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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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इस पुस्तक के छपवाने का किसी को अधिकार नहीं है।
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सत्यार्थचन्द्रोदयजैन।
अर्थात् मिथ्यात्व तिमर-नाशक
जिसको बाल सनातन सत्यजैनधर्मोपदेशिका बालब्रह्मचारिणी । a जैना- जी श्रीमती श्री१००८ महासती ।
श्री पार्वती जी ने बनाया __ जिस को बल लालामेहरचन्द्र,लक्ष्मणदास श्रावक सैद मिठ्ठाबाजार लाहौर ने छपवाया।
सं० १९६२ विक्रमी All rights reserved with the publisher. ना प्रथम वार १०००]
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लाहौर पजाब एकानोमीकल यन्त्रालय में प्रिण्टर लाला लालमणि जैनी
के अधिकार से छपा।
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200-000-00
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प्रशंसापत्र। OPINIONS OF THE WELL-KNOWN
PUNDITS. नोचित्रं यदि पुरुषा निजधिया ग्रन्थं विद ध्युर्नवं यस्माज्जन्मत एव शास्त्रसरणौ तेषां गतिर्विद्यते ॥आश्चर्यं खलु तत्स्त्रियाव्यरचि यल्लोके नवं पुस्तकं यस्मात्सर्गत एव मन्द मतयस्ताःसंतृतौ विश्रुताः ॥१॥ , अर्थ--अगर पुरुष अपनी अकल से कोई नया ग्रंथ बनाए तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि उन की जन्म ही से लेकर शास्त्र की सड़क पर सैर हो रही है । आश्चर्य तो यह है कि स्त्री होकर कोई नया पुस्तक बना दे क्योंकि स्त्रियों को संसार में कम अकल ख्याल करते हैं। १।। मूर्त्यर्चा विहिता नवेति मतयो रन्त्यस्य
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( २ ) निर्णायकं वादिप्रत्यभिवादिवादनियत प्रश्नात्तरालङ्कृतम् ॥ युत्तयुक्ति प्रविभूषितं प्रति पदं सूत्रप्रमाणान्वितं वाढं स्त्युत्य मिदं सुपुस्तक मिदं श्रीपार्वती निर्मितम् ॥२॥ ___अर्थ-श्री पार्वती जी का बनाया हुआ यह पुस्तक मेरी राय में बहुत तारीफ के लायक है जोकि मर्ति पूजा करनी चाहिये वा नहीं करनी चाहिये इन दोनों मतों में से आखीर के मत को यानि नहीं करनी चाहिये इस को निर्णय कर रहा है और वादि प्रतिवादियों के बाद में जो प्रश्नो. तर होते हैं उन प्रश्नोत्तरों से भषित है, और युक्तियें और प्रत्युक्तियां भी जिस में बहुत अच्छी है और हर एक जगह हर एक विषय पर सत्रों के प्रमाण जिस में दिये गये हैं।
आबालमा वार्डक भेकरूप दृष्टं मनःशान्त रसं तदीयम् ॥ अश्रावि शिष्येण न किंचिदन्यत्तस्या मुखाज्जैन मतोपदेशात् ॥३॥
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अर्थ-पार्बतीदेवी जी वह है जिन के मन को बालक वस्था से लेकर वृद्धावस्था तक हर किसी ने शान्त रसमय मालूम किया है और जिन के मुख से जेन मतोपदेश के सिवाय शिष्यों ने भी आजतक कभी दूसरा शब्द नही सुना। वसता लवपर मध्ये छात्रान् शास्त्रं प्रवेशयता॥ संमति रत्र सुविहिता दुर्गादत्तेन सुविलोक्य। पं०दुर्गादत्त शास्त्री अध्यापक औ०का०
लाहौर। I have seen the book entitled “Satayartha Chandrodaya Jain" written by Srimatı Sattee Parbatiji. It is against murtipujan, and the authoress proves by quotations from the Jain Sutras that murtipujar ia not dictated in the said Sutras The book is in a very good style and the arguments are well arranged which show that the writer has done justice to the subject according to the Jain scriptures
P TULSI RAM, BA, 8th May 1905.
LAHORE.
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( ४ )
॥श्रीः॥ विज्ञानरश्मिचय रज्जित पक्षपाता पतित सहृदय हृदयाब्जमुकुल विस्फार लब्धयथार्थ नाम, मिथ्यातिमिर नाशकमेतत् पुस्तकजैन धर्मभाषानिवन्धललाम सारगर्भितञ्च उपक्रमोपसंहार पूर्वकं सर्वम् मयावलोकितम् ।
__इति प्रमाणीकरोति। लाहौर डी०ए०वी० कालेज
प्रोफेसर। पण्डित राधाप्रसाद शर्मा शास्त्री ।
यन्निर्मात्री .. सुगृहीतनाम धेयासती बालब्रह्मचारिणीश्रीमती पार्वतीदेवी, सम्भाव्यतेच,
यत्
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( ५ ),
मूर्तिपूजाममन्त्रानामन्येषामपिगुणगृह्याणा मेतत् पश्यताम् मनोह्रादो भवेदिति ॥
ह० पण्डित राधाप्रसाद शास्त्री |
ॐ
पुरुष रचें जो
दवैया छन्द ॥ अहो विचित्र न मोको भासे ग्रंथ नवीन । अवला रचें ग्रन्थ जो अद्भुत यही अचम्भो हम ने कीन || प्राकृत भाषा का जो हार हिन्दी मांहि दिखाओ आज । तांते धन्यवाद का भांजन है अवला सबहन सिरताज १ निज २ धर्म न जाने सगले पुरुषन में ऐसी है चाल | तो किम अवला लखे धर्म निज याही ते पड़ता जंजाल || विद्यावल से पाया यो
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षित ने लख्यो धर्म निज पुन आचार। लोगन हित पथ रच्यो ग्रन्थ यह यथा सेतु रच नृप उपकार ॥२॥ दयानन्द ने एस लिखा था सत्यार्थ प्रकाशेठीक । मर्तिपूजाके आरंभक हैं जैनी या जग में नीक ॥ पर अबलोकन कर यह पुस्तक संशय सकल भये अब छीन । तांत धन्यवाद तुहि देवी तू पार्बती यथार्थ चीन । ३ । साधारण अवला में ऐसी होइ न कबहू उत्तम बुद्ध । तांते यह अवतार पछानो कह शिवनाथ हृदय कर शुद्ध ॥ बार २ हम ईश्वर से अब यह मांगे हैं बर कर जोर । चिरंजीवि रह पर्वत तनया रचे ग्रंथ सिद्धान्त निचोर।४। दोहा-पण्डित योगीनाथ शिव ।
लिखी सम्मति आप ॥
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लवपुर मांहि निवास जिह। शंकर के प्रताप ॥५॥
अलौकिक बुद्धिमती परोपकारिणी सकल शास्त्रनिष्णाता जैनमत पथ प्रदर्शिका ब्रह्मचारिणी महोपदेशिका श्रीमती श्रीपार्बती द्वारा रचित तथा स्ववंश दिवाकर सद्गुणाकर जैन धर्मप्रवर्तकपरोपकारनिरत संस्कृत विद्यानुरागी देशहितैषी लाला मेहरचन्द्रलक्ष्मणदास द्वारा मुद्रापित सत्यार्थचन्द्रोदय नामक ग्रन्थ का मैं ने आद्योपान्त अवलोकन किया है इसमें ग्रन्थ कर्तीने बड़ी सुगमतासे जैनशास्त्रानुसार अनेक दुर्भेद्य प्रमाणों से मूर्तिपूजन का खण्डन करके जैनमतानुयायियों के लिए जैनधर्मका प्रकाश किया है, जैनधर्मानुरागियों से प्रार्थना है कि
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( ८ )
अन्वित नाम युक्त सत्यार्थ चंद्रोदय को पढ़कर स्वजन्म सफल करें और प्रकाशक (मुद्रापक) के उत्साह को बढाए ।
पार्बती रचितो ग्रन्थो जैन मत प्रदर्शकः । प्रीतयेस्तु सतां नित्यं सत्यार्थ चन्द्र सूचकः ॥
१४।५।१८०५
गोस्वामि रामरंग शास्त्री मुख्य संस्कृता ध्यापक राजकीय पाठशाला लाहौर ।
सत्यार्थ चन्द्रोदयजैन ।
इस पुस्तक में यह दिखलाया है कि मूर्तिपूजा जैन सिद्धान्त के विरुद्ध है । युक्तियें सब की समझ में आने वाली हैं और उत्तम हैं दृष्टान्तों से जगह २ समझाया गया है । और फिर जैनधर्म के सूत्रों से भी इस सिद्धान्त को
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( :) पुष्ट किया है जैनधर्म वालों के लिये यह ग्रंथ ਅਕਬਧਕੀ ਝੋ ॥ * * * *
राजाराम पण्डित सम्पादक आर्यग्रन्थावली,
ਚਾਵੈ ॥ | ਇਸ ਪੁਸਤਕ ਨੂੰ ਜਦ ਮੈ ਡਿੱਠਾ ਪੜੀ ਹਕੀਕਤ ਸਾਰੀ।
ਜੈਨ ਧਰਮ ਦੀ ਹੈ ਇਹ ਪੂੰਜੀ ਹਿੰਦੀ ਵਿੱਚ ਨਿਆਰੀ॥ ਬਹੁਤੇ ਪੁਸਤਕ ਡਿੱਠੇ ਭਾਲੇ ਰਚੇ ਮਨੁੱਖਾਂ ਜੋਈ। ਪਰ ਨਾਰੀ ਦੀ ਰਚਨਾ ਚੰਗੀ ਸੁਨੀ ਨ ਡਿੱਠੀ ਕੋਈ ॥੧॥
ਬਾ ਤੋਂ ਨੂੰ ਰਚਨੇ ਵਾਲੀ ਚੰਗਾ ਰਾਹ ਦਿਖਾਯਾ । ਜੈਨ ਧਰਮ ਦਾ ਝਗੜਾ ਸਾਰਾਇਸ ਵਿੱਚ ਚਾਇਮੁਕਯਾ। ਪੂਜ ਚੂੰਢੀਆਂ ਦੀ ਜੋ ਮੱਤਲਬ ਮੂਰਤ ਪੂਜਾ ਵਾਲਾ ਨੂੰ
ਸਾਥ ਹਵਾਲਾ ਦੇ ਕੇ ਸਾਰਾ ਦੱਸਿਆ ਰਾਹ ਸੁਖਾਲਾ ॥੨॥ ( ਜੋ ੨ ਪੜ੍ਹੇ ਭਰਮ ਸਬ ਖੋਵੇ ਜਾਨੇ ਧਰਮ ਪੁਰਾਨਾ ।
ਵਾਹ ਵਾ ਆਖਨ ਤੋ ਕੀ ਆਖਾਂ ਹੋਰ ਨ ਮੈਂ ਕੁਝ ਜਾਨਾ॥
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ਮੈਂ ਹੁਣ ਹੋਰ ਨਹੀਂ ਕੁਝ ਕਹਿੰਦਾ ਦੇਵਾਂ ਲੱਖ ਅਸੀਸਾਂ ਪਰਮੇਸਰ ਖੁਸ ਰੱਖੇ ਤੈਨੂੰ ਲੱਖ ਕਰੋੜ ਬਰੀਸਾਂ ॥੩॥ ਜੇਕਰ ਏਹੋ ਜੇਹੇ ਪੁਸਤਕ ਰਚਨ ਔਰਤਾਂ ਭਾਰੀ। ਤਾਂ ਫਿਰ ਮਰਦਾਂ ਨੂੰ ਇਹ ਵਾਜਬ ਵਿਦੜਾ ਪੜ੍ਹਨਕਰਾਰੀ ਵਿੱਚ ਲਾਹੌਰਦ ਮੈਂਇਹ ਲਿਖਿਆ ਅਪਨਾ ਮਤਲਬਰ ਜਸਵੰਤਨਾਥ ਜੁਗੀ ਮੈਨੂੰ ਆਖਨ ਲੋਕ ਪੁਕਾਰਾ॥੪॥
स्थानाभाव से वाकी प्रशंसा पत्र छोडदिये गये हैं।
मेहरचन्द्र लक्ष्मण दास, सैदमिठा बाजार लाहौर॥
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शद्धि पत्र ॥
"_eoपंक्ति अशुद्ध शुद्ध १३ साहत
सहित १४ जप्त
जिस पाषाणादिक पाषाणादिका २ कत
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तक
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स्थम्भादिक स्तम्भादिक पाषाणादि पाषाणादिक पूर्ण
पर्ण १४८ क्षत्री
क्षत्रिय १४ १० सत्यवादि सत्यवादी
स्थम्भादि स्तम्भादिक गुण निक्षेप निक्षेपे
सम्यक्तशल्याधार सम्यक्तशल्योद्धार १८ ११ सा
गणों
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( १२ ) पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
जाणिन्जो जाणिज्जा २०८ जा २
जो २. নিৰিম निर्विशेष २०११ निक्षेप निक्षेपे २१ ११ सवत्
सम्वत् २२ १४ २३४ विद्यायों विद्याओं २५१
मय भविष्यतादि भविष्यदादि २७ ३ हये
उदारिक औदरिक २६४ पोलादी पिलादी ३८ १३
चित्रशाली चित्रशाला ४३ १३ सिवा ४६ ५ सर
सिर
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( १३ ) पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
५५ १२ नहीं नहीं ____५५ १४ अजर
अज नराकार
निराकार मदर
मंदिर ६१८ यावद
यावत् ___६२ ३ । नरूत जरूरत
यावदकाल यावत्काल तावद् काल तावत् काल चेतन
चेतन ७ प्रश्न
(१३) प्रश्न ११ हं १४ क
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प्रमाणीक ७२४ प्रमाणीक ७२८ प्रमाणीक
पूर्वक
प्रामाणिक प्रामाणिक प्रामाणिक
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पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ७६ ३वा१० प्रमाणीक ८४४ करानादिक ८६ ८ कहि
१० मद १५ मद
शुद्ध प्रामाणिक कराना आदि कहीं मद्य मद्य.
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असन मास प्रमाणीक पजने उप्पाणं दीप दुर्गगन्धी साधुयों राजायों ओसा क्रियायों
अशन मांस प्रामाणिक पजने उप्पारणं द्वीप - दुर्गन्धी साधुओं राजाओं স্বামা क्रियाओं
११६ १२७
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पृष्ठ पंक्ति
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परिगृह
जैनतत्वदथ
कुछतो
निर्पक्षी
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शुद्ध भरतादि
दम्भ
मदोन्मत्त चिनले
सावद्याचाय्यं
प्रामाणिक
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गोयमा
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जैनतत्वादर्श
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वैराग्य
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १५६
भ्रातः १५८ प्रमाणीक
प्रामाणिक प्रमाणीक प्रामाणिक १६०
कारण यह कारण के वास्ते है कि विजयजीने तो विजय जी. इसीलिये विक्रमी मे विक्रमी
वराग १६३
रहिते थे रहते थे १६४
आदिक लोद लोद आदिक १६४
वस्त्रपर रंग वस्त्र को रंग देना देवेती
देवे तो
आर्या संवेग संवेगी १६८ १२ मुखे मुखे १७० १४ उदथ
उदय १०३ विषे
विष १०५ ७ मट
मद्य अभक्षादि अभक्ष्यादि
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१६४ १६६
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१०५
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प्रस्तावना इस संसार में प्राणी मात्र को धर्म का ही शरण है, जन्म से मरण पर्यंत धर्मही प्राणी मात्र का सहायक है, इस कलियुग में प्रायः बहुत सी कक्षा धर्म की होगई हैं और सब अपने २ धर्म की स्तुति करते हैं, आजकल प्रायः जैनी भाइयों में से भी बहुत से अल्पज्ञता के कारण अपने सच्चे केवली भाषित दयामय धर्मको त्यागकर दूसरे सावध आचार्यों से कथित (हिंसा बिना धर्म नहीं होता अर्थात् हिंसा में धर्म है) ऐसे मतों को अङ्गीकार कर लेते हैं जिस से इस देश में बहुतसे श्रावकजन गणधर कृत सूत्र सिद्धान्त
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के न जानने वा न सुनने के कारण दूसरों के कल्पित ग्रन्थों के हेतु कुहेतु सुन कर भ्रमरूपी फन्दे में फंस जाते हैं, इन क्लेशों के निवारण करने के लिये सत्यार्थ चन्द्रोदय जैन अर्थात् मिथ्यात्त्वतिमिर नाशक नाम ग्रन्थ बनाने की मुझे आवश्यकता हुई। सुज्ञ जनोंको विदितहों कि इस ग्रन्थ में जोसनातन जैनमतमें दोशाखें होगई हैं अर्थात् १ श्वेताम्बराम्नाय और दूसरे २ दिगम्बराम्नाय, श्वेताम्बराम्नायमें भी २ दों भेद होगये हैं १ सनातन चेतन पूजक (आत्माभ्यासी) दया धर्मी श्वेत बस्त्र, रजोहरण मुख बस्त्रिका वालेसाध, जो सर्बदा सत्यासत्य की परीक्षा कर असत्य का त्याग और सत्यका ग्रहण करने वालेह जिनको(ढूंढिय) भी कहते हैं श्य, जड़ पूजक (मूर्तिपूजक)जिसमें श्वेताम्ब
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राम्नाय से विरुद्ध थोड़े काल से पीताम्वर धारियों की एक और शाखा निकली है क्योंकि श्वेताम्बरी नाम श्वेतवस्त्र वाले का होता है श्वेतका अर्थ सुफैद और अम्बरका अर्थ वस्त्र है सोशब्दार्थ से भीयही सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरी वही होसकता है जो श्वेत वस्त्र वाला साधुहो, इसलिये यह पीतवस्त्रधारीसाधु अपने आपको जैन शास्त्रसे विरुद्ध श्वेताम्बरी कहते हैं,यहप्रायःमूर्ति पूजाका विशेष आधार रखते हैं, इसलियेइसपुस्तकमेंनिक्षेपोंका अर्थसहित और युक्ति प्रमाण द्वारा स्पष्ट रीतिसे मूर्ति पूजा का खण्डन किया गया है और जो मूर्ति पूजक सूत्रों में से 'चेइय' शब्द को ग्रहण करके मूर्ति पूजने को भ्रम स्वल्प बुद्धिजनों के हृदयमें डालते हैं। इसभ्रम काभी संक्षेप रीतिसे सूत्रोंके प्रमाण
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द्वारा खण्डन किया गया है, इस ग्रन्थ के आद्योपान्त बाचने से स्व संप्रदायी तथापर संप्रदायी चार तीर्थों में से कई एक सुज्ञजन जर वा नारियोंका शंकारूपी रोग दूर होगा और बहुतों की कुतर्कोका उत्तर देना सुगम हो जायगा इत्यर्थः॥
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. . सची पत्र ॥ विषय
पृष्ठ अनुयोग द्वार सूत्र के अनुसार चार निक्षेपोंका अर्थ,सोदाहरण अति उत्तम रीतिसे विशुद्ध कर
के लिखा गया है। .. .. १ प्रश्न-सम्यक्त्व शल्योहार आत्माराम कृत पुस्तक
में दिखलाये हुए असन्निक्षेपों के स्वरूप को रखण्डन कर सत्यार्थ का मण्डन किया है और संस्कृतके पढ़नेमे शब्द की शुद्धता है वा सत्यता
इस विषय में भी कुछ लिखा है। .. १७ प्रश्न-भगवान् की मर्तिमें माने हुए चारों निक्षेपों का
मृतक में अपनी जान मिलाने का दृष्टान्त
सहित खण्डन ... .. २८ प्रश्न-तुम मर्तिको नहीं मानतेहो तो भगवान्का स्वरूप
किस तरह से जाना जाय। उत्तर-शास्त्रहारा यदि नकशेके सदृश मूर्तियों के
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विषय हारा भगवत्स्वरूप जाना भी जाय तो क्या उस को नमस्कार बन्दनाभी करना चाहिये ? नहीं
इत्यादि दृष्टान्त सहित वर्णन। ३३ ४ प्रश्न-जो पूजनीय है उस की मूर्ति भी पूजनीय है
इस का मित्र और मित्र की मूर्ति के दृष्टान्त
हारा खण्डन। ... ... .. ४१ ५ प्रश्न-तुम मर्ति क्यों नहीं मानते हो,उसका उत्तर,
मूर्ति को तो हम मूर्ति मानते हैं परन्तु मूर्ति को पूजना नहीं मानते हैं। साहूकार की बहू देव हार गई इस दृष्टान्तके
सहित। ... ... ... ... ४४ ६ प्रश्न-तुम भगवत्मर्ति नहीं मानते हो तो नाम क्यों.
लेते हो, इसका उत्तर सत्र शाख और दृष्टान्त
सहित सिद्ध किया है। ७ प्रश्न-पुस्तक के अनर रूप मूर्तियों से भी तो ज्ञान ।
होता है।
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विषय
पृष्ठ ___उत्तर-ज्ञान से ज्ञान होता है इस को युक्तियों
से सिद्ध किया है। ... " ५१ ८ प्रश्न-किसी बालक ने लाठी को घोड़ामान रक्खा है
उसको तुम घोड़ा कहो तो क्या मिथ्यावादहै। उत्तर-उसघोडे को घोड़ाकहना दोष नहीं किन्तु उसको घोड़ा समझके चाराघासदेना अज्ञानका कारणहेसांचेके खिलौने इत्यादि दृष्टान्त और
भाव से देव माना जाता है इस का खण्डन । ५६ प्रश्न-प्रज्ञानियों के वास्ते मन्दिर मूर्ति पूजा चाहिये ।
गुड्डियों के खेलवत इस का खण्डन ६० १० प्र०-नमो अरिहन्तानं यह मुक्त हुए में किस प्रकार
संघटित होता है इसका उत्तर लिखा गया है ६४ ११ प्र-जो मूर्ति को न माने तो ध्यान किप्त का धरे।
उत्तर-सूत्र में तत्व विचार का ध्यान कहा है न
कि ईट पत्थर का। ... . : ६६ १२ प्र.-आप ने युक्तियों से तो मूर्ति पूजाका खण्डन अली
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नं०
( ८ ),
विषय
भांति किया परन्तु कई एक जगह सूत्रों में मूर्ति पूजा सिद्ध होती है तो किस तरह ? उत्तर—धोखा है प्रामाणिक सूत्रों के अनुसार उस के पाठ अर्थ मे सिद्ध नहीं होती है ।
६७
१३ प्र० - राय प्रश्नी सूत्र में सुरियाभ देव ने मूर्ति पूनी.
ह
G D ?G उत्तर— देवलोक में अक्कत्रिम ( शाश्वती) मूर्तियें होती हैं इत्यादि प्रमाणों से मूर्तिका पूजन मुक्ति का मार्ग नहीं है यह सिद्ध किया है और ज्ञাन दीपिका पुस्तक मे जो मूर्ति खण्डन भी हठ है ऐसा लिखा है उस का नोट दिया है।
१४ प०-उवाई सूत्र के आदि में (बहवे अरिहन्त चेईये) ऐसा लिखा है और अम्बर जीने भी मूर्तिपूजा की है ऐसा लिखा है |
उत्तर—केवल अज्ञानता से ही ऐसा कहना होता है सूत्र के पाठार्थ से यह भाव नहीं निकलता पाठार्थ भी लिख दिया गया है ।
पृष्ठ
...
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(2)
नं०
विषय
१५ प्र०-उपासक दशाङ्गमें आनन्दादि श्रावकों ने मूर्ति पूजी है।
उत्तर - यह सव कहना मिथ्या हे सूत्र पाठ अर्थ से यह सिद्ध नहीं होता, ऐसा सिद्ध किया है । १६ प्र० - ज्ञाता सूत्र मे द्रौपदी ने तीर्थंकर देवकी मूर्ति पूजी है ?
पृष्ठ
उत्तर—यह भी मिथ्या है सूत्रानुसार चार कारणों से उक्त कथनको मिथ्या सिद्ध किया है।
६०
१० प्र०—भगवती जी में जघाचरण मुनियों ने मूर्ति पूजी है ।
१८ प्र० - भगवती जी में चमर इन्द्र ने मूर्ति का शरण लिया लिखा है ?
८७.
उत्तर - यहभी कहना मिथ्या है क्योंकि इन्हों ने मूर्ति नहीं पूजी यह सूत्र के प्रमाण से सिद्ध किया है।
१०१
उत्तर -- भगवती में तो कहीं मूर्ति का शरण लिया. नहीं लिखा है, तुम्हारा कहना भूल है यह
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________________
नं.
( १० )
विषय अच्छी प्रकारसे सिद्ध किया है और(देवयंचेईयं)
इस का अर्थ भी दिखलाया है। ... १०६ १८ प्र०-सम्यक्त्व शल्योहार देशी भाषा पुस्तकके पृष्ट
२४३ पंक्ति ४, ५ में लिखा है कि किसी कोष में भी जिन मन्दिर १ जिन प्रतिमा २ चौतरे बन्ध वृक्ष ३ इन तीनों क सिवाय और किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं है। उत्तर-यह लेख मिथ्या है क्योंकि चैत्य शब्द
के ज्ञानादि ३६ अर्थ और भी बहुत से अर्थ
लिख दिये गये हैं। ... .. ११३ २० प्र०-चैत्य शब्द का अर्थ तो आपने बहुत ठीक कहा
किन्तु मूर्ति पूजन में कुछ दोष है ? उत्तर-सूत्र शाख से २ दोष सिद्ध किये हैं प्रारंभ
और मिथ्यात्व २१ प्र०-महा निशीथ सूत्र में तो मन्दिर बनवाने वाले
की गति बाहरवे देवलोक की कही है।
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( ११ )
विषय
१२०
उत्तर-यह लेख भी तुम्हारे पक्षके हठ को सिद्ध . करता है क्योंकि निशीथ सत्र में तो मूर्तिपूजन
का खण्डन किया है इस विषय का पाठ और
अर्थ भी लिख दिया है। २२ प्र०-वलिकम्मा इसशब्दसे क्या मूर्तिपूजा सिद्धनहीं
होती है ? उत्तर-सूत्रों में बलिकम्मा का अर्थ वलिकर्म । वल वृद्धि करने में स्नान विधि क्या सत्रकार ऐसे भ्रम जनक संदिग्ध पदोंसे मूर्ति पूजा कहते ? नहीं २ अवश्य सविस्तर लिस दिखलाते।
१२४ २३ प्र०-ग्रन्थों में तो उक्त पूजादि सब विस्तार लिखे हैं
उत्तर-इम ग्रन्थों के गपौडे, नही मानते हैं। प्र.-इसमें क्या प्रमाण है कि ३२सूत्र मानने
और नियुक्ति प्रादि न मानने उत्तर-भली प्रकार से सूत्र शाख के प्रमाण से न मानना सिर करके ग्रन्थों के गपौडे और
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( १२ ) विषय
पृष्ठ नन्दि जी वाले सूत्रों का हाल इत्यादि पूर्वोक्त । सविस्तर समाप्त किया है।
१२५ ___२४ प्र-क्या जैन सूत्रोंमें मर्ति पूजा मन्हे भी है।
उत्तर-पूर्वोक्त सूत्रों में धर्म प्रवृत्ति मे तो मूर्ति पूजा का जिकर ही नहीं है परन्तु तुम्हारे माने हुए ग्रन्थों मे ही मूर्ति पूजा का निषेध है, वह यह है,यथा प्रथम व्यवहार सूत्र की चूलि का भद्रबाहु स्वामी कृत सोलह स्वप्नाधिकार २य,महानिशीथका तीसरा अध्ययन ३ विवाह चुलिका सूत्र ४ जिन वल्लभ सूरी के शिष्य जिनदत्त सूरी कृत संदेहां दोलावली प्रकरण मे से पाठ अर्थ सहित लिख दिखलाया
२५ प्र.-कई एक कहते हैं कि जैनमत में १२ वर्षों काल
पीछे मूर्ति पूजा चली है कई एक कहते हैं कि महाबीर स्वामी के समय मे भी थी और कई एक कहते हैं कि पीछे से ही चली आती है इस में से कौनसा ठीक है?
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(१३ ) विषय
पृष्ठ '' उत्तर-शास्त्र प्रमाणसे तो बारहवर्षों काल पोछे
ही सिद्ध होतो है ऐसा प्रमाण दिया है। १५१ २६ प्र.-सम्यक मल्योहार आत्माराम कृत गप्पदी
पिका समीर बल्लभ संवेगी रुत आदि ग्रन्य
और जो उन में प्रश्नों के उत्तर दिये हैं सो कैसे है? उत्तर-तुम ही देख लो हाथ कंगन को पारसी
क्या है दटियों को नर्क पड़ने वाले चमार टेढ
मुसल्मान शब्दोंसे लिखा है उसके उदाहरण १५४ २० प्र०-हमारी समझमें ऐसा आता है कि जो वेदमंत्रों । को मानने वाले हैं वह पुराणों के गपौडे नहीं
मानते हैं और नो पुराणों के मानने वाले है वह पुराणो के सब गपौडे. मानते हैं वैसे ही जो सनातन जैनी दंटिये हैं वह गणधर कत ३२ सूत्रों को मानते हैं ग्रन्थों के गपौड़ों को नहीं मानते हैं,पुजेरे मूर्ति पूजक ग्रन्यों के गोडे मानते हैं क्यों जो ऐसे ही है ?
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( १४ ) विषय
पृष्ठ उत्तर-और क्या।
-१५६ २८ प्र०-यह जो पाषाणोपासक आत्मापंथिये अपने
ग्रन्थों में कहीं लिखते हैं कि ढूंटक मत लोंके से निकला है जिसको ४॥ सौ वर्ष हुए हैं कहीं लिखते हैं लव जी से निकला है जिसको अनुमान अढाई सौ वर्ष हुये हैं यह सत्य है कि गप्प है ? उत्तर-गप्प है ढूंढक मत तो सनातन है हां संवेग मत पीताम्बर लाठा पन्थ अढ़ाई सौ वर्ष से निकला है यह ग्रन्थों के प्रमाण से सिद्ध ।
किया है। २८ प्र०-क्यों जी जैन सूत्रों में जैनसाधुओं को वस्त्रों
का रंगना मन्हें है।
उत्तर-हां मन्दे है इस मे प्रमाण भी दिये हैं। १६४ ३०प्र०-एक बात से तो हमको भी निश्चय हुआ है कि
सम्यक्तव शल्योहार आदि उक्त ग्रन्थोंके बनाने वाले मिथ्यावादी क्योंकि सम्यक्त्वशल्योहार
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नं०
( १५ ) विषय
देशी भाषा सम्वत् १९६० के छपे की पृष्ट ४ में लिखते हैं कि ढं ढिये चर्चा में सदा पराजय होते हैं परन्तु पंजाब देश में तो राजा हीरासिंह नाभा पति की सभा में पुजेरों की पराजय ई इस के प्रमाण में गुरुमुखी का इश्तिहार
पृष्ठ.
उत्तर - तुम ही देख लो
३१ प्र०-यह जो पूर्वोक्त निन्दो रूप झूठ और गालियें सहित पुस्तक और अखबार बनाते हैं और छपाते हैं उन्हें पाप तो अवश्य लगता होगा । उत्तर - हां लगताहै इसका समाधान और प्रार्थना १०२
...
१६६
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पञ्चपरमेष्टिने नमः। श्रीअनुयोगद्वार सूत्रमें आदि ही में वस्तुके स्वरूपके समझनेके लिएवस्तुके सामान्य प्रकार सेचार निक्षेपे निक्षेपने (करने)कहे हैं यथा नाम निक्षेप १ स्थापनानिक्षेप २ द्रव्यनिक्षेप ३ भाव निक्षेप ४ अस्यार्थः-नामनिक्षेप सो वस्तुका
आकार और गुण रहित नाम सो नामनिक्षेप १ स्थापना निक्षेप सो वस्तुका आकार और नाम सहित गुण रहित सो स्थापना निक्षेप २ द्रव्य निक्षेप सो वस्तुका वर्तमान गुण रहित अतीत अथवा अनागत गुण सहित और आकार नाम भी सहित सो द्रव्य निक्षेप ३ भाव निक्षेप सो वस्तुका नाम आकार और वर्तमान गुणसाहत सो भाव निक्षेप ।
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( २ )
अथ चारो निक्षेपका स्वरूप मल सच और हृष्टांत सहित लिखते हैं ।
यथासूत्रम् सेकिंतं आवस्सयं आवस्सयं चउविहं पन्नत्तं तंजहा नामावस्सयं १ ठवणावस्सयं २ दव्वावस्सयं ३ भावावस्सयं ४ सेकिंतं नामावस्तयं नामावस्सयं जस्सणं जीवस्सवा अजीवस्सवा जीवाणंवा अजीवाणंवा तदुभयस्सवा तदुभया णंवा आवस्सएति नामं कज्जइसेत्तं नामाव• स्सयं १ अस्यार्थः ।
प्रश्न - आवश्यक किस को कहिये उत्तर अ. वश्य करने योग्य यथा आवश्यक नाम सूत्र जसको चार विधि से समझना चाहिये । तद्यथा
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( ३ ) नाम आवश्यक १ स्थापना आवश्यक २ द्रव्य आवश्यक ३ भाव आवश्यक प्रश्न नामआव श्यक क्या । उत्तर-जिस जीव का अर्थात् मनष्यका पशु पक्षी आदिकका तथा अजीव का अर्थात् किसी मकान काष्ठ पाषाणादिक जिन जीवोंका जिन अजीवों का उन्हें दोनोंका नाम आवश्यक रखदिया सो नामआवश्यक ?
सेकिंतं ठवणावस्सयं २ जणं कठकम्मेवा चित्तकम्मेवा पोथकम्मेवा लेपकम्मेवा गंठिम्मेवा वेढिम्मेवा पुरीम्मेवा संघाइमेवा अरकेवा वराडएवा एगोवा अणेगोवा सज्झाव ठवणा एवा असझाव ठवणा एवा आवस्स पति ठव णा कज्जइ सेतं ठवणा वस्सयं ॥२॥अस्यार्थः
९०
९२
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प्रश्न-स्थापना आवश्यक क्या। उत्तरकाष्ठ पै लिखा चित्रों में लिखा पोथी पै लिखा अंगुलीसे लिखा गून्थलियालपेटलियापूरलिया ढेरीकरली कारखेचली कौडीरखली आवश्य करनेवाले का रूप अर्थात् हाथ जोडे हुये ध्यान लगाया हुआ ऐसा रूप उक्त भांति लिखा है अथवा अन्यथा प्रकार स्थापन कर लिया कि यह मेरा आवश्यकहै सो स्थापना आवश्यक २ मूल-नामठवणाणंकोवइविसेसोनामंआव कहियं ठवणाइतरिया वा होज्जाआवकहियावाहोज्जा
अर्थप्रश्न-नाम और स्थापनामें क्या भेद है। उत्तर-नाम जावजीव तक रहता है और स्था
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पना थोडे काल तक रहती है, वा जाव जीव कत भी॥ सेकिंतं दव्वावस्सयं २ दुविहा पणत्ता, तंजहा, आगमोय,नो आगमोय २ सेकिंतं, आगमउ, दव्वावस्सय२ जस्सणं आवस्सयति पयंसिरिक यं जावनो अणुप्पेहाए कम्हा अणुवउगो दब मिति कटु ॥
अस्यार्थः॥ प्रश्न-द्रव्य आवश्यक क्या । उत्तर-द्रव्य आवश्यक २ भेद यथा षष्ट अध्ययन आवश्यक सूत्र १ आवश्यक के पढ़ने वालाआदिर प्रश्न-आगम द्रव्य आवश्यक क्या । उत्तरआवश्यक सूत्रके पदादिकका यथाविधि सीखना पढ़ना परंतु विना उपयोग क्योंकि विना उपयोग द्रव्यही है । इति ।
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इस द्रव्य आवश्यकके ऊपर ७ नय उतारी हैं जिसमें तीन सत्य नय कहीं हैं यथा सूत्र । तिण्ह सदनयाणं जाणए अणुव उत्ते अवत्थु । ___ अर्थ-तीन सत्य नय अर्थात् सात नय, यथा श्लोक
नैगमः संग्रहश्चैवव्यवहार ऋजुसूत्रको । शब्दःसमभिरूढश्च एव भूतिनयोऽमी । १
अर्थ-१ नैगम नय २ संग्रह नय ३ व्यवहार नय ४ ऋजु सूत्रनय ५ शब्दनय ६ समभिरूढ़ नय ७ एव भूत नय इन सात नयोंमें से पहिली ४ नय द्रव्य अर्थको प्रमाण करती हैं और पिछली ३ सत्य नय यथार्थ अर्थ को (वस्तुत्वको) प्रमाण करती हैं अर्थात् वस्तु के गुण विना वस्तुको अवस्तु प्रकट करती हैं ॥
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नो आगम द्रव्य आवश्यकके भेदोंमें जाणग शरीर भविय शरीर कहे हैं।३। .
भाव आवश्यकमें उपयोग सहित आवश्यक का करना कहा है। इन उक्त निक्षेपोंका सूत्रमें सविस्तार कथन
अब इस ही पूर्वोक्त अर्थको दृष्टान्त सहित लिखते हैं।
१ नाम निक्षेप यथा किसी गूजर ने अपने पुत्रका नोम इन्द्र रख लिया तो वह नाम इन्द्र है उसमें इन्द्रका नामही निक्षेप करा है अर्थात् इन्द्रका नाम उसमें रख दिया है परंतु वह इंद्र नहीं है इन्द्र तो वही है जो सुधर्मा सभामें ३२ लाख विमानोंका पति सिंहासन स्थित है उस में गुण निष्पन्न भाव सहित नाम इन्द्रपनघट
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( ८ ) है और उसहीमें पर्याय अर्थ भी घटे ह यथा इन्द्रपुरन्दर,वज्रधरसहस्रानन,पाकशासन परंतु उस गूजरके बेटे ग्वालिये में नहीं घटे अर्थ शून्य होनेसे वह तो मोहगयेली माताने इन्द्र नाम कल्पना करली है तथा किसीने, तोते का तथा कुत्तेका नाम ऐसे जीवका नाम इन्द्र रख लिया तथा अजीव काष्ठ स्थम्भादिकका नाम इन्द्र रख लिया वस यह नामनिक्षेप गुण और आकारसे रहित नाम होता है कार्य साधक नहीं होता॥ ___ २ स्थापना निक्षेप यथा काष्ठ पीतल पाषाणादिकी इन्द्रकी मूर्ति बनाके स्थापना करली कि यह मेरा इन्द्र है फिर उसको बंदे पुजे उस से धन पुत्र आदिक मांगे मेला महोत्सव करें परंतु वह जड़ कुछ जाने नहीं ताते शून्य है
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( 2 ) अज्ञानता के कारण उसे इन्द्र मान लेते हैं पर न्तु वह इन्द्र नहीं अर्थात् कार्य साधक नहीं २ __तातें यह दोनों निक्षेपे अवस्तु हैं कल्पना रूप हैं क्योंकि इनमेंवस्तुकान द्रव्य है न भाव है और इन दोनों नाम और स्थापना निक्षेपों में इतना ही विशेष है कि नाम निक्षेप तो या वत् कालतक रहता है और स्थापनायावत्काल तक भी रहे अथवा इतरिये (थोडे) काल तक रहे क्योंकि मूर्ति फूट जाय टूट जाय अथवा उसको किसी और की थापना मान ले कि यह मेराइन्द्र नहीं यहतो मेरा रामचन्द्र है वा गोपी चन्द्र है, वो और देव है इन दोनों निक्षेपों को साननयोंमेंसे ३ सत्यनयवालों ने अवस्तु माना है क्योंकि अनुयोगद्वार सूत्रमें द्रव्य और भाव निक्षेपों पर तो सात२ नय उतारीहैं परन्तु नाम
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( १० )
और थापना पै नहीं उतारी है इत्यर्थः ।
३ द्रव्य निक्षेप, द्रव्य इन्द्र जिससे इन्द्र वन सके परन्तु सूत्रमें द्रव्य दो प्रकारका कहा है एक तो अतीत इन्द्रका द्रव्य अर्थात् जाणग शरीर दूसरा अनागत इन्द्र का द्रव्य अर्थात् भविय शरीर सो अनागत द्रव्य इन्द्र जो उत् पात शय्या में इन्द्र होने के पुण्य बांधके देवता पैदा हुआ और जब तक उसे इन्द्र पद नहीं मिला तबतक वह भविय शरीर द्रव्य इन्द्र है क्योंकि वह वर्तमान कालमें इन्द्रपनका कार्य साधक नहीं परन्तु अनागत काल (आगेको) इन्द्रपनका कार्य साधक होगा ॥
और जो अतीत द्रव्य इन्द्र सो इन्द्रका काल करे पीछे मृत शरीर जबतक पड़ा रहे तब तक वह जाणग शरीर द्रव्य इन्द्र है क्योंकि वह
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( ११ )
अतीतकाल में इन्द्रपनका कार्य साधक था रन्तु वर्तमान में कार्य साधक नहीं यथा इदं घृतकुम्भम् अर्थात् कुम्भमेंसे घृत तो निकाल लिया फिर भी उसे घृत कुम्भही कहते हैं परन्तु उससे घी की प्राप्ति नहीं । इत्यर्थः ३ ४ भाव निक्षेप, जो पूर्वोक्त इन्द्र पदवी सहित वर्तमानकालमें इन्द्रपनके सकल कार्यका साधक इत्यादिक ॥ ४
अथ पदार्थका नाम १ और नाम निक्षेप २ स्थापना ३ और स्थापना निक्षेप ४ द्रव्य ५ और द्रव्य निक्षेप ६ भाव ७ और भाव निक्षेप ८ इन का न्यारा २ स्वरूप दृष्टान्त सहित लिखते हैं ||
(१) नाम, यथा एक, द्रव्य, मिशरी नाम है अर्थात् वह जो मिशरी नाम है सो सार्थक
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( १२ ) है क्योंकि यह नाम वस्तुत्व में संमिलित है अर्थात् वस्तुके गुणसे मेल रखता है यथा कोई पुरुष किसी पुरुषको कहे कि मिशरी लाओ तो वह मिशरी ही लावेगा अपितु ईंट पत्थर नहीं लावेगा इत्यर्थः॥
(१) नाम निक्षेप, यथा किसीने कन्या का नाम मिशरी रख दिया सो नाम निक्षेप है। क्योंकि वह मिशरीवाला काम नहीं दे सक्ती है अर्थात् मिशरीकी तरह भक्षणकरनेमें अथवा शर्वत करके पीनेमें नहीं आती है ताते नाम निक्षेप निरर्थक है। ___ २ स्थापना, यथा मिशरीके कूजेका आकार जिसको देखके पहिचानाजाय कि यह क्या है मिशरीका कुजा सो स्थापना मिशरी पूर्वोक्त सार्थक है ॥
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( १३ )
(२) स्थापना निक्षेप यथा किसीने मिट्टीका तथा कागजका मिशरीके कूजेका आकार बना लिया सो स्थापना निक्षेप है क्योंकि वह मिट्टीका कूजा पूर्वोक्त मिशरीवाली आशा पूर्ण नहीं कर सका है ताते स्थापना निक्षेपनिरर्थक है
(३) द्रव्य, यथा मिशरीका द्रव्य खांड आदिक जिससे मिशरी बने सां द्रव्य मिशरी सार्थक है ॥
(३) द्रव्य निक्षेप यथा मिशरी ढालने के मिट्टी के कूजे जिनको चासनी भरने से पहिले और मिशरी निकालने के पीछे भी मिशरी के कजे कहते हैं सो द्रव्य निक्षेप यथा पूर्वोक्त इदंमधु कुम्भं इति वचनात् परन्तु यह द्रव्य निक्षेप वर्तमान में मिशरीकादातानहीं ताते निरर्थक है
(४) भाव, यथा मिशरी का मीठापन तथा
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I
( १२ )
है क्योंकि यह नाम वस्तुत्व में संमिलित है अर्थात् वस्तुके गुणसे मेल रखता है यथा कोई पुरुष किसी पुरुषको कहे कि मिशरी लाओ तो वह मिशरी ही लावेगा अपितु ईंट पत्थर नहीं लावेगा इत्यर्थः ॥
(१) नाम निक्षेप, यथा किसीने कन्या का नाम मिशरी रख दिया सो नाम निक्षेप है । क्योंकि वह मिशरीवाला काम नहीं दे सक्ती है अर्थात् मिशरीकी तरह भक्षणकरने में अथवा शर्वत करके पीने में नहीं आती है ताते नाम निक्षेप निरर्थक है ।
२ स्थापना, यथा मिशरीके कूजेका आकार जिसको देखके पहिचान जाय कि यह क्या है मिशरीका कूजा सो स्थापना मिशरी पूर्वोक्त सार्थक है ॥
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( १३ ) (२) स्थापना निक्षेप यथा किसीने मिट्टीका तथा कागजका मिशरीके कूजेका आकार बना लिया सो स्थापना निक्षेप है क्योंकि वह मिट्टीका कूजा पूर्वोक्त मिशरीवाली आशा पण नहीं करसता है ताते स्थापना निक्षेपनिरर्थक है
(३) द्रव्य, यथा मिशरीका द्रव्य खांड आदिक जिससे मिशरी बने सो द्रव्य मिशरी सार्थक है॥
(३) द्रव्य निक्षेप यथा मिशरी ढालने के मिट्टीके कूजे जिनको चासनी भरने से पहिले
ओर मिशरी निकालनेकेपीछेभी मिशरी के कुजे कहते हैं सो द्रव्य निक्षेप यथा पूर्वोक्त इदंमधु कुम्भं इति वचनात् परन्तु यह द्रव्य निक्षेप वर्तमानमें मिशरीकादातानहीं ताते निरर्थक है ___ (४) भाव, यथा मिशरी का मीठापन तथा
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( १४ ) शीत स्निग्ध (शरदतर) स्वभाव ( तासीर) सो भाव कार्य साधक है ॥
(४) भाव निक्षेप, यथा पूर्वोक्त मिट्टी के कूजे में मिशरी भरी हुई सो भाव निक्षेप, यह भी कार्य साधक है, अब इसी तरह तीर्थंकर देवजी के नामादि चार और चारनिक्षेपों का स्वरूप लिखते हैं ॥
(१) नाम, यथा नाभिराजा कुलचन्दनन्दन मरुदेवीराणी के अंगजात क्षत्री कुल आधार सत्यवादि दृढ धर्मी इत्यादि सद्गुण सहित ऋषभदेव सो नाम ऋषभदेव कार्य साधक है क्योंकि यह नाम पूर्वोक्त गुणोंसे पैदा होता है यथा सूत्र गुण निष्पन्नं नामधेयं करेइ (कुर्वति) तथाव्युत्पत्ति से जो नाम होता है सो गुणसहित
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( १५ ) होता है इस नामका लेना सो गुणों केहि समान है इसके उदाहरण आगे लिखेंगे।
(१) नाम निक्षेप यथा किसी सामान्य पुरुष को नाम तथा पूर्वोक्त जीव पशु पक्षी आदिक का तथा अजीव स्थम्भादिका नाम ऋषभदेव रखे दिया सो नामनिक्षेप है यह नाम निक्षेप ऋषभदेवजीवाले गुण और रूप करके रहित है ताते निरर्थक है ॥
(२) स्थापना, यथा ऋषभदेवजीका औदारिक शरीर स्वर्णवर्ण.सम चौरस संस्थान बृषभ लक्षणादि१००८लक्षण सहित पद्मासन वैराग्य मुद्रा जिससे पहिचाने जायें कि यह ऋषभ देव भगवान् हैं सो स्थापना ऋषभदेव कार्य साधक है।।
(२) स्थापना निक्षेप यथा पाषाणादि का
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बिम्ब ऋषभदेवजीके पद्मासनादिके आकारसे स्थापन कर लिया तथा कागज आदिक पर चित्रोंमें लिख लिया सो स्थापना निक्षेप यह ऋषभदेवजीवाले गुण करके रहित जड़ पदार्थ है ताते निरर्थक है॥
(३) द्रव्य, यथा भाव गुण सहित पूर्वोक्त शरीर अर्थात् संयम आदि केवल ज्ञान पर्यन्त गुण सहित शरीर सो द्रव्य ऋषभदेव कार्य साधक है।
(३) द्रव्य निक्षेप यथा पूर्वोक्तजाणग शरीर भविय शरीर अर्थात् अतीत अनागत काल में भाव गुण सहित वर्तमानकालमें भावगुणरहित शरीर अर्थात् ऋषभदेवजीके निर्वाण हुए पीछे यावत् काल शरीरको दाह नहीं किया तावत् काल जो मृतक शरीररहा था सो द्रव्यनिक्षेप
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( १७ )
है परन्तु वह शरीर ऋपभदेवजीवाले गुणकरके रहित कार्य साधक नहीं ताते निरर्थक है । यथा :- दोहा जिनपद नहीं शरीर में, जिनपद चेतन मांह जिन वर्णनकछु और है,यह जिनवर्णननांह॥१
(१) भाव, यथा ऋषभदेवजी भगवान् ऐसे नाम कर्मवाला चेतन चतुष्टय गुण प्रकाशरूप आत्मा सो भाव ऋषभदेव कार्य साधक है।
(१) भाव निक्षेप यथा शरीर स्थित पूर्वोक्त चतष्टय गण सहित आत्मा सो भाव निक्षेप है परन्तु यह भी कार्यसाधक है यथाघृतसहित कुम्भ घृत कुम्भ इत्यर्थः॥
(१) प्रश्न-जड़ पूजक, हमारे आत्माराम आनन्दविजय सवेगीकृत सम्यक्त्वशल्योद्धार देशीभाषाका सम्बत्१९६० काछपा हुआ पृष्ठ
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( १८ ) ७८ पंक्ति २२ में लिखा है कि जिस वस्तु में अधिक निक्षेप नहीं जान सके तो उस वस्तु में चार निक्षेपे तो अवश्य करे अब विचारना चाहिये कि शास्त्रकारने तो वस्तु में नाम निक्षेप कहा है ओर जेठा मूढमति लिखता है कि जो वस्तुका नाम है सो नाम निक्षेप नहीं॥ ___ उत्तर-चेतन पूजक, हमारे पूर्वोक्त लिखे हुये
सूत्र और अर्थ से विचारों कि जेठमलमूढमति है कि सम्यक्त्वशल्य द्धारके बनानेवाला मुढ़मति है क्योंकि सूत्र में तो लिखा है कि जीव अजीवका नाम आवश्यक निक्षेप करे सो नाम निक्षेप अर्थात् नाम आवश्यक है,कि आवश्यक ही में आवश्यक निक्षेप कर धरे ॥ ____ यदि वस्तुत्व में ही वस्तु के निक्षेपे तुम्हारे पूर्वक्ति कहे प्रमाणसे माने जायें तदपि तुम्हारे
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( १ ) ही माने हुए मत को बाधक होग, शांति भगवान में ही भगवान का नाम निक्षत्र मान लिया भगवान्में ही भगवानका धापना नि. क्षेप मानलिया तो फिर पत्थर का विम्ब नि अलग क्यों बनवाते हो ॥
द्वितीय नाम निक्षय तो भला कर मान ले कि भगवान्में भगवान्का नार
निया कि महावीर परंतु भगवान में भगवानका म्या पना निक्षेप जो पत्थर की मूनि जिम का नम भगवान्का स्थापना निक्षेप मानत हो ना क्या उस मूर्तिको भगवान्के कंटद्वारा पट में अपने हो अपितुनहीं वस्तुत्वकास्थापना निशेष बम्नमें कभीनहींक्षेप किया जाता है नान तम्हारा उस लेख मिथ्याहै एसेहो द्रव्य भाव निक्षरों में भी पूर्वोक्त भेद है ॥
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( २० ) पूर्वपक्षी-अजी सूत्रकी गाथा जोलिखी है।
उत्तर-लो गाथा में लिखाहै सो गाथा और गाथा का अर्थ लिख दिखाती हुं तो आप को प्रगट हो जाएगा।
जत्थय २ जं२ जाणिज्जो निक्खे निक्खवे निरविसेसं जत्थवियन जाणिज्जा चउक्य २ निक्खवे तत्थ ॥ १ ॥ अस्यार्थः ॥
जिस २ पदार्थक विषयमें जा २' निक्षेजाने सो २ निर्विशष निक्षेपे जिस विषय में ज्यादा न जाने तिस विषयमें चार निक्षेपे करे अर्थात् वस्तुके स्वरूपके समझनेको चारनिक्षेपनो करे नाम करके समझो स्थापना (नकसा) नकल करके समझो और ऐसेही पूर्वोक्त द्रव्य भाव निक्षेपकरके समझो परन्तु इस गाथामें ऐसा कहां लिखा है कि चारों निक्षेपे वस्तुत्व में ही
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( २१ ) मिलाने वा चारों निक्षेपे वन्दनीय है, ऐसा तो कहा नहीं परन्तु पक्षसे हठसे यथार्थपर निगाह नहीं जमती मनमाने अर्थ पर दृष्टि पड़ती है, यथो हठवादियोंकी मण्डली में तत्त्वका विचार कहां मनमानी कहैं चाहे झूठ चाहे सच है।
पूर्वपक्षी-सम्यक्त्वशल्योद्धारके बनाने वाला तो संस्कृत पढा हुआ था कहिये उस ने यथार्थ अर्थ कैसे नहीं किया होगा ॥
उत्तर पक्षी-बस केवल संस्कृत बोलनेके ही गरूरमें गलते हैं परन्तु आत्माराम तो विचारा संस्कृत पढ़ा हुआ था ही नहीं, क्योंकि सवत् १९३७ में हमारा चातुर्मास लाहौर में था वहां ठाकुरदास भावड़ा गुजरांवालनगर वाले ने आत्माराम और दयानन्दसरस्वती के पत्रिका द्वारा प्रश्नोत्तर होते थे उनमें से कई पत्रिका
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( २० ) पूर्वपक्षी-अजी सूत्रकी गाथा जोलिखी है।
उत्तर-लो गाथा में लिखाहै सो गाथा और गाथा का अर्थ लिख दिखाती हुं तो आप को प्रगट हो जाएगा।
जत्थय २ जं२ जाणिज्जो निक्खेवं निवखवे निरविसेसं जत्थवियन जाणिज्जा चउक्कय २ निक्खवे तत्थ ॥ १ ॥ अस्यार्थः ॥
जिस २ पदार्थक विषय में जा २ निक्षेरे जाने सो २ निर्विशष निक्षेपे जिस विषय में ज्यादा न जाने तिस विषयमें चार निक्षेपे करे अर्थात् वस्तुके स्वरूपके समझनेको चारनिक्षेपतो करे नाम करके समझो स्थापना (नकसा) नकल करके समझो और ऐसेही पूर्वोक्त द्रव्य भाव निक्षेपकरके समझो परन्तु इस गाथामें ऐसा कहां लिखा है कि चारों निक्षेपे वस्तुत्व में ही
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( २३ ) करणी बना फिरता है स्त्रीलिंग शब्दको पुल्लिंग में लिखता है क्योकि यहां वादिनी लिखना चाहिये था इत्यादि।
हां संस्कृत आदि विद्यायोंका पढ़ना पढ़ाना तो हमभी बहुत अच्छा समझते हैं जिससे बने यथारीति पढ़ो परन्तु संस्कृतके पढ़नेसे मोक्ष होता है और नहीं पढ़नेसे नहीं ऐसा नहीं मानते हैं यदि संस्कृत पढ़नेसे ही मुक्ति होजाय तो संस्कृतके पढ़े हुये तो ईसाई पादरी और वैष्णव ब्राह्मण आदिक बहुत होते हैं क्या सबको मुक्ति मिल जायेगी यदि केवल संस्कृतके पढ़नेसेही सत्य धर्मकी परीक्षा हो जाय तो वेदों के बनानेवालोंको आत्मारामजी अपने बनाये अज्ञान तिमर भास्कर पुस्तक संवत् १९४४ का छपा पृष्ट १५५ पंक्ति ९।१० में अज्ञानी निर्दय
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( २२ ) हमको भी दिखाईथीं कि देखो आत्मारामजी कैसे प्रश्नोत्तर करते हैं तो उनमें एक चिट्ठी दयानन्दवालीमें लिखा हुआथा कि आत्माराम जीको भाषाभी लिखनीनहींआती है जो मुर्खको मुर्ष लिखता है और इन की बनाई पुस्तकों की अशुद्धियोंका हाल धनविजय संवेगी अपनी बनाई चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार संवत्१९४६ में अहमदावाद के छपमें लिखचुके हैं। ___ हां एक दो चेला चांटा पढ़वा लिया होगा परंतु पंजाबी पीतांबरी तो बहुलतासे यूं कहते हैं कि बल्लभविजय पुजेरा साधु संस्कृत बहुत पढ़ा हुआ है परन्तु बल्लभ अपनीकृत गप्पदीपिका शमीर नाम पोथी संवत् १९४८ की छपी पृष्ठ १४ में पंक्ति १४ मी लिखता है कि लिखनेवाली महामृषावादी सिद्ध हुई-यह देखो वैया
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अणासवेतेंसुद्ध '१ अस्यार्थः। कनेवाले सदा त्र,पाप आवने हत् सम्बर के
ती(कहते हैं) कारी अत्युपाले पुरुषको तु व्याकरण
नई कवर -- सं .
मनिन
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माने जांय कृत नहीं गेंके अनु
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___अज्ञान वि
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( ४ ) मांसाहारी क्यों लिखते हैं क्या वे वेदोंके कर्ता संस्कृत नहीं पढ़े थे हे भ्रातः ! पढ़ना प. ढाना कुछ और होता है और मत मतांतरोंके रहस्यका समझना कुछ और होता है अर्थात पढ़ना तो ज्ञानावर्णी कर्मके क्षयोपस्मसे होताहँ
और मतकी शुद्धि मोहनी कर्म के क्षयोपस्म से अर्थात्सम्यक्त्व की शुद्धताके प्रयोगसेहातीहै ।
प्रश्न-अजी यों कहते हैं कि प्रश्न व्याकरण के में अध्ययनमें लिखा है कि तद्धितसमास विभक्ति लिंग कालादि पढे विना वचन सत्य नहीं होता। उत्तर-यह तुम्हारा कहना मिथ्या है क्योंकि उक्तसूत्रमें तो पूर्वोक्त वचनकीशुद्धि कही है यों तो नहीं कहा कि संस्कृत बोलेविना सत्य व्रतही नहीं होता है सूत्र सूयगडांगजी में तो ऐसा लिखा है ॥
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( २५ ) ___ आयगुत्तेसयादतें छिन्नसोयअणासवेतेसुद्ध धम्ममक्खाति पडिपुन्नमणेलिसं १ अस्यार्थः ।
गुप्तात्मा मनको विषयोंमे रोकनेवाले सदा इन्द्रियोंको दमनेवाले छदे हैं श्रोत्र,पाप आवने के द्वारे जिनोंने अणाश्रवी अर्थात् सम्बर के - धारकते(सो)पुरुष शुद्धधर्म आख्याती(कहते हैं) । प्रतिपूर्ण अनीदृश अर्थात् आश्चर्यकारी अत्यु
तम,अब देखिये इसमें उक्त गुणवाले पुरुषको । शुद्धधर्म कहनेवाला कहा है परन्तु व्याकरण
ही पढे को सत्यवादी नहीं कहा ॥ । यदि तुम्हारे पूर्वोक्त कहे प्रमाण माने जाय वे तुम्हारे बूटेराय जी आदिक संस्कृत नहीं ये तथा पीनांवरी ओर पीतांबरीयों के अनुका जो संस्कृत नहीं पढे हैं वे सब मिध्या . मादी है और असंयमी हैं उन की बात पर
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( २६ ) कभी निश्चय (इतबार) करना नहीं चाहिये । अरे भोले भाइयो यथा पूर्वोक्त मिथ्यातियों के बनाये हुये संस्कृतमयी ग्रंथ हैं उनमें शब्द तो शुद्ध हैं परन्तु उन के वचन तो सत्य नहीं क्योंकि शब्दशुद्धि कुछ और होती है अर्थात् लिखने पढ़ने की ल्याकत और सत्य बोल ना कुछ और होताहै यथा कचहरीमें दो गवाह गुजरे एक तो इल्मदार अर्बी फार्सी संस्कृत पढ़ा हुआ था बकायदे (विभक्तिलिंग भूतभवि प्यतादिकालसहित) बोलता था परन्तु इजहार झूठे गुजारता था और दूसरा बेचाराकुछ नहीं पढ़ा था सूधी देशी भाषा बोलता था परन्तु सत्य २ कहता था अब कहोजी सभामें आदर किसको होगा और दंड किसको अपितु चाहे पढ़ा हो न पढ़ा हो जो सत्य बोलेगा उसी की
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( २७ ) मुक्ति होगी क्योंकि हम देखते हैं कि कई लोग • ऐसे हैं कि संस्कृतादि अनेक प्रकार की विद्या पढे हुये है परन्तु,अभक्ष्य, भक्षणादि अगम्यगमनादि अनेक कुकर्म करते हैं तो क्या उन की शुभगति होगी अपितु नहीं दुर्गति होगी यदि शुभ धर्म करेंगे तो तरेंगे और जो कई अनपढ़ नर नारी धर्म करते हैं और सुशील हैं दानादि परोपकारकरतेहैं तो क्याउनकी दुर्गति होगी अपितु नहीं अवश्य शुभगति होगी इत्यर्थः यथा राजनीतो॥ __पठकः पाठकश्चैव,येचान्य शास्त्रचिंतकाः । सर्वेव्यसनिनो मूर्खा, यःक्रियावान् स पण्डितः ॥१॥ अस्यार्थः ॥ __ संस्कृतादि विद्याके पढ़ने वाले पढ़ाने वाले येच अन्यमत मतांतरोंके शास्त्रोंके चिंतक सर्व
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( ३४ ) नहीं ताते कामराग की उपमा वैराग्य पर उतारते हो विन सतगुरु हृदय के नयन कौन खोले अरे भोले स्त्रीकी मूर्तियोंकोदेखकेतोसवी कामियोंका काम जागता होगा परन्तु भगवान् की मूर्तियों को देखके तुम सरीखे श्रद्धालुओं में से किस२ को वैराग्य हुआ, सो बताओ? हे भाई ! काम तो उदय भाव (परगुण है) उसका कारणभी स्त्री वा स्त्रीकी मूर्तिआदिभी परगुण हीहै और वैराग्यनिजगुण है उसका कारणभी ज्ञानादि निजगुण ही है. इस का विस्तार मेरी बनाई हुई ज्ञान दीपिका नाम पुस्तक में इसी प्रश्नके उत्तर में लिखा गया है अथवा किसी को किसी प्रकार मूर्तियें देखनेसे वैराग्य आभी जायतो क्या वह वैराग्य आने से पूर्वोक्त मूर्तियें आदिक वंदनीय होजायेंगी, जैसे समुद्र पाली
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कहा सो ठीक है परन्तु
( ३५ ) को चोर के बन्धनों को देखके वैराग्य हुआ और प्रत्येक बुद्धियों को बैल वृक्षादि देखने से वैराग्य हुआ तो क्या वे चोर बैल वृक्षादि वंदनीय हो गये अपितु नहीं ॥ पूर्वपक्षी - आपने वस्तुका स्वरूप सुनने की अपेक्षा वस्तुका आकार देखने से ज्यादा और जल्दी समझमें आजाता है, जैसे मेरु (पर्बत) लवण समुद्र भद्रशाल वन गंगा नदी इत्यादिकों के लंवाई चौड़ाई ऊंचाई आदिक वर्णन सुनके तो कम समझ बैठती है और उनके मांडले (नकसे ) देख के जल्दी समझ आजाती है ऐसे ही भग वान् की तारीफ सुनने की अपेक्षा भगवान् की मूर्ति देखने से जल्दी स्वरूप की समझ पड़ती है । उत्तर पक्षी - हांहां सुनने की, अपेक्षा (निस
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( २६ ) वत) आकार (नकसा) देखनेसे ज्यादा और जल्दी समझ आती है यह तो हमभी मानते हैं परन्तु उस आकार (नकसे) को वंदना नमस्कार करनी यह मतवाल तुम्हें किसने पीलादी । - पूर्वपक्षी-जो चीज जिसलायक होगी उस का आकार (नकसा) भी वैसे ही माना जाय गा अर्थात् जो वन्दन योग्य होंगे उनका आकार (मूर्ति) भी वन्दी जायगी ॥ — उत्तरपक्षी-यह तुम्हारा कहना एकांत मूख ताई का सूचक है, क्योंकि तम जो कहते हो जो चीज जिस लायक हो उस की मूर्ति भी उसी तरह से ही मानी जायगी, अर्थात् जो वन्दने योग्य होगें, उनकी मूर्ति भी वन्दी जायगी,तो क्या जो चीज खाने के योग्य होगी उस की मूर्ति भी खाई जायगी जो असवारी
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( 10 )
के योग्य होगी, उस की मूर्ति पे भी अनवारी होगी जैसे आसका फल खाने योग्य होता है. और उसकी मूर्ति अर्थात् किसी ने मिट्टी का काठका, कागज का रुका आस बना लिया तो क्या वह भी खाने योग्य होगा किसी ने मिट्टी का काष्ठका घोड़ा बनाया तो क्या उस पै असवारी भी होगी अथवा पर्वत का नकमा देखें तो क्या उसकी चढ़ाई भी चढे समुद्र का नकसा देखें तो क्या उसमें जहाजभी छोड़ेवा नदी का नकसा देखें तो क्या गाने भी लगावें अपितु नहीं ऐसेही भगवान की मूर्ति कोदेखें तो क्या नमस्कार भी करें अपितु नहीं असली की तरह नकल के साथ वरताव कभी नहीं होता है, असल और नकलका ज्ञान तो पशु पक्षी भी रखते हैं ॥ यथा सवैया :
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( ५८ ) झटही प्रवीन नर पटके वनाये कीर ताहकीर देखकर विल्ली हुन मारे है कागज के कोर २ ठौर२ नानारंग ताह फुल देख मधु कर दुर हीते छारे है चित्रामका चीता देख श्वान तासौं डरे नाह वनावटका अंडा ताह पक्षी हुन पारे है असल हूं नकल को जाने पशु पखी
राम मूढ नर जाने नाह नकल कैसे तारे है, पूर्वपक्षी-हां ठीकहै, असलकीजगह नकल काम नहीं देसक्ती परन्तु बड़ों की अर्थात् भगवन्तों की मूर्ति का अदब तो करना चाहिये।
उत्तर पक्षी-हमने तो अपने वड़ों की मूर्ति का अदब करते हुये किसीको देखा नहीं यथा अपने बाप की बावे की मूर्तियें बनाके पूज रहे हैं और उसकी न्हुँ (बेटे की बहु) उस स्व
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( ३८ ) सर की मूर्ति से चूंगट पल्ला करती है इत्याद हां किसी ने कुल रूढी करके वा मोह के वस होकर वा क्रोध करके वा भूल करके कल्पना करली तो वह उसकी अज्ञान अवस्था है हर एककी रीति नहीं जेसे ज्ञाता सूत्र में मल्लि दिन कुमारने चित्रशालीमें मल्लि कुमारी की मूर्ति को देखके लज्जा पाई और अदब उठाया और चित्रकार क्रोध किया ऐसे लिखा है तो उस कुमारकी भूलथीक्योंकिहर एकने मूर्तिको देख के ऐसे नहीं कियाक्योंकि यह शास्त्रोक्त क्रिया नहीं है शास्त्रोक्त क्रिया तो वह होती है कि जिस का भगवंत ने उपदेश किया हो कि यह क्रिया इसविधि से ऐसे करनी योग्य है नतु शास्त्रोंमें तो संबंधार्थमें रूढिभी दिखाइहै, मन कल्पना भी दिखाई है और यज्ञभी यात्रा
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( ४. ) भी चोरी भी वेश्या के शृंगारादि की रचना इत्यादि अनेक शुभाशुभ व्यवहार दिखाये हैं क्या वे सब करने योग्य हो जायेंगे, जैसे राय प्रश्नी मे देवोंका जीत व्यवहार (कुलरूढ़ि) कुल धर्म नाग पडिमा (नाग आदिकों की मूर्तियों) का पूजन ॥
२ पद्मपुराण (रामचरित्र) में वज्रकरण ने अंगूठीमें मूर्ति कराई ॥
३ विपाकसूत्रमें अंबर यक्षकीयात्राअभंगसेन चोरकी चोरीका करना पुरोहितने यज्ञमेंमनुष्यों का होम कराया राज की जयके लिये इत्यादि परन्तु यह सब उच्च नीच कर्म मिथ्यात्वादि पुण्य पाप का स्वरूप दिखाने को संबंधमेंकथन आजाते हैं, यह नहीं जानना कि सूत्र में कहे हैं तो करने योग्य होगये, क्योंकि यह पूर्वोक्त
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( ४१ ) उपदेशमें नहीं हैं कि ऐसे करो उपदेशतो सूत्रों में ऐसा होताहै कि हिंसा मिथ्यादि त्यागने के योग्य हैं इनके त्यागने से ही तुम्हारा कल्याण होगा और दया सत्यादि ग्रहण करने के योग्य हैं इनके ग्रहण करने से कर्म क्षय होंगे और कर्म क्षय होने से मोक्ष होगा इत्यादि ॥
(१) पूर्वपक्षी-यह तो सब बातें ठीक हैं परंतु हमारी समझमें तो जो वंदने नमस्कार करने के योग्य है उस मूर्तिको भी नमस्कार करी ही जायगी।
उत्तर पक्षी-यह भूल की बात है क्योंकि वंदना करने योग्यको तो वंदना करी जायगी। परंतु उसकी मूर्ति को पूर्वोक्त कारणोंसे कोई विद्वान् नमस्कार नहीं करता है यथा नगरका राजा कहींसे आवे वा कहीं जाय तो उसकी
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( ४२ )
पेशवाई में रईस लोगजाय और नमस्कार करें भेट चढावें रोशनी करे सुकदमें पेशकरें परंतु राजाकी मूर्ति को लावें तो पूर्वोक्त काम कौन करता है मुकदमें नकलें कौन उस मूर्तिके आगे पेश करता है यदि करे तो मूर्ख कहावे ।
पूर्व पक्षी - मुकदमों की बातें तो न्यारी है हमतों ऐसे मानते हैं कि जैसे मित्रकी मूर्तिकोदेखकर राग (प्रेम जागता है) ऐसेही भगवान् की मूर्ति को देखके भक्ति प्रेम जागता है ।
उत्तर पक्षी - हां २ हम भीमानते हैं की मित्र की मूर्ति को देखके प्रेम जागता है परंतु यह तो मोह कर्म के रंग हैं यदि उसी मित्र से लड़ पडे तो उसी मूर्ति को देखके क्रोध जागता है हे भाई यह तो पूर्वोक्त परगुणका कारण राग द्वेष का पेटा है समझने की बात तो यूं है कि
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( ४३ ) मित्र आवे तो उसके लिये पलंग विछादे मीठा भात करके थाल लगाके अगाड़ी रखदेकि लो जीवों और वहुत खातिर से पेश आवे यदि मित्र की मूर्ति बनी हुई आवे तो उसे देखकर खुशी तो मोह के प्रयोग से भले ही होजाय परंतु पलंग तो मूर्ति के लिये दौड़के न विछाये गा, न मीठे भात बनवाके थाल आगाडी धरे गा यदि धरे गा तो उस को लोग मूर्ख कहेंगे और उपहास करेंगे ऐसेही भगवान की मूर्ति को देखके कोई खुश हो जाय तो हो जाय परन्तु नमस्कार कौन विद्वान करेगा, और दाल चावल लौंग इलाची अंगूर नारंगी कौन विद्वान् खाने को देगा अर्थात् चढ़ावेगा सिवा
बाल अज्ञानियों के । यथा :___ गीत चाल लूचेकी, कूक पाडे सुनता नाही
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( ४४ ) राग रंग क्या आखों सेती देखे नाहीं । नाच नृत्य क्या ताक थइया ताक थइया ताकथइया क्याइकेन्द्री आगे पंचेन्द्री नाचे यह तमासा क्या १ नासिका के स्वर चाले नाहीं धूप दीप क्या मुखमें जिव्हा हाले नाहीं भोग पान क्या ताक थइया २ परम त्यागी परम बैरागी हार शृंगार क्या आगमचारी पवन विहारी ताले जिंदे क्या ताकथइया ३ साधु श्रावक पूजी नाही देवरीस क्या जीत विहारी कुल आचारी धर्मरीत क्या ताक ४ इति ॥
(५) पूर्व पक्षी - तुम मूर्तिको किस कारण नहीं मानते हो ||
उत्तर पक्षी - लो भला शिरोशिर पड़े खड़का किधर होय मूर्ति को तो हम मूर्ति मानते हैं परंतु मूर्ति का पूजन नहीं मानते हैं पूर्वोक्त
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(४५ ) दृष्टांतोंसे कार्य साधक न होनेसे यथा दृष्टांत एक मिथ्यामति शाहूकार के घर सम्यक्ती की बेटी व्याही आई वह कुछक नौतत्त्व का ज्ञान पढ़ी हुई पंडिता थी और सामायिक आदि नियमों में भी प्रवीणथी तो उसकी सास उसे देवघर ( मांदर ) को लेचली तब वहां देहरे के द्वारे पाषाण के शेर बने हुयेथे उन्हें देखके वह बहू सालुके समझानेके लिये मूछी होगिरपड़ी तब सासुने जल्दी से उठाके छातीसे लगाली और कहा कि तू क्यों कांपती है बहु घबराती हुई बोली यह शेर खालेंगे तब सासु बोली ओ मूर्खे यह तो पत्थरहै शेरका आकार किया हुया है यह नहीं खा सक्ते इनसे मत डर तब अगाड़ी चोंकमें एक पत्थरकी गौ बनी हुई पास बछा बना हुआ तब वहां दूध दोहने लगी तो सासु
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ने फिर कहाकी तूमूर्खानन्दनी है पत्थरकी गो कभी नहीं दूधकी आलापूरी करेगी,आगे इष्ट देव की मूर्ति को सासु झुक झुक सीस निवाने लगी और बहुको भी कहने लगी कि तूं भी झुक तब बहु वोली कि इसके आगोसरनिवाने से क्या होगा तब सासु बोलीदूधदेगा पूत देगा स्वर्ग देगा मुक्ति देगा तब बहु बोली यथा__छप, पर्वत से पाषाण फोडकर सिला जो लाये वनी गौ और सिंहतीसरे हरी पधराये। गौ जो देवे दूध सिंह जो उठकर मारे दोनों वातें सत्य होय तो हरी निस्तारे तीनों का कारण एक है फल कार्य कहे दोय दोनों वातें झूठ हैं तो एक सत्य किम होय । सासू लाजवाब हुई घर को आई फिर न गई। (६) पूर्वपक्षी-भला तुम मूर्ति को तो नहीं
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( ४० ) मानते कि यह नकल है, अर्थात् रेत को खांड थाप के खाय तो क्या मुंह मीठा होय ऐसा ही पाषाण को राम मान के क्या लाभ होगा परंतु में पूछता हूं कि तुम नाम लेते हो भगवान् २ पुकारते हो, इस से क्या लाभ होगा अर्थात् खांड २ पुकारने से क्या मुंह मीठा हो जायगा।
उत्तरपक्षी-हम तो नाम भी तुम्हारीसी समझकी तरह नहीं मानते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि बिना गुणोंके जाने, बिना गुणों के याद में ग्रह नाम लेने से कुछ लाभ नहीं यथा राम राम रटतयां बीते जन्म अनेक तोते ज्योरटना रटी सम दम विना विवेक ? अपितु हम तो पूर्वोक्त गुणनिष्पन्न नाम अर्थात् गुणानुबंध (गुण सहित ) नाम लेते हैं सोभाव में ही
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( ४८ )
दाखिल है जैसे शास्त्रों में लिखा है कि स्वाध्याय करना ( पाठ करना ) स्तोत्र पढ़ना सो बड़ा तप है तांते गुणियों के नाम गुण सहित लेने से (भजन करने से ) महा फल होता है अर्थात अज्ञानादि कर्मक्षय होते हैं।
और तुम लोकभी बिना गुणों के नाम को अर्थात् नाम निक्षेप को नहीं मानते हो यथा किसी झीवर का नाम महावीर है तो तुम उस के पैरों में पड़ते हो । पूर्वपक्षी - नहीं नहीं ।
उत्तरपक्षी - क्या कारण । पूर्वपक्षी - उसमें महावीरजी वाले गुण नहीं उत्तर पक्षी - मूर्ति में क्या गुण हैं पूर्वपक्षी - हमारेयशोविजयजीकृत हुंडीस्तवन नाम ग्रन्थ में लिखा है कि ढीले पसत्थे भेष
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( ४८ ) धारी साधु को नमस्कार नहीं करनी (चेला) क्यों (गुरु) संयम के गुण नहीं (चेला) तो मूर्ति में भी गुण नहीं उसे भी नमस्कार न चाहिये (गुरुजी) मूर्ति में गुण नहीं है तोऔगुण भी तो नहीं है अर्थात् भेषवारी में संयम का गुण तो है नहीं परंतु रागद्वेषादि औगुणहें इस से वंदनीय नहीं,और मूर्ति में गुण नहीं हैं तो रागद्वेषादि ओगुण भी तो नहीं है इससे वंदनीय है, चेला चुप।
उत्तरपक्षी-चेला मूर्ख होगा जो चुपकररही नहीं तो यूं कहता कि गुरु जी जिस वस्तुमें गुण औगुण दोनों ही नहीं वह वस्तु ही क्या हुई वह तो अवस्तु सिद्ध हुई ताते वंदना करना कदापि योग्य नहीं।
इसीकारण गुणानुकूल' नाम मानना सो
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( ५० ) हमाराही मत है तुम नामनिक्षेप मानना किस अर्थसे कहते हो हेभाई नाम तो गुणोंमें शामल ही माना जाता है जैसे कोई पार्श्वके नाम से गाली दे तो हमे कुछ द्वेष नहीं कई पार्श्व नाम वाले फिरते हैं यदि पार्श्वजी के गुण ग्रहण करके अर्थात् तुम्हारा पार्श्व अवतार ऐसे कह के गालो दे तो द्वेष आवे कि देखो यह कैसा दुष्ट बुद्धि है जो हमारे धर्मावतारको निंदनीय वचनसे बोलता है ताते वह नाम भी भाव में ही है यथा दृष्टान्त किसी देशके राजाके बेटे का नाम इन्द्रजीत था और एकराजाके महलों के पीछे धोबी रहता था उसके बेटेका नामभी इन्द्रजीत था एकदा समय वह धोबीका बेटा काल वस होगया तो वह धोबी विलाप करके रोने लगा कि हाय २ इन्द्रजीत हाय शेर इन्द्र
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( ५१ ) जीत इत्यादि कहके पुकारते हुये और राजा ऊपर महलोंमें सुनता हुआ परन्तु राजाने मन में कुशौन (बुरा नहीं) माना कि देखो मेरे बेटे को कैसे खोटे वचनकहके रोवे है अपितु राजा जानता है कि नामसे क्या है जिस गुण और क्रिया शरीरसे संयुक्त मेरे बेटेका नाम है वह यह नहीं ताते नाम तो गुणाकर्षणही होता है सो भाव निक्षेपमें ही है ॥ ... (७) पूर्व पक्षी भलाजी पोथीमें जो अक्षर लिखे होते हैं यह भी तो अक्षरों की स्थापनाही है इनको देखके जैसे ज्ञानकी प्राप्तिहोती है। ऐसे ही मूर्तिको देखके भी ज्ञान प्राप्त होता है
उत्तर पक्षी यह तुम्हारा कथन बड़ी भूलका है क्योंकि पोथीके अक्षरोंको देखके ज्ञान कभी नहीं होता है यदि अक्षरोंको देखके ज्ञान होता
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( ५२ ) तो तुम अपने घर के बालवच्चे स्त्री आदिक नगर देशके सब लोगोंके सन्मुख पोथीके अ. अक्षर कर दिया करो बस वे अक्षरोंको देख के,ज्ञानी होजाया करेंगे फिरपाठशाला (स्कूल) मदरसों में पढ़वानेकी क्या गर्ज रहेगी हेभोले किसी अनपढेके आगे अक्षर लिख धरे तो वह अक्षरोंकी स्थापना (आकार) नकसा देखके ज्ञान प्राप्त कर लेगा अर्थात् सूत्र पढ़ लेगा अपितु नहीं तो फिर तम कैसे कहते हो कि पोथीसे ही ज्ञान होता है।
पूर्व पक्षी हम तो यही समझरहे थे कि पोथी से ही ज्ञान होता है परन्तु तुमही बताओ कि भला ज्ञान कैसे होता है।
उत्तर पक्षी तुम्हारी मति तो मिथ्यात्व ने विगाड़ रकरवी है तुम्हारे क्या वस की बात है
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( ५३ ) अब मैं बताऊं जिस तरहसे ज्ञानहोता है पांच इन्द्रिय और छठा मन इनके बलसे और इनके आवरणरूप अज्ञान के क्षयोपस्म होने से मति श्रुति ज्ञानके प्रकट होनेसे अर्थात् गुरु (उस्ताद) के शब्द श्रोत्र (कान) द्वारा सुनने से श्रुतिज्ञान होता है कि (क) (ख) इत्यादि और चक्षुः(नेत्र) द्वारा अक्षरका रूप देखके मन द्वारा पहचाने तव मति ज्ञान होता है कि यह (क) (ख) इस विधि से ज्ञान होता है और इसी तरह गुरु के मुख से शास्त्रद्वारा सुनके भगवान् का स्वरूप प्रतीत (मालूम) होता है कि महावीर स्वामीजी की ७ हाथकी ऊञ्ची काया थी स्वर्ण वर्ण था सिंह लक्षण था अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय गुण थे इत्यादि का जानकार होजाता है और वही मूर्तिको देखके पहचान सकता है कि यह महा
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( ५४ )
वीरजी की मूर्ति वना रक्खी है परन्तु जिसने गुरुमुख से श्रुत ज्ञान नहीं पाया अर्थात् भगवान् का स्वरूप नहीं सुना उसे मूर्तिको देखके कभी ज्ञान नहीं होगा कि यह किसकी मूर्ति है जैसे अनपढ़ अक्षर कभी नहीं वाचसकता फिर तुम अक्षराकारको देखके तथा मूर्तिको देखके ज्ञान होना किस भूलसे कहते हो ज्ञान तो ज्ञान से होता है, क्योंकि अज्ञानीको तो पूर्वोक्त मूर्तिसे ज्ञान होता नहीं और ज्ञानीको मूर्तिकी गर्ज नहीं इत्यर्थः ॥
पूर्वपक्षी - यदि ज्ञानसे ज्ञान होता है तो फिर तुम पोथीयें क्यों वाचते हो !
उत्तरपक्षी - ओहो तुम्हें इतनी भी खबर नहीं
कि हम पोथीयें क्यों वाचते हैं भला मैं बता
देती हूं अपनी भूलके प्रयोगसे क्योंकि पहिले
י
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( ५५ ) महात्मा १४।१४ पूर्वकेविद्याके पाठी औरबह्वागम पाठी थे वे कौनसे पोथीयों के गाडेलिये फिरे थे वे तो कंठाग्रसे ही गुरु पढ़ाते थे और चेले पढ़ते थे परन्तु हमलोक कलिके जीव अल्पज्ञ विस्मृति बुद्धिवाले पढ़ा हुआ भूल २ जाते हैं ताते जो अक्षरोंके रूप पूर्वोक्त निमित्तोंसे सीखे हुये हैं उनका रूप पहचानकर याद में लाते हैं यों वाचते हैं।
पूर्वपक्षी-हम भी तो भगवानकास्वरूप भूल जाते हैं ताते मूर्तिको देखके याद करलेते हैं। ___ उत्तर पक्षी-अरे भोले भगवान् का स्वरूप तो विद्वान् धार्मिक जनोंको क्षणभर भी नहीं भूलता है क्योंकि जिस वक्त गुरुमुखसे शास्त्र द्वारा सिद्ध स्वरूप सच्चिदानन्द अजर अमर नराकार सर्वज्ञ सदा सर्वानन्द रूप परमे
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( ५६ ) श्वर का स्वरूप तथा तीर्थं कर देवका अर्थात् धर्मावतारों का अनन्त चतुष्टय ज्ञानादि एक सम स्वरूप सुना उसी वक्त हृदयमें अर्थात् मतिमें नकला, होजाता है वह मरणपर्यत नहीं विसरता तो फिर पत्थरका नकसा (मूर्ति) को क्या करेंगे जिसके लिये नाहक अनेक आरम्भ उठाने पड़ें।
(८) पूर्वपक्षी-भला किसी बालकने लाठी को घोड़ा मान रक्खा है तुम उसे घोड़ा कहो कि हे बालक अपना घड़ा थाम ले तो तुमे मिथ्या बाणीका दोष होय कि नहीं। . __उत्तरपक्षी-उसेघोडाकहनेसेतोमिथ्यावाणीका दोष नहीं क्योंकि उस बालकने अज्ञानता से उसको घोड़ा कल्प रक्खाहै तातें उस कल्पना को ग्रहके घोड़ा कह देते हैं परंतु उसे घोड़ा
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___(, ५७ ।) समझके उसके आगे घासदानेका टोकरा तो नहीं रखदेते हैं यदि रक्खें तो मूर्ख कहावे ऐसे ही किसी बालक अर्थात् अज्ञानीने पाषाणादिका बिम्ब तथा चित्र बनाके भगवान कल्प रक्खा है तो उसको हमभी,भगवानकाआकार कहदें परंतु उसे वंदना नमस्कार तो नहीं करें
और लड्डू पडे तो अगाड़ी नहीं धरे इत्यर्थः । ___ पूर्वपक्षी-खांडके खिलौने हाथी घोड़ादिआकार संच के भरे हुये उन्हें तोड़के खाओं कि नहीं। उत्तरपक्षी-उनके खानेका व्यवहार ठीक नहीं पूर्वपक्षी-उसके खाने में कुछ दोष है।
उत्तरपक्षी-दोष तो इतनाहीहैकि हाथीखाया घोड़ा खाया यह शब्द अशुद्ध है। ।
पूर्वपक्षी-यदि जड़पदार्थका आकार वा नाम
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'( ५८ ) धरके तोड़ने खाने में दोष है तो उसके वंदने पूजने से लाभ भी होगा।
उत्तरपक्षी-ओहो तुम यहांभी चूके क्योंकि कई क्रिया ऐसी होती हैं कि जिनके तोड़ने फोड़ने में दोष तो भावाश्रित होजाय परंतु उनके पूजनेसे लाभ न होय।।
पूर्वपक्षी-यह क्या कोई दृष्टान्त है। उनरपक्षी-यथाकोई पुरुष मिट्टी की गौ वनाके उस को हिंसा के भावसे छेदे (तोड़े) तो उस परुषको गौ घातका दोष लगे वा नहीं पूर्वपक्षी हांलगे।
उत्तरपक्षी-यदि कोई पूर्वोक्त मिट्टी की गौवना के उसे दूधलाभकभावसेपूजे और बिनती करें कि हेगौमाता दूधदेतो ऐसे दूधका लाभहोय । पूर्वपक्षी-नहीं परंतु हमको तो यही सिखा
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. ( ५६ ) रक्खा है कि मूर्ति तो कुछ नहीं कर सकती भावोंसे भगवान मान लिये तो भावों का ही फल मिलेगा यथा राजनीतौ :
नदेवोविद्यतेकाष्ठे,न पाषाणेनमृन्मये,भावेषु विद्यतेदेव, स्तस्माद् भावोहिकारणम् । १। ___ अर्थ-काठ में देव नहीं विराजते न पाषाण में न मिट्टी में देव तो भाव में हैं ताते भाव ही कारण रूप है। १। ___ उत्तरपक्षी-तुम्हारा यह कहनाभी उदय के जोर से है अर्थात् भूल का है क्योंकि कोई पुरुष लोहे में सोनेका भाव करले कि यह है तो लोहे का दाम परन्तु मैं तो भावों से सोना मानताहूं अव कहो जी उसे सोनेके दाम मिल जायेंगे अपितु नहीं । तो फिर इस धोखे में ही न रहना कि सर्वस्थान (सबजगह)
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( ६ ) . भावोंहीका फल होता है क्योंकिभावोंका फल भी कथचित् पूर्वोक्त यथा तथ्य अर्थ में ही होता है। .. (९)पूर्वपक्षी-यह तो सबठीकहै परंतु जोअन जान लोक कुछ ज्ञाननहीं जानते उनको मंदिर में जानेका आलंबन होजाता है, इसी कारण मंदिर मूर्ति बनवाये गये हैं। __उत्तर पक्षी-यह तो फिर तुम अपने मन के
राजा हो चाहे कैसे ही मन को लडालो परन्तु सिद्धान्त तो नहीं क्योंकि तुम प्रमाण कर चुके हो कि अनजानों के वास्ते मंदर मूर्तियें हैं, सो ठीक है क्योंकि चाणक्य नीति दर्पणमें भी यों ही लिखा है अध्याय चार, श्लोक १९में अग्निर्देवो द्विजातीनां, मुनीनां हृदिदैवतम्। प्रमाति स्वल्पबुद्धीनां, सर्वत्र समदर्शिनाम् ॥
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( ६१ ) अर्थ-द्विजाति ब्राह्मण आदिक अग्नि होत्री अग्नि को देवता मानते हैं । मुनीश्वर हृदय स्थित आत्म ज्ञान को देव मानते हैं अल्प बुद्धि लोक अर्थात् मूर्ख प्रतिमा (मूर्ति) को देव मानते हैं, समदर्शी सर्वत्र देव मानते हैं ॥१९॥ और हमने भी बड़े बड़े पण्डित जों विशेष कर भक्ति अंग को मुख्य रखते हैं, उन्हों से सुना है कि यावद् काल ज्ञान नहीं. तावत् काल मूर्ति पूजन है और कई जगह लिखा भी देखनेमें आया है यथा जैनीदिगम्ब राम्नायी भाई शमीरचन्द जैनप्रकाश उरदू किताब सन् १९०४ लाहौर में छपी जिसके सफा ३८ सतर ४ से ९ तक लिखता है-जो शषस वैराग्य भावको पैदाकरना चाहताहै उस के लिये भगवान की मूर्ति निशान का काम
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(६२ ) देती है और जब उसकेखयाल पुखता होजाते हैं तब फिर उसको मूर्तिके दर्शन करने की कुछ जरूत नहीं रहती चुनाचे ऋषियों और मुनियों के लिये मूर्ति पूजन करना जरूरी नहीं है
और यह भी कहते हैं गुडियों के खेलवत् अर्थात् जैसे छोटी छोटी वालिका (कुड़ियां) गडीयों के खेल में तत्पर हो के गहने कपड़े पहराती हैं और व्याह करती हैं परंतु जब वे स्यानी बुद्धिमती होजाती हैं तब उन गुड़ीयों को अवस्तु जानके फैंक देती हैं ऐसेही जबतक हम लोगोंको यथार्थ तत्त्वज्ञान न होवे तबतक मूर्ति में तत्पर होकर अर्थात् दिल से प्रेमकर२ न्हावावें धवावें खिलावें (भोगलगावें) शयन करावें जगावे इत्यादि पूजा भक्ति करें।
उत्तरपक्षी-क्योंजी गुडीयोंका खेल उन लड़
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( ५३ ) कीयों को स्यानी और बुद्धिमती होनेका कारण है अर्थात् गुडीयां खेलें तो बुद्धिमती होवें न.. खेलें तो बुद्धिमती नहीं होवें क्योंकि कारण से कार्य होता है।
पूर्वपक्षी-नहीं जी गुडीयोंका खेलना अकल मंद होनेका कारण नहीं है अकल मंद होने का कारण तो विद्यादि अभ्यासका करना है गुडीयोंका खेलना तो अविद्याका पोषण है ॥
उत्तरपक्षी-अब इस में यह भ्रम पैदा हुआ कि तुम मूर्ति पूजक कभीभी ज्ञानी नहीं होते क्योंकि हम लोक देखते हैं कि मूर्ति पूजकों ने मरण पर्यंत भी मूर्ति का पूजना नहीं छोड़ा तातें सिद्ध हुआ किमूर्ति पूजतेपूजते ज्ञान कभी नहीं होता यदि होता तो ज्ञान हुये पीछे मूर्ति का पूजना छोड़ देते तो हम भी जान लेते कि
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( ६४ ) हां इन्होंने ५-७ वर्ष मूनि पूजी है जिलले ज्ञान होगया है,अब छोड़दी क्योंकि तुम कहचुके हो कि यावदकाल जान नहीं तावदकाल मूर्ति का पूजन है । हे भ्रातः बहुत कहानी क्या ज्ञान का कारण मूर्ति का पूजन नहीं है ज्ञान का कारण तो पूर्वोक्त ज्ञान का अभ्यास ही है ताते पूर्वोक्तअज्ञान क्रिया अर्थात् गुडियोंका खेलना छोड़ो ज्ञानी बनो। __(१०) पूर्वपक्षी-सलाजी तीर्थकर देव तो मुक्त हो गये हैं। सिद्धपद) में हो गये हैं तो नमो अरिहंताणं क्यों कहते हो।
उत्तरपक्षी-क्या तुम्हें इतनी भी खबरनहीहै कि,जघन्यपद २० तीर्थंकर तोअवश्य हीमनष्य क्षेत्र में होते हैं, यदि ऋषभादि की अपेक्षा से कहोगे तो सूत्रसमवायांग आदिमें ऐसा पाठ है
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___ ( ६५ ) नमो त्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं आदि गराणं तित्थ गराणं जाव संपत्ताणं नमोजिनाणं
जीयेभयाणं॥ ___ अर्थ-नमस्कार हो अरिहंत भगवंत जी को
जो धर्मकी आदि करके चार तीर्थ अर्थात साध १ साध्वी २ श्रावक ३ श्राविका ४ इनकी धर्म रीति रूप मुक्ति मार्ग करके यावत् (जहां तक) सिद्ध पद में प्राप्ति भये ऐसे जिनेश्वर को नमस्कार है जिन्हों ने जीते हैं सर्व संसारीभय (जन्म मरणादि) अर्थात् पूर्वले तीर्थंकर पद के गुण ग्रहण करके सिद्धपदमें नमस्कार कोजाती है क्योंकि अनंत ज्ञानादि चतुष्टय गुण तीर्थकर पद में थे वह गुण सिद्धपद में भी मोजूद हैं और यह भी समझ रखना कि जो नमो सिद्धार्ण पाठ पढ़ना है इस से तो सर्व सिद्धपदको
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( ६६ ) नमम्कार है और जो नमो थुणंका पाठ पढ़ना है इससे जो तीर्थंकर और तीर्थंकर पदवी पा कर परोपकार करके मोक्ष हुये हैं उन्हीं को नमस्कार है । इत्यर्थः॥
(११) पूर्वपक्षी-यह तो आपने ठीक समझाया परंतु एक संशय और है कि जो मूर्ति को न माने तो ध्यान किस का धरे और निसाना कहां लगावे?
उत्तरपक्षी-ध्यान तो सूत्रस्थानांगजी उवाई जी आदि में चेतन जड़ तत्त्व पदार्थका पृथक २ विचारने को कहा है अर्थात् धर्मध्यानशक्लध्यान के भेद चले हैं परंतु मूर्ति का ध्यान तो किसी सूत्र में लिखा नहीं हां ध्यान की विधि में ना सायादि पै दृष्टिका ठहराना भी कहा है परंतु हाथों का बनाया बिम्ब धर के उस का ध्यान
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करना ऐसा तो लिखा देखने में आया नहीं और निसाना जिस के लगाना हो उस के लगावे परंतु रस्ते में ईंट पत्थर धरके उसमें न लगावे अर्थात् श्रुतिरूप तीर परमेश्वरके गुण रूपस्थल में लगाना चाहिये परंतु रस्ते में पत्थर की मूर्ति को धरके उसमें श्रुति लगानी नहीं चाहिये क्योंकि जब श्रुति अर्थात् ध्यान मूर्ति में लगजायगा तो परमेश्वरके परम गुणों तक कभी नही पहुचेगा। इत्यर्थः।। ___ (१२) पूर्वपक्षी-आपने युक्तियों के प्रमाण देकर मूर्तिपूजा का खंडन खूब किया और है भी ठीक परतु हमने सुना है कि सूत्रों में ठाम ठाम मृति पूजा लिखी है यह कैसे है?
उत्तरपक्षी-सूत्रों में तो मूर्तिपूजा कहीं नहीं लिखीहै,यदि लिखी है तो हमें भी दिखाओ।
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( ६८ ) पूर्वपक्षी-भला क्या तुम नहीं जानते हो।
उत्तरपक्षी-भला जानते तो क्या कहते हुये हमारी वृत्ति बिगड़ जातीअर्थात् इस श्रद्धा वाले (चैतनपूजक) गृहस्थियोंके द्वारे भिक्षा न मांग खाते जड़पूजक गृहस्थियों के द्वारे भिक्षा मांग खाते।
पूर्वपक्षी-कहते हैं कि सूत्र राय प्रश्नी, उपासकदशांग, उवाई, ज्ञाता धर्मकथा, भगवती जी आदिक में लिखा है। _उत्तरपक्षी-ओहो तुम सावद्याचार्योंके लेख के धोखे में आकर और सूत्रकारों के रहस्य को न जाननेसे ऐसे कहते हो कि सूत्रोंमें मूर्तिका पूजन धर्म प्रवृत्तिमेंलिखा है लो अब जहांजहां सूत्रोंमें से मूर्तिपूजनका भ्रमहै वहां २ का मूल पाठ और अर्थ लिखके दिखा देतीहूं कि यहतो
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( ३८ ) मूलपाठ से अर्थ होता है और यह संबन्धार्थ होता है और यह टीका टब्बकारोंका सूत्रार्थसे मिलता अर्थ है यह पक्षहै यह नियुक्ति भाष्य कारोंका पक्ष है और यह कथाकार गपौड़े हैं और इस में यह तर्क वितर्क है इत्यादि प्रश्न उत्तर कर केलिखा जाता है। ___ प्रश्न-मूर्तिपुजक सूर्याभ देवने जिन पडिमा
पूजी है। __ उत्तर-चेतन पूजक देव लोकों में तो अकृत्रिम अर्थात् शाश्वती बिन बनाई मूर्तियें होती हैं और देवताओं का मूर्ति पूजन करता जीत व्यवहार अर्थात् व्यवहारिक कर्म होता है कुछ सम्यग् दृष्टि और मिथ्या दृष्टियों का नियम नहीं है कुल रूढीवत् समदृष्टि भी पूजते हैं, मिथ्या दृष्टि भी पूजते हैं।
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( ७. ) ओर सूत्रार्थ के देख त्यां ऐसाभी संभवहोता है कि वह देवलोकादिकों में किसी देव की मूर्तियेहों क्योंकि उवाईजी सूत्र में श्रीमहावीर तीर्थंकर देवजीके शरीरका शिखासे नख तक व
न चलाहै वहां भगवान्के मंशु अर्थात् श्मश्रु (दाढी मूछे) चली हैं और चुंचुवे नहीं चले हैं
और सूत्रराय प्रश्नीजीमें जिन पडिमाका नख से शिखा तक वर्णन चला है वहां प्रतिमाके चुंचुये चले हैं और दाड़ी मुच्छां नहीं चलीहैं और जो जैनमतभेसे पूर्वोक्त पाषाणापासक निकले हं सो ये भी जिन पडिमा (मूर्तिये) बनवाते हैं उन मूर्तियोंके भी दाढ़ी मूछ का आकार नहीं बनवाते हैं इत्यर्थः और नमात्थुणं के पाठ वि. षय में तर्क करोगे तो उत्तर यह है, कि वह पूर्वक भावले मालूम होताहै कि देवता परम्परा
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( ७१ ) व्यवहार से कहते आते ह, अथवा भद्रबाहु स्वाभीजीके पीछे तथा वारावर्षी कालके पीछे लिखने लिखाने में फर्क पड़ा हो अतः (इसी कारण) जो हमने अपनी बनाई ज्ञान दीपिका नाम की पोथी संवत् १९४६ की छपी पृष्ठ६८ में लिखा था कि मूर्ति खण्डन भी हठहे (नोट) वह इस भ्रम से लिखा गया था कि जो शाश्वती मूर्तिये हैं वह २४ धर्मावतारोंमेकीहैं उन का उत्थापक रूप दोष लगनेकेकारणखण्डन भी हठ है,परतु सोचकर देखागया तोपूर्वोक्तकारण से वह लेख ठीक नहीं और प्रमाणीक जैन सूत्रों में मूर्ति का पूजन धर्म प्रवृत्ति में अर्थात् श्रावक के सम्यक्तव्रतादि के अधिकारमें कहीं भी नहीं चला इत्यर्थः।
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( ७२ ) तर्क पूर्वपक्षी-यों तो हरएक कथन को कह देंगें कि यह भी पीछे लिखा गया है।
उत्तरपक्षी- नहीं नहीं ऐसा नहीं होसक्ता है क्योंकि जो प्रमाणीक सूत्रों में सविस्तार प्रकट भाव है उनमें कोईभी सूत्रानुयायी तर्क वितर्क अर्थात् चर्चा नहीं करसक्ता है यथा जीव,अजीव, लोक,परलोक, बंध, मोक्ष, दया क्षमादि प्रवृत्तियों में परंतु प्रमाणीक सूत्रों में धर्म प्रवृत्ति के अधिकार में प्रतिमाका पूजन नहीं चला है यदि चला होता तो फिर तर्क कौन कर सकता था, और मत भेद क्यों होते हां कहीं २ से चेइय शब्द को ग्रहणकरकरके अल्पज्ञजन चर्चा, क्या, लड़ाई करते रहते हैं जिस चेइय शब्दके चितिलंज्ञाने इत्यादि धातु से ज्ञानादि अनेक अर्थ हैं जिसका स्वरूप आगे .
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लिखा जायगा और इस पूर्वक कथन की स-- बूती यह है कि सूत्र उवाईजी में पूर्ण भद्र यक्षके यक्षायतन अर्थात् मंदिरका और उसकी पूजाका पूजाके फलका धनसंपदादिका प्राप्ति होना इत्यादि भली भांति सविस्तार वर्णन चला है और अंतगढ़जी सूत्रमें मोगर पाणी यक्ष के मंदिर पूजा का हरणगसेषी देवकी मूर्तिकी पूजा का और विपाक सूत्र में जंबरयक्ष की मूर्ति मंदिर का और उस की पूजाका फल पुत्रादि का होना सविस्तार पूर्वोक्त वर्णन चला है परन्तु जिनमदिर अर्थात् तीर्थकर देवजीकी मूर्ति के मंदिरकी पूजाका कथन किसी नगरी के अधिकारमें तथा धर्मप्रवृत्ति के अधिकार में अर्थात् जहां श्रावक धर्मका कथन यथा असुक श्रावक ने अमुक तीर्थकर का मंदिर बनवाया
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( ७४ ) इस विधि से इस सामग्री से पूजाकरी वा यात्रा करी इत्यादि कथन कहीं नहीं चला यथा प्र. देशी राजा को केशीकुमारजीने धर्म बताया श्रावक व्रत दिये वहां दयादान तपादि का करना बताया परञ्च मंदिर मूर्ति पूजा नहीं बताई न जाने सुधर्म स्वामीजीकी लेखिनी(कल्म) यहां ही क्योंथकी हा इतिखदे परंतु हे भव्य इस पूर्वोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि वह जो सूत्रों में नगरियों के वर्णन के आद में पूर्ण भद्रादि यक्षोंके मदिर चले हैं सो वह यक्षादि सरागी देव होतेहैं और बलि वाकुल आदिक की इच्छा भी रखते हैं और राग द्वेष के प्रयोग से अपनी मूर्ति की पूजाऽपूजा देखके वर शराप भी देतेहैं ताते हरएक नगर की रक्षा रूप नगर के बाहर इनके मंदिर हमेशा से चले
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( ७५ ) आते हैं सांसारिक स्वार्थ होने से परंतु मुक्ति के साधन में मूर्ति का पूजन नहीं चला यदि जिन मार्ग में जिन मंदिर का पूजना सम्यक्त धर्म का लक्षण होता तो सुधर्म स्वामी जी अवश्य सविस्तार प्रकट सूत्रों में सर्व कथनों को छोड़ प्रथम इसी कथन को लिखते क्योंकि हम देखते हैं कि सूत्रों में ठाम २ जिन पदार्थो से हमारा विशेष करके आत्मीय स्वार्थ भी सिद्ध नहीं होता है उनका विस्तार सैंकड़े पृष्ठों पर लिख धरा है, यथा ज्ञाताजी में मेघ कुमार के महल, मल्लिदिन्न की चित्रसाली, जिन रस्किया जिन पालिया के अध्ययन में चार वागोंका वर्णन, और जीवाभिगमजी रायप्रश्नी में पर्वत,पहाड़,वन,वाग पंचवर्ण के तृणादि का पुनःपुनः वर्णन विशेष लिखाहै प
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( ७६ ) रंतु जिसको मूर्ति पूजक मुक्ति का साधन क. हते हैं, उस मंदिर मूर्ति का विस्तार एक भी प्रमाणीक मूलसूत्र में नहीं लिखा यदि तर्क करें कि रायप्रश्नीजी जीवाभिगमजी में जिन मंदिर का भी अधिकार है उत्तर यह तो हम पहिले ही लिख चुके हैं कि देवलोकादिकों में अकृत्रिम अर्थात् शाश्वती जिनमंदिरमूर्ति देवों के अधिकार में चली हैं परन्तु किसी देश नगर पुरपाटनमें कृत्रिम अर्थात् पूर्वक्ति श्रावकों के बनवाये हुयेभी किसी प्रमाणीकसूत्रमें चले हैं अपितु नहीं ताते सिद्ध हुआ कि जैनशास्त्रों में साधु श्रावकको मंदिर का पूजना नहीं चला है, अब जोपाषाणोपासकचेइयशब्दको ग्रहण करके मंदिर मूर्ति का पूजना ठहराते हैं अर्थात् अर्थ का अनर्थ करते हैं इसका संवाद सुनो।
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( ७७ ) प्रश्न-(१४) पूर्वपक्षी उबाई जी सूत्र के आद ही में चम्पापुरीके वर्णनमें(वहवे अरिहन्त चेईय) ऐसा पाठहै अर्थात् चम्पापुरी में बहुत जिनमन्दिर हैं। ___ उत्तर पक्षी-उवाईजी में पूर्वोक्त पाठ नहीं है यदि किसी २ प्रतिमें यह पूर्वोक्त पाठ है भी तो वहां ऐसा लिखा है कि पाठान्तरे अर्थात् कोई आचार्य ऐसे कहते हैं इससे सिद्ध हुआ कि यह (प्रक्षेप) क्षेपक पाठ है ॥ __पूर्वपक्षी-इसीसूत्रमें अंबडजी श्रावकने जिन प्रतिमा पूजी है ॥ __उत्तरपक्षी-यह तुम्हारा कहना अज्ञानता का सूचक है अर्थात् सूत्र के रहस्य के त जानने का लक्षण है क्योंकि इस अंबड जी के मूर्ति पूजने का जो शोर मचाते हैं तो इस विषय
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( ७८ ) का मैं मूल पाठ और अर्थ और उस का भाव प्रकट लिख के दिखा देती हूं बुद्धिमान् पक्षको थोड़ी सी देर अलग धर के स्वय ही विचार करेंगे कि इस पाठ से मंदिर मूर्ति का पूजना कैसे सिद्ध होता है।
उवाई जी सूत्र २२ प्रश्नों के अधिकार में प्रश्न १४ में लिखा है अंम्मडस्लणं परिव्वाय गस्स णोकप्पई, अणउत्थिएवा, अणउत्थिय देवयाणिवा, अण उत्थियं परिग्गहियाणिवा अरिहंत चेइयं वा, वंदित्तएवा नमंसित्तएवा जावपज्जवासित्तएवा णणत्थ अरिहंतेवा अरिहंत चेइयाणिवा।
अर्थ ___ अम्बड नामा परिब्राजक को (गोकप्पई) नहीं कल्पै (अणुत्थिएवा) जैनमत के सिवाय
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( ७८ ) अन्ययुत्थिक शाक्यादि साधु १ (अण) पूर्वोक्त अन्य युत्थिकों के माने हुये देव शिवशंकरादि २ (अणउत्थिय परिग्गहियाणिवाअरिहंतचेड्य) अन्य युत्थिकों में से किसी ने(परिग्गहियाणि) ग्रहण किया (अरिहंतचेइय) अरिहंतका सम्यक ज्ञान अर्थात् भेषतोहे,'परिव्राजक शाश्यादिका और सम्यक्त्वव्रत,वा अणुव्रत,महाव्रत रूप धर्म अंगीकार किया हुआ है जिनाज्ञानुसार ३ इन की (वदितएया) वंदना (स्तुति) करनी (नमं सितएवा)नमस्कारकरनी यावत (पज्जपासित एवा)पर्युपासना(सेवा भक्ति काकरना)नहींकल्प पूर्वपक्षी-यह अर्थ तो नयाही सुनाया।
उत्तरपक्षी-नया क्या इसपाठका यही अथ यथार्थ है।
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(८. ) पूर्वपक्षी-इस अर्थ की सिद्धि में कोई दृष्टांत साक्षी है।
उत्तरपक्षी-हां २ सूत्र भगवती शतक २५ मा ६ नियंठों के अधिकारमें.६ नियठों में द्रव्ये तीनों लिंग कहे हैं सलिंग १अन्यलिंग २ गृहि लिंग ३ अर्थात् भेवतो चाहे सलिंगी जिन भाषित रजो हरण मुख वस्त्रिका सहित होय ? चाहे अन्य लिंगी दंड कमण्डलादि सहित होय २ चाहे गृहिलिंगी पगड़ी जामा सहित होय परन्तु भावें सलिंगी है, अर्थात् जिन आज्ञा नुसार संयम सहित है इत्यादि इतका तात्पर्य यह है कि किसी अन्य लिंगवाले साधुने अरि हन्त का ज्ञान अर्थात् भगवान ने अपने ज्ञानमें जिस संयन वृत्ति को ठीक जाना है और कहा है उस आज्ञानुसार संयमको ग्रहण करलिया
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( ८१ ) है परन्तु अन्य लिंगको (भेषको) नहीं छोड़ा है तोउसको वंदना करनीनहीं कल्पै तथा अम्बड जी को ही समझलो कि भेषतो परिव्राजक का था और ज्ञान अरिहंतका ग्रहण किया हुआथा अर्थात् पूर्वोक्त संम्यक्त सहित १२ व्रत धारी श्रावक था परन्तु उसको भी श्रावक नमस्कार वंदना नहीं करते क्योंकि जो वडा श्रावकजान के उसे छोटे श्रावक नमस्कार करें तो अजान और लघु संतानादि देखने वाले योंजाने कि यह परिव्राजक दंडी आदिक भी श्रावकोंकवंदनीय हैं तो फिर वह हर एक पाखंडी वाह्य तपस्वी धनी रमाने वाले चरस उड़ाने वाले कन्द सूल भक्षणकरनेवाले असवारियों पर चढ़नेवाले डेरे बन्ध परिग्रह धारियोंकी संगत करने लग जाय कि हमारे वड़े भी गंगा जी में मृतक के फूल
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( २ ) (अस्थि) गेरने जातेथे और ऐसे नशेबाज बावों को मत्था टेकते थे येही तारक हैं क्योंकि उन्हें अभ्यन्तर वृत्तिकी तो खबर नहीं पड़ती कि हमारे बडे. व्यवहार मात्र क्रिया करते थे तथा श्रावक पद को नमस्कार करते थे तांते मिथ्या त्वको उन्नति देनेका हेतु जानके बन्दना करनी कल्पै नहीं। इत्यर्थः।
पूर्वपक्षी-क्या श्रावकों को श्रावक वन्दना किया करते हैं जो अम्बड श्रावकको न करी ।
उत्तरपक्षी-हां जिनमार्गमें वृद्ध (बड़े)श्रावकों को वन्दना करनेकी रीति है। पूर्वपक्षी-क्या किसी सूत्रमें चली है ।
उत्तरपक्षी-हां सूत्र भगवती शतक १२ मा उद्देशा १ संखजी श्रावक को पोखलीजी श्रावकने नमस्कार करी है यथा सूत्र॥
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( ३ )
ततेणंसे पोक्खली समणोवासए, जेणेवपोसह साला, जेणे व संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छ२इत्ता गमणागमणे पडिकम्मइ पडिकम्मईत्ता, संखं समणोवासयं वंद इनमंसइ, वंदइनमं सइत्ता एवं वायसी अर्थ ।
(ततेणं) तवते पोखली नाम समणोपासक (श्रावक) जे० जहां पोषधशाला जे० जहां संख नामा समणोपाशक (श्रावक ) था (तेणेव ) तहां उवा आवे आविने गम० इरिआवहीका ध्यान करे करके संखं० संखनामा श्रावकको (वंदइन मं सइरत्ता) वंदना नमस्कार करे करके ( एवंववासी) ऐसे कहता भया ॥ पूर्वपक्षी - -भला इसका अर्थ तो आपने कर दिखलाया परन्तु (णणत्थ अरिहंतेवा अरिहंत चइयाणिवा ) इसका अर्थ क्या करेंगे ।
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( ८४ ) उत्तरपक्षी-इसका जो अर्थ है सो कर दिखाते हैं परंतु क्या इस ही पाठ से तुम्हारा पर्वत फुड़ाना खानखुदाना पंजावा लगाना मंदिर मूर्ति बनवाना पूजा करानादिक सर्वारंभ जिनाज्ञा में सिद्ध होजायेगा कदापि नहीं लो यथार्थ सुनो (णणत्थ) इतना विशेष अर्थात् इन केसिवाय और किसीको नमस्कार नहीं करूंगा किनके सिवाय (अरिहंतेवा) अरिहंत जी को (अरिहंत चइयाणिवा) पूर्वोक्त अरिहंत देवजी की आज्ञानुकूल संयम को पालनेवाले चैत्यालय अर्थात् चैत्यनाम ज्ञान आलयनाम घर ज्ञानका घर अर्थात् ज्ञानी (ज्ञानवान् साधु)गण धरादिकोंको वंदना करूंगा अर्थात् देवगुरु को देवपद में अरिहंत सिद्ध,गुरुपदमें आचार्य उपा ध्याय मुनि इत्यर्थः और यह पीताम्बरी मूर्ति
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( ८५ ) पूजक ऐसाअर्थ करतेहैं णणत्थ अरिहंतेवा अरिहंतचेयाणिवा (गणत्थ) इतना विशेष इनके सिवाय और को वंदना नहीं करनी किनके सिवाय (अरहंतेवा)अरिहंतजी के (अरिहंतचेइयाणिवा) अरिहंत देवकी मूर्तिके अव समझने कीवात है कि श्रावकने अरिहंत और अरिहंतकी मूर्ति को वंदना करनी तोआगार रक्खी और इनकेसिवा सवको वंदना करनेका त्याग किया तो फिर ग
धरादि आचार्य उपाध्याय मुनियों को वंदना करनी बंद हुई क्योंकि देवको तो वंदनानमस्कार हुई परन्तुगुरुको वंदना नमस्कार करनेकात्याग हुआक्योंकि अरिहंत भी देव और अरिहन्तकी मूर्तिभीदेव,तो गुरु को वंदना किस पाठसे हुई तातेजो प्रथम हमनेअर्थ किया हैवही यथार्थह ।
पूर्वपक्षी-निरुत्तर होकर ठहर२ के वोला
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कि यदि चेइय नामज्ञान का होता तो सूत्रोंमें ऐसा पाठ होताकि,मति चेइय श्रुतचेइय अवधिचेइय मनःपर्जवचेश्य केवलचेइय। ___ उत्तरपक्षी-सूत्र कर्ता की इछा किसी नाम से लिखे यदि मति चेइय ऐसा न लिखने से ज्ञानका नाम चेइयन माना जायगा तो फिर मूर्ति का नाम चेइय कहना निश्चय ही खंडन हो जायगा क्योंकि सूत्रोंमें मूर्ति का नाम इय कहि नहीं लिखाहै यथा ऋषभदेव चइय महावीर चेइय नाग चेइय भूत चेइय यक्षचेइय इत्यादि यदि लिखा होतो प्रकट करो जहां कहींसूत्रों में मूर्ति के विषयमे पाठआता है यथा रायप्रश्नीजीसूत्र, जीवाभिगमजीसूत्र में(अठसय जिनपडिमा)नागपडिमा भूतपडिमा यक्ष पडिमा इत्यादि तथा अंतगढ जी सूत्र
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( ८० )
(मोगरपाणी पडिमा ) हरिणगमेषी पडिमा इत्यादि तो फिर किस करतूती पर चेइय शब्द का अर्थ मूर्ति २ पुकारते हो,
(१५) पूर्वपक्षी उपासक दशा सूत्रमें आनंद श्रावकने मूर्तिपूजी है।
उत्तरपक्षी - भला तो पाठ लिख दिखाओ लुको के (छिपाके) क्यों रक्खाहे
पूर्व पक्षी -- लो जी लिखदेते हैं ( प्रगट करदेते हैं) नो खलुमे भंते कप्पइ अज्ज पभी इचणं अणउथिए वा अण उध्थिय देवयाणि वा अणउध्धिय परि ग्गहियाई वा अरिहंत चेड़ याईवा वंदितएवा नमंसित्तएवा ॥
उत्तरपक्षी - बसयही पाठ इसीपै मूर्तिपूजा कहतेहो इसका तो खण्डन हमअच्छी तरह अभी ऊपर लिखचुके हैं फिर पीसेका पीसना क्या ॥
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( ८८ ) और यहां(अरिहंचेइय) यह पाठ प्रक्षेप अर्थात् नया डालाहुआ सिद्धहोताहै,क्योंकि किसीप्रति में है वहुलताई प्रतियोंमें नहीं है और उपासक दशाअंगरेजो तरजुमेमेंभी लिखाहै,कि यहपूर्वोक्त पाठ नयाडाला हुआ है,यथा उपासक दशासूत्र जिस्का ए एफ.रुडोल्फहरनलसाहिबनेअंगरेजी में तरजुमा कियाहै जोकि ई०सन् १८८५ में
सियाटिक सोसाइटी बङ्गाल कलिकत्तामेछपा है पृष्ठ २३ मूल ग्रन्थ नोट १० ओर तर्जुमा पृष्ठ ३५ नोट९६ में यह लिखता है कि शब्द चेझ्याई ३ पुस्तकों में पाया अर्थात् विक्रमी संवत् १६२१ की लिखी में संवत् १७४५ की संवत्१८२४ की में चेइयाइं ऐसा पद है और २ पुस्तकों में अर्थात् संवत् १९१६ की संवत् १९३३की में अरिहंत चेइयाइं ऐसा पद है
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( ८८ ) इससे साफ सावत हुआ कि टीकामें से मूल में नया डाला है * अर्थात् टीकाकारोंने नया डाला है । और सुना है कि जेसलमेर के भण्डारे में ताड़पत्र ऊपर लिखीहुई उपासक दशाकी प्रति है सवत् ११८६ ग्यारांस छयासी की लिखितकी उसमें ऐसा पाठ है,(अणउथियपरिग्गहियाइ. चेइया)परन्तु (अरिहंतचेइयाइं) ऐसे नहीहैं,यह
* Extract from noto 96 at page 35 of tho Uvásagadasio, translated by A F Rudolf Hoernle, PhD
Tho words Chcīyārın or Arihanta-Chefyāın, which tho MSS horo lave, appear to be an explanatory interpolation, tabcn ovor from the commentary, which mire tho objects for reverenco may be either Arhats (or grunt saints) or Chuiyas' If they had beon an original portion of the text, thoro can be littlo doubt but ihatilay would havo boen Chéiyāni Tho difforence in termination, pariggahayana Cheraim, is very Fuspicious
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( ८० ) पक्षपातीयोंने प्रक्षेप किया है मिथ्या डिंभ के सहारे के लिये बस पूर्वपक्षीओ अव द्रौपदी जी के पाठ का शरणालो॥ ___ (१६) पूर्वपक्षी-हांहांजी द्रौपदी जीकेमन्दिर पूजनेका प्रकट पाठ है इसमे तुम क्या तर्क करोगे ॥ ___ उत्तरपक्षी-तर्क क्या हम यथार्थ सूत्रानुसार प्रमाण देके खंडन करेंगे, प्रथमतो तुम यहवताओ कि जैनमत वालों के कुल में अर्थात् जेनीयोंके घरमें मद मांस पकाया जाताहै वा नहीं ॥ पूर्वपक्षी-नहीं।
उत्तरपक्षी-तो फिर कंपिलपुर का स्वामी द्रौपदराजा द्रौपदी के पिता के घर द्रौपदी के विवाह में मद मांस के भोजन बनाये गये थे
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( १ ) और राजाओं के डेरों में मदिरा मांस भेजा गया है, ताते सिद्ध हुआ कि द्रौपदराजा के घर द्रौपदी के विवाह तक जैनमत धारण किया हुआ नहीं था और तुम कहते हो द्रौपदी ने जिनमंदिर की पूजा करी क्या जिनमंदिर के पूजने वालों के घर मद मांस का आहार होता है अपितु नहीं तो सिद्ध हुआ कि द्रौपदी ने जिनेश्वर का मंदिर नहीं पूजा।
पूर्व पक्षी-हां हां द्रौपदी के विवाह में मद मांस सहित भोजन तो किये गये हैं, क्योंकि सूत्र श्रीज्ञाता जी अध्ययन १६ में द्रौपदी के विवाह के कथन में ऐसा पाठ है, (कोडुं विय पुरि से सद्दावेइ रत्ता एवं क्यासी तुझे देवाणुपिया विउलं असणं, पाणं, खाइम, साइमं सुरंच,महुंच, मसंच, सिंधुच, पसन्नंच, सुवहु
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( २ ) अर्थात् असन १ पान २ खाद्यम् ३ स्वाद्यम् ४ मयं ५ मासं ६ मधु७ सिंधु ८ पसन्न ९ बहुत प्रकार के भोजन इत्यादि और जहां श्रावक आदिक दयावानोंके कलों में जीमणका (जयाफतका) कथन आता है वहां ४ प्रकार का आहार लिखा है यथा महावीर स्वामी जी के जन्म महोत्सव में महावीर स्वामी जी के पिता सिद्धार्थ राजा ने जीमण किया है, वहां कल्पसूत्र के मूल में ऐसा पाठ है (असणं,पाणं खाइमं, साइमं,उक्खडावेइरत्ता) परन्तु द्रौपदी जीके जिनमंदिर पूजनेका पाठ तो खुलासा है।
उत्तरपक्षी-पाठ भी लिखदिखाओ। पूर्वपक्षी-लो (तएणं सादोवइ रायवरकन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ मज्जण घर मणुप्पविस्सइ एहाया कयवलिकम्मा कय
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( ८३ ) कोउय मंगल पायच्छित्ता सुद्ध पावेसाई वत्थाई परिहियाई मज्जणधराउपडिनिस्कमइ निस्कमइत्ता जेणेव जिनघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता जिनघर मणू पविसइत्ता आलोए जिनपडिमाणं पणामं करेइ लोमहत्थयं परामुसई एवंजहा सुरियाभो जिन पडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं जावधुवंडहइ २त्ता वामंजाणु अंचेइ अंचेइत्ता दाहिण जाणु धरणि तलंसि निहदु तिखत्तो मुद्धाणं धरणी तलंसी निवेसेइ निवेसेइत्ता इसिपच्चुणमड़ करयल जावकटु एव वयासि नमोथ्थुणं अरिहत्ताणं भगवंत्ताणं जाव संपत्ताणं वंदइनमंसइ जिन घराओ पडिणिरकमइ।
अर्थ-तवते द्रोपदीराजवर कन्या जहां मज्जनघर (स्नान करने का मकान) था वहां आयी
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( ४ ) आके मज्जन करके बलि कर्म किया (घर के देव पूजे) तिलक किया मंगल किया शुद्ध हुई अच्छे वस्त्र पहरे मज्जनघर से निकली जहां जिनघर मंदिर था वहां आई जिन पडिमां को देखके प्रणाम किया चमर उठा के फटकारा लगाया (चौरी लेके झल्ल लाया) जैसे सुरयाभ देव नेजिन पडिमां की पूजा करी तैसे करी कहनी धूप दीनी गोडे निमा के नमोथ्थुणं का पाठ पढ़ के नमस्कार करी जिनघर से बाहर आई।
उत्तरपक्षी-इन में कितना ही पाठ तो सूत्रों से मिलता है कितना तो नहीं मिलता। पूर्वपक्षी-वह कितना२ कैसे २ उत्तरपक्षी-बहुधा यह सुनने और देखने में
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( ५ ) भी आया है कि अनुमानसे ७७०० सै वर्षोंके लिखितकी श्रीज्ञाता धर्म कथा सूत्र की प्रति है जिसमें इतना ही पाठ है यथा (तएणं सादो वइ रायवर कन्ना जेणेव मज्जण घरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता मज्जनघर मणुप्पविसइ २त्ता एहायाकयवलिकम्मा कय कोउय मंगल पायछित्ता सुद्ध पावेसाइ वत्थाई परिहियाइंमज्जण घराओ पडिणिक्खमा रत्ता जेणेव जिनघरे तेणेव उवागच्छइं रत्ता जिनघरमणु पविसइ २त्ता जिन पडिमाणं अच्चणं करेइरत्ता) बस इतनाही पाठ है ओर नई प्रतियों में विशेष करके पूर्वोक्त तुम्हारे कहे मूजव पाठ है ताते सिद्ध होता है कि यह अधिक पाठ पक्षपात के प्रयोग से प्रक्षेप अर्थात् नया मिलाया गया है ॥
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( ८६ ) पूर्वपक्षी-यदि तुम लोकों ने ही पक्ष से यह पाठ निकाल दिया हो तो क्या साबूती।
उत्तरपक्षी-साबूती यह है कि प्रमाणीक सूत्रोंमें और कहीं पूर्वोक्त श्रावक श्राविकाओंके धर्म प्रवृत्ति के अधिकार में तीर्थंकरदेवकी मूर्ति पूजा का पूर्वोक्त पाठ नहीं आया इसकारण से सिद्ध हुआ कि द्रौपदी ने भी धर्मपक्ष में मूर्ति नहीं पजी १ और इस के सिवाय दुसरी साबूती यह है कि तुम्हारे माने हुये पाठ में सुरयाभ देव की उपमा दी है कि जैसे सुरयाभ देव ने पूजा करी ऐसे द्रौपदी ने करी परन्तु स्त्री को स्त्री की अर्थात् श्राविका को श्राविका की उपमा नदी यथा अमुका श्राविका अर्थात् सुलसा श्राविका रेवती श्राविका ने जैसे मूर्तिपूजा करी ऐसे द्रौपदी ने मूर्ति पूजा करी
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( 20 )
अथवा आनन्दादि श्रावकों ने परन्तु किसी श्रावक श्राविकाने मूर्ति पूजी होती तो उपमा देने ना पूजी हो तो कहां से दें हां जैसे देवते पूर्वोक्त जीत व्यवहार से मूर्ति पूजते हैं ऐसे ही द्रौपदीने संसार खाते में पूजी होगी २ ।
पूर्वपक्षी - तीर्थंकर देवकी मूर्ति क्या संसार खाते में पूजते हैं ।
उत्तरपक्षी - द्रौपदीने क्या तीर्थंकर की मूर्ति पूजी है यदि पूजी है तो पाठ दिखाओ कौन से तीर्थंकर की मूर्ति पूजी है यथा ऋषभ देवजी की शांननाथजी की पार्श्व नाथजी की महावीरजी की अर्थात् संतनाथ जी का मंदिर था कि पार्श्व नाथ जीका मंदिर था कि महावीर स्वामी जी का मंदिर इत्यादि । ३
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( हद )
पूर्वपक्षी - तीर्थंकर का नाम तो नहीं लिखा हैं जिन घर जिन प्रतिमा पूजी यह कहा है ।
उत्तरपक्षी - यहां संबंध अर्थ से जिन घर जिन प्रतिमा का अर्थ काम देवका मंदिर मूर्ति संभव होता है क्योंकि वर्तमान में भी दक्षिण की तरफ अकसर रजपूत आदिकों में रसमे हैं कि कुंवारीयें वर के हेतु काम देव महादेव और गौरी आदिक की मंदिरमूर्ति को पूजती हैं ऐसे ही द्रौपदी राजवर कन्या ने भी अपने विवाह के वक्त वर हेतु कामदेव की मूर्ति पूजी होगी यथा ग्रन्थोंमे (रामायण) में सीता कुमारी ने स्वयंवर मंडपमेंजाते वक्त धनुषों की पूजा करी है रुकमणी कन्या ने ढाल सागर में वर के हेतु कामदेव की पूजा की है इत्यर्थः पूर्वपक्षी - कहीं काम देव को भी जिन कहा है
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( ५ ) उत्तरपक्षी-हां हैमी नाम माला अनेकार्थीय हेमाचार्य कृत में श्लोक है यथा वीतरागो जिनः स्यात् जिनः सामान्य केवली । कंदों जिन स्स्यात् जिनो नारायण स्तथा १ ___ अर्थ-वीत राग देव अर्थात् तीर्थ कर देव
को जिन कहते हैं, सामान्य केवली को भी जिन कहते हैं,कंद ( काम देव ) कोभी जिन कहते हैं,नारायण (वासु देवको) भी जिन कहत हैं ? बस इन पोंक्त चार कारणों से सिद्ध हुआ कि द्रोपदी ने जैनमन के अनुसार मुक्ति के हेतु बीन राग की मूर्ति नहीं पूजी है पर्वपक्षी-चुप ?
उत्तरपक्षी-इस पाठले हमारे पूर्वोक्त कथन की एक और भी सिद्धी हुईकि हम जो चौदहने प्रश्न अम्बड़ जी के अधिकारमें लिख आयडेंकि
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( १.० ) चैत्यचैत्यानि(चेइयाणि)शब्दका अर्थ ज्ञान ज्ञान वान्,यति,आदि सिद्धहोताहै,मूर्ति(प्रतिमा) नहीं क्योंकि जहांमूर्ति का कथन आवेगा वहांप्रतिमा शब्द होगा,सो तुम अबअच्छी तरह आंखेंखोल के द्रौपदी जी के पाठ को देखो कि यहां द्रौपदी जीने मूर्ति पूजी है तो (प्रतिमा ) पाठ आया है (जिनपडिमाउ अचेइ ) यदि तुम्हारे कहने के बमूजव चेइय शब्द का अर्थमूर्ति होता अर्थात् मूर्ति को चैत्य कहते, तो यहां ऐसा पाठ होता कि ( जिन चेइय अच्चेइ ) सो है नहीं यदि कहीं टीका टव्बो कारों ने चेइय शब्द का अर्थ प्रतिमा लिखाभीहै तो मूर्ति पूजक पूर्वाचार्योंने पूर्वोक्त पक्षपात से लिखा है क्योंकि इसी तरह जहां भगवती शतक २० मा उद्देशा ९ मा में जंघा चारण विद्या चारण की शक्ति का कथन
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भाता है, जिस का पूर्वपक्षी पाषाणोपासक जल्दी ढोआ (भेट) ले मिलते हैं कि देखो जंघा चारण २ मुनियों ने मर्ति को नमस्कार की है परन्तु वहां मुनियों के जाने का और मूर्ति के पजने का पाठ नहीं है अर्थात् अमुक मुनि गया अपितु वहां तो विद्या की शक्तिके विषय में गोतमजीका प्रश्न है और महावीर जी का उत्तर है।
(१७) पूर्वपक्षी-यहतो प्रश्नहमारा ही है कि जंघाचारग विद्याचारण मुनियों ने मूर्ति पूजी हे यह पाठ तो खुलासा है,भगवती जी सूत्र में __उत्तरपक्षी-अरे भोले भाई उस पाठ में तो
मूर्ति पूजा की गंधि (मुस्क) भी नहीं है और न किसी जैन मुनि ने किली जड़ मूर्ति को वंदना नमस्कार करी कही हे वहां तो पूर्वोक्तभाव से
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( १०२ )
भगवत के पूर्णज्ञान की स्तुतिकी कही है क्यों कि ठाणांग जी सूत्र में, तथा जीवाभिगम सूत्र में नंदीश्वरद्वीप का तथा पर्वतों की रचना का विशेष वर्णन भगवंत ने किया है और वहां शाश्वती मूर्ति मंदिरोंका कथनभी है परन्तु वहां भी मूर्ति को पडिमा नाम से ही लिखा है यथा जिन पडिमा ऐसे हैं परन्तुजिन चेइय ऐसे नहीं और भगवतीजी में जंघाचारण के अधिकार में ( चेइयाई बदइ) ऐसा पाठ है इस से निश्चय हुआ कि जंघाचारण ने मूर्ति नहीं पूजी अर्थात मूर्ति को वंदना नमस्कार नहीं करी यदि करी होती तो ऐसा पाठ होता कि (जिन पडिमाओ वंदइ नमसड़ता ) तिससे सिद्ध हुआ कि जंघा - चारण मुनि ने ( चेइयाइं वंदइ ) इस पाठ से पूर्वोक्त भगवत के ज्ञान की स्तुति करी अर्थात्
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( १०३ ) धन्य है केवल ज्ञान की शक्ति जिस में सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष हैं यथा सूत्र :
जंघाचारस्सणं भंते तिरियं केवइए गइ विसएपणत्ता गोयमा सेणं इतो एगेणं उप्पाणं रुअगवरे दीवे समोसरणं करेइ करइत्ता तहं चेड़ याइं वंदइ वंद इत्ता ततो पडि नियत माणे विएणं उप्याएणं गंदीसरे दीवे समोसरण करइ तहं चेइयाइं वंदइ वंदइत्ता इहमागच्छ। इह चेइ याई वंदइ इत्यादि। अर्थ :
___ गोतमजी पूछते भये हे भगवन् जंघाचारण मुनिका, तिरछी गतिका विषय कितना है गोतम वह मुनि एक पहिली छाल में (कूढमें) रुचक वर दीपपर समोसरणकरता है (विश्राम करता है। तहां (इय बदइ) अर्थात् पूर्वोक्त
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( १०२ ) भगवत के पूर्णज्ञान की स्तुतिकी कही हैक्यों कि ठोणांग जी सूत्र में, तथा जीवाभिगम सूत्र में नंदीश्वरद्वीप का तथा पर्वतों की रचना का विशेष वर्णन भगवंत ने किया है और वहां शाश्वतीमूर्ति मंदिरोंका कथनभी है परन्तुवहां भी मूर्ति को पडिमा नाम से ही लिखा है यथा जिन पडिमा ऐसे है परन्तुजिन चेइय ऐसे नहीं और भगवतीजीमें जंघाचारण के अधिकार में (चेइयाइं बदइ) ऐसापाठ है इस से निश्चय हुआकि जंघाचारण ने मूर्ति नहीं पूजी अर्थात् मूर्ति को वंदना नमस्कार नहीं करी यदि करी होती तो ऐसा पाठ होता कि (जिन पडिमाओ वंदइ नमसइता) तिससे सिद्ध हुआकि जंघाचारण मुनि ने (चेइयाइं वंदइ ) इस पाठ से पूर्वोक्त भगवत के ज्ञान की स्तुति करी अर्थात्
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( १०३ )
धन्य है केवल ज्ञान की शक्ति जिस में सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष हैं यथा सूत्र :
जंघाचारस्सणं भंते तिरियं केवइए गइ विसएपणत्ता गोयमा सेणं इतो एगणं उप्पाणं रुअगवरे दीवे समोसरणं करेइ करइत्ता तह चेइ याई वंदइ वंद इत्ता ततो पडि नियत माणे विएणं उप्याएणं णंदीसरे दीवे समोसरण करइ तहं चेझ्याई वंदइ वंदइत्ता इहमागच्छइ इह चेइ याई वंदइ इत्यादि। अर्थ :
गोतमजी पछते भये हे भगवन् जंघाचारण मुनिका. तिरछी गतिका विषय कितना है गोतम वह मुनि एक पहिली छाल में (कुदमें) रुचक वर दीपपर समोसरणकरता है (विश्राम करता है। तहां (चेइय बन्द) अर्थात् पूर्वोक्त
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( १०४ ) ज्ञान की स्तुति करे अथवा इरिया वही का ध्यान करने का अर्थ भी संभव होता है क्योंकि इरिया वहीके ध्यानमें लोगस्त उज्जोयगरे कहा जाता है उसमें चौवीस तीर्थंकर और केवलीयों की स्तुति होती है और लोगस्स उज्जोय गरेका नाम भी चौवीसस्तव (चौवीसत्था है फिर दूसरी छाल मे नंदीश्वरद्वीपमें समवसरण करे तहां पूर्वोक्त चैत्यवंदन करे फिर यहां अर्थात् अपने रहनेके स्थान आवे यहां चैत्य वंदनकरे अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञान स्तुति अथवा इरिया वही चौवीस स्थाकरे, क्योंकि आवश्यकादि सूत्रों में कहा है साधुको गमनागमनकी निर्वृति हुए पीछे इरिया वही पडिक्कमें विन कोई कार्य करना कल्पे नहीं इत्यर्थः॥ __इसमें एक वात और भी समझनेकी है कि
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( १०५ ) यहां इस जगह (चेइयाइं वंदइ) ऐसा पाठ आया है अर्थात् ज्ञानादि स्तव परन्तु (चेइयाई वंदइ नमसई ) ऐसा पाठ नहीं आया क्योंकि 'जहां नमस्कार का कथन आता है वहां साथ नमसइ पाठ अवश्य आता है ताते और भी सिद्ध हुआ कि वहां केवल स्तुति की गई है, नमस्कार किसी को नहीं करी यदि मूर्ति को नमस्कारकरी होती तो वंदइ नमं सइ ऐसा भी पाठ आता अब इस में पक्ष की ( हठ करने की ) कौनसी बात बाकी है ॥
पूर्वपक्षी - बन्द शब्द का अर्थ स्तुति करना कहां लिखा है ॥
उत्तरपक्षी - जगह २ सूत्रों में वन्दइका अर्थ स्तुति करना लिखा है यथा (वन्दइ नम सइतो एवं वयासी) वन्द वन्दन (स्तुति) करके (नमं
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( १०६ ) सइत्ता) नमस्कार करके (एव) अमुना प्रकार (वयासी) काली (कहता भया) इत्यादि तथा धातु पाठे आदि में ही लिखा है (वदि अभि वादन स्तुत्योः) अर्थात् वदि धातु अभिवादन स्तुति करनेके अर्थ में है,तथा अमरकोष द्वितीय कांडे श्लोक ९७ में (वंदिनः स्तुति पाठकाः) अर्थ वंदंतेस्तुवते तच्छीलावंदिनः इत्यर्थः ॥
(१८) पूर्वपक्षी-यह तो आपने प्रमाण ठीक दिया परन्तु भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशक २ में असुरेंद्र चमरेंद्र प्रथम स्वर्गमें गया है वहां अरिहंत चेइयं अर्थात् अरिहंतकी मूर्तिका शरणा लेकर गया लिखा है और साधुका पाठ न्यारा आता है, तो तुम वहां चेइय शब्द का क्या अर्थ करोगे क्योंकि वहां ज्ञानका शरणा लिया ऐसा तो सिद्ध नहीं होता है।
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( १०७ ) उत्तर पक्षी-लो इस का भी पाठ और पाठ से मिलता अर्थ लिख दिखाते हैं। ___तएणसे चमरे असुरिंदे असुरराया उहिं पउ जइरत्ता मम उहिणा आभोएइत्ता इमेयारुवे अज्झथिए जोव समुप्यज्जित्था एवं खलु सम णे भगवं महावीरे जंबूदीवे २ भारहेवासे सुस मार पुर नगरे असोगवणसंडे उज्जाणे असोग वर पायवस्स अहे पुढविशिला पट्टयंसि अट्टम भत्तं पगिहिना एगराइयं महापडिम उवसं पज्जित्ताणं विहरइ तंसेयं खलु मे समणं भगवं महवीरं निस्साए सकिंदें देविंदे देवरायंसयमेव अच्चासायत्तएतिकटु॥
अर्थ-तबते चमर असुरइंद्र असुरराजा अब घि ज्ञान करके महावीर स्वामीजी गौतम ऋषि को कहते भये कि मेरे को देख के एतादृश
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( १०८ )
अध्यवसाय उपजा इस तरह निश्चय समण भगवंत महावीर स्वामी जंबूदीप भारतक्षेत्र सुसुमार पुर नगर में अशोक बनखण्ड उद्यान में पुढ़वी शिलापट्ट ऊपर अष्टम भक्त (तेला) कर के एक रात्रिकी प्रतिज्ञा ( १२ मी पडिमा ) ग्रहण करके विचरते हैं, तो श्रय है मुझे श्रमण भगवन्त महावीर जी के निश्श्राय अर्थात् शरणा लेके सत्कृत इंद्र देवइंद्र देवों के राजाको मैं आप जा के असना करूं अर्थात् कट दूं ऐसा करता
२०५८
भया, अब देखिये जो मूर्ति का शरणा लेना होता तो अधोलोक । चमर चचाकी सभादिक में भी मूर्तियें थीं, वहां ही उनका शरणा ले लेता अपितु नहीं तिरछे लोक जंबूद्वीप में महा- वीरजी का शरणा लिया ॥
फिर जब सक्रेन्द्रने विचारा कि चमर इन्द्र
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( १०८ )
ऊर्धलोक में आने की शक्ति नहीं रखता परन्तु इतना विशेष है ३ महिला किसी एक का शरणा लेके आसक्ता है ॥ यथा सूत्रं ॥ गणत्थ अरिहंतेवा, अरिहंत चेइयाणिवा अणगारे वा भावियप्याणों, णीसाए उढं उप्पयन्ति ॥
अर्थ - (अरिहंतेवा) अरिहंतदेव ३४ अतिशय ३५ वाणी संयुक्त (अरिहंतचेइयाणिवा ) अरिहंत चैत्यानिवा अर्थात् चैत्यपद ( अरिहंतछदमस्थ यति पद में ) क्योंकि अरिहंत देव को जब तक केवलज्ञान नहीं होय तबतक पञ्चमनद (साधु पद) में होते हैं और जब केवलज्ञान होजाता है तब प्रथम पद अरिहंत पद में होते हैं (अणगारे वा भावियप्पाणो) सामान्य साधु भावितात्मा इन तीनों में से किसी का शरणा लेके आये । अब कहोजी मूर्ति पूजको इस पाठसे तुम्हारा मंदिर
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( ११० ) पूजा का आरम्भ मुक्ति का पंथ सिद्ध होगया अरे भाई जो मूर्ति का शरणा लेना होता तो सुधर्म देव लोक में भी मूर्तिये थी वहां ही शरणाहोजाता मृत मंडल में भागा क्यों आता नहींतो तुमही पाठ दिखलाओ जहां चमरेन्द्रने मूर्ति का शरणा लिया लिखाहो।
पूर्वपक्षी-अजी तुमने (अरि हंतचेयाइणिवा) इस का अर्थ अरिहंत चैत्यपद यह किस पाठ
से निकाला है ____ उत्तरपक्षी-जिस पाठ से तुम मूर्ति पूजकोंने
देवयं चेइयं का अर्थ प्रतिमा वत् ऐसे निकाला है क्योंकि सूत्रों में ठामर जहां अरिहंत देव जीको तथा,साधु गुरुदेवजीको वंदना नमस्कार का पाठ आता है,वहाऐसा पाठ आता है (तिखुत्तो अया हिणं पयाहिणं करि त्तावंदामिनर्म
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सामिलापति ननन का नंगल देवयं चेझ्यं पल्लव सानि नगरवानिः १
अर्थ-निवार वक्षिणा करने वेदना करके नमस्कार का मला जे मनमान करने कल्याणकारवर नान अन्तिदेवी अथवा गुरुब की जयं नान ज्ञान गन की संवकरचे मस्तक निनाने वंदना नर्ग इत्ययं और यह मूर्ति पूजक असन्मानानन नाम्वर्ग अपने बनाय सत्यजनाधार पाये में विक्रनलंवत् १९९० के बारे का जिम काडी की की हुई गगन्धा का २० वर्षमा बलभ विजय नया उसवतराय ग्रहोंने १९६० में लाहौर में पर छपवा उमाली है, अपना और अपने मतानुयायियों का भमति और नुन पनि तार करने के च्चेि और अनन्त तार के
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( ११२ ) लाभ के लिये, सो सम्यक्त शल्योद्वार पृष्ठ २४२ पंक्ति १९ । २२में लिखते हैं कि देवयं चेइयं का अर्थ तीर्थंकर और साधु नहीं अर्थात् तीर्थकर को तथा साधु को नमस्कार करे तो यों कहे कि तुम्हारी प्रतिमा की तरह (वत् ) सेवा करूं इति अब समझो कि (देवयं चेइयं) इस पाठमें देवयंसे देव और चेइयं सेमूर्ति(प्रतिमा) अर्थ किया परंतु तरह (वत्) अर्थात् यह उपमावाचीअर्थ कौनसे अक्षरस सिद्ध किया सो लिखो यह मन कल्पित अर्थ हुआ कि व्याकरणकी टांग अड़ी फिर और अज्ञताकी अधिकता देखोकि वंदना तो करे प्रत्यक्ष अरिहतको और कहे कि प्रतिमाकी तरह तो अरिहतजीसे प्रतिमा जड़ अच्छीरही क्योंकि उपमा अधिक की दीजाती है यथा अपने सेठ (स्वामी) की
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( ११३ ) वंदना करे तो यों कहेगा कि तुमें राजा की तरह समझता हूं परंतु यों तो ना कहेगा कि तुमें नौकर की तरह समझता हूं ऐसे ही कोई मत पक्षी मूर्ति को तो कहभी देवे कि मैं मूर्ति को भगवान् की तरह मानता हूं इत्यादि।
(१९) पूर्वपक्षी-हमारे आत्मारामजी अपने बनाये सम्यक्त्व शल्योद्धार में जिसका उलथा १९६० के साल विक्रमी, देशी भाषा में किया है पृष्ठ २४३ पंक्ति ४ में लिखते हैं कि किसी कोष में भी चैत्य शब्द का अर्थ साधु (यति) नहीं करा है, और तीर्थंकर भी नहीं करा है कोषोमें तो (चैत्यं जिनौक स्तबिंब च्यैत्यो जिन सभा तरुः) अर्थात् जिन मंदिर और जिन प्रतिमा को चैत्य कहाहै और चौतरे वंध बृक्ष का नाम चैत्य कहाहै इनके उपरान्त और
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( ११४ ) किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं कहा है, · उत्तरपक्षी-देखो कानी हथनी की तरह एक तरफी वेल खाने वत् अपने माने कोष और अपने मन माने चैत्य शब्द के तीन अर्थप्रमाण कर लिये और चैत्य शब्द के ज्ञानादि अर्थों की नास्ति करदी परन्तु चैत्य शब्द के जैन सूत्र में तथा शब्द शास्त्रों में बहुत अर्थ (नाम) चले हैं इन में से हम अब शास्त्रानुसार कई ज्ञाना - दि नाम लिख दिखाते हैं।
ज्ञानार्थस्य चैत्य शब्दस्य व्युत्पत्ति र्बभण्यते चिती संज्ञाने धातुः कवि कल्पद्रुम धातु पाठे तकारांतचकाराधिकारे ऽस्ति तथा हि चतेञ् याचे चिती ज्ञाने चित् कङ् च चिति क् स्मृतौ इत्यादि ईकारानुबंधात्काक्य योरिण निषेधार्थः इतिपश्चात् चित् इतिस्थिते
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. ( ११५ ) ततो नाम्युप धातकः सारस्वतोक्त सूत्रेण क प्रत्ययः तथा हेमव्याकरण पंचमाध्यायस्य प्रथम पादोक्त नाम्युपांत्य प्राकृक दृज्ञः कः अनेनापि सूत्रेणकः प्रत्ययः स्यात् ककारो गुण प्रधिषेधार्थः पश्चात् चेतति जानाति इति चितः ज्ञानवानित्यर्थः तस्य भावः चैत्यं ज्ञान मित्यर्थः भावत स्तद्धितोक्तयण प्रत्ययः
अब इस का मतलब फिर संक्षेप से लिखा जाता है,यथा ज्ञानार्थस्य चैत्य शब्दस्य व्युत्पत्तिः चिती संज्ञाने धातुः ईकार उच्चारणार्थः ततः कः प्रत्ययः ततो नाम्युपधेत्यनेन गुणः एवं कृते चेततीति चेतः इति सिद्धम् १ ।
इस रीति से चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान सिद्ध करते हैं पण्डित जन तुम कहते हो, चैत्य शब्द
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( ११६ ) के नाम पूर्वोक्त तीन ही हैं चौथा है ही नहीं लो अव और सुनो,
चैत्यं चित्त सम्बन्धि धारणा शक्तिः अर्थात् स्मरण रखने की शक्ति जिस को फारसी में हाफ़ज़ा याद रखने की ताकत कहते हैं २ .
चैत्यंचिता सम्बन्धि अर्थात् दाहाग्नि का प्रश्वी ३
चैत्यं जीवात्मा ४ चैत्यं सीमा (हद्द ) ५ चैत्यं आयतन ६ (यज्ञ शाला) ७ चैत्यः जय स्तम्भ (फते की किल्ली) ८ चैत्य आश्रम साधुयोंके रहने का स्थान ९
चैत्यःछात्रालयं - विद्यार्थियों के पढ़ने का स्थान १०
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( ११७ )
९९
१२
इलोक ) - चैत्यः प्रसाद विज्ञेय, चेइहरिरुच्यते
९४
चैत्यं चेतना नाम स्यात्, चेइसुधास्मृता | १ | चैत्यं
१५
९ ह
ज्ञानं समाख्यातं, चेइ मानस्य मानवं, चैत्यं
१७
९
यति रुत्तमः स्यात्, चेइभगवनुच्यते ॥ २ ॥ चैत्यं
वह
२०
जीव मवाप्नोति, चेइ भोगस्यारंभनं, चैत्यं
२२
भोगनिवर्तस्य चैत्यं विनउ नीचउ ॥ ३ ॥
चैत्यः पूर्णिमा चन्द्रः, चेईगृहस्यारंभनं, चैत्य गृह मग वाहं, चेइगृहस्यछादनम् ॥ ४॥ चैत्यं गृहस्तम्भो
२८
२८
वापि, चेइ चवनस्पतिः, चैत्यं पर्वते वृक्षः, चेइ
३९
वृक्षस्थूलयोः ॥५॥ चैत्यंबृक्ष सारस्य, चइ चतुः
३२
३३
३४
कोणस्तथा, चैत्यं विज्ञान पुरुषः, चेइ देहस्य
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Bu
( ११८ ) उच्यते ॥६॥ चैत्यं गुणज्ञो जेयः, चेइ च जिन शासन इत्यादि ११२ । नाम अलंकार सुरेश्वर वार्तिकादि वेदान्ते शब्द कल्पद्रुम प्रथम खण्ड पृष्ठ ४६२ चैत्यं क्ली पुं आयतनम् यज्ञ स्थानं देवकुलं यज्ञायतनं यथा यत्र यूपा मणिमया श्चैत्या श्चापि हिरण्मयाः चैत्य पुं करिभः कुञ्जरः इत्यादि और ग्रंथों में चले हैं। __ अब इन पूर्वपक्षी हठ बादियों का पूर्वोक्त कथन कौन से पातालमें गया।
(२०) पूर्वपक्षी-इस पूर्वोक्त लेख से तो चैत्य शब्द का ज्ञान और ज्ञानवान् यति आदिक नाम ठीक है परन्तु हम यह पूछते हैं कि मूर्ति पूजने में कुछ दोष है।
उत्तरपक्षी-सूत्रानुसार षटकायारंभादि दोष
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( ११८ ) हैं ही क्योंकि भगवत का उपदेश निरवद्य है यथाश्रीमदआचाराङ्गजी सूत्र प्रथम श्रुत,स्कंध चतुर्थ अध्ययन सम्यक्त्वसार नामा प्रथम उदेशक। . सेवेमि जेय अतीता जेय पडुपणा जेय आग मिस्साअरहंतभगवंताते सव्वे एव माइ खंति एवं भासंति एवं पणवेंति एवं परूति सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हत्तव्वा णअझावे यव्वा णपरिघे यव्वा णउद्दवे यव्वा एसधम्मे सुद्धेः णितिए सासए समन्च लोयं खेदणेहि पवेदिते :__ अर्थ-गणधरदेव सूत्र कर्ता कहते भये ज अतीत काल जे वर्तमानकाल आगामि काल अर्थात् तीन काल के अरिहंत भगवंत ते सर्व ऐसे कहते हैं, ऐसे भाषते हैं ऐसे समझाते हैं
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( १२० ) ऐसे उपदेश करते हैं सर्व प्राणी सर्व भूत सर्व जीव सर्व सत्त्व को अर्थात् स्थावर जंगम जीवों को मारना नहीं ताड़ना नहीं बांधना नहीं तपाना नहीं प्राणों से रहित करना नहीं यही धर्म शुद्ध है ) नित्य है शाश्वत है, सर्व
लोक केजाननेवालोंनेऐसा कहा है ॥इति ॥ __और दूसरा बड़ा दोष मिथ्यात्व का है,क्यों कि जड़ को चेतन मान कर मस्तक झुकाना यह मिथ्या है यथा सूत्र :
(जीवेऽजीव सन्ना,अजीवे जीव सन्ना)इत्या दीनि अर्थ जीवविषय अजीवसंज्ञा अजीवविषय जीव संज्ञा, अर्थात् जीव को अजीव समझना अजीव को जीव समझना इत्यादि १० भेद मिथ्यात्वके चले हैं। __ (२१)पूर्ववक्षी-महा निशीथ सूत्रमें तो मंदिर
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नवाने बानि
हो । उपक्षी-हानिहाय में कहीं नहीं कहा है तुमनन रोहित उजहरण (हवाले के बुनि पूजा के भारत में विवान कराते हैं।
पक्षी-अजी वाह कल्ति बात नहीं है देखो निनीय का पाठौरपथ लिख दिलातेहैं. (कारपि जिगायहि मंडिया तब सेयणिवह दाणाइ वरच्यणं.लहो गच्छेजचं जाय॥
अर्थ-जिन नकान अर्थात् मंदिरों करके मंडितकालबमदिनी अर्थात् संपूर्ण भूमंडल को मंदिरों करके भरदे (रच दानादि चार करके अर्थान् दान ील तप भावना. इन चारों के कनिने श्रावक जाय अच्युत १२में देव लोक तक।
उत्तरपक्षी-इस पूर्वोक्त पाठ अर्थ को तुम
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( १२२ )
अंतर दृष्टि से देखो और सोचो कि इसमें मंदिर वन वाने का खण्डन है कि मण्डन अपितु साफ खण्डन किया है । पूर्वपक्षी है यह कैसे ॥
उत्तरपक्षी - कैसे क्या देख इस पाठ में मूर्ति पूजा के हठ करने वालों को मंदिर आदिक के आरंभ को न कुछ दिखाने के लिये मंदिर को उपमा वाची शब्दमें लाके दान, शील, तप, भावनाकी अधिकता दिखाई है, अर्थात् ऐसे कहा है कि मंदिरों करके चाहे सारी पृथ्वी भरदे तो भी क्या होगा दान शील तप भावना करके श्रावक १२ में देव लोक तक जाते हैं।
पूर्वपक्षी - उपमा वाची किस तरह जाना । उत्तरपक्षी - यदि उपमा वाची न माने तो ऐसे सिद्ध होगा कि किसी श्रावकको १२ मा
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( १२३ ) देव लोक ही कभी न हुआ न होय क्योंकि इस पाठ में ऐसे लिखा है, कि संपूर्ण पृथ्वी को मंदिरों करके रच देवे अर्थात् मंदिरो करके भरे तव १२ में देव लोक में जाय सो न तो सारी मेदिनी (पृथ्वी) मंदिरों करके भरी जाय न १२ मां देव लोक मिले ताते भली भांति से सिद्ध हुआ कि सूत्र कर्ताने उपमादी है कि मंदिरों से क्या होगा दानादि,चार प्रकार के धर्म से देव लोक वामुक्ति होगी न तो सूत्र करता सीधा यों लिखता ___ (काउंपिजिणायणेहिं सहोगच्छेज्ज अचयं) अर्थ जिन मंदिरों को बनवा के श्रावक १२ में स्वर्ग में जाय बस यों काहे को लिखा है, कि मंडिया सव्व मेयणी वट्ट, दाणाइचउकयेणं सढोगच्छेज्जअच्चुयं
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( १२४ ) . अर्थ मंडित करे सारीमेदिनी मंदिरोंसे परन्तु दानादि चार करके १२ में देव लोक में जाय इत्यर्थः द्वितीय इसमें यह भी प्रमाण हैं कि प्रथम इस ही निशीथ के ३ अध्याय में मूर्ति पूजा का खण्डन लिखा है जिस का पाठ और अर्थहम २४ में प्रश्न के उतर में लिखें गे, ताते निश्चय हुआ कि यहां भी खण्डन ही है क्योंकि एक सूत्र में दो बात तो हो ही नहीं सकती हैं कि पहिले मूर्ति पूजा खण्डन पीछे मण्डन यदि ऐसा होतो वह शास्त्रहीक्या इत्यर्थः _(२२) पूर्वपक्षी-ठहर२ के क्यों जी (कयबलि कम्मा) इस पाठका अर्थ क्या करते हैं ।
उत्तर पक्षी-हंस कर जो इसका अर्थ है स्नानकी पूर्ण विधिका सो करेंगे बलिकर्मबल वृद्धि करने के अर्थमें बल धातुसे बलिकर्म आदि
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( १२५ ) अनेक अर्थ होते हैं यथा बलयति बलं करोति देह पुष्टौ यौगिकार्थश्चेति'क्योंकि दक्षिण देशा दिकोंमें विशेष करके बलवृद्धिकेलिये औषधियों केतेल मल मलके उवटना (पीठी) करकेस्नान करते हैं तथापि सूत्रों में सम्बंधार्थ है क्योंकि सूत्रों में जहां स्नान की विधि का संक्षेप से __ कथन आता है वहां ही कयबलिकम्मा शब्द
आताहै और जहां स्नानकी विधिकापूराकथन लिखा है वहां वलि कम्मापाठ नहीं आता है तथा बलि, दान अर्थ में भी है, यथाशब्दकल्प द्रुम तृतीय काण्डे बलिः पुंबल्यते दीयते इति वलदाने तथा गृहस्थानां बलिरूप भूत यज्ञस्य प्रतिदिन कर्तव्य तथा तस्य विस्तृतिरुच्यते गृहस्थ से करने लायक पांच यज्ञोंमें से “भूत यज्ञ" बलिकर्म ततः कुर्य्यात्) यथा पञ्जाब
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( १२६ ) में भी व्याह के समय कुमार कुमारीको स्नान कराके कुछ दान देते हैं (वारा फेरा करते हैं) तथा नवग्रह बलिर्यथा (ग्रह आदिक का बल उतारने को भी दान करते हैं) इत्यादि तथापि कहीं,२ टीका टब्बामें रूढिसे कय बलि कम्मा का अर्थ घरकादेवपूजा लिखा है फिर पक्षपाती उसका अर्थ करते हैं कि श्रावकों का घरदेव तीर्थंकरदेव होता है और नहीं सो यह कहना ठीक नहीं क्योंकि तीर्थकरदेवघरके देव नहीं होते हैं तीर्थंकरदेवतो त्रिलोकीनाथदेवाधि देवहोते हैं घरकेदेव तो पितर दादे यां,बाबे,भूत यक्षादि होते हैं, यथाकोईकुलदेवी(शाशनदेवी) कोईभैरूक्षेत्रपालादिपूजते हैं। पूर्वपक्षी-श्रावक नेतोकिसीदेवकासहायनहींवंछना।उत्तरपक्षीसहायवंछना कुछऔरहोताहैकुलदेवकामानना
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( १२७ ) संसार खाते में कुछ और होता है तुम्हारे ही ग्रंथों में २४ भगवान् के शाशन यक्ष यक्षनी लिखे हैं उन्हें कौन पूजता है इत्यर्थः यदि तुम बलिकर्म काअर्थ देवपूजा करोगे तोजहांउवाइ जीसूत्रमें कौनक राजा तथा कल्प में सिद्धार्थ राजाकी स्नान विधिका संपूर्ण कथन आयाहै, वहांवलिकर्म पाठ नहीं है और जहां रायप्रश्नी में कठियारा अरणी की लकड़ी वालेने वन में स्नान किया जिस की तेल मलने आदिक की विधि नहीं खोली है,वहां वलि कर्म पाठ लिखा है, अब समझने की बात है, कि उस कठियारा पोमरने तो घरदेव की वहां उजाड़ में पूजा करी जहां घर ना घर देव और उन उक्त उत्तम राजायों की देव पूजा उड़ गई, जो वहां कय वलि कम्मी पाठ ही नहीं,अरे भोले ऐसे हाथ
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( १२८ ) पैर मारनेसे क्या मंदिर मूर्ति पूजा जैन सूत्रों में सिद्ध होजाय गी, और क्या उक्त पाठ आदिक ओस की बूंदे टटोल २ के मंदिर पूजाके आरंभ की सिद्धि के आसा रूपी कुम्भको भर सकोगे, अपितु नहीं क्योंकि पूर्वोक्त गणधर आचार्य आगम ज्ञानी यदि मूर्ति पूजा को धर्म का मूल जानते तो क्या ऐसे भ्रम जनक शब्द लिखते और मंदिर मूर्ति पूजा का विस्तार लिखने में ही कलम खेंचते,परन्तु भगवान्का उपदेश ही नहीं मंदिर पूजादि मिथ्यारंभ का तो लिखते कहां से क्योंकि देखो सूत्र उत्राध्ययन अध्ययन २९ में ७३ बोलों का फल गौतम जीने तप संयम के विषय में पूछे हैं, और भगवंतजीने श्रीमुखसे उत्तर फरमाये हैं और निशीथादि में साधु को बहुत प्रकार के व्यवहार वस्त्र पात्र
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( १२८ ) उपाश्रय आदि का लेना भोगना आहार पानी लेना देना बलिकि दिशा फिर के ऐसे हाथ पछने धोने आदिक की विधि लिखदी है विधि रहित का दंड लिखदिया है परन्तु मूर्ति पूजाका न फल लिखा है न विधि लिखी है न ना,पूजने का दंड लिखा है, ___ (२३) पूर्वपक्षी-ग्रंथों में तो उक्तपूजादि के सर्व विस्तार लिखे हैं
उत्तरपक्षी-हम ग्रथों के गपौड़े नहीं मानते हैं हां जो सूत्र से मिलती वात हो उसे मान भी लेते हैं परन्तु जो सावद्या वार्यों ने अपने पासस्थापनके प्रयोग अपनी क्रियायों के छिपाने को
और भोले लोकों को वहकाकर माल खाने को मन मानें गौड़े लिख धरे हैं निशीथ भाष्यवत् उन्हें विद्वान् कभी नहीं प्रमाण करेंगे।
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( १३० ) पूर्वपक्षी-इसमें क्या प्रमाण है कि ३२ सूत्र मानने और न मानने,
उत्तरपक्षी-इसमें यह प्रमाण है कि सूत्र नंदी जीमें लिखा है कि १० पूर्व अभिन्न बोधीक वनाये हुए तो सम सूत्र अर्थात् इसते कमती के वनाये हुए असमंजस क्योंकि १० पूर्व से कम पढ़े हुए के वनाये हुए ग्रथों में यदि किसी प्रयोगसे मिथ्या लेखभी होय तो आश्चर्य नहीं यथा :
सुत्तं गणहर रइयं, तहेव पत्तेय वुद्ध रइयंच॥ सुयकेवलीणारइअं,अभिन्नदशपुटिवणारइयो। ____ अर्थ-सूत्र किस को कहते हैं गणधरों के रचाये हुये को तथा प्रत्येक बुद्धियों के रचे हुये को श्रुत केवली के रचे हुये को १० पूर्व संपूर्ण पढ़े हुये के रचे हुये को इत्यर्थः ताते ३२ सूत्रतो
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( १३१ ) उक्त आगम विहारियों के बनाए हुए हैं और जो रत्न सार शत्रुजय महात्म्य आदि तथा १४४४ वा कितने ही ग्रंथ हैं वह सावधाचार्यों के वनाये हुए हैं जिन्हों में साल संवत् का प्रमाण और कर्ता का नाम लिखा है अर्थात् पूर्वोक्त आगम विहारी आचार्यों के वनाये हुए नहीं है, थोड़े काल के वनाये हुए हैं उन में सावद्य व्यवहार पर्वत को तोड़ कर शिलाओं का लाना पंजावे का लगाना आदि आरंभ को जिनाज्ञा मानी है, अर्थात् सम्यक्त्व की पष्टि कहते हैं, और जिन्होंमें केलों के थंभ कटा के बागों में से फूल तुड़वाके मंडप मंदिर बनवाने जिनाज्ञामानी है, जिन ग्रंथों के मान ने से श्री वीतराग भाषित परम उत्तम दया क्षमा रूप धर्म को हानि पहुंचती है, अर्थात् सत्य
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( १३२ ) दया धर्म का नाश करादिया है उन आचार्यों को पूर्वका सहस्रांश भी नहीं आता था तो उन के वनाये ग्रंथ सम सूत्र कैसे माने जायें। पूर्वपक्षी-तुम नियुक्तिको मानते होकि नहीं,
उत्तरपक्षी-मांनते हैं परन्तु तुम्हारी सी तरह पूर्वोक्त आचार्यों की वनाई नियुक्तियों के पोथे अनघड़ित कहानिये सूत्रोंसे अमिलत गपौड़ों से भरे हये नहीं मानते हैं, यथा उत्तराध्ययन की नियुक्ति में गौतमऋषि जी सूर्यकी किणों को पकड़ के अष्टा पद पहाड़पर चढ़ गये लिखा है आवश्यक जी की नियुक्ति में सत्यकी सरीखे महावीर जी के भक्ता लिखे हैं इत्यादि वहुत कथन हैं क्योंकि जब इन पीताम्बरी मूर्ति पूजकों से कोई भोला मनुष्य जिसने सूत्रके तुल्य क्रिया करने वाले विद्वान् साधु कीसगत
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( १३३ ) न की हो और सूत्रों को व्याख्यान न सुना हों वह प्रश्न पूछे कि जी मूर्ति पूजा किस सूत्र में चली है? तव यह पीतांवरी दंभा धारी वड़े उत्साह से उत्तर देते हैं कि उत्तराध्ययन सूत्र में आवश्यक सूत्र में चली है, जब कोई विद्वान पछे कि उत्तराध्ययन और आवश्यक सूत्रों में तो मर्ति पूजन की गंधि भी नहीं है जैसे सम्यक्त्व शल्यो धार देशी भाषा पृष्ठ १२ वीं के नीचे लिखा है कि श्री उत्तराध्ययन सूत्र के नवम अध्ययन में लिखा है कि नमिनाम ऋषि की माता मदनरेखा ने दीक्षाली तव उस का नाम सुव्रता स्थापन हुआ सो पाठ (तीए वितासिं साहुणीणं, समी वेगहीया दि रका कय,सुव्वय नामा तव संयम, कुण माणी विहरइ) अब उन दंभियों से पूछो कि उक्त
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( १३४ ) सूत्र में तो यह लेख स्वप्नान्तर भी नहीं है तुम झूठ बोलकर सूत्रोंके नामसे क्यों मूखौंको फंसाते हो क्योंकि नवमे अध्ययन की ६२ गाथा हैं उसमें यह गाथा है ही नहीं तब कहते हैं हां उत्तराध्ययन आवश्यक सत्र में तो नहीं है उत्तराध्ययन की और आवश्यककी नियुक्तिमें है अथवा कथा (कहानीयों) में है, भला पहिले ही क्यों न कह देते कि पूर्वोक्त नियुक्ति में है, परन्तु जिनोंने जड़ पदार्थ में परमेश्वर बुद्धि स्थापन कर रखी है उनको तो झूठ ही का शरण है वैसे ही ग्रन्थों के प्रमाण देकर उत्तर देते हैं ॥ यथा
किसी ने पूछा कि तुम्हारे घर में कितना धन है तो उत्तर दिया कि मेरे जमाइ के मांवसा के साले के घर ५० लाख रुपया है, भला यह
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( १३५ ) उसकीधनाढयता हुई,ऐसे ही जिसका कथन प्रमाणीक सूत्रके मूल में नाम मात्र भी नहो और उसका सूत्र कर्ता के अभिप्राय से संबंध भी नहो उसका कथन टीका नियुक्ति भाष्य चरणी में सविस्तार कर धरना यथा इन पूर्वोक्त मूर्ति पूजक स्थिलाचारी आचार्यकृत शत्रुजय महात्म्य, आदि ग्रंथों में गपौड़े लिखे हैं। __ सेतुज्जे पुडरीओ सिद्धो, मुणि कोडिपंच संज्जुत्तो,चित्तस्स पूणीमा एसो,भणइ तेण पुंडरिओ ॥१॥
भावार्थ-ऋषभदेवजी का पुण्डरीक नामे गणधर पांचक्रोड़ मुनियों के साथ शत्रुजय पर्वत ऊपर सिद्धि पाया अर्थात्मोक्ष हुआ चेत शुदि पूर्णिमा के दिन तिस कारण से शत्रुजय का नाम पुण्डरीक गिरि हुआ,ऐसे ही नमि विनमि
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( १३६ ) मुनि दो २ कोड मुनियों के साथ मुक्त हुए पांच पांडव २० ऋड़ मुनियों के साथ मुक्त हुए इत्यादि अब देखिये कैसे बडे गपौड़े हैं, क्योंकि सूत्र समवायांगजी तथा कल्पसूत्रमें तो ऋषभ देवजीके साधुही कुल ८४ हजार लिखे हैं और नेमनाथजी के १८ हज़ार तो फिर ५ कोड़ और दो २ क्रोड़ सुनियों ( साधुओं) कि फौज शत्रु जय महात्म्य वाला कहांसे लाये लिखता है, यदि ऐसा कहोगे कि यह पूर्वक प्रमाण तो तीर्थंकर के निर्वाण पर किया हुआ लिखाजाता है पहिले बहुत होते हैं, तो हम उत्तर देंगे कि हां यह ठीक है कि पहिले अधिक होंगे परन्तु कोड़ों तो नहीं क्योंकि जिसके पुण्य योग सौ १०० मनुष्य की संप्रदाय होय अर्थात् किसी पुरुषके १०० बेटे पोते हुये तो उनमें से
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( १३७ )
उसके मरते तक पांच सात मरगये जब उसक मरजाने पर परिवार गिना गया कि इसके बेटे पोते कितने हैं तो कहा कि १०० परन्तु ७ तो मर गये ९३ वें हैं तो कहाआनन्दजीवणमरण तों सबके ही साथ लग रहा है परन्तु भागवान् था जिसके ९३ वें बेटे पोते मौजूद हैं, बाग बाड़ी खिलरही है, यदि सो १०० में से ९० मरजाते, बाकी मरनेपर १० बचते तो बड़ा अफसोस होता कि देखो कैसा भाग्यहीन था जिसके १०० बेटे पोते हुये और मरते तक सारे खप गये बाकी १० ही रहगये इसी तरह क्या ऋषभ देव भगवान्के ५० वा ६० कोड़ चेले थे क्योंकि शत्रुंजय महात्म्य ग्रंथ कर्ता एक एक साधु के साथ में पांच२ क्रोड़ मुक्ति हुये लिखता है तो न जाने ऋषभदेवजी के कितने क्रोड़ साधु होंगे
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( १३८ ) तो क्या ऋषभदेवजी के निर्वाण पर ३० , ४० क्रोड़ भी न होते क्या लाखोंभी नहोते कुल ८४ हजार बस क्रोड़ों साधु एक समय (एक वक्त ) एक ऋषि की संप्रदाय भर्तादि १०क्षेत्रोंमें नहीं होसक्ते हैं,यह सब मनमानि आँखमीच ग्रंथकर्ता गप्ये लगाते आये हैं, ऐसे मिथ्या वाक्योंपर मिथ्याती ही श्रधान करते हैं।
हमारे मतमें तो सूत्रानुसार नियुक्तिमानी गई है जो नंदी जी तथा अनुयोग द्वार सूत्रमें लिखी है यथा सूत्र। __ सुतथ्थोखलु पढमो,बीओ निज्जुति मिसओ भणिओ ॥ तइओएनिरविसेसो, एसविहीहोइ अणुओगो॥१॥ अर्थ
प्रथम सूत्रार्थ कहना द्वितीय नियुक्तिके साथकहनाअर्थात् युक्तिप्रमाणउपमा(दृष्टान्त)
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( १३८ ) देकर परमार्थ को प्रकट करना तृतीय निर्विशेष अर्थात् भेदानुभेद खोल के सूत्र के साथ अर्थ को मिला देना अर्थात् सूत्रसेअर्थका अविशेष (फरक) नरहे कि सूत्रों में तो कुछ और भाव है और अर्थ कुछ और किया गया है, एता. दृश विधि से होता है अनुयोग अर्थात् ज्ञानका आगमन(मतलब का हासल) होना अब आंख खोल के देखो कि सूत्रानुसार यह इसप्रकार नियुक्ति मानने का अर्थ सिद्ध है कि तुम्हारे मदोनमत्तों की तरहमिथ्या डिंभ के सिद्ध करने के लिये उलटे कल्पित अर्थ रूप गोले गरडाने का, यथा कोई उत्तराध्ययन जी सत्र वाचने लगे तो प्रथम सूत्रार्थ कह लिया द्वितीय जो नियुक्तियें नाम से बड़े२पोथे वना रक्खेहैं,उन्हें धर केवांचे तीसरे जो निरविशेष अर्थात् टीका
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चूर्णी भाष्य आदि ग्रंथों की कोड़ि निचले उन्हें बांचे इस विधि से व्याख्यान होय सो ऐसा तो होता नहीं है ताते तुम्हारा हठ मिथ्या है | पूर्वपक्षी - तुम नंदी जी में जो सूत्रों के नाम लिखे हैं उन्हें मानते हो कि नहीं ॥
उत्तरपक्षी - हमतो ४५/७२।८४ सव मानते हैं परन्तु यह पूर्वोक्त अभिनव ग्रंथ सावयाचाय्य कृत नहीं मानते हैं, क्योंकि भद्रवाहू स्वामी लिख गये हैं कि १२ वर्षो काल में वहुत कालिकादि सूत्र विछेदजायगे स! उन नंदी जो वालों में से आदि लेके ओर बहुत सूत्र विछेद गये हैं यदि कोई नंदी जी वाले सूत्रों के नाम में से नाम वाला ग्रंथ है भी तो वह पूर्वोक्त नवीन आचार्यकृत है क्योंकि उनमें सालसंवत् और कर्ता का नाम लिखा है इस कारण
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( १४१ ) गणधर कृत सूत्रों की तरह प्रमाणीक नहीं हैं इत्यर्थः ।
हे भ्राता जिस २ सूत्र में से पूर्वपक्षी चेइय शब्द को ग्रहण करके मूर्ति पूजा का पक्ष ग्रहण करते हैं उस २ का मैंने इस ग्रंथ में सूत्र के अनुसार संवन्ध से मिलता हुआ पाठ और अर्थ लिख दिखाया है, इसमें मैंने अपनी ओर से झूठी कुतों का लगाना छति अछतिनिंदा का करना गालियों का देना स्वीकार नहीं किया है क्योंकि मैं झूठ बोलने वाले और गालियें देने वालों को नीच बुद्धि वाला समझती हूं।
(२४) पूर्वपक्षी-क्योंजी कहीं जैन सूत्रों में __ मूर्ति पूजा निषेध भी किया है।
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( १४२ ) उत्तरपक्षी-सूत्रों में तो पूर्वोक्त धर्म प्रवृति में मूर्ति पूजा का जिकर ही नहीं परन्तु तुम्हारे माने हुये ग्रंथों में ही निषेध है परन्तु तुम्हारे बड़े सावधाचार्यों ने तुम्हे मूर्ति पूजा के पक्ष का हठ रूपी नशा पिला रक्खा है जिससे नाचना कूदना ढोलकी छैना खड़काना ही अच्छा लगता है और कुछ भी समझ में नहीं आता है ___ पूर्वपक्षी-कौन से ग्रंथ में निषेध है हमको
भी सुनाओ। ___ उत्तरपक्षी-लोसुनो प्रथम तो व्यवहारसूत्रकी चूल का भद्रबाहु स्वामीकृत सोला स्वप्न के अधिकार पंचम् स्वप्न के फल में यथा सूत्र (पंचमे दुवा लस्सफणी संजुतोकएह अहि दिठो तस्स फलं तेणं दुवालस्स वास परिमाणेदुक्का
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( १४३ ) लो भविस्सइ तत्थ कालीय सूयपमुहा सूयावो छिज्ज संति,चेइयं,ठयावेइ,दव्य आहारिणोमुणी भविस्सइ लोभेन मालारोहण देवल उवहाण उद्य मण जिण विंव पइ ठावण विहीउमाइएहिं वहवेतवपभावापयाइस्संतिअविहेपंथेपडिस्संति, __ अर्थ पांचवें स्वप्न में वारां फणी काला सर्प देखा तिस का फल बारां वर्षी दुःकाल पड़ेगा जिसमें कालिक सूत्र आदिकमें से और भीबहुत से सूत्रविछेद जायेंगे तिसके पीछे, चैत्य,स्थापना करवाने लगजांयेंगे द्रव्य ग्रहणहार मुनि होजायेंगे, लोभ करके मूर्ति के गले में माला गेर कर फिर उसका (मोल) करावेंगे,और तप उज्ज मण कराके धन इकट्ठा करेंगे जिन विव (भगवान की मूर्ति की) प्रतिष्टाकरावेंगेअर्थात् मूर्ति के कान में मंत्र सुना के उसे पूजने योग्य
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( १४४ )
करेंगे ( परन्तु मंत्र सुनाने वाले को पूजेंतो ठीक है क्योंकि मूर्तिको मंत्र सुनानेवाला मूर्तिकागुरु हुआ और चैतन्य है, इत्यादि और होम जापसंसार हेतु पूजा के फल आदि बतावेंगे, उलटे पंथ में पड़ेंगे, इत्यादि इसका अधिक विस्तार हम अपनी बनाई ज्ञान दीपिका नाम पोथी के प्रथमभाग में लिख चुके हैं वहां से देख लेना उसमें साफ मूर्ति पूजा निषेध है अर्थात् मूर्ति पूजाके उपदेशकों को कुमार्ग गेरने वाले कहा है, २ द्वितीय महा निशीथ ३ तीसरा अध्ययन यथासूत्र |
हा किल अहे अरिहंताणं भगवंताणंगंधमल्ल-पदीव समद्यणोवलेवण विचित वत्थवलिधुपाइएहिं पूजासकारेहिं अणुदियहम्, पझवणंपकुठवण तित्थुष्पणंकरेमि तंचणोर्ण
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( १४५ ) तहति गोयमा समणुजाणेज्जा सेभयवं कण अठणं एवं बुच्चइ जहांणतंचणोणं तहति समणु जाणेज्जागोयमा तयत्था णुसारणं असंयम बाहु ल्लेणंच मूल कम्मासवं मूल कम्मासवाउय अझवसाय पण्डुच बहुल्ल सुहासुह कम्मपयडी बंधो सब सावध विरियाणंच बयभंगोबयभंगेणच आणाइ कम्म, आणाइ कम्मेणंतु उमग्ग गामित्तं उमग्ग गामित्तेणंच सुमग्ग पलायणं उमग्ग पवत्तणं सुमग्ग विप्यलोयणेण वढइणं महति आसायणा तेण अणंत संसारय हिंडणं एएणअठणं गोयमाएवं बुच्चइ तंचणोणंतहति समणु जाणेज्जा॥ ___ अर्थ-तिम निश्चय कोई कहे कि मैं अरि. हंत- भगवंत की मूर्ति का गंधिमाला विलेपन धूप दीप आदिक विचित्र, वस्त्र और फल फूल
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( १४ ) आदि से पूजा सत्कार आदि करके प्रभावना करूं तीर्थ की उन्नति करता हूं ऐसा कहने को हे गौतम सच नहींजानना भला नहींजानना, हे भगवन् किस लिये आप ऐसा फरमातेहोकि उक्त कथनको भलानहीं जानना;हे गौतम उस उक्त अर्थकेअनुसारअसंयमकीवृद्धि होयमलिन कर्मकीवृद्धिहोय शुभाशुभकर्म प्रकृतियोंकाबंध होय,सर्वसावद्यका त्याग रूप जोबत है उसका भंगहोय,व्रतकेभंग होनेसे तीर्थंकरजीकी आज्ञा उलंघन होय आज्ञा उलंघन से उलटे मार्गका गामी होय उलटे मार्ग के जाने से सुमार्गसे विमुख होय, उलटे मार्ग के जाने से सुमार्ग विमुख होने से, महा असातना वढ़े तिससे अनंत संसारी होय इस अर्थ करके गौतम ऐसे कहता हूं कि तुम पूर्वोक्त कथन को सत्य नहीं
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( १४७ ) जानना भलानहींजाननाइति।अव कहो पाषाणोपासको मूर्ति पूजा के निषेध करने में इस पाठमें कुछ कसरभीछोड़ी है, जिसकेउपदेशकों को भी अनंतसंसारी कह दियाहै, ३ और लो तृतीय विवाहचूलिया सूत्ररवांपाहुडावांउद्देशा __ अनुमान में ऐसा पाठ सुना जाता है।
कइविहाणं भंते मनुस्तलोएपडिमा पपणन्त गोयमा अनेग विहा पण्णता उसमादिय वद्ध माण परियंते अनीत अगागए चौवीसं गाणं तित्थयर पडिमा, राय पडिमा, जक्ख पडिमा, भूत पडिमा, जाव धूमकेउपडिमा.जिन पडिमा, गंभंतेवंदमाणे अच्चमाणे हंता गोपमा वदमाणे अच्चमाणे जइणं भतेजिन पडिमाणं वंदमाणे अच्चमाणे, सुय थम्म चरित धम्मं लभेजा गोयमा णोणटेसमटे सेकेणटेणंभंते एवंवुच्चइ
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( १४८ ) जिनपडिमाणं वंदमाणे अच्चमाणे सुयधम्म चरितधम्मनो लभेज्जा गोयमा पुढवि काय हिंसइ जावतस्स काय हिंसइ आउकम्म वज्जा सतकम्मपगडीउ सढिल वंधणय निगड़ वंधणं करित्ता जाव चाउरंत कंतार अणु परि ययंति असाया वेयणिज्जंकम्मभज्जो २बंधई सेतणठणं गोयमा जावनो लभेज्जा। ' अर्थ-हेभगवन् मनुष्य लोकमें कितने प्रकार की पडिमा (मूर्ति) कही है गौतम अनेक प्रकार की कहीं हैं, ऋषभादि महावीर(वर्धमान) पर्यंत २४ तिर्थंकरों की, अतीत, अणागत चौवीस तीर्थंकरों की पडिमा, राजाओं की पडिमा, यक्षों की पडिमा, भूतों की पडिमा, जाव धूम केतु की पडिमा, हे भगवान् जिन पडिमा की वंदना करे पूजा करे, हां गौतम बंदे पूजे
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( १४८ ) हे भगवान जिन पडिमा की बंदना पूजा करते हुए श्रुतधर्म,चारित्र धर्म की प्राप्तिकरें, गौतम नहीं,किस कारण हे भगवन्! ऐसा फरमाते हो कि जिनपडिमाकी वंदना पूजा करते हुये श्रुतधर्म,चारित्र धर्म की प्राप्ति नहीं करे, गौतम पृथ्वी काय आदि छः कायकी हिंसा होती है तिस हिंसा से आयु कर्म वर्ज के सात कर्म कीप्रकृत्ति के ढीले बंधनों को करड़े बंधन करें ताते ४ गति रूप संसार में परिभ्रमण करे असाता वेदनी वार२ वांधे तिस अर्थ करके ह गौतम जिन पडिमाके पूजतेहुए धर्म नहीं पावे इति इसमें भी मूर्ति पूजा मिथ्यात्व और आरंभ का कारण होनेसे अनंत संसारकाहेतु कहा है। ४ चतुर्थ, और सुनिये जिन वल्लभ सूरिके
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( १५० ) शिष्य जिनदत्त सूरिकृत संदेहदोलावली प्रकरण में गाथा षष्टी सप्तमी :
गडरि पव्वाहर्ड जेएंइ,नयरं दीसए बहुजणेहिं, जिणगिहकारवणाइ,सुत्तविरुद्धो अशुद्धोअ॥६॥ ___ अस्यार्थः-भेड चालमें पड़ेहुये लोग नगरोंमें देखने में आते हैं कि (जिनगिह ) मंदिर का वनवाना आदि शब्द से फल फूल आदिक से पूजा करनी यह सब सूत्र से बिरुद्ध है अर्थात् जिनमत के नियमों से वाहर है और ज्ञानवानों के मत में अशुद्ध है ॥६॥
सोहोइदव्वधम्मो, अपहाणो अनिव्वुई जणड,सुद्धो धम्मो बीर्ड,महि उपडि सो अगामी हिं॥७॥अर्थ-द्रव्य धर्म अर्थात् पूर्वोक्त द्रव्यपूजा सोप्रधान नहीं कस्मात्कारणात् किसलिये कि)
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( १५१ )
मोक्ष से परांग मुख अणुश्रोत्रगामी संसार में - माणेवाला है, आश्रवके कारणले दूजा भाव धर्म अर्थात्भाव पूजासो शुद्ध मोटा धर्म है, कस्मात् कारणात् प्रतिश्रोत्र गामी अर्थात् संसार से विमुख संवर होनेते, अब कहोजी पहाड़ पूजको जिनवल्लभ सूरी के शिष्य जिनदत्त सुरीने मूर्ति पूजा के खंडन में कुछ वाकी छोड़ी है इसमें हमारा क्या वस है और ऐसे बहुत स्थल हैं परंतु पोथी के बढ़ाने की इच्छा नहीं क्योंकि विद्वानों को तो समस्या ( इशारा ही बहुत है ) हे भव्यजीवों पक्षपात का हठ छोड़के अपनी आत्मा को भव जल में से उभारनेके अधिकारी वनो ।
(२५) पूर्व पक्षी - भलाजी कई कहते है कि मूर्तिपूजा जैनियोंमें १२ वश काल पीछे चलीहै कई कहते
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( १५२ )
हैं महावीर स्वामीक वक्त में भीथी और कई कहते हैं कि पहिलेसे हा चली आती है, यह कैसे है ।
१ उत्तरपक्षी - जो बारा वर्षो कालसे पीछे कहते हैं सोतो प्रमाणों से ठीक मालूम होता है हम अभी ऊपर मूर्ति पूजा निषेधार्थ में चार ग्रन्थों का पाठ प्रमाण में लिख चुके हैं, जिसमें प्रथम स्वप्नाधिकार में १२ वर्षो काल पीछे ही मूर्ति पूजाका आरंभ चलाया लिखा है।
२ और जा महावीर स्वामी जी के समय में कहते हैं सो तो सिद्ध होती नहीं क्योंकि भगवती शतक १२ मा उद्देशा २ में जयन्ति समणो पासका अपनी भौजाई मृगवती से कहती भई कि महावीर
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( १५५ ) स्वरूप तो कुछतो में ज्ञानदीपिका में लिखचुकी हूँ और सम्यक्त्वशल्योद्धार और गप्पदीपिका को तुमही वांचके देखलो कि कैसी हैं और कैसे अर्थक अनर्थ हेतुके कुहेतु झूठऔर निंदा
औरगालिये अर्थात् ढूंढियोंको किसी को दुर्गति पड़नेवाले,किसीको ढेढ चमार मोची मुसलमान इत्यादि वचनों से पुकारा है,हाथ कंगन को आरसी क्या। हांजो स्वपक्षीहैं वह तो फूलते हैं कि आहा देखो केसी पण्डिताई किहै परन्तु जो निर्पक्षी सुज्ञजन हैं वह तो साफ कहतेहैंकि यह काम साधुओंके नहीं असाधुओं के हैं और जो प्रश्नोंके उत्तर दिये हैं और जो देते हैं सो ऐसे हैकि पूर्वकी पूछो तो पश्चिमको दौड़ना कुपत्ती रन्न (लुगाई ) की तरह वातको उलटी करके लड़ना । यथा किसीने प्रश्न किया कि तुम्हारे
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( १५६ ) पीताम्बरीयों के आमनाय वालों में किसी के मस्तकपर गोल टीका होता है कि सीके लम्बी सीधीकील(मेष)सी खड़ी विंदली होतीह इसका कारणक्या?इसका उत्तर दिया कि तेरी माताने और घर किया तेरी वहन किसी के संग भाग गई तेरा नाना काणा है तेरी भूवाकी,आंखमे तिल है तेरे सांदकी आंखमें फोलाहै तेरे मुखपर मक्खी मतगई इत्यर्थः अब देखो कैसा यथार्थ उत्तर मिला इसी प्रकार के उत्तर गप्प दीपिका आदियों में समझ लेने । अधिक क्या लिखू,हे भ्रातासाधु और श्रावकनाम धराकर कुछ तो लाज निबाहनी चाहिये,क्योंकि झूठबोलनाऔर गालियों का देना सदैव बुरा माना है ॥ (२७) प्रश्न-हमारी समझ में ऐसाआता है
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( १५७ ) कि जो वेद मन्त्रोंको मानते हैं वह पुराणादिकों के गपोड़ों को नहीं मानते हैं और जोपुराणों को मानते हैं वह सब गपौड़ों को मानते हैं ऐसे ही तुम जैनियों में जो सनातन दूडिये जैनी हैं वह मूल सूत्रों कोही मानते हैं पुराणवत् ग्रंथों के गपौड़े नहीं मानते हैं और जो यह पीले कपड़ों वाले जैनी हें यह पुराणवत् ग्रंथों के गपौड़ोंकों मानते हैं क्योंजी ऐसे ही है।
उत्तर-ओर क्या। (२८) प्रश्न यह जो पापाणोपासक आत्मा पंथीये अपने कल्पित ग्रंथों में कहीं लिखते हैं कि ढंढिकमत,लोंके से निकलाह,जिसको अनुमान साढेचारसौवर्पहुये हैं, कहींलिखते हैं लव जी से निकला है जिस को अनुमान अढ़ाई सो वर्ष हुये हैं यह सत्य है कि गप्प है।
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( १५८ )
उत्तर - गप्प है क्योंकि लोंके ने तो पुराने शास्त्रों का उद्धार किया है नतो नया मत निकला है न कोई नया कल्पित ग्रंथ बनाया है और लवजी स्थिला चारी यतियोंका शिष्य था उसने प्रमाणीकसूत्रों को पढ़कर स्थिलाचारियों का पक्षछोड़के शास्त्रोक्त क्रियाकरनी अंगीकार की है लवजी ने भी न कोई नयामत निकाला है न कोई पीताम्बरियों की तरह अपने पोल लकोने को अर्थात् अपनेचाल चलनके अनूकूल नये ग्रंथ बनाये हैं हां यह संवेग पीतांबर ( लाडा पंथ ) अनुमान अढाई सौबर्ष से निकला है । पूर्वपक्षी - आपके उक्त कथनमें कोई प्रमाण है उत्तरपक्षी - प्रमाण वहुत हैं प्रथम तो आत्माराम कृत चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग २ संवत - १९५२ वि० सन् १८९५ में अहमदाबाद के
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( १५८ ) युनियन प्रिंटिंग प्रेसमें छपाहै,इस ग्रन्थकी अं. तिम पृष्ठमें कर्ताका नाम से लिखा है तप गच्छा चार्य श्री श्री श्री१००८ श्री मद्विजयानंद सूरी विरचते।
इस ग्रन्थकी पृष्ठ३९पंक्ति ५वीं से लेकर कई पंक्तियों में यह लेख है कि उपाध्याय श्रीमद्यशो विजयजीने तथा गणिसत्य विजय जीने किसी कारण के वास्ते वस्त्र रंगे हैं तबसे लेकर तप गच्छ के साधु वस्त्र रंगके ओढ़तह परन्तुकोई भी प्रमाणीक साधु यह नहीं मानते हैं कि श्री महावीर स्वामी के शास्त्र में रंगके ही वस्त्र साधुरवखें और मेरी भी यही श्रद्धा है ।
पृष्ठ ९ पंक्ति ५ मी में देखो क्या लिखते हैं कि कुछ हमारे बृद्ध गुरुओं की यह श्रद्धा नहीं
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( १६. ) थी कि साधुओं को रंगे हुए वस्त्र ही कल्पे हैं किसी कारण के वास्ते रंगे है सो कारणीक वस्त्र कोई वैसा ही पुरुष दूर करेगा फिर ___ पृष्ठ ३९ पंक्ति २य, में श्रीभगवंतके सिद्धांत में एकांत वस्त्र रंगने का निषेध नहीं है कारण यहहै कि एक मैथुन वर्ज के किसी भी वस्तु के करणे का निषेध नहीं हैं-यह कथन श्रीनिशीथ भाष्य में है। तर्क,तुम्हारे इसलेख से तो झूठ बोलना चोरी करना कच्चा पानी पीना आदिक भी कारणमें ग्रहण करनासिद्ध होगया क्योंकि एक मैथुन वर्ज के सव करना लिखने हो और निशीथ भाष्यकाहवाला देतेहो वाह २. धन्य भाष्य धन्य आप ॥ - अब विचारणाचाहिये कि इन पूर्वोक्तलेखसे सिद्ध हुआकि- श्री महावीर स्वामिक साधुओं
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( १६१ ) का श्वेतवस्त्र धारणेकामार्ग है । और पीतांवरियों का कल्पित नया मत निकला है क्योंकि यशोविजय जी ने तो इसी लिये विक्रमीसंवत् १७०० के अनुमान में श्वेत वस्त्र त्याग कर रंग दार वस्त्र किये हैं जिस को २५० अढ़ाई सौ वर्ष का अनुमान हुआहै और फिर दूर करने (छड़ने कोभी लिखाहै परन्त देखिये इस कारणीक कल्पित (झूठे रंग दार वस्त्रोंक) भेष के धारिणे का पीताम्बरीये कैसा हठ पकड़ रहे हैं और चरचा करते हैं कि महावीर जी के शासन के वही साधु हैं जो पीले वस्त्र धारण करते हैं सो यह मिथ्यावाद हे ॥
द्वितीय आत्माराम ने केसरिये (पीले) वस्त्र पहरने का मत निकाला क्योंकि इनके बड़े यति लोक कई पीढ़िये एलियाम्बरी एलियारंग)वस्त्र
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( १६२ ) धारी रहे हैं कई काथी ( कत्थरंग) वस्त्र धारी रहे हैं मनमानापंथजो हुआ । औरआत्मारामजी पहिले सनातन पूर्वोक्त ढूंढकमतका श्वेतांबरी साधुथा जब सूत्रोक्तक्रियानासधाई और रेलमें चढ़ने को और दुशाले धुस्से ओढ़ने को दूर २ देशान्तरों से मोल दार औषधियों (याकृतियों) की डब्बियें मंगाकर खानेको विलटियां कराके मालअसवाव रेलों में मंगा लेने को इत्यादिकों को दिलचाहा तो ढूढक मत को छोड़ गुजरात में जाके संवत् १९३२/३३ में पहिलेतो कथ रंगे वस्त्र धारेपीछे पीले करने शुरु किये ।
तृतीय वल्लभविजय अपनी वनाई गप्य दीपिका संवत १९४८ की छपी में पृष्ट १४पंक्ति १५ में लिखता है कि १७०० साल अर्थात् विक्रमी सवत् १७०० के लग भग श्री सत्य गणि विजय
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( १६३ ) जी और उपाध्याय श्री यशो विजय जीने बहुत क्रिया कटन की और वैराग रंग में रंगे गये तव श्रीमघ उनको संवेगी कहनेलगे इति । वस सिद्ध हुआ कि विक्रमी १७०० के साल में संवेग मत निकला पहिले नहीं था और इनके बड़ोंको पहिले वैरागभीनहीं होगा क्योकिधन विजय चतुर्थ स्तुति निर्णय प्रकाश शकोद्धार पुस्तक संवत् १९४६ में अहमदा बादकीछपी में प्रस्तावना पृष्ट२४ पं०२०मीसे पृष्ठ २५वीं तक लिखता है कि आत्माराम अपने गरुओं के विपय मंलिवताह कि पहले परिग्रह धारीमहा व्रत रहितथे फिर पीछे निग्रंथपना अगीकार किया. परन्तकिली संयमीके पास चारित्रापस पत (फरकेदिक्षा)लीनी नहीं इनसे शास्त्रान: सार इन्हें संयमीकहना योग्यनहीं ओरआत्मा
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( १६४ ) रामजी आनन्दविजय जीका गुरु बूटेरायबुद्धि विजय जी अपनी वनाई मुख पत्ति चर्चा नाम पुस्तकमें अपने गुरुओंको परिग्रहधारी असाधु लिखतेहैं॥
(२९) प्रश्न-क्योंजो जैनसूत्रों में साधु को वस्त्र रंगने का निषेध है।
उत्तर-हां महावीरस्वामी के शासन में बहु . मोल और रंगदार वस्त्र मने हैं । श्वेत मानो पेत१४ उपगरण आदि मर्यादा वृत्ति चली है निशीथ सूत्र में जीव रक्षादि कारणात् गन्धि (खुशबो) के लिये आदिक लोद का वस्त्र पर रंग पड़जाय तो ३ चुली जलसहित से उपरंत लगा देवे ती दंड लिखा है और आचारांग जो सूत्र ७म, अध्ययन में वस्त्र का रंगना साफ मना है ॥
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( १५५ ) और इन मूर्ति पूजकों में से ही धन विजय संवेगी अपनीकृत चतुर्थस्तुति निर्णयप्रकाश शं. कोद्धारपृ०८१ में लिखता है किगच्छा चारपय. न्नाप्रमुखमां श्रीवीरसासनामां श्वेतमानो पेत वस्त्र को त्याग पीतादि रंगेला वस्त्र धारण करतेसाधुने गच्छ में बाहर कहिये गाथा.॥
जत्थय वाडियाणं तत्तडियाणंच नहयपरिभोगी, मुत्तुं सुकिल्ल वत्थं, कामेरा तत्थ गच्छंमि ८९ टीका तथा यत्र गछेवारडियाणंनि रक्त वस्त्राणां तत्तडियाणंतिनील पीतादि रंजित वस्त्राणां च परिभागः क्रियते कि कृत्व त्याह मुक्तापरित्यज्य किं चल वस्त्रं पनि योगाम्बर मित्यर्थः नत्र कामरनिःकानयादा न काचिद पीति अपि गाथा छंदनी । गणिगोयम अज्जा उविअन्ने अवस्यविवन्जिर,
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( १६६ ) सेवएचितरूवाणि, नसाअ उजाविआहिआ। ११२ अर्थ।
हे गौतम आर्या विश्वेत वस्त्र को छोड़ रंगे वस्त्र पहरे तो उस को जैनमत की आय न कहिये ११२ इत्यर्थः ___ (३०) प्रश्न-एक बात से तो हम को भी निश्चय हुआ कि सम्यक्त्व शल्योद्धारादि पुस्तक के बनाने वाले मिथ्यावादी हैं, क्योंकि सम्यक्त्व शल्योद्धार देशी भाषा की सम्वत् १९६० की छपी पृष्ठ एक १ में लिखा है कि इंडियामत अढाई सौ वर्ष से निकला है और पृष्ठ ४ में लिखा है कि ढूंढिये चर्चा में सदा पराजय होते हैं। । परन्तु हम ने तो पंजाब हाते में एक नाभा पति राजा हीरासिंह की सभा में ढूंडिये और
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( १६० ) पुजेरे साधुओं की चर्चा देखी है कि सम्बत् १९६१ ज्येष्ठ मास में बल्लभ संवेगी ने राजा साहिब वहादुर नाभा पति के पास जा कर प्रार्थना को कि सर छ. प्रश्नों का उत्तर दृढिये साधुओं से चाहेलिखित ले चाहे सभा में दिला दो तव राजा साहिब ने दंडिये साधुओं से पुछवाया कि तुम्हारी इच्छा हो तो उत्तर दे दो तब वहां बिहारीलाल आदिक
अजीव मतिय दंडिये जा अरन सट क्षेत्रों के ___ गृहस्थी सेवकोंके आगे मम करने फिरनेह वह
तो चले गये और पूज्य श्री सोहनलाल जी ___ महाराज न अपन पोन चल श्री उदयचन्द जी
को आजादी किनमा में प्रनतर होगे नर राजा की तर्फ. में ८ मेंबर मध्यन्य निश्चय किये गये कि जो यह न्याय कानी
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( १६८ ) ठीक तव अनुमान दिन १५ चर्चा करते रहे ज्येष्ठ वदि पंचमी को मिम्बरों ने राजा की आज्ञा से गुरुमुखी अक्षरों में विज्ञापन छपा कर फैसला दिया पृष्ट ३ पं० २१।२२।२३ में कि हमारी रायमें जो भेष और चिन्ह जैनियों के शिव पुराण में लिखे हैं वे सब वही हैं, जो इससमय दंडिये साधुरखते हैं दरअसल इबतदाई चिन्ह रखने ही उचित हैं, अबदेखिये इसमें तो पुजेरों की पराजय हुई फिर देखो हठवादी अ. पनी जड़बुद्धि को आत्मानन्द मासिक पत्र में प्रकट करते हैं कि तुम सच्चे हो तो छः प्रश्नों का उत्तर छपाके प्रकट करो भलाजी जिसचर्चा का फैसला छप के प्रकट हो चुका उस का उत्तर बाकी भी रहता है अब (वार २) करने से क्या होता है और इसमें यहभी सिद्ध
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( १६८ ) हुआ कि शिवपुराण वेदव्यासजीकी बनाई हुई लिहिं तो वेद व्यासको हुये अनुमान ५हजार वर्ष कहते हैं तो जवभीनी इंडियेही थे संवेग नहीं थे क्योंकि शिवपुराण ज्ञान संहिता अध्याय २१ के इलंक २१, ३ में लिखाहै ॥
मुण्ड मलिन वस्त्रंच कुंडिपात्र समन्वितं दधानं पुञ्जिकहाले चालयन्त पदेपदे ॥२॥
अर्थ-सिरमुण्डिन मैले रजलगेहय) वस्त्र काटके पात्र हायमें ओघा पग २ देखक चलें अयात आघेसे कीडी आदि जंतुओं को हटाकर
पयरमव ।।
__ बस्त्र युक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाणं सुम्बे लगा
मानव्याहरन्ततं नमस्कृत्य स्थितं हरे ।।३।। अय-मुख वस्त्रका (मखरनी) करकंडक्नेहए मा मुखको तथा कि कारण मुबान र
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( १७० ) अलग करतो हाथ मुंहकेअगाड़ी देलेंपरंतुउघाड़े मुखन रहें (नवोले) और वल्लभविजयनाभेवाले ६प्रश्नोंमें १म,प्रश्न में लिखता हैकि दिन रात मुंह बन्धा रहे वा खुला रहे इति इससेयहसिद्ध हुआ है कि इसके शास्त्र में दिन रात दोनोंमें से एक में मुंह बांधना लिखा होगा परन्तु मुंह वांधते नहीं महुर्तमात्र भी क्योंकि धन विजय पूर्वोक्त चतुर्थ स्तुति निर्णय शंकोद्धारी प्रथम परिच्छेद पृष्ट४ पंक्तिमी में लिखता है कि आत्मा रामजी श्रीसोरठ देशने अनार्य कहवानो तथा मुखपत्ती व्याख्यान वेलाए बांधवी सारीछे (अच्छीहै) पण कारण थी बांधता नथी एहवा छलनां वचन बोली अभीनिवेश मिथ्यातनाउदथ केवल भोला लोकोने फंदमानाखवा नोपंथ चला व्योछे पृष्ट ५ पंक्ति नीचे २में संवत्
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( १०१ ) १२.४० सालमा आत्मारामजीए अहमदाबाद समाचार छापामांव्याख्यानके अवसरे मोहरति बांधवो हम अच्छि जानतेहैं पर किसी कारण से नहीं बांधते हैं एहबाछाके विद्याशालानो वेठक नाश्रावकोए आत्मा रामजी ने पूछा साहेब ? आप मेहपटि बांधवी रूडी जानोछो तोबांधता के मन थी त्यारे आत्माजीए तेने पोताना रागी करवाने कह्या के हम इहां सेविहार करके पीछे बांधेगे पणहज नधी बांधता न थी ते कारणथी आत्माराम जी नु लिखको जुदान वोलवी जुदो अने चालयों जुदो अमने भासनथयो इत्यादि।अवदेखजिनसाधका उस वक्त अर्थात वेदव्यासक समय में भी यही भेपया आघा, पात्रा, सुखपट्टी मलेवस्त्र परन्त पालवस्त्र हायमें लाठा उघामह ऐसे जनक
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( १७२ )
साधु व्यासजीने भी नहीं कहतो फिरसिद्ध हुआ कि ढूंढक मत प्राचीन है २५० वर्ष से निकला मिथ्या वादी द्वेषसे कहते हैं |
उत्तर - तुम्ही समझ लो ॥
(३१) प्रश्न- क्योंजी यह निंदारूप झूठ और गालियें दुर्वचन दियों से सहित पूर्वोक्त पुस्तक इखवार बनाते हैं छपाते हैं उन्हें पापतो जरूर लगता होगा ।
उत्तर- अवश्य लगता है क्योंकि बनाने वाला जब झूठ और निन्दाके लिखनेका अधिकारी होता है तब उसका अन्तःकरण मलीन होनेसे पाप लगता है और जो उनके पक्षी उसे वांचते हैं तब उसझूठ की स्तुति करते हैं कि आहा क्या
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( १०३ ) अच्छा लिखना है तब वहभी पापके अधिकारी होते हैं और जो दूसरे पक्षवाला वांचे तो वह वांचतेही एक वारतो क्रोध भरके थोंही कहने लगताहे कि हमभी ऐसीही निन्दा रूप किताव छपायेंगे फिर अपने साधु स्वभाव पर आकर ऐसा विचारे कि जितना समय ऐसी निरर्थक निन्दारूप आत्माको मलीन करनेवाली पस्तक बनाने में व्यय करेंगेउतना समय तत्वके विचार व समाधि लगायंगे जिससे पवित्रात्मा हो, इससे मोनही श्रेप्ट है । यथा दोहा
मुर्खका मुग्व वम्ब हे बोले वचन भुजंग। नाकी दारू मोनहे.विषे न व्यापे अंग ॥१॥ यह समझकर न लिखे परन्तु वांचतेहीक्रोध आनेसेभीतोकर्मबन्धे इसलिये पूर्वोक्त पुस्तक चनानेवाला आप डुवताहे और दूसरोंके डुवाने
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( १७४ ) का कारण होताहै इसलिये तुम्हारे कहने संदेह नहीं परन्तु मेरी तो सब भाइयों से प्रार्थनाहै कि न तो पूर्वोक्त पुस्तकें छापो औं छपाओ क्योंकि जैनकी निंदा करनेको तो मतावलवीही बहुतहैं फिर तुम जैनी ही परस निन्दा क्यों करते करातेहो शोक है आपसव फूटपर क्या तुम नहीं जानते कि यह जैनधर
क्षांति दान्ति शान्ति स्ए अत्युत्तम है, अनेक - जन्मोंके पुण्योदयसे हमको मिला है तो इससे
कुछ तप संयमकालाभउठायें औरझूठ कपटको = छोडें यद्यपि कलियगमें सत्यकी हानी,तथापि इतना तो चाहिये कि पक्षका हठ और कपट की खटाईको घटमेंसेहटाकर विधि पूर्वक धर्म प्रीतिसे परस्परमिलके शास्त्रार्थ किया करें धर्म समाधिका लाभ उठाया करें मनुष्य जन्मका
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( १७५ ) यहही फलहे कि सत्यासत्यका निर्णयकरें परन्तु लड़ाईझगड़े न करने चाहिये।अपितुझुटवोलना और गालियें देनी तो सवको आती हैं. परन्तु धर्मात्माओंका यह काम नहीं वस सब मतों का सार तो यह है कि अशुभ कमेंको तजो औरशुभ कमांको ग्रहण करो अर्थात् हिंसा मिथ्या चोरी मद मांस अभक्षादिका त्याग अवश्य करो और दया दान सत्य शीलादि अवश्य ग्रहणकरो.काम क्रोध लोभ मोह अहंकार अज्ञानको घटायाकर यत्न विवेकज्ञान क्षमा संयमको बढायाकरो अपनेरधर्मसवन्धीनियमोंपरदृढरहोज्यादाशुभम्
यदि इस पुस्तकके बनाने में जानने अजानने सूत्र कर्ताओंकअभिप्राय से विपरीत लिबागया होतो (मिच्छामिदकडम्)॥
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॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥
जैनधर्म के नियम ॥
सनातन सत्य जैनधमोंपदेशिका बालब्रह्मचारिणीजैनाचार्य्याजी । श्रीमती श्री १००८ महासती श्रीपार्वतीजी. विरचित । जिम को लालामेहरचन्द्र. लक्ष्मणदास श्रावक मंद मिहाबाजार लाहोर ने पाया । सं० १९६२ वि० ।
एनामीकल यन्त्रालय में मिस्टर नाम नासरि नीधिकार में दा
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ठिकाना पुस्तक मिलनेका मेहरचंद्र लक्ष्मणदास श्रावक सैदमिठा बाज़ार,
लाहौर।
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"ॐ श्रीवीतरागायनमः
जैनधर्म के नियम।
१-परमेश्वर के विषय में। १-परमेश्वरको अनादि मानते हैं अर्थात् सिद्धस्वरूप, सच्चिदानन्द, अजर, अमर, निराकार, निष्कल, निष्प्रयोजन, परमपवित्र सर्वज्ञ, अनन्तशक्तिमान् सदासर्वानन्द रूप परमात्मा को अनादि मानते हैं॥
२--जीवा के विषय में। २-जीवोंको अनादि मानते हैं अर्थात् पुण्य पाप रूप कमां का कर्ता और भोक्ता संसारी
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( ४ ) अनन्त जीवोंको जिनका चेतना लक्षण है अ. नादि मानते हैं।
३-जगत के विषय में। ३-जड़ परमाणुओं के समूह रूप लोक (जगत्) को अनादि मानते हैं अर्थात् पृथिवी, पानी, अग्नि, वायु, चन्द्र सूर्यादि पुद्गलों के स्वभावसे समूह रूप जगत् १ काल (समय)२ स्वभाव (जड़ में जड़ता चेतनमें चैतन्यता)३ आकाश (सर्व पदार्थों का स्थान) ४ इन को प्रवाह रूप अकृत्रिम (विना किसी के वनाये ) अनादि मानते हैं ।
४-अवतार। — , ४-धर्मावतार ऋषीश्वर वीतरागजिनदेवको
जैनधर्मका वतानेवाला मानते हैं अर्थात् जि
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( ५ ) धातु,का अर्थ जय, है जिसको नक् प्रत्यय होने से जिन, शब्द सिद्ध होता है अर्थात् राग द्वेष काम क्रोधादि शत्रुओं को जीत के जिनदेव कहाये, जिनस्यायं जेनः अर्थात् जिनेश्वर देवका कहा हुआ जोयह धर्महे उसे जैनधर्म कहते हैं
५--जैनी। . ५-जैनी मुक्तिके साधनों में यत्न करने वाले को मानते हैं। अर्थात् उक्त जिनेश्वर देव के कह हए जैनधर्म में रहे हुए अर्थात् जैनधर्म के अनुयायिओं को जेनी कहते हैं।
--मुक्ति का स्वरूप। ६-मुक्ति, कर्म वन्ध से अवन्ध होजाने अर्थात् जन्ममरण से रहित हो परमात्म पदको प्राप्त कर सजना . सदैव सर्वानन्दमें रमन
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रहने को मानते हैं अर्थात् मुक्ति के साधक धन और कामनीके त्यागी सत्गुरुओंकी संगत करके शास्त्र द्वारा जड़ चेतन का स्वरूप सुन कर सांसारिक पदार्थों को अनित्य (झूठे) जान कर उदासीन होकर सत्य सन्तोष दयादानादि सुमार्ग में इच्छा रहित चल कर काम क्रोधादि अपगुणोंके अभाव होने पर आत्मज्ञानमें लीन होकर सर्वारम्भ परित्यागी अर्थात् हिंसा मिथ्यादि के त्याग के प्रयोग से नये कर्म पैदा न करे और पुरःकृत (पहिले किये हुए) कर्मों का पूर्वोक्त जप तप ब्रह्मचर्यादि के प्रयोग से नाश करके कोंसे अलग होजाना अर्थात् जन्म मरण से रहित होकर परमपवित्र सच्चिदानन्द रूप परमपदको प्राप्त हो ज्ञानस्वरूप सदैव पर मानन्दमें रमन रहनेको मोक्ष मानते हैं ।
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७-साधनों के चिन्ह और धर्म ___७-पञ्चयम (पांचमहावत के) पालनेवालों कोसाधु कहते हैं अर्थात् श्वेतवस्त्र. मुखवस्त्रका मग्व पर बांधना, एक ऊन आदि का गुच्छा (रजोहरण) जीव रक्षा के लिये हाथ में रखना, काष्ट पात्र में आर्य गृहस्थियों के द्वारसे निदीप भिक्षाला के आहार करना। पूर्वोक्त ५ पञ्चाश्रव हिना १ मिथ्या २ चोरी ३ मेथन ममत्व ५ इन का त्यागन और अहिंसा नत्यमस्तेयं ब्रह्म चर्चापरिग्रहमा इन उक्त (पञ्च महानतोंका धारण करना अर्थात् दया ? सत्य२ दत्त ३ ब्रह्म चर्य र निमरत ५ व्या. जीव रक्षा) अर्थान स्थावगदि कीटी ने कुञ्जर पर्यन्न नर्व जीवों की रक्षा कर धर्ममें चन्न का करना ? सत्य (मच बोलना। २ दन (गृहम्बियों का दिया
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( ८ ) हुओ अन्न पोनी वस्त्रादि ) निर्दोष पदार्थ का लेना ३ ब्रह्मचर्य (हमेशा यती रहना) अपितु स्त्री को हाथ तक भी न लगाना जिस मकान में स्त्री रहती हो उस मकान में भी न रहना। ऐसे ही साध्वी को पुरुष के पक्षमें समझ लेना ४ निर्ममत्व (कौड़ी पैसा आदिक धन ) धातु का किंचित् भी न रखना ५ रात्रि भोजन का त्याग अर्थात् रात्रि में न खाना न पीना रात्रि के समय में अन्न पानी आदिक खान पोन के पदार्थ का संचय भी न करना (न रखना) और नंगे पांव भूमि शय्या, तथा काष्ठ शय्या का करना फलफूल आदिक और सांसारिक विषय व्यवहारों से अलग रहना, पञ्च परमेष्टी का जाप करना धर्मशास्त्रों के अनुसार पूर्वोक्त सत्य सार धर्म रीतिको ढंढकर परोपकार के लिये
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सत्योपदेश यथा वृद्धि करते हुये देशांतरों में विचरते रहना एक जगह डेग बना के मुकाम का न करना.गेली वृत्तिवालोंको नाधु मानने हें ८-थावक(शास्त्र सुननेवाले)
गहस्थियों का धर्म। ८-श्रावक पति नर्वसभापितमत्रानुसार सम्यग दृष्टि में दृद हाकर धर्म मर्यादा में चलनेवालों को मानते हैं अर्शन प्रात काल में परमश्वर का जार र प पाट करना अभयदान सुपात्रदान का दना नायंकालादिमन्नामायिक का करना जटका न चालना, कानन नालना, जुटी गवाही का न देना, चालान करना, पर जी का नमन नना, प्रियान परपरको गमन न करना अमान अपने पनि अगिरिक
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( १० ) सवपुरुषोंको पिता बंधु के तुल्य समझना (यूत) जएका न खेलना,मांसका न खाना,शराबका न पीना, शिकार (जीवघात) का न करना, इतना ही नहीं है वरंच मांस खाने, शराब पीनेवाले, शिकार (जीव घात) करने वाले को जातिमें भी न रखना अर्थात् उसके सगाई ( कन्यादान ) नहीं करना, उसके साथ खानपानादि व्यवहार नहीं करना, खोटा वाणिज्य न करना अर्थात् हाड़, चाम, जहर, शस्त्र आदिक का न वेचना और कसाई आदिक हिंसकों को व्याज पैदाम तक काभी न देना क्योंकि उनकी दुष्ट कमाई का धन लेना अधर्म है ॥
६--परोपकार। ९-परोपकारसत्य विद्या(शास्त्रविद्या) सीखने सिखाने पूर्वोक्त जिनेन्द्र देव भापित सत्य
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( ११ )
शास्त्रोक्त जड़ चेतन के विचार से वृद्धि को निर्मल करने में जीव रक्षा सत्य भाषणादि धर्म में उद्यम करने को कहते हैं ॥ यथा :दोहा - गणवनों की वंदना, अवगुण देख मध्यस्थ
दुखी देख करुणाकरे, मंत्रीभाव समस्त ? अर्थ-पुत्रक गुणोंवाले साधा श्रावकों को नमस्कार करे और गुण रहित से मध्यस्थभाव रहे अर्थात् उन पर राग न करे २ दुखियों को देयके का क्या करे अर्थात् अपना कल्प धर्म के यथा यक्ति उनकुन निवारन करे ३ मैत्री सर्व जीवों में
नित नहीं ॥ २ ॥
अर्थात् किसी का बुरा
१०-- यात्रा धर्म ।
1०-यात्रा पर
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( १२ ) तीर्थों) का मिल के धर्म विचार का करना उसे यात्रा मानते हैं अर्थात् पूर्वोक्त साधु गुणों का धारक पुरुष साधु १ तैसे ही पूर्वोक्त साधु गणोंकी धारिका स्त्री साध्वी २ पूर्वोक्त श्रावक गुणोंका धारक पुरुष श्रावक ३ पूर्वोक्त श्रावक गुणों की धारिका स्त्री श्राविका ४ इनको चतुविध संघ तीर्थ कहते हैं इनका परस्पर धर्म प्रीति से मिल कर धर्म का निश्चय करना उसे यात्रा कहते हैं और धर्म के निश्चय करने के लिये प्रश्नोत्तर कर के धर्म रूपी लाभ उठाने वाले (सत्य सन्तोष हासिल करने वालों) को यात्री कहते हैं अर्थात् जिस देश काल में जिस पुरुष को सत् संगतादि करके आत्मज्ञान का लाभ हो वह तीर्थ । यथा चाणक्य नीति दर्पणे अध्याय १२ श्लोक ८ में :
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( १३ )
साधूनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थ भूताहि साधवः । कालेन फलते तीर्थ, सद्यः साधु समागमः॥
अर्थ-साध का दर्शन ही सुकृत है साधु ही तीर्थ रूप है तीर्थ तो कभी फल देगा साधुओं का संग शीघूही फलदायक है। १ । और जो धर्म सभा में धर्म सुन ने को अधिकारी आवे वह यात्री। २ । और जो धर्म प्रीति और धर्म का बधाना अर्थात् आश्रव का घटाना सम्बर का बधाना (विषयानन्द को घटानाआत्मानन्द को बधाना ) वह यात्रा ।३। इन पूर्वोक्त सर्व का सिद्धान्त ( सार ) मुक्ति है अर्थात् सर्व प्रकार शारीरी मानसी दुःख से छूट कर सदैव सर्वज्ञता आत्मा आनन्द में रमता रहे।
॥ इति दशनियमः॥ शुभम् ॥
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ॐश्रीवीतरागानमः ज्ञानदीपिका (जैनोद्योत) ग्रंथ “सत्यधर्मोपदेशिका-बालब्रह्मचारिणी श्रीमतीपार्वती सतीजी विरचिता"।
द्वितीया वृति।
विज्ञापन। ____ हमारे प्यारे जैनी भाइयोंको प्रकट हो कि
जैनतत्त्वादर्श ग्रन्थ जोकि महाराज श्रीआत्मारामसाधुजीने बनाया है उसके पढ़ने वासुनने से कई एक भाइयोंकी धर्म विषयक श्रद्धा में फर्क आगया है इस हेतु से श्रीमती पार्वती जी महाशयाबालब्रह्मचारिणीसतीनेलोगोंके उपका
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( १५ ) रार्थ, ज्ञानदीपिका ग्रन्थ ऐसीसरलभाषा में बनाया है (जिस में संक्षेपमात्र सत्यासत्य और धर्माधर्म का निरूपणकिया है ) कि अल्प बुद्धिजन भी उसको देखकर ठीक ठीक सत्य मार्गपर आजावें ॥ इस ग्रंथ में सूत्रोंके प्रमाण भी दिये गये हैं और श्रावक कों और अ. कर्मीका तथा सामायिक विधिकाप्रमाणसहित निरूपण किया हुआ है, इसलिये निश्चय है कि आप लोग पक्षपातको छोड़ तत्त्व दृष्टि से इस ग्रन्थको विचारकर भवसागर के पार उतर नेके लिये धर्मरूपी नौकाके ऊपर आरूढ हो कर इस दुःख बहुल जन्मको सफल करेंगे।
यह पुस्तक बहुत उत्तम अक्षरों में और मोटे कागज़पर छप कर त्यार होगया है विलायती
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( १६ ) कपड़े की जिल्द त्यार हुई है और इस पुस्तक का दाम -।- २० और महसूल २ आना है। जो महाशय इस पुस्तकको खरीदना चाहें वे अपना नाम, मुकाम डाकखाना, और जिला बहुत शीघ्र नीचे लिखे पते पर भेज देवें 'पत्र' पहुंचनेपर तत्काल पुस्तक भेज दिया जावेगा। पुस्तक मिलने का ठिकाना :
मेहरचंद्र लक्ष्मणदास संस्कृत पुस्तकालय सैद मिट्टाबाजार।
लाहौर पजाब।
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नोट। लाला गंगाराम मुन्शीराम श्रावक हुश्यारपुर वासी ने इस पुस्तक के छपवाने में हम को वहुत सहायता दी, जिसके लिये हम इनका धन्यवाद करते हैं। - भारतभर मेंसबसे बड़ासंस्कृत
भाषा पुस्तकों का सूचीपत्र। महाराज जी ? ___ आपकी सेवा में निवेदन किया जाता है कि हमारे प्राचीन संस्कृत पुस्तकालय का सूची पत्र जिसकी कि आपलोग बहुत कालसे देखने की इच्छा करते थे आज ईश्वर की कृपा से ३बर्ष की मेहनत के बाद बड़े २ प्रसिद्ध पंडितों की सहायता से त्यार होकर मुम्बई से छपं कर
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