Book Title: Saptasandhan Mahakavya
Author(s): Meghvijay, Amrutchandracharya
Publisher: Jain Sahitya Vardhak Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 的图乐场空站的 ॐ अहे नमः 00 शासनसम्राट्-श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः । महामहोपाध्याय-श्रीमेघविजयगणि-प्रणीतं सप्तसन्धान-महाकाव्यम् 955मर-955e-95-948-595.. शासनसम्राट-मरिचक्रचक्रवर्ति-सर्वतन्त्रस्वतन्त्राचार्यवर्य-- श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरमहागज-पट्टालङ्कार शास्त्रविशारद-कविरत्नाचार्य-श्रीमद्---: विजयामृतसूरीश्वरमहाराज :-- विरचित-'सरणी' टीकोपेतम् ७+मरमर950-550- ... : प्रकाशयिधी :--- मर्यपुर (सुरत ) नगरस्था श्री जैन-साहित्य--वर्धक-सभा विक्रम संवत् - मूल्यम :- प्यकाणां चतुष्कम् संवत् ४७० २००० जए. 5ए मए-99 -9% जैन भास्करोदय मुद्रणालये मुद्रितम-भाशापुरा रोड-जामनगर. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री गौतमस्वामिने नमः ।। -: प्रास्तविक-पुरोवचन :आ विश्वमा घणा पार्थिव-रत्नो के. तेमाना केटलाएकनुं मूल्य लाखो अने करोडो रुपीयाथी पण अधिक होय छे. ते प्रमाणे केटलाएक मानवरत्नो विश्वने विभूषित करी रक्षा छे. जेमनी किंमत पार्थिवरत्न करतां घणीज विशेष होय छे. ते मानवरत्नोने उत्पन्न करनार ग्रन्थरत्नो छे, ने ते कारणे सवैकरतां विशेष मूल्यवान् ग्रन्थरनो छे. वस्तुतः तो ते-ग्रन्थरत्नोनी किंमतज नथी. अमूल्यन छे. एक वस्तु करतां बीजी वस्तुनी किंमत वधारे अंकाय त्यारे समजवू जोइए के पेली करतां बीजीमां कंइक विशेषता छे. आ 'सप्तसन्धान महाकाव्य' ने विद्वानो सर्वश्रेष्ठ-अजोड-अद्वितीय संस्कृतसाहित्यमा प्रथमकोटिनु कही ओळखे छे, ने ओळखावे छे, तो ते का विशेषताने कारणे, ए जाणवु आवश्यक छे. ते विशेषताओ नीचे प्रमाणे छे (१) अन्य काव्यग्रन्थोमा एक श्लोकनो एकान अर्थ नीकळतो होय छे, कदाच कोइ कोइ काव्यो एवा होय हे के, जेना दरेक श्लोकोमांथी बेबे अर्थ नीकळी बे जीवनचरित्र समजावता होय छे. ज्यारे आ सप्तसन्धान महाकाव्यना दरेक श्लोको सात महापुरुषोना जीवनवृत्तान्तने समजावे छे. तेथी ते सप्तार्थक-सप्नसन्धान कहेवाय छे. (२) अन्य काव्योमा कोइ सामान्य के मध्यमकोटिना नायकोना जीवन गुंथ्या होय छे. तो आमां उत्तमोत्तम-परमपुरुष परमात्मा श्रीऋषभदेव श्रीशान्तिनाथ श्रीनेमिनाथ श्रीपाश्वनाथ श्रीमहावीर स्वामिजी अने स्वपरदर्शनमसिद्ध उत्तमपुरुष श्रीरामचन्द्रजी अने श्रीकृष्ण वासुदेवना जीवन गुंथायेला छे. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) अन्य काव्योमा शृङ्गार-बीभत्स आदि रसो एवा विचित्र अने विरूप-रूपे पोषण कराया होय छे, सज्जन सहृदयोने जे वांचतां घृणा थाय. ज्यारे आमां मर्यादित शृङ्गारादि रसोना पोषण पूर्वक शान्त रसने प्रधान राखी-शान्त रसमां तेनुं पर्यवसान करायेल छे. माटेज आकाव्य सर्व साधु पुरुषोने आदरणीय ने उपादेय छे. (४) अन्य काव्योमा अप्रस्तुत विषयोन लांबु लांबु वर्णन करी अतिशय ग्रन्थगौरव करायुं होय छे ज्यारे आ काव्यना ४४२ मूक्तोमा साते महापुरुषोना वर्णनीय विषयोने रमणीय शैलीथी वर्णव्या छे, (५) अन्य काव्योमा कोइमां शब्दालङ्कारो घणा होय तो अर्थालङ्कारोनो अभाव होय. अर्थालङ्कारो होय तो शब्दसौष्ठव ने मनो. हरता न होय, ज्यारे आमां शब्दालङ्कारो अर्थालङ्कारो विविधछन्दो ऋतुवर्णन आदि महाकाव्यने उपयोगि लगभग बधा लक्षणो योज्या छे. ते आ प्रमाणे-आरम्भना चार श्लोकमा मङ्गलाचरण पछी ११ श्लोकमां दुर्जनसज्जन-निन्दास्तुति-आ मजनदुनर्नु वर्णन पणुंज वशिष्ट विविध कल्पनाओथी भरपूर ने श्लेषालङ्कारथी सहित छे. त्यारबाद भरतखंडन ने तेमां पण आ साने महापुरुषो जे जे देशमा जे जे नगरमां उत्पन्न थया, ते ते देश नगर प्रजानी परिस्थितिनुं रमिक वर्णन के. पन्छी ते ते देश नगर पजाना स्वामी अने विवक्षित नायकोना पिताओना नाम दविवा पूर्वक मनामां रहेल विशिष्ट गुणो वगेरे दर्शाती तेमनी पट्टराणीओनुं वर्णन करी तेमनी कुतिमा चरित्र नायको अवत, ते वर्णवी ८२ मूक्तमां प्रथम सर्ग समाप्त करेल छे. ___ द्वितीय सर्गमा साते नायकोर्नु जन्म वर्णन आबेहुब करेल छे. ते समयनुं नैसर्गिकस्वरुप, देवताओए करेल जन्मोत्सव, सर्वत्र फेलायेल प्रमोद वगेरे वर्णन अतिशय मनोरम छे. आ सर्गमा एक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खूबी ए छे साते नायको कया मासमां कइ तिथिए जन्म पाम्या, ते पण एक बीजा चरित्रनी साथे विरोध क्गर बताव्युं छे, ने ए रीते जन्म वर्णन नामे बीजो सर्ग २५ मूक्तमा पूर्ण करेल छे. त्रीजा सर्गमा सुरेन्द्रोए करेल जिनेश्वरोनो जन्मोत्सव ने अन्य बे नायकोनो अन्यकृत जन्मोत्सव, सर्वेनुं नामकरण, बाल्यक्रोडा,यौवनप्राप्ति, स्वयंवरनी परिस्थिति, विवाह, कुटुम्बपरिवार, आदि विशद वर्णव्या छे. आ सर्गमा ४८ भक्तो छे. अनुप्रास अने यमक मूक्त मात्रमा छे. आनुं नाम 'कौमारवर्णन' छे. 'पूज्य राज्य वर्णन' नामे चतुर्थ सर्ग ४२ श्लोक प्रमाण छे. तेमां राज्यनीतिथी थतो प्रजाने संतोष-आनन्द, कृष्णचरित्रान्तर्गत पांडवो अने कौरवोने थयेल राज्यखटपटो-युद्धो वगेरेनुं वर्णन, तीर्थङ्करोने लोकान्तिकदेवोए तीर्थप्रवर्तावचा करेल प्रेरणा, वार्षिकदान, पञ्चमुष्टिलोच-दीक्षा आदि वर्णन छे. पांचमा मर्गमां-श्रीजिनेश्वरोना विहाग्नुं वर्णन, कर्मक्षय माटे करेल विविध तपश्चरण, उपसर्गसहन, आदि, रामपक्षमा वनवास, त्यां पडता कष्टो, सीता विरह, कृष्णपक्षमा विविध युद्ध वगेरेनु शान्त वीर करुण रसमिश्रित वर्णन ले. श्रीभगवद्विहारवर्णन नामनो आ मर्ग ५८ श्लोक प्रमाण छे. छहा सर्गमां-६३ श्लोको छे. तेमां जिनेश्वरी-समिनिगुप्तिनुं आसेवन करतां अपतिबद्धपणे विचरतां काम वगेरे अभ्यन्तर शत्रुगणनो विनाश करी केवळज्ञान प्राप्त करे छे, ते तथा अन्य पक्षमा बाह्य शत्रुओना विजय बगेरेनुं वर्णन छे. तेन नाम 'भगवकेवलज्ञानसाम्राज्यवर्णन' एवं छे. सातमा अने आठमा-सर्गन नाम अनुक्रमे 'भगवत्केवलज्ञानसाम्राज्यविहारवर्णन' अने दिग्विजयवर्णन छे. तेमा ४२ ने २८ मुक्तो छ. नाम प्रमाणेज भगवन्तोए केवळप्राप्ति पछी क्या Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यां विहार कर्यो ते, गणधरोनी स्थापना, अनेक जीवोने करेल धर्मप्रतिबोध आदि वर्णव्या छे. ने इतर वे नायकोए करेल अनेक राजाओनो विजय वगेरे वर्णव्या छे. आ वे सर्गमां बीजी विशेपता ए छे के महाकाव्यना लक्षणने अनुसार एक सर्गमां विविध छन्दोनां मूक्तो छ. ने यमक नामे शब्दालङ्कारना प्रायः जेटला भेदो थाय ले ते सर्वना उदाहरणो छे. यमकनो महायमक नामे जे छेल्लो भेद छे तेनुं उदाहरण पण आमां छे. छए ऋतुनु वर्णन घणुज रसिक आ सोमा ले. छेवट नवमां सर्गमां जिनेश्वरांना मोक्ष कल्याणकादिनुं विशदवर्णन, परम्परावर्णन वगेरे छे. तेनुं नाम 'परम्पराधिकारवर्णन' एवं छे. (६) अन्य काव्यना रचयिता कोइ सामान्य कवि होय तो आ काव्यना कर्ता समर्थ महाकवि छे. आ काव्यना प्रथम उत्पादक कलिकाल सर्वज्ञ भगवान श्रीहेमचन्द्रभूरिजी महाराज छे, के जेमनी सर्वशास्त्रविषयक विद्वत्ता मादे, आजे कोइपण बेमत नथी. तेओश्रीए काव्यसृष्टिमा चमत्कार उपजावे एवं सर्वाङ्गसुन्दर सप्तसन्धान महाकाव्य योज्युं हतुं. परन्तु कराल काल तेनी सुन्दरता सांखी न शक्यो, ने तेने निःसहाय स्थितिमा जोइ छिन्नभिन्न करी पीखी नाख्यु. त्यारबाद सत्तरमो अने अढारमी सदीना सङ्गमकाळमां झळकता, साहित्यना अद्वितीय विद्वान् , उपाध्यायजी महाराज श्री मेघविजयजीगणिए ते काव्यने पुनर्जन्म-आप्यो. उपाध्यायजीनी ग्रन्थविरचन शक्ति अद्भुत हती; तेमनां ग्रन्थो अवलोकतां तेमनुं व्याकरण साहित्य ने ज्योतिष विषयक पाण्डित्य अगाध हतुं ए निश्चित थाय छे. सौ करतां तेमनामां एक विशेषता ए हती के, तेओ पादपूर्ति करवानी कळामां अतिशय कुशल हता; ते कळामां तेमनाथी आगळ बधेल कोइपण हजु सुधी जोवामां जाणवामा के सांभलवामां आवेल नथी. तेमणे मावकाव्यनी पादपूर्ति करी पूज्या Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्य श्रीविजयदेवमूरिजी महाराजना चरित्ररुपे 'देवानन्दाभ्युदय' काव्य, श्रीहपना नैषधीय महाकाव्यनी पादपूर्ति करी 'श्रीशान्तिनाथचरित्र,' कविकालिदासना 'मेघदूत' नी पादपूर्ति करी 'मेघदूत समस्या लेख' नामे सांवत्सरिक क्षमापना-पत्र वगेरे पादपूर्तिना परम कोटिना ग्रन्थो बनाव्या छे जे हाल पण सुलभ छे. आ शिवायना चन्द्रप्रभाव्याकरण, वर्षपबोध, मातृकाप्रसाद, विजयदेवमाहात्म्यविवरण, युक्तिप्रबोधनाटकादि पण तेमना बनावेल विशिष्ट ग्रन्थो छे. आ सप्तसन्धान पण तेमनी कलमथी आलेखायुं छे. ए प्रमाणे मुख्यत्वे आ छ विशेषताओ अने बीजी नानी नानी अनेक विशेषताओथी भरपूर आ सप्तसन्धान महाकाव्य काव्यसृष्टिमां सर्वश्रेष्ठ स्थानने अनुभवे छे. सांभळया प्रमाणे ग्रन्थकारे पोतेज आ काव्यनी टोका बनावी हती, परन्तु हाल ते उपलब्ध नहि होवाने कारणे, विद्वानो आ काव्यना वाचन, पठन-पाठनमा अपवृत्त हता. परन्तु शासनसम्राट सर्वतन्त्रस्वतन्त्रमूरिचक्र चक्रवर्ति-पूज्यपाद-परमकृपालु-भट्टारकाचार्य महाराज श्रीमद्विजयनेमिनरीश्वरजी महाराजश्रीना पट्टालङ्कारअमारा प्रगुरुवर्य-कविरत्न शास्त्रविशारद पीयूषपाणि पूज्याचार्य महाराज श्रीविजयामृतमूरीश्वरजी महाराजश्रीए वर्षोना परिश्रमे आ काव्यनी 'सरणी' नामनी टीका बनावी, काव्यनो पवेशमार्ग खुल्लो करी आप्यो छे. पण्डितोना पाण्डित्यनी आ काव्यमा परीक्षा छे. विद्वानोनी प्रतिमा अहिं कसोटीए चडे छे. साहित्यवेदिओन वैदुष्य आ काव्यथी चकासाय छे. जेणे एक वखत पण आ काव्य हृदयथी वांची-विचारी आत्मसात् कर्यु छे, ते साहित्यसृष्टिमां अस्खलितपणे-अबाधितपणे सर्वत्र विचरी शके छे. आ ग्रन्थनुं अभ्यन्तर-स्वरुप विद्वानोना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान-धनने पुष्ट करे छे. अने बाह्य-स्वरुप पुस्तक-कोषने शोभावे छे. जेनी पासे आ पुस्तक के तेना विचारो नथी, ते विद्वत्तामा अपूर्ण छे. माटे दरेक सहृदय आवा विशिष्ट काव्यद्वारा विशेषता मेळावा भाटे तेना अध्ययन-अध्यापनमां उधत थाय ने कल्याण साधे एज अभिलाषा. देवबाग-लक्ष्मीजैनाश्रम जामनगर. - मुनि धुरन्धरविजय. स २००० अषाढ शुक्ल पञ्चमी । -: प्रकाशकीय निवेदन :संस्कृत साहित्यना परम-आभूषणरूप आ सप्तसन्धान महाकाव्यने टीका सहित प्रकट करवानो लाभ अमने मळ्यो छे तेथी अमो अमोने अहोभाग्य समजीए छीए. प्रथम आ ग्रन्थ मूलमात्र श्रीयशोविजयजी ग्रन्थमाळाए प्रकट को हतो, ने ते प्रकट करतां तेनी प्रस्तावनामा मृचव्युं हतुं के, टीका विना आवा अत्यन्त कठीन ग्रन्थनो अवबोध थवो सुलभ नथी, माटे टीकासहित भा ग्रन्थने छपावी प्रसिद्ध करवानी अमारी सम्पूर्ण इच्छा छतां, ज्यारे कोइपण टीका अमने उपलब्ध न थइ एटले मूलमात्र पण आ ग्रन्य विनाश न पामे, माटे छे एमने एम प्रसिद्ध करीए छीए. कोइ विद्वाम् आ ग्रन्थनी टीका करशे तो घणो उपकार थशे ! पूज्यपाद-आचार्य महाराज श्रीविजयामृतसूरीश्वरजी महारा. जश्रीए वर्षों पूर्वे आ अद्वितीय ग्रन्थनी टीका रचत्रानो आरम्भ करेल, त्यारवाद सं. १९९३ मां कपडचणज मुकामे महाराजश्री चातुर्मास रह्या त्यारे शेठ जेसींगभाइ, न्यालचंदभाइ वगेरेए महाराजश्रीने साग्रह विनति करी के 'आप आ ग्रन्थनी टीका पूर्ण Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करो तो अमो तेने छपावी प्रसिद्ध करीए' महाराजश्रीए टीका पूर्ण करी अने कपडवणननी शेठ मीठाभाइ कल्याणचंदनी पेढीए जामनगर-भास्करोदय प्रेसमां तेनुं मुद्रण करावधानो आरम्भ कर्यो. सं. १९९५ मां महाराजश्री मुरत पधार्या ने चतुर्मास दरम्यान शासनप्रभावनाना अनेक धार्मिक कार्यो थया, तेमां आ'श्री जैन साहित्य वर्धक सभा' नी स्थापना पण थइ. अमोए आ ग्रन्थ आ सभा तरफथी प्रकट करवानी महाराजश्रीने विनति कर) ने शेठ मीठाभाइ कल्याणचंदनी पेढी पासेयो ग्रन्थ मांगी लीधो. पेढीए पण रु. २०० नी मदद आपवा साथे आ ग्रन्थ प्रसिद्ध करवा अमोने आप्यो ते माटे अमो तेमनो आभार मानीए छीए. विद्वानोने आग्रह सह विनवीए छीए के कविरत्न-शास्त्रविशारद विद्वद्वर्य-आचार्य महाराज श्रीविजयामृतम्यूरिजी महा. राजश्रीए घणाज परिश्रमे तैयार करेल आ 'सरणी' टीका युक्त संस्कृत साहित्यना परमकोदिना अद्वितीय ग्रन्धरत्ननु वाचनविलोकन करी पोतानी विद्वत्ताने समृद्ध बनावे; वधु न बने तो आ ग्रन्थरत्नने सावरणीथी पोतानी पासे राखी पोते शोभे ने पोताना भंडारने शोभावे, ___ आवा विशिष्ट ग्रन्थो साची राखवा ने तेनो प्रचार करवो ए पण जीवनतुं एक अमूल्य कर्तव्य है. सहृदयो हृदयथी आ महाकाव्यने सत्कारे ! एज इच्छा साथे विरमोए छोए अमे केशरीचंद हीराचंद अवेरी नेमचंद मोतिचंद अवेरी ओ. सेक्रेटरी श्री जैन साहित्य वर्धक सभा--सुरत. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2U श्रीसप्तसन्धानमहाकाव्यस्य प्रधानविषयानुक्रमणिकाः। विषयः श्लोकाङ्कः पृष्ठाङ्कः टीकाकर्तुमङ्गलम् ग्रन्थकृतोमङ्गलम् मङ्गलश्लोकस्यार्थ:श्रीभादिनाथप्रभुपक्षे, श्रीशान्तिनाथ, श्रीपाश्वनाथ, श्रीवीरस्वामिप्रभुपक्षे, श्रीनेमिनाथपक्षे, जिनसामान्यपक्षे च अभिधेयकथनम् वर्णनीयनेतृस्मरणम् द्वितीयश्लोकस्य सप्तधाऽर्थः वीतरागस्तुते: साफल्यकथनम् भारतीस्मरणम् सजनदुर्जनवर्णनम् ५ न० १५ प. तन सजनदुर्जनसाम्यप्रदर्शनम् दुर्जनतो भीतिप्रदर्शनम् उष्टेण सह साम्यं दुर्जनस्य दुर्जनः सभातो बहिष्कार्य: दुर्जनस्यादरो न कर्तव्यः पशुना साम्यप्रदर्शन खलस्य दुर्जनस्य डलया बन्धनकथनम् खलविनाशनेन लाभप्रदर्शनम् सज्जनस्य इससादृश्यकथनम् १३-१४ सजनप्रशंसा श्रीभरतक्षेत्रवर्णनम् तन्त्र श्रीगङ्गावर्णनम् सिन्धुवर्णन भायदेशस्य मुखेन साम्यप्रदर्शनम् तत्र च । १० सिन्धुगङ्गयोः श्वश्रुत्वोपमानम् अनुपमेयत्वं भरतस्य ૧૫ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५-२६ . 2 २९ 30-31 ३२-४३ ४४-५१ ५२-५६ ५९-६४ ६५-७५ m ७८ भरतस्य नृपेण सह साम्यप्रदर्शनम् २१-२२ भरतस्य ब्रह्मपदत्वकथनम् भरतं रमाया निवासस्थानम् भरतस्य विश्वसाम्राज्यस्वकथनम् भरतस्य दक्षिणस्थितमेरुवर्णनम् वर्णनीयनायकानां जन्मदेश-कुरुमागध-मध्यम-कौशलवर्णनम् २८-३८ अवतारस्थानवर्णनम् ४८-४१ तत्तनगरजनानां शौर्यादिगुणवर्णनम् ४२-५३ तत्तनगरनृपाणां नामगुणवर्णनम् ५४-६० वर्णनीयनायकमातृवर्णनम् ६१-७१ १४ स्वप्नदर्शनम् , स्वप्ननामानि च ७२-७३ १५ तत्तन्नायकमातृदृष्टस्वप्नसंख्याकथनम् ७४-७५ १६ तत्तन्नायकमातृणां गर्भान्तरावस्थावर्णनम् १७ स्वप्नफलकथनम् १८ तीर्थकराणामवतारसमयवर्णनम् १८ हरिनैगमेषिकर्तृकमहावीरगर्भपरावर्तनम् ७९ २० तीर्थङ्कराणां सम्यक्स्वप्राप्त्यनन्तरसंजातभवसंख्याप्रदर्शनम् ८०-८१ प्रथमसर्गस्योपसंहारः अथ द्वितीयः सर्गः। २१ गर्भानन्तरं राज्ञीनां भोजनादिकस्य वर्णनम् १ २२ इन्द्राणीकृतराज्ञीसेवावस्त्रार्पणादिकस्य स्वरूपम् २ २३ भूपानां राश्या सह दोहदपृच्छा देवाङ्गनाकृतराज्ञीसेवावर्णनम् ऋतूनां परस्परं विरोधोत्सारणपूर्वक राज्ञीसेवनवर्णनम् २६ देवीकृतराज्ञीस्नानादिवर्णनम् २७ राम्याः प्रमोदाय देवानां नर्तनम् गर्भानन्तरं सुखपूर्वकं नवमाससमययापनवर्णनम्९-१० तीर्थकरजन्मसमये दिशां शान्ति: नभसि दुन्दुभिनादस्य प्रादुर्भावश्च २४ ૯૨ ११ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ س ८८-१०० ૧૦૧ ق م २०-२३ १०४ १०६ . N ३० जिनप्रभूणां जन्मसमये नवग्रहाणामुच्चस्थाने समागमनं लोकस्य सुखित्वप्राप्तिवर्णनञ्च ११ जनानामारोग्यत्वप्राप्तेश्चनानां प्रफुल्लत्वप्राप्तेर्ववर्णनं १३ ३२ तदानीन्तनाधिकारिजनानां सौम्यस्वप्राप्तिः, नरकस्थजनानां दुःखनिवृत्तिश्च 33 सुगृह स्थितिप्रदर्शनपूर्व जिनजन्मवर्णनम् । १५ ३४ जिनजन्ममासतिथिकथनम् १६-१८ ३५ नायकानां शोभावर्णनम् ३६ जिनदेवस्य दिकन्याकृतस्नपनादिमहो सवविधानम् ३७ इन्द्रासनकम्पवर्णनम् २४ ३८ अच्युतेन्द्रादेरागमनवर्णनम् अभिषेकवर्णनञ्च २५ अथ तृतीयः सर्गः । ३८ देवेन्द्रादेर्मेसम्प्रतिगमनवर्णनम् ४० मेरुपर्वतस्थनन्दनवनादिवर्णनम् “४१ देवपर्वतानां श्लेषतो वर्णनम् ४२ तीर्थङ्कराणां तेजोवर्णनम् मेरुपर्वतादेवर्णनम् ४४ तीर्थङ्करादेः सुरेन्द्रादिकृताभिषेकवर्णनम् १-११ ४५ जिनादीनां नामकरणविधिकथनम् १२-१३ बाल्यसमयक्रीड़ादेवर्णनम् १४-१७ यौवनावस्थावर्णनम् १८-२० ४८ तत्तमायकानां भातृवर्णनम् जिनादेः पत्नीनामवर्णनम् ५० जिनादीनां लान्छनप्रदर्शनम् ५१ भध्ययनं विनैव जिनादीनां कलाकुशलताप्राति:२४ પર जिनादेरभीष्टदेशे सर्वोपद्वशान्तिः जिनादेरिष्टसाधनायप्रस्थानम् २६-२७ जिनादेर्भार्याया यौवनादिस्थितिः २८ ५५ स्वयंरोत्सववर्णनम् ५६ विवाहोत्सववर्णनम् १०-32 ५७ जिनेन्द्रादिदेवकृतभूमण्डलमण्डनवर्णनम् 33 MK १०८ ११८ १११ ११३ ११४ ૧૦૯-૧૨૦ ૧૨૨ १२५-१२७ १२८-१30 ૧૩ ૦ ૧૩૨ ૧૪ २१ U २३ ५४ १३७-१३८ ૧૩૯ ૧૪૧ १४२-१४५ a १४६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनादीनी सांसारिक मोहकवस्तुतोवैराग्य प्रदर्शनम् ३४ जिनेन्द्रराज्ये जनानां निराबाधस्वकथनम् ३५ 鼻つ जिनेन्द्राणां लोकोत्तरेश्रर्य प्राप्तिवर्णनम् ३६ ६१ ६७ ६२ ३८ अदा देर्मलिनविषये ऽन्तलीनत्वाभावः अर्हदादिपराक्रमे जानीतेर्विलीनत्वम् जिनेन्द्रराज्ये जनानां सर्वोन्नतिवर्णनम् ३९-४२ ६४. जिनेन्द्रकृत विविधदानप्रदर्शनम् जिनादेयौवनावस्थावर्णनम् ६३ ४३-४६ ६५ ઢ ६६ अथ चतुर्थः सर्गः प्रभोरभिषेकादिकृत्याय देवेन्द्रादेरागमनम् ६७. सर्वेषां प्रभोरुपरि प्रीतिवर्णनम् ६८ राजरूपजिनादेः स्वरूपवर्णनम् ३९ जिनेन्द्रादेः संजातसंतानवर्णनम् प्रभुप्रमुखस्य साम्राज्यकाले तत्रत्यजनतानां प्रचुरसुखप्राप्तिः श्रीकृष्णचरित्रप्रसङ्गतः पाण्डवानां वर्णनम् लेषतः O ૧૧ ૧ २ 3 तत्र कुरुक्षेत्र - गजपुरनगरशान्तनुनृपभीष्मप्रमुखाणां वर्णनम् चित्रवीर्यनृपस्य वर्णनम् ७ ४८ ૧ ક્ 3 ४-६ ८-१४ १५-३० ૧ ૧૬ पाण्डु - विश्वसेन - विदुर- धृतराष्ट्रादीनां वर्णनम् १७ पाण्डुराजपत्नीवर्णनम् ૧૮ 195 २० २१ ४ ५ पाण्डु प्रमुख पुत्रवर्णनम् १ द्रौपद्याः पञ्चपतित्व प्राप्तिवर्णनम् द्रौपदी कृतपाण्डवसेवावर्णनम् श्रीकृष्णावतारवर्णनम् " ८ दुर्योधनस्य दुर्भाग्यकथनम् १० दुर्योधनादिकृत द्रौपदी वस्त्रापकर्षणम् ११ सामदामदण्डभेदैरनुकूलत्वमुपगतानां दुर्योधनादीनां स्वतः क्षयप्राप्तिः १२ युधिष्ठिरादिकम्प्रतिबन्दिजनकर्तृकं तत्प्रभाववर्णनं२६ ૨૨ २३ २४ २५ ૧૪ ૧૪૮ ૧૪૯ १५० १५१ १५१-१५४ '१५४-१५८ ૧૫૮ ૧૬૦ ૧૬૧ ૧૬૧ १६२-१६४ १६५ - १७० १७१-१७२ ૧૧ ર ૧૦૩ १७४ १७५ ૧૭૭ ૧૦૮ १७९ ૧૮૧ ૧૮૨ १८५ १८६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. . २०२ विषयः ...साकांक:* पृष्टांक ॥ सभासमक्षं द्रौपदीकेशाकर्षण मात्सर्याधाम त्ववर्णनम् २० । तारशास्त्राचारं पश्यतां युधिधिगदीनां शान्तस्वदर्शनं २८ . जिनाविभासितसमयस्त्र सत्ययुगधेनोस्प्रेक्षणम् २९ युधिष्ठिरादेईन सेवन द्रौपद्याः कीदाग कष्टप्रासिवर्णनम् ३० १९२ १७ श्रीरामस्य मृगभ्रमेण चनभ्रमणम् १८ अनुचरोदयेच्छोः कालस्य प्रभुसेवापरायणता १२ १९३ ६९ सर्वत्र धर्मवृद्धिं कुर्वतां प्रभूगा समृद्धिभोगवर्णनम् ३३ १९६ ऋषभस्य भरते राज्यपदवीस्थापनम् श्रीरामपझे च दशरथस्य चधूवचनतो भरते राज्यपदस्थापनम् ३५ ७. भाश्वसेनस्य शान्तिप्रदानवचसा जनरक्षणम् २.१ ७१ : दीक्षाग्रहणायोद्यानगमनम् वार्षिकदानेन वनपविकरणम् लोकान्तिकदेववचनैः स्मारितप्रभोः परमष्टि लुवनकरणम् १८ ७५ ... जिनेन्द्राणां दीक्षाग्रहणसमय निरूपणम् ३९-४१ २०९-२०९ ४६ एसत्वगोपसंहारः अथ पश्चम सर्ग: 1 दीक्षानन्तरं जिनादीनां विहारः भन्ये पक्ष म युवादिकार्याय गमनम् १ ૨૧૧ जिनादीनां विनारस्थैर्यपूर्वकं विहारवर्णनम् २ ૧૨ बिहारे हिमग्रीमज नितशीनोगादिकसहनम् । जिनादिकर्तृकायाः समितिगुझिसेवन नोभावशणां विजयमाप्तवर्णनम् ४ २१५ विहारे जिनप्रभृतिक तृकह स्त्यश्वादिवाहनानङ्गीकरणम् ५ ૨૧ प्रभुतककोड़ापरित्यागवनम् प्रभोदीक्षाग्रहणसमयेऽनुचरस्वेन स्थितानां जनानां जन्मसाफल्यकथनम् . जिनेन्द्राणां परिचारकजनपरित्यागपूर्वकमग्रेविहरणम् ८ सुखदुःखयोः समतापूर्वकं प्रभूणां निर्जनदेश वालस्वीकरणम् १० ११० २१८ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय: rain: ८६ श्रीमदिनाथप निश्वसमिक्षालाभाद् वर्षं यावदुपोषितम् अन्यपक्षे च यथोचित सुपोषितम् ३० ऽपि विषये विषयासिकापं न दधुः ११ तपोनिरता विशिष्ठपुरुषः प्रथमपारणाऽभूत् श्रीभादिनाथस्य अन्येषाञ्च यथायोग्य मम्बजनेः प्रभुपारणा कारकैः स्वयशःपटकी: सर्वदिक्षु - विस्तारिता: नमिनिमिकृत सेवनं श्रीनादीश्वरस्य अन्येष मयभविन वमशीष्टकृत सेवनम् मगधदेशस्थित जरासंधेन सह श्रीकृष्णस्य युद्धाय प्रस्थानवर्णनम् अन्येषां तत्र विहारवर्णनम् १५ जरासन्धख श्रीकृष्णस्मृत्युचिन्तनम् जिनेन्द्राय कामोदचिन्तनम् ૧૬ श्रीकृष्णसैन्यस्य जरासंधेन सह संग्रामाथ प्रस्थानम् जिनेन्द्रः : सह जिनेन्द्रपरिवाराणां पर्वतादिम्प्रति प्रस्थानम् म्लेच्छसेनापेतः स्वारासमापनार्थ रामम्प्रति प्रस्थानम् १७ जिनेन्द्राणामशुभ क्षयकारक योगसमाधौ मनःप्रतिसंधानम् रामस्य वनवासनियमपरिपाळनम् श्रीकृष्णस्य शत्रुपराजिगीषा पूर्वकं स्वसैन्यसंरक्षणम् १८ जिनेन्द्रानुगामिनां मनोनुकूल स्थितिवर्णनम् रामानुरागिणां दण्डकवने वासः श्रीकृष्णानु रागिणां देवगिरिवने विवरणम् जिनेन्द्रस्येन्द्र कर्तृकपरिवोग्समम्, कासविनाशश्व रामेण शम्बूक शत्रुविनिपातनम् । श्रीकृष्णस्थ प्रवियोगवर्णनम् ८७ ८९ ९० १२ ९३ t ९४ ९५ ९६ ९७ ૧. ९९ કર 12 १४ ૧૨ २० जिनेन्द्राणां गुणखानित्वेन पर्यालोधनम् रात्रशत्य मतङ्गजत्वेन राक्षसकतृकं मननम् जनानां मोक्षलिप्सया तीर्थङ्करानुसरणम् रात्र कापट्यानुसरणम् जरापस्य संग्रानायोगानुसरणम् १२ तीर्थङ्करैः सह जनानां दीक्षाग्रहणपूर्वकं विहरणम् जरासन्धपक्षीयजनानां संग्रालय प्रस्थानम् रामेण सह संग्रामाय रावणपक्षीयाणं प्रस्थानम् २१ રમ पृष्ठांक: २२४ ૨૨૫ २२६ १२७ २२८ १३९ R २३३ * २३६ २३७ २३९ २४१ 593 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ २४६ २ ... . २८ विषयः श्लोकांकः पृष्ठयकः १०० वीचश्शन प्रति कामस्य स्वनाशभिमा प्रेषितस्त्र सैन्यनिवारणम् कर्णस्य संग्रामात्पूर्व सैन्यरक्षणाय शिविरस्वनम् रामस्य शत्रुरोधनाय संधानम् २४ सीर्षकराणां सूर्यचन्दवत् शरीरकान्तिपर्णनम् प्रस्नकर्तृकोषाहरणवर्णनम् श्रीकृष्णपझे सुमीबाय रामकर्तृकतारासमर्पणम् तीर्थकराणामज्ञाननिवृतिपूर्वक स्मात्मानुभवलीनरवम् चिरकालं श्रीकृष्णस्य मथुगनासवर्णनम् २६ जिनेश्वरभक्तानां सर्वधा स्वादावधीनुसरणम् श्रीकृष्णे चन्द्रवंशीयानां नितान्तानुरागवर्णनम् श्रीरामचन्द्र हनूमदादीनां दृडानुरागकथनम् २७ तीर्थराणां भयतः कामादीनां पलायनवर्णनम् दुर्योधनादीनां जरासन्धम्प्रति साहारमार्थ गमनं रावणगूढचाराणां रामवृत्तान्तं विज्ञाय धुना रावणम्प्रति पराञ्चनम् २८२५ १०५ सायं प्रभुझोद्यानमागत इति वाटिकापालेन निवेदितः प्रातर्यावता सपरिवारो बाहुबली गच्छति तावता प्रभुर्विजहारेति राजः प्रमादपरत्वकथनम् २९ २५२ तीर्थराणां स्वारमानन्दानुभवे स्वमनसः स्थिरीकरणम् रावणकर्तृकसीताहरणवर्णनं प्रद्युम्नस्योषा हरणानन्तरं श्रीकृष्णसेवावर्णनम् ૧૦ तीर्थराणां मोहममता त्यागपूर्वकं समभावेन वर्तन जटायुनामकगृद्धविनायवर्णनम् प्रद्युम्नस्य पश्चात्तापवर्णनम १०८ श्रीमादीश्वराणां चिकुरचयस्य जलदपटलीत्वेनो स्प्रेक्षणम् अन्य पक्षे पर्वतनिर्झराणां वर्णन तीर्थराणां सुभद्रा तनयेन सह विहारवर्णनं श्रीकृष्णस्याभिमन्युना मह चिहरणवर्णन श्रीरामस्य लक्ष्मणेन सह बिहारवर्णनं जिनेन्द्रोपरि देवानां पुष्पवृष्टिकरणम् रामस्य नियमतो वनवासनतपरिपालनपूर्वकम् वनशोभावईनम् ३४ २६. २५१ २५. १०९ २५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टांक: १५ ३९ २६८. विषयः. लोकांकः - जिनेन्द्रदमस्यामोषफलप्रदस्वकथन इनूमतः पीताम्रेषणवर्णनं श्रीकृष्णस्थितिवर्णन .२ जिनेन्द्रधिहारभूमीना प्रसंशनं नास्थितसीता. ऽऽनयनस्य दुःसाध्यत्वकथनं द्रौपदीव्याख्यानस्य सारस्वकथनम् जिनेन्द्रैः सह संग्रामनिवर्तनाव कामादीनां प्रार्थन रामम्प्रति रावणपक्षीयाणां विभीषणद्वारा संग्रामनिवर्तनाय प्रार्थनम् जरासन्धपक्षीयाणां कृष्णेन सह सुपरावर्तनाय जरासन्धम्प्रति प्रार्थनम जिनेन्द्राणां तपोमाहात्म्यात् वासवस्य भयप्राप्तिवर्णनम् इनूमता रावणपक्षीयाणां भवप्रापणम् भीमेन दुर्योधनादीनां भयमासिवर्णनं सुजनदुर्जनानां प्रसंशानिन्दावर्णन धिनेन्द्रप्रभावेण दुर्थलनामपि सबसस्वप्रतिपादनम् रामेण रावणस्य दुर्बलस्वप्रापणं श्रीकृष्णेन जरासंध. निपातनपूर्वक यादवानां सुस्विस्वप्रापणम् जिनेन्द्राणां गाम्भीर्य गुणः समुद्रौपम्यवर्णनम रावणस्य सागरौपम्यवर्णनम श्रीकृष्णख द्वारकानगरवर्णनम् ४१ जिनेन्द्राणी विहारतः पवित्रितभूमीनां माहात्म्य. वर्णन रामचन्द्रपविनितभूमीनां तीर्थस्वेन वर्णनं १२ 11. जिनेन्द्राणां कापिकवाधिकाहिसावतसंकल्पपरिपालनं ४३ १० जिनेन्द्रामा मोहराजपराजयवर्णनं विभीषणस्य रामप्रतिप्रस्थानं समुद्र विजयस्य सैन्यसमारोह करणं ४४ कामादिविजगीषया जिनेन्द्राणां विहरणं यु-गर्थे रामस्य प्रस्थानवर्णनं जरासम्धस्य कृष्णेन सह संग्रामार्थ प्रस्थानम् । निनेन्द्र सिहरणजन्यपादोस्थितरजोमिर्दिगन्यापनवर्णन ४६ १२३ जिनेन्द्र शरीराणां नितान्तकान्तिपुङ्गवर्णन ११४ जिनेन्द्राणां सर्वधा रहस्वदेशे मनोऽनुनिवसतिः संग्रामार्थं प्रस्थितजरासंधगमनवर्णन १२५ जिनेन्द्राणां नीतिधर्मबोधकमुपदेशवाचनम २ मतकर्तृकतीर्थङ्करादिवर्गनं ३६९. 10 MM ३७". १२३क ११२ २७८ २८३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ २८२ २५. २९८ विषयः श्लोकांकः पृष्ठांकः १२७ तीर्थङ्क प्राणिहिंसावर्जनाय जनाम्प्रति नवोपदेशकथनम् १२८ श्रीकृष्णस्य स्वाभिमानरक्षाबोधकोलेजनम् जिनेन्द्राणां सर्वसाधारणतया सदुपदेशः ५२ २८६ १२९ जिनेन्द्रप्रभूणां निर्याजविहरणम् । ૨૮૮ १० तीर्थकरप्रभूणां स्थिरत्वे मैनाकपर्वतस्य रम्तीकरणम् ५४ । तीर्थङ्कराणा कामानि विजयोत्कर्षधारणपूर्वकं विहरणम् ५५ १२ जिनेन्द्रप्रभूणां बहुजनकर्तृकवैराग्यप्रसंधानम् शिशुपालस्य जरामधेन सह प्रस्थानम् 1नीर्थकरविषयकानुरागात् जनानां प्रभुनिकटगमनम् १६. जिनेन्द्रानुगगात् गन्धर्वादिदेवानां गानम् अथ षष्ठः सर्गः । १५५ कामविनाशाय जिनेन्द्रप्रभूणां तपस्वनिरूपणम् , २५८ १६ नीर्थङ्कराणां सर्वानर्थ हेतुभूतमीपरित्यागविषयकोपदेशः २ १७ प्रभूणां विनश्वरलक्ष्मीसमुपार्जने जनाम्प्रति भनामकिकथनम् १६८ तीर्थङ्कगणां कामादिशामनिन्दितयोषित्वा पक्तजनाविवेकस्वनिरूपणम् | १९ जिनेन्द्राणां मौनव्रतधारणात् म्लेच्छादिस्यानेषु यवमानां दर्शनं दत्वा पवित्रकरणम् जिनेन्द्रस्य महामोहपराजयाय तत्परत्ववर्णनम् १४, तीर्थकाणां तपोबलोपार्जनाय सावधानपूर्वतत्परत्वम् 1१२ जिनेन्द्रकृतकैवल्यपरिपन्थिकामादिनिवारणम् १४२ तीर्थरः कामादिशनिवारणपूर्वकं भगतकस्य सोभाग्यविधापनम ४. प्रभोर्विश्रामार्थ छायाप्रदानाय पर्वतीयवृक्षाणां नम्रीभवनम् १० १५५ कामजेतृजिनेन्द्रस्योपरि कामस्य कुण्ठितशतिनिरूपणम् ।। ४५ जिनेन्द्राधिष्ठितपदवीमभीसुजनानां कृते शुदभावनाविधानम् १९१ २०५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः श्लोकांकः पृष्ठांकः १४७ सर्वश्रेष्ठप्रभुरट्वाधर्मात्मजस्य सर्वोचतालाभायोयोगकरणम् ३ १५८ भज्ञानोच्छेदाय पवित्राचारपूर्व सस्पथासम्बनं तीर्थराणाम्।५। ३०० ७९ सोलीनमिथ्यानिरतपुरुषसत्यागपूर्वक स्वसंकल्पे स्थिरस्वं प्रभूणाम् ३०० १५० तीर्थराणां भयादित्यागपूर्व कापळ्यादिक्षयपूर्वक मोक्षमार्गानुसरणम् १५१ जिनेन्द्राणां सपृथक्त्ववितर्कनामक यान विशेषे परायणस्वम् १५२ तीर्थङ्कराणां स्वात्मगवेषणपूर्वकं साधुधर्माचरणम् १५३ जिनानां सपृथस्वस वितर्कभ्यानविशेषाराधन तोऽमोघफलप्राप्तिः१५५ बादरसंपराय-सूक्ष्मसंपरायनामकनवमदशम गुणस्थानस्य माहात्म्यम् १५५ तीर्थराणां हेयोपादेय विचारपूर्वक मोक्षसाधनोपदेशः २" १२ १५६ विषयवासनाशून्यप्रभूणां निर्मलान्तःकरणप्रकाशनिरूपणम् २२ १५७ जिनेन्द्राणां सम्यक्त्वज्ञानेन चारित्र्याक्षणपूर्वक मद्वैतभावाप्तिः १५० तीर्थराणां मनोरथपथेऽपि मोहादेरनागमन निरूपणम् २४ १५९ भादीश्वरस्य समाधियोगप्रभावैः सुमेकपर्वतस्ये व निक्षलस्वम् २५ १६० प्रभू गां केवलज्ञानमासिजन्यानन्देन देवानां दुन्दुभिवादनम् १६१ तीर्थकराणां स्याद्वादानुमारेण सर्वजनरोचकोपदेशनिरूपणम् 11. १६२ यक्षादिदेवानां सर्वदेवस्थितियोग्यसभायाः करणम् २८ ૧૧૮ १६६ प्रभोः पूजाविधानाय देवानां प्रार्थनानिरूपणम् ३१९ १६. जिनेन्द्रसमवसरणभूमी मेधकुमारस्म सुगन्धमयजलवर्षणम् ११५ तीर्थकरप्रभूणां विरक्षया नारदादिमुनेः समागमनम् ३५ ३२० १६६ केवलज्ञानमालितीधंकरैः पृथिव्यां सस्कीतिविस्तारणम् ३२ ३३ 11६ १९ . Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ विषयः श्लोकोंकः पृष्ठांक: १६. तीथंकराणां निष्कपटं विद्याधरादिदेवैः सेवनम् ३३ . ३२२ १६८ प्रभूणां समवसरणस्थाने बादितदुन्दुभिवाच. विशेषे कामादेः भयप्राप्तिः १६९ भज्ञजनोपदेशकामनया प्रभूषा पादै विहरणनिरूपणम् ३५ ३२४ १७० प्रभूणां केवल ज्ञानमाहासगविक्षमा वैमानिक. देवानां ममागमः १५१ प्रभूगां केवलज्ञानप्राप्तिनिरूपणम् १७२ प्रभोः केवलज्ञानमहोस्सये सुरनरनृपतीनां स्वस्वस्थाने निवनम् १७३ केवलज्ञानोत्सवकाले गजाश्वरोहिणी माऽस्खलननिरूपणम् १७. ऋषभादेः सदुपदेशकरणम् १७५ ऋषभादेशवचनश्रवणतो बहनां हि मात्तिची प्रसङ्गपरित्यागनिरूपणम् १.९ केवलज्ञानोत्सवकाले प्रभोर्देशनाश्रवणा मर्चेषां समागमनम् १७. ईश्वरत्वभाबनया प्रभूसेवक जनानां तदुनुज्ञापालनतो कल्याणप्राप्तिः ३३० १७८ तीर्थंकर देशनातो जनानां हिमावाणधारणात् निवृत्तिनिरूपणम् १५९ प्रभुसेवाचरणतो मुनीनां स्वस्वपापप्रक्षालननिरूपणम् ४५ १८० जिनेन्द्रोपदेशप्रभावे सर्वेषां परस्परं द्वेषस्यागपूर्वकं कुशममाप्तिः १८१ तीर्थकराणां दृष्टिपातेन सर्वेषां नम्रीभवनम् १८२ प्रभुदर्शनाय यक्षगन्धर्वदेवमानवानामौत्सुक्यवर्णनम् ४८ १८३ तीर्थकरान् विमा संसारे कर्मग्रन्थीनां प्रसार निरूपणम् १९ ३३५ १८४ जिननाममानोधारणेन कामस्य विलयप्राप्ति: ५० १८५ मुनिसमुदायस्य प्रभुविषयकभफिजन्यशोभानिरूपणम् ५१ 3३६ १५ सर्वजनानन्ददायक जिनस्वापतीर्थंकराणां विहारनिरूपणम्५२ ३२० N00000 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३४० . R ८ & ३४. विषयः श्लोकोंकः पृष्टांक: १८. प्रभूणां कामविजयलक्ष्मीप्रातिनिरूपणम् ५३ 336 १४८ तीर्थकराणां राज्यलक्ष्मीपरित्यागपूर्वक केवलज्ञानमीप्राप्तिः १०९ जिनेन्द्रप्रतापेन तद्भकानां सर्वतोऽभयप्राप्तिनिरूपणम् ५५ १९० प्रभोः सदुपदेशामृतस्वादेन मनानां जयशब्दोचारणम् ५६ ३५१ १५१ सदुपदेशदान तत्परजिनेन्द्राणां केवलज्ञानप्राप्रमा प्रकाश:५. १९२ जिनेन्द्रकर्तृककामकोधादि निवारणम् 3.3 १९३ केवलज्ञानलक्ष्मीसम्पप्रभूणां तेजःपुञ्जप्रादुर्भावः ५९ १९५ तीर्थकराणां समझेऽन्यभूपानां प्रकाशराहिव्यस्य निरूपणम् १९५ जिनेन्द्राणां जरायोगाप्राप्तिः । १९६ तीर्थंकराणां केवलज्ञानपरिपाकस्य निरूपणम् १९७ तीर्थकराणां केवलज्ञानप्राप्तिसमयवर्णनम् अथ सप्तमः सर्गः । १९८ जिनेन्द्रसमवमरणस्थाने नृपमण्डलैः सह भरतस्वामिना। समागमनम् १९९ स्वकान्तिप्रभावेण प्रकाशमानजिनेन्द्राणां परिभ्रमणम् २ २०० मुनिमलैः सह देवेन्द्रादिपरिवेष्टिततीर्थकराणां विहारवर्णनम् १०१ ग्रहक्षादिसहितमेघनादस्य संग्राम भूमौ ममागनम् २०२ ५मश्लोकत भारभ्य ३५महोकपयन्तं महाकाव्यलक्षणा नुसारात् वसन्तादिषाकसूनां वर्णन सर्वसाधारणतया कविः प्रस्तौति १ तत्र तूनां मध्ये कुसुमाकरस्य मर्चजनाध्यतया प्रथम वसन्तवर्णनम २ फाल्गुनस्य शीतोष्णत्यसमतास्यमपूर्वक प्रसंशनम् १ वसन्ते कामवाणसम्पादनापपुष्पाणां प्रादुर्भावकथनम् ॥ • वसन्ते भ्रमरगञ्जनस्म मदिरापरित्यागकथनोत्प्रेक्षणम् ५ सर्वजनसाधारणतया मद्यपानपरिहारधनम् ६ चैत्रमासस्य वर्णनमुखेन वैशाखमा वर्णनम् ३५२ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ ३७८ विषयः श्लोकांकः पृष्टांक: - ग्रीष्मपर्णनमुखेन जनानां शीतलस्थाननिवेवणम् ११ ८ वसन्ते जास्यादिकुसुमानां विकयकथनम् । ३६५ ९ वैशाखमासीयवायोः प्रावल्यनिरूपणम् १३ १० वमस्तस्य कुसुमाकरतया कमलेषु भ्रमरसंयोगसम्पादनम् १४ ३६७ " चन्द्रकान्स्या विराजमानप्रचुरपुष्पसुरमिवासितासन्तवर्णनम् १५ १२ वसन्तस्य वैशाखसखस्वप्रतिपादनम् ॥ ११ वसन्ते कोकिल कूजनेन जनानां कामोन्मादवर्णनम् १५ १४ प्री मानिंदाघातिशयेन वृक्षशातनजलशोषणादिवर्णनम् १८ १५ वर्षौ जनवर्षया पल्लखितवृभादीनां शोभानिरूपणम् १९ १६ वर्षों कामिनीहर्षकथन पूर्वकं दर्दुरादीनां हर्षबाहुल्यकथनम्२० १. प्रोमजन्यदावानल शान्तये द्रोणनामकमेघस्य वर्णनम् २१ १८ जनभरजलधाराभिः पूर्णनदीना प्रवाहमभ्यघोषवर्णनम् २१ १९ मानवतीकामिनीनां वर्षाणानकाबीनादैः शोभानिरूपणम्१३ २. जलदनामकनृपस्य शत्रुभयात् शरीरयागकथनम् २५ २) भटानां स्वस्वपराक्रमप्रदर्शनपूर्वकं संग्रामसम्पादनम् २५ 360 २२ द्रोणनामकमेघस्य जसालारवर्षणवर्णनम् 23 जलधरस्य जगस्प्राणरक्षकत्व निरूपणम् २४ श्रावणमासीयानधरपटलीवर्णनपूर्वकं भेकमयूरादीना हर्षकथनम् ૩૮૨ २५ कृषीवलानां शस्य क्षेत्रस्य पशुनिवारणपूर्वकं रक्षणम् २९ २६ शरतुममागमेन महिषीप्रभृतीनां घोषकरणस्य निरूपणम्३० २७ शरहती यथाकामं जलबर्षणजन्यस्वास्थ्येन नृणां धर्मानुगमः १८५ २८ हेमन्त मार्गमासे प्रचुरधान्यसम्पत्तियोगात शोभायणनम् 3. ३५ २९ धनधान्य सम्पनजनानां कामिनीभिः सह केलिक्रीशनिरूपणम् ३० कास्निनाथस्य केवलज्ञानकल्याणकप्रसङ्गन हेमन्तवर्णनम् " शिशिरतौं माघमासे शीताधिक्यनिरूपणम् 34. १८३ ४८. १८९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयः श्लोकांकः पृष्ठांकः २०१ तीर्थङ्करप्रभूणां केवलज्ञानोपदेशनातो जनानां धर्मे मनोकमत्वम् २०४ देवदानवमानवानां भक्त्याधिक्या चैत्यवन्दनपूर्व । प्रभुपदसेवनम् २०५ महावीरस्वामिनः सवारियग्रहणाय सदुपदेशतिरूपणम्॥८ ९०६ तीर्थकराणां सदुपदेशात् दुर्गन्धिकायाः दीक्षाग्रहणं यवनसुतस्य ज्ञानोत्पादक्ष ३९ २.. भानन्दादिनामकथावकान् प्रति प्रभोः सदुपदेशनिरूपणम्.. २०८ चईमानप्रभोरुपदेशामृतपानेन श्रावकानां तृप्तिप्राप्तिकथनम्। २०९ देवदानवसेवितजिनेन्द्राणां केवलज्ञाने प्राप्ते नरप्रभावेण धर्मप्रवर्तनम् ४२३९६ अथाष्टमः सर्गः । २१० भत्र सगे भरत चक्रवर्तिनो दिगविजयवर्णनम् । तत्र भरत. नृपस्य जनपापलिराचिकीर्षया नीतिनैपुपयेन प्रस्थान निरूपणम् २." दिग्विजयाय प्रस्थितभरनमैम्यम्म घोटकखुरोस्थधूलीनां गगनण्यापनम् २१२ भरतसैन्यपदोस्थधूलिभिः सूर्यमण्डकाच्छादनकथनम् ३९९ २३ भरतस्य पूर्वदिग्विजयानन्तरं मचक्रवर्तिषु प्रथमस्वकथनम् २१५ भरतस्य मगधेशादिनुपविजयानन्तरं प्रस्थानं पश्रिमदिशि ५ २१५ भरतस्य नृपमण्डलैः सह सिन्धुनामक नदीतरणानन्तरं शिविररचनम् ४०1 २११ भरत चक्रवर्तिनः शिकातीर्थप्रायनन्तरं जिनप्रतिमावन्दनम् २१७ भरतस्य विनयपूर्वकं प्राचीनेतिहासचारियश्रवणस्य निरूपणम् MIC भरतनृपस्य तमित्रानामगद्दोल्लघनानन्तरं शान्तिद्वारा जनस्य वशीकरणम् २१९ भरतस्य पराजितरिपुधनग्रहणपूर्वकं हिमालये प्रस्थान निरूपणम् " . .. .. १०४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨ ४०८ विषयः श्लोकांकः पृष्ठांकः २२० भरतचक्रवतिनो विशाभरविजयापूर्वकं नवनिश्चर्मप्राप्तिवर्णनम् १ . २२। भरतस्य गङ्गातटस्थदेशानां पराजयपूर्वक स्वराज पराश्चनम् २२२ भरतनृपसम्पादितसुन्दरीदीक्षामहोत्सवनिरूपणम् ॥ २२३ जिनेश्वराणां समेतमामकपर्वते केवलज्ञानप्राप्स्य नन्तरं प्रस्थानम् २२५ जिनेन्द्राधिष्ठितभूमौ निवसतां जनानां महाभाग्यवर्णनम् १५ २२५ केवलज्ञानसम्पमादीश्वरस्याष्टापदपर्वते गमनानम्तरं मोक्षप्राप्तिः २२६ भेद पुद्धिस्यागपूर्वक प्रभूणां शान्तिवृत्ती मनोकमत्वकथनम्। २२७ भादीश्वरस्य मोक्ष प्राप्तः समयम्य निरूपणम् १८ २१प्रमोविषयरामोछेदनपूर्वकं निरतिशयानन्द प्राप्तिवर्णनम् १९ ४१२ २.९ प्रभूणां निवासभूमे: सर्वोत्कृष्टतानिरूपणम् । २३० प्रभूणां शरीरत्यागानन्तरं तत्स्थानस्य मालिन्यनिरूपण२१ २२१ भादीश्वरस्य मोक्षप्राप्त्यानन्तरं तस्परिपालितभूमीना __ भरतेन रक्षणम् २२. २३२ भादीश्वरम्य शरीरस्वागानन्तरं नगरवामिना शोकातिनिरूपणम् २३३ भादीश्वरसहितनगरम्य शोभावर्ड कधसम्तादिमन्वेऽपि मालिन्यम् २४ २३४ मुमुक्षुजनानां प्रबलवंगरयेण विषयाभिलाषस्य परित्याग: २५ २३५ भविष्यकाले प्रभूणां जन्मना पृथिव्याः पुनधनधान्यः पूर्णत्वसंभावनम् २३६ भविष्य काले तीर्थकराणामाविर्भावेण तमगरस्य मम्पत्तिभिः सम्पमस्वस्य जनकर्तृकं मंभावनम् २० २३. उपसंहारमुखेन जनानां प्रभुम्प्रति स्येष्टप्रार्थनानिरूप गम् २८ अथ नवमः सर्गः । २१८ संसारे प्रभूणां कीर्तिगशेः प्रयास्य निरूपणम् २३९ कोविदः प्रमंशितायास्तीर्थवरसमज्ञाया निरूपणम् २ ४२२ ३१३ ४१५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ विषयः ४ २४० तीर्थकृतां यशः श्रोतुं ब्रह्मणोऽष्टसंख्याक कर्णधारणोत्प्रेक्षा १ २४१ प्रभुगुणगणगायक देवोपरि पुष्पवर्षा २४२ जिनगुणगानश्रवणेन सर्वेषां विविधदुःखोन्मूलनम् २४३ जिनकीर्तिसुधापानसमये सांसारिक भोगादेस्तुच्छता २४४ जिनकीर्तिककापस्य भयमानभञ्जकत्वकथनम् २४५ सत्यभामादिकृष्णस्त्रीणां सादरं प्रभुकीर्तिश्रवणम् २४६ तीर्थंकृत्की तिव्रजस्य सर्वातिशयेन बिराजनम् २४७ जिनेन्द्रकीर्तिसमक्षं चन्द्रचन्द्रिकाया हतप्रभत्वम् २४८ जिनकीर्तिसौन्दर्ये सीतागङ्गारति कुन्दपुष्पादीनामुपमा २४९ जनापवादभवेन रामस्य सगर्भायाः सीतायास्त्यागः २५० सीतासुतयोग्ङ्गवलय-मदनाङ्कुशेति नामकरणम् २५१ सीताया अभिपरीक्षानन्तरं व्रतग्रहणम् लोकांकः पृष्ठांक: ५ 6 ८ ९ १० १, १२ १३ १४ २५२ द्वारकादहनानन्तरं श्रीकृष्णस्य शरीरपरित्यागः १५ २५३ अतृप्रेम्णा कृष्णदेहं स्कन्धे आदाय बलरामस्य भ्रमणम् १६ २५४ देववचसा बलदेवस्य कृष्णमृत शरीरत्यागः 115 १८ २५५ बलदेवस्य वैराग्यत्पश्या दीक्षाग्रहणं स्वर्गगमन २५६ गणभृतां केवलज्ञानप्रातिपूर्वकं मोक्षप्राप्यादिकथनम् २५७ श्री ऋषभसेनस्य सर्वगुणसम्पन्नत्व निरूपणम् १९ २५८ श्रीशान्तिनाथसुतचक्रायुधादीनां गुणवर्णन २५९ वायुभूतिनाम गणधर शरीरकान्तिनिरूपणम् २६० मौर्यपुत्रनामकगणभृतो विद्यागुणादिप्रशंसा २७ ગ્ २३ २५ २६१ सुश्रीधराभिधगणश्वरस्थं श्रीकृष्णस्य च गुणादिकथनम् २४ २६२ अर्जुनस्य ध्रुवमङ्गकापरनाम्नः शौर्यादि निरूपणम् २६३ प्रद्युम्न - शाम्बयो : अधीर-गंभीरापराभिषयोः प्रशंसा २६४ श्रीयशोभद्रस्वामिनः क्रमेण गुरुपदे स्थिति: २६५ श्रीस्थूलभद्रादीनां क्रमिकगुरुपदालङ्करणम् २६६ श्रीहरिभद्रादिरीणां जगद्रिभूषाविधापनम् २६७ श्रीऋषभजिनस्योपसंहारपूर्व कविकृतप्रणामः २६८ काव्यस्यास्य सर्वजनकल्याणकरणत्वेनोपसंहारः २१९ श्री मेघविजयस्य श्रीजिनपादप्रणामेनोपसंहारः २६ २७ २८ २९ ०३ 31 * * ૧૩ *** ४२५ ४२६ ४२५ પરફ ४२७ ४२८ ४२८ ४२९ ४३० ४३१ ४३० ४३३ ४३३ ४३४ ४३४ ४३५ ४३६ ४३६ ४९७ १६८ *** ४३९ ४४० ४४१ ४४५ ४४३ ४४२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर ॥ अहं नमोनमः ॥ अक्षीणमहानसादिलब्धिसमन्विताय श्रीगौतमस्वामिने नमः ॥ तपोगणगगनाङ्गणगगनमणये जगद्गुरवे श्रीनेमिसूरीश्वरसदगुरवेनमः ॥ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचितं • सप्तसन्धानमहाकाव्यम् । शास्त्रविशारद-कविरत्न-भट्टारकाचार्य-थीविजयामृतसूरिप्रणीतया सरणी इत्यभिधानया टीकथा ममन्बिनम् । श्रियन्नव्यांभयांविदधतु षांकाः स्मरणतः, शशाङ्काकच्छायोच्छलितललितामन्दयशसः । शिवाङ्गांगोद्भावाधिकरमणसद्भोगिमुखदा, महावीरा धीराः प्रगतभवतीराः सुरुचिराः ॥ १॥ या संस्मृताऽन्तरतमोऽतिनिरस्यसद्यः, प्रोद्भासिसन्मतिविकाशमलं ददाति । श्वेताम्बरप्रगुणहारमाभिरामां, जैनीङ्गिरस्वहृदये समुपास्महे ताम् ॥ २॥ ... श्रीऋषभदेवादिपञ्चजिनपतिस्तुत्यात्मकः पञ्जार्थकोऽयंश्लोकः शिखरणीछन्दसि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये यस्योपदेशवचनामृत से कलेशः, सद्योऽज्ञन्मरुधरेऽपिनिपत्य सम्यक् । तने मिसूरिनववारिदमानमामि ॥ ३ ॥ वेदं हि मेघविजयस्यगभीरकाव्यम् । काहन्तथापि रभसाद्विवृतिं करोमि ॥ ४ ॥ सङ्ग्राहकस्य मम मेघवचः प्रवृत्तिः । केकेवकिन्न हिसदाभविनां कवीनाम् ।। ५ ।। प्रोद्भावयत्यति सुपुण्य विशालकन्दं, सप्तार्थसङ्ग्रथन कौशल चञ्चुबुद्धेः, काव्यार्थभावन विधावतिमन्दबुद्धिः, श्रीमद्गुरोः कतिपयाक्षरसत्सुधानां, सच्छास्त्रशुद्धमनसां मनसां मुदेस्या सप्तसंधानकाव्येऽस्मिन् सरणी क्रियते मया । इमामालम्ब्य विद्वांसः प्रवत्र्यन्तीह निर्भयम् ॥ ६॥ ऐदयुगीन चतुर्विंशति तीर्थकृतांमध्ये प्रथम पोडश-द्वाविंश-त्रयोविंश चतुर्विंशानां क्रमतः श्रीमदादिदेव शान्तिनाथ- पार्श्वनाथ नेमिनाथ - महावीरस्वामीनां प्राधान्यात् - विचित्र पवित्र चरित्र तया, पुण्य प्रारभारसम्पन्नतया च वासुदेव - बलदेवानां च मध्ये स्व-पर दर्शनेषु श्रीकृष्ण-रामयो देवाऽतिप्रसिद्धतया तेषां चरित्रवर्णनात्मक स्तुतिव्याजेन प्रपाणकरसन्यायेन एकेनैव काव्येन सप्तपुरुषोत्तमसत्तमचरिताऽमृताऽऽस्वादजन्याऽनन्यसामान्यसान्द्रानन्दसन्दोह मनुभवितुं पराँश्चानुभावयितुं 'सप्तसन्धाना' ऽभिधानमन्वर्थनामानं महाकाव्यं चिकीर्षु ग्रन्थकुद् विघ्नविघातायाऽविगानेन शास्त्रपरिसमाप्त्यर्थमाशीर्वादात्मकं मङ्गलमाचरन् शिष्यशिक्षायै श्रोत - व्याख्या Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृत सूरिप्रणीताय मरणी टीका. तृणामनुषङ्गतो- मङ्गलाय च निवनाति श्रीनाभिजन्माऽन्वयपद्मभास्करः, स्तुतोऽञ्चितः श्रीमुनिसुव्रतान्वये । जिनः शिवायास्तु दधदृमहोदयं, स भासतां यद्भजनेजयाश्रयः ॥ १ ॥ ( अन्वयः ) यद्भजने सभासतां जयाश्रयः, श्रीनाभिजन्मान्वय पद्मभास्करः, श्री मुनिसुतान्वयेऽति: : स्तुतः, महोदयं दधत् स जिनः शिवाय अस्तु । व्याख्या - प्रथममादिनाथपक्षीया विवृतिः - यस्य - ऋषभस्य भजने भक्तौ सेवायां 'कते' इतिशेषः । सभासतां=सभ्यानां जयाश्रयः= जयाश्रयणं] बाह्याऽऽन्तररिपुकर्मक विजयावाप्तिः 'सञ्जायते' इतिशेषः । सः श्रीनामिजन्मा= श्रीयुक्त नाभिराजतनुजः, अन्वयपद्मभास्करः = स्वकीयकुलकमलोद्योतनप्रद्योतनः श्रीमुनिसुव्रतान्वये श्रीमतां मुनीनां, सुत्रतानां =त्रतान्वितश्राद्धानां चान्वये =कुले लक्षणया समूहे इत्यर्थः अञ्चितः=पूजितः सत्कृत इति यावत् स्तुतः = स्तुतिविषयीकृतः शक्रेन्द्रादिभिरिति गम्यते महोदयं = चतुस्त्रिंशदतिशय समृद्धिरूपमहैश्वर्यं दधतु धारयन् जिनः = जयति रागादीन् इति स तथोक्तः रागादि जयनशीलः शिवाय भव्यानां कल्याणाय अस्तु भवतु ་ शान्तिनाथ पार्श्वनाथ वीरपक्षे च श्रीनाभेर्जन्म उद्भवो यस्य तादृशोऽन्वयः=वंश इक्ष्वाकुवंशः सएव पद्मं तत्प्रकाशे सूर्यः, अन्यत् पूर्ववत् । श्रीनाभिजन्मान्वयपद्मभास्करः =श्रिया इनः = पतिः श्रीनः = श्रीकृष्णस्तस्याऽभिजन्म=जनिर्यस्मिन् सचासावन्वयो यदुवंश स्तद्रूपकमलोल्लासने रविः, मुनिसुव्रतान्वये = मुनिसुव्रतम्य = द्वाविंश जिनस्यान्वयः कुलं हरिवंश स्तस्मिन् अञ्चितः = पूजितः, शिवायाः = तन्नामिकाया निजज Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ महोपाध्यायश्रीमेवविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये नन्याः महोदयं तीर्थकृजनिजनितजगद्वन्धतायात्मकसौभाग्यं दधत्= सम्पादयन् स जिनो नेमिनाथारव्यः भासतां-प्रकाशताम् शेषं पूर्ववत् शान्तिनाथपक्षव्यावर्णितदिशा चतुर्विंशति जिनसामान्यस्य स्तुत्यात्मकमिदंपद्यमवगन्तव्यं नेमिनाथ-मुनिसुव्रतवर्ज सर्वेषामिक्ष्वाकुवंशप्रभवत्वात् तत्र नेमिनाथ पक्षोचितप्रकारः परिदर्शित एव । मुनि सुव्रतान्वये-मुनिसुव्रतायाः स्वमातुः अन्वये-पितृवंशे श्वशुरवंशे च अश्चितः-अर्चितः उभयकुलानन्दकरत्वात् । श्रीनाभिजन्मान्वयपद्मभास्करत्वं तु नेमिनाथपक्षवर्णितदिशाबसेयमिति. श्रीअहंदाद्यः कृतशान्तिसर्गः, समुद्रजन्मानबराजवर्गः । श्रीपाश्वनाथः शुभवर्द्धमानः, श्रियाऽभिरामस्तमिह स्मरामः॥ २ ॥ (अन्वयः) इह [ग्रः] अर्हदाद्यः कृतशान्ति मर्गः समुद्रजन्मा नवराजवर्गः श्रीपार्श्वनाथः शुभवर्द्धमानः श्रियाभिरामश्च तम् स्मरामः ॥ २ ॥ व्याख्या-प्रवृत्तिनिमित्तभूत सप्तशलाकापुरुषचरितवर्णनात्मकं विधेयं तत्स्मरणव्याजेन दर्शयन्नाह-श्री इत्यादि । इहअस्मिन् काव्ये, यत्तदोनित्यसम्बन्धादग्रेतनतमित्यनुरोधात् यः श्रीअर्हदाद्यः श्रीमता महतां चतुर्विंशति तीर्थकृताम् आद्यः= प्रथमः ऋपभदेव इत्यर्थः। कुनशान्तिसर्गः-कृतः-सम्पादितः शान्ते:सकलोपप्लवप्रशमनस्य सर्गःसृष्टिरुत्पत्तियन स तथोक्तः। समुद्र जन्मा नवराजवर्ग:मुदा-हर्पणसहितः समुद्-सहर्पः रजन्-रागवान् मानवानां राज्ञां च वर्ग:-समूहोयस्मिन् सतथोक्तः । श्रीपार्श्वनाथःपार्श्व-समीपे (सेवार्थमागताः) नाथाः-इन्द्रादयो यस्य स तथोक्तः । शुभवर्धमानः-शुभेन वर्धते इति, शुभं वर्धमानमस्मादिति, शुभं Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. कल्याणं वर्धते अन्तर्भावितण्यर्थतया वर्धयतीति वा स तथोक्तः । श्रिया-चतुस्त्रिंशदतिशयसम्पदा त्रिलोकीकमनीयसौन्दर्य लक्ष्म्या वा ऽभिरामो-मनोहरः, तं स्मरामः-वर्णनीयतया चिन्तयामो वयं कत्रयितार इति गम्यने । ३ पाश्वनाथपक्षे-श्रीअहंदाद्यः--अर्हता-पूज्यानाम् अर्हत्सुवा आधः-प्रधानः श्रीपार्श्वनाथः-तदायत्रयोविंशतीर्थकरः शेषं पूर्ववत्। २ शान्तिनाथपक्षे च--कृतशान्तिसर्ग:-गर्भावस्थायामपि विहितमारीरूपोपालवीपशमनः शान्तिकरणाच नदाख्य शान्तिनाथ इत्यर्थः शयं समानम् । नेमिनाथन -समुज-मा-नाभैकदेशे नामग्रहणासदत्यनेन समुद्रनिजयो यी अद्यते तस्माइन्म यस्य स तथोक्तः नेमिनाथ इत्यर्थः । जगजकी नौतीति जवः-स्तोता रालोस्य सः, नवानां गः वर्ग: पितृय यस्येति वा र तथोनः अन्यत् नमानम् । महावीप सुबमान इनि विपदम् गर्भचिनेर सिन् अमौ पितुः निमाजमा दिन शुत्तशेष मागामिया पित्रा शुभसंबधजनमतस्य वर्धमान ' इति नामकमान बहा शोभने इति शुभः सभासौ वर्धमान इति. रामपक्षे श्रीअर्हन्तश्चतुर्विंशतितीर्थकृत आद्याः-मुख्या यस्य यस्माद्वा स श्रीअहंदाद्यः । त्रिपष्टिशलाकापुरुषेषु तीर्थकृतां मुख्यत्वात् । श्रिया-सीतारूपया लक्ष्म्या अन्वित इति शेषः आभिरामः-आभाऽ. स्थाऽस्तीत्याभी म चासौगमः-तदाख्यो दाशरथिबलदेवः, "श्रियासरामः इति पाठान्तरम् तत्र श्रिया-लक्ष्म्या युक्तः सः प्रसिद्धः रामःरामचन्द्रः तं स्मराम इति सम्बन्धः अन्यद्विशेषणयोजनं पूर्ववत् । .. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ महोपाध्यायधीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्ये कृष्णपक्षे-"श्रीअहंदाद्य" इत्यादिविशेषणार्थ योजनं रामवन् श्रियाऽभिराम इत्यस्य श्रिया-लक्ष्म्या अभिरामो-मनोजः इत्यर्थः । श्रियासराम इति पाठान्तरे श्रिया-लक्ष्म्या सरामः-सभार्यः (रामयाभार्थया सहितः इति कृत्वा) रामा हिङ्गुलिनी स्त्रियोः इति हैमः।।२।। यो वीतरागः कृततीर्थयागः, प्रोद्यत्सभामण्डलसंविभागः । यो नीतिकारी भुवनोपकारी, सेव्यः स भव्यैर्नवकाव्यनव्यः ॥ ३ ॥ अन्वयः-~यः वीतरागः कृततीर्थयागः, प्रोधसभामण्डलमंत्रिभागः । य: नीतिकारी भुवनोपकारी, भव्यैः सेव्यः स नवकाव्यनन्यः ॥ व्याख्याननु मत्स्वप्यन्येषु बुद्धादिषु परश्शतेषु देवेषु कथमेतेषामेव चरित्राख्याने कविः जातादर इत्याह-य इति. यः अनिर्दिष्टनामधेयः, वीतरागः-चीत:-विगतः निवृत्तः गगः-स्रक्चन्दनवनितादिविषयाऽभिषङ्गः यस्य स तथोक्तः तीर्थकृत्पञ्चक श्रीरामपक्ष माधारणोऽयमर्थः । कृष्णपक्षे तु विः-पक्षी गरुड इत्यर्थः तं तस्मिन् वा इतः प्राप्तोरागः-प्रीतिर्यस्य स तथोक्तः। कृततीर्थयागः तीर्थसाधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकात्मकचतुर्विध सङ्घः लक्षणया तत्स्थापनमिह गृह्यते तीर्थ याग इव तीर्थयागः कृतः सम्पादितः तीर्थयागःतीर्थस्थापन यज्ञो येन स तथोक्तः । रामकृष्णपक्षे-कृतस्तीर्थस्य-सावादिसंघस्य यागः-यजनं पूजनं येन सः, कृतस्तीर्थ-सरवादितटान्मकपुण्यक्षेत्रे यागः-देवपूजा येन स इति वा तथोक्तः. प्रोद्यत्सभामण्डलसंविभाग:-प्रोद्यन्ती दीप्यमाना सभा देवादिपरिपत् तस्या मण्डले-समूहे संविभागः-जीवाजीवादिपदार्थानां विविन्य Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. कथनं येन सः यद्वा प्रोद्यन्-प्रकाशमानः भामण्डलेन सहितः सभामण्डलः संविभाग:-प्रदेशो यस्य स तथोक्तः तीर्थकृत्पञ्चकसामान्योऽयमर्थः । रामकृष्णपक्षे-प्रोद्यन-प्रकटीभवन् सभायाः राज्यशासनव्यवस्थापिकापरिषदादेः मण्डलस्य-द्वादश राजकस्य देशस्य वा संविभागः संविभजनं यस्य स तथोक्तः "स्यान्मण्डलं द्वादशराजके च देशे च विम्बे च कदम्बके च"। इति विश्वः॥ यः-यातीति यः निर्वाणपदगन्ता, कलुषपटलजलदनिरसनपवनो वा । यो ना वायौ यमने इति मेदिनी ॥ नीतिकारी नीयन्ते-उन्नीयन्तेऽर्था अनयेति नीतिः न्यायःतां करोति तच्छीला नीत्यावर्तनशीलो नीतिप्रचारणशीलो वा ॥ अनीतिकारी इतिच्छेदे अनीतिः-पडविधेतिराहित्यं तत्करणशीलः । अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मपकाः शलभाः खगाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः पडेता ईतयः स्मृताः। भुवनोपकारी-भुवनानामुपकारं करोति तच्छीलः सकलजगदुपकारकरणप्रवणः॥ भव्यैः-प्राणिभिः सेव्य:सेवितुं योग्यः सः-वर्ण्यतया प्रक्रान्तः नवकाव्यनव्यः नवेन-सप्तार्थानुसन्धानादिगुणविशिष्टतया नवीनेन काव्येन नव्यः-स्तुत्य : 'गुंक स्तवने ॥अन्त्यानुग्रामः,शब्दार्थोभयश्लेषः,काव्यलिङ्गं चात्रालङ्काराः।। तीर्थ शास्त्रा-ऽध्वर-क्षेत्रो पायो-पाध्याय मन्त्रिषु इति विश्वः । तीर्थ साध्वादिसंघेऽयीत्यागमः। ब्राह्मीह साऽव्यानिपुणागमादौ यस्या रसांगारकमलोदयश्रीः । अद्यापि नद्या द्रवसुप्रसादात् सिताम्बराणां जनतानुवृत्तिः ॥ ४ ॥ अन्वयः-इह आगमादौ सा निपुणा ब्राह्मी अग्यात् यस्या नया रसांगात् । कमलोदयश्री: द्रवसुप्रसादान सिताम्बराणां जनतानुवृत्तिरदापि ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये व्याख्या-इह आगमादौ शास्त्रादौ अर्थात् अस्मिन् काव्यादौ सा भुवनविदिता निपुणा दक्षा पूर्णत्यर्थः ब्राह्मी सरस्वती "ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वतीत्यमरः" अव्यात् पायात् यस्याः सरस्वत्या भारत्या नद्याः पवित्रायाः सर्वश्वेतायाः रसांगात् रसस्याखादस्य अनुभवस्येत्यर्थः अङ्गात् उद्यमात् यत्नात् कमलोदयश्रीः कमलाया लक्ष्म्याः सम्पदः उदयश्रीः समभ्युदयसम्पत् द्रवसुप्रसादात् द्रवति नियतीतिद्रवः स्नेहः प्रसन्नता इति यावत् तस्य परिहासस्य सुप्रसादात् सत्कृषातः सिताम्बराणां निर्मलबमनानां देवानां जनतानुवृत्तिः जनतायां मनुष्ये अनुवृत्तिरागमनम् स्तुत्यालम्बनतया जनानुकम्पनमिति भावः अथ च सिताम्बराणां श्वेताम्बराणां आर्हतानां जनतानुवृत्तिः लोकसदुपदेशानुसरणम् अद्यापि अधुनापि भवतीति शेषः। नदीपक्षे च-यस्या नद्याः नदीरूपायाः सरस्वत्याः सरस्वत्यभिधानायाः रसांगात् जलरूपात् कमलोदयश्रीः कमलानां मोजानाम् उदय श्रीः समुद्भवश्रीः सद्विकाशशोभेत्यर्थः द्रवप्रसादात् प्रवाह सुप्रभावात् सिताम्बराणां अम्बते शब्दं करोतीत्यम्बः शब्दः तं गतिगृह्णातीति अम्बरः पक्षः सितौ अम्बरौ येषां ते सिताम्बराः हमाः तेषां जनतानुवृत्तिः मानससरात् नरक्षेत्रे अनुवृत्तिनुमतिरद्यापीदा. नीमपि भवतीति शेषः। मुखेन दोषाकरवत् समानः, सदा-सदम्भः सवने सशौचः । काव्येषु सद्भावनयानमूढः, किं वन्दयते सजनवन्ननीचः? ॥ ५॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतमग्रिणीता सरणी टीका. . . .५ अन्वयः-नीचः सजनवत् किं न वन्यते ? मुखेन दोषाकरबत् समानः। सदा सदम्भः सबने सशौच:, काव्येषु सद्भावनया न मूढः ॥ ५ ॥ व्याख्या-नीचा दुर्जनः सज्जनव-सत्पुरुष इव किं न वन्द्यते अभिवाद्यते स्तूयते वा उभयोः समत्वात् । साम्यं दर्शयति-मुखेन दोषाकरवत्-दोषा रात्रिं करोतीति सः तेन तुल्यं तद्वत् चन्द्रसदृशः, समानासह मानेन-सम्माननेन पूजा सत्कारेण वर्नते इति स तथोक्तः सदम्भःसबने सत्-सत्यमेवाऽम्भः जलं तस्मिन् सबनेमाने अनुशीलने स शौचा=सनैमल्यः पवित्रः सत्यनिष्ठ इत्यर्थः । काव्येषु सद्भावनया उत्कृष्टभावनया न मूढः उत्तमविचारणया हेतुना न मूढः न अनभिज्ञः यद्वा-काव्येषु सद्भावनयानमूढ इति समस्तं, काव्यस्य इषुषु-गुणेषु सद्भावनं सद्विचारस्तत्रयानं गमनम् ऊढःप्राप्त इत्यर्थः। अत्र दुर्जनस्य व्याजस्तुत्या सर्वथाऽवन्धत्वमेव सोसूच्यते सज्जनतोमहदन्तरत्वात् तथाहि नीचः मुखेन दोषाकरवत्समाना दोषाणां दुर्गुणानामाकरः राशि रस्त्यासौ दोषाकरवान् तेन समानः सदृशः गुह्यप्रकाशनादिदुर्गुणोदीरणकरणतया वदनेन दोषपुञ्जविशिष्टतुल्यः । यद्वा दोषाऽऽकर इत्र दोषाकरवत् । समानः साऽहङ्कारः सदासदम्भः सकपटः, सबने मद्यसन्धाने उपलक्षणतयातदादिकार्येऽसशौ चा शौचेन सहितः सशोचः स नभवतीत्यसशौचः अशुचिरित्यर्थः। यद्वा सदम्भः सवने सत्पक्षपातकरणे सशौचा-शुचेव शौच-शोकः खार्थिकः प्रज्ञाधण तेन सहितः संशौचासशोक इत्यर्थः । काव्येषु सद्भावन-यान-मूढः सद्भावने-सद्विचारे यानं गमन तस्मिन् मूढः विकलः अपटुः ॥ उपमा, अर्थश्लेषः, सभङ्गशब्दश्लेषः, व्याजस्तुतिश्चालङ्काराः ॥ सवनं त्वध्वरें स्नाने सोमनिर्दलनेपिचेतिमेदिनी ॥५॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये उच्छृङ्खलाकि खलतो न बिभ्येत्, सभ्यस्तथेभ्यः परमार्थनाशात् ॥ नाशा ह्य नाशा किमु वर्धनीया, होनस्य सकर्णतायाम् ॥६॥ (अन्वयः)-इभ्यः परमार्थनाशात् तथा सभ्य उच्छृङ्खलात् खलतः किं न बिभ्येत् श्रुत्याविहिनस्य सकर्णतायाम् अनाशा आशा किमु न वर्द्धनीया?॥६॥ व्याख्या-इम्यःआढ्यः परमार्थनाशात् परमार्थस्य उत्कृष्टाभीष्ट यस्तुनः मूलधनादेः नाशात् अपायात् तथा-इव सभ्यः सजनः उच्छृङ्खलात-उद्गतः शृङ्खलातः इत्युच्छृङ्खला मर्यादादिवन्धनरहितः नीत्यादिनियन्दरहितो वा तस्मात्तथोक्तात् खलत:-दुर्जनात् किं न बिभ्येत्भयमाप्नुयात् ननु खलस्थापि शास्त्रश्रवणादिना सौजन्य किं न स्यादित्याशङ्कायामाह 'नाशा' इति श्रुत्या-शास्त्रश्रवणेन विहीनस्य वर्जितस्य अकृतशास्त्राभ्यासस्य श्रवणशक्तिरहितस्य बधिरस्येत्यप्यर्थो गम्यते. सकर्णतायाम् श्रुतितत्परतायाम् शास्त्राभ्यासादिक्षमतायामित्यर्थः अभिज्ञतायामिति यावत् अन्यत्र श्रवणक्षमतायामिति गम्यते अनाशा-न आशा दिक् परिच्छेदो यस्यां सा तथोक्ता अपरिच्छिन्नेत्यर्थः आशा=अशक्योपायार्थविषयिणी दीर्घाऽऽकाङ्क्षा अनधिगतविषयातृष्णा वा किमु न बर्द्धनीया-वृद्धिं नेया. वर्धनीयवेत्यर्थः भैषज्यादिसेवनेन कर्णवाधिर्यमिव शास्त्रश्रवणादिना खलानामपि औभृत्यं दूरीभूय जातसौजन्यतया भयाऽजनकत्वं सम्भवतीतिभावः । अर्थान्तरन्यासः ।। ६ ।। काठिन्यभाजो हृदये खलस्य, का वक्रता शृङ्खलकस्य नाङ्गे ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. " भारक्षमस्याऽपि नसोऽग्रवेधः, सुमेधसाऽकारि सवेधसाऽपि ॥७॥ अन्वयः-हृदये काठिन्यभाजः खलस्य [काठिन्यभाजः खलस्य हृदये वा] शृङ्खलकस्य अङ्गे [च] का वक्रता न अस्ति] [यतः भारक्षमस्यापि नसो ऽअवेधः सुमेधसाऽकारि, स वेधलाऽपि अस्य [अकारि] __व्याख्या-हृदये मनसि काठिन्यं नैष्ठ्यं भजते स काठिन्यभाक् तस्य तादृशस्य खलस्य-दुर्जनस्य, हृदये मनसि काठिन्यदाढयं भजते तादृशस्य शृङ्खलकस्य-उष्ट्रस्य अङ्गे च का वक्रता क्रूरता अन्यत्र कुटिलता भुग्नतेत्यर्थः न अस्ति सर्वाप्यस्तीत्यर्थः खलानां क्रूरहृदयत्वात् उष्ट्राणां च कुटिलबहुलाऽपधनत्वात् । अत एव भारक्षमस्य कर्षण वाहनयोग्यतादिधुरंवोढुं शक्तस्य शृङ्खलकस्य नस:नासिकायाः अग्रवेधः-पुरोवेधनं सच्छिद्रीकरणं सुमेधसा-कर्षणवहनादिक्षमताऽवगतिमेधाविना कृषीवलादिना अकारि व्यधायि: के. धसान्ब्रह्मणाऽपि सः प्रक्रान्तः अग्रवेधा=अग्रे-प्रथमंवेधः व्यधनं हिंसनं खलस्य नैसर्गिकतया अकारीत्यर्थः । यद्वा साम्खलः अपि वेधसा अग्रवेधः अग्र-पूर्व विध्यति छिनत्ति स तथोक्तः हिंस्रस्वमावकः अकारि। यद्वा अग्रवेधः वेधः विवाहादिशुभकार्यवर्ण्य नक्षत्र विशेषस्थितग्रहभेदकृतसंसर्गः 'वेधं सर्वत्र वर्जयेदितिज्यौतिपोक्तेः तथा च अग्रे=आदौ वेध इव अग्रवेधः वर्जनीय इतिभावः अकारि । ... , हृदयं वक्षसि स्वान्ते बुक्कायामितिहैमः । चक्रः कुटिले कर भौमयोरितिहैमः । काठिन्यभाजः खलस्य हृदये काऽपि वक्रता (अस्ति) या शृङ्खलकस्यापि अङ्गे न वर्तते । यतः भारक्षमस्यापि । तस्य सोऽगुवेधःसुमेधसावेधसाऽपि नाकारि इति तु ज्यायः। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये त्याज्यः स राज्यात्पुरतोऽपिराज्ञा, भायात्सभाया न रुचिः खलेऽस्मिन् । यत्र द्रुमाः कण्टकिनः पुरस्ता त्स दुष्प्रवेशः सुमनःप्रदेशः ॥ ८॥ [अन्वयः]-अस्मिन् खले सभाया रुचिः न भायात् [ इति ] राज्ञा राज्यात् पुरतोऽपि स त्याज्यः । यत्र पुरस्तात्कण्टकिनो द्रुमाः स सुमनःप्रदेशः दुष्प्रवेशः ॥ ९ ॥ व्याख्या-अस्मिन् खले-पिशुने विषये सभाया: समाजस्व जनताया इत्यर्थ रुचिप्रीतिः न भायात्-शोभेत यद्वा अस्मिन् खले सति सभाया रुचिः कान्तिः नभायात्-प्रकाशेत् विवादोत्थानसंभचात् । अथ वा अस्मिन् खले सभाया न रुचिः-राजपरिषत्प्रवेशाऽभिरुचिः भायात् एवं समम्भाव्यते इति हेतोः राज्ञा-तृपेण शास केनेतिभावः राज्यात्-बाजधान्याः राष्ट्राद्वा पुरतः स्वाग्रतः नगराद्वा गृहाद्वा अपि त्याज्या वर्जनीयः निष्कासनीय इत्यर्थः अमुमथ दृष्टान्तेन दृढयन्नाहयोति यत्र सुमनःप्रदेशे पुरस्तात प्रवेशमार्गस्थाग्रतः कण्टकिन-स कण्टकाः द्रुमा-मार्गवृक्षा भवेयुः स सुमनसां-पुष्पाणांप्रदेशः सुमनः= प्रदेशः पुष्पवाटिकादिः दुष्प्रवेशः अशक्यान्तर्गमनो भवतीति लोके प्रसिद्धोऽयमर्थः । शब्दश्लेषो, द्रष्टान्तश्च पुरं नपुंसकं गेहे देह पाटलिपुत्रयोरितिमेदिनी स्थात्पुरः युरतोऽग्रत इत्यमरः ॥ ८॥ . खलादरो यश्च गवां स्वभुक्तो, भवेत्पशूना मुचितो न नृणाम् । स गोः पतिवाद यदि भूपसर्गे, तत्पाशुपत्यं ध्रुवमीश्वरस्थ ॥९॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतमरिप्रणीता सरणी टीका. अन्वयः-गवां स्वभुक्तो यः खलादरः भवेत् [असौ] पशूनां गिवाम्] उचितः, नतु नृणाम्। स गो:पतित्वात् यदि भूपसर्गे स्यात् तत् ईश्वरस्य ध्रुवं पाशुपत्यं भवेत् ॥ ९ ॥ व्याख्याः--गवां धेनूनां स्वभुक्तौ-स्वाहारे विषये यः खलादरः खलं तिलकल्कः धान्यमर्दनभूमिश्च तत्राऽऽदरः स्नेहः असौ पशूनाम् उचितः योग्यः अगर्हणीयः भवेत् न तु नृणां मनुष्याणामपि । ___ दुर्जनेषु प्रीतेः तेभ्य स्वासस्य तिलकल्काशनस्य च मनुजाना मनौचित्यात् । तथा च सः-खलादर:-खले-नीचे आदरः गोंः पतित्वात्-गौः (सौरभेयी पृथ्वी च तस्याः पतित्वात्-स्वामित्वात तत्साम्यादिति भावः, यदि भूपसर्गे-नृपस्वभावे नृपसाम्राज्ये वा स्यात् तत्-तदा ईश्वरस्य-राज्ञः पाशुपत्यं पशुपतित्वं मूर्खशिरोमणित्वं ध्रुवं निश्चित स्याद् शब्दसाम्येन छलितत्वात् ॥ स्वर्गेषु पशुवाग्वज्र दिग्नेअघृणिभूजलेगौरित्यमरः ॥ ९ ॥ खले प्रतीता बहुधा-न्यपाताद, विक्षेपणा क्षेपमतिर्नृपस्य । मुख निबन्धेन गवां नृणां वा, निजार्जितस्यापिमनाग न भोगः॥१०॥ अन्धयः-खले बहुधा-न्यपाताद् नृपस्य, विक्षेपणाक्षेपमतिः प्रतीता । नृणां गवां वा मुखे निबन्धेन निजार्जितस्यापि मनाग भोगःन ॥ १०॥ व्याख्या-खले दुर्जने विद्यमाने सति बहुधा बहुप्रकारेण अन्यपातात् अन्येषां-परेषां खलानुमतानां पातान् आपतनात् प्रवेशात नृपस्य खलाधीनसर्वराज्यतन्त्रतया विक्षेपणाक्षेपमतिः-विक्षेपणे अमिमतानों द्रीकरणे आक्षेपे-मान्यानां गहणे च आसमन्ताद Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये क्षेपे - विलम्बे राजकार्याणां सम्पादन कालाऽतिपाते वा मतिः- बुद्धिः विचारो वा प्रतीता - प्रसिद्धा एवाऽस्ति । १४ लोकेऽपि खले- धान्यमर्दनस्थले बहुधान्य पातात् - बहूनां प्रचुराणां धान्यानां - शालि गोधूमादिवीहीणां पातात् मर्दनार्थ पक्षेपात् नृपस्य -. तत्स्वामिनः खेटकादेः विक्षेपणाक्षेपमतिः - विक्षेपणे पूर्व प्रसारणे तदनु आक्षेपे - दूरं विकीर्णानां समूहन्यादिना राशिकरणे च मतिः- मनः प्रवृत्तिः प्रतीता - ख्याता एव । -- पूर्वत्र खलनीत्या नृणां - राजपुरुषाणां मुखे - निःसरणे निर्गमन = प्रवेशमार्गे इत्यर्थः विषये निबन्धेन- नियमनेन प्रतिबन्धजननेन सता निजार्जितस्य - खोपार्जितस्य वेतनादेः मनाग्- अल्पमपि भोगः- उपभोगः सुखं वा न संभवतीत्यर्थः । यद्वा नृणां विपश्चिन्मनुजानां मुखे- प्रवेशे निबन्धेन निजार्जितस्य - खोपार्जितविद्यादेः मनाग् भोगः - उपयोगः विद्यालाभजन्यमै - हिक सुखं वा न समस्ति भवितुमित्यर्थः । विद्यावतां बाणभट्टादीनामिव राज्ञः श्रीहर्षादेरिव ऐहिक सुखसाधनधनलाभे सत्येव विद्याया ऐहिकोपयोगः । राजधान्यां खलप्रवेशे तु विदुषां प्रवेशस्थाप्यसम्भवः विद्याचमत्कारप्रदर्शन परितुष्ट नरेन्द्र दित्स्यखापतेयाद्यात्मक पुरस्कारादेस्तु कथैव का । अन्यत्रापि स गवां-वृषभाणां - मुखे तुण्डे निबन्धेन-नितरांबन्धनेन निजार्जितस्य - हलकर्षणादिव्यापारजन्यतया स्वोपार्जितपलालादेरपि मनाग भोगः न भवति । शब्दाऽर्थोभयश्लेषः । उपमालङ्कारध्वनिः । खलः कल्के भुवि - स्थाने क्रूरे कर्णेजपेऽधमे इतिहैममैदिन्यो मुखं निःसरणे वक्रे प्रारम्भो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. पाययोरपीतिमेदिनी । भोगः सुखे धने पुंसि चाहेः फण- शरीरयोः । पालनेऽभ्यवहारे च योषिदादिभृतावपीति मेदिनी ॥ १० ॥ कार्या खलानां स्खलना नृपेण, प्रसङ्गतः शृङ्खलमीलनेन ॥ उच्छृङ्खलः शृङ्खलको न किंस्या दुद्वेजकः कण्टकसंकटेन ॥ ११ ॥ १५ ( अन्वयः ) - नृपेण प्रसङ्गतः शृङ्खलमीलनेन खलानां स्खलना कार्या. उच्छृङ्खलः शृङ्खलकः कण्टकसंकटेन उद्देजकः किं न स्यात् । व्याख्या:--- नृपेण = राज्ञा प्रसङ्गतः - अवसरं प्राप्य श्रृङ्खलमीलनेन - शृङ्गात् = प्राधान्यात् स्वल्यतेऽनेनेतिशृङ्खलः = पृषोदरादित्वात् शृङ्खला लौहमयबन्धनरज्जुविशेषः तस्य तेन वा मीलनं संबन्ध: तेन तथोक्तेन शृङ्खलया नियम्येतिभावः खलानां दुष्टानां स्खलना = गतिप्रतिरोधः कार्या विधेया । अन्यथाऽनिष्टमाह = उच्छृङ्खल इति उद्गतः शृङ्खलातः इति. उच्छिन्ना शृङ्खला येनेति वा उच्छृङ्खल : लौहमयपादबन्धनरहितः नासारज्यादिरहिततयानिर्बाधगतिकः शृङ्खलकः = उष्ट्र: कण्टकसंकटेन=कण्टकैः = सूचीवत्तीक्ष्णाग्रवृक्षावयवविशेषैः संकट: =संकीर्णः वन्यप्रदेशादिस्तेन, कण्टकैः = संकटं = दुःखं तेन तज्जननेन हेतुना वा उद्वेजक:- चित्त व्याकुलताजनकः किं न स्यात् स्यादेव. उष्ट्राणां कण्टकप्रियतया तदाचितप्रदेशादौ तद्गमने तदन्वेषणार्थं तत्रगतानां तदारूढानां कण्टकसम्बन्धसम्भवात् । उच्छृङ्खलः =अनियन्त्रितः निरङ्कुशः खलोपि कण्टकसंकटेन= कण्टका इव दुःखजनकत्वात् कण्टकाः क्षुद्रशत्रवस्तेभ्यः संकटं = दुःखं विपत्तिर्वा तेन तज्जननेनेतिभावः उद्वेजकः- क्षुद्रशग्वादिभिर्विरोधादि Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाव्ये .... ... ......... जननद्वारा व्याकुलीभावजनकः । किं न स्यात् स्यादेवेत्यर्थः ।। शब्दा ऽर्थोभयश्लेषः अर्थान्तरन्यासः अनुप्रासः । शृङ्खलं पुंस्कटीकाञ्च्यां लौहरनौ च बन्धने इति हैमः ॥ कंटकः क्षुद्रशत्रौ च कर्मस्थानकदोषयोः । रोमाञ्चे च द्रुमाङ्गे च कण्टको मस्करेऽपिचेति विश्वः ॥ यद्गोरसाधिक्यमुदेतिलोके खलस्यपर्यायविनाशनेन । संभाव्यतेस्मादमृताशनस्या धिकाधिकारद्विबुधात्मनैव ॥१२॥ अन्वयः-लोके खलस्यपर्यायविनाशनेन यद्गोरसाधिक्यमुदेति अस्मात् । अमृताशनस्य अधिकाधिकारात् विश्रुधात्मतैवसंभाव्यते ॥ १२ ॥ व्याख्या-लोके खलस्य तिलकलकस्य द्रव्यविशेषस्य पर्याय विनाशनेन पर्यायः क्रमभाविस्वभावः प्रकृते खलत्वरूपस्तस्य विनाशने नध्वंसेनेत्यर्थः गोरसाधिक्यं दुग्धघृतादिप्रचुरता उदेति उद्भवति अस्मात् गोरसाधिक्यात् अमृताशनस्य दुग्धघृतादि भोजनस्य अधिकाधिकारात् अधिकप्रवर्तनात् निरन्तरप्रचारात् विबुधात्मतैवपण्डितात्मतैवसंभाव्यते उत्प्रेक्ष्यते शुद्धाहारविहारस्य निर्मलबुद्धिप्रयोजकत्वादितिभावः । ___ अथ च खलस्य दुर्जनस्य पर्यायविनाशनेन तद्वाचकपर्यायनशंस घातुक क्रूरादिशब्दानामपि निराकरणेन गोरसाधिक्यम् गोः वाल्याः रसस्य आस्वा-द विशेषस्य आधिक्यम् समृद्धिमदेति यद्वा गो पृथिव्या रसस्य गुणस्य क्षान्त्यादे राधिक्यं बाहुल्यादेति प्रकाशते असाद् गोरसाधिक्यात् अमृताशनस्य देवस्य अधिकाधिकारात् अत्यधिकसम्बन्धात् विबुधात्मतैव सर्वेषान्देवत्वमेव संभाव्यते. देवस Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. म्बन्धादन्येषामपि देवत्वं सुतरां भवतीति भावः । १२। श्लेषतुल्ययोगिते चात्रालंकृती | खलःकल्केभुविस्थाने इति हैमः पिशुने दुर्जने खल इति शृङ्गारादौ विषे वीर्ये गुरागेद्रवेरस इत्युभयत्रामरः ॥ १२ ॥ कायेन वाचा मनसा विशुद्धः स पक्षमध्यस्थित एव हंसः ॥ ब्रह्माऽमुनाबाह्यधियापि बाह्यः, १७ प्रियो विधिस्तन्ननु सज्जनस्य ॥ १३ ॥ अन्वयः - स इंस एव [ यथाहंसः ] कायेन वाचा मनसा विशुद्धः पक्षमध्यस्थितः । [ तथासज्जनोऽपि ] अमुना ब्रह्माऽवाह्यधियाऽपि बाह्यः तत् विधिःसज्जनस्य प्रियः ॥ व्याख्या - सः = सज्जनः हंस एव हेतुमाह यथा हंसः खनाम ख्यातपचिविशेषः कायेन= स्वरूपेण वाचा खरेण मनसा च विशुद्धः अवदातः पवित्रश्च पक्षमध्यस्थितः पक्षयोः गरुतोर्मध्ये ऽन्तराले स्थितः तथा सज्जनोपि कायवाङ्मनोभिः विशुद्धः = अनवद्यः, पक्षमध्यस्थितः = पक्षे = वादि प्रतिवादिनोर्विरोधे मध्यस्थितः = मध्यस्थः । यद्वा पक्षयोः = वादिप्रतिवाद्युभयप्रश्नकोटि- समाधान कोट्योर्मध्यस्थितः = माध्यस्थ्य माश्रितः नत्वन्यतर पक्षपातीत्यर्थः निष्पक्षपात इति यावत् । अन्यदपि साम्यं दर्शयति ब्रह्मेति अमुना- हंसपक्षिणा ब्रह्मादेव विशेषः अवाह्यधिया हार्दिकानुरागेण यद्वा अयं मयाबाह्य इति संकल्पमन्तरेणापि स्वभावतएववाह्यः स्वपृष्ठेधार्यः हंसस्य तद्वाहनत्वात् तत् तस्मात् सज्जनस्य विधिः शास्त्रोक्तक्रियाकलापः प्रियः स्वकर्तव्यत्वेनाभिमत इत्यर्थः अविधिशब्दस्य ब्रह्मशब्द पर्यायत्वेऽप्यर्थ भेदादर्थश्लेषः तथा सज्जने हंसारोषणाद्रूपकोऽबाह्यचाद्यत्वेन विरोधाभासश्चेत्यलंकृतयः ॥ १३ ॥ मरालबालः स्वत एववक्त्रे. रक्तः प्रसक्तश्चरणेऽपि तद्वत् ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये स राजहंसः कविनास्वकार्ये, स्मार्यः स दुग्धाम्भसि तद्विवेका॥१४॥ अन्वयः---कविना स्वकार्येमरालवाल:वक्त्रस्वतएवरक्तः तद्वच्चरणेऽपि प्रसक्तः सदुग्धाम्भसि तद्विवेक्तास राजहंसः स्मार्यः ॥ १४ ॥ व्याख्या-कविनाकाव्यका स्वकार्येकविकर्मणि काव्यादौ सः प्रसिद्धः ( प्रक्रान्त प्रसिद्धाऽनुभूतार्थकस्तच्छन्दो यच्छब्दोपादानं नाऽपेक्षते इति नियमादत्र (पद्ये) यच्छब्दस्याऽनपेक्षिततया नोपादानम्) राजहंसा-हंसानां राजा श्रेष्ठन्वात् (राजदन्तादित्वात् परनिपातः) रक्तवर्णचञ्चु चरणयुक्त श्वेतवर्ण हंसविशेषः राजहंसास्तु ते चञ्चु चरणैर्लोहितैः सिताः इत्यमरः । राजा हंस इव सारग्राहित्वादिगुणसाधात् राजहंसःनृपश्रेष्ठश्च स्मार्य एकत्र सारग्राहित्वादिगुणैरनुकरणीयतया अपरः पवित्रचित्रचारित्रशालितया वर्णनीयतया स्मरणीयः तेन च कवेः प्रतिभादिविकाशात् । सकलकलंपुरमेतज्जातं स. म्प्रति सुधांशुबिम्बमिव इत्यादाविव उभयोः (हंसस्य राज्ञश्च) समान शब्द वाच्यतारूपसाधर्म्य श्लेषेणाह-मरालेति । हंसपक्षे मरालवालः मराल: राजहंसजातीय हंसविशेषः तस्य बाला शावकः अपत्य मित्यर्थः तद्वंश्य इति तात्पर्यम्, अत एव वके चञ्चौ स्वतएव निसर्गादेव रक्तालोहितः, चरणे अतियुगलेऽपि तद्वत्-तथा रक्त इत्यर्थः, प्रसक्तः प्रसक्तिः प्रसङ्गःगुणिनां प्रस्तावः गुणवतां चर्चायामाख्यान मित्यर्थः अस्याऽस्तीति स तथोक्तः। स दुग्धाम्भसि-क्षीरसंमिश्रनीरे तद्विवेत्ता तयोः (दुग्धजलयोः) पृथग्भावसम्पादयिता विवेचको वा राजपक्षे-मरालवालामरालाः कन्जलानि इत्र बाला: मूर्धजाः केशायस्य स इति. मराला:-चिकणा बाला: केशायस्येतिवा स तथोक्तः। यद्वा मरालान्खलान् वारयतीति सः। रलयोर्डलयोश्चैव स-शयो Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. बंबयो स्तथेतिवचनेन बचयोः रलयोश्चैकत्वस्मरणात् । वक्त्रे-वाग्मिने युक्तियुक्तबहुवादिने रक्त: अनुगगवान् यद्वावक्त्रे मुखे रक्तः प्रसन्न इत्यर्थः चरणे आचारे श्रेष्ठाचरणे शीलेवा प्रसक्तः-व्यासगवान् लीन इत्यर्थः यद्वा रणे- युद्धे प्रसक्तः-सानन्दः सदुग्धाम्भसि-दुग्धमिश्र जले लक्षणया सदसतोरित्यर्थः तद्विवक्ता-विवेचनशीलः सदसद्विवेकशालीत्यर्थः ॥ १४ ॥ सत्त्वेऽप्यसत्त्वे कियती कथा न, तत्सन्तु सन्तः सततं प्रसन्नाः । काव्येक्षणाद्वः कृपया पयोवद्, भावाःस्वभावात्सरसा यतः स्युः॥१५॥ अन्वयः-सत्त्वेऽसत्वेऽपि कियती कथा न असित तत् सन्तः प्रसन्नाः सन्तु. [ मयि ] यत: वः कृपया काव्येक्षणात् भावा: पयोवत् स्वभावात् सरसा: स्युः ॥ १५ ॥ व्याख्या-अपि समुच्चयार्थकोभिन्न क्रमश्च (गर्हा-समुच्चयप्रश्न-शङ्कासंभावनास्वपि इत्यमरः) तथा च सन्वे-माधुभावे सजनत्वे इत्यथैः असत्त्वे असाधुभावे असज्जनत्वे दौर्जन्ये इत्यर्थः कियती-किंप्रमाणिका कथा वाक्यविस्तारः न अस्तीति शेषः बहुविधैवकथाऽस्तीत्यर्थः । यद्वा सत्त्वे-गुणे असचे दोषारोपे च बयउक्तयः सन्तितत्-तेन हेतुना तस्माद्धेतोर्वा सन्तः--सज्जनाः सततं प्रसन्नाःकृतप्रसादाः अनुग्राहका इत्यर्थः सन्तु-भवन्तु मयीतिशेषः । यतःयस्मात् कारणात् प्रसादाद्वा वा-युष्माकम् ईक्षणकर्तृभूतानाम् कृपया अनुग्रहेण कान्येक्षणात्-काव्याऽवलोकनात् प्रस्तुतकाव्यसमीक्षणादित्यर्थः यद्वा काव्यया-धिया-ईक्षणात्-पर्यालोचनादित्यर्थः (काव्यं ग्रंथे पुमान् शुक्र काव्यास्यात्पूतना-धियोरितिकोशः) भावा:-- Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये रत्यादिस्थायिभावादयः। देवादिविषयारत्यादयो वा पदार्था वा यद्वा अभिप्रायाः, पयोवद्-दुग्धवत् जलबद्वा स्वभावात्-निसर्गात् सरसाः-अनुकूलाः वर्णनीयानुगुणा इत्यर्थः । यद्वा मनोहराः, मधुरा वा स्युः ॥ यद्वा यतः-प्रसन्नत्वात् कृपया काव्येक्षणात् वः भावाःआशयाः हृदयानीत्यर्थः स्वभावात् न तु दुर्जनादेरिवकृत्रिमतयेतिभावः सरसाः सार्दा अनुकूला वा स्युर्येन कवीनां प्रवृत्तिः सफला भवेत् ॥ १५ ॥ श्रेणीभवद्भव्यमणी मणीवकै वरैरगानां निकरौर्विकखरे । द्वीपेऽस्ति जम्बूपपदे प्रभारतं, श्रीभारतं भारतवित स भारतम्॥१६॥ अन्वयः-श्रेणीभवद्भव्यमणी मणी च (ब) कैः वरैः अगानां निकरैः विक. स्वरे जम्बूपपदेवीपे प्रभारतं भारतचित्सभारतं श्रीभारतम् अस्ति ॥ १३ ॥ व्याख्या-श्रेणीभवद्भव्यमणीमणीवकः-अश्रेणयः श्रेणयः सम्पद्यन्ते तथा भवन्ति इति श्रेणीभवन्ति, मण्यः-रत्नानि मणीवकानि कुसुमानीव इति मणीमणीवकानि श्रेणीभवन्ति भव्यानि-शोभनानि मणीमणीवकानि येषु ते श्रेणीभवद्भव्यमणीमणीवकाः तैः तथोक्तैः । अगानां-न गच्छन्तीत्यगाः-पर्वता वृक्षाश्च “शैल-वृक्षौनगावगौ" इत्यमरः । तेषां तथोक्तानां निकरैः-समूहैः विकस्वरे-विकासिनि "विकासीतु विकस्वरः" जम्बुपपदेद्वीपे-जम्बूद्वीपे इत्यर्थः । प्रभारतं भरतस्य-आपमेः, दौष्यन्तेर्वा दाशरथेचा गोत्रापत्यानि भारताः, प्रकृष्टा भारताः-भरतवंशीयनृपतयो यस्मिन् तत् । यद्वा भरते न मुनिना प्रोक्तं भारतं प्रकृष्टं भारत-नाट्यशास्त्रं यस्मि स्तत् । अथवा प्रभा रता-सदास्थितिकायत्र तत्-प्रभासु रतं-सक्तं वा तत् । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. यद्वा अरतिः-रतिविरहः रागाभावोवाऽस्याऽस्तीत्यरतः अर्शआधच प्रभः-चन्द्रप्रभस्वामी ' नामैकदेशग्रहणे नामग्रहणात् देवदत्तो दत्त इतिवत्. तथाच प्रभः-चन्द्रप्रभः अरतः-रतिविरहितः रागा-भाक्वान् वाऽत्र तत्प्रभारतम् । भारतवित्सभारतम्-भरतान्-भरतवंश्यानधिकृत्य कृतोग्रंथो भारत-पाण्डवचरित-महाभारतादिकम् भरतेन मुनिना प्रोक्तं भारतनाट्यशास्त्रम् वा विदन्ति-जानन्तीति भारतविदस्तेषां सभासु-परि. पत्सुरतम् बहुतरभारतवित्परिपत्कमित्यभिसन्धिः। श्रीभारतम्विभर्ति पालयति षटखण्डं भरतक्षेत्रमिति भरतः तेन चिन्हितं पालितं वा तस्येदं वा भारतम् श्रीभिः सहितं भारतं श्रीभारत-भरतक्षेत्रमित्यर्थः अस्ति-वर्तते अनुप्रासः । स्वभावोक्तिश्च । रत्नं मणियोरश्मजातौमुक्तादिकेऽपिचेत्यमरः पुष्पंसूनं सुमनसः प्रसवश्व मणीवकम् इति हेमचन्द्रः भारतो भरतापत्ये....इति. भारतं ग्रंथभेदेस्याद्वर्षभेदे नपुंसकमिति च कोशः॥ श्रीर्वेशरचना शोभा भारती सरलद्रुमे । लक्ष्म्यां त्रिवर्गसम्पनिविधोपकरणेषु च। विभूती च मतौ च स्त्री इति मेदिनी कोशः ।। "श्रेणीभवद्भव्यमणीमणीचकैः” इत्येतद्घकटकं "मणीचक्र" पदं यदि कवेः स्वीयशयकुशेशयकलितललितलिप्या 'चकार' तृतीयाक्षरकमेवनिर्गतं चेत्तदाऽयमर्थः-"मणीव चकते धातोरनेकार्थत्वात् दीप्यते इति मणीचकः-दीपविशेषः-विद्युद्दीप इत्यर्थः । चक हप्तौ प्रतीपाते च. पचायच् । मण्यः मणीचका इव इति मणीमणीचकाः, श्रेणी भवन्तः पंक्तिबद्धतयास्थिताः भव्या: शोभना मणीमणीचकायेषु ते श्रेणीभवद्भव्य मणीमणीचका स्तैस्तथोक्तैः" ॥ १६ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www .. ...... ......... . ... ....... ... ........ .. ....... ........... ...... ... महोपाध्यायश्रीवविजयगणिविरचिते सससन्धानमहाकाव्ये गङ्गाऽनुषङ्गान्मणिमालभारिणी, सुरद्रुसेकामृतपूरसारणी । क्षेत्रक्षमेशस्य रसप्रचारिणी, __ साप्रामुढा वनितेव धारिणी ॥१७॥ अन्वयः-प्रागुदूढा वनितेव गङ्गा [शोभते क्षेत्रक्षमेशस्य अनुषङ्गात् मणिमालभारिणी सुरद्रुसेकामृतपूरसारणी [क्षेत्रक्षमेशस्य] रसप्रचारिणी धारिणी.।। १८॥ व्याख्या-क्षेत्रक्षमेशस्य क्षेत्र पृथ्वीपतेः भरतक्षेत्रस्य प्रागुदृढापूर्व परिणीता वनिता-स्त्री इब गङ्गा-तन्नाम्नी शाश्वती महानदी शोभते इति सा कीदृशीत्याह-क्षेत्रक्षमेशस्य क्षेत्रस्थः क्षमेशः क्षेत्रक्षमेशस्तस्य-चैताठ्य पर्वतस्य अनुषङ्गात-सम्बन्धात् मणिमालभारिणी मणीनांमालां बिभर्ति धारयति तच्छीला यद्वा मणीनां मालेव इति मणिमाला-दीप्तिस्तां यद्वा मणीनां मालेव माला-पंक्तिर्मणिमाला तां बिभत्तीत्येवंशीला रत्नसमूहधारिणीत्यर्थः माले--षिके-ष्टिकस्यान्ते भारि-तूल-चितेषु इत्यनेन माला शब्दस्य ह्रस्वत्वम् । वैताढयपर्वतासन्ने गङ्गाया नवनिधान शालित्वस्य शास्त्रसिद्धतया मणिमालाधारित्वमुपपद्यते । पुनः कीदृशी? सुरद्रुसेकामृपूरसारणी-सुरद्रुः कल्पवृक्षः देवदारुवृक्षो का तस्य सेचनं सेका जलादिनाऽऽीकरणम् सिर्भावेघञ् । सेकार्थम् अमृतं चारि तस्य पूरः-प्रवाहः तस्य सारणी कुल्या इव । पुनः कीदृशी ? क्षेत्रक्षमेशस्यन्वर्षपर्वतस्य प्रस्तावात् हेमवतः रसप्रचारिणी-रसं-जलं तम्य प्रचारिणी आसमुद्रं विस्तारिजीत्यर्थः । यद्वा क्षेत्रक्षमेशस्य क्षेत्रं-कलत्रं भार्येत्यर्थः तस्यै तस्था वा क्षमा योग्यः हितो वा शक्तो वा ईशा-पतिः तस्य तथोक्तस्य रसप्रचारिणीचमा आनन्दः शृङ्गारादिर्वा तस्य प्रचारिणी सम्पादिका Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. जनिकेत्यर्थः । पु० की. ? धारिणी-दुर्गतीपतज्जन्तून् धारयतीत्येवंशीला यद्वा पापानरके संभावितपातान् प्राणिनो निजभुवनपावन जीवनाऽवगाहनविगतकल्मषतया धारयति अवलम्बते तच्छीला । अत्रपद्ये 'क्षेत्रक्षमेश' पदे तन्त्रं विवक्षितम् तेनासौ अर्थत्रयवाची ॥१८॥ उपमाऽतिशयोक्तिश्चालंकारौ ॥ सिन्धुद्धितीयाऽब्जमुखानुसारिणी, जडप्रसङ्गावृतचारुचारुणी । इतस्ततो नौ निभृतार्थतारिणी, वसुप्रकाशैः सुरविप्रतारिणी ॥ १८ ॥ अन्यय-क्षेत्रक्षमेशस्य उदृता द्वितीया स्त्रीव सिन्धुः प्रवहति] अब्जमुखानुलारिणी इतस्ततो नौनिभृतार्थतारिणी. बसुप्रकाशैः सुरविप्रतारिणी॥१८॥ व्याख्या -"क्षेत्रक्षमेशस्य' इति. 'प्रागुदृढ़ बनितेवे'-ति च पूर्वतोऽन्वेति । तथा च क्षेत्रक्षमेशस्य क्षेत्रपृथ्वीपतेः प्रागुदृढा=पूर्वपरिणीता द्वितीया वनिता स्त्री इव सिन्धुस्तन्नाम्नी पश्चिमाभिवाहिनी महानदी प्रवहति । यद्वा पूर्व क्षेत्रक्षमेशस्य द्वे वनिते तयोः पूर्वां परिचाययतीत्युक्तमपरांपरिचाययन्नाह-सिन्धुरिति. द्वितीया-भागीरथीतरा सिन्धु-स्तन्नाम्नी पश्चिमाभिमुखवाहिनी महानदी प्रवहतीति शेषः । सा कीदृशी? अब्जमुखानुसारिणी=अब्जं पद्म पद्महद इत्यर्थस्तस्य मुख-निस्सरणं निर्गममागे इत्यर्थः अग्रभागोवा तत् अनुपश्चात् (तस्य) समीपे वा सरति गच्छतिपततीतीत्यर्थ स्तच्छीला । जड़प्रससङ्गालयोर्डलयोश्चैकत्वस्मरणात् जलप्रसङ्गात् जलसम्बन्धात् वृतचारुवारुणीचरुणोदेवताऽस्याः वरुणस्येयं वा वारुणी-पश्चिमदिक्. वृता-स्वीकृता चारुशोभना वारुणी यया सा तथोक्ता अन्यापि- - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये काचित् जड़:-मूढः, शिशिरः (शैत्यं) वा तस्य प्रसङ्गात् वृतचारुवारुणी स्वीकृतरुचिरमदिरा भवति । पुनः कीदृशी इतस्ततः नौनि. भृतार्थतारिणी नावा=नौकयानावि वा निभृतान् धृतान् गुप्तान वा निभृतं-निश्चलं यथा तथेति वा अर्थान् वस्तूनि धनानि वा तारयति= परपारंनयति तच्छीला सा तथोक्ता । वसुप्रकाशैः-चसोः सूर्यस्य वसूनां देवानां वा मणीनां वा प्रकाशैः प्रतिबिम्बनैः यद्वा वसुषु= तोयेषु प्रकाशैः प्रतिबिम्बायुद्योतैः सुरान्देवान् विप्रतारयितुं शीलमस्याः सा तथोक्ता । वसूनां जलानां प्रकाशः सुरानदेवान् विप्रान् ब्राह्मणान् च तारयति तच्छीला । जडा स्त्रियाम् । शूकशिम्ब्यां, हिमग्रस्त-मूका-अज्ञेषु तु त्रिषु इति मेदिनी । वसु तोये धने मणौ इति वैजयन्ती, वसुः सूर्यो वसु. देवो वसुर्वन्हिर्वसुर्मरुत् इत्यनेकार्थध्वनिमञ्जरी अर्थोऽभिधेय रैवस्तुप्रयोजन निवृत्तिषु इत्यमरः ॥ १८ ॥ तत्रार्यभागो वदनं खगानां, श्रेण्यौपुनश्चोष्ठपदं दधाने। क्षेत्रावनीशस्य तु सिन्धु–गङ्गे, ते श्मश्रुणीभात इव प्रसिद्ध ॥ १९ ॥ अन्वयः-तत्र आर्यभागः [अर्यभागश्च] क्षेत्रावनीशस्य वदनं खगानां । श्रेण्यौ ओष्ठपदं दधाने. प्रसिद्ध ते सिन्धु गङ्गे श्मश्रुणीइवभातः ॥१८॥ व्याख्या-तत्र-पट्खण्डात्मभूभागे. आर्यभागः आर्यखण्डम् अर्यभागः अर्यैः स्वामिभिः भाति-शोभते इत्यर्यभाः स चासावमः पर्वतश्चेति स तथोक्तः-वैताढयपर्वतश्च.क्षेत्रावनीशस्य क्षेत्र पृथ्वीपते भरतक्षेत्रनृपस्य. वदनं-मुखं तत्स्थानीय इत्यर्थः । खगानां Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ आचार्य श्रीविजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. विद्याधराणां श्रेण्यौ - वैताढ्य पर्वतस्य दक्षिणोत्तर श्रेण्यौ ओष्ठपदं = ओष्ठस्थानं दधाने ओष्टस्थानीये इत्यर्थः । प्रसिद्धे - ख्याते भूषिते वा ते प्राग्दर्शित स्वरूपे सिन्धुगङ्गे श्मश्रुणी - पुम्मुखरोमराजी इव भातःश्रोते। स्यादर्यः स्वामि वैश्ययोरित्यमरः । प्रसिद्धौ ख्यातभूषितौ इति चामरः । तनूरुहं रोम-लोम तद्वृद्धौ श्मश्रु पुंमुखे इत्यमरः ||१९|| क्षेत्राऽवनीशोऽब्धिदुकूलवास स्तत्र प्रभासो मगधाधिवासः । पादौ वराद् दामगिरिर्नितम्बः, * क्षेत्रस्य नास्त्येव ततोऽस्यविम्बः ||२०| अन्वयः - क्षेत्राविनीशः अदिधदुकूलवासः तत्र प्रभासः मगधाधिवासः च पादौ वराद्दामगिरिर्नतम्बः ततोऽस्य क्षेत्रस्य विम्ब नास्त्येव ॥ २० ॥ " 1 व्याख्या - अवन्यामवनिं वा ईष्टे इत्यवनी क्षेत्रस्याऽवनीद् तस्य क्षेत्राविनीशः = क्षेत्र पृथ्वीपतेर्भरत क्षेत्रस्य अब्धिदुकूलवासः =दुकूलम्=अन्तरीयक्षौमयुगलं तदात्मकं वासः = वस्त्रं दुकूलवासः, अब्धिः लवणसमुद्रः एव दुकूलवास इति स तथोक्तः । तत्र = भरत क्षेत्रे वर्तमानौ - प्रभासः=स्वनामख्याततीर्थविशेषः, मगधाधिवासः मगधाधिपदेबस्य वासस्थानं मागधतीर्थम् च इमौ द्वावपि पादौ चरणस्थानीयौ । वराद्दामगिरिः=वरदामनामा शाश्वतपर्वतः नितम्बः कटिप्रदेशः । ततो हेतोः अस्य क्षेत्रस्य विम्बः - प्रतिकृतिः सादृश्यमिति यावत् नास्त्येव । क्षौमं दुकूलं स्यादित्यमरः । अतिशयोक्तिरलंकारः उस्प्रेक्षा वा ॥ २० ॥ मूर्धाऽस्य हैमाद्रि रमुष्य चूला स्याद्रोहिता सरिच्च वामा । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww. rrmerama २६. महोपाध्याय श्रीवविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये - सा दक्षिणा सिन्धुसरिद रसाने, तयोः पथस्ते नयने च मन्ये ॥ २१ ॥ अन्वयः-अस्य मूर्धा हैमाद्रिः, रोहिता अमुष्य चला स्यात् घुसरित् वामाभूः सिन्धुसरिद् दक्षिणा सा, रसाने तयोः पथः ते नयने मन्ये ॥२१॥ व्याख्या-अस्य-क्षेत्रावनीशस्य मूर्धा-शिरस्थानं हैमाद्रिः हेमवान् पर्वतः । रोहिता-तन्नामिका हैमवताऽभिधक्षेत्रवाहिनी नदी अमूष्य क्षेत्रस्य चूला-चूडा शिखास्थानी येत्यर्थः । धुसरि-आकाशगंगा हैमवतशिखरिशिखरप्रपतङ्गङ्गाप्रवाहः वामा-सव्यभागीया भ्रूः नेत्रोपरिस्थरोमराजिः, सिन्धुः दक्षिणा भ्रूः । रसा-जिक्षा इव रसा-नदीनिर्गमनलिका तस्या अग्रे-अग्रभागे उपरीत्यथः तयोः= सिन्धुगङ्गयोः पथ:=मार्गः ते प्रसिद्ध नयने नेत्रे मन्ये-उत्प्रेक्षे इत्यर्थः उत्प्रेक्षा. ॥ २१ ॥ पूर्वापरौ तोयनिधी च बाहू, तन्मध्यदेशः स तु मध्यभागः। नाभिः कुशावर्तपदेऽदसीया स्याज्जङ्गलस्तद्गलनालदेशः ॥ २२ ॥ अन्धयः-पूर्वापरौ तोयनिधी [ अस्य ] बाहू, स मध्यभागः तु तन्म- . ध्यदेशः । कुशावर्तपदे ऽदसीया नामिः, जङ्गलः तद्गलनालदेशः स्यात् ॥२२॥ व्याख्या-पूर्वापरौ पूर्व पश्चिमौ, तोयनिधी-समुद्रौ अस्य भरतक्षेत्रस्य बाहू भुजस्थानीयौ. सम्प्रसिद्धः मध्यभागः मध्यप्रदेश तन्मध्यदेशः तस्य भरतक्षेत्रस्य मध्यमावयवः । कुशावर्तपदे अमुव्य इयमदसीया-भरतक्षेत्रसम्बन्धिनी नाभिः तत्स्थानमित्यर्थः । जगालः कान्तारभूयिष्ठदेशः तद्गलनालदेशः तस्य भरतक्षेत्रस्य कपठभागः बोधव्यः ॥ उत्पेक्षा. ॥ २२ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. स्कन्धांशुकं श्रीभरतस्य गङ्गा, यज्ञोपवीतं शुचि तस्य सिन्धुः । नास्मिंस्ततो वैषयिको विकारः, सिद्धं शिवं ब्रह्मपदं तदेतत् ॥ २३ ॥ अन्वयः-गला श्रीभरतस्य स्कन्धांशुकं, सिन्धुः तस्य शुचि यज्ञोपवीतं ततः अस्मिन् वैषयिकः विकारः न तदेतत् सिद्धं शिवं ब्रह्मपदम् अस्ति ॥ २३ ॥ व्याख्या-गङ्गा श्रीभरतक्षेत्रराजस्य स्कन्धांशुकं स्कन्धोतरीयं पूजा-जप-ध्यानादिकालीनस्कन्धधार्ययोगपट्टः । सिन्धुश्च तस्य% भरतक्षेत्रस्य, शुचि-पवित्रं यज्ञोपवीतं यज्ञसूत्रं वामस्कन्धत आरभ्यदक्षिणकुक्षि--पृष्ठवेष्टकविप्रधाोपवीतसूत्रमित्यर्थः, ततः तस्मात् कारणात् असिन्-भरतक्षेत्रे निवासिनां जप-ध्यानादि लीन मनसां वा, वैषयिका-विषिणोति-स्वात्मकतया विषयिणं निरूपयति इति वि. षया-भोगसाधनं स्रक्चन्दनवनितादिः, इन्द्रियगोचर शब्द-रूपादिश्च देशश्च तेन-- विषयेण निवृत्तो वैषयिकः विषयजनितः विकारः विकृति श्चेतसोs. न्यथाभावः न अस्तीति शेषः । तत् तस्मात् विषयजन्यविकाराऽनु. त्थानाद्धेतोः एतत् भरतक्षेत्रं सिद्ध-सिद्धिः योगादिसिद्धिरस्ति अ. सिन् अर्शआद्यच् सिद्धिसम्पादकं शिवं कल्याणावहं निरुपद्रवं वा ब्रह्मपदं-ब्रह्म-ब्रह्मचर्य तस्य पदं-स्थानं, यद्वा ब्रह्म-महानन्दः मोक्ष इत्यर्थः तस्य पदं-साधनस्थानम् आम्नातं पूर्वसूरिभिरिति शेषः । खर्गादीनां भोगभूमित्वात्तत्रकर्मानुष्ठानाऽनधिकारात्. अस्य तु भरतक्षेत्रस्य कर्मभूमित्वेनाभिमतत्वान्मोक्षसाधनकर्माऽऽचरणे प्रवृत्त्या भवन्ति भव्या मोक्षाधिकारिण इति भरतक्षेत्रस्य मोक्षसाधनस्थानत्वं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ महोपाध्यायत्री मेघविजयराणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाग्ये युज्यते महानन्दोऽमृतं सिद्धिः कैवल्पमपुनर्भवः । शिवं निःश्रेयसं श्रेयो, निर्वाणं ब्रह्म निर्वृतिः इति हेमचन्द्रः ॥ २३ ।। क्रीड़ाऽऽस्पदं यद् भरतं रमाया, जनस्ततोऽस्मिश्चरतः प्रमायाम् । रत्नप्रसक्तो निगमः क्षमाया, __ मायास वर्ज बहुलक्षमायाः ॥ २४ ॥ . अन्वय-यद् भरतं स्माया: क्रीडास्पदं ततः अस्मिन् जनः प्रमायां रतः, रवप्रसक्तः बहुलक्षमाया निगमः क्षमायाम् आयासवर्ज (निरतः) । यद्वा बहुलक्षमायाः क्षमायां (निरताः) निगम आयासवर्ज रत्नप्रसक्त (आसीत् ॥ २४ ॥ व्याख्वा-यद्-यस्मात् कारणात् भरतं-भरतक्षेत्रं रमाया:लक्ष्म्याः क्रीडास्पद-विलासस्थानं सार्वदिकस्थितिस्थानमित्यर्थः नित्यनिवासस्थानभूतमिति भावः ततः-तस्मात् भरतक्षेत्रे लक्ष्म्यानित्य. निवासित्वेन लोकानां शरीरस्थितिचिन्ताद्यभावात् हेतोः जनः-लोकः प्रमायां-अमिती यथार्थज्ञाने तत्साधनकर्मादावित्यर्थः रतः-सक्तः तल्लीनमना इत्यर्थः रत्नप्रसक्तः-रत्रसंग्रहतत्परः बहुलक्षमाया:-बहवः अने के लक्षाः-लक्ष्या अनुकम्पनीयतया आश्रयणीयतया वा उद्देश्या यस्याः सा बहुलक्षा, सा चासौ मा बहूनां लक्षाणाम्-अयुतपंक्तीनां समाहारः बहुलक्षं तदात्मिका वा मा-लक्ष्मीस्तां याति-प्राप्नोत्यध्यवसायादिनेति स तथोक्तः " या प्रापणे, विच्" निगमः-वाणिजः व्यवसायिजन इत्यर्थः क्षमायां-पृथिव्यां आयासवर्जमर्जनक्लेशरहितं यथा तथा निरत इत्यर्थः पृथिव्या रत्नगर्भत्वात् । यद्वा बहूनि लक्षाणि लक्ष्याणि विषयतया यस्या सा बहुलक्षा तादृशी माया-बुद्धिर्येषां ते तथोक्ताः प्रभूतविषयाऽवगाहिबुद्धिशालिनः विवेकिन इति यावत् क्षमायां-शान्तो तत्प्रधानकर्मणि मुनिव्रतग्रहणादावित्यर्थः निरता Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसरिप्रणीता सरणी टीका. २९ Purwwwwwwwwwwwna इति शेषः। निगमश्च आयासवर्ज रत्नप्रसक्त इति सम्बन्धः। निगमः वणिक्पथः आयासवर्ज रत्नार्थ प्रसक्ताः प्राप्ता लीना वा लोका अत्र स रत्नप्रसक्तः आसीत् इति शेषः ।। २४ ॥ निगमो वाणिजे पुर्यां कटे वेदे वणिक्पथे इति विश्वः । क्षितिशान्त्योः क्षमा इत्यमरः माया स्याच्छाम्बरीबुद्धयोरितिमेदिनी ।। मन्ये तदा रामपदं जगत्याः, साम्राज्यरूपं भरतं यतः सा । श्रीदे-वरत्वाश्रितलक्ष्मणाशां, सीतापि लेभे धरणी प्रतीता ॥ २५ ॥ अन्वयः-तद् भरतं जगत्या आरामपदं साम्राज्यरूपं मन्ये यतः प्रतीता सीतापि धरणी श्रीदेऽवरत्वाश्रितलक्ष्मणाशां लेभे अथ च तदा जगत्याः साम्राज्यरूपं रामपदं भरतं मन्ये यत:धरणीमतीतासीताऽपि श्रीदेवरत्वाश्रितलक्ष्मणाशा लेभे, यद्वा श्रीदेवरत्वाश्रितलक्ष्मणा सीता यत आशां लेभे ॥ २५ ॥ व्याख्या-तद्भरतं तदाख्यविस्तृतशोभनक्षेत्ररत्नं जगत्याः पृथिव्या भुवनस्य वा आरामपदं विश्रामस्थानम् उपवनस्थानं वा ". आरामः स्यादुपयनं कृत्रिमं वनमेव यदित्यमरः” साम्राज्यरूपम् सर्वैश्वर्यरूपं च मन्ये उत्प्रेक्षे यतः यस्मात् भरतक्षेत्रात् प्रतीता प्रसिद्धा सीता हलोत्कृष्टापि सा धरणी रत्नप्रभाभिधाना श्रीदेवरत्वाश्रितलक्ष्मणाशा श्रीदे-धनदेऽवरत्वेन न्यूनत्वेन अनिष्टत्वेन वा आश्रितं युक्तंन्यू. नत्वसूचकं यत् लक्ष्म चिन्हं रत्नादि तेन श्रीदे-वरत्वाश्रितलक्ष्मणा उपलक्षिता आशा दिक् तां दक्षिण दिशामित्यर्थः लेमे, प्राप.॥ २५ ॥ अथ च तदा श्रीरामचन्द्रवनवासकाले जगत्याः साम्राज्यरूपं रामपदं दाशरथिरामस्थानं भरतं कैकयीसुतं मन्ये यतः यस्मात् भरतान यनिमित्तमित्यर्थः धरणीप्रतीता थरण्याः पृथिव्याः सकाशाद प्रतीता Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० महोपाध्यायश्रीमेषविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये प्रसिद्धि प्राप्ता प्रादुर्भूतेत्यर्थः सीता जनकराजनन्दिनी अपि श्रीदेवरत्वाश्रितलक्ष्मणाशां श्रिया युक्तो देवरः श्रीदेवरस्तस्य भावस्तत्त्वं श्रीदेवरत्वेनाऽऽश्रितो लक्ष्मणः सौमित्रिर्यस्यां सा चासौ आशा भरतेन राज्येऽङ्गीकृते रामवनवासार्थनियतीकृता दिक् दक्षिणादिगित्यर्थः ताँ लेभे। यद्वा श्रीदेवरत्वेन आश्रितो लक्ष्मणो यां यस्यां वा सा श्रीदेवरत्वाश्रित लक्ष्मणा सीता जानकी यतः भरतात् आशां दिशम् दक्षिणांदिशमित्यर्थः यद्वा आशां कामम् इच्छां वनवासान्ते राज्यवि. षयिणी वाञ्च्छामित्यर्थः लेभे इति सम्बन्धः ॥ यद्वा तद्भरतं भरतक्षेत्रं जगत्याः भूमेः आरामपदं उद्यानस्थानम् रमणकस्थलमित्यर्थः साम्राज्यरूपम् सर्वसम्पद्रूपम् सर्वसाम्राज्योपभोगायतनमिति भावः यतः सा प्रसिद्धिं गता त्रिजगद्विख्याता प्रतीता सर्वतः प्रसन्ना कृतादरा च धरणी भारतभूमिः सीतापिहलोत्कृष्टापि यद्वा लक्ष्मीरपि सर्वसम्पद्रपापि श्रीदे कुबेरे उत्तरदिविभागे वरत्वाश्रितलक्ष्मणाशां वरत्वेन श्रेष्ठत्वेन आश्रिता अधिगता लक्ष्मप्रधानमेव लक्ष्मणः स्वार्थेऽण् तस्य आशा अश्नुते व्याप्नोतीति आशा तां प्रधानव्यापकता लेभे सर्वतः श्रेष्ठत्वेनाश्रितप्रधानन्यापकतां प्रापेत्यर्थः ॥ अत्र श्लेष उत्प्रेक्षा चेत्यलंकृती ॥ २५॥ दाक्षिण्यमामृश्य यदस्य मेरुः, ___ स काञ्चनार्चिविबुधैधृतार्चः । महाविदेहं पुरतश्च पश्चा दस्यादिशद् दक्षिणभागमेव ॥ २६ ॥ अन्धयः-यत् मेरुः अस्य दाक्षिण्यमामृश्य महाविदेहं पुरतः पश्चात् च निवेश्य अस्य दक्षिणभागमेव (संनिवेशार्थम्) आदिशत् । स काशनार्चिः विबुवैभृतार्चः ॥ २६ ॥ कवाय अव दक्षिणमेलः अस्य वा दक्षिणभागले Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ३१ यत् = यस्मात्कारणात् मेरुः = सुवर्णपर्वतः अस्य भरत क्षेत्रस्य दाक्षिण्यम् = औदार्य सरलतां वा सर्वानुकूलतां वा यज्ञादिविधिदानं वा आमृश्य = विमृश्य विचार्येत्यर्थः । महाविदेहं भरतक्षेत्राधिकविस्तृतमपरक्षेत्रविशेषं पुरतः = पूर्वस्यां दिशि पश्चात् पश्चिमायां च दिशि यद्वा पुरतः = अग्रतः पूर्वदिशीत्यर्थः पश्चात् अवरस्मिन् भागे पृष्ठभागे पश्चिमदिशीत्यर्थः निवेश्य अस्य = भरतक्षेत्रस्य दक्षिणभागमेव स्वदक्षिणदेशमेव आदिशत् = उपाsकल्पयत् संनिवेशार्थमिति शेषः । मेरुः कीदृशः स काञ्चनार्चिः सुवर्णमयरोचिष्कःः पु० की ० विबुधैः = देवैः धृतार्चः कृतपूजः ॥ दक्षिणे सरलोदारौ इत्यमरः । दक्षिणो दक्षिणोद्भूतसरलच्छन्दवर्तिषु । आरामे त्रिषु यज्ञादिविधिदाने दिशि स्त्रियाम् इति मेदिनी ॥ २६ ॥ स्पर्धा दधच्चैरवतं यदस्य, विन्यस्य वामं कृतरत्नकामम् । स शुरतं प्राप्तघृणित्वभव्यं, मेरुर्दधौ तद्भरतं त्वसव्यम् ॥ २७ ॥ अन्वयः - स मेरुः यत् अस्य स्पर्धा दधत् कृतरक्तकामम् ऐरवतं वामं बि. न्यस्य स शूरतं प्राप्तघृणित्वभव्यं तद्भरतं तु सव्यं दधौ ॥ २७ ॥ व्याख्या- सः=प्रसिद्धः मेरु:- सुवर्णशैलः यत् - यस्मात् भरतक्षेत्रे दाक्षिण्याद्यनेकगुणानुरोधाद्धेतोः अस्य = भरत क्षेत्रस्य स्पर्द्धा-दक्षिण भागावस्थापनादिसन्मानजनितामीर्ष्या परोत्कर्षासहिष्णुत्वमिति यावत् दधत् = धारयत् तथा कृतरक्तकामं कृतः = विहितो रक्ते- शोणिते रक्तस्य वा कामः = अभिलाषो येन तत् (परिहारपक्षे तु कृतो रक्ते= ऐरवत क्षेत्रगत ' रक्ता रक्तवतीत्येतन्नदीद्वय सम्बन्धिलोहितवर्णजळे कामो येन तत्, रक्ता रक्तवती च नदीद्वय भैरवत क्षेत्रे वर्तते वदीयं जलं Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३२ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकान्ये रक्तं तत्राऽनेनेच्छाकृतेतिकल्पना । लोकेऽपि रक्तच्छ वेऽधमपदं राज्ञा प्रदीयते ) अत एव दोपाद् ऐरवतंतदाख्यक्षेत्रभेदं वाम-बामगतं सव्यभागस्थं विन्यस्य-विधाय कृन्वत्यर्थः । स शूरतं शूरतः कृपालुस्तेन सहितं यद्वा शूरस्य भावः शूरता शौर्य तेन सहितम् । प्राप्त घृणित्वभव्यम्=प्राप्ता अधिगता घृणिः कान्ति यस्ते प्राप्तघृणयस्तेषां भावस्तत्वं तेनभव्यं-शोभनं योग्यं वा यद्वा धृणा करुणा दयेत्यर्थः अस्त्यस्यासौ घृणी दयालुस्तम्यभावो घणित्वं दयालुता कृपेत्यर्थस्तेन भव्यं, यद्वा प्रकृष्टाः आप्ताम् अत्ययिता विश्वास्यवचना इत्यर्थः यस्मिन् तत्प्राप्तं तच तद् घृणित्वभव्यं चेति विशेषणोभयपदकः कर्मधारयः, तत्-प्रसिद्धं भरतं भरतक्षेत्रं तु असव्यं दक्षिणं दक्षभागस्थं कृत्वेन्यर्थः दधौ-धारयामास । वामंधने पुंसि हरे कामदेवे पयोधरे वल्गुप्रतीपसव्येषु त्रिषु नार्या स्त्रियामथ इति मेदिनी। कृपालुः शूरतः समाः इत्यमरः । आप्त-प्रत्ययितौ समौ इत्यमरः । जुगुप्सा-करुणे वृणे इति चाऽमरः ।। २७ ।। कुरुप्रकाशी विषयः स-मागधः, प्रशंसितः काव्यशतैः स--मध्यमः। स-कौशलः कोशलसत्कृषीवलैः, श्रियाऽभिनीतो जगतीह नीतितः ॥२८॥ __ अन्वयः-कुरुप्रकाशी विषयः (अस्ति) स मागधः काग्यशतैः प्रशंसितः स मध्यमः स कौशल: कोशलसत्कृषीवलैः (उपलशितः) इह जगति नीतितः श्रियाऽभिनीतः (पक्षान्तरेषु-स मागधः विषयोऽस्ति । स मध्यमो विषयोऽस्ति । स कौशलो विषयोऽस्ति (शेष विशेषणान्वयः प्रथमवत्) ॥ २८ ॥ व्याख्या-कुरुप्रकाशी-कुरुमिः तदाख्यराजविशेषः प्रकाशी प्रकाश (मसिद्धि) शाली, यद्वा कुरून् प्रकाशयति तच्छीलः स तथोक्तः Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ३३ विषय:- देशः अस्तीति शेषः कीदृशः स इत्याह-स मागधः- मागधैः राजादि स्तुतिपाठकैः वंशपरम्पराशंसकैव सहितः । काव्यशतैः - परशतकाव्यैः स्तुतिसहस्रेण वा प्रशंसितः प्रशंसामुर्खेन व्यावर्णितः, स मध्यमः - मध्यमेन - मध्यजस्वरेण मध्यस्थजनेन वा मध्यमया - हृदयोत्पन्न बुद्धिसंयुक्तनादस्वरूपवाणीभेदेन वा सहितः । स कौशल:- कुशलस्य भावः कौशलं, कौशलेन - क्रियानैपुण्येन सहितः । कोशलसत्कृषीबलैः - कोशैः - धनधान्यराशिमिर्लसद्भि- विराजमानैः - कृषीवलैः कर्षकैः उपलक्षितः इह-अस्मिन् जगति संसारे नीतितः - न्यायवर्त्तनशीलतया श्रिया - लक्ष्म्या भारत्या वा समृद्ध्या वा अभिनीत :- आभिमुख्येन सामीप्येन वा प्राप्तः । एतेन शान्तिनाथ - नेमिनाथ-कृष्ण वासुदेवाना मवतारदेशः प्रदर्शितः । हस्तिनापुर - शौरिपुर- द्वारिकाणां कुरुदेशान्तर्गत्वात् । हस्तिनापुरमारभ्य कुरुक्षेत्रा च दक्षिणे । पञ्चाल पूर्वभागे तु कुरुदेशः प्रकीर्तितः इत्युक्तेः ॥ १ ॥ चरम तीर्थकराऽवतारभूमिमाह-स मागध इति मगधे - देशभेदे भवा मागधा: -मगधदेश वास्तव्यजनाः तैः सहितो विषयः देशः मगधदेश इत्यर्थः ब्राह्मणकुण्डनगरं मगधदेशस्याऽभ्यन्तरवर्तीति संभाव्यते । सः प्रसिद्धः मध्यमः = मध्येभवः, विषय: =देशः मध्यदेशः मध्यप्रान्तः तदन्तर्वर्त्ति वाराणसीत्यर्थः मध्यदेशस्तु मध्यम इत्यमरः । हिमव - द्विन्ध्ययोमंध्यं यत्प्राग् विनशनादपि । प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः इति मनुः । अयं च प्रभुपार्श्वनाथावतारदेशः । स कौशलः = कोशले - देशविशेषे भवाः कौशलाः तैः सहितो विषयः कोशलदेश इत्यर्थः । अनेन श्रीयुगादिभवाssदिनाथस्य श्रीरामबलदेवस्य चाऽवतारभूमिः संसूचिता । सर्वत्र पक्षेषु 'कुरुप्रकाशी' इत्यस्य कुरुभिः ओदनैः रूपविशेषैर्वा प्रकाशी- प्रकाशशीलः । कुरुर्नृपांतरे भक्ते पुमान् पुंभूनि नीवृत्ति इति मेदिनी ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये देशः सदेशस्थितिभृन्नरेशः, - .. सुरार्चनाहूत महीसुरेशः । तपस्विवर्गेण यशस्विभिर्वा, कृतप्रवेशः स्थिरसन्निवेशः ॥ २९ ॥ अन्वय-सदेशस्थितिमृन्नरेशः सुरार्चनाहूत महीसुरेशः तपस्थिवर्गण यशस्विभिर्वा कृतप्रवेश: स्थिरसन्निवेशः दश ( आसीत् ) __ व्याख्या-सम्प्रति दशभिः पद्यैः पूर्वोक्तान देशान्वर्णयतिदेश इति । देश: जनपदः वक्ष्यमाणस्वरूप आसीदिति शेषः। सदेशस्थितिभृन्नरेश सदेशे-समीपे स्थिति-मर्यादामवस्थिति वा बिभ्र. तीति सदेशस्थितिभृतो नरेशा-राजानो यस्मिन् सः यद्वा सदासर्वसिन्काले ईशस्थितिम् ऐश्वर्य विभ्रतिधारयंतीति ते ईशस्थितिभृतो नरेशा यस्मिन स तथोक्तः। मुरार्चनाहूतमहीसुरेशः-मुराणां-देवानाम अर्चनायां पूजायाम् अर्चनार्थ वा आहृताः-आकारिता आमन्त्रिता इत्यर्थः महीसुरेशाः ब्राह्मणश्रेष्ठाः ऋत्विगादय इत्यर्थः यस्मिन स तथोक्तः। तपस्विवर्गण-तपोधनः यशस्विभिः-यशोधनैर्वा कृतः= संपादितः प्रवेशो यत्रासौ कृतप्रवेशः । स्थिरसन्निवेश:-स्थिरः-शाश्वतः सनिवेशः-सम्यस्थितिर्वास इत्यर्थः यत्र सः यद्वा स्थिरम् निश्चितः संनिवेशः-पुरादौ गृहादिरचनापरिच्छिन्नदेशोयस्मिन् स तथोक्तः।स देशाऽभ्यास-सविध-समर्याद-सवेशवत् इत्यमरः । सन्निवेशो निकपण इति चामरः ॥ २९ ॥ सदागमानां फलितैर्द्विधापि, स संनिधान बहुधा निधानैः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टोका. परोपकारादिलसद्विधानै, ३५ नेषु नेयः सुधियां प्रधानैः ॥ ३० ॥ अन्वयः - - - सदागमानां द्विधापि फलितैः ससंनिधाने बहुधा निधानैः (उपलक्षितैः) परोपकारादिलसद्विधानैः सुधियां प्रधानैः ध्यानेषु नेयः ॥ ३० ॥ व्याख्या --- सदागमानां सत्सिद्धान्तानां द्विधापि द्विविधैरवि ज्ञानक्रियारूपैः फलितैः फलैः, यद्वा सदागमानां = सन् - प्रशस्तःआगमः - आयः येषां ते सदागमा स्तेषां न्यायोत्पन्नानां धनाना मित्यर्थः द्विवापि फलैः- दान - भोगरूपैः स संनिधानैः - सन्निधानेन - समीपवासेन सहितैः यद्वा सत् - प्रशस्तं निधानम् - आश्रयः, कार्यावसानं वा तेन सहितैः । बहुधा - बहुप्रकारकैः निधानैः - शङ्ख- पद्मादिनिधिभिः उपलक्षितैः । परोपकारादिलसद्विधानैः -- परोपकरणप्रभृतिमि र्लसद्भिः- मनोहरैः विधानैः कर्मभि रुपलक्षितैः । यद्वापरोपकारादीनि लसन्ति-शोभनानि विधानानि कर्माणि येषां तैस्तथोक्तः । सुधियांसुबुद्धिशालिनां पण्डितानां वा मध्ये प्रधानैः - मुख्यैः उपलक्षितः असौ देशः ध्यानेषु - चिन्तनेषु नेयः प्राप्यः सर्वदा ध्यातव्यः श्लाध्यगुणत्वेनेति भावः उदात्तालंकारः ॥ ३० ॥ शैलाविभागे दृढ़सानुरागै, स्तपस्विपादोचित संविभागैः । भूपैः स्वरूपेण शचीशरूपै, योगीयते दिव्यसदस्सु देशः ॥ ३१ ॥ अन्वयः - दिव्यसदस्सु शैलाविभागः दृढ़सानुरागैः तपस्विपादोचित संविभागः स्वरूपेण शचीशरूपैः भूपैः यः देशः गीयते ॥ ३१ ॥ व्याख्या -- यः देशः दिव्य सदस्सु-स्वर्गीय सभासु सुधर्मादि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ महोपाध्यायश्रीमेषविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्ये वित्यर्थः भूपैः गीयते-स्तूयते वर्ण्यते इत्यर्थः । कीदृशै भूपैरित्याह शैलाविभागैः-शैलतःपर्वतात् अविभागो येषां ते तैः स्थैर्ये दाढय च गिरिकल्परित्यर्थः। दृढ़सानुरागैः-दृढ़ः सानुषु-कोविदेषु रागः-- प्रीतिर्येषां तै स्तथोक्तैः । तपस्विपादोचितसंविभागैः-तपखिपादाः पूज्यतपखिनः तेषा मुचितः-योग्यः संविभागो येषां तैः स्तथोक्तैः। खरूपेण-आकृत्या शचीशरूपैः-शचीशः-इन्द्र स्तस्येव रूपं-स्वभावः सौन्दर्य वा येषां ते, तैः इन्द्रात्मकै , भूपैरिति सम्बन्धस्तूक्त एव ॥ सानु रस्त्री वने प्रस्थे वात्या-मार्गा-ऽग्र-कोविद इति मेदिनी ॥३१॥ गम्यः सुहृद्भिर्न तथाऽसुहृद्भिः, कलाधराणां न कलाऽधराणाम् । परार्थहृद्भिर्न परार्थहद्भिः, स चापरागै नतु चापराऽगैः ॥ ३२॥ अन्वयः-तथा सः ( देशः ) सुहृद्भिः गम्यः असुहृद्धि नं. कलाधराणां (गम्यः) कलाऽधराणां न, परार्थहन्द्रिः (गम्य:) परार्थहृद्धि न, चापरागैः (गम्यः) अपरागैर्न ॥ ३२ ॥ व्याख्या-' तथा ' इति पूर्वसन्दर्भसम्बन्धार्थम् । देश इति विशेष्यं पूर्वतोऽन्वेति, स सुहद्भिः-मित्रैः गम्यः-प्राप्यः, (मित्रं सखा सुहृत इति. प्राप्यं गम्यं समासाद्य मितिचाऽमरः ।) न तु असुहृद्धिः शत्रभिः, असूना-प्राणानां हृद्भिः-अपहारकेर्वा हिंस्त्रैर्वा कलाधराणां कलाः चतुषष्टिप्रकारा गीतवाद्यादिरूपाः धरन्ति-दधति ते कलाधरा स्तेषां गम्यः । न तु कलासु-उक्तरूपासु विषये अधराः-नीचाः कलारहिता इत्यर्थ स्तेषां यद्वा दत्तधनस्याधिकलभ्यांशं वा घरन्तीति ते तथा तेषां तथोक्तानां गम्यः । परार्थहद्भिः-परार्थम्अन्यार्थ परोपकारपरायणमित्यर्थः हृत्-हृदयं-मनो येषां ते परार्थहद Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. स्तै स्तथोक्तः गम्यः, न तु परार्थहद्भिः-परेषाम्-अन्येषाम् अर्थ-धनं वस्तु वा हरन्ति-मुष्णन्ति ते स्तथोक्त चौरादिभिः गम्यः । चापरागैः-चापे-धनुषि रागः-प्रीतिर्येषां ते ते स्तथोक्तैः शूरेरित्यर्थः गम्यः-समासाद्यः तद्देशस्थजनानां धनुर्विद्याप्रियत्वात्तत्र तेषां प्रवेशसम्भवः न तु तत्रत्यानां भयशालितयेति बोद्धव्य मन्यथा देशनिन्दासंभवात् । न तु अपरागैः-अपगतो रागः-प्रीतिर्येषां तेऽपरागास्त स्तथोक्तः गभ्यः विरोध नामालंकारः ॥ ३२ ॥ कुतूहलेनोद्वहनं स्मृजन्ति, कुतूहलेनोद्वहनं सृजन्ति । यदेशवास्तव्यजनाः परोपजापे, प्रसक्ता न परोपजापे ॥ ३३ ॥ अन्चयः-यद्देशवास्तव्यजना कुतूहलेन उद्वहनं सृजन्ति कुतूहलेन उद्वहनं सृजन्ति परोपजापे प्रसक्ताः परोपजापे न (प्रसक्ताः) (आसन्) ॥ ३३ ॥ व्याख्या-यदेशवास्तव्यजनाः यद्देशचतुष्टयनिवासिनो लोका: कुतूहलेन-कौतुकेन उद्वहनम्-उद्वाहं परिणय मित्यर्थः सृजन्तिकुर्वन्ति. कुतूहलेनकौतुकेन-जनितः पुत्रः कदाचित्तीर्थङ्करगोप्रवन्धनेन संयमधारणादिना वाऽसत्कुलंतारयेदित्यभिलाषेनेत्यर्थी उद्वहनम्-उद्वहतिवनयति पित मान वंश्या नित्युद्वहन:-पुत्रस्त सृजन्ति-उत्पादयन्ति । परोपजापे-परः श्रेष्ठः उपजापा-उपांशुजफ: तस्मिन् प्रसक्ताः-व्यापृताः लीनमनस इत्यर्थः, किन्तु परोपजापरेषाम् अन्येषां, परः उत्कृष्टो वा उपजापा-मेदः विच्छेदः संहतयोद्वैधीकरणमिति यावत् परोपजापः तस्मिन् तथोक्ते न प्रसक्ता इत्यर्थः। लाटानुप्रासः विरोधाभासश्च । मेदो-पजापौ इत्यमरः ॥३३॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये सदा नदेशः किमु दान देशः, समाश्रयत्सर्वरसाऽनुवेशः । तटी पटीयः शुकविप्रवेशः, पदेपदे प्राप्तवसूपदेशः ॥ ३४ ॥ अन्वय-(असौ देशः) नदेश: किमु ? दानदेशः समाश्रयत्सर्वरसाऽनुवेशः तटीपटीय: शुकविप्रवेशः पदे पदे प्राप्तवसूपदेशः ॥ ३४ ॥ व्याख्या--असौ देशः समुद्रः किमु वर्तते इति शेषः इत्युत्प्रेक्षा. उभयोः समान शब्दवाच्यत्वरूपसाधर्म्य मुत्प्रेक्षाबीजभूतमाह दानदेशादानं-वितरणीयार्थं ददाति-प्रयच्छन्तीति दानदा: दान. शीला ईशाः अधिपतयो यत्र स तथोक्तः, समुद्रपक्षे-दानदः धनदः कुबेरः ईशोयस्य सः. समुद्रस्य रत्नाकरत्वात्कुबेरस्य धनाधिपत्वात्कुबेरे समुद्रपतित्वमुपचर्यते । यद्वा दं-पर्वतं मैनाकलक्षणम् आनयति-पर्वपर्वतपक्षच्छेदनाग्रहिलपुरन्दरभिदुरप्रहारात त्राणकरणेन जीवयतीति दान स्तादृशो देश: प्रदेशो यस्य स तथोक्तः । समाश्रयत्मर्वरसानुवेशः समाश्रयन् सर्वः सकलः रसः माधुर्यादिरूपो यां सा समाश्रयत्सर्वरसा-पृथ्वी तस्याम् अनु अनुक्रमेण व्याप्ता वा वेशाः गृहाणि यत्र सः, यद्वा समाश्रयताम् आश्रयमन्विच्छतां सर्वरसानां पण्डितानाम् अनुवेशःप्रवेशो यत्र सः अथवा समाश्रयतां निवस्तुमिच्छतां सर्वेषां सकलानां जनानां रसायां-पृथिव्यां चास्त्वहभूमावित्यर्थः अनुवेशः समावेशो यत्र स तथोक्तः तत्रत्यप्रदेशाना मति विस्तीर्णत्वात्सर्वेषां तद्देशनिवासार्थिनां कृते तत्रावकाशस्य पर्याप्तत्वात् । समुद्रपक्षे-समाश्रयन्तीनां सर्वरसानां नदीनाम् अनुवेशः प्रवेशः समावेशो वा यत्र सः यद्वा समाश्रयतां सर्वेषां रसनां जलानां अनुमर्यादानति क्रमेण समावेशो यत्र स तथोक्तः। तटीपटीयः शुकविप्रवेश:-तट्यां Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. पटीयसां मुनिपुणानां सुकवीनां प्रवेशो यत्र सः पक्षे तट्यांकुले वेलाया मित्यर्थः पटीयसां शुकवीनांशुकपक्षिणां यद्वा सुष्ठु कायन्ति-शब्दायन्ते इति सुका स्तादृशा वयः पक्षिण स्तेषां प्रवेशो यत्र सः रलयोर्डलयो चैत्र, श-सयो - वयोस्थेतिवचनेन श-सयोरेकत्व • स्मरणात् । पुनश्च पदे पदे = प्रतिपदं प्रतिस्थानमित्यर्थः प्राप्तवसूपदेशः प्राप्तः = उपस्थितः लोकैर्लब्धो वा वसुः मधुरः मनोज्ञः उपदेश: =शास्त्रीय धार्मिक-राजनैतिकाद्यनुशासनं यत्र सः यहा समृद्धजनशालितया व्यापारिजनवत्तया वा प्रतिस्थलं प्राप्तः वसूनां धनानां रत्नानां वा स्वर्णानां वा उपदेशः योग- क्षमाद्यनुशासनं यत्र स तथोक्तः । अथवा पदे पदे = प्रतिव्यवसाय:- प्रत्युद्यमं प्राप्तः वसोः धनाधिपस्य कुबेरस्य तद्विषयक इति तात्पर्यम् उपदेशः =अध्यवसायादिसहायेनाऽनन्तकोटिधनाधिपत्यशालित्वादेराख्यानं यत्र सः अथवा प्राप्तानि खानितोऽधिगतानि वसूनि रत्नानि स्वर्णानि यत्र तादृश उपदेश:समीपदेशः खान्यादिप्रदेशो यत्र स तथोक्तः । समुद्र पक्षे प्रतिस्थानं= प्रतिकूलप्रदेश प्राप्तानि = प्रोच्छलनेन गतानि वसूनि =जलानि यत्र तादृश उपदेश: समीपदेशो वेलाप्रदेशो यस्य सः यद्वा समुद्रस्य रत्नाकरतया प्रतिपदं प्रतिचरणन्यासदेशं प्राप्तानि -: लोकैरधिगतानि वसूनि - रत्नानि यत्र तादृश उपदेशो वेला यस्य सः तथोक्तः । अत्र श्लेपालंकारः ॥ ३४ ॥ यत्सूपदेशो बहुधान्यकार्य, करोति लावण्यसुसंस्कृतार्थैः । विशालतातस्य सरोऽनुसारात्, ३९ क्षुद्रस्ततोऽन्यस्यनुकूपदेशः ॥ ३५ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अन्वयः-यत्सूपदेशः लावण्यसुसंस्कृतार्थैः बहधान्यकार्य करोति तस्य विशा. लिता सरोऽनुसारात् ततोऽन्यस्य [प्रदेशः] कूपदेशः क्षुद्रः ॥ ४५ ॥ व्याख्या-यत्सुपदेशः यस्य देशस्य सूपदेशः-शोभन उपदेशः समीपवर्तिदेशः प्रदेश इत्यर्थः लावण्यसुसंस्कृतार्थैः-लावण्येन सौन्दर्यण सुसंस्कृतैः-परिष्कृतैः अथै वस्तुभिः करणः बहुधान्यकार्यबहूनां धान्यानां-शालि-गोधमादिब्रीहीणां कार्य करोति-सम्पादयति । तस्य-देशस्य विशालता-वैपुल्यं विस्तार इत्यर्थः सरोऽनुसारात-महासरःसदृशीत्यर्थः । ततोऽन्यस्य-तद्देशसम्बन्धरहितदेशस्य प्रदेशः कूपदेशः--कुत्सित उपदेशः सभीपदेशः तत्स्वरूप इत्यर्थ कूपअन्वितो देशो का अत एव क्षुद्रः--तुच्छः वासाऽनह इत्यर्थः ॥ पद्यस्यास्यार्थान्तरमपि श्लेषमहिना ध्वनितं भवति. तथाहियत्रूपदेश:-यस्य पण्डितस्य शोभन उपदेशः-हिताऽनुशासनम् लावज्येसुसंस्कृतार्थ-लावण्येन प्रसादादिगुणसौन्दर्यण सुसंस्कृतैः-अतीवभूषितः सुसम्परित्यर्थः अथै-वाच्यैः अभिधेयरित्यर्थः बहुधाबहुप्रकारेण अन्यकार्यम्-अन्यत्कृत्यम् उपदेशातिरिक्त माहादादिकार्य करोति-जनयति । तस्य-उपदेशस्य विशालिता-विस्तारः सरोऽनुसारात सरः ज्ञानं तदनुसारेण. ततः तस्मात् अन्यस्य उपदेशादिः कुसदेशः कुत्सित उपदेशः अत एव क्षुद्रः तुच्छत्वादग्राह्य इत्यर्थः सारस्य मावश्यकमेव तस्य, प्रशस्यते शस्यधिया जलस्य । यत् प्राणिनां जीवनमेतदन्यः, स जातवेदा अपि भस्मशेषः ॥३६॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ४१ अन्वयः-(तत्रदेशे) यत् प्राणीनां जीवन (वर्तते) तस्य जलस्य सारस्यमावश्यकमेव इति कृत्वा शस्यधिया (तत्) प्रशस्यते एतदन्यः स जातवेदाऽपि भस्मशेषः । अथ च तस्य जल( ड )स्य सारस्य मावश्यकमेव, यत् प्राणिनां जीवनम् ( असौ सरसश्च ) शस्यधिया प्रशस्यते एतदन्यः सजातवेदा अपि भस्मशेषः ॥ ३६ ॥ व्याख्या-किंच तत्र देशे यत् प्राणिनां-जन्मिनां जीवन-प्राणधारणकारणं वर्तते इति शेषः तस्य जलस्य सारस्य-सरसता मधुररससाहित्यं वा स्वादुत्वं वा आवश्यकमेक-अवश्यप्रयोजनीयमेव । इति कृत्वा शस्यधिया-शालि-गोधूमादिधान्यबुद्धया अनेन धान्योत्पत्ति रित्यनुसन्धायेत्यर्थः प्रशस्यते श्लाघ्यते । एतदन्या जलाऽतिरिक्तः साम्प्रसिद्धः जातवेदाःजातान् प्राणिनो विन्दते जठराऽनलत्वेन इति जातं वेदो-धनं यस्मात् इति वा, जाते जाते विद्यते इति वा जातं वेत्ति, वेदयते वा, इति वाम तथोक्तः वह्निः अपि भस्मशेषःभस्मपर्यवसान इति कृत्वा न प्रशस्यते । तत्र हि देशे जलातिरिक्तवस्तुना नोपकरणार्हता सर्वेषां सर्वसमृद्धिसम्पन्नत्वात् । श्लेषमहिनाऽस्य पद्यस्याऽर्थान्तरमपि प्रतीयते, तथाहि-तस्य जलस्य-जडस्य मूर्खस्येत्यर्थः रलयो ईलयोश्चैकत्वस्मरणात्, सारस्यम् सरसस्य भावः रसिकता वैदग्थ्यमितियावत् आवश्कमेव, यच्च प्राणिनांसहृदयजनानाम् जीवनं प्राणरूपम् अन्यथा सहृदयत्वाऽनुपपत्तेः । असौ (सरसः) शस्थधिया प्रशंसनीयमतिना प्राज्ञेनेत्यर्थः प्रशस्यते सबहुमानं श्लाव्यते। एतदन्यः विदग्ध (सरस) भिन्नः पुरुषः सजातवेदाः जातवेदसा हव्यादितपणीयवाहिना सहितः ऋत्विगादिः अपि भस्मशेषःभस्मतुल्यः न गण्य इत्यर्थः । सरसजनाऽपेक्षया वैदिकानामनुत्तमस्वमिति साहित्यवासनावासिताऽन्तःकरणानां सहृदयताचणानां सुप्रसिद्धम् ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचितेसप्तसन्धानमहाकाव्ये नित्यं समुद्रातिशयाशयेन, पिताम्बराः स्वीययशःप्रकाशैः । निवासिनोऽस्मिन् कमलानुषङ्गः, ___स्वयंभुवः श्रीपुरुषोत्तमास्ते ॥ ३७ ॥ अन्वयः--अस्मिन् निवासिनः ते श्रीपुरुषोत्तमाः समुद्रातिशयाशयेन नित्यम् [उपलक्षिता:] स्वीययशः प्रकाशैः पीताम्बरा: कमलाऽनुषझैः (उपलक्षिताः) स्वयंम्भुवः (सन्ति) ॥ ३७ ॥ व्याख्या-अस्मिन् देशे निवासिनः वास्तव्याः ते प्रसिद्धाः जनाः श्रीपुरुषोत्तमा:=पुरुषेषु उत्तमाः श्रेष्ठाः । समुद्रातिशयाशयेन= समुद्रात्-रत्नाकरात् अतिशय:-अतिमात्रः तदतिक्रमणशीलो वा आशयः -विभवः रत्नादिसम्पत् , चित्तं वा गम्भीरहृदयत्वात्, अभिप्रायो वा गम्भीराशयत्वात् तेन तथोक्तेन उपलक्षिताः उपलक्षणे तृतीया, स्त्रीययशः प्रकाशैः स्त्रीयानाम् आत्मीयानां यशसां-कीर्तीनां प्रकाशैः= विस्तारैः पीताम्बरा पीतं व्याप्तम् अम्बरम्=आकाशो यैस्ते तथोताः यशोभिः पिहिताऽऽकाशा इत्यर्थः । कमलानुषङ्गैः कमलायाः= सम्पल्लक्ष्म्या वरस्त्रिया वा कमलाना-शालिधान्यानां लेखनीनां वा अनुषङ्गैः सम्बन्धैः उपलक्षिताः स्वयंभुवः स्वयम्=आत्मना भवन्ति =अन्तर्भावितण्यर्थतया भावयन्ति उत्पादयन्ति स्वोपयोज्यवस्तुजातानि कलाकौशलेन इति ते तथोक्ताः सन्तीति शेषः । अत्र पद्ये 'पीताम्बरा' स्वयम्भुवः, श्रीपुरुषोत्तमाः" इत्येतैर्योगार्थेन प्रस्तुतदेशनिवासिजनविशेषणीभूतैरपि रूड्या ब्रह्म-विष्णु-महेशानवाचकैस्त्रिभिः शब्दैः 'एतद्देशवास्तव्यालोकाः' 'ब्रह्म विष्णुमहेशरूपा एवेति श्लेषमहिम्ना ध्वन्यते, तथाहि 'पीताम्बराः, श्रीपुरुषोत्तमाः' इत्येतत्पदद्वयेन स्मर्थमाणो विष्णुः " नित्यं निरन्तरं समुद्रातिशयाशयेन समुद्रेऽति. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, शया सार्वदिकतयाऽतिमात्रः आशयः शयनं तेन तथोक्तेन उपलक्षित इत्यर्थः । तथा कमलाऽनुषङ्गैः कमलायाः-लक्ष्म्याः यद्वा कमलस्य हस्तस्थपद्मस्य शयनाश्रयभूतजलस्य वा अनुषङ्गैरुपलक्षि. तः ॥ ' स्वयम्भुवः' इतिपदेन स्मर्यमाणो ब्रह्मा शिवश्च 'कमलाऽनु. षङ्गैः (ब्रह्मपक्षे)कमलस्य-आसनीभूतपद्मास्य' ब्रह्मण कमलासनत्वात्, शिवपक्षे कमलस्य हस्तलालनीयमृगविशेषस्य अनुषङ्गैः-सम्बन्धैरुपलक्षितः ।। रूपकाऽलङ्कारः । कमलं सलिल ताने कोग्नि-भैषज्य पअयोः । कमलो मृगभेदे तु, कमला श्रीवरस्त्रियोरिति मेदिनी ॥३७॥ ये कामरूपा अपि नो विरूपाः, कृताऽपकारेऽपि न तापकाराः। सारस्वता नैव विकर्णिकास्ते, कास्तेजसां नो कलयन्ति राजीः ॥३८॥ अन्वयः--ये कामरूपा भपि विरूपाः नो कृतापकारेऽपि म तापकाराः । सारस्वता अपि विकर्णिकाः नैव. ते कास्तेजसा राजी: नो कलयन्ति. ॥ ३८ ॥ व्याख्या-ये जनाः कामरूपाम्कन्दर्पस्वरूपाः कामस्य अनगत्वात् नीरूपा अपि विरूपाः विगतं रूपं येषां ते तथोक्ताः रूपरहिता नो-न इति विरोधः कामरूपाः इच्छारूपिणः विरूपा विरुद्धं रूपं-स्वभावः वेशो वा येषां ते तथोक्ता न देशकालाऽनुसारवेशशालिन इत्यर्थः इति परिहारः कृताऽपकारे-साऽपराधेऽपि जने विषये न ताऽपकारा:-नतानां विनयादिनम्राणामपकारः अनिष्टोत्पादनं तद्धेतु द्वेषो वा येभ्यस्ते तथोक्ता इति विरोधः, तापकाराः तापं सन्तापं कष्टं वा कुर्वन्ति जनयन्तीति ते तथोक्ताः कष्टप्रदाः प्रत्यपचिकीर्षवइत्यर्थः न, इति परिहारः ॥ सारस्वता:-सरखती-वागधिष्ठात्री देवी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाये देवता उपास्यतयाऽस्त्येषां ते तथोक्ताः पंडिता इत्यर्थः अपि विकर्णिका विशिष्टा विविधा वा कर्णिका-लेखनी येषां ते तथोक्ताः नै वेति विरोधः विदुषां देखनसाधनकलमादेर्लिप्या वा राहित्यस्य विरुद्धत्वात् । विगता कर्णिका कर्णभूषणं येषां ते तथोक्ता नैव किन्तु सर्वे सकर्णिका इत्यर्थ इति परिहारः । तथा ते जनाः काः किं रूपाः तेजसां-दीप्ति-पराक्रम-प्रभाव-परप्रयुक्ताऽधिक्षपा-ऽपमानाद्यसहन. सत्वगुण-शरीरकान्तीनां राजी:-श्रेणीः राशीनित्यर्थः नो कलयन्तिधारयन्ति सर्वान गुणान् दधतीत्यर्थः । विरोधाभासः, आभासत्वे विरोधस्य विरोधाभास इष्यते इति तल्लक्षणात् । पूर्वार्धेऽन्त्यानुप्रासः। कर्णिका करिहस्ताग्रे करमध्यांगुलावपि । क्रमुकादिच्छटांशेऽजे, वराटेकर्णभूषणे इति मेदिनी ॥ ३८ ॥ श्रीहास्तिनस्थान ममर्त्यवासवा. श्रयेण साक्षादमरावती पुरी । बुध्ध्याऽप्ययोध्यामलकालिताश्रिता, सा वीक्ष्यते ज्ञैः शिवपूर्वसुश्रिया ॥३९॥ श्रीमण्डनब्राह्मणकुण्डसंज्ञया, या सुप्रमाता मधुरारसाश्रयैः। तां मध्यदेशे जिनजन्मपावितां, स्थैर्येण वा शौर्यपुरं समीक्षताम् ॥४०॥ अन्वयः-तां मध्यदेशे ( वर्तिनी ) जिनजन्मपाविता (नगरी) स्थैर्येण समीक्षताम् । हास्तिनस्थानम् , (या) पुरी अमर्यवासवाश्रयेण साक्षादमरावती. (तथाऽसौ) बुध्ध्यापि अयोध्या आमलकाश्रिताश्रिता. (अत एव सा पुरी) जै! वसुनिया शिवपः वीक्ष्यते (पुनश्च ) या श्रीमण्डनमाह्मणकुण्डसंहया सुप्रभाता Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. रसाश्रयैः मधुरा शौर्यपुरम् इति ऋषभदेवपक्षीयोऽन्वयः द्वितीयादिपक्षीयो. ऽन्वयो व्याख्यातोऽवगन्तव्यः ॥ ३९--४० ॥ व्याख्या-श्रीशान्तिनाथपक्षे तां प्रसिद्धां जिनजन्मपावितां तीर्थङ्करेण खजननादारभ्य पवित्रीकृताम् नगरीमिति शेषः स्थैर्येण-स्थिरतयाऽवधानेनेत्यर्थः समीक्षतां पश्यतु । तां कामित्याहहास्तिनस्थानं हस्तिना-तदाख्यनृपेण निवृत्तं नगरं हास्तिनं तदाख्यं स्थान हास्तिनस्थानं हस्तिनापुराभिधानेत्यर्थः या च पुरी अमर्त्यवासवाश्रयेण अमादेवसामान्याः वासवाः शक्रेन्द्रादय स्तेषामाश्रयःआश्रयणं तीर्थकदिदृक्षा-शुश्रूषादिहेतुना भूय आगमनाऽवस्थानादिलक्षणं तेन साक्षात्-प्रत्यक्षरूपा अमरावती-इन्द्रपुरी एव । तथाऽसौ बुध्ध्यापि मनसाऽपि अयोध्या-योधनाऽनहीं शान्तिप्रियजननिवासत्वात् । दुष्प्रधर्षत्वाच्च आमलकालिताश्रिता-आमलकाः वासकवृक्षाः आमलकानि-धात्रीफलानि वा तेषामालि:-श्रेणी तद्भावस्तत्ता तां श्रिता आश्रिता इति वा छेदः । यद्वा आमलकाऽलिता-आमलकैः अलिता-भूषिता पूर्णा वा, ज्ञैः पंडितैः श्रिता इति सम्बन्धः । (अत एव सा पुरी ज्ञैः-पंडितैः ) वमुश्रिया-वसूनां रत्न-धन-वर्णानां सम्पत्त्या वृद्धयावा यद्वा वसोराज्ञः श्रिया-लक्ष्म्या राजलक्ष्म्या यद्वा वसोः पृथिव्याः श्रिया-विभूत्या, वसोरिव कुबेरस्येव श्रिया-समृध्ध्या या शिवपू:-कल्याणमयी पुरी वीक्ष्यते-दृश्यते। पुनश्च या-नगरी श्रीमण्डनब्राह्मणकुण्डसंज्ञया-श्रियाः-लक्ष्म्याः सिद्ध वा भारती-कीयों वा मण्डनं-भूषणभूतमलकारकं वा यद्ब्राह्मणकुण्डं-तदाख्यपुण्यस्थानं तस्य संज्ञया-नाम्ना तत्सरणेनेति भावः, सुप्रभाता-शुभसूचकप्रातः कालवती । रसाश्रयै-रसस्य-शृङ्गारादेः हर्षस्य वाऽऽश्रयः-आधारभूतजनैः यद्वा रसा-पृथ्वी आश्रयो येषां तैर्महीरुहैः यद्वा रसो-जलं तदाश्रयैः जलाशयरित्यर्थः मधुरा-मनोज्ञा. शौर्यपुर-शौर्यस्य परा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये क्रमस्य पुरम्-आश्रयः॥ श्रीऋषभदेवरामपक्षयो 'बुद्धध्यापि अयोध्या' इति विशेव्यम्, अपिना नाम्नाऽपि अयोध्या एवेत्यवधार्यम् । श्रीहास्तिनस्थानमित्यस्य हस्तिनां समूहो हास्तिनं, श्रिया हास्तिनस्य च स्थानम् इत्यर्थों विदेलिमः । श्रीपार्श्वनाथपक्षे-'शिवपू:' इति विशेष्यं सा च वाराणसी काशीपुरीत्यर्थः अत्रपक्षे वसुश्रिया-धनशोभया जैः वीक्ष्यते इत्यर्थः।। श्रीमहावीरपक्षे 'श्रीमण्डनब्राह्मणकुण्डसंज्ञया-श्रियाः-लक्ष्म्या मण्डनं-भूषणभूतं यद् ब्राह्मणकुण्डं-तदाख्यं स्थानं तद्रूपसंज्ञया-नाम्ना सुप्रभाता-सुप्रसिद्धा ॥ श्रीकृष्णपक्षे 'मधुरा'-तदपरनाम्नी मथुरापुरीत्यर्थः रसाश्रयैः उपलक्षिता इति सम्बन्धः ।। श्रीनेमिनाथपक्षे 'शौर्य पुरम्' इति विशेष्यं शेषविशेषण सम्ब. न्धः पूर्ववद्वोद्धव्यः । अर्थश्लेषः । __रसो गन्धरसे वादे तिक्तादौ विष-रागयोः । शृङ्गारादौ द्रवे वीर्य देहधात्व-म्बु-पारदे । रसा तु सल्लकी-पाठा-जिह्वा-धरणि-कङ्गुषु इति विश्वः ॥ ४० ॥ यद्विस्त्रसाभीरु रनगराज, स्तन्मन्त्रविद्भीरुरतः प्रपन्नः । स्थानं परायोध्य सहाश्वसेनं, सहास्तिनं सन्मधुरं स शौर्यम् ॥ ४१ ॥ अन्वयः--यद् विस्त्रसाभीरुः अनङ्गराजः तन्मन्त्रविद्भीरुः (अस्ति) अतः तत् स्थान प्रपन्नः पराऽयोध्यं सहाऽश्वसेनं सहास्तिनं सन्मधुरं सशौर्यम् ॥४॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. व्याख्या--यद्-यस्माद्धेतोः विस्रसाद्भीरु:-जरात्रस्नुः अनङ्गराजः कामनरपतिः तन्मन्त्रविद्धीरुः-तस्याः-विस्रसायाः मन्त्रवित्गुप्तचरः मन्त्रज्ञो तस्माद् भीमा-भयशीलः अस्ति इति शेषः अतः कारणात तत् स्थानं देशं प्रपन्नः-प्राप्तः कीदृशं तत्स्थानमित्याह--परायोध्यं-परैः-शत्रुभिः अयोध्य-योधनाऽनहम् सहाश्वसेनम्-अश्वानांघोटकानां सेनया-सैन्येन समूहेनेत्यर्थः सहितं, सहास्तिन--हस्तिनां समूहो हास्तिनं तेन सहितं, सन्मधुरं-मधु-मद्यं लक्षणया युद्धाय युद्ध. खेदाऽपनुत्तये वा सुरापानं रान्ति-कुर्वन्ति धातूनामनेकार्थत्वात् ते मधुराः-युद्धपरिश्रमाऽपनोदनार्थ संस्कृतसुरापानशीला वीराः 'वीरपानं तु यत्पानं, वृत्ते भाविनि वारणे, इत्यमरः । वीराणां संग्रामार्थ मद्यपानस्याऽऽचाराऽविरोधित्वात् सन्तः-प्रशस्ता मधुरा यत्र तत् तथोक्तम् । यद्वा सतां मधुरं-प्रियम् । स शौर्यम्-शौर्येण-पराक्रमेण सहितम् ।। अनेन तीर्थंकरजन्माधिकरणीभूतनगराणामन्वर्थनामधेयत्वं, तत्रत्यानां च जनानां सान्द्रदर्प-कन्दर्पसौन्दर्यसोदयहृद्याऽनवद्यरूपशालित्वं सूचितं भवतीति सहृदयविभावनीयम् ।। ४१ ॥ सदारमण्याश्रितदुर्गशैलं, सक्षत्रियत्वादबहुलक्षणाढ्यम्। सुराजराज्यादरविप्रयुक्तं, ___ रम्यैहाणामुदयैर्विराजत् ॥ ४२ ॥ अन्वयः-सदा रमण्याश्रितदुर्गशैलं सक्षत्रियत्वाद् बहुलक्षणाढ्यं । सुराजराज्यादरविप्रयुक्तं रम्यैर्गुहाणामुदयविराजत् ॥ ४२ ॥ व्याख्या--पुनश्च तत्स्थानं कीदृशमित्याह--सदेति सदासर्वस्मिन् काले रमण्याश्रितदुर्गशैलं-दुःखेन गच्छति गम्यते वाऽत्रेतिदुर्ग:-पर्वत-प्राकार-परिखादिदुर्गमकोहः स शैल इवेति दुर्गशैल:-रम Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . .... . . . . " __४८ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाग्ये ...................... णीभिः-स्त्रीभिः आश्रितो दुर्गशैलो यत्र तत्तथोक्तम् । सक्षत्रियत्वात्राजन्यसहितत्वात् सुशासकरक्षितत्वादितिभावः । बहुलक्षणाढध-बहुलैः-बहुसंख्यैः प्रभूतैः क्षणैः-उत्सवैः आव्यम्-विशिष्टम्। यद्वा ब. हुभिः-अनेकैः लक्षणैः-पूर्वोत्तरप्लवत्वादिशुभचिह्नः आढय युक्तम् । अथवा बहुलक्षणाः-प्रचुरोत्सवशालिनः आढ्याः-धनिनो यत्रतत्तथोकम् बहुभिालक्षणः-सारसपक्षिभिराढयं-युक्तमिति वा । तथा सुराजराज्यादरविप्रयुक्तम्-सुरा-मदिरा जरा-वाक्यं, ज्या मौर्वी चापरज्जुरित्यर्थः दरः त्रासस्तैर्विप्रयुक्तं-विहीनम् । यद्वा सुरेभ्यः-देवे. भ्यः अजा:-बल्यर्थमुपकल्पिताश्छागा स्तेषां राजौ-श्रेण्यामादरोयेषां ते तादृशा ये विप्राः-वामोपचारितया काल्यादि देव्याराधका द्विजविशेषास्तयुक्तं-विशिष्टम् । अथवा शोभनो राजा सुराजा तस्य राज्ये आदरः-सम्मानः अदरः-त्रासाभावो वा येषां तादृशैविप्रैर्युक्तम् । सुराज्ञो राज्ये राजकर्मणि य आदरस्तेन विप्रयुक्त-विशेषेण युक्तम् इति वा । गृहाणां--प्रासादादीनां रम्यैः-मनोहरै उदयैः-प्रथम दर्शनयोग्यभवनभागैः सिंहद्वाररित्यर्थः समुन्ननिभिर्वा विराजत्-शोभमानम् ॥ ४२ ॥ इहाऽभवद्वैभवसंभवेन, पुरी पुरीणां गणने धुरीणा। निरीक्षणीया ह्यनिमेषनेत्रै श्चित्रैर्विचित्रैरिव मेरुचूला ॥ ४३ ॥ अन्वयः-- इह वैभवसंभवेन पुरीणां गणने धुरीणा पुरी विचित्रैः चित्रैः । मेरुचूला इव अनिमेषनेनेः निरीक्षणीया अभवत् ॥ ४३ ॥ व्याख्या---इह-असिन् स्थाने वैभवसंभवेन-वैभवानां-विभू. तीनां सम्भवेन-उत्पत्त्या वैभवकारणेन वा पुरीणां-गण्यनगरीणां Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. १९ गणने-संख्याने एक-द्वि-व्यादिसंख्यया गणनायामित्यर्थः धुरीणामुख्या अग्रगण्येत्यर्थः पुरीनगरी विचित्रैः-विलक्षणे दिव्यरित्यर्थः आश्चर्यजनकैर्वा चित्रः आलेख्यैः हेतुभिः मेरुचूला मेरुपर्वतशिखरमिव अनिमेषनेत्रः-स्पन्दनरहितलोचनैः करणः यद्वा निःस्पन्दनेत्र. शालिभिः जनै रितिशेषः (मेरुपक्षे) अनिमेषनेत्रैः देवैः निरीक्षणीयामस्पृहमवलोकनयोग्याऽभवत् ॥ ४३ ॥ अर्हद्विहारा विविधोपहारा __घुसद्विहारादुरिताऽपहाराः । दिवो विमाना वसुधांवतेरु, स्तत्पूर्वदेवैरिव संगमाय ॥ ४४ ॥ (अन्वयः) (इह) घुसद्विहाराद्-विविधोपहारा: दुरितोपहारा: अह द्विहाराः (शोभन्ते) तत्पूर्वदेवैः सङ्गमाय विमाना: दिव: वसुधा वतेरुः इत्र || ४४ ॥ (व्याख्या) इह युसद्विहारात्-दिवि-स्वर्गे सीदन्तीतिधुसदा देवा स्तेषां विहार-विहरणं श्रीजिनेन्द्र सन्दर्शनार्थ भृयोगमनागमनं तस्मात् विविधोपहारा:-विविधाः नानाप्रकाराः उपहागः पूजोपकरणानि येषु ते तथोक्ताः, दुरितापहारा: दुष्ट मितं गमनं नरकादिस्थानप्राप्तिरनेनेतिदुरित-पापं तस्याऽपहा:-अपचयो विनाश इत्यर्थी येभ्यस्ते तथोक्ताः पापनिवर्तका इत्यर्थः अर्हद्विहाराः जिनायतनानि जिनमन्दिराणीत्यर्थः शोभन्ते इति शेषः । अत्रोत्प्रेक्षते-तत्पूर्व देवः तेषां बुद्धिस्थपरामर्शकत्वात्तच्छब्दस्य विमानानां पूर्व प्राक्तना देवा. इदानीम्मानवास्तैः सह संगमाय-मेलनाय विमानाः व्योमयानानि देवप्रासादा वा दिवा स्वर्गलोकात् वसुधां-पृथिवीम् अवतेरु. अवती. वन्तः इव । एतेन तत्रत्यजनानां दिव्यत्वं तत्रत्यजिनालयानाम_कपशिखरत्व-सुरमणीयत्वादीनि च सूच्यन्ते ॥ अत्रातिशयोक्तिरुत्प्रेक्षाचालंकृती।। ४४ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. महोपाध्याय श्रीमेघविजयगाणविरचितेसप्तसन्धानमहाकाव्ये चैत्येषु नित्याऽभयदातुरर्चा, प्रसङ्गतोऽनङ्गतयाऽभिधानात् । श्मशानवेश्मान मवेत्यरुद्रं, स्मरोऽभियातत्पुरमध्युवास ॥ ४५ ॥ (अन्वयः) स्मर: चैत्थेषु नित्याभयदातुः अर्चाप्रसङ्गतः अनङ्गतयाऽभिधा. नात रुद्रं श्मशानवेश्मान मवेत्य चाभियातत्पुरमध्युवास ॥ ४५ ॥ (व्याख्या) स्मरः कन्दर्पः चैत्ये-जिनायतनेषु नित्याभयदातुः नित्यं शाश्वतम् अभयं वीशिष्टमात्मनः स्वास्थ्यं निःश्रेयसधमनिवन्धनभूमिकाभूत गुणप्रकर्षादचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् सर्वथा परार्थकारित्वात् ददातीति नित्याभयदाता तस्य तथोक्तस्य श्रीजिनेन्द्रभगवतः अर्चाप्रसङ्गतः पूजाप्रस्ताचे अनङ्गतया शरीररहिततया कामस्य अभिधानात्-आख्यानात् पूजाशुपक्रमे ऽनङ्गजिदि' -त्यादिजिनेन्द्रनामस्मरणप्रसङ्गेन कामस्याऽङ्गरहितत्वेनाऽनुकम्पनीयतयाऽभयप्रदत्वेनाम्नातस्य श्रीजिनेशस्याभयदानपात्रतयानुग्रहणात्. रुद्र-स्वप्रा. क्तनशत्रुभूतशिवमपि श्मशानवेश्मानं-श्मशानं शवदाहस्थानमेव वे. श्म वासस्थानं यस्य स तं तथोक्तं श्मशानवासिनम् अवेत्य=विदित्वा. चाऽभिया भयरहिततया तत्पुरं=व्यावर्ण्यमानस्वरूपं नगरम् अध्युवास-अध्युपितवान् ॥ ४५ ॥ सूनोरनूनोदयमत्र धैर्याद, रमाऽवधार्येव दधौ स्थिरत्वम् । बालश्चलत्वं विजहो महौजा स्तकिमया धार्यमितिहियेव ॥ ४६ ॥ (अन्ययः) रमा सूनोः अत्र अनूनोदयम् अवधायेंव(स्थिरत्वंदधौ)महोजा: Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका; बालः चलत्वं चिजही तत् मया किं धार्य मितिहियेव स्थिरत्वं दधौ ॥ १६ ॥ (व्याख्या रमा लक्ष्मीः सूनो स्वपुत्रस्य कामस्य अत्र नगरे अनूनोदयं बहुतराऽभिवृद्धिम् अवधार्य निश्चित्य इव धैर्यात अव्याकुलत्वात् स्थिरत्वं निश्चलत्वं दधौ-धृतवती. अत्रोत्प्रेक्षान्तरं दर्शयति वाल: मत्पुत्रः कामः महौजाः महाबलशाली प्रकृतिचपलश्च सन्नपि यदा चलत्वं-चाश्चाल्यं विजहौं-परितत्याज इतिहेतोः तत्-चलत्वं मया लक्ष्म्या किं धार्य-वर्तव्यं तथा तु बालादपि न्यूनाभवेयमिति ह्रिया लज्जया इव स्थिरत्वं दधौ इति सम्बन्धः ।।उत्प्रेक्षालङ्कारः॥४६ अस्या व्यवस्येयमहं वयस्यां, द्यामेव पद्यां नयसंशयाब्धौ । पतिः सुधावजयवाहिनीशः, | श्रेयान् निवासः सुमनोविलासः ॥४७॥ (अन्वयः) नयसंशयाब्धी (निमग्नः) अहम् अस्याः वयस्यां द्याम् एव पद्यां व्यवस्येयम् । पतिः सुधावजयवाहिनीशः निवासः श्रेयान् सुमनोविलासः ॥४७॥ (व्याख्या) स्वर्गसादृश्यं दर्शयति अस्या इति । नयसंशयाब्धौ नीति विषयक शङ्कासागरे निमग्न इति शेषः अहं मेघविजयाऽभिधः कविः अस्याः नगर्याः क्यस्यां सखी सहशीमित्यर्थः, यां-स्वर्गपुरीम् एव पद्यान्मार्गभूतां व्यवस्येय-निर्धारयेयम् । अस्यां नगर्या कीदृशी नीतिरितिविचारपारावारनिमग्नोऽहं स्वर्ग चेतसि निधाय स्वर्गसशी नीतिरितिनिश्चित्य शङ्काकलङ्कपङ्कसङ्करं दुरयामीतिभावः ! साम्यमुद्भावयति पतिः अधिपः प्रस्तुतनगर-स्वलॊकयोः, सुधावजयवाहिनीश: प्रथमपक्षे-सुधावतां ससत्वरं गच्छतां या जय. वाहिनी-जयं वहतीत्येवंशीला सेना तस्या ईश: शासकः, द्वितीयपक्षे-सुधाक्तांसुधा-अमृतं तद्वतांन्देवानां जयवाहिनीशः इति पूर्व Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्धान महाकाच्चे वत् पुनरनयोः नगर्योः निवासः = जातावेकवचनम् वसतिसंहतिः श्रे यान् = अतिशयेन प्रशस्यः, कथमित्याह यतः सुमनोविलासः - सुमनसां - प्रशस्तचित्तानां जनानां विलासा:- आनन्दा यत्र सः यद्वा सुमनोभिः - पुष्पैः विलासोयत्र सः अथवा सुमनसां - कोविदानां विलासा:विनोदा यत्रसः तथोक्तः । पक्षे - सुमनसां - देवानां विलासोयत्रस इत्यर्थः । सुमनाः पुष्प मालत्यो स्त्रिदशे कोविदेऽपि चेति मोदिनी श्लेषः, उपमाध्वनिः । लक्षे जनोऽस्मिन् कृतहस्त एव, लक्षे पुनर्नो मनसा दधाति । स्वं मन्यते दानविधौ परार्थ, ५२ परार्थ स मनुते ह्यनर्थम् ॥ ४८ ॥ ( अन्वयः ) अस्मिन् जनः लक्षे कृतहस्त एव पुनः लक्षे मनसा नो दधाति । airवध स्वं परार्थ मन्यते परार्थसङ्गे हि अनर्थ मनुते ॥ ४८ ॥ (व्याख्या) तत्रत्यजनानां शौयों- दार्यादिगुणशालितां दर्शयति । अस्मिन् प्रस्तुतनगरे जनः = लोकः लक्षे =लक्ष्ये तत्साधने इत्यर्थः कृतहस्तः=कृतः अभ्यस्तो हस्तो यस्य स तथोक्तः सुशिक्षितशरविद्य इत्यर्थः एव पुनः = अन्यच लक्षं दशायुतसंख्यां रूप्यक- मुद्रादीनां मनसा चेतसाऽपि नो दधाति = चिन्तयतीत्यर्थः अतिसमृद्धिशालित्वात् तेषां मनसि लक्षं न किञ्चिदितिभावः । दान विधौ - दानकर्मणि प्रवृत्तः स्व= आत्मीयं सर्ववस्तु जातं यद्वा स्वं धनम् आत्मानं वा परार्थ-=परोपकारफलकं मन्यते । परार्थसङ्गे= परार्थस्य परकीयधनस्य परकीयवस्तुनो वा सङ्गे-सम्बन्धे अन्यदीयधनप्राप्तावित्यर्थः स्वं धनम् आत्मानं वा अनर्थम् = अफलम् अनर्थकरं वा मनुते बुध्यते । विरोधाभासोऽलङ्कारः । लक्षं लक्ष्यं शरव्यं च इत्यमरः ॥ ४८ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ५३ न वामनस्य प्रकृति विधापि, न संनिभं कोऽपि बिभर्तिरूपम् । नालीकनाम्नोऽस्त्रवरे प्रयोगो, भोगे च नालीकमनाजनोऽस्याम् ॥४९॥ (अन्वयः) अस्यां कोऽपि द्विधापि आमनस्यप्रकृतिर्नवा (अस्ति), कोऽपि वामनस्य संनिभं रूपं न बिभर्ति । अस्त्रवरे नालीकनाम्नः प्रयोगः, भोगे च अली. कमना न(अस्ति) ॥ ४९ ॥ (व्याख्या) अस्यां नगर्यां कोऽपिजनः द्विधापि-मनसा वाचाऽपि आमनस्यप्रकृतिः आमनस्यं दुःखं तन्मयी प्रकृतिः स्वभावो यस्य स तथोक्तः नवान्नैत्र अस्तीति शेषः, किञ्च कोऽपि वामनस्य खर्वस्य संनिभं-सदृशं रूपम् आकृति न बिभर्ति धारयति । अस्त्रवरे श्रेष्ठेऽस्त्रविशेषे नालीकनाना-नालीक इत्येतच्छब्दस्य प्रयोगः लौह मयाऽन्तःसच्छिद्रशरविशेष एव नालीकशब्दस्य व्यवहार इत्यर्थः किन्तु भोगे=सुखे भोजनादौ अलीकमनाः असत्यचित्तः निष्फलचित्तो वा जनो न अस्तीत्यध्याहृतक्रियासम्बन्धः। परिसङ्ख्याऽलङ्कारः॥४९ कलाविलासा मनसाऽवधार्याः, कला विलाशा न कदापि कार्या । सभाजनैः स्वैरसभाजनै ा, सदा नभोगै रिवदानभोगैः ॥ ५० ॥ (अन्वयः) ( तत्रत्यजनानां ) कलाविलासा मनसाऽवधार्याः, रसभाजनैः सभाजनैः वा स्वैः रसभाजनैः, नभोगैरिव, सभाजनैः स्वैरसभाजनैः सदानभोगैः (तत्रत्यानां)कलापिलाशा न कार्या (आसीत् ) १॥५८ ॥ (व्याख्या) तत्रत्यानां जनानां कलाविलासा-कला नृत्यगीत वादित्रादिचतुःषष्टिप्रकाराः विभूतयो वा तासु ताभिर्वा विलासा: Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये विनोदाः यद्वा कलाऽनुशीलनजनितदीप्तयः मनमा-चेतसा अवधा यः अवधारयितुं-निश्चतुं शक्याः नतु वाचाऽपि तेपामवाग्गोचरकला कलापशालित्वादितिभावः कः सहेत्याह रसभाजनै-विभावा-ऽनुभाव व्यभिचारिभावव्यङ्गयशमादिस्थायिभावकशान्तादिग्सोद्वोधपात्रीभूतैः सभाजनैः सभ्यैः वा अथवा स्वैः आत्मीयः ज्ञातिभिरितियावत , कैः करणैः ? रसभाजनैः मधुरादिरमान्वितभोजनपात्रैः । कः सहेब ? नभोगैः-नभश्चरैः विद्याधगदिभिः सहेब किञ्च सभाजनैः-सपात्रः स्त्रैरसभाजनैः स्वैराणां स्वच्छन्दानां स्वेच्छाचारिणामित्यर्थः 'स्वैरः स्वच्छन्द-मन्दयोः' इत्यमरः सभा समुदायस्तत्सम्बन्धिजनैः, सदा नभोगैः यस्त्रादीनां दानैः सत्पात्रे प्रतिपादनः भोग: फलादीना. मुपभोगैश्च सहितः । किञ्च तदेशीयजनानां कला विलाशा कला मूलविवृद्धिः दत्तधनस्याधिकलभ्यांश इत्यर्थ स्तयाऽऽविलस्य मलि. नस्य धनादेः आशा तृष्णा न कार्याकरणीया आसीदितिशेषः । विरोधाभासोऽलङ्कारः। कला स्यान्मूलविवृद्धौ शिल्पादावंशमात्रके इतिमेदिनी ॥ ५० ॥ नासत्य लक्ष्मीवपुषाऽतिपुष्ण नाऽसत्यलक्ष्मी धरते स्वरूपात् । सत्यागमार्थं श्रयते यतेभ्यः, सत्यागमार्थ लभते फलं सः ॥५१॥ (अन्वयः) सः नासत्यलक्ष्मी वपुषा अतिपुष्णन् असत्यलक्ष्मी स्वरूपात् न धरते यतेभ्यः सत्यागमार्थ श्रयते (अतएव) सत्यागमार्थं फलं लभते ॥५॥ (व्याख्या) तेजोविशेषादिकं दर्शयति-नासत्येति । सवर्ण नीयतया प्रक्रान्तो जनः (अत एवयच्छब्दाऽनपेक्षा प्रक्रान्त प्रसिद्धाऽनुभूतार्थकस्तच्छब्दो यच्छब्दोपादानं नापेक्षते इत्युक्तेः) नासत्व Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिनणीता सरणी टीका, लक्ष्मी नासत्ययोः अश्विनीकुमारयोः लक्ष्मी शोभा वपुषा-शरीरेण अतिपुष्णन्-विशेषेण धारयन् सन् असत्यलक्ष्मी कृत्रिमशोभाम् आहार्यशोभामित्यर्थः यद्वा अन्यायोपार्जित धनं 'लक्ष्मीः सम्पत्तिशोभयोः । ऋध्यौषधौ च पद्माया' मितिमेदिनी । स्वरूपात स्वभावात् एव न धरते-गृह्णाति । 'स्वरूपं च स्वभावश्च'-त्यमरः । किञ्च यतेभ्यः संयमिभ्यः सकाशात् सत्यागमार्थ सत्यानाम् अवितथानां त्रिकालाबाधितस्वरूपाणामित्यर्थः अव्यभिचरितार्थप्रतिपादकानामिति यावत् आगमानां सिद्धान्तानाम् अर्थम् अभिधेयं यद्वा सत्याss. गमाऽर्थम् सत्योपदेशरूपं वस्तु श्रय ने गृह्णाति । अतएव सत्यागं त्यागेन-दानेन सहितम् आर्थम् अर्थ (धन) सम्बन्धि फलं भोगरूपम् यद्वा सत्याचञ्चनारहितत्वान्न्याय्यः आगम:=आयो यस्यतादृशम् अर्थ-धनम् तद्रूपं फलं-लाभम् अथवा सत्यागा-त्यागेन-दाने न सहिता चासौ मा लक्ष्मीः सम्पद्रपा तदर्थ फलं-कार्य, प्रयोजनं लाभ वा लभते प्राप्नोति ।। अर्थस्य तावत् दान-भोग नाशरूपास्ति . स्रो गतयो(ऽवस्थाः) भवन्ति तत्र च दान भोगावेव तत्रत्यानामास्ता मिति भावः । उक्तमन्यत्र-'दानं भोगो नाश स्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति' इति । यमकम् श्लेषः काव्यलिङ्गम् उपमा विरोधाभासः, अतिशयोक्तिश्चा. ऽलङ्काराः । फलं जातीफलेशस्ये हेतूत्थे व्युष्टि लाभयोः इतिमेदिनी । अर्थोऽभिधेय रै-वस्तु प्रयोजन निवृत्तिषु इत्यमरः ।। ५१ ।। नगारवं ध्यायति विप्रमुक्तं, नगौरवं ध्यायति विप्रमुक्तम् । पुनर्नवाचारभसा नवार्थाs पुनर्नवाचारभसानवार्थाः ॥ ५२ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ महोपाध्यायनीमेघविजयगणिविरचिते सहसम्मानमहाकाये (अन्वयः) विप्रमुक्तं गौरवं न ध्यायति विप्रम् उक्कं गौरवं ध्यायति न? किन्तु ध्यायति पुनः रभसावाचानवार्थाः पुनर्न वाचा रभसा अनवार्धा अपुनर्न ॥५२॥ __ (व्याख्या) विप्रमुक्तं त्यक्तं वस्तु प्रति गौरवं महार्घत्वं नध्यायति न चिन्तयति प्रदत्तवस्तुनो महत्वादिचिन्तां न करोतीत्यर्थः त्रिप्रम् विविधं प्राति पूरयतीति विनम् शास्त्रम् उक्तम् गुर्वादिजनोपदिष्टम् गौरवम् तदीयमहत्वम् न ध्यायतीति न किन्तु ध्यायत्येव, पुनः रभसापौर्वापर्याविचारेण हठादित्यर्थः वाचा वाक्येन नवार्थाः नवी. नार्थाः न ध्याय्यन्ते न विचार्य्यन्ते वाचायाः रभसा औत्सुक्येन अनवार्थाः अभिधेयार्थाः अपुनर्न किन्तु पुनः पुनः तदीयार्थी विचारिताः ॥ यमकालंकारः ॥५२॥ नये प्रसक्ता विनयेऽनुरक्ता, जयेन तद्वदृविजयेन पूर्णा । नवा भयाप्ता बहुशोभयाऽऽताः, अविक्रिया स्तेऽतिथिसक्रियाङ्गाः ॥५३ (अन्ययः) ते नये प्रसक्ताः, बिनयेऽनुरक्ताः, जयेन तद्वद् विजयेन पूर्णाः, नवा भयाप्ताः, बहुशोभयाऽऽसाः, अविक्रियाः अतिथिसरिकयाताः (आसन्) (व्याख्या) ते-तत्रत्यजनाः नये-नीतौ, शुक्राचार्यादिप्रणीत नीतिशास्त्रे वा न्याय्ये या प्रसक्ताः-आसक्तिमन्तः, विनये-नम्रतायां वन्दनीय जनप्रणामेवा शिक्षायां वा विनीतजने वा जितेन्द्रिये वा अनु. रक्ताः-अनुरागिणः। जयेन-शत्रूणाममिभावनेन तद्वत्-तथा विजयेनपरिभवपूर्वकग्रहणेन च पूर्णाः-सहिताः अति विक्रान्ता इत्यर्थः । नवानैव भयामा-भयग्रस्ताः यद्वा नवा भयाप्ता इत्येकम्पदम् नवेनजिनेन्द्रादिस्तवेन अभयाः-निनोकाश्च ते आप्ता:-सत्याः विश्वस्ता वा रागद्वेषादिवर्जिता वा यथार्थज्ञातारोवा च ते तथोक्ताः । यद्वा नपा. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ऽभयाऽऽप्ता:-नवेन-रक्तपुनर्नवया तत्सेवनेनेत्यर्थः, अभयं-शोथादिरोगभयराहित्यम् आप्ताः प्राप्तवन्तः,आप्तं लब्धं यैरिति वा ते तथोक्ता। बहुशोभया-सातिशयदीप्त्या आप्ता:-व्याप्ता यद्वा बहुश:-अनेकशः असदित्यर्थः अभयं-निर्भीकत्वम् अभयदानमित्यर्थः आप्तं लब्धं येभ्यस्ते तथोक्ताः लोकेभ्योऽभयदायिन इत्यर्थः । बहुशः-बहुलया भया-प्रभया आप्ता इति वा । अविक्रियाः-विकाररहिताः, यद्वा अविःमेषस्तस्येव क्रिया-कर्म सडीभावादिकं येषां ते तथोक्ताः। अतिथिसक्रियाङ्गा:-अतिथीनां -प्राघूर्णिकानां साधूनां सक्रियायै-सत्काराय सम्माननायेत्यर्थः अङ्ग-शरीरं येषां ते तथोक्ताः यद्वा अतिथिसक्रियायाम् अतिथिपूजायाम् अङ्ग-मनो येषां ते तथोक्ताः अथवा अतिथिसक्रियाया अङ्गानि-उपायाः साधनानीत्यर्थः सामग्रीइति यावत् येषान्ते तथोक्ताः । यद्वा 'तिथिसक्रियाङ्गाः' इतिच्छेदस्तस्य तिथीनां-तीर्थकर जन्मादिधर्मपर्वदिवसानां सक्रियायै-सम्माननार्थम् अङ्गं येषां ते तथोक्ताः इत्यर्थः । विनया तु बलायां स्त्री शिक्षायां प्रणतो पुमान् इति मेदिनी । अनुप्रासः ।। ५३ ।। अवनिपतिरिहासीद् विश्वसेनोऽश्वसेनोऽ प्यथ दशरथ नाम्ना यः सनाभिः सुरेशः । बलिविजयिसमुद्रः प्रौढ़सिद्धार्थसंज्ञः, प्रस्तृतमरुणतेजस्तस्य भूकश्यपस्य ॥ ५४॥ (अन्वयः) इह विश्वसेनः अवनिपतिः आसीत् यः, अश्वसेनः, दशरथ नामा सुरेशः सनाभिः, बलिविजयि समुद्रः प्रौढसिद्धार्थसंशः तस्य भूकश्यपस्य अरुणतेजः (सर्वत्र) प्रसृतम् (आसीत् ॥ द्विपक्षे-अश्वसेनः अवनिपनिरासीत् विश्व. सेन: दशरधनामा. शेषं पूर्ववत् ॥ तृ०१०-'दशरथनामाऽवनिपतिरासीत, की. विश्वसेनः भवसेनः शेषं पू० ॥ च०५०-यः नाभिः अवनिपतिरासीत् स । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ महोपाध्यायधीमेधविजयगणिविरचिते सक्षसन्धानमहाकाव्ये विश्वसेनः अश्वसेनः दशरथनामा सुरेशः शे-१० ॥ ५०पक्षे-बलिविजयि समुद्र (विजय): अवनिपतिरासीत शेषं पू० ॥ ष: प० -प्रौढ 'सिद्धार्थ' संज्ञः अवनिपतिरासीत् शे० पूर्ववत् ॥ सप्तमपक्षे-तस्य भूकश्यपस्य प्रसृतम् 'अरुणतेजः': वसुदेवः अवनिपतिरासोत् शेषं पूर्ववदन्वययोजनम् ॥ ५४ ॥ व्याख्या-नगराणि प्रदर्य सप्तार्थकेन पद्येन भूमिपालान् दर्शयति-अवनिपतिरिति । इह-अस्मिन् नगरे विश्वसेनः= विश्वसेन' इत्येतनामकः अवनिपतिः राजा आसीत् अभूत् । कीदृशः स इत्याहअश्वसेनः अश्वानां-जात्यतुरङ्गमाणां सेना यस्य स तथोक्तः । दशरथनामा दशसु दिक्षु गतो रथः कीर्तिरूपं वाहनं यस्य तद् दशरथं तादृशं नाम-अभिधानं यस्य स तथोक्तः कीारूढं तदभिधानं दशदिक्षु व्याप्नोतीत्यर्थः । दशरथस्येव सुप्रसिद्धं नाम यस्य स इति वा, सुरेशः सुरान् देवान् सुरेषु वा ईष्टे अभवतीति सुरेट-इन्द्रस्तस्य सनाभि ऐश्वर्यादिना सदृशः, बलिविजयिसमुद्रः बलिनः पराक्रमिणो विजयते तच्छीलः बलिविजयी स चासो समुद्रः सह मुद्रया प्रत्ययकारिण्या राजकीयत्वप्रमापक चिह्न विशेषेण, यद्वा अङ्गुलिधार्यमुद्राङ्कनयुक्ताऽङगुलीयकेन, अथवा सह मुद्राभिः स्वर्ण-रौप्यादित. काभिः कोटीश्वरत्वात्. च इति स तथोक्तः, प्रौढ़सिद्धार्थ संज्ञः प्रौढ़ा-प्रवृद्धा प्रगल्भा वा निपुणा वा सिद्धार्था सम्पादितोद्देश्या च संज्ञा=बुद्धिर्यस्य स तथोक्तः । 'अवनिपति रासीदि'-ति सम्पूर्णवाक्यम् । तस्य-निरुक्तस्य अवनिपतेः, भूकश्यपस्य-भुविन्भूतले कश्यप इव प्रजापतित्वात् इति भूकश्यपस्यपस्तस्य, अरुणतेजः= सूर्यवत्प्रतापः सर्वत्र प्रसृतंव्याप्तम् आसीदिति शेषः । द्वितीयपक्षे-'अश्वसेन' इति विशेष्यम् 'विश्वसेन' इत्यस्य विश्वा सम्पूर्णा सेना-चमूः यस्य स इत्यर्थः । शेषं पूर्ववत् । तृतीयपक्षे-'दशरथनामा' इति विशेष्यपदम् तस्य दशरथ इति Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. नाम यस्य स इत्यर्थः शेषं पूर्ववत् ।। चतुर्थपक्षे-'नाभिः' इति विशेष्यम् 'यः, सः' इत्यनयोश्च 'यः नाभितन्नामा अवनिपतिरासीत् स विश्वसेनः अश्वसेन इत्यादिरूप इत्येवं रीत्याऽन्वययोजना कर्त्तव्या । 'सुरेश' इत्यस्य इन्द्र सदृश इत्यर्थश्च बोद्धव्यः ॥ - पञ्चमे-बलिविजयी चासौ समुद्रान्नामैक देशग्रहणेन नाम ग्रहणात् 'समुद्रविजयः' इत्येतन्नामकश्चेति स बलिविजयिसमुद्रः। शेषं पूर्ववत् । षष्ठपक्षे सिद्धार्थ इति संज्ञा-नाम यस्य स सिद्धार्थ संज्ञः प्रौढश्वासौ सिद्धार्थसंज्ञश्चेति स प्रौढ सिद्धार्थसंज्ञः अवनिपतिरासीदित्येवमन्वयः कार्यः । शे० पू० सप्तमे-'अरुणतेज' इति विशेष्यपदम् तस्य च तस्य-प्रसिद्धस्य भूकपश्यस्य भुवि स्वांशेनावतीर्णस्य कश्यपस्य-तदाख्यप्रजापतेः प्रसृ तं-विस्तीर्णम् 'अरुणतेजः' सूर्यवद्दीप्रतेजोरूपः वसुदेव इत्यर्थः कश्यपतेज एव वसुदेव रूपेण परिणम्याऽवतीर्णमिति लोकप्रसिद्धिः एवंप्रकारेणार्थः कार्यः। अत्रक्रमेण शान्तिनाथ-पार्श्वनाथ-रामचन्द्राऽऽदिनाथ-नेमिनाथ-वीरप्रभु-कृष्णवासुदेवानां पितरः (विश्वसेनः, अश्वसेनः, दशरथः, नाभिः, समुद्रविजयः, सिद्धार्थः, वसुदेव इतिनामानः ) प्रदर्शिताः ॥ ५४॥ सनाभिभूतेः सुहृदुत्तमानां, सनाऽभिभूते--द्वैिषदुधमानाम् । सामान्यमासी-दुभयादरेण, नृपे महीशासति तां चिरेण ॥ ५५ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाचे (अन्वयः) नृपे तां महीं शासति (सति) सनामिभृतेः सुहृदुत्तमानां, सनाऽभिभूतेः द्विषदुचमानां (च) सामान्यमासीत् उभयादरेण ॥ ५५ ॥ व्याख्या-सामादिराजनीतिमाह-सनाभीति । नृपे विश्वसन प्र भृतौ राज्ञि तां-पूर्वोक्तरूपां महींपृथ्वी शासति सति-राज्यं पाल. यति सति, सनाभिभूतेः सनाभिः ज्ञातिस्तस्य भूतिः भवन तस्मात् तथा च ज्ञातिभवनात् बान्धववदनुकूलीभावात् सुहृदुत्तमानां-स्वविष: यानन्तरितनृपभिन्नमहीपतिनाम् तथा सना-सदा अभिभूतेः पराभवनात् द्विषदुधमानां-द्विपता-शत्रूणां स्वविषयाऽनन्तरितनृपाणामुद्यमानां प्रयत्नानां च चिरेण सामान्य साधारण तुल्यरूपतेत्यर्थः उभयत्र सनाभिभूतित्वस्य सत्वात् आसीत् । अत एव उभयादरेण= उभयः शत्रुभिः भयात्कृतेन मित्रैश्च स्नेहात्कृतेन आदरेण सम्माननेन, उभयेषामादरेण वा यद्वा उभयेषु-शत्रुषु मित्रषु च आदरेणशत्रुपक्षे आ-समन्तात् दरेण-भयेन तजननेनेतिभावः मित्रपक्षे सत्कार करणेन नृपे महीशासतीत्यनेन सम्बन्धः । तुल्ययोगीता इलेपः विरोधाभासश्चालङ्काराः। ॥ ५५ ॥ श्रीविश्वसेनाऽवनिपं तमाच्य __ ज्योत्स्नेव तापं सहसाऽपजह्वे ॥ चलाचलानां च खलानलानां, सुधाऽभिषिक्ता वसुधातदाऽभूत् ॥५६॥ अन्वयः-- तम् अवनिपम् आप्य श्रीविश्वसेना ज्योत्स्नेव चलाचलानां खलामलानां तापं सहसाऽपजहे वसुधाऽपि तदासुधाभिषिक्ताऽभूत् ॥ ५६ ॥ (व्याख्या) तं-पूर्वोक्त विश्वसेन प्रभृतिम् अवनिपं-राजानम् आप्य लब्ध्वा श्रीविश्वसेना-श्रिया शोभयायुक्ता विश्वासमग्रा सेना ज्योत्स्नेव-चन्द्रिकेव चलाचलानाम् अत्यन्तचञ्चलस्वभावानां Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. खलानलानांखला: दुर्जनाः अनला:-अमय इव खला एव अनला इति वा खलानलास्तेषां तजनितमित्यर्थः तापं सन्तापं दौर्जन्यजनि तोपद्रवमित्यर्थः सहसा झटिति अपज हे अपहृतवती । वसुधा=पृथ्वी अपि तदा तस्मिन् काले राजप्रभाववशप्रशान्तदुर्जनादिजनिताऽशेषाऽशातजात समये इत्यर्थः सुधाऽभिषिक्ता-सुधा-अमृतमिव सुधा जलं तया अमृतोपमजलेनेत्यर्थः अभिषिक्ता जातसेका अभूत् ॥ उप. माऽतिशयोक्तिश्थालंकारौ ॥५६॥ अभीतिनोतिः प्रस्मृताऽऽसमुद्र प्राजाधिपत्याद् युगपत् प्रवृत्त्या ॥ ततः समयं वसुदेवतेजो न्यकृत्यरेजे रजसाऽञ्जसैव ॥ ५७ ॥ अन्वयः-ततः आसमुद्रप्राजाधिएत्यात् युगपत् प्रवृत्त्या (च) प्रसूता अभी तिनीतिः समग्रं वसुदेव तेजः अञ्जमा रजसान्यक्कृत्य रेजे ॥ ५७ ॥ व्याख्या-ततः तदनन्तरम् आसमुद्रप्राजाधिपत्यात समुद्रायधिशासनकरणात् युगपत् एकदैव प्रवृत्त्या आज्ञादिप्रचारेण च प्रसृता-विस्तृता व्याप्तेत्यर्थः अभीतिनीति: कस्मा अपि भयं न देयमिति मयि दुर्विनीतानां शासितरि केनापि न भेतव्यमिति वाऽभयदानविषयिणी राजनीतिः समग्रं-सम्पूर्ण वसुदेवतेजा-वसूनां धनानां स्नानां वा देवाः अधिपाः 'वसुना दीव्यन्तीति व्युत्पत्त्या' धनिन इत्यर्थः तेषां तेजः दुर्विध विविधवाधासंबाधजनकः प्रतापः तत् कर्मभूतं रजसा-राजसभावेन धूलीरूपेण वान्यक्कृस्य तिरस्कृत्य अधाकृत्येति वा अञ्जसाझटिति रेजे-दिदीपे ॥ धनेरत्नेवसुस्मृतम् इत्यमर इति कोषः ।। ५७ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये श्रीकाशिराजस्य महाश्वसेनाख्याने श्रुतेऽप्यागमनिश्चयेन ॥ क्षमापि दियोहविनाशनेन, पराऽभिघाताय विनाशनेन ॥ ५८ ॥ अन्वयः - श्री काशिराजस्थ महाश्वसेनाख्याने श्रुतेऽपि पराभिघाताय आगमनिश्वयेन अशनेऽपि क्षमा न आपि ( शत्रुवगैः ) दियोहविनाशनेन विना ॥५९॥ व्याख्या - श्री काशिराजस्य = श्रिया = राजलक्ष्म्या काशते दीप्यते तच्छीलः श्रीकाशी स चासौ राजा च इति श्री काशिराजस्तस्य तथो - क्तस्य महाश्वसेनाख्याने =महत्या स्तुरङ्गमसेनाया आख्याने = प्रसिद्वेतिवृत्तवर्णने श्रुतेऽपि = श्रवणगोचरी कृतेऽपि पराभिघाताय = शत्रूणां दलनाय आगमनिश्चयेन = इयमागच्छति सेना इत्येवं स्वप्रतीपक्षितिप सेनोपस्थिति निर्णयेन अशनेऽपि - भोजनेऽपि क्षमा शान्तिः चित्तैका - ग्न्यमित्यर्थः न आपि प्राप्ता शत्रुवर्गेरिति शेषः । किं सर्वथैव नेत्याहदिङ्मोहविनाशनेन विना = दिशाभ्रान्ति विनाशो यावन्न तावदित्यर्थः । क्षमा भूमौ तितिक्षायां स्त्रियां युक्ते नपुंसकम् इति मेदिनी ॥ ५८ ॥ अजः सपक्षे सवितैव तावत्, तस्याऽधिपत्ये सुषमा जगत्याम् । ६२ - लोकस्य कस्यापि न दुःखलेशः, www क्लेशः कुतोऽन्योन्ययुधायुधानाम् ॥५९॥ ( अन्वयः ) यस्य सपक्षे सविता अजः एव ( नान्यः ) तस्य आधिपत्ये जगत्यां सुषमा ( सुषमा स्थितिः, वृत्तिर्वा ) ( आसीत् ) । कस्यापि लोकस्य दुःखलेश: न ( अभूत् ) अन्योन्ययुधायुधानां क्लेशः कुतः ( सम्भवति )! व्याख्या -यस्य राज्ञः सपक्षे - सादृश्यकोटौ तुल्यरूपतायामि Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, त्यर्थः उपमानकक्षायामित्याशयः सविता-प्रजोत्पादयिता अजाब्रह्मा एव यहा सविता-सूर्यः तेजस्वित्वेन अजः-विष्णुः स्थिति (लोकमर्यादा) कारित्वेन, शिवश्व दुष्टसंहारकत्वेन एव नान्यः कश्चन यस्यो. पमानभूत इति भावः तस्य राज्ञः आधिपत्येन्प्रभुत्वे स्वामित्वे इत्यर्थः राजत्वकाल इति यावत् जगत्यां पृथिव्यां लोकेवा सुषमा-शिष्टाऽनुग्रहदुष्टनिग्रहादिविधिविधानजनित सार्वात्रिकशान्तिसमुद्भूतपरमशोभा 'सुषमा परमाशोभा' इत्यमरः । यद्वा सुषमा शोभना स्थितिरितिशेषः, अथवा सुपमा ममा तुल्यरूपा वृति रितिशेषः आसीदितिक्रियाध्या हारः, अत एव कस्यापि लोकस्य जनस्य दुःखलेशः आध्यात्मिकाऽऽधिदैविका-ऽऽधिभौतिकादिदुःखमात्राऽपि न अभूत् । अन्योन्ययुधायुधानाम् अन्योन्यं परस्परं युत-युद्धम् आयुधानि-प्रहरणानि शखाणीत्यर्थः तेषां तजनित इत्यर्थः क्लेशा-पीडा कुतः? नैव सम्भवतीत्यर्थः न्यायपरायणे प्रजारक्षणप्रवणान्तःकरणे धरणीरमणे राजसिंहा. सनमासीने प्रजानामकुतोभयत्वं राष्ट्रस्य च समस्तेति भीतिराहित्यमनुपमसुषमासाहित्यं च सर्वथैव सम्भावनाऽऽस्पदीभावमधिगच्छ. तीति नीतिवेदिनाम्मतिः । उपमा, काव्यलिङ्गम् अर्थापत्तिश्वाऽलङ्क. तयः॥अजश्छागे हरि-ब्रह्मविधु-स्मर-नृपे हरे इति मेदिनी ।।५९।। तमीश्वरं प्राप्य तमीश्वराभं समर्थ सिद्धार्थ कुतार्थभावात् । कराग्रहात् तुष्टमनाधराऽऽसीत् स्ययंखयम्भूदयनाप्रियैव ॥ ६० ॥ (अन्वयः) तमीश्वराभं तम् ईशरं प्राप्य धरा समर्थ सिद्धार्थ कृतार्थभावात् कराग्रहात् स्वयम्भूदयनात् तुष्ट मनाः प्रियेव (प्रियेव) आसीत् ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचितेसससन्धानमहाकाव्ये ....... . .... ......... (व्याख्या)-यथार्थपृथ्वीपतित्वं प्रकटयति-तमीति । तमीश्वरामतमी-रात्रिस्तस्या ईश्वरः पतिः तमीश्वरः चन्द्रस्तस्येव आभा= छविर्यस्य स तं तथोक्तं चन्द्रसदृशमित्यर्थः तं--पूर्वोक्तम् विश्वसेन प्रभृतिम् ईश्वरं पति राजानमित्यर्थः आप्य लब्ध्वा धरा-पृथ्वी समर्थ सिद्धार्थ कृतार्थभावात् द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते इति न्यायादिहत्य भाव शब्दस्य प्रत्येकमन्वयः तथा च समर्थभावात् कार्यसम्पादने समर्थत्वात्-शक्तिशालिजनाढ्यत्वादितिभावः यद्वा सर्वविधवस्तुप्रकटने क्षमत्वात् सिद्धार्थभावात्-लोकानां सर्वार्थसाधकत्वात्, कृतार्थभावात्-धान्यादिनिष्पादनेन चरितार्थत्वात्-सफलत्वात् इत्यर्थो बोद्धव्यः । कराग्रहात्=करस्य-राजग्राह्यभागस्य अग्रहाव=अनादानात् ग्रहणाभावादित्यर्थः, तथा स्वयम्भूदयनात् स्वयम्भू-विष्णुः तद्वद् दयनात्-रक्षणात् यद्वा खयम्आत्मना नतु कमेकरादिद्वारा भुवः स्थानस्य आगन्तुकेभ्यः दयनातदानात् सत्कृत्यप्रतिपादनात्, अथवा स्वयं नत्वन्यद्वारैव भुवः पृथिव्याः दयनात् पालनात् प्रत्यवेक्षणादित्यर्थः, अतएव तुष्टमनाःप्रसन्नचित्ताः प्रियवधीत्यावहव हृद्यैवेत्यर्थः लोकानां नरपतेश्च, यद्वा प्रिया भार्या तद्रूपेत्यर्थः एव. प्रियेवेति पाठे प्रियेव भार्येव आसीत् । वनिताऽपि यथा शशाङ्ककान्तं कान्तमासाद्य समर्थ सिद्धार्थ-कृतार्थमा वात-समर्थ-भावात्-सुरतादिक्षमत्वात् सिद्धार्थभावात् सम्पन्नमनोरथत्वात् कृतार्थभावात् सदपत्यजननादिनाकृतकृत्यत्वात, कराग्रहातयोग्यपुरुषकर्तृकपाणिग्रहणात् स्वयम्भूदयानात स्वयम्भुव: कामदेवस्य तद्विकारस्येतिभावः उदयनात्-आविर्भावात् यद्वा खयम्भुवो = स्तनयोः उदयनात्-उत्थानात् यौवनोद्भेदादित्यर्थः तुष्टमनाः सदाऽऽहादितान्तःकरणा पत्युः प्रिया-प्रीतिजनिका भवति. तथेयंधरापी Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. I तिभावः । श्लेषेणानुप्राणितंरूपकमुपैमा वा काव्यलिङ्गं समासोक्तिर्वाऽलङ्काराः । बलि - हस्तां - शवः करा इत्यमरः ॥ ६० ॥ वामाऽभिरामाङ्गयचिराऽर्थसिद्धौ, शिवाऽऽख्ययाऽस्य प्रियकारिणीस्त्री । श्रिया सुदेवी सहशीललीला ६५ कौशल्य कान्ताम्बुजलोचनश्रीः ॥ ६१ ॥ ( अन्वयः ) अस्य वामा स्त्री अभिरामाङ्गी, अर्थसिद्धौ अचिरा, आख्ययाशिवा, प्रियकारिणी, श्रियासुदेवी सहशीललीला, कौशल्यकान्ता, अम्बुज लोचनश्रीः ( आसीत् ) ॥ द्वितीये अस्य अचिरास्त्री, वामा, ऽभिरामाङ्गी, अर्थ - सिद्धौ आख्या शिवा, शेषं पूर्ववत् ॥ तृतीये अस्य आख्यया शिवा स्त्री शे० पू० ॥ चतुर्थे - अस्य सुदेबी = मरुदेवी स्त्री दो० पू० ॥ पञ्चमे - अस्य सुदेवी = देवकी स्त्री श्रिया 'युक्ता' शेषं पूर्ववत् ॥ षष्ठे अस्य कौशल्यका कौशल्या स्त्री माभिरामाङ्गी अर्थसिद्धी अचिरा. आख्यया शिवा. प्रियकारिणी, श्रिया सुदेवी, सहशीललीला, अन्ता, ऽम्बुजलोचनश्रीः ( आसीत् ) || ६१ ॥ व्याख्या:- अस्य राज्ञः अश्वसेन संज्ञस्य वामा-तदभिधाना स्त्री = भार्या आसीत् कीदृशीत्याह - अर्थसिद्धौ अचिरा = कार्य सम्पादने शैन्ध्यवती शीघ्रंकार्यसाधिकेत्यर्थः । आख्यया - नाम्ना शिवा=कल्याणावा नाम [मरण] मात्रेणैव मङ्गलकारिणीत्यर्थः । अभिरामाङ्गी = अभिरामं = सुन्दरम् अङ्गं शरीरं यस्याः सा तथोक्ता मनोहरगात्रीत्यर्थः । प्रियकारिणी - पत्युर्हितकारिणी । श्रिया - शोभया सौभाग्यलक्ष्म्या वा रूपसम्पदा वा सुदेवी = उत्तमा देवीव इति देवी. सहशीललीला = G दि० 1 समर्थेत्यादिपदे कर स्वयम्भूपदयोश्च श्लेषात् । २- प्रियेवेतिपाठे | ३- तुष्ट मनस्त्वे पञ्चम्यन्तानां हेतुत्वेनोपादानात् । ४- समान विशेषणबलान्नायकनायिकाव्यवहारारोपात् तदुक्तं 'समासोक्तिः समैर्य कार्यलिङ्गविशेषणैः । व्यवहारसमारोपः प्रस्तुतेऽन्यस्य वस्तुनः' इति साहित्यदर्पणे ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये शील-सद्वृत्तं सत्स्वभावो वा लीला-विलासविशेषः गतिचेष्टिता दिभिःप्रियस्यानुकरणं 'प्रियस्यानुकृतिौला' इति साहित्यदर्पणे ताभ्यां (शील लीलाभ्यां ) सहवर्तमाना इति सा तथोक्ता कौशल्यकान्ता-कौशलमेव कौशल्यं-क्रियानैपुण्यम् तेन कान्ता-कमनीया प्रशंसनीयेत्यर्थः । अम्बुजलोचनश्रीः-अम्बुजस्येव लोचनस्य श्री यस्याः सा तथोक्ता कमलसदृश नेत्रशोभाशालिनीत्यर्थः। शीलस्वभावे सद्वृत्ते इति मेदिनी ॥ द्वितीयपक्षे-अस्य राज्ञः 'विश्वसेन' नामधेयस्य 'अचिरा' तदभिधाना स्त्री-भार्या पट्टराज्ञीतियावत् आसीत सा कीदृशीत्याह-वामारम्या मनोहारिणीत्यर्थः, अर्थसिद्धौ-प्रयोजनसम्पादनविषये आख्य. या-नाना शिवा-क्षेमकारिणी। शेष पूर्ववत्॥ अर्थोऽभिधेय रै-वस्तुप्रयोजन-नित्तिषु इत्यमरः।। तृतीयपक्षे-अस्य राज्ञः 'समुद्र विजय' नाम्नः आख्यया नाना 'शिवा' इतिलोके प्रसिद्धा स्त्री-पट्टमहिपी आसीत् । शेषं पूर्ववत् ॥ चतुर्थपक्षे-अस्य राज्ञः 'नाभिराज' संज्ञकस्य स्त्री-पत्नी पट्टराज्ञी मुदेवी-मरुदेवी इति प्रसिद्धा आसीत् नामैकदेशग्रहणेन नामग्रहणात् सत्या भामा इतिवत् । सा कीदृशीत्याह-श्रिया 'युक्ता' इति शेषः । शेषं पूर्ववत् ।। पञ्चमपक्षे-अस्य चमुदेवस्य 'सुदेवी-देवकी इत्यभिधया लोके विदिता स्त्री-भार्या आसीत् शेषं पूर्ववत् । ___षष्ठपक्षेच--अस्य राज्ञो 'दशरथ' नामधेयस्य 'कौशल्यका 'कौशल्या' इत्येतनाम्नीत्यर्थः स्वार्थिकः कः "केऽण" इत्यापोह्रस्वः अभाषितपुंस्काचेत्यनेन नित्यस्त्रीलिङ्गशब्दाद्विहिताऽऽतस्थानिकाऽतो. वैकल्पिकत्व विधानसामर्थ्याचदभावे नित्येत्वस्याऽप्यभावः । साकी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. शीत्याह-वामाऽभिरामाङ्गीवामेनकामदेवेन तद्विकारोदयेन कामनिवासावस्योद्गमेन वेतिभावः यौवनोभेदेनेतियावत् अभिराममनो. हरम् अङ्ग यस्याः सा तथोक्ता यता वामस्यकामस्य अभिरामा मुन्दरी यद्वा आमिरामा आभाऽस्त्यस्या इत्याभिनी-सातिशयशोभाशालिनी रामा-रमणी रतिरित्यथेस्तद्वदङ्गं यस्याः सा तथोक्ता । अन्ता रम्या पत्युमनोहारिणी । वामं धने पुंसिहरे कामदेवे पयोथरे । वल्गु-प्रतीप-सव्येषु त्रिषु नार्या स्त्रियामिति मेदिनी । मृत्या ववसितेरम्ये समाप्ता वन्त इष्यते इति शब्दार्णवः शेषविशेषणयोजनं पूर्ववत् । श्लेषः दीपकम् उपमाऽलङ्काराः । श्रीसिद्धार्थराजस्य भार्यानामधेयमग्रेऽभिधास्यते ॥ ६१ ॥ इन्दोररालापि कला द्वितीया, शुभायनूनं समयाऽनुसारात् । तथा सुदेव्यप्यचिराशिवैव, वामाध्वना सूरतमूर्तिसाधुः ॥६२|| (अन्वयः) इन्दोः द्वितीया कला भरालाऽपि समयानुसारात् नूनं शुभाय (भवति) तथा सुदेव्यपि अचिराशिवा वामाध्वना (वर्तनशीला) सूरतमूर्तिसाधुः (अभूत् ) ॥ ६२ ॥ __ यथा इन्दो-चन्द्रमसः द्वितीया कला-पोडशभागैकभागः कलातु पोडशोभाग इत्यमरः, अराला कुटिलाऽपि असुदृश्याऽपीतिभावः समयाऽनुसारात्-कालान्तरेण पौर्णमासीमासाद्येत्यर्थः नूनं= निश्चयेन शुभाय-मङ्गलाय पूर्णशशिरूपाय कल्याणायेत्यर्थः भवति तथा तद्वत् सुदेवी-प्राग्वर्णितरूपा राज्ञी अपि अचिराऽशिवा अचि. रम्-अल्पकालपर्यन्तमेव अशिवं-पुत्रादिराहित्यादिरूपममङ्गलं तज्ज. नितदुःखमितिभावः यस्याः सा तथोक्ता अभूत् । कीदृशी सेत्याह टि... सम्यग्दष्टुमशक्यापि, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजय गणिविरचिते सप्तसन्धान महाकान्वे वामाध्वना=शिष्टसमष्ट्याचरितरुचिरमार्गेण वर्तनशीलेतिशेषः यद्वा वामः =रम्यः मधुर इत्यर्थः आ = समन्तातुध्वनो भाषा यस्याः सा मधुरवादिनीत्यर्थः । सूरतमूर्तिसाधुः = सूरतया दयावत्या मूर्त्या खरूपेण साधुः = मनोहरा सभ्या - शिष्टावा यद्वा सूरता मूर्तिर्यस्याः साचासौ साधुः = कुलीना - महाकुलसमुद्भवा - चेति सा तथोक्ता । स्यादयालुः कारुणिकः कृपालुः सूरतः समा इति. महाकुलकुलीना-र्य-सभ्यू - सज्जन - साधव इति चामरः । साधुर्वार्धुषिकेचारौ सज्जनेऽप्यभिधेयवत् इति मेदिनी ॥ ६२ ॥ सौरभ्यवित्तं जलजं प्रदाय, चन्द्रः कलाकौशल मुज्ज्वलत्वम् । जाने ( अन्वयः ) कजेन्द्र समयं प्रपथ तदास्याऽनुगमात् विभूतिं प्राप्ती (इति) मन्ये जलजं सौरभ्यवित्तं चन्द्रः कलाकौशलमुज्ज्वलत्वं प्रदाय ॥ ६३ ॥ ૬. तदास्यानुगमाद् विभूर्ति, प्राप्तोकजेन्दू समयं प्रपद्य ॥ ६३ ॥ कजेन्दू-कमल- चन्द्रमसौ समयं क्रमेण दिवस-रात्र रूपकालं प्रपद्य= प्राप्य तदास्याऽनुगमात् तस्या = अनुपदोक्त राज्याः आस्यस्य=मुखस्य अनुगमात्=अनुसरणात् सेवनादित्यर्थः तन्मुखसेवनाssसादितप्रसादादितिभावः विभूति - मुपमानस्थानीयत्वादिमहिमानं प्रासौ = लब्धवन्तौ इत्यहं जाने मन्ये उत्प्रेक्षे इत्यर्थः । ननुकिं दत्त्वा ताभ्यां प्रसादो लब्ध इत्याह-जलजंकमलं सौगन्ध्यरूपं धनं, चन्द्रश्थ कलाकौशलं=कलासु=चतुःषष्टिप्रकारासु कौशलं - नैपुण्यम् उज्ज्वलत्वम् = औज्ज्वल्यमनुपमकान्तिमत्वम् आह्लादकत्वं वा प्रदायन्दत्वेत्यर्थः । कमलगुणाः चन्द्रगुणाश्च तन्मुखेऽवतिंषतेति भावः ॥ उत्प्रेक्षाकाव्यलिङ्गं च ॥ ६३ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सौभाग्यमस्याः प्रवदेत् समस्याख्यानात् सुधावा सकलार्थसिद्धिः । सुधाऽधरस्था करपद्मगाऽन्या ६९ तन्तुल्यता वास्तु न जीवलोके ॥ ६४ ॥ समस्य आख्यानात् ( सादृश्यरूपेण ) सुधा सकलार्थ सिद्धिर्वा अस्याः सोभाग्यं प्रवदेत् तु सुधा ( अस्याः ) अधरस्था अन्या करपद्मगा: ( अतएव ) जीवलोके तत्तुल्यता न अस्तु ॥ ६४ ॥ समस्य - संक्षिप्य आख्यानात् = कथनात् सादृश्य रूपेणेतिशेषः सुधा = अमृतं. सकलार्थ सिद्धि: - सकलानां सम्पूर्णानाम् अर्थानां= धनानां प्रयोजनानां वा वस्तूनां वा सिद्धिः निष्पत्तिर्वृद्धिर्वा वा शब्दः समुच्चयार्थः अस्या: = पूर्वोक्तराज्ञ्याः सौभाग्यं = भाग्यशालिनां पतियाल्लभ्यं वा कर्म्म प्रवदेत् = वक्तुं समर्था स्यात् । द्वितीयो 'वा' तु शब्दार्थकः तथा च वा तु किन्तु सुधा प्रक्रमादस्याः अधरस्था= ओष्ठवर्तिनी अन्या= अपरा द्वितीया सकलार्थसिद्धिरित्यर्थः करपझगा - हस्तपद्मस्था हस्तस्थितकमल रेखामा हिप्रभवेत्यर्थः पद्मरेखायुक्तहस्ते सर्वार्थसिद्धिरिति सामुद्रिकशास्त्रे प्रसिद्धम् । अतएव जीवलोके = मर्त्यलोके तत्तुल्यता = तत्सादृश्यं न अस्तु = नाऽस्तीत्यर्थः । तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वं हि सादृश्यं तच्चाऽभिन्न वस्तुनि न सम्भवतीति कथं स्वस्था सुधा स्वंसादृश्येन वक्तुं प्रभवेदितिभावः । अत्रातिशयोक्तिरलकृतिः ॥ ६४ ॥ रूपेण कान्त्या चरणेनलक्ष्म्या, प्राप्ताशलाकां त्रिषु विष्टपेषु । ततः प्रसिद्धा त्रिशलाकनान्नाकाराविकारा द्रमणी मणीव ॥ ६५ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्यायश्रीभेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये (अन्वयः) रूपेग कान्त्या आचरणेन लक्ष्म्या त्रिषु विष्टपेषु शलाकांप्राप्ता तत: आकाराविकाराद् त्रिशलाकनाम्ना प्रसिद्धा रमणी मणी च (अभूत्) १६५|| व्याख्या-एकषष्टि ६१ मितश्लोकेऽनुक्तां सिद्धार्थराजस्य भार्या मिहिनामत आचष्टे । 'अस्ये'-ति पूर्वतोऽनुपज्यते. प्रकरणाद्वाऽनुसन्धेयः। तथा च अस्य-सिद्धार्थराजस्य, रूपेण-सौन्दर्येण सत्स्वभावेन वा 'रूपं स्वभावे सौन्दर्य' इति मेदिनीः, कान्त्या लावण्येन, आच. रणेन-सदाचारेण सम्यक्चारित्रेणेत्यर्थः लक्ष्म्या धनसम्पदाच त्रिषु विष्टपेषु-त्रिलोक्यां शलाकाम्-सर्वोत्तमतां प्राप्ता अधिगतवती ततः= तस्मात्कारणात् आकाराविकारात्-आकारस्य'त्रिशलाका घटककका. रोत्तरवर्तिन आरूपस्वरवर्णस्य अविकारात्-संज्ञा शब्दतया 'ड्यापोः संज्ञा-छन्दसोर्बहुलम्' इत्येतच्छास्त्रेण ह्रस्वविधानवशसञ्जाताद् अरूपवर्णविकारात् अन्यथा त्रिशलाका' इत्यापत्तेः, 'त्रिशलाक' नाम्नात्रिषुशलाका यस्य तत्रिशलाकं तादृशं नाम-अभिधानं तेन त्रिशला. नाम्नेत्यर्थः प्रसिद्धा-शास्त्रे लोकेच विदिता भूषिता वा 'प्रसिद्धी ख्यात-भूषितौ' इत्यमरः रमणी-स्त्रीरत्रम् अभूत् केव? मणीव-सद्रनमिव सापि रूपादिना प्रसिद्धा भूषिता, शलाकांवेधनास्त्रं प्राप्ता, आकार विकार रहिता भवति । श्लिष्टोपमा काव्य लिङ्गंचाऽलङ्कारौ॥६५ सुवर्णकूर्मप्रतिमाक्रमत्वा-- तस्या मधोलोकसुरप्रणामम् । वराङ्गरत्नेन तदो लोक प्रणम्रतां वक्तितदीयकायः ॥ ६६ ॥ तदीयकायः सुवर्णकूर्मप्रतिमाक्रमत्वात् तस्या मधोलोकसुर प्रणामम् तश्रा बराङ्गरत्नेन अलोकप्रणम्रता वक्ति ॥ ६६ । व्याख्या-तदीयकाया पूर्वोक्तराज्ञीशरीरं सुवर्णकूर्मप्रतिमानमा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, त्वात्म्सुवर्णस्य-काञ्चनस्य तन्निर्मितस्येत्यर्थः कूर्मस्थ कमठस्य प्रतिमा प्रतिकृतिमूतिरित्यर्थ स्तद्वत् क्रमौ-चरणौ यस्य यस्मिन् वा स सुवर्णकर्मप्रतिमाक्रमस्तस्यभावस्तत्वं तस्मात्तथोक्तात् हेमरचितकच्छपप्रतिमापृष्ठदेशसदृशपदयुगलशालिवादित्यर्थः 'शुभः कमठपृष्ठाभः' इति सामुद्रिकोक्तेः । तस्यां राज्यां विषये अधोलोकसुरप्रणामम्=अधोलोकसुराणां भूलोकाधस्ताद्वर्तिभुवनस्थदेवानां प्रणाम प्रणतिम् । तथा वरात्नेन भाग्यशालित्वसूचकमस्तक श्रेष्ठेन 'वराङ्गं मूर्द्ध-गुह्ययोः' इति हैमः रत्नं स्वजाति श्रेष्ठे स्यान्मणौ राजातु. पार्थिवै ऊर्बलोकप्रणम्रता-ऊर्ध्वलोकाः भूलोकादुपरिवर्तमानलोकाः तत्रत्यादेवा इति भावः प्रणम्राः प्रणता यं स ऊध्वेलोकप्रणम्रस्त . स्य भावस्तत्ता तां तीर्थङ्करजननक्षेत्रतया ऊधिोलोकवर्तीदेवादीनां प्रणम्यतामितिभावः वक्ति-कथयति ज्ञापयतीत्यर्थः॥ ६६ ।। मुक्ताकलापे स्तनयोविभूषा, __केशेषु शोभा शिखिनां कलापे । नितम्बशोभा रसनाकलापे, ___कलापरूपं तदिदं कवीनाम् ॥ ६७ ।। (अन्वयः) मुक्ताकलापे स्तनयोविभूषा. शिखिनांकलापे केशेषु शोभा, रसना कलापे नितम्बशोभा तदिदं कवीनां कलाऽपरूपम् (अमिमतम्) ॥६॥ व्याख्या-मुक्ताकलापे-मुक्तावल्यां हारे इत्यर्थः स्तनयो वक्षोजयोः विभूषा भूषकत्वम् स्तनशोभासंवर्द्धकत्वकथनमितिभावः, शिखिना-मयूराणां कलापेन्बहे उपमानभूते उपमेयतयाऽभिमतेषु केशेघु-कुन्तेलेषु शोभा, रसनाकलापे काञ्चीदाम्नि सति नितम्बशोभा नितम्बस्य कटिपश्चाद्वेशस्य शोभा छविस्तवर्णनमित्याशयः इदं-तत्त Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते मप्तसन्धानमहाकाम्बे दभिधानं कवीनां-काव्यनिर्मातॄणां कलापरूपं कलाया:सामर्थ्यस्य कल्पनाशक्तरित्यर्थः अपरूपम् अपकृष्टस्वरूपम् विपरीतल्पंवाऽभिमतमितिशेषः । अनुपमानां प्रकृतिरमणीयानां रमणीरत्नानामुपमानप. रिकल्पनमाहार्यसौन्दर्यसाधनोपसन्निधापनं च कविकल्पनाशक्तेदौबल्यं द्योतयतीतिभावः । कलापो भूषणे बर्हे तूणीरे संहतावपि इति मेदिनी । कला स्यान्मूलविवृधौ शिल्पादावंशमात्रकेषोडशांशे च च. न्द्रस्य कलनाकालमानयोरितिमेदिनी । अपः स्यादपकृष्टार्थे वर्जनार्थवियोगयोः । विपर्ययेच विकृतौचौर्ये निर्देश-हर्षयोः इतिमेदिनी । ___ अथ च कवीनां काव्यकर्तृणां तत्तस्मात् इदं एतद्वर्णनीयस्वरूपं खी रूपं वस्तु कलापरूपम् समूहरूपं. सर्ववर्णनीयवस्तु समष्टिरूपम् यद्वा कलारूपम् भूषणस्वरूपम् प्रसन्नताजनकम् एकत्रैव सर्वव्यावर्गनीयवस्तुमिलनात् किंवाकवीनां मयूराणां कलापरूपम् बर्हस्वरूपम् अनेकरूपत्वादित्यर्थः ॥ ३७॥ नृपेन्द्रभावे जयवाहिनीयं, तद्वैष्णवे साकमलाऽवतीर्णा । तद्राजयोगे खलुरोहिणीव, व्यावर्णनीया बहुलब्धवर्णैः ॥ ६८ ॥ (अन्वयः) सा इयं नृपेन्द्रभावे जयवाहिनी. तद्वैष्णवे कमलाऽवतीर्णा । तद्भाजयोगे रोहिणीव बहुलब्धवणेः ब्यावर्णनीया खलु ।। ६८ ॥ __ व्याख्या-सा इयं-पूर्वोक्ता राज्ञी नृपेन्द्रभावे-नृपस्य-राज्ञः खभर्तुः इन्द्रभावेन्इन्द्रत्वे देवराजत्वे इत्यर्थः अष्टानांलोकपालानां वपु धीरयतेनृपः इत्युक्ते रिन्द्रकलयाऽवतीर्णतयाऽभिमतत्वे जयवाहिनी जयं-जयन्तं-पाकशासनि तदाख्यशक्रपुत्रमित्यर्थः वहति-धारयति Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ७३ . प्रामोति वा पुत्रत्वेन तच्छीला शचीरूपेत्यर्थः तद्वैष्णवेन्तस्य-राज्ञः स्त्रभर्तुः वैष्णवे-विष्णुत्वे 'ना विष्णुः पृथिवीपति' रित्युक्त राज्ञो विण्णुकलयाऽवतीर्णत्वेनाभिमताविन्यर्थः कमला लक्ष्मीस्तद्रूपेणे. ति भावः अवतीर्णा गृहीतावतारी । तद्राजयोगे तस्य राज्ञः राजयोगे चन्द्रवाचकराजन् शब्देन योगेन्नृपरूपेतरार्थवाचकतया सम्बन्धे, यद्वा राज्ञः चन्द्रस्य लोकपालान्यतमस्य योगेन्कलयासम्बन्धे रोहिणीचन्द्रभार्या इत्र बहुलब्धवर्णैः बहुभि लब्धवणः कविभिः व्यावर्णनीया-विशेषेण वर्णयितुं प्रशंसितुं योग्या. खलु वाक्यालङ्कारे ॥ राजाप्रभौ च नृपतौ क्षत्रिये रजनीपतौ इति मेदिनी । धीमान् सूरिः कृतिः कृष्टिलब्धवर्णीविचक्षण इत्यमरः उल्लेखालंकारः ॥ अथ च नृपेन्द्रभावे नृपाणामिन्द्रः स्वामी तद्भावे सर्वराजस्वामिभावे जयवाहिनी जयंविजयंबहते प्रामोतीति तच्छीला जयवाहिनी व जयवाहिनीतिमध्यमपदलोपीसमासः संग्रामविजयसंपादिकासेनेवेतिभावः “पती. न्द्रस्वामिनाथार्या इति हैमः" निदर्शनालङ्कारः ॥ ६८ ॥ धर्मः कवीनामुपमा नवीना-- ___ऽऽधेयाऽभिधेयार्थसमानभावे ॥ अस्यास्त्वसामान्यतयैवदूरा-- दालोक्यतां साम्यदशा त्रिलोक्याम् ॥६९॥ अन्वयः-अभिधेयार्थ समानभाये नवीना उपमा आधेया[इत्ययं] कवीनां धर्मः तु अस्याः असामान्यतया त्रिलोक्य साम्यदशा दूरादालोक्यताम् ॥ व्याख्या-अभिधेयार्थसमानभावे अभिवेयार्थस्य-वर्णनीयपदार्थस्य (वस्तुनः)समानभावे-तुल्यतायां मादृश्ये कल्पयितव्ये नवी. ना-क्काप्यनाहिततयाऽभिनवा उपमा-सादृश्यम् आधेया योजनीया स्वकाव्ये संघटनी येत्यर्थः इत्ययं कवीनां धर्म: आचारः स्वभावो वा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये 'धर्माः पुण्य-यमा-न्याय-स्वभावा-ऽऽचार सोमपा' इत्यमरः । तु= किन्तु अस्याः पूर्वोकराज्याः असामान्यतया अनन्यसाधारणतया त्रिलोक्यां लोकत्रये साम्यदशा-सादृश्यं दुगदालोक्यतां कविभि दुंरतो दृश्यताम् भूयोभूयो विमृश्य यत्किश्चित सादृश्यं परिकल्पयन्तु किन्तु वास्तविकी समानता नास्तीति तत्र कविनां वाग्व्यापारणं विरुद्धमेवेति निष्टकः।।सम्बन्धेऽसम्बन्धरूपातिशयोक्तिरलङ्कारः।।६९॥ गुणाधिरोहः परमस्तु कोटौ, तस्थास्तुलाकोटिरपि क्रमाब्जे । यस्माद् गुणानां शतकोटिरस्यां, मन्ये नतोऽस्मात् शतकोटिशाली॥७॥ अन्वयः-परम: गुणाधिरोहः कोटौ तस्याः क्रमाब्जेऽपि तुलाकोटिः (अस्ति) (इथं) यस्मात् अस्यां गुणानां कोटिः अस्मात् शतकोटिशाली नत इति मन्ये व्याख्या-परमा उत्कृष्टः गुणाधिरोह:-रज्जुसम्बन्धः कोटौ अग्र भागे तुलादण्डस्य भवतीतिशेषः, तस्याः पूर्वोक्तराज्या क्रमानेपादकमले तुलाकोटिरपि-तुलाचिह्नस्य तत्र सत्वात् तदग्रभागोऽपि तस्मात्-तुलाकोटीनां तत्र सत्चात् अत्र कोटिशब्दः शतलक्षसंख्यावाची तथा च एकैकतुलायां कोटिद्वयस्य प्रत्येककोटौ गुणानां सत्त्वात् अस्यां महापुरुषमातरि गुणानां धैर्यादीनां शतकोटि: संख्याऽस्तीति मन्ये-जाने इति कविकल्पना तदेव द्रढयति अस्मात् कारणात् शतकोटिशाली-कोटीश्वरः नतः प्रणतः नह्यशतकोटिशालिनं शतकोटिशाली नमस्करोतीति भावः ॥ अथवा तस्याः पूर्वोक्तराज्याः परमः अनन्यसाधारणः गुणा. धिरोहःगुणोत्कर्षः कोटी-शतलक्षसंख्यायां संख्येयतयाऽस्तीतिशेषः यद्वा गुणाधिरोहः कोटौ वर्तते इति परं-दूरम् अस्तु आस्तां नाम Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजय | मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. तस्याः =राश्याः क्रमाब्जे = चरणकमलेऽपि तुलाकोटि :- तुलानां साहश्यगुणानां कोटिः संख्यावर्त्तते 'तुला सादृश्य- मानयोः' इति मेदिनी । अथ च तुलाकोटि: = मञ्जीरः चरणभूषणविशेषः अस्तीतिध्वनिः । पादाङ्गदं तुलाकोटिर्मञ्जीरो नूपुरोऽस्त्रियामित्यमरः । इत्थं यस्मात् कारणात् अस्यां राज्ञ्यां गुणानां सौशील्यादीनां शतकोटीरासीत् अस्मात् कारणात् । शतकोटिशाली = शतकोटिना = वज्रेण शालतेशोभते तच्छील इन्द्रः, यद्वा शतगुणितकोटिसंख्याकधनाऽधिपतिरपि किमुतान्यः नतः = प्रणतिप्रवणः अभूत् इति मन्ये = उत्प्रेक्षे । शतकोटिः स्वरुः शम्बो दम्भोलिरशनिद्वयो रित्यमरः । कोटि : स्त्री धनुषोऽग्रेऽश्र संख्या भेद - प्रकर्षयोः इति मेदिनी । श्लेषः काव्यलिङ्गं च ।। ७० ।। उच्चैर्दशा स्यान्नु परोपकाराद्, युक्ता तदुच्चैस्तनतास्तनाङ्के । सतां न चात्मम्भरिताकदाचित्, ७५ तनु स्वमध्यं तत एव तस्याः ॥ ७१ ॥ : - तस्याः स्तनाने उच्चैस्तनता युक्ता ( यतः ) परोपकारात् नु उदशा स्यात् ( यतः ) सतां कदाचिद् आत्मम्भरिता न भवति तत एव तस्याः स्वमध्यं तनुं ॥ अन्वयः व्याख्याः — अवयवान् वर्णयति - तस्याः =राश्याः स्तनाङ्गे= वक्षोजयुगलरूपाऽवयचे उच्चैस्तनता = उच्चैभव उच्चैस्तनः भवार्थे तनुप्रत्ययः तस्य भावस्तत्ता उच्चता औन्नत्यमित्यर्थः युक्ता - समुचिता यतः परोपकारात् = दुग्धरूपस्वधनेन परस्य = स्वभिन्नस्य शिशोः उपकरणात् = शरीरपोषणरूपोपकारजननात् तु निश्चयेन उच्चैर्दशा = उन्नता वस्था उन्नतिरित्यर्थः स्याद् =भवेत् लोकेऽपि परोपकारकरणात् उन्नत्यवस्था भवतीति प्रसिद्धैव । यतश्च सतां सज्जनानां कदाचित् आत्म Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये म्भरिता-स्वोदरमात्रपूरण प्रवणता स्वार्थितेतिभावः न भवति तत एव हेतोः तस्याः स्वमध्यम्-उदरं तनु-कृशं जातमित्यर्थः। स्तनोन्नतत्वं परोपकारफलं तनूदरत्वं सज्जनशिलञ्च शिक्षयतीतिभावः । उत्प्रेक्षा काव्यलिङ्गं चालङ्कारौ ।। ७१ ।। अनल्पतल्पे सुमनो विकल्पे, प्रसुप्तयाऽदर्शिषतोनिशान्ते । स्वप्ना मणिश्रेणिमये निशान्ते, तदा तया नर्तितया व्यवर्ति ॥ ७२ ॥ अन्वयः-मणिश्रेणिमये निशान्ते सुमनो विकल्पे अनल्पतरूपे प्रसुप्तया तथा उन्निशान्ते स्वप्ना अदर्शिश्त तदा नर्तितया ब्यवति ॥ व्याख्या-मणिश्रेणिमये-समन्तान्मणिपंक्तिविराजिते निशान्ते प्रा. सादे सुमनोविकल्पे सुमनसां-पुष्पाणां विकल्पः-विविधकल्पनं विविधा विशिष्टा वा रचनेत्यर्थः यस्मिन् स तस्मिन् तथोक्तरूपे अनल्पतल्पे= अनल्पं महत् तल्पं शय्या तस्मिन् तल्प-शय्याऽष्ट-दारेषु इत्यमरः प्रसुप्तया-शयितया तया प्राग्वर्णित राझ्या उन्निशान्ते-उत्-ऊर्ध्व निशा न्तात-रात्रिशेपात् इत्युनिशान्तं तस्मिन् निशा शेषात्किञ्चिदूर्ध्वमित्यर्थः स्वमाप्रमुप्तविज्ञान विशेषाः अदर्शिषत दृष्टाः तदा-तस्मिन्काले तया राज्या नर्तितया अभिनीतवत्या कल्याणातिशयसंसूचिस्वप्नदर्शनज. न्याऽनन्य सामान्यसान्द्राऽऽनन्दसन्दोहतुन्दिलाऽन्तः करणताऽभिनयं कुर्वत्या व्यवर्ति-अभावि पुष्परचितशयनेशयिता राज्ञी रात्रिशेषे स्वमानवलोक्य हर्षोत्कर्षनिर्भराऽवर्तिष्टेति सरलार्थः । निशान्त-पस्त्य-सदन मित्यमरः। स्वप्नः स्वापे प्रसुप्तस्यविज्ञाने दर्शने पुमानिति मेदिनी॥७२॥ गजादिमश्रीवृषभादिसिंहा, दिमेन्दिरा दाम-मृगाङ्क-सूर्याः । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ध्वजोल्लसत्कुम्भसरःपयोधि-- विमानरत्नोच्चयवहयोऽमी ॥ ७३ ॥ अन्वयः-गजादिम-श्रीवृषभादि-सिंहादिमे-न्दिरा-दाम-मृगाक-सूर्याः ध्वजो-लसत्कुम्भ-सर:-पयोधि-विमान-रत्नोच्चय-वय इत्यमी स्त्रमाः ॥ व्याख्या--स्वमदृष्टपदार्थान् नामत आचष्टे-गजादिमा गजेषु गजानां वा आदिम-आद्यः प्रधानः हस्तिश्रेष्ठ इत्यर्थः, श्रीकृषभादिवृषभानामादिर्यस्मात्सवृषभादिः शोभायुक्तवृषभोत्तम इत्यर्थः एवं सिंहादिमा श्रेष्ठकेसरी, इन्दिरा लक्ष्मीदेवी. दाम-पुषामाला. मृगाङ्कः चन्द्रः, सूर्य: दिवाकरः, ध्वजा केतनम् , उल्लसत्कुम्भः पूर्णकुम्भः, सर:-तडागः, पयोधिः-समुद्रः, विमानं-देवरथः रत्नोचयारत्नराशिः, वह्निः अग्निः इत्यमी १४ स्वमाः ॥ ७३ ॥ दृश्या अवश्यं भुवनै नमस्यया जने जनन्यापि जिनस्य चक्रिणः स्वप्नास्तु हर्यश्वमिताः पयोनिधे बलस्यमात्रप्रथिता यथाविधि ॥ ७४ ॥ अन्वयः-जने भुवनैन मस्यया चक्रिणः जिनस्य जनन्या (चतुर्दश) चक्रिणः जनन्या हर्यश्वमिताः, बलस्यमात्रा पयोनिधेः (मानेन) प्रथिताः स्वमाः यथाविधि अवश्यं दृश्या (जाताः) ॥ ७४ ॥ व्याख्या--जने लोके भुवनैः विष्टपैः त्रिभुवनलोकैरित्यर्थः नमस्यया नमस्करणीयया चक्रिण: धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनः जिनस्य अर्हदेवस्य प्रस्तुतकाव्ये वर्णनीयतीर्थकृत्पञ्चकस्येत्यर्थः जनन्यामात्रा उपर्युक्त चतुर्दश (स्वप्नाः) । चक्रिसामान्योपादानात् तन्त्राऽऽवृत्त्यन्यतरेण अर्द्धचकिणोऽपिग्रहणम् तथा च-चक्रिण: अर्द्धचक्रिणा वासुदेवस्य श्रीकृष्णचन्द्रस जनन्या देवक्या हर्यश्वमितान्य Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ መረ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाब्ये हरे: सूर्यस्य अश्वाः = घोटकास्तन्मिताः = परिच्छिन्नाः सप्तसंख्यका इत्यर्थः सूर्याश्वानां सप्तसंख्याकत्वात् । तथा बलस्य रामचन्द्र बलदेवस्य मात्रा = जनन्या कौशल्यादेव्या पयोनिधेः = समुद्रस्य मानेनेति शेषः । चतुःसंख्ययेत्यर्थः प्रथिताः = प्रतीताः चत्वार इत्यर्थः स्वप्नाः यथाविधि = यथोचितरीत्या अवश्यं दृश्या जाता इति शेषः । दृश्यन्ते स्मेत्यर्थः ॥ ७४ ॥ स्वप्नान् विलोक्याऽम्बुनिधिप्रमाणान्, स्वच्छाशयैवद्विगुणान् यथार्हम् । असंशयानाऽप्यभृशंशयाना, राज्ञीस्मराज्ञीकृतविश्वरूपा ॥ ७५ ॥ अन्वयः—स्वच्छाशया स्मराज्ञीकृतविश्वरूपा राज्ञी हिगुणान् अम्बुनिधिप्रमाणान् स्वप्नान् यथार्हं विलोक्य असंशयानाऽपि अभृशंशयाना आसीत् ॥ ७५ ॥ व्याख्या -- स्वच्छाशया = स्वच्छ ः = निर्मलः आशय: = अभिप्रायः चित्तं वा वासना वा यस्याः सा तथोक्ता स्मराज्ञीकृत विश्वरूपा अस्म राज्ञा स्मराज्ञा सम्पद्यते तथाकृतं विश्वं येन तत् यद्वा स्मरस्य = कामस्य आज्ञा - शासनं यत्र तत् स्मराज्ञम् अस्मराजं स्मराज्ञं सम्पद्यमानं कृतं विश्व= जगद् येन तत् स्मराज्ञीकृतविश्वं तादृशं रूपं = सौन्दर्यमाकारो वा यस्याः सा तादृशी सकलजगत्कामपारतन्त्र्य कार्यनुपम सौन्दर्येत्यर्थः अतिशय रूपवतीति यावत् राज्ञी = पूर्वोक्ता वामा प्रभृतिः पट्टमहिषी द्विगुणान् = द्विगुणितान् द्विरावृत्तानित्यर्थः अम्बुनिधि प्रमाणान् = सप्तसंख्यकान् द्विरावृत्या चतुर्दश संख्याकानित्यर्थः वासुदेवमाता तु द्विगुणान् प्रकृष्टान् अम्बुनिधिप्रमाणान् कस्यचिन्मते समुद्रस्य सप्ततया तेन तत्प्रमाणान् = तत्परिमितान् सप्त संख्याकानित्यर्थः । बलदेव मात्रा च अम्बुनिधिप्रमाणान् अम्बुनिधिः प्रमाणं येषां तान् 'पयो Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृत सूरिप्रणीता सरणी टीका, धरीभूत चतुः समुद्रामित्यायुक्तः समुद्रस्य चतुःसंख्यतयामिमतत्वेन तत्प्रमाणान् चतुःसंख्याकानित्यर्थः । स्वप्नान यथार्ह स्वस्त्रयोग्यान् विलोक्य दृष्ट्वा असंशयाना-स्वप्नविषयक सफलीभवनसंशयरहिताsऽपि अभृशंशयाना स्वप्नदर्शनान्तरं भूयोऽध्यकृतशयना आसीदिति शेषः शुभशंसिस्वप्नावलोकनात्परं जागरणेन स्वप्नाऽनुरूपफललाभस्याऽवश्यम्भावाभिधानात् । समुद्रस्य सप्तपरिमितत्वे 'सोऽयं सप्तसमुद्रमुद्रितमहीपस्याऽर्जुनस्योद्धतं, क्षिप्त्वा भैरवसंगरेऽतिकठिन कण्ठं कुठारेण यः' इति हनुमन्नाटकस्थपद्यमप्यनुकूलतामावहति ॥ अर्थश्लेषः, तृतीयचरणे यमकम् चतुथै छेकानुप्रासश्चालङ्काराः ॥ ७५ ।। तत्राऽवतीर्णस्त्रिदशावतारी, सुरः प्रभाभासुर एव कश्चित् । आपन्नसत्वा मणिनेव भूमी, राज्ञी विरेजे गरभाऽनुभावात् ॥ ७६ ॥ अन्वयः-तन्त्र प्रभाभासुरः त्रिदशावतारी कश्चित् सुरः अवतीर्ण (अभूत) (तदनु) राज्ञी आपन्नसत्वा गरभाऽनुभावात् मणिनाभूमीव विरेजे ॥ ७६ ॥ . व्याख्या-तत्र-तसिन्काले प्रभाभासुरकान्त्या देदीप्यमानः त्रिदशावतारी त्र्यधिकात्रिरावृत्ताश्च दश परिमाणमस्य स त्रिदशात्रयस्त्रिंशन्मुख्यगणवान् देवस्तस्य तदंशेनेत्यर्थः अवतारी अंशावेशवशेन प्रादुर्भवनशीलः कश्चित् अनिर्दिष्ट स्वरूपः सुरः-दिव्यजीव अवतीर्णः पूर्वोक्तराज्ञी कुक्षौ प्रविष्टः अभूदितिशेषः । तदनु राशीपूर्वोक्ता वामा प्रभृतिर्नुपमहिषी आपन्नसत्वा-गर्भवती सती गरमा नुभावात्-गर्भप्रभावात् मणिना-गर्भस्थरत्नेन भूमिः-वसुन्धरा इव विरेजे-दिदीपे उपमा काव्यलिङ्गं च ॥ आपन्नसत्त्वा स्याद्गुर्विण्यन्तचनी च गर्भिणी इत्यमरः ॥ गर्भस्तु गरभो भ्रूणो दोहदलक्षणं च Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये स इत्यभिधानचिन्तामणिः ॥ ७६ ॥ राज्ञे निवेद्याऽऽशयसंशयाप्ति-मेषा निमेषाद्विनयाद्वयनैषीत् । ८० जहर्ष हर्षातिशयात्कदम्ब, कदम्बकश्रीर्व पुषानृपोऽपि ॥ ७७ ॥ अन्वयः - एषा आशयसंशयाप्तिं विनयात् राज्ञे निवेद्य निमेवात् ( आशय संशयाऽसिं) व्यनैषीत् (तदनु) हर्षातिशयात् वपुषा कदम्ब कदम्बकश्रीः नृपः अपि जहर्ष ॥ ७७ ॥ व्याख्या -- एषा = राज्ञी आशयसंशयाप्तिं स्वमफलविषयकस्त्रहदयस्थ सन्देहप्राप्ति 'किमेतेषां ( स्वमानां ) फलं भविष्यतीत्यादिरूप शङ्कामित्यर्थः विनयात् = नम्रतापूर्वकं राज्ञे निवेद्य = सूचयित्वा निमेषात् = अक्षिस्पन्दकालेन आशयसंशयाप्तिं स्वामफलविषयकशङ्कासम्ब न्धं व्यनैषीत् = अपनी तवती पुत्रप्राप्तिरेतेषां फलमितिनृपादाकर्ण्य विग तसंशयाऽभूदित्यर्थः । तदनु हर्षातिशयात् = पुत्रप्राप्तिसम्भावनाजन्याऽतिशयानन्दात् वपुषा शरीरेण कदम्बकदम्बकश्रीः = कदम्बानां= नीपकुसुमानां कदम्बकस्य = समूहस्य इव श्रीः = शोभा यस्य स तथोक्तः हर्षोत्कर्षाद्रोमाञ्चाऽञ्चितकलेवर इत्यर्थः नृपः = विश्वसेनप्रभृतिमहीपालोsपि अपना राज्ञी च तत्पक्षे 'कदम्बकदम्बकश्रीः' इत्यस्य कदम्ब - कदम्बकस्येव श्रीर्यस्याः सा तादृशीत्यर्थः । जहर्ष = मुमुदे प्रसन्न - मना अभूदित्यर्थः उपमा, काव्यलिङ्गं दीपकं चाऽलङ्काराः । कदम्बं निकुरुम्बे स्थानीप-सर्षपयोः पुमान् इतिमेदिनी ॥ ७७ ॥ शुचो स चैत्रेऽब्धितिथौ सभाद्रेऽसि तेऽन्त्रिषे पूर्णदिने सचन्द्रे । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. गुणप्रसिद्धेऽवततारदेव-- इच्युत्वा स्वमार्गादयनेऽधिकाये॥ ७८ ॥ अन्वयः-सः देवः स्वमार्योदयने(सति)च्युत्वा पूर्णदिनेसचन्द्रे गुणप्रसिद्ध अधिकाये शुचौ असिते अब्धितिथी (ऋ जी.) । भाद्रे असिते अब्धितिथौ (शान्ति:) । अन्त्रिपे अमिते (द्वादश्याम्) (नेमिः) । सचैत्रे असिते अधितिथौ (पावः) । शुचौ अमिते (षष्ठ्यां ) (वीरः) । अवततार ॥ ७८ ॥ .. . ____ व्याख्या-स:-पूर्वोक्तः त्रिदशाऽवतारी देवा-द्योतनात्मक आत्मा प्रस्तुतकाव्ये वर्ण्यमानस्य तीर्थकृत्पश्चकस्य जीवात्मा इत्यर्थः स्वमार्योदयने स्वस्थ आत्मनः मार्गस्य-शुद्धः सकल कर्मक्षयज. नितात्मशुद्धः उदयने-उदये. यद्वा स्वस्य-स्वकीयस्य मार्गस्य-पथः साधनस्य तीर्थकरनाम-कर्मरूपस्य उदयने तीर्थङ्करनामकर्मोदये इतिभावः सति च्युत्ता-दिव्यशरीरात् च्यवनं प्राप्य पूर्णदिने-पूर्णम्= अक्षीणं दिन यस्मिन् तादृशे. 'एकस्मिन् सावने त्वहि तिथीनां त्रितयं यदा। तदा दिनक्षयः प्रोक्तः' इत्युक्तलक्षणैकसावनदिनवृत्ति तिथित्रयात्मकालवाचकदिनक्षयरहिते इति भावः । सचन्द्रे-अनुकूलचन्द्रग्रहशालिनि. यद्वा 'पूर्णदिनेसचन्द्र' इति समस्तं तस्य 'पूर्णी स्वस्थानस्थिततयाऽविकलो अनुकूलावितिभावः दिनसचन्द्रौ-सूर्याचन्द्रमसौ यस्मिन् तादृशे. रलयोर्डलयोश्चैव श-सयो -वयोस्तथेति शसयो रेकत्वस्मरणात् । तथा गुणप्रसिद्ध आध्यात्मिकादि सकलकलाकला. पकलिततयाऽतिवृष्ट्यादिषड्विधेतिभीतिराहित्येन च शान्त्यादिगुणभूषिते. प्रसिद्धौ ख्यात-भूषितौ इत्यमरः । शुचौ-आषाढमासे असिते-कृष्णपक्षे, अब्धितिथौ समुद्रप्रमिततिथौ चतुर्थ्याम् आषाढ़ कृष्ण : चतुर्थ्यामित्यर्थः (ऋषभजीवः)। भाद्रे-माद्रपदमासे असिते-कृष्णे. अधितिथौ-सप्तमी तिथौ भाद्रकृष्णसप्तम्यामित्यर्थः ( शान्ति०) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचितेसप्तसन्धानमहाकाव्ये जीवः) । अन्विषे इषात्-आश्विन मासात् अनु पश्चात् (भवोमासः) अन्विषं तस्मिन् कार्तिकमासीत्यर्थः असि कृष्णे, द्वादश्यामितिशेषः कार्तिककृष्णद्वादश्यामित्यर्थः (नेमि० जी०) । सचैत्रे चैत्रान्विते असितेऽब्धितिथौ चैत्रकृष्णचतुर्थ्यामित्यर्थः (पार्श्वजी.) शुचौ असिते 'षष्ठ्या-मितिशेषः आषाढकृष्णषष्ठयामित्यर्थः (वीर जी०) अवततार-पूर्वोक्ततत्तद्राज्ञीकुक्षौ अवतीर्णः प्रविष्ट इत्यर्थः । पधघटकेषु 'शुचौ, असिते, अब्धितिथौ' इत्येषु पदेषु तन्त्रमावृत्तिर्वा तेन प्रोक्तार्थसङ्घटनम् । शुचिस्त्वयम्-आषाढे इति कृष्णे नीलाऽसितश्याम० इति चामरः ।। ७८ ॥ देवावतारं हरिणेक्षितं प्रागे.. द्राग् नैगमेषी नृपधाम नीत्वा ॥ तं स्वादिवृध्द्या शुभवर्द्धमानं, सुरोऽप्यनंसीदपहृत्य मानम् ॥ ७९ ॥ अन्वयः-- हरिणा प्राग्ईक्षितं देवावतारं नैगमेषी द्वाक् नृपधाम नीत्वा स्वादिवृध्धा शुभवर्द्धमानं तं सुरोऽपि मानम् अपहृत्य अनंसीत् ॥ ७९ ॥ व्याख्या-हरिणा-सुरेन्द्रेण प्राक्-पूर्वम् ईक्षितं दृष्टं देवाऽवतारंदिव्यांशेनाऽवतीर्णम् प्रस्तुतकाव्ये वर्णनीयं तीर्थकृत्पञ्चकं कृष्णावासुदेवं रामबलदेवं च नैगमेषी-तदभिधानादेवता नयविद्वा-णिग्वा द्राक्-शीघ्रं नृपधाम-पूर्वोक्ततत्तन्महीपसदनं नीत्वा प्रापय्य स्वा. दिवृध्द्या धनादिवृद्या शुभवर्द्धमानं शुभं वर्द्धमानं यस्य यस्माद्वा तं यद्वा शुभेन-(तीर्थकरपक्षे)-श्रुतिमत्यवधिज्ञानलक्षणकल्याणेन वर्द्धमा. नम्-वद्धिष्णुम् । शुभेन-उत्पत्तरारभ्य ज्ञानादिलक्षणक्षेमेण वर्द्धते तादृशं तंवर्णनीयतत्तन्महापुरुष, मानम् अहङ्कारम् अपहृत्य-परित्यज्य सुरोऽपि नैगमेपी अपि ननाम-विनयप्रणतोऽभूत् । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, महावीरपक्षेत्वियान विशेषः-नैगमेषी हिरण्यनैगमेषी देवः नृपधाम-नीत्वा ऋषभदत्तगृहात् सिद्धार्थराजगृहं प्रापय्य खादिवृध्या-गर्भस्थे भगवति ज्ञातकुलस्य धनधान्यादिवद्धनेन हेतुना शुभवर्द्धमानं शुभंजगतां ज्ञातकुलस्य वा कल्याणं वर्द्धते अन्तर्भावि. तण्यर्थतया वर्द्धयतीति शुभवर्द्धमानस्तं, यद्वा उत्पत्तेरारभ्य ज्ञाना. दिभिर्वद्धते इति. गर्भस्थेऽस्मिन् ज्ञातकुलं धनधान्यादिभिर्वर्द्धतेऽ. सादिति वा बर्द्धमानः-शुभः जगतांकल्याणावह सचासौ वर्द्धमानःतदाख्यश्चतिशुभवर्द्धमानस्तं तादृशं तं महावीरदेवमित्यर्थः ॥ ७९ ॥ येनाऽवतारा विहिता हितारा, मेयानते विंशतिभिर्नृपेन्द्रैः॥ श्रद्धादिनासन्नदशाप्रधाना गुणाभिधानाः श्रुतिसंनिधानाः ॥८॥ सम्यग्दृशं प्राप्य यदङ्गभाजा। ये त्रित्रिकोणकभवा अवाप्ताः ॥ त एव संख्यामुपयान्ति तेषां । यतस्तदन्ये गणनास्वगम्याः ॥ ८१॥ अन्वयः--ये अवतारा हितारा न विहिताः तेन मेयाः ( किन्तु ) यत् आजभाजा सदृशं प्राप्य ये त्रित्रिकोणैकभवा अवाप्ता: विंशतिभिः नृपेन्द्रैः (अभि. कासिता:) श्रद्धादिनासन्नदशाप्रधानाः गुणाभिधानाः श्रुतिसंनिधानाः स एव तेषां भवाः संख्यामुपयान्ति यतस्तदन्ये गणनासु अगम्याः ॥ ८. ॥ ८१ ॥ व्याख्या-ये अवताराम्भवाः तारा: आत्मानं जगन्ति च तारयितुं क्षमाः, यद्वा हितारा:-हितम् आत्मनोमोक्षरूपकल्याणम् इप्रति प्राप्नुवन्तीति ते तादृशान विहिताः न संवृत्ताः ते अवतारा न Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्भानमहाकाग्वे मेयाः परिच्छेद्याः संख्येया इत्यर्थः संख्याकरयोग्या नेतियावत् , यत् किन्तु अङ्गभाजा-तत्तीर्थकृदात्मना सम्यग्दृशं सम्यग्दर्शनं प्राप्य-उपलभ्य सम्यग्दर्शनप्राप्त्यनन्तरमित्यर्थः ये त्रित्रिकोणैकभवाः (त्रिकोणं-ज्योतिषशास्त्रोक्तं लग्नात् नवम पञ्चमस्थानं तेन चेह 'पञ्च, नव' च संख्या गृह्यते, कोणशब्दो विदिग्याची तेन चतुः संख्याग्राह्या तथा च )-व्यधिक त्रिसहितं वा त्रिकोण-नव त्रित्रिकोणद्वादशः तत्सहितम् एकं प्रथम संख्या त्रित्रिकोणकं त्रयोदशेत्यर्थस्तन्मिताः भवाः अवतागः इत्यादिनाथप्रभुणा । त्रायाणां संघ स्त्रिकं-त्रित्वसंख्या. त्रिगुणितं त्रिरावृत्तं वा त्रिकं त्रित्रिकं नवेत्यर्थ. स्तन्मिताः एके श्रेष्ठा, भवाः नेमिनाथस्वामिना । ज्यधिकं त्रियुक्तं वा त्रिकोण नवसंख्या त्रित्रिकोणं-द्वादशेत्यर्थ स्तत्प्रमिता एकेमुख्या भवाः श्रीशान्तिनाथस्वामिना । त्यधिकास्त्रिसहिता वा त्रयः त्रित्रयः षट् तत्सहितः कोण:-चतुःसंख्या त्रित्रिकोण: दशेत्यर्थस्तपरिमिता एके श्रेष्ठा भवाः पार्श्वनाथः स्वामिना । त्रिगुणितं त्रिरावृत्तं वा त्रिकोणं नव संख्या त्रित्रिकोणं सप्तविंशतिरित्यर्थस्तत्परिच्छिन्ना एके प्रधानभूता भवाः श्रीमहावीरस्वामिना च अवाप्ताः गृहीताः विंशतिभिः बहुविंशतिसंख्याकैर्नृपेन्द्रैः-नृपैः-भूतलवार्तमहीपालैः इन्द्रैः शक्रेन्द्रादिभिश्च 'सादरमभिकाविता' इति शेषः कुसिद्धान्तिप्रचारितनानाविधाऽद्यहिंसादिपापकर्माचरणमलीमसमुषीमुषितसज्ज्ञानानां जनानां देशनावचनैरात्महितसाधनज्ञानरत्नोबोधनार्थमभीप्सिता इत्यर्थः । श्रद्धादिनासन्नदशाप्रधाना: श्रद्धादिनान-सभ्यग्दर्शनप्राप्तिदिवसात् आरभ्य आसन्नदशा-मोक्षदशा प्रधाना श्रेष्ठा येषां ते यद्वा श्रद्धादिना श्रद्धा सम्यश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् आदिर्यस्य तेन, सम्यग्दर्शनेन आदिपदग्राह्यसम्यग्ज्ञान-सम्यचारि Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. त्राभ्यां च, अथवा श्रद्धा-शुद्धिः सम्यग्ज्ञानादिपरिशीलनजनिताऽऽस्मनैर्मल्यं तदादिना आसन्नदशा मोक्षदशा आत्मनोमुक्ताऽवस्था प्रधानम्-उद्देश्यतया मुख्यभूता येषां ते, श्रद्धादिनात् आसन्नदशायां प्रधान-बुद्धिर्येषां ते तादृशाः, गुणाभिधानाः गुणाः सन्त्यसिन्निति गुणम् अनन्तगुणशालि अभिधानं कथन-देशनावचनं येषां ते तथाविधाः श्रुतिसविधानाः श्रुतौ कर्णेन्द्रिये सनिधानं-नैकटयं श्रव्यचरित्रतया येषां ते यद्वा श्रुती-प्रवचने सन्निधानं सामीप्यं. वर्णनीयतया येषां ते तथोक्ताः श्रुतीनां प्रवचनानां सविधाना:शोभनाश्रया इति वा श्रुतीनाम् आगमानां सतां सज्जनानां च निधानाः निधिरूपा इति वा ते निरुक्तरूपा एव तेषां प्रस्तुतकाव्यवर्ण्यमानतीर्थङ्कराणां भवाः संख्या संख्येयतां यद्वा संख्यां विचा• रणां प्रस्तुतकाव्येवर्णनीयतया चर्चामित्यर्थः उपयान्ति प्राप्नुवन्ति. यताभ्यस्माद्धेतोः तदन्ये अनुपदगणितव्यतिरिक्ता भवाः गणनासुःसंख्याने संख्याकरणे अगम्या दुरवबोधाः 'गणनास्वगम्याः' इति समस्तपाठ कल्पने गणनायां सुतरामगम्या इत्यर्थः । कालचक्रस्याऽनादिकालतो बम्भ्रम्यमाणशीलतया भवानामसंख्येयतया इयतयाऽवगन्तुं दुःशका इत्यर्थः ॥ ८० ।। ८१ ॥ एवं श्री आदिदेवप्रमुख मुनिमितार्थाऽवतारैः प्रभाव्ये । काव्ये श्राव्ये सतां स्वे मनसिविहसतां वीक्ष्य दक्षप्रयत्नम्।। अर्हद्भक्तिं चिरायुर्विपुलमनुभवं वैभवं राज्यभाजाम् । दत्तां चित्राङ्गवार्ताऽप्युदयमपि चिरं सतधाऽऽविभवन्ती॥ इति श्रीसप्तसंधाने महाकाव्ये राज्याङ्के महोपाध्यायमेघवि जयगणिविरचिते "अवतारवर्णनोनाम" प्रथमः सर्गः ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाग्ये अन्वयः-एवं श्रीआदिदेवप्रमुखमुनिमिताऽर्थाऽवतारैः प्रभाव्ये श्राज्ये काव्ये दक्षप्रयत्नं वीक्ष्यविहसतां सतां स्वेमनसि सक्षधाऽऽनिभदन्ती चित्राङ्ग वार्ता अर्ह. भक्तिचिरायुः विपुलमनुभवं राज्यभाज्ञां वैभवम् उदयमपि च चिरंदत्ताम् ॥८२॥ व्याख्या-उपसंहरति-एवमिति-एवम्-अनेकप्रकारेण श्रीआदिदेवप्रमुख मुनिमिताऽर्थावतारैः श्रीआदिदेवप्रमुखानां श्रीमदृषभस्वामिप्रभृतीनां मुनिमितानांसप्तसंख्यकानाम् अर्थानां तत्तच्छलोकवाच्यार्थभूतानाम् अवतारैः आविर्भावैः यद्वा आदिदेवप्रमुखमुनिभिर्मिता वाच्यतया परिच्छिन्ना अर्थाः अभिधेयानि तेषामवतारैः, श्रीआदिदेवप्रमुखैः कृत्वा मुनिमिताः सप्त अर्थाः वाच्यानि तेषामवतारैरितिवा प्रभाव्ये प्रभावाहे प्रभावशालिनीत्यर्थः । श्राव्ये= व्युत्पित्सुकृते श्रावयितुं योग्ये काव्य-श्रव्यकाव्ये 'सप्तसन्धाना' भिधाने दक्षप्रयत्न- सप्तार्थसङ्घटनविषयकनिपुणोद्यमं वीक्ष्य विहसतां= विस्मय-हर्ष समुद्भूतस्मितशालिनां सतां सभ्यानां स्वेमनसि-निजाऽन्तःकरणे सप्तधा सप्तकारेण आविर्भवन्ती प्रकटी भवन्ती चित्रा. गावात चित्रा अनेकविधा अङ्गवार्ता अवयवार्था अर्हद्भक्ति-जिनानुरागं, चिरायु-चिरजीविताम्, विपुलमनुभवं विशालज्ञानं,राज्यभाजां वैभव-राजसम्पदमित्यर्थः । उदयम् अभ्युदयम् उन्नतिमितियावत् चिरं-बहुकालं दत्ताम् । अपिः समुच्चयार्थः ॥ ८२ ॥ अत्रश्लोकेस्रग्धरावृत्तं म्रनिर्याणांत्रयेणत्रिमुनियतियुता स्रग्धराकीर्तितेयमितितल्लक्षणात् । . इति शास्त्रविशारदकविरत्नभट्टारकाचार्यश्रीविजयामृतसूरीश्वरप्रणीतायां सप्तसंधानमहाकाव्यीय “सरणी'टीकायां प्रथमः सर्गः समासः ॥१॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. द्वितीयः सर्गः सुधाशनानाभशनान्यभूवं, स्तन्व्यास्तनूजाश्रयणेन सम्यक् । शय्याऽनुकूला प्रसरदुकूला, मूलात्सचूलाभरणादरेण ॥१॥ अन्वयः-सम्यक तनूजाश्रयणेन तन्न्याः सुधाशनानाम् अशनानि अभूवन् (अपरंच) प्रसरढुकूला आमूलात् सचूलाभरणा आदरेण (उपरचिता) शय्याअनुकूला (आसीत्) ॥ १ ॥ व्याख्या-सम्यक् आबाधाराहित्येन तनूजाश्रयणेन-बालस्य गर्भधारणेन तन्व्याः कृशशरीराया राज्याः सुधाशनानां सुधाभुजां देवानाम् अशनानि=आहारा अमृतोपमभोजनानीत्यर्थः अभूवन् । अपरं च प्रसरहुकूला-प्रसरत-आस्तीण दुकूलं-इलक्ष्णवलं सूक्षवस्त्रं वा प्रच्छदपटस्थानीयतया यस्यां सा तादृशी. आमूलात-मूलात्-चरणात् चरणधार्यदेशादित्यर्थः आरभ्य मूलपर्यन्तं वा सचूलाभरणा-चूड़ाभूषणसहिता, अद्मिधार्यस्थानादारभ्य शिरःस्थान पर्यन्तं यथोचित शयनीयोपकरणकलितेतिभावः आदरेण स्नेहेन पुत्ररत्नजननयोग्यताशालित्व हेतु कसम्माननेनेत्यर्थः उपरचितेति शेषः शय्या शयनीयं पल्यको वा अनुकूला स्वाभिरुचिता आसीदिति शेषः अभूवन्नित्यत्र विभक्तिविपरिणामेन अभूद्वा ।। अस्मिन्सर्गे पोड शश्लोकपर्यन्तमिन्द्रवज्रावृत्तम् । स्यादिन्द्रवज्रायदितौजगौग इति तल्लक्षणात् ॥ १ ॥ शची सुचीराणि शुचीत्यमुष्य, ददो तदौचित्यपदं विचित्य । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ महोपाध्यायधीमेषविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये सेवातु देवातुलकामिनीभि श्चक्रे च शक्रेरणया तदीया ॥ २॥ अन्वयः-शची शुत्री इति ( इमां ) तदौचित्यपदं विचिन्त्य अमुष्यै शुचीराणि ददौ (किञ्च) शक्रेरणया देवातुल कामिनीमिः तदीया सेवा चक्रे॥ २॥ व्याख्या-शची-इन्द्राणी शुची-गर्भस्थाऽनुपमपुत्ररत्नशालितया पवित्रेयम् इति हेतोः इमां तदौचित्यपदं तेषां दित्सितसुचीरादीनाम् औचित्यं न्यायं योग्यमित्यर्थः पदम्दानीयस्थानं विचिन्त्य-विचार्य अमुष्यैराश्यै सुचीराणि-मनोहरवस्त्राणि ददौ । किञ्च-शरणया इन्द्रप्रेरणया देवातुलकामिनीभिः अनुपमदेवाङ्गनाभिः तदीया राज्ञी. सम्बन्धिनीसेवा परिचर्या कुमारभृत्या चक्रे कृता यमकालंकारः॥२॥ अपौनरुक्त्याद् बहुमौनभाजा, राजा समाजात् सहसाऽभ्युपेत्य । तया समं प्रेमवचोऽपिचोयं, श्रद्धाविशुद्ध्यै निजगादसद्यः॥३॥ अन्वय:--राजा समाजात सहसा अभ्युपेत्य अपौनरुक्त्याद् बहुमौनभाजा तया समं श्रद्धा विशुद्धयै चोधे प्रेमवचोऽपि सयः निजगाद ॥ ३ ॥ . व्याख्या-राजा-पूर्वोक्तो विश्वसेनादिनृपतिः समाजात्-मत्रिसुधी सुहृदादिमण्डलीतः सहसा-अतकितम् अभ्येत्य-राझ्या अभ्यर्णमागत्य अपौनरुक्त्यात्-पुनरुक्तस्यभावः पौनरुक्त्यं तथा न इत्यपौनरुक्त्यं तस्मात् अपुनरुक्तरित्यर्थः दोहदपूरणेच्छया तदभीप्सितवस्तुनामाख्यातुं सकृदुक्तयाऽपीतिभावः बहुमौनभाजा-लज्जया बहुचिरं मौनम्-अभाषणशीलतां भजतीति बहुमौनभाक् तया स्वदोहदप्रकटने हिया तूष्णीम्भावमाश्रयन्त्येत्यर्थः तया-वामाप्रभृतिराया सम-सह श्रद्धा विशुद्धे-श्रद्धा-गर्मिणीमनोरथस्तस्या विशुद्धौ-यथा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ आचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. वद्विज्ञाय तत्पूत्यै अन्यथा वैद्यकशास्त्रवचनानुसारेण सन्ततेर्वैगुण्यापत्तिसम्भवात् चोद्यम्=अनुयोज्यं दोहदविषयकप्रष्टव्यांशगर्भितं प्रेमवा श्रीतिवचनं सद्यः सपदि निजगाद । आधिकरणिकादिकार्याद्यथासमयं प्राप्तावकाशो नरेशः राज्ञीमुपेत्य सनिर्बन्धमनुयुक्तयापि त्रपा. भरवशात् स्वदोहददुःखशीलतामभिव्यञ्जितुमपारयन्त्या राज्या सह तदीयदोहदबुभुत्सया चटुवचनैरालापमकापीदिति सरलार्थः । 'दोहदं दौ«दं श्रद्धा लालसा' इत्यभिधानचिन्तामणिः । अतर्किते तु सहसा इत्यमरः॥ ३ ॥ चान्द्री क्रियां चक्रिरुपेत्य चान्द्री, सौरी च गौरी दधिरात्मदर्शम् ॥ शैषी च योषाभरणाद्यनैषीत् , तस्या उपास्याविधिरेवमासीत् ॥४॥ अन्वयः-चान्द्री उपेत्य चान्द्री क्रियां चक्रिः सौरी गौरी च (उपेत्य) भारमदर्श दधिः शैषी योषाऽऽ भरणादि अनधीत् एवं तस्या उपास्याविधिगसीत् ॥ ४ ॥ व्याख्या-चान्द्री-चन्द्रशक्तिः उपेत्य-राज्ञीसमीपमागत्य चा. न्द्रीं-चन्द्रसम्बन्धिनी क्रियां-कार्यम् दिनानुदिनशरीर-लावण्यााप चयलक्षणं चक्रि:-कृतवती. सौरी गौरी च-तत्तन्नामिका देवी उपेत्य आत्मदर्श-दर्पणं दधि:-धारितवती । शेषी-नागकन्या योषाभरणादि-स्त्रीजनधारणयोग्यभूषण-वसनादिकम् अनैषीत्-उपानीतवती । एवंरूपः तस्याः-राज्याः उपास्याविधिः- देवकन्या नागकन्यादिकतृक परिचर्या प्रकार आसीत् अनुप्रासः ॥ ४ ॥ उच्चामरीवाचमनेन चामरी द्वयींदधानाभजतेस्म चामरीम् । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये सेवारसान्नाप्सरसस्तदन्तिकं, जहुर्मुहुर्भक्तिमुहूर्त भावनैः ॥ ५ ॥ अन्वयः -- उच्चामरीव अमरी चामरीं द्वयीं दधाना आचमनेन ( तां) भजतेस्म अप्सरसः सेवारसात मुहुर्भक्तिमुहूर्त भावनैस्तदन्तिकं न जहुः ॥ ५ ॥ व्याख्या – उच्चामरीत्र = चमरी चामराख्यव्यजनोपयोगि पुच्छशालि महिषाकृतिक मृगविशेषस्त्रीजातिः सैव चामरी उत्-उत्कृष्टा चामरी उच्चामरी सेव अमरी - देवाङ्गना चामरी - चामर - चमरपुच्छकृतव्यजनसम्बन्धिनीं द्वयीं- द्वितयीं द्वित्वसंख्यां चामरयुगल मित्यर्थः दधाना धारयन्ती आचमनेन - मुखादिप्रक्षालनेन वैधकर्मा - दिना वा लक्षणया आचमनक्रिया सम्पादनेनेत्यर्थः भजते स्म - सेवतेस्म । अप्सरसश्व सेवारसात्-परिचर्याजनितानुरागात् मुहु:-अभीक्ष्णं भक्ति मुहूर्त भावनैः - भक्तीनां - गर्भिण्युचितोपचाराणां मुहूर्तेअल्पकाले मुहूर्त्तं मुहूर्तमित्यर्थः भावनैः - चिन्तनैः प्रतिक्षणं गुर्विण्युचितोपचारचिन्तन - - सम्पादनादिनेत्यर्थः तदन्तिकं - तस्याः - राज्या अन्तिकं - सदेशदेशं न जहुः - परितत्यजुः । अनुप्रासः ।। ५ ।। सांकर्य कार्यं प्रविचार्य वार्य, ९० विरोधमुत्सार्य समर्त्तवस्ते || सामान्यमाधायसमा-धिसाराधिकारमीयुर्भुविनिर्विकाराः || ६ || अन्वयः -ते समर्त्तवः सकर्मकार्य वार्यं विचार्य विरीधम् उत्सार्य सामन्यमाधाय सुविनिर्विकाराः समाधिसाराधिकारमीयुः ॥ ६ ॥ व्याख्या - ते = प्रसिद्धाः समर्त्तवः = समे= सर्वे ऋतवः = 'शिशिरः पुष्पसमयो ग्रीष्मो वर्षा शरद्विमः । माघादिमासयुग्मैस्तु ऋतवः षट्क्रमादिमे' इत्युक्तरूपाः सांकर्यकार्य स्वस्वकार्य सांकर्य, वसन्ते Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. शिशिरकार्य शिशिरे च वसन्तस्येत्यादिरूपं वार्य-परित्याज्यं विचार्य विमृश्य विरोधं च उत्सार्य-परिहत्य सामान्यं समानतां तुल्यवृत्तिस्वामित्यर्थ आधाय स्वीकृत्य समाधिसाराधिकार-समाधिना नियमेनव्यवस्थया सारं-न्याय्यं स्वस्वोचितमित्यर्थः अधिकार कार्यकारित्वम् यद्वा-समाधिसारं-शान्तिप्रधानम् अधिकर=नियोगम् ईयुः प्राप्तवन्तः । ऋतवः कीदृशाः १ भुवि-भूतले निर्विकारा:-नि:-न सन्ति विकाराः व्याधयो येभ्यस्ते तथोक्ताः रोगाद्युपद्रवाऽजनकाः॥ समाधिनियमे ध्याने नीवाके च समर्थने इति मेदिनी, सारो बले स्थिरांशे च न्याय्ये क्लीबं वरे त्रिषु इत्यमरः ॥ ६ ॥ काचित्तु साचिव्यमलक्रियायां, __ दधौ सुरी स्नानविधानतोऽन्या। काचित् समस्या धरणात्समस्याः, ___ पप्रच्छ काप्यच्छधियाऽप्यतुच्छा ॥ ७॥ अन्वयः- काचित् सुरी अलं क्रियायाम् अन्या (सुरी) स्नानविधानतः काचित् (सुरी) समस्या धरणात् (तस्याः) साधिव्यं दधौ कापि अतुच्छा अच्छधिया समस्याः पप्रच्छ ॥ ७ ॥ व्याख्या-काचिव अनिर्दिष्टनाम्नी सुरी-सुरीबाचरतीति सुरीयतीति सुरी देवांगनेव देवी परिचारिका अलङियायां असाधनकर्मणि अन्या-अपरा स्नानविधानतः स्नानादिकर्मसम्पादनविधी सार्वविभक्तिकस्तसिः। काचित् सुरी समस्या धरणात् गूढाभिप्रायधारणात् साचिव्य-साहाय्यं दधौ 'तस्याः' इति शेषः कापि अतुच्छा अहीना-उत्कृष्टा गूढाशयेति यावत्-अच्छधिया=निर्मलाशयेन समस्या: गूढामिप्रायकविषयान् यद्वा राझ्या विदुषितरत्वात् समस्या संक्षेपेणोक्तस्य श्लोकपादादेः परकृतेन स्वकृतेन वावशेषेण भागा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .९२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाव्ये न्तरेण सङ्घटनारूपां गूढाभिप्रायप्रहेलिकादिरूपां वा कविक्रियां पप्रच्छ-अनुयुयोज ॥ ७॥ पात्राण्यमा ननृतुः पदे पदे, समुन्ननादाऽऽनकदुन्दुभिर्मुदे। घनाधनस्य भ्रमतो वदावदे, मयूरवर्गे नटनान्निसर्गतः ॥ ८॥ अन्वयः-आनकदुन्दुभिः मुदे समुन्ननाद अमाः पात्राणि पदेपदे ननृतुः, यनाधनस्य भ्रमतः वदावदे मयूरवर्गे निसर्गतः नटनात् ॥ ८ ॥ व्याख्या-आनकदुन्दुभिः आनका प्रोत्साहकः दुन्दुभिः-देपवाद्यविशेषः मुदे-सुर-नरादीनां प्रीत्यै समुन्ननाद-दध्यान अतएव अमाः देवाः पात्राणि नाटयार्थाऽभिनयशीलनायकादिरूपाः सन्तः पदेपदे प्रतिस्थानं नन्तुः-नृत्यं कृतवन्तः । यद्वा अमाः पात्राणि-दिव्यनाट्यार्थाभिनेतन् गन्धर्वाद्यप्सरादीन् वा ननृतुः अन्त. भांवितण्यर्थतया नतैयामामुरित्यर्थः तथाहि-धनाधनस्यन्वर्युकमेघस्य 'वर्षकान्दो धनाधनः' इत्यसरः भ्रमतः प्रावृषि नभसि सञ्चरतः सतः वदावदे-मुहुः केकामातन्वाने मयूरवर्गे-मयूरसंहतो निसर्गतः सभावादेव नटनात् नर्तनात् नृत्यप्रवणत्वदर्शनादित्यर्थः ननृतुरि त्यर्थः । अत्रोदात्तालंकारः ॥ ८॥ दिवानिशं केलिकलाकलापै, रालीषु तालीविधिनोपजापैः । सत्याः सुदत्या दिवसाः सुखेन, सुर्यः सतूर्या गमयाम्बभूवुः ॥९॥ अन्वयः---दिवानिशम् आलीषु केलिकलाकलापैः (तथा) तालीविधिना उपजापैः सुदत्याः सत्याः (राज्याः) दिवसाः सतूर्याः सुर्यः सुखेन गमयाम्बभूवुः Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, ९३ व्याख्या-दिवानिश-रात्रिन्दिवम् आलीषु सखीषु केलिकलाकलापैः क्रीडाविधानः नृत्यादिकलाविधानश्च तथा तालीवि धिना-तालीदानेन उपजापैः-उपांशुजपैः रहस्याख्यानैर्वा सुदत्या:शोभनदशन (दन्त) शालिन्याः सत्याः राझ्याः दिवसाः दिनानि सतूर्याः वाद्यविशेषसहिताः सुर्य:-देव्यः तत्तुल्याः परिचारिका वा सुखेन अक्लेशेन गमयाम्बभूवुः यापयामासुः ॥ ९ ॥ निश्चक्रमुः शक्रमुदा तदेवं, मासा विलासाऽतिशयान्नवापि । समन्विताः सप्तदिनैः पुरोधः, प्रजप्तमन्त्रैर्मुदितावरोधम् ॥ १० ॥ अन्वयः---तदेवं शकमुदा (उपलक्षिताः) सप्तदिनैः समन्विताः नत्रापि मासा: विलासाऽतिशयात् पुरोधः प्रजप्तमन्त्रैर्मुदिताऽवरोधं (यथास्थात्तथा) निश्चक्रमुः । व्याख्या-तदेवं शक्रमुदा-इन्द्रहर्षेणोपलक्षिताः सप्तदिनः समन्विताः समेताः नवापि मासाः विलासातिशयात्-आनन्दातिरेकात् विविध विनोदातिरेकेण वा पुरोधसा-पुरोहितेन प्रजातानि-असकदुच्चारितानि मन्त्राणि शान्तिमन्त्राणि तैः मुदितावरोध-मुदितः हृष्टः अवरोधा-अन्तः पुरजनो यस्मिन् कर्मणि तद्यथास्यात्तथा निश्चक्रमुः= निःक्रान्ताः व्यतीता इत्यर्थः ॥ १० ॥ शान्तासु सर्वासु दिशासु रेणु न रेणुबाधां तु मनाग् व्यधासीत् ॥ दध्वान देवाध्वनि दुन्दुभीनां, नादः प्रसादो नभसोऽम्भसोऽभात ॥११॥ अन्वयः-सर्वासु दिशासु शान्तासु रेणुः मनाक् रेणुबाधा न व्यधासीत् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचितेसप्तसन्धानमहाकाव्ये देवाध्वनि दुन्दुभीनां नादः दध्वान नभसः प्रसादः अम्भसः अमात् (अम्भसः प्रसादो नभसोऽभात् । नभसो ऽम्भसश्च प्रसादोऽभात्) ॥ ११ ॥ व्याख्या सर्वासु प्राच्यादिषु दिशासु शान्तासु-प्रसन्नामु सतीषु रेणुः=धूलि मनाक्-अल्पमात्रामपि रेणुबाधां धूलीवर्षणादिजनितदुःस्थिति न व्यधासीत् नाकार्षीत् । किञ्च देवावनि आकाशे दुन्दुभीनांदेववाद्यविशेषाणां नादः दध्वान ध्वनिरजनिष्ट नभसः आकाशस्य प्रसादःनिर्मलत्वादिरूपः अम्भसः अभात् जलस्याभूदित्यर्थः, अम्भसो वा प्रसादः नभसोऽभात् । यद्वा नभसः अम्भसश्च प्र. सादोऽभात् उभे अपि प्रसन्ने अभूतामित्यर्थः । निदर्शनालंकारः॥११॥ ग्रहेषु शुद्धोच्चकृताग्रहेषु, लोकम्पृणे प्राप्तघृणे ऽनृणे च ॥ लोके पुनश्चित्रकृताऽवलोके, भावस्तदाऽभूत सुकृतानुभावः ॥ १२ ॥ अन्वय:--ग्रहेषु शुद्धोच्चकृताग्रहेषु (सत्सु) लोके (च) पुन: लोकम्पृणे प्राप्तणेऽनृणे च चित्रकृतावलोके च ( सति ) तदा सुकृतानुभावः भावः ( लोकानाम् ) अभूत् ॥ १२ ॥ ___व्याख्या-ग्रहेषु-सूर्यादिसप्तग्रहेषु शुद्धोचकृताग्रहेषु-शुद्धे निर्दोषे उच्चे-उच्चस्थाने मेषादितुङ्गस्थाने कृतः आग्रहः सम्यस्थितिर्यैस्ते शुद्धोचकृताग्रहास्तेषु तादृशेषु यद्वा शुद्धाः सूर्यगत्वादिवैगुण्यरहिताः ते च ते उच्चकृताग्रहाश्चेति शुद्धोच्चकृताग्रहास्तेषु तादृशेषु सत्सु अत्रेदंबोध्यम् 'अर्काधुच्चान्यजवृषमृगकन्याकमीन दिगदहनाष्टाविंशतितिथीनक्षत्रविंशतिमिः ॥ ११ ॥ स्त्रोच्चतः सप्तमंनीच. मिति आरम्भसिद्धौ राशिद्वारे । इति सूर्यादीनां सप्तानां ग्रहाणां मेपवृषभादयोराशयो यथाक्रम मुचस्थानांभि. स्व स्व तुङ्गापेक्षया सप्तम Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. स्थानानि च नीचानि. तत्रोच्चेष्वपि दशमादयो राशित्रिशांशा यथाक्रममुच्चेषु परमोच्चा नीचेषु परमनीचा इति तदर्थः ! अत्रांश स्त्रिंशोभागः । यथाह नारदः–त्रिंशद्भागात्मकं लग्नम् इति । मूर्यमत्यासत्तिग्रहाणामस्तमयो नाम | तदुक्तं लघुजातके - रविणाऽस्तमयो योगो. वियोगस्तूदयोभवेत्' इति । तेच स्त्रोच्चस्थाः फलन्ति नास्तगा नापि नीचगाः । तदुक्तं राजमृगाङ्के–स्वोचे पूर्ण, वर्लकेऽध, सुहृद्धे पादं, द्विड्भेऽल्पं, शुभंखेचरेन्द्रः । नीचं स्थायी नास्तगो वा न किञ्चो. त्पापं नूनं स्वत्रिकोणे ददाति । इति अत उक्तं 'शुद्धोच्चकवाग्रहेब्विति। एवं च सति यस्य जन्मसमये पश्चादिकाग्रहाः स्वोच्चास्थाभवन्ति स एव तुङ्गोभवति । तदुक्तं कूटस्थीये-सुखिनः प्रकृष्टकार्या राजप्रति. रूपश्च राजानः । एक द्वि-त्रि चतुर्थी जायन्तेऽतः परं दिव्याः। इति' लोके–जने च लोकम्पृणे जनतानन्दविधायिनि, प्राप्तघृणे-दीनाऽना. थजनविषयकाऽनुग्रहशालिनि अधिगतावद्यकर्मकारुण्ये वा 'कारुण्यं करुणा घृणा इत्यमरः' । अनृणे-समृद्धिसम्पन्नतयाऽऽधमर्ण्यरहिते, चित्रकृताऽवलोके सचित्रीकृतावलोके च सति सुकृताऽनुभावः= सुकृत-पुण्यं तञ्जनककआदीत्यर्थः अनुभावयति-चिन्तयतीति स तादृशः भावः स्वभावः अभिप्रायो वा चेष्टा वा तदा लोकानामितिशेषः अभत् । अन्त्यानुप्रासः भावः सत्ता स्वभावाऽ-भिप्रायचेष्टात्म जन्मसु इत्यमरः ॥ १२ ।। आरोग्य-भाग्या-ऽभ्युदया जनानां, प्रादुर्बभूवुर्विगतैजनानाम् ॥ वेषाविशेषान्मुदिताननानां, प्रफुल्लभावाद्भुवि काननानाम् ॥ १३ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये ___अन्वयः-भुवि विगतैजनानां वेषाविशेषान्मुदिताननानां जनानां ( विगतैजनानां ) प्रफुल्लभावात् काननानां (च) आरोग्य-भाग्या-ऽभ्युदयाः प्रादुबभूवुः ॥ १३ ॥ ___ व्याख्या-भुवि भूतले, विगतैजनानां विगतं-निवृत्तम् एज नं-कम्पनं परिपन्ध्यादिजनितत्राससम्भृतगात्रादिकम्पो येषां ते यद्वा विशेषेण गतं प्राप्तम् एजनं कम्पः शङ्गरादिरसाऽनुगुणः सात्विकभा. वविशेषो यैस्ते तेषाम् तत्रत्यानां जनानां रसिकत्वाच्छृङ्गारससमुद्भव एवं कम्पो न वैरिप्रभवोऽपि समजनिष्ट । काननपक्ष-विगतम् एजनं= महावातादिजनितो महाकम्पो येषां ते तादृशानां यद्वा विभिः प. क्षिभिः गतं प्राप्तम् एजनं कम्पो यैस्ते तेषां तथोक्तानाम् । वेषाविशेषात् वेषस्य नेपथ्यस्य भूषणवसनादिभिरात्मप्रसाधनस्य आ= सर्वतोभावेन विशेषात् अतिशयात् मुदिताननानाम् प्रसन्नमुखानाम् यद्वा बेषस्य बसनाऽलङ्कारणादिना निजपरिष्करणस्य अविशेषात साधारणात् मण्डनां--ऽशुकादिसामान्ये सत्यपि मुदिताननानाम्प्राकृतसौन्दर्यसम्पन्नतया सदा प्रसन्नवदनानाम् जनानां लोकानाम् । प्रफूल्लभावात्मकरन्दविन्दमिलिन्दगुज्जित-पुष्प-पल्लव-फलसमृद्धतया विकसितत्वात् काननानां बनानां च आरोग्य-भाग्या-ऽभ्युदया: आरोग्यं नैरुज्यं, भाग्यम् अनुकूलदेव (त्व)म् अभ्युदयः धनधान्यादिवृद्धिः, काननपक्षे च-आरोग्यं (रुजन) रोगः=भञ्जनमामर्दनम् स नास्त्यस्यासौ अरोगस्तस्यभावस्तथा ) हस्त्यादिकतृकशाखाभङ्ग समूलोन्मूलनादिराहित्यम्, भाग्य-शोभनाधिपतिशालितया. अभ्यु. दयः फलपुष्पादिसमृद्धिः प्रादुर्बभूवुः प्रकटीबभूवुः । अन्त्याऽनुप्रासः तुल्पयोगिता श्लेषश्चालङ्काराः ॥ १३ ।। प्रीत्या विशिष्टा नगरेषु शिष्टाः, काराविकारा न कृताधिकाराः । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. बाधा नचाऽधान्नरकेऽसुरोऽपि। परोऽपि नारोपितवान् प्रकोपम् ॥१४॥ अन्वयः-नगरेषु शिष्टा: प्रीत्या विशिष्टाः, कृताधिकाराः काराविकारा न (आसन्) नरके ( नैरयिकजीचेषु ) असुरोऽपि बाधा नाऽधात् । परोपि प्रकोप ( कस्यापिविषये ) नारोपितवान् ॥ १४ ॥ व्याख्या-नगरेषु शिष्टाः तत्तत्कर्मणि नियोजिता अधिकारि. जनाः सञ्जना वा प्रीत्या हर्षेण विशिष्टा:-युक्ताः, कृताधिकारा:कारागाराधिकृतपुरुषाः काराविकाराः कारा-बन्धनालयः लक्षणया तद्वद्धपुरुषास्तद्विषये विकारः प्रकृतेरन्यथाभावः क्रुद्धत्वचण्डत्वादिरूपो येषां ते तथाविधा न आसन्निति शेषः । नरके-रत्नप्रभादौ 'नैरयिकजीवेषु' इति शेषः असुरोऽपि-परमाधार्मिकोऽपि बाधा नारकीयपीडाः न अधात् । पर: अन्यः शास्त्रवादिरपि प्रकोप प्राचण्डयं नारोपितवान् कस्यापिविषये नोपयोजितवान् सोऽपि प्रशान्तस्वभावोऽभूदितिभावः। वृत्त्यनुप्रासः, दीपकम् ,अर्थापत्तिश्चालङ्काराः।. कारा स्याबन्धनालये इत्यमरः ॥ १४ ।। मृगेङ्गसारेऽर्कविदोः प्रभादौ, कोंदये देवगुरोः सुधांशोः। शनेस्तुलाभे वृषभे सुकाव्ये, तमोव्ययेऽभूजिनदेवजन्म ॥ १५ ॥ अन्वय:--- अङ्गलारे मृगे अर्कविदोः प्रभादौ कर्कोदये देवगुरोः सुधांशोः शनेः तुलाभे सुकाव्ये वृषभे व्यये तमः जिनदेवजन्म अभूत् ॥ १५ ॥ व्याख्या- अङ्गसारे तनुभावे मृगे मकरे अर्कविदोः सूर्यबुधयोः स्थितयोः प्रभादौ प्रकृष्टश्चासौभश्चेति प्रभः सआदिर्यस्य तस्मिन् प्रभादौ प्रकृष्टनक्षत्रादौ कर्कोदये कर्कराशी देवगुरोः बृहस्पतेः सुद्यांशोश्चन्द्रस्य Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाठ ये स्थितिसत्वे सतीतिशेषः तुलाभे तुलाराशौ नक्षत्रे शनेः शनैश्चरस्य वृषभे वृषनक्षत्रे सुकाव्ये शुक्रे व्यये व्ययस्थाने तमः राहुः एतत्समये जिनदेवजन्म जिनेन्द्राणां जनिः अभूत् अजनिष्ट ।। १५ ॥ ज्येष्टेऽसिते विश्वहिते सुचैत्रे, ___ वसुप्रमे शुद्धनभोऽर्थमेये । साङ्के दशाहे दिवसे सपोषे, जनिर्जिनस्याऽजनि वीतदोषे ॥ १६ ॥ अन्वयः-बीतदोषे, ज्येष्ठेऽसिते विश्वहिते (शान्तेः) । सुचैत्रेऽसिते वसुप्रमे (ऋषभस्य) । शुद्धनभोऽर्थमेये (नेमे:) । सपोषेऽसिते दशाहे (पार्श्वस्य) । सुचैत्रे सिते विश्वहिते ( वीरस्य ) सुचैत्रे सिते साङ्के ( रामस्थ ) । (भादे) असिते वसुग्रमे (कृष्णस्य) जिनस्य जनिः अजनि ॥ १६ ॥ ___ व्याख्या-वीतदोषे वीता: अपगताः दोषा: ग्रहवैगुण्यादिरूपा यत्र तादृशे. ज्येष्ठेऽसित कृष्ण पक्षे विश्वहिते-त्रयोदशीतिथौ ज्येष्ठकृष्णत्रयोदश्यामित्यर्थः श्रीशान्तिनाथाख्यस्य । मुचैत्रे चैत्रमासे असिते, वसुप्रमे अष्टमीतिथी चैत्र कृष्णाष्टम्यामित्यर्थ ऋषभनाम्नः । शुद्धनभोऽर्थमेये-शुद्धस्य-शुभ्रस्य यद्धिष्णुचन्द्र चन्द्रिकाधवलितस्य नमस: श्रावणमासस्य अर्थमये-पञ्चमीतिथी श्रावणशुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः श्रीनेमिनाथाभिधानस्य । सपोषे=पौषमासेऽसिते, दशाहे= दशमीतिथौ पौषकृष्णदशम्यामित्यर्थः श्रीशार्श्वनाथनामधेयस्य । सुचैत्रे सिते शुक्लपक्षे विश्वहिते चैत्र शुक्लत्रयोदश्यामित्यर्थः श्रीवीरविभुस्वा. मिनः । सुचैत्रे सिते-शुक्लपक्षे साङ्के-दिवसे अङ्कमिततिथौ नवमीतिथौ चत्रशुक्ल नवम्यामित्यर्थः श्रीरामचन्द्रबल देवस्य । असिते वसुप्रमे 'भाद्रे' इति शेषः भाद्रकु गाष्टम्यामित्यर्थः कृष्णवासुदेवस्य । जिनस्य-रागादिजेतत्वात् तच्छीलस्य जनिःजन्म अजनि-अभूदित्यर्थः।। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ९९ अत्र 'असिते, विश्वहिते, सुचैत्र वसुनमे इत्येतेषु पदेषु 'सिते' इतिच्छेदपक्षे तत्र च तन्त्रमावृत्तिा तेनोक्तार्थ लाभः ॥ १६ ॥ उक्तार्थमेव व्यासेन स्पष्टमाह मधावष्टम्यां तन्नवमदिवसे विश्वमहितेऽसिते ज्येष्ठे पञ्चम्यहनिनभसो भाद्रबहुले ॥ तदष्टम्यां पोषे दशमदिवसे प्रौढविभवैमहोत्साहे पूर्व प्रसरति विभोर्जन्मसमयः ॥१७॥ अन्त्रय:--पूर्व प्रौढविभवः महोत्साहे प्रसरति सति. मधौ असितेऽष्टम्याम् ( ऋषभस्य ) । ज्येष्टे असिते विश्वमहिते ( शान्तिनाथस्य ) । नभसः पञ्चम्यह नि सिते ( नेमिनाथस्य ) । पोषेऽसिते दशमदिवसे (पार्श्वस्य)। मधौ मिते विश्वमहिते (वीरस्य) । मधौ सिते तन्नवमदिवसे (रामस्य) । भागबहुले तदष्टम्यां (श्रीकृष्णस्य) । विभोर्जन्मसमयः (आसीत) व्याख्या-पूर्व-जननात्प्राक् प्रौढ़ विभवः प्रौढगर्भवासादारभ्यानुदिनमुत्तरोत्तरं प्रवृद्धः, यद्वा निपुणैः समस्तजनताभरणक्षमैरित्यर्थः विभवः धनधान्यसमृद्धिभिः महोत्माहे-प्रभूतोत्सा हे सर्वजनानामिति शेषः प्रसरतिव्याप्नुवति सति । मधौ-चैत्रमासे. असित-कृष्णपक्षे अष्टम्याम् अष्टमीतिथौ चैत्रकृष्णाष्टम्यामित्यर्थः ऋषभस्वामिनः । ज्येष्ठे-वैशाखमासाव्यवहितोत्तरवर्तिमासे, असिते, विश्वमहित-त्रयो दशीतिथौ ज्येष्ठकृष्णत्रयोदश्यामित्यर्थः शान्तिनाथस्य । नभसः= श्रावणमासस्य सिते शुक्लपक्षे पञ्चम्यहनि पञ्चमीतिथौ श्रावणशुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः नेमिनाथस्वामिनः. पोषे सहस्यमासे मार्गशीर्षमासाव्यवहितोत्तरवर्तिमासे असिते-शुक्लेतरपक्षे, दशमदिवसे-दशमीतिथौ पौषकृष्णदशम्यामित्यर्थः पार्श्वनाथस्य । मधौ सिते-कृष्णेतरपक्षे विश्वमहिते चैत्र शुक्लत्रयोदश्यामित्यर्थः श्रीवर्द्धमानस्वामिनः । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. महोपाध्यायधीमेघविजमगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्ये •rrrrrrrrrrrrrrd मधौ सिते-शुभ्रपक्षे तनवमदिवसे-नवमीतिथौ चैत्रशुक्लनवम्या. मित्यर्थः श्रीरामचन्द्रबलदेवस्य । भाद्रबहुले भाद्रस्य-भाद्रपदमा. सस्य बहुले कृष्णपक्षे तदष्टम्यां भाद्रकृष्णाष्टम्यामित्यर्थः श्रीकृष्ण वासुदेवस्य । विभोप्रभोः जन्मसमया-उत्पत्तिकालः आसीत् । अत्रापि 'मधौ, विश्वमहिते, असिते' इत्येतेषु पदेषु 'सिते' इतिच्छेदकल्पने तत्पदे च तन्त्रमावृत्तिा तेनोक्तार्थलाभः । स्थाच्चैत्रे चैत्रिकोमधुः इति. श्रात्रणे तु स्थानभाः श्रावणिकश्च सः इति. कृष्णे नीला-सित-श्याम-काल-श्यामल-मेचकाः इति. शुक्ल-शुभ्र-शुचिश्वेत-विशद-श्येत-पाण्डराः । अवदातः सितोगौर इति. स्युनभस्य प्रौष्ठपद-भाद्र-भाद्रपदाः समा इति. पौषे तैष-सहस्सौ द्वौ इति चामरः । बहुल: कृष्णपक्षेऽनों ना. त्रिषु प्राज्य-कृष्णयोः । मेदिनी ।। अत्र श्लोके शिखरिणीटत्तम् रसैरुद्रैच्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणीति लक्षणात् ॥ १७ ॥ मधुशुचिपरभाद्रे, सन्नभस्संनियोगे वसुनवनिधिविश्वानन्दिपञ्चाङ्कितेऽह्नि । सहपरदशमानाद्युत्सवे जायमाने ऽजनि रजनिविराम जन्म हर्षाजनन्याः ॥१८॥ अन्वयः- मधुशुचिपरभाद्रे सन्नभः सन्नियोगे वसुनवनिधिविश्वानन्दि. पंचाङ्कितेऽहि सहपरदशमानाद्युत्सवे जायमाने सति जनन्याः हर्षात् रजनिविरामे जन्म भजनि ॥ १८ ॥ ___ व्याख्या--मधुशुचिपरभाद्रे मधुश्चैत्रः शुचिपरः शुचिराषाढ़ा परोऽग्रे यस्मात् स शुचिपरो ज्येष्ठः भाद्रः भाद्रमासः तस्मिन् सन्नमः सन्नियोगे सन् शोभनश्वासौ नभसः श्रावणस्य सन्नियोगः संबन्ध तस्मिन् तथोक्ते वसुनवनिधिविश्वानन्दिपंचांकितेहि तथा च मधो Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. चैत्रस्य वस्वंकिते चैत्रकृष्णाष्टम्यां श्रीमदृषभस्वामिनः एवं चैत्रशुक्ल नवसंख्यांकितेऽह्नि रामचन्द्रस्य शुचिपरे ज्येष्ठे विश्वानन्दि त्रयोदइयंकिते ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदश्यां शान्तिनाथस्य भाद्रे वस्वं कितेऽहि भाद्रकृष्णाष्टम्यां कृष्णस्य सन्नभः सन्नियोगेपञ्चांकिते श्रावणशुक्लपञ्चम्यां श्री नेमिनाथस्य मधुविश्वानन्दचकितेऽह्नि चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां श्रीवीरप्रभोः सहपरदशमानादौ सहसः सहपरः पौषस्तस्यदशमानादौ अङ्किते पौषकृष्ण दशम्यां श्रीपार्श्वनाथस्य जनन्यामातुः हर्षात्प्रमोदात् उत्सवे महोद्धवे जायमाने क्रियमाणे सति रजनि विरामे निशावसाने जनिरु. त्पत्तिर्जन्मेत्यर्थः अजनि अभूत् ॥ १८ ॥ अत्र श्लोके मालिनीच्छन्दः ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैरितितल्लक्षणात् || यो लक्ष्मणासंगत एव देवो, गवाऽद्भुतविड् हरिणात्मनाऽयम् । सुरर्षभाऽर्यक्रमवारिजेन, रराज राजकज पूज्यमूर्त्तिः ॥ १९ ॥ १०३ अन्वयः - - राजनजपूज्यमूर्त्तिः अद्भुतत्विद् हरिणात्मना (उपलक्षितः ) यः देव: गवालक्ष्मणा संगत एवं अथम् सुरर्षभार्च्य क्रमवारिजेन रराज ॥ १८ ॥ व्याख्या - राजव्रजपूज्यमूत्तिः राज्ञां महीपतीनां व्रजेन = समूहेन पूज्या - अर्हणीया मूर्तिः शरीरं स्वरूपं यस्य स तथोक्तः, अद्भुतत्त्रिड्=अद्भुता=लोकातिशायितयाऽऽश्चर्यकारिणी त्विट् - कान्तियस्य स तादृशः हरिणात्मना = हरिणस्य = विष्णोरिव शिवस्येव वा उदारः आत्मा-स्वभावः बुद्धिर्वा तेन यद्वा हरिण = स्वर्णन स्वर्णसच्छायेनेत्यर्थः अथवा हरिणा = पीतेन हरिद्रा भच्छ विच्छुरितेनेत्यर्थः आत्मना = देहेन । उपलक्षितः यः देवः = दीप्तिमान् घात्यन्तरायादिकर्मविजिगीषुर्वा श्रीमान् ऋषभदेवः गवा-वृषभेण तदाकृति Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्ये केनेत्यर्थः लक्ष्मणा लाञ्छनेन संगता=युक्तः अयम् =असौ मुरर्षभा र्यक्रमवारिजेन-सुरर्षभैः शकेन्द्रादिभिः अथैन-पूजनी येन क्रमवारिजेन-चरणारविन्दद्वन्द्वन रराज-शुशुभे । गोष्ठा -ऽध्व-निवहा बजाः इति. मूर्तिः काठिन्य-काययोरितिचामरः । शान्तिनाथपक्षे-गवाद्भुतत्विड्-गो मूर्यस्येव अद्भुता त्विट् यस्य सः, राजबजपूज्यमूत्ति वर्णितार्थः यः देवः शान्तिना. थस्वामी हरिणात्मना-मृगरूपेण लक्ष्मणा=चिह्वेन संगतः अयं सुरर्षभार्यक्रमवारिजेन रराज । गौः स्वर्ग च बलीवर्दे रश्मौ च कुलिशे पुमान् ! स्त्री सौरभेयीदृग्वाणदिग्वाग्भूष्वप्मभूम्नि चेतिमेदिनी । कलङ्का-ऽङ्को लाञ्छनं च चिह्न लक्ष्म च लक्षणमित्यमरः । नेमिनाथपक्षे-गवाद्भुतत्विड्गवोः नेत्रयोः अद्भुताविट्-शोभायस्य सः यद्वा गोषु-इन्द्रियेषु विषये अद्भुताऽसाधा. रणतया विस्मयजननी विड्-व्यवसायः निग्रहोद्यमो जिगीषा वा यस्य स तथोक्तः । हरिणा हरित्कान्तिशालिना अञ्जनामेने त्यर्थः आत्मना शरीरेण उपलक्षितः राजबजपूज्यमूर्तिः यः देवः श्रीनेमिनाथप्रभुः सुरर्षभार्यक्रमवारिजेन=सुरर्षभैः शक्रेन्द्रादिभिरर्ययोः ऋमयोः चरणयोः वारिजेन-शङ्खन तदाकृतिकन लक्ष्मणा संगतः रराज । गौरुद के दृशि स्वर्गे दिशि पशौ रश्मौ बजे भूमाविषौगिरि रित्यनेकार्थसंग्रहः त्विट् शोभायां जिगीषायां व्यवसाये रुचौ गिरि इति हैमः । हरिर्दिवाकरसमीरयोः यमवासवसिंहांशुशशांककपिवाजिषुपिंगवणे हरिद्ववर्णेभेकोपेन्द्रशुकाहिषु इत्यनेकार्थ संग्रहः । आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म वर्म च इत्यमरः । - पार्श्वनाथपक्षे-गवाद्भुतस्विट-गविबाचि देशनावचने अद्भुता-सुरनरविस्मयजनिका त्विट्-छटा यस्य सः तीर्थकृतां वच Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. नातिशयशालित्वात् । हरिणा-हरिद्वर्णेन इन्द्रनीलमणिमेचकच्छवि नेत्यर्थः आत्मना=देहेन उपलक्षितः राजबजपूज्यमूर्तिः यः देवः हरिणा सर्पेण तदाकारेण लक्ष्मणालाञ्छनेन संगतः अयं सुरर्षभार्यक्रमवारिजेन-इन्द्रार्चनीयचरणकमलेन रराज । __ महावीरस्वामीपक्षे-गवाद्भुतत्विट्गविभूमौ देशनाकालिकस्वाश्रय क्षेत्रे इत्यर्थः अद्भुता=विस्मयावहा विद्=प्रभा 'भामण्डल' रूपा यस्य सः । आत्मना धृत्या सच्चित्तेन वा सद्बुध्द्या वा उपलक्षितः राजव्रजपूज्यमृतिः यः देवः श्रीवर्धमानस्वामी हरिणासिंहेन तदाकारकेण लक्ष्मणा संगतः अयं सुरर्षभाच्यै क्रमवारिजेन रराज । आत्मा चित्ते धृतो यत्ने धिषणायां कलेवरे । परमात्मनि जीवेर्के हुताशनसमीरयोत्यनेकार्थसंग्रहः ।।। रामपले-गवाद्भुतत्विट्-गवि बाणेऽद्भुता वीरविस्मयकरी विट्-दीप्तिर्यस्य सः गविभूमौ अदभुता विट्-जिगीषा यस्य सः राजब्रजपूज्यमूर्तिः यः देवः श्रीरामचन्द्रबलदेवः हरिणा-कपिना= हनूमता तथा लक्ष्मणासंगतः-लक्ष्मणेन-सौमित्रिणा आ-सर्वतोभावेन संगतः मिलितः अयं सुर्रषभार्यक्रमवारिजेनदेवेन्द्रसमभ्यर्च्य चरणकमलशालिना आत्मना शरीरेण रराज । कृष्णपक्षे- गवाद्भुतत्विट्-गवि-पृथिव्यां गोषुधेनुषु वा विषये अद्भुता-सर्वाश्चर्यकारी विट्-व्यवसायो रक्षणात्मको यस्य सः गयोः दृशः अद्भुता त्विट्-सर्वमोहिनी शोभा यस्य स इति वा राजवजपूज्यमूर्तिः, सुरर्षभार्यक्रमवारिजेन शक्रसंपूज्यपदाम्बुजशोभिना आत्मना-शरीरेण उपलक्षितः. यः देवः श्रीकृष्णचन्द्रनामा वासुदेवः अयं हरिणा-गरुडेन लक्ष्मणा लाञ्छनेन ध्वजेन संगतः= वहनीयतया सम्बद्धः रराज-दिदीपे ।। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये शब्दार्थोभयश्लेषः । तुल्ययोगिता गौः स्वर्गे च बलीवर्दै किरण-क्रतुभेदयोः । स्त्री तु स्यादिशिभारत्यां भूमौ च सुरभावपि । नृस्त्रियोः स्वर्ग-वजा-ऽम्बु-रश्मिदृग्-बाण-लोमसु इतिमेदिनी ॥ १९ ॥ इन्द्रा-ऽश्वे-भ-शुक-प्लवा हि-पवन-स्वाँऽशु-लोकान्तरे। भा-रि-ब्रुघ्न कपी-न्दु-पीत-गरुड़-श्री-शुक्र-विष्ण्व-केजः॥ सूत-स्कन्द-शनी-श-वंश-वरुण-प्राणा-अग्नि-भीता--ऽसितै। रथुस्त्वां हरिजैः क्रमाजिनपते त्रिशन्मितः स्तौम्यहम् ।। सारूप्यमारोप्य दिशां मार्यः, स्मेराम्बुजांक्षीषु मनस्विनीषु । रम्भालयेषु त्रिषु देवदेवं नीत्वा स्वरागात्स्नपयाम्बभूवुः ॥२०॥ अन्वयः-दिशां कुमार्यः स्मेराम्बुजाक्षीषु मनस्विनीषु सारूप्यमारोप्य ( राम-कृष्णपक्षे-कुमार्यः स्मेराम्बुजाक्षीषु मनस्विनीषु-दिशां सारूप्यमारोप्य ) त्रिषु रम्भालयेषु देवदेवं नीत्वा स्वरागानपयाम्बभूवुः ॥ २० ॥ ___व्याख्या-दिशांकुमार्य अष्टौ दिकन्यकाः स्मेराम्बुजाक्षीपु= विकसितकमलसदृशलोचनशालिनीषु मनस्विनीषु स्त्रीषु सारूप्यम्= समानरूपताम् ऐकरूप्यमित्यर्थः आरोप्य कृत्वा स्त्रीणां रूपाणि विधायेत्यर्थः । राम-कृष्णपक्षे-कुमार्यः कन्याकाः स्मेराम्बुजाक्षीषु मनस्विनीषु खीषु दिशां सारूप्यंभूषणवसनादिना समानरूपं विधाय। त्रिषु रम्भालयेषु-मङ्गलार्थन्यस्तकदलीस्तम्भशालिभवनेषु यद्वा रम्भास्तम्भादिसम्भारविरचितमाङ्गल्यगृहत्रितये देवदेव-देवेषु मध्ये दीव्य. ति-द्योतते इतिदेवदेवस्तं नीत्वा प्रापय्य स्वरागात्-स्वभक्त्या नपयाम्बभूवुः-स्नानक्रियां सम्पादयामासुः ॥ २० ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. काश्चिद् भुवः शोधनमादधाना, जलानि पुर्यां वृषः सपुष्पम् । छत्रं दधुः काश्चन चामरेण, १०५ तं वीजयन्तिस्म शुचिस्मितास्या ॥२१॥ wwwwwww अन्वयः- -- - काश्चिद् ( कन्यकाः ) भुवः-शोधनम् आदधानाः पुर्यां सपुष्पं जलानि ववृषुः शुचिस्मितास्याः काश्चन छत्रं दधुः ( काश्चन ) चामरेण तं वीजयन्तिस्म ॥ २१ ॥ चक्रुश्च बालव्यजनेन वातम् । व्याख्या --- काश्विद् कन्यकाः भुवः = स्थानस्य शोधनं- सम्मार्जन्या दिनाsaकर निकरनिरसनाद्यात्मकं सस्कारकर्म आदधानाः = कुर्वन्त्यः पुर्यां-नगर्यां सपुष्पं = पुष्पोपहारसहितं जलानि = केतकीशतपत्र्याद्यधिवासित सुगन्धिसलिलानि वृषुः = वृष्टवत्यः अभिषिषिचुरित्यर्थः । शुचिस्मितास्या: = शुचि = अनवद्यं स्मितं = मन्दहसितं यस्मिन् तादृशमास्यं वदनं यासां तास्तथोक्ताः काश्चन कन्यकाः छत्रम् = आतपत्रं दधुः = धारितवत्यः । काश्चन चामरेण चमरमृगपुच्छरचितव्यजनेन तं देवदेवं वीजयन्तिस्म= व्यजनसञ्चालनकर्म कुर्वन्तिस्मेत्यर्थः ॥ २१ ॥ ।। उद्दीप्य दीपानपराः परेश मणीमयादर्शकराः परास्ताः, पुरस्सरा गीतविधिं वितेनुः ॥ २२ ॥ अन्वयः -- अपराः ( दिक्कन्यका: ) दीपान् उद्दीष्य परेश: बालत्रयजनेन वातं चक्रुः पराः ताः (दिकन्याः ) मणीमयादर्शकराः पुरस्सरा गीतविधि वितेनुः ॥ व्याख्या - अपराः दिकन्यकाः दीपान् उद्दीप्य = प्रज्वाल्य परेश:परमेशितुः जिनस्य बालव्यजनेन = लघुतालवृन्तेन चामरेण वा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०६ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये वातं=पवनं चक्रुः =चालयामासुरित्यर्थः । परा:= अन्याः ताः= पूर्वोक्ताः दिक्कन्याः मणीमयादर्शराः = हस्तनिहित मणिखचितदर्पणाः सत्यः पुरस्सराः - अग्रेसराः गानक्रियायां अग्रीयाभूत्वा गीतविधिं=माङ्गलि - कगानकर्म जिनगुणगान क्रियां वा वितेनुः = चक्रुरित्यर्थः ॥ २२ ॥ कृत्वैव होमं वरचन्दनाद्यै-ग्रन्थिबबन्धुः करयोर्विभूतेः । आस्यं सलास्यं प्रविलोक्य रम्भा, स्तस्थुः पुरो लोकविभोरदम्भाः ||२३|| अन्वयः - अदम्भाः रम्भा वरचन्दनाथै: ( अरणिसंघर्षणोद्भव ) होमं कृत्वैव ( जिनस्य ) करयोः विभूतेन्थि बबन्धुः ( तदनु ) लोकविभोः आस्थं प्रविलोक्य सलास्यं ( यथास्यात्तथा ) पुरः तस्थुः || २३ ॥ , अरणिघर्षणोद्भव व्याख्या - अदम्भाः कैतववर्जिताः रम्भा:-देवकन्याः वरचन्दनाद्यैः=सुरभिदिव्यचन्दनप्रभृतीन्धनैः इति शेष: होम-हवनं कृत्वैव-विधायैव करयोः = जिनहस्ताम्बुजयुगे विभूतेः = हुतचन्दनभस्मनः ग्रन्थि = रक्षापोट्टलिकां बबन्धुः = बध्नन्ति - स्म । तदनु लोकविभोः = जगत्प्रभोः आस्यं = मुखं प्रविलोक्य तदनुमता सलास्यं = स्त्रीनृत्येन सहितं यथास्यात्तथा पुरो=s ये तस्थुः = आसांचक्रिरे ॥ २३ ॥ जाते जिनेशे त्रिजगदिनेशे, = 3 लेभे भुवि स्वामिवरैश्चलत्वम् । चलाचलस्वासनभावनेन, जन्मावबोधे हृदि पावनेन ॥ २४ ॥ अन्वयः - त्रिजगद्दिनेशे जिनेशे भुवि जाते पावनेन चलाचलस्वासनभावनेन जन्मावबोधे सति स्वामिवरैः हृदि चलत्वं लेभे ॥ २४ ॥ : Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. १०० व्याख्या--त्रिजगदिनेशे-त्रिभुवनविद्योतनसूर्यरूपे जिनेशे भुवि-भृतले जाते अवतीर्णे सति. पावनेन-पवित्रतासम्पादकेन चलाचलस्वासनभावनेन-चलाचलं-कम्पनशीलं यत् स्वासनं स्वीय. सिंहासनं तस्य भावनेन विमर्शन जन्मावबोधे जिनजन्मज्ञाने सति स्वामिवरैः अच्युतादिदेवेन्द्रः हृदि-मनसि चलत्वं तरलता संभ्रम लेभे सम्भ्रान्तचित्तता प्राप्त्यर्थः। जिनप्रभो जाते देवेन्द्रस्य सिंहासनं कम्पितं भवतीति जैनसमये सुप्रतीतम् ।। २४ ॥ आकृष्टा भगवद्गुणैरिव दिवः श्रीअच्युताद्याः समे। देवेन्द्राः समुपेयुरत्र मनसा चित्रीयमाणश्रिया ॥ आलोक्याऽद्भुतधामधाम सुचिरं राज्यं त्रिलोक्या इह । न्याय्यं कर्तुमतोऽभिषेकमचले मेरौ पयोभिः प्रभोः॥२५॥ ॥इतिश्री सप्तसन्धाने महाकाव्ये जन्मव नो नाम द्वितीय सर्गः ॥ अन्वयः-~श्रीअच्युताद्याः समे देवेन्द्राः भगवद्गुणः आकृष्टा इव चित्रीयमाश्रिया मनसा दिवः अत्र आगत्य अद्भुतधामधाम सुचिरम् आलोक्य इह निलोक्या राज्यं न्याय्यम् अतो मेरौ अचले पयोभिः प्रभोः अभिषेक कर्तुं समुपेयुः ॥ २५ ॥ व्याख्या-श्रीअच्युताद्या: अच्युतवासवप्रभृतयः समे सर्वेदेवेन्द्राः सुरेश्वराः भगवद्गुणैः जिनदेवगुणेः आकृष्टाः इव-आकुज्याऽऽनीता इव चित्रीयमाणश्रिया चित्रीयमाणा विस्मयनीयतया प्रतिभाता श्रीः जिनलक्ष्मीर्यस्मिन् तादृशेन मनसा उपलक्षिताः दिवा-धुलोकात् अत्र आगत्येति शेषः अद्भुतधामधाम अद्भुतानां विस्मयावहानां धाम्नां तेजसां शक्तीनां वा प्रभावाणां वा त्विषां वा धाम आश्रयीभृतं जिनमिति शेषः यद्वा अद्भुतं विसयनीयं धान: Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाब्वे जिनप्रभुशरीरस्य धाम-स्वयंप्रकाशे त्विषं वा तेंजो वा शक्ति वा सुचिरं चिरकालपर्यन्तम् आलोक्य आलोक्य-निरीक्ष्य इह-अस्मिन् जिनदेवे त्रिलोक्या: जगत्रयस्य राज्य-राजत्वम् आधिपत्यमित्यर्थः न्याय्यं समुचितं-योग्यं अतः अस्मात् भगवतस्त्रिजगदधीशभवनाहत्वाद्धेतोः मेरी अचले भुमेरुपर्वते पयोभिः क्षीरार्णवाहृतनीरैः प्रभोः जिनदेवस्य अभिषेकं-स्मात्रमहोत्सवं कत्तु-सम्पादयितुं ममुपेयुः समुपेताः संगताः सम्भिलिता अभूवन् यद्वा समुपेयुः-सम्प्राप्ताः मेरुमिति शेषः विस्मयोऽद्भुतमाश्चर्य मित्यमरः । धाम शक्ती प्रभाव तेजोमन्दिर-जन्मसु इति विश्वः । पयः क्षीरे च नीरे च इति हेमचन्द्रः । अत्र पद्ये शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ।। सूर्याश्वैर्मसजस्तताः सगुरवः । शार्दूलविक्रीडितमितिलक्षणात् ।। २५ ॥ इति श्री शास्त्रविशारद कविरत्न भट्टारकाचार्य विजयामृ. तसूरीश्वर प्रणीतायां सप्तसंधान महाकाव्यसरणीटीकायां द्वितीयः सर्गः॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. १०९ . ...... . .. ...... .. . तृतीयः सर्गः निन्युः सुरासुरगणा अथ देवगोत्रं, यत्राद्रयः सकलकालमपि प्रफुल्लाः । पुष्पैः फलैरविरलैः प्रबलै दलैश्च, प्रीणन्ति भूचर-नभश्चर चारुनारीः॥१॥ अन्वयः-अथ सुरासुरगणाः (प्रभु) देवगोत्रं निन्युः यत्र सकलकालमपि प्रफुल्ला: अद्यः अविरलैः पुष्पैः फलैः प्रबलैर्दलैश्च भूचरनभश्चरचारुनारी: प्रीति ॥ १ ॥ __ व्याख्या-अथ दिक्कुमारीकृतमतिकर्माऽन्तरं सुरासुरगणाः सुराणां सौधर्मादिदेवलोकनिवासिदेवानाम् असुराणां-भुवनपत्यादीनां गणाः संघाः 'प्रभु'-मितिशेषः देवगोत्रं देवपर्वतम् तीर्थकृत्पञ्चकपक्षे-मुमेरुशैलम् रामपक्षे–देवानां गोत्रं-पर्वतम् 'अष्टापद' संज्ञकम् अयोध्यापार्श्व उत्सवेषु रमणीयस्थानत्वेन तस्याभिमतत्वात् कृष्णपक्षेदेवात् मुसलधारां दृष्टिंकुर्वतो धनाधनात् इन्द्राद्वा गा: सौरमेयीः गांगोकुलं-व्रजं वा नामैकदेशग्रहणेनामग्रहणात् सत्या भामेतिवत् त्रायते रक्षति स तं 'गोवर्द्धन' नामानं व्रजपार्श्ववर्तमानपर्वतविशेष निन्युः नीतवन्तः । अधुना देवगोत्रं वर्णयति-यत्र-यस्मिन् देवगोत्रे सकलकालमपि-पत्स्वपि ऋतुषु प्रफूल्लाः विकसिताः अद्रयः= वृक्षाः 'अद्रयो द्रुम-शैला-ऽर्काः' इत्यमरः । अविरलैः निरन्तरैः पुष्पैः-चम्पकादिकुसुमैः फलैः आम्रादिभिः प्रबलैः- अङ्करैः दलै = किसलयैश्च यद्वा प्रबलैः प्रबालै =अभिनवपल्लवैः दलै निष्पन्नपत्रैश्च भूचरनभश्वरचारुनारी भूचराणां मनुजतिरश्चां, नभश्चराणां देव-यक्ष-गन्धर्व-किन्नर-विद्याधरादीनां चावी: मनोहराः नारी: Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये रमणीजनान् प्रीणन्ति आनन्दयन्ति ।। अत्र सगै वसंततिलकं वृत्तम् । क्षेयं वसन्ततिलकं तभजाजगौग इति तल्लक्षणात् ॥१॥ श्रीभद्रशालवनमप्यतिपावनं तद, यत्रास्ति सौमनसमद्भुतशाखिजन्यम् ॥ सानन्दनन्दनवनं बहुसोरभाढ्यं, __ सापाण्डुकम्बलशिलाग्रमिला बिभर्ति॥२॥ अन्वयः-- यत्र तद् अतिपावनं श्रीभद्रशालबनम , अद्भुतशाखिजन्य सौमनसं (वनं), सानन्द नन्दनवनं, बहुसौरभाढ्यं पाण्डुकं (वनंच) अस्ति सा इला बलशिलानं बिभर्ति (इति तीर्थकृत्पञ्चक्रपो) । (वासुदेवपक्षे-) यत्र सा इला (यत्र) अद्भुतशाखिजन्यं (बहुसौरभाढ्यं) सौमनसम् अस्ति. तद् अति. पावनं श्रीभद्रशालवन, सापाण्डुकम्बलशिलानं बहुसौरभाव्यं नन्दनन्दनवन (च) बिभर्ति ! ( श्रीरामबलदेवपक्षे तु) यत्र सा इला ( यन्त्र) अद्भुशाखिजन्य वहुसौरभाग्यं सौमनसम् अस्ति तद् अतिपावनं श्रीभद्रशालवनं सापाण्डुकल. शिला सानन्दनन्दनवनं (च) बित्ति ॥ २॥ ____व्याख्या तीर्थकृत्पश्चकपक्षे-यत्र-यस्मिन् देवगोत्रे सुमेरुपर्वते तद्-प्रसिद्धम् अतिपावनम् अतिपवित्रं सातिशयपावित्र्यजनक वा 'श्रीभद्रशालवनं तदभिधानम् अस्ति-विद्यते एवम् अद्भुतशाखिजन्यम् अद्भुतानिनचित्रविचित्राणि शाखिजन्यानि वृक्षसंभवानि पुष्प-फलादीनि यस्मिस्तत् तादृशं 'सौमनसं'-तदाख्यवनम् अस्ति । तथा नन्दनन्दनवनम् सानन्दम्-आनन्दकारित्वेन आनन्द-हर्षसहित, यद्वा आनन्देन सहितः सानन्दस्तं करोति सानन्दयति. सानन्दयतीति सानन्दम्-आनन्दयुक्तविधायकम् नन्दनवनं-देवो. द्यानम् अस्ति । तथा बहुसौरभाढयं-साऽतिशयसौगन्ध्यशालि पाण्डुकं-तनामकवनम् अस्ति । सा-प्रसिद्धा स्मात्रशैलसम्बन्धिनी इला-पृथ्वी बलशिलानं-बलानां-विशालानां शिलानां मध्ये अयंप्रधानं स्वात्रसिंहासनं बिभर्ति ।। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. कृष्णवासुदेवपक्षे-यत्र देवगोत्रे गोवर्द्धनपर्वते सा-पर्वत सम्बधिनी इला यत्र अद्भुतशाखिजन्य-चित्रविचित्रवृक्षसमुद्भवं बहुसौरभाढयं प्रचुरसौरभ्ययुक्तसौमनसं-पुष्पसमूहः अस्ति तद् अतिपावनं श्रीभद्र शालवन-श्रीणां-बिल्ववृक्ष-सरलवृक्ष लवङ्गानां भद्राणां देवदारु-कदम्बवृक्ष-स्नुहीरक्षाणां शालानां-सर्जवृक्षाणां, यद्वाऽनुपदोक्त श्री भद्रादीनां शालानां-वृक्षाणां वनं-काननम् अन्तर्वति यस्मिन् तत् तादृम् यद्वाश्रिया भद्रं-मनोहरम् शालवनं यस्मिंस्तत्ता. दृशं, सापाण्डुकम्बलशिलाग्रम्-आ-सर्वतोभावेन पाण्डुकम्बलाः-- प्रस्तरविशेषास्तदात्मिकाः शिलाः पाण्डुकम्बलशिलास्तासां तासु वा अग्रा:-श्रेष्ठाः याः शिलाः ताभिः सहितं, यद्वा पाण्डुकम्बलसदृश्यो या। शिलास्तासामग्राभिः-मुख्याभिः शिलाभिः सहितं, बहुसौरभा ढयं-प्रभूतसौगन्ध्यकलिंत यद्वा सुरभीणां-स्त्रीगवीणां समूहः सौरभ बहुना सौरमेण आढयं-युक्तम् एवं विधं नन्दनन्दनवनं-नन्दश्रीकृष्णपितरं नन्दयति-हर्षयतीतिनन्दनन्दन तादृशं वनं विपिनबिभर्ति-धारयति ॥ श्रीरामचन्द्रबलदेवपक्षे-यत्र देवगोत्रे अष्टापदपर्वते सा इला यत्र हि अद्भुतशाखिजन्यं बहुसौरभाढ्यं सौमनसम् अस्ति तद् अतिपावनं श्रीभद्रशालवनं सा पाण्डुकम्बलशिलाग्रमेतादृशं सानन्दनन्दनवन-सानन्दान्-आनन्दनिर्भरानपि किमुत सोद्वेगान् जनान् नन्दयति-श्रीणयतीति सानन्दनन्दनं तादृशं वनं बिभर्ति । विशेषणानामर्थश्च वासुदेवपक्षीयरीत्याऽवगमेलिमः ॥ २॥ यस्मिन्नलं फलललद्दलशालिशाल वृन्दावनी सुरजनी रजनीश्वरास्या ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ..... . . .. ... .. .... . .. .... ११२ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाग्वे गीतस्वरैः सुरमणी रमणीप्रणीतै स्तन्तन्यते तनुभृतामतनूदयं सा ॥३॥ अन्वयः-यस्मिन् अलं फलललद्दलशालिशालवृन्दाऽवनी. रजनीश्वरास्या सा सुरजनी च सुरमणी रमणीप्रणीतः गीतस्वरैस्तनुभृतामतनूदयं तन्तन्यते । इति मेरुपक्षे । ( अन्यपक्षे ) यस्मिन् अलं फललद्दलशालिसालवृन्दा, सुरजनी रजनीश्वरास्था अवनी ( यद्वावनी ) सुरमणीरमणीप्रणीतैः गीतस्वरैः तनुभृताम् अतनूदयं तन्तन्यते ॥ ३ ॥ व्याख्या---यस्मिन् मेरौ तद्वने चा अलम् अत्यर्थं फलललद्दलशालिसालवृन्दा-फलैः सस्यैः ललद्भिः वायुसंबन्धाच्चलद्भिः विलसद्भिर्वा दलैः पत्रैश्च शालन्ते-शोभन्ते तच्छीलानां शालानांवृक्षाणां वृन्दसमूहो यस्यां सा तादृशी अवनी-सौमेरवीभूमिः, तथा रजनीश्वरास्था चन्द्रानना सा=प्रसिद्धा सुरजनी-दिव्याङ्गना च सुरमणीर. मणीप्रणीतैः सुष्ठ रमयन्ति शोभनं रम्यते आमु वा इति सुरमण्य स्तादृशीभिः रमणीभिः प्रणीतैः विहितैः गीतस्वरैः-गानकालीनगेयपदसमूहवर्तिनिषादादिस्वरैः तनुभृतां प्राणिनाम् अतनूदयम् -अतनोः अनङ्गस्य उदयम् अभिवृद्धि कामोद्रेकमित्यर्थः प्रचुराऽऽनन्दसमृद्धिं वा तन्तन्यते-पुनः पुनरतिशयेन वा तनोति-विस्तारयति जनयतीत्यर्थः । इति सुमेरुपक्षीयोऽर्थः ।। अष्टापदपक्षे गोवर्द्धनपक्षे च-यस्मिन् अष्टापदशैले गोवर्द्धने च अलम् फलललद्दलशालिनः -फलचलत्पत्रशोमिनः सालाः-वृक्षाः वृन्दाः-तुलस्यश्च यस्यां सा तादृशी, पुनः सुरजनी-सु-शोभना समृद्धा वाऽतिशयिता वा रजनी-हरिद्रा जतुका वा यस्यां सा तथाविधा रजनीश्वरास्या रजनीश्वरस्य-चन्द्रस्य आस्या स्थितिरस्यां सा तादृशी चन्द्रमस ओषधीपतित्वाद्वन्यौषधीषु तत्स्थितिकल्पनात् यद्वा सुरजनीरजनीश्वरास्या-सु-शोभना रजनी-रात्रिः सुरजनी-राका रात्रि Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. ११३ रजनीश्वर:-चन्द्रः स एव आस्यम् आस्यमिव वा यस्याः सा तथा. विधा अवनी-अधित्यकादिरूपा पर्वतभूमिः यद्वा वनी-अटवी सुरमणीरमणीप्रणीतैः सुरमण्यः संगीतपण्डितरत्नभूता या रमण्यः-उत्कृष्टस्त्रीविशेषास्तामिः प्रणीतैः पयोजितः गीतस्वरैः निषादादिगानखरैः तनुभृतां शरीरिणाम् अतनूदयं कामोद्रेकं प्रभूताऽऽनन्दसमृद्धिं वा तन्तन्यते-भूयोविस्तारयतीत्यर्थः ।। ३ ।। गोपाः स्फुरन्ति कुसुमायुधचापरोपात्, कोपादिवाऽम्बुजदृशः कृतमानलोपाः ॥ क्रीडन्ति लोलनयनानयनाच्च दोला स्वान्दोलनेन विबुधाश्च सुधाशनेन ॥ ४ ॥ अन्वयः-गोपाः विबुधाः कुसुमायुधचापरोपात् कोपादिव कृतमानलोपाः स्फुरन्ति । लोलनयनानयनात् अम्बुजद्दशः सुधाशनेन दोलासु आन्दोलनेन च क्रीडन्ति ॥ ४ ॥ ___व्याख्या-गोपा=गा किरणान् पान्तीति ते तथोक्ताः तेजखिन इत्यर्थः यद्वा गां स्वर्ग पान्ति-रक्षन्तीति ते तादृशाः विबुधाःदेवाः यद्वा गांवज्रास्त्रं पान्तीति ते गोपाः शक्रेन्द्रादयः विबुधाः= देवसामान्याश्च कुसुमायुधचापरोपात कन्दर्पधनुर्मुक्तबाणात् तन्निपातादितिभावः हेतोः अत्रोत्प्रेक्षते-कोपादिव कामस्य क्रोधादिव कृतमानलोपाः कृतः मानस्य स्वाभीष्टश्लेष-वीक्षादिविरोधिकृत्रिमकोपस्य लोपः विनाशो येषां ते तथोक्ताः स्फुरन्ति प्रकाशन्ते । किञ्च लोलनयनानयनात्-लोलनयनानांचञ्चलाक्षीणाम् आसर्वतोभावेन नयनात्-कर्षणात् आनयनात्-आकर्षणेन अम्बुजशः पद्माक्ष्याः मुधाशनेन-अधरामृतपानेन. दोलामु-हिन्दोलादिदोलनयन्त्रविशेषेषु आन्दोलनेन-दोलनक्रियया च क्रीडन्ति-विहरन्ति आत्मानं विनो Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेवविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये दयन्तीत्यर्थः । स्वाभीष्टश्लेषवीक्षादिविरोधी मान उच्यते इति दशरूपके | अर्थश्लेषः उत्प्रेक्षा च । तीर्थकर - बलदेव वासुदेवैतत्रिकपक्षे समानोऽर्थः ॥ ४ ॥ ११४ अन्योन्यवन्य फलमाल्य विभाजनेन, का स्वर्वशा नहि वशीक्रियते जनेन ॥ यत्रोर्वशीजनकृतेन विमोहितेन, सोऽस्मिन् वशीभवति नाम वशीहितेन ॥ ५ ॥ अन्वयः - - अस्मिन् अन्योन्यवन्य फलमाल्यविभाजनेन का स्वर्वशा जनेन न हि वशीक्रियते यत्र उर्वशीजनकृतेन ईहितेन विमोहितेन स वशी वशीभवति॥५॥ व्याख्या -- अस्मिन् गिरौ = वने वा अन्योन्यवन्य फलमाल्यविभाजनेन=अन्योन्यं = परस्परं यद् वन्यानां भवानां फलानां= सस्यानां = माल्यानां पुष्पस्रजां विभाजनेन वण्टनेन विनिमयेन वा का स्वर्वशा=दिव्यस्त्री " वशा वन्ध्या-सुता = योषा = स्त्रीगवीकरिणीषु चे-तिविश्वमेदिन्यो " जनेन = कामिजनेन न वशीक्रियते - स्वायतीक्रियते सर्वापीत्यर्थः । यत्र उर्वशीजनकृतेन = अप्सरोभिर्विहितेन ईहितेन चेष्टितेन चेष्टयेत्यर्थः करणेन विमोहितेन विमोहनेन वश्यतापादनेन हेतुना सः = प्रसिद्धः वशी = जितेन्द्रयोऽपि वशीभवति वश्यतां यातीत्यर्थः । अर्थश्लेषः अन्त्यानुप्रासः । काव्यलिङ्गं चाऽलङ्काराः॥५॥ अष्टापदोन्नत गिरिर्खहते महत्त्वम्, - गोवर्द्धनोऽपि धनवानिव दिक्प्रसारी || तत्राऽऽनिनाय कि वासवनाम देव स्तं जातमात्रमतिमात्रविवोधपात्रम् ॥ ६ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतत्रिप्रणीता सरणी टीका, ११५ अन्वयः-अष्टापदोन्नतगिरिः महत्त्वं वहते. गोवर्द्धनः धनवानिव दिकप्रसारी. तत्र वासवनामदेवः जातमात्रम् अतिमात्रविबोधपात्रं तं किल आनिनाय.॥६॥ ___ व्याख्या- स्नात्रमहोत्सवाधिकरणीभूतं पर्वतं नाम्ना निर्दिशति( तीर्थकृत्पश्चकपक्षे ) अष्टापदोन्नतगिरि अष्टौ धातवः पदानि-स्थानान्यस्य तत् अष्टमु धातुषु पदं प्रतिष्ठाऽस्येति वा अष्टापदं-सुवर्ण तस्य तन्मयो या उन्नतगिरिः सर्वोच्चशैलः सुवर्णशैलः सुमेरुपर्वत इत्यर्थः महत्त्वं तीर्थङ्करस्नात्रमहोत्सवाधिकरणीभवनजनितमहिमानं वहते. किञ्च गोवर्द्धनः-गा-किरणान् स्व-स्वाश्रिततेजांसीत्यर्थः वर्द्धयतीति स तथोक्तः धनवानिव व्यवहारीवेत्यर्थः दिक्प्रसारो अष्टसु दिक्षु प्रसरण व्यापनशीलः व्याप्तसर्वदिक्क इत्यर्थः तत्र पर्वते वासवनाम देवा शकेन्द्रः जातमात्रं-गांनिर्गतमात्रं जन्माऽनन्तरक्षणएवेत्यर्थः अतिमात्रविबोधपात्रं-सातिशयज्ञानभाजनम् अवधिज्ञानस्य तदानीं सद्भावात् तं-पूर्वोक्तम् ऋषभादिम् किल-निश्चयेन आनिनाय । बलदेवपक्षे-अष्टापदोन्नतगिरिः अष्टापदनामधेयः उन्नतपर्वतः महत्वं श्रीरामचन्द्रबलदेवजन्मोत्सवाश्रयीभवनजनितमहनीयत्वं वहते शेषं पूर्ववत् ॥ वासुदेवपक्षे-अष्टापदोनतगिरि-अष्टापद: कैलासपर्वत स इव उन्नतः उच्चैः उच्छ्रितो गिरिः शैलः यद्वा अष्टापदः शरभाख्यवन्य. पशुविशेषो यः सिंहमपि विराध्यति तद्युक्त उन्नतगिरिम्=तुङ्गशैल: 'गोवर्द्धनः' तदाख्यः,महत्वं श्रीकृष्णवासुदेवजन्मोत्सवाधारीभवनजन्यमहिमानं वहतें, धनवानिव दिनसारी तत्र वासवनाम देवः जातमात्रमतिमात्रविबोधपात्रं तं वासुदेवम् आनिनाय || अष्टापदश्चन्द्रमाल्यां लूतायां शरभे गिरौ कनके शारिफलके इति अनेकार्थसंग्रहः । श्लेषोपमालंकारौ ॥६॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये त्वं नन्द-नन्दनपदं सफलीकुरुष्व, कान्तापि वर्द्धयतु कान्तिरसो यशोदा ॥ स्नात्राभिषेकसविशेषसरेखभूषा नेपथ्यतथ्यकरणात्सुभगाकृतित्वम् ॥ ७॥ अन्वयः-वं नन्द. (हे नन्द ! ) त्वं नन्दनपदं सफलीकुरुष्व यशोदा. कान्ताऽसौ ( तव ) कान्तिः स्नानाभिषेकसविशेषसरेखभूषानेपथ्यतथ्यकरणात् सुभगाऽऽकृतित्वं वर्धयतु । कृष्णपक्षे-( हे प्रभो! त्वं नन्दनन्दनपदं सफलीकुरुष्व, यशोदा कान्ताऽपि तव कान्ति-रसौ बर्द्धयतु । ( तथा ) स्नानाभिषेकतथ्यकरणात्सुभगाकृतित्वं (बज) ॥ ७ ॥ व्याख्या--आनयनाऽनन्तरकालिकवृत्तवृत्तान्तमाह-हे प्रभो! त्वं नन्द तीर्थकुल्लक्ष्मीसमृद्धो ज्ञानादिसमृद्धो वा भव यद्वा हे नन्द!= आनन्दरूप! यद्वा नन्दिा आनन्दोऽस्यास्तीति नन्दः अर्शआदित्वा. दच तत्सम्बोधने हे नन्द!-शास्वताऽऽनन्दपरिपूर्ण! त्वं नन्दनपददेवोद्यानरूपस्थानं यद्वा नन्दयति मोक्षलक्ष्मीप्राप्त्या हर्षयतीतिनन्दनं तादृशं पदं तीर्थकरपदं सफलीकुरुष्व-सार्थकं कुरु । यशोदा-कीतिजननी कान्ता मनोहरा असौ तब कान्तिः शोभा. स्वात्राभिषेकसविशेषसरेखभूपानेपथ्यतथ्यकरणात-सात्राभिषेके तत्समय इत्यर्थः सविशेषाणां सातिशयानामुत्तमानां वा सरेखाणां साभोगानां परिपूर्णानामित्यर्थः श्रेणीबद्धानामिति वा भूषाणांतीर्थकरोचितालङ्करणानां नेपथ्येन-प्रसाधनकर्मणा तथ्यकरणात याथार्थ्यापादनात् यद्वा स्नात्राभिषेक-सविशेषसरेखभूषाभिः नेपथ्यस्य-तीर्थकृत्कर्मकमण्डनीकरणस्य तथ्येन यथावद्रूपेण करणात-निष्पादनात् सुभगाकृतित्वं सुभगा सुदृश्या आकृतिः-स्वरूपं यस्य स तद्भावस्तत्वं सुदृश्यरूपतां सौन्दर्यमित्यर्थः वर्द्धयतु इति तीर्थकरपञ्चकसाधारणोऽर्थः । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. श्रीरामचन्द्रपक्ष-हे प्रभो! त्वं नन्द शौर्यादिगुणसमृद्धोभव । नन्दनपदं-पुत्रसम्पाद्यपित्राज्ञापालनादिकार्यस्थानं सफलीकुरुप्प । यशोदा कान्ताऽसौ तव कान्तिः स्नात्राभिषेकस विशेषसरेखभूषाने पथ्यतथ्यकरणात् सुभगाकृतित्वं वर्द्धयतु । श्रीकृष्ण वासुदेवपक्षे हे विभो ! त्वं नन्दनन्दनपद-नन्दस्थ गोपाधिपविशेषस्य नन्दनपद-पुत्रपदं सफलीकुरुष्य । यद्वा हे नन्दनन्दन !-नन्दपुत्र ! त्वं पदं वासुदेवव्यवसितं शिष्टाऽनुग्रहदुष्टनिग्रहादिरूपं सफलीकुरुष्व । यशोदा तदभिधाना कान्ता नन्दगोपभार्याऽपि तक कान्ति-रसौ कान्ति=शोभां तेजो वा रसं वीर्य वर्द्धयतु । तथा स्मात्राभिषेकसविशेषसरेखभूषानेपथ्यतथ्यकरणात् सुभगाकतित्वं ब्रजेति शेषः ॥ ७॥ इत्युदिशन् सदसि संगमने गवेशां, शक्रः क्रमोपनतमच्युतमैक्ष्य भक्त्या ॥ तच्छासनेन विधिना सहितः सराम मीशानमेव हरिमत्र पुरो व्यत्ति ॥ ८॥ अन्वयः-शक्रः इस्युद्दिशन् गवेशां संगमने सदसि क्रमोपनतम् अच्यु. तम् ऐक्ष्य भक्त्या तच्छासनेन विधिना सहितः सरामम् ईशानं हरिं पुरः न्य. धत्त । रामपक्षे च शक्रः रामम् ईशानं हरिम् अत्र पुरोधत । कृष्णपशे-स शक्रः इत्युद्दिशन् गवेशां संगमने सदसि क्रमोपनतम् अच्युतम् ऐक्ष्य भक्त्या तरुछासनेन सहितः रामम्-अभिरामम् ईशानं हरिम् अत्र पुरो व्यधत्त ॥ ८ ॥ व्याख्या-शका सौधर्मेन्द्रः अनुपदोक्तवासवनामदेव इत्यर्थः इत्युद्दिशन्-इति-पूर्वोक्तप्रकारेण उद्दिशन-उच्चैर्वदन् गवेशां-त्रिदिवेशानामिन्द्राणां संगमने सम्मेलके सदसि-गोष्ठयां क्रमोपनतं-प्रभुचरणयोरानतं तदन्तिकमपस्थितं वा अच्युतम्-एकादश द्वादश देव Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये लोकाधिपम् ऐक्ष्य-सम्यनिभाल्य भक्त्या अनुरागेण तच्छासनेनअच्युताज्ञया विधिना-विधानेन सहितः विधानपूर्वकमित्यर्थः सरामतीर्थकरसहितम् ईशानं हरिम् ईशानेन्द्रं पुरः अग्रतः पूर्वाऽभिमुखं वा व्यधत्त-विहितवान्-अतिष्ठिपदित्यर्थः इति तीर्थङ्करपचकसाधारणोऽर्थः ॥ श्रीरामचन्द्रपक्षे-सामसिद्धः शक्रः महीमहेन्द्रः इत्युद्दिशन् गवेशांमहीपतीनां संगमने सदसि क्रमोपनतम् अच्युतम् ऐक्ष्य भक्त्या तच्छासनात् विधिना सहितः रामं तदाख्यम् ईशानम् ईशितारं हरि-बलदेवम् अत्र अष्टापदपर्वतस्थस्नानसिंहासने पुरः पूर्वाभिमुखमेव व्यधत्त । श्रीकृष्णवासुदेवपक्षेतु-स शक्रः इत्युद्दिशन् गवेशां महीपतीनां गोपालानां वा संगमने सदसि क्रमोपनतम् अच्युतम् ऐक्ष्य भक्त्या तच्छासनात् विधिना सहितः रामम् अभिरामम् ईशानं-द्वारकाया ईशितारं हरि-वासुदेवम् अत्र-गोवर्धनपर्वतवर्तिस्मात्रसिंहासने पुरा पूर्वाभिमुखं व्यधत्त । शब्दार्थोभयश्लेषः । गौः स्वर्गे च बलीवर्दे रश्मौ च कुलिशे पुमान् । स्त्री सौरभेयी-दृग्-बाण-दिग्-वाग्भूष्वप्सु भूग्नि च इति मेदिनी ।। ८ ।। क्षीराम्बुधेरिव पयोभिरिहाभिषेकं, चक्रे क्रमेण मणिकाञ्चनरूप्यकुम्भैः ॥ देवस्य तस्य वरचन्दनचन्द्रलेपा दभ्यर्चनानि दधतेस्म शची सरूपाः ॥ ९ ॥ अन्वयः-शक्र इह क्षीराम्बुधेरिव पयोभिः (भृतैः) मणिकाञ्चनरूप्यकुभैः क्रमेण देवस्य अभिषेक चक्रे. सरूपा शची (शचीशरूपाश्च ) तस्य वरचन्दनचन्द्रपात् अभ्यर्चमानि दमतेस्म ॥ ९ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. व्याख्या-शक्रः इह-अतिपाण्डुकम्बलशिलापीठे क्षीराम्बुधेरिव-क्षीरसागरस्येव पयोभिः क्षीरैरम्बुभिः पयः क्षीरे च नीरे च इत्यनेकार्थसंग्रहः भृतैरिति शेषः मणि-काश्चन-रूप्यकुम्भैः-मणिमय-सौवर्ण-राजतकलसै क्रमेण-परिपाट्या प्रथमं मणिमयेन ततः सौवर्णेन तदनु राजनेन कलसेनेत्येवं क्रमपूर्वकमित्यर्थः देवस्य द्योतनशीलस्य प्रभोः जिनदेवस्य अभिषेकं-स्नानं चक्रे । तदनु सरूपा रूप-सौन्दर्यशालिनी शची-इन्द्राणी प्रशस्ताः शचीशाः इन्द्राः शचीशरूपाश्च शचीसरुपा इत्यत्र तन्त्रम् तेनास्य भङ्गाभङ्गाभ्यामर्थद्वयपरत्वम् श-सयोश्चैकत्वात् । सुगन्धिवाससा सम्मृष्टवपुषः तस्य-देवस्य वरचन्दनचन्द्रलेपात्-वरं-कुङ्कुम, चन्दनं-तैलपर्णिक-गोशीर्ष-हरिचन्दनादिकं चन्द्रः-कर्पूग्स्तैः लेपात्-विलेपनात् अय॑र्चनानि पूजाः दधतेस्म-कुरुतेस्म । शचीपक्षे दधधातोः प्रथमपुरुषैकवचनं, शचीशरूपपक्षे च धाधातोः प्रथमपुरुषबहुवचनरूपम् । बलदेवपक्ष-शक्रः-महीमहेन्द्रः इह-अष्टापदपर्वतस्थस्नानपीठे क्षीराम्बुधेः पयोभिरिव मणिकाञ्चन-रूप्यकुम्भैः क्रमेण अभिषेकं चक्रे ततः शचीसरूपाः-शच्याः समान रूपं यासां ताः तथोक्ता राजमहिष्यः सुगन्धिनिर्णिक्तवसनेन अमृष्टगात्रस्य तस्य श्रीरामचन्द्रबलदेवस्य वर-चन्दन-चन्द्रलेपात् अभ्यर्चनानि दधतेस्म । वासुदेवपक्ष-शक्रः इह-गोवर्द्धनपर्वतोपरिवत्तिस्नानपीठे क्षीराम्वुधेरिव पयोभिः क्षीरैः भृतैः मणि-काश्चनरूप्यकुम्भैः क्रमेण देवस्य-वासुदेवस्य श्रीकृष्णचन्द्रस्येत्यर्थः देवदत्तो दत्त इतिवत् नामैकदेशग्रहणे नामग्रहणात् अभिषेकं-स्त्रात्रविधि चके । तदनु सुगन्धिनिर्णिक्ता शक्रेण प्रमृष्टकलेवरस्य तस्य-श्रीकृष्णवासुदेवस्य वरचन्दनचन्द्रलेपात् अभ्यर्चनानि-नानाविधपूजाः दधतेस्म ॥ शब्दार्थोभय Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजय गणिविरचिते सप्तसन्धान महाका श्लेषः, क्षीराम्बुधेरिवेत्यंशे उत्प्रेक्षा च. अथ कुङ्कुमम् । चन्द्रः कर्पूरकाम्पिल्ल - सुधांशु - स्वर्ण- वारिषु इति मेदिनी ॥ ९॥ सारात्रिकां प्रवरमङ्गलदीपयुक्ति, सम्यग् विधाय सह गीतविनीतनृत्यैः ॥ साष्टोत्तरं शतमितैश्च नवीनकाव्यै १२० स्तुष्टाव तुष्टिभरपुष्टमना गवेन्द्रः ॥ १० ॥ अन्वयः --- गवेन्द्रः गीतविनीतनृत्यैः सह सारात्रिकां प्रवरभङ्गलदीपयुकि विधाय तुष्टिभरपुष्टमनाः सन् साष्टोत्तरं शतमितः नवीनकाय्यैः स्तुतिं चकार ॥१०॥ व्याख्या - गवेन्द्रः बृहस्पतिः स्वर्नायको वा । राम-कृष्णपक्षे गवेन्द्रः - भूमहेन्द्रः गीत विनीतनृत्यैः - गीतानि -गानानि विनीतनृत्यानि - उदारचरित योग्य नर्तनानि तैः सह तत्पूर्वकमित्यर्थः सारा त्रिकाम् - नीराजनक्रियया सहितां प्रवरमङ्गलदीपयुक्ति-स्नेहदशासमृद्धिकलित - माङ्गलिकविशिष्टप्रदीपयोजनां सम्यग् विधाय - उत्तार्य तुष्टिभरपुष्टमनाः- सन्तोषातिशयनिर्भरचेताः सन् साष्टोत्तरशतमितैःअष्टोत्तरशतसंख्यकैः नवीनकाव्यैः - अभिनवस्तुत्यात्मक काव्यैः तुष्टाव स्तुतिं चकार ॥ १० ॥ एवं सुरासुरकृताऽभिषवात्सवश्रीदेव: प्रभावविभवाऽनुभवत्रयेण ॥ अङ्गुष्ठजामृतसमाशनलब्धिपूर्ण स्तूर्ण सनन्दभवने ववृधे शशीव ॥ ११ ॥ अन्वयः --- एवं सुरासुरकृताऽभिषवोत्सवश्रीः अंगुष्ठजामृतसमाशनलब्धिपूर्ण: प्रभाव - - विभवाऽनुभवन्त्रयेण देवः सः नन्दभवने (सनन्दभवने) शशीव तूर्णं वबुधे ॥ ११ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १२१ व्याख्या-एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण सुरासुरकृतामिषवीत्सवश्री:= सुरैः-देवैः असुरैः भुवनपतिविशेषैश्च कृता-सम्पादिता अभिपवोत्सवश्रीःखात्रोत्सवशोभा यस्य सः । अङ्गुष्ठजामृतसमाशनलब्धिपूर्ण:अङ्गुष्ठजाऽमृतं-जिनेन्द्राः स्तन्यपायिनो न भवन्तीति क्रम विजानता नाकनायकेन स्वभक्तिशक्तिवशतः प्रभोरतिनिर्मले हस्ताङ्गुष्ठतले सञ्चारितसुधा तस्य समाशनं-सम्प्स म्यक्. आ-सर्वतो भावेन अशनं:भोजनं पानमितिभावः तद्रूपा लब्धिः अतिशयविशेषस्तया पूर्ण = सम्पन्नः यद्वा अठजामृतरूपं यत् समाशनं शोभनभोजनं तस्य लन्ध्या-लाभेन पूर्ण: भृतः पुष्ट इत्यर्थः जिनेन्द्रदेवः प्रभाव-विभवाऽनुभवत्रयेण-प्रभाव:तेजः शान्तिर्वा सामर्थ्य वा विभवः ऐश्वर्यम् अनुभव: ज्ञानविशेषस्तेषां त्रयेण-त्रिण देवः द्योतमानः सः -- प्रसिद्धः प्रक्रान्तो वा जिनेन्द्रदेवः नन्दभवने-प्रागदक्षिणद्वारपासादे यद्वा सनन्दभवने-नन्दया सम्पच्या-त्रिदिवेशनिदेशेन तीर्थेशपितुर्वे: श्मनि धनपतिमुक्तरूप्य-रत्ननन्दासनभद्रासनाऽनेककोटिमितकाञ्च. नादिरूपसमृद्धि सहिते भवने प्रासादे शशी-चन्द्रमा इव तूर्ण-शीघ्रम् अल्पकालेनेत्यर्थः ववे-वृद्धिम् अवयवोपचथं लेभे। नन्दासंपद्य लिञ्जरे इत्यनेकार्थसंग्रहः । इति तीर्थकरपक्षीयोऽर्थः ।। बलदेवपक्षे-एवं सुरासुरकृताऽभिषयोत्सवश्रीः-सुरासुरकृतो योऽभिषवस्तद्वदुत्सवश्रीः जन्मोत्सव शोभा यस्य सः अङ्गुष्ठजाऽमृतसमाशनलब्धिपूर्णः अगुष्ठजनितसुधापानोपलब्धिपरिपुष्टः देवः प्रभावविभवा-ऽनुभवत्रयेण सह सनन्दभवने-प्रभूतसम्पत्तिशालिसदेने शशीव तूर्ण ववृधे । वासुदेवपक्षे-तृतीयचरणपर्यन्तं रामपक्षवद्याख्याय साम्प्रसिद्धो देवः श्रीकृष्णवासुदेवः नन्दभवने नन्दगोपवेश्मनि प्रभाव-विभवाऽनुभवत्रयेण साई शशीव तूर्णं ववृधे ॥ ११ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये नाम्नान्वयेन कलितः कलितन्त्रहारी, पित्रा दधे स्वजनभोजनरञ्जनाद्यैः ॥ निर्बाधसाधनविधिः शतशो जिनार्चानिर्माणनमणि परं कृतकर्मणापि ॥ १२ ॥ अस्त्रयः-कृतकर्मणा पित्रा स्वजनभोजनरञ्जनायैः कलितन्त्रहारी (सः) नाम्नाऽन्वयेन कलितः आदधे । शतशः जिनार्ग निर्माणनमणि निधिसाधनविधिः आपि ॥ १२ ॥ व्याख्या--कृतकर्मणा-पुण्यकर्मवता पित्रा-जनकेन 'द्वादशेऽन्हि पितानामकुर्यादितिशास्त्राज्ञानुसारेण द्वादशे दिने इति शेषः स्वजनभोजनरञ्जनाद्यैः-स्वजनेभ्यः बन्धुजनेभ्यः यद्वा स्वेभ्यः बान्धः वेभ्यः जनेभ्यः माधारणलोकेभ्यः भोजनं भोज्यदानं रञ्जन=संगीतकादिना मनोविनोदनम् आदिना नगरमार्गसंस्कारादिस्तैस्तत्पूर्वकमित्यर्थः कलितबहारी कलिविजृम्भितविनाशनशीलः सः इति शेषः प्रकृतपुत्रः नाम्ना अभिधानेन अन्वयेन-वंशे च कलिता अन्वितः आदधे-चके । किञ्च शतशः बहुशः ‘शतं सहस्रमयुतं सर्वमानन्त्यवाचकम् । इत्युक्तेः । जिना निर्माण नर्मणि-जिनपूजनविधानरूपेषस्करकार्यनिर्वाधसाधनविधिः-निर्वाधः प्रतिवन्धरहितःसाधनविधिःसम्पादनक्रिया आराधनाप्रकारो वा आपि-प्रापि लब्ध इत्यर्थः॥१२॥ अभिधानान्येव सप्तार्थकेनाहसर्वज्ञराजिवृषभः कृतशान्तिकर्मा नेमिव्रतानसि शशिद्युतिवर्धमानः । पार्श्वः स्वमातृशयने-क्षितदुर्जनाङ्गे कृष्णः पयोदविभया प्रभया स रामः ॥१३॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १२३ अन्वयः - सः सर्वज्ञराजिवृषभः कृतशान्तिकर्मा, व्रतानसि नेमिः, शशि. द्युतिवर्धमानः क्षितदुर्जनाङ्गेस्वमातृशय ने पार्थः पयोदविभया प्रभयाऽकृष्णः सरामः (अभूत्) । २ पक्षे-कृतशान्तिकर्मा ३ बतानसि नेमिः, पयोदविभयाप्रभया कृष्णः । ४ पक्षे-क्षितदुर्जनाङ्गेस्वमातृशयने पावः पयोदविभया प्रभया कृष्णः । ५ पक्षे-शशिधति वर्धमानः, पयोदविभया प्रभया अकृष्णः । ६ पक्षे स रामः सर्वज्ञराजिवृषभः...पयोदविभया प्रभया कृष्णः । ७ पक्षे-कृष्ण: पयोदविभया प्रभया उपलक्षितः, स्वमातृशयनेक्षितदुर्जनाङ्गे पावः शेष सर्वत्र पूर्ववत् ॥ १३ ॥ व्याख्या-सः प्रकृतः सर्वज्ञराजिवृषभः सर्वज्ञेषु-जिनेषु राजते शोभते तच्छीलः सर्वज्ञराजी वृषभो लक्ष्मरूपेणास्त्यस्येति वृषभः सर्व ज्ञराजी चासौ वृषभश्चेति सः यद्वा सर्वज्ञानां राजी श्रेण्यां वृषभः श्रेष्ठः सर्वप्रथमत्वात् स तथोक्तः अथवा सर्वज्ञराजी चासौ वृषभ: उर्वोवृषभ ( बलीवर्द ) लाञ्छनमभूद्भगवतो जनन्या च चतुर्दशानां स्वमानामादौ वृषभोदृष्टस्तेन तदाख्याप्रथमतीर्थकरः। कीदृशः कृतशान्तिका कृतं जगतां शान्तिकर्म=सकलोपसर्गोपशमनलक्षणकृ. त्यं येन सः। व्रतानसि-अहिंसादिव्रतरूपशकटे नेमिः चक्रधारारूपः। शशिद्युति वर्द्धमान:-शशिन: चन्द्रस्येव द्युतिः कान्तिर्वर्द्धमानाऽस्येति सः शशिवद् द्युत्या वर्द्धमान इति वा शशिद्युतिववर्धमान इति वा स तथोक्तः। क्षितदुर्जनाङ्गे-क्षितं-पीडितं दुर्जनानां खलानां शत्रूणाम् अङ्गं येन तत् तस्मिन् राज्ञः पुत्रजनने वैरिणां पीडोत्पत्तेः तादृशे स्वमातशयने खस्य माता-जननी तस्याः शयने शय्यायां पार्श्वः पार्थ कक्षाधोभाग इव | पयोदविभया पयोदस्य-वृष्टजलमेघस्येव विभा-शोभा यस्याः सा तया तादृश्या प्रभया-दीप्त्या अकृष्णा गौरः पयोदकथनात् पयोदानात्-वर्षणात्-परं मेघस्य शुभ्रस्वात् । पुनः स रामः रमणं रामः-आनन्दस्तेन सहितः अभूत् इति प्रथमपक्षीयोऽर्थः। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये शान्तिनाथपक्षे- 'कृतशान्तिकर्मा' इति विशेष्यम् तस्य कृतंजनितं शान्तिकर्म-अशिवोपशमनरूपकृत्यं गर्भस्थेनापि येन सः अगा एव पित्रा शान्तिः इति कृतनामधेयः श्रीशान्तिनाथप्रसुरित्यर्थः । सर्वज्ञराजिषमा सर्वज्ञराजिषु-सामान्य केवलिषु वृषभः श्रेष्ठः । अन्यत् पूर्ववत् । नेमिनाथपक्ष-मिरिति विशेष्यम् । तथा च–व्रतानसिव्रतरूपरथे नेमिरिव नेमिः तदाख्यः इत्यर्थः शशिद्युतिबर्द्धमानःशशिधुतिवत्-चन्द्रकलेव बर्द्धमानः अनुदिनमुत्तरोत्तरमुपचीयमानः पयोदविभया प्रभया हरित् कान्त्याऽञ्जनात्या कृष्णा श्यामल: अञ्जनाभ इत्यर्थः । शेषं पूर्ववत् । पार्श्वनाथपक्षे-क्षितदुर्जनाङ्गे स्वमातृशयने पार्श्व इव पाचा तदाख्य इत्यर्थः श्रीपार्श्वनाथ इति यावत् । पयोदविभया प्रभया= नीलिमकान्त्या कृष्णः नीला ऐन्द्रनीलमणिमेचकच्छविरित्यर्थः शशिपुतिवर्द्धमानः चन्द्रकलेववर्धिष्णुः । शेषं पूर्ववत् । श्रीमहावीरपक्ष-शशिद्युतिवर्धमानः शशिन इव शुतिर्यस्य स चासौ वर्द्धमानः उत्पत्तेरारभ्यज्ञानादिभिर्वर्धते इति गर्भस्थे भगवति ज्ञातकुलुं धनधान्यादिभिर्वर्धते इति वा सः वर्द्धमानस्तदाख्यः पयोदविभया प्रभया अकृष्णगौरः । शेषं पूर्ववत् ।। श्रीरामपक्षे-सर्वज्ञराजिवृषभा-सर्वज्ञेपु जिनेषु राजते तच्छीलः सर्वज्ञराजी स चासौ वृषः-धर्मः आहेतप्रवचनप्ररूपितलक्षणस्तेन भाति-शोभते इति सः यद्वा सर्वे ज्ञा!-पण्डितास्तेषां राजौ श्रेण्यां वृषभः श्रेष्ठः पुरुषोत्तमत्वात् । शशिातिवर्द्धमान: चन्द्रकलेवद्धिशील: पयोद विभया प्रभया कृष्णा श्यामलकान्तिः सः प्रसिद्धः रामादाशरथिरामबलदेवः राम इत्येतनामक इत्यर्थः अभूत शेषं पूर्ववत् ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १२५ श्रीकृष्णवासुदेवपक्षे-कृष्णः इत्येतत्कृतनामधेयः पयोदविभया प्रभया उपलक्षितः नूतनजलधररुचिरित्यर्थः। स्वमातृशयन क्षितदुजे. नाङ्गे-स्वमात्रा-देवक्या शयने ईक्षितं यद् दुर्जनस्य-दुष्टात्मनः कंस स्याङ्गं तसिन् पार्श्व इव-पशुसमूहवान् इवच्छेदकत्वात् पशूनां समूहः पाच तदस्यास्तीति पार्श्वः अर्शआधच् शेषं रामवत् ।। १३ ।। आराम एव मरुतां तरुवन्नमेरो रारात् स्थितः सपदिवृद्धिमियाय गोणीम् । आमोदिनां सुमनसां निकरैः परीतः, स्फीतोऽभिनन्दितसुपात्रविलासिगात्रः ॥ १४ ॥ अन्वय:--मरुताम् आरामे एव नमेरोः रात् स्थितः (कुमारः) तरु... वत् सपदि गौणी वृद्धिम् इयाय । भामोदिनां सुमनसां निकरैः परीतः स्फीत: अभिनन्दितसुपात्र विलासिगात्रः ॥ १५ ॥ __ व्याख्या-- मरुतां देवानाम् 'मरुतौ पवना-ऽमरौं' इत्यमरा। आरामे लीलोपवने एव नमेरो: छायावृक्षस्य 'छायावृक्षो' नमेरुः स्यादितिशब्दार्णवः यद्वा सुरपुन्नागवृक्षस्य नमेरुः सुरपुन्नाग इति वैजयन्ती। आरा-समीपदेशे 'आरादुर-समीपयो-रित्यमरः स्थितः कुमारः तरुवत् वृक्ष इव सपदि झगिति गौणी-वृक्षपक्षे प्राथमिकी, कुमारपक्षे गुणसंबन्धिनी वृद्धिम्-उपचयम् इयाय-प्राप। आमोदिनां= तीर्थकरजन्मोत्सवामिनयनजनिततोषेण परमानन्दशालिनां सुमनसांदेवानां तरुपक्षे-आमोदिनाम् अत्यन्तमनोहरपरिमलशालिनां सुमनसां-पुष्पाणां निकरैसमूहैः परीतः सेवितः अन्यत्र व्यासः । स्फीता-गुणैः समृद्धः अन्यत्र पुष्प-फलपल्लवादिसमुपचितः अभिनन्दितसुपात्रविलासिगात्रा अभूदिति शेषः ॥ १४ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये क्रीडा महीशरुचिताढ्युचिताः कुलीने ऽप्यापीडधारिणि कुमारवरे न कापि । पीडाऽन्ववापि जनरञ्जनमेव जातं, स्वातन्त्र्यमस्य भुवि तत्पितुराज्ञयैव ॥ १५ ॥ अन्वयः-मापीड़धारिणि कुलीने कुमारवरे महीशरुचिताः उचिता: क्रीड़ाः (कलयति सति) कापि पीडा न अन्ववापि (कुमारण) अस्य स्वातन्त्र्यं भुवि तस्पितुराज्ञयैव (प्राप्त) जनरञ्जनमेव जातम् ॥ १५ ॥ व्याख्या-आपीड़धारिणि-शिरोभूषणशालिनि कुलीने प्रशस्त. कुलसंभवे कुमारवरे महीशरुचिताः राज्ञोऽभिमताः उचिता: शैशवावस्थायोग्याः तास्ता मनोविनोदनसाधनीभूताः क्रीड़ा:-क्रीडनानि बाललीला इत्यर्थः कलयति सतीतिशेषः कापि पीड़ा आयासः न अन्ववापि=न प्राप्ता कुमारणेत्यर्थः किञ्च अस्य कुमारस्य स्वातन्त्र्यं तत्पितुराज्ञयैव-तजनकादेशेनैव प्राप्तं न तु स्वयमेव गृहीतं एवमपि जनरञ्जनं-लोकरञ्जकमेव जातं नत्वितरराजराजपुत्राणामिवापितृदत्तं स्वातन्त्र्यं जनपीडनाय जातमित्यर्थः । ॥ १५ ॥ कौमारकीमपि कलां कलयन्नजस्त्रं, विस्रम्भमेव विदधे भुवि मुक्तरम्भः । तारुण्यमस्य निगमस्य शमस्य लब्धे रब्धेरिवाऽजनि सदावधिसंनिधानात् ॥ १६ ॥ अन्वयः- कौमारकी कलाम् अजस्रं कलयन् मुक्तरम्भः ( असौ ) भुवि विश्रम्भमेव विदधे । निगमस्य शमस्य च लब्धेः अस्य तारुण्यम् सदावधिसंनिधानात् अब्धेरिव अजानि ॥ १६ ॥ व्याख्या-कौमारकी-कुमारः पञ्चवर्षीयो बालकस्तत्सम्बन्धिनी Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतरित्रगोता सरणी टीका. सर्ग-३ १२७ कलांचेष्टाम् अजस्रम्-अनवरतं कलयन् कुर्वन् मुक्तः रम्भः-परित्यक्तराजसभावः त्यक्तारम्भो वा भावितीर्थकरत्वात् मुक्तदम्भ इति पाठान्तरे निष्कपटः असौ कुमारः भुविमहीतले विश्रम्भं विश्वास प्रणयं वा विदधे जनयामास । किञ्च निगमस्य-शास्त्रस्य शमस्यशान्तेश्च लब्धेः-लब्धिरूपस्य अस्य--कुमारस्य तारुण्यम्-यौवनम् अब्धेः-समुद्रस्येव जनतानन्ददायकम् अजनि-अभूत् अत्र हेतुमाहसदावधिसंनिधानात्--सदैव अवधिः-(कुमारपक्षे) नीतिमर्यादा (अब्धि. पक्षे) नीरमर्यादा तस्य संनिधानात सामीप्यात् समीपावस्थानात् । अथ च मुक्तरंभः मुक्तात्यक्ता रंभा तदाख्यदेवांगना येन सः कुमारा. वस्थायां प्रभोः सेवार्थमागच्छतिस्म सेति भावः यद्वा मुक्ता निवृत्तारंभा गौरी अष्टवर्भावस्था यस्य सः अथवा रभ्यते उच्यते इतिरंभः अव्यक्त शब्दः मुक्तः परित्यक्तः रंभः बालावस्थाजनिताव्यक्त शब्दो येन सः । सदावधिसंनिधानात् सदा जन्मत एव अवधेऽवधिज्ञानस्य संनिधानादाश्रयादित्यर्थः ॥ १६ ॥ पोतस्तरत्यपि महाहृदमध्यनीरं, ___ गाम्भीर्यशालि वयसः पटुपक्षभाजः। किञ्चोच्यते नभसिसंगतिरेतदीया, तत्कारणेन महतः प्रतिपत्तिरुक्ता ॥ १७॥ अन्वयः-पटुपक्षभाजः वयसः पोतः अपि गाम्मीर्यशालि महावदमध्यनीरं तरति । एतदीया नभसि संगतिः उच्यते ( जनैः ) तत्कारणेन महतः प्रतिपत्तिः उका ॥ १७ ॥ व्याख्या-पटुपक्षमाजा-उड्डयनसमर्थपक्ष-गरुत--शालिनः त्रयसः पक्षिणः पोतः शिशु लोऽपि गाम्भीर्यशालि-अतिगम्भीरं महाहदमध्यनीरं-नदीनदपानीयमध्यं दुस्तरमपीतिभावः तरति । किञ्च Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महोपाध्यायनीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये एतदीया-पक्षिशावकसंबन्धिनी नभसि अनवलम्बने महाविशाले आकाशेऽपि संगतिः-संगमः संबन्धस्थितिरिति यावत् उच्यते जनः । एतत्सर्व पटुपक्षभाजः पक्षिणः परिश्रमेणैव भवति । तत्कारणेनतस्माद्धेतोः महता-महीयसः प्रतिपत्तिा-सेवा आराधना संगतिर्वा उक्ता कर्तव्यत्वेन नीतिज्ञः कथितेत्यर्थः । किञ्च गांभीर्यशालि अनौद्धत्यशोभिवयसः शरीरावस्थाविशेषस्य किञ्च पटुपक्षभाजः चतुरसहायस्य पोतः शिशुः महाहृदमध्यनीरं समुद्रवदुरवगाहजलाशयमध्यजलमिव नितान्तकठिनमपि बुद्धिगम्यकार्यजातं तरत्यपि तरत्येव " एवार्थकोऽपिः " सदुस्तरमपि चिन्तनीय कार्यजातं बुद्धिप्रभावण सरलयतीति भावः । अत्र-विषय इति शेषः एतदीया प्रभावशालिबालकसम्बन्धि नभसि संगतिः निर्मलगाम्भीर्य संगतिरेव करणत्वेनेति शेषः उच्यते अभिधीयते मनोरमहृदयावधानमेवहेतुत्वेनोत्प्रेक्ष्यते तत् कारणेन महतः सज्जनपुरुषस्य संगतिरुक्ता कथिता महतां संगतिः अवश्यमेवविधातव्येत्यर्थः ॥ १७ ॥ बाल्यं व्यतीत्य तरुणस्तरुणैव साम्यं, धत्ते फलैरपि कलैः किशलेर्दलै वा । संपूर्णतामनुनयन् सुमनोभरेण, सामोद एव कृतया-वनसम्पदा स्यात् ॥ १८ ॥ ___ अन्वयः—(कुमारः) बाल्यं व्यतीत्य तरुणः तरुणैव साम्यं धत्ते । फलैः कलैः किशलैदलैश्च । सुमनोभरेण संपूर्णताम् अनुनयन् कृतया वनसम्पदा सामोद एव स्यात् ॥ १८ ॥ व्याख्या-महत्प्रतिपत्तिवान् कुमारः बाल्यं शैशवावस्थां व्यतीत्य अतिक्रम्य तरुणः यौवनस्थः सन् तरुणा=वृक्षेण एव साम्यं= सादृश्यं धत्ते-धारयति कैरित्याह- फलैः परोपकारादिकार्यैः पक्षेसस्यैः प्रसवैरित्यर्थः। कलैः कलामिः पक्षे पक्षिणां मधुराव्यक्तशब्दैः । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १२९ किशलैर्दलैः-पल्लववत्सयनैः सैन्यैः पक्षे पल्लवैः पत्रैश्च । किञ्च सुमनोभरेण पण्डितवर्गेण संपूर्णताम् अनुनयन प्राप्यमाणः कृतया अवनसंपदा-रक्षण सम्पत्या सामोद: सानन्द एवं स्यात् वृक्षपक्ष-पुष्पसमृद्ध्या सम्पूर्णतां प्राप्यमाणः वनसम्पदाधनलक्ष्म्या सामोदःअत्यन्तजनमनोहरमुगन्धिसहितः स्यात् । किशलः पल्लव इति शब्दस्तोममहानिधिः । श्लिष्टोपमा ॥ १८ ॥ नम्रीभवेत् सविटपोऽपि वटो जनन्या, भूमो लता-परिवृतो निभृतः फलाद्यैः । को-लीनतामुपनतां निगदत्ययं किं, सम्यग्गुरोविनय एव महत्त्वहेतुः ॥ १९ ॥ ___ अन्वयः-लता-परिवृतः फलाद्यैः निभृतः सचिटपः अपि वटो जनन्यां भूमी नम्रीभवेत् ( किन्तु ) अयं उपनताम् आत्मनः कोलीनता किं निगदति गुरोः सम्यग् विनय एव महत्त्व हेतुः ॥ १९ ॥ ___ व्याख्या-लतापरिवृतः बल्लीभिर्याप्तः फलाद्यैः फल=पत्रादिभिः निभृत:=पूर्णः सविटपः-शाखादिसहितः अपि वटः न्यग्रोधः वृक्षः जनन्यां स्वोत्पत्तिहेतुभूतायां भूमौ पृथिव्यां नम्रीभवेत्= पृथ्वीमभिनतोभवतीत्यर्थः परम् अयं वटः उपनतां प्राप्ताम् आत्मनः कौलीनताम्-आभिजात्यं को-पृथिव्यां लीनतां च किं निगदति स्वयं प्रकटयति नैव निगदतीत्यर्थः युक्तं चैतत् यतः गुरोः सम्यम् विनयःशिक्षा एव महत्वहेतुः महिम्नः कारणं भवति । अत्र समासोक्त्या-- ऽप्रस्तुतप्रशंसया वा इदमर्थान्तरं ध्वन्यते यत् धनजनयौवनरूपसम्पभोऽपि जनो विनयाऽबनतो न स्वीयमहत्चं स्वयं प्रकटथति किन्तु तदीयविनय एव तस्याऽऽभिजात्यं महत्त्वं च लोके ख्यापयति । कुमारोऽपि राजराजपुत्रस्तारुण्यमनोहरः सर्वगुणसम्पत्समृद्धः सन्नपि गुरुजनेषु विनयावनत आसीदित्यर्थः ॥ १९ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्यायनी मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये तेजो वहन्नसहनो दहनः स्वजन्म हेतून् ददाह तृणपुञ्जनिकुञ्जमुख्यान् । लेभे फलं त्वविकलं तदयं कुनीते भस्मावशेषतनुरेष ततः कृशानुः ॥ २० ॥ अन्वयः-दहनः असहनः तेजो वहन स्वजन्महेतून् तृणपुञ्जनिकुञ्जमु. ख्यान् ददाह तु अयं कुनीते: अविकलं तत् फलं लेभे यतः एष कृशानुः भस्मावशेषतनुः जातः ॥ २० ॥ व्याख्या- विनयफलमुक्त्वाऽविनयफलमाह-दहनः अग्निः असहना असह्यः असहिष्णुश्च तेजा-तापकतालक्षणस्वभावं तीव्रतां च वहन्-धारयन् स्वजन्महेतून् स्वोद्भवनिमित्तभूतान् तृणपुञ्जनिकुञ्जमुख्यान्-तृणराशि-लतागृहादीन् ददाह=भसीचकार । तु-किन्तु अयं दहनः कुनीतेः कृतघ्ननायाः अविकलं-सकलं तत् अनिर्वचनीय फलं लेभे लभतेस्म यतः एप कृशानु: आश्रयाशः भस्मावशेषतनुः= भस्ममात्रावशिष्टरूपः जातः स्वयमपि नष्ट इत्यर्थः । समासोक्त्याचायमर्थो ध्वन्यते=असहिष्णुप्रकृतिस्तीव्रतां दधत् स्वोपजीव्यमपि विनाशयति ततश्च तत्कृतघ्नताविजृम्भितदुष्फलं लभमानोऽवसाने स्वयमपि समूलभुन्मुलितोभवति ॥ २० ॥ अस्याग्रजो न मुशली हलभन्न किन्तु, ख्यातो नवाशवलधी--रथ- नेमिरूपः । श्रीनन्दिवर्धनमतिः स्फुरितोऽनुजन्मा, सौमित्रिलक्ष्मणकलाकुशलादिनामा ॥ २१ ॥ अन्वयः - अस्य अग्नजः मुशली हलभृत न ( इति ) न, किन्तु ख्यातः नवाशबल धीः अथ ने मिरूपः श्रीनन्दिवर्द्धनमतिस्फुरितः सौमित्रलक्ष्मणकला Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-३ १३१ कुशलादिनामा अनुजन्माऽभूत् ( इति कृष्णपक्षे ) । अस्य रथने मिरूपः अग्रजः मुशली न हलभृत् न किन्तु ख्यातः अशबलधी श्रीनन्दिः । सौभित्रलक्ष्मणकलाकुशलादिनामा अनुजन्मा न आसीत् अस्य श्रीनन्दिवर्द्धनमतिस्फुरितः अग्रजः (शेषं द्वितीयवत्) । अस्य अग्रजः न (आसीत्) । सौमित्रलक्ष्मणकलाकुशलादिनामाऽनुजन्माऽपि मुशली हलभृञ्च न किन्नु ख्यातः नवाशबलधीः अथ नेमिरूपः श्रीनन्दिवर्धनमतिस्फुरितश्च ॥ २१ ॥ व्याख्या-अस्य श्रीकृष्णवासुदेवस्य अग्रज: ज्येष्ठभ्राता मुशली-मुशलास्त्रभृत्, हलभृत् हलाखधारी न इति न किन्तु मुशल्येव हलभृदेव हलं मुशलं च बलदेवस्य चिह्वभूतमिति नाप्रसिद्धम् नवाशबलधीः नवा नवीना नवनवोन्मेषशालिनीत्यर्थः अशबला-एकरूपा धीः प्रज्ञा यस्य सः प्रतिभाशालीत्यर्थः अथ च नेमिरूपा नेमिषु दुर्गवत्सु प्रशस्तः नेमिरूपः । श्रीनन्दिवर्द्धनमतिः श्रियाः-शोभायाः कीर्तेर्वा, नन्देः आनन्दस्य च बर्द्धने मतिर्यस्य सः श्रियं नन्दि च वर्द्धयतीति श्रीनन्दिवर्द्धना तादृशी मतिर्यस्येतिवा, श्री कल्याणी नन्दिवर्द्धने= मित्रे मतिर्यस्येति स तथोक्तः । स्फुरितः स्फूर्तिशाली । अनुजन्मा कनिष्ठभ्राता गदः 'अनुजो गद' इत्यमरः सौमित्रलक्ष्मणकलाकुशलादिनामा शोभनं मित्रमस्यासौ सुमित्रः शोभनं मित्रं सुमित्रमिति वा स एव ( तदेव ) सौमित्रः (त्रं ) लक्ष्मणः-लक्ष्मीवान् , कलाकुशल इत्यादिमियते-ऽभ्यस्थते इति स तथाऽभूत् । नेमिनाथपक्षे-अस्य-श्रीनेमिनाथप्रभोः स्थनेमिरूपा रथनेमिनामा अग्रजः मुशली-मुशलधारी न हलभृत् हलधरो न किन्तु ख्यातःलोके विदितः शवलधीः श्रीनन्दिवर्द्धनमतिः स्फुरितः। सौमित्रलक्ष्मणकलाकुशलादिनामाऽनुजन्मा नवा-नैव आसीत् । ___श्रीवीरप्रभुपक्षे-अस्यबर्द्धमानप्रभोः श्रीनन्दिवर्द्धनमतिम्फु. रित: मति: प्रज्ञा स्फुरिता-स्फूर्तिशालिनी यस्य स मतिस्फुरितः Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये श्रीनन्दिवर्द्धनः-तदाख्यश्चासौ मतिस्फुरितश्चेति स तथोक्तः नन्दिवद्धनसंज्ञ इत्यर्थः अग्रजा-ज्येष्ठभ्राता मुशली न हलभृत् न किन्तु ख्यातः नवा शबलधीः नेमिरूपश्च । सौमित्रलक्ष्मणकलाकुशलादिना माऽनुजन्मा नवा-नैवाऽऽसीत् । श्रीरामपक्षे-अस्य श्रीरामचन्द्रबलदेवस्य अग्रजः ज्येष्ठभ्राता न आसीदिति शेषः सौमित्रिलक्ष्मणकलाकुशलादिनामा अनुजन्मा= कनिष्ठभ्राताऽपि मुशलीहलभृत् च न किन्तु ख्यातः नवाशबलधीः नेमिरूपः श्रीनन्दिवर्द्धनमतिः स्फुरितश्च । सौमित्रिलक्ष्मणेत्यादेश्वा. यमर्थः सौमित्रिः (सुमित्रायांभवत्वात् लक्ष्मणः कलाकुशलः इत्यादीनि नामानि अस्य सः इत्यादिभिः नायते-अभ्यस्य अभिधीयते इत्यर्थ इति वा स तथोक्तः ॥ २१ ॥ अस्य प्रिया न समभूत् कमलाऽनुरूपा, पूर्वा सुमङ्गलवचास्त्वपरा सुनन्दा । नाम्ना प्रभाति-रतिकृत्सुभगा च भैमी, शीतांशुपुर्णवदना सदया यशोदा ॥ २२ ॥ अन्वयः---अस्य प्रिया कमलाऽनुरूपा न समभूत? नाना च पूर्वा सुमंगलवचाः । अपरा सुनन्दा ? प्रभाति रतिकृत् सुभगा भैमी शीतांशुपूर्णवदना सदया यशोदा। २ अस्य नान्ना यशोदा यशोमतीग्रिया कमलानुरूपा न समभूत् । अपूर्वा सुमंगलवचाः अपरा सुनन्दा शेषं पूर्ववत् । ३ अस्य कमलाऽनुपूर्वा यशोदा प्रिया न समभूत् । ४ अस्य प्रिया नाना प्रभा-प्रभावती कमलानुरूपा न समभूत् (शे. पू.) ५ अस्य प्रिया नाम्ना यशोदा ६ अस्य प्रिया नाम्ना शीता अंशुपूर्णवदना । ७ अस्य प्रिया भैमी नाम्ना ॥ २२ ॥ व्याख्या-अस्य श्रीऋषभदेवस्य प्रिया-भार्या कमलाऽनुरूपा-3 लक्ष्मीसहशी एव न समभूत् ततोऽप्यधिकरूपवतीत्यर्थः नाम्ना च Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १३३ पूर्वा-प्रथमपरिणीता ज्येष्ठा सुमंगलवचाः सुमङ्गल इति वचःम्बाचकशब्दो यस्याः सा सुमङ्गलाभिधेयेत्यर्थः। अपरा-द्वितीया सुनन्दातन्नामिकेत्यर्थः । सा कीदृशीत्याह-प्रभाति-रति कृत्-प्रभाति प्रकाशं रतिरागं च पत्यौ करोति या सा यद्वा प्रकर्षण भातीतिप्रभा. अतिरतिकरोतीत्यतिरतिकृत् । अथवा अभया-निजवपुःकान्त्या अति अतिशयेन रतिं कामभार्या कृन्तति धात्वनेकार्थत्वात् जयतीति सा तथोक्ता । सुभगा=पतिवल्लभा. सुदृश्या वा शोभनैश्वर्यशालिनी वा पुनश्च भैमी-भैमीवेति लुप्तोपमा दमयन्तीव रुक्मिणीव वा पतिव्रतेत्यर्थः शीतांशुपूर्णवदना-चन्द्रमुखी, सदया निष्कारणपरदुःखमहाणेच्छावती यशोदा कीर्तिदायिनी । २ शान्तिनाथपक्षे-अस्य श्रीशान्तिनाथप्रभोः नाम्ना यशोदायशोमती नाम्नी प्रिया कमलानुरूपा एव न ततोप्यधिकसौन्दर्यशालिनी समभूत् सा कीदृशीत्याह-अपूर्वा लोकोत्तरशीलसौन्दर्यशालित्वेन चिलक्षणा सुमङ्गलवचाः-सुमंगल-हितावहत्वात् कल्याणं वचःवचनं यस्याः सा पुनः अपरासु-सपत्नीपु नन्दा-नन्दयतीति नन्दा आनन्दयित्री शेषं पूर्ववत् । ३ नेमिनाथपक्षे-अस्य-श्रीनेमिनाथप्रभोः कमलानुरूपेत्या. दिविशेषणविशिष्टा प्रिया पाणिगृहीती न समभूत् किन्तु आजन्मत्रह्मचारितया निष्प्रिय एवायमवतस्थे । ४ पार्श्वनाथपक्षे ---अस्य श्रीपार्श्वनाथप्रभोः प्रिया-सहधर्मिणी नाम्ना प्रभा-प्रभावतीनाम्नी कमलानुरूपा एव न किन्तु तदधिकरू. पवती समभूत् शेषं पूर्ववत् । ५ वीरविभुपक्ष-अस्य श्रीवर्द्धमानप्रभोः प्रिया-भार्या नाम्ना घ यशोदा कमलानुरूपा एच न किन्तु ततोऽप्यधिकरूपशालिनी Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये त्यर्थः समभूत् । शेषं प्राग्वत् । ६ श्रीरामपक्षे-अस्य श्रीरामचन्द्रबलदेवस्य प्रिया-पत्नी नाम्ना च शीता कमलानुरूपा-लक्ष्मीरूपिणी न समभूदिति काका समभूदेवेन्यर्थः राघवत्वे भवेत् सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनी. त्यन्यत्रोक्तेः। सा कीदृशीत्याह अपूर्वा, सुमङ्गलवचाः सुमगलसतीत्वेन प्रातःस्मरणीयतया कल्याणावहं वचः-उक्तिर्यस्याः । सा अपरासु-सपत्नीषु नन्दा आनन्दकारिणी । जनानां समये रामचन्द्रस्य बहुपत्नीकत्वात् सीतायाः सपत्नीजनहर्षकारित्वोपपत्तेः । प्रभातिरतिकृत् सुभगा भैमी, अंशुपूर्णवदना=अंशुभिः प्रभाभिःकान्तिभिः पूर्ण भृतं वदनं मुखं यस्याः सा । सदया, यशोदा च विवरणं प्राग्वत् । श्रीकृष्णपक्ष-अस्य श्रीकृष्णवासुदेवस्य कमलानुरूपा लक्ष्मीरूपिणी "राघवत्वे भवेत्सीतारुक्मिणीकृष्णजन्मनीत्यन्यत्रोक्तेः' भैमी रुक्मिणी प्रिया भाा यद्वा भार्याणां मध्ये ऽतिशयप्रेमपात्रीभूता न समभूत् काका समभूदेवेत्यर्थः शेषं पूर्ववत् ॥ २२ ।। तेना-हता वृषभ केशिखरा विरूपा, नव्याहताः समितिसंगतिगुप्तिकायें । वाग्नोदितासमिति संगतिगुप्तिकायें: लक्ष्यस्वरूपमत एव मतं हि तस्य ।।१३ ॥ अन्वयः-तेन वृषभ केशिखराविरूपा अहताः समिति संगति गुप्तकार्ये व्याहता, न समिति संगति गुप्तकार्य वागनोदिता, अत एव तस्य मतं अलक्ष्यस्वरूपम् ॥ २३ ॥ व्याख्या-तेन तीर्थङ्करप्रभुणा वृषभकेशिखराविरूपाः वृषभः वृषः, केशी सिंहः, खरो मृगस्तेषान्द्वन्द्वस्ते, विरूपाश्च निरूपाश्चेत्ये. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १३५ कशेषस्तेविरूपा विम्पक्षिणं रूपयन्ति अन्विषन्तीति विरूपाः सर्पाः अथ च विविशब्दं स्वच्छ रूपं वर्णो येषान्ते विरूपाः शंखास्ते, अहता नपरित्यक्ताः किन्तु स्वस्वलाच्छनरूपेण स्वीकृता एव, यथा आदी श्वरस्य वृपः महावीरस्य केशी सिंहः शान्ने : खरः खे रमते प्लवतीति खरो मृगः पार्थस्य विरूपः सर्पः नेमे शंख एवं रूपा इत्यर्थः समि तिसंगतिगुप्तिकार्य समितेः सभायाः या संगतिः सम्मेलनम् तत्र यत् गुप्तिकार्य रहोमंत्रणम् तस्मिन् न व्याहता न हता न प्रतिबद्धा इत्यर्थः किन्तु संगता एव तथा समितिसंगतिगुप्तिकार्य सभासम्मेलनरहोमंत्रणे वाग् वाणी नोदिता प्रेरिता प्रयोजिता न केवलं संख्यापूरणाय तत्र स्थिताः किन्तु स्वमतमपि तत्र प्रकाशयन्तः अत एव वाग्नोदनादेव स्वमतप्रकाशनादेवेत्यर्थःतस्य जिनेन्द्रस्य मतमभिप्रायः अलक्ष्यस्वरूपं पामरैरनधिगम्यस्वरूपम् कार्यादेव तन्मन्त्रितं ज्ञायते न पूर्वमित्यर्थः । रामपक्षे-वृषभकेशिखराः तत्तदभिधाना राक्षसाः विरूपा सूर्प. णखा च तेन रामेण आहता आसमन्ताद्विनाशिताः अन्यदुक्तस्वरूपम् । कृष्णपक्षे-वृषभकेशिखराः विरूपाः वृषभासुरकेशिदानवगर्दभासुराः विरूपा अघासुरप्रभुतयश्च आहता विध्वंसिता हिंसिता अन्यत् पूर्ववत्।। अत्रश्लोकेयमकः श्लपश्च ॥ २३ ॥ सम्यकलाकुशलताध्ययनं विनास्य, लोकेन्यगौरवधियाऽध्ययनं प्रपद्य । सूर्यः करोति भुवनं प्रकटं स्वतस्तत् , किं पाटवेऽस्यघटते परसंपरायः ॥ २४ ॥ अन्वय -- लोकेऽन्यगौरवधियाऽध्ययनं प्रपद्य सम्यक् कलाकुशलता अस्य अध्ययनं विनैव. सूर्यः स्वतः तत् भुवनं प्रकटं करोति. अस्य पाटवे परसंपरायः किं घटते ॥ २४ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये व्याख्या - लोके जने जगति वा अन्यगौरवधिया अन्यस्मिन जने गुरुवबुद्ध्या अध्ययनं पठनं प्रपद्य प्राप्य सम्यक् सर्वथा कलाकुशलता चतुःषष्टिकला नैपुण्यं भवतीति शेषः अस्य वर्णनीय महापुरु कस्य अध्ययनं विनैव अध्यापकाद्यालम्बनकपठनं विनैव कलाकुशलता अभूदित्यर्थः, अत्र दृष्टान्तं प्रदर्शयति सूर्यः स्वत एव आत्मनैव तत् प्रसिद्धं भुवनं प्रकटं करोति प्रकाशयति किं च अस्य सूर्यस्य पाटवे जगत्प्रकाशनकौशले परसंपरायः अन्यसहायः अन्याश्रयणं किं घटते युज्यते न घटत इत्यर्थः । अथ च अस्य चरित्रनायकस्य सम्यक्कलाकुशलता सर्वयाकलानैपुण्यं अध्ययनं पठनम्विनैव गुरुकुलशुश्रूषणं विनैव किन्तु लोके जगति अन्यगौरवधिया अन्येऽप्येवं कुर्युरित्येवं बुद्धया अध्ययनं गुरुकुलनिवासं प्रपद्य सम्यक् कलाकुशलता अभूदित्यर्थः ॥ अत्र दृष्टान्तालंकारः || २४ ॥ कं स प्रयोगमधिगत्यपरस्परेण, कं सं जहार करणाय जने हितस्य ॥ नैपुण्यपुण्यवशतोऽतिशयाश्रयेण, निष्कण्टकत्वमजनिष्ट निजेष्टदेशे ॥ २५ ॥ १.३.६ अन्वयः - - परस्परेण कं स प्रयोगम् अधिगत्य जने हितस्य करणाय के स जहार नैपुण्यपुण्यवशतः अतिशयाश्रयेण निजेष्टदेशे निष्कण्टकत्वम् अजनिष्ट ॥ २५ ॥ व्याख्या -- स प्रभुः आदीश्वरादिः कम् कमपि प्रयोगम् अनुष्ठानम् व्यापारम् परस्परेण क्रमेण अधिगत्य प्राप्य यद्वा कम् कमपि प्रयोगमश्वम् " प्रयोगः अनुष्ठाने निदर्शने अश्वे चेति शब्दस्तो महानिधिः " परस्परेण अन्योन्यतः अधिगम्य प्राप्य जने लोके हितस्य पथ्यस्य मंगलस्येत्यर्थः करणाय विधानाय स्थापनाय के सं पानभाजनं मद्यपानपात्रं "काम्यते कामिमिरिति" मावावद्यमित्यौणादिकः सः " Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ३ " मल्लिकाचपकः कंसः पारीस्यात्पानभाजनमिति हैमः" जद्दार हृतवान् सर्वत्र निवारयामास नैपुण्यपुण्यवशतः नैपुण्यं सर्वसम्पत्समर्पकं यत्पुण्यं शुभादृष्टम् तस्यवशत आनुकूल्यात अतिशयाश्रयेण सर्वतोऽधिकत्वेन सर्वश्रेष्ठत्वेनेत्यर्थः निजेष्टदेशे स्वीयामिमतप्रदेशे निष्कण्टकत्वम् निराबाधत्वम् निर्वैरत्वम् अजनिष्ट सर्वतो निरुपद्रवो जात इति भावः ॥ कृष्णपक्षे - परस्परेण कर्णाकर्णितः जनवचनतः कंस प्रयोगं कंसस्य स्वमातुलस्य व्यवहारं नीचाचारं अधिगत्यश्रुत्वा जने खजने हितस्य क्षेमस्य करणाय क्षेमं कर्तु कंसं कंसनामानं नृपं जहार जघान नैपुण्य पुण्यवशतः अत्यधिक पुण्यमाहात्म्यात् अतिशयाश्रयेण अतिशय्यमधिकुर्वतानिजेष्टदेशे स्वाभिमतप्रदेशे निष्कन्टकत्वं निर्वैरत्वं शत्रुराहित्यं अजनिष्ट अजनि ।। २५ ।। सन्तोऽपि ये स्वसमयज्ञविधिं प्रपन्ना, दैत्योपरुद्धमनसो भुवि दुर्जना ये ॥ पूर्वेष्टसाधनविधानमनन्तरायं, कर्त्तुं ययौ स विपिनं परवारणेन ॥ २६ ॥ - अन्त्रयः — ये सन्तस्ते स्त्रसमयज्ञविधिं प्रपन्नाः ते दुर्जनास्ते दैत्योपरदुमनसः पूर्वेष्टसाधनविधानम् अनन्तरायं कर्त्तुं स परवारणेन विपिनं ययौ ॥ २६ ॥ व्याख्या - अथेन्द्रः प्रभोर्विवाहसमयमधिगम्य तदनुज्ञां जिघृक्षुजिज्ञपत् प्रभुश्रमौनेन तदुत्तरन्ददावित्याह सन्तोऽपीति । ये सन्तः सत्पुरुषाः कर्त्तव्याकर्त्तव्यविवेकिन स्वसम्म यज्ञविधिम् स्वममयं स्वावशिष्टकर्मभोगसमयं ज्ञापयति बोधयतीति स्वसमयज्ञः स चासौ विधिश्च तन्तथोक्तम् अवधिज्ञानादिना तद्बुद्धा प्रपन्नाः स्वीकृताः अङ्गीकृता इत्यर्थ ये भुवि पृथिव्यां दुर्जना दुर्बुद्धयः ते दैत्योपरुद्धमनसः अज्ञानोपहततया कर्त्तव्याकर्त्तव्य निर्धारणपराङ्मुखा भवन्तीति शेषः १३७ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेव विजयगणित्रिरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अनन्तरायं अन्तरायरहितं निर्बाधं पूर्वेष्टसाधनविधानं पूर्वपूर्वनिर्धारितं यदिष्टसाधनम् चतुर्थपुरुषार्थसाधनम् विपिनम् दुःसाध्यम् तत् कर्त्तमनुष्ठातुम् परवारणेन अत्युत्कृष्टात्मबलेन मदोन्मत्तगजेन वा ययौ जगाम ॥ पार्श्वनाथ पक्षे-दैत्योपरुद्धमनसः दैत्येन लेदन भेदनादिना उपरुद्धम् अभिभूतं व्याप्तं मनो येषान्ते सदसद्विवेकरहिता ये भुवि भूमौ दुर्जना, दुराचारिणो यवननृपप्रभृतयः सन्तीति शेषः पूर्वेष्टसाधनविधानं पूर्व पूर्वकर्त्तव्यं यद् इष्टसाधनविधानम् प्रभावती परिणयरूपम् अनन्तरायम् निष्प्रत्यूहं कर्त्तु प्रयोजितुं परवारणेन अत्युत्कृष्टहस्तिसाधनेन विपिनम् भयजनकम् यवननृपं प्रति ययौ इयाय । रामपक्षे - ये सन्तः सत्पुरुषा महान्तस्ते स्वसमयज्ञविधिं स्वकी यसमयज्ञापकविधिं कर्त्तव्यं प्रपन्नाः कर्त्तव्योन्मुखाः भवन्ति ये दुर्जना दुश्चरित्रास्ते दैत्योपरुद्धमनसो जायन्त इति शेषः पूर्वेष्टसाधनविधानं सीतापरिणयरूपेष्टप्रथम कर्त्तव्यं अनन्तरायं निर्बाधं कर्तुं विधातुम् पर वारणेन परेषां शत्रूणां वारणेन दैत्यजननिरोधेन विपिनं ययौ ।! कृष्णपक्षे - रुक्मिणीविवाहरूपेष्टसाधनं कर्त्तुं ययाविति, शेषं पूर्ववत् ॥ २६ ॥ तीव्रतानुचरणानधिगम्य जानेः "जातेः " पूर्वेऽवशिष्टमपि तन्मनसा ननाम ॥ इत्याश्रयन्निव विधिन्तदगाधि जातं, ज्ञातं भजन् वनमियाय स गाधिजातं ॥ २७॥ १३८ अन्वयः -- जाने: “जातेः " तीव्रव्रतानुचरणान अधिगम्य पूर्वे अवशिष्टमपि तत् मनसा ननाम अगाधि जातम् विधिम् तद् आश्रयन्निव से ज्ञानम् भजन् गाधिजातम् वनम् इयाय ॥ २७ ॥ व्याख्या -जानेः " जातेः " उत्पत्तेः जन्मनः फलानि हेतून तीव्रतानुचरणान् महत्पुण्यपरिपाकप्रभाव साध्यदुःसाध्य नियमपरि Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयाभृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-३ १३९ रिपालनरूपान् अधिगम्य ज्ञात्वा विचार्य "मदीयजन्मनस्तीव्रताचरणमेवफलमिति" निश्चित्य पूर्वे पूर्वभवेऽवशिष्टम् अजीर्णतया किञ्चित् स्थितम् अपि तत् कर्म मनसा हृदयेन ननाम सस्मार तत् तस्मात् अगाधिजातम् गाध्यते लिप्स्यते इति गाधिर्लिप्सा तस्माजातम् इति गाधिजातम् तन्न भवतीत्यगाधिजातम् अयत्नोपनतम् विधिम् अदृष्टम् कर्मेत्यर्थः "देवन्दिष्टम्मागधेयं भाग्यं स्त्रीनियतिर्विधिरित्यमरः" आश्रयन्निव इति ज्ञानम्भजन सेवमानः स प्रभुर्जिनेन्द्रः गाधिजातम् प्रतिठाजनकम् वनम् आलयम् अरण्यम् वा इयाय ययौ । कृष्णपक्षे-जानेः जायतेऽस्मादिति जानिः तस्य जाने: समुद्रस्य जलरूपतया जलस्य च जीवनत्वेन समुद्रस्य तत्वमिति भावः स कृष्णः तीव्रतानुचरणान् अष्टमतपःप्रभृतीन् अधिगम्य प्राप्य कृत्वेत्यर्थः पूर्व प्रथमम् अवशिष्टम् अतिरिक्तम् अधिकम् तत् समुद्रम् जीवनत्वेन क्लीवनिर्देशः मनसा हृदयेन भक्त्या ननाम तत् समुद्रजलम् इति पूर्वोक्तरूपं विधिमनुष्ठानमाश्रयन्निव स्वीकुर्वन्निव ज्ञानम् कृष्णोऽयन्त्रसामान्य इति बुद्ध्या जानन् इति स्मरन् अगाधि जातम् अतिगम्भीरं स प्रतिष्ठमिति भावः वनं समुद्रजलम् स गाधिजातम् अनिम्नं सुप्रचारमियाय ययौ द्वारकाजनप्रचाराय किश्चित् प्रससारेति भावः ॥२७॥ कन्यान्यदाकृत सुमंगलका विदर्भ, प्राप्ताति शैशववयोऽभिधया सुनन्दा ॥ सीताप्रभा समधिकक्षमया विभूषा, __ सद्रुक्मिणा वरहिताहिकजा यशोदा ॥ २८ ॥ अन्वयः-भन्यदा कृतसुमंगलका अतिशैशववयःप्राप्ता अभिधयासुनम्दाकन्या सीता समधिकक्षमया विभूषासदृक्मिणी वरहिताहिकजा यशोदा आसीदिति शेषः ॥ २८ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये व्याख्या-आदीश्वरपक्षेअन्यदा कदाचित् विदर्भ विगतो दर्मः कुशोयत्रतस्मिन यद्वा विशेषेणदर्मो यत्र युगलित्वाद्वनाधिवासतस्त. सिन् विदर्भदेशे कृतसुमंगलका कृतम् विहितं सुमंगलं विवाहपूर्वल. त्र्तव्यकुमारीकृत्यं यया सा कृतसुमंगलका अथ च सुमंगलाभिधाना अतिशैशवश्यः प्राप्ता शैशवादतिक्रान्तमतिशैशवम् " अत्यादयः का. न्ताद्यथै पञ्चम्या" इति समासः अतिशैशवं च तद्वयश्चेति कर्मधारयस्तत् प्राप्ता अतिक्रान्तशैशवा प्राप्तयौवनेत्यर्थः अभिधया संज्ञया सुनन्दा सुनन्दाभिधाना सीता लक्ष्मीस्वरूपा समधिकक्षमया अत्यधिकक्षमाशीलतया विभूषा क्षमाभूषणभूषिता प्रभा कान्तिरूपा सद्रु. क्मिणी शोभनस्वर्णभूषणचिता वरहिता वराय हिता वरणयोग्या अहि. कजा नागकन्येव यशोदा यशोविधायिनी आसीदिति शेषः ॥ श्रीशान्तिनाथपक्षे--विदर्भ विगतः दर्भो भयो यत्र तस्मिन् विदर्भ भयरहिते कृतसुमंगलका विहितसुमङ्गका अतिशैशवत्रयः प्राप्ता समधिगततरुणावस्था सीता प्रभा सीताइव लक्ष्मीरिवप्रभाकान्तिर्यस्याः सा समधिकक्षमया निरतिशयसहिष्णुतया विभूषाजगदवसभूता सद्रुक्मिणी सत् प्रशस्तं रुक्म वर्ण अस्ति अस्याः सा सद्रुक्मिणी यद्वा विभूषायां भूषणे सद्रुक्म यस्याः सा विभूषासद्रुक्मिणी वरहितावरस्य ग्रहण कत्तुः कल्याण प्रयोजिका अभिधया संज्ञया यशोदा यशोमती अभूदिति शेषः । श्रीपार्श्वनाथपक्षे- उक्तविशेषणविशिष्टा अभिधया नाम्ना प्रभा प्रभावतीति शेषः ॥ श्रीवीरस्वामिपक्षे-अभिधया यशोदा यशोदा नाम्नीति विशेपोऽन्यत् वर्णितदिशाबसेयम् ॥ रामरक्षे-यथोक्तविशेषणवती अभिधया सीता तन्नाम्नीतिनियोज्यम् ।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १४१ कृष्णपक्षे-अभिधया सद्रुक्मिणी सती चासौ रुक्मिणीचेति सक्मिणी विदर्भ विदर्भजनपदे अन्यत्पूर्ववत् ।। श्रीनेमिनाथपक्षे-अन्यदा कस्मिन् अपि समये विदर्भ विगतभये प्रभौ नेमिनाथे कन्यादीप्तिः अभूदिति शेषः कापिलोकातिशयकान्ति; जर्जातेति भावः कथंभूता कृतसुमंगलका कृतं सुमंगलं यया विहितभव्या अतिशैशववयः प्राप्ता अतिशैशवेवयसि यौवनावस्थायां प्राप्ता संगता शैशवानन्तरमधिगता प्रभोर्युक्त्वारम्भसूचिकेत्यर्थः सुनन्दा सुष्टुनन्द. यतिजनानिति सुनन्दा सर्वमोदनदात्री सीता प्रभा सीता लक्ष्मीरिव प्रभादीप्तिर्यस्याः सा समधिकक्षमया अतिसहनशीलया विभूषा विभूपणरूपा मण्डनायमाना सदुक्मिणी स्वर्णसदृशी स्वर्णकान्तिकमनीयेत्यर्थः वरहिता वराश्रेष्ठाचासौ हिताहितप्रयोजिका इति वरहिता अतिशयोपकारकारिणी अहिकजा अहिरेव अहिकः सूर्यस्तस्माजाता इवेति सूर्यकान्तिसहशी यशोदा यशोविधायिनी सर्वाधिकदीप्तिभरेत्यर्थः २८ रागं पुपोषभगवद्वपुषागुणेन, रूपश्रियातिशयिनं जयिनं विमृश्य ॥ कन्यास्वयम्बरमहं सततो गवेशः, प्रारब्धवान् विहित संहित सन्निवेशः ॥ २९ ॥ अन्वयः-- गधेशः भगवद्वपुषागुणेन रूपश्रियातिश यिनं जयिनं विमृश्य रागं पुपोष विहित संहितसनिवेशः सन् कन्यास्त्रयम्वरमहं प्रारब्धवान् ॥२९॥ व्याख्या-गवेशः गोः पृथिव्या ईशः पतिः गवेशः पृथ्वीशः भगवद्वपुषा भगवतां जिनेन्द्राणां वपुषा शरीरेण शारीरिकसौन्दयातिशयेन गुणेन दयादाक्षिण्यादि गुणमहिम्मा च रूपश्रियातिशयिनम् रूपस्य शरीरसन्निवेशस्य श्रीः रूपश्रीस्तया शरीर कान्त्या अतिशय्यते सर्वोत्कर्षण भूयते इति अतिशयितम् तथोक्तम् जयिनम् सर्वोत्कर्षण Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये विराजमानम् विमृश्य विचार्य कपुनरेनं वरो लभ्यते इति विचार्य विहित संहितसनिवेशः विहितः कृतः संहितः दृढः सन्निवेश: स्थितिः स्थानम्या येन स कन्यास्वयम्बरमहं कन्यायादुहितुः स्वयम्बरमेव महः उत्सवः तम् कन्यावयम्वरोत्सवम् आरब्धवान् आरभे महउद्धवउत्सव इत्यभरः ।। सर्वपक्षमाधारणम् ।। २९ ॥ तत्राप्तदानव बलस्य बलारिरेष, न्यायान्तरायकरणं रणतो निवार्य । धात्री जिघृक्षु शिशुपालक राक्षसादि दुर्योधनं यवनभूपमपा चकार ॥ ३० ॥ अन्वयः-तन्त्र आप्सदानववलस्य बलारिरेष न्यायान्तराय करणं रणतः निवार्य धात्री जिघृक्षुशिशुपालक राक्षसादि दुर्योधनम् यवनभूपम् अपाचकार ॥३॥ व्याख्या-आदीश्वरपक्षे-तत्रादीश्वरप्रभोविवाहमहोत्सवे आप्तदानववलस्य आप्तः प्राप्तः योदानववलः दैत्यवलस्तस्यबलारिः बलभित् एष इन्द्रः न्यायान्तरायकरणं न्यायस्य न्याय्यस्य यद्वा न्यायस्य भो. गस्य अन्तरायकरणं विनसंपादकं प्रतिबन्धकमित्यर्थः रणतः शब्दतः रक्षोविद्रावकशान्तिकारकगाथादितः निवार्य विद्राव्य धात्री जिघृक्षु शिशुपालकराक्षसादि दुर्योधनं यवनभूपम् धात्री उपमाता पालयित्रीति यावत् " धात्रीस्यादुपमातापि क्षितिरप्यामलक्यपीत्यमरः " जिघृक्षुः किमपि ग्रहीतुमिच्छुर्यः शिशुपालोबालावस्थापोषकः स एव शिशुपालकः "स्वार्थेकः" राक्षसः रक्षतीतिरक्षः "औणादिकोऽमुन्" स एव राक्षसः रक्षणकर्ता एषांद्वन्द्वः इति धातृजिघृक्षु शिशुपालकराक्षसास्ते आदिर्यस्य स चासौ दुर्योधनश्च तं यवनम् वेगवद्भूपम् सत्वरकार्य. साधकनृपम् अपाचफार आनन्दयामास अत्यधिकप्रेम्णाप्रीणयाम्ब Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १४३ भूवेत्यर्थः अप-वियोगे - विकृतौ विपरीते - वर्जने - आनन्दे चेति शब्द स्तोममहानिधिः || एवमेवशान्तिनाथपक्षेऽवसेयम् - श्रीनेमिनाथ पक्षेऽपि विवाहोत्सवस्य वर्णनीयत्वेन तत्र, श्रीमहावीरपक्षे च यथास्थितमेव वर्णनम् । श्री पार्श्वनाथ पक्षे - तत्र तस्मिन् समये आप्तदानत्रवलस्य आप्तः प्राप्तोयो दानववलस्तस्य समृदितदैत्यभूत दुराचारिवलस्य बलारिः विरोधकः एष पार्श्वप्रभु न्यायान्तरायकरणम् न्यायस्यनीतेः धर्मप्रचा रस्य अन्तरायकरणम् विघ्नकारकम् रणतः संग्रामतः निवार्य निराकृत्य धात्री जिघृक्षु शिशुपालकराक्षसादि दुर्योधनं यवनभूपम् धात्री धरतिगुणौत्कर्ण्यमितिधात्री तां जिघृक्षुर्ग्रहीतुमिच्छुः स चासौ शिशुपालकराक्षसाच शिशुपालकरोऽक्षः आत्मा यस्य स शिशुतआरभ्य पालकरोरक्षा तत्पर आत्मा यस्येत्यर्थस्तस्य आदिमुरूयः प्रभुः दुर्योधनम् दुःसहम् यवनभूपम् यवननामानम् नृपम् कलिङ्गाधिपतिम् अपा चकार तिरश्वकार दूरी चक्रे || रामपक्षे - तत्र तस्मिन् समये आप्तदानववलस्य समागतराक्षससैन्यस्य बलारिः विनाशकः एषरामः न्यायान्तरायकरणं नीति निवारकं दुराचरिणम् रणतः संग्रामतः निवार्य निराकृत्य धात्रीम् गुणवतीं जिवृक्षुर्ग्रहीतुमिच्छुः यः शिशुपालकरः सर्वदारक्षकः शिशुत एव रक्षा दक्षआत्मायस्य तस्यादिर्मुख्यः दुर्योधनम् दुःसाध्यम् यवनभूपम् म्लेच्छन्पम् जनकराज निरोधकम् यद्वा धात्रीं सीतां जिघृक्षु रादित्सुर्यः शिशुपाल कराक्षसादिदुर्योधनः शिशुमर्भकं पारयति समापयति घातयतीति शिशुपारः स एव शिशुपालकः रलयोरक्यात् स चासौ राक्षसादिः राक्षसप्रभृतिः स एव दुर्योधनः दुःसाध्यः यवनभूपः म्लेच्छ. नृपस्तम् अपाचकार तिरश्चकार रुरोध || Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये कृष्णपक्षे-तत्र रुक्मिणी विवाहप्रसङ्गे दानवबलस्य दैत्यबलस्य बलारिस इन्द्र इव दैत्यबल विनाशकारकः एष कृष्णः न्यायान्तराय करणं नीतिनिवारकं रणतः संग्रामात् निवार्य निराकृत्य धात्रीजिघृक्षु शिशुपालकराक्षसादि दुर्योधनम् धात्रीम् रुक्मिणीम् जिघृक्षुः यः शिशुपाल स्तन्नामा नृपस्स एव शिशुपालकः स एव राक्षसादिः निशाचरप्रभृतिस्स च दुर्योधनश्च धार्तराष्टस्तम् शिशुपालराक्षसादि प्रभृतिदुः र्योधनभूपम् यवनभूपम् जरासन्धतनयम् अपाचकार निरासयामास अत्र श्लोक सभङ्गाभङ्गश्लेषालंकारः ॥ ३० ॥ भूमान् विचार्य जनकोऽपिकृतानुरागां, रुक्मीस्वसार मधिरोप्यधनुर्वृतांताम् ॥ युध्ध्वाबलेनहलिनावपनेकृतेऽदात् , देशे हरिः पुनरियायनिजे स कान्तः ॥ ३१ ॥ अन्वयः- भूमान् जनकः कृतानुरागाम् विचार्य रुक्मी धनुः अधिरोप्य वृताम् ताम् स्वसारम् हलिनाबलेन युधध्वावपनेकृतेऽदात् म कान्तः हरिः निजे. देशे पुनः इयाय ॥ ३१ ॥ ___ व्याख्या---आदीश्वरादिजिनेन्द्रपक्ष-भूमान् पृथ्वीपतिः रुक्मीस्वर्णवान् जनकः पिता नाभिराजादिः अन्यजिनेन्द्रपक्षे कन्यापिता स्वसारम् स्वस्यसारम् सारभूतम् बलवत् धनुः कोदण्डम् अधिरोप्य अधिरोपयित्वा क्षत्रियाणामस्त्रधारणपूर्वकम्बिवाहविधानमिति सम्प्र. दायः अत एव धनुजिनेन्द्राणामावथ्यबलेन हलिना आकर्षयता युध्ध्वा कृत्रिमयुद्धप्रक्रियाम्प्रदश्य वपने छेदने कृते सति किमपिच्छेदादिसंप्रदाय संपादने सति कृतानुरागाम् संजातप्रेमातिशयाम् वृतां पूर्वमेववरीतां तां कन्यां सुमंगलासुनन्दाप्रभृति अदात् जिनेश्वरायेति शेषः स कान्तः सदारः हरिः हरतिपापमिति हरिजिनेन्द्रः निजदेशे स्वकीयस्थाने अन्यजिनेन्द्रपक्षे निजदेशे इयाय आजगाम ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १४५ रामपक्षे-भूमान् पृथ्वीपतिः रुक्मी स्वर्णवान् जनकः जनकनृपः खसारं धनुः अधिरोप्य पणत्वेन निर्धाय स्थित इति शेष रामश्चधनुः अधिरोप्य आकृष्य समौर्वी कम्विधायेत्यर्थः हलिना आकर्षयता कृत्रिमयुद्धं विधाय वपने कृते चन्द्रगतिभामण्डलादीनां विलक्षे कृते सति कृतानुरागाम् जातस्नेहाम् वृताम् पूर्वमेवकृतवरणाम् जानकीमिति शेष अदात् रामाय आर्पिपन् सकान्तः सपत्नीकः हरिः रामः निजे स्वकीये देशे अयोध्या नगरे पुनः भूपः इयाय आययौ । कृष्णपक्षे-भूमान् भूमीपतिः रुक्मी रुक्मिनामानरपतिः जनकः ज्येष्ठभ्रातृत्वात् पितृसमत्वेन जनकशब्दप्रयोगः कर्नव्याकर्त्तव्यशिक्षकः कृतानुरागाम् कृतप्रणयाम् स्वसारम् भगिनीम् रुक्मिणीम् विचार्य सम्यक् परिभाव्य धनुः आरोप अधिज्यम्बिधाय हलिना सीरिणा बलदेवेन युध्वा युद्धं विधाय वपने केशच्छेदे कृते सति वृताम् शिशुपालेन पूर्वकृतवरणामपि ताम् रुक्मिणीम् अदात् कृष्णाय प्रायच्छन् सकान्तः सपत्नीकः हरिः कृष्णः पुनः निजे आत्मीये देशे द्वारकायाम् इयाय आजगाम ॥ ३१ ।।। एवं पुराणचरितान्यधिगत्य देवः, प्रीत्या व्युवाह ननु धर्मधियं विधाय । तस्थुः परःशतनृपा अपरे तथैव, साम्वत्सरे वितरणे कृतकर्मयोगः ॥ ३२ ॥ अन्वयः-देवः एवं पुराण चरितानि अधिगत्य ननु धर्मधियं विधाय प्रीत्या व्युवाह साम्वत्सरे वितरणे कृतकर्मयोगः अपरे परःशतनृपाः तथैव तस्थुः।।३२॥ व्याख्या-देवः द्युतिमान् जिनेन्द्रश्च पुराणचरितानि पुरातनव्यवहाराणि अधिगत्य विचार्य ननु इति कोमलालापे निश्चये वा धर्मधियं धर्मबुद्धिं विधाय ननु धर्मबुद्धिं कृत्वैव खलु धर्मः स्ववंशस्था Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरन्धिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये ~~ ~~ पनमिति निश्चित्य प्रीत्या पित्रोः प्रेम्णा इन्द्रस्य वा प्रणयेन आव्युवाह परिणिनाय, सांवत्सरे वितरणे कृतकर्मयोगः सम्वसति ऋतुः स्त्रीमासिकधर्मोऽत्र इति सम्वत्सरः स एव साम्बत्सरः तसिन साम्वत्सरे वितरणे ऋतुदाने कृतकर्मयोगः कृतव्यापारः ऋतुदाने सावधानः ऋती भार्यामुपेयादित्यनुसृत्य तत्रैव कृतोपयोगः आसीदिति शेषः । अन्ये पर शतनृपा अनेकशो भूपाः तथैव तदनुसारेणैव तस्थुः यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरोजन इति मतमवलंव्य ततोऽक् ितदीया चरण मेवप्रमाणत्वेन प्रचचारेति भावः पक्षान्तरे यथायोग्य मेतदिति ।। ३२ ॥ धर्म सतां (समधि) रोपयताऽग्रकोटी (?) __ कौ-मोदकीमपि रुचिन्दधता भुजाये । चक्रेर्हता सपदि चक्रभृताङ्गजेन, भावेन भूतलमलं कृतिभिः सशोभम् ॥३३॥ अन्वयः-को अग्रकोटौ सतां धर्म प्रमधिरोपयता भुजाग्रे मोदी रुचि दधता चक्रभृता अङ्गजेन अर्हता भावे. अलंकृतिभिः सशोभं भूतलं सपदि चक्रे ॥३३॥ व्याख्या-को-पृथिव्यां अग्रकोटौ अग्रभागे सर्वत उच्चप्रदेशे सतां= सत्पुरुषाणां धर्म-सुकृतं पुण्यमिति यावत् समधिरोपयता स्थापयता भुजाग्रे-स्वचाही मोदकी-मोदयति हर्षयतीति मोदकी हर्षदात्री तां सर्वसम्मोदसम्पादिकां रुचि दीप्तिं शोभां दधता धारयता चक्रभृताचक्रास्त्रं चक्रचिहूं वा बिभर्तीति तेन, अङ्गजेन-अंगान्मनसो जायते इति अङ्गजः कामः स इवाचरतीति तेन कामसदृशेन अर्हता पूज्येन जिनेन्द्रेण भावेन विदुषा अलंकृतिभिः शोभाधायकै स्वीयनिर्मलपवित्राचारैः सशोभं सालं कृतं भूतलं धरामण्डलं सपदि सद्यः चके विदधे स्वजन्मना निर्मलाचरणेन च भूमितलं मालंकृतं कुरुतेस्मेति भावः यद्वा चक्रभृतांगजेन चक्र बिभर्तीति चक्रभृत् स आङ्ग जस्तनयो यस्य स चक्रभृतांगजस्तेनति आदीश्वरपक्षे व्याख्येयम् । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १४. innrn.nnn........ रामकृष्णपक्षे-अग्रकोटौ सर्वमूर्धन्ये सतां सत्पुरुषाणां पुण्यं समधिरोपयता संस्थापयता भुजाग्रे स्वहस्ताग्रे कौमोदकी तदभिधानां गदा अस्त्रविशेषं दधता गृह्णता अर्हता योग्येन रामेण, कृष्णेन वा चक्रभृता चक्राखं दधता अङ्गजेन भावेन विलासादिना अलंकृतिभिरलंकाकारैः निजपवित्रसमुदाचारः सालंकृतं भूतलं भूमण्डलं सपदि सहसा चक्रे विदधे ॥ ३३ ॥ शंखध्वनिध्वनितदिग्वलयः प्रयोगं, __ सद्यो विभिद्य रिपुभूमिभुजां भुजायाः । मुक्तेषु-निश्चितधियां स्वधरादरेण, त्यागाय सर्वविषयस्य तदा बभव ॥ ३४॥ अन्वयः-शंखध्वनिध्वनितदिग्वलयः रिपुभूमिभुजां भुजायाः प्रयोग सद्यः विभिद्य मुक्तेषु निश्चितधियां स्वधरादरेण सर्वविषयस्य त्यागाय तदा बभूव ॥३४॥ __व्याख्या-जिनेन्द्रपञ्चकपक्षे-शंखध्वनिध्वनितदिग्वलयः शंखस्य कंबोर्यो धनिरव्यक्तमधुरशब्दस्तेन ध्वनितं शब्दायितं दिग्वलयं दिग्विभागो येन स तथोक्तः रिपुभूमिभूजाम् भूमि भुञ्जन्तीति भूमिभुजस्तेचते रिपवश्वेति रिपुभुमिभुजः शत्रुनृपतयस्तेषां महीभुजां भुजायाः बाहोः प्रयोगम् प्रसरम् गर्वमित्यर्थः सद्योविभिद्य तत्क्षणमेव निराकृत्य मुक्तेषु निश्चितधियां मोक्षेषु विषयेषु निश्चितधियां कृतनिश्चयबुद्धीनां जिनेन्द्राणामिति शेषः स्वधरादरेण स्वस्य धरः स्वधरः स्वकीयसंकल्पस्तस्यादरेण तस्याभिनिवेशेन यद्वा स्वस्थयोधरादरः धरस्य पर्वतादिनिर्जनस्थानस्य आदरः पर्वतादौ गत्वात् तपश्चर्याविधेयेतिनिश्चयेन आग्रहेण हेतुना सर्व विषयस्य सांसारिकमोहनीयवस्तुजातस्य त्यागाय वदा तमिन् काले बभूव तत्र प्रसक्तो जज्ञे । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये रामपक्षे-शंखध्वनिध्वनितदिग्वलयः कम्बुनादविनादितदि. विभागो राम इति शेषः रिपुभूमिभुजां विपक्षपक्षाश्रितक्षितिपालानां भुजायाः बाहोः प्रयोगम् प्रसरमहंकारं सद्योविभिद्य वियुज्य निराकृत्य मुक्तेषुनिश्चितधियां मुक्तश्वासाविषुर्वाणश्चेति मुक्तेषुर्विसर्जितबाणस्तत्र निश्चिता लग्ना धीवुद्धिर्यषां तेषां, शब्दवेधित्वाद्यवधानविधायकानां स्व. धरादरेण धरतीति धरो निजोत्पादकः पिता यद्वा धरति गर्ने या सा धरा माता तस्य तस्या वा आदरेण पूज्यत्वेन तदीयाज्ञावश्यं पालनियेति कृताग्रहेण हेतुना सर्व विषयस्य राज्यादिभोगादेस्त्यामाय निराकरणाय तदा मतिरिति शेषः बभूव जज्ञे । अथवा स्वधरादरेण स्वस्य या धरा दायादत्वेन न्यायतः परिप्राप्ता पृथ्वी "भूर्या पितामहोपात्ता इत्यादि समं तत्र विभागःस्थापितुः पुत्रस्य चोभयोरिति दायविभागस्थयोगियाज्ञवल्क्यवचनात् ” तस्या आदरेण स्वकीयत्वाभिनिवेशेन हेतुना सर्वविषयस्य स्वराज्यान्तर्गतसर्ववस्तुनस्त्यागाय कतिपयदिनावधिभरतसात् कत्तुं मतिर्बभूव बुद्धिर्जातेति भावः ॥ कृष्णपक्षे-खधरादरेण स्वधरा स्वं आत्मानं धरति विभत्तीतिस्वधरा द्वारकाभूमिस्तस्या आदरेण तद्विषयकप्रेम्णा सर्व विषयस्य यात्रत्परिणाहस्वपुरिपरिसरस्य त्यागाय समुद्रजलरहिताय समुद्र इतो दूर व्रजेत् मन्नगरपरिसरभूमिपरित्यजेदिति मतिर्वभूव अन्यद्रामपक्षवदवगन्तव्यम् ॥ ३४ ॥ मोहोऽवमोहकरणं ककुभां शुभांशु व्यावर्तनं नयननर्तनमेव जज्ञे । क्षोभो मनस्सु सुमनस्सु हरेश्चिरेण, चक्रे दरेण वसतिर्लसतिःप्रकम्पे ॥ ३५ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- ३ १४९ अन्वयः-मोहः ककुभाम् अवमोहकरणम् शुभाशुन्यावर्त्तनं नयन नर्स. नमेव मनःसु क्षोभः सुमनःसु हरेश्चक्रे दरेण वसतिः प्रकम्पे लसतिर्जज्ञे ॥३५॥ व्याख्या-तेषु वर्णनीयचरित्रनायकेषु सत्सु मोहो भ्रान्तिो हनीयकर्म ककुभां दिशामवमोहकारणम् दिग्भ्रान्तिविधायकम् केवलं दिगभ्रान्तिविधायकमेव मोहोऽभून्नचाज्ञानजनितकसिन्नपिविषये गाय जातम्, शुभांशुव्यावर्त्तनं शुभसम्बन्धराहित्यं कल्याणयोगनिरोध इत्यर्थः नयननर्तनमेव नेत्रविलास एव प्रणयिनम्प्रत्येव मानवत्याः कान्ताया नयनविकारादयः सेय॑न्नयननिरीक्षणम् न चान्यत्र शुभां. शो मङ्गलांशस्य व्यावर्तनम् निवर्तनम् , मुमनःसु कुसुमेषु मनःसु क्षोभः मनोमालिन्यम् रात्रौ कमलादिपुष्पेषु विकाशविपर्यासो, न जातु लो. केषु मनःक्षोभः मनोदुःखम्, हरेः विष्णोः चक्रे चक्रास्त्रे चिरेण दरेणभयेन वसतिरधिष्ठानं कृता केवलं विष्णुचक्रास्त्रे विष्णुचक्रविषयकभयसन्निवेशो जातो न च प्रजाजने कृतोऽपिभय सन्निवेशः लसतिः श्लेषः दाहः प्रकम्प नरके न चान्यत्र यद्वा लसतिर्वेपनम् प्रकम्पे महाबाते न च लोके वचनापि भयादिना लसतिर्वेपनम् न जज्ञे सुराज्यत्वात् सर्वनिराबाधमासीत् अत्र श्लोके परिसंख्यालंकारो विलसति ॥ ३५॥ उद्दिश्य कार्यमधिजीवनमेवमहन् , रेमे बनेषु भवनेषु सभावनेषु । आश्चर्यमुच्चचरितं रचयञ्जनाना मैश्वर्यमङ्ग-परमं बुभुजे भुजेन ॥ ३६ ॥ अन्वयः-अधिजीवनमुद्दिश्थैव कार्यम् अर्हन् वनेषु भवनेषु सभावनेषु रेमे जनानाम् आश्चर्यम् उच्चचरितम् रचयन् भुजेन अङ्गपरमम् ऐश्वर्यम् बुभुजे ॥३६॥ व्याख्या-जीवनम् प्राणधारणमुद्दिश्य प्राणयात्रामनुजीव्य लो. कव्यवहारमनुसृत्य कार्यम् लौकिककर्त्तव्यम् अर्हन् कुर्वन् सांसारिक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये व्यवहारमनुभवन् वनेषु उपवनेषु भवनेषु क्रीडासदनेषु सभावनेषु सदौकासु सभामण्डपेषु च रेमे तथा च जनानां लोकानां आश्चर्य विस्मयजनकं उच्चचरितं निर्मलचरित्रम् रचयन् विदधत् अङ्ग इति संबोधने भुजेन बाहुबलेन परममत्युत्कृष्टम् ऐश्वर्य विभवम् बुभुजे भुनक्तिस्म लोकोत्तरमैश्वर्यनुबभूवेति भावः सर्वपक्षसाधारणमवगन्तव्यम्॥३६॥ जाते विवाहसमये न मनाग्मनोऽन्त-- लीनो मलीनविषयेषु महाकुलीनः । द्वेधा पुरन्दरबलाद् वसतिस्म येन, नारेः पुरन्दरबलाइसतिस्म येन ॥ ३७ ॥ अन्वयः----विवाहसमये जाते न मनाक् मलीनविषयेषु महाकुलीनः अन्तलींनोऽभूदिति शेषः न द्वेधापुरन्दरबलात् स्मये न वसति पुरन्दरबलात् अरेः येन न वसतिस्म ॥ ३७ ॥ ___ व्याख्या-विवाहसमये विवाहविधौ जातेऽपि सम्पन्नेऽपि कृतदारपरिग्रहोऽपि महाकुलीनो महद्धैर्यवान् सत्कुलप्रसूतिर्जिनेन्द्रादिर्मलीनविषयेषु कुत्सितव्यापारेषु सांसारिकविषयवासनादिक्षिताचारेषु मनाक् ईपदपि अन्तलीनः तदासक्तिप्रवणो न विषयानुभवग्लपितचित्तो, न द्वेधापुरन्दरबलात् पुरन्दारयतीति पुरन्दर इन्द्रः यद्वा पुरन्त्रिपुरासुरन्दारयतीति पुरन्दरः शिवः इति द्वेधा द्विविधपुरन्दरयोर्बलमिव बलं यस्य तस्मादेकत्र विलक्षणशक्तिमत्वाद परत्रवशीकृतमदनत्वाच स्मयेऽहंकारे गर्वे न वसतिस्म सत्यपि गर्वसामर्थ्य महाशयत्वाद् गर्विष्ठो न जात इति भावः “वर्तमानसामीप्ये लट्" अथ च इन्द्रवद् बलि. छत्वात् अरेः शत्रोः सकाशात् शत्रुजनमुद्दिश्य मयेऽहंकारे न वसतिम इति न किन्तु वसत्येव शत्रुसम्मुखे गर्विष्ठ एवासीत् इति भावः यमकालंकारः सर्वविषय साधारणमेतत् ॥ ३७॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजनामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १५॥ कस्तेन संगतिमगान्न मनोरसेन, कस्तेन सङ्गतिमगानमनो रसेनः। द्वेधाप्यनीतिरगमद विभुविक्रमेण, __ नाशं-कयापि कलया न भुवि क्रमेण ॥३८॥ अन्वयः-मनोरसेन कस्तेनसंगतिम् न अगात् कः मनोरसेन तेन संगतिम् न अगात् विभुविक्रमेण द्वधा अपि अनीति: अगमत भुवि कयापि कलया नाशं न क्रमेण ॥ ३८ ॥ व्याख्या-मनोरसेन मनसो हृदयस्य रसोरागः प्रवृत्तिस्तेन मानसयोगेन कः कोऽपि स्तेनसंगतिम् स्तेनेन चोरेण संगतिम् मैत्रीम् न अगात् नापत् पाटचरप्रेम, कोऽपि नाकार्षीत् का मनोरसेनः मनश्च रसा चेत्यनयोः द्वन्द्व इति मनोरसे तयोरिनः स्वामी "इनः सूर्यप्रभौ राजा मृगाङ्के क्षत्रिये नृप इत्यमरः" प्रभुः संयमी भूपतिः तेन प्रभुणा संगतिम् प्रेम न अगात् नाकरोत् सर्वोऽपि तेन सह सौहाद्र्चमरीरचत् तथा-विभुविक्रमेण विभोः प्रभोः विक्रमेणप्रभावेन तेजसा महिम्नेति यावत् द्वेधा द्विविधापि अनीतिः अन्याय्यम् दुराचारः अगमत् न्य. वर्तिष्ट अन्यत्र अनीतिः "अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभामूषिकाः खगाः । अन्त्यासन्नाश्चराजानः पडेता ईतयः स्मृता" इत्युक्तप्रकारा ईतयो न भवन्तीति अनीतिरीत्यभावः अगमत् प्रापत् सर्वत्र प्रासरत् क्रमेण पर्यायेणापि भुवि पृथिव्याम् कयापि कलया केनाप्यंशेन नाशम् विपतिः न कस्यापि वस्तुनो लेशतोऽप्यभावो न जजम्भे इति तत्त्रम् सर्वसाधारणम् अत्र यमकः । ३८॥ विद्याधनं प्रमृमरं निधनं न लोके, स्तोके श्रमे सपदि वै-श्रमणत्वमासीत् । तेजोभरात्प्रतिपदं मणयो नराणां, रेजुर्विभेजुरत एव महोन्नति ते ॥ ३९ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अन्वयः --- लोके प्रसृमरं विद्याधनम् आसीत् निधनम् न आसीत् स्तोके श्रमे सपदिवैश्रमणत्वम् आसीत् नराणां तेजोभरात् प्रतिपदम् मणयो रेजुः अत एव ते महोन्नितिम् विभेजुः ॥ ३९ ॥ १५२ wwwwwwww व्याख्या - लोके जने प्रसृमरं सर्वत्र प्रसरत् सर्वव्यापकम् विद्याधनम् विद्यासम्पत् आसीत् अखिलजना विद्यावन्तः स्तदानीमभवन्निति भावः तथा निधनम् विनाशः अकालमरणादिर्न यद्वा निधनन्निर्धनता दारिद्रयन नेवासीत् स्तोके अल्पे लधीयसि श्रमे आयासे यत्न इति यावत् वैश्रमणत्वम् कुवेरत्वम् धनपतित्वम् आसीत् अल्पायासेनैव महाढ्यत्वमजायतेत्यर्थः अथवा स्तोके तनीयसि श्रमे यत्नेवै इति रञ्जनार्थम् श्रमणत्वम् मुनित्वम् साधुत्वम् आसीत् सर्वेषान्निर्मलपवित्रच - रित्रत्वात् सज्ज्ञानित्वाच्च चारित्र्य वेषग्रहणादेवमुनित्वं अजायत इति तत्वम् जनानां लोकानां तेजोभरात् पुण्यप्रभावात् प्रतिपदम् पदे पदे मणयो रत्नानि रेजुः शुशुभिरे अत एव अस्मादेव पुण्यप्रभावात् ते जनाः महोन्नतिम् सम्यगभ्युदयम् विभेजुः बभ्रुः लभन्ते स्म सर्वत्रसा धारणम् ।। ३९ ।। तस्मिन् महीं जगति शासति सा सतीव, लक्ष्मीने तु व्यभिचचार नरोत्तमेभ्यः । जातं कदापि न जने व्यसनं ननन्दा नन्दात् कलाव्यसनमेव निषेवणादेः ||४०|| अन्वयः -- जगति तस्मिन् महीं शासति सा लक्ष्मी: सतीव नरोत्तमेभ्यः न तु व्यभिचचार जने व्यसनम् कदापि न जातम् आनन्दात् निषेवणात् कलाव्यसनमेव ननन्द ॥ ४० ॥ व्याख्या -- जगति विष्टये तस्मिन् प्रभौ महीं पृथ्वीं शासति योगक्षेमं विधायके सति अधिकुर्वतिसति सा प्रसिद्धा नितान्तचञ्चला Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-३ १५३ लक्ष्मीः श्रीः सतीव पतिव्रतास्त्रीय नरोत्तमेभ्यःसत्पुरुषेभ्यः न तु व्यमिचचार कदाचिदपिन जहौ कदापि कसिन्नपि समये जने लोके व्यसनम् विपद् न जातम् न बभूव 'व्यसनं विपदिभ्रंशे दोषे कामजकोपजे इत्यः मरः" आनन्दात् हर्षात निषेवणादे। सेवनादेः कलाव्यसनमेव चतुःषष्टिकलाभ्यासाभिनिवेशमेव ननन्द जजम्भे सर्वपक्षसामान्यम् ॥४०॥ जज्ञे करव्यतिकरः किल भास्करादौ, दण्डग्रहाग्रहदशा नवमस्करादौ । नैपुण्यमिष्टजनमानसतस्करादी, __ छेदः सुसूत्रधरणात् तदयस्करादौ ॥ ४१ ॥ अन्ययः---करव्यतिकर; भास्करादौ किल दण्डग्रहाग्रहदशा नवमस्करादौ इष्टजनमानसतस्करादी नैपुण्यम् सुसूत्रधरणात नदयस्करादौ छेदः जज्ञे ॥४॥ व्याख्या-प्रभौ राज्य शासति सतीति पूर्वश्लोकसम्बन्धमनुस्त्याह जज्ञ इति करव्यतिकरः करस्य किरणस्य व्यतिकरो व्यसनम् भास्करादौ सूर्यादिग्रहे न चान्यत्र लोके करस्य अंशोप्तेि राजग्राह्यभागस्य वा व्यतिकरो व्यसनम् विपर्यासो जज्ञे उत्पेदे " बलिहस्तांशवः करा इत्यमरः” दण्डग्रहाग्रहदशा दण्डस्य यष्टिकादेः ग्रहो ग्रहणम् तस्याग्रहदशा दण्डग्रहणस्य निश्चयाभिनिवेशः नवमस्करादौ नवे नूत्ने मस्करादौ वंशादौ नवीनवंशकरीरादौ दण्डग्रहणनिश्चयः "मस्काशतपर्वाचेत्यमरोहैमश्च" जज्ञे बभूव न चान्यत्र जने दण्डस्य दमस्य राजादिकृतनिग्रहस्य यो ग्रहः ग्रहणन्तस्य आग्रहदशा अवश्यकतव्यदशा न जज्ञे न जाता इष्टजनमानमतस्करादौ इष्टजनस्य स्वाभीष्टनायकनायिका दिरूपजनस्य यो मानसो हृदयम् तस्य तस्करादौ चौर्यादौ किश्चिदपि ग्रहणादौ नैपुण्यम् चातुर्यम् स्वप्रणयिहइयग्रहणे कौशलम् न चान्यत्र वस्तुविषयकचौर्यनैपुण्यम् प्रभौ शासति कोऽपि पाटचरकौशल्यत्रक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये रोतिस्मेति भावः छेदच्छेदनम् सुसूत्रधरणात् सूत्रधारत्वात् तदयस्करादौ तदीयतक्षकादौ लौहकारादौ न च केषांश्चिदपिगुणच्छेदोऽङ्गच्छेदो वा जज्ञे अत्र परिसंख्यालंकारः सर्वपक्षसाधारणम् ॥ ४१ ॥ व्यर्थीकृते सुकृतिना कृतिना स्वकामे, सोऽर्थी जनः पुनरनन्तधनः परार्थी । काठिन्यधीः कनकवत्यपि देवशैले, सिन्धोः परत्र विषये न सदर्णवत्त्वम् ॥४२॥ अन्वयः-सुकृतिना कृतिना स्वकामे व्यर्थीकृते सोऽर्थीजनः अनन्तधनः पुनः परार्थी काठिन्यधीः कनकव त्यपिदैवशैले सिन्धोः सदर्णवत्वम् परत्रविषये न॥४२॥ ___व्याख्या-कृतिना कुशलेन विदुषेत्यर्थः सुकृतिना पुण्यशालिना स्वकामे स्वमनोरथे स्वाभिलाष व्यर्थीकृते सति परित्यक्ते सति सततसर्वसौख्यसान्निध्यान्मनोरथाभावे सति इति भावः स अर्थी अर्थप्सुर्जनो याचकवर्गः अनन्तधनः अतुलितसम्पत् पुनः परार्थी परस्मै अर्थो धनं यस्य स परप्रयोजनदानार्थमेव धनसंग्रहो न स्वार्थमिति तत्वम् कनकवत्यपि स्वर्णवत्वेऽपि हिरण्मयत्वेऽपि देव शैले सुमेरुगिरौ काठिन्यधीः कार्कश्यमतिः अन्यत्र स्वर्णवति जने काठिन्यधीः कार्पण्यबुद्धिः मितम्पचित्पन्न सिन्धोः समुद्रस्य सदर्णवत्वम् सदाजलवत्वम् सर्वदैव सजलत्वम् तत इति शेषः परत्रविषये समुद्रादितस्त्र जने सदर्णवत्वम् सदा ऋणवत्वम् अधमर्णत्वम् नासीदिति शेषः प्रभौ शासति केऽपि ऋणिनो न जज्ञिरे इति भावः अत्र यमकः परिसंख्या चालंकारौ । सर्वत्रसमम् ।। १२ ।। दानं ददत्सु जनवत्सलवत्सदित्सा बानेन मार्गणगणस्य महाशयेषु । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-1 १५५ निन्दन्ति देवतरवः स्वभवं विवर्ण, यन्नाम नः स्वरविधौ पटुतालवोऽपि ॥ ४३ ॥ अन्वयः-जनवरसलवत् सदिस्साहानेन मार्गणगणस्य दानन्ददत्सु महाशयेषु देवतरवः विवर्ण स्वभवं निन्दन्ति यत् नः नाम स्वरविधौ पटुतालवोऽपि न ॥ १३ ॥ व्याख्या--जनवत्सलवत् सर्वदयालुवत् सर्वजनस्नेहपारवश्येनेव सदित्साहानेन दानेच्छया आकरणेन मार्गणगणस्य मार्गयति याचते इति मार्गणो याचकस्तस्य गणः संघस्तस्य दानम् ददत्सु दानंयच्छत्सु "शेषत्वविवक्षायां षष्ठी" महाशयेषु महानुभावेषु अतुच्छाशयेषु सत्सु इति भावः देवतरवः कल्पपादपाः विवर्ण मलिनं नितरानिरुपयोग खमवं निजजन्म निन्दन्ति विगर्हयन्ति यत् यस्मात् नः अस्माकम् नाम अभिधानम् स्वरविधौ शब्दप्रयोगविषये पटुतालवोऽपि दक्षत्वलेशोऽपि खकीयाऽभिधेयार्थकणिकाऽपि न लभत इति शेषः प्रभुकर्तुकतादृशनिरर्गलदानकालेऽस्माकनामलेशतोऽपि न सार्थकमिति कल्पवृक्षादयः खमनसि मन्यन्त इति भावः अतिशयोक्तिरलंकारः सर्वपक्षसदृशोऽयमर्थः ॥ ४३ ॥ दिव्या-गमाः पवनदुर्यवनावधूता, भूता इवातिविषमाकृतयः स्फुरन्ति । जाड्यान्न तत्समुचितं बहुपात्रयोगे, ऽप्येषां यतः फलबले रसभेद एव ॥ १४ ॥ अन्वयः-पवनदुर्थवनावधूतादि म्यागमा भूता इव अतिविषमाकृतयः पुरन्ति बहुपानयोगेऽपि जाव्यात् तत् न समुचितं यतः एषां फलबले रसमेद पूर्व ॥ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये व्याख्या-पवनदुर्यवनायधृताः पवनस्य वायोर्योदुर्यवनः असहवेगस्तेन अवधूता विलोकिताः कम्पिता इत्यर्थः दिव्यागमाः सुर पादपाः कल्पवृक्षादयः भूता इव व्यन्तरा इव विषमाकृतया बीभत्सरूपा भयजनकाकृतयः स्फुरन्ति समुल्लसन्ति इति समुल्लसन्तु नाम किन्तु बहुपात्रयोगे अनेकसत्पात्रसमवधाने जाड्यात् स्थावरत्वेन बाह्यज्ञानवैमुख्यात् यत् विषमाकृतित्वम् वैमुख्यत्वम् अर्थिजनपराङ्मुखत्वम् तत् न समुचितम् न योग्यम् उत्तरपदगतस्तत् शब्दः पूर्वपदगतं यत् शब्दमपेक्षत इति भावः यतः वैमुख्याद्धतो रसभेद एव भिन्नरसतैव तथाहि यनेषां कल्पपादपानां दानवीरता आसीत् तदिदानीम् वैमुख्यात भूनाभिनिवेशाच भयानकत्वं पर्यवसितम् भयानकत्वेन परिणमतीति भावः अतद्गुणालंकारः ॥४४॥ जानन्ति दानविधिमत्र न देववृक्षाः, शाखाश्रयं फलमलं दधते यदेते ॥ दृष्टं कदाचन सपक्षगणेन लभ्यं, नामीषु तत्फलबलं प्रतिपात्रमिष्टम् ॥ ४५ ॥ अन्वयः-देववृक्षा अत्रदान विधिन्नजानन्ति यदेते शाखाश्रयं फलम् अलन्दधते सपक्ष गणेन लभ्यं कदाच नदृष्टम् यत् प्रतिपात्रम् इष्टम् तत्फलबलम् अमीषु न दृष्टम् ॥ ४५ ॥ व्याख्या-अत्र लोके देववृक्षाः मुरपादपाःदानविधिम् सत्पात्रार्पणव्यापारन्न जानन्ति नावबुध्यन्ति यद्यस्मात् एते कल्पशाखिनः शाखाश्रयं स्कन्धशाखाश्रयं विटपाधीनमित्यर्थः फलम् स्वसंपत् अलम्पर्याप्तम् दधते धारयन्ति स्वाधीनफलाभावात् कस्मैचिदपिदातुं कथं प्रभवेयुरिति भावः सपक्षगणेन पतत्रिसंवेन अथ च स्वकीयवर्गेण आत्मीयजनेनेत्यर्थः लभ्यम् प्राप्यम् फलमिति शेषः कदा च कसिन्नपि समयेन दृष्टम् Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-३. १५७ नावलोकितम् अतः संभावयामि अमीषु कल्पवृक्षेषु यत्फलबलम् फल. सम्पत तत् प्रतिपात्रम् प्रतियोग्ययाचकजनम् इष्टम् लभ्यन्न ए ने प्रति पात्रन्दानसमर्था न भवन्तीति प्रभवस्तुप्रतिपात्रं दानं यच्छन्तीति व्यतिरेकालंकारो व्यायः ॥ ४५ ॥ चिन्तामणिर्जलधिमध्यमिवाध्युवास, कल्पद्रुमा दिवमिवारुरुहुढियेव । नृणां तदाऽनृणकृतां भजनाजनानां, न्याय्ये परिस्फुरति राज्यबले तदीये ॥४६॥ अन्वयः-तदा अनृणकृतां नृणां जनानां भजनात् तदीये न्याय्ये राज्य क्ले परिन्फुरति हियेव चिन्तामणिर्जलधिमध्यम् अध्युवास इब कल्पद्रुमा दिवम् आरुरुहुरिव ४६ व्याख्या-तदा तस्मिन् समये तदीये वर्णनीयनायकसम्बन्धिनि न्याय्ये न्यायानुगते नीतिमनुसृत्य प्रवर्त्तमाने राज्यबले साम्राज्ये परिस्फुरति जरीजृम्भमाणेसति अनुणकृतां ऋणं कुर्वन्तीति ऋणकृतः न ऋणकृतः अनृणकृतस्तेषामनधमर्णानां जनानाम् लोकानाम् भजनात् सेवनात् चिन्तामणिः चिन्तितार्थप्रदानप्रभविष्णुरत्नम् हियेव लायेव जलधिमध्यम् समुद्रान्तः अध्युवास निवसतिस्म इव यथाऽन्योऽपि लापारवश्याजलमञ्जनं करोति तथायमपि समुद्रे ममज तथा च कल्पद्रुमाः कल्पवृक्षाः हिया इव लज्जया इव कथम्वयं लोके स्वा वमाननं सहामहे इति बुद्धयैव किमिति शेषः दिवम् स्वर्गम् आरुरुहुरिव रोहन्तिस्म किम् ।। सतां माने म्लाने मरणमथवादूरगमनमित्यभियुक्तोक्तिमवलम्ब्यैव स्वर्गयात्रामकुर्वन्निति भावः अत्र श्लोके क्रियोत्प्रेक्षालंकारः ॥ ४६॥ अस्मिन् प्रभो विभवमाश्रयति प्रभावा, भावाः समीहितविधानकृतावधानाः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्भानमहाकाव्ये देवद्रुदेवमणिदेवलतादयोऽपि, मन्येऽवतेरुरिह देवचिरानुरागात् ॥ ४७ ॥ अन्वयः--मस्मिन् प्रभो विभवम् माश्रयति प्रभावाभावाः समीहितविधानकृत्तावधाना: देवचिरानुरागात् देवलुदेवमणिदेवलतादयोऽपि इह भवतेरुः इति मन्ये ॥ १७ ॥ व्याख्या--अस्मिन् वर्णनीयनायके प्रभो जिनेन्द्रेऽन्यत्र प्रभावशालिनि यद्वा असिन् जगति प्रभो स्वामिनि विद्यमाने सतीति शेषः तथा च विभवम् ऐश्वर्यम् आश्रयति अधिष्ठिते परमैश्वर्यसम्पन्ने सति प्रभवाः प्रकृष्टेन सर्वतोऽधिकेन भवन्तीति प्रभवाः श्रेष्ठा भावाः पदार्थाः पृथिव्यादयः समीहितविधानकृतावधानाः समीहितस्य अभिलषितस्य विधाने सम्पादने सौलम्ये कृतावधानाः सयलाः आसन्निति शेषः प्रभो विद्यमाने सर्वेऽपि स्थावरजङ्गमादयो भावाःस्वस्वसेवार्थन्तदीप्सि तविधानदक्षा बभूवुरित्यर्थः तथा च देवचिरानुरागात् देवस्य जिनेन्द्रस्य अन्यपक्षे द्योतनात्मकस्य चिरानुरागात् दृढप्रेमतः निरतिशय भक्तिपारवश्यादित्यर्थः देवद्रुदेवमणिदेवलतादयः कल्पवृक्षचिन्ताम णिकल्पलताप्रभृतयः इह प्रभुसनाथितभूप्रदेशे सेवार्थमिति शेषः अवतेरुः अवतीर्णाः स्वर्गादाजग्मुरिति मन्ये जाने उत्प्रेक्षालंकारः॥१७॥ कौमारस्फारतेजोदहनमसहनाः प्राप्य निर्दग्धभूमौ, पादन्यासेऽप्यशक्ता नगनगरकरस्याग्रहे कैषु वार्ता । मुक्त्वा राज्यान्यवन्या उपवनपवनैः साहचर्यात् कदर्या, दर्यामध्ये मृगाक्षीक्षणविषयसुखं भुञ्जते भ्रान्तिभाजः४८ इतिश्री सप्तसंधाने महाकाव्ये श्रीराज्याके कौमा. रवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः ॥३॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग- १ १५९ अन्वयः-कौमारस्फारतेजोदहनम् प्राप्य असहना निर्दग्धभूमौ पादन्यासेऽपि असक्ताः नगनगरकरस्य आग्रहे एषु कावार्ता अवन्या राज्यानि मुक्रवा उपवनपवनैः साहचर्वात् कदयां भ्रान्तिभाज: दर्यामध्ये मृगाक्षीक्षणविषयसुखम् भुञ्जते ॥ ४७ व्याख्या-कौमारस्फारतेजोदहनम् कुमारो युवराजः "जनको युवराजस्तुकुमारो भतदारक इत्यमरः ” यद्वा कुमारयति क्रीड़यतीति कुमारः, कुत्सितः अप्राप्तयौवनत्वात् मारोयस्य स अथ च कुत्सितोनिन्दितोमारः कामदेवो यस्मात् स अथवा को पृथिव्यां मार इति कुमारः तस्मिन् भवम् कौमारं यत् स्फारम् विकटम् अत्युग्रम् तेजः प्रभावम् तदेव दहनो वह्निस्तम् कौमारीयविपुलप्रतापाग्निम् प्राप्य तममिमधिगम्य असहनाः असहिष्णवः तदीयप्रतापानिसोढुमक्षमा निर्दग्धभूमौ तत् प्रतापाग्निप्लुष्टमेदिन्यां स्वकीयभुमौ पादन्यासेऽपि चरगन्यासेऽपि असक्ता अप्रभविष्णवः असमर्थाः नगनगरकरस्याग्रहे नगनगरस्याग्रहे नगस्य पर्वतस्य नगरस्य पुरस्य करस्य राजग्राह्यस्य राज. स्वस्येत्यर्थः तेषां आग्रहे समन्तात् ग्रहणे विषये एषु नगनगरकरेषु का वार्ता का चयाँ पलायनमार्गोऽपि न पश्यन्तीति किमुपुनरेतेषां ग्रहणेषु प्रसक्तिरिति भावः ते पुनः अवन्या भूमेः राज्यानि स्वसाम्राज्यानि मुक्त्वा परित्यज्य उपवनपवनैः उद्यानवातैः साहचर्यात् संबन्धात् कदर्याः कद कृताभ्रान्तिभाजःविवेकविकलाः प्रतीपराजा. न इति शेषः दर्याः कन्दरायाः गिरिगुहाया अन्तः मृगाक्षीक्षणविषयमुखम् मृगाक्ष्या मृगनयनायाः कामिन्याः क्षणम् क्षणमभिव्याप्यविषयसुखम् सांसारिकविषयन्द्रियमुखं भुञ्जते अनुभवन्ति विपक्षपक्षाश्रिता नृपा स्तद्भयादितस्ततः पलायमानाः कचित्कन्दरादौ क्षणम् विषयसुखं चकितचकिता अनुभवन्तीति तात्पर्यम् । अत्र श्लोके स्रग्धरावृत्तम्५८ इति शास्त्रविशारद-कविरनभट्टारकाचार्य-श्रीविजयामृतसूरीश्वरप्रणीतायां सप्तसन्धान-महाकाव्य-सरणी टीकायां तृतीयः सर्गः ॥ ३ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये ॥ चतुर्थः सर्गः ॥ . देवावतारसमये सममेव देवाः, सेवार्थिनी भगवतः समुपेयुरुाम् । सर्वे ततः सुमनसो विबुधा विशिष्य, तहानवारिमतयः सततं प्रकृत्या ॥ १ ॥ अन्वयः--देवावतारसमये भगवत: सेवार्थिनः देवाः सममेव उर्ध्या समुपेयुः ततः सर्वे सुमनसः विबुधाः प्रकृत्या विशिष्य तद्दानवारिमतयः बभूवुः ___ व्याख्या-देवावतारसमये-देवस्य शक्रस्य अवतारसमये-प्रभो राज्याभिषेकार्थयागमनकाले भगवतः ज्ञानादिमतः श्रीमदृषभदेवस्वामिनः सेवार्थिन =उपासनाकाङ्गिणः देवाः सममेव-एकदेव इन्द्रेण सहैव वा उल्-श्रीमञ्जिनेन्द्रपदपङ्कजाधिष्ठितभूतले समुपेयुः-समुपाजग्मुः । ततः तदनन्तरं सर्वे निखिलाः सुमनसः समुल्लसितचेतसः विबुधा: देवाः देवसदृशयुगलिनश्च प्रकृत्या स्वभावेन अन्यप्रेरणांविनवेत्यर्थः विशिष्य=विशेषरूपेण तदानवारिमतयः=तदानवारिषु राज्यदानार्थजलेषु तदुपसंग्रहे इति भावः । मति: बुद्धिर्येषां ते तादृशाः बभूवुः। . .. २-३-४-५-६ पक्षेषु-देवस्य प्रभोः राज्ञो वा अवतारसमये भूम्यागमनसमये एव भगवतः ऐश्वर्यादिमतः सेवार्थिनः उपासिपवः केचिद् देवाः समम् सहब ( भगवदधिष्ठितभूमौ समुपेयुः अवत्तेरुः । ततः योग्यसमये सर्वे ते तद्दानवारिमतयः तस्मै राज्यदानार्थ कृतबुद्धयः अथवा तस्मिन् (प्रभौ) दानवारिः-देवः अयम् इति मतियेषां ते तादृशाः बभूवुः ।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृत सूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ ७ पक्षे - ततः तदनन्तरं राज्याभिषेकानन्तरं तद्दानवारिमतयः= दानवारिः कृष्णस्तस्मिन्मतिः सद्भावना येषां ते दानवारिमतयस्ते च ते दानवारिमतयश्चेति तद्दानवारिमतयः बभूवुः शेषं पूर्ववत् ॥ १ ॥ प्रीत्याशयं दधति भूरिजनास्तदुच्चं, त्यागं विधाय पुरतः सुरतानुषङ्गे । मिश्रियैव कलयन्त्यकलङ्कभावं, १६१ ते दक्षजातिरुचयो वसुधाभुजोऽपि ॥ २ ॥ अन्वयः - भूरिजनाः प्रीत्याशयं दधति तत् दक्षज्ञातिरुचयः ते वसुधाभुजः पुरतः सुरतानुषङ्गे उच्च यागं विधाय मित्रश्रियैव अकलङ्कभावं कलयन्ति ||२|| व्याख्या - भूरिजनाः सर्वे लोकाः नृपविषये प्रीत्याशयं = प्रीतियुक्तम् आशयं चित्तम् अभिप्रायं वादधति - धारयन्ति प्रमुदितचेतसो भवन्तीत्यर्थः तत् तस्माद्धेतोः दक्षजातिरुचयः = दक्षा=पट्वी जातिः रुचिः = दीप्तिश्च येषां ते यद्वा दक्षजाः = अश्विनीप्रभृतितारा अतिकान्ता रुचिर्येषां ते तादृशाः ते= पूर्वोक्ताः वसुधाभुजः = पृथ्वीपतयः श्रीनाभिराजादयः पुरतः = अग्रतः नगरेषु वा गृहेषु वा सार्वविभक्तिकस्त सि ।। स्यात्पुरः पुरतोऽग्रतः इत्यमरः । अगारे नगरे पुरमितिचामरः । सुरतानुषङ्गे = सुराणां समूहः सुरता तस्या अनुषङ्गे-सम्बन्धे देवानुद्दिश्येत्यर्थः उच्च=महान्तं त्यागं दानं विधाय मित्र श्रियैव = सुहृलक्ष्म्यैव साकं खसाम्राज्यश्रियः अकलङ्कभाव - व्यावर्तक चिह्नाभावेनाऽभिन्न भावं कलयन्ति = संपादयन्ति ।। २ ।। पूर्वानुरागकलया सकृदिन्द्ररूपा, भूपा जनुर्धनुरुपाश्रयणानुरूपाः । सौधर्म संगतिभवद्विशदस्वरूपाः ॥ ३ ॥ स्तूपा इवोदितमहोन्नतपुण्यकर्म ! Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाग्ये अन्वयः-पूर्वानुरागकलयाऽसकृदिन्द्ररूपाः जनुर्धनुरुपाश्रयणानुरूपाः भूपाः स्तूपा इव उदितमहोन्नतपुण्यकर्म सौधर्मसंगति भवद्विशदस्वरूपाः आसन् ॥३॥ ___ व्याख्या-पूर्वाऽनुरागकलया पूर्व:प्राम्भवीयः अनुरागः= स्नेहः तस्य कलया अंशेन असकृदिन्द्ररूपाः वारंवारमिन्द्रस्वरूपाः जनुर्धनुरूपाश्रयणाऽनुरूपाः जनुषः जन्मत एवं यद्धनुरूपाश्रयणंधनुर्विद्याऽभ्यासस्तस्य अनुरूपाः अनुकूला योग्या इत्यर्थः शूग इति यावत् भूपाः स्तूपाः=देव मन्दिराणीच उदितमहोन्नतपुण्यकर्मसौधर्मसंगतिभवद्विशदस्वरूपा:-उदितं प्राप्तोदयं महोन्नतम् अतिप्रशस्तम् अत्युच्छ्रितं वा यत् पुण्यकर्म-धर्म्य कृत्यं तेन या सौधर्मसंगतिःसुधा-देवसभाऽस्त्यस्मिन्निति सौधर्म:-तदाख्यः कल्पस्तत्रभवोपि तात्स्थ्यात् सौधर्मः सौधर्मेन्द्र इत्यर्थः यद्वा मुधमैव सौधर्मस्तस्य संगत्या संनिधानेन भवद् विशदं रूपं येषां ते तथोक्ता आमन् ॥३॥ साम्राज्यमस्य सुषमासुषमानुभावि. धर्मादरेण परिशीलयतः सलीलम् । यातेऽप्यनेहसि घनेऽथ सुमङ्गला स्त्री, साऽसूतकाशु-भरतं ननु सूनुरत्नम् ॥४॥ अन्वयः--सुषमासुषमाऽनुभावधर्मादरेण साम्राज्यं सलीलं परिशीलयतः भस्य सा सुमंगलास्त्री घनेऽनेह सि याते भरतं सूनु लम् आशु असूनक ॥ ४ ॥ व्याख्या-सुपमासुषमाऽनुभाविधर्मादरेण-मुषमासुषमाया:एकान्तमुषमायाः चतुःसागरोपमकोटाकोटिपमाणक सुषमासुषमाख्य प्रथमारकस्य योऽनुभाव: अनीतिराहित्यादिरूपप्रभावः सोऽस्त्वस्मिन् स तादृशो धर्मः राजधर्मस्तस्यादरेण सत्कारेण अनतिक्रमेणेति भावः साम्राज्य-सार्वभौमत्वं दशलक्षाधिपत्यं वा 'लक्षाधिपत्यं राज्यं स्यात् साम्राज्यं दशलक्षके' इत्युक्तेः। सलीलम् लीलया सहितमनायासे. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- ४ ११॥ नेत्यर्थः परिशीलयतः समन्तात्पालयतः अस्य श्रीमदृषभदेवस्य सा मुमंगला-तदभिधाना स्त्री धने-बहुतरे अनेहसिकाले याते-व्यतीते सति भरतं तदाख्यं सूनुसनं-पुत्र श्रेष्ठम् आशु-शीघ्रम् अस्तक प्रासोष्ट ।। ४ ॥ अन्यापि देववनिता सुकृतान्नितान्तं, चक्रायुधं प्रसुषुवे वपुषाभिरामम् । नाम्नापि बाहबलिनं फलिनं द्रुमं भूः, प्राचीव भानुमदितं च जयं शचीव ॥ ५॥ अन्वयः--अन्यापि देववनिता नितान्तं सुकृतात नान्नाऽपि बाहुबलिनं चक्रायुधं वपुषाऽभिरामम् भूः फलिनं द्रुममिव. प्राची उदितं भानुमिव शची जयमिव प्रसुषुवे ॥ ५ ॥ व्याख्या-अन्याऽपि-अपराऽपि द्वितीयापीत्यर्थः देववनिता आदिदेवभार्या मुनन्दा नामधेया नितान्तं सुकृतात्=पुण्यातिशयमहिना नाम्ना अपिना गुणेनापि बाहुबलिनं-तदाख्यं भुजबलशालिन चक्रायुध-चक्राख्यमायुधमस्त्यस्य हस्तादौ चिनरूपेणेति तं तादृशं वपुषा-शरीरेण अभिराम मनोहरं सूनुरत्नमित्यनुषज्यते प्रसुषुवेप्रसूतवती । का कामिव भूः पृथ्वी फलिनं-फलसमृद्धमनवकेशिनमितिभावः द्रुमं वृक्षमिव । प्राची पूर्वदिशा उदितं प्रकाशमान भानु= सूर्यमिव । शची-इन्द्राणी-जयन्तमिवेत्यर्थः । इत्याद्यपक्षीयोऽर्थः। द्वितीयपक्षे तु-अन्यापि देववनिता श्रीशान्तिनाथप्रभोः पट्टराज्ञी श्रीयशोमती नाम्नी नितान्तं सुकृतात् अतिशयपुण्यप्रभावात् वपुषाऽभिराम मनोहरकलेवरं बाहुबलिन भुजबलवलितं नाना= आख्यया अपि शब्दात् अन्वर्थतागुणेन च चक्रायुध-तदाख्यं मनुरत्नं प्रसुषुवे अजीजनत् । तदुक्तं शान्तिनाथचरिते-गर्भाधानं भजति Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्य भगवत्यत्रमात्रा निरैक्षि, स्वप्ने चक्रं समुदितविभाचक्रकाष्ठावभास। अस्मान्चक्रायुध इति सुतस्याऽस्य नामाऽभिधानं, श्रीमान् शान्तियं. धितविधिवल्लोककल्पद्रुकल्पः । १४ । २०८ । अन्ये समाहितनया विनयाद विरेजुः, श्रीलक्ष्मणादिविदिता दितशात्रवास्ते । भूमीभुजां विहितशक्रपराक्रमेण, शत्रुघ्न इत्यभिधया सुधिया प्रशस्याः ॥ ६ ॥ • अन्वयः-अन्ये ते समाः तनया: विनयात् विरेजु: श्रीलक्ष्मणादिनिदिता:दितशात्रवाः भूमीभुजां विहि शक्रपराक्रमेण सुधिया शत्रुघ्न इत्यभिधया प्रशस्याः । रामपक्षे-अन्ये ते श्रीलक्ष्मणादिविदिताः शत्रुघ्न इत्यभिधया ख्यातः कनिष्ट सर्वे विनयाद्विरेजुः समाहितनयाः दितशात्रवाः भूमीभुजा विहित. शक्रपराक्रमेण सुधिया प्रशस्याः ॥ ६ ॥ व्याख्या---अन्ये=अपरे ते समा:-तुल्याः अष्टनवतिसंख्यकाः तनया: भगवत आदिदेवस्य पुत्राः विनयात्-शुरुजनेषु नम्रभावात् विरेजुः शुशुभिरे । कीदृशा इत्याह-श्रीलक्ष्मणादिविदिताः श्रीः शोभा बुद्धिर्वा कीर्तिर्वा लक्ष्मणं-नामधेयं तदादिभिर्विदिताः-जगतिप्रसिद्धाः। दितशात्रवादित-खण्डितं शात्र-शत्रुसमूहो यैस्ते यद्वा दिता=छिन्नाः शात्रवाः वैरिणो यैस्ते शौर्यसम्पन्ना निष्कण्टकाश्चेति भावः भूमीभुजांम्राज्ञां विषये मध्ये वा विहितशक्रपराक्रमेण-प्रकटी कृतेन्द्रतुल्यविक्रमेण हेतुना मुधिया-प्राज्ञजनेन शत्रुघ्न इत्यभिधया इत्याख्यया प्रशस्याः प्रशंसार्हाः ।। सिंहावलोकनन्यायेन प्रागनुक्तान् श्रीरामबलदेवभ्रातृन् इह नाम्ना निर्दिशति कविः-अन्ये प्रागनुक्तशिष्टा अपरे ते प्रसिद्धाः, श्रीलक्ष्मणादिविदिता: श्रीलक्ष्मण आदिउँपां ते श्रीलक्ष्मणादयस्ते च ते Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ १६५ विदिताः ज्ञातारश्चेति ते तथोक्ताः आदिना भरतः शत्रुघ्न इत्यभिधया नाम्ना ख्यातः कनीयांश्च सर्वेविनयाद्विरेजुः कीदृशा इत्याह समाहितनया-समाहितः समवलम्बितः सम्यस्थिरीकृतोवा नय:= नीतियैस्ते दितशात्रवाः खण्डितपरिपन्थिजनाः भूमीभुजां विहित शक्रपराक्रमेण सुधिया प्रशस्याः । सम्यक चचाल जनता विनये नये च, जज्ञेऽस्य राज्यमहिमा विजये जये च । सारस्यमेव यशसो निनदेन देव, वृष्टेः सुखार्जनमनोमदनेऽदने च ॥७॥ अन्वयः-जनता विनये नये च सम्यक् च चाल । अस्य राज्ञः राज्यमहिमा मिजये जये च जज्ञे। सुखार्जनमनोमदने ऽदने च अस्य राज्ञो यशसो निनदेन देववृष्टेः सारस्यम् (अभूत) ॥ ७ ॥ ___व्याख्या-जनता-जनसमुदायः विनये-राजभक्तो नये-राजनीतौ च सम्यक्-सुष्टु चचाल-वर्तनशीलाऽभूत् । अस्य राज्ञः राज्य. महिमा-राजकर्मप्रशंसा शासनप्रभाव इति यावत् विजये-विशिष्टजये जये सामान्यजये च जज्ञे-जातः। किञ्च मुखार्जन-मनोमदने सुखाजने-सुखेच्छायां मनोमदने-चित्तहर्षे अदने भोजने च अस्य राज्ञः यशसो निनदेन यशःप्रवादेन देववृष्टे मेघवृष्टितोऽपि सारस्यसरसता अभूत् । मेघवृष्टितः सुखार्जनादिकं भवति ततोऽप्यस्य राज्ञो विशेषेणाऽभूदित्यर्थः ॥ ७ ॥ नाभूद् भयं प्रस्तृमरे सबले बले च, व्यक्ते जवे सुकृतकर्मणि तेजनेन । लोके विरोकरूचिरे सुचिरं सतोके, जातं समाभिरसमाभिरलङ्घनेन ॥ ८॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अन्वयः --सबले बले प्रसृमरे तेजनेन सुकृतकर्मणि जवे व्यक्ते भयं नाऽभूत् लोके विरोकरुचिरे सतोके च सुचिरं समाभिः अरुनाभिः जातम् घनेन भलं जातम् ॥ ८ ॥ व्याख्या— सबले=बल- शक्ति - सहिते बले= सैन्ये प्रसृमरे = प्रसरणशीले सति तथा तेजनेन = उत्तेजनेन सुकृतकर्मणि- पुण्यकर्मणि जवे = वेगे व्यक्ते स्पष्टे सति भयं राजभयादिसप्तभेदवती भितिः नाभृत् । किञ्च विशेष रुचिरे - विशिष्टो रोक:- दीप्तिः विरोकस्तेनरुचिरस्तस्मिन् यद्वा विशिष्टो रोको दीप्तिर्यस्य सः अथ वा विगतो रोक:= छिद्रं दूषणमित्यर्थः यस्य स विरोकः स चासौ रुचिरथेति स तस्मिन्, सतोके=तोकैः=अपत्यैः सहिते च सति सुचिरं चिरकालाय समाभिः = संवत्सरैः असमाभिः =असाधारणीभिः जातम् = अभावि । घनेन= मेघेन च अलं= कृष्याद्यनुकूलधर्षणसमर्थेन जातम् = समजनि ॥ ८ ॥ सम्यश्रिया विलसनैर्व्यसनैर्विनैत्र, १६६ निस्सीम भीममहसा रिपुकम्पनैश्च । पुन्नागनागतुरगैः किमु दारलब्ध्या, भूचक्रचङ्कमणकुद नृप एष शक्रः ॥ ९ ॥ अन्वयः -- एष नृपः भूचक्रचङ्कमणकृत् शक्रः किमु । (कैः ? ) सम्यक् श्रिया विलसनैः व्यसनैर्विनैव निस्सीम भीममहसा रिपुकम्पनैश्च पुन्नागनागतुरगैः दारलब्ध्या (पक्षे उदारलब्ध्या) भूचक्रचङ्कमणकृत् अभूत् ॥ ९ ॥ व्याख्या - एष नृपः=श्रीविश्व सेनादि महीपतिः, भूचक्रचङ्क्रमणकृत् = भूमण्डलविहरणशीलः शक्रः इन्द्रः किमु इत्युत्प्रेक्षा तद्वीजमाह --- सम्यकू = चारुरूपेण श्रिया= साम्राज्यलक्ष्म्या पक्षे खाराज्य लक्ष्म्या विलसनैः= विलासैः, व्यसनैर्विनैव = विपद्राहित्येन निःसीमभीम महसा = निःसीमं = मर्यादातीतं यद् भीममहः = शत्रुभयावह तेजस्तेन, रिपुकम्पनैः=शत्रुजनत्रासजननैश्च पुनः पुन्नागनागतुरगैः-पुन्नागाः= Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ १६७ नरश्रेष्ठाः मन्त्र्यादयः नागाः हस्तिनः तुरगा: अश्वास्तैः इन्द्रपक्षे पुन्नागः पाण्डुनागः-श्वेतहस्ती ऐरावत इति यावत् नागाः-मेघा वाहनीभृताः 'तुरापाणमेघवाहन' इतीन्द्र पर्यायेऽमरोक्तेः तुरगः-अश्वः उच्चैःश्रवास्तैश्च तथा दारलब्ध्या-स्त्रीरत्नप्राप्त्या, इन्द्रपक्षे उदारल ध्या-महत्या शक्त्येत्यर्थः उपलक्षितः भूचक्रचक्रमणकृत्-विजयार्थ पृथ्वीमण्डले विहारकरणशीलोऽभूत् ।। ९ ।। एतत्प्रयाणसमये नमयन् शिरांसि, शेषो विशेषभृदशेषबलादुवाह । भूमि चलाचलतयोच्छ्वसनैः शनैर्वा, श्वासप्रयासपवनैः कृतपारणार्थः ॥ १० ॥ अन्वयः-एतत्प्रयाणसमये शेषः विशेषभृत् शिरांसि नमयत् शनैः उसनैः श्वासप्रयासपवनैः कृतपारणार्थः चलाचलतया ऽशेषबलात् भूमिम् उवाह ॥१०॥ व्याख्या-एनत्प्रयाणसमये-एतस्य राज्ञः प्रयाणसमये-विज. यार्थ प्रस्थानकाले शेष:-अनन्तनागः विशेषभृत्-पृथ्वीयथावद्धारणार्थसामातिशयमाश्रयन्नपि शिरांसि-फणामहस्रं नमयन्-प्रह्वीकु. र्वन् अत एव शनैः--मन्दम् उच्छुसनैः-श्रमजनितदीर्घोच्छसिः श्वासप्रयासपवनैः- श्वासग्रहणसंजातप्रयाससमुद्भुतमारुतैः कृतपारणार्थ:कृतभोजनेच्छः सन् चलाचलतया-संभ्रान्ततया ससंम्रममित्यर्थः अशेषवलात्-यावच्छक्तिमवलम्ब्य भूमिम् उवाह-दधार ॥ १० ॥ बुध्या समृद्धमनसाऽप्यनसा श्रुतीनां, छन्दोऽनुचारिवचनै रचनैश्चमूनाम् । राज्ञः समाहितविधेः सविधे विधेयां, मन्त्रीजनस्तदुदधेर्विदधेऽस्य सीमाम् ॥११॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये ___अम्बयः-समाहितविधेः अस्य राज्ञः मन्त्रीजनः उदधेः समीपे विधेयां सीमां विदधे । ( कैः ? ) बुध्या श्रुतीना मनसा मनसा छन्दोऽनुसारिवचनैः चमूनां रचनैश्च ॥ ११ ॥ ___ व्याख्या-समाहितविधेः- अनुकूलदेवस्य भाग्यशालिन इत्यर्थः अस्य राज्ञः चक्रवर्निनः वासुदेवस्य वा मन्त्रीजनः उदधेः सविधे समुद्रसमीपे विधेयां करणीयां सीमां-विशेषेण शासनीय (धारणीय) देशमर्यादा विदधे-कृतवान् । कैः कैस्पायरित्याह -बुद्धया औत्पातिक्यादिभेदभिन्नया मत्या श्रुतीनाम् अनसा-शास्त्रोक्तनीतीनां शकटवद् वाहकेनेत्यर्थः श्रुति-शास्त्र-विज्ञेनेतियावत् समुद्रमनसा-उदारचित्तेन अपिश्चार्थे छन्दोऽनुसारिवचनैः-अभिप्रायानुगुणवाक्यैः, चमूनांसेनानां रचनैश्च-यथोचितं सैन्यविभजनैः सैन्यविन्यासैर्वा ।। ११ ।। क्षोणीधवे जयिनि भूर्दिवमा जुहाब, बाधैर्गभीरनिनदैः स्वविभुप्रसाद्यैः । हित्वा सुधाशनरसान्नरसार्थगोष्टयां, स्वास्थ्येन तस्थुरमराः क्रमरागिणोऽत्र ॥१२॥ अन्वयः-क्षोणीधवे जयिनि स्वविभुप्रसाद्यः गभीरनिनदैः भूः दिवम् आजुहाव (इव) अमराः सुधाशनरसान् हित्वा अत्र क्रमरागिणः नरसार्थगोष्टयां स्वास्थ्येन तस्थुः ॥ १२ ॥ व्याख्या-जयिनि-विजयशालिनि क्षोणीधवे-पृथ्वीपतौ सति यद्वा क्षोणीधवे जयिनि-विजयमाने सति स्वविभुप्रसाद्यैःस्वः-निजः विभुः-राजा प्रसाद्यो येषां तैः गभीरनिनदैः-गम्भीरध्वनिशालिभिः वाद्यै-नानाविधवादित्रैः कृत्वा भूः-पृथ्वी दिवं-देवलोकं लक्षणया तत्स्थान् देवानित्यर्थः आजुहाव आह्वयतिम्मेवेति लुप्तोत्प्रेक्षावा. चिकोत्प्रेक्षा । अत एव अमरा:-देवाः सुधाशनरसान्-अमृतभोजन Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ १६९ .... ...... ........Anirnoon.......... जनितानन्दान् हित्वा-परिहाय अत्र चक्रवर्त्यधिष्ठितदेशे क्रमरागिणःक्रमे-आचारे चलने वा रागिणः कृतानुरागाः सन्तः नरसार्थगो. ष्ठयां-जनसमुदायमण्डल्यां स्वास्थयेन-सुखेन तस्थुः-स्थितवन्तः । चक्रवादीनां चक्रायधिष्ठायकतया देवानामिहागमनं जैनराद्धान्तप्रसिद्धम् ॥ १२ ॥ न्याये भुवि प्रस्समरे समरे न कोऽपि, स्थायी मिथःप्रतिघतोऽपि न चाततायी । तायी रसादसुमतां सुमताङ्कभाजा, तद्राजतेस्म तनयस्सनयस्स-राजः ॥ १३ ॥ अन्वयः--भुवि अस्य न्याये समरे कोऽपि समरे मिथः न स्थायी । प्रतिघतोऽपि कोऽपि आततायी न [आसीत] अस्य राज्ञः तनयः सुमताङ्कभाजामसुमतां रसात तायी सनयः सराजः राजतेस्म ॥ १३ ॥ व्याख्या- मुवि-भूमण्डले अस्य राज्ञः न्याये-नीतौ प्रसृमरेप्रसरति सति कोऽपि जनः समरे-संग्रामे मिथः-परस्परं न स्थायीराजभयेन नाऽवतिष्ठते. प्रतिघत:-क्रोधादपि कोपाविष्टोऽपि सन्नित्याशयः कोऽपि आततायी-आततेन-विस्तीर्णन शस्त्रादिनायितुं शीलमस्य सः-वधोद्यतः अग्निदादिलक्षण इति यावत् तथा चोक्तम् अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। . क्षेत्र-दागपहारी च पडेते आततायिनः ।। इति । न आसीदिति शेषः। किञ्च अस्य राज्ञः तनय:--पुत्रोऽपि सुमताङ्कभाजां-मुमतानां-सज्जनानाम् अङ्कम्-उत्सङ्गं-कोडं-भजन्ते इति मुमताङ्कभाजस्तेषां तादृशानाम् असुमतां-प्राणिनां रसात स्नेहात् वात्मल्यादिति यावत् तायी-रक्षणशीलः पुनः सनया-नीतियुक्तः, सराजा-राजनं राजः-दीप्ति तेन सहितः राजतेस्म शोभतेस ॥१३॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. महोपाध्याय श्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाव्ये नृणां गणो निरवधिर्धनवर्धनेन, प्राप्तावधि जनतो जिनराजिराजाम् । कार्पण्यमाश्रयति नैव मनाक स्पण्यः, प्रावीण्यपुण्यविधिनैव धुनोति पङ्कम् ॥ १४ ॥ अन्वयः-नृगांगण: धनवर्धनेन निरवधिः जिनराजिराजां भजनतः प्राप्तावधिः । सपण्यः मनाक कापण्य नैवाश्रयति प्रावीण्य पुण्यविधिनैव पकं धुनोति ॥१४॥ व्याख्या---नृणांगणः जनसमुदायः धनवर्द्धनेन-धनधान्यादि. समृद्धथा निरवधिः-अनन्तः धनिक श्रेण्यां सर्वाग्रगण्य इति भावः अथ च अबधिरहितोऽपि जिनराजिराजां-जिनेन्द्र देवानां भजनतः आराधनायाः प्राप्तावधिः-अवधि प्राप्तः सावधिरिति विरोधःप्राप्तः अवधिःअवधान-मनोयोगविशेषः (यद्वशान्मनो विषयान्तरतो निवर्तते) येन स इति परिहार: । अवधिस्त्ववधाने स्यात्सीम्निकाले बिले पुमानिति मेदिनी। एवं सपण्यापण्येन-स्तोतव्येन स्वेष्टदेवेन हृदि सहितः यद्वा पण्यैः व्यवहार्यवस्तुभिः सहितः । किन्तु मनाक्-अल्पमपि कार्पण्यं कृपणताम्-उचितव्ययविमुखतया धनसंचयेच्छां मितम्पचत्वमिति यावत् यद्वा कार्पण्यं दैन्यं नैव आश्रयति-नावलम्बते । किश्च प्रावीण्यपुण्यविधिनैव प्रावीण्येन नैपुण्येन विज्ञतयेति यावत् पुण्यानांधर्माणां विधिना-विधानेन अनुष्ठानेनेति यावत् यद्वा पुण्येन-मनोक्षेन विधिना कर्मणा एक 'विधिविधाने दैवे चेत्यमरः पुण्यं धर्म मनोज्ञेऽपीति विश्वः । पत-पापं दुष्कृतमिति यावत् पङ्कोऽस्त्रीकर्दमे पापे इति मेदिनी धुनोति-क्षालयति दुरयतीत्यर्थः ।। १४ ।। क्षेत्रं रराज कुरुनाम गुरुप्रसिद्धया, तत्रापि तद्गजपुरं वपुरञ्चितेभ्यम् । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ १७१ श्रीशान्तनुन्नयवनप्लवनः सभीष्मः, स ग्रीष्मवद् वृषभसौररुचिस्तदीशः ॥ १५ ॥ अन्वयः-गुरुप्रसिद्धया कुरुनाम क्षेत्रं (कुरुनाम गुरुप्रसिद्वधा उपलक्षितं क्षेत्रं ) राज तत्रापि वपुरचितेभ्यं तत् गजपुरम् (अभूत्) तदीशः श्रीशान्तनुत् ( मासीत् ) नयवनप्लवन: सभीष्मः ग्रीष्मवद् वृषभसौररुचिः । पक्षान्तरे कुरुनाम गुरुप्रसिद्धया उपलक्षित क्षेत्र रराज । तदीश: श्रीशान्तनुन्जयवनप्लवनः ( शेषं पूर्ववत ) ॥ १५ ॥ व्याख्या-क्षेत्रमिति इतः परे श्लोकाः कृष्णचरितान्तर्गतपा. ण्डवचरित्रांशे स्पष्टार्थाः अन्येषु प्रकृतकाव्यवर्णनीयमहापुरुषसप्तकेषु मन्दं प्रकाशं पातयन्ति तत्र तावदापाततः प्रतीयमानस्पष्टार्थोऽभिलिख्यते,गुरुप्रसिद्धयामहत्याप्रसिद्धयाख्यात्या यद्वा गुरोः कौरववंशमूलभूत कुरुनामनृपश्रेष्ठस्य प्रसिद्धया कुरुनामक्षेत्र देशः यद्वा कुरुनाम: गुरुप्रसिद्धया इति समस्तं तस्य कुरु इति नाना या गुर्वी महती प्रसिद्धिः ख्यातिः प्रतिष्ठा वा तया उपलक्षितं क्षेत्र-सिद्धस्थानं देश इति यावत् रराज-शुशुभे । तत्रापि तसिन्नपिदेशे वपुरश्चितेभ्य वपुषा-शरीरेण अश्चिताप्रशस्ता इभ्या यत्र तत्तादृशं तत्-प्रसिद्धम् गजपुरं-नागपुरं हस्तिनापुरमिति यावत् अभूत् । तदीशः तस्य-गजपुरस्य ईश: राजा सः प्रसिद्धः, श्रीशान्तनुत्-तदाख्यः आसीदिति शेषः स कीदृश इत्याह-नयवनप्लवना नया न्यायः एव वनं-सलिलं तत्र प्लवतेस्नातीति सः न्यायजललायीत्यर्थः । नीतिजलसंतरणशील इति यावत् सभीष्मा भीष्मकुमारसहितः। ग्रीष्मवत्- निदाघर्तुरिव वृषमसौरररुचि वृष वृषसंक्रान्तौ भातीति वृषभा तादृशी सौरी-सूर्यसम्बन्धिनी रुचिः कान्तियत्रेति ग्रीष्मपक्ष। राजपक्षे तु वृषः कामः स इव भातीति वृषभः सुवंति-कर्मणिलोकान्प्रेरयंतीति सूराः पण्डितास्तेषां समूहः सौरस्तसिन् रुचिप्रीतिर्यस्य स सौररुचिः वृषभचासौ सौररुचिश्चेति स तादृशः। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ महोपाध्यायश्री मेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्बे अन्यपक्षे तु-कुरुनामवद्गुरुप्रसिद्धया उपलक्षितं क्षेत्र-तत्तद्देशः रराज तत्रापि वपुरश्चितेभ्यं तत् गजपुरं-पुरेषु गज इवेति तत् पुरश्रेछमित्यर्थः मुख्यनगरमिति यावत् । तदीशः श्रीशान्तनुन्नयवनप्ल. वना श्रीशान्तरसेन नुन्नं-फैटितं निराकृतमित्यर्थः यवनानां प्लवन ससंभ्रमागमनं येन स तथोक्तः । पुनः सभीष्मः भीतिहेतुहे तिततिसहितः । वृषभमोररुचिः वृषेण धर्मेण सौररुचिः सौरीचासौ रुचिथति सौररुचिरिव रुचिर्यस्य स सौररुचिः सूर्यतुल्यकांतिः । शुक्रले मूषके श्रेष्ठे सुकृते वृषभे वृष इत्यमरः ॥ १६ भूश्चित्रवीर्यमधिगत्य नृपं रसेन, प्रादुश्चकार कलधौतमुखेन्दुहासम् । कोशा बभुर्नवनवाः प्रकृतेः कुलेषु, न्याय्यं तदत्र हरिवंशभुवि क्षमापे ॥ १६ ॥ अन्वयः-- भूः चित्रवीर्य नृपम् अधिगल्य रसेन कलधौतमुखैन्दुहासं प्रादुश्चकार प्रकृतेः कुलेषु नवनवाः कोशा बभुः अत्र हरिवंशभुवि क्षमापे तत् न्याय्यम् ॥ १६ ॥ ___ व्याख्या-भूः-पृथ्वी तात्स्थ्यलक्षणया भूतलस्थो लोक चित्र वीर्य विसायावह पराक्रमशालित्वात्तदाख्यं नृपं राजानम् अवाप्य रसेन प्रेम्णा कलधौतमुखेन्दुहासं-कलधौन-रजतं तत्सच्छायेन मुखेनवदनेन इन्दोः चन्द्रमसोऽपि हास-परिहासं प्रादुश्चकार आविष्करोतिस्म । किश्च प्रकृतेः प्रजायाः कुलेषु समुदायेषु नवनवा: अपूर्वाः विलक्षणाः कोशा:-धान्यादीनां प्रत्याकाराः बभुः शुशुभिरे । अत्रअस्मिन् क्षेत्रे हरिवंशभुविचन्द्रवंशसमुद्भवे क्षमापेराज्ञि चित्रवीर्ये सति तत्-पूर्वोक्त सर्व न्याय्य न्यायादनपेतं युक्तमित्यर्थः उचितमिति यावत् चित्रवीर्ये राज्ञि सर्व सम्भवतीति भावः । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ १७३ अन्यपक्षेषु-भूः चित्रवीर्य-विस्मयनीयविक्रमशालिन नपं अधि. गत्य रसेन रागेण कलधौतमुखेन्दुहासं-कलधौतं-सुवर्ण रजतं च तन्मुखे यस्य स कलधौतमुखः स चासौ इन्दुहासःखगस्तम् प्रादुश्च. कार श्रीमहषभपक्षे भरतस्य चक्रवर्तित्वात् शान्तिनाथस्थापि चक्रित्वात् वासुदेवानां च खगोत्पत्तिः प्रसिद्धैव । कलधौतं सुवणे स्याद्रजते च नपुंसकमिति मेदिनी । खङ्गे तु निस्त्रिंश-चन्द्रहासा-ऽसि-रिष्टयः इत्यमरः किञ्च-कुलेषु-जनपदेषु गंगा-सिन्ध्वोस्तीरदेशेषु वा प्रकृतेःखभावत एव नवनवा नव-नवसंख्यकाः नवा नवीनाः कोशा = अर्थराशयो बभुः विरेजिरे । तत् एतत्सर्व अत्रभरतं हरिवंशभुवि हरिः सूर्यः नामैकदेशग्रहणे नामग्रहणात् सूर्य: सूर्ययशाः भरतपुत्र. स्तस्यवंश इक्ष्वाकुवंशस्तस्मिन् जाते इति भरत-शान्त्योः । रामपक्षे सूर्यवंशसमुद्भुते । कृष्णपक्ष हरिवंश यादवकुलं तज्जाते इत्यर्थः क्षमापेराज्ञि सति न्याय्य युक्तम् । कुलं जनपदे गोत्रे सजातीयगणेऽपि चेति मेदिनी । हरिश्चन्द्रा ऽर्क-वाता- ऽश्व-शुक भेक-यमा ऽहिषु। कयौ सिंहे हरेऽजेंऽशी शके लोकान्तरे पुमान् वाच्यवत् पिङ्ग-हरिरिति मेदिनी ॥ १६ : पाण्डुर्यशोभिरभितः समशोभि कान्त्या, राजापि सोमवपुषा वृष-भासनाभः । प्रीत्याऽनुभाविविदुरेण दुरोदरेणा नीत्यादिजन्मधृतराष्ट्रभुवा-रिरंसुः ॥ १७ ॥ अन्वयः--- पाण्डुः राजापि यशोभिः कान्त्याऽभितः समशोभि । सोम. वपुषावृषभासनाभः अनुभावि विदुरेण प्रीत्या रिरंसुः आदिजन्मवृतराष्टभुवानीत्या दुरोदरेणचारिरंसुः । राजापि अभितः यशोभिः पाण्डुः कान्त्या सोमवपुषा च समशोभि । वृषभासनाभः, अनुभावि विदुरेण प्रीत्याः । अनीत्या भादिजन्मतराष्ट्रभुवा च रिरंसुः दुरोदरेण अरिरंसुः ॥ १७ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1७v महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये व्याख्या--- पाण्डः तदाख्यः राजापि यशोभिः कीर्तिभिः कान्त्या च अमितः सर्वतोभावेन समशोभि अशोभिष्ट । स कीदृश इत्याह-सोमवपुषा-उमया कीर्त्या शिवपक्ष पार्वत्या सहितं सोम= सकीर्तिकं सपार्वतीकं च तादृशेन वपुषा-शरीरेण वृषभासनामा वृषभासनस्य शिवस्येव आभा शोभा यस्य सः । तथा अनुभाषिविदुरेण-अनु-पश्चात् भवति-जायते इति भावा-जन्माऽस्यास्तीति वा अनुभावी अनुजः तेन विदुरेण-तदाख्येन सह प्रीत्या ऽनुरागेण रिंम:-रन्तुमिच्छु: किन्तु आदिजन्मधृतराष्ट्रभुवा-आदिजन्मनः अप्रजात् धृतराष्ट्राद् भवति-जायते इत्यादिजन्मधृतराष्ट्रभूस्तया अनीत्या अन्यायेन दुरोदरेण च अरिरंसु निविवर्तिषुरित्यर्थः ।। ___ अन्यपक्षेषु-राजापि-श्रीविश्वसेनादिनृपोपि अभितः विश्वग्ठ्यायिभिः यशोभिः पाण्डुः गौरः कान्त्या सोमवपुपा चन्द्रवद्रमणीयशरीरेण च समशोभि । स कीदृगित्याह-वृषभासनाभः वृषस्यधर्मस्य भासनया प्रतिभासनेन भाति शोभते इति सः। किश्चासौ अनुभाविविदुरेण अनुभवशीलधीरेण प्रभावशालिनागरेण वा सह प्रीत्याप्रेम्णा । अनीत्या=न सन्ति ईतयो यस्यां साऽनीतिस्तया तादृश्या आदिजन्मधृतराष्ट्रभुवा आदिजन्मनावपूर्वजेन धृतस्यवायत्तीकृतस्य राष्ट्रस्य-देशस्य भुवा-पृथिव्या च रिरंसुः । दुरोदरेण= द्यूतकारेण द्यूतेन वा उपलक्षणमिदं व्यसनमात्रस्य अरिरंसुः ।। १८ ॥ यस्यास्तनावतिगुरू स्वरूचा हिमाद्री, कान्ता पृथावतिशयेऽस्य मनोनुरागे ! दृष्टा-धरा-सुरपतेरपि राज्यलक्ष्म्या , सर्व सुपर्वभवगर्वमपाचकार ॥ १८ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ अन्वयः -- यस्याः स्तनौ स्वरुचा अतिगुरू (सा) पृथा माद्री (घ) अस्य कान्ता अतिशये मनोऽनुरागे ( वर्तमाना ) घरासुरपतेः अस्य राज्यलक्ष्म्या दृष्टा ( अस्य मनोऽनुरागेऽतिशये सति दृष्टाधरा सुरपतेः राज्यलक्ष्म्या) सर्व सुपर्वभवगम् अपायकार | पक्षे यस्या अतिगुरू स्वनौ स्वरुचा हिमाद्री (अतिशयाते ) साऽस्यकान्छा पृथ अतिशये मनोऽनुरगे ( शेषं पूर्ववत्) | १८ व्याख्या -- यस्याः स्तनौ = वक्षोजौ स्वरुचा = निजदीप्त्या अतिगुरू = अतिविशालौ गुरु = महत् ( बिल्वफलादि ) समतिक्रमणशीलौ वा तादृशी पृथा कुन्ती माद्री च अस्य पाण्डुराजस्य कान्तान्भार्या अतिशये= अतिमात्रे मनोऽनुरागे = पत्युवित्तप्रीतौ वर्त्तमाना घरामुरपतेः महीमहेन्द्रस्य अस्य पाण्डुमहाराजस्य राज्यलक्ष्म्या - राजश्रिया दृष्टा सती कृताभिषेका सतीति भावः यद्वा यस्य =पाण्डोः मनोऽनुरागे= मनः प्रीतौ सति दृष्टाधरा- चुम्बितुं निरीक्षितोष्टदेशा सती सुरपते:= इन्द्रस्य राज्यलक्ष्म्याः खाराज्यश्रियः सर्वं सुपर्व भवगर्व = देवलोका ऽभिमानम् अपाचकार= दूरयामासेत्यर्थः । १७५ अन्यपक्षेषु - यस्याः राज्ञ्याः अतिगुरू = अतिपीवरौ स्तनौ स्वरुचास्वकीयच्छद्रया स्वीयौन्नत्यगुणेन निजकान्तिगुणेन वा हिमाद्री = हिमपर्वतौ अतिशयाते इति शेषः सा तादृशी अस्य - पूर्वोक्तस्य राज्ञः कान्ता स्त्रीरत्नम् पृथौ - महति अतिशये मनोऽनुरागे - पति विषयकचिचासङ्गे सति शेषं पूर्ववत् ॥ १८ ॥ जाताः सुतास्तत इमे शरसंख्ययाप्या, शल्यारिपावनिनरान्वयिबन्धुरूपाः । तेऽपि स्वमानमपहाय विमानरत्ना रूढाः समीयुरपरे वरिवस्ययाऽस्य ॥ १९ ॥ अन्वयः -- ततः इमे शरसंख्ययाऽऽप्याः शल्यारि - पावनि-नरा- इन्वथिव न्धुरूपाः सुताः जाता: । ते ऽपरे च स्वमानमपहाय बिमानरस्नारूढाः अस्य Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महोपाध्याय श्रीमेषविजयगणिविरचिते सक्षसन्धानमहाकाब्बे वरिवस्यमा समीयुः। पले-तत इमे सुता जाताः अशरसंख्ययाप्याः शल्यारिपावनि नरान्त्रयिबन्धुरूपाः (शेष प्राग्वत) ॥ १९ ॥ व्याख्या-ततः तदनन्तरं तस्मात् पाण्डुराजाद्वा इमे वक्ष्यमाणाः शरसंख्यया-शराः पंच तत्संग्ख्यया आप्याः प्राप्याः पञ्चसं. ख्याका इत्यर्थः शल्यारि पावनि नरा.ऽन्वयिवन्धुरूपा:-शल्यारि:--- युधिष्ठिरः, पवनस्यापत्यं पावनिः-भीमः, नरः-अर्जुन:, अन्वयिबन्धअन्वयिनोः संबद्धरूपयोः-अश्विनीकुमारयोः बन्धू-पुत्रौ यद्वा अन्वयिनौ यमजतया समानोदरसम्बद्धो बन्धू-भ्रातरौ नकुल-सहदेवी तद्रूपाः सुताः पुत्राः जाताः-समजनिषत अपिश्चार्थो भिन्नक्रमश्च तथा ते-शल्यारिप्रमुखाः अपरे-अन्ये च जनाः स्वमानं-स्वमहत्त्वाभिमानम् अपहाय-परित्यज्य विमानन्नारूढाः-श्रेष्ठविमानमारूढाः सन्तः अस्य-वासुदेवस्य नेमिनाथस्य वा पाण्डोरेव वा वरिवस्यया-परिचर्यया हेतुना शुश्रूषार्थमित्यर्थः समीयुः सम्यग्गतवन्तः नरोऽजे मनुजेर्जुने इति मेदिनी. बन्धुशब्दस्य भातृ-पुत्रेत्येतदुभयवाचकत्वं शब्दस्तोभमहानिधौ द्रष्टव्यम् । __ अन्यपक्षेषु-ततः तस्मात् श्रीविश्वसेनादिनृपात् इमे-वक्ष्यमाणगुणाः सुताः जाताः काहशा इत्याह-अशरसंख्ययाप्या:-न शरैः बाणैः संख्ये-युद्धे याप्या:-विद्राव्याः पलायनाः बाणयुद्धेऽधमा वा इति ते तथोक्ताः। शल्यारिपात्रनिनरान्वयिबन्धुरूपाः-शल्यानिवाणान् तोमरान् वा इग्रति ऋच्छन्ति वा-प्राप्नुवन्ति तच्छीलाः शल्यारिणः शराभ्यासिन इत्यर्थः शूरा इति यावत् । पावयतीति पावन:-जगत्पावित्र्य कारकः यद्वा पं-पातारमपि अति-रक्षतीति पावन:-शरण्यस्यापि शरण्य इत्यर्थः श्रीविश्वसेनादिस्तस्थापत्यानि पावनयः नरान्वपिबन्धुरूपाः-नराणां-मानवानाम् अन्वयिबन्धुरूपाः सोदरभ्रातृकल्पास्तयाऽनुपाहिगोऽनुरागिणवेत्यर्थः शल्यारि पावनि Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ १७७ नरान्वयिवन्धुरूपाणां विशेषणानामयं कर्मधारयः शल्यं तु न स्त्रियां शङ्को क्लीबं श्वेडे-पु-तोमरे इति. पाना वाताण्ड-पूतेषु पाने पातरिकीर्तितः इति च मेदिनी । तेऽपरे च स्वमानमपहाय विमानरत्नारूढाः अस्य श्रीविश्वसेनादेः वरिवस्यया समीयुरित्यर्थः ॥ १९ ॥ या वेदिजातिरुचिता कृतकर्मयोगा ल्लेभे प्रपञ्चरमणैर्विषयोपभोगम् । स-प्राप्तरूपमहिमा न हि माननेति, प्रज्ञा-विशेषवशतो दधता स्म-राज्ञाम् ॥२०॥ अन्वयः-या वेदिजाऽतिरुचिता कृतकर्मयोगात् प्रपञ्चरमणैः विषयोपभोगं लेभे सप्राप्तरूपमहिमा सा स्मराज्ञां दधतां राज्ञां प्रज्ञाविशेषवशत: मानं न पति । पक्षे या वेदिजातिः उचिता प्रपञ्चरमणैः विषयोपभोगे लेभे कृतकर्मयो. गात् सप्राप्तरूपमहिमा प्रज्ञाः दधतां राज्ञां मानं न एतिस्मेति काकुः ॥ २० ॥ व्याख्या-या वेदिजा द्रौपदी वेद्याः होमवेदितो जायते इति व्युत्पत्तेः अतिरुचिता-शोभिता असीमशोभाशालिनीति यावत् कृतकर्मयोगात् प्राकृतिकर्मवशात् प्रपञ्चरमणैः-प्रकृष्टाः पञ्चपञ्चसंख्यकाः रमणाः-पतयस्तैः विषयोपभोग-सांसारिकविषयानुशीलनजन्यसुखानुभवरूपं भोगं लेभे-प्राप्तवती सप्राप्तरूपमहिमा-प्राप्तो यो रूपस्यसौन्दर्यस्य महिमा-आतिशय्यं धारयतां राज्ञां-नृपाणां विषये प्रज्ञाविशेषवशतः बुद्धिविशेषवशात् मान-विनयाभावं न एति-प्राप्नोति नम्रतया वर्तत इत्यर्थः॥ अन्यपक्षेषु-या वेदिजातिः-वेदयः-पण्डिताः तेषां जातिःसामान्यम् उचिता-सत्कारयोग्या प्रपञ्चरमणैः-विस्तृतक्रीड़ाभिः अनायासेनेति भावः विषयोपभोग-देशकार्य स्वामित्वं लेभे । कृतकर्मयोगात्-मिलनात् संगमादित्यर्थः सप्राप्तरूपमहिमा प्राप्तरूपाणां Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये बुधानां-पण्डितानां महिना-महत्वेन सहितः यद्वा प्राप्तरूपेण-मनो. ज्ञेन रम्येनेत्यर्थः महिना-उत्कर्षेण सहितः प्रज्ञा: युद्धीर्दधतां राज्ञा मान-सन्मानं न एतिस्मेति काका एतिस्मैवेत्यर्थः । वेदिःस्थात्पण्डिते पुमान् इति प्राप्तरूपो ज्ञरम्ययोरिति च मेदिनी प्राप्तरूप -स्वरूपाऽभिरूपा बुधमनोज्ञयोरित्यमरः ॥ २० ॥ या नित्ययौवनतया वसुधा-प्रतीता, पुष्पान्विताऽऽशु फलिता सुतरत्नजात्या । व्यूढा भूजाबलवशावशाऽमुनासौ, सेवे स्वतः स्वरसतः पुरुषोत्तमं तम् ॥ २१ ॥ अन्वयः-या नित्ययौवनत या वसुधाप्रतीता अवशाऽमुनाभुजाबलवशात् न्यूढ़ा ततः पुष्पान्त्रिता सुतरत्नजात्या आशुफलिताऽसौ स्वतः स्वरसतः तं पुरुषोत्तम सेवे । पक्षे-या वसुधा नित्ययौवनतया प्रतीता पुष्पान्विता सुतरत्नजात्याऽऽशुफलिताऽवशाऽसौ अमुना भुजावल यशात् व्यूढा स्वतः म्बरसतः तं पुरुषोत्तम सेवे ॥ २६ ॥ व्याख्या-या द्रौपदी नित्ययौवनतया नित्यं-चिरस्थायि यौ वनं-तारुण्यं यस्याः सा नित्ययौवना तद्भावस्तत्ता तया सदातनतारुण्यशालितयेत्यर्थः वसुधाप्रतीता भूतलेप्रसिद्धा अवशा स्वयंवरा सती अमुना-पाण्डवेन भुजावलवशाखबाहुवीर्यप्रभावात् व्यूढा-परि. णीता-विवाहिता इति यावत् ततः पुष्पान्विता-पुष्पम् आर्तवं स्वीधर्म इति यावत् तत्सहितो सती मुतरत्नजात्या-नृपरत्नजन्मना आशु फलिता-फलवती असौ द्रौपदी स्वतः स्वयमेव स्वरलतः अकृत्रिम निजानुरागात् तं प्रसिद्धं पुरुषोत्तमं नरमत्तमं पाण्डवं सेवे-भेजे । अन्यपक्षेषु-या वसुधा पृथ्वी नित्ययौवनतया शस्याद्युत्पादने सर्वदेव युवतीक्समर्थतयेत्यर्थः प्रतीता-विश्रुता पुष्पाऽन्विता-पुष्पेन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग--४ १७९ पार्थिवपदार्थसार्थानां विकाशेन अन्वितायुक्ता पुष्पैः नानाविधकुसुमैरन्वितेति वा सुतरत्नजात्या खन्यादिसमुद्भूत रत्नजात्या फलिता सफला अवशा-सर्वदा कस्याऽप्यनायत्तासत्यपि असो वसुधा अमुनाश्रीविश्वसेनादिमहीपतिना भुजावलवशात्-निजभुजवीर्यमहिम्ना व्यूढा विधृता स्वायत्तीकृता सती स्वतः स्वयं स्वरसतः निजरसः मधुरादिपड्भीः तं पुरुषोत्तमं श्रीविश्वसेनादिनरेशं सेवे ।। २५ ।। कृष्णावता-समये त्रिदशावतारे, राज्ञि स्फुरत्यपि न धर्मभुवाऽत्यवाहि । या-याज्ञिकी-ह-तनया कलिभृक्रियासो, यस्मात्कृतं सुकृतमेव युगं नृपेण ॥ २२ ॥ अन्धयः--कृष्णावतारसमये त्रिदशावतारे राज्ञि स्फुरति सति धर्मभुवा या अयाज्ञिकीहतनया कलिभृत् क्रिया असी क्रिया न अत्यवाहि यस्मान्नृपेण युगं सुकृतमेव कृतम् ॥ २२ ॥ व्याख्या-कृष्णावतारसमये-कृष्णस्य विष्णोरष्टमावतारकाले त्रिदशावतारिदेवांशेनावर्तीणे राज्ञि-युधिष्ठिरमहीपतौ स्फुरति-विजयमाने सति धर्मभुवाविप्रेण या अयाज्ञिकी-यज्ञाय देवपूजायै हिता यज्ञमहति वा यज्ञः प्रयोजनमस्या इति वा यज्ञस्येय मिति का याज्ञिकी तद्भिन्ना हतनया-हतो भग्नो नयो-मार्गो यस्याः सा तादृशी अत एव कलिभृत्=कलिं-क्लेशं कलियुगं वा कलहं वारणं वा बिभर्ति धारयति पोषयति वा इति सा तथाविधा क्रियाकर्म असौ न अत्यवाहिन्न आहता न कृतेत्यर्थः पूजां विना न तपोमुखं धर्मकृत्य बभूवेति भावः । यस्मात्कारणात् नृपेण युग-द्वापरकालः कृतं कृतयुगमेव तत्सदृशमेवेति भावः सुकृतं मुविहितम् ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्बे ऋषभदेवपक्षे-त्रिदशावतारे-त्र्यधिकास्त्र्युत्तरास्त्रिसहिता वा दश त्रिदश-त्रयोदशेत्यर्थः अवताराः भवा यस्य स तसिन् । शान्ति नाथादिपक्षे । त्रिदशावतारे देवावतारे देवरूपे इत्यर्थः । यस्मात् नृपेण कृतं नाम प्रथगं युगं सुकृतं-सुसम्पादितम् 'ऋषभशान्त्योः ।' शेषेषु युगं स्वाविर्भावाधिकरणीभूतकालः कृतं कृतयुगमेव सत्ययुग मेवेत्यर्थः सुकृतम् ।। किच रसमये-सुरनरयक्ष-गन्धर्वकिन्नरादीनां हर्षमये आनन्दप्रचुरे यद्वा अरसमये-दैत्य-दानवादीनां केशि-कंसवृषभादीनां मृत्युहेतुत्वादहर्षमये दुःखबहुले अथवा आरसमये-अरीणां समूहः आरं तस्य समये बहुशत्रुकण्टकाकीर्णकाले इत्यर्थः त्रिदशावतारे-देवस्य विष्णोः पूर्णावताररूपे राज्ञि-कृष्णवासुदेवे स्फुरति-विजयमानेऽपि सति या याज्ञिकी यज्ञः यज्ञसेनः नामैकदेशग्रहणे नामग्रहणात् भीमो भीमसेन इतिवत् तस्येयं याज्ञिकी-यज्ञसेनसम्बन्धिनी तनया-पुत्री द्रौपदी यद्वा याज्ञिकी याज्ञसेनी द्रौपदी असौ हतनया हत: भग्नो नया-नीतिर्यस्यै सा तथा कलिभृक्रिया-कलि विवाद राज्यप्रत्यर्प. णादिविषयककलहं विभौतिकलिभृक्-दुर्योधनस्तस्य क्रिया वस्त्राक. पणादिरूपकर्म यस्यां सा तादृशी सत्यपि कृष्णावता-कृष्णा द्रौपदी साऽस्त्यस्यासी कृष्णावान् तेन द्रौपदीपतिनेत्यर्थः धर्मभुवा-धर्मात्मजेन युधिष्ठिरेण धर्म इति शेषः न अत्यवाहिनात्यकामि नातिक्रान्त इत्यर्थः । दुरवग्रहदुष्टनिग्रहाग्रहिले श्रीमनिवासुदेवेऽवतीर्यभूतले विरा. जमानेऽपि सति दुष्टदुर्योधनेन परिषत्समक्षं द्रौपदी विवस्त्रीकर्तुं चेष्टिते द्यूतहारितसर्वस्वेन धर्मराजेन तदानीं तद्विरुद्धं किमपि नाचेष्टितमिति भावः। रसः स्वादे जले वीर्ये शृंगारादौ विषे द्रवे इत्यनेकार्थसंग्रहः । कृष्णा स्याद्रौपदी-नीली-कणा-द्राक्षासु योषिति इति मेदिनी। कलि. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ शूरे विवादेऽन्त्ययुगे युधीति हैमः क्रिया कर्मणि चेष्टायां करणे सम्प्र धारणे. आरम्भोपाय - शिक्षा-र्चा- चिकित्सा निष्कृतिष्वपीति विश्वः । 'आरसमये' इत्यस्य आरम् - अरिसमूहं सम्यगयते = अभियातीति स तादृश इति वार्थः ।। २२ ।। यो वा सुयाधननृपः कृपया समेतः, कालावशेन मनसा विदधे क्षमा-याः । जाताऽत्र तस्य विषमा-न-दशाननस्य, १८५ तत्राप्यभाग्यभवनं निरणायि देवैः ॥ २३ ॥ अन्वयः -- यः सुयोधननृपः कृपयाऽसमेत: काङ्क्षावशेन मनसा या: अक्षमा: ( काङ्गावशेन मनसा अक्षमाया: विदधें, वशेन मनसा क्षमायाः काङ्क्षा, अवशेन तेन क्षमायाः काङ्क्षाः ) विदधे तस्य अन आननस्य विषमा दशा न जाता ? तत्रापि देवैः अभाग्यभवनं निरणाथि । ऋषभादिपशेयः सुयोधननृपः कृपया समेतः काङ्गावशेन मनसा या क्षमाः विदधे तस्यात्र आननस्य दशा विषमा न जाता तत्र देवैः आध्यभाग्यभवनं निरणायि ॥२३॥ व्याख्या --- यः सुयोधननृपः = दुर्योधननृपतिः कृपया=अनुग्रहेण असमेतः = रहितः द्यूतपणीकृतं द्वादशसमाः प्रकाशं वर्षमेकञ्चा प्रकाशं वनवासमतीत्यागतपाण्डवविषये तदीयराज्य प्रत्यर्पणानिच्छ्रुतया निर्दयहृदयः इत्यर्थः । काङ्क्षावशेन = लोभपरवशेन ' इन्द्रप्रस्थं वृकप्रस्थं जयन्तं वारणावतम् । देहि मे चतुरो ग्रामान् पञ्चमं किञ्चिदेव तु ' इत्येवं सानुनयमभ्यर्थनेऽपि कृते समग्रराज्य लिप्साचिवशेन मनसा = चेतसा याः अक्षमाः = अशान्तीः विदधे कृतवान् । यद्वा काङ्क्षावशेन = समग्रसाम्राज्य जिघृक्षापरवशेन मनसा अक्षमायाः = पाशककीडनकपटानि छलधूतानीत्यर्थः विदधे । अथ वा वशेन मनसा वशे = आयत्ततायां वशाः = अधीना वा इनाः = नृपतयो यस्य तादृशेन मनसा क्षमाया:= Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये सर्वभूमेः काका-लिप्सा गर्धेति यावत विदः। अथ वा अवशेन% अस्वतन्त्रेण ईर्ष्यापरवशेने त्यर्थः अग्रशस्तं विरुद्ध-न्यायविरोधि अन्या. य्यमिति यावद् वा वशम्-इच्छा यस्य तेन दुर्योधनेन मनसा क्षमा याः सर्वभूमेः काङ्क्षा विदधे-चक्रे कृता तस्य-दुर्योधनस्य अत्र-अत्यु स्कटपाप-पुण्याना मिहैवफलमश्नुते इति कतिपयरेव दिवसः फलप्रत्य क्षीकरणप्रवणाधिकरणे संसरणे(संसारे)आननस्य–मुखस्य विषमा मानि जनसुदुः सहा दारूणा संकटा वा दशा अवस्था स्थितिरित्यर्थः न जाता काक्का जातैवेत्यर्थः । यद्वा विषमानदशा-विषवत्-गरलवत् मानदशा मानस्य अहंकारस्य दशा-अवस्था विषतुल्यगर्वाऽवस्थेत्यर्थः जाता अभूत् । तत्रापि तस्य ताहगवस्थत्वाविषयेऽपि देवैः अघटितघटनघटित विघटनपटीयःपाटवपरिपाटीशालिभाग्याधिष्ठातृभिः अभाग्य भवनं भाग्यराहित्यं दैवाननुकूलत्वं-देवप्रातिकूल्यमिति यावत् निर णायि=निर्णीतम् निश्चितमित्यर्थः ॥ क्षमा क्षान्तौ क्षितौ इति हेमचन्द्रः वशा वन्थ्या-मुता-योषा-स्त्रीगवी-करिणीषु च । त्रिप्वायत्ते, क्लीवमायत्तत्त्वे चेच्छा-प्रभुत्वयोरिति मेदिनी । तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता अप्राशस्त्यं विरोधश्च नअर्थाः पट प्रकीर्तिताः । विषभः दारुणे संकटे चेति शब्दस्तोममहानिधिः । __ ऋषभादिपक्षे-यः सुयोधननृपः-सुखेन युध्यतेऽसौ सुयोधनः सुयुध् युच् स चासौ नृपान्नाभिराजादिः कृपया निष्कारणपरदुःखप्रहाणेच्छालक्षणदयया समेतः महित: जीयाऽनुकम्पीत्यर्थः काडाव. शेन-मोक्षेच्छाशालिना मनसा याः क्षमाः शान्तीः विदधे तस्य राज्ञः अत्र आननदशा विषमा प्रतिकूला न जाता विषये देवेः आप्यभाग्य. भवनम् आप्यं प्राप्यं यद्भाग्य भागधेयं तस्य भवनम् उत्पादनं निरणायि-निश्चितम् भाग्योत्पत्तावेवेहशी तीर्थकुन्जनकत्व-लोकोत्तरसाम्राज्यादिसम्भवा मुखप्रसन्नावस्थासम्भवतीति भावः ।। २३ ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ १८३ वृत्त्या - जितः कुहनया-न-तयाजितः सपाञ्चालिकामवसनां परिषत्समक्षम् । aisa - पावनविधी हरिजः प्रमीलां, नयत्समस्तसुदृशं च विमोहलीलाम् ॥ २४ ॥ अन्वयः - कुनया वृत्त्या जितः तया ( तनया) अजितः स परिषत्समक्षं पाञ्चालिकाम् अवसतां चक्रे, उपावनविधी (अत्र पावनविधौ ) हरिजः नश्यत्स मस्तसुद्दशे प्रमीलां विमोहलीलां च चक्रे । यद्वा चः अनतया कुहनया जिनः स वृत्त्याजितः न परिक्षं पाञ्चालिकाम् अवसनां चक्रे ( तया न कुहनया आजितः वृत्या जितः स पाञ्चालिकाम् असतां न चक्रे ) इति विचार्य हरिज: अत्र पावनविधौ नश्यत्यमस्तसुक्षं प्रमीलां विमोहलीलां च चक्रे । ऋषभादिपक्षे - हरिजः अत्र पावनविधौ नश्यत्समस्तसुदृशं प्रमीलां विमोहलीलां च न चक्रे ॥ २४ ॥ व्याख्या -- कुह्नया=दम्भचर्या लक्षणया वृत्या वर्तनेन जितः = वशीकृतः दाम्भिक इत्यर्थः तया = पुण्येन = पुण्यकर्मणा च न जितः अधार्मिक इत्यर्थः यद्वा नतया नास्ति तःगवयस्यां सा नता= अनहंकृतिः नम्रतेत्यर्थः तथा अजितः अवशीकृतः उद्धत इति यावत् स=दुर्योधनः परिषत्समक्षं = सभा ( सदां ) प्रत्यक्ष एव पाञ्चालिकां= द्रौपदीम् अवसन=नञोऽल्पार्थकत्वेन आकृष्टबहुतरांशुकांशतया अल्प वस्त्रां नमप्राणमिति भावः चक्रे अस्मिंश्च त्रपावनविधौ =त्रपां=लज्जाम् आवयति गमयति-प्रापयति ग्राहयति वाऽसौ यद्वा पाया अवनंप्राप्तिर्यस्मात्स त्रपावनः = लज्जाजनकः अवतेर्ण्यन्ताच्छुद्धाद्वाल्युः स चासौ विधिः- विधानं तस्मिन् यद्वा अत्र पावनविधौ - अकीर्तिप्रापककर्मणि ! वस्त्राकर्षणलक्षणाऽसद्व्यवहारे इत्यर्थः जायमाने हरिज:-- जातावेकचचनं युधिष्ठिर - भीमार्जुनाः नश्यत्समस्तसुदृर्श - निमीलित सर्वजनलोचनां प्रमीलां=अशक्योपायतया नितान्तास दर्शनतया च तन्द्राभावनां Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये दृनिमीलनमिति यावत् विमोहलीलां-मूहभावं च चक्रे । कुहना दम्भचर्यायामिति. तश्चौरा-मृत पृच्छेषु क्रोडे म्लेच्छे च कुत्रचित् अघुमास्तरणे पुण्ये कथितः शब्दवेदिभिः इति च मेदिनी. तकार श्रौर्य-गर्वयोरित्येकाक्षरकोशः । तत्मादृश्यमभावश्च तदल्पत्वं तदन्यता. अप्राशस्त्यं विरोधश्च नअर्थाः पट्मकीर्तिताः । अथ वा यः नरः अनतया सञ्जया तया प्रसिद्भया कुहनया दम्भचर्यया लोभान्मिथ्येर्यापथसंपादनयेत्यर्थः अर्थलिप्सया मिथ्याधर्माश्रयणेनेति यावत् जित:वशीकृतः सः नरः वृत्त्याजित:वृत वर्तन-चिरस्थितिजीवनोपायो वा तेन त्याजितः परिहापितः स्यात् । स परिषत्समक्षं-जनतासमक्षं पाश्चालिकां=पुत्रिका वस्त्र-दन्तादिरचितपुत्तलिकाम् अवसनां-नग्नां चक्रे सनरः व्यर्थप्रयास इत्यर्थः धनवत्वेऽप्यधनत्वमिति भावः । यद्वा तया-प्रतीत्या न कुहनया-दम्भचर्यया सम्पादितयेति शेषः दम्भरहितयेत्यर्थः आजितः संग्रामात् वृत्या आजीविकया जितः स पाञ्चालिकामवसनां न चक्रे नकारस्योभयत्रयोगात् सफलप्रयासो ऽयं पुरुषः इति विचार्य हरिजः इन्द्रजोऽर्जुनः यद्वा हरि अनिलस्त. स्माज्जातो भीमसेनः अथ वा हरिः-यमः तज्जातो युधिष्ठिरः अत्रअस्मिन् पावनविधौ-न्यायकार्य नश्यत्समस्त सुदृशः नश्यन्त्यः-अनिमिपन्त्यः समस्ताः समस्तानां चा सुदृशः नेत्राणि यस्यां सा तां तादृशी प्रमीलां-तन्द्रां विमोहलीलां-मूढ़भावं च चक्रे । कुहनालोमा. मिथ्येर्यापथकल्पनेत्यमरः । पाञ्चालिका पुत्रिकास्याद्वस्त्रदन्तादिभिः कृतेति चामरः । यमा--ऽनिले-न्द्र-चन्द्रा--ऽर्क-विष्णुसिंहां--- वाजिषु । शुका-ऽहि-कपि-भेकेषु हरि कपिलेत्रिषु इति. तन्द्री ग्रमीला इति चामरः। __अन्यपक्षेषु-हरिः-सूर्यः-सूर्ययशा भरतचक्रीवर्तिमुतस्तस्माजातः हरिजः-ऋषभप्रपौत्रः । अथ वा हरिजः-हरिः-हरिवंशः नामैकदेश Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ १८५ ग्रहणे नामग्रहणात् पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद्वा हरिवंशे मूर्यवंशे इक्ष्वाकुवंशे इत्यर्थः जातः नाभिः विश्वसेनः अश्वसेनः सिद्धार्थराजो दशरथच. तथा हरिवंशे यादवकुले जातः समुद्रविजयो वसुदेवश्च अत्रपंस्पष्टम् यथा तथाऽवनविधौ -जीवरक्षाकरणे नश्यत्समस्तसुदृशं प्रमीलां-तन्द्रां प्रमादमिति भावः विमोहलीलां मृढभावमविवेकित्वमिति यावत् च न चक्रे ॥ २४ ॥ साना प्रभावितरणेन विभेदनेन, नो वश्यतामुपगता नरपाः क्षितिं ते । प्रापुः स्वतस्तुरगहस्तिस्थाद्यभावैः, स्वापुण्यलब्धजननाजननादयोग्या: ।। २५॥ अन्वयः--ये नरपाः साना प्रभावितरणेन विभेदनेन वश्यतां नो उपगता ते तुरगहस्तिरथाद्यभावैः स्वापुण्यलब्धजननात् जननादयोग्यां क्षिति प्रापुः । अथवा ये नरपा: साम्ना प्रभावितरणेन विभेदनेन वश्यामुपगताः ते तुरगहस्ति. रथाद्यभावः । मह ) स्वापुण्यलधाननात जननादयोग्यां क्षितिं स्वत: नो प्रापुः ॥ २५ ॥ व्याख्या-ये नरपा:-सुयोधनादयस्तत्पक्षवर्तिनोऽन्ये च नृपाः साना-परस्परोपकारप्रदर्शनादिना पञ्चविधेन सान्त्वेन प्रभावितरणेनप्रतिदानादिना पञ्चविधेन दानेन-विभेदनेन-भेदेन स्नेहरागापनय. नादिना त्रिविधेनोपजापेन इत्येतदुपायत्रितयेन यदा वश्यताम्-वश. वर्तितां विधेयतामित्यर्थः अनुकूलतामिति यावत् नो-नैव उपगताः तदा ते प्रतीपावनियाः तुरगहस्तिरथाद्यभावः -अश्व-गज-रथाद्यायोधनसाधनविनाभावेन. द्वन्द्वान्तेश्रूयमाणस्य रथशब्दस्य तुरगहस्तिभ्यां संवन्धेन अश्वरथ-गजरथादीनां गहित्येनेल्यर्थः तन्त्रेणावृ. त्या वोक्त पदस्योभयार्थपरताविदेलिमा । स्वापुण्यलब्धजननात्-जन Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ महोपाध्यायश्रीवविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये नादयोग्यां जननाद: जनरवः कोलीनमित्यर्थः लोकापवाद इति यावत् तस्य योग्यां तदर्हाम् क्षिति-क्षयं नाशमित्यर्थः यद्वा क्षिति-भूमि स्वतः स्वयमेव प्रापुःलेभिरे पश्चत्वमापन्ना इत्यर्थः भृमिलाभस्यापि लोके शास्त्रे च मरणवाचित्वेन प्रसिद्धिः तथा च भूमिं प्रापुरित्यस्य मृता इत्यर्थः ॥ यद्वा सामाशुपायत्रितये न ये राजानो वश्यतामुपगतास्ते तुरग-हस्तिरथा नामभावः सहैव स्वापुण्यलब्धजननात जननादयोग्यां क्षिति-क्षयं नो प्रापुः । अथवा ये सामादित्रिकेण वशत्रर्तितामुपगतास्ते तुम्ग-हस्ति-रथाद्यानां भावैः सद्भावरुदयैर्वा सह स्वापुण्यलब्धजननात्-जननादयोग्यां-जननादा-साधुवादः-धन्यवादलक्षणलोकवादस्तद्योग्यां-तदाँ क्षिति-निजगेहं स्वभुवं-निजशास्यराप्रमिति भावः नो प्रापुः काका प्रापरेवेत्यर्थः अन्यपक्षेत्रप्ययमर्थः साधारणतयैव प्रतिभाति केवलं 'ये नरपाः' इत्यस्य 'श्रीविश्वसेनादिराजानां ये प्रत्यर्थिपृथ्वीपत्तयः' इत्यर्थों विदेलिमः। अत्र प्रसङ्गात् सामादिभेदा उच्यन्ते। 'परस्परोपकाराणां दर्शनं गुणकीत्तनम । सम्ब न्धस्य समाख्यानमायत्या संग्रकाशनम् ॥ वाचां पेशलया साधुस्तवाहमिति चार्पणम् । इति साम विधानः साम पञ्चविधं स्मृतम्' । प्रतिदानं तथा तस्य गृहीतस्यानुमोचनम् । द्रव्यादानमपूर्व च स्वयंग्राहप्रवर्तनम् देयस्यप्रतिमोक्षश्च दानं पञ्चविध स्मृतम्। स्नेहरागापनयनं संहर्षोत्पादनं तथा। संतर्जनं च भेदभेदस्तु त्रिविधः स्मृतः ।। क्षितिगैहे भुवि क्षये इति हैमः ॥ पुंस्यादिः पूर्व-पौरस्त्य-प्रथमा-ऽऽद्याः इत्यमरः । २५।। सोऽयं प्रभावविभवस्तव वास्तवोऽभू दित्याह मागधगणः प्रभया प्रभाते । नान्यायवर्तनमनास्तु मनाग जनोघ स्वच्छासने नरपते ! भुवि वर्तमाने ॥२६॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ १८७ अन्वयः—हे नरपते ! प्रभया प्रभाते स्वच्छासने भुवि वर्तमाने जनौघः मनाक तु अन्यायवर्त्तनमनाः न ( अस्ति ) सोऽयं तव वास्तवः प्रभावविभवः अभूत् इति मागधगण आह ॥ २६ ॥ व्याख्या-हे नरपते! युधिष्ठिरमहाराज? पक्षे विश्वसेनादि. नृपते ! प्रभया प्रभावादिजनितदीप्त्या प्रभाते-भातुं प्रवृत्त त्वच्छासने-तव शास्तिकर्मणि भुवि भूतले वर्तमाने विद्यमाने मति जनौधः= लोकसमूहः मनाक-अल्पम् तु अपि अन्यायवर्तनमना: अन्यायेन= असमञ्जल-अनुचित-विधिना अनीत्या वा वर्तने-आजीविकाकरणे यद्वा अन्याये असमञ्जसे अन्याय्ये. इत्यर्थः अनुचिते इति यावत् वर्तने जीवनोपाये मनो यस्य स तादृशः न अस्तीति शेषः सोऽयं वास्तवःयथार्थः तव-भवतः प्रभावविभव:प्रतापमहिमाऽभूत इति मागधगणः बन्दिजनसमूह आह ॥ २६ ॥ भीष्मोऽग्रतो-यमविधिः स्वगुरोरनिष्टः, __ कृष्णालकग्रहणकर्म सभासमक्षम् । वैराग्यहेतुरभवद् भविनो न कस्य, देवस्य वश्यमखिलं यदवश्यभावि ॥ २७ ॥ अन्वयः स्वगुरोरनिष्टः अग्रतः (स्वगुरोरपतः अनिष्टः) भीष्मः सभासमक्ष कृष्णालक ग्रहणकर्म अयमविधिः कस्य भविनो वैराग्य हेतुनीऽभवत् यत् अव. श्यभावि तत् अखिलं देवस्य वश्यम् । ऋपभादिपक्षेपु.--स्वगुरोरनिष्ठः अग्रत: भीष्मः सभासमक्ष कृष्णालकग्रहणकर्म यमविधिः कस्य भविनः वैराग्यहेतुर्नाभवत् ॥ २७ ॥ व्याख्या-पाण्डवपक्षे-स्वगुरोः (स्वस्य-आत्मनो गुरो:-पितुः) निजजनकस्य धृतराष्ट्रस्य यद्वा स्वगुरोःखोपदेण्डद्रोणाचार्यादेः स्वगु. रुजनस्य भीष्मादेर्वाऽपि अनिष्टः अनभीप्सितः अप्रिय इति यावत् अग्रतः पत्यादिवन्धुजनानां पुरत एवं यद्वा स्वगुरोः खपत्युर्युधिष्ठि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये रादेः अग्रतः पुरस्तादेव अनिष्टः अत्यन्ताप्रियः भीष्मः दारुणः अस. ह्यतमः सभासमक्षं-परिपत्प्रत्यक्षे कृष्णालकग्रहणकर्मन्द्रौपदीकेशाकर्षणव्यापाररूपः अयम् अविधिः अप्रशस्त-गर्हित-विधानं कस्य भविनः भावुकजनस्य वैराग्य हेतु: विशिष्टो रागः मात्सर्य विरागः स एव वैराग्यं अत्यन्तमात्सर्यम् (स्वार्थेष्यञ्) यद्वा विगतो रागः अनुरागः स्नेहो यस्य स विरागस्तस्य भावो वैराग्यं (दुर्योधनविषये) स्नेहरहितीभावः (स्नेहराहित्यं) तस्य हेतुः कारणं नाऽभवत् सर्वस्यैवाऽभवदित्यर्थः । 'भीष्मोदितो-यमविधिः' इति पाठे भीष्मम् दारुणं दुःसह. मित्यर्थ उदितम्-उदय उक्तिर्वा यत्र स इति भीष्मेण शान्तनुपुत्रेण कौरव-पाण्डवपितामहेनेत्यर्थः उदित: कथित इति वा भीष्मोदितः। अन्यपक्ष-भीष्मः=दारुणः अदितः अखण्डित इत्यर्थो बोध्यः । यत्घटनादिकम् अवश्यभावि-निश्चित भवितव्यताकं तत्सवे देवस्य-अदृष्टस्य वश्यम् अधीनम् । अवश्यंभाविभावानामप्रतीकार्यत्वात् । ऋषभ-शान्ति-राम-कृष्णपक्षेषु-स्वगुरोः पित्रादिस्वगुरुजनस्य अनिष्ट:-अप्रियः भीष्मादारुणः अग्रत:=पुरा-यौवराज्यकाल एवे. त्यर्थः सभासमक्ष कृष्णालकग्रहणकर्म-रलयोरेकन्वस्मरणात् कृष्ण श्यामं पगजयजन्यदैन्यमलीमममित्यर्थः यत् आलकम् आरकम्= अरीणां समूह आरं तदेवारकं तस्य ग्रहणकम्मे निग्रहव्यापार इत्ययम् अविधिः अनुचिताचरणं यद्वा यमविधिः-यमस्य-दण्डधरस्येव विधानं कस्यभविना दुष्टनिग्रहाकाङ्गिणो जनस्य वैराग्य हेतुः विशिष्टो रागा अनुरागः स्नेहः विरागः स एव वैराग्यं तस्य हेतु भवत् । देवस्येत्यादिपूर्ववत् । नेमि-पाचवीरपक्षेषु- --स्वगुरोरनिष्टः भीष्मः दुष्करत्वादारुणः अग्रता प्रथममेव वार्द्धक्यावस्थाप्राप्तितः पूर्वमवेत्यर्थः नेमि-पार्श्वपक्ष. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ १८९ योस्तु स्वगुरो स्वपितुः अग्रत: अग्रे एव अत एव अनिष्टः स्वपितुरप्रियश्चेति विशेषः । महावीरपक्षे तु स्वगुरोः स्वज्येष्ठभ्रातुः अग्रत - अत एव । यमविधिः अहिंसादिपञ्चमहाव्रतविधानं संयमधारण. मित्यर्थः दीक्षाग्रहणमिति यावत् सभासमक्षं गोष्ठीसांमुख्य एव कृष्णालकग्रहणकर्म-कृष्णानां- तारुण्यविजृम्भितश्यामलिमशालिनाम् अलकानां-निजशिरः केशानां ग्रहणकर्म-पञ्चमुष्टिलोचकर्म च क्रस्य भविन:-विवेकिजनस्य वैराग्यहेतुः-विगतो रागः-स्रक्-चन्दन-वनितादिविषयेष्वमिषङ्गो येषां ते विरागास्तेषां भावः कर्म वा वैराग्यं तस्य हेतु भवत् सर्वस्यैवाभवदित्यर्थः । महेन्द्रमहेश्वर्यातिशायिसाम्रा ज्यशालिकुलसंभवोऽप्येष साम्राज्यविजृम्भितानुपमभौममुखजातं तृण. मिवनिरस्य राजकुमारादिसुदुष्कराऽरुष्करमुष्टिपञ्चकमितके शलुश्चनपूर्वक दीक्षाग्रहणमकरोत् इति धिङ् न आपातरमणीयपर्यन्त परितापिविशं. कटविषयाटवीलग्नदावानलविसृमरशिखावलौविकलितचेतस्कान् इत्येवं सर्वस्यैववैराग्यं प्रादुरभूत् । शेषं पूर्ववत् ऋषभ-शान्त्योरप्यपमी विदेलिमः। अहिंसा सत्यवचनं ब्रह्म वयेमकल्कता । अस्तेयमिति पञ्चैते यमाख्यानि नतानिच' । रागस्तु मात्सर्य लोहितादिषु. क्लेशादावनुरागे च गान्धारादौ नृपेऽपि चेति मेदिनी । श्रीरामपक्षेत्वित्थंविधोऽप्यर्थः सम्भवति तथाहि—स्वगुरोःस्वपितुर्दशरथस्य अग्रतः अनिष्टः-अत्यन्ताप्रियः भीष्मः-अनिसुकुमारराजकुमार (राम ) दुष्करतया पुत्रवियोगजन्यशोकातिरकसंभावित. राजमरणहेतुना वा सुदारुणः यमविधिः-संयमग्रहणं चतुर्दशवर्षावधिकतापसत्रतधारणमिति यावत् तथा सभासमक्ष-सर्वसमक्षमित्यर्थः कृष्णालकग्रहणकर्म-कृष्णानां-भृगवदतिश्यामलानाम् अलकानां-चूर्णकुन्तलानां ग्रहणकर्म-तापसधायेंजटावत्संहत्यवन्धनमित्यर्थः कस्य भ. विनः-सहृदयहृदयस्य वैराग्यहेतुः-विषयरागराहित्यकारणं कैकेयिविषयकस्नेहराहित्यकारण वा नाभवत् सर्वस्यैवाभूदित्यर्थः ।। २७ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये भीमेऽपि पश्यति सुरे यदि-वा-नोऽपि, नम्रत्वमाश्रयदहीनकुले कुलीने । वन्यत्रताचरणतः सह-देव एव, राजापि मौनमदधाद धृतधर्मजन्मा ॥ २८ ॥ __ अन्वयः--अहीनकुले कुलीने सुरे पश्यति भीमे यदि वा नरे सहदेवे अपि नकुले च नम्रत्वम् आश्रयत् धृतधर्मजन्मा राजापि वन्यव्रताचरणतः मौनमदधात् । ऋषभादिपक्षे-मृतधर्मजन्मा देवः राजापि भीमेऽपि पश्यति सुरे यदि वा नरे रामपक्षे यदि वानरे अहीनकुले कुलीने नम्रत्वमाश्रयत वन्य व्रताचरणतः सह मौनमदधात् ॥ २८ ॥ व्याख्या-पाण्डवक्षे-अहीनकुले-महाकुलसंभवे कुलीने-रजने भूमिस्थिते वा निर्वासितत्वात. सुरे=पण्डिते विवेकिनि पश्यति--सर्व समक्षं संवृत्तघटनां साम्राज्यहरण-द्रौपदीकेशांऽशुकाकर्षण-द्वादशवर्षावधिकप्रकाशवनवास-वकावधिकगुप्तवासादिरूपां साक्षात्कुर्वति भीमे=वृकोदरे भीमसेने इति यावत् यदि वा नरे अर्जुने देवे-सहदेवे नामैकदेशग्रहणे नामग्रहणात् अपि शब्दसंगृहीते नकुले च नम्रत्वं विनम्रभावः नम्रतेति यावत् आश्रयत् अवालम्बत न ते व्यक्रियन्तेति भावः तदनु धृतधर्मजन्मा धृतं गृहीतं धर्मात्म्यमात् जन्म येन स धर्मात्मजो युधिष्ठिरः राजाऽपि वन्यत्रताचरणत: वन्यानांवनेवासितपस्विनां व्रतस्य-नियमस्य आचरणत: सार्वविभक्तिकस्तसिः आच. रणेनेत्यर्थः यद्वा बनेभवानि वन्यानि तैव्रताचरणं-भोजनक्रियासम्पादनं तेनेति ततः सह-सार्द्ध मौनं मुनित्वं दधौ । ऋषभ-नेमि-पार्श्व-वीरपक्षे-धृतधर्मजन्मा-धृतं गृहीत धर्मरूपं जन्म येन सः यद्वा धृतं धर्माय-पुण्याचरणाय जन्म येन सः देवःऋषभदेवः नेमिः पार्श्वनाथः वर्द्धमानश्च भीमे रौद्रेऽपि पश्यति मुरे देवे यदि वा नरे-मानवे अहीनकुलेन्महोचकुलजे कुलीने कुलपति Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ १९१ भूमिस्थिते वा नम्रत्वम् आश्रय किञ्च राजापि वन्यव्रताचरणतः= वनिनां बननायकानां भिल्लादीनाम् अवताचरणतः भोजनाभावात् मौनं मुनित्वं अदधात अपुष्यत् । शान्तिपक्षे कृष्णपक्षे-भीमेऽपि पश्यति सुरे अहीनकुले यदि वा कुलीने नरे नम्रत्वं-नम्रभावः आश्रयत् नम्रताऽऽश्रितेत्यर्थः धृत. धर्मजन्मा गृहीतपुण्यार्थजनुः धृतं धर्माय-न्यायाय जन्म येन स इति वा देवः श्रीशान्तिनाथप्रभुः राजापि प्राज्यसाम्राज्यसंजातशा. तजातानुभवितापीतिभावः बन्यव्रताचरणतः वानप्रस्थाचर्यनियमात मौनं धर्मम् अदधात् । रामपक्षे-धृतधर्मजन्मा-गृहीतन्यायावतार देवः बलदेवः श्रीरामचन्द्रः राजापि-क्षणकतिपयाऽनन्तरमेव सम्भावितराज्याभिषे. कोऽपि वन्यत्रताचरणतः चन्यैःवनभवैः कन्द-फलादिभित्रताचरणता-अशनक्रियानिष्पादनेन सह मौनं-मुनित्वं तापसत्वमदधात् भीमेऽपि पश्यति मुरे य दि=अथ वा वानरे अहीनकुले ऽकुलीने वा नम्रत्वं आश्रीय वासुदेवधृतधर्मजन्मा गृहीतधर्मावतारः देवः राजापि।।२८॥ प्राप्तं जयाट्यविजयैः किमुदारनीत्या, निर्मीयमाणसुकृतैस्तु युगं कृतं तत् । लोकैः पथश्च कलितश्चलितं न किञ्चि नातिक्रमः स्खलितमीश्वरराज्ययोगे ॥२९॥ अन्यः-जयाढ्य विजयैः उदारनीत्या निर्मीय माणसुकृतेः तत् युगं कृतं प्राप्तं किमु ( यत: जयाढ्यविजयैः निर्मीयमाणसुकृतश्च ) लोकैः पथः किञ्चित् न चलितं, नापि कलितः ( चालितैरभावि ) लोकैः पथः कलितः किञ्चित् न चलितम् । ( यतः ) ईश्वरराज्ययोगे अतिक्रमः स्खलित ( च न ( लोकेऽजनि ॥ २९ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये व्याख्या - जयाढ्य विजयैः =जयसंवलित विजयैः उदारनीत्या= असाधारणनीच्या दातृनीत्या वा निम्र्मीयमाणसुकृतैः = विधीयमानपुण्यकार्यैश्च साधनैःः तत् कृतं युगं सत्ययुगं प्राप्तं किम् ? यतः (जया ढ्यविजयैः जय सहितवि जयशालिभिः, निर्मीय माणसुकृतैः = पुण्यकार्यविधायिभिः) लोकैः पथः = सन्मार्गात् किञ्चित - अल्पमपि न चलितं == स्खलितम् नापि कलितः =कलिना = कलहेन क्रेशेन वा कलियुगेन वा चालितैरभावीति शेषः यद्वा लोकैः = जनैः पथः = सन्मार्गः कलितः = गृहीतः आश्रितः ततश्च किञ्चित् = मनागपि न चलितम् । युक्तं चैतत् यतः ईश्वरराज्ययोगे= अतिक्रमः = धर्माद्युल्लङ्घनम् क्रम- परिपाटी-समुल्लङ्घनं चास्खलितं=स्खलनं = कूटयुद्धादौ प्रवृत्या वीरमर्यादातः पतनं मर्यादाभ्रंश वा सन्मार्गादिश्वलनं वाऽपि न अजनि लोकेषु । वर्त्म - मार्गा-ध्व - पन्थानः पदवी सृतिरित्यमरः । पथ इत्यकारान्तत्वे च 'वाटः पथच मार्ग' तित्रिकाण्डशेषः प्रमाणम् ॥ २९ ॥ धर्मात्मनाप्यवनलीनतया वनानि, I संसेविरे वितिकैतव सेवनेन । मात्रासमं द्रुपदजातिशयेन शीता १९२ संतापमाप हत कीचकनीचवृत्त्या ॥ ३० ॥ अन्वयः -- विद्दितकैतत्र सेवनेन धर्मात्मना आप्यवनलीनतया वनानि संसेविरे अतिशयेन शीता दुपदजा इतकीचकनीच वृच्या । मात्राऽसमं सन्तापमाप ऋषभादिप क्षेषु विहिततव सेवनेन धर्मात्मना आध्यचनलीनतया ( अचनलीनतया च ) वनानि ( अवनानिच) संसेविरे द्रुपदजातिशयेन कीचकनी चवृत्या च मात्रासमं शीताऽऽसन्तापमाप हुन् ॥ ३० ॥ व्याख्या - विहित कैतव सेवनेन = विहितं = कृतं क्षात्रधर्मानुरोधेन द्यूतक्रीडनार्थमाह्राने कैतवस्य = द्यूतस्य सेवनं येन सः तेन, आहितो Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्री विजयामृतसूरिप्रणीता मरणी टीका. सर्ग-४ १९३ न निवर्तेत द्यूतादपि रणादपीत्युक्ते रणार्थ घृतार्थ वाऽऽहूतेन क्षत्रियेण रणद्यूतविधानस्य च क्षात्रधर्मोचितत्वात् । धर्मात्मना-धर्म-पुण्ये आ. चारे वा न्याये वा आत्मा बुद्धिश्चित्तं वा यस्य तेन धर्मात्मजेन युधिष्ठिरेण आप्यवनलीनतया-आप्या स्वीकृता वनवास-गुप्तवासरूपातपण निर्वाह थि प्राप्यावने द्वैतवने या लीनता-श्लिष्टता आश्रयायिभाचेन मम्बद्धता निव मतिरित्यथैः निवास इति यावत् तया हेतुना बनानिद्वैत नानि संसेविरे-निषेवितानि । तदनु कदाचित् गुप्तवासयापनीयवर्षावधिककालाभ्यन्तरे विराटगृहे पाण्डवैः साकं निवसन्ती द्रुपदजाद्रौपदी हतकीचकनी चवृत्या-हतस्य दुर्विदग्धस्य कीचकस्य-तदाख्यस्य विराटराजश्यालकस्य द्रौपदीरूपदर्शनचलितचेतसस्तद्धर्षणार्थ चेष्टमानस्य नीचवृत्त्या-सुरतप्रार्थनालक्षणाऽसदाचरणेन मात्रासमंप्रमाणेनातुल्यम् अतिमात्रमित्यर्थः सन्तापं-खेदमाष-लेभे पतिव्रता. त्वात् सा कीदृशी? अतिशयेन सीता अतिशयेन--अतिमात्रम् इने पत्यो पाण्डवे शीता-अनुष्णा अतीक्षणा इति सा शान्तप्रकृतिकेत्यर्थः । यद्वा सीता-सीता इवेति लुप्तोपमा। अतिशयेने त्यस्य आपेति क्रिययान्वयः। ऋषभ नेमिः पार्श्व-वीरपक्षेषु-विहितकतवसेवनेन-हितं-मित्रादि कैतवं-छलं द्यूतं वा यद्वा कैतवः-शत्रुः तयोस्सेवन-भजनं सम्बन्ध इतिभावः विगतं हित-कैतवसेवनं यस्मात् सः तेन रागद्वेषविनिर्मुक्तनेत्यर्थः । धर्मात्मना-पुण्यशीलेन जिनदेवेन आप्यवनली. नतया-तपश्चरणार्थ प्राप्यवननिवासतया यद्वा अवनलीनतया-जीवरक्षणपरायणतया हेतुना वनानि-तपोवनानि अवनानि-जीवरक्षणकआणि वा संसेविरे-भेजिरे । अत एव द्रुपदजातिशयेनद्रूणां-वृक्षाणां पदं स्थानं द्रुपदं वनं तत्र जातोऽतिशयः शयनं तेन यथा कीचकनीचवृत्त्या कीचकानां Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरन्धिते महसन्धानमहाकाव्ये वंशानां कीचकेषु या नीचवृत्त्या निम्नावस्थित्या च वंशाधोऽवस्थाने. नेत्यर्थः मात्रासमप्रमाणेनाऽतुल्यं यथास्यात्तथा शीतासन्तापं शीतं च आसन्तापश्चाऽनयोः समाहारः हेमन्तादित्रिके शैत्यं ग्रीष्मादित्रिके औष्ण्यं च आप-आयेत्यर्थः । हत इति कोमलामन्त्राणे । शान्तिनाथ-कृष्णवासुदेवपक्षे-धर्मात्मना=धर्मे धनुषि न्याये वा आत्मा मनो यस्य स तेन अत एव विहितकैतवसेवनेन-विहित कैतवैः रिपुभिरपि सेवनं यस्य स तेन विशिष्टं हित-कैतवयोः मित्रशवोः सेवनं यस्मिन् स तेनेति वा अवनलीनतया जगद्रक्षणपरायण तयाचनानि-रक्षाकर्माणि संसविरे आश्रितानि ।। __श्रीरामपक्षे धर्मात्मनाधर्मे-शिष्टाचार आत्मा मनो यस्य तेन मर्यादापुरुषोत्तमेन विहितकैतवसेवनेन-विगतं हिते-जगदिष्टसाधने कैतवस्य छलस्य सेवनं यस्मादिति. विशेषेण हितगतं कैतवस्य छल. स्य सेवनं यस्मादिति. विशेषेण हितं-गतं कैतवस्य छलस्य द्यूतस्य वा सेवनं यस्मादिति वा. विहितं कैतवेन=रिपुणा-क्षणकतिपयशात्रवी. भूतेन परशुरामेण शत्रुपक्षीयेण रावणानुजविभीषणेन सेवनं भक्तिभावो यस्य स तेन तथाविधेन श्रीरामबलदेवेन आप्यवनलीनतया= आप्या-समासाद्या वने या लौनता-चतुर्दशवर्षावधिकनिवसतिस्तया हेतुना वनानि दण्डकारण्यानि संसेविरे । अथ शीता-श्रीराममनुगच्छन्ती जानकी द्रुपदजातिशयेन बनस्थलीशयनेन कदाचित कीचकनीचवृत्त्या वंशाधोऽस्थिन्या मात्रा सम-प्रमाणेनातुल्यम् अ तिमात्रं सन्तापं खेदम् आप-आससाद प्राप्तवतीत्यर्थः । कैतवं छूतदम्भयोः । कैतवः कितवे शत्रौ इति हेमः । शीता नभस्सरिति लांगलपद्धतौ च सीता दशाननरिपोः सहधर्मिणी चेति तालव्यादौ धरणिः। कीचको दैत्यभिद्-वाताहतिसखनवंशयोः, विराटराजश्याले चेति शब्दार्णवः ।। ३० ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ नारायणः पशुधियो कृतकं स नाशान्नासादयन्नगवन भ्रमणेन दुःखम् ॥ भ्रंशेन पैतृकपदस्य दशामशासीद्, वारांनिधेश्व सविधे शरणे हरीणाम् ॥ ३१ ॥ अन्वयः -- नारायणः नाशात् स पशुधिया उपलक्षितः नगवनभ्रमणेन कृतकं दुःखं नासादयत् पैतृकपदस्य अंशेन वारांनिधेः सविधे हरीणां शरणे दशामशासीत् । रामपक्षे – स नारायणः कृतकं पशुविया नाशात् नगनवननमणे दुखं नासादयत् इति च न पैतृकपदस्य श्रंशेन वारांनिधेः पूर्ववत् ॥ ३१ ॥ १९५ KAVAAAAA व्याख्या - नारायण: = नृणां समूहो नारं तत् अयते = जानाति इति नारम् आययति = प्रवर्त्तयति स्वेष्टकर्मणीति वा नुः इदं नारम्= अज्ञानं वद् आययति = गमयति निवर्तयतीति वा सः । नाशात्-न आशां लोभं परिग्रहविषयकम् अततीति सः नाऽऽशात् नैकधेत्यादाविवेहापि नजतिरिक्तनशब्दसद्भावान्नलोपाभावः सः = ऋषभः पशुधिया= सम्यग्बुद्धया उपलक्षितः अतएव नगवन भ्रमणेन = पर्वत = काननप्रभृतिषु विहरणेन कृतकं = कृत्रिमं दुःखं न आसादयत् न प्राप्तवान् किञ्च पैतृकपदस्य = कुल परम्परागतराजपदलक्षणपितृसम्ब न्धिस्थानस्य अंशेन = अधःपातनेन अवहेलनेन परित्यागेनेति यावत् वारांनिधेः- समुद्रस्य सविधे - समीपदेशे हरीणां सिंहानां शरणे= आश्रयस्थाने वने इति यावत् दशां= चरमावस्थाम् अशासीत् = तपश्चया तनूकरोति स्मेत्यर्थः प्रापयामासेति यावत् ॥ श्रीरामपक्षे - सः = प्रसिद्धः नारायणः = नारायण इव विष्णुसदृश इत्यर्थः श्रीरामबलदेवः कृतकं = कृत्रिमं मायया हेममृगरूपधारिणं मारीचमिति यावत् पशुधिया - मृगलक्षणः पशुरयमिति बुद्धयैवेत्यर्थः न अशात् = अशातयत् इति नगवन भ्रमणे = रावणाऽपहृत सीतान्वेष • Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्चे णार्थ गिरिकाननेषु भ्रमणे तज्जन्यमित्यर्थः दुखं खेदं नासादयत् इति च न किन्तु अशादेव दुःखमासादवेत्यर्थः । पैतृकपदस्य पितसम्बधिराजपदस्य भ्रंशेनन्कैकेयीवचनपरवशेन गज्ञा दशरथेन भरताय राज्यं दत्त्वा रामश्च वनवासार्थ पित्राज्ञप्ततया सामाज्यपदस्य गहित्येन वारांनिधेः समुद्रस्य सविधे हरीणां वानराणां सुग्रीवादीनां शरणे-गृहे स्थाने इति यावत् दशां किञ्चित्कालिकस्थितिम अशामीत् । शब्दशक्तिमहिना रामपक्षीयोऽर्थः प्रदर्शितो न तु स पक्ष इहाश्रयणीयः श्री कौशलाधिपतिने त्यादि चतुवित्तमश्लोके तदर्थस्य स्पष्टमभिहित. त्वात् ॥ ३१ ॥ कालोऽप्यमुष्य चरणेऽनुचरोदयेच्छ र्देव्या-नले-न निहतश्छलमाकलय्य । तन्मानवो भजतु कोऽपि नवोदयाघ, क्रीडारसेऽभ्यसनतो व्यवसनासनानि ॥३२॥ अन्वयः--कालोऽपि अमुष्यचरण अनुचरोदयेच्छुः देव्या अनले न निहत: छलम् आकल्य क्रीड़ारसे अभ्यसनतः व्यसनासनानि नवः कोऽपि नवोदयाघम् तत् भाभजतु ॥ ३२ ॥ व्याख्या-कालोऽपि समयोऽपि अमुष्य जिनेन्द्रस्य चरणे चारित्र्ये अथवा चरणे पदे अनुचरोदयेच्छु: अनुचरस्य सेवकस्य य उदयः समृ. द्विस्तदिच्छुस्तदभिलाषुकः देव्या देवाङ्गनया अप्सरसा अथवा देव्या देवमायया रचितम् उद्भावितमिति शेपः छलम् कपटम् आकलव्य बुध्याविमृश्येति यावत् अनले अग्नौ यथा वह्निः सर्व भश्मसात् करोति स्पृष्टस्तथा मामप्ययं कुर्यादिति न निहतः न प्रयोजितः निवृत्तिमकरोदिति भावः क्रीड़ारसे खेलारसे अभ्यसनतः अभ्यासात् व्यसनासनानि व्यसने दुराग्रहे आसनम् उपवेशनम् तदभिनिवेशः तानि नवोदयाघ म् Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ १९७ नवोदयः अघः पापम् यत्र तद्यथास्यात्तथा नवः नूतनः कोऽपि मा भजतु न सेवताम् नासिन प्रसक्तो भवत्विति भावः ।। अन्यपक्षेऽप्येवमेवेति ।। अथ च अमुष्य नलस्य चरणे आचरणे अनुचरोदयेच्छु: अनुचरस्य किंकरस्य दासस्यत्यर्थः य उदयः प्राप्तिः दासभावताम् तदिच्छुः अयं गज्याद् भ्रष्टो दासतां भजेदित्यभिला पुका कालः कलियुगः देव्या दिव्यते इति देवी भावेऽप् गौरादित्वान्डीप् तया देव्या देवनक्रियया सूतव्यापारण छलम् कपटम् आकलप्य अभि. सन्धाय आश्रित्येत्यर्थः नले नैषधनृपे न निहितः छल इति शेष इति न किन्तु निहित एवेति काका व्यज्यते नले सूतव्याजेन कपटो निहित इति भावः तस्मात् तत्कारणात् कोऽपि मानवः नवोदयाचं अभिनवसमृद्धकिल्विषं माभजतु मासेवताम् तथाहि क्रीड़ारसे कीड़नकौतुके अभ्यसनतः अभ्यासात् पौनः पौन्येनासेवनात् व्यसनासनानि व्यस. नस्य विपत्तः आसनानि उपवेशनानि स्थापनानीति यावत् विपत्ति प्राप्तयो भवन्तीति शेषः । अत्र श्लेषोऽर्थान्तरन्यासश्च ।। ३२ ॥ साम्राज्यमित्थमनुनीय निजप्रजानां, नित्योदयेन बुभुजे मनुजेश्वरेण ॥ लोकाग्रजेषु ऋणभेण महाभुजेन, धर्मोन्नति विदधताऽननुजेऽनुजे वा ॥ ३४ ॥ अन्वय:---निजप्रजानां साम्राज्यम् इत्थम् अनुनीय नित्योदयेन मनुजेश्वरेण लोकाग्रजेषु ऋषभेन महाभुजेन अननुजे अनुजे वा धर्मोन्नतिं विदधता बुभुजे॥३३॥ व्याख्या-निजप्रजानां स्वकीयजनानाम् अथवा स्वकीयसन्ततीनाम् "प्रजास्यात्सन्ततो जने इत्यमरः" इत्थम् पूर्वोक्तप्रकारेण साम्राज्यम् आधिपत्यम् अनुनीय खानुकूल्यम् विधाय अथवा इत्थम् पूर्वोक्तप्रकारेण प्रजानाम् जनानाम् अनुनीय स्वाधीनम्बिधाय "प्रजानामिति Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये शेषत्वविवक्षया षष्ठी " नित्योदयेन नित्यमहरह: उदयः समृद्धिर्यस्य स नित्योदयस्तेन मनुजेश्वरेण मनुजानाम्मानवानाम् अथ वा मनुजेषु ईश्वरः स्वामी प्रभुः मनुजेश्वरः तेन लोकाग्रजेषु ऋषभेन लोकानाम् जनानाम् अग्रजः श्रेष्ठः तेषु ऋषभेन श्रेष्ठेन महत्स्वपि महत्तरेण अथ वा ऋपभेन ऋषभस्वामिना आदीश्वरणेत्यर्थः " स्युरुत्तरपदे व्याघ्र पुंगवर्ष कुञ्जराः । सिंहशार्दूलनागाथाः पुंसि श्रेष्ठार्थगोचरा इत्यमरः " महाभुजेन दीर्घबाहुना अनेन भाग्यशालित्वं सूच्यते अननुजे अननुचरे अनुजे अनुचरे अननुरोधिनि अनुरोधिनि च धर्मोन्नतिम् पुण्यसमृद्धिम् विदधता कुर्वता प्रचारयता साम्राज्यम् आधिपत्यम् समृद्धिमिति यावत् बुभुजे भुज्यते स्म सर्वपक्षसाधारणमेतत् अनुप्रासालंकारः ||१३|| श्री कौशलाधिपतिना यतिनामधर्तुं १९८ मुख्ये सुते नियमतः पदवीनिधेया । कान्तावरिष्ठवचसा भरते न्यधायि स्वाप्ताग्रजन्मनि परे वनवासवृत्तिः ॥ ३४ ॥ अन्वयः - यतिनामधर्तुं श्री कौशलाधिपतिना नियमतः मुख्ये सुते पदवीनिधेया कान्तावरिष्टवचसा भरते न्यधायि परे स्वाप्ताम्रजन्मनि वनवासवृत्तिः न्यायि ॥ ३४ ॥ व्याख्या -- यतिनामधर्चु यतिसंज्ञामनुभवितुम् यतित्वमाका ङ्क्षन् श्रीकौशलाधिपतिना कुशलायामयोध्यायां भवः कौशलः ऋष भदेवः "इतिकल्पसूत्रसुबोधिकावृत्तौ " अथवा कुशलस्यभावः कौशलम् तद्युक्तः अधिपतिः कौशलाधिपतिः श्रियायुक्तः कौशलाधिपतिः श्री कौशलाधिपतिः तेन ऋषभस्वामिना नियमतः निश्चयतः गुणतः क्रियातः धर्मतः नीतितः कुलाम्नायतः राजव्यवहारतः मुख्ये प्रधानेजन्मत इत्यर्थः सुते पुत्रे पदवी राजपदवी राज्यभारः निधेया स्थापनीया Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ १९९ अवलम्बनीया इति विचाउँतिशेषः भरते भरताभिधेये ज्येष्ठतनये न्यधायि प्रास्थापि कान्तावरिष्ठवचसा कान्तानाम् कमनीयस्वरूपाणाम् सारस्वतादिरिष्टान्तब्रह्मलोकनिवासिदेवानाम् वचसा तेषां वच. नेन स्वतोऽपि तेषां वचनेन च परे चरमे अयुनर्भाविनीत्यर्थः स्वाप्ता. ग्रजन्मनि स्वस्य आप्तम् कल्पाणाभिमुखम् अग्रम् श्रेष्ठम् यत् जन्म तस्मिन् स्वकीय श्रेयोमुखप्रशस्तशरीरे वनवासवृतिः मुनिवृत्तिः न्य. धायि अधारि ॥ अथच स्वाप्ताग्रजन्मनि स्वस्मात् स्वतः आप्ताग्रजन्मनि प्राप्तप्रथम. जन्मनि परे उत्कृष्टे पूर्व वा वनवासवृत्तिः युगलिकधर्मप्रवृत्तिःन्यधायि प्रास्थापि स्वतो युगलिकधर्मो न्यवर्ततेति द्वितीयार्थो व्यज्यते ॥ श्रीशान्तिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ वीरपक्षेषु । श्रीकौशलाधिपतिना कुशलस्य भावः कौशलम् कुशलता क्रियानैपुण्यम् तस्मिन अधिपतिः चतुरः कौशलाधिपतिः श्रियायुक्तः कौशलाधिपतिः श्रीकौशलाधिपतिः तेन यतिनामधषु यतिसंज्ञामनुभवितुं मुख्य श्रेष्ठे चरमे इत्यर्थः सुते सूयते उत्पद्यते इति सुतम् शरीरम् तस्मिन् पदवी मुनिपदवी निधेया स्थापनीया आधेया इति विचार्येतिशेषः कान्तावरिष्ठः वचसा आममन्ताद्वरिष्ठः आवरिष्ठः कान्तानां देवानाम् आवरिष्ठम् वचः म्बसंयमग्रहणप्रयोजकम् तेन तेषां वचनेन स्वतश्च स्वाप्ताग्रजन्मनि स्वस्य स्वकीयम्य आप्तम् श्लाघ्यम् यत् अग्रजन्म श्रेष्ठजन्म तस्मि न् परे चरमे अथवा स्वः स्वर्गात् आप्तम् प्राप्तं यत अग्रजन्म तस्मिन् भरते भरति पुण्येन लोकमिति भरते अथना बिभर्ति पुण्यातिशयमितिभरतस्तस्मिन् वनवासवृत्तिः मुनित्तिः पुण्यारण्यसेवन विधिः न्यधायि आस्थापि अग्राहीत्यर्थः ॥ रामपक्षे-कोशले देशविशेषे भवा कौशला तस्या अधिपतिः कौशलाधिपति तेन कौशल्यापतिना दशरथनृपेन यतिनामधर्तुम् Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते मप्तसन्धानमहाकाव्ये मुनित्वमाश्रयितुम् प्रवजितुमिति भावः मुख्य सुते सर्वतो ज्येष्ठे दयादा. क्षिण्यादितः श्रेष्ठे रामे नियमतः स्ववंशपरम्पराम्नायतः पदवी राजपदवी निधेया स्थापनीया इति कृतनिश्चयेऽपि कान्तावरिष्ठवचसा कान्तायाः कामिन्याः कैकेय्याः वरिष्ठवचसा वरिष्ठम् अत्याज्यम् पूर्वदत्तवस्त या अवश्यग्राह्यम् यद्वचः वचनम् तेन अथवा कान्तायाः स्वार्थान्धायाः कैकेया: अवरिष्ठम उभयलोकविरुद्वम् अथवैतल्लोक विरुद्धम् यद्वचस्तेन भग्ने कैकेयीतनये स्वमध्यमतनये न्यधायि राजपदवी अस्थापि परे उत्कृष्ट स्वाप्राप्तागजन्मनि स्वस्य आप्तः अत्यन्तानुगतोवल्लभ इत्यर्थ यः अग्रजन्मा ज्येष्ठतनयः तस्मिन् रामे वनवासवृत्तिः न्यधायि न्य क्षेपि वनवासीव्यधायीत्यर्थः ।। कृष्णपक्षे-कौशलायाः मित्रविन्दायाः स्वेष्टाष्टपदृमहिषीणाम न्यतमाया अधिपतिः स्वामी तेन कृष्ण यतिनामवर्तुम् यतते स्वाधर्षणायदुर्गादिकम्बिद्यते इति यतिः अथवा यतिः अथ वा यतिविष्णु. स्तस्य नाम ख्यातिम् धर्तुमाश्रयितुम् "यतिर्विष्णुरितिशब्दस्तोममहानिधिः . "कृष्णस्तु भगवान स्वयमिति पौराणिकाः" मुख्ये प्रधाने निरुपद्रवे शत्रुभिग्लङ्ग्ये सूने सूते अस्मिन् इति मुतः अधिकरणे क्तः भूमौ पदवी स्थितिः विधेया निर्मापनीया क्वचिनिर्वाहस्थाने स्वनगरी निवेशयितव्येति भावः कान्तावरिष्ठवचसा आसन्ताद्वरिष्ठः श्रेष्ठः आवरिष्ठः कान्तम् मनोहरम् यत् आवरिष्ठस्येन्द्रादेवचः वचनम् तेन देवेन्द्रादिवचनेन भरते भ्रियते धनधान्यादिसमृद्धिभिलॊकैर्वा इति भर. तस्तस्मिन् स्त्राप्ताग्रनन्मनि स्वस्य आप्तम् श्लाध्यम् अग्रजन्म पूर्वजन्म यस्मिन् तस्मिन् आपोनारा इति प्रोक्ता आपो वे नरसूनव इति मनूक्तः कृष्णस्य जलप्रसूतत्वात् परे उत्कर्षे द्वारकायामित्यर्थः वनवासवृत्तिः वने समुद्रजले वासवृत्तिः जलवासित्वम् अथवा वनमेव वासवृत्तिः Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतमूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ २०१ प्राकारो यत्र सा अथ वा बने जले वासः वृनिराजीविका च यस्य स, न्यधायि अस्थापि अत्र श्लोके श्लषालंकारः ॥ ३४ ॥ श्रीविश्वसेनकृतकर्मनिवृत्तिभावे, लोकोऽनुगामुकमना नयविक्रमेण ॥ शान्तिप्रधानवचसैव तमाश्वसेनो, वैदेहिवृत्तिपरिभावनया जुगोप ॥ ३५॥ अन्धयः-- श्रीविश्वसेनकृतकर्मनिवृत्तिभावे नयविक्रमेण अनुगामुकमना लोक तम् आश्वसेनः शान्तिप्रधानवचव वै देहिवृत्तिपरिभावनया जुगोप ॥ ३५ ॥ व्याख्या-श्रीविश्वसेनकृतकर्मनिवृत्तिभावे विश्वस्मिन् चतुर्दिविभागे सेना यस्य अथवा विश्वस्मिन सेनया यातीति सेनयतीति सेन: सर्वत्र सेनासहितगमनः नामिः आदिनाथयिता तेन कृतः सम्पादितः कर्मणो निवृत्तिभावः पित्रादिनियतकर्तव्यलौकिकसंस्कारादिकर्मसमाप्तियस्मिन् तसिन् अथ वा श्रीविश्वसेनात् निजसाम्प्रतिकपितुः सकाशात् कृतः जातः कर्मणः शरीरारम्भकदुरदशनिवृत्तिभावः यत्र तस्मिन् नयविक्रमेण नयेन नीत्या विक्रमेण पराक्रमेण अनुगामुकमनाः अनुसरणचित्तो जनः लोकः आसीदिति शेषः आश्वसेनः अश्वप्रधाना सेना यस्य स आश्वसेनः शान्तिप्रधानव सैव शान्तिप्रयोजकवचनेन वैदेहिवृत्तिपरिभावनया वै इतिपादपणेऽनुनयेऽव्ययम् , देही आत्मा तस्य वृत्तिर्व्यवहारः आत्मत्रव्यवहारस्तस्याः भावनया विचारेण तम् जनम् अथवा वैदेह्याः जनकनन्दिन्या या वृत्तिवेतनम् सुखदुःखसहि. ष्णुत्वम् धर्मपरतन्त्रत्वम् तस्य परिभावनया विचारेण जुगोप ररक्ष । श्रीशान्तिनाथपक्षे—विश्वसेनेन तदभिधानेन स्वजनकेन कृतः सम्पादितः कर्मनिवृत्तिभावः जन्मत आरभ्य विवाहादिसंस्कारपर्यन्त Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ महोपाध्याय श्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये कर्मनिवृत्तिभावः परिसमाप्तियत्र तस्मिन् अथवा विश्वसेनात् कृतः कर्मणः शरीरान्तरारम्भककर्मनिवृनिभावः समाप्तियत्र तस्मिन् अन्यत् पूर्वव्याख्यानवत् ।। श्रीपार्श्वनाथपक्षे--विश्वस्मिन् सेना यस्य स विश्वसेनस्तेन कृतकर्मनिवृत्तिभावे आश्वसेनः एतदभिधानकः पाश्वनाथपिता वैदेहिवृत्तिपरिभावनया जुगोप अन्यत्पूर्ववत् ।। श्रीनेमिनाथवर्द्धमानरामकृष्णपक्षे पूर्वपक्षवद्योज्यम् ॥ ३५ ।। देवस्तथा नृपतिभिः सह पूर्वदेवैः, प्राप्ते प्रमोदनिवहे महता महेन । धर्तु क्षणाद् विषयतो विमुखः स दीक्षां, स्वामी खमभुतरसाद वनमाससाद ॥३६॥ भन्वयः--महता महेन प्राप्ते प्रमोदनिवहे पूर्वदेवै पतिभिः सह विषयतः विमुखः स देवः दीक्षाम् धर्तुम् स्वामी स्वम् अद्भुतरसाद् वनम् आससाद:३६॥ ___व्याख्या-पूर्वदेवैः पूर्वोक्तैरिन्द्रादिदेवैः अथवा पूर्वाश्वते देवा. श्व तैः पूर्वदेवैः प्रधानदेवैः अथवा पूर्वम् शरीरधारणात् प्रथमम् देवैः देवभूतैः इदानीं प्रभुसेवार्थनृपतिताङ्गतैः अथ च सामन्तराजभिः सह सार्धम् महता लोकातिशयेन महेन उत्सवेन प्रमोदनिवहे आनन्दसंभारे प्राप्ते अधिगते सतीत्यर्थः स प्रभुः जिनेश्वरः देवः विषयतः सांसारिकविषयकामिनीकाश्चनादितः विमुखः पराङ्मुखः स्वामी सर्वशक्तिमान् स्वम् स्त्रयमेव क्षणात् तत्क्षणमेव दीक्षाम् प्रवज्यां धतुम् ग्रहीतुम् अद्भुतरसात् विलक्षणशान्तिरसात् वनम् सिद्धार्थनामोद्यानम् आससाद प्राप गतवानित्यर्थः ।। श्रीपार्श्वनाथपक्षे-आश्रमपदनामानम्वनम् अन्यत्पूर्ववत् । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्य श्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी रीका. सर्ग-३ २०३ श्रीनेमिनाथ-शान्तिनाथ-बर्द्धमानपक्षे-सहस्राब्रवणनामानम्वनमन्यत् समानम् ॥ श्रीरामचन्द्रपक्षे-देवः स्वामीत्यादिशब्दैर्दशरथो ग्राह्यः स च पूर्वदेवैर्दीप्यमाननृपतिभिः सह भूयसा परिवारेण दीक्षान्धर्तुं महामुनेः सत्यधृतेः सकासात् वनमाससाद प्राप ।। कृष्णपक्ष-पूर्वदेवैः ज्येष्ठभ्रातृभिः नृपतिभिः सामन्तराजैः सह प्रमोदनिवहे अमन्दानन्द प्राप्ते अधिगते सति विषयतोऽविमुखः विषयासक्तचित्तः सांसारिकविषयवासनाधिकृतमनाः महता विपुलेन महेन उत्सवेन स कृष्णः देवः द्योतनात्मा दीक्षाम् विवाहविधिन्धर्तुनिर्वर्तितम् "वीवाहदीक्षानिरवत्तय द्गुरुरितिरघुकाव्ये" विवाहविधेरपि दीक्षाशब्दवाच्यत्वमुक्तमन्यैः स्वामी नृपः अद्भुतरसात् अत्युत्कण्ठातः वनम् आलयम् आवासम् आससाद प्राप अरण्ये जले निवासे आलये च वनमिति शब्दस्तोममहानिधिः ॥ १६ ॥ निष्कोपयामिकविधि दधताऽत्र राज्ञा, सांवत्सरावसरदानकृता यथार्हम् । योगाभियोगकलया मलयानुलिप्ता___लंकारितेन वनपावनता वितेने ॥ ३७॥ अन्वयः–भत्र निष्कोपयामिकविधिन्दधता मलयानुलिसाऽलंकारितेन राज्ञा यथार्ह सांवत्सरावसरदानकृता योगाभियोगकलया वनपावनता वितेने ॥ ३५ ॥ व्याख्या-अत्र भुक्ने निष्कोपयामिकविधिन्दधता निर्गताः कोपात् इति निष्कोपाः शान्तकोधा ये यामिका यामे यामे भवा यामिकाः द्वारपालास्तेषाम् विधिविधानन्दधता आश्रयता अर्थात् अवारितद्वारतां कुर्वता यथायोग्यम् रूपानुरूपं साम्बत्सरावसरदानकता Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकाचे सम्वत्सरे भवम् साम्बत्सरम् तस्य अवसरः समयः तत्र यद्दानम् तत् करोतीति साम्वत्सरावसरदानकृता मलयानुलिप्तालंकारितेन मलयानुलिप्तेन मलयचन्दनानुलेपेन तात्स्थ्यात्ताच्छब्दमित्यनुसृत्य अलं. कारितः कृतालंकारस्तेन राज्ञा राजमानेन योगाभियोगकलया योगस्य ये केचन जिघृक्षवस्ते समायान्विति रूपस्य योऽभियोगः ख्यापन तस्य कलया विधानेन वनपावनता वनस्यारण्यस्य पावनता पूतता महत्वमित्यर्थः वितेने विस्तारयामास ।। अन्येषामपि चतुर्णामहेतां समानमेतत् ।। श्रीरामपक्षे—निष्कोपयामिकविधिम् निष्क्रोधद्वारपालक्रियाम् दधता धारयता राज्ञा भरतेन अत्र अयोध्यायाम् साम्बत्सरावसरदा. नकृता सम्वत्सरे भवः साम्वत्सरः चतुर्दशवर्षव्यापकः योऽवसरः समयस्तसिन् यत् दानम् पालनम् “दानम्मदजले च्छेदे पालने चेति शब्दस्तोममहानिधिः ” तत् करोतीति तेन यथार्हम् यथायोग्यम् क्रममनुसृत्येत्यर्थः योगाभियोगकलया योगस्य कवचादिधारणस्य अथ वा कमकौशलस्य योऽभियोगः उद्योगः तस्य कलया तदाश्रयेण अथवा योगः परराजकृतघर्षणस्तस्य अभियोगः विज्ञानम् तम् कलयति जानातीति कला तया तथोक्तया मलयानुलिप्तालंकारितेन मलयचन्दनानुलेपनकृतालंकारेण वनपावनता वनति हिनस्ति जनानितिवनः तम् पायतिशोषयतीति "पैल्युः" वनपावनस्तस्यभावस्तत्ता वितेने अथ च वनस्य नगरस्य पावनता पवित्रता वितेने विस्तारयामास ।। कृष्णपक्षे--साम्बत्सरावसरदानकृता श्रीनेमिनाथस्य यत्साम्बसरावसरदानम् तत् कारयति सम्पादयतीति अन्तर्भावितण्यर्थः तेन अथवा सम्बसन्ति ऋतवो यत्र तत् सम्बत्सरम् उपवनम् रैवतकवनम् तस्स अवसर अवकाशः तत्र दान कृता रक्षणकृता वृन्दान नावकाशपालनकृता वा वनस्थ समुद्रजलस्य यावनता पवित्रता अथवा स्वालयस्य Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ द्वारकापुरः पावनता पवित्रता वितेने विस्तारयामास अन्यद्विशेषणं रामपक्षवद्योज्यम् श्लेषः || ३८ ॥ रेजे रजंश्च विषये ननु राजराजां, लोकान्तकान्तवसतिप्रतिपन्नदेवैः । विज्ञापितः स्वसमयं चिकुरार्थराग २०५ मुत्पाटय तुष्टसुमनाः सवनानुकूल्ये ||३८|| अन्वयः --- ननु राजराजां विषये रजन् लोकान्तकान्तवसतिप्रतिपन्न देवैः स्वसमर्थ विज्ञापितः चिकुरायेरागमुत्पाट्य तुष्टसुमनाः स वनानुकूल्ये रेजे ॥ ३८ ॥ व्याख्या -- ननु इति कोमलाला पे राजराजां विषये राजसु नृपसमूहेषु राजते शोभते इति राजराट् तेषां विषये मध्ये तत्संघे रजन् विलसन् स जिनेन्द्रः लोकान्तकान्तवसतिप्रतिपन्नदेवैः ब्रह्मसदननिवासिभिर्देवैः स्वसमयं दीक्षाग्रहणकालम् विज्ञापितः निवेदितः स्मारित इति यावत् चिकुरार्थरागम् चिकुरे कचे अर्थे सम्पत्तौ यो रागः ममत्वबुद्धिः प्रीतिरिति यावत् तमुत्पाट्र्य उन्मूल्य निरस्य तुष्टसुमना तुष्टम् हृष्टम् सुष्ठु मनो हृदयं यस्य स वनानुकूल्ये वने न निर्जनतथा आनुकूल्ये तपो योग्ये रेजे रेमे विललास || अथवा स वनस्य आभ्यन्तरमलक्षालन रूपध्येयस्त्रानस्य आनुकूल्ये सौलभ्ये रेजे || पञ्चात्पक्षसाधारणमेतदिति || कृष्णपक्षे - राजसु राजन्ते इति राजराजस्तेषां विषये समुदाये रजन् शोभमानः लोकान्तकान्तवसतिप्रतिपन्नदेवैः लोकान्तं लोकेषु अन्तः मनोहरः " अन्तो मनोहरेऽभ्यासे इति शब्दस्तोममहानिधिः" कान्तः कमनीयः तत्र वसतिर्निर्वासः प्रतिपन्नः स्वीकृतः यो देवः दीप्तिमान् तैः अतिमुक्तनाममुनिभिः स्वसमयम् स्वस्य कंसस्य समयम् जीवनदिनम् " यन्निमित्तोऽयमुत्सवस्तद्गर्भः सप्तमो हन्ता पतिपित्रो Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयमणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये स्त्वदीययोरिति " देवकी विवाहोत्सवे विज्ञापितः कृतनिवेदनः कंसः तां कचे गृहीत्वा हन्तुमुत्रतः मा एनां हंसि अस्यास्तनयं त्वां समर्पयिष्यामीति चिकुरार्थरागम् कचग्रहणप्रपञ्चम् अथवा चक्यन्ते प्रतिहन्यन्ते इति चिकुरा " औणाक उरः प्रत्ययः " प्रतिहननानि तदर्थ यो रागोऽभिनिवेशः तमुत्पाट्र्य निरस्य स कंसः वनानुकूल्ये आलयस्य आनुकूल्ये सौलभ्ये रेजे शुशुभे ॥ रामपक्षे - राजराजां विषये सूर्य्यवंशे रजन शोभमानः लोका न्तकान्तवसतिप्रतिपन्नदेवैः लोकान्ते वने या कान्तवसतिः मनोहरनि वासस्तत्प्रतिपन्ना तत्र गता ये देवा दीप्यमानास्तैः विज्ञापितः निवेदितः सन् चिकुरार्थरागम् संग्रामरागम् स्वसमयम् खनिश्चयम् उत्पादय दूरीकृत्य सन्धिम्विधायेत्यर्थः तुष्टसुमनाः प्रसन्नचित्तः स रामः नानुकूल्ये रेजे रमतेस्म || कदाचिद्वने पर्यटन् राम्रो निर्जनकमपिप्रदेशम्विलोक्य यावच्चि न्तयति तावत् कोऽपि श्रावकः सिंहोदरवज्रकर्णयोर्वृत्तान्तं व्यजिज्ञपत् तयोश्वसन्धिविधाय तत्र वने रेजे इति रामायणे पञ्चमसर्गे आदितः ७६ सर्ग यावद्वर्णनमनुसन्धेयम् ॥ ३८ ॥ जातेर्महाव्रतमधत्त जिनेषु मुख्यस्तस्मात्परेऽहनि स-शान्ति - समुद्रभूर्वा । । श्रीपार्श्व एव परमोऽचरमस्तु मार्गे, २०६ रामेऽक्रमेण ककुभामनुभावनीये ॥ ३९ ॥ भन्वयः- - जिनेषु मुख्यः स शान्तिः समुद्रभूः अचरमः परमः जातेर्महाव्रतम् अवत्त तस्मात् परेऽहनि श्रीपार्श्व एवं ककुभामनुभावनीये रामे क्रमेण मार्गे महाव्रतम् अधत्त ॥ ३९ ॥ व्याख्या - जिनेषु अवधिज्ञानवत्सु मुख्यः प्रथमः श्रेष्ठः आदीश्वरः Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ M २०७ ऋषभदेवः अवतम् तुर्यगुणस्थानकम् अधत्त अथ च जातेः जन्मनः परे उत्कृष्टे अहनि दिवसे चैत्र कृष्णनवभ्यां महाव्रतम् चारित्र्यलक्षणम् अधत्त धृतः स कथंभूतः शान्तिसमुद्रभूः शान्तेरुपशमस्य यः समुद्रः आकरस्तस्य भूः उत्पत्तिस्थानम् परमः श्रेष्ठः अचरमः चरमो न भवतीति तथा रामे मनोहरे मार्गे पथि ककुभां दिशामनुभावनी ये प्रकाशकारके श्रीपार्श्वे एव श्रियाः मोक्षलक्ष्म्याः पार्श्वे सन्निधौ आसनमुक्तिलक्ष्म्या एव क्रमेण रीतिमनुसृ-येत्यर्थः ॥ श्री शान्तिनाथपक्षे - श्री शान्तिः शान्तिनाथः जातेर्जन्मनः परे द्वितीये अहनि दिवसे ज्येष्ठकृष्णत्रयोदश्यां महाव्रतम् संयमं अधत्त अन्य द्विशेषणम् पूर्ववदवसेयम् ॥ श्रीनेमिनाथपक्षे -- शान्तिसमुद्रभूः शान्तेः समुद्र इव समुद्रः समुद्रविजयः तस्मात् भूः उत्पत्तिर्यस्य स नेमिनाथः जातेः जन्मनः परे द्वितीयेऽहनि दिवसे श्रावणशुषष्ठयां महाव्रतम् अधत्त || -- श्री पर्श्वनाथपक्षे श्रीपार्श्वः पार्श्वनाथः जातेर्जन्मदिनात् परे द्वितीयेऽहनि पौषकृष्णैकादश्यां महाव्रतमधत्त || श्री महावीरपक्षे- चरमः अन्तिमः श्रीवर्धमानस्वामी जाते: परे भन्ने दिवसे मार्गकृष्णैकादश्यां महाव्रतम् अधत्त अग्रहीत् ॥ रामकृष्णपक्षे -- स मुख्यः प्रथमः श्रेष्ठः शान्तितमुद्रभूः शान्तेरुपशमस्य समुद्रः तस्य भूरुत्पत्तिस्थानम् अथवा शान्तिसमुद्रः दशरथो वसुदेवश्च तस्मात् भवतीति शान्तिसमुद्रभूः परमः उत्कृष्टः चरमो न भवतीति अचरमः सर्वतोऽधिकः परे उत्कृष्टे रामे मोक्षसाधनभूते क्रमेण क्रमतः ककुभान्दिशामनुभावनीये सर्वप्रकाशकारके अहनि न कदाचित जहाति संसारमिति अहनि निश्चले मार्गे जिनशासने विषये जिनेषु अर्हत्सु महाव्रतम् महानियमम् अधत्त अग्रहीत् ॥ ३९ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाब्बे देवर्षभे-जनि-पवित्रदिने बतश्री शान्तेः पुनर्बहुलशुक्लपरासत्त्वे । अनोदिताम्बुधिशिवाङ्गभवे रसाढ्ये, सम्यक्तिथौ हरिवरस्य तथैव पोर्चे ॥ ४०॥ अन्धयः-देवर्षभे जनिपचित्रदिने व्रतश्रीः शान्तेः पुनः बहुल शुक्लपरघुसत्वे उदिताम्बुधिशिबाङ्गभचे रसाये तथैव पार्श्वे हरिवरस्य सभ्यक्तिधौ ॥४०॥ व्याख्या--देवर्षभे देवश्चासौ ऋषभश्चेतिदेवर्षभस्तसिन् ऋषभस्वामिनि जनि पवित्रदिने जनेः जन्मतः पवित्रम् पूतम् तस्मिन् दिने चैत्रकृष्णनवम्यां व्रतश्रीः व्रतलक्ष्मीः अजनि अभूव शान्तः शान्तिनाथस्य भगवतः बहुलशुक्लपरासत्वे बहुम् लाति गृह्णातीति बहुलो ज्येष्ठः सर्वतः श्रेष्ठत्वात् तस्य शुक्लपराः शुक्लपक्षपरदिनम् तस्य सत्वे विद्यमाने ज्येष्ठकृष्णत्रयोदशीदिने इत्यर्थः उदिताम्बुधिशिवाङ्गभवे उदितः प्राप्तोदयः य अम्बुधिः समुद्रः समुद्र विजयः स च शिवा च तत्पत्नी ते उदिताम्बुधिशिवे तयोः अङ्गभवस्तन यस्तस्मिन् नेमिनाथे रसाढ़ये षष्ठीतिथौ तथैव पार्श्व पार्श्वनाथे हरिवरस्य विष्णोः सम्यतिथौ एकादश्याम् हरिवरस्य महावीरस्वामिनः सिंहाकितत्वेन तथा निर्देशः तथैव एकादश्यामित्यर्थः व्रतश्रीरजनीति पूर्वण सम्बन्धः ॥ ४ ॥ मार्गेऽसिते सदशमे हि सुपर्वसङ्गे, तीर्थेश्वरोऽप्यचरमः परमो निवृत्तः। आलोचनाद्विकचचारुमुखारविन्द स्तुर्यावबोधनधनी स मनीषिपूज्यः ॥४१॥ अन्वयः-परमः-अचरमस्तीर्थेश्वरः मालोचनाद्विकचचारुमुखारविन्दः तुर्यावयोधन धनी मनीषिपूज्यः स मार्गेऽसिते सदशमे सुपर्वसंगे निवृत्तः ॥ ४ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीसा सरणी टीका. सर्ग-४ २०९ व्याख्या-अचरमः चरमोऽन्तिमो न भवतीति अचरमः आ. दीश्वरनाथः परमः श्रेष्ठः तीर्थेश्वरः तीर्थकृत् आलोचनात्-ज्ञानतः पर्यालोचनात् विचारात् विकचचारुमुखारविन्दः विकचं विकसितं सुप्रसन्नमित्यर्थः चारु मनोज्ञं मुखारविन्दम् आननपंकजम् यस्य स तथोक्तः तुर्यावबोधनधनी तुर्याबोधनम् तुर्यज्ञानमेव धनम् संपद्यस्य स मनीषिपूज्यः विद्वजनाराधनीयः स सदशमे सादयति आमादयति शमः शान्तियत्र तस्मिन् सुपर्वसङ्गे देवसङ्गे सिते निर्मले मार्ग साधुमागेऽध्वनि निवृत्तः जातः यतित्वमाससादेत्यर्थः ॥ श्रीमहावीरपक्षे-असिते कृष्णे सदशमे दशमेन सहितः सदशमः पूर्वोपस्थितत्वादेकादशो जातस्तत्र मार्ग मार्गशीर्षे मार्गीकादश्यां चरमोऽन्तिमस्तीर्थेश्वरः वर्धमानप्रभुः निवृत्तः सांसारिकवि. षयवासनात इति शेषः ॥ अन्यतीर्थकृताम्पक्षेऽप्येवमेवावसेयम् ।। रामकृष्णपक्षे-तीर्थेश्वरः “सत्यं तीर्थ क्षमातीर्थ तीर्थमिन्द्रिय. निग्रहः सर्वभूतदयातीर्थ सर्वत्रार्जवमेवचे"ति निरुक्ततीर्थानामीश्वरः अधिष्ठाता अन्यत्र तीर्थस्य उपकूपजलाशयस्य द्वारकाया ईश्वरः प्रभुः चरमो जघन्यो न भवतीति अचरम उत्कृष्टः निवृत्तः राज्यादिति शेषः अन्यत्र नितरां त्रियते इति निवृत्तः सामन्तराजपरिवृत्तः आलोचनात् प्रेमतो दर्शनात् विकच चारुमुखारविन्दः प्रसन्नमनोहराननः आलोचनादित्यनेन प्रेमावलोकनत इत्यर्थः शत्रूणां तु अकालकालकरालवदनएवासीदिति ध्वनिः तुर्यावबोधनधनी तुर्यम् तूरम् तेन यदवबोधनम्प्रा. तर्जागरणन्तेन धनी भाग्यवान् “वाद्यं वादिनमातोयं तुर्य तूरं स्म रध्वज इति हैमः” मनीषिपूज्यः मनीषिभिर्विद्भिः पूज्य आदरणीयः स रामः कृष्णश्च असिते निर्मले सदशमे प्राप्तशमे सुपर्वसङ्गे सुपर्वणां Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. महोपाध्याय श्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये देवानां संगः संगतिर्यत्र तस्मिन् मार्ग स्याद्वादमार्ग निवृत्तः निश्चयेन प्रतिपन्नः ॥४१॥ अर्थाः सप्त समर्थिताः कणभुजामाभासनेशासने, __ सप्त श्रीजिनसन्मते ह्यभिमते प्रामाणिकानामपि। राज्याङ्गानि तथैव देवरसतः स्युभूर्भुजः सिद्धये, काव्येऽस्मिन्नत एव सप्त कथिता अर्थाः समर्थाःश्रियै॥४२॥ इति श्रीसप्तसंधाने महाकाव्ये महोपाध्याय-श्रीमेघविजय. गणिविरचिते पूज्यराज्यवर्णनो नाम-चतुर्थः सर्गः ॥४॥ भन्वयः कणभुजामाभासने शासने सप्त अर्थाः समर्थिताः प्रामा. णिकानामपि अभिमते श्रीजिनसन्मते सप्त तथैव देवरसतः भूर्भुजः सिद्धये राज्याशानि स्युः अत एव अस्मिन् काव्ये श्रियै समर्था सप्त अर्थाः कथिताः ॥४२॥ व्याख्या-कणभुजां कणादानानयायिकसमानतंत्राणाम्वैशे. पिकानाम् आभासने प्रकाशमाने शासने तन्त्रे सप्त अर्थाः द्रव्यगुणा दयः समर्थिताः प्रमाणेन सिद्धान्तिताः सन्तीति शेषः तथा प्रामाणिकानां प्रमाणतो वस्तुपरिच्छेदकानामभिमते इष्टे श्रीजिनसन्मते श्री जिनानां सन्मते शुद्धमते जैनदर्शने सप्त जीवादयोऽर्थाः पदार्थाः समर्थिताः प्ररूपिताः तथैव भूर्भुजः नृपस्य सिद्धये विजयाय दैवरसतः सप्तसंख्यातः राज्यांगानि स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशादीनि समर्थितानि सनिवेशितानि अत एव शास्त्र व्यवहारे च निर्णीतत्वादेव अस्मिन् काव्ये सप्तसंधानाभिधाने श्रियै मङ्गलाय समर्थाः अभिधावृत्तिबोध्याः सप्त अर्थाः सप्तसंख्यका। अभिधेयाः समर्थिता वाच्यत्वेन स्थापिताः ४२॥ इति शास्त्रविशारद--कविरत्न भट्टारकाचार्य-श्रीविजयामृतसूरीश्वर-प्रणीतायां सप्तसंधान-महाकाव्य-सरणी-टीकायां चतुर्थः सर्गः ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २१ पञ्चमः सर्गः अथ कुवलयोद्भासी राशीभवद्गुणसेवधिः, परिणतहदारामः कामं जगाम न वामधीः । जिनपवृषभः स्वैरं वैरं त्यजन्नपरे परे, सितरुचिरिवोदीचीमञ्चन् दिशं हरिणाश्रिताम्॥१॥ अन्वयः-अथ कुवलयोद्भासी राशीभवद्गुणसेवधिः परिणतहदारामः न वामधीः अपरे परे वैरं त्यजन् जिनपवृषभः उदीचीमचन् सितरुचिरिव स्वैरं कामम् हरिणाश्रिताम दिशम् जगाम ॥ १ ॥ व्याख्या-अथ अथानन्तरम् दीक्षाग्रहणानन्तरमित्यर्थः कुवल. योद्भासी कुवलये भूमण्डले भासतें दीव्यतीत्येवं शीला पृथ्वीमण्डलमण्डनः राशीभवद्गुणसेवधिः राशीभवन्तः सर्वतो मिलन्तः ये गुणाः दयादाक्षिण्यादयस्तेषां सेवधिः निधिः खानिरितियावत् परिणतहृदारामः परिणतम् कषायादिरहितन्निर्मलमित्यर्थः यत् हृद् हृदयम् तत्र आरमते विहरतीति तथा अथवा परिणतः पुष्टः हृदारामो हृदुपवनं यस्य स तथा स्वात्मसंतुष्टः दयादिगुणयुक्तः इतियावत् न वामधी: नारुन्तुदबुद्धिः ऋजुप्रकृतिः अपरे स्वीये परे अन्ये च वैरम्बिद्वेष त्यजन् परिहरन् स्वीयपारक्यबुद्धिरहितः उदीचीमुत्तरान्दिशम् अञ्चन् गच्छन् सितरुचिरिव शीतांशुरिव चन्द्र इवेत्यर्थः जिनपवृषभः जिनश्रेष्ठा स्वैरं यथेष्टम् कामं यथास्यात्तथा हरिणाश्रितान्दिशम् ऐन्द्रीम् दिशम् प्राचीम् जगाम विचचार अथवा असितरुचिः तीक्ष्णकरः सूर्य इव उदीचिम् दिशम् उत्तरायनम् अञ्चन् गच्छन् स इवेति । सित. रुचिरिव असितरुचिरिवेतिवोपमालंकारेण निरतिशयमृदुत्त्रं धर्ममाङ्गलिकप्रयोजकत्वं च वस्तु व्यज्यते इत्यलंकारेण वस्तुध्वनिः ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्भानमहाकाव्ये रामपक्षे-रामः परिणतहृदा परिपक्कबुद्ध्या वामधीः कुटिलबुद्धिर्न जिनपवृषभः जयति संसारमिति जिनः मुनिः तं पातीति जिनपः स श्रेष्ठः आराध्यतया मुख्यो यस स अथवा जयति शत्रुमिति जिनः नृपः तम्पाति रक्षति इति जिनपस्तेषु वृषभः श्रेष्ठः हरिणाश्रिताम् सुग्रीवाधिष्ठिताम् दिशम् कामम् जगाम निर्ययो अन्यत् पूर्ववद्योज्यम् ॥ कृष्णपक्षे-कुबलयोद्धासी कुवलये भूवलये उद्भासी शोभमानः अथवा कुवलयेन हस्तस्थितकमललाञ्छनेन उद्भासते इति तथा अथवा कुवलयमिवउद्भासी कुवलयोद्भासी अथवा कुवलये कुवलयनामा कंसस्य गजरूपोऽसुरः तत्र तद्धिंसनेन उद्भासते इति कुवलयोद्धासी राशीभवद्गुणसेवधिः सर्वगुणनिधिः परिणतहृदारामः आसमन्तात सर्वभावेन रामे बलरामे परिणतम् प्रहम् हृद् हृदयं यस्य स वामधीविप्रतिपन्नवुद्धिन अन्यद्विशेषणम्पूर्ववद्योज्यम् । सर्गोऽयंहरिणीच्छन्दो बद्धोभाति न संशयः। तल्लक्षणन्तु रसयुगहयैन्सौम्रोस्लो गो यदाहरिणी तदा ॥ १ ॥ क्वचन वचनैर्गोपालीनां तपोनिनां क्वचिद, द्रुवनरचनैर्यक्षादीनां पुरः सुरशासनैः । कृतवसुधनोत्पातैर्वा-तैः पराक्रमसंगमैः, स हि दृढमनाः सेहे देहे प्रतिग्रहनिग्रहम् ॥२॥ अन्वयः-. क्व चन गोपालीनाम् वचनैः तपोधनिनाम् यक्षादीनाम् पुरः सुरशासनः दयनरचने: पराक्रमसंगमः कृत वसुधनोत्पाततिः स हि दृढमनाः देहे प्रतिग्रह निग्रहम् सेहे ॥ २ ॥ व्याख्या---वचन कुत्रापि गोपालौनां गोपश्रेणीनाम् गोपाङ्गनानां वा वचनैः यदृच्छाप्रयोजित म्यभाषाभिः अथवा गांपृथ्वीं पान्तीति गोपाः नृपास्तेषां आलीनां श्रेणीनां वचनैः स्तुतिप्रयोजकैः Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २१३ कचित् वचन तपोधनिनाम् तपस्विजनानाम् पुरः अग्रे सुरशासनैः महे. न्द्रादिदेवनियोगैर्यक्षादीनां विद्याधरादीनां द्रुवनरचनैः द्रूणां वृक्षाणाम् बनानाम्बिपिनानां वा रचनैः विधानः पराक्रमसंगमैः पराक्रमितेः बल वद्भिः कृतवसुधनोत्पातः कुतोविहितः वसुधनानाम् रत्नबहुलानाम् उत्पातः वृष्टिः यैस्तैः अथवा वसुधनानां वह्निसमूहानामुत्पातः उपद्रवः तैः वातैः पवनैः यत् प्रतिग्रहं प्रत्युपकारं साहाय्यमित्यर्थः अथवा प्रतिग्रहमुपद्रवम् निग्रहम् भर्त्सनादिकम् तत् दृढमनाः अविचलितबुद्धिः देहे निजकाये स जिनेश्वरः हीति निश्चये सेहे सोढवान् कथञ्चिदपि खनिश्चयान्नविचचालेति भावः ।। ___अथ च पराक्रमः संगतैः पराक्रमस्य निजदृढसंयमस्य संगमैः संबन्धैः करणभूतरित्यर्थः हीति निश्चये दृढमनाः सहनशीलप्रकृतिः स सेहे ततो विकृति न ययौ ॥ रामपक्षे-वचन कुत्रापि गोपालीनां राजश्रेणीनां गोपश्रेणीनां तपोधनिनां मुनीनाम् वचनैः कथनैः शिक्षाप्रयोजकैः सुरशासन: गोकर्णाभिधयक्षवचनैः यक्षादीनाम् इभकर्णाभिधानादीनां द्रुधनरचनैः वृक्षाटव्यादिविधानः पुरः नगरस्य च रचनैरित्यर्थः कृतवसुधनोत्पातः कृतो विहितः वसुधनानां द्रव्यबहुलानां उत्पातः उत्पनियस्तैः वा इति पादपूरणे तैर्यक्षः पराक्रमसंगतैबलवद्भिःसहेति शेषः देहे शरीरे प्रतिग्रनिग्रहम् प्रतिग्रहस्य अदृष्टार्थदत्तद्रव्यस्य निग्रहं निवर्तनं सेहे प्रतिपालयामास तदानीं राज्यच्युतत्वात् प्रतिग्रहस्यापाततः स्वीकारः सम्भवेत्तचक्षत्रियाणाङ्गीमितियक्षकृतसुवर्णादिवृष्टया तन्निग्रहो जात इति भावः ॥२॥ कृष्णपक्षे-कचन गोपालीनां गोपराजीनां तपोधनिनां चारणर्षीणां वचनैः कथनैः पुरः प्रथमम् सुराणां रामकृष्णाभिरक्षकदेवानां शासननिर्देशैयक्षादीनां द्रुवनरचनैः पर्वतवनादिविधानैः कृतवसु Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ महोपाध्यायश्रीवविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये धनोत्पातैः अनेकविधसमृद्धिसम्पादनः पराक्रमसंगतैः बलवद्भिः सहेतिशेषः देहे शरीरे प्रतिग्रहनिग्रहम् जरासन्धादिकृतोपद्रवादिकं दृढमनाः स्थिरचित्तः कालम्प्रतीक्षन सेहे सोढवान् ।। २ ॥ अनुपदमगात् सीतात्युष्णातपादिपराभवो, द्रुपदतनुजाबाधा-व्याधात् प्रभोर्विषमाश्रयम् । व्यहरदवनीपीठे देवः सहान्वयिलक्ष्मणो, विशिखशिरसा धर्माधानाद्वराशयनाग्रही ॥३॥ अन्वयः-सीतात्युष्णातपादि पराभवः प्रभोः अनुपदमगात् द्रुपदतनुजा. बाधा विषमाश्रयं व्याधात् विशिखशिरसा धर्माधानात् वराशयनाग्रही सहान्त्रयि लक्ष्मणः देवः अवनीपीटे व्यवहरत् ॥ ३ ॥ व्याख्या–सीतात्युष्णातपादिपराभवः शीतश्च अत्युष्णश्च आतपश्च इति सीतात्युष्णातपानि शसयोः साम्यात् तानि आदिर्यसिन् स चासौ पराभवश्चेतितथोक्तः हिमग्रीष्मरौद्रादिपराभवः प्रभोः सर्वशक्तिमतो जिनेन्द्रस्य प्रतिपदम् अनुपदम् पदेपदे इत्यर्थः अगात् अभूत् द्रुपदतनुजाबाधा-द्रूणां पदानां तनूनां द्वन्द्वः तेभ्यो जायते इति जा तस्याः द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणत्वात् प्रत्येकतः संबन्धः तथा च द्रुजा पदजा तनुजाया बाधा गमनबाधा विहारप्रतिबन्धिका सा प्रभोः जिनेन्द्रस्य विषमाश्रयं वैरुच्य अव्याधात् न अकृत अथवा तनुजा तनुजः कामः सैव तनुजा कामजनिता बाधा अव्याधात् न अकार्षीत्, किश्च विशिखशिरसा शिखारहितशिरसा उपलक्षितः सहान्वयि. लक्ष्मणः सहान्वयी सहचरो लक्ष्मणः लक्ष्मीवान नृपो यस्य स अथवा लक्ष्म चिहं साधुवेषो यस्य स लक्ष्मणः सहान्वयी यस्येत्यर्थः धर्माधानात् धर्मस्य सुकृतेः आधानात् स्थापनात आकलनाद्वा रात्रिन्दिवं धर्मचिन्तनात् हेतोः वराशय नाग्रही वरः श्रेष्ठः अनन्यसाधारणः Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २१५ आशयोऽभिप्रायो यस्य स वराशयः स चासौ नाग्रही चेति आग्रही वृथाविवादनिरतो न भवतीति वराशयनाग्रही अथवा आसमन्तात् गृह्णातीति आग्रही शयनस्य स्वापस्य आग्रही शयनाग्रही स न भवतीति अशयनाग्रही वरश्चासौ अशयनाग्रही घराशयनाग्रही देवः दीप्यमानः अवनीपीठे पृथ्वीतले व्यहरत व्यचरत् ।। रामपक्षे-सीता जनकनन्दिनी अत्युष्णातपादिपराभवम् अनुपदम् अगात् अलभत परामव इति विभक्तिविपरिणामेनान्वयः सहान्वयिलक्ष्मणः सहान्वयी सहचरो लक्ष्मणो यस्य सः अवनीपीठे व्यहरत वने व्यचरत् अन्यद्विशेषणं पूर्ववत् विशिखशिरसेत्यस्य विशिखः बाणः शिरः प्रधानं यस्य तेन उपलक्षितः "शिरः मस्तके प्रधाने सेनाग्रे चेती शब्दस्तोममहानिधिः" ॥ कृष्णपक्षे-सीतात्युष्णानपादिपराभवः सीतायाः मदिरायाः य अत्युष्णातपादिः अतितीक्ष्णत्वादिः तेन पराभवः अनुपदम् प्रतिस्थानम् अगात् बलरामस्य तत् नियत्वात् द्रुपदतनुजावाधा द्रुपदतनुजायाः द्रौपद्याः बाधा दुःशासनकर्टकवस्वाकर्पणादिः प्रभोः कृष्णस्य विषमाश्रयम् वैरुच्यम् व्याधात् अकरोत् सहान्वयिलक्ष्मणः सहान्वयी सह सम्बन्धः लक्ष्म शंखचक्रादिर्यस्य स अन्यत् पूर्ववदयसेयम् ॥३।। सरसमितिभाग गुप्त्याधायी द्विषां विजयं ययौ, बलिकरिवरस्ताहग्वेलाबलादबलाश्रयः । अधिगतमहायोगात् संयोगवान विरतिस्त्रिया, (श्रिया) विहितमनसा मुक्तेर्मुक्ते शिवे ह्यशिवद्रुहा ॥४॥ अन्धयः-शरसमितिभाग गुप्त्याधापी बलि करिवरः तादृग् बेकाबलात् अबलाश्रयः अधिगतमहायोगात् विरतिश्रिया संयोगवान् मुक्ते शिवे भशिवगुहा. विहितमनसा मुक्तेर्दिषां विजयं ययौ ॥ ४ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये व्याख्या-शरसमितिभाम् इर्यासमित्यादिपञ्चसमितिधारका गुप्त्याधायी गुप्तित्रयधारणशीलः बलिकरिवरः बलिषु आत्मवलवत्सु करित्ररो महागज इवेतिलुप्तोपमा संयमिषु मातङ्गः तादृग् तथाभूतः वेलाबलात् वेलायाः सीमाया भूमेः मर्यादाया इत्यर्थः साधुजनोचि. तक्षमतायाः आश्रयादितिभावः अबलाश्रयः अबलम् असामर्थ्य आश्रयति धारयतीति तथा सत्यपि त्रिजगद्विपरिवर्तनसामर्थ्य क्षमित्तानोपयुञ्जत इतिभावः अधिगतमहायोगात् अधिगत आश्रितो यो महायोगश्चितवृत्तिनिरोधो येन तस्मात् विरतिश्रिया वैराग्यलक्ष्म्या संयोगवान् संयुक्तः विरक्त इत्यर्थ आमुक्तेः मुक्तिसाधनपर्यन्तम् अशिवद्रुहा शिवम् कल्याणम् मोक्षमितियावत् नद्रोन्धि न हिनस्तीति अशिवगृहा विहितमनसा मावधानचेतसा मुक्ते मोक्षरूपे शिवे आत्यन्तिककल्याणे विषये द्विपाम्प्रतिबन्धकानां बाह्याभ्यन्तरशत्रूणां विजयं ययौ प्राप ॥ विरोधाभासः ।। रामकृष्णपक्षे-शरसमितिभाग् शराणाम्बाणानां समितिम् संहतिम् भजतीति तथा बाणपुजधारकः गुप्न्याधायी गुप्तिर्गोपनम् रक्षणम् ताम् आदधातीति तच्छीलः युद्धमार्गविशेषनिष्णातः बलिकरिवरः बलिषु बलशालिषु विपक्षेषु करिवर इव मत्तमातङ्ग इव अबला श्रयः अबलां स्त्रियम् सीताम् सत्यभामाम्बा आश्रयति सहचरितया संगृहातीति तथोक्तः " स्त्रीयोपिदबलेत्यमरः" वेलाबलात् वेलायाः मर्यादायाः बलात् आश्रयणात् अन्यत्र समुद्रोपकूलस्य आश्रयणात् रामस्य मर्यादापुरुषत्वात अधिगतमहायोगात अधिगतः आसादितो यो महान् अयोगः राज्यनिवृत्तियेन तस्मात् अथवा अधिमतः महायोगः कवच संबन्धो येन तस्मात् अथवा अधिगतः महायोगः प्रभूतराजसम्मेलो येन तसात् विरतिश्रिया वनवासितया वैराग्यलक्ष्म्याः अथवा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २१७ विशेषेणरतिरिव श्रीश्शोभा यस्याः तया सीतया सत्यभामया च संयोगवान् संयुक्तः आमुक्तेः मुक्तिमभिव्याप्य, मुक्ते मोक्षंगते शिवे कल्याणजनके देवे जिनेन्द्रे इत्यर्थः विहितमनसा सावधानचेतसा अशिवद्रुहा शत्रुदमनेन द्विषां शत्रूणांविजयं जयम् विशेषतः ययौ लेभे ॥४॥ उपहृतिपदप्राप्तं नागादिमं वसु चाश्रयत्, तदुपरिंगतः कायोत्सर्गे जिगाय पुराद्विषम् । स्वयमपि मनःशुद्धया बुद्ध्या जुगोप स गाः समा, रहसि सुदृशा क्रीडन्नानागमाश्रमबद्धधीः ॥५॥ अन्वयः–स उपहृतिपदप्राप्तम् इमम् नागात् वसु चाश्रयत् तदुपरिगतः कायोत्सर्गे पुराद्विषम् जिगाय अनागमाश्रमबदधीन रहप्ति सुदृशा क्रीडन् स्वयमपि मनःशुद्धया बुद्धया समा गाः जुगोप ॥ ५ ॥ व्याख्या-स जिनेश्वरः भगवान् उपहृतिपदप्राप्तम् उपहारीकृतम् साधुदशायामप्युपढौकितम् इमम् नागादिमम् हस्त्यश्वादिकम् नागात् नस्त्रीचकार अथवा उपहृतिपदप्राप्तम् त्यक्तपदप्राप्तम् त्यक्तम् इमम् गजादिकम् बहुतरदुःखेऽपि न अगात् नालभत बसु तेजः अलौकिक मित्यर्थः आश्रयत् अधिकृतम् तदुपरिगतः तत्पश्चात् कायोत्सर्गे तदभिधानप्रणिधानक्रियायां पुराद्विषम् पूर्वशत्रुम् कामक्रोधादिकम् जिगाय जितवान् नानागमाश्रमबद्धधीः आगमश्च आश्रमश्च इति आगमाश्रमे न आगमाश्रमे अनागमाश्रमे न अनागमाश्रमे बद्धधीर्यस्य स तथोक्तः आगमाश्रमश्रद्धालुः शास्त्राश्रमबद्धमनाः रहसि सुदृशा एकान्ते निर्जने इत्यर्थः सुदृशा सम्यकदृष्टया तात्विकदृष्टया क्रीडन् आत्मानन्दमनु. भवन् स्वयमपि मनःशुद्धया निसर्गतो निर्मलया बुद्धया विवेकेन समाःकृत्वाः गाः वाणीः जुगोप ररक्ष प्रयोजनातिरिक्तांवाचन्नोवाच वाचंयमो बभूवेत्यर्थः ॥५॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकान्ये - श्रीमहावीरजिनेश्वरपक्षे – उपहृतिपदप्राप्तम् उपहियते प्राणादियस्मिन् इति उपहृतिः बाहुलकात् क्तिः तत्पदमाप्तम् प्राणहारकपदप्राप्तम् नागादिमम् अतिशयजीवारुन्तुदम् कमपिनागम् सर्पम् प्रतिबोधायेति शेषः आश्रयत् तदुपकण्ठं ययौ तदुपरिगतः तत्समीपमुप गतः कायोत्सर्गे कायोत्सर्गमुद्रामालम्ब्य पुराद्विषम् पूर्व सर्वशत्रुम् तं जिगाय तं प्रतिबोध्य सर्वद्विट्त्वं निवर्त्तयामास अन्यत्पूर्ववदव सेयम् ॥ २१८ · रामकृष्णपक्षे - उपहृतिपदप्राप्तम् उपहारीभूतम् प्रत्यन्तनृपतिमि - रुपढौकितम् नागादिमम् हस्त्यश्वादिकं वसु धनम् आश्रयत् आत्मसा दकरोत् तदुपरि तत्पश्चात् गतः द्विषाम् रिपूणाम् कायोत्सर्गे शरीर त्यागे सति जिगाय विजितवान् मरणान्तानि वैराणीत्यनुसृत्येतिभावः रहसि विजने सुदृशा शोभननयनया सह क्रीडन् रममाणः नानागमाश्रमबद्धधीः नाना अगमे अनेकपर्वते आश्रमे गार्हस्थ्यादौ च बद्धधीः जात।मिनिवेशः, रामपक्षे नानाअगमे पर्वते - वृक्षे - वृक्षतले वा " सामीप्ये सप्तमी " आश्रमे कृतगृहबुद्धिः स्वयमपिमनः शुद्धया बुद्धया निर्मलान्तःकरणेन स रामः कृष्णश्च गाः पृथ्वीः समा अनेकवर्ष यावत् जुगोप ररक्ष पालितवान् ॥ ५ ॥ व्यसनरहितः कन्दुगाद्यं वशीकृतवान् वशी, विषयमपि न प्रौढाद यत्नात् स्वनिश्चितमादधे । बहुपरिचितं शास्त्रं मात्राधिकं भुवि चालय लयमुपगता देवाः सेवारसेऽस्य विमृश्य तत् ॥६॥ अन्वयः -- -वशी व्यसनरहितः कन्दुगाद्यम् वशीकृतवान् प्रोढाद्यत्नात् स्वनिश्चितम् विषयमपि नादधे बहुपरिचितम् शास्त्रम् मात्राधिकम् भुवि चालयन् तत् विमृश्य देवाः अस्य सेवारसे लयमुपगताः ॥ ६ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयाभृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २१९ व्याख्या-वशी जितेन्द्रियः विषयपराङ्मुखः कन्दुगाद्यम् तदाख्यशत्रुविशेषम् व्यसनरहितः सांसारिकसावधकर्मजदोषरहितः वशीकृतवान् विजितवान अथवा कन्दुगाद्यम् गेन्दादिकं क्रीडाविशेष वशीकृतवान त्यक्तवान् प्रौढायत्नात् बहुतरमनः समाधानात् स्वनिश्चितम् स्वस्य साधोः निश्चितं निरवधभिक्षान्नादिकमपि विषयम् न आदधे जग्राह यावता कथमपि प्राणयात्रानिर्वहणं तावदेव जग्राहेति भावः बहुपरिचितम् नित्यमभ्यसितम् शास्त्रम् मात्राधिकम् अतिशयम् इयत्तारहितं यथा स्यात्तथा भुवि-भुवने चालयन् प्रथयन् तत् विमृश्य लोकोत्तरमहिमास्येति विचार्य अस्य जिनेन्द्रस्य सेवारसे परिचर्यायां रसिका इति शेषः देवा लयमुपगता स्वात्मानं प्रच्छाध वृक्षादिरूपेण शिष्यादिरूपेण च तिरोभूय सिषेविरे इति भावः ।। रामकृष्णपक्षे-वशी जितेन्द्रियः स्वतंत्र व्यसनरहितः अव्यसनासक्तः कन्दुगाद्यम् तदाख्यमान्तरशत्रुविशेषम् वशीकृतवान् स्वायत्तं विदधे स्वनिश्चितम् स्वनिर्धारितम् विषयमपि कार्यमपि परराट्रादिकमपि न प्रौढाद्यत्नात् अनायासेनैव आदधे स्वानुकूलं विदधे बहुपरिचितम् शास्त्रम् शासनम् स्वकीयमित्यर्थः मात्राधिकम् सर्वतः स्वपरमण्डले च भुवि चालयन् प्रसारयन् तत् विमृश्य विचार्य देवा धुतिमन्तो नृपाः अस्य रामस्य कृष्णस्य च सेवारसे सेवायाम् लयम् तदधीनत्वम् उपगताः प्राप्नुवन्तो वशतिनो बभूवुरितिभावः ॥६॥ सहचरतया ये संजातास्तदा च-रणादिषु, निरशनतया तेऽपि प्रापुर्भुवं हरशेखराम् । सुरसमुदितां सिन्धोः पारे भवस्य परम्परा क्रमणवशतो-लङ्कारागं प्रतीत्य महापदम् ॥७॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० महोपाध्यायनीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये __ अन्धयः-तदा च रणादिषु सहचरतया ये संजातास्तेऽपि सिन्धोः पारे सुरसमुदिताम् भवस्य परम्पराक्रमणवशतः महापदं लंकारागं प्रतीत्य निरशनतया हरशेखराम् भुवम् प्रापुः ॥ ७ ॥ व्याख्या-तदा च रणादिषु तस्य जिनेश्वरस्यादिनाथस्य आचरणा. दिषु तदीयालौकिकचमत्कारकारिव्यापारेषु सहचरतया अनुगामितया ये संजाताः संगता अनुसृताः तेऽपि निरशनतया उपवासतया प्रभुस्तु निरवद्यमिक्षाऽलाभेन कतिचिद्दिनानि उपवसतिस्म एते पुनस्तथाविधसामर्थ्य विरहेण तथाकर्तुमशक्नुवन्तस्तंपरिजझुरितिकथासन्दर्भः । सुरसमुदितां देवताकृताधिष्टानाम् हरशेखराम् भुवम् गंगातटम् प्रापुः जग्मुः किंकृत्य सिन्धोः संसारसागरस्य पारे तटे भवस्य जन्मनः परम्पराक्रमणवशतः अनेकजन्मकृतपुण्यपुञ्जप्रभावतः समासादिते महापदम् आत्यन्तिकसुखजनकम् पुनरावृत्तिरहितम् कारागम् आसमन्ताद्रागः आरागः कस्य आत्मनः स्वस्वरूपस्य ब्रह्मणः मोक्षस्येति यावत् रागमनु. रागम् अलमतिशय प्रतीत्य परित्यज्य विहाय, संसारसागरपारगताऽपि किश्चित क्लेशमसहमाना पुनरागता इति तात्पर्यम् ।। अन्येपामर्हतापक्षे-तदा व्रतग्रहणसमये सहचरतया अनुचरतया ये नृपतयःतदाचरणादिषु तेषां जिनेन्द्राणाम् आचरणादिषु व्रतादिन. हणेषु संजाताः संगताः व्रतं जुगृहुः तेऽपि निरसनतया सांसारिकभोगादिपरित्यागतया "शसयोरैक्यात्" हरशेखराम् हरत्यघमितिहर। पवित्रम् तस्य शेखराम् मूर्धन्यामतिशयपवित्राम् भुवम् प्रापुः लेभिरे किंकृत्य सुरसमुदितां मुष्ठरातिददातीति सुरः देवः तेन समुदिताम् सहिताम् सप्रसन्नाम् भुवमित्यर्थः भवस्य संसारसमुद्रस्य पारे परम्पराक्रमणवशतः पुनर्पुनर्गमनागमनतः महापदम् महत्संकष्टजनकम् कारागम् कस्यशरीरस्य के शरीरे चा रागमनुरागम् प्रीतिमित्यर्थः प्रतीत्य परित्यज्य ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधार्य श्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २२॥ रामपक्ष- सहचरतया अनुचरतया तदा वनगमनकाले चरणा. दिषु रामगमनादिषु ये संजाताः अनुसृतास्तेऽपि रामेण परित्यक्ततया निरसनतया हरशेखरां भुवम् अतिशयपवित्रामयोध्यापुरम् प्रागच्छन्ति स्म किं कृत्वा सुरसमुदिताम् सुरन्ति ऐश्वर्यदीप्तिम प्राप्नुवन्तीति सुराः धनिनस्तैः समुदिताम् संमिलितामयोध्याम् सिन्धोः समुद्रस्य पारे तटे भवस्य भवत्यसिन्निति भवः पृथ्वीतलस्तस्य परम्पराक्रमणवशतः सततगयनवशतः लङ्कारागम् लंकायां तन्नामपुर्यां रागोऽनुरागो यस्य तम् महापदम् भयङ्करम् रावणमित्यर्थः प्रतीत्य बुध्वा तत्र वने लंकापतिर्वसतीति भयमुत्प्रेक्ष्य निवृत्ता इति भावः ।। तदा चरणादिषु तस्य श्रीमदादिनाथस्य आचरणादिषु दीक्षानहणादिव्यापारेषु सहचरतया अनुगामितया ये संजाताः संगता, तदानीं दीक्षां जगृहुः कच्छमहाकच्छादयः तेऽपि निरशनतया निरवद्यभिक्षालाभात् उपवासतया, भवस्य संसारस्य सिन्धो सागरस्य संसारसागरस्येत्यर्थः पारे प्रान्ते सन्निधौ परंपराक्रमणवशतः सततगमनागमनतः कारागं इन्द्रियसुखं सांसारिकवैषयिकसुखं अलम् अतिशयम् महापदम् महदुःखजनकं प्रतीत्य बुद्धा सुरसमुदितां देवाधिष्ठिताम् हरशेखरां भुवं गंगाप्रदेशं प्रापुः ते जटिलास्तापसा भूत्वा तत्रतस्थुरित्यर्थः । पारं प्रान्ते परतटे पारीपूरपरागयोरित्यनेकार्थसंग्रहः।। कृष्णपक्षे-तदा युद्धादिसमये सहचरतया सहायकतया तदा चरणादिषु तस्य जरासंधस्य आचरणादिषु युद्धादिषु संजाताः संगता स्तेपि निरसनतया कृष्णकृतोपजापतया भेदप्रयोगेण सुरसमुदिताम् महद्धिजनसंकुलाम देवाधिष्टितां वा सिन्धोः समुद्रस्य पारे स्थितामिति शेषः हरशेखरामतिपवित्रां द्वारकां प्रापुः किंकृत्य भवस्य मंगलस्य परम्पराक्रमणवशतः उत्तरोत्तरसंपादनवशतः कृष्णाश्रयेण दिनानुदिनं Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ महोपाध्यायत्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये मनमवश्यम्भावीति निश्चित्य अलमतिशयं के कृष्ण भगवति ऐश्वर्य शालिनि आरागं समन्ततोऽनुरागं प्रतीत्य ज्ञात्वा विचार्येत्यर्थः श्लेषः।। गिरिश इव योऽशेताद्रीणां वनेऽनवनेऽप्ययं, तमपि विदधद् दृश्यं वश्यं गिरीशमिवापरम् । दिनकर इवोदामं धाम प्रपद्य भुजावले, परिजनगणव्यावृत्याऽग्रे चचाल विशालधीः॥॥ अन्वयः-योऽयम् अनवनेऽपि अद्रीणां बने गिरिश इव अशेत तमपि अपरं गिरीश मिव वश्यं दृश्यम् विदधत् भुजाबले दिनकर इव उद्दामम् धाम प्रपद्य परजनगणव्यावृत्या विशालघी: अग्रे चचाल ॥ ८ ॥ व्याख्या-योऽयं जिनेश्वरः अनवने अपि अवनम् रक्षणम् नभवतीति अनवनर अरक्षणम् तस्मिन् रक्षारहितस्थाने निर्जने इत्यर्थः अद्रीणां पर्वतानां वनेऽरण्ये गिरिश इव गिरी शेते इति गिरिशः वनीयो भिल्लादिः स इव अथवा गिरिम् श्यति उपभोगेन तनू करोतीति गिरिशः "लोमादित्वाच्छः" शिवः स इव शेते स्वपिति यः सर्वदा गिरियो भवति स कदाचिदपि दृश्यो न भवति तमपि गिरिशमपि स्वमितिशेषः अपरम् द्वितीयम् गिरीशम् शिवम् इच अथ वा गिरीणामीशः हिमालयस्तमिव दृश्यम् दर्शनयोग्यम् वश्यम् प्रसादसुमुखम् सेवायोग्यम् विदधत् कुर्वत् उद्दामधाम उद्रिक्तं तेजः भुजा. बले बाहौ दिनकर इव प्रपद्य प्राप्य परिजनगणव्यावृत्त्या परिचारकजनपरित्यागेन विशालधीः महानुभावः अग्रे ततोप्यग्रतः चचाल ववाज ॥८॥ सर्वपक्षसामान्यमेतद्व्याख्यानम् ।।। कमपि मनसा नाधान्नाथः प्रियं यदिवाऽप्रियं, कलिमलमपि त्यक्तुं व्यक्तः कचित्प्रययौ रहः ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाय श्रीविजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ५ वचनविजने तस्थौ स्वस्थो ररक्ष न रक्षकं, न खलु परतो रक्षापेक्षा प्रभौ हरिणाश्रिते ॥ ९ ॥ २२३ अन्वयः :--नाथः प्रियं यदि वाऽप्रिये किमपि मनसा नाधात् कलिमलमपि व्यक्तः त्यक्तुं क्वचिद्वहः प्रययौ स्वस्थः क्वचनविजने तस्थौ रक्षकं न ररक्ष हरिपाश्रिते प्रभौ परतो रक्षापेक्षा न खलु ॥ ९ ॥ व्याख्या --- नाथः प्रभुः मनसा बुद्धया कमपि प्रियं शरीरसु. खकरं दुःखजनकं वा नाधात् नाविन्दत प्रियं प्राप्य सुखाभिमानी अप्रियं प्राप्य दुःखाभिमानी न बभूवेति तत्वं व्यक्तः स्फुटं कलिमलमपि कलेः कर्मणः मलमपि परिणाममपि " प्रभौ पापस्य दुर्लभत्वात् कलिशब्देन कर्म एव लक्ष्यते" त्यक्तुन्निराकर्तुम् क्वचित् कुत्रापि रहः विजनमेकान्तस्थानम् प्रययौ जगाम स्वस्थः निराकुलः निर्भीकः सन् क्वचन विजने निर्मनुष्य के स्थले तस्थौ स्थितवान् रक्षकम् शरीरपरिपालकम् कमपि न ररक्ष नापेक्षितवान् तथाहि प्रभौ हरिणाश्रिते प्रमौ जिनेश्वरे हरिणाश्रिते संयमाश्रिते सति अथवा इन्द्राश्रिते तति इन्द्राधिष्ठिते सति दिशाश्रिते विहरमाणे सतीति वा परतः अन्यतः स्वभिन्नात् रक्षापेक्षा पालनापेक्षा न खलु नैव भवतीत्यर्थः स्ववीर्यगुप्ता एते भवन्तीति भावः अर्थान्तरन्यासालंकारः ॥ रामपक्षे कृष्णे च - कमपि प्रियम मित्रं यदिवा अथवा अप्रिय शत्रुम् मनसा चित्तेन न अधात् न धृतवान् कलिमलमपि विरोधपरिणामं युद्धमपि त्यक्तुं परित्यक्तुं कचित् कुत्रापि व्यक्तः स्पष्टः सन् रहः एकान्तं प्रययौ विजने निर्जने स्वस्थः अकुतञ्चनभयः तस्थौ रक्षकं न ररक्ष नापेक्षितवान् हरिणाश्रिते लक्ष्मणाधिष्ठिते समुद्राश्रिते च प्रभौ प्रभावशालिनि रामे कृष्णे च परतः अन्यतः सैन्यादिभिन्नपुरुषात् रक्षापेक्षा पालनाभियोगः न नैव भवतीति ॥ ९ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अशितममुना यावद् वर्ष न तादृशयोगतो, बहुमहिमवान् शान्तिप्रेम्णा स्थिरो हिमवानिव ॥ अभजत परच्छायामायासतः श्रमवान् नवा, वपुषि समतां बिभ्राणः स्वैः सवै-श्रमणोचिताम्॥१०॥ अन्वयः-अमुना तादृशयोगतः यावर्षन्न अशितम् शान्तिप्रेम्णा बहुम. हिमवान् हिमवान् इव स्थिरः आयासतः श्रमवान् न वा स व स्वैः वपुषि श्रमणोचिताम् समताम् बिभ्राणः परच्छायां अभजत ॥ १० ॥ व्याख्या-- अमुना जिनेश्वरेण न तादृशयोगतः तादृशयोगस्य निरवद्यभिक्षालामजनकयोगस्य अभावात् यावद्वर्ष वर्षपर्यन्तं न अशितं न भुक्तं शान्तिप्रेम्णा शमाभिनिवेशेन बहुमहिमवान् महतो. भावो महिमा बहु अतिशयं महिमा महत्वं यस्य स अतिशयगौरवान्वितः हिमवानिव हिमालय इव स्थिरः शान्तः यथा हिमवान् निश्च लस्तथा शान्त्याश्रयनेन भूरिमहिमतया दुर्जनादिकृतोपजापेऽपि निराकुल इति तात्पर्य आयासतः गमनागमनादिपरिश्रमतोऽपि श्रम वान्न वा नैवश्रान्तः स वै प्रभुः स्त्रैः स्वत एव वपुषि शरीरे श्रमणोचितां यतिविहितां मुनिप्रचलितां समतां सामरस्यं बिभ्राणः धारयन् परच्छायामुत्कृष्टकान्ति सर्वतोऽधिकां दीप्ति अमजत आश्रयत लोको. त्तरकान्तिरभवत् ॥१०॥ रामकृष्णपक्षे-यावद्वर्ष जम्बूद्वीपांशभेदं यावत् भरतक्षेत्रखण्डत्रयमितियावत् अमुना रामेण कृष्णेन वा अशितं व्याप्तं अधिकृतस्वशासनं " अशेः आदिकर्मणि क्तः सेटकत्वं च” नतादृशयोगतः नतानां स्वशरणमुपगतानामासमन्तात् सर्वतोभावेन दृशयोगतो नेत्र पाततः दयावलोकनतः बहुमहिमवान् अतिशयमहिमासम्पन्नः शान्तिप्रेम्णा शान्तिवात्सल्येन हिमवान् हिमालय इव स्थिरः अप्रकम्पः Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २२५ आयासतः वनभ्रमणतः प्रजारक्षणतः श्रमवानवा नैव श्रान्तः स्वैः स्वत एव स्वप्रभावादेव वपुषि शरीरे समता विभ्राणः वैश्रमणोचितां कुबेरतुल्यां परच्छायामत्युत्कटकान्ति अभजत समाश्रयत ॥ ११ ॥ पथि कथमपि श्रान्तः कान्तानुयायिविलम्बित स्तपसि रसिकस्तस्थौ मार्गेऽभयः स्वयमप्ययम् । वनचरधने दृष्टे दृष्टेर्दधौ न विपर्ययं, मनसि समयस्यैवं न्यायं विचिन्त्य सपर्ययम्॥११॥ अन्वयः-पथि कथमपि श्रान्तः कान्तानुयायिविलम्बित: तपसि रसिकः भयम् स्वयमपि मार्गे अभयस्तस्थौ मनसि समयस्यैवं सपर्ययं न्यायं विचिन्त्य वनचरधने दृष्टे दृष्टेः विपर्ययनदधौ ॥ ११ ॥ व्याख्या--पथि मार्गे कथमपि यथातथा श्रान्तः जातश्रमः कान्तानुयायिविलम्बितः कान्तो मनोरमो योऽनुयायी अनुसरणशील. स्तेन विलम्बितः आश्रितः कृतधर्मकथानकः तपसि तपश्चर्यायां रसिका निरतः अयम् जिनेश्वरः स्वयम् आत्मनापि अभयः निर्भीकः मागें पथि तस्थौ स्थितः समयस्य कालस्य अवस्थायाः वा सपर्ययम् पर्ययो चैपरीत्यम् तेन सहितम् सपर्ययम् सवैपरीत्यं न्यायं नीति मनसि हृदये विचिन्त्य विचार्य निश्चित्य वनचरधने वनचराणाम् विपिनवासिनां धने रिक्थे पर्वतीयमण्यादौ निर्मायिको योषिति च दृष्टे नय.. नगोचरे सत्यपि दृष्टे त्रस्य विषयेयम् विपर्यासम् तद्विषयाभिलापं न दधौ न धृतवान् दृष्टेऽपि विषये विषयाभिलाषो न जात इति भावः ॥ विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीरा इत्यपि सङ्गच्छते ॥ ११ ॥ रामकृष्णपक्षे-पथि मागै वनमार्ग अन्यत्र रैवतकादौ विहारमार्गे कथमपि श्रान्तः जातायासः कान्तानुयायिविलम्वितः कान्ता स्वप्रिया Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये सीता सत्या वा सैव अनुयायिनी यस्थ तेन विलम्बितः कृतविलम्बः तदनुरोधेन कृतविश्रामः तपसि तपोविषये तपोवने वा रसिकः कृतादरः अन्यत्र तपसि फाल्गुनेऽर्जुने वा रसिकः माघमासे वा रसिकः शृङ्गारिजनप्रियत्वात् वनचरघने दृष्टे इत्यादि पूर्ववद्योज्यम् ॥ ११ ॥ कतिपयदिनैरीशः श्रेयानकारयदञ्जसा, विनयनयभागू भिक्षोरिक्षोः प्रियां रसपारणाम् । सपदि सदने वृष्टिश्वासीत् तदाशु हिरण्मयी, त्रिदशललनाश्चक्रुर्नव्यं रसादवशाः शुचि ॥ १२ ॥ अन्वयः - कतिपयदिनैः अञ्जसा विनयनयभाग हेश: श्रेयान् भिक्षोः प्रियां इक्षो रसपारणाम् अकारयत् तदा भाशु सदने सपदि हिरण्यमयी दृष्टि: आसीत् अवशाः त्रिदशललनाः शुचि नृत्यम् चक्रुः ॥ १२ ॥ व्याख्या - कतिपय दिनैः कतिचिद्दिवसैः विनयनयभाक् विनयम् विनीतताम् नयम् नीतिश्च भजति सेवते इति तथा सारल्यनय निपुणः ईशो युवराजः श्रेयान् श्रेयांसकुमारः अञ्जसा झटिति भिक्षोः भिक्षाचरणशीलस्य जिनेश्वरस्य आदीश्वरस्य प्रियां मनोज्ञां पवित्रां निरवद्यामिति यावत् इक्षोः रसालस्य रैसालइक्षुरित्यमरः रसपारणाम् रसप्रचुगं पारणां व्रतान्तभोजनम् अकारयत् तदा प्रभुपारणानन्तरम् सपदि सहसा सदने गृहे हिरण्मयी सुवर्णमयी दृष्टिवर्षणम् आसीत् अभूत् आशु शीघ्रम् त्रिदशललनाः देवाङ्गना अप्सरस इत्यर्थः रसात् प्रभुभक्तिरसतः अनुरागाद्वा अशा भक्तिपरतंत्राः शुचि शोभनम् नृत्यम् चक्रुर्विदधुः ।। श्री शान्तिनाथ पार्श्वनाथ नेमिनाथ वर्धमानखामिनां पक्षे-कतिपय दिनैः कतिचिद्वयतीतैर्दिवसैः ईशः श्रेष्ठः नृपो वा श्रेयान् अतिशयेन प्रशस्य शुभंयुः विनयनयभाग् दाक्षिण्यनययुक्तः इक्षोः इः कामस्तं क्षौति नाशयतीक्षुः तस्य जितमदनस्य भिक्षोः मिक्षाचारिणो जिने • Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २२७ न्द्रस्य प्रियाम् रुचिरामनवद्याम् रसपारणाम् मधुररसप्रधानां पारणां व्रतान्तभोजनम् अकारयत् व्यधापयत् तथा च श्रीशान्तिनाथस्य सुमि नृपमन्दिरे परमान्नेन पारणा जाता श्रीपार्श्वनाथस्य कोपकनामनगरे धन्यकगृहे पायसेन पारणा जाता नेमिनाथस्य वरदद्विजगृहे परमानेन पारणा जाता महावीरस्वामिनः बहुलब्राह्मणगृहे परमानेन पारणा जाता सपदि सदने इत्यादि पूर्ववत् ।। रामपक्षे-ईशः राजा श्रेयान् कल्याणवान् विनयनयभाग इक्षोः जितकामस्य भिक्षोः चारणर्षेः त्रिगुप्तस्य सुगुप्तस्य च कतिपयदिनैर्द्विमासानन्तरम् अञ्जसा झटिति प्रियां निरवधाम् रसपारणाम् अकारयत् रामः शेषं पूर्ववत् ॥ कृष्णपक्षे-कतिपयदिनैः कतिपयदिनपर्यन्तं इक्षोः कामजयिनः भिक्षोजिनेन्द्रस्य प्रीयाम् नीतिसम्पादिकाम् रसपारणाम् अष्टाह्निकतपश्चर्याम् द्वारकानिर्माणाय अकारयत् व्यचरयत् सपदि हिरण्मयीत्यादिपूर्ववदवसेयम् ।। १२॥ प्रकृतिसुभगः श्रेयोलिप्सुः सुमित्रपवित्रवाक् , शुचिरसमयं मत्वाऽदत्त प्रभोर्बहुरोचितः। सपदि मुदितो धन्यो जन्योज्झितः प्रतिलम्भना दरिपरिभवाद् दूरे दूरे यशः स्वमकारयत् ॥१३॥ अन्वयः-प्रकृतिसुभगः श्रेयोलिप्सुः सुमित्रपवित्रवाक् प्रभोर्बहुरोचितः शुचिः असमयं मया अदत्त मुदितः धन्यः जन्योजिमतः प्रतिलम्भनात् अरिपरिभवात् दूरे दूरे स्वं यशः अकारयत् ॥ १३ ॥ व्याख्या-प्रकृतिसुभगः स्वभावसुन्दरः श्रेयोलिप्सुः कल्याणामिलापुका सुमित्रपवित्रवाक् सुमित्रेण शोभनसुहृदा तत्संगेनेत्यर्थः Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये प्रभावेन पवित्रवाक् सत्यवचनः प्रभोजिनेन्द्रस्य बहुरोचितः अत्यन्त भक्तः "चतुर्थी चाशिष्यायुष्येति विकल्पेन षष्ठी शुचिः पूतः असमयम् भिक्षायाः कालातिक्रमो जात इति अनवसरं मत्वा बुध्वा निवृत्तेषु भिक्षाचरेषु सत्सु अदत्त प्रभवे भिक्षामिति शेषः सपदि तत्क्षणे मुदितः जिनेश्वररूपसत्पात्रदानादतिशयहृष्टमनाः धन्यः अत एव कृतकृत्यः जन्योज्झितः कलिरहितः प्रतिलम्भनात् भिक्षादानात् कथंभूतात् अ. रिपरिभवातं अरिम् बाह्याभ्यन्तरशत्रु परिभवति पराकरोतीति तस्मात् दूरे दूरे त्रिलोक्यां स्वम् यशः स्वकीयकीर्तिम् अकारयत् प्राख्यापयत्।। रामकृष्णपक्षे-प्रभोः स्वामिनः साधोः प्रतिलम्भनात् भिक्षाप्रदानात् अन्यत् यथापूर्वम् ॥ १३ ॥ वनमुपगतं सेवे देवं नमिर्विनमिर्नुपः, अतिगपि च प्रादात्ताभ्यां बलं बहुविद्यया। रजतशिखरिस्थाने राज्यश्रिया परिवारितो, सुखमनुपमं भुनाते तो खगामिषु कामितम्॥१४॥ अन्वयः-नावि नमिर्नृपः वनमुपगतम् देवम् सेवे श्रुतिहगपि च यहुविद्य या बलम् ताभ्याम् प्रादात् रजतशिखरिस्थाने राज्यश्रिया परिवारितौ तौ खगाभिषु कामितम् अनुपमम् सुखम् भुजाते ॥ १४ ॥ व्याख्या-नमिः विनमिः नृपः तदभिधानको आदीश्वरभगवतः कुलजी वनमुपगतम् वनस्थम् दीक्षितमित्यर्थः देवम् आदीश्वरम् सेवे भेजे ततः श्रुतिगपि धरणेन्द्राभिधो नागोऽपि तपो राज्याभिलापं ज्ञात्वेतिशेषः ताभ्याम् नृपाभ्याम् बहुविद्यया अनेकविधतिरस्क. रिष्यादिविद्यया सहेति शेपः चलम् बहुविधसामर्थ्यम् प्रादात् अर्पयत् रजतशिखरिस्थाने वैताट्यपर्वते राज्यश्रिया राज्यलक्ष्म्या परिवारितो Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ १२१ युक्तो तौ नमिविनमिभूपौ खगाभिषु आकाशचारिषु अनुपमम् निरुपमम् कामितम् यथेष्टम् सुखम् भोगम् भुञ्जाते भोगम् कुरुतः अचिन्त्यप्रभावो जिनेश्वरो येन ताभ्याममयदुर्लभमुखं सद्यः दीय. तेस्मेति भावः ॥ १४ ॥ अन्यपक्षे नमते इति नमिः विशेषेण नमते इति विनमिः तौ वनमुपगतम् वनस्थम् देवम् प्रभु सेवे श्रुतिः शास्त्रम् दृग् नेत्रं च यस्य स श्रुतिहम् अथवा श्रूयते प्रख्यायते इति श्रुतिः श्रुतिः प्रख्याता अनन्यसाधारण्येन विख्याता दृग् नेत्रं यस्य स श्रुतिहम् सहस्राक्षः ताभ्याम् सेवकाभ्याम् बहुविद्यया अनेकविधविद्यया बलम् निरुपम सामर्थ्यम् प्रभुसेवासुमुखः सन्नित्यर्थः प्रादात् ददातिस्म शेषं पूर्ववत्।। कृष्णपक्षे-नमिर्विनमिनृपः वनमुपगतं समुद्रजलान्तारकास्थं देवम् दीप्तिमन्तम् कृष्णम् सेवे श्रुतिदृग् शास्त्रदृश्वा कृष्णस्ताभ्यां सेवकाभ्याम् बहुविद्यया समम् विदन्त्यनया वैषयिकसुखमिति विद्या कन्या तया सह बलम् सैन्यम् प्रादात् प्रायच्छन् तौ रजतशिखरिस्थाने वतकपर्वते राज्यश्रिया राज्यश्रीरिवश्रीः शोभा सम्पत् तया परिवा. रितौ युक्तौ खगामिषु आकाशगामिषु कामिन्तमनोभिलषितमनुपममनन्यसाधारणम् सुखमानन्दमुपभुञ्जाते अनुभवतः ॥ १४ ॥ राम. पक्षे द्वितीयपक्षबज्ज्ञेयम् । मगधविषये राजां गेहे रुषा प्रतिमाधवं, विशदसिचयं भूषायोगाचचाल बलं नमत् । समरसहितं पत्यादेशादतिक्रमकृत् समं, बहलनिनदैस्तूरैरापूरयद् वलयं दिशाम् ॥ १५ ॥ अन्वयः-मगधविषये राजां गेहे रुषा प्रतिमाधवं भूषायोगात् विशदसिचयं नमत् बलम् घचाल समरसहितम् पत्यादेशादतिक्रमकृत् समम् बहल Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये ૨૩૦ निनदैः तूरैः दिशाम् वलयम् आपश्यत् ॥ १५ ॥ व्याख्या -मगधविषये मगधदेशे राजां गेहं राजन्ते इति राजस्तेषां गेहे साम्प्रतं राजगृहनानाप्रसिद्धे प्रतिमाधवं प्रतिवासुदेवम् जरासन्धमुद्दिश्यरुषा विशदसिचयम् विशदाः देदीप्यमानाः असिचयाः खङ्गसमूहा यस्मिन् तत्तथोक्तम् अथवा विशदास्तीक्ष्णाः असिचयाः यत्र तद् अथवा विशन्तः प्रविशन्तः संकुलीभवन्तः असिचयाः खड्गाः यत्र तद् भूषायोगात् सांग्रामिककवचाद्याभरणसंबन्धात् नमत् आकुश्चत् समरसहितम् समरे संग्रामे सहितम् हितविधायकम् नतूपजापादिना पराङ्मुखम् अथवा समरसे शान्तियुक्तेहितम् अबाधकम् पश्यादेशात्पत्तेः सेनापतिविशेषस्य " एके मैकरथा त्र्यश्वा पत्तिः पञ्चपदातिका इत्यमरः " इत्युक्तलक्षणस्य आदेशात् आज्ञातः अति. क्रमऋत् " अहितान् प्रत्यभीतस्य रणे यानमतिक्रम इत्यमरः " इति निर्भीकता शत्रुसन्मुखगमनकारकम् बलम् सैन्यम् बहलनिनदैः भूरिनिनदमानैः तूरैस्तूर्यैः दिशाम् वलयम् दिग्विभागम् आपूरयत् स्थगयत् चचाल ययौ ॥ अर्हतांपक्षे — विभक्तिविपरिणामेन सर्वत्रान्वयः तथा च मगधविषये मगधदेशे राजां गेहे राजगृहादिपुण्यस्थाने अरुषा अक्रोधेन प्रतिमाधवः प्रतिमां कायोत्सर्गे धन्वति प्राप्नोतीति प्रतिमाधवः कायोत्सर्गकृत् धन्वतेः पचादित्वादच् विशदसिचय विशेषेण सद्गतः व्यक्तशातनो लोकपीडा येन स विशद् असिचयः सिचयो वस्त्रं नास्ति यस्य स तथोक्तः भूषाया अलंकारस्य अयोगात् असंबन्धाद्राहित्येन चालवलः चाले गमने तस्करादिसम्बाधसंबाधितेऽपि अप्रतिहतगमनः नमन् नमन्ति जना यम् स अथवा नमन् सर्वत्र प्रह्नः निरहंकारः समरसहितः शमर से शान्तरसे हितः युक्तः शान्तिरसयुक्तः अतिक्रमकृत् , Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २३१ अतिशयं क्रम पादविक्षेपम् गमनम् करोतीति स पाति जगदिति पतिः सूर्यस्तस्यादेशात् दर्शनात सूर्यदर्शनान्तरम् समम् मुनिभिः सहितं बह. लनिनदैः बहलं यथास्यात्तथा निर्गतः नदः शब्दः येषु तैः शब्दरहितः तूरैर्गमनैः दिशांबलायम दिविभागम् आपूरयत् पूरयतिस्म ।। कदाचित् सुगुप्तनामाचारणर्षिजटायुपूर्वभववृत्तान्तं कथयन् पाल कब्राह्मणकथा कथयति मगधेति । मगं पायं दधातीति मगधः तस्य विषयस्तस्मिन् राजां गेहे कुंभकारकटे नगरे माधवं प्रतिरुषा मायाः चवः भर्ता लक्ष्मीपतिः जितशत्रुनृपनन्दनस्कन्दककुमारस्तं प्रति रुपा क्रोधेन पूर्ववैरं स्मरन पालकः अनेकान्यस्त्राणि स्कन्दकाचार्यनिवास स्थाने रात्रौ भूमौ निचखान प्रातः नृपतिर्मुक्तविशेषणविशिष्टनमनाय तत्रानयत् नासौ साधुः कपटयुद्धाय समागत इति युद्धोद्योगमकारयदिति भावः ॥ १५ ॥ बलमविरलाश्वीयं स्वीयं विलोक्य पुरा जरा___ परिगतमहासन्धो गन्धोत्तमापरिणामतः । प्रतिहरिधिया तुष्टः स्पष्टं जगर्ज स गर्जवत् , क्षणपिकदा प्रेक्ष्ये कंसापराधिविनाशनम् ॥१६॥ अन्वयः--पुरा जरापरिग महासंधः गन्धोत्तमापरिणामतः अविरलाश्वीयं स्वीय बलं विलोक्य प्रति हरिधिया तुष्टः स गर्जवन् स्यष्टं जगर्ज क्षणमपि कदा कंसापराधिविनाशनम् प्रेक्ष्ये ॥ १६ ॥ व्याख्या-पूरा जरापरिगतमहासंघः जरया तन्नामकोपमात्रा परिगतः प्राप्तः महासंघः महासंघटनः सम्मेलनो येन स जन्मकाले द्वेशकालेस्तस्तदोपमाता संघट्टयामासेतिसन्दर्भः जरासंधनामानृपः प्रतिहरिधिया कृष्णप्रतिस्पर्धितया अविरलाश्वीयं अविरलम् निरन्त रम् अश्वीयम् अश्वानांसमूहो यत्र तम् अश्वप्रधानकम् स्वीयम् नैजम् Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૨ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकान्ये - बलम् सैन्यम् विलोक्य निरीक्ष्य गन्धोत्तमापरिणामतः गन्धोत्तमायाः मदिरायाः परिणामतः परिपाकतः सेवनतः तुष्टः प्रसन्नः सन् गर्जवत् मत्तमातङ्ग इव स्पष्टम् प्रकाशं यथास्यात्तथा जगर्ज ननर्द तथाहि क्षणमपि मुहूर्तमात्रमपि कंसापराधिविनाशनम् कंसम् अपराध्नोतीति कंसापराधी वासुदेवः तस्य विनाशनम् मरणम् कदा कस्मिन् समये प्रेक्ष्ये अवलोकयिष्ये इति दध्यावितिशेषः ॥ अतांपक्षे - स महाप्रभुर्जिनेश्वरः जरापरिगत महासंघः आसर्वतः परिगता आपरिगता जरा जीर्णा आपरिगता आपरिणमिता महासन्धा महती प्रतिज्ञा संयमपालनरूपा यस्य स अवान्तरतत्पुरूषो बहुव्रीहिः दृढसंयमी अविरलावीयम् असुवते विषयमित्यश्वाः इन्द्रि याणि तेभ्यो हितम् रोधकमिति अवीयं स्वीयम् इन्द्रियदमनयोग्यं नैजंबलं सामर्थ्य अविरलम् विलोक्य दृष्ट्वा गंधोत्तमापरिणामतः गंधोत्तमायाः पद्मिन्यादिकामिन्याः परिणामतः त्यागतः अथवा गंध एव उत्तमो यस्यां सा गन्धोत्तमा इन्द्रियविषया तस्याः परिणामतः वर्जनतः जितेन्द्रियत्वात्तद्विषयमपि परिजिहीते प्रतिहरिधिया शिवबुद्धया यथा स स्मरहरस्तथाहमपीतिबुद्धया गर्जवत् गजवत् स्पष्टं प्रकाशं जगर्ज ननाद कंसापराधिविनाशनम् कामयते जयमितिकंसः कामः स एवापराधी दुर्जनस्तस्य विनाशनम् निराकरणम् क्षणमपि कदा प्रेक्ष्ये अत्रलोकयिष्ये इति दध्यावितिशेषः ॥ रामपक्षे कश्चिन्म्लेच्छसेन । पतिस्सीतां जिहीर्षुः प्रतिरामं समाग मदिति । अविरलाश्रीयं अश्वबहुलं स्वीयं बलं विलोक्य गन्धोत्तमापरिणामतः मद्यविकारतः जरापरिगतमहासंघः दृढप्रतिज्ञः म्लेच्छसेनापतिः प्रतिहरिधिया प्रतिहियते इति प्रतिहरिः भावे प्रत्ययः तस्य धिया सीतामवश्यमेव प्रतिहरिष्यामीतिबुद्ध्याहृष्टः सीता सौन्दयदर्शनेन तुष्टः स गर्जवत् मदोन्मत्तमातङ्ग इव जगर्ज रामत्रासाय स्पष्टं ननर्द -- Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाचार्यनीविजपामृतप्रिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २३३ ।। कथमित्याह कंसापराधिविनाशनम् कामयते कामिनमिति कं सा कामिनी सीता तां पराध्नोति स्वीकरोतीति कंसापराधी तस्य विनाशनम् क्षणमपि कदा प्रेक्ष्ये द्रक्ष्ये. अत्रानुप्रासः विरोधाभासश्वालंकारः।।१६।। मम समधिकं पापं भेत्तुं प्रवर्तनमहति, नयनविषयीभूते तस्मिन् मनोरसमेष्यति । इति मतिमता सेना तेनाहिता विनिशम्यतां, ऋमिकचलनात् सैन्यं प्रापद्धरेश्च तटं गिरेः॥१७॥ (अन्वयः) पापं भेत्तुम् प्रवर्तनमर्हति नयनविषयीभूते तस्मिन् मम समधिकम् मनोरसमेध्यति इतिमतिमता तेन सेना आहिता ताम् विनिशम्य हरेः सैन्यम् ऋमिकचलनात् गिरेस्तटम् प्रापत् ॥ १७ ॥ व्याख्या-पापमस्यास्तीति पापः अपराधी वासुदेवस्त समधिकं वर्षमानं अतएवात्याज्यम् भेत्तुं च्छेत्तुं प्रवर्तनम्प्रवृत्तिः अर्हति अवश्यकर्तव्यत्वेनावतरति अनुपेक्षेणीयो भवतीत्यर्थः नयनविषयीभूते लोचनपथपथिकायमाने तस्मिन् अपराधिनि कृष्णे मम जरासंधस्य मनोरसम् मनसः रसम् शत्रुदर्शनजन्याह्लादविशेष एष्यति भविष्यति अथवा मनः स्वान्तं कर्तृ रसम् रौद्ररसं एष्यति प्राप्स्यति इतिमतिमता एवं विचारयता तेन सेना पृतना आहिता सञ्चिता सम्मेलिता ताम् आहितसेनाम् सैन्यस्थितिम् विनिशम्य चारादिद्वाराऽवगल्य हरेः कृष्णस्य सैन्यम् क्रमिकचलनात शनैः शनैर्गमनतः गिरेः पर्वतस्य तटम् सन्निधिम् प्रापत् अयासीत् ।। अर्हतापक्षे-मम समधिकं यकिञ्चिदवशिष्टम् पापं कर्म मेत्तुं क्षपयितुं प्रवर्तनं विचरणम् अर्हति अवश्यमेव कर्त्तव्यं भवति अथवा पापं पात्यतेऽमादिति पापम् दुरदृष्टम् तत् मेत्तुम् च्छेतुं अर्हति स्याद्वा. दमते प्रवर्तनम् गमनमनुसाणं योग्यमिति शेपः नयनविषयीभूते Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकान्वे नीयते क्षीयते इति नयनम् तस्य विषयीभूते क्षयत्वमुपगते तस्मिन् कर्मणि मनोरसम् मनोरथम् मोक्षम् एष्यति प्राप्स्यति इतिमतिमता एवं कृतविचारेण तेन जिनेन्द्रेण सेना सिनोति बनातीति सेना इन्द्रि यसंयमना निग्रहणा आहिता संचिता कर्मक्षयायेन्द्रियरोधना कृतेतिभावः तां सेनां संयमितां निशम्यालोच्य हरेः जिनेन्द्रस्य सैन्यम् सेनां समवयतीति सैन्यं गमनम् इन्द्रियसंयमप्रगुणं विचरणम् क्रमिकचलनात् शनैः शनैर्विचरणात् अथवा हरेरिन्द्रिस्य सैन्यं प्रच्छनप्रयुक्तं जिनेन्द्राङ्गरक्षकम् अथ च जिनेन्द्रस्य सैन्यम् साधुपरिवार: गिरेः कस्यचित्पर्वतस्य तटम् समीपम् अगात् अत्राजीत् ॥ रामपक्षे – समधिकमतिशयबलवन्तं पापम् सीतापहारजन्य पापकारकं म्लेच्छसेनापतिं च्छेत्तुमुन्मूलयितुं मम प्रवर्त्तनम् प्रवृत्तिः अर्हति करणीयं भवति तस्मिन् शत्रौ नयनविषयी भूते दृष्टिपथावतीर्णे मनः रसं संग्रामरसं युद्ध कौतुकम् एष्यति प्राप्स्यति इति मतिमता एवं विचारयता तेन रामेण सेना उद्योगमुत्साहमित्यर्थः आहिता संचिता तां रामकृतरणोत्साहशक्ति निशम्य श्रुत्वा क्रमिकचलनात् पादचारतः हरेः रामस्य गिरेः पर्वतस्येव तटम् सन्निकर्षपादमूलसैन्यम् म्लेच्छसेनापतिसहितम् ग्रापत् अपराधक्षमापनाय तत्समीपमयासीत् ॥ १७ ॥ समयमनया वृत्त्यारण्येऽनरण्यजवन्मनो रथमथ परे न्यस्यन्नुचैर्निनाय सनायकः । उदधिरधिकप्रीत्यादित्यस्थितावपि सुस्थिता, व्यधित नगरीं तत्र द्वारावतीं किमु काञ्चन ॥ १८॥ अन्वयः -- अथ स नायक: अनया वृत्या अरण्ये अनरण्यजवत् उचैर्मनोरथं परे न्यस्यन् समयं निनाय उदधिः अधिकप्रीत्या आदित्यस्थितावपि तत्र Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतस्त्रिप्रणीता सरणी टोका. सर्ग-५ २३५ कान द्वारावती नगरी सुस्थितां व्यधित ॥ १९ ॥ व्याख्या-अथ स नायकः वर्णनीयप्रधुर्जिनेन्द्रः अरण्ये बने अनरण्यजवत् नागरवत् अथवा अरण्ये जायते भवतीति अरण्यजः पशुपक्ष्यादिविवेकविकलः स न भवतीति अनरण्यजः सदसद्विवेकी स इव अनया पूर्वोक्तया वृत्या आचारेण अथवा बुद्धिवृत्तिचिदाभासरूपया वृत्या उच्चैर्मनोरथं कैवल्यपदप्राप्त्यभिलाषं परे किश्चित् कालानन्तरं न्यस्मन् अथवा परे निर्मले कर्मक्षयकारके शुभादृष्टे न्यस्यन् परिणमयन् समयं कालं निनाय यापयामास अथ च उदधिः ज्ञानसमुद्रः क्षमासागरः अधिकप्रीत्या प्राणिनातप्रेम्णा मा केषाञ्चिदुपरोधो भवेदिति बुद्धया आदित्यस्थितावपि किञ्चिदवशिष्टदिने एव किमु काश्चन कामपि द्वारावती आगमननिर्गमनप्रचारवती नगरीम् नगाः वृक्षाः सन्त्यस्खां वृक्षाश्रयां सुस्थितां सुस्थिति निवसतिम् तत्र वने व्यधित व्यरचयत् वृक्षतलस्थितिमकरोदिति भावः।। रामपक्षे-अनरण्यजवत् दशरथवत् निजजनकवत् अनया वृत्त्या व्यवहारेण अरण्ये वने उच्चैमनोरथम् , राज्यपालनरूपं संयमग्रहणरूपं वा परे पश्चात् व्यवस्थापयन् स नायकः रामः समयं वनवासरूपं खकीयमर्यादारूपं निनाय व्यतीतयामास उदधिः गाम्भीर्यादिगुण. समुद्रः अधिकप्रीत्या सीताविषयकादरातिशयेन आदित्यस्थितावपि दिववद्वारावती द्वारयुक्तां काञ्चन कामपि नगरी वृक्षाश्रयां सुस्थितां निवसतिम् व्यधित अकृत ॥ कृष्णपक्षे--अथ गिरितटप्राप्त्यनन्तरं स नायकः वासुदेवः अनरण्यजवत् दशरथनृप इव यथा स दशमु दिक्षु रथम् स्वसैन्यं निवेश्य स्थितः तथा सर्वतः स्वकीयरक्षासावधान: अनया एवंभूतया सावधानतया वृत्त्या उपचारेण अथवा अनया सव्यसनया जरासंध Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकान्चै रूपप्रबलशत्रुकृतया वृत्या विधया उच्चैर्मनोरयम् शत्रु पराजयरूपं परे परमेश्वरे न्यस्यन् ईश्वराधीनं कुर्वन् समयं कालं निनाय ब्यतीतयामास अथ च उदधिः समुद्रः अधिकप्रीत्या कृष्ण विषयकनिरतिशय प्रेम्णा आदित्यस्थितावपि दिवापि रात्रौ किमुतवक्तव्यम् काञ्चन द्वारावतींद्वा रकां नगरी पुरीम् सुस्थिताम् सुरक्षिताम् व्यधित अकृत मा कदाचित् कोsपि कृष्णासन्निधाने द्वारकां धर्षयेदिति समुद्र एव परिखारूपेण तां ररक्षेति तात्पर्यम् ॥ १८ ॥ अजनि विषये तत्राटव्यां स्थितिः प्रभुरागिणामनिशगमनाशक्तेर्व्यक्तेतराश्रयधारणात् । अरमत मनो नृणां मार्गे वने ननु दण्डके २३६ प्यभयददृशाऽन्यत्र भ्रान्त्या विमोहविवेकतः ॥ १९ ॥ अन्वयः -- व्यक्तेतराश्रयधारणादनिशगमनाशक्तेः प्रभुरागिणां तत्रादव्यां विषये स्थितिरजनि नृणां मनः ननु दण्डके वने भ्रान्त्या विमोहविवेकतः अभय • tear अन्यत्र मार्गे मनः अस्मत || १९ ॥ व्याख्या - व्यक्तेतराश्रयधारणात् व्यक्तिः स्वप्रकाशस्तस्मादितरोऽप्रकाशस्तदाश्रयधारणात् कर्माधीनत्वात् अनिशगमनाशक्तेः नास्तिनिशा अन्धकारोऽज्ञानं यत्र तदनिशम् तत्र गमनाशक्तेः खप्रकाशज्ञानमार्गप्रवर्त्तनविरहात् अत एव व्यक्तेतराश्रयधारणं संगच्छते विमोहविवेकतः विमोहज्ञानतः अन्यत्र भ्रान्त्या अन्यत्र भ्रान्तिकार - केण अभयदशा ज्ञानदृष्टया प्रभुरागिणां जिनेन्द्रानुगामिनाम् नृणां मनः ननु दण्डके दण्डकानाम्नि वने मार्गे अरमत अलगत स्थितिश्च अजनि अभूत् ॥ रामपक्षे -- प्रभुरागिणां रामासक्तचेतसां तत्राटव्यां विषये दण्ड Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आचार्य श्रीविजपामृतरिप्रणीता सरणी टोका. सर्ग-५ २३७ काभिधाने वनेऽरण्ये स्थितिः स्थानम् अजनि कुत इत्याकांक्षायामाह अनिशगमनाशक्तेः निरन्तरबजनसामर्थ्य विरहात् व्यक्तेतराश्रयधारणा चारणार्षिस्पर्शप्रभावेन गन्धाभिधपक्षिणः स्वरूपपरावर्त्तनजटायुरूप धारणात् अन्यत्र भ्रान्त्या भ्रान्तिकारकेण अत्र अभयददृशाज्ञानचक्षुषा विमोह विवेकतः विमोहत्यागतः नृणाम् ज्ञानवतां मागें तत्र मनः अरमत अतुष्यत् ॥ । कृष्णपक्षे-तत्राटव्यां रैवतकगिरिवने प्रभुरागिणां कृष्णासक्तचेतस्कानां स्थितिः अजनि जाता कुतः अनिशगमनाशक्तेः व्यक्त तराश्रयधारणात् अन्यवेशपरिवर्तनात् दण्डके दण्ड एव दण्डकस्तसिन् अश्वगमनयोग्य मार्गे वने नृणाम् मनः अरमत व्यहरत ।। १९ ॥ समुदितगणे क्रीडालीनो हरिः शतपर्वणि, भगवति पराभेदं चक्रे स्फुरत्करवारतः । प्रतिपदजपेऽस्यान्तःशीर्णस्तदैव खरात्मजो ऽवचनविरतो भावो लोके भवेनियतेली ॥२०॥ मन्वयः-शतपर्वणि समुदितगणे क्रीडालीनो हरिः भगवति पराभेद स्फुरस्करवारतः चक्रे अस्य प्रतिपदजपे अन्तःशीर्णः तदैवखरात्मजः वचनवि. रतो भावो (अगमत् ) लोके नियतेर्बली भवेत् ॥ २० ॥ ___ व्याख्या---शतपर्वणि शतमनेकं पर्व उत्सवो यस्य तसिन अनेकोत्सवशालिनि समुदितमणे गण्यते दिव्यपदप्राप्तया इति गणः देवादिः, समुदितः स प्रमोदः यद्वा प्राप्तोदयः तयोः कर्मधारय इति बसिन् अथवा समुदित एकत्रीभूतश्चासौ गणश्चेति तस्मिन् क्रीडालीन: परिहासासक्तः हरिरिन्द्रः स्फुरत् दीप्यत् करवारतः खड्गत: भगवति जिनेश्वरे पराभेदं सर्वतोरक्षणं चक्रे अन्तर्भूय सदा रक्षां चक्रे इति भावः अस्य विहरमाणस्य जिनेन्द्रस्य प्रतिपदजपे आत्मगुणस्मरणे तदैव Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩. महोपाध्याय श्रीमेव विजय गणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये तदानीमेव खरात्मजः कामः खरश्वासौ आत्मजश्वेति मनोजत्वात् अन्तः शीर्णः अन्तः हृदयं शीर्णो विदीर्णो यस्य स वचनविरतो भावः अवाच्यभावः अभूदिति शेषः तथाहि लोके जगति नियतेरदृष्टस्य विधेरिति शेषः उत्कृष्ट इति तत्रम् ॥ श्री महावीर जिनेन्द्रपक्षे - तदीयशिष्यो गोशालो नियतिवादी तेन विहरन प्रभुः कदाचित् सिंहनाम्ना ग्रामाधिकारितनयेन गोशालः पराभूत इत्युपक्रम्याह समुदितेति । शतपर्वणि शारदपूर्णिमारात्रौ समुदितगणे नक्षत्रोदये स्फुरत्करवारतः विजृम्भत्खङ्गतः भगवति वैराग्यशालिनि गोशाले यत्र मन्दिरे गोशालेन सह भगवानासीत्तत्रैव निर्जनतयाऽवधार्य कयाचिद् भुजिख्यया क्रीडालीनो रममाणः हरिः सिंहनामा ग्रामाधिकारितनयः पराभेदं चक्रे खङ्गाघातं विदधे प्रतिपदजपे मंत्रोच्चारणपरायणे अस्य तदीयव्यापारं दृष्ट्वा विहस्यमानस्य गोशालस्य अन्तः शीर्णः विदीर्णो जातः खड्ग प्रहारतस्तदैव खरात्मजः गोशाल: लोके जगति नियतेर्वचनविरतो भावः अवाग्गोचरः बली सर्वोत्कर्षो भवेत् इति अमन्यत इति शेषः ।। रामपक्षे – यदा वनस्थो रामस्तदा कदाचिल्लक्ष्मणः परिभ्रमन् दण्डके अन्तर्वशगह्वरे वटशाखानिबद्धचरणतयाsधोमुखं कमपि श म्बूकनामानं खरात्मजं सूर्य हासखङ्गसाधनतत्परम सिनाऽवधीदित्यनुसंधायाह समुदितेति । हरिः लक्ष्मणः समुदितगणे सीतारामजटायुसमन्विते निजस माजे क्रीडालीनः विरमाण: भगवति समृद्धिशालिनि शतपर्वणि वंशे स्फुरत् करवारतः सूर्यहासखगतः पराभेदं आत्यन्तिकच्छेदं चक्रे प्रतिपदजपे मंत्रोच्चार्यमाण अस्य खरात्मजस्य शम्बूकस्य अन्तः हृदयं शीर्णः विदीर्णः तदैव तदानीमेव खरात्मजः शम्बूकः लोके जगति Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २३९ वचनविरतो भावः आवाच्यभावः अन्तः जात इति शेषः तथाहि लोके नियते विधेर्बली सर्वतः श्रेष्ठः ॥ कृष्णपक्षे-रुक्मिण्या प्रथमपुत्र प्रद्युम्ने जातमात्रेऽपहृते नारदः केनचिन्मुनिना कथ्यमाने तदुदन्ते रुक्मिणीग्राग्भवजन्मवृत्तान्तं कृष्णसन्निधौ व्यावर्णयति समुदितेति । शतपर्वणि दूर्वायां समुदितगणे खसमाजे क्रीडालीनः खेलन् हरिः मयूरशिशुः आसीदिति शेषः तदा रुक्मिणी स्फुरत् विजम्भित् करवारतः हस्तमुद्राविशेषतः भगवति केकि निपराभेदं मातृषियोग चक्रे तं शिशुं गृहीत्वा स्वगृहमनयत् प्रतिदिनश्च तन्नयतिस्मेति प्रतिपदजपे प्रतिपादोत्थाने अस्य मातभूतस्य अन्तः हृदयं शीर्णः विदलितः शिशुवियोगात् जात इति शेषः तदैव खरात्मजः खनात्मजः खे रमते इति खरस्तस्यात्मजः मयूरशिशुः लोके वचनविरतो भावः मृतः भवेत् म्रियेत नियतेर्बलीन मृतस्तदा मातृपितृवचनेन तथा विसर्जितः षोडशवर्षन्त्वयापि शिशुविरहः सोढव्य इति मयूरीनिदानात्प्रद्युम्न वियोगो जात इति भावः ॥ २० ॥ रिपुरतिवशो व्याप्तः पुत्रैरिभाश्वपदातिना, विदलितमतिः पुर्यां धुर्यां गृहे जगृहे रुषम् । अनयचलनात् कंसध्वंसं प्रपद्य न पीडये दितिगुरुगिरा वन्यैः सिन्धुर्धिया स तु शिश्रिये २१ अन्वयः-रिपुरतिवशः पुत्रैः इभाश्वपदातिना व्याप्तः विदलितमतिः पुर्या धुण्यां गृहे रुषं जगृहे अनय चलनात् सध्वंसं के प्रपथ न प्रपीडयेदितिगुरुगिरा सिन्धुधिया शिश्रिये ॥ २१ ॥ व्याख्या-रिपुरतिवशः रिपुषु कामक्रोधादिषु या रतिर्विरति. स्तस्या वशः परतन्त्रः कामक्रोधादिविषयकविरक्तिपरवशः अथवा रिपुः Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. महोपाध्यायत्री मेघविजयगणिविरचिते सक्षसन्धानमहाकाव्ये कामादिः अतिवशः अकिञ्चित्करः पुत्रैः तनयादिभिः अव्याहस्त. द्विषयकप्रीत्यभाववान इमाश्वपदातिना विदलितमतिः गजतुरगपदातिसैन्येन बिदलितमतिः विदलिता दोषभूयस्त्वदर्शनेन विरक्ता निर्विष्णा मतिर्बुद्धिर्यस्य स धुर्या श्रेष्टायां पुर्यां नगर्यां गृहे चन्द्रशा लादिमन्दिरे यद्वा गृहे कलत्रे "न गृहं गृहमित्याहुग्रहणीगृहमुच्यते" इत्यभियुक्तोक्तेस्तत्र रुपमप्रीतिम् विरुचिं जगृहे दधार तमेवढयति अनयचलनादिति अनयचलनात् नयो नीतिस्तदभावोऽनयस्तस्मिन् चलनात् प्रवृत्तितः सध्वंसं सन्निहिताधःपतनं अमार्गगामिनामवश्य म्भावीध्वंस इति स्वत पर ध्वसोन्मुखम् कम् कमपि जनम् प्रपथ न पीडयेत् न तम्प्रतिरोपं विदध्यात् दैवोपहतत्वादित्यर्थः इति गुरुगिरा महजनवचनेन स तीर्थङ्करः खयमेव ततो निववृते स तु जिनेश्वरः सिन्धुधिया गुणादिरत्नाकरतया अवन्यैः बुद्धिमद्भिर्जनैरिति शेषः शिश्रिये आश्रितः ये केचनमतिमन्तस्ते गुणसमुद्रमेनम्मत्वा तदनुया यिनो बभूवुरिति तत्त्वम ॥२१॥ रामपक्ष-रिपुरतिवशः रिपो शत्रौ या रतिः स्थायिभावः क्रोध इत्यर्थः तस्या वशः पराधीनः क्रोधपरवश इति यावत् पुत्रैमेघनादादिभिः इभाश्वपदातिना गजतुरगपत्तिना च व्याप्तः परिवृता विदलितमतिः शत्रुकृतपराभवस्मरणेन शम्बूकादिवधेनेतिभावः विचलितचित्तः धुर्यां श्रेष्ठायां पुर्ण लंकायां गृहे रुषम् रोषम् सूर्पणखावाक्यात् जगृहे दधार अनयचलनात् अनपराधशम्बुकादिवधकारकात् स ध्वंसं आसन्नमृत्युम् प्रपद्य एवंभूतं जनमासाद्य न पीडयेदिति न किन्तु अवश्यमेव पीड येत् इति गुरुगिरा वृद्धजनवचनेन रिपुविशेष न कारये. दिति सूक्या सावधानोऽभवदिति शेषः स रावणः वन्यैः वनीयैराक्षसादिभिः सिन्धुधिया मदोन्मत्तमतङ्गजबुद्धया शिश्रिये अन्यथा अने. नैव विनाशः स्यादिति कृत्वेति भावः ।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २४१ कृष्णपक्षे-रिपुरतिवशः शत्रुविषयकमन्युपरतंत्रः पुत्रः यवना. दिभिः इभाश्वपदातिना गजतुरमादिसेनया च व्याप्तः परिवृतः विद. लितमतिः शत्रुकृतापराधस्मरणात् क्षुब्धचित्तः धुर्यां शत्रुजनितधर्षणसहनयोग्यायां पुर्या रुषं मानं जगृहे गृहीतः अनयचलनात् अनपराधकृतागस्काखेतोः कंसध्वंसं कसं कंसनामानं नृपं ध्वंसयति स कंसध्वंसस्तम् कृष्णं प्रपद्य न पीडयेदिति न किन्तु अवश्यमेव पीडयेत् यथा तथा तमासाद्य वैरं निर्यापयेदिति गुरुगिरा नृपाज्ञया जरासंधादेशेन स सिन्धुः तात्स्थ्यात्तच्छन्दम् , समुद्रान्तस्थः कृष्णः शिश्रिये सैन्येरिति शेषः सैन्यमावृणोत्तमिति भावः ॥ २१ ॥ खरविशरणात् कं-सागस्कृन्नरं हतदूषणं, पुनरपि तथा कुर्वाणं कस्त्यजेद् बलवान्नृपः। इति विमृशताऽनेनाधायि क्रियाव्यपदेशता, भवति यदयां सर्वासामप्यपानिधिरेव दिक् ॥२२॥ अन्वयः-क: बलवान्नृपः खरविशरणात् सागस्कृन्नरं हतदूषणं पुनरपि तथा कुर्वाण कं परित्यजेत् इति विमृशता अनेन क्रियान्यपदेशता अधाथि सर्वासामध्यपाम् अपानिधिरेव दिक् भवति ।। २२ ।। व्याख्या-~-खरविशरणात् खरस्य कामस्य विशरणात् विजयात् हतदूषणम् दोपरहितम् अत एव कंसागस्कृन्नरम् कंसात् अगति कुटिलं ब्रजति परित्यजतीति कंसागाः कृत नरो येन स कंसागस्कृन्नरः पानपात्र त्याजितनः तदाश्रयात् पानभाजनग्रहणमपि नरैस्त्यक्त इति भावः पुनरपि तथा कामादिविजयं कुर्वाणमाचरन्तम् एवम्भूतमलौकिकक्रियानिष्णातं जनं बलवान् ज्ञानवान नृपः भूपः अन्यो वा जनः त्यजेत परिहरेत् न संगृह्णीयात् इति विमृशता विचारयता क्रियाव्यपदेशता क्रियातत्परता तदनुसरता अधायि अकारि तदनुमारको जनो बभूवे. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये त्यर्थः तदेवार्थान्तरेण दृढयति सर्वासाम् अपाम् जलानाम् अपानिधिरेव समुद्र एव दिग् गमनदिग् भवति समुद्रे गत्वा नितान्तसुखनो गमनागमनादिशोषणबन्धनादिदोषरहिताः स्याम इति आपस्तदुन्मुखा गच्छन्ति एवं बुद्धिमन्तः सत्पुरुषपरिपूतम्मोक्षमार्गमेव तथाभूतमनुसरन्तीति तत्वमर्थान्तरन्यासेन प्रकटितम् कविना ॥ रामपक्षे - खरविशरणात खरस्य स्वभगिनीपतेर्विशरणात् हननात् सागस्कृन्नरं अपराधकारिणं मनुष्यं हतदूषणम् दूषणनिहन्तारम् पुनरपि भूयोऽपि तथा कुर्वाणं विराधयन्तं कः बलवान् नृपः प्रभुत्वसम्पन्नो नराधिपः त्यजेत् परिहरेत् मुश्चेत् न कोऽपीत्यर्थः इति इत्थं त्रिशता विचारयता अनेन रावणेन क्रियाव्यपदेशता क्रियायाः व्यापारस्य व्यपदेशता छयूनता अधायि कापट्यं अप्रयोजि तथाहि सर्वासामपां अपां पतिः निधिरेव दिग् भवति यथा जडप्रकृतिरपान्निधिर्नीचैर्गच्छति तथा मन्दबुद्धिरपि नीचवृत्तिं कापट्य आश्रयतीति भावः ॥ दृष्टान्तालंकारः || २२ ॥ कृष्णपक्षे खरविशरणात रलयोक्यात् खलविशरणात् खलनिग्रहणात् बलवान् नृपः जरासंधः कंसागस्कृन्नरम् कंसे स्वजामातरि आगः अपराधम् पापम् वा करोतीति कंसागस्कृत कंसापराधी स चासौ नरश्वेति कंसागस्कृन्नरम् नरमात्रोपादानेन तस्मिन् तुच्छत्वं सूचितम् हत दूषणम् प्राप्तदूषणम् हन्तेर्गमनार्थत्वेन प्राप्त्यर्थत्वात् स दोषम् पुनरपि भूयोऽपि तथा कुर्वाणम् अपराधमाचरन्तम् न च शरणागतमितिध्वनिः कः त्यजेत् परिसहेत् उपेक्षेत इति विमृशता विचारयता अनेन जरासंधेन क्रियाव्यपदेशता वृद्धोद्योगता अयायि व्यारचि अपाम् सर्वासामपि अपानिधिरेव दिग् भवति न कोऽपि सामान्यं स्वकीयशत्रु परिहरति एकान्तविश्रामकामुकत्वादिति भावः ॥ २२॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ५ प्रतिहरिजरासन्धादेशाद् गृहाणि जहुर्जना, दशमुखभिया शत्रोग्रमात् परे जगृहुर्व्रतम् । स्वजनविरहादन्येऽवन्यां मुहुर्मुमुहुस्तथा, २४३ मुनिगुरुरादाय स्वीयान् समारुरुहुर्दरम् ॥२३॥ अन्वयः -- जनाः प्रतिहरिजरासंधादेशात् गृहाणि जहुः परदेशमुखभियाशर्मामात् व्रतं जगृहुः अन्ये स्वजनविरहात् भवन्याम् मुहुर्मुमुहुः ।। २३ ।। व्याख्या - हरति पापमिति हरिजिनेन्द्रः तम् इति प्रतिहरिजिनेन्द्रम्प्रति जनाः भव्यलोकाः जरासंधादेशात् दृढ़प्रतिज्ञाबलतः गृहाणि वेश्मानि जहुः तत्यजुः दृशमुखभिया दशसु इन्द्रियेषु मुखं प्रवृत्तिर्यस्य स कामः अथवा दशसु अवस्थापरिणामेषु मुखं प्रवृत्तिर्यस्य तत् कर्म तस्य भिया भयेन कर्मभयेन च शत्रोः तस्यैव ग्रामात् आयत्तात् व्रतम् चारित्र्यम् परे केचन जगृहुः गृह्णन्तिस्म अन्ये अवन्याम् भूमौ स्वजनविरहात् मुमुहुर्मोहमुपगताः मुनिगुरुगिरा मुनिरेव - गुरुरुपदेशकस्तस्य गिरा वचनेन स्वीयान् स्वकीयान् आदाय गृहीत्वा दरम् कन्दराम् आरुरुहुः समं विहरन्ति स्मेति भावः ॥ कृष्णपक्षे-जनाः लोकाः प्रतिहरिजरासंधादेशात् प्रतिहरिश्वासौ जरासंधचेति तस्य आदेशात् आज्ञातः गृहाणि स्ववेश्मानि जहुस्तत्यजुः रणा सज्जा बभूवुरित्यर्थः दशमुखभिया दशसु मुखन्निर्गमनं यस्य तस्य बाणस्य भिया भयेन शत्रोग्रमात् शत्रुग्राममभिव्याप्य व्रतम् यावन्न शग्रामं गमिष्यामि तावन्नभोक्ष्ये न विश्रमिष्ये वेति नियमं जगृहुर्धारिताः खजन विरहात् युद्धाय गतपतिपुत्रादिविरहात् विश्लेषात् अवन्यां भूमौ मुहुर्मुहममुपगताः इतश्च ये भीरवस्ते मुनिगुरुगिरा सद्बुद्धि वदुपदेशक वाक्येन स्वकीयान् स्त्रीचालकादीन् आदाय दरम् पर्वतकन्दरम् आरुरुहुस्तत्र जग्मुः ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्धानमहाकान्ये रामपक्षे-प्रतिहरिः प्रतिवासुदेवोस्तस्य जरासंधादेशात् दृहप्रतिज्ञानुरोधात जना राक्षसलोकाः गृहाणि स्ववेश्मानि युद्धार्थमुद्युक्ताः, सन्तः स्वकीयवासस्थानानि जहुस्तत्यजुः परे केचन विभीषणादयः दशमुखभिया दशकण्ठभयेन रावणकृतानादरभयतः शत्रोः ग्रामात शत्रुभूतरावणनगरात् बहिनि:सृत्येति शेषः व्रतम् नियमम् रावणप. रित्यागरूपम् जगृहुः स्त्रीचक्रुः स्वजनविरहात् स्वजनस्य विभीषणादे. विरहाद्वियोगात् अन्ये विभीषणदारादयः मुहुः पुनः पुनः मुमुहुः मुह्यन्तिस्म तथा च ते विभीषणादयः मुनिगुरुगिरा मुने रामस्य तदानीम्बनवासकाले कतिचिव्रतधारकत्वेन तथा निर्देशः यद्वा मनुते स्वकीयत्वेन स्वीकरोतीति मुनिः स चासौ गुरुश्चेति मुनिगुरुस्तस्य गिरा वचनेन अथवा गुर्वी चासौ गीश्चेति गुरुगीः मुनेर्गुरुगीरिति मुनिगुरुगीस्तया अत्यादरणीयरामवचनेन स्त्रीयान् स्वकीयान् परिजनान् आदाय गृहीत्वा दरम् पर्वतकन्दराम् यद्वा दरम् श्वभ्रम् रक्षणस्थानम् समारुरुहुः संगताः दरोऽस्त्रियां भवे श्वभ्र इत्यमरः॥ श्लेषालंकारः।।२३॥ प्रतिहरिवचोयोगाद् दुर्योधनादिनिमन्त्रितः, सवितुरचिरात्तारासक्तः सुतो नवसाहसः । किमु नयति नो सेनानाशं विभोदृढसंयति, कृतमतितरां योधात्सोऽधात् पुरो रिपुवारणम्॥२४॥ अन्त्यः-प्रतिहरिवचीयोगात् दुर्योधनादिनिमन्त्रितः सवितुर्विभोः तारा. सक्तः नवसाहसः सुतः दृढसंयति सेनानाशं किमु नयति रिपुनिवारणम् अतितसंकृतम् योधात् स पुरोऽधात् ॥ २४ ॥ व्याख्या-सवितु भ्यादेनकस्य तारासतः तारासु कनीनिकासु आसक्तः अत्यन्तलोचनप्रियः "तत्तारा तु कनीनिकेति हैमः" Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ सुतः तनयः ऋषभादिः प्रतिहरिवचोयोगात् प्रतिहरेर्ब्रह्मलोकान्तवासिदेवादेः वचोयोगाद दीक्षाग्रहणसमयस्मारकवाक्यात् दुर्योधनादिनिमन्त्रितः दुर्योधनादिः कामक्रोधादिनिमन्त्रितो निरुद्धो येन स अत एव नवसाहसः नूतनसाहसिकः अभूदिति शेषः कामश्चिन्तयति विभो रिति विभोजिनेन्द्रप्रभोः सेना आभ्यन्तरसंयमादिदृढबलम् अस्माकं इति शेषः नाशं नयति नो किम् नो नयति किन्तु अवश्यमेव नेष्यतीति भावः वर्त्तमानसामीप्ये लट् अतः दृढसंयति स्थिरसंयमे जिनेन्द्रे इत्यर्थः पुरः प्रथममेव योधात् संग्रामात् पूर्वमेव सोधात् सोद्योगात् रिपुवारणम् सैन्यनिवारणम् अतितराम् कृतम् ॥ २ ४५ कृष्णपक्षे -- प्रतिहरिवचोयोगात् जरासंधवचनप्रयोगात् दुर्योध नादिनिमन्त्रितः कृतनिमंत्रणकः कृतः कर्मधारयः सवितुः सूर्यस्य सुतः तनयः तारासक्तः तरति शत्रुपारं गच्छत्यस्मिन्निति तारो युद्धम् तत्रासक्तः संग्रामप्रियः अत एव नवसाहसः नूतनसाहसी कर्णः विभोः कृष्णस्य दृढसंयति संग्रामे सेनानाशं कृष्णसेनाक्षयं किमु नो नयति नेष्यति अवश्यमेव नेष्यतीत्यर्थः सोधात् सोद्योगात् योधात् संग्रामात् पुरः प्रथमं रिपुवारणम् शत्रुरोधम् अतितराम् कृतम् विरचितम् ॥ रामपक्षे - प्रतिहरि हरिम् कपिम् प्रति यो वचनयोगः सन्देशप्रेषणम् तस्मात् प्रतिहरिवचोयोगात् कपिद्वारा संदेशप्रेषणात् दुर्योधनादिनिमन्त्रितः दुर्योधनादौ कष्टयुद्धादौ निमन्त्रितः कृताह्वानः सवितुः सूर्यस्य सुतः सूर्यवंशीयत्वात् तत्तनयः तारासक्तः संग्रामप्रियः नवसाहसः रामः विभोः मायासुग्रीवस्य दृढसंयति महत्संग्रामे तस्य सेनानाशं किमु नो नेष्यतीत्यादि पूर्ववद्योज्यम् ॥ २४ ॥ कमनजनकं जित्वा बाणाहवेन ससाहस, सहितमकरोच्चन्द्रं साक्षादिवोद्यत तारया । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये खचरमचिराद् भानोः सूनुं निजाङ्गनया ततः, सकलनगरे द्वारावत्याः प्रभा भवनेष्यभात् ॥२५॥ अन्वयः-स साहसं कमनजनकं बाणाहवेन जित्वा उद्यततारया सहित साक्षाचन्द्रमिव भानोः सूनुं खचरं निजाङ्गनया सहितम् ततः सकलनगरे भवनेषु द्वारावत्याः प्रभाः अभात् ॥ २५ ॥ व्याख्या-उद्यततारया उद्यता प्राप्तोदया या तारा तया सहितम् संगतम् साक्षाचन्द्रमिव कमनजनकम् कम्यते इति कमनम् अभिलाषः तजनयतीति कमनजनकः संभोगेच्छोत्पादकस्तम् चन्द्रस्यापि कामोदीपकत्वात् तत्सहचरत्वाच्च अथवा अनजनकम् नास्तिजनको यस्य स अजनकस्तन्न भवतीति अनजनकः अनेकजनकः असंख्यातपितृकः वम् कम् कमपि कामम् ससाहसम् साहसेन सहितम् अबाणाहवेन वाणयुद्धं विना आभ्यन्तरिकसंयमबलेन जित्वा पराजित्य अथवा उद्यततारया देदीप्यमानरजतेन रौप्येन सहितम् चन्द्रम् काञ्चनश्च. जित्वा " स्याद्रूपं कलधौतताररजतश्वेतानिदुर्वणकम् इति तपनीयचामीकरचन्द्रभर्मेत्युभयत्र हैमः " खचरम् खं सुखमानन्दश्चरति अनुभवतीति अथवा खे परमात्मनि स्वात्मानन्दानुभवे चरति विचरतीति तम् आत्मज्ञानिनम् भानोः प्रभायाः सूयते इति सूनुः तम् प्रभोत्पादकम् स्वस्वरूपमित्यर्थः निजाङ्गनया निजस्य स्वीयस्य या अङ्गना बुद्धिस्तया निजबुद्ध्या सहितम् अकरोत् स्वखरूपन्निजप्रवृत्त्यधीनमकरोदित्यर्थः सकलनगरे नगम् पर्वतम् रातीति नगरम् वनम् कलेन मधुरा. व्यक्तशब्देन सहितम् सकलम् तच्च नगरञ्चेति तस्मिन् अथवा सकलनगरे यत्र यत्र प्रभुर्विहरति तसिन् भवने गृहे द्वारावत्याः द्वारकायाः प्रभा शोभा अभात् भातिस्म ॥ कृष्णपक्षे-कमनजनकम् कमनः कामः प्रद्युम्न इत्यर्थः जनकः पिता यस्य स कमनजनकः अनिरुद्धः तं ससाहसं बाणासुरकन्या Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजथामृतसूरिप्रणीता सरणी टोका. सर्ग-५ २५० धर्षणरूपं साहसकारकं बाणाहवेन बाणासुरसंग्रामेन जित्वा बाणं परा: जित्य तं लब्ध्वा उद्यतताग्या चन्द्रमिव उपया नवपरिणीतया सहितं अकरोत् भानोरित्यत्र विभक्तिविपरिणामेनान्वयः भानु भानुनामानं सत्यभामातनयं निजागा या दुर्योधन कन्यया सहितं अकरोत् देहली. दीपन्यायादुभयत्रान्वयः द्वारावत्याः द्वारकायाः सकलनगरे प्रधाना. प्रधाननगरे भवनेषु सद्मसु प्रभा कान्तिः अभात् अदीप्यत ॥ रामपक्षे-ससाहसं सुग्रीवरूपं विधाय ताराभिलापरूपसाहसयुक्तं कमनजनक कामपरतन्त्रं बाणाहवेन जित्वा शरसंग्रामेन पराजित्य उद्यततारया सहित साक्षाचन्द्रमिव खचरं आकाशगामिनं भानोः सूर्यस्य तनयं मुग्रीवं निजाङ्गनया तारया सहितं अकरोत् व्यधात् सकलनगरे किष्किंधापुरे भवनेषु गृहेषु द्वारावत्याः द्वारकायाः प्रभा कान्तिः अभात् शोभतेस ॥ २५ ॥ परपरिचयादन्योऽप्यापतकृताहवनाशनः, शुचिपरिगतं नाथं कान्त्या गुणेन च संनिभम् ॥ तमपि भगवान् भित्त्वा पूर्व पदं ह्युपलम्भयन् , कतिपयदिनांस्तत्रैवास्थादसुस्थितमानसः ॥२६॥ अन्धयः -- आहवनाशनः अन्योऽपि परपरिचयात् आपत्कृत् शुचिपरिगतं कान्त्या गुणेन च सन्निभम् नाथम् तमपि भित्वा भगवान् पूर्व पदं झुप. लम्भयन् असुस्थित मानसः कतिपयदि नान् तत्रैवास्थात् ॥ २६ ॥ व्याख्या-परपरिचयात् परस्य श्रेष्ठजनस्य परिचयात् संगात् अन्योऽपि अनोऽपि सदसद्विवेकरहितोऽपि आपत्कृताहवनाशनः आपदं करोतीति आपत् कृत् स चासौ आवश्चेति आपत्कृताहवः तन्नाशयति परित्यजतीति तथोक्तः ज्ञानिजनसंसर्गान्मूढोऽपि हिंसादिकं परित्यजति इति भावः शुचिपरिगतं अत एव शुद्धतामुपगतं कान्त्या Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्वे गुणेन च सन्निभं सजनजनसदृशं नाथं नाचते याचते इति नाथस्तं याचमानं तमपि भगवान् जिनेश्वरः भित्वा अज्ञतां परिहृत्य पूर्व पदं श्रावकत्वं उपलम्भयन् अनुमोदयन् अमुस्थितमानसः स्त्रात्मानुभवस्थितचित्तः कतिपयदिनान् कतिचिद्वासरान् तत्रैवास्थात् तत्रैवस्थितोऽभूदित्यर्थः ॥ २६ ॥ श्रीपार्श्वनाथपक्षे-परपरिचयात् परे पूर्वजन्मनि यः परिचयः संबन्धः तस्मात् अन्योऽपि साम्प्रतमन्यशरीरगतोऽपि आपत्कृत् उपसर्गप्रयोजकः अत एव आहवनाशनः आहूयन्ते आत्मा अत्र स आहवः आत्मचिन्तनं तस्य नाशनः विराधकः शुचिपरिगतं अतिनिर्मलं कान्त्या गुणेन च सन्निभं सदृशं यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्तीति आकृत्या गुणेन च कृतार्थ नाथ पार्श्वनाएं आपत् कृत् उपमर्गजनको जात इति शेषः तमपि विराध्यातमपि मेघमालिकुमारकृतोपसर्ग भित्वा निश्चलचित्तेन सहित्वा पूर्व पदं स्वकीयदेवस्थानं उपलम्भयत् न च विराधिनं प्रतिविरोधबुद्धिरभवत् अन्यत् पूर्ववव्याख्येयं ॥ श्रीमहावीरपक्षे-परपरिचयात् परेण अन्येन कृतो यो परिचयो यथार्थस्तवस्तस्मात् इन्द्रप्रयुक्त श्रीमहावीरतपोवर्णन श्रुत्वा संगमदेवस्तं परीक्षितुमुपसगं विदधौ अन्योऽपि निरपेक्षोऽपि आपत्कृत् आहवनाशन इत्यादि पार्श्वनाथपक्षपद् व्याख्येयं ।। रामपक्षे-कदाचित्सुन्दसहिता चन्द्रणखा पाताललंकायां राज्यं पालयन्ती रामसाहाय्येन पूर्ववैरीविराधो युद्धं विधाय निष्कासयतां सपुत्रां सा च लंकां गत्वा रावणाय व्यजिज्ञपदित्याक्षिप्याह परपरिचयादिति । आहवनाशनः आहवे संग्रागे शत्रु नाशयति हिनस्तीति स परपरिचयात् स्वीपशत्रुपरिचयात् तत् कृतोपजापात् अन्योऽपि उदासीनोऽपि आपत्कृत् विपनिजनको भवतीति शेषः शुचिपरिगतं Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- ५ २४९ शुद्ध कान्त्या गुणेन च सन्निभम् मद्योग्यम् नाथं खरं तमपि प्रसिद्ध तव भगिनीपति भित्वा विनाश्य विराधाय पूर्व पदम् खराधिकृतं तदीयपैकपदमुपलम्भयन् मां निष्काश्य तद्राज्यं तस्मै ददौ कतिपयदिनान् असुस्थितमानसः सीताविरहविपणचेतास्तत्रैवास्थात् अवर्तिष्ट ।। कृष्णपक्षे-परपरिचयात् परः शत्रुः तदीयपरिचयात् शत्रुव्यवहारात् अन्योऽपि यौनसंबन्धसंबद्धोऽपि आपतकृत् विपत्तिजनको भवतीति शेषः यथा कंसः स्वपितरं कारागारे निरुध्य राज्यमाच्छिद्य स्वयम् बुभूजे. आहवनाशनः कुष्णः भगवान् ऐश्वर्यसम्पन्नः तमपि पितृविरोधकारकं कंसं भित्वा विनाश्य शुचिपरिगतम् हृदयतः आचारतश्वशुद्धनिर्मलं कान्त्या गुणेन च सन्निभम् समानम् उग्रसेनम् पूर्व पदम् पूर्वोपभुक्तराज्यसिंहासनम् उपलम्भयन्प्रापयन् असुस्थितमानसः जरासंधविग्रहात चलचितः यद्वा वृन्दावनीय सहचरविश्लेषविधुरः कति. पयदिनान् कतिचिद्वासरान् तत्रैवमथुरायाम् अस्थात् आसीत् ॥२६॥ पवनजनुषा धर्माजन्ये नरोऽभिनवोत्सवः, प्रणयवशतो वाहिन्यागात् सुखेन चलन पथि । तदनु जगति श्रद्धापूर्णो हरेः प्रियवंशजे, लघुरपि परां प्रीतिं भेजे तदा सुहृदां पदे ॥२७॥ अन्वयः--धर्मात् अभिनवोत्सवो मरः जन्ये प्रणयवशतः पथि सुखेन चलन् भगात् पवनजनुषा वाहिनी च भागात् तदनु हरेः प्रियवंशजे श्रद्धापूर्णः तदा जगति लघुरपि सुहृदां पदे परां प्रीतिम्भेजे ॥ २७ ॥ . . . __ व्याख्या-धर्मात् पवनजनुषा पूयते अनेनेति पवनम् तच्च जनुश्चेति पवनजनुः मनुष्यशरीरम् तेन धर्मतो लब्धेन मनुष्य शरीरेण जन्ये लभ्ये वाहिनि अनादिकालतः प्रवर्त्तमाने पथि मार्गे हरेजिनेन्द्रस्य प्रियवंशजे कुलपरम्परागते स्थाद्वादे प्रणयवशतः प्रेमवशतः धर्मविष. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. महोपाध्यामश्री मेषविजयगणिविरचिते सक्षसम्ममहाकावे यकातिशयानुरामतः सुखेन आगात् अन्वसरत् तदनु तत्पश्चात् चलन् तमिन् प्रवर्चमानो जनः श्रद्धापूर्णः भक्तिपूर्णः अभवदिति शेषः तथाहि जगति संसारे लोके धर्मे प्रवर्तमानः लघुरपि नीचोऽपि सुहृदां पदे महतां मित्रमण्डले परां प्रीतिम् अत्यधिकसत्क्रियां साधर्मिकतया मेजे लेमे ॥ २७ ॥ रामपक्षे-धर्मात मुकृतेः अभिनवोत्सवः धर्मप्रभावादिनानुदिनं नूतनोत्वशाली नरः जन्ये संग्रामे रावणेन सह रणे प्रणयवशः प्रेमबशतः अभीरुत्त्वात् रामगतप्रेमातिशयात् त्रैलोक्यकंटकरावणहननोत्साहाद्वा मुखेन केषाश्चिदप्यरुन्तुदाभावेन चलन् गच्छन् पवनजनुषा पवनंजयपुत्रेण सह वाहिन्या सेनया च समम् आगात् अगमत् तदनु तत्पश्चात् हरेः सूर्यस्य प्रियवंशजे सूर्यवंशीयरामे श्रद्धापूर्णः विशेषत्रद्धालुर्जात इति शेषः तथाहि जगति लोके लघुरपि सुहृदां पदे मित्रतायां तदा मित्रत्वकाले परामतिशयितां प्रीतिम् अनुरागम् भेजे भजतिस्म ॥२७॥ कृष्णपक्षे-धर्माजन्ये धर्मयुद्धे पवनजनुषा वायुतनयेन भीमसेनेन सह नरः सैन्यगतलोकः अभिनवोत्सवः नित्यनवीनोत्सवेनोऽपलक्षितः वाहिन्या सह सेनथा सार्धम् च प्रणयवशतः कृष्णगतप्रेमतः पथि मागे सुखेन अनायासेन चलन् अगात् हरेः वायोः इन्द्रस्य वा प्रियवंशजे भीमे अर्जुने वा हरेः चन्द्रस्य प्रियवंशजे कृष्णे कृष्णस्य चन्द्रवंशीयत्वात्. श्रद्धापूर्णः भक्तियुक्तः अभवदिति शेषः तथाहि जगति लोके सुहृदां पदे मित्रवर्ग लघुपि कनीयानपि तदा मित्र तायां परामतिशयिताम् प्रीतिम् भेजे मित्रमार्गे नीचोचैर्विभागो न गण्यत इति भावः ॥ २७ ॥ . Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्षीविजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २५१ अरिपरिणतिर्येषां पूर्वा नवा सहजातिगा, बलवति पुनः कर्णेऽभ्यणे समीयुषि वाग्भरे । प्रगुणितमहामन्त्रैस्तन्त्रैर्ययुः प्रतिमाधवं, मलिनहृदया गान्धारेया निधाय कथाश्रुताः॥२८॥ अन्वयः--येषाम् भरिपरिणतिः पूर्वा नवा सहजातिगा बलयति वाग्भरे कणे अभ्यणे समीयुषि प्रगुणितमहामंझैः तंत्रः कथाश्रुता निधाय मलिनदया गान्धारेयाः प्रतिमाषवम् ययुः ॥ २८ ॥ व्याख्या-येषां जिनेन्द्रप्रभूणां अरिपरिणति शत्रुसंमुखगमनम् पूर्वा एव “दीक्षाग्रहणात् पूर्वं यथा शत्रुधु परिणमतिस तथेदानीमपि कामक्रोधादिशत्रौ परिणमत इति भाव:" न वा नैव सहजातिगा खाभाविकीती मिन्ना किन्तु स्वाभाविकी बलवति दुःप्रधर्षे कामादौ वाग्मरे शब्दग्राहके कर्णे श्रोत्रेऽभ्यणे सनिधौ समेयुषि समागते सति कामस्थानत्वात् दृष्टिगोचराभावेन पिकादिमधुर शब्दद्वारा श्रावणप्रत्यक्षे सति प्रगुणितमहामंत्रैः प्रगुणिताः प्रयोजिता ये महामंत्राः आरमसंयमास्तैः तंत्रैः स्थैर्यैः मलिनहृदयाः मोघप्रयत्नाः गांधारेया गंधमच्छतीति गंधारः तेषां समूहः तेभ्यो हिता वा गंधप्रयोजकाः कामादयः कथाश्रुता निधाय तदीयतपोमहिमवणेनं यथा इन्द्रादिभ्यः श्रुतन्तथानुभूतमिति श्रुताः आकर्णिताः कथाः प्रभावातिशयद्योतकाः निधाय कर्णे इति शेषः माधवम्प्रति वसन्तम्प्रति ययुः वसन्तसभिषिं गत्वा ययुनिववृतुः ॥ २८॥ कृष्णपक्षे-येषां दुर्योधनादीनां अरिपरणतिः शत्रुभावता पूर्वा पुरातनी पूर्वत एव युधिष्ठिरादिनिमिचीकृत्य कोऽपि शत्रुबुद्धिः चिरंतनी नवा नैव सहजातिगा खाभाविकी मिना किन्तु सहजैव पुन: किन्तु नारभरे सत्यवादिनिमलचति सामर्थ्यशालिनि कर्णे कोमिधाने Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते समसन्धानमहाकाणे नृपे अभ्यणे सन्निधौ समेयुषि जरासंघसहाय्याय प्राप्ते सति प्रगुणित. महामंत्रैः प्रयोजितकर्तव्यावधारणजनकरहस्यविचारैः तंत्रैः इति कर्तव्यताप्रयोजकव्यापारः कथाश्रुताः स्वपरम्परायौनसंबन्धिनः कृष्णादय इति श्रुताः कैश्चिजनैः कथिता निधाय मुक्त्वा परित्यज्य मलिनहृदया कृष्णसंबन्धेन युधिष्ठिरराज्यं प्रत्यपणीयं भवेदिति कलुषितान्तःकरणाः गांधारेयाः धार्तराष्ट्राः प्रतिमाधवं जरासंधं ययुः संश्रिताः ॥ रामपक्षे-येषां रामादीनाम् अरिपरिणतिः पूर्वा न वा सहजातिगा तस्मिन् रामे वाग्भरे वामात्रेण कणेऽभ्यणे समीयुषि समागतेः समुद्रपारे स्थिते प्रगणितमहामंत्रैः तंत्रैः प्रयोजितस्वपरराष्ट्रविज्ञानविचक्षणः स्पर्शः सद्भिः गांधारेयाः वार्ताहारकाः मलिनहृदयाः छमनापरराष्ट्र विचारधारकाः चाराः कथाश्रुताः आकर्णिताः परराष्टी. याः कथानिधाय कणे कृत्वा प्रतिमाधवं रावणं ययुः यदा रामः समुद्रतटासन्न आसीत्तदा रावणः स्वारान् प्रेष्य सर्ववृत्तान्तमज्ञासीदिति तात्पर्यम् ॥ २८ ॥ मधुरबहलीभागस्थायी न बाहुबलीक्षितः, । प्रभुरनुपदं प्रातन्त्यिा न लक्ष्मणलक्षितः। अवनिधनिकस्याच्चैः कामन् शुचेः स्वरुचेरभूतु, खरसुतहरः क्वाप्येवं स्यात्प्रमादपरः सुधीः ॥२९॥ अन्वयः-मधुरबह ली भागस्थायी बाहुबलीक्षितः न प्रातः अनुपदं श्रात्या लक्ष्मणलक्षितो अवनिधनिकस्य शुचेः स्वरुचेः उचैः क्रामन् खरसुतहरः भभूत् सुधीः काप्येवं प्रमादपरः स्यात् ॥ २९ ॥ - व्याख्या-मधुरबहलीभागस्थायी मधुरो मनोज्ञो यो बहलीभागः नगरबाह्योद्यानभूभागः तत्र स्थायी प्रभुर्जिनेन्द्रः आदीश्वरः प्रातः प्रभाते अनुपदं भ्रान्त्या तत्क्षणगमनेन न बाहुबलीक्षितः बाहुबलिना Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ न दृष्टः लक्ष्मणलक्षितश्चलक्ष्मणेन राज्ञा न लक्षितः नयनगोचरी कृतः अभूत् जातः स्वरुचेः स्वतो रोचमानस्य शुचेः परिशुद्धस्य अवनिधनिकस्य पृथ्वीपतेः बाहुबलिनः उच्चैः क्रामन् अधिकं गच्छन् खरसुतहरः कामविनाशकः सुधीः तत्वज्ञः काप्येवं प्रमादपरः स्यात् न स्यादित्यर्थः सायं प्रभुर्बाह्योद्यानमागत इति उद्यानपालेन निवेदितः प्रातर्यायता सपरिवारो गच्छति बाहुबली तावता प्रभुर्विजहारेति राज्ञः प्रमादपरत्वं, न कदाचिदपि प्रभुः प्रमाद्यतीति भावः । अर्थान्तरन्यासः || २९ ॥ २५३ अन्य जिनेन्द्रपक्षे – मधुरबहली भागस्थायी मनोज्ञनिर्मलदेशस्थः बाहुबली संयमसामर्थ्यवान् न क्षितः स्वसंयमात् न स्खलितः प्रातः परिपूर्णः भ्रान्त्या भ्रमणेन लक्ष्मणेन खचिन्हेन लक्षितः न इति न किन्तु लक्षित एव खरसुतहरः पराजितकामः प्रमादपरः प्रमादात् अनवधानात् परः दूरवर्ती अप्रमादी सुधीः सुष्ठु आत्मानुभववान् काप्येवं स्यात् कश्विदेवं भवेत् अवनिधनिकस्य अवनमेवावनिः स एव धनं यस्य तस्य दयाधनिकस्येत्यर्थः शुचेंः शुद्धस्य स्वरुचेः स्वस्मिन् आत्मनि रुचिर्यस्य तस्य संम्वन्धी क्रामन् गच्छन् उच्चैरभूत् ॥ एवं कृष्णपक्षेऽप्यवसेयम् ॥ २९ ॥ रामपक्षे -- मधुरबहलभागस्थायी निर्मल परिस्कृतप्रदेशस्थः बाहुली न क्षितः न केनापि हतः अनुपदं रामस्य अनुसरणम् भ्रान्त्या भ्र मणेन लक्ष्मणकक्षितः न लक्ष्मण इति यथार्थनामा यथा लक्ष्म कदाचिदपि न व्यभिचरति तथायमपि रामस्यानुचर इति भावः अवनिधनिकस्य पृथ्वीपतेः शुचेः परिशुद्धस्य खरुचेः खतः शोभमानस्य उच्चैः क्रामन् अतिशयमनुसरन् अभूत् खरसुतहरः शम्बूकनिहन्ता सुधीः बुद्धिमान् काप्येवम् कुतोप्येवं प्रमादपरः स्याचैव स्यादित्यर्थः ॥ २९ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ महोपाध्यायश्रीमेषविजयगणिविरचिते सप्तसम्भानमहाकाव्ये अथ विधिवशात् स्थित्याः पूर्ती बने हत-दण्डके, ___ सबलहरिणा विद्यासिद्धे खरात्मनि निष्ठिते । भवति समरे जह्वे रक्षःप्रभुर्वसुधाङ्गजां, खमनुजमिते रामे मिथ्यामति स्वविमानधी॥३०॥ अन्ययः- अथहतदण्डके वने सबलहरिणा विधिवशात् स्थित्याः पूतौं विद्यासिद्धे खरात्मनि निष्ठिते समरे भवति स्वमनुजमिते रामे रक्षःप्रभुः स्वविमानधीः अमिथ्यामतिं वसुधांगजाम् जहे ॥ ३० ॥ व्याख्या-अथ अथानन्तरं हतदण्डके दण्डयति बिभीषति इति दण्डक: भयकारकः हतः निरस्तः दण्डको यत्र तस्तिन जिनेन्द्रागमनप्रभावात् पारस्परिक विरोधोऽपि शान्त इति भावः निर्भये वनेऽरण्ये विधिवशात् विधिपूर्वकं स्थित्याः धारणायाः मुक्तरित्यर्थः " मर्यादा. धारणास्थितिरिति हैमः" पूर्ती पूर्ति निमित्ताय मुक्तिनिमित्तायेति तत्वम् सबलहरिणा हरति पापमिति हरिः सबलशासौ हरिश्चेति सब. लहरिस्तेन विद्यासिद्धे अध्यात्मज्ञानसिद्धे सम्पन्ने सति अत एव खरास्मनि निष्ठिते कामे प्रतिहते वसुधांगजाम् वसु कृष्णतान्दधातीति वसुधा चासौ "वसुरयामे इति शब्दस्तोममहानिधिः” कृष्णा अङ्गना कबरी चेति वसुधाङ्गजा तां जहे हृतवान् लुलुचे समरे समम् समतां राति अर्पयति सर्वत इति समरस्तसिन् समरे समभावे भवति प्रसरति रक्षा प्रभुः रक्षतीति रक्षाः तत्र प्रभुः रक्षणैकरवणः स्खविमानधीः विगता मानोऽहंकारो यस्यां सा विमाना सा चासो धीति विमानधीः स्व. लिन स्वशरीरे विमानधीर्यस्य स तथोक्तः देहाभिमानरहितः खमनु. जमिते रामे खस्य मनुमन्त्रं विचारशक्तिः तस्माजातः स्वमनुजः स्व. स्वविचारजातः तेन मिते अनुमिते रामे आत्मानन्दानुभवे अमिथ्या. मतिम् निर्मलां दृदां बुद्धिम् चक्रे इति शेषः ।। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २५५ रामपक्षे-~-अथ अनन्तरम् हतः निहतो दण्डको यत्र तसिन् हनदण्डके वने विपिने सबलहरिणा बलवता हरिणा लक्ष्मणेन वि. धिवशात् अदृष्टवशतः स्थित्याः स्थानम् स्थितिरायुः तस्याः पूर्ती पूर्णे सति आयुषः पूर्ण सति विद्यासिद्धे सूर्यहासखड्गसाधकविद्याधिगते सति खरात्मनि खरपुत्रे "आत्मा वैजायते पुत्र इति श्रुतेः" शम्बूके निष्ठिते मृते सति समरे खरादिभिः सहेति शेषः संग्रामे भवति प्रर्वमाने स्वमनुजमिते रामे स्वं स्वकीयम् अनुजम् कनिष्ठभ्रातरम् इते गते रामे समस्याविद्यमानदशायां रक्षाप्रभुः रक्षसां पतिः रावणः स्वविमानधीः स्वस्मिन् विमाने रथे धीर्यस्य सःअमिथ्यामतिम् न मिथ्यामतिर्बुद्धिर्यस्थास्तां शुद्धमनस्कां वसुधाङ्गजाम् सीताम् जरु हृतवान् अथवा मिथ्यामतिम् इयमे भार्या भविष्यतीति बुद्धिमास्थायेति जडू हरतिस्म ।। कृष्णपक्षे-सबलहरिणा सबलो बलवान हरति धैर्यमिति हरिः कामः सवलश्चासौ हरिश्चेति सबलहरिस्तेन बलवता कामेन प्रद्युम्नेन विद्यासिद्धे कनकमालाप्रदत्तगौरीप्रज्ञप्तिविद्याद्वयलब्धे सति विधिव. शात देवाधीनतः स्थित्याः समयस्य पूर्ती पूर्णे सति स्वकीयषोडशव. र्षपर्यन्तं मातृपितृवियोगरूपशापस्य अथवा समयस्य आयुषः पूर्ती खरात्मनि खरः दुष्टः आत्मा यस्य तस्मिन शम्बरे निष्ठिते मृते सति रक्षाप्रभुः रक्षासु राक्षसेषु प्रभवति इति रक्षाप्रभुः प्रयुम्नः समरे समः गीतवाद्ययोरेककालभवो गायकहस्तादिचालनरूपस्तालस्तं राति गृहातीति तस्मिन् गीतवाद्यादिमहोत्सवे भवति विद्यमाने वसुधाङ्गजाम् वसु तेजो दधातीति वसुधो दुर्योधनस्तस्याङ्गजां तनयां जडू हृतवान् स्त्रविमानधीः स्वविमाने आकाशगमनादौ धीः यस्य स रामे बलरामे अनुजम् कृष्णमिते गते स्वम् स्वयमेव अमिथ्यामति रामकृष्णौ प्रति पूज्यबुद्धिम् विदधे इति शेषः ॥ ३० ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ महोपाध्यायभीमेधाविजयगणिविरचिते सप्लसन्धानमहाकान्ये पथि गमनतो-लङ्काधीशा जटायुरवध्यत, समितिसमये ध्वंसं भेजे दशाननकाण्डतः । अनुकृतिकरो विद्याभ्रशं जटी निकटीभव न्ननुशयमयाद रत्नाद् यत्नादरक्षपिताहितः॥३१॥ मन्वयः-पथि गमनतो लंकाधीशा जटायुः अवध्यत समिति समये दशाननकाण्डतः ध्वंसं भेजे अनुकृति करो निकटीभवन् जटी अनुशयमयात अयस्नायू रस्नात् अरक्षपिताहितः विद्यावंसं भेजे ॥ ३१ ॥ व्याख्या-काधीशा के आत्मनि अधीष्टे इति काधीट् आत्मज्ञानी तेन जिनेन्द्रेण अलम् अतिशयम् पथि गमनतः मार्गे विहारतः जटायुर्जटां संघर्ति याति प्रामोतीति तथा संघात: अवध्यत नित्यविहारे कैश्चिन्मुनिमिः संघातः प्रेमाऽक्रियत समिति समये इर्यासमित्यादिकाले दशाननकाण्डतः कामदेववाणतः अध्वंसं भेजे अप्रतिहतो जातः यत्नात् संयमतः अरक्षपिताहितः अरम् शीघ्रम् क्षपिता निरा. कृतः अहितः शत्रुयन स कामक्रोधादिजेता अनुशयमयाद्यत्नात् शयमनुगतम् अनुशयम् हस्तगतम् अयमेवानुशयमयस्तस्मात् हस्तगतसंयमरूपरत्नात अविद्यायाः ममतायाः भ्रशं विनाशं लब्ध्वेति शेषः अनुकृतिकरः कायोत्सर्गविधायकः जटी निकटीभवन् वृक्ष इव सुखासुखस्पर्शनिवारणाक्षमो भवतीति शेषः ।। रामपक्षे-पथि गमनतः सीतामादाय मार्गे प्रसरतः समितिसमये संग्रामसमये लंकाधीशा रावणेन जटायुः अवध्यत सीतांप्रतिहत्तुं विक्रमन् पक्षी अहन्यतेति भावः कुत इत्याह दशाननकाण्डतः रावणबाणतः यत्नात् अरक्षपिताहितः लघुप्रतिहतरिपुः अनुकृतिकरः जटायुरिव Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजय मृत सूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २५७ सीतामोचनप्रवृत्तः अनुशयमयात् दीर्घद्वेषरूपात् रत्नात् रत्नभूतात् निकटीभवन् रावणसमीपं गच्छन् जटी रत्नजटीनामविद्याधरः विद्याभ्रंशं खेचरत्वादिनिजशक्तिभ्रंशं विनाशं भेजे लेभे ॥ कृष्णपक्षे-काधीशा के शरीरे अधीष्टे इति काधीट् तेन काधीशा अत्यन्त सुन्दरेण प्रद्युम्नेन पथि गमनतः छलेन रुक्मिणी हरणसमये युद्धमार्गावतरणतः जटायुः टरयोः साम्यात् जरायुः जराकुमारे सत्यभामातनये आयुर्जीवनम् प्रेम यस्य स कृष्णः अवध्यत निरुध्यत समितिसमये दशाननकाण्डतः प्रद्युम्नबाणतः ध्वंसं पराभवं भेजे लब्धवान् अरक्षपिता हितः क्षिप्रविनाशितारिः अनुकृतिकरः स्वरूपं विहाय विजातीयरूपवान् प्रद्युम्नः विद्याभ्रंशं मायाभ्रंशं कृत्वा जटी सन् निकटीभवन् कृष्णसमीपं गतः - सन् अनुशयमयात् पश्चात्तापरूपात् रत्नात् शत्रुभित्र किमेनमयुध्य इति चिन्तया यत्नात् प्रेमात् अरक्षदित्यर्थः ॥ ३१ ॥ शिरसि चिकुरश्रेणी वेणीलतेव गुरोर्गिरे स्तदनु सुभगा रेजे स्कन्धे पटीव पटीयसी । दिवमिव सखीं कर्तु प्रोच्चैः स्थितांहिनिनंसया, जलद पटलीवागाद् रागात्फणीवात[[नू ] नुरुचिः ॥३२॥ अन्वयः -- गुरोः शिरासे वेणीलतेत्र चिकुरश्रेणी तदनु सुभगा पटीयसी पटी स्कन्धे रेजे दिवम् सखीकर्तुमिव उच्चैः स्थिताः अंह्निनिनंसया अतनुरुचिः जलदपटलीव फणीव अगात् ॥ ३२ ॥ व्याख्या - गुरोः आदीश्वरस्य भगवतः शिरसि मूर्ध्नि चिकुरश्रेणी कुन्तलश्रेणी रेजे शुशुभे तामुत्प्रेक्षते वेणीति गिरेः शिखरिणः वेणीलतेव जलदपटलीव "वेणी केशरचना जलदपटलीति शब्दस्तोममहानिधिः" तदनु तदधोभागे स्कन्धे स्कन्धप्रदेशे सुभगा मनोज्ञा पटी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ महोपाध्यायनीमेघविजयगणिविरचित मसाधानमहाकाव्ये यसीव पटुतरेव पटी पटभेदः रेजे दिवमिव सखीं कत्तुं प्रोः स्थिता खर्गसख्यमुपगन्तुमिव उन्नतस्थानस्थिता अहिनिनंसया चरणनमने. च्छया अतनुरुचिः अतिशयकान्तिः निबिडच्छविः जलदपटलीच घनसंहतिरिव वा अथवा फणीव कृष्णसर्पसंहतिरिव अगात् अयासीत् उत्प्रेक्षालङ्कारः स्फुटं प्रतिभातीति ॥ रामकृष्णपक्षसाधारणमेतद् ॥ ___अन्यतीर्थकृतां पक्षे----गुरोः जिनेन्द्रस्य गिरेः प्रबजितपर्वतस्य शिरसि उर्ध्वप्रदेशे चिकुरश्रेणीव कचपंक्तिरित वेणीलता कुटिलनदी रेजे भातिस्म तामेवोत्प्रेक्षते स्कन्धे स्कन्धप्रदेशे सुभमा मनोहरा पटीयसी पदवी पटीव अन्यत् पूर्ववत् ॥ ३२॥ हरिचरसुरास्थाने नागःसशम्बलकम्बलः, प्रभुमनुचरन्नावि-स्थित्या सुखं चकृवान भृशम् । स्थितमुपवने सौभद्रेयोऽप्यविक्रिययान्वयात्, कतिचन समास्तेन स्वामी विहारमचीकरत् ॥३३॥ भन्वयः- हरिचरसुरास्थाने स शम्बलकम्बलः नागः प्रभुमनुचरन् नाबि स्थित्या भृशं सुख चकृवान उपबने स्थितं अविक्रियया सौभद्रेयः अपि अन्वयात् तेन स्वामी कति चनसमा: विहारमचीकरत् ॥ ३३ ॥ व्याख्या-स प्रसिद्धः नागः शम्बलकम्बलःशं कल्याणम् वलयति वर्धयतीति शम्बलः कम् सुखं च वलयतीति कम्बलः स्वकीयकल्याणमुखकारकः नागः श्रेष्ठः स्वात्मकल्याणविधायकत्वात् सौभद्रेयः सुभद्रायाः कल्याणगुणविशिष्टाया अपत्यम् सौभद्रेयः सुभद्रातनयः हरिचरसुरा. स्थाने चर्यते इति चरः हरजिनेन्द्रस्य चरः चरणम् विहरणमित्यर्थः तदेव सुरास्थानम् तीर्थस्थानम् तसिन् तीर्थभूते उपवने बाह्योद्याने आवि मनोहरे अथवा स्वबुद्धौ स्वकीयाभ्युदये स्थित्था स्वाभ्युदयका Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २५९ मनयेत्यर्थः स्थितम् समागतम् प्रभु जिनेन्द्रमनुचरणन सेवमानःभृशमतिशयम् मुखम् प्रीतिम् चकवान चकार अविक्रियया विकारराहित्येन निर्मायिकतयेति भावः अन्वयात् प्रभुमन्वसरत् तेन सह कति. चनसमाः कतिवर्षाणि यावत् स्वामी प्रभुः विहारम् विचरणम् अची. करत व्यदधत् ॥ ३३ ॥ श्रीमहावीरजिनेन्द्रपक्षे-हरिचरसुरास्थाने चरत्यनेनेति चरश्च रणा हरेः विष्णोश्वरः हरिचरः सुनोतीति सुरा सुधातोरोणादिकोरक्, नदी हरिचरस्य सुरा हरिचरसुरा गंगानदी तस्या विष्णोः पादप्रसूतस्वात् तस्याः स्थाने गंगानदीस्थाने स प्रसिद्धः शम्बलकम्बलः नागः नागकुमारः नाविस्थित्या प्रभुम् महावीरस्वामिनम् भृशमतिशयम् सुखं चकवान पूर्वभवसिंहजीवः साम्प्रतं सुदष्टनामा नागकुमारः पूर्ववैरमनुस्मरन् भगवन्तं व्यराध्यत तस्मादुपसर्गात् शम्बलकम्बलनामा नागः प्रभुम्रपाकृतेति कथासन्दर्भः उपवने स्थितम् बाह्योद्यानस्थं प्रभुम् सौभद्रेयः सुभद्रातनयो गोशालः अविक्रियया विकारराहित्येन अन्व. . यात् अनुगमोऽभवत् तेन सौभद्रेयेन गोशालेन सहेति शेषः स्वामी महावीरस्वामी कतिचनसमाः कतिवर्षपर्यन्तम् विचरणम् अचीकरत् व्यदधत् ।। ३३॥ कृष्णपक्षे-हरिचरसुरास्थाने चरत्यस्मिन्निति चरः हरे कृष्णस्य चरः हरिचरः कृष्णनिवासस्थानम् तदेव सुरास्थानम् देवास्थानम् तीर्थभूतमित्यर्थः स प्रसिद्धः तस्मिन् शम्बलकम्बलः कल्याणसुखवान् नागः श्रेष्ठः सौभद्रेयः सुभद्रातनयः अभिमन्युः प्रभु कृष्णम् अनुगच्छन् नावि स्थित्या नौकायां स्थित्या समुद्र जलक्रीडया भृशमतिशयं मुखं प्रीतिम् चकवान् अकुत उपवने रैवतकाद्रौ स्थितम् कृष्णम् अविक्रियया आनुकूल्येन अन्वयात अन्वसरत् स्वामी कृष्णः तेन सौभद्रे येण Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिले समसन्धानमहाकावे सह कतिचित्समाः कतिवर्षाणि विहारम् क्रीडाम् अचीकरत अरीरचत्॥ रामपक्षे-सौभद्रयो लक्ष्मणः, अन्यत्पूर्ववद्योज्यम् ॥ ३३॥ कृतगुरुतपा भूरीशानः प्रतिस्थलसत्कृतो, लघु वसुमती धात्री पात्रीचकार महासुदः। रजतसहितैर्माणैः स्वं चातुषत् तुषवर्जितै र्वनमपि घनं पुष्पासारैः ससौरभमादधे ॥३४॥ अन्वय:-कृतगुरुतपा ईशानः भूरि प्रतिस्थलसत्कृतः महासुदः लघु वसु. मती धात्री पात्रीचकार रजतसहितैषिः तुषवर्जितैः स्वम् अतुषत् धनम् वनमपि पुष्पासारैः ससौरभमादधे || ३४ ॥ -: व्याख्या :वर्द्धमानपक्षे-कृतगुरुतपाः कृतं गुरु महत्तपोऽभिग्रहरूपो नियमो येन स कृतगुरुतपाः ईशानैर्देवनूपैर्वा भूरि बहुशः प्रतिस्थलसत्कृतः सर्वत्र प्राप्तसत्कारः महासुदः असुम् जीवनं ददातीति असुदः जीवरक्षकः महांश्चासौ असुदश्चेति महासुदः निरतिशयजीवरक्षापरः लघु क्षिप्रम् वसुमती सुसमृद्धां धात्री पृथ्वीं पात्रीचकार विहारस्येति शेषः तुषवजितैनिर्दष्टेः द्रव्यादिचतुर्विधशुद्धै रजतसहितैः रज्यते निस्तुषीक्रियतेऽ. नेनेति रजतः मूर्पः तेन सहितैः मूर्पस्थैरित्यर्थः अथवा अत्यन्तस्वच्छै: मार्माषाः स्वम् स्वयम् अतुषयत् यथाभिग्रहलाभेन पूर्णव्रतत्वानुतोष घनं निविडम् वनम् आलयम् यद्वा बनरमण्यम् पुष्पासारैः पुष्पवृष्टिभिः ससौरभम् सुगन्धिमत् ससौगन्धिकम् आदधे चक्रे प्रभोस्तथाविधभिक्षादानेन परितुष्टो देवस्तत्रपुष्पवृष्टिम् विदधौ ॥ अन्यतीर्थकृतापक्षे--रजतसहितः अतिस्वच्छै मायः मपति क्षुधानिवारयती माषः "मषेः संज्ञागं घ" तैः क्षुन्निवारकैः तुषकर्जितैर्निर्मलैः निदोषैरन्यत् पूर्ववदवसेयम् । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिभणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २६३ ... .wwww................ ..... रामपक्षे–कृतगुरुतपाः कृतम् विरचितम् गुरोः पितुर्वचनादिति शेषः तपश्चतुर्दशवर्ष यावद्वनवासरूपं येन स भूरीशानः प्रतिस्थलसस्कृतः ईशानः राजभिः भूरि बहुशः प्रतिस्खलसत्कृतः स्थाने स्थाने कृतादरः महासुदः महद्विराजमानः रजतसहितैरतिवच्छैारःखम् खयम् अतुषत् धनम् वनमपि पुष्पासारैरिवेत्यर्थः ससौरभम् ससौगन्धिकम् आदधे आचके ॥ कृष्णपक्षे-कृतमाचरितम् गुरुषु पित्रादिषु तपः तदीयसेवारूपं नियमं येन स कृतगुरुतपा भूरि बहुशः ईशानः नृपैः प्रतिस्थलसत्कृतः कुतादरः महासुदः शोभमानः वसुमती यशोमती नन्दगोपपत्नीं धात्री पात्रीशकार पिबत्यस्याः स्तन्यमिति पात्री "पातेष्टन ततो डी" ताम् स्तन्यदात्रीश्चकार वनम् समुद्रजलम् पुष्पासारैः कुसुमवृष्टिभिः सौग. न्धवत् आदधे चक्रे ॥ ३४॥ हरिपतिरतेः खेटात् सीताविशुद्धिरजायत, रुचिरभवने-लङ्कालाभे सपुण्यजने वने । अधृत न हरेर्लोकः कं कं बलं विभवं गुणैः, ऋयिकवणिजामास्यादेव स्थितिर्विदिताऽप्यतः ॥३५॥ अन्वयः-हरिपतिरतेः खेटात् लंकालाभे सपुण्यजने बने रुचिरभवने सीताविशुद्धिरजायत हरेर्लोकः गुणैः कं के बलं विभयं न अपत भतः ऋयिकवगिजामायादेव स्थितिविदिता ॥ ३५ ॥ व्याख्या-हरति पापमिति हरि संयमध्यानं वा स एव पतिः तत्र रतिरनुरागो यस्य तस्य हरिपतिरतेः संयमैकचित्तस्य ध्यानैकमनसो वा जिनेन्द्रस्य खेटात् मुद्रातः कायोत्सर्गमुद्राधारणतः सीतायाः मोक्षलक्ष्याः विशुद्धिः शोधनम् अजायत अलम् अत्यर्थम् कालामे Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सससन्धानमहाकाग्ये कस्य आत्मनः आलाभे सर्वतः प्राप्तौ सर्वत आत्मज्ञाने लब्धे अभवने अगृहे स पुण्यजने पवित्रजनसहिते कनेऽरण्ये रुचिः प्रीतिः अजापत इति शेषः हरोजनेन्द्रस्य लोकः लोकते पश्यतीति लोकः दर्शनकर्ता गुणैः प्रभुदर्शनजन्यमहिमभिः कं कं बलम् आत्मबलं विभवं समृद्धिश्च न अधृत नालभत अत: जिनेन्द्रस्य "सार्वविभक्तिकस्तसिल्" आस्थादेवमुखदर्शनादेव स्थितिमर्यादा विदिता क्रयिकवणिजाम् क्रयविक्रयव्यापारवतां वणिजाम् आस्यादेव इवार्थकोऽत्र एव शब्दः यथा तेषां मुखादेव केषाश्चिन्महार्यता केषाश्चित् समर्घता विज्ञायते तथा प्रभुमुखदर्शनादर्शनाभ्यां भवतीति भावः ॥ रामपक्षे–हरिपतिरते खेटात हरीणां पतिः हरिपतिः सुग्रीवः तसिन रतिः अनुरागो यस्य तस्मात् खेटात् खे आकाशे अटती तसादाकाशचारितः हनूमतेः लंकालामे लंकानाम्नि सपुण्यजने सयातुधाने " यातुधानः पुण्यजनो नैक्रतो यातु रक्षसीत्यमरः" बने अशोकवाटिकाख्ये रुचिरभवने मनोहरमंदिरे सीताविशुद्धिः सीताया रामपत्न्या विशुद्धिर्मार्गणम् अजायत हरेः सुग्रीवस्य लोकः रामस्यानुचरो वा गुणैः शौर्यादिगुणैः कं के बलं सामर्थ्य विभवं प्रकाशं न अधृत न धारितवान् तथाहि ऋयिकवाणिजां आस्यादेव मुखादेव हनुमन्मुखाद् स्थितिः जानकी स्थितिविदिता ज्ञातेति भावः ।। कृष्णपक्षे-हरिपतिरतेः हरेः कृष्णस्य पतिः ज्येष्ठत्वेनाधिपतिः बलरामः तत्र रतिः राजविषयिका प्रीतिर्यस्य तस्मात् खेटात् आकाशचारितो दूतात् सीतायाः मदिरायाः विशुद्धिःशोधनम् अजायत अभवत् क इत्याह कम् जलम् आलभ्यते इति कालाभे जलपाये सपुण्यजने पवित्रजनसहिते अवने सुरक्षिते रुचिरभवने मनोहरगृहे हरेः कृष्णस्य पलस वा लोका गुणैः शौर्यादिभिः कं कं गुणं विभवश्च न अधृत न Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २६१ धृतवान अतः कृष्णस्य स्थितिः क्रयिकवाणिजामास्यादेव विदिता ज्ञाता। तिश्रुमुपगता दीव्यद्रूपा सुलक्षणलक्षिता, सुरबलभृताम्भोषावद्रौपदीरितसद्गवी । सुररववशाद भिन्नाद द्वीपानतेन समाहृता, हरिपवनयोधर्मस्यात्रात्मजेषु--पराजये ॥ ३६ ॥ __ अन्वयः --श्रुतिमुपगता दीव्यद्रुपा सुलक्षणलक्षिता सुरबलभृता अभ्भोधौ अद्रो पदीरितसद्गवी सुररववशात् भिन्नात द्वीपात् न तेन समाहृता हरिपवन. योधर्मस्य आत्मजेषु पराजये ।। २६ ॥ व्याख्या-श्रुतिमुपगता श्रुतिम् विख्यातिमुपगता प्राप्ता दीव्य. दूपा प्रकाशस्वरूपा स्वच्छेति यावत् सुलक्षणलक्षिता सल्लक्षणलक्ष्या सुरवलभृता सुराणान्देवानां यदलं तत् सुरबलं भरयाति अन्तर्भावि. तण्यर्थः देववद्धलप्रयोजिका अद्रौपदी अद्रौ पर्वते पद्यते उत्पद्यते इति अद्रौपदी गंगा सा अम्भोधौ इव समुद्रे इत्र इरितसद्गवी ईरिता गतिविषयीकृता या सद्गवी सती शोभना चासौ गौः पृथ्वी चेति तथा जिनेन्द्रविहारप्रचारपरिपूता भूमिः सुरवशात् सुष्टु राजन्ते इति सुराः नृपास्तेषां स्वः प्रार्थनाशब्दः तस्य वशात् तदनुकोल्यात भिन्नाव अन्यस्मात् द्वीपात् प्रदेशात् नतेन नभ्रेण समाहृता समानीता कमिन् इत्याह हरीति हरिः लक्ष्मीः पवनं पवित्रता तयोः लक्ष्मीशुद्धयोः धर्मस्य सुकृतेश्च आत्मजेषु प्रजावर्गेषु परं अत्युत्कृष्टं यजयं तसिन् अत्यु. स्मत्कटविस्तारायेत्यर्थः निमित्ते सप्तमी ॥ अथवा हरिपवनयोधर्मस्य पराजये अतिशयजयसंपादनाय आत्मजेषु कामेषु विषये पराजये निराकरणाय चेत्यर्थोऽपि श्लेषमहिना व्यज्यते ।। रामपक्षे-श्रुति श्रवणं उपगता लंकायां वर्तते इति विदितसमाचारा दीव्यद्रूपा प्रद्योतमानस्वरूपा सुलक्षणलक्षिता सौभाग्यलक्षण - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ महोपाध्यायश्रीमेषविजयगणिविरचिते सप्तसम्मानमहाकाव्ये वती असुरबलभृताम्भोधौ असुराणां राक्षसानाम्बलमेवाम्भोधिर्दुस्तारः सागरस्तस्मिन् अद्री पर्वते पदीव नदीव ईरितसद्गवी गमनविषयी भूताभूमिः यथा पर्वतनदी समुद्रगता सती पुनर्निर्गमनाऽयोग्या भवति तथेयमपि सीता राक्षससमुद्रगता पुनरावृत्तिदुर्लभैव जातेति भावः ॥ सुर इति सुरः ऐश्वर्य तस्य रववशात् गर्वतः ऐश्वर्यगर्वतः भित्रात् द्वीपात् नतेन कौटिल्येन "नतमाविद्धं कुटिलमिति हैमः" भिमात् द्वीपात् समाहता आनीता हरिपवनयोः धर्मस्य आत्मजेषु हरिः सूर्यः पवनो बायुः तयोः आत्मजः सुग्रीवो हनूमांश्च धर्मस्य आत्मजो रामः तेषु सुग्रीवहनुमद्रामेंषु विषये पराजये पराभवायेत्यर्थः॥ ___ कृष्णपक्षे-श्रुतिमुपगता श्रवणपथपथिकायमाना यद्वा श्रुतिम् नीतिशास्त्रमुपगताऽनुमृतादीव्यद्रूया दीप्तिदात्री ओजोगुणान्विता सुल. क्षणेन शब्दानुशासनलक्षणेन लक्षिता कृतानुसंधाना अथ च शब्दाल्पत्वेऽपि अर्थगरीयसी सुरवलभृताम्भोधा सुराणां देवांशभूतानां पाण्डवानां बलभृते प्रोत्साहने अम्भोधा मेघरूपा वेति वाक्यालंकारे द्रौपदीरितसद्गवी द्रौपदीकथितसद्वाणी सुररववशात् पाण्डववेगवशात् देवांशपाण्डवसंबन्धात् यद्वा तदनुसारतः भिन्नात् अन्यस्माद्वीपात् प्रदेशात् समाहृता तदानीं दुःखावस्थायामपि वीरमहितेव प्रोक्ता हरिपवनयोः धर्मस्य आत्मजेषु अर्जुनभीमयुधिष्ठिरेषु पराजये उत्कृष्टजयनिमित्ताय तेषु प्रोत्साहनमाधातुमित्यर्थः ।। ३६ ॥ सवितृतनये रामासक्ते हरेस्तनुजे भुजे, प्रसरति परे दौत्येऽदित्याः सुता भयभङ्गुराः । श्रुतिगतमहानादा-देवं जगुनिजमग्रजं, रणविरमणं लोभक्षोभाद्विभीषणकायतः ॥३७॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २६५ ____ अन्वयः-हरे जे तनुजे सवितृतनये रामासक्ते परे दौत्ये प्रसरति दिल्याः सुताभ यभंगुराः श्रुतिगतमहानादा: लोभक्षोभाद्विभीषणकायत: रणविरमणं देवम् निजमग्रज जगुः ॥ ३७ ॥ व्याख्या-हरेजिनेन्द्रस्य भुजे भुज्यते इति भुजम् कर्म तस्य भोगादेव क्षयत्वात् तस्मिन् भोग्यकर्मणि तनुजे अल्पीभूते कशीभूते "तनुर्देहे मूत्तौ अल्पे विरले कृशे चेतिशब्दस्तोममहानिधिः" सविता तनये सूयते प्रकाश्यते इति सविता भावे तृच्तम् तनोति विस्तारयतीति तस्मिन् प्रकाशविस्तारकारके विशेषत आत्मप्रकाशविस्तारके जिनेन्द्र रामे आत्मध्याने आसक्ते निमग्ने अत एव परे अत्युत्कृष्ट मोक्षे इत्यर्थः दौत्ये दूतकर्मणि प्रसरति ध्यानमेव मोक्षाय दूतकर्मकृदिति भावः दित्याः दातुं छेत्तुं योग्याः दित्याः सुताः मनसिजाः कामाः कामादयः भयभंगुराः भयभीता जाताः लोभक्षोभाद्विभीषणकायतः विभीषणकायता भयोत्पादककायोत्सर्गविधायकशरीगत् जिनेन्द्रात लोभक्षोभात् लोभस्य तद्विषयकजयाशारूपस्य क्षोभात् आघातात् जयाशा त्यागात् प्रत्युत निजपराजयभीतेः श्रुतिगत महानादा भयादेव महाशब्दकारका दीर्घविराविणः रणविरमणम् जिनेन्द्रतो विग्रहनिवर्तनम् निजमग्रजमग्रेसरं देवं द्योतनात्मकं मोहराजम् जगुः निवेदयामासुः जिनेन्द्रेण सह संग्रामनिवर्तनाय प्रार्थनां चक्रुरित्यर्थः ।। ३७ ॥ अर्थनिवन्धनेयं संक्षेति देवस्याप्यकथितकर्मत्वाद्वितीया । रामपक्षे सवितृतनये सूर्यपुत्रे सुग्रीवे रामासक्ते रामाधीने रामपक्षाश्रिते हरेर्वायोस्तनये पवनञ्जयपुत्र हनुमति भुजे बाहौ परे महति दौत्ये दूतकर्मणि प्रसरति विलसति दित्याः मुताः दैतेयाः राक्षसाः भयभंगुराः त्रासभुग्नाः श्रुतिगतमहानादाः आकर्णितमहानादाः हनुमत इति शेषः यद्वा युद्धाय सज्जीभूतानां श्रुतिगतमहाशब्दाः विभी. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरश्चिते ससन्धान महाकाव्ये पणकायतः विभीषणस्य कायतः वाक्यतः लोभक्षोमात् लोभस्य स्वात्मनि पुत्रादौ योऽभिनिवेशस्तस्य क्षोभात् प्रसरतः अथवा लोभः ममता क्षोभः भयादस्थैर्यचित्तचाञ्चल्यं तयोर्द्वन्द्रः तस्मात् रणविर - मणम् संग्रामनिवर्त्तनम् निजम् स्वीयम् अग्रजम् अग्रगण्यम् प्रभुमित्यर्थः देवं रावणम् जगुः निवेदयामासुः रामाद्युद्धं न विधातव्यमिति विभीषणमुखात् कथयामासुरित्यर्थः || ३७ ॥ २६६ कृष्णपक्षे – युद्धाय समागतं जरासंघ हंसको मन्त्री प्राप्तकालं निवेदयति सवितृतनय इत्यादि । सवितृतनये सूर्यपुत्रे कर्णे रामे बलरामे असते असमर्थे अप्रभवति रामसन्निधौ कर्णो न किञ्चित्कर इति भावः यद्वा रामेण परशुरामेण गुरुणा असक्ते युद्धसमये विद्याविस्मरणरूपदत्तशापे सति एतेन स कथंचिदपि युद्धाय न सक्त इति व्यज्यते परे महति हरेः कृष्णस्य तनुजे पुत्रे भुजे भुनक्तीति भुजस्तस्मिन् भोगशालिनि अथवा भुजे बले प्रसरति विलसति दौत्ये शोमकराजकर्तृकदूतक्रियायां अदित्याः देवक्याः सुताः कृष्णादयः भयभङ्गुराः भयं जरासन्धजन्यं त्रासं भङ्गुरयन्ति प्रतिनिवर्त्तयन्तीति तथा निर्भयाः सन्तीतिशेषः श्रुतिगत महानादाः आकर्णित कृष्णसैन्यसिंहनादाः लोभक्षोभात् लोभात् शरीरमोहात् क्षोभात् कृष्णेन सह संग्रामो मया कथं विधेय इति मनोदौर्बल्यात यद्वा अवश्यंभावी पराजय इति क्षोभात विभीषणका यतः अतिकृष्णत्वेन यद्वा भयजनकत्वेन कृष्णतः संग्रामविरमणम् युद्धनिवर्त्तनम् निजम् स्वकीयम् अग्रजम् अग्रगम् देवम् राजानम् जरासंधम् जगुः व्यजिज्ञपन् कथयामासुरित्यर्थः ॥ ३७ ॥ हरिरपि परावृत्त्या बद्धस्तदेन्द्रजितात्मना शिरसि चरणाधानाद वाताङ्गजः प्रतिवासवम् । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग - ५ सपदि सभयं चक्रे व विधौ दिनशङ्कया लघुरपि गिरा वैदेह्य समुद्रदृशेक्षितः ॥ ३८ ॥ अन्वयः - इन्द्रजितात्मना तदा परावृत्या हरिरपि बद्धः शिरसि चरणाधानात् प्रतिवासवम् वाताङ्गजः वक्रे विधौ दिनशङ्कया सपदि समयं चक्रे समुद्रशा गिरा वैदेह्यंगे लघुरपीक्षितः ॥ ३८ ॥ २६७ व्याख्या -- इन्द्रजितात्मना इन्द्र परमैश्वर्यम् जितः आत्मा यस्य स इन्द्रजितात्मा तेन जिनेन्द्रेण तदा परावृत्या पौनःपौन्येन हरिरपि कामोऽपि बद्धः निरुद्धः यदा यदा स प्रभवति तदा तदा प्रतिहतः कृत इति भावः शिरसि चरणाधानात् शिरसि मूर्ध्नि चरणस्य चारित्र्यस्य आधानात् स्वीकारात् "चरित्रं चरिताचारौ चारित्र्यचरणे ह्यपीतिहैमः " प्रतिवासवम् प्रतीन्द्रम् वाताङ्गजः आसन कम्पद्वारा देहकम्पः सपदि तदानीमेव सभयम् भयभीतम् चक्रे विदधे वक्रे विधौ दिनशङ्कया यदीयप्रभावेनासनकंपो जातस्तस्य वत्रे विधौ सति दिनशङ्कया छेदनशङ्कया तमवश्यं छेत्स्यामीति शङ्कया वै इति वाक्यालंकारे देाङ्गे देहिनामने लघुरपि शीघ्रमेव समुद्रदृशा अवधिज्ञानेन ईक्षितः दृष्टः कम्पनहेतुः अवधिज्ञानेन ज्ञात इत्यर्थः ॥ रामपक्षे - प्रतिवासवम् रावणप्रति शिरसि चरणाधानात् रावणमस्तके पादप्रक्षेपात् विजगीषुणा शत्रुनगरप्रवेशे प्रथमं दक्षिणपादन्यासो विधीयते स च शत्रुमूर्ध्नि पादन्यासो भवतीति युद्धशास्त्रवेदिदः, कृत्वामूर्ध्नि पदन्यासं, रावणस्य दुरात्मन इति वाल्मीकीयरामायणे" हरिरपि कपिरपि वाताङ्गजः हनूमान् इन्द्रजितात्मना मेघनादेन परावृच्या भूयो भूयः बद्धः संयमितः वैदेह्यंगे सीताङ्गे समुद्रदृशेक्षितः दीनदृष्ट्या सृष्ट: लघुरपि तुच्छोsपि दिनशङ्कया भयशङ्कया चक्रे विधौ सपदि समयं लङ्कावासिनं चक्रे विदधे ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्ये कृष्णपक्षे----इन्द्रजितात्मना परमैश्वर्यमधिकृता कृष्णेन हरिरपि कालीयोऽपि कंससखा नागः परावृत्या बद्धः संयमितः वाताङ्गनः भीमसेनः प्रतिवासवम् वसु अस्यास्तीति वासबो नृपः तम् प्रति विपक्षनृपं प्रति दुर्योधनादिकमुद्दिश्येत्यर्थः शिरसि चरणाधानात मूर्ध्नि पदन्यासान् बक्रे विधौ वामे विधौ अदृष्टे सति वै इति वाक्यालंकारे देह्यने समुद्रदृशा समुद्रविजयवात्सल्य दृशा ईक्षितः अवलोकितः लघुरपि कनीयानपि भीमः गिरा बाचा सभयं भयभीतम् दुर्योधनादिकम् चक्रे विदधे ॥ ३८॥ सुमनसि मनोवृत्तिनव्योपकारविधौ भवेत् तदितरमनोवृत्ति व्यापकारविधौ भवेत् । परसुरगति लब्ध्वा पूर्वः सुखं विलसत्यहः परशुरगति लब्ध्वा पूर्वः सुखं विलसत्यहः(?)॥३९॥ अन्ययः -- नव्योपकारविधी सुमनसि मनोवृत्तिर्भवेत् नव्यापकारविधी तदितरमनोवृत्तिर्भवेत् पूर्वः परसुरगति लब्ध्वा अहः सुखं विलसति अपूर्वः परशुरगति लब्ध्वा अहः सुखम् विलसति ॥ ३९ ॥ व्याख्या-नव्योपकारविधौ नव एव नव्यः स्वार्थे यत् सचासौ उपकारश्चेति नव्योपकारः तस्य विधौ विधाने नूतनोपकारकरणे सुमनसि मुष्ठु मनो यस्मिन् तस्मिन् निर्मलान्तःकरणे मनोवृत्तिव्यापारो भवेत् निर्मलहृदय एव उपकारविधिः प्रवर्तत इति भाव: नव्यापकारविधौ नूत्नाऽपकारविधी विरोधविधौ तदितरमनोवृत्तिः तदितरस्मिन् कलुषितान्तःकरणे वृत्तिरभिनिवेशो भवेत् जायेत तथाहि पूर्वः सुमनसि मनोत्तिः परसुरगति लब्ध्वा परा अत्युन्नता या सुरगतिर्देवगतिस्ता लब्ध्वा देवगति प्राप्य सुखम् निरुपद्रवं यथास्यात्तथा अहः दिनम् विलसति गमयति अपूर्वः परः तदितरमनोतिः कलु Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २६९ षितान्त:करणः परशुरगतिम् परस्मात् सूर्यते इति मुरा भावेऽप् तस्य गति मरणं लब्ध्वा आसाध अह इति खेदे सुखम् मुष्ठु खम्विषयेन्द्रियम् वैषयिकेन्द्रियवैधुर्य्यम् विलसति विषयसुखादिकमपि न लभते मृत्वा दुःखमापद्यत इति भावः ॥३९॥ खंविषयीन्दियमितिहैमः साधारणाभिधेयतया सर्वपक्षसाधारणमदो व्याख्यानम् ।। अतुलबलवान् मौनी वृत्त्या पराजितयाजनि जनितजनतानन्दो मन्दोदरीरमणे रते । किमुत महसा दीनं हीनं मलीनविधेर्वशात् सबलमबलं कर्ता रक्षोगणे शरणे रणे ॥४०॥ अन्वयः-अतुलबलवान् मौनी जनितजनतानन्दः अमन्दः दरीरमणे रते रक्षोगणे शरणे रणे मलीन विधेर्षशात् महसा दीनं हीनम् भबलम् सबलम् कर्ता अजनि ॥ ४० ॥ व्याख्या--अतुलबलवान् निरतिशयाध्यात्मिकशक्तिशाली मौनी मौनव्रतधारकः जनितजनतानन्दः जनित उत्पादितः जनतायाः जनसमूहस्य आनन्दः मुखं येन स अमन्दः अनलसः स्वाचारपरिपालनपटुः अपराजितया सर्वसहिष्णुतया वृत्त्या सर्वहितकारिकयेत्यर्थः दरीरमणे गिरिकन्दरारमणे रते अनुरक्ते रक्षोगणे शरणे राक्षसजने गृहे "शरणं गृहरक्षित्रोरित्यमरः" अरणे शब्दरहिते विषये पशुपक्ष्यादि. विषये अनुकूलेऽननुकूले वा विधिनिषेधरहिते किमुत किश्च महसा तेजसा हीनं तेजोहीनमत एव दीनं दुर्बलम् कुत इत्याकांक्षायामाह मलीनविधेदुरदृष्टस्य वशात् अधीनतः अबलम् निर्वलम् सबलम् रक्षाविधायकत्वात् बलवन्तं कर्ता अजनि अभूत् प्रभोः प्रभावात् परस्परविरोधपरिहारेण निर्बलोऽपि सबलो भवतीति भावः ॥ ४०॥ रामपक्षे-मन्दोदरीरमणे मन्दोदर्या रमणे रावणे रते अनुरक्त रयोगणे राक्षससमहे शरणे गृहे समीपे रणे संग्रामे मलीनविधेर्दुरदृष्टय Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकावे वशात् प्रभावात् महसा हीनम् निस्तेजस्कम अत एव दीनम् दैन्यमुपगतं सबलम् ससैन्यम् रावणम् अतुलबलवान् अपरिमितपराक्रमशाली मौनी मुनिव्रतवान् जनितजनतानन्दः विरचितलोकसमुदायसुखः रामः अबलम् दुर्बलम् कर्ता अजनि दुर्बलविधायकोऽभूत कयेत्याह अपराजितया अपराङ्मुखया वृत्या अच्छलेनेतिभावः ॥४०॥ कृष्णपक्षे-रक्षीगणे शरणे राक्षसजनावलम्बेरणे असंग्रामे मन्दो. दरीरमणे मन्दम् कृशम् उदरं यस्याः सा मन्दोदरी जीवद्यशा जरासंघदुहिता तस्या रमणे वल्लभे कंसे रते विरते मृते सति जनितजनता. नन्दः कृतलोकाहादः मौनी मौनव्रतवान् अतुलबलवान् विपुलपराक्रमशाली कृष्णः अपराजितया वृत्या कदाचिदप्यपराङ्मुखवृत्त्या मलीनविधेर्वशात् महासा हीनं दीनम् अबलम् दुर्बलम् यादवम् कंसभयादितस्ततो भ्रमन्तम् सबलम् बलसहितम् कर्ता अजनि सबलवि. धायको जात इत्यर्थः॥४०॥ अमृतमपि तन्मन्योर्दूरादभूदमृतवता दमृतमदधात् स्वस्मिन्नेवं परात्मनि तुष्टये । अमृतरुचिवदेवोऽपूर्वो यशोऽनुदिशं नयदमृतनिधिना यन्मर्यादा ययौ ससुतां भुवम् ॥४१॥ अन्वयः-मन्योः अमृतत्रतात् तत् अमृतमपि दूरात् अभूत् अमृतम् स्वस्मिन् परात्मनि तुष्टये अधात् अपूर्वो देवः अमृतरुचिवत् यशः अनुदिशम् नयत् स अमृतनिधिना यन्मर्यादा तां भुवम् सु ययौ ॥ ४ ॥ व्याख्या-मन्योः मन्यते जनैरितिमन्युः मन्यतेरोणादिको युः तस्मात् जगन्मान्यात् अमृतव्रतात् अमृते मोक्षे प्रतं नियमो यस्य तस्मादमृतवतात अमृतम् अयाचितं वस्तु दूरादभूत् दूरङ्गतम् अया Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतपूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २७॥ A .. ... चितस्यादत्तादानत्वेन पापजनकत्वात्सर्वथा तं जहावित्यर्थः स्वस्मिन् परात्मनि तुष्टये अमृतम् जलम् अधात् धृतवान् अमृतरुचिवद् चन्द्र इव अपूर्वो देवः सर्वोत्कृष्टो देवो जिनेन्द्रः यश अनुदिशम् प्रतिदिशम् नयत स जिनेन्द्र : अमृतनिधिना समुद्रेण यन्मर्यादा आश्रितेतिशेषः सु इति पादपुष्टौ तां मर्यादाम् भुवमतिशयाम् ययौ प्राप समुद्र इव गांभीर्य आसीदिति भावः ॥ ११ ॥ रामपक्षे तन्मन्योः तस्य रावणस्य मन्योः क्रोधात अमृतव्रतात् अमृतं व्रतयतीति अमृतत्रतः अमृतभोजी देवस्तस्मात् दुरात् अभूत् पृथक् अभूत् रावणभयात्तेषाममृतं दुर्लभं ययौ स्वस्मिन् स्व. शरीरे एवम् परात्मनि पुत्रादौ तुष्टये मुखेन जीवनाय अमृतम् अमरणम् अधात् कदाचिदपि न म्रिये इत्येवं निश्चयमकृत नाधिकार। कृतान्तस्य दशकंधरमन्दिरे इत्यभियुक्तोक्तेः अपूर्वः अतुलपराक्रमः देवो रावणः अमृतरुचिरिव चन्द्र इत्र अनुदिशं प्रतिदिशं यशः नयत् प्राख्यापयत् स रावणः सु सुष्टु यथास्यात्तथा अमृतनिधिना सागरेण यन्मर्यादा यस्या मर्यादा सीमा तां भुवम् तादृशी भूमिम् लंकां ययौ तत्र तस्थौ ॥ ४१ ॥ कृष्णपक्षे- अमृतव्रतात् अमृतमयाचितं व्रतयति निवर्तते इति अमृतव्रतस्तस्मात् मन्योः मान्यात् कृष्णात् अमृतं जलम् दूरात् अभूत् द्वारकानिर्माणाय जलं दूरङ्गतम् अमृतम् देवम् स्वस्मिन् एवम् परा. स्मनि तुष्टये अधात् अस्थापयत् "अष्टोत्तरशतेनोचैर्जिनबिम्बैर्विभूषितम् मेरुशृङ्गमिवोत्तुङ्गमणिरत्नहिरण्मयमितितच्चरित्रे" अमृतरुचिवत् अमृतांशुरिव अपूर्वो देवः कृष्णः यशः अनुदिशम् नयत यन्मर्यादा यदीयनगरसीमा अमृतनिधिना सागरेण अकृतेति शेष: सु सुष्ठु तां भुवम् द्वारकां ययौ अध्युवास ॥ ४१ ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाचे बलमविरलं तेनोद्योगात् तदा विरलं कृतं विविधविषयव्यामोहस्य व्यपासनतापसात् । प्रकृतिशिशिरं दृष्ट्वा स्वस्योपदेशविधिं ततो जनपदमपि प्राहुस्तीथ तदा कलिकुण्डिनम् ॥४२॥ ___अन्वयः--विविधविषयव्यामोहस्य ग्यपासनतापसात् तेन उद्योगात् अविरलं बलं विरलं कृतम् स्वस्य प्रकृतिशिशिरम् उपदेशविधि दृष्ट्वा तदा कलिकुण्डिनं जनपदमपि तीर्थं प्राहुः ॥ ४२ ॥ व्याख्या-विविधविषयव्यामोहस्य विविधविषये अनेकविषये वस्तुनि यो व्यामोहः प्रेमा अभिरुचिरित्यर्थः तस्य यद्वथपासनम् दूरीकरणम् परित्याग इति यावत् तस्मै व्यपासनाय यस्तापसस्तपश्वरणम् तस्मात् मोहनिवारकतपोऽनुष्ठात् तेन जिनेन्द्रेण प्रभुणा तदा साधुत्वदशायां अविरलं निबिडम् बलम् सैन्यम् राज्यावस्थानुकूलं सैन्यादिकम् कामक्रोधादि विषयवलम् वा विरलम् कृशम् कृतम् तनूकृतम् स्वस्य आत्मनः प्रकृतशिशिरम् स्वभावशीतलम् उपदेशविधि प्रवृत्तिविधिमाचारमित्यर्थः दृष्ट्वा विलोक्य तदा जिनेन्द्रसमागमदशायाम् जनपदमपि यस्मिन् प्रभुस्समेति तमगरमपि कलिकुण्डिनम् कलिनिवारकम् कलिदाहक वा तीर्थम् तीर्थभूतमतिशयपावनमित्यर्थः प्राहुः प्रोचुः जना इति शेषः ॥ ४२ ॥ रामपक्षे-विविधविषये राज्यकालिकानेकस्रक्चन्दनादिविलासहस्त्यश्वादिपदार्थे यो व्यामोहो ममत्वबुद्धिस्तत्तद्विषयकाभिनिवेशस्तस्य यद्यपासनं निरसनम् तदेव तपः व्रतम् तत्र साधुः तापसस्तस्मात् अनेकमनोहरवस्तुनिरसनतपोयोगात् तेन रामेण उद्योगात् उद्यमात् विरलम् विच्छिन्नम् असंचितमित्यर्थः बलम् वानरीयसैन्यम् अविरलम् निबिडं घनीभूतं संचितमितियावत् कृतं विरचितम् Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २७३ स्वस्य स्वकीयस्य उपदेशविधिम् विधीयते यत्र स विधिः देशस्य समी पमुपदेशम् तयोः कर्मधारय इति विधियमानदेशम् स्वशासनशासितभूप्रदेशम् प्रकृतिशिशिरम् स्वाभाविकनिर्मलं दृष्ट्वा तदा दर्शनदशायां कलिकुण्डिनम् कलिनिवर्तकं जनपदमपि नगरमपि तीर्थम् तीर्थभूतम् प्राहुर्जगुः ॥ ४२ ॥ कृष्णपक्षे-विविधविषयव्यामोहस्य अचिरसमावेसितनिजनगरवस्तुजातसंपादनरूपचिन्तनस्य व्यपासनम् व्यापनमेव तपश्चित्तैकाय्यता तदेव तापसस्तस्मात् हेतोः तेन कृष्णेन उद्योगात् प्रयासात् व्यापारविशेषात् विरलम् छिन्नभिन्नम् बलम् यादवसैन्यम् अविरलम् सन्नद्धं दुःप्रधणं कृतम् विधापितम् स्वस्य स्वकीयस्य उपदेशविधम् निवासभूमिम् प्रकृतिशिशिरम् स्वतो निर्मलं दृष्ट्वा कलिकुण्डिनम् पापनिवारकम् जनपदम् द्वारकापुरम् तीर्थम् पूतम् प्राहुः कथयन्तिस्म ॥ ४२॥ तदनु जनपे क्षित्या हत्या न-मेऽस्तु हरेररे स्तदपि वचसा वकं चक्रं विमोक्ष्यति का गतिः । हतनिगरणात् तेनास्तेनाऽमुनाऽनलके मते दिवि सुमनसां वृष्टि विन्यहो शिरसो नतेः ॥४३॥ ___ अन्वयः-जनपेक्षित्या हरेः अरेः मे हत्या न अस्तु वचसा तदपि वक्र चक्रं विमोक्ष्यति का गतिः हतनिगरणात् अस्तेन तेन अमुना अनलकेमते शिरस उपरि नतेः दिवि सुमनसां वृष्टिर्भाविनी ॥ ४३ ॥ व्याख्या-तदनु तत्थात् जनपेक्षित्या जनान् पाति रक्षतीति जनपः जनरक्षकः तस्य ईक्षितिरीक्षणम् तया जनरक्षकदृष्टया हरेः कामस्य अरेः विनाशकस्य जितकामस्य मे मम हत्या जीवहिंसा न अस्तु नैवभवतु वचसा तदपि वचनेनापि तद् हिंसनम् नास्सु न च कायेन न च Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये वाचेत्यर्थः वचसापि तद् वचनेनापि हिंसनम् कर्तृ वक्र कुटिलम् चक्रम् विमोक्ष्यति चक्रप्रहारं करोतीति भावः “संभावनायां लद्" अत्र विषये का गतिः क उपायः अनिवार्यमेतदित्यर्थः अत इति शेषः हतनिगरणात् हतस्य हतशब्दस्य निगरणात् निगालात् सर्वथा अव्यवहारात् अस्तेन अस्तभृतेन अदर्शनेनेत्यर्थः अमुना हतशब्दनिगरणेन तेन हेतुना अनलके मते अनल एवानलकस्तस्मिन् अग्निरूपे मते यथाऽनिच्छयापि स्पृष्टोऽग्निर्दहति तथा हतशब्दप्रयोगोऽपि रदृष्टम् जनयतीति भावः अत एव नतेनम्रस्य सर्वत्र कृतमैत्रस्य शिरसो मूर्ध्न उपरीतिशेषः दिविसुमनसा देवकुसुमाना अहो इत्याश्चर्ये वृष्टिः वर्षणम् भाविनी संभाविता सर्वत्र नतान् देवा अप्यनुगृह्णन्तीतिभावः ॥ ४३ ॥ रामकृष्णपक्षे---हरेः मे हरिनाम्नो मम जनपेक्षित्या जनरक्षकदृष्टया लोकपालकत्वेन अरे: शत्रोः हत्या हिंसा न अस्तु नैव स्ताद शेषं पूर्ववत् ॥ ४३ ॥ शृणु मम वचो राजन् ! मुश्चारुचिं वसुधासुतां कुरु गुरुकुलं नानीतावाकुलं धनसंकुलम् । इति लघुगिरा क्रुद्धे युद्धे स्थिरे स-दशानने बलमलभताऽस्योपास्यायै गणेण विभीषणः ॥४४॥ अन्वयः- हे राजन् ? वसुधासुताम् अरुचिं मुञ्च ना नीती अकुलम् धनसंकुलम् कुलम् कुरु इति लघुगिरा स दशानने ऋधे युद्धे स्थिरे सति अस्योपास्यायै गणेन विभीषणः बलम् अलभत ॥ ४४ ॥ व्याख्या हे राजन् ? देदीप्यमानप्रभो ? जिनेन्द्र ? वसुधासु चम रश्मि धारयतीति वसुधा तीक्ष्णतेजोधारणशक्तिः तासु तीक्ष्णतेजोधारणासु ताम् प्रसिद्धामतिशयितामित्यर्थः अरुचिम् अप्रीतिम् मुश्च त्यज अन्यथाऽतिमृदोस्ते मोहादिः पगभवं कुर्यादितिभावः अत एव धनसं. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २७५ कुलम् तपोधनव्याप्तं शुरुकुलम् चारित्र्यम् अतीतो मोहराज्यनीतौ मोहादावित्यर्थः न कुरु न विदधीहि इति लघुगिरा अल्पस्मारणेनैव सदशा. नने सर्वतो भावे क्रुद्ध युद्धे मोहराजेन सह युद्धे स्थिरे निश्चले वीरायिते प्रभौ गणेन स्वीयधैर्यादिगणेन विभीषणः मोहराज प्रतिभयानकः बलम् आभ्यन्तरिकबलम् अलभत अप्राप्नुत ।। ४४ ॥ रामपक्षे हे राजन् ? नृप ? भ्रातः ? राजते सदसद्ग्रहणेन शोभते इति राजा तत्संबुद्धौ अनेन उपदेशताहेता तस्मिन् व्यज्यते मम यौनसम्बन्धिनः न तु मंत्रिण पत्र ते च भयादितः कदाचिन सदुपदिशन्ति अहन्तु न तथेति गर्वः वचः वचनम् सदुपदेशं शृणु समाकर्णय किमित्याशंक्याह मुश्चेति अरुचिम् नास्ति रुचिः रावणविषयकाभिलाषो यस्या सा अरुचिस्ताम् यद्वा न रोचते जनेभ्यः परस्त्रीत्वाद्या ताम् अप्रसन्नाम् अननुरागिणीमित्यर्थः वसुधासुताम् भूमितनयाम् जानकीम मुश्च त्यज तद्विपयकाभिलाषं मा कुरु तथाहि धन. संकुलम् धनेन सर्वसंपत्त्या संकुलं समृद्धम् गुरुकुलम् सर्वतोऽवदात्तं निजवंशम् अनीतौ परस्त्रीधर्षणरूपान्याये आकुलमस्तव्यस्तम् विपद्प्रस्तम् न कुरु न विदधीहि इति उक्तरूपम् लघुगिरा लघोः कनिष्ठभ्रातु: गिरा वचनेन यद्वा लघुगिरा क्षुद्रवचनेन कायरजनवचनीयवचनेन क्रुद्धे सद्यः कोपसमाविष्टे युद्धे संग्रामविषये स्थिरे निश्चले दशानने रावणे सति यावत् प्राण न दास्यामि मैथिली भीतभीतवदितिकृतनिश्चये स विभीषणः अस्य रामस्य उपास्याय सेवाय अवलम्बनाय गणेन स्वीयपरिवारेण अस्य रामस्य बलम् सैन्यम् अलभत अप्राप्नोत् रामसंगतोऽभवत् ॥ ४४ ।। कृष्णपक्षे-कंसवधसंतप्तो जरासंधः कृष्णानयनाय सोमकं राजानं समुद्रविजयादिकं प्रति प्रेषीत स च तं प्रत्याह "शविति” । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सनसन्धानमहाकावे हे राजन् ! समुद्रविजय ? अस्य मम वचः जरासंघसंदेशरूपम् शृणु अवधारय मुश्च कृष्ण मिति शेषः जरासंध प्रति कृष्णं प्रहिणु अथ च अरुचिं कृष्णत्यागरूपं वैमनस्यं मुश्च त्यज वसुधामु स्वकीयराज्यभूमिषु तां कृष्णप्रीतिम् कुरु कृष्णाऽत्यागात् राज्यहरणमवश्यम्भावीतिभावः गुरुकुलम् महद्यादववंशं धनसंकुलं धनधान्यसमृद्धं अनीतौ कृष्णाऽग्रेषणरूपापराधे आकुलम् विपर्यस्तम् विपद्ग्रस्तम् न कुरु न विधेहि इति लघुगिरा नीचवाक्येन स समुद्रविजयादिः दशानने दशदिशि सर्वतः क्रुद्धे युद्धे स्थिरे गणेन सैन्येन विभीषणः भयानकः अस्य जरासंधस्याऽपास्यै निरसनाय बलं सैन्यम् अलभत अचिन्वत ॥ ४४ ॥ अवगमनतः पुत्री जीवद्यशा अवशाऽवदद् मनसि चरितं मत्वा भूपः प्रयाणमधात् पुरः। त्रिभुवनगुरोः स्मृत्या दृष्यविभूष्य हयद्विपं सपदि पदिकानग्रे कृत्वा ययौ विजयाशयः॥४५॥ अन्वयः – अवगमनतः पुत्री जीवद्यशा अवदत् अवसा भूपः मनसि सरितं मत्वा पुरः प्रयाणम् अधात् त्रिभुवनगुरोः स्मृत्वा हयद्विपं दूष्यैर्वि भूज्य विजयाशयः पदिकान् अग्रे कृत्वा ययौ ॥ ४५ ॥ व्याख्या---अवगमनतः अवगम्यतेऽनेनेति अवगमम् ज्ञानम् तस्मिन्नतो लग्नः इति अवगमनतः ज्ञानसंलग्नः पुत्री पुनात्यात्मानमिति तथोक्तः आत्मकल्याणकारकः जीवत् त्रिकालवर्तमानं यशः कीर्तियस्य स जीवद्यशा स्थिरकीर्तिः अवसा नास्ति वसो वसनं यस्य स शसयोरक्यात् , अवदत् प्रयोजनातिरिक्तवचनरहितः भूपः भुवम् भूमिस्थजीवम् पातीति भूपः जीवजातरक्षकः मनसि चित्ते चरितं व्रतकर्मचेष्ठितं मत्वा बुध्या 'चरितमनुष्ठाने संचारे व्रतकर्मादौ चेष्ठिते Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २७७ लीलादाविति शब्दस्तोममहानिधिः" प्रयाणं विहारम् पुरः अग्रे अधात् अकृत हयद्विपम् हये मागे "हयो घोटके पथि चेति शब्दस्तोममहानिधि:" द्विपम् द्वाभ्यां कराभ्यां पिबतीति तम् जिनेन्द्रस्य करपात्रत्वात् हये मार्गे स्थितं द्विपम् हयद्विपम् दृष्यदेवदृष्यदेवपटैर्विभूष्य विभूषितमित्यर्थः त्रिभुवनगुरोः स्मृत्वा कर्मणोऽविवक्षया षष्ठी त्रिभुवनगुरुं स्मृत्वा विजयाशयः कामादिविजयेच्छुः पदिकान् पादचारकान् मुनीन् अग्रे कृत्वा अग्रेसर विधाय ययौ चचाल ॥ ४५ ॥ रामपक्षे-पुत्री जनकपुत्री जीवधशा जीवत् सफलीभवत् यसः प्रयत्नो यस्याः सा प्रयत्नलभ्या इति अवगमनतः ज्ञानतः कथंभूता अशा परवशा इति मनसि हृदये चरितं तदीयचेष्टितं मत्वा बुध्या पुरः अग्रे प्रयाणम् अधात् अकरोत् त्रिभुवनगुरोः स्मृत्वा त्रिभुवनगुरुं स्मृत्वेत्यर्थः जिनेन्द्रं संस्मृत्य यद्विपं हये मार्गे द्विपमिवेति गजसन्निभं अध्यैः शोभनैर्विभूष्य अलंकृत्य सपदि शीघ्रं पदिकान् पादचारान् अग्रे कृत्वा अग्रेसरं विधाय विजयाशय: जयाभिलाषी सन् ययौ जगाम ॥ ४५ ॥ कृष्णपक्षे--अवगमनतः यवनद्वीपादागतैः कैश्चिद्वणिग्भिरकापुर्यां मम पस्युर्विनाशकारी कृष्णो जीवतीति ज्ञानतः अवशा शोकपरक्शा निजशत्रुजीवनश्रवणेन समधिकशोकमग्ना पुत्री मगधराजकन्यका जीवधशा तदभिधाना अवदत् कृष्णवृत्तान्तं स्वपित्रे न्यवेदयत् ततः विजयाशयः विजयाभिलाषी भूपो जरासंधः मनसि चरितं मत्वा मनसि स्त्रहृदये चरितं निजजामातृहननरूपं कृष्णवृत्तान्तं मत्वा विचार्य पुरः अग्रे तत्क्षणमेव प्रयाणम् यात्रामधात् अकृत त्रिभुवनगुरोः जिनेन्द्रस्य स्मृत्या स्मरणेन दृष्यैर्वस्त्रनिर्मितगृहै: हयद्विपम् हयाश्च द्विपाश्चेति हयद्विपम् सेनाङ्गत्वादेकवद्भावः विभूष्य मण्ड Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये यित्वा सपदि शीघ्रम् पदिकान् पादचारिसैन्यान् अग्रेकृत्वा पुरतो विधाय ययौ द्वारका प्रति चचाल || ४५ क्वचन फलितारामे रामे विराममना रिपो. विनतशिरसां राज्ञां जैनोपहारविधि दधत् । चलति तु रजश्चके केतुं श्रिया हरिदम्बरावरणकरणैः साक्षाद्रेजे क्षमाधनदर्शने ॥ ४६॥ अन्वयः-- वचन फलितारामे रामे रिपोविराममनाः विनतशिरसां राज्ञां जैनोपहारविधिं दधत् चलति तु रजः हरिदम्बरावरणकरणः श्रिया केतु चके क्षमाधनदर्शने साक्षानेजे ॥ ४६ ॥ व्याख्या-रिपोः शत्रोः विराममनाः विरामे विजये मनो यस्य स शत्रुरूपकर्मादिविजयकामुकः क्वचन कुत्रापि रामे मनोहारिणि फलितारामे फलितः संजातफलो य आरामः उपवनम् तस्मिन् फलान्वितबाह्योद्याने विनतशिरसां विशेषेण प्रभुगत भक्त्या नतानि नम्राणि शिरांसि येषां तेषां राज्ञां नृपानां जैनोपहारविधि जैने जैनशासने य उपहारा उपढौकनानि वन्दनानि वासाधुपयुक्तान्यनुमत्यादयस्तेषांविधि विधानं दधत् धारयत् स्वीकुर्वन् चलति विहरति सति विहारकाले रजः पादोत्थितरजः हरिदम्बरावरणकरणैः हरिश्च अम्बरश्च हरि. दम्बरे तयोरावरणकरणैः आच्छादनकारकै दिगाकाशावरकैः हेतुमिः श्रिया शोभासंपत्या केतुं चक्रे पताकां विदधौ प्रभोः सार्ध अनेकेषां साधूनां विहरणात् रजोबाहुल्येन दिगच्छादकत्वमिति भावः क्षमाधनदर्शने मुनिजनदर्शने साक्षात् सद्यः रेजे शुशुभे तुतोष ॥ ४६॥ रामकृष्णपक्ष-विराममना रिपोः रिपुदमनेच्छस्य कृष्णस्य च कचन फलितारामे रामे फलान्विते मनोरमे उपवने विनतशिरसां नतकंधराणाम् राज्ञाम् भूपानाम् सकासात् जैनोपहारविधिम् जैन Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २७९ सपर्या विधिम् दधत् विधापयत् अथवा विनतशिरसां राज्ञां जैनोपहा रविधिम् जैनप्रशस्तोपहारविधिम् उपढौकनानि दधत् धारयत् क्षमा धनदर्शने साधुसमागमे साक्षात् सर्वात्मनो रेजे चलति तु सैन्येन सह प्रचलति सति रजः सैन्यपदोस्थितधूली हरिदम्बराबरणकरणैः दिगाकाशाच्छादकैः श्रिया केतुं चके केतुं विदधौ ॥ ४६॥ क्वचन रचयन् वन्यान् धन्यान् वदान्यधिया धनरनुपदभुजि स्थाने वृष्टैर्हिरण्मयसाधनैः । जनपदगतं स्वैरं वैरं हरन् विहरन्निति प्रभुरनुपमच्छायं कायं दधौ कलधौतरुक् ॥ ४७ ॥ अन्ययः-क्वचन अनुपदभुजि स्थाने हिरण्मयसाधनैः वृष्टैः धनैः वदान्यधिया चन्यान् धन्यान् रचयन् विहरन् जनपदगतं स्वैरं वैरं हरन् कलधौतरुक् प्रभुः अनुपमच्छायं कायं दधौ ॥ ४० ॥ व्याख्या-कचन कुत्रापि अनुपदभुजिस्थाने भुज्यते इति भुजिर्भो ज्यम् तस्य स्थाने भिक्षालाभस्थाने यत्र प्रभोभिक्षा मिलति तत्र स्थले हिरण्मयसाधनैः स्वर्णमयकृतैः काञ्चनप्रचुरैः वृष्टैः वृष्टिभूतैः देवेन्द्रकुतस्वर्णरत्नादिवृष्टिभिः धनैः अन्नप्रचुरैश्च संपद्भिः वन्यान् बने तदालये भवान् तदालयगतान् यत्र जिनेन्द्राणां भिक्षा मिलति तदालयगतानित्यर्थः “वनम् वृक्षसमुदाये जले निवासे आलये चेति शब्दस्तो. ममहानिधिः" अथ च वन्यान् आरण्यकान् वदान्यधिया अत्युदारमत्या धन्यान् श्रेष्ठान भाग्यवत्तादिगुणविशिष्टान् कृतकृत्यान् रच. यन् विदधत कुर्वन्नित्यर्थः विहरन् बिहारं कुर्वन् जनपदगतम् नगरस्थं यत्र जिनेन्द्रो गच्छति तनगरगतवैरम् विरोध काकोलूकवत् शाश्वति. कमपि वैमनस्यम् स्वैरम् यथेच्छम् अनायासेन स्वचंक्रमणप्रभा. वेनेति तात्पर्यम् हरन परिहरन त्याजयन् प्रभुर्जिनेश्वरः कलधौतरुक् Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाचे काञ्चनवर्णः अनुपमच्छायम् अनुपमा उपमातुमयोग्या निरुपमेत्यर्थः छाया कान्तिर्यस्य तं कायं देहं शरीरं दधौ दधातिस्म साधुदशायाम. नियतविहाराहाराभ्यामपि रुक्षदेहसम्भवे तपोमहिना स्वर्णवर्णदेई प्रभोर्वभूवेति तात्पर्यम् ॥ ४७ ॥ रामकृष्णपक्षे-वदान्यधिया अत्युदारमत्या वन्यान् वनेभवान् कचन कापि धन्यान् धनसहितान् यद्वा कृतार्थान् विदधत् विरचयन् किश्च अनुपदभृजिस्थाने पदे पदे इति अनुपदम् भुजेः भोग्यस्य स्थानम् भुजिस्थानम् अनुपदश्च तत् भुजिस्थानञ्चति तस्मिन् हिरण्मयसाधनै स्वर्णमयोपकरणैः वृष्टैः निसृष्टैरुपलक्षितः जनपदगतं स्वाभिमुखनगरस्थितं वैरं विद्वेषं हरन् परिहरन् विहरन् निर्गच्छन् प्रभुः रामः कृष्णश्च कलधौतरुक् स्वर्णकान्ति: अनुपमच्छायं निरुपमकान्तिम् कायम् शरीरम् दधौ अवाललम्बे ॥४७॥ विहगविरुतैर्नुन्नो भिन्नक्रमरतिविक्रमः क्रमपरिचिते भूमीभागे सुभोगिजनागमे। विहतकलहा-देशे देशे कृतस्थितिमाश्रये परिजनगणे नागस्थाने नृपो ध्रुवमुन्मनाः ॥ ४८ ॥ ___ अन्वयः-विहगविरुतैर्नुन्नः भिन्नक्रमरतिविक्रमः उन्मनाः नृपः क्रमपरि. चिते सुभोगिजनागमे भूमीभागे विहतकलहादेशे देशे परिजनगणे नागस्थाने माश्रये ध्रुवम् स्थितिम् अकृत ॥ ४८ ॥ व्याख्या-विहगविरुतैः विहायमा गच्छतीति विहगः पक्षी तस्य तेषां वा विरुतैः प्रातःकालिकमधुरकूजनैः नुन्नः त्यक्तनिद्रः अथ वा विहगानां बाणानां विरुतैः शब्दैः नुन्नः खिन्नः यद्वा विहमानां कोकिलादिकामोद्दीपकपक्षिणां विरुतैः नुन्नः उद्वेजितः अभिः नक्रमरतिविक्रमः अभिन्नः अविच्छिन्नः क्रमरतौ विहारव्यापारे Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिमणीता सरणी टीका. सर्ग- ५ २८१ विहारविधौ विक्रम उत्साहो यस्य स सन्नतविहारप्रेमवान् उन्मनाः उत् उच्चैः मोक्षादौ मनश्चित्तं यस्य स उच्चाभिलाषी नृपः नृन् पातीति नृपः जीवेषु प्राधान्यात् तन्निर्देशः प्राणिमात्ररक्षकः जिनेश्वर इत्यर्थः।। क्रमपरिचिते क्रमेण गमनेन परिचिते जातपरिचये अथवा क्रमात क्रमशः परिचिते जात विश्रंभे सुभोगिजनागमे समृद्धशालिजनशालिनि भूमीभागे भूविभागे विहतकलहादेशे सर्वथाशान्तकलहे देशे स्थाने परिजनगणे परिजनानां गणः समुदायो यत्र नागस्थाने पर्वताश्रये यद्वा वृक्षागमे वृक्षाश्रये स्थितिम् स्थानम् सन्निवेशम् अकृत व्यधात् अत्रानुप्रासालंकारः ।। ४८॥ रामपक्ष-विहगविरुतैः पक्षिशब्दैः नुन्नः कृतत्वरः त्यक्तनिद्रो वा भिन्नक्रमः अन्यक्रमः रतिविक्रमः अनुरागक्रमः यस्य स सीतावि. रहात विप्रलंभरूपः क्रमपरिचिते क्रमेण गमनेन परिचिते जातपरिचये सुभोगिजनागमे सुखसौभाग्यवति अनाश्रये भूमीभागे भूप्रदेशे विह तकलहादेशे विनष्टकलहके देशे परिजनगणे परिचारकजनमहिते ना. गस्थाने पर्वतप्रदेशे आश्रये आश्रमे उन्मनाः सीताविरहखिनचेताः नृपः रामः कृतस्थितिमा कृतनिवास आसीदिति शेषः ॥ ___ कृष्णपक्षे-जरासन्धस्य संग्रामाय कृष्णं प्रति गमनवर्णन विहगेति । विगविरुतैः अशुभसूचकपक्षिशब्दैः नुन्नः खिन्नः विमनस्कः " प्रतिकूलः समीरोऽभूद्गृध्राश्चमुरम्बरे इति तच्चरित्रे" भिन्नक्रमो रतिविक्रमः भिन्नक्रमो विच्छिन्नक्रमो रतिविक्रमो यस्य स प्रथम शृङ्गाररसस्य स्थायीभाव आसीदिदानी वीरस्य उत्साहस्थायीभावो जात इति भित्रक्रमेति उन्मनाः शत्रुकृतापराधस्मरणेन क्षुब्धचित्तः नृपः . प्रति वासुदेवो जरासंधः क्रमपरिचिते सुभोगिजनागमे शुभोगिजनानां Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ महोपाध्याय श्री मेघविजय गणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाब्बे नृपानामागमः साहाय्यसम्मेलनं यत्र तस्मिन् विहतकलहादेशे पारस्प रिककलदरहिते परिजनगणे परिजनाश्रितभूमौ सुरक्षित इत्यर्थः ॥ नागस्थाने पर्वतसमीपे स्थितिम् अकृत व्यदधात् ॥ ४८ ॥ त्यजत मनुजा रागं द्वेषं धृतिं दृढसज्जने, भजत सततं धर्म यस्मादजिह्मगतारुचिः । प्रकुरुत गुणारोपं पापं पराकुरुताचिराद्, मतिरतितरां न व्याधेया परव्यसनादिषु ॥ ४९ ॥ अन्वयः -- हेमनुजाः ! राग द्वेषं त्यजत Eee घृतं सततं धर्म च भजत यस्माद् अजिह्मगतारुचिः गुणारोपं प्रकुरुत अचिरात् पापं निराकुरुत परव्यसनादिषु मतिः अतितरां न व्याधेया ॥ ४९ ॥ व्याख्या - हे मनुजाः ? मानवाः ? तेषामेवज्ञानाश्रयत्वाद्विशिष्योक्तम् रागं अनुरागं विषयाभिनिवेशं द्वेषं विरोध अनिष्टसाधनताज्ञानजन्यं रामप्रतिबंधिचित्तवृत्तिभेदं त्यजत निराकुरुतदृद्धसज्जने सुस्थिर सज्जने जने कषायाद्यनभिनिविष्टचित्तवृत्तिशालिनि वृतिं धैर्य भजत सेवत धारयतेति यावत् सततं निरन्तरं धर्म सुकृतं भजत संचिनुत यस्मात् धर्म सेवनात अजिह्मगता अकौटिल्यगता ऋज्वी रुचिः बुद्धिः भवतीति शेषः गुणारोपं गुणस्य दयादाक्षिण्यादिरूपस्य आरोपः आधानं प्रकुरुत गुणसंचयं विधत्त अचिरात् सद्यः तत्क्षणमेव पापं किल्मिषं निराकु. रुत पृथक् कुरुत दूरतस्त्यजत परव्यसनादिषु परेषु निकृष्टेषु व्यसनादिषु परस्त्रीसंग मद्यपानस्तेयादिषु यद्वा परेषां अन्येषां व्यसनादिषु दुःखजनक व्यापारेषु मतिः बुद्धिः अतितराम् अत्यन्तमेव किञ्चिदपीत्यर्थः : न व्याधेया न योजनीया यथा परबाधा भवेत्तथा किमपि नैत्र विधेयमितिभावः ॥ ४८ ॥ सर्वपक्षसाधारणमेतद्व्याख्यानम् ॥ WA Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २८ भवति स महानक्रोधस्त्यागतो गतिमानये, दशमबहुधादाने शत्रुञ्जये स्तुततीर्थराट् । त्वमसि बलतः पूर्णस्तूर्णं नवा-जिनमाश्रितः, । प्रभवसि कथं नागारोहे न-राजरयावृतः ? ॥५०॥ अन्वयः---अये यः अक्रोधः स महान् भवति त्यागत: गतिमान् दशमबहुधादाने शत्रुजये स्तुततीर्थराट् त्वमसिबलतः पूर्णः सूर्ण न वा जिनमाश्रितः नागारोहे नराजरयावृतः कथं प्रभवसि ॥ ५० ॥ न्याख्या-अये इति संबोधने हे प्रभो ? शक्तिमन् ? अक्रोधः को. धरहितः जनः यः स महान् भवति महत्वमामोतीति भावः त्यागतः सांसारिकविषयवासनापरित्यागात् गतिमान् ज्ञानवान् भवति त्यागस्य ज्ञानपुरःसरत्वात् सैव यर्थाथज्ञानवान् सर्वथा यः सर्वान् परित्यजतीति भावः अथवा त्यागतः संसारत्यागतः गतिमान् प्रशस्तगमनशील: देवत्वे मोक्षत्वे च गन्ता भवति यद्वा त्यागतः अगतिमान पुनः पुनर्गमनागमनरहितः जन्ममरणरहितो भवति दशमबहुधादाने दशमस्य तन्नामकतपोविशेषस्य बहुधा आदाने ग्रहणे अनेकधा दशमतपोऽनुष्ठानात् शत्रुजये आभ्यन्तरिककामादिशत्रुविजये विषये स्तुततीर्थराट स्तुतम् प्रशंसितम् यत्तीर्थम् शास्त्रम् तत्र राजते इति तथा यथार्थशास्त्रज्ञानवान् यद्वा स्तुतं प्रशंसितं यत्तीथे विद्यादिगुणयुतपात्रं तत्र राजते यः स तथोक्तः अथवा "सत्यं तीर्थ क्षमातीर्थ तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः सर्वभूतदयातीर्थ सर्वत्रार्जवमेव चैत्युक्तप्रकारस्य तीर्थस्य ग्रहणाद्राजते यः स अथवा दशमस्य अवस्थाविशेषस्य बहुधा आदानात् ग्रहणात् ससिन् सति शत्रुञ्जये विमलाद्रौ स्तुतः स्तुतिविषयीकृतः तीर्थराट् जिनेश्वरो येन स तथोक्तः वृद्धत्वेऽपि शत्रुजये कृततीर्थकर. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये स्तुतिः अथवा दशानां " दानशीलक्षमावीर्यध्यानप्रज्ञाचलानि च । उपायः प्रणधिर्ज्ञानं दशबुद्धबलानि वै" इत्युक्तलक्षणानां पूर्णः दशमः तस्य बहुधा आदानात् संग्रहात् शत्रुंजये शत्रूणां बाह्याभ्यन्तररिपूणां जये विजये स्तुततीर्थद स्तुतः स्तुतिविषयीकृतः यः तीर्थः पूतदेशः तत्र राजते इति तथोक्तः त्वं बलतः आत्मबलतः पूर्णः असि भवसि वाजिनम् अश्वम् आश्रितो न तथा न वा नेत्र जिनम् आश्रितः नागारोहेण पर्वतारोहण पर्वताधिष्ठानेन राजरयावृतः राज्ञश्चन्द्रस्थ यो रयः वेगस्तेजस्तेन आवृतः आयुक्तः युक्त इति भावः || कथं न प्रभवसि किन्तु प्रभवस्येव यथा चन्द्र उदयाद्रिसमारूढः विद्योतते तथा भवानपि नागारोहेन दीप्यते इति भावः ॥ ५० ॥ रामपक्षे — अक्रोधः क्रोधरहितः यः स महान् गुरुर्भवति व्यागतः सीतात्यागतः सीतार्पणतः गतिमान् अत्यधिकसमुन्नतिपदगामी भवतीत्यर्थः दशमबहुधादाने ददातीति दः पर्वतः स इव यः शमः शान्तिः पर्वतो यथा सर्वाश्रयस्तथा शमाश्रितोऽपीति भावः स दशमः दः पर्वते दत्ते खण्डने चेति शब्दस्तोममहानिधिः तस्य बहुधा अनेकशः सर्वदेत्यर्थः आदाने ग्रहणे शत्रुञ्जय आभ्यन्तरिकानां बाह्यानां शत्रूणां जये पराजये स्तुततीर्थराद् सत्पात्र श्रेष्ठो भवति त्वं रावणः बलतः सैन्यतः सामर्थ्यतश्च पूर्णः युक्तोऽसि जिनमाश्रितः न वा जिनाश्रयणं विना नागारोहेण राजस्यावृतः राजतेजोयुक्तः कथं प्रभवसि नैव प्रभवसि अतो जिनाश्रयणमवश्यं कर्त्तव्यं तस्मिँश्च सुतरामेव युद्धनिवृत्तिः परदाराऽसंग्रहश्च भविष्यतीति भावः ॥ ५० ॥ एवं कृष्णपक्षेऽपि ज्ञेयम् ॥ ५० ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २८५ जलनिधिगतं सर्वं स्वं वा परं कुरु संयतं, मितवति मयि प्रोच्चैः स्थाने तपोबलशालिनि । यदनलसता सूरे दूरे करोति न किल्विष मसहनजने लीने रक्षा न-दीनबलात् क्वचित्॥५१॥ अन्वयः- प्रोच्चः स्थाने तपोबलशालिनि मयि स्मितवति जलनिधिगतं परं सर्वं स्वं वा संयतं कुरु यदनलसता असहनजने दूरे सूरे किल्विषं किसकरोति लीने दीनबलात् रक्षा क्वचित् न भवतीति ॥ ५१ ॥ व्याख्या-प्रोञ्चैः स्थाने अत्युन्नतप्रदेशे तपोबलशालिनि तपोबलयुक्ते मयि स्मितबति जातहासे अहोऽज्ञानविलसितं कथमेतेऽकार्यमपि कार्यमिव कुर्वन्तीति जातपरिहासे इतिमात्रः स्थिते सतीति शेषः यदि ते धनजिघृक्षा महती वर्तते तर्हि जलनिधिगतं रत्नाकरसंस्थितं सर्व निखिलम् परमुत् कृष्टं स्वम् धनम् संयतं एकत्रीकृतं कुरु स्व. गृहे निचितं कुरु किमित्यल्पधनिनं पीडयसीति भावः यदनलसता यदि तेऽनलसता वीररसस्य स्थायी समुत्साहो वत्तेते तदेति शेषः असहनजने अक्षमे जनेऽदूरे पुरोदृश्यमाने सूरे सूर्यधामनिधौ किमिति किल्विषं अपराधं न करोति नाचरति सर्वेषां वीर्यनिषकोऽसाविति तं प्रत्येव निजसामर्थ्य प्रदर्शयेतिभावः तथाहि लीने शरणापन्ने अमामर्थ्यशालिनि रक्षासहनं दीनबलात् दैन्यादेव कचिन्न सामर्थ्यशालिनि जने यदि रक्षाभवेत् सैव रक्षा दीनस्य रक्षा तु सुतरामेव संभाव्यतेऽसामर्थ्यादिति तत्वम् ॥ रामपक्षे-जलनिधिगतं समुद्रसमीपवर्तमानं अत्र सामीप्ये सप्तमी यथा कूपे गार्य इति सर्व निखिलं स्वं स्वकीयसैन्यम् संयतं सुरक्षितं सर्वतोभयरहितं कुरु विधेहि तथापरं शत्रुश्च संयतं बद्धं स्वा. धीनं कुरु यदि कश्चित् गुप्तचरः समागच्छेत्तं संगृहाणेति भावः तपो Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ महोपाध्यायश्रीमेवविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये बलशालिनि बलयति बर्द्धयतीति बलम् तपः बलम् तेन शालितुं शीलमसिन् तस्मिन् प्रोच्चैः स्थाने अत्युनतादेशे स्थिते मयि सितवति विकस्वरे सोत्साहेऽदरे सन्निधौ सूरे सूर्यवंशोद्भवे सति तथाच यत् यतः सेना संयमतः किल्बिषमपराधं छलमित्यर्थः न करोति सावधाने कोऽपि साहसं न कुर्यात् एवंच असहनजने सामर्थ्यशालि. नि जने लीने शरणापन्ने सत्यपि दीनबलात् दैन्यात् रक्षा तदीयाभय दानम् कचिदपि कुत्रापि न बहुच्छला हि राक्षसाः शरगताः सन्तो विश्वासमुत्पाद्य सतिरन्धेऽवश्यमेव विराध्येरनिति न तत्र विश्वासो विधेय इतितत्त्वम् ॥ ५१ ॥ कृष्णपक्षे-जलनिधिगतं समुद्रसमीपरतिनं द्वारकापुरस्थितम् सर्व परमन्यं वा स्वं धनं संयतं सम्यचितं कुरु तपोबलशालिनि तप आलोचनम् "तपः माधे शिशिरे ऋतौ आलोचने स्वाश्रमविहितधर्म चेति शब्दस्तोममहानिधिः" सम्यक् पर्यवेक्षणम् तस्य बलेन उपयोगेन शालिनि विराजमाने प्रोच्चैः स्थाने उन्नतप्रदेशे स्मितवति सावधाने सूरे सामर्थ्यशालिनि मयि सति यदनलसता आलस्वाभावः तेन दूरे परोक्षेऽपि किल्वियं पापमपराधं न करोति नाचरति असहनजने अक्षमिणि जनेऽलीने अस्वाधीने दीनबलात् अयं दीन इति बलात् इति कृत्वेति भावः न रक्षा न पालना विधेयेति शेषः दीने बलवतां शोभापराक्रमशालिनि पराक्रमो विधेय इति तात्यर्यम्॥५१॥ समितिरसकृत् कार्या वार्या न गोपनता-स्थिति ढतरमनो वीर्य कार्य विचार्य सहस्रशः । नियतिवशतः कायोत्सर्गेऽप्ययं हतिमाप्नुयाद् , नजतु यदिवा मन्योः पक्षो रसातलमञ्जसा॥५२॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ अन्वयः -- - समितिः असकृत् कार्या गोपनता स्थितिः न वार्या सहस्रशः विचार्य दृढतरमनोत्रीय कार्यम् कायोत्सर्गेऽपि नियतिवशतः हतिमाप्नुयात् यदि वा मन्योः पक्षः अञ्जसा रसातलं व्रजतु ॥ ५२ ॥ व्याख्या - असकृत् भूयोभूयः समितिः ईर्ष्यासमित्यादयः विधातव्या गोपनता स्थितिः गुप्तित्रयविधिः न वार्या न हेया किन्तु कर्तव्यैव सहस्रशः अनेकधा विचार्य परिचिन्त्य दृढतरमनोवीर्य प्रबलमात्मबलं कार्य विधातव्यम् मनोबलं न कदाचिदपि परिहार्य - मिति भावः अयम् साधुजनः नियतिवशतः दैववशतः कायोत्सर्गेऽपि कायोत्सर्ग क्रियारूपध्यानेऽपि हतिं विनम् आप्नुयात् लभेत तथापि मनश्चाञ्चल्यं नाश्रयेदिति भावः मन्योः क्रोधस्य अहंकारस्य वा पक्षः सहायः अञ्जसा झटिति रसातलम् अधोलोकं व्रजतु गच्छतु सर्वथाहंकारप्रशमोsस्तु ॥ ५२ ॥ अथवा - समितिः संग्रामः कामक्रोधादिभिः सह युद्धम् असकृत् भूयोभूयः कार्या विधेया गोपनतास्थितिः स्वसंयमरक्षणविधिः न वार्या व त्याज्या स्वत्रतरक्षणं सर्वथा विधेयमेव नियतिवशतः दैवाatta: कायोत्सप देहपरित्यागेऽपि अयं कामादिः हतिम् क्षतिम् आप्नुयात् लभेत तथापि न त्यजेत् कायोत्सर्गो यदि भवेत्स विधेयः परन्तु कामादेर्वशो न भवेदित्यर्थः अन्यत् पूर्ववत् ॥ रामकृष्णविषये – समितिः संग्रामः असकृत् पुनः पुनः कार्या विधातव्या गोपनता पृथ्वीपालनता स्थितिर्मर्यादा न वार्या न परिहरणीया सर्वथैव भूपालना विधेया सहस्रशः अनेकधा विचार्य विविच्य दृढतरमनोवीर्य सुदृढस्वात्मशक्ति कार्य विधातव्यम् नियतिवशतः विधिवशतः अयम् आत्मशक्तिवान् कायोत्सर्गेऽपि हतिम् बाधामानुयात् लभेत चेत् यदि तथापि मन्योरहंकारस्य पक्षः स्वाभिमानम् अञ्जसा रसातलम् अधोभुवनम् वा व्रजतु नैव गच्छतु ॥ ५२ ॥ २८७ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८. महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये प्रचलति मिथस्तत्तेनागोऽनुगेऽभिमुखागते, नभसि रभसाक्रान्त कान्तेभराद् बहुदीप्तितः । कतिपयदिनीमारामः स-दाश-रथी-रसाद् , गिरितटमगाद राजा व्याजाहते मगधाश्रयः ॥५३॥ अन्वयः-- कान्तेभंगत् बहुदीप्तितः रभसाक्रान्ते अभिमुखागतेऽनुगे मिथः नभसि प्रचलति तेन अगः धामारामः सदाशरथिः रसान कतिपयदिनैः मगधा श्रयः व्याजाहते गिरिनटमगात् ॥ ५३ ॥ ___ व्याख्या-मिथः परस्परम् प्रचलति प्रसरति अनुगे अनुगा. मिनि पश्चादागच्छति जने तथा अभिमुखागते गन्तव्यदेशात् संमुखा. गते लोके च तेन अनुगनेन अभिमुखागतेन च आगः आसमंतात् गम्यते इति आगः गमेः कर्मणि डः अनुगतः बहुदीप्तितः अतिप्रभातः कान्तेभरात् कात्याधिक्यात् नभसि आकाशे रभसा वेगेन आका न्ते व्याप्ते सति आकाशमण्डलव्यापकतेजःपुज्जे मति धामारामः धाम तेजः आरमते यस्मिन म धामारामः धामनिधिः दाश्यते इति दाशः रम्यते अनेनेति रथः इन्द्रियः दाशः हतः रथ इन्द्रियो यस्य स दाशरथी विजितेन्द्रियः अमगधाश्रयः मगं पापं दधातीति मगधः न मगधः अमगधस्तमाश्रयते इति तथोक्तः निर्मला राजा दीप्तिमान् स जिनेन्द्रप्रभुः व्याजाहते निर्व्याजम् गिरितटम् गिरिसन्निधिम् अगाव अयासीत् ॥ ५३ ॥ रामपक्षे-कान्तीप्लेस्तेजस इत्यर्थः अतिशयात् अत एव रभसाक्रान्ते वेगवति अभिमुखागते स्वसान्निध्यमुपागते अनुगेऽनुनामिनिजने मिथः परस्परं न भसि आकाशे आकाशवर्ल्सना प्रचलति गच्छति सति तेन प्रचलता सैन्येन सहेत्यर्थः अगः गन्तुमशक्यः शत्रुभिरिति Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टोका. सर्ग-५ २८९ शेषः, धामा धामवान् "गुणवचनेभ्यो मतुपो लुगिष्ट" रामः स दाशरथी दशरथापत्यः रसात् वीररसात् मगधाश्रयः मगधानां स्तुतिपाठ. कानामाश्रयः स्तोतव्यः व्याजाहते व्याजं विना निष्कपटमित्यर्थः गि. रितटम् वेलन्धरपर्वतसमीपम् अगात् अगमत् ॥ ___ कृष्णपक्षे-सदाशरथी दासेन सहितः सदासः शसयोः साम्यात् सदासो रशे यस्य सदाशरथी सारथी सहितरथवान् रसात् वीररसाभिव्यञ्जकस्थायीभावरूपोत्साहात् मगधाश्रयः जरासंधाभिमुखः अगात् अन्यत्पूर्ववद्योज्यम् ॥ ५३ ।। प्रभुवचनतः सेतुर्भूपः सरूपसमुद्रभाग , युधि रुधिरतोऽत्यागान्नागादिनीकृतसंगरः । सुकृतभरतः श्रेयोमार्गस्तदङ्गनिबन्धनाद् . भुवनजलधेमध्ये जज्ञे स्थिरान्तरभूभृता ॥५४॥ अन्वय:- प्रभुवचनतः सेतुर्भपः सरूपसमुद्रभाग युधिरुधिरतः त्यागात् नागादिनीकृतसंगरः श्रेमोमार्गः तदङ्गनिबंधनात् सुकृतभरतः भुवनजल धेः मध्ये स्थिरान्तरभूभृता जज्ञे ॥ ५४ ॥ व्याख्या-प्रभुवचनत: उच्यते इतिवचः प्रभुश्चासौ बचश्वेति प्रभुवचः प्रभुवचे प्रभुशब्दवाच्ये नतः परिणतः प्रभुवचनतः प्रभुरिति जनैः कथ्यमानः प्रभुरिति यावत् सेतुः मर्यादारूपः लोकमर्यादाध ममर्यादाश्रयीभूतः भूपः भुवम् भूस्थं जनमिति शेषः पाति रक्षतीति तथा सर्वरक्षाकरः सरूपसमुद्रभाग सरूपः रूपवान् यः समुद्रः स सरूपसमुद्रः साक्षात्समुद्रः तं भजतीति तथा तच्छन्देन तत्स्थो गुणो लक्ष्यते इति साक्षात्समुद्र इत्र दुर्धषः अगाधः सर्वसद्गुणरत्नाकरश्चेति भावः युधिरुधिरतः युधेः संग्रामस्य रुधिनिरोषस्तत्र रतः परिणत:स Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसम्मानमहाकावे rrarewanawran....... वंथाहिंसात्मकयुद्धनिवारका त्यागात् संसारिकविषयवासनापरित्यागात नागादिनीकृतसंगरः न गच्छति भोगमन्तरा इति नागं कर्म तत् आदिर्यस्य स नागादिः कर्मादिशत्रुः तस्य नीकृतः नीचैः कृतः संगरः प्रसरो येन स कर्मादिप्रसक्तिप्रतिरोधकः श्रेयोमार्गः श्रेयो मोक्षं मार्गते अन्वेषते इति तथोक्तः तदङ्गनिबंधनात् तस्य श्रेयसो मोक्षस्य अङ्गम् प्रधानकारणं संयम चारित्र्यमित्यर्थः तत्र निबन्धनं प्रवृत्तिरभिनिवेशस्तस्मात् मोक्षमार्गानुसरणात् सुकृतभरतः पुण्यप्रभावात् भुवनजलधेः संसारसमुद्रस्य मध्ये संसारसमुद्रे स्थिरान्तरभूभृता स्थिरान्तरः अतिनिश्वलो यो भूभृव मैनाकगिरिः कदाचिदपि ततो न चापल्यस्तेन सममिति शेषः जज्ञे यथा स निश्चलस्तथायमपि लोकभननीयत्वेन स्थिरः " कीर्तिर्यस्य स जीवतीत्यभियुक्तोक्तेः" सोऽद्यादिस्मरणीयत्वेनाराध्यत्वेन च स्थित इति भावः ॥ रामपक्षे-सरूपसमुद्रभाक् रूपेण समानः सरूपः तुल्यरूपः स चासौ समुद्रश्चेति सरूपसमुद्रः तम् भजति अनुसरतीति सरूपसमुद्रभाग् समानरूपसमुद्रभूपसहितः सेतुर्भूपः सेतुनामानृपः “यदा लंका गच्छन् रामो वेलन्धरपर्वतसमीपं गतस्तदा समुद्रसेतुनामानौ नृपौ यो. धुमागताविति रामायणकथा" नागादिनी कृतसंगरः नगे भवः नागः कपिः स आदिर्यस्य स नागादिः तेन नीकृतः अधाकृतः संगरः संग्रामो यस्य सः वानरादिनिवारितयुद्धः अत एव युधिरुधिरतः युधेः संग्रामस्थ यो रुधिर्निवर्तनं तत्र रतः प्रसक्तः अथवा युधि संग्रामे यो रुधिः रोधनं बन्धनमित्यर्थः तत्र रतः वानरादिभिर्जीवग्राहं गृहीतः सन् प्रभुवचनतः प्रभो रामस्य वचनतः आदेशतः त्यागात् मोचनात् श्रेयोमार्गः श्रेयः कल्याणं शुभादृष्टं वा मागेते इति तथा सुकृतभरतः पुण्यप्रभावात् “निजकल्याणाय रामभ्रात्रे लक्ष्मणाय तिस्रः कन्या ददौ" Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्री विजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-५ २९१ इति तदङ्गनिवन्धनात् तस्य रामस्य अङ्गनिबन्धनात् कन्यार्पणेन कुटुम्बसम्बन्धात् भुवनजलधेमध्ये स्थिरान्तरभूभृता समं जज्ञे रामसंबन्धामिर्भयो जात इति भावः ॥ . कृष्णपक्षे-प्रभुवचनतः शक्रेन्द्रवचनतः सेतुः समुद्रः मुद्रया सहितः समुद्रः रूपेण सहितः सरूपः सरूपश्च समुद्रश्चेति सरूपसमुद्रौ तौ भजतीति सरूपसमुद्रभाग स्वीयदेवचिह्नचिह्नितविशिष्टरूपवान् जलधिः त्यागात् स्वजनसंकोचेन वासयोग्यभूमित्यागात् युधिरुधिरतः परिखारूपेण द्वारकायाश्चतुर्दिक्षु स्थितत्वेन संग्रामवारणे समर्थः जलदुर्गमयः अत एव नागादिनीकृतसंगरः गजादियुद्धनिवारक: जलदु. मदिौ गजादिना प्रवेशो भवति परन्त्वत्रागाधत्वेन न संभाव्यते तद आसीदिति शेषः सुकृतभरतः पुण्यप्रभावतः तदङ्गनिवन्धनात् समुद्र. संबन्धात् श्रेयोमार्गः कल्याणेच्छुः भुवनजलधेः अदसीयभुवनसमुद्रस्य मध्ये स्थिरान्तरभूभृता जज्ञे ॥ ५४॥ तदनु दनुजै रक्षोलक्षः समं मनुजैर्भुजै हरिचरणतश्चित्ते दूने दशास्य-महीपतेः । प्रतिहरिरवात् सैन्यस्यान्तश्चलाचलतावलात्, स्वयमभिययावुा गर्व वहन्निव पर्वतः ॥५५॥ अन्वयः-तदनु दनुजैः रक्षोलमनुर्भुजैः समं हरिचरणतः दशास्य महीपतेः चित्ते दूने प्रतिहरिरवात् सैन्यस्यान्तश्चलाचलताबलात् स्वयम् पर्वत इव गर्व वहन् उर्ध्याम् अभिययौ ॥ ५५ ॥ व्याख्या-तदनु तत्पश्चात् दनुजैर्दानवै रक्षोलक्ष राक्षसाना लक्षैरनेकराक्षसैर्मनुजैर्मनुष्यैः भुजैः भुनक्ति भुवमिति भुजो नृपास्तैः समं सार्धम् हरिचरणतः होर्जिनेन्द्रस्य चरणतः निर्गलविहारतः दशास्यमहीपतेः कामनृपस्य चित्ते मनसि दूने विह्वले सति विचरति Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये जिनेन्द्रे कामो विह्वलो जात इति भावः प्रतिहरिरवाद प्रतिहरेः का मस्य वात् भयचीत्कारात् भयजनितसाध्वसरवात् सैन्यस्य तदीयस. हायकस्य वसंतादेः चलाचलताबलात् चाञ्चल्यतः इतस्ततः पलायनतः स्वयम् प्रभुजिनेन्द्रः जाम् भूमौ पर्वत इव गिरिरिव गर्व कामंदि. जयोत्कर्षम् वहन् मनसि धारयन अभिययो विजहार । अत्र पर्वतोपमानेन प्रभी दुषत्वम् स्थिरत्वं च वस्तु उपमालंकारव्यंग्यम् ।। रामपक्षे तदनु तत्पश्चात् लंकाधिष्ठिते रामे सति भुजैः भुञ्जन्ती भुजाभोग्यवन्तः तैर्महाभाग्यवद्भिर्मनुजैर्मनुष्यैः समं सह हरि चरणतः हरेः कपेश्वरणतः पादतः इतस्ततः सर्वत्रनिर्भीकप्रचारतो वा दशास्यमहीपते रावण तृपस्यचित्ते दुने चित्ते हृदये दुने खिन्ने क्लिष्टे सति दनुजैर्दानवे रक्षोल:रने कराक्षसः समम् सह प्रतिइरिस्चात् प्रतिहरित्वाभिमानकृतादेशात् चलाचलताबलात् चलाचलस्य भावअलाचलता अत्यन्तचंचलता तस्या बलात् तदाश्रयणात् पर्वत इव गर्वमहंकार वहन् धारयन् बहुगर्विष्ठः सैन्यस्यान्तः सैन्यमध्ये स्वयम् स्वयमेव रावणः उाम् रणभूमौ अभिययौ अभिजगाम स्वयमेव रामेण योद्धु संग्रामभूमिमवततारेतिभावः ॥ कृष्णपक्षे-हरिचरणतः हरेः कृष्णस्य चरणतः आचरणतः अवि. वेकाचारतः कंसादिवधत इत्यर्थः दशास्यमहीपतेर्जरासंधनृपस्य चित्ते मनसि दूने खिन्ने सति प्रतिहारस्वात् जरासंधाज्ञातः सैन्यस्यान्तः चलाचलताचलात् चाञ्चल्यतः स्वयम् स्वयमेव पर्वत इव गर्व वहन उाम संग्रामाङ्गणभूमौ ययौ कृष्णेन योद्धमभिससारेति भावः ।। सुतनयवरैः सत्रा कृत्याविपाकविमर्शनात् , सहपदपुरो देवादेशैः सरुक्मिनृपोद्यमैः । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ २९५ यदि भुवि चरश्चेदीशोऽगाद न शिष्टमतः स्थितमिति बहुजनोऽवादीत सादी परोऽपि हिरण्यवान्॥५६॥ अन्वयः-अकृत्या विपाकविमर्शनात् सुतनयवरैः सरुक्मिनृपोयमैः सत्रा देवादेशैः सह पदपुरः हिरण्यवान् सादी परोऽपि यदि भुविचर ईशः अगात् चेत् अतः शिष्टं न स्थितमिति बहुजन अवादीत ॥ ५६ ॥ व्याख्या-अकृत्या विपाकविमर्शनात् अकृत्याः अकर्तव्यतायाः यो विपाकः परिणामः तस्य विमर्शनात् विचारात् सांसारिकविषय वासनोपभोगविपाकविवेकतः सुतनयवरैः सुष्टु तनोत्यात्मककल्या. णमिति सुतनयः तेषु वरः श्रेष्ठस्तैः सरुक्मिनृपोद्यमैः रुक्मं स्वर्णम स्थास्तीति रुक्मी रुक्मिणा सहितः सरुक्मी सचासौ नृपश्चेति तस्योधमा उत्साहस्तैः सत्रासह ससुवर्णनृपोत्साहैः सह देवादेशः प्रव्रज्या. ग्रहणसमयस्मारकदेवादेशैः सह तत्क्षणमेव पदपुरः पद्यतेऽस्मिन्निति पदं अक्षयस्थानम् तत्र पुरति अग्रे गच्छतीति तथोक्तः ईशः जिनेन्द्रः हिरण्यवान् यत्नवान् सादी परोऽपि गजाश्वादिवाहनोऽपि यदि भु. विचरः पादचारस्सन् अगात् संसारात् विरक्तोऽभवत् अतः शिष्टम् न स्थितम् इति एवं बहुजनः अवादीत् अकथयत् ॥ ५६ ॥ रामपक्षे-अकृत्या विषाकविमर्शनात् अकृत्यायाः सीताहरणरूपाकार्यकृत्याया यो विपाकः संग्रामप्रवचनं प्रत्यर्पणं वेति परिणामस्तस्य विमर्शनात् विचाराद हेतोः देवादेशैः रात्रणनृपशासनैः सहक्मिनृपोद्यमैः ससुवर्णराजोत्साहैः सुतनयवरैः सुष्ठुतनयः पुत्रः सुत. नयः तत्र वरः श्रेष्ठः तैः मेघनादादिमिः सत्रा सह पद्यते गम्यतेऽस्मिनितिपदम् रणस्थानम् तत्र पुरति अग्रे गच्छतीति सहपदपुरः आज्ञासमकालमेव कृताग्रगमनः यदि झुविचरः रणभूमिगतः चेत् तदा ईशः रावणोऽपि हिरण्यवान् स्वर्णकुटादिभूषितः सादीपरः गजा. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजय गणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये श्वादिवाहनसहितः अगात संग्रामाणं प्रत्यचालीत् अतः सतनयरावणगमनात् शिष्टम् अवशिष्टम् न स्थितम् इति बहुजनः बालवृद्धा दिः अवादीत् परस्परमवोचत् ॥ २९४ -jah कृष्णपक्षे – अकृत्यायाः कृष्णकृतस्वजामातृवधरूपाक्रियायाः विपाकस्य विमर्शनात् विवेकात् सुतनयवरैः सत्रा सह देवादिपुत्रैः सह देवादेशः जरासंध भूपाज्ञाभिः सरुक्मिनृपोध मै रुक्मिनामक भूपो त्साहैः सह पदपुरः सोद्यमः "पदं व्यवसितत्राणमित्यमरः " बहुजनः अनेकजनः अविचरः पादचारः यदि यदा तदा चेदीशः चेदिराजः शिशुपालः हिरण्यवान् सौवर्णकटककुण्डलवान् सादीपरः गजाश्वादिवाहन सहितः अगात् जरासंधेन सह कृष्णयुद्धाय रणभूमिं प्रत्यगच्छत् अतः शिष्टं न स्थितमित्यवादीत् ॥ ५६ ।। प्रभुविहरणे लोकः स्वौक: सतीव्रतया-जना - वनधनमतिर्दाने शैलग्रहे - हितचिन्तकः । अपि समरसीमानं प्रापत् स- वासवभूपति हृदयदयितारागात् पञ्चाननः सदशाननः ॥ ५७॥ भन्वयः -- - प्रभुविहरणे लोकः जनावनधनमतिः स्त्रीकः दाने सतीतया शैलग्रहे हितचिन्तकः स वासवभूपतिः हृदयदयितारागात् पंचानन स दशानन अपि समरसीमानम् प्रापत् ॥ ५७ ॥ व्याख्या - प्रभुविहरणे प्रभोजिनेन्द्रस्य विहरणे बिहारे जनाव नधनमतिः जनानाम् अवनम् रक्षणम् तत्र घना निबिडा निश्वच्छिन्ना निरंतरेत्यर्थः मतिर्बुद्धिर्यस्य स लोको जनः खौको दाने प्रभोर्निवासाय स्ववासभूमिसमर्पणे सतीव्रतया सत्वरेण अहमहमिकया उपर्युपरि इतिभावः शैलग्रहे शैलानां तोरणानां जिनेन्द्रणामागमनजन्यहर्षोस्कर्ष सूचक महोत्सवानां हे ग्रहणे विधाने "तोरणोर्ध्वे तु माङ्गल्यं दा Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्री विजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-५ मवन्दनमालिका स्तम्भादेः स्यादधो दारौ शिलेति हैमः” यद्वां शैलानां जिनेन्द्राणामधिष्ठानेन पवित्रितानां ग्रहणे तत्र गमने तद्दर्शनार्थमितिशेषः हितचिन्तकः स्वात्मानुकूल विचारपरः सवासवभूपतिः वसु अस्यास्तीति वासवः स चासौ भूपतिश्वेति स वासवभूपतिः अनेकविधधनधान्य समृद्धनृपः हृदये स्वमनसि दयितस्य मोक्षस्य प्रभोर्वा आसमंतात् रागोऽनुरागो यः स हृदयदयितारागस्तस्मात् चित्तगतप्रभु विषयकप्रीतितः अत एव पञ्चाननः पंचसु महाव्रतेषु आननः लक्ष्यो यस्य स यद्वा पञ्चसु पंचेन्द्रियेषु आननः संग्रामलक्ष्यो यस्य, सदशाननः दशया कालकृतविशेषरूपया गर्भवासजन्माद्यवस्थया सहितम् सदशम् आसमन्तादन्यते जीव्यते इति आननम् जीवनम् सदर्श आननं यस्य स तथोक्तः गर्भादिवासजीवनकः समरसीमानम् सम् सम्यक् ऋच्छति गच्छति संसारादिति समरः विरक्तो जिनेन्द्रः तस्य सीमानं समीपम् प्रापत् अगमत् ।। ५७ ।। रामपक्षे - प्रभुविहरणे प्रभो रामस्य विहरणे रावणं प्रति युद्धायगमने अथवा प्रभोः सीताया विहरणे विशेषतो हरणे जनावनघनमतिः जनसाहाय्य दृढबुद्धिः लोकः सुग्रीवादिः स्वौकः स्वस्य ओकः आश्रयं दाने अर्पणे आश्रयदाने शैलग्रहे तदधिष्ठित पर्वतस्थितौ, हितचिन्तकः समर्थः रामहितसाधकः समरसीमानम् रावणयुद्धभूमिं प्रापत् अगमत् सवासत्रभूपतिः सवासवानां देवानामपि भूपतिः शासक: हृदयदयितारागात् हृदये मनसि दयितायाः सीतायाः रागात् प्रेमतः हेतोः पञ्चाननः सिंह इव लुप्तोपभा सदशाननः रावणः समरसीमानं रामरणभूमिं प्रापत् अयासीत् ।। ५३ ।। कृष्णपक्षे - प्रभुविहरणे प्रभोर्जरासंघस्य विहरणे साक्षात् गमने सति स्वकः शोभनगृहवान् जनावनघनमतिः जनानां संग्रामगतशत्रुपक्षी २९५ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२९६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्धानमहाकावे यलोकानां आसमन्तात् वने हिंसने मारणे घना निविडा मति बुद्धिर्यस्य स दाने द्यत्यस्मिन्निति दानम् तसिन् युद्ध शैलग्रहे व्यूहग्रहे च हितचिन्तकः हितानुबन्धी लोकसैन्यजनः सतीव्रतया सत्वरतया समरसीमानं रणभूमि प्रापत् अगमत् वासवभूपतिः सुसमृद्धनृपतिः सदशाननः शत्रुच्छिद्रान्वेषणाय दशसु दिक्षु आननं मुखं लक्ष्यं यस्य सदशाननस्तेन सहितः सदशाननः पंचाननः सिंह इवेति लुप्तोपमा सिंह इव सजरासंधः समरसीमानं रणभूमिप्रदेशम् प्रापत् अयासीत् ।।५७॥ ___अत्र लुप्तोपमा विरोधाभासश्चालंकारः ॥ एवं राज्यादिवारे स्फुरति मतिमतां संनियोगे नियोगे, खामिन्याशु-प्रकाशे जयनि समभवत् सप्रभावोऽनुभावः। सर्वे गान्धर्वदेवाः पटुतरतरसा तूरमापूरयन्तः, वस्था रागं वितेनुर्धनुषिधृतगुणे सैन्धवं प्राप्य तीरम् ५८ इति श्रीसप्तसंधाने महाकाव्ये राज्याङ्के महोपाध्यायश्रीमेघविजयः गणिविरचिते श्रीनगवद्विहारवर्णने पञ्चमः सर्गः ॥ अन्वयः - एवं राज्यादिवारे मतिमतां सशियोगे नियोगे म्फुरति आशुप्रकाशे जयिनि स्वामिनि सप्रभावोऽनुभावः समभवत् धृतगुणे धनुषि मैन्धवं तीरं प्राप्य भासाध सर्वे गान्धर्वदेवाः पटुतरतरसा तूरमापूरयन्त: स्वस्थाः रागं बितेनुः ॥ ५८ ॥ व्याख्या-एवमुक्तप्रकारेण राज्यादिवारे राज्यांके मतिमतां बुद्धिशालिनां सन्नियोगे सत्सु नियोगे नियोजन प्रेरणं तसिन् नियोगे व्यापारे स्फुरति प्रकाशमाने सति आशुप्रकाशे आशु झटिति प्रकाशो नैर्मल्यं यस तस्मिन् जयिनि सर्वोत्कर्षेण विद्यमाने स्वामिनि जिनेन्द्र सप्रमावः प्रभावेन सहितः समहिमा अनुभावस्तेजोविशेषः समभवत् धृतगुणे धृतः गुणो दयादाक्षिण्यादिर्येन तमिन् धनुषि धन्य ते Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसरिप्रणीता भरगी टीका. सर्ग-५ २९७ शब्दायते इति धनुः अन्तरॉकारााच्चारकः तस्मिन् अन्तर्ध्यानमग्ने प्रभाविति शेषः मान्धर्वदेवा गंधर्वा एव गान्धर्वा सर्वे गांधर्वाश्च ते देवाश्चेति गान्धर्वदेवाः पटुतरतरसा पटुतरेण कौशलेन तरसा झटिति स्वस्था निरूपद्रवाः तूरम् तूर्यम् आपूरयन्तः वादयन्तः सैन्धवं तीरं सिन्धुतटम् प्राप्य संगत्य राग गानं वितेनुः सर्वे प्रभुरागेण गायन्तिस्म।। रामकृष्णपक्षे-स्वामिनि गमे कृष्णे वा धृतगुणे धृतवाके धनुषि कोदण्डे सति अन्यत् सर्व पूर्ववदव से यम् ।। ५८ ।। अत्र श्लोके स्रग्धरावृत्तम् " ब्रम्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेय"मिति तल्लक्षणात् ।। इतिश्री शास्त्रविशारद-कविरत्न-भट्टारकाचार्य-श्रीविजयामृतसूरीश्वरप्रणीतायां सप्तसंधानमहाकाव्य-सरणीटीकायां पंचमः सर्गः ॥ ५ ॥ Mru Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ महोपाध्याय श्रीमेवधिजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाये ॥ अथ षष्ठः सर्गः ॥ अथ श्रीमदनेकान्त-कवचं कान्तमुद्रहन् । उदियाय जयश्रीमान् कामस्यारेभिंदे विभुः ॥१॥ भन्वयः -- अथ कान्तं श्रीमदनेकान्तकत्र चमुद्वहन् जयश्रीमान् विभुः भरेः कामस्य भिदे उदियाय ॥ १ ॥ व्याख्या-अथानन्तरं कान्तं मनोज्ञं श्रीमदनेकांतकवचं श्री: शोभासम्पत्तिः वैराग्यसंपत्तिर्वा यस्मिन् तत् अनेकान्तः स्याद्वाद एव कवचः वर्म तम् उद्वहन् धारयन् उद्वहमानः जयश्रीमान जयाय श्रीमान् नृप इवेत्यर्थः विभुः प्रभुजिनेन्द्रः अरेः शत्रुभूतस्य कामस्य मनसिजस्य भिदे नाशाय निरासाय उदियाय उदयमभ्युदयं प्राप उद्युक्तो बभूवेति भावः ॥ १ ॥ श्लेषः। रामकृष्णपक्षे--अन्तयति शत्रुमिति अन्तः अनेकेषामन्तः अनेकान्तः स चासौ कवचश्चेति अनेकान्तकवचस्तमुद्वहन धारयन् काम. स्यारेः कामप्रधानस्य अरे रावणस्य अन्यत्र कामस्य प्रद्युम्नस्य शत्रोजरासंधस्येत्यर्थः अन्यत्पूर्ववत् ॥ १ ॥ क्षितिः प्रिया सर्वराज्ञां तस्याः प्रियतमा-सुताः। यस्याः कृते क्षतिः पुंसां सा वैदेही-रणोचिता ॥ २॥ अन्वय:- सर्वराज्ञां क्षितिः प्रिया तस्या: सुता प्रियनमा यस्याः कृते पुंसां क्षतिः सा वैदेहीरणोचिता ॥ २ ॥ ___व्याख्या-सर्वराज्ञाम् राजन्ते राजः सर्वेषां सर्वेषु वा राज: सर्वराजस्तेषाम् सर्वत्र विराजमानानां क्षितिः क्षिणोति कामवासनां या सा क्षितिः योपिन् प्रिया प्रियत्वेनाभिमता तस्याः क्षियोषितः सुता दुहिता प्रियतमा अतिशयेन प्रिया यस्याः दुहितुर्योषितो वा कृते Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-1 २९९ निमित्तम् पुंसां पुरुषाणां क्षतिः सर्वतः इहलोकतः परलोकतश्च हानिः सा क्षितिः योषित देहिनाम् देहवतां ईरणोचिता त्यागोचिता यस्याः कृते एव सर्वतोबन्धनं भवति साऽवश्यमेवत्यागाहेति भावः ॥ रामपक्षे ---सर्वराज्ञां सर्वेषां नृपानां क्षितिः पृथ्वी प्रिया प्रेयसी राज्ञां पृथ्वीपतितत्वात् तस्याः क्षितेः प्रियतमा अतिशयस्नेहपात्रा सुता कन्यका भवतीति शेषः यस्याः कृते दुहितुनिमित्तं पुंसां पुरुपार्थानां क्षतिः "स्वसुताधर्षणन्न केऽपि सहन्त इत्यर्थः" सा वैदेही विदेहराजकन्यका पृथ्वीतनया रणोचितारणाय तन्मोचनार्थ संग्रामाय उचिता अवश्यसंग्रामयोग्येति भावः॥ कृष्णपक्षे-सर्वराज्ञां समस्तभूपतीनां क्षितिहिँसा प्रिया सर्वदा विजिगीषुतया हिंसाबद्धरुचिः चित्ताः तस्याः प्रियतमाः सुताः तस्या हिंसायाः प्रियतमा अत्यन्तप्रिया सुता सम्पदः यस्याः सम्पदः कृते पुंसां क्षतिर्हानिः सा वै हिंसा देहीरणोचिता देहिनाम् ईरणोचिता त्यागयोग्या |॥ २ ॥ राजानकीकृते यस्या राजा न कीर्तिराददें। सा नीता जानकी ये न तस्य श्रीर्जातकी स्थिरा ॥३॥ अन्वयः – यस्याः कृते राजानकी स्थिरा कीतिःराजा न भाददं सा जानकी येन नीता तस्य श्रीर्जातकी ॥ ३ ॥ व्याख्या---यस्याः क्षितेः कृते निमित्तम् राजा राजते इति राट् तेन राजा नृपेण राजानकी राजमंडलोद्भवा कीतिः प्रशस्तिः सिरा निश्चला चिरस्थायिनी न आददे न जगृहे परस्परविवदमानास्सन्तो नष्टा इत्यर्थः सा जानकी लक्ष्मीर्येन नीता तदर्थमतिप्रसक्तिः प्रदर्शिता तस्य प्रसक्तस्य श्री सम्पत् जातकी दुहितेव किं वंशपरम्परा की नेवेत्यर्थः ॥ ३ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये रामपक्षे यस्याः जानक्याः कृते जानकीलाभाय जानकीस्वयंवरकाले कीर्तिःधनुरारोपेण जन्या समाख्या राजसमूहसंबन्धिनी राजा नृपेन न आददे नासादितवती अत्र राजेत्यकवचनेन केनापि रामव्यतिरेकेण न गृहीतेति वस्तुव्यज्यते सा जानकी येन रावणेन आनीता अपहृता तस्य रावणस्य श्री सम्पत् स्थिरा जातकी निश्चला भवित्री किम् नैव निश्चलेत्यर्थः ।। कृष्णपक्षे पूर्वपक्षवदवसे यम् ॥ ३ ॥ अहो! मोहोऽवमोहाना हानाङ्गं पुरकामिनी । कामिनीत्या निषिद्धापि स्वबुद्धयाङ्के निधीयते ॥४॥ अन्धयः- अवमोहाना अहो मोहः पुरकामिनी हानाङ्गम् कामिनीत्या निपिद्धाऽपि स्वबुद्धया अङ्के निधीयते ॥ ४ ॥ ___व्याख्या--अवमोहानाम् अवमुहयंति वैचित्यमुपगच्छंतीति अवमोहाः मोहिताः तेषाम् कर्त्तव्याकर्तव्य विवेकशून्यानां अहो मोहः अहो अविवेकिता यतः पुरकामिनी पुरं शरीरं कामयते न तद्धर्मादिकं किमप्यन्यदिति सा योषित् यद्वा पुरकामिनी पुरस्य कामिनी साधारणस्त्रीवाग्वधूरित्यर्थः हानाङ्गम् हानस्य त्यागस्य अङ्गम् प्रधानाङ्गम् त्याज्यम् तथा च कामिनी त्या कामिनां कामुकानां या नीतिः कामशास्त्रम् तया निषिद्धापि वर्जनीयत्वेन परिगणितापि " रक्तायां वा विरक्तायां रतिस्तस्यान्न विद्यत" इति निन्दाश्रुत्यापि स्वबुद्धया स्व. कीयकामपरतन्त्र विचारशून्यमत्या अङ्के कोडे निधीयते स्थाप्यते कामिजनैरित्यहो मोहविलसितम् ।। ___सर्वसाधारणत्वेनोपदेशगर्भवचनमेतत् ॥ ४॥ स्थानत्रयीं स्वतो मुक्त्वा तुर्य मण्डलमानयत् । उपघातात् पगघाताजिगाम यावन स्थलम् ॥ ५॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-६ अन्वयः – स्वतः स्थानत्रयीं मुक्त्वा तुर्यम् मण्डलम् आनयत् उपघातात् पराधातात् यावनं स्थलम् जिगाय ॥ ५ ॥ WAL W ३०१ ✓ व्याख्या — स्वतः स्वयमेव स्थानत्रयीं चतुर्थपञ्चषष्ठगुणस्थानानां त्रयी स्थानत्रयी तां मुक्त्वा परित्यज्य तुर्य मण्डलं अप्रमत्तगुणस्थानं आनयत् आश्रयत् उपघातात् अपकारात् पराघातात् तिरस्कारात् अथवा गमनात् विचरणादिति भावः यावनं यावनसंबन्धिनं स्थलम् यवनप्रायभूमिम् जिगाय विजितवान् मौनव्रत धारणाद्यवनाऽडम्बादिम्लेच्छस्थानादिषु विहारेण तेभ्यो दर्शनन्दत्वा पावयाञ्चकार यवनानिति तत्वम् ॥ ५ ॥ रामकृष्णपक्षे - स्वतः स्वयमेव स्थानत्रयीम् स्थानानामुपचयापचय हीनानां त्रयीम् मुक्त्वा परित्यज्य तुर्य मण्डलं चतुर्थोपायम् विग्रहमित्यर्थः आनयत् स्वीकारमकरोत् उपघातात् अपकारात् पराघातात् तिरस्कारात् यावनं स्थलम् तौरुष्कम् जिगाय विजिग्ये ॥ ५ ॥ एवं भावनया देवश्छेत्तुं मोहमहाद्रुहम् । समारुह्य गुणस्थानमारेभे क्षपकोद्यमम् ॥ ६॥ अन्वयः -- देवः एवं भावनया मोहमहाद्रुहं छेत्तुम् गुणस्थानं समारुह्य क्षपकोद्यमम् आरेभे ॥ ६ ॥ व्याख्या - देवः जिनेन्द्रप्रभुः एवं पूर्वोक्तप्रकारं भावनया विचारेण मोहमहाद्रुहम् दुह्यतीति ध्रुक् महाश्रासौ ध्रुक् महाधुक् मोह एव महाधुकू मोहमहाधुक् तम् मोहरूपमहद्वैरिणं छेत्तुम् भेत्तुम् निराकर्त्तुम् गुणस्थानम् अष्टमम् अनिवृत्तिबादरगुणस्थानम् समारुह्य समबलम्व्य क्षपकोद्यमम् कर्मक्षयजनकोद्यमम् आरेमे मोहक्षयविधौ प्रसक्तो बभूव तन्निराकरणैकमना अजनि ॥ रामकृष्णपक्षे - देवः दीप्तिमान् रामः कृष्णश्च मोहमद्दानुहम् Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ महोपाध्यायश्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये मोहयति स्वपराक्रमेण अधीरयतीति मोहः शत्रुः स एव महाद्रुहः द्रोहकारकः तम् छेत्तुम् उन्मूलयितुम् भावनया निराकरिष्णुमनसा गुणस्थानम् राज्ञां संधिविग्रहादिषट्स्थानम् समारुह्य स्वीकृत्य क्षपकोद्यमम् क्षपयतीति क्षपकः निवारकस्तस्य उद्यमम् उद्योगम् आरभे प्रारब्धवान् || ६॥ जीवा - स्थानं चापरागं मनस्याधाय तत्पदम् । गुणाधिरोहे प्रबलं बलं स्वं समधारयत् ॥ ७ ॥ -जीवास्थानम् अपरागम् च तत्पदम् मनसि आधाय गुणा अन्वयः धिरोहे प्रबलम् स्वम् बलम् समधारयत् ॥ ७ ॥ - व्याख्या -- जीवास्थानम् आसमंतातिष्ठत्यस्मिन्निति आस्थानम् जीवानाम् आत्मनाम् आस्थानम् जीवास्थानम् द्वादशमं स्थानम् अपरागम् अपगतो रागो यस्मात् तत् अपर गम् क्षीणमोहम् रागादिरहितम् तत्पदम् रागरहितम् पदम् क्षपणकपदम् यद्वा जीवानां वास्तविकं स्थानम् गुणाधिरोदे गुणस्थानाधिष्ठाने प्रबलम् प्रधानम् स्वम् स्वकीयम् बलम् तपोबलम् समधारयत् धृतः ॥ रामकृष्णपक्षे – जीवानाम् धनुर्गुणानाम् आस्थानम् चापरागम् चापस्य धनुषः रागम तत्पदं गुणे पदम् आधाय विचार्य गुणाधिरोद्दे गुणारोपणे प्रबलम् प्रकृष्टम् स्वम् आत्मीयम् बलम् ओजः समधारयत् समाचिनोद ॥ ७ ॥ अजिह्मगधिया लक्षं किञ्चिदादाय धीरधीः । विव्याध बाधकं क्रोधाद योधं सम-र-सं-गतः ॥ ८ ॥ अन्वयः -- वीरधीः समरसंगत: अजिह्मगधिया किंचिल्लक्ष्यम् आदाय क्रोधात् बाधकं योधम् विव्याध ॥ ८ ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यभीविजयात रिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग--६ ३०३ व्याख्या-धीरधीः धीरा अनुद्धता स्थिरेत्यर्थः धीर्बुद्धिर्यस्य स निश्चलमतिः शमरस शान्तिरसं गतः शान्तिरसप्रधानः अजिह्मगधिया जिले कापटये गच्छ तीति जिह्मगा न जिह्मगा अजिह्मगा अकुटिला सा चासो धीश्चेति अजिह्मगधीः कापट्यरहितबुद्धिः तया किश्चित् किमपि मोक्षमिति शेषः लक्ष्यम् उद्देश्यम् आदाय गृहीत्वा क्रोधात् कोपात् बाधकम् तपोविनकारकम् अथवा बाधकं मोक्षबाधकं युद्धती ति योधस्तम् कामादिकम् कर्म वा विव्याध निवर्तयामास ॥ रामकृष्णपक्षे-समरसंगतः संग्रामाङ्गणगतः धीरधी: निश्चलमतिः रामः कृष्णश्च अजिह्मगधिया कापट्यरहितबुद्ध्या किंचित् किमपि विजयादि कम लक्ष्यमुद्देश्यम् आदाय गृहीत्वा क्रोधात् कोषात् बाधक अपकारिणम् योधम् सैन्यम् विव्याध विध्यतिम ॥ ८ ॥ पञ्चाननक्रियावीर्याद वारये दुर्मनं गजम् । कारये-दानपयसा ससौरभं धरातलम् ॥ ९ ॥ युग्मम् । अन्वयः --पंचानन कियावी यात दुर्मनं गजम् वारये दानपयसा ससौरभ धरातलं कारये ॥ ९ ॥ व्याख्या-पंचाननक्रियावीर्याद पंचाननस्य सिंहस्य या क्रिया गजमर्दनादिः तत्र यद्वीर्यम् शक्तिः तस्मात् “पञ्चास्यः केसरीहरिरित्यमरः" दुर्मनम् गजम् वारये दुःखेन मनुते इति दुर्मनस्तम् दुःसाध्यम् गजम गजतीति गजः मदनस्तम मदनम् वारये निरुन्धे अथवा पश्चाननस्य शिवस्य या क्रिया मदनदहनादिरूपा तस्या वीर्यात् पराक्रमात् दुर्मनम दुःसाध्यम् गजम् मदनम् वारये निवारये दानजलेन उत्सर्गपयसा अथवा दानपयसा हस्तिमदजलेन "मदो दानमित्यमरः" ससौरभम् सौरभेन सुगन्धिना सहितम् सामोदम् धरातलम् क्षोणी तलम् कारये विधापये "मृत्युञ्जयः पञ्चमुखोऽष्टमूर्त्तिरिति हैमः ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ महोपाध्यायश्री मेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्ने रामकृष्णपक्षे-दुर्मनम् दुःसाल्यम् गजम् शत्रुहस्तिनम वारये संग्रामभूमौ निवारये अन्यत् पूर्ववचज्ज्ञेयम् ॥ ९ ॥ सदोपदेशनोद्देशात् स्फुरति स्वानगर्जिते । घटा गजानामगजा समजायत साप्यजा ॥ १० ॥ अन्वयः- सदोपदेशनोद्देशात स्वान गर्जिते स्फुरति अगजा गजानां घटा सापि अजा समजायत ॥ १० ॥ व्याख्या--मदोपदेशनोद्देशात् देशस्य समीपमुपदेशं सन्निहितप्रदेशं तत्र नुदति गच्छतीति नोदः "कर्त्तरिविच्” तस्य देशः स्थान तस्मात् सर्वदा सन्निहित प्रदेशगमनस्थानात् हेतोः स्वानगर्जिते मुष्ठ आनस्य अन्तस्थितप्राणवायोः गर्जिते नासिकोच्छ्वासे स्फुरति गमनपरिश्रमेणोच्छ्वासपवनप्रचलिते सति अगजानां पार्वतीयानां अगजा वृक्षजा वा घटा पंक्तिः सापि अजा निम्ना प्रभोश्छायाहेतोर्नीचैः समजायत अभवत् ।। अन्यपक्षे-सदोपदेशनोद्देशात् सदा सर्वदा यत् उपदेशनं अनु. शासनं हितकथनं तस्य उद्देशात् अनुसंधानात् स्वानगर्जिते निर्घोषस्तनिते स्फुरति स्फुरमाणे सति गजानां गजन्ति माद्यन्तीति गजाः मदोन्मत्ताः तेषां घटा संहतिरपि गजानां हस्तिनां अगजा पर्वतो. द्भवा एतेन मदोन्मत्तत्वं सूच्यते घटा पंक्तिरिव वानगर्जिते सारमेयवुक्के स्फूरति सति अजा छागी समजायत रामकृष्णयोः सच्छासनश्रवणान्मदोद्धूतानामपि जनानां संहतिः स्वानगर्जिते यथा गजपंक्तिः छागीव भयभीता भवति तथा भीता भवत् न च दुर्विनयमकार्षीत गजानां स्वानभीरुत्वं प्रसिद्धमेवेति भावः ॥१०॥ इन्द्रः कामस्य कामस्य मीलां छेत्तं न सोद्यमः । कन्दर्पः कं वहेदप रोधने मनसोऽनसः ॥ ११ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयामृत रिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग - ६ अन्वयः - इन्द्रः कामस्य कामपि मीलां छेत्तुं न सोद्यमः अनसः कन्दर्पः मनसः रोधने कन्दर्प बहेत् ॥ ११ ॥ ३०५ व्याख्या - इन्द्रः परमैश्वर्यसम्पन्नो देवेन्द्रः कामस्य मदनस्य कामपि मीलां तन्द्रां सर्वविजयित्वान्निर्भयत्वाच्च सुखसुप्तिकाम् "तन्द्री निद्राप्रमीलयोरिति तन्द्री प्रमीलेति चोभयत्रामरः " छेत्तं भेत्तुनिराकर्तुमित्यर्थः न सोद्यमः न सव्यापारः तदीयतन्द्राभङ्गे सोद्यमोsपि कोपि नास्ति किम्पुनः समर्थ इति भावः अनसः न सः असः न असः अनसः साक्षात् कन्दर्पः मदनः तस्यानङ्गत्वेन तद्वारणं सुक रमित्याश्रित्य अनस इति पदेन स एव शरीरभृदेवेति कवेस्तात्पर्यम् मनसः वीतरागस्य जिनेन्द्रस्येति शेषः रोधने स्वाधीने करणे कन्दमहंकारं वत् धारयेत् जिनेन्द्राणां मनोऽन्यथा कर्तुन्न तस्य कोऽपि प्रभावस्तेषां मारजितत्वादिति भावः अत्र संभावनायां लिङ् ॥ " रामकृष्णपक्षे -- इन्द्रः परमैश्वर्यवान् " राजा पतीन्द्रस्वामिना थार्या इति हैंमः " कामस्य स्वीयाभिलाषस्य “कागोऽभिलाषस्तर्षश्चेत्यमरः " कामपि मीलां मील्यते इति मीला "भावे गुरोश्च हल इत्यकारप्रत्ययस्ततष्टाप् ” तां मीलां प्रसक्तिं विषयप्रवृत्तिं छेत्तुं पृथक न सोद्यमः न सावधानः कन्दर्पः कं सुखं तेन तत्र वा हृप्यतीति " कर्त्त रिअच्" स सुखमनः अनसः स्वयं मनसो रोधने मनःप्रसक्तिनिवारणे कं दर्पमहकारं वदेत् न कमपि यः विषयप्रसक्तिं न रुणद्धि स मनसो रोधने कथं प्रभवेतेति भावः ॥ ११ ॥ । ग्रहीतुमार्जुनी काङ्क्षा प्रवृत्ताङ्गाधिपस्थितिम् । बकवृत्तिं पराकृत्य भीमवृत्तेर्जयोऽभवत् ॥ १२ ॥ अन्वयः - अङ्ग ? अधिपस्थितिम् महीतुम् आर्जुनीं कांक्षा प्रवृत्ता चकवृत्तिम्, पराकृत्य भीमवृत्तेः जयः अभवत् ॥ १५ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये व्याख्या-अङ्ग इति संबोधने संबोधनेऽङ्गभोःप्पाडिति हैमः" अधिपस्थितिम् अधिपाति सर्वतो जीवान् रक्षतीति अधिपः जिनेन्द्रः प्रभुः तस्य स्थितिः स्थीयतेऽस्यामिति स्थितिः प्रवृत्तिः प्रत्रज्यारूपा मर्यादा वा तदधिष्ठितभूमि; तां ग्रहीतुं प्राप्तुं अधिष्ठा. तुम्वा आर्जुनी परिशुद्धा " वलक्षो धवलोऽर्जुन इत्यमरः" कांक्षा वाञ्छा प्रवृत्ता कथिता जिनेन्द्राधिष्ठिताम्प्रवृत्तिमुपलब्धं शुद्धभावना विधेया तथाहि बकवृत्ति बकस्य पक्षिविशेषस्य या वृत्तिः स्थितिः बको जलाशये मत्स्यादिजलचरजन्तुं ग्रहीतुं ध्यानमग्न इव तिष्ठति निश्चलतया परन्तु तस्य हृदये हिंसैव गरीयसी प्रवृत्तिरिति तां वृत्तिम् छद्मप्रवृत्तिम् पराकृत्य निर्वास्य भीमवृत्तेः भीमस्य शिवस्य वृत्तिनिश्चलशु ध्यानस्य वृत्तिरिववृत्तिर्यस्य तस्य शुद्धाचारस्य जयोऽभवत् शुद्धाचा. रस्यैव जिनेन्द्राधिष्ठितस्थितौ प्रवृत्तिरूपा विजयप्राप्तिर्जातेति भावः । अर्वाग्दृष्टि कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः॥ शठो मिथ्याविनीतश्च बक. वृत्तिरुदाहृतः' इति शब्दस्तोममहानिधिः ॥ रामपक्षे---अधिपस्य रावणस्य स्थितिम् स्थानम् ग्रहीतुम् प्राप्तुम् आर्जुनी अर्जुनस्येयमार्जुनी अर्जुनसम्बधिनी प्रभुत्वप्रचुरा कांक्षा वांछा विधेयत्वेन प्रवृत्ता प्रवृत्तिविषयीकृता बकवृत्तिम् शैथिल्यप्रवृत्तिम् पराकृत्य निवयं भीमवृत्तेः उद्धृतवृत्तेर्जयोऽभवत् शत्रुषु शिथिलस्य नैव जयः किन्तु भीमवृत्तस्यैवेति तामाश्रयेदिति भावः ।। कृष्णपक्षे--- अङ्गाधिपस्य कर्णनपने स्थितिम् स्थानम् अधिष्ठानं ग्रहीतुम् आमादितुम् आजुनी अर्जुनसम्बन्धिनी कांक्षा स्पृहा प्रत्ता जाता "जरासंधकृष्णसंग्रामे कर्णमन्वेष्टुम् अर्जुनस्य कांक्षाऽभ. वदित्यर्थः ” बकस्य राक्षसविशेषम्य या वृत्तिः सत्ता तां पराकृत्य पृथकृत्य भीमवृत्तेः भीमस्य वृकोदरस्य वृत्तिापारस्तस्याः भीम. व्यापारस्य जयोऽभवत् विजयो जातः बकासुरनिहत्य भीमसेनस्य जयो जात इत्यर्थः ॥ १२ ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-६ ३०७ धर्मात्मजः खभावेन शल्यमुच्छेत्तुमाहतः । पुन्नागान मनसोद्दिश्य न-कुलस्य पराक्रमः ॥ १३ ॥ अन्वयः-धर्मात्मजः स्वभावेन शल्यम् उच्छेत्तुम् आइतः पुन्नागान् मनसा उद्दिश्य नकुलस्य पराक्रमः ॥ १३ ॥ व्याख्या-धर्मात्मजः साक्षाद्धर्मतनूजः यद्वा धर्मप्रवर्तकत्वात साक्षाद्धर्मावतारः स्वभावेन निसर्गत एव शल्यम् पापम् उच्छेत्तुम् उद्धत्तुम् आहतः कृतादरः उद्युक्तः नकुलस्य कुलाभिमानरहितस्य जिनेन्द्रस्य पुन्नागान् पुंसु नाग इवेति पुन्नागस्तान् पुरुषश्रेष्ठान् सर्वतोऽधिकान् मनसा उद्दिश्य अभिलक्ष्य प्राप्यत्वेन स्थिरीकृत्य पराक्रमः वीरता सर्वोचतालाभायप्रक्रमत इत्यर्थः ॥ रामपक्षे-धर्मात्मजः पुण्यात्मजः रामः स्वभावेन प्रकृत्या शल्यम् शल्यभूतं रावणरूपशत्रुम् उच्नेत्तुमुद्धत्तम् आदृतः कृतादरः सावधानः नकुलस्य नास्तिकुलम् गृहं यस्य तस्य 'कुलं वंशे देशे गृहे इति शब्दस्तोममहानिधिः" तदानीं रामस्य वनवासिता गृहामाव: पुन्नागान् पुरुषश्रेष्ठान् रावणादीन उद्दिश्य अभिलक्ष्य पराक्रमः वीरता स्वभावमेव महतां यन्महता विरोधः शल्योद्धारे प्रवृत्तिश्चेति तत्त्वम् ।। कृष्णपक्षे-धर्मात्मजः युधिष्ठिरः स्वभावेन स्वत एव शल्यम् शल्यनामानम् विपक्षनृपम् उच्छेत्तुम् निराकर्तुम् प्रहत्तुमित्यर्थः आ. दृतः कृतनिश्चयः स्वयमेव तद्धनने सादराभिनिवेशवान् नकुलस्य तन्नामकचतुर्थपाण्डवस्य पुन्नागान् पुमानाग इव इति पुन्नागः पुरुषश्रेष्ठस्तान मनसा उद्दिश्य हृदयेनाभिलक्ष्य पराक्रमः वीरत्वम् पुरुषश्रेठेन सह योध्धुं नकुलः पराक्रामतीति भावः ॥ १३ ॥ चिदंशं वेद दुर्भेदं मुख्यं तस्य विभेदने। शौचधर्म पुरस्कृत्याधात् सन्मार्गणैषणम् ॥ १४ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अन्वयः-चिदंश दुर्भदं चेद तस्य विभेदने मुख्यं शौचधर्मम् पुरस्कृत्य सन्मार्गणैषणम् भदधात् ॥ १४ ॥ व्याख्या-चिदंशं अंशयति समाघातयतीति अंशः समाघातका चिदः अंशः चिदंशः तम् ज्ञानावरणम् सज्ज्ञानप्रतिबंधकमित्यर्थः दुर्भेदम् दुःखेन भिद्यते इति दुर्भेदम् कष्ट भेदनसाध्यम् वेद जानाति तस्य चिदंशस्य ज्ञानावरणस्य विभेदने छेदने मुख्यम् प्रधानम् शौ. चधर्मम् पवित्रधर्मम् निर्मलाचारम् पुरस्कृत्य अने विधाय सन्मार्गेष. णम् सत्पथान्वेषणम् अदधात् अकृत ॥ रामकृष्णपक्ष-चिदंश चेतनाशं दुर्भेदम् कठिनसाध्यम रावणरूपसामर्थ्यशालि जाग्रच्चैतन्यबदित्यर्थः एवं जरासंवरूपमित्यर्थः तस्य विभेदने शौचधर्मम् निर्मलधर्म स्याद्वादरूपम् पुरस्कृत्य स्वीकृत्य स न्मार्गणैषणम् सद्वाणशोधनम् अधात् अकृत ॥ १४ ॥ त्यक्त्वाऽनुबन्धिनो लोके मिथ्याबोधस्थमानसान् । क्लीबान स्त्रीसंप्रयोगेषु लीनांस्तस्थौ स सुस्थिरः ॥१५॥ ___ अन्वयः-लोके मिथ्याबोधस्थमान सान् अनुबन्धिनः क्लीबान् स्त्रीसंप्र. योगेषु लीनान त्यक्त्वा सुस्थिरः तस्थौ ॥ १५ ॥ __ व्याख्या-स जिनेन्द्रः लोके संसारे मिथ्याबोधस्थमानसान् मिथ्याबोधे असज्ज्ञाने तिष्ठतीति मिथ्याबोधस्थः स मानसो येषां तान् असज्ज्ञान निरतान् क्लीबान् पुरुषार्थशून्यान् अथवा सज्ज्ञानेऽपि श्र. द्धाभक्तिविरहितान् स्त्रीसंप्रयोगेषु स्त्रीसंगेषु लीनान् रतान् स्त्रीपरवशान अनुबन्धिन अनुगतान् त्यक्त्वा विसृज्य सुस्थिरः स्वसंकल्पे दृढः तस्थौ स्थितवान् ॥ १५ ॥ स्त्रीभेदं नपुंसक मेदं च क्षयं कृत्वा मुस्थिरस्तस्थौ ।। रामकृष्णपक्षे-मिथ्याबोधस्थमानसान मिथ्यायोधे शत्रुकृतोप Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-६ १.९ जापेन विपर्यज्ञानस्थितमानसान अनुबन्धिनः केवलं मुखप्रेक्षितयाsनुगतान न च प्रीत्येति भावः क्लीवान् तृतीयाप्रकृतीन् स्वीसंप्रयोगेषु लीना स्वीपराधीनान् यद्वा स्त्रीसंगतान् पुरुषार्थविरहितान् त्यक्त्वा निरस्य सुस्थिरः केनाप्यकंप्यस्तस्थौ स्थितः ॥ १५ ॥ हास्यादिषट्कव्यावृत्त्या प्रकृत्यास्थानयोग्यधीः । सपौरुषं रुषं मानं मायां प्रक्षिप्य मार्गभाक् ॥ १६ ॥ अन्वयः-हास्यादिपटक ब्यावृत्या प्रकृत्यास्थानयोग्यधी: स पौरषम् रुषम् मानम् मायाम् प्रक्षिप्य मार्गभाक् ॥ ६ ॥ व्याख्या-स जिनेन्द्रः हास्यादिषट्कव्यावृत्त्या हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्ज्ञा शोक एव चेति निरुक्तपदकस्य व्यावृया परित्यागेन प्रकृत्यास्थानयोग्यधीः प्रकृतिः कर्मस्वभावः तस्या आस्थाने गुणस्थाने योग्या निरन्तरा धीर्यस्य स तत्स्थानाहबुद्धिः पौरुषम् बाह्यशौर्यम् रुषम् क्रोधम् मानम् अहंकारम् मायाम् कापट्यम् मिथ्याबुद्धिमित्यर्थः प्रक्षिप्य क्षयं कृत्वा मार्गभाक् मोक्षमार्गभाक् जात इति शेषः पूर्व श्लोके स्त्रीभेदनपुंसकभेदश्च त्यक्त्वेत्युक्तम् इदानीम्पुरुषभेदश्च तत्याजेत्युक्तम्भवतीति भावः ॥ रामकृष्णपक्षे-हास्यादिषटकानां हासक्रोधशोकमयजुगुप्साविसयरूपाणां स्थायीभावानां व्यावृत्या निवारणेन प्रकृत्या स्वभावेन स्थाने प्रशमस्थाने योग्या निर्मला धीयस्य स योग्यस्थानाभिनिवेशनिमलचेतस्कः रामः कृष्णो वा सपौरुषम् सबलं यथास्यात्तथा रुषम् मन्युम् मानम् "स्वाभीष्टश्लेषवीक्षादिविरोधी मान उच्यते" इत्युक्तलक्षणम् , मायाम् कापटयं च प्रक्षिष्य निराकृत्य मार्गभाक् वीरमार्गभाक् युद्धशाखानातपथप्रवृत्तो बभूवेति शेषः ॥१६॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० महोपाध्यायश्रीमेधाविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्थे दृष्टोऽन्यः क्वापि गूढात्मा सर्वाशाजयकर्मणा । गणाश्रितः स्वभावैक-सपृथक्त्ववितर्ककृत् ॥ १७ ॥ __ अन्वयः-सर्वाशाजयकर्मणा गूढात्मा कापि अन्यैः दृष्ट: गणाश्रितः स्वभावकसपृथक्त्ववितकृत् ॥ १७ ॥ व्याख्या सर्वाशा जयकर्मणा सर्वाश्च ता आशा मनोरथाः तासां जयकर्मणा विजयेन विजितत्वेन परित्यागेनेत्यर्थः "कांक्षा शंसा गर्धवांछाशेच्छेहातृण्मनोरथा इति हैम:" यद्वा सर्वाशानां समस्तदिशानां जयकर्मणा स्वविशुद्धाचारेण कैश्चिदपि विषयजालैरपराजितेनेति भावः "काष्ठाशादिक हरित् ककुविति हैमः" गूढात्मा गूढः गुप्त आत्मा यस्य स केनापि तत्त्वेनाग्रहीतः अलक्षितः क्वापि कुत्रापि अन्यैः कैश्चिन्महाभाग्यशालिभिः दृष्टः तत्स्वरूपेण विज्ञातः गणाश्रितः गणैः साधुसंधैराश्रितः कृताश्रयः स्वभावकसपृथक्त्ववितर्ककृत स्वभावेन स्वप्रकृत्या एक: अनाश्रित इति स्वभावैकः स चासौ सपृथक्त्ववितर्ककृच्चेति स तथोक्तः अपूर्वकरणमारुह्य सविचारपृथक्त्ववितर्कयुक्तशुक्लथ्यानं प्रापेति भावः लोभस्य जयाय पृथक्त्वस्य खण्डं खण्डं विधाय सपृथक्त्ववितर्कनामकशुक्लध्यानविशेषकर बभूवेति तत्वम् ।। रामकृष्णपक्षे- गूढात्मा अप्रकटितस्वसामर्थ्यः शत्रुभिः कापि युद्धसमये दृष्टः अवलोकितः सर्वाशाजयकर्मणा सर्वदिविजयेन अथवा युद्धसमये सर्वदिक्षु प्रहारविधानेन जयकर्मणा गणेन सैन्येन आश्रितोऽधिष्ठितः स्वभावकसपृथक्त्ववितर्ककृत् स्वभावेनैव शत्रूणां पृथक्त्वस्य परस्परभेदस्य वितर्ककृत विचारकारकः आसीदिति शेषः१७ क्वचिदात्मैषणपरं द्रव्यमेकं क्वचिद्विदन् । गुणं विभावयन् धैर्यात् पर्याये रमतेस्म सः ॥ १८॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग - ६ अन्वयः - क्वचिदाःमैषणपरम् क्वचित् एकं द्रव्यं विदद् धैर्यात् गुणं वि. भावयन्स पर्याये रमतेस्म ॥ १८ ॥ ३११ व्याख्या—स जिनेन्द्रः क्वचित कुत्रापि आत्मैषणपरम् आत्मनः स्वस्वरूपस्य यदेषणम् नवेपणम् तत्परम् तदधीनम् क्वचित् क्वापि एकम् द्रव्यम् द्रव्यपदार्थम् विदन् जानन् धैर्यात् धीरतातः गुणम् द्रव्यगुणम् विभावयन् विचारयन् पर्याये साधुधर्मे च रमतेस्म विह रतिस्म ॥ १८ ॥ रामकृष्णपक्षे – आत्मनः देहस्य " आत्मखरूपे यत्ने देहे मानसे बुद्धाविति शब्दस्तोम महानिधिः " रुषणमन्वेषणम् सर्वतोरक्षणम् तत्परः शरीररक्षा सावधानः यद्वा आत्मनः स्वस्य यदेषणः लोहमयो वाणस्तत्परः बाणप्रियः क्वचनापि एकं द्रव्यम् प्रधानभूतं तद्द्रव्यम् धनादिकम् विदन् लभमानः धैर्यात् गुणम् धनुर्वीम् विभायन् विचारयन् पर्यालोचयन् पर्याये अवसरे ''पर्यायोऽनुक्रमे प्रकारे अवसरे निर्माण इति शब्दस्तोममहानिधिः" रमतेस्म क्रीडतिस्म ।। १८ ।। पृथक्त्वमवी (वि)चारं सवितर्कगुणान्वितम् । पुरस्कृत्य तिरस्कृत्य तदधःस्थायिभावनाम् ॥ १९ ॥ अन्वयः... अपृथक्त्वम् अविचारम् सवितर्कगुणान्वितम् पुरस्कृत्य तदधः स्थायिभावनाम् तिरस्कृत्य धीराः किन्नकुर्युरित्यप्रेणान्वयः ॥ १९ ॥ व्याख्या -- अपृथक्त्वम् अविचारम् अविचारशुक्रुध्यानविशेषः तम् सवितर्कगुणान्वितम् सवितर्कगुणसहितम् पुरस्कृत्य अग्रे कृत्वा तदधः स्थायिभावनाम् तन्नीचस्थबुद्धिम् तिरस्कृत्य निवार्य धीराः किन्न कुर्युरित्युत्तरेणान्वयः ॥ रामकृष्णपक्षे - अपृथक्त्वम् अभिन्नत्वम् अविचारम् विचारराहित्यम् सवितर्कगुणान्त्रितम् सवितर्कगुणेन सदनुमीतगुणेन अन्वितं Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविर निते सप्तसन्धानमहाकाम्ये युक्तम् पुरकृत्य अग्रे विधाय तदधः स्थायिभावनाम् तद्भिन्नरूपविचारणाम् तिरस्कृत्य निरस्य धीराः किन्नकुटुंरित्युतरेण सम्बन्धः१९ यत् सूक्ष्मसंपरायस्य स्थाने बादरसंगते । संजाते-नवमस्थाने धीराः कुर्युन किं पुनः ॥ २० ॥ अन्वयः यत् सूक्ष्मसंपरायम्य बादरसंगते स्थाने नवमस्थाने संजाते धीराः पुनः किन्न कुप्युः ॥ २० ॥ व्याख्या-यत् तत्पश्चात् बादरसंगते नवमगुणस्थाने जाते बादरसंपरायाभिधाने नवमगुणस्थानसहिते सूक्षपसंपरायस्य स्थाने तन्नामके दशमे गुणस्थानके संजाते प्राप्ते सति धीशः विज्ञाः किम्पुन: किं किं न कुर्यः तत्स्थानं प्राप्य काँस्कान् मोहनीयकर्मभेदान् न हन्यु: सर्वानेव विजितान् विदध्युरिति भावः ॥ रामकृष्णपक्षे—अदरसंगते भयरहिते सूक्ष्मसंपरायस्य गुप्तयुद्धस्य " युद्धायत्योः संपराय इत्यमरः " स्थाने अनवमस्थाने अरक्षके स्थाने संजाते प्राप्ते सति धीराः यद्धकौशलिनः किन्न कुर्युः सर्वम् संपादयेरन् ॥ २० ॥ मुक्तेऽमुक्ते विमृश्यैव बलमायोजयञ्जयम् । लभेत चेतःप्रसरं प्राप्य जाप्यस्थिराशयः ॥ २१ ॥ अन्वयः- मुक्त अमुक्ते विमृश्यैत्र बलम् आयोजयन स्थिराशयः चेतः प्रसरम् प्राप्य' जयम् लभेत ॥ २१ ॥ व्याख्या-मुक्त परित्यक्ते अमुक्ते अपरित्यक्ते संगृहीते वि. मृश्य विचार्य अयं त्याज्योऽयं संग्राह्य इति सम्यग् विविच्य बलम् स्वशक्तिम् आयोजयन् संचिन्वन् जाप्यस्थिराशयः जापे जपनीये निजमनने स्थिराशयः चेतः प्रसरम् चित्तप्रकाशम् प्राप्य लब्ध्वा जयं विजयम् लभेत प्राप्नुयात् ॥ २१ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-६ ३३ रामकृष्णपक्षे-मुक्ते अविश्वास्येन परित्यक्ते अमुक्ते संग्राह्ये विषये विमृश्यैव पुनः पुनर्विचार्यैव बलम् सैन्यम् आयोजयन् संगृह्णन् जाप्यस्थिराशयः जाप्ये मननीये स्थिराशयः निश्चलचित्तः सुनिश्चलविचारवान् चेतः प्रसरम् स्वमनोबलम् प्राप्य अधिगत्य जयमोत्कर्ण्यम् लभेत आसादयेत ॥ २१ ॥ वीतरागः सदशमा-दादित्यरुचिरूदगतः । जितकाशी सुनासीर-संगमात समदीप्यत ॥ २२ ॥ अन्वयः-वीतरागः सदशमात् आदित्यरुचिः उद्गतः जितकाशी सुनासीरसंगमात् समदीप्यत ॥ २२ ॥ व्याख्या-वीतरागः विशेषेण इतः गतः रागः सांसारिकवि. षयवासनाभिलाषो यस्मात् स रागरहितः सदशमात् दशमगुणस्थानमारभ्य आदित्यरुचिः दिवाकरकांतिः उद्गतः प्रोद्भूतः दिवाकर इव सर्वप्रकाशकारकः सर्वेपर्यवेक्षक इति भावः अत एव जितकाशी जितेन जयेन काशते दीप्यते इति जितकाशी प्राप्तोत्कर्षः सुनासीरसंगमाव महेन्द्रसंगात् तदानीमिन्द्रः समभ्येति इति तत्संगमात् सम. दीप्यत प्रदीप्तो जात इत्यर्थः॥ रामकृष्णे यथा शणु । विशेषेण इतः प्राप्तः रागः शत्रुविषयकाप्रीतियन स वीतरागः सदशमात् सीदत्यसिन्निति सद् युद्धम् तस्य अशमात् अशान्तेः अनिवत्तनात् आदित्यरुचिः सूर्यकांतिः उद्गतः उद्भूतः सूर्य इवासह्यतेजा अभवत् जितकाशी जयाभिलाषी सुनासीरसंगमात् सुष्टु नासीरम् अग्रगसैन्यं यस्य स सुनासीरः "नासीरम् अग्रसरे सेनामुखे चेति शब्दस्तोममहानिधिः" तस्य संगमात् संमेलनाव समदीप्यत अरोचत ॥ २२ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिघिरचिते सप्तसन्धानमहाकारने येन स्वयं संबोधेन स्वामिनश्च-रणाश्रयः। कृतस्तेनाद्वैतभावोऽन्वभाव्यत स्वनन्दनात् ॥२३॥ अन्वयः-येन स्वयं सम्बोधेन स्वामिनः चरणाश्रयः तेनाद्वैतभावः कृतः स्वनन्दनात् अन्वभाव्यत ॥ २३ ॥ व्याख्या-येन स्वयं सम्बोधेन येन यद्रूपेण स्वयमात्मनैव न तु कस्याप्युपदेशेन सम्बोधेन सम्यक्ज्ञानेन स्वामिनः जिनेन्द्रस्य चरणाश्रयः चरणस्य चारित्र्यस्य आश्रयः ग्रहणम् तेन तद्रूपणैव अद्वैतभावः द्विधा इतं मेदं गतं द्वीतम् तस्य भावः द्वैतम् तन्नास्ति यस्मिन् स अद्वैतः स चासौ भावश्चेति अद्वैतभावः सजातीयादिभेदशून्यके बलखात्मानुभवः कृतः विहितः स्वनन्दनात् स्वम् आत्मानम् नन्दयति कृतार्थयतीति स्वनन्दनस्तस्मात् यद्वा स्वस्मिन् आत्मनि नन्दति स्वात्मानुभवेन तुष्यतीति स्वनन्दनस्तस्मात् अन्वभाव्यत अयुज्यत । रामपक्षे-येन सम्बोधेन येन हनुमद्दौत्येन सीतास्थितिसंबोधेन सीता रावणगृहे तिष्ठतीति ज्ञानेन स्वामिनो रामस्य च रणाश्रयः रणस्य संग्रामाङ्गणस्य आश्रयः आश्रयणम् युद्धभूमिगमनम् तेन युद्धभूमिगमनेन अद्वैतभावः तथा सर्वतः स युयुधे यथा रणे रामाद्वैतभावः कृतः प्रतिपक्षिभिः यत्र तत्र राममेवाक्षैष्ट इति रामाद्वैतमभूदिति भावः खनन्दनात् स्वम् आत्मानन्नन्दयति हर्षयतीति स्वनन्दनो लक्ष्मणस्तसात् अन्वभाव्यत अन्वसर्यत लक्ष्मणस्तदान्वमरदिति भावः ॥ यहा येन संबोधेन कामपरतंत्रेण स्वामिनो राक्षसराजस्य रावणस्य च रणाश्रयः रणगमनम् तेन रावणेन आ समंतात द्वैतभावः रामेण सह विपक्षभावः कृतः रामेण सहयोध्धुम् प्रववृते स्वनन्दनात् स्वस्यास्मनो नन्दनस्तनयः 'नन्दनः पुनः उद्वहोऽङ्गात्मजः सूनुस्तनयोदारकः मुत इति हैम:" तस्मान्मेघनादात् अन्वभाव्यत अनुगतः ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- ३.५ marrrrrrr... कृष्णपक्षे-येन कुष्योण सम्बोधेन सम्यक् ज्ञानेन स्वामिना सतोऽपि रणाश्रयः रणस्य संग्रामस्य आश्रयः गमनम् तेन कृष्णेन आसमन्तात् द्वैतभावः भेदबुद्धिः एते मम शत्रव इति मतिः कृतः विहितः स्वनन्दनात् स्वतनयात् प्रद्युम्नादितः अन्वभाव्यत अनुगतो जात इत्यर्थः ।। २३ ॥ यो वैपरीत्यादीशेऽपि कृतकैतवसंगरः । तं मनोरथतो दूरान्मने व्यसनिनं प्रभुः ।। २४ ॥ अन्वयः-- यः वैपरीत्यात् ईशेऽपि कृतकैतवसंगरः तम् व्यसनिनम् प्रभुः मनोरथतो दूरात् मेने ॥ २४ ॥ व्याख्या-यो मोहादिर्व्यसनः ईशेऽपि जिनेन्द्रेऽपि वैपरीत्यात अयोग्यत्वात् कृतकैतवसंगरः कृतो विरचितः कैतवसंगरः कपटयुद्धो येन स सर्वपूज्ये तसिन् छद्मयुद्धमकृतेति भावः, विहितछायुद्धः तम् व्यसनिनम् व्यसनासक्तम् मोहादिकम् प्रभुर्जिनेन्द्रः मनोरथतो मनोस्थादपि दुरात् पृथक् मेने बुबुधे मोहादिर्न कदाचित् प्रभोमनोरथ पथपथिको बभूवेति भावः ॥ रामपक्षे-यः रावणः ईशे राजनि रामे वैपरीत्यात् अनपराधादपि कृतकैतवसंगरः विरचितान्तर्धानादियुद्धः तम् रावणम् व्यसनिनं व्यसनासक्तम् प्रभुः रामः मनोरथतः मनोरथादपि सीतालाभरूपाभिलापात् दुरात् पृथक् मेने मन्यतेस । कृष्णपक्षे-यः जरासंधः ईशेऽपि कृष्णेऽपि कृतकैतवसंगरः विहितकपटयुद्धः तम् व्यसनिम् व्यसनाधीनम् मनोरथतः अभिलाषात् कृष्णपराजयरूपात् दूरात् मेने बहुदूरम्मनुतेस ॥ २४ ॥ आप्तः पुरिमतालाख्यसख्योपवनधारणाम् । काञ्चनाद्रिक्रियामाधात् समाधानोपदेशतः ॥ २५ ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ महोपाध्याय श्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्बे अन्वयः-पुरिमतालाख्यसख्योपवनधारणाम् आप्तः समाधानोपदेशतः काञ्चनाद्रिक्रियाम् आधात् ॥ २५ ॥ व्याख्या-आदीश्वरपक्षे । पुरिमतालाख्यसख्योपवनधारणां पुरिमतालाख्यस्य पुरिमतालनाम्नः अयोध्यायाः शाखानगरस्य सख्यम् मित्रम् सन्निहितमित्यर्थः यदुपवनम् उद्यानम् तत्तथोक्तम् आप्तः प्राप्तः तदुपवनस्थः समाधानोपदेशतः समाधानस्थ समाधेः य उपदेशः महिमा तस्मात् अथवा शमस्य शान्लेः यदाधानम् स्व. स्मिन्नाश्रयणम् तस्य य उपदेशः प्रभावस्तस्मात् काश्चानाद्रिक्रियाम् काञ्चनाद्रेः स्वर्णपर्वतस्य मुमेरोर्या क्रिया निश्चलता तां स्थिरताम् अधाव अदीधरत् ॥ २५ ॥ जिनेन्द्रचतुष्टय पक्षे । आप्तः पुरिमतालाख्यसख्योपवनधारणाम् पुरिमताम् नगरवासिनाम् आसमन्तादलति भूषयति आत्मानं यत्र यद्वाऽऽलति खेलति यत्र सा आला खेला सा ख्यायते यत्र तत् पुरिमतालाख्यम् नागरजनमनोरमस्थानम् तस्य सख्योपवनन् सदृशमुद्यानम् तत्र धारणाम् स्थितिम् आप्तः प्राप्तः समाधानस्य उपदेशतः समाधेः शमाश्रयस्य वा उपदेशतः प्रभावतः काञ्चनाद्रिक्रियाम् सुमे. रुदृढ़ताम् अगात् आश्रयत् ॥ २५ ॥ रामकृष्णयोः पक्षेप्येवमेवावसेयम् ।। पार्श्वनाथस्य वारणस्या धातकीतरुतले केवलज्ञानमुत्पन्नम् नेमिनाथस्य रैवतेऽद्रौ वेतसतस्तले शान्तिनाथस्य हस्तिनापुरे सहस्राम्रवणे नन्दिवृक्षतले ।। ऋजुवालुकानदीतटे शालवृक्षतले महावीरस्य केवलज्ञानम् ।। २५ ॥ संपन्ने सकलेऽध्यक्षे लोकालोकप्रकाशिनि । देवदुन्दुभयो नेदुर्दिवि दुर्नयवारकाः ॥ २६ ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-६ अन्वयः --- लोकालोकप्रकाशिनि सकलेऽध्यक्षे सम्पन्ने सति दुर्ज्ञेयवारका: देवदुंदुभयः दिवि नेदुः ॥ २६ ॥ ३१७ व्याख्या - लोकालोकप्रकाशिनि लोक्यते दृश्यते सर्वैरिति लोकः सर्वप्रत्यक्षः न लोक्यते प्रत्यक्षतया न गृह्यते जनैरित्यलोकः तयोद्वन्द्वः लोकालोकम् प्रकाशितुशीलमस्येति लोकालोकप्रकाशी तस्मिन् करामलकवत् परोक्षापरोक्ष सकलप्रकाशकारके सकलझाने केवलज्ञाने सम्पन्ने प्राप्ते सति प्रभोः केवलज्ञाने समापन्ने सति दिवि देवलोके आकाशे वा दुर्भयवारकाः दुर्नीति निवारकाः देवदुन्दुभयः देवतूर्य्याणि नेदुः सस्वनुः प्रभौ केवलज्ञानोत्पन्ने सति हर्षादेवानाम् वाद्यानि वदन्तिस्मेति भावः ॥ रामकृष्णपक्षे-सकले समग्रे अध्यक्षे नृपस्य छत्र धारणादिव्यवहारेऽधिकृते अधिष्ठिते सति कथंभूते लोकालोकप्रकाशिनि सन्निहितासन्निहित प्रदेशोद्योतकारके सर्वत्र व्यापकशासनशासिते दुर्नयवारका दुराचारनिवारका देवदुन्दुभयः राजतूर्याणि दिवि आकाशे नेदुः शब्दस्याकाशाश्रयत्वादाकाशे सस्वनुः ।। २६ ।। स- कलीश्वरतां प्राप्तोऽलङ्कारवशमाश्रितः । स्वामी जगाद स्याद्वादपद्धत्या मधुरं वचः ॥ २७ ॥ अन्वयः - - सकलीश्वरतां प्राप्त: अलंकारवशमाश्रितः स्वामी स्याद्वादपद्धत्या मधुरं वच: जगाद ॥ २७ ॥ व्याख्या - सकलीश्वरतां प्राप्तः सकलम् समस्त मस्त्यस्मिन्निति सकली सकलिनामीश्वरः सकलीश्वरस्तस्य भावस्तत्ता ताम् समग्रप्रभुताम् प्राप्तः अधिगतः समस्त विश्वप्रभुः अलंकारवशमाश्रितः अलंकाराणि भूषणानि वसन्ति अधितिष्ठन्त्यस्मिन्निति इत्यलंकारवशस्तम् अनेकशोऽलंकृतसमवसरण भूमिमाश्रितः समधिष्ठितः स्वामी जिनेन्द्रप्रभुः Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्वे स्याद्वादपद्धत्या अनेकान्तवादसरण्या मार्गेण जैनशासनानुसारेणेत्यर्थः मधुरम् सर्वसाधारणरोचकम् वचः वचनम् जगाद उपदिदेश ॥ रामकृष्णपक्षे-कलीश्वरताम् कलेयुद्धस्य ईश्वरतां विजयतां मुख्यतां वा प्राप्तः स रामः कृष्णो वा लंकारवसमाश्रितः लंकायाः रावणराज्यधान्याः यो वः शब्दस्तमाश्रयतीति तथा लंकाशब्दश्रोता अथवा लंका इति रवः अभिधानं यस्य तन्नगरसमाश्रित: लंकाधिष्ठितः सन् अन्यत्र अलंकारवशमाश्रितः अनेककौस्तुभादिभूषणवशगः स्वामी पृथ्वीपतिः स्याद्वादपद्धत्या अनेकान्तवादरीत्या मधुरं वचः श्ललं वचनं जगाद उचे ॥ २७ ॥ विशालशालरचना व्यूहरक्षाविशेषिताः। चैत्यपादपसंपन्ना दक्षा यक्षा वितेनिरे ॥ २८ ॥ अन्वयः - दक्षा यक्षाः चैत्यपादपसम्पन्नाः व्यूह रक्षाविशेषिताः विशालशालर चनाः वितेनिरे ॥ २८ ॥ व्याख्या--दक्षाः प्रवीणाः पटवः यक्षाः देवविशेषाः चैत्यपा. दपसम्पन्नाः चैत्यपादपेन महावृक्षेण देवाधिष्ठानवृक्षण वा यद्वा जिनसभास्थपादपविशेषेण अथवा चैत्येन देवस्थानेन पादपेन च सम्पन्नाः सहिताः न्यूहरक्षाविशेषिताः व्यूहस्य जनसमूहस्य या रक्षा निर्वाधस्थितिस्तया विशेषिताः शोभिताः जनानामसंकीर्णस्थितिविशेषमण्डिता इत्यर्थः विशालसालरचना विशालः प्रकाण्डो यः शालः गेहः तस्य रचना निर्माण अथवा विशेषेण शालते शोभते यत् शालम् गृहम् तस्य रचना अथवा विशालो महान् यः शालः प्राकारः तस्य रचना यद्वा विशालः यः शालः वृक्षस्तस्य रचना विधानानि वितेनिरे विस्तारयामासुः यक्षास्तत्र देवा देवस्थितियोग्यां सभां वितेनिरे ।। रामकृष्णपक्षेऽपि साधारणम् ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग- ६ ११९ यद्वा दक्षाः जिनेन्द्रविषयकातिशयभक्तिमन्तः यक्षाः देवविशेषाः विशालशालरचनाः विशालाना शालानां रत्नस्वर्णरूप्यमयानां प्राका. रत्रयाणां या रचनानिर्मितिः ताः चत्यपादपसम्पन्नाः चैत्याभिधानो यः पादपः अशोकवृक्षः तेन सम्पन्ना सहिता सभा इति शेषः वितेनिरे विस्तारयामासुः ॥ २८ । नीराजनक्रियाप्यर्चानुरागेण विधीयताम् । विधेयास्त्राद्युपास्थायेत्यूचे वाग् विजयैषिभिः ॥ २९ ॥ अन्वयः-विधेय? अस्त्रापास्थाय अनुरागेश नीराजनक्रियाप्यर्चा विधीयताम् इति विजय षिभिः वाम् उचे ॥ २९ ॥ व्याख्या-हे विधेय! विधानकारक ! अस्त्राद्युपास्थाय अस्त्रा. दिनिराकृत्य अनुरागेण प्रेम्णा नीराजनक्रिया आरात्रिकक्रिया अर्चा पूजापि प्रभोरिति शेषः विधीयताम् क्रियताम् इति एवं प्रकारेण विजयैषिभिः विजयेच्छुभिर्देवैरिति शेषः वाम् उचे जगदे ।। २९॥ रामकृष्णपक्षेऽप्येवमेव । विपक्षपक्षे विक्षितैः करणैबहुहेतिभिः । प्रपन्नेप्यवधिमानं वर्षाः सुमनसो व्यधुः ॥ ३० ॥ अन्वयः-बहुहेतिभिः करणैर्विपक्षपक्षे विक्षिप्तः अवधिमानम् प्रपन्ने अपि सुमनसो वर्षा व्यधुः ॥ ३० ॥ व्याख्या-प्रपन्ने स्थिते विपक्षपक्षे समवसरणभूमौ विघ्नभूते तुषकण्टकशर्करादिरूपे विद्यमाने सति बहुहेतिभिः विपुलतेजस्कैः विक्षिप्तैः विक्षेपकारकैः निःसारकैः करणैः करोतीति करणो वायुः तैः वायुकुमारः अवधिमानम् सर्वत एकयोजनम् पृथ्वीतलम् निर्मले कृते सतीति शेषः सुमनसः सुष्ठ मनो येषान्ते सुमनसः देवाः मेघकुमाराः वर्षाः सुगन्धिजलवृष्टीः व्यधुः चक्रुः यद्वा सुमनसः अधोमुख Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सससन्धानमहाकाचे .......varuvarnaran. वृन्तस्य कुसुमस्य वर्षाः व्यधुः विदधतिस्म ।। रामकृष्णपक्षे । बहुहेतिभिरस्त्रैः विक्षिसः प्रयोजित करणैरनेकशस्त्रप्रयोगैः विपक्षपक्षे शत्रुपक्षे अवधिमानम् अन्तम् विनाशमित्यर्थः प्रपन्ने गते प्राप्ते सति सुमनसः पुष्पस्य वर्षाः वृष्टीः व्यधुः अकार्युः देवा इति शेषः ॥ ३० ॥ ये दीक्षिता वीक्षितास्ते मण्डलामविशारदाः । नारदा अप्युपाजग्मुः स्वामिनं द्रष्टुमुत्सुकाः॥ ३१ ॥ अन्वयः-ये मण्डलायविशारदाः वीक्षिताः ते दीक्षिताः स्वामिनं द्रष्टुमुत्सुका नारदा अपि उपाजग्मुः ॥ ३ ॥ व्याख्या-ये दीक्षिताः लब्धदीक्षा वीक्षिताः विशेषेण ईक्षिताः अवलोकिताः अथवा वीक्षम् विस्मयम् इताः प्राप्ताः जातविसया ते स्वामिनम् प्रभुम् जिनेन्द्रम् द्रष्टुम् दर्शनाय उत्सुका उत्कण्ठिताः मण्डलायविशारदाः मंडलाने राजमण्डलाअभागे विशारदाः प्रगल्भाः यद्वा मण्डलाग्रे समवसरणमण्डले विशारदा विचक्षणाः नारदाः मुनिविशेषाः अथवा नारम् जलम् ददातीति नारदस्ते मेधकुमाराः अथवा नरम् अज्ञानम् यति खण्डयतीति नरदस्स एव नारदस्ते अज्ञाननाशका मुनिविशेषाः यद्वा नरं ज्ञानं ददतीति नरदास्त एव नारदा ज्ञानदायिनः तेऽपि उपाजग्मुः आययुः ।। रामकृष्णपक्षे-ये दीक्षिताः संग्रामदीक्षामाताः रणाङ्गणगताः ते वीक्षिताः दृष्टाः मण्डलायविशारदाः मण्डलस्य समूहस्य अग्रः श्रेष्ठः तसिन् विशारदाः श्रेष्ठाः प्रगल्भाः नारदाः खनामख्यातविशेषाः ।। स्वामिनम् रामम् कृष्णश्च द्रष्टुमवलोकयितुमुत्सुकाः उत्कंठिताः उपा जग्मुरागतवन्तः ॥ ३१ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्यशीविजयातरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-६ ३२९ धरां के वलिनश्चक्रुः परां विकृतिवर्जिताम् । पुण्यप्रवृति सत्कीर्ति-धवलां सकलां किल ॥ ३२ ॥ अन्वयः-केवलिनः पराम् विकृतिवर्जिताम् पुण्यप्रवृत्तिम् सत्कीर्तिधवला सकलां धराम् किल चः ॥ ३२ ॥ व्याख्या- ---केवलिनः केवलज्ञानशालिनः जिनेन्द्राः पराम् अ. तिशयिताम् विकृतिवर्जिताम् विकाररहिताम् निर्विकाराम् पुण्यप्रवृत्ति पुण्यस्य सुकृतेः प्रवृत्तिः प्रवर्तनं यत्र ताम् सत्कीर्तिधवलां सती शोभना चासो कीर्तिः सत्कीर्तिस्तया धवलामवलक्षाम् अथवा सतां सजनानां या कीर्तिः तया धवलाम् प्राप्तप्रकाशाम् सकलाम् निखिलाम् धराम् पृथ्वीम् चक्रुर्विदधुः किल निश्चयेन विदधन्तिस्म । अत्र केवलिनः इत्यस्य मिन्नार्थोऽपि, यथा केवलिनः केवलज्ञानवतो जिनेन्द्रस्य धराम् तदधिष्ठानभूमिम् के केऽपि वलिनः वायव इत्यर्थः ।। अथवा के आत्मनि बलवन्तः आत्मज्ञानवन्तः अथवा के कामतंत्रे वलिनः काम. जयिनः यद्वा के शरीरे वलिनः शारीरिकममत्वरहिताः “अनादरे सप्तमी" यद्वा के मनसि बलिनः जितेन्द्रियाः मनोजयेन सर्वेन्द्रियजयो भवति यद्वा इन्द्रियाणां मनसः प्राधान्यादिति भावः “क इति ब्रह्मणि वायौ आत्मनि कामतंत्रे देहे मनसि चेति शब्दस्तोममहानिधिः " ॥ ३२ ॥ रामकृष्णपक्षे-के केऽपि वलिनो बलवन्तो रामादयः कृष्णादयो वा परामुत्कुष्टां विकृतिवर्जितां निर्विकाराम् पुण्यप्रवृत्तिं पुण्यप्रचाराम् पवित्राचाराम् सत्कीर्तिधवलाम् सत्कीर्तिस्फीतां सकलां कृत्स्नाम् धराम् पृथ्वीम् चक्रुः विरचन्तिस्म, श्लेषः ॥ ३२ ॥ नानाविद्याधरास्तत्र विविधायुधभूषिताः । विदधुर्मधुरां भक्तिं परपक्षविनाशनैः ॥ ३३ ॥ . Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजय गणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अन्वयः -- तत्र विविधायुधभूषिताः नानाविद्याधराः परपक्षविनाशनैः मधुरां भक्तिम् विदधुः ॥ ३३ ॥ ફર व्याख्या - तत्र जिनेन्द्रस्य समवसरणस्थाने विविधायुधभूषिता आयुध्यते यैस्तान्यायुधानि विविधानि अनेकप्रकाराणि च तानि इति विविधायुधानि तैर्भूषिताः कृतमंडनाः नानाविद्याधराः अनेक देवयोनि - विशेषाः परपक्षविनाशनैः परपक्षाणां विपक्षपक्षाणां विघ्नविधायकानाम् पापानां वा विनाशनैः विघातैर्निराकरणैर्मधुराम् निर्मलाम् निश्छद्मामित्यर्थः भक्तिम् सेवाम् प्रीतिम् विदधुः चक्रुः ॥ ३३ ॥ रामकृष्णपक्षे - नानाविद्याधराः अनेकशास्त्रपरिशीलन पटिष्ठाः यद्वा नानाविद्याः शिल्पविद्या - गानविद्या अविद्या-शास्त्रविद्या-नीतिविद्या कलाविद्याः ताः धरन्तीति नानाविद्याधराः विविधायुधभूषिताः विविधानि अनेकप्रकाराणि यान्यायुधानि तैर्भूषिताः मण्डिताः यद्वा विविधानि यानि आयुधानि सुवर्णविशेषाणि तैर्भषिताः शोभिताः अलङ्कारसुवर्ण तु शृङ्गीकन कमायुधमिति हैमः " परपचविनाशनैः परपक्षाणां शत्रुपक्षाणां विनाशनैः निराकरणैः मधुरां मनोहरां भक्ति प्रीतिं विदधुः कुर्वन्तिस्म ॥ ३३ ॥ समुद्रविजयं मेघनादं सानकदुन्दुभिः । गर्जितैस्तर्जयामास बृहद्रथमतङ्गजम् ॥ ३४ ॥ अन्वयः --- सानकदुन्दुभिः समुद्रविजयम् मेघनादम् बृहद्रथमतङ्गजम् गर्जितैस्तर्जयामास ॥ ३४ ॥ " व्याख्या — आनयति जिनेन्द्रदर्शनाय सोत्साहं करोतीति आनकः स चासौ दुन्दुभिः वाद्य विशेषश्चेति आनकदुन्दुभिः तेन सहितः इति सानकदुन्दुभिः आनकदुन्दुभिसहितवाद्यसमूहः मुद्रया सहितो विजयो यस्य स समुद्रविजयो मकरकेतनः काम इत्यर्थस्तम् मेघनादम् Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-६ मेघ इव नादो यस्य तम् सर्वविजयित्वात् यद्वा मेहनम् सिञ्चनम् मेघः तस्मै नदति गर्जतीति मेघनादः श्रीसंगमाय कृतगर्जनस्तम् बृह द्रथमतङ्गजम् रमन्ते अनेनेति रथः बृहत् महान् चासौ रथवेति बृह. द्रथः तस्मिन् मतङ्गजः श्रेष्ठः इति तथोक्तः महद्रमणसाधकः काममूलादेव स्त्रीविलासप्रवृत्तिरिति भावः तम् यद्वा बृहन्महान् रथो यस्य स बृहद्रथः स चासौ मतङ्गजचेति तथा मदोन्मत्तत्वात्तत्सादृश्यम् तं गर्जितैः स्वीयशब्दैः तर्जयामास विद्रावयामास || जिनेन्द्रसमवसरण - वाद्यानि विपक्षान् क्षोभयन्तिस्मेति भावः ॥ ३२३ रामपक्षे - सानकदुन्दुभिः दुन्दु इति शब्देन भापयति भीषयति दिशो विद्रावयति शत्रू निति दुन्दुभिः आनकेन सहितः दुन्दुभिः इति सानकदुन्दुभिः प्रोत्साहितवानरसैन्यम् समुद्र विजयम् समुद्रेण परिखाभूतेन विजयो रिपुकतानभिभवो यस्य तम् दुस्तरसमुद्रपरिखस्वाद कैरपि पराजयितुमशक्यम् बृहद्रथमतंगजम् बृहद्रथे महद्रथेमतंगजो यस्य तम् हस्तिरथस्थम् मेघनादम् तदभिधानम् रावणतनयस् गर्जितैर्निजगर्जनाभिस्तर्जयामास निर्भर्त्सयां चक्रे ॥ - कृष्णपक्षे – सानकदुन्दुभिः आनकदुन्दुभिर्वसुदेवः तेन सहितः इति सानकदुन्दुभिः वसुदेवसहित यादव सैन्यम् समुद्रविजयम् समुद्रन्ति आर्द्रीभवन्ति रुधिरेण शत्रवो यस्मात् स समुद्रः यद्वा मुद्रया सहितः समुद्रः विजयते इति विजयः समुद्रश्चासौ विजयश्चेति समुद्र विजयस्तम् मेघनादम् मेघ इव घन इव नदतीति मेघनादस्तम् वृहद्रथमतंगजम् बृहद्रथस्यापत्यम् बृहद्रथः अपत्यप्रत्ययस्य लुक् स मतङ्गज इवेति जरासंध गर्जितैः स्वीय वीरशब्दैः तर्जयामास क्षोभयामास ॥ बृहन्महान् रथो यस्य स बृहद्रथः स मतंगज इवेति बृहद्रथ मतंगजस्तमित्यर्थो वा भासते । श्लेषः ॥ ३४ ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते समसम्मानमहाकाये वसुदेवः साङ्गजन्मा साम्बाग्रजजयध्वनिः । नरो विद्याधराओतुं प्रतस्थे नेमिरक्षितः ॥ ३५ ॥ अन्वयः--साङ्गजन्मा बसुदेव; साम्बाग्रजजयध्वनिः नेमिरक्षित: नरः विद्याधरान जेतुम् प्रतस्थे ॥ ३५ ॥ व्याख्या-वसुदेवः वसुना दीप्त्या दीन्यति प्रकाशते इति वसुदेवः कान्तिमान् अद्भुततेजस्कः अंगयतीत्यङ्गः तेन अङ्गेन चिह्न सहितं जन्म यस्य स साङ्गजन्मा तीर्थङ्कराणां पृथक् पृथक् लाञ्छनं जन्मत एव भवतीति ज्ञेयम् सलाञ्छनः अम्बया सहितः साम्बः तस्य अग्रजः प्रथम जातः जयध्वनिः जयजयारावो यस्य साम्बाग्रजजयध्वनिः तीर्थङ्कराणां जननी जन्मनि स्वजन्मनि च देवैर्जयशब्दः क्रियते इति समुदाचारः नरः ना यद्वा : कामानलो नास्ति यस्य स नरः कामानलरहितः जिनेन्द्रः विद्याधरान मारणमोहनवशीकरणविद्वेषणोचाटनस्तम्भनादिषड्विधविद्योपजीविनो जेतुम् पराजयितुम् यद्वा अविद्याधरान अज्ञान् सावधज्ञानवतो वा जेतुम्उपदेष्टुम् अनेमिरक्षितः नेमिः रथोपकरणविशेषस्तेन रक्षितो न भवतीति तथा पादचार: प्रतस्थे विजहार ॥ रामपक्षे-वसुदेवः कान्तिभृत् समानादेकरमादङ्गजन्म शरीरधारण यस्य स एकपिटकः सलक्ष्मण इत्यर्थः अमति वात्सल्यं यातीति अम्बः अम्बते स्ने हेन जल्पतीति वा अम्बः स्नेहकर्ता तेन सहितः अग्रजो यस्य स साम्बाग्रजः तसिन् जयध्वनिर्विजयशब्दो यस्य स साम्बाग्रजजयध्वनिः नरः लक्ष्मणः नेमिरक्षितः चक्रपालितः विद्याधरान् अन्तर्धानादिविद्यायुक्तान् जेतुम् प्रतस्थे चचाल । कृष्णपक्षे-साङ्गजन्मा अंगात् जन्म यस्य स साङ्गजन्मा तनूजः तेन सहित: अकरा क्रूरः ज्वलनवेग इत्यादयस्तत्सुतास्तैः सह वसुदेवः Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतत्रिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग- ३२५ साम्बाग्रजजयध्वनिः प्रद्युम्नसाम्बप्रभृतिः नेमिरक्षितः नेमिनाथेन कृतरक्षाविधिः नरः विद्याधरान् जेतुम् पराजयितुम् प्रतस्थे चचाल । अर्वाक जरासंधसैन्या-दागुर्विद्याधरोतमाः। वैताट्याद्रौ जरासंध गृह्या ये संति खेचराः। तेषां जयार्थ सेनानी-वसुदेवोऽस्तु तेऽनुज इत्यादि नेमिनाथचरित्रे कथा सन्दर्मः ॥ ३५ ॥ ज्योतिर्वैमानिका देवा भावनाश्च वनेचराः । नन्वीयुः के-वलोत्पत्तिमहिमानं दिदृक्षवः ॥ ३६॥ ___ अन्वयः-ज्योतिर्वैमानिकादेवा भावनाः च वनेचराः केवलोत्पत्तिमहिमानम् दिदृक्षवः नन्वीयुः ॥ ३६ ॥ व्याख्या-केवलोत्पत्तिमहिमानम् केवलस्य केवलज्ञानस्य उत्पत्तिरुद्भवः तस्याः महिमानम् अनुभावम् दिदृक्षवः द्रष्टुमिच्छवः प्रेक्षकाः ज्योतिः ज्योतिष्कदेवाः वैमानिकदेवाः भावनाः भुवनपतिदेवाः बनेचराः व्यंतरदेवा ननु इति कोमलालापे ईयुः आजग्मुः ।। रामकृष्णपक्षे-के राजनि राक्षसराजे रावणे जरासंधे नृपे वा "कः राजनि-ब्रह्मणि-आत्मनि-देहे मनसीत्यादिशब्दस्तोममहानिधि" विषये बलोत्पत्तिमहिमानम् प्रभावोत्पत्तिविशेषौदकर्ण्यम् दिदृक्षवः प्रेक्षकाः ज्योतिः ज्योतिष्कदेवाः वैमानिका देवा भावनाः भुवनपतिदेवाः वनेचराः ननु ईयुः आययुः लोकोत्तरवीरद्वयोः प्रभावदर्शनाय समापेतुः ॥ ३६॥ जज्ञे समवसरणं लग्नवध्वा दशाश्रयम् । स्वान्ययोर्भूभुजोर्योगे सुरासुराङ्गसंगतेः ॥ ३७॥ अन्वयः-सुरासुरांगसंगतेः स्वान्ययोर्भूभुजोयोंगे लमबध्वा दशाश्रयम् समवसरणम् जज्ञे ॥ १० ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ महोपाध्यायधीमेष विजयगणिविरचिते सक्षसम्मानमहाकावे ....................... .....................aamaanaaratamarinuter . narwww.rrrrrrror व्याख्या-मुरासुराङ्गसंगतेः मुराः देवाः असुराः दानवाः तयोर्द्वन्द्वः इति मुरासुरे तयोरङ्गसङ्गतिः अवयवसम्मेलनमिति सुरासुराङ्गसङ्गतिः अवयवसम्मेलनमिति सुरासुराङ्गसंगतिः देवासुरसम्मेलनं तस्मात् देवासुरसङ्गतेः सकाशात् यद्वा देवासुरसंगतिमाश्रित्येत्यर्थः ।। "ल्यब्लोपे पंचमी" स्वान्ययो भुजोोंगे स्वे च अन्ये च इति तयोः खान्ययोः भूभुजोः नरराजदेवराजयोः योगे सम्बन्धे । यद्वा देवराजासुरराजयोोंगे लग्नवध्वाः परिणयागतवध्वाः दशां वस्त्राञ्चलम् आश्रयते यस्मिन् तत् इव यथास्यात्तथा वा समवसरणम् केवलज्ञानो. त्सवम् वरमुक्तिवध्वा दशाश्रयमिवेत्यर्थः जज्ञे समुत्पेदे ।। रामकृष्णपक्षे-सुरासुराङ्गसंगतेः सुराणाम् देवानाम् दैत्यानाम् राक्षसानां वा अङ्गसङ्गतिः शरीरसम्बन्धस्तस्मात् प्रेक्षकतया देवासुरसइतेः पश्चात् लमवध्वाः संग्रामलक्ष्म्याः विजयलक्ष्म्याः दशाम् वस्त्रा. श्लमाश्रयते उद्देश्यत्वेन अभिलक्ष्यते यत्र तत् स्वान्यभभुजोर्योगे स्वकीयपरकीयराजसम्बन्धे उभयपक्षनृपतिसमायोगे समवसरणम् समानयुद्धम् एकतरपक्षजयपराजयशून्यम् जज्ञे बभूव ।। ३७ ॥ सुराः सुरपदे लग्ना मग्नास्तत्र नरा नरैः । भूपा भूपालमासाद्य तुल्यस्थानप्रयत्नकाः ॥ ३८ ॥ अन्धयः-तत्र सुराः सुरपदे लग्ना नराः नरैः मन्नाः भूपाः भूपालमासाय सुलस्थानप्रयत्नकाः ॥ ३७ ॥ व्याख्या -- तत्र समवसरणे सुराः देवाः सुरपदे देवस्थाने लग्नाः स्थिता उपविष्टा इत्यर्थः नराः मनुष्याः नरैः मनुष्यैः सहेति शेष: मनाः निमग्नाः संगताः भूपाः पृथ्वीपतयः भूपालम् नृपम् आसाद्य प्राप्य भूपतिश्रेणिमाश्रित्य तुल्यस्थानप्रयत्नकाः तुल्यस्थाने खसमानस्थाने योग्यस्थाने इति तत्वम् प्रयत्नो येषां ते तथोक्ताः असंकीर्णा आसनिति शेषः खस्खयोग्यस्थाने समुपविष्टा इति भावः ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसरिप्रणीता सरणी का. सर्ग-१ १२७ रामकृष्णपक्षे-तत्र समवसरणे समानयुद्धे स्वस्वसमाजे प्रेक्षकास्ते तस्थुरन्यत् पूर्ववत् ।। ३८ ।। पत्तीनां समितौ पत्ति-योगः सादिषु सादिनाम् । रथिनां रथिसंसर्गाद मर्यादातिक्रमो न तत ॥३९॥ अन्वयः-पत्तीनां समिती पत्तियोगः सादिनाम् सादिषु रथिनाम् रथिसंसर्गात् तत् मर्यादातिक्रमो न ॥ ३९ ॥ व्याख्या-पत्तीनाम् सेनानाम् "एकोरथो गजोऽप्येकत्रयो. ऽश्वाः पञ्च सैनिकाः पत्तयस्ते समाख्याता युद्धशास्त्रविशारदै" रित्युक्तप्रकाराणां समिती समुदाये पत्तियोगः उक्तप्रकाराणां योगः सम्बन्धः सादिषु अश्वगजारोहणकर्तृषु जनेषु सादिनाम् अश्वारोहिणाम् गजारोहिणाम् योगः सम्बन्धः रथिनाम् रथारोहिणाम् रथिसंसर्गात रथिभिः सम्बन्धात् तत् मर्यादातिक्रमः श्रेणीभङ्गः न, क्रमस्खलना न जातेति भावः ॥ ___ व्यभिचार नयात्येत-द्वयाख्यानं रामकृष्णयोः ॥ ३९ ॥ प्रभोरादेशमासाद्य योगिसेनाग्रणीगणी । कृतहस्ततयारोपत्यागाच्चके हिते-रणम् ॥ ४० ॥ अन्वयः-प्रभोः आदेशम् आसाद्य योगिसेनाप्रणीः गणीकृतहस्ततया भारोपत्यागात् हितेरणम् चक्रे ॥ ४० ॥ ___व्याख्या-प्रभोः जिनेन्द्रस्य आदेशम् अनुज्ञाम् आसाद्य लब्ध्वा योगोऽस्यास्तीति योगी “अस्य स्वं तपोयोगसमाधय इति हैमः" योगिनां सेना समुदायः तत्र अग्रणीः श्रेष्ठः इति योगिसेनाग्रणी: योगिसमुदायाग्रेसरः गणी-"अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधीती गणश्च स इति हैम:" गणधरः ऋषभादिः कृतहस्ततया मुशिक्षिततया आरोपत्यागात् आरोपस्य भ्रमस्य त्यागात निरसनात् यथास्थितवस्तुस्वरूपतः हिते. रणम् सदुपदेशम् चक्रे विदधे ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्भानमहाकाम्ये रामकृष्णपक्षे-प्रभोः रामस्य कृष्णस्य च आदेशमाज्ञाम् आसाद्य प्राप्य योगिसेनाप्रणीः युज्यते नियुज्यते संग्रामायेति योगिनी सा चासौ सेना चेति योगिसेना तासु अग्रणीः श्रेष्ठः अग्रेसर इत्यर्थः मणी वीरेषु गण्यते संख्यायते इति गणी संख्यावान् सेनापतिरितिभावः कृतहस्ततया सुशिक्षिततया क्षिप्रहस्ततया आरोपत्यागात भ्रमराहित्येन अहिते शत्रौ रणम् युद्धम् चक्रे विदधे || "निष्णातो निपुणो दक्षः कर्महस्तमुखाः कृतादिति हैमः" ॥ ४० ॥ कश्चित सारसनाभिस्पृव्यवच्छेद विधौ पटुः । दीतिभागन्वयं मत्वा चके ज्याघातवारणम् ॥११॥ अन्वयः-कश्चित् सारसनाभिस्पक व्यवच्छेदवधौ पटुः दीतिभाक् अन्वयं मत्वा ज्याघातवारणं चक्रे ॥ ४ ॥ व्याख्या-कश्चित कोऽपि सारसनाभिस्पृक् सारसेनयुक्तो नाभिः सारसनाभिः काञ्चीयुक्तनाभिः तम् स्पृशतीति तथा स्त्रीकट्याभरणसहितनाभिस्पृर्शकर्ता व्यवच्छेदविधौ तत्परित्यागविधौ पटुः कुशलः यद्वा सारसनाभिस्पृशः व्यवच्छेदविधिः परिवर्जन विधिस्तत्रपटा दक्षः। स्त्रीसंभोगरहितो जातः अत एव दीप्तिभाग कान्तिमान् जात इति शेषः अन्वयम् सम्बन्धं सर्वत्रजीवसम्बन्धं बुध्वा ज्याघातवारणं ज्यया मौा धनुर्गुणेन यो घातःप्राणिवधस्तस्य वारणं निषेधं हिंसानिति चक्रे गणधरोपदिष्टवचनं श्रुत्वा कश्चिद्योषित्संगानिववृते कश्चिद्धिसा-: तश्चेति तत्वम् ।। ४१ ॥ रामकृष्णपक्षे-आरसति शब्दं करोतीति आरस: आरसेन सहितः सारसः स चासो नाभिः रथचक्रवामपिण्डी चेति सारसनाभिस्तं स्पृशति स्वस्थं करोतीति सारसनाभिस्पृक् "नाभिर्नाभौ रथचक्रस्य वामपिंड्यां क्षत्रिये मृगमदे इति शब्दस्तोममहानिधिः" व्यवच्छेदविधी Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-६ बाणमोचने शत्रुच्छेदनविधौ च पटुः दक्षः दीप्तिभाग अतितेजस्कः अन्वयं निजपितृमातृकुलावदात्तच्वं महद्वंशप्रसूतोऽहमिति मत्वा विचार्य ज्यायाः मौर्या यो घातः हस्ते स्पर्शजनितः क्षतिः तस्य वारणं निवारणं हस्ते चर्मबन्धनम् चक्रे विदधे युद्धाय सन्नद्यत इति भावः ।। ४१ ।। ३२९ न केवलं परामृश्य पुरतः पदमादधुः । अश्रद्धया के वलिनां परे मीमांमकाः श्रुतेः ॥ ४२ ॥ अन्वयः --- केवलं परामृश्य पुरतः पदम् न आदधुः किन्तु परे मीमांसकाः केवलिनाम् अश्रद्धया श्रुतेः पद्मादधुः ॥ ४२ ॥ व्याख्या - केचन केवलम् प्रभोरिति शेषः केवलज्ञानं जातमिति परामृश्य विचार्य पुरतः अग्रतः समवसरणस्थ प्रभुदर्शनार्थमुपदेशश्रव गार्थ वा पदम् आदधुः तत्र गमनाय प्रचक्रमिरे न किन्तु केवलिनाम् केवलज्ञानवतां प्रभ्रूणां प्रभुमित्यर्थः "अनादरे षष्ठी" अश्रद्धया तद्विषयकालीकबुद्ध्या श्रुतेः श्रवणस्य केवलज्ञानमुत्पन्नमिति विश्वासराहित्येन मीमांसकाः परे केsपि कर्मवादिनोऽपि पदम् तत्र तद्दर्शनाय चरणप्रचारमादधुः चक्रुः ॥ यद्वा केवलिनाम् केवलज्ञानवताम् अश्रद्धया अभक्त्या श्रुतेः शास्त्रस्य अमीमांसकाः शास्त्रज्ञानरहिताः परे केचन परामृश्य विचार्य अस्माकमत्राकाशो न भवेदिति विचार्य पुरतः अग्रतः स्वस्थानादग्रे केवलम् पदम् एकपदमपि न आदधुः स्वस्थानादेकक्रममपि न चेलुः ॥ यद्वा श्रुतेः शास्त्रस्य मीमांसकाः विचारकाः शास्त्रविचारदक्षा : बलिनाम् बलवताम् परे श्रेष्ठाः आत्मज्ञानवतां धुर्याः के कामतंत्रे देहे वा अश्रद्धया अनभिनिवेशतया बलम् स्वीयसामर्थ्य परामृश्य विचार्य पुरतः अग्रतः देशनाश्रवणार्थ के पदं गमनम् न आदधुः न चक्रुः किन्तु सर्वे तत्र पदमादधुर्जग्मुरिति भावः ॥ ४२ ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजय गणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये रामकृष्णपक्षे के केऽपि बलम् स्वसामर्थ्य परामृश्य विचार्य पुरतः अग्रतः संग्रामभूमौ पदं चरणं न आदधुः न धृताः संग्रामभूमौ न गताः परे केचन के शरीरे अश्रद्धया किमिदं क्षणभङ्गुरं शरीरं रक्ष्यते इति शारीरिकममरहिताः श्रूयते इति श्रुतिः शब्दः तस्याः मीमांसकाः विचारवन्तः धि धिग् किमिति पलायन्ते नेयं वीरपद्धतिरिति शत्रुवचनविचारकाः वीराभिमानिन इत्यर्थः पुरतः संग्रामायाग्रतः पदं चरणं आदधुः संग्रामाय जग्मुरिति भावः ॥ ४२ ॥ धन्याः केऽपीश्वरम्मन्या यथेच्छाचारकारिणः । स्वकारणे कार्यकृतः सभ्या वाल्लभ्यमैयरुः ॥ ४३ ॥ ३३० भन्वयः - – केsपि ईश्वरम्मन्याः यथेच्छाचारकारिणः स्वकाः रणे अकार्यकृतः सभ्या वाल्लभ्यम् ऐयरुः ॥ ४३ ॥ व्याख्या - ईश्वरम्मन्याः जिनेन्द्रे ईश्वरबुद्धिमन्तः यथेच्छाचारकारिणः जिनेन्द्रस्य या इच्छा आचारथ तयोः कारिणः जिनेन्द्राज्ञानुवर्त्तिनः स्वकाः स्वाधीनाः न तु पुत्रकलत्रादिपरतंत्राः रणे संग्रामे कार्य हिंसनादिकम न कुर्वन्तीति अकार्यकृतः हिंसादिव्यापारपराक्मुखाः धन्याः कृतकृत्याः श्रेष्ठाः सभ्याः सभाहीः योग्याः वाल्लभ्यम् प्रागल्भ्यम् ऐयरुः अलभन्त || रामकृष्णपक्षे - केऽपि केचन ईश्वरम्मन्या आत्मानम् ईश्वरम्म न्यन्ते इति तथोक्ता अत एव यथेच्छाचारकारिणः स्वाभिमतकार्यकारिणः निष्प्रतिबंधा धन्याः श्रेष्ठाः स्वकाः स्वाधीनाः रणे संग्रामे कार्यकृतः संग्रामकार्यदक्षाः सभ्याः सभाः वाल्लभ्यम् वल्लभताम् प्रगल्भतां ऐयरुः आप्राप्नुयुः ॥ ४३ ॥ मार्गणान्वेषणाज्जीवाजीवाश्रयदृशः परे । वाराणभृतो वारवाणाद्विरतिमादधुः ॥ ४४ ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयातपरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- ६ ० अन्वयः-परे मार्गणान्वेषणात् जीवाजीवाश्रयदृशः वारवाणभृत: वारबाणात् विरतिम् भादधुः ॥ ४४ ॥ व्याख्या—मार्गणान्वेषणात् मार्यतेऽनेनेति मार्गणम् शास्त्रम् ज्ञानं वा “करणे ल्युः" तस्य अन्वेषणात् पर्यालोचनात् परे केऽपि जीवाजीवाश्रयदृशः जीवाश्च अजीवाश्चेति जीवाजीवम् तत् आश्रयति विचारयतीति जीवाजीवाश्रयदृक् येषां ते जीवाजीवविचारचणाः वारवाणभृतः वारवाणम् कवचम् बिभ्रति धारयति इति वाखाणभृतः कवचधारिण: " निचोलकः स्यात् कूपासो वारवाणश्च कंचुक इति हैम:" अथवा बियते जनैरिति वारः संसारः तम् बाणयति रुणद्धीति प्रेरयति विक्षिपतीति वारबाणः संसारनिवर्तकस्तं बिभ्रतीति वारबाणभृतः चारित्र्यवन्तः संसारनिवर्तकाध्यवसायवन्तो वा वारबाणात् वारम् जनसमूहम् बाणयति आवयति स्वसानिद्धयं कारयतीति वारवाणः वेश्याजनः तस्मात यद्वा बाणम् शरम् वृणोतीति वारबाणः राजदन्तादित्वात् परनिपातः तस्मात् हिंसार्थवाणधारणात् विरतिम् विरामम् आदधुः स्वीचक्रुः अत्र गम्यो विरोधाभासोऽलंकारः ॥ रामकृष्णपक्षे-मार्गणान्वेषणात् मार्गणस्य बाणस्य अन्वेषणात् संधानात् जीवाजीवाश्रयदृशः जीवन्मृतज्ञानवन्तः एते जीवन्ति एते मृता इति विवेकवन्तः वारवाणभृतः कवचिनः बाणवारात बाणावसराव बाणाघातात विरतिम् निवृत्तिम् आदधुः कृतवन्तः कवचधारणेन बाणवेधस निवृत्तिः कृतेति भावः ॥ "वेलावारावसर प्रस्तावः ।। प्रक्रमोऽन्तरमिति हैमः" || ४४ ॥ शुद्धषणानवच्छेदाद्वैयावृत्त्यं वियोगिनाम् । स्वतन्वाशु वितन्वानाः प्रायश्चित्तं समादधुः ॥४५॥ अन्वयः-वियोगिनाम् सुद्धैषणानवच्छेदात् वैयावृत्यं स्वतन्वा वितन्वानाः भाशु प्रायधिस समादधुः ४५ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ महोपाध्याय श्रीमेषविजयगणिविरचिते सहसम्मानमहाका व्याख्या-वियोगिनाम् विगतः योगः सांसारिकविषयसंबन्धो येषां ते वियोगिनस्तेषाम् निर्ग्रन्थिनां मुनीनाम् शुद्धैषणानवच्छेदाद शुद्धैषणायाः पवित्रैषणायाः निरवद्यमिक्षायाः अनवच्छेदात् नैरन्तर्याद वैयावृत्यम् साधुसेवाविशेषम् स्वतन्वा स्वशरीरेण वितन्वानाः कुर्वाणा: मुनयः इति शेषः, आशु झटिति प्रायश्चित्तम् प्रायस्य पापस्य चिचम् शोधनम् यस्मात् तम् 'प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते। तपोनिश्चय संयुक्तं प्रायश्चित्तमिति स्मृत'मित्युक्तखरूपं वा समादधुः चक्रु॥ रामकृष्णविषये- शुद्धषणानवच्छेदात् शुद्धः निशातो य एषणो बाणः तस्य अनवच्छेदात् सातत्याद अनवरतवाणप्रयोगात् वियोगिनाम् वि असहनेऽक्षमायां योगोऽभिनिवेशो येषां ते वियोगिनस्तेषामसहिष्णूनां वैयावृत्त्यम् व्यावृत्तर्भवम् वैयावृत्त्यम् निवारणम् आशु शीघ्रम् चितन्वानाः विस्तारयन्तः स्वतन्वा शरीरेण प्रायः बाहुल्येन चित्तं मनः समादधुः समादधतिस चितैकाय्यं चक्रुरित्यर्थः ॥४५॥ उद्यते-रावणो दीघे सर्वत्राभयविस्मयः । कोशल्यानन्दनोद्योगे कौशल्यानन्दनो न कः? ॥४६॥ ___ अन्वय--दीधैं रावणौ उद्यते सर्वत्र अभयविस्मयः कौशल्यानन्दनोद्योग का कौशल्यानन्दनो न ॥ ४६ ॥ व्याख्या-रावयति निवारयति कर्म दुःखं यः स रावणः तस्यायं रावणिः उपदेशः तसिन् रावणौ उपदेशे दीर्घ महति उद्यते प्रभवति सति प्रभूत जिनेन्द्र व्याख्याने प्रसरति सतीति भावः सर्वत्र सर्वतो. भावेन अभयस्य निराबाघस्य परस्परविद्वेषशान्तभावस्य विस्मयः आश्चर्यः अजनीति शेषः कौशल्येन निजालौकिकनैपुण्येन आनन्दयतीति कौशल्यानन्दनः निजनिर्मलदाक्ष्येणानन्दयिता तस्य उद्योगे उपदेशविधौ कः संसारी कौशल्यानन्दना कौशल्येन कुशलतया नन्दनः Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविनयामतपरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-1 ११ सुखवान् न सर्व एव कुशलवान् जात इति तत्वम् ।। रामपक्षे-दीघे महति रावणौ रावणपुत्रे मेघनादे उद्यते संग्रामाय उद्युक्ते सति सर्वत्राभयविसंयः सर्वत्र सर्वेषु स्वसैन्येषु अभयस्य निर्भयस्य विस्मयः अजनि इति शेषः अथवा सर्वत्र सर्वेषु रामसैन्येषु आसमन्तात् भयस्य मीतेर्विमयः आभयेन विस्मय इति वा अजनीति शेषः कौशल्यानन्दनस्य रामस्य उद्योगः रणगमनम् तस्मिन् कः सैन्यपरिगतः का कौशल्येन कुशलस्य भावा कौशल्यम् मांगल्यम् तेन नन्दनः आनन्दयुक्तः न सर्वे आनन्दिता अभवनिति भावः ॥ श्रीकृष्णपक्षे जिनेन्द्रपक्षवज्ज्ञेयम् ॥ ४६ ॥ प्राप्ते मार्गे दशमुखेऽभिमुखे संयतीशिताम् । न कोऽपि निरतः स्थातुं पुरतो विनतात्मना ॥ ४७ ॥ ___ अन्वयः-संयतीशिताम् प्राप्ते दशमुखे अभिमुखे मार्गे कोऽपि विन. तात्मना पुरत: स्थातुम् न निरतः ॥ ४ ॥ व्याख्या-संयतंते इति संयतिनः साधवः तेषु ईशिता ईशित्वम् इति संयतीशिताम् प्राप्ते लब्धे दशमुखे दशसु दिक्षु मुखं यस्य स दशमुखस्तसिन् 'यदा जिनेन्द्रो देशनां ददाति तदा सर्वदिगुपवि. ष्टानां स्वाभिमुखमेव लक्ष्यते दीपशिखावदिति' दशमुखे जिनेन्द्र अभिमुखे संमुखे मार्ग तदृष्टिपातभूमौ कोऽपि कश्चिदपि विनतात्मना विशेषेण नत आत्मा यस्य तेन विनतात्मना नतकन्धरेण पुरतः अग्रतः स्थातुम् उपवेष्टम् न निरतः न समर्थः सर्वतः सर्व एव नता आसमित्यर्थः॥ रामपक्षे-ईशिताम् प्रभुताम् प्राप्ते सर्वराक्षसेश्वरतामुपगते दशमुखे रावणे अभिमुखे संमुख मार्गे तत्संमुखीने सति पुरतः अग्रतः संयति संग्रामे विनतात्मना शरपातभयात् विना नम्रतया खातुम न Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५४ महोपाध्यायत्रीमेपषिजयगणिविरचिते सहसम्धानमहाकाब्वे कोऽपि निरतः समर्थः रावणबाणभिन्नमर्माणः सर्व एव नीचैर्मुखा अभवनिति तात्पर्यम् ॥ कृष्णपक्षे-संयति संग्रामे ईशिताम् प्रगल्भतां प्राप्ते दशमुखे सर्वतो दत्तलक्ष्ये कृष्णे सति मार्गे रणमार्गे अभिमुखे समक्षे विनतास्मना विना नम्रतया कोऽपि पुरतः अग्रतः स्थातुं न निरतः न समर्थः अभवत् ॥ ४७॥ दृष्टे पुण्यजनाधीशे बृहद्रथभुवि स्वतः। सर्वे नरा वानरा वा चलाचलदशां दधुः ॥४८॥ अन्वयः-पुण्यजनाधीशे बृहद्धभुवि दृष्टे स्वतः सर्वे नरा वानरा वा चलाचळदशाम् दधुः ॥ ४० ॥ व्याख्या-रम्यतेऽनेनेति स्थः " रमे कथन् ” रम्यस्थानम् बृहन्महांश्चासौ रथश्चेति बृहद्रथः तस्य भूः तसिन् बृहद्रथभुवि महद्र म्यभूमौ मोक्षमार्गे पुण्यजनाधीशे पुण्यजनाः पवित्रजना अधीशते यत्र तस्मिन् पवित्रजनाधिष्ठिते वर्तमाने जिनेन्द्रे दृष्टे नयनगोचरे सति सर्वे नराः मनुष्याः अनराः देवाश्च यक्षगन्धर्वादयश्च स्वतः अकारणात् चलाचलदशाम् तचजोधर्षितत्वात् चञ्चलताम् उत्सुकताम् दधुः जग्मुः ॥४८॥ रामपक्षे । बृहन्महांश्चासौ स्थश्चेति बृहद्रथः महत्स्यन्दनः तत्र भवतीति बृहद्रथभूस्तस्मिन् महद्रथस्थे पुण्यजनाधीशे पुण्यजनानाम् राक्षसानाम् अधीशे नृपे “यातुधानः पुण्यजनो नैऋतो जातु रक्षसीत्यमरः" रावणे दृष्टे समरभूमिगोचरे सति सर्वे नराः मनुष्या: वानराः कपयश्च स्वतः स्वयमेव चलाचलदशाम् साध्वसा चञ्चलताम् अस्थिरताम् दधुः अनुभवन्तिस्म रावणभयात् सर्वे इतस्ततोऽभवन्निस्वर्थः॥४८॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-६ ३३५ कृष्णपक्षे-पुण्यजनाधीशे पुण्यजनम् अधीष्टे शास्तीति पुण्यजनाधीशस्तस्मिन् यद्वा अपुण्यजनाधीशे अपुण्यजनान् पापिष्ठान अधीष्टे तसिन् कलुषितजनाधीशे बृहद्रथभुवि बृहद्रथराजपुत्रे बार्हद्रथे जरासंधे दृष्टे संग्रामाङ्गणगोचरे सति सर्वे कृष्णपक्षीयाः नराः मनुष्याः अनराः देवयक्षगन्धर्वराक्षसादयः अचलाचलदशां स्थैर्यताम् अकिश्चित्करो ऽयमस्माकमिति निर्भीकताम् दधुः धारयन्तिस्म ॥ १८ ॥ तदा मुक्ते जरायोगे शक्तिशल्यानुभाविनि । सुमित्रासंभवे व्यग्रे बले व्यापद विना जिनम् ॥४९|| अन्वयः--तदा शक्तिशल्यानुभाविनि जरायोगे मुक्ते सुमित्रासंभवे बले व्यग्रे जिनं विना व्यापत् ॥ ४९ ॥ व्याख्या-तदा केवलज्ञानानन्तरं शक्तिशल्यानुभाविनि शक्तिरनविशेषः शल्यो बाणस्तयोर्द्वन्द्वः शक्तिशल्यम् तस्य अनुभावः प्रभावः पापक्षयकारत्वाद्यस्मिन् तसिन् योगे तपोविशेष मुक्ते परित्यक्ते सति अजरा न जीर्यति जन्मकोटिशतैरपीति जरा कर्मग्रन्थिः जिनं विना जिनेन्द्रप्रभु विना सुमित्रासंभवे सुमिद्यति नियति जनोऽस्यामिति पृथ्वी तस्या संभवे पृथ्वीजाते व्यग्रे दु:खिनि चले संघे व्यापत् प्रासरत् ।। ४९ ॥ रामपक्षे-जीर्यते शरीरमनया इति जरा काचित् शक्तिः तस्या योगे प्रयोगे शक्तिशल्यानुभाविनि शक्तिशल्योभयप्रभावशालिनि तदा रावणयुद्धसमये मुक्ते लक्ष्मणाय विक्षिप्ते सति सुमित्रासंभवे लक्ष्मणे व्यग्रे दुःखमापन्ने बले सैन्ये जिनम् जयतीति जिनस्तम् रामम् विना व्यापत् प्रासरन् समस्तबलं व्यग्रमभवत् ।। कृष्णपक्षे-तदा जरासंधयुद्धे शक्तिशल्यानुभाविनि शक्तिवाणप्रभावशालिनि जरायोगे जरास्त्रप्रयोगे मुक्ते सति यदस्त्रप्रभावात्सर्वे. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ महोपाध्यायभीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्मानमहाकाव्ये जरायुक्ता भवन्तीति भावः जिनं विना श्रीनेमिनाथं विना सुमित्रा. संभवे सुमित्रसमागमे व्यग्रे दुःखमापन्ने बले सैन्ये व्यापत् जरा सर्वत्र प्रासरदिति भावः॥ ४९ ॥ कृते नागवराहाने वामेयार्चा समागता । तया विशल्यया सेना जिनोक्त्या साऽभवत् पटुः॥५०॥ अन्वयः-नागवराहाने कृते दामेयाची समागता तया विशव्यया जिनोक्स्या सा सेना पटुः अभवत् ॥ ५० ॥ __ व्याख्या-न गच्छतीति नागः कामः सर्वदा शरीरस्थितत्वाद स चासौ वरश्चेति नागवरः तस्य आह्वाने आकारिते सति कामपरतंत्रे सति वामाया इयम् वामेया अर्चा पूजा आराधना तदनुसरणा समागता समुपस्थिता परंतु जिनोक्त्या जिनशब्दोचारणेन तथैव विशल्यया विशल्यकरणया दुःखनिवारिकया सा सेना जनप्रवृत्तिः पटुः साधीयसी अभवत् अजायत जिनस्य कामजितत्वात्तन्नामोचारणमात्रेण कामो व्यपलायत ॥ रामपक्षसाधारणमेतत् । कृष्णपक्षे-नागवराहाने नागवरस्य धरणेन्द्रस्य आह्वाने आकरणे कृते सति वामेयस्य पाश्चैजिनेन्द्रस्य या अर्चा पूजा सा समागता समुपस्थिता जिनोक्त्या जिनस्य श्रीनेमिनाथस्य या उक्तिः सा जिनोतिः तया जिनेन्द्रोपदेशभूतया तया श्रीपार्श्वजिनेन्द्रपूजया विशल्यया विशल्यकरणया जराविद्राविकया सा सेना पटुः पदवी कार्यक्षमा अभवत् अजायत ॥ ५० ॥ राजद्राजी समाजानां सा-धो-रणविनिग्रहात् । कुम्भकर्णे रक्तलेपात् शुशुभे या-स-भागजा ॥५१॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाचार्य श्रीविजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ६ ३३७ अन्वयः - या रणविनिग्रहात् साधोः राजद्वाजी कुंभकर्णे रकलेपा सा सभागजा शुशुभे ॥ ५१ ॥ व्याख्या--रणविनिग्रहात् संग्रामपरित्यागात् साधोः मुनेः समाजानां समुदायानां या राजद्राजी विरोचमानश्रेणी कुम्भ इव कर्णः यथा कुम्भो जलादिकं धारयति तथायमपि बहुशास्त्रविचारग्राहक इति भात्रः तस्मिन् रक्तलेपात् रक्तस्य शास्त्रानुरागस्थ लेपादासञ्जनात् "रक्तम् कुंकुमे ताम्रे रुधिरे रागे इति शब्दस्तोममहानिधिः " भजनम् भागः " भावे घञ् " भक्तिरित्यर्थः तेन सहितः सभागः सैव सभागा ततो जायते इति सभागजा देवविषयक भक्तिजनिता सा शुशुभे बभौ ।। रामपक्षे -- धोरण विनिग्रहात धोरणानां हस्त्यश्वादियानानाम् विनिग्रहात् विनाशनात् हननादित्यर्थः कुम्भकर्णे रावणानुजे रक्तले पाद रक्तस्य रक्तचन्दस्य रुधिरस्य वा लेपात् अभ्यञ्जनात् "रक्तसंकोचपिशुनं धीरं लोहितचन्दनमित्यमरः " भा प्रभा तया सहिताः सभाः सभाः सदीप्ताः गजाः हस्तिनो यत्र सा सभागजा दीप्तिमद्गजमती मदोन्मत्तगजबहुलेति यावत् समाजानाम् रणगतानां सैनिकानाम् राजद्राजी शोभमाना श्रेणी रोचिष्णु सैन्यपंक्तिः सा शुशुभे दिदीपे || कृष्णपक्षे - धोरण विनिग्रहात् हस्त्यश्वादिवाहननाशात् अत एव कुम्भकर्णे कुम्भ इव कर्णौ यस्य स कुम्भकर्णस्तस्मिन् रक्तलेपाद हस्त्य श्वादिशरीरशोणितलेपात् सभागजा समानभागे जायते तिष्ठतीति सभागजा एकदेशस्थिता समाजानां रणगत सेनानाम् राजद्राजी विरोचमान संहतिः शुशुभे रेजे ॥ ५१ ॥ हरयोsहरयोगेन निद्रामुद्रात्रिमुद्रिताः । पुरश्वेरुः सपर्याणाः कुर्वाणा दर्शनोत्सवम् ॥ ५२ ॥ अन्वयः --- अहः अयोगेन निद्रामुद्राविमुद्विताः हरयः सपर्याणां दर्शनोरसवम् कुर्वाणाः पुररुः ॥ ५२ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्धानमहाकाव्ये व्याख्या - हरति पापमिति हरिस्ते हरयो जिनेन्द्राः अहः प्रातः अयोगेन योगराहित्येन जिनेन्द्राणां निद्रामुद्रा विमुद्रिताः निद्रायाः स्वापस्य या मुद्रा नेत्रसंकोचादिस्तां विमुद्रितास्त्यक्ताः सपर्याणा: परित एति इति पर्याणस्तेन सहिताः सपर्याणाः परितो गमनशीलाः दर्शनोत्सवम् नेत्रोत्सवं कुर्वाणाः दर्शनानन्ददायकाः पुरः अग्रे चेरुः चेलुः ॥ ५२ ॥ रामपक्षे – अहः प्रातः अयोगेन अनायासेन स्वत एवेत्यर्थः निद्रामुद्राविमुद्रिताः निद्रोत्थिता हरयः कपयः सपर्याणाः पर्यायेण अश्वसजनेन सहिताः यथाऽश्वादिरारोहणार्थे कम्बलादि पृष्ठास्तरणेन सञ्जिता भवन्ति तथा सपर्याणाः पृष्ठास्तरणसंयुक्ताः अत एव दर्शनो रसवं नयनानन्दं कुर्वाणा चिदधानाः पुरः अग्रे चेरुः विचेरुः ॥ ઢ कृष्णपक्षे - हरयोऽश्वा अन्यत् पूर्ववद्वयाख्येयम् ।। ५२ ।। दशा - स्याभिमुखे रामानुजे या - जनि संमतिः । जयश्रीर्निश्चिता देवे नृदेवेऽद्भुतया तया ॥ ५३ ॥ अन्वयः - दशास्याभिमुखे रामानुजे या सम्मितिः भजनि अद्भुतया तपा देवे नृदेवे जयश्रीर्निश्चिता ॥ ५३ ॥ व्याख्या - दशास्याभिमुखे दशसु इन्द्रियेष्विति शेषः आस्यं प्रवृत्तिर्यस्य स दशास्यः कामः तस्य आभिमुख्ये समक्षे कथंभूते रामानुजे रामाम् कामिनीम् अनुजाति अनुसरतीति रामानुजस्तस्मिन् यद्वा रामे रमन्तेऽस्मिन्निति रामो ध्यानम् तम् तस्मिन् वा अनुजाति अघितिष्ठतीति रामानुजः श्रीजिनेन्द्रः तस्मिन् या सम्मितिः संग्रामोऽजनि कामे जिनेन्द्रे च सम्मितिरभूत नृदेवे मनुष्यदेवे देवे जिनेन्द्रे विषये अद्भुततया निरतिशयप्रभावतया जयश्रीः कामविजयलक्ष्मीः निश्चिता अवश्यंभाविनी || ५३ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजय मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-६ रामपक्षे - दशास्याभिमुखे दशास्यस्य रावणस्य अभिमुखे सन्निधौ रावणेन सहेत्यर्थः रामानुजे लक्ष्मणे या सम्मितिः संग्रामोऽजनि उदपादि अद्भुततया विलक्षणतया देवे द्योतनात्मके नृदेवे लक्ष्मणे जयश्रीर्विजयलक्ष्मीः निश्चिता नियमिता अवश्यं भवित्री || ३३९ - कृष्णपक्षे – दशास्याभिमुखे जरासंघ संमुखे रामानुजे रामादनु जायते इति रामानुजः बलरामानुजे कृष्णो सम्मितिः अजनि अजनिष्ट अद्भुततया अलौकिक चमत्कारतया नृदेवें देवे कृष्णे जयश्रीर्विजयलक्ष्मी र्निश्चिता क्लृप्ता ॥ ५३ ॥ नागाहत - विवाहेन तत्क्षणे सदृशः श्रियः । नागाहत - विवाहेन तत्क्षणे सदृशः श्रियः ॥ ५४ ॥ अन्वयः -- विवाहेन सदृशः तत्क्षणे श्रियः न अगाहत विवाहेन तत्क्षणे ना सद्दशः श्रियः अगाहत || ५४ ॥ व्याख्या- विशुद्धतां निर्मलतां वाहयति लभते "प्रेरणांशत्यागात्" इति विवाहस्तेन विवाहेन उपलक्षितः उपलक्षणे तृतीया निर्मलतयोपलक्षितः पश्यत्यनेनेति दृशः ज्ञानम् तेन सहितः सदृशः विशेपज्ञानवान् तत्क्षणे प्रव्रज्यासमये श्रियः राज्यलक्ष्मीः न अगाहत नालभत वि श्रेष्ठताम् वाहयति निर्वाहयतीति विवाहस्तेनोपलक्षितः श्रेष्ठतामुपगतः जिनेन्द्रप्रभुः तत्क्षणे केवलज्ञानोत्पत्तिक्षणे ना पुरुषः कर्म निरसनादेव विशिष्ट पुरुषः सदृशः सदृशीः स्वस्वरूपयोग्याः श्रियः केवलज्ञानलक्ष्मीः अगाहत अलभत ॥ रामपक्षे - सदृशः दृशेन सहितः सदृशः "दृशेः कब्" सनयनः तस्य विंशतिनयनत्वेन तथा निर्देशः रावणः विवाहेन राक्षसादिविवाहेन विधिना श्रियः सीताः पूज्यत्वाद्बहुवचनम् ' न अगाहत न अलभत सदृशः ज्ञानवान् ना मनुष्यो लक्ष्मणः विः पक्षी गरुडः " १६ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्लसम्धानमहाकाब्बे वाहो वाहनं यस्य तेन विवाहेन गरुत्मद्वाहनेन कारणेन तत्क्षणे रावणयुद्धसमये श्रियः विजयलक्ष्मीः यद्वा श्रियः रावणसम्पदः अगा. हत अप्राप्नुत ।। ५४ ॥ अथवा अगति कुटिलं गच्छतीति अग् "कर्तरि विप्" न अग् नाम् तेन नागा अकुटिलगामिना अहतविवाहेन अपराहतगरुत्मद्वाहनेन उपलक्षितः श्रियः विजयलक्ष्म्याः सदृशः योग्यः सदृशः ज्ञानवान् ना नरः विवाहेन श्रियः रावणराजलक्ष्मीः अगाहत आसादयत् ।। कृष्णपक्षे-नागयोः पद्मोत्तरचंपकयोः यत् आहतम् आहननम् तत् नागाहतम् विपक्षी गरुडः स एव वाहनम् इति विवाहनम् नागाहतश्च विवाहश्च इति नामाहतविवाहः तेन नागाहतविवाहेन उपलक्षितः तत्क्षणे तत्समये श्रियः लक्षम्याः सदृशः योग्यः ना पुरुषः तत्क्षणे शिशुपाल वाहोत्सवे सदृशः शोभनयनाः श्रियः रुक्मिणी विवाहेन राक्षसविबाहेन अगाहत अप्राप्नोत् ॥ श्लोकाध्यमकं प्रकृते ।। प्राहरद्विजयः कणें-जपमाश्रित्य शाम्भवम् । अस्तस्तत्तेजसा द्रोण-भीष्माहितपराभवः ॥ ५५ ॥ अन्ययः-विजयः शाम्भवमाश्रित्य कर्णेजपम् प्राहरत् तत्तेजसा द्रोण- . भीष्माहित पराभवः न्यस्तः ॥ ५५ ॥ व्याख्या-विजयते कपायादीनिति विजयः शाम्भवम् शं कल्याणम् जनानामिति शेषः भवत्यनेनेति शंभवस्तस्य भावस्तम् आश्रित्य अभिलक्ष्य कर्णेजपम् सूचकम् प्राहरत् निरस्यत् यदि कर्णेजपानां स्थिभवेत्तदा कदाचिदपि लोककल्याणं न संभाव्य ते इति विचार्य तं निशस्यदिति भावः " कर्णेजपः सूचकः स्थापिशुनो दुर्जनः खल इत्यमरः" तत्तेजसा तस्य जिनेन्द्रस्य तेजसा प्रभावेन द्रोण भीष्माहितपराभवः द्रुणति हिंसयति कौटिल्ययतीति द्रोणः भीषयतीति Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-६ ૪. भीष्मः तयोर्द्वन्द्वः ताभ्यामाहितः स्थापितः जनितः यः पराभवः दुःखम् स अस्तः निरस्तः जिनेन्द्रतेजसा केषामपि कुतश्चिदपि भयो न जात इति तत्वम् ॥ ५५ ॥ रामपक्षे -- विजयते इति विजयो रामः शांभवम् शंभुसंबन्धिनं विजयावहं वा कर्णेजपम् कर्णे किमपि कथयतीवेति कर्णपर्यन्तमाकुष्टम् धनुः आश्रित्य मौर्वीङ्कर्णपर्यन्तमाकृष्य प्राहरत् ततेजसाऽऽकर्णाकृष्टवाणस्य तेजसाऽनुभावेन द्रोणभीष्माहितपराक्रमः हिंषकभीषकजनितदुःखम् अस्तः निराकृतः ॥ P कृष्णपक्षे - विजयः अर्जुनः कर्णेजपम् सूचकमाश्रित्याभिलक्ष्य शांभवम् शंभुदत्तम् गाण्डीवं धनुः प्राहरत् प्रहृतवान् तत्तेजसा तन्महिना द्रोणभीष्माहितपराक्रमः द्रोणश्च भीष्मश्चेति द्वन्द्वस्तयोराहितः स्थापितः पराभवः विपत्तिः अस्तः निर्विष्टः द्रोणादिषु कर्णानन्तरं पराभवो जातः अथवा शांभवं शम्भुदेवताकं जपं भजनमाश्रित्य कर्णे कर्णनामनि राज्ञि प्राहरत् अथवा संप्रति कर्णार्जुनीययुद्धे द्रोणभीष्माहितपराभवः युद्धव्यसनः अस्तः निराकृतः ।। ५५ ।। नरः सवासवं चक्रं प्राप्य तद्भेदमादधे । सालङ्कारसमासन्नं जज्ञे जयजयारवः जयजयारवः ॥ ५६ ॥ अन्वयः - नरः सवासवं सालंकारसमासनं चक्रं प्राप्य तद्भेदम् आदधे जयजयारवः जज्ञे ॥ ५६ ॥ व्याख्या -- नृणाति विशुद्धधर्म प्रचारयतीति नरः जिनेन्द्रः वासवेन महेन्द्रेण सहितं सवासवम् सेन्द्रम् सालङ्कारसमासन्नम् अलंकारेण सहितः सालंकारः सालंकारेण समासन्नः समागतः इति सालंकारसमासन्नः सभूषणसन्निहितस्तम् चक्रम् संघम् इन्द्रमण्डित Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकान्चे जनसहितं समुदायं प्राप्य लब्ध्वा तत्सभामासाद्य भेदम् पापपुण्यवि वेचनम् जीवाजीव विवेचनम् वा यद्वा अविद्याभेदम् आदधे स्वकीयसदुपदेशेन विवेचयामास तत इति शेषः जयजयारवः जयजयध्वनिः जज्ञे सर्वे जना उपदेशामृतामास्वाद्य जयशब्दं चक्रुरित्यर्थः ॥ - रामकृष्णपक्षे – स नरः लक्ष्मणः कृष्णो वा वासवम् चक्रं वसुरस्मिन्नस्तीति वासवम् समृद्धम् राजमण्डलम् सालंकारसमासन्नम् आभूषणसहितसमागतम् शौर्यादिगुणभूषणसमन्वितम् चक्रं राजमण्डलम् प्राप्य लब्ध्वा समासाद्य तद्भेदं तदीयच्छेदम् आदधे समृद्धशूरराजमण्डलस्य छेदनम् छिन्नभिन्नमाचक्रे तेनेति शेषः जयजयारवः जयजयस्वनः जज्ञे जयजयशब्दं चक्रे ।। ५६ ॥ ३४२ सुमित्राङ्गज संगत्या सदशाननभासुरः । अलिमुक्तेर्दानकार्य - सारोऽभालक्ष्मणाधिपः ॥ ५७ ॥ अन्वयः --- सुमित्रांगजसंगत्या दशाननभासुरः लक्ष्मणाधिपः भलिमुक्तेदानकार्यसारः अभात् ॥ ५९ ॥ व्याख्या - सुष्ठु भेद्यति स्निह्यति अनुबभातीति सुमित्रम् केवलज्ञानम् तदेवाङ्गजम् स्वतन्त्रत्वात् इति सुमित्राङ्गजम् तस्य संगत्या सम्बन्धेन केवलज्ञानयोगेन दशाननभासुरः दशसु दिक्षु आननं सुखमुपदेशकाले यस्य स दशाननः तेन भासुरः दीप्यमानः लक्ष्मणाधिपः लक्ष्म चिह्नमेव लक्ष्मणं ' स्वार्थेऽण् ' तत् अधिपाति रक्षति स्वसङ्गेन धारयतीति लक्ष्मणाधिपः अलिमुक्तेः अलेः सुरायाः मुक्तेस्त्यागात् सर्वथा वर्जनात् दानकार्यसारः दानकार्यमुपदेशनमेव सारो यस्य स अभात् अशोमिष्ट || ५७ || अलिभ्रमरेऽष्टश्चिके काके कोकिले सुरायाचेति शब्दस्तोममहानिधिः ॥ रामपक्षे - स लक्ष्मणाधिपः लक्ष्मणश्वासौ अधिपश्चेति लक्ष्मणाधिपः लक्ष्मणाभिन्नो नृपः दशाननभासुरः दशाननस्य भा दीप्तिः Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-1 ११३ दशाननभा ताम् अस्थति विक्षिपति तिरस्करोतीति दशाननभासुरः "अस्यते वास्यतीत्यादि नौणादिक उर प्रत्ययः” दशाननशोभानिराकरिष्णुः सुमित्राङ्गजसंगत्या सुमित्राया अङ्गजा तनयः सुमित्रांगजः तस्य संगत्या यः सुमित्रांगजः स कदाचिदपि दुर्मित्रं न सहत इत्यन्वर्थतया अलिमुक्ते णमोचनात् पतत्रित्वेन साम्यादलिशब्दस्य बाणार्थतेति भावः दानकार्यसारः दानं च्छेदनमेव कार्यसारं यस्य स अभाव अशोभत ॥ यद्वा । स रावणः मुमित्राङ्गजसंगत्या अङ्गाजायते अङ्गजा सुमित्रं च सोऽङ्गजश्चेति सुमित्राङ्गजः कामस्तस्य संगत्या संगमेन कामपराधीन. तया दशानन भासुरः दशाननेन शोममानः लक्ष्मणाधिपः लक्ष्मणानां लक्ष्मीयतामधिपा अलिमुक्तेर्वाणमोचनादानकार्यसारः लेदनपटुः अभाव अशोभत ।। कृष्णपक्षे-मुष्ठ भेद्यति स्निह्यतीति सुमित्रं तच्चासावङ्गाजश्चेति सुमित्राङ्गजः प्रद्युम्नः यद्वा सुमित्रः अर्जुनस्तस्याङ्गजोऽभिमन्युः तस्य संगत्या सम्मेलनेन दशाननभासुरः दशदिक्षु शोभमानः लक्ष्मणाधिपः लक्ष्मणायाः स्वपत्न्या अधिपः कृष्णस्स अलिमुक्तेः वाणमोचनात् दानकार्यसारः वेदनकार्यतत्परः अभात् अराजत ।। ५७ ।। नरक्षितिं परपरिग्रहाद विदन् स चारिणा । विभिदे हरिणा दर्प धरन्मन्दोदरीवरः ॥ ५८ ॥ भन्वयः-परपरिग्रहात नरक्षितिम् विदन दपं धरन् मन्दोदरीवरः स चारिणा हरिणा विभिदे ॥ ५८ ॥ व्याख्या-~परपरिग्रहात् परेषामन्येषाम् परिग्रहः कलत्रम् तस्मात् अन्यस्त्रीसंसर्गात् नरक्षितिम् त्रियते इति नरः नयः तस्य क्षितिम् नाशम् विदन् जानन् दर्पम् अहंकारं धरन् बिभ्रत् मन्दोदरी. वरः मन्दं कृशमुदरं यस्याः सा मन्दोदरी इति तस्याः वरः पतिः Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ महोपाध्यायनी मेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्धानमहाकाब्बे काम इत्यर्थः अथवा मन्दोदरीम् वनिताम् धर्मिपारतच्यात् वृणोति स्त्रास्त्रेण स्वीकरोतीति मन्दोदरीवरः यद्वा मन्दोदरीभिः कामिनीभिः वियते इति मन्दोदरीवरः स कामः चारिणा विहरणशीलेन हरिणा जिनेन्द्रेण विभिदे चिच्छिदे निराचक्रे ॥ रामपक्षे-स मन्दोदरीवरः रावणः परपरिग्रहात् अन्यदीयभार्यातः नरस्य नीतेः क्षितिम् नाशं विदन् मन्यमानः यद्वा नरस्य नरजीवनस्य क्षितिं क्षयम् विदन् दर्पम् अहंकारम् मानम् धरन विभ्रत् चारिणा वनवासिना हरिणा लक्ष्मणेन विभिदे जन्ने । कृष्णपक्षे– परस्य शत्रोः परिग्रहात् स्वीकारात् नरक्षितिम् जनविनाशम् विदन् जानन् दपमहंकारं धरन् धारयन् मन्दोदरीवरः मन्दोदरी काचिजरा नाम्नी स्त्री तया त्रियते संयुज्यते यः स मन्दोदरीवरः जरया संधितो जरासंधः चारिणा रणाङ्गणचारिणा हरिणा कृष्णेन विभिदे विदारितः ॥ ५९॥ कुमारीवेदसाहस्रान सराज्यान् यत्कृते दधत् । इक्ष्वाकुवंशवृषभः शं-के-वलधिया श्रितः ॥ ५९॥ अन्वयः-कुमारी सराज्यान् वेदसाहस्रान् यत्कृतेऽदधत् इक्ष्वाकुवंशवृषभः शं केवलश्रियाश्रितः अभवदिति ॥ ५९ ॥ व्याख्या-कुमारी कुमारितुम् आत्ममनने क्रीडितुं शीलमस्य स आत्मानुभवशीलः राजते इति राजः तस्य भावः राज्यम् राज्येन सहिताः सराज्यास्तान् सदीप्रान् वेदसाहस्रान् विदन्त्यनया इति वेदः ज्ञानम् तेषां साहस्रान् वेदसाहस्रान् अत्र सहस्रशब्दोऽनन्तार्थ इति अनन्तज्ञानानि यत् कृते यनिमित्तम् दधत् धारयन् इक्ष्वाकुवंशवृषभः इक्ष्वाकुवंशश्रेष्ठः सर्ववर्णनीयतीर्थङ्कराणामिक्ष्वाकुवंशप्रभवत्वं पूर्व प्रद. र्शितमेवेति भावः जिनेन्द्रः सम् सम्यक् केवलश्रिया केवलज्ञानलक्ष्म्या आश्रितः अवलम्बितः अभवदिति शेषः ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयास्तपरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-६ ३४५ नेमिपक्षे-कुमारीवेदसाहस्रान् कुमारीणाम् कन्यकानाम् वेदसाहनान् चतुःसहस्रान् सराज्यान् स्वराज्यसमृद्धिसहितान् यतकृते यनिमित्तम् दधत् नृपः धारयति यदि नेमिर्मत्सुतां परिणेष्यति तदा खराज्यमपि तस्मै दास्यामीति मतिमान् राजाऽभवत् स इक्ष्वाकुवंशवृषभः इक्ष्वाकुवंशश्रेष्ठः नेमिः अवलश्रियाश्रितः अवला चासौ श्रीः अवलश्रीः तया न श्रितः इति अश्रितः अनाश्रितोऽभवदिति शेषः । इत्यहं शंके मन्ये नेमिना कन्याग्रहणन कृतमित्यर्थः॥ रामपक्षे-कुमारीणां कन्यकानां वेदसाहस्रान त्रिसाहस्रान् “इति वेदानयत्रयीत्यमरः" सराज्यान् राज्याधसहितान् यत् यस्याः सीताया: कृते निमित्तम् दधत् प्रत्यर्पणाय मनसि धारयन् इक्ष्वाकुवंशवृषभः इक्ष्वाकुवंशश्रेष्ठः केवलश्रिया कान्तिमात्रेण शं रावणहननजन्यकल्याणं मङ्गलम् आश्रितः प्राप्तः यावता रावणो मनसि कन्यानां सहस्रत्रयं राज्यश्च दातुमिच्छति तावता लक्ष्मणेन हत्त इति भावः ॥ "दशास्यस्त्वां वदत्येवं बन्धुवर्ग विमुश्च मे । जानकीमनुमन्यस्त्र राज्याचि गृहाण मे ॥ त्रीणिकन्यासहस्राणि तुभ्यं दास्यामि तेन च । संतुष्य नो चेत्ते सर्वन-ह्येतन च जीवित"मितितचरित्रे ॥ श्रीकृष्णपक्षे-कुमारीणाम् कन्यकानाम् वेदसाहस्रान् षोडशसाहस्रान् विदन्त्यनेनेति वेदः शास्त्रम् तच " षडङ्गीवेदाश्चत्वारो मीमांसाऽन्वीक्षिकी तथा । धर्मशास्त्रम्पुराणं च विद्या एताश्चतुर्दश" इति चतुर्दशधा अनङ्गविद्या गानविद्या चेति षोडशविद्या सराज्यान राजन्ते इति राजानो मणयः तेषां भावः राज्यम् तेन सहितान् अनेकमणिसहितान् यत्कृते यस्य कृष्णस्य कृते कृष्णनिमित्तम् दधत् धारयन् बलाश्रितः बलदेवाश्रितः इक्ष्वाकुवंशवृषभः यदुवंशस्थापि इक्ष्वाकुवंश Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाये मूलकत्वात् इक्ष्वाकुकुलश्रेष्ठः कृष्णः अवलश्रिया अवला एव श्रीस्तया आश्रितः अवलम्बित इत्यहं शंके मन्ये ।। भृपाः षोडश साहस्रा वासुदेवाय भक्तितः । रत्नानि ढोकयामासुढे द्वे च वरकन्यके ।। ताभ्यः षोडश साहस्राः कन्याः कृष्ण उपायत । अष्टौ सहस्राणि वलोऽन्ये कुमाराश्च तावती इति कृष्णचरित्रे ॥१९॥ चके प्रभाविनि दशाननराजराजि, भाति स्मयागजदशाननराजराजः ॥ चक्रे प्रभाविनि दशाननराजराजि भातिस्मयागजदशा न नराजराजि ॥ ६०॥ अन्धयः-दशाननराजराजि प्रभाविनि चक्रे स्मयागजदशानमराजराजिः भाति प्रभाविनि दशाननराजराजि चक्रे नर भजराजि यागजदशा न भातिस्म ॥३०॥ व्याख्या-आसमन्तादन्यते प्रकाश्यते इति आननः प्रकाशः दशसु दिक्षु आननः प्रकाशो यस्य स दशाननः राजते उद्योतते इति राजा तत्र राजते शोभते इति राजराट् दशाननश्चासौ राजराट् चेति दशाननराजराट् तस्मिन् , प्रभाविनि प्रभावशालिनि चक्रे भरतस्य राज्ञः चक्रास्त्रे प्रकटिते सतीति शेषः सयागजदशाननराजराजिः समयः चित्रो. स्कर्ष एव अगः पर्वतः तस्माजायते इति सयागजः तेन दशसु दिक्षु अनिति प्रकाशते इति स्मयागजदशाननः राजसु राजते इति राजराजिः स्मयागजदशाननश्चासौ राजराजिश्चेति सयागजदशाननराजराजिः चित्तोद्रेकगिरिप्रभूतप्रकाशमाननृपमण्डलीश्रेष्ठः भरतः श्रीशान्तिनाथ: श्रीनेमिनाथश्च भाति द्योतते प्रभाविनि प्रभावशालिनि दशाननराजराजि प्रकाशमाननृपश्रेष्ठनृपे चक्रे मण्डले समूहे हेनर अजराजि अजेषु छागेषु राजने इति अजराट् तस्मिन् यागजदशा यागे बलिप Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-६ ३४७ योजकविधौ जायते इति यागजा सा चासौ दशा चेति यागजदशा इव न भातिस्म न शोभतेस यथा वध्यपशो तात्कालिकीदशा न शोभते तथा प्रभावशालिनि नृपमण्डलेऽपि यागजदशायुद्धरूपयजनदशा न भातिस्मेति भावः ॥ ६० ॥ अत्र श्लोके वसन्ततिलकं वृत्तम् "ज्ञेयम् वसन्ततिलकं तभजा जगौग" इति तल्लक्षणात् ।। रामपक्षे-प्रभाविनि प्रभवितुं शीलं यस्य स प्रभावी तस्मिन् प्रभावशालिनि दशाननराजराजि दशाननराजः राजा यस्य स दशाननराजराट् तस्मिन् तथोक्ते चके मण्डले या गजदशाननराजराजिः गजः मत्तः विवेकशून्य इत्यर्थः यः दशाननः स चासो राजा चेति गजदशाननराजः तस्य राजिः तदीय पक्षीयश्रेणी भातिस्म शोभतेस्म हेनर प्रभाविनि प्रभावशालिनि दशाननराजराजि भाति चके दशानन· राजस्य या राजिः तत्पक्षीयश्रेणी तत्र चके भाति देदीप्यमाने सति तदीयपक्षे चक्रे प्रभवति सति स्मयागजदशा न गच्छतीत्यगः स्मयोऽहंकार एवागः स्मयागः तस्माजायते इति स्मयागजा मा चासो दशा चेति स्मयागजदशा अहंकारगिरिसंभूता दशा आजराजि आजस्य संग्रामस्स राजि प्रांगणे रणभूमौ न भातिमन राजतेस्म देहलीदी पन्यायेन भातीत्यस्योभयत्रान्वयः ॥ ___ कृष्णपक्षे-जरासंधरूपविपक्षराजदशाधादिरूपेण व्याख्यावसेया । प्रकृतेव्यपेतभेदाख्यः समुद्यमकालंकारः 'अर्धाभ्यास:--समुद्गःस्या' दिति सरस्वतीकण्ठाभरणोक्तेः ॥ ६०॥ योगारक्षमादिसहसा दशकन्धरं-तं, तीवारिभावमधिगम्य निशम्य कामम् । बोधो बिभेद सरयाजरया ससन्धं, श्रीलक्ष्मणेत्य निहितः स तु वासुदेवः ॥ ६१ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकावे अन्वय:-क्षमादिसहसा योगात् स तु वासुदेवः श्रीलक्ष्मणोपनिहितः बोधः काम तीव्रारिभावम् अधिगम्य दशकन्धरं तं निशम्य ससन्धं स्यात् जरया बिभेद ॥ ६ ॥ ___ व्याख्या-क्षमादिसहसा योगात् क्षमा दयादाक्षिण्यादिरेव सहः बलम् तेन योगात् संबन्धात् वासुदेवः वसु एव वासु तेन दीव्यति प्रकाशते इति वासुदेवः तेजोविशेषेण देदीप्यमानः श्रीलक्ष्मणा तत्तत् स्वस्वविशेषचिह्वेन वृषभादिना एत्य प्राप्य निहितः युक्तः बोधः बुध्यति जानातीतितथा ज्ञानवान् कामम् मदनम् तीव्रारिभावमुल्कटरिषुभावम् शत्रुतामधिगम्य प्राप्य स्थितमिति शेषः दशा मृतिरेवदशकः तन्धरतीति दशकंधरः तम् अनङ्गताङ्गतम् ससन्धम् सप्रतिज्ञम् स्यात् स प्रभुर्जिनेन्द्रः जरया बिभेद निर्वतयामास' युवावस्थायामेव शरीरपाताजरायोगो नैव प्रापेति भावः ।। रामकृष्णपक्षे-क्षमादिसहो बलं यस्य स क्षमादिसहा तेन क्षमादिसहसा उपलक्षितः क्षमादिबलवान् बोधः ज्ञानवान् श्रीलक्ष्मणा श्रीरेवलक्ष्म चिह्नम् तेन श्रीलक्ष्मणा एत्य निहितः श्रीलक्ष्मोपलक्षितः स तु वासुदेवः श्रीरामलक्ष्मणः कृष्णबलदेवश्च तीव्रारिभावम् अति. शयविपक्षभृतम् अधिगम्य बुध्वा तं दशकंधरं कामम् यथेष्टम् निशम्य दृष्ट्वा जरया ससन्धम् जरयायुक्तं संधम् जरासंधम् प्रतिवासुदेवम् स्यात् शीघ्रम् बिभेद चिच्छेद निहतवान् ।। ६१ ॥ विश्वाङ्गजापहरणोद्भवसंपरायात् , षट्खण्डभूमिभरतेशकलाधिकारे । देवो निवृत्य भुवनाद्भुतराज्यलक्ष्मीः, कक्षीचकार विविधोत्सवकेवलेन ॥ ६२ ॥ अन्त्रयः—विश्वांगजापहरणोद्भवसंपरापात् षट्खण्डभूमिभरतेशकलाधिकारे देवः भुवनाद्भुतराज्यलक्ष्मीः निवृत्य विविधोत्सवकेवलेन कक्षीचकार ॥ ६२ ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग - ६ ૧ व्याख्या -- विश्वाङ्गजापहरणोद्भवसंपरायात् विश्वः समस्तः कारणं कीर्त्तनमित्याद्यष्टरूपो यः अंगजः कामः तस्य अपहरणे निरा करणे निरसन इत्यर्थः यद्वा तस्य अपहरणाय निराकरणाय उद्भवो जातः यः संपरायः संग्रामः “युद्धायत्योः संपराय इत्यमरः " तस्मात् अष्टविधकामवासनानिराकरणोद्भूतरणात् भुवनाद्भुतराज्यलक्ष्मीः त्रिभुवनविलक्षणराज्य संपदः षट्खंड भूमि भरतेशकलाधिकारे षट्खंडा या भूमिः पृथ्वी ताम्बिभर्त्ति धारयति स्वामित्वेन अधिकरोतीति षट्खंडभूमिभरतः स चासौ ईशवेति षट्खंडभूमिभरतेशः तस्य या कला योगक्षेमरूपा तस्या अधिकारे प्रभुत्वे शासने निवृत्य स्थापयित्वा देवः जिनेन्द्रः विविधोत्सव केवलेन विविधोत्सवेन अनेकविधदेवकृतसमवसरणादिमंगलेन केवलेन केवलज्ञानेन कक्षीचकार कोडीचकार केवलज्ञानवान् सम्पन्नः ॥ - - अन्यजिनेन्द्रपक्षे – षट्खण्डभूमि भरते शकलाधिकारे षट्खण्डः यः भूमिभरतः भरतखण्ड भूमिस्तत्र ईष्टे प्रभवतीति षट्खंड भूमि भरतेशः तस्य या कला तदधिकारे भुवनाद्भुतराज्यलक्ष्मीः निवृत्य निराकृत्ये - त्यर्थः षट्खण्ड भूमिभरतेशयोग्यतायामपि तच जग्राहेति तत्वम् ॥ रामपक्षे - देवः देवनशीलः षट्खण्डभूमि भरतेश कलाधिकारे षट्खण्डभूमिम् विभर्तीति " भृ अतच् " पट्खण्ड भूमिभरतः स चासौ ईशश्वति षट्खण्डभूमिभरतेशः कलायाः कृत्स्नायाः अधिकारः कलाधिकारः षट्खण्डभूमिभरतेशस्य कलाधिकारस्तस्मिन् भुवनाभुतराज्यलक्ष्मीः त्रैलोक्यविलक्षणराज्य संपदः रावणाधिकारस्य राज्यलक्ष्मीः विश्वाङ्गजापहरणोद्भवसंपरायात् विश्वांगजायाः जानक्याः अपहरणेन उद्भवः उत्पन्नः यः संपरायः संग्रामस्तस्मात् कारणात् निवृत्य आच्छिद्य रावणाधिकारे या राज्यलक्ष्मीस्ता निवृत्य तत Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० महोपाध्याय श्री मेघविजय ग णिविरचिते सप्तसन्धान महाकान्जे आकृष्य विविधोत्सव केवलेन अनेकोत्सवप्रधानेन कक्षीचकार कोडीचकार ।। ६२ । कृष्णपक्षे विश्वायाः कंसमातुः अंगजः कंसः तस्य अपहरणात् नाशनात् उद्भवति यः संपरायः संग्रामस्तस्मात् षट्खण्ड भूमि भरतेशकलाधिकारे जरासंधनृपाधिकारे शासने या भुवनाद्भुतराज्यलक्ष्मीः निवृत्य निराकृत्य देवः कृष्णः विविधोत्सव केवलेन अनेक विधमंगप्रधानेन कक्षीचकार स्वायत्तीचकार जरासंधराज्यसक्ष्मीः पराकृत्य स्वाधीनामकरोदित्यर्थः ॥ ६२ ॥ ज्ञानं केवलमार्षभं हरमिते मुख्ये तपस्येऽभवसत्पोषे नवमे सिते हिमरुचा हीनेऽर्यमासेविते । प्राक्कल्याणकवासरेऽन्तिमविभो दिक्संमिते माधवे, राज्ये सा नियतिर्जिने निगदिता रामेऽभिरामे विषा ६३ इतिश्री सप्तसंघाने महाकाव्ये महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते भगवत्केवलज्ञानसाम्राज्यवर्णनोनाम पष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥ अन्वयः -- हरमिते मुख्ये तपस्ये भार्षभं केवलं ज्ञानम् अभवत् सत्पौषे नवमे सिते हिमरुचा अहीनेऽर्यमासेविते प्राक्कल्याणकवासरे अन्तिमविभौ दिसम्म माधवे जिने राज्येसा नियतिर्निगदिता विषा अभिरामे रामे च निगदिता ॥ ६३ ॥ व्याख्या - हरमिते हरेण परिमिते एकादश्याम् मुख्ये प्रधाने तपस्ये फाल्गुने " स्यात्तपस्यः फाल्गुनिक इत्यमरः " आर्षभम् ऋषभ स्वेदम् आर्षभम् ऋषभनाथसंबन्धि केवलं ज्ञानम् केवलज्ञानम् अभवत्, सत्पौषे शोभनपौषमासे नवमे नवमीतिथौ सिते शुक्लपक्षे "अवदात्तः सितो गौरोऽवलो धनलोऽर्जुन इत्यमरः " पौषशुक्ल नवम्याम् शान्तेः Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयाभृतसूरिप्रणीता सरणी टोका, सर्ग-६ ३५१ केवलं ज्ञानमभवत्, हिमरुचा चन्द्रेण अहीने युक्ते अर्यम्णा आसेविते इति अर्यमासेविते सूर्यचन्द्रोभयसम्मिते तिथाविति शेषः अमावास्या - तिथौ आश्विन कृष्णामावास्यायाम् नेमेः केवलज्ञानम् अभवत् प्राक्कल्याणकवासरे प्राथमिक कल्याणकदिने च्यवन कल्याणदिने चैत्रकृ ष्णञ्चतुर्थ्याम् पार्श्वनाथस्य केवलज्ञानमभवत्, अन्तिमविभौ चरमतीकरे श्री वर्धमाने जिने दिक्समिते दशम्याम् तिथौ माधवे वैशाखे राज्ये केवलज्ञानरूपे साम्राज्ये सा नियतिः स्थितिः निगदिता कथिता, विषा कान्त्याऽभिरामे मनोहरे रामे बलरामे रामलक्ष्मणे च राज्ये सा नियतिः स्थितिर्निगदिता निरूपिता ।। अत्र पद्ये शार्दूलविक्रीडितं छन्दः 'सूर्याश्वैर्मसजस्तताः स गुरवः शार्दूलविक्रीडितम्' इति लक्षणात् || ६३ ।। इति शास्त्रविशारद, कविरत्न, भट्टारकाचार्य श्रीविजयामृत सूरीश्वरप्रणीतायां सप्तसंधानमहाकाव्य-सरणी - टीकायां पष्टः सर्गः ॥ ६ ॥ Aula Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ महोपाध्याय श्री मेवविजयगणिविरचिते सप्तसम्धानमहाकाव्ये ॥ अथ सप्तमः सर्गः ॥ समवसरणे सत्रा तत्रागमद् रमणैर्भुवः, सकलभरत स्वामी भावी नवोदितचक्रभृत् । धरणिवलयाद श्वक्षुष्णार्जुनोत्थरजोऽणुभि गणिपरिणतैश्वित्रं कुर्वन्नेवाम्बरमम्बरैः ॥ १ ॥ अन्वयः - तत्र समवसरणे भुवः रमणैः सत्रा सकळ भरतस्वामी भावी नवोदितचक्रभृत् वरणिवलयात् अश्वक्षुष्णार्जुनोत्थरजोऽणुमिर्गणि परिणतैः अम्बरैरिव अम्बरं चित्रीकुर्वन् भगमत् ॥ १ ॥ व्याख्या ---तत्र जिनेन्द्रस्य समवसरणस्थाने भुवः पृथिव्याः रमणैः भूपतिभिः सत्रा सह सकल भरतस्वामी सकलानाम् अखिलानां भरतानाम् भरतखण्डानाम् स्वामी अधिपतिः भावी नवोदितचक्रभृत् नवः नूतनः यश्चक्रश्चक्राखः स नवोदितचक्रः तम्बिभर्त्तीति नवोदि तचक्रभृत् नूतनप्रकटितचक्रधारकः भावी भविष्यन् इतो गत्वा चक्रं धारयिष्यतीत्येवंभूतः धरणिवलयात भूमण्डलात् अश्वक्षुष्णार्जुनोत्थरजोऽणुभिः अश्वैः वाजिभिः क्षुष्णाः सम्पिष्टाः अर्जुनाः शुक्काः धवला इत्यर्थः उत्थाः उच्छ्रिता उद्गता ये रजसां धूलीनाम् अणवः क्षुद्रांशाः 'तैः तथोक्तैः तुरङ्गमकुट्टितश्वेतोच्छ्रितधूलिकणैः गणिः गण्यते दिव्यपदप्राप्तया इति गणिः तत्र परिणतैः आकाशपरिणतैः आकाशस्यैः अम्बरैरिववसनैरिव अम्बरम् आकाशम् चित्रम् अद्भुतम् नानावर्णवत् कुर्वन् विदधत् आगमत् आयासीत् ॥ अन्यजिनेन्द्रपक्षेऽपि समानमेतत् ॥ १ ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-७ १५३ रामपक्षे-तत्र समवसरणे लंकापरिसरकुसुमायुधोद्यानसमागताप्रमेयबलनामर्षिसमुत्पन्न केवलज्ञानोत्सवचिकीर्षुमेहेन्द्राधिष्ठितस्थाने भुवः पृथिव्याः रमणैः पृथ्वीपतिभिः सत्रा समम् सकलभरतस्वामी भावी नवोदितचक्कभृत् रामः आगमत् अन्यत् पूर्ववद्योज्यम् ।। कृष्णपक्षे-समवसरणे युद्धसमाप्ते निवृत्तयुद्धे सति तत्र कृष्ण सन्निधिभूमौ भुवः रमणैः सह जरासन्धपक्षीयनृपैः समम् सकल भरत. खामी नवोदीतचक्रभृत् - कृष्णः अगमत् अन्यद्विशेषणं यथापूर्वमनु. सन्धेयम् ॥ १॥ ___अत्र सर्गे हरिणीवृत्तन्तल्लक्षणं यथा 'रसयुगहयैन्सौम्रोस्लो गो यदा हरिणी तदा ॥ १॥ तपनतनयस्तस्याप्यग्रेसहः सह सेनया, करटिघटनाटोपारोपादियाय जयाश्रयः। असहनजनक्षोभं तन्वन् सधन्वभटैः श्रिया, हरितनुजवद् गन्धर्वाणां स्मरध्वजगर्जितैः ॥२॥ अन्वयः-तपनतनयः सह सेनयाऽपि अग्रेसहः करटिघटनाटोपारोपात् जयाश्रयः गन्धर्वाणाम् स्मरध्वजगजितैः सधन्वभटैः श्रिया हरितनुजवत् असह. नजनक्षोमं तन्वन् इयाय ॥ २ ॥ व्याख्या-तपनतनयः तप्यते लोकोत्तरमैश्वर्यमश्नुते इति तपन: अथवा तपति कामादीनिति तपनः यद्वा तापयति कर्मादिकषायानिति तपना तनोति धर्ममिति तनयः तपनचासौ तनयश्चेति तपनतनयः परमैश्वर्यसम्पन्नधर्मप्रवर्तकः सह सेनया अग्रेसहः एति स्वामित्वं यया सा इना शासनपद्धतिः तया सहिता इति सेना तया अग्रेसहः शासनपद्धतिमनुसृत्याग्रेसरः करटिघटनाटोपारोपात् करोति शब्दमिति करटः करट एक करटी " स्वार्थ इन्" तस्य या घटना आयोजना Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये तसा आटोप आडम्बरः तस्य आरोपात् अध्यवसायात शाब्दिकायोजनाडम्बराध्यवसायत: जयाश्रयः कर्मादिकषायजयाश्रयः गन्धर्वाणां स्वाधिष्ठायकदेवयोनिविशेषाणाम् स्मरध्वजगर्जितैः वाद्यशब्दविशेषः सधन्वभटैः धनुषा सह वर्तते यः स सधन्वा स चासौ भटश्चेति सधन्वमटैः सकोदण्डयोधैरिव श्रिया कान्त्या हरेः सूर्यस्य तनुजवत् सूर्यतनुजं यत्तेजस्तद्वत् यद्वा हरेश्चन्द्रस्य तनुजवत् चन्द्रकान्तिवत् असहनजनक्षोभम् तेजः सहनासमर्थजनचावल्यम् तन्वन विस्तारयन् जिनेन्द्रः प्रभुः इयाय परिवत्राज ॥ रामपक्षे-तस्यापि ततोऽपि सेनया सह स्वसैन्ययुक्तः अग्रेसहा अग्रगामी जयाश्रयः जयम् संग्रामविजयम् आश्रयतीति जयाश्रयः करटिघटनाटोपात् करटिनो गजस्य या घटना योजना तस्या आटोपो गर्वः तस्य आरोपात् अध्यवसायात् गजसन्निभवानरसैन्यसमुदायात् सधन्वभटैः सकोदण्डसैन्यैः स्मरध्वजगर्जितैः स्मरध्वजानाम् वाद्यानाम् "वाधं वादिनमातोघं तूर्य तूरं स्मरध्वजः इति हैम:" गर्जितैः कोलाहलैः हरितनुजवत् इन्द्रपुत्रवत् वाली तपनतनयः सूर्यपुत्रः सुग्रीवः असहनजनस्य शत्रुजनस्य क्षोमम् वैकल्यम् तन्वन् प्रथयन् गन्धर्वाणां च क्षोभम् रावणसहायार्थमागतानां दैवयोनिविशेषाणां च क्षोभम् चाञ्चल्यम् तन्वन विस्तारयन् इयाय संग्रामाभिमुखम् प्रससार ॥ २॥ कृष्णपक्षे-तापयति शत्रूनिति तपनः तनोति स्वकीयवैभवमिति तनयस्तयोः कर्मधारयः शत्रुतापकारकैश्वर्यवान अथवा तप्यते लोकोचरशरीरशोभामश्नुते इति तपनो वसुदेवस्तस्य तनयः पुत्रः कृष्णः सेनया यादवसेनयाग्रेसहः अग्रगः करटिनां गनानां घटना सैन्यसंमेलना तस्या आटोपस्याडम्बरस्य आरोपादथ्यवसायात विजया श्रयः विजयाभिलापुका स्मरत्रजगर्जितैः वाघशब्दैः सधन्वभटैः Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्यश्रीविजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- १५५ a n s . .. ...... . ..... . . कोदण्डकाण्डकलितसैन्यैः गन्धर्वाणां असहनजनक्षोभं शत्रुजनवैमनस्यं तन्वन् श्रिया कान्त्या हरितनुजवत् सूर्य इव इयाय चचाल यद्वा तनतननयः सूर्यपुत्रः कर्णः जयाश्रयः जयविजयम् अर्जुनम् आश्र. यति युद्धाय सम्मुखीनं करोतीति तथा हरितनुजवत् वालीव इयाय संग्रामाङ्गणं ययौ अन्यद्विशेषणं पूर्ववद्योज्यमित्यर्थः ।। २ ॥ अनुदिशमपि ध्यायन्नन्तर्दशाननसंगम, दिनमुदयिनं भानुं कर्णे निधाय विचारयन् । करिशिरसि च न्यस्तं हस्तं तपेन्द्रजिता समं, नयनविषयीकुर्वन् गुर्वी पुरः सुरवाहिनीम् ॥३॥ अन्वयः-अनुदिशम् प्रतिदिशम् दशाननसंगमम् ध्यायन दिनमुदायिनम् भानुं कर्णे निधाय विचारयन् तथा इन्द्रजिता समम् करिशिरसि च न्यस्त हस्तम पुरः गुर्वीम् सुरवाहिनी नयनविषयीकुर्वन् अगमदिति पूर्वेणान्वयः ॥ ३ ॥ व्याख्या-अनुदिशम् प्रतिदिशम् दशाननसंगमम् ध्यायन् दश इन्द्रियाणि आनयति तोषयतीति दशाननम् ज्ञानम् वस्तुतत्वम् अन्तर्मनसि ध्यायन् विचारयन् उपयुञ्जन् कथंभूतम् दशाननसंगमम् दिनम् द्यति पापम् कर्म वा इति दिनम् उदयिनम् प्राप्तोदयम् भानुम् प्रत्यक्षाप्रत्यक्षविषयप्रकाशकम् कर्ण निधाय शब्दं श्रुत्वा विचारयन् तत्वद्वस्तुसत्ताविचारपरः यद्वा करो राजप्राण्यां शोऽस्यास्तीति करी नृपः "पलिहस्तांशवः करा इत्यमरः" तस्य करिणो नृपस्य शिरसि न्यस्तम् मूर्ध्नि स्थापितम् धर्ममित्यर्थः नृपस्य धर्ममूलत्वात् कर्णे निधाय विचारयन् तत्वनिर्णयं कुर्वन् तथा इन्द्रजिता समम् इन्द्रम् परमैश्वर्यसम्पन्नमपि जयतीति इन्द्रजित् साधुः, निस्पृहस्य तणञ्जगदिति तेन समम् अथवा इन्द्रजिदसुरस्तेन असमम् असुरसंगतिरहितम् पुरः अग्रे गुर्नीम् गरीयसीम् सुरवाहिनीम् देवसंहतिम् नयनविषयीकुर्वन् मेत्रगोचरं कुर्वन् अगमदिति पूर्वश्लोकेनान्वयः ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सससन्धानमहाकाम्बे श्रीरामपक्ष-अनुदिशम् प्रतिदिशम् अन्तर्हृदये दशाननसंगमम् 'रावणसनिधानम् ध्यायन् विचारयन् उदयिनम् अचिरराज्यप्राप्त्या प्राप्तोदयम् भानुम् सूर्यतनयम् “ अपत्यप्रत्ययस्य लुक् " अथवा भातीति भानुस्तम् सुग्रीवम् कर्णे निधाय कर्णसमीपं नीत्वा "सामीप्ये सप्तमी" विचारयन् किमपि चिन्तयन् रामः करिशिरसि हस्तिमस्तके न्यस्तं स्थापितं हस्तम् इन्द्रजिता मेघनादेन समम् सार्धम् गुर्वीम् गरीयसीम् सुरवाहिनीम् सुरति ऐश्वर्यदीप्तिम् प्राप्नोतीति सुरः राक्षसः तस्य वाहिनीम् सेनाम् नयनविषयीकुर्वन् अवलोकयन् अगमदिति पूर्वश्लोकेनान्वयः ॥ कृष्णपक्षे-अनुदिशम् प्रतिदिशम् दशाननस्य कामस्य प्रद्युम्नस्येत्यर्थः संगतिम् संगम् ध्यायन् विचारयन् उदयिनम् प्राप्तोदयम् भानुं तदभिधानम् कश्चिन्नृपम् कर्ण निधाय कर्णसमीपन्नीत्वा विचा. स्यन् रहो मंत्रयन् कार्यजातमिति शेषः करिशिरसि न्यस्तं स्थापितम् हस्तम् इन्द्रजिता ऐश्वर्येण महेन्द्रमणि पराभवता नृपेण समम् सार्धम् पुरः अग्रे गु/म् महीयसीम् सुरवाहिनीम् दैत्यसैन्यम् राजसैन्यम्बा नयनविषयीकुर्वन् पश्यन् अगमत् इयाय ॥ ३ ॥ मारीचः समयः स सुन्दरविधिः श्रीमेघनादोऽप्यगाच्चन्द्रोऽर्कः प्रथितःप्रहस्तकथितःकामाक्षनामा-शुको(कः) गम्भीरो मकरध्वजः कमलभूः कान्त्या (पिना?)शारणो, बीभत्सः प्रबलायुधैः क्षितिभृतोऽन्येऽपीयुरुत्साहसाः॥४॥ अन्वयःमारीचः समयः सुन्दरविधिः सः श्रीमेघनादः चंद्रः अर्कः 'प्रथितः प्रहस्तकथित: कामाक्षनामा शुकः गंभीरः कान्त्या कमलभूः मकरध्वजः शारणो ना बीभत्सः प्रमलायुधैः अगात् अन्येऽपि उत्साहसा: क्षितिभृतः ईयुः ॥४॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतत्रिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-७ ३५७ व्याख्या-मारीचः ताडकेयः समयः समयनामा स प्रसिद्धः सुन्दरविधिः तदाख्यः यद्वा सुन्दरो विधिः अनुष्ठानं आभिचारिक यस्य स श्रीमेघनादः रावणज्येष्ठत नयः चन्द्रः चन्द्रज्वलननामा रावणिः अकः अग्रभः प्रथितः प्रसिद्धः प्रसस्त इति नानाख्यातः रावणमातामहः प्रधानमंत्री कामाक्षनामा कामाक्षेत्यभिधेयः रावण तनुजः शुकः राज्ञः प्रणिधिः गंभीरः मकरध्वजः यः कान्त्या कमनीयतया कमलभूः चतुराननसन्निभः शारणः रावणचरः बीभत्सः प्रबलायुधैः महदनशस्त्रैः सह रामरावणयुद्धे अगात् योद्धमगमत् अन्येऽपि क्षितिभृतः रावणसहायकनृपाः उत्साहसाः युद्धोत्साहस्थायिभावभावितान्तःकरणाः ईयुः समाजग्मुः इति रामपक्षे । तीर्थङ्करपक्षे-यथायथं विशेषणविशिष्टाः मुनीन्द्रा नरेन्द्रा देवे. न्द्राश्च समीयुः इति अवसेयम् ॥ ४ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् छन्दः । जातातपस्य बलिता ललिता दिनस्य, श्री तिशीतमधुरा मधुराङ्गभाजाम् । आपानमप्युपवने पवनेरितेषु, यूनां द्रुमेषु चरणाद् रमणान्मयूनाम् ॥ ५ ॥ अन्ययः-~जातातपस्य दिनस्य बलिताललिताश्रीः मधुरांगभाजाम् नातिशीतमधुरा जाता पवनेरितेषु द्रुमेषु मयूनां चरणात् यूनां रमणात् भापानमपि मधुरं जातम् ॥ ५ ॥ व्याख्या-अत्र सर्गे " नानावृत्तमयः कापि सर्गः कश्चन दृश्यते" इति साहित्यदर्पणधृतमहाकाव्यलक्षणान्नानावृत्तयः किश्च प्रातमध्याह्नमृगयाशैल वनसागराः वर्णनीया इत्यपि तत्रत्यवचनाहतुवर्णनं सर्वसाधारणतया कविः प्रस्तौति जातेति-जातातपस्य जात. तापस्य अहः वलिता ओजखिता ललिता मनोहरा अथ च आतपस Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ महोपाध्यायश्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये रौद्रस्य बलिता बलस्य भावः बलिता सामर्थ्यम् जाता अपगता निवॄ सत्यर्थः सर्वसहिष्णुत्वात् दिनश्रीः दिनशोभा मधुरांगभाजाम् सुकुमारशरीराणाम् नातिशीतमधुरा अधिकशीताभावात् मधुरा मनोज्ञा अथ च अङ्गभाजां शरीरिणाम् मधुरा सेवनयोग्या उपवने उद्याने पवनेरि तेषु पवनवी जितेंषु द्रुमेषु पादपेषु चरणाद्विचरणात् मयूनाम् मृगानाम् यूनां तरुणानाम् रमणाद्विहारात् आपानमपि पानगोष्ठी अपि मधुरमिति शेषः मयुः स्यात्किन्नरे मृगे इति शब्दस्तोममहानिधिः ॥ ५ ॥ यमकालंकारः || अत्र सर्गे इत आरभ्य एकविंशतिश्लोकपर्यन्तं वसन्ततिलकं वृतम् तल्लक्षणश्चज्ञेयं वसन्ततिलकं तभजा जगौग इति ॥ सा फाल्गुनस्य यशसां जगति प्रशस्तिः, प्रादुर्बभूव महसा जितसौरभासः । मन्ये तदर्कतनुजन्मविभाविनोद स्तत्याज मोढ्यमचिरान्न तथा प्रसह्य ॥ ६ ॥ अन्वयः - - महसा जितसौरभासः फाल्गुनस्य जगति यशसां प्रशस्तिः प्रादुर्बभूव तत् अतनुजन्मविभाविनोदः अचिरान्मोढ्यम् तत्याज तथा न इत्यहम्मन्ये ॥ ६ ॥ प्रसा व्याख्या - महसा जितसौरभासः महसा तेजसा जिता लब्धासौरस्य सूर्य सम्बन्धिनः भा कान्तिर्येन तस्य जितसौरभासः प्राप्तसूर्यका न्तेः यद्वा महसा खकीयतेजसा जिता पराभृता सौरभा सूर्यप्रभा येन स जितसौरभाः तस्य जितसौरभासः अथवा महसाजितसौरभासः अप्राप्तसूर्यरुचेः फाल्गुनस्य तपस्यस्य यशसां कीर्त्तीनां प्रशस्तिः प्रशंसा प्रादुर्बभूव समुत्पेदे तत् अर्कतनुजन्मविभाविनोदः अर्कस्य दिवाकरस्य तनुजन्मविभा शरीरजातप्रकाशः अचिरात् तत्क्षणमेव प्रसह्य हठात् Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टोका. सर्ग- १५९ मौढ्यम् मृढताम् सहनशीलताम् न तत्याज न मुमोच फाल्गुने सूर्य प्रभायाः सह्यताक्षिण्यं सर्वथा न भेजे इति भावः इत्यहं मन्ये जाने ॥६॥ उत्प्रेक्षालंकारः ॥ अथ च महसा निजतेजसा । जितः पराजितः सौरस्य सूर्यापत्यस्य कर्णस्य भास्तेजो येन सः जितसौरभाः तस्य जितसौरभासः फाल्गुनस्य अर्जुनस्य " अर्जुनः फाल्गुनः पार्थः सव्यसाची धनञ्जय इति हैमः" जगति भुवने यशसां प्रशस्तिः विख्यातिः प्रादुर्बभूव उदियाय तत् अकेतनुजन्मविभाविनोद: अकेतनुजन्मनः कस्य विभायाः प्रभायाः विनोदः विक्षेपः प्रसह्यबलात् अचिरात् तत् क्षणमेव मौढ्यम् मुग्धताम् न तत्याज निचिक्षेप किन्तु तत्याज एव इत्यहम्मन्येऽनुमिनोमि ।। उत्प्रेक्षा ॥ ६॥ सिद्धोपदेशवचसा कृतकणभेद, श्वेताश्ववाहनबलं स्वनृपानुमत्या । शुद्धैषणादिविधिना सुरवृष्टिरुच्चै मुक्तानुयुक्तकरणैर्जनयाम्बभूवे ॥ ७ ॥ अन्वयः-सिद्धोपदेशवचसा कृतकर्णभेदम् स्वनृपानुमत्या श्वेताश्ववाहनबलम् शु?षणादिविधिना मुक्तानुयुक्तकरणैः उच्चैः सुरवृष्टिः जनयाम्बभूवे ॥७॥ व्याख्या--सिद्धोपदेशवचसा उपदिशति वसन्तागममनुमापय. तीति उपदेशः कोकिलः तेषां वचः उपदेशवचः सिद्धः स्वभावसि. द्धश्च तत उपदेशव चश्चेति सिद्धोपदेशवचः तेन वाभाविककोकिलवचनेन कृतकर्ण भेदः कृतः विरचितः कर्णस्य कर्णिकारपुष्पस्य मेदो विकासो येन तत् श्वेताश्ववाहनवलम् श्वेताश्ववाहनस्य बलम् सूर्यबलम् तेजः "ऋतुकर्ता प्रभाकर इति पुराणम् " स्वनृपानुमत्या सूर्याज्ञया Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाब्बे शुद्धैषणादिविधिना शुद्धः उत्तेजितः य एषणः बाणः स आदिर्यस्य विधेः तेन मदनहेतुकतीक्ष्णवाणादिविधानेन उच्चैः अतिशयम् सुरवृष्टिः सुष्ठु राजन्ते शोभन्ते इति सुराः पुष्पाणि तेषाम्वृष्टिर्वर्षण सृष्टिः मुक्तानुयुक्तकरणैः मुक्ता विकसिता अनुयुक्ता विकाशोन्मुखाः तेषां करणैर्विधानैः जनयाम्बभूवे विरचयामासे वसन्ते कामस्य बाणाय पुष्पाणि सज्ज्यन्ते || ३६० अन्यपक्षे -- सिद्धोपदेशवचसा सिद्धानां केषांचित त्रिकालज्ञानवताम् यत् उपदेशवचः तेन कृतकर्णभेदम् कृतः विहितः कर्णस्य भूपतेर्भेदः छेदो येन तत् श्वेताश्ववाहनवलम् श्वेताश्ववाहनस्य अर्जुनस्य बलम् सैन्यम् स्वनृपानुमत्या अर्जुनाज्ञया शुद्धैषणादिविधिना शुद्धस्तीक्ष्णीकृतः य एषणः बाणः स आदिर्यस्य स नितान्तोत्तेजितवाणादिः तस्य विधिना विधानेन मुक्तानुयुक्तकरणैः मुक्ताः शत्रौ प्रक्षिप्ताः अनुयुक्ताः मोचनाय तूणिरान्निष्कासिताः तेषां करणैर्विधानैः सुरवृष्टिः सुन्वन्ति विपक्षान् पीडयन्तीति सुराः बाणाः तेषाम् वृष्टिर्वषणम उच्चैः अतिशयम् जनयांबभूवे उत्पादयामासे ॥ ७ ॥ एषणो लौहमये वाणे इति शब्दस्तो० श्लेषः ॥ सीतापहारविधिरेष तवोपहार - व्याहार निर्भयविहारविनाशनाय । तेनाधुनापि मधुनाशनतां जहीही त्याहेव रावणमिह स्वधियालिजन्यम् ॥ ८ ॥ अन्वयः - एष सीतापहारविधिः तवोपहारव्याहार निर्भयविहारविनाशनाय तेन अधुनापि मधुनाशनताम् जहीहि इति अलिजन्यम् स्वधिया इह रावणम् आद इव ॥ ८ ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयानृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-७ ३६१ व्याख्या -- सीतापहारविधिः सीतायाः मदिरायाः " सीता लांगलपद्धतौ जनकदुहितरि लक्ष्म्यां मदिरायामुमायां येति शब्द स्तोममहानिधिः" अपहारविधिः परित्यागविधिः तव उपहारव्याहारनिर्भय विहार विनाशनाय स्वच्छन्दत इतस्ततोगमनागमन निर्भयविहारनिवारणाय तेन अधुनापि इदानीमपि मधुनाशनताम् मद्यप्रधानभो जशीलताम् जहीहि परित्यज इति रावणम् रावयति लोकमिति रावणसम् मद्यजनितविभ्रान्तवचनम् इह वसन्तसमये स्वधिया स्वमत्या अलिजन्यम् भ्रमरवादः भ्रमराणाम्परस्परशब्दः आहेव उवाचैव "जन्यं - - स्याज्जनवादेऽपीत्यमरः" अत्र क्रियागतोत्प्रेक्षालंकारः ॥ अन्यत्र एप सीतापहारविधिः सीतायाः जानक्या अपहारविधिः अपहरणव्यापारः तव सर्वैश्वर्यसम्पन्नस्यापि रावणस्य उपहारव्याहारनिर्भय विहारविनाशनाय उपहाराणाम् उक्ढौकनानाम् व्याहाराणानि भयवचनानाम् निर्भयविहाराणाम् क्रीडाविशेषाणाम् विनाशनाय निवृत्यै तेन तद्धेतुना अधुनापि इदानीमपि मधुनाशनताम् मधुप्रधानभोजनताम् मद्यपानमित्यर्थः यद्वा मधुना तदभिधानेन राक्षसेन सह संघताम् संबन्धताम् अथवा मधुना कुम्भनसीभत्र सह असनतामुपवेसनताम् तेन संगतिम् जहीहि परित्यज इत्थमेवम् अलिजन्यम् भ्रमरवादः अथवा अले: काकस्य जन्यम् युद्धम् स्वधिया स्वबुद्ध्या इह समये आह व कथयतीवेत्यर्थः ॥ ८ ॥ श्लेषः । व्यर्था सपक्षरुचिरम्बुज संधिबन्धे, www. . राज्ञो न दर्शनमिहास्तगतिश्च मित्रे । किं किं करोति न मधु-व्यसनं च देवा दस्माद् विचार्य कुरु सज्जन ! तन्निवृत्तिम् ॥ ९ ॥ - Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ महोपाध्यायश्रीमेषविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकादे अन्वयः - अम्बुजसंधिबन्धे सपक्षरुचिः व्यर्थी इह राज्ञो न दर्शनम् मित्रे अस्तगतिश्च दैवात् मधु-व्यसनम् किम् किम् न करोति भस्मात् विचार्य हे सजन ! तमिवृत्तिम् कुरु ॥ ९ ॥ व्याख्या-राज्ञः चन्द्रस्य भूपस्य च मधुव्यसनम् वसन्तसंग मम् मद्यपानव्यसनं किं किन्न करोति सर्वमपि करोति तथाहि इह मधुप्रवृत्तौ सपक्षे पक्षसहिते पतत्रिणि कोकिले रुचिः प्रीतिः कोकिले दृढा प्रीतिर्भवतीति भावः अथ च सपक्षे तुल्यरूपे सूर्ये रुचिः विशेषकान्तिः, यद्वा सपक्षे चाणे मृगयार्थ बाणसंधाने रुचिः, अम्बुजसन्धिबन्धे अम्बुजस्य सरसिजस्य सन्धिबन्धे संकोचे मुकुलतायाम् सपक्षरुचिः समानोदरग्रीतिः व्यर्था समानोदरप्रेम नैव भवति दर्शनमपि न भवति तत्र गगनस्य धूलिधूसात्वान्न चन्द्रदर्शनं भवतीत्यर्थः मित्रे सति अस्तगमनम् सूर्योदयेऽस्तमितिः दैवात् भवति अस्मात् उक्ताद्धेतोः हे सजन ! सत्पुरुष! विचार्य प्रभावशालिनि राज्ञि यद्येवंविधा प्रवृत्तिस्तदाऽसदादीनां का कथेति निरुप्य तन्निवृत्तिम् मधुनिवृत्तिम् मघव्यसननिरोधं कुरु विधेहि ।। अत्र प्रस्तुतस्य गज्ञश्चन्द्रमसोऽग्रस्तुतेन केनचिद्राज्ञा सह समानधर्माभिनिवेशान् दीपकालंकारः ॥ ९ ॥ दीप्त्या मधोः प्रतिहरेश्चलचक्ररूप -तनयोद्धरणप्रसिद्धः । चक्र सुदर्शनमजायत माधवस्य, तज्ज्योतिषामुदयतः परिपन्थिभित्यै ॥ १० ॥ अन्वयः-प्रतिहरेः मधोः दीप्त्या चल चक्ररूपे व्यूहे धरासुननयोद्धरणप्रसिद्धेः तजयोतिषामुदयनः परिपन्धिभित्र्य माधवस्य सुदर्शन चक्रं भजायत ॥१॥ व्याख्या--प्रतिहरेः हरेर्माधवात् वैशाखात् प्रति पूर्वम् मधोकै. त्रस्य दीप्त्या प्रभावेन धरामु भूमिषु चलचक्ररूपव्यूहे चलति सात Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग- ७ ३६१ त्येनेति चलो वायुः सदागतित्वाव तस्य चक्ररूपे घूर्णनरूपे व्यूहे समूहे चक्रवाते वात्यायामित्यर्थः तनयोद्धरणप्रसिद्धेः तन्यते विस्तार्यते इति तनयो रजः धूली तस्योद्धरणं निराकरणम् तत्र प्रसिद्धिः ख्याति यस्य तसात् तदनन्तरम् परिपन्थिभित्त्यै परिपन्थिनाम् व्याघातकानां शीतानाम् भित्त्य विनाशनाय माधवस्य वैशाखस्य तज्ज्योतिषामुदयतः तत् कान्तीनाम् प्रादुर्भावतः सुदर्शनम् सुन्दराबलोकनम् चक्रम् समूहम् कान्तिसमूहम् अजायत उद्भवत ॥ श्लेषः । अन्यत्र प्रतिहरेः प्रतिवासुदेवस्य जरासंधस्य चलचक्ररूपन्यहे चक्रव्यूहरूपयुद्ध संस्थान विशेषे मधोः मयस्य दीप्त्या आतिशय्येन धरासुतनयस्य जरासंधस्य उद्धरणम् उच्छेदनम् तस्य प्रसिद्धः ख्याते: ज्योतिषाम् तेजसाम् उदयतः प्रादुर्भावात् परिपन्थिभित्यै शत्रुभेदनाय माधवस्य कृष्णस्य सुदशनम् मुदर्शननामकं चक्रम् चक्रास्त्रम् अजायत अभवत् उपपद्यत इति यावत् ।। १० ॥ दुर्योधनान्तकरणं धरणं क्षमाया, भीतस्य तस्य ननु पश्यत एव पुंसः । इष्टा तपोवनकथा जिनसेवना वा, नावाधिरुह्य यदिवाम्बुधिमजना वा ॥ ११ ॥ अन्वयः---दुर्योधनान्तकरणम क्षमायाः धरणम् भीतस्य तस्य पुंसः पश्यत एव तपोवनकथा वा जिनसेवना नावाधिरुख अम्बुधिमज्जना वा इष्टा ॥ १ ॥ व्याख्या-दुर्योधनान्तकरणम् दुःखेन युध्यते सह्यते इति दुर्योधनः शीतम् हिममित्यर्थः तस्य अन्तकरणम् विनाशकारकम् क्षमायाः पृथिव्या आश्रयणम् ग्रीष्मबाहुल्यात् भूमिशय्याश्रयणम् कस्येत्याकांक्षायामाह भीतस्येति भीतस्य ग्रीष्मतापपरिप्तस्य, नन्विति Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सहसम्मानमहाकाव्ये संबोधने पश्यत एव शीतलस्थानमन्विष्यत एव पुंसो, जनस्य तपो. वनकथा तपोवनस्य विपिनस्य कथा इष्टा गता “इष्यतेः क्तः" केपि तपोवनचर्ची न कुर्वन्ति दावाग्नित्राहुल्यात् वा अजिनसेवना मृगः चर्मसेवना वा इष्टा गता तस्स ग्रीष्मजनकत्वात् “त्वक्छ विश्छादनी. कृत्तिवाजिनमसृग्धरेति हैमः" अथ च नाया नौकायामुपविश्य आधुधिमजना समुद्र जल श्लेषणा जलाशय जलावगाहना इष्टा अभिल पिता तापबाहुल्याजनानां जलावगाहनाभिलापो जात इति भावः ।। अन्याथें भीतस्य संसाराद्विरक्तस्य पुंसः पश्यत एव लोकसमक्षमेव दुर्योधनातकरणम् दुर्योधनस्थ कामस्य दुर्योधनस्य धार्तराष्ट्रस्थ अन्तकरणम् विनाशनम् क्षमायाः शान्तेः धरणम् अथ च दुर्योधनान्तकरणेन क्षमायाः पृथिव्याः धरणम् आश्रयणम् इष्टम् तस्य तपोवनकथा तपोवनगमनम् वा अथवा जिनसेवना-जिनेद्रभक्तिः इष्टाआशंसिता, वा अथवा नाबाधिरुह्य नौकाधिष्ठितः अम्बुधिमझना समुद्रयातो वा इष्टा अभिलषिता कर्तव्यत्वेन निर्धारितेत्यर्थः ॥११॥ दुःशासनस्य पुरशासनजन्मनैव, संप्रापितोऽध्वनियमो विघटोत्कटत्वात् । अन्येऽभिमन्युजयिनो गुरुगौरवाहा-- स्ते कौरवा अपि कृता हतचौरवाचः ॥ १२ ॥ अन्वयः--पुरशासन जन्मनेव विघटोत्कटवात् दुःशासनस्य अध्वनियमः संप्रापितः भन्ये अभिमन्युजमिनः गुरूगौरवाहीः ते कौरवाः अपि हतचौरवाचः कृताः ॥ १२ ॥ व्याण्या-पुरशासनजन्मनैव पुरम् कुसुमदलवृत्तिम् शास्ति विघटयतीति पुरशासनो वमन्तः "पुरम् देहे गेहे कुसुमदलवृत्ती चर्मणि प्रधानग्रामे इति शब्दस्तोममहानिधिः, तस्य जन्म उदयस्तेन Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिभणीता सरणी टीका. सर्ग-७ १६५ दुःशासनस्य दुःखेन शास्यते सह्यने इति दुःशासनम् हिमम् , तस्य विघटोत्कटत्वात् विघटे विनाशे उत्कटत्वात् उच्छृङ्खलत्वात् अध्वनः मार्गस्य नियमः गमनप्रतिबन्धः संप्रापितः समाप्तः मधुमाधवे गमनस्य प्रशस्ततरत्वात् गमननिरोधो निवारितः अन्ये अभिमन्युजयिनः अभिमन्यन्ते प्रशंस्यन्ते जनैरिति अभिमन्यवः जात्यादिकुसुमविशेषाः ते च ते जयिनश्चेति अभिमन्युजयिनः प्रशस्यतराः जातीयकुसुमानि गुरु महान् यो गौरवः गरीयस्त्वम् तदहीं तद्योग्याः को पृथिव्याम् रवाः प्रसिद्धाः ते हतचौरवाचः कृताः हताः निवृत्ताः चौरवाचः एकान्तस्मरणानि येषान्ते कृता तेषान्नामापि कैरपि न गृह्यत इति भावः न स्याजातीयवसन्ते इति साहित्यदर्पणस्मरणात् ॥ १२॥ अन्यार्थे पुरशासनजन्मनैव पुरम् शरीरम् शास्ति कार्ये प्रवर्तय. तीति पुरशासनो वायुः तस्माजन्म यस्य तेन भीमसेनेन यद्वा पुरं तन्नामकमसुरविशेष शास्ति हिनस्तीति पुरशासन: पुरन्दरः ततो जन्मयस्य तेन अर्जुनेन विघटोत्कटत्वात् वि-विपरीतम् विरुद्ध वा घटयत्याचरतीति विघटः विरुद्धाचारः द्रौपदी चीराधाकर्षकत्वादित्यर्थः तेन उत्कटः उग्रा उल्वणः विघटोत्कटस्तस्यभावस्तत्वम् तस्मात् विरुद्धोल्व. णाचारत्वात् दुःशासनस्य तदभिधानकौरवस्य अध्वनियमः अध्वनो मार्गस्य नियमः अन्तः, अतः परगन्तव्यन वर्तते इति निश्चयः महा. प्रस्थानमित्यर्थः संप्रापितः उपलम्भितः तथा अन्ये ततो भिन्नाः अभिमन्युजयिनः अभिमन्युपराजयकारकाः गुरुगौरवाः गुरवो द्रोणाचार्यप्रभृतयः गौरवार्हाः रववंशोद्भवत्वेन गुरुत्वमाता भीष्मादयः ते च ते गुरुगौरवाहाँ ते प्रसिद्धाः कौरवाश्च हतश्चौरवाचः हताः विनष्टाः चौराः चोरिताः वाचः येषां ते कृता विनष्टमुष्टवचनाः कृताः तेऽपि मृता अप्रशंसाहश्चि जाता इति भावः ॥ १२ ॥ श्लेषः । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सहसन्धानमहाकाव्ये तत्रार्कभूः समुदितो भटकोटियोद्धा, रोद्धाऽपहस्तयति हस्तिशतं स्वतन्त्रः । बाणप्रकर्षपिहिताम्बरदिग्विधानः, स्वर्गेशनन्दनजयेन कृताभिमानः ॥ १३ ॥ अन्य:-तत्र अर्कभूः समुदितः भटकोटियोद्धा रोद्धा स्वतंत्रा हस्तिशतम् अपहरतयति बाणप्रकर्षपिहिताम्रदिग्विधान: स्वर्गेशनन्दनजयेन कृताभिमानः॥१३॥ व्याख्या-तत्र ऋतुप्रसंगे अर्कभूः अर्कात् सूर्याद्भवतीत्यर्कभूः राधेयः वैशाखः “वैशाखे माधवो राध इत्यमर।" यद्वा अर्कभूः अर्कस्य पुष्पविशेषस्य भूरुत्पत्तिस्थानमिति "आकडा" इतिख्यातस्येत्यर्थः तत्र तस्य प्रभृतत्वात् "अहिवसुकास्फोटगणरूपविकीरणा इत्यमरः" वैशाखमासः समुदितः ऋतुप्रसंगेन प्राप्तः भटकोटियोद्धा भटन्ति हिमं धारयन्तीति भटा हिमधारका तेषां कोटिः भटकोटिः तं योधयतीति भटकोटियोद्धा हिमनाशकः "वैशाखे नरवानरावित्यभियुक्तोक्तेः” रोद्धा अत एव हिमरोद्धा निवर्तकः स्वतंत्रः स्वाधीनः हस्तिशतम् हस्तो हस्तनक्षत्रमस्मिन्नस्तीति, हस्ती हस्त: अश्विन्यादित्रयोदशनक्षत्रम् "हस्त: देहावयव मेदे. हस्तिशुण्डे, अश्विन्यादि त्रयोदशनक्षत्रे, इति शब्दस्तोममहानिधिः" तद्वान् अश्विन्याम्मेषेरविर्यदा भवति तत एव नक्षत्र तिरिति नक्षत्रप्रवर्तकत्वेनेति भावः तेषां शतम् अपहस्त यति प्रवर्तयति वाणानाम् वनवहीनाम् "बाणः शरे वही गवांस्तने दैत्य मेदे इति शब्दस्तोममहानिधिः" प्रकर्षेण प्राबल्येन पिहित आच्छादितः अन्धः कारीकृतः दिग्विधानः दिविभागो येन स पाणप्रकर्षपिहिताम्बरदिविधाना, खर्गेशनन्दनजयेन कृताभिमानः स्वर्गेश इन्द्रा तन्नन्दयः तीति स्वगेशनन्दनो वायुः तस्य जयः उत्कर्षप्राप्तिस्तेन कृताभिमान: तगौरवः, वैशाखे वायोः प्राबल्येन वैशाखस्य गर्विष्ठतेति भावः ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्य भीविजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-७ १६ ___ अन्यत्र अर्कभूः अर्कात् मुर्यात् भवतीत्यर्कभूः कर्णः समुदितः प्राप्तोदयः भटकोटियोद्धा भटानाम् योद्धृणाम् "भटा योधाश्चयोद्धारइत्यम।" कोटिः भटकोटिस्तंयोधयतीति तथा, रोद्धा विपश्वाणां रोधनकर्ता स्वतन्त्रः स्वाधीनः हस्तिशतम् गजशतम् अपहस्तयति गलह स्तिकान्ददाति, बाणानाम् शराणाम् प्रकर्षणमाकर्षणम् तेन पिहितम् आच्छादितम् दिविधानम् दिविभागो येन स बाणप्रकर्षपिहिता म्बरदिविधानः स्वर्गेशः इन्द्रः तस्य नन्दनोऽर्जुनः, तस्य जयेन विजयेन कृताभिमानः कृतगव इति स्वर्गेश नन्दनजयेन कृताभिमान: अभूदिति शेषः ॥ १३ ॥ ____ अथ च । अर्कः अर्कः इन्द्रः 'अर्कः सूर्य इन्द्रे ताने स्फटिके विष्णौ पण्डिने चेति शब्दस्तोममहानिधिः" तस्मात् भवतीति अर्कः अर्जुन: अन्यद्विशेषणम् पूर्ववद्योज्यम् स्वर्गेशनन्दनजयेन कृताभिमानः स्वर्गस्य ईशः स्वर्गेशः इन्द्रः तस्य नन्दनः इति स्वर्गेशनन्दनः, जयति शत्रूनिति जयः स्वर्गेशनन्दनश्चासौ जयश्चेति स्वर्गेशनन्दनजयः तेन कृताभिमानः कृताहंकारः अहं महेन्द्र पुत्रः जयी चेति कृतगर्व इत्यभिप्रायः ॥ १३ ॥ श्लेषः ।। तत्रोबभूव सुरभिः सुरभित्प्रसङ्गी, पद्मप्रबोधविधिना भुवनानुरागी । चक्रे निशाचरबलक्षयतो वियोगं, भिन्दन् शिलीमुखबहुप्रसरोपयोगात् ॥ ११ ॥ अन्वयः-तत्र सुरभृत्प्रसंगी पद्मबोधविधिना भुवनानुरागी सुरभिः उद्धभूव, शिलीमुम्व बहुपसरोपयोगात भिन्दन् निशाचरबलक्षयत: वियोगम् चक्रे॥ , चत्रे पार्श्वज्ञानाद्वसंतवर्णनम् । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्मानमहाकाव्ये व्याख्या-तत्र ऋतुप्रसंगे सुरभृत्प्रसंगी मुरैवधियते धार्यते इति सुरभृत् कुमुमम् तस्य प्रसङ्गः सम्बन्धो यत्र स सुरभृत्प्रसङ्गी पुष्पसमृद्धिसमृद्धः, सुरभिः वसन्तः “वसन्ते पुष्पसमयः सुरभिीष्म उष्मक इत्यमरः" उद्बभूव उपाययो कथंभूतः पमप्रबोधविधिना पद्मस्य कमलस्य यः प्रबोधविधिः विकाश विधिः, तेन भुवनानुरागी भुवनस्य कृत्स्नस्य जनस्य अनुरागः प्रेम यसिन् स भुवनानुरागी, सकलजनानुरागभाजन: शिलीमुखबहुप्रसरोपयोगात् शिलीमुखानाम् भ्रमराणाम् “मयूखस्विट्करज्वालास्वलिबाणौ शिलीमुखावित्यमरः" बहुप्रसरस्य बहुसंगस्य यः प्रसरः संबन्धः तस्य उपयोगात् आयोज नात् निशाचरबलक्षयतः निशाचरस्य चन्द्रस्य बलक्षयतः दौर्बल्यात वियोगम् कमलश्रमरवियोगम् भिन्दन् च्छिन्दन निशाचराणाम् घूक पक्षिणाम् बलक्षयतः बलविनाशात् वियोगम् वीनाम् कोकिलविहगानाम् योगम् सम्बन्धम् चक्रे विदधे, पेचकानां वायसारातित्वात काकपिकयोः साम्यात् घूकवलक्षयात् कोकिलसम्बन्ध इति भावः "निशाचरबिलक्षयतो वियोगम्" इति पाठांतरे, निशाचराणाम् सर्पाणाम् "निशाचर: राक्षसे पिशाचे शृंगाले पेचके सर्प चक्रवाके चौरे इति शब्दस्तोममहानिधिः" विलक्षयतः बिलानाम् विवराणाम् क्षयतः वसन्ते पतितपणस्तद्धिलाच्छादनेन विलक्षयः सुतराम् वियोगः विवरवियोगो भवति भावः यद्वा वियोगः वीनां पक्षिणां योगः सम्बन्धः वहिः पक्षिणोऽहीनुल्लुण्ठयन्तीति प्रसिद्धिः ।। अन्यत्र सुग्मैश्वर्यम्बिभर्तीति सुरभृत् राजा तत्र प्रसङ्गः प्रचारो यस्य सुरभृत्प्रसंगी राजजनप्रबोधकः पझे रामे आत्मज्ञाने आत्मानन्दे " आनन्दो नन्दनः पद्मो राम इत्यभिधानचिन्तामणिः " यो बोधः ज्ञानम् ईश्वरविषयकबोधः तस्य विधिविधानम् तेन भुवनानुरागी Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्री विजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-७ ३६९ भुत्रनस्य जगतः अनुरागः गुरुत्वप्रेम यस्मिन् स यद्वा भुवनस्य अनुरागो वात्सल्यं यस्य स अथवा पद्मप्रबोधविधिना आत्मज्ञानेन अभूनानुरागी संसारविरक्तः "सुरभिर्विद्वान सुरभिः स्वर्ण सुन्दरे चम्पके चैत्रेमासि पण्डिते धीरे इति शब्दस्तोममहानिधिः " उद्बभूव वित्रकास विदिद्युते इति यावत् निशाचरबलक्षयतः निशा तमः तत्र चरतीति निशाचरः अज्ञानम् तस्य बलक्षयतः अज्ञानपसरविनाशात् वियोगम् विः ज्ञानमिति शब्द० म० तस्य योगः सम्बन्धः अज्ञाननाशाद्विज्ञानयोगः तं चक्रे विदधौ शिलीमुखबहुप्रसरोपयोगात् शिलीमुखानाम् जडानाम् शिलीमुखो जडीभूत इति शब्द० म० बहुप्रसरस्य अधिकसंबन्धस्य उपयोगात् लाभात् त्रियोगम् परिभवम् भिन्दन् अपसारयन् वियोगम् शुद्धयोगम् चक्रे विदधे ॥ १४ ॥ यत्रार्कसूतिरभवद् बहुलातपश्रीरामाभियोगकलया विलयात् शुकादेः । आमोद मोदकरसादवशाशनेन, चित्रातिशायिनि विधौ परशासनेन ॥ १५ ॥ भन्वयः - बहुलातपश्रीः रामाभियोगकलया शुकादे: विलयात् आमोदमोदकरसादवशासनेन चिन्नातिशायिनि विधौ परशासनेन अर्कसूतिः यत्र अभवत् ॥ व्याख्या -यत्र बहुलातपश्रीः बहुलस्य अतिशयस्य आतप - स्य तापस्य श्रीः शोभा यस्मिन् स शुकादेः शुक्रस्य पत्रस्य विलयात् पातात् यद्वा शुकस्य कीरस्य पक्षिविशेषस्य विः आकाशे लयो लीनता तस्मात् अथवा शुकादेः शोकादेः विलयात् विनाशात् रामाभियोग कलया रामस्य मृगस्य योऽभियोगः सम्बन्धः तस्य कलया कलनेन " गन्धर्वः शरभो रामः सृमरो गवयः शश इत्यमरः " यद्वा रामाया रमण्याः अभियोगकलया सङ्गमाकलनेन आमोद मोदकर सादवश स Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.० महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्मानमहाकाव्ये नेन प्रचुरसुगन्धेन तत्र पुष्पातिशयात् यो मोदः हर्षः तं करोतीति आमोदमोदकरः तेन सादस्य विषादस्य "विषादोऽवसादः सादो विषण्णतेति हैम:" यत् अवशासनम् उल्लङ्घनम् तेन चित्रातिशायिनि विधौ चित्रया चित्रानक्षत्रेण अतिशयते इति चित्रातिशायिनि चित्रानक्षत्र. योगिनि विधौ चन्द्रे यद्वा चित्रं यथास्थात्तथा अतिशायिनि अधिक चमत्कारशालिनि विधौ चन्द्रे सति परमुत्कृष्टम यत् शासनम् तेन उपलक्षितः अभवत् अजायत अत्र सर्वत्र उपलक्षणे तृतीयाऽवसेया॥१५॥ अन्यत्र । अर्कसूतिः सूर्यवंशोद्भवो रामः कर्णनृपतिः सुग्रीवो वा बहुलातपश्रीः बहुलोघनीभूतो य आतपस्तस्य श्रीरिवश्रीर्यस्येति निदर्शनालंकारः, स शुकादेः शोकादेः विलयात अपगमात् रामाभियोगकलया रामायाः सीतायाः कर्णपक्षे रामस्य परशुरामस्य सुग्रीवपक्षे रामायास्ताराया अभियोगकलया संबंधसंकलनेन आमोद मोदकरसादवशासनेन आमोदेन हर्षेण यो मोदकरः सुखकरस्तस्मात् सादस्य विषादस्य अवशासनेन उल्लंघनेन चित्रातिशायिनि विधौ चित्रो विलक्षणो य अतिशयते स चित्रातिशायि तस्मिन् विधौ अदृष्टे सानु. कूले दैवे परशासनेन परस्य शत्रोः शासनेन अवसादनेन उपलक्षितः अभवत् अराजत ॥ १५ ॥ राधानुनायकतयाऽप्यमुनाऽनुविद्धा श्वेताश्वनोदनकृता न कृता विरुद्धा। तद्वासवस्य कमलाद्यनुरागमस्मिन् , दधे वलात स्वबलहस्तविनाशनेन ॥ १६ ॥ अन्वयः -राधानुनायकतयाऽपि अनुबिद्धाश्वेताश्वनोदनकृता भमुना विरुदा न कृता बलात् स्त्रयलहस्तविनाशनेन तत् वासवस्य कमलाशनुरागम् भस्मिन दूधे ॥ १६ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-. ." व्याख्या-राधस्य वैशाखस्य अनुनायकतयापि अनुराधकतयापि प्रसायकत्वेऽपि अनुविद्धः अश्वेताश्वनोदनकृता अश्वेताश्वो वायुः अनुविद्धश्चासौ अश्वेताश्वश्चेति अनुविद्धाश्वेताश्वः अनुगताश्वेताश्च इत्यर्थः तस्य नोदनकृता प्रेरकतया अमुना वसन्तेन विरुद्धा न कृता "य: राधायाः द्रौपद्याः आराधकः स यदि अनुविद्धाश्वेताश्वस्याऽर्जुनस्य नोदनकद भवेत तदा सुतरामेव विराधको जात इति सम्बन्धमुरीकृत्याह विरुद्धा न कृतेति भावः " तत् वासवस्य कमलाद्यनुगगम् सरोजादिप्रेम तदेव अस्मिन् वमन्ते जातम् “ अन्यथा पुत्र विराधका तथा न संभवेदित्यर्थः " बलात् बलतः स्वबलानाम् स्वसैन्यानाम् हस्तविनाशनेन " हस्तवारणम् मारणोद्यतस्य निवारणमिति शब्द म." मारणोद्यतनिवारणेन दधे वसन्तो यद्यपि फाल्गुनस्य विनाश कस्तथापि कमलविनाशकत्वेन स्वबलहस्तविनाशनेन च वासवः अमिन वसन्ते दधे इति तत्वम् ॥ १६ ॥ अन्यत्र । राधानुनायकतयापि राधस्य माधवस्य कृष्णस्य अनु. नायकतयापि अनुराधकत्वेऽपि "वैशाखे माधवो राध इत्यमरः अनुविद्धाश्वेताश्वनोदनकृता अनुविद्ध आहतो य अश्वेताश्वः कर्णस्तस्य नोदनकृतापि निराकरणकृतापि यद्वा अश्वस्य नोदनं प्रेरणं करोतीति अश्वनोदनकुन अश्वेतः कृष्णश्वासौ अश्वनोदकच्चेति अश्वेताश्वनोदनकृत अनुविद्धः योजितः अश्वेताश्वनोदनकृत् येन तेन विरुद्धा न कृता "य: आराध्यः स आराधको न भवतीति विरोधः उक्तार्थे सति विरोधप. रिहारः" तत् वासवस्य वसुसर्वसमृद्धिरस्यास्तीति वासवः कृष्णः तस्य कमलाद्यनुरागम् स कमलहस्त इति कमलापतिश्चेति कमलादेरिव असिन् अर्जुनेऽनुराग इति अन्यत् पूर्ववत् ॥ १६ ॥ तेनागभूपशमने सुमनः सुतत्वात् , वैशाखनाम तदमुष्य न फाल्गु. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाव्ये नोऽयम् इति पाठान्तरम् || तेन अंगभूपशमने कर्णनृपमने सति अथ च अङ्गभूः कामः तस्य शमने शान्तौ सुमनसां देवानामिन्द्राणाम् सुतत्वात् पुत्रत्वात् सुमनसां पुष्पाणां सुतत्वादुत्पादकत्वात् अथ च सुमनसां सुष्ठुचितानाम् सुनत्वाजनकत्वात् अमुष्य अस्य वैशाख इति नाम अथवा वैखः रणसंस्थाविशेषः सोऽस्यास्तीति वैशाख इति नाम अयम् उक्तकार्यकारी फाल्गुनः न फाल्गुनमासः न अथ च फल्गु असारम् तदेव फाल्गुनः "प्रसादित्वादण्" असारो न "असारन्तु फल्गु इति द्वैमः " ॥ १६ ॥ धारां पुपोष विपरीततया न राधां, राजाङ्गजाभ्युदयितां दयिताङ्गरागात् ॥ उक्तिः प्रिया पवनशालिवनप्रियाण, कामं जनेषु विनयाजनयाम्बभूव ॥ १७ ॥ अन्वयः - दर्शितांगररागात् गजांगजाभ्युदयिताम् धाराम् पुपोष राधां न पवनशालिन प्रियाणां उक्तिः प्रिया विनयात् जनेपु कामम् जनयाम्बभूव ॥१७॥ व्याख्य- दयितःङ्गरागत् दयितः प्रेयःन् योऽङ्गरागः अंगं रज्यतेऽऽनेनेति अङ्गरागः अङ्गलेपनम् तस्मात् राजांगजाभ्युदयिताम् राज्ञः चन्द्रस्य अङ्गजम् शैत्यम् तस्याम्पुदयिताम् समृद्धिम् धाराम् जलधाराम् शैत्यातिशयकारिणीम् जलधाराश्च पुपोष सिषेवे यद्वा दयितायाः श्रेयस्याः अङ्गरागात् अङ्गस्पर्शसुखात् चन्द्रजशैत्यवतीम् धारां श्रेणीम् पुपोष मेजे विपरीततया वैपरीत्येन पुरुषायितत्वेन राधाम् रिरंसाम् न पुपोप नानुभवतिस्म ग्रीष्मबाहुल्यात् अथ च विपरीततया धारापदगताक्षर वैपरीत्योच्चारणेन राधाम् गजमदप्रसृतिम् उस्तिमदस्रावम् न पुपोष न ररक्ष तत्र गजमदप्रवृत्तेः प्रसिद्धत्वात् पचनशालिनप्रियाणाम् पचनान्दोलितारण्यपिकानाम् "बनप्रियः परभृतः कोकिलः 5 - Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-७ ३७५ पिक इत्यपीत्यमरः” उक्तिः पञ्चमालापः प्रिया मनोज्ञा जनानामिति शेषः सा उक्तिः जनेषु लोकेषु विनयात् अनुरागमुत्पाद्य कामम् मदनम् जनयांबभूव उत्पादयामास कामोत्पादिका जातेति भावः ।। __ अन्यत्र । राजाङ्गजाभ्युदयिताम् राज्ञः राज्यस्य अङ्गः राजाङ्ग: राजागाजायते इति राजाङ्गजः 'स्वाम्यमात्यसुहृत् कोशो राष्ट्र दुर्ग बलानि च राज्यांगालि प्रकृतय इति हैम:" तेन अभ्युदयी राजाङ्गजाभ्युदयी तस्य भावस्तत्ता ताम् राजागाजत्वेन भाग्यशालिनीम् दयिताङ्गरागात् दयित ईप्सितोऽङ्गरागो यस्य तस्मात् धाराम् रथांगविशे. षम् सैन्याग्रिमस्कन्धं वा अश्वगति विशेषम्बा "धोरितं बलितं प्लुतोतेजितोत्ते रितानि च, गतयः पञ्चधाराख्यास्तुरंगानां क्रमादिमा इति हैमः" पुपोष रक्ष विपरीततया धाराशब्दवैपरीत्येन राधाम् राम् काञ्चनं दधातीति राधा ताम् यद्वा रां विभ्रमं विलासं धारयतीति राधा ताम् विलासिताम् अथवा दानम् धीयते अने नेति राधा संप्रदानता ताम् अथवा राधा वृषभानुनन्दिनी तां न पुपोष न ररक्ष राधा वृन्दावनस्थितस्यैव कृष्णप्रिया द्वारकास्थितस्य तु काचन अन्या एवेति भावः प्रियापवनशालिवनप्रियाणाम् प्रियाणां प्रेयसीनां यत् पवनम् कूर्दनम् तेन शालते शोभते यत् वनम् समुद्रजलम् तत् प्रियम् मनोज्ञं येषां तेषां प्रियासहितजलविहारकर्तृणाम् उक्तिः मनोहरवचनम् विनयात माधुर्यात् जनेषु लोकेषु कामम् मदनम् अभिलाषम्बा जनयांबभूव उत्पादयामास ॥१७॥ ग्रीष्मर्तुराडू भुवि ददाह न शाखिनोऽन्यान् , स्वैः पत्रवाहनिवहैः परपत्रवाहान् । व्याशोषयन्नवजडाशयपङ्कभागान , मुक्त्वैवमेव सहकारमुखं स भीष्मः ॥१८॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ महोपाध्यायश्रीमेषविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अन्वयः-भीष्मः ग्रीष्मर्तुराट् स्त्रैः पत्रवाह निवहैः परपत्रबाहान् भन्यान् शाखिनः सहकारमुख त्यक्त्वैव न ददाह किन्नु ददाहेव एवम् नवजडाश अपंक. भागान् ग्याशोषयत् ॥ १८ ॥ व्याख्या-स मीष्मः तापजनकः ग्रीष्मर्तुगट ऋतुषु राजते इति ऋतुराट् ग्रीष्मनासौ ऋतुराट् चेति ग्रीष्मर्तुगट स्वैः स्वकीयः पत्रवाहनिवहैः पत्रम् दलम् चाहयन्ति इतस्ततश्वालयन्तीति पत्रवाहा वायवः तैः दावाग्निसंसर्गेण वह्निनायैः परपत्रवाहान् परमुत्कृष्टम् पत्रम् पर्णवहन्ति धारयन्तीति परपत्रवाहाः तान् अन्यान् भिन्नान शाखिन: वृक्षान् सहकारमुखम् सहकारप्रधानम् चूतप्रमुखम् मुक्त्वैव परित्यज्यैव न ददाह किन्तु ददाहैव एवम् इत्थम् नवजडाशयपंकभागान् डलयोः साम्यात् नवानां नूतनानां जलाशयानां अल्पसरसां पङ्कभागान् कर्दमांशान व्याशोषयत् शुष्कतामनयत् ।। वक्रोक्त्यलंकारः ।। अन्यत्रार्थे । ग्रीष्म राट् ग्रीष्म रिव राजते इति ग्रीष्मर्तराद् स भीष्मः भीष्मपितामहः अथवा ग्रीष्मत्तौ राजते विशेषेण तापयति जनानिति ग्रीष्मर्तुराट् सूर्यः भीष्मः प्रचण्डः अन्यान् निरपेक्षानुदासीनानित्यर्थः पराङ्मुखान्वा परपत्रवाहान् परेषां पत्रम् सन्देशपत्रम् बहन्ति प्रापयन्तीति तान् परप्रेष्यान शाखिन: शाखा देहावयव विशेषः येषां सन्ति ते शाखिनः तान् खपत्रवाह निव हैः स्वकीयबाणैने ददाह न भस्मचकार सहकारमुखम् सहायकनृपप्रमुखम् त्यक्त्वा परित्यज्य नवजडाशयपङ्कभागान नवानाम् नवीनानाम् जडाशयानाम् कुटिलहृदयानाम् पङ्कभागान् पापान् मालिन्यभागान "अस्वीपवं पुमान् पाप्मा पापं किल्बिषकल्मषमित्यमरः" व्याशोपयत् शुष्कतामनयत् ॥१८॥ शौचं प्रभातसमयं शमयन्तमन्त. दहिं घनाघनघटाप्रकटाम्बुवृष्टया । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिभणीता सरणी टीका. सर्ग-७ १७५ ब्यालोक्य चारुकुटजातिशयेन केन, साकेतकेश्वरदृशोदयतीति नोचे ॥ १९ ॥ अन्ययः-- घनाघन घटाप्रकटाम्बुवृष्टया अन्तदाहं शमयन्तम् शौचं प्रभात. समयं ज्यालोक्य कुटजातिशयेन केन साकेतकेश्वरदृशा उदयतीति नोचे ॥१९॥ व्याख्या-घनाघनप्रकटाम्बुवृष्टया धनाधनस्य मेघस्य " वाघुको. ऽग्दो घनाघन इत्यमरः" या घटा आडम्बरम् तया प्रकटाम्बुवृष्टया प्रकटा प्रवृत्ता या अम्बुवृष्टिः जलवर्षणम् तया अन्तर्दाहं ग्रीष्मसमया जनिततापं शमयन्तं निराकुर्वन्तं शौचं शुचिभवम् आषाढमासीय प्रभातसमयं प्रातःकालम् व्यालोक्य दृष्ट्वा चारकुटजातिशयेन चारु. मनोज्ञः यः कुटजः गिरिमल्लिकावृक्षः तस्य अतिशयेन आधिक्येन "कुटजो गिरिमल्लिकेति हेमः" साकेतकेश्वरदृशा आ समन्तात् केतका केतकी पुष्पम् तदेव ईश्वरः प्रधानत्वात् तेन सहिता तदवलोकनसहिता इक् यस्य तेन केन केनापि उदयतीति न उचे न जगदे अथवा केतन मेत्र केतका ध्वजा आसमंतात केतका आकेतकः इन्द्रध्वजम् तेन सहिता दृक् यस्य तेन आकाशे इन्द्रध्वजवाहुल्येन तत्सहितत्वन्नेत्रस्येति तेन दृशेत्यर्थः ॥ __ अन्यत्र-धनाधनः हन्त्यज्ञानमिति धनाधनः अज्ञाननिरासका तस्य घटा परम्परा तया प्रकटा आविर्भूता या अम्बुवृष्टिः अमृतवृष्टिः "पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनम्वनमित्यमरः" तया अज्ञाननिरासकरूपोपदेशामृतवृष्टया शौचम् शोकादुत्पत्रम् अन्तर्दाहम् मान. सिकसंतापम् शमयन्तम् निराकुर्वन्तम् अत एवं प्रभातसमयम् प्रभा तनोति प्रकाशमाविर्भावयतीति प्रभातः स चासो समयश्चेति प्रभा. तसमयम् " सामान्ये नपुंसकमिति नपुंसकतया निर्देशः" व्यालोक्य श्रुत्वा धातूनामनेकार्थत्वात् चारुकुटजातिशयेन कुटात् कौटिल्याजा. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्ये यते इति कुटजः तस्य अनिशयः महानिद्रा "शयः हस्ते सर्प निद्रायां शव्यायां पणे चेति शब्दस्तोम महानिधिः " तेन साकेतकेश्वरदृशा अयोध्याधीश्वरेण तीर्थकरप्रभुणा इव उदयतीति केन जनेन नोचे न उद्यतेस्म ॥ १९ ॥ अम्भाधरेणजनिता-बनिता विशल्या, द्रोणाह्वयेन गिरिणा हरिणाभिनीता। कौशल्यहारिमनसा हरिमप्यशल्यं, __ स्नानाम्भसव विदधे स्वमुनाहतैव ॥ २० ॥ अन्वय:----द्रोणाह्रयेन अम्भोधरेण गिरिता वनिताविशल्यया अनिता कौशल्यहारिमन सा हरिणा अमुनाहले व अशल्यम् हरिम् स्नानाम्भसैव विदधे ॥ २० ॥ व्याख्या-गिरिणा पतनशीलेन द्रोणाहयेन द्रोणनाम्ना अम्भो. धरेण मेघेन यनिता महिला विशल्या विगतम् शल्यम् दुःखं यस्याः सा विशल्या निःशोका जनिता कृता वर्षायां गमनागमनाभावात् सर्वा अप्रोषितभर्तृका जाता इति विशोकत्वं तासमिति भावः कौशल्यहारिमनसा कुशलस्य भावः कौशल्यम् मांगलिकम् तेन हारि मनोहारि मनो यस्य तेन लोकमांगल्यपराधीनचित्तेन हरिणा सूर्येण अमुना अभिनीता मुक्ता वृष्टिरिति शेषः स्नानांभसैव सेकजलेनैव हरिम् भेकम् अशल्यम् तापरहितम् विदधे चक्रे बर्यासमये दर्दुराणाम् हर्षप्रकर्षों भवतीति तत्वम् । २० ॥ आदित्याजायते वृष्टिवृष्टेरनं ततः प्रजा इति मनुः ॥ ____ अन्यत्र गिरिणा सदुपदेशकेन द्रुणति हिनस्ति पापमिति द्रोणः स आह्वोऽभिधानं यस्य तेन द्रोणाह्वयेन पापनाशकेन अम्भोधरेण समुद्रविजयनाम्ना नृपेण अवनिता अबनेः पृथिव्याः भावः अवनिता विशल्या निष्पापा जनिता कृता अथवा अवनं रक्षणमेवावनिः तस्य Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविलवाहतपरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-- . भावस्तता सा अवनिता रक्षणा विशल्या निष्कलंका ननिता विहिता यङ्का अम्भोधरेण समुद्र विजयेन विशल्या अकुलषा अवनिता अयोषिद्भता पुरुषार्थविशिष्टा पुंप्रमतिः जनिता उत्पादिता कौशल्यहारिमनसा नैपुण्यवशंवदचिनेन प्रभुगुणदर्शनात्तदधीनमनसा अमुना हरिणा इन्द्रेण अभिनीता प्रेरिता आता कृतादरा शासनदेवतेति शेषः कृता विहिता हरति पापमिति हरिः तम् नेमिनाथप्रभुम् स्नानाम्भसैव स्नात्रजलेनैव विशल्यम् गार्भक्लेदरहितम् विदधे चक्रे ॥ २० ॥ द्रोणो धनञ्जयमहाहवलब्धकीर्ति र्धन्वादधद् बहुगुणं भुवि गर्जिवर्जः । तन्वन शरप्रसरमेव तदाजगाम, सौरप्रभावसमयं सहसाऽनुभाव्य ॥ २१ ॥ अन्वयः-धनञ्जयमहाहवलब्धकीर्तिः बहुगुणम् धनुः भादधत् गर्जिवर्जः शरप्रसरमेव तन्वन् सौरप्रभावसमयं सहसानुभाध्य द्रोणस्तदाभुवि भाजगाम॥२१॥ व्याख्या-धनञ्जयमहाहवलब्धकीर्तिः धनञ्जयेन वनामिना यो महाहवः दावाग्निशान्तये रचितमहायुद्धः तेन लब्धकीर्तिः प्राप्तयशाः "वहिर्वीतहोत्रो धनञ्जय इत्यमरः" बहुगुणमने कवर्णम् धनुः इन्द्रधनुदधत् धारयन् "शरावापोधनुः स्त्रीस्यादितित्रिकाण्डशेषात्" गर्जिवर्जः वानरहितः वायुंकत्वेन मन्दगर्जः शरप्रसरम् जलवृष्टिम् तन्वन् विस्तारयन् “शरम् जले इति शब्दस्तोममहानिधिः" सौरस्य सूर्यसं. बन्धिनः प्रभावसमयं तेजःप्रसरम् अनुभाव्य विचार्य " आदित्याजायते वृष्टिकृष्टेरनन्ततः प्रजेंति स्मृतिः" तदा तस्मिन् समये सहसा झटिति द्रोणः वायुको मेघः भुवि भूसमीपमाजगाम आययो । अन्यत्र । धनञ्जयमहाहवलब्धकीर्तिः धनञ्जयस्वार्जुनस्य महाह. वेन विपुलरणेन लब्धा प्राप्ता कीर्सियन स, शिष्याणां विजयेनोपाध्या • Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.८ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये . यस्यैवकीर्तिर्भवतीति भावः बहुगुणम् अनेकमौ:कं धनुः आदधत् धारयन् गर्जिवर्जः संग्रामगर्जनारहितः वृद्धत्वाद शरग्रसरमेव बाणप्र. चारम् तन्वन् विस्तारयन् “ कम्बलमागणशरा इत्यमरः" सौरस्य कर्णस्य प्रभावसमयं सेनापतित्वं सहसा अनुभाव्य विचार्य अथवा सौरस्य कर्णस्य प्रभा दीप्तिः तस्या अवममबसानम् विभाव्य विचार्य अयं द्रोण: द्रोणाचार्यः भुवि संग्रामाङ्गणे आजगाम समाययो । २१॥ श्लेषः । न दानवानां न महावहानांनदा नवानां न महावहानाम्। नदानवानां नमहावहानां नदानवानांन महावहानाम्२२ अन्वयः-यानां महावहानां नदा: दान वानी मन महाबहानान्न महावहानां दानवानान्न न दानवानां न महावहानाच ॥ २२ ॥ व्याख्या-नवानां नूतनानाम् महावहानाम् बहतीति वहा महती चासौ वहा महावहा तासाम् नवीननदीनाम् नदाः शब्दाः दानवा नाम् दैत्यानां न न नैवं अथ च महावहानाम् महती चासौ वहा सेना महावहा तासां सैन्यसमुदायानां च न, एवं च वहन्ति धारयन्तीति वहाः पर्वताः महान्तयते बहाश्चेति महाबहाः विपुलगिरयः तेषां दानवानां दानञ्छेदनं वाति करोतीति दानवः वज्रः तेषां न न नैत्र वज्राणामपि तादृशाः शब्दा न दानवानाम् दानम्मदजलं वान्ति प्राप्नुवन्तीति दानवाः गजास्तेषान्न हस्तिनामपि न महावहानां समुद्राणां च न, यथा प्राकृषि नवीननदीनां शब्दास्तथा न केषामपीति भावः ॥ २२ ॥ अत्र पद्ये 'स्यादिन्द्रवज्रा यदि तो जगौ ग' इति लक्षणादिन्द्रवज्रावृत्तम् , यमकालंकारः । कलाकलापैः सकलाकलापैः कलाकलापैः सकलाकलापैः । व्यतीत्यमाना दिवसा रसायव्यतीत्य मानादिवसा रसाय॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-. ३७९ अन्वयः-सा मानादिवसा कलाकलापैः सकलाकलापैः कलाकलापैः कलापैः सकला दिवसा व्यतीत्यमाना रसाय व्यतीत्य रसाय(अस्ति) ॥ २३ ॥ व्याख्या-सा प्रावृट् वर्षेति यावत् काचिनायिका वा मानादिवसा-प्रणयमानाद्यधीना-कलाकलापैः कला चतुःषष्टि प्रकारागीत. वाधादिरूपा तस्याः कलापः समूहः तैः कलाकलापैः, सकलाकलापैः कलया सहिता सकला कलापाः पिच्छाः येषां ते सकलाकलापाः मयूराः तैः, कलाकलापैः कला मधुरध्वनिरूपा तया सहितः कलापः काञ्चीदाम तैः उपलक्षिताभिः मधुरध्वनियुक्त-काश्चीदामभिरुपलक्षितामिः, कलायैः स्वसखीसंथैः सकला समस्ता दिवसा व्यतीत्यमाना यापयन्ती रसाय जलाय शृंगाराय च व्यतीत्य निराकृत्य मानादीनितिशेषः रसाय शंगाराय अस्तीति शेषः ॥२३॥इन्द्रवज्रावृत्तम् यमकालंकारः। स्वस्थामवारिदनृपः प्रतिमुच्य नाम्ना ऽस्वस्थामसंगमविमर्शनतोऽग्रतोऽपि । अश्वस्थ एव समभूदु भयभूमयोगे, स्वस्थः स्मरन्निव रसं परसङ्गरस्य ॥ २४ ॥ अन्धयः-- वारिदनृपः नाम्ना स्वस्थान प्रतिमुच्य अग्रतोऽपि अस्वस्थामसंगमविमर्शनतः अश्वस्थ एव भयभूमयोगे परसंगरस्य रसं स्मरनिव स्वस्थः समभूत् ॥ २४ ॥ व्याख्या-वारिदनृपः वारि ददातीति वारिदः स चासौ नृपः जलदनृपतिः नाम्ना नामतः स्वस्थाम स्वबलम् प्रतिमुच्य मुक्त्वा परित्यज्य अग्रतः अग्ने अवस्थामसंगमविमर्शनतः अस्वस्थानाम्माना य अमसंगमः रोगसंक्रान्तिः तस्य विमर्शनतः विवेकतः मयंजनरोगसंक्रमानुभवतः यद्वा अश्वानां यत् स्थाम वलं तस्य संगमस्य विमर्शनतः विचारतः भयभूमयोगे भयाधिक्ययोगे सति अश्वस्थ एव वाजिस्थ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૦ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते ससस धान महाकाव्ये एव परसंगरस्य अन्ययुद्धस्य रसं परिणामम् स्मरन्भिव स्वस्थः स्वर्गस्यः समभूत् ॥ २४ ॥ उत्प्रेक्षा वसन्ततिलकं छन्दः । यो वारिवाहनिवहेषु कृपाणपाणिविद्युन्मिषाद् यदभिधापरिवृत्तिमैक्ष्य । धाराबलेन कुरुतेस्म तदङ्गभङ्ग, धन्वगुणं पुरत एव निदर्श्य लोके ॥ २५ ॥ अन्वयः - यः वारिवाह निवहेषु कृपाणपाणिः विधुन्मिषात् अभिधापरिवृत्तिमैक्ष्य लोके पुरत एव धन्वागुणं निदर्य धाराबलेन अङ्गभङ्गं कुरुतेस्म २५ व्याख्या - यः वारिवाहनिवहेषु वारि जलं वहन्तीति वारिवाडा मेघास्तेषान्निवहेषु समूहेषु अथ च वारिम् गजबन्धनीम्वहन्तीति वारिवाहा गजास्तेषां निवहेषु संघेषु अथवा यो वा अरिवाहनिवहेषु शत्रुसैन्यसमूहेषु कृपाणपाणिः खड्गहस्तः विद्युन्मपाद्विद्युच्छलात् अभिधापरिवृत्तिम् संज्ञापरिवर्त्तनं ऐक्ष्य विधाय लोके जगति पुरतः अग्रतः धन्वागुणम् कोदण्डगुणम् धनुर्ज्याम् निदर्श्य प्रदर्श्य धाराब लेन खड्गधारावलेन अश्वगतिविशेषेण वा अथ च धाराबलेन वर्षजलधाराबलेन तदङ्गभंगं तदङ्गविच्छेदम् कुरुतेस्म विदधतिस्म ।। २५ ।। द्रौणिः स्फुटं विघटयन शिखरेषु वाहा वायं स्ववीर्यमधिगम्य स साम्यमाधात् । निस्तन्द्र सान्द्रपरवासविनाशनाय, स्वं नाम नामपरिणाममवेक्ष्य संधेः ॥ २६ ॥ अन्वयः -- स द्रौणिः स्फुटम् विघटयन् शिखरेषु वाहा वार्य स्ववीर्यम् अधिगम्य साम्यम् अधात् सन्धे निस्तन्द्र सान्द्र परवास विनाशनाय नाम स्वम् नामपरिणामम् अवेक्ष्य साम्यमाधात् ॥ २६ ॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-७ ३१ व्याख्या-स द्रौणिः तन्नामा कश्चिन्मेघ: शिखरेषु पर्वतोचप्रदेशेषु वाहाया नया अवार्यमरोधकम् तथा वर्षति यथा प्रस्थरोऽपि तदेगन निरुणद्धि खवीर्य स्वसामर्थ्यम् अधिगम्य अधिगत्य सन्धेः संमिलितस्य विघटयन् विश्लेषयन् कर्मणः शेषत्वविवक्षया षष्ठी निस्तन्द्रसान्द्रपरवासविनाशनाय निस्तन्द्रं निष्प्रत्यहं सान्द्रं निबिडं सघनमित्यर्थः या परवासम् परगृहम् कलत्रम्बा तस्य विनाशनाय विनाशनयोग्यम् नाम इति संभावनायाम् स्वम् स्वकीयम् नाम्नः परिणामम् यौगिकार्थ गुणति हिनस्ति कौटिल्यं करोतीति द्रोणस्स एव द्रौणिरिति स्वाभिधेयवाच्यार्थम् अवेक्ष्य विचार्य साम्यम् समताम् अधात् व्यदधत् ॥ २६ ॥ अन्यत्र द्रौणिः द्रोणाचार्यतनयोऽश्वत्थामा शिखरेषु उन्नतेष्वपि बाहानामश्वानाम् वार्यनिरोधकम् यद्वा वाहस्य भुजस्य वार्यनिरोधकम् बाहुचीयरोधकम् स्ववीर्यम् स्वसामर्थ्यम् अधिगम्य ज्ञात्वा निस्तन्द्रसान्द्रपरवासविनाशनाय निस्तन्द्रं निरुद्विग्नं सांद्रम् दृढम् यत् परवासं परसेनासनिवेशम् तस्य विनाशनाय विनाशयितुं स्वनामपरिणामम् स्वकीययौगिकार्थमवेक्ष्य दृष्ट्वा सन्धेः विघटयन् संधिविश्लेषकुर्वन् साम्यम् आधात् आचरत् ॥ २६ ॥ वर्षाधिकामितफलाविगमेन शल्यं, भित्त्वाऽभजद् विभुवने भुवने जयश्रीः । नत्यानुकूलपवनाङ्गजसंप्रयोग, धर्मात्मजः सविजयस्तत एव राजा ॥ २७ ॥ भन्वयः-वर्षाभिकामितफलाधिगमेन शल्यम् भित्वा विभुवने भुवने जमश्रीः भभजत् नित्यानुकूलपवनांगजसंप्रयोग सविजयः धर्मात्मजस्तत एव राजा ॥ १.॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सससम्धानमहाकाव्ये व्याख्या-वर्षा प्रावृद् अधिकामितफलाधिगमेन अधिकामि. तम् अभिलषितम् यत् फलम् उद्देश्यम् तस्य अधिगमेन प्राप्ता शल्यं दुःखम् अवृष्टिजनित दुःखम् खेदमित्यर्थः भित्वा विनाश्य विभुवने समस्ते भुवने जगति जयश्रीः सर्वोत्कर्षता अभजत् प्राप्नोत् तथा च नित्यानुकूलपवनांगजसंप्रयोगम् नित्यमहर्निशम् अनुकूलः अनुगतः यः पवनः वायुः तस्य अङ्गजसंप्रयोगम् वेगानुकौल्यम् अधिगम्येति शेषः तत एव वर्षात एव सविजयः विजयसहितः धर्मात्मजः जीवः राजते इति राजा विराजमान: भवतीति शेषः जलवृष्टित एव सर्वे राजन्ते इति भावः ।। ____ अन्यत्र । वर्षे भारतवर्षे अधिकामितस्य अभिलषितस्य फलस्य अधिगमेन लाभेन शल्यम् शल्यनामानम् नृपम् भित्वा विनाश्य विभुवने समस्ते भुवने जगति जयश्रीः विजयलक्ष्मीः अभजत् आप्नोत् नित्यम् अहर्निशम् अनुकूल: अनुगतः यः पवनांगजः भीमसेनः तस्य संप्रयोगम् युद्धोद्योगम् अधिगम्येति शेषः सविजयः अर्जुनसहिता धर्मात्मजः युधिष्ठिरः तत एव तस्मादेव शल्यविजयात् भीमपराकमाञ्च राजा सार्वभौमः भीमसेनेन दुर्योधनविनाशाधुधिष्ठिरः राजपद. भागिति भावः ॥ २७ ।। श्लेषः । नभसि रभसा वेणीश्रेणी रसोदग्रमाश्रयद्, भुवि धनरवाश्चक्रुः प्रीति समं यदि वा दिवा । प्लवगशिविरे हर्षोत्कर्षों न रक्षसि वक्षसि, सभयमनसा नालङ्कायास्तदा निरगुर्गृहात् ॥२८॥ अन्वयः-नभसि वेणीश्रेणी रभसा रसोदाम् भाश्रयत् भुवि यदि वा घनरवाः दिवा समं प्रीतिम् चक्रुः प्लवगशिविरे हर्षोत्कर्षों न रक्षसि वक्षसि समयमनसा तदा संकाया गृहात् नानिरगुः ॥ २८ ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयातसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ७ व्याख्या नमसि श्रावणे वेणीश्रेणी वेण्या जलधारायाः श्रेणी पंक्तिः रसोदग्रम् रमस्य जलस्य उदग्रम् औन्नत्यम् रमसा रामस्येन आश्रयत् अध्यगच्छत् घनरवाः घना निबिडा ये रवाः शब्दाः यद्वा घनानाम् ये रवाः शब्दाः मेघशब्दाः दिवा समम् नभसा समम् यदि वा अथवा दिवा दिवसे भुवि क्षितौ प्रीतिम अनुरागम् चक्रुः दधुः लवगशिविरं हर्षोत्कर्षः प्लवगानां मेकानां मयूरानां वानराणां वा शिविरे संघे हर्षोत्कर्षः प्रमोदप्रचुरः रक्षसि रात्रौ वक्षसि हृदयेन अत एव सभयमनसा भययुक्तचित्तेन तदा तस्मिन् समये कायाःकम् जलमेव का तस्याः ततः गृहात् गेहात् अलम् ना निरगुर्नैव निरगच्छन् । अत्र प्लवगशिविरे कापेयसेनासन्निवेशे हर्षोत्कर्षो जातो रक्षसि वक्षसि राक्षसीय सेनामनसि अत एव सभयमनसा भयभीतचित्तेन लंकाया गृहात् न निरगुर्न निष्क्रान्ता इत्यर्थान्तरोऽपि स्फुरतीति ॥ २८ ॥ श्लेषः । हरिणीवृत्तम् | रजनिवहुधान्योच्चै रक्षाविधौ घृतकम्बलः, सपदि दुधुवे वारांभाराद् गवा गलकम्बलः । ऋषिरिव परक्षेत्रं सेवे कृषीबलपुङ्गव चपलसबलं भीत्या जज्ञे वलं च पलाशजम् ॥ २९ ॥ ૨૨ .... अन्वयः - सरदि वारांभारात् गवा गलकम्बलः दुधुवे रजनि बहुधान्योः रक्षाविधौ घृतकम्बलः कृषीबलपुंगवः ऋषिरिव परक्षेत्रं सेवे पलाशजं बलम् भीत्या चपलसवलम् जज्ञे ॥ २९ ॥ व्याख्या - सपदि लघु वारां वारीणां भारात् जलबाहुल्यात् "आपखीभूति वारिसलिलमिति अमरः " गवा गलकम्बलः सास्ना दुधुवे धूयते स्म रजनि बहुधान्योच्चैरक्षाविधौ घृतकम्बलः रजनि रजन्यां रात्रौ वहु अति धान्यानां शस्यानां रक्षाविधौ पालनविधौ घृतकम्बलः Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सक्षसम्धानमहाकाचे अवलम्बितकम्बलः कृषीवलः कर्षका ऋषिरिव मुनिरिव परक्षेत्रम् परं च तवक्षेत्रश्चेति सिद्धस्थानम् यद्वा परङ्केवलम् क्षेत्रम् शस्यक्षेत्रम् भीत्या पशवः शस्यभक्षणेन क्षेत्र विकलं मा कुयुरिति भयेन सेवे सेवितवान् पलाशजम् बलम् पलम् मांसम् तृणम् अश्नातीति पलाश: अग्निः तस्माजायते इति तत् बलम् चपलसबलम् चपलानां दृष्टिज. नितशीतार्तानां सबलम् सावधानम् जज्ञे उत्पेदे ॥ २९ ॥ उपमालंकारः॥ प्राप्ताश्विनेयसुभगक्रियया जनाये, गर्जन्महासुरघटा गतिरञ्जना सा। यस्या नु बृंहितरवप्रियमादधाति, तस्याः सतः प्रतिपदं शिवसंपदेति ॥ ३०॥ अन्वयः --प्राप्त्या आश्विनेयसुभगक्रियया गर्जन्महासुरघटा गतिः सा अञ्जना यस्यानुबंहितरवः प्रियमादधाति तस्याः सतः प्रतिपदम् शिवसंपद् एति ॥३०॥ व्याख्या-जनाने लोकाग्रे आश्विनेययोः अश्विनीकुमारयोः स्ववैद्ययोः अथवा आश्विने भवः आश्विनेयः शरहतुः तस्य शुभगक्रियया सौभाग्येन प्राप्त्या लाभेन गर्जन्महासुरघटा महाश्चासौ मुरश्चेति महासुरः महासुराणां घटा महासुरघटा गजेन्ती चासो महासुरघटा इति गजेन्महासुरघटा यत्र सा तथोक्का अञ्जना गजमहिषी गतिः प्राप्त्या "शरहतौ तासां सौभाग्यं जायते इति समया" यस्या अञ्ज. नाया नु इति वितर्के बृंहितरवः गर्जितशब्दः प्रियम् अनुकूलम् आदधाति अनुकूलतां जनयति तस्या. प्रतिपदम् प्रतिक्रमम् सतः सजन स्य सौभाग्यवतः शिवसंपदम् कल्याणमेति प्राप्नोति ॥ ३०॥ इतः श्लोकत्रयपर्यन्तम्बसन्ततिलकं वृत्तम् ज्ञेयं वसन्ततिलकं तभजा जगोग इति तल्लक्षणात् ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ भाचार्यनीविजयातरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-. पद्मोदयः सरसि निर्मलता प्रयुक्ता संपत्त्रकम्पनतिर्मधुराध्वराजाम् । नैपुण्यपुण्यचरिताद् दुरितान्निवृत्तिः, किं किं शरन्न तनुते म्म सुखं जनेऽस्मिन् ? ॥३१॥ __ भन्वयः--सरसि पद्मोदयः निर्मलता प्रयुक्ता अध्वराजाम् सम्पत्रकम्पन. . गतिमधुरा नैपुण्य पुण्यचरितात् दुरितान्निवृत्तिः अस्मिन् जने शरद् किं किं सुखं न तनुतेस्म ॥ ३ ॥ व्याख्या-सरसि सरोवरे पद्मोदयः पद्यानां कमलानामुदयः उद्भवः तथा सरसि निर्मलता निष्पकता स्वच्छतेत्यर्थः प्रयुक्ता योजिता अध्वराजाम् अध्वनि मार्गे राजन्ते शोमन्ते इति अध्वराजस्तेषाम् मागेवृक्षाणां सम्पत्रकम्पनगतिः संपत्राणां सम्यक् यथास्यात्तथा दलानां कम्पनगतिश्चांचल्यं मधुरा मनोहारिणी यद्वा अध्वनि मागें राजन्ते स्वचंक्रमणेन शोभन्ते इति अध्वराजः पथिकास्तेषां सम्पत्राणां सम्यक् वाहनानां कम्पनगतिः सविलासगमनं मधुरा मनोज्ञा निरापाधा "सर्व स्याद्वाहनं यानं युग्यं पत्रं च धोरणमित्यमरः" नैपुण्यपुण्य चरितात् नैपुण्येण कौशल्येन पुण्यचरितात् पवित्राचरणतः दुरितात् दुष्कृतात् निवृत्तिनिरोधः, यथारुचिवारिदवर्षणजनितस्वास्थ्येन सर्वे जनाः शरदि धर्मकर्मणि विशेषेण रता भवतीति भावः । इति असिन् जने लोके शरद् शरदृतुः किं किं मुखम् किं किं सौख्यम् न तनुतेस्म न विदधातिस्म सर्व सौख्यं जनयति स्मेति भावः ॥३१॥ पक्षः पुरः सुरसमागमरागदक्षः, साक्षादशाननरुचिज्वलनेन मोदः । सीतान्तरप्रणयिता नृपतिप्रयोगः, संजात एव नृपलक्ष्मणसन्नियोगः ॥ ३२ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सासन्धानमहाकाव्ये अन्वयः-पक्षः पुर: सुरसमागप्ररागदक्ष: साक्षाशाननरुचिज्वलनेन मोदः सीतांतरप्रणयिता नृपति प्रयोगः नृपलक्ष्मणसम्चियोगः संजात एव ॥ ३२ ॥ व्याख्या-पक्षः कृष्णशुक्लरूपः पक्षः बलम् सैन्यम्बा पक्षः खगः पक्षी वा पक्षः राजकुञ्जरो वा पुरा सुरसमागमरागदक्षः पुरः अग्रे मुष्ठु रातीति सुरः मार्गमासः “ तत्र धान्यसंचयप्राचुर्यात् " तस्य समागमः संयोगः तस्य रागः अनुरागः तत्र दक्षः पटुः अथवा पुरः अग्रे सुरा एषामस्तीति सुराः 'अर्शादित्वादच्" सुराणां मद्यपायिनाम् समागमस्थ यो रागः प्रेमा तत्र दक्षः समुत्सुकः अन्यत्र सुष्टु रसो यस्य स सुरसः शोभनजलम् तत् माति यत्र स सुरसमः तत्र आगमनम् आगतिः तत्र दक्षा पटुः हंसादीनाम्मानसादागमनं तत्र प्रसिद्धम् कुञ्जरपक्षे सुराणां नृपानां विजयोत्सुकानां समागमे यो रागोऽभिनिवेश स्तत्र दक्षः साक्षादशाननरुचिः दशमु दिक्षु आननं प्रकाशो यस म दशाननः सूर्यः तत्र रुचिः प्रीतिर्यत्र स च ज्वलनो पहिः ताभ्यां मोद: प्रमोदः सीतान्तरस्य अन्य शोभा सम्पत्तेः मदिरान्तरस्य वा प्रणयिता प्रीतिः नृपतिप्रयोगः सूर्यस्य राश्यन्तरगमनम् भूपतिगमनं वा उत्तरदिशिगमनं वा खगानाम् नृपलक्ष्मण सन्नियोगः नृपश्चासौ लक्ष्मणश्चेति नृपलक्ष्मणः सारसः तस्य सन्नियोगः इतस्ततोगमनम् संजात एव प्रववृते ____ अन्यत्र-पक्षः सहायः पार्यो वा 'पाचे गृहे विरोधे बले सहाये सख्यौ पक्ष इति शब्द० म०” पुरा अग्रे सुरंसमागमरागदक्षः सुराणान्देवानां समागमेन सानिध्येन यो रागः अनुरागः प्रेम तत्र दक्षः पटुः साक्षात् सद्यः दशाननरूचिज्वलनेन मोदः दशाननस्य रावणस्य या रुचिः कांतिस्तस्या ज्वलनेन दाहेन रावणविनाशनेन मोदः हर्षः यद्वा साक्षात् प्रत्यहं दशसु दिक्षु आननं मुखं यस्य स दशाननस्तेन रुचिर्दीप्तिर्यस्य स दशाननरुचिः स चासो ज्वलनश्चेति दशाननरुचिज्वलनः सर्वतः प्रज्वल निस्तेन सीताशुद्धयर्थज्वलनेन मोदः हर्षः Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविनयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-७ ३८७ सीतान्तरप्रणयिता सीतायां जानक्यां आन्तरप्रणयिता आभ्यन्तरि. कप्रेम अथवा सीतान्तरे अग्निशुद्धसीतायां प्रणयिता प्रेमबुद्धिः नृपतियोगः नृपतेः रावणस्थाने विभीषणस्य प्रयोगः स्थापनम् नृपलक्ष्मणसन्नियोगः नृपश्चासौ लक्ष्मणश्चेति तस्य सनियोगः विधानम् संजात एव समुत्पन्न इत्यर्थः ॥ ३२ ॥ मार्गप्रवृत्तिरुचिता निचितात्मलक्ष्मी निर्माणनमणि जनो रमते मतेन । निश्छद्मपद्मनयनानयनानि गेहे, स्नेहेन मित्रवसनाद्यशनासनानि ॥३३॥ अन्वयः---मार्गप्रवृत्तिरुचिता आत्मलक्ष्मीनिचिता जनः मतेन निर्माण. नर्मणि रमते गेहे निश्छद्मपझनयनानय नानि स्ने हेन मिन्नवसनाद्यशनासनानि ॥३३॥ __ व्याख्या-मार्गप्रवृतिरुचिता मार्गस्य मार्गशीर्षमासस्य प्रवृति: प्रवर्तनम् उचिता प्राप्तकाला अथवा मार्गस्य अधनः प्रवृतिः प्रवर्तनम् उचिता शोभना निराबाधा आत्मलक्ष्मीः आत्मनः स्वस्य लक्ष्मीः संपत् निचिता संपादिता जनः लोकः निर्माणस्य कामस्य नर्मणि केलौ कामकेली मतेन स्वेच्छातः रमते विहरति गेहे सअनि निश्छद्मपझनयनानयनानि निच्छद्मम् निष्कपटम् यत् पद्मं न कमलम् तद्वन्नयनन्नेत्रम् यासाम् ताः निच्छेमपनयनाः निस्सन्द्रकमललोचनाः तासाम् आनयनम् आगमनम् इति निश्छा पननयनानयनानि स्नेहेन प्रेम्णा गेहे . गृहे मित्रवसनाधशनासनानि मित्रस्य सुहृदः वसनमाच्छादनम् तदादियसिन् तत् मित्रवसनादि अशनम् भोजनम् आसनमुपवेसनम् तानि तथोक्तानि अथ च मित्रस्य सूर्यस्थ वसनादि प्रवेशनादि अशनम् भोग्यम् सूर्यातय सेवनम् आसनम् पूजनम् तानि तथोक्तानि भवन्तीति सर्वत्रान्वयः ।। ३३ ॥ यमकम् । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ महोपाध्याय श्रीधविजयगणिविरचिते सससाधाममहाकाम्ये -n........ उष्णभोजनरसः परकान्तासंगमेन बहुधा लयभावः । कृष्णवम॑सचिरप्यतिजाड्यात्सैष तैषनववेषविशेषः ॥ अन्वयः-उष्णभोऊनरसः परकांतासंगमेन बहुधा लयभावः अतिजाड्यात् कृष्णवर्मरुचिरपि सैप तैषनव वेषविशेषः ॥ ३४ ॥ व्याख्या-उष्णभोजनरसः उष्णभोजने तप्तभोजने रसः अनु. रागः ततमोजनशीलता परकांतासंगमेन बहुधा लयभावः परमुत्कृष्टम् अनन्यसाधारणमित्यर्थः कांतस्य मनोहरस्य साधोरित्यर्थः संगमम् संगतिः तेन अत्युत्कृष्टजनसंगमेन बहुधा अनेकशः लयभावः तदैक मानसत्वम् अथवा परस्य केवलज्ञानस्य यः कांतासंगमः मनोहरसंगतिः तेन बहुधा अनेकधा लयभावः अज्ञानादीनां कर्मणां विनाशा अथवा परस्य सर्वोत्कृष्टस्य मोक्षस्य कान्तासंगमेन सुन्दरसंबन्धेन बहुधा लयभावः संसारनिवृत्तिः यद्वा परा अनुपमा या कान्ता मुक्तिरूपाङ्गना तस्याः संगमेन प्राप्त्या बहुधा लयभावः अत्यन्तोपरतिः अथच परकांनायाः परस्त्रिया असंगमेन संगपरिहारेण बहुधा लयभावः अनेकघा. कर्मनिवृत्तिः अतिजाड्यात् अतिशीतात् कृष्णवमरुचिः वह्निसेवनप्रीतिः यद्वा कृष्णवर्त्मरुचिः दुष्टकर्मणि प्रवृत्तिः अतिजाड्यात् अस्यज्ञानात् सैष अयम् नैषनववेप विशेषः तेषस्य पोषस्य नवः नूतनः वेषविशेषः सरूपविशेषः तैपमाहात्म्य विलसितमेतत् शांतेः प्रभोर्ज्ञानकल्याणकप्रसंगेन हेमन्तवर्णनमिदम् । अत्र स्वागतावृतम् " स्वागता रन भगैर्गुरुणा चेतिलक्षणात्" ॥ ३४ ॥ स-सीतासंतापस्तपसि जपसिद्धेः कपिपते विशल्या कौशल्यात्समितिरुचिता भारतभुवि । नचक्षोविक्षोभाद्धिमकरविधौ कान्तिरुदधौ, निलीनाशालीना विलसदमलीनाहततपाः ॥३५॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यजीविजपास्तरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-- १८५ अन्वयः-तपसि जपसिद्धेः कपिपत्तेः स सीतासंतापः कौशल्यात् भारतभुषि विशल्या समितिः उचिता हिमकरविधी कान्तिरुदधौ नृत्रक्षोर्विक्षो. भात् लिलीना शालीना विलसदमलीनाहनतपाः ॥ ३५ ॥ व्याख्या-आसमंतात्तापयति क्लेशयति इति आसंतापः सीतेन हिमेन सहितः ससीतः स चासौ आसंतापश्चेति ससीतासंतापः तपसि मासे शीतजनितसंतापस्यापि दुःखजनकत्वात् तापः कविना वर्णितः हिमकरविधौ हिमकरस्य विधिरिव विधिरिति तस्मिन शीतकारके जप. सिद्धेः जपेन मौनेन सिद्धिनिष्पतिर्यस्य तस्य कपिपतेर्वानरपतेः तेषां शीताधिक्यात् कौशल्यात् नैपुण्यात् विशल्या दुःखनिवारिका समितिः सभा भारतभुवि साग्निभुवि प्रज्वलिताग्निप्रदेशे उचिता योग्या नृचक्षोः विक्षोभात् मनुष्यनेत्रप्रसरवैकल्यात् कांतिर्दीप्तिः उदधौ समुद्रे नेत्रपिधानकारकहिमावरणतः उदधिप्रायस्सर्वमवभासते निलीना शालीना शालीना निर्लजता निलीना नष्टा सर्वेषामापादवस्त्रधारकत्वानिर्लज्जता गता विलसदमलीनाहततया विलसन्तः प्राप्तविलासाः ते च अमलीनाः अकलुषिताश्चेति विलसदमलीनाः ते च आस्ततपाश्चेति विलसदमलीनाहततपा भवन्तीति शेषः ।। ३५ ॥ शिखरिणीवृत्तम् रसै रुद्रश्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणीति लक्षणात् अन्यपक्षे-कपिपतेः सुग्रीवस्य अथच कम्पते संग्रामाय प्रच. लतीति कपिः सेनापतिस्तस्य नायकस्य रामादेः तपसि तपश्चर्यायां व्रतनियमे जपसिद्धेः मानसिकतपोव्यापारसिद्धेः प्रागिति शेषः स प्रसिद्धः सीतासंतायः सीताहरणजन्यदुःख जातमिति शेषः कौशल्या राममाता विशल्या दुःखशोकरहिता जातेति शेषः नारदवचनादिति भावः आत अस्मात् भारतमुवि लंकानगरे समितिः नरवानरराक्षम्रानां परिषत् उचिता संमता विगतः क्षोभो यसात् स विक्षोभस्तस्मात् नृचक्षोर्नरनेत्रस्य रामनयनस्य क्षोमराहित्यात् हिमकरविधौ चन्द्रे समुद्रे Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिसे सप्तसम्भानमहाकाव्ये च कान्तिः प्रसन्नता जगदाक्रान्दकारिणो रावणस्योच्छेदात शालीना औद्धत्यम राक्षसानामिति शेषः निलीना निरस्ता विलसन्तः विलसमानान अमलीनाः निष्कल्मषाः निरस्तापकारबुद्धयश्च आततपाः गृहीतव्रता तेषां इन्द्व इति विलसदमलीनादृततपाः अभवनिति शेषः तदानीम्मेघनादादिना दीक्षाग्रहणत्वादिति भावः ।। ३५ ।। कैवल्यशालिभगवत्कपिले नयार्चा श्रेष्ठा प्रतिष्ठितिमनीयत सौम्यदृष्टिः । इत्यादिदेश जिनराट् स तदादि देश देवादयः सहृदया हृदये दधुर्गाम् ॥ ३६ ॥ अन्वयः- कैवल्यशालि भगवस्कपिले (येन) श्रेष्ठा नयार्चा प्रतिष्ठितिमनी. यत स सौम्यद्रष्टिः इति जिनराट् आदिदेश तदादि देशदेवादयः सहृदया: गाम् हृदये दधुः ॥ ३६ ॥ व्याख्या-कैवल्यशालिभगवत्कपिले केवलस्य भावः कैवल्यं तत्र शालन्ते शोभन्ते इति कैवल्यशालिनः ते च ते भगवन्तश्चेति कैवल्यशालिभगवन्तः । कम्पते जनो यतः इति कपि-कामः तं लाति छिनत्ति इति कपिल -सरध्न इत्यर्थः । कैवल्यशालिभंगवन्तव ते कपिलाश्च कैवल्यशालिभगवत्कपिलाः तत्र कैवल्यशालिभगव कपिले। येन श्रेष्ठासद्भावमाविता-सत्सम्पत्सम्पादिता नयार्चा नयेन-विधिना या अचर्चा सपर्या सा.नया, "पूजा नमस्यापचितिः सपर्या हणा समा” इत्यमरः प्रतिष्ठितिम्-सुस्थितिम् अनीयत नीता । स सौम्यदृष्टिसौम्या ऋजु दृष्टि:-दर्शनं यस्य स सौम्यदृष्टिः सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । इति एवंप्रकारेण जिनराट्-जिनेषुसामान्यकेवलिषु राजते शोभते इति जिनराट-तीर्थकरः आदिदेश उपदिष्टवान् । तदादि-तत आरभ्य देशदेवादयः-दिशन्ति अभिल. पितमिति देशाः ते च ते देवा देशदेवास्ते आदौ येषान्ते देशदेवादयः= सुरासुरप्रभृतयः । सहृदया-समानं हृदयं येषान्ते सहृदया: मनिषिणः माम् पूर्वप्रथितां परमात्मवाचं हृदयेअन्तःकरणे दधुः दधति स्म। . यमकालङ्कारः ॥ ३६॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-४ ३९. भूमीभुजः समनुजा दनुजानुजात्या कान्त्या लसत्सुमनसो मनसोऽनुरागात् । तत्रैत्य चैत्यनमनान्न मनाक् प्रमत्ता स्तस्थुर्गणेशपददर्शनदत्तचित्ताः ॥ ३७ ॥ अन्वयः -- समनुजा भूमीभुजः नु दनुजा जात्या कात्या लसतसुमनसो मनसोऽनुरागात् तत्रैत्य चैत्यनमनात् मनाक न प्रमत्ताः गणेशपददर्शनदत्तचित्ताः तस्थुः ॥ ३७ ॥ व्याख्या-समनुजाः सलोकाः भूमीभुजः राजानःनु इति वितर्के दनुजाः दानवाश्च जात्या श्रेष्ठभूताः कान्त्या दीप्त्या लसत्सुमनस: लसन्त शोभमाना: सुष्ठु मनो येषान्ते लसत्सुमनसः शोममानहृदयाः देवाश्च मनसः स्वान्तस्य अनुरागात् प्रेमतः तत्र तस्मिन् स्थाने एत्य समागत्य चैत्य नमनात् नमस्कारात् मनाक ईषदपि न प्रमत्ताः न सालसाः सर्वदैव सावधाना इत्यर्थः गणेशपददर्शनदत्तचित्ताः गणेशा. नाम् गणधराणाम् पददर्शने चरणदर्शने दत्तचित्ताः संलग्नमनसः तस्थुः स्थिताः "चैत्यविहारौ जिनसमनीति हैम:" अश्लोके वसंततिलकं वृत्तम् "क्षेयं वसन्ततिलकं तभजा जगोगः" इति तल्लक्षणात् ॥ ३७ ॥ सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकस इत्यमरः ॥ स-श्रेणिकस्यनृपतेः सुदृशोऽनुषङ्गं, मेघाभयादिचरणप्रतिपत्तिरङ्गम् । अद्वैतसौधरसभृच्चरितोपदेश, चके प्रभुः ससहकारफलोपहारम् ॥ ३८ ॥ भन्वयः-स प्रभुः सुदृशः श्रेणिकस्य नृपतेः अनुषाम् मेधाभयादिचरणप्रतिपत्तिरजाम् अद्वैतसौधरसभृच्चरितोपदेशं ससहकारफलोपहारम् चके |॥३८॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .....wwwwwwwwwwwwm ३९२ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्मानमहाकाव्ये व्याख्या-स महावीरप्रभुः सुदृशः सु शोभना हक नेत्रं यस्य तस्य सम्यक्दर्शनस्य यद्वा सुदृक् ज्ञानं यस्य तस्य सुज्ञानिनः श्रेणिकस्य श्रेणिकनानः नृपते भुजः अनुषङ्गम् अनुगतम् मेघाभयादिचरणप्रतिपत्तिरंगम् मेघः मेघकुमार: अभयः अभयकुमारः तो आदिउँसिन् स मेघाभयादिः तेषां मेघाभयादीनां चरणप्रतिपत्ति चारित्र्यग्रहणम् तस्या रंगः अनुरागः यस्मिन् तम् तथोक्तम् मेघाभयादिभव्यजनचारिव्यग्रहणप्रयोजकम् अद्वैतसौधरसभृचरितोपदेशम् अद्वैतः अभिन्नः अनुपम इत्यर्थः सुधायां भवः सौधः स चासो रसश्चेति सौधरसः अद्वै. तश्वासौ सौधरसश्चेति अद्वैतसौधरसः सुधास्वादसहोदरः तम् विभीति अद्वैत सौधरसभृत् स चासौ चरितोपदेशश्चेति तम् सहकारफलेन सहि. तम् ससहकारफलम् तस्य उपहारः ढौकनम् यत्र नमिव आम्रफलोपहारकल्पम् चक्रे विदधे प्रभुस्सद्देशनान्ददाविति भावः ।। अन्यपक्षे–स जिनेन्द्रः श्रेणिकस्य प्राप्तश्रेणिकस्य संख्यावतः अनुषंगम् अनुगतम् मेघानां पापिना भयादिचरणम् भयप्रापणादिकम् तस्य प्रतिपत्तिरङ्गम् प्राप्तिजनकमन्यत् पूर्ववत् यद्वा श्रेणिकस्य श्रेणीभूतस्य पंक्त्याकारेणोपविष्टस्य नृपतेः अनुषङ्गमुदिष्टम् मेहतिसिञ्चतीति मेघा वागमृतसेकः अभयः कुतश्चनभयाभावः इत्यनयोर्द्वन्द्वः स आदियंत्र तम् वागमृतवर्षणामयप्रदानादिप्रवृत्तिप्रयोजकम् अन्यत् पूर्ववत् ।। रामकृष्णपक्षे-सुदृशः शोभनज्ञानवता नृपतेर्भूपस्य स श्रेणिकस्य समंडलस्य मेघाभयादिचरणप्रतिपत्तिरजम् मेधात् मेघनादात् रक्षसः यः अभयादिः निरुपद्रवता तस्य चरणप्रतिपत्तिरंगम् निधिः प्रचारम् कृष्णपक्षे मेधेन मेघवड्डकावादनेन ये केचन दीक्षा ग्रहीष्यन्ति तेषां परिवाराणां यथावत्पालनं कारिष्यामीतिरूपं,अभयादिना गृहपरिवारचिन्तानिरासेन चरणस्य चारित्र्यस्य प्रतिपत्तिरङ्गम् ग्रहणप्रचा. रम् अन्यत् पुर्ववत् ।। ३८ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-७ ३९३ स-श्रेणिकक्षितिपसन्मतिशासनेन, दुर्गन्धिकाधिगमनेन सुगन्धिवाक्यात् । मैल्यार्द्रभावियवनाङ्गजसन्निबोध स्तस्माद् बभूव भविनां मदनान्निरोधः ॥ ३९ ॥ अन्वयः --तस्मात् सुगन्धिवाक्यात् श्रेणिक क्षितिपसन्मतिशासनेन दुर्गन्धिकाधिगमनेन मैय्या स आर्द्रभावियवनाङ्गजसन्निबोधः भविनां मदनान्निरोधः बभूव ॥ व्याख्या - तस्मात् सुगंधिवाक्यात् शोभनसंबन्धयुक्तात् वाक्यात् उपदेशादित्यर्थः श्रेणिकक्षितिपसन्मतिशासनेन श्रेणिकवासौ क्षितिपश्चेति श्रेणिकक्षितिपः तस्य सन्मतिशासनेन सद्बुद्धिसदुपदेशेन नि योगेन दुर्गन्धिकाधिगमनेन दुर्गन्धिकाभिधानमहिषी चारित्रग्रहणेन मैग्या सौहार्देन स प्रसिद्धः अभयकुमार सौहार्देन आर्द्रभावि आर्द्रदेशोत्पन्नः यः यवनाङ्गजः यवनतनयः तस्य सन्निबोधः सज्ज्ञानम् भविनां भाग्यवतां मदनात् कामात् अभिलाषात् निरोधः निवृत्तिश्च बभूव जज्ञे सदुपदेशादेव दुर्गन्धिकाधिगमनं यवनकुमारबोधश्च बभूवेति भावः ॥ अन्यपक्षे - तस्मात्पूर्वोक्तादुपदेशात् सुगंधिवाक्यात् शोभनो लोकविलक्षणो गन्धः संबंधो यत्र स सुगंधिः "समासान्त इत्" स चासौ वाक्यश्चेति तस्मात् सदुपदेशवचनात् स श्रेणिकक्षिति पसन्मतिशासनेन समण्डलराजबुद्धि परिवर्त्तनेन दुर्गन्धिकाधिगमनेन दुः दुष्टः गंधः संबन्धो यस्याः सा दुर्गन्धा सैवदुर्गन्धिका तस्या अधिगमनेन सदसद्विवे केन मैन्याभावि मैत्र्यात् सर्वजनापकारराहित्येन सर्वप्रियत्वेन आर्द्रम् दयाकिनं भावोऽभिप्रायों येषान्ते मैत्र्याईभाविनः यत्रनः वेगवान् यः अङ्गजः क्रोधादिः मैत्र्याईभाविनश्व यवनाङ्गाश्च तेषां सन्निबोधः सज्ज्ञानं भविनां कल्याणवतां मदनात् कामात् सन्निरोधः कामुकता निवृत्तिश्च बभूव ॥ ३९ ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये सानन्दधीऋषभवृत्तशमप्रवृत्ति, नोसजमालिवदनं तदनन्तकायम् । सानन्दशङ्खचुलनीप्रियदीर्घवृत्त्या, गोशालिभद्रचरितस्फुरितं जगाद ॥ ४० ॥ अन्धयः-सानन्दधीऋषभवृत्तशमप्रवृत्तिम् जमालिवदनम् तदनन्तकायम् नो सत् सानन्दशंखचुलनी प्रियदीर्घवृत्या गोशालिभद्रचरितस्फुरितं जगाद ॥१०॥ व्याख्या-आनन्दः आनन्दनामा श्रावकः तस्य धीः बुद्धिः तस्याम् ऋषभा श्रेष्ठा वृत्ता दृढा " वृत्तं वृत्तौ दृढे मृते " इति हैमः या शमप्रवृत्तिः शांतिभावसंचारस्तेन सहिता इति सानन्दधीऋषभ वृत्तशमप्रवृत्तिः ताम् जगाद अथ च जमालिवदनम् जमालेः प्रथम निवस्य वदनं, उद्यत इति वद्धातोः भावे अनद कथनं नो सत् न परमार्थसाधनयोग्यम् यतः अनन्तकायम् अनन्तानन्तशरीरसम्पादकम् सानन्दशंखचुलनीप्रियदीर्घवृत्या सानन्दः सप्रमोदः यः शंखः स च चुलनीप्रियश्च तयोर्द्वन्द्वः तस्य दीर्घवृत्या चिरवृत्त्या गोशालिभद्रचरितस्फुरितम् गोशालिभद्रस्य यच्चरितं चरित्रम् तेन स्फुरितम् विल. सितम् जगाद उपदिदेश ॥ अन्यतीर्थकरचतुष्टय पक्षे--आनन्देन सहिता धीर्येषां ते सानन्दधियः ते च ते ऋषभाः श्रेष्ठाश्चेति सानन्दधीऋषभाः "अविवक्षया न संधिः" तेषां वृत्ते व्यवहारे शमं प्रवर्तयति योजयतीति शमप्रवृ त्तिम् असजम् परस्परवाधसहितम् आलिवचनम् आलम् अनर्थोत्रास्तीति आलि तच्चवदनश्चेति आलिवचनम् नो नैव भवति तद् अनन्तकायम् अनन्तशरीरजनकत्वादेव न तथाभूतन्न सानन्दशंखचुलनीप्रियदीर्घवृत्त्या आनन्दयति श्रावकजनमनोह्लादयतीति आनन्दः शं सुखं. जनयतीति शंखः श्रेयस्करः चोलयति समुच्छाययतीति चुलनी यद्वा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ आचार्य श्रीविजयातसूरिप्रणीता सरगी टीका, सर्ग: ७ चुलं समुच्छ्रायं नयतीति उत्पादयतीति चुलनी एतेषान्द्वन्द्वः इति आनन्दशंखचुलन्यः तैः सहितः प्रिय इति सानन्दशंख चुलनीप्रियः तेषां दीर्घवृत्या चिरानुवृत्या अनन्तकालस्थित्या अनन्तकालपर्यन्तमानन्दकल्याणसमुच्छ्रायं जनकम् इत्यर्थः गोशालिभद्र चरितस्फुरितम् गवा वाण्या शालते शोभते इति गोशालि भद्राणां पुण्यशालिनाम् चरितेन आख्यानेन स्फुरितम् विलसितम् जगाद उवाच ।। रामकृष्णपक्षे - सानन्दधी ऋषभवृतशमप्रवृत्तिम् सानन्दधियः ये ऋषभाः श्रेष्ठाः तेषां वृत्ते व्यवहारे शमप्रवृत्तिम् शान्तिसंपादकम् अनन्तकायम् अनन्ता अनेकशः कायाः संघा यत्र तम् आलिवदनम् रोचकवचनम् असज्जम् अस्फीतम् नो नैव किन्तु स्फीतम् विशदम् आनन्दयतीति आनन्दः लक्ष्मणः बलदेवश्व अथवा आसमन्तानन्दयतीति आनन्दः नन्दकनामातयोः खङ्गः " कौमोदकी गदा खड्गो नन्दकः कौस्तुभमणिरित्यमरः " शंखः पांचजन्यनामा चुलनी चुलमैश्वर्यमयतीति चुनी कौमोदकीगदा तेषां प्रिया मनोज्ञा दीर्घवृत्तिः अत्यन्तसंबन्धः तथा गोशालिभद्र चरितस्फुरितम् यथास्यात्तथा जगाद कथयामास ।। ४० ॥ सद्भावभावितमना भविता कुमारस्तच्चिलणातनुजभूपति साधनानि । वैशालिकोक्तिरणमंशुकरोपतापे, शुद्धाम्बुदेवमुनिभिर्ह्यमृतं न पीतम् ॥ ४१ ॥ अन्वयः -- कुमारः सद्भावभावितमना भविता तत् चिल्लणातमुजभूपतिसाधनानि वैशालिकोक्तिरणं अंशुकरः अपतापे देवमुनिभिः शुद्धाम्बु न पीतम् अमृतं हि (पीतम् ) ॥ ४१ ॥ व्याख्या - महावीरपक्षे वैशालिकस्य वर्धमानस्वामिनो या उक्तिः उपदेशना तस्या रणं श्रवणं तदेव अंशुकरः प्रभाकरः अज्ञान -AR Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाग्थे तिमिरनिराकरणनिपुण इत्यर्थः तत एव अपतापे अपगतः निराकृतःतापः सांसारिकत्रिविधतापो येन तस्मिन् सति देवमुनिभिः आत्मत त्वप्रकाशभासमानमुनिभिः यद्वा देवमान्यमुनिभिः किंवा देवाश्च मुनयश्च तैर्देवमुनिभिः शुद्धाम्बु निरवद्यजलं प्राकृतमित्यर्थः न पीतं तदानी तापविरहात् प्राकृतनिवद्यजलाभिलाषिणो न जाता इत्यर्थः किन्तु अमृतं तदीयोपदेशवचनामृतं पीनं श्रुतमित्यर्थः किश्च तस्मादेव कुमारः अभयकुमारः सद्भावभावितमना सद्भावेन चारित्रजिघृक्षयाभावितं वासितं मनोऽन्तःकरणं यस्य स सद्भावभावितमना भविता भविष्यति तदेव कुमारसंयमग्रहणमेव चिल्लणातनुजभूपति साधनानि चिहणायाः तनुजस्य तनयस्य कोणिकस्येति यावत् भूपति साधनानि नृपत्वप्रयोजकानि भविष्यन्तीति शेषः ॥ अन्यतीर्थकर पक्षे-शालिकोक्तिरग विशालायां अयोध्यायां भवः वैशालिका यद्वा विशेषेण शालते शोभते महापुरुषजन्मपावितत्वात् विशाला तत्र भवः वैशालिकः तस्य उक्तिः तस्याः रणं श्रवणं उपदेशनम् तदेव अंशुकरः उद्योतकारका अज्ञाननिरसनः अत एवं अपतापे तापरहिते सति देवमुनिभिः पूर्ववर्णितप्रकारमेवाबसेयम् तचिलणेति तत्-तदुपदेशश्रवणमेव चित्ज्ञानं रणति प्राप्नोति इति चिल्लणः "रलयोरक्यात्" तस्य ज्ञानवतः अतनुजभुवः अयोनिजायाः मुक्तेः पतिमाधनानि स्वामित्वकारणानि कैवल्यप्रापकाणीत्यर्थः तथा च कुमारः को भुवि मार इव अप्रतिहतप्रभावः भव्यजीव इत्यर्थः सद्भावभावितमना भविता “भूते श्वस्तनी" आदिनाथरामपक्षे कुमारो भरतः ॥ कृष्णपक्षे-कुमारः प्रद्युम्नः शाम्बश्च देवमुनिः नारद इति ॥४१॥ एवं देवनृदेवसेवितपदश्रीमद्विभोः केवले, सिद्ध राज्यविधिर्नयो दयमयः प्रासीसरनिर्भयः। भवि मार स्तनी" आ वमुनिः नार Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- १९७ ध्वस्तं दुर्जनकल्किदुष्कृतमिह प्रादुष्कृतं सत्कृतं, संलग्ने सकले कलेरपि बले सोऽयं प्रभावो विभोः ४२ ॥ इतिश्री सप्तसंघाने महाकाव्ये महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिकृते भगवतकेवलज्ञानसाम्राज्य विहारनामा सप्तमः सर्गः ॥ ७ ॥ __ अन्वय:-एवं देवनृदेवसेवितपदश्रीमद्विभोः केवले सिन्ढे नयो दयमयः राज्यविधि: निर्भयः प्रासीसरत् इह दुर्जनकलिकदुकृतं ध्वस्तम् सत्कृतम् प्रादुकृतम् कलेः सकले अपि बले संलग्ने सति सोऽयं विभोः प्रभावः ॥ ४२ ॥ व्याख्या एवं पूर्वोक्तप्रकारेण देवनदेवसेवितपदश्रीमद्विभोः देवा अमराः नृदेवाः नराधिपाश्रतैः सेवित आरधितः पदश्चरणो यस्य स देवनदेवसेवितपदः स चासो श्रीमद्विभुश्चेति तस्य तथोक्तस्य देवा. देवसे वितचरणस्य जिनेन्द्रस्य केवले केवलज्ञाने सिद्धे प्राप्ते सति इह भूमौ दुर्जनकल्किदुष्कृतम् कल्कम् पापमस्यास्तीति कल्की दुर्जनश्चासौ कल्की चेति दुर्जनकल्की तस्य दुष्कृतम् पापम् वस्तम् निरस्तम् कले। कलहस्य सकले अपि समस्ते अपि बले सामर्थ्य संलग्ने समागते सत्यपि “युद्धं तु संख्यं कलिरिति हैमः" सत्कृतम् शोभनकृत्यम् सुकृतमित्यर्थः प्रादुम्कृतम् प्रादुर्भूतम् नो दयभयः नयस्य नीते उदयः प्रादुर्भावस्तन्मयः तत्प्रचुरः "प्राचुर्ये मयटी राज्यविधिः शासनविधिः निर्मयः विगतभीः प्रासीसरत् प्रावर्तत सोऽयं विभोः जिनेश्वरस्य प्रभावः ।। शार्दूलविक्रीडित छन्दः । अन्यपक्षेपि साधारणम् ॥ ४२ ।। इति शास्त्रविशारदकविरत्नभट्टारकाचार्यश्रीविजयामृतसूरीश्वरप्रणीतायां सप्तसंधानमहाकाव्य सरणीटीकायां सप्तमः सर्गः ॥ ७ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ महोपाध्याय श्री मेघ विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये ॥ अथ अष्टमः सर्गः ॥ अथ जगत्त्रयभावनिवेदिना भविभयङ्करभावविभेदिना । दिवि पुरस्सर चक्र महाध्वजानुगमनैगमनैपुणतो जगे ॥१॥ अन्वयः --- अथ जगत्रय मात्र निवेदिना भविभयङ्करभावविभेदिना दिवि पुरस्लरचक्रमहाध्वजानुगमनैगमनैपुणतो जगे ॥ १ ॥ व्याख्या--अथ अथानन्तरम् जगत्रयभावनिवेदिना जगतां त्रयम् जगत्रयम् जगत्रयाणां भावः अभिप्रायः जगत्रयभावः तन्निवेदितुं ज्ञातुं शीलमस्येति जगत्रय भावनिवेदी तेन तथोक्तेन भविभयङ्करभावविभेदिना भविनाम् भाग्यवताम् यो भयङ्करभावः दुःखजनकदुरदृष्टः तं बिभेत्तुं पृथकर्तुं शीलमस्येति भविभयङ्करभावविभेदी तेन तथोक्तेन दिवि पुरस्सरचक्रमहाध्वजानुगमनैगमनैपुणतो दिवि आकाशे पुरस्सरः अग्रेसरः यः चक्रः देवप्रभावावनतास्त्रविशेषः महाध्वजश्चेति तयोर्द्वन्द्वः पुरस्सरौ च तौ चक्रमहाध्वजाविति पुरस्सरच क्रमहाध्वजौ तयोः अनुगमनेऽनुसरणे यो नैगमः नितिः विवेकःस्तस्मिन् यो नैपुणः दाक्ष्यम् स पुरःसरचक्र महाध्वजानुगमने गमनैपुणः तस्मात् नैपुणतः दाक्ष्यात् जगे जग्मे यद्वा सार्वविभक्तिकस्तसिल् इत्य नुगमनैगमनैपुणेनेति तथोक्तः तृतीयान्तविशेषणम् । अत्र सर्गे भरतचक्रवर्त्तिनो दिग्विजयवर्णनम् । द्रुतविलम्बितञ्चवृत्तम् दुतविलम्बितमाह नभौ भरौ इति तल्लक्षणात् ॥ अन्यपक्षे - अथ अथानन्तरम् जगत्रयस्य त्रिजगतो यो भावः पदार्थ : जीवाजीवादिरूपः तन्निवेदयति बोधयतीति तच्छीलः तेन भविभयंकर भावविभेदिना भविनां सद्भाग्यवतां यो भयंकर भावः दुर्गतिजनकाचारः तं विभेदयति निराकरोतीति तच्छीलस्तेन सद्भा Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीधिजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-८ ३९९ ग्यशालिदुर्गतिनिवारकेण जिनेन्द्रेण दिवि आकाशे पुरःसरः अग्रेसरः यश्चक्रमहाध्वजस्तस्यानुगमनेऽनुसरणे ये नैगमास्तेषां नैपुण्येन कौशल्यतः सततसंगमतो जगे विजहे अन्य पक्षे भरतवज्ज्ञेयम् ॥ १॥ हयरयक्षुरभिन्नमहीतलाद दिवि समुद्गमनेन रजोबजः । किमिव वक्ति स शक्तिमहोदयं खरपितारपितामहसंसदि। अन्वयः- रजोव्रजः हयरयक्षुरभिन्नमहीतलात दिवि समुद्गमनेन स्वरपि तारपितामहसंसदि शक्तिमहोदयम् स किम् वक्तीव ॥ २ ॥ व्याख्या रजोत्रजः धूली समूहः हयरयक्षुरभिन्नमहीतलात् हयानां अश्वानां योरयः वेगो द्रुतगतिरित्यर्थः स हयस्यः क्षुरेण शफेन भिन्न: क्षुण्णः कुट्टित उत्खात इति यावत् इति क्षुरभिन्नः हयरयेण क्षुरभिन्नः यो महीतलम् भूतलम् ल हयरयक्षुरभिन्नमहीतलम् तस्माद दिवि समु. द्गमनेन दिवि आकाशे समुद्गमनेन संलग्नेन हेतुना स्वरपि स्वर्गेऽपि तारपितामहसंसदि ताग अत्युनता या पितामहस्य ब्रह्मणः संसद् सभा तत्र स रजोत्रजः शक्तिमहोदयम् शक्तेः चक्रास्त्रस्य महोदयमाविर्भावम् अथ च शक्तेः भरतचक्रवर्तिनः प्रभुत्वस्य महोदयम् प्रभूताधिपत्यम् किम् किमु वक्तीव कथयतीव ब्रह्मसंसदि तत्सामर्थ्य सूचयतीति क्रियोस्प्रेक्षातिशयोक्तिमूला सर्वसाधारणमेतत् ॥ २ ॥ पुरत एवं दिगम्बरसंवराद विहितसन्निहितारुणमण्डलः। किमु विभोरवदत् स सुसौरभावयदशां यदसान्ध्यरजोभरः भन्वयः-पुरत्त एव दिगम्बरसंवरात् विहितसन्निहितारुणमण्डल: असा. ध्यरजोभरः स विभोः सुसौरभावयदशा किमु अवदत् ॥ ३ ॥ ___व्याख्या-पुरतः प्रथमतः दिगम्बरसंचरात् दिग्शून्यमेव अम्बरं वसनं यस्य तद्दिगम्बरं नमः तस्य संवरादाच्छादकत्वात् आवरकत्वादित्यर्थः विहितसन्निहितारुणमण्डलः विहितः कृतः सन्निहितः Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्धानमहाकाम्ये अभ्यर्णः अरुणस्य सूर्यसारथेमण्डलो येन स अरुणमण्डलसमीपस्थः स असांध्यरजोभरः सांध्यरजोभिन्नरजः सैन्यपदोत्थधूलीसमूहः सुसौरभाद्वयदृशां मुष्टु सौरभस्य अद्वयदशाम् अद्वितीयकान्तिम् यद्वा सुष्टु सौरभा सूर्य सम्बन्धिकान्तिः तस्या द्वयदशां द्वितीयावस्था अन्यसौरकान्तिम् विभोर्ब्रह्मणः अवदत् किमु अकथयत् किमूत्प्रेक्षेयमिति भावः ॥ ३॥ हरिपरिस्फुरितां दिशमाविशत् , स्थितिमुदीर्य विभुर्भरतं प्रति । शुभरते भरतेऽविरते रतेः, प्रथमतोऽथ मतोऽवनिचक्रिणाम् ॥४॥ अन्वयः-- अथ विभुः हरिपरिस्फुरितान्दिशम् भाविशत् भरतं प्रतिस्थितिमुदीर्य शुभरते रते अविरते महते अवनि चक्रिणां प्रथमतः मतः ॥ ४ ॥ व्याख्या -अथ विभुापका देवताधिष्ठातृत्वात् चक्रास्त्रम् हरिपरिस्फूरिताम् दिशम् ऐन्द्रीदिशा पूर्वामित्यर्थः आविशत् आयात योजनमात्रं गत्वा भरतं प्रति भरतराजानं प्रति स्थितिमेव स्थानमुदीर्य यत्र चक्कस्थितस्तत्रैव सर्वसैनिकानां स्थितिर्जातेति भावः शुभरते शुभे कर्मणि कल्याणजनकाचारे रते व्यावृते रतेः रागात् अविरते रागाशक्त भरने भरतचक्रवर्तिनि विपये अवनिचक्रिणाम् पृथ्वीतलचक्र. वर्तिनाम् प्रथमतः मतः प्रथमोऽयञ्जातः सर्वचक्रवर्तिनामाद्योऽयमिति भावः ॥ ४ ॥ अभिनमय्य पुरः सुरमागधं तदनु तद्वरदाम मुदः पदम्। वरुणदिक्प्रभयासभयाऽमुनापरिगताऽरिगतासुहृता कृता मन्वय:--पुरः सुरमागधम् अभिनमरय तदनु मुदः पदं नवरदाम अभिनमध्य अमुना प्रमया सभया वरुणदिक परिगता अरिगता सुहृता कृता ॥५॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी रीका. सर्ग- ४ ४०१ व्याख्या-पुरः पूर्वम् सुरमागधं सुरत्वाभिमानिनम्मगधतीर्थशम् अभिनमय्य अभिनामयित्वा तनम्रीभूतं विधायेत्यर्थः तदनु तत्पश्चात् मुदः पदम् हर्षकारकम् अथ च मुदः प्रमदस्य प्रकर्षगवस्य पदम् स्थानम् अत्यंतगर्विष्ठम् तत् प्रसिद्धम् वरदाम वरदामाधिपतिम् अभिनमय नामयित्वा स्वाधीनं विधाय प्रभया कांत्या प्रतापेन सभया भयगुक्ता वरुणदिक् प्रतीचीदिक् परिगता गमनविषयीकृता तत्रेति शेषः अरिगता शत्रुभूता विपक्षायिता सुहृदा कृता ये शत्रवस्तेऽपि मित्राग्यासन्निति भावः ।। अन्यपक्षे मुष्ठु राजते इति सुरः स चासो मागधः मगधानामीशीता इति सुरमागधः जरासंधस्तम् अभिनमय्य पराजित्य तदनु तत्पश्चात् तद्वरदाम तेन जरासंधेन वरन्दाम बन्धनं यस्य तत् तद्वरदाम जरासंधनियमितराजसमुदायम् मुदः पदम् सहर्षम् विधायेति शेषः अन्यत् पूर्ववत् ॥ ५ ॥ रामपक्षे पुरः अग्रे प्रथमं सुरमागधं सुरैर्देवैः सहस्त्रयक्षश्च मगयति परिवेष्टयते इति सुरमगधः स एव सुरमागधस्तं सहस्रयक्षा. धिष्ठितं वज्रावर्णवावर्तनामकन्धनः अभिनमय नमयित्वा तदनु धनुर्नमनानन्तरं मुदः पदम् हर्षकारकं तद्वरदाम सीतावरणस्वजम् अभिनमय्य स्वकण्ठापितं विधाय्य वरुणदिक् प्रभया सभया अरिंगता शत्रुभूता अमुना रामेण सुहृदा मित्रभूता ॥ ५ ॥ सवरणं वरणं सरितस्तटे, हरिरधाद् धरणेः खबलस्थितौ । सवलयः खलु सिन्धुमतीतरत्, खमहसा महसारमहानृपैः ॥ ६ ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.२ महोपाध्याय श्रीमेषविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये अन्वयः-~धरणेः हरिः स्वबलस्थिती सरितस्तटे सवरणं वरणं अधात् स खलु सवलयः स्वमहसा महसारमहानृपैः सिन्धुमतीतरत् ॥ ६ ॥ व्याख्या-धरणेः पृथिव्याः हरिः इन्द्रः धरणीन्द्रः स्ववलस्थिती स्वबलस्य सैन्यस्य स्थिती स्वसैन्यनिवेशाय सरितस्तटे सरतः अपरोदधेस्तटे रोधसि सवरणं वरणं वरणेन प्राकारेण सहितम् तदानीं सेनारक्षकरूपप्राकारसहितम् वरणं स्थिति उपनिवेशम् अधात् कृतवान् सेनासन्निवेशं कृतवानित्यर्थः सबलयः सपरिकरः स्वमहसा निजतेजसा महसारमहानृपः महेन उत्सवेन सारः श्रेष्ठः यो महानृपः तैः यद्वा महस्तेजोवत् यः सारो बलम् स महसारः स चासौ महानृपश्चति महसारमहानृपः तः तेजोवद्भिः सहेति शेषः सिन्धुम् सिन्धुनामानं नदीविशेषम् अतीतरत् तरतिस्म ॥ ६ ॥ शिवमगुः किल कोटिमुनीश्वरा, यदिह तां स शिला सहसा दधे । प्रतिकृतीः प्रणनाम ततोऽर्हता, बजनतो जनतोषकरीनृपः ॥ ७ ॥ अन्वयः--यदिह किलकोटिमुनीश्वराः शिवमगुः तां शिला स सहसा दधे ततः वजनतः नृपः जनतोषकरी: अर्हतां प्रतिकृती: प्रणनाम ॥ ७ ॥ ___व्याख्या-यद् यस्मात् इह कोटिशिलातीर्थे कोटि मुनीश्वराः कोटिसंख्यकमुनिप्रवराः शिवम् मोक्षम् अगुः किल गताः किल ताम् शिलाम् स भरत चक्रवर्ती सहसा झटिति आदधे धृतवान् ततः तदनन्तरम् वजनतः गमनतः नृपः भरतमहीपतिः जनतोषकरीः जनानां लोकानां तोषकरीःतुष्टिकरीः कल्याणसंपादिकाः अहंतां जिनानाम् प्रतिकृतीः प्रतिमाः प्रणनाम प्रणतिस्म ॥ ७ ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- ८ ५ .३ उपतमिस्रचलद्बहुसेनया, व्यपनयननयाद्विनयादरात् । अवितथाः पथि पूर्वकथा बुधात् , समशृणोन्मस्मृणोऽवनिजे निजे ॥ ८॥ अन्वयः- उपतमिनचलत् बहुसेनया विनयादरात् अनयात व्यपनयन् पधि बुधात् अत्रितथा: पूर्वकथाः निजे अवनिजे मसूणः सपशणोत् ॥ ८ ॥ व्याख्या- बहुसेनया अनेकविधसैन्येन सह उपतमिस्रचलन तमिस्रानामकगुहां प्रति चलत् उपतमिस्रं चलतीति उपतमिस्रचलन विनयादरात विनयस्य शिक्षाया अनुनयस्य सौजन्यस्य वा आदरात सन्मानात् अनयात् अनीतेः लोकमिति शेषः व्यपनयन् विनयादरेण अनीतितः लोकान् पृथक्कुर्वन् इति भावः निजे स्वकीये अवनिजे लोके. मसणः ऋजुः अकर्कश इत्यर्थः स्वकीयजनानुकूल इति भावः पथिमार्गे बुधात् पण्डितात् अवितथाः सत्याः पूर्वकथाः प्राचीनेतिहासाः पूर्वेषाम्बा चरित्राणि समशृणोत् आकर्णितवान् ॥ ८ ॥ जगति यः सविता भविताऽर्चिषा, सनु गुहां सवहां नवपद्यया । ध्रुवमतीत्य गिरेस्तदुदग्दिशो, वशमधाच्छमधीरणया-जनम् ॥९॥ अन्वयः--यः जगति अर्चिपा सबिता भविता स नु नवपद्यया सवहां गिरेः गुहां ध्रुवमतीत्य शमधोरणया तदुदगदिशः जनम् वशमधात् ॥ ९ ॥ व्याख्या--यः भरतचक्रवर्ती अर्चिषा तेजसा प्रतापेनेत्यर्थः जगति भुवने सविता सूर्यः भविता भविष्यति स नु इति वितर्के नव. पद्यया नूनसेतुरुपपद्धत्या सवहां वहया उनमग्नानिमग्नाभिधाननदी. द्वयया सहिता इति सवहा ताम् गिरेः वैताढ्यपर्वतस्य गुहां तमिस्रा. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सक्षसम्धानमहाकार नाम्नी गुफां ध्रुवमतीत्य समुल्लंघ्य तदुदग्दिशः तदुत्तरदिशायाः जनम् तदुददिशस्थितम्लेच्छादिलोकम् शमधीरणया शमा शान्ता या धी. बुद्धिस्तस्या ईरणया प्रेरणया शांतिबुद्धिप्रयोगेन वशम् स्वाधीनम् आत्मसात् अधात् अकृत ॥ ९ ॥ परदलत्रितयं दलयन् बलं, प्रचलयन कलयन् सततो धनम् । ऋषभकूटनिजाह्वयलेखने, महिमभूहिमभूभृतमभ्यगात् ॥ १० ॥ अन्वयः----स परदलन्त्रितयं दल यन् बलम् प्रचलयन तत: धनम् कलयन् ऋपभकूट नि जाह्वयलेखने महिमभूहिमभृतम् अभ्यगात् ॥ १० ॥ - व्याख्या–स चक्रवर्ती परदलत्रितयं परेषां शत्रूणां आपात, नाग हुमार, हिमाद्रिकुमाराणां दलत्रितयं सैन्यत्रयम् दलयन पराजजयमानः बलं स्वकीयसैत्यम् प्रचलयन् गमयन् ततः पराजितनृपात् धनम् संपत् कलयन् संचिन्वन् ऋषभकूटनिजाह्वयलेखने ऋपभकूटनामपर्वते यनिजाह्वयलेखनम् स्वाभिधानाङ्कनम् तस्मिन् " निमित्ते सप्तमी" महिमभूहिमभूभृतम् महिम्नः महत्तायाः भूःस्थानम् इति महिमभूः स चासौ हिमभूभृचेति महिमभूहिमभूभृत् हिमालयपर्वतस्तं अभ्यगात् अभ्ययासीत् ॥ १० ॥ पुनरुपेत्य धरं खचरेशिनां, परदरीमपि खण्डनिपातिनीम् । समतिगत्य निधीन्नव सन्निधी, _ न स मदी समदीधरदीश्वरः ॥ ११ ॥ अन्वयः-पुनः खचरेशिनाम् धरम् उपेत्य खंडनिपातिनीम् परदरीमपि समगिस्य न समदी ईश्व:: सन्निधौ नवनिधीन समदीधरत् ॥ ७ ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्री विजयामृतरिमगीता सरणी टीका. सर्ग-८ १०५ व्याख्या-पुनः पुनरपि खचरेशिनाम् विद्याधराणाम् नमिविनमिप्रभृतीनाम् धरम् पर्वतम् उपेत्य आगत्य तत्रत्यान् विजित्य खंडनिपातिनीम् खण्डप्रपातानाम्नीम् परदरीम् महती गुफाम् समतिगत्य समतीत्य स राजा मदी अहङ्कारवान् न ईश्वरः, ऐश्वर्य सम्पन्नः सन्निधौ समीपे नवनिधीन नवप्रकारान् निधीन ऐश्वर्य विशेषान् समदीधरत् धृतवान् " महापद्मश्च पद्मश्च शंखो मकरकच्छपौ । मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो नवेत्यमरः" ॥ ११ ॥ सुरधुनीतटगानधुनीत स, क्षतपरातपराज्यपरिग्रहः । स्वपुरमाप्य समास्त पुनः पुना, रसमयान् समयाननयन्महैः ॥ १२ ॥ अन्वयः-स सुरधुनीतटगान् अधुनीत क्षतपरातपराज्यपरिग्रहः स्वपुरमाप्य पुनः पुनः महैः रसमयान् समयान् अनयत् समास्त ॥ १२ ॥ व्याख्या–स भरतचक्रवर्ती मुरधुनीतटगान् गंगातटस्थान् अधुनीत अकंपयत पराजितवान् क्षतपरातपराज्यपरिग्रहः क्षतात दुःखाव परे भिन्नाः रहिता इत्यर्थः इति क्षतपराः तपतीति तपः सूर्यः आतपाद सूर्यप्रकाशपर्यन्तं मर्यादायामव्ययीभावः क्षतपराः आतपं. राज्यपरिग्रहो यस्य सक्षतपरातपराज्यपरिग्रहः स्वपुरं वनगरम् आप्य प्राप्य समागत्येत्यर्थः पुनः पुनः भूयोभूयः महैः उत्सवैः "मह उद्धव उत्सव इत्यमरः" रसमयान् सरसान समयान कालान् अनयन व्यतीतयन् समास्त आतिष्ठते ॥ अन्यपक्षेऽपि स मुरधुनीतटगान सुरान् देवान् धुनाति स्वसा. मध्येन कम्पयतीति सुरधुनी राक्षससेना तस्यास्तटं समीपं कक्षं वा वत्र गच्छत्तीति तान् राक्षससेनापक्षपातिना अधुनीत व्यकंपयत यद्वा Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ महोपाध्याय श्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्मानमहाकाग्ये सुरधुनी गंगा तां तटति खसंगमेन सौभाग्योन्नतिङ्करोतीति मुरधुनीतट: समुद्रः तत्र गच्छतीति तान् समुद्रतटगान् राक्षसान पापिष्ठान् अधुनीत इत्यर्थोपि परिस्फुरति अन्यत् समानम् ।। १२ ॥ विहितवान् हितवार्षिकदानतो, व्रतदशां तदशान्तमहोत्सवैः । धनतपा नतपादकजः सूरे मदनतोदनतो वनभावनः ॥ १३ ॥ अन्धयः-धनतपाः सुरैः नतपादकजः मद नतोदनतो वनभावनः हितचार्षिकदानतः तदशांतमहोत्सवैः व्रतदशा विहितवान् ॥ १३ ॥ व्याख्या-घनतपाः घनो महान तपः प्रभावो यस्य स मह. त्पराक्रमः नतपादकजः सुरैर्देवैविद्याधरादिभिः नतः प्रणतः पादक चरणकमलं यस्य स अथवा सुष्टु रांतीति सुराः नृपाः तैः नतपा दकजा नमस्कृतचरणकमलः मदनतोदनतो वनभावनः मदयतीति मदनं मधु सुरेति यावत् तस्य तोदनतः निराकरणतः अथवा मदनस्य कामस्य तोदनतः स्वसौन्दर्यात पराजयतः यद्वा मदनस्याहंकारस्य तोदनतस्त्यागतः अहंकारपरित्यागात् अवनभावनः अवने रक्षणे भावना विचारणा यस्य स प्रजारक्षणसावधानः यद्वा वने तपोवने भावना बुद्धिर्यस्य स हितवार्षिकदानतः हितं हितार्थ यद्वार्षिकदानं तस्मात् तदशांतमनोरथैः तस्याः सुन्दर्याः अशान्तमहोत्सवैः अहर्निशमुद्धवैः व्रतदशां सुन्दरी व्रतग्रहणदशां विहितवान् कृतवान् ॥१३॥ अन्यपक्षे-हितवार्षिकदानतः हितमिष्टसाधनभूतं परिणाममंगलजनकं यद्वार्षिकदानं संवत्सरव्यापकदानम् रामपक्षे चतुर्दशवर्ष यावत् वनवासस्येति शेषः दानं पालनम् ततः “दानं गजमदे पालने छेदने इति शब्दस्तोममहानिधिः" व्रतदशां दीक्षाग्रहणदशां वनवासनियम Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजयामृत सूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-८ वा विहितवान् कृतवान् कैः अशांतमहोस्तवैः अन्यदुक्तप्रायम् ||१३|| विभविनां भविनां सहिते हिते, वितरणात्तरणात्तरसा भवात् । श्रितसमेतसमेत गिरौ कृता व्यसनभासनभाक् प्रभुराययौ ॥ १४ ॥ ४०७ अन्वयः -- विभविनां भविनां सहिते हिते श्रितसमेतसमेतगिरौ तरसा भवात् वितरणात् हिते वितरणात् कृताव्यसनभासनभाक् प्रभुः आययौ ॥१४॥ व्याख्या - विभविनां विभवशालिनां धनिनामित्यर्थः सहिते संयुक्ते श्रितसमेत समेत गिरौ श्रितः आश्रितः शमेन शांत्या इतः युक्तः शमेतः श्रितः शमेतो यत्र सश्रितशमेतः स चासौ समेतगिरिचेति श्रितमेतसमेत गिरिस्तत्र हिते कल्याणजनके तरसा झटिति भवात् संसारात् वितरणात् निवारकात् संसारविरक्तिकरणात् कृताव्यसनभासनभाक् कृतः समाश्रितः यो व्यसनः संसारानभिनिवेशः तस्य भासनं तेजः तस्माद्भासनं तेजो भजते इति तथोक्तः प्रभुः जिनेश्वर आयौ आजगाम ॥ १४ ॥ रामकृष्णपक्षे - वितरणात् वितः निवृत्तः यो रणः संग्रामः तस्मात् "वातेरितड औणादिकः" तरसा झटिति भवात् समुद्रजलात् तरणात् पारीणत्वात् विभविनां धनिनां भविनां कल्याणवतां सहिते युक्ते हिते हितकारके श्रितसमेतसमेत गिरौ शमेन शांत्या इतः युक्तः शमेतः शांतियुक्तः श्रितैः आश्रितैः गिरिवासिभिः समेतः सहितः इति श्रतसमेतः स चासौ शमेतः श्रितसमेतसमेतः स चासौ गिरिचेति श्रितसमेतसमेत गिरिस्तस्मिन् चित्रकूटेसु वेलाद्रौ रैवतके वा कृतः आश्रितः योऽव्यसनः केष्वपि अनभिनिवेशः तेन भासने भजते इति तथा प्रभुः रामः कृष्णो वा आययौ समागतवान् ॥ १४ ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महोपाध्याय श्रीमेषविजयगणिविरचिते समसम्मानमहाकाव्ये हततमास्ततमास्तवनैः स्तुतः, क्वचन भाविनयाद् विनयात् कचित् । शुभविभा भविभाग्यबलात् पदौ, भुवनपावनपावनधीर्दधे ॥ १५ ॥ अन्वयः–ततमास्तवनैः स्तुतः हततमा: भुवनपावनपावनधीः शुभविभाः क्वचन भाविनयात् क्वचिद्विनयात् भविभाग्यबलात् पदो दधे ॥ १५ ॥ व्याख्या-ततमा विस्तृता ये स्तवनास्ते ततमास्तवनास्तैः अ. तिविस्तृतस्तुतिभिः स्तुतः कृतस्तवनः हततमा हतं विनष्टं तमः किल्वियं यस्य स विनिवृत्ततमाः शुभविभाः शुभा शोभना विभा प्रकाशो यस्य स भुवनपावनपावनधीः भुवनस्य जगतः पावने पवित्रतायां पावना पूता निर्मला धीर्यस्य संसारपूतकरणपवित्रज्ञानवान् वचन कुत्रापि भाविनयात् भाविनां भाग्यवतां जनानां नयात् अनुनयात् यद्वा भावी भविष्यन् यो नयः शुभावहो विधिः तस्मात् "नयः शुभावहो विधिरित्यमरः" क्वचित् कुत्रापि विनयाद श्रद्धालुजनविनयतः प्रार्थनातः भविभाग्यरला भविनां शुभानुध्यायिनां भाग्यबलात् शुभा. दृष्टवशात् पदौ पादौ दधे धृतवान् निहितवान् यत्रायं गच्छति तत्रत्यजनानां शुभादृष्टमेव प्रभवतीति भावः ॥ १५ ॥ भृशमये समये किल केवलं, स कलयन वलयन्नगमाश्रयत् । अधिकृताधिकृतानशनने वै, शिवरमां वरमाङ्गलिकी दधौ ॥ १६ ॥ अन्वयः-भृशमये समये स किल केवलं कलयन् नगं कलयन् आश्रयत् अधिकृताधिकृतानशनेन वै शिवरमा वरमांगलिकीन्दधौ ॥ १६ ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतमूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग- ८ ४ .९ व्याख्या -भृशमये समये अयते गच्छतीति अयः तसिन् भृशमतिशयम् समये काले अये गते सति “दीक्षाकालात् पूर्वलक्ष क्षपयित्वा ततः प्रभु"रिति तच्चरिते किल इति निश्चये स प्रभुरादीश्वरः केवलम् केवलज्ञानम् कलयन् आश्रयन् नगम् अष्टापदगिरिम्बलयन् अष्टापदपर्वतं प्रतिगच्छन् नगम् पर्वतम् आश्रयत् प्रापत् अधिकृताधिकृतानशनेन अधिकृतम् अधिकारप्राप्तम् यत् अधिकृतानशनम् स्त्रीकृतानशनम् अधिकारप्राप्तत्वेन स्वीकृतानशनः त्यक्तचतुर्विधाहार! तेन शिवम् मोक्ष एव रमा लक्ष्मीस्तां शिवरमां मोक्षलक्ष्मी वरमाङ्गलिकी वरा श्रेष्ठा या मांगलिकी मङ्गलसाधिका ताम् निरतिशयमङ्गलप्रयोजिकाम् दधौ धारयामास मोक्षं प्रापेति भावः ॥ __श्रीशांतिनाथपार्श्वनाथपक्षे-नगमित्यस्य समेतगिरम् समेतशिखरमिति प्रसिद्धम् ॥ श्रीनेमिनाथपक्षे-नगमिति गिरिनारपर्वतम् अधुनापि गिर इति नाम्ना प्रसिद्धोऽयनमः ॥ श्रीमहावीरपक्षे-न गच्छतीति नगः नगरम् पावापुरमित्यर्थः ॥ रामपक्षे-भृशमये समये भृशमतिशयं समये काले अये गते सति स रामः केवलं केवलज्ञानम् कोटिशिलायाम् कलयन आश्रयन् वलयन् ततोऽपि विहरन् नगम् शत्रुञ्जयगिरिम् आश्रयत् प्रापत् अधिकृताधिकृतानशनेन अधिकारप्राप्तत्वेन स्वीकृतचतुर्विधाहारपरित्यागेन वरमांगलिकीम् अतिशयकल्याणजननी शिवरमा मोक्षलक्ष्मीन्दधौ धारयामास प्राप ॥ १६ ॥ कृष्णपक्षे-स कृष्णः केवलम् के जले समुद्राम्बुनि वलयति रमते इति केवलम् कलयन् भृशमतिशयं समये अये व्यतीते सति वलयन् परिभ्रमन् नगम् अवतरुम् आश्रयत् प्रापत् अधिकृताधिकृतानशनेन Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सक्षसम्मानमहाकाव्ये अत्यंताधिकृतायोऽनशनो जलानशन: जल तृषाजनितशुष्ककण्ठता तेन वरमांगलिकीम् मंगं गमनम् लाति गृह्णातीति मंगला मंगलाय पर. लोकगमनाय हिता मांगलिकी वरा मांगलिकी वरमांगलिकी ताम् शिवरमां शेतेऽस्मिञ्जगत् इति शिवः मरणं सैव रमा रमते जीवो यस्यां सा रमा इति शिवरमा मरणक्रीडान्दधौ धारयमास ॥ १६ ॥ उपरतापरतापरतापना दविरताद्विरतापि यदुग्रता । शुचिरसौ चिरसौख्यमधारय _दसमधीः शमधीरजितात्मना ॥ १७ ॥ अन्ययः- अविरताद् उपरतापरतापरतापनात् यदुग्रतापि विरता असो शुचिः असमधीः शमधीरजितात्मना चिरसौख्यम् अधारयत् ॥ १७ ॥ __ व्याख्या-अविरतात संततात् उपरतापरतापरतापनात् उपरतम् निरस्तम् पृथक्कृतमित्यर्थः अपरस्य भावः अपरता भिन्नता तस्याः अपरतायाः भिन्नतायाः पृथक्त्वस्येत्यर्थः परम् उत्कृष्टम् अतिशयम् तापनम् सन्तापनम् उपरतं निरस्तम् यत् परतापरतापनम् तस्मात् तथोक्तात् यदुग्रतापि यस्य यदीयस्य उग्रतापि तीक्ष्णता कर्कशते त्यर्थः विरता निर्गता उग्रतापि त्यक्तेति भावः शुचिः पवित्रोऽसौ असमधीः असमे अयोग्येऽपि धीवुद्धियस्य स असमधीः असमेपि समानबुद्धिः शमधीगजितात्मना शमधीरेण शमज्ञानेन जितः स्वायत्तीकृतः आत्मा येन स शमधीरजितात्मा तेन तथोक्तेन चिरसौख्यं अतिसौख्यम् अधारयत् आश्रयत् ॥ १७ ॥ असितताकृतिविश्वतपोदिवा परततत्परमानववासरे। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-ट ४११ प्रवरसंवरसंवृतविक्रिये ऽजनि शिवे निशि वेश्म परात्मनः ॥ १८ ॥ अन्वयः -- असितता कृति विश्वतपोदिवा परततत्परमानववासरे प्रवरसम्वरसंवृतविक्रियेऽनिशि शिवे परात्मनः वेश्म अजनि ॥ १८ ॥ व्याख्या - असितताकृति सितस्य शुक्लस्य भावः सितता शुक्लता न सितता असितता आकृतिः स्वरूपं यस्य स असितताकृतिः कृष्णः विश्वान् तापयतीति विश्वतपः "तपेः कसुन्" कामः तस्य तपः विश्वतपस्तप इत्यत्रैतपशब्दस्य लोपाऽविवक्षातः इति विश्वतप इत्यस्यैव माघकृष्णत्रयोदशीत्यर्थः कथमपि समायातः तस्य दिवा दिनेऽपरः पूर्वभागः पूर्वाह्न इति यावत् तत्परो यो मानवः स फाल्गुननामधेयाऽर्जुनः तस्य वासरः रविः श्वेतवाहनत्वात् श्वेताश्वः सूर्य इति सादृश्येन सूर्यः तस्मिन् माघकृष्णे त्रयोदशीरवों प्रवरसम्बरसम्वृतविक्रिये प्रवरः श्रेष्ठः यः सम्बरः वैराग्यः स प्रवरसंवरः तेन संवृता निरुद्धा विक्रिया विकारो यस्मिन् तस्मिन् तथोक्ते शिवे मोक्षेऽनिशि दिवसे परात्मनः परमात्मनः ऋषभस्वामिनः वेश्म प्रवेशनम् अजनि मोक्षगमनमभूत् इति भावः ।। १६ ।। शान्तिनाथपक्षे असितताकृतिः कृष्णो यो विश्वस्य द्वादश्यास्तपो ज्येष्ठः तस्मिन् अर्थात् ज्येष्ठ कृष्णद्वादशस्यामन्यत् सुगमम् घनमहानमहा रजताचलं, ध्रुवमितोऽक्रियया रजताचलम् | भरतराड् रतरागविमोचनाद, 'मुदमधादमधावपि तदिशा ॥ १९ ॥ अन्वयः - धनमहान् भ्रमहा रजताचलम् ध्रुवम् इतः अक्रिया रजताचकम् स्तरागविमोचनात् भरतराट् अमधावपि तद्दिशामुक्त अधात् ॥ १९ ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाये व्याख्या - घनमहान् घनः अतिशयः महान् घनमहान् अथवा घन इव मेघ इव महान् घनमहान् अमहा अमम् रोगं इतवान् इति अमहा रोगनाशकः ध्रुवम् निश्चितम् रजताचलम् हेमाद्रिम् इतः गतः दिग्विजय क्रमेण हैमाचलं गतः अक्रिययारजताचलम् अक्रियया अव्यापारेणैव रजताचलम् स्वर्णपर्वतम् इतः प्राप्तः ये गत्यर्थकास्ते प्राप त्यर्थका इति भावः रतरागविमोचनात् रते स्त्रीपुंसगे यो रागोऽनुरागस्तस्य विमोचनात् त्यागात् अमधावपि अवसन्तेपि वसन्तऋतुं विनापि तद्दिशा दिन वसन्त इव मुदम् हर्षम् अधात् धारयतिस्म ॥ ४१२ अन्यपक्षे- धन महान् अतिशय महत्तरः अमद्दा रोग विनाशकारकः रजताचलम् स्वर्णपर्वतम् इतः प्राप्तः "रजत रूपये, गजदन्ते, रुधिरे, हरि, शैले, स्वर्णे धवले इति शब्दस्तोम मद्दानिधिः" क्रियया व्यापारेण धेयेणेत्यर्थः रजताचलमिव रजतगिरिरिव भरतराष्ट्र भरति लोकान् पोषयतीति भरतः तेषु राजते इति भरतराट् भरणकर्तृषु श्रेष्ठः स्तराग. विमोचनात् रते रमणे मोहने यो रागोऽनुरागस्तस्य विमोचनात् त्यागात् अमधावपि अवसन्तेऽपि मुदम् हर्षम् अधात् अयात् ॥ १९ ॥ तदनु तन्नगरं नगरञ्जनं, 4 व्यति साधितसाककुङ्कुमैः । द्रुतमपात पापमतो न तत्, ऋभुवनैर्भुवनैस्तुलितश्रिभिः ॥ २० ॥ अन्वयः -- तदनु साधितसाभ्रककुंकुमैः तन्नगरं नगरंजनं व्यधित अपातम् अपम् अतः तुलितत्रिभिः ऋभुवनैः भुवनैदुतन्न तत् ॥ २० ॥ व्याख्या--तदनु तत्पश्चात् तत् नगरं स्वकीयं पुरम् साधितसाम्रककुंकुमैः अभ्रकेन सहितः साम्रकः स चासौ कुंकुमथेति साम्र Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ ॥ ककुंकुमः साधितः शोधितश्चासौ साधककुंकुमश्चेति तैः साधितसाधककुंकुमैः शुद्धाभ्रककुंकुमः नगरंजनम् नग इव पर्वत इव रञ्जनं शोभितम् तत् नगरमिति शेषः अपातम् पातरहितम् अपापम् पापशून्यम् निष्कल्मषम् तुलितश्रिभिः तुलिता साम्यीकृता श्रीर्यतः तैः समानसंपद्भिः ऋभुवनैः स्त्रगैः भुवनैरन्यारन्य भुवनद्रुतम् नानुसृतम् व्यधित ध्यरचयत कैरपि भुक्नैन तुलितमित्यर्थः ॥ २० ॥ स्थलमभूद् भुवि योगिवियोगि तत् , बहुशुचाहुशुचावचिराज्ज्वलत् । नदवनन्दवनन्दनतोऽभवद्, न हरिणा हरिणातिशये कृते ॥ २१ ॥ __ भन्वयः-भुवि तत् स्थलम् योगिनियोगि अभूत् बहुशुचा हु इति वितर्के शुचौ अचिराज्ज्वलन् हरिणा हरिणातिशयेकृते नदवनम् दवनन्दनतो न अभवत् ॥ २५ ॥ __ व्याख्या-भुवि पृथिव्यां तत् स्थलम् यत्र वर्णनीयनायकाः शरीरं त्यक्तवन्तः तत्स्थानम् अचिरात् योगिवियोगि योगिनां चरित्रना. यकानां वियोगि रहितमभृत् जातम् तत्स्थलम् बहुशुचा अत्यधिकशोकेन हु इति वितर्के शुचौ आषाढे वर्षासमयेऽपीत्यर्थः ज्वलन् उत्तप्तमभवत् हरिणा हरिणातिशये कृते हरिणा मेघेन हरिणा राज्ञा च अतिशये उत्कृष्ट कृते रचितेऽपीत्यर्थः भरतादितदुत्तरराज्याधिकारिणा मेघेन च शोकशान्तिरचितेऽपि दवनन्दनतः दवस्य अन्तर्दाहस्य नन्दनतः आश्लेषतः विशेषार्थकस्यापि सामान्यार्थकत्वम्प्रकरणादिति कवि समयोऽत एव दवशब्दस्य वनाग्निवाचकत्वेऽपि प्रकृते संतापकत्व मात्रार्थकत्वमिति भावः नन्दवनम् नन्दस्य हृदस्य वनम् न अभवत् संतापशामकं न जातमित्यर्थः ॥२१॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्ये प्रथमतीर्थकृता परिपालिता, तदनु बाहुबलीशजयश्रिता । भरतचक्रभृता ह्यभिनन्दिता, युगलिता गलितात्र यतो दिनात् ॥ २२ ॥ अन्वयः--प्रथमतीर्थकृता परिपालिता तदनुबाहुबलींशजयश्रिता हि भरतचक्रभृता अभिनन्दिता अत्र यतो दिनात् ततो दिनात् युगलिता गलिता॥२२॥ व्याख्या~यतो दिनात् यद्दिनमारभ्य इयम्भूमिरिति शेषः प्रथ. मतीर्थकृता ऋषभप्रभुणा परिपालिता परिरक्षिता तदनु तत्पश्चात् बाहु. बलीशजयश्रिता बाहुबली चासौ ईशश्चेति बाहुबलीशः तस्य जयम्बिजयमाश्रयतीति बाहुबलीशजय श्रिता बाहुबलीनृपविजय विश्रुता भरतचक्रभृता भरतचक्रवर्तिना अभिनन्दिता कृताभिनन्दना तहिनादारभ्य "यत्तदोनित्यसाकांक्षत्वात् " अत्र भूमौ युगलेर्भावः युगलिता युगलिधर्मत्वम् गलिता निवृत्ता निरस्तेत्यर्थः ।। अन्यत्र-प्रथमतीर्थकृता प्रथमम् तीर्थकृता तीर्थङ्करेण परिपा. लिता परि सर्वतः पालिता रक्षिता " पार्श्वनाथवीरस्वामिपक्षे रलयोः साम्यात" परिपारिता सर्वतोभावेन पारिता कर्मसमापिता परिधातोः कर्मसमाप्त्यर्थकत्वात् यद्वा प्रथम तीर्थकृतं आसमंतात् परिपालय. तीति तथा प्रथमतीर्थकरलालनपोषणवर्धनसंपादिकेत्यर्थः तदनु बाहुबलीचासौ ईशश्चेति तथा भुजबलशालीनृपः तस्योत्कर्षेण श्रिता आश्रिता भरति लोकमिति भरतः अथवा भरति धर्मादिकमिति भरतः तेषां चक्रः समूहस्तं बिभर्तीति भरतचक्रभृत् तेन अभिनन्दिता खनिवासेन मण्डिता यतः दिनात् तस्मादिनादारभ्येति शेषः अत्र भूमौ नगरे वा युगलिता युगं सुग्मं लाति गृह्णातीति युगलः तस्य भावो युगलिता पापपुण्यो "सुखदुःखौ" वियोगसंयोगौ वा गलिता निरस्ता जिनेन्द्र. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ carrrrrrrrrrr................. भाचार्यनीविजयामृतस्प्रिणीता सरणी टीका. सर्गप्रभावात् तत्र पुण्यस्य धर्मस्य सुखसंयोगस्यैव स्थितिर्न तत्सहचरस्य पापादेरित्यर्थः॥ ___ रामकृष्णपक्षे-प्रथमतीर्थकता प्रथमम् आदौ तीर्थकृता तीर्थ हितशासनं करोतीति तीर्थकृत तेन रामेण कृष्णेन वा परिपालिता सम्यगवेक्षिता तदनु तत्पश्चात् बाहुबलीशजयश्रिता भुजबलशालि. नृपोत्कर्षश्रिता भरतचक्रभृता भरणपोषणकारकेन अभिनन्दिता या नगरी यतो दिनादारभ्य ततोदिनादत्रनगरे युगलिता प्रतिद्वन्दिता गलिता सर्वेषां राजानधीनत्वात् परस्परनस्पर्धन्त इति भावः ॥२२॥ तृषितभूषितभूरिवियोगिना मृतमृतेन मृतेन (?) पदात्स्वयम् । तदनु तन्नगरे नगरैवते त्युभयतो भयतोयधिविप्लवः ॥ २३ ॥ अन्वयः-हे मृतेन तृषितभूषितभूरिवियोगिनाम् ऋतम् ऋते स्वयंपदात् . तदनु तमगरे नगरैवत इति उभयत: भयतोयधिविप्लवः ॥ २३ ॥ ____ व्याख्या-हे मृतेन ! मृतः परलोकंगतः इनः राजा यस्स स मृतेनस्तत संबुद्धो हे मृतेन मृताधिप ! तदनु तदनन्तरम् तनगरे तसिन पुरे नगरवता रै अस्यास्तीति रैवान् नग इव रैवान् नगरैवान् तेन प्रच्छन्नगुप्तधनवता वृषितभूषितभूरिवियोगिना वषितः संजातवृषः भूषितः अलंकृतः अथवा भूचि भूमौ उषितः स्थितः तृषितश्चासो भूषितश्चेति तषितभूषितः स चासौ भूरिवियोगी चेति वृषितभूषितभूरिवियोगी तेन अमृतमृतेन अमृताय मोक्षाय मृतेः मृत्युक्शंगतः इनो यस्य स अमृतमृतेनस्तत्संबुद्धौ हे अमृतमृतेन उभयता इहलोकता परलोकतश्च यद्वा उभयतः भूरिवियोगिजनत्वेन किमपि कत्तुंमलसेन नगरवता गुप्तधनेन कस्मैचिदपि किमप्यप्रयच्छतेति उभयथा भयात् Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्मानमहाकाम्बे साध्वसात तोयधेश्च तुद्यते तूयते वा तोयः व्यथा हिंसा वा तद्धीयते यस्मिन् स तोयधिः तस्माच्च विप्लवः पराभवः जात इति शेषः ॥२३॥ यमकालंकारः। कृष्णपक्षे-भयतोय धिविप्लवः भयः भयजनका तोयधिविप्लव समुद्रकर्तृक उपद्रवः सर्वतो जलमग्नता जातेति शेषः कृष्णप्रयाणानन्तरं द्वारकायाः समुद्रमनतेति पौराणिका इति भावः ॥२३॥ सकमलाकमलाशयभूरभू नरमणी रमणीललनैः श्रिया । असुरभिः सुरभिप्रसवेऽपि सा, नरचिता रचिताइवधूमतः ॥ २४ ॥ अन्वयः--नरचिता स कमला कमलाशयभूः रचितावधूमतः सुरमिप्रसवेऽपि असुरभिः रमणीललनैः श्रिया रमणी न भभूत् ॥ २४ ॥ व्याख्या-नरचिता नरैर्नागरिकजनैश्चिता व्याप्ता परिपूर्णा अपि स कमला कमलेन पंकजेन सहिता यद्वा कमलया लक्ष्म्या शोभा संपत्त्या वा सहिता सकमला सश्रीका कमलाशयभूः आसमंताच्छेते यस्मिन् स आशयः "आङ्पूर्चकाच्छतेराधारेऽप्" कमलायाः लक्ष्म्याः आशयः कमलाशयः सा चासो भूश्चेति कमलाशयभूः अथवा कमलस्य सरोजस्य आशयः कमलाशयः स चासो भूश्चेति कमलाशयभूः रचितात् जनितात् दवधूमतः वनाग्निधूमात् सुरभिप्रसवेऽपि सुर मेर्वसंतस्य प्रसवे उत्पत्तावपि सुरभिसाम्राज्येऽपि असुरमिः अमनोहरा यद्वा सद्गन्धरहिता "वसन्ते पुष्पसमयः सुरभिग्रीष्म उष्मक इत्यमरः" तथा च रमणीललनैः श्रियाः रमण्याः रामायाः ललनः प्रेयान् इति रमणीललनः तैः श्रिया शोमया संपत्या वा रमणी मनोहादिनी न अभूत् न अजनिष्ट ॥ २४ ॥ यमकः विशेषोक्तिथालंकारी ॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-6 स विषयो विषयोजनभक्ष्यवत् , सुमनसा मनसां भयकारणम् । भुवि दितो विदितोऽपि तदाभया शवरसंवरसंकलितोऽभवत् ॥ २५॥ अन्धयः--स विषयः विषयोजनभक्ष्यवत् सुमनसां मनसा भयकारणम् भुवि दितो विदितोऽपि तदा अभयाशवरसंवरसंकलितः अभवत् ॥ २५ ॥ व्याख्या-~स विषयः सांसारिकविषयाभिलाषा देशश्च विषयोजनभक्ष्यवत् विषेण गरलेन योजनं संयोजनम् यस्य तत् विषयोजनम् तच भक्ष्यश्चेति विषयोजनभक्ष्यम् तदिवेति विषयोजनमत्यवत् विषमिश्रितान्नवत् सुमनसां सहृदयानां मनसां चित्तानां भयकारणम् भयहेतुः भुवि जगति विदितोऽपि प्रसिद्धोऽपि अनेकजनसे वितोऽपि दितः खण्डितः सन् तदा तसिन् समये अभयाशवरसंवरसंकलितः अभये मोक्षे आशा अभिलाषा यस्य स अभयाशः तस्य यो वरः श्रेष्ठः संवरः सनिरोधः संयम इत्यर्थः तेन संकलितः संयुक्तः इति अभयाशवरसंवरसंकलितः मुमुक्षुजनप्रवलवैराग्यविहितनिरोधः अभवत् सर्वथा मुमुक्षुजनपरित्यक्तोऽजायत इति भावः ॥ २५ ॥ पुनरपि प्रबलाकृतिकौशला, __ भगवतामुदयेन नु भाविनी । नवनवेभ्यनिवासविलासिनी, वसुमती सुमतीशजयश्रिया ॥ २६ ॥ अन्वयः-भगवतामुदयेन पुनरपि प्रबलाकृलिकौशला नवनवेभ्यनित्रासविलासिनी सुमती जयश्रिया वसुमती भाविनी ॥ २६ ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ महोपाध्यायनीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये ____ व्याख्या-भगवतां जिनेन्द्राणां उदयेन आविर्भावेन पुनरपि भूयोऽपि प्रबलाकृतिकौशला प्रबला महती या आकृतिः स्वरूपम् सा प्रबलाकृतिः तत्र कौशला चतुरा सा प्रबलाकृतिकौशला सुन्दराकृतिपटीयसी नवनवेभ्यनिवास विलासिनी नवनवः नून्नः य इभ्यः धनी यद्वा इभं हस्तिनमहतीति इभ्यः नृपः नवनवश्चासौ इभ्यश्चेति नवनवेभ्यस्तेषां निवासःस्थितिरिति नवनवेभ्यनिवासस्तेन विलासिनी शोभमाना अतिनूतननृपनिवासमनोहरा सुमतीशजयश्रिया सुष्टु मतिर्यस्य स सुमतिः स चासौ ईशश्चेति सुमतीशः तस्य जयश्रिया विज. यलक्ष्म्या वसुमती पृथ्वी " सर्वसहा वमुमती वसुधोर्वी वसुन्धरेत्य. मरः" भाविनी भवित्री पुनरपि जिनेन्द्रोदये पृथ्वी सर्वगुणविशिष्टा भविष्यतीति भावः ॥ २६ ॥ अनुप्रासः । अन्यत्र भगवतां भाग्यशालिनामुदयेन समभ्युदयेनेति पूर्वप्राय मन्यत् ।। २६ ॥ ध्रुवरमं वरमङ्गलसंगम, विभवसंभवसंज्ञतुरङ्गमम् । पुरमदो रमदोर्बलनायकं, ___ सुरसभारसभासि भविष्यति ॥ २७ ॥ अन्वयः - भदः पुम् ध्रुवरमं वरमंगलसंगमम् विभवसंभवसंज्ञ तुरङ्गमम् रमदोबल नायकम् सुरसभारलभासि भविष्यति ॥ २७ ॥ व्याख्या-अदः पुरम् इदं नगरम् ध्रुवरमम् ध्रुवं निश्चितं सततं वा रमणं यत्र तत् अथवा ध्रुवनियतं रमा लक्ष्मीः शोभा संपत्तिर्वा यत्र तत् ध्रुवरमम् नित्योत्सवं नियतलक्ष्मीकं वा वरमंगलसंगमम् वरमंगलानां निरतिशयोत्सवानाम् संगमम् संबंधो यत्र तत्तथोक्तम् Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृप्तसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-४ ४९ विभवसंभवसंज्ञतुरङ्गमम् विभवस्य सर्वसंपत्तेः संभव उत्पत्तिरिति विभवसंभवः सम्यक् जानातीति संज्ञः "आतश्योपसर्गे इति जानाते का" बुद्धिमान तुरं शीघ्रं गच्छतीति तुरंगमः अश्वः विभवसंभवश्च संज्ञश्च तुरंगमश्वेत्येषां द्वन्द्वः इति विभवसंभवसंज्ञतुरंगमानि यत्र तत् अथवा विभवसंभवसंज्ञौ तदभिधानौ तुरंगमौ जात्यश्वौ यत्र तत् 'रमदोबलनायकम् रमम् शोभमानं दोबलम् बाहुबलं यस्य स रमदोबलः रमदोबलो नायको यत्र तत् यद्वा रमं दोर्यलम् यस्य स रमदोबरः रमदोर्वलो नायको यत्र तत्' सुरसभारसभासि सुगणां देवानां सभा परिषत् इति सुरसभा तस्याः रसः अनुरागः सुरसभारसः तेन भासितुं प्रका. सितुं शीलमस्येति तत् सुरसभारसभासि अथवा सुष्ठ राति ददातीति सुरः तस्य सभा तया भासि विकस्वरम् अथ च सुरः पंडितः तस्य सभा तया भासि भासनशीलम् भविष्यति जनिध्यति ॥ २७ ॥ यमकः । राज्यादिस्थितिरता विजयतेऽद्यापि प्रभोस्तेजसा, नाना सिद्धिरपि प्रसिद्धिसहिता सहितार्थे हिता। बुद्धिः साभ्युदया सतां समुदयानन्दाय संजायते, श्रीसाईप्रभुसार्वभौममहितो भूयात् स भूयः श्रिये॥२८॥ इति श्रीसप्रसंधाने महाकाव्ये महोपाध्यायश्रीमेधविजयमणि कृते ___दिग्विजयवर्णनो नामाष्टमः सर्गः संपूर्णः ॥ श्रीः॥ अन्वयः- अद्यापि प्रभोस्तेजसा राज्यादिस्थितिः अद्भुता नाम्ना सिद्धिरपि प्रसिद्धिसहिता सर्वेहितार्थे हिताः सतां समुदयानन्दाय साभ्युदया बुद्धिः संजायते श्रीसार्वप्रभुसार्वभौममहित: स भूयःश्रिये भूयात् ॥ २८ ॥ ___ व्याख्या--प्रभोजिनेन्द्रस्य तेजसा प्रभावेण अद्यापि अधुनापि राज्यादिस्थितिः राज्यादिमर्यादा अद्भुता सर्वातिशायिनी विलक्षणे Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सक्षसम्मानमहाकाव्ये त्यर्थः विजयते सर्वोत्कर्षेण वर्तते नाम्ना अभिधेयेन प्रसिद्धिसहिता प्रख्यातियुता सिद्धिरपि अणिमाद्यष्टसिद्धिरपि सर्वेहितार्थे सर्वेषामीहितः सर्वहितः स चासो अर्थश्चेति सर्वहितार्थः तत्र हिता अनुकूला साभ्युदया श्रेयस्करी बुद्धिर्मतिः सतां सजनानां मव्यानामित्यर्थः समुदयानन्दाय अभ्युदयसुखाय संजायते सम्पद्यते श्रीसार्वप्रभुः अहप्रभुः सर्वेभ्यो हितः सार्वः स चासौ प्रभुश्चेति सार्वप्रभुः सर्वपुरुषाभ्यां णढाविति णः ५ पं. त्रु. सर्वजनीना सार्वभौममाहितः सार्वभौमेन चक्रवर्तिना नृपेणेति शेषः महितः पूजितः इति सार्वभौममाहितः सार्वप्रभुश्वासौ सार्वभौममहि तश्चेति श्रीसार्वप्रभुमार्वभौममहिता स जिनेन्द्रः भूयः पुनः पुनः श्रिये निरतिशयानन्दाय भूयात् स्तात् अत्र श्लोके शार्दूलविक्रीडितम् ।। २८ ॥ इन शास्त्रविशारद-कविरत्न-महारकाचार्य श्री विजयामृतसूरीश्वरप्रणीतायां सप्तसंधानमहाकाव्यीय "सरणी' टीकायां भष्टमः सर्गः ॥ ८ ॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयास्तरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-९ १२॥ . .. Annnnnn ॥ अथ नवमः सर्गः ॥ अथार्ककीर्तेः प्रससार कीर्तिर्देवस्य वश्यं भुवनं विधातुम्। मूव कल्याणवती सुनन्दा सुमङ्गलाङ्गोन्नयनेऽनुषक्ता १ अन्वयः-अथ अर्ककीर्देवस्य भुवनं वश्यं विधातुं मूत्र कल्याणवती सुनन्दा सुमंगलांगोनयनेऽनुषक्ता कीर्तिः प्रससार ॥ १ ॥ व्याख्या-अथ अथानन्तरम् अर्ककीर्तेः अर्क सूर्यः इन्द्रो वा स्फटिकमणि विष्णुवा स इव कीर्तिः प्रतिष्ठा यस्य तस्य "प्रकाशक. त्वात् सर्वशक्तिमत्वात् निर्मलत्वात् सत्यगुणमात्राश्रयत्वाच्चोपमानत्वं सर्वेषाम्" देवस्य दीप्तिमतः भुवनम् लोकम् जगत् "विष्टपं भुवनं ज. गदित्यमरः" वश्यं खानुकूलं वाधीनं विधातुं भूर्तेत्र कल्याणवती मूर्ती सत्स्वरूपा कल्याणवती कल्याणयुक्ता सुनन्दा सुष्टु नन्दयतीति सुनन्दा आनन्ददायिका सुमंगलांगोनयनेऽनुषक्ता सुमंगलस्य कल्याणस्य भद्रस्ये त्या अगोनयने अङ्गोत्थाने अनुषक्ता अनुरक्ता कीर्तिः समज्ञा प्रतिष्ठेति यावत् प्रससार पप्राथ ॥ १॥ अत्र सर्गे उपजातिवृतिः ॥ आदीश्वरपक्षे-सुनन्दा सुमंगलाभिधाने पत्नीद्वये कीःरुषायने विस्तारणे अनुषक्ता व्यापृतेति भावः ॥१॥ यशोमती नाम परैव सिन्धुावर्णनीया शतलब्धवणेः। नैर्मल्यवृत्तेः पयसां प्रवृत्तेस्तदुग्रजात्याः स महानुभावः॥२॥ अन्वयः-यशोमती नाम परासिन्धुरेच शतकाधवर्गावर्णनीया नैर्मल्यवृत्तेः पयसां प्रवृत्तेः तदुप्रजात्याः स महानुभावः ॥ २ ॥ व्याख्या-यशोमतीनाम परैव सिन्धुः यशोमती नाम्नी परा काचित् अन्या जलप्रवाहरूपतो भिमासिन्धुनंदी एव उभयोर्विशेषणं Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये यथा व्यावर्णनीया शतलब्धवर्णैः शतानि शतसंख्यका अथवा शतशब्दस्यानेकसंख्यावाचकत्वात अनेकसंख्यका ये लब्धवर्णाः पण्डितास्तैरनेककविभिावर्णनीया विख्यापनीया कीर्तनीयेत्यर्थः अन्यत्र शतानि लब्धानि वर्णानि रूपाणि यैस्तैः शतलब्धवर्णैः अनेकवर्णैः पक्षि. भिः व्यावर्णनीया कीर्तनीया "लब्धत्रों विचक्षण इत्यमरः" नैर्मल्यवृत्तेः नैर्मल्यस्थितौ नैर्मल्यविधौ निर्मलतायामित्यर्थः तदुग्रजात्याः अत्युच्चकोटिभूतायाः अन्यत्र उच्चैमिरिसंभूतायाः पयसां प्रवृत्तेः जल. धाराया इवेति शेष: "यथा उग्रजातिः अत्युग्ररूपा जलधारा निसर्गनिमला भवति तथेयमिति भावः" स महानुभावः यस्यैतादृशी कीर्तिः स इति शेषः महानुभावः महाशयः ।। यशोमती महावीरस्वामिनो धर्मपत्नी सापि यथोक्तविशेषणवि. शेषिता इति ॥ २॥ प्रभावती यन्महसाऽभ्रतारा, सायंप्रकाशाद् बहुबन्दिपाठैः। की विभोस्तच्छ्रवणाय मन्ये ऽष्टौ स्वश्रुतीस्तेन विधिविधत्ते ॥ ३ ॥ अन्वयः-प्रभावती यन्महसा अभ्रतारा बहुबन्दिपाठः सायंप्रकाशान् विभोः कीर्तेः तच्छूवणाय विधिस्तेन अष्टौ स्त्रश्रुतीविधत्ते इस्यहम्मन्ये ॥ ३ ॥ व्याख्या-प्रभावती विद्योतमाना यत् यस्मात् या कीर्तिर्विभोजिनेन्द्रस्य काव्यनायकानां वास्तीति शेषः सा कीर्तिः सायं प्रकाशात् रात्री प्रकाशवाहुल्यात् महसा तेजसा प्रकाशविशेषेण अभ्रतारा गग. नस्य तारका इवेत्यर्थः विभोः प्रभोः कीसेयशसा बहुबन्दिपाठैः अने. कस्तुतिपाठकैर्मागधजनैस्तद्वारा तत् श्रवणाय श्रोतुं विधिब्रह्मा अष्टौ अष्टसंख्यकाः स्वश्रुती: श्रवणेन्द्रियाणि विधत्ते विरचतीत्यहम्मन्ये Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिमणीता सरणी टीका. सर्ग-९ ४२५ जानामि अष्टदिग्भ्यस्तदीयकीर्तिश्रवणायैव विधिःखकर्णमष्टधाऽधादित्यहम्मन्ये जानामीति क्रियागतोत्प्रेक्षोपमा ॥ अन्यत्र प्रभावती पार्श्वनाथप्रभोः पत्नी यत्महसा स्वसौभाग्येन अभ्रतारा विभोः पार्श्वप्रभोः कीर्तस्तच्छ्रवणाय विधिः स्त्रश्रुतीः अष्टौ विधत्ते इति ॥ ३॥ प्रभोः प्रवृत्तिं बहुधा यशोदा मनोविनोदात् सुमनःसमूहाः । गायन्ति नाके तरवः सुराणां, तान् वर्धयन्ते कुसुमैर्भदम्भात् ॥४॥ भन्वयः-यशोदा सुमनः समूहा मनोविनोदात् प्रभोः प्रवृत्ति बहुधानाके गायन्ति सुराणां तरवः तान् भदम्झात् कुसुमैर्वर्धयन्ते ॥ ४ ॥ व्याख्या-यशोदा: यशो ददतीति यशोदाः यशोदातारः सुमन:समूहाः सुमनसान्देवानां समूहाः वृन्दाः वृन्दारकवृन्दाः मनोविनोदात् हृदयोल्लासात् प्रभोजिनेन्द्रस्य रामस्य कृष्णस्य च प्रवृत्ति पुण्यचरितं कीर्तिमित्यर्थः बहुधा अनेकशः नाके स्वर्गे गायंति वर्णयति तान् प्रभुकीर्तिगायकान् देवान सुराणां देवानां तरकः कल्पवृक्षाः भदम्भाव ताराच्छलाद कुसुमैः प्रसूनैः वर्धयन्ते वर्धापयन्ति नीराजयन्तीति भावः ।। ४ ।। गम्योत्प्रेक्षा। क्वचिद् विशल्या विहिता त्रिलोकी, गन्धर्वमुच्चैःश्रवसं विधाय । कोर्त्या विभोर्भावनीया नयानां, मुधा विधानेन सुधाशनानाम् ॥ ५॥ अन्वयः--विभोः कीयां नयानां मावन या सुधाशनानां मुधाविधानेन गन्धर्वमुच्चैःश्रवसं विधाय त्रिलोकी कचिद्विशल्या विहिता ॥ ५ ॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . .a . v . . . . . . ४२४ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरषिते समसाधानमहाकाब्बे व्याख्या-विभोजिनेन्द्रप्रभोः कीा यशसा सहेति शेषः नयानाम् प्रसुप्रचारितसबीतीनां विभावनया विचारेण सुधाशनानाम् सुधाया अमृतस्य अशनम्भक्षणन्तेषाममृतभोजनानां मुधाविधानेन मिथ्याविधानेन निरर्थकत्वेन " यदा प्रमुगुणाः कर्णनस्वादुमाखाद्यते तदा सुधाशनं अनेकप्रयत्नपलब्धसुधाभोजनम्व्यर्थनीरसत्वादिति भावः " गन्धर्वमुच्चैःश्रवसं विधाय गन्धर्व गानम् प्रभुकीर्तिमानम् उच्चैःश्रवसं उच्चैः श्रवणं विधाय कृत्वा प्रभुकीर्तिगानमाकण्ठं श्रुत्वा त्रिलोकी त्रयाणां लोकानां समाहारत्रिलोकी त्रिजगत् कचिद यत्र कीर्तिश्रवणम्भवति तत्रैव विशल्या दुःखरहिता विहिता कृता कीर्तिश्रवणेन सर्वेषा त्रिविधदुःखमुन्मूलितं भवतीति भावः ॥ __अन्यत्र । विशल्या लक्ष्मणपत्नी त्रिलोकी गंधर्वमुच्चैःश्रवसं विधाय त्रिलोक्यां तदीयकीर्तिमतिशयं श्रुत्वा विहिता पत्नीत्वेन स्वीकृता लक्ष्मणेन विवाहितेति तात्पर्यम् ॥५॥ मनोरमा वा रतिमालिका वा, रम्भापि सा रूपवती प्रिया स्यात् । न सुत्यजा स्याद् वनमालिकापि, कीर्तिर्विभोर्यत्र सुरैनिपेया ॥६॥ भन्दयः--सुरैर्यत्र प्रभोः कीर्तिनिपेया तत्र मनोरमा वा इति मालिका वा रूपवती सारंभा वनमालिकापि न सुत्थजा स्यात् किन्तु मुत्यजैव ॥ ६ ॥ ___ व्याख्या- यत्र विभोर्जिनेन्द्रस्य कीर्तिः सुरैर्देवैर्निपेया पीता प्रभुकीर्तिः सादरेण श्रुता तत्र मनोरमा इति मालिका वा रूपवती सा प्रसिद्धा रम्भापि प्रिया मनोज्ञा स्यात् किन्नैव सा प्रेयसीभवितुमईति कीतौं समधिकमाधुरीत्वात् . वनमालिकापि न मुत्यजा स्यात् Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग - ९ अवश्यमेव सुत्यजा भवेत् कीर्तेर्मधुरिमा एताभ्योऽप्यधिकेति भावः || ६ || अतिशयोक्तिरलंकृतिः । यया स आमोदवती विधेया, गानेन कीर्तेः सरसा रसज्ञा । आस्येन सा स्याजितपद्मरूपा, ४२५ सैवोदिता चाभयवत्यपि ज्ञैः ॥ ७ ॥ सरसा अन्वयः -- यथा स-आमोदवती विधेया कीर्त्तगीनेन रसज्ञा आस्येन सा जितपद्मरूपा स्यात् सैव शैः अभयवती भपि उक्ता ॥ ७ ॥ व्याख्या - यया की स-आमोदवती आमोदवत्या सहिता स- आमोदवती आमोदकारिणी कीर्तेः जिनेन्द्रकीर्तेः गानेन कीर्त्तनेन रसज्ञा जिह्वा सरसा रसवती विधेया कर्त्तव्या आस्येन मुखेन सा कीर्तिः जितपद्मरूपा जितम् पराजितम् पद्मरूपं कमलसौन्दर्य यया सा जितपद्मरूपा सैव सा एत्र कीर्तिरेव ज्ञैः पण्डितैः अभयवती निर्भयकारिका उदिता कथिता सा कीर्तिरेव सर्वाभयकारिणीत्यर्थः ॥ ७ ॥ यशसुवर्ण विहत्सकर्ण, सदोपकर्णी विदधाति नृणाम् । सा सत्यभामा च गिरा सुसीमा, सा लक्ष्मणा रुक्मिनृपखसा या ॥ ८ ॥ अन्त्रयः -- नृणां सा सत्यभामा च गिरा सुसीमा ला कक्ष्मणा या च eferrer विसत् सकर्ण यशः सुवर्णं सदोपकर्ण विदधाति ॥ . व्याख्या -- नृणाम्मनुष्याणां मध्ये सा प्रसिद्धा सत्यभामा कृsoपत्नी गिरा वाण्या वाचकशब्देन सुसीमा तदभिधाना सा लक्ष्मणा याच रुक्मिनृपखसा रुक्मिराज भगिनी रुक्मिणीति यावत् एताः Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ महोपाध्यायधीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्भानमहाकाम्ये कृष्णपत्न्यः विहस सकर्ण कर्णेन सहितः सकर्णस्तं विहसव यशखिनम् कर्णनृपमपि विहसत् निन्दत् यशःसुवर्ण कीर्तिसुवर्ण सदा सर्वदा उपकर्ण कर्णसमीपं विदधाति शृणोति कृष्णपत्न्य अपि एताः प्रभोर्यशः सदैवाकर्णयन्तीति भावः ॥ ८ ॥ गौरीव कान्त्या परिपूरणेन, पद्मेव निश्छद्मतया जयाय । गान्धारिका जाम्बवती च साम्ब प्रद्युम्नलीलालयमाश्रयन्ती ॥९॥ अन्वयः-कात्या परिपूरणेन गौरीव निश्छद्मतया जयाय पन्नेव साम्बप्रघुम्नलीलालयमाश्रयंती गांधारिका जाम्बवती च ॥ ५ ॥ व्याख्या-सा कीर्तिः जिनेश्वरकीर्तिरितिभावः कांत्या दीप्त्या परिपूरणेन कान्तिसमृहेन गौरीव कृष्णपत्नी वीतभयतनयेव अथ च गौरी पार्वतीय निश्छमतया निष्कपटतया जयाय त्रैलोक्यविजयाय पद्मेव पद्मा कृष्णपत्नी हिरण्यनामकन्या सेव अथ च पद्मा लक्ष्मीः सेव साम्बप्रद्युम्नलीलालयमाश्रयन्ती साम्बश्च प्रद्युम्नश्चेति साम्बप्रद्युम्नौ तयोर्लीला साम्बप्रद्युम्नलीला तस्या लयं संश्लेषं संम्बन्धम् आश्रयन्ठी संस्पृशन्ती गांधारिका कृष्ण पत्नी नग्नजित्तनया जाम्बवती कृष्णमहिषी जाम्बवतः दुहिता वा अथ च साम्बप्रद्युम्नलीलालयमाश्रयन्ती अम्व्यते स्निह्यतीत्यम्बा प्रकष्टं शुम्नं बलं यस्य स प्रद्युम्नः तयोः स्नेहबलयोः लीलालयं लीलासंबन्धम् आश्रयन्ती गांधारी जाम्बवती इत्युमे शासनदेवते इत्र स कीर्ति विराजते इति शेषः ।। उपमालंकारः । पटीयसी कीर्तिरियं नटीत्र, लोके नरीनर्ति विभोविभाते । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ९ यदबन्दिवृन्दैरुपगीयतेऽसौ, निपानतोऽस्या विधुरेतिकामी ॥ १० ॥ ४२७ अन्वयः-- प्रभोः पदीयसी इयं कीर्त्तिः लोके नटीव नरीनर्त्ति विभाते असौ बन्दिवृन्दैर्यद् उपगीयते अस्या निपानतः इति कामी विधुरा ॥ १० ॥ व्याख्या -- प्रभोजिनेन्द्रस्य पटीयसी पटुतरा इयं कीर्तिः लोके जगति नटीव नरीनर्ति भृशं नृत्यति विभाते प्रातःकाले बन्दिवृन्दैः मागधैः यद् असौ कीर्तिरुपगीयते वर्ण्यते अस्याः कीर्त्तः निपानतः श्रवणतः कामी कमनीयः विधुः चन्द्रः इति समाप्तः यत् कीर्तिनि पानेन चन्द्रसुषमा समाप्तैव भवतीति भावः अथवा इति प्रकाशः तं कामयते इति इतिकामी विधुरा विषण्णा कीर्तेः सकाशादन्यप्रकाशाभावादिति भावः 'इति हेतु प्रकरणप्रकाशादिसमाप्ति' ष्वित्यमरः ॥ १० ॥ विदेहशोभाकरणेन सीता, प्रभावती या च भुवः शिवस्य । लीना कवेर्बोध भरस्मराङ्गे, रतिप्रभाश्रीहृदि कुन्ददामा ॥ ११ ॥ अन्वयः - - विदेहशोभाकरणेन सीता भुवः शिवस्य या च प्रभावती कचे: लीना बोधभरस्मरा अंगे रतिप्रभा श्रीहृदि कुन्ददामा ॥ ११ ॥ व्याख्या - विदेहस्य विदेहदेशस्य मिथिलादेशस्य अथवा विदेहस्य देहाभिमानरहितस्य जनकनृपस्य शोभाकरणे मण्डनकरणे सौन्दसंपादने कांतिविस्तारे इति यावत् सीताजनकनन्दिनीव यद्वा त्रिशेषेण देहशोभाकरणे देहसौन्दर्य संपादने सीता लक्ष्मीरिव अथ च विदेहस्य शिवस्य देहशोभाकरणे अर्धाङ्गसंपादने सीता उमा इव यद्वा विदेहस्य देहममतारहितस्य साधोः सीता गंगेव निर्मलेति भावः भुवः शिवस्य प्रभावती सुवः पृथिव्याः शिवस्य देवस्य सूर्यस्येत्यर्थः प्रभा - Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महोपाग्याय श्रीमेषविजयगणिविरविते सालसम्मानमहाकावे .......... वती प्रमा प्रकाशिका शक्तिः कवेः कवित्वशक्तिमतः लीना आश्लिष्टा बोधभरस्मरा बोधभरेण ज्ञानभरेण स्मरा स्मृतिरिव अंगे शरीरे रतिप्रभा रतेः कामपत्न्याः प्रभा इव सौन्दर्यसम्पत्तिरिव श्रीहृदि श्रियः लक्ष्म्याः हृदि हृदये कुन्ददामा कुन्दपुष्पस्रगिव कुन्दकुसुममालेव सा कीर्तिर्विरराजेति शेषः ॥११॥ सीता-प्रभावती-रतिप्रभा-श्रीदामा-इति चतस्रो रामपन्यः विराजन्त इति शेषः ॥ ११ ॥ तदा समुद्भूतमया (?) दनीति भावः पुरे व्यासि तमः प्रसन्नम् । कोलीनवांस्तद्धरणेन सीता मापन्नसत्वां स वने मुमोच ॥ १२॥ अन्वयः--तदा समुद्भूतमयात् भनीतिः भावः तमः प्रसन्नम् पुरे ब्यासि कौली रवान् स तद्धरणेन आपनसत्वां सीता वने मुमोच ॥ १२ ॥ व्याख्या-तदा रामराज्यकाले समुद्भूतमयात् उत्पन्नमयात् अनीतिभावः अन्यायभावः जात इति शेषः सीतां विद्विषतीभिः सपत्नीभिस्तथा प्रपश्चितं यथा राममनसि किमप्यनीतिभावः जात इति तत्वम् तद्धरणेन तस्याः सीतायाः धरणेन रावणगृहादानीयस्वीकारेण तमः प्रसन्नम् सीतारावणाङ्कगताऽऽसीदिति कथं निष्कल्म. पेति सीतामाश्रित्य जनापवादरूपं तमः मालिन्यं प्रसन्नम् बहुलीभूतं पुरे नगरे अयोध्यायां व्यासि व्याप्तम् कोलीनवात् कुलाभिमानी स रामः आपनसत्वाम् सगर्भाम् सीताम् जनकराजदुहितरम् वने निर्जनारण्ये मुमोच तत्याज जनापवादभीत्या सगर्भामपि सीतां वने त्यक्तवानित्यर्थः ।। १२ ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्यश्रीविजया तरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-९ २९ AAAAA.RAN. ... ANIRMA.MAAN अन्यपक्षे तदा समुद्भुतमयादनीतिभावः तस्याः मदिरायाः समुद्भूतमयात् उत्पत्तेः पुरे देहे "पुरे देहे च गेहे शब्दस्तोम महानिधिः" अनीतिमावः अन्यायभावः अकीर्तिः व्याप्तिर्जातेति शेषः अनीतिभावो व्याप्तः प्रसन्नम् प्रभूतं तमः अज्ञानम् व्याप्तिः 'सर्वतो व्याप्तम् तद्धरणात् तस्या आसेवनात कोलीनवान् कुलीनस्य भाव: कोलीना कुलीनता सोऽस्यास्तीति कोलीनवान् कुलाभिमानी अथवा कोलीनः परीवादः निन्देत्यर्थः तद्वान् स आपन्नसत्वाम् आपन: अधिष्ठितः य॑न्तरादिर्यस्यां सा आपनसत्वा ताम् सीताम् मदिराम् वने निर्जने मुमोच तत्याज परिजही 'सीता लांगलपद्धतौ जनकदुहितरि लक्ष्म्यां उमायां मदिरायां चेति' शब्दस्तोममहानिधिः ।।१२।। श्रीसूर्यवंश्यक्षितिपाश्रयेण, प्रभूतसून्वोरभवत्प्रसिद्धिः। अनङ्गशब्दाल्लवणोऽग्रजन्मा, परः परा मदनाङ्कुशाख्यः ॥ १३ ॥ अन्धयः-श्रीसूर्यवंशक्षितिपाश्रयेण प्रभूतसून्वोः अनङ्गशब्दालवणोऽग्रजमा परः परखूर्या मदनांकुशाख्यः प्रसिद्धिरभवत् ॥ १३ ॥ व्याख्या-श्रीसूर्यवंशक्षितिपाश्रयेण श्रीसूर्यवंशस्य यः क्षितिपः राजा तदाश्रयेण तदधिकारेण तदनुसारेणेत्यर्थः प्रभूतसून्वोः प्रभूतयोरुत्पनयोः सीताकुक्षिसंभूतयोः सून्वोः पुत्रयोर्मध्ये इति शेषः अ. प्रजन्मा प्रथमप्रसूतः अनंगशब्दात् परः लवणशब्दस्तथा अनङ्गलवणः इत्यमिधानो ज्येष्ठः परः कनिष्ठः परद्धा महर्या मदनांकुशाख्यः मदनांकुशनामा प्रसिद्धिः प्रख्यातः अभवत् अनङ्गलवणमदनांकुशनामानौ प्रसिद्धौ अभवतामित्यर्थः ॥ १३ ॥ पक्षान्तरे-श्रीसूर्यवंशक्षितिपाश्रयेण पञ्चानामपि चरित्रनाय. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री मैच विजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाये कानां तीर्थकराणां स्वतः परम्परया वा सूर्यवंशप्रभवत्वात् कृष्णस्य च तथात्वात् श्रीसूर्यवंश क्षितिपाश्रयेण प्रभूतमन्वोः मून्वश्व सूत्वश्व पुत्रश्च पुत्रयश्चेत्यनयोरेकशेष इति सून्वौ प्रभूतौ च तौ सुन्यौ चेति प्रभूतसूत्वौ तयोः प्रभूतसुन्वोः प्रसिद्धिः प्रख्यातिरभवत् अजायत अग्रजन्मा पुत्रः अनङ्गशब्दाल्लवणः अनङ्गं कामं लुनाति खसौन्दर्येणाद्यः करोतीति अनंगलवणः परः द्वीतियः कन्यारूप: सन्तानः मदनांकुशाख्यः मदनं काममङ्कुशयति उत्तेजयतीति मदनांकुशा आख्याऽभिधानं यस्य स मदनांकुशाख्यः संतानशब्दस्य पुंस्त्वात्पुनिर्देशः मदनां कुशनाम्नी कन्या प्रसिद्धा जातेति भावः श्रीनेमिनाथपक्षे सून्वोरित्यस्यानुजयोरित्यर्थः ।। १३ ।। * विभावसोरभ्युदये सुरायः, प्रपञ्चतः कोऽपि महर्षियोगात् । चक्रे स तद्भूमिसुतात्मशुद्धिं, " सापि प्रपेदे व्रततीत्रभावम् ॥ १४ ॥ अन्वयः -- कोऽपि सुरायः प्रपंचतः महर्षियोगात् विभावसोः अभ्युदये स तद्भूमिसुतात्मशुद्धि चक्रे सापि व्रततीव्र भावप्रपेदे ॥ १४ ॥ व्याख्या - विभावसोः अग्नेः अभ्युदये प्रज्वलिते अग्निकुण्डे इत्यर्थः कोऽपि कश्चिदपि सुरायः सुरान् देवान् अयते नियोजयतीति सुरायः सुरेन्द्रः महर्षियोगात् महर्षेः - तदानीमयोध्या वहिरुद्याने स्थितस्य जयभूषणमुनेः केवलज्ञानमुत्पन्नमिति सुनासीरादयः सुरास्तत्रसमाजग्मुः देवाश्च सीताशुद्धिं महेन्द्रं व्यजिज्ञपन् महेन्द्रोऽपि प्रत्यनी - कपतिन्तत्र नियुज्य स्वयं मुनेः केवलज्ञानमहोत्सवं विदधे इति प्रपं चतः निधानतः स रामः तत् प्रसिद्धम् भूमिसुतात्मशुद्धिं भूमिसुताया जानक्या आत्मशुद्धिं आत्मपूतां दिव्यरूपामित्यर्थः चक्रे विदधे सापि Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्री विजयामृतसरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-९ ५३१ आत्मविशुद्धा सीतापि ततीव्रभावम् व्रतस्य चारित्र्यग्रहणस्य तीव्रभावम् चारित्र्यग्रहणनिश्चयनियमम् प्रपेदे स्वीचकार यद्वा व्रतनीवभावम् व्रतरूपकाठिन्ये यथावनियमपालनसंकल्पं प्रपेदे सीता विशुद्धा सती जयभूषणकेवलिनः पादे प्रव्रज्यामग्रहीदिति तत्वम् ॥ १४ ॥ सुरानुभावाद् भुवि सत्रनिष्ठे, जिनाग्रजाते हरिविप्रयोगात् । हिरण्यरेतःपुरसन्नियोगे, देवस्तुरियादिभुवं दिदेव ॥ १५ ॥ भन्वयः-सुरानुभावात् भुवि सननिष्ठे जिनाग्रजाते हरिविप्रयोगात् हिरण्यरेत:पुरसखियोगे देव: तुरियादिभुवं दिदेव ॥ १५ ॥ व्याख्या-सुरानुभावात सुरायाः मदिराया अनुभावात् प्रभावात् अथवा सुरस्य अग्निकुमारस्य अनुभावात् प्रभावतः मुवि पृथिव्यां जिनाग्रजाते जिनस्य नेमिनाथस्य अग्रजाते अग्रगे कृष्णे सत्रनिष्ठे वनस्थे अग्निकुमारेण दह्य मानां द्वारकां विलोक्य वनवासिनि कृष्णे सति हरिविप्रयोगात हरेरग्नेविप्रयोगात् विशेषेण प्रयोगात् प्रवर्धमानात् यद्वा हरति पापमिति हरिर्जिनेन्द्रो नेमिनाथः तस्य विप्रयोगात् विश्लेषात् हिरण्यरेतः पुरसन्नियोगे पुरे सन्नियोगः संयोगः पुरसन्नियोगः हिरण्यरेतप्तः अग्नेः पुरसन्नियोगः हिरण्यरेतःपुरसन्नियोगे अग्निसात्भूते नगरे "हिरण्यरेता हुतभुग दहनो हव्यवाहन इत्यमरः" देवः कृष्णः तुरीयादिभुवं तुरीयस्य चतुर्थस्य आदिस्तृतीयः स चासो भूश्चेति तुरीयादिभुवं तृतीय भुवं तृतीयनरकं दिदेव जगाम ॥ १५ ॥ 'सत्रं स्थाने यज्ञभेदे सदादाने अरण्ये' इति शब्दस्तोममहानिधिः ।। तदाग्रजन्मा बहुशोचनेन, मोहात्समुल्लासिविलोचनेन । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ महोपाध्यायभीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाव्ये पदे पदे चानकमोचनेन, प्रवृत्तिमाधत्त विरोचनेन ॥ १६ ॥ अन्वयः-- तदा भग्रजन्मा बहुशोचनेन मोहात् समुल्लासिविलोचनेन पदे पदे च मानकमोचनेन विरोचनेन प्रवृत्तिम् आधत्त ॥ १६ ॥ व्याख्या-तदा कृष्णदेहपरित्यागे सति अग्रजन्मा अग्रे प्रथम जन्म यस्य स अग्रजन्मा जन्मतः श्रेष्ठः वलदेवः बहुशोचनेन अत्यं. तमन्युना मोहात् कृष्णप्रेमतः समुल्लासी विकखरे विलोचने यस्य स मोहात् समुल्ला सिविलोचनस्तेन भ्रातृस्नेहवशानिनिमेषचक्षुषा पदे पदें च स्थाने स्थाने आनकस्य उत्साहस्य धैर्यस्येति यावत् मोचनेन परित्यागेन विरोचनेन विगतं नष्टं रोचनं कुत्रापि रुचिर्मनोनिर्वृतिर्यस्य तेन विगतमुखेन प्रकृचिम् प्रवर्तन विहरणम् आधत्त प्रत्यपत्त कृष्ण स्कन्धे निधायेतस्ततः परियभ्रामेत्यर्थः ॥ १६ ॥ बभ्राम नभ्राडिव वृष्टिधारा, ___ नन्दन् स वर्षार्धमुदूढबन्धुः । वृथा कथाभिननु योधनेन, पटुर्बभूवामरबोधनेन ॥ १७ ॥ अन्वयः- उठूढबंधुः स नभ्राडिव वृष्टिधारा नन्दन् वर्षार्धम् बभ्राम वृधाकथाभिर्ननु योधनेन अमरबोधनेन पटुबभूव ॥ १७ ॥ व्याख्या-उदृढबंधुः उदृढः स्कन्धेन धृतः बंधुः कृष्णो येन स उदृढबंधु स्कंधकृतकृष्णा नभ्राडिव मेघ इव वृष्टिधारा वर्षधारा नन्दन अभिनन्दन् वर्षासमये वृष्टिधाराः सहन् यद्वा वृष्टिधारा नयनाश्रुधारा नन्दन प्रस्रवन् स बलदेवः वर्षाधम् षड्मासपर्यन्तं बभ्राम विचचार वृथाकथाभिः कोऽपि देवः सिद्धार्थस्तदीयभ्राता मृतो देवः सन् अश्ममयं भनस्थं योजयन् बलेन विहसितः प्रत्याह यः संग्रामे Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ९ ४३३ कदाचिदपि न मृतः स इदानीम्मृतो यदि जीवेत्तदा रथोऽयं सज्जो भवेत् अथ च ग्रावणिकमलमारोपयन् तथैव विहसितः यदि मृतो जीवेत्तदाऽश्मनि कमलमपि रोहेदित्यादि कथाभिः अमरबोधनेन सिद्धार्थजीवभूतदेवबोधनेन पटुर्ज्ञानवान् अयम्मे भ्राता मृतः किमेन वहामीति जातप्रत्ययः बभूव जातः ॥ १७ ॥ आत्तव्रतस्तप्ततपाः स रामः, क्षमाश्रमान्निर्वृतिरूपधाम । लब्ध्वाऽमृतस्याशनमाससाद, द्राक् पञ्चमींतां च दिवं व्यतीत्य ॥ १८ ॥ अन्वयः - ततः तपः स रामः क्षमाश्रमात् निर्वृतिरूपधाम लब्ध्वा द्वाक् पञ्चमीम् नाम् च दिवं व्यतीय अमृतस्याशनम् आससाद ॥ १८ ॥ व्याख्या--आत्तत्रतः आत्तम् प्राप्तम् स्वीकृतमिति यावत् वतं चारित्र्यं येन स आत्तत्रतः गृहीतचारित्र्यः तप्ततपाः तप्तमनुष्ठितं तपः योगः समाधिर्वा येन स तप्तपाः समनुष्ठितयोगः स रामः बलदेवः क्षमाश्रमात् चारित्र्यग्रहणात् साधुवेपात् निर्वृतिरूपधाम अत्यन्तसुखमय सदनम् यद्वा क्षमा क्षांतिः तद्रवाश्रमात् चतुर्थाश्रमादित्यर्थः प्रव्रज्याग्रहणतः द्राक् झटिति ताम् प्रसिद्धाम् पञ्चमीन्दिवम् पञ्चमखस्थानम् व्यतीत्य उपभुज्य तत्र भोग्यसमयं यावत् भुक्त्वा अमृतस्य अशनं यत्र तत् अमृतभोजनम् देवत्वम् आससाद देवो बभूव ॥ १८॥ अथ क्षपारक्षिगणे गणेशा, विद्यातपःसत्यगवीनिवेशाः । संप्राप्तनिःश्रेयस भूप्रदेशाः, परम्परान्नायविदां सदेशाः ॥ अन्वयः - अथ क्षमारक्षिगणे गणेशाः विद्यातपःसत्यगवी निवेशाः संभानिःश्रेयस भूप्रदेशाः परम्परास्नायविदां सदेशाः ॥ १९ ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ महोपाध्यायीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्धानमहाकाग्वे व्याख्या-अथ अथानन्तरम् भगवनिर्वाणानन्तरम् क्षमारवि. गणे क्षमां तितिक्षा "बाह्ये वाध्यात्मिके चैव दुःखे चोत्पाति के कचित न कुप्यति न वा हंति सा क्षमा परिकीर्तिता ॥ आकृष्टोऽभिहतो वापि वा कौशेन च हंति वा । अदुष्टैमिन:कायैस्तितिक्षोः सा क्षमा स्मृतेति स्मृतिः" तां रक्षितुं पालयितुं शीलमस्येति क्षमारक्षी स चासो गणश्चेति क्षमारक्षिगणः तत्र यद्वा क्षमारक्षिणां गणः संघस्तत्र गणेशाः प्रधानभूताः विद्यातपःसत्यगवीनिवेशाः सत्या चासौ गौर्वाणी चेति सत्यगवी विद्या च तपश्च सत्यमवी चेति द्वन्द्वः तेषु निवेश: अभिनिवेश आग्रहो येषां ते विद्यातपःसत्यगवीनिवेशाः ज्ञानाध्ययनसूनतप्रवृत्तयः संप्राप्तनिःश्रेयसभूप्रदेशाः संप्राप्ता अधिगता निःश्रेयसस्य मोक्षस्य भूप्रदेशाः भूसान्निध्यं यैस्ते अधिगतकल्याणभूमिसन्निकर्षाः परंपराम्नायविदां सदेशाः परंपरा अविच्छिन्नो य आम्नायः संप्रदायः गुरुक्रमो वा स परम्पराम्नायः तं विन्दन्ति जानन्तीति परम्पराम्नायविदः निरवच्छिन्नसंप्रदायज्ञानिनस्तेषां सदेशाः सन्निभाः सदृशा इत्यर्थः गणधरा राजानश्च अभवनिति शेषः ॥ १९ ॥ गणाग्रणीः श्रीऋषभादिसेन स्त्विषा जितग्लौषभादिसेनः । श्रीनाभिसेनान्वयिपुण्डरीकः, प्रभाविभासी यतिपुण्डरीकः ॥ २० ॥ अन्वयः-गणाग्रणीः स ऋषभादिसेनः विषा जितग्लौः वृषभादिसेनः श्रीनाभिसेनान्वय पुण्डरीकः विभाविलासी यतिपुण्डरीकः ॥ २० ॥ व्याख्या--गणाग्रणीः गणेषु गणधरेषु अग्रणीः अग्रे नीयतेऽसौ अग्रणीः गणाग्रणीः गणश्रेष्ठः श्रीऋषभः आदिर्यस्य सेनस्य स ऋषभा. दिसेनः ऋषमसेनः तदभिधानः विषा जितग्लौः विषा कात्या जितः Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-९ पराजित: ग्लौश्चन्द्रो येन स कान्तिपराजितचन्द्रः "ग्लौगांकः कला. निधिरित्यमरः" अनेन तस्मिन् सर्वश्लाघ्यत्वं व्यज्यते वृषभादिसेनः वृषभसेन: श्रीनाभिसेनान्वयपुण्डरीकः श्रीनाभिसेनस्य नाभिनृपतेर्योऽन्वयः वंशकुलमित्यर्थः स नाभिसेनान्वयः तत्र पुण्डरीकमिव कम. लमिवेति श्रीनाभिसेनान्वयपुण्डरीकः प्रभाविलासी प्रभया दीप्त्या विभासितुं शोभितुं शीलमस्येति प्रभाविलासी दीप्तिमान् यतिपुण्ड'रीका यतिषु संयमिषु पुण्डरीकमिवेति यतिपुण्डरीकः अथवा यतिश्वासो पुण्डकश्चेति यतिपुण्डरीकः ऋषभसेनः भरतचक्रवर्तिस्तनयस्तस्यैवापरनाम पुण्डरीक इति अत एवात्र कर्मधारयोऽपि संगच्छते ॥ चक्रायुधः श्रीवरदक्षशक्ति स्त्वथार्यदत्ताभिधयाऽवधार्यः। श्रियेन्द्रभूतिविबुधार्चितत्वात्, तत्वानि वेत्ता तपसाऽग्निभूतिः ॥ २१ ॥ अन्वयः---चक्रायुधः श्रीवरदक्षशक्तिः तु अथ आर्यदत्ताभिधया अवधार्यः श्रिया इन्द्रभूतिः विबुधार्चितस्वात् तत्वानि वेत्ता तपसा अग्निभूतिः ॥ २१ ॥ व्याख्या-चक्रायुधः श्रीशान्तिनाथस्य तनयः श्रीवरदक्षशक्तिः श्रीनेमिनाथस्य गणधरःतु पुनः अथ आर्यदत्तः इति अभिधया नाना अवधार्यः बोध्यः श्रिया संपत्त्या कात्या इन्द्र इव देवेन्द्र इव भूतिरश्वर्य यस्य स श्रियेन्द्रभूतिः इन्द्रभूतिनामा श्रीमहावीरवामिनो गणधरः विवुधार्चितत्वात् विबुधैर्देवैः पण्डितैवा अर्चितत्वात् पूजितत्वात तत्वानि परमार्थवस्तूनि वेत्ता ज्ञानवान् तत्त्वज्ञानवान् तपसा संयमेन अमिभूतिः अग्निरिव भूतिः विभूतिः पराक्रमो यस्य स तपसाऽग्नि भूतिः कर्मदाहकत्वादिति भावः अथ च अग्निभूतिरित्याख्यः श्रीमहावीरस्वामिनो गणधरः ॥ २१ ॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सहसन्धानमहाकाम्बे चर्याप्रबन्धात् स हि वायुभूति यक्तः सुधर्मा शुभपट्टधर्मा । अकम्पितोऽर्चिनिचयः प्रभासः, श्रीमण्डितः पण्डितवीर्यवासः ॥ २२ ॥ अन्वयः- चर्याप्रबंधात् स हि वायुभूतिः व्यक्तः सुधर्मा शुभपट्टधर्मा अर्कपितः भचिनिचयः प्रभासः पंडितबीर्य वासः श्रीमण्डितः ॥ २२ ॥ व्याख्या-चर्या प्रबंधात् चर्याया सम्यनियमपरिपालनस्य गुरूपदिष्टवताद्यनुष्ठानस्य अथवा चर्याया इर्यापथस्थितेः अटाट्याया वा प्रबंधात् प्रकृष्टबंधात् नियमात् संदर्भादित्यर्थः स हि वायुभूतिः वायुरिव भूतिः यस्य स अथवा वायुभूतिनामा गणधरः व्यक्तः व्यज्यते गुणैरिति व्यक्तः गणधरः शुभपट्टधर्मा शोभनः प्रशस्तः पट्टधर्म: पीठधर्मो यस्य स मुधर्मा शोभनो धर्मोऽस्य स तदाख्यो गणधरः अकम्पितः न कम्पते कुतोऽपीति अकंपितः तदाख्यो गणधर अचिनिचय: प्रभासः अर्चिपान्तेजसां निचयः पुञ्जः राशिर्वा प्रभासः प्रकर्षण भासते इति प्रभासः पण्डितवीर्यवासः श्रीमण्डितः श्रिया तपाश्रिया दीप्त्याप्रभया मण्डितः शोभितः इति श्रीमण्डितः अथवा गुणैर्दवादाक्षिण्यादिभिः मण्डय ते स्मेति मण्डिनः श्रीयुक्तश्वासौ मण्डितश्चेति श्रीमण्डितः मध्यम पदलोयी समासः तन्नामको गणधरः ॥ २२ ॥ स मौर्यपुत्रः प्रतिभापवित्रो, मेतार्यनामाप्यनिवार्यधामा । श्रुतोऽचलभ्रातृतया नयाढ्यो ऽनङ्गोऽप्यनङ्गाङ्कुशलब्धसिद्धिः ॥ २३ ॥ अन्वयः-प्रतिभापवित्रः स मौर्यपुत्रः अनिवार्य धामापि मेतार्य नामा मयान्यः अचलभातृतया श्रुतः अनमोऽपि भनांकुशलब्धसिद्धिः ॥ २३ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग- ९ १० व्याख्या-प्रतिभया बुद्धया पवित्रः निष्कल्मषः इति प्रतिभापवित्रः निर्मल बुद्धिः स मौर्यपुत्रः तदाहो गणधरः अनिवार्यधामा अनिवार्यमनिरुद्ध अपराभूतमित्यर्थः धाम तेजो यस्य स अप्रतिमतेजस्क: मेतार्यनामा मां लक्ष्मीमितः प्राप्तः इति मेतः स चासौ आर्यश्चेति मेतार्यः तदाख्यो गणधरः नयाद्यः नीतिमान् अचलभात्तया श्रुतः ख्यातः अनंगोऽपि अनंगाङ्कुशलब्धसिद्धिश्चेति सर्वे गणधराः२३ सुश्रीधरः सर्वहितैर्यशोभि दिक्शोभिना यस्य सुपार्श्वकीर्तिः । श्रीकेशवः क्लेशवतो विनेता, नयेन पृथ्वीतिलकः प्रथावान् ॥ २४ ॥ अन्वयः-सर्वहितैर्वशोभिः सुश्रीधरः दिकशोभिना नयेन यस्य सुपार्श्वकीर्तिः क्लेशवतो विनेता पृथ्वीतिलकः प्रथावान् श्रीकेशवः ॥ २४ ॥ व्याख्या-सर्वहितः सर्वेषां चराचराणां हितहितप्रयोजकर्यशोमिः कीर्तिभिः सुश्रीधरः सुष्टु शोभना चासौं श्रीश्चेति सुश्रीस्तांधरतीति सुश्रीधरः शोभन श्रीमान् अथवा सर्वहितैयशोभिरूपलक्षितः सुश्रीधरस्तन्नामा श्रीपाश्वनाथस्वामिगणधरः यस्य प्रभोरिति शेषः दिक्शोभिना दिशांशोभयतीति तेन दिशामुद्योतकारकेण नयेन नीत्या मुपार्श्वकीर्तिस्तदाख्यः क्लेशवतो विनेता क्लिश्यते उपतापयतीति केशः स अस्खास्तीति क्लेशवान् तस्य विनेता शिक्षकः सत्यार्थप्रवयिता पृथ्वीतिलकः पृथ्व्यां भूमौ तिलक इवेति पृथ्वीतिलकः भूविशेषक: प्रथावान् कीर्तिमान् श्रीकेशवः के सुखे शेते प्रभवतीति केशवः यद्वा के जले शेते इति केशवः केशाद्वोऽन्यतरस्यामिति वः 'मारुते वेधसि ब्रने पुसि का कं शिरोऽम्बुनो'रित्यमरः 'को ब्रह्मणि समीरात्मयमदक्षेषु भास्करे मयुरेऽम्नौ च पुंसि स्यात्सुखशीर्षजलेषु क'मिति मेदिनी श्रीकृष्ण इत्यर्थः ।। २४॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ महोपाध्यायश्रीमेधविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकावे ....... ..... स्फुरन्मनीषाविमलः सुभद्रा नुरागभागर्जुन एव लोके। श्रीसत्यकीर्तिधुवमङ्गलाख्यो, निर्व्याजसाम्राज्यवतामपीज्यः ॥ २५॥ अन्वयः-स्फुरन्मनीषा विमलः सुभद्रानुरागभाग अर्जुन एवं लोके नियाजसाम्राज्यवतामधीज्यः श्रीसत्यकीर्तिः ध्रुवमङ्गलाख्यः ॥ २५ ॥ व्याख्या--स्फुरन्मनीषा विमलः स्फुरन्ती देदीप्यमाना या मनीषा बुद्धिः सा स्फुरन्मनीषा प्रस्फुरबुद्धिः तया विमलः निर्मल: सुभद्रानुरागभाग् सुभद्रायाः कृष्णभगिन्या योऽनुरागः प्रीतिस्तां भजते इति स अर्जुनः तदभिधानः पाण्डवः नियोजसाम्राज्यवता. मपीज्यः निर्व्याजम् निष्कपटम् संपूर्णमित्यर्थः यत् साम्राज्यं सार्व. भौमत्वम् तदसास्तीति नियाजसाम्राज्यवान् तेषामपि ईज्यः पूजपः श्रीसत्यकीर्तिः सत्या निश्चला कीर्तियशो यस्य स ध्रुवमङ्गलाख्यः ध्रुवमङ्गलनामा अभूदिति शेषः ।। २५ ।। तेजोविशेषाजितभानुभानु स्तस्यानुयातो भरतः सशङ्खः । प्रद्युम्नशाम्बावनुविष्णु कृष्णी, तथोदधिर्धीरगभीरसंज्ञः ॥ २६ ॥ अन्वयः-तेजोविशेषात् जितभानुभानुः तस्य अनुजातः भरतः सशस्त्रः प्रद्युम्नशाम्बी अनुविष्णु कृष्णौ तथा उदधिः धीरगभीरसंज्ञः ॥ २६ ॥ व्याख्या-तेजोविशेषात् तेजसा प्रभावानां विशेषात् आधिक्या जितः पराभूता भानुः सूर्यों येन स तेजोविशेषात् जितमानुः स चासो भानुश्चेति तेजोविशेषाजितभानुभानुः यद्वा तेजोविशेषाजितः का५ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्य श्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ९ पराजितः भानोः सूर्यस्य भानुः किरणो येन स तथोक्तः भानुनामाकृष्णतनयः तस्यानुजातः भरतः सशंखः तस्य भानोः कृष्णतनयस्थ अनुजातः अनुजः पश्चाज्जायमानः भरतः सशंखः इमावपि कृष्णतनयौ प्रशुम्नशाम्बौ प्रद्युम्नः रुक्मिणीतनयः शाम्बः जाम्बवतीतनयः तयोर्द्वन्द्वः तौ प्रद्युम्नशाम्बो अनुविष्णु कृष्णौ अनु पश्चात् विष्णुः कृष्णो यस्य स बलरामः कृष्णः वासुदेवः तयोर्द्वन्द्रः तौ अनुविष्णु कृष्णौ रामकृष्णौ तथा उदधिः धीरः गम्भीरः एते सर्वे कृष्णतनयाः तौ धीरगभीरौ संज्ञे ययोः सधीरगंभीरसंज्ञः धीरगंभीरनामा ॥ २६ ॥ इत्यादिनालङ्कृतमन्तरीपं, ४३९ जम्बूसुनाम्ना प्रभवेन नित्यम् । शय्यग्भवेनादधताऽद्भुताय, श्रीमद्यशोभद्रपदं स्वगोत्रे ॥ २७ ॥ अन्वयः --- इत्यादिना अलंकृतं अन्तरीपम् जम्बूसुनाम्ना प्रभवेन नित्यम् अद्भुताय स्वगोत्रे श्रीमद्यशोभद्वपदम् आदधता शय्यं भवेन ॥ २७ ॥ व्याख्या - इत्यादिना पूर्वोक्तप्रकारेण अथवा जम्बूसुनाम्ना जम्बू इति सुष्ठुनाम यस्य तेन तथोक्तेन गुणरत्नमयत्वेन जम्बूद्वीपे जम्बूरिव जम्बुः स चासौ खामी चेति जम्बुखामी तेन प्रभवेन प्रभु aar अथ च तत्पट्टे क्रमागतेन प्रभवस्वामिना प्रभवति अस्मात् श्रुतमिति प्रभवेन स्वगोत्रे गां पृथ्वीं त्रायते इति गोत्रः स्वस्य गोत्रः स्वगोत्रः तस्मिन् यद्वा स्वस्थ गौः स्वगौः तां त्रायते इति स्वगोत्रस्तस्मिन् अथवा स्वगोत्रे स्वकीय परम्परापदे शय्यभवेन शय्याया भवतीति शय्यभवः गुम्फनकर्त्ता " शय्या गुम्फनमिति शब्दस्तोममहानिधिः" सृष्टिविधानदक्षः पालकत्वेनेत्यर्थः तेन अथ च शय्यभवनाम्ना स्वामिना स्वशिष्यपरंपरागतेन श्रीमद्यशोभद्रपदम् यशसा की Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . .. . . .. . .....~- A L A १४. महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्ससम्मानमहाकाये भद्रपदम् कल्याणपदम् आदधतो स्वस्थाने निवेशयता यशोभद्रस्वामी तत्पश्चात्तत्पद्देऽभवदिति भावः अन्तरीपम् द्वीपम् जम्बूद्वीपम् अद्भुः ताय लोकानामिति शेषः अलंकृतं शोभितम् श्रीमहावीरस्वामिगुरुपरम्परागतरेतैर्जम्बूद्वीपमलंकृतमिति तात्पर्यः ॥ २७ ॥ संभूतपूर्व विजयं दधानः, स भद्रबाहुर्यशसां समुद्रः। श्रीस्थूलभद्रोऽपि गिरिस्तथार्य - नाम्ना ततश्चार्यसुहस्तिसूरिः ॥ २८ ॥ अन्वयः-संभूतपूर्व विजयं दधानः संभूनविजयः यशसा समुद्रः स भद्रबाहुः श्रीस्थूलभद्रः तथा आर्यमहागिरिः तत: नाम्ना आर्यसुहस्तिसूरिः २८ व्याख्या--संभूतपूर्व विजयं दधानः संभूत इति पूर्व पूर्वभाग यस्य एवंभूतं विजयं तं पदं दधानः अथ च संभूतो रागादिविजयो यस्य स संभूतविजयः यशसां कीर्तीनां समुद्रः कीर्तिरत्नाकरः स प्रसिद्धः भद्रबाहुः भद्रौ कल्याणगुणसंपन्नौ बाहू यस्य स तथोक्तः ततस्तदनन्तरम् स्थूलभद्रः स्थूलमुपचितं भद्रं कल्याणं यस्य स तथा आर्यनाम्नागिरिः आर्यमहागिरिः परिपहायुपद्रवैरकंप्यत्वात् महा. गिरिरिवेति महागिरिः स चासौ आयश्चति आर्यमहागिरिः ततस्तदनन्तरम् आर्यमुहस्तिसूरिः कर्मpमोन्मूलने सुहस्तीवेति सुहस्ती आर्यश्वासौ सुहस्ति सूरिश्चेति आर्यसुहस्तिमूरिः तत् परम्परायां क्रमादागता एते नव श्रुतकेवलिनः ॥ २८ ॥ अन्येऽपि मान्या हरिभद्रसूरि शीलाकनामाभयदेवमुख्याः । श्रीहेमचन्द्रा मलयाद् गिरीशा, जीयासुरुद्योगधिया गिरीशाः ॥ २९ ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीविजया मृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग - ९ ४४१ अन्वयः - अन्येऽपि मान्याः हरिभद्रसूरिशीलाङ्कनामा अभयदेवमुख्याः श्रीहेमचन्द्राः मलयात् गिरीशाः उद्योगधिया गिरीशाः जीयासुः ॥ २९ ॥ व्याख्या --- अन्येऽपि पूर्ववर्णितेभ्योऽन्ये भिन्नाः हरिभद्रसूरिः हरिभद्रसूरिनामा १४४४ चतुश्चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशत ग्रंथप्रणेता शीलांकनामा श्रीशीलांकाचार्यः आचारांगसूत्रटीकाकारः अभयदेवमुख्याः अभयदेवसूरिः नवांगटीकाकृत् तथा श्रीहेमचन्द्राः श्रीहेमचन्द्राचार्याः अनेक ग्रंथप्रणेतारोऽपरवाचस्पतिरूपाः उद्योगधिया उघुज्यते इत्युद्योगः तस्य धिया बुद्धया उद्योगबुद्धया गिरीशाः सुमेरुपर्वताः देवानां कार्योद्योगस्तत्रैव भवतीति यथा सुमेरुर्मन्त्रणास्थानम् तथा एते इति भावः अथवा उत् उत्कृष्टो यो योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यद्वा योगः शासनाराधनाध्यवसायः तद्विया तन्मत्या गिरीशाः सुमेरुपर्वतकल्पाः अनेकानेक प्रत्यूहपवनेऽपि निःप्रकम्पा इति भावः मलयात् गिरीशाः मलयगिरीशा इत्यादयः सूरीश्वरा जीयासुः सर्वोत्कर्षेण वर्त्तिषीरन् ॥ २९ ॥ सुवर्णवर्णं गजराजगामिनं, प्रलम्बबाहुं सुविशाललोचनम् । नरामरेन्द्रैः स्तुतपादपङ्कजं, नमामि भक्त्या वृषभं जिनोत्तमम् ॥ ३० ॥ अन्वयः - - सुवर्णवर्णं गजराजगामिनम् प्रलम्बबाहुम् सुविशाललोचनम् नरामरेन्द्रैः स्तुतपादपंकजम् जिनोत्तमम् वृषभम् भक्या नमामि ॥ ३० ॥ व्याख्या - सुवर्णवर्णम् सुवर्णः स्वर्ण इव वर्णो यस्य स सुवर्णवर्णस्तम् प्रकाशमयत्वात् तथा गजराजगामिनम् गजानां गजेषु वा राजा गजराजः इस्तिराजः स इव गंतुं शीलं यस्य स गजराजगामी तमू धीरोदात्वात् निर्भीकगमनः प्रलम्बबाहुम् प्रलम्बौ बाहू यस्य स Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धानमहाकाम्ये प्रलम्बबाहुस्तम् आजानुबाहुम् सुविशाललोचनम् सुविशाले अतिदीर्घ लोचने नेत्रे यस्य तम् पृथुनयनम् नरामरेन्द्रैः स्तुतपादपंकजम् नराश्च अमराश्व इति नरामरास्तेषामिन्द्रास्तैः स्तुतम् स्तुति विषयी. कृतं पादपंकजम् चरणकमलं यस्य तम् जिनोत्तमम् जिनेश्वरम् घृषभम् ऋषभप्रभुम् भक्त्या श्रद्धया प्रेम्णेत्यर्थः नमामि नमस्करोमि ॥३०॥ सौरं महः श्रीतपसा गणेऽस्मिन् , देदीप्यते सौम्यमपीह कीर्त्या । सप्तार्थसंधानजकाव्यमेतत् , तदुद्भवं तेन शुभं चिराय ॥ ३१ ॥ अन्वय:-श्रीतपसां गणेऽस्मिन् सौरम् महः इह कीा सौम्यम् अपि महः देदीप्यते एतत् सप्तानुसंधानजकाम्यम् तदुद्भवम् तेन चिराय शुभम् ३१ व्याख्या-अस्मिन् पुरो दृश्यमाने तपसांगणे तपोगच्छे अथवा तपसां व्रतविशेषाणां गणे समुदाये सौरम्महः सूरस्य सूर्यस्य इदम् सौरम् महस्तेजः तपसः कर्मदाहकत्वात् सौरतेज इव तेजस्तत्रेति अथ च सरेराचार्यपदपदकस्य इदम् सौरम् सूरिसंबन्धिमहस्तेजोऽस्मिन् अथ च की यशसा सौम्यम् सोमस्य चन्द्रस्येदम् सौम्यम् चान्द्रम् सर्वेषामनुकूलत्वात् महस्तेजः इह गणे देदीप्यते अतिशयेन विराजते एतत् सप्तार्थसंधानजकाव्यम् सप्तार्थस्य सप्ताभिधेयस्य यत् संधानमनु. सरणम् तस्माजातमिति सप्तार्थसंधानजं च तत् काव्यञ्चति सप्तार्थसं. धानजकाव्यम् तदुद्भवम् सूर्यवंशीय राजतेजोभवम् चन्द्रवंशीयनृपो. द्भवम् सूरिपरम्परोद्भवञ्चैतत् तेन उभयतः पूतत्वात् चिराय चिरम् शुभम् कल्याणजनकं भूयादिति शेषः ॥ ३१ ॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग - ९ पूर्व श्रीररूपं तदनु कनकवत्पुण्यशीलानुभूतं, पञ्चाद्रामकृष्णाभ्युदयकमलया सिद्धिचारित्रपूतम् । शुद्धं राज्ये कृपायाश्चरितमदुरितं नन्दतात् सत्प्रसादात्, श्रीमन्मेघायमानं मनसि रसभरैर्नित्यमुन्नीयमानम् ॥ ३२ ॥ ४४३ अन्वयः - पूर्व श्रीहीररूपम् तदनु कनकवत् पुण्यशीलानुभूतम् पंचाह द्रामकृष्णाभ्युदयकमलया सिख चारित्र्यपूतम् शुद्धम् कृपया राज्ये अदुरितं चरितं श्रीमत् रसभरैर्मनसि मेघायमानम् उन्नीयमानम् सत्प्रसादात् नन्दात् ॥ ३२ ॥ व्याख्या --- पूर्वम् प्रथमम् श्रीहीरमित्र वज्रमणिरिव रूपं स्वरूपं यस्य तत् तथोक्तम् तदनु तत्पश्चात् कनकवत् स्वर्णवत् सुवर्णतुल्यम् पुण्यशीलानुभूतम् पुण्यम् सुकृतम् शीलमाचारः ताभ्यामनुभूतम् सम्बद्धम् अथवा पुण्यशीलैः पवित्राचारिभिः अनुभूतमधिष्ठितम् चरिनायकत्वेनोपवर्णितम् पंच ते अर्हन्तश्चेति पञ्चान्तः रामश्च कृष्णवेति रामकृष्णौ पञ्चार्हन्तश्च रामकृष्णौ चेति पंचाईद्रामकृष्णाः तेषाम् अभ्युदय एव इष्टसाधनमेव कमला लक्ष्मीः इति पंचाद्रामकृष्णाभ्युदयकमला तथा सिद्धिचारित्र्यपूतम् मोक्षजनक चारित्र्येण प्रत्रज्यया अथवा सिद्धिर्बुद्धिः सुरत्वादिलब्धिः तया पूतम् पवित्रम् निष्कल्मपम् कृपायाः दयाया राज्ये दयासाम्राज्ये अदुरितम् दुरितरहितम् निष्पापम् चरितम् आख्यानम् मनसि चित्ते रसभरैः शांतादिरसानां भरैभरिः अथ च रसानां जलानां भरैर्मारे श्रीमन्मेघायमानम् मेघमिवाचरितम् घनायमानम् नित्यम् सततम् उन्नीयमानम् उद्धक्रियमाणम् अथ च दृश्यमानम् सत्प्रसादात् सताम् सजनानाम् प्रसादात् अनुग्रहात् नन्दतात् आनन्दम् प्राप्नुयात् महत्वमनुभूयादित्यर्थः ॥ ॥ ३२ ॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्रीसेव विजयगणिविरचिते सप्तसम्धानमहाकाब्बे अथ च पूर्वम् श्रीहीररूपम् श्रीहीर विजय स्वरूपम् श्रीहीर विजयस्वरूपेण स्थितम् तदनु तत्पश्चात् कनकवत् कनकविजयस्वरूपवत् ततः पुण्यशीलानुभूतम् पुण्यः पवित्रो यः शीलः शीलविजयः तेन अनुभूतम् अधिष्ठितम् पञ्चसंख्यकाये अर्हन्तः रामकृष्णौ च इति पञ्चार्हद्रामकृष्णाः तेषामभ्युदयकमलया कमलविजयश्थ इति पश्चाईद्रामकृष्णाभ्युदयकमला तया सिद्धविजयः चारित्र्यविजयः ताभ्याम् पूतम् पवित्रम् कृपायाः कृपाविजयस्य अदुरितम् निर्दुष्टम् चरितम् मेघायमानम् मेघविजयेन अपमानम् नीयमानम् एतच्चरितम् सत्प्रसादात् सञ्जनजनानुग्रहात् नन्दतात् आनन्दमाप्नुयात् ॥ ३२ ॥ इति श्रीसप्तसंधाने महाकाव्ये तपागच्छे भट्टारक श्रीविजयरत्नराज्ये महोपाध्यायश्री मेघविजयगणिविरचिते परम्पराधिकारवर्णनो नाम नवम सर्गः ॥ श्रीः ॥ ४४४ ॥ ग्रन्थ प्रशस्तिः ॥ सूत्रतः सूत्रिता ग्रन्थे, द्विचत्वारिंशदन्विता । चतुःशतीह काव्यानां सप्तसंधाननामनि ॥ १ ॥ श्री हेमचन्द्रसूरीशैः, सप्तसंधानमादिदम् । रचितं तदलाभे तु, स्वादिदं तुष्टये सताम् ॥ २ ॥ वियद्रसमुनीन्दूनां (१७६०) प्रमाणात् परिवत्सरे । कृतोऽयमुद्यमः पूर्वाचार्यचर्याप्रतिष्ठितः ॥ ३ ॥ || इति ग्रन्थ प्रशस्तिः ॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतसूरिप्रणीता सरणी टीका, सर्ग-९ टीका प्रशस्तिः। श्रीमन्महेन्द्रमुकुटोपलरंजितांघ्रि पंचाहतस्तवनसंस्तवसंस्कृता या । श्रीरामकृष्णचरिते सरणी नवीना, नेमेः पवित्रचरणे क्रियतेऽर्पणा सा ॥१॥ यसोच्चजनतोपकारकरणप्रख्यातकीर्तित्रजः, शुद्धाचारधनप्रचारचरणादक्षुण्णरक्षाव्रतः । विद्याकांतनितांतशांतसहजस्वांतप्रभाखण्डिता ऽविद्याध्वांततति सदा विजयते श्रीवर्धमानः प्रभुः ॥२॥ अमन्दस्वच्छन्दोच्छलितललितच्छन्दविशद च्छटाच्छायाक्षिप्तक्षणिकजगदच्छुद्रविभवः । क्षमापीठे शांति प्रसरति यदीयाक्षरतरा क्षमाभूमिः क्षित्यां चरमजिनपोऽसौ विजयते ॥ ३ ॥ तदीये सत्पट्टे क्षपितततकांगततमा:, शमारामग्रामकमणधनधामानिगममाः । अजिझस्वाचारक्षमतसुलक्ष्माशिवरमा समालम्बप्रेमाऽभवदिह सुधर्मामुनितमः ॥४॥ ततो जम्बूस्वामी रुचिरतरजाम्बूनदरुचि स्तदीये पट्टाब्धावजनि जनतानन्दनकरः । जगजन्तूद्धारांकुरजनननियाजजलदो ज्वलत्कर्मज्वालाशमनजलधि●त्रविभवः ॥ ५।' Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसन्धान महाकाग्ये तपोगच्छच्छायायदबधिरभूत्साधुनिकरे, यदीयाच्छच्छाया क्षपयति महामोहतपनम् । समागच्छत्पट्टे तदनु भुवि रोचिष्णुरधिक श्चतुश्चत्वारिंशत्तम इह जगच्चन्द्र मुनिराट् ॥ ६ ॥ यस्योपदेशमहिमा ननु वर्ण्यते किं सम्राटमहानकबरोऽपि च संप्रबुद्धः । पट्टेऽष्टसागरमिते प्रबभूव हीर सूरिः समस्तमुनिवृन्दविविक्तहीरः ॥ ७ ॥ सद्बुद्धिबुद्धिविजयस्तदनुक्रमेण, पट्टेऽक्षिवासरमितेऽजनि शांतमूर्तिः । यः सर्वदा भुवि जनावनबद्धलक्ष्यो, लक्षीचकार निरवद्यशिवाख्यलक्ष्मीम् ।। ॥ तत्पमुपंकजविकासनभानुमाली, चंचनिशाकरसमुज्ज्वलकीर्तिशाली । श्रीवृद्धिवृद्धिविजयोऽभवदुग्रशील.. शाली सुशासन विभावकशिष्यमाली ॥ ९ ॥ राजद्राजगुणोजनावनमहत्संधानुसंधानवान् , तीर्थोद्धारढवतो व्रतिजनज्ञानप्रचारोत्सुकः । सम्यग्बोधितराजमण्डलनमत्पादारविन्दोऽभव त्तत्पट्टाम्बुनिधावखण्डशशभृत् श्रीनेमिसूरीश्वरः ॥१०॥ योऽयं सम्प्रतिशासनोन्नतिकरः शिष्टान्विनेयान् भृशं नानादेशविशेषकेषु सुकृतोद्धाराय संप्रेषयन् । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचार्यश्रीविजयामृतरिप्रणीता सरणी टीका. सर्ग-९ ४४. नित्यं सजनतोपकारकरणे लग्नो निमनः शिवे सद्धर्मोपचयाश्चितो विजयते ह्यको धरामण्डले ॥११॥ तस्य प्रभोश्चरणपंकजचंचरीको विद्यावदात्तविजयामृतसूरिनामा । स्वीयान्यदीय निगमागमपारहवा विश्वासभूमिरधिभूमिसमस्तजन्तोः ॥ १२ ॥ सोऽयं शास्त्रविशारदो बहुगुणग्रामैकधामा कवि रनः प्रोच्छलदच्छशारदशशिज्योत्स्नाभकीर्तिवजः । विद्वन्मण्डलमण्डनोऽमलमना भट्टारकाचार्यकः, शुद्धाचारविचारचर्चितसदाचारांचितो राजते ॥ १३ ॥ कार्पव्यवाणिज्यपुरे पुरन्दराऽमरावतीही पदमाददाने । श्रीमद्गुरोः शासनसन्नतांगो वासं चतुर्मासमचीकरत्सः ॥ १४ ॥ श्री न्यालचन्द्रादिकसंघसत्कृत स्तेषामतीवादरणीयभावतः । श्री सप्तसंधानककाव्यटीका कृते मुहुः प्रार्थनयानुरंजितः ॥ १५ ॥ अनल्पयत्नैकमना अनाविलामरीरचत्तत्सरणीं सुविवृतिम् । न धीधनाः कापि परार्थभावनापृथङ्मना जायत एव जातुचित्॥१६॥ कतिरियं कृतिनां नयनक्रमावतरणात्परिपूतकता यदि । सफलता प्रलभेत तदा भृशं सुजनतुष्टिरहोऽतिगरीयसी ॥ १७ ॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ महोपाध्यायश्रीमेघविजयगणिविरचिते सप्तसम्भानमहाकाव्ये गुणनिधिनिधिचन्द्रे १९९३ सम्मिते हायने स अभसि विमलपक्षे व्यालतिथ्यां बुधेऽसि । इयमलभत पूर्ति नेमिसजन्मतिथ्यां, ___ भवतु च सरणीयं तेन तेषां मुदेद्राक् ॥ १८ ॥ तदियं सरणी लभतां गुरुजनपादप्रसन्नतां शस्वत् । आकल्पांतं भूमौ भूयान्निःपङ्किला भूयः ॥१९॥ तदीय विनीतविनेयविनेयो धुरन्धरविजयः WLITLARINI शुभमस्तु MUNINNW OL Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ kare on , ::: :: ...... -: शुद्धि-पत्रम् :पृष्टम् पंक्ति: भशुद्धम् शुद्धम् : पृष्टम् पंक्तिः भशुक्म शुद्ध १ २ शशाङ्काक शशाङ्क : २६ १० उपरीत्यधः उपरीत्यर्थः २ १७ स्वामीनां स्वामिना २९ २३ बोपन्यः बोदव्यः २ १५ समयोदेवा रामयोरेवा ३२ ३ करवस्यर्थः । कृपवेस्यर्थः ७ ४ प्यवस्थापिका व्यवस्थापक ३४ ६ मृबरेशः भृनरेशः ८ १८ सरात् सरोवरात ३६ १७ चतुष्टि । चतुःषष्टि ८ १० यानमः यानम् ३७ ३ तेस्तथोतः नेस्तथोक्तः ८ १३ महदन्तरस्वात् महान्तस्वात् | १७ तेऽपरागात तेऽपरागास्तैः ८ १४ रस्त्यासो मास्यासौ ३७ ११ जना जनाः ४१८ संशोचः मशौचः । ३८ 1 मुनिपुणानां सुनिपुणानां १९ शुचेक शुगेव । ३८ ४ वयोरस्थेति चयोस्तथेति १० श्रुत्यविहिनस्य शुस्माविहीनस्थ ४० १ वहधान्य बहुधान्य ११ ११ वाहन वहन ४० . सभीप समीप ११ २३ भगवेध भनवेधः ४० १० कूपम्वितः कृपान्वितः १२ १ समम्भाध्यते सम्भाव्यते ४. १. संस्कृताथैलाव संस्कृतार्थेव १२ १३ रदयमाह द्रवयमाह ४० १९ विशालिना विशालता १२ १४ काण्टकिन कण्टकिनः ४. १ प्राणीनां प्राणिनां १२ १७ दशन्त दृष्टान्त ४११६ श्रावश्कमेव । आवश्यकमेव 1२ २० नृणाम् नणाम् ४२ २ पिताम्बराः पीताम्बराः १४ ४ पक्षेपात् प्रक्षेपात् १७ सुप्रमाता: सुप्रभाता १४ । वाशिकरणे शशीकरणे ४५ ८ तीर्यक तीर्थकृद् १४ २३ मंदिन्यो मेदिन्यो ४५ 1५ वृद्धया वृष्या - १५ १५ तीक्षणाम नीक्षणान ४६ १ विश्वसाझीरुः विचसाभीरः ૧૫ ૨૩ शम्वादि शवादि ४८ २३ नेनेः 'नेः निरंतर निरन्तर ४८ २ दिग्यरित्यर्थः दिव्य रित्यर्थः १६ २. वाल्याः वाण्या: ४८ १ दुरितोपहारा: दुरितापहारा: १६ २३ सम्वन्धात सम्बन्धात् ५०८ बीशिष्ठ विशिष्ट १७ २१ रोषणात् रोपणात् ५२ मोदिनी मेदिनी १८ १ वचयोः बवयोः ५४ १५ मास्ताम् मासेताम् २॥ १६ सेकामृपर से कामतपूर ५७ ८ सक्रिया सस्क्रिया २३ २. पततीतीत्यर्थः पततीत्यर्थः २९८ प्रपत्रमा प्रपतगड़ा ४६.४४४४४४१४३४४४ :: :: Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशांशा शुकारादि नामा पृष्टम् पंकिः अशुद्धम शुद्धम् ] पृष्टम् पंक्तिः भशुद्ध ५७ १२ सक्रिया सस्क्रिया ६५. त्रिशांशा " 13 , ६६ ५ शारादि ५७ १७ नाम्ना १५ प्रफुल्ल ५८ १४ कश्यपश्यप कश्यप ४६ १५ गुजित ९०१ महीपतिनां महीपतीना ४८ कतृक १० १३ तुल्ययोगीता तुल्ययोगिता ६७ १२ वादिरपि ९३९ सार्वत्रिक सार्वत्रिक १७ २३ सुधांशो ६३८ वृतिरिति वृत्तिरिति ९८-८-१९ सपोरे ६४ १९ चित्ता: चित्ता ६५ ६-१०-२० सपोषे १ सोभाग्यं सौभाग्य र १२ मिते ९८ ११ भाग्यशालिना भाग्यशालिता | १०२ मूत्तिः । ५ १६ पलकृतिः लकतिः १०२ २० हरिद्ववणे ७० ४ मिहिनामत: मिहनामतः १०४ १२ स्योस्यने २३ पत्राद्वेशस्य पश्चादेशस्य १०४ १. अम्बुजांक्षीषु ७२ २२ वपुथीरयत वपुरियते | १०५ ८ सस्कार ७३ ४ गृहीतावतारी गृहीतावतारा १०८ 3 जगत्रयस्य ७३ १९ त्रिलोक्य ग्रिलोक्यों 106 1६ प्रफूल्लाः ७६ ३ शिलन्च शील ११२ 3 भवनीं ८. २२ शुचो शुचौ ११५ २२ रक्तांशक्रेण ८२ १० धागे प्राग् १२२. १३ वंशे २३ इप्रति इति १२४ १६ ज्ञातकुलु ८४ २ ततीर्थ . तत्तत्ती, १२७ १ गरुत ८७ १० सूभवनं सूक्ष्मवर २८ २० महरप्रति ८७ २३ ददो ददी १३० १९ मुन्मुलितो १७ २३ विचिन्य विचिन्त्य १३२ १५ पुर्णवचना ८ ५ न्यायं न्याययं 1 १३६८ कि ९० १९ विरीधम् विरोधम् १३७ १६ ते ८१ 3. वृत्तित्वां वृत्तिताम् १३८ । प्रयोजितुं ८१ ५ मधिकरं अधिकार १३४ देवं ६२ १३ सप्सरादीन् अप्सरमादीन् | 136 भागधेयं ९२ १५ वर्षकाग्दो वषुकाग्दो १४. १-२ दर्मः १२ १६ संहतो संहतो १४० 3 वर्तव्यः गक्षित कर्तृक वाद्यपि सुधांशो सपौषे सपौषे सिते मूतिः हरिवणे ग्योरित्यने अम्बुजाक्षीषु संस्कार जगञ्जयस्य प्रफुल्लाः अवनी क्तशुकेन वंशेन झातिकुलं गरूद महाप्रति मुन्मलितो पूर्णवदना प्रयोक्तुं देवं भागधेयं दर्भः कर्तव्य: Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टम् पंक्ति: भशुद्ध म् ૧૪૦ ५ शैशवादति ૧૪. १४१ ૧૪૧ २३ ૧૪૩ ; १४३ १७ ૧૪૪ ૧૬ ૧૪૯ ૧૫૦ ૧૫૦ पचम्या महिम्मा शयितं प्रभु चरिणं प्रभुः चारिणं अधिशेपयित्वा रोपयिश्वा करणम् भोकः सु महाधैर्यवान् सौहार्दम् कारणम् सौकः सु महद्धैर्यवान् सौहाद्वयं २ 13 ૫૧ १२ ૧૫૨ ४ ૧૫૩ મ ૧૫૪ 1 ૧૫૫ १२ कर्तुक ૧૫૬ १६ बुध्यन्ति ૧૫૭ १३ जुम्म ૧૬૨ १८ सुरमा १९९ १५-१८ चङ्कमण १६७ ૧૮ ससंप्रम ૧ ૬ ૯ ૨૩ १७२ ४ ૧૭૪ ૧૩ ૧૭૯ ९ षक्ष्मीः ૧૯૯ १५ वतारि १४ वर्तणे ૧૭૯ १८० ૧૮ कामि १८० २५ वेष्ठिते ર १० घटन tex २२ चक्रीवर्ति १८५ २२ जनोछ १५३ २३ यथा वन्तः स्तदा निवंश मेव छेदच्छेदनं तेन स्फेटिसं शुद्धम् शैशवमति द्वितीयया महिम्ना शखिनं यायिमिः वन्तस्तदा निवेश एव छेदश्छेदनं कर्तृक बुध्यन्ते जृम्भ्य सुश्मा पण संभ्रम स्तेन स्फेटिनम् व्यापिभिः षड़भिः चतारे वतीर्णे क्रमि चेष्टिते घटना चक्रवत्ति जनोध तथा पृष्टम् पंक्तिः अशुद्धम् ૧૯૬ २ अशा देव ૧૯૭ ७ आकलव्य ૧૯૭ ૧૬ ऋणभेणा ૧૯૯ ४ अमुर्नर्भावि ૧૯૯ ૫ कल्पाणा ૧૯૯ २३ तेन कौशल्या २०० १२ ૨૧ ५ २०१ ૧૧ ૨૦૩ to २०८ ૧૬ २११ २१ ૨૧૩ ૧૦ ૨૧૫ ૧૦ ૨૧૭ ૧૦ २१८ २१ २२० १७ कृष्णेम कृष्णेन विश्वसेन विश्वसेन नाथयिता नाथपिता वीवाह विवाह सिंहांकितत्वेन सिंहाङ्कितत्वेन उदिर्ची उदीचीं पराक्रमः संगतैः पराक्रम संगमैः चेती चेति प्रोटा थरनात् शुद्धम् असादयदेव अनागमाश्रम- नानागमाधम वन्द्वधीन बद्धधीः जुगृहुः २२० २१ पुनर्पुन: ૨૧ ૧ धिष्टितां ૨૨૨ ૧ ૨૨૩ २० स्थस्थः ૨૨૩ २० अकुतखन २२४ ૧૩ ૨૨૪ २२ ૨૨૭ ૧૩ प्रीयाम् आकल्य्य ऋषभेण अपुनर्भावि कल्याणा रसेनकौशल्या २२८ १४ प्रायच्छन् ૨૨૯ ૧૬ कामिन्त २३२ २१ हियते २३३ १३ पेक्षेणीयः २३७. १८ कर्मधारय ૨૩૯ ७ विजृम्मित् प्रौढाद्यत्नात् जगृहु: पुनःपुनः धिष्ठितां मङ्गल स्वस्थ अकुतश्वन श्रयणेन श्रयनेन महिमासम्पश्च: महिमलम्पनः प्रियाम् प्रायच्छत् कामितं हियते पेक्षणीयः कर्मधारय विजृम्भत् Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतत स्थितिः किरिव प्रोचः भावना पृटम् पंक्तिः अशुबम | पृष्टम् पंक्ति अशुद्धम् २४० सैन्ये रिति सैन्यैरिति २८१ १ सत्रत २४२ ११ छन्ता छमता २८१ १७ स्थितिमा २४२ ११ मप्रयोजि प्रायोजि २८२ १८ किहिमष २४४ । कतिचित्रत कतिचिव्रत | २८५ ८ प्रौञ्चैः २४५ ४ शेयः शेषः २६९ २२ दुर्धषः २४४८ माभूजे बुभुजे २८५ २० लुलोपमा २४९ १२ चलचितः चलचित्तः २८६६ मौके २५०. १९ नोपडकक्षित: नोपलक्षितः २५१ २० भावता 30१ १८ महोश्रादौ २५२१ सहाय्याय साहास्याय ३०१ २८ महरि २५२ ८ समागते समागते ३०२ १० द्वादशम २५२ १७ कस्याः कस्योः ३०३६ युद्धति २५५ प्रर्वमाने प्रवर्तमाने 304 महकार २५९१४ शत्रुयन शत्रुयन 3.५ २१ प्रभवेत २५७ १२ प्रेमात प्रेम्णः 3०६१ विपर्य २.५८१ चरणन् चरन् ३११ ११ विभायन् २९१ १० पातेष्टन् ३१७ ४ प्रकाशितु २६२६ दिव्यनुपा दिग्यपा ३२३ १३ जयितुं २१२ १६ तदनुकोल्यात तदानुकूल्यात् । ३२४ १४ " २१२ २० मत्युत्मरकट भयुस्कट 3२५ २ " २९४ ४ घुनरावृत्ति । पुनरावृति ३२४ 3 जनितः २६४ दामेंषु । दामेषु ३२४ १७ मनावकाशे २६८ ४ योन्दिय यीन्द्रिय 330 ४ ममरहिता २७० ११ महासा महसा ३३२ २१ आश्चर्य: २७३ २ विधियमान विधीयमान ३५ १३ तस्या। २७४ ७ रखष्टम् भारम् ३३५ २१ प्रासन् २७४ १७ गजेण गणेन ३३७ १४ जमती २७४ २१ कुधेन ३३८८ मजिता २७८ १७ हरिश्च 330 भवन्ति २७८ २० दिगच्छाव- दिगा काद ३२८ ११ संमति २७४ 3 सर्वात्मनो सस्मिना ३४० ३ अप्राप्नुवर २८. साधने साधनैः | १४० ११ निरस्यत् दुर्द्धर्षः लुप्तोपमा मौरीके श्री: महाँबासी महावैरि द्वादशं युध्यति महंकार प्रभवेत विपर्यय विभावयम् प्रकाशित पातेष्ट्रन् जेतु ... जनिता मन्त्रावकाशो ममस्वरहिता तस्याः प्रासम्म गजवती सजितो भवति संमितिः प्राप्नोत् निरास्यत् Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टम् पंकिः अशुदम् गुदम् । | पृष्टम् पंक्तिः भगुदम् सुबम ३४० २० स्थिर्भवेत स्थितिर्भवेत ३९६ ७ मना ममा ३४१ ७ हिंषक हिंसक ४०० २३ प्रमया प्रभया ३४२ ४ अमृता अमृत ४०१ १ पूर्वम् पूर्वम् ३४३ च्छेदन छेदन ४०१ २ मिनामयिस्वा नामयित्वा ३४४ १९ त्यनया स्थनेन ४०१ १८ विधाय्य विभाग्य ३५० ४ मरपोपे सरपौधे ४०४ १४ अषम ऋषभ ३५३ ४ चामृत चक्रभृत् ४०६ १० महत्परा महापस ३५५ ३ तनतननयः तपनतनयः ४०७ १ महास्त। महोत्सवैः ३५७ ४ प्रसस्त प्रहस्त ४०८ २० नमे मेनवै ६९ ४ विवकास विचकास ४१. १ कृतायो कृतोयो ३७० ४ शयते । | ४१३ २३ हृदय हदयस्य ३७० १५ शयते । ४२५ १ मधिकेति मधिक इति ३८७ १६ पधन प बता शेते શ્રી ગૌતમસ્વામિને નમઃ -: श्री जैन साहित्य व सभा :સ્થાપના-સંવત ૧૯૯૫ના ભાદરવા સુદિ ૨, (બીજને) ને શુક્રવારે આચાર્ય મહારાજ શ્રીમદ્દ વિજયામૃતસૂરીશ્વરજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી આ સભા શેઠ નેમુભાઈની વાડીના ઉપાશ્રયમાં સ્થાપવામાં આવી છે. ઉદ્દેશ–પૂર્વાચાર્ય કૃત તેમજ નવીન ન્યાય વ્યાકરણ સાહિત્ય વિગેરે વિષયક પ્રત્યે તેમજ તેના પર વ્યાખ્યાઓનું પ્રકાશન કરવું તેમજ જ્ઞાન વૃદ્ધિના સાધનોમાં યથાશકિત ઉદ્યમવંત રહેવું. शन विमाना नियमा. ૧. પેટા વિભાગ તરીકે જુદા જુદા નામની ગ્રન્થમાલાએ છાપી શકાશે. ૨. અન્યમાલા માટે તે નિમિત્તે એકત્ર કરવામાં આવેલ ફંડ અર્ચવામાં આવશે. ૩. ગ્રન્થમાલાના પ્રેરકની આજ્ઞા અનુસાર કાર્ય કરવામાં આવશે. ૪. ગ્રંથના સંશોધક મુનિ મહારાજને પચાસ કેપીઓ ભેટ આપવામાં આવશે. ૫. તે ગ્રન્થની વિશેષ નકલ ૫૦ તેમની ઇચ્છા મુજબ અથવા સભા સ્વતંત્ર અન્ય ખપી જેને ભેટ આપી શકશે. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સભાના નિયમે. ૧. સવાની રણમમાં જતોમાંના અર ગૃહસ્થાને નામે રહેશે. ૨. તારી એ થી નાણાં ઉપાડી શકાશે. ૩. કાર્યકમળ એક અરર અને બે મેક્રેટરીએ રાખવામાં આવશે. ૪. ફંડનો હિસાબ સેક્રેટરી તરફથી કમીટીમાં પાસ કરાવવામાં આવશે. ૫. વ્યવસ્થાપક કમીટીની નિમણુંક ત્રણ વર્ષ માટે કરવામાં આવી છે. અને પછીથી ફરીથી નિમણુંક કરવામાં આવશે. ૬. સંસ્થાની ઓફીસ સુરતમાં રહેશે. 1. ટ્રેઝરર તરીકે શેઠ નવલચંદ ખીમચંદ કામ કરશે. અને તેઓ તરફથી નાણાની પહોંચ આપવામાં આવશે અને સેક્રેટરી નાણું વસુલ કરશે અને પહોંચ આપશે. સેક્રેટરી તરીકે કેશરીચંદ હીરાચંદ, નેમચંદ મોતીચંદની નિમણુંક કરવામાં આવી છે. ૯. ત્રણ વર્ષ માટે કમીટીમાં નીચેના સહસ્થની નિમણુંક થઇ છે. ૧ શેઠ નવલચંદ ખીમચંદ ટ્રેઝરર-ગોપીપુરા ૨ શેઠ બાલુભાઈ ખીમચંદ કલ્યાણચંદ-ગોપીપુરા ૩ શેઠ હીરાચંદ ચુનીલાલ દાલીઆ-ગોપીપુરા - ૪ શેઠ છગનલાલ ધનજીભાઈ સગરામપુરા ૫ શેઠ ચુનીલાલ કલાચંદ નવાપુરા ૬ શેઠ ચંદુભાઈ નગીનચંદ કપુરચંદ હરીપુરા ૭ શેઠ હરજીવનદાસ ગોમાજી નવાપુરા ૮ શેઠ બાલુભાઇ ઉત્તમચંદ વડાચૌટા ૮ શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ છાપરીયા શેરી ૧૦ શેઠ કેશરીચંદ હીરાચંદ સેક્રેટરી ગોપીપુરા ૧૧ શેઠ નેમચંદ મેતીચંદ = ' એ પ્રમાણે અગીયાર ગૃહસ્થોની કાર્યવાહક કમીટી રહેશે. આ સભાની શુભ શરૂઆત તરીકે આચાર્ય મહારાજ શ્રા વિજયામૃતસૂરીશ્વરજી મહારાજ તરફથી અમૂલ્ય પ્રકાશન કરવાને સંસ્થાને સોંપવામાં આવ્યા છે. તે વૃદ્ધિ નેમિ અમૃત ગ્રન્થમાલા' તરીકે પ્રગટ કરવામાં આવશે, Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ શ્રી વૃદ્ધિ નેમિ અમૃત ગ્રન્થમાલા ’ કાર્ય :-આચાર્ય મહારાજ શ્રીમદ્ વિજયાતસૂરીશ્વરજી મહારાજ તેમજ તેમના શિષ્યાએ વિરચિત ન્યાય સાહિત્ય વિગેરે વિષયના અન્યા છપાવી પ્રગટ કરવા. સ્થા:-આ ગ્રન્થમાલાના ક્રૂડ માટે નીચે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરવામાં આવી છે, ૧૦૧ અર્પનાર ગૃહસ્થ આ ગ્રન્સમાંભાના ‘સરક્ષક' ગારો. 13 "" ,' ૫૧ "" સહાયક ૨૫ તેમને આ ગ્રન્થમાલા તરફથી અહાહ ચાર (૪) એ (૨) અને એક,(૧) નકલ ભેટ ܕ י, 21 * ܙ રૂા. ૧૧) ઓછામાં ઓછી રકમ સ્વીકારવામાં આવશે. * 37 અમેને પ્રકટ કરવા સાંપેલ ગ્રન્થામાંથી અમેએ ૧ પ્રથમ ગ્રન્થ-શ્રી પરમાત્મ સગીત રસસ્રોતસ્વિની પ્રકટ કરેલ છે, ૨ દ્વિતીય ગ્રન્થ-આ સસસન્માન મહાકાવ્યને ‘સરણી ' ટીકા સાથે પ્રકટ કરીએ છીએ. સભ્ય પડતા ગ્રન્થાની અનુક્રમે આપવામાં આવશે. તરીકે આ ગ્રન્થમાલમાં ૩ તૃતીય ગ્રન્થ સાહિત્ય શિક્ષા મજરી { બ્લેક તેમજ કાવ્ય રચવાની તેમજ તેનું રહસ્ય જાણવાની પદ્ધતિને ગ્રન્થ ) ટુંક સમયમાં પ્રકટ થશે શ્વાન મહાકાવ્ય-માટે ) ૧૧ ગ્રાહ શીવ દ વચદ આ શિવાય ક્રમે ક્રમે ‘તિથિચિન્તામણિ’ ‘પ્રભા' ટીકા યુક્ત, ખડનખાદ્ય ' લઘુ ટીકા સાથે વગેરે ગ્રન્થા પ્રકટ કરવા ભાવના રાખીએ છીએ. સરક્ષક' ના નામેા. 2 der ૧૦૧ --- હરજી જૈન જ્ઞાનવાલાના ૨૦૩ શાહૂ મીઠાભાઈ કલ્યાણુંદના જ્ઞાન ખાતામાંથી ( સપ્તસ પેઢી કપડવંજ ૧૦૧ શા કલ્યાણચંદ વજેચંદ ૧૦૧ શાક વોચ'દ ખુમાજી Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સહાયક’ ના ના. 75 વડા સૌદાના શ્રી સંધ તરફથી 51 શાહ ઘેલાભાઈ રતનચંદ ઝવેરી 51 શાહ છગનલાલ ધનજીભાઈ પ૧ શાહ ચંદુલાલ છગનલાલ પ૧ નગીનચંદ કપુરચંદ 51 શાહ માણેકચંદ ઝવેરચંદ 55 ચુનીલાલ ગુલાબચંદ દાળીયા 51 શાહ સાકરચંદ ખુશાલચંદ 51 શાહ કીકાભાઇ સકળચંદ સરેયા 51 મુલચંદ બુલાખીદાસ ખંભાત 50 શાહ નગીનચંદકપુરચંદ જરીવાળા પ૧ હરખચંદ તાપીદાસ લાકડાવાલા 51 શાહ વીરચંદ હરજીવનદાસની કુ. 51 શાહ દલીચંદ વીરચંદ શ્રોફ 51 શાહ મગનલાલ દેવચંદ જરીવાલા 51 શાહ કલ્યાણચંદુ દેવચંદ સક્ય” ના નામે. 25 શાહ નવલચંદ ખીમચંદ ઝવેરી 25 શાહ વીનોદચંદ મેહનલાલ 25 શાહ ભાઈચંદ લાલભાઈ 25 શાહ કલ્યાણચંદ દેવચંદ હા. 25 શાહ મંગુભાઈ બાલુભાઈ તેમના પુત્રી બેન નેમકાર 25 શાહ દીપચંદ ધરમચંદ હા. 25 શાહ નાનુભાઈ દેવચંદ તેમના પુત્રી કીકીબેન 25 શાહ અમીચંદ નવલચંદ 25 મંગળભાઈ મુલચંદ અદાલતવાળા 35 શાલ દલસુખભાઈ જેઠાભાઈ 25 વાહ ચીમનલાલ નગીનદાસ ર૫ શાહ ફુલચંદ તલકચંદ 25 શાહ નવલચંદ ઘેલાભાઈ 25 શાહ તેમચંદ હીરાચંદ 25 શાહ ઘેલાભાઈ દીપચ દ . 25 શાહ ઘેલાભાઈ અમીચંદ 25 શાહ છગનભાઈ કીકાભાઈ 25 શાહ રંગીલદાસ લાલભાઈ 25 શાહ ચુનીલાલ વમળચંદ 25 શાહ ઘેલાભાઈ રાયચંદ 25 લલ્લુભાઇ ગુલાબચંદ 25 શાહ ખીમચંદ લલ્લુભાઈ 25 શાહ કાલીદાસ રતનચંદ 25 શાહ મવાયચંદ મે તીચંદ 25 શાહ પ્રસન્નમુખ સુરચંદ બદામી 25 શાહ માણેકલાલ ડાહ્યાભાઈ 25 શાહ કેશરીચંદ ચુનીલાલ બદામી 25 શાહ કેશવલાલ કરસનદાસ 25 શાહ અમીચંદ ગોવીંદજી 25 શાહ વજુસેન નગીનદાસ 25 શાહ વીરચંદ ખુમચંદ, 25 શાહ કલ્યાણચંદ દેવચંદ હા. ફકીરચંદ કપુરચંદ તેમના પુત્રી બેન મગન 25 શાહ બાલાભાઈ મગનલાલ 25 મેહનલાલ મગનલાલ બદામી