तुक दोषोंको स्पष्ट करते हुए आगे अहिंसाणुव्रतके ग्रहणसे क्या अनर्थ हो सकता है, इसे दिखलाते हैं समस्त दुष्ट प्राणियोंके वधमें समर्थ किसी श्रावकने अणुव्रतको स्वीकार कर लेनेके कारण सिंह आदि हिंस्र प्राणीका घात नहीं किया। उधर उस सिंहने किसी युगप्रधान-अनुयोगके धारक परम हितैषी साधु-का घात कर डाला। विवेचन-अभिप्राय यह है कि श्रावक यद्यपि सिंह आदि किसी भी दुष्ट प्राणीका घात कर सकता था, पर अणुव्रतमें प्राणवधनिवृत्तिको स्वीकार कर लेनेसे वह उक्त सिंह आदिका वध नहीं करता है । उधर वह सिंह आदि जीवित रहकर किसी लोकोपकारक साधुका भक्षण कर लेता है। इस प्रकार उक्त साधसे जो बहतसे भव्य जीवोंका उपकार होनेवाला था उससे वे वंचित हो जाते हैं। इसलिए वादोके अभिमतानुसार प्राणवधको निवृत्ति कराना उचित नहीं है ।।१६५॥ युगप्रधानके घातसे क्या अनर्थ होनेवाला है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है उससे-युगप्रधानके घातसे-बहुतसे आत्महितैषी जीवोंका अतिशय अनर्थ करनेवाला तीर्थका-धर्मप्रवर्तनका-विनाश होनेवाला है। इससे उन निवृत्तिवादियोंके लिए दोष कैसे नहीं होता है ? १..भ जणाण भावं । २. अ णो घाइउत्ति। x Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रज्ञप्तिः [ १६७ - ततस्तस्मादाचार्यंघातात्तीर्थोच्छेदः धनितमत्यर्थमनर्थः प्रभूतसत्त्वानां दर्शनाद्यनवाप्त्या मुमुक्षूणाम् । यतश्चैवं तत्तस्मात् । कथं न भवति दोषः । तेषां प्रत्याख्यातृप्रत्याख्यापयितॄणाम् । इह विनाशकरणे | निवृत्तिवादिनां भवत्येवेति ॥ १६६ ॥ तम्हा नेव निवित्ती कायव्वा अवि य अप्पणा चेव । १०६ अद्धोचियमालोचिय अविरुद्धं होइ कायव्वं ॥१६७॥ यस्मादेवं तस्मान्नैव निवृत्तिः कार्या अपि चात्मनैवाद्धोचितं कालोचितमालोच्य अविरुद्धं भवति कर्तव्यं यद्यस्यामवस्थायां परलोकोपकारीति एषः पूर्वपक्ष: ॥१६७॥ अत्रोत्तरमाह सीवहरक्खिओ सो उड्डाहं किंपि कह वि काऊणं । किं अपणो परस्स य न होइ अवगारहेउ त्ति ॥ १६८ ॥ gaaf दोषसंभवे नन्दिमपि संभवति - सिंहवघरक्षितोऽसावाचार्य उड्डाहमुपघातम् । विवेचन -- वादीका अभिप्राय यह है कि यदि श्रावकको अणुव्रत में प्राणवधनिवृत्ति न करायी गयी होती तो वह उस युगप्रधान के घातक उस सिंह आदिका वध करके उसकी रक्षा कर सकता था। इस प्रकार जीवित रहनेपर वह बहुतसे जीवोंको सदुपदेश देकर उन्हें सम्यक्त्व आदि ग्रहण करा सकता था, जिससे उनका कल्याण होनेवाला था । किन्तु उसके असमय में मर जानेसे उसके द्वारा जो उन प्राणियोंका हित होनेवाला था उससे वे वंचित रह जाते हैं । यह अपराध प्राणवधका प्रत्याख्यान करनेवाले और करानेवाले दोनोंका है । अतः इस आगन्तुक दोषको सम्भावना से प्राणवधका प्रत्याख्यान करना व कराना उचित नहीं है, यह उस वादोका अभिप्राय है || १६६ ॥ इससे वादीको क्या अभीष्ट है, इसे वह आगे प्रकट करता है इस कारण प्राणवनिवृत्ति नहीं कराना चाहिए। किन्तु स्वयं ही समयोचित आलोचनाको करके जिसमें किसी प्रकारका विरोध सम्भव न हो ऐसा आचरण करना चाहिए। विवेचन - वादी अपने अभिमतका उपसंहार करता हुआ कहता है कि इस प्रकारसे जो लोकका अहित होनेवाला है उसके संरक्षणकी दृष्टिसे किसीको प्राणवधका प्रत्याख्यान नहीं कराना चाहिए । यदि कभी लोकहितको दृष्टिसे किसी क्रूर प्राणीका घात भी करना पड़े तो उसे करके समयानुसार यथायोग्य आलोचनापूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण करके अपनेको दोषसे मुक्त करना ही उचित है। इस प्रकार वादीने यहां ( १६४-६७ ) अपने पक्षको स्थापित किया है || १६७ || वादी उक्त अभिमतका निराकरण करते हुए आगे उक्त युगप्रधानसे अहितकी भी सम्भावना प्रकट की जाती है सिंहके वधसे रक्षित वह युगप्रधान क्या किसी परस्त्रीसेवनादिरूप निकृष्ट आचरणको किसी प्रकार से – क्लिष्ट कर्मके उदयसे - करके अपने व अन्य के अपकारका कारण नहीं हो सकता था ? यह भी सम्भव था । विवेचन - अभिप्राय यह है कि वादोने जिस प्रकार आगन्तुक दोषको सम्भावना में प्रकृत युगप्रधान के जीवित रहनेपर उसके द्वारा होनेवाले लोककल्याणको सम्भावना व्यक्त की है, ठीक १. भ दोषो थेषां । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७०] वधनिवृत्तिनिरर्थकत्ववादिनामभिमतनिरास: १०७ किमपि योषितासेवनादिकम् । कथमपि क्लिष्टकर्मोदयात् कृत्वा । किमात्मनोऽबोधिलाभनिवर्तनीयकर्मबन्धहेतुत्वेन । परस्य च श्रावकादेविपरिणामकरणेन । न भवत्यपकारहेतुर्भवत्येवेति ॥१६॥ किं इय न तित्थहाणी किं वा वहिओ न गच्छई नरयं । सीहो किं वा सम्मं न पावई जीवमाणो उ ॥१६॥ किमेवं न तीर्थहानिस्तीर्थहानिरेव'। किं वा वधितो व्यापावितः क्रूराशयत्वान्न गच्छति नरक सिंहो गच्छत्येव। किं वा सम्यक्त्वं न प्राप्नोति जीवन सिंहोऽतिशयवत्साधुसमीपे संभवति प्राप्तिरिति ॥१६९॥ किं वा तेणावहिओ कहिंचि अहिमाइणा न खज्जेजा। सो ता इहपि दोसो कहं न होइ ति चिंतमिणं ॥१७॥ किं वा तेन सिंहेनाहतोऽव्यापादितः सन् । कथंचिद्रजन्यां प्रमादादह्यादिना सर्पण गोनसेन वा।न खाद्य त स आचार्यः ? संभवति सर्वमेतत् । यस्मादेवं तस्मादिहापि दोषो भवदभिमतः कथं न भवतीति चिन्स्यमिदं विचारणीयमेतदिति ॥१७०॥ यतश्चैवमतः उसी प्रकार आगन्तुक दोषकी ही सम्भावनासे यहाँ उसके समाधानमें भी यह कहा जा रहा है कि सिंहके वधसे बचकर वह साधु किसी निकृष्ट आचरणको करके क्लिष्ट कमको बांधता हुआ क्या उसके उदयसे स्वयं अपना अहित नहीं कर सकता था? यह भी सम्भव था। इसी प्रकार वह कुमार्गका उपदेश करके क्या दूसरे जोवोंके अहितका भी कारण नहीं बन सकता था ? यह भी असम्भव नहीं था। तात्पर्य यह है कि आगन्तुक दोषकी सम्भावनासे किसी भी प्राणीका वध करना न्यायसंगत नहीं है। कारण यह कि आगन्तुक दोषको सम्भावनामें जहां लोककल्याण हो सकता है वहां उसकी सम्भावनासे अपना व दूसरोंका अहित भी हो सकता है ॥१६८।। उससे और भी क्या अनर्थ हो सकता है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है इस प्रकार-सिंहसे बचकर निकृष्ट आचरण करनेपर-भी क्या उस युगप्रधानके द्वारा तीर्थकी हानि नहीं हो सकती थी? इस प्रकारसे भी वह तीर्थहानि हो सकती थी। अथवा क्या इस प्रकारसे मारा जाकर वह सिंह दुष्ट आभप्राय के कारण नरकको नहीं जा सकता है ? अवश्य जा सकता है । अथवा वही सिंह जीवित रहकर क्या सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त कर सकता है ? जीवित रहकर वह किसी अतिशयवान् साधुके समीपमें उस सम्यक्त्वको पा करके आत्मकल्याण भी कर सकता है। इस कारण आगन्तुक दोषको सम्भावनासे सिंहादिक किसी भी प्राणाका वध करना उचित नहीं है ।।१६९।। इसके अतिरिक्त ___ अथवा उक्त आचार्य सिंहके द्वारा न मारा जाकर क्या किसी प्रकार-अंधेरी रातमे प्रमादके वश होकर-सपं आदिके द्वारा नहीं खाया जा सकता है ? यह भी सम्भव है। इस प्रकार यहां भी–सिंहसे बचाये जानेपर भी-कैसे दोष नहीं हो सकता है? सिंहसे उसके बचाये जाने पर भी उपर्युक्त दोष सम्भव है। इस प्रकार वादोका उपर्युक्त कथन सोचनीय है-वह युक्तिसंगत नहीं है ॥१७०॥ ___आगे आगन्तुक दोषोंकी सम्भावनासे समस्त लोकव्यवहारका भी लोप हो सकता है, इसे दिखलाते हैं१. मन तीर्थहानिरेव । २. अ भाइणो न हज्जेज्जा। ३. म विसूइगादीणं संभवं तत्थ कि दोसो। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१७१ सव्वपवित्तिअभावो पावइ एवं तु अन्नदाणे वि । तत्तो विसूइयाई न संभवंतित्थ किं दोसा ॥१७१॥ सर्वप्रवृत्त्यभावःप्राप्नोत्येवमागन्तुकदोषसंभवात् । एवं च सत्यन्नदानेऽपि न प्रतितव्यम् । अपि-शब्दाददानेऽपि । ततोऽन्नदानादेविसूचिकादयो विसूचिका मरणम् अदाने प्रद्वेषतो धनहरणव्यापावनादयो न सम्भवन्त्यत्रान्नदानादौ कि दोषाः ? संभवन्त्येवेति ॥१७१॥ तथा सयमवि य अपरिभोगो एत्तो च्चिय एवं गमणमाई वि । सव्वं न जुज्जइ च्चिय दोसासंकानिवित्तीओ ॥१७२।। स्वयमपि चापरिभोगोऽन्नादेः। अत एवागन्तुकदोषसंभवादेव । एवं गमनाद्यपि गमन. मागमनमवस्थानम् । सर्व न युज्यते एव दोषाशंकानिवृत्तेः गच्छतोऽपि कण्टकवेधादिसंभवादागच्छतोऽपि अवस्थानेऽपि गृहपातादिसंभवदर्शनादिति ॥१७२॥ इस प्रकार-आगन्तुक दोषको सम्भावनासे-समस्त प्रवृत्तिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। वैसी अवस्थामें आहारके देने में भी क्या उससे विसूचिका आदि दोषोंकी सम्भावना नहीं होती है ? उनकी सम्भावना भी बनी रहती है। - विवेचन-जैसीकी वादोकी मान्यता है तदनुसार तो किसी भी कार्यका करना सम्भव न होगा, क्योंकि प्रयोजनके वश जो भी जिस कार्यको करना चाहेगा उसमें किसी न किसी आगन्तुक दोषकी सम्भावना बनी ही रहनेवाली है। उदाहरणार्थ यदि कोई किसी साधुको आहार देना चाहता है तो उसमें भी विसूचिका (अजीर्ण विशेष) रोग आदि आगन्तुक दोषको सम्भावना बनी रहती है। कारण यह कि किन्हीं प्राणियोंके उस भोजनसे अजीर्ण आदि रोग उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। इस आगन्तुक दोषको सम्भावनासे यदि कोई उसे नहीं देना चाहे तो उसमें भो भोजनके प्राप्त न होनेसे उसके अभिलाषोके द्वारा धनके अपहरण व प्राणघात आदिकी सम्भावना बनी रहती है। यदि कोई प्रयोजनवश रेल अथवा बस आदिके द्वारा बाहर जाना चाहे तो उसमें अपघात आदिके होनेकी शंका रह सकती है। इस प्रकार आगन्तुक दोषके भयसे कोई किसी भी कार्यमें प्रवृत्त नहीं हो सकेगा। परिणाम यह होगा कि इस प्रकारसे तो समस्त लोकव्यवहार भी ठप्प हो जायेगा ॥१७१।। उस आगन्तुक दोषको शंकासे स्वयंको भी दुर्गति हो सकती है, यह आगे दिखलाते हैं उक्त आगन्तुक दोषके भयसे भोजन आदिका उपभोग स्वयं भी नहीं किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उसके भयसे गमन आदि-कहीं अन्यत्र जाना, आना व अवस्थित रहना आदिसभी कुछ करनेके अयोग्य ठहरेंगे, क्योंकि उन सभीमें दोषकी शंका दूर नहीं हो सकती है। जैसे-जाने-आनेमें काटे आदिके द्वारा वेधे जाने व स्थित रहनेमें घरके गिर जानेका भयः इत्यादि रूपसे सर्वत्र भय बना रहनेवाला है ।।१७२।। १. भ अदाने पि प्रद्वेषतो। २. विसूचिकाका लक्षण सूचीभिरिव गात्राणि तुदन् संतिष्ठतेऽनिलः । यस्याजीर्णेन सा वद्यर्विसूचीति निगद्यते ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७४] वधासम्भवत्ववादिनामभिमतनिरासः १०९ अणि वित्ती वि हु एवं कह कायव्व त्ति भणियदोषाओ। आलोयणं पि अवराहसंभवाओ ण जुत्तं ति ॥१७३॥ अनिवृत्तिरप्येवं कथं कर्तव्येति भणितदोषानिवृत्तित एव राजमयूरादिव्यापादनेन वोषसंभवात् । आलोचनमपि प्रागुपदिष्टम् आत्यन्तिककार्यविघ्नत्वात् किमप्येते आलोचयन्तीति चान्यापकारप्रवृत्तेरपराधसंभवान्न युक्तमेवेति ॥१७३॥ उपसंहरन्नाह इय अणुभवलोगागमविरुद्धमेयं न नायसमयाणं । मइविन्भमस्स हेऊ वयणं भावत्थनिस्सारं ॥१७४।। इय एवं अनुभवलोकागमविरुद्धमेतत्-निवृत्तौ परिणामशुद्धयनुभवादनुभवविरुद्धम्, समुद्रादिप्रतरणादिप्रवृत्तेर्लोकविरुद्धम्, यस्य कस्यचिद्विधानादागमविरुद्धम् एतत्पूर्वपक्षवादिवचनमिति योगः। न ज्ञातसमयानां नावगतसिद्धान्तानां मतिविभ्रमस्य हेनुः कथमेतच्छोभनं मतिविप्लवस्य कारणम्, किंविशिष्टं वचनम् ? भावार्थनिस्सारं अभिप्रेतगर्भार्थशून्यमिति ॥१७४॥ उक्त दोषसे अनिवृत्ति भी कैसे रह सकती है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है जिन दोषोंका निर्देश किया जा चुका है उन्हीं दोषोंके कारण अनिवृत्ति-प्राणवधका अप्रत्याख्यान-भी कैसे किया जा सकता है ? वह भी सम्भव नहीं होगा। इसके अतिरिक्त अपराधकी सम्भावनासे आलोचना करना भी, जिसका कि निर्देश वादीके द्वारा पूर्वमें (१६७) किया गया है, योग्य नहीं होगी ॥१७३।। उपर्युक्त वादीका अभिमत अनुभव आदिके भी विरुद्ध है, इसका निर्देश आगे किया जाता है वादीका यह कथन अनुभव, लोक और आगमके भी विरुद्ध है। इसलिए वह आगमके ज्ञाताजनोंके लिए बुद्धिभ्रमका कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि वह वचन भावार्थसे निःसार हैयथार्थ वस्तुस्वरूपक प्रतिपादनसे रहित है। विवेचन-अन्य कितने ही वादियोंके द्वारा यह कहा जाता है कि प्राणवधकी निवृत्तिसे चूंकि कितने ही आगन्तुक दोषोंकी सम्भावना है, इसलिए उसकी निवृत्तिको ग्रहण करने और करानेवाले दोनोंके ही लिए वह पापजनक है। उनका यह कहना अनुभव, लोक और आगमसे विरुद्ध है। इसका कारण यह है कि जितने अंशमें प्राणातिपातादि पापोंका परित्याग किया जाता है उतने अंशमें परिणामोंमें अधिक निर्मलताका अनुभव होता है। इसलिए उस प्राणवधकी वृत्तिको पापजनक बतलाना उस अनुभवके विरुद्ध है। लोकमें कितने ही साहसी पुरुष समुद्र आदिको पार करते हुए देखे जाते हैं, अतः मरणादि रूप आगन्तुक दोषोंकी सम्भावनासे उक्त निवृत्तिको पापोत्पादक कहना, यह लोकके विरुद्ध है। उस प्राणिवधादिकी निवृत्तिका आगममें जहां तहां विधान किया गया है, अतः उसे आगन्तुक दोषोंकी शंकासे पापजनक बतलाना आगमके भी विरुद्ध है। इसीलिए जिन्होंने आगमके आश्रयसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपको समझ लिया है उनकी बुद्धि तो तत्त्वविचारसे रहित इस अनुभव, लोक और आगम विरुद्ध कथनसे भ्रमित होनेवाली नहीं है, पर जो मन्दबुद्धि जन हैं वे कदाचित् भ्रमको प्राप्त हो सकते हैं। इसलिए उक्त १. अ दोषादि । २. अ समुद्रादिप्रवृत्तेर्लोक । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रावकप्रज्ञप्तिः [१७५ - यस्मादेवम् तम्हा विसुद्धचित्ता जिणवयणविहीइ दोवि सद्धाला। वहविरइसमुज्जुत्ता पावं छिदंति धिइबलिणो॥१७॥ तस्माद्विशुद्धचित्तौ अपेक्षारहितौ' जिनवचनविधिना प्रवचनोक्तेन प्रकारेण । द्वावपि प्रत्याख्यात प्रत्याख्यापयितारौ। श्रद्धावन्तौ वधविरतिसमुद्युक्ती यथाशक्त्या पालनोद्यतौ। पापं छिन्तः कर्म क्षपयतः। धृतिबलिनौ अप्रतिपतितपरिणामाविति ॥१७५॥ सांप्रतमन्यद्वावस्थानकम् निच्चाण वहाभावा पयइअणिच्चाण चेव निव्विसया । एगंतेणेव इहं वहविरई केइ मन्नंति ॥१७६॥ जीवाः किल नित्या वा स्युरनित्या वेत्युभयथापि दोषः-नित्यानां वधाभावात, प्रकृत्यनित्यानां चैव स्वभावभङ्गराणां चैव वधाभावात् । निविषया निरालम्बना। एकान्तेनैव । अत्र पक्षद्वये । का वधविरतिः ? संभवाभावात् । केचन वादिनो भन्यन्त इति ॥१७६॥ एतदेव भावयतिकथनमें यहां अनेक दोषोंको दिखलाया गया है । आगन्तुक दोषोंकी सम्भावनासे तो कभी किसीके द्वारा कोई कार्य ही नहीं किया जा सकता है ॥१७४।। आगे इसका उपसंहार किया जाता है इसलिए-अनुभवादिकसे विरुद्ध होनेके कारण वादीके उपयुक्त कथनको हेय जानकर चित्तकी विशुद्धि पूर्वक श्रद्धान करनेवाले दोनों प्रत्याख्याता और प्रत्याख्यान करानेवाला ये दोनों ही जिनागमोक्त विधिके साथ वधको विरतिमें उद्यत होकर धैर्यके बलसे पापको नष्ट करते हैं ॥१७५।। आगे दूसरे किन्हीं वादियोंके अभिमतको प्रकट करते हुए वादीको ओर उस प्रसंग प्राप्त वधविरतिको निर्विषय ठहराया जाता है वादीके अभिमतानुसार नित्य जीवोंके वधके असम्भव होनेसे तथा प्रकृतिसे अनित्य जीवोंके स्वयं विनश्वर होने के कारण वह वधकी विरति सर्वथा निविषय है-उसका कोई विषय ( वध्य ) ही नहीं है। इसीलिये कितने ही वादो उस विरतिको निरर्थक मानते हैं। ___ विवेचन-यहाँ वादी वविरतिको निरर्थक ठहराता हुआ यह पूछता है कि जीव नित्य हैं या अनित्य ? यदि वे नित्य हैं--एक ही स्वभावसे सदा अवस्थित रहनेवाले हैं-तब तो उनका वध हो ही नहीं सकता। और यदि उनका वध होता है तो वैसी स्थितिमें उनकी नित्यताकी हानि होती है, क्योंकि उत्पन्न व विनष्ट न होकर सदा एक ही स्वरूपसे स्थित रहना, यह नि का लक्षण है। तब यदि उन्हें अनित्य स्वीकार किया जाता है तो स्वभावतः जो नष्ट होनेवाले हैं उनका भी वध कैसे सम्भव है ? उनका भी वध सम्भव नहीं है। इस प्रकार उक्त दोनों हो पक्षोंमें जब वधकी सम्भावना नहीं है तब उस वधकी विरति करना निरर्थक है ॥१७६।। आगे वादो अपने इसी अभिप्रायको स्पष्ट करता है१. अचित्तो अपेक्षा तो जिन'। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१७९] वधासम्भवत्ववादिनामभिमतनिरासः एगसहावो निच्चो तस्स कह वहो अणिच्चभावाओ। पयइअणिच्चस्स वि अन्नहेऊभावाणवेक्खाओ ॥१७७॥ एकस्वभावोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकधर्मा नित्यः। तस्य कथं वधः जिघांसनमनित्यभावा. दतादवस्थो नानित्यत्वापत्तरित्यर्थः। प्रकृत्यनित्यस्यापि स्वभावतोऽप्यनित्यस्य । कथं वध इति वर्तते। कथं च नेत्याह-अन्यहेतुभावानपेक्षातः' स्वव्यतिरिक्तहेतुसत्तानपेक्षत्वात्, तत्स्वभावत्वे च स्वत एव निवृत्तरिति ॥१७७॥ . प्रक्रान्तोपचयमाह किं च सरीरा जीवो अन्नो णन्नो व हुज्ज जइ अन्नो। ता कह देहवहंमि वि तस्स वहो घडविणासेव्व ॥१७८॥ कि चान्यच्छरोरात्सकाशाज्जीवोऽन्योऽनन्यो वा भवेत् द्वयी गतिः। कि चातः यद्यन्यस्तत्कथम् वेहवधे प्रकृतिविकारत्वेनार्थान्तरभूतदेहविनाशे तस्य जीवस्य वधो नैवेत्यर्थः, घटविनाश इव-न हि घटे विनाशिते जीववधो दृष्टः, तदर्थान्तरस्वादिति ॥१७॥ द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह अह उ अणनो देह व्व सो तओ सव्वहा विणस्सिज्जा । एवं न पुण्णपावा वहविरई किंनिमित्ता में ॥१७९॥ अथ त्वनन्यः शरीराज्जीव इत्येतदाशङ्कयाह-देह इवासौ ततः अनन्यत्वाद्धेतोः सर्वथा विनश्येत् । शरीरं च विनश्यत्येव, न परलोकयायि । एवं च न पुण्यपापे, भोक्तुरभावात् । वध जो सदा एक ही स्वभावसे स्थित रहता है उसे नित्य माना जाता है, तदनुसार उसका वध कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। अन्यथा, अनित्यताका प्रसंग दुनिवार प्राप्त होगा। इससे यदि उक्त जीवको अनित्य माना जाता है तो जो प्रकृतिसे अनित्य है-स्वभावतः क्षणनश्वर हैउसका भी वध कैसे सम्भव है? उसका भी वध सम्भव नहीं है, क्योंकि वह अपने विनाशमें किसी अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं रखता। इस प्रकार जेसे नित्य माननेपर उन जीवोंका वध सम्भव नहीं वैसे ही अनित्य माननेपर भी उनका वध नहीं सम्भव है। ऐसी अवस्थामें उनके वधकी विरति करना व कराना निरर्थक है ।।१७७॥ आगे वादी जीवको शरीरसे भिन्न माननेपर उसके वधको असम्भवताको प्रकट करता है__ इसके अतिरिक्त जीव क्या शरीरसे भिन्न है या अभिन्न? यदि वह शरीरसे भिन्न है तो शरीरका वध करनेपर उससे भिन्न उस जीवका वध कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे घटका विनाश करनेपर उससे भिन्न जीवका कभी विनाश नहीं होता है वैसे ही शरीरके विनष्ट होनेपर उससे भिन्न जीवका विनाश नहीं हो सकता ॥१७८॥ __ आगे शरीरसे उसे अभिन्न माननेपर भी वादी दोष दिखलाता है वह कहता है-यदि जीव शरीरसे अभिन्न है तो जैसे शरीर सर्वथा विनष्ट हो जाता है वैसे ही उस शरीरसे अभिन्न जीव भी सर्वथा विनष्ट हो जावेगा। तब इस प्रकारसे शरीरके समान ही उस जीवके सर्वथा नष्ट हो जानेपर परलोकमें गमनके असम्भव हो जानेसे-निराश्रय १. म हेतुभावादनापेक्षातः । २. अ देहो । ३. अ विणासोज्जा। ४. अहि। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८० ११२ श्रावकप्रज्ञप्तिः विरतिः किनिमित्ता भे भवतां विरतिवादिनामिति । एष पूर्वपक्षः॥१७९॥ अत्रोत्तरमाह निच्चाणिच्चो जीवो भिन्नाभिन्नो ह तह सरीराओ । तस्स वहसंभवाओ तव्विरई कहमविसया उ ॥१८०॥ एकान्तनित्यत्वादिभेदप्रतिषेधेन नित्यानित्यो जीवो द्रव्य-पर्यायरूपत्वात् । भिन्नाभिन्नश्च तथा शरीरात, तथोपलब्धः अन्यथा दृष्टेष्टविरोधात् । तस्य वधसंभवाद्धेतोस्तद्विरतिर्वधविरतिः। कथमविषया ? नैवेत्यर्थः ॥१८०॥ नित्यानित्यत्वव्यवस्थापनायाह पुण्य और पापका भी सद्भाव न रहेगा। तब वैसी अवस्थामें उस वधकी विरतिका आपके यहांवधकी विरतिको अभीष्ट माननेवालोंके यहां--प्रयोजन ही क्या रहेगा ? प्रयोजनके बिना वह निरर्थक ही सिद्ध होती है। इस प्रकार वादीने इन १७६-७९ गाथाओंमें अपने पक्षको स्थापित किया है ॥१७९॥ आगे वादीके उपर्युक्त अभिमतका निराकरण करते हुए वधकी सम्भावना प्रकट को जाती है वह जीव कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य भी है। इसी प्रकार वह शरीरसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न भी है। इस प्रकारसे उसका वध सम्भव है। अतएव उसके वधकी विरतिको अविषय कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। विवेचन-वादीने जीव नित्य है या अनित्य इन दो विकल्पोंमें वधको असम्भावना प्रगट की थी। इसी प्रकार वह शरीरसे भिन्न है या अभिन्न इन दो विकल्पोंको उठाकर उनमें भी उस वधको असम्भवताको प्रगट किया था। यहां उसके उत्तरमें यह कहा गया है कि जीव न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य भी है, किन्तु वह द्रव्य दृष्टि से जहाँ नित्य है वहीं वह पर्याय दृष्टिसे अनित्य भी है । अभिप्राय यह है कि जो स्वाभाविक चेतना गुण ( ज्ञान-दर्शन ) है उसका कभी किसी भी पर्यायमें जीवके अवस्थित रहनेपर विनाश सम्भव नहीं है। इस अपेक्षासे जोव नित्य है । साथ ही 'अमुककी मृत्यु हो गयो तथा अमुकके पुत्रका जन्म हुआ है' इत्यादि पर्यायकी प्रधानतासे चूंकि लोकमें व्यवहार देखा जाता है, अतः पर्यायको विवक्षासे वह अनित्य भी है। इस प्रकार जीवके कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानने में कोई विरोध नहीं है। इसी प्रकार जीवको संसारमें सदा शरीरके आश्रित देखा जाता है तथा शरीरके आश्रयसे किये जानेवाले शुभ-अशुभ कामोंसे वह पुण्य-पापको उपार्जित करता है व यथासमय उसके फलको भी भोगता है, इस अपेक्षा उसे कथंचित् शरीरसे अभिन्न माना गया है। साथ ही जीव जहाँ स्वभावतः चेतन व अमूर्तिक है वहीं वह शरीर जड़ ( चेतनासे रहित ) व मूर्तिक है, इस प्रकार स्वरूप-भेदके कारण उन दोनों में कथंचित् भेद भी है । इससे वादीके द्वारा उपर्युक्त एकान्त पक्षोंमें दिये गये दोषोंके सम्भव न होनेसे वह वध जब सम्भव है तब उसकी विरतिको निविषय नहीं कहा जा सकता है ॥१८०॥ आगे इस नित्यता व अनित्यताको हो स्पष्ट किया जाता है १. भ भवाउ तिन्विरइ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधासम्भवत्ववादिनामभिमतनिरासः निच्चाणिच्चो संसार - लोगववहारओ मुणेयव्वो । न य एगसहावंमी संसाराई' घडंति त्ति ॥ १८९ ॥ नित्यानित्यो जीव इति गम्यते । कुतः ? संसाराल्लोकव्यवहारतो मुणितव्यः -त एव सवा नरकं व्रजन्तीत्यादि संसारात्, गत आगत इति लोकव्यवहाराच्च विज्ञेय इति । विपक्षव्यवच्छेदार्थमाह-न चैकस्वभावे न च नित्याद्येकधमण्येवात्मनि संसारादयो घटन्त इति गाथासमुदायार्थः ॥ १८१ ॥ - १८३ ] अधुना अवयवार्थमाह ११३ निच्चस्स सहावंतरमपावमाणस्स कह णु संसारो । जंमाणंतरनट्ठस्स चैव एगंतओ मूलो ॥ १८२ ॥ नित्यस्याप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावेन हेतुना, स्वभावान्तरमप्राप्नुवतः सदैवैकरूपत्वात्, कथं नु संसारो नैव विचित्रत्वात्तस्य । जेन्मानन्तरनष्टस्यैव च सर्वथोत्पस्यनन्तरापवगिणः । एकान्ततोलः तस्यैव तथापरिणामवैकल्यत एकान्तेनैवाकारणः कुतः संसार इति ॥ १८२ ॥ तोचि ववहारो गमणागमणाइ लोगसंसिद्धो । न घडइ जं परिणामी तम्हा सो होइ नायव्वो ॥ १८३ ॥ अत एवानन्तरोदितादेकान्त नित्यत्वादेर्हे तो व्यवहारो गमनागमनादिनं घटते, एकत्रैक संसार और लोकव्यवहारके कारण जीवको कथंचित् नित्य-अनित्य जानना चाहिए । कारण यह कि उसके नित्य व अनित्य आदि एक स्वभाववाला होनेपर वे संसार आदि घटित नहीं होते हैं । विवेचन - संसरण अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होते हुए चतुर्गतिमें परिभ्रमण करनेका नाम संसार है । यह संसार जीवके एक रूप में अवस्थित होनेपर घटित नहीं होता है । वह जब अपने स्वाभाविक शान्त स्वरूपको छोड़कर राग-द्वेष के वशीभूत होता है तब यथासम्भव नरकादि गतिको प्राप्त होकर सुख-दुख को भोगता है । इस प्रकार अपने चैतन्य स्वभावको न छोड़ता हुआ ही उन गतियों में परिभ्रमण करता है । तथा जो वहां गया था वह आ गया है, इत्यादि प्रकारका लोकव्यवहार भी नित्यता व अनित्यताके एकान्त पक्ष में सम्भव नहीं है । इस प्रकारके संसार व लोकव्यवहारको देखते हुए जीवकी अपेक्षाकृत नित्यता व अनित्यता दोनों सिद्ध होते हैं || १८१ ॥ आगे जीवको एक स्वभाव माननेपर वह संसार घटित नहीं होता है, यह प्रकट करते हैंजो नित्य होता है वह दूसरे स्वभावको प्राप्त नहीं होता है, कारण यह कि उत्पत्ति व विनाशसे रहित वह सदा एकरूप ही रहता है। ऐसी परिस्थितिमें उसके वह संसार कैसे सम्भव हो सकता है ? असम्भव होगा वह । इसके विपरीत अनित्य पक्षमें जन्मके अनन्तर ही विनष्ट होनेवाले उस जीवके संसारका मूल कारण ही नहीं सम्भव होगा । अभिप्राय यह है कि जीवके क्षणभंगुर मानने पर जो हिंसादि पापको करता है वह तो अनन्तर पूर्वं तब उस परिस्थिति में जब उसके फलको वह भोग ही नहीं सकता है सम्भावना कैसे की जा सकती है ? पाप या पुण्यका आचरण एक करे भोगे, यह हास्यास्पद ही होगा ॥ १८२ ॥ क्षण में विनष्ट हो चुका । तब उसके भी संसारकी और फल उसका दूसरा १. भ संसाराती । २. अ जन्मान्तर । १५ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १८४ - स्वभावस्याध्यासितदेशव्यतिरेकेण देशान्तराध्यासायोगात् अन्यत्र च तस्यैवाभावेनापरानुत्पत्तेरिति । आदिशब्दात्स्थान - शयनासनभोजनादिपरिग्रहः । यद्यस्मादेवं तस्मात् । परिणाम्यसावात्मा भवति ज्ञातव्यः । परिणामलक्षणं चेदम् - परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न तु सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ १ ॥ इति ॥ १८३॥ एतदेव भावयति ११४ जह कंचणस्य कंचणभावेण अवद्वियस्स कडगाई । उप्पज्जंति विणस्संति चेव भावा अणेगविहा ॥ १८४ ॥ यथा काञ्चनस्य सुवर्णस्य । काञ्चनभावेन सर्वभावानुयायिन्या सुवर्णसत्तया । अवस्थितस्य कटकादयः कटक-केयूर-कर्णालंकारादयः । उत्पद्यन्ते आविर्भवन्ति, विनश्यन्ति च तिरोभवन्ति च । भावाः पर्यायाः । अनेकविधा अन्वयव्यतिरेकवन्तः स्वसंवेदनसिद्धा अनेकप्रकारा इति ॥ १८४ ॥ कथंचित् नित्य-अनित्य माननेके बिना लोकव्यवहार भी घटित नहीं होता, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है इसीसे - जीवको सर्वथा नित्य या अनित्य माननेके कारण - गमनागमनादिरूप लोकप्रसिद्ध व्यवहार भी घटित नहीं हो सकता है । इसीलिए वह परिणामी है, ऐसा जानना चाहिए । विवेचन -- जीवको सर्वथा नित्य माननेपर जो गमन, आगमन, अन्य स्थानसे आकर स्थित होना, शयन, आसन और भोजन आदिका व्यवहार लोकमें देखा जाता है वह भी घटित नहीं होगा । कारण इसका यह है कि गमन क्रिया करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थानपर जानेमें एकरूपता (नित्यता ) रह नहीं सकती, स्थितिरूप अवस्थाको छोड़कर जब वह गमन क्रियासे परिणत होगा तभी वह अन्य अभीष्ट स्थानपर पहुँच सकेगा । यही अभिप्राय आगमन आदि अन्य व्यवहारके विषय में समझना चाहिए। इसके विपरीत जो उस जीवको सर्वथा अनित्य मानता है उसके मतमें भी उपर्युक्त गमनागमनादिका व्यवहार नहीं बन सकता । कारण यह कि यह सब व्यवहार कालक्रमकी अपेक्षा रखता है, अतः जीवको क्षणभंगुर माननेपर अनेक समयों में निष्पन्न होनेवाला वह सब व्यवहार कार्य बन नहीं सकता । इसीलिए जीवको सर्वथा नित्य या अनित्य न मानकर परिणमन स्वभाववाला मानना चाहिए । पदार्थका न सर्वथा अवस्थित रहना और न सर्वथा विनष्ट होना, किन्तु उसका अवस्थान्तरको प्राप्त होना, यही परिणमनका लक्षण है । उदाहरणार्थं सुवर्णके कड़ेको तुड़वाकर उसकी सांकल बनवाने में जहाँ कड़ेरूप पर्यायका विनाश व सकलरूप पर्यायकी उत्पत्ति होती है वहीं उन दोनों अवस्थाओं में सुवर्णरूपता बराबर बनी रहती है, न उसका विनाश होता है और न उत्पाद ही होता है, यही उस सुवर्णकी परिणमनशीलता है । इस परिणमनस्वभावको जीदमें ही नहीं, बल्कि चेतन-अचेतन सभी पदार्थों में अनिवार्य रूप से समझना चाहिए । तब ही लोकमें प्रचलित सब व्यवहार बन सकता है, अन्यथा नहीं बन सकता ॥ १८३॥ आगे ग्रन्थकार इसी अभिप्रायको उक्त उदाहरणके द्वारा स्वयं व्यक्त करते हैं जिस प्रकार सुवर्णरूपसे सभी व्यवस्थाओं में अवस्थित सुवर्णकी अनेक प्रकारकी — कटक, केयूर और कर्णफूल आदि - अवस्थाएं उत्पन्न होती हैं और विनष्ट भी होती हैं ॥ १८४ ॥ १. अ सर्वभेदानुयाजिन्या । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधासम्भवत्यवादिनामभिमतनिरासः एवं च जीवदव्वस्स दव्व पज्जव विसेस भइयस्स । निच्चत्तमणिचत्तं च होइ णाओवलभंतं ॥ १८५ ॥ एवं चे जीवद्रव्यस्य । किविशिष्टस्य ? द्रव्य-पर्याय विशेष भक्तस्यानुभवसिद्धया उभयरूपतया विकल्पितस्य । नित्यत्वमनित्यत्वं च भवति न्यायोपलभ्यमानम् । पृथग्विभक्तिकरणं द्वयोरपि निमित्तभेदण्यापनार्थम् । न्यायः पुनरिह नारकाद्यवस्थासु मिथो भिन्नास्वपि जीवान्वय उपलभ्यते, तस्मिश्च नारकादिभेद इति ॥१८५॥ - १८६ ] द्वितीयपक्षमधिकृत्याह एगतेण सरीरादनत्ते तस्स तकओ बंधो । ११५ न घडइ न य सो कत्ता देहादत्थं तरभूओ || १८६ ॥ एकान्तेन सर्वथा । शरीरादन्यत्वे अभ्युपगम्यमाने । तस्य जीवस्य । किम् ? तत्कृतो बन्धः इसी प्रकार द्रव्य व पर्यायरूप विशेषों में विभक्त जीव द्रव्यको नित्यत्व व अनित्यत्व रूप अवस्था न्याय से उपलब्ध होती है । विवेचन -- प्रमुखता से नयके दो भेद स्वीकार किये गये हैं-- एक द्रव्यार्थिक और दूसरा पर्यायार्थिक | इनमें जिसका प्रयोजन द्रव्य रहता है, अर्थात् जो पर्यायको गौण कर द्रव्यकी मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण किया करता है, उसे द्रव्याथिक नय कहते हैं और जो द्रव्यको गौण कर पर्यायकी प्रमुखता से वस्तुको ग्रहण किया करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं । प्रकृतमें जीवका द्रव्य जीवत्व या चेतना है, इसकी प्रमुखतासे जब उसका विचार किया जाता है तब उसे कथंचित् नित्य कहा जाता है । कारण यह कि नर-नारकादिरूप जितना भी जोवको अवस्थाएं हैं उन सभी में उस चेतनाका अन्वय रहता है, नर-नारकादिरूप अवस्थाका विनाश होनेपर भी कभी उस चेतनाका विनाश नहीं होता, अन्यथा जड़ताका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा । इसके विपरीत जब उस द्रव्यको गौण कर पर्यायको प्रमुखता से उस जीवका विचार किया जाता है तब उक्त नर-नारकादि पर्यायोंके उत्पन्न व विनष्ट होनेके कारण उस जीवको पर्यायार्थिक नयको अपेक्षा कथंचित् अनित्य भी कहा जाता है। इस प्रकार अपेक्षाकृत उसके नित्य व अनित्य मानने में कोई विरोध नहीं है । लोकव्यवहार में भी यही दृष्टि रहती है । जैसे - एक ही व्यक्तिको अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता और अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र कहा जाता है । इसमें किसी प्रकारका विरोध नहीं माना जाता । उक्त दोनों नयोंके बिना वस्तुतः तत्त्वका विचार ही सम्भव नहीं है । इस प्रवादीके द्वारा जो नित्य पक्षमें या अनित्य पक्ष में दोष दिये गये हैं उनके प्रकृत में सम्भव न होने से वह वधकी विरति सार्थक ही है, निरर्थक नहीं है ॥१८५॥ आगे दूसरे पक्ष में जो वादीके द्वारा दोष प्रदर्शित किये गये हैं उनका भी निराकरण करते हुए शरीर से जीवके सर्वथा भिन्न मानने में दोष दिखलाते हैं जीवको शरीर से सर्वथा भिन्न माननेपर उसके शरीर के आश्रयसे किया गया बन्ध घांटत नहीं होगा, इसके अतिरिक्त शरीरसे सर्वथा भिन्न होकर वह कर्ता भी नहीं हो सकता है । विवेचन-- प्राणी शरीरके माश्रयसे जब प्राणघातादिरूप पापाचरणमें प्रवृत्त होता है तब उसके बन्ध होता है । पर वादीके मतानुसार यदि वह शरीरसे सर्वथा भिन्न है तो उस अवस्था में १. अतु । २. अ 'च' नास्ति । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १८७ - जीवस्य शरीरनिर्वाततो बन्धो न घटते, न हि स्वत एव गिरिशिखरपतितपाषाणतो जीवघाते देवदत्तस्य बन्ध इति । स्यादर्थान्तरस्यापि तत्करणकर्तृत्वेन बन्ध इत्येतदाशंक्याह - न चासौ कर्ता देहादर्थान्तरभूतः, निःक्रियत्वान्मुक्तादिभिरतिप्रसङ्गादिति ॥ १८६॥ स्यादेतत्प्रकृतिः करोति, पुरुष उपभुंक्त इत्येतदाशंक्याहअन्नकयफलुवभोगे अइप्पसंगो अचेयणं कह य । इतकं तदभावे भुंजइ य कहं अमुत्तोति ॥ १८७॥ अन्यकृत फलोपभोगे प्रकृत्यादिनिवर्तितफलानुभवेऽभ्युपगम्यमाने ऽतिप्रसङ्गः, भेदाविशेषेऽन्यकृतस्यान्यानुभवप्रसङ्गात् वास्तवसंबंधाभावात् । अचेतनं च कथं करोति तत्प्रधानम्, किचिदध्यवसायशून्यत्वात् घटवत् । न हि घटस्यापराप्रेरितस्य क्वचित्करणमुपलब्धम् । न च प्रेरकः पुरुषः, उदासीनत्वादेकस्वभावत्वाच्च । तदभावे भोग्याभावे शरीराभावे वा । भुंक्ते च कथं अमूर्त इति उसके शरीर के आश्रयसे होनेवाला वह कमबन्ध घटित नहीं हो सकेगा । यदि कहो कि शरीरसे उसके भिन्न होनेपर भी शरीर के द्वारा की गयी क्रियासे उसके बन्ध माना जाता है, सो यह कहना भी ठाक नहीं है । कारण यह कि ऐसा माननेपर पर्वत के शिखर से स्वयं नीचे गिरे हुए पाषाणसे किन्हीं जोवोंका घात होनेपर उससे देवदत्तकें कर्मबन्धका प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि भिन्नता दोनों जगह समान है-वादीके मतानुसार जैसे जीवसे भिन्न शरीरके आश्रयसे उस जीवके बन्ध होता है उसी प्रकार देवदत्तस भिन्न उस पाषाणकी क्रियासे देवदत्त के भी बन्ध होना चाहिए । पर वह वादीको भी इष्ट नहीं है । इसपर यदि वादी यह कहे कि यद्यपि जीव शरीरसे भिन्न है, फिर भी जीव की प्रेरणा पाकर हो चूंकि शरोरमें क्रिया होती है इसलिए कारणकर्तृत्वरूपसे उसके बन्ध मानना उचित है, तो यह कहना भी ठोक नहीं है, क्योंकि शरीरसे भिन्न होनेपर वह स्वयं तो क्रियासे रहित है, अतः निष्क्रिय होनेसे वह कर्ता नहीं हो सकता । और यदि निष्क्रिय होते हुए भी उसके बन्ध माना जाता है तो मुक्त आदि जीवोंके साथ अतिप्रसंग प्राप्त होता है - निष्क्रिय होते हुए उनके भी बन्ध होना चाहिए। परन्तु उनके बन्ध होना वादीको भी अभीष्ट नहीं है || १८६॥ यदि वादी इसे अभीष्ट मानकर यह कहे कि कर्ता तो उसका समाधान आगे किया जाता है प्रकृति है, पुरुष तो मात्र भोक्ता है, अन्य (प्रकृति) के द्वारा किये गये कार्यके फलका उपभोग माननेपर अतिप्रसंग अनिवार्य होगा । दूसरे, जब वह प्रकृति ( प्रधान ) अचेतन है तब वह कर भी कैसे सकती है ? नहीं कर सकती है । इसके अतिरिक्त उसके - भोग्य अथवा शरीरके - अभाव में वह अमूर्तिक पुरुष भोग भी कैसे सकता है ? नहीं भोग सकता है । विवेचन - सांख्य मतमें प्रकृतिको कर्ता और पुरुषको भोक्ता माना गया है । इस अभिमतदूषित करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि यदि प्रकृतिके द्वारा किये गये कर्मके फलको पुरुष भोगता है, ऐसा माना जाता है तो इसमें अव्यवस्था होनेवाली है - उदाहरणार्थ देवदत्त के शरीरके द्वारा किये गये कर्मका फल जिनदत्तके भोगने में आ सकता है। कारण यह कि जैसे देवदत्तका शरीर उस देवदत्तसे भिन्न है वैसे ही वह जिनदत्त से भी भिन्न है । ऐसी अवस्था में देवदत्तके १. कुण्ड तव्वतयभावे । २. अ म्युपगम्यमाने ' इत्यतोऽग्रे X एतच्चिह्नं दत्त्वा 'किंचिदध्यवसायशून्यत्वाः' पर्यन्तोऽग्रिमसंदर्भों न लिखितोऽत्र दृश्यते । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८८] वधासम्भवत्ववादिनामभिमनिरासः ११७ बुद्धिप्रतिबिम्बोदयरूपोऽपि भोगो न युज्यते, अमूर्तस्य प्रतिबिम्बाभावात् । भावेऽपि मुक्तादिभिरतिप्रसङ्गः। न च सन्निहितमपि किंचिदेव प्रतिबिम्ब्यते न सर्व तत्स्वभावमिति, विशेषहेत्वभावात् । अलं प्रसङ्गेन ॥१८॥ किं च न य चेयणा वि अणुभवसिद्धा देहमि पावई एवं । ... तीए विरहंमि दढं सुहदुक्खाई ने जुज्जति ॥१८८॥ न च चेतनापि अनुभवसिद्धा स्पृष्टोपलब्धिद्वारेण देहे प्राप्नोति । एवमेकान्तभेदे सति । न हि घटे काष्ठादिना स्पृष्टे चैतन्यम्, वेद्यते च देह इति । तस्याश्चेतनाया विरहे चाभावे च । दृढमत्यर्थम् । सुख-दुःखादयो न युज्यन्ते, न हि पाषाणप्रतिमायां सुखादयोऽचेतनत्वादिति ॥१८॥ शरीरके आश्रयसे किये गये कर्मका फल देवदत्तको ही भोगना पड़े और जिनदत्तको नहीं भोगना पड़े, यह नियमव्यवस्था कैसे रह सकती है ? उपर्युक्त मान्यतामें वह सब प्रचलित नियमव्यवस्था भंग हो सकती है। कारण यह कि पुरुषसे सर्वथा भिन्न उस प्रकृतिका उसके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं माना गया । तब वेसी अवस्थामें वह स्वयं अचेतन होनेसे कुछ कर भी कैसे सकतो है ? लोकमें अचेतन ( जड़) वस्तुओंमें जो क्रिया देखी जाती है वह किसो चेतनकी प्रेरणासे ही देखी जाती है। जैसे- रेल व मोटर आदिमें। यदि कहा जाये कि वह प्रकृति भी चेतन पुरुषको प्रेरणा पा करके कार्यको करती है, सो यह कहना भो ठोक नहीं है, क्योंकि सांख्य मतानुसार पुरुष उदासीन व सर्वथा एक ही स्वभाववाला है, उसके स्वभावमें परिणमन कुछ होता नहीं है और उस परिणमनके बिना प्रेरणा करना असम्भव है। अन्यथा, उसके अनित्यताका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होनेवाला है। उसके अतिरिक्त पुरुष जब प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न है तब अमूर्तिक होनेसे वह शरीरके बिना भोक्ता भी कैसे हो सकता है ? शरीरके बिना वह भोग भी नहीं कर सकता है। यदि कहा जाये कि बुद्धिके प्रतिबिम्बका जो उदय है वही पुरुषका भोग है तो यह कहना भी असंगत होगा। कारण यह कि प्रतिबिम्बका मूर्तिक दर्पण आदिपर ही पड़ना सम्भव है, न कि अमूर्तिक उस पुरुषपर। यदि अमूर्तिक पर भी प्रतिबिम्ब माना जाता है तो फिर अमूर्तिक मुक्त जीवोंमें भी उक्त प्रतिबिम्बकी सम्भावना रहनेसे उन्हें भी भोक्ता मानना पड़ेगा। समीपस्थ होनेपर भी किसीके ऊपर प्रतिबिम्ब पड़े और किसीके ऊपर वह न पड़े, यह नियमव्यवस्था कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती, क्योंकि उसका नियामक कोई विशेष हेतु नहीं है ।।१८७।। जीवसे शरीरके सर्वथा भिन्न होनेपर उसमें चेतना व सुख-दुःख आदि भी सम्भव नहीं है इस प्रकारसे शरीरसे जीवते. सर्वथा भिन्न होनेपर--अनुभवसिद्ध चेतना भी शरीरमें नहीं प्राप्त होती। तथा उस चेतनाके अभावमें सूख-दुख आदि भी सर्वथा नहीं हो सकते विवेचन-यह अनुभवसिद्ध है कि शरीरके कोमल गादी आदिका स्पर्श होनेपर सखका अनुभव तथा तीक्ष्ण कांटे आदिका स्पर्श होनेपर दुखका अनुभव होता है। परन्तु जब शरीरको आत्मासे सर्वथा भिन्न माना जाता है तब आत्मासे भिन्न उस शरीरके चेतनासे रहित होनेके कारण उक्त गादी आदि अथवा कांटे आदिका स्पर्श होनेपर भी सुख-दुखका वेदन नहीं होना चाहिए, जिस प्रकार कि जड़ घटके कोमल या कठोर किसी वस्तुका स्पर्श होनेपर उसे सुख-दुखका वेदन नहीं हुआ करता है। पाषाण निर्मित मनुष्यको मूर्ति में भी अचेतन होनेसे कभी सुख-दुखका १. भ सुहदुहादा ण । १. भ तस्या चेतनाया। ३. म°थं सुहृदुहादयो न युज्यते । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ श्रावकप्रज्ञप्तिः यदि न युज्यन्ते नाम का 'हानिरित्येतदाशंक्याह [ १८९ – स- चंदण - विस- सत्थाइजोगओ तस्स अह य दीसंति । तभावं विभिन्नवत्थुपए ण एवं तु ॥ १८९ ॥ सक्-चन्दन- विष- शस्त्रादियोगतस्तस्य शरीरस्याथ च दृश्यन्ते स्वकीयेऽनुभवेन अन्यदीये रोमाञ्चादिलिङ्गत इति । विपक्षे बाधामाह-तद्भावेऽपि खगादिभावेऽपि । तद्भिन्नवस्तुप्रगते आत्मभिन्नघटादिवस्तुसंगते न एवं सुखादयो दृश्यन्ते । न हि घटे स्रगादिभिश्चचितेऽपि देवदत्तस्य सुखादय इति ॥ १८९ ॥ उपसंहरन्नाह अन्नुन्नाणुगमाओ भिन्नाभिन्नो तओ सरीराओ । तस् य वहमि एवं तस्स वहो होड़ नायव्वो ॥ १९० ॥ अन्योन्यानुगमाज्जीव- शरीरयोरन्यानुवेधाद्भिन्नाभिन्नोऽसौ जीवः शरीरात् । आह - अन्योन्यरूपानुवेधे इतरेतररूपपत्तिस्ततरच नामूर्त मूर्ततां याति मृतं नायात्यमूर्तताम् । द्रव्यं त्रिष्वपि कालेषु च्यवते नात्मरूपतः ॥ वेदन नहीं होता । परन्तु कोमल या कठोर वस्तुका सम्बन्ध होनेपर शरीर में चूंकि सुख-दुखका वेदन अवश्य होता है इसीलिए वह आत्मासे सर्वथा भिन्न नहीं हो सकता || १८८|| आगे इसी अभिप्रायको स्पष्ट किया जाता हैपरन्तु माला व चन्दन आदि इष्ट वस्तुओंके संयोगसे और विष व शस्त्र आदि अनिष्ट वस्तुओं के संयोग से उस शरीरके वे सुख-दुख अवश्य देखे जाते हैं - अपने शरीरमें जहाँ उनका वेदन अपने अनुभवसे सिद्ध है वहीं दूसरेके शरीर में उनका वेदन रोमांच आदि हेतुके आश्रयसे अनुमित है। इसके विपरीत देवदत्त आदिकी आत्मासे भिन्न घट आदिसे उक्त माला आदिका सम्बन्ध होनेपर कभी देवदत्त आदिको उस प्रकारसे सुख-दुख आदिका 'अनुभव नहीं होता है । इससे सिद्ध होता है कि जिस प्रकार जीवसे घटपटादि पदार्थ सर्वथा भिन्न हैं उस प्रकारसे शरीर जीवसे सर्वथा भिन्न नहीं है, किन्तु उन दोनों में कथंचित् अभेद भी है ॥ १८९ ॥ आगे इसका उपसंहार करते हुए निष्कर्ष प्रकट किया जाता है" इसलिए परस्पर में अनुप्रविष्ट होने के कारण उसे ( जीवको ) शरीरसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानना चाहिए। इस प्रकार शरीरका वध करनेपर उस जीवके वधको जानना चाहिए । विवेचन - जिस प्रकार दूधमें पानीके मिलनेपर वे दोनों एक दूसरे में अनुप्रविष्ट होकर एक क्षेत्रावगाहरूपसे रहते हैं व इसीलिए उन दोनों में साधारण जनके लिए भेद परिलक्षित नहीं होता है, पर स्वभावतः वे दोनों पृथक्-पृथक् ही हैं, अथवा सुवर्ण में तांबे के मिलानेपर जिस प्रकार उन दोनों में साधारण जनको भिन्नताका बोध नहीं होता, किन्तु हैं वे दोनों स्वभावतः पृथक् पृथक्, यही कारण है जो सुवर्णकार रासायनिक प्रक्रियासे उनको अलग-अलग कर देता है। - १. अ युज्यते नाम क नो हानि । २. अ तब्भिन्नवउगए । ३. अ ंत्तिस्ततज्ज । ४. अ नामृत्तं नायाति मूर्ततां । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१९२] अकालमरणाभाववादिनामभिमतनिरासः इति वचनाद्भगवन्मतविरोधः ? न, भगवद्वोदृढदानात्' आलदानात् । नानुभवविरुद्धवस्तुवादी भगवान्, नयविषयत्वात् । तस्य च शरीरस्य वधे घाते। एवमुक्तन्यायाज्जीवानुवेधसिद्धौ तस्य जीवस्य वधो भवति ज्ञातव्य इति ॥१९०॥ अधुना वधलक्षणमेवाह तप्पज्जायविणासो दुक्खुप्पाओ अ संकिलेसो य । एस वहो जिणभणिओ तज्जेयवो पयत्तेणं ॥१९१॥ तत्पर्यायविनाशः मनुष्यादिजीवपर्यायविनाशः, दुःखोत्पादश्व व्यापाद्यमानस्य चित्तसंक्लेशश्चे क्लिष्टचित्तोत्पादश्चात्मनः । एष नधो व्यस्तः समस्तो वा ओघतो जिनभणितः तीर्थकरोक्तो वर्जयितव्यः प्रयत्नेनोपयोगसारेगानुष्ठानेनेति ॥१९१॥ इदानीमन्यद्वादस्थानकम्-- अन्ने अकालमरणसभावओ वहनिवित्तिमो मोहा । वंझासुअपिसियासणनिवित्तितुल्लं ववइसंति ॥१९२।। ठीक इसी प्रकारसे जीव और शरीर एकक्षेत्रावगाहरूप होकर एक दूसरेके प्रदेशोंमें अनुप्रविष्ट होते हुए स्थित रहते हैं। इससे उनमें कथंचित् अभेद होकर भी वस्तुतः भेद हो है। उनके इस भेदका अनुभव सम्यग्दृष्टिको होता है, मिथ्यादृष्टिको नहीं होता। यहां यह शंका हो सकती है कि जब वे दोनों एक दूसरेके प्रदेशोंमें अनुप्रविष्ट हैं तो उनमें इतरेतररूपताका प्रसंग प्राप्त होता है-- वैसी अवस्थामें जीवको शरीर और शरीरको जीव हो जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त आगममें जो यह कहा गया है कि अमूर्त द्रव्य कभी मूर्त नहीं होता और मूर्त द्रव्य कभी अमूर्त नहीं होता है, इस आगमविरोधको भी वैसी अवस्थामें कैसे टाला जा सकता है ? नहीं टाला जा सकता। इसके उत्तरमें यहां यह कहा जा रहा है कि आगममें जो वैसा कहा गया है वह यथार्थ है, उसमें कुछ विरोध नहीं है। सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा जो कुछ कहा गया है वह अनुभवसिद्ध है, अनुभवके विरुद्ध आगममें कुछ नहीं कहा गया। वह सब कथन नयसापेक्ष है। यथा-व्यवहारमें शरीरसे पृथक् जीवको नहीं देखा जाता तथा उस शरीरके आश्रयसे उसे सुख-दुखका वेदन भी होता है, इसलिए व्यवहार नयकी अपेक्षा जीव व शरीर में कथंचित् अभेद माना गया है। परन्तु जीव जहां चेतन है वहां वह शरीर जड़ है-वेतनासे शून्य है, इसी प्रकार जहाँ स्वभावतः वर्णादिसे विरहित होकर अमूर्त है वहां वह शरीर वर्णादिसे सहित होकर मूतं है । इस प्रकार निश्चयनयको अपेक्षा स्वरूपभेद होनेसे उन दोनोंमें कथंचित् भेद भी है। इसीलिए शरीरके वधसे उससे सम्बद्ध जीवका वध अवश्य होनेवाला है। यही उस आगमका रहस्य है ।।१९०।। आगे उस वधका ही लक्षण कहा जाता है जिससे जीवको उस पर्यायका-मनुष्य व हिरण आदि अवस्था विशेषका-विनाश होता है, उसे दुख उत्पन्न होता है, तथा परिणाममें संक्लेश होता है उसे जिन भगवान्के द्वारा वध कहा गया है । उसे प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए ॥१९॥ अब जो अकालमरणको नहीं मानते हैं उनके अभिमतानुसार वधको असम्भवताको प्रकट किया जाता है १. अ विरोधो न भवद्वोढदानात । २. अमानस्य संक्लेशश्च । ३. अ वविदिसंति। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १९३ - अन्ये वादिनः स्वकृतकर्मफलं प्रत्युपभोगभावेन अकालमरणस्याभावाद्वधनिवृत्तिमेव मोहाद्वेतोर्वन्ध्यासुतपिशिताशननिवृत्तितुल्यां व्यपदिशन्ति - वन्ध्यासुतस्यैवाभावात्तत्पिशितस्याप्यभावः, पिशितं मांसमुच्यते, तदभावाच्च कुतस्तस्याशनं भक्षणम् ? असति तस्मिन्निविषया तन्निवृत्तिः । एवमकालमरणाभावेन वधाभावाद्वधनिवृत्तिरपीति ॥१९२॥ एतदेव समर्थयति - १२० अज्झी yoवकए न मरइ झीणे य जीवइ न कोइ । सयमेव ता कह वही उवक्कमाओ वि नो जुत्तो ॥ १९३॥ अक्षीणे पूर्वकृते आयुष्ककर्मणि । न म्रियते कश्चित् स्वकृतकर्मफलं प्रत्युपभोगाभावप्रसङ्गात् । क्षीणे च तस्मिन् जीवति न कश्चित्, अकृताभ्यागम- कृतनाशप्रसङ्गात् । स्वयमेवात्मनैवैतदेवमिति । तत्तस्मात्कथं वधो निमित्ताभावात् ? नास्त्येवेत्यभिप्रायः । कर्मोपक्रमादभविष्यतीत्येतदाशङ्कयाह -- उपक्रमादपि अपान्तराल एव तत्क्षयलक्षणान्न युक्तं इति ॥१९३॥ अत्रैवोपपत्तिमाह कम्मो का मिज्जइ अपत्तकालं पि जइ तओ पत्ता । अकयागम-कयनासा मुक्खाणासासयाँ दोसा ॥ १९४॥ अन्य कितने ही वादी अकालमरणके अभाव से उस वधकी निवृत्तिको अज्ञानता के कारण वन्ध्यापुत्र के मांस भक्षणको निवृत्तिके समान बतलाते हैं । विवेचन - कितने ही वादी यह मानते हैं कि प्राणी जो भी कर्म बाँधता है उसका पूरा फल भोग लेनेके पश्चात् ही वह यथासमय निर्जीर्ण होता है । तदनुसार जिस जीवने जितने काल प्रमाण आयु कर्मको बाँधा है उतने काल उसके फलको भोग लेनेपर ही वह समयानुसार नष्ट होती है, पूर्व में उसका विनाश सम्भव नहीं है। इस प्रकार जब प्राणीके अकालमें मरनेको सम्भावना ही नहीं है तब उसके वधकी निवृत्ति कराना इस प्रकार हास्यास्पद है जिस प्रकार कि वन्ध्यापुत्र के मांस भक्षणकी निवृत्ति कराना । अभिप्राय यह है कि जब बाँझ स्त्रीके पुत्रका होना ही असम्भव है तब उसका मांस भी आकाशके फूलके समान असम्भव होगा । ऐसी अवस्था में जिस प्रकार उसके मांस भक्षणका त्याग कराना अज्ञानतासे परिपूर्ण है उसी प्रकार अकालमें किसी भी जीवके मरनेकी सम्भावना न होनेसे उसके वधका परित्याग कराना भी अज्ञानता से परिपूर्ण होगा ॥१९२॥ उक्त वादी आगे अपने इसी अभिमतका समर्थन करता है पूर्वकृत आयुकर्मके क्षीण न होनेपर कोई जीव मरता नहीं है तथा उसके क्षयको प्राप्त हो जानेपर कोई स्वयं ही जीवित नहीं रह सकता है । फिर ऐसी अवस्था में वध कैसे हो सकता है ? वैसी अवस्था में उस वधकी सम्भावना ही नहीं रहती । यदि कहा जाये कि उपक्रमसे वह वध हो सकता है तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उपक्रमसे भी वह वध योग्य नहीं है ।।१९३।। उपक्रमसे वह वध क्यों योग्य नहीं है, इसके लिए वादी आगे युक्ति देता है यदि समय के प्राप्त होने के पूर्वं भी कर्मका उपक्रम कराया जा सकता है तो इससे अकृतका अभ्यागम — उसकी प्राप्ति - और कृतका नाश तथा मोक्ष के विषय में आश्वासता ये दोष प्राप्त होते हैं । १. अमरणाभावाद्वघनिवृत्तिरपीति । २. अ जीवित न कश्चित् कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसंगात् । ३. अ मोखाणोसासया । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १९५] अकालमरणाभाववादिनामभिमतनिरासः १२१ कर्मोपक्राम्यते अर्धमार्ग एव क्षयमुपनीयते। अप्राप्तकालमपि स्वविपाकापेक्षया यदि । ततःप्राप्तावकृतागम-कृतनाशौ-अपान्तराल एव मरणादकृतागमः, प्रभूतकालोपभोग्यस्यारत एव क्षयात्कृतनाशः। मोक्षानाश्वासता अतः मोक्षेऽनाश्वासता अनाश्वासभावः मृत्यवत् अकृतस्यापि कर्मणो भावाशङ्कानिवृत्तेः कृतस्यापि च कर्म [ कर्मणः क्षयश्च नाशसंभवात् । एत एव दोषा इति एष पूर्वपक्षः॥१९४॥ अधुनोत्तरपक्षमाह न हि दीहकालियस्स वि नासो तस्माणुभूइओ खिप्पं । बहुकालाहारस्स वं दुयमग्गियरोगिणो भोगो ॥१९५॥ न हि नैव । दीर्घकालिकस्यापि प्रभूतकालवेद्यस्यापि उपक्रमतः स्वल्पकालवेदनेऽपि नाशः। तस्य कर्मणः । अनुभूतितः क्षिप्रं समस्तस्यैव शीघ्रमतुभूतेः। अत्रैव निदर्शनमाह-बहुकालाहारस्येव सेतिका-पलभोगेन वर्षशताहारस्येव । द्रुतं शोघ्र अग्निकरोगिणो भस्मकव्याधिमतो भोगः, विवेचन-जो वादी अकालमरणको स्वीकार नहीं करते हैं उनका कहना है कि प्राणोने जितनी स्थिति प्रमाण-आयुकर्मको पूर्वमें बांधा है उसको उतनी स्थितिके क्षीण हो जानेपर ही जीव मरणको प्राप्त होता है, इसके पूर्व वह नहीं मरता है। तथा आयुकर्मको स्थितिके क्षीण हो जानेपर प्राणी कभी जीवित नहीं रह सकता है। इस प्रकार वह अन्य किसो निमितके बिना स्वयमेव मरणको प्राप्त होता है। ऐसो स्थितिमें जब वधको सम्भावना ही नहीं है तब उस वधकी निवृत्ति कराना मूर्खतापूर्ण हो होगा। इसपर यदि कोई वादोसे यह कहे कि उपक्रमसे--विषशस्त्रादिरूप आयुके अपवर्तनके निमित्तसे-उस आयुकर्मका क्षय नियत स्थितिके पूर्व में भी कराया जा सकता है तो वह भी योग्य नहीं है, क्योंकि समयके प्राप्त होनेके पूर्वमें ही यदि आयुका क्षय होता है तो इससे अकृत-आगम और कृतनाश दोष उपस्थित होते हैं। कारण यह कि जितने काल प्रमाण आयुको किया गया था उतनी आयुस्थितिके भोगे बिना हो चूंकि प्राणो बीचमें ही उपक्रमसे मरणको प्राप्त हो जाता है, इसलिए यह तो अकृतागम हुमा तथा दोघं काल तक जिस आयुकर्मको भोगना चाहिए था उसका पूर्व में ही विनाश हो गया, यह कृतका नाश हुआ। इस प्रकार उपक्रमसे बीच में ही आयुकर्मका विनाश माननेपर ये दो दोष बलात् उपस्थित होते हैं । साथ ही मोक्षके विषयमें भी इस प्रकारसे कोई अश्वासन प्राप्त नहीं होता, क्योंकि बीच में हुए मरणके समान अकृत कर्मके सद्भावकी शंका बनी रहने के साथ कृत कर्मके नाशको भी सम्भावना बनी रहती है। इस प्रकार प्रसंगप्राप्त इन दोषोंके कारण जब अकालमरणको सम्भावना नहीं है तब किसी प्राणीका वध किया ही नहीं जा सकता है। ऐसी स्थितिमें उस वधका निवृत्ति कराना निरर्थक व अज्ञानतापूर्ण हो कही जायेगी। इस प्रकारसे वादोने अपने पक्षको स्थापित किया है ॥१९२-१९४॥ अब इस अभिमतका निराकरण करते हुए दीर्घकालिक कर्मका भी शोघ्र नाश हो सकता है, इसे स्पष्ट किया जाता है वादोकां वह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि लम्बे समय तक भोगे जानेवाले उस कर्मका उपक्रमके वश शीघ्र ही भोगने में आ जानेसे नाश हो जाता है। जैसे-बहुत काल तक उपभोगके १.अ भोग्यस्यातरत । २.अ मोक्षानासाश्वता अत एव मोक्षे अनाश्वासस्तदभावः मृत्युवत् । ३. अ भूतिउ । ४. अ वि दुयमग्गीय । ५. अ पलाभोगेन । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१९६ - स हि तमेकदिवसेनैव' भुक्तं व्याधिसामर्थ्यात् । न च तत्र किंचिन्नश्यति संपूर्णभोगात् । एवमुपक्रमकर्मभोगेऽपि योज्यामिति ॥१९५॥ एतदेवाह सव्वं च पएसतया भुज्जइ कम्ममणुभावओ भइयं । तेणावस्साणुभवे के कयनासादओ तस्स ॥१९६॥ सर्व च प्रदेशतया कर्मप्रदेशविचटन-क्षपणलक्षणया। भुज्यते कर्म । अनुभावतो भाज्यं विकल्पनीयम् । विपाकेन तु कदाचिद्भुज्यते कदाचिन्नेति, क्षपकणिपरिणामादावन्यथापि भोगसिद्धेरन्यथा निर्मोक्षप्रसङ्गात् । तेन कारणेन । अवश्यानुभवे प्रदेशतया नियमवेदने । के कृतनाशादयः ? नैव कृतनाशादय इति ॥१९६॥ कि च उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जंच कंमुणो भणिया । दव्वाइपंचयं पड़ जुत्तमुवक्कामणमओ वि ॥१९७॥ उदय-क्षय-क्षयोपशमोपशमाः यच्च यस्मात्कारणात् कर्मणो भणितास्तीर्थकरगणधरैः । योग्य आहारक अग्निक ( भस्मक ) रोगी शीघ्र ही भोग लेता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सौ वर्ष तक चलनेवाले आहारको भस्मकरोगी एक ही दिनमें खाकर समाप्त कर देता है उसी प्रकार उपक्रमके वश दीर्घ काल तक भोगे जानेवाले कर्मका विनाश शीघ्र हो जाता है ।।१९५॥ आगे इसीको स्पष्ट करते हैं-- वह कर्म प्रदेशरूपसे तो सब ही भोगने में आ जाता है, पर अनुभाग रूपसे वह भाज्य हैविपाकके रूपमें वह कदाचित् भोगा भी जाता है और कदाचित् नहीं भी भोगा जाता है। इस कारण उसका अवश्य अनुभव कर लेनेपर वादीके द्वारा उद्भावित वे कृतनाशादिक दोष कहां सम्भव है ? उनकी सम्भावना यहाँ सर्वथा नहीं है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि जब उस कर्मको उपक्रमके वश प्रदेशस्वरूपसे पूरा भोग लिया जाता है व उसका कुछ शेष नहीं रहता है तब वादीने अकृताभ्यागम, कृतनाश और मोक्षविषयक अनाश्वासतारूप जिन दोषोंको उद्भावित किया था उनको सम्भावना नहीं है। विपाकस्वरूपसे जो उसे भाज्य कहा गया है, इसका कारण यह है कि क्षपकश्रेणिमें अपूर्वकरणादि विशिष्ट परिणामोंके द्वारा उसके विपाकका वेदन अन्य रूप में भी हआ करता है। यदि ऐसा न हो तो बन्ध व निर्जराके क्रमके निरन्तर चालू रहनेपर मोक्ष कभी न हो सकेगा। इस प्रकार विपाकरूपसे भले ही उसका अन्यथा वेदन हो, पर प्रदेशरूपसे जब वह पूरा भोग लिया जाता है तब उक्त कृतनाशादि दोष सम्भव नहीं है ॥१९६।। इसके अतिरिक्त ___कर्मके विषयमें चूंकि उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम कहे गये हैं इसलिए भी द्रव्य आदि पांचके निमित्तसे उपक्रम कराना योग्य है विवेचन-आगममें कर्मकी उदयादिरूप विविध अवस्थाओंका निर्देश किया गया है। वे १. अ व्याधिमातो भोगे सति तदेक सति तदेकदिवसेनैव । २. अ कम्मा। ३. अ क्षपण कश्रेणीपरिणामोदवेन्यथा भोगे । ४. अदव्वातिपंचयं । ५. म मतो। ६. अ यस्माच्च कारणात् । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १९९ ] अकालमरणाभाववादिनामभिमतनिरासः १२३ द्रव्यादिपञ्चकं प्रति द्रव्यं क्षेत्रं कालं भवं भावं च प्रतीत्य । यथा-द्रव्यं माहिषं दधि, क्षेत्रं जांगलम्, कालं प्रावृड्लक्षणम्, भवमेकेन्द्रियादिकम्, भावमौदयादिकमालस्यादिकं वा प्रतीत्योदयो निद्रावेदनीयस्य । एवं व्यत्ययानां क्षयादियोजना कार्या । युक्तमुपक्रामणमंतोऽपि अनेन कारणं कर्मण उपक्रमो युज्यत इति इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् ॥१९७॥ अन्यथेदमनिष्टमापद्यते इति दर्शयन्नाह जह या भूइओ च्चिय खंविज्जए कम्म नन्नहाणुमयं । तेणासंखभवज्जियनाणा गइ कारणत्तणओ ॥१९८॥ यदि चानुभूतित एव विपाकानुभवेनैव । क्षप्यते कर्म, नान्यथानुमतमुपक्रमद्वारेण । तेन प्रकारेणासङ्ख्यात भवाजितनानागतिकारणत्वात् कर्मणः असङ्ख्यातभवाजितं हि विचित्रगतिहेतुत्वान्नारका दिनानागतिकारणमेव भवतीति ॥। १९८ ।। तत्र- नाणाभवाणुभवणाभावा एगंमि पज्जएणं वा । अणुओ बंधाओ सुक्खाभावो स चाणिहो ॥ १९९ ॥ नानाभवानुभवनाभावादेकस्मिन् । तथाहि - नानुपक्रमतो नारकादिनानाभवानुभवनमेकस्मिन् भवे । पर्यायतो वानुभवतः विपाकानुभवक्रमेण वा क्षपयतः । बन्धादिति नारकादिभवेषु चारित्राभावेन प्रभूततरबन्धान्मोक्षाभाव आपद्यते स चानिष्ट इति ॥ १९९॥ जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके आश्रयस हुआ करता हैं तब उस कर्मका उपक्रम युक्तिसंगत ही है । उदाहरणार्थ - निद्रा दर्शनावरणका उदय द्रव्यमे भैंसके दहो, क्षेत्रमें जांगल काल में वर्षाकाल, भव में एकेन्द्रियादि अवस्था और भाव में औदयिकादि भाव या आलस्य आदिके आश्रयसे हुआ करता है । इसी प्रकार विपरीत रूपसे उसके क्षय आदिको भी जानना चाहिए। इस कारण - सभी कर्मका उपक्रम मानना उचित है || १९७॥ आगे उपक्रम के बिना जो अनिष्टका प्रसंग प्राप्त होता है उसे दिखलाते हैं यदि अनुभव नसे ही कर्मका क्षय होता है, अन्य प्रकारसे - उपक्रमके बिना - उसका क्षय नहीं माना जाता है तो उस प्रकारसे असंख्यात भवों में उपार्जित नाना गतियोंके कारणभूत उस कर्म फलका एक भवमें भोगना अशक्य होगा || १९८ || अशक्य कैसे होगा, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है कारण यह कि एक भवमें अनेक भावोंका अनुभव करना सम्भव नहीं है । अथवा पर्यायसे—विपाकके क्रमसे— कर्मका यदि अनुभव किया जाये तो बन्धका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होता है, तब वैसी स्थिति में मोक्षका अभाव हो जायेगा, जो इष्ट नही है । विवेचन - जैसा कि वादीको अभीष्ट है तदनुसार अनुभाग के क्रमसे फलके भोग लेनेपर ही कर्म क्षपको प्राप्त होता है, उपक्रमसे वह क्षीण नहीं होता; ऐसा माननेपर यह एक आपत्ति उपस्थित होती है कि असंख्यात भवों में जिस कर्मको उपार्जित किया गया है वह उन अनेक गतियों का कारण होगा, जिनका उपक्रमके बिना एक भवमें अनुभव करना असम्भव है । इसपर यदि यह कहा जाये कि विपाकके क्रमसे अनुभव करते हुए हो उसका क्षय सम्भव है तो यह १. अमुपक्रमणमतो । २. अ खविज्जइ कम्ममन्नहाणुमयं । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२००निदर्शनगर्भमुपपत्त्यन्तरमाह किंचिदकाले वि फलं पाइज्जइ पच्चए य कालेण । तह कम्मं पाइज्जइ कालेण विपच्चए चन्नं ॥२०॥ किञ्चिदकालेऽपि पाककालादारतोऽपि । फलमाम्रफलादि । पाच्यते गर्ताप्रक्षेप-कोद्रवपलालस्थगनादिनोपायेन । पच्यते च कालेन किचित्तत्रस्थमेव स्वकालेन पच्यते। यथेदं तथा कर्म पाच्यते उपकाम्यते विचित्ररुपक्रमहेतुभिः । कालेन विपच्यते चान्यत् विशिष्टानुपक्रमहेतून् विहाय विपाककालेनैव विपाकं गच्छतीति ॥२०॥ दृष्टान्तान्तरमाह भिन्नों जहेहं कालो तुल्ले वि पहंमि गइविसेसाओ । सत्थे व गहणकालो मइमेहाभेयओ भिन्नो ॥२०१॥ भिन्नो यथेह कालो ऽधप्रहरादिलक्षणस्तुल्येऽपि पथि समाने योजनादौ मार्गे । गतिविशेषाद् गमनविशेषेण शीघ्रगतिरर्धप्रहरेण गच्छति, मध्यमः प्रहरेणेत्यादि । शास्त्रे वा व्याकरणादौ ग्रहणकालो मतिमेधाभेदादभिन्नः कश्चिद्वादशभिर्वर्षेः तदधीते, कश्चिद्वर्षद्वयेनेत्यादि ॥२०१॥ एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयःभी उचित नहीं होगा, क्योंकि यथाक्रमसे नारकादि भवोंमें उसका अनुभव करते हुए वहां चारित्रके सम्भव न होनेसे उत्तरोत्तर बन्ध ही अधिक होनेवाला है। ऐसी अवस्था में बन्धकी उस प्रक्रियाके चालू रहनेपर मोक्षकी प्राप्ति असम्भव हो जावेगी जो वादोको भी इष्ट नहीं होगो ।।१९८-१९९॥ इसके लिए दृष्टान्तपूर्वक अन्य युक्ति भी दी जाती है आम आदि कोई फल अकालमें भी-पाक-कालके पूर्वमें भी गड्ढे में या कोदोंके पलाल आदिमें रखकर कृत्रिम उपायसे-पका लिया जाता है, और कोई फल बाहरी उपायके बिना वृक्षपर ही संलग्न रहकर समयपर भी पकता है। उसी प्रकारसे कोई कर्म तपश्चरण आदि रूप उपक्रमके विविध कारणोंके द्वारा अपनी स्थितिके पूर्वमें विपाकको प्राप्त करा दिया जाता है तथा अन्य कोई कर्म उपक्रमके बिना समयके अनुसार ही विपाकको प्राप्त होता है ॥२०॥ आगे दूसरा दृष्टान्त भी उपस्थित करते हैं जिस प्रकार मागंके लम्बाईमें समान होनेपर भी पथिकोंकी गतिकी भिन्नतासे उसके पूरा करने में भिन्न-भिन्न समय लगता है-शोघ्र गतिवाला पुरुष जहाँ उसे घण्टे-भरमें पूरा कर लेता है वहीं मन्द गतिवाला उसे डेढ़-दो घण्टोंमें पूरा कर पाता है। अथवा जैसे व्याकरण आदि विषयक किसी शास्त्र अध्ययनमें बुद्धि व मेधाको भिन्नतासे भिन्न समय लगता है-कोई तीक्ष्णबुद्धि शिष्य जहाँ उसे छह मासमें पढ़ लेता है वहीं मन्दबुद्धि शिष्य उसीको वर्ष-भरमें या उससे भो अधिक समयमें पढ़ पाता है ॥२०१॥ आगे इन दृष्टान्तोंसे दान्तिकी समानता प्रकट को जाती है१. अमेव कालेन । २. अ उपक्रम्यते । ३. अ भिन्ने । ४. अ 'जहे-' इत्यतोऽने टीकागत 'लक्षणस्तुल्ये' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । ५. म माम्रगति । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ -२०३] अकालमरणाभाववादिनामभिमतनिरासः तह तुल्लंमि वि कम्मे परिणामाइकिरियाविसेसाओ। भिन्नो अणुभवकालो जिट्ठो मज्झो जहन्नो य ॥२०२॥ तथा तुल्येऽपि कर्मणि कर्मद्रव्यतया । परिणामादिक्रियाविशेषात्तीव-तीव्रतरपरिणामबाह्यसंयोगक्रियाविशेषेण। भिन्नोऽनुभवकालः कर्मणः। कथम् ? ज्येष्ठो मध्यो जघन्यश्चज्येष्ठो निरुपक्रमस्य यथाबद्धवेदनकालः, मध्यस्तस्यैव तथाविधतपश्चरणभेदेन, जघन्यःक्षपकश्रेण्यनुभवनकालः शैलेस्यनुभवनकालो वा; तथाविधपरिणामबद्धस्य तत्तत्परिणामानुभवनेन, अन्यथा विरोध इति ॥२०२॥ दृष्टान्तान्तरमाह जह वा दीहा रज्जू डज्झइ कालेण पुंजिया खिप्पं । वियओं पडो वि सूसइ पिंडीभूओ उ कालेणं ॥२०३।। उसो प्रकार कर्मके समान होनेपर भी परिणाम आदि क्रियाविशेषसे उसके अनुभवका काल उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य रूपसे भिन्न हुआ करता है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार वृक्षसे संलग्न आम आदि फल स्वाभाविक रूपसे कुछ लम्बे समयमें पक पाते हैं, पर उन्हीं फलोंको जब वृक्षसे तोड़कर पलाल आदिके मध्यमें रख दिया जाता है तब वे फल कुछ जल्दी हो पक जाते हैं। अथवा किसो नगरविशेषको जानेवाले मार्गको दूरीको मन्द गतिसे जानेवाला पुरुष उस मार्गसे चलकर विलम्बसे नगर में पहुंचता है, किन्तु शीघ्र गतिसे जानेवाला अन्य पुरुष उसी मार्गसे चलकर पूर्व पुरुषकी अपेक्षा शीघ्र ही नगरमें जा पहुंचता है। अथवा जिस प्रकार मन्दबुद्धि शिष्य जिस व्याकरणादि विषयक ग्रन्थ को पढ़कर दीर्घकालमें समाप्त कर पाता है उसे ही पढ़कर तीन बुद्धिवाला शिष्य शीघ्र समाप्त कर देता है। ठीक इसी प्रकारसे जो कोई कर्म जिस स्थिति और अनुभागके साथ बांधा गया है वह उपक्रमके बिना स्वाभाविक रूपमें उतनी स्थिति व अनुभागके भोग लेनेपर ही सविपाक निर्जरासे निर्जीर्ण होता है । यह उसका उत्कृष्ट काल है। पर उक्त स्थिति व अनुभागके साथ बांधा गया वही कर्म उपक्रमके वश तपश्चरण विशेषसे बद्ध स्थिति और अनुभागको होन कर समयके पूर्व हो निर्जराको प्राप्त करा दिया जाता है। इसे उसका मध्यम काल कहा जायेगा। वही कर्म क्षपकणि आरूढ़ हुए संयतके परिणामोंको विशेषतासे अतिशय होन स्थिति व अनुभागके रूपमें भोगा जाता है, अथवा शैलेशी अवस्थामें अयोगकेवलोके वह कर्म सर्वजघन्य स्थिति व अनुभागके साथ हो निर्जीर्ण होता है। यदि ऐसा न माना जाये तो मुक्तिको प्राप्ति भी असम्भव हो जावेगी। इसे उसका जघन्य समझना चाहिए। इस प्रकार परिणामोंकी विशेषताके अनुसार कर्म जब बन्धकी अपेक्षा भिन्न स्वरूपसे अनुभवमें आता है तब पूर्वोक्त अकृतागम व कृतनाशादि दोषोंको सम्भावना नहीं है ।।२००-२०२।। आगे रस्सो व वस्त्रका भी दृष्टान्त दिया जाता है १. अ 'परिणामा' इत्यतोऽग्रे टीकागत परिणामा' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. म यथावद्वेदन । ३. अ दृष्टांतमाह । ४. अ. वियतो। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२०४ यथा वा दीर्घा रज्जुः पर्यन्तदीपिता सती तथाक्रमेणैव दह्यते, कालेन प्रदीर्घेणेति भावः। पुञ्जिता क्षिप्रं शीघ्रमेव दह्यते । विततः पटो वा जलार्दोऽपि शुष्यति । क्षिप्रमिति वर्तते। पिण्डीभूतस्तु कालेन शुष्यति प्रदीर्घेणेति हृदयम्, न च तत्राधिकं जलमिति ॥२०३॥ अत्राह नणु तं न जहोवचियं तहाणुभवओ कयागमाईया । तपाओग्गं चिय तेण तं चियं सज्झरोगु' व्व ॥२०४॥ नन्वेवमपि तत्कर्म । न यथोपचितं तथानुभवतः वर्षशतभोग्यतयोपचितं उपक्रमेणारादेवानुभवतोऽकृतागमादयस्तदवस्था एव । अत्रोत्तरमाह-तत्प्रायोग्यमेवोपक्रमप्रायोग्यमेव तेन तच्चितं बद्धम् । किवदित्याह-साध्यरोगवत् साध्यरोगो हि मासादिवेद्योऽप्यौषधैरपान्तराल एवोपक्रम्यत इति ॥२०४॥ तथा चाह अणवक्कमओ नासइ कालेणोवक्कमेण खिप्पं पि । कालेणेवासज्झो सज्झासझं तहा कम्मं ॥२०५॥ अनुपक्रमतः औषधोपक्रममन्तरेण । नश्यत्यपैति । कालेनात्मीयेनैव । उपक्रमेण क्षिप्रमपि नश्यति । साध्ये रोगे इयं स्थितिः। कालेनैवासाध्य उभयमत्र न संभवति। साध्यासाध्यं तथा कर्म साध्ये उभयम्, असाध्ये एक एव प्रकार इति ॥२०५॥. अथवा जिस प्रकार क्रमसे जलतो हुई लम्बो रस्सी दीर्घ कालमें जल पाती है, पर वही पुंजित ( इकट्टा) कर देनेपर शोघ्र हो भस्म हो जातो है, अथवा जैसे फैलाया गया गोला वस्त्र भी शीघ्र सूख जाता है, पर वही पिण्डाभूत ( इकट्ठा ) होनेपर दीर्घ कालमें सूख पाता है ॥२८३॥ आगे वादोके द्वारा की गयी शंकाको दिखलाकर उसका समाधान किया जाता है यहाँ वादी कहता है कि जीवने जिस प्रकारसे कर्मका संचय नहीं किया है उस प्रकारसे यदि वह उसका अनुभव करता है तो वे अकृताभ्यागम आदि दोष तदवस्थ रहनेवाले हैंउनका निराकरण नहीं किया जा सकता है। इस शंकाके समाधानमें कहा जाता है कि जोवने उसके योग्य-उपक्रमके योग्य ही उसे संचित किया है, जैसे साध्य रोग ॥२०॥ इसे आगे स्पष्ट किया जाता है कर्म उपक्रमके बिना समयानुसार ही विनष्ट होता है, वही उपक्रमके द्वारा शीघ्र भी नष्ट हो जाता है। जैसे-असाध्य रोग समयपर ही नष्ट होता है, किन्तु साध्य रोग समयपर भी नष्ट होता और उससे पूर्व भी। यही स्थिति साध्य व असाध्य कर्मके विषयमें भी जानना चाहिए। विवेचन-अभिप्राय यह है कि कर्मको सौ या दो सौ वर्ष आदि कालमें भोगनेके योग्य जिस अवस्थामें बांधा गया है वह उस रूपमें न नष्ट होकर यदि उसके पूर्व भी उपक्रमके द्वारा नष्ट होता है तो उस अवस्था में पूर्व में दिये गये अकृताभ्यागम आदि दोष तदवस्थ ही रहेंगे। इस शंकाके उत्तर में यहाँ यह कहा गया है कि जिस प्रकार साध्य रोग उपक्रमके बिना समयपर हो नष्ट होता है, किन्तु वह उपक्रमके द्वारा-औषधि आदिके आश्रयसे-समयके पूर्व भी नष्ट होता १. सब्भरोगो। २. अति। ३. अ कालेणेवा सब्भोसभं तहा। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२०८] अकालमरणाभाववादिनामभिमनिरासः १२७ साध्यासाध्ययोरेव स्वरूपमाह सोवक्कममिह सझं इयरमसझं त्ति होइ नायव्वं । सज्झासज्झविभागो एसो नेओ जिणाभिहिओ ॥२०६॥ सोपक्रममिह साध्यम्, 'तथाविधपरिणामजनितत्वात् । इतरन्निरुपामसाध्यमेव भवति ज्ञातव्यम् । साध्यासाध्यविभागः एष ज्ञेयो जिनाभिहितस्तीर्थकरोक्त इति ।।२०६॥ निगमयन्नाह आउस्स उवक्कमणं सिद्धं जिणवयणओ य सद्धेयं'। जं छउमत्थो सम्म नो केवलिए मुणइ भावे ॥२०७।। आयुष उपक्रमणं सिद्धमुत्तन्यायात् । जिनवचनाच्च भवति श्रद्धेयम्। किमित्यत्रोपपत्तिमाह-- यद्यस्माच्छद्मस्थः अग्दिर्शी । सम्यगशेषधर्मापेक्षया । न केवलज्ञानगम्यान् मुणति भावान् जानालि पदार्थानिति ॥२०७॥ प्रकृतयोजनायाह एयस्स य जो हेऊ सो वहओ तेण तन्निवित्तीय। वंझासुयपिसियासणनिवित्तितुल्ला कहं होइ ।।२०८|| हुआ देखा जाता है उसी प्रकार साध्य-उपक्रमके योग्य बांधा गया-कर्म भी उपक्रमके बिना तो समयपर ही नष्ट होता है. किन्तु उपक्रमके वश वह बांधी गयी स्थितिके पूर्व भी नष्ट हो जाता है। इसलिए उन अकृताभ्यागम आदि दोषोंकी सम्भावना वहां नहीं रहती। हाँ, जिस प्रकार असाध्य रोगमें यह क्रम सम्भव नहीं है-वह समयपर ही नष्ट होता है-उसी प्रकार असाध्य कर्म भी समयपर ही नष्ट हुआ करता है। इस प्रकार रोगके समान कर्मको भी साध्य व असाध्यके भेदसे दो प्रकारका जानना चाहिए ॥२०४-२०५॥ आगे इस साध्य व असाध्यके स्वरूपको ही प्रकट किया जाता है प्रकृतमें उपक्रम सहित कर्मको साध्य और इतर-उस उपक्रमसे रहित-को असाध्य जानना चाहिए। यह कर्मका साध्य व असाध्य रूप विभाग जिनदेवके द्वारा कहा गया जानना चाहिए ।।२०६॥ आगे इस सबका निष्कर्ष प्रकट किया जाता है प्रकृतमें आयुका उपक्रम जिनागमसे सिद्ध है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिए। कारण यह है कि छद्मस्थ (अल्पज्ञ ) जीव केवलज्ञानके विषयभूत पदार्थों को समीचीनतया नहीं जानता है ॥२०७|| अब आगे इसका प्रकृतसे सम्बन्ध जोड़ा जाता है इस उपक्रमका जो हेतु है-दण्ड आदिके द्वारा प्राणीको पोड़ा पहुंचाने वाला है- वह वधक ( हत्यारा ) है। इसलिए उस वधको निवृत्ति बाँझ स्त्रीके पुत्रके मांसके भक्षगको निवृत्ति के समान कैसे हो सकती है। १. अनाउस्सवक्कमणसिसिद्ध जणवयणउ य सेद्धेयं । २. अ प्रकृतियोजनामाह (अतोऽग्रे 'यद्यस्माव छद्मस्थः' इत्येतावानधिकः पाठः लिखितोऽस्ति पूर्वगाथागतटीकायाः)। ३. अ वहगो जेण तं निवित्तेवं । ४. अ पिसियासिणिनिवत्तितुल्ला। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२०९ एतस्य चोपक्रमस्य यो हेतुर्दण्डादिपीडाकरणेन स वधकेः असौ हन्ता येन कारणेन तन्निवृत्तिः वधनिवृत्तिः एवं वंध्यासुतपिशिताशननिवृत्तितुल्या कथं भवति सविषयत्वाद्वधनिवृत्तेरिति ॥ २०८ ॥ २ १२८ अधुनान्यद्वादस्थानकम् - अन्ने भांति कम्मं जं जेण कथं स भुंजई तयं तु । * चित्तपरिणामरूवं अणेगसहकारि साविक्खं ॥ २०९ ॥ अन्ये भणन्ति - कर्म ज्ञानावरणादि । यद्येन कृतं प्राणिना । स भुङ्क्ते तदेव चित्रपरिणामरूपं कर्माने सहकारिसापेक्षम् अस्मादिदं प्राप्तव्यमित्यादिरूपमिति ॥ २०९ ॥ तक्कय सहकारितं पवज्जमाणस्स को वहो तस्स । तस्सेव तओ दोसो जं तह कम्मं कयमणं ॥ २१०॥ तत्कृत सहकारित्वं व्यापाद्यकृत सहकारित्वम् । प्रपद्यमानस्य को वधस्तस्य व्यापादकस्य । तस्यैव व्यापाद्यस्यासौ दोषो यत्तथा कर्म अस्मान्मया मर्तव्यमिति विपाकरूपम् । कृतमनेन व्यापाद्येनेति ॥ २९० ॥ एतदेव समर्थयति - जइ तेण तहा अकए तं वहइ तओ सतंतभावेण । अन्नं पि किं न एवं वहे अणिवारियप्पसरो ॥ २११ ॥ विवेचन - प्रकृत में वादीने अकालमरणको असम्भव बतलाकर प्राणिवधकी निवृत्तिको वन्ध्यापुत्रके मांसके भक्षणकी निवृत्तिके समान अज्ञानतापूर्णं कहा था (गा. १९२ ) । उसका निराकरण करते हुए यहाँ यह सिद्ध किया गया है कि उपक्रम द्वारा जब आयुका विनाश पूर्वमें भी सम्भव है तब अकालमरणको असम्भव नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार जब अकालमरण प्रमाणसे सिद्ध है तब उस वधको निवृत्ति कराना सर्वथा उचित है— उसे बन्ध्यापुत्रके मांस के भक्षणकी निवृत्तिके समान अज्ञानतापूर्ण नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह निर्विषय नहीं है, यह सिद्ध किया जा चुका है । जो व्यक्ति उस आयुके उपक्रमका कारण होता है-लाठी व छुरी आदि द्वारा प्राणीको पीड़ा पहुँचाता है - वह वधक कहलाता है । उसके इस क्रूरतापूर्ण कृत्य से पापका संचय होता है । इससे उसे प्राणिवधका परित्याग कराना योग्य ही है || २०८ || अब आगे चार ( २०९-२१२ ) गाथाओं में अन्य किन्हीं वादियोंके अभिमतको दिखलाते हैंदूसरे कितने ही वादी यह कहते हैं कि जिस जोवने जिस कर्मको किया है वह नियमसे अनेक प्रकार के परिणामस्वरूप उस कर्मको अनेक सहकारी कारणों की अपेक्षासे भोगता है || २०९ ॥ वध्यमान उस जीवके द्वारा की गयी सहकारिताको प्राप्त होनेवाले वधकके उस वध्यमान जो वधका कौन-सा दोष है ? उसका उसमें कुछ भी दोष नहीं है । वह दोष तो उस वध्यमान प्राणीका ही है, क्योंकि उपने उस प्रकारके - उसके निमित्तसे मारे जानेरूप - कर्मको किया है ॥२१०॥ १. अ बंधक । २. भ तन्निवृत्तिर्वधरेवं । ३. अ जेण सयं पुज्जइ । ४. अकारिवावेक्खं । ५. अ पठति । 1 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ - २१२] कर्मायत्तस्य वधकस्य नास्त्यपराध इत्येतन्निराकरणम् यदि तेन व्यापाछैन। तथा तेन प्रकारेण अस्मान्मतव्यमित्यादिलक्षणेन । अकृते अनुपाते, कर्मणीति गम्यते। तं व्यापाद्यम । हन्ति व्यापादयति । तको वधकः। स्वतन्त्रभावेन स्वयमेव कथंचित् । अत्र दोषमाह-अन्यमपि देवदत्तादिकम् । कि न एवं हन्ति यथा तम्, निमित्ताभावस्या. विशेषात् । अनिवारितप्रसरः स्वातन्त्र्येण व्यापादनशील इति ॥२१॥ न ये सव्वो सव्वं चिय वहेइ निययस्सभावओ अह ने । वज्झस्स अफलकम्मं वहगसहावेण मरणाओ' ॥२१२॥ न च सर्वो व्यापदकः । सर्वमेव व्यापाद्यं हन्ति, अदर्शनात् । नियतस्वभावतोऽथ न अथैवं मन्यसे नियतहन्तस्वभावात् न सर्वान् हन्तीत्येतदाशङ्कयाह-वध्यस्य व्यापाद्यस्याफलं कर्म । कुतो वधकस्वभावेन मरणात् । यो हि यद्वयापादनस्वभावः स तं व्यापादयतीति निःफलं कर्मापद्यते। न चैतदेवम् । तस्मात्तस्यैवासौ दोषो यत्तथा कर्म कृतमनेनेति। वधकोऽनपराध इति एष पूर्वपक्षः ॥२१२॥ वध्यमान प्राणीके द्वारा उस प्रकारके कर्मके न किये जानेपर भी यदि वह स्वतन्त्रतासे उसे मारता है तो फिर वैसी अवस्थामें वह उस प्रकारसे अन्य भी किसी प्राणोको बिना रुकावटके ( स्वतन्त्रतासे ) क्यों नहीं मारता है ? अन्य किसी भी प्राणीको मार सकता था ॥२११॥ पर सब ( वधक) सभीका वध नहीं करते हैं। इसपर यदि यह कहा जाये कि नियत स्वभाववाले होनेसे सब वधक सबको नहीं मारते हैं, नियत प्राणीको ही मारते हैं तो वैसी अवस्थामें वध्य ( मारे जानेवाले) प्राणीका वह कर्म निष्फल हो जायेगा, क्योंकि वह वधकके स्वभावसे मरणको प्राप्त होता है, न कि स्वकृत कर्मके प्रभावसे ॥२१२॥ विवेचन-इन वादियोंका अभिप्राय यह है कि जिस जीवने जिस प्रकारके कर्मको किया है उसे उस कर्मके विपाकके अनुसार उसके फलको भोगना ही पड़ता है। वध करनेवाला प्राणी तो उसके इस वधमें निमित्त मात्र होता है। वह भी इसलिए कि उसने 'मैं इसके निमित्तमे मरूंगा' ऐसे ही कर्मको उपाजित किया है। इस प्रकार वध करनेवालेको जब उसके हो कर्मके अनुसार उसके वधमें सहकारी होना पड़ता है तब भला इसमें उस बेचारे वधकका कोन-सा अपराध है ? उसका कुछ भी अपराध नहीं है। कारण यह कि वध्यमान प्राणीने न वैसा कर्म किया होता न उसके हाथों मरना पड़ता। प्रकृत वादियोंके द्वारा अपने उपर्युक्त अभिमतको पुष्ट करते हुए कहा जाता है कि मरनेवाले प्राणीने यदि 'मैं अमुकके निमित्तसे मरूंगा' इस प्रकारके कर्मको नहीं किया हैं तो फिर जब वधक इस वधकार्य में स्वतन्त्र है तब क्या कारण है जो वह उसी प्राणीको तो मारता है और अन्य प्राणीको नहीं मारता है। परन्तु यह प्रत्यक्षमें देखा जाता है कि सब सभी प्राणियोंको नहीं मारते हैं, किन्तु वधक किसी विशेष प्राणीका हो वध करता है, अन्यका नहों। इससे सिद्ध होता है कि जिसने अमुक प्राणोके द्वारा मारे जानेपर कर्मको बांधा है वही उसके द्वारा मारा जाता है, अन्य नहीं मारा जाता। इसपर यदि प्रतिवादी यह कहे कि वधक अपने नियत स्वभावके अनुसार विवक्षित प्राणोका ही वध करता है, अन्यका वध वह नहीं करता है, सो यह भी युक्तिसंगत नहीं है। कारण यह है कि वैसा माननेपर मारे जानेवाले प्राणोका वह कम निरर्थक सिद्ध होगा। इसका भी कारण यह है कि प्रतिवादीके उक्त अभिमतके अनुसार वह अपने द्वारा उपाजित कर्मके उदयसे तो नहीं मारा गया, किन्तु वधकके नियत स्वभावके अनुसार मारा १. अ णहि । २. अ भावओ अणहो । ३. अ सहावेण परमाउ । १७ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रावकप्रज्ञप्तिः [२१३ - अत्रोत्तरमाह नियकयकम्मुवभोगे वि संकिलेसो धुवं 'वहंतस्स । तत्तो बंधो तं खलु तविरईए विवज्जिज्जा ॥२१३॥ निजकृतकर्मोपभोगेऽपि व्यापाद्यव्यापत्तौ स्वकृतकर्मविपाकेऽपि सति । तस्य संक्लेशो. ऽकुशलपरिणामो ध्रवमवश्यं नतो व्यापादयतस्ततस्तस्मात्संक्लेशाद्बन्धस्तं खलु तमेव बन्धम् । तद्विरत्या वधविरत्या वर्जयेदिति ॥२१३॥ तत्तु च्चिय मरियव्वं इय बद्धे आउयंमि तश्विरई । नणु किं साहेइ फलं तदारओ कम्मखवणं तु ॥२४॥ तत एव देवदत्तादेः सकाशात् । मर्तव्यम् इय एवमनेन प्रकारेण । बद्धे आयुषि उपात्ते आयुष्कर्मणि व्यापाद्येन । वधविरतिर्ननु किं साधयति फलम्, तस्यावश्यभावित्वेन तदसंभवात् विरत्यसंभवात् ? न किंचिदित्यभिप्रायः । अत्रोतरम्-तदारतः कर्मक्षपणं तु मरणकालादारतः वधविरतिः कर्म यमेव साधयतीति गाथार्थः ॥२१४॥ एतदेव भावयति तत्त च्चिय सो भावो जायइ सुद्धेण जीववीरिएण । कस्सइ जेणं तयं खलु अवहित्ता गच्छई मुक्खं ॥२१५॥ गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि मारे जानेवाले प्राणोने जिस प्रकारके कर्मको उपार्जित किया है तदनुसार हो वह अमुक वधके द्वारा मारा जाता है। इसलिए इसमें जब मारनेवालेका कुछ अपराध नहीं है तब उक्त प्रकारसे वधकको निवृत्ति कराना व्यर्थ है। इस वादीने उपर्युक्त चार गाथाओंमें अपने पूर्व पक्षको स्थापित किया है ॥२०२-२१२।। आगे वादीके इस अभिमतका निराकरण किया जाता है स्वकृत कर्मके उपभोगमें भी वध करनेवालेके परिणाममें निश्चयसे जो संक्लेश होता है उससे उसके कर्मका बन्ध होता है। उसे उस वधका व्रत करानेसे छुड़ाया जाता है। विवेचन-जो प्राणी किसी वधकके हाथों मारा जाता है वह यद्यपि अपने द्वारा किये गये कर्मके ही उदयसे मारा जाता है व तज्जन्य दुखको भोगता है, फिर भी इस क्रूर कार्यसे मारनेवालेके अन्तःकरणमें जो संक्लेश परिणाम होता है उससे निश्चित ही उसके पाप कर्म का बन्ध होनेवाला है। उपर्युक्त उस वधविरतिके द्वारा उसे इस पाप कर्मके बन्धसे बचाया जाता है जो उसके लिए सर्वथा हितकर है ॥२१३!! आगे वादीको ओरसे प्रसंगप्राप्त शंकाको उठाकर उसका समाधान किया जाता है___ वादी पूछता है कि मरनेवाले प्राणीने जब उसके निमित्तसे ही मारे जाने रूप आयु कर्मको बांधा है तब उसके होते हुए वधकी विरति करानेसे कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? उसका कुछ भी फल नहीं है । कारण यह कि उक्त प्रकारसे बांधे गये कर्म के अनुसार उसे उसीके हाथों मरना पड़ेगा। वादोकी इस शंकाके उत्तरमें यहां यह कहा गया है कि मरणकालके पूर्व में ग्रहण करायी उस वधकी विरतिसे उसके कर्मका क्षय होनेवाला है, यही उस वधविरतिका फल है ॥२१४॥ इसे आगे स्पष्ट किया है१. अनियकम्म कम्मवि भोग वि संकिलेसे साहवं । २. अ आउगंमि । ३. अ जायइ तुट्रेण जीवविरिण । ४. अजणेण । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २१७ ] कर्मायत्तस्य वर्धकस्य नास्त्यपराध इत्येतन्निराकरणम् १३१ तत एव वधविरतेः । स भावः चित्तपरिणामलक्षणः । जायते शुद्धेन जीववीर्येण कर्मानभिभूतेनात्मसामर्थ्येन । कस्यचित्प्राणिनः । येन भावेन । तकं व्यापाद्यम् । अवधित्वा अहत्वैव । गच्छति मोक्षं प्राप्नोति निर्वाणमिति ॥ २१५ ॥ इय तस्स तयं कम्मं न जहकयफलं ति पावई अह तु । तं नो अज्झवसाणा ओवट्टणमाइभावाओं ॥ २१६ ॥ इय एवमुक्तेन न्यायेन । तस्य व्यापाद्यस्य तत्कर्म अस्मान्मर्तव्यमित्यादिलक्षणम् । न यथाकृतफलमेव ततो मरणाभावात्प्राप्नोत्यापद्यते । अथ त्वमेवं मन्यसे इत्याशङ्कयाह तन्न तदेतन्न, अध्यवसायात्तथाविधचित्तविशेषादपवर्तनादिभावात्तथा हास-संक्रमानुभव श्रेणिवेदनादिति गाथार्थः ॥२१६॥ सकयं पि अणेगविहं तेण पगारेण भुंजिउं सव्वं । अव्वकरण जोगा पावइ मुक्खं तु किं तेण ॥ २१७॥ किं च स्वकृतमध्यात्मोपात्तमप्यनेकविधं चतुर्गतिनिबन्धनम् । तेन प्रकारेण चतुर्गतिवेद्य उस वधविरतिसे किसी जीवके निर्मल आत्माके सामर्थ्यसे वह परिणाम प्रादुर्भूत होता है। कि जिसके आश्रयसे वह उस प्राणीका घात न करके मोक्षको प्राप्त कर लेता है । विवेचन—यह ऐकान्तिक नियम नहीं है कि जिसने अमुक ( देवदत्त आदि ) के हाथसे मारे जानेरूप आयु कर्मको बाँधा है वह उसीके द्वारा मारा जाये । कारण यह कि उस वधक के ग्रहण करायी गयी. वधको विरतिसे कदाचित् निर्मल आत्मपरिणामके बल से वह भाव उत्पन्न होता है कि जिसके प्रभावसे वह उस वध्य प्राणोका घात न करके मुक्तिको प्राप्त कर लेता है ।।२१५ ।। इसपर वादीके द्वारा जो आशंका उठायो गयी है उसका निराकरण किया जाता है--- वादी कहता है कि इस प्रकारसे तो उस वध्य प्राणोके द्वारा जिस प्रकारके फलसे युक्त कर्मको किया गया है उसके उस प्रकारके फलसे रहित हो जानेका प्रसंग प्राप्त होगा। इसके समाधान में यहाँ यह कहा जा रहा है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि अध्यवसायके वश - उस प्रकारकी चित्तकी विशेषतासे - प्राणो के उक्त कर्मके विषय में अपवर्तन आदि सम्भव हैं । विवेचन - वादीके कहने का अभिप्राय यह था कि वध्य प्राणीने 'मैं अमुकके हाथों मारा जाऊंगा' इस प्रकारके कर्मको बांधा था, पर वधको विरतिके प्रभावसे जब वह उसके द्वारा नहो मारा गया तब वह उसका कर्म निरर्थकताको क्यों न प्राप्त होगा ? इसका समाधान करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि प्राणी जिस प्रकारके विपाकसे युक्त कर्मको बाँधता है उसमे आत्माक परिणाम विशेष से अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण आदि भी सम्भव हैं । अतएव जो कर्म जिस रूपसे बाँधा गया है उसकी स्थिति में होनाधिकता हो जानेसे अथवा उसके अन्य प्रकृतिरूप परिणत हो जाने के कारण यदि उसने वैसा फल नहीं दिया तो इसमें कोई विरोध सम्भव नहीं है || २१६॥ इसके अतिरिक्त स्वकृत भो जो अनेक प्रकारका कर्म है उस सबको उस प्रकारसे न भोगकर अपूर्वकरणके सम्बन्धसे जीव मोक्षको पा लेता है। फिर भला उस कमसे क्या होनेवाला है ? कुछ भी नहीं । विवेचन - पूर्व गाथा में यह कहा जा चुका है कि मारे जानेवाले प्राणीने 'मैं अमुक (देवदत्त १. अ कम्मं ण य जहं । २. भ अन्ना अवन्भणसाणा अपवत्तणमादिभावाउ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ २१८ त्वेन । अभुक्त्वा सर्वमननुभूय निरवशेषम् । अपूर्वकरणयोगात् क्षपकश्र ण्यारम्भकादपूर्वकरण - संबन्धात् । प्राप्नोति मोक्षमेवासादयति निर्वाणमेव । कि तेन व्यापादक भावनिबन्धनत्व परिकल्पि तेन कर्मणेति ॥ २१७॥ स्यात्तस्मिन् सति न चरणभाव एवेति । अत्राह परकय कम्मनिबंधा चरणाभावमि पावइ अभावो । सकयस्स निष्फलत्ता सुहदुहसंसारमुक्खाणं ||२१८॥ परकृतकर्मनिबन्धाद्वयापाद्य कृतकर्मनिबन्धनेन व्यापादकस्य चरणाभावे अभ्युपगम्यमाने । प्राप्नोत्यभावः सुख-दुःख- संसार- मोक्षाणामिति योगः । कुतः ? स्वकृतस्य निःफलत्वान्निःफलत्वं चान्यकृतेन प्रतिबन्धादिति ॥२१८॥ अकयागमकयनासा सपरेगतं च पावई एवं । 'तच्चरणाउ च्चिय तओ खओ वि अणिवारियप्पसरो ॥ २१९ ॥ , आदि) प्राणी के हाथ से मारा जाऊँ ।' इस प्रकारके फलयुक्त जिस कर्मको बांधा था वह अध्यवसाय विशेषसे संक्रमण आदिको प्राप्त होता हुआ उस प्रकारके फलको नहीं भो देता है । अब यहाँ यह कहा जाता है कि वधक प्राणीके द्वारा भो जो चतुर्गंति के कारणभूत अनेक प्रकारके कर्मको बाँधा गया है उसे वह उस रूप में नहीं भी भोगता है और क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ होता हुआ अपूर्वकरण परिणामके वश मोक्षको प्राप्त कर लेता है । तात्पर्य यह है कि कर्म चाहे स्वकृत हो या परकृत हो वह जिस रूपमें बाँधा जाता है, अध्यवसाय विशेष के वश वह अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणादि रूप अवस्थान्तरको प्राप्त होता हुआ उस प्रकारके फलको नहीं भो देता है । ऐसी परिस्थितिमे जो वधको विरति करायी जाती है वह निरर्थक न होकर प्राणोके लिए हितकर ही है, ऐसा निश्चय करना चाहिए || २१७|| परकृत कर्मके वश चारित्र के अभाव में क्या अनिष्ट हो सकता है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है परकृत- वध्य प्राणीके द्वारा किये गये - कर्मके कारण वधकके चारित्रका अभाव माननेपर स्वकृत कर्मके निष्फल हो जानेसे सुख, दुख, संसार और मोक्षके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा । विवेचन -- अभिप्राय यह है कि मारणोन्मुख प्राणीने अमुक प्राणीके निमित्तसे मारे जानेरूप जिस कर्मको बांधा है उसके प्रभावसे यदि दूसरेके – उसके मरने में निमित्त बननेवाले वधक के — वधको विरतिरूप चारित्रका प्रतिबन्ध होता है तो वैसी अवस्था में उसके स्वकृत कर्मके निष्फल हो जाने से सुख, दुख, संसार और मोक्ष आदिके अभावका भी प्रसंग दुर्निवार होगा । इससे यही सिद्ध होता है कि प्राणो स्वकृत कर्मके अनुसार हा यथासम्भव सुख-दुख आदिका उपभोक्ता होता है, न कि परकृत कर्मके वशीभूत होकर, अन्यथा उपर्युक्त अनिष्टका प्रसंग अनिवार्यं प्राप्त होगा ||२१८|| उपर्युक्त मान्यता में जो अन्य दोष सम्भव हैं उन्हें भी आगे प्रकट किया जाता है इस प्रकारसे - परकृत कर्मके प्रभावसे - चारित्रका लोप होनेपर अकृतागम व कृतनाश दोषोंके साथ स्त्र और परमें अभेदका भो प्रसंग प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त उसके चारित्रसे ही - वध्यके चारित्रसे ही - वधक के कर्मक्षय भी बे-रोक-टोक हो सकता है । १. अ तच्चरणउ च्चिय तर खउ अणि । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२२] बालादिवविषयकदुरभिप्रायनिराकरणम् १३३ अकृतागमकृतनाशौ-तेनाकृतमपि तस्य प्रतिबन्धकमित्यकृतागमः, शुभपरिणामभावेऽपि च ततः प्रतिबन्धात्तत्फलमिति' कृतनाशः । स्वपरैकत्वं च प्रतिबन्धकाविशेषात् प्राप्नोत्येवं तच्चरणत एव । ततः क्षयोऽप्यनिवारितप्रसरस्तस्येत्युपसंहरन्नाह ॥२१९॥ एवंपि य वहविरई कायव्वा चेव सव्वजत्तेणं । तदभावंमि पमाया बंधो भणिओ जिणिंदेहिं ॥२२०॥ एवमपि चोक्तप्रकाराद। वधविरतिः कर्तव्यैव सर्वयत्नेनाप्रमादेनेत्यर्थः। तवभावे व विरत्यभावे च। प्रमादादबन्धो भणितो जिनेन्द्ररिति ॥२२०॥ इदानीमन्यद्वादस्थानकम् केइ बालाइवहे बहुतरकम्मस्सुवक्कमाउ त्ति । मन्नंति पावमहियं बुड्ढाईसुं विवज्जासं ॥२२१॥ केचिद्वादिनो बालादिवधे बाल-कुमार-युवव्यापादने। बहुतरकर्मण उपक्रमणात्कारणान्मन्यन्ते पापमधिकम् । वृद्धादिषु विपर्यासं, स्तोकतरस्य कर्मण उपक्रमादिति ॥२२१॥ अत्रोत्तरमाह एयं पि न जुत्तिखमं जं परिणामाउ पावमिह वुत्तं । दव्वाइभेयभिन्ना तह हिंसा वनिया समए ॥२२२॥ विवेचन-इसके अतिरिक्त उक्त मान्यताके अनुसार वधकने चारित्रके रोधक जिस कर्मको नहीं किया है वह उसका रोधक हो जाता है, अतः अकृताभ्यागम दोषका प्रसंग प्राप्त होता है। साथ हो उसने चारित्रके उत्पादक शुभ परिणामको तो किया है, पर वध्यके द्वारा किये गये कर्मके प्रभावसे उसके चारित्रका प्रादुर्भाव हो नहीं सका अतः 'कृतनाश' दोष भी प्रसक्त होता है । इस प्रकार वध्य और वधकमें विशेषता न रहने से दोनों में अभेद प्राप्त होता है। और जब दोनों में भिन्नता न रही तब उसके चारित्रसे कर्मक्षय के प्रसारको भी नहीं रोका जा सकता है ।।२१९॥ अब इस प्रकरणका उपसंहार किया जाता है इस प्रकार-वादाके द्वारा वधविरतिमें प्रदर्शित दोषोंका निराकरण हो जानेपर-पूर्ण प्रयत्नके साथ उस वधकी विरतिको करना हो चाहिए । कारण यह कि उक्त वधविरतिके अभाव में प्रमादके वश जिनेन्द्र देवके द्वारा बन्धका सद्भाव कहा गया है ॥२२०|| आगे अन्य किन्हों वादियों के अभिमतको प्रकट किया जाता है कितने हो वादी यह मानते हैं कि बाल आदि-बालक, कुमार, युवा और वृद्ध-इनका वध करनेपर अधिकाधिक कर्मका उपक्रम होनेसे क्रमसे अधिक पाप होता है। इसके विपरीत वृद्ध आदि-वृद्ध, युवा, कुमार और बालक-इनका वध करनेपर अतिशय स्तोक कर्मका उपक्रम होनेसे क्रमसे उत्तरोत्तर अल्प पाप होता है ।।२२१।। आगे इस अभिमतका निराकरण करते हैं यह भी-वादोका उपर्युक्त अभिमत भी-युक्तिसंगत नहीं है। कारण इसका यह है कि यहां पापका उपार्जन परिणामके अनुसार कहा गया है। तथा आगममें हिंसाका वर्णन द्रव्यक्षेत्रादिके भेदसे भिन्न-भिन्न रूपमें किया गया है। १. अ प्रतिबंधान्न तत्फलं । २. अ जुत्ति सह जं परि । ३. अ तथा । ४. अ वन्निता। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२३ - एतदपि न युक्तिक्षमं यद्यस्मात्परिणामात्पापमिहोक्तम् । स च न नियतो बाल- बुद्धादिषु क्लिष्टेतररूपः । द्रव्यादिभेदभिन्ना तथा हिंसा वर्णिता समये । यथोक्तम्- -वव्व णामेगे हिंसा ण भावउ इत्यादि ॥ २२२ ॥ १३४ प्रथम हिंसा भेदमाह उच्चा लियंमि पाए इरियासमियरस संकमट्ठाए । वावज्जिज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज ॥२२३॥ उच्चालित उत्क्षिप्ते पादे संक्रमार्थ गमनार्थमिति योगः । ईर्यासमितस्योपयुक्तस्य साधोः । किम् ? व्यापद्येत महतीं वेदनां प्राप्नुयात् स्रियेत प्राणत्यागं कुर्यात् । कुलिङ्गी कुत्सित लिङ्गवान् द्वन्द्रियादिसत्त्वः । तं योगमासाद्य तथोपयुक्तसाधुब्यापारं प्राप्येति ॥२२३॥ न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुमो वि देसिओ समए । जम्हा सो अपमत्तो स उ पमाउ ति निद्दिट्ठा || २२४॥ विवेचन - यहाँ उक्त अभिमतका निराकरण करते हुए कहा गया है कि बालक आदिके अधिक और वृद्ध आदिके वध में अल्प पाप होता है, यह जो वादीका अभिमत है वह युक्तिको सहन नहीं करता - युक्तिसे विचार करनेपर वह विघटित हो जाता है । इसका कारण यह है कि पापका जनक संक्लेश है, वह बाल व कुमार आदिके वधमें अधिक है । और वृद्ध व युवा आदि के वध में अल्प हो, ऐसा नियम नहीं है- कदाचित् बालके वध में अधिक और कुमारके वधमें कम भी संक्लेश हो सकता है । कभी परिस्थिति के अनुसार इसके विपरीत भी वह हो सकता है । इसके अतिरिक्त आगम में द्रव्य व क्षेत्र आदिके अनुसार हिंसा भी अनेक प्रकारकी निर्दिष्ट की गयी है । यथा- कोई हिंसा केवल द्रव्यसे होती है, भावसे वह नहीं होती। कोई हिंसा भावसे ही होती है, द्रव्यसे नहीं होती । जो हिंसा भावके बिना केवल द्रव्यसे होती है वह संक्लेश परिणामसे रहित होने के कारण पापकी जनक नहीं होती । जैसे – ईर्यासमिति से गमन करते हुए साधुके पाँवों के नीचे आ जानेसे चींटी आदि क्षुद्र जन्तुका विघात । इसके विपरीत जो किसीको शत्रु मानकर उसके वधका विचार तो करता है, पर उसका घात नहीं कर पाता । इसमें घातरूप द्रव्य हिंसा न होनेपर भी संक्लेश परिणामरूप भावहिसा के सद्भावमें उसके पापका संचय अवश्य होता है ||२२२॥ अब आगमोक्त उन हिंसा के भेदों में प्रथम भेदभूत हिंसाका स्वरूप दिखलाते हैंगमन में पाँव के उठानेपर उसके सम्बन्धको पाकर सकती है व कदाचित् वे मरणको भो प्राप्त हो समिति के परिपालन में उद्यत साधुके क्षुद्र द्वन्द्रिय आदि किन्हीं प्राणियोंको पीड़ा हो सकते हैं ||२२३|| फिर भी वह हिंसाका भागी नहीं होता, यह आगे स्पष्ट किया जाता है परन्तु उसके निमित्तसे ईर्यासमिति में उद्युक्त उस साधुके आगममें सूक्ष्म भी कर्मका बन्ध नहीं कहा गया है । इस का कारण यह है कि वह प्रमादसे रहित है - प्राणिरक्षण में सावधान होकर ही गमन कर रहा है । और प्रमाद को ही हिंसाका निर्देश किया गया है || २२४ ॥ १. अदव्त्रगुणमेगा । २. अ तो सोय मनाउ ति णिद्दिट्ठो । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२६ ] बालादिवविषयकदुरभिप्रायनिराकरणम् न च तस्य साधोस्तन्निमित्तः कुलिङ्गिव्यापत्तिकारणो बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये। किमिति ? यस्मात्सोऽप्रमत्तः, सूत्राज्ञया प्रवृत्तः। सा च हिंसा प्रमाद इत्येवं निर्दिष्टा तीर्थकरगणधरैरिति इयं द्रव्यतो हिंसा, न भावतः ॥२२४॥ सांप्रतं भावतो न द्रव्यत इत्युच्यते-- मंदपगासे देसे रज्जुकिनाहिसरिसयं दर्छ। अच्छित्तु तिक्खखग्गं वहिज्ज तं तप्परीणामो ॥२२५॥ मन्दप्रकाशे देशे ध्यामले निम्नादौ । रज्जु दर्भादिविकाररूपाम् । कृष्णाहिसदृशीं कृष्णसर्पतुल्याम् । दृष्ट्वा आकृष्य तीक्ष्णखड्गं बधेत् ताम् हन्यादित्यर्थः। तत्परिणामो वधपरिणाम इति ॥२२५॥ सप्पवहाभामि वि वहपरिणामाउ चेव एयस्स । नियमेण संपराइयबंधो खलु होइ नायव्यो ॥२२६।। सर्ववधाभावेऽपि तत्त्वतः वधपरिणामादेवैतस्य व्यापादकस्य । नियमेन सांपरायिको बन्धो भवपरंपराहेतुः कर्मयोगः। खलु भवति ज्ञातव्य इति ॥२२६॥ _ विवेचन-कर्मबन्धका कारण संरेश और विशुद्धि है। संक्लेशसे प्राणोके जहां पापका बन्ध होता है वहां विद्धिसे उसके पण्यका बन्ध होता है। इस प्रकार जो साध ईर्यासमितिसेचार हाथ भूमिको देखकर सावधानीसे-गमन कर रहा है उसके पांवोंके धरने-उठानेमें कदाचित् जन्तुओंका विघात हो सकता है, फिर भी आगममें उसके तन्निमित्तक किंचित् भी कर्मबन्ध नहीं कहा गया है। कारण इसका यही है कि उसके परिणाम प्राणिपीड़नके नहीं होते, वह तो उनके संरक्षणमें सावधान होकर ही गमन कर रहा है। उधर आगममें इस हिंसाका लक्षण प्रमाद ( असावधानी ) ही बतलाया है ( त. सू. ७१३ )। इसोलिए प्रमादसे रहित होनेके कारण । गमनादि क्रियामें कदाचित् जन्तुपीड़ाके होनेपर भी साधुके उसके निमित्तसे पापका बन्ध नहीं कहा गया है । यह द्रव्यहिंसाका उदाहरण है ॥२२३-२२४॥ आगे द्रव्यसे हिंसा न होकर भावसे होनेवाली हिंसाका स्वरूप दिखलाया जाता है मन्द प्रकाशयुक्त देशमें काले सर्प-जैसो रस्सीको देखकर व तीक्ष्ण खड्गको खींचकर उसके मारनेका विचार करनेवाला कोई व्यक्ति उसका घात करता है ॥२२५॥ इस प्रकारसे सर्पके वधके न होनेपर भी हिंसाजनित पापका वह भागी होता है, इसे आगे प्रकट किया जाता है तदनुसार सपेवधके बिना भी उसके केवल सर्पघातके परिणामसे ही नियमसे साम्परायिक -संसारपरम्पराका कारणभूत-बन्ध होता है, यह जानना चाहिए ॥२२६।। विवेचन-अब यहाँ दूसरे प्रकारको हिंसाका स्वरूप दिखलाते हुए दृष्टान्त द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि कोई मनुष्य अंधेरेमें पड़ी हुई रस्सीको भ्रमवश काला सर्प समझकर उसे मार डालनेके विचारसे उसके ऊपर शस्त्रका प्रहार करता है। परन्तु यथार्थमें वह सर्प तो था नहीं, इसीलिए सर्पके घातके न होनेपर भी उस व्यक्तिके सर्पघातरूप हिंसासे जनित पापका बन्ध अवश्य होता है । इस प्रकार यहां द्रव्यसे हिंसाके न होनेपर भी भावहिंसारूप उस हिंसाके दूसरे भेदका उदाहरण दिया गया है ।।२२५-२२६।। १. अ गणधरेरित्यादितीर्थ द्रव्यतो। २. अ तप्परीणामे। ३.अ सांप्रतं परायिको। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२२७ तृतीयं हिंसाभेदमाह मिगवहपरिणामगओ आयण्णं कड्ढिऊणे कोदंडं । मुत्तणमिसुं उभओ वहिज्ज तं पागडो एस ॥२२७॥ मृगवधपरिणामपरिणतः सन्नाकर्णमाकृष्य । कोदण्डं धनुर्मुक्त्वेषु बाणम् । उभयतो वधेत् हन्यात् द्रव्यतो भावतश्च । तं मृगम् । प्रकट एष हिंसक इति ॥२२॥ चतुर्थ भेदमाह उभयाभावे हिंसा धणिमित्तं भंगयाणुपुवीए । तहवि य दंसिज्जंती सीसमइविगोवणमट्ठा ।।२२८।। उभयाभावे द्रव्यतो भावतश्च वधाभावे। हिंसा ध्वनिमात्रम्, न विषयतः भगकानुपूायाता। तथापि च दर्यमाना शिष्यमतिविकोपनं विनेयबुद्धिविकाशायादुष्टैवेति ॥२२८॥ इय परिणामा बंधे बालो वुड्ढुत्ति थोवमियमित्थ । बाले वि सो न तिव्वो कयाइ बुड्ढे वि तिव्युत्ति ।।२२९॥ आगे तीसरे प्रकारको हिंसाको दिखलाते हैं कोई मनुष्य मृगघातके विचारमें मग्न होकर कान पर्यन्त धनुषको खींचता हुआ उसके ऊपर बाणको छोड़ता है। इस प्रकार वह प्रकटमें दोनों रूपमें-द्रव्यसे व भावसे भी उस मुगका वध करता है। विवेचन-एक व्याध मृगके घातके विचारसे धनुषकी डोरीको खोंचकर उसके ऊपर बाणको छोड़ देता है, जिससे विद्ध होकर वह मरणको प्राप्त हो जाता है। यहाँ व्याधने मृगके वधका जो प्रथम विचार किया, यह तो भावहिंसा हुई, साथ ही उसने बाणको छोड़कर उसका जो वध कर डाला, यह द्रव्याहिंसा हुई। इस प्रकारसे वह व्याध द्रव्य और भाव दोनों प्रकारसे हिंसक होता है ।।२२७॥ अब उक्त हिंसाके चौथे भेदको दिखलाते हैं द्रव्य और भाव दोनों प्रकारसे वधके न होने पर भंगकानुपूर्वीसे-उस प्रकारके वाक्यके उच्चारण मात्रसे-ध्वनि ( शब्द ) मात्र हिंसा होती है। यह वस्तुत: हिंसा नहीं है, फिर भी शिष्यकी बुद्धि के विकासके लिए वह केवल दिखलाई जाती है, अतएव वह दोषसे रहित है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि कभी-कभी गुरु शिष्य की बुद्धिको विकसित करनेके लिएउसे सुयोग्य विद्वान् बनाने के विचारसे-केवल शब्दों द्वारा मारने-ताड़ने आदिके विचारको प्रकट करता है, पर अन्तरंगमें वह दयालु रहकर उसके हितको ही चाहता है। इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकारसे हिंसाके न होनेपर भी वैसे शब्दोंके उच्चारण मात्रसे हिंसा होती है जो यथार्थमें हिंसा नहीं है, क्योंकि इस प्रकारके आचरण में न तो मारण-ताड़न किया जाता है और न गुरुका वैसा अभिप्राय भी रहता है ॥२२८॥ ___ आगे हिंसाको तर-तमताको कारण बाल व वृद्ध आदि अवस्था नहीं है, यह अभिप्राय प्रकट किया जाता है१. अ मिगविहपरिणामो गओ यायन्नं कट्ठिऊण । २. अ परिणामगतः । ३. ज विगो। णुमदुद्दा । ४. अ कयाति बुड्ढे । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२३२] बालादिवविषयकदुरभिप्रायनिराकरणम् १३७ इय एवं परिणामाबन्धे सति बालो वृद्ध इति स्तोकमिदमत्र हिंसाप्रक्रमे। किमिति ? बालेऽप्यसौ न तीव्रः परिणामः कदाचिद्वद्धेऽपि तीव्र इति, जिघांसतामाशयवैचित्र्यादिति ॥२२९॥ अह परिणामाभावे वहे वि बंधो न पावई' एवं ।। कह न वहे परिणामो तब्भावे कह य नो बंधो ॥२३०॥ अथैवं मन्यसे परिणामाभावे सति वधेऽप्यबन्ध एव प्राप्नोत्येवं परिणामवादे एतदाशङ्कयाह-कथं न वधे परिणामः ? किं तहि ? भवत्येवादुष्टाशयस्य तत्राप्रवृत्तेः। तद्भावे वधपरिणामभावे । कथं च वधे न बन्धो बन्ध एवेति ॥२३०॥ सिय न वहे परिणामो अन्नाण-कुसत्थभावणाओ य । उभयत्थ तदेव तओ किलिहबंधस्स हेउ त्ति ॥२३१॥ स्यान्न वधे परिणामः क्लिष्टः । अज्ञानात् अज्ञान व्यापादयतः, कुशास्त्रभावनातश्च यागादावेतदाशङ्कयाह-उभयत्र तदेवाज्ञानमसौ परिणामः क्लिष्टबन्धस्य हेतुरिति सांपरायिकस्येति ॥२३१॥ जम्हा सो परिणामो अन्नाणादवगमेण नो होइ। तम्हा तयभावत्थी नाणाईसु सइ जइज्जा ॥२३२॥ ___ इस प्रकार-पूर्वप्रदर्शित युक्तिसंगत विचारके अनुसार-परिणामसे बन्धके सिद्ध होनेपर बाल अथवा वृद्ध यह इस प्रसंगमें स्तोक मात्र है-वे हिंसाकी हीनाधिकताके कारण नहीं हैं। कारण यह है कि बालकके वधमें भी कदाचित् वह तीन संक्लेश परिणाम न हो और कदाचित् वृद्धके वधमें वह तीव्र संक्लेश परिणाम हो सकता है। यह सब मारनेका विचार करनेवाले व्यक्तियोंके अभिप्राय विशेषपर निर्भर है ॥२२९॥ ... आगे प्रसंगानुरूप शंकाको उठाकर उसका समाधान किया जाता है इस प्रसंगमें यदि यह कहा जाये कि इस परिस्थितिमें परिणामके अभावमें-वधके संकल्पके विना-वधके करनेपर भी बन्ध नहीं प्राप्त होता है-उसके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा, इस शंकाके समाधान में पूछा जाता है कि जोवघातके करनेपर तद्विषयक परिणाम ( संकल्प ) कैसे न रहेगा? वह अवश्य रहनेवाला है। क्योंकि दुष्ट अभिप्राय बिना प्राणी कभी जीववधमें प्रवृत्त नहीं होता। और जब वैसा परिणाम रहेगा तब उसके रहते हए वह बन्ध कैसे नहीं होगा? अवश्य होगा ॥२३०॥ आगे प्रसंगप्राप्त दूसरी शंकाको उठाकर उसका भी निराकरण किया जाता है यदि यहाँ यह कहा जाये कि वध करनेवाला चूंकि अज्ञानतासे अथवा मिथ्यात्वके पोषक कुशास्त्रोंके चिन्तनसे उस वधमें प्रवृत्त होता है, अतः उसका उसमें परिणाम नहीं रहता है। इससे उसके बन्ध नहीं होना चाहिए। इसके उत्तरमें कहा गया है कि दोनों जगह-अज्ञानता या कुशास्त्रके विचारसे किये जानेवाले वधमें-जो अज्ञान है वही उस संसारपरम्पराके कारणभूत क्लिष्ट बन्धका कारण होता है ॥२३१॥ इसीलिए आगे ज्ञानके विषय में प्रयत्नशील रहनेकी प्रेरणा की जाती है१. अ भावे हि बंधो त्ति पावती । २. अ कह ण विहे परिणामो तहावे कह ये णो बंधो। १८ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२३३यस्मादसौ वधपरिणामो अज्ञानाद्यपगमेन हेतुना न भवति, सति त्वज्ञानादौ भवत्येव, वस्तुतस्तस्यैव तद्रूपत्वात् । तस्मात्तदभावार्थी वधपरिणामाभावार्थी । ज्ञानादिषु सदा यतेत, तत्प्रतिपक्षत्वात् इति ॥२३२॥ एवं वस्तुस्थितिमभिधायाधुना परोपन्यस्तहेतोरनेकान्तिकत्वमुद्भावयति बहुतरकम्मोवक्कमभावो वेगंतिओ न जं केइ । बाला वि य थोवाऊ हवंति' वुड्ढा.वि दीहाऊ ॥२३३॥ बहुतरकर्मोपक्रमभावोऽपि बालादि-वृद्धादिष्वेकान्तिको न । यद्यस्मात्केचन बाला अपि . स्तोकायुषो भवन्ति वृद्धा अपि दीर्घायुषस्तथा लोके दर्शनादिति ॥२३३॥ तम्हा सव्वेसि चिय वहमि पावं अपावभावहिं । भणियमहिगाइभावो परिणामविसेसओ पायं ॥२३४॥ यस्मादेवं तस्मात् । सर्वेषामेव बालादीनां वधे पापमपापभावैर्वीतरागैर्भणितम् । अधिकादिभावस्तस्य पाप्मनः परिणामविशेषतः प्रायो भणित इति वर्तते। प्रायोग्रहणं तपस्वीतरादिभेदसंग्रहार्थमिति ॥२३४॥ चूंकि जीववधका वह परिणाम उक्त अज्ञानादिके अभावसे नहीं होता है-किन्तु उक्त अज्ञानादिके रहते हुए ही होता है, इसीलिए जो जीववधके परिणामको नहीं चाहता है उसे निरन्तर ज्ञान आदि ( समीचीन शास्त्रके अध्ययन आदि ) में प्रयत्नशील रहना चाहिए ।।२३२।। आगे वादोके द्वारा निर्दिष्ट हेतुकी अनैकान्तिकता को प्रकट करते हैं बहुतर कर्मका उपक्रमपना ऐकान्तिक नहीं है-वह बाल आदिमें बहुतर और वृद्ध आदिमें हीनतर हो, ऐसा सर्वथा नियम नहीं है, क्योंकि कोई-कोई बालक भी अल्पायु होते हैं और वृद्ध भी दीर्घायु होते हैं। विवेचन-वादीने पूर्व ( २२१ )में यह कहा था कि बाल आदिके वधमें बहुतर कर्मका उपक्रम होनेसे अधिक पाप और वृद्ध आदिके वधमें वह होन होता है। इसको दूषित करते हुए यहां यह कहा गया है कि बाल आदिके वधमें बहुतर कर्मका ही उपक्रम हो, ऐसा ऐकान्तिक नियम नहीं है। कारण इसका यह है कि कोई बालक भी अल्पायु और वृद्ध भी दोर्घायु देखे जाते हैं। अतः बाल आदिके वधमें अधिक पापको सिद्धि में जो बहुतर कर्मका उपक्रम रूप हेतु वादोके द्वारा प्रयुक्त किया गया था वह विपक्षमें भी सम्भव होनेसे अनैकान्तिक दोषसे दूषित है ।।२३३॥ अब प्रकृतवादका उपसंहार किया जाता है इसलिए पाप परिणामसे रहित ( वीतराग) जिनदेवके द्वारा बाल व वृद्ध आदि सभी जीवोंके वधमें पाप कहा गया है। उस पापको अधिकता आदि प्रायः परिणाम विशेषके अनुसार जानना चाहिए। विवेचन-बाल आदि वधमें कर्मका अधिक उपक्रम होनेसे अधिक और इसके विपरीत वृद्ध आदिके वधमें अल्प पाप होता है, इस मान्यताका निराकरण करते हुए यह कहा जा चुका है कि कमंका बन्ध वधकर्ताके परिणाम विशेषके अनुसार होता है, न कि बाल-वृद्धादि अवस्था विशेषके आधारपर। इन सबका उपसंहार करते हुए यह कहा गया है कि वीतराग जिनेन्द्रने सभी जीवोंके वधमें पाप बतलाया है। इसमें जो अधिकता और हीनता होतो है वह वधकर्ताके १. अ थोआउ भवंति । २. म 'भणित इति वर्तते प्रायो' एतावान् पाठः स्खलितोऽस्ति । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३६ ] वधविषयाणामेव वधनिवृत्तियुक्ता इत्येतन्निराकरणम् - सांप्रतमन्यद्वादस्थानकम्- संभवई वहो जेसिं जुज्जइ तेसिं निवित्तिकरणं पि । आवडियाकरणमि य सत्तिनिरोहा फलं तत्थ ॥२३॥ संभवति वधो येषु कृमि-पिपीलिकादिषु। युज्यते तेषु निवृत्तिकरणमपि, विषयाप्रवृत्तः । आपतिताकरणे च पर्युपस्थितानासेवने च सति । शक्तिनिरोधात्फलं तत्र, युज्यत इति वर्तते। अविषयशक्त्यभावयोस्तु कुतः फलमिति ॥२३॥ तथा चाह नो अविसए पवित्ती तन्निवित्तिइ अचरणपाणिस्स । झसनायधम्मतुल्लं ततथ फलमबहुमयं केइ ।।२३६।। नोऽविषये नारकादौ। प्रवृत्तिर्वधक्रियायाः। ततश्च तन्निवृत्त्या अविषयप्रवृत्तिनिवृत्त्या। अचरणपाणेः छिन्नगोदुकरस्य झषज्ञातधर्मतुल्यं छिन्नगोदुकरस्य मत्स्यनाशे धर्म इत्येवं कल्पम् । तत्र निवृत्तौ। फलं' अबहुमतं विदुषामश्लाघ्यं केचन मन्यन्त इत्येष पूर्वपक्षः ॥२३६॥ परिणाम विशेषके अनुसार हुआ करतो है—याद वधकर्ताका परिणाम अतिशय संक्लिष्ट है तो उसमें अधिक पाप होगा और उसका परिणाम मन्द संक्लेशरूप है तो पाप कम होगा। गाथामें जो 'प्रायः' शब्दको ग्रहण किया गया है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि किसो तपस्वी अथवा लोकोपकारक गुणो पुरुषका वध किया जाता है तो उससे प्रचुर मात्रामें पापका बन्ध होनेवाला है और यदि किसी साधारण प्राणीका वध किया जाता है तो उस गुणी जनके वधको अपेक्षा इसमें कम पापका बन्ध होगा ॥२३४॥ आगे अन्य वादियोंके अभिमतको प्रकट किया जाता है किन्हीं वादियोंका कहना है कि जिन प्राणियोका वध सम्भव है उनके वधविषयक निवृत्ति. का कराना योग्य है, क्योंकि आपतितके न करने में उपस्थितका सेवन न करनेपर-शक्तिका निरोध होता है, अतः उसका वहाँ फल सम्भव है ।।२३५|| आगे इसीका स्पष्टीकरण किया जाता है जो नारक व देव आदि वधके विषय नहीं हैं उनके वधमें चूंकि प्रवृत्ति सम्भव नहीं है, अतएव उनके वधकी निवृत्तिसे सम्भाव्य फल हाथ-पांवसे रहित प्राणीके मछलोके वधको निवृत्तिसे होनेवाले धर्मके उदाहरणके समान बहुतोंको सम्मत नहीं है। विवेचन-किन्हीं वादियोंका अभिमत है जिन चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओं अथवा हिरण व कबूतर आदि पशु-पक्षियोंके वधको सम्भावना है उनके वधको निवृत्ति कराना उचित है। कारण यह कि उनके वधका अवसर प्राप्त होनपर उस वधसे निवृत्त हुआ पुरुष अपनी उस वधशक्तिको रोककर उनके वधसे विमुख रहता है, अतः उसका फल उसे अवश्य प्राप्त होनेवाला है। किन्तु जो नारक व देव आदि उस वधके विषयभूत नहीं हैं उनके वधको निवृत्ति कराना उचित नहीं है, क्योंकि उनके वधकी निवृत्तिसे कुछ फलको प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसका भी कारण यह है कि १. असंभवउ । २. अ किरणंमि य सत्त सत्तणिरोहा। . अ करणमविषयाप्रवृत्ते सपतिता। ४. अणा अणविषये पवत्तीय मिव्वत्ती अचरण । ५. अ अचलनप्राणाः छिन्नगोदुरकरस्य । ६. अ छिन्नगोधुकरस्य मत्स्यमाशे मत्स्यनिवृत्ती धर्म इत्येवं फलं । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रावकप्रज्ञप्तिः [२३७ - अत्रोत्तरमाह-संभवति वधो येष्वित्युक्तं अथ कोऽयं संभव इति ? किताब तव्वहु च्चिय उयाहु कालंतरेण वहणं तु । किंवावहु त्ति किं वा सत्ती को संभवो एत्थ ॥२३७।। किं तावत्तद्वध एव तेषां व्यापाद्यमानानां वधस्तद्वधः क्रियारूप एव । उताहो कालान्तरेण हननं जिघांसनमेव वा। कि अवधो अव्यापादनमित्यर्थः। किं वा शक्तिः व्यापादकस्य व्यापाद्यविषया। कः संभवोऽत्र प्रक्रम इति । सर्वेऽप्यमी पक्षा दुष्टाः ॥२३७॥ तथा चाह जइ ताव तव्वहु च्चिय अल निवित्तिइ अविसयाए उ । कालंतरवहणंमि वि किं तीए नियमभंगाओ ॥२३८॥ यदि तावत्तद्वध एव तेषां व्यापाद्यमानवधक्रियैव संभव इति । अत्र दोषमाह-अलं निवृत्त्या न किचिद्वधनिवृत्त्याविषययोत हेतुः, निमित्त कारण हेतुषु सर्वासां प्रायो दर्शनम्' इति वचनात् । अविषयत्वं च वक्रियाया एव संभवत्वात्, संभवे च सति निवृत्त्यभ्युपगमात्, ततश्च वधक्रियाउनका जब वध करना ही सम्भव नहीं है तब उसमें शक्तिके निरोधकी कल्पना ही नहीं होतो। उदाहरणार्थ जो प्राणो हाथ और पावसे रहित है वह यदि मछलोके वधसे निवृत्त होकर उस अनिवृत्तिके फलकी अभिलाषा करता है तो जिस प्रकार यह हास्यास्पद है उसी प्रकार वधके विषयभूत नारकादिके वधको निवृत्तिसे फलको प्राप्तिकी सम्भावना करना भी विद्वज्जनोंके लिए हास्यास्पद है। इस प्रकार कितने वादा अपने पूर्व पक्षको स्थापित करते हैं ।।२३५-२३६।। आगे इस अभिमतका निराकरण करते हुए प्रथमतः 'सम्भव' शब्दसे वादोको क्या अभिप्रेत है, यह पूछते हैं ___ जिनका वध सम्भव है, यह जो वादोके द्वारा कहा गया है उसमें 'सम्भव' से उसे क्या अभीष्ट है, इसमें चार विकल्प उठाये जाते हैं-क्या वध्य प्राणीका क्रियात्मक वध करना यह 'सम्भव' से अभीष्ट है, अथवा भविष्यमें उसका वध करना यह क्या 'सम्भव'का अर्थ है, अथवा वध न करना यह 'सम्भव' से अभिप्रेत है, अथवा वध्य प्राणीके वधविषयक शक्ति उस 'सम्भव' से इष्ट है, इस प्रकार वादीको 'सम्भव'से इन विकल्पोंमें कौन-सा विकल्प अभीष्ट है, यह प्रश्न यहां पूछा गया है ॥२३७।। अब इन विकल्पोंको दूषित ठहराते हुए उनमें से प्रथम दो विकल्पोंमें दोष दिखलाते हैं यदि वादीको वध्य प्राणीका वध हो 'सम्भव'से अभीष्ट है तो विषयसे रहित उस निवृत्तिसे बस हो-वह तब निरर्थक सिद्ध होती है। कालान्तरमें वधरूप दूसरे विकल्पमें भा उस निवृत्तिसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? तब भी वह निरर्थक रहनेवाला है, क्योंकि वैसी परिस्थितिमें नियम भंग होनेवाला है। विवेचन-उपर्युक्त चार विकलोंमें वध्य प्राणीको वधक्रियारूप प्रथम विकल्प तो नहीं बनता, क्योंकि वधक्रियाको सम्भव स्वीकार करनेपर उस वधको निवृत्ति का विषय ही कुछ नहीं रहता, अतः वह निरर्थक सिद्ध होतो है । अभिप्राय यह है कि जिस वधको निवृत्ति करायी जातो है वह वध तो पूर्व में ही किया जा चुका, तब वैसो अवस्थामें उस वधकी निवृत्तिका प्रयोजन ही १. अ तन्वहो। २. अ उदाहु । ३. अ वहं तुः। ४. अ जिघांसनमेवा अवधो । ५. अ णिवत्तीए । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४०] वधविषयाणामेव वनिवृत्तियुक्ता इत्येतन्निराकरणम् १४१ नियमभावे अविषया' वनिवृत्तिरिति । कालान्तरहननेऽपि नियमतः संभवेऽभ्युपगम्यमाने । किं तया निवृत्त्या ? न किंचिदित्यर्थः। कुत इत्याह-नियमभङ्गात् संभव एव सति निवृत्त्यभ्युपगमः, संभवश्च कालान्तरहननमेवेति नियमभङ्ग इति ॥२३८॥ चरमविकल्पद्वयाभिधित्सयाह अवहे वि नो पमाणं सुठ्ठयरं अविसओ य विसओ से । सत्ती उ कज्जगम्मा सइ तंमि किं पुणो तीए ॥२३९।। अवधेऽपि न प्रमाणं यद्यवधः संभवः इत्यत्रापि प्रमाणं न ज्ञायते एतेषामस्मादवध इति । सुष्ठुतरं अतितराम् । अविषयश्च विषयः सेतस्या निवृत्तेः। अविषयत्वं तु तेषां वधासंभवात्, अवधस्यैव, संभवत्वात्, अस्मिश्च सति निवृत्त्यभ्युपगमादिति । शक्तिस्तु कार्यगम्या वधशक्तिरपि संभवो न युज्यते, यतोऽसौ कार्यगम्यैवेति न वधमन्तरेण ज्ञायते । सति च तस्मिन्वधे किं पुनस्तया निवृत्त्या, तस्य संपादितत्वादेवेति ॥२३९॥ संभवमधिकृत्य पक्षान्तरमाह जज्जाईओ अ हओ तज्जाईएसु संभवो तस्स । तेसु सफला निवित्ती न जुत्तमेयं पि वभिचारा ॥२४०॥ क्या रह जाता है ? कुछ भी नहीं। इससे यदि सम्भवका अर्थ कालान्तरमें उस वध्य प्राणोका वध ही वादोको अभीष्ट हो तो वह भो उचित न होगा, क्योंकि कालान्तरमें वधके करनेपर पूर्व में जो उस वधका नियम किया गया था वह नियमसे भंग हो जानेवाला है, क्योंकि वादीने भविष्यमें किये जानेवाले उस वधको ही सम्भव माना है ।।२३८|| आगे अन्तिम दो विकल्पोंमें भी दोष दिखलाये जाते हैं तीसरे विकल्पभूत अवधमें कोई प्रमाण नहीं है, इस प्रकार जो वधका अतिशय अविषय है वही उस वधको निवृत्तिका विषय ठहरता है। तब सम्भवसे यदि शक्तिको ग्रहण किया जाता है तो वह शक्ति तो कार्यसे जानी जा सकतो है, इस प्रकार कार्य हो जानेपर उस निवत्तिका प्रयोजन ही क्या रह जाता है ? कुछ भी नहीं । विवेचन-तीसरे विकल्पभूत सम्भवका अर्थ यदि अवध किया जाता है तो इसमें 'ये प्राणी अमुक प्राणीसे अवध्य हैं' इसका ज्ञान कैसे हो सकता है ? वह अशक्य है। इसके अतिरिक्त जिसके द्वारा जिनका वध नहीं हो सकता है उनके अवधको सम्भव स्वीकार करते हुए तदनुसार जो वधके विषय नहीं हैं वे हो उस वनिवृत्तिके विषय ठहरते हैं। इस प्रकार इस तीसरे विकल्पमें अविषयको विषय करनेके कारण वह वनिवृत्ति निष्फल ही सिद्ध होती है। तब अन्तिम विकल्पका आश्रय लेकर यदि सम्भव शब्दसे वधशक्तिको ग्रहण किया जाता है तो उस वधशक्तिका परिचय वधरूप कार्यसे ही हो सकता है। इस प्रकार उस शक्तिको ज्ञात करने के लिए यदि वध ही कर दिया जाता है तो वैसी स्थितिमें उस वधकी निवत्तिसे कुछ प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है। इस प्रकार विचार करनेपर जब 'सम्भव' का अर्थ ही घटित नहीं होता तब 'जिन प्राणियोंका वध सम्भव है उन्हींके वधकी निवृत्ति कराना चाहिए' यह जो वादीके द्वारा कहा गया है वह असंगत ही ठहरता है ।।२३७-२३९।। इस प्रकार उक्त चार विकल्पोंमें सम्भवके घटित न होनेपर वादीके द्वारा स्थापित सम्भवके अन्य पक्षको दिखलाते हुए उसका निराकरण किया जाता है--- १. अ क्रियाइमभावे अपिविषया। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ २४१ - यज्जातीय एव हतः स्यात् कृम्यादिस्तज्जातीयेषु संभवस्तस्य वधस्य । अतस्तेषु सफला निवृत्तिः, सविषयत्वादिति एतदाशङ्कयाह-न युक्तमेतदपि, व्यभिचारात् ॥ २४०॥ व्यभिचारमेवाह १४२ वाइज्जइ कोई हए वि मनुयंमि अन्नमणुणं । अहए वि य सीहाओ दीसइ वहणं पि वभिचारा ॥ २४९ ॥ व्यापाद्यते कश्चिदेव हतेऽपि मनुष्ये सकृत् अन्यमनुष्येण, तथा लोके दर्शनात् । अतो यज्जातीयस्तु हतस्तज्जातीयेषु संभवस्तस्येति नैकान्तः, तेनैव अन्यमनुष्येणैव व्यापादनात् । तथा अहतेऽपि च सिंहादौ आजन्म दृश्यते हननं कादाचित्कमिति व्यभिचार इति ॥२४१ ॥ नियमो न संभवो इह हंतव्वा किं तु सत्तिमित्तं तु । सा जेण कज्जगम्मा तयभावे किं न सेसेसु ॥ २४२॥ जिस जातिका प्राणी मारा जा चुका है उस जातिके प्राणियों में उस वधकी सम्भावना है, अतः ऐसे प्राणियों के वधकी निवृत्ति सफल हो रहती है । यह भी वादोका कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उसमें व्यभिचार ( दोष ) सम्भव है ॥२४०|| आगे उसी व्यभिचारको दिखलाया जाता है मनुष्य के मारे जानेपर कोई प्राणी अन्य मनुष्यके द्वारा मारा जाता है। तथा सिंहादिके न मारे जानेपर भी उनका मारा जाना देखा जाता है, इससे इस पक्ष में व्यभिचार सम्भव है । विवेचन-वादीका अभिप्राय यह है कि किसी मनुष्यके द्वारा एक मृगका वध करनेपर यह ज्ञात हो जाता है कि मृगजातिके सभी प्राणी मनुष्यके द्वारा वध्य हैं, अतः उसे मृगोंके वधको जब निवृत्ति करायी जाती है तो वह सफल ही रहती है, ऐसी अवस्था में उसे निष्फल कहना उचित नहीं, वादीके इस कथन में यहाँ दोष दिखलाते हुए यह कहा गया है कि वादीका वैसा कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उसमें व्यभिचार ( अनैकान्तिकता ) देखा जाता है । जैसे— किसी सर्पने मनुष्यको डंस लिया, जिससे वह मरणको प्राप्त हो गया । इसे देखते हुए भी यह नियम नहीं बन सकता कि सर्प मनुष्य जातिके सभी प्राणियोंका वध कर सकता है, क्योंकि अन्य मनुष्य के द्वारा उस सपका भी मारा जाना देखा जाता है । इसके अतिरिक्त किसीने कभी सिंहका वध नहीं किया था, पर अन्तमें कभी उसके द्वारा सिंहका वध करते भी देखा जाता है । इससे यह नियम नहीं बन सकता कि सिंह मनुष्य के द्वारा अवध्य है । इस कारण वादीका यह कहना कि जिस जातिका प्राणी मारा गया है उस जाति के सभी प्राणो उसके द्वारा वध्य हैं, युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उस प्रकार के नियममें ऊपर दोष दिखलाया जा चुका है ॥२४०-२४१॥ आगे वादीके द्वारा प्रकट किये जानेवाले 'सम्भव' के अन्य अभिप्रायका भी निराकरण किया जाता है - वादी कहता है कि उस जाति के सभी वध्य हैं, ऐसे नियमका नाम सम्भव नहीं है, किन्तु व की शक्ति मात्रका नाम सम्भव है । इस अभिप्रायका भो निराकरण करते हुए कहा गया है कि यह कहना भी योग्य नहीं है, क्योंकि वह शक्ति कार्यके होनेपर ही जानी जा सकती है । यदि कहो कि वरूप कार्यके बिना भी उस शक्तिका बोध हो सकता है तो उस अवस्था में शेष प्राणियों १. अति । २. अ केश्चित् हते पि मनुष्येण तथा । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वधविषयाणामेव वधनिवृत्तिर्युक्ता इत्येतन्निराकरणम् नियमो न संभव इहावश्यता' न संभव इहोच्यते यदुत यज्जातीय एको हतस्तज्जातीया: सर्वेऽपि हन्तव्याः, यज्जातीयस्तु न हतस्तज्जातीया न हन्तव्या एव । किन्तु शक्तिमात्रमेव तज्जातीयेतरेषु व्यापादनशक्तिमात्रमेव संभवः । तत्कथं दोषोऽनन्तरोदितो नैवेत्यभिप्राय इति एतदाशङ्कयाह-सा येन कार्यंगम्येति सा शक्तिर्यस्मात्कार्यंगम्या वर्तते अतो दोष इति, वधमन्तरेण तदपरिज्ञानात् । सति च तस्मिन् कि तयेत्यभिहितमेवैतत् । अथ सा कार्यमन्तरेणाप्यभ्युपगम्यते इति एतदाशङ्कयाह - तदभावे कार्याभावे । कि न शेषेषु सत्वेषु साभ्युपगम्यते ? तथा च सत्यविशेषत एव निवृत्तिसिद्धिरिति ॥ २४२॥ - २४३ ] स्यादेतन्न सर्वसत्वेषु सा अतो नाभ्युपगम्यत इति । आह चनागदेवाईसुं असंभवा समयमाणसिद्धीओ । तु चितसिद्धी असुहासयवज्जणमदुट्ठा ||२४३॥ १४३ नारक- देवादिष्वसंभवाद्वयापादनशक्तेनिरुपक्रमायुषस्त इति आदिशब्दाद्देव कुरु निवास्यादिपरिग्रहः कुत एतदिति चेत् समयमानसिद्धेरागमप्रामाण्यादिति । एतदाशङ्कयाह-अत एव के विषय में भी उस शक्तिको सम्भावना क्यों नहीं हो सकती है ? उनके वधविषयक शक्तिकी भी सम्भावना की जा सकती है । विवेचन - जिस जातिका एक प्राणी मारा गया है उस जातिके सब प्राणियोंके वधकी शक्ति है, इसे वादीने सम्भव बतलाया था, जिसका निराकरण करते हुए उसे व्यभिचरित ठहराया गया था । इस व्यभिचार दोषको असम्भव बतलाते हुए यहाँ वादी कहता है कि जिस जातिका प्राणी मारा गया है उस जातिके सभी प्राणी वध्य हैं तथा जिस जातिका प्राणी नहीं मारा गया है उस जाति के सब वध्य नहीं हैं, इस प्रकार के नियमको हम सम्भव नहीं कहते, जिसके आश्रयसे व्यभिचार दोष दिया गया है । किन्तु विवक्षित वधकके द्वारा जिस जातिका एक प्राणी मारा गया है उस जाति के सब प्राणियोंके वधविषयक शक्ति उसमें है । अतः उस शक्तिके निरोधके लिए उसे उनके वधकी निवृत्ति कराना उचित व सफल है। इससे जो पूर्व में ( २४० ) व्यभिचार दोष दिया गया है वह दोष लागू नहीं होता । वादोके इस कथनको असंगत ठहराते हुए यहाँ पुनः यह कहा गया है कि उस शक्तिका बोध वधरूप कार्यके बिना नहीं हो सकता है । और यदि वधरूप कार्यके बिना भी उस शक्तिका परिज्ञान सम्भव है तो फिर विवक्षित जातिके अतिरिक्त अन्य प्राणियोंके वधविषयक शक्तिकी भी सम्भावना उसमें क्यों नहीं की जा सकती है ? उनके विषय में भी वह सम्भव है । इसलिए सामान्यसे सभी प्राणियों के वधविषयक निवृत्ति कराना चाहिए, न कि किसी विशेष जातिके || २४२ || इस पर वादी पुनः कहता है नारक व देव आदिके विषय में वधशक्ति सम्भव नहीं है, यह आगमप्रमाणसे सिद्ध है । इसके उत्तर में कहा जाता है कि उस आगम प्रमाणसे तो समस्त प्राणियों के वधकी निवृत्ति भी सिद्ध है । सामान्यसे की जानेवाली वधको निवृत्ति में चूंकि अशुभ अभिप्रायका परित्याग किया जाता है, इसीलिए वह निर्दोष है । विवेचन-वादी कहता है कि जब नारक व देव आदिके वधको शक्ति किसीमें नहीं है तब उनके भी वध की निवृत्ति कराना असंगत है । उक्त नारक आदि किसीके द्वारा नहीं मारे जा १. अ इहावस्यता । २. देवगुरुनिवास्या परिग्रहः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२४४समयमानसिद्धः तत्सिद्धिः सर्वप्राणातिपातनिर्वृत्ति सिद्धिः "सव्वं भंते पाणाइवायं पच्चक्खामि" इत्यादिवचनप्रामाण्याद् । आगमस्याप्यविषयप्रवृतिदुष्टैवेति एतदाशङ्कयाह-अशुभाशयवर्जनमिति कृत्वा अदुष्टा तद्वधनिवृत्तिः, अन्तःकरणादिसंभवालंबनत्वाच्चेति वक्ष्यतीति ॥२४३॥ आवडियाकरणं पि हु न अप्पमायाओ नियमओ अन्नं । अन्नत्ते तब्भावे वि हंत विहला तई होइ ॥२४४॥ आपतिताकरणमपि पूर्वपक्षवाद्यपन्यस्तम् । नाप्रमादानियमतोऽन्यत्, अपि स्वप्रमाद एव तदिति । अन्यत्वेऽप्रमादादन्तिरत्वे आपतिताकरणस्य । तद्भावेऽप्यप्रमावभावेऽपि हंत विफलासौ निवृत्तिर्भवति, इष्यते चाविप्रतिपत्त्या अप्रमत्ततायां फलमिति ॥२४४॥ सकते हैं, यह आगमप्रमाणसे सिद्ध है, क्योंकि परमागममें उन्हें निरुपक्रमायुष्क कहा गया है। वादीके इस अभिमतका निराकरण करते हुए यहां यह भी कहा गया है कि जिस आगममें उक्त देव-नारक आदिको निरुपक्रमायुष्क कहा गया है उसी आगममें समस्त प्राणियोंके वधके प्रत्याख्यानको भी विधेय कहा गया है। तदनुसार सामान्य सब ही प्राणियोंके वधकी निवृत्तिको क्यों न उचित माना जाये ? उसे ही उचित मानना चाहिए । इसपर वादी पुनः यह कहता है कि आगमकी इस अविषय प्रवृत्तिको निर्दोष नहीं कहा जा सकता। इसको लक्ष्य में रखकर यहाँ कहा गया है कि सब प्राणियोंका वध सम्भव हो या न भी हो तो भी सामान्यसे समस्त प्राणियोंके वधको निवृत्तिको स्वीकार करनेपर प्रत्याख्यान करनेवालेका अभिप्राय निमल रहता है, अतः समस्त प्राणियोंके ही वधविषयक निवृत्तिको उचित माना गया है ॥२४३।। आगे वादोके द्वारा जिस आपतिताकरणका पूर्वमें ( २३५ ) निर्देश किया गया है उसका यथार्थ अभिप्राय क्या है, यह दिखलाते हैं आपतितका अकरण-वधकी निवृत्तिके स्वीकार करनेपर वधविषयक शक्तिके होते हुए भी अवसर प्राप्त होनेपर उसे न करना -भी अप्रमादसे कुछ भिन्न नहीं है, किन्तु वह अप्रमाद (प्रमादके अभाव ) स्वरूप ही है। यदि ऐसा न मानकर उक्त आपतितके अकरणको उससे (प्रमादके अभावसे ) भिन्न माना जाता है तो आपतितके न करनेपर भी खेद है कि वह निवृत्ति निष्फल हो रहनेवाली है। विवेचन-वादीने अपने पक्षको स्थापित करते हए यह कहा था कि जिन प्राणियोंका वध किया जा सकता है उन्होंके वधको निवृत्ति करना योग्य है, क्योंकि तब निवृत्तिको स्वीकार करनेवाला आपतितके अकरणमें उपस्थित वध्य प्राणीके वधका अवसर प्राप्त होनेपर भी वह अपनी वधविषयक उस शक्तिको रोककर उसका वध नहीं करता है। इसलिए यहां उस वधको निवृत्तिको सफलता देखी है। पर जिन नारक और देवादिका वध शक्य ही नहीं है उनके वधकी निवृत्तिका कुछ फल सम्भव नहीं है, क्योंकि वहां उस अविद्यमान शक्तिका निरोध सम्भव नहीं है। इस प्रकार वादीने जिस आपतिताकरणको सम्भवका अर्थ प्रकट किया था उसके यथार्थ अभिप्रायको व्यक्त करते हुए सिद्धान्त पक्षको ओरसे कहा गया है कि उपर्युक्त आपतिताकरण अप्रमादसे कुछ भिन्न नहीं है, किन्तु वह उस अप्रमाद-प्रमादके अभावस्वरूप ही है। इसके विपरीत यदि उसे अप्रमादसे भिन्न-प्रमादस्वरूप माना जाता है तो उस आपतिताकरणके होते हुए भी उस निवृत्तिका कुछ फल सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रमादके रहनेपर किया जानेवाला १. अ भावे हित। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४७ ] वध विषयाणामेव वधनिवृत्तिर्युक्ता इत्येतनिराकरणम् १४५ अह परपीडाकरणे ईसिंवहस त्तिविष्फुरणभावे | जो ती निरोsो खलु आवडियाकरणमेयं तु ॥ २४५।। अथैवं मन्येत परः - परपीडाकरणे व्यापाद्यपीडासंपादने सति । ईषद्वधशक्ति विस्फुरणभावे व्यापादकस्य मनाग्वधसामर्थ्यविजं भणसत्तायां सत्याम् । यस्तस्याः शक्तेनिरोधो दुष्करतरे आपतिताकरणमेतदेवेति एतदाशङ्कयाह ॥ २४५ ॥ विहिउत्तरमेवेयं अणेण सत्ती उ कज्जगम्भत्ति । विष्फुरणं पि हु ती बुहाण नो बहुमयं लोए || २४६॥ विहितोत्तरमेवेदम् । केनेति अत्राह - अनेन शक्तिस्तु कार्यगम्येति । त्रिस्फुरणमपि तस्याः शक्तेर्बुधानां न बहुमतं लोके मरणाभावेऽपि परपीडाकरणे बन्धादिति ॥ २४६ ॥ एवं च जानिवत्ती सा चेव वहोऽहवाविवहहेऊ । विसओ विसु च्चिय फुडं अणुबंधा होइ नायव्वा ||२४७ || कोई भी प्रत्याख्यान सफल नहीं हो सकता । इस प्रकार वह अप्रमादभाव जिस प्रकार शक्य वधवाले प्राणियों के विषयमें रह सकता है उसी प्रकार अशक्य वधवाले प्राणियोंके विषय में भी वह सम्भव है । अतएव सामान्यसे समस्त प्राणियोंके वधविषयक निवृत्ति हो उचित ठहरती है || २४४ || आगे वादी प्रकारान्तरसे उस आपतिताकरणके अभिप्रायको व्यक्त करता है - वह कहता है कि वधके योग्य अन्य प्राणीको पीड़ित करनेपर जिस वधविषयक उस शक्तिका कुछ परिचय प्राप्त होता है उस शक्तिको रोकना - उसका वध न करना, यही निश्चय से वह आपतिताकरण है । इस प्रकार वादोकी ओरसे यह शंका की गयी है । विवेचन -- वधक किसी जातिके एक प्राणीको जो पीड़ा पहुँचाता है उससे उस जाति के समस्त प्राणियों के वधविषयक शक्तिका परिचय वधक्रियाके न करनेपर भी प्राप्त हो जाता है । अवसर प्राप्त होनेपर इस शक्तिको रोकना, यही उस आपतिताकरणका अभिप्राय है । तदनुसार पूर्वोक्त दोष की सम्भावना नहीं रहती || २४५ ॥ इस अभिप्रायका निराकरण करते हुए यहाँ यह कहा जाता है- 'वह शक्ति वधरूप कार्यंसे ही जानी जा सकती है' यह जो पूर्व में ( २४२ ) कहा जा चुका है उसीसे इसका उत्तर हो जाता है। इसके अतिरिक्त प्राणीको पीड़ा पहुँचाकर जो उस शक्ति के विकासका परिचय पाना है वह भी लोकमें विद्वज्जनको बहुमत नहीं है, किन्तु घृणास्पद ही है; किन्तु मारने के बिना भी जो प्राणीको पीड़ा पहुंचायी जाती है उससे भी संक्लेशके कारण कर्मका बन्ध होनेवाला ही है ||२४६|| अब इस प्रकरणका उपसंहार किया जाता है- इस प्रकार - उपर्युक्त व्यवस्था के अनुसार जो वधसे अनिवृत्ति है वही वध अथवा वधका हेतु है, वधका विषय भी स्पष्टतया वही अनिवृत्ति है, क्योंकि वधकी निवृत्तिके न होनेपर उसकी प्रवृत्तिका सम्बन्ध बना ही रहता है । १. अ दुःकरतर । २. असत्तो ए । ३. भ ती सव्वे वही हवावि । १९ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ २४८ - एवं च व्यवस्थिते सति । या अनिवृत्तिः सैव वधो निश्चयतः, प्रमादरूपत्वात् । अथवापि वषहेतुरनिवृत्तितो वधप्रवृत्तेः । विषयोऽपि वस्तुतो गोचरोऽपि सैवानिवृत्तिर्वधस्य । स्फुटं व्यक्तम् । अनुबंधात्प्रवृत्त्यध्यवसायानुपरमलक्षणाद्भवति ज्ञातव्या अस्या एव वधसाधकत्वप्राधान्यख्यापनार्थं हेतुविषयाभिधानमदुष्ट मेवेति ॥ २४७॥ १४६ अमुमेवार्थं समर्थयन्नाह - हिंसाइपायगाओ अप्पेडिविरयस्स अस्थि अणुबंधो । अत्तो' अणिवित्तीओ' कुलाइवेरं व नियमेण ॥ २४८॥ हिंसादिपातकादादिशब्दात् मृषावादादिपरिग्रहः । अप्रतिविरतस्यानिवृत्तस्यास्त्यनुबन्धः ' प्रवृत्त्यध्यवसायानुपरमलक्षणः । उपपत्तिमाह-अत एवानिवृत्तेः प्रवृत्तेः कुलादिवैरवन्नियमेनावश्यंतयेति ॥ २४८॥ दृष्टान्तं व्याचिख्यासुराह जेसि मिहो कुलवेरं अप्पडिविरईउ तेसिमनोन्नं । वह किरियाभावं विन तं सयं चेवे उवसमइ ॥ २४९ ॥ विवेचन -- यहाँ वधकी निवृत्तिको आवश्यक बतलाते हुए सर्वप्रथम उस वधविषयक अनिवृत्ति - उसके प्रत्याख्यान न करने को ही वध कहा गया है। कारण इसका यह है कि जबतक जीव वधकी निवृत्तिको स्वीकार नहीं करता तबतक प्रमाद बना ही रहता है, और जबतक प्रमाद है तबतक तज्जन्य कर्मका बन्ध भी सम्भव है । यही कारण है जो जन्तुपीड़ाके परिहार में सदा सावधान रहनेवाले साधुके गमनागमनादि रूप प्रवृत्ति में प्राणिपीड़ाके सम्भव होनेपर भी उसके अहिंसा महाव्रतमें कोई दोष नहीं लगता । इसीसे उसके प्रमादजनित बन्ध भी नहीं होता है । आगे चलकर वधकी अनिवृत्तिको उस वधका कारण भी कहा गया है। इसका भी कारण यह है कि जबतक उस वधकी निवृत्तिको स्वीकार नहीं किया जाता तबतक उसका परिहार सम्भव नहीं है - तदनुरूप परिस्थितिके निर्मित होनेपर वह वधमें प्रवृत्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त चूँकि उसको निवृत्ति के बिना वधविषयक संकल्पका अन्त होता नहीं है, अतएव उस वधविषयक अनिवृत्तिको वधका विषय भी बतलाया गया है। इस प्रकार जब यह वधविषयक अनिवृत्ति स्वयं वधस्वरूप, वधकी कारण ओर उस वधकी विषय भी है तब उस वधकी निवृत्तिको आवश्यक और कल्याण करनेवाली समझना चाहिए || २४७|| आगे इसीका समर्थन करते हैं जो हिंसा व असत्यभाषण आदि पापोंसे विरत नहीं है उसके इस अनिवृत्तिसे कुलादि वैरके समान तद्विषयक अनुबन्ध --- उससे सम्बन्ध रखनेवाली प्रवृत्तिके परिणामसे अविरक्ति - नियमसे बनी ही रहती है || २४८॥ आगे उक्त दृष्टान्तको स्पष्ट किया जाता है जिन मनुष्यों में परस्पर कौटुम्बिक वेर रहता है उनके मध्य में परस्पर वधरूप कार्यके न होनेपर भी वधक्रियासे निवृत्त न होनेके कारण वह बैरभाव स्वयं उपशान्त नहीं होता । १. अ हिंसाएपाएगाउ अप्प । २. अ एत्तो । ३. म अणिवत्तीओ । ४. विरतअत्थिमणुबंधोस्याप्रवृत्त्यव्यवसायां । ५. अ विणियवंस चेव । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५० वधविषयाणामेव वधनिवृत्तियुक्ता इत्येतन्निराकरणम् येषां पुरुषाणाम् । मिथः परस्परम् । कुलवैरमन्वयासंखटम् । अप्रतिविरतेः कारणात् । तेषाम् अन्योन्यं परस्परम् । वधक्रियाभावेऽपि सति न तत्स्वयमेवोपशाम्यति किं तूपमितं सदिति ॥२४९॥ तत्तो य तन्निमित्त इह बंधणमाइ जहं तहा बंधो। सव्वेसु नाभिसंधी जह तेसुं तस्स तो नत्थि ॥२५०॥ ततश्च तस्मादनुपशमात् । तन्निमित्तं वैरनिबन्धनमिह बन्धनादि बन्धवधादि यथा भवति तेषां तथेतरेषामनिवृत्तानां तन्निबन्धनो बन्ध इति । अत्राह-सर्वेषु प्राणिषु । नाभिसंधि विवेचन-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार परस्पर वैरके वशीभूत हुए दो कुटुम्बोंमें एक दूसरेका घात तो करना चाहते हैं, पर तदनुकूल अवसर न मिलनेसे उनमें कोई किसीका चात नहीं कर पाता है। फिर भी जबतक उनका वह वैरभाव शान्त नहीं हो जाता है तबतक वे एक दूसरेके अनिष्टका चिन्तन किया ही करते हैं। इससे वे निरन्तर संक्लिष्ट परिणामके वशीभूत होने. से पाप कर्मको बांधते ही रहते हैं। ठोक इसो प्रकारसे गृहस्थ जबतक हिंसादि पापोंका परित्याग नहीं करता है तबतक वह उनसे निवृत्त न होनेके कारण समय आनेपर वह हिंसादि पापोंमें प्रवृत्त भी हो सकता है । अतः कर्मबन्धके कारणभूत संक्लेश परिणामसे बचाने के लिए उन हिंसादि करना ही श्रेयस्कर है। प्राणाके प्राणोंका विधात करना ही हिसा नहीं है, किन्तु जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा चुका है उसके विषय में राग-द्वेषादि रूप परिणामोंका बना रहना ही वस्तुतः हिंसाका लक्षण है। आचार्य अमृतचन्द्रने अहिंसा और हिंसाका लक्षण इसी . प्रकारका निर्दिष्ट किया है। यथा--- अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य सक्षेपः । पु. सि, ४४ ॥ अर्थात राग-द्वेषादि परिणामोंके उत्पन्न न हान देनका नाम अहिंसा और उन्ही की उत्पत्ति का नाम हिंसा है। संक्षेपमें यह परमागमका रहस्य है ॥२४९।। आगे उस कुलादि वेरका क्या परिणाम होता है, इसे स्पष्ट करते हुए वादोके द्वारा फिरसे को गयो शंकाको व्यक्त करते हैं उक्त कुलादि वैरके स्वयं शान्त न होनेसे उसके निमित्तसे यहां जिस प्रकार उनके वधबन्धन आदि होते हैं उसी प्रकार पापकी निवृत्तिसे रहित जीवोंके संश्लेश परिणामके निमित्तसे कर्मका बन्ध हुआ करता है। यहां वादो पुनः माशंका करता है कि जिस प्रकार जिन दो कुलों में वैरभाव होता है उन्हींके मध्यमें परस्पर दुष्ट अभिप्राय रहता है, न कि सभी जीवोंके विषयमें, अतः उतने मात्र आश्रय ही उनके बन्ध सम्भव है । इसी प्रकार प्रत्याख्यान करनेवाले जीवके भी समस्त प्राणियोंके आश्रयसे बन्ध नहीं होता है, किन्तु वध करने योग्य जिन प्राणियोंके वध. विषयक निवृत्ति नहीं को गयो है मात्र उनके आश्रयसे ही बन्ध सम्भव है। विवेचन-यहाँ ऊपर दिये गये कुलवैरके आश्रयसे वादी अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहता है कि जिस कुलके मनुष्योंसे दूसरे कुलके मनुष्योंमें वैरभाव हैं वे केवल उसो कुलके मनुष्यों१. अ तन्निमित्तो वहबंधणमाति नह । २. भ एसि । ३. भ मिह बंधवधादियथा भवति तथा ( अतोऽग्रेऽत्र पूर्वगाथा २४९ गत 'वधकिरियाभावंमि' इत्यादिसंदर्भोऽग्रिमगाथा २५० गत 'सव्वेसु नाभि' पर्यन्तः पुनलिखितोऽस्ति । तदने च 'किंतु' लिखित्वा 'वैरिद्रंगनिवासिनामेव' प्रभृतिरग्निमसंदर्भो लिखितोऽस्ति । 3 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ २५१ - र्यापादनपरिणामः । यथा तेषु द्रंग निवासिषु वैरवत इति । तस्य प्रत्याख्यातुस्ततो नास्ति बन्धः इति । तथाहि तेऽपि न यथादर्शनमेव प्राणिनां बन्धादि कुर्वन्ति, किंतु वैरिद्रंगनिवासिनामेव । एवं प्रत्याख्यातुरपि न सर्वेषु वधाभिसंधिरिति तद्विषये बन्धाभाव इति ॥ २५० ॥ एतदाशङ्क्याह अत्थि च्चिय अभिसंधी अविसेसपवित्तिओ जहा तेसु । अपवित्तीय विणिवित्तोजो उं तेसिं व दोसो उ ॥ २५१ ॥ अस्त्येवाभिसंधिरनन्तरो | दतलक्षणः सर्वेषु । कुतोऽविशेष प्रवृत्तितः सामान्येन बधप्रवृत्तेः । यथा तेषु रिपुद्रं निवासिषु वैरवतः । ततश्चाप्रवृतावपि वधे अनिवृत्तिज एव तेषामिव वैरवतां दोष एवमनिवृत्तस्य गर्भार्थो भावित एवेति ॥ २५२ ॥ अदृष्टान्त एवायम्, सर्वसत्वैर्वैरा संभवादिति आशङ्कयाह सव्वेसिं विराहणओ परिभोगाओ य हंत वेराई । सिद्धा अणाइनिहणो जं ससारो विचित्तो य ।। २५२॥ सर्वेषां प्राणिनाम् । विराधनात्तेन तेन प्रकारेण परिभोगाच्च स्रक् चन्दनोप करणत्वेन । हन्त 'बैरादयः सिद्धाः हंत संप्रेषणे स्थानान्तरप्रापणे सति वैरोन्माथकादयः कूटयन्त्रकादयः के मारण-ताड़न आदिका अभिप्राय रखते हैं, न कि विश्वके सभी प्राणियों के विषय में । इसलिए केवल उनके निमित्तसे हो उनमें कर्मका बन्ध सम्भव है, न कि समस्त प्राणियों के निमित्तसे । इसी प्रकार से विशेष रूप में शक्य वधवाले प्राणियोंके वधकी निवृत्तिको स्वीकार करनेवालेका दुष्ट अभिप्राय जब अशक्य वधवाले अन्य समस्त प्राणियोंके विषय में नहीं रहता है तब उनके निमित्तसे उसके कर्मका बन्ध क्यों होगा ? वह नहीं होना चाहिए || २५०|| आगे वादीकी इस शंकाका उत्तर दिया जाता है सामान्यसे सब जीवोंके वधके विषय में निवृत्तिको स्वीकार न करनेवाले मनुष्यका वधविषयक अभिप्राय रहता ही है, क्योंकि वह सामान्यसे प्रवृत्ति करता है। जिस प्रकार कुलवैरवालेका अभिप्राय सामान्यसे उस कुलमें वर्तमान सभी मनुष्योंके वध-बन्धनादि-विषयक रहा करता है। इस प्रकार सबके वधमे प्रवृत्त न होनेपर भी उसके अतिवृत्तिजनित दोष होता ही है || २५१ ॥ कुलवेरका जो दृष्टान्त दिया गया है वह वस्तुतः दृष्टान्त नहीं है क्योंकि कुलवेरवालोंका विश्व के सब प्राणियों से वेर सम्भव नहीं है, वादीकी इस आशंकाको हृदयंगम कर आगे यह कहा जाता है— सभी जीवों की विराधना करनेके कारण तथा माला व चन्दन आदि सबका उपभोग करनेके कारण सबके साथ वैर आदि सिद्ध हैं, क्योंकि संसार अनादि-निधन व विचित्र है । विवेचन-वादीकी उक्त शंकाको हृदयंगम कर यहाँ यह कहा गया है कि संसार चूँकि अनादि व अनन्त है, अतएव वह इस संसार परम्परामें व्यक्ति जब तब जिस किसीके वध-बन्धनादिका विचार कर सकता है । इससे वैर-विरोधादिको असम्भव नहीं कहा जा सकता है । इसके १. अ य विभणिवित्तीजा उ । २. भ हते संप्रक्षणां । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२५४] वधविषयाणामेव वनिवृत्तियुक्ता इत्येतन्निराकरणम् प्रतिष्ठिताः सर्वसत्त्वविषया इति। उपपत्त्यन्तरमाह–अनादिनिधनो यत्संसारो विचित्रश्चातो युज्यते सर्वमेतदिति ॥२५२॥ उपसंहरन्नाह ता बंधमणिच्छंतो कुज्जा सावज्जजोगविनिवित्तिं । अविसयअनिवित्तीए सुहभावा दढयरं स भवे ॥२५३।। यस्मादेवं तस्माद । बन्धमनिच्छन्नात्मनः कर्मणाम् । कुर्यात्सावद्ययोगनिवृत्तिमोघत: सपापव्यापारनिवृत्तिमित्यर्थः। अविषयानिवृत्त्या नारकादिवधाभावेऽपि तदनिवृत्त्या । अशुभभावादविषयेऽपि ववविरतिं न करोतीत्यशुभो भावस्तस्मात् । दृढतरं सुतरां स भवेद्बन्धो भावप्रधानत्वात्तस्येति ॥२५३॥ इत्तो य इमा जुत्ता जोगतिगनिबंधणा पवित्तीओ'। जं ता इमीइ विसओ सव्वु च्चिय होई विन्नेओ ॥२५४॥ इतश्चेयं निवृत्तिर्युक्ता। योगत्रिकनिबन्धना मनोवाक्काययोगपूर्विका प्रवृत्तियद्यस्मादस्या अतिरिक्त उपभोगमें भी वह जीवोंकी विराधना कर सकता है तथा कूटयन्त्र (पशु-पक्षियोंको पकड़नेके लिए मांस आदिसे संलग्न यन्त्रविशेष आदिको प्रतिष्ठित कर प्राणियों को पीड़ित किया जा सकता है। इस कारण सामान्यसे सर्वसावद्यसे की जानेवाली निवृत्ति हो संगत व उपयोगी सिद्ध होती है ॥२५२।। अब इसका उपसंहार किया जाता है इस कारण जो आत्महितैषो बन्धकी इच्छा नहीं करता है उसे सामान्यसे समस्त सावध योगसे निवृत्ति करना चाहिए। कारण यह है कि जो नारक-देवादि वधके विषय नहीं हैं उनके वधविषयक अनिवृत्तिसे होनेवाले अशुभ परिणामसे वह दृढ़तर कर्मबन्ध होनेवाला है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि कुछ नारक व देव आदि निरुपक्रमायुष्क जीव भले ही उस वधके विषय न हों, फिर उनके वधको निवृत्ति न करनेसे परिणामोंमें कलुषता सम्भव है, जो दृढ़ कर्मबन्धको कारण हो सकती है, क्योंकि कर्मबन्धका कारण जीवका परिणाम है जो वध्यअवध्य सभी प्राणीके विषयमें सम्भव है। समस्त प्राणियोंके दधविषयक निवृत्तिको स्वीकार न करना, यह प्राणीको आत्मदुर्बलता ही समझो जायेगी जो अशुभाशयसे भिन्न नहीं हो सकती। सामान्यसे वधका प्रत्याख्यान करने पर जिन प्राणियोंका वध सम्भव नहीं उनके विषय में तो और भी निर्मल परिणाम रह सकते हैं। इसलिए कर्मबन्धके अनिच्छुक भव्य जीवको सामान्यसे हिंसादिरूप समस्त ही सावध परित्याग करना उचित है ॥२५३।। आगे सामान्यसे की जानेवाली वनिवृत्तिका अन्य कारण भी बतलाते हैं चूंकि जोवकी प्रवृत्ति मन, वचन और कायरूप तीनों योगोंके कारणसे हुआ करती है, इसलिए भी सामान्यसे वधकी निवृत्ति करना योग्य है। इस प्रकार जब कि उस अनिवृत्तिका विषय सभी है तब निवृत्तिका विषय भी सब हो समझना चाहिए। विवेचन-अभिप्राय यह है कि जीवकी जो प्राणिवधादिमें प्रवृत्ति होती है वह मन, वचन व काय इन तीनों योगोंके आश्रयसे हुआ करती है। इसलिए जिन नारक आदिका वध कायसे १.भ पवित्तीए। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रावकप्रज्ञप्तिः [२५५ - अनिवृत्तेविषयः । सर्व एव भवति विज्ञेयः। पाठान्तरं योगत्रिकनिबन्धना निवृत्तिर्यस्मात्संगतार्थमेवेति ॥२५४॥ तथा चाह किं चिंतेइ न मणसा किं वायाए न जंपए पावं । न य इत्तो वि न बंधो ता विरई सव्वहा कुज्जा ॥२५५।। किं चिन्तयति न मनसा, अनिरुद्धत्वात्सर्वत्राप्रतिहतत्वात् तस्य । किं वाचा न जल्पति पापम्, तस्या अपि प्रायोऽनिरुद्धत्वादिति । न चातोऽपि योगद्वयव्यापारान्न बन्धः, किं तु बन्ध एव। यस्मादेवं तत्तस्माद्विरति सर्वथा कुर्यात् अविशेषेण कुर्यादित्यर्थः॥२५५॥ एवं मिच्छादंसणवियप्पवसओऽसमंजसं केई । जपंति जंपि अन्नं तं पि असारं मुंणेयव्वं ॥२५६॥ एवमुक्तप्रकारम् । मिथ्यादर्शनविकल्पसामर्थेन । असमंजसमघटमानकम् । केचन कुवादिनो जल्पन्ति याप्यन्यत्किचित्तदप्यसारं मुणितव्यमुक्तन्यायानुसारत एवेति ॥२५६॥ उक्तमानुषङ्गिकम्, अधुना प्रकृतमाह पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं । संपुन्नपालणट्ठा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२५७॥ सम्भव नहीं है उनका वह वध मन व वचनसे सम्भव है-मनसे उनके वधका चिन्तन किया जा सकता है तथा वचनसे वैसा सम्भाषण भी किया जा सकता है। अतएव सामान्यसे सब ही प्राणियोंके वधकी निवृत्ति करना योग्य है, ऐसा करनेसे परिणामोंमें निर्मलता अधिक हो रहनेवाली है । इस गाथामें टीकाकारके अनुसार 'पवित्तोओ' के स्थानमें 'निवित्तीओ' पाठान्तर भी पाया जाता है। तदनुसार गाथाका अभिप्राय यह होगा-निवृत्ति चूंकि तीनों योगोंके आश्रयसे हुआ करती है, इसलिए उसका विषय जब सब हो होती है तब नारक, देवादिके उस वधके विषय न होनेपर भी सामान्यसे सव ही प्राणियोंके वधकी निवत्ति करना योग्य है ॥२५४॥ आगे इसे ही स्पष्ट किया जाता है जीव क्या मनसे पापका विचार नहीं करता है ? करता ही है, क्योंकि उसकी सर्वत्र है । तथा वह क्या पापयक्त भाषण नहीं करता है? उसे भी वह करता है. क्योंकि उसे भी प्रायः रोका नहीं जा सकता है । तब वैसी परिस्थिति में उन दोनों के निमित्तसे बन्ध न होता हो, यह भो सम्भव नहीं है-उन दोनोंके निमित्तसे कर्मका बन्ध अवश्य होनेवाला है। इसलिए विरतिसावद्य योगका प्रत्याख्यान-सर्वथा ( सामान्यसे ) करना योग्य है ॥२५५|| इस प्रकार यहां कुछ वादियोंके अभिमतको दिखलाकर उसका निराकरण करते हुए अब उसका उपसंहार किया जाता है-- ___ इस प्रकार मिथ्यादर्शनजनित विचारके वश कितने वादो अन्य जो कुछ भी असमंजसयुक्ति व आगमसे असंगत-कथन करते हैं उसे भो निःसार समझना चाहिए ।।२५६।। इस प्रकार आनुसंगिक चर्चा करके अब प्रकृत विषयका विचार करते हैं २. विरत्ति। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५८] अहिंसाणुव्रतस्य अतिचाराः १५१ प्रतिपद्य चाङ्गीकृत्य च व्रतम् । तस्य व्रतस्यातिचारा अतिक्रमणहेतवो यथाविधि यथाप्रकारम् । ज्ञात्वा परिहर्तव्याः सर्वैः प्रकारैर्वजनीयाः प्रयत्नेनेति योगः। किमर्थम् ? संपूर्णपालनार्थम् । न ह्यतिचारवतः संपूर्णा तत्पालना, तद्भावे तत्खंडनादिप्रसंगादिति ॥२५॥ तथा चाह बंधवहछविच्छेए अइभारे भत्तपाणबुच्छेए । कोहाइसियमणो गो-मणुयाईण नो कुज्जा ।।२५८॥ तत्र बन्धनं बन्धः संयमनं रज्जु-दामनकादिभिः। १। हननं वधस्ताडनं केशादिभिः।२। छविः शरीरम, तस्य छेदः पाटनं करपत्रादिः । ३३ भरणं भारः, अतिभरणं गतिभारः, प्रभूतस्य पूगफलादेः स्कन्धपृष्ठारोपणमित्यर्थः । ४। भक्तमशनमोदनादि, पानं पेयमुदकादि, तस्य व्यवच्छेदो निरोधः, अदानमित्यर्थः । ५। एतान् समाचरन्नतिवरति प्रथमाणु बलम् । एतान् क्रोधादिदूषितमना न कुर्यादिति अनेनापवादमाह-अन्यथाकरणेऽप्रतिषेधावगमात् । तदत्रायं पूर्वाचार्योक्तविधिः-बंधो दविहो दपयाणं चउपयाणं च अदाल अणटारनवटाए बंधिउं । अट्टाए दुविहो सावेक्खो निरवेक्खो य । निरवेक्खो निच्चलं धाणियं जं बंधइ, सावेक्खो जं दामगंठिणा, जंच सक्केइ पलिवणगादिसु मुंचिउं छिदिउं वाण संसरपासएणं बंधेयव्वं । एयं ताव चउप्पयाणं । दुपयाणंपि दासो दासी वा चोरो वा, पुत्तो वाण पतगाह जइ बझंति तो सावेक्खा बंधेयन्वा रक्खियव्वा य जहा अग्गिभयादिसु ण विणस्तंति। ताणि किर दुपयचउप्पयाणि सावगेणं गेलियवाणि जाणि अबद्धाणि चेव अच्छति। वहो वि तह चेव । वहो व्रतको स्वीकार करके और आगमोक्त विधिके अनुसार उसके अतिचारोंको जानकर स्वीकृत व्रतके पूर्णतया परिपालनके लिए प्रयत्नपूर्वक उन अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए। - विवेचन-स्वीकृत व्रतके देशतः भंग होनेका नाम अतिचार है । जिस व्रतको स्वीकार किया है आगमोक्त विधिके अनुसार उसका पूर्णतया निर्दोष-परिपालनके लिए व्रतको भंग करने वाले अतिचारोंको जानकर उनका सर्वथा परित्याग करना उचित है ।।२५७॥ ___अब प्रकृतस्थूलप्राणिवधविरति नामक प्रथम अणुव्रतके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है प्रथम अणुव्रतका धारक श्रावक क्रोधादि कषायोंसे मनको कलुषित कर गाय आदि पशुओं और मनुष्यों आदिका बन्ध, वध, छविछेद, अतिभार और भक्त-पानव्युच्छेद न करे। विवेचन-प्रकृत गाथामें अवसरप्राप्त उस स्थूलप्राणातिपात अणुव्रतको मलिन करनेवाले पांच अतिचारोंके परित्यागको प्रेरणा करते हुए उनके नामोंका निर्देश किया गया है। (१) उनमें प्रथम अतिचार बन्ध है । बन्धका अर्थ है गाय-भैंस आदि पशुओं और मनुष्योंको रस्सो आदिसे बांधकर रखना। यह बन्धन दो पाँववाले मनुष्यों आदिका तथा चार पांववाले गाय, भैंस और घोड़ा आदिका किया जाता है। वह सार्थक और अनर्थ रुके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें से अणुव्रती श्रावक अनर्थक-प्रयोजनके बिना-कभी बन्धनमें प्रवृत्त नहीं होता। सार्थक बन्धन भी सापेक्ष और निरपेक्षके भेदसे दो प्रकारका है। मनुष्य व.पशुओंको जो प्रयोजनके वश बांधा जाता है वह सार्थक बन्ध तो है, पर यदि इसमें उनकी सुरक्षाकी ओर ध्यान न देकर उन्हें अतिशय दृढ़तापूर्वक बांधा जाता है तो यह निरपेक्ष सार्थक बन्धन कहलाता है। इसमेंसे १. अ अस्याः (२५८) गाथायाः संस्कृतछायाप्यत्रोपलभ्यते । २. भक्षिभिः सह वंधननस्साडनं केशाभिदिभिः। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रावकज्ञप्तिः [ २५८नाम तालणं । अणटाए णिरवेक्खो निद्दयं तालेइ। साक्खो पुण पुव्वमेव भीयपरिसेण होयव्वं । जइ न करेज्ज तो मम्मं मोत्तुं ताहे लयाए दोरेण वा एक्कं दो तिन्नि वा वारे तालेइ । छविच्छेओ अणट्टाए तहेव, हिरवेक्खो हत्य-पाय-कन्न हो?-णक्काइ निद्दयाए छिदइ । सावेक्खो गंडं वा अरइयं वा छिदेज्ज वा दहेज्ज वा। अइभारो ण आरोवेयवो। पुवि चेव जा वाहणाए जीविया सा मुत्तव्वा। न होज्ज अन्ना जीविया, ताहे दुपदो जं सयं चेव उक्खिवइ उत्तारेइ वा भारं एवं वहाविज्जइ। बइल्लाणं जहा साभाविद्याओ वि भाराओ ऊणओ कोरइ। हल-सगडेसु वि वेलाए चेव मुंचई। आस-हत्थीसु वि एस चेव विही । भत्तपाणओच्छेओ ण कस्सइ कायवो तिक्खच्छुहो मा मरेज्ज तहेव अणटाए दोसा परिहरेज्जा। सावेक्खो पुण रोगनिमित्तं वा अकस्मात् आग वगैरह लगने या अन्य किसी उपद्रवके "उपस्थित होनेपर बन्धनबद्ध प्राणीका छटकारा पाना दुष्कर हो जाता है। अतः ऐसा निरपेक्ष सार्थक बन्धन सर्वथा हेय है। सापेक्ष सार्थक बन्धनमें प्राणीको इझ प्रकारको शिथिल गांठ आदि लगाकर बांधा जाता है कि जिससे कभी अग्नि वगैरहके प्रज्वलित होनेपर या अन्य किसी उपद्रवके उपस्थित होनेपर वह सरलतासे छूटकर या छुड़ाया जाजर आत्मरक्षा कर सकता है। यह सापेक्ष सार्थक बन्धन प्रयोजतके वश गाय-भैंस आदि चतुष्पदोंके समान दासी-दास, चोर व पढ़ने में आलसो पुत्र आदि द्विपदोंका भी किया जाता है। पर वह उनकी सुरक्षाका ध्यान रखकर दयाई अन्तःकरणसे विधेय माना गया है। विशेष रूपमें श्रावकको ऐसे ही द्विपदों व चतुष्पदोंको ग्रहण करना चाहिए जो बिना बन्धनके ही रह सकते हों। (२) दूसरा उसका अतिचार बध है। बधका अथं ताड़न है, न कि प्राणवियोजन, क्योंकि प्राणवियोजन तो स्पष्टत: अनाचार है, न कि अतिचार। पूर्वोक्त बन्धनके समान यह वध भी निरर्थक व सार्थकके साथ निरपेक्ष और सापेक्षके भेदसे दो प्रकारका है। निरतिचार अणवतका पालन करनेवाला गहस्थ कभी प्रयोजनके बिना प्राणीको लाठी चाबुक आदिसे पीड़ित नही ता। प्रयोजनके वश भी जब ताड़ित करना आवश्यक हो जाता है तब वह निरपेक्ष होकर निदयतापूर्वक ताड़ित नहीं करता। प्रथमत: तो वह भय दिखलाता है। पर जब भयसे काम नहीं निकलता तब वह मर्मस्थानको छोड़कर लता या रस्सी आदिसे दो-तीन बार ताड़ित करता है । (३) तीसरा अतिचार छविछेद है। छविका अर्थ शरीर है। उसका छेद भी निरर्थक व सार्थकके रूपमें सापेक्ष व निरपेक्ष दृष्टिसे किया जाता है। अणुव्रती श्रावक निष्प्रयोजन निरपेक्ष दृष्टिसे कभी प्राणीके हाथ, पांव, कान, ओष्ठ व नाक आदिका छेदन नहीं करता। प्रयोजनके वश भी वह उसके नाक, कान व फोड़े आदिको सापेक्ष होकर दयाभाव हो छेदता है या दागता है। (४) चौथा अतिचार अतिभारारोपण है। इस अतिचारसे रहित व्रती श्रावक मनुष्य या पशुके ऊपर अधिक बोझ नहीं लादता, वह उनके ऊपर उतना ही बोझा लादता है, जिसे मनुष्य स्वाभाविक रूप उठा सकें या रख सकें। सर्वोत्तम तो यही है कि जहां तक सम्भव हो व्रतो श्रावक भाडेसे की जानेवाली आजीविकाको हो छोड़ दे। पर यदि वह सम्भव नहीं है तो फिर उक्त रीतिसे अधिक बोझा न लादकर उनको शक्तिके अनुसार ही बोझा लादना चाहिए। इसो आदिके अपर भी अस्वाभिक बोझ नहीं लादना चाहिए तथा हलमें या गाड़ीमें जोतनेपर उन्हें यथासमय छोड़ देना चाहिए। यही प्रक्रिया हाथी व घोड़ा आदिके विषयमें समझना चाहिए। (१) पांचवां अतिचार भक्त-पानव्यच्छेद है। अन्न-पानका निरोध भी श्रावकको निष्प्रयोजन सर्वथा नहीं करना चाहिए। प्रयोजनके वश भी द्विपद या चतुष्पदोंके भोजन-पानका निरोध कुछ हो समयके लिए करना चाहिए, जिसमें उन्हें अधिक व्याकुलताका अनुभव न हो या भूख-प्याससे Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२५१] द्वितीयाणुव्रतप्ररूपणा १५३ वायाए वा भणेज्जा अज्ज ण ते देमि ति, संतिणिमित्तं वा उववासं कारावेज्जा। सव्वत्थ वि जयणा जहा थूलगपाणाइवायरस अइयारो न भवइ तहा पइयव्वंति ॥२५८॥ आह च-- परिसुद्धजलग्गहणं दारुय-धन्नाइयाण तह चेव । गहियाण वि परिभोगो विहीइ तसरक्खणट्टाए ॥२५९।। परिशुद्धजलग्रहणम्, वस्त्रपूतत्रसरहितजलग्रहणमित्यर्थः। दारु-धान्यादीनां च तथैव परि. शुद्धानां ग्रहणं अनोलाजीर्णानां दारूणाम्, अकोट-विशुद्धस्य धान्यस्य, आदिशब्दात्तथाविधोपस्करपरिग्रहः। गृहीतानामपि परिभोगो विधिना कर्तव्यः परिमितप्रत्युपेक्षितादिना । किमर्थम् ? त्रसरक्षणार्थ द्वीन्द्रियादिपालनार्थमिति ॥२५९॥ उक्तं सातिचारं प्रथमाणुव्रतम् अधुना द्वितीयमुच्यतेपीड़ित होकर वे कदाचित् मृत्युको प्राप्त न हो जायें। पुत्र आदिके हितकी दृष्टिसे वचनके द्वारा ही यह कहना चाहिए कि यदि पूरा नहीं होता है तो आज तुम्हें भोजन नहीं प्राप्त होगा। रोगसे पीड़ित होनेपर भी वचनसे सान्त्वना देना कि आज तुम्हें भोजन करना हितकर नहीं है। शान्तिके निमित्त उपवास भी कराया जा सकता है। पर यह सब यत्नाचारपूर्वक ही होना चाहिए, जिससे कि स्थूल प्राणातिपात व्रतके उक्त अति चारोंसे व्रतको सुरक्षित रखा जा सके। गाथामें जो 'क्रोधादिदूषितमन' यह विशेषण दिया गया है कि उसका भी अभिप्राय यही है कि उपर्युक्त सब कार्य सद्भावनाके साथ यत्नाचारपूर्वक प्रयोजन वश ही करना चाहिए, न कि निष्प्रयोजन व निर्दयताके साथ । इस प्रकारसे ही प्रकृत स्थूल प्राणातिपात अणुव्रतका निर्दोष पालन हो सकता है ।।२५८॥ आगे उस यत्नाचारका स्पष्टीकरण किया जाता हैं त्रस जोवोंकी रक्षाके लिए निर्मल जल और विशुद्ध लकड़ी एवं धान्य आदिका भी ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त ग्रहण किये हुए पदार्थों का उपभोग भी विधिपूर्वक करना चाहिए। विवेचन-स्थूल प्राणातिपात अणुव्रतके धारक श्रावकको सभी प्रवृत्ति यत्नाचारपूर्वक होना चाहिए। उसमें त्रसजीवोंका विघात न हो, इसके लिए वह सदा सावधान रहता है। आवश्यकतानुसार जब वह जलको ग्रहण करता है तो वह उसे त्रसजीवोंसे रहित दोहरे छन्नेसे छानकर ग्रहण करता है। दो मुहूत के पश्चात् वह उसका उपयोग पुनः छानकर करता है। लकड़ियोंको जब वह जलानेके लिए ग्रहण करता है तब वह उन्हें बिना घुनी जीव-जन्तुओंसे रहित देखकर ही ग्रहण करता है व उनका उपयोग करता है। इसी प्रकार वह गेहूँ, चावल, उड़द व मूंग आदि धान्यविशेषोंको निर्धन व जन्तुओंसे रहित ग्रहण करता है व उनका उपयोग भी अतिशय सावधानतापूर्वक करता है। रात्रिमें पिसाने, भोजन बनाने व खानेका भी वह परित्याग करता है। ये कुछ ही यहाँ उदाहरण दिये गये हैं। उसका सभी आचरण प्राणिरक्षाकी सदभावनासे होता है। इसके बिना उसका वह स्थल प्राणातिव्रत निर्दोष नहीं रह सकता है ।।२५९॥ ___इस प्रकार अतिचार सहित प्रथम अणुव्रतका विवेचन करके अब द्वितीय अणुव्रतके स्वरूप को दिखलाते हैं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रावकप्रज्ञप्तिः थूलमुसावायस्स उ विरई दुच्चं ' स पंचहा होइ । कन्ना-गो-भुआलियनासहरणकूडसक्खिज्जे || २६०॥ स्थूलमृषावादस्य तु विरतिद्वितीयमणुव्रतमिति गम्यते । मृषावादो हि द्विविधः स्थूलः सूक्ष्मश्च । तत्र परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवः स्थूलो विपरीतस्त्वितरः । न च तेनेहाधिकारः, श्रावकधर्माधिकारत्वात्स्थूलस्यैव प्रक्रान्तत्वात् । तथा चाह - स पञ्चहा भवति स स्थूलो मृषावादः पञ्चप्रकारो भवति - कन्या- गो-भूम्यनृत-न्यासहरण- कूटसाक्षित्वानि । अनृतशब्दः " पदत्रये प्रत्येकमभिसंबध्यते । तद्यथा - कन्यानृतमित्यादि । तत्र कन्याविषयमनृतं कन्यानृतम्अन्य कामे भिन्नकन्यकां वक्ति विपर्ययो वा । एवं गवानृतम् - अल्पक्षीरामेव बहुक्षीरां वक्त विपर्ययो वा । एवं भूम्यनृतम् - परसत्कामेवात्मसत्कां वक्ति, व्यवहारे वा नियुक्तोSनाभवद्व्यवहारेणैव कस्यचिद्रागाद्यभिभूतो वक्ति अस्येयमाभवतीति । न्यस्यते निक्षिप्यत इति न्यासो रूपकाद्यर्पणम्, तस्यापहरणं न्यासापहारः । अदत्तादानरूपत्वादस्य कथं मृषावादत्वमिति ? उच्यते - अपलपतो मृषावाद इति । कूटसाक्षिकं उत्कोचमत्सराद्यभिभूतः प्रमाणीकृतः " सन् कूटं वक्तीति ॥ २६० ॥ [ २६० स्थूल मृषावाद (असत्यं भाषण ) की विरतिका नाम द्वितीय अणुव्रत है, जिसे सत्याणुव्रत कहा जाता है ! यह मृषावाद पाँच प्रकारका है— कन्याअलीक, गवालीक, भूमिअलीक, न्यासहरण और कूटसाक्ष्य | विवेचन - स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे अमत्यभाषण दो प्रकारका है। दूषित मनोवृत्तिसे वस्तुविषयक जो असत्यभाषण किया जाता है यह स्थूल मृषावाद कहलाता है। उदाहरणार्थ जो वस्तु अपने पास नहीं है व जिसे दिया नहीं जा सकता है उसके विषय में यह कहना कि 'मैं उसे कल दूंगा।' इसी प्रकार आवश्यकता पडनेपर किसीके पाससे रुपया-पैसा या अन्य कोई वस्तु लेना और वापस करते समय 'मैंने उसे लिया ही नहीं है, तुम झूठ बोलते हो' इत्यादि कहकर उसका अपलाप करना, इत्यादि सब उस स्थूल मृषावादके अन्तर्गत है । संक्षेप में उसे पांच रूप में व्यक्त किया गया है - (१) कन्याअलीक – कन्या के विषय बोलना । जैसे—किसी एक कन्याको दिखलाकर विवाहादिके समय वही कन्या बतलाकर दूसरीको उपस्थित करना । (२) गवालीक - कम दूध देनेवाली गायको अधिक दूध देनेवाली या अधिक दूध देनेवालीको कम दूध देनेवाली बतलाकर व्यवहार करना । (३) भूमिविषयक अलोक-जो भूमि अपनी नहीं है उसे अपनी बतलाकर और जो अपनी है उसे दूसरेकी बतलाकर बेचने व लेने आदिका व्यवहार करना । इसी प्रकार जो भूमिविषयक व्यवहार अपने सामने नहीं हुआ है उसे अपने सामने हुआ बतलाना । ( ४ ) न्यासहरण - आवश्यकतानुसार दूसरे द्वारा सुरक्षा आदि उद्देश्यसे रुपये-पैसे या सोना-चांदी रखा जाता है 'उसे मेरे पास नहीं रखा' इत्यादि कहकर उसका अपहरण कर लेना । जब कि इसे अदत्तादान समझकर चोरीमें गर्भित किया जा सकता था, पर चूंकि उसके सम्बन्ध में वैसा भाषण भी किया जाता है तथा बिना दिये ग्रहण भी नहीं किया जाता है, इसीलिए इसे न्यासापहार मृषावाद समझना चाहिए। (५) कूटसाक्ष्य - राग, द्वेष अथवा मत्सरता आदिके वश जो कृत्य अपने सामने नहीं हुआ है उसके विषयमें असत्य साक्षी देना आदि। इस पांच प्रकारके १. अविरतो दोच्चं । २. अ कूटसापेयकानि अनृतः शब्दः । ३. अ कन्याविषयमनृतमेवात्मसत्कां कन्यां नृतं अभिन्नकन्यकामेव । ४. अ माभवत्विति । ५. अ ' प्रमाणीकृतः' इत्येतन्नास्ति । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ -२६२] तृतीयाणुव्रतप्ररूपणा वज्जणमिह पुव्वुत्तं आह कुमाराइगोयरो कह णु । एयग्गहणाउ च्चिय गहिओ नणु सो वि दिट्ठव्वो ॥२६१॥ वर्जनमिह मृषावादे । पूर्वोक्तं "उवउत्तो गुरुमूले" इत्यादिना ग्रन्थेन । आह परःकुमारादिगोचरः कथं नु ? अकुमारं कुमारं अवतः, आदिशब्दादविधवाद्यनृतपरिग्रहः । अतिवृष्टविवक्षासमुद्भवोऽप्येष भवति, न तु सूत्रे उपात्तः। तदेतत्कथम् ? आचार्य आह-एतद्ग्रहणादेव च कन्यानृतादिग्रहणादेव च । ननु गृहीतोऽसावपि कुमारादिगोचरो मृषावादो द्रष्टव्यः, उपलक्षणत्वादिति ॥२६१॥ पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं । संपुन्नपालणट्ठा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२६२॥ असत्य भाषणका परित्याग करना, इसे सत्याणुव्रत कहा जाता है। यद्यपि कन्याके समान कुमार और गायके समान भैंस आदिके विषयमें भी असत्य सम्भाषण सम्भव है, फिर भी उन्हें यथासम्भव इन पांचके ही अन्तर्गत समझना चाहिए ॥२६०॥ आगे इस द्वितीय अणुव्रतके पालन करने की विधिका संकेत करते हुए कन्यालीक आदिके साथ कुमारादिविषयक अलीकको भी क्यों नहीं ग्रहण किया, इसे स्पष्ट किया जाता है पूर्वमें अहिंसाणुव्रतके परिपालनको जो विधि निर्दिष्ट को गयो है (१०८) तदनुसार हो इस द्वितीय सत्याणुव्रतमें भी असत्यभाषणका परित्याग करते उसका पालन करना चाहिए। यहां शंकाकार कहता है कि उपर्युक्त कन्यालीक आदिके साथ कुमारादिविषयक अलीकको भी क्यों नही ग्रहण किया गया ? इसके इत्तरम यहाँ कहा गया है कि उक्त कन्यालीक आदिके ग्रहणसे ही कूमारादिविषयक अलोकको भी ग्रहण किया गया समझ लेना चाहिए। विवेचन-जैसा कि पूर्वमें ( १०८) स्थूलप्राणातिपात अणुव्रतके प्रसंगमें कहा गया है तदनुसार इस द्वितीय अणुव्रतमे भो आचायके समक्ष प्रमादको छोड़कर मोक्षकी अभिलाषासे चातुर्मासादिरूप कुछ नियत काल के लिए अथवा जावनपर्यन्तके लिए असत्यभाषणका परित्याग करना चाहिए और उसका स्मरण रखते हुए विशुद्ध पारणामोंक साथ पालन भी करना चाहिए। यहां शंका उपस्थित होती है कि जिस प्रकार असत्य वचनक अन्तर्गत कन्यालीकको ग्रहण किया गया है उसी प्रकार कुमारादि विषयकअलाकको ग्रहण करना चाहिए था, क्योकि ला में दुष्ट बुद्धिसे कुमार और विधवा आदिके विषयमें असत्य भाषण करते हुए देखा जाता है। किन्तु उसको जो यहां ग्रहण नहीं किया गया है उसका क्या कारण है ? इसक उत्तरमें यहां कहा गया है कि कन्या व गोपद आदि यहाँ उपलक्षण हैं। उनस कुमार आदि द्विपदोंको व भैंस आदि चतुष्पदोंको भो ग्रहण कर लिया गया समझ लेना चाहिए। जिस प्रकार लोकव्यवहारमें 'बिल्लासे दूधको बचाना' ऐसा कहनेपर दूधके भक्षक सभा प्राणियासे उसके संरक्षणका अभिप्राय रहता है उसो प्रकार प्रकृतमें भी कन्यालोक व गवालोक आदि पदोंका भी अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। यहा कारण है जो कुमार व विधवा आदि द्विपदोंको तथा भैंस आदि चतुष्पदोंको पृथक्से नहो ग्रहण किया गया। अतएव तद्विषयक असत्यभाषणके परित्यागको भी इस द्वितीय अणुव्रतके अन्तर्गत समझ लेना चाहिए ।।।।२६१॥ ____ आगे प्रकृत व्रतको स्वीकार कर व उसका निर्दोष परिपालन करनेके लिए उसके अतिचारोंको जानकर उनके परित्यागके लिए प्रेरणा की जाती है Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२६३ - पूर्ववत् ॥२६२॥ सहसा अब्भक्खाणं रहसा य सदारमंतभेयं च । मोसोवएसयं कूडलेहकरणं च वज्जिज्जा ॥२६३॥ सहसानालोच्याभ्याख्यानं सहसाभ्याख्यानम् । अभ्याख्यानमभिशपनमसदध्यारोपणम् । तद्यथा-चौरः त्वं पारदारिको वा-इत्यादि । १ । रहः एकान्तस्तत्र भवं रहस्यं तेन तस्मिन् वाभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्यानम् । एतदुक्तं भवति-एकान्ते मन्त्रयमाणान् वक्त्येते हीदं चेदं च राजापकारित्वादि मन्त्रयन्ते इति । २। स्वदारमन्त्रभेदं च स्वकलत्रविश्रब्धभाषितान्यकथनं चेत्यर्थः । ३ । मृषोपदेशमसदुपदेशमिदमेवं चैवं च कुवित्यादिलक्षणम् । ४ । कूटलेखकरणमन्यमुद्राक्षरविम्वसरूपलेखकरणं च वजयेत् ।। यत एतानि समाचरन्नतिचरति द्वितीयमणुव्रतमिति ॥२६३॥ बुद्धोइ निएऊणं भासिज्जा उभयलोगयरिसुद्धं । स-परोभयाण जं खलु न सव्वहा पोडजणगं तु ॥२६४॥ बुद्धथा निरीक्ष्य, सम्यगालोच्येति भावः। भाषेत ब्रूयात् । उभयलोकपरिशुद्धं इहलोक व्रतको स्वीकार करके व आगमोक्त विधिके अनुसार उसके अतिचारोंको जानकर उसके सम्पूर्ण परिपालनके लिए उन्हें प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिए ।।२६२।।। अब इस सत्याणवतके उन अतिचारोंका निर्देश किया जाता है सहसा अभ्यख्यान, रहस्याभ्याख्यान, स्वदारमन्त्रभेद, मृषोपदेश और कूटलेखकरण ये उस स्थूल मृषावाद अणुव्रतके पाँच अतिचार हैं । उनका परित्याग करना चाहिए। विवेचन-(१) सहसा अभ्यख्यान-किसी प्रकारका विचार न करके 'तू चोर है, परदारगामी है' इत्यादि प्रकारसे वचन बोलकर दोषारोपण करना। यह उसका प्रथम अतिचार है। (२) रहस्याभ्याख्यान-रहस् नाम एकान्त है, उसमें किये आचरणको रहस्य कहा जाता है। दुसरेके द्वारा एकान्तमें किये गये व्यवहारको अन्य जनोंसे कहना, यह रहस्याभ्याख्यान नामका उसका दूसरा अतिचार है। जैसे-यदि कुछ व्यक्ति एकान्तमें कुछ विचार-विमर्श कर रहे हों तो उनके विषयमें कहना कि ये राजाके विरुद्ध गुप्त विचार कर रहे हैं इत्यादि । (३) स्वदारमन्त्रभेदअपनी पत्नीके द्वारा विश्वस्तरूपमें कहे गये वचनोंको दूसरोंसे कहना, स्वदारमन्त्रभेद नामका प्रकृत व्रतका तीसरा अतिचार है। (४) मृषोपदेश-अप्रशस्त उपदेशका नाम मृषोपदेश है। अभिप्राय यह है कि जो वस्तुस्वरूप जिस प्रकारका नहीं है उसे उस प्रकारका बतलाकर प्राणियोंको अहितकर कार्यों में प्रवृत्त करना तथा प्रमादके वश ऐसा वचन बोलना कि जिससे दूसरोंको कष्ट हो-जैसे गधे व ऊंटपर अधिक बोझा लादना चाहिए, इत्यादि प्रकारके वचनको मृषोपदेशके अन्तर्गत समझना चाहिए। (५) कूटलेखकरण-दूसरेकी मुहर या हस्ताक्षर बनाकर असमीन प्रवृत्ति करना, इत्यादिका नाम कूटलखकरण है। इन अतिचारोंके द्वारा प्रकृत व्रत मलिन होता है, अतः स्थूलमृषावाद अणुव्रतके धारक श्रावकको इन अतिचारोंका तथा इनके जैसे अन्य दोषोंका भी परित्याग अवश्य करना चाहिए ।।२६३।। ___ आगे सत्याणुव्रती श्रावकको किस प्रकारका वचन बोलना चाहिए, इसे स्पष्ट किया जाता है सत्याणुव्रतीको बुद्धिसे सोच-विचार करके ऐसा भाषण करना चाहिए जो उभय लोकोंमें Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --२६६] तृतीयाणुव्रतप्ररूपणा १५७ परलोकाविरुद्धम् । स्व-परोभयानां यत् खलु न सर्वथा पीडाजनकम्-तत्र स्वपीडाजनकं पिङ्गलस्थ. पतिवचनवत्, परपीडाजनक चौरस्त्वमित्यादि, एवमुभयपीडाजनकमपि द्रष्टव्यमिति ॥२६४॥ उक्तं द्वितीयाणुव्रतम्, सांप्रतं तृतीयमाह थूलमदत्तादाणे विरई तच्चं दुहा य तं भणियं । सचित्ताचित्तगयं समासओ वीयरागेहिं ॥२६॥ इहादत्तादानं द्विधा स्थूलं सूक्ष्मं च । तत्र परिस्थूलविषयं चौर्यारोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमतिदुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूलम् । विपरीतमितरत् । तत्र स्थूलादत्तादानविषया विरतिनिवृत्तिस्तृतीयमणुव्रतमिति गम्यते । द्विघा च तददत्तादानं भणितम, समासतः संक्षेपेण । वीतरागैरहदभिरिति योगः। सचित्ताचित्तगतमिति सचित्तादत्तादानम् अचित्तादत्तावानं च । तत्र द्विपदादेर्वस्तुनः क्षेत्रादौ सुन्यस्त-दुर्व्यस्त-विस्मृतस्य स्वामिना अवत्तस्य चौर्यबुद्धचा ग्रहणं सचितावत्तादानं, तथा वस्त्रकनकादेरचित्तादत्तादानमिति ॥२६५॥ भेएण लवण-घोडग-सुवन्न-रुप्पाइयं अणेगविहं । बज्जणमिमस्स सम्म पुवुत्तेणेव विहिणा उ ॥२६६॥ भेदेन विशेषेणादत्तादानं लवण-घोटक-रूप्य-सुवर्णाद्यनेकविधमनेकप्रकारम् । लवण-घोटक. ग्रहणात्सचित्तपरिग्रहः, रूप्य-सुवर्णग्रहणादचित्तपरिग्रह इति वर्जनमस्यादत्तावानस्य। सम्यक पूर्वोक्तेन विधिना उपयुक्तो गुरुभूले इत्यादिनेति ॥२६६॥ परिशुद्ध हो-इस लोक व परलोकमें हितकर हो, तथा जो पिंगल बढ़ईके समान स्वको, परको और उभयको सर्वथा पोड़ाका कारण न हो ॥२६४॥ अब क्रमप्राप्त तीसरे अणुव्रतका निर्देश किया जाता है बिना दी हुई स्थूल वस्तुके ग्रहणविषयक विरतिका नाम तीसरा अणुव्रत है, जिसे अचौर्याणुव्रत कहा जाता है। सचित्त और अचित्त वस्तुसे सम्बद्ध होने के कारण वह वीतराग जिनके द्वारा दो प्रकारका कहा गया है। विवेचन-स्वामोके द्वारा नहीं दी गयी वस्तुके ग्रहणका नाम अदत्तादान है। वह स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें जिस स्थूल वस्तुके ग्रहणपर चोरोका आरोप सम्भव है उसे दूषित चित्तवृत्तिसे ग्रहण करना, इसे स्थूल अदत्तादान कहा जाता है। इसके विवरोत जिस जल और मिट्टी आदिके ग्रहण करनेपर चोर नहीं समझा जाता है उसका नाम सूक्ष्म अदत्तादान है। यह सूक्ष्म अदत्तादान स्थूल अदत्तादान व्रतीके लिए अपरिहार्य है। उक्त अदत्तादान सचित्त और अचित्त वस्तुके सम्बन्धसे भी दो प्रकारका है। किसो विशिष्ट क्षेत्र आदिमें जिस किसी भी प्रकारसे रखे गये दासी-दास एवं हाथी व घोड़े आदि किन्हीं द्विपद प्राणियोंका स्वामीकी आज्ञाके बिना चोरीके विचारसे ग्रहण करना, यह चित्तादान कहलाता है। वस्त्र, सोना एवं चांदी आदि अचित्त वस्तुओंको चोरीके अभिप्रायसे ग्रहण करना, इसे अचित्तादान कहा जाता है ।।२६५॥ आगे प्रकृत स्थूल अदत्तादानका उदाहरणपूर्वक कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है विशेष रूपसे वह अदत्तादान नमक, घोड़ा, सुवर्ण व चाँदी आदि रूपसे अनेक प्रकारका है। इसका परित्याग पूर्वोक्त (१०८) विधिके अनुसार ही समीचोन रूपसे करना चाहिए। उक्त १. इहलोकपरिशुद्धाविरुद्ध । २. अ दुहा ए यं भणियं । ३. अ सुन्यस्तविस्मृतस्य । ४. अ सुवन्नरूपागं । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२६७ - पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं । संपुन्नपालणहा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२६७।। पूर्ववत् ॥२६७॥ अतिचारानाह वज्जिज्जा तेनाहडतक्करजोगं विरुद्धरज्जं च । कूडतुल-कूडमाणं तप्पडिरूवं च ववहारं ॥२६८॥ वर्जयेत् स्तेनाहृतं स्तेनाश्चौरास्तैराहतमानीतं किंचित्कुंकुमादि देशान्तरात् तत्समर्थमिति लोभान्न गृहोरात् ।१॥ तथा तस्करप्रयोगं तस्कराश्चौरास्तेषां प्रयोगो हरणक्रियायां प्रेरणमभ्यनुज्ञा हरत यूमिति तस्करप्रयोगः। एनं च वर्जयेत् । २। विरुद्धराज्यमिति च सूचनाद्विरुद्धराज्यातिक्रम च वर्जयेत्-विरुद्धनृपयो राज्यं विरुद्धराज्यम्, तत्रातिक्रमो न हि ताभ्यां तत्र तदागमनमनुज्ञातमिति । ३। तथा कूटतुला-कूटमाने तुला प्रतोता, मानं कुडवादि, कूटत्वं न्यूनाधिकत्वम्-न्यूनया वस्तुओंमें नमक और घोड़ा आदि सचित्त वस्तुओंके उपलक्षण हैं तथा सुवर्ण व चांदो आदि अचित्त वस्तुओंके उपलक्षण हैं। इन सबके ग्रहणका परित्याग पूर्वोक्त विधिके अनुसार गुरुके पादमूलमें करना चाहिए, यह प्रकृत गाथाका अभिप्राय है ।।२६६।। अब उसके अतिचारोंका निर्देश करते हुए उनके परित्यागके लिए प्रेरणा की जाती है प्रकृत व्रतको स्वीकार करके और आगमोक्त विधिके अनुसार उसके अतिचारोंको जानकर उसका पूर्णतया परिपालन करने के लिए उन अतिवारोंका प्रयत्नपूर्वक परित्याग करना चाहिए ॥२६७॥ आगे उन अतिचारोंका नामनिर्देश किया जाता है स्तेनाहृत, तस्करप्रयोग, विरुद्ध राज्य, कूटतुला-कूटमान और तत्प्रतिरूप व्यवहार, ये उसके पांच अतिचार हैं, जिनका अचौर्याणुवतीको परित्याग करना चाहिए। विवेचन-इन अतिचारोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-(१) स्तेनाहृत-स्तेनका अर्थ चोर होता है । चोरों द्वारा अन्य देशसे चोरीचोरी लायी गयी केसर व कस्तूरी आदि मूल्यवान् वस्तुओंको लोभके वश ग्रहण करना। यह उसका प्रथम अतिचार है। (२) तस्करप्रयोग-तस्करका अर्थ भी चार होता है। चोरोंको चोरीके कार्यमें प्रेरित करते हुए 'तुम इस-इस प्रकारसे चोरी करो' इत्यादि रूपसे अनुज्ञा करना, इसे तस्करप्रयोग कहा जाता है । यह उसका दूसरा अतिचार है। (३) विरुद्ध राज्य–विरुद्ध राज्य शब्दसे यहां विरुद्धराज्यातिक्रमका अभिप्राय रहा है। राजाओंके राज्यको विरुद्ध राज्य कहा जाता है। प्रत्येक राज्य से दूसरे राज्यमें वस्तुओंके आनेजानेके लिए कुछ नियम निर्धारित रहते हैं। उनका उल्लंघन करके चोरोसे कर (टैक्स) आदिको बचाकर एक राज्यसे दूसरे राज्यमें वस्तुका ले जाना व वहाँसे अपने यहां ले आना, यह विरुद्ध राज्यातिक्रम नामका उसका तीसरा अतिचार है । (४) कूटतुला-कूटमान-तुलाका अर्थ तराजू या कोटा तथा मानका अर्थ मापने-तौलनेके प्रस्थ, आढक एवं बांट (सेर व किलोमीटर आदि ) होता है। इनको देनेके लिए और लेनेके लिए अधिक प्रमाणमें रखना, इसे कूटतुला-कूटमान कहते हैं । यह उस व्रतका चोथा अतिचार है। (५) प्रतिरूपक-व्यवहार-प्रतिरूपका अर्थ १. भ ववहरणं । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२७०] चतुर्थाणुव्रतप्ररूपणा १५९ ददाति, अधिकया' गृह्णाति । ४ । तथा तत्पतिरूपव्यवहरणं तेनाधिकृतेन प्रतिरूपं सदृशं तत्प्रतिरूपम्, तेन व्यवहरणम् -यद्यत्र घटते व्रोह्यादि घृतादिषु पली-वसादि तस्य तत्र प्रक्षेपण विक्रयस्तं च वर्जयेत् ।। यत एतानि समाचरन्नतिचरति ततीयाणवतमिति ॥२६८॥ उचियं मुत्तूण कलं दव्वाइकमागयं च उक्करिसं । निवडियमवि जाणंतो परस्स संतं न गिन्हिज्जा ।।२६९।। उचितां मुक्त्वा कलां पञ्चकशतवृद्धयादिलक्षणाम् । द्रव्यादिक्रमायातं चोत्कर्षम् यदि कथंचित्पूगफलादेः क्रय संवृत्त इत्यष्टगुणो लाभकः, अक्रूराभिसंधिना ग्राह्य एवेत्यर्थः । आदिशब्दः स्वभेदप्रख्यापकः। तथा निपतितमपि जानानः परस्य सत्कं न गृह्णीयात्, प्रयोजनान्तरं चोद्दिश्य समर्पिते प्रतिबुध्यतीत्यादि गृहीत्वा प्रत्यर्पयेदपोति ॥२६९॥ उक्तं तृतीयाणुव्रतम्, सांप्रतं चतुर्थमाहे परदारपरिच्चाओ सदारसंतोस मो वि य चउत्थं । दुविहं परदारं खलु उराल-वेउविभेएणं ॥२७॥ सदृश होता है । अधिक मूल्यवाली विक्रेय वस्तुमें उसीकी जैसो अल्प मूल्यवालो वस्तुको मिलाकर बेचना, इसे प्रतिरूपक व्यवहार कहा जाता है। जैसे धानमें पलं जी आदिको मिलाकर और घोमें चर्बी आदिको बेचना। यह प्रकृत अचौर्याणुव्रतका पांचवां अतिचार है। अचौर्याणुव्रतीको इन पांचों अतिचारका परित्याग करना चाहिए, अन्यथा व्रत मलिन होनेवाला है ॥२६८॥ अचौर्याणुव्रतीको और कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसे भी आगे स्पष्ट किया जाता है उसे उचित कलाको-पांच प्रतिशत आदि व्याजको-छोड़कर दूसरेके द्रव्यको नहीं लेना चाहिए, द्रव्यादिके क्रमसे आगत लाभको भी उत्कृष्ट नहीं ग्रहण करना चाहिए, तथा दूसरेकी गिरी हुई वस्तुको जानकर नहीं ग्रहण करना चाहिए। विवेचन-अभिप्राय यह है कि यदि कभी किसीको प्रयोजनवश किसीसे रुपया-पैसा लेना पड़े तो उसे उचित ब्याजके साथ ही लेना चाहिए। यदि कभी सुपारी आदि क्रय-विक्रयमें विशेष लाभ हुआ तो उसे अभिमानके साथ ग्रहण नहीं करना चाहिए। अथवा कभी प्राकृतिक उपद्रवके कारण उक्त सुपारी आदि किन्हीं द्रव्योंके विनष्ट हो जानेपर आगे इसका संचय करनेसे अठगुणा लाभ हो सकता है, इस प्रकारके दृष्ट अभिप्रायसे उनका संचय करना व्रतको दुषित करनेवाला है। इसो प्रकार यदि कभी किसी व्यक्तिको कोई वस्तु गिर गयी हो तो उसे जानकर ग्रहण न करना चाहिए। हां, इस प्रयोजनसे कि जिसकी वह वस्तु है उसे खोजकर दे दूंगा, उसके ग्रहण करनेपर भी व्रत दूषित नहीं होता। पर उसे निश्चित ही उसके स्वामीको समर्पित कर देना चाहिए ॥२६९॥ अब क्रमप्राप्त चतुर्थ अणुव्रतके स्वरूपका निर्देश किया जाता है परस्त्रीका परित्याग और स्वस्त्रीसन्तोष, इसका चतुर्थ अणुव्रत ( ब्रह्मचर्याणुव्रत) है। इनमें परस्त्री औदारिक और वैकियिकके भेदसे दो प्रकारको है। १. अ कुडवादित्कुत्रापि क्रमो न हि ताभ्यां तत्र तदागमन अधिकतया । २. भ तत्प्रतिरूपं च व्यवहरणं । ३. अ सदृशं तेन व्यवहरणं । ४. अ वेउवभेदेण । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रावकप्रज्ञप्तिः ॥ २७१ - परदारपरित्यागः परकलत्रपरिहारः, न वेश्यापरित्यागः । स्वदारसंतोषश्च स्वकलत्रसेवनमेव, न वेश्यागमनमपि चतुर्थमित्येतच्चतुर्थमणुव्रतं । परदारमपि द्विविधमौदारिक-वैक्रियभेदेन । औवारिकं स्यादिषु वैक्रिय विद्याधर्यादिष्विति ॥२७॥ · वज्जणमिह' पुव्वुत्तं पावमिणं जिणवरेहिं पन्नत्तं । रागाईण नियाणं भवपायवबीयभूयाणं ॥२७१॥ वर्जनमिह पूर्वोक्तं उपयुक्त इत्यादिना ग्रन्थेन । किमेतद्वय॑ते इत्याशङ्कयाह-पापमिदं परदारासेवनं जिनवरैःप्रज्ञप्तं तीर्थकरगणधरैः प्ररूपितमिति । किविशिष्टं रागादीनां निदानं कारणम् । किविशिष्टानां भव-पादपबीजभूतानां रागादीनामिति ॥२७१॥ पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउ। संपुनपालणट्ठा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२७२।। पूर्ववत् ॥२७२॥ अतीचारानाह...इत्तरियपरिग्गहियापरिगहियागमणणंगकीडं च । परविवाहक्करणं कामे तिब्वाभिलासं च ॥२७३॥ विवेचन-परस्त्रीके परित्यागसे यहां अन्यकी स्त्रीके परित्यागका अभिप्राय रहा है, वेश्याके परित्यागका अभिप्राय नहीं रहा। पर स्वस्त्रीसन्तोषसे यहां वेश्याके परित्यागका अभिप्राय तो रहा ही है, साथ ही अपनी पत्नीसे भिन्न अन्य सभी स्त्रियोंके परित्यागका रहा है। इसमें जो कुछ विशेषता है उसका स्पष्टीकरण अतिचारोंके प्रसंगमें किया जायेगा। औदारिक और वैक्रियिकके भेदसे परस्त्रीके यहां दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। जो परस्त्रियां औदारिक शरीरकी धारक होती हैं वे औदारिक परस्त्री मानी गयी हैं। तथा जो विद्याधरी आदि विक्रियानिर्मित शरीरको धारण करनेमें समर्थ होती हैं उन्हें वैक्रियिक परस्त्री कहा जाता है। परस्त्रीका परित्याग करनेवाला ब्रह्मचर्याणुव्रती इन दोनों प्रकारको परस्त्रियोंका त्यागी होता है ।।२७०।। ___ आगे इस परस्त्रीसमागमको पाप समझकर छोड़ देनेकी प्रेरणा की जाती है जो रागादिक संसाररूप वृक्षके बीजभूत हैं-उसकी परम्पराको वृद्धिंगत करनेवाले हैंउनके कारणस्वरूप परस्त्रीसमागमको जिनेन्द्र देवने पाप कहा है। अतः आत्महितैषी ब्रह्मचर्याणुव्रतीको इसका पूर्व गा.१०८ में निर्दिष्ट की गयी विधिके अनुसार परित्याग करना चाहिए ॥२७१।। अब उसके अतिचारोंके छोड़ देनेको प्रेरणा करते हुए उसके पांच अतिचारोंका निर्देश किया जाता है. व्रतको स्वीकार करके व उसके अतिचारोंको जानकर आगमोक्त विधिके अनुसार उसका पूर्णतया परिपालन करने के लिए प्रयत्नपूर्वक उनका परित्याग करना चाहिए ॥२७२॥ वे अतिचार ये हैं इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीड़ा, परविवाहकर और कामविषयक तीव्र अभिलाषा। १.म वज्जणविह (अ अतोऽग्रे टीकागत 'वर्जनमिह' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. अ भवपादपदपबीजभूतानामिति ।।.अ इत्तरपरिग्रहियाअपरिग्रहिया थणंगकाडा य। ४. अ परवीवाहयकरणं । ५. अलासो या। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७४ ] चतुर्थाणुव्रतप्ररूपणा इत्वरपरिगृहीतागमनं स्तोककालपरिगृहीतागमनम् , भाटीप्रदानेन कियन्तमपि कालं स्ववशीकृतवेश्यामैथुनासेवनमित्यर्थः ।१। अपरिगृहोतागमनं अपरिगृहीता नाम वेश्या अन्यसत्तागृहीतभाटी कुलाङ्गना वा अनाथेति, तद्गमनं यथाक्रमं स्वदारसंतोषवत्-परदारवजिनोरती चारः।। अनङ्गक्रीडा नाम कुच कक्षोरु-वदनान्तरक्रोडा, तीवकामाभिलाषेण वा परिसमाप्तसुरतस्याप्याहार्यैः स्थूलकादिभिर्योषिदवाच्यप्रदेशासेवनमिति । ३ । परविवाहकरणमन्यापत्यस्य कन्यफिललिप्सया स्नेहसंबन्धेन वा विवाहकरणम् । स्वापत्येष्वपि सङ्घयाभिग्रहो न्याय्य इति ।४। कामे तीव्राभिलाषश्चेति सूचनात्काम-भोगतीवाभिलाष:-कामा शब्दादयः, भोगा रसादयः, एतेषु तीव्राभिलाषः अत्यन्ततदध्यवसायित्वम् ।५। एतानि समाचरन्नतिचरति चतुर्थमणुव्रतमिति ॥२७३॥ वज्जिज्जा मोहकरं परजुवइदंसणाइ सवियारं । एए खु मयणबाणा चरित्तपाणे विणासंति ॥२७४॥ विवेचन-इन अतिचारोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-(१) इत्वरपरिगृहीतागमनइत्वरका अर्थ अल्पकाल होता है, भाड़ा देकर कुछ कालके लिए ग्रहण की गयी वेश्याको अपने अधीन करके उसके साथ मैथुन सेवन करना, यह ब्रह्मचर्याणुव्रतका इत्वर परिगृहोतागमन नामका प्रथम अतिचार है । यद्यपि वेश्या परस्त्री हो है, पर उसे भाड़ा देकर कुछ कालके लिए ग्रहण कर लिया गया है, इसलिए उसके साथ विषय-सेवन करनेसे चूंकि कथंचित् स्वस्त्रीको कल्पना की गयी है, पर वस्तुतः वह परस्त्री ही है, अतएव गृहीत व्रतके कथंचित् भंग और कथंचित् अभंग रहने के कारण इसे स्वदारसन्तोषव्रतोके लिए अतिचार समझना चाहिए। (२) अपरिगृहोता. गमन-अपरिगृहीता नाम वेश्याका है, क्योंकि वह दूसरेके द्वारा यथाविधि ग्रहण नहीं की गयी है। उसने किसी अन्यमें आसक्त होकर यदि उसमे भाडा ग्रहण नहीं किया है तो उसके साथ अथवा किसी अनाथ कुलांगनाके साथ विषय-सेवन करनेपर यह परदार परित्यागी अणुव्रतीके लिए अतिचार होता है, क्योंकि वह दसरेके द्वारा ग्रहण नहीं की गयी है, इसलिए भले ही उसे परस्त्री न समझा जाये, पर वस्तुतः वह परस्त्री हो है, अतः इसे व्रतके कथंचित् भंग व अभंगको अपेक्षा अतिचार समझना चाहिए । ( ३ ) अनंग-क्रीड़ा-कामसेवनके अंगोंसे भिन्न, स्तन, कांख, ऊरु और मुखके भीतर क्रीडा करना अथवा तीव्र कामविषयक अभिलाषासे सम्भोग-क्रियाके समाप्त हो जानेपर भी स्थूलकादिके द्वारा-लकड़ी, वस्त्र व फल आदिके द्वारा निर्मित जननेन्द्रियसेस्त्रीके अवाच्य प्रदेशका सेवन करना; इत्यादिको ब्रह्मचर्याणुव्रतका अनंगकोड़ा नामका तीसरा अतिचार जानना चाहिए। (४) परविवाहकरण-अपनी सन्तानको छोड़कर कन्याविषयक फलकी इच्छासे अथवा स्नेहके वश अन्यको सन्तानके विवाह करनेका नाम परविवाहकरण है। यह ब्रह्मचर्याणुव्रतका चौथा अतिचार है । ब्रह्मचर्याणुव्रतीको अपनो सन्तानके विषय में भी संख्याका नियम करना चाहिए। ( ५ ) कामतीव्राभिनिवेश-कामविषयक तीव्र अभिलाषाकी जो सूचना की गयी है उसमें कामसे शब्द आदिको और भोगसे रस आदि विषयोंको ग्रहण करना चाहिए। इन सबके विषयमें आसक्तिपूर्ण अतिशय प्रवृत्त रहना, यह उस ब्रह्मचर्याणुव्रतका पांचवां अतिचार है । इन अतिचारोंसे स्वीकृत व्रत मलिन होता है। विशेषके लिए देखिए तत्त्वार्थाधिगमकी टीका ७-२३, योगशास्त्रका स्वोपज्ञ विवरण ३-९४ और सागारधर्मामृतको स्वो. टीका ४-५८ आदि ।।२७३॥ १. भ 'स्तोककालपरिगहोतागमन' नास्ति । २१ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ . श्रावकप्रज्ञप्तिः [ २७५ - वर्जयेन्मोहकरं परयुवतिदर्शनम्, आदिशब्दात्संभाषणादिपरिग्रहः। किंभूतम् ? सविकारं सविभ्रमम् । एते दर्शनादयो यस्मान्मदनबाणाश्चारित्रप्राणान् विनाशयन्तीति । उक्तं च अनिशमशुभसंज्ञाभावनासन्निहत्या कुरुत कुशलपक्षप्राणरक्षां नयज्ञाः। हृदयमितरथा हि स्त्रीविलासाभिधाना मदन-शबरबाणश्रेणयः काणयन्ति । इति ॥२७४|| उक्तं चतुर्थमणुव्रतमधुना पञ्चममाह सचित्ताचित्तेसुं इच्छापरिमाणमो य पंचमयं । भणियं अणुव्वयं खलु समासओ शंतनाणीहिं ॥२७॥ सचित्ताचित्तेषु द्विपदादि-हिरण्यादिषु। इच्छायाः परिमाणमिच्छापरिमाणं, एतावतामूर्ध्वमग्रहणमित्यर्थः। एतत्पञ्चममुपन्यासक्रमप्रामाण्याद्भणितमणुवतं खलु समासतः सामान्येनानन्तज्ञानिभिस्तीर्थकरैरिति ॥२७५॥ भेएण खित्तवत्थूहिरण्णमाईसु होइ नायव्वं । दुपयाईसु य सम्मं वज्जणमेयस्स पुव्वुत्तं ॥२७६॥ आगे प्रकृत अणुव्रतको सुरक्षाको दृष्टि से रागपूर्ण दृष्टिसे परयुवतीके देखनेका भी निषेध किया जाता है रागादिरूप विकारके साथ परयुवतीका देखना और उसके साथ सम्भाषण करना आदि मोहको उत्पन्न करनेवाला है, अतः उसका परित्याग करना चाहिए, क्योंकि ये ऐसे काम-बाण हैं जो संयमीके चारित्ररूप प्राणोंको नष्ट कर दिया करते हैं। कहा भी है-आहार व मैथुन आदि अशुभ संज्ञाओंको भावनाको छोड़कर नीतिमान् पुरुषोंको अपने संयमरूप प्राणोंका संरक्षण करना चाहिए। अन्यथा, कामरूप भोलके बाणोंकी पंक्तियां, जिन्हें स्त्रीविलास कहा जाता है, हृदयको व्यथित कर देनेवाली हैं ।।२७४॥ आगे क्रमप्राप्त पांचवें अणुव्रत ( इच्छापरिमाणवत ) का स्वरूप दिखलाया जाता है मनुष्य, स्त्री, पुत्र व दासी-दास आदि द्विपद और हाथी-घोड़ा आदि चतुष्पद इन सचित्त वस्तुओंके विषयमें तथा सुवर्ण व चांदी आदि अचित्त वस्तुओंको विषयमें जो इच्छाका प्रमाण किया जाता है कि मैं उनमें अमुक-अमुक वस्तुको इतने प्रमाणमें ग्रहण करूंगा, इससे अधिकको नहीं ग्रहण करूंगा, इसे संक्षेपमें अनन्तज्ञानियों ( वीतराग सर्वज्ञ ) के द्वारा पांचवां अणुव्रत (परिग्रहपरिमाण ) कहा गया है ।।२७५॥ आगे इसे विशेष रूपसे स्पष्ट किया जाता है विशेष रूपसे क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य आदि अचित्त वस्तुओंके विषयमें तथा स्त्री-पुत्रादि द्विपद सचित्त वस्तुओंके विषयमें पूर्वोक्त (१०८) विधिके अनुसार प्रकृत अणुव्रतके विषयका समीचीनतया परित्याग करना; इसे पांचवां अणुव्रत जानना चाहिए। १. अ 'इति' नास्ति । २. अ समासतो। ३. भ भेदेण खेत्त । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] पञ्चमाणुव्रतप्ररूपणा भेदेन विशेषेण । क्षेत्र- वास्तु - हिरण्यादिषु भवति ज्ञातव्यम् । किम् ? इच्छापरिमाणमिति वर्तते । तत्र क्षेत्रं सेतु केतु च उभयं च । वास्त्वगारं खातमुच्छ्रितं खातोच्छ्रितं च । हिरण्यं रजतमघटितमादिशब्दाद्धन-धान्यादिपरिग्रहः । एतदचित्तविषयम् । द्विपदादिषु चेत्येतत्सचित्तविषयम् - द्विपद-चतुः पदापदादिषु दासी हस्ति वृक्षादिषु सम्यक् प्रवचनोक्तेन विधिना । वर्जनतस्य पञ्चमाणुव्रतविषयस्य पूर्वोक्तम् । “उपयुक्तो गुरुमूले" इत्यादिना ग्रन्थेनेति ॥ २७६ ॥ पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं । संपुन्नपालणट्ठा परिहरियव्वा पयत्तेणं ||२७७|| पूर्ववत् ॥ २७७॥ खित्ताइ - हिरन्नाई - धणाइ - दुपयाइ - कुवियगस्स तहा । सम्मं विसुद्धचित्तो न पमाणाइक्कमं कुज्जा ॥२७८॥ १६३ विवेचन- इनमें क्षेत्र ( खेत ) सेतु, केतु और उभयके भेदसे तीन प्रकारका है। जो खेत अरहट व नहर आदिके द्वारा सिंचित होकर धान्यको उत्पन्न किया करते हैं वे सेतु क्षेत्र कहलाते हैं । जो केवल स्वाभाविक वर्षाके जलसे सिंचित होकर धान्यको उत्पन्न किया करते हैं उन्हें केतु क्षेत्र कहा जाता है तथा जो स्वाभाविक वर्षाके, अरहट व नहर आदिके जलसे सिंचित होकर धान्यको उत्पन्न करते हैं उन्हें उभय (सेतु-केतु ) क्षेत्र कहते हैं । इसी प्रकार खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रितके भेदसे वास्तु भी तीन प्रकारका है। वास्तु नाम गृहका है। इनमें भूमिके भीतर तलघरके रूपमें जो मकान बनाये जाते हैं उन्हें खात वास्तु कहते हैं, जिन भवनोंका निर्माण भूमि के ऊपर कराया जाता है वे उच्छित वास्तु कहलाते हैं । तथा भूमिगत तलघरके ऊपर जो भवन निर्मित होते हैं उनका नाम खातोच्छ्रित वास्तु है । हिरण्य नाम चाँदीका है । वह घटित और अघटितके भेदसे दो प्रकारकी है। इनमे जो आभूषणोंके रूपमें परिणत होती है उसे घटित चांदी कहा जाता है तथा जो अवस्था विशेषसे राहत चांदो सामान्य स्वरूपमें अवस्थित होती है उसे अघटित कहा जाता है । 'हिरण्यादि' म यहां आदि शब्दसे धन-धान्यादिको ग्रहण करना चाहिए। यह सब क्षेत्रादि रूप परिग्रह अचित्तके अन्तर्गत है । गाथोक्त 'द्विपदादि' पदसे अचित्त परिग्रहकी सूचना की गयी है । वह द्विपद, चतुष्पद और अपदके भेदसे तीन प्रकारकी है । दासीदास आदि द्विपद सचित्त परिग्रह हैं। हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस और बकरी आदि चतुष्पद सचित्त परिग्रह हैं । इनके अतिरिक्त पांवोंसे रहित वृक्ष-बेल आदिको अपद सचित्त परिग्रह समझना चाहिए | पांचवें अणुव्रत के धारक श्रावकको उपर्युक्त सभी सचित्त-अचित्त वस्तुओंका परिमाण आगमोक्त (१०८) के अनुसार समीचीनतया करना चाहिए || २७६ ॥ आगे व्रतको स्वीकार कर उसके पूर्ण रूपसे परिपालनके लिए प्रेरणा की जाती है व्रतको स्वीकार करके और उसके अतिचारोंको आगमोक्त विधिके अनुसार जान करके उसके पूर्णतया परिपालन के लिए प्रयत्नपूर्वक उन अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए || २७७|| उक्त क्षेत्र आदिके स्वीकृत प्रमाणका अतिक्रमण करनेपर वे व्रतको मलिन करनेवाले अतिचार होते हैं, इसकी सूचना की जाती है— क्षेत्र आदि, हिरण्य आदि, धन आदि, द्विपद आदि और कुप्य इनके प्रमाणका अतिक्रमण नहीं करना चाहिए | Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२७९ क्षेत्रादेरनन्तरोदितस्य तथा 'हिरण्यादेर्धनादेद्विपदादेः कुप्यस्य तथा आसन-शयनादेरुपस्करस्य । सम्यक् विशुद्धचित्तोऽनिर्मायाऽप्रमत्तः सन् न प्रमाणातिक्रमं कुर्यादिति ॥२७८॥ भाविज्ज य संतोसं गहियमियाणिं अजाणमाणेणं । थोवं पुणो न एवं गिलिस्सामोत्ति [न] चिंतिज्जा ॥२७९॥ भावयेच्च संतोषं किम् ? अनेन वस्तुना। परिगृहीतेन । तथा गृहीतमिदानीमजानानेन स्तोकमिच्छापारमाणमिति । पुन:वमन्यस्मिश्चतुर्मासके गृहीष्यामीति न चिन्तयेदतिचार एष इति गाथार्थः ॥२७॥ उक्तान्यणुव्रतानि सांप्रतमेषामेवाणुव्रतानां परिपालनाय भावनाभूतानि गुणवतान्यभिधीयन्ते। विवेचन-प्रकृत क्षेत्र आदिके प्रमाणको जिस रूपमे किया गया है उसका प्रमाद व विस्मरण आदिके वश उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा वे व्रतको मलिन करनेवाले अतिचार होते हैं । यहाँ क्षेत्रादिसे क्षेत्र-वास्तु, हिरण्यादिसे हिरण्य-सुवर्ण, धनादिसे धन-धान्य और द्विपदादिसे द्विपद-चतुष्पदोंका ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकारसे पांच अतिचार ये होते हैं जिनका परित्याग पांचवें अणुव्रती श्रावकको करना चाहिए-१ क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिक्रम, २ हिरण्य-सुवर्ण प्रमाणातिक्रम,३ धन-धान्य प्रमाणातिकम, ४ द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम और ५ कुप्यप्रमाणातिक्रम । यहां धनसे अभिप्राय गाय, भैंस, हाथी व घाड़ा आदि पशुधनका तथा धान्यसे गेहूं, जुवार व चावल आदिका रहा है । कुप्य शब्दस चांदी-सोनेको छोड़ शेष काँसा-पीतल आदि धातुओ एवं आसन, शयन व वस्त्र आदिको ग्रहण करना चाहिए ।।२७८॥ मागे प्रकृत परिग्रह पारमाण अणुव्रतीको गृहात प्रमाणसे सन्तोष करते हुए कैसा विचार नहीं करना चाहिए, इसे स्पष्ट किया जाता है - प्रमाणरूपम जिस वस्तुका ग्रहण किया गया है उससे सन्तोषको भावना भाना चाहिए। इसके अतिरिक्त 'मैंन बिना जान-समझे इस समय अल्प प्रमाणको ग्रहण किया है, अब आगे अन्य चातुमासमें इस प्रकारस अल्प प्रमाणका ग्रहण नहा करूंगा' इस प्रकारके विवारको नहीं करना चाहिए ॥२७९॥ इस प्रकार अणुव्रतोंकी प्ररूपणा करके उनके परिपालनके लिए भावनाभूत तीन गुणवतोंका निरूपण करते हुए उनमें दिग्वत गुणवतका स्वरूप दिखलाते हैंऊपरकी, नाचेकी और तिरछो इन तीन दिशाओम जो प्रमाण किया श्रावक धर्ममें वीर जिनेन्द्र के द्वारा प्रथम दिग्वत नामक गुणव्रत कहा गया है। विवेचन-शास्त्र में दिशाएं अनेक प्रकारको निर्दिष्ट की गयी हैं। उनमें पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर ये चार प्रमुख तिरछा दिशाएं हैं। इनमें जिस ओरसे सूर्य उदित होता है वह पूर्व दिशा कहलातो है। उसके प्रदाक्षण क्रमस शेष तान दिशाएं ये हैं-दक्षिण, पश्चिम और उत्तर । इनके मध्यम क्रमसे आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य और ईशान ये चार विदिशाएँ मानी गयी हैं। इस प्रकार तिरछो दिशाएं आठ हैं। इनमें एक ऊपरको और एक नीचेको इन दो दिशाओंके मिलनेसे दिशाएं दस हो जाती हैं। इनके विषयमें नियमित प्रमाणको करके उससे आगे न जाना-आना, १. म हिरण्यादेधान्यादेवि । २. अ अजणेणं । ३. अ एवं । गेलिस्सामीण चितिज्जा। ४. अमजानेन । ५. भ 'इति' नास्ति। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८१] प्रथमगुणवतप्ररूपणा १६५ तानि पुनस्त्रीणि भवन्ति । तद्यया-दिग्वतमुपभोगपरिभोगपरिमाणं अनर्थदण्डपरिवर्जनमिति । तत्राद्यगुणवतस्वरूपाभिधित्सयाह उड्ढमहे तिरियं पि य दिसासु परिमाणकरणमिह पढमं । भणियं गुणव्वयं खलु सावगधम्मम्मि वीरेण ॥२८॥ ऊर्ध्वमस्तिर्यक् । किम् ? दिक्षु परिमाणमिति । दिशो ह्यनेकप्रकारा वणिताः शास्त्रेतत्र सूर्योपलक्षिता पूर्वा, शेषाश्च दक्षिगादिकास्तदनुक्रमेण द्रष्टव्याः। तत्रोर्ध्वदिक्परिमाणमूर्ध्वदिग्वतम्-एतावती दिगूध्वं पर्वताद्यारोहणादवगाहनीया, न परत इति । एवंभूतमधोदिक्परिमाणं अधोदिग्व्रतम्-एतावत्यधोदिक् इन्द्रकूपाद्यवतरणादवगाहनीया, न परत इति । एवंभतं तिर्यगदिक्परिमाणकरणं तिर्यग्दिन्वतम् । एतावतो दिपूर्वेणावगाहनीया, एतावती दक्षिणेनेत्यादि; न परत इत्येवमात्मकम्, एतदित्थं त्रिधा दिक्षु परिमाणकरणम् । इह प्रवचने । प्रथममाद्यं सूत्रक्रमप्रामाण्यात् । गुणाय व्रतं गुणवम्, इत्यस्मिन् हि सत्यवगृहीतक्षेत्राबहिः स्थावर-जंगमप्राणिगोचरो दण्डः परित्यक्तो भवतीति गुणः। श्रावकधर्म इति श्रावकधर्मविषयमेव । केन भणितमिति आह वीरेण विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति स्मृतः ।। तेन इति चरमतीर्थकृता ॥२८०॥ गुणव्रतमित्युक्तमतो गुणदर्शनायाह, अथवा गुणव्रताकरणे दोषमाह तत्तायगोलकप्पो पमत्तजीवोऽनिवारियप्पसरो। सव्वत्थ किं न कुज्जा पावं तक्कारणाणुगओ ॥२८१॥ इसे दिग्व्रत कहा जाता है। उदाहरणार्थ उपरिम दिशाको लक्ष्य करके 'मैं पर्वत आदिके ऊपर इतनी दूर तक जाऊँगा, इससे आगे न जाऊँगा' इस प्रकारसे ऊर्ध्व दिशाका प्रमाण किया जाता है । इसी प्रकार अधोदिशामें 'मैं सुरंग, कुआं एवं कोयलेकी खदान आदिमें इतने नीचे तक जाऊँगा, उससे आगे न जाऊँगा' इस प्रकारसे अधोदिशाका प्रमाण किया जाता है। इसी प्रकारसे पूर्वादि दिशाओंके भी प्रमाणको करना चाहिए। इन सब दिशाओंमें यथासम्भव प्रमाणको करके जीवनपर्यन्त प्रयोजनके होते हुए भी उससे आगे न जानेपर प्रकृत दिग्व्रतका परिपालन होता है। इसके पालनसे नियमित प्रमाणके आगे न जानेसे वहां स-स्थावर जीवोंका संरक्षण होता है। यहाँ टोकाकारने किसी एक प्राचीन श्लोकको उद्धृत करके 'वीर'का इस प्रकारसे निरुक्तार्थ किया है-जो कर्मका विदारण करता है, तपसे विराजमान ( सुशोभित ) होता है, अथवा तपके सामर्थ्यसे युक्त होता है उसे 'वीर' माना गया है । यह अन्तिम तीर्थकरका सार्थक नाम है ॥२८०॥ आगे इस व्रतके परिपालनसे होनेवाले गुण (लाभ या उपकार) को अथवा उसके न पालनसे सम्भव दोषको दिखलाते हैं प्रमादसे युक्त जीव तपे हुए लोहेके गोलेके समान प्रमादके सामर्थ्यको न रोक सकनेके १. भ मि । २. अ अतोऽग्रे 'सत्यवगृहीतक्षेत्राबहिः'पर्यन्तः पाठस्त्वैवंविधोऽस्ति-गाहनीया एतावती दक्षिणेत्यादि न परतः इत्येवमात्मकं ती क्षेत्राबहिस्थावर। ३. अ गणश्रावकधर्मविषयमेव । ४. अ 'अथवा गुणवताकरणे दोषमाह' इत्येतावान् पाठो नास्ति । - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२८२ - तप्तायोगोलकल्पस्तप्तलोहपिण्डसदृशः। कोऽसौ ? प्रमत्तजीवः प्रमादयुक्त आत्मा। असावनिवारितप्रसरोऽनिवृत्त्या अप्रतिहतप्रमादसामर्थ्यः सन् तथागते । सर्वत्र क्षेत्रे किं न कुर्यात् ? कुर्यादेव पापम् अपुण्यम् । तत्कारणानुगतः प्रमादपापकारणानुगत इति ॥२८॥ पडिवन्नम्मि य विहिणा इमम्मि तव्वज्जणं गुणो नियमा । अइयाररहियपालणभावस्स वि तप्पसूईओ ॥२८२॥ प्रतिपन्ने चाङ्गीकृते च। विधिना सूत्रोक्तेन । अस्मिन् गुणवते। तद्वर्जनम् । प्रमादपापवर्जनम् । गुणो नियमादात्मोपकारोऽवश्यंभावी। न चैवं मंतव्यं एतदर्थपरिपालनभाव एव ज्यायान्, न त्वेतत्प्रतिपत्तिः । कथम् ? अतिचाररहितपालनभावस्यापि निरतिचारपालनभावस्यापि । तत्प्रसूतेर्गुणव्रतादेवोत्पादात्तथाप्रतिपत्तौ हि तथाप्रतिपन्नं इति ॥२८२॥ इदमतिचाररहितमनुपालनीयमतोऽस्यैवातिचारानभिधित्सुराह उड्ढमहे तिरियं पि य न पमाणाइक्कम सया कुज्जा । तह चेव खित्तवुद्घि कहिंचि सइअंतरद्धं च ।।२८३॥ कारण सर्वत्र-समस्त क्षेत्रमें-प्रमादके कारणोंका अनुसरण करता हुआ क्या पापको नहीं करता है? अवश्य करता है। विवेचन-जिस प्रकार सन्तप्त लोहेको पानी में डालनेपर सब ओरसे वह पानीके परमाणुओंको खींचता है उसी प्रकार प्रमाद (कषाय) से सन्तप्त प्राणी व्रतसे रहित होनेके कारण उस प्रमादके सामर्थ्यको नष्ट नहीं कर पाता है, जिसके आश्रयसे वह पापाचरण करता है और कर्मको बाँधता है। इसलिए पापाचरणसे बचनेके लिए यहां दिग्वतके ग्रहणकी प्रेरणा की गयी है। इस दिग्वतके स्वीकार कर लेनेपर व्रती श्रावक चूंकि स्वीकृत प्रमाणके बाहर नहीं जाता है, इसीलिए वह वहां अहिंसामहाव्रती जैसा हो जाता है। इसीसे वह जिस प्रकार शीतल लोहपिण्डके जलमें डालनेपर भी वह जलीय परमाणुओंके ग्रहणमें असमर्थ रहता है उसी प्रकार वह दिग्वती श्रावक प्रमादके अभावमें पापप्रवृत्तिसे रहित होता हुआ कर्मबन्धसे रहित होता है ॥२८१।। ___ अब इस दिग्वतसे होनेवाले गुण (उपकार) दिखलाते हुए अतिचाररहित उसके पालनको प्रेरणा की जाती है आगमोक्त विधिके अनुसार इस व्रतके स्वीकार कर लेनेपर पापके कारणभूत उस प्रमादका जो परिहार हो जाता है, वह नियमसे आत्माका उपकार करनेवाला गुण है। कारण यह कि अतिचाररहित उस व्रतके पालनका परिणाम भी यथाविधि उस व्रतके स्वीकार कर लेनेपर ही उत्पन्न होता है। अभिप्राय यह है कि आगमोक्त विधिके अनुसार जबतक गुरुके समक्ष विवक्षित व्रतको स्वीकार नहीं किया जाता तबतक उसके परिपालनका परिणाम भी स्थिर नहीं रह सकता ।।२८२॥ आगे इस व्रतके निरतिचार परिपालनके लिए उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम, अधोदिशाप्रमाणातिक्रम, तियं ग्दिशाप्रमाणातिक्रम तथा क्षेत्रवृद्धि और किसी भी प्रकारसे स्मृतिके अन्तर्धान इन पाँच अतिचारोंको नहीं करना चाहिए। १. अत्तथाप्रतिपन्नो हि तत्राप्रतिपन्न । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८३ ] द्वितीयगणव्रतप्ररूपणा १६७ ऊर्ध्वमस्तियंगपि च न प्रमाणातिक्रमं सदा कुर्यादिति ऊर्ध्वदिक्प्रमाणातिक्रमो यावत्परिमाणं गृहीतं तस्य अतिलंघनम् तन्न कुर्यात् । १। एवमधोदिक तिर्यक दिकप्रमाणातिक्रमयोरपि भावनीयम् । २,३ । तथैव क्षेत्रवृद्धि न कुर्यात् । यथेदं अतिचारत्रयं क्षेत्रवृद्धिश्च-एकतो योजनशतमभिगृहीतमन्यतो दशयोजनानि, ततस्तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्य योजनशतमध्यादपनीयान्येषां दशादियोजनानां तत्रैव स्वबुद्धया प्रक्षेपो वृद्धिकरणमिति । ४ । कथंचित् स्मृत्यन्तर्धानम्, न कुर्यादिति वर्तते, स्मृतेभ्रंशोऽन्तर्धानं स्मृत्यन्तर्धानम्-किं मया परिगृहीतं कया वा मर्यादये. त्येवमनुस्मरणमित्यर्थः। स्मृतिमूलं हि नियमानुष्ठानम्, तभ्रंशे तु नियमत एव तभ्रंश इति अतिचारतेति ।। तत्र वृद्धसंप्रदायः-उड्ढं जं पमाणं गहियं तस्स उरि पव्वयसिहरे रुक्खे वा पक्खी वा मक्कडो वा सावगस्स वत्थं वा आभरणं वा गिहिउ पमाणाइरेगं भूमि वच्चेज्जा । तत्थ से ण कप्पए गंतुं। जाहे तं पडियं अन्नेण वा आणियं ताहे कप्पइ। एयं पुण अट्ठावय-उज्जंतादिसु हवेज्जा। एवं अहे कुवियाईसु विभासा। तिरियं जं पमाणं गहियं तं तिविहेण वि करणेण णाइक्कमियव्वं । खेत्तवुड्ढी ण कायव्वा सो पुग्वेणं भंडं गहाय गओ जाव तं परिमाणं, तओ परेण तं भंडं अग्घइत्ति काउं अवरेण जाणि जोयणाणि ताणि पुवदिसाए ण छुभेज्जा, सिय वोलोणो होज्जा णियत्तियव्वं । विस्सरीए वा ण गंतव्वं, अन्नो वि न विसज्जियन्वो। अणाणाए कोई गओ होज्जा जं विसुमरियखेत्तगएण लद्धं अणाणाहिगएण वा तं ण गिहिज्जई ॥२८३॥ विवेचन-अभिप्राय यह है कि स्वीकृत व्रतके लिए उक्त पांच अतिचारोंका परित्याग अवश्य करना चाहिए-(१) ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम-ऊर्ध्वदिशामें पर्वत आदिके ऊपर जितने कोश आदि तक जानेका प्रमाण स्वीकार किया है उसका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए। उदाहरणार्थं पर्वत शिखर अथवा वृक्ष आदिके पक्षी व बन्दर आदि श्रावकके वस्त्र अथवा आभरण आदिको ले गया है तो उसे उसके लिए स्वीकृत प्रमाणके आगे नहीं जाना चाहिए । हां, यदि कोई अन्य उसकी अनुमतिके विना लाकर दे देता है तो उसे वह ग्रहण कर सकता है। ऐसा न करनेपर उसका वह व्रत इस प्रथम अतिचारसे दूषित होता है । (२) अधोदिशाप्रमाणातिक्रमइसी प्रकार अधोदिशागत प्रमाणके विषयमें भी समझना चाहिए। (३) तिर्यग्दिक्प्रमाणातिक्रमतिर्यग्दिशाओं में पूर्वादिशाओं में भी जितने योजनादि रूप प्रमाणको ग्रहण किया उल्लंघन करनेपर यह तीसरा अतिचार होता है। (४) क्षेत्रवृद्धि-स्वीकृत क्षेत्रके बढ़ा लेनेपर यह चौथा अतिचार होता है। उदाहरणार्थ-यदि कोई बन्दर या चोर आदि किसी वर्तन आदि को लेकर चला गया है तो जितना प्रमाण विवक्षित पूर्व आदि दिशाके विषय में स्वीकार किया है उसके आगे वह वर्तन आदि चूंकि व्रती श्रावकको ग्रहण करनेके योग्य नहीं है, इस विचारसे पश्चिम दिशामें जितने योजनोंका प्रमाण ग्रहण किया है उन्हें विवक्षित पूर्व दिशामें नहीं जोड़ना चाहिए। यदि कदाचित् वह गृहीत प्रमाणके आगे उसे लेकर चला गया है तो स्वीकृत प्रमाणके आगे न जाकर लोट आना चाहिए। (५) स्मृत्यन्तराधान-'मैंने अमुक दिशामें कितने प्रमाणको ग्रहण किया है अथवा किस मर्यादासे ग्रहण किया है' इत्यादिका ठीक-ठीक स्मरण नहीं रहना, इसका नाम स्मृत्यन्तराधान अतिचार है। विस्मृत क्षेत्रके भीतर न स्वयं जाना चाहिए और न किसी अन्यको भी भेजना चाहिए । हां, यदि कोई विना अनुमतिके विस्मृत क्षेत्रमें जाकर उसे ले १. अरेगं तमी उ वच्चेज्जा। २. अ अण्णाणा कोइ । ३. अ अणाहीगएण। ४. अ गैह्नति । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रावकप्रशप्तिः [२८४उक्तं सातिचारं प्रथमं गुणवतम्, अधुना द्वितीयमुच्यते उवभोगपरिभोगे बीयं परिमाणकरणमो नेयं । अणियमियवाविदोसा न भवंति कयम्मि गुणभावो ॥२८४॥ ___ उपभोगपरिभोगयोरिति उपभोगपरिभोगविषये यत्परिमाणकरणं तदेव द्वितीयं गुणवतं विज्ञेयमिति पदघटना। पदार्थस्तु-उपभुज्यत इत्युपभोगः, अशनादिः, उपशब्दस्य सकृदर्थत्वात्सकृद्भुज्यत इत्यर्थः। परिभुज्यत इति परिभोगो वस्त्रादिः, पुनः पुनः भुज्यत इति भावः। परिशब्दस्याभ्यावृत्त्यर्थत्वादयं चात्मक्रियारूपोऽपि भावतो विषये उपचरितो विषय-विषयिणोरभेदोपचारात् । अन्तर्भोगो वा उपभोगः, उपशब्दस्यान्तर्वचनत्वात् । बहिर्भोगो वा परिभोगः, परिशब्दस्य बहिर्वाचकत्वात् । एतत्परिमाणकरणं एतावदिदं भोक्तव्यमुपभोक्तव्यं वा अतोऽन्यन्नेत्येवंरूपम । अस्मिन कृते गणमाह-अनियमिते असंकल्पिते ये व्यापिनस्तद्विषयं व्याप्तुं शीला दोषास्ते न भवन्ति कृतेऽस्मिस्तद्विरतेरिति गुणभावोऽयमत्र गुण इति ॥२८४॥ सांप्रतमुपभोगादिभेदमाह सो दुविहो भोयणओ कम्मयओ चेव होइ नायव्यो । अइयारे वि य इत्थं वुच्छामि पुढो समासेणं ॥२८५॥ आता है तो ले लेना चाहिए। पर आज्ञाके अनुसार जानेपर उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसके विरुद्ध आचरण करनेपर व्रतको दूषित करनेवाला यह स्मृत्यन्तराधान नामका पांचवां अतिचार होता है, क्योंकि व्रत-नियमानुष्ठानका प्रमुख कारण स्मृति है, उसके भ्रष्ट होनेपर व्रत नियमसे मलिन होनेवाला है ॥२८३।। आगे क्रमप्राप्त द्वितीय गुणवतका स्वरूप कहा जाता है उपभोग और परिभोगके विषयमें जो प्रमाण किया जाता है उसे उपभोग-परिभोग प्रमाणव्रत नामक दूसरा गुणव्रत जानना चाहिए। उनके प्रमाणके कर लेनेपर अनियमित रूपसे व्याप्त होनेवाले दोष नहीं होते हैं, यह उसका गुण ( उपकार ) है। विवेचन-'उपभुज्यते इति उपभोगः' इस निरुक्तिके अनुसार उपभोग शब्दका अर्थ एक बार भोगा जानेवाला पदार्थ होता है । जैसे-भोजन आदि, क्योंकि ये एक ही बार भोगे जा सकते हैं । 'परिभुज्यते इति परिभोगः' इस निरुक्तिके अनुसार 'परिभोग' का अर्थ बार-बार भोगा जानेवाला पदार्थ होता है। जैसे-वस्त्र आदि, क्योंकि उन्हें बार-बार भोगा जा सकता है। यद्यपि भोग और उपभोग क्रिया आत्मस्वरूप है तो भी यहां विषयमें विषयोके अभेदोपचारसे उनसे क्रमशः एक बार भोगे जानेवाले और बार-बार भोगे जानेवाले पदार्थों को ग्रहण करना चाहिए । अथवा उपभोग शब्दके अन्तर्वाची होनेसे उससे अन्तर्भोगको और परिभोग शब्दके बहिर्वाची होनेसे उससे बाह्य भोगको ग्रहण करना चाहिए। 'उनके विषय में मैं इतने प्रमाणमें उनका उपभोग और परिभोग करूंगा' इससे अधिकका नहीं करूँगा, इस प्रकारका प्रमाण करके उससे अधिक उपभोग-परिभोग- की इच्छा न करना, इसे उपभोग-परिभोग परिमाण गुणव्रत कहा जाता है। इस प्रकारका प्रमाण कर लेनेसे असीमित अवस्थामें जो दोष उत्पन्न हो सकते थे उनका उससे निरोध हो जाता था ॥२८४॥ आगे उपर्युक्त उपभोग और परिभोगके भेदोंका निर्देश किया जाता है १. अ 'पि' नास्ति । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८५] द्वितीयगुणवतप्ररूपणा ___स उपभोगः परिभोगश्च । द्विविधो द्विप्रकारः। भोजनतो भोजनमाश्रित्य । कर्मतश्चैव भवति ज्ञातव्यः, कर्म चाङ्गीकृत्येत्यर्थः। तत्र भोजनतः श्रावकेणोत्सर्गतो निरवद्याहारभोजिना भवितव्यम् । कर्मतोऽपि प्रायो निरवद्यकर्मानुष्ठानयुक्तेन । विचित्रत्वाच्च देशविरतेश्चित्रोऽत्रापवाव इत्यत एवेदमेवेदमेवेति वा सूत्रे न नियमितमतिचाराभिधानाच्च विचित्रस्तद्विधिः स्वधियाव. सेय इति । तथा च वृद्धसंप्रदायः-भोजनओ सावगो उस्सग्गेण फासुयं एसणियं आहारं आहारेज्जा। तस्सासति अणेसणीयमविसचित्तवज्ज। तस्सासति अणंतकायं बहुबोयाणि परिहरेज्जा-असणे अल्लग-मूलग-मंसादि, पाणे मंसरस मज्जाइ, खाइमे पंचुंबरिगादि, सादिमे महमाइ। एवं परिभोगे वि वत्थाणि थल-धवलप्पमल्लाणि परिमियाणि परिभंजेज्जा सासणगोरवत्थसुचरिओ (?) वरसिभाषा याव देवदूसाइ परिभोगेण वि परिमाणं करेज्जा। कम्मओ वि अकम्मो ण तरइ जीविउं ताहे अच्चन्तसावज्जाणि परिहरेज्जा। एत्थं पि एक्कसि चेव जं कीरइ कम्मं पहरववहरणादि विवक्खाए तमुवभोगो, पुणो पुणो य जं तं पुण परिभोगो ति। अन्ने पुण कम्मपक्खे उवभोगपरिभोगजोयणं ण करिति । उवन्नासोय एयस्सुवभोगपरिभोगकारणभावेणंति । इति कृतं प्रसङ्गेन। __इहेदमपि चातिचाररहितमनुपालनीयमिति तदभिधित्सयाह-अतिचारानपि चैतयोभॊजन-कर्मणोः वक्ष्येऽभिधास्ये पृथक् प्रत्येकम् । समासेन संक्षेपेणेति ॥२८५॥ उस उपभोग और परिभोगको भोजन और कमंकी अपेक्षा दो प्रकारका जानना चाहिए। आगे इनके अतिचारोंका भी निर्देश पृथक् पृथक् संक्षेपमें इस प्रकारसे किया जाता है। विवेचन-प्रकृत उपभोग-परिमाणव्रतमें श्रावकको भोजनकी अपेक्षा सामान्यसे निर्दोष आहारको ग्रहण करना चाहिए। कर्मकी अपेक्षा भी उसे प्रायः निर्दोष कर्मके अनुष्ठानसे युक्त होना चाहिए। देशविरति अनेक प्रकारकी है, अतः उसके विषयमें अपवाद भी सम्भव है। इसीसे 'यह इसी प्रकारका है अथवा यह इसी प्रकारका है ऐसा सूत्र में नियम नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त उसके अतिचार भी कहे गये हैं, इसलिए उसके विधानका निश्चय अपनी बुद्धिके अनुसार करना चाहिए। यहां टीकाकारने 'वृद्धसम्प्रदाय' के अनुसार उसका स्पष्टीकरण करते हुए यह कहा है कि श्रावकको सामान्यसे प्रासुक ( जीव-जन्तुओंसे रहित ) और एषणीय ( ग्रहण करने योग्य ) आहारका उपभोग करना चाहिए। यदि प्रासुक व ऐषणीय आहारको प्राप्ति सम्भव न हो तो सचित्तको छोड़कर अनेषणीयको भी ग्रहण कर सकता है। पर यदि अचित्त भी उक्त भोजन न प्राप्त हो सके तो सचित्तमें अनन्तकाय ( साधारण वनस्पति ) और बहुबोजोंको छोड़ना चाहिए । चार प्रकारके आहारमें-से अशनमें आर्द्रक ( अदरख ), मूली और मांस आदिको; पान में मांसरस और मद्य आदि, खाद्यमें पांच उदुम्बर फल आदि और स्वाद्यमें मधु आदिको छोड़ना चाहिए। इस प्रकारसे यह भोगके विषयमें निर्देश किया गया है। इसी प्रकार परिभोगमें भी श्रावकको स्थल, धवल और अल्प मूल्य वाले वस्त्रोंका परिमित रूपमें परिभोग करना चाहिए।... ....(?) देवदूष्य वस्त्र तक परिभोगसे भी प्रमाण करना चाहिए । कर्मकी अपेक्षा श्रावक चूंकि कर्मके विना जीवित नहीं रह सकता है, इसलिए कर्म करते हुए उसे अत्यन्त सावध कर्मों को छोड़ना चाहिए। यहां (कर्ममें) भी जो कर्म पहर-व्यवहारादिको विवक्षासे एक ही बार किया जाता है उसे १. अ सो दुविहो स उपभोगः परिभोगश्च । २. अ इत्ये। एवेदमूले ति वा सूत्रे । ३. अ ताहि । २२ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्रावकप्रज्ञप्तिः [२८६ - तत्र भोजनतोऽभिषित्सयाह सचित्ताहारं खलु तप्पडिबद्धं च वज्जए सम्मं । अप्पोलिय-दुप्पोलिय-तुच्छोसहिभक्खणं चेव ॥२८६॥ सचित्ताहारं खलु सचेतनं मूल-कन्दादिकम् । तत्प्रतिबद्धं च वृक्षस्थगुन्द-पक्वफलादिलक्षणम् । वर्जयेनिहरेत् सम्यक् प्रवचनोक्तेन विधिना । तथा अपक्व- दुःपक्व-तुच्छौषधिभक्षणं च, वर्जयेदिति वर्तते । तत्रापक्वाः प्रसिद्धाः दुःपक्वास्त्वर्धस्विन्नाः, तुच्छास्त्वसारा मुद्गफलीप्रभृतय इति ॥२८६॥ उक्ता भोजनातिचाराः, सांप्रतं कर्माश्रित्याह इंगाली-वण-साडी-भाडी-फोडीसु वज्जए कम्मं । वाणिज्जं चेव दंत-लक्ख-रस-केस-विसविसयं ॥२८७॥ अङ्गार-वन-शकट-भाटक-स्फोटनेषु एतद्विषयम् । वर्जयेत् कर्म न कुर्यात् । तत्राङ्गारउपभोग और जो पुनः-पुनः किया जाता है उसे परिभोग कहा जाता है। अन्य कितने ही आचार्य कर्मपक्षमें प्रकृत उपभोग-परिभोगकी योजना नहीं करते हैं। इसका उपन्यास उपभोग-परिभोगके कारण स्वरूपसे किया गया है । इस व्रतका भी परिपालन अतिचारोंसे रहित करना चाहिए, इसी अभिप्रायसे गाथाके उत्तरार्धमें भोजन और कर्म इन दोनोंके पृथक्-पृथक् अतिचारोंके संक्षेपमें कहनेकी प्रतिज्ञा की गयी है ।।२८५॥ उनमें आगे भोजनकी अपेक्षा उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है सचित्त आहार, सचित्त प्रतिबद्धाहार, अपक्वभक्षण, दुष्पक्वभक्षण और तुच्छ औषधिभक्षण, ये भोजनको अपेक्षा उसके पांच अतिचार कहे गये हैं। इनका आगमोक्त विधिके अनुसार परित्याग करना चाहिए। 'विवेचन-(१) कन्द व मूली आदि जो भोज्य पदार्थ चेतनासे सहित होते हैं उनका नाम सचित्त आहार है। (२) वृक्षसे सम्बद्ध गोंद और पके फल आदिको सचित्त वृक्षसे सम्बद्ध होनेके कारण सचित्त समझना चाहिए । वृक्षसे विभक्त होनेपर वे अचित्त माने गये हैं। (३) जो भोज्य पदार्थ पका न हो-कच्चा हो-उसे अपक्व आहार जानना चाहिए। (४) जो भोज्य पदार्थ अधपका हो वह दुष्पक्व कहलाता है। (५) मूंगको फलियों आदिको तुच्छ औषधि-निःसार वस्तु-समझना चाहिए। ये भोजनकी अपेक्षा उपभोग परिभोगपरिमाणवतके पांच अतिचार माने गये हैं। आगममें जिस प्रकारसे इनके स्वरूपका विधान किया गया है तदनुसार ही उनका परित्याग करना चाहिए । अन्यथा, स्वीकृत वह व्रत नियमसे मलिन होनेवाला है ॥२८६।। __आगे उक्त उपभोग-परिभोग परिमाणव्रतके विषयमें जो कर्मविषयक १५ अतिचार कहे गये हैं उनमें प्रथमतः १० अतिचारोंका निर्देश किया जाता है ____ अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटककर्म, स्फोटनकम, दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, केशवाणिज्य और विषविषयक वाणिज्य; इनका परित्याग करना चाहिए। विवेचन-इनका स्वरूप वृद्धसम्प्रदायके अनुसार इस प्रकार है-(१) अंगारकर्म-अग्निको प्रज्वलित कर कोयला, लोहे आदिके उपकरण बनाये जाते हैं। इनमें छह कायके जोवोंका घात १. अ अण्पउलियदुष्पउलिय । २. अ 'एतद्विषयं' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम 'विषविषयं' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ - २८८] तृतीयगुणवतप्ररूपणा कांगारकरणविक्रयविषया। एवं शेषेष्वप्यक्षरगमनिका कार्या । तथा वाणिज्यं चैव, दन्त-लाक्षारस-केश-विषविषयं दन्तादिगोचरम्। वर्जयेत् परिहरेदिति ॥२८७॥ । एवं खु जंतपीलणकम्मं निन्लंछणं च दवदाणं । सर-दह-तलायसगेसं असईपोसं च वन्जिज्जा ॥२८८॥ होता है, इसीलिए श्रावकको ऐसा सावध कर्म करना उचित नहीं है। (२) वनकर्म-जो जंगलको खरीदकर या ठेकेपर लेकर उसमें स्थित वृक्षोंको कटवाता है.और उनके मूल्यसे आजीविका करता है, इसके अतिरिक्त पत्तियों आदिको तुड़वाकर उनसे आजीविका चलाता है, इसे वनकर्म कहा जाता है। प्राणिविघातका कारण होनेसे यह कर्म भी श्रावकके लिए निषिद्ध है। (३) शकटकर्मशकट नाम बैलगाड़ीको चलाकर उसके आश्रयसे जीविका करना, इसे शकटकर्म कहा जाता है। इस क्रियामें बैलोंको बांधना, उन्हें गाड़ीमें चलाना एवं ताड़ित आदि करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त गाड़ाके चलाते समय उसके नीचे दबकर कितने ही त्रस जीवोंका घात होता है, इसीलिए श्रावकके लिए यह कर्म निषिद्ध माना गया है। इसी प्रकार गाडीको बनाकर या दूसरोंसे बनवाकर उसे बेचने आदिको भी निषिद्ध समझना चाहिए। (४) भाटक कर्म-गाड़ी आदिके 'द्वारा बोझा ढोकर भाड़ेके आश्रयसे आजीविका करना, इसे भाटककर्म कहते हैं। श्रावक अपनी गाडी आदिके द्वारा निजके बोझे आदिके ढानेका काम कर सकता है. पर दसरेके बोझे आदिको ढोकर उससे भाड़ा कमाना उसे उचित नहीं है। इसी प्रकार दूसरोंसे बैलोंको मांगकर उनके आश्रयसे जीविकाका उपाजित करना भी हेय माना गया है। (५) स्फोटककम-सुरग आदिम बारूदके आश्रयसे पत्थरोंका तोड़ना, हल-बखर आदिके द्वारा भूमिको जोतना व बखरना आद क्रियायें इस स्फोटक कमंके अन्तर्गत मानी जाती हैं। अनेक प्राणियोंका नाशक होनेसे यह कम भा श्रावकके लिए उचित नहीं माना गया। (६) दन्तवाणिज्य-हाथोके दांतोंको देनेके लिए पहलेसे मूल्य देकर उनसे मंगाना और उनके आश्रयसे व्यापार करना, यह दन्तवाणिज्य कहलाता है। व्यापारी उन दांतोंको लेनेके लिए शीघ्र आयेगा, इस विचारसे भील, हाथोको मारकर उसके दांतोंको प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार शंखोंके लिए मूल्य देकर उन्हें धोवरोंसे मंगाना, यह कार्य भी जीववधका कारण होनेसे योग्य नहीं है। हां, याद भील ओर धीवर श्रावकको अनुमतिके विना प्रथम मूल्य न लेकर स्वयमेव उन्हें लाते हैं तो यह श्रावकके लिए दापका कारण नहीं है । (७) लाक्षावाणिज्य--लाखके द्वारा व्यापार इसका नाम लाक्षावाणिज्य है। लाख वृक्षोसे निकाला है. इसमें कितने हो सक्षम त्रस जोव अनन्तकाय जीवोंका विघात होता है, इस लाखके व्यापारके तथा ऐसे ही जोवविघातक अन्य चोजोंके भी व्यापारका परित्याग करना उचित है। (८) रसवाणिज्य-का अभिप्राय कलालके व्यापारसे है। इस व्यापारमे विभिन्न प्रकारक मद्यका क्रय-विक्रय हुआ करता है । मद्यके पाने में मारना, गाली देना ओर हत्या आदि करना जेस बहुतसे दोष देखे जाते हैं। इसीलिए श्रावकको कलालका व्यापार करना उचित नहीं है। (९) केशवाणिज्य-केशवाली दासियोंको ले जाकर अन्यत्र जहाँ अच्छा मूल्य प्राप्त किया जा सक, बंबना, इसका नाम केशवाणिज्य है। इस व्यापारमें बेचो गयो दासियाको परतन्त्रता, मारन-ताड़न एव बल पूर्वक अनेक उचित - अनुचित कार्योंका करना; इत्यादि अनेक कष्ट सहने पड़त है। इसलिए श्रावकको इस निकृष्ट व्यापारका परित्याग करना ही उचित है। (१०) विषेली वस्तुओक क्रयविक्रयका नाम विषवाणिज्य है। इन वस्तुओंके उपयोगसे बहुतसे जावोकी विराधना देखा जातो है। इसलिए व्रतो श्रावकको इस घृणित व्यापारको भी छोड़ना चाहिए ।।२८७॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ २८८ एवमेव शास्त्रोक्तेन विधिना । यन्त्रपीडनकर्म निलंछनं च कर्म दवदानं सरोहदतडागशोषं असतीपोषं च वर्जयेदिति गाथाद्वयाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादेव अवसेयः । स चायम् १७२ 3 इंगालकमंत इंगाले हिउं विक्किणइ तत्थ छहं कायाणं वहो, तं न कप्पड़ । वणकम् जो वणं किणइ पच्छा रुवखे छिदिउं मुल्लेण जीवइ । एवं पत्तिगाइवि पडिसिद्धा भवंति । साडीकम्मं सागडियत्तणेण जीवइ । तत्थ बंध वहाई बहुदोसा । भाडीकम्मं सएण भंडोवक्खरेण भाडण वहइ, परागं ण कप्पइ । अन्नेसि वा सगडे बइल्लयवेई, एवमाइ ण कप्पइ । फोडीकम्मं उडत हले वा भूमि फाडेउं जीवइ । दंतवाणिज्जं पुव्वं चेव पुलिदाणं मुल्लं देइ दंते देज्जाहित्ति, पच्छा पुल्लिंदा हत्थि घाएंर्ति अचिरा सो वाणियओ एतित्ति काउं । एवं धीवराणं संखमुल्लं देइ । एवमाइ न कप्पइ । पुष्वाणीयं किणइ । लक्खवाणिज्जे वि एए चेव दोसा तत्थ किमिया होंति । रसवाणिज्जं कल्लावालगत्तणं । तत्थ सुरादिपाणे बहुदोसा मारण अक्कोसबहाई । तम्हा न कप्पइ | केसवाणिज्जं दासीओ गहाय अन्नत्थ विक्किणइ जत्थ अग्घेति । एत्थ वि अणेगे दोसा परवसत्तादयो । विसवाणिज्जं विसविक्कओ, सो ण कप्पइ । तेण बहूण जीवाण विराहणा । जतपीलणकम्मं तेल्लियजंतं वुच्छुजंतं चक्कमादी, तं न कप्पs | निल्लंछणकम्मं वड्ढे बल्लद्दाइ न' कप्पs | दवग्गिदावणयाकम्मं वणदयं देइ छेत्तरक्खगनिमित्तं, जहा उत्तरावहे, पच्छा दड्ढे तरुणगतणं उट्ठेई । तत्थ सत्ताणं सयसहस्साण वहो । सरदहतलाय सोसणयाकम्मं सर- दह- तलाईणि सोसेड पच्छा वाविज्जइ, एयं ण कप्पइ । असईपोसणयाकम्मं असईओ अब उनमें शेष पांच कर्मोंका भी निर्देश किया जाता है— इस प्रकार यन्त्र पोड़न कर्म, निलछन कर्म, दवदान, सर-द्रह- तडागशोषण और असतीपोष इस भोगोपभोग परिमाण व्रतीको कर्म विषयक इन शेष पांच अतिचारोंका भी परित्याग करना चाहिए । विवेचन - इन कर्मों का भी स्पष्टीकरण इस प्रकार है । (११) यन्त्रपीड़न कर्म - तेल के यन्त्र ( कोल्हू ), ईख के यन्त्र और चक्र आदि कर्मों को भी हेय जानकर इनका भी श्रावकको परित्याग करना चाहिए। कारण यह कि इन यन्त्रोंके द्वारा तेल व ईखके रस आदिके निकालने में प्राणियोंपीड़ा हुआ करती है । (१२) निछन कर्म - इस कर्ममें बैलोंका बधिया - सन्तानोत्पत्ति के 1 किया जाता है, इससे उनको भारी कष्ट पहुँचता है । इसके अतिरिक्त उसकी नासिकाको छेदकर उसके भीतर रस्सी डाली जाती है व उन्हें नियन्त्रण में रखनेके लिये उसे इधर-उधर खींचा जाता है । बहुतसे पशुओंके कान आदि अवयवोंको छेदा जाता है । इन सब क्रियाओं से प्राणियों को बहुत कष्ट पहुँचता है । इसीलिए श्रावककों इसका परित्याग करना ही श्रेयस्कर है । (१३) दवदान - क्षेत्रकी रक्षाके लिए कहीं-कहीं वनमें आग लगाई जाती है, जिससे असंख्य प्राणियोंका मरण होता है । खेतको उपजाऊ बनाने के लिए उसमें भी कभी आग लगायी जाती है । जैसे उत्तर भारत में वृक्षोंको उत्पन्न करनेके लिए आग लगायी जाती है, जिससे वृक्षसमूह अंकुरित होता है । यह कर्म भी प्राणिपोड़ाका कारण होनेसे श्रावकके लिए हेय है । (१४) सरद्रह- तडागशोषण - तालाब आदि जलाशयोंके पानोको निकालकर व उन्हें सुखाकर धान्य आदिको बोया जाता है, इसे सर-द्रह- तडागशोषण कर्म कहा जाता है । इससे जल-जन्तुओंके साथ १. अनिलांछन । २. अ अंगाले । ३. अ तन्न । ४ अ पुन्नगाइवि । ५. अ बंधवहोयं च दोसा । ६. भ बइल्लेयवेइ । ७ अ उडत्तेणं । ८ अ घणंति । ९. भ वड्ढेऊ बलद्दाही ण । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२८९] तृतीयगुणवतप्ररूपणा १७३ पोसेइ, जहा गोल्लविसए जोणिपोसगा दासीण भणियं भाडि गेलंति । प्रदर्शनं चैतद्बहुसावद्यानां कर्मणामेवंजातीयानाम घाना कमणामवजातीयानाम्, न पुनः परिगणनमिति ॥२८॥ उक्तं सातिचारं द्वितीयं गुणवतम्, सांप्रतं तृतीयमाह विरई अणत्थदंडे तच्च स चउव्विहो अवज्झाणो । पमायायरिय-हिंसप्पयास-पावोवएसे य ।।।।२८९।। ___विरतिनिवृत्तिरनर्थदण्डे अनर्थदण्डविषया इह लोकमप्यङ्गीकृत्य निःप्रयोजनभूतोपमर्दनिग्रहविषया तृतीयम्, गुणवतमिति गम्यते। स चतुर्विधः सोऽनर्थदण्डः चतुःप्रकारः। अपध्यान इति अपध्यानाचरितोऽप्रशस्तध्यानेनासेवितः । अत्र देवदत्तश्रावक-कोकणार्यकसाधुप्रभृतयो ज्ञापकम् । प्रमादाचरितो मद्यादिप्रमादेनासेवितः। अनर्थदण्डत्वं चास्योक्तशब्दार्थद्वारेण स्वबुद्धया भावनीयम् । हिंसाप्रदानं इह हिंसाहेतुत्वादायुधानल-विषादयो हिंसोच्यते, कारणे कार्योपचारात् । अन्य भी अनेक जीवोंका विनाश होता है। इसलिए यह कर्म भी निषिद्ध माना गया है। (१५) असतीपोष-भाड़ा ग्रहणकी इच्छासे असतीजन-दुराचारिणी स्त्रियोंका पोषण करना, जैसे गोल्ल देशमें योनिपोषक दासियोंको कथित भाडेके लिए ग्रहण किया करते हैं । सा. ध. ५-२२ की स्वो. टीयामें भाड़ा ग्रहण करने के लिए हिंसक प्राणियोंके पोषणको असतीपोष कहा गया है। इस प्रकार इन दो ( २८७-२८८) गाथाओंमें निर्दिष्ट पन्द्रह कर्मविषयक अतिचारोंका उपभोगपरिभोगपरिमाणवतीको परित्याग करना चाहिए। यहां जो केवल इन पन्द्रह कर्मोंका ही निषेध किया गया है उसे प्रदर्शन मात्र समझना चाहिए। कारण इसका यह है कि उक्त १५ कर्मों के अतिरिक्त अन्य कितने ही पापोत्पादक कर्म हैं, जिनकी गणना करना अशक्य है। इसलिए व्रती श्रावकको अपनी विवेकबुद्धिसे विचारकर यथायोग्य सावध कर्मोंका परित्याग करना योग्य है। लगभग यही अभिप्राय सागार धर्मामृत ( ५, २१-२३ ) में प्रकट किया गया है ॥२८७-२८८।। आगे क्रमप्राप्त तोसरे गुणवतका स्वरूप कहा जाता है अनर्थदण्डके विषयमें जो निवृत्ति की जाता है उसे अनर्थदण्डवत नामका तीसरा गुणवत कहा जाता है । वह चार प्रकारका है-अपध्यान, प्रमादाचरित; हिंसाप्रदान और पापोपदेश । विवेचन-अर्थ शब्द प्रयोजन और दण्ड शब्दका अर्थ पोड़न है। तदनुसार अनर्थ-प्रयोजनके बिना-जो जीवोंको पीड़ा पहुँचायी जाती है उसका नाम अनर्थदण्ड है । ऐसे अनर्थदण्डका परित्याग करना इसे अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । उक्त गुणव्रतोंमें यह तीसरा है। वह अनर्थदण्ड चार प्रकारका है-अपध्यान, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और पापोपदेश । (१) अपध्यान-आर्त-रोद्रस्वरूप दुष्टचिन्तनका नाम अपध्यान है। इस प्रकारके अपध्यानके वश होकर जो भी प्रवृत्ति की जाती है उसे अपध्यान ( अपध्यानाचरित) कहते हैं। इसमें देवदत्त श्रावक और कोंकण आर्यक साधुके दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं । (२) प्रमादाचरित-मद्यादिजनित प्रमादके वश होकर जो प्राणियोंको पीड़ा पहुंचायी जाती है उसका नाम प्रमादाचरित है। रत्नकरण्डक (८०) में इसके लक्षणका निर्देश करते हुए कहा गया है कि पृथिवो, जल, अग्नि और वायुका निरर्थक आरम्भ करना तथा वनस्पतियोंका छेदना; इत्यादि कार्य जो बिना किसी प्रयोजनके किये जाते हैं उन्हें प्रमादचर्या या प्रमादाचरित कहा जाता है। निरर्थक हाथ-पांव आदिका व्यापार करना तथा हिंसक जीवोंका पालन करना इत्यादि कार्य भी इसी प्रमादचर्याके अन्तर्गत आते हैं। लगभग यही अभिप्राय १. अ श्रावककुंकरणाज्जकसाधु । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२९० तेषां प्रदानं अन्यस्मै क्रोधाभिभूतायानभिभूताय वेति। पापोपदेशश्चेति सूचनात्सूत्रमिति न्यायात्पापकर्मोपदेशः, पापं यत्कर्म कृष्यादि तदुपदेशो यथा कृष्यादि कुवित्यादि ॥२८९॥ अनर्थदण्डस्यैव बहुबन्धहेतुतां ख्यापयन्नाह अटेण तं न बंधइ जमणद्वेणं तु थेव-बहुभावा । अट्ठे कालाईया नियामगा ने उ अणट्ठाए ॥२९०॥ अर्थेन कुटुंबादिनिमित्तेन प्रवर्तमानस्तन्न बध्नाति तत्कर्म नादत्ते यदनर्थेन यद्विना प्रयोजनेन प्रवर्तमानः। कुतः ? स्तोकबहुभावात् स्तोकभावेन स्तोकं प्रयोजनं परिमितत्वात्, बह्वप्रयोजनं प्रमादापरिमितत्वात् । तथा चाह-अर्थे प्रयोजने। कालादयो नियामकाः कालाद्यपेक्षं हि कृष्याद्यपि भवति, न त्वनय प्रयोजनमन्तरेणापि प्रवृत्तौ सदा प्रवृत्तेरिति ॥२९०॥ ___ इदमपि चातिचाररहितमेवानुपालनीयमिति अतः तानाह-- सागार धर्मामृत ( ५, १०-११) में भी प्रकट किया गया है। प्रमादका अर्थ प्रायः असावधानी होता है। तदनुसार इसे अनर्थदण्ड कहना भी सार्थक सिद्ध होता है, क्योंकि इसमें उपर्युक्त कार्य असावधानीसे निरर्थक ही किये जाते हैं। (३) हिंसाप्रदान-आयुध, अग्नि और विष आदि हिंसोपकरणोंको कारणमें कार्यका उपचार करके हिंसा कहा जाता है। इनको क्रोधाभिभूत अथवा उससे रहित भी किसी अन्यको देना, इसे हिंसादान कहा जाता है। (४) पापोपदेश-पाप शब्दसे यहां पापोत्पादक कार्यकी सूचना की गयी है। ऐसे कार्य यहां तिथंच आदि जीवोंको कष्ट पहुंचानेवाले कृषि व वाणिज्य आदि हो सकते हैं। इनका विना किसी अपने प्रयोजनके दूसरोंको उपदेश देना, यह पापोपदेश कहलाता है ।।२८।। आगे ये अनर्थक ही कार्य बन्धके हेतु हैं, इसे स्पष्ट किया जाता है प्रयोजनके वश प्रवर्तमान जीव उस कर्मको नहीं बांधता है, जिसे कि विना किसी भी प्रयोजनके प्रवर्तमान जीव बांधता है। उसका कारण प्रयोजनकी हीनाधिकता है। प्रयोजनके होनेपर काल आदि नियामक हैं, जबकि उस प्रयोजनके बिना उसमें कालादि कोई भी नियामक नहीं रहते। _ विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि जीव किसी कौटुम्बिक प्रयोजनके वश जब किसी कृषि आदि कार्यमें प्रवृत होता है तब वह आवश्यक प्रयोजनके पूर्ण होने तक ही उसमें प्रवृत्त रहता है, प्रयोजनके पूर्ण हो जानेपर वह उससे विरत होता है। इसीलिए उसके तज्जन्य कर्मका बन्ध नहीं होता, क्योंकि काल आदि नियामक रहते हैं। इसके विपरीत जो बिना किसी प्रयोजनके अनर्थक कार्यों में प्रवृत्त होता है, उसे उससे रोकने के लिए काल आदिका कुछ नियम नहीं रहता। इस प्रकार कोई सीमा न रहनेसे वह प्रमादके वशोभत होकर अपरिमित पापकार्योंको निरर्थक ही किया करता है, अतः उससे उसके बहुतर कर्मका बन्ध अवश्यम्भावी है। यही कारण है जो प्रकृत तृतीय गुणव्रतमें श्रावकको ऐसे कितने ही अनर्थदण्डोंका परित्याग कराया गया है ।।२९०॥ इसके भी अतिचार रहित पालनके लिए आगे उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है १. अणियामया ण । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २९१] तृतीयगुणवतप्ररूपणा १७५ कंदप्पं कुक्कुइयं मोहरियं संजुयाहिगरणं च। उवभोगपरीभोगाइरेयगयं चित्थ वज्जई ॥२९१॥ इति पदघटना। पदार्थस्तु कंदर्पः कामस्तद्धेतुविशिष्टो वाक्प्रयोगोऽपि कंदर्प उच्यते, रागोद्रेकात्महासमिश्रो मोहोद्दीपको नर्मेति भावः। इह च सामाचारी-सावगस्स अट्टहासो न वट्टइ, जइ नाम हसियव्वं तउ इसिं चेव हसियव्वं ति ॥१॥ कौत्कुच्यं कुत्सितसंकोचनादिक्रियायुक्तः कुत्कुचः, तस्य भावः कौत्कुच्यं अनेकप्रकारमुख-नयनौष्ठ-कर-चरण-भ्रूविकारपूर्विका परिहासादिजनिका भांडादीनामिवै विडंबनक्रियेत्यर्थः। एत्थ सामायारी-तारिसगाणि भासिउ' न कप्पंति जारिसेहिं लोगस्स हासो उपज्जइ। एवं गतीए ठाणेण वा ठाइउति ॥२॥ मौखयं धाष्टर्यात्प्रायोऽसत्यासंबद्धप्रलापित्वमुच्यते मुडेण वा अरिमाणेइ जहा कुमारामच्चेणं सो वारहडो विसज्जिओ रन्नो णिवेदियं ताए जीवियाए वित्ती दिन्ना अन्नदा रुटेण मारिओ कुमारामच्चो ॥३॥ संयुक्ताधिकरणम् अधिक्रियते नरकादिष्वनेनेत्यधिकरणं वास्युदूखल-शिलारपुत्रकं गोधूमयंत्रकादिषु संयुक्तमर्थक्रियाकरणयोग्यम्, संयुक्तं च तदधिकरणं चेति समासः। एत्थ सामायारीसावगेणं संजताणि चेव सगडाईणि नधरयव्वाणि । एवं वासी-परसमाइ विभासा ॥४॥ उवभोगपरिभोगाइरेगयत्ति-उपभोगपरिभोगशब्दार्थों निरूपित एव, तदतिरेकस्तदधिकभावः, एत्थ वि कन्दर्प, कोत्कुच्य, मौखर्य, संयुक्ताधिकरण और उपभोग-परिभोगपरिमाणातिरेकता ये पांच प्रकृत अनर्थदण्डव्रतके अतिचार हैं, जिनका परित्याग करना चाहिए। विवेचन-(१) कन्दर्प नाम कामका है, उसके आश्रयसे जो विशिष्ट वचनोंका प्रयोग किया जाता है उसे कन्दर्प कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि रागको उत्कटतासे कामोद्दीपक हास्यमिश्रित, अशिष्ट वचन बोलना, इसका नाम कन्दर्प है, दूसरे नामसे इसे नर्म भी कहा जाता है। यहां सामाचारी-श्रावकको ठहठहा मारकर जोरसे हंसना नहीं चाहिए। यदि हंसना ही है तो मन्दरूपमें हंसना योग्य है, जिसे स्मित कहना चाहिए। ऐसा न करनेपर व्रत इस कन्दर्प नामक प्रथम अतिचारसे दूषित होता है। (२) कौत्कुच्य-भांडों आदिके समान अनेक प्रकारसे मुख, नेत्र, ओष्ठ, हाथ-पांव, और भ्रू आदिको विकारयुक्त करके जो परिहासादिजनक शरीरकी चेष्टा (विडम्बना ) की जाती है उसे कौत्कुच्य कहा जाता है। यह अनर्थदण्डव्रतका दूसरा अतिचार है। यहां सामाचारी-श्रावकको ऐसे वचन नहीं बोलना चाहिए जिनसे लोगोंको हास्य उत्पन्न हो । इसी प्रकारसे ऐसी गति, स्थिति और बैठने आदिको क्रियाको भी नहीं करना चाहिए। ( ३ ) मौखर्य-ढीठपनेसे प्रायः जो असत्य, असम्बद्ध और अनर्थक बकवाद किया जाता है; इसे मौखर्य कहते हैं। यह अनर्थदण्डव्रतका तीसरा अतिचार है। [ यहां सामाचारी-] अथवा मुखसे 'शत्रुको लाओ,' जैसे कुमारामात्यने उस वारहडको विदा किया और राजासे निवेदन किया कि उसे जीविकाके लिए वृत्ति दो। दूसरे दिन क्रोधित होकर राजाने कुमारामात्यको मार डाला ? (४) संयुक्ताधिकरण-'अधिक्रियते नर-नारकादिष्वनेनेत्यधिकरणम्' इस निरुक्तिके अनुसार जो मनुष्य व नारक आदि गतियोंमें अधिकृत किया करता है, उसका नाम अधिकरण है। बसूला, उदूखल ( ओखली ), शिलारपुत्रक और गेहूंका यन्त्र ( हल-बखर आदि ); इनको अर्थक्रियाके योग्य बेंट और मूसल आदि उपकरणोंसे जोड़कर रखना; इसका नाम संयुक्ताधिकरण है। यह १. अ संजुत्ताइकरणं वा । २. अ परिभोगरेवयं चेव वज्जेज्जा ( अस्या गाथायाः संस्कृतछायाप्यत्रोपलभ्यते । ३. अहासादिजनितादीडादीनामिव । ४. अविसज्जन्न रन्नो णिविदियं । ५. भ पुत्रकगोधम । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रावक प्रज्ञप्तिः [२९२ सामायारी-उवभोगातिरित्तं जइ तेल्लामलए बहुए गेण्हइ तो बहुगा व्हायगा वच्चंति तस्स लोलियाए। अन्ने वि व्हायगा व्हायंति-पच्छा पूयरगआउकायादिवहो होइ । एवं पुप्फ-तंबोलादिसु विभासा। एवं न वट्टइ । का विही सावगस्स उवभोगे पहाणे ? घरे व्हाइयव्वं, नत्थि ताहे तेल्लामलएहि सीसं घसित्ता सम्वे साडविऊ णेताहे तलागाईणं तडे निविट्ठो अंजलीहिं हाइ। एवं जेसु य पुप्फेसु पुप्फकुंथू ताणि परिहरइ ।।५।। ॥२९१॥ उक्तं सातिचारं तृतीयगुणवतम् । गुणवतानन्तरं शिक्षापदव्रतान्याह तानि चत्वारि भवन्ति । तद्यथा-सामायिकं देशावकाशिकं पौषधोपवासः अतिथिसंविभागश्चेति । तत्राद्यमाह सिक्खापयं च पढमं सामाइयमेव तं तु नायव्वं । सावज्जेयरजोगाण वज्जणासेवणारूवं ॥२९२।। शिक्षा परमपदप्रापिका क्रिया, तस्याः पदं शिक्षापदम् । तच्च प्रथममाद्यं सूत्रक्रमप्रामाण्यात् । सामायिकमेव-समो राग-द्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति, आयो लाभः प्रकृत व्रतका चौथा अतिचार है। उनके संयुक्त रहनेपर कोई भी उन्हें अनायास मांगकर ले जा सकता है। रत्नकरण्डक ( ८१ ) और सागारधर्मामृत (५-१२) आदिमें इस अतिचारको 'असमीक्ष्याधिकरण' के नामसे निर्दिष्ट किया गया है। उसका अभिप्राय है कि प्रयोजनका विचार न करके लकड़ी, ईंट व पत्थर आदिको आवश्यकतासे अधिक मंगवाना या तैयार कराना। सागारधर्मामृतमें तो श्रावक प्रज्ञप्तिके अन्तर्गत कुछ स्पष्टीकरणके साथ अभिप्रायको भी अन्तर्गत कर लिया है। यहाँ सामाचारी-श्रावकको गाड़ी आदि उपकरणोंको संयुक्त-जुड़े हुए उपकरणोंके साथ-नहीं धरना चाहिए। इसी प्रकार बसूला और फरसा आदिके विषयमें भी समझना चाहिए। (५) उपभोग-परिभोगातिरेकता-उपभोग और परिभोगके साधनोंको आवश्यकतासे अधिक मात्रामें रखना, यह इस व्रतका पांचवां अतिचार है। यहां सामाचारी-उदाहरणार्थस्नानके लिए तालाब आदिपर जाते समय तेल ,आंवले आदिको अधिक मात्रामें ले जाना। ऐसा करनेपर दूसरे भी कितने ही मनुष्य लोलुपताके वश नहानेके लिए साथमें जाते हैं। इससे पूयरग (?) और जलकायिक आदि जीवोंका वध होता है। इसी अभिप्रायको फूल और पान आदिके विषयमें भो समझना चाहिए । इस प्रकारकी प्रवृत्ति उचित नहीं है। तब फिर श्रावकके लिए उपभोग व हानेकी क्या विधि है, इस प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है कि श्रावकको प्रथम तो घर में ही नहाना चाहिए। यदि घरमें नहाना नहीं हो सकता है तो तेल और आंवलोंसे सिर घिसकर और उसे अलग करके तब कहीं तालाब आदिके तटपर जाना चाहिए और वहां बैठकर अंजुलियोंसे नहाना चाहिए। इसी प्रकार जिन फूलोंमें पुष्पकोट आदि हों उनको छोड़ना चाहिए ।।२९१॥ इस प्रकार अतिचारोंके साथ अन्तिम तीसरे गुणव्रतका निरूपण करके तत्पश्चात् सामायिक, देशावकाशिक, पोषधोपवास और अतिथिसंविभाग इन चार शिक्षापदव्रतोंकी प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः सामायिक शिक्षापदव्रतका स्वरूप कहा जाता है उक्त चार शिक्षापदोंमें प्रथम सामायिक शिक्षापदको ही जानना चाहिए। वह क्रमसे सावद्य योगके परित्याग और इतर-निष्पाप योगके आसेवन रूप है। विवेचन-मोक्षपदको प्राप्त करानेवाली क्रियाका नाम शिक्षा है, उस शिक्षाके पद (स्थान) को शिक्षापदव्रत कहा जाता है। सूत्रक्रमके अनुसार सामायिक यह प्रथम शिक्षापद है। सामायिक १. अ आउकायव हो इ पुष्पतंबोलमाइंसु । २. अ साडिऊण । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २९२] प्रथमशिक्षापदप्ररूपणा १७७. प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्यायः समायः। समो हि प्रतिक्षणमपूर्ज्ञान-दर्शन-चारित्रपर्यायनिरुपमसुखहेतभिरध:कृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमैर्यज्यते । स एव समायः प्रयोजनमस्य क्रियानष्ठानस्येति सामायिकम्। समाय एव वा भवं सामायिकमिति शब्दार्थः। एतत्स्वरूपमाह-तत्तु सामा. यिकं ज्ञातव्यं विज्ञेयम् । स्वरूपतः कीदृगिति आह -सावद्येतरयोगानां यथासंख्यं वर्जनासेवन रूपमिति । तत्रावचं गहितं पापम्, सहावशेन सावद्यम, योगा व्यापाराः कायिकादयः तेषां' वर्जनारूपं परित्यागरूपमित्यर्थः । कालावधिनैवेति गम्यते । मा भूत्सावायोगपरिवर्जनामात्रमणपव्यापारासेवनाशून्यमेव सामायिकमिति, अन आह-इतरयोगापेवनारूतं निरवद्ययोगप्रतिसेवनारूपं चेति । सावद्ययोगपरिवर्जनवन्निरवद्ययोगपरिसेवनेऽपि अहनिशं यत्नः कार्य इति दर्शनार्थमेतदिति । एत्थ पण सामायारो-सामाइयं सावगेणं कई कायन्वं ति? इह सावगो दुविहो इढिपत्तो अणि ढिपत्तो य । जो सो अणि ढिपतो सो चेइयघरे साहसमोवे घरे वा पोसहसालाए वा जत्थ वा वीसमई अच्छड वा निव्वावारी सम्वत्थ करेड सव्वं. चउस ठाणेस णियमा कायव्वं चेइयघरे साहुप्ले पोसहसालाए घरे आवस्सगं करोति त्ति । तत्थ जइ साहुसगासे करेइ तत्य को विही ? जइ परंपरभयं णत्थि, जइ विय केणइ समं विवाओ णत्थि, जइ कस्पइ न धरेइ, मा तेण अच्छविच्छिथि कड ढिहिइ य, धारणगं दठूग गेण्हइ, मा भन्जिहिइ, जइँ वावारं ण करेइ ताहे घरे चेव साधाइयं काऊण वच्चइ पंचममिओ तिगतो इरियाउवउतो जहा साहू भासाए सावज्जं परिहरंतो एसणाए कटुं लेट्टुं वा पडिलेहिउँ पमज्जि। एवं आयाणे निक्खिवणे खेलशब्दका निरुक्त अर्थ करते हुए यहां यह कहा गया है कि जो राग-द्वेषसे रहित होकर समस्त प्राणियोंको अपने समान ही देखता है उसका नाम 'सम' है, 'आय' शब्द का अर्थ प्राप्ति है. तदनुसार समजीव जो प्रतिसमय अनुपम सुखकी कारणभून अपूर्व ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप पर्यायोंसे संयुक्त होता है उसे समाय (सम+आय ) कहा जाता है। यह समाय हो जिस क्रिया-अनुष्ठानका प्रयोजन हो उसका नाम सामायिक है। अथवा 'समाये भवम् सामायिकम्' इस विग्रहके अनुसार समाय हो जानेपर जो अवस्था होती है उसे सामायिकका लक्षण समझना चाहिए। यह सामायिक शब्दकी सार्थक संज्ञा है। अभिप्राय इसका यह हुआ कि श्रावक जो नियत समय तक सर्वसावद्ययोगके परित्यागपूर्वक निरवद्य योग-निष्पाप व्यापार--का परिपालन करता है, यह श्रावकका सामायिक नामक प्रथम शिक्षापदव्रत है। यहां सामाचारी-श्रावकको सामायिक कैसे करना चाहिए, इसके उत्तरमें यहां कहा गया है कि श्रावक दो प्रकारका होता है-ऋद्धिप्राप्त और अनृद्धिप्राप्त । इनमें जिसे ऋद्धि प्राप्त नहीं हई है वह चैत्यगृहमें, साधुके समीपमें, घरमें, प्रौषधशालामें, अथवा जहाँ भी वह व्यापारसे रहित होकर विश्रामपूर्वक स्थित रह सकता है वहां सर्वत्र सब कर सकता है। पर चैत्यगृह, साधुके मूलमें, प्रौषधशालामें व घरमें इन चार स्थानोंमें वह सब आवश्यक करता है। इनमें-से यदि वह साधुके समीपमें करता है तो क्या विधि है, इस प्रश्नके उत्तरमें कहा जा रहा है कि यदि दूसरेसे भय नहीं है, यदि किसीके साथ विवाद नहीं है, यदि कोई पकड़-धकड़ नहीं करता है, घृणा नहीं करता है, कर्षण नहीं करता है तथा पकड़ते हुए देखकर ग्रहण नहीं करता है, भागता नहीं है। यदि व्यापार नहीं करता है तो घर पर हो सामायिक करके पांच समितियोंसे सहित, तीन गुप्तियों १. मु व्यापाराः तेषां । २. अ वीसह। ३. अ णत्थि जइ सत्थए न धरेइ मा तेण अच्छवियंछ कज्जिहिइ जइय धारणगं दठ्ठण ण गण्हइ भिज्जिहिइ जइ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२९२सिंघाणए न विगिचइ, विगिचंतो वा पडिलेहेइ पमज्जिय। जत्थ चिट्टइ तत्थ तिगुत्तिणिरोह करेइ। एयाए विहीए गंता तिविहेण नमिऊण साहुणो पच्छा सामाइयं करेइ, करेमि भंते सामाइयं, सावज्जं जोगं पच्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव साहुं पज्जुवासामित्ति काऊण पच्छा इरियावहियं पडिक्कमइ । पच्छा आलोएत्ता वंदइ आयरियाइ जहारायणियाए। पुणो वि गुरुं वंदित्ता पडिलेहिता निविट्ठो पुच्छइ पढइ वा। एवं चेइएसु वि। जया सगिहे पोसहसालाए वा तत्थ नवरि गपणं णस्थि। जो इढिपत्तो सो सविड्ढोए एइ। तेण जणस्स आढा होइ आढियाय साहुणो सुपुरिसपरिग्गहेणं । जइ सो कयसामाइओ एइ ताहे आस-हत्थिमाइजणेण य अधिगरणं वढइ ताहे ण करेइ। कयसामाइएण य पाएहिं आगंतव्वं तेण ण करेइ आगओ साहुनमीवे करेइ। जइ सो सावगो तो ण कोइ उट्टइ। अह अहामद्दओ जइपूया कया होउत्ति भणंति ताहे पृवरइयं आसणं कोरइ आयरिया उढिया य अच्छंति तत्थ उट्टितमणुट्टिते दोसा विभासियव्वा। पच्छा सो इढिपत्तो' सामाइयं करेइ। अणेण विहिणा करेमि भंते सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव णियमं पज्जुवासामित्ति । एवं सामाइयं काउं पडिक्कतो वंदित्ता पूच्छइ सो य किर सामाइयं करेंतो मउडं अवणेइ, कुंडलाणि णाममुह पप्फतंबोलं पावारगमाइ वा वोसिरह। एसो विही सामाइयस्स ॥२९२॥ से संरक्षित, साधके समान ईर्यासे उपयक्त-सावधानीसे गमन करता हआ भाषासे सावद्यका परिहार करे व एषणामें काष्ठ अथवा लोष्ठ आदिका प्रतिलेखन व प्रमार्जन करे। इसी प्रकार आदान-निक्षेपणा में श्वेल (कफ) व नामिकामलको न गिगवे, यदि गिराना पड़े तो प्रतिलेखन व प्रमार्जन करके गिरावे । जहाँपर स्थित हो वहां तीन गप्तियोंका निरोध करे। इस विधिसे जाकर तीन प्रकारसे साधुको नमस्कार करे तत्पश्चात् सामायिक करे-जबतक साधुकी उपासना करता 'हे भगवन, मैं सामायिक करता हूँ, दो प्रकारके सावध योगका तीन प्रकारसे प्रत्याख्यान करता ऐसा करके पश्नात् ईर्यापथका प्रतिक्रमण करता है, पश्चात् आलोचना करके ज्येष्ठताके क्रमसे फरसे भी गुरुकी वन्दना करके प्रतिलेखनापूर्वक बैठकर पूछे व पढ़े। इसी प्रकार चैत्यगृहोंमें भी करना चाहिए। विशेषता इतनी है कि अपने घर अथवा प्रौषधशालामें गमनक्रिया नहीं है। यह अनृद्धिप्राप्त श्रावकके लिए सामायिकका विधान है। यदि श्रावक ऋद्धिप्राप्त है तो सब ऋद्धिके साथ वह आता है। इससे वह उत्तम पुरुषके ग्रहणसे आदरका पात्र होता है। यदि वह सामायिकको करके आता है तो घोड़ा और हाथी आदिके परिकरसे अधिकरण ( असंयम) बढ़ता है। इसलिए उस समय सामायिक न करे, प्रायः सामायिक करके ही आवे। इसीलिए नहीं करता है। यदि वह आ करके साधुके समीपमें सामायिकको करता है और यदि श्रावक है तो कोई न उठे। यदि अभद्र है तो यतिपूजा करना चाहिए, ऐसा कहते हैं । तब पूर्वरचित आसन किया जाता है। आचार्य उत्थित ही रहते हैं, वहां उत्थित और अनुत्थितके दोषोंको कहना चाहिए। पश्चात् वह ऋद्धिप्राप्त सामायिकको इस विधिसे करता है-हे भगवन्, मैं सामायिकको करता हूँ, दो प्रकारके सावद्य योगका तीन प्रकारसे तबतक प्रत्याख्यान करता हूँ जबतक कि साधुको उपासना करता हूँ। इस प्रकार सामायिक करके प्रतिक्रमण करता हुआ वन्दना करता है व पूछता है। वह सामायिक करता हुआ मुकुटको दूर कर देता है तथा कुण्डलों, नाममुद्रा, पुष्प, पान और वस्त्र आदिको भी हटा देता है। यह सामायिकको विधि है ।।२९२।। १. असो वठिए ए तेण जणस्स अढा । २. अ जया सो। .. भदोसा भासियव्वा इच्छा सो अढिपत्तो । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २९४ ] प्रथमशिक्षापदे साधु-श्रावकयोर्भेदप्रदर्शनम् १७९ अत्राह कयसामइओ सो साहुरेव ता इत्तरं न कि सव्वं । वज्जेइ य सावज्जं तिविहेण वि संभवाभावा ॥२९३॥ कृतसामायिकः प्रतिपन्नसामायिकः सन्नसौ श्रावको वस्तुतः साधुरेव सावद्ययोगनिवृत्तेः। यस्मादेवं तस्मात्, साधुवदेवेत्वरमल्पकालम् । न किं किं न सर्व निरवशेषं । वर्जयति ? परिहरत्येव । सावधं सपापम्, योगमिति गम्यते । त्रिविधेनापि मनसा वाचा कायेन चेति । अत्रोच्यतेसंभवाभावात् श्रावकमधिकृत्य त्रिविधेनापि सर्वसावद्ययोगवर्जनासंभवादिति ॥२९३॥ असंभवमेवाह... आरंभाणुमईओ कणगाइसु अग्गहाणिवित्तीओ। भुज्जो परिभोगाओ भेओ एसिं जओ भणिओ ॥२९४।। आरम्भानुमतेः श्रावकस्यारम्भेष्वनुमतिरव्यवच्छिन्नैव, 'तथा तेषां प्रवर्तितत्वात् । कनकादिषु द्रव्यजातेषु । आग्रहानिवृत्तेरीत्मीयाभिमानानिवृत्तेरनिवृत्तिश्च भूयः परिभोगादन्यथा सामायिकोतरकालमपि तदपरिभोगप्रसङ्गः, सर्वथा त्यक्तत्वात् । भेदश्चैतयोः साधु-श्रावकयोः। यतो भणित उक्तः परममुनिभिरिति ॥२९४॥ भेदाभिधित्सयाहआगे यहाँ प्रसंगसे सम्बद्ध शंकाको उठाकर उसका समाधान किया जाता है जो सामायिकको स्वीकार करता है इसलिए वह साधु हो है कारण यह कि वह क्या कुछ कालके लिए समस्त सावद्य योगको तीन प्रकारसे मन, वचन व कायसे-नहीं छोड़ देता हैअवश्य छोड़ देता है। इस शंकाके उत्तरमे कहा गया है कि श्रावकको तीनों प्रकारसे समस्त सावध योगका परित्याग करना सम्भव नहीं है। विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय यह है कि श्रावक जब सामायिक करता है तब वह नियत काल तक चूंकि समस्त सावद्य योगका मन, वचन व काय इन तीनों योगासे परित्याग करता है अतः वह साधु ही है। इस शंकाक समाधानमें यह कहा गया है कि श्रावकके लिए तीनों योगोंसे समस्त सावद्य योगका परित्याग करना सम्भव नहीं है, इसलिए उस उतने समयके लिए भी यथार्थमें साधु नहीं कहा जा सकता ॥२९३।। __ आगे उसके लिए समस्त सावध योगका त्याग करना सम्भव क्यों नहीं है, इसे हो स्पष्ट किया जाता है- . श्रावककी आरम्भकार्यमें अनुमति रहती ही है, कारण यह है कि 'ये सुवर्णादि द्रव्य मेरे हैं! इस प्रकारसे उन द्रव्योंके विषयमें उसका आग्रह ममत्वबुद्धि नहीं छूटता है-वह बराबर बना हा रहता है। इसका भी कारण यह है कि वह सामायिकके पश्चात् उनका पुनः उपभाग करता हो है। यदि ऐसा न होता तो वह सामायिक पश्चात् भी उनका उपभोग नहीं करता, पर पश्चात् उनका उपभोग करता तो है हो, क्योंकि उन्हें उसने सर्वदाके लिए नहीं छोड़ा है। यही कारण है जो साधु और श्रावक इन दोनों में भेद बतलाया गया है ॥२९४।। आगे उनमें जिन अधिकारोंके आश्रयसे भेद बतलाया है उनका निर्देश किया जाता है १. अषु जातेषु ग्रहानिवृत्ते । २. अ यत उक्तः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्रावकप्रज्ञप्तिः सिक्खा दुविहा गाहा उववायइिगईकसाया य । बंधंता वेयंता पडिवज्जाइक्कमे पंच || २९५ ॥ शिक्षाकृतः साधु-श्रावकयोर्भेदः । सा च द्विविधा ग्रहणासेवनारूपेति वक्ष्यति । तथा गाथा भेदिका, सामाइयंमि जे कए इत्यादिरूपेति वक्ष्यत्येव । तथोपपातो भेदकः स्थितिर्भेदिका, गतिभेदिका, कषायाश्च भेदकाः, बन्धश्च भेदकः, वेदना भेदिकाः, प्रतिपत्तिर्भेदिका, अतिक्रमो भेदक इत्येतत् सर्वमेव प्रतिद्वारं स्वयमेव वक्ष्यति ग्रन्थकारः पञ्चाथवा कि चेति पाठान्तरार्थसहितमपि इति द्वारगाथा समुदायार्थः || २९५ ॥ अधुनाद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह - [ २९५ - गहणावणवा सिक्खा भिन्ना य साहु- सड्डाणं । पवयणमाईचउदस पुव्वता पठमिया जइयो ।। २९६ ॥ ग्रहणासेवनरूपा शिक्षति शिक्षाभ्यासः, सा द्विप्रकारा ग्रहणरूपासेवनरूपा च । भिन्ना चेयं साधु-श्रावकयोः अन्यथारूपा साधोरन्यथारूपा श्रावकस्येति । तथा चाष्टप्रवचनमात्रादिचतुर्दशपूर्वान्ता प्रथमा यते रति ग्रहणशिक्षामधिकृत्य साधुः सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येनाष्टौ प्रवचनमातरस्त्रिगुप्तिपञ्चसमितिरूपा उत्कृष्टतस्तु बिन्दुसारपर्यन्तानि चतुर्दशपूर्वाणि गृह्णातीति ॥ २९६ ॥ पवयणमाईछज्जीवणियता उभयओ वि इयरस्स । पिंडेसणा उ अत्थे इत्ता इयरं पवक्खामि ।। २९७॥ प्रवचनमातृषडुजीवनिकायान्ता उभयतोऽपि सूत्रतोऽर्थतश्चेतरस्य श्रावकस्य । पिण्डैषणार्थतः, न सूत्रत इति । एतदुक्तं भवति - श्रावकः सुत्रतोऽर्थतश्च जघन्येन ता एव प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु षड्जीवनिकायं यावदुभयतः । अर्थतस्तु पिण्डेषणाम्, न तु तामपि सूत्रत इत्येतावद्गृह्णाति उक्ता ग्रहणशिक्षा, अत ऊर्ध्वमितरामासेवनशिक्षां प्रवक्ष्यामि यथासौ भेदिका एतयोरिति ॥ २९७॥ 3 ग्रहण और आसवनारूप दो प्रकारको शिक्षा, गाथा "सामाइयंमि उ कए" इत्यादि गाथा (२९९), उपपात, स्थिति, गति, कषाय, बन्ध, वेदना, प्रतिपत्ति और अतिक्रम; इन सबके द्वारा उक्त साधु और श्रावक इन दोनोंमे भेद किया जाता है । इन सब द्वारोंका विवचन - ग्रन्थकार आगे स्वयं क्रमसे करनवाल हैं । गाथामें टीकाकारने 'पंचाथवा' किंच ऐसा पाठान्तर सहित अर्थ भी सुझाया है (?) ||२९५|| आगे मुनको लक्ष्य करके ग्रहणरूप शिक्षाका निर्देश किया जाता है साधु और श्रावककी ग्रहण और आसेवनरूप शिक्षा ( अभ्यास ) भिन्न है । उनमें प्रवचनमातासे लेकर चौदह पूर्वं पर्यन्त यातको प्रथम ( ग्रहण ) शिक्षा है। अभिप्राय यह है कि साधु सूत्र और अर्थस कमसे कम तीन गुप्तियों और पाच समितियों रूप आठ प्रवचनमाताओं को ग्रहण करता है और अधिक से अधिक यह बिन्दुसार पर्यन्त चोदह पूर्वोको ग्रहण किया करता है || २९६ || अब श्रावकको लक्ष्य करके उक्त ग्रहणरूप प्रथम शिक्षाका निर्देश किया जाता है— इतर - साधुसे भिन्न श्रावक - उक्त प्रवचनमाताओको आदि लेकर छह जीवनिकाय पर्यन्त शिक्षाका सूत्र और अर्थ दोनोंसे ही ग्रहण करता है । किन्तु भिक्षा ग्रहणका विधिस्वरूप १. अ 'उ' नास्ति । २. अ सेवणभूया सिक्ता । ३. अ भेदिका तयोरिति । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २९९ ] प्रथमशिक्षापदे साधु श्रावकयोर्भेदप्रदर्शनम् संपुन परिपालइ सामायारिं सदेव साहु ति । saratoमिव अपरिन्नाणाइओ न तहा || २९८ || १८१ संपूर्णां निरवशेषाम् । परिपालयत्यासेवते । सामाचारों मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्षणादिकां क्रियाम् । सदैव सर्वकालमेव । साधुरित्या जन्म तथाप्रवृत्तेः । इतरः श्रावकस्तत्कालेऽपि सामायिकसमयेऽपि । अपरिज्ञानादेरपरिज्ञानादभिष्वङ्गानिवृत्त्या असंभवादनभ्यासाच्च । न तथा पालयत्येवमासेवनाशिक्षापि भिन्नैव तयोरिति द्वारम् ॥ २९८ ॥ सूत्रप्रामाण्याच्च विशेष इति गाथेत्युपलक्षिता, तामाह सामाइयम्म उकए समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ २९९ ॥ सामायिके प्रानिरूपितशब्दार्थे । तुशब्दोऽवधारणार्थ:- सामायिक एव कृते, न शेषकालम् । श्रमण इव साधुरिव । श्रावको भवति यस्मादेतेन कारणेन बहुशोऽनेकशः सामायिक कुर्यादिति । अत्रे श्रमण इवोक्तं, न तु श्रमण एवेति । यथा समुद्र इव तडागम्, न तु समुद्र एवेत्यभिप्राय इति द्वारम् ॥ २९९ ॥ पिण्डैषणाको वह केवल अर्थ से ग्रहण करता है, सूत्र से नहीं । अभिप्राय यह है कि श्रावक जघन्यसे उक्त आठ प्रवचनमाताओंको और उत्कर्षसे छह जीवनिकायों तक सूत्र और अर्थ दोनोंसे ग्रहण करता है ||२९७|| आगे उन दोनों में भेदको प्रकट करनेवाली आसेवनारूप शिक्षाका निर्देश किया जाता हैसाधु सदा ही सम्पूर्ण सामाचारीका पालन करता है । परन्तु श्रावक उस सामायिक के समय में भी अपरिज्ञानादिके कारण उस प्रकारसे पालन नहीं करता है । विवेचन – प्रतिसेवनारूप दूसरी शिक्षाको अपेक्षा साधु सम्पूर्ण सामाचारीका - साधुके योग्य सभी आचारविषयक क्रियाकलापका - निरन्तर पालन करता है, परन्तु श्रावक सामाकिके समय में भी तद्विषयक ज्ञानके न होने, आसक्तिकी अनिवृत्ति, असम्भावना और अनभ्यासके कारण साधु के समान उस सामाचारीका पालन नहीं करता है। इस प्रकार प्रतिसेवनारूप शिक्षाकी अपेक्षा भी उन दोनों में भेद है || २९८ ॥ अब जिस गाथासूत्रकी अपेक्षा उन दोनों में भेद है उस गाथासूत्र को दिखलाते हैं सामायिक करने पर जिस कारण श्रावक श्रमणके समान होता है इस कारण से उसे बहुत बार सामायिक करना चाहिए। विवेचन - आगम (२९२ ) में सामायिक के स्वरूपको दिखलाते हुए यह कहा गया है कि श्रावक नियत कालके लिए तीन प्रकारसे समस्त सावद्य योगका परित्याग करता है, इसलिए वह साधु जैसा ही होता है । प्रकृत गाथा ( २९९ ) में चूँकि श्रावकको श्रमणके समान ही कहा गया है, न कि स्वयं श्रमण कहा गया है, इसीसे श्रावककी श्रमणसे भिन्नता सिद्ध होती है । उदाहरण के रूप में जब यह कहा जाता है कि 'यह तालाब तो समुद्र के समान है' तत्र उसे स्वयं समुद्र न समझकर यही समझा जाता है कि वह समुद्रके समान गम्भीर व विस्तृत है । इसी प्रकार प्रकृतमें भी श्रावकको साधु के समान कहने का यहो अभिप्राय है कि वह स्वयं साधु न होकर सामायिक के १. अ कुर्यादित्यर्थः । २ अ 'अत्र' नास्ति । ३. अ इवेति । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३००उपपातो विशेषक इत्येतदाह अविराहियसामन्नस्स साहुणो सावगस्स ये जहन्नो । सोहंमे उववाओ भणिओ तेलुक्कदंसीहिं ॥३०॥ अविराधितश्रामण्यस्य प्रव्रज्यादिवसादारभ्याखण्डितश्रमणभावस्य साधोः। श्रावकस्य च, अविराधितश्रावकभावस्येति गम्यते। जघन्यः सर्वस्तोकः । सौधर्मे प्रथमदेवलोके। उपपातो भवति जन्म भणित उक्तः त्रैलोक्यशिभिः सर्वज्ञैरिति ॥३०॥ उक्कोसेण अणुत्तरअच्चुयकप्पेसु तत्थ तेसि ठिई। तित्तीससागराइं बावीसं चेव उक्कोसा ॥३०१॥ उत्कृष्टतोऽनुत्तराच्युतकल्पयोरिति-साधोरनुत्तरविमानेषु, श्रावकस्याच्युतकल्प उपपात इति द्वारम् । तत्र तयोरिति तत्रानुत्तरविमानाच्च्युतयोस्तयोः साधु-श्रावकयोः स्थितिविशिष्टप्राणसंधारणात्मिका यथासङ्ख्यं त्रयस्त्रिशत्सागरोपमणि द्वाविंशतिरित्युत्कृष्टा-साधोस्त्रय. स्त्रिशदनुत्तरेषु, श्रावकस्य तु द्वाविंशतिरच्युत इति गाथार्थः ॥३०१॥ पलिओवमप्पुहुत्तं तहेव पलिओवमं च इयरा उ । दुहं पि जहासंखं भणियं तेलुक्कदंसीहिं ॥३०२॥ पल्योषमपृथक्त्वं तथैव पल्योपमं चेतरा जघन्या सौधर्म एव साधोः पल्योपमपृथक्त्वं स्थितिः। द्विप्रभृतरा नवभ्यः पृथक्त्वम् । श्रावकस्य तु पल्योपममिति । अत एवाह द्वयोरपि साधु-श्रावकयोभणिता त्रैलोक्यशिभिः, स्थितिगम्यते इति द्वारम् ॥३०२॥ कालमें समस्त सावद्य योगका त्याग कर देनेके कारण साधु जैसा है। इस प्रकार इस गाथासूत्रसे भी श्रावक और साधुमें भेद सिद्ध है ।। २२९ ॥ आगे जघन्यसे उपपातको अपेक्षा भी साधु और श्रावकमें भेद दिखलाया जाता है-- जिसने श्रमणाचारको विराधना नहीं को है वह श्रमण तथा जिसने श्रावकाचारको विराधना नहीं की है वह श्रावक भी जघन्यसे सोधर्म कल्पमें उत्पन्न होता है । इस प्रकार त्रिलोकदशियों ( सर्वज्ञों ) के द्वारा उन दोनोंका उपपात जघन्यसे सौधर्म कल्पमें कहा गया है ॥३०॥ आगे उत्कर्षसे उनके उपपातको दिखलाते हए वहां उनका उत्कर्षसे कितने काल तक उनका अवस्थान रहता है, इसका भी निर्देश किया जाता है उत्कर्षसे उनका उपपात क्रमसे अनुत्तर और अच्युत कल्पोंमें होता है, अर्थात् अविराधित श्रमणाचारका पालन करनेवाला साधु उत्कर्षसे अनुत्तर विमानोंमें तथा निरतिचार श्रावकाचारका पालन करनेवाला श्रावक उत्कर्षसे अच्युत कल्पमें उत्पन्न होता है। वहां उनकी उत्कृष्ट आयुस्थिति यथाक्रमसे तैंतीस सागरोपम और बाईस सागरोपम काल तक होती है ॥३०१॥ आगे वहां उनकी जघन्य आयुका निर्देश किया जाता है उपर्युक्त साधु और श्रावकको जघन्य आयु उक्त सौधर्म कल्पमें त्रिलोकदर्शियों ( सर्वज्ञों) के द्वारा यथाक्रमसे पल्योपमपृथक्त्व और पल्योपम मात्र कही गयो है । दोसे लेकर नौ पर्यन्तकी संख्याका नाम पृथक्त्व है ।।३०२।। १. अ 'य' नास्ति । २. अ कप्पेसु तत्थेस्तु ठितो। ३. अ तेवीस सागराइ। ४. अ अतोऽग्रेऽग्रिम 'पृथक्त्वं' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ -३०४] प्रथमशिक्षापदे साधु-श्रावकयोर्भेदप्रदर्शनम् तथा गतिभैदिकेत्याह पंचसु ववहारेणं जइणो सड्ढस्स चउसु गमणं तु । गइसु चउपचमासु चउसु यं अन्ने जहाकमसो ॥३०३॥ व्यवहारेण सामान्यतो लोकस्थितिमङ्गीकृत्य पञ्चसु यतेः साधोः, श्रावकस्य चतसृषु गमनमिति । कासु ? गतिषु नारकतिर्यड्नरामरसिद्धिरूपासु । चउ.पंचमासु चउसु य अन्ने जहाकमसोअन्ये त्वभिदधति साधोः सुरगतौ मोक्षगतौ च श्रावकस्य चतसृष्वपि भवान्तर्गतिष्विति द्वारम् ॥३०३॥ कषायाश्च भेदका इत्याह चरमाण चउन्हं पि हु उदओऽणुदओ व हुज्जे साहुस्स । इयरस्स कसायाणं दुवालसट्ठाणमुदओ उ ॥३०४॥ संज्वलनानां चतुर्णामपि क्रोधादीनां कषायाणामुदयोऽनुदयो वा भवेत्साधोरुदयश्चतुस्त्रिद्वयेकभेदः, अनुदयोऽप्येवं छद्मस्थ-वीतरागादेर्भावनीयः। इतरस्य श्रावकस्य । कषायाणां द्वादशानामष्टानां चोदय एवेति-यदा द्वादशानां तदा अनन्तानुबन्धिवर्जा गृहान्ते, एते चाविरतस्य विजेयाः। यदा त्वष्टानां तदानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानवर्जाः, एते च विरताविरतस्येति द्वारम् ॥३०४॥ अब गतिको अपेक्षा साधु और श्रावकमें भेद दिखलाया जाता है व्यवहारसे साधुका गमन पांचों-नारक, तिथंच, मनुष्य, देव और सिद्ध इन पांचोंगतियोंमें तथा श्रावकका सिद्धगतिको छोड़कर चार गतियोंमें होता है। अन्य कितने ही आचार्योंके मतानुसार साधु और श्रावकका गमन यथाक्रमसे चोथो ( देवगति ) व पांचवीं (सिद्धगति ) में तथा चारों ही गतियों में होता है। अभिप्राय यह कि उनके मतानुसार साधु देवगतिमें जाता है अथवा मुक्तिको प्राप्त कर लेता है। परन्तु श्रावक अपने परिणामके अनुसार यथासम्भव नारक आदि चारों गतियोंमें जा सकता है ।।३०३।। आगे कषायको अपेक्षा उन दोनोंमें भेद प्रकट किया जाता है साधुके अन्तिम चारों ही का-संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का-उदय अथवा अनुदय होता है। परन्तु श्रावकके बारह और आठ कषायोंका उदय होता है। विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरणसंयत तक इन गुणस्थानोंमें संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों अन्तिम कषायोंका उदय रहता है। आगे अनिवृत्तिकरणसंयत नामक नौवें गुणस्थानमें किसीके उक्त चारों संज्वलन कषायोंका, किसीके क्रोधको छोडकर शेष तीनका. किसीके संज्वलन माया और लोभ इन दोका तथा किसीके एक संज्वलन लोभका ही उदय रहता है। आगे दसवें गुणस्थानमें सूक्ष्मसाम्परायसंयतके एकमात्र संज्वलन लोभका उदय रहता है। ग्यारहवें गणस्थानमें उपशान्त कषाय संयतके उनका उपशम हो जानेके कारण चारोंका ही अनुदय रहता है। आगे क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवलीके उनका क्षय-निर्मूल विनाश-हो जानेके कारण चारोंका अनुदय रहता है। १. अचइपंचमासु य चउस य । २. अ भवांतगतास्थितिद्वारं। ३. अ चरिमाण चउण्डं। ४. अ होज्ज । ५. अ सट्ठाण सो उदउ । ६. अ चिरमाणां [चरमाणं ] संज्वलनानां । ७. अ यदा द्वादशादयश्चतुस्त्रिद्वयेकभेदः अनुदयोप्येवं एते । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३०५तथा बन्धश्च भेदक इत्येतदाह मूलपयडीसु जइणो सत्तविहट्टविह-छव्विहिक्कविहं'। बंधंति न बंधंति य इयरे उ सत्तविहबंधा ॥३०॥ मूलप्रकृतिषु ज्ञानावरणादिलक्षणासु विषयभूतासु तस्मिन् विषय इति । के ? यतय इति साधवः । सप्तविधाष्टविध षड्विधैकविधबन्धकाबन्धकाश्च भवन्ति, एतद्भावयिष्यति । इतरे श्रावकाः। सप्तविधबन्धकाः। तुशब्दादष्टविधबन्धकाश्चायुष्कबन्धकाल इति ॥३०५।। एतदेव विवृण्वन्नाह सत्तविहबंधगा हुति पाणिणो आउवज्जियाणं तु । तह सुहुमसंपराया छविहबंधी विणिद्दिद्दा ॥३०६॥ सनविक्षन्धका भवन्ति । प्राणिनो "जीवाः । आयुर्वजितानामेव ज्ञानावरणीयादिप्रकृतीनां समानामिति । तथा सक्ष्मसंपरायाः श्रेणिद्वयमध्यवर्तिनः तथाविधलोभाणुवेदकाः। षविधबन्धका विनिर्दिष्टास्तीर्थकृद्धिरिति ॥३०६॥ wwwmmmmmm परन्तु श्रावकके यदि वह अविरतपम्यग्दृष्टि-चतुर्थ गुणस्थानवर्ती-है तो अनन्तानुबन्धिचतुथ्यको छोड़ शेष 'बारह कषायोंका उदय रहता है। उसके संयतासंयत-पंचम गुणस्थानवर्तीहोनेपर उसके चार प्रत्याख्यानावरण और चार संज्वलन इन आठ कषायोंका उदय रहता है। इस प्रकार कषायको अपेक्षा भी साधु और श्रावक दोनोंमें भेद जानना चाहिए ।।३०४॥ आगे क्रमप्राप्त बन्धकी अपेक्षा भी उन दोनों में भेद दिखलाया जाता है साधु ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियोंमें सात (आयुको छोड़कर ) प्रकारको, आयुके साथ आठ प्रकारकी. छह प्रकारको और एक प्रकारको प्रकृतियोंको बांधते हैं, तथा नहीं भी बांधते हैं। पर चतुर्थ और पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक सात प्रकारको प्रकृतियोंको बांधते हैं। गाथामें उपयुक्त 'उ' शब्दसे यह भी सूचित किया गया है कि आयुबन्धके समयमें वे आठ प्रकारको प्रकृतियोंको भी बांधते हैं ॥३०५॥ आगे प्रकृत गाथाके अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए सात प्रकारके बन्धक कौन और छह प्रकारके बन्धक कौन हैं, इसे स्पष्ट करते हैं प्राणी आयको छोडकर सात प्रकारके बन्धक होते हैं तथा सूक्ष्मसाम्परायिक संयत छह प्रकारके बन्धक कहे गये हैं। विवेचन-कर्मको मूल प्रकृतियाँ ये आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें प्रथम गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक जब आयुकर्मका बन्ध नहीं होता है तब जोव उस आयुके बिना शेष सात प्रकृतियोंके बन्धक होते हैं तथा आयुबन्धके समय वे आठों ही मूल प्रकृतियोंके बन्धक होते हैं। यहां इतना विशेष समझना चाहिए कि तीसरे ( मिश्र ) गुणस्थानमें आयुका बन्ध सम्भव नहीं है, अतः इस गुणस्थानवर्ती सम्यमिथ्यादृष्टि जीव सदा सात प्रकृतियोंके हो बन्धक होते हैं। आयुका बन्ध ज्ञानावरणादिके समान सदा नहीं होता। आयुकी अपेक्षा जीव दो प्रकारके हैं-सोपक्रमायुष्क और निरुपक्रमायुष्क । कर्मभूमिज १. अच्छविहेक्कविहं । २. अन च बंधंति उ इतियरे सत्तविहबंधाउ । ३. अ षड्विधैकविधं बध्नति न बघ्नंत्येतद् भावयिष्यति । ४. अ आउवज्ज गाणं । ५. अ जीवायुर्वज्जिता। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ - ३०८] प्रथमशिक्षापदे साधु-श्रावकयोर्भेदप्रदर्शनम् मोहाऊवज्जाणं पयडीणं ते उ बंधगा भणिया । उवसंतखीणमोहा केवलिणो एगविहेबंधा ॥३०७॥ मोहायुर्वर्जानां प्रकृतीनां ज्ञानावरणादिरूपाणां ते तु सूक्ष्मसंपराया बन्धका भणिताः। मोहनीयं नै बध्नन्ति, निदानाभावात्तस्य किंचिच्छेषमात्रत्वावस्थितावप्यसमर्थत्वात, आयुष्क न बध्नन्ति, तथाविधपरिणामोपात्तस्य वेदनास्थानाभावात् । उपशान्त-क्षीणमोहाः श्रेणिद्वयोपरिवर्तिनः उपशान्त-क्षीणच्छद्मस्थवीतरागाः केवलिनश्च सयोगिभवस्था एकविधबन्धका इति ॥३०॥ ते पुण दुसमयठिइस्स बंधगा न उण संपरायस्स । सेलेसीपडिवन्ना अबंधगा हुति नायव्वा ॥३०८॥ तिथंच और मनुष्योंमें जो जीव सोपक्रमायुष्क-आयुके विघातक उपक्रमसे सहित-होते हैं वे अपनी भुज्यमान आयुके दो त्रिभागोंके बीत जानेपर आयुबन्धके योग्य होते हैं। आयुबन्धके योग्य इस कालमें कितने ही जीव आठ बार, कितने ही सात बार, छह बार, पांच बार, चार बार, तीन बार, दो बार और कितने ही एक बार उस आयुको बाँधा करते हैं। उनमें जिसने अपनी भुज्यमान आयुके तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें उसका बन्ध प्रारम्भ किया है वह उसे अन्तमहतंमें समाप्त करके आठवें अपकर्षकाल तक बांधो गयी समस्त आयुस्थितिके नौवें और इसी क्रमसे सत्ताईसवें आदि भागके शेष रहनेपर फिरसे भी उस आयुबन्धके योग्य हुआ करता है। परन्तु जिस जीवके उन आठ अपकर्षकालोंमें-से एक बार भी उसका बन्ध नहीं होता है वह उसे असंक्षेपाद्धाकाल (आवलीके असंख्यातवें भाग ) में नियमसे उसको बांधता है। निरुपक्रम-आयुविघातक उपक्रमसे रहित-असंख्यातवर्षायुष्क भोगभूमिज मनुष्य व तिथंच तथा देव व नारकी जीव अपनी भुज्यमान आयुके छह मास मात्र शेष रह जानेपर उसके तृतीय विभाग, नौवें और सत्ताईसवें आदि भागमें परभव सम्बन्धी आयुके बन्धके योग्य हुआ करते हैं (विशेषके लिए देखिए पु. १० पृ. २३३ व २३८ तथा पु. ६, पृ. १७०)। आठवें और नौवें गुणस्थानवर्ती जीव आयुके बिना सात मूल प्रकृतियोंके बन्धक हैं। इसका कारण यह है कि आयुका बन्ध सातवें गुणस्थान तक हो होता है, उसके आगे नहीं होता। सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थानवी जीव मोहनीय और आयुके बिना छह प्रकृतियोंके बन्धक हैं ॥३०६।। आगे सूक्ष्मसाम्परायको उक्त छह प्रकृतियोंका निर्देश करते हुए एकविधबन्धक कौन हैं, उनका भी उल्लेख किया जाता है उपर्युक्त सूक्ष्मसाम्परायिक संयत मोह और आयुको छोड़कर शेष छह मूल प्रकृतियोंके बन्धक कहे गये हैं । क्रमसे उपशमणि और क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ उपशान्तमोह व क्षीणमोह तथा सयोगिकेवली ये एकविध बन्धक हैं-एकमात्र वेदनीय कर्मके बन्धक हैं। कारण यह है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र और अन्तराय इन पांच प्रकृतियोंका बन्ध दसवें गुणस्थान तक ही होता है ॥३०७॥ आगे उक्त उपशान्तकषायादिको बन्धस्थितिका दिग्दर्शन कराते हुए यह दिखलाते हैं कि अयोगिकेवलो बन्धक नहीं हैं १.अ मोहउयवज्जाणं पगडीए उ । २. अ एगविध । ३. 'न' नास्ति । ४. अ किंचिद्विशेष । २४ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३०९ - ते पुनरुपशान्तमोहादयस्तस्यैकविधस्य द्विसमयस्थितेरोर्यापथस्य बन्धकाः, न पुनः सांपरायिकस्य पुनर्भवहेतोरिति । शैलेशोप्रतिपन्ना अयोगिकेवलिनोऽबन्धका भवन्ति ज्ञातव्याः सर्वथा निदानाभावादिति द्वारम् ॥३०॥ तथा वेदना भेदिकेत्याह अट्ठण्हं सत्तण्हं चउण्हं वा वेयगो हवइ साहू । कम्मपयडीण इयरो नियमा अट्ठण्ड विन्नेओ ॥३०९॥ अष्टानां सप्तानां चतसृणां' वा वेदको भवति साधुः । कासां ? कर्मप्रकृतीनामिति । तत्राष्टानां यः कश्चित्, सप्तानामुपशान्त क्षीणमोहच्छद्मस्थ वीतरागो मोहनीयरहितानाम, चत. सृगामुत्पन्नकेवलो वेदनीय नाम गोत्रायूरूपाणाम् । इतरः श्रावको देशविरतिपरिणामवर्ती नियमा. दष्टानां विज्ञेयो वेदक इति द्वारम् ॥३०९॥ प्रतिपत्तिकृतो भेद इति अत्र आहे पंच महव्वय साहू इयरो इक्काइणुव्वए अहवा । सइ सामइयं साह पडिवज्जइ इत्तरं इयरो ॥३१०॥ पञ्चमहाव्रतानि प्राणातिपातादिविरमणादोनि संपूर्णान्येव साधुः प्रतिपद्यत इति योगः। इतरः श्रावकः एकादीनि अणुव्रतानि प्रतिपद्यत इत्येकं द्वे त्रीणि चत्वारि पञ्च चेति। अथवा सकृत्सामायिकं साधुः प्रतिपद्यते सर्वकालं च धारयति । इत्वरमितरः श्रावकोऽनेकशो न च सदा पालयतीति द्वारम् ॥३१०॥ उपर्युक्त उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली ये दो समय स्थितिवाले एक वेदनीय कर्मके ईर्यापथबन्धक हैं। वे साम्परायिक-पुनर्जन्मके कारणभूत-उस वेदनीय कर्मके बन्धक नहीं हैं । अभिप्राय यह है कि इनके जो एक मात्र वेदनीय कर्मका बन्ध होता है वह भी दो समयकी स्थितिसे अधिक नहीं होता। शैलेशो-शैलेश ( सुमेरु पर्वत ) के समान स्थिरताको प्राप्त अयोगिकेवलियोंको अबन्धक जानना चाहिए-उनके उक्त आठ मूल प्रकृतियोंमें-से किसीका भी बन्ध नहीं होता है। इसीलिए यहां उन्हें प्रबन्धक कहा गया है ॥३०८।। अब क्रमप्राप्त वेदना ( उदय ) की अपेक्षा भी उन दोनोंमें भेद प्रकट किया जाता है साधु आठ, सात अथवा चार मूल कर्म प्रकृतिका वेदक होता है । परन्तु दूसरा ( श्रावक ) नियमसे आठों हो कर्मप्रकृतियोंका वेदक होता है, यह जानना चाहिए। विवेचन-साधुओंमें छठे प्रभत्तसंयनसे लेकर सूक्ष्मसाम्राय संयत तक आठों कर्मप्रकृतियोंके वेदक होते हैं । उपशान्तकषाय और क्षोणकषाय ये दो मोहनीयके बिना शेष सातके वेदक होते हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये चार घातिया कर्मोंसे रहित वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघातिया कर्मों के वेदक होते हैं। परन्तु श्रावक सब ही नियमसे आठों मूल कमप्रकृतियोंके वेदक होते हैं ॥३०९|| आगे प्रतिपत्तिकी अपेक्षा उन दोनोंमें भेद दिखलाते हैं साधु पाँचों ही महाव्रतोंको स्वीकार करता है, परन्तु श्रावक एक आदि-एक, दो, तीन, चार अथवा पांवों हो–अणुव्रतोंको स्वीकार करता है। अथवा साधु एक हो बार सामायिक को १. अ चतिसणां। २. अ देश इति परिणाममिति नियमादष्टानां । ३. अ प्रतिपत्तयोग इत्यत आह । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३१२] प्रथमशिक्षापदेऽतिचारनिरूपणम १८७ अतिक्रमो भेदक इति एतदाह इक्कस्सइक्कमे खलु वयस्स सव्वाणइक्कमो जइणो। इयरस्स उ तस्सेव य पाठंतरमो हवा किंच ॥३११॥ एकस्यातिक्रमे. केनचित्प्रकारेण व्रतस्य । सर्वेषामतिक्रमो यतेस्तथाविधैकपरिणामत्वात् । इतरस्य तु श्रावकस्य । तस्यैवाधिकृतस्याशुव्रतस्य, न शेषाणाम्, विचित्रविरतिपरिणामात् । पाठान्तरमेवाथवा द्वारगाथायाम् । तच्चेदं कि च "सव्वं ति भाणिऊणं" 'इत्यादिग्रन्थान्तरापेक्षमन्यत्रेति ॥३१॥ उक्तमानुषङ्गिकम्, प्रकृतं प्रस्तुमः । इदमपि च शिक्षापदव्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति तानाह मण-बयण-कायदुप्पणिहाणं सामाइयम्मि वज्जिज्जा । सइअकरणयं अणट्ठियस्स तह करणयं चेव ॥३१२॥ मनोवाक्कायदुःप्रणिधानं मनोदुष्टचिन्तनादि। सामायिके कृते सति वर्जयेत्, स्मृत्यकरगतां अनवस्थितस्य तथा करणं चैव वर्जयेत् । तत्र स्मृत्यकरणं नाम सामायिकविषया या स्मृतिस्तस्या अनासेवनमिति : एतदुक्तं भवति प्रबलप्रमादान्नैव स्मरत्यस्यां वेलायां सामायिक कर्तव्यम्, कृतं न कृतमिति वा । स्मृतिमूलं च मोक्षसाधनानुष्ठानमिति । सामायिकस्यानवस्थितस्य करणं अनवस्थितमल्पकालं करणानन्तरमेव त्यजति यथाकञ्चिद्वानवस्थितं करोतीति ॥३१२॥ स्वीकार करता है किन्तु पालन उसका वह सदा काल करता है। इसके विपरीत श्रावक उसे अनेक बार स्वीकार करता है और पालन उसका वह सदा नहीं करता है। इस प्रकार प्रतिपत्ति (व्रतको स्वीकृति ) की अपेक्षा भो उन दोनोंमें भेद है ॥३१०|| अब अतिक्रमकी अपेक्षा भी उन दोनोंमें भेद प्रकट किया जाता है यतिके किसी एक व्रतका अतिक्रम ( खण्डन ) होनेपर सब हो व्रतोंका अतिक्रम होता है, क्योंकि वह उस प्रकारके एक ही परिणामसे सहित होता है। पर श्रावकके जिस अणुव्रतका अतिक्रम होता है उसीका वह अतिक्रम होता है, शेष व्रतांका अतिक्रम उसके नहीं होता, क्योंकि विरतिका परिणाम उसके विचित्र हुआ करता है। अथवा 'द्वारगाथा ( २९५ ) में 'पंच' के स्थानमें 'कि च' पाठान्तर है, तदनुसार अर्थ सहित ग्रहण करना चाहिए ॥३११।। इस सामायिकके प्रसंगसे कुछ आनुषंगिक विवेवन करके उसके भो निरतिचार परिपालनके लिए अतिचारोंका निर्देश किया ज मनका दुष्प्रणिधान, वचनका दुष्प्रणिधान, कायका दुष्प्रणिधान, स्मृतिको अकरणता और अनवस्थित सामायिकका करना; ये पांच उक्त सामायिकको दूषित करनेवाले उसके अतिवार हैं । उनका परित्याग करना चाहिए ॥३१२।। १. मुद्रितप्रतौ पादटिप्पणके इयं गाथा उद्धृता दृश्यते-सव्वं ति भाणिऊणं विरई खल जस्त सम्विया नत्थि । सो सम्वविरइवाई चुक्कइ देसं च सव्वं च ॥ २. अ अतोऽग्रे प्रकृतगाथाया उत्थानिकागत '०षङ्गिकं प्रकृतं प्रस्तुमः' इत्यत आरभ्य गाथान्तर्गत 'सइअकरणयं' पर्यन्तः संदर्भः पुनरपि लिखितोऽस्ति, तदन च 'तत्र स्मृत्यकरणं नाम' इत्यादि प्रकृतगाथाटीकाभागो लिखितोऽस्ति । ३. अस्थितकल्पकालं । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '. १८८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३१३एतदेव अतिचारजातं विधि-प्रतिषेधाभ्यां स्पष्टयति सामाइयं ति काउं परचिंतं जो उ चितई सड्ढो । अवसट्टोवगओ निरत्थयं तस्स सामइयं ॥३१३॥ सामायिकमित्येवं कृत्वा आत्मानं संयम्य । परचिन्तां संसारे इतिकर्तव्यताविषयाम् । यस्त चिन्तयति श्रावकः। आर्तवशार्तश्च स उपगतश्चेति समासः, आर्तध्यानसामर्थ्येनातः, उप सामीप्येन गतो भवस्येति भावार्थः। निरर्थकं तस्य सामायिकं अनात्मचिन्तावतो निःफलं सामायिकमित्यर्थः। आत्मचिन्ता च सद्धयानरूपेति (१) ॥३१३॥ उक्तो मनोदुःप्रणिधानविधिः, सांप्रतं' वाग्दुःप्रणिधानमाह कयसामइओ पुवि बुद्धीए पेहिऊण भासिज्जा । सइ अणवज्जं वयणं अन्नह सामाइयं न भवे ॥३१४॥ कृतसामायिकः सन् श्रावकः। पूर्वमाद्यम्। बुद्धया प्रेक्ष्यालोच्य। भाषेत ब्रूयात् । सदा निरवद्यवचनम्, प्रणालिकयापि न कस्यचित्पीडाजनकम् । अन्यथानालोच्य भाषमाणस्य । सामा. यिकम् न भवेत्, वाग्दुःणिहितत्वादिति (२) ॥३१४॥ भणितो वाग्दुःप्रणिधानातिचारः, सांप्रतं काय[दुः]प्रणिधानमुररीकृत्याह अनिरिक्खियापमज्जिय थंडिल्ले ठाणमाइ सेवंतो। हिंसाभावे वि न सो कडसामइओ पमायाओ ॥३१५॥ . आगे इन अति चारोंको स्पष्ट करते हुए प्रथमतः मनके दुष्प्रणिधानका निषेध किया जाता है___'सामायिक' इस प्रकार करके-अपनेको संयमित करके-जो श्रावक आर्त-रौद्ररूप . दुनिके वशीभूत होकर परचिन्ताको अन्य सांसारिक करणीय कार्योंका-चिन्तन करता है उसकी सामायिक निरर्थक है। विवेचन-सामायिकमें सर्वसावध योगका त्याग करना आवश्यक है। पर यदि कोई श्रावक उस सामायिकमें स्थित होकर क्रोध, लोभ व ईर्ष्या आदिके वश होता हुआ आत्मस्वरूपसे भिन्न अन्य आरम्भादि विषयक सावध कार्यका चिन्तन करता है तो यह मनदष्प्रणिधान नामक प्रथम अतिचार होगा, जिसका त्याग करना आवश्यक है। यदि वह आतं व रौद्र ध्यानके वशं मनदुष्प्रणिधानको नहीं छोड़ सकता है तो उसका सामायिक करना व्यर्थ होगा ॥३१३।। अब क्रमप्राप्त दूसरे वचनदुष्प्रणिधानके स्वरूपको दिखलाते हुए उसके परित्यागको ओर ध्यान दिलाया जाता है ___नो सामायिकके करनेमें उद्यत है उसे पूर्व में बुद्धिसे विचार कर सदा निर्दोष भाषण करना चाहिए। अन्यथा-यदि वह निरवद्य वचनका उच्चारण नहीं करता है तो वह उसको यथार्थ सामायिक न होकर वचन दुष्प्रणिधान नामक दूसरे अतिचारसे मलिन होगी ॥३१४।। आगे कायदुष्प्रणिधानसे भी सामायिकको निरर्थकता प्रकट की जाती है १. अ अतोऽग्रेऽनिमगाथायाः (३१५) उत्थानिकागत'सांप्रतं' पर्यन्तः संदर्भो न लिखितोऽस्ति । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३१७] प्रथमशिक्षापदेऽतिचारनिरूपणम् १८९ अनिरीक्ष्य चक्षुषा। अप्रमृज्य च मृदुवस्त्रान्तेन। स्थण्डिले कल्पनीयभूभागे। स्थानादि कायोत्सर्ग-निषीदनादि । सेवमानः सन्। हिसाभावेऽपि प्राण्यभावेने कथंचिद्व्यापत्त्यभावेऽपि । नासौ कृतसामायिकः। कुतः प्रमादात्काये दुःप्रणिधानादिति (३) ॥३१॥ प्रतिपादितः कायदुःप्रणिधानमार्गः सांप्रतं स्मृत्यकरणमधिकृत्याह न सरइ पमायजुत्तो जो सामइयं कया उ कायव्वं । कयमकयं वा तस्स उ कयं पि विफलं तयं नेयं ॥३१६॥ न स्मरति प्रमादयुक्तः सन् यः सामायिकं कदा तु कर्तव्यं कोऽस्य काल इति, कृतमकृतं वा न स्मरति । तस्येत्थंभूतस्य । कृतमपि सद् विफलं तत् ज्ञेयम्, स्मृतिमूलत्वाद्धर्मानुष्ठानस्य, तदभावे तदभावात् (४) ॥३१६॥ व्याख्यातं स्मृत्यकरणमधुनानवस्थितकरणमाह-- काऊण तक्खणं चिय पारेइ करेइ वा जहिच्छाए । अणवठियसामइयं अणायराओ न तं सुद्धं ॥३१७॥ कृत्वा तत्क्षणमेव करणानन्तरमेव । पारयति करोति वा यदृच्छया यथाकथंचिदेवमनवस्थितं सामायिकमनादरादबहुमानान्नैतच्छुद्धं भवति न निरवद्य मिति ॥३१७॥ उक्तं सातिचारं प्रथमं शिक्षापदमधुना द्वितीयमाह जो श्रावक सामायिकके योग्य शुद्धि भूमिको आंखोंसे न देखकर और कोमल वस्त्र आदिसे उसका परिमार्जन न करके स्थान आदिका सेवन करता है-कायोत्सर्ग या पदमासनादिसे स्थित होता है वह प्रमादके वशीभूत होनेसे जीवहिंसाके न होनेपर वस्तुतः सामायिक करनेवाला नहीं होता-उसकी वह सामायिक वचनदुष्प्रणिधान नामक तोसरे अतिचारसे दूषित होती है ॥३१५।। अब स्मृति-अकरणतासे सामायिककी निष्फलताको दिखलाते हैं जो श्रावक 'सामायिकको कब करना चाहिए, अथवा सामायिक मैं कर चुका हूँ या अभी नहीं की है' इसका प्रमादसे युक्त होकर स्मरण नहीं करता है उसके द्वारा की गयी भो उस सामायिकको निष्फल जानना चाहिए। उपर्युक्त स्मृतिके अभावमें उसकी सामायिक स्मृति-अकरणता नामक चौथे अति वारसे मलिन होती है ।।३१६।। अब अनवस्थितकरणसे सामायिक शुद्ध नहीं रहती, यह सूचित करते हैं जो श्रावक सामायिकको करके तत्क्षण ही उसे समाप्त कर देता है अथवा यदृच्छासेमनमाने ढंगसे अनादरपूर्वक करता है उसकी वह अनवस्थित सामायिक अनादरके कारणसे शुद्ध नहीं रहती है। अभिप्राय यह है कि श्रावकको प्रमादके वश न होकर सामायिकको आदरपूर्वक करना चाहिए, तभी उसको सामायिक सफल कही जावेगी, अन्यथा वह अनवस्थितकरण नामक पांचवें अतिचारसे दूषित होनेवाली है ।।३१७॥ इस प्रकार प्रथम शिक्षापदभूत सामायिकका निरूपण करके अब क्रमप्राप्त दूसरे शिक्षापदव्रतका स्वरूप कहा जाता है१. अ हिंसासावे प्राण्यभावेन । २. अ स्मृत्यंतरद्धानमाह । ३. अ तस्स्येवंभूतस्य । ४. अ 'तदभावात्' नास्ति । ५. अमनादराबहु । ६. 'भवति' नास्ति । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० श्रावकप्रज्ञप्तिः दिसिय हियस दिसापरिमाणस्सेह पइदिणं जं तु । परिमाणकरण मेयं बी सिक्खावयं भणियं ॥ ३१८ ॥ [ ३१८ - दिग्व्रतं प्राङ्गनिरूपितस्वरूपम्, तद्गृहीतस्य । दिक्परिमाणस्य योजनशतादेर्दीर्घकालिकस्य । लोके । प्रतिदिनं यदेव परिमाणकरणमेतावदेव गन्तव्यम्, न परत इति । एतद्वितीयं शिक्षापदं भणितमिह प्रवचने इति । प्रतिदिवसग्रहणं प्रतिप्रहराद्युपलक्षणम् - प्रतिप्रहरं प्रतिघटिकमिति ॥ ३१८ ॥ इह देसावगासियं नाम सप्पविसनाय ओऽपमायाओं 1 आससुद्ध हियं पालेयव्वं पयत्तेणं ॥ ३१९ ॥ दिव्रत गृहीत दिक्परिमाणैकदेशो देशस्तस्मिन्नवकाशो गमनादिचेष्टास्थानम् तेन निर्वृत्तं देशावका शिकमिति नामेति संज्ञा । एतच्च सर्पविषज्ञातात् सर्पोदाहरणेन विषोदाहरणेन च । जहा सप्पस पुव्वं बारस जोययाणि विसओ आसीदिट्ठीए, पच्छा विज्जावाइएग ओसारं तेण जो ठविओ । एवं सावगो दिसिव्वयाहिगारे बहुयं अवरज्झियाइओ, पच्छा देसावगासिएणं तं पिओसारइ | अहवा विसदिट्ठतो अगएण एगाए अंगुलीए ठवियं । एवं विभासा । एवमप्रमादात्प्रतिदिनादिपरिमाण करणे अप्रमादस्तथा चाशयशुद्धिः चित्तवैमल्यम् । ततो हितमिदमिति पालयितव्यं प्रयत्नेनेति || ३१९॥ दिव्रत ग्रहण किये गये दिशाओंके प्रमाणको यहां - इस दूसरे शिक्षापद में - प्रतिदिन जो प्रमाण किया जाता है, इसे दूसरा शिक्षापद कहा गया है। विवेचन - दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत में जो दिशाओं में जानेका प्रमाण किया जाता है। वह कुछ विस्तृत प्रमाण में और जीवन पर्यन्त के लिए किया जाता है । प्रकृत देशावकाशिक नामके इस दूसरे शिक्षापद व्रतमें प्रतिदिन घड़ी व प्रहर आदि कालके प्रमाणपूर्वक उसमें संक्षेप किया जाता है । इस प्रकार के प्रमाण कर लेनेपर उसके आगे प्रयोजनके होते हुए भी न जानेके कारण वहाँ श्रावक हिंसादिपापोंसे बचता है || ३१८॥ इस देशावकाशिक व्रतका किस प्रकारसे पालन करना चाहिए, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है सर्पके और विषके उदाहरण के अनुसार प्रमादसे रहित होकर अन्तःकरणकी शुद्धिपूर्वक इस हितकर देशावकाशिक नामक व्रतका प्रयत्नके साथ पालन करना चाहिए । विवेचन - अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सर्पका दृष्टिविष जो पूर्व में बारह योजन प्रमाण था पीछे उसे विद्यावादी ( मान्त्रिक) के द्वारा क्रमसे उतारते हुए एक योजन में स्थापित कर दिया जाता है। इसी प्रकार श्रावक दिग्व्रत में गृहीत विशाल देश में बहुत अपराध आदिको कर सकता था । उसे इस देशावकाशिकव्रतमें और भी सीमित कर देनेके कारण अधिक अपराधसे बच जाता है । अथवा दूसरा उदाहरण विषका दिया जाता है-जिस प्रकार विषैले किसी सर्प आदिके काट लेने पर उसका विष समस्त शरीर में फैल जाता है, फिर भी मान्त्रिक अपनी मन्त्रशक्तिके द्वारा उसे क्रमशः उतारते हुए केवल अंगुलिमें स्थापित कर देता है, उसी प्रकार देशावकाशिकव्रती दिग्व्रत में स्वीकृत विशाल देशको कालप्रमाणके आश्रयसे प्रतिदिन संक्षिप्त किया करता है । ऐसा १. सिक्षावणियं । २. अ विसणाउ पमाणाउ । ३. अ 'विषोदाहरणेन' नास्ति । ४. विद्यारण उसारत्तेण । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३२०] दितीयशिक्षापदप्ररूपणा १९१ इदमपि चातिचाररहितमनुपालनीयमिति अतस्तानाह वज्जिज्जा आणयणप्पओगपेसप्प ओगयं चेव । सदाणुरूववायं तह बहिया पुग्गलक्खेवं ॥३२०॥ प्रतिपन्नदेशावकाशिकः सन् वर्जयेत् । किम् ? आनयनप्रयोगं प्रेष्यप्रयोगं चैव शब्दानुपातं रूपानुपातं च तथा बहिर्वा पुद्गलक्षेपं वर्जयेदिति पदघटना। भावार्थस्तु इह विशिष्टावधिके भूदेशाभिग्रहे परतः स्वयं गमनायोगाद्योऽन्यः सचित्तादिद्रव्यानयने प्रयुज्यते संदेशकप्रदानादिना 'त्वयेदमानेयम्' इति अयमानयनप्रयोगः ॥१॥ तथा प्रेष्यप्रयोगः बलाद्विनियोज्यः प्रेष्यस्तस्य प्रयोगो यथाभिगृहीत. प्रविचारदेशव्यतिक्रमभयात् "त्वयावश्यमेव गत्वा मम गवाद्यानेयमिदं वा तत्र कर्तव्यमेव" एवंभूतः तथा शब्दानुपातः स्वगृहवृत्तिप्राकारादिव्यवच्छिन्नभूप्रदेशाभिग्रहे बहिः प्रयोजनोत्पत्तौ तत्र स्वयं गमनायोगावृत्ति-प्राकारप्रत्यासन्नतिनो बुद्धिपूर्वकमभ्युक्तासितादिकशब्दकरणेन समवसितकान् बोधयतः शब्दानुपातनमुच्चारणं तादग्येन परकीयश्रवणविवरमनुपतत्यसाविति तथा रूपानुपातो गृहीतदेशाबहिः प्रयोजनभावे शब्दमनुच्चारयत एव परेषां समीपानयनाथं स्वशरीररूपप्रदर्शन रूपानुपात: तथा बहिः पुद्गलक्षेपोऽभिगृहीतदेशाबहिःप्रयोजनभावे परेषां प्रबोधनाय लेष्ट्वादिक्षेपः प्रद्गलप्रक्षेप इति भावना देशावकाशिकमेतदर्थमभिगृह्यते मा भबहिर्गमनागमनादिव्यापारजनित: करनेसे प्रमादसे रहित होनेके कारण उसका चित्त भी निर्मल होता है। इसीलिए प्रयत्नपूर्वक उसके पालनके लिए यहां प्रेरणा की गयो है । 'देश' का अर्थ है दिग्व्रतमें गृहीत देशका एक अंश, उसमें अवकाश ( जाने की प्रवृत्ति ) होनेसे इस व्रतकी देशावकाशिक यह सार्थक संज्ञा समझना चाहिए ॥३१९|| आगे उसके निरतिचार पालन कराने के लिए अतिचारोंका निर्देश किया जाता है आनयनप्रयोग, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और बलि पुद्गलक्षेप ये उसके पांच अतिचार हैं, जिनका परित्याग करना चाहिए। विवेचन-(१) आनयन-इस व्रतमें स्वीकृत प्रमाणके बाहर जाना निषिद्ध है, ऐसा समझकर परिमित देशके बाहरसे किसी सचित्त आदि वस्तुके लाने के लिए 'तुम्हें वहाँसे अमुक वस्तु लाना है' ऐसा सन्देश देकर जो उसे वहांसे मंगाया जाता है, यह उसका आनयन प्रयोग नामका प्रथम अतिचार है। (२) प्रेष्यप्रयोग-प्रेष्य नाम दास या सेवकका है। सीमित देशके बाहर जाना उचित न जानकर 'तू अमुक देशमें जाकर मेरी गाय आदिको ले आ' इस प्रकारसे जो देशावकाशिकव्रतीके द्वारा सेवकको अभीष्ट कार्यमें प्रयुक्त किया जाता है, इसका नाम प्रेष्यप्रयोग है। यह उसका दूसरा अतिचार है। (३) शब्दानुपात-मर्यादित देशके बाहर प्रयोजनके उपस्थित होनेपर वहां जाना निषिद्ध समझकर जो उक्त अपने गृह आदि मर्यादित क्षेत्रके भीतर स्थित रहता हुआ भी उसके बाहर अवस्थित जनोंके सम्बोधनार्थ जो खांसी आदि रूप शब्दोच्चारण किया जाता है उसे शब्दानुपात नामक तीसरा अतिचार जानना चाहिए। (४) रूपानुपात-स्वीकृत देशके बाहर प्रयोजनके उपस्थित होनेपर शब्दोच्चारण न करता हुआ भी देशावकाशिकव्रती जो मर्यादित क्षेत्रके बाहर स्थित किसीको समीपमें बुलानेके लिए अपने शरीरको दिखलाता है, इसका नाम रूपानुपात है। यह प्रकृतव्रतका चौथा अतिचार है। (५) मर्यादित क्षेत्रके बाहर प्रयोजनवश वहाँ अवस्थित अन्य किसीको प्रबोधित करनेके लिए जो १. अ पूर्वकामभ्युत्काशितादिशब्दः करणेन समवसितकां बोधयन् शब्दानुपातः मुच्चारणं तादृगेन । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३२१ - प्राण्युपमर्द इति । स च स्वयं कृतोऽन्येन वा कारितः इति न कश्चित्फले विशेषः, प्रत्युत गुणः, स्वयं गमन ईर्यापथविशुद्धेः परस्य पुनरनिपुणत्वात्त शुद्धिरिति ॥ ३२० ॥ व्याख्यातं सातिचारं द्वितीयं शिक्षापदमधुना तृतीयमुच्यतेआहारपोसहो खलु सरीरसक्कारपोस हो चैव । भवावारेसु य तइयं सिक्खावयं नाम || ३२१॥ आहार पौषधः खलु शरीरसत्कारपौषधश्चैव ब्रह्माव्यापारयोश्चेति ब्रह्मचर्यं पौषधोऽव्यापारपौषधश्चेति । इह पौषधशब्दः रूढया पर्वसु वर्तते । पर्वाणि चाम्यादितिथयः, पूरणात्पर्व धर्मोपचहेतुत्वादिति । तत्राहारः प्रतीतः, तद्विषयस्तन्निमित्तो वा पौषधः आहारपौषधः । आहारादिनिवृत्तिनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेतिभावना' । एवं शरीरसत्कारपौषधः । ब्रह्मचर्यपौषधः - अत्र चरणीयं चर्यम् 'अतो यत्' इत्यस्मादधिकारात् 'गद-मद-चर-यमश्चानुपसर्गः' इति 'यत्' ब्रह्म कुशलानुष्ठानम् । यथोक्तम्- ब्रह्म वेदो ब्रह्म तपो ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतम्। ब्रह्मवत् चर्यं चेति समासः, शेषं पूर्ववत् । तथाव्यापारपौषधः तृतीयं शिक्षाव्रतं नामेति । सूचनात्सूत्रमिति न्यायात्तृतीयं शिक्षापदव्रतमिति ॥३२१॥ एतदेव विशेषेणाह - 1 कंकड़ आदि फेंके जाते हैं, इसे पुद्गल क्षेप कहा जाता है। यह उसका पांचवां अतिचार है । ये पांचों अतिचार परित्याज्य हैं। देशावका शिकव्रतको इसलिए ग्रहण किया जाता है कि मर्यादित देश के बाहर न जाने से वहां स्थित जोवोंकों पीड़ा न पहुँचे । पर स्वीकृत क्षेत्रके बाहर स्वयं कर कार्य किया या किसी दूसरे से कराया, इसमें कुछ अन्तर नहीं है । प्रत्युत इसके, दूसरों को भेज आदि की अपेक्षा स्वयंके जाने में यह एक विशेषता भी है कि वह ईर्यापथकी शुद्धिपूर्वक जायेगा जो प्राय: दूसरोंसे सम्भव नहीं है, क्योंकि वे उस प्रकारसे प्राणियों के संरक्षण में सावधान नहीं रह सकते || ३२०|| अब क्रमप्राप्त तीसरे शिक्षापदके स्वरूपका निर्देश किया जाता है आहारपोषध, शरीरसत्कारपोषध, ब्रह्मचर्यपोषध और अव्यापारपोषध; इन सबका नाम तृतीय ( पोषध ) शिक्षापदव्रत है । विवेचन - यहाँ 'पौषध' शब्द पर्व के अर्थ में रूढ़ है । पर्वसे अभिप्राय अष्टमी व चतुर्दशी आदि धार्मिक तिथियों का है, क्योंकि इनके आश्रयसे धर्मकी पूर्ति ( उपचय ) हुआ करती है । आहारके निमित्तसे - उसके परित्याग ( अनशन आदि ) से जो धर्मका उपचय होता है उसे - आहार पौषध कहा जाता है। शरीरविषयक सत्कार – स्नान आदिसे उसके सुसज्जित करने के त्यागसे जो धर्मका संचय होता है उसका नाम शरीरसत्कारपोषध है । ब्रह्मवर्यपोषध से अभिप्राय कुशल अनुष्ठानका है। अमुक-अमुक व्यापारको में नहीं करूंगा, इस प्रकारके व्रतको अव्यापारपोषध समझना चाहिए ( गाथागत 'बंभव्वावारेसु' में ग्रन्थकारको व्यापारपोषध अभीष्ट है या अव्यापारपोषध, यह स्पष्ट नहीं है, टीकासे भी उसका कुछ स्पष्टीकरण नहीं होता ) । इस प्रकार के सब पौषधको यहां तीसरा शिक्षापदव्रत कहा गया है || ३२१|| आगे इसको कुछ विशेष रूपसे स्पष्ट किया जाता है १. अ धर्मपूरणं प्रवृर्तिभावना । २. अनुष्ठानां यथो ब्रह्म । ३. अ विशेषमाह । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयशिक्षापदप्ररूपणा देसे सब्वे य दुहा इक्किको इत्थ' होइ नायost | सामाइए विभासा देसे इयरम्मि नियमेण ॥ ३२२ ॥ देश इति देशविषयः, सर्व इति सर्वविषयश्च द्विधा द्विप्रकार एकैक आहारपौषधादिरत्र प्रवचने भवति ज्ञातव्यः । सामायिके विभाषा कदाचित्क्रियते कदाचिन्नेति देशपौषधे । इतरस्मिन् सर्वपौषधे । नियमेन सामायिकम्, अकरणादात्मवंचनेति । - - ३२२ ] १९३ भावत्यो पुण इमो - आहारपोसहो दुविहो देसे सव्वे य । देसे अमुगा विगतो आयंबिलं वा एक्स वा दो वा । सव्वे चउव्विहो आहारो अहोरतं पच्चक्खाओ । सरीरसक्कारपोसहो न्हाणुव्वट्टण वन्नग - विलेवण- पुप्फ- गन्ध तंबोलाणं वत्थाहरणपरिचचागो य । सो दुविहो देसे सव्वे य । देसे अमुगं सरीरसक्कारं न करेमि सव्वे सव्वं न करेमि त्ति । बंभचेरपोसहो वि देसे सव्वे य। देसे दिवा ति वा एक्स वा दो वारे त्ति, सच्चे अहोरतं बंभचारी भवति । अव्वापारपोसो वि दुविहो देसे सब्वे य । देसे अमुगंमि वावारंमि, सव्वे सव्वं वावारं चैव हल-सगड-घरकम्माइयं ण करेमि । एत्थ जो देसपोसहं करेइ सो सामायिक करेइ वा न वा । जो सव्वपोसहं करेइ सो नियम कसामाइओ । जइ ण करे तो पियमा वंचिज्जइ । काँह ? चेइयघरे साहुमूले वाघरे वा पोसहसालाए वा । उम्मुक्कमणि-सुवन्नो पढतो पोत्यगं वा वायंतो धम्मज्झाणं वा .झाइ जहा एए साहुगुणा अहमसत्यो मंदभग्नो [गो ] धारेउं विभासा ॥३२२॥ यहाँ ( आगम में ) उक्त आहार पौषधादिमें प्रत्येक देशविषयक और सर्वविषयकके भेदसे दो प्रकारका है, यह जानना चाहिए। देशविषयक आहारपोषधादिमें सामायिक विषयक विकल्प है - कदाचित् वह की जाती है और कदाचित् नहीं भी की जाती है, परन्तु सर्वविषयक पौषधमें वह नियमसे की जाती है । विवेचन - अभिप्राय इसका यह है कि आहारपोषध में जो आहारका परित्याग किया जाता है वह देश या सर्वरूपसे किया जाता है। इनमें देशरूप में जैसे- मैं अमुक विकृति ( घृतादि ) या आचाम्ल ( भातका माड़) में एक या दो को लूँगा, अथवा एक बार या दो बार लूंगा, इस प्रकारसे जो आहारविषयक नियम किया जाता है उसे देशविषयक आहारपोषध समझना चाहिए। चारों प्रकारके आहारका जो दिन-रात के लिए प्रत्याख्यान किया जाता है, यह सर्वविषयक आहारपोषध कहलाता है। शरीरसत्कारपोषध में स्नान, उद्वर्तन ( उबटन ), विलेपन, पुष्प, गन्ध व ताम्बूल आदि तथा वस्त्राभरण आदिका परित्याग किया जाता है। वह भी देश अथवा सर्वरूपमें किया जाता है । उक्त शरीर संस्कारों में मैं अमुक शरीर संस्कारको नहीं करूँगा, इस प्रकार से किसी विशेष शरीर संस्कारका त्याग करना, यह देशशरीर संस्कार पौषध कहलाता है । समस्त शरीर संस्कारोंके त्यागको सर्वरूप में शरीर सत्कार पौषध जानना चाहिए । ब्रह्मचर्य पौषधमें मैं दिन में, रात्रिमें अथवा एक या दो बार भोग करूंगा; इस प्रकारके नियमको देश ब्रह्मचर्य पौषध कहा जाता है । दिन-रात ब्रह्मचर्य के पालनका नाम सर्वब्रह्मचर्य पोषध है । अव्यापार पौषध भी देश और सर्वके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें अमुक व्यापारको मैं नहीं करूंगा, इस प्रकारके नियमका नाम देश अव्यापार पोषध और हल व गाड़ी आदि किसी भी कर्मको मैं नहीं करूंगा, इस प्रकारके नियमका नाम सर्व अव्यापार पोषध है। चार प्रकार के पौषधमें जो श्रावक देश पौषधको करता है वह सामायिक करे अथवा नहीं भी करे, इसका नियम १. अ एक्केक्को एत्थ । २. अ अपुगा विपती आयंविबंला एक्कंसि । ३. अ घरकरिकम्मा ण । २५ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३२३ - इदमपि च शिक्षापदव्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति । अत आह अप्पडिदुप्पडिलेहियसिज्जासंथारयं विवज्जिज्जा । अपमज्जियदुपमज्जिय तह उच्चाराइभूमिं च ॥३२३॥ अप्रत्युपेक्षित-दुःप्रत्युपेक्षितशय्या-संस्तारको वर्जयेत् । इह संस्तीर्यते यः प्रतिपन्नपौषधोपवासेन दर्भ-कुश कम्बल-वस्त्रादिः स संस्तारकः, शय्या प्रतीता। अप्रत्युपेक्षणं गोचरापन्नस्य शय्यादेः चक्षुषानिरीक्षणम् । दुष्टमुभ्रान्तचेतसः प्रत्युपेक्षणं दुष्प्रत्युपेक्षणम् । ततश्चाप्रत्युपेक्षितदृष्प्रत्युपेक्षितौ च शय्या-संस्तारको चेति समासः। शय्यैव वा संस्तारक इति । एवमन्यत्रापि क्षरगमनिका कार्येति । उपलक्षणं च शय्या-संस्तारकावपयोगिनः पीढ-फलकादेरपि । एत्थं सामायारी-कडपोसहो णो अप्पडिलेहिय सेज्जं दुरुहइ संथारगं वा दुरुहइ पोसहसालं वा सेवइ दब्भ वत्थं वा सुद्धवत्थं वा भूमीए संथारेइ । काइयभूमीउ वा आगओ पुणरवि पडिलेहइ, अन्नहातियारो। एवं पीढ-फलगादिसु वि विभासा। नहीं रहता। किन्तु जो सर्वपोषधको करता है वह नियमसे सामायिक करता है, यदि वह नहीं करता है तो वह स्वीकृतव्रतसे वंचित होता है। पोषधोपवासव्रतोको चैत्यगृहमें, साधुके समीपमें, घरमें अथवा पौषधशालामें कहीं भी मणि-सुवर्ण आदिको छोड़कर सामायिक करते हुए पढ़ना चाहिए, पुस्तकका वाचन करना चाहिए अथवा धर्मध्यान करना चाहिए। उसे विचार करना चाहिए कि ये श्रेष्ठ गुण हैं, मैं अभागा उन्हें धारण करनेके लिए असमर्थ हूँ, जो अनिवार्य रूपसे उनका परिपालन नहीं कर पाता ॥३२२।। आगे इसे निरतिचार पालनके लिए उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है पौषधोपवासव्रती श्रावकको अप्रत्यपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या-संस्तारक, अप्रमार्जितदुःप्रमार्जित शय्या-संस्तारक, अप्रत्यपेक्षित-दुष्प्रत्य्पेक्षित उच्चारादिभूमि और अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित उच्चारादि भूमिका परित्याग करना चाहिए। विवेचन-प्रकत गाथामें इस व्रतके चार अतिचारोंका निर्देश किया गया है। वे इस प्रकार हैं-१) अप्रत्यपेक्षित-दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या-संस्तारक-शय्यासे अभिप्राय चारपाई या पलंग आदिका तथा आसनसे अभिप्राय डाभके आसन व कम्बलवस्त्र आदिका है। इनका उपयोग आंख से देखे बिना अथवा असावधानी या अधीरतासे देखकर करना। (२) उक्त शय्या व संस्तारकका उपयोग कोमल वस्त्र आदिसे झाड़े-पोंछे बिना अथवा व्याकुल चित्तसे झाड़-पोंछकर करना, यह अप्रमार्जित-दुष्प्रमाजित शय्या-संस्तारक नामका दूसरा अतिचार है। (३) उच्चार नाम मलका है, आदि शब्दसे मूत्र व कफ आदिको ग्रहण करना चाहिए। मल-मूत्रादिके विसर्जनके समय भूमिको बिना देखे ही अथवा अधीरतासे देखकर उनका विसर्जन करना, यह अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षित उच्चारादिभूमि नामका तीसरा अतिचार है। (४) इसी प्रकार उक्त मल-मूत्रादि विसर्जनको भूमिको कोमल वस्त्र आदिसे झाड़ने-पोंछनेके बिना या दुष्टतापूर्वक झाड़-पोंछकर वहां मल-मूत्रादिको विसर्जित करना, यह उक्त व्रतका अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित उच्चारादिभूमि नामका १. अमन्यत्राप्यक्षरगम' इत्यतोऽग्रे ‘णो अप्पडिले' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । (अग्रे एक-दोपंक्तय उपरिमाः लिखिताः, तत्पश्चाच्च एक-दोपंक्तयोऽधस्तना लिखिताः, एवं मुहर्महः पंक्तिव्यत्यासः कृतः । एवं च सति समस्तोऽपि संदर्भोऽस्तव्यस्तो जातः)। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G तृतीय शिक्षापदप्ररूपणा तथा अप्रमार्जित - दुःप्रमाजितशय्या संस्तारकावेव । इहाप्रमार्जनं शय्यादेरासेवनकाले वस्त्रोपान्तादिनेति, दुष्टमविधिना प्रमार्जनम् । शेषं भावितमेव । एवमुच्चारप्रस्रवगभुवमपि । उच्चारप्रस्रवणं निष्ठचूत - स्वेदमलाद्युपलक्षणम् । शेषं भावितमेव ॥ ३२३॥ गाहा - तह चैव य उज्जुतो विहीर इह पोसहम्मि वज्जिज्जा । सम्म च अणणुपालणमाहाराईसु सव्वेसु || ३२४ ॥ तथैव च यथानन्तरोदितमुद्युक्तो विधिना प्रवचनोक्तक्रियया निःप्रकम्पेन मनसा । इह पौषधे पौषधविषयं वर्जयेत् । किम् ? सम्यगननुपालनं चेति । क्व ? आहारादिषु सर्वेषु सर्वाहारादिविषयांमति गाथाक्षरार्थः । ३२४ ] १९५ एत्थ भावणा - कयपोसहो अथिरचित्तो आहारे ताव सव्वं देतं वा पत्थेइ ? बीयदिवसे पारणगस्स वा अप्पणोट्टाए आढत्ति करेइ कारवेइ वा इमं इमं वत्ति करेह ? न वट्टइ सरीरसक्कारे - सरीरमुखट्टेइ, दाढियाउ केसे वा रोमाई वा सिंगाराभिप्पाएण संठवेइ, दाहे वा सरीरं सिचाइ, एवं सव्वाणि सरीरविभूसाकारणाणि परिहरइ । बंभचेरे इहलोइए वा परलोइए भोगे पत्थेइ संवाहेई वा अहवा सद्द फारस रस- रूव-गंधे वा अभिलसइ कइया बंभचेर चौथा अतिचार है । यहाँ टीकाकार हरिभद्र सूरने 'शय्या संस्तारक' में प्रथमतः द्वन्द्व समासके आधारसे शय्या और संस्तार इन दोको पृथक्-पृथक् ग्रहण किया है । पश्चात् विकल्प रूपमें उन्होंने कर्मधारय समासके आधारसे शय्याको हो संस्तारकके रूपमें ग्रहण कर लिया है । यहाँ 'एत्थ सामायारी' ऐसा निर्देश करते हुए कहा गया है कि जिसने पौषध व्रतको स्वीकार किया है उसे सावधानी से देखे बिना शय्या अथवा आसनपर आरूढ़ नहीं होना चाहिए, इसी प्रकार बिना देखे या व्यग्रतासे देखकर पौषधशालाका सेवन नहीं करना चाहिए, दर्भवस्त्रको या शुद्ध वस्त्रको भूमिपर नहीं बिछाना चाहिए, कायिक भूमिसे आकर फिरसे देख लेना चाहिए । यहि वह ऐसा नहीं करता है तो स्वीकृत व्रत अतिचरित ( मलिन ) होनेवाला है । इसी प्रकार पोठ फलकादि ( चौकी आदि) के विषय में विकल्प करना चाहिए || ३२३ ॥ आगे उसके पांचवें अतिचारका निर्देश करते हुए उसे छोड़नेकी प्रेरणा की जाती हैइसी प्रकारसे विधिपूर्वक व्रतमें उद्युक्त हुए श्रावकको समस्त आहारादि विषयक पौषधके अननुपालनको सम्यक् प्रकारसे छोड़ देना चाहिए - प्रयत्नपूर्वक आगमोक्त विधिके अनुसार उसका परिपालन करना चाहिए । विवेचन - यहां टीका में 'एत्थ भावणा' ऐसा संकेत करते हुए कहा गया है कि जिस श्रावकने पौषध व्रतको स्वीकार किया है वह अस्थिर चित्त होकर आहार के विषय में सबकी अथवा एक देशी प्रार्थना करता है, दूसरे दिन अथवा पारणाके समय न स्वयं आदर करता है और न कराता है, यह करो, यह करो ऐसा बोलता भी नहीं है। वह शरीर के सत्कार में - उसके सुसज्जित करने में - प्रवृत्त नहीं होता, वह न शरीरका उपटन करता है और न शृंगार के अभिप्रायसे दाढ़ी, बाल और रोमोंको व्यवस्थित करता है, शरीर में दाह होनेपर - उष्णताको वेदना होनेपर - शरीरका सिंचन नहीं करता है; इस प्रकारसे वह शरीर के विभूषित करनेके सभी कारणोंको छोड़ता है । वह ब्रह्मचयंके पालन में उद्यत होकर इस लोक सम्बन्धी व परलोक सम्बन्धी भोगोंकी १. अ कारावइ वा यम इमं चत्ति । २. अ संपाहेइ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ . श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३२५ - पोसहो पूरिहिइ चइयामो बंभचेरेणंति । अन्वावारे सावज्जाणि वावारेइ कयमकयं वा चितेइ एवं पंचातियारसुद्धो अणुपालेयन्वोत्ति गाथाद्वयभावार्थः ॥३२४॥ उक्तं सातिचारं तृतीयं शिक्षापदव्रतमधुना चतुर्थमुच्यते नायागयाण अन्नाइयाण तह चेव कप्पणिज्जाणं । देसद्धसद्धसक्कारकमजुयं परमभत्तीए ॥३२५॥ न्यायागतानामिति-न्यायो द्विजःक्षत्रिय-विट्-शूद्राणां स्ववृत्त्यनुष्ठानम्। स्ववृत्तिश्च प्रसिद्धैव प्रायो लोकहेर्या, तेनेदृशन्यायेनागतानां प्राप्तानाम् । अनेनान्यायागतानां प्रतिषेधमाह । अन्नादीनां द्रव्याणाम. आदिग्रहणात्पान-वस्त्र-पात्रौषध-भेषजादिपरिग्रहः। अनेनापि हिरण्यादिव्यवच्छेदमाह । कल्पनीयानामिति उद्गमादिदोषपरिवजितानाम् । अनेनाकल्पनीयानां निषेधमाह । देश-काल-श्रद्धा-सत्कार-क्रमयुक्तम्-नानाव्रीहि-कोद्रव-कङ्ग-गोधूमादिनिष्पत्तिभाग्देशः, सुभिक्षदुभिक्षादिः कालः, विशुद्धचित्तपरिणामः श्रद्धा, अभ्युत्थानासनदान-वंदनाद्यनुव्रजनादिः सत्कारः, पाकस्य पेयादिपरिपाट्या प्रदानं क्रमः, एभिर्देशादिभिर्युक्तं समन्वितम् । अनेनापि विपक्षव्यवच्छेदमाह । परमया प्रधानया भक्त्या इत्यनेन फलप्राप्तौ भक्तिकृतमतिशयमाहेति ॥३२५॥ आयाणुग्गहबुद्धीइ संजयाणं जमित्थ दाणं तु । एयं जिणेहि भणियं गिहीण सिक्खावयं चरिमं ॥३२६॥ प्रार्थना [ नहीं ] करता और [न] उनको धारण करता है; अथवा वह शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धकी भी अभिलाषा [नहीं] करता है, इस प्रकारसे वह ब्रह्मचर्य पौषधका पालन करता है व उससे च्युत नहीं होता है। अव्यापार पौषधमें वह सावध कर्मों में व्याप्त नहीं होता तथा कृत. अकृतका विचार करता है। इस प्रकार पांच अतिवारोंसे शुद्ध होकर व्रती श्रावक प्रकृत पौषधव्रतका परिपालन करता है । इससे इन दो ( ३२३-३२४ ) गाथाओंका भावार्थ प्रकट किया गया है ॥३२४॥ इस प्रकार अतिचार सहित तीसरे शिक्षापदका निरूपण करके अब चौथे शिक्षापदके स्वरूपको दिखलाते हुए क्या देना चाहिए व उसे किस प्रकारसे देना चाहिए, इसका निर्देश किया जाता है न्यायसे उपार्जित तथा कल्पनीय ( संयतके लिए देने योग्य ) अन्न आदि-अन्न, पान, वस्त्र, पात्र व औषध आदि-को जो देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमसे युक्त अतिशय भक्तिके साथ दिया जाता है; यह चौथा शिक्षापद व्रत है ॥३२५।। आगे इसे स्पष्ट करते हुए उन वस्तुओंको किनके लिए व किस बुद्धिसे दिया जाता है, इसको सूचना की जाती है पूर्वगाथामें निर्दिष्ट उन कल्पनीय अन्नपानादिकोंका जो अपने अनुग्रहकी बुद्धिसे संयतोंके लिए दान किया जाता है, इसे जिन भगवान्ने गृहस्थोंका अन्तिम ( चौथा ) अतिथिसंविभाग नामका शिक्षापद कहा है। १. पूरिहिए चईय बंभचरेणंति । २. अ कप्पणिज्जाणे। ३. अ 'द्विज' इत्यतोऽग्रे 'प्राप्तानामनेनान्यायागतानां प्र'पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । ४. अ परिग्रहं (अतोऽग्रेऽस्या गाथायाष्टीकायाः सर्वोऽपि पाठोऽस्तव्यस्तोऽस्ति-अध उपरि यत्र कुत्रापि किंचिल्लिखितमस्ति । ५. अ तमेत्थ । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३२६ ] चतुर्थशिक्षापदप्ररूपणा १९७ आत्मानुग्रहबुद्धया, न पुनर्यत्यनुग्रहबुद्धयेति । तथाहि-आत्मपरानुनहपरा एव यातयः संयता मूलोत्तरगुणसंपन्नाः साधवस्तेभ्यो दानमिति । एतन्जिनस्तीर्थकरैर्भणितम् । गृहिणः श्रावकस्य । शिक्षापदमिति शिक्षापदव्रतम् । चरमं अतिथिसंविभागाभिधानम् । इह भोजनार्थ भोजनकालोपस्थाय्यतिथिरुच्यते । आत्मार्थनिष्पादिताहारस्य गृहिणो व्रती साधुरेवातिथिः । यत उक्तम् तिथिः पर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना । अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ।। तस्य संविभागो अतिथिसंविभागः। संविभागग्रहणात्पश्चात्कर्मादिपरिहारमाहेति । एन्थ सामायारी-सावगेण पोसहं पारंतेण नियम साधूणमदाउं न पारेयन्वं, दाउं पारेयव्वं । अन्नया पुण अनियमो दाउं वा पारेइ, पारिए बा देइ ति । तन्हा पुन्वं साहूणं दाउं विवेचन–अतिथिसंविभाग नामक इस चौथे शिक्षापद व्रतमें यहाँ दाता, देय, द्रव्य और दानके पात्र आदिका विचार करते हुए यह कहा गया है कि श्रावक मूल और उत्तर गुणोंसे सम्पन्न मुनि जनके लिए जिन आहार, पान, वस्त्र, पात्र और औषध आदि वस्तुओंको देता है वे न्यायसे उपार्जित की गयी होनी चाहिए-अन्यायोपाजित नहीं होनी चाहिए। न्यायसे अभिप्राय यहाँ उस आजीविकासे है जो लोकमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए नियत है। तदनुसार नीतिपूर्वक आजीविकाको करते हुए जो आहारादिके योग्य वस्तुएँ प्राप्त की गयी हैं तथा साधुके लिए देनेके योग्य हैं, उन्हें ही देना चाहिए। गाथा ( ३२६ ) में जो 'कल्पनीय' पदको ग्रहण किया गया है उसका अभिप्राय यह है कि शरीरको स्थिर रखने व धर्मके परिपालन के लिए अन्न, पान, वस्त्र, पात्र और औषध आदि वस्तुएँ ही साधुके लिए आवश्यक हैं; अतः साधुके लिए ऐसी ही आवश्यक वस्तुओंको देना चाहिए। इससे सुवर्ण-चांदी आदि मुनिधर्मकी विघातक अनावश्यक वस्तुओंके देनेका निषेध प्रकट कर दिया गया है। कारण यह कि मुनिधर्मको स्वीकार करते हुए साधु उन्हें पूर्वमें हो छोड़ चुका है। इसके अतिरिक्त उक्त कल्पनीय पदके ग्रहणसे यह भी समझ लेना चाहिए कि उपर्युक्त अन्नादि वस्तुएं भी पिण्डनियुक्ति निर्दिष्ट उद्गम व उत्पादन आदि दोषोंसे रहित होनी चाहिए। इसके साथ दाता श्रावकको देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमसे युक्त होना चाहिए। भिन्न-भिन्न देशमें प्रायः विविध प्रकारका अनाज-जैसे धान, कोदों, कांगनी व गेहूँ आदि-तथा अनेक प्रकारकी शाक व फल आदि उत्पन्न हुआ करते हैं। अतएव जो वस्तु जिस देश में प्रमुखतासे उत्पन्न हुआ करती है तदनुसार ही भोज्य वस्तुको सदोषता व निर्दोषताका विचार करते हुए दाताको तदनुरूप ही वस्तु साधुके लिए देनी चाहिए। कालकी अपेक्षा सुभिक्ष व दुर्भिक्ष आदिका विचार करना भी आवश्यक है। चित्तकी निर्मलताका नाम श्रद्धा है । सत्कारसे अभिप्राय विनयका है-जब साधु आहारग्रहणके लिए आता है तब दाताको खड़े होकर वन्दनापूर्वक आसन आदि प्रदान करना चाहिए तथा साधुके वापस जानेपर यथासम्भव कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे जाना चाहिए; यह सब सत्कारके अन्तर्गत है । पेय आदिको परिपाटीके अनुसार अन्न-पान आदिके प्रदान करनेका नाम क्रम है। इस सबके परिज्ञानके साथ तदनुरूप ही श्रावककी प्रवृत्ति होनी चाहिए। दान भी अतिशय भक्तिके साथ-साधके अनुराग रखते हुए-देना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधुको आहार आदि देते हुए श्रावकको यह अनुभव करना चाहिए कि यह मेरे लिए आत्मकल्याणकारी सुयोग प्राप्त हुआ है। इस प्रकार गुणोंमें १. भस्थाप्यतिविरुच्यते तथा स्वार्थनिष्पादिताहारस्य । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३२६ - पच्छा पारेपव्वं । कह ? जाहे देसकालो' ताहे अप्पणो सरीरस्स विभूसं काउं साहुपडिस्सयं गंतुं णिमंतेइ भिक्खं गेण्हह ति। साहूणं का पडिवत्ती ? ताहे अन्नो पडलयं अन्नो मुहणंतगं अन्नो' भायणं पडिलेहेइ मा अंतराइयदोसा ठवणा दोसो य भविस्सन्ति । सो जइ पढमाए पोरिसीए णिमंतेइ अस्थि णमोक्कारसहियाइता तो गच्छइ, अह नत्थि न गच्छइ, तं ठवियत्वं होइ जइ घणं लगेज्जा ताहे गेण्हइ संविक्ताविज्जइ जो व उग्घाडाए पोरसीए पारेइ पारणाइतो अन्नो वा तस्स दिज्जई सामनेणं नाए कहिए पच्छा तेण सावगेण समं गम्मइ संघाडगो वच्चइ एगो न वट्टइ पटवेउं । साह पूरओ सावगो मग्गओ घरं णेऊण आसणेण उवणिमंतिज्जइ। जइ णिविट्रो लट्टयं 'अह ण णिविसति तहा वि विणओ° पयत्तो। ताहे भत्तपाणं देइ सयं चेव, अहवा भाणं घरेइ भज्जा से देइ । अहव ठिओ अच्छइ जहा दिन्नं। साहुवि सावसेसं'' दव्वं गेलइ । पच्छाकम्मपरिहरणट्ठा दाउं वंदिऊण विसज्जेइ । विसज्जिता अणुगच्छइ पच्छा सयं भुंजइ । जं च आत्मोपकारकी दृष्टिसे ही दान देना चाहिए, न कि साधुके उपकार करनेकी बुद्धिसे । कारण यह कि साध मल व उत्तर गणोंसे संयक्त होते हए निरन्तर अपने व अन्यके उपकारमें निरत होते हैं, इसीलिए उन्हें संयत कहा जाता है। ऐसे संयतोंके लिए आहारादि प्रदान करनेसे श्रावकका पुण्योपार्जनरूप आत्मकल्याण होता है। यहां प्रकृत 'अतिथिसंविभागवत' के अन्तर्गत 'अतिथि' शब्दसे यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए कि जिन महापुरुषोंने तिथि व पर्व आदि सब उत्सवोंका परित्याग कर दिया है उन्हें अतिथि जानना चाहिए। शेष जनोंको अभ्यागत कहा जाता है, न कि अतिथि। ऐसे संयत आहारके ग्रहणार्थ जो गृहस्थके घरपर उपस्थित होते हैं वे अपने निमित्तसे निर्मित ( उद्दिष्ट ) भोजनको कभी नहीं ग्रहण किया करते हैं, किन्तु जिसे गृहस्थ अपने उद्देश्य से तैयार करता है उस अनुद्दिष्ट भोजनको ही परिमित मात्रामें ग्रहण किया करते हैं। ऐसे अतिथिके लिए श्रावक अपने निमित्तसे निर्मित भोजनमें से जो विभाग करता है यह उस अतिथिसंविभाग शिक्षापदका लक्षण है। 'संविभाग' पदसे यह भी प्रकट है कि श्रावक यथाविधि साधके लिए जो अपने भोजनमें-से विभाग करता है उससे उसके पुरातन कर्मका भी विभाग (निर्जरा) होता है। 'एत्थ सामायारी' ऐसो सूचना करते हुए टोकामें प्रकृत पोषधव्रतको विधि आदिके विषय में विशेष प्रकाश डाला गया है। यथा-पोषधको समाप्त करते हुए श्रावकको नियमसे साधुओंको दिये बिना पारण नहीं करना चाहिए, किन्तु उन्हें देकर ही पारणा करना चाहिए। दूसरे समय में इसका कुछ नियम नहीं है-वह उन्हें देकर भी पारणा कर सकता है, अथवा पारणा करनेके बाद भी दे सकता है। इसलिए पूर्व में साधुओंको देकर तत्पश्चात् पारणा करना चाहिए। जब गोचरीका समय हो तब देश-कालके अनुसार अपने शरीरको विभूषित करके साधुओंके प्रतिश्रय ( उपाश्रय ) में जावे और 'भिक्षा ग्रहण कीजिए' इस प्रकार कहकर उन्हें निमन्त्रित करे। साधुओंकी क्या प्रतिपत्ति है ? उस समय अन्य पटलक, अन्य मुहणतक (मुखवत्रिका) और अन्य पात्रका 'आन्तरायिक अथवा स्थापनादोष न हों' इस विचारसे प्रतिलेखन करे। वह यदि प्रथम पौरुषीमें १. मजा देसकालो। २. अ ताहिं । ३. अ 'पडलयं अन्नो मुहणंतगं अन्नो' इत्येतावान् पाठो नास्ति । ४. अ भोयणं । ५. अ अंतराईयदोसा ठविगदोसा । ६. अ ताहे गब्भइ संविक्ताविक्तइ जो व उग्घोडार पोरसीए पारणाए पारणा इत्तो वा तस्स दिज्जइ। ७. ७. अ पट्टवेइउ साहु । ८. अ जए णविट्ठो लव्वयं । ९. अणवसति । १०. अ वणओ। ११. अ ट्रिओ अत्तए जाव दिन्नं साह वि साविसेसं। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३२७] चतुर्थशिक्षापदप्ररूपणा १९९ किर साहूण ण दिन्नं तं सावगेण न भोत्तव्वं । जइ पुण साह णत्थि ताहे देसकालवेलाए दिसालोओ कायव्यो । विसुद्धभावेग चितियव्वं साहुणो जइ होंता नाम नित्थारिओ होतो त्ति विभासा ॥३२६॥ इदमपि शिक्षापदव्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति एतदाह सचित्तनिक्खिवणयं वज्जे सञ्चित्तपिहणयं चेव । कालाइक्कमदाणं परववएसं च मच्छरियं५ ॥३२७।। विवर्जयेत् --तत्र सचित्तनिक्षेपणं संचित्तेषु व्रोह्यादिषु निक्षेपणमन्नादेरदेयबुद्धया मातृस्थानतः।१। एवं सचित्तपिधानं सचित्तेन फलादिना पिधानं स्थगनमिति समासः, भावार्थः प्राग्वत् । २। कालातिक्रम इति । कालस्यातिक्रमः कालातिक्रमः उचितो यो भिक्षाकालः साधूनां तमति कम्य उल्लंघ्य भुंक्त। तदा च किं तेन लब्धेनापि, कालातिक्रांतत्वात्तस्य । उक्तं च काले दिन्नस्स पहेणयस्स अग्यो ण तीरए काउं । तस्सेदकाले परिणामियस्स मिहंत या नस्थि । ३ । निमन्त्रित करता है तो नमस्कार सहित होनेपर जावे, अन्यथा न जावे। तब उसे ठप्प कर दे। यदि अतिशय लगाव या प्रेरणा हो तो ग्रहण करे व संविभाग करावे। यदि उद्घाटित पौरुषीमें पारणा करता है तो पारणा व्यापन अथवा दुसरा कोई सामान्यसे ज्ञात कहनेपर उसे दे। पश्चात उस श्रावकके साथ जाता है, संघाटक जाता है, एक नहीं पठाने के लिए प्रवृत्त होता है। साधु आगे और श्रावक पीछे चलकर घर ले जाता है और आसनपर बैठने के लिए उपनिमन्त्रित करता है। वह यदि आसनपर विराजमान हो जाता है तो दण्डवत् नमस्कार करता है, और यदि आसनपर नहीं बैठता है तो भी विनत रहता है। उस समय वह स्वयं ही भक्त-पान देता है, अथवा पात्रको धरता है और पत्नो उसे देतो है, अथवा खड़ा रहे । जैसा कुछ दिया जा रहा है, साधु भी सावशेष (परिमित मात्रामें ) द्रव्यको ग्रहण करता है। इस प्रकार पश्चात्कर्मके परिहारार्थ देकर व वन्दना करके साधुको विदा करता है। उसे विदा करके पीछे जाता है। तत्पश्चात् श्रावक स्वयं भोजन करता है। जो भोज्य वस्तु साधुको नहीं दी गयी है उसे श्रावकको नहीं खाना चाहिए। यदि साधुका लाभ नहीं होता तो देश व काल-वेलाके अनुसार दिशावलोकन करे-साधुके आनेकी प्रतीक्षा करे और विशुद्ध भावसे यह विचार करे कि यदि साधु होते तो मेरा निस्तार ( उद्धार ) होता। यह साधुके लिए भोजन देने की विधि है ॥३२५-३२६॥ इस व्रतका परिपालन भी निरतिचार ही करना चाहिए, इस उद्देश्यसे आगे उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है ___ सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान, कालातिक्रमदान, परव्यपदेश और मात्सर्य ये इस व्रतके पांच अतिचार हैं । व्रती श्रावकको उनका परित्याग करना चाहिए। . विवेचन-(१) यदि न देनेके विचारसे अन्न आदिको जहाँ रखा हुआ है वहांसे हटाकर सचित्त ब्रोही ( धान्य ) आदिमें स्थापित करता है तो यह सचित्तनिक्षेप नामका उस व्रतका प्रथम अतिचार होता है। यह स्मरणीय है कि सचित्तपर रखी हुई किसी भोज्य वस्तुको नहीं ग्रहण किया करते हैं। (२) देय भोज्य वस्तुको सचित्त फल या पत्ते आदिसे ढककर रखनेपर १. भुजइ किं च किर । २. अ जइ हंता णाम णित्यारो होति त्ति भास । ३. अ इहमपि । ४. अ सच्चित्ते णिक्खवणं । ५. अ कालाइक्कमपरववदेसमच्छरियं चेव सचित्तपक्षेपणं । ६. अ 'तत्र' नास्ति । ७. अ सचित्तानिक्षेपण । ८. अस्स अप्पाण तीए । ९. अ तस्सेवाकालपरि । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३२८ - परव्यपदेश इति - आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परस्तद्वयपदेश इति समासः, साधोः पौषattaraपारणकाले भिक्षायै समुपस्थितस्य प्रकटमन्नादि पश्यतः श्रावकोऽभिधत्ते परकीयमिदमिति नात्मीयमतो न ददामि किचिद्याचितो वाभिधत्ते विद्यमान एवामुकस्येदमस्ति तत्र गत्वा मार्गय तधूयमिति । ४ । मात्सर्यमिति--याचितः कुप्यते, सदपि न ददाति, परोन्नतिवैमनस्यं च मात्सर्यमिति । तेन तावद्वमकेण याचितेन दत्तम्, किमहं ततोऽपि न्यूनः इति मात्सर्याद्ददाति कषायकलुषितेन वा चित्तेन ददतो मात्सर्यमिति (५) ॥ ३२७॥ उक्तं च सातिचारं चतुर्थं शिक्षापदव्रतम्, अधुनैषामंणुव्रतादीनां यानि यावत्कथिकानि यानि चेत्वराणि तदेतदाह इत्थ उ समणोवासजधम्मे अणुव्वय-गुणव्वयाई च । आवकहियाइ सिक्खावयाई पुण इत्तराई ति || ३२८|| अत्र पुनः श्रमणोपासकधर्मे । तुशब्दः पुनः शब्दार्थः, स चावधारणे अत्रैव न शाक्याद्युपासकधर्मे, तत्र सम्यक्त्वाभावेन अणुव्रताद्यभावात् । उपास्ते इत्युपासकः सेवकः इत्यर्थः । श्रमणानामुपासकस्तस्य धर्म इति समासः । अणुव्रतानि गुणव्रतानि चेति पञ्चाणुव्रतानि प्रतिपादितस्वरूपाणि सचित्तविधान नामका यह दूसरा अतिचार होता है । इसे भी यदि न देनेके विचारसे वैसा किया जाता है तभी अतिचार समझना चाहिए। (३) साधुओंकी भिक्षाके योग्य जो समय है यदि उसे बिताकर भोजन करता है तो यह प्रकृत व्रतका कालातिक्रम नामका तीसरा अतिचार होता है । कारण यह कि उस समय साधुका लाभ होनेपर भी उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं हैं, क्योंकि गोचरीके कालके निकल जानेपर साधु ग्रहण नहीं किया करते हैं । समयपर देनेपर ही उसका मूल्य होता है- - वह तभी श्रेयस्कर होता है । असमय में निर्मित भोजनको ग्रहण करनेवाले साधु उपलब्ध ही नहीं होते । ( ४ ) अपने से भिन्न जो अन्य है उसका व्यपदेश करनेपर - उसका नाम बतलाने पर --- परव्यपदेश नामक चौथा अतिचार होता है । इसका अभिप्राय यह है कि साधु जब पौषधोपवासकी पारणाके समयमें भोजन के लिए उपस्थित होता है और प्रत्यक्षमें अन्न आदिको रखा हुआ देखता है तब यदि श्रावक यह कहता है कि यह दूसरेका है मेरा स्वयंका नहीं है, इसलिए नहीं देता हूँ । अथवा कुछ याचना करनेपर देय वस्तुके विद्यमान होते हुए भी यदि 'यह अमुक व्यक्तिकी है, वहाँ जाकर आप माँग लें' ऐसा कहता है तो उसका प्रकृत व्रत परव्यपदेश नामक इस चौथे अतिचारसे मलिन होता है । (५) मांगनेवर यदि श्रावक क्रोधित होता है, वस्तुके होते हुए भी नहीं देता है, अथवा 'अमुक दरिद्र व्यक्तिने तो याचना करनेपर दिया है, क्या मैं उससे भी होन हूँ' इस प्रकार दूसरेकी उन्नतिको देखकर विमनस्क होते हुए मत्सरतासे या कषायसे कलुषितचित्त होकर देता है तो उसका व्रत मात्सर्य नामक इस पांचवें अतिचारसे दूषित होता है । इसलिए पौषधोपवासव्रती श्रावकको इन पांचों अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए ॥ ३२७ । अब उक्त अणुव्रतादिकों में जो यावत्कथिक हैं और जो अल्पकालिक हैं उनका निर्देश किया जाता है - जीवन पूर्वोक्त श्रमणोपासक ( श्रावक ) धर्म में अणुव्रत और गुणव्रत तो यावत्कथिक - पर्यन्त पालन करने योग्य - हैं, पर शिक्षाव्रत इत्वर ( अल्पकालिक ) हैं । विवेचन - श्रमण नाम साधुका है, उन श्रमणोंकी जो उपासना या सेवा किया करता है वह श्रमणोपासक कहलाता है । दूसरे शब्द से उसे श्रावक कहा जाता है । ( इसका लक्षण पीछे Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३३० ] गृहिप्रत्याख्यानभेदाः प्रीणि गुणव्रतानि उक्तलक्षणान्येव यावत्कथिकानोति सकृद्गृहीतानि यावज्जीवमपि भावनीयानि, न तु नियोगतो यावज्जीवमेवेति गुरवो व्याचक्षते । प्रतिचातुर्मासकमपि तद्ग्रहणम्, वृद्धपरंपरायाततया सामाचायु पलब्धः । शिक्षापदव्रतानि पुनरित्वराणि-शिक्षा अभ्यासस्तस्याः पदानि स्थानानि तान्येव व्रतानि शिक्षापरवतानि, इत्वराणोति तत्र प्रतिदिवसानुष्ठेये सामायिकदेशावकाशिके पुनः पुनरुच्चार्येते इति भावना। पौषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतविवसानुष्ठेयो, न प्रतिदिवसाचरणीयाविति ॥३२८॥ श्रावकधर्मे च प्रत्याख्यानभेदानां सप्त चत्वारिंशदधिकं भङ्गशतं भवति, चित्रत्वाद्देशविरतेः। तदाह सीयालं भंगसयं गिहिपच्चक्खाणभेयपरिमाणं'। तं च विहिणा इमेणं भावेयव्वं पयत्तेणं ।।३२९।। सप्तचत्वारिंशदधिकं भंगशतं गृहिप्रत्याख्यानभेदानां परिमाणमियत्ता। तच्च विधिना अनेन वक्ष्यमाणेन भावयितव्यं प्रयत्ने भरिति ॥३२॥ विधिमाह तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिन्निक्किक्का य हुति जोगेसु । ति दु एक्कं ति दु एक्कं ति दु एक्कं चेव करणाई ॥३३०॥ गाथा २ में कहा जा चुका है )। उसके धर्ममें जिन पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षापदोंका निरूपण पीछे किया जा चुका है (गा. ६) उनमें पांच अणुव्रत और तीन गुणवत तो ऐसे हैं जिन्हें एक बार ग्रहण करके जीवनपर्यन्त पाला जाता है । यहां टीकामें गुरुओंको व्याख्याके अनुसार इतना विशेष कहा गया है कि उनका परिपालन जीवनपर्यन्त भी किया जाता है। पर यह नियम नहीं है कि जीवनपर्यन्त ही उनका पालन किया जाना चाहिए, क्योंकि वृद्धपरम्परागत सामाचारोके अनुसार उनका ग्रहण प्रत्येक चातुर्मासमें भी सम्भव है। परन्तु शिक्षापदोंका परिपालन जीवनपर्यन्त नहीं होता, उनका पालन नियत समयमें सम्भव है। यथा-सामायिक और देशावकाशिक इन दो शिक्षापदोंका अनुष्ठान प्रतिदिन किया जाता है व पुनः-पुनः उनका उच्चारण किया जाता है-प्रतिदिन उन्हें धारण किया जाता है। पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग ये दो शिक्षापद प्रतिनियत दिनोंमें-जैसे अष्टमी व चतुर्दशी आदिमें-अनुष्ठेय हैं, उनका आचरण प्रतिदिन नहीं किया जाता। अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षापदोंका निरूपण पूर्वमें विस्तारसे किया जा चुका है ॥३२८॥ अब श्रावकधर्ममें प्रत्याख्यानके भेदोंको संख्याका निर्देश किया जाता है गृहस्थके प्रत्याख्यान सम्बन्धी भेदोंका प्रमाण एक सौ सैंतालीस भंगरूप है। उसका विचार आगे कही जानेवालो इस विधिसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए ॥३२९।। वह विधि इस प्रकार है काय, वचन और मनके व्यापारस्वरूप योगोंमें तोन त्रिक (३), तीन द्विक (२) और तीन एक-एक तथा मन, वचन और कायरूप करण तोन, दो, एक, तोन, दो, एक, तीन, दो और एक होते हैं। १. अ परिमाणा। २. म दधिकं शतं । ३. अति नि एक्कं त दु एक्कं ति चेव कारणाए। २६ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३३० त्रयस्त्रिकास्त्रयो द्विकास्त्रय एककाश्च भवन्ति योगेषु कायवाग्मनोव्यापारलक्षणेषु । त्रीणि द्वयमेकं ३ चैव करणानि मनोवाक्कायलक्षणानीति पदघटना। भावार्थस्तु स्थापनया निर्विश्यते । सा चेयं योगाः ३|३|३|२|२|२|१|१|१| करणानि ३ |२|१|३|२|१|३|२|१| १|३|३|३|९/९/३/९/९ कात्र भावना? न करेइ, न कारवेइ, करंतंपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं वायाए काएण । एको भेओ इयाणि बिइओ-ण करेइ, न कारवेइ, करंतपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं वायाए एक्को ३, मणेणं काएण ३, तहा वायाए काएण; बीओ मूलभेओ गओ ।२। इयाणि तइयओ-ण करेइ ण करावेइ करतं पि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं ६, वायाए ३, काएणं ॥३॥ इदानी चतुर्थः-न करेइन कारवेइ मणेणं वायाए काएणं है,ण करेइ करंतं पि नाणुजाणइ २, णे कारवेइ करतं पि नाणुजाणइ तइओ 3; चउत्थो मूलभेओ।४। इदानी'° पंचमो-न करेइ न कारवेइ मणेणं वायाए एक्कोन' करेइ करतं नाणुजाणइ ३, कारवेइ करतं नाणुजाणइ एए । तिन्नि वि भंगा मणेणं वायाए लद्धा। अन्ने वि तिन्नि मणेणं काएण य एवमेव ramin विवेचन-अभिप्राय यह है कि प्राणिघातादिका जो प्रत्याख्यान किया जाता है वह तीनों योगोंसे, दो योगोंसे और केवल एक योगसे भी किया जाता है, किया व कराया जाता है तथा करने व कगनेके साथ अनुमोदन भी किया जाता है। इस प्रकारसे उस प्रत्याख्यानके भंग ( भेद ) उनचास हो जाते हैं जो निम्न संदृष्टि या स्थापनासे जाने जा सकते हैं योग | ३ | ३ | ३ | २| २ | २ | १ | १ | १ | करण । ३ | २ | १ | ३ | २ | १ | ३|२|१| | भंग १ ३ | ३ | ३ | ९ | ९| ३ | ९ | ९ | ४९ उनका उच्चारण इस प्रकारसे किया जा सकता है-१ मन, वचन व कायसे न करता है, न कराता है और न करते हुए अन्यका अनुमोदन करता है। २ मन व वचनसे न करता है, न कराता है और करते हुए अन्यका अनुमोदन करता है। ३ मन-कायसे न करता है, न कराता है, न करते हएका अनुमोदन करता है। ४ वचन-कायसे न करता है, न कराता है, न करते हएका अनुमोदन करता है। ५ मन से न करता है, न कराता है, न करते हुएका अनुमोदन करता है। ६ वचनसे न करता है, न कराता है, न करते हुएका अनुमोदन करता है । ७ कायसे न करता है, न कराता है, न करते हुए का अनुमोदन करता है। ८ मन-वचन-कायसे न करता है, न कराता है । ९ मन-वचन-कायसे न करता है, न अनुमोदन करता है । १० मन-वचन-कायसे न कराता है, न अनुमोदन करता है । ११ मन-वचनसे न करता है, न कराता है । १२ मन-वचनसे न करता है, १. मेकं चैव। २. अ'योगाः कारणानि' नास्ति । ३. अभेओ इयाणि । ४. अ एक्को मणेणं । ५. अ मणकाएण २ तहा। ६. अ वायाए काएण २ वीओ। ७. अ मणेणं १ वायाए २ काएणं ३ इदानीं । ८. अकाएणं ण । ९. अ नाणुजाणइ २ ण । १०. तईय चतुर्थो मूलभेउ इदानीं। ११. अ एक्को न । १२. णाणुजाणइ न। १३. अ णाणुजाणइ ३ एए। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहिप्रत्याख्यानभेदाः २०३ लति । तहा अवरे वि वायाए कारण य लब्भंति । एवमेवे एते सव्वे नव । पंचमोऽप्युक्तो मूलभेदः । ५ । इयाणि छट्टो - ण करेइ ण कारवेइ मैणेणं एक्को । तहाण करे करतंपि नाणु जाणइ मणेणं २, र्णे कारवेइ करंतं नाणुजाणइ मनसैव तृतीयः २ । एवं वायाए कारण य २६ रखे । सव्वे नव । उक्तो षष्ठो मूलभेदः । ६ । इदानीं सप्तमोSभिधीयते, ण करेइ मणेणं वायाए कारण य एक्को रे । एवं र्ण कारवेइ मणाईहि करतं णाणुजाणइ 34; ।७। इँदानोमष्टमो भव्यते- न करेइ मणेण वायाए एक्को उरे, तहाँ मण काण उडे, तहा वायाए कारण य ॐ । एवं न करावे 34 कर नाणुजाणइ ४। सव्वे वि णव । ८ । इदानीं नवमो भण्यते न करेइ मणे ४१ ने कारवेद ४२, करंतं नाणुजाणइ 83 | एवं वायाए वि ४४५४६ कारणे व ४७४८४ । सब्वे वि नव नवमो मूलभेदः । ९ । "आगतगुणनेदानीं क्रियते - 10 म ३३० ] न अनुमोदन करता है । १३ मन-वचनसे न कराता है, न अनुमोदन करता है । न करता है, न कराता है । १५ मन- कायसे न करता है, न अनुमोदन करता है । न कराता है न अनुमोदन करता है । १७ वचन -कायसे न करता है, न कराता है । १८ वचनकायसे न करता है, न अनुमोदन करता है । १९ वचन - कायसे न कराता है, न अनुमादन करता है । २० मनसे न करता है, न कराता है । २१ मनसे न करता है, न अनुमोदन करता है । २२ मनसे न कराता है, न अनुमोदन करता है । २३ वचनसे न करता है, न कराता है । २४ वचनसे न करता है, न अनुमोदन करता है । २५ वचन से न कराता है, न अनुमोदन करता है । २६ कायसे न करता है, न कराता है । २७ कायसे न करता है, न अनुमोदन करता है । २८ कायसे न कराता है, न अनुमोदन करता है । २९ मन-वचन-कायसे स्वयं करता नहीं । ३० मनवचन-कायसे कराता नही । ३१ मन-वचन-कायसे अनुमोदन नहीं करता । ३२ मन-वचनस करता नहीं। ३३ मन-वचनसे कराता नहीं । ३४ मन-वचन से अनुमादन नहीं करता । ३५ मन- कायस करता नहीं । ३६ मन-कायसे कराता नहीं । २७ मन-कांयस अनुमादन नहीं करता । २८ वचनकायसे करता नहीं । ३९ वचन कायसे कराता नहा । ४० वचन - कायसे अनुमोदन नहीं करता । ४१ मनसे करता नहीं । ४२ मनसे कराता नहीं । ४३ मनसे अनुमोदन नहीं करता । ४४ वचनसे करता नहीं । ४५ वचनसे कराता नहीं । ४६ वचनस अनुमोदन नहीं करता । ४७ कायसे करता नहीं । ४८ कायसे कराता नहीं । ४९ कायसे अनुमादन नहीं करता । इस प्रकार मन, वचन और कायके व्यापाररूप तीन योगों तथा करणरूप मन, वचन और काय इनक परस्परक सयागस ४९ भंग हो जाते है । उपर्युक्त ४९ प्रकारके प्रत्याख्यानम से प्रत्येकका भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन कालोसे सम्बन्ध होनेके कारण ४९ को ३ स गुणित करनेपर समस्त भंग एक सो सैंतालास ( ४९× ३ = १४७ ) हो जाते हैं । अभिप्राय यह है कि भूतकाल में जो प्राणातिपातादिरूप अपराध १४ मन- कायसे १६ मन - कायसे १. अ लब्भति ३ तहा अवरे पि वायाए || कारण य लब्भति ३ एवमेव । २. अ मूलभेदः इयाणि । ३. अ मणेणं एक्को । ४. अ मणेणं २ ण । ५. अ मनसंव तीय ३ एवं वायाए ३ काऍण ३ य सव्वे इव ९ उक्तः षष्टो मूलभेदः इदानीं । ६. अ एक्को एवं । ७. अ कारावइ मणाईहि २ कुतं णाणुजाणइ ३ इदानीं । ८. अ एक्को तहा । ९. अ अतोऽग्रे ऽग्रिम 'य' पर्यन्तः पाठो नास्ति । १०. अ य एवं न करावेइ करेतं । ११. भ इ सव्वे । १२. अणव ९ इदानीं । १३. अ मणेण न । नाणुजाणइ ३ एवं । १५. अवि ३ कारण । १६. अवि ३ सव्वे पि नव ९ नवमो मूलभेद आगत १४. अ कारवेइ २करेंतं Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३३१ - लद्धफलमाणमेयं भंगाउ भवंति अउणपन्नासं। तीयाणागयसंपयगुणियं कालेण होइ इमं ।। सीयालं भंगसयं कह कालतिएण होइ गुणणाउ । तीयस्स पडिक्कमणं पच्चुप्पन्नस्स संवरणं ।। पच्चक्खाणं व तहा होइ य एस्सस्स एस गणणाओ। कालतिएण य भणियं जिणगणहरवायगेहिं च ॥ इति ॥३३०॥ उक्तभङ्गकानामाद्यभङ्गस्वरूपाभिधित्सयाह न करइ न करावेइ य करंतमन्नं पि नाणुजाणेइ । मणवयकायेणिक्को एवं सेसा वि जाणिज्जा ॥३३१।। न करोति स्वयं न कारयत्यन्यैः कुर्वन्तमन्यमपि स्वनिमित्तं स्वयमेव नानुजानाति । कथम् ? मनोवाक्कायैर्मनसा वाचा कायेन चेत्येवमेको विकल्पः। एवं शेषानपि द्वयादीन् जानीयात् यथोक्तान प्रागिति ॥३३२।। अत्राह न करेईच्चाइतियं गिहिणो कह होइ देसविरयस्स । भन्नइ विसयस्स बहिं पडिसेहो अणुमईए वि ॥३३२॥ न करोतीत्यादित्रिकं अनन्तरोक्तम् । गृहिणः श्रावकस्य । कथं भवति देशविरतस्य विरताविरतस्य, सावद्ययोगेष्वनुमतेरव्यवच्छिन्नत्वात् । नैव भवतीत्यभिप्रायः। एवं चोदकाभिकिया गया है, कराया गया है या अनुमोदित हुआ है उसका प्रतिक्रमण किया जाता है; वर्तमान में उसे रोका जाता है और भविष्य में सम्भव उसका प्रत्याख्यान किया जाता है। इसी कारण-तीन कालसे सम्बद्ध होनेके कारण-उसे उक्त प्रकार तीन कालोंसे गुणित किया गया है। यह प्रत्याख्यानविषयक व्याख्यान वीतराग जिन, गणधर और वाचक (द्वादशांगका वेत्ता) इनकी परम्परासे समागत है ऐसा निश्चय करना चाहिए ॥३३०॥ आगे उपर्युक्त भंगोंमें-से प्रथम भंगका निर्देश स्वयं ग्रन्थकारके द्वारा किया जाता है मन, वचन और कायसे न स्वयं करता है, न अन्यसे कराता है और न करते हुए अन्यका अनुमोदन भी करता है। इस प्रकार उक्त एक सौ सैंतालोस भंगोंमें यह प्रथम है। इसी प्रकार शेष भंगोंको भी जानना चाहिए ।।३३१॥ अब यहां शंकाकारके द्वारा उठायी गयी शंकाको प्रकट करके उसका समाधान किया जाता है यहां शंकाकार पूछता है कि देशविरत श्रावकके 'न स्वयं करता है' इत्यादि तीन कैसे सम्भव हैं । इसके समाधान में कहा गया है कि विषयके बाहर उसके अनुमतिका भी प्रतिषेध सम्भव है। विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय है कि आरम्भ कार्यों में निरत गृहस्थ स्थूल रूपमें प्राणातिपातादिका परित्याग करता है, अतः उसके करने व करानेका प्रतिषेध तो सम्भव है, किन्तु उसके लिए अनुमतिका निषेध करना शक्य नहीं है। इसके उत्तरमें यहां यह कहा गया है कि Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३३४ ] गृहिप्रत्याख्यानभेदाः २०५ प्रायमाशङ्कय गुरुराह-भण्यते तत्र प्रतिवचनम् । विषयाबहिः प्रतिषेधोऽनुमतेरपि, यत आगतं भाण्डाद्यपि न गृह्णातोत्यादाविति ॥३३२॥ अत्रैवं व्यवस्थिते सति-. केई भणंति गिहिणो तिविहं तिविहेण नत्थि संवरणं । तं न जओ निद्दिट्ठ पन्नत्तीए विसेसेउं ॥३३३॥ केचनाहन्मतानुसारिण एवापरिणतसिद्धान्ता भणन्ति । किम् ? गृहिणः त्रिविधं न करोतो. त्यादि । त्रिविधेन मनसेत्यादिना। नास्ति संवरणं न विद्यते प्रत्याख्यानम् । तन्न तदेतदयुक्तम् । किमिति ? यतो निर्दिष्टं प्रज्ञप्तौ भगवत्याम् । विशेषः अविषये "तिविहं पि" इत्यादिनेति ॥३३३॥ आह ता कह निज्जुत्तीए णुमतिनिसेहु त्ति से सविसयम्मि । सामन्ने वान्नत्थ उ तिविहं तिविहेण को दोसो ॥३३४॥ यद्येवं तत्कथं नियुक्तौ प्रत्याख्यानसंज्ञितायाम् अनुमतिनिषेध इति "दुविहं तिविहेण पढमउ" इत्यादिवचनेन ? अत्रोच्यते-स स्वविषये यत्रानुमतिरस्ति तत्र तनिषेधः, सामान्ये वा जिस कार्यसे उसका कुछ प्रयोजन नहीं है ऐसे अपने अविषयभूत सावध कार्यके विषयमें वह अपनी अनुमतिका परित्याग कर सकता है, उसमें कुछ बाधा नहीं है ।।३३२॥ आगे इस विषयमें अन्य किन्हीं आचार्योंके अभिमतको दिखलाते हुए उसका भी निषेध किया जाता है यहां कितने ही जैन मतानुयायी कहते हैं कि गृहस्थके तीन प्रकारसे-मन, वचन और यसे-कृत, कारित व अनुमत तीन प्रकारके सावद्यका प्रत्याख्यान सम्भव नहीं है। इसके समाधानमें यहां कहा जा रहा है कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रज्ञप्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति ) में विशेष करके वैसा कहा गया है, अर्थात् भगवतीसूत्रमें यह निर्देश किया गया है कि गृहस्थ भी विषयके बहिर्भूत कृत-कारितादिरूप तीन प्रकारके सावध कर्मका तीन प्रकारसे प्रत्याख्यान कर सकता है ।।३३३॥ आगे इस प्रसंगमें शंकाकारके द्वारा उद्भावित शंकाको प्रकट करते हुए उसका समाधान किया जाता है शंकाकार कहता है कि जब व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ) में अनुमतिका निषेध नहीं किया है तब फिर नियुक्ति (प्रत्याख्याननियुक्ति ) में अनुमतिका निषेध कैसे किया गया है ? इस शंकाके उत्तरमें कहा जा रहा है कि वहां उसका निषेध स्वविषय में किया गया है। अथवा सामान्य प्रत्याख्यानमें उसका निषेध किया गया है। अन्यत्र ( अविषयमें) कृत-कारितादिरूप तीन प्रकारके सावद्यका प्रत्याख्यान तीन प्रकारसे करने में कौन-सा दोष है ? कुछ भी दोष नहीं है। विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय है कि व्याख्याप्रज्ञप्तिमें जब यह कहा गया है कि गृहस्थ कृत, कारित एवं अनुमत इस तीन प्रकारके सावद्यका प्रत्याख्यान मन, वचन व काय इन तीनोंसे करता है तब क्या कारण है जो प्रत्याख्याननियुक्तिमें अनुमतिका निषेध करते हुए दो ही प्रकारके १: अ भवतीत्यभिप्रायमाशंक्य । २. अ 'तत्र' नास्ति । ३. अ प्रतिषेधे । ४. अ तत्त जतो न दिटुं । ५. म एव परिणतसद्धांताभणित किं । ६. अ (विशिष्य I) नास्ति । कायसे—कृत, कारित व Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३३९ - प्रत्याख्याने स इति । अन्यत्र तु विशेषे स्वयंभूरमणजलधिमत्स्यादौ । त्रिविधं त्रिविधेन कुर्वतः को दोषः ? न कश्चिदिति-परिहारान्तरमाह ॥३३४॥ पुत्ताइसंतइनिमित्तमित्तमेगारसिं पवनस्स । जंपंति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहं पि ॥३३५॥ पुत्रादिसन्ततिनिमित्तमात्रम्-प्रबजितोऽस्य पितेत्येवं विज्ञाय परिभवन्ति केचन तत्सुतम्, अप्रवजिते तु न, एतावद्भिश्चाहोभिरसौ मानुषीभवत्येवेति । तत ऊध्वं गुणमुपलभ्य एतनिमित्तं प्रविजिषुरपि कश्चित्पर्यन्तवतिनीमुपासकप्रतिमा प्रतिपद्यत इति तदाह-एकादशी प्रपन्नस्य श्रवणभूताभिधानामुपासकप्रतिमामाश्रितस्य । जल्पन्ति केचन गृहिणो दीक्षाभिमुखस्य त्रिविधमपि प्रत्याख्यानमिति ॥३३५।। प्रत्याख्यानका तीन प्रकारसे करनेका निर्देश किया गया है ? इस शंकाका समाधान करते हुए यहां यह स्पष्ट किया गया है कि प्रत्याख्यान नियुक्तिमें जो अनुमतिका निषेध किया गया है वह अपने व्यवहार कार्यको लक्ष्यमें रखकर किया गया है, क्योंकि पारम्भ कार्य करते हुए गृहस्थको कभीकभी अनुमति देना आवश्यक हो जाता है। किन्तु जो गृहस्थके व्यवहारका विषय नहीं है वहां गृहस्थ कृत, कारित व अनुमत तीनों प्रकारके सावद्यका मन, वचन व काय तीनों प्रकारसे प्रत्याख्यान करता है। उदाहरणार्थ स्वयम्भूरमण समुद्रवर्ती मत्स्यादि गृहस्थके व्यवहारके विषयभूत नहा है, अतः ऐसे विषयमें वह अनुमतिके साथ तीन प्रकारक सावद्यका तीनो.प्रकारसे त्याग करता है । इस प्रकार उक्त व्याख्याप्रज्ञप्तिके विशेष आशयके समझ लेनेपर प्रकृत प्रत्याख्याननियुक्तिके इस कथनसे कुछ भी विरोध नहीं रहता। अथवा प्रत्याख्याननियुक्तिमें सामान्य प्रत्याख्यानकी विवक्षामें अनुमतिका निषेध किया गया है, विशेष प्रत्याख्यानमें व्याख्याप्रज्ञप्तिके समान ही प्रत्याख्याननियुक्तका अभिप्राय समझना चाहिए ॥३३४।। आगे उपर्युक्त शंकाका समाधान अन्य प्रकारसे किया जाता है जो गृहस्थ दोक्षाके अभिमुख होता हुआ पुत्रादिके निमित्त मासे ग्यारहवीं प्रतिमाको स्वीकार करता है उसके तीनों प्रकारका प्रत्याख्यान होता है, इस प्रकारसे अन्य कितने ही उक्त शंकाके समाधानमें कहते हैं। विवेचन-पूर्वमें ( ३३२ ) में जो यह शंका उठायो गयी थी कि देशव्रती गृहस्थके 'न करता है, न कराता है और न अनुमति देता है' इस प्रकारसे तीन प्रकारका प्रत्याख्यान कैसे सम्भव है ? इसका समाधान यद्यपि इसके पूर्व किया जा चुका है, फिर भी प्रकारान्तरसे यहां उसका समाधान करते हुए यह कहा गया है कि 'पुत्र आदिके निमित्तसे यह दोक्षित हुआ है' इस प्रकार कहते हुए कोई उसके पुत्रको लज्जित न करे, इस विचारसे जिस गृहस्थने मुनिदोक्षाके अभिमुख होकर भी उसे स्वीकार न कर श्रमणभूत-श्रमणके समान अनुष्ठानवाडी-ग्यारहवीं प्रतिमाको स्वीकार किया है उसके अपने विषयमें भी अनुमतिका निषेध होता है-वह किसी भी व्यवहार कार्यमें अपनी अनुमति नहीं देता। इस प्रकार उक्त गृहस्थके कृत, कारित व अनुमत तीन प्रकारके सावद्यका प्रत्याख्यान मन, वचन व काय इन तीनोंसे बन जाता है ।।३३५।। १. अ पुत्रातिसंतइणिमित्तमेत्तमेकादसि । २. अ इत्याह । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३३८] श्रावकस्य निवासविषया सामाचारी २०७ आह कहं पुण मणसा करणं कारावणं अणुमई य । जह वइतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा ॥३३६॥ आह चोदकः कथं पुनर्मनसा करणं कारणमनुमतिश्चान्त-र्यापारत्वेन परैरनुपलक्ष्यमाणत्वादनुपपत्तिरित्यभिप्रायः। गुरुराह-यथा वाक्तनुयोगाभ्यां करणावयः करण-कारणानुमोदनानि । तथा भवेद् मनसापीति ॥३३६॥ कथमित्याह तयहीणता वय-तणुकरणाईण अहवा उ मणकरणं । सावज्जजोगमणणं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥३३७॥ तदधीनत्वादिति मनोयोगाधीनत्वात् वाक्तनुकरणादीनाम, तेन ह्यालोच्य वाचा कायेन वा करोति कारयति चेत्यादि अभिसंधिमन्तरेण प्रायस्तदनुपपत्तेः। प्रकारान्तरं चाह-अथवा मनःकरणम् । किम् ? सावद्ययोगमननं करोम्यहं एतदिति सपापव्यापारचिन्तनं प्रज्ञप्तं वीतरागै. रिति ॥३३७॥ कारवणं पुण मणसा चिंतेइ करेउ एस सावज्ज । चिंतेई य कए पुण सुटुकयं अणुमई होइ ॥३३८॥ कारवणं पुनर्मनसा चिन्तयति करोतु एष सावधं असावपि चेगितज्ञोऽभिप्रायात्प्रवर्तत एव । चिन्तयति च कृते पुनः सुष्ठुकृतमनुमतिर्भवति मानसो अभिप्रायज्ञो विजानात्यपीति ॥३३८॥ आगे प्रसंगानुरूप अन्य शंकाको उद्भावित करते हुए उसका समाधान किया जाता है इस प्रसंगमें कोई कहता है कि मनसे करना, कराना और अनुमति कैसे सम्भव है ? इसके उत्तरमें कहा गया है कि जैसे वचन और काय योगोंसे उक्त करना आदि होते हैं वैसे ही मनसे भी वे होते हैं ॥३३६॥ आगे इसे ही स्पष्ट किया जाता है वचन और शरीरसे सम्बद्ध करना आदि-करना, कराना और अनुमति-चूंकि उक्त मनके अधीन हैं, अर्थात् मनसे विचार किये बिना वचनसे व कायसे उक्त करना आदि सम्भव नहीं हैं, इसीलिए वचन और कायके समान मनसे भी उक्त करने आदि तीनको समझना चाहिए। अथवा सावद्ययोगका जो मनन है-'मैं करता हूँ' इस प्रकारका जो मनसे चिन्तन-होता है उसे वीतराग भगवान्ने मन करण कहा है॥३३७॥ आगे उसे और भी स्पष्ट किया जाता है 'यह मेरे सावध कार्यको करे' इस प्रकारका जो मनसे चिन्तन किया जाता है, यह मनसे कराना है। अभीष्ट कार्यके कर देनेपर फिर जो 'ठीक किया ऐसा मनसे विचार करता है, यह मनसे अनुमति है ॥३३८॥ विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय था कि जिस प्रकार वचन और शरीरका व्यापार दूसरोंके द्वारा देखा जाता है उस प्रकार अन्तःकरण होनेसे मनके द्वारा क्या किया-कराया है, यह दूसरोंके लिए उपलक्ष्य नहीं है। अतः मनके द्वारा कृत, कारित व अनुमत सावद्यको कैसे समझा १. अ कथमित्यादि । २. अता वत्तित्तणुकरणादीणमहव मणकरणं । तु । ३. अ करेइ उ एस । ४. अचंतितज्ञो। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२३९ - उक्तः प्रत्याख्यानविधिरधुना श्रावकस्यैव निवासादिविषयां सामाचारी प्रतिपादयन्नाह निवसिज्ज तत्थ सड्ढो साहूणं जत्थ होइ संपाओ। चेइयघराइ जत्थ य तयन्नसाहम्मिया चेव ॥३३९॥ निवसेत्तत्र नगरादौ श्रावकः, साधूनां यत्र भवति संपातः-संपतनं संपातः, आगमनमित्यर्थः। चैत्यगृहाणि च यस्मिस्तदन्यसाधर्मिकाश्चैव श्रावकादय इति गाथासमासार्थः ॥३३९॥ अधुना प्रतिद्वारं गुणा उच्यन्ते तत्र साधुसंपाते गुणानाह साहूण वंदणेणं नासइ पावं असंकिया भावा । फासुयदाणे निज्जर उवग्गहो नाणमाईणं ॥३४०॥ साधूनां वन्दनेन करणभूतेन । किम् ? नश्यति पापम् गुणेषु बहुमानात् । तथा अशङ्किता भावास्तत्समीपे श्रवणात् । प्रासुकदाने निर्जरा। कुतः। उपग्रहो ज्ञानादीनां ज्ञानादिमन्त एव साधर्व इति? उक्ताः साधुसंपाते गुणाः ॥३४०॥ जाये ? इस शंकाके उत्तरमें प्रथम तो यही कहा गया है कि जैसे वचन और काय योगोंके द्वारा वे करना-कराना आदि होते हैं वैसे ही वे मन योगसे होते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि वचन और काय के द्वारा जो किया जाता है, कराया जाता है और अनुमोदन किया जाता है; यह सब उस मनके अधीन है। कारण यह कि प्रथमतः मनसे ही उक्त करने, कराने और अनुमोदनका विचार किया जाता है । तत्पश्चात् प्रयोजनके अनुसार प्राणी वचनसे व कायसे करता है, कराता है व अनुमोदन करता है। मनसे विचार करनेके बिना वे वचन और कायसे सम्भव नहीं हैं, इसलिए वचन और कायके समान ही उन तीनोंको मनसे भी समझना चाहिए। आगे प्रकारान्तरसे पृथक्-पृथक् उनके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि प्राणी 'मैं अमुक सावद्य कार्यको करता हूँ इस प्रकारका जो विचार करता है, यह 'मनकृत' का लक्षण है। 'यह अमुक कार्य कर दे' इस प्रकारसे जो मनमें विचार किया जाता है, इसे 'मनकारित' समझना चाहिए। इसी प्रकार जब दूसरा चेष्टासे उसके अभिप्रायको समझकर इच्छित कार्यको कर देता है तब प्राणी जो यह सोचता है कि 'इसने मेरा कार्य ठीकसे कर दिया है' इसे 'मनसे अनुमत' जानना चाहिए ॥३३६-३३८॥ अब आगे श्रावककी निवासादि विषयक सामाचारीका निरूपण करते हुए प्रथमतः उसे कैसे स्थानमें निवास करना चाहिए, इसे स्पष्ट किया जाता है श्रावकको वहां-ऐसे नगर आदिमें-रहना चाहिए जहाँ साधुओं का आगमन होता हो, चैत्यगृह (जिनभवन) हों तथा अन्य सार्मिक जन भी रहते हों ॥३३९॥ आगे साधुसमागमसे होनेवाले लाभको दिखलाते हैं साधुओंकी वन्दनासे पाप नष्ट होता है, परिणाम शंकासे रहित होते हैं, उन्हें प्रासुक आहार आदिके देनेसे निर्जरा होती है, तथा आदिका उपग्रह होता है। विवेचन-जहां साधुओंका समागम होता है, ऐसे स्थानपर श्रावकके रहनेसे उसे क्या लाभ होता है, इसे स्पष्ट करते हुए यहां यह कहा गया है कि साधुओंके आनेसे श्रावकको उनकी वन्दना आदिका अवसर प्राप्त होता है जिससे उसके पापका विनाश होता है। उनसे जिनागमके १. अ जस्मि तयन्न । २. अ भवति संपातः आगमन । ३. अ एव हि साधव । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३४२] श्रावकस्य निवासविषया सामाचारी २०९ चैत्यगृहे गुणानाह मिच्छादंसणमहणं सम्मइंसणविसुद्धिहेउं च। . चिइवंदणाइ विहिणा पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥३४१।। मिथ्यादर्शनमथनम् -मिथ्यादर्शनं 'विपरीतपदार्थश्रद्धानरूपं मथ्यते विलोड्यते येन तत्तथा। न केवलमपायनिबन्धनकदर्थनमेव, किन्तु कल्याणकारणोपकारि चेत्याह-सम्यग्दर्शनविशुद्धिहेतु च सम्यगविपरीतं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं दर्शनं सम्यग्दर्शनं मोक्षादिसोपानम्, तद्विशुद्धिकरणं च। किं? तच्चैत्यवन्दनादि। आदिशब्दात् पूजादिपरिग्रहः। विधिना सूत्रोक्तेन । प्रज्ञप्तं प्ररूपितं वीतरागैरहद्भिः, स्थाने शुभाध्यवसायप्रवृत्तेरेतच्च चैत्यगृहे सति भवतीति गाथार्थः ॥३४॥ उक्ताश्चैत्यगृहगुणाः, सांप्रतं समानधार्मिकगुणानाह साहम्मियथिरकरणं वच्छल्ले सासणस्स सारो त्ति । मग्गसहायत्तणओ तहा अणासो य धम्माओं ॥३४२॥ समानधामिकस्थिरीकरणभिति-यदि कश्चित्कथंचिद्धर्मात् प्रच्यवते ततस्तं स्थिरीकरोति, महाश्चायं गुणः। तथा वात्सल्ये क्रियमाणे शासनस्य सार इति सार आसेवितो भवति । उक्तं च' "जिणसासणस्स सारो" इत्यादि । सति च तस्मिन् वात्सल्यमिति । तथा तेन तेनोपबृंहश्रवणसे तत्त्वविषयक शंका न रहनेके कारण निःशंकित परिणति होती है। उन्हें प्रासुक भोजन एवं औषधि आदिके प्रदान करनेसे पूर्वसंचित कर्मको निर्जरा होती है। इसके अतिरिक्त साधु स्वयं ज्ञान-दर्शनादि गुणोंसे संयुक्त होते हैं, अतः उनके आश्रयसे श्रावकके ज्ञानादि गुणोंमें वृद्धि होती है। इस प्रकार साधुसेवासे श्रावकको महान् लाभ होता है, अतः श्रावकको ऐसे ग्रामनगरादिमें ही निवास करना चाहिए जहाँ साधुओंका सदा समागम होता रहे ।।३४०॥ आगे वहाँ चैत्यगृहके रहनेसे होनेवाले लाभको दिखलाते हैं विधिपूर्वक जो जिनवन्दना व जिनपूजा आदि की जाती है उससे मिथ्यादर्शन-तत्त्वविषयक विपरीत श्रद्धान-का निर्मथन ( विनाश ) होता है, साथ ही सम्यग्दर्शनकी विशुद्धियथार्थ तत्त्व श्रद्धान व हिताहितका विवेक-भी उससे उदित होता है। इसीलिए वीतराग जिनेन्द्रने उक्त चैत्यवन्दना आदिको मिथ्यादर्शनके निर्मूलन और सम्यग्दर्शनकी निर्मलताका कारण कहा है। यह चूंकि चैत्यगृहके रहनेपर ही सम्भव है, इसीलिए जहां चैत्यगृह हों वहाँ श्रावकके लिए रहने की प्रेरणा की गयी है ॥३४१॥ अब वहां सार्मिक जनके रहनेस होने वाले लाभको प्रकट किया जाता है सार्मिक जनके रहनेसे यदि कोई किसी प्रकार धर्मसे च्युत हो रहा है तो उसे उसमें स्थिर किया जाता है, यदि स्वयं उस धर्मसे च्यत हो रहा है तो अन्य सार्मिक अपने को उसमें स्थिर कर सकते हैं। इस प्रकार परस्परमें वात्सल्यभाव-धर्मानुरागके होनेपर-जनागमके सार ( रहस्य ) का आसेवन होता है। तथा मोक्षमार्गमें सहायक होनेसे धर्मसे बिनाश नहीं १. अमिथ्यादर्शन मिति मिथ्यादर्शन वि। २. भ किंचित चैत्यवंदनाद्यादिशब्दात । ३. अ धम्मातो। ४. अ आसेवेति । ५. अ 'च' नास्ति । ६. अ मुद्रितप्रति टिप्पणके असार आसेवितो भवति उक्तजिणसासणस्स सारो इत्यादि । ब सारश्च सेवेतो भवता उत्तापगागण भासण सरो इत्यादि । ७. अ इत्यादि स च । २७ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३४३ - णादिना प्रकारेण । सम्यग्दर्शनाविलक्षणमार्गसहायत्वादनाशश्च भवति । कुतो धर्मात्तत एवेति गाथार्थः ॥३४२॥ 1 उक्ताः समानधार्मिक गुणाः । सांप्रतं तत्र निवसतो विधिरुच्यते, तत्रापि च प्रायो भावसुप्ताः श्रावकाः ये प्राप्यापि जिनमतं गार्हस्थमनुपालयन्त्यतो निद्रावबोधद्वारेणाह - नवकारेण विबोहो अणुसरणं सावओ वयाईमि । जोगो चिइवंदणमो पच्चक्खाणं च विहिपुव्वं ॥ ३४३ ॥ नमस्कारेण विबोध इति सुप्तोत्थितेन नमस्कारः पठितव्यः । तथानुस्मरणं कर्तव्यं श्रावकोऽहमिति । व्रतादौ विषये - ततो योगः कायिकादिः । चैत्यवन्दनमिति प्रयत्नेन चैत्यवन्दनं कर्तव्यम् । ततो गुर्वादीनभिवन्द्य प्रत्याख्यानं च विधिपूर्वकं सम्यगाकारशुद्धं ग्राह्यमिति ॥ ३४३ ॥ गोसे सयमेव इमं काउं तो चेइयाण पूयाई । साहुसगा से कुज्जा पच्चक्खाणं अहागहियं || ३४४ || गोसे प्रत्युषसि । स्वयमेवेदं कृत्वा गृहादौ । ततश्चैत्यानां पूजादीनि संमार्जनोपलेप- पुष्पधूपादिसंपादनादि कुर्यात् । ततः साधुसकाशे कुर्यात् । किम् ? प्रत्याख्यानं यथा गृहीतमिति ॥ ३४४॥ अत्र केचिदधिगतसम्यगागमा ब्रुवत इति चोदकमुखेन तदभिप्रायमाह - पूया काय हो पडिकुट्टो सो अनेव पुज्जाणं । उवगारिणित्ति तो सा नो कायव्व त्ति चोएइ || ३४५ || पूजायां भगवतोऽपि किले क्रियमाणायाम् । कायवधो भवति, पृथिव्याद्युपमर्दमन्तरेण तदनुपपत्तेः । प्रतिक्रुष्टः स च कायवधः सव्वे जीवा न हंतव्वेत्यादि वचनात् । कि च न च पूज्यानामर्हतां तच्चैत्यानां वा उपकारिणी पूजा, अर्हतां कृतकृत्यत्वात् तच्चैत्यानामचेतनत्वात् । इतिशब्दो यस्मादर्थे - यस्मादेवं ततस्तस्मादेव । पूजा न कर्तव्येति चोदक इति ॥ ३४५॥ होता - उसका परिपालन भी होता है । इस कारण जहां अन्य साधर्मिक जन रहते हों वहाँ श्रावकका रहना श्रेयस्कर होता है || ३४२ || उक्त स्थान में रहते हुए श्रावकको प्रातः काल में प्रबुद्ध होकर क्या करना चाहिए, इसे दिखलाते हैं सोते से उठकर श्रावनको नमस्कारके साथ प्रबुद्ध होना चाहिए - शय्याको छोड़ते हुए पंचनमस्कार मन्त्रका उच्चारण करना चाहिए, 'मैं श्रावक हूँ' ऐसा स्मरण करना चाहिए, व्रत आदिमें योजित करना चाहिए - उसके विषय में मन, वचन व कायसे प्रवृत्त होना चाहिए, चैत्यवन्दन करते हुए गुरु आदिके समक्ष विधिपूर्वक प्रत्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए ||३४३॥ तत्पश्चात् उसे क्या करना चाहिए, यह आगे दिखलाते हैं प्रातःकाल उठते हुए स्वयं ही यह करके तत्पश्चात् चैत्योंकी पूजा आदि करे । फिर जिस प्रकार से प्रत्याख्यान को ग्रहण किया गया है उस प्रकारसे उसे साधुके समीप में ग्रहण करे || ३४४ || आगे जाके प्रसंग आगमसे अनभिज्ञके द्वारा जो शंका की जाती है उसे प्रकट करते हैंपूजा में कायवध - पृथिवोकायिक आदि जीवोंका घात - हो है, उसका आगम में 'समस्त काघात नहीं करना चाहिए' इस प्रकारसे निषेध किया गया है। इसके अतिरिक्त जो १. अ पुष्परूपादि । २. भ सो य णेय । ३. अ 'ऽपि किल' नास्ति । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३४६ ] श्रावकस्य दैनिककृत्यम् २११ अत्राह आह गुरू पूयाए कायवहो होइ जइ वि हु जिणाणं । तह वि तई कायव्वा परिणामविसुद्धि हेऊओ ॥३४६॥ आह गुरुरित्युक्तवानाचार्यः। पूजायां क्रियमाणायाम् । कायवधः पृथिव्याधुपमर्दो यद्यपि भवत्येव । जिनानां रागादिजेतृणामित्यनेन तस्याः सम्यग्विषयमाह। तथाप्यसौ पूजा कर्तव्यैव । कुतः ? परिणामविशुद्धिहेतुत्वादिति ॥३४६॥ अरहन्त व उनकी प्रतिमा आदि पूज्य माने जाते हैं उनका उस पूजासे कोई उपकार होनेवाला नहीं है, इसीलिए उसे नहीं करना चाहिए। इस प्रकार इस प्रसंगमें शंका की जातो है ॥३४५।। इस शंकाके समाधान में कहा जाता है गुरु कहते हैं कि जिनोंको-अरहन्त व उनकी प्रतिमाओं आदिको-पूजा करते समय यद्यपि पृथिवीकायिक आदि जीवोंका वध होता है, तो भी परिणामोंको विशुद्धिको कारण होनेसे उसे करना ही चाहिए ॥३४६॥ विवेचन-यहां पूजाके प्रसंगमें यह आशंका की गयी है कि जिन व जिनप्रतिमाओं आदिकी पूजामें पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक व वनस्पतिकायिक इन स्थावर जीवोंके साथ कुछ द्वीन्द्रिय व त्रीन्द्रिय आदि क्षुद्र अस जीवोंका भी विघात होता है। उधर परमागममें 'अहिंसा परमो धर्मः' आदिके रूपमें समस्त प्राणियोंके संरक्षणका विधान किया गया है, ऐसी स्थितिमें उपयुक्त चैत्यपूजा आदिका विधान युक्ति और आगमसे संगत नहीं दिखता। इसके अतिरिक्त यदि यह भी विचार किया जाय कि उससे जिन पूज्य अरहन्त आदिकी पूजा की जाती है उनका कुछ उपकार होता हो सो भी सम्भव नहीं है, क्योंकि राग-द्वेषके विजेता अरहन्त तो कृतकृत्य हो चुके हैं, अतः उन्हें उस पूजासे कुछ प्रयोजन रहा नहीं है तथा पाषाणस्वरूप जिनप्रतिमायें अचेतन-जड़ होकर विवेकसे रहित हैं, इसलिए उन्हें भी उस पूजाके करने व न करनेसे कुछ हर्षविषाद होनेवाला नहीं है। इस कारण निरर्थक होनेसे श्रावकको उस पूजाका करना उचित नहीं है। इस प्रकार आगमके रहस्यसे अनभिज्ञ कुछ लोग कुशंका किया करते हैं। उनकी उक्त आशंकाके समाधान में यहां यह कहा गया है कि यह सत्य है कि पूजाके करने में कुछ प्राणियोंको कष्ट पहुंचता है, फिर भी उससे पूजकके परिणामोंमें जो विशुद्धि होती है उससे उसके पुण्यबन्ध होने के साथ पूर्वसंचित पापकर्मको स्थिति व अनुभागका ह्रास भी होता है । इसलिए आरम्भकायमें रत रहनेवाले गृहस्थको वह पूजा करना हो चाहिए। इस प्रसंगमें स्वामी समन्तभद्रने जो यह कहा है वह विशेष ध्यान देने योग्य है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवेरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।। पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशी। दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शोतशिवाम्बुराशौ ।। -स्वयम्भूस्तोत्र ५७-५८ १. अ चोदक इत्यतात्र । २. भ .वहो जइ वि होइ उ जिणाणं । ३. अ 'तह' नास्ति । ४. अतती । ५. अ कायम्वो। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रावकप्रज्ञप्तिः न चायं हेतुरसिद्ध इति परिहरति भणियं च कूवनायं दव्वंत्थवगोयरं इहं सुत्ते । निययारंभवपवत्ता जं च गिही तेण कायव्वा ॥ ३४७॥ [ ३४७ - भणितं च प्रतिपादितं च । कूपज्ञातं कूपोदाहरणम् । कि विषयमित्याह - द्रव्यस्तवगोचरं द्रव्यस्तवविषयम् । इह सूत्रे जिनागमे । दव्वत्थए कूवदिट्ठतो इति वचनात् । तृडपनोदार्थं कूप खननेऽधिकतर पिपासाश्रमादिसंभवेऽप्युद्भवति तत एव काचिच्छिरा यदुदकाच्छेष कालमपि तृडाद्यपगम इति, एवं द्रव्यस्तवप्रवृत्तौ सत्यपि पृथिव्याद्युपमर्दे पूज्यत्वाद्भगवत उपायत्वात्पूजाकरणस्य श्रद्धावतः समुपजायते तथाविधः शुभः परिणामो यतोऽशेषकर्मक्षपण सपीति । उपपत्त्यन्तरमाह - नियंतारम्भप्रवृत्ता यच्च गृहिण इत्यनवरतमेव प्रायस्तेषु परलोकप्रतिकूलेवारम्भेषु प्रवृत्तिदर्शनात् । तेन कर्तव्या पूजा, कायवधेऽपि उक्तवदुपकारसम्भवाद् तावन्तों वेलामधिकतराधिकरणाभावादिति ॥३४७॥ अर्थात् हे वासुपूज्य जिनेन्द्र ! जिस कारण आप राग-द्वेषसे रहित हो चुके हैं, इसलिए आपको अपनी पूजा से कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा — उससे प्रसन्न होकर आप पूजकका कुछ भला नहीं कर सकते । इसके अतिरिक्त आपने चूंकि वैरभावका वमन कर दिया - उसे नष्ट कर दिया है, इसलिये यदि आपकी कोई निन्दा करता है तो उससे भी आपको कुछ प्रयोजन नहीं रहा, क्योंकि द्वेषबुद्धिसे रहित हो जानेके कारण आप रुष्ट होकर निन्दकका कुछ अनिष्ट करनेवाले भी नहीं हैं । इस वस्तुस्थितिके होते हुए भी पूजा में आपके पवित्र गुणोंके स्मरणसे पूजकके परिणामोंमे जो निर्मलता होती है वह उसे पापकर्मोंकी कालिमासे बचाती है— उससे उसका उद्धार करती है । यह सच है कि पूज्य जिनदेवको पूजा करनेवाले जनके पूजा करते हुए कुछ थोड़ा सा पाप अवश्य होता है, पर वह उस पूजासे संचित उसके पुण्यको महती राशि में दोषजनक इस प्रकार नहीं है जिस प्रकार कि शीतल व कल्याणकर जलसे परिपूर्ण समुद्रकी जलराशिमें डाला गया विषका कण दोषजनक नहीं है— उसे दूषित ( विषैला ) नहीं करता ||३४५ - ३४६॥ पूजाको जो परिणाम विशुद्धिका हेतु कहा गया है उसका आगे समर्थन किया जाता हैयहाँ परमागममें द्रव्यस्तवके विषय में कुएँका उदाहरण कहा गया है। इसके अतिरिक्त गृहस्थ चूंकि निरन्तर आरम्भ में प्रवृत्त रहते हैं, इसलिए उन्हें पूजा करनी हो चाहिए । विवेचन-आगममें द्रव्यस्तव के विषय में जो कुएँका दृष्टान्त दिया गया है उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार प्यासको शान्त करने के लिए जो कुआँ खोदा जाता है उसके खोदने में यद्यपि खोदनेवालोंको बहुत परिश्रम करना पड़ता है तथा उससे उत्पन्न प्यास आदिको वेदना भी सहनी पड़ती है, फिर भी उसमें कोई ऐसा पानीका स्रोत निकलता है जिसके आश्रयसे पीछे शीतल जलको पोकर जनसमुदाय बहुत समय तक अपनी प्यासको शान्त करता है। इसी प्रकार द्रव्यस्तव स्वरूपं जिनपूजा आदिके करते समय यद्यपि गृहस्थके द्वारा पृथिवीकायिक आदि कितने ही जीवोंको पीड़ा पहुँचता है, फिर भी उसके निमित्तसे श्रद्धालु गृहस्थके जो निर्मल परिणाम उत्पन्न होता है उससे वह समस्त कर्मोंका क्षय भी कर सकता है, फिर भला स्वर्ग आदिकी प्राप्तिकी तो बात ही क्या है ? वे तो अनायास ही प्राप्त हो सकते हैं । इसके अतिरिक्त गृहस्थ प्रायः निरन्तर परलोक के प्रतिकूल आरम्भ कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं, क्योंकि हिंसाजनक व्यापारादि कार्यों के विना उनका गृहस्थ जीवन बनता नहीं है । इस प्रकारसे जो उनके पापका बन्ध होता है उसके निराकरण के लिए उन्हें जिनपूजा आदि पुण्यवर्धक कार्योंका करना भी आवश्यक होता है । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३४९] श्रावकस्य दैनिककृत्यम् २१३ यदुक्तं न च पूज्यानामुपकारिणीत्येतत्परिजिहीर्षयाहे उवगाराभावंमि वि पुज्जाणं पूयगस्स उवगारो। मंताइसरण-जलणाइसेवणे जह तहेहं पि ॥३४८॥ उक्तन्यायादुपकाराभावेऽपि पूज्यानामहंदादीनाम् । पूजकस्य पूजाकर्तुरुपकारः। दृष्टान्तमाह-मन्त्रादिस्मरण-ज्वलनादिसेवने यथेति । तथाहि-मन्त्रे स्मर्यमाणे न कश्चित्तस्योपकारोऽय च स्मर्तुभंवत्येवं ज्वलने सेव्यमाने न कश्चित्तस्योपकारोऽथ च तत्सेवकस्य भवति, शीतापनोदादिदर्शनात् । आदिशब्दाच्चिन्तामण्यादिपरिग्रहः । तथेहापोति यद्यप्यहंदादीनां नोपकारः तथापि पूजकस्य शुभाध्यवसायादिभवति, तथोपलब्धेरिति ॥३४८॥ किं च देहाइनिमित्तं पि हु जे कायवहंमि तह पयद॒ति । जिणपूयाकायवहंमि तेसि पडिसेहणं भोहो ।।३४९॥ देहादिनिमित्तमप्यसारशरीरहेतोरपीत्यर्थः। ये कायवधे पृथिव्याधुपमर्दै। तथा प्रवर्तते, तथेति झटिति कृत्वा। जिनपूजाकायवधे तेषां प्रतिषेधनं मोहो अज्ञानम्, न हि ततो भगवत्पूजा न शोभनेति ॥३४९॥ जितने समय वे उक्त पूजा आदि शुभ कार्यों में संलग्न रहते हैं उतने समय वे अन्य आरम्भ कार्योंसे विरत रहते हैं । इस प्रकार पूजा करते हुए उनके परिणामोंमें जो निर्मलता होती है उससे होनेवाला पुण्यका बन्ध उस जीववध जनित स्वल्प पापको अपेक्षा अधिक होता है । इसलिए पूज्योंकी पूजा करना हो चाहिए ।।३४७॥ पूजासे पूज्योंका कुछ उपकार भी नहीं होता जो शंकाकारने कहा था, उसका भी आगे समाधान किया जाता है। __ पूज्य अरहंत आदिकोंका कुछ उपकार न होनेपर भी उस पूजासे पूजकका तो उपकार होता ही है। जिस प्रकार मन्त्र आदिके स्मरण और अग्नि आदिके सेवनसे यद्यपि उस मन्त्र और अग्नि आदिका कुछ उपकार नहीं होता है फिर भी मन्त्रका स्मरण करनेवालेको विषादिकी वेदनाके निराकरण और अग्निके सेवनसे सेवकको शीतताके अपहरण रूप फल प्राप्त होता ही है। इसी प्रकार अरहंत आदिकी पूजासे यद्यपि उनका कुछ उपकार नहीं होता है फिर भी उनके आश्रयसे पूजकको अपने परिणामोंकी निर्मलता रूप फल प्राप्त होता ही है। इस प्रकार पूजाको सार्थकता ही अधिक है ॥३४८। इसके अतिरिक्त जो अपने शरीर आदिके निमित्त भी प्राणिवधमें उस प्रकारसे प्रवृत्त होते हैं उनका जिन पूजाके आश्रयसे होनेवाले स्वल्प प्राणिवधके कारण उस पूजाका प्रतिषेध करना मोह ही है-वह उनकी अज्ञानताका ही सूचक है। अभिप्राय यह है कि जो गृहस्थ अपने शरीरके निमित्त भीउसके संस्कारके लिए-पथिवोकायिकादि जीवोंको पीडा पहुँचाया करता है वह जिनपजाके निमित्त से होनेवाले थोड़ेसे प्राणिवधसे उस पूजाका-जो इह लोक व परलोक दोनोंके लिए हितकर हैनिषेध करे, इसे उसका अविवेक ही कहा जायेगा ।।३४९|| १. भ परिजिहीर्षु राह । २. व शरीरार्थहतो । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३५० - निगमयन्नाह सुत्त भणिएण विहिणा गिहिणा निव्वाणमिच्छमाणेण । लोगुत्तमाण पूया णिच्चंचिय होइ कायव्वा ॥३५०॥ सूत्रणितेनागमोक्तेन विधिना यतनालक्षणेन । गृहिणा श्रावकेन । निर्वाणमिच्छता मोक्षमभिलषता। लोकोत्तमानामहदादीनाम् । पूजा अभ्यर्थनादिरूपा। नित्यमेव भवति कर्तव्या, ततश्च न युक्तः प्रतिषेध इति ॥३५०॥ अवसितमानुषङ्गिकम्, सांप्रतं यदुक्तं साधुसकाशे कुर्यात्प्रत्याख्यानं यथागृहीतमित्यत्र तत्करणे गुणमाह गुरुसक्खिओ उ धम्मो संपुन्नविही कयाइ य विसेसो । तित्थयराणं य आणा साहुसमीवंमि वोसिरउ ॥३५१।। गुरुसाक्षिक एव धर्म इत्यतः स्वयं गृहीतमपि तत्सकाशे ग्राह्यमिति, तथा संपूर्णविधि. रित्थमेव भवतीत्यभिप्रायः। कदाचिच्च विशेषः प्रागेप्रत्याख्यातमपि किंचित्साधुसकाशे संवेगे प्रत्याख्यातीति । तीर्थकराणां चाज्ञा संपादिता भवतीत्येते गुणाः साधुसमीपे व्युत्सृजतः प्रत्याख्यानं कुर्वत इति ॥३५॥ सामाचारीशेषमाह- ... सुणिऊण तओ धम्म अहाविहारं च पुच्छिउमिसीणं । काऊण य करणिज्जं भावम्मि तहा ससत्तीए ॥३५२।। श्रुत्वा ततो धर्म क्षान्त्यादिलक्षणम्, साधुसकाशे इति गम्यते। यथाविहारं च तथाविध. चेष्टारूपम् । पृष्ट्वा ऋषीणां संबन्धिनम् । कृत्वा च करणीयं ऋषीणामेव संबन्धि। भाव इत्यस्तितायां करणीयस्थे। स्वशक्त्या स्वविभवाद्यौचित्येनेति ॥३५२॥ आगे इसका उपसंहार करते हुए उस पूजाको अवश्यकरणीयताको प्रगट करते हैं जो गृहस्थ निर्वाणकी इच्छा करता है उसे आगमोक्त विधिके अनुसार निरन्तर लोकोत्तमों की-अरहंत, सिद्ध एवं साधु आदि पूज्य महात्माओं की पूजा करना ही चाहिए ॥३५०॥ अब पूर्वमें जो यह कहा था कि साधुके समीपमें प्रत्याख्यान करना चाहिए, उससे होनेवाले लाभको दिखलाते हैं धर्म गुरुको साक्षीमें ही होता है, विधिकी परिपूर्णता तभी होतो है, कदाचित् गुरुके समक्षमें प्रत्याख्यानके ग्रहणसे उसमें विशेषता भी सम्भव है-उससे धर्मानुराग विशेष हो सकता है, तथा साधुके समीपमें प्रत्याख्यानके तीर्थंकरोंकी आज्ञाका परिपालन भी होता है। इस प्रकार स्वयं ग्रहण करनेपर भी गुरुकी साक्षीमें उस प्रत्याख्यानके ग्रहण करने में अनेक लाभ हैं ॥३५१॥ आगे श्रावकको विशेष सामाचारीका निरूपण करते हुए साधुके समीपमें धर्मको सुनकर और क्या करना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हैं तत्पश्चात् धर्मको सुनकर व प्रवृत्तिके अनुसार ऋषियोंसे पूछकर उनके करणीय कार्यको अपनी शक्तिके अनुसार भावपूर्वक करना चाहिए ।।३५२॥ १. अतित्थगराण । २. भ 'प्रागप्रत्या' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम 'प्रत्या-' पर्यन्तपाठः स्खलितोऽस्ति । ३.भ संबंधे भावमित्यस्थितायां करणीयसा । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३५६ ] श्रावकस्य दैनिककृत्यम् २१५ तत्तो अणिदियं खलु काऊण जहोचियं अणुट्ठाणं'। भुत्तणे जहाविहिणा पच्चक्खाणं च काऊण ॥३५३॥ ततस्तदनन्तरमनिन्द्य खलु इहलोक-परलोकानिन्द्यमेव । कृत्वा यथोचितमनुष्ठानं यथा वाणिज्यादि। तथा भुक्त्वा यथाविधिना अतिथिसंविभागसंपादनादिना । प्रत्याख्यानं च कृत्वा तदनन्तरमेव पुनर्भोगेऽपि ग्रन्थिसहितादीनि ॥३५३॥ सेविज्ज तओ साहू करिज्ज पूयं च वीयरागाणं" । चिइवंदण सगिहागम पइरिक्कमि य तुयट्टिज्जा ॥३५४॥ सेवेत ततः साधून पर्युपासनविधिना । कुर्यात् पूजां च वीतरागाणां स्वविभवौचित्येन। ततश्चैत्यवन्दनं कुर्यात्, ततः स्वगृहागमनं, तथैकान्ते तु त्वग्वर्तनं कुर्यात्स्वपेदिति ॥३५४॥ कथमित्याह उस्सग्गबंभयारी परिमाणकडो उ नियमओ चेव । सरिऊण वीयरागे सुत्तविबुद्धो विचिंतिज्जा ॥३५५॥ उत्सर्गतः प्रथमकल्पेन ब्रह्मचारी आसेवनं प्रति कृतपरिमाणस्तु नियमादेव, आसेवनपरिमाणाकरणे महामोहदोषात् । तथा स्मृत्वा वीतरागान् । सुप्रविबुद्धः सन् विचिन्तयेद्वक्ष्यमाणमिति ॥३५५॥ भूएसु जंगमत्तं तेस वि पंचेन्दियत्तमुक्कोसं । तेसु वि अ माणुसत्तं मणुयत्ते आरिओ देसो ॥३५६।। भूतेषु प्राणिषु । जंगमत्वं द्वोन्द्रियादित्वम् । तेष्वपि जंगमेषु पञ्चेन्द्रियत्वमुत्कृष्टं प्रधानम् पश्चात् वह क्या करे, इसे आगे स्पष्ट करते हैं तत्पश्चात् यथोचित अनिन्दित अनुष्ठान-आजीविकाके अनुरूप यथायोग्य निर्दोष व्यापारादि कार्यको-करके विधिपूर्वक, अर्थात् अतिथिसंविभाग आदिके साथ, भोजन करे और प्रत्याख्यान करे ॥३५३॥ पश्चात् तत्पश्चात् साधुओंकी उपासना करे, वीतराग जिनोंको पूजा करे, पश्चात् चैत्यवन्दन करे व फिर घरपर आकर एकान्तमें त्वग्वर्तन करे-सो जावे ॥३५४॥ सोते समय क्या करे, यह आगे प्रगट किया जाता है सामान्य रूपसे ब्रह्मचारी रहना चाहिए, यदि प्रमाण कर चुका है तो नियमसे उसका पालन करना चाहिए। फिर वीतराग जिनोंका स्मरण करके सोतेसे जागनेपर इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए ॥३५५॥ उसे उस समय किस प्रकार चिन्तन करना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए आगेकी चार गाथाओं ( ३५६-३५९ ) द्वारा उत्तरोत्तर त्रस. पर्याय आदिकी दुर्लभता प्रकट की जाती है प्राणियोंमें जंगमता-चलने-फिरने में समर्थ द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवोंकी अवस्था-उत्कृष्ट १. अ अणुटाणे । २. अ भोत्तण । ३. अ तु । ४. अ यथोक्तमनुष्ठानं । ५. अ वीयरागेण । ६. अ संगहागमपइरीक्कमि तु यदेज्जा । ७. अ सुत्त विउद्धो विचिंतज्जा। ८. भ प्रकृतिकृत । ९. म 'जंगमेषु' नास्ति । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्रावकप्रशप्तिः [३५७ - तेष्वपि चे पश्चेन्द्रियेषु मानुषत्वम्, उत्कृष्टमिति वर्तते । मनुजत्वे आर्यो देश उत्कृष्ट इति, देसे कुलं पहाणं कुले पहाणे य जाइ उक्कोसा । तीइवि रूवसमिद्धी रूवे य बलं पहाणयरं ॥३५७॥ देशे आर्ये कुलं प्रधानं उग्रादि । कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा मातृसमुत्था। तस्यामपि जाती रूपसमृद्धिरुत्कृष्टा, सकलाङ्गनिष्पत्तिरित्यर्थः । रूपे च सति बलं प्रधानतरं सामर्थ्य मिति ॥३५७॥ होइ बले वि य जीयं जीए वि पहाणयं तु विनाणं । विनाणे सम्मत्तं सम्मत्ते सीलसंपत्ती ॥३५८॥ भवति बलेऽपि च जीवितं प्रधानतरमिति योगः। जीवितेऽपि च प्रधानतरं विज्ञानम्, विज्ञाने सम्यक्त्वम्, क्रिया पूर्ववत् सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः प्रधानतरेति ॥३५८॥ सीले खाइयभावो खाइयभावे य केवलं नाणं । केवलिए पडिपुन्ने पत्ते परमक्खरे मुक्खो ॥३५९॥ शोले क्षायिकभावः, प्रधानः क्षायिकभावे च केवलज्ञानम्, प्रतिपक्षयोजना सर्वत्र कार्येति । कैवल्ये प्रतिपूर्णे प्राप्ते परमाक्षरे मोक्ष इति ॥३५९॥ है, उन त्रस जीवोंमें भी पंचेन्द्रिय अवस्था उत्कृष्ट है, पंचेन्द्रियोंमें भी मनुष्यकी पर्याय उत्कृष्ट है, मनुष्य पर्यायमें भी आर्यदेश उत्कृष्ट है ॥३५६॥ __आर्य देशमें भी कुल प्रधान है - उत्तम उग्र व इक्ष्वाकु आदि वंश उत्कृष्ट हैं, प्रधान कुलमें भी जाति-माताका वंश--उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट जाति में रूप समृद्धि-समस्त अवयवोंकी परिपूर्णताउत्कृष्ट है, रूपमें बल-शारीरिक सामर्थ्य उससे उत्कृष्ट है ॥३५७।। __ बलमें भी जीवित-आयुको दीर्घता-उत्कृष्ट है, जीवितमें भी विशिष्ट ज्ञान (विवेक) प्रधान है, विशिष्ट ज्ञानमें सम्यक्त्व-यथार्थ तत्त्वश्रद्धान-प्रधान है, सम्यक्त्वके होनेपर शीलकी प्राप्ति उत्कृष्ट है ॥३५८॥ ____ शीलकी प्राप्तिके होनेपर क्षायिक भाव प्रधान है, क्षायिक भावमें केवलज्ञान प्रधान है, परिपूर्ण व परमाक्षर-अतिशय अविनश्वर-केवल ज्ञानके होनेपर मोक्ष प्रधान है ॥३५९॥ विवेचन-यहां श्रावकके लिए यह प्रेरणा की गयो है कि वह सोतेसे उठकर यह विचार करे कि जीव अनादि कालसे निगोद पर्याय में रहता है जहां से निकलना अतिशय दुर्लभ है। यदि किसी प्रकार वहांसे निकलता तो वह पृथिवीकायिकादि अन्य स्थावर जीवोंमें परिभ्रमण करते हए बड़ी कठिनाईसे त्रस पर्याय प्राप्त कर पाता है। इस त्रस पर्याय में परिभ्रमण करते हए उसे पंचेन्द्रिय पर्यायकी प्राप्ति दुर्लभ रहती है । यदि जिस किसी प्रकारसे पंचेन्द्रिय अवस्था भी प्राप्त हो गयो तो उसमें मनुष्य पर्याय, उसमें आर्यदेश, आर्यदेशमें उत्तम कुल, उसमें उत्तम जाति, अवयवोंकी परिपूर्णता, शरीरकी स्वस्थता, दीर्घ जीवन, विशिष्ट ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सदाचार, क्षायिक भाव तथा क्षायिक भावोंमें केवलज्ञान ये उत्तरोतर अतिशय दुर्लभ रहते हैं । इस प्रकारका निरन्तर विचार करते रहनेसे उसे धर्म में अनुराग और संसारसे वैराग्य होता है जिसके आश्रयसे वह उस दुर्लभ केवलज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र मुक्त हो सकता है ।।३५६-३५९।। १. म 'च' नास्ति । २. अ आर्योपदेश । ३. अ पहाणो य जाइमुक्कोसो। ४. अताए रूवसमिट्टी । ५. म 'तु' नास्ति । ६. अपडिवन्ने । ७. भमोक्खो। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ - ३६३] श्रावकस्य दैनिककृत्यम् न य संसारम्मि सुहं जाइ-जरा-मरणदुक्खगहियस्स । जीवस्स अस्थि जम्हा तम्हा मुक्खो उवादेओ ॥३६०॥ न च संसारे सुखं जातिजरामरणदुःखगृहीतस्य । जीवस्यास्ति यस्मादेवं तस्मान्मोक्ष उपादेयः ॥३६०।। किंविशिष्ट इत्याह जच्चाइदोसरहिओ अव्वाबाहसुहसंगओ इत्थ । तस्साहणसामग्गो पत्ता य मए बहू इन्हि ॥३६१॥ जात्यादिदोषरहितोऽव्याबाधसुखसंगतोऽत्र संसारे । तत्साधनसामग्री प्राप्ता च मया बह्वीदानीम् ॥३६१॥ ता इत्थ जं न पत्तं तयत्थमेवुज्जमं करेमि त्ति । विबुहजणनिदिएणं किं संसाराणुबंधेणं ॥३६२॥ तदत्र सामग्र्यां' यन्न प्राप्तं तदर्थमेवोद्यमं करोमीति । विबुधजननिन्दितेन कि संसारानुबन्धेन ॥ इति निगदसिद्धो गाथात्रयार्थः ॥३६२॥ इत्थं चिन्तनफलमाह वेरग्गं कम्मक्खय विसुद्धनाणं च चरणपरिणामो। थिरया आउ य बोही इयं चिंताए गुणा हुति ॥३६३॥ अब वह मोक्ष क्यों उपादेय है, इसका हेतु दिखलाते हैं जन्म, जरा और मरणके दुःखको सहते हुए प्राणीको चूँकि संसारमें सुख नहीं उपलब्ध होता, इसीलिए मोक्ष उपादेय है-प्राप्त करनेके योग्य है. ॥३६०॥ आगे सांसारिक क्षणिक सुखकी अपेक्षा मोक्षसुखकी उत्कृष्टता प्रकट की जाती है मोक्षको प्राप्त होकर जीव वहां जन्म, जरा और मरणके दोषसे रहित होता हुआ निर्बाध सुखसे युक्त हो जाता है। वह ( मुमुक्षु ) विचार करता है कि मैंने इस समय उस मोक्ष सुखकी साधनभूत सब सामग्री-उपर्युक्त मनुष्य पर्याय, आर्यदेश, उत्तम कुल और शारीरिक बल आदिको प्राप्त, कर लिया है ॥३६१॥ इसलिए अब मुझे क्या करना चाहिए, इसके लिए वह विचार करता है-- इसलिए जिसे मैंने अब तक प्राप्त नहीं किया है उसके लिए-अप्राप्त केवलज्ञानादिकी प्राप्तिके लिए-मैं उद्यम (प्रयत्न ) करता हूँ। विद्वानोंके द्वारा निन्दित संसारके अनुबन्धसेउसकी परम्परासे-मुझे क्या लाभ होनेवाला है ? कुछ भी नहीं, क्योंकि वह तो दुखप्रद ही रही है ॥३६२॥ इस चिन्तनसे श्रावकको क्या लाभ होनेवाला है, इसे आगे प्रकट किया जाता है १. अमोक्खो उवाएउ । २. अ यस्मात्तस्मान्मोक्ष। ३. अ एण्हि । ४. म 'संसारे' इति कोष्ठकान्तर्गतोऽस्ति । ५. अ एत्थ । ६. अ.सामग्रयं म 'सामग्रयां' इति कोष्ठकान्तर्गतोऽस्ति । ७. म वैरग्गं । ८. अ वोही य इय। २८ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३६४ - इत्थं चिन्तयतो वैराग्यं भवत्यनुभवसिद्धमेवैतत् । तथा कर्मक्षयः तत्वचिन्तनेन, प्रतिपक्षत्वात् । विशुद्धज्ञानं च, निबन्धनहानेः । चरणपरिणामः, प्रशस्ताध्यवसायत्वात् । स्थिरता धर्मे, प्रतिपक्षासारदर्शनात् । आयुरिति कदाचित्परभवायुष्कबन्धस्ततस्तच्छुभत्वात्सवं कल्याणम् । बोधिरित्थं तत्वभावनाभ्यासादेवं चिन्तायां क्रियमाणायां गुणा भवन्त्येवं चिन्तया वेति ॥३६३॥ गोसम्मि पुव्वभणिओ नवकारेणं विबोहमाईओ। इत्थ विही गमणम्मि य समासओ संपवक्खामि ॥३६४॥ गोसे प्रत्यूषसि पूर्वभणितो नमस्कारेण विबोधादिः । अत्र विधिः ( इति ) गमने च समासतः संप्रवक्ष्यामि ॥ विधिमिति ॥३६४॥ अहिगरणखामणं खलु चेइय-साहूण वंदणं चेव । संदेसम्मि विभासा जइ-गिहि-गुण-दोसविक्खाए ॥३६५॥ अधिकरणक्षामणं खलु माभूत्तत्र मरणादौ वैरानुबन्ध इति । तथा चैत्य-साधूनामेव च वन्दनं नियमतः कुर्यात्, गुणदर्शनात् । संदेशे विभाषा यति-गृहिगुण-दोषापेक्षयेति । यतेः संदेशको नीयते, न सावधो गृहस्थस्य इति ॥३६५॥ चैत्य-साधूनां वन्दनं चेति यदुक्तं तद्विस्फारयति साहूण सावगाण य सामायारी विहारकालंमि । जत्थरिथ चेइयाइं वंदावंती तहिं संघं ॥३६६॥ . वैराग्य, कर्मोंका क्षय, निर्मल ज्ञान, चारित्रको ओर परिणति, धर्ममें स्थिरता, आयुपरभविक शुभ आयुका बन्ध और रत्नत्रय बोधिकी प्राप्ति ये उसके गुण हैं-उस चिन्तनसे होनेवाला यह एक बड़ा भारी लाभ है ॥३६३॥ आगे पूर्वप्ररूपित प्रातःकालीन विधिको ओर संकेत करते हुए संक्षेपमें गमनविषयक विधिके निरूपणकी प्रतिज्ञा करते हैं प्रातःकालमें पंचनमस्कारमन्त्रके उच्चारणके साथ उठते हुए जो क्रिया की जानी चाहिए उसका निरूपण किया जा चुका है। अब यहां संक्षेपसे अन्यत्र जानेसे सम्बन्धित विधिका कथन करता हूँ ॥३६४॥ अब अन्यत्र जाते समय प्रारम्भमें क्या करे, इसका निर्देश किया जाता है अन्यत्र जाते समय मरणके समय वैरको परम्परा न चले, इस उद्देश्यसे जिनके साथ वरविरोध रहा है उनसे क्षमा करे-करावे तथा चैत्य व साधुओंकी वन्दना भी करना चाहिए। यति और गृहस्थके गुण-दोषको अपेक्षा सन्देशके विषयमें विकल्प है-यतिका सन्देश निर्दोष होनेसे ले जानेके योग्य है, किन्तु गृहस्थका वह सदोष होनेसे ले जानेके योग्य नहीं है ॥३६५॥ आगे चैत्य व साधुओंकी वन्दनाके विषयमें जो पूर्वमें निर्देश किया गया है उसका स्पष्टीकरण अगली चार ( ३६६-३६९ ) गाथाओं द्वारा किया जाता है१. अ म गोसे (प्रत्युषसि) । २. अ विधि धरिति । ३. अ वंदावितं । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३६९] यात्राविधिः २१९ साधूनां श्रावकाणां चोक्तशब्दार्थानाम् । सामाचारी व्यवस्था। कदा ? विहरणकाले विहरणसमये । किविशिष्टत्याह यत्र स्थाने सन्ति चैत्यानि वन्दयन्ति तत्र संघ चतुर्विधमपि प्रणिधानं कृत्वा स्वयमेव वन्दत' इति ॥३६६॥ पढमं तओ य पच्छा वंदति सयं सिया ण वेल त्ति । पठम चिय पणिहाणं करंति संघमि उवउत्ता ॥३६७॥ प्रथममिति पूर्वमेव सधं वन्दयन्ति। ततः पश्चात्सङ्घवन्दनोत्तरकालम् । वन्दन्ते स्वयमात्मना आत्मनिमित्तमिति । स्यान्न वेलेति स्तेनादिभय-सार्थगमनादौ तत्रापि प्रथममेव वन्दने प्रणिधानं कुर्वन्ति संघविषयमुपयुक्ताः संघं प्रत्येतद्वन्दनं संघोऽयं वन्दत इति ॥३६७॥ पच्छा कयपणिहाणा विहरंता साहूमाइ दळूण । जंपति अमुगठाणे देवे वंदाविया तुम्मे ॥३६८॥ पश्चात्तदुत्तरकालम् । कृतप्रणिधानाः सन्तस्तदर्थस्य संपादितत्वाद्विहरन्तः सन्तः साध्वादीन दृष्ट्वा साधु साध्वी श्रावकं श्राविकां वा। जल्पन्ति व्यक्तं च भणन्ति । किम् ? अमुकस्थाने मथुरादौ । देवान् वन्दितां यूयमिति ॥३६८॥ ते वि य कयंजलिउडा सद्धा-संवेगपुलइयसरीरा । अवणामिउत्तमंगा तं बहु मन्नंति सुहझाणा ॥३६९॥ तेऽपि च साध्वादयः। कृताञ्जलिपुटा रचितकरपुटाञ्जलयः। श्रद्धा-संवेगपुलकितशरीराः श्रद्धाप्रधानसंवेगतो रोमाञ्चितवपुषोऽवनामितोत्तमाङ्गाः सन्तस्तद्वन्दनं बहु मन्यन्ते शुभध्यानाः प्रशस्ताध्यवसाया इति ॥३६९॥ उभयोः फलमाह विहारके समयमें साधुओं और श्रावकों की सामाचारी-विधिव्यवस्था-यह है कि जहां चैत्य हों वहां संघको वन्दना कराते हैं ।।३६६।। किस क्रमसे वन्दना करे-करावे प्रथमतः संघको वन्दना कराते हैं और तत्पश्चात् स्वयं वन्दना करते हैं। यदि समय न हो-चोर आदिका भय हो अथवा सार्थ ( संघ ) जा रहा हो तो उपयोग युक्त होकर संघके विषयमें प्रथम ही प्रणिधान करते हैं-यह संघ वन्दना कर रहा है, ऐसा अन्तःकरणमें विचार करते हैं ॥३६७।। पश्चात् प्रणिधान करके-उधर ध्यान देते हुए साधु आदि-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका–को देखकर यह कहे कि अमुक (मथुरा) स्थानमें तुम्हें देवोंकी वन्दना करायी गयी है ॥३६८|| तब वे भी हाथोंको जोड़कर श्रद्धा और संवेगसे रोमांचित शरीरसे संयुक्त होते हुए मस्तकको नमाते हैं और प्रशस्त ध्यानसे युक्त होकर उस वन्दनाको बहुत मानते हैं ।।३६९।। आगे वन्दनाके निवेदक और तदनुसार उसमें उपयोग लगानेवाले दोनोंको उससे जो फल प्राप्त होता है उसका निर्देश किया जाता है १. अ वंदयत । २. अ बंदयति ततः संघ । ३. अ वंदेते । ४. अ देवा वंदता । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्रावकप्रज्ञप्तिः [३७०तेसिं पणिहाणाओ इयरेसि पि य सुभाउ झाणाओ। पुन्नं जिणेहिं भणियं नो संकमउ ति ते मेरा ॥३७०॥ तेषामाद्यानां वन्दननिवेदकानाम् । प्रणिधानात्तथाविधकुशलचित्तात् । इतरेषामपि च वन्द्यमानानाम् । शुभध्यानात्तच्छ्वणप्रवृत्त्या । पुण्यं जिनर्भणितं अर्हद्भिरुक्तम् । न च संक्रमत इति न निवेदकपुण्यं निवेद्यसंक्रमेण यतश्चैवमतो मर्यादेयमवश्यं कार्येति ॥३७०॥ विपर्यये दोषमाह जे पुणऽकयपणिहाणा वंदित्ता नेव वा निवेयंति । पच्चक्खमुसाबाई पावा हु जिणेहिं ते भणिया ॥३७१॥ ये पुनरनाभोगादितो अकृतप्रणिधानाः। वन्दित्वा, नैव वा वन्दित्वा निवेदयन्ति असकस्थान देवान् वन्दिता यूमिति। प्रत्यक्षमृषावादिनोऽकृतनिवेदनात्। पापा एव जिनस्ते भणिता मृषावादित्वादेवेति ॥३७१॥ जे वि य कयंजलिउडा सद्धा-संवेगपुलइयसरीरा । बहु मन्नंति न सम्मं वंदणगं ते वि पाव त्ति ॥३७२॥ येऽपि च साध्वादयो निवेदिते सति कृताञ्जलिपुटाः श्रद्धासंवेगपुलकितशरीरा इति पूर्ववन्न बहु मन्यन्ते त सम्यक् वन्दनकं कुर्वन्ति । तेऽपि पापाः, गुणवति स्थानेऽवज्ञाकरणादिति ॥३७२॥ क्वचिद्वेलाभावेऽपि विधिमाह जइ वि न वंदणवेला तेणाइभएण चेइए तहवि । दट्टणं पणिहाणं नवकारेणावि संघमि ॥३७३॥ वन्दनाके उन निवेदकोंको तो वन्दना विषयक चित्तकी एकाग्रतासे तथा दूसरोंको-उनके निवेदनसे उक्त वन्दनामें उपयोग लगानेवालोंको-उस वन्दनाविषयक उत्तम ध्यानसे पुण्यका लाभ होता है, ऐसा जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है। परन्तु एकका पुण्य दूसरेमें संक्रान्त नहीं होता है-निवेदकका पुण्य निवेद्यकोंको नहीं प्राप्त हो सकता है, इसलिए उक्त मर्यादाका पालन अवश्य करना चाहिए ॥३७०॥ आगे इसके विपरीत आचरण करनेपर होनेवाले दोषको दिखलाते हैं परन्तु जो चित्तकी एकाग्रताके विना वन्दना करके अथवा नहीं भी करके 'अमुक स्थानमें तुम्हें देवोंकी वन्दना करायी गयी है' ऐसा निवेदन करते हैं उन्हें जिन भगवान्ने प्रत्यक्षमें असत्य. भाषो और पापो कहा है ॥३७१।। ___आगे निवेद्यमान भी यदि वन्दनाका बहुमान नहीं करते हैं तो वे भी पापी हैं, यह निर्देश किया जाता है उपर्युक्त निवेदन करनेपर जो साधु-साध्वी आदि हाथ जोड़कर श्रद्धा और संवेगसे रोमांचित शरीरसे युक्त होते हुए उस वन्दनाके प्रति भलीभांति आदर व्यक्त नहीं करते हैं वे भी पापी होते हैं ॥३७२॥ समय न रहनेपर क्या करना चाहिए, इसे आगे व्यक्त किया जाता है१. भ खु । २. अ गुणवस्थाने वज्ञाकरणा (अतोऽग्नेऽग्निमगाथागत 'नवकारेणा' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति)। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३७६] यात्राविधिः २२१ ___ यद्यपि क्वचिच्छून्यादौ न वन्दनवेला स्तेन-श्वापदादिभयेषु चैत्यानि तथापि दृष्ट्वा अवलोकननिबन्धनमपि प्रणिधानं नमस्कारेणापि संघ इति संघविषयं कार्यमिति ॥३७३॥ तंमि य कए समाणे वंदावणगं निवेइयव्वं ति । तयभावंमि पमादी दोसो भणिओ जिणिदेहिं ॥३७४॥ तस्मिन्नपि एवंभूते प्रणिधाने कृते सति । वन्दनं निवेदयितव्यमेवे, वस्तुतः संपादितत्वात् । तदभावे तथाविधप्रणिधानाकरणें । प्रमादाद्धेतोर्दोषो भणितो जिनेन्द्रविभागायातशक्यकुशलाप्रवृत्तरिति ॥३७४॥ उपसंहरन्नाह एयं सामायारिं नाऊण विहीइ जे पउंजंति । ते हुति इत्थ कुसला सेसा सव्वे अकुसला उ ॥३७॥ एतामनन्तरोदिताम् । सामाचारी व्यवस्थाम्। ज्ञात्वा विधिना ये प्रयुंजते, यथावद्ये कुर्वन्तीत्यर्थः। ते भवन्त्यत्र विहरणविधौ कुशलाः, शेषा अकुशला एवानिपुणा एव । न चेयमयुक्ता, संदिष्टवन्दनकथन-तीर्थस्नपनादिदर्शनादिति ॥३७५॥ श्रावकस्यैव विधिशेषमाह अन्ने अभिग्गहा खलु निरईयारेण हुति कायव्वा । पडिमादओ वि य तहा विसेसकरणिज्जजोगाओ ॥३७६॥ अन्ये 'चाभिग्रहाः खलु अनेकरूपा लोचकृत-घृतप्रदानादयः। 'निरतिचारेण सम्यक् भवन्ति कर्तव्या आसेवनीया इति । प्रतिमादयोऽपि च तथा षोषकरणीययोगा इति-प्रतिमा दर्शनादिरूपा, यथोक्तम्-दसणवयेत्यादि । आदिशब्दादनित्यादिभावनापरिग्रह इति ॥३७६॥ यदि कहीं चोर आदिके भयसे वन्दनाके लिए समय नहीं है तो भी चैत्योंको देखकर नमस्कारके साथ संघके विषयमें प्रणिधान करना चाहिए-उस ओर नमस्कार करते हुए चित्तको एकाग्र करना चाहिए ।।३७३॥ इस वन्दनाका निवेदन भी करना चाहिए, अन्यथा दोषका भागी होता है, यह आगे निर्दिष्ट किया जाता है उक्त प्रकार नमस्कार पूर्वक प्रणिधानके कर चुकनेपर वन्दना विषयक निवेदन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा न करनेपर जिनेन्द्र के द्वारा प्रमाद जन्य दोष निर्दिष्ट किया गया है ॥३७४।। अब इस प्रसंगका उपसंहार किया जाता है इस सामाचारीको जानकर जो विधिपूर्वक उसका प्रयोग करते हैं वे उक्त विहारकी विधिमें कुशल (निपुण ) होते हैं, इसके विपरीत शेष सबको अकुशल समझना चाहिए ॥३७५।। आगे श्रावकका अन्य करणीय कार्यको ओर भी ध्यान दिलाया जाता है अन्य भी जो लोच व घृतप्रदान आदि अभिग्रह हैं उन्हें भी निरतिचार करना चाहिए। तथा विशेष करणीय कार्यसे सम्बद्ध होनेके कारण दर्शन व व्रत आदि ग्यारह प्रतिमाओं आदिका भी निर्दोष रीतिसे पालन करना चाहिए ॥३७६।। ४. अपमाया। ५. भ १. अ 'संघ इति' नास्ति । २. अतमि वि कए समाणा। ३. अणवेदयन्वं । जिणंदेहि । ६. मनवेदयितव्यमेव । ७. अ शब्दादिनित्यत्वादिभावना। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ : श्रावकप्रज्ञप्तिः [३७७एवं च विहरिऊणं दिक्खाभावंमि चरणमोहाओ। पत्तंमि चरमकाले करिज्ज कालं अहाकमसो ॥३७७|| एवं यथोक्तविधिना। विहृत्य नियतानियतेषु क्षेत्रेषु कालं नीत्वा। दीक्षाभाव इति प्रव्रज्याभावे सति । चरणमोहादिति चारित्रमोहनीयात्कर्मणः। प्राप्ते चरमकाले क्षीणप्राये आयुषि सतीत्यर्थः । कुर्यात्कालं यथाक्रमशो यथाक्रमेण परिकर्मादिनेति ॥३७७॥ भणिया अपच्छिमा मारणंतिया वीयरागदोसेहिं । संलेहणाझोसणमो आराहणयं पवक्खामि ।।३७८।। भणिता चोक्ता च । कैर्वोत-रागद्वेषैरहद्धिरिति योगः । का? अपच्छिमा मारणान्तिको संलेखनाजोषणाराधनेति। पश्चिमैवानिष्टाशयपरिहारायापश्चिमा। मरणं प्राणपरित्यागलक्षणम् । इह यद्यपि प्रतिक्षणमावीचीमरणमस्ति, तथापि न तद्गृह्यते। किं तहि ? सर्वायुष्कक्षयलक्षणमिति। मरणमेवान्तो मरणान्तः, तत्र भवा मारणान्तिकी बहूच इति ठज। संलिख्यतेऽनया शरीर-कषायादीति संलेखना तपोविशेषलक्षणा, तस्या जोषणं सेवनम् । मो इति निपातस्तत्कालश्लाघ्यत्वप्रदर्शनार्थः । तस्या आराधना अखण्डना, कालस्य करणमित्यर्थः। तां प्रवक्ष्यामीति । एत्थ सामायारी-आसेवियगिहिधम्मेण किल सावगेण पच्छा णिक्कमियव्वं । एवं सावगधम्मो उज्जमिओ होइ। ण सक्कइ ताहे भत्तपच्चक्खाणकाले संथारगसमणेण होयत्वं ति.ण सक्कड ताहे अणसणं कायक्वंति विभासा ॥३७॥ अत्राह आगे संलेखनाको ओर ध्यान दिलाया जाता है इस प्रकारसे विहार करके-नियत व अनियत क्षेत्रोंको यात्रा करके-चारित्र मोहका उदय रहनेसे दीक्षाके अभावमें अन्त समय (मरण ) के प्राप्त होनेपर यथाक्रमसे-आगे कही जानेवालो विधिके अनुसार कालको करना चाहिए-मरणको प्राप्त होना चाहिए ।।३७७|| अब उस संलेखनाके कथनकी प्रतिज्ञा को जाती है राग-द्वेषसे विनिर्मुक्त अरहन्त भगवान्के द्वारा मरण समयमें होनेवाली जिस अन्तिम संल्लेखनाका निर्देश किया गया है उसके सेवन व आराधनाकी विधि कही जाती है। विवेचन-- उक्त प्रकारसे बारह व्रतों एवं प्रतिमाओं आदिका पालन करके श्रावकको अन्तमें मुनिदोक्षाको स्वीकार करना चाहिए। परन्तु यदि चारित्र मोहनीयका उदय रहनेसे वह दीक्षाको ग्रहण नहीं कर सकता है तो फिर मरण समयके उपस्थित होनेपर उसे संस्तारक श्रमण हो जाना चाहिए । पर यदि यह शक्य नहीं है तो संलेखनाका अनुष्ठान करते हुए उत्तरोत्तर क्रमसे चार प्रकारके आहारका परित्याग करना चाहिए। संलेखना एक प्रकारका वह तप है जिसके आश्रयसे शरीर, कषाय और आहार आदिको उत्तरोत्तर कृश किया जाता है। उक्त शरीर व कषाय आदिके संल्लेखन-यथाविधि कृशीकरण-का नाम ही संलेखा है । इसका निरूपण ग्रन्थकार आगे कर रहे हैं ।।३७८।। श्रावक क्या करता है १. अकमसं। २. अ संलेहणसोसणमो। ३. अ पश्चमैवानिष्टशब्दपरि । ४. अ बहुइइ षट् । ५. भ इलाध्यत्वदर्शनास्तस्याराधनः खंडना । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ - ३८१ ] अपश्चिमसंलेखनाविधानम् काऊण विगिट्ठतवं जहासमाहीइ वियडणं दाउं । उज्जालियं अणुव्वय ति-चउद्धाहारवोसिरणं ॥३७९॥ कृत्वा विकृष्टतपः षष्ठाष्टमादि यथासमाधिना शुभपरिणामपातविरहेण । तथा विकटनामालोचनां दत्त्वा उज्ज्वाल्य पुनःप्रतिपत्त्या निर्मलतराणि कृत्वा । अणुव्रतानि प्रसिद्धानि । अणुव्रतग्रहणं गुणव्रताद्य पलक्षणमिति । त्रिविध चतुर्विधाहारव्युत्सर्जनमिति कदाचित्रिविधाहारपरित्यागं करोति, कदाचिच्चतुविधाहारमिति ॥३७९॥ अत्र प्रागुक्तमेव लेशतः सम्यगनवगच्छन्नाह चरमावत्थाएं तहा सन्यारंभकिरियानिवित्तीएं। पव्वज्जा चेव तओ न पवज्जई केण कज्जेण ॥३८॥ चरमावस्थायां मरणावस्थायामित्यर्थः। तथा तेन प्रकारेणाहारपरित्यागादिनापि सर्वारम्भक्रियानिवृत्तेः कारणात् । प्रवज्यामेवासौ श्रावको न प्रतिपद्यते । केन कार्येण केन हेतुना ॥३८०॥ इत्यत्रोच्यते चरणपरिणामविरहा नारंभादप्पवित्तिमित्तो सो। तज्जुत्तुवसग्गसहाण जं न भणिओ तिरिक्खाणं ॥३८१॥ चरणपरिणामविरहादित्युक्तमेव, स एव तथानिवृत्तस्य किं न भवतीत्याशङ्कयाहनारम्भाद्यप्रवृत्तिमात्रोऽसौ चरणपरिणाम इति । कुतः? तयुक्तोपसर्गसहानां यन्न भणितस्तिरश्चामिति । तथाहि-आरम्भाद्यप्रवृत्तियुक्तानामपि पिपीलिकाद्यपसर्गसहानां चण्डकौशिकादीनां न चारित्रपरिणामः । अतोऽयमन्य एवात्यन्तप्रशस्तोऽचिन्त्यचिन्तामणिकल्प इति ॥३८१॥ वह दो-तीन आदि उपवास रूप विकृष्ट तपको करता है, समाधिके अनुसार-चित्तकी एकाग्रतापूर्वक-विकरण ( आलोचना) देकर अणुव्रतोंको उज्ज्वल करता है व तीन अथवा चारों प्रकारके आहारका परित्याग करता है । अणुव्रतोंके ग्रहणसे यहां गुणवतों व शिक्षापदोंका भी ग्रहण कर लिया गया समझना चाहिए ॥३७९|| उक्त परिस्थितिमें शंकाकार कहता है इसके अतिरिक्त वह मरणके समय में समस्त आरम्भकार्य का परित्याग भी करता है। तब ऐसी स्थिति में वह दोक्षाको हो किस कारणसे स्वीकार नहीं करता है ? शंका कारका अभिप्राय यह है कि श्रावक जब इतना सब कुछ मुनिके समान हो करता है तब दीक्षा ग्रहण करके मुनिधर्मको ही स्वीकार कर लेना चाहिए ॥३८०॥ आगे इस शंकाका समाधान किया जाता है उक्त शंकाके उत्तरमें यहां यह कहा जा रहा है कि चारित्रका परिणाम न होने से श्रावक उपर्युक्त कठोर अनुष्ठानको करता हुआ भो दीक्षाको स्वीकार नहीं करता है। कारण इसका यह है कि आरम्भ आदिमें प्रवृत्त न होने मात्रको वह चारित्र परिणाम नहीं कहा जा सकता। यही कारण है जो आरम्भ आदिमें न प्रवृत्त रहकर उपसर्ग के सहनेवाले तियनोंके वह चारित्र परिणाम नहीं कहा गया। अभिप्राय यह है कि यदि आरम्भ आदिसे निवृत्त होना ही चारित्र १. मवत्याइ । २. अ णिवित्तीउ । ३. अ पव्वज्ज । ४.°दिति उक्तम्मेव । ५. अ इति कृतस्वद्युपसर्ग । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३८२ - पुनरपि केषांचिन्मतमाशंक्यते केई भणति एसा संलेहणा मो दुवालसविहंमि । भणिया गिहत्थधम्मे न जओ तो संजए तीए ॥३८२।। केचनागीतार्था भणन्ति-एषा अनन्तरोदिता संलेखना। द्वादाविधे पंचाणुव्रतादिरूपे भणिता गृहस्थधर्मे श्रावकधर्म इत्यर्थः, न यतस्ततस्तस्मात्कारणात्संयतः प्रवजित एव तस्या. मिति ॥३८२॥ अत्रोच्यते न भणितेत्यसिद्धम् भणिया तयणंतरमो जीवंतस्सेस बारसविहो उ । एसा य चरमकाले इत्तरिया चेव ता ण पुढो ॥३८३।। भणिता तदनन्तरमेव द्वादशविधश्रावक नन्तरमेव तन्मध्य एवाभगने कारणमाहजोवत एष द्वादशविधः प्रदीर्घकालपरिपालनीयः। एषा संलेखना। चरमकाले क्षीणप्राये आयुषि सति क्रियते । इत्वरा चेयमल्पकालावस्थायिनी । यस्मादेवं तस्मान्न पृथगियं श्रावकधर्मादिति ॥३८३॥ उपपत्त्यन्तरमाह जं चाइयारसुत्तं समणोवासगपुरस्सरं भणियं । तम्हा न इमीइ जई परिणामा चेव अवि य गिही ॥३८४॥ यच्छ यस्माच्च । अतिचारसूत्रमस्याः। श्रमणोपासकपुरःसरं भणितमागमे। तच्चेदम्इमीए समणोवासएणं इमे पंचइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा। इहलोगासंसप्पहोता तो वह चीटियों आदिके उपद्रवको सहनेवाले चण्डकौशिक सर्प आदि तियं चोंके भी हो सकता था। परन्तु आगममें उनके वह चारित्रपरिणाम नहीं कहा गया। इससे यह निश्चित है कि चारित्रमोहनीयका अनुदय होनेपर जब कोई उक्त आरम्भ आदिसे निवृत्त होता है तभी उसके वह चारित्रपरिणाम होता है ।।३८१।। अब यहां आशंकाके रूपमें किन्हीं दूसरोंके अभिप्रायको प्रकट करते हैं आगमके रहस्यको न समझनेवाले कितने ही वादी यह कहते हैं कि इस संलेखनाको चूंकि बारह प्रकारके गृहस्थधर्म में नहीं कहा गया है, इसीलिए उसमें संयतको अधिकृत समझना चाहिए, अर्थात् उसका आराधक संयत होता है, न कि गृहस्थ ॥३८२॥ आगे उस शंकाका समाधान किया वह संलेखना उस बारह प्रकारके गृहस्थधर्मके अनन्तर ही कही गयी है। उसके मध्यमें न कहनेका कारण यह है कि वह बारह प्रकारका गृहस्थधर्म जीवित रहते हुए गृहस्थके होता है व उसका परिपालन दीर्घकाल तक किया जाता है जबकि यह संलेखना अन्तिम समयमें-आयुके कुछ ही शेष रहनेपर-होती है वह आराधन उसका कुछ थोड़े समय किया जाता है, इसीलिए वह उस गृहस्थधर्मसे पृथक् नहीं-उसीके अन्तर्गत है, न कि मुनिधर्म के अन्तर्गत ।।२८३।। आगे उसके लिए दूसरी भी युक्ति दी जाती है इसके अतिरिक्त चूंकि उस सल्लेखनाके अतिचारों विषयक सूत्र ( 'इमोए समणोवासएणं । १. भ 'ए' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम 'चेयमल्पका' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८५] अपश्चिमसलेखनाविधिः २२५ ओगेत्यादि-तस्मान्नास्यां संलेखनायां यतिरसौ श्रावकः, अपि च गृहोति संबन्धः। किं तु श्रावक एवेत्यर्थः। कुत इत्याह-परिणामादेव तस्यामपि देशविरतिपरिणामसंभवादनशनप्रतिपतावपोषन्ममत्वापरित्यागोपलब्धः सर्वविरतिपरिणामस्य दुरापत्वात्सति तु तस्मिन् स्यात् यतिरिति । सूत्रान्तरतश्च, यत उक्तं सूत्रकृतांगे' इत्यादीति ॥३८४॥ इयमपि चातिचाररहिता सम्यक्पाललीयेति तानाह इह-परलोगासंसप्पओग तह जीय-मरण-भोगेसु । वैज्जिज्जा भाविज्ज य असुहं संसारपरिणामं ॥३८५॥ इह लोको मनुष्यलोकः तस्मिन्नाशंसाभिलाषः तस्याः प्रयोग इति समासः, श्रेष्ठी स्याममात्यो वेति ।१॥ एवं परलोकाशंसाप्रयोगः। परलोको देवलोकः ।। एवं जीविताशंसाप्रयोगःजीवितं प्राणधारणं तत्राभिलाषप्रयोगः “यदि बहकालं जोवेयम्" इति । इयं च वस्त्र-माल्य-पुस्तकवाचनादिपूजादर्शनाद्बहुपरिवारदर्शनाच्च लोकश्लाघाश्रवणाच्चैवं मन्यते "जीवितमेव श्रेयः प्रत्याख्याताशनस्यापि, यत एवंविधा मदुद्देशेनेयं विभूतिर्वर्तते" ॥३॥ मरणाशंसाप्रयोगः-न कश्चित्तं प्रतिपन्नानशनं गवेषते, न सपर्यायामाद्रियते, न कश्चिच्छ्लाघते, ततस्तस्यैवंविधचित्तपरिणामो भवति यदि शीघ्र म्रियेऽहम् अपुण्यकर्मेति मरणाशंसा ।।। कामभोगाशंसाप्रयोगः-जन्मान्तरे इमे पंचं अइयारा' इत्यादि ) उस श्रावकका निर्देश करते हुए उसके ही आश्रयसे कहा गया है, इसलिए उसमें प्रवृत्त गृहस्थ परिणामसे यति नहीं होता, किन्तु गृहस्थ ही रहता है। विवेचन-दूसरी युक्ति यहाँ यह दी गयी है कि आगममें संलेखनाके अतिचारों विषयक सूत्रका निर्देश करते हुए उसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि श्रमणोंके उपासक श्रावकको इहलोकाशंसाप्रयोग आदि संलेखनाके पांच अतिचारोंको जानना चाहिए व उनका आचरण नहीं करना चाहिए-उनका परित्याग करना चाहिए। इससे सिद्ध है कि संलेखनाका आराधक श्रावक श्रावक ही रहता है. मनि नहीं होता। इसका कारण यह है कि संलेखनामें अधिष्ठित श्रावकके 6 अनशनादिको स्वीकार करनेपर भी देशविरतिरूप ही रहते हैं, न कि सर्वविरतिरूप, क्योंकि वह कुछ अंशमें ममत्व परिणामको नहीं छोड़ पाता है ॥३८४।। अब उसके अतिचारोंका निर्देश करते हए उनके छोड देने की प्रेरणा की जाती है इहलोकाशंसाप्रयोग, परलोकाशंसाप्रयोग, जीविताशंसाप्रयोग, मरणाशंसाप्रयोग और भोगाशंसा प्रयोग ये पांच संलेखनाके अतिचार हैं। उनका परित्याग करके अशुभ संसारपरिणामजन्म-मरणादिस्वरूप संसारके स्वभाव-का चिन्तन करना चाहिए। विवेचन-(१) इहलोकसे यहां मनुष्यलोक विवक्षित है, उसमें 'मैं सेठ हो जाऊं या अमात्य हो जाऊँ' इस प्रकारको अभिलाषामें प्रवृत्त होना, इसका नाम इहलोकाशंसाप्रयोग है। (२) इसी प्रकारसे परलोकके विषयमें 'मैं अगले जन्म में देव हो जाऊँ' इस प्रकारकी अभिलाषा रखना. इसका नाम परलोकाशंसा प्रयोग है। (३) संलेखनामें अधिष्ठित होनेपर वस्त्र, माला और पुस्तकवाचन आदि रूप पूजाको देखकर, बहुतसे परिवारको देखकर तथा लोगोंके द्वारा की जानेवाली प्रशंसाको सुनकर यह सोचना कि भोजनका परित्याग कर देनेपर भी बहुत समय तक जीवित रहना श्रेयस्कर है, क्योंकि मेरे उद्देशसे यह विभूति वर्तमान है, इस प्रकारके विचारको जीविताशंसा कहा जाता है। (४) अनशनके स्वीकार करनेपर भी जब कोई उसको नहीं खोजता है, न १. अ सूत्रांगे। २. अ वज्जेज्जा भावेज्ज य अशुभं परिणाम । ३. अ°लोको । ४. अ लोका एवं । २९ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३८६ - चक्रवर्ती स्याम्, वासुदेवो महामण्डलिकः सुभगो रूपवानित्यादि । एतद्वर्जयेद्भावयेच्चाशुभं जन्मपरिणामादिरूपं संसारपरिणाममिति ५॥३८५॥ तथा जिणभासियधम्मगुणे अव्वाबोहं च तत्फलं परमं । एवं उ भावणाओ जायइ पिच्चा' वि बोहि त्ति ॥३८६॥ जिनभाषितधर्मगुणानिति क्षान्त्यादिगुणान् भावयेदव्याबाधं च मोक्षसुखं च तत्फलं क्षान्त्यादिकायं परमं प्रधानं भावयेत् एवनेव भौवनातः चेतोभ्यासातिशयेन जायते प्रेत्यापि जन्मान्तरेऽपि बोधिधर्मप्राप्तिरिति ॥३८६॥ कुसुमेहि वासियाणं तिलाण तिल्लं पि जायइ सुयंधं । एतोत्रमा हु बोही पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥३८७॥ कुसुमैर्मालतीकुसुमादिभिर्वासितानां भावितानां तिलानां तैलमपि जायते सुगन्धि तद्गन्धवदित्यर्थः । एउपमैव बोधिरिति-अनेनोक्तप्रकारेणोपमा यस्याः सा तथा प्रज्ञप्ता वीतरागैरर्हद्भिः रिति ॥३८७॥ कुसुमसमा अब्भासा जिणधम्मस्सेह हुति नायव्वा । तिलतुल्ला पुण जीवा तिल्लसमो पिच्च तब्भावो ॥३८८।। कूसुमसमाः कुसुमतुल्या अभ्यासा जिनधर्मस्य क्षान्त्यादेरिह जन्मनि भवन्ति ज्ञातव्याः तिलतुल्याः पुनर्जीवाः, भाव्यमानत्वात् । तैलसमः प्रेत्य तद्भावो जन्मान्तरे बोषिभाव इति ॥३८॥ पूजाके द्वारा आदर व्यक्त करता है, और न प्रशंसा करता है, तब मनमें जो यह विचार उत्पन्न होता है कि 'मैं अभागा यदि शीघ्र मर जाऊं तो अच्छा है' इसका नाम मरणाशंसा है । (५) पर भवमें मैं चक्रवर्ती, वासुदेव, महामाण्डलिक और सुन्दर होऊँ, इत्यादि प्रकारका जो विचार किया जाता है, इसे भोगाशंसा प्रयोग कहते हैं। ये संलेखनाको मलिन करनेवाले उसके ये पांच अतिचार हैं, उनका सदा परित्याग करना चाहिए ।।३८५॥ आगे जिनोपदिष्ट धर्मके गुणोंके चिन्तनसे क्या लाभ होता है, इसे दिखलाते हैं जिन भगवान्के द्वारा प्ररूपित धर्मके गुणों और उसके फलस्वरूप बाधारहित उत्कृष्ट मोक्षसुखका चिन्तन करना चाहिए, इस प्रकारको भावनासे अगले भवमें बोधि-रत्नत्रय स्वरूप धर्मका लाभ होता है ॥३८६।। आगे इसके लिए तिलतेलकी उपमा दी जाती है सुगन्धित मालती आदिके फूलोंसे सुवासित तिलोंका तेल भी सुगन्धित होता है, वीतराग भगवान्के उक्त बोधिको इस उपमासे युक्त कहा गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सुगन्धित फूलोंसे सुसंस्कृत तिलके दानोंका तेल भी सुगन्धित हुआ करता है उसी प्रकार रत्नत्रय स्वरूप धर्मके चिन्तनसे-इस भवमें आत्माको उससे सुसंस्कृत करनेसे--पर भवमें भी उस रत्नत्रय स्वरूप धर्म या बोधिका लाभ होता है ।।३८७|| आगे इस उपमाको उपमेयसे योजित किया जाता है उपर्युक्त उपमामें इस जन्ममें किये गये जिनधर्मके अभ्यासको फूलोंके समान, जीवोंको तिलोंके समान और परलोकमें उस बोधिके लाभको तेलके समान जानना चाहिए ॥३८८।। १. अ जायए पच्चा। २. अ भावनातो भ्या। ३. अ तेल्लसमो पेच्च । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९१ ] जिन प्ररूपित धर्मगुणभावना इय अप्पविडियगुणाणुभावओ बंधहासभावाओ । पुव्विल्लस्स य. खयओ सासयसुक्खो धुव्वो मुक्खो ॥३८९॥ एवमुक्तेन प्रकारेण । अप्रतिपतितगुणानुभावतः सततसमवस्थितगुणसामर्थ्येन । बन्धासात् प्रायो बन्धाभावादित्यर्थः । प्राक्तनस्य च बन्धस्य क्षयात्तेनैव सामर्थ्येन । एवमुभयथा बन्धाभावे शाश्वत सौख्यो ध्रुवो मोक्षोऽवश्यंभावीति ॥ ३८९ ॥ बोधिफलमाह - २२७ एतदेव सूत्रान्तरेण भावयन्नाह - सम्मत्तंमि य लद्धे पलिय पहुत्तेण सावओ हुज्जा । चरणो सम-खयाणं सागरसंखंतरा हुंति ॥ ३९० ॥ सम्यक्त्वे च लब्धे तत्त्वतः पल्योपमपृथक्त्वेन श्रावको भवति । एतदुक्तं भवति यावति कर्मण्यपगते सम्यक्त्वं लभ्यते तावतो भूयः पत्योपमपृथक्त्वेऽपगते देशविरतो भवति । पृथक्त्वं द्विःप्रभृतिरानवभ्य इति । क्लिष्टेतरविशेषाच्च द्वयादिभेद इति । चरणोपशम-क्षयाणामिति चारित्रोपशमश्रेणि-क्षपकश्रेणीनाम् । सागराणीति सागरोपमाणि । संख्येयान्यन्तरं भवन्ति । एतदुक्तं भवति यावति कर्मणि क्षीणे देशविरतिरवाप्यते तात्रतः पुनरपि संख्येयेषु सागरोपमेष्वपगतेषु चारित्रं सर्वविरतिरूपमवाप्यते । एवं श्रेणिद्वये भावनीयमिति ॥ ३९०॥ एवं अपरिवडिए संमत्ते देव मणुयजंमेसु । अन्नयर सेदिवज्जं एगभवेणं च सव्वाई | | ३९१ ॥ आगे बोधिके फलको दिखलाते हैं इस प्रकार अप्रतिपतित - निरन्तर अवस्थित रहनेवाले - गुणोंके प्रभावसे, बन्धके उत्तरोत्तर ह्रास ( हानि ) से तथा पूर्वबद्ध कर्मके क्षयसे—संबर और निर्जरासे - - अविनश्वर सुख से युक्त मोक्ष होता है || ३८२ ॥ इस अभिप्रायको आगे अन्य गाथा सूत्रके द्वारा पुष्ट किया जाता है - सम्यक्त्व प्राप्त हो जानेपर पल्योपमपृथक्त्व से श्रावक हो जाता है, तत्पश्चात् चारित्रके उपशम व क्षयके संख्यात सागर होते हैं - संख्यात सागरोपमोंमें चारित्रका उपशम अथवा क्षय होता है । विवेचन – इसका अभिप्राय यह है कि जब जीवके संसार परिभ्रमणका काल उपाधपुद्गल परावर्त मात्र शेष रह जाता है तब वह सम्यक्त्व ग्रहणके योग्य होता है, इससे अधिक समय शेष रहनेपर जीव उस सम्यक्त्वके ग्रहण योग्य नहीं होता है। उसके योग्य हो जानेपर जीव जब • कर्मों की स्थितिको उत्तरोत्तर होन करते हुए उसे अन्तःकोड़ा - कोड़ी प्रमाण करके उसे भी पल्योपके असंख्यातवें भागसे होन कर देता है तब वह सघन राग-द्वेषस्वरूप ग्रन्थिको भेदकर उस सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । इस सम्यक्त्व के प्राप्त हो जानेपर वह उक्त कर्मस्थितिके पल्लोपमपृथक्त्व से - दो पल्योपमोंसे लेकर नौ पल्योपमोंसे - हीन हो जानेपर श्रावक होता है । पश्चात् उक्त कर्मस्थिति संख्यात सागरोपमोंसे हीन हो जानेपर उपशमश्रेणिपर आरूढ होकर औपशमिक चारित्रको प्राप्त करता है । फिर संख्यात सागरोपमोंसे होन उक्त कर्मस्थितिकें हो जानेपर वह क्षपक श्रेणिपर आरूढ होकर क्षायिक चारित्रको प्राप्त करता है || ३२०|| सम्यक्त्वके अवस्थित रहनेपर क्या-क्या प्राप्त हो सकता है, इसे आगे अभिव्यक्त करते हैं- Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ . श्रावकप्रज्ञप्तिः [३९२ एवमप्रतिपतिते सम्यक्त्वे सति देव-मनुजजन्मसु चारित्रादेलाभः, उक्तपरिणामविशेषतः पुनस्तथाविधकर्मविरहादन्यतरणिवर्जमेकभवेनैव सण्यवाप्नोति सम्यक्त्वादोनोति ॥३९१॥ यदुक्तं शाश्वतसौख्यो मोक्ष इति तत्प्रतिपादयन्नाह-- रागाईणमभावा जम्माईणं असंभवाओ य । अव्याबाहाओ खलु सासयसुक्खं तु सिद्धाणं ॥३९२॥ रागादीनामभावाज्जन्मादीनामसंभवाच्च । तथा अव्याबाधातः खलु शाश्वतसौख्यमेव सिद्धानां इति गाथाक्षरार्थः ॥३९२॥ भावार्थमाह रागो दोसो मोहो दोसाभिस्संगमाइलिंग त्ति । अइसंकिलेसरूवा हेऊ वि य संकिलेसस्स ॥३९३।। रागो द्वेषो मोहो दोषा अभिष्वङ्गादिलिङ्गा इ त । अभिष्प्रङ्गलक्षणो रागः, अप्रीतिलक्षणो द्वेषः, अज्ञानलक्षणो मोह इति । अतिसंक्लेशरूपास्तथानुभवोपलब्धः । हेतवोऽपि च संक्लेशस्य, क्लिष्टकर्मबन्धनिबन्धनत्वादिति ॥३९३॥ एएहभिभूआणं संसारीणं कुओ सुहं किंचि । जम्मजरामरणजलं भवजलहिं परियडताणं ॥३९४।। एभी रागादिभिरभिभूतानामस्वतन्त्रीकृतानां संसारिणां सत्त्वानाम् । कुतः सुखं किंचित् ? न किंचिदित्यर्थः । किविशिष्टानाम् ? जन्म जरा-मरणजलं भवजलधि संसारार्णवं पर्यटतां भ्रमतामिति ॥३९४॥ इस प्रकार देव व मनुष्य जन्मोंमें सम्यक्त्वके तदवस्थ रहनेपर जीव किसी एक श्रेणिको छोड़कर एक भवमें ही सबको-सम्यक्त्व, श्रुत, देशविरति और सर्वविरतिको पा लेता है ॥३९१।। जिस शाश्वत सुखका पूर्व में निर्देश किया गया है वह किनके किस प्रकारसे होता है, इसका आगे निर्देश किया जाता है रागादिकोंका सर्वथा अभाव हो जानेसे, जन्म-मरणादिकी सम्भावना न रहनेसे तथा सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंके हट जानेसे सिद्ध-कर्मोंसे विनिर्मुक्त-जीवोंके निश्चयसे वह शाश्वत सुख होता है ।।३९२॥ इसीको आगे स्पष्ट किया जाता है राग, द्वेष और मोह ये अभिष्वंग (आसक्ति) के हेतु हैं-राग आसक्तिस्वरूप, द्वेष वैरभावरूप और मोह अज्ञानस्वरूप है। ये स्वयं अतिशय संक्लेशरूप होते हुए उस संक्लेशके–अतिशय क्लिष्ट कर्मबन्धके कारण भी हैं ॥३९३॥ इनसे अभिभूत ( आक्रान्त ) होकर जन्म, जरा व मरणरूप जलसे परिपूर्ण संसाररूप समुद्र में पड़ते हुए वहां परिभ्रमण करनेवाले संसारी जीवोंके वह सुख कहां किंचित् भी हो सकता है ? नही हो सकता। इसके विपरीत वे वहाँ सदा दुखी ही रहते हैं ॥३९४॥ १. अ तदुक्तं सास्वत । २. अ 'अतिसंक्लेशरूपास्तथानुभवोपलब्धेः हेतवोऽपि च' इत्येतावान् पाठः स्खलितोऽस्ति । ३. अ असंक्लेशस्य । ४. अ एएभिभूयाणं । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ -३९८] सिद्धानां शाश्वत्सुखम् एतदभावे सुखमाह रागाइविरहओ जं सुक्खं जीवस्स तं जिणो मुणइ । न हि सन्निवायगहिओ जाणइ तदभावजं. सातं ॥३९५॥ रागादिविरहतो रागद्वेषमोहाभावेन । यत्सौख्यं जीवस्य संक्लेशजितम् । तज्जिनो मुणति अर्हन्नेव सम्यग्विजानाति, नान्यः। किमिति चेन्न हि यस्मात्सन्निपातगृहीतः सत्येव तस्मिन् । जानाति तदभावजं सन्निपाताभावोत्पजम् । सातं सौख्यमिति । अतो रागादिविरहात्सिद्धानां सौख्यमिति स्थितं जन्मादीनामभावाच्चेति यथोक्तं तथावस्थाप्यते ॥३९५॥ तत्रापि जन्माद्यभावमेवाह दड्ढंमि जहा बीए न होइ पुण अंकुरस्स उप्पत्ती । तह चेव कम्मबीए भवंकुरस्सावि पडिकुटा ॥३९६॥ . दग्धे यथा बोजे शाल्यादौ । न भवति पुनरङ्करस्योत्पत्तिः शाल्याविरूपस्य । तथैव कर्मबीजे दग्धे सति । भवांकुरस्याप्युत्पत्तिः प्रतिकुटा, निमित्ताभावादिति ॥३९६॥ जंमाभावे न जरा न य मरणं न य भयं न संसारो। एएसिमभावाओ कहं न सुक्खं परं तेसिं ॥३९७।। जन्माभावे न जरा वयोहानिलक्षणा, आश्रयाभावात् । न च मरणं प्राणत्यागरूपम् तदभावादेव । न च भयमिहलोकादिभेदम्, निबन्धनाभावात् । न च संसारः, कारणाभावादेव । एतेषां जन्मादीनामभावात्कथं न सौख्यं परं तेषां सिद्धानाम् ? किन्तु सौख्यमेव, जन्मादीनामेव दुःखरूपत्वादिति ॥३९७॥ अव्याबाधमिति यदुक्तं तदाह अव्वाबाहाउ च्चिय सयलिंदियविसयभोगपज्जते । उस्सुक्कविणिवत्तीइ संसारसुहं व सद्धेयं ॥३९८॥ उक्त राग, द्वेष एवं मोहके हट जानेसे जो जोवको सुख प्राप्त होता है जिन-राग-द्वेषके विजेता अरहन्त-ही जानते हैं। ठीक ही है, सन्निपात रोगसे ग्रस्त जीव उसके बने रहनेपर उसके दूर हो जानेसें प्राप्त होनेवाले सुखको नहीं जान पाता है-उसका अनुभव तो उस रोगके दूर हो जानेपर ही उसे हो सकता है ।।३९५|| जिस प्रकार बीजके जल जानेपर अंकुरको उत्पत्ति फिर नहीं हो सकती है उसी प्रकार कर्मरूप बीजके जल जानेपर-उसके आत्मासे पृथक् होकर निर्जीर्ण हो जानेपर-संसाररूप अंकुरकी उत्पत्ति भी निषिद्ध है-कमरूप निमित्तके न रहनेपर संसार-परिभ्रमण भी सम्भव नहीं रहता ॥३९६॥ जन्मका अभाव हो जानेपर न जरा ( बुढ़ापा) सम्भव है, न मरण सम्भव है, न भय सम्भव है, और न संसार सम्भव है। इन जन्म, जरा, भय और संसारका अभाव हो जानेपर उन सिद्धोंके वह उत्कृष्ट --निर्बाध व अविनश्वर-सुख कैसे न होगा? अवश्य होगा ॥३९७॥ १. जं। २. अ तयभावजं । ३. अ तेषां जन्मादीनाम् किं तु । ४. अ दुःक्खत्वादिति । । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९८ - More a comबाधादेव सकलेन्द्रियविषयभोगपर्यन्ते अशेषचक्षुरादीन्द्रिय प्रकृष्टरूपादिविषयानुभवचरमकाले औत्सुक्यनिवृत्तेरभिलाषव्यावृत्तेः कारणात् । संचारसुखमिव श्रद्धेयम्, तस्यापि तत्त्वतो विषयोपभोगतस्तदौत्सुक्य विनिवृत्तिरूपत्वात्तदर्थं भोगक्रियाप्रवृत्तेरिति । उक्तं च २३० श्रावकप्रज्ञप्तिः वेणु- वीणा - मृदंगादिनादयुक्तेन हारिणा । इलाध्यस्मरकथाबद्धगीतेन स्तिमितं सदा ॥१॥ कुट्टिमादौ विचित्राणि दृष्ट्वा रूपाण्यनुत्सुकः । लोचनानन्ददायीनि लीलावन्ति स्वकानि हि ॥२॥ अंबरागुरु- कर्पूर-धूप- गन्धान्वितस्ततः । पटवासादिगन्धांश्च व्यक्तमाघ्राय निस्पृहः ॥३॥ नानारससमायुक्तं भुक्त्वान्नमिह मात्रया । पीत्वोदकं च तृप्तात्मा स्वादयन् स्वादिमं शुभम् ॥४॥ मृदुतलीसमाक्रान्त दिव्यपयंक संस्थितः । सहसांभोद संशब्दं श्रुतेर्भयघनं भृशम् ॥५॥ २ जिस प्रकार समस्त इन्द्रिय विषयोंके भोग के अन्त में उत्सुकताके विनष्ट हो जानेसे संसार में TET रहित सुखकी प्रतीति हुआ करती है उसी प्रकार कर्मके अभाव में उत्सुकता के दूर हो जानेपर सिद्धों के वह निर्बाध सुख उत्पन्न होता है जो पुनरागमन सम्भव न रहनेसे सदा ही अवस्थित रहता है, ऐसी श्रद्धा करना चाहिए । विवेचन -- प्रकृत गाथामें उत्सुकता के नष्ट हो जानेपर कुछ समयके लिए संसार में भो जो निर्बाध सुख प्राप्त होता है, उसका उदाहरण यहाँ सिद्धोंके शाश्वतिक सुखकी पुष्टिमें दिया गया है । उसकी पुष्टि टीका में उद्धृत कुछ प्राचीन पद्योंके द्वारा की गयी है, जिनका अभिप्राय इस प्रकार है - प्राणी श्रोत्रइन्द्रियके वशीभूत होकर जब चित्ताकर्षक गानके सुननेके लिए उत्सुक होता है तब यदि उसे बाँसुरी, वीणा एवं मृदंग आदिकी ध्वनिसे संयुक्त और प्रशंसनीय कामकथासे सम्बद्ध मनोहर गीत सुनने को मिल जाता है तब उसकी वह उत्सुकता शान्त हो जाती है, इस प्रकार कुछ समय के लिए वह निराकुल सुखका अनुभव करता है। इसी प्रकार मनुष्य जब चक्षु इन्द्रियके वशीभूत होकर रत्नमय भूमि आदिमें नेत्रोंको आनन्द देनेवाले अपने लीलायुक्त अनेक प्रकारके रूपों को देखता है तब उसको वह उत्सुकता समाप्त हो जाती है, इसलिए वह तबतक निर्बाध सुखका अनुभव करता है । घ्राण इन्द्रियके वशीभूत होकर वह अम्बर ( वस्त्र ) अगुरु, कपूर और धूप आदिको गन्ध युक्त होता हुआ जब सुवासित वस्त्रोंको अनेक प्रकारकी गन्धों को भी सूँघता है तब उसकी उत्सुकता नष्ट हो जाती है, इसीलिए वह उतने समय के लिए निःस्पृह होकर निराकुल सुखका अनुभव करता है। वह रसना इन्द्रियके वश होकर जब अनेक रसोंसे युक्त भोजनको परिमित मात्रा में ग्रहण करके पानीको पीता है तथा उत्तम स्वादिष्ट लाड़ आदिको चखता है तब उसकी आत्मा सन्तोषका अनुभव करती है। इस प्रकार वह तबतक निर्बाध सुखका अनुभव करता है । स्पर्शन इन्द्रियके वश मनुष्य जब कोमल रुईसे भरी हुई गादीसे संयुक्त पलंगपर स्थित होता हुआ सहसा भयप्रद मेघकी गर्जनाके शब्दको सुनकर भयभीत हुई प्रिय ० ० १. अ प्रकृष्टविषयानुभव । २. अ श्रुतेभयधनं । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धानां शाश्वत्सुखम् इष्टभार्यापरिष्वक्तः तेद्रतान्तेऽथवा नरः । सर्वेन्द्रियार्थं संप्राप्त्या सर्ववाधानिवृत्तिजम् ॥६॥ द्वेदयति संहृद्यं प्रशान्तेनान्तरात्मना । मुक्तात्मनस्ततोऽनन्तं सुखमाहुर्मनीषिणः ॥७॥ इत्यादीति ॥ ३९८ ॥ संसारसुखमप्यौत्सुक्य विनिवृत्तिरूपमेवेत्युक्तमिह विशेषमाह्मित्रा निवत्ती सा पुण आवकहिया मुणेयव्वा । भावा पुणो वि नेयं एतेणं तई नियमा ।। ३९९ ॥ इयमिन्द्रियविषयभोग पर्यन्तकालभाविनी । इत्वरा अल्पकालावस्थायिनी । निवृत्तिरौत्सुक्यव्यावृत्तिः । सा पुनः सिद्धानां संबन्धिनी औत्सुक्यविनिवृत्तिर्यावत्कथिका सार्वकालिकी । मुणितव्या ज्ञेया, पुनरप्रवृत्तेस्तथाभावात्पुनरपि प्रवृत्तेः भूयोऽपि । नेयमिन्द्रियविषयभोगपर्यन्त कालभाविनी, एकान्तेन सर्वथा निवृत्तिरेवौत्सुक्यस्य बीजाभावेन पुनस्तत्प्रवृत्त्यभावात् असौ सिद्धानां संबन्धिनी औत्सुक्य विनिवृत्तिः नियमादेकान्तेन निवृत्तिरेव ततश्च महदेतत्सुखमिति ॥ ३९९ ॥ उपसंहरन्नाह - - ४०० ] अणुवत्ती संगयं हंदि निट्टियद्वाणं । अत्थि सुहं सद्धेयं तह जिणचंदागमाओ य ॥ ४००॥ २३१ पत्नीसे आलिंगित होता है तब वह परिमित समय के लिए निराकुल सुखका अनुभव करता है । इस प्रकार सब ( पाँचों) इन्द्रियोंके विषयोंको प्राप्त करके सब प्रकारकी बाधासे रहित हो जानेपर जिस निराकुल सुखका अनुभव मनुष्य करता है उसकी अपेक्षा मुक्तात्माके अनन्तगुणा सुख होता है । इसका कारण यह है कि संसारी प्राणीको अभीष्ट - इन्द्रियविषयोंके उपभोगसे जो सुख प्राप्त होता है वह उन विषयोंके संयोग तक सीमित है, तत्पश्चात् उन अभीष्ट विषयोंका वियोग हो जानेपर वह पुनः उनकी प्राप्तिके लिए व्याकुल होता है । इस प्रकार संसारी जीवोंका वह सुख साता वेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियोंके उदय तक रहता है, पश्चात् वह नियमसे विनष्ट होता है । परन्तु समस्त कर्मोसे निर्मुक्त हुए सिद्धोंका वह निर्बाध सुख अविनश्वर होकर अनन्तकाल तक रहता है ||३९८ || ऊपर संसारसुखको जो उत्सुकताकी निवृत्तिरूप कहा गया है उसके विषयमें आगे कुछ विशेषता प्रकट की जाती है सांसारिक सुखको जनक यह जो उत्सुकताको निवृत्ति है वह इत्वरा - विषयोपभोगके अन्त तक कुछ थोड़े समय तक ही बहनेवाली है, परन्तु सिद्धों के सुखसे सम्बद्ध जो वह उत्सुकताकी निवृत्ति है वह यावत्कथिक - सदा रहनेवाली - जानना चाहिए। कारण यह कि सांसारिक सम्बन्धी वह उत्सुकता पुनः प्रवृत्त होती है, परन्तु यह सिद्धोंके सुखसे सम्बद्ध यह उत्सुकता नियमतः फिरसे प्रवृत्त नहीं होती, क्योंकि सिद्धोंके उस उत्सुकताका बीजभूत कर्म नष्ट हो चुका है। इसीलिए सिद्धोंके सुखको ही यथार्थ सुख समझना चाहिए ॥ ३९९ ॥ आगे इसका उपसंहार किया जाता है १. अपरिकृष्टतं । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ . श्रावकज्ञप्तिः [४०१___ इय एवमुक्तेन प्रकारेणानुभवयुक्तिहेतुसंगतमिति-अत्रानुभवः संवेदनम्, युक्तिरुपपत्तिहेतुरन्वय-व्यतिरेकलक्षणः, एभिर्घटमानकम् । हंदोत्युपप्रदर्शने । एवं गृहाण नानिष्ठितार्थानां सिद्धानामस्ति सुखं विद्यते सातम् । श्रद्धेयं प्रतिपत्तव्यम् । तथा जिनचन्द्रागमाच्चाहद्वचनाद्वेति ॥४००॥ ____ अधुना आचार्योऽनुद्धतत्वमात्मनो दर्शयन्नाह, अथवा प्रकरणविहितार्थ विशिष्टश्रमणपर्यायप्राप्यं सक्रियया सर्वेषामासन्नीकृत्यात्मनोऽपराधस्थानमाशंक्याह जं उद्धियं सुयाओ पुव्वाचरियकयमहव समईए। खमियव्यं सुयहरेहि तहेव सुयदेवयाए य ॥४०१॥ यदुद्धृतं सूत्रात्सूत्रकृतादेः कालान्तरप्राप्यं पूर्वाचार्यकृतं वा यदुद्धृतं अथवा स्वमत्या तत्क्षन्तव्यं श्रुतधरैस्तथैव श्रु तदेवतया च क्षन्तव्यमिति वर्तते ॥४०१॥ इति दिक्प्रदा नाम श्रावकप्रज्ञप्तिटीका समाप्ता। इस प्रकार कृतकृत्य हुए उन सिद्धोंका सुख अनुभव, युक्ति और अन्वय-व्यतिरेकरूप हेतुसे संगत है-घटित होता है तथा जिन-चन्द्रागम-सर्वज्ञ जिनप्रणीत परमागम-से जाना जाता है, ऐसी श्रद्धा करना चाहिए ॥४००॥ अब अन्तमें ग्रन्थकार अपनी निरभिमानताको प्रकट करते हुए, अथवा श्रमणपर्यायसे प्राप्य इस प्रकरण में ग्रथित अर्थको सक्रिया द्वारा सबके निकट करके अपने अपराधस्थानकी आशंकासे यह कहते हैं इस श्रावक प्रज्ञप्ति ग्रन्थमें जो श्रुतसे उद्धृत किया गया है, अथवा पूर्वाचार्यकृत है, अथवा अपनी बुद्धिसे जो कहा गया है उसके विषयमें श्रुतके धारक-परमागमके ज्ञाता-तथा श्रुतदेवता भी क्षमा करे ॥४०१॥ १.प प्रति के अनुसार इसके आगे इस प्रति में 'कृतिः सितपटाचार्य जिनभद्र [3] पादसेवकस्याचार्यहरिभद्रस्येति' यह वाक्य भी उपलब्ध होता है । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. गाथानुक्रमणिका गाथा १९३ २९० २३० . [आ ] गाथा লাখা गाथा गार्थाक गाथांक [अ] अव्वाबाहाउच्चिय ३९८ [ ] अकयागमकयनासा. २१९ अह उ अणन्नो देह १७९ इक्कस्स इक्कमे खलु ३११ अच्चंतदारुणाई १०२ अह उ तहाभावंमि हु १६१ इत्तरियपरिग्गहिया २७३ अज्झीणे पुन्वकए अह उभयक्खयहेऊ १४५ इत्तुच्चिय अफलत्ता १४९ अट्ठण्हं सत्तण्हं ३०९ अह तं अहेउगं चिय १४८ इत्तो य इमा जुत्ता २५४ अटेण तं न बंध अह तं सयंचिय तो १५२ इत्थ उ समणोवासग ३२८ अण अप्पच्चक्खाणा १७ अह परपीडाकरणे २४५ इत्य य परिणामो खलु ५४ अणिवित्ती विहु एवं १७३ मह परिणामाभावे इत्थ वि समोहया मूढ १५७ अणुवक्कमिओ नासह २०५ अह सगयं वहणं चिय १४ इत्थीपुरिसनपुंसग - १८ अतसवहनिवित्तीए १२६ अहिगरणखामणं खलु ३६५ इत्थीपुरिसनपुंसग - ७७ अथिच्चिय अभिसंधी २५१ इय अणुभवलोगागम १७४ अनिरिक्खियापमज्जिय ३१५ इय अणुहवजुत्तीहेउ - ४०० अन्नकयफलुवभोगे १८७ __आइज्जमणाइज्जं. २४ इय अविसेसा तसपाण १२१ अन्नाणकारणं जह १४१ आइल्लाणं तिन्हें इय अहिए फलभावे. अन्नुन्नाणुगमाओ १९० आउस्स उवक्कमणं इय एवं पुन्वावर १६३ अन्ने अकालमरणस्स- १९२ आउं च एत्व कम्म इय तस्स तयं कम्मं २१६ अन्ने अभिग्गहा खलु ३७६ . आऊ य नाम गोयं श्य परिणामा बंधे . २२९ अन्ने आगंतुगदोस- १६४ आगम मुक्खाउ ण कि इयमित्तरा निवित्ती ३९९ अन्ने उ दुहियसत्ता आयवउज्जोवविहाय २२ ।। इयरस्स किं न करइ १५३ अन्ने भणंति कम्म आयाणुग्गहबुद्धी ३२६ इह अप्परिवडियगुणाणु- ३८९ अन्ने वि य अइयारा आरंभाणुमईओ २९४ इहपरलोगासंसप्पओग ३८५ अपइट्ठाणमि वि सं- १३८ आवडियाकरणंपि हु इह लोगम्मि वि दिट्ठो ९१ अप्पडिदुप्पडिलोहिय- ३२३ आसवनिरोहसंवर ८१ इंगालीवणसाडी- इगालावणता २८७ अरहते वंदित्ता आह कहं पुण मणसा: ३३६ अवहे वि नो पमाणं २३९ आह गुरू पूयाए. [उ] अविराहियसामन्नस्स , ३०० माह सुहे परिणामे . ९७ उक्कोसेण अणुतर ३०१ अविहीए होइच्चिय . ११५ . आहारपोसहो खलु ३२१ . उचियं मुत्तूण कलं ३६९ १३३ २०९ ३० Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ उचालियंमि पाए उड्ढमहे तिरियं पिय उड्ढमहे तिरियं पिय उदयवखयखओवसमो उदयाभावे हिंसा उवउत्तो गुरुमूले उवगाराभावं वि उवभोगपरीभोगे उवसमगं से ढिगयस्स उस्सग्गबंभयारी [ ऊ ] ऊपरदेसं दढिल्लयं व [ ए ] एएण कारणं एएहभिभूआणं एगसहावो निच्चो एगतेण सरीरा गाइ तिन्निसमया एत्तोच्चय ववहारो यहि ओह विस एयमिह सद्दतो एयरस एगपरिणाम एयस्स मूलवत्थू एयरस य जो हेऊ एवं पिन जुत्तिखमं एवं अपरिवडिए एवं कंखाईसुवि एवं खु जंतपीलण एवं च जानिवित्ती एवं च जीवदव्वस्स एवं च मुत्तबंधादओ एवं च विहरिऊणं एवं ठिइयस्स जया एवं पिय वहविरई एवं मिच्छादंसण एवं विहपरिणामो एवं सामायारि २२३ २८० २८३ १९७ २२८ १०८ ३४८ २८४ ४५ ३५५ ४७ १६० ३९४ १७७ १८६ ६९ १८३ ३८ ८४ २७ ७ २०८ २२२ ३९१ ९२ २८८ २४७ १८५ १६२ ३७७ ३१. २२० २५६ ६० ३७५ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ओ ] ओवं तादत्थे ओवंमे देसो खलु [क] कत्थइ जीवो बलीओ कम्मो का मिज्जइ कसामइओ पुव्वि कयसामइओ सो साहु कंदपं कुक्कुइयं तक्खणं चिय काऊ काऊ विविं कायवयमणो किरिया कारवणं पुण माणसा किं इय न तित्थहाणी किं च सरीरा जीवो किचिदकाले वि फलं कि चितेइ न मणसा कि चेहुवाहिया किताव तव्व किंवा तेणावहिओ कुसुमसमा अब्भासा कुसुमेहि वासिया केइ बालाइ वहे भति सा केई भांति गिहिणो [ खित्ताइ हिरनाई खीणंमि उइन्नंमि खीणे दंसणमोहे ] [ग] गणमताण न कि गहणासेवणरूवा गुरुefraओ उ धम्मो गोयं च दुविह गोसम्म पुव्वभणिओ गोसे सयमेव इमं १२४ १२५ १०१ १९४ ३१४ २९३ २९१ ३१७ ३७९ ७९ ३३८ १६९ १७८ २०० २५५ ५२ २३७ १७० ३८८ ३८७ २२१ ३८२ ३३३ २७८ ४६ ४८ ४१ २९६ ३५१ २५ ३६४ ३४४ [च] चरणपरिणामविरहा चरमाण चउन्नं पिहु चरमावत्थाइ तहा चारिकहिए वज्झा चिता इह अन्नं [ ज ] जइ ताव तव्वहु च्चिय जइ तेण तहा अकए जाणुभूइओ च्चिय जइ वि न वंदणवेला जच्चाइ दोसर हिओ जच्चाईओ अहओ जम्हा सो परिणामो जह कंपणस्स कंचण जहवा दीहारज्जू जं उद्धियं सुयाओ जं चाइयारसुत्तं जं जह भणियं तं तह जं जीवकम्मजोए जं नेरइओ कम्मं माभावे न जरा जं मोणं तं सम्म जं साइयारमेयं जिभासियधम्मगुणे जीवाजीवासवबंध जीवो अणाइनिणो जे नियमवेय णिज्जस्स जे पुणकयपणिहाणा जेवि य कयंजलिउडा जेसिमवड्ढो पुग्गलजेसि मिहो कुलवेरं [त ] तक्कय सहकारितं तग्गहणउच्चि तओ तत्तत्सद्द हाणं ३८१ ३०४ ३८० ११७ १४० २३८ २११ १९८ ३७३ ३६१ २४० २३२ १८४ २०३ ४०१ ३८४ ४९ ८ १५९ ३९७ ६१ ९६ ३८६ ६३ ९ ܘܘܐ ३७१ ३७२ ७२ २४९ . २१० ११३ ६२ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका २३५ ९८ ५८ २४३ तत्तायगोलकप्पो २८१ तत्तु च्चिय मरियव्वं २१४ तत्तु च्चिय सो भावो २१५ तत्तो अणिदियं खलु ३५३ तत्तो गंतगुणा खलु १०३ तत्तो तित्थुच्छेओ १६६ तत्तो य तन्निमित्तं २५० तप्पज्जायविणासो तब्भावंमिम जं किंचि १४७ तम्हा ते वहमाणो तम्हा निच्चसईए १०४ तम्हा नेव निवित्ती १६७ तम्हा पाणवहोवज्जिय- १५० तम्हा विसुद्धचित्ता १७५ तम्हा विसे सिऊणं १२३ तम्हा सन्वेसि चिय २३४ तयहीणत्ता वयतणु तवसा उ निज्जरा इह तविहखओवसमओ तसपाणघायविरई तसभूयपाणविरई १२२ तसभूयावि तसच्चिय १२९ तह चेव य उज्जुत्तो ३२४ तह तुल्लंमि वि कम्मे २०२ तह वन्नगंधरसफास तह वहभावे पाव- १३५ तं उवसमसंवेगाइ तं जाविह संपत्ती तं दाणलाभभोगो तंमि य कए समाणे ३७४ ता इत्थ जं न पत्तं ३६२ ता कह निज्जुत्तीए ३३४ ता तिन्वरागदोसा तादत्थे पुण एसो १२७ ता पाणवहनिवित्ती १३४ ता बंधमणिच्छंतो २३ तिन्नि तिया तिन्नि दुया ३३०. तीइ वि य थोवमित्ते ३२ तोत्थंकरभत्तीए ते पुण दुसमयठिइस्स ३०८ ते विय कयंजलिउडा ३६९ तेसि पणिहाणाओ तेसि वहिज्जमाण वि १३६ [थ ] थावरसंभारकडेण थूलगपाणाइवायं थूलगपाणिवहस्सा- १०७ थूलमदत्तादाणे २६५ थूलमुसावायस्स उ २६० [द] दठूण पाणिनिवहं दड्ढेमि जहा बीए दिसिवयगहियस्स दिसा ३१८ दुन्ह वि य मुसावाओ ११० दुविहं च मोहणियं दुविहं चरित्तमोहं दृहिओ वि नरगगामी १५५ देवा नेरइया वा देवोतुट्ठो राया .... ११६ देसविरइपरिणाम १०९ देसावगासियं नाम देसे कुलं पहाणं ३५७ देसे सव्वे य दुहा ३२२ देहाइनिमित्तं पिहु [ध] धम्माधम्मागासा ___७८ [न] न करइ न करावेह य ३३१ न करेइ च्चाइतियं ३३२ नणु तं न जहोवचियं २०४ मय चेयणा वि अणु १८८ न य तस्स तन्निमित्तो २२४ नयनेयरोहि केवल न य सह तसभावंमि १३२ न य सन्चो सव्वं चिय २१२ न य संसारम्मि सुहं . ३६० नरगाउबंधविरहा १३७ नरविबुहेसरसुक्खं ५६ नव नव संवेगो खलु न वितं करेइ देहो ४ न सरह पमायजुत्तो . ३१६ न हि दीहकालियस्स वि १९५ नागरगंमि वि गामा १३१ नाणाभवाणुभवणा- १९९ नाणावरणादुदया नामस्स य गोयस्सय नामं दुचत्तभेयं २० नायागयाण अन्नाइयाण ३२५ नारगदेवाईसुं नारयतिरियनरामर नारयदेवा तिरिमणुय नासह इमीए नियमा निच्चस्स सहावंतर १८२ निच्चाण वहाभावा १७६ निच्चानिच्चो जीवो १८० निच्चाणिच्चो संसार १८१ निहानिद्दानिद्दा नियकयकम्मुवभोगे २१३ नियमो न संभवो इह २४२ निरुवमसुक्खो मुक्खो १५४ निवसिज्ज तत्थ सड्ढो ३३९ नीसेसकम्मविगमो नेगतेणं विय जे. नेरइयाण वि तह देह- १५६ नो अविसए पवित्ती २३६ नो खलु अप्परिवडिए ९५ [प] पच्चक्खायंमि इहं पच्छाकयपणिहाणा ३६८ पडिवज्जिऊण य वयं २५७; २६२, २६७, २७२, २७७ ३१९ ३४९ ८३ १५८ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्रावकप्रज्ञप्तिः ३१२ [म] मणवयणकायदुप्पणि- मन्नइ तमेव सच्चं मंदपगासे देसे मिगवहपरिणामगओ मिच्छत्तं जसुदिन्नं मिच्छादसणमहणं मुत्ता अणेगभेया मुत्ताण कम्मबंधो . मुलपयडीसु जइणो मोक्खोऽसंखिज्जाओ मोहाऊवज्जाणं २२५ २२७ ४४ २७० १४२ ८८ २५९ ३०५ ४० ३०७ [२] रागाइविरहओ जं रागाईणमभावा रागो दोसो मोहो रायामच्चो विज्जा रायासड्ढो वणिया ३९२ पडिवन्नम्मि य विहिणा २८२ पढमं नाणावरणं पढमंतओ य पच्छा पढम पंचवियप्पं पत्तेयं साहारण २३ पयईइ व कम्माणं __ ५५ परकयकम्मनिबंधा २१८ परदारपरिच्चाओ परपासंडपसंसा परिसुद्धजलग्गहणं पलिओवमप्पुहुत्तं २०२ पल्ले महइमहल्ले ३५, ३६, ३७ पवयणमाईछज्जीव २९७ पंच उ अणुव्वयाई पंच महन्वय साहू पंचसु ववहारेणं ३०३ पंचेव अणुव्वयाइं . पायमिह कूरकम्मा ७३ पावइ बंधाभावो पुत्ताइसंतइनिमित्त पूयाए कायवहो ३४५ [ब] बहुत रकम्मोवक्कम २३३ बंधवहच्छविछेए २५८ बुद्धीए निएऊणं २६४ - [भ] भणियं च कुवनायं . ३४७ भणिया अपच्छिमा ३७८ भणिया तयणंतरमो ३८३ भव्वा जिणेहि भणिया भव्वाहारगपज्जत्त भाविज्ज य संतोसं २७९ भिन्नंमि तंमि लाभो ३३ भिन्नो जहेह कालो २०१ भूएसु जंगमत्तं भेएण खित्तवत्थू २७६ भेएण लवणघोडग- २६६ २६३ सकयं पि अणेगविहं सकसायत्ता जीवो सगचंदणविससत्थाइ १८९ सवित्ताचित्तेसुं इच्छा २७५ सचित्ताहारं खलु २८६ सच्चित्तनिक्खिवणयं ३२७ सत्तविहबंधगा हुति सप्पवहाभामि वि २२६ सम्मत्तस्सइयारा सम्मत्तं पि य तिविहं ४३ सम्मत्तंमि य लद्धे सयमवि य अपरिभोगो १७२ सयमिह मिच्छदिट्ठी मिच्छादट्ठी ५० सव्वपवित्तिअभावो १७१ सम्ववहसमत्थेणं . १६५ सव्वं च पएसतया सव्वेसि विराहणओ २५२ सहसा अब्भक्खाणं संकाए मालिन्नं संते विय परिणामे १११ संपत्तदंसणााई संपुन्नं परिपालइ संभवइ वहो जेसि २३५ संसयकरणं संका. संसारिणो य मुत्ता ६४ सामाइयम्मि उकए २९९ सामाइयं ति काउं ३१३ साहम्मियथिरकरणं ३४२ साहूण वंदणेणं साहूण सावगाण य सिक्खा दुविहा गाहा २९५ सिक्खापयं च पढम २९२ सिय जीवजाइमहि- - १२८ सिय न. वहे परिणामो २३१ सोयालं भंगसयं . . सीले खाइयभावो ३५९ सीहवहरक्खिओ सो १६८ सुणिऊण तओ धम्म ३५२ २ २६१ २७१ ३२० [व] वज्जणमिह पुव्वुत्तं वज्जणमिह पुन्वृत्तं . वज्जिज्जा आणयणवज्जिज्जा तेणाहड वज्जिज्जा मोहकरं वहमाणो ते नियमा वावाइज्जइ कोई . विग्गहगइमावन्ना विरई अणत्यदंडे विवरीयसद्दहाणे विवरीया उ अभव्वा विहिउत्तरमेवयं वेयणिस्स य बारस ૨૬૮ २७४ १४३ २४१ ३४० २८९ '६५ २४६ ३२९ [स] सग्गं कम्मक्खय . ३६३ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका २३७ सुत्तभणिएण विहिणा सुहिएसु वि वहविरई सेविज्ज तओ साहू सेसा उ तिरियमणुया ३५० १५१. ३५४ २४८ सेसा संसारत्था सो दुविहो भोयणओ तितोसोयणओ २८५ सोवक्कम मिह सज्झं २०६ हिमजणियं सीयंचिय . १४६ [ह] हिंसाइपायगाओ होइ दढं अणुराओ होइ बले वि य जीवं ७१ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. संस्कृतटीकान्तर्गतग्रन्थान्तरवाक्यानुक्रमणिका । ग्रन्थान्तर्गत वाक्यांश गायक भन्यत्र कहाँ ३२१ अष्टाध्यायी ३३१४९७ २७४ ३९८ ८८ ३Y ३९८ ६९ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र २-३१ ९८ अइसंकिलिट्टकम्माणुअतो [चो यत् अनिशमशुभसंज्ञा अपमत्तसंजयाणं अम्बरागुरुकर्पूर असंस्तुतेषु प्रसभं भयेषु इमीए समणोवासएणं इष्टभार्यापरिष्वक्तः एकस्मिन्नप्यर्थे एकं द्वौ वानाहारकः कहन्नं भंते जीवे अट्टफम्म कार्मणशरीरयोगी काले दिन्नस्स पहेणयस्स कुट्टिमादी विचित्राणि कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः गतमदचरयमश्चानुपसर्ग गंठित्ति सुदुभेओ गाहावइसुयचोर गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः जइ जिणमयं पंवजह जलरेणुपुढविपन्वय जहा सप्पस्स पुन्वं बारस जं मोणंति पास हा [जं संमंति पास हा] जाव णं अयं जीवे एयई जिणसासणस्स सारो जिणंतरे साहुवोच्छेओ जीवानां पुद्गलानां च जो जहवायं ण कुणइ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् तं च पंचहा सम्मत्तं ६९ प्रशमरति. हरिभद्र वृत्ति २०५-७६ में उद्धृत ३२७ मावश्यकचूर्णि, पृ. ३०६ ३९८ ८३ त. सूत्र १०-१ ३२१ अष्टाध्यायी ३।१।१०० ३२ विशेषा. भा. ११९२ ११५ सूत्रकृतांग २,७,७५ २ अष्टाध्यायी ५३१११२४ समय प्रा. (आत्मख्याति) में उद्धृत १७ स. सूत्र ३-६ कर्मग्रन्थ १-१९. ३१९ ६१ आचारांग सू. १५६, पृ. १९२ ४१ ७८ ६१ ६१ त. सूत्र १-२ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतटोकान्तर्गतग्रन्थान्तरवाक्यानुक्रमणिका २३९ ३२६ सा. धर्मामृत स्वो. टीका ५-४२ में उद्धृत ३३३ भगवती... २२२ ३४७ ३७६ चारित्रप्राभूत १२ ३३४ प्रत्याख्यान नि. ३९८ १९. २३८ ५२ प्रज्ञापना गा. ११५; उत्तरा. २८-१६ ३३० १३० त. सूत्र ३.४ १८३ तित्थं भंते तित्थं तित्थगरे तिथिपर्वोत्सवा सर्वे 'तिविहं पि' इत्यादिनेत्याह दव्वउ णामेगे हिंसा ण भावउ दम्वत्थवे कूवदितो 'दंसणवयेत्यादि दाहिणदिसि गामिए दुविहं तिविहेण पढमउ नानारससमायुक्तं नामूतं मूर्ततां याति निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां निसरगुवएसरुई पक्खचउम्मास पच्चक्खाणं व तहा परस्परोदीरितदुःखाः परिणामो ह्यर्थान्तर पुढविकाइया आउकाइया बत्तीसा अडयाला बह्वच् इति ठञ् ब्रह्मवेदो ब्रह्म तपोभन्वा वि न सिज्जिस्संति केई माणुमती केरिसा तुम्हे मायावलेहिगोमुत्ति मिथ्यादर्शनाविरति मूलं द्वारं प्रतिष्ठान मृदुतूलीसमाक्रान्त यद् वेदयति संहृद्यं यस्य हलः यस्येत्यकारलोप लद्धफलमाणमेयं विदारयति यत् कर्म वेणुवीणामृदंगादि श्रेयांसि बहुविघ्नानि षिद्गौरादिभ्यश्च सह भुज्जइ त्ति भोगो सम्मत्तम्मि उ लद्धे सव्वत्थोवा तित्थगरिसिद्धा सव्वंति भाणिऊणं ७७ षवला पु. ३, पृ. ९३ उद्धृत ३७८ अष्टाध्यायी ४॥४॥६४ ३२१ 6. त. सूत्र ८-१ ३९८ ३९८ २ अष्टाध्यायी ६।४।४९ २ अष्टाध्यायी ६।४।१४८ ३३० २ अष्टाध्यायी ४।११४१ ४२ ७७ सिद्धप्राभूत १०० Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सव्वं भंते पाणाइवायं सव्वे जीवा न इंतव्वेत्यादि समितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षा सीयालं भंगसयं सीसमुरोदरपिट्ठी पोहा नि स्पर्शरसगन्धवर्ण गाथक २५८ २८३ २८५ २८८ २९१ २९१ २९१ २९१ २९१ २९२ ३१९ ३२२ ३२३ ३२४ ३२६ श्रावकप्रज्ञप्तिः इनके अतिरिक्त गाथा ९१ और ९३ की टीकामें क्रमसे शंका, कांक्षा, विचिकित्सा या विद्वज्जुगुप्सा, परपाषण्डप्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव इन सम्यक्त्वके अतिचारोंके स्पष्टीकरणमें जो कथाएँ दी गयी हैं वे किसी प्राचीन ग्रन्थसे लेकर दी गयीं दिखती हैं । उनका सन्दर्भ अत्यन्त अशुद्ध दिखता है । इसी प्रकार प्राणातिपातविरमण आदि व्रतोंके अतिचारोंके स्वरूपको स्पष्ट करते हुए किसी प्राचीन आचारविषयक ग्रन्थसे 'तदत्रायं पूर्वाचार्योक्तविधिः' इत्यादि प्रकारसे सूचना करते हुए कुछ सन्दर्भ दिये गये हैं। यथा २४३ ३४५ एत्थ पुण सामायारी.... सर्पोदाहरणेन विषोदाहरणेन च भाव पुण इमो एत्थं सामायारी... ८१ ३३० एत्थ भावणा... एत्थ सामायारी.... २० १३ ७८ सन्दर्भको सूचना ---- तदत्रायं पूर्वाचार्योक्तविधिः .. तत्र वृद्धसंप्रदायः तथा च वृद्धसंप्रदायः "" भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादेव अवसेयः । स चायम् इह च सामाचारी ... एत्था सामायारी... X X x ( मुहेण व अरिमाणेइ. ) एत्य सामाचारी ... एत्थं वि सामायारी" त. सूत्र U Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. मूल-गाथागत शब्दानुक्रमणिका (संस्कृत) शब्द गाांक [अ] १. ० अकालमरण अकृतागम १९४, २०४, २१९ २१ १७ ८५ ७२ २८७ २८९ १७ अगुरुलघु अग्निक रोगी अंगार कर्म अङ्गोपाङ्ग अचरण-पाणि अचित्त अच्युत कल्प अजीव अज्ञान अणुव्रत २३६ २६५, २७५ হ गाथांक । अपध्यान २८९ अपरिगृहीतागमन २७३ अपर्याप्त २२,७०,७१ अपवर्तना २१६ अपार्धपुद्गलपरावर्त अपूर्वकरण २१७ अप्रतिलेखित ३२३ अप्रतिष्ठान १३८ अप्रत्याख्यानावरण अप्रमत्त २२४ अप्रमत्तसंयत अप्रमाद २४४, ३१९ अप्रमाजित अबन्धक .३०८ अभव्य ६७ अभिग्रह अभिनिवेश अभिसन्धि अमूर्त अयशःकीति अयोगी २४ ६३, ७८ २३१ ३२३ शब्द गाथांक अधिकरणक्षामण अनङ्गक्रीडा २७३ अनन्त ४०,४१ अनन्तानुबन्धी अनभिनिवेश अनयन दर्शनावरण १४ अनर्थदण्ड अनवद्य ३१४ अनवस्थितकरण ३१२ अनवस्थित सामायिक ३१७ अनादेय अनाहार ३६८ अनित्यत्व १८५ अनिवृत्ति १७३ अनुकम्पा अनुत्तर ३०१ अनुदित ४४ अनुपक्रम २०५ अनुपबृंहण ९४,९५ अनुबन्ध २४७ अनुभव १९९,२०२, २०४,४०० अनुभाग अनुभाव अनुष्ठान ३५३ अनेक ७७ अन्तराय अन्तर्मुहूर्त अन्यलिङ्ग अपक्व अतिक्रम अतिचार २७५, ३१०, ३२८, ३७९ २९५, ३११ ८९, ९२, ९४, ९६, ९७, ९९, २०४, २५७, २८२, २८५ ३८४ १४६,१८७ २५८ २५०, अरति अतिचार सूत्र बतिप्रसंग अतिभार ८० अतीर्थ ७६ अतीर्थकर अदतादान अद्धा अरहंत अवधिज्ञानावरण अवधिदर्शनावरण अविरत अविषयानिवृत्ति अव्यापारपौषध अव्याबाध अव्याबाध सुख २६५ ३२५ ७८ २८३ अधर्म ३२१ ३८६, ३९२ ३६१ अधःप्रमाणातिक्रम २८६ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अशुभ असंख्यवर्षायु असंख्येय असंयत असातावेदनीय असाध्य अस्थितिकरण आकाश आगम आचार्य आतप आय अनयनप्रयोग आनुपूर्वी आपतिताकरण २२ २४ ३२० २१ २३५, २४४, २४५ आयु ११, २९, २०७, २१४, ३०६, ३०७, ३६३ ३७८ १३५, १३९ ३१३ ३५६ १७३ २९६ ६३, ७९ ६५, ६८, ६९ ३२१ [ आ ] आराधना आर्तव्यान आर्तवशातपगत आस्रव आहारक आहारपोषध आर्यदेश आलोचन आसेवनरूपा शिक्षा इत्वर ७८, १४८ ४१, ४२, १७४ उच्चगोत्र उच्छ्वास २३ ७०, ७४ ४० ३५, ३८ १४ २०५, २०६ ९४ [इ] इत्वरपरिगृहीतागमन इत्वरा निवृत्ति इहलोकाशंसाप्रयोग ईर्यासमित [ 3 ] ४०१ ३२८ २७३ ३९९ ३८५ २२३ २५ २१. उत्तम पुरुष उत्तर गुण उत्तर प्रकृति उत्सर्ग ब्रह्मचारी उदय उदीर्ण उद्योत उपक्रम श्रावकप्रज्ञप्तिः ३५५ १९७ ४४,४६ २२ १५२, १९३, २०५. २०६, २२१, २२३ २०७ १९७ ३४० २१ उपपात ७०, ७१, २९५, ३०० उपभोग उपभोग - परिभोगातिरेक उपभोगान्तराय उपक्रमण उपक्रामण उपग्रह उपघात उपशम उपशमश्रेणि उपशमसम्यक्त्व उपशान्त उपशान्तमोह उभयलोक ऊर्ध्वप्रमाणातिक्रम एक सिद्ध एकादशी ओघ ओदारिक औपशमिक कन्दर्प कन्यालीक करण [ ए ] [ ओ ] ७४ १०५ ११ [क] २८४ २९१ २६ ५३, ५५ ४५ ४६, ४७ ૪૪ ३०७ २६४ २८३ ७७ ३३५ ३८, ५२ २७० ४३, ४५ २९१ २६० ३३०, ३३६ कर्म ५५, १०१-१०३, १५०, १५९, १९४, १९७, २०९-२१०, २३३, २९६ १३८, २१४ ३६३ १११ ३०९ १४२ २६९ ३२५ २९५, ३०४ १३ २७३ ३१२ ३४६, ३४९ ४३, ४९ ३२७ ९२-९३ २७८ २६१ ३५-३७ ३५७ २४८-२४९ कर्मक्षपण कर्मक्षय कर्मक्षयोपशम कर्म प्रकृति कर्मबन्ध कला कल्पनीय कषाय कषायवेदनीय कामतीव्राभिलाष कायदुः प्रणिधान कायवध कारक सम्यक्त्व कालातिक्रमदान कांक्षा ५९, ८६-८७, कुप्यक कुमारादि- अलीक कुम्भ कुल कुलवर कुलिंग कुशास्त्र कूटतुला कूटमान लेखक कूटसाक्षित्व कूपज्ञात कृतनाश कृतपरिमाण कृष्णपाक्षिक केवलज्ञान २२३ २३१-२३२ २६८ २६८ २६३ २६० ३४७ १९४, १९६, २१९ ३५५ ७२ केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरण केवलिक केवली ३५९ १२ १४ २०७ ६८, ३०७ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल-गाथागत शब्दानुक्रमणिका (संस्कृत) २४३ तत्त्वार्थ ८२ तडागशोषण २८८ ६२-६३ तप तस्करयोग ७०-७१,७३ तिर्यक्प्रमाणातिक्रम २८३ तिर्यगायु २६८ तिर्यक् -७४ तीर्थ केशकर्म २८७ कोत्कुच्य २९१ क्रम ३२५ क्रोध क्लिष्ट बन्ध २३१ क्षय १५८, १९७, २१९, ३८९ क्षयोपशम ४४, ५१, १९७ क्षायिक ४३, ४८ क्षायिक भाव क्षायोपशमिक ४३ क्षीण क्षीणमोह ३०७ क्षेत्र २७६ क्षेत्रवृद्धि २८३ [ग] गति २०, १९८, २९५, ३०३ गन्ध २१ गर्भज ७० गाथा २७५ गुण २८२, ३६३ गुणभाव २८४ ६,२८०, ३२८ चतुर्दश पूर्व चतुर्विध आहार चरण २१८-२१९ चरणक्षय ३९० चरणपरिणाम ३६३, २८१ चरणमोह ३७७ चरणोपशम ३९० चरमशरीर चाणक्य चारित्रमोहनीय १५-१६ चिन्ता चेतना १८८ चैत्य ३४४, ३६६, ३७३ चैत्यगृह चैत्यवन्दन ३४३, ३५४, ३६५ चैत्यवन्दनादि ३४१ [छ] छद्मस्थ २०७ छविछेद २५८ त्रस तीर्थकर २४,७६, ३५१ तीथंकरभक्ति १०५ तुच्छौषधिमक्षण २८६ २२, १२९ सकाय असप्राणघातविरति ११९, १२१ असभूतप्राणविरति १२२ सरक्षण त्रिगुप्तिगुप्त त्रिविध आहार २५९ [द] दन्तकर्म गुणव्रत गुप्ति ३४९ जन्म ३९४, ३९७ जरा ३६०, ३९४,३९७ जाति २०, ३५७, ३६०-३६१ जिन जिनधर्म ३८८ जिनपूजा जीव ९, ६३ जीवसमास ७७ जीविताशंसाप्रयोग जुगुप्सा ज्ञान २३२, ३६३ ज्ञानावरण ९.१०, ९८ ज्ञानावरण क्षयोपशम ज्ञानी १५९ दर्शन दर्शनचतुष्क दर्शनमोह दर्शनमोहनीय दर्शनावरण दवदान दानान्तराय दिव्रत दिशा दीक्षा दीपक सम्यक्त्व दीर्घायु दुर्भग दुष्पक्व दुष्प्रमाजित गृहपतिसुतचोरग्रहण मोचना गृहस्थधर्म ३८२ गृहिप्रत्याख्यान ३२९ गृहिलिङ्ग गृही ३४७, ३५०, ३६५,३८४ गो-अलीक २६० गोत्र ११, २५, २९-३० ग्रन्थि प्रन्थिभेद ग्रहणरूपा शिक्षा [] घर्षण-घूर्णन ३ २८० - १८ ३७७ २३ २८६ ३२१ १०३ शषज्ञातधर्म Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ दुः प्रतिलेखित दुःस्वर देव देवायु देश देशविरत देश विरति देशावका शिक द्रव्य द्रव्यस्तव द्रव्यादि द्रव्यादि पंच द्विपद द्विसमय स्थिति द्वेष धन धर्म ध्यान नरक ७०, ७४, २४३, ३६८ १९ ३२२, ३२५ ३३२ १०९ ३१९ १८५ ३४७ २२२, २६९ १९७ २७६, २७८ ३०८ १५८, ३९३. नाम नारक [ ध ] नारकन्याय नारकायु नालि नित्य नित्यत्व निद्रा ३२३ [ न ] २३ २७८ ३८, ७८, ३४२, नपुंसक ७७ नपुंसक वेद १८ नमस्कार ३४३, ३६४, ३७३ नयनदर्शनावरण १४ १५५, १६९ ११९ नागरकवधनिवृत्तिज्ञात ३५१-३५२ ३६९-३७० ११, २०, २९-३० ७०, ७३, १५६, १५९, २४३ १३५ १.९, १३७ ३५-३६ १७७, १८२ १८५ १३ श्रावक प्रज्ञप्तिः निद्रानिद्रा निद्रापंचक नियम नियमभंग निरतिचार निरवद्य योग निरुपक्रम निर्जरा निर्माण निर्युक्ति निलंञ्छिनकर्म निर्वाण निर्वेद निर्वेदगुण निवृत्ति निश्चय निष्ठितार्थ नीचगोत्र नोकष | वेदनीय न्यासहरण [ प ] परदारपरित्याग परपाषण्डप्रशंसा परमाक्षर परमधार्मिक सुर परलोकाशंसाप्रयोग परविवाहकरण परव्यपदेश पराधात परिभोग पर्याप्त पर्याय पल्य पल्य पृथक्त्व पल्योपम १३ १२-१३ २४२, २४४ २३८ ३७६ २९२ ७४-७५ ६३, ८२ २४ ३३४ २८८ ३५० ५७ ८४ २३८, २४० ६१ ४०० २७० ८६, ८८ ३५९ १२६ ३८५ २७३ ३२७ २१ २५२. २५९, २८४ २२, ६५, ७१ १८५ ३५ ३९० ३०२ पाप ७९, १५१,१५४, २२१ २२२, २३४, २५५ २५ १६ २६० पापोपदेश २८९ पारिणामिक ( परिणाम ) ६६ पिण्डैषणा २९७ पुण्य ७९, १५१, १५४, ३७० १४० ३९, ७८ ३२० पुण्यबन्ध पुद्गल पुद्गलक्षेप पुरुष पुरुषवेद पूजक ३४८ पूजा ३४४-३४६, ३५०, ३५४ पूज्य ३४५, ३४८ पृथक्त्व ३०२ ६४ पृथिवीकायिक पेयाय उदाहरण ९१ पौषध ३२४ प्रकृति ८० प्रचला १३ १३ ३३३ २९५ ३७६ प्रतिरूपव्यवहार २६८ प्रत्याख्यान ३४३-३४४, ३५३ प्रत्याख्यानावरण १७ २३ ७६ ८०, १९६ २८१ प्रचलाप्रचला प्रज्ञप्ति प्रतिपत्ति प्रतिमा प्रत्येक प्रत्येक विबुद्ध प्रदेश प्रमत्त जीव प्रमत्त संयत प्रमाण प्रमाद प्रमादाचरित प्रवचनमातृ प्रव्रज्या प्रशमादि गुण प्राणवध ७७ १८ ३६ २३९ २२०, २२४, ३१५-३१६, ३७४ २८९ २९६-२९७ ३८० ८४ १५० Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल-गाथागत शब्दानुक्रमणिका (संस्कृत) २४५ [र] रति ८ रस २८७ १७ प्राणवधनिवृत्ति १३४ प्रासुकदान ३४०. प्रेष्यप्रयोग ३२० [ब] बन्ध ६३, ८०, १३५-१३६ १५८, १८६, १९९, २१३, २२०, २२४, २२९-२३०, २५०, २५३, २५५, २५८, २९५, ३०५-३०७, ३८९ बन्धक ३०६-३०८ बन्धन २०, २५० बन्ध्यासुत २०८ बादर २२ बालादिवध बुधबोधित बोधि ३६३, ३८६-३८७ ब्रह्मपौषध ३२१ रसकर्म रहस्य-अभ्याख्यान २६३ राग १५८,३९३ राजामात्य ९३ रूपानुपात रोचक सम्यक्त्व रौद्रध्यान १७ ९, ४४ ५० __ मनोदुःप्रणिधान ३१२ मन्त्र ३४८ मरण ३६०, ३९४, ३९७ मरणाशंसाप्रयोग ३८५ महाव्रत ३१० मात्सर्य ३२० मान माया मारणान्तिकी ३७८ मिथ्यात्व मिथ्यात्व वेदनीय मिथ्यादर्शन २५६, ३४१ मिथ्यादृष्टि मिश्रवेदनीय मुक्त ६४, ७६, १४२, १६२ मुक्ति १४२, १५१ मूल प्रकृति ११,३०५ मृषावाद २६० मृषावादी मृषोपदेश २६३ मोक्ष ४०-४१, ६३, ८३, १५४, १९४, १२९, २१५, २१८, ३६०, ३८९ मोह ३०७, ३४९, ३९३ मोहनीय १०, २८ मौन मौखर्य २९१ [ल] लब्धि लाक्षाकर्म लाभान्तराय लोभ २२१ ३७१ [व] [भ] २५८ १९२ १४३ لل ___३० २४७ वध्य . भक्तपानव्युच्छेद भय १८, ३९७ भवसिद्धिक ७३ भव्य भंगकानुपूर्वी २२८ भाटिकर्म २८७ भावना भिन्न मुहूर्त भू अलीक भोगान्तराय भोगाशंसाप्रयोग ३८५ [म] मतिज्ञानावरण १२ मन मनःपर्ययज्ञातावरण १२ मनुज ७०-७१,७३ मनुष्यायु वचन २५५ वचनदुःप्रणिधान ३१२ वध १९१, २१०, २४७, २५८ वधक २०८, २१२ वनिवृत्ति वधपुण्यान्तराय वधविरति १७५-१७६, २२० वधहेतु २१२ वनकर्म वर्ण वास्तु २७६ विकटना ३७९ विकृष्ट तप ३७९ विग्रहगति विचिकित्सा ८६-८७ विज्ञान ३५८ विद्यासाधक २८७ २१ [य] यति २, २९६, ३०३, ३११, ३६५, ३८४ यन्त्रपीडनकर्म यशःकीर्ति २४ यावत्कथिक ३२८ यावत्कथिका निवृत्ति ३९९ युगप्रधान युक्ति ४०० योग ७९, २५४, ३३०, ३४३ २८८ २५५ ૬૮ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ विपाक विरति विराधन विषकर्म विसूचिका विहायोगति विहारकाल वीतराग वीर वीर्यान्तराय वृद्धादि वेदक वेदना वेदनीय वेद्यमान वैक्रिय वैराग्य ਕਰ व्यभिचार व्यवहार (इतर) शकटकर्म शङ्का शब्दानुपात शरीर शरीर सत्कारपौषध शाक्य शाश्वत सौख्य शासन शास्त्र शिक्षा शिक्षापद शील शुक्ल शुक्लपाक्षिक [ रा ] ५५, ९८ २५५ २५२ २८७ १७१ २२ ३६६ २५, ३५४ २८० २६ २२१ ३०९ २९५ १०, ३० ४४ २७० ३६३ २५७, ३११ २४०-२४१ ६१ २८७ ८६-८७, ८९, ९१ ३२० २० ३२१ ८८ ३८९, ३९२ ३४२ २०१ २९५-२९६ ६, २९२, ३१८, ३२१, ३२६, ३२८ ३५८ ६५ ७२ श्रावकप्रज्ञप्तिः शुभ शैलेशी शोक श्रद्धा श्रमण श्राद्ध श्रमणोपासक श्रमणोपासकधर्म २३ ३०८ १८ ३२५, ३६८, ३७२ २९९ श्रावकधर्म श्रावकसुता श्रुत श्रामण्य श्रावक २, २९९-३००, ३४३, ३६६, ३९० ६, २८० ९३ ४०१ १२ ४०१ ४०१ ३९१ ३८४ ३२८ ११८, २९६, ३०३, ३१३, ३३९ ३०० श्रुतज्ञानावरण श्रुतदेवता श्रुतघर श्रेणि सत्कार समयभिन्न [ ष ] षड्जीवनिकाय [स] सचित्त सचित्तनिक्षेपण सचित्तपिधान सचित्तप्रतिबद्ध सचित्ताहार समवहत समाधि समिति सम्पूर्ण विधि सम्भव सम्यक्त्व २९७ २६५, २७५ ३२७ ३२७ २८६ २८६ सम्यक्त्व वेदनीय सम्यक्त्व हेतु सम्यक्त्वा तिचार सम्यग्दर्शन ३७९ ८१ ३५१ २३७, २४० ७, ३३, ४३, ६१, ६२, १६९, ३५८, ३९० ३९१ सम्यग्दृष्टि सहकारित्व सहकारी सरःशोषण सर्पविषज्ञात सर्व सहसा - अभ्याख्यान संक्रम संघ संघात संज्वलन संदेश संनिपात संयत संयुक्ताधिकरण संलेखना संवर संवरण संवेग ३२५. संसारसुख ७७ संसारी ६८ संस्तव संस्थान संहनन सागर सात सात वेदनीय १५ ८५ ३४१ ५, ६०, ८४ २१० २०९ २८८ ३१९ ३२२ २६३ २२३ ३६६-३६७, ३७३ २० १७ ३६५ ३९५ ३६-३७, ३२६, ३८२ साधर्मिक साधारण ८६ संसार ४१, ७२, १८१-१८२, २१८, २५२, ३६०, ३९७ ३५८ ६४ ८६, ८८ २९१ ३७८, ३८२ ६३, ८१, १५० ३३३ ३, ४, ५३, ५६, ३६९, ३७२ २० २० ३०१, ३९० ३९५ १४ ३३९, ३४२ २३ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल-गाथागत शब्दानुक्रमणिका (संस्कृत) २४७ साधु सुस्वर सूक्ष्म सूक्ष्मसाम्पराय २३ २२ ३०६ १७, ३४,४२, ३४७, ३५० २८७ सूत्र स्थूलप्राणिवघ-अविरति १०७ स्थूलप्राणिवधविरमण स्फोटनकर्म स्मृत्यकरणता ३१२ स्मृत्यन्तर्धान २८३ स्वदारमन्त्रभेद स्वदारसन्तोष स्वयं विबुद्ध स्वलिङ्ग ७५ २६३ २७० ३०० २९६, २९८,३००, ३०४, ३०९, ३३९३४०, ३४४, ३५१, ३५४, ३६६, ३६८ साधुपर्युपासना साधुबन्धन ३६५ साध्य २०५-२०६ साध्यरोग २०४ सामाचारी २, २९८, ३६६, ३७५ सामायिक २९२, २९९, ३१०, ३१२ ३१४, ३१६ साम्परायिक ३०८ साम्परायिक बन्ध २२६ सावध २९३, ३३८ सावध योग २५३, २९२ सावद्ययोगमनन ३३७ सिद्ध ६८, ३९२ सुभग सोपक्रम सोपक्रमायु सौधर्म सौराष्ट्र श्रावक स्तेनाहृत स्तोकायु स्त्यानगृद्धि २६८ २३३ स्त्री ७७ स्त्रीवेद स्थावर २२, ११९, १३० । स्थावरकाय १२१ स्थिति २७, ३०, ८०, २९५ स्थिर २३ स्थूरकप्राणातिपात हास्य हिरण्य २७६, २७८ हिंसा २२२, २२८, ३१५ हिंसादिपातक २४८ हिंसा प्रदान हेतु ४०० ह्रदशोषण २८८ २८९ २३ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. दिक्प्रदा-टोकान्तर्गत शब्दानुक्रमणिका शब्द गाथा शब्द गाथा ४४ १९५ अधर्म अङ्ग २० अनुमति [अ] अकल्पनीय ३२५ अकालमरण १०२ अकृतागम १९४, २०४, २१९ अकृताभ्यागम १९३ अक्षपाद ८७ अगुरुलघु २१ अग्निकरोगी २० अङ्गारकर्म २८८ अङ्गारमर्दक ५० अङ्गोपाङ्ग अचक्षुदर्शनावरण अचरणपाणि २३६ अचरमशरीर ७५ अचित्त २६५, २७५ अचेतन १८७ अच्युतकल्प अजीव अजीवसमास अज्ञान १४१, २३१-२३२ अणुव्रत १,६,४३,१०५-१०६, ११५, ३१०, ३२८, ३७९ अतिक्रम ३११ अतिचार १५, ४८, ८६, ८९, ९४, २९७ अतिचार सूत्र ३८४ अतिथि ३२६ अतियिसंविभाग ३२६, ३२८, शब्द गाथा अतिप्रसंग १४६-१४७, १८६-१८७ अतिमरण २५८ अतीर्थकरसिद्ध अतीर्थसिद्ध ७६, ७७ अत्रसवधनिवृत्ति १२५ अदत्तादान २६५ ७८ अधर्मास्तिकाय ७८ अधिकरणक्षामण ३६५ अध्यवसाय १८७ अनध्यवसाय अनन्त १०१-१०२ अनन्तकाय २८५ अनन्तज्ञानी २७५ अनन्तानुबन्धी १७, ४५, ६२, ३०४ अनर्थदण्ड २८९ अनशन ८२, ३७८, ३८४ अनादिपारिणामिक ६६ अनारेयनाम २४ अनाभोग ३७१ अनालोचित अनाहारक ६८, ६९ अनित्य १७६, १७७ अनित्यादिभावना ३७६ अनुकम्पा ५३ अनुत्तम पुरुष अनुत्तर ३०१ अनुदय ४४, ३०४ १६५ अनुदित अनुदीर्ण अनुदीर्णता अनुपक्रम २०५ अनुपबृंहण अनुप्रेक्षा ८१ अनुबन्ध २४७, २४८ अनुभवविरुद्ध १७४ अनुभवश्रेणिवेदन २१६ अनुभवसिद्ध १८५ अनुभाव १९६ अनुभावबन्ध ८० अनुभूति १९८ ११४, ११५ अनुयोगधर अनुराग अनुष्ठान ३१२ अनृद्धिप्राप्त २९२ अनेकसिद्ध ७७ अनेकान्तिकत्व २३२ अन्तराय ११, २८ अन्तर्मुहूर्त ३०, ४६, ५५, ६९ अन्नदान शन्यलिङ्गसिद्ध अन्धय १८४, अपध्यान अपर्याप्त अपर्याप्तक अपर्याप्तकनाम अपवर्ग ४, ६१, ६९,७६ ३०१ ७७ ३५३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्प्रदा-टीकान्तर्गतशब्दानुक्रमणिका २४९ ३९७, ३९८ २८५ २९१ अव्याबाध अशन अशुभनाम अष्टकर्मप्रकृति अष्टमी अष्टापद असतीपोषणकर्म असंख्येय असंख्येयवर्षायुष असंयत असात वेदनीय असाध्य अस्थिर नाम अस्थिरीकरण अहिंसा ९८ ३२१ ३८३ २८८ ४० ७०,७४ ३५, २८-३९ आरम्भ १०७ आर्तध्यान १३५, १३९, ३१३ आर्यदेश आर्हन्मतानुसारी ३३३ आलोचन १०३, १७३ आलोचना ३७९ आवरण आवश्यक २९२ आवोचीमरण ३७८ आशातना आसेवन ३५५ आसेवना शिक्षा २९७ आस्तिक्य ५३ आस्रव ६३, ७९ आहार ६८, २८५, ३७९ आहारक ६८ आहारदान . ९३ आहारपर्याप्ति ७० आहारपौषध ३२१, ३२२ २४४ २०६ २३ ८६, ९४ ८७ अपवर्तन अपवाद २८५ अपूर्वकरण ३३, २१७ अप्काय अप्कायिक अप्रतिक्रान्त अप्रतिष्ठान अप्रत्याख्यान अप्रथमसमयसिद्ध ७७ अप्रमत्त ३७,४२, २२४ अप्रमत्तता अप्रमाद २४४ अप्रशस्तविहायोगति २२ अबन्धक ३०५, ३०८ अभय अभव्य ५०, ६७ अभिगमरुचि ५२ अभिग्रह ३७६ अभिसन्धि २५०-२५१, २६९ अमूर्त २६, १९० अमूर्तता अम्बादि १३६ अयशःकोति २४ अयोगिकेवली ६८, ६९, ३०८ अरति अर्थ २९६, २९७ अर्थक्रिया अर्थोपनय ३५-३७, ४७, २०१ अर्धपुद्गलपरिवर्त ७२ अर्हच्चैत्य ३४५ अर्हच्छासन अर्हत् १, ४३, ८७, ८९, ३५० ३७८, ३९५ अवधिज्ञानावरण १२ अवधिदर्शनावरण अविरत ३५, ३०४ अविशुद्धावधि अव्यापारपौषध ३२१, ३२२ ३२ १९० इच्छापरिमाण इत्वर इन्द्रनाग इन्द्रिय पर्याप्ति इष्टविरोध . [ ] आकाश ७८, १४८ आगन्तुकदोष १६४,१७१-१७२ आगम ४१, ८७ भागमविरुद्ध १७४ आचाराङ्ग __ आचार्य ७६, १०८-१०९, १२३, १६५ आज्ञारुचि ५२ आतप नाम २२ आत्मा १८३ आदाननिक्षेपण २९२ आदेय नाम २४ आनुपूर्वीनाम आन्तरायिक दोष ३२६ आपतिताकरण २३५,२४४-२४५ आप्त आभीर आयुष २०७, ३०७ आयुष्क ११ आयुष्कबन्धकाल ३०५ आयुष्कर्म ३०८ ईर्या उपयुक्त ईर्यापथ ईर्यापथविशुद्धि ईपिथिक ईसिमित २९२ २२३ [3] उच्चैर्गोत्र उच्छ्वासनाम उज्जमिय • २१ ३२८ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०. उत्कृष्ट स्थिति उत्तम पुरुष उत्तर गुण उत्तर गुणश्रद्धा उत्तर प्रकृति उत्तरापथ उत्सर्गब्रह्मचारी उदय उदयावलिका ४४ उदासीन १८७ उदीर्ण ૪૪ उदीर्णक्षय ४४ उदीर्णोपशम ૪૪ उद्गमादि दोष ३२५ उद्योत नाम २२ उपक्रम १५२ - १५४,१९३, १९५, १९७, २०४, २०८ १९५ १९८, २२१ २०४ २०० २१ ४४, ५०, ६१ ५२ ૪૪ ७६ उपपात ७०-७१, २९९, , ३०१ उपबृंहण ९४, ३४२ उपभोग २६, २८४ उपभोगान्तराय २६ ४३-४५, ५३ ४५ उपक्रमकर्मभोग उपक्रमण उपक्रम प्रायोग्य उपक्रमहेतु उपघातनाम उपचार उपदेशरुचि उपधान उपधि २७, ३३ ७४ ६, १०६, ३२६ १०५ ११ २८८ ३५५ ६२, ३०४ उपशम उपशमक श्रेणि उपशान्त ४४, ४७ उपशान्तमोह ३०७, ३०९ २० ५२ ६० ७२ उपाङ्ग उपाधि उपार्ध पुद्गपरावर्त उपार्ध पुद्गलपरिवर्त श्रावकप्रज्ञप्तिः उपासक उपासक प्रतिमा ऊर्जन्त ऋद्धिप्राप्त ऋषि ऐहलौकिक ओजाहार ओघ [ ऊ ] एकभवमोक्षायी एक सिद्ध एकान्त नित्य एकेन्द्रियत्व एषणा [ ऋ] [ ए ] कन्यानृत कपिल करकण्डु करण करणकर्तृ कर्तृभाव [ ए ] [at] [ ओ ] ३२८ ३३५ [क] कणभक्ष (कणाद ) कनकावली कन्दर्प २८३ २९२ ३५२ ७३ ७७ १८३ २० २९२ ६८ ३८, ४२-४३, ५२, २५३ ३२४ औदfre २०, ४४, १९७ औदारिक ७२, २७० औपशमिक ४३, ४५-४७, ५१ ८७ ८७ २९१ २६० ८७ ७६ ३३० १८६. १४५ कर्म कर्मक्षपण कर्मक्षपणक ९७ कर्मक्षय १३९ - १४०, १४२ - १४३ कर्मपुद्गल ३९-४१ प्रकृतिसंग्रहणी कर्मबन्ध कर्मबीज कर्मभाव कर्मभूमिज कर्मोपक्रमभाव कला कल्पनीय कल्लावालगत्तण कषाय कषाय वेदनीय कायवध कायिकभूमि कारक कारक सम्यक्त्व कारित 'कार्मणशरीरयोगी काल कालचतुर्दशी काश्मीर कांक्षा कोति कुमारामात्य कुमारानृत कुम्भ कुल कुलवर कुलादि कुलिङ्गी कुवादी कु शास्त्र भावना कुष्ठ कूटयन्त्र ९, १९ ९७, १३८ ९ १४२ ३९६ १४५ ७५ २३३ २६९ ३२५ ०८८ ३०४ १६ ३४५, ३४९ ३२३ ४३ ४९ १४४ ६९ १९७, ३२५ ९३ १५३ ५९, ८६-८७ २४ २९१ २६१ ३५-३७ ३५७ २४९ २४८ २२३-२२४ २५६ २३१ १०३ २५२ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूटसाक्षित्व कूपोदाहरण कृत कृतकृत्य कृतनाश कृषि कृष्णपाक्षिक केतु केवल केवलज्ञान केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरण केवली केशवाणिज्य कैवल्य कङ्कणा साधु कोटिकोटि कीत्कुच्य कौमुदी कौमुदीचार क्रियारुचि क्रोध क्लिष्टबन्ध क्षत्रिय [क्ष ] पंकश्रेणि २६० ३४६ ११४ ३४५ १९३-१९४, १९६, २१९ १०७ ७३ २७६ ३०९ २०७, ३५९ १२ १४ ६८-६९, . ७६, ३०७ २८८ ३५९ २८९ ३१ २९१ ११५ ९३ ५२ १७ २३१ ३२५ ४८, १९६, २०२, २१७ क्ष १३७, १४३ क्षय ४४, १९४ क्षयोपशम ४३-४४, ५१, ६२ क्षायिक ४३, ५१ क्षायिक भाव ३५९ ४८ क्षायिक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक ४३-४४, ४७, ५१ दिक्प्रदा- टीकान्तर्गतशब्दानुक्रमणिका क्षीणमोह ३०७, ३०९ क्षीरविकृति प्रत्याख्याता १२२ क्षेत्र १९७, २७६ खादिम गणधर गति गतिनाम गन्ध गर्भज [ख] गुणस्थान गुप्ति [ग] गवानृत गाथा गार्हस्थ गुण गुणन ३३० गुणव्रत ६, ४३, २८०, २८४, ३२८, ३७९ . गुरु गृहपतिसुतचोर गृह गृहिप्रत्याख्यान गृहिलिङ्गसिद्ध २८५ २, ७६, ३३० ३०३ २० २१ ७०, ७१ २६० ३५ ८१, १५९ १,९७,१०८-१०९, ३२८ ११५ घर्षण - घूर्णन घृतप्रदान २९८ ३४२ ८७ गृही ३२६, ३४७, ३६५, ३८४ गोच्छक ७६ गोत्र ११, २५, २९-३० गौतम ग्रन्थि ग्रन्थिभेद [घ] ३७८ ३२९ ७६ ९८ ३२, ३४, ४२, ३५३ ७ ३१ ३७६ [च] 'चक्रवर्ती ५६, ७४, ३८५ १४ ३८१ २७९ ९३ चक्षुदर्शनावरण चण्डकौशिक चतुर्मासक चन्द्रगुप्त चरणपरिणाम चरमशरीर चाणक्य चातुर्मास चातुर्मासक चातुर्वर्ण चारित्र चारित्रक्षपकश्रेणि चारित्रपरिणाम चारित्रमोहनीय चारित्रोपशमश्र णि चिन्तामणि चेतना चैत्य चैत्यगृह छद्मस्थ छविछेद छिन्नगोदुकर जन्म जरा २५१ जघन्यस्थिति जल्लगन्ध जंगमत्व जत चैत्यपूजा चैत्यवन्दन ३४१, ३४३, ३५४ १८१ ७४ १५, ४३, ८१ ३९० ९३ १०८ ३२८ ७६ २९२, ३६५-३६६ २९२, ३२२, ३३९, ३४१ ३४१ ३८१ १५, ३७७ ३९० ३४८, ३८१ १८८ [ छ ] ११३, २०७, ३०४, ३०७, ३०९ २५८ २३६ [ ज ] २७ ३९४ ३९४, ३९७ ९३ ३५६ ३५७ 1 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जातिनाम जातिस्मरण जात्यनुच्छेद जितशत्रु जिन जिनधर्म जिन पूजा जिनमत जिनवचन जिनशासन जीव जीवजाति जीवद्रव्य जीवनिकाय जीवसमास झषज्ञातधर्म जुगुप्सा जोषणागधना ३७८ ज्ञानावरण १०, २८, ९८, २०९ ज्ञानी १५९ ज्वर १०३ तपस् तपस्वी तत्वार्थ तत्त्वार्थश्रद्धान तिर्यगायुक तिर्यग्गति तिर्यग्लोक तिर्यञ्च तीर्थ तीर्थकर २० ७६ १२८ ११५ ८९, ३३०, ३४६ ३८८ तीर्थकर नाम तीर्थंकर सिद्ध [झ ] [ त ] ३४९ ३४२ ९० ३४२ ९, ६३ १२८ १८५ २९७ ७७ १८ २३६ ६३ ६२ ८२, ८७ २३.४ १९ १७ १५७ ७०-७१, ३८१ ७६ २, ६५, ७३-७४, ७६-७७ २४ ७६ श्रावकप्रज्ञप्तिः तीर्थसिद्ध तीर्थ करितीर्थ तीर्थकरिसिद्ध तोर्थ प्रभावना तीर्थसिद्ध तीर्थस्नपन तीर्थहानि तीर्थंकर तीर्थंकर भक्ति । . तीर्थोच्छेद तेजस्कायिक ६४ त्रस १२५ त्रसकाय ६४, ११९, १२१ २२ त्रसप्राणघातविरति ११९, १२१ त्रसनाम १२५, १२९ २९२ २९६ २९२ ११४ त्रसंभूत- त्रिगुप्त त्रिगुप्ति त्रिप्तिनिरोध त्रिदण्डविरति त्रिपुञ्ज त्रिपुजिन्याय ७६ ७७ ७७ ९४ ७७ ३७५ १६९ १ १०५ ६१, १६६ दीपक दुर्भग नाम दुर्भिक्ष दुःख दुःस्वर नाम ४५ ૪૪ [द] दन्तवाणिज्य २८८ दर्शन २, १०, १५,७२,८७ दर्शनमोहनीय १५, ४५, ९८ दर्शनादि ३७६ दर्शनावरण १३, २८, ९८ दवाग्निदापन कर्म २८८ दानान्तराय २६ दिव्रत २८०, ३१९ दिशालोक ३२६ ५० २३ ९३, ३२५ ५८ २३ दृष्टिविरोध देव देवकुरु देवगति देवदत्त श्रावक देवदूष्य देवाक ( अमराक ) देश देशकांक्षा देशपौषध देशप्रत्याख्यान देशविरत देशविरति देशशंका देशावकाशिक द्रव्यतः हिंसा द्रव्यलिङ्ग द्रव्यस्तव द्वारगाथा द्विज द्विसमयसिद्ध द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियादि द्वीप द्वेष १७, १०९-१११, २८५, ३०९, ३८४, ३९० ८७ ३१९, ३२८ ४ देह द्रङ्गनिवासी द्रमक द्रव्य ५८, ८७, १८०, १९०, १९७, २२२ २२४ ७६ ३४७ ३११ ३२५ ७७ ११४ ३५६ ७३ ३९३ धर्म १८० ७० २४३ १७ २८९ २८५ १९ ३२२, ३२५ ८७ ३२२ १७ ३३२, ३९० धर्मकथा धर्मध्यान धर्मरुचि २५० ३२७ [ ध ] १, ७८, ८१, ९३-९४, १०८, ३५१-३५२ ५०, ९४ ३२२ ५२ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्प्रदा-टोकान्तर्गतशब्दानुक्रमणिका २५३ १८३ धर्मानुष्ठान ३१६ धर्मास्तिकाय ७८,८७, १४८ धारिणी ११५ धार्मिक वात्सल्य नन्दीश्वरवर नपुंसकलिङ्ग ७७ नपुंसकलिङ्गसिद्ध ७७ नपुंसकवेद १८ नमस्कार ९३, ३२६, ३४३, ३६४, ३७३ नय १९०, २७४ नयनदर्शनावरण नरक निरतिचार ५१, ३७६ निरपेक्ष बन्ध २५८ निरवद्य २८५, २९२ निरुपक्रम ७५, २०२, २०६ निरुपक्रमायुष ७४, २४३ निर्गुण ३४, ३५ निर्जरा ३५, ६३, ८२, ३४० निर्माण २४ निर्लाञ्छन कर्म निर्वाण २१७, ३५० निर्वति निर्वेद ५३, ५७ निर्वेदगुण ८४ निवृत्ति २५४, ३९९ निवृत्तिवादी १६६ निश्चय निश्चयनय निसर्गरुचि नीचैर्गोत्र २५ नोकषाय वेदनीय नोतीर्थकरसिद्ध नोतीर्थसिद्ध नोतीर्थकरिसिद्ध न्याय १४१, १८५, २८९ न्यासापहरण . . २६० २१, ७० २१ ५२ १३७ नरकपृथिवी १३८ नरकवेदनीय १३८ नरकवेदनीय कर्म १५६ नरकसंवर्तनीय कर्म १५५ नरकायु १३७ नरकोद्वर्तन नरकगति १७ नरायुष्क . १९ नागरकभाव नागरकवघनिवृत्ति ११९ नाम ११, २९-३० नारक ७०,७३, १३७, १५६, परलोक ५७, १६७, १७९, ३४७ परलोकार्थी १३४ परिकर्म ३७७ परिणाम परिणामी १८३ परिभोग परिव्राजक परिषहजय पर्याप्त पर्याप्तक 'पर्याप्तकनाम पर्याप्तकलब्धि पर्याप्ति पर्याप्तिनाम पर्याय १८० पर्युपासनविधि ३५४ पर्व ३२१ पलिमन्थदोष १०९, ११२ 'पल्य पल्योपम ३२, ३०२ पल्योपमपृथक्त्व पंचसमित २९२ पंचसमिति २९६ पंचाणुव्रत पंचेन्द्रियत्व पंचोदुम्बरिक २८५ पाटलिपुत्र पाठान्तर ३११ पान पाप ७९, १३३, १५१ पापकर्मोपदेश २२१, २२२ २८९ पापक्षपण १३३ पापक्षय १३४-१३५ पापोपदेश २८९ पारलौकिक ३२४ पाषण्ड ८८ ७७ ३८२ ३५६ [प] पक्ष ९३ १३७ ३२६ २८५ नारकगति नारकन्याय नारकायुष्क नालि ३५, ३६ निगोद १०३ नित्य १७६-१७७, १८२ नित्यानित्य १८०,१८१ निदर्शन १९९ निदान ४८,३०७-३०८ निद्रा १३ निद्रावेदनीय १९७ निपात १९, ३७८ २१ २७० ८६-८८ पङ्का पृथिवी पडलय परघातनाम परदारपरित्याग परपाषण्डप्रशंसा परपाषण्डसंस्तव परमपुरुष परमाक्षर परमाधार्मिक परमाधार्मिक सुर ९३ १३७ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ पाषाणप्रतिमा पासहा पिण्डेषणा पिंगलस्थपति पुण्य पुण्यबन्ध पुद्गल पुद्गल परिवर्त पुष्पकुन्थु पुरुष पुरुषवेद पुल्लिङ्ग पुल्लिङ्गसिद्ध पूजक पूजा पूर्व पूर्वपक्षवादी पृथवत्व पृथिवी पृथिवी का कि पोत्त पौरुषी पौषध पौषधशाला पौषधोपवास प्रकृति प्रकृतिबन्ध प्रक्षेपाहार प्रचला ७७ ३४८ ३४४-३४५ २९६ १२३ ३०२ ११९, १२१, १३०, ३४५, ३४९ ६४ ९३ ३२६ ३२१ २९२, ३२२ ३२२, ३२८ १८६-१८७ १८८ ६१ २९७ २६४ ७९, १४३, १५१ प्रचलाप्रचला प्रज्ञप्ति प्रज्ञापना प्रतिक्रमण १४२ २६, ३९, ७२, ७८ ७२ २९१ १८६-१८७ १८ ७७ ८० ६८ १३ १३ ३३३ ५२, ९८ ३३० प्रतिपत्ति २९५, ३०९, ३२६ प्रतिमा ३७६ प्रतिवस्तूपमा ३५, ५४ श्रावकप्रज्ञप्ति: प्रत्याख्याता ११२, १२३, १६६, १७५ प्रत्याख्यान १७, १२२, ३३०, ३३४-३३५, ३४३-३४४ प्रत्याख्याननियुक्ति ३३४ प्रत्याख्यानावरण १७ प्रत्याख्यापयिता ११२, १२३, १६६, १७५ २३ प्रत्येकनाम प्रत्येकबुद्ध प्रत्येक बुद्धसिद्ध प्रथमसमयसिद्ध प्रदेशता प्रदेशबन्ध प्रदेशानुभव प्रधान प्रमत्त प्रमत्तसंयत प्रमादाचरित प्रवचन ८० ४४, ४७ १८७ २८१ ३६ प्रमाद १७०, २२०, २२४, २८९, ३१२, ३७४ ३८९ ७६-७७ ७६-७७ प्रवचनमातृ प्रव्रजित प्रव्रज्या प्रशम प्रशमगुण प्रशस्त विहायोगति प्रहर प्रहरण प्राण ७७ १९६ ९४, १७५, २८०, ३२४ २९६-२९७ ३३५, ३८२ १३४, ३७७, ३८० ६०-६१, ९७ ८४ २२ २०१ २८५ १०७ १२३ ७० ७.६ ८७, ९३ ५८ ३४० प्राणातिपात प्राणापान पर्याप्ति प्रावरण प्राशुक प्राशुकपिण्ड प्रासुक [ ब] ] बन्ध ३७, ४०-४१, ६३, ८०, १३५-३६, १५८, १८६, २२०, २२४, २५८, ३८९ बन्धक ४२, ३०५, ३०७-३०८ बन्धननाम बहुबीज बादरनाम बिन्दुसार बीजरुचि बुद्ध बुद्धबोधितसिद्ध बुद्धिप्रतिबिम्बोद बोधि ७६, १६८, १८६-१८८ ब्रह्म ब्रह्मचर्य पौषध भक्तपानव्यवच्छेद भक्तप्रत्याख्यान भगवती भङ्ग भय भव भवन भवसिद्धिक [भ] भव्य भव्यभाव भस्मक व्याधि भाटीकर्म भाव भावतः हिंसा भाषा भाषापर्याप्ति भिक्षुक भिन्न मुहूर्त भिन्नाभिन्न भूम्यनृत २० २८५ २२ २९६ ५२ ७६ ७६ १८७ ३२१. ३२१-३२२. २५८ ३७८ ३३३ ३२९ १८ ४८, १९७ ७३ ७३ ५०, ६६ ६६-६७ १९५ २८८ ५८, १९७ २२४ २९२ ७० ९३ ३०, ४२ १८० २६० Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग भोगान्तराय मतिज्ञानावरण मत्स्यबन्ध मथुरा [म] मन:पर्ययज्ञानावरण मनःपर्याप्ति मनुष्य मनुष्यलोक महाव्रत मातृस्थान अनुष्ठान ७०-७१ ३८५ मन्त्र ३४८ मरण ३७८, ३९४, ३९७ मरुदेवी ७६ महामण्डलिक ३८५ १०५-१०६, ३१० ५० १७ ५८, १०३ ३५६ मिथ्याभाव मिश्रवेदनीय मुक्त २६, १८७ २६ मुक्तात्मा मुक्ति मुखवस्त्रिका मुनि १२ १५५ ३६८ १२ ७० मान मानस दुःख मानुषत्व माया १७ मास १७ मिथ्यात्व ४४, ४७, ६१, ९८, १६३ मिथ्यात्व मोहनीय ४४, ८७ मिथ्यात्व वेदनीय १५ मिथ्यादर्शन २५६, ३४१ मिथ्यादृष्टि २, ३५, ३८, ५०, ६१, ९७ ८५ १५ ७६, १४२, १६२, १८६-८७ ३९८ ८७, १५१ २९८ ६१ दिक्प्रदा - टीकान्तर्गतशब्दानुक्रमणिका मुहणतय मुहूर्त मूर्त मूर्तता मूलगुण मूल प्रकृति मृषावाद मृषावादी ३७१ मोक्ष ४२-४३, ४८, ६३, ८३, १५१, १५४, १९४, ३५९, ३८९ ३०३ ३१२ मोह १९२, ३०७, ३४९, ३९३ मोहनीय १०, १५, २८, ३०, ४४ २९१ ६१ मोक्षगति मोक्षसाधन मौखर्य मौन [य] ११३, ३६५, ३८४ २९२ २८८ यति यति पूजा यन्त्रपीडनकर्म यशस् यशः कीर्तिनाम याग [<] ३२६ ३० १९० १९० ३२६ ११, ३०५ २६०-२६१ २३१ यावत्कथिक १०८, ३२८, ३९९ युगप्रधान ९३, १६५ ५३, ७९, ३३० योग योनिपोषक २८८ रक्तभिक्षु रजनी - उत्सव रजोहरण रति " रस रसपरित्याग २४ २४ ८८ ११५ ७६ १८ २१ ३८० रसवाणिज्य राग राजगृह राजमयूर राजामात्य रोचक रोचक सम्यक्त्व रौद्र ध्यान लब्धि लाक्ष वाणिज्य लाटदेश लाभान्तराय लिङ्ग लिङ्गप्रतिपत्ति लोकविरुद्ध लोकव्यवहार लोकयी लोचकृत लोभ लोभाणुवेदक लोमाहार ल ] [ व ] वध वनकर्म वनस्पतिकायिक वर्णनाम वल्गुली व्याषि वसन्तपुर वस्तु वाचक वन्दन वन्दनक वन्दावनक वन्ध्यासुत वन्यासुतपिशिताशन २५५ २८८ ३९३ ९३ १७३ ९२ ४३ ४९ १३६, १६० ७०-७१ २८८ १२५ २५ ७६ ७६ १७४ १८१ ३२५ ३७६ १७ ३०६ ६८ १९१, २५८ २८८ ६४ ३७३ ३७२ ३७४ १९२ २०८ २१ ९१ ११५ ७ ३३० Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ वाणिज्य ३५३ वादी १९१९, १४१, १६४, १९२ वायुकायिक ६४ वारहड वासुदेव विकृष्ट तप विगम विग्रहगति विघ्नविनायक १ विचिकित्सा ५९, ८६-८७, ९३ ३५८ विज्ञान विट् विद्याधरी विद्यावादिक विद्यासावक श्रावक विठ्ठ जुगुप्सा विधवाद्यनृत विधि ११४. विपक्ष १८९, ३२५ विपाक ४४, ५५, ८०, १९४ विपाककाल २०० ३१९, ३२२ विभाषा ३२३, ३२६, ३७८ ७३ ३३२ १७९ ५९ ३१९ २८८ विमान विरताविरत विरतिवादी विश्रोतसिका विषदृष्टान्त विषवाणिज्य विषोदाहरण विष्कम्भतोदय विसूचिका विस्ताररुचि २९१ ३८५ ३७९ १३६. ६८-६९ विहायोग तिनाम वीतराग वीर वीर्यान्तराय ३२५ २७० ३१९ ९३. ८७, ९३ २६१ ३१९ ४४, ४६ ९३, १७१ ५२ २२ ४३, ३०४, ३०७, ३०९, ३५४ २८० २६ वृद्ध परम्परायातता ३२८ बृद्धसंप्रदाय २८५, २८८ वेद १८ वेदक ४३, ३०९ वेदना समुद्घात १५७ वेदनीय १०, २८, ३० वेद्यमान १५५ वैक्रियिक २७० व्यञ्जक ४३ व्यञ्जक सम्यक्त्व ५० व्यतिरेक ८४, १८४, ४००व्यभिचार २३, ७३,१४८, २४१ व्यवहार ६१ श्रावकप्रज्ञप्तिः व्यवहारनय व्यवहारसंवर व्याकरण व्रती शाक्य [श ] शुभनाम शरीरनाम २० शरीरपर्याप्त ७० शरीरसत्कारपौषध ३२१ शंका ५९, ८६-८७, ८९-९१, ९७ ८८ ३२८ २८८ ५८, १०३ शासन ३४२ २९५-२९६ शिक्षा शिक्षापद ६, ४३, २९२ शिक्षा पदव्रत ३२१, ३२६, ३२८ शिक्षाव्रत ६ शीर्षप्रहेलिका शील शुक्लपाक्षिक शुभध्यान शाक्याद्युपासकधर्म शाटीकर्म शारीरदुःख ६१, ९५ ८१ २०१ ३२६ ४०-४१ ३५८ ७२ ३७० २३ ७९ ३२५ १.४७ ३०८ ६८ २०२ १८ ३२५, ३६९, ३७२ १७५ २९९, ३२८ ७६ ३८४ ३२८ ११३ ३०० १, २, ५, ९३-९४, १०७, ११५, १२३, १६८, २९६,२९९, ३३६, ३३९, ३४३, ३६८, ३७८, ३९० श्रावकधर्म १, ७, ४३, २८०, ३७८, ३८२-३८३ ९४, ३६८ ७६ शुभास्रव शूद्र शून्यतापत्ति शैलेशी शैलेश्यवस्था शैलेसी शोक श्रद्धा श्रद्धावान् श्रमण श्रमण संघ श्रमणोपासक श्रमणोपासकधर्म श्राद्ध श्रामण्य श्रावक श्राविका श्रुत श्रुतघर श्रुतज्ञानावरण श्रेणि श्रेणिक श्रेणिद्वय षट्जीवनिकाय षष्टाष्टमादि सचित्त सचित्ताहार ४०१ १२ ४७ ९३ ३०६-३०७, ३९० [ष] सत्कार सन्निपात २९७ ३७९ [ स ] २३५, २७५, २८५ २८६ ३२५ ३९५ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्प्रदा-टोकान्तर्गतशब्दानुक्रमणिका २५७ ११५ २० साधुधर्मदेशना साध्य साध्यरोग २०४ साध्वी ९४, ३६८ सापेक्षबन्ध २५८ सामाचारी २, ३, १८०, २९१, २९२, २९८, ३२३, ३२८, ३३८, ३६६, ३७५, ३७८ सामान्य केवली सामायिक २९२, २९९, ३१०, ३१२, ३२२, ३२८ साम्परायिक ३०८ साम्परायिक बन्ध २२६, २३१ सावध ११४, २८५ सावध योग २९२, ३३२, . ७६ ३३७ समय ४१, १६४, १७४ समाचार २ समाधि ५, ३७९ समानधार्मिक समिति समुद्घात समुद्र सम्बन्ध सम्भव २३७ सम्यक्त्व ७,३३, ४३-४४, ४७, ५०, ५२, ६१, ८५. ८६, ८९, १६९, ३२८, ३५८, ३९०-३९१ सम्यक्त्वपुद्गल ९८-९९ सम्यक्त्व-मिथ्यात्ववेदनीय १५ सम्यक्त्ववेदनीय सम्यक्त्वातिचार सम्यक्त्वाध्यवसाय सम्यग्ज्ञान १५८ सम्यग्दर्शन ३३, ४९, ३४१, सम्यग्दृष्टि ५,३६, ६०, ८४, ९४, ९७ सम्यमिथ्यात्व सयोगिभवस्थ सरोद्रहतडामशोषणकर्म २८८ सर्पोदाहरण सर्व ३२२ सर्वकांक्षा ८७ सर्वज्ञ ८८, ९०, ३०० सर्वपौषध ३२२ सर्वप्रत्याख्यान १७ सर्वप्राणातिपातनिवृत्ति २४३ सर्वविरति ३८४, ३९० सर्वशंका सर्वसंवर संकल्प १०७ संक्रम २१६, ३७० संक्षेपरुचि ३३ संख्येयवर्षायुष ७०-७१,७४-७५ संग ८७ संघ ३६७ संघवन्दना ३६७ संघाटक ३२६ संघातनाम संज्वलन संमूर्च्छनज ७१ संमूच्छिम ७० संमोह १५८. संमोहभाव संयत ३६-३७, ३२६, ३८२ संयुक्ताधिकरण २९१ संलेखना ३७८, ३८२ संवत्सर संवर ६३, ८१, १५० संवेग ३,५३,५६, ९७, १५९, ३५१, ३६९, ३७२ संसार ४१, १८१-१८२, ३६० संसारमोचक १३३, १३९, १६३ संसारी ६४, ३९४ संस्तव ८६, ८८ संस्तारक श्रमण ३७८ संस्थाननाम २० संहनननाम सागरोपम २८, ३२, ३९० सागरोपम कोटाकोटी ५५ सातवेदनीय १४ सातिचार ५१, ९६-९७ सार्मिक ३३९ साधारणनाम २३ साधु २, ३७, ८७, ९३-९४, ११५, १६९, २९६, ३२६, ३४०, ३६५-३६६ साधुगुण ३२२ साधुजनपर्युपासना १०५ साधुधर्म ११५ सावद्य योगनिवृत्ति २५३ सासादन सिद्ध ६८-६९, ७६, ३९२, ३९५ सिद्धप्राभृत ७७ सिद्धान्त १३७, १७४, ३३३ सुख . सुगत सुभगनाम सुभिक्ष सुरलोक २२ ८७ सुस्वरनाम सूक्ष्मनाम सूक्ष्मप्राणातिपात ११४ सूक्ष्मसम्पराय- ३०६-३०७ ४२, ४९, २२४, २८०,२९६-२९७, ३४७, ३५०,४०१ सूत्रकृताङ्ग ११५, ३८४ सूत्ररुचि ५२ सूत्र Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्रावकप्रज्ञप्तिः सूत्रविरोध सेतिका सेतिकापलभोग २२ १०८ २७० ३३४ सेतु २७६ ७५, २०६ स्मृति स्वदारसन्तोष स्वयम्भूरमण स्वयम्बुद्ध स्वयंबुद्धसिद्ध स्वलिङ्गसिद्ध स्वसंवेदन स्वादिम ६ ३०० स्थावरकाय १२१ स्थावरनाम स्थावरवध १२५ स्थिति २७, ३०१ स्थितिबन्ध स्थिरनाम स्थूरक १०७ स्थूरक प्राणवधविरति १०७ स्थूरकप्राणिप्राणवध विरमण स्थूरमृषावाद २१ स्फोटीकर्म २८८ १८४ सोपक्रम सौगत दर्शन सौधर्म स्तव स्त्यानगृद्धि स्त्रीलिङ्ग स्त्रीवेद स्थापनादोष स्थावर ८८ ७७ १८ १८ हास्य हिंसा हिंसाप्रदान स्पर्श ३२६ ११९, १३० २२४ २८९ ४०० हेतु Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. पाठान्तर ग्रन्थकारके समक्ष कुछ पाठभेद भी रहे हैं । यथा गाथा ३११ में द्वारगाथा २९५ में उपयुक्त 'पंच' पदके स्थानमें 'किं च' पाठ-भेद इस प्रकार सुझाया गया है-पाठंतरमो हवा. किंच॥ इसे उक्त गाथा ३११ की टीकामें इस प्रकारसे स्पष्ट किया गया हैपाठान्तरमेवाथवा द्वारगाथायाम् । तच्चेदम् "किंच' सम्वति माणिऊणं इत्यादिग्रन्थान्तरापेक्षमन्यत्रेति । इससे यह निश्चित प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थमें ग्रन्थान्तरगत अन्य भी कितनी ही गाथाओंको ग्रन्यनाम निर्देशके बिना सम्मिलित कर लिया गया है। उक्त द्वारगाथा ( २९५) इसी प्रकारकी है। इसी प्रकार टीकाकारके समक्ष भी मूलग्रन्थगत कुछ पाठभेद रहा है। उन्होंने गाथा २५४ में एक पाठभेद इस प्रकार प्रकट किया है-पाठान्तरं योगत्रिकनिबन्धना निवृत्तिर्यस्मात् संगतार्थमेवेति । इस गाथामें मूलमें 'पवित्तीओ' पाठ है जो अर्थकी दृष्टिसे संगत नहीं प्रतीत होता। इसीलिए सम्भवतः टीकामें 'पवित्तीभोपाठके स्थानमें 'निवित्तीओ' इस पाठान्तरकी सूचना करके अर्थको संगति बैठायी गयी है। . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. मतभेद मूल ग्रन्थकारके समक्ष कुछ मतभेद भी रहे हैं । यथा १. गाथा ३०३ में प्रथमतः यह निर्देश किया गया है कि व्यवहारसे साधु मोक्ष सहित पांचों गतियों और श्रावक उस मोक्षके बिना चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् आगे वहाँ 'चउ-पंचमासु चउसु य जहा कमसो' ऐसा निर्देश करके मतान्तरसे साधुके चौथी (देवगति) और पांचवों (मोक्षगति) इन दो ही गतियों में उत्पन्न होनेकी तथा श्रावकके चारों गतियोंमें उत्पन्न होनेकी सूचना की गयी है। २. गाथा ३३३ में किन्हींके अभिमतानुसार गृहस्थके तीन प्रकारके प्रत्याख्यानको असम्भव कहा गया है। इस मतका निराकरण करते हुए आगे इसी गाथामें पन्नत्ती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) के अनुसार विशेष रूपसे उक्त तीन प्रकारसे तीन प्रत्याख्यानको सम्भव निर्दिष्ट किया गया है। इसपर आगे गाया ३३४ में यह शंका उठायी गयी है कि तो फिर नियुक्ति (प्रत्याख्याननियुक्ति ) में अनुमतिका निषेध कैसे किया गया। इसका समाधान करते हुए वहींपर यह कहा गया है कि अनुमतिका निषेध वहाँ स्वविषयमें किया गया है। अथवा सामान्य प्रत्याख्यानमें उसका निषेध किया गया है, अन्यत्र तीन प्रकारसे तीन प्रकारका प्रत्याख्यान सम्भव है। ३. गाथा ३७८ में बारह प्रकारके गृहस्थधर्ममें गृहस्थके लिए अपश्चिम मारणान्तिको सल्लेखनाके आराधनका विधान किया गया है । आगे गाथा ३८२ में किन्हींके अभिमतको दिखलाते हुए यह कहा गया है कि चूंकि उस सल्लेखनाका विधान बारह प्रकारके गृहस्थधर्मके अन्तर्गत नहीं किया गया है, इसलिए संयत (साधु) उसमें अधिकृत है, न कि गृहस्य । इस अभिमतका निराकरण करते हुए आगे गाया ३८३-३८४ में कहा गया है कि वह बारह प्रकारके गृहस्थधर्मके अनन्तर ही कही गयी है तथा उसका अतिचारसूत्र भी श्रमणोपासकपुरःसर कहा गया है, इसलिए उसमें गृहस्थ ही अधिकृत है, न कि संयत । बारह प्रकारके गृहस्थधर्मसे उसके पृथक् कहनेका अभिप्राय यह है कि बारह प्रकारके उस गृहस्थधर्मका परिपालन श्रावक जीवित रहते हुए बहुत समय तक करता है जबकि उस सल्लेखनाका आराधन उसके द्वारा मरणसमयमें किया जाता है, इसलिए वह आयुके प्रायः क्षीण होनेपर कुछ थोड़े हो समय रहती है। इस प्रकारका मतभेद सम्भवतः वाचक उमास्वातिके समक्ष नहीं रहा। टीकाकारके समक्ष मतभेद १. गाथा ४७ की टीकामें क्षायोपशमिकसे औपशमिकके भेदको दिखलाते हुए कहा गया है कि क्षायोपमिक सम्यक्त्वमें उपशमप्राप्त मिथ्यात्वका प्रदेशानुभव होता है, पर औपशमिकमें वह नहीं होता। यहाँ मतान्तरको प्रकट करते हुए यह कहा गया है कि अन्य आचार्य उसके व्याख्यानमें यह कहते हैं कि श्रेणिमध्यगत उस औपशमिक सम्यक्त्वमें ही उक्त मिथ्यात्वका प्रदेशानुभव नहीं होता, किन्तु द्वितीयमें वह होता है । फिर भी उसमें सम्यक्त्व परमाणुओंके अनुभवका अभाव ही है, यह उन दोनोंमें विशेषता है। २. गाथा २८५ की टीकामें वृद्ध सम्प्रदायके अनुसार यह मतान्तर व्यक्त किया गया है कि अन्य आचार्य उपभोग-परिभोगकी योजना कर्मपक्षमें नहीं करते हैं। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ग्रन्थोल्लेख गाथा ३३३ ३३८ ३८४ ग्रन्थान्तर पन्नत्ती ( भगवती) नियुक्ति ( प्रत्याख्याननियुत्ति ) अतिचारसूत्र ( इसे स्पष्ट करते हुए टोकामें 'इमीए समणोवास एणं इमे पंचाइयारा जाणियन्वा...' इत्यादि सूत्रको उद्धृत किया गया है जो सम्भवतः उवासगदसामओ का हो सकता है। टोकामें गाथा ग्रन्थान्तर ५२ व ९८ प्रज्ञापना आचारांग तत्त्वार्थसूत्र ( वाचकमुख्येनोक्तम् ) सिद्धप्राभृत सूत्रकृतांग ७७ ११५ व १८४ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. पौराणिक उदाहरण गाथा उदाहरण पेयापेय (किसी सेठके दो बालक ) राजा-अमात्य, विद्यासाधक श्रावक, श्रावकसुता, चाणक्य व सौराष्ट्र धावक । गाथापति सुतघोर ग्रहण-मोचन टोका गाथा ५० उदाहरण अंगारमर्दक मरुदेवी व करकण्डु इन्द्रनाग पिंगलस्थपति २६४ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैन आचार-शास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ - धर्मामृत (अनगार, सागार) : पं. आशाधर (ज्ञानदीपिका स्वोपज्ञ टीका सहित) सम्पा.अनु. : पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री - मूलाचार (प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी) दो भागों में मूल : आचार्य वट्टकेर; संस्कृत टीका : आचार्य वसुनन्दी; अनुवाद : आर्यिकारत्न ज्ञानमती श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपन्नती): हरिभद्रसूरि सम्पा.-अनु. : पं. बालचन्द्र शास्त्री - जिनवाणी (प्राकृत-हिन्दी) संकलन-अनु. : डॉ. हीरालाल जैन तिरुक्करळ (हिन्दी) : एलाचार्य तिरुवल्लवर ___अनु. : गोविन्दराय जैन शास्त्री - ज्ञानपीठ पूजांजलि (जैन पूजा व्रत, स्तोत्र पाठ) सम्पा. . पं. फूलचन्द्र शास्त्री - जिनवर-अर्चना (हिन्दी पूजा-पाठ संग्रह) संक.-सम्पा. : डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री - मंगलमन्त्र णमोकार-डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य - आराधनासमुच्चयो योगसारसंग्रहरश्च (संस्कृत) मूलः रविचन्द्र; सम्पा. : डॉ. आ.ने. उपाध्ये - ध्यानस्तव (संस्कृत, अंग्रेजी) : भास्करनन्दी - गीतवीतराग (संस्कृत) : पण्डिताचार्य Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय ज्ञानपीठ स्थापना : सन् 1944 उद्देश्य ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण संस्थापक स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन स्व. श्रीमती रमा जैन अध्यक्ष श्रीमती इन्दु जैन कार्यालय : 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003