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सत्साधु-स्मरणमंगलपाठ
जुगलकिशोर मुख्तार
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प्रकीर्णक-पुस्तकमालाका पंचम पुष्प
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सत्साधु-स्मरण-संगावपाठ: Thi
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संयोजक और अनुवादक जुगलकिशोर मुख़्तार, 'युगवीर
सरसावा जि. सहारनपुर [ग्रन्थपरीक्षा ४ भाग,स्वामी समन्तभद्र, जिनपूजाधिकारमीमांसा, उपासनातत्त्व,विवाहसमुद्दश्य,विवाहक्षेत्रप्रकाश,जैनाचार्योंका शासनभेद, वीरपुष्पाञ्जलि, हम दुखी क्यों हैं, मेरीभावना, अनित्यभावना,महावीरसंदेश, सिद्धिसोपान और मावात. महावीर और उनका समय आदि कनेका अन्यानल रचयिता तथा अनेकान्तादि पत्रोक सम्पादक।
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प्रकाश
वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा ज़ि० सहारनपुर
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प्रथमावृत्ति । अाश्विन,वीरनिर्वाण सं० २४७०/
विक्रम संवत् २००१ १००० प्रति
मूल्य । पाठ पाने
सन् १६४४
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पुस्तकानुक्रम
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१ समर्पण २ धन्यवाद ३ चित्र-परिचय (जीवन-संक्षेप). ४ प्रस्तावना ५ विषय-सूची ६ सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ७ पद्यानुक्रम
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रामा प्रिंटिङ्ग प्रेस, . चावड़ीबाजार, देहली।
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समर्पण
'त्वदीयं वस्तु भो विद्वन् !
तुभ्यमेव समर्पितम् ।' सत्साधुओंके स्मरणको लिये हुए जिन आचार्यों अथवा विद्वानोंके जिन वाक्योंकी इस पुस्तकमें संयोजना की गई है वे वाक्यरत्न, उन वाक्योंके मर्मको व्यक्त करनेवाले अनुवादरूप व्यञ्जकमणिके साथ जड़ कर, उन्हीं महानुभावोंको, यह कहते हुए, सादर समर्पित हैं कि
'हे विद्वद्गण ! यह आपकी चीज़ है, इस लिये आपको ही समर्पित है।'
संयोजक
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धन्यवाद
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श्रीमान् बाबू नन्दलालजी जैन, सुपुत्र सेठ रामजीवनजी सरावगी, कलकत्ताने अपनी इकलौती पुत्री स्वर्गीया श्रीमती तारावाई खेमकाकी पवित्र स्मृतिमें, उसकी अन्तसमयसे कुछ दिन पहलेकी इच्छाके अनुसार, एकहजार रुपयेकी रकम 'वीरसेवामन्दिर' सरसावाको ग्रन्थ प्रकाशनार्थ प्रदान की है। उसी सहायतासे यह सुन्दर पुस्तक प्रकाशित की जा रही है और आगे और भी पुस्तकें प्रकाशित होंगी। इस उदारता और श्रुतसेवाके लिये आपको हार्दिक धन्यवाद है।
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प्रकाशक
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स्व० श्रीमती ताराबाई
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चित्र-परिचय (जीवन-संक्षेप)
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जिस सुन्दर सुकुमार चित्रको पाठक अपने सामने देख रहे । हैं वह कलकत्ताके सुप्रसिद्ध व्यवसायी सेठ रामजीवनजी सरा- ।
वगीकी पौत्री और बाबू नन्दलालजी जैनकी इकलौती पुत्री। है श्रीमतो तारावाईका चित्र है, जिसका जन्म कलकत्ता नगरमें
प्रथम श्रावण शुक्ला त्रयोदशी विक्रम संवत् १९८५ को हुआ, जिसने सावित्री पाठशालामें लौकिक और परपर धार्मिक शिक्षा, प्राप्त की, दोनों प्रकारकी शिक्षा प्राप्त करलेनेपर जिसका विवाह
संस्कार कलकत्तामें ही फतहपुर निवासी स्व० सेठ बालूरामजी ! । खेमकाके ज्येष्ठ सुपुत्र चि० बाबू शिवप्रसादजी खेमकाके साथ हुआ, युद्धके कारण कलकत्तामें भगदड़ मच जानेपर वैसाख शुक्ला पंचमी संवत् १९६६ को जिसके द्विरागमनकी रस्म राजगृही (राजगिरि ) में की गई, जो फतहपुर ससुरालमें जाकर कोई दो ! महीने बाद ही श्रावण मासमें बीमार पड़ गई, जिसने अपनेको
अस्वस्थ देखकर और धार्मिक भावनासे प्रेरित होकर पिताजी१ को अपने बाल्यकालकी जोड़ी हुई पूंजीमेंसे एक हजार रुपयेके !
दानकी प्रेरणा की, और जो अन्तमें सभी योग्य उपायोंके निष्फल
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| होनेपर भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी सं० १९६६ को १४ वर्षकी अवस्थामें । में ही अपनी यह जीवन लीला समाप्त कर गई ! और उसके द्वारा
संसारकी असारताका सजीव पाठ पढ़ाते हुए यह बतला गई कि! जीवन क्षणभंगुर है, उसका कोई भरोसा नहीं, उसकी स्थिरताके भरोसे रहकर किसीको भी आत्म-विस्मरण न करना चाहिएसदा ही सत्साधुओंकी तरह आत्म-साधनामें तत्पर रहना चाहिए।
रोगादिकके आ धर दबानेपर इच्छा रहते भी फिर कुछ नहीं ! बनता और आयुका कब अन्त आजाए इसका किसीको पता नहीं। !
साथ ही, यह भी बतला गई कि बाल्य-विवाहसे किसीको भी सुख
नहीं मिलता। । यह सुशील बालिका धार्मिक रुचिको लिए हुए अच्छी तीक्ष्ण
बुद्धि थी और सबको प्रिय मालूम देनेवाली एक विकासोन्मुख * सुन्दर सुकुमार कली थी, जिसके अकालमें ही काल-कवलित , होजानेसे माता-पिता तथा अन्य कुटुम्बीजनोंको भारी आघात ! पहुँचा है। साथ ही समाजकी भी कुछ कम क्षति नहीं हुई है। स्वर्गीय आत्माको परलोकमें सुख-शान्तिकी प्राप्ति होवे।
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प्रस्तावना
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सत्साधुओं का स्मरण बड़ा ही मंगल दायक है । 'चत्तारि मंगलं' में 'साहू मंगलं' पदके द्वारा साधुओं को भी मंगलमय निर्दिष्ट किया है। सत्साधुजन हिंसादि पंच व्रतोंका पालन करते १ हुए कषायों को जीतते हैं, इन्द्रियोंका निग्रह करते हैं-, इन्द्रियों| को अपने अधीन रखते हैं-इन्द्रियोंके विषयोंकी श्राशा नहीं रखते हैं, आरम्भ तथा परिग्रहसे रहित होते हैं और ज्ञान, ध्यान एवं तपमें सदा लीन रहते हैं । और इस तरह आत्मसाधना करते हुए अपना श्रात्मविकास सिद्ध करते हैं तथा अपने आदर्शादि द्वारा दूसरोंके आत्मविकास में सहायक होते हैं । इसीसे सत्साधुको सुकृती, पुण्याधिकारी, पुण्यात्मा, पूतात्मा और पुण्यमूर्ति जैसे नामोंसे भी उल्लेखित किया जाता है। ऐसे पूतात्मा साधुपुरुषोंका संसर्ग अथवा सत्संग जिस प्रकार आत्माको जगाने, ऊंचा उठाने और पवित्र बनाने में सहायक होता है उसी प्रकार उनके पुण्यगुणों का स्मरण भी पापोंसे हमारी रक्षा करता है और हमें पवित्र बनाता हुआ आत्मविकासकी ओर अग्रसर करता है । जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है :'तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।'
स्वयम्भू स्तोत्र स्वामी समन्तभद्रने जहाँ परमसाधुओं के स्तवनको 'जन्मारण्यशिखी' - जन्म-मरणरूपी संसार - वनको भस्म करनेवाली अग्निबतलाया है वहां 'स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेन' इस वाक्यके द्वारा उनकी स्मृतिको दुःख - समुद्रसे पार करनेके लिये नौका भी प्रकट किया
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प्रस्तावना
है । वे इन स्तवनों तथा स्मरणोंको कुशल परिणामका-पुण्य- ।
प्रसाधक शुभ भावोंका-कारण बतलाते हैं और इनके द्वारा ! श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना प्रतिपादन करते हैं।
और यह उनका केवल बतलाना तथा प्रतिपादन करना ही नहीं । बल्कि स्वानुभवपूर्ण कथन है-वे स्वयं इन स्मरणादिकोंके रूपमें
की गई सेवाके प्रभावसे ही अपनेको तेजस्वी, सुजन तथा सुकृती ! । ( पुण्यवान् ) होना प्रकट करते हैं।। और इससे इन स्मरणोंका
महत्व बिलकुल स्पष्ट होजाता है। ___जब जब मैं स्वामी समन्तभद्रादि जैसे महान् आचार्योंके पुरा
तन स्मरणोंको पढ़ता रहा हूँ तब तब मेरे हृदयमें बड़े ही पुष्ट ! विचार उत्पन्न हुए हैं, औद्धत्य तथा अहंकार मिटा है, अपनी !
त्रुटियोंका बोध हुआ है और गुणोंमें अनुराग बढ़कर आत्मविकासकी ओर कुछ रुचि पैदा हुई है। साथ ही, अनेक उलझने , भी सुलझी हैं । इन स्मरणोंको पढ़ते हुए सदा ही मेरी यह भावना रही है कि मुझे जो आनन्द तथा लाभ इनसे प्राप्त होता है वह ,
दूसरोंको भी होवे। इसीसे मैं कितने ही स्मरणोंको, उनके मर्मस्पर्शी । * हिन्दी अनुवादके साथ 'अनेकान्त' पत्रमें प्रकट करता रहा हूँ। ! बहुत दिनोंसे मेरी इच्छा थी कि मैं उन सब स्मरणोंको, जो मेरी !
मति तथा स्मृतिको प्रदीप्त करते हुए मेरे आनन्दका विषय रहे हैं, एक मंगलपाठके रूप में संयोजित करूँ, जिससे इधर उधर बिखरे , हुए उत्तम स्मरणोंका एक अच्छा एकत्र संग्रह होजाय और उससे सभी जन यथेष्ट लाभ उठा सके। उसीके फलस्वरूप आज यह
* देखो, जिनशतक पद्य ११५।। + देखो; स्वयम्भूस्तोत्र पद्य ११६।। देखो, जिनशतक पद्य ११४ ।
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प्रस्तावना
सानुवादें मंगलपाठ पाठकोंकी सेवामें प्रस्तुत है और इसे प्रस्तुत • करते हुए मुझे बड़ा ही आनन्द होता है। : इस मङ्गलपाठमें अनेक सत्साधुओंके पुण्य स्मरणोंकी संयोजना की गई है। श्रीवीर जिनेन्द्र और उनके उत्तरवर्ती गणधरादि २१ महान् प्रभावशाली आचार्योंके महत्वपूर्ण स्मरणोंका यह संग्रह है, जिनके स्मरणकर्ता अनेक आचार्य, भट्टारक, विद्वान्, कविजन अथवा शिलालेखों के लिखानेवाले महानुभाव हुए हैं। स्मरणकर्ता आचार्योंमें कितने ही आचार्य तो इत्तने महान हैं कि वे खुद भी अनेक आचार्यों तथा विद्वानों आदिके द्वारा स्मरण किये गये हैं; जैसे स्वामी समन्तभद्र, अकलङ्क, विद्यानन्द, वीरसेन,
और जिनसेनादिक । इन स्मरणोंकी संख्या सव मिलाकर १३६ है। जिन महान् आत्माओंके ये स्मरण हैं उन्हें यथासाध्य कालक्रमसे रक्खा गया है; परन्तु स्मरणकर्ताओंमें कालक्रमके नियमको चरितार्थ नहीं किया गया, उनके स्मरणोंका संकलन विषयादिककी कुछ दूसरी ही दृष्टिको लिये हुए है । जहाँसे जो स्मरण लिये गये हैं उन प्रन्थादिकोंके नाम मूल स्मरणोंके नीचे दे दिये गये हैं। साथ ही, शिलालेखोंको छोड़कर, अन्य सब स्मरणकर्ताओंके शुभनाम भी साथमें दे दिये गये हैं, जिससे स्मृत व्यक्तियों और स्मरणकर्ताओंका एक साथ बोध हो सके। ___ आचार्यों में सबसे अधिक संस्मरण स्वामी समन्तभद्रके हैं
और वे इस पुस्तकके २७ पृष्ठोंपर आये हैं; जबकि अकलङ्कादिक । दूसरे महान् आचार्योंके स्मरण ५, ४, ३, २ श्रादि पृष्ठोंपर ही आसके हैं । समन्तभद्रके गुणों, उपकारों और उनकी मौलिक कृतियोंका कुछ ऐसा प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हुआ है कि श्रीअकलङ्क- ।
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प्रस्तावना
। देव, विद्यानन्द, जिनसेन और वादिराज जैसे महान् आचार्यों , और कविनागराज जैसे भक्तहृदय विवेकी विद्वानोंने उनका खूब : ! खुलकर यशोगान किया है। प्राचार्य विद्यानन्द तो उनके गुणों* का कीर्तन करते करते अँघाए ही नहीं । ऐसा मालूम होता है कि
वे इन्द्रकी तरह सहस्रनयन बनकर समन्तभद्रकी ओर बराबर। देखते रहे हैं और तृप्त नहीं हो पाये।
ये सब संस्मरण स्मृत व्यक्तियोंके कितने ही इतिहास, प्रभाव उपकार, माहात्म्य, गुणोत्कर्ष और साहित्य-सेवादिके उल्लेखोंको लिये हुए हैं, आत्मामें एक प्रकारकी स्फूर्ति-जागृति उत्पन्न करते हैं और विशुद्धता लाते हैं। इनमें जैनधर्मके विश्वव्यापी प्रभाव तथा आत्माकी अचिन्त्य शक्तियोंका दर्शन होता है। जैनधर्मकी नीति और उसके मूलसिद्धान्तोंका इनसे कितना ही पता चलता है, पूर्वजोंका गौरव मूर्तिमान होकर सामने आ जाता है, अपने कर्तव्यका बोध होता है और आत्मविकास तथा लोकसेवाके लिये कुछ-न-कुछ करनेको जी चाहता है। और इस तरह ये
संस्मरण बहुत उपकारी तथा मङ्गलकारी हैं। हमें नित्य ही इनका १ पाठ करके अपने आत्माको पवित्र करना तथा ऊँचे उठाना चाहिये।
जिन आचार्योंके स्मरणोंका यहाँ संकलन किया गया है वे विक्रम संवत् से कोई ४७० वर्ष पहलेसे लेकर विक्रमकी ११वीं
शताब्दी तक हुए हैं। मैं उनका और उनके स्मरणकर्ताओंका । समयादिके साथ कुछ ऐतिहासिक विशेष परिचय और देना चाहता
था, परन्तु अनवकाशसे लगातार बहुत ज्यादा घिरा रहनेके कारण । मैं उसे इस समय नहीं दे सका । पुस्तकके दूसरे संस्करणके अव- सरपर उसे देनेका यत्न किया जायगा। ! वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा जुगलकिशोर मुख्तार !
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विषय-सूची
विषय १ मङ्गलाचरण २ लोक-मङ्गल-कामना ३ नित्यकी आत्म-प्रार्थना ४ साधु-वेष-निदर्शक जिन-स्तुति ५ परमसाधु-मुख-मुद्रा ६ सत्साधु-वन्दन ७ श्रीवीर-वर्द्ध मान-स्मरण १ वीर-जिन-वन्दन २ वीर-जिन-स्तवन
३ वीर-शासनाभिनन्दन ८ श्रीगौतम-गणधर-स्मरण १ श्रीभद्रबाहु-स्मरण १० श्रीगुणधर-स्मरण ११ श्रीधरसेन स्मरण १२ श्रीपुष्पदन्त-स्मरण १३ श्रीभूतबलि-स्मरण १४ श्रीकुन्दकुन्द-स्मरण १५ श्रीउमास्वाति(मि)-स्मरण १६ स्वामि-समन्तभद्र-स्मरण
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विषय २ समन्तभद्र-स्तवन ३ समन्तभद्र-अभिनन्दन
४ समन्तभद्र कीर्तन : ५ समन्तभद्र-प्रवचन
६ समन्तभद्र-प्रणयन
७ समन्तभद्र-वाणी . ८ समन्तभद्र-भारती
६ समन्तभद्र-शासन ... १० समन्तभद्र-माहात्म्य
११ समन्तभद्र-जयघोष १२ समन्तभद्र-विनिवेदन
१३ समन्तभद्र-हृदिस्थापन १७ श्रीसिद्धसेन स्मरण १८ श्रीदेवनन्दि-पूज्यपाद स्मरण १६ श्रीपात्रकेसरि-स्मरण २० श्रीअकलङ्क-स्मरण २१ श्रीविद्यानन्द-स्मरण २२ श्रीमाणिक्यनन्दि-स्मरण २३ श्रीअनन्तवीर्य-स्मरण २४ श्रीप्रभाचन्द्र-स्मरण २५ श्रीवीरसेन स्मरण
२६ श्रीजिनसेन-स्मरण । २७ श्रीवादिराज-स्मरण
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मंगलपाठ
मंगलं भगवान् वोरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला
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-जैन नित्यपाठ ___ 'सम्पूर्ण प्रजा-जनोंको मले प्रकार कुशल-क्षेमकी प्राप्ति होवे
सारी जनता यथेष्टरूपमें सुखी रहे-राजाशक्तिसम्पन्न और धार्मिक 22 बने-धर्ममें अच्छी तरह निष्ठावान (श्रद्धा एवं प्रवृत्तिको लिये
हुए) होवे अथवा धार्मिक राजाका बल खूब बढ़े (जिससे अन्याय
अत्याचारोंका मुख न देखना पड़े ), समय समयपर ठीक वर्षा ए हुआ करे-अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि और अनावृष्टिसे किसीको भी
पाला न पड़े-, व्याधियाँ-बीमारियाँ नाशको प्राप्त हो जावे, जगत्के जीवोंको दुर्भिक्ष (अकाल), चोरी, और मरी प्लेग-हैजा आदि संक्रामक रोगों)की बला एक क्षणके लिये भी न सतावे,और जैनेन्द्र-धर्मचक्र-श्रीजिनेन्द्रका उत्तमक्षमा मार्दव-आर्जव-सत्यशौच-संयम-तप-त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्यरूप दशलक्षणधर्म अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयधर्म-, जो सब जीवोंको सुखका देने वाला अथवा पूर्ण सुखका प्रदाता है वह लोकमें सदा । अस्खलितरूपसे निर्बाध प्रवर्त-उसमें कभी कोई बाधा न पड़े।'
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शास्त्राऽभ्यासो जिनपति-नुतिः सङ्गतिः सर्वदायः सद्वृत्तानां गुण-गण-कथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्याऽपि प्रिय-हित-वचो भावना चाऽऽत्मतत्त्वे सम्पद्यन्तां मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्गः ॥
-जैन नित्यपाठ 'जब तक मुझे अपवर्गकी-मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तब तक भव-भवमें-जन्म-जन्ममें-मेरा शास्त्र-अभ्यास बना रहे-मैं * ऐसे ग्रन्थोंके स्वाध्यायसे कभी न चूकूँ जो अाप्त-पुरुषोंके कहे हुए 2 अथवा प्राप्तकथित विषयका प्रतिपादन करनेवाले हों, तत्त्वके
उपदेशको लिये हुए हों, सर्वके लिए हितरूप हों, अबाधित सिद्धान्त हों और कुमार्गसे हटाने वाले हों-; साथ ही, जिनेन्द्र
के प्रति मैं सदा ही नम्रीभूत रहूँ-सर्वज्ञ, वीतराग और परम* हितोपदेशी श्रीजिनदेवके गुणोंके प्रति मेरे हृदयमें सदा ही
भक्तिभाव जाग्रत रहे- मुझे नित्य ही आर्यपुरुषोंकी-सत्पुरुषोंहै की- संगतिका सौभाग्य प्राप्त होवे-कुसङ्गतिमें बैठने अथवा
दुर्जनोंके सम्पर्क में रहकर उनके प्रभावसे प्रभावित होनेका । कभी भी अवसर न मिले-; सच्चरित्र-पुरुषोंकी गुण-गण-कथा /
ही मुझे सदा आनन्दित करे--मैं कभी भी विकथाओंके कहने2 सुनने में प्रवृत्त न होऊँ-; दोषोंके कथनमें मेरी जिह्वा सदा ही मौन ++car++ ++ ++ ++ ++++ee++ ++S++ ++ ++
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प्रकीर्णक पुस्तकमाला
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धारण करे — मैं कषायवश किसीके दोषोंका उद्घाटन न करूँ -; मेरी वचन प्रवृत्ति सबके लिये प्रिय तथा हितरूप होवे - कषायसे प्रेरित होकर मैं कभी भी ऐसा बोल न बोलू अथवा ऐसा वचन मुँह से न निकालूँ जो दूसरोंको अप्रिय होनेके साथ साथ अहितकारी भी हो; और आत्म-तत्त्व में मेरी भावना सदा ही बनी रहे - मैं एक क्षण के लिये भी उसे न भूलूँ, प्रत्युत उसमें निरन्तर ही योग देकर आत्म-विकासकी सिद्धिका बराबर प्रयत्न करता रहूँ । यही मेरी नित्यकी आत्म-प्रार्थना है । "
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साधु- वेष-निदर्शक जिन-स्तुति
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[ परमसाधु श्रीजिनदेव - जैनतीर्थंकर - अपनी योग-साधना एवं अर्हन्त-अवस्था में वस्त्रालंकारों तथा शस्त्रास्त्रोंसे रहित होते हैं। ये सब चीजें उनके लिये व्यर्थ हैं। क्यों व्यर्थ हैं ? इस भावको कविवर वादिराजसूरिने अपने 'एकीभाव' स्तोत्रके निम्न पद्य में बड़े ही सुन्दर एवं मार्मिक ढंगसे व्यक्त किया है और उसके द्वारा ऐसी वस्तुओं से प्रेम रखनेवालोंकी असलियतको भी खोला है। इससे यह स्तुति, जो सत्यपर अच्छा प्रकाश डालती है, बड़ी ही प्यारी मालूम होती और अतीव शिक्षाप्रद जान पड़ती है । ]
हार्येभ्यः स्पृहयति परं यः स्वभावादहृद्यः शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः ।
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ 24+8++ ++23+- ++ ++++ ++ ++ ++ ++
सर्वांगेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषाम् तत्कि भूषा-वसन-कुसुमैः किं च शस्त्ररुदस्त्रैः॥
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'हे परमसाधु श्रीजिनदेव । शृंगारोंके लिये बड़ी बड़ी इच्छाएँ वही करता है जो स्वभावसे ही अमनोज्ञ अथवा कुरूप होता है, । और शस्त्रोंका ग्रहण-धारण भी वही करता है जो वैरीके द्वारा
शक्य-जय्य अथवा पराजित होनेके योग्य होता है। आप सर्वाङ्गोंमें सुभग हैं-कोई भी अङ्ग आपका ऐसा नहीं जो असुन्दर अथवा
कुरूप हो और दूसरोंके द्वारा आप शक्य भी नहीं हैं-कोई 9 भी आपको अभिभूत या पराजित नहीं कर सकता। इसीसे शरीर-शृङ्गाररूप आभूषणों, वस्त्रों तथा पुष्पमालाओं आदिसे आपका कोई प्रयोजन नहीं है, और न शस्त्रों तथा अस्त्रोंसे ही कोई प्रयोजन है-शृङ्गारादिकी ये सब वस्तुएँ आपके लिये निर* र्थक हैं, इसीसे आप इन्हें धारण नहीं करते । वास्तवमें इन्हें वे * ही लोग अपनाते हैं जो स्वरूपसे ही असुन्दर होते हैं अथवा
कमसे कम अपनेको यथेष्ट सुन्दर नहीं समझते और जिन्हें दूसरों
द्वारा हानि पहुँचने तथा पराजित होने आदिका महाभय लगा * रहता है, और इसलिये वे इन आभूषणादिके द्वारा अपने कुरूप
को छिपाने तथा अपने सौन्दर्यमें कुछ वृद्धि करनेका उपक्रम किया करते हैं, और इसी तरह शस्त्रास्त्रोंके द्वारा दूसरोंपर अपना
आतङ्क जमाने तथा दूसरोंके आक्रमणसे अपनी रक्षा करनेका * प्रयत्न भी किया करते हैं।'
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६
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प्रकीर्णक- पुस्तकमाला
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४
परमसाधु-मुख-मुद्रा
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अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवन्हेर्जयात् कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकतः । विषाद-मद- हानितः प्रहसितायमानं सदा मुखं कथयतीव ते हृदय-शुद्धिमात्यन्तिकीम् ॥
— चैत्यभक्ति
-
--
' ( हे परमसाधु जिनेन्द्र ! ) आपका मुख, संपूर्ण कोप - वन्हिपर विजय प्राप्त होनेसे - अनन्तानुबन्ध्यादि - भेद - भिन्न समस्त क्रोधरूप अग्निका क्षय हो जानेसे, अताम्रनयनोत्पल है-उसमें स्थित दोनों नयन - कमल-दल सदा अताम्र रहते हैं, उनमें कभी क्रोधसूचिका सुख नहीं आती; और अविकारता के उद्रेक से — वीतताकी आप में परमप्रकर्षको प्राप्ति होने से - कटाच बाणों के मोचन - व्यापार से रहित है— कामोद्रेकादिके वशीभूत होकर तिर्यग्दृष्टिपातरूप कटाक्षवाणोंको छोड़ने जैसी कोई क्रिया नहीं करता है। साथ ही, विषाद और मदकी सर्वथा हानि हो जानेसे - उनका अस्तित्व ही आपके आत्मा में न रहनेसे - सदा ही प्रहसितायमान रहता है - प्रहसित - प्रफुल्लित की तरह आचरण करता हुआ निरन्तर ही प्रसन्न बना रहता है । इन तीन विशेषणों से विशिष्ट आपकी मुख - मुद्रा आपकी आत्यन्तिकी - अविनाशी - हृदयशुद्धिका द्योतन करती है । भावार्थ - हृदयको
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सत्साधु-स्मरणमंगलपाठ ++20++20++30++ ++26++++ ++ ++ ++ ++ ++ है अशुद्ध करनेवाले क्रोध, कामादिविकार, मद और विषाद हैं, ये । जिनके नष्ट होजाते हैं उनका मुख उक्ततीनों-अताम्रनयनोत्पलत्व,
कटाक्षशरमोक्षहीनत्व,सदाप्रहसितायमानत्व-विशेषणोंसे विशिष्ट हो जाता है। जिनेन्द्रका मुख चूँकि इन तीनों विशेषणोंसे विभू- । षित है इसलिये वह उनके हृदयकी उस शाश्वती 'शुद्धि'को • स्पष्ट घोषित करता है जो काम, क्रोध, मद और विषादादिका * सर्वथा अभाव हो जानेसे सम्पन्न होती है। हृदयशुद्धिकी इस
कसौटी अथवा माप-दण्डसे दूसरोंके हृदयकी शुद्धिका भी कितना ही अन्दाज़ा और पता लगाया जा सकता है।'
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सत्साधु-वन्दन
+HD+जियभय-जिय उवसग्गे जियइंदिय-परिसहे जियकसाए । जियराय-दोस-मोहे जियसुह-दुक्खे णमंसामि ॥
--योगिभक्ती, श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः _ 'जिन्होंने भयोंको जीत लिया-जो इस लोक, परलोक तथा
आकस्मिकादि किसी भी प्रकारके भयके वशवर्ती होकर अपने पदसे, कर्तव्यसे, व्रतोंसे, न्याय्य-नियमोंसे च्युत नहीं होते, न 2 अन्याय-अत्याचार तथा पर-पीडनमें प्रवृत्त होते हैं और न किसी + तरहकी दीनता ही प्रदर्शित करते हैं। जिन्होंने उपसर्गोको जीत
लिया-जो चेतन-अचेतन-कृत उपसर्गो-उपद्रवोंके उपस्थित ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला g+FRO M -98++ ++ ++++ ++ ++ ++S++? के होनेपर संमताभाव धारण करते हैं, अपने चित्तको कलुषित ..
अथवा शत्रुतादिके भावरूप परिणत नहीं होने देते। जिन्होंने । इन्द्रियोंको जीत लिया-जो स्पर्शनादि पंचेन्द्रिय-विषयोंके वशीभूत (गुलाम ) न होकर उन्हें स्वाधीन किए हुए हैं। जिन्होंने परीषहोंको जीत लिया-जो भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, विष
कण्टक, वध-बन्धन, अलाभ और रोगादिकको परीषहों-बाधा. ओंको सम-भावसे सह चुके हैं। जिन्होंने कषायोंको जीत 2 लिया-जो क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्य, शोक और कामादिकसे अभिभूत होकर कोई काम नहीं करते। जिन्होंने
राग, द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त किया है जो राग, द्वेष, मोह. की अधीनता छोड़कर स्वाधीन बने हैं। और जिन्होंने सुख-दुःखॐ को भी जीत लिया है-सुखके उपस्थित होनेपर जो हर्ष नहीं
मनाते और न दुःखके उपस्थित होनेपर चित्तमें किसी प्रकारका उद्वेग, संक्लेश अथवा विकार ही लाते हैं। उन सभी सत्साधुओं
को मैं नमस्कार करता हूँ-उनकी वन्दना-उपासना-आराधना 3 करता हूँ; फिर वे चाहे कोई भी, कहीं भी और किसी नामसे
भी क्यों न हों।
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श्रीवीर-चईमानस्मरण
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Home
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१ वीर-जिन-वन्दन
शुद्धि-शक्त्योः परां काष्ठां योऽवाप्य शान्तिमुत्तमाम् । देशयामास सद्धर्म तं वीरं प्रणमाम्यहम् ॥
-युगवीरः । _ 'जिन्होंने, ज्ञानावरण और दर्शनावरणके विनाशसे निर्मल ज्ञानदर्शनकी आविर्भतिरूप शुद्धिकी तथा अन्तराय कर्मके क्षयसे । वीर्यलब्धिरूप शक्तिकी पराकाष्ठाको उत्कृष्ट अवस्था अथवा चरम
सीमाको-प्राप्त करके और मोहनीय कर्मके समूल विध्वंससे 8 आत्मामें प्रशमसुख-स्वरूप उत्तमशान्तिकी प्राप्ति करके, समीचीन धर्मकी देशना की है उन श्रीवीर भगवान्को मैं प्रणाम करता हूँ-गुणानुरागपूर्वक उनके सामने नत-मस्तक होता हूँ।
नमः श्रीवर्द्धमानाय निर्धत-कलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥
-रत्नकरण्डश्रावकाचारे, श्रीसमन्तभद्रः 'जिनकी विद्या केवलज्ञान-ज्योति-अलोक-सहित तीनों लोकोंके लिये दर्पणकी तरह आचरण करती है-उन्हें अपने में स्पष्टरूपसे प्रतिबिम्बित करती है। अर्थात् जिनके केवल-ज्ञानमें अलोक-सहित तीनों लोकके सभी पदार्थ साक्षात् रूपसे प्रतिभासित ++++++ ++ ++ ++S++++ ++ ++ ++++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला ++23++8++23++20++ ++ ++++ ++20+-28++20++8 है होते हैं और अपने इस प्रतिभास-द्वारा ज्ञान स्वरूप आत्मामें + कोई विकार उत्पन्न नहीं करते--वह दर्पणकी तरह निर्विकार ।
बना रहता है, उन निर्धूत-कलिलात्मा-अपने आत्मासे राग-द्वेष काम-क्रोधादिरूप सकल पाप-मलको धोकर उसे पूर्ण निर्मल एवं । निर्विकार बनानेवाले–श्रीमान् वर्द्धमानको-भारतीविभूति अथवा आर्हन्त्य-लक्ष्मीरूप श्रीसे सम्पन्न अन्तिम जैन तीर्थंकर श्रीवीर भगवान्को-मेरा नमस्कार हो-मैं उनके गुणोत्कर्षके आगे नम्र होकर सिर झुकाता हूँ।'
सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तात्मा मोक्ष-मार्गः सनातनः । आविरासीद्यतो वन्दे तमहं वीरमच्युतम् ॥
–तत्त्वार्थसूत्रे, श्रीप्रभाचन्द्रः 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप सनातन मोक्षमार्ग जिनसे-जिनके उपदेशसे-आविर्भूत हुआ-लोकमें पुनः प्रकट हुा-उन अच्युत ( अमर-अविनाशी) वीरकी मैं वन्दना करता हूँ --उन्हें अपना मार्गदर्शक आदर्श-पुरुष मानकर उनके सामने नत-मस्तक होता हूँ।'
२ वीर-जिन-स्तवनकीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुति-गोचरत्वम् ।। निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाश-बन्धम्॥
-युक्त्यनुशासने, श्रीसमन्तभद्रः ___हे वीर जिन ! -इस युगके अन्तिम तीर्थप्रवर्तक परमदेव ।
आप दोषों और दोषाऽऽशयोंके पाश-बन्धनसे विमुक्त हुए हैं++8++ ++GO++30++20++++ ++++ ++20++30++S
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ P++20++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++ है आपने अज्ञान-अदर्शन-राग-द्वेष-काम-क्रोधादि विकारों अर्थात् विभाव परिणामरूप भावकर्मों और इन दोषात्मक भावकर्मोंके संस्कारक कारणों अर्थात ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीय
अन्तरायरूप द्रव्यकर्मोके जालको छिन्न-भिन्न कर स्वतन्त्रता में प्राप्त की है- आप निश्चितरूपसे ऋद्धमान ( प्रवृद्ध-प्रमाण )
हैं-आपका तत्त्वज्ञानरूप प्रमाण ( केवलज्ञान ) स्याद्वाद-नयसे * संस्कृत होने के कारण प्रवृद्ध है-सर्वोत्कृष्ट एवं अबाध्य है,
और आप महती कीर्तिसे भूमण्डलपर वर्द्धमान हैं-जीवादिहै तत्त्वार्थोंका कीर्तन ( सम्यग्वर्णन ) करनेवाली युक्ति-शास्त्राऽवि: रोधिनी दिव्य-वाणीसे साक्षात् समवसरण-भूमिपर तथा परम्परा
से परमागमकी विषयभूत सारी पृथ्वीपर छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, निकटवर्ती-दूरवर्ती, तत्कालीन और उत्तरकालीन सभी पर-अपर
परीक्षकजनोंके मनोंको संशयादिके निरसन-द्वारा पुष्ट एवं व्याप्त ₹ करते हुए आप वृद्धि ( व्यापकता ) को प्राप्त हुए हैं-सदा सर्वत्र * और सबोंके लिये 'युक्ति-शास्त्राऽविरोधि-वाक्' के रूपमें अवस्थित
हैं, यह बात परीक्षा-द्वारा सिद्ध हो चुकी है। (अतः) अब-परीहै क्षाऽवसानके समय--(अात्ममीमांसाद्वारा) युक्ति-शास्त्राऽविरोधि
वाक्त्व-हेतुसे परीक्षा करके यह निर्णय कर चुकनेपर कि आप विशीर्ण-दोषाशय-पाश-बन्धत्वादि तीन असाधारण गुणों ( कर्मभेत्तृत्व, सर्वज्ञत्व, परमहितोपदेशकत्व ) से विशिष्ट हैंआपको स्तुतिगोचर-स्तुतिका विषयभूत आप्तपुरुष-मानकर, हम-परीक्षाप्रधानी मुमुक्षुजन-आपको अपनी स्तुतिका विषय छ + बनाना चाहते हैं आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त होना चाहते हैं।'*
* इसके अनन्तर ही 'युक्त्यनुशासन' ग्रंथमें स्वामी समन्तभद्रने वीर&++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++30++5
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला Ca++++++26++23++++++++26++a++23++S++ • अनन्तविज्ञानमतीत-दोषमबाध्य-सिद्धान्तममय-पूज्यम् । श्रीवर्द्धमानं जिनमाप्तमुल्यं स्वम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥
-अन्ययोगव्यवच्छेदिकायां, श्रीहेमचन्द्रः ___ 'जो अनन्त-विज्ञान-स्वरूप हैं. दोषोंसे-राग-द्वेष-काम* क्रोधादि विकारोंसे रहित हैं, जिनका सिद्धान्त (आगम) अबाध्य - है-वादी प्रतिवादीके द्वारा अखण्डनीय है-, जो देवोंसे पूज्य + हैं और स्वयम्भू हैं--स्वयं ही विना किसी दूसरेके उपदेशके मोक्ष* मार्गको जानकर तथा उसका अनुष्ठान कर आत्म-विकासको प्राप्त
हुए हैं-उन प्राप्त-पुरुषोंमें मुख्य श्रीवर्धमान जिनेन्द्र के स्तवनका मैं यत्न करता हूँ।'
स्थेयाजातजयध्वजाऽप्रतिनिधिः प्रोद्भतभरिप्रभुः प्रध्वस्ताऽखिल-दुनय-द्विषदिभः सन्नीतिसामर्थ्यतः । सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्ग-मथनोऽर्हन्वीरनाथः श्रिये शश्वत्संस्तुति-गोचरोऽनघधियां श्रीसत्यवाक्याधिपः॥
-युक्तयनुशासन-टीकायां, श्रीविद्यानन्दः 'जो जयध्वज प्राप्त करनेवालोंमें अद्वितीय हैं, जिनके महान् सामर्थ्य अथवा महती प्रभुताका प्रादुर्भाव हुआ है, जिन्होंने
सन्नीतिकी-अनेकान्तमय स्याद्वाद-नीतिकी-सामर्थ्यसे संपूर्ण ॐ दुर्नयरूप शत्रुगजोंको ध्वस्त (विनष्ट) कर दिया है; जो त्रिविध, प्रभु और उनके शासनका वैशिष्टय स्थापन करनेवाली अपूर्व स्तुति की है। - यह ग्रन्थ 'समन्तभद्रभारती' नामका जो महान् ग्रन्थ वीरसेवामन्दिरसे में प्रकाशित होनेवाला है उसमें सानुवाद प्रकट होगा। _++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++ ++ ++ ++ ++ ++++8++23++26++28++2C++ • सन्मार्ग-स्वरूप हैं - सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यकचारित्रकी : साक्षात् मूर्ति हैं- जिन्होंने कुमार्गोको मथन कर डाला है; जो
सदा कलुषित-आशयसे रहित सुधीजनोंकी संस्तुतिका विषय बने । - हुए हैं और श्रीसम्पन्न-सत्यवाक्योंके अधिपति अथवा आगमके
स्वामी हैं, वे अर्हन्त भगवान् श्रीवीर प्रभु कल्याणके लिये स्थिर रहें-चिरकाल तक लोक-हृदयोंमें निवास करें।' ३ वीर-शासनाभिनन्दन
तव जिन शासन-विभवो जयति कलावपि गुणाऽनुशासन-विभवः । दोष-कशाऽसनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभा-कृशाऽऽसनविभवः ।।
त्वयम्भूस्तोत्रे, श्रीसमन्तभद्रः ... (हे वीर जिन !) आपका शासन-माहात्म्य-आपके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थोके प्रतिपादन-स्वरूप गौरव-कलिकालमें भी
जयको प्राप्त है-सर्वोकृष्टरूपसे वर्त रहा है-, उसके प्रभावसे + गुणोंमें अनुशासन-प्राप्त शिष्यजनोंका भव विनष्ट हुआ है
संसार-परिभ्रमण सदाके लिये छूटा है-इतना ही नहीं, किन्तु जो है दोषरूप चाबुकोंका निराकण करने में समर्थ हैं-चाबुककी तरह
पीडाकारी काम-क्रोधादि दोषोंको अपने पास फटकने नहीं देते, और अपने ज्ञानादि तेजसे जिन्होंने आसन-विभुओंको-लोकके
प्रसिद्ध नायकों(हरि-हरादिकों) को-निस्तेज किया है वे-गणधरमें देवादि महात्मा भी आपके इस शासन-माहात्म्यको स्तुति करते हैं।' ++20++20++ ++ ++S++8++ ++ ++ ++ ++
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प्रकीर्णक पुस्तकमाला
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दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं नय-प्रमाण - प्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ युक्त्यनुशासने, श्रीसमन्तभद्रः 'हे वीर जिन ! आपका मत - शासन - नय - प्रमाणके द्वारा वस्तु-तत्वको बिल्कुल स्पष्ट करनेवाला और सम्पूर्ण प्रवादियोंसे बाध्य होने के साथ साथ दया (अहिंसा), दम ( संयम ), त्याग और समाधि ( प्रशस्त ध्यान ) इन चारोंकी तत्परताको लिये हुए है। यही सब उसकी विशेषता है, और इसीलिये वह अद्वितीय है।'
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सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य कल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव — युक्त्यनुशासने, श्रीसमन्तभद्रः
-
'हे वीर प्रभु! आपका प्रवचनतीर्थ - शासन - सर्वान्तवान् हैसामान्य, विशेष, द्रव्य, पर्याय, विधि, निषेध, एक, अनेक, आदि अशेष धर्मोंको लिये हुए है - और वह गुण - मुख्यकी कल्पनाको साथ में लिये हुए होने से सुव्यवस्थित है - उसमें असंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है--जो धर्मो में परस्पर अपेक्षाको नहीं मानते उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाते हैं - उनके शासन में किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही यह शासन तीर्थ सर्वदुःखों का अन्त करनेवाला है, यही निरन्त हैकिसी भी मिथ्यादर्शन के द्वारा खण्डनीय नहीं है - और यही सब प्राणियोंके अभ्युदयका कारण तथा आत्मा के पूर्ण अभ्युदय
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सस्साधु- स्मरण - मंगलपाठ
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(विकास) का साधक ऐसा 'सर्वोदयतीर्थ' है। भावार्थ- आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयों (परस्पर-निरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त ( निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही संसार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोंका अन्त करनेवाला होने से आपका शासन समस्त आपदाओंका अन्त करनेवाला है, अर्थात् जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते हैं- उसे पूर्णतया अपनाते हैं - उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं । और वे अपना पूर्ण अभ्युदय (उत्कर्ष एवं विकास) सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं।'
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कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डितमानशृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ।।
- युक्त्यनुशासने, श्रीसमन्तभद्रः
' (हे वीर भगवन् !) आपके इष्ट शासन से भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति ) हुआ उपपत्तिचक्षुसे - मात्सर्य के त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसे आपके इष्टका - शासनका - अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानशृङ्ग खण्डित हो जाता हैसर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जाता है - और वह अभद्र अथवा मिध्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओर से भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है - अथवा यों कहिये कि आपके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है ।'
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला E++PR++ ++ ++
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श्रीगौतम-गणधर-स्मरण
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: मानस्तम्भं प्रदृष्टा गतनिखिलमदोऽभूच्च यो योगिराजो - वीरस्यान्ते प्रसिद्धः प्रवरगणधरस्त्यक्तसर्वप्रसङ्गः । ए श्रेयोवृष्टिं ततान शुभजन-सुखदां पापताप-प्रणाशां
वंदेऽहं गौतमं तं सकलनृप-नुतं शक्रवृन्द-प्रवन्धम् ॥ १॥
कर्मारातिं विजित्य व्रतसुभट-चयैः केवलज्ञानमाप्य * श्रीसिद्धान्तं निरूप्य नर-नृपति-गणं सम्प्रबोध्य स्ववात्यैः। र योऽभून्मुक्तिप्रियेशोऽखिलमलरहितः शुद्धचिद्रूपधारी श्रेयो वो नः स नित्यं ध्रुवमपि कुरुतां वाञ्छितं देहभाजाम् ॥२॥
--गौतमचरित्रे, श्रीधर्मचन्द्रः ___(श्रीवीरके समवसरणमें ) मानस्तम्भको देखकर जिनका सारा मद जाता रहा, जो वीरके समीप सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग करके प्रसिद्ध योगिराज और प्रवर ( अत्युत्कृष्ट ) गणधर हुए,
जिन्होंने पाप-तापको शान्त करनेवाली तथा भव्यजनोंको सुखकी . है देनेवाली कल्याणवृष्टि का विस्तार किया, और जो सकलनृपोंसे
स्तुत एवं शक्र-समूहसे प्रवंद्य थे, उन गौतमस्वामीकी मैं वन्दना करता हूँ-उन्हें भक्तिभावपूर्वक प्रणाम करता हूँ।'
'जो व्रतरूप-सुभट-समूहके द्वारा कर्मशत्रुको जीतकर, केवल• ज्ञानको प्राप्तकर, श्रीसिद्धान्तका-द्वादशाङ्ग-श्रुतका-निरूपण कर + ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ S++68++20++20++20++20++S++ ++ ++ ++ ++ ++ है और अपने वचनों द्वारा मनुष्यों तथा राजसमूहको संबोधन कर है + मुक्ति-रमाके स्वामी हुए हैं वे संपूर्ण कर्ममलसे रहित शुद्धचिद्रूपके
धारी श्रीगौतमस्वामी नित्य ही तुम्हारे और हमारे ध्रुव (शाश्वत), कल्याणके कर्ता होवें तथा देहधारियोंकी मनोवांछित सिद्धिमें सहायक बनें-अर्थात् सभी जन उनका सम्यक् आराधन करके अपने इष्ट फल ( मोक्ष ) को प्राप्त करने में समर्थ होवें।'
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श्रीभद्रबाहु-स्मरण
-+BPoe+भद्रबाहुरग्रिमः समग्रबुद्धिसम्पदा शुद्ध-सिद्ध-शासनं सुशब्द-बन्ध-सुन्दरम् । इद्ध-वृत्त-सिद्धिरत्र बद्धकर्मभित्तपो
वृद्धि-बर्द्धित-प्रकीर्तिरुद्दधे महर्द्धिकः ॥ यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता सर्वश्रुतार्थ-प्रतिपादनेन ॥
__ -श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० १०८ _ 'जो सारी बुद्धि-सम्पत्तिकी प्राप्तिमें अग्रगण्य थे, निर्मलचारित्रकी सिद्धिको लिये हुए थे, बद्धकर्मोके भेत्ता थे-आत्मासे कर्मोंके सम्बन्धका विच्छेद करनेवाले थे और तपकी वृद्धिसे + जिनकी लोकमें महती कीर्ति बढ़ी हुई थी, उन महर्द्धिक-महाऋद्धि
धारक-भद्रबाहुने (वीरभगवानके) उस शुद्ध तथा सिद्ध शासन++30++ ++ ++S++ ++S++S++++S++S++C++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला
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को — द्वादशाङ्गश्रुतको — उत्तमरूपसे धारण किया है, जो सुशब्दोंकी रचना सुन्दर है ।'
'श्रुतकेवली मुनीश्वरों में अन्तिम होते हुए भी, श्रीभद्रबाहुस्वामी, संपूर्णश्रुतके अर्थका प्रतिपादन करनेसे, विद्वज्जनोंके प्रथम नेता हुए हैं - अपने बाद के सभी विद्वानों में प्रधान हुए हैं ।' निरन्तरानन्त-गतात्मवृत्तिं निरस्त - दुर्बोध- तमोवितानम् । श्रीभद्रबाहूष्णकरं विशुद्धं विनंनमीमीहितशात - सिद्ध्यै । — भद्रबाहुचरित्रे, श्रीरत्ननन्दी 'जिनकी आत्मप्रवृत्ति निरन्तर ही अनन्तस्वरूप परमात्माकी ओर रही है- जिन्होंने परमात्मगुणोंकी प्राप्ति के लिये सदा ही कदम बढ़ाया है - और मिथ्याज्ञानरूप अन्धकारके विस्तार (समूह) को दूर किया है उन निर्मलसूर्य श्रीभद्रबाहु - स्वामीको मैं, इच्छित निराकुल सुखकी सिद्धिके लिये, बहुत ही विनम्र होकर नमस्कार करता हूँ ।'
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६
श्रीगुणधर- स्मरण
mehr ohnefs afecho ahme
जेहि कसायपाहुडमणेय रायमुज्जलं अतत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहर - भट्टारयं वंदे ||
-जयधवलायां, श्रीवीरसेनः 'जिन्होंने अनेक नयसे युक्त, उज्ज्वल और अनन्त पदार्थोंको लिये हुए कषायप्राभृतको गाथाओं के द्वारा विवृत ( व्यक्त) किया है
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सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ
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उन गुणधर भट्टारकको — पूज्यश्री गुणधराचार्यको मैं वन्दना करता हूँ- उनके आगे नतमस्तक होता हूँ ।'
१०
श्रीधरसेन स्मरण
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परियउ मह धरसेो पर वाइ- गोह - दाण - वर सीहो । सिद्धंतामिय- सायर - तरंग-संघाय - धोय-मणो || जयउ धरसेण-गाहो जेण महाकम्प - पय डि- पाहुड सेलो । बुद्धिसिरेणुद्धरि समप्पियो पुप्फयंतस्स ||
- धवलायां, श्रीवीरसेनः 'जो पर - वादीरूप गजसमूहके मदका विनाश करनेके लिये श्रेष्ठ सिंहके समान हैं -- जिनके सामने अन्य मतों के वादीजन उसी प्रकार गलित - मद एवं निस्तेज हो जाते हैं जिस प्रकार कि केशरी सिंह के सामने मद भरते हुए हाथी निर्मद और निष्प्रभ हो जाते हैं-- और सिद्धान्त - आगमरूप अपरिमित सागरकी 'तरंगों' के समूह से जिनका मन धोया हुआ है-- धुलकर निर्मल बना हुआ है - वे श्रीधरसेन आचार्य मुझपर प्रसन्न होवें - मैं प्रसन्नतापूर्वक उनका आराधन करने में समर्थ होऊँ ।
१६
'जिन्होंने 'महाकर्मप्रकृति - प्राभृतरूप पर्वतको बुद्धि-शिरासे उद्धृत किया है - बुद्धिप्रवाहसे उखाड़ा है और उसे पुष्पदन्तको समर्पित किया है, वे श्रीधरसेनस्वामी जयवन्त हों --सदा लोकहृदयों में विराजित रहें ।'
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला ++ ++ ++++ ++ ++
१२ श्रीपुष्पदन्त-स्मरण
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पणमामि पुष्पदंतं दुकयंतं दुरणयंधयार-रविं । भग्गसिव-मग्ग-कंटयमिसि-समिइ-वई सया दंतं ॥
-धवलायां, श्रीवीरसेनः ___'जो दुष्कृतों-पापोंका अन्त करनेवाले हैं, दुर्नयरूप अन्धकार
को दूर करने के लिये सूर्यसमान हैं, जिन्होंने शिवमार्गके कण्टकों| मोक्षपथके बाधककारणोंको नष्ट किया है, जो ऋषियोंकी समिति . (सभा) के स्वामी थे और सदा ही दमनशील थे--पंचेन्द्रियोंकों । अपने वशमें रखनेवाले थे, उन श्रीपुष्पदन्त आचार्यको मैं प्रणाम
करता हूँ।
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श्रीभूतबलि-स्मरण
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पणमह कय-भूय-बलिं भूयवलिं केस-चास-परिभूय-चलि ।। विणिहय-चम्मह-पसरं वडाविय-विमल-णाण-चम्मह-पसरं ॥
. -धवलायां, श्रीवीरसेनः . 'जो भूतों-सर्वप्रणियों अथवा व्यन्तर जातिके भूत नामक । देवोंसे पूजे गये हैं, जिन्होंने अपने केशपाशसे-बालोंकी सुन्दर &++ ++S++ ++O SO++S++ ++S++S++S++ ++S
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++29++30++ +-00++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++ स्थितिसे--जरासे होनेवाली शिथिलताको तिरस्कृत किया है, अब्रह्म ( कामदेव) के प्रसारको नष्ट कर दिया है और निर्मलज्ञानके द्वारा ब्रह्मचर्यके प्रसारको बढ़ाया है, उन श्रीभूतबलि आचार्यको प्रणाम करो-वे सभीके प्रणाम-योग्य हैं।
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श्रीकुन्दकुन्द-स्मरण वन्यो विभु वि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः। यश्चारुचारण-कराम्बुज-चञ्चरीक
य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० ५४ . 'जिनकी कुन्द-कुसुमकी प्रभाके समान शुभ्र एवं प्रिय कीर्तिसे दिशाएँ विभूषित हैं-सब दिशाओंमें जिनका उज्ज्वल और
मनोमोहक यश फैला हुआ है-, जो प्रशस्त चारणोंके–चारण। ऋद्धिधारक महामुनियोंके करकमलोंके भ्रमर हैं और जिन्होंने
भरतक्षेत्रमें श्रुतकी-आगम-शास्त्रकी--प्रतिष्ठा की है, वे पवित्रात्मा * स्वामी कुन्दकुन्द इस पृथ्वीपर किनसे वन्दनीय नहीं हैं ?—सभीके
द्वारा वन्दना किये जानेके योग्य हैं।' तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पअनन्दि-प्रथमाभिधानः । श्रीकोण्डकुन्दादि-मुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गत-चारणद्धिः॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० ४० &+ ++ ++S++ ++S++++S++S++ ++ ++Se++S
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला
'उन ( श्रीचन्द्रगुप्त मुनिराज ) के प्रसिद्ध वंश में वे श्रीकुन्दकुन्द मुनीश्वर हुए हैं जिनका पहला - दीक्षा - समयका - नाम 'पद्मनन्दी' था और जिन्हें सत्संयमके प्रसादसे चारण ऋद्धिकीपृथ्वीपर पैर न रखते हुए स्वेच्छा से आकाश में चलनेकी शक्तिकी प्राप्ति हुई थी ।'
रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः ।
रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरं गुलं सः ॥
- श्रवणबेलगोल शिलालेख नं० १०५
'योगिराज ( श्री कुन्दकुन्द ) रजःस्थान पृथ्वी - तलको छोड़कर जो चार अंगुल ऊपर आकाश में गमन करते थे उसके द्वारा, मैं समझता हूँ, वे इस बातको व्यक्त करते थे कि वे अन्तरङ्गके साथ साथ बाह्यमें भी रजसे अत्यन्त अस्पृष्ट हैं - अन्तरङ्गमें रागादिकमल जिस प्रकार उनके पास नहीं फटकते उसी प्रकार बाह्यमें पृथ्वीकी धूलि भी उन्हें छू नहीं पाती ।'
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++ ++ ++ ++
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श्रीउमास्वाति(मि)-स्मरण
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तत्त्वार्थसूत्र-कर्तारमुमास्वाति-मुनीश्वरम् । श्रुतिकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुण-मन्दिरम् ॥
-नगरताल्लुक-शिलालेख नं० ४६ 'तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वाति-मुनीश्वरकी मैं वन्दना करता हूँ हूँ-उनके श्रीचरणोंमें नतमस्तक होता हूँ जो गुणोंके मन्दिर थे और करीब करीब श्रुतकेवली थे।' श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गाचरणोधतानां पाथेयमयं भवति प्रजानाम् ॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० १०५ _ 'श्रीमान् उमास्वाति वे मुनीन्द्र हैं जिन्होंने उस तत्त्वार्थसूत्रको प्रकट किया है जो कि मुक्तिमार्गपर चलनेको उद्यमी प्रजाजनोंके लिये मूल्यवान पाथेय ( कलेवा ) के समान है-मोक्षमार्गपर चलनेके लिये कमर कसे हुओंकी आवश्यकताको पूरा करता हुआ उन्हें चलने में समर्थ बनानेवाला है।' ___ अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी।
सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षान् । तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृध्रपिच्छम् ॥
-श्रवणबेल्गोल -शिलालेख नं० १०८ ++S++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++8
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२४
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला a++ ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ + ++ ++3 ___'उन (श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ) के पवित्र वंशमें वे उमास्वाति है मुनि हुए हैं जो संपूर्ण पदार्थोंके जाननेवाले थे, मुनिपुङ्गव थे ।
और जिन्होंने जिनदेव-प्रणीत आगमके संपूर्ण अर्थसमूहकी है सूत्ररूपमें रचना की है। वे प्राणियोंकी रक्षामें बड़े सावधान थे और उन्होंने एक बार पीछीके रूपमें गृध्रके परोंको धारण किया था, उस वक्तसे ही बुध-जन उनको 'गृध्रपिच्छाचार्य' कहने लगे थे। हू
अतुच्छ-गुण-सम्पातं गृध्रपिच्छं नतोऽस्मि तम् । पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ॥
-पार्श्वनाथचरिते, श्रीवादिराजसूरिः 'जिस प्रकार पक्षी ऊपर आकाशमें उड़नेके लिये अपने पक्षों-परोंका सहारा लेते हैं उसी प्रकार मोक्ष-प्राप्तिके लिये 2 उड़ने-ऊपर उठनेके इच्छुक भव्यजन जिन्हें अपना पक्ष बनाते + हैं-जिनके मोक्षशास्त्र ( तत्त्वार्थसूत्र ) का आश्रय लेते हैं-उन महान् गुणोंके समूह श्रीगृध्रपिच्छाचार्यको मैं नमस्कार करता हूँ।
तत्त्वार्थसूत्र-कर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्र-संजातमुमास्वामि-मुनीश्वरम् ॥
--तत्त्वार्थ० माहात्म्य ___'जो 'तत्त्वार्थसूत्र' के कर्ता-रचयिता हैं, गृध्रपिच्छसे उपलक्षित हैं-गृध्रपक्षीके परोंकी पीछी धारण करनेके कारण
'गृध्रपिच्छाचार्य' नामसे नामाङ्कित हैं और गणधरवंशमें उत्पन्न है हुए हैं अथवा गणीन्द्र-श्रीकुन्दकुन्दाचार्यसे उत्पन्न हुए हैं-उनके + शिष्योंमें हैं-उन श्रीउमास्वामिमुनिराजकी मैं वन्दना करता हूँ8 उनके पुण्यगुणोंका स्मरण करके उनके चरणोंमें सिर झुकाता हूँ।' S++8++ ++ ++20++ ++S++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरणमंगलपाठ
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स्वामि- समन्तभद्र - स्मरण
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१ समन्तभद्र - वन्दन
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1
तीर्थं सर्वपदार्थ तत्त्व - विषय - स्याद्वाद - पुण्योदधेः भव्यानामकलङ्क - भावकृतये प्राभावि काले कलौ येनाचार्य समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः सन्ततम् ( कृत्वा वित्रियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ॥ ) - देवागमभाष्ये, श्री कलकदेवः 'जिन्होंने सम्पूर्ण-पदार्थ-तत्त्वोंको अपना विषय करनेवाले स्याद्वादरूपी पुण्योदधि- तीर्थको इस कलिकाल में, भव्यजीवोंके आन्तरिक मलको दूर करनेके लिये प्रभावित किया है-उसके प्रभावको सर्वत्र व्याप्त किया है—उन आचार्य समन्तभद्रयतिकोसन्मार्ग में यत्नशील योगिराजको -- बार बार नमस्कार ।' भव्यैक - लोकनयनं परिपालयन्तम् । स्याद्वाद - वर्त्म परिणौमि समन्तभद्रम् ॥
- अष्टशत्यां श्रीकलंक देवः
'स्याद्वादमार्ग संरक्षक और भव्यजीवोंके लिये द्वितीयसूर्य- उनके हृदयान्धकारको दूर करके अन्तः प्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलानेवाले — श्रीसमन्तभद्रस्वामीको मैं अभिवन्दन करता हूँ ।'
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला P++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचो वज्रपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः॥
-श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः 'जो कवियोंको नये-नये संदर्भ रचनेवालोंको-उत्पन्न , करनेवाले महान् विधाता ( कवि-ब्रह्मा ) हैं--, जिनकी मौलिक + रचनाओंको देखकर तथा अभ्यास में लाकर बहुतसे लोग नई-नई
रचना करनेवाले कवि बन गये तथा बनते जाते हैं और जिनके
वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड होगये उनका में कोई विशेष अस्तित्व नहीं रहा-उन स्वामी समन्तभद्रको नमस्कार हो।
समन्ताद्भुवने भद्रं विश्वलोकोपकारिणी । यद्वाणी तं प्रवन्दे समन्तभद्रं कवीश्वरम् ॥
--पार्श्वनाथचरिते, भ० सकलकीर्तिः 'जिनकी वाणी-प्रन्थादिरूप-भारती-संसार में सब ओरसे । मंगलमय-कल्याणरूप है और सारी जनताका उपकार करनेवाली
है उन कवियोंके ईश्वर श्रीसमन्तभद्रकी मैं सादर वन्दना छ * करता हूँ।'
वन्दे समन्तभद्रं तं श्रुतसागरपारगम् । भविष्यसमये योऽत्र तीर्थनाथो भविष्यति ॥
-रामपुराणे, भ० सोमसेनः 'जो श्रुतसागरके पार पहुँच गये हैं-आगमसमुद्रकी कोई 1 बात जिनसे छिपी नहीं रही और जो आगेको यहाँ-इसी , ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++6
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ 8++29++ ++ ++ ++ ++++ ++20++20++ ++ ++ . भूमंडलपर-तीर्थकर होंगे, उन श्रीसमन्तभद्रको मेरा अभिवन्दन है-सादर नमस्कार है।'
समन्तभद्रनामानं मुनि भाविजिनेश्वरम् । स्वयम्भूस्तुतिकर्तारं भस्मव्याधि-विनाशनम् ॥ दिगम्बरं गुणागारं प्रमाणमणिमण्डितम् । विरागद्वेषवादादिमनेकान्तमतं नुमः ॥
-मुनिसुव्रतपुराणे, कविकृष्णदासः 'जो स्वयम्भूस्तोत्रके रचयिता हैं, जिन्होंने भस्मव्याधिका विनाश किया था--अपने भस्मकरोगको बड़ी युक्तिसे शान्त किया * था-, जिनके वचनादिकी प्रवृत्ति रागद्वेषसे रहित होती थी, 'अनेकान्त' जिनका मत था, जो प्रमाण-मणिसे मण्डित थे-- प्रमाणतारूप-मणियोंका जिनके सिरपर सेहरा बँधा हुआ थाअथवा जिनका अनेकान्तमत प्रमाणमणिसे सुशोभित है और जो भविष्यकालमें जिनेश्वर (तीर्थंकर ) होनेवाले हैं, उन गुणोंके भण्डार श्रीसमन्तभद्र नामके दिगम्बर मुनिराजको हम प्रणाम करते हैं। २ समन्तभद्र-स्तवन
समन्तभद्रं सद्बोधं स्तुवे वर-गुणालयम् । निमलं यद्यशष्कान्तं बभूव भुवनत्रयम् ॥
-जिनशतकटीकायां, श्रीनरसिंहभट्टः _ 'जो सद्बोध-स्वरूप थे-सम्यग्ज्ञानकी मूर्ति थे-, श्रेष्ठ गुणोंके
आवास थे-उत्तमगुणोंने जिन्हें अपना आश्रयस्थान बनाया थाO++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला a++ ++20++20++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ है और जिनकी यशःकान्तिसे तीनों लोक अथवा भारतके उत्तर, । दक्षिण और मध्य ये तीनों विभाग कान्तिमान थे-जिनका यश2 स्तेज सर्वत्र फैला हुआ था-उन स्वामी समन्तभद्रका मैं स्तवन * करता हूँ।'
समन्तभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषणः । देवागमेन येनाऽत्र व्यक्तो देवागमः कृतः॥
-पाण्डवपुराणे, भ० शुभचन्द्रः 'जिन्होंने 'देवागम' नामक अपने प्रवचनके द्वारा देवागमको-जिनेन्द्रदेवके आगमको इस लोकमें व्यक्त कर दिया है, वे 'भारतभूषण” और एकमात्र भद्र-प्रयोजनके धारक श्रीसमन्तभद्र लोकमें प्रकाशमान होवे-अपनी विद्या और गुणोंके आलोकसे लोगोंके हृदयान्धकारको दूर करने में समर्थ होवें।'
यद्भारत्याः कविः सर्वोऽभवत्संज्ञानपारगः। तं कवि-नायकं स्तौमि समन्तभद्र-योगिनम् ॥
चन्द्रप्रभचरिते, कविदामोदरः 'जिनकी भारतीके प्रतापसे-ज्ञानभाण्डाररूप मौलिक कृतियोंके अभ्याससे-समस्त कविसमूह सम्यग्ज्ञानका पारगामी हो गया, उन कविनायक-नई नई मौलिक रचनाएँ करनेवालोंके 1 शिरोमणि-योगी श्रीसमन्तभद्रको मैं अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूँ-वे मेरे स्तुत्य हैं, पूज्य हैं।'
समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः । वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः ॥
-तिरुमकूडलुनरसीपुर-शिलालेख नं० १०५ S++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ a++29++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++S++ ++600++KA ___'जिन्होंने वाराणसी ( बनारस ) के राजाके सामने विद्वेषियों* को-अनेकान्तात्मक-जैनशासनसे द्वेष रखनेवाले सर्वथा एकान्त2 वादियोंको-पराजित कर दिया था, वे समन्तभद्र मुनीश्वर किन
के स्तुतिपात्र नहीं हैं ?--समीके द्वारा भले प्रकार स्तुति किये जानेके योग्य हैं। ३ समन्तभद्र-अभिनन्दन
येनाशेष-कुनीति-वृत्ति-सरितः प्रेक्षावतां शोषिताः । यद्वाचोऽप्यकलंकनीति-रुचिरास्तत्त्वार्थ -सार्थद्युतः। स श्रीस्वामिसमन्तभद्र-यतिभृद्भूयाद्विभुर्भानुमान् विद्याऽऽनन्द-धनप्रदोऽनघधियां स्याद्वादमार्गाग्रणीः ॥
-अष्टसहस्रयां, श्रीविद्यानन्दः . 'जिन्होंने परीक्षावानोंके लिये सम्पूर्ण कुनीति और कुवृत्तिरूप-नदियोंको सुखा दिया है, जिनके वचन निर्दोषनीति--स्या
द्वादन्यायको लिये हुए होने के कारण मनोहर हैं तथा तत्त्वार्थ+ समूहके द्योतक हैं वे योगियोंके नायक, स्यद्वादमार्गके नेता, विभु
सामर्थ्यवान् और भानुमान-सूर्यके समान देदीप्यमान अथवा तेजस्वी--श्रीसमन्तभद्रस्वामी कलुषित-आशय-रहित प्राणियोंको-सज्जनों अथवा सुधीजनोंको-विद्या और आनन्द-घनके प्रदान करनेवाले होवें--उनके प्रसादसे (प्रसन्नतापूर्वक उन्हें चित्तमें धारण करनेसे) सबोंके हृदयमें शुद्धज्ञान और आनन्दकी वर्षा होवे।'
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प्रकीर्णक पुस्तकमाला
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४ समन्तभद्र - कीर्तन -
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•
कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूडामणीयते ।। -- श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः 'श्री समन्तभद्रका यश कवियोंके नये नये सन्दर्भ अथवा नई नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करनेमें समर्थ विद्वानोंके - गमकोंके - दूसरे विद्वानोंकी कृतियोंके मर्म एवं रहस्यको समझनेवाले तथा दूसरों को समझाने में प्रवीण व्यक्तियोंके, विजयकी ओर वचनप्रवृत्ति रखनेवाले वादियोंके, और अपनी वाक्पटुता तथा शब्द चातुरीसे दूसरोंको रंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बना लेनेमें निपुण ऐसे वाग्मियोंके मस्तकपर चूडामणिकी तरह सुशोभित है। अर्थात् स्वामी समन्तभद्र में कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके चार गुण असाधारण - कोटिकी योग्यताको लिये हुए थे —— ये चारों ही शक्तियाँ उनमें खास तौर से विकासको प्राप्त हुई थीं- और इनके कारण उनका निर्मल यश दूर दूर तक चारों ओर फैल जितने वादी, वाग्मी, कवि और गमक थे यशकी छाया पड़ी हुई थी - समन्तभद्रका यश चूडामणि के तुल्य सर्वोपरि था — और वह बादको भी बड़े बड़े विद्वानों तथा महान् आचार्योंके द्वारा शिरोधार्य किया गया है।'
गया था। उस बक्त उन सब पर उनके
समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीय-वाग्वज्र- कठोरपातश्चूर्णीचकार प्रतिवादि - शैलान | -- श्रवणबेलगोल - शिलालेख नं० १०८
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ a++SC++C++00++20++ ++++ ++ ++ ++ ++++ है (बलाकपिच्छाचार्यके बाद) श्रीसमन्तभद्र 'जिनशासनके 1 प्रणेता' हुए हैं, वे भद्रमूर्ति थे और उनके वचनरूपी वज्रके
कठोर पातसे प्रतिवादी-रूपी पर्वत चूर-चूर हो गये थे-कोई भी प्रतिवादी उनके सामने नहीं ठहरता था।' समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां स्फुरन्ति यत्राऽमलसूक्तिरश्मयः। व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः।
--ज्ञानाणवे, श्रीशुभचन्द्राचार्यः 'श्रीसमन्तभद्र-जैसे कवीन्द्र-सूर्योकी जहाँ निर्मल सूक्ति रूपकिरणे स्फुरायमान होरही हैं वहाँ वे लोग खद्योत-जुगनूकी | तरह हँसीको ही प्राप्त होते हैं जो थोड़ेसे ज्ञानको पाकर उद्धत हैं-कविता (नूतन सन्दर्भकी रचना) करके गर्व करने लगते हैं।' ५ समन्तभद्र-प्रवचननित्यायेकान्तगर्तप्रपतनविवशान्प्राणिनोऽनर्थसार्थादुद्धर्तुं नेतुमुच्चैः पदममलमलं मंगलानामलंध्यम् । स्याद्वाद-न्यायवर्त्म प्रथयदवितथार्थं वचः स्वामिनोऽदः प्रेक्षावत्वात्प्रवृत्तं जयतु विघटिताऽशेषमिथ्याप्रवादम् ॥
-अष्टसहस्रयां, विद्यानन्दाचार्यः 'स्वामी समन्तभद्रका वह निर्दोष प्रवचन जयवन्त हो--अपने है प्रभावसे लोकहृदयोंको प्रभावित करे- जो नित्यादि एकान्त
गोंमें-वस्तु कूटस्थवत् सर्वथा नित्य ही है अथवा क्षण-क्षणमें 20 * निरन्वय विनाशरूप सर्वथा क्षणिक ही है, इस प्रकारकी मान्य• तारूपी एकान्त खड्डों में पड़ने के लिये विवश हुए प्राणियोंको &++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++S
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला g++20++GS++ ++++S++S++S++ ++ ++ ++ ++ है अनर्थ-समूहसे निकालकर मंगलमय उच्चपदको प्राप्त करानेके है लिये समर्थ है, स्याद्वाद-न्यायके मार्गको प्रख्यात करनेवाला है, सत्यार्थ है, अलंध्य है, परीक्षापूर्वक प्रवृत्त हुआ है अथवा प्रेक्षावान्–समीक्ष्यकारी आचार्यमहोदयके द्वारा जिसकी प्रवृत्ति हुई है और जिसने सम्पूर्ण मिथ्याप्रवादको विघटित-तितरवितर-कर दिया है।'
विस्तीर्ण-दुर्नयमय-प्रबलान्धकारदुर्बोध-तत्त्वमिह वस्तु हितावबद्धम् । व्यक्तीकृतं भवतु नस्सुचिरं समन्तात् सामन्तभद्र-वचन-स्फुट-रत्नदीपेः ॥
-न्यायविनिश्चयालंकारे, वादिराजसूरिः 'फैले हुए दुर्नयरूपी प्रबल अन्धकार के कारण जिसका तत्त्व लोकमें दुर्बोध हो रहा है-ठीक समझमें नहीं आता-वह हितई कारी वस्तु-प्रयोजनभूत-जीवादि-पदार्थमाला-श्रीसमन्तभद्र के : वचनरूपी दंदीप्यमान रत्नदीपकोंके द्वारा हमें सब ओरसे . चिरकाल तक स्पष्ट प्रतिभासित होवे अर्थात् स्वामी समन्तभद्रका * प्रवचन उस महाजाज्वल्यमान रत्नसमूहके समान है जिसका प्रकाश * अप्रतिहत होता है और जो संसारमें फैले हुए निरपेक्ष नयरूपी
महामिथ्यान्धकारको दूर करके वस्तुतत्त्वको स्पष्ट करने में समर्थ * है, उसे प्राप्त करके हम अपना अज्ञान दूर करें।'
स्यात्कार-मुद्रित-समस्तपदार्थ-पूर्ण त्रैलोक्य-हर्म्यमखिलं स खलु व्यनक्ति ।
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++S++@++30++S++ ++S++S++Go++GO++8++S++g
दुर्वादुकोक्तितमसा पिहितान्तरालं सामन्तभद्र-वचन-स्फुट-रत्नदीपः ॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलाले० नं० १०५ ___ 'श्रीसमन्तभद्रका प्रवचनरूप देदीप्यमान रत्नदीप उस त्रैलोक्यरूप महलको निश्चितरूपसे प्रकाशित करता है जो स्यात्कारमुद्राको लिये हुए समस्तपदार्थोंसे पूर्ण है और जिसके अन्तराल दुर्वादियोंकी उक्तिरूपी अन्धकारसे आच्छादित हैं।'
जीवसिद्धि-विधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्भते ॥
-हरिवंशपुराणे, श्रीजिनसेनसूरिः 'जीवसिद्धिका विधायक और युक्तियों द्वारा अथवा युक्तियों का अनुशासन करनेवाला अर्थात् 'जीवसिद्धि' और 'युक्त्यनुशासन' जैसे ग्रन्थोंके प्रणयनरूप-समन्तभद्रका प्रवचन श्रीवीरके प्रवचनकी तरह प्रकाशमान है अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहा
वीर भगवान के बीजभूत वचनोंके समकक्ष है और प्रभावादिकमें * भी उन्हींके तुल्य है।'
श्रीमत्समन्तभद्रस्य देवस्यापि वचोऽनघम् । प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुषत्वं तथा पुनः॥
-सिद्धान्तसारसंग्रहे, श्रीनरेन्द्रसेनः 'श्रीसमन्तभद्रदेवका निर्दोष प्रवचन प्राणियोंके लिये ऐसा ही दुर्लभ है जैसा कि मनुष्यत्वका पाना-अर्थात् अनादिकालसे । संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणियोंको जिस प्रकार मनुष्यभव1 का मिलना दुर्लभ होता है उसी प्रकार समन्तभद्रदेवके प्रवचनS++S++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला - ++ ++ ++ ++20+23++ ++++ ++30+- ++30+g
का लाभ होना भी दुर्लभ है, जिन्हें उसकी प्राप्ति होती है वे निःसन्देह सौभाग्यशाली हैं।'
६ समन्तभद्र-प्रणयन
समन्तभद्रादिमहाकवीश्वरैः कृतप्रवन्धोज्वल-सत्सरोवरे । १ लसद्रसालङ्कृति-नीर-पङ्कजे सरस्वती क्रीडति भाव-बन्धुरे॥
........ --शृङ्गारचन्द्रिकायां, श्रीविजयवर्णी ___ 'महाकवीश्वर श्रीसमन्तभद्र के द्वारा प्रणयन किये गये प्रबन्धसमूह ( वाङमय ) रूप उस उज्वल सत्सरोवर में, जो रसरूप जल तथा अलङ्काररूप कमलोंसे सुशोभित है और जहाँ भावरूप + हंस विचरते हैं, सरस्वती क्रीड़ा करती है अर्थात् स्वामी
समन्तभद्रके प्रन्थ रस तथा अलङ्कारोंसे सुसज्जित हैं, सद्भावोंसे परिपूर्ण हैं और सरस्वती देवीके क्रीडास्थल हैं-विद्यादेवी उनमें
विना किसी रोक-टोकके स्वच्छन्द विचरती है अर्थात् वे उसके , उपाश्रय हैं। इसीसे महाकवि श्रीवादीभसिंहसूरिने, . गद्य
चिन्तामणिमें समन्तभद्रका "सरस्वती-स्वैर-विहारभूमयः"विशेषणहै के साथ स्मरण किया है।'
स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते ॥
... -पार्श्वनाथचरिते, श्रीवादिराजसूरिः । 'उन स्वामी ( समन्तभद्र) का चरित्र किसके लिये विस्मयकारक-आश्चर्यजनक नहीं है, जिन्होंने 'देवागम' नामके अपने
प्रवचन-द्वारा आज भी सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है ? सभीके. S++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ a++S++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++08++ ++ है लिये विस्मयकारक है-निःसन्देह समन्तभद्रका 'देवागम' नाम- ई * का प्रवचन जैनसाहित्यमें एक अद्वितीय एवं बेजोड़ रचना है और ।
उसके द्वारा सर्वज्ञ ही नहीं किन्तु जिनेन्द्रदेवका आगम भी लोकमें 8
भन्ने प्रकार व्यक्त होरहा है। इसीसे शुभचन्द्राचार्यने, अपने पांडव+ पुराणमें समन्तभद्रका स्मरण करते हुए, उन्हें “देवागमेन येनाs त्र व्यक्तो देवागमः कृतः” विशेषणके साथ उल्लेखित किया है।'
त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः। अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रनकरण्डकः ॥
... . --पार्श्वनाथचरिते, श्रीवादिराजसूरिः .. .. 'वे ही योगीन्द्र-समन्तभद्र सच्चे त्यागी ( दाता) हुए हैं, + जिन्होंने सुखार्थी भव्यसमूहके लिये अक्षयसुखका कारण धर्महै रत्नोंका पिटारा-रत्नकरण्डक' नामका धर्मशास्त्र-दान किया है
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प्रमाण-नय-निर्णीत-वस्तुतत्त्वमबाधितम् । .. जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् ॥
- --युक्त्यनुशासन-टीकायां, श्रीविद्यानन्दः । 'श्रीसमन्तभद्रका 'युक्त्यनुशासन' नामका स्तोत्र जयवन्त हो, जो प्रमाण और नयके द्वारा वस्तुतत्त्वके निर्णयको लिये हुए हैं. ₹ और अबाधित है-जिसके निर्णयमें प्रतिवादियोंके द्वारा कोई बाधा नहीं दी जा सकती।' __ यस्य च सद्गुणाधारा कृतिरेषा सुपद्मिनी ।
जिनशतकनामेति योगिनामपि दुष्करा ।।: .. SHO++ +++ ++ ++ ++ ++ ++S++at++ ++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला O++S++Ge++20++@@++ ++++88++20++ ++S+fo@fra
स्तुतिविद्यां समाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः । तवृत्तिं येन जाड्ये तु कुरुते वसुनन्द्यपि ॥
-जिनशतकटीकायां, श्रीनरसिंहः 'स्वामी समन्तभद्रकी 'जिनशतक' ( स्तुतिविद्या) नामकी रचना, जो कि योगियोंके लिये भी दुष्कर है, सद्गुणोंकी आधारभूत सुन्दर कमलिनीके समान है-उसके रचना-कौशल, रूपसौन्दर्य, सौरभ-माधुर्य और भाव-वैचित्र्यको देखते तथा अनुभव करते ही बनता है। उस स्तुति-विद्याका भले प्रकार आश्रय पाकर किसकी बुद्धि स्फूर्तिको प्राप्त नहीं होती ? जब कि जडबुद्धि
होते हुए भी वसुनन्दी स्तुतिविद्याके समाश्रयणके प्रभावसे - उसकी वृत्ति (टीका ) करने में समर्थ होता है।'
यो निःशेष-जिनोक्त-धर्म-विषयः श्रीगौतमाद्यैः कृतः।। सूनार्थैरमलैः स्तवोऽयमसमः स्वल्पैः प्रसन्नैः पदैः। ( तद्व्याख्यानमदो यथावगमतः किञ्चित्कृतं लेशतः ) स्थेयांश्चन्द्रदिवाकरावधि बुधप्रह्लादचेतस्यलम् ॥
-स्वयम्भूस्तोत्रटीकायां, श्रीप्रभाचन्द्रः __ 'श्री समन्तभद्रका 'स्वयम्भूस्तोत्र', जो कि सूक्तरूपमें ( भले । प्रकार) अर्थका प्रतिपादन करनेवाले निर्दोष, स्वल्प (अल्पाक्षर) एवं प्रसन्न (प्रसादगुणविशिष्ट ) पदोंके द्वारा रचा गया है और ___ * यहाँ 'श्रीगौतमाय:' पदका प्रयोग इस आशयको लिये हुए है कि श्रीगौतमस्वामीके स्तोत्रको शुरूमें रखकर दो तीन स्तोत्रों की जो एक साथ टीका की गई है उन सभी स्तोत्रोसे इसका सम्बन्ध है और जिनमें - यह पद्य स्वयम्भूस्तोत्रकी टीकाके अन्तमें दिया है। ++20++ ++ ++ ++ ++++S++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ a++ ++ ++ +- ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++S । सम्पूर्ण जिनोक्तधर्मको अपना विषय किये हुए है, एक अद्वितीय
स्तोत्र है, वह बुधजनोंके प्रसन्नचित्तमें सूर्य-चन्द्रमाकी स्थितिपर्यन्त स्थित रहे।
तत्त्वार्थसूत्र-व्याख्यान-गन्धहस्ति-प्रवर्तकः । स्वामी समन्तभद्रोऽभूदेवागमनिदेशकः ॥
-विक्रान्तकौरवे, श्रीहस्तिमल्लः 'स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रके 'गन्धहस्ति' नामक व्याख्यान* के प्रवर्तक ( विधायक) हुए हैं और साथ ही देवागमके'देवागम' नामक प्रन्थके निर्देशक (प्ररूपक) भी हुए हैं।' ७ समन्तभद्र-वाणी
प्रज्ञाधीश-प्रपूज्योज्ज्वलगुणनिकरोद्भूतसत्कीर्तिसम्पद्विद्यानन्दोदयायाऽनवरतमखिलक्लेशनिर्णाशनाय । स्ताद्गौः सामन्तभद्री दिनकररुचिजित्सप्तभंगीविधीद्धा भावाद्येकान्तचेतस्तिमिरनिरसनी वोऽकलङ्कप्रकाशा ॥
-अष्टसहस्रयां, श्रीविद्यानन्दाचार्यः 'श्रीस्वामीसमन्तभद्रकी वाणी-वाग्देवी-प्रज्ञाधीशों-बड़े बड़े बुद्धिमानोंके द्वारा प्रपूजित है, उज्ज्वल गुणोंके समूहसे उत्पन्न हुई सत्कीर्तिरूप सम्पत्तिसे युक्त है, अपने तेजसे सूर्यके तेजको जीतनेवाली सप्तभंगी विधिके द्वारा प्रदीप्त है, निर्मल प्रकाशको लिये हुए है और भाव-अभाव आदिके एकान्तपक्षरूपी हृदयान्धकारको दूर करनेवाली है; वह वाणी तुम्हारी विद्या । (केवलज्ञान) और आनन्द (अनन्त सुख) के उदयके लिये ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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। प्रकीर्णक-पुस्तकमाला a++ ++20++20++20++30++++ ++ ++ ++ ++26++3
निरन्तर कारणीभूत होवे और उसके प्रसादसे तुम्हारे सम्पूर्ण । दुःख-क्लेश नाशको प्राप्त हो जावे।' ...
अद्वैताद्याग्रहोग्रग्रह-गहन-विपनिग्रहेऽलंध्यवीर्याः स्यात्कारामोघमंत्रप्रणयनविधयः शुद्धसद्ध्यानधीराः। डू धन्यानामादधाना धृतिमधिवसतां मण्डलं जैनमग्रयम् बाचः सामन्तभद्रयो विदधतु विविधां सिद्धिमुद्भूतमुद्राः॥
___-अष्टसहस्रयां, श्रीविद्यानन्दः - स्वामी समन्तभद्र की वाणी-वाक्ततिरूप-सरस्वती
अद्वैत-पृथकत्व आदिके एकान्त आग्रहरूपी उग्रग्रह-जन्य गहन • विपत्तिको दूर करनेके लिये अलंध्यवीर्या है-अप्रतिहत-शक्ति
है-, स्यात्काररूपी अमोघ मंत्र का प्रणयन करनेवाली है, शुद्ध * सद्ध्यान-धीरा है-निर्दोष परीक्षा अथवा सच्ची जाँच-पड़तालके द्वारा स्थिर है- उद्भूतमुद्रा है-ऊँचे आनन्दको देनेवाली है-,
और प्रधान जैनगण्डलके अधिवासी-जैनधर्मके अनुष्ठाता-- भव्य पुरुषोंके धैर्यके लिये अवलम्बन-स्वरूप है-जैनधर्ममें उनकी स्थिरताको दृढ़ करनेवाली है-; वह वाणी लोकमें नाना प्रकारकी सिद्धिका विधान करे- उसका आश्रय पाकर लौकिक जन अपना हित सिद्ध करने में समर्थ होवें।'
अपेक्षकान्तादि-प्रबल-गरलोद्रेक-दलिनी प्रवृद्धाऽनेकान्ताऽमृतरस-निषेकाऽनवरतम् ।
प्रवृत्ता वागेषा सकल-विकलादेश-वशतः -समन्ताभद्रं वो दिशतु मुनिपस्याऽमलमतेः॥
अष्टसहस्रयां, श्रीविद्यानन्दः ++ ++ ++ + ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++
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'मत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ P++C++S++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++an
____ 'निर्मलमति श्रीसमन्तभद्र मुनिराजकी वह वाणी, जो अपेक्षा* अनपेक्षा आदिके एकान्तरूप प्रबल गरल (विष ) के उद्रेकको
दलनेवाली है, निरन्तर अनेकान्तरूपी अमृतरसके सिंचनसे खूब वृद्धिको प्राप्त है और सकलादेशों-प्रमाणों तथा विकालादेशोंनयों के आधीन प्रवृत्त हुई है, सब ओरसे तुम्हारे मंगल एवं कल्याणकी प्रदान करनेवाली होवे-उसकी एकनिष्ठापूर्वक उपासना एवं तद्रूप आचरणसे तुम्हारे सब तरफ़ भद्रतामय मंगलका प्रसार होवे। गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता। न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती ॥
-चन्द्रप्रभचरिते, श्रीवीरनन्द्याचार्यः ____ 'गुणोंसे-सूतके धागोंसे गॅथी-हुई, निर्मल गोल मोतियोंसे युक्त और उत्तम पुरुषोंके कण्ठका विभूषण बनी हुई हारयष्टिको-मोतियोंकी मालाको प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन कि समन्तभद्रकी भारती (वाणी) को पा लेनाउसे खूब समझकर हृदयङ्गम कर लेना है, जो कि सद्गुणोंको लिये हुए है, निर्मल वृत्त (वृत्तान्त, चरित्र, आचार, विधान तथा छन्द ) रूपी मुक्ताफलोंसे युक्त है और बड़े बड़े आचार्यों तथा विद्वानोंने जिसे अपने कण्ठका आभूषण बनाया है वे नित्य ही उसका उच्चारण तथा पाठ करने में अपना गौरव औरः अहोभाग्य समझते रहे हैं । अर्थात् स्वामी समन्तभद्रकी वाणी परम दुर्लभ है-उनके सातिशय वचनोंका लाभ बड़े ही भाग्य तथा परिश्रमसे
होता है। &++ ++20+20++ ++20++ ++ S++ ++ ++ ++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला O++ S++ ++ ++ ++ ++++S++26++8++20++38 ८ समन्तभद्र-भारती--
सास्मरीमि तोष्टचीमि ननमीमि भारती तंतनीमि पापठीमि बंभणीमि तेमिताम् । देवराज-नागराज-मर्त्यराजपूजिता
श्रीसमन्तभद्र-बाद-भासुरात्मगोचराम् ॥१॥ 'श्रीसमन्तभद्रके वादसे कथनोपकथनसे-जिसका आत्मविषय देदीप्यमान है और जो देवेन्द्रों, नागेन्द्रों तथा नरेन्द्रोंसे
पूजित है, उस सरसा भारतीका-समन्तभद्रस्वामीकी सरस्वतीहूँ का-मैं बड़े आदरके साथ बार बार स्मरण करता हूँ, स्तवन
करता हूँ, वन्दन करता हूँ, विस्तार करता हूँ, पाठ करता हूँ और । व्याख्यान करता हूँ।'
मातृ-मान-मेय-सिद्धि-वस्तुगोचरां स्तुवे सप्तभङ्ग-सप्तनीति-गम्यतत्त्वगोचराम् । मोक्षमार्ग-तद्विपक्ष-भूरिधर्मगोचरा
माप्ततत्त्वगोचरां समन्तभद्रभारतीम् ॥२॥ 'प्रमाता (ज्ञाता) की सिद्धि, प्रमाण ( सम्यग्ज्ञान ) की सिद्धि है और प्रमेय (ज्ञेय) की सिद्धि ये वस्तुएँ जिसकी विषय हैं, जो सप्त * भङ्ग और सप्तनयसे जानने योग्य तत्त्वोंको अपना विषय किये ॐ हुए है-जिसमें सप्तभंगों तथा सप्तनयोंके द्वारा जीवादि-तत्त्वोंका * परिज्ञान कराया गया है जो मोक्षमार्ग और उसके विपरीत
संसार-मार्ग-सम्बन्धी प्रचुर धर्मोके विवेचनको लिये हुए है और &++ ++ ++ ++OG* &&++ ++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मगलपाठ ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++28++28++de+Part+m
आप्ततत्त्वविवेचन-आप्तमीमांसा-भी जिसका विषय है, उस समन्तभद्रभारतीका मैं स्तोत्र करता हूँ।'
सूरिसक्तिवन्दितामुपेयतत्त्वभाषिणीं चारुकीर्तिमासुरामुपायतत्त्वसाधनीम् । पूर्वपक्षखण्डनप्रचण्डवाग्विलासनी
संस्तुवे जगद्वितां समन्तभद्रभारतीम् ॥३॥ ___'जो आचार्योकी सूक्तियोंद्वारा वन्दित है-बड़े बड़े आचार्योंने अपनी प्रभावशालिनी वचनावली-द्वारा जिसकी पूजा-वन्दना की है-, जो उपेयतत्त्वको बतलानेवाली है, उपायतत्त्वकी साधनस्वरूपा है, पूर्वपक्षका खण्डन करनेके लिये प्रचण्ड वाग्विलासको लिये हुए है-लीलामात्रमें प्रवादियोंके असत्पक्षका खण्डन कर
देनेमें प्रवीण है-और जगत्के लिये हितरूप है, उस समन्तभद्रहूँ भारतीका मैं स्तवन करता हूँ।'
पात्रकेसरि-प्रभावसिद्धि-कारिणी स्तुवे भाष्यकार-पोषितामलंकृतां मुनीश्वरैः। गृध्रपिच्छ-भाषित-प्रकृष्ट-मंगलार्थिका
सिद्धि-सौख्य-साधनीं समन्तभद्रभारतीम् ॥४॥ ____ 'पात्रकेसरीपर प्रभावकी सिद्धि में जो कारणीभूत हुई-जिस-ई * के प्रभावसे पात्रकेसरी-जैसे महान् विद्वान जैनधर्ममें दीक्षित 2 होकर बड़े प्रभावशाली प्राचार्य बने-, जो भाष्यकार-अकहै लंकदेव-द्वारा पुष्ट हुई, मुनीश्वरों-विद्यानन्द-जैसे मुनिराजों+ द्वारा अलंकृत की गई, गृद्धपिच्छाचार्य (उमाखाति) के कहे हुए ++S++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++00++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला R++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ है उत्कृष्ट मंगलके अर्थको लिये हुए है-उसके गम्भीर श्राशयका । प्रतिपादन करनेवाली है-और सिद्धिके स्वात्मोपलब्धिके
सौख्यको सिद्धि करनेवाली है, उस समन्तभद्र-भारतीको समन्तभद्रकी आप्तमीमांसादिरूप-कृति-मालाको मैं अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूँ-उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करता हूँ।'
इन्द्रभूति-भाषित-प्रमेयजाल-गोचरां वर्द्धमानदेव-बोध-बुद्ध-चिद्विलासिनीम् । योग-सौगतादि-गर्व-पर्वतासनि स्तुवे
क्षीरवार्धि-सन्निभा समन्तभद्रभारतीम् ॥ ५॥ 'इन्द्रभूति ( गौतम गणधर ) का कहा हुआ प्रमेय-समूह जिसका विषय है, जो श्रीवर्द्धमानदेवके बोधसे प्रबुद्ध हुए चैतन्यके विलासको लिये हुए है, योग तथा बौद्धादि-मतावलम्बियोंके गर्व रूपी पर्वतके लिए वज्रके समान है और क्षीरसागरके समान हू उज्ज्वल तथा पवित्र है, उस समन्तभद्रभारतीका मैं कीर्तन करता हूँ-उसकी प्रशंसामें खुला गान करता हूँ।'
मान-नीति-वाक्यसिद्ध-वस्तुधर्म-गोचरां मानित-प्रभाव-सिद्धसिद्धि-सिद्धसाधनीम् ।
घोर-भूरि-दुःख-चार्धि-तारण-क्षमामिमां .... चार-चेतसा स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥६॥ 2. 'प्रमाण, नय तथा आगमके द्वारा सिद्ध हुए वस्तु-धर्म जिस+ के विषय हैं-जिसमें प्रमाण, नय तथा आगमके द्वारा वस्तु• धर्मोको सिद्ध किया गया है, मानित (मान्य) प्रभाववाली ॐ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++ 2 प्रसिद्ध सिद्धि-स्वात्मोपलब्धि के लिए जो सिद्धसाधनी है+ अमोघ उपायस्वरूपा है-और घोर तथा प्रनुर दुःखोंके समुद्र
से पार तारनेके लिये समर्थ है, उस समन्तभद्रभारती की मैं शुद्ध हृदयसे प्रशंसा करता हूँ।'
सान्त-साधनाद्यनन्त-मध्ययुक्त-मध्यमां शून्य-भाव-सर्ववेदि-तत्त्व-सिद्धि-साधनीम् । हेत्वहेतुवादसिद्ध-वाक्यजाल-भासुरां
मोक्षसिद्धये स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥ ७॥ 'सादि-सान्त, अनादिसान्त, सादि-अनन्त और अनादि-अनन्त-रूपसे द्रव्य-पर्यायोंका कथन करने में जो मध्यस्था है-इनका सर्वथा एकान्त स्वीकार नहीं करती-, शून्य (अभाव )तत्त्व, + भावतत्त्व और सर्वज्ञतत्त्वकी सिद्धि में जो साधनीभूत है और हेतु@ वाद तथा अहेतुवाद ( आगम) से सिद्ध हुए वाक्यसमूहसे प्रका* शमान है अर्थात् जो युक्ति और आगम-द्वारा सिद्ध हुए वाक्योंसे
देदीप्यमान है, उस समन्तभद्रभारतीकी मैं, मोक्षकी सिद्धिके लिए, । हूँ स्तुति करता हूँ।'
व्यापकद्वयाप्तमार्ग-तत्त्वयुग्म-गोचरी पापहारिवाग्विलासि-भूषणांशुका स्तुवे । श्रीकरीं च धीकरी च सर्वसौख्यदायिनी नागराज-पूजितां समन्तभद्रभारतीम् ॥८॥ ........ -कविनागराज-विरचित-स० भारतीस्तोत्रम् ।
व्यापक-व्याप्यका-गुण-गुणीका-ठीक प्रतिपादन करनेवाले ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++6
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला aree++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++S++g है आप्तमार्गके दो तत्त्व-हेयतत्त्व, उपादेयतत्त्व अथवा उपेयतत्त्व
और उपायतत्त्व-जिसके विषय हैं, जो पापहरणरूप आभूषण और वाग्विलासरूप वस्त्रको धारण करनेवाली है। साथ ही, श्रीसाधिका, बुद्धि-वर्धिका और सर्वसुख-दायिका है, उस नागराजपूजित समन्तभद्रभारतीकी मैं स्तुति करता हूँ।'
++
++20++00++C++
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++
६ समन्तभद्र-शासन
लक्ष्मीभृत्परमं निरुक्तिनिरतं निर्वाणसौख्यप्रदं कुज्ञानातपवारणाय विधृतं छत्रं यथा भासुरम् । संज्ञानर्नययुक्तिमौक्तिकफलैः संशोभमानं परं वन्दे तद्धतकालदोषममलं सामन्तभद्रं मतम् ॥
--देवागमवृत्तौ, श्रीवसुनन्दिसूरिः 'श्रीसमन्तभद्रके उस निर्दोष मतकी-मैं वन्दना करता हूँउसे श्रद्धा और गुणज्ञता-पूर्वक प्रणामाञ्जलि अर्पण करता हूँहूँ जो श्रीसम्पन्न है, उत्कृष्ट है, निरुक्ति-परायण है-व्युत्पत्ति
विहीन शब्दोंके प्रयोगसे रहित है-, मिथ्याज्ञानरूपी अातापको मिटाने के लिये विधिपूर्वक धारण किये हुए देदीप्यमान छत्रके समान है, सम्यग्ज्ञानों-सुनयों तथा सुयुक्तियोंरूपी मुक्ताफलोंसे परम सुशोभित है, निर्वाण-सौख्यका प्रदाता है और जिसने काल
दोषको ही नष्ट कर दिया था अर्थात् स्वामी समन्तभद्रमुनिके * प्रभावशाली शासनकालमें यह मालूम नहीं होता था कि आजकल
कलिकाल बीत रहा है।'
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४५
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ 2++Se++S++88++30++ ++20++ ++ ++30++S++ ++ १० समन्तभद्र-माहात्म्य--
वन्द्यो भस्मक-भस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपद-स्वमंत्रवचन-व्याहूत-चन्द्रप्रमः । प्राचार्यस्स समन्तभद्रगणभृद्येनेह काले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० ५४ (६७) 'मुनिसङ्घके नायक वे आचार्य समन्तभद्र वन्दना किये जानेके योग्य हैं जो अपनी 'भस्मक' व्याधिको भस्मीभूत करने में बड़ी है युक्तिके साथ निर्मूल करने में प्रवीण हुए हैं, पद्मावती नामकी + दिव्यशक्तिके प्रभावसे जिन्हें उच्चपदकी प्राप्ति हुई थी, जिन्होंने * अपने मंत्ररूप वचनबलसे-योगसामर्थ्यसे-बिम्बरूप में चन्द्र* प्रभ भगवान्को बुला लिया था-अर्थात् चन्द्रप्रभ-बिम्बका आकर्षण ( आविर्भाव ) किया था और जिनके द्वारा सर्वहितकारी
जैनमार्ग (स्याद्वादमार्ग) इस कलिकालमें पुनः सब ओरसे भद्ररूप * हुआ है-उसका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त होनेसे वह सबका हित ।
करनेवाला और सबका प्रेमपात्र बना है।' ___ * श्रीमूलसङ्घ-व्योम्नेन्दुर्भारते भावितीर्थकृद् । देशे समन्तभद्राख्यो मुनि यात्पर्द्धिकः ॥
-विक्रान्तकौरवे, श्रीहस्तिमल्लः ____ * यह पद्य कवि अय्यपार्य के 'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' में भी प्रायः ज्योंका त्यों पाया जाता है। उसमें चौथा चरण 'जीयात्प्राप्तपदद्धिकः' दिया है। ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++
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४६
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प्रकीर्णक पुस्तकमाला
'श्रीमूलसारूपी आकाशमें जो चन्द्रमाके समान हुए हैं, भारतदेश में आगेको तीर्थंकर होनेवाले हैं और जिन्हें चारण ऋद्धिकी प्राप्ति थी तपके प्रभावसे आकाश में चलनेकी ऐसी शक्ति उपलब्ध हो गई थी जिसके कारण वे दूसरे जीवोंको बाधा न पहुँचाते हुए, शीघ्रता के साथ सैंकड़ों कोस चले जाते थे- वे 'समन्तभद्र' नामके मुनिराज जयवन्त हों - उनका प्रभाव स्थायी रूपसे हमारे हृदयपर अङ्कित होवे ।'
00++20+++
कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे परुषोक्तयः । समन्तभद्र - यत्यग्रे पाहि पाहीति सूक्तयः ॥ . — अलङ्कारचिन्तामण, श्रीश्रजितसेनाचार्यः
' ( समन्तभद्र - काल में ) प्राय: कुवादीजन अपनी स्त्रियोंके सामने तो कठोर भाषण किया करते थे- उन्हें अपनी गर्यो क्तियाँ अथवा अपनी बहादुरी के गीत सुनाते थे - परन्तु जब योगी समन्तभद्र के सामने आते थे तो मधुरभाषी बन जाते थे और उन्हें 'पाहि पाहि' - रक्षा करो रक्षा करो, अथवा आप ही हमारे रक्षक हैंऐसे सुन्दर मृदु-वचन ही कहते बनता था । यह सब स्वामीसमन्तभद्रके असाधारण व्यक्तित्वका प्रभाव था ।' श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन्भ्रमिमंगुष्ठैरानताननाः ॥
- अलंकारचिन्तामणौ, श्रीश्रजितसेनः 'जब महावादी श्रीसमन्तभद्र ( सभास्थान आदिमें) आते थे तो कुवादीजन नीचा मुख करके अंगूठोंसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे- अर्थात् उन लोगों पर — प्रतिवादियों पर — समन्तभद्रका इतना
-
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४७
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ॐ++GO++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ @++20++30++20++30++8++++30++ ++ ++ ++ ++0
प्रभाव पड़ता था कि वे उन्हें देखते ही विषण्ण-वदन हो जाते में और किंकर्तव्यविमूढ बन जाते थे।
अवटुतटमटति झटिति स्फुट-पटु-वाचाट-धूर्जटेजिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति का कथाऽन्येषाम् ॥ , .. -अलंकारचिन्तामणौ, विक्रान्तकौरवे च .
'वादी समन्तभद्रकी उपस्थितिमें, चतुराई के साथ स्पष्ट शीघ्र है और बहुत बोलनेवाले धूर्जटिकी-तन्नामक महाप्रतिवादी विद्वान्* की-जिह्वा ही जब शीघ्र अपने बिलमें घुस जाती है-उसे कुछ बोल नहीं पाता-तो फिर दूसरे विद्वानोंकी तो कथा ही क्या
है ? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्र के सामने कुछ भी महत्व हूँ नहीं रखता।'
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* यह पद्य शकसम्वत् १०५० में उत्कीर्ण हुए श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० ५४ (६७) में भी थोड़ेसे परिवर्तनके साथ पाया जाता + है। वहाँ 'धूर्जटेर्जिह्वा' के स्थानपर 'धूर्जटेरपि जिह्वा' और 'सति का *
कथाऽन्येषां' की जगह 'तव सदसि भूप कास्थाऽन्येषां' पाठ दिया है, है और इसे समन्तभद्रके वादारंभ-सभारंभ-समयकी उक्तियोंमें शामिल किया
है। पद्यके उस रूपमें धूर्जटिके निरुत्तर होनेपर अथवा धूर्जटिकी गुरुतर 2 पराजयका उल्लेख करके राजासे पूछा गया है कि 'धूर्जटि जैसे विद्वान्की । ऐसी हालत होनेपर अब आपकी सभाके दूसरे विद्वानोंकी क्या आस्था + है ? क्या उनमेंसे कोई वाद करनेकी हिम्मत रखता है.' ... . . ++ ++ ++ ++ ++ ++S++ ++ ++ ++20++ ++
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++S++20+
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला R++S++GD++20++ ++20++++00++ ++S++ ++Getta ११ समन्तभद्र-जयघोष
जीयात्समन्तनद्रोऽसौ भव्य-कैरव-चन्द्रमाः। दुर्वादि-वाद-कण्डूनां शमनैकमहौषधिः ॥
-हनुमच्चरित्रे, श्रीब्रह्मअजितः ___'वे स्वामी समन्तभद्र जयवन्त हों-अपने ज्ञान-तेजसे हमारे हृदयोंको प्रकाशित करें जो भव्यरूपी कुमुदोंको प्रफुल्लित करने
वाले चन्द्रमा थे और दुर्वादियोंकी वादरूपी खाज ( खुजली) + को मिटाने के लिये अद्वितीय महौषधि थे जिन्होंने कुवादियोंकी 0 बढ़ती हुई वादाभिलाषाको हो नष्ट कर दिया था।'
समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्वादीभ-वज्रांकुश-सूक्तिजालः। यस्य प्रभावात्सकलावनीयं वंध्यास दुर्वादुक-वार्त्तयाऽपि ॥
श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० १०५ 'वे स्वामी समन्तभद्र चिरजयी हों-चिरकाल तक हमारे हृदयोंमें सविजय निवास करें-, जिनका सूक्तिसमूह-सुन्दरप्रौढ युक्तियोंको लिये हुए प्रवचन-वादिरूप-हस्तियोंको वशमें , करनेके लिये वज्रांकुशका काम देता है और जिनके प्रभावसे यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक बार दुर्वादुकोंकी वार्तासे भी विहीन होगई थी-उनकी कोई बात भी नहीं करता था।' कार्यादेर्भेद एव स्फुटमिह नियतः सर्वथा कारणादे
रित्यायेकान्तवादोद्धततर-मतयः शान्ततामाश्रयन्ति। G++ON++8++8++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ E++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++CPN++ ++A , प्रायो यस्योपदेशादविघटितनयान्मानमूलादलंध्यात् स्वामी जीयात्स शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलकोरुकीर्तिः ॥
-अष्टसहस्रयां, श्रीविद्यानन्दाचार्यः ___'जिनके नय-प्रमाण-मूलक अलंध्य उपदेशसे-प्रवचनको सुनकर-महाउद्धतमति वे एकान्तवादी भी प्रायः शान्तताको प्राप्त
हो जाते हैं जो कारणसे कार्यादिकका सर्वथा भेद ही नियत दू मानते हैं अथवा यह स्वीकार करते हैं कि कारण-कार्यादिक * सर्वथा अभिन्न ही हैं-एक ही हैं-वे निर्मल तथा विशाल
कीर्तिसे युक्त अतिप्रसिद्ध मुनिराज स्वामी समन्तभद्र सदा जयवन्त रहें-अपने प्रवचन-प्रभावसे बराबर लोक-हृदयोंको है प्रभावित करते रहें। सरस्वती-स्वर-विहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः। जयन्ति वाग्वन-निपात-पाटित-प्रतीपराद्धान्त-महीध्रकोटयः॥
--गद्यचिन्तामणौ, श्रीवादीभसिंहाचार्यः 'वे मुनिराज स्वामी समन्तभद्र जयवन्त हैं-सदा ही जय, शील हैं, अपने पाठकों तथा अनुचिन्तकोंके अन्तःकरणपर * अपना सिक्का जमानेवाले हैं जो सरस्वतीकी स्वच्छंद विहार-भूमि
थे-जिनके हृदय-मन्दिरमें सरस्वती-देवी बिना किसी रोक-टोकके है पूरी अज़ादीके साथ विचरती थी, और इसलिये जो असाधारण # विद्याके धनी थे और उनमें कवित्व-वाग्मित्वादि शक्तियाँ उच्चॐ कोटिके विकासको प्राप्त हुई थीं, और जिनके वचनरूपी वज्रके * निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूप-पर्वतोंकी चोटियाँ खण्ड खण्ड + हो गई थीं अर्थात् समन्तभद्रके आगे बड़े बड़े प्रतिपक्षी सिद्धाR++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++S++Se++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला T++ ++++ ++S++S++S++ ++ ++8++S++ ++ * न्तोंका प्रायः कुछ भी गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रति- पादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुँह करके ही सामने खड़े हो सकते थे।' र १२ समन्तभद्र-विनिवेदन
समन्तभद्रादि-महाकवीश्वराः कुवादि-विद्या-जय-लब्ध-कीर्तयः।। ई सुतक-शास्त्रामृतसार-सागरा मयि प्रसीदन्तु कवित्वकांक्षिणि ॥
-वरांगचरित्रे, श्रीवर्धमानसूरिः _ 'जो समीचीन-तर्कशास्त्ररूप-अमृतके सार-सागर थे और है कुवादियों ( प्रतिवादियों ) की विद्यापर जयलाभ करके यशस्वी
हुए थे वे महाकवीश्वर-उत्तमोत्तम नूतन सन्दर्भोकी रचना : करनेवाले स्वामी समन्तभद्र मुझ कविता-कांक्षीपर प्रसन्न होवेंउनकी विद्या मेरे अन्तःकरणमें स्फुरायमान होकर मुझे सफलमनोरथ करे, यह मेरा एक विशेष निवेदन है।'
श्रीमत्समन्तभद्रादिकवि-कुञ्जर-सञ्चयम् । . मुनिवन्यं जनानन्दं नमामि वचनश्रियै ।।
-अलंकारचिन्तामणौ, श्रीअजितसेनाचार्यः 'मुनियोंके द्वारा वन्दनीय और जगतजनोंको आनन्दित करनेवाले कविश्रेष्ठ श्रीसमन्तभद्र आचार्यको मैं अपनी 'वचनश्री' के लिये वचनोंकी शोभा बढ़ाने अथवा उनमें शक्ति उत्पन्न करनेके लिये-नमस्कार करता हूँ-स्वामी समन्तभद्रका यह वन्दनआराधन मुझे समर्थ लेखक तथा प्रवक्ता बनाने में समर्थ होवे।'
श्रीमत्समन्तभद्राद्याः काव्य-माणिक्यरोहणाः । सन्तु नः संततोत्कृष्टाः सूक्तिरत्नोत्करप्रदाः ।।
-यशोधरचरिते, श्रीवादिराजसूरिः &++Se++ ++eere k+++KE+Hot+ree++ ++ ++
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५१
+30+ +20++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++S++20++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++ ___'जो काव्यों नूतन सन्दर्भो-रूप-माणिक्यों ( रत्नों ) की है
उत्पत्तिके स्थान हैं वे अति उत्कृष्ट श्रीसमन्तभद्रस्वामी हमें सूक्तिई रूपी रत्नसमूहोंको प्रदान करनेवाले होवें-अर्थात् स्वामी समन्त* भद्रके आराधन और उनकी भारतीके भले प्रकार अध्ययन और
मननके प्रसादसे हम अच्छी अच्छी सुन्दर ऊंची-तुली रचनाएँ । करने में समर्थ होवें।' १३ समन्तभद्र-हृदिस्थापन--
स्वामी समन्तभद्रो मेऽहर्निशं मानसेऽनघः । तिष्ठताज्जिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचन्द्रमाः ॥
--रत्नमालायां, श्रीशिवकोटिः 'वे निष्कलंक स्वामी समन्तभद्र मेरे हृदयमें दिन-रात स्थित रहें जो जिनराजके-भगवान महावीरके-ऊँचे उठते हुए शासनसमुद्रको बढ़ानेके लिये चन्द्रमा हैं अर्थात् जिनके उदयका निमित्त पाकर वीरभगवानका तीर्थ-समुद्र खूब वृद्धिको प्राप्त हुआ है और उसका प्रभाव सर्वत्र फैला है।'
++20++20++20++
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* बेलूर ताल्लुकेके शिलालेख नं० १७ (E. C.,V.) में भी, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके अन्दर सौम्य-नायकी-मन्दिरकी छतके एक पत्थरपर उत्कीर्ण है और जिसमें उसके उत्कीर्ण होनेका समय शक सं० १०५६ दिया है, ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि श्रुत
केवलियों तथा और भी कुछ प्राचार्योंके बाद समन्तभद्रस्वामी श्रीवर्ध* मान महावीरस्वामीके तीर्थकी--जैनमार्गकी-सहस्रगुणी वृद्धि करते। * हुए उदयको प्राप्त हुए हैं । ittee++BE+FOR++GE++E++++ ++ ++ ++ ++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला ++ ++++ ++
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श्रीसिद्धसेन-स्मरण
. -+ODOB जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ।।
-हरिवंशपुरासो, श्रीजिनसेनसूरिः 'श्रीसिद्धसेनाचार्यकी निर्मल सूक्तियाँ (सुन्दर उक्तियाँ) जगत्प्रसिद्ध बोध (केवलज्ञान) के धारक भगवान वृषभदेवकी निर्दोष सूक्तियोंकी तरह सत्पुरुषोंकी बुद्धिको बोधित करती हैं-उसे विकसित करती हैं।
प्रवादि-करि-यूथाना केशरी नय-केशरः। सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्प-नखरांकुरः ॥
-आदिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः 'जो प्रवादिरूप-हाथियोंके समूहके लिये विकल्परूप-नुकीले नखोंसे युक्त और नयरूप-केशरोंको धारण किये हुए केशरी-सिंह हैं, वे श्रीसिद्धसेन-कवि जयवन्त हों अपने प्रवचनद्वारा मिथ्यावादियोंके मतोंका निरसन करते हुए, सदा ही लोक हृदयों में अपना सिक्का जमाए रक्खें-अपने वचन प्रभावको अङ्कित किये रहे।
मदुक्ति-कल्पलतिका सिञ्चन्तः करुणामृतैः । कवयः सिद्धसेनाद्या वर्धयन्तु हृदिस्थिताः ।।
-~यशोधरचरिते, श्रीमुनिकल्याणकीर्तिः C++30++ ++a++Geet+OOTra+ra++k++ +++ ++26++6
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++ S++20++20++ ++ ++ ++++ ++22++28+ +8++8 ___'हृदयमें स्थित हुए श्रीसिद्धसेन-जैसे कवि मेरी उक्तिरूपी : छोटीसी कल्पलताको करुणाऽमृतसे सींचते हुए उसे वृद्धिंगत । ॐ करें-मैं सिद्धसेन-जैसे महाप्रभावशाली कवियोंको अधिकाधिक-, * रूपसे हृदयमें धारण करके अपनी वाणीको उत्तरोत्तर पुष्ट और है - शक्ति-सम्पन्न बनाने में समर्थ होऊँ ।'
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श्रीदेवनन्दि-पूज्यपाद-स्मरण
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। यो देवनन्दि-प्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः।। 2 श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० ४० । ___जिनका प्रथम नाम-गुरुद्वारा दिया हुआ दीक्षानाम
'देवनन्दी' था, जो बादको बुद्धिकी प्रकर्षताके कारण 'जिनेन्द्रहै बुद्धि' कहलाए, वे आचार्य 'पूज्यपाद' नामसे इसलिये प्रसिद्ध हुए * हैं कि उनके चरणोंकी देवताओंने आकर पूजा की थी।
श्रीपूज्यपादोद्धृतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः। यदीयवैदुष्यगुणानिदानीं वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि ॥ धृतविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः कृतकृत्यभावमविभ्रदुच्चकैः। जिनवद्वभूव यदनङ्गचापहृत् स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधु वर्णितः॥
___-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० १०८ S++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला A++000++20++a@++ ++ ++++ ++28++S++a++8++2
'श्रीपूज्यपादने धर्मराज्यका उद्धार किया था-लोकमें धर्मकी पुनः प्रतिष्ठा की थी-इसीसे आप देवताओंके अधिपति-द्वारा है पूजे गये और 'पूज्यपाद' कहलाये। आपके पाण्डित्य (विद्वत्ता) पूर्ण
गुणोंको आज भी आपके द्वारा उद्धार पाये हुए-रचे हुए-शास्त्र बतला रहे हैं उनका खुला गान कर रहे हैं । आप जिनेन्द्रकी तरह विश्वबुद्धिके धारक-समस्त शास्त्रविषयोंके पारंगत-थे, कामदेवको जीतनेवाले थे और ऊँचे दर्जेके कृतकृत्यभावको धारण किये हुए थे, इसीसे योगियोंने आपको ठीक ही 'जिनेन्द्रबुद्धि' कहा है।'
श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधर्द्धिजर्जीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। यत्पादधौतजल-संस्पर्शप्रभावात् कालायसं किल तदा कनकीचकार ।
--श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० १०८ ____ 'जो अद्वितीय औषध-ऋद्धिके धारक थे, विदेह-स्थित जिनेन्द्र भगवानके दर्शनसे जिनका गात्र (शरीर) पवित्र होगया था और जिनके चरण-धोए जलके स्पर्शसे एक समय लोहा भी सोना बन . गया था, वे श्रीपूज्यपाद मुनि जयवन्त हों-अपने गुणोंसे लोकहृदयोंको वशीभूत करें।'
कवीनां तीर्थकद्देवः किंतरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥
_ --श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः 'जिनका वाङ्मय-शब्दशास्त्ररूप-व्याकरण-तीर्थ विद्वज्जनोंके वचनमलको नष्ट करनेवाला है, वे आचार्य श्रीदेवनन्दी ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ ++QC++?.
20++9C++
कवियोंके - नूतन संदर्भ रचनेवालोंके - तीर्थंकर हैं - काव्यतीर्थके विधाता हैं। उनके विषयमें और अधिक क्या कहा जाय ?' अचिन्त्य -महिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा ।
शब्दाच येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः || —पार्श्वनाथचरिते, श्रीवादिराजसूरिः
'जिनके द्वारा - जिनके व्याकरणशास्त्रको लेकर — शब्द भले प्रकार सिद्ध होते हैं, वे देवनन्दी अचिन्त्य - महिमा -युक्त देव हैं और अपना हित चाहनेवालोंके द्वारा सदा बन्दना किये जानेके
योग्य हैं ।'
पूज्यपादः सदा पूज्यपादः पूज्यैः पुनातु माम् । व्याकरणार्णवो येन तीर्णो विस्तीर्ण सद्गुणः ।।
—पाण्डवपुराणे, श्रीशुभचन्द्रसूरिः
'जो पूज्योंके द्वारा भी सदा पूज्यपाद हैं, व्याकरण - समुद्रको तिर गये हैं और विस्तृत सद्गुणोंके धारक हैं, वे श्रीपूज्यपाद आचार्य मुझे सदा पवित्र करें - नित्य ही हृदयमें स्थित होकर पापोंसे मेरी रक्षा करें ।'
५५.
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः काय - वाक्-चित्तसंभवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥
— ज्ञानार्णवे, श्रीशुभचन्द्रसूरिः
'जिनके वचन प्राणियोंके काय, वाक्य और मनःसम्बन्धी दोषों को दूर कर देते हैं - जिनके वैद्यक शास्त्रसे ( उसके सम्यक् प्रयोगसे ) शरीरके, व्याकरणशास्त्रसे वचनके और समाधिशास्त्र
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला 9++20++ ++ ++ ++ ++++ ++26++ik++ ++ ++?
मनके विकार दूर हो जाते हैं-उन श्रीदेवनन्दी आचार्यको है नमस्कार है।'
न्यासं जेनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयोन्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा। ई यस्तत्वार्थस्य टीका व्यरचयदिह भात्यसौ पूज्यपादस्वामी भूपालक्न्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृत्तः॥
--नगरताल्लुक-शिलालेख नं० ४६ । 'जिन्होंने सकल बुधजनोंसे स्तुत 'जैनेन्द्र' नामका न्यास (व्याकरण ) बनाया, पुनः पाणिनीय व्याकरणपर 'शब्दावतार' नामका न्यास लिखा तथा मनुज-समाजके लिये हितरूप वैद्यक
शास्त्रकी रचना की और इन सबके बाद तत्त्वार्थसूत्रकी टीका + (सर्वार्थसिद्धि ) का निर्माण किया, वे राजाओंसे वन्दनीयहूँ अथवा दुर्विनीत राजासे पूजित-स्वपर-हितकारी वचनों (ग्रंथों) * के प्रणेता और दर्शन-ज्ञान-चरित्रसे परिपूर्ण श्रीपूज्यपाद स्वामी (अपने गुणोंसे ) खूब ही प्रकाशमान हैं।'
जैनेन्द्रं निजशब्दभागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकविता जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दः सूक्ष्मक्ष्यिं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीह स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः ॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० ४० _ 'जिनका 'जैनेन्द्र' (व्याकरण) शब्दशास्त्रों में अपने अतुलित है
मागको, 'सर्वार्थसिद्धि' (तत्त्वार्थटीका) सिद्धान्तमें बड़ी निपुणता6++ ++ ++ ++ ++ ++T+S++S++S++ ++ ++
8++ce++de+ +
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ a++PR++28++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++20+ + है को, 'जैनाभिषेक' ऊँचे दर्जेकी कविताको, 'छन्दशास्त्र' बुद्धिकी * सूक्ष्मता (रचनाचातुर्य) को और समाधिशतक' जिनकी स्वात्म
स्थिति ( स्थितिप्रज्ञता ) को संसार में विद्वानोंपर प्रकट करता है वे श्रीपूज्यपाद मुनीन्द्र मुनियोंके गणोंसे पूजनीय हैं।'
Pl++26++CO++
P++26++OC++OC++
श्रीपात्रकेसरि-स्मरण
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++CE++26++
++
++OO++
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भूभृत्पादानुवर्ती सन् राजसेवापराङ्मुखः। संयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसौ पात्रकेसरी ॥
--नगरताल्लुक शिलालेख नं० ४६ ___ 'जो राजपदसेवी राजसेवासे पराङ मुख होकर-उसे छोड़कर-मोक्षके अर्थी संयमी मुनि बने हैं, वे पात्रकेसरी (स्वामी ) भूभृत्पादानुवर्ती हुए-तपस्याके लिये गिरचरणकी शरणमें रहते । हुए-खूब ही शोभाको प्राप्त हुए हैं।'
महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । डू पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कर्तुम् ॥
-श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० ५४ ॥ ___'जिनकी भक्तिसे पद्मावती (देवी) 'त्रिलक्षणकदर्थन' करने
में बौद्धों द्वारा प्रतिपादित अनुमान-विषयक हेतुके त्रिरूपात्मक 4 (पक्ष-धर्मत्व, सपक्ष-सत्व और विपक्ष-व्यावृत्तिरूप) लक्षणका &++ ++30++S++ ++GO++++ ++ ++ ++ ++ ++3
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला a++20++20++o++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++ के विस्तारके साथ खण्डन करने के लिये 'विलक्षणकदर्थन' नामक * ग्रंथके निर्माण करने में जिनकी सहायक हुई है, उन श्रीपात्र2 केसरी गुरुकी महिमा महान् है-असाधारण है।'
भट्टाकलङ्क-श्रीपाल-पात्रकेसरिणां गुणाः। विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥
-श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः । 'भट्टाकलङ्क और श्रीपाल-जैसे आचार्योंके अतिनिर्मल गुणोंके साथ पात्रकेसरी आचार्यके अतिनिर्मल गुण भी विद्वानोंके हृदयोंपर हारकी तरहसे आरूढ हैं-विद्वजन उन्हें हृदयमें धारणकर अतिप्रसन्न होते तथा शोभाको पाते हैं।'
. विप्रवंशाग्रणीः सूरिः पवित्रः पात्रकेसरी। स जीयाजिन-पादाब्ज-सेवनैक-मधुव्रतः॥
- --सुदर्शनचरित्रे, श्रीविद्यानन्दी । ___'वे पवित्रात्मा श्रीपात्रकेसरी सूरि जयवन्त हों-लोकहृदयों, पर सदा अपने गुणोंका सिक्का जमानेमें समर्थ हो-जो ब्राह्मण- कुलमें उत्पन्न होकर उसके अपनेता थे और (बादको) जिनेन्द्रदेव• के पद-कमलोंका सेवन करनेवाले असाधारण मधुकर (भ्रमर) हूँ + बने थे-जिन धर्म में दीक्षित होकर जिनदेवकी उपासना-आरा
धनाका ही जिनके एक मात्र व्रत था।'
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++ ++ ++ ++ &++8++28++
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श्रीप्रकलङ्क-स्मरण
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श्रीमद्भट्टाऽकलङ्कस्य पातु पुण्या सरस्वती । अनेकान्त-मरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥
___-ज्ञानार्णवे, श्रीशुभचन्द्राचार्यः __'श्रीसम्पन्न भट्ट-अकलंकदेवकी वह पुण्या सरस्वती--पवित्र । भारती-हमारी रक्षा करो हमें मिथ्यात्वरूपी गर्त में पड़नेसे बचाओ-जो अनेकान्तरूपी आकाशमें चन्द्रमाके समान देदीप्यमान है-सर्वोत्कृष्टरूपसे वर्तमान है। भावार्थ-श्री अकलंकदेवकी मङ्गलमय-वचनश्री पद पदपर अनेकान्तरूपी सन्मार्गको व्यक्त करती है और इस तरह अपने उपासकों एवं शरणागतोंको मिथ्या-एकान्तरूप कुमार्गमें लगने नहीं देती। अतः हम उस अकलङ्क-सरस्वतीकी शरणमें प्राप्त होते हैं, वह अपने दिव्य-तेजद्वारा कुमार्गसे हमारी रक्षा करो।'
जीयात्समन्तभद्रस्य देवागमनसंज्ञिनः। स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलंको महर्द्धिकः ॥
नगर-ताल्लुक, शिमोगा-शिलालेख नं० ४६ । ___'जिन्होंने स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' नामक स्तोत्रका भाष्य 8 रचा है-उसपर 'अष्टशती' नामका विवरण लिखा है-चे * महाऋद्धिके धारक अकलंकदेव जयवन्त हों-अपने प्रभावसे * सदा लोक-हृदयों में व्याप्त रहें।' 5++ ++20++20++ ++80++++20++30++ ++89++ ++S
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला Ca++se++S++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++30++m
अकलङ्कगुरु यादकलङ्कपदेश्वरः । बौद्धानां बुद्धि-वैधव्य-दीक्षागुरुरुदाहृतः॥
_ --हनुमच्चरिते, श्रीब्रह्मअजितः ___'जो बौद्धोंकी बुद्धिको वैधव्य-दीक्षा देनेवाले गुरु कहे जाते हैं-जिनके सामने बौद्ध विद्वानोंकी बुद्धि विधवा जैसी दशाको प्राप्त होगई थी. उसका ऐसा कोई स्वामी नहीं रहा था जो बौद्धसिद्धान्तोंकी प्रतिष्ठाको कायम रख सके-वे अकलंकपदके अधिपति श्रीअकलंकगुरु जयवन्त हों-चिरकालतक हमारे हृदयमन्दिर में विराजमान रहें।'
तकभूवल्लभो देवः स जयत्यकलङ्कधीः । जगद्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यदस्यवः ॥
–पार्श्वनाथचरिते, श्रीवादिराजसूरिः 'जिन्होंने जगत्के द्रव्योंको चुरानेवाले-शून्यवाद-नैरात्म्यवादादि सिद्धान्तोंके द्वारा जगत्के द्रव्योंका अपहरण करनेवालेउनका अभाव प्रतिपादन करनेवाले-बौद्ध दस्युओंको दण्डित , किया, वे अकलंकबुद्धिके धारक तर्काधिराज श्रीअकलंकदेव जयवन्त हैं-सदा ही अपनी कृतियोंसे पाठकोंके हृदयोंपर अपना सिक्का जमानेवाले हैं।' भट्टाकलङ्कोऽकृत सौगतादि-दुर्वाक्यपंकैस्सकलङ्कभूतम् । जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः साथ समन्तादकलङ्कमेव ॥
_ --श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० १०५ 'बौद्धादि-दार्शनिकोंके मिथ्यैकान्तवादरूप दुर्वचन-पङ्कसे सकलंक हुए जगत्को भट्टाकलंकदेवने, अपने नामको मानों पूरी, ++ ++00++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++6
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपा Ep++C++ ++S++ ++ ++S++S+++++0+- ++S++ है तौरसे सार्थक करनेके लिये ही, अकलंक बना डाला है-जगत+ के जीवोंकी बुद्धि में प्रविष्ट हुए एकान्त-मलको अपने अनेकान्त& मय-वचनप्रभावसे धो डाला है।'
इत्थं समस्तमतवादि-करीन्द्रदर्पमुन्मूलयन्नमलमानदृढप्रहारैः। स्याद्वाद-केसरसटाशततीव्रमूर्तिः पश्चाननो भुवि जयत्यकलङ्कदेवः ॥
--न्यायकुमुदचन्द्रे, श्रीप्रभाचन्द्राचार्यः 'इस प्रकार जिन्होंने निर्दोष प्रमाणके दृढ प्रहारोंसे समस्त अन्यमतवादिरूप-गजेन्द्रोंके गर्वको निर्मूल कर दिया है वे स्या
द्वादमय सैंकड़ों केसरिक जटाओंसे प्रचण्ड एवं प्रभावशालिनी * मूर्तिके धारक श्रीअकलंकदेव भूमण्डलपर केहरि-सिंहके समान * जयशील हैं--अपनी प्रवचन-गर्जनासे सदा ही लोक-हृदयोंको * विजित करनेवाले हैं।'
जीयाचिरमकलङ्कब्रह्मा लघुहव्वनृपति-वरतनयः। अनवरत-निखिलजन-नुतविद्यः प्रशस्तजन-हृद्यः॥
-तत्त्वार्थवार्तिक-प्रथमाध्याय-प्रशस्तिः 'जिनकी विद्या-ज्ञानमाहात्म्य के सामने सदा सब जन नतमस्तक रहते थे और जो सज्जनोंके हृदयों को हरनेवाले थे-- उनके प्रेमपात्र एवं आराध्य बने हुए थे–वे लघुहव्वराजाके श्रेष्ठपुत्र श्रीअकलंकब्रह्मा-अकलंक नामके उच्चात्मा महर्षि--चिरकाल
तक जयवन्त हों--अपने प्रवचनतीर्थ-द्वारा लोकहृदयों में सदा । - सादर विराजमान रहें।' . C++ ++ ++ ++ ++ ++S++ ++ ++S++ ++ ++
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६२
प्रकीर्णक-पुस्तकमाला g++de++ ++ ++S++S++S++ ++ ++ ++S++ ++g
देवस्याऽनन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः। न जानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं भुवि ॥ अकलङ्कवचोऽम्भोधेः सूक्करत्नानि यद्यपि । गृह्यन्ते बहुभिः स्वैरं सद्रत्नाकर एव सः ॥
-सिद्धिविनिश्चये, श्रीअनन्तवीर्याचार्यः 'अनन्तवीर्य होकर-कहलाकर-भी मुझे अकलंकदेवके पदसमूह (शास्त्र ) को पूरी तौरसे व्यक्त करना नहीं आता-मैं 1 उसकी व्याख्यामें अपनेको असमर्थ पाता हूँ, यह लोकमें बड़े ही।
आश्चर्यकी बात है। अकलंकके वचनसमुद्रसे यद्यपि बहुत विद्वानोंने स्वेच्छानुसार सूक्तरत्नोंको ग्रहण किया है-अपनी अपनी कृतियों में अकलंककी सूक्तियोंको अपनाया है-फिर भी, वह उत्तम ( सूक्त-) रत्नोंका आकर-खजाना बना ही हुआ हैउसकी सदन-निधिका अन्त होने में नहीं आता।'
भूयोभेदनयावगाह-गहनं देवस्य यद्वाङ्मयम् । कस्तद्विस्तरतो विविच्य वदितं मन्दः प्रभुर्मादृशः॥
--न्यायविनिश्चय-विवरणे, श्रीवादिराजसूरिः ___श्रीअकलंकदेवका जो प्रवचन-'न्यायविनिश्चय' ग्रन्थबहुभेदों तथा नयोंके अवगाहनसे गहन है-नाना प्रकारके भंगों
तथा नयोंकी विविक्षाको आत्मसात करके अतिगंभीर बना हुआ र है-उसका विस्तारसे विवेचनात्मक कथन करनेके लिये मेरे जैसा मन्दबुद्धि कौन समर्थ हो सकता है ?-कोई भी नहीं।'
येनाऽशेषकुतर्कविभ्रमतमो निर्मूलमुन्मूलितम्
स्फारागाध-कुनीतिसार्थसरितो निःशेषतः शोषिताः। ++ ++S++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ
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स्याद्वादाऽप्रतिमप्रभूतकिरणैः व्याप्तं जगत् सर्वतः स श्रीमान् कलङ्कभानुरसमो जीयात् जिनेन्द्रः प्रभुः ॥ — न्यायकुमुदचन्द्रे, श्रीप्रभाचन्द्राचार्यः
'जिन्होंने स्याद्वादरूप - अनुपम - समर्थ किरणोंसे कुतर्कोत्पन्न सम्पूर्ण विभ्रमान्धकारको मूलसे उन्मूलित किया है-उसका पूर्णतः विनाश किया है, कुनयरूप विस्तृत तथा अगाध नदियोंके समूहको पूरी तौर से सुखा दिया है और अपनी उन किरणोंसे जगतको सर्वत्र व्याप्त किया है वे अद्वितीय सूर्य श्री कलङ्कप्रभु जयवन्त हों, जो विजेताओं में प्रधान थे ।'
मिथ्यायुक्ति पलालकूटनिचयं प्रज्वाल्य निःशेषतः सम्यग्युक्तिमहांशुभिः पुनरियं व्याख्या परोक्षे कृता । येनासौ निखिल - प्रमाण-कमल-प्राज्य-प्रबोधप्रदः भास्वानेष जयत्यचिन्त्य-महिमा शास्ताऽकलङ्को जिनः ॥३॥ - न्याय कुमुदचन्द्रे, श्रीप्रभाचन्द्राचार्यः
'जिन्होंने समीचीन - युक्तियोंरूप महती किरणों से मिथ्या-युक्तियोंरूप पुरालके - पूलों के समूहको पूर्णतः जलाकर परोक्ष-प्रमाणकी व्याख्या की है - उसे भले प्रकार स्पष्ट तथा व्यक्त किया है-वे सम्पूर्ण प्रमाण-कमलोंके उत्कट उद्बोधक - उन्हें पूर्णतः विक सित करनेवाले - अचिन्त्य - महिमाके धारक, विजयी और शास्ता कलंकदेव जयवन्त हैं—लोक- हृदयों में अपना प्रभाव अंकित किये हुए हैं ।'
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२१ श्रीविद्यानन्द-स्मरण
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अलश्चकार यस्सार्वमाप्तमीमांसितं मतम् । स्वामिविद्यादिनन्दाय नमस्तस्मै महात्मने । यः प्रमाणाप्तपत्राणां परीक्षाः कृतवान्नुमः । विद्यानन्दमिनं तं च विद्यानन्दमहोदयम् ॥ विद्यानन्दस्वामी विरचितवान् श्लोकवार्तिकालंकारम् ।। जयति कवि-विबुध-तार्किकचूडामणिरमलगुणनिलयः॥
-शिमोगा नगरताल्लुक-शिलालेख नं० ४६ 'जिन्होंने सर्वहितकारी प्राप्तमीमांसित-मतको अलंकृत किया है-स्वामी समन्तभद्रके परमकल्याणरूप 'आप्तमीमांसा' ग्रन्थको अपनी अष्टसहस्रो टोकाके द्वारा सुशोभित किया है-उन महान् ।
आत्मा स्वामी विद्यानन्दको नमस्कार है।' ___ 'जो प्रमाणों, आप्तों तथा पत्रोंकी परीक्षा करनेवाले हुए हैंजिन्होंने प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा और पत्रपरीक्षा जैसे महत्वके । प्रन्थ लिखे हैं-उन विद्या तथा आनन्दके महान् उदयको लिये हुए अथवा (प्रकारान्तरसे ) 'विद्यानन्द-महोदय' ग्रन्थके रचयिता है स्वामी विद्यानन्दकी हम स्तुति करते हैं उनकी विद्याका यशोगान :
करते हैं।' 4 'जिन्होंने 'श्लोकवार्तिकालंकार' नामका ग्रंथ रचा है वे
कवियोंके चूडामणि, विबुधजनोंके मुकुटमणि और तार्किकोंमें , ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण- मंगलपाठ
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प्रधान तथा निर्मल गुणों के आश्रयस्थान श्रीविद्यानन्दस्वामी जयवन्त हैं -- सदा ही अपने पाठकों विद्वज्जनोंके हृदय में अपने अगाध पाण्डित्यकी छाप जमानेवाले हैं।'
ऋजुसूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानन्दस्य विस्मयः । शृण्वतामप्यलङ्कारं दीप्तिरं गेषु रङ्गति ॥
- पार्श्वनाथचरिते, श्रीवादिराजसूरिः 'श्रीविद्यानन्दाचार्य ऋजुसूत्ररूप तथा देदीप्यमान रत्नरूप अलंकारको जो सुनते भी हैं उनके भी अंगोंमें दीप्ति दौड़ जाती है. यह आश्चर्य की बात है ! अर्थात् अलंकारों- आभूषणों को जो मनुष्य धारण करता है उसीके अंगों में दीप्ति दौड़ा करती है-सुननेवालोंके अंगोंमें नहीं; परन्तु श्रीविद्यानन्दस्वामीके सत्यसूत्रमय और स्फुरद्रत्नरूप प्राप्तमीमांसाऽलंकार ( ही ) और श्लोकवार्तिकालंकार (तत्रार्थटीका ) ऐसे अद्भुत अलंकार हैं कि उनके सुनने से भी अंगों में दीप्ति दौड़ जाती है--सुननेवालोंके अंगों में विद्युत्का सा कुछ ऐसा संचार होने लगता है कि एकदम प्रसन्नता जाग उठती है ।'
२२
श्रीमाणिक्यनन्दि-स्मरण
++++E+
६५
साभासं गदितं प्रमाणमखिलं संख्या - फल - स्वार्थतः सुव्यक्तैः सकलार्थसार्थविषयैः स्वल्पैः प्रसन्नैः पदैः ।
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला @++ ++8+++S++ +-+9@++++S++++ ++++++ 1 येनाऽसौ निखिल-प्रबोध-जननो जीयाद्गुणाम्भोनिधिः वाकीयोः परमालयोऽत्र सततं माणिक्यनन्दिप्रभुः ।।
-प्रमेयकमलमार्तण्डे, श्रीप्रभाचन्द्राचार्यः ___ 'जिन्होंने सकल अर्थसमूहको अपना विषय करनेवाले स्वल्प(अल्पाक्षर), प्रसन्न (प्रसादगुणविशिष्ट) और सुव्यक्त ( स्पष्ट ) पदों । (सूत्रवाक्यों ) के द्वारा संपूर्ण प्रमाण और प्रमाणाभासकासंख्या, फल तथा स्वविषयकी दृष्टिसे कथन किया है, वे सकल
प्रबोधके जनक, गुणसमुद्र, वाणी और कीर्तिके परमस्थान है श्रीमाणिक्यनन्दिप्रभु लोकमें सदा जयवन्त होवे-अपने 'परीक्षामुखसूत्र' के द्वारा सदा लोकहृदयमें विराजित रहें।'
अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुदभ्रे येन धीमता । न्यायविद्याऽमृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।
-प्रमेयरत्नमालायां, श्रीलघुअनन्तवीर्यः 'जिन्होंने अकलङ्कदेवके वचन-समुद्रको मथकर उससे न्यायविद्यारूप अमृत निकाला है-अकलङ्कके अगाध न्यायशास्त्रोंपरसे सार खींचकर 'परीक्षामुखसूत्र' की अमर रचना की है-उन बुद्धिमान आचार्य श्रीमाणिक्यनन्दीको नमस्कार हो।'
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श्रीअनन्तवीर्य-स्मरण वन्दाम्यनन्तवीर्याब्दं यद्वागमृतवृष्टिभिः । जगज्जिघत्सन्निर्वाणः शन्यवादहुताशनः ॥
____पाश्वनाथचरिते, श्रीवादिराजसूरिः SHO++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++k++
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मत्साधु-स्मरण-मगलपाठ 'tta++ ++2&++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
___जिनकी वचनामृत-वृष्टियोंसे जगत्को खा जाने-भस्मसात् * कर देनेवाली शून्यवादरूप अग्नि शान्त होगई उन श्रीअनन्तवीर्याचार्यरूप मेधको मैं नमस्कार करता हूँ।'
गूढमर्थमकलङ्कवाङ्मयागाधभूमिनिहितं तदर्थिनाम् । व्यञ्जयत्यमलमनन्तवीर्यवाक् दीपवर्तिरनिशं पदे पदे ॥
न्यायविनिश्चय-विवरणे, श्रीवादिराजसूरिः । ___'श्रीअनन्तवीर्यकी निर्मलवाणी-निर्दोषटीका-अकलङ्क वाङ्मयकी-अकलंकदेवके सिद्धिविनश्चयादिशास्त्रोंकी-अगाध भूमिमें संनिहित-गहराई में स्थित-गूढअर्थको पद पदपर व्यक्त करनेवाली समर्थ दीपशिखा है-टौर्चके समान है।'
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२४ श्रीप्रभाचन्द्र-स्मरण
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अभिभूय निजविपक्षं निखिलमतोद्योतनो गुणाम्भोधिः। सविता जयतु जिनेन्द्रः शुभप्रबन्धः प्रभाचन्द्रः॥
-न्यायकुमुदचन्द्र-प्रशस्तिः ___ 'अपने विपक्ष-समूहको पराजित करके जो समस्तमतोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले हैं वे गुण-समुद्र, जितेन्द्रि
योंमें अग्रगण्य और शुभप्रबन्ध-न्यायकुमुदचन्द्र जैसे पुण्य2 प्रबन्धोंके विधाता-प्रभाचन्द्राचार्य नामके सूर्य जयवन्त हों
अपने वचन-तेजसे लौकिकजनोंके हृदयान्धकारको दूर करने में - समर्थ होवें।' C++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++818++8++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला a++ ++200++26++20++call++2++de++-28++2++ ++do++se
चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे । कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥
श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः 'जिन्होंने चन्द्रमाका उदय करके-'न्यायकुमुदचन्द्र' ग्रन्थकी रचना करके-अथवा 'चन्द्रोदय' नामक ग्रन्थको रचकर जगतको सदाके लिये आनन्दित किया है उन चन्द्र-किरण-समान उज्ज्वल यशके धारक, कवि प्रभाचन्द्र की मैं स्तुति करता हूँ।' माणिक्यनन्दी जिनराजवाणी-प्राणाधिनाथः परवादि-मर्दी । चित्रं प्रभाचन्द्र इह मायां मार्चण्ड-वृद्धौ नितरां व्यदीपीत् ॥
सुखिने न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः। शाकटायनकृत्सूत्रन्यासकटे व्रती(प्रभे)न्दवे ॥
-शिमोगा-नगरताल्लुक-शिलालेख नं० ४६ ___'जो श्रीमाणिक्य (आचार्य) को आनन्दित करनेवाले उनके 'परीक्षामुग्व' ग्रन्थपर 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामका भाष्य लिखकर उनकी परोक्ष प्रसन्नता सम्पादन करनेवाले हैं तथा जिनराजकी वाणीके प्राणाधार हैं--जिन्हें पाकर जिनवाणीके उत्कर्षमें वृद्धि हुई है। अथवा जो माणिक्यनन्दी-यतिराजकी वाणी (परीक्षामुखसूत्र ) के प्राणाधिपति हैं-प्रमेयकमलमार्तण्ड नामक भाष्यके द्वारा उसके प्राणों (तत्त्वों) के पूर्णतः संरक्षक हैं। और जिन्होंने परिवादियोंका मर्दन किया है उनके मिथ्याभिमानका खण्डन किया है वे प्रभाचन्द्र इस पृथ्वीपर निरन्तर ही मार्तण्डकी वृद्धि
में प्रदीप्त रहे हैं यह एक आश्चर्यकी बात है अर्थात् प्रभापूर्ण - चन्द्रमा यद्यपि मार्तण्ड (सूर्य) की तेजोवृद्धि में कोई सहायक नहीं। ++ ++ ++ + ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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सत्साधु-स्मरण- मंगलपाठ W++++++++
होता--उल्टा उसके तेजके सामने हतप्रभ होजाता है, परन्तु ये प्रभाचन्द्र मार्तण्ड ( प्रमेय कमलमार्तण्ड ) की तेजोवृद्धि में निरन्तर ही अव्याहतशक्ति रहे हैं, यही एक विचित्रता है ।'
'जो न्यायकुमुदचन्द्र के उदयकारक -- जन्मदाता - हुए हैं और जिन्होंने शाकटायन के सूत्र - - व्याकरणशास्त्र — पर न्यास रचा है, उन प्रभाचन्द्रमुनिको नमस्कार है । '
२५
श्रीवीरसेन - स्मरण
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६६
शब्दब्रह्मेति शाब्दैर्गणधर मुनिरित्येव राद्धान्तविद्भिः । साक्षात्सर्वज्ञ एवेत्यवहितमतिभिः सूक्ष्मवस्तुप्रणीतः (प्रवीणैः ?) यो दृष्ट विश्वविद्यानिधिरिति जगति प्राप्तभट्टारकाख्यः स श्रीमान् वीरसेनो जयति परमतध्वान्तभित्तं त्रकारः || -धवला - प्रशस्ति
'जिन्हें शाब्दिकों (वैय्याकरणों) ने 'शब्दब्रह्मा' के रूप में, सिद्धान्तशास्त्रियोंने 'गणधर मुनि' के रूप में, सावधानमतियोंने 'साक्षात्सर्वज्ञ' के रूप में, और सूक्ष्मवस्तुविज्ञोंने 'विश्वविद्यानिधि ' के रूप में देखा - अनुभव किया—और जो जगत् में 'भट्टारक' नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए, वे (लोक में छाये हुए) अन्यमतोंके अन्धकार को भेदने वाले शास्त्रकार - धवलादिके रचयिता - श्रीमान् वीरसेनाचार्य जयवन्त हैं - विद्वहृदयों में सब प्रकारसे अपना सिक्का जमाए हुए हैं।'
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला a++29++20++20++ ++S++C++ ++28+ +oney++S++ ++2
प्रसिद्ध-सिद्धान्त-गभस्तिमाली समस्तवैय्याकरणाधिराजः।। गुणाकरस्तार्किक-चक्रवर्ती प्रवादिसिंहो वरवीरसेनः॥
-धवला, प्रशस्ति ___'श्रीवीरसेनाचार्य प्रसिद्ध सिद्धान्तों-षड्ग्वण्डागमादिकोंको प्रकाशित करनेवाले सूर्य थे,, समस्त वैय्याकरणोंके अधिपति । थे, गुणोंकी खानि थे, तार्किकचक्रवर्ती थे और प्रवादिरूपी गजोंके लिये सिंह-समान थे।'
श्रीवीरसेन इत्यात्त-भट्टारकपृथुप्रथः । स नः पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ॥ लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि । सिद्धान्तोपनिवन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । मन्मनःसरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥ धवला भारतीं तस्य कीर्तिं च शुचि-निर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेषभुवनां तां नमाम्यहम् ॥
_ --श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः ___'जो भट्टारककी बहुत बड़ी ख्यातिको प्राप्त थे वे वादिशिरोमणि और पवित्रात्मा श्रीवीरसेन मुनि हमें पवित्र करें हमारे हृदयमें निवास कर पापोंसे हमारी रक्षा करें। _ 'जिनकी वाणीसे वाग्मी वृहस्पतिकी वाणीभी पराजित होती + थी उन भट्टारक वीरसेनमें लौकिक विज्ञता और कविता दोनों , गुण थे।' ++ ++ ++ ++ ++ ++++20++8+20++30++ ++
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सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ ++ ++20++ ++ ++ ++ ++S++ ++30++S++8++m ___सिद्धान्तागमोंके उपनिबन्धों-धवलादिग्रन्थों के विधाता श्रीवीरसेनगुरुके कोमल चरण-कमल मेरे हृदय-सरोवर में चिरकाल तक स्थिर रहें।'
'श्रीवीरसेनकी धवला भारती-धवला-टीकांकित सरस्वती अथवा विशुद्ध वाणी और चन्द्रमाके समान निर्मल कीर्तिकी, जिसने अपने धवल प्रकाशसे इस सारे संसारको धवलित (उज्ज्वल) कर दिया है, मैं वन्दना करता हूँ।'
तत्र वित्रासिताशेष-प्रवादि-मद-वारणः । वीर-सेनाग्रणीवीरसेनभट्टारको वभौ ॥
. --उत्तरपुराणे, श्रीगुणभद्रसूरिः ___'मूलसंघान्तर्गत से नान्वयमें वीरकी सेनाके अग्रणी (नेता) वीरसेन भट्टारक हुए हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण प्रवादिरूपी मस्त हाथियोंको परास्त किया था।'
तदन्ववाये विदुषां वरिष्ठः स्याद्वादनिष्ठः सकलागमज्ञः। श्रीवीरसेनोऽजनि तार्किकत्रीःप्रध्वस्तरागादिसमस्तदोषः॥ यस्य वाचां प्रसादेन ह्यमेयं भुवनत्रयम् । आसीदष्टांगनैमित्तज्ञानरूपं विदां वरम् ॥
-विक्रान्तकौरवे, श्रीहस्तिमल्लः ____ 'उन (स्वामी समन्तभद्र)के वंशमें श्रीवीरसेनाचार्य हुए हैं, जो कि विद्वानों में श्रेष्ठ थे स्याद्वादपर अपना दृढ निश्चय एवं आधार रखनेवाले थे, तार्किकोंकी शोभा थे और रागादि सम्पूर्ण-दोषोंका विध्वंस करनेवाले थे। साथ ही, जिनके वचनोंके प्रसादसे यह अज्ञेय भुवनत्रय विद्वानोंके लिये अष्टाङ्ग-निमित्तज्ञानका अच्छा विषय बन गया था।' -- ++S++ ++de+rek+ ++S++ ++ ++ ++ ++ ++
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला ++ ++++ ++
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श्रीजिनसेन-स्मरण
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जिनसेनमुनेस्तस्य माहात्म्यं केन वयते । शलाकापुरुषाः सर्वे यद्वचोवशवर्तिनः ॥
-पार्श्वनाथचरिते, श्रीवादिराजसूरिः ।। 'सम्पूर्ण शलाकापुरुष जिनके वचनके वशवर्ती हैं जिन्होंने * महापराण लिखकर ६३ शलाकापुरुषोंको ( उनके जीवन वृत्तान्तको ) अपने अधीन किया है-उन श्रीजिनसेनाचार्यका माहा.. म्य कौन वर्णन कर सकता है ? कोई भी नहीं।'
याऽमिताऽभ्युदये पार्श्वजिनेन्द्र-गुण-संस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति संकीर्चयत्यसौ ।।
--हरिवंशपुराणे, श्रीजिनसेनसूरिः । 'पार्वाभ्युदय' काव्यमें पार्श्वजिनेन्द्रकी जो अनुपम गुणसंस्तुति * है, वह श्रीजिनसेनस्वामीकी कीर्तिका आज भी संकीर्तन-खुलागान कर रही है।'
यदि सकलकवीन्द्र-प्रोक्तसूक्त-प्रचारश्रवण-सरसचेतास्तत्वमेव सखे ! स्याः। कविवर-जिनसेनाचार्य-वक्त्रारविन्द
प्रणिगदित-पुराणाकर्णनाभ्यर्णकर्णः ॥-अज्ञातकविः ____ हे मित्र । यदि तुम सम्पूर्ण कवि श्रेष्ठोंकी सूक्तियोंके प्रचारको , सुनकर अपना हृदय सरस बनाना चाहते हो तो कविवर जिनमें सेनाचार्यके मुख-कमलसे विनिर्गत (कथित) पुराणको सुननेके लिये
कानोंको समीप लाओ-'आदिपुराण' को ध्यानपूर्वक सुनो।' i++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++at++k++ C++
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सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ
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२७
श्रीवादिराज - स्मरण
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श्रारुद्धाम्बरमिन्दुबिम्ब-रचितौत्सुक्य' सदा यद्यश
श्छत्रं वाक् चमरीज-राजि - रुचयोऽभ्यर्णं च यत्कर्णयोः । सेव्यः सिंहसमर्च्य - पीठ-विभवः सर्व प्रवादि- प्रजादत्तोच्चैर्जयकार - सार-महिमा श्रीवादिराजो विदाम् ॥ - मल्लिषेण प्रशस्ति ( श्र० शि० ५४ )
"
'जिनका यशरूपी छत्र आकाशको सदैव घेरे हुए था और उसने चन्द्रबिम्बके लिये उत्सुकता उत्पन्न कर दी थी - चन्द्रमा भी जिनके यश के विस्तार और उसकी उज्ज्वलता तथा स्थिरताको देखकर अपने को हीन अनुभव करता हुआ तद्रूप होनेके लिये उत्सुक बना हुआ था -, (प्रशंसा ) वाक्यरूपी चमर-समूहकी किरणें निरन्तर ही जिनके कानोंके समीप पड़ती थीं- जिन्हें अपना यशोगान स्पष्ट सुनाई पड़ता था, जिनका आसनविभव ( माहात्म्य) सदा ही सिंह- समर्च्य था- जयसिंह नरेशके द्वारा पूजित था— और सम्पूर्ण प्रवादीजन उच्च स्वरस जिनकी महिमा - का जयजयकार किया करते थे, वे श्रीवादिराजसूरि विद्वानोंके द्वारा सेवनीय हैं।
सदसि यदकङ्कः कीर्तने धर्मकीर्ति -
६चसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः ।
७३
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अगससानाला ..... -
प्रकीर्णक-पुस्तकमाला S++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++S++++30++ ++S
इति समय-गुरूणामेकतः संगतानाम् प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः॥
-नगर-ताल्लुक शिलालेख नं० ३६ ____ 'जो सभामें अकलंक थे-विद्वानों तथा राजाओंकी परिषदों. में उपस्थित होकर अपना प्रभाव व्यक्त करने में अकलङ्कदेवके डू समान कुशल थे-, कीर्तन करने में प्रतिपादन करनेके ढगमेंधर्मकीर्ति (बौद्धाचार्य)के सदृश दक्ष थे। बोलने में वृहस्पतिके तुल्य चतुर थे, और न्यायवादमें न्यायपदार्थोंका विश्लेषण करने में(न्यायदर्शनके प्रवर्तक) अक्षपाद (गौतम ) के समान निपुण थे। * वे श्रीवादिराजदेव इन विभिन्न धर्मगुरुओंके एकीभूत प्रतिनिधि
रूपसे शोभायमान हुए हैं।
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पद्म
कलङ्कगुरुर्जीयाअकलङ्कवचांम्भोधे
अचिन्त्य - महिमा देवः
ताम्रनयनोत्पलं
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सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठका पद्यानुक्रम
+60+
तुच्छ गुणसम्पातं
अद्वैताद्याग्रहोग्रग्रहअनन्तविज्ञानमतीतदोष
पाकुर्वन्ति यद्वाचः
अपेक्षैकान्तादि - प्रबल
अभिभूय निजविपक्षं
अभूदुमास्वातिमुनिः
अलञ्चकार यस्सार्व
अवटुतटमटति झटिति
श्ररुद्धाम्बरमिन्दुबिम्ब
श्राहार्येभ्यः स्पृहयति परं
इत्थं समस्तमतवादिइन्द्रभूति-भाषित-प्रमेय
पद्माऽनुक्रम
ऋजुसूत्रं स्फुरद्रत्नं
कर्मारातिं विजित्य
aarai गमकानां च कवीनां तीर्थकृद्दवः
पृष्ठ
६०
६६
५५
६
२४
पद्म
कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः
कार्यादेर्भेद एव स्फुटमिह
कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं
कुवादिनः स्वकान्तानां
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु
३८ गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका ३६
१२
५५
१८
गूढमर्थमकलङ्क - वाङ् मया
चन्द्रांशुशुभ्रयशसं
६१
४२
६५
१६
३०
५४ तत्त्वार्थसूत्र- व्याख्यान
++90++00++☺0++*++00++:@++++++00++00
जगत्प्रसिद्ध बोधस्य
६७
जयउ धरसेणणाहो
२३ | जिनसे नमुनेस्तस्य ६४ जियाय जियउवसग्गे
४७ | जयाच्चिरमकलङ्कब्रह्मा ७३ | जीयात्समन्तभद्रस्य :
४ जीयात्समन्तभद्रोऽसौ
जीवसिद्धि- विधायीह
जेहि कसा पाहुड
जैनेन्द्रं निजशब्दभाग
तत्वार्थ सूत्रकर्त्तारमु
तत्त्वार्थ सूत्रकर्त्तारं
पृष्ठ
१५
४८
७५
१०
४६
६७
६८
५२
१६
७२
9
६१
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३३
१८
५६
२३
२४
३७.
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला P++SO++30++S++OO++ ++-++S++ ++8++8++ ++
. पृष्ठ | पद्य + तत्र वित्रासिताशेष .. ७१ प्रसिद्धसिद्धान्तगभस्तिमाली
तदन्ववाये विदुषां वरिष्ठः ७१ भट्टाकलङ्क-श्रीपालतर्कभूवल्लभो देवः ... ६० भट्टाकलङ्कोऽकृत सौगतादितव जिन शासन-विभवो भद्रबाहुरग्रिमः समग्रबुद्धितस्यान्वये भूविदिते बभूव २१ भव्यैकलोकनयनं
तीर्थ सर्वपदार्थतत्वविषय- . २५ भूभृत्पादानुवर्ती सन् से त्यागी स एव योगीन्द्रो. ३५ भूयोभेदनयावगाहगहनं
दयादमत्यागसमाधिनिष्ठं : १४ मदुक्तिकल्पलतिकां दिगम्बरं. गुणागारं . . ..२७ महिमा स पात्रकेसरिगुरोः देवस्याऽनन्तवीर्योऽपि
मंगलं भगवान् वीरो धवलां भारती तस्य
माणिक्यनन्दी जिनराजनमः श्रीवर्द्धमानाय , मातृ-मान मेय-सिद्धिनमः समन्तभद्राय.
मान-नीति-वाक्य-सिद्धनित्यायेकान्तगर्तप्रपतन्यिवशान ३१ मानस्तम्भं प्रदृष्ट्वा : निरन्तरानन्तगतात्मवृत्तिं .. - १८
मिथ्यायुक्तिपलालकुटन्यासं जैनेन्द्रसंशं. ... .५६ यः प्रमाणाप्तपत्राणां पणमह कय-भूयबलिं . २० यदि सकल-कवीन्द्र- . पणमामि पुष्पदंतं ... ..... २० यद्भारत्याः कविः, सर्वो पसियउ महु धरसेणो . १६ यस्य च सद्गुणाधारा पात्रकेसरि-प्रभाव-सिद्धकारिणी ४१ यस्य वाचां प्रसादेन पूज्यपादः सदा पूज्य
याऽमिताऽम्युदये पार्श्वप्रज्ञाधीश-प्रपूज्योज्वल- ३७ येनाऽशेषकुतर्कविभ्रमतमो है प्रमाण-नय-निर्णीत- ३५ येनाऽशेषकुनीतिवृत्तिसरितः २६ है * प्रवादि-करि-यूथानां ५२ । यो देवनन्दि-प्रथमाभिधानः ५३ @++ ++ ++ ++ ++GE++ ++GE++6++ ++EE+ +6++
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७७
पद्य
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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला C++C++00+ +2C++00++ ++++20++20++8++20++20++2
पृष्ठ पद्य यो निःशेषजिनोक्तधर्म-6 ३६ | सदसि यदकलङ्कः 1 यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां -१७ | सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तात्मा • रजोभिरस्कृष्टतमत्व
स प्राणिसंरक्षणसावधानो लक्ष्मीभृत्परमं निरुक्ति
समन्तभद्रनामानं लोकवित्वं कवित्वं च
समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद् * वन्दाम्यनन्तवीर्याब्द
समन्तभद्रस्संस्तुत्यः * वन्दे समन्तभद्रं तं
समन्तभद्रं सद्बोधं वन्द्यो भस्मक-भस्मसात्- समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां 1 वन्द्यो विभु वि न कैरिह २१ समन्तभद्रादिमहाकवीश्वराः विद्यानन्दस्वामी
समन्तभद्रादिमहाकवीश्वरैः विप्रवंशाग्रणीः सूरिः
समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिविस्तीर्ण-दुर्नयमय
| समन्तभद्रो भद्रार्थों व्यापकद्वयातमाग- ४३ | समन्ताद्भुवने भद्रं शब्दब्रह्म ति शाब्द
६६ सरस्वती-स्वैरविहार-भूमयः * शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं
शुद्धि-शक्तयोः परां काष्ठां सान्तसाधनाद्यनन्तमध्य-- ॐ श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौषध. ५४ साभासं गदितं प्रमाणमखिलं
श्रीपूज्यपादोद्धृतधर्म- ५३ सास्मरीमि तोष्टवीमि श्रीमत्समन्तभद्रस्य
सिद्धान्तोपनिबन्धानां श्रीमत्समन्तभद्राख्ये ४६ | सुखिने न्यायकुमुद श्रीमद्भट्टाकलङ्कस्य
५६ सूरि-सूक्ति-वन्दिता. श्रीमत्समन्तभद्रादि
५० स्तुतिविद्यां समाश्रित्य ॐ श्रीमत्समन्तभद्राद्याः ५०स्थेयाज्जातजयध्वजा
श्रीमानुमास्वातिरयं यतीश- २३ | स्यात्कार-मुद्रित-समस्तश्रीमूलसंघव्योम्नेन्दु- ४५ स्वामिनश्चरितं तस्य श्रीवीरसेन इत्यात्त
७० स्वामी समन्तभद्रो मे &++26++88++26++C++000++20++20++202C++er++80++8
++20++28++00++20++29++00++
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++00+100++EO++00+ +EC++20++3
++00+ +9
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________________ वीरसेवामन्दिरके अन्य प्रकाशन 1 समाधितंत्र-संस्कृत और हिन्दी टीका-सहित / 2 बनारसी-नाममाला (हिन्दी-शब्दकोष ) / 3 अनित्य-भावना-हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ-सहित / ) 4 पुरातन-जैनवाक्य-सूची (दि० जैनप्राकृतपद्यानुक्रमणी) (प्रस्तावना छपते ही प्रकाशित होनेवाली)। 12) उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा (ऐतिहासिक प्रस्तावना-सहित)।) 6 अध्यात्मकमलमार्तण्ड-हिन्दी-अनुवादादि-सहित। // ) प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-सानुवाद-व्याख्या। 8 न्यायदीपिका (न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया द्वारा अनुवादित और सम्पादित महत्वका विशिष्ट संस्करण)। (प्रेसमें) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह। (प्रेसमें) बृहत-जैनप्रन्थ-सूची। (प्रेसमें) 11 समन्तभद्रभारती-अनुवादादि-सहित (प्रेसमें) प्रेसकी तय्यारीमें 12 जैनलक्षणावली-(लक्षणात्मक जैनपारिभाषिक शब्दकोष)। 13 लोक-विजय-यंत्र-भविष्यज्ञापक प्राकृत ग्रन्थ, हिन्दी-टीका-सहित / 14 भद्रबाहुनिमित्त-शास्त्र-निमित्तों-द्वारा भविष्य-ज्ञानका अपूर्व ज्योतिष ग्रन्थ, हिन्दी अनुवादादि-सहित / 15 अनेकार्थ-नाममाला—(पं० भगवतीदासकृत शब्दकोष ) / 16 मृत्यु-विज्ञान-मृत्युको पहलेसे जानलेनेके उपायोंको बतलानेवाला प्राचीन अलभ्य प्राकृत भाषाका ग्रन्थ / नई हिन्दी-टीका-सहित / 17 आय-ज्ञान-तिलक-प्रश्न-शास्त्र और निमित्त-शास्त्रका पुराना प्राकृत ग्रन्थ, संस्कृत तथा नई हिन्दी-टीका-सहित / 18 कर्म-प्रकृति-(नेमिचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्ति-विरचित ) सानुवाद / 16 विश्वतत्त्व-प्रकाश-(भावसेन-विद्य-विरचित) 20 ऐतिहासिक जैनव्यक्ति कोष-भ० महावीरके बादके आचार्यों, विद्वानों, राजादिकोंका संक्षेपमें वह परिचय जो विखरा पड़ा है।