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आचार्यश्री भ्रातृ चंद्रसूरिग्रन्थमाळा. ५० थी ५३.
समाचारी समाश्रित
श्रीसप्तपदीशास्त्र
संपादक:आचार्यदेवश्रीसागरचंद्रवरीश्वरजी.
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तुका गाचार्यदेवश्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरजी ग्रन्थमाळा.
पुस्तक ५०, ५१, ५२, ५३.
युगप्रधान श्री पार्श्वचन्द्रसूरीश्वरजी प्रणीत
सामाचारी समाश्रितश्रीसप्तपदीशास्त्र.
मूल-अर्थ आदिग्रन्थ ४
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संपादक तथा अनुवादकआचार्यदेवश्रीसागरचन्द्रसूरीश्वरजी साहेब.
प्रकाशक-मांडल संघ तरफथीव्होरा-मोहनलाल जीवराज-मांडल. अमदावाद-धी डायमंड ज्युबिली प्रिन्टींग प्रेसमां
परीख शुरेशचंद्र पोपटलाले छाप्यं. वि. सं. १९९६
सने १९४० आवृत्ति १ ली
प्रतः १०१ किंमत १ रुपीओ टपालखर्च ६ आना अलग.
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प्रभु प्रार्थनाॐकारध्येयरूपा प्रथर्माजनपतिः शान्तिकर श्रीमान श्रीनेमिनाथो यदकुलतिलकः पापहत्तों जनानाम् ॥ मायावीजात्मरूपः सकलसुखकरः पार्श्वदेवाधिदेवो। देयाच्छीवर्द्धमानो ग्रहगणधरयुग वर्द्धमान पदं मे ॥१॥
श्रुतवी स्मरण जिनपतिप्रथिताखिलवाङ्मयी, गणधराननमण्डपनतको । गुरुमुखाम्बुजखेलनहंसिका, विजयते जगति श्रुतदेवता ॥१॥
શ્રી સરસ્વતી સ્તુતિ (અનુષ્ટપલેક-અષ્ટપદી) " श्वेतपद्मासना देवी, श्वेतपद्मोपशोभिता।
श्वेताम्बरधरा देवी, श्वेतगन्धानुलेपना ।। अचिंता मुनिभिः सर्वै,-ऋषिभिः स्तूयते सदा । एवं ध्यात्वा सदा देवी, वाञ्छितं लभते नरः" ॥१॥
॥ श्रीपरमगुरुदेव-स्तुतिः ॥ ( स्रग्धरा-वृत्तम् ) श्रीमत्पार्धन्दुसूरिः सकलमुनिजनरर्यपादारविन्दो, भक्तेभ्यस्सत्प्रबोधं सपदि भवगदच्छेदशक्तिं ददानः । सोऽयं गच्छाधिनाथो जयति जिनमते भव्यसौभाग्यकीर्ति,स्तं भक्त्या भो पुमांसो! नमत नतिगुणश्रेणिपं तत्त्वधीशम् ॥१॥
अर्थः-समस्त मुनिजनोथी सेववायोग्य चरणकमळवाळा, भक्तोने उत्तम उपदेश आपनारा, तत्काळ संसाररुप रोगने छेदवानी शक्ति उत्पन्नकरनारा, विशाळ सौभाग्य तथा कीर्तिने धरावनारा, ते आ नागपुरीयतपागच्छना अधिपति श्रीमान पार्थचन्द्रसूरि जनशासनमां जय पामे छे. हे पुरुषो! नमस्कार करवायोग्य गुणोनी पंक्तिने धारणकरनारा अने तस्व. ज्ञानमां बृहस्पति जेवा तेओश्रीने भक्तिथी नमस्कार करो.१
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जगत्श्रेष्टिगुरु श्रीहर्षचंद्रसूरीश्वरचरणानुचरपंडितप्रवर महर्षि श्रीमुक्तिचंद्रगणिसुशिष्य
श्रीमनागपुरीयवृहत्तपागजाधिराजश्रीवासचन्द्रमपिसहरुम्योनमः युगप्रवर भट्टारकोत्तम भ० पूज्यपाद जैनाचार्यवर्यश्रीभातृचंद्रसूरीश्वरजी महाराज.
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सादर-समर्पण. तत्वज्ञं श्रीभ्रातृचंद्र, दीव्यं स्याद्वादवादिनम् । पदस्थं नयनिष्णातं, वंदे श्रीमुक्तिनंदनम् ॥१॥
परमपूज्य प्रातःस्मरणीय जगतशेठगुरु श्रीवडतपगच्छना. यक श्रीपार्श्वचंद्रसूरीश्वर संतानीय श्रीजैनश्वेताम्बराचार्यवर्य श्रीहर्षचंद्रसूरीश्वरजी महाराजसाहेबना शिष्य पंडित प्रवर महर्षिश्रीमुक्तिचंद्रगणीना धर्मपुत्र सुशिष्य प्रातःस्मरणीय परमोपकारी संवेगरंगरंगितात्मा वि० सं० १९३७मां क्रियोद्वारकारक परमकृपालु शान्तरसपयोनिधि चारित्रपात्रचूडामणि स्वनामधन्य श्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छाधिराज आचार्यदेव श्री १००८ श्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरजीमहाराजसाहेब ! आपश्रीजी! गच्छना नायक लायक हता,युगप्रवरजैनाचार्य हता अने कोमलविद्यावंत संतमहंतहता. आपश्रीजीए ! पवित्र श्री जिनागमनीवाणीथी विद्वत्ताभरी शान्तिमय उपदेशकरवानी पद्धतिथी अने मुनिजनने शोभेतेवा अमेक धार्मिक शुभकार्यो करवाथी घणाभव्यात्माओने मोक्षमार्गसन्मुख बनाव्याछे. आपश्री पूज्यजी: उत्तम जोवनजीवी अन्यधन्यात्माओने उत्तमजीवन जीववानी छापपाडी स्वर्गवासीथया. पवा अनेक उत्तमगुणोने धारणकरनारा आपश्रीजीतरफ आकर्षायीने अनेवली आपश्रीजी ! परमगुरुदेवश्रीपार्श्वचंद्रसूरीश्वरजीमहाराज साहेबना वचनामृतोपर परमश्रद्धाने धारण करनाराहता, तेथी तेमना रचेला “ सप्तपदी" तथा " विचारपट्ट" नामक आग्रन्थो आपश्रीजी साहेबने सादर समर्पणकरी हुं म्हारा आत्माने कृतार्थ मानुं छु.
ली. आपश्रीजीनो पशिष्यमुनिद्धिचंद्र.
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निवेदन.
" प्रबलेऽपि कलिकाले स्मृतमपि यन्नाम हरति दुरितानि । कामितफलानि कुरुते, स जयति जीरावलिपार्श्वः " ॥ १ ॥
आ ' समाचारी समाश्रित- सप्तपदीशास्त्र आदिग्रन्थः परमपूज्य परम गुरुदेव श्रीनागपुरीय बृहत्तपागच्छाधिराज युगप्रधान श्रीपार्श्व चंद्रसूरीश्वरजी महाराजे रचेल छे. ते ग्रन्थनी हस्तलिखित प्रतियो - नकलो बहुओछी जोवामां आववाना कारणे आ ग्रन्थने छपावी प्रसिद्ध करवामां आवे तो घणाने वचवानो अनुकुलता थाय, तेथी परमोपकारी प्रातःस्मरणीय आचार्यदेवश्री भ्रातृचंद्रसूरीश्वरजी महाराजना सुशिष्य पू० आचार्यवर्य श्री सागर चंद्रसूरीश्वरजीमहाराजे पोतानी देखरेखनीचे पोतानाशिष्य मुनिराज श्रीवृद्धिचंद्रजीमहाराजपा से प्रेसकोपी तैयारकरावी अने ते ओश्रीनाज उपदेशधी मांडल गाम निवासी श्रीपार्श्वचंद्रसूरि सद्गुरुचरणकमलोपासक श्रीसंघे आपेल द्रव्यसहायताथी आग्रन्थ प्रसिद्ध करवामां आवेलछे. आ ग्रन्थना प्रुफ सुधारवा विगेरेनी कालजी पण उपरोक्त आचार्यश्री तथा मुनिराजे संपूर्ण राखेल छे छतां पण मुद्रायंत्रना दोषथी बीबाओ उडी जवाथी के टूटी जवाथी, दृष्टिदोषथी अथवा भ्रांतिथी जे कां अशुद्धि रहीगएल होय तेने सुधारी लेवा समजु गुणग्राही विद्वान वर्गने विनति छे. आ ग्रन्थना संपादक गुरु-शिष्यने भूविंदनकरी अने सहाकोनो उपकारमानी हूं विरमुं कुं. ली० प्रकाशक.
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धन्यवाद. परमपूज्य आचार्य महाराज श्रीसागरचंद्रसूरीश्वरजी महाराजने मांडलगामना श्रीसंघनी चातुर्मास माटे अत्यन्त आग्रह भरी विनती थवाथो वि. सं. १९९३ ना आषाढ मुदिमां अत्र पधार्या, अने अहिंना श्रावकोने चोमासामां श्रीभगवतोजी सूत्र पंचमांग वंचाय तो बहु सारं आवो उत्साह थवाथी शा. चुनिलाल मलुकचंद तथा व्होरा मोहनलाल जीवराज तरफथी अने चोमासा बाद पनर दिवस सुधी शा. मलुकचंद खेमचंद तरफथी वंचावामां आवेल अने वि.सं. १९९४ नी सालना चोमासामा गांधी मोहनलाल नथुभाइ तरफथी चंचावामां आवेल, ते निमित्ते जे कांइ ज्ञानद्रव्यनी आवक थइ ते परमगुरुदेव युगप्रधान श्रीपार्थचंद्रसूरीश्वरजी महाराज विरचित ग्रन्थ छपावामां वापरवी. एप्रमाणे श्रीपार्श्वचंद्रगच्छना आगेवानोनी इच्छाथवाथी ते रकम आ ग्रन्थ छपावामां
पेल छे. तेथी परमगुरुदेवना विरचित आ ग्रन्थोने प्रसिद्ध करवामां उत्साह धारण करी द्रव्यसहाय आपनारा मांडलगामनिवासी श्रीपाश्चंदमूरिगच्छना अनुयायीश्राकोने धन्यवाद आपवामां आवेछे तेमज खंभातबंदर निवासी प्रागबाटवंशीय शेठ दलसुखभाइ वीरचंद तरफथी सप्रेम आ ग्रन्थमा रु. २५ नी सहाय आवेल छे तेमने तथा प्रेसकाम संबंधी ना. वाडीलाल लल्लुभाइए मदद सारी करीछे.
तेथी तेमने पण धन्यवाद आपवामां आवे छे. इति शम. संवत् १९९५ ज्ञानपंचमी, ली. संतचरणरज - मु. मांडल. मुनिवृद्धिचंद्र.
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प्रस्तावना.
श्रीपार्श्वचंद्रसूरीन्द्राः, कलौ कल्पद्रुमोपमाः । सदाचारा गुणैाप्ता, भवंतु शांतिदायकाः ॥१॥
आ अपार संसारमा जन्म-मरणना दुःखोथी बचवानो श्रेष्ठ उपाय श्रीवीतराग-परमात्मानी पवित्रवाणीनी उपासनासेवना छे. ते सद्गुरुना कथनथी प्राप्त थइ शकेले. श्री वीतरागनी आणा प्रमाणे कथन करनार अने पोते श्रीवीतरागनी आणाना अनुसारे यथाशक्ति सम्यकचारित्रमार्गमा प्रवृत्ति करनार होय ते सद्गुरु कहेवाय छे, सद्गुरु धर्माचार्यों पोते उत्तम चारित्रवाळा होयछे अने पोताना अनुयायिओने उत्तम चारित्रवान् बनाववासारु सूत्रानुसारे अनेक रचनाओ करनारा होयछे, तेथीज ते परमोपकारी कहेवाय छे. परमोपकारी परमगुरुदेव युगप्रवर आचार्यवर्य स्वनामधन्य प्रातः स्मरणीय युगप्रधान श्रीपाश्वचंद्रसूरीश्वरजी महाराजे जेनी आराधना सेवना करवाथी जीवनुं कल्याण थाय एवी समाचारी आश्रित आ "सप्तपदीशास्त्र" रचेल छे. जेमां मुख्य सात बीनाओनुं वर्णन करवामां आवेल छे. (१) प्रथम गच्छस्थिति-गच्छनी मर्यादा, गच्छ कोने कहेवाय ते संबंधि स्वरुप वर्णवेलं छे. (२) बीजी बीना संभोगासंभोगविधिनी छे. केवा मुनिओ-चारित्रियाओ मंभोगी-एक बोजानी साथे आहार
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पाणी विगेरेनो व्यवहार राखी शके ? अने क्यां सुधी संभोगी पणुं चाल्यु? अने क्यारे संभोग असंभोगीपणुंथयु ? ए विगेरेनुं वर्णन जेमां करवामां आवेल छ, (३) रोजी बीना रात्रिदिवसमां मुनिराजोए केवी प्रवृत्ति करवी, रात्रिसंबंधी क्रियाओ, दिवससंबंधी क्रियाओ-आचरवानी विधिओ सूत्रानुसारे बताववामां आवेल छ (४) चोथी बीना पांचे प्रतिक्रमणनी विधिओ सूत्रपंचांगीना आधारे बताववामां आवेल छे, (५) पांचमी बोना उदयतिथीनुं स्वरुप सूत्रवृत्तिओना अनुसारे बतावेल छे. (६) छठी बीना श्रावकोना उपधाननो विधि आगमानुसारे बताववामां आवेल छे. (७) सातमी. बीना उपदेशविधि मुनिराजोए केवा प्रकारनो उपदेश आपयो? ते सूत्रानुसारे बतायामां आवेल छे. आ ग्रन्थमा मुख्य बीनाओ जे आ उपर बतावी ते सात छे. ते सिवाय पेटाभेदे घणी बीनाओ बतावेल छे. श्री समाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रनी एकपत परमपूज्य आचार्यदेव श्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरजी आश्रित अमदावाद सामळानी पोळना मोटा उपाश्रयना ज्ञान भंडारमाथी प्राप्तथइ. ते प्रायः शुद्ध त्रणसोवर्ष पहेलानी लखेल २६ पत्रवाळी हती अने बीजी,प्रत मारीपासे हती, तेना पत्र २७ छे. ते प्रत पोणा बशे वर्ष पहेलानी लखेल जणाय छे अने ते पण घणा भागे शुद्ध छे. ए बन्ने प्रतोना आधारे मांडल गाममां मुनिश्रीवृद्धिचंद्रनीए पोताना अवकाशना समयमां म्हारी देखरेख नीचे लगभग आठ म
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हिनामां प्रेसकोपी तैयार करी हती. ते मलग्रन्थमा जे जे सिद्धान्त-सूत्रोना मूलपाठो आव्या. ते ते मूलपाठोने - गमनी प्रतो भंडारमाथी काढी, तेनी साथे मेलवी लख्या छे. ते सूत्र-आगमना मूलपाठो सुखेथी समजाय एटला माटे तेनी टोका-वृत्ति पण ज्यां ज्यां मूलग्रन्थमां न हती त्यां त्यां नाना टाइपनी अंदर कौंसमां लीधेल छे. २७ पानावाळी प्रतमा केटलीक जगाए पंक्तिओ पानानी कांबीमां बारीक अक्षरोथी टिप्पणीरुपे लखेल हती, ते पण नाना टाइपमा लीधेल छे, ज्या ज्यां लीधेल छे, त्यां त्यां आ प्रमाणे सूचन करवामां आवेलछे के आ बीना लखेल पानानी कांबीमां छे. ए टिप्पणीओ पाछलना थपला आचार्योनी करेली जणाय छे. आ ग्रन्थ आचार्यदेवे वि. सं. १५९१ना कार्तिक सुदी पूर्णिमाना दिवसे रची संपूर्ण करेल छे, ते बीना सूरिजीए ग्रन्थना अंतमा पोतेज आ प्रकारे जणावेल छे"ससिनंदति हिपमाणे, विकमसंबछराउ परिसंमि । कत्तियनिमदिवसे, लिहियमिणं पासचंदेण ॥ २८५।" बीजो ग्रन्थ " उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपट"
जेमा सूत्र-सिद्धान्तना अनुसारे मुनिराजोनो उपदेश केवा प्रकारनो होय? शुं शुं आचरी शके ? अने शुं शं न आचरी शके ? इत्यादि घणा विचारो जणान्या छे. ते वाचवाथी वाचकने अनुभव थइ शके तेम छे, तेथी ए संबंधि विशेष जाण
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बानी इच्छाबाळाए विचारपट वांची जोवो "उत्सूत्रतिरस्कार नामा-विचारपट " नी नकल एकज परमपूज्य आचार्यदेव श्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरजीसाहेब आश्रित मांडल गाममा रहेल ज्ञानभंडारमाथी प्राप्त थइ तेना आधारे प्रेसकोपी मुनिश्री वृद्धिचंद्रजीए तैयार करी छे. ते विचारपट पण त्रणशे वर्ष उपरांतनो लखेल मालम पडे. ते विचारपटना पहेला के छेल्ला भागमां संवत के लेखकनुं नाम नथी. वस्त्रपर लखेल छे लगभग पोणो फुट पहोलो अने प्राये पनर फुट लांबोछे. एक इंच प्रमाणना शास्खिलीपीना पडिमात्रावाला अक्षरोथी लखाएल छे, अने ते जीर्णताने पाम्यो नथी पण सारी स्थितिमा छे. लखाण पण तेमां पाये करी शुद्ध छे. आ 'उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपट' भट्टारक युगप्रधानश्रीपाचचंद्रसरिवरे वि. सं. १५७५ ना कार्तिक सुदी बोजना दिवसे पाटणमध्ये लखेल छे. तेबीना विचारपटनी आदिमांज युगप्रधान आचार्यदेवे आ प्रकारे जणावेल छे:__ " स्वस्तिश्रीसंवत् १५७५ वर्षे कार्तिकशुक्ल द्वितीयायां मंगले विहित मंगले मैत्रीपवित्र मैत्रीनक्षत्रे श्रीपत्तने सुरत्राणश्रीमद् फुरसाहिराज्ये विजयिनि निजनिजनिश्रित्तगुरुनोदित संजातनिःकारणमत्सररणरणकहाजीविकानुचरो केशवंशज लोक कतिपयदिवसस्थायिपुरोगताऽमदमत्तपक्षरहित भिक्षुकोपरिपकटितगाढमबलबलशालि सा० वत्सराज सांराज देवचन्द्रैः प्रसभप्रारब्धस्वापायोपायः श्रीवीतरागप्रणीतदयारसमयश्री
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समयप्ररुपणातिरस्करण समालोक्य श्रीजिनाज्ञापालनवितन्द्रेण श्रीअष्टापदतीर्थाधिपतिश्रीजिननामस्मरणसंजातभद्रेण सरि पार्श्वचन्द्रेण पत्रमिदमलेखि, यात्रिकानेकदेशायातविवेकिलोकः श्रीपत्तननगरनिवासिभिजिनाज्ञावासितचित्तैर्जनश्च वाच्यमानं चिरं नन्द्यात् ॥"
त्रीजो ग्रन्थ " श्री स्थापनापश्चाशिकाप्रकरण' जेमां स्थापना संबंधी विना सूत्र--सिद्धान्तना पुरावा बताववा पूर्वक जणावेल छे, " श्री जिनप्रतिमा जिन सारखी" ए वस्तु शास्त्रानुसारे सिद्ध करो लोंकाना मतने अनुसरनाराओने शुद्ध श्रद्धावाळा करवा युक्तिपुरःसर समजाववा माटे आचार्य वयें आ ग्रन्थनी रचना करी छे. आ "श्रीस्थापनापंचाशिका प्रकरण" बारीक अक्षरथी लखाएल एकज पत्रमा संपूर्ण हतो, तेनुं लखाण शुद्ध पण अक्षरो केटलीक लेनोमां घसाइ गएला अने बहुजीणा हता. पत्र पण जीर्ण-विशीर्ण जेवो थड़ गएल हतो. बनता प्रयत्ने विचारपूर्वक ते परथी सुधारो प्रेसकोपी करवामां आवेल हती. तेना अन्तभागमा पुष्पिका आ प्रमाणे लखेलछे. “इति श्रीस्थापनापंचाशिका संपूर्णा ॥ संवत् १५७४ वर्षे ज्येष्ठमासे चतुर्थी तिथौ शनिवासरे लिखिता मूरि पार्श्वचन्द्रेण सा० नाडुपुत्र सा० सधारण पठनार्थम् ।। श्रीः॥" आ स्थापनापंचाशिकाप्रकरण आचार्यश्रीए वि० सं० १५७४ मां बनावेल छे तेज बीना प्रकरणना अन्तमा आप्रकारे जणावेल है:
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" वेदमुणितिहिसुवरिसे, पंडियसिरिसाहुरयणसीसेण । पासचंदेण विहिया, ठवणा पंचासिया एसा ।। ५३ ॥"
आ ग्रन्थो रचवानो प्रयोजन-ते वखते जैनोमां वातावरण घणोज कलुषित थएल परस्पर द्वेष, इर्ष्या, सत्य वस्तुने ढांकनारा, साधु-मुनिओने न छाजे तेवी बाह्यधमाधमआडंबरने सेवनारा वेषधारीओनी प्रबलता वधि गएल हती, तेमज सत्यवस्तुने ओलवनारा प्रगट थया हता. कारणके सोळसेनीसदीमां जैन वेषधारीओनी अंदर शीथिलता, क्वचित् क्रियाजडता, केटलाएकनी सावधक्रियाओमां प्रवृत्ति, अने केटलाएकनी आगमप्रतिपादित वस्तुस्वरूपमा अनादरता फेलाएल हती. एज टाइममां सूत्र आणा ओलंघी स्वच्छंदपणे लोकामती, विजयामती अने कडवामती विगेरे प्रगट थइ पोतानी मान्यता फेलावी रह्या हता. तेवा समयमां सूत्र-आगमनी वाणीना विचारक संपूर्णवैरागी, शुद्धचारित्र पालन करवामां महान् उत्साही, पोताना गच्छनी मर्यादामां रहीने सिद्धान्ततत्वना विवेकपुरःसर गवेषक आत्मार्थी आ परमपूज्यआचार्य महाराजे मुनिमार्गनी शुद्ध देशना निर्भयपणे करवा मांडी, तेने जोइ घणा शिथिलाचारी-स्वच्छंदीओने इर्ष्या पेदा थइ, यद्वा तद्वा फाये तेम बोलवा मांड्या "एमणे तो नको मत काढयोछे, पोतानो गच्छ चलावयानो आग्रह छे, तेथो उत्कृष्टक्रिया करी लोकोने रंजन करेछे. शिथिलाचार कांइ आजकाळनो थोडोजछे, एतो चालतोज
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आवे छे. एमना बोलवापर आपणे ध्यान आपq नही, आपणे जे करता होइए ते करता रहीये" आ प्रकारे समजण विनाना अज्ञानीलोकोना आचार्यश्री उपर वचनना (वाचिकलेखित) हुमला थया पण समर्थ आत्माओ आवा काकारवथो डरता नथी. प्रतिपक्षीओ फावे तेम कहे तेमनी तेओने तमा होती नथी, तेमने भय मात्र जिनेश्वर-परमात्मानी आणानोज रह्या करेछे, ते वीतरागनी आणा कोइ रोते पण विराधाय नही अने केम आराधाय एनामाटेज सदा सावधान-उजमालताने धारणकरनारा होय छे. लोको तरतमां एमने अथवा एमना वचनोने मानो या न मानो पण तेमना काने सूत्रानुसारे स्व-परना हितनी खातर तेमनु कर्तव्य शुंछे ? ते जणावqज जोइए, आवो निश्चय ए महापुरुषोना अंत:करणमा रहेल होयछे, तेथी श्रीवीतरागदेवनी आज्ञा शी रीते आराधाय ? शुद्ध देव-गुरु अने धर्मनी सेवना शी रोते थइ शके ? श्रीजिनेश्वरनी प्रतिमाने केवा विधिए वंदन पूजन करवू ? आराधवा योग्य पर्वतिथीओ आगम-सिद्धान्तमां का कइ बतावेल छे ? सूत्र-पंचांगीमा प्रतिक्रमण करबानो विधि शोछे ? अने हाल जे करायछे ते विधि आगमानुसारी छे के कांइ फेरफार छ ? साधुनी करणी केवी होय? तेम माधु-मुनिराजनो उपदेश केवो होय ? सर्वविरतिमुनि सावधनो उपदेश करो शके के नही ? हालमां केटलाएक आगममर्यादा समज्या विना उपदेश करेछे ते निरवद्यउप
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देश कहेवाय के केम ? उपधान शेना वहेवा ? कोण व्यवरावे ? तेनो विधि केवो ? साधुने स्त्रीओना परिचयमा रहेवाथो केवा दोष लागे? तेनो परिचय करवो के छोडवो? प्रतिष्ठा अंजनशलाका कोण करावे ? ए करणी कोनी छे ? त्यागीने कल्पे ? पोतपोताना गच्छनी ममता धारण करवी के वीतरागदेवनी आणा आराधवी ? इत्यादि बीनाओ संभलावनारने शुं जुदो मत-पंथ काढ्यो एम कही शकाय खरं ? गड्डरोप्रवाह के अंधपरंपरा जेने चलायवी होय तेने भले एम लागे के आ जुदो पंथ छे, परंतु सूत्र-आगमना अनुसारे उपदेशकरनार अने पोते चालनार जे होय ते वीतरागप्रणीत मार्ग चालनार गणाय छे, तेने जुदा पंथे चालनार न कहेवाय. "तेज साचुं अने शंका विनानुं जे जिनेश्वरोए कहेल होय" आगे श्रद्धा ज्यारे थाय त्यारेज सम्यकत्वसन्मुख जीव थयो गणाय. आ दर्शनमा पोतपोतानी मरजी मुजब स्वीकारेल मत-पंथ के गच्छो कोइ कांड काम आवता नथी. हां, जे वीतरागनी आणाना अनुसारे-सूत्र-सिद्धान्तमा बतावेल मर्यादा प्रमाणे चालनार गच्छ होय ते तो त्रणे काळ वंदनीय-सेवनीय अने आराध्यछे, ते सिवाय होय तो संसारनी आलपंपालनी माफक ए पण एक जीवने आलपंपाल छे, कारणके वीतरागनी आणा विना जीवनी कांइ पण कार्यसिद्धि थइ शक्ति नथी. जो केवल खोटो गच्छकदाग्रहज पोषाय तो तेथी संसारनी वृद्धि थाय छे, माटे सूत्र-सिद्धांतमा जणावेल वीत
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रागवाणीपते परेपूरो आदर धारण करवो जोडा. पना आ. धारेज ज्यारे त्यारे आ जीवनुं कल्याण थशे, संसारना सर्व दुःखोनो नाश करी परमसुखोने आत्मा त्यारेज पामशे. आप्रकारे समजावनार आचार्य भगवान वंदनीय-पूजनीय छे. सद्गुरु विना साचो मार्ग बीजो कोण बतावे ? जे वीतराग प्ररुपित मोक्षमार्ग बतावे तेज सद्गुरु, तेथोज सद्गुरु आराधनीय छे. ते महापुरुषे पोताना नामे नवो गच्छ के पंथ चलावेल नथी, जे गच्छमां हता तेज गच्छने वीतरागनी आज्ञानुसारे अजवाल्यो छे जे जे तेमणे ग्रन्थो कर्या छे, तेनी समाप्तिमा जे पोतानो गच्छ हतो तेज जणावेल छ पण नवीन पोताना नामे गच्छ जणावेल नथी. जुओ तेमणेज रचेल अजितशांतिस्तवनो बालावबोध, विक्रम सं. १६०१ मां करेल छे तेनी प्रशस्तिमां आ प्रमाणे जणावेल छ:" शशिखरसधरणिसंख्ये, तपोभिधे मासि शितौ चतुर्दश्याम् ।
वारे सवितुः पूर्वा,-पाढः हर्षणे योगे ॥१॥ श्रीमद् बृहत्तपागच्छे,-ऽजितशांतिस्तवस्य च ।
श्रीसाधुरत्नशिष्येण, पार्शचंद्रेण वार्तिकम् ॥ २॥ चक्रे बालावबोधाय, वाचनाय च हर्षदम् ।।
वाच्यमानमिदं नन्यात , तावद् यावज्जिनागमः॥३॥"
वळी तेमणे जे जे आगमोना बालावबोध करेला छे, तेनी प्रशस्तिओमां पण कोइ जगाए पोताना नामे नवीन गच्छ बतावेल नथी. जुओ तेमणे रचेल श्रीतंदुलवेयालीय
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पन्नाना बालावबोधनी आदिमां आ प्रमाणे जणावेल छे:"कल्याणवल्लीत तिवारिवाहं, श्रीसिद्धिदुर्ग प्रतिसार्थवाहम् । सकेवलं लोकदिनेशतुल्यं, श्रीवर्द्धमानं प्रयतः प्रणम्य ॥ १ ॥ श्रीमत्तपागच्छसरोमरालः, श्री साधु रत्नाभिवधर्मे शिष्यः ॥ प्रकीर्णकस्यास्य करोति वार्ता - रूपं प्रबन्धं किल पार्श्व चंद्रः ॥ २ ॥ यावत्तदुलभोजी-वर्षशतायुर्नरस्तद्विचारान् ।
ख्यातं प्रकीर्णकमिदं तन्दुलविचारिकं नाम्ना ॥ ३ ॥ "
"
आ बीना लखती वखते जे जे तेओश्रीनी कृतिओ हाजर हती अने जोवामां आवी तेमांथी लखी जणावेल छे. कहेवानुं तात्पर्य ए छे के महापुरुषे पोताना नामनो लोभ
खेल नथी, अने आगमवस्तु प्रसिद्ध करवामां कोइ जातनो संकोच धारण करेल नथी, निर्भयपणे सत्यवस्तु जणावेल छे. तेमनामां विद्वत्ता - प्राकृत, संस्कृत अने गुर्जरभाषामां कवित्वशक्ति, लेखनकळा अने तेनी शुद्धता, सूत्रोना बालावोध सरल भाषामा करवानी शक्ति अपूर्वं हती. तेमज जिनवचन पर श्रद्धा, ज्ञाननी जागृति- तीक्ष्णता तेने अंगे arataचारशक्ति अने चारित्रनी निर्मलता वगेरेमां अलौकिक हता. एमना ग्रन्थोनो अभ्यास, मनन चितवन जेमणे करेल होय अने पोते विचारशील विवेकी होय तो तेमने उपरनी attrओ आपो आप मालम पडीआवे एम छे, तेथी ए विषयमा विशेष लखवानी जरुर जणाती नथी. सज्जन दशे ते सार ग्रहण करी लेशे. कं छे के:
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गुणानगृहस्वजनो न निर्वृतिं प्रयाति दोषानवदन्न दुर्जनः । चिरंतनाभ्यास निबंधनेरिता, गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः ॥ १ ॥ खलः सर्सपमात्राणि, परच्छिद्राणि पश्यति ।
44
आत्मनो विल्वमात्राणि पश्यमपि न पश्यति ॥ २॥ " अर्थात् - सज्जन गुण ग्रहण कर्या विना अने दुर्जन दोष बोल्या विना तृप्ति पामतो नथी कारणके लांबा काळना अभ्यासना संबंधे मेराएली मति गुणोमां अने दोषोमां उत्पन्न थाय छे. १ तेमां पण दुर्जन पुरुष सरसव जेवडा परना नाना दोषोने जुए छे अने पोताना मोटा मोटा बिलीना फल जेवडा दोषो जोवा छतां जोइ शकतो नथी. एवो दुर्जननो स्वभाव छे. २ तेथी पोतपोताना स्वभावना अनुसारे प्रवृत्ति करे छे. माटे एमां विशेष जणावा जरुर नथी. युगप्रधान श्रीपार्श्व चंद्रसूरिजीने ज्ञानीओना वचनपर संपूर्ण आस्ता हती, तेने लइ पंडितवीर्यनी जागृतिना अंगे संसारमायाजालपर उत्पन्न थएल तीव्र ज्ञानगर्भित वैराग्यना योगे उत्कृष्ट चारित्रवंत, वचनगुप्ति अने भाषा समितिथी ते सेवाएल हता.
युगप्रधान श्रीपार्श्व चंद्रसूरिजीनी टुंकी जीवनरेखा जन्म - श्री आबुतीर्थना पवित्र पहाडना नीचे लगोलग पश्चिम दिशामा रायहमीरे वसावेल हमीरपुर नामना शहेरमा जेमा हाल पण पांच पवित्र जिनालयो जीर्ण अवस्थामा रहेला जोनारने नजरे पडे छे. त्यां वोसा पोरवाड ज्ञातीय श्रावककुलमां शिरोमणी धर्मिष्टपुरुषोमां अग्रेसर
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वेलगसाह नामे धावक हता, तेनी धर्मसहचारिणी पतिव्रता शीलालंकारधारिणी विमलादे नामनी स्त्री हती. तेनी कूखथी वि. सं. १५३७मां आ आपणा पूज्य महापुरुषनो जन्म थयो. तेमना जन्मथी सौ संबंधियोने आनंद थयो. तेमनुं नाम पार्श्वकुमार आपवामां आव्यु. अनुक्रमे वृद्धि पामतां आठ वरसनी समजणवाळी वयने पाम्या. सुगुरु समागम-पूर्व पुण्यना उदये सद्गुरुमहाराजनो समागम थयो, ते द्वाराए परमात्मानी पवित्र वाणीनुं श्रवण थयु, तेथी आत्मानी जाग्रत दशा प्रगट थई. मोहजाल गइ अने वैराग्य प्रगट थयो.
दीक्षा-माता-पिता संबंधिओनी अनुज्ञा लइ श्रीमन्नागपुरीयबृहत्तपागच्छमां पंडितशिरोमणी तरीके पंकाता श्रीसाधु रत्नजी धर्माचार्यनी पासे वि. सं. १५४६ मा पोतानी नववरसनी नानी वयमा ओच्छवपूर्वक माता-पिताना हाथे दीक्षा ग्रहण करी. गुरुराजे तेमनुं नाम श्रीपार्श्वचंद्रमुनि स्थापन कयु. श्रीसद्गुरुनी सानिध्यमा रहेतां विनयपूर्वक विद्याभ्यास करतां सर्व शास्त्रोना पारगामी थया.
उपाध्यायपद-तीव्रबुद्धिशाली पवित्र वर्तणुकवाला श्रीपार्श्वचंद्र मुनिने जाणी अत्यंत प्रेमथी गच्छाधिपतिए लेमने उपाध्यायपदे वि० सं० १५५४ मां विभूषित कर्या. स्यारवाद सिद्धान्त-आगमनो अभ्यास करावता पोताने विशेष जाग्रतदशा प्राप्त थई.
क्रियाउद्धार-जैनवेषधारिओमां रहेल शिथीलता दूर
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करवानो उत्साह जाग्रत थयो. गुरुआज्ञा-गुरुशिष्यनो परस्पर अत्यंत प्रेम हतो, तेथी गुरुराजने पोतानी विचारणा जणावी. गुरुराजे पण तेमनो उत्साह वधारवा कयु के-"शूरवीर पुरुषोनो ए मार्ग छ, माटे खुशीथी क्रियाउद्धार करी पवित्र मार्गने दीपावो अने ते द्वाराए भव्यात्माओनो उद्धार करी जय विजयने पामो" आ प्रकारे गुरुराजना आशिर्वादथी वि. सं. १५६४मां उपाध्याय श्रीपाचचंद्रजीए क्रिया उद्धार कर्यो. शुद्ध उपदेशने आपता साधुमार्गमां विचरनारा थया. ____ आचार्यपदः-सर्वत्र तेमनो महिमा वृद्धि पामवा लाग्यो. वि० सं० १५६५ मां विचरता जोधपुर नगरमां पधार्या देशनाशक्तिने धारण करनार, अत्यंत मनोहर मूर्तिमान् अने पवित्र चारित्रधर्मथी शोभता गुरुराजने देखी त्यांना महाराजा पण अत्यंत प्रेमी बन्या. श्रीसंघने पण आनंदनो पार रह्यो नहि. श्रीसंघनी विनती अने आग्रहथी वि० सं० १५६५ मां आचार्यपद धारण कयु. दिनप्रतिदिन शुद्ध प्ररुपकपणाने लइ अने शुद्ध आचरणाने लइ तेमनी ख्याति वधवा लागी अने पोताना हृदयमां भव्योनो उद्धार करवानी लागणीओ पण वधवा लागी. श्रीसिद्धान्त-आगमोना गुर्जरभाषामां बालावबोध अर्थ कर्या विना सर्वत्र भव्यात्माओने आगमवाणी श्रवणनो लाम नहि थइ शके तेथी सूत्र-सिद्धान्तोना अर्थ टीका-वृत्तिने अनुसारे करवा प्रयत्न आदों अने ओछी बुद्धिवाळाथी न समजाय एवा आगमोना बालावबोध कर्या,
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के जेथी सामान्य बुद्धिवाळा साधु मुनिराजो पण ते वांची भव्यात्माओने संभळावा समर्थ थया, अने श्रावको पण केटलाक सांभळी आगमवाणीना जाणकार थवा लाग्या के जेथी आगममां साधुमार्ग शुं बतावेल छे अने हालमां साधुओ एम केम चाले छे, ए बीना जाणवामां आवी, तेथी शिथिलाचार्यों परथी धर्मप्रेमनी वृत्तिओ तेओनी ओछी थवा लागी अने शिथिलाचारिने शुद्ध रूपक तरफ द्वेष उत्पन्न थयो. आ पवित्र आचार्यने जोइ बीजा गच्छोमां पण जागृति आत्री, सूत्रमार्गनी प्रवृत्ति तरफ आकर्षाया अने केटलाकोए क्रिया उद्धार करी शिथिलाचारने छोड्यो जोके सात पेढी सरखी तो कोइनी चालती नथी तोपण तरतमां आ मोटामां मोटो लाभ आचार्यश्री पार्श्व चंद्रसूरिजीए ने समयमां मेळवेल हे ते समयमा सर्वने जाग्रत करनार आ पवित्र आत्मा हता. aft and भव्यात्माओना उद्धारने माटे अनेक ग्रन्थ, प्रकरण, कुलक, सज्झाय, स्तवन, चर्चाओ, पटो अने विचारो वगेरेनी रचना करी लख्या छे. मारवाड जोधपुर पट्टीमां वसनारा मुणोतगोत्रीय रजपुताने महाराजा मालदेनी संमतिथी जैन धर्मी श्रावको बनाव्या. जे मुणोतगोत्रीय श्रावको हालमां पण मारवाडमां विद्यमान छे. रजपुतोने जैनधर्मी श्रावक बनावनारा आ छेल्ला आचार्य थया छे. मालवामां घणा श्रावकोने शुद्ध धर्ममां जोड्या. नवसे चंडाळोने समजावी चंडालकर्मथी मुक्त कराव्या. उनावा गाममां महेसरी वाणीआओने उपदेश आपी
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५०० घर जैनधर्मी कर्या. अमदावादमां मरकीना रोगने अटकावी शांति फैलावी. खंभातमां गौवध बंधकराव्यो. विरमगाममां धर्मचर्चानी अंदर उ० विद्यासागरना अभिमानने उतरी श्रावकोने शुद्धमार्गे चडाव्या. काठीयावाडमां कपासी गोत्रीयने शुद्धजैनधर्मी कर्या. मुर्सिदाबाद, कलकत्ता, बुरानपुर विगेरे अनेक स्थलोए पोताना तप-संयमना प्रभावथी श्रीजैनधर्मने दीपाव्यो. मारवाड, मेवाड, मालवा, पूर्व, दक्षिण, गुजरात अने काठीयावाड विगेरे अनेक देशोमां विचर्या. वि. सं. १५९९ वरसे सलक्षणपुर मध्ये चतुर्विध श्रीसंघे आचार्य श्री पार्श्व चंद्रसूरीश्वरजीने युगप्रधान पदे स्थापन कर्या अने तेमना विद्वान शिष्य मुनिराज श्रीसमरचंद्रजीने उपाध्यायपदे स्थापन कर्या. हवे युगप्रधान श्रीपार्श्व चंद्रसूरीश्वरजी पोताना शिष्य समुदाय सहित गामानुगाम विचरखा लाग्या. वि. सं. १६०४ नी सालमा पोताना शिष्य उपाध्याय श्री समरचंद्रजीने आचार्यपदे स्थाप्या. एम अनेक शुभ कार्यो पोताने करवा योग्य तेमणे कर्या छे, पोतानी जींदगीमां छेवट सुधी शुभ प्रयत्नपूर्वक स्व आत्म उद्धार करवा सारु अनेक तपो कर्या छे. ध्यानावस्थामा आत्मस्मरण करतो अनेक रात्रिओ सावधानीपणामां गुजारी छे.
स्वर्गगमन - निखालशहृदयथी सत्यधर्मनो महिमा वधारता गामानुगाम विचरता मारवाड देशमां जोधपुर नगरे पधार्या. भावुक आत्माओने आनंदनो पार रह्यो नही. गुरु
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राजना दर्शन करी, तेओश्रीना मुखकमलथी प्रकाश पामती पवित्र सिद्धांतनी वाणी सांभळी पोताना आत्माने भाग्यशाली मानवा लाग्या. श्रीगुरुदेवनी पासे व्रत-नियम ग्रहण करी पालन करवा तत्पर थया. आचार्य भगवान पोते पंडितवीर्य आत्मरमणतामां तलालोन थया. त्यारपछी बाध शरीरनी चेष्टाओथी, श्रुतज्ञाननी प्रबलताथी अने पोताना जात अनुभवथी स्वआयुष्य अल्प जाणी पोताना आश्रित चतुर्विध श्रीसंघने शांतिनो उपदेश आप्यो, पोत-पोताना आत्मकल्याण माटे सावधान रहेवा सूचना करी अने सर्वने मैत्री प्रमोद भावना धारण करी प्रेमपूर्वक वर्तवानी भलामण करी. श्रीचतुर्विधसंघसमक्ष सर्व जीवोने खमावी, अढारे पाप स्थानोने आलोवी पंचमहाव्रत, पंचाचार, अष्टप्रवचनमाता, दशविधयतिधर्म, सत्तर प्रकारे संयम अने शीलांगरथना स्वरुपने चितवी धारण करी भत्तपच्चख्खाण नामना अणसणने उच्चरवा शक्रस्तवादिके देववंदन करी, पोताना परमोपकारी गुरुदेवने नमस्कार करी अणसण ग्रहण कयु. सुश्रावकोए श्रीजिनालयोमां पूजा-प्रभावनाओ शरु करी, दीन, दुःखी, अने अनाथोने दान अपाया, भावुक आत्माओ श्री आचार्य भगवानना छेल्ला दर्शनने माटे देश-परदेशथी खबर मलतां जल्दी त्यां आव्या चार शरणने ग्रहण करी पंच परमेष्टीना ध्यानमा तलालीन थया थका वि. सं. १६१२ ना मागसर सुदी त्रीज रविवारनी मध्य रात्रे ७५ वर्षनुं सर्व
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आयुष्य पूर्ण करी समाधिपूर्वक आ औदारिक शरीरने छोडी स्वर्गवासी थया. परमगुरुदेवना विरहथी अनुयायीवर्गने घणो आघात थयो. पवित्र भूमिमां चंदनादि उत्तम पदार्थोथी आचार्यदेवना शरीरनो रडता हृदये सुश्रावको तरफथी अग्नि संस्कार करवामां आव्यो अने तेज स्थानके एक शिखरबंधी देहरी करवामां आवी, तेमां सूरीश्वरदेवनी पादुकानी स्थापना प्रतिष्ठा विधिपूर्वक करवामां आधी. अहाइ महोत्सव, शांतिस्नात्र विगेरे बहु धामधुमथी थया. बीजा गाम-नगरोमां पण अढाइ महोत्सवो गुरुदेवनी चरणपादुकानी स्थापनाओ, गुरुदेवनी मूर्तिनी स्थापनाओ विधिपूर्वक करवामां आवी. ते हाल पण घणे स्थाने पादुकाओ विद्यमान छ अने पूजाय पण छे तेमज परमगुरुदेवनी मूर्तिओ पण केटलाक स्थानेछे अने केटलाक स्थाने सुगुरुदेवना पवित्र नामाक्षरोना यंत्रो मकराणाना आरस पत्थरमां कोतराएला पण पूजाय छे. आ टुंक बीना जणावेल छे, विशेष जाणवानी इच्छावाळा-महानुभावोए तेओश्रीना जीवनचरित्रथी बीना जाणवी. ___ चोथो ग्रन्थ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजराती भाषानुवाद - आ सप्तपदीशास्त्र सर्व-साधु-साध्वीओने एक सरखो रोते उपयोगी तथा स्वपर आत्महित करता थशे एम जाणी तेमज साध्वीचंदनश्री वगैरेनी खास प्रेरणाथी में पोतानो बुद्धिना अनुसारे सुगम अर्थ (भाषानुवाद) तैयार करेल छे तेमां कोई पण जग्याए सूत्रथी विरुद्ध के मूल ग्रन्थकारना आशय विरुद्ध
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लखाण थयुं होय तो तेनुं मिथ्यादुष्कृत आपुं हुं अने उपरोक्त चारे ग्रन्थो सुधारवा छतां तेमां द्रष्टिदोषथी अथवा सदोष संबंधी कोइ पण भूलो रही गयेल होय, तेने सुधारी वांचवानी भलामण करी विरमुं छं.
ले. - परमपूज्य आचार्यवर्य श्री भ्रातृचंद्र सूरीश्वरजीना शिष्य - सागरचंद्रसूरि.
ध्रांगध्रा.
वि० ० सं० १९९५
}
नानी बजार, मोटो उपाश्रय । द्वितीय श्रावण सुद ३ गुरुवार. --: अनुक्रमणिका
१ श्रीसप्तपदीशास्त्र २ उत्सूत्र तिरस्कारनामा विचारपट ३ श्री स्थापना पञ्चाशिका
...
४ श्री सप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुवाद युगप्रधान श्री पार्श्व चंद्रसूरीश्वर दादानो छंद
शुद्धिपत्रक
पानु लीटी अशुद्ध
१२ ६ सक्कंति १६ १८ सद्भि
१६ २१ गंतु ३५ १६ १९
४१ २४ शावत्त ५० १३ आचार्या
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५४ २१ पूर्वा
५४ २१ श्रत
५६ १ स्ताकं ५९७ म ( स ) रइ
५९ १५ मुक्क
गंतुं
१८
शुद्ध
सक्कंति
सुद्धि
...
पूर्वो
शावर्त्त आचार्य
श्रुत
स्तोकं
समरइ
मुक्क
***
***
पानु लीटी अशुद्ध
६० २ पमाइ ६० २ यारति
६४ २२ द्यपे
६५ ५ माद
पृष्ठ
१-१३५
पृष्ठ १३६-१७८
पृष्ठ १७९ - १८३
१८४-२६३
२६४
***
शुद्ध
पमाई
यारेति
पे
मादा
दुखे
६५ १९ दुक् ६७ ११ भोसणो भीसणो
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७० ३ 'सयंजए' 'जयंसए'
७२ १९ सर्व सर्वे
७३ ७ तस्सविही ०
७३ १५ अक्क
७५ १४ बच
अक्क
वच
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पण
गनु लीटी अशुद्ध शुद्ध पानु लीटो अशुद्ध शुद्ध ७६९ पडिक पडिक ८९४ पडिक पडिक ७६ १२ सक सक ९१ २४ एश्च पश्च ७६ १७ पडिक पडिक ९३ १९ पञ्च पञ्चदश ७९४ पणु
९६ १४ पडिक पडिक ८० ९ खाम खामि | ९६ १६ सुतुत्तं सुत्तुत्तं ८२ २ पाढं पाठं ९६ १९ जंबूसरि जंबू-सूर ८२३ कारो कारो ९६ २२ याइ या ८३ ७ याउ याऊ ९७ १७ हवर हवउपच्छा ८३ ७ सुयं स्सुयं ९८३ अन्नंच . ८३८ साहु
साहू | ९८ ११ साहुव्व साहुव्व। ८३ १८ ख्खित्त खित्त | १०२ २३ अणंगपविठ्ठस्सवि
उद्देसो जावपवत्तइ ?, ०
१०४ २१ वाउ वाओ ८५३ पडिक्क पडिक
| १०४ २२ उवएसा उवएसो ८६ ३ भणिउ भणिओ
| १०५१ उस्सगो उस्सग्गे ८६३ सेसा लेसो
२०६६ वादरं बादरं ८६ १० चउसु चउत्थं १०९ ३ शब्दा शब्दो ८६ १३ पुच्छइ पुत्थयं १०६ २० धर्मा धर्मों ८६ १८ राउनहो साहुवंदणी १२९ ४ नाव नानव ८७ १२ स्कंध खंध १३१ १२ मुणीणं मुणीणंनायव्यो ८७ १२ सुया सुए। १३२ १ मिच्छ मिच्छा १३ सुद्धं
| १३२ १ अविरइ अविरई ८७ २२ सीउ सोऊ १३४ ११ सूत्रार्था सूत्रार्थी ,, ,, थ्थाउ थ्थाऊ १२८० १८ तंव तंच ८८ ४ किहवि कयावि २८० १९ अहयं अहियं ८८ १७ पडिक्क पडिक |१८० २१ वितनावेण चित्तभावेण ८८ २० भणिय भणियं १९७७ पूवक पूर्वक ८९४ जथ्थे होइ जथ्थे | १९७ ७ अशा आशा
सिद्धं
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रमरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. परमगुरुदेव श्रीपार्श्वचन्द्रसूरीश्वर विरचितं
श्री सामाचारी समाश्रितं
श्री सप्तपदी शास्त्रम्.
मूल-वीरजिणं नमिऊणं, अमरिंदनरिंदपणयपयजुयलं ।
साहूण सामायारिं, सुयाणुसारेण वुच्छामि ॥ १ ॥ गच्छठिई संभोगा-संभोगविहि मुणीण दिणचरियं ।
पंचपडिक्कमणविहि', उदयतिहीए सख्वं च ॥२॥ सट्टाणुवहाणविहिं,' उवएसविहि मुयाणुसारेण । सुगुरूण वयणवयणं, सोऊणमहं पक्कखामि ॥ ३ ॥
इति दारगाहादुगं ॥ (अथ गच्छस्थिति:-) गणहरइक्कारसगं, गणनवगं आसि वीरनाहस्स |
सत्तण्डं च गणाणं, सत्तगणी वायणं दिति ॥ ४ ॥ दो दो एगेगस्स य, गणस्स गणहारिणो जुगप्पवरा ।
दितिय वायणमेवं, गणगणहरसंखमाणति ॥५॥ भेएण वायणाए, गणभेउ तेसिमिकसंभोगो।।
भणिउ दसामु पढमो, निसीहचुण्णीउ तह बीउ ॥६॥
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श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
श्री दशाgतस्कंधेऽष्टमाध्ययने- "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नवगणा इकारसगणहरा दुध्या से केणणं भंते ! एवं बुवति - समणस्स भगवओ महावीरस्स नवगणा इक्कारसगणहरा हुथ्या? समणस्स भगवओमहावीरस्स जेठ्ठे इंदभूई अणगारे गोयमगुत्तेणं पंचसमणसयाई वाएइ, मज्झिमए अग्भूई अणगारे गोयमगुत्तेणं पंचसमण सयाई बाएइ, कणीयसे अणगारे वाजभूई गोयमगुत्तेणं पंचसमणसयाई वाएइ, थेरे अज्जवियत्ते भारद्दाएगुत्ते पंचसमणसयाई वाएइ, थेरे अज्जसुहुम्मे अग्गवेायगुत्ते पंचसमणसयाई वाएइ, थेरे मंडियपुत्तेवासिगुणं अधुट्टाई समणसयाई वाएइ, थेरे मोरियपुत्ते कासवगुत्तेणं अध्धुद्वाईं समणसयाई वाएइ, थेरे अकंपिए गोयमगुत्तें थेरे अयलभाया हारियायणे गुत्तेणं पत्तेयं एते दुनि वि थेरा तिनि २ समणसयाई वाएंति, थेरे अज्ज मेहज्जे-थेरे अज्ज भासे एते दुन्नि थेरा कोडिन्नागुणं तिन्नि २ समण सयाई वाएंति से तेणद्वेणं अज्जो एवं बुचंति समणस्स भगव - ओ महावीरस्स नवगणा इक्कारसगणहरा हुथ्या सव्वे एते समree भगवओ महावीरस्स इकारसवि गणहरा दुवालसंगिणी चउदस पुविणो सम्मत्तगणिपिडगधारगा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं कालगया जाव सङ्घदुक्खप्पहीणा |
•
येरे इंदभूई थेरे अज्ज सहुम्मेय सिद्धिगए महावीरे पच्छा दुनिवि थेरा परिनिव्या, जे इमे अज्जत्ताए समणा निगंधा बिहरंति एएणं सव्वे अज्जहुम्म अणगारस्स आवञ्चिज्जा, अब
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ३
सेसा गणहरा निरवचा वुच्छिन्ना." अयं वाचनाभेदागणभेदविचारः मूलसूत्रोक्तः कचिवृत्तौ समाचारीभेदाद्गणभेदस्ततः केचिदिति प्ररूपयंति गणे २ भिन्न २ सामाचार्योऽभूवन भिन्नसामाचार्या परस्परमसंभोगित्वं चेति ।
(अथ संभोगासंभोगविधि:-) तत्र श्रीनिशीथचूय॑क्षसणि लिख्यते-"सिरिघरसिवपाहुडेयसंभुत्ते" इति वचनात्-" सीसो पुच्छति कति पुरिसयुगे एकसंभोगो आसी कमि वा पुरिसजुगे असंभोगो पयट्टो केण वा कारणेण ततो भणंति बद्धमाणसामिस्स सीसो सुधम्मो तस्स जंबुणामा तस्स वि प्पभवो तस्स सिज्जभवो तस्स सीसो जसमद्दो जसभहस्स सीसी संभूओ संभूयस्स थूलभद्दो थूलभदं जाव सव्वेसि इक्कसंभोगो आसी थूलभद्दस्स दो सीसा अज्जमहागिरी अज्जमुहथ्थीय पीतिवसेण एकओ विहरति" इत्यादि जाव अज्जमहागिरीसिरिघराथयणे आवासिओ,अज्जमुहथ्थी सिवघरे आवासिओ,ततो राया संपई अज्जसुथि पज्जुवासेति, पवयणभत्तीए अप्पणो विसए अणि पिंडिऊण भणति तुम्मै साहूणं आहार पाउग्गं देह अहंमोल्लं दाहामि अज्झ सुहथ्थी सीसाणुरायेण साहू गिन्हमाणे सातिज्झति, नोपडिसेहति तं अज्झमहागिरी जाणिज्झा अझ मुहथिथ भणति, अज्झो कीस रायपिडं पडिसेवह । ततो अज्झ मुहथियणा भणिय, जहा राया तहा पयाण एस रायपिंडो तेल्लिया तिल्लं घयगोलियाउ घयं दोसियाउ वच्छाई पूइया भक्ख
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४ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . भोज्झं एवं साहूणं अज्झ महागिरिवरो अज्झसुहथ्थि भणति, अझप्पभितं तुम मम असंभोगिओ, एवं पाहुडं जायं इत्यर्थः । एथ्य पुरिसे असंभोगो उप्पनो॥"
एवं श्रीवीरे विजयमाने नवगणेष्वपि एक संभोगित्वात्
सामाचारीभेदो नावबुध्यते पुनर्गीतार्था मध्यस्था वदंति तदेव प्रमाणं । सांप्रतीन साधूनामेकगणत्वं विशेषतो दर्शयतिमूल-संपइ विहरंत मुणी, सव्वे सीसा सुहम्मसामिस्स ।
__ अवसेसा निरवच्चा, वुच्छिन्ना गणहरा दसवि ॥ ७ ॥ सूत्राक्षराणि पूर्वे लिखितान्यवगंतव्यानि । मूल-एएण कारणेणं सुहम्म सामिस्स गच्छमणुलग्गा ।
अन्नुन्नमसंभोगा भिन्नायारा कहं हुंति ।। ८॥ असंभोगिनः सूत्रोक्तिन्यायेनाचारहीना एवोच्यते, नतु सुद्धाचाराः सामाचारीभेदेनेवासंभोगिनः । यदुक्तं-श्री स्थानांगे द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकस्य प्रान्ते “दोदिसाओ अभिगिज्झ कप्पति निग्गंथाण वा निग्गत्थीण वा पञ्चावित्तए । पादीणं चेव उदीणं चेव,एवं मुंडावित्तए,सिक्खावित्तए,उवहावित्तए, संभुंज्झित्तए,” इति वचनात् । अत्र संभोगः श्रीसूत्रकृदंगे त्रयोविंशत्यध्ययनेपि वर्तते, संभोगिनः सुद्धाचाराः। अन्यसंभोगिनो यथा-श्रीपार्थवीरापत्यसाधवः परस्परं श्रीआ
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रम्हरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ५
चारांगवचनात सामाचारी भेदतः सुद्धा असंभोगिनो न भवंति, ये हीनाचारा ज्ञानदर्शनचारित्रस्त एव असंभोगिनः इत्यर्थः ।
अथासंभोगः-श्रीस्थानांगे तृतीयस्थानस्य तृतीयोहेशके-“ तिहि ठाणेहि समणे निग्गंथे साहम्मियं संभोगियं विसंभोगिय करेमाणे णातिकमति, तं०-सयं वा दटुं 'सढस्स वा निसम्म, तचं मोसं आउट्टति चउत्थं नो आउट्टति"
(अत्र वृत्तिलेशः- साहमियं' ति समानेन धर्मेण चरतीति साधर्मिकस्तं सम्-एकत्र भोगो-भोजनं सम्भोगःसाधूनां समान सामाचारीकतया परस्परसुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारलक्षणः स विद्यते यस्य स साम्भोगिकः तं, षिस. म्भोगो-दानादिभिरसंव्यवहारः स यस्यास्ति स विसम्भोगिकस्तं कुर्वन् नातिकामति-न लङ्घयत्याज्ञां सामायिकं वा विहितकारित्वादिति, स्वयमात्मना साक्षात् दृष्ट्वा सम्भोगिकेन क्रियमाणामसंभोगिकदानग्रहणादिकामसमाचारी,तथा 'सढस्स' ति श्रद्धा श्रद्धानं यस्मिन अस्ति स श्राद्धः-श्रद्धेयवचनः कोऽप्यन्यः साधुस्तस्य वचन मिति गम्यते 'निशम्य' अबधार्य, तथा 'तचं' ति एक द्वितीयं यावत् तृतीयं 'मोसं' ति मृषापादं अकल्पग्रहणपार्श्वस्थदानादिना सावध विषयप्रतिज्ञाभङ्गलक्षणमाश्रित्येति गम्यते, 'आवर्तते' निवर्तते तमालोचयतीत्यर्थः, अनाभोगतस्तस्य भावातू प्रायश्चित्तं चास्योचितं दीयते, चतुर्थ त्वाश्रित्य प्रायो नो आवर्तते-तं ना लोचयति, तस्य दर्पत एव भाषादिति, आलोचनेऽपि प्राय. श्चित्तस्यादानमस्येति, अनश्चतुर्थासम्भोगकारणकारिणं विसम्भोगिकं कुन्निातिकामतीति प्रकृतम् , उकंच
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६ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . "पगं व दो घ तिन्नि व, आउदृतस्स होइ पच्छित्तं ॥ आउट्टतेऽवि तओ, परिणे तिण्डं विसंभोगो ॥ १" इति ___ एतच्चूर्णिः--"स संभोइओ असुद्धं गिण्हतो चौडओ भणइ-संता पडिचोयणा, मिच्छामि दुक्कडं, ण पुणो एवं करिस्सामो, पवमाउट्टो जमायनो तं पायच्छित्तं दाउ संभोगो । एवं बीयवारापवि, एवं तइयधाराएघि, तइयवाराओ परओ चउत्थधाराए तमेवाइयारं सेविऊण आउटुंतस्प्लषि विसंभोगो" इति, ॥)
पुनस्तत्रैव पंचमाध्ययने
"पंचहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे साहम्मितं संभोतितं विसंभोतित करेमाणे णातिकमति, तं०-सकिरितठाणं पडि. सेवित्ता भवति १ पडिसेवित्ता णो आलोएइ २ आलोइत्ता जो पवेति ३ पट्टवेत्ता णो णिविसति ४ जाई इमाई थेराणं ठितिपकप्पाइं भवंति ताई अतियं चिय २ पडिसेवेति से हंदऽहं पडिसेवामि किं मं थेरा करिसंति ?" ५।
(वृत्तिः-साम्भोगिकं एकभोजनमण्डलीकादिकं विसाम्भोगिकं-मण्डलीबाधं कुर्यन्नातिकामति आशामिति गम्यते, उचितत्वादिति, सक्रिय-प्रस्तावादशुभकर्मवन्धयुक्तं स्थानंअकृत्यविशेषलक्षणं प्रतिषेविता भवतीत्येकं, प्रतिषेव्य गुरवे नालोचयति-न निवेदयतीति वित्तीयं, आलोच्य गुरूपदिटप्रायश्चित्तं न प्रस्थापयति कर्नु नारभत इति तृतीयं, प्रस्थाप्य न निर्विशति न समस्तं प्रवेशयत्यथवा 'निवेशः परिभोग' इति वचनान परिभुङ्क्ते-नासेवत इत्यर्थः इति चतुर्थ, यानी. मानि सुप्रसिद्धतया प्रत्यक्षाणि स्थिविराणां' स्थविरक
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ७ स्पिकानां स्थितौ ' समाचारे' प्रकल्प्यानि प्रकल्पनीयानि योग्यानि विशुद्धपिण्डशय्यादीनि स्थितिप्रकल्प्यानि अथवा स्थितिश्च-मासकल्पादिका प्रकल्प्यानि च-पिण्डादीनि स्थितिप्रकल्पयानि तानि 'आइयंचिय आयंचिय' ति अति. कम्यातिक्रम्येत्यर्थः, प्रतिषेवते तदन्यानीति गम्यते, अथ सङ्घाटकादिः साधुरेवं पर्यालोचयति-यथा नैतत्प्रतिषेवितुमुचितं गुरुनौ बाह्यौ करिष्यति, तत्रेतर आह-'से' इति तद. कल्प्यजातं 'हंदे' त्ति कोमलामन्त्रणं वचनं हमित्यकारप्ररहषादहं प्रतिषेधामि किं मम 'स्थविराः' गुरवः करिष्यन्ति, ? न किश्चितै रुष्टैरपि मे कत्तुं शक्यते इति बलोपदर्शन पश्चममिति ॥)
पुनस्तत्रैव नवमाध्ययने
" नहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे संभोतितं विसंभोतितं फरेमाणे णातिकमति, तं०-आयरियपडिणीयं उवज्झायपडिणीयं थेरपडिणोयं कुल० गण संघ० नाण० देसण चरितपडिणीयं."
(वृत्तिः-' नहिं ठाणेहिं समणे' इत्यादि, अस्य च पूर्वस्त्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वसूत्रे पुद्गला वर्णितास्तहि. शेषोदयाच कचिच्छमणभाषमुपगतोऽपिधर्माचार्यादीनांप्रत्यनीकतां करोति, तं च षिसम्भोगिकं कुर्वन्नपरः सुश्रमणो नाज्ञामतिक्रामतीतीहाभिधीयत इत्येवं सम्बन्धस्यास्य व्या. म्या, सा च सम्बन्धत एवोक्तेति.)
एभिरक्षरैराचारवैपरीत्येनासंभोगित्वं प्रतिपादितं नतु मुद्धसाधूनां सामाचारीभेदेनासंभोगित्वं संभवति ॥ अथ साधूनां गणनिश्रां विना धर्मों न प्रवर्तते
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८
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
ww
मूल-पणनिस्साठाणाई, समणाणं जिणवरेण भणियाई।
___ठाणगे गणनिस्सा, चारिणो साहुणो तेणं ॥ ९ ॥ श्रीठाणांगे पंचमज्झयणे
"धम्म चरमाणस्स पंच णिस्साठाणा पं० २०-छक्काए गणे राया गिहवती सरीरं" ।
(वृत्ति:-'धम्म' मित्यादि, धर्म-श्रुतचारित्ररूपं, णमित्यलङ्कारे. चरतः-सेवमानस्य पंच मिश्रास्थानानि-आलम्बनस्था. नामि उपग्रहहेतष इत्यर्थः, षटकायाः-पृथिव्यादयः, तेषां च संयमोपकारिताऽऽगमप्रसिद्धा, तथाहि-पृथियोकायमाश्रिस्योक्तम्" ठाणनिसीयतुयट्टण, उच्चाराईण गहण निक्खेवे ॥ घट्टगडगलगलेवो, एमाइ पओयणं बहुहा ॥ १ ॥
अप्कायमाश्रित्यपरिसेयपियणहत्थाइ, धोयणे चीरधोयणे चेष ।। आयमणभाणधुवणे, एमाह पओयणं बहुहा ॥ २ ॥ [स्थानं निषीदनं त्वग्धर्तनं उच्चारादीनां ग्रहणे निक्षेपे घट्टके डगले लेपो बहुधैव मादिप्रयोगमं पृथव्याः ॥१॥ परिषेकः पानं हस्ताविधायनं चीरधावनं चैव आचमनं भांडधापनं बहुधैवमादिप्रयोजनमद्भिः ॥ २ ॥ ] तेजःकार्य प्रतिओयण वंजणपाणग, आयामुसिणोदगं च कुम्मासो ॥ डगलगरक्खसूइय, पिप्पलमाई य उवओगो ॥ ३ ॥ वायुकायमधिकृत्यदापण बत्थिणा वा, पओयणं होज्न पाउणा मुणिणो । गेलन्नम्मिवि होज्जा, सचित्तमीसे परिहरेज्जा ॥ ४ ॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मु. ९
[ओदनं व्यंजन पानकं आचामं उष्णोदकं च कुल्माषादिः डगलकाः भस्म सूचिश्च पिपलकमादि उपयोगः ॥ ३ ॥ दृतिकेन भत्रया प्रयोजनं भवेवायुना मुने: ग्लानत्वेऽपि भवेत् सचित्त मिश्री परिहरेत् ॥ ४ ॥] वनस्पति प्रतिसंथारपायदंडग, खोमियकप्पा य पीठफलगाइ ॥ ओसहभेसज्जाणि य, एभाइ पओयणं तरुसु ॥ ५ ॥ प्रसकाये पञ्चन्द्रियतिरश्च आश्रित्योक्तं-- चम्मष्टि दंतनहरोम, सिंग अमिलाइछगणगोमुत्ते ।। खीरदहिमाइयाणं, पंचेंदियतिरियपरिओगे ॥ ६ ॥ संस्तारकपात्रदण्डक क्षौमिककासपीठफलकादि औषधभैषज्यानि चैवमादि तरुषु प्रयोजनं ।। ५ ॥ चर्मास्थिदन्तनखरोमश्रृंगाम्लान (अव्यादि) गोमयगोमूत्रैः क्षीरदध्यादिकैः पंचेन्द्रियतिर्यक्परिभोगः ॥ ६॥ ] एवं विकलेन्द्रियमनुष्य देवानामध्युपग्रहकारिता वाच्या, तथा गणो-गच्छः तस्य चोपग्राहिता-' एकस्स को धम्मो' इत्यादि गाथापूगादवसेया, तथा"गुरुपरिवारी गच्छो, तत्थ वसंताण निजरा विउला ।। विणयाउ तहा सारण,-माईहिं न दोसपडिपत्ती ॥१॥ अन्नोन्नावेक्वाए, जोगमि तहिं तहिं पयस॒तो ॥ नियमेण गच्छशासी असंगपयसाहगो नेओ ॥ २॥" इति,
गुरुपरिवारो गच्छस्तत्र वसतां मिला निर्जरा विनयात्तथा सारणादिभिर्न दोषप्रलिपत्तिः ॥ १॥ अन्योऽम्यापेक्षया योगे तत्र तत्र प्रवर्त्तमानः । गच्छवासी नियमेनासंगपदसाधको शेयः ॥ २ ॥]
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श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
तथा राजा
नरपतिस्तस्य धर्मसहायकत्वं दुष्टेभ्यः साधुरक्षणाद , उक्तं च लोकिकैः"क्षुद्रलोकाकुले लोके, धर्म कुयुः कथं हि ते । क्षान्ता दान्ता अहंतार,-श्चेद्राजा तान्न रक्षति ॥ १ ॥ तथा 'अराजके हि लोकेऽस्मिन् , मर्यतो विद्रुते भयात् । रक्षार्थमस्य सर्वस्य, राजानमसृजत् प्रभुः ॥ २ ॥” इति तथा गृहपतिः-शय्यादाता, सोऽपि निश्रास्थानं, स्थानदानेन संयमोपकारित्वात् , तदुक्तम् - " धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता,
गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम् ॥ गुणश्रीसमालिङ्गितेभ्यो परेभ्यो,
मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निषासः" ॥ १॥ तथा “जो देह उधरलयं जइवराण, तपनियम जोगजुत्ताणं ।। तेणं दिन्ना पत्थन्नपाण, सयणासणविगप्पा ॥१॥” इति [यो ददात्युपाश्रयं यतिवरेभ्यस्तपोनियमयोगयुक्तेभ्यः ॥ तेन दत्ता वस्त्रानपानशयनासनविकल्पाः ॥ १ ॥ ] तथा शरीरं-कायः, अस्य च धर्मोपप्राहिता स्फुटैष, यतोऽवाचि"शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः ॥ शरीराच्यते धर्मः, पर्वतात् सलिलं यथा ॥ १ ॥” इति भवति चात्रार्या"धर्मं चरतः साधो-लोके निश्रापदानि पञ्चव ॥ रामा गृहपतिरपरः, षटकाया गणशरीरे च ॥ २ ॥" इति शेष सुगमं, श्रमणस्य निश्रास्थानाम्युक्तानि.) । एभिरक्षरैर्गणः प्रमाणं । गणगच्छयोरेकाथिकत्वं प्रसिद्धं ।
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ११
मूल-ठाणांगे वहारे, गणहि धम्मवयण वयणं । चभंगे सुपसथ्यं, गणहिई धम्मणुज्झणयं ॥ १० ॥ यतः - स्थानांगे चतुर्थाध्ययने
" चत्तारि पुरिसजाया पर तं०-धम्मं नाममेगे जहति नो गणसंठिति ४. "
.
[वृत्तिः- धर्म त्यजत्येको जिनाज्ञारूपं न गणसंस्थितिं स्वगच्छतां मर्यादां, इह कैश्चिदाचार्यैः तीर्थकरानुपदेशेन संस्थितिः कृता यथा नास्माभिर्महाकल्पाद्यतिशयश्रुतमन्यगण सरकाय देयमिति, एवं च योऽन्यगणसत्काय न तद्ददाविति स धर्म त्यजति न गणस्थिति, जिनाज्ञाननुपालनात् तीर्थकरोपदेशो शेष - सर्वेभ्यो योग्येभ्यः श्रुतं दातव्यमिति प्रथमो यस्तु ददाति सद्वितीयः यस्त्वयोग्येभ्यः तद्ददाति स तृतीयः, यस्तु श्रुताध्यवच्छेदार्थे तदव्यवच्छेदसमर्थस्य पर शिष्यस्य स्वकीर्यादिग्बन्धं कृत्वा श्रुतं ददाति तेन न धम्म नापि गणसंस्थितिस्त्यक्तेति स चतुर्थ इति ॥ ]
एवं व्यवहारसूत्रेपि ।।
5
मूल- अहवा धम्म विरुद्धं, गणहिति उज्झिऊण धम्मस्स । अणुसरणे जे मुणिणो, वर्हति न ते गरहणिज्जा ॥ ११॥ यदुक्तं - श्रीगच्छाचार प्रकीर्णके
" अत्थेगे गोयमा पाणी, जे उम्मापइहिए । गच्छंमि संवसित्ताणं, भ्रमइ भवपरंपरं ॥ २ ॥
तम्हा निउणं निहालेडं, गच्छं सम्मग्गपट्ठियं । वसिज्ज तत्थ आजम्मं, गोयमा ! संजए मुणी ||७|| "
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१२ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . [सन्त्येके गौतम ! प्राणिनी ये उन्मार्गप्रतिष्ठिताः । गच्छे समुष्य भ्राम्यन्ति भवपरम्पराम् ॥ २॥ तस्मानिपुणं निभाल्य सम्मार्गप्रस्थित्तं गच्छं । तत्राजन्म बसेत् गौतम ! संयतो मुनिः ।। ७ ।। ]
इति वचनात् मूल-जे पुण पुवाइन्न, गणठिति छडिऊं न सकंति ।
नऊ निदिति सुधम्मं, जिणआणाराहगा तेवि ॥१२॥ यदुक्तं-व्यवहारवृत्तौ
"ज जीयमसोहिकर, न तेण जीएण होइ ववहारो। जंजीयं सोहिकर, तेणउ जीएण ववहारो ॥ १ ॥ जंजीयमसोहिकर, पासथ्य पमत्त संजयाइन्न । जइवि महाणा इन्न, न तेण जीएण ववहारो ॥२॥ जंजीयं सोइकर, संवेग परायणेण दंतेण । एगेणवि याइन,तेणउ जीएण ववहारो ॥३॥” इतिवचनाद सर्व पत्राणि ५११ तन्मध्ये पत्रे ५०० प्रमिते पुनः"जा जस्स ठिई जा जस्म, संठिइ पुचपुरिसकयमेरा ॥ सो त अइकमंतो, अणंत संसारिओ होइ ॥ १ ॥ जा जिणवरेहि भणिया, गोयममाईहि धोरपुरिसेहिं । सा सच्च चिय मेरा, पालेयव्या पयत्तेणं ॥२॥"
इति पूर्वाचार्यवचनात् मूल-जिण भणियगच्छमेरा, गोयममाईहिं सम्ममाइन्ना ।
सा नोल्लंघयचा, महानिप्तीहंमि भणियमिणम् ॥१३॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रमरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १३
यत:-श्रीमहानिशीथे-“दुप्पसहं जाव गच्छ मेरा नाइकमेयवा-"
इति वचनात् ।। अथ साधूनामाचार:मूल-सम्मइंसणरत्ता, उज्झुत्ता चरण करण गुण गहणे ।
आगम मग्गणुलग्गा, भव भय भीया मुणी धन्ना ॥१४॥ सिरिवीरजिणिदेणं, गोयमपमुहाण एवमाइई ।।
बारसवास सएहि, गएहि पन्नास अहिहेहि ॥ १५ ॥ साहूणं अनुन्नं, भेउ होही न इथ्य संदेहो ।
मह सासणंमि जाणह,महानिसीहमि भणियमिणं ॥१६॥ यदुक्तं-श्रीमहानिशीथे
"से भयवं केवइएणं कालेणं प(हे) यडे कुगुरू होहंति ? ___ गोयमा ! इउय अद्धतेरसण्डं वाससयाणं साइरेगाणं समइकंताणं परउ भविस्संति । से भयवं केणं अटेणं ? गोयमा ! तकालं इड्डीरस सायगारवसंगए ममीकार अहंकारग्गीए अंतो संपज्झलितबोंदी अहमहंति कयमाणसे अमुणिय समय सम्भावे गणी भविहेति । एएणं अटेणं सो एवं विहे तकालं गणी भविस्संति, गोयमा ! एगते णं नो सव्वे !! " इति वचनात् ॥ मूल-तेणं संपइ दीसइ, पिहु पिहु गच्छेसु भिन्न आयारो ।
तथ्यवि जं जिणवयणाणु,-सारउ तं पमाणंति ॥ १७॥ किल्झइ गच्छायारो, भन्नइ नियनिय गुरूहि आइन्नो ।
नहु सुतं दूसिज्झइ, भूसिज्झइ तेहि जिणधम्मो ।। १८ ।।
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१४
श्रीसामाचारी समाधितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
यदुक्तं-श्रीगच्छाचार प्रकीर्णके"विहिणा जोउ चोएइ, सुत्तं अत्थं च गाहए। सो धण्णो सो य पुण्णो य, स बंधू मुक्खदायगो ॥१॥ २५॥ स एव भव्वसत्ताणं, चक्खुए विहिए । दंसेइ जो जिणुद्दिट्ट, अणुढाणं जहहि ॥२॥ २६॥ तित्थयरसमो सूरी, सम्मं जो जिणमयं पयासेइ । आणं अइक्कमंतो, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो ॥३॥ २७॥ जइवि न सक्कं काउं, सम्मं जिण भासिज अणुट्ठाणं । तो सम्म भासिज्जा, जह भणि खीणरागेहिं" ॥४॥३३॥
इति वचनात् ॥ [विधिना यस्तु प्रेरयति सूत्रमर्थ वावगाहयति । स धन्यः स व पुण्यश्च स बन्धुमोक्षदायकः ॥ २५ ॥ स एव भव्यसत्यानां चक्षुर्भूतो व्याख्यातः । दर्शयति यो निनोद्दिष्टमनुष्ठानं यथास्थितम् ॥ २६ ॥ तीर्थकरसमः सूरियों जिनमतं प्रकाशयति । आज्ञामतिकाम्यन् स कापुरुषो न सत्पुरुषः ॥ २७ ॥ यद्यपि न शक्यं कर्तुं सम्यग् जिनभाषितमनुष्ठानम् । तथाऽपि सम्यग् भाषेत यथा भणितं क्षीणरागैः ॥ ३३ ॥] मूल-जे पुण गच्छायारं, मनिय हीलंति सुत्त आयारं ।
ते हीलंति जिणाणं, नियगच्छं चैव मन्नंति ॥१९॥ मुत्तत्थ गंथ निज्जुत्ति संगहणी पक्यणस्स पंचंगी।
एयाणुसारिणो सव्वे, गंथा अथ्या पमाणं मे ॥२०॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १५
यदुक्तं - श्री समवायांगे, नंदी सूत्रे च पाक्षिकसूत्रे च
" स सुते स अत्ये सांधे स निज्युत्तिए स संगहिणीए " इति वचनात् ॥ मूल- अंगाणं वित्ती, ठाणे ठाणे परूवियं एयं । मुत्ताणुवाइ सव्वं, तं सव्वं पुत्रसूरीहिं ॥ २१ ॥ यदुक्तं - श्री भगवती वृत्तौ - “यदेवमतमागमानुपाति तदेव ग्राह्यमितरत्पुनरुपेक्षणीयमिति" वचनात् ॥ अन्यवृत्तिष्वपि " सूत्रानुगतो योह्यर्थः सोस्माद्ग्राह्यो न चेतरः " ॥ इत्यादि नवांगीवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरींद्रवचनात् ॥
सांप्रतं वर्तमानसाधूनां सर्वेषां सुधर्मस्वाम्यनुगतो न्वयस्ततस्तदुक्ता सामाचारी प्ररूप्यते
मूल - सिरिवीरतिथ्थनाहस्स, पयभत्तो पंचमोय गणहारी । जा तेण समाइट्ठा, सामायारीय सा सुद्धा ||२२|| यदुक्तं - श्री उत्तराध्ययने
Cadas
"सामायारिं पव्वक्खामि सव्वदुक्खविमोक्खणिं । जं चरित्ताणं निम्गंथा, तिना संसारसागरं ॥ १ ॥ पदमा आवस्सिया नाम, बिइया य निसीहिया । आपुच्छणा य तइया, चउत्थी पडिपुच्छणा ||२|| पंचमा छेदणा नाम, इच्छाकारोय छढओ । सत्तमो मिच्छारो य, तहकारी य अहमो ||३|| अभुद्वाणं नवमं, दसमा उवसंपया । एसा दसंगा साहूणं, सामायारी पवेइया ||४|| "
इति वचनात् ॥
وا
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१६
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
मूल-बाहिं उबस्सयाउ, अवगाहाउव भणइ आवस्सियं ।
निक्खममाणोय सया, निसीहियं कुणइ पविसंतो॥२३॥ काउसग्गं च तवं, सज्झायं किंचि कज्झमन्नं वा । ___ कुणमाणो आपुच्छइ, गुरुति आपुच्छणा तइया ॥२४॥ चिंतिय कझंतरए, अन्नं वा किंचि कज्झमुक्वन्न ।
तस्स य करणे पुणरवि, पुच्छइ पडिपुच्छणा एसा ॥२५॥ आहार वत्थमाई, दव्वेहि जहक्कम निमंतिज्झा ।
गुरु साहम्मियवरगं, विणएणं छंदणा एसा ॥२६॥ कथ्थवि किंचिवि क्खलियं,सीसाणं जाणिऊण सुहगुरुणो।
धम्मियचोयणपुव्वं, सारंति पुणो निवारंति ॥२७|| इच्छामो हियसिक्ख, सारणकरणेण गुग्गहो अम्हें ।
विहिउ एवं भणणे, इच्छाकारो भवे एसो ॥२८॥ हा दुहकयं एयं, निर्दिता अप्पणो अणायारं ।
मिच्छाकारो य भवे, भणंति जं दुकडं मिच्छा ॥२९॥ सज्झायमि निउत्ता, वेयावञ्चमि तहय अन्नंमि ।
कज्झे गुरूहि सीसा, तहत्ति एवं पवमंत्ति ॥३०॥ दणभुटाणं, अंजलिकरणं च अभिमुहं गमण ।
रयहरणेणं सद्धि, पायाण पमज्झणं विहिणा ॥३१॥ कंबलि दंडग्गहणं, आसणरयणं च विणयकम्मं च ।
नवमा सामायारी, गुरुपूआ नामओ भणिया ॥३२॥ गच्छंतरंमि गंतु, नाणहायरियपायमूलंमि । एवतियं कालमहं, चिहिस्सं अंतिए तुम्हें ॥३३॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि प्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १७
इय भणिऊणं चिहइ, एसा उपसंपया समायारी।
दसहा जिणिदभणिया, सद्दहियव्वा पयत्तेणं ॥३४॥ एवं सामायारि, विहिणा गच्छंमि जो पवत्तेइ ।
सो आयरियो सुगुरू, सयं तरइ तारए अन्नं ॥३५॥ जोउ प्पमाय दोसेणं, आलस्सेणं भएण य । सीसवगं न चोएइ, तेण आणा विराहिया ॥३६॥
( अथ मुनीनां दिनचर्या-) अह दिवसरयणिचरियं, साहूणं जिणसुयाणुसारेणं ।
बुच्छामि गुरुवएसा, जहा सुयं पुब आयरियं ॥३७॥ सवियासे कमलवणे, पसरिय सूरप्पहा पभावणं ।
विद्धथ्ये तिमिर भरे, तारगणे नह तेयमि ॥३८॥ दीसंति जथ्थ सुहुमा, कररेहा उसहाय समयंमि !
तमि खमासमण दुर्ग, दाउं पडिलेहणं कुझा ॥३९॥ संदिस्सावेमि तहा करेम्मि, इय भणिय पुत्तियं विहिणा ।
पडिलेहणाउ वीसं, पण अहियातीइ कायदा ॥४०॥ पणवीस देहस्स य, कुज्झा पडिलेहणाउ पुच्छणयं ।
रयहरणं च निसिज्झा, खोमीइय पढम आएसे ॥४॥ पच्छा दाऊण पुणो, दुक्खमासमणे गुरूण विहि पुच्वं ।
तणु पडिलेहणं करेई, पणवीसं चोलपट्टमि ॥४२॥ पुण एग खमासमणं, दाऊं गुरुणो य भत्तिअट्टाए ।
भणइय भयवं ता मे पडिलेहणं पडिलिहावेह ॥४३॥
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१८ श्रीसामाचारी समाभितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
मुणिमंडलीए जिट्ठो,-ठवणायरियं जयं पमज्जेइ ।
सेसा अणुक्रमेणं, गुरूण विणयं पउजति ॥४४॥ पच्छा दुक्खमासमणे, दाऊं उवहिं च दंड(म)पज्जतं ।
पडिलेहिऊण सव्वं, दाऊण पुणो खमासमणं ॥४५॥ भयवं च पमज्जिमिय क्सहिं, इय भणिय सुद्ध जयणाए । __ मिउदंड पुच्छणेणं, भणिएणं तइय अंगमि ॥४६॥ पंचट्ठाणे पंचण्ह,-मणंतरेणं च पुत्तियं वयणे ।
दाउं रयरक्खहा, मुणिणो वसहि पमन्जिति ॥४७॥ सोहिय कजं जीवे, उद्धरिऊणं च छप्पयाउय ।
साहणं च समप्पिय, विभजिऊणं मुगुरु बयणो ॥४८॥ सेसं परिहवित्ता, विसुद्ध भूमीइ जंतुरहियाए ।
इरियं पडिकमित्ता, आलोएयंति गुरु पुरओ ॥४९॥ आपुच्छिऊण गुरुणो, वसहि समताउ जाव हत्थसयं । ___ अवलोइऊण नाऊं, वसही सुद्धा इय भणति ॥५०॥ काले पवेऊणं, सज्झायं पठविति विहिपुव्वं ।
पंचविहं सज्झायं, गुरुणुमाया पकुवंति ॥५१॥ ता जाव होउ ऊणो, चउत्थ भागेण पोरिसीकालो।
गुरुलहुकमेण लहुओ, सीसो उठित्तु इय भणइ ॥५२॥ भयबुग्घाडा पोरिसि, इरियापडिकमण पुष्वगं विणया ।
इक खमासमणेणं, हवंति सव्वेवि उवउत्ता ॥५३॥ उद्वित्त आसणाउ, पिहु पिहु भणंति कयखमासमणा ।
संदिसिय भंडगाइ, बीए भंडं पडिलेहेमि ॥५४॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १९
यदुक्तं - श्रीउत्तराध्ययने, २६ अध्ययने
"पोरिसीए चउन्भागे, वंदित्ता ण तओ गुरुं । tfsafeत्ता कालस्स भावणं पडिलेहए ||२२|| " मूल- एयं भणितु वयणं, भंडयपडिलेहणं तह कुणति ।
भायण निस्सिययाणं, उवगरणाणं च सत्ताहं ॥ ५५ ॥ यतः - " पत्तं पत्ताबंधो, पायठवणं च पायकेसरिया |
पडलाई रत्ताणं, गुच्छउ पायनिज्जोगो ॥१॥" यदुक्तं - श्रीउत्तराध्ययने, २६ अध्ययने"मुहपोत्ति पडिले हित्ता, पडिलेहिज्ज गोच्छयं । गोच्छ्गलयंगुलिओ, वत्थाई पडिलेहए ||२३|| उढं थिरं अतुरियं, पुव्वं ता वत्थमेव पडिले हे । तो बिइयं परफोडे, तइयं च पुणो पमज्जिज्जा ||२४|| अणच्चावियं अवलियं, अणाणुबंधिं अमोसलिं चैव ।
छप्पुरमा नव खोडा, पाणीपाणिविसोहणं ||२५|| आरभडा संमद्दा, वज्जेयत्वा य मोसली तइया ।
पफोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेइया छट्टी ||२६|| पसिढिल - पळंब-लोला, एगा मोसा अणेगरूवधुणा ।
कुण पमाणि पमायं, संकिए गणणोवर्ग कुज्जा ॥२७॥ अणूणाइरित्तपडिलेहा, अविवच्चासा तहेव य ।
पढमं पयं पत्थं, सेसाणि उ अप्पसत्थाणि ॥ २८ ॥ पडिलेहणं कुणतो, मिहो कई कुणइ जणवयक वा । देह व पञ्चक्खाणं, वाइ सयं पडिच्छ वा ॥ २९ ॥
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२०
श्रीसामाचारी समाश्रितं श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
पुढवी आउकाए, तेऊ - वाऊ - वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छं पि विराहगो होड़ ||३०||
पुढवी आजकाए, तेऊ वाऊ वणस्सइ तसाणं ।
पडिलेहणा आउत्तो, छहं पि आराहओ होइ ॥ ३१ ॥ " इतिश्री उत्तराध्ययनवचनात् —
A
(अत्र वृत्तिलेश : - प्रतिलेखनाविधिमे बाह- 'मुखवत्रिकां' प्रतीतामेष 'प्रतिलेख्य' प्रतिलेखयेत् 'गोच्छकं' पात्रकोपरिवर्युपकरणं, ततश्च ' गोच्छगल अंगुलिङ' ति प्राकृतरमादगुलिभिर्लातो- गृहीतो गोच्छको येन सोऽयमङ्गुलिलातगोच्छकः 'वस्त्राणि' पटलकरूपाणि 'प्रतिलेखयेत्' प्रस्तावास्प्रमार्जयेदित्यर्थः ॥२३॥
,
इत्थं तथाऽवस्थितान्येव पटलानि गोच्छकेन प्रमृज्य पुनर्यत्कुर्यातदाह- 'ऊ' कायतो बचतश्च तत्र कायत उत्कुटुकस्वेन स्थितत्वात्, वस्त्रतश्च तिर्यक्प्रसारितबखत्वात्, 'स्थिर' दृढग्रहणेन 'अत्वरितम्' अद्भुतं स्तिमितं यथाभवस्येवं 'पूर्व' प्रथमं 'ता' इति तावद् 'बरं' पटलकरूपं, जाताaarai, पटलकप्रक्रमेऽपि सामान्यवाचक शब्दाभिधानं वर्षाकल्पादिप्रत्युपेक्षणायामव्ययमेव विधिरिति ख्यापनार्थम, एवशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'पडिलेहि'त्ति 'प्रत्युपेक्षेतैव' आरतः परतश्च निरीक्षेतैव न तु प्रस्फोटयेत्, अथवा बिन्दुलोपाद 'एवम्' अमुना ऊर्ध्वादिप्रकारेण प्रत्युपेक्षेत न त्वन्यथेति भाषः, तत्र च यदि जन्तून् पश्यति ततो यतनयाऽ भ्यत्र सङ्क्रमयति, तददर्शने च 'तो' इति 'ततः' प्रत्युपेक्षनादनन्तरं द्वितीयमिदं कुर्यात् यदुत परिशुद्धं सत् प्रस्फोटयेत् तत्प्रस्फोटनां कुर्यादित्यर्थः, तृतीयं च पुनरिदं कुर्यात्
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. २१
यदुत प्रमृज्यात् , कोऽर्थः ?-प्रत्युपेक्ष्य प्रस्फोटय च हस्तगतान् प्राणिनः प्रमृज्यादित्यर्थः, ॥२४॥
कथं पुनः प्रस्फोटयेत्प्रमृज्यावत्याह-'अनत्तित' प्रस्फोटनं प्रमाननं वा कुषतो पलं वपुर्वा यथा नर्तितं न भवति 'अवलितं' यथाऽऽत्मनो वनस्य च बलितमिति मोटमं न भवति 'अणाणुबंधिम्ति 'अननुबन्धि' अनुबन्धेन-नैरन्तर्यलक्षणेन युक्तमनुवन्धि न तथा, कोऽर्थः ?-अलक्ष्यमाण विभागं वथा न भवति, 'आमोस लिन्ति सूत्रत्वादामर्शवत्तिर्यगूर्वमयो था कुख्यादिपरामर्शवपथा न भवति, तथा किमित्याह'छप्पुरिमति षट्पृर्षा; पूर्व क्रियमाणतया तिर्यककृतषनप्र. स्फोटनात्मकाः क्रियाविशेषा येषु ते घट्पूर्षाः, 'नवखोड'ति खोटकाः समयप्रसिद्धाः स्फोटनात्मकाः कर्तव्या इति शेष: 'पाणों' पाणितले 'प्राणिनां' कुश्वादिसत्त्वानां विशोधन पाठान्तरतश्च-'प्रमार्जन' प्रस्फोटनं त्रिकत्रिकोत्तरकालं त्रिकत्रिकसायं पाणिप्राणिविशोधनं पाणिप्राणिप्रमार्जनं वा कर्तव्यं ॥२५॥ प्रतिलेखनादोषपरिहारार्थमाह
आरभटा विपरीतकरणमुच्यते त्वरितं चाऽन्यान्यवनग्रहणेनासो भवति, संमर्दनं समर्दा रूढित्यास्त्रीलिङ्गता वस्त्रान्तः कोणसंचलनमुपधेर्वा उपरि निषदनम्, वर्जयित. व्येति सर्वत्र संबध्यते, 'वः' परणे 'मोसलि'त्ति तिर्यगृवं. मयो था घट्टमा तृतीया, 'प्रस्फोटना' प्रकर्षेण रेणुगुण्डितस्येष वस्त्रस्य झाटना चतुर्थी, विक्षेपणं विक्षिप्ता पश्चमीति गम्यते, रूढित्याच श्रीलिङ्गता, सा च प्रत्युपेक्षितवस्त्रस्यान्यत्राप्रत्युपेक्षिते क्षेपणं, प्रत्युपेक्षमाणो या पत्राचलं यदूर्व क्षिपति, वेदिका 'छट्टत्ति षष्ठी, परमेते षड्दोषाः प्रतिलेबनायां परिहर्तव्याः ॥२६।।
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२२ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
तथा प्रशिथिलं नाम दोषो यदढमनिरायन्तं वा व गृपते, प्रलम्बो- यजिषमग्रहणेन प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रकोणानां लम्बनं लोलो यभूमौ करे वा प्रत्युपेक्ष्यमाणवनस्य लोलनममीषां वन्दः, एकामर्शनं एकामर्शा प्राग्मत् त्रीलिङ्गता, मध्ये गृहीत्वा ग्रहणदेशं याषदुभयतो वनस्य यदेककालं संघर्षणमाकर्षणम् , 'अणेगरूषधुणे'त्ति अनेकरूपा चासो सङ्ख्यात्रयातिक्रमणको युगपदनेकवस्त्रग्रहणतो वा धूमना च प्रकम्पनारिमका अनेकरूपधूनना, पठ्यते च 'अणेगरूषधूय' त्ति तत्र न धुतं कम्पनमन्यत्प्राग्बत् , तथा यत्करोति प्रमाणेप्रस्फोटादिसङ्ख्यालक्षणे प्रमादम्-अनषधानं यच्च शङ्किते - प्रमादत: तमाणं प्रति शङ्कोत्पत्तौ गणनां कराङ्गुलिरेखास्पर्शनादिनै कधिविसङ्ख्यात्मिकामुपगच्छति-उपयाति गणनोपगं यथाभवत्येयं गम्यमानत्वात्प्रस्फोटनादि कुर्यात, सम्भाबने लिङ्ग, सोऽपि दोषः, सर्वत्र पूर्वसूत्रादनुपर्त्य वर्जनक्रिया योजनीया, एवं सानन्तरोक्तदोषैरपिता सदोषा प्रत्युपेक्षणा, वियुक्ता तु निर्दोषेत्यर्थत उक्तम् ॥२७॥
साम्प्रतं त्वेनामेव भङ्गक निदर्शनद्वारेण साक्षात्सदोषां निर्दोषां च किश्चिद्विशेषतो वक्तुमाह-'अगृणाहरित'ति ऊना चासायतिरिक्ता ऊनातिरिक्ता न तथा अनूनातिरिक्ता प्रति लेखा, इह च न्यूनताधिक्ये स्फोटनाप्रमार्जने बेलां चाश्रित्य घाच्ये, 'अविषच्चास'त्ति विविधो व्यत्यासो-विपर्यासो यस्यां सा दिव्यत्यासा न तथा अधिव्यत्यासा- पुरुषोपधिविपर्यासरहिता कर्तव्येति शेषः, अन्न र विभिविशेषणपदैरष्टौ भङ्गाः सूचिता भवन्ति, एतेषु च कः शुद्धः को वाऽशुद्रः इत्याह-'प्रथमपदम्' इहैवोपदर्शिताचभङ्गरूपं 'प्रशस्तं' निर्दोपतया श्लाघ्यं शुद्धमिति यावत, शेषाणि तु प्रक्रमात्पदानि द्वितीयादि भङ्गात्मकान्यप्रशस्तानि, तेषु न्यूनतापन्यतमदोष
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आचार्य श्री मातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. २३ सम्भवात् , ततः प्रथमभङ्गानुपातिन्येष प्रतिलेखना विधेये. स्युक्तं भवति ॥२८॥
एवंविधामप्येनां कुर्वता यत्परिहर्तव्यं तत् काक्कोपदेPटुमाह-प्रतिलेखनां कुर्वन 'मिथः कथां' परस्परसंभाषणात्मिकां करोति, जनपनकथां था, ज्यादिकथोपलक्षणमेतत् , ददाति बा प्रत्याख्यानमन्यस्मै, पाचयति -अपरं पाठयति, स्वयं प्रतिछति वा आलापादिकं गृह्णाति, य इति गम्यते, ॥२९॥
स किमिन्याह, 'पुढवी'त्ति स्पष्टं, नवरं 'पुढवी आउक्काय' ति पृथिव्यप्काययोः 'प्रतिलेखनाप्रमत्तो' मिथः कथादिना तत्रानवहितः सन् षण्णामपि, आस्तामेवैकादीनामित्यपिशब्दार्थः, विराधकश्चैवं प्रमत्तो हि कुम्भकारशालादौ स्थितो नलभृतघटादिकमपि प्रलोठयेत् , तास्तमलेन मृदग्निपीजकुन्थ्वादयः स्लाव्यन्ते, प्लाषनात विराध्यन्ते, यत्र चाग्निस्तत्रावश्यं सायुरिति षण्णामपि द्रव्यतो विराधकत्वं, भाष. तस्तु प्रमत्ततयाऽन्यथाऽपि पिराधकत्वमेव, तदनेन नीवरक्षार्थत्वात्प्रतिलेखनायास्ततकाले च प्रमादजनकत्वेन हिंसाहेतुत्वाग्मिथः कयादीनां परिहार्यत्वमुक्तम् ॥३०॥) इय आगमवयणाउ करेइ। मूल-पडिलेहणार विहि रिसि,-मभिनाऊणं च कालवेलाए ।
वंदिज्झ चेइयाई, भत्तीइ विहार ठाणमि ॥५६॥ तयभावे पुव्वुत्तर, दिसिम्मि होऊ ठवित्तु ठवणं च ।
अणुओगदारमुत्ते, भणियाण दसण्ह-मभयरं ।। ५७|| यतः-श्रीअनुयोगद्वारसूत्रे___"से किं तं ठवणावस्सयं ?, २ जण्णं कठकम्मे वा पोल्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा
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२४
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगो वा सम्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा आवस्सएत्ति ठवणा ठविजए से तं ठवणावस्सयं"
(पृत्ति:-अथ किं तत् स्थापनावश्यकमिति प्राने सत्याह-'ठषणावस्सयं जण्ण' मित्यादि, तत्र स्थाप्यते अमु. कोऽयमित्यभिप्रायेण क्रियते निर्वय॑त इति स्थापना-काष्ठकर्मादिगतावश्यकवत् साध्यादिरूपा सा चासौ आवश्यक. ततोरभेदोपचारादावश्यकं च स्थापनावश्यकं, स्थापनालक्षणं च सामान्यत इदम्-" यत्तु तदर्थ षियुक्तं तदभिप्रायेण यश्च तत्करणि। लेप्यादि कर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥१॥" इति, विनेयानुग्रहार्यमत्रापि व्याख्या-तु शब्दो नामलक्षणात स्थापनालक्षणस्य भेदसूचकः स चासावर्थव तश्यों-भाषेन्द्रभावापश्यकादिलक्षणस्तेन षियुक्तं-रहितं यह स्तु तदभिप्रायेण' भावेन्द्रायभिप्रायेण 'क्रियते' स्थाप्यते तत् स्थापनेति सम्बन्धः, किंषिशिष्टं यविस्याह-'यश्च तत्करणि' तेन-भाषेन्द्रादिना सह करणिः-साहश्यं यस्य (तत्) तत्क. रणि-तत्सदशमित्यर्थः, च शब्दातदकरणि चाक्षादि वस्तु गडते, असशमित्यर्थः, किं पुनस्तदेवंभूतं पस्त्वित्याह'लेप्यादिकर्मति लेप्य पुत्तलिकादीत्यर्थः, आदिशब्दात् काष्टपुत्तलिकादि प्रपते, अक्षादि पाऽनाकारं, कियन्तं कालं तत् क्रियत इत्याह अस्पः कालो यस्य तदल्पकालम्इस्वरकालमित्यर्थः, व शब्दापाषरकथिकं च शाश्वतप्रतिमादि, यत्पुनर्भाधेन्द्राधर्थरहितं साकारमनाकारं पा तदर्थाभिप्रायेण क्रियते तत् स्थापनेति तात्पर्यमित्यायर्थिः ॥१इदानीं प्रकृतमुच्यते-'जं 'सि 'ण'मिति वाक्यालवारे, यत्काष्ठकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा धराटके वा एको
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. २५
या अनेको वा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थापनया या 'आवस्सपत्ति' मावश्यकत तोरभेदोपचारासदानिह गृयते, ततधैको वा अनेको चा, कथंभूताः? अत उच्यते-आवश्यकक्रियावानावश्यकक्रियावन्तो वा 'ठषणा ठषिजइति' स्थापनारूपं स्थाप्यते-क्रियते, आवृत्या बहुवचनान्तत्वे स्थापमा. रूपाः स्थाप्यन्ते-क्रियन्ते, तत् स्थापनावश्यकमित्यादिपदेन सम्बन्ध इति समुदायार्थः । काष्ठकर्मादिप्यावश्यकक्रियां कुर्वन्तो यत् स्थापनारूपाः साध्वादयः स्थाप्यन्ते तत स्थापमावश्यकमिति तात्पर्यम् । अधुना अवयवार्थ उच्यते-तत्र क्रियत इति कर्म काष्ठे कर्म काष्ठकर्म-काष्ठनिकुट्टितं रूपकमित्यर्थः, 'चित्रकर्म' चित्रलिखितं रूपकं 'पोत्थकम्मेव'ति अत्र पोत्थं-पोतं वस्त्रमित्यर्थः, तत्र कर्म-तत्पल्लवनिम्पर्क धीउल्लिकारूपकमित्यर्थः, अथवा पोत्थं पुस्तकं तच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते,तत्र कर्म तन्मध्ये धर्तिकालिखित रूपकमित्यर्थः, मथवा पोत्थं-ताडपत्रादि तत्र कर्म-तच्छेद निष्पन्नं रूपकं, 'लेप्यकर्म' लेप्य रूपकं, 'प्रन्थिमं' कौशलातिशयाद् अग्थिसमुदाय निष्पादितं रूपकं, 'वेष्टिम' पुष्पवेष्टमक्रमेण निष्पनमानन्दपुरादि प्रतीतरूपम् , अथवा एकं ध्यादीनि बा वखाणि वेष्टयन कश्चित् रूपकं उत्थापयति तद्वेष्टिमं, 'पूरिमं भरिमं' पित्तलादिमयप्रतिमावत् ‘संघातिमं' बहुवस्त्रादिखण्ड संघात. निष्पन्न कञ्चुकवत , 'अक्षः' चन्दनको 'वराटकः' कपर्दकः, अत्र वाचनान्तरे अन्यान्यपि दन्तका दिपदानि दृश्यन्ते ताम्यप्युक्तानुसारतो भावनीयानि, वाशब्दाः पक्षान्तरसूचकाः, यथासम्भवमेवमन्यत्रापि, एतेषु काष्टकर्मादिषु आवश्यककियां कुर्वन्तः एकादिसाध्यादयः सद्भावस्थापनया असद्भावस्थापनया वा स्थाप्यमानाः स्थापनावश्यकं तत्र काष्ठकर्मादियाकारवती सद्भावस्थापना, साधायाकारस्य तत्र सद्भाषात,
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२६
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
अक्षादिषु त्वनाकारवतो असद्भावस्थापना, साध्यापाकारस्य तत्रासद्भावादिति, निगमयन्नाह-'सेतमित्यादि' तदेतत् स्थापनावश्यकमित्यर्थः ॥३१॥)
एभिरक्षःस्थापनार्हतः संस्थाप्य वंदते तद्विधिमाहमूल-काव्यं-छेदग्गंथ महानिसीहपवरे तिकालिए चेइए
वंदिज्जा भणियं थवं थुइविहि काऊण भावुज्जुओ। नायाधम्मकहाउ बीयतइ उवंगमि पन्नत्तिए
जंबुद्दीव विवाहनाम पुरउ उतं जहा आगमे ॥५॥ उक्तं च-श्री रायपसेणो उपांगे जीवाभिगमे च-- ___ "असयविमुद्धगन्यजुत्तेहि अस्थजुत्तेहिं अपुगरुत्तेहिं महावित्तेहिं संथुमइ २ ता सत्तट्ट पयाई पच्चीसक्कइ २ ता वा जाणुं अंचेइ २ त्ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि निदृ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवाडेइ २ ताईसिं पच्चुण्णमइ २ ताकरयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह एवं वयासीनमोत्थुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, वंदइ नमसइ २ त्ता॥"
( अत्र वृत्तिले शो यथा 'अठ्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहि'न्ति विशुद्धो निर्मलो लक्षणदोषरहित इति भावः यो ग्रन्थःशब्दसंदर्भस्तेन युक्तानि, अष्टशतं च तानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि च तैः अर्थयुक्तैः अर्थसारैरपुनरुक्तैर्महावृत्तः, तथाविधदेवलब्धिप्रभाव एषः, संस्तौति संस्तुत्य वामं जानु अश्चति इत्यादिना विधिना प्रणामं कुर्वन प्रणिपातदण्डकं पठति ॥ )
इति वचनात ॥ एवं ज्ञाताधर्मकथांगे भगवत्यंगे जंबुद्वीपप्रज्ञप्तौ च सूर्याभोपमया पूजा चैत्यवंदनादि सर्वं ज्ञातव्यम् ॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि प्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. २७ www मूल-उद्धठिएहि थुइउ, सक्कथय तहय उवनिविटेहिं ।
भणिऊण काउस्सग्गांतर. थुइ लोगाइ थुइ रहियं ॥५९॥ एवं मुयाणुसारा, विहिणा चियवंदणं च कायव्वं ।
जं अन्नहावि दीसइ, गच्छायरणाइ तं नेयं ६०॥ अट्टथुइ पंच सकथर, काउस्सग्गलोग सव्वाई।
सिद्धंतो थुइ पाढो, सुत्ते चिइ वंदणं न इमं ॥६१॥ नाणाऽविरयसुरेसु, चेइय सद्दो न संमउ समए ।
नाणस सुरसुरीणं. नहु अरिहत्तंपि संभवइ ।।२।। चेइय बंदण समए, परसिं इथ्थ नथ्थि अहिगारो ।
पढमोवंगे अंगे, तइए तह पंचगंगंमि ॥६॥ भणिर्ड काउन्सग्गो, पच्छित्तं दसविहमि पच्छित्ते ।
पच्छित्तिय खयट्ठाणे, किमागय इत्थ पच्छित्तं ॥६॥ यत:-श्री औषपातिकोपांगे, १ स्थानांगे. २ भगवत्यंगे. ३ च__ “से कि तं पच्छित्ते पच्छित्ते दसविहे पन्नत्त तंजहा-आलोयणारिहे पडिक्कमणारिहे तदुभयारिहे विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे तवारिहे छेदारिहे मूलारिहे अणवठ्ठप्पारिहे पारंचियारिहे" इति ॥ पंचमं प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः स तु देववंदनाधिकारे कथं स्यादिति पुनर्गीतार्था निरीहा वदंति तदेव प्रमाणं । मूल-मुत्तुत्तं मुलूणं, पुवायरियेहिं एयमायरियं ।
केणावि कारणेणं, तत्तं तु त एव जाणंति ॥६५॥ जे पुण आगमविहिणा, देवे वंदंति भावसुद्धीए । तेसिं च हीलणा जा, सा कि जुत्तत्ति तं भणह ॥६६॥
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२८
श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
वंदित चेहयाई, मज्झन्हे पोरिसीए तइयाए । पत्ताइ भत्तपाणं, गवेसए दोसरहियं तु ॥ ६७॥ गोयर चरिया काले, काउस्सगं करित्त उवओगं ।
भय भे कहिऊण, भत्तं पाणं गहिस्सामि ॥ ६८ ॥ यतः - श्री व्यवहारवृत्तौ गोचरीकाले उपयोगविधिरुक्तोस्तिमूल- आवस्सइत्ति भणिए, गुरुणो विय आइसंति तेसि इमं । आउ गहियव्वं, जह गहियं पुव साहूहिं ॥६९॥ यदुक्तं - " तइयाए पोरिसीए, भत्तं पाणं गवेसए । छह अण्णयरागंमि, कारणंमि समुट्ठिए ॥ ३२ ॥ वेयणवेयावच्चे इरियट्टाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छट्टै पुण धम्मचिंताए ||३३||
19
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( वृत्तिः - 'तप' इत्यादि सुगमं, नवरमौत्सर्गिकमेतत्, अभ्यथा हि स्थविरकल्पिकानां यथाकालमेव भक्तादिगवेषणं, तथा चाह - 'सरकाले चरे भिक्खू'ति, (स्मृतिकाले चरेद्र भिक्षुः ) षण्णां कारणानाम् 'अन्नयरायं मि'त्ति अन्यतरस्मिन् कारणे 'समुत्थिते' संजाते, न तु कारणोत्पतिं विनेति भावः, भोजनोपलक्षणं चेह भक्तपानगवेषणं, गुरुग्लानाचर्यमन्यथाऽपि तस्य सम्भवात् तथा चान्यत्र भोजन एवैतानि कारणान्युक्तानि तान्येव षट् कारणान्याह - 'वेयण वेयावश्चे' सि सुव्यत्ययाद् वेदनाशब्दस्य चोपलक्षणत्वात्क्षुत्पिपासाननितवेदनोपशमनाय तथा क्षुत्पिपासाभ्यां (परिगतो) न गुर्वादिवैयावृत्यकरणक्षम इति वैयावृत्त्याय, तथा 'ई' ति ईर्यासमितिः लैब निर्जरार्थिभिरर्थ्यमानतयाऽर्थस्तस्मै, 'चः ' समुचये, कथं नामासौ भवत्विति ?, इतरथा हि क्षुत्पिपा
}
"
"
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. २९ साभ्यां पीडितस्य चक्षुामपश्यतः कथमिवासौ स्यादिति ? तथा संयमार्थाय कथं नामासौ पालयितुं शक्यतामिति ?, आकुलितस्य हि ताभ्यां सचित्ताहारे तद्विघात एव स्यात् , तथा 'पाणवत्तियापत्ति प्राणप्रत्ययं जीवितनिमित्तम् , अविबिना धात्मनोऽपि प्राणोपक्रमणे हिंसा स्याद, अत एषोतम्"भाविय निणवयणाणं ममतरहियाण नरिथ हु विसेसो। अप्पाणंमि परंमि य तो बज्जे पीडमुभओऽवि" ॥१॥ षष्ठं पुनरिदं कारणम्-यदुत धर्मचिन्तायै च, भक्तपानं गवेषयेदिति सर्वत्रानुवर्तते, अत्र च धर्मचिन्ता-धर्मध्यानचिन्ता श्रुतधर्मचिन्ता वा, इयं शुभयरूपाऽपि तदाकुलितचेततो न स्पात , आर्तध्यानसम्भवात् . )
इति-श्री उत्तराध्ययन वचनात् ॥ यद्यपि तृतीयपौरुष्यां भक्तपानग्रहणमुक्तं तन्मगधदेशापेक्षया ज्ञातव्यं गीतार्थाः क्षेत्रकालाद्यपेक्षयान्यत्रापि प्रवर्तते तत्र न दोषः ॥ मूल-आहारं गिन्हिज्जा, उग्गम उपायणेसणासुद्धं ।
आदाय सहभंडं, जावद्धं जोयणं गच्छे ॥७०।।
अथ भोजनविधिमाह यतः-श्रीदशवैकालिकपंचमपिण्डेषणाध्ययने"सिआ अ गोयरग्गगओ, इच्छिज्जा परिभुत्तों (मुंजिउं)। कुट्टगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुअं १८२॥ अणुनवितु मेहावी, पडिच्छन्नमि संबुडे । हत्यगं संपमज्जित्ता, तत्थ अँजिन्ज संजए ।।८३॥ तत्थ से भुंजमाणस्स, अठिअं कंटओ सिआ। तणकठसकर वापि, अन वावि तहाविहं ॥८४॥
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३०
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शानम् .
तं उक्खिवित्तु न निक्खिवे, आसएण न छड्डुए। हत्थेण तं गहेऊण, एगंतमवक्कमे ॥४५॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ। जयं परिठविज्जा, परिठप्प पडिक्कमे ।।८६॥"
(वृत्तिः-एबमनपानग्रहणविधिमभिधाय भोननविधिमाल'सिआअति सूत्रं, 'स्यात्' कदाचिद 'गोचराग्रगतो' नामान्तरं भिक्षा प्रषिष्ट इच्छेत्परिभोक्तुं पानादि पिपासाचभिभूतः सन् , तत्र साधुषसत्यभाधे 'कोलक' शून्यचट्टमठादि 'भित्तिमूलं षा' कुड्येकदेशादि, प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणेन 'प्रासुक' बीजादिरहितं चेति सूत्रार्थः ॥८२॥ तत्र 'अणुन्नवि' त्ति सूत्रं, 'अनुशाप्य' सागारिकपरिहारतो विश्रमणव्याजेन तत्स्वामिनमवग्रहं 'मेधावी' साधुः 'प्रतिच्छन्ने' तत्र कोष्ठकादौ 'संवृत्त' उपयुक्तः सन् साधुरोर्याप्ततिक्रमणं कृत्वा तदनु'हस्तक' मुखवस्रिकारूपम् , आदयेति वाक्यशेषः, संप्रमृत्य विधिना तेन कायं तत्र भुञ्जीत 'संयतो' रागळेषावपाकृत्ये ति सूत्रार्थः ॥८३॥ तस्य'त्ति सूत्रं, 'तत्र' कोष्ठकादौ 'से' तस्य साधोर्भुनानस्य अस्थि कण्टको वा स्यात् , कथंचिगृहिणां प्रमाददोषात् , कारणगृहीते पुद्गल एवेत्यन्ये, तृणकाष्ठशर्करादि चापि स्यात् , उचितभोजनेऽन्यत्रापि तथाविधं बदरकर्कटकादीति सूत्रार्थः ॥८॥ 'तं उक्खिवित्तु' इति सूत्रं, 'तद्' अस्थ्यादि उरिक्षप्य हस्तेन यत्र क्वचिन्न निक्षिपेत् , तथा 'आस्येन' मुखेन नोझेत् , मा भूनिराधनेति, अपितु हस्तेन गृहीत्वा 'तद्' अस्थ्यादि एकान्तमवक्रामे दिति सूत्रार्थः ॥८५॥ एगंत'त्ति सूत्र, एकान्तमचक्रम्य अचित्तं प्रत्युपेक्ष्य यत प्रतिष्ठापयेत् , प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रामेदिति, भावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः॥८६॥)
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ३१
"सिआ य भिख्खू इच्छिज्जा, सिन्जमागम्म भुत्तु। सपिंडपायमागम्म, उंडुअं पडिलेहिआ ॥८७ ॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी। इरियावहियमादाय, आगओअ पडिकमे ॥८॥ आभोइत्ताण नीसेस, अईआरं जहकमं । गमणागमणे चेव, भत्तपाणे व संजए ॥८९॥ उज्जुप्पन्नो अणुविग्गो, अवक्वित्तेण चेअसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहिअं भवे ॥१०॥ न सम्ममालोइअं हुन्जा, पुचि पच्छा व जं कडं । पुणो पडिकमे तस्स, वोसट्ठो चिंतए इमं ॥११॥ अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिआ। मुक्खसाहण हेउस्स, साहुदेहस्स धारणा ।।१२।। णमुक्कारेण पारित्ता, करिता जिणसंथवं । सज्झायं पहवित्ताणं, वीसमेन्ज खणं मुणी ॥९३॥ वीसमंतो इमं चिंते, हियमई लाभमस्सिओ। जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हुन्जामि तारिओ ॥१४॥ साहवो तो चिअत्तेण, निमंतिज जहकमं । जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए ॥९॥ अह कोइ न इच्छिज्जा, तओ भुंजिन एक्कओ। आलोए भायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं १९६॥"
(वृत्तिः-वसतिमधिकृत्य भोजनविधिमाह-सिआय'ति सूत्र, 'स्यात्' कदाचित् तदायकारणाभावे सति भिक्षुरिच्छेत्
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३२ श्रीसामाचारी समाभितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . 'शय्यां' षसतिमागम्य परिभोक्तुं, तत्रायं विधिः-सह पिण्डणातेन-विशुद्धसमुदानेनागम्य, वसतिमिति गम्यते, तत्र बहिरेवोन्दुकं-स्थानं प्रत्युपेक्ष्य विधिना तत्रस्थः पिण्डपातं विशोषयेदिति सूत्रार्थ: ।।८७॥ तत ऊध 'विणएण'त्ति सूत्रं, विशोध्य पिण्डं बहिः 'विनयेन' नेषेधिको नमः क्षमाश्रमणेभ्योऽअलि करणलक्षणेन प्रविश्य वसतिमिति गम्यते, सकाशे गुरोः मुनिः, गुरुसमीप इत्यर्थः, ईर्यापथिकामादाय' "इच्छामि पडिक्कमिडं इरियावहियाए" इत्यादि पठित्वा सूत्रं, आगतश्च गुरुसमीपं प्र. तिकामेत्-कायोत्सर्ग कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥८८|| 'आभोत्तापति सूत्र, तत्र कायोत्सर्गे 'आभोगयित्वा' ज्ञात्वा निःशेषमतिचारं 'यथाक्रम' परिपाट्या, केत्याह-गमनागमनयोश्चैव' गमने गच्छत आगमन आगच्छतो योऽतिचार तथा 'भक्तपानयोध भक्त पाने च योऽतिचारः तं 'संयतः' साधुः कायोत्सर्गस्थो हृदये स्थापयेदिति सूत्रार्थः ॥८९॥ विधिनोत्सारिते चैतस्मिन् 'उज्जुप्पन्न'त्ति सूत्रं, 'ऋजुप्रज्ञ:' अकुटिलमतिः सर्वत्र 'अनुविमः' क्षुदादि जयात्प्रशान्तः अव्याक्षिप्तेन चेतसा, अन्यत्रोपयोगमगच्छतेत्यर्थः, आलोचयेद्गुरुसकाशे, गुरोनिवेदयेदिति भावः, 'यद' अशनादि 'यथा' येन प्रकारेण हस्तदा (धाव) नादिना गृहीतं भवेदिति सूत्रार्थः ॥९०॥ तदनु च 'न संमत्ति सूत्रं, न सम्यगालोचितं भवेत् सूक्ष्मम् अज्ञानातूअनाभोगेनाननुस्मरणाद्वा, पूर्व पश्चाता यत्कृतं, पुरःकर्म पश्चाकर्म वेत्यर्थः, 'पुनः' आलोचनोत्तरकालं प्रतिकामेत् 'तस्य' सूक्ष्मातिचारस्य 'इच्छामि पडिकमिउं गोअरचरिआए, इत्यादि सूत्रं, पठित्वा 'व्युत्सृष्टः' कायोत्सर्गस्थचिन्तयेदिदंवक्ष्यमाणलक्षणमिति स्त्रार्थः ॥९१॥ 'अहो' जिणे हिं' सूत्र, 'अहो' विस्मये 'जिनः' तीर्थकरैः 'असावद्या' अपापा 'वृत्तिः' पर्तना साधूनां दर्शिता देशिता वा 'मोक्षसाधनहेतोः' सम्यग्.
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ३३
१
दर्शनज्ञानचारित्रसाधनस्य साधुदेहस्य 'धारणाय' संधारणार्थमिति सूत्रार्थः ||१२|| ततश्च- ' णमोक्कारेण' त्ति सूत्रं, नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरिहंताण' मित्यनेन कृत्वा जिनसंस्तवं "लोगस्सुङजोअगरे" इत्यादिरूपं ततो न यदि पूर्व प्रस्थापितस्ततः स्वाध्यायं प्रस्थाप्य मण्डल्युपजीवकस्त मेष कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति यः पुनस्तदन्यः क्षपकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् 'क्षणं' स्तोककालं मुनिरिति सूत्रार्थः ॥ ९३ ॥ ' बीसमंत ' ति सूत्रं, विश्राम्यन्निदं चिन्तयेत् परि णसेन चेतसा,-' हितं' कल्याणप्रापकमर्थ - पक्ष्यमाणं, किंषिशिष्टः सन् ? - भात्रलाभेन - निर्जरादिनाऽर्थोऽस्येति लाभार्थिकः, यदि 'मे' मम अनुग्रहं कुर्युः साधवः प्रातुकपिण्डग्रहणेन ततः स्यामहं तारितो भवसमुद्रादिति सूत्रार्थ: ॥ ९४ ॥ एवं संचिन्त्योचितवेलायामाचार्य मामन्त्रयेद, यदि गृह्णाति शोभनं नोचे वक्तव्योऽसौ भगवन् ! देहि केभ्योऽप्यतो यद्दातव्यं, ततो यदि ददाति सुन्दरम् अथ भणति स्वमेष प्रयच्छ, अत्रान्तरे - 'साहो' ति सूत्रं साधैस्ततो गुर्षनुज्ञातः सन् 'चिमणं' ति मनः प्रणिधानेन निमन्त्रयेत् 'यथाक्रमं ' यथा रत्नाधिकतया महणौचित्यापेक्षया वालादिक्रमेणेत्यन्ये, यदि तत्र 'केचन' धर्मवान्धवाः 'इच्छेयुः' अभ्युपगच्छेयुस्ततस्तैः सार्धं भुञ्जीत उचित्तसंविभागदानेनेति सूत्रार्थ ||१५|| अह कोइति सूत्रं, अथ कश्चिन्नेच्छेत् साधुस्ततो भुञ्जीत 'एकको' रागादिरहित इति कथं भुञ्जीतेत्याह'आलोके भाजने' पक्षिकाच पोहाय प्रकाशप्रधाने भाजन इत्यर्थः 'साधुः' प्रव्रजितः 'यतं' प्रयत्नेन तत्रोपयुक्त: 'अपरि शार्ट' हस्तमुखाभ्यामनुज्झन् इति सूत्रार्थः ॥९६॥ तित्तगं व कडुअं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा ! एअलद्धमन्नत्थ पत्तं महुघयं व भुंजिज्ज संजए ॥९७॥
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३४ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
(वृत्ति:-भोज्यमधिकृत्य विशेषमाह-'तित्तगं पति सूत्रं, तितकं वा पलुकधालुकादि, कटुक वा आकतीमनादि, कषायं पल्लादि, अम्लं तक्रारनालादि, मधुरं क्षीरमध्यादि, लवणं षा प्रकृतिक्षारं तथाविधं शाकादि लवणोस्कटं घाऽन्यत्, एतत्तिक्तादि लब्धम्' आगमोक्तेन विधिमा प्राप्तम् 'अन्या. र्थम् ' अक्षोपाङ्गम्यायेन परमार्थतो मोक्षार्थ प्रयुक्तं तत्साधकमितिकृत्वा मधुघृतमिव च भुञ्जीत संयतः, न वर्णाधर्थम् , अथवा मधुघृतमिष ‘णो वामाओ हणुआओ दाहिणं हणुअं संचारेल'त्ति सूत्रार्थः ॥९९॥ ) मूल-संजोइणाई मंडलि, दोसेहिं पंचहिं तु जो रहियं ।
भुजिज्जा सुद्धमणो, सो समणो होइ नायव्यो ७०॥ यतः-(श्री उत्तराध्ययन २६ सामाचारी अध्ययने)"निग्गंयो धिइमंतो निग्गंधीवि न करिज्ज छहिं चेव ।
ठाणेहिं तु इमेहिं अणइक्कमणा य से होइ ॥३३॥ आर्यके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसे । पाणिदयातबहे सरीरवुच्छेयणहाए ३४॥"
(वृत्तिः-'निर्ग्रन्थः' यतिः धृतिमान् धर्मचरणं प्रति 'निर्ग्रन्था' तपस्विनी साऽपि न कुर्याद्भक्तपानगवेषणमिति प्रक्रमः, षभिश्चैय स्थानः 'तुः' पुनरर्थे 'एभिः' अनन्तरं बक्ष्यमाणैः, किमित्येवमत आह-'अणइक्कमणइत्ति सूत्रत्वाद् 'अनतिक्रमणं' संयमयोगानामनुल्लञ्चनं, चशष्दो यस्मादर्थे, यस्मात् 'सेति तस्य निर्ग्रन्थस्य तस्या या निर्ग्रन्थतायाः (स्थ्याः ) 'भवति' जायते, अन्यथा तदतिक्रमणसम्भषात् । षट् स्थानान्येवाह-आतङ्को-उधरादिरोगस्तस्मिन् , 'उपसर्ग मिति
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मिति गम्यते, अनचर्यगुप्ति, जिदयाहतो
तोच, तथ
आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ३५ स्वजनादिः कश्चिदुपसर्गमुनिष्क्रमणार्थ करोति, विमादिहैतो; देवादिः, ततस्तस्मिन् सति, उभयत्र तन्निवारणार्थमिति गम्यते, तथा तितिक्षा सहनं तया हेतुभूतया, क विषये इत्याह ब्रह्मचर्यगुप्तिषु, ता हि नान्यथा सोढुं शक्या, तथा 'पाणिदयातबहेउ'ति 'प्राणिदयाहेतो. वर्षादौ निपतत्य. कायादिजीवरक्षायै तपः-चतुर्थादिरूपं तद्धेतोय, तथा शरीरस्य व्यवच्छेदः-परिहारस्तदर्थ च उचितकाले संलेखनामनशमं था कुर्वन , भक्तपानगवेषणं न कुर्यादिति सर्वत्र योज्यं, कारणत्यभावना चामोषां प्राग्वत् , ) मूल-काउण थंडिलाए, सुद्धिं सिद्धंत भासियं तु पुणो ।
तणडगलउग्गहेणं, उच्चाराई परिठवई ॥७॥ यतः-(श्री उत्तराध्ययने २४ अध्ययने)"अणावायमसंलोए, परस्सऽणुवघाइए ।
समे अझुसिरे वावि, अचिरकालकयंमि य ॥१७॥ विच्छिन्ने दूरमोगाडे, णासन्ने बिलवज्जिए । तसपाणवीयरहिए, उच्चाराईणि बोसिरे ॥१९॥"
(वृत्तिः-शविशेषणपदज्ञानार्थ, तानि यादृशे स्थण्डिले व्युत्सृजेत्तदाह अनापाते असंलोके, कस्य पुनरयमा. पातः संलोकश्चेत्याह- परस्य' स्वपक्षादेः, गमकत्वाचोभयत्र सापेक्षरवेऽपि समासः, उपधातः-संयमात्मप्रवचनबाधात्मको विद्यते यत्र तदुपधातिकं न तथाऽनुपघातिकं तस्मिन् , तथा 'समे' निम्नोन्नतत्वजिते 'अशुषिरे वाऽपि' तृणपर्णाधमाकोणे 'भचिरकालकृते च' दाहादिना स्वल्पकालनिर्वतिते, चिरकालकृते हि पुनः संमूछन्त्येव पृथ्वीकायादयः, 'विस्तीणे' नधन्यतोऽपि हस्तप्रमाणे 'दूरमगादे' जघन्यतोऽप्यधस्ता
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श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
चतुरङ्गलमचित्तीभूत्ते 'नासन्ने' ग्रामारामादेर्दूरवर्त्तिनि 'विलवर्जिते ' मूषकादिरम्धरहिते वसप्राणाश्च द्वीन्द्रियादयो बीजानि च शाल्यादीनि सकले केन्द्रियोपलक्षणमेतत् तैस्तत्रस्थैरागन्तुकैश्च रहितं षर्जितं त्रसप्राणवीजरहितं तस्मिम्, स्थण्डिल इति शेषः, 'उच्चारादीनि' उत्तरूपाणि 'व्युत्सृजेत' परिष्ठापयेत् । )
2
इति श्री उत्तराध्ययनवचनात् । अयं भावः श्री आवश्यकवृत्तौ ॥ मूल-उदीणाभिमुो होऊं, दिवसे रत्तीइ दाहिणाभिहो ।
उच्चारं पासवणं, परिठविज्जा जयं साहू ||७२ || पत्ताई पोरिसीए, तुरियाई समुट्ठिऊण वंदिता ।
दाऊण खमासगणं, पडिपुन्ना पोरिसी भणइ ॥ ७३ ॥ एवं मृणित्तु सव्वे दुखमासमणे दिही दाऊणं ।
संदिसह निक्खिवामि, कुणंति स सभंड निक्खेवं ॥९४॥ वंदित्तु विणयपुत्र, पच्छा साहू कुणंति सज्झायं ।
बाहिर संगपवि, कालियमुक्का लियै वावि ॥ ७५ ॥ यतः (श्री उत्तराध्ययन २६ अध्ययने ) - "उत्थीए पोरिसीए, निक्खिवित्ताण भाषणं । सज्झायं च तओ कुज्जा, सवभावविभावणं ॥३६॥
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( वृत्तिः - इत्थं बिहृत्योपाश्रयं चागत्य गुर्वालोचनादिपुरस्सरं भोजनादि कृत्वा यत्कुर्यात्तदाह- चतुर्थ्यां पौरुष्यां निक्षिप्य प्रत्युपेक्षणापूर्वकं बध्वा भाजनं' पात्रं स्वाध्यायं ततः कुर्यात् सर्वभाषा-जीवादयस्तेषां विभावनं (कं) - प्रकाशकं सर्वभाष विभाषकं पठ्यते च सन्दुक्खत्रिमोक्खणं 'ति प्राग्वत्, )
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ३७
इति उत्तराध्ययनवचनात्मूल-घडिया दुगेण ऊणा, पोरिसी जाव ताव काऊणं,
सज्झायं गुरुपुरओ, पडिक्कभित्ता तओ पच्छा ।।७६।। कालं पडिक्कमित्ता, कुणंति पडिलेहणं विणयपुव्वं ।
पुत्तिदेहं पाउं,-च्छणं च तत्तो रयहरणं ।।७७।। दुत्थोभवंदणेहिं, अंगप्पडिलेहणं तो कुजा ।
तत्य य तणुसंबद्धं, पडिलेहित्ता पमज्जत्ति ॥७८॥ दाउं च खमासमणं, बसही पमज्जणं तओ कुजा ।
पाभाइएण विहिणा, जावय इरियापडिक्कमणं ।।७९॥ यतः (श्री उत्तराध्ययन २६ अध्ययने)"पोरिसीए चउन्माए, वंदित्ताण तओ गुरुं। पडिक्कमित्ता कालस्स, सिज्जं तु पडिलेहए ।।३७॥"
(वृत्ति:--पौरुष्याः प्रक्रमाच्चतुर्थ्या: चतुर्भागे-चतुर्थाशे शेष इति गम्यते, पन्दित्वा 'ततः' इति स्वाध्यायकरणादनन्तरं 'गुरुम्' आचार्यादि प्रतिक्रम्य कालस्य 'शय्यां' वसति 'तुः' पूरणे प्रतिलेखयेत् ,)
इति उत्तराध्ययने ।। मूल-दाऊण छोमवंदण,-गति भणति इच्छ कारेणं ।
संदिसह मज्झ भयवं, पडिलेहणयं पडिलेहेमि ॥८॥ ठवणायरियस्स तो, विणयं कुज्जा पमज्जणा पमुहं । पंचनमुकारेणं, ठारित्ता तं जहाहाणे ॥८१॥
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३८
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
गुरुणो ठवणायरिउ, गुरूय सेसाण जाण सो चेव ।
तस्स य पुरओ सव्वं, पमाणमाहू अणुट्टाणं ॥८२॥ यतः-"गुरु विरहमिय उदणा, गुरूवएसो व दंसणत्थं च ।
जिणविरहमिय जिबिंब, सेवणा मंतण सहलं ॥२॥"
इति पूर्वाचार्यवचनात् ॥ मूल-तत्तो पञ्चख्खाणं, करति दाऊण बारसावतं ।
वंदणयं सुयभणिय, नाऊण विहिं सुगुरुवयणा ॥८३॥ यतः-(श्री समवायांगे)-"दुवालसावत्ते कितिकम्मे प. तं
दुओणयं जहाजाय, कितिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुतं च, दुपयेस एगनिक्रसमणं ॥१॥"
(वृत्तिः-'दुवालसावते किइफम्मे'त्ति वादशावर्त कृति. कर्म-धन्धनकं प्रज्ञाप्तं, द्वादशावर्त्ततामेवास्यानुषदन् शेषांच तद्धर्मानभिधित्सुः रूपकमाह-'दुओणये' त्यादि, अवनतिरवनतम्-उत्तमाङ्गप्रधानप्रणमनमित्यर्थः, द्वे अधनते यस्मिस्तदद्वयवनतं, तत्रकं यदा प्रथममेव 'इच्छामि खमासमणो वंदिउं जाधणिजाप निसीहियापति अभियाग्रहानुज्ञापनायावनमतीति, द्वितीय पुनर्यदाऽवग्रहानुज्ञापनाचैवावनमतीति, यथा जातं-श्रमपत्य भवनलक्षणं जमा प्रत्य शोभिनिष्क्रमणलक्षणं च, तत्र रजोहर मुखबखिशाबोलपट्टमात्रया अमणो जातो रचितकरयुटस्तु योन्या निर्गत एवंभूत एक बन्दते तदव्यति. रेकाद्वा यथाजातं भण्यते, कृतिकर्म-वन्दनकं 'बारसावयंति द्वादशावर्ताः-सूत्राभिधानगर्भा: कायव्यापारविशेषाः यतिजगप्रसिद्धा यस्मिस्तद् द्वादशावर्त, तथा 'चउसिरति चत्वारि शिरांसि यस्मिस्तचतुःशिरः प्रथमप्रविष्टस्य क्षामणा.
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि प्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ३९
काले शिष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना, तथा 'तिगुत्तं ति तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तः पाठान्तरेऽपि तिसृभिः (श्रद्धाभिः) गुप्तिभिरेवेति, तथा 'दुपधेतं' ति द्वौ प्रवेशौ यस्मिंस्तद द्विप्रवेशं तत्र प्रथमोऽवग्रहमनुज्ञाप्य प्रविशतो द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति, 'एगनिक्खमणं' ति एकं निष्क्रमणमवग्रहादाब रियक्या निर्गच्छतः, द्वितीयवेलायां श्रवग्रहान्न निर्गच्छति, पादपतित पत्र सूत्रं समापयतीति, )
- इति सूत्रवचनात् ॥ "द्वितीयं वंदनकं पादपतित एव समापयति" इति श्री अभयदेवसूरिकृतवृत्तिवचनात् । आवश्यकनियुक्त - "बाहिरखित्तंमि हिउ, अणुन्नवित्ताण उग्गहं पविसे । उग्गहं खित्तं पविसे, जाव सिरेणं फुसे पाए ॥१॥” इति वचनात् मूल- उग्गहमज्झे चिट्ठा, गुरुपयफासं विणावि उद्घविउ ।
जो साहू तस्स भवे, गुरूण आसायणा नृणं ||८४|| भणियाय विध्यरेणं, तित्तीसं ताऊ मूल सुत्तमि ।
दस व क्, अन्नथवि नाम पत्ते || ८५ || आवस्सयंमि तइए, अज्झयणमिय पुणो तहा चउध्यंमि । अंगंमि तइय तुरिए, दसमंमि समासओ एवं ॥ ८६ ॥ पवयणभणियकमेणं, पायपडिएण वीयवंदणयं ।
दायच्वं जं अन्नं, गच्छायरणाइ तं नेयं ॥ ८७ ॥ उत्तपमज्जतो, उग्गहबाहिंमि निक्खमंतोय । आवसिय भणतो, किरियाएसं च मग्गेइ ॥ ८८ ॥
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४० श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम्. कयपञ्चक्खाण किरिउ, बंदणपुव्वं तु संदिसावित्ता ।
उहोवग्गह उवहि, तो पडिलेहंति अवसे ।।८।। आयरिए वंदित्ता, वसहिं पवेएमि थंडिलाई पुणो ।
पडिलेहेमुत्ति भणित्ता, कुणति सोहिं तु वसहीए ॥१०॥ वारस बारस चिय, पासवणुच्चारकालगहणाणं । तीसं च मंडलाई, पडिलेहित्ता पमज्जति ॥९१॥
( यद्यपि उपदेशमालादौ त्रिणि कालमंडलानि कर्षि। तानि संति तथापि प्रत्यक्षतः सधैपि साधवः षट् मंडलानि कुर्वाणा दृश्यते प्रादोषिकार्द्धरात्रिकयोदक्षिणोत्तरयोवैरात्रिक प्राभातिकयो: पूर्वपश्चिमयोमडलत्रिकत्रिकरणात् । अथ पट लिखितानि संति)
॥ आ कोशनी बिना लखेल पानानी कांबीमा छ । मूल-इरियं पडिक्कमित्ता, पुव्वुत्तविहीइ कालवेलाए।
वंदित्तु चेइयाई, गोयरचरियाइ (झो) घोसंति ॥१२॥ आयरिय उवज्झाए, साहू वंदति छोभवंदणया।
एगखमासणेणं, तो देवसियं पडिकमणं ॥१३॥ ठावेमित्ति भणित्ता, उद्धठिया हत्थगहियरयहरणा। पडिवनजोगमुद्दा, भणति उस्सग्गमुत्ताई ॥९॥
॥ अथ प्रतिक्रमणविधिः-सूत्र-नियुक्ति-प्रमुखग्रंथभाषितो लिख्यते, श्रीउत्तराध्ययने-२६ अध्य० " पासवणुच्चारभूमि च, पडिलेहिज्ज जयं जई।
काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमुक्खणं ॥३८॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ४१ देसियं च अईयारं, चिंतिज्ज अणुपुव्वसो ।
नाणंमि दंसणे चेव, चरितंमि तहेव य ॥३९॥ पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ता य तओ गुरुं ।
देसियं तु अईयारं, आलोइज जहकमं ॥४०॥ पडिक्कमित्ताण निस्सल्लो, वंदित्ताण तओ गुरुं ।
काउस्सगं तो कुज्जा, सव्वदुक्ख विमुक्खणं ॥४१॥ पारिय काउस्सग्गो, बंदित्ताण तओ गुरुं ।
थुइ मंगलं काउणं, कालं संपडिलेहए ॥४२॥"
(वृत्तिः---'पासवणुच्चारभूमि च'ति, भूमिशब्दस्य प्रत्ये. कमभिसम्बन्धात् प्रश्रयणभूमिं उच्चारभूमि च प्रत्येकं बादश. स्थण्डिलात्मिकां च शब्दात्कालभूमि च स्थण्डिलत्रयात्मिका प्रतिलेखयेत् 'जय'ति 'यलम्' आरम्भादुपरतं यथा भवति यतमानो वा यतिः, एवं च सप्तविंशतिस्थण्डिलप्रत्युपेक्षणा. नन्तरमादित्योऽस्तमेति,कायोत्सर्ग 'ततः'प्रश्रवणादिभूमिप्रति. लेखनाद नन्तरं कुर्यात्सर्वदुःखविमोक्षणं, तथात्वं चास्य कर्मापचयहेतुत्वात् ॥२८॥ उक्तं हि-“काउस्सग्गे जह सुठियस्स भन्जंति अंगमंगाई। तह भिंदंति सुविहिआ अट्ठविहं कम्म. संघायं ॥१॥" ति तत्र च स्थितो यत्कुर्यात्तदाह-'देसियंति प्राकृतस्याद्वकारस्य लोपे देवसिकं 'च:' पूरणे 'अतिचारम्' अतिक्रमं चिन्तयेत्' ध्यायेत् 'अणुपुषसो त्ति आनुपूाक्रमेण, प्रभातमुखवत्रिकाप्रत्युपेक्षणातो यावदयमेव कायोपसर्गः, किं विषयमतीचारं चिन्तयेदित्याह-'ज्ञाने' ज्ञानविषयमेवं दर्शने चैव चारित्रं तथैव च ॥२९॥ पारित:-समापितः कायोत्सर्गो येन स तथा वन्दित्वा प्रस्तावाद द्वादशावत्तचन्दनेन 'तत' इत्यतीचारचिन्तनादनन्तरं 'गुरुम्' आचार्या
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४२
श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
दि 'देसिय'ति प्राग्वद् दैवसिक 'तुः' पूरणेऽतीचारम् 'आलोचयेत्' प्रकाशयेद् गुरूणामेघ 'यथाक्रमम्' आलोचनसेषना. न्यतरानुलोम्यक्रमानतिक्रमेण ॥४॥ 'प्रतिक्रम्य' प्रतीपमपराधस्थानेभ्यो निवृत्य, प्रतिक्रमणं च मनसा भावशुद्धितो याचा तत्सत्रपाठतः कायेनोत्तमाङ्गनमनादितः, 'निःशल्यः' मायादिशल्यरहितः, सूचकत्वात्सूत्रस्य वन्दनकपूर्व क्षमयिस्वा च पन्दित्वा द्वादशाचतवनहनेन 'ततः' इन्युक्तषिधेरनन्तरं 'गुरुम्' आचार्यादिकं 'कायोत्सर्ग' चारित्रदर्शनश्रुतज्ञानशुद्धिनिमित्तव्युत्सर्गत्रयलक्षणं, जातायेकवचनं, 'ततः' गुरुचन्दनादनन्तरं कुर्यात्सर्वदुःख धिमोक्षणम् ॥४१॥ 'पारिये' त्यादि पूर्वार्द्ध व्याख्यातमेष, स्तुति मङ्गलं च सिद्धस्तषरूपं कृत्वा पाठान्तरं घा-सिद्धाणं संथवं किञ्च'त्ति सुगम, 'कालम्' आगमप्रतोतं 'संपडिलेहए'त्ति संप्रत्युपेक्षते, कोऽर्थः ?प्रतिजागति, उपलक्षणत्वाद् गृह्णाति च, एलद्गलश्च विधिरागमादषसेयः ॥४२॥)
वृत्तावयमेवार्थः ॥ पुनः श्रीभद्रबाहुस्वामिकृतावश्यकनियुक्तौ पंचमाध्ययने"ते पुण स मूरिएच्चिय, पासवणुचारकालभूमीउ ।
पेहित्ता अत्थमए, वंतुस्सग्गं सएठाणे ॥१॥ जा देवरियं दुगुणं, चिंतेइ गुरू अहिंढउचिटं ।
बहुवा वारा इयरे, एगगुणता विचिंतति ॥२॥ पवइयाणवचिट्ठ, नाऊण गुरूबहुं बहु विहीयं ।
कालेण तदुचिएणं, पारेइ यथोवचिट्ठोवि ॥३॥ नमुकारचउवीसग,-किइकम्मालोचणं पडिकमणं । किइकम्मं दुरालोइय, दुप्पडिकंतेय उस्सग्गो ॥४॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ४३
एस चरित्रसगो, वंदणसुद्धीय तइयउ हो ।
सुयनाणस्स चत्थो, सिद्धाण थुइ य किइकम् ||५ ॥ सुकयं आणति पिच, लोए काउण सुकयकिइकम्मा |
वति तथा थुइ उ, गुरुथुइ गहणे कए तिनि ||६|| " इति आवश्यकवृहद्वृत्तौ आवश्यकचूर्णो च विस्तरतोयगेवार्थः!! अथ श्रीहरिभद्रसूरिकृत पंचवस्तुकग्रंथे विस्तरेण विधिः
( श्री उत्तराध्ययने आवश्यकमिर्युक्तौ च कालमंडलानां त्रिकमिति संख्या नास्ति अत्र वर्तते प्ररूपणा करणयोरंतरंeg विचारणा ) ( आ बीना लखेल पानानी कांबोमां छे ) गाथा - एमेव य पासवणे, बारस चडवीसयं तु पेहिना ।
कालस्स य तिनि भवे, अह सूरो अत्यमुदवाई | ४४२॥
( वृति: - एवमेष व 'प्रश्रवण' इति प्रश्रवणविषया द्वादश, इत्थं चतुर्विंशतिं तु प्रत्युपेक्ष्य भुषां इति गम्यते, कालस्य च तिस्रो भवन्ति प्रत्युपेक्षणीयाः, अथात्रान्तरे सूर्यः अस्तमुपयतीति गाथार्थ: ||४२॥ ) गाथा - इत्थेव पत्थवंमी, गीओ गच्छंमि घोसणं कुणइ । सज्झायादु उत्ताण, जाणणट्टा सुसाहूणं : ४४३॥
( वृत्तिः - अप्रैष प्रस्तावे 'गीत' इति गीतार्थः गच्छे घोषणां करोति स्वाध्यायायुपयुक्तानां सतां ज्ञापनार्थ सुनाधूनामिति, गाथार्थः ॥ ४३॥ )
कथमित्याह
गाथा - कालो गोअरचरिअं थंडिल्ला वत्थपत्तपडिलेहा । संभरउ सो साहू जस्स व जं किंचि णात्तं ॥ ४४४॥
थंडिल्लत्तिदारं गयं ॥
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४४ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
(वृत्तिः-कालो गोचरचर्या स्थण्डिलानि वनपात्रप्रत्युपेक्षणा, सर्वाण्युक्तस्वरूपाणि संस्मरतु स साधुः, यस्य वा यत्किञ्चिदनपयुक्तं पुनः कालोऽत्येतीसि गाथार्थः ॥४४॥ )
सम्बन्धमभिधाय आवश्यक विधिमाहगाथा-जइ पुण निवाघाओ आवासं तो करिति सव्वेऽवि ।
सड्ढाइ कहण वाघाययाए पच्छा गुरू ठंति ॥४४५॥
(वृत्तिः-अत्रान्तरे यदि पुनः निर्व्याघातः' प्रकान्तकिया विघ्नामावः ‘आवश्यक प्रतिक्रमणं तत: कुर्वन्ति सर्वेऽपि सह गुरुणा, 'श्रावकादिकथनव्याघाततया' श्रावकविधिधर्मपदार्थशयन विघ्नभावेन पश्चाद् गुरपस्तिष्ठन्ति आवश्यक इति गाथार्थः ॥४५॥ ) गाथा-सेता उ जहासति आपच्छिताण ठंति सट्टाणे ।
सुत्तत्यसरणहेउं आयरिअ ठिअंमि देवसि॥४४६।।
(वृत्तिः-शेषास्तु साधन: 'यथाशक्त्या' यथासामर्थेनापृच्छय प्रश्नाईत्वाद् गुरुमिति गम्यते तिष्ठन्ति स्वस्थाने यथारत्नाधिकतया, कायोत्सर्गेणेति भावः, किमर्थमित्याह'सूत्रार्थस्मरणहेतो रिति सूत्रार्थानुस्मरणाय, आचार्य स्थिते व्याक्षेपोत्तरकालं कायोत्सर्गेण 'देवसिक'-मिति दिवसेन निष्पन्नमतिचारं चिन्तयन्तीति गाथार्थः ॥४६॥ उत्सर्गापधादमाह-) गाथा-जो हुजउ असमत्थो बालो बुढो व रोगिओ वावि
सो आक्स्सयजुत्तो अच्छिज्जा णिजरापेही ॥४४७॥
(वृत्तिः-यो भवेदसमर्थः-अशक्तो बालो वृद्धो पा रोगितो वापि सोऽप्यावश्यकयुक्तः सन् यथाशक्त्यैव तिष्ठेत निर्जरापेक्षी तत्रैवेत्ति गाथार्थः ॥४७॥ )
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ४५
गाथा-एत्थ उ कयसामइया पुव्वं गुरुणो अ तयवसाणंमि ।
अइआरं चिंतंती तेणेव समं भणंत्तऽण्णे ॥४८॥
पूर्वाचार्यैः कुत्रापि कायोत्सर्गाधिकारेपि वंदनमुक्तं वर्तते तदत्र नास्ति तेन वंदनकायमत्र प्रमाणिकृतं ॥ आ कांबीमा छे.
(वृत्तिः--'अत्र पुनः' आवश्यकाधिकारे अयं विधिः, यदुत-कृतसामायिकाः पूर्व-कायोत्सर्गाषस्थानकाले, गुरोश्च 'तदवसाने' सामायिकोचारणावसाने, अतिचारं चिन्तयन्ति देवसिकं तेनैव गुरुणा सम-साई, सामायिकमपि उच्चारयन्तीति भणग्ति अन्ये आचार्यदेशीया इति गाथार्थः ॥१८॥ ते चैवं भणन्तीत्याह-) गाथा-आयरिओ सामाइयं कहा जाए तहटिया तेऽचि ।
ताहे अणुपेहंती गुरुणा सह पच्छा देवसि ॥४४९॥
(वृत्तिः--आचार्यः सामायिकमाकर्षति-पठति उच्चारय. तीत्यर्थः यदा 'तथास्थिताः' कायोत्सर्गस्थिता एष तेऽपि साधवः तदा 'अनुप्रेक्षन्ते' चिन्तयन्ति सामायिकमेव गुरुणा सह, पश्चाद्देवसिक चिन्तयन्तीति गाथार्थः ॥४९॥) गाथा-जा देवसिझं दुगुणं चिंतेइ गुरू अहिंडिओ चिहूँ ।
बहुवावारा इअरे एगगुणं ताव चिंतिति ॥३५०॥ ___ दृष्टिप्रतिलेखना प्रति लेखना उच्यते अपरं भूप्रमार्जना इति वंदनके वारद्वयं सा कर्तव्या कायप्रमार्जनावत् । आ कांबीमांछे.
(वृत्तिः-यावद् देवसिकी द्विगुणां चिन्तयति गुरुरहिण्डित इतिकृत्वा चेष्टां, बहुव्यापारा 'इतरे' सामान्यसाधयः एकगुणां ताच्चिन्तयन्तीति गाथार्थः ॥५०॥ गाथा-मुहणंतगपडिलेहणमाईअं तत्थ जे अईआरा ।
कंटकवग्गुवमाए धरंति ते णवरि चित्तंमि ॥४५१।।
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४६
श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्रीसप्तपदी शास्त्रम् •
( वृत्ति : - मुखयस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणाद्यां चेष्टां 'तत्र' चेष्टायां येsतिचाराः कण्टकमार्गोपमयोपयुक्तस्यापि जाता धारयन्ति ala नवरं चेतसीति गाथार्थः ॥ ५१ ॥ किंविशिष्टाः सन्त इत्याह- )
गाथा - संवेग समावण्णा विसुद्ध चित्ता चरित्तपरिणामा । चारित्तसोहणट्टा पच्छावि कुणति ते एअं ||४५२ ||
( वृत्ति: - 'संवेगसमापन्ना' मोक्षसुखाभिलाषमेवानुगताः 'विशुद्ध चित्ता' रागादिरहितचित्ताः 'चारित्रपरिणामादिति चारित्रपरिणामात् कारणात् 'चारित्रशोधनार्थ' चारित्रनिर्मलीकरणाय 'पश्चात्तु' दोषचित्तधारणानन्तरं कुर्वन्ति 'ते' साधवः एतद् वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ ५२ ॥ ) गाथा-नमुकार चउबीसग कितिकम्माऽऽलोअणं पडिकमणं । किकम्म दुरालोइअ दुपडिक्कते य उसगा ||४५३ || ( अगाहा )
w
( वृत्ति: - नमस्कारग्रहणात् 'नमोऽरहंताणं'ति भणति, चतुर्विशतिग्रहणाल्लोकस्योद्योतकरं पठन्ति कृतिकर्मग्रहणाद्वन्दनं कुर्वन्ति, आलोचनग्रहणादालोचयन्ति, प्रतिक्रमणग्रहणात्प्रतिक्रामन्ति, तदनुकृतिकर्म कुर्वन्ति, दुरालोचितदुष्प्रतिक्रान्तविषयं कायोत्सर्गे च कुर्वन्ति, सूचा गाथा समासार्थः ||२३|| व्यासार्थ स्वाह - )
गाथा - उस्सग्गसमत्तीए नवकारेणमह ते उ पारिति । चवीसति दंडे पच्छा कड़दंति उवउत्ता ||४५४ ||
( वृत्तिः -- अधिकृतोत्सर्गसमाप्तौ सत्यां 'नमस्कारेण ' 'नमोऽरहंताण' मिस्येतावता 'अर्थ' अनन्तरं 'ते' साधवः
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ४७ पारयन्ति, चतुर्विशतिरिति दण्डं पश्चात् पठन्स्युपयुक्ताः सन्त इति गाथार्थः ॥५४॥) गाथा-संडंसं पडिलेहिअ उवविसि तो णवरं मुहपोत्ति ।
पडिलेहिउँ पम जिय कार्य सम्वेऽवि उवउत्ता ॥४५५॥
(वृत्तिः - संदंशं प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्योपविश्य ततस्तु नवरं 'मुहपोत्ति' मुखयस्त्रिका प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च कार्य सर्वेऽप्युपयुक्ताः सन्त इति गाथार्थ: ॥५५॥ ) ततः किमित्याहगाथा-किइकम्मं वंदणगं परेण विणएण तो पति ।
सवप्पगारसुद्धं जह भणिों वीअरागेहिं ।।४५६॥
(त्तिः-कृतिकर्म वन्दनं परेण विनयेन 'ततः तदनन्तरं प्रयुञ्जते, कथमित्याह-सर्वप्रकारशुद्धं उपाधिशुद्धमित्यर्थः, यथा भणितं 'वीतरागैः' अर्हद्भिरिति गाथार्थः ॥५६।। प्रसङ्गतो बन्दनस्थानान्याह-) गाथा-आलोयण वागरणस्स पुच्छणे पूअणमि सज्झाए ।
अवराहे अ गुरूणं विणओमूलं च वंदणयं ॥४५७।।
(वृत्ति:-आलोचनायां तथा व्याकरणस्य प्रश्ने तथा पूजायां तथा स्थाध्याये तथाऽपराधे च क्वचिद्गुरोपिनयमूलं तु धन्दनमिति गाथार्थः ।। ५७ ॥) गाथा-वंदित्त तो पच्छा अद्धावणया जहकमेण तु ।
उभयकरधरियलिंगा ते आलोअंति उवउत्ता ॥४५८॥
(वृत्तिः-धन्दित्वा ततः पश्चादधिनताः सन्तो यथाक्रमेणव उभयकरधृतलिङ्गा इति, लिङ्ग-रजोहरणं, 'ते' साधवः
आलोचयन्ति उपयुक्ता इति गाथार्थः ।।५८॥ किं तदित्याह-) गाथा-परिचिंतिएऽइआरे मुहमेऽवि भवण्णवाउ उबिग्गा ।
अह अप्पसुद्धि हेउं विसुद्धभावा जो भणियं ॥४५९।।
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ammernamrwwwmararman
४८ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
(वृत्तिः-परिचिन्तितान तिचारान 'सूक्ष्मानपि' पृथि. व्यादिसचट्टनादीन, कश्चिदापतितान बादरानपि, भवार्णवादुद्विग्नाः सन्तः अथात्मशुद्धिनिमित्तमालोचयन्तीति वर्तते विशुद्धभाषाः सन्तः, यतो भणितमर्हद्भिरिति गाथार्थः ॥२९॥ किं तदित्याह-) गाथा-विणएण विणयमूलं गंतूणायरिअपायमूलंमि ।
जाणाविज्ज सुविहिओ जह अप्पाणं तह परंपि ॥४६॥
(वृत्तिः-विनीयतेऽनेन कम्मॆति धिनयः- पुनस्तक्षकरणपरिणामः तेन 'विनयमूलं' संवेगं 'गत्त्रा' प्राप्य 'आचायंपादमूले' आचार्यान्तिक एव ज्ञापयेत् सुविहितः साधुर्यथाऽऽत्मानं तथा परमपि विस्मृतं समानधाम्मिकमिति गाथार्थः ॥६०|आलोचनागुणमाह-) गाथा-कयपावोऽवि मणूसो आलोइअनिदिओ गुरुसगासे ।
होइ अइरेगलहुओ ओहरिअभरोव भारवहो ॥४६१।।
(वृत्तिः-कृतपापोऽपि सन् मनुष्यः आलोचितनिन्दितो 'गुरोः सकाशे' आचार्यान्तिक एव भवति अतिरेकलघुः, काङ्गीकृस्य, अपहृतभर इघ भारवहः कश्चिदिति गाथार्थः ॥ ६१ ।। कथमेतदेवमिति, अत्रोपपत्तिमाह--) गाथा-दुप्पणिहियजोगेहि बझइ पावं तु जो उते जोगे । मुप्पणिहिए करेई झिजइत्तं तस्स सेसंपि ॥४६२॥
( वृत्तिः-दुष्प्रणिहितयोगैः मनोषाकायलक्षणबध्यते पापमेष, यस्तु महासत्वस्तान योगान् मनःप्रभृतीन सुप्रणिहितान् करोति क्षीयते 'तत्' दुष्प्रणिहितयोगोपात्तं पापं 'तस्य' सुप्रणिहितयोगकर्तुः, शेषमपि भवान्तरोपात्तं क्षीयते प्रणिधानप्रकर्षादिति गाथार्थः ।।६।। )
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ४९
गाथा - जो जत्तो उप्पज्जइ वाही सो वज्जिएण तेणेव ।
as कम्मवावि नवरमेवं मुणेअव्वं ॥ ४६३|| ( वृत्ति: - यो यत उत्पद्यते व्याधिस्तैलादेः स वज्जि - तेन तेनैव क्षयमेति, कर्म्मव्याधिरपि नवरमेवं मम्तव्यो मिदानवर्जनेनेति गाथार्थः ||६३ || ततश्च - ) गाथा - उप्पण्णा उप्पण्णा माया अणुमग्गओ निहंतवा |
आलोअ निंदणगरहणाहिं न पुणो अ बीअं च ॥ ४६४ ॥
( वृत्तिः - उत्पन्नोत्पन्ना माया अकुशलकर्मोदयेन अनुमार्गतो निहन्तव्या स्वकुशलवीर्येण कथमित्याह-आलोचन निन्दागभिः, न पुनश्च द्वितीयं पारं तदेव कुर्यादिति गाथार्थः ||६|| ) गाथा - तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविक गुरू उवइसंति ।
तं तह अणुचरिअं अणवत्थप संगभीरणं ॥ ४६५ ||
( वृत्ति: - 'तस्य च ' आसेषितस्य प्रायश्चित्तं यन्मार्गविद्वांसो गुरव उपदिशन्ति सूत्रानुसारतः तत्तथा अनुचरि तव्यमनवस्थाप्रसङ्गभीतेन, प्रसङ्गध पक्केण कयमकज मित्यादिना प्रकारेणेति गाथार्थ: ||६५ || प्रकृतमाह - ) गाथा - आलोइऊण दोसे गुरुणो पडिवन्नपायछित्ताओ । सामाइअपुवअं ते कढिति तओ पडिकमणं ॥ ४६६ ||
( वृत्तिः -- आलोच्य दोषान् गुरोः ततः प्रतिपन्नप्रायचित्ता पष किमित्याह- सामायिक पूर्वकं 'ते' साधवः 'पठन्ति'
1
अनुस्मरन्ति प्रतिक्रमणमिति गाथार्थः ॥ ६६ ॥ )
गाथा - तं पुण परंपरणं सुत्तत्थेहिं च धणिअमुवउत्ता | समसगाइ काए अगणिन्ता धिइवलसमेआ ||४६७॥
४
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५०
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
(वृत्तिः-तत्पुनः-प्रतिक्रमणं पदं पदेन पठन्ति सूत्रा. र्थयोश्च तत्प्रतिबद्धयोरत्यन्तमुपयुक्ताः भावप्रणिधानेन दंशमशकादीन काये लगतोऽप्यगणयन्तः सन्तो धृतिबलसमेता इति गाथार्थः ॥६७॥) गाथा-परिकढिऊण पच्छा किकम्म काउ नवरि खामति ।
आयरिआई सव्वे भावेण सुए तहा भणिों ।।४६८||
(वृत्तिः-पर्याकृष्य प्रतिक्रमणं पश्चात् कृतिकर्म- वन्दनं कृत्वा नवरं 'क्षमयन्ति' मर्षयन्ति, कान् ! इत्याह-आचार्यादीन , गुणधन्तः सधै साधवः 'भावेन' सम्यक् परिणत्या, श्रुते तथा भणितमेतदिति गाथार्थः ॥६८॥) गाथा--आयरिअ उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे अ।
जे मे केइ कसाया सव्ये तिविहेण खामेमि ! ४६९॥
(वृत्तिः-आचार्यापाध्याये शिष्ये समानधार्मिके कुले गणे च तत्परिणामवशात् ये मम केचन कषाया आसन सानिविधेन क्षमयामि तानाचार्यादीनिति गाथार्थः ॥६९॥ ) गाथा-सवस्स समणसंघस्स भगवओ अंजलिं सिरे काउं ।
सव्वं खमावइत्ता खमामि सबस्स अयंपि ॥४७०।।
(वृत्तिः-सर्वस्य श्रमणसङ्घस्य भगवतः सामान्य रूपस्य अञ्जलिं सिरसिकृत्या सर्व क्षमयित्वा क्षमे सर्वस्य सङ्घस्याहमपीत गाथार्थः ॥७०|| तथा-) गाथा-सवस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहिअनिअचित्तो।
सव्वं खमावइत्ता खमामि सबस्स अहयंपि ॥४७॥ (वृत्तिः-सर्वस्य जीषराशेर्महासामान्यरूपस्य 'भावतः'
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रमूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ५१ प्रणिधानेन धर्म-निहितनिचित्तः सन् सर्व क्षमयित्वा क्षमे सर्वजीवराशेरहमपीति गाथार्थः ।।७।। ) गाथा-एवंविहपरिणामा भावेणं तत्थ नवरमायरियं ।
खामंति सबसाहू जइ जिठो अन्नहा जेहें ॥४७२।।
(वृत्तिः-- एवंविधपरिणामाः सन्तः 'भावेन' परमार्थन तत्र नबरमाचार्य प्रथमं क्षमयन्ति सर्वे साधवः यदि ज्येष्ठोऽसौ पर्यायेण, अन्यथा' ज्येष्ठे असति ज्येष्ठमसावपि क्षमयति, त्रिभाषेत्यन्ये, शिष्यकादिश्रद्धाभङ्गनिवारणार्थ कदा. चिदाचार्य मेवेति गाथार्थः ॥७२॥ ) गाथा-आयरिय उवज्झाए काऊणं से सगाण कायव्यं ।
उपरिवाडीकरणे दोसा सम्मं तहाऽकरणे ।।४७३।।
(वृत्तिः-आचार्योपाध्याययोः कृत्वा क्षमणमिति गम्यते, शेषाणां साधूनां यथारत्नाधिकतया कर्तव्यं, उत्परिपाटीकरणे, विपर्ययकरण इत्यर्थः, 'दोषाः' आज्ञादयः सम्यक् तथा अकरणे विकलकरणे च दोषा इति गाथार्थः ॥७३॥) गाथा-जा दुचरिमोत्ति ता होइ खामणं तीरिए पडिकमणे ।
आइण्णं पुण तिण्हं गुरुस्स दोण्हं च देवसिए ॥४७४॥
( वृत्तिः-यावत् 'विचरम' इति द्वितीयश्च स चरमञ्च क्षमणापेक्षया, एतावतो भवति क्षमणं, 'तीरिते प्रतिक्रमणे' पठिते प्रतिक्रमणे इत्यर्थः आचरितं पुनस्त्रयाणां गुरोयोच शेषयोर्दैषसिक पति गाथार्थः॥७४|| आचरितकल्पप्रवृत्तिमाह-) गाथा-धिइसंघयणाईणं मेराहाणि च जाणि थेरा।
सेहअगीअस्थाणं ठवणा आइण्णकप्पस्स ॥४७५॥
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५२
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् ,
(वृत्तिः-धृतिसंहननादीनां हानि मर्यादाहानि च ज्ञात्वा 'स्थविरा' गीतार्थाः शिष्यकागीतार्थयोविपरिणामनिवृत्त्यर्थ स्थापनां कुर्वन्तीति स्थापना आचरितकल्पस्येति गाथार्थः ॥७९॥ अहवा-) गाथा-असहेण समाइण्णं जं कत्थइ केणई असावज्ज ।
न निवारिअमण्णेहि अ बहुमणुमयमेअमाइण्णं ॥४७६।।
(वृत्तिः - अशठेन समाचरितं 'यत्' किश्चिद् क्वचित् द्रव्यादौ केनचित् प्रमाणस्थेन असाधा प्रकृत्या न निधारि. तम् अन्यैश्च गीताश्चारुत्वादेव,इत्थं बहनुमतमेतदाचरितमिति गाथार्थः ॥७६॥) गाथा खामित्तु तओ एवं करिति सव्वेऽवि नवरमणवज्ज ।
रेसिम्मि दुरालोइअ दुप्पडिकंतस्स उस्सगं । ४७८॥
(वृत्तिः-क्षमयित्वा 'ततः तदनन्तरं 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण कुर्वन्ति सर्वेऽपि साधवः, नवरमनधा-सम्यगित्यर्थः, रेखे दुरालोचितदुष्प्रतिक्रान्तयोः, तन्निमित्तमिति भावः, कायोत्सर्गमिति गाथार्थः ।।७८!! अत्रापि कायोत्सर्गकरणे प्रयोजनमाह-) गाथा-जीवो पमायबहुलो तब्भावणभाविओ अ संसारे ।
तत्थवि संभाविज्जइ मुहमो सो तेण उस्लग्गो ॥४७९॥
( वृत्तिः नीषः प्रमादबहुलः 'तद्भावनाभावित एव' प्रमादभाषनाभावितस्तु संसारे, यतश्चैवमतोऽभ्यासपाटवात 'तत्रापि' आलोचनादौ सम्भाव्यते सूक्ष्मः ‘असौ' प्रमादः ततश्च दोष इति, तेन कारणेन तजयाय कायोत्सर्ग इति गाथार्थ: ॥७९॥)
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ५३
गाथा-चोएइ हंदि एवं उस्सगंमिवि स होइ अणवस्था ।
भण्णइ तज्जयकरणे का अणवस्था जिए तम्मि ?॥४८०॥
(वृत्तिः- चोद यति शिक्षकः- हन्त यद्येवं कायोत्सर्गेऽपि स:-सूक्ष्मः प्रमादो भवति, सतश्चापि दोषः, तज्जयायापरकरणं, तत्राप्येष एव वृत्तान्त इत्यनवस्था, पताशकन्याहभण्यते प्रतिपचन तज्जयकरणे' अधिकृतसक्षमप्रमादजयकरणे प्रस्तुते काऽनवस्था जिते तस्मिन' समप्रमाद इति गाथार्थः।।८०॥) गाथा-तत्थवि अजो तओवि हुजी भइतेणेव ण य सया करणं।
सन्दोवि साहुजोगो जं खलु तप्पचणीओत्ति !!४८१॥
(वृत्तिः--'तत्रापि च' इतरकायोत्सर्गे यः पूर्वोक्तयुक्त्या पतितः सूक्ष्मः प्रमादः 'तकोऽपि' असायपि 'जीयते' तिरस्क्रियते यदितरेण तदुत्तरकालभाविना कायोत्सर्गेण तत्रापि यः असावपीतरेण, स्यादेत , एवं सदा कायोत्सर्गकरणापत्तिरित्याशङ्कयाह न च सदा करणं, कायोत्सर्गस्येति गम्यते, कुत इत्याह-सर्वोऽपि 'साधुयोगः' सूत्रोक्तः श्रमणव्यापारः यस्मात् , खलुशब्दो विशेषणार्थः भावप्रधान इत्यर्थः 'तत्प्रत्यनीक' इति सूक्ष्मप्रमादप्रत्यनीकः, अत एष भगवदुक्तानु. पूा विहितानुष्ठानधन्तो विनिर्जित्य प्रमादं वीतरागा भवन्ति, इत्थं जेयताया पव तस्य भगवद्भिः ज्ञाततत्वा (ज्ञापितत्वा)त्, अत्र बहु वक्तव्यम् , इत्यलं प्रसङ्गेन इति गाथार्थः ।।८।।) गाथा-एस चरित्तुस्सग्गो देसणसुद्धीए तइअओ होइ । सुअनाणस्स चउत्थो सिद्धाण थुई य किइकम्मं ॥४८२॥
॥ सूचागाहा॥ (वृत्तिः-एष चारित्रकायोत्सर्गः, तदा (था) दर्शन
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५४ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . शुद्धिनिमित्तं तृतीयो भति, प्रारम्भकायोत्सर्गापेक्षया तस्य तृतीयत्वम् , श्रुतज्ञानस्य चतुर्थः, एवमेव सिद्धेभ्यः स्तुतिश्च तदनु 'कृतिकर्म' बन्दममिति सूचागाथासमासार्थः ।८२॥ अवयवार्थमाह-) गाथा-सामाइअपुत्वगं तं करिति चारित्तसोहणनिमित्तं ।
पिअधम्मवज्जभीरू पण्णासुस्सासगपमाणं ॥४८३॥
(वृत्तिः- सामायिकपूर्वकं 'त' प्रतिक्रमणोत्तरकालभाविनं कायोत्संग कुर्वन्ति चारित्रशोधन निमित्तं, किविशिष्टाः सन्त इत्याह-प्रियधविधभीरवः पञ्चाशदुच्छासप्रमाणमिति गाथार्थः ॥८३॥) गाथा-ऊसारेऊण विहिणा सुद्धचरित्ता थयं पकडिढत्ता।
कढति तओ चेइअवंदणदंडं तउस्सग्गं ।।४८४॥
(वृत्तिः-उत्सार्य 'विधिना' 'णमोऽरहताण' मित्यभि धानलक्षणेन शुद्धचारित्राः सन्त: 'स्तवं लोकस्योद्योतकररूपं प्रकृष्य, पठित्वेत्यर्थः, 'कर्षन्ति' पठन्तीत्यर्थः, 'ततः' तदनन्तरं चैत्यवन्दनदण्डकं कर्षन्ति, ततः कायोत्सर्ग कुर्वन्तीति गाथार्थः ॥८४॥ किमर्थमित्याह-) गाथा-दंसणसुद्धिनिमित्तं करेंति पणवीसगं पमाणेणं ।
उस्सारिऊण विहिणा कइंढति सुअत्थयं ताहे ॥४८५।।
(वृत्तिः-दर्शनशुद्धिनिमित्तं कुर्वन्ति पञ्चविंशत्युच्छासं प्रमाणेन, उत्सार्य विधिना पूक्तेिन कर्षन्ति अतस्तवं ततः 'पुक्खरवरेत्यादिलक्षणमिति गाथार्थ: ।।८५।। ) गाथा-सुअनाणस्सुस्सग्गं करिति पणवीसगं पमाणेणं ।
मुत्तइयारविसोहणनिमित्तमह पारिउं विहिणा ॥४८६॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ५५
(वृत्तिः-श्रुतज्ञानस्य कायोत्सर्ग कुर्वन्ति पञ्चविंशत्युनवासमेव प्रमाणेन सूत्रातिचार विशोधननिमित्तम् , 'अर्थ' अनन्तरं पारयित्वा विधिना पूर्वोक्तेनेति गाथार्थः ॥८६॥ ) गाथा-चरणं सारो दसणनाण अंग तु तस्स निच्छयो ।
सारम्मि अ जइअव्वं मुद्धी पच्छाणुपुबीए ॥४८७॥
( व्याख्या-कण्ठ्या। किमि याह-) गाथा सुद्धसयलाइआरा सिद्धाणथयं पढंति तो पच्छा। पुवणिएण विहिणा किइकम्मं दिति गुरुणो उ ॥४८८॥
(वृत्तिः - शुद्धसकलातिचाराः सिद्धानां सम्बन्धिनं स्तवं पठन्ति 'सिद्धाण' मित्यादिलक्षणं, ततः पश्चात् पूर्व. भणितेन विधिना 'कृतिकर्म' बन्दनं ददति, 'गुरवेऽपि' (गुरोस्तु) आचार्यायैवेति गाथार्थः ॥८८।। किमर्थमित्येतदाह-) गाथा-मुकयं आणत्तिपिव लोए काऊण सुकयकिइकम्मा ।
वडंढतिओ थुईओ गुरुथुइगहणे कए तिण्णि ॥४८९॥
(वृत्ति:-सुकृतामाज्ञामिव लोके कृत्वा कश्चिद्विनीतः सुकृतकृतिकर्मासन्निवेदयति, एवमेतदपि द्रष्टव्यं, तदनु कायप्रमार्जनोत्तरकालं, बर्द्धमानाः स्तुतयो रूपतः शब्दतच, गुरुस्तुतिग्रहणे कृते सति 'तिस्रः' तिस्रो भषन्तोति गाथार्थ: ॥८९॥ एतदेवाह-) गाथा-युइमंगलम्मि गुरुणा उच्चरिए सेसगा थुई विति ।
चिटुंति तो थेवं कालं गुरुपायमूलम्मि ।।४९०॥
(वृत्तिः-स्तुतिमङ्गले 'गुरुणा' आचार्येणोच्चारिते सति ततः शेषाः साधवः स्तुतीः ब्रुवते, ददत्तीत्यर्थः, तिष्ठन्ति
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५६
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
'ततः' प्रतिक्रान्तानन्तरं स्ताकं कालम , क्वेत्याह-गुरुपाद मूले' आचार्यान्तिके इति गाथार्थः ॥९०।। । इतिवचनात् ।। मुल-आवस्सय चुण्णीए, हरिभद्देहि कयाइ वित्तीए !
पडिकमणविही एसो. भणिउ भणिउ समासेणं ॥१५॥ वंदणतियं भणियं, इह देसिय राइयंमि पडिकमणा ।
पंचम अज्झयणमिय, तुरिए चत्तारि भणियाणि ।।९६॥ तत्रविचारणा-मुत्तं गणहररइयं, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च ।
सुयकेवलिणा रइयं, अभिन्नदसपुविणा रइयं ॥१॥ इतिमलधारिश्री हेममूरीणां शिष्येण विरचितायां संग्रहिण्यां ॥ श्री आचारांगे चतुर्थाध्ययने-" नाणीवयंती अदुवावि एगे एगे वयंती अदुवावि नाणी" इति वचनात् केवलिचतुर्दशपूर्वविदां वचनानि समानानि तथा नंदीसूत्रे-" तउविपरं भिन्नेसु भयणा" इति वचनात् ॥ मूल-एवं सुयवयणेणं, चउदशपूवीण केवलीणं च ।
भणियं मुत्तं भन्नइ, तं अन्नुन्नं च अविरुद्धं ॥९७||
(आवश्यकलघुवृत्तौ बृहद्वृत्तौ च तथा जोर्णनियुक्तिपुस्तकेपि प्रक्षेपगाथा बहुला उक्ता परःशताः अत इयमपि ताहगेष संभाव्यते परस्परविरुद्धत्वात् । पुनर्गीतार्था वदंति तदेव प्रमाणं ) आ बीना पानानी कांबीमां छे. यदुक्तं-श्रीआवश्यके-ऊपपातिके च-"इणमेव निग्गंथं पावयणं सचं अणुत्तरं केवलियं पडिपुनं नेयाउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं सिद्धि
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ५७ मग्गं मुत्तिभग्गं निव्वाणयग्गं अवितहमविसंधि सच्चदुक्खपहीणमरगं" इतिवचनात् अविसंधीति पूर्वापरविरुद्धसूत्रमित्यर्थः । मूल- दीसइ इयं विरुद्धं, तम्हा एगस्स भासिय नेयं । दुहं मयंतरंमिय, सुयाणु तं चिय प्रमाणं ॥ ९८ ॥ अत्र भगवती यत्पूर्वोक्तं तदेव ज्ञातव्यं केवलिनां मतमेकमेवेत्यर्थः ॥ गाथा - "चत्तारि पडिकमणे, किइकम्मा तिनि हूंति सज्झाए । पुन्न अपरहे, किकम्णा च हवंति ॥२३ "
इति श्रीआवश्यक निर्युक्तिचतुर्थाध्ययने (येन चतुर्दश वंदनान्युतानि तेन त्रयस्त्रिंशदनका अनाशी न घेति विचारणीयं ) ( बीना की कांबीम छे ) मूल - पाउसिय अड्ढरत्तं, कालदुगं होइ अड्ढरतंमि ।
वेरत्तियं च तइयं च, तइय पाभाइयमिच्छ तुरियं च ॥९९॥ कालचकमि जउ, पत्तेयं तिन्नि २ किकम्मा |
पत्ते पत्ते किइ - कम्मा सज्झाए इत्तिया चैव ॥ १०० ॥ पडिकमणदुगे अट्टय, पच्चकखामि होइ सायमिगं ।
त्तित्तीस किकम्मा, मिलिया सव्वे इय हवंति ॥ १०१ ॥ कत्थ यतित्तीस चिय, कत्थय चउदस दिर्णमि राइए । इय अंतरं गुरुतरं, दोसर पच्चकखमिणमेव ॥ १०२ ॥ तं चैव महप्पमाणं, जं गीयत्था निरीहभावेण । सुवियारिकण सम्मं, पवयणसुद्धं परुवंति ||१०३ ॥
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५८
श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदो शास्त्रम् .
वंदणयतिगं भणियं, बहुसु मुत्तेसु वित्तिचुन्नीसु ।
कहमपमाणं किज्जइ, वारिजइ केण तं भणह ॥१०४।। अथवा-पच्छाउत्तं बलियं, पुचि चत्तारि तिनि पच्छाय ।
एएण कारणेणं, पच्छाउत्तं पमाणंति ।।१०५॥ यत:-पूर्वोक्तपरोक्तयोः परोक्तो विधिबलवान् ।। तथा पुन:-सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् । परेण पूर्वबाधो वा, प्रायशो दृश्यतामिह ॥१॥ इतिवचनात् ॥ तथा प्रथमपदाद् द्वितीयपदं श्रेष्टमिति वचनात् इति पूर्वाचार्यप्रणीताक्षरैः चत्वारि वंदनकानि प्रति प्रतिक्रमणे इत्युकत्वा पुनवेदनकत्रयविधिर्दर्शित इतिहेतोः प्रतिक्रमणद्वय वंदनकत्रिकत्रिकमेव प्रमाणं पुनर्गीतार्था वदंति तदेव सत्यं ।। मूल-एवं पडिक्कमित्ता, कालं पाउसियं पगिणंति ।
सुयभासियेण विहिणा, वसहि कालं पवेयंति ।।१०६॥ पच्छा ते उवउत्ता, सज्झायं पढवित्तु सज्झायं ।
कुव्वंति जाव पत्तं, जाणंति य पोरिसं पढमं ॥१०७॥ अह उद्वित्ता एगो, बहुपडि पुन्नाय पोरिसी भयवं । इय भणिय गुरुं वंदिय, कुणंति चिय वंदणं मुणिणो ॥१०८॥ पडिकमिय पुवकालं, सज्झाय चेव अट्ठरत्तं तु ।
कालं गिणिय विहिणा, सुत्तसत्थं विचितंति ॥१०९।। धम्मज्झाणोवगया, उवउत्ता सबभाव भावणिया। हियए धरति अत्थं, जहगहियं गुरुसमीवंमि ॥११०॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ५९
अह आगमि तइए, जामे तइयाइ पोरिसीए य । ठाणगंमि निदिटुं, कुणंति ते धम्मजागरियं ।।११।। चउMपि उत्तरगुणे, निद्दामुखति तइयभार्गमि ।
उत्तरअज्झयणमिय, भणियमिण साहकरणिज्जं ॥११२॥ निद्दामुक्खस्सत्थं, निद्दावखाणिऊण वित्तीए ।
मुत्तण पढमजामं. करणिनं नत्थ सा भणिया ११३।। जं सुत्तमिय भणियं, तस्सत्थं चैव जन्थ वा म(स)रइ । वित्तिकरोतं वित्ति, सम्वेवि तहत्ति मन्नति ॥११४|| पुव्वावरविवरीयं, सुत्तं न हु होइ किपि कइयावि ।
एएण कारणेणं, निद्दाकरणमि न तत्थ विही ॥११५।। उत्तरगुणो य भणिओ, निद्दामुक्खो य धम्मजागरिया । तिनपि सुयपयाणं, अत्यो निद्दा न संभवइ ॥११६॥ तइयाइ निद्दमुक्खं, जह तह निइंति इथ्य हुज्ज पयं ।
ता कोवि न संदेहो, मुक्खत्ति पयंमि भयणा य ।।११७|| मुकलकरणं परिवज्ज च, अन्ने बहूय मुक्वथ्था ।
सुत्तंमिय वित्तीए, सईज्जंतीह जुत्तीहिं ।।११८॥ एगस्सवि सहस्मय, बहवो अध्याय संभवंतीह । समयोचियमेवथ्थ, समयविक संपाउंजंति ॥११९।। प्रस्तुतं प्रस्तूयतेनिदं च अकुव्वंता, राईए पोरिसीए तइयाए । सिढिलायारत्ति जणे, मुणिणो केण वि न भन्नति ॥१२०॥
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६०
श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम्.
अन्नं च वृत्तपोरिसि भणियं, किच्चं च जे न कुवंति।
ते भन्नति एमाइ, सिढिलायार ति लोएवि । १२१॥ जिणवर उवएस विही, निदाए नथ्थि अकरणे तीसे।
ता नहु दोसोऽनथ्थ वि सुयमि निद्दाइ पडिसेहो ॥१२२।। प्रवचने निषेधाक्षराणि लिख्यते, श्रीउत्तराध्ययने २६अध्ययनेगाथा-"श्यपीए चउरोभाए, कुजा भिक्खु वियक्वणो ।
तउ उत्तरगुणे कुज्जा, रयणी भागेसु चउसु वि ॥१॥" उत्तरगुणस्तृतीययामे कर्तव्य इत्युक्तत्वान्निद्रा न भवत्युत्तरगुणकरणत्वाभिद्रा नोत्तरगुण इति हेतोः ।। पुन:-श्रीउत्तराध्ययने "मुत्ते सुआवी पडिबुद्धजोधी" इतिवचनात् । सुप्तेषु द्रव्यतः शयानेषु भावतस्तु मोहनिद्रया मुप्तेषु प्रतिबुद्धजीवी प्रतिबुद्ध एवास्ते तथा दशमाध्ययने पदे पदे " समयं गोयम मा पमायए" समयमात्रं मा प्रमादीः तथाच श्रीआचारांगे लोकविजयाध्ययने प्रथमोद्देशके-" इमं संपेहाए धीरे मुहत्तमवि णो पमायए"
(वृत्ति :-'इममित्यनेने दमाह दिनेयस्तपःसंयमादाबरसीदन् प्रत्यक्षमावापनमार्यक्षेत्रादिकमन्तरमवसरमुपद
र्याभिधीयते-तवायमेवम्भू विसरोऽनादौ संसारे पुनरतीव सुदुर्लभ एवेति, अतस्तमयसरं संप्रेक्ष्य ' पर्यालोच्य धीरः सन्मुहर्त्तमप्येकं नो 'प्रमादयेत् ' प्रमादवशगो भूयादिति, सम्प्रेक्ष्येत्यत्र अनुस्वारलोपश्छान्दसत्वादिति, अन्यदप्यला. क्षणिकमेवं जातीयमश्मादेय हेतोरवगन्तव्यमिति, आन्तमौं
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ६१
हूर्तिकत्वाच्च छानस्थिकोपयोगस्य मुहूर्तमित्युक्तम् , अन्यथा समयमप्येकं न प्रमादयेदिति धाच्यं, तदुक्तम्-" सम्प्राप्य मानुषत्वं संसारासारतां च विज्ञाय । हे जोध! किं प्रमादान चेष्टसे शान्तये सततम् ? ॥१॥ ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगा. घसंसार जलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताधिल. सितप्रतिमम् ॥२॥ इत्यादि,) पुन:-श्री आचारांगे लोकविजयाध्ययने चतुर्थोद्देशके
" अलं कुसलस्स पमाएणं, संतिमरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए. नालं पास अलं ते एएहि " (सू. ८५)
वृत्तिः -- ( · अलम्' इत्यादि, 'अलं' पर्याप्तं, कस्य ?'कुशलस्य' निपुणस्य सूक्ष्मेक्षिणः, केनालं?-मथविषयकषाय. निद्राविकथारूपेण पञ्चविधेनापि प्रमादेन, यतः प्रमादो दुःखाथभिगमनायोक्त इति ।)
श्री आचारांगे लोकविजयाध्ययने षष्ठोद्देशके “सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ,"
(वृत्तिः-पुनरपि मूढस्यानर्थपरम्परां दर्शयितुमाह'सएण' इत्यादि, स्वकीयेनात्मना कृतेन प्रमादेन-मद्यादिना 'विधिध' मिति मद्यविषयकषायषिकथानिद्राणां स्वभेदग्रहणं तेन पृथग्-विभिन्नं व्रतं करोति, यदिवा पृथु विस्तीर्ण 'वय' मिति वयन्ति-पर्यटन्ति प्राणिन: स्वकीयेन कर्मणा यस्मिन् स धयः-संसारस्तं प्रकरोति, एकैकस्मिन् काये दीर्घ कालमषस्थानाद, यदिवा कारणे कार्योपचारात् स्वकीयेन नानाविधप्रमादकृतेन कर्मणा धयः-अवस्थाविशेषस्तमे के. न्द्रियादिकललार्बुदादितदहर्जातबालादिव्याधिगृहीतदारिद्य. दौर्भाग्य व्यसनोपनिपातादिरूपं प्रकर्षण करोति-विधत्त इति ।)
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६२
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् ,
श्री आचारांगे तृतीयाध्ययने"सुत्ता अमुणी, सया मुणिणो जागरंति" (सू १०६)
(अत्र वृत्तिः- "अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धो वाच्यः, स चायम् इह दुःखी दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्त्तत्त इत्युक्तं, तदिहापि भावसुप्ता अज्ञानिनो दुःखिनो दुःखानामे यावर्तम. नुपरिवर्तन्ते इति, उक्तं च-" नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् ॥१" इत्यादि, इह लुप्ता द्विधा द्रव्यतो भावतश्च, ता निद्राप्रमादरन्तो द्रव्यसुप्ता, भावसुप्तास्तु मिशत्वाज्ञानमयमहानिद्राव्यामोहिनाः, ततो ये 'अमुनयः' मिथ्यादृष्टयः सततं भावसुताः, सविज्ञानानुष्ठानरहितत्वात् , निद्रया तु भजनीयाः, मुनयस्तु सद्बोधोपेता मोक्षमार्गादचलनमस्ते सन्तम् अनव. रतं 'जाग्रति ' हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वते ।)
"जागरह णरा णिचं जागरमाणस्स वढए बुद्धी । जो सुअइ न सोधण्णो जो जग्गइ सो सया धनो ॥१॥ सुअइ मुअंतस्स सुअं संकियलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स मुअं थिरपरिचिअमप्पमत्तम्स ॥२॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विन्जा सह निद्दया । न वेरम्गं पमाएणं, नारंभेण दयालुया ॥३॥ जागरिआ धम्मीणं आहम्मीणं तु सुत्तया सेआ। वच्छाहिवभगिणीए अहिंसु जिणो जयंतीए ॥४॥ सुयइ य अयगरभूओ सुअंपि से नासई अमयभृशं । होहिइ गोणब्भूओ नट्ठमि सुए अमयभूए ॥५॥"
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ६३ तदेवं दर्शनावरणीय कर्म्मविपाकोदयेन कचित्स्वपन्नपि यः संविनो यतनावांश्च स दर्शनमोहनीयमहानिद्रापगमाज्जाग्रदवस्थ एवेति ॥ अत्र निद्रा दर्शनावरणीय कर्मविपाकोदयेनोक्ता तत्कर्म स्वत एव नतूपदेशादिति भावः ॥
---
श्री आचारांगे तृतीयाध्ययने चतुर्थोद्देश के"सओ पत्तस्स भयं, सबओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं. "
"
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•
( वृत्तिः - सर्वतः सर्वप्रकारेण द्रव्यादिना यद्भयकारि कम्मपादीयते ततः प्रमत्तस्य' मद्यादिप्रमादवतो भयं ' भीतिः, तद्यथा प्रमत्तो हि कम्र्मोपचिनोति द्रव्यतः सवैरात्मप्रदेशः क्षेत्रतः पदिगव्यवस्थितं कालतोऽनुसमयं भावतो हिंसादिभिः, यदिवा ' सर्वत्र' सर्वतो भयमिहामुत्र च एतद्विपरीतस्य च नास्ति भयमिति, आह च सव्वओ इत्यादि, 'सर्वतः ' ऐहिकामुष्मिकापायाद 'अप्रमत्तस्य' आत्महितेषु जाग्रतो नारित भयं संसारापसदात्सकाशात् कर्मणो वा, अप्रमत्तता च कषायाभावाद्भवति, तदभावाच्चाशेषमोहनीयाभाव:, " इतिवचनात् ॥ " कषायवत एव प्रमादो नाकपायस्येति ॥ )
1
श्री आचारांगे पंचमाध्ययने द्वितीयोदेश के
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66
पत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए, "
( वृत्तिः - पमत्ते' इत्यादि, प्रमत्तान् विषयादिभिः प्रमादैर्बहिर्धमद्य स्थितान् पश्य गृहस्थतीर्थिकादीन् । दृष्ट्वा च किं कुर्यादिति दर्शयति - अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति ॥
श्री आचारांगे नवमाध्ययने द्वितीयोदेशके
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६४
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
"एएहि मुणी सयणेहि समणे आसि पतेरसवासे । राई दिवपि जयमाणे अपमत्ते समाहिए झाइ ॥६॥"
(वृत्तिः-'एतेषु' पूर्वोक्तेषु शयनेषु' वसतिषु स 'मुनिः' जगत्त्रयवेत्ता नातुबद्धेषु वर्षासु बा ‘श्रमणः' तप. स्युद्युक्तः समना बाऽऽसीत् निश्चलमना इत्यर्थः, कियन्तं कालं यावदिति दर्शयति-पतेलसासे'-त्ति प्रकर्षण त्रयोदश वर्ष यावत्समस्तां रात्रि दिनमपि यतमानः संयमानुष्ठान उद्युक्तवान् तथाऽप्रमत्तो निद्रादिप्रमादरहितः समाहितमना:' विस्रोतसिकारहितो धर्मध्यानं शुल्कध्यानं बा ध्यायतीति ।) किंच-"णिपि नो पगामाए, सेवइ भगवं उढाए ।
जग्गावइ य अपाणं ईसिं साई य अपडिन्ने ।६९॥"
(वृत्ति:--निद्रामप्यतापरप्रमादरहिता न प्रकामतः सेवते, तथा च किल भगवतो द्वादशसु संवत्सरेषु मध्येऽ स्थिकग्रामे व्यारोपसर्गान्ते कायोत्सर्गव्यस्थितस्यैवान्तमुहर्त यावत्स्वप्नदर्शनाध्यासनः सकृन्निद्रा प्रमाद आसीत् . ततोऽपि चोत्थायात्मानं 'जागरयति' कुशलानुष्ठाने प्रवर्त यति, यत्रापीषच्छय्याऽऽसीत् तत्राप्यप्रतिज्ञः-प्रतिज्ञारहितो, न तत्रापि स्वापाभ्युपगमपूर्वकं शयित इत्यर्थः ॥)
श्री सूत्रकृदंगे १४ अध्ययने-'सद्दाणि सोचा अदु मेरवाणि, अणासये तेसु परिवएजा। निई च भिक्खू न पयाय कुज्जा, कई कहं वा वितिगिच्छ तिन्ने ॥६॥"
(त्तिः -- ईर्यासमित्याद्युपेतेन यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह'शब्दान' वेणुषीणादिकान् मधुरान श्रुतिपेशलान 'श्रुत्वा' समाकाथवा 'भैरवान' भयावहान कर्णकद्दनाकर्ण्य शम्दान
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि प्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ६५ आश्रवति तान् शोभनत्वेनाशोभनत्वेन वा गृह्णातीत्यायो नाश्रषोऽनाश्रयः, तेष्वनुकूलेषु प्रतिकूलेषु श्रवणपथमुपगतेषु शब्देष्वनाश्रयो-मध्यस्थो रागद्वेषरहितो भूत्वा परि-समन्ताद प्रजेत् परिव्रजेत् -संयमानुष्ठायी भवेत् , तथा 'निवां च' निद्राप्रमादं च 'भिक्षुः' सत्साधुः प्रमादङ्गत्वान्न कुर्यात् , पतदुक्तं भवति-शब्दाश्रवनिरोधेन विषयप्रमादो निषिद्धो निद्रानिरोधेन च निद्राप्रमादः, च शब्दादन्यमपि प्रमादं धिकथाकषायादिकं न विदध्यात् । तदेवं गुरुकुलवासात् स्थानशयनासनसमितिगुप्तिध्वागतप्रक्षः प्रतिषिद्धसर्वप्रमादः सन् गुरोरुपदेशादेव कथं कथमपि विचिकित्सा-चित्तविप्लुतिरूपां [वि तीर्णः-अतिक्रान्तो भवति, यदिवा मद्गृहीतोऽयं पञ्चमहाव्रतमारोऽतिदुर्वहः कथं कथमप्यन्तं गच्छेद ? इत्ये.
भूतां विचिकित्सां गुरुप्रसादाहितीों भवति, अथवा यां काश्चिञ्चित्तपिप्लुति देशसर्वगतां तां कृत्स्नां गुर्वन्तिके वसन् वितीर्णो भवति अन्येषामपि तदपनयनसमर्थः स्यादिति" ६).
श्री ठाणांगे तृतीयाध्ययने २ उद्देशके
“ अज्जोत्ति समणे भगवं महावीरे गोयमाती समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं बयासी-किं भया पाणा ? दुक्खमयापाणा समणाउसो! १, से णं भंते ! दुणे केण कडे ?, जीवेणं कडे पमादेण २, से णं भंते ! दुक्खे कहं वेइज्जति ?, अप्पमाएणं ३" (सू. १६६)
(वृत्तिः--' अजोति'त्ति आरात् पापकर्मभ्यो याता आर्यास्तदामन्त्रणं हे आर्या ! 'इतिः' पवमभिलापेनामध्येतिसम्बन्धः, श्रमणो भगवान महावीरः गौतमादीन श्रमणान् निर्मन्थानेव-वक्ष्यमाणन्यायेनावादीदिति, 'दुक्खमय 'त्ति
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६६ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . दुःखात् मरणादिरूपात् भयमेषामिति दुःखभया, 'सेणं' ति तद् दुःख 'जीवेणं कडे'त्ति दुःखकारणकर्मकरणात् जीवेन कृतमित्युच्यते, कथमित्याह-'पमाएणं'ति प्रमादेनाशानादिना बन्धहेतुना करणभूतेनेति, उक्तं च-"पमाओ य मुणिदेहि, भणिओ अठभेयओ । अन्नाणं संसओ चेव, मिच्छाणाणं तहेव य ॥१॥ रागो दोसो महब्भंसो, धम्ममिय अणायरो। जोगाणं दुप्पणीहाणं, अछहा वज्जियघओ ॥२॥" इति । तञ्च वेद्यते-क्षिप्यते अप्रमादेन, बन्धहेतुप्रतिपक्षभूतत्वादिति । अस्य च सूत्रस्य दुःखभया पाणा १ जीवेणं कडे दुक्खे पमाएणं २ अपमाएणं घेइज्जई ३ त्येवंरूपप्रश्नोत्तरत्रयोपेतत्वात् त्रिस्थानकावतारो द्रष्टव्य इति )
श्री स्थानाङ्गे चतुर्थाध्ययने २ उद्देशके
" चाहिं ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा अस्सि समयंसि अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पजिउकामे समुप्पज्जेज्जा, तं०-इत्थीकहं भत्तकहं देसकहं रायकहं नो कहेत्ता भवति १, विवेगेण विउसग्गेणं सम्ममप्पाणं भावेता भवति २, पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरतिता भवति ३. फासुयस्स एसणिज्जस्स उंछस्स सामुदाणियस्स सम्म गवेसिया भवति ४, इ.एहि चरहिं ठाणेहिं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा जाव समुप्पज्जेजा"
(वृत्तिः-'अस्मिन्निति अस्मिन् प्रत्यक्ष दयानन्तरप्रत्यासन्ने समये अइसेसे'त्ति शेषाणि-मत्यादिचक्षुर्दर्शनादीनि अति क्रान्तं सर्वाधयोधादिगुणैर्यत्तदतिशेषमतिशयपत्केवलमित्यर्थः समुत्पत्सुकाममपीतीहैवाओं द्रष्टव्यः, ज्ञानादेरभिलाषाभावात् ,
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ६७
कथयितेति शोलार्थिकस्तृन् तेन द्वितीया न विरुद्धेति, 'विवेकेनेति अशुद्धादित्यागेन 'बिउस्सग्गेणं' ति कायव्युत्सर्गेण पूर्वरात्रश्च - रात्रेः पूर्वो भागो अपररात्रश्च - रात्रेरपरो भागः तावेव कालः स एव समय: - अवसरो जागरिकायाः पूर्वरा
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पररात्रकालसमयस्तस्मिन कुटुम्ब जागरिकाव्यवच्छेदेन धर्मप्रधाना जागरिका निद्राक्षयेण बोधो धर्मजागरिका, भाrप्रत्युपेक्षेत्यर्थी, यथा-" किं कथं किं या सेसं किं कर णिज्जं तवं च न करेमि । पुव्वावरत्तकाले जागरओ भावपडिलेहा ॥१॥ " इति अथवा " को मम कालो ? किमेयस्स उचियं ! असारा विसया नियमगामिणो विरसावसाणा भोसणो मच्च ॥ १ ॥ " इत्यादिरूपा विभक्तिपरिणामात् तया जागरिता जागरको भवति, अथवा धर्म्मजागरिकां जागरिताकर्त्तेति द्रष्टव्यमिति तथा प्रगता असवः उच्छ्रासादयः प्राणा यस्मात् स प्रासुको निज्जीवस्तस्य एष्यते - गवेष्यते उगमादिदोषरहितयेत्येषणीयः- कल्प्यस्तस्य उञ्छयते - अल्पाल्पतया गृह्यत इत्युञ्छो भक्तपानादिस्तस्य समुदाने भिक्षणे याश्चायां भवः सामुदानिकः तस्य नो सम्यग्गवेषयिता-अन्वेष्टा भवति, इत्येवंप्रकारैः- एतैरनन्तरोदितैरित्यादि निगमनम् एतद्विप
1
2
-
सूत्रं कण्ठ्यं । )
श्री स्थानांगे ५ अध्ययन० २ उद्देशके
GRAMS
,
" संजतमणुस्साणं मुत्ताणं पंच जागरा पं० तं०- सद्दा जाव फासा, संजतमणुस्साणं जागराणं पंच सत्ता पं० तं०सद्दा जाव फासा ।
"
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?
( वृत्ति: - संजये 'त्यादि 'संयतमनुष्याणां ' साधूनां 'सुप्तानां' निद्रावतां जाग्रतीति जागराः - असुप्ता जागरा इत्र
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६८ श्रीसामाचारी समाभित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . नागराः इयमत्र भाषना शब्दादयो हि सुप्तानां संयतानां नाप्रबहिषदप्रतिहतशक्तयो भवन्ति, कर्मबन्धाभावकारणस्याप्रमादस्य तदानीं तेषामभावात् , कर्मबन्धकारणं भवन्तीत्यर्थः । द्वितीयसूत्रभावना तु जागराणां शब्दादयः सुप्ता इष सुप्ताः भस्मच्छन्नामिषत् प्रतिहतशक्तयो भवन्ति, कर्मबन्धकारणस्य प्रमादस्य तदानीं तेषामभावात , कर्मबन्धकारणं न भवन्तीत्यर्थः।)
श्री भगवतीसूत्रे ५ शतके ४ उद्देशके
"छउमत्थे णं भंते ! मणूसे निहाएज्ज वा पयलाएज वा!, हंता निदाएज वा पयलाएज्ज वा."
(वृत्तिः-'छउमत्थे' त्यादि, 'णिहापजवत्ति निद्रासुखप्रतिबोधलक्षणां कुर्यात निद्रायेत 'पयलाएज्जय'त्ति प्रचलाम्-ऊर्द्धस्थितनिद्राकरणलक्षणां कुर्यात् प्रचलायेत् ॥ )
श्री भगवत्या १२ शतके २ उद्देशके-जयन्ती श्राविका प्रश्नाधिकारे उत्तरदानं " अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू, से केणहेण भंते ! एवं बुच्चइ अत्थेगइयाणं जाव साहू ?, जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू, एएणं जीवा जागरा समाणा बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए जाव अपरियावणियाए बटुंति, तेणं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहि धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएचारो भवंति, एएणं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरहत्तारो भवंति, एएसिणं जीवाणं
.
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ६९
जागरियतं साह, से तेणठेणं जयंती ! एवं वुच्चइ अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियतं साहू ॥' अत्रवृत्तिलेश:
('जागरि यत्त'ति जागरणं जागरः सोऽस्यास्तीति जागरिकस्तभाषो जागरिकत्वम् 'धम्मिया' धर्मेण-श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकाः कुत एतदेवमित्यत आह-'धम्मा. णुया' धर्म-श्रुतरूपमनुगच्छन्तीति धर्मानुगाः कुत एतदेवमित्यत आह-'धम्मिट्ठा' धर्म:-श्रुतरूप, पवेष्टो वल्लभः पूजितो था येषां ते धर्मेष्टाः धर्मिणां चेष्टा धर्मीष्टाः अतिशयेन वा धम्मिणो धर्मिष्टा: अत एष 'धम्मक्खाई' धर्ममाख्यान्तीत्येवं. शीला धर्माख्यायिन: अथवा धर्मात ख्यातियेषां ते धर्मख्या. तयः 'धम्मपलोई' धर्ममुपादेयतया प्रलोकयन्ति ये ते धर्मप्रलोकिनः 'धम्मपलज्जण'त्ति धर्म प्ररज्यन्ते-आसजन्ति ये ते धर्मप्ररञ्जनाः, एवं च 'धम्मसमुदाचार'त्ति धर्मरूपः-चारित्रास्मकः समुदाचारः-समाचारः सप्रमोदो वाऽऽचारो येषां ते तथा, अत पत्र 'धम्मेण चेष' इत्यादि धर्मेण-चारित्रश्रुत. रूपेण वृत्ति-नीधिकां कल्पयन्त:-कुर्षाणा इति ॥)
इत्यादिवचनात् ।। श्री दशवकालिके चतुर्थाध्ययने"जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए । जयं भुजतो भासतो, पावकम्मं न बंधइ ॥"
(वृत्तिः-'जयं चरे' इत्यादि, यतं चरेत्-सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः, यतं तिष्ठेत-समाहितो हस्तपादाधविक्षेपेण, यतमासीत-उपयुक्त आकुश्चनाधकरणेन, यतं स्वपेत्-समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण, यतं भुनानः-सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंह भक्षितादिना, एवं यतं भाषमाणः-साधुभा. षया मृदु कालप्राप्तं च 'पापं कर्म' क्लिष्टमकुशलानुबन्धि
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श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
झानाधरणीयादि 'न बध्नाति' मादत्ते, निराश्रवत्वात विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥८॥)
___ अत्र 'सयंजए'-अस्याओं यतनया यतमानः साधुः शयीत अत्र कश्चिदिति बदति श्रीजिनेन शयनकथनान्निद्रोपदेशो दत्तः, इत्युक्ते सत्युच्यते शयनं नैकांततो निद्रा प्रचलायां व्यभिचारादुपविष्टस्यापि निद्रेत्यर्थः । निद्रायां सप्तानामष्टानां वा कर्मणां बंधः, शयने भजना, यतः शयने इपिथिकी क्रिया द्विसमय स्थितिकापि भवति, निद्रायामेकांततःसांपरायिक्ष,न तत्र संशयः। सुप्ता अनंता मुक्तिं गताः पुनरनन्तास्तामाप्स्यति संख्याताः प्राप्नुवंति न कश्चिन्निद्राणो मुक्तिंगतः न कोपि याति न कोपियास्यति “आउत्तं तुयदृमाणस्स" इत्यादि सूत्रकृदंग इत्यादि। तथा श्रीभगवत्यामपि “आउत्तं तुयहमाणस्स इरियावहियाकिरियाकज्झति" एवं निद्रायां नास्ति, शयने यतना शास्त्रोक्ता ज्ञायते, परं निद्रायां यतना नावबुध्यते,यतश्चतुर्थपदे "पावकम्मं न बंधइ" यतनया शयानः पापकर्म न बनाति, निद्रायां सप्ताष्टकमबंधः सूत्रोक्त एव नान्यथा । यदि साधूनां निद्रा प्रमादः कर्तव्यतयोपदिश्यते, तर्हि मद्यविषयकषायविकथा अपि कर्तव्यतया कथं न भवत्यत्र विचारणा बही वर्तते पुनरपि गीतार्था निरीहतया मूत्रोक्तनीत्या वदंति तदेव प्रमाणं नात्र विचारणा ॥ तथा पुनः सूत्रकृदंगे पुंडरोकाध्ययने-"से भिक्खु जंपिय इमं संपराइयं कम्मं कज्जइ, णो त सयं करेति णो अण्णाणं कारवेति अन्नपि करें समणुजाणइ इति," ।
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ७१
(वृत्तिः--साम्प्रतं सामान्यतः साम्परायिककर्मोपादाननिषेधमधिकृत्याह-यदपीदं संपर्येति तासु तासु गतिब्बनेन कर्मणेति सांपरायिकं, तञ्च तत्पद्वेषनिह्नवमात्सर्यान्तरायाशातनोपघातैर्बध्यते, तत्कर्म तत्कारणं वा न कृतकारितानुमतिभिः करोति स भिक्षुरभिधीयत इति ॥) इति सूत्रवचनात् ॥
-सांपरायिककर्मनिषेधः साधनामुपदिष्टः निद्रायां तु सांपरायिक कम्मैव भवति, शयने तस्य भजना तथा श्रीमहानिशीथे-"ण दिवा तुयहिजा दुवालसं' अत्र दिवाशयनमपि निषिद्धं निद्रायां कि वक्तव्यं, रात्रौ तु कारणे संस्तारककरणविधिरस्ति, तत्र शयनयतना अत्र गीतार्था एव साक्षिणी भूत्वा यद्वदंति तदेव प्रमाणं ।। मूल-निद्दाविहि उबएसा, इतियमित्तासु सुत्तवित्तीम् ।
नहु अथ्थि जिणवराणं,छउमस्थाणं कुतो भणिओ।।१२३॥ छउमस्थाणं दसण,-आवरणस्सोदया जइवि निद्दा ।
होइ तहावि जिणुत्त,-विहीइ नहु सद्दहेयवा ॥१२४॥ रयणीइ तइय जामे, पडिसेहो केवलस्स जइ हुजा।
ता मनिजइ जम्हा, निदाए केवलं नथ्यि ।।१२।। छउमत्थस्स पमाओ, पमायलेसोवि नथ्थि केवलिणो।
दुण्हं को आणाए, कोय अणाणाइ आणाए ॥१२६।। जस्सय इरियावहिया, रीयत्तिहा मुत्तमेव सो चेव ।
जस्सविय संपराई, सो यवो अणाणाए ॥१२७॥ उपसंतकसायस्स य, खीणकसायस्स य तहारियावहिया। इयरस्स संपराइय, इय भणियं पंचमंगमि ॥१२८॥
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७२ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शाखम् .
सत्तमदसमसयंमिय, अट्ठारसमे संयंमि इय नचा। जिणवरवाणी सञ्चा, तं सुच्चा सद्दहेयध्वं ॥१२९॥
श्री भगवतीसूत्र ७ । १० । १८ । शतकेषु-" जस्सणं कोहमाणमायालोमा अवुच्छिन्ना जस्सणं संपराईया किरिया कजंति से गं उस्मुत्तमेव रीयति" ॥ इति वचनात् । अत्रवृत्तिः-उत्सूत्रमनाज्ञयैव इति व्याख्यातं ॥ " जस्स कोहमाणमायालोमा अवुच्छिन्ना तस्स णं इरियावहिया किरिया कजति से णं अहामुत्तमेव रीयति"। इति वचनात् । इति निद्राधिकारे किञ्चिल्लेखितम् ।। अत्र रहस्यमिदम्-अतीतकालेऽनन्तछद्मस्थसाधूनां निद्राकरणमभूत् , आगामिनि काले अनन्तानां छद्मस्थसाधूनां निद्राकरणं भविष्यति, वर्तमानकालेऽपि छद्मस्थानां निद्राऽप्यस्ति परं स्वतः कर्मोदयेनैव, नतु जिनोपदेशाद् विधिरूपात् । ये इत्थं वदन्ति वीतरागोपदेशविधि विना निद्रां कुर्वाणा यथाच्छन्दा इति, तान प्रति गोताथै रिति वक्तव्यम्-रात्रेस्तृतीययामादारात्परतो वा कारणमन्तरेण निद्रां कुर्वाणा यथाच्छन्दा एव, इति प्रमाणं कुर्वन्तु । अन्यच्च यः कोऽपि छद्मस्थः साधुरेकयामाधिकं समयमात्रमपि अहोरात्रमध्ये निद्रां न कुर्वीत तमेकं दर्शयन्तु कदाचिदेको दर्शितस्ततोऽन्ये सर्वऽपि साधवो यथाच्छन्दत्वाद विराधका एव, इति विचार्य यदचितं तदेव कार्यम् , गीताथै रित्यालिबंधनेन विज्ञतिविधानं मम फलेग्रहि कर्त्तव्यम् ।।
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ७३
मूल-उद्धद्विउ उवविट्ठस्स मवारण कारणे समुप्पन्ने।
समणो तुयहिउमणो, जो सो संथारगं कुज्जा ॥१३०॥ संथारुत्तरपट्टो भणिउ जेणुग्गहंमि उवहीए।
नह उहिओय एसो, जाणिजइ तेण कारणिओ॥१३॥ संथारस्सय करणं छठे अंगंमि साहुवग्गस्स ।
पढमज्झयणे भणियं जाणह चरिओवएसेणं ॥१३२॥ तस्स विही भूमि पउंजिउणं, वथ्थाण पमजणाउ चउवी ।
काउणं दिट्ठीए, न होइ पडिलेहणा एगा ॥१३३॥ तत्तोय पत्थरित्ता संथारं सड्ढ हथ्थ दुगमित्तं । __ संकोडियसंडासो जयं सए जथ्य उवउत्तो ॥१३४॥ इरियं पडिक्कमित्ता तप्पछा वंदिउण आयरियं ।
दाउं दु खमासमणे संदिसणं वायणं कुन्जा ॥१३५॥ उवविसिऊणुक्कुडुओ रयहरणेणं च अहव पुत्तीए ।
देहं च पमज्जित्ता सीसाईपायपज्जंतं ॥१३६॥ उक्कुडुअठिएणं चिय, संथारं अकमित्तु पाएणं । वामेणं उवइट्टो, गुरुणाय विही मुणेयवा ॥१३७||
अणुजाणह जिद्विजा २ निसिही नमो खमासमणाणं महामुणीणं नवकार० करेमिभत्ते सामाइयं• अरिहंतोमहदेवो० वारत्तयं भर्णति तो पच्छा, "अणुजाणह परमगुरू, गुणगण रयणेहि मंडिय सरीरा। बहुपडिपुन्नापोरसि राई संथारयंठामि" १“ इमं गाई भणित्ता संथारस्सोवरि जयणाए उवविसिऊण
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७४
श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्रीसप्तपदी शास्त्रम्.
एगं पायें पलंबं काउण भणियव्वं ॥ अणुजाणह संथारं बाहुवहाणेण वामपासेण । कुक्कुडपायपसारण अंतरंतु पमज्जए भूमिं ॥ २ ॥ संकोडियसंडासा उबतेय कायपडिलेहा | दवाई उवओगा, उसासनिरंभणा लोए ३ जड़ मे हुज्ज पमाउ, इमस्स देहिस्सिमाइ रमणीए । आहारमुवहिदेहं चरमूसासेहिं वोसिरे ||४|| चत्तारि मंगलं० अट्ठारसपावद्वाणाई वोसरियवाई चुलसी लक्ख जीवजोणीउ खामेयवाउ बारस भावणाउ भावेवाओ || एगोहं नथ्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ । एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासए ॥ १ ॥ एगो वच्च जीवो, एगो चैव उवज्जइ । एगस्स होइ मरणं, एगो सिज्झइ नीर || २ || एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसण संजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ||३|| संजोग - मूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंधं, सव्वं भावेण वोसिरे || ४ ||
मूल-लद्धं अलद्धपुत्रं, जिणवयणं सुभासियं अमियभूयं । गहिउ सुग्गरमग्गो, नाहं मरणस्स बोहेमि || १३८ || एयं सच्चुवएस, जिणदिट्ठे सद्दद्दामि तिविहेणं ।
तस्थावरखेमकरं पारं निवाणमगस्स || १३९|| इत्यादि । एस संथारगविही || श्री आचारांगे सिज्जणाध्ययने तृतीयोदेशके - " से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुर्य सिज्जासंथारगं संथरित्ता अभिकंखिज्जा बहुफासुए सिज्जासंथारए दुरुहित्तए । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुए सिज्जा
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ७५
संथारए दुरूहमाणे पुत्वामेव ससीसोवरिय कार्य पाए य पमज्जिय २ तओ संजयामेव बहु० दुरूहित्ता तओ संजयामेव बहु० सइज्जा से भिक्खू वा० बहु० सयमाणे नो अन्नमन्नस्स हत्थेण हत्थं पाएण पार्य कारण कार्य आसाइजा, से अणासायमाणे तओ संजयामेव बहु० सइज्जा ॥ से भिक्खू वा० उस्सासमाणे वा नीसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायर्यानसग वा करेमाणे पुव्यामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता तओ संजयामेव ऊससिज्जा वा जाव वायनिसग वा करेजा।।"
(वृत्तिः--से इत्यादि स्पष्टम् । इदानीं सुप्त विधिमधिकृत्याह निगद सिद्धम्, इयमत्र भावना-स्थपद्भिहस्तमात्रव्य. वहितसंस्तारकः स्वप्तव्यमिति ॥ एवं सुप्तस्य निःश्वसिता. दिषिधिसूत्रमुत्तानार्थ, नवरम् 'आसय व' ति आस्य पोसयं वा' इत्यधिष्ठान मिति ।।) इति बचनात ॥ "इयं यतना" अनया निद्राकरणं शयानस्य कथं भवेत् ॥ मूल-एवं तुयमाणो, जागरमाणो य धम्म जागरियं ।
सम्म जिणोवएस, जयं सए सद्दहंतोत्ति ॥१४०।। उवउत्तो बियकम्मो,-दयेण निद्दानिमीलयत्थोय । ___ अप्पं पमायछलियं, नाउण विचिंतए एवं ।।१४१ जे बुद्धा उवउत्ता, केवलजुत्ता सुबुद्धजागरियं ।
जग्गंति जिणवरिंदा, धन्ना तेह पणिवयामि ॥१४२॥ होऊण चउदलपुब्बी, निदादोसेण बहुभवं भमिओ।
अहिंसु भवगभाणू, परिसाए पुवनियचरियं ॥१४३॥
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७६
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
यत:-"जइ चउदस पुव्वधरो, वसइ निगोएय अणतयं कालं । निद्दाइपमारणं ता तं कह होहिसिरे जीव! ॥१॥ इतिवचनात्।। मूल-दिणचिंतयथ्य करणी, निद्दा थीणद्धिया भवे जस्स ।
गच्छइ स दुग्गइमहो, निद्दपमाओ महासत्तू ॥१४४॥ करिवर दंतुक्खणणं, कयं च निद्दप्पमायदोसेणं ।
मुणिणा सुव्वइ एसो, दिटुंतो बहुसु सथ्थेसु ॥१४५॥ एएण कारणेणं, निद्दा नहु होइ जिणुवएसेणं ।
तीएचिय परि हरणं, विहीए भणियं जिणंदेहि ॥१४६॥ इइ उद्वित्ता इरियं, पडिक्कमित्ता करेति उस्सग्गं ।
निसिपच्छित्तविसोहण,-कुसुमिणउहडावणढाए ॥१४७॥ ऊसाससयपमाणं, अडअहियं कारणं मुणेऊणं ।
सकथ्थवं भणित्ता, गिण्णइ वेरत्तियं कालं ॥१४८|| पट्टविऊण विहिणा, सज्झायं ता कुणंति सज्झायं ।
संवेगसमावन्नो, असंजया जह न जग्गंति ॥१४९॥ अवसेसनिसिमुहत्ते, गिण्णइ पाभाइयं मुणी कालं ।
तिथ्योभवंदणेहि, आयरियाईय वंदित्ता ॥१५॥ ठावति पडिकमणं, चउथ्यएणं च वंदणेणंति ।
राईए जह भणिय, मुत्तनिज्जुत्तिवित्तीम् ॥१५॥ आवस्स यचुण्णीए, पुवायरियेहिं विहियगत्थेसु । केवलिवयणाणुगयं, जह भणियं तह य वक्खामि ॥१५२॥
श्रीउत्तराध्ययने २६ अध्ययने-"आगए कायवुस्सग्गे, सव्वदुक्खविमुक्खणे । काउस्सग्गं तो कुजा, सव्वदुक्खविमु
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आचार्य श्री प्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ७७
क्खणं ॥४६॥ राइयं च अईयारं, चिंतिन्ज अणुपुव्वसो। नाणंमि दंसणंमि, चरितमि तवमि य ॥४७॥ पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओगुरुं । राईयं तु अईयारं, आलोइज जहकर्म ॥४८॥ पडिक्कमित्तु निस्सल्लो, वंदित्ता ण तओ गुरुं । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सबदुक्खविमुक्खणं ॥४९।। किं तवं पडिवजामि ?, एवं तत्थ विचिंतए । काउस्सगं तु पारित्ता, करिजा जिणसंथवं ॥५०॥ पारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं । तवं संपडिवजित्ता, करिज सिद्धाण संथवं ॥५॥"
(वृत्ति:-'आगते' प्राप्ते' 'कायव्युत्सर्ग' इत्युपचारात् कायव्युत्सर्गममये सर्वदुःखानां विमोक्षणमर्थात् कायोत्सर्गद्वारेण यस्मिन् स तथा तस्मिन् , शेषं प्राग्वत् , यह सर्व दुःखविमोक्षणविशेषणं पुनः पुनरुच्यते तदस्यात्यातनिरा. हेतुत्वख्यापनार्थ, तथेह कायोत्सर्गग्रहणेन चारित्रदर्शनश्रुत. ज्ञानविशुध्ध्यर्थ कायोत्सर्गत्रय गृघते, तत्र च तृतोये रात्रि. कोऽतीचारश्चिन्त्यते, यत उक्तम्-" तत्थ पढमो चरित्ते, दसणसुद्धीय बीयओ होइ । सुयणाणस्स य ततियो णवरं चिंतेह तत्थ इमं ॥१॥ ताप निसाइयारं, ति रात्रिकोऽ. तिचारश्च यथा यहिषयश्च चिन्तनीयस्तथाऽऽह-रात्रौ भवं रात्रिक 'चः' पूरणे अतीचारं चिन्तयेत् 'अणुपुष्धसो' त्ति आनुपा-क्रमेण ज्ञाने दर्शने चारित्रे तपसि च शब्दावीय च, शेषकायोत्सर्गेषु चतुर्विंशतिस्तवः प्रतीतश्चिन्त्यतया साधा. रणश्चेति नोक्तः । ततश्च पारितेत्यादिसूत्रवयं व्याख्यातमेव, कायोत्सर्गस्थितच किं कुर्यादित्याह -'कि'मिति किरूपं तपो' नमस्कारसहितादि प्रतिपद्येऽहम, एवं तत्र विचिन्तयेतबर्द्धमानोहि भगवान् षण्मासं यापन्निरशनो विहतधान ,
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श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
तत्किमहमपि निरशनः शक्नोम्येतावत्कालं स्थातुमुत नेति ?, एवं पञ्चमासायपि यावन्नमस्कारसहितं तावत्परिभावयेत, उक्तं हि "चिंते चरमे उ किं तवं काहं ? । छम्मासामेकदिणादिहाणि जा पोरिसि नमो वा ॥२॥'' उत्तरार्द्ध स्पष्टम् , एतदुक्तार्थानुवादतः सामाचारीशेषमाह-'पारिए' त्यादि प्राग्बत् , नधरं 'तपः' यथाशक्ति चिन्तितमुपवासादि 'संप्रतिपद्य' अङ्गीकृत्य कुर्यात् सिद्धानां 'संस्तवं' ).
राईपडिक्कमणविही-श्रीआवश्यकनियुक्तिमध्ये पंचमाध्ययने-“निद्दामत्तो न सरइ, अइयारं मायघडणं तुन्नं । किइ अकरणदोसा वा, गोसाई तिनि उस्सग्गो ॥१॥ तथ्य पढमो चरित्ते, दसणसुद्धिय बीयउ होइ। सुयनाणस्स तइउ, नवरं चिंतेइ तथ्य इमं ॥२॥ तइए निसाइयारं, चिंतइ चरिमंमि किं तवं काहं । छम्मासा इक्कदिणाइ, हाणी जा पोरिसि नमो बा ॥३॥"
श्रीहरिभद्रसूरिकृते पंचवस्तुकग्रंथे" पाउसिआई सव्वं, विसेसमुत्ताओ एत्थ जाणिज्जा । पच्चूसपडिकमणं, अहकमं कित्तइस्सामि ॥४९३॥
(वृत्तिः-'प्रादोषिकादि सर्व' कालग्रहणस्वाध्यायादि 'विशेषसूत्रात्' निशीथाऽऽवश्यकादेरवगन्तव्यम्, प्रत्यूषप्रतिक्रमणं 'यथाक्रमम्' अनुपूर्त्या कीर्तयिष्यामि अत ऊर्ध्वमिति गाथार्थः ।।९३।।)
सामइयं कड्डित्ता चरित्तसुद्धथपढममेवेह । पणवीसुस्सासं चिअ धीरा उ करिति उस्सग्गं ॥४९४॥ (वृत्तिः-सामायिकमाकृष्य पूर्वक्रमेण चारित्रधिशद्धयर्थं
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ७९
प्रथममेवेद्द पञ्चविंशत्युच्छ्रासमेव पूर्वषद्धीराः कुर्वन्ति कायोत्सर्गमिति गाथार्थ: ॥ ९४ ॥ )
उस्सारिऊण विहिणा, सुद्धचरित्ता थयं पकडूढित्ता । दंसणसुद्धिनिमित्तं करिति पणुवीसउस्सगं ||४९५ ॥
( वृत्ति: - ( उत्सार्य विधिना - 'नमोऽर्हदभ्यः' इति वचनलक्षणेन शुद्धचारित्राः स्तवं लोकस्योद्योतक रेत्यादिलक्षणं प्रकृष्य दर्शनशुद्धिनिमित्तं कुर्वन्ति पञ्चत्रिंशत्युच्छ्वासमुत्सर्गमिति गाथार्थ: ॥ ९६५ ॥ )
ऊसारिकण विहिणा कडूदिति सुयत्थवं तओ पच्छा । काउसरगमणिय इह करेंती उ उवत्ता ॥४९६॥
( वृत्तिः - - उत्सार्य विधिना कर्षन्ति श्रुतस्तवं ' पुक्खरवरे' त्यादिलक्षणं, ततः पश्चात् कार्योत्सर्गम नियतमानमिति, अतिचाराणामनियतत्वात्, 'इह' अत्र प्रस्तावे कुर्वन्त्युपयुक्ता इति - अस्यन्तोपयुक्ता इति गाथार्थ : || १६ | | )
अत्र यच्चिन्तयति तदाह
पाउस थुइमाई अहिगयउस्सग्गचिठपज्जते । fifafare सम्मं अइयारे राइए सव्वे ||४९७ ||
( वृत्ति: - 'प्रादोषिकस्तुतिप्रभृतीनां' प्रादोषिकप्रतिक्रमणान्तस्तु तेरारभ्य अधिकृतकायोत्सर्गचेष्टापर्यन्ते, प्रस्तुतकायोत्सर्गव्यापारावसान इति भावः, अत्रान्तरे चिन्तयति, 'तत्र' क्रियाकलापे 'सम्यग् ' उपयोग पूर्वकम तिचारान् स्वलितप्रका रान् रात्रिकान् 'सर्वान्' सूक्ष्मादिभेदभिन्नानिति गाथार्थः ||९७॥ एतदेव व्याचष्टे. )
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८०
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
तइए निसाइआरं चिंतिअ उस्सारिऊण विहिणा उ! सिद्धत्थयं पढित्ता पडिक्कमंते जहापुत्विं ॥५००॥
(वृत्तिः- तृतीये कायोत्सर्ग निशातिचारं चिन्तयित्वा तदनन्तरमुत्सार्य विधिना पूर्वोक्तेन 'सिद्धस्तवं' 'सिद्धाण' मित्यादिलक्षणं पठित्वा प्रतिकामन्ति, 'यथापूर्व' पदं पदे. नेति गाथार्थः ।।५००॥) सामाइअस्स बहुहा करणं तप्पुबगा समण जोगा। सइसरणाओ अ इमं पाएण निदरिसणपरं तु ॥५०१॥ उक्तार्था ॥ खामित्तु करिति तो सामाइअपुवगं तु उस्सगं । तत्थय चितिति इमं कत्थ निउत्ता वयं गुरुणा ? ॥५०२।।
(वृत्तिः-क्षमयित्वा गुरुं कुर्वन्ति ततः सामायिकपूर्वमेवं कायोत्सर्ग तत्र च कायोत्सर्गे चिन्तयत्येतत्-कुत्र नियुक्ता षय गुरुणा ?, ग्लानप्रतिजागरणादौ इति गाथार्थः ॥२॥)
जह तस्स न होइच्चिय हाणी कजस्स तह जयंतेवं । छम्मासाइ कमेणं जा सकं असढभावाणं ॥५०॥
(वृत्तिः-- यथा तस्य न भवत्येव हानिः कार्यस्य गुर्वादिष्टस्य तथा 'यतन्ते' उद्यम कुर्वन्ति, एवं-षण्मासादिक्रमेण, यावच्छक्यं पौरुष्यादि असठभावानामिति गाथार्थः ॥३॥)
तं हियए काऊणं किइकम्मं काउ गुरुसमीवम्मि । गिण्हंति तओ तं चिअ समगं नवकारमाईअं॥५०४॥"
(वृत्तिः- 'तत्' शक्यं हृदये कृत्वा सम्यक् कृतिकर्म कृत्वा गुरुसमीपे गृह्णन्ति 'तत:' तदनन्तरं 'तदेष' चिन्तित 'समक' मिति युगपत् नमस्कारसहितादीति गाथार्थः ॥४ा)
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ८१
मूल-जारिसो पडिकमणविही इत्तियमित्तेसु गंथेसु ।
भणिओ तारिसो चेव आवस्सयजिहवित्तीए ॥१५॥ तहा आवस्सयचुनीए वक्खाणिओ ॥ तथा पंचवस्तुकग्रंथे श्रीहरिभद्रसूरिकृते-"आयरणा सुअदेवयमाईणं होइ उस्सगो" ॥४९१॥ (गाथाधः)
(वृत्तिः-आचरणया श्रुतदेवतादीनां भवति कायोत्सर्गः, आदिशब्दात् क्षेत्रभवनदेवतापरिग्रह इति गाथार्थ : ॥९॥)
चाउम्मासिय वरिसे उस्सग्गो खित्तदेवयाए उ । पक्खिा सिज्जमुराए करिति चउमासिए वेगे ॥४९२॥
(वृत्तिः-चातुर्मासिके धार्षिके च, प्रतिक्रमण इति गम्यते, कायोत्सर्गः क्षेत्रदेवताया इति, पाक्षिके शय्यासुरायाः, भवनदेषताया इत्यर्थः, कुर्वन्ति, चातुर्मासिकेऽप्येके मुनय इत्यर्थः ॥९२॥ इति गाथार्थ: ) ॥ इति वचनातमूल-देवसिए पडिक्कमणे, आयरणाएवि नथि उस्सग्गो।
मुखित्त देवयाए, सुत्ते वित्तीइचुन्नीए ॥१५४॥ पक्खिय चाउम्मासिय, संवच्छरिएवि देविवुस्सगो।
एगेसिं चिय भणिओ, विहिवाया न उण सव्वेसि ॥१५॥ आयरणाइ कयाए, अकयाइ न आणभंगओ दोसो।
आयरणं अन्नुन्नं, करंति केई नहु करंति ॥१५६|| नियनिय गच्छायरणा, सव्वेसिं भिन्नभिनभाषेण ।
तहवि करंता पिहु पिहु, निदिजंती न केणावि ॥१५७॥ केइ तिनि थुईउ, केइ चत्वारि देवयाणं तु ।
उस्सग्गंमि भणंति य. साविह सव्वेसि न पमाणं ॥१५८॥
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८२
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
देवीणं थुइ करणे, इह लोगहो य दीसइ पयडो॥
पभणति जओ पाहं, नहु वंदणवत्तियाएत्ति ॥१५९॥ तवमज्झठि उस्सगो, भुन्नो चिंतिजए नमुकारो।
अरिहंताई पंच य, जिणसमए वंदणिज्जाय ॥१६॥ दसवेयालियमुत्ते, इह लोगहा तवं च पडिसिद्धं ।
नवमंमिय अज्झयणे, नेयव्वं तथ्य पयडथ्यं ॥१६१॥ आवस्सय ठाणांगे, समवायंगमि पण्णवागरणे ।
उत्तरअज्झयणमिय, इहलोगहा तव निसेहो ॥१६२।।
यतः-श्रीदशवैकालिके:-" चरन्विहा खलु तवसमाही भवड, तंजहा नो इहलोगट्टयाए तवमहिद्विजा १ नो परलोगट्टयाए तवमहिद्विजा २, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्टयाए तवमहिहिजा ३, नन्नत्य निजरट्टयाए तवमहिद्विजा ४, चउत्थं पयं भवइ ॥"
(वृत्ति:-तपः-समाधिमाह-चतुर्विधः खलु तपासमाधि. भवति, 'तपथे' स्युदाहरणोपन्यासार्थः, न 'इहलोकार्थम् ' इहलोकनिमित्तं लब्ध्यादिवाञ्छया 'तप' अनशनादिरूपम् 'अधितिष्ठेत् ' न कुर्यादम्मिलवत् १, तथा न 'परलोकार्थ' जन्मान्तरभोगनिमित्तं तपोऽधितिष्ठेद् ब्रह्मवत्तवत् , एवं न 'कीर्तिवर्णशब्दश्लाघार्थ' मिति सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्ति: एकदिगव्यापी वर्णः अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः तत्स्थान एष श्लाघा, नैतदर्थ तपोऽधितिष्ठेत , अपि तु 'नान्यत्र निर्जरार्थ' मिति न कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधितिष्ठेत् , अकामः सन् यथा कर्मनिर्जरेव फलं भवति तथाऽधितिष्ठेदित्यर्थः चतुर्थ पदं भवति)
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ८३
इतिवचनात् ॥ "आवश्यके-बत्तीसाए जोगसंगएहिं।" "आलोयण १ निरवलावे २ आईसुदिढधम्माय ३ । अनिस्सिउवहाणेय ४ सिक्खा ५ निप्पडिकम्मया ६ ॥१॥" इतिवचनात् । अत्र चतुर्थों योगसंग्रहः अनिश्रितोपधानं ऐहिकफलानपेक्षतपाकारिता इत्यर्थः । एवं स्थानांगे, समवायांगे, प्रश्नव्याकरणे, उत्तराध्ययने । मूल-इग-वासर-परियाउ, वाससय-दिक्खियं बहुसुर्यपि ।
वंदिज्जा नहु अज्जं,साहु बालो अगी(अत्थ) उवि॥१६३॥ विरइधरं गुणनिलयं, नहु वंदइ सावियंपि ववहारा । __ ता अविरय देवीउ, कहेह साहू कह वंदे ।।१६४।। देवीथुइ आयरणा, एएण य कारणेण नहु सुद्धा ।
आयरण लक्खणेणवि,नहु जुज्जइ जेण भणियमिणं ॥१६॥ यत:--"असढेण समाइन्नं, ज केण य कथ्यई असावज्ज । न निवारियमन्नेहिं, आयरणा सा पमाणं मे ॥१॥"
इतिवचनात् ॥ मूल-तथ्य य जिणपडिसिद्धं, पडिसिद्ध-विहाणमेव सावज्ज।
लक्खण-विरुद्धमेयं आयरणं कहमिह पमाणं ॥१६६।। क्खित्तावन्गहकज्जे, खित्तसुरी-संथवं करंताणं ।
साहूण वसहिदोसो, उप्पायणए इगारसमो ॥१६७॥ इह जा सुत्तविरुद्धा सच्छंदमईइ-कप्पिया जो य ।
गीयथ्थेहिं कहिज्झइ, सा नहु किन्जइ मए नूणं ॥१६८॥
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८४ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
अह पक्खिय चाउम्मासिय संवच्छरिय पडिकमणविही भणई ॥ श्रीआवश्यकनियुक्तौ पंचमाध्ययने" देवसिय-राइय-पक्खिय,-चाउम्मासे तहेय वरिसेय ।
इकिके तिनि गमा, नायबा पंचसे (सु) तेसु ॥१॥ आइमकाउस्सग्गे, पडिकमंताऊ काउ सामाइयं ।
ता किं करेह बितियं, तइयं च पुणोवि उस्सगो ॥२॥ समभावंमि ठियप्पा, उस्सगं करिय तो पडिक्कमइ । एमेव य समभावे, (बि)वियस्स तियं समुस्सगो ॥३॥"
पंचस्वेतेषु देवसिकादिषु एकैकस्मिन् प्रतिक्रमणे त्रयखयो गमा ज्ञातव्याः॥ सामायिकमुच्चार्य प्रतिक्रमणाय कायोत्सर्गकरणमतिचारचिंतनरूपं पुनः सामायिकमुच्चार्य प्रतिक्रमणसूत्रभणनं सामायिकाध्ययनमुच्चार्य चारित्रसुद्धिकायोत्सर्गकरणं एते त्रयो गमाः। अत्राह परः प्रतिक्रामंतः आधकायोत्सर्गादौ सामायिकं कृत्वा उच्चार्य ततः कथं द्वितीय प्रतिक्रमण-मूत्रादौ तदुच्चरन् तृतीयं च पुनरपि चारित्र-सुद्धिकायोत्सर्गादौ इत्युक्ते गुरुराह समभावे स्थितात्मा उचरितसामायिकः प्रथमं कायोत्सर्ग कृत्वा एवमेव द्वितीयवेलामुच्चरितसामायिकः प्रतिक्रामति, प्रतिक्रमणसूत्रं भणति, तृतीयवारमपि समभावस्थितस्य उच्चरितसामायिकस्य चारित्रसुद्धिकायोत्सर्गः समभावस्थितस्य च तावत् प्रतिक्रमणं नान्यथा, अतस्त्रि सामायिकमुच्चार्यते,अथवा "सज्झाय-जाण-तव-उसहेसु, उवएस-थुइ-पयाणेसु । संतगुण-कित्तणेसु य न हुंति
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ८५
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पुनरुत्तदोसाऊ ॥१॥” इतिवचनात् । पंचमु प्रतिक्रमणेसु अतिचारचिंतनमस्त्येव ॥ मूल-इय निज्जुत्ति बलेण, पक्ख-चउम्मास-वरिस-पडिकमणं।
देवसियं च करिजइ, उस्सग्गा जीयकप्पाओ ॥१६९॥ दिवसे सयमूसासा, राईए तेय हुंति पन्नासं ।
पक्रोमिय तिभिसया, चाउम्मासंपि पंचसया ॥१७॥ अ(हाहि)हडिय सहस्स मेगं, ऊसासा तहय वरिसए चेव ।
आवस्सयस्स एवं, निज्जुत्तीए य नायव्वं ।।१७१।। नवि अन्नो कोइ विही, पक्खियमाईण दीसई स
वित्तीसु य जो भणिओ,सोवि न गच्छेसु सव्वेसु ॥१७२।। नियनियगच्छायरणा, सव्वेसि अथ्यि पुबसूरिकया।
सायरणावि य आणा, जा पवयणमग्गमणुलग्गा ॥१७३॥
अथ पाक्षिकाधिकाराचित्तसमाहोठाणा, दस य दसाखंधमुत्तपन्नत्ता।
पक्खिय-पोसहिएमु य समाहिपत्ताण साहणं ॥१७४॥
अत्रचूर्णि:-"पक्खियमेव पक्खियं पक्खिए पोसहो अहमि चउद्दसीसु समाहिपत्ताणं समाही-नाण-दसण-चरणरूवा भावसमाही तथ्य पत्ता" । इत्यादिवचनात् ।। मूल-अथ्थय पक्खिय-सद्दो, चउद्दसी-वायगो मुणेययो ।
जं पक्विय परियाओ, एसो नहु पुन्निमा भणिया॥१७५।। भुजो भगवइ-अंगे, पढमुद्देसे य बारस-सयंमि । पक्वियपोसह-सद्दे, चउद्दसी-संभवो अथि ।।१७६॥
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८६ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम्. जम्हा पढमे दिवसे, बीण (य)पुण पोसहो य नो गहिओ।
तम्हा एगदिणस्स य, आराहणमेव इह पयड ॥१७७।। वित्तीए नो भणिउ, चउद्दसी-पुनिमाइ-सुविसेसा ।
एएण कारणेणं, चउद्दसी-पक्खियं होइ ॥१७८।। यदुक्तं पूर्वाचार्यै:" अट्टम-छ?-चउथ्थं, संवच्छरचाउम्मास-पक्खे य ।
पोसहे य तवे भणिए, वितियं असहूं गिलाणेयं ॥१॥"
निशीथभाष्ये-पाक्षिके चतुर्थ पूर्णिमामावास्या गणने चतुर्थ कथं जायते । इति हेतोश्चतुर्दश्यामेव पाक्षिकं । व्यवहारवृत्ती"अट्ठमीए चउसु पक्खिए,चउथ्थं चाउम्मासिए छटुं । संवच्छरिए अट्ठमं,न करेति तस्स पच्छित्त।।१३." आवश्यकचूणौँ - "अट्ठमि चउद्दसीस अरिहंता साहुणो य वैदियवा इति. पुनस्तत्रैव "सोय सावउ अहमिचउद्दसीसु उववासं करेइ पुच्छइ वाएइ तओ सागरचंदो अट्ठमि चउद्दसीसु सुन्नघरेसु सुसाणेसु वा एगराइयं पडि(क)मं ठवेइ। चंपाए सुदंसणो सिट्टिपुत्तो अट्ठमी चउद्दसीसु चच्चरेसु उवासग-पडिमं पडिबजइ उदायराया अहमि चउद्दसीसु पोसहं करेइ" । इतिआवश्यकचूर्णिवचनात् । “अट्ठमीचउद्दसीशु य पभावती भत्तिराएण सततमेव राउनद्दोवयारं करेइ।" इतिनिशीथचूर्णिवचनात् । बहुषु स्थानेषु पाक्षिक-कृत्यानि प्रतिक्रमण-पौषध-चैत्यपरिपाटी-साधुवंदनकादीनि चतुदश्यामेव दृश्यमानानि संति,इति हेतोः पाक्षिकशब्देन चतुर्दशी
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ८७
(तथा च श्री महानिशीथे "संते बलबीरिय-पुरिसकारपरकमे अट्ठमी-चउद्दसी-नाणपंचमी-पजोसषणा-चाउम्मासिप चउथ्थ-छट्ठमट्टमेणं करेजा खषणमिति । अत्र चातुर्मासिकापरा न कार्यामाषसी पूर्णिमा वा गृहीतायदि तयो-ग्रहण मभविष्यत्तदा चतुर्दश्यां चतुर्थ-भक्तोपदेशो नाभविष्यदिति) ( आ बीना पानानी कांबीमां छे) मूल-कत्तिय अमावसाए, निवाणं वीरजिण-वरिंदस्स ।
संजायं तेण तया, पट्टवियं पोसहं सुद्धं ॥१७९।। कासीकोसल-जणवय,-निवेहि अट्ठारसेहिं मिलिऊणं ।
गणरायेहि पक्खिय,-ममावासाए कउ तत्तो ॥१८०॥ भणियमिणं सुहवयणं, दसामुयस्कंध-अट्ठमज्झयणे । ___ पुणरवि तथ्थेव सुया, पक्खियारोवणा भणिया ॥१८॥ तग्गहणं पडिसुद्धं, अमावसाए न पक्खियं होइ ।
तेण य अमावसाए, न पुनिमाएवि नेयव्वं ॥१८२॥ जम्हा पंचम-अंगे, पनरसमसयंमि वीरनाहस्स ।
पडिक्यदिवस-विहारो, चाउम्मासो य पढमदिणे।।१८३॥ तिन्नेव य चउम्मासा, नायव्या पुनिमाइ तत्तो य।
पक्खिय-चाउम्मासा, न एगदिवसंमि जायंति ।।१८४॥ अंगंमि उवंगंमिय, चउद्दसी अहमी य उद्दिवा ।
तह पुनिमा य एवं, चउपव्वतिहीण नामाई ॥१८५॥ बीयसूयगडंगे, वित्ती तेवीसमेए अज्झयणे ।
अट्ठमि-चउद्दसीउ, पयडथ्याउ य नायव्वा ॥१८६॥
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८८ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . महकल्लाणतिहीउ, उहिहाउत्ति जिणवरिंदाणं ।
तिन्नेव पुनिमाओ, चउम्मासतिहोउ भणियमिणं॥१८७॥ एएण कारणेणं, चउद्दसि पक्खियं वियाणेह ।
जम्हा चउम्मास तिही, न पक्खियं पुन्निमा किहवि ॥१८८।। अह पक्खियं चउद्दसि,-दिगंमि पुव्वं च तथ्य देवसियं । इय जोगसत्तअथ्थे, भणियं सिरिहेमसूरीहि ॥१८९॥
यदुक्तं पूर्वाचायः-"अन्नामुवि वित्तीमुं,सूरीहि अभयदेवपमुहेहिं । उद्दिट्टा निहिट्टा, अमावसा तहय चुन्नीसु ॥१॥ एवं कल्लाण-तिही, न लभ्भइए जिणमयंमि सुपसिद्धा । सा कहमाराहिजइ, अभासिया सुत्त-अथ्थेसु ॥२॥ अन्नेसि किरियाउ, नागाई अचणा जलहिवुड्ढी । सेलग-जक्खुवयारे,अमावसा तथ्य उद्दिट्टा ॥३॥ इइ उद्दिपएणं, अमावसा भासियापवयणमि । जथ्य अ सेसो लोगडिइ, विसेसो समुदिट्टो ॥४॥ कायव्वो य विवेगो, परस्स तिथ्यीण धम्मकिरियासु । कल्लाणतिही मुत्तुं, जिणमयमन्नो कहं लहइ ॥५॥” इतिहेतोः स्वतीर्थे उद्दिष्टा कल्याणकतिथिः जगत्स्वरूपेऽमावस्या । मूल-चउम्मास-पडिक्कमणं,पक्खिय-दिवसंमि चउबिहे संघे ।
संदेहविसोसहिए, भणियं जिणवल्लहेहिं च ॥१९०॥ पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव् ।
तथ्य य चउद्दसी-तिय, भणियसिरिपुव्वसूरीहि ॥१९१॥ अन्नं च जंबुद्दीव,-प्पन्नत्ती चंदसूर-पन्नत्ती। भगवइ-अणुओगेसु य,अन्नथ्य वि अथ्थि भणियमिण।।१९२॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ८९
पनरस-दिणेहि पक्खो, दोपक्खा मास बारमासहो ।
एयं कालपमाणं, न पचमाणं इमं होइ ॥१९३॥ एयाए गणणाए, न हुंति पव्वाई तिनि गुरु
पक्खो चउम्मासो वरिसो, जथ्थेव पडिक्कमणं ॥१९४॥ सावणमासे बहुल,-पडिक्याए तह अभीइ-नक्खत्ते ।
संवच्छरपारंभो, एसो भणिओ जिणवरेहिं ।।१९५।। जइ एवं च गणिज्जइ, आसाढी-पुनिमाइ-ता वरिसो।
भद्दवय-मुद्ध-पंचमिदिणमि एसो कहं हुज्जा ॥१९६।। बीए पक्वमि तहा, मासट्ठाणे कहं चउम्मासो।
अट्ठसु मासेसु पुणो, दुवालसेसु य विरुद्ध सच्चे(वे)य ॥१९७॥ एवं सोऊण सुयं, दिणाण गणणाइ-पव्व-करणिज्ज ।
नह संभवइ वयंतिह, गीयथ्था तं चिय पमाणं ॥१९८॥ इति पाक्षिकाधिकारः॥
यतः-श्रीआवश्यक-चतुर्थाध्ययने"पडिकमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाप" इत्यादौ । तथा "अकाले कओ सज्झाओ काले न की साझाओ असज्झाए सज्झाचं सज्झाए जं न सज्झायं तस्स मिच्छामि दुक्कडं" इतिषचनात्। जेहन उ मिच्छादुक्कड दीजै ते अकाल किम कीजइ)
आ पाठ पानानी कांबोमां टीपणी रूपे छे.
अथ उदयिकतिथेरधिकार:मूल-चंदपत्ति मुत्ते, सूरियपन्नत्तिनामुवंगंमि ।
उदयतिहीय पमाणं, विवाहपन्नत्ति अंगंमि ।।१९९।।
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श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रोसप्तपदी शास्त्रम् .
अत्र सूत्रं जंबूद्दीवपन्नत्ति-मूलसूत्रे-"एगमेगस्स णं भन्ते ! मासस्स कति पक्खा पण्णत्ता ?, गोअमा! दो पक्खा पण्णत्ता, तं. बहुलपक्खे अ मुक्तपक्खे अ। एगमेगस्स णं भन्ते ! पक्खस्स कइ दिवसा पण्णता ?, गोअमा! पण्णरस दिवसा पण्णता, तं०-पडिवादिवसे बितिआदिवसे जाव पण्णरसीदिवसे, एतेसिणं भंते ! पण्णरसण्हं दिवसाणं कइ णामधेजा पण्णता ?, गोअमा! पण्णरस नामधेजा पण्णत्ता, तं०-पुवंगे सिद्धमणोरमे अ तत्तो मणोरहे चेव । जसभद्दे अ जसघरे छटे सबकामसमिद्धे अ॥२॥ इंदमुद्धाभिसित्ते अ सोमणस धणंजए अबोद्धव्वे ।। अत्थसिद्ध अभिजाए अच्चसणे सयंजए चेव ॥२॥ अग्गिवेसे उवसमे दिवसाणं होति णामधेजा ॥ एतेसि णं भंते ! पण्णरसण्हं दिवसाणं कति तिही पणत्ता ?, गो० ! पण्णरस तिही पण्णत्ता,तं०-नंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पंचमी । पुणरवि गंदे भद्द जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स दसमी। पुणरवि गंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पण्णरसी, एवं ते तिगुणा तिहीओ सव्वेसि दिवसागति । एगमेगस्स गं भत्ते! पक्खस्स कइ राईओ षण्णताओ ?, गोअमा ! पण्णस्स राईओ पण्णत्ताओ, तं:-पडिवाराई जाव पण्णरसीराई, एआसिणं भंते ! पण्णरसण्हं राईणं कइ णामधेजा पण्णत्ता ?, गो० ! पण्णरस नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा- उत्तमा य मुणक्खत्ता, एलावचा जसोहरा । सोमणसा चेव तहा, सिरिसंभूआ य बोद्धवा ॥१॥ विजया य वेजयन्ति जयंति अपराजिआ य
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ९१
इच्छा य । समाहारा चैव तहा तेआ य तहा अईते ||२|| देवानंद | रिई रयणीणं णामधिज्जाई || एयासि णं भंते ! पण्णरसहं राईणं कड़ तिही पं० ?, गो० ! पण्णरस तिही पं० तं० - उगवई भोगवई जसवई सब सिद्धा मुहणामा, पुणरवि उग्गवई भोगवई जसवई सबसिद्धा सुहणामा, पुणरवि उगवई भोगवई जसबाई सवसिद्धा सुहणामा । एवं तिगुणा एते तिहीओ सव्वेसिं राई : "
( वृत्तिः - 'पगमेगस्स' इत्यादि, एकैकस्य भदन्त ! मासस्य कति पक्षाः प्रज्ञप्ताः ?, गौतम दौ पक्षौ प्रज्ञप्तौ, तद्यथा - कृष्णपक्षी यत्र ध्रुवराष्ट्रः स्वषिमानेन चन्द्रविमानमावृणोति तेन योऽन्धकारबहुलः पक्षः स बहुलपक्षः शुक्लपक्षो यत्र स एष चन्द्रविमानमावृत्तं मुञ्चति तेन ज्योत्स्नाधवलिततया शुक्लः पक्षः स शुक्लपक्षः, द्वौ चकारौ तुल्यताचोतनार्थं तेन द्वापि पक्षौ सदृशतिथिनामको सदृशसङ्ख्याकौ भवत इति । अथानयोदिवससङ्ख्यां पृच्छन्नाचष्टे - 'पगमेगस्स ण' मित्यादि, एकैकस्य पक्षस्य कृष्णशुक्लान्यतरस्य भदन्त ! कति दिवसाः प्रज्ञप्ताः ?, यद्यपि दिवसशब्दोऽदोरारूढस्तथापि सूर्यप्रकाशवतः कालविशेषस्यात्र ग्रहणं, रात्रि विभागप्रश्नसूत्रस्याग्रे विधास्यमानत्वात् । गौतम पञ्चदश दिवसाः प्रज्ञप्ताः, पतश्च कर्ममा सापेक्षया द्रष्टव्यं तत्रैव पूर्णानां पश्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात्तद्यथा प्रतिपद्दिवसः प्रतिपद्यते पक्षस्याथतया इति प्रतिपत् प्रथमो दिवस इत्यर्थः, तथा द्वितीया द्वितीयो दिवसो यावत्करणात् तृतीया तृतीयो दिवस इत्यादिग्रहः अन्ते पञ्चदशी पञ्चदशो दिवसः पतेषां भदन्त ! पश्चदशानां दिवसानां कति ! नामधेयानि प्रज्ञ
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श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
प्लानि?, गौतम! पश्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तपथाप्रथमः पूर्वाङ्गो वितीयः सिद्धमनोरमस्तृतीयः मनोहर: चतुर्थो यशोभद्रः पञ्चमो यशोधरः षष्ठः सर्वकामसमृद्धः सप्तम इन्द्रमूर्धाभिषिक्तोऽष्टमः सौमनसो नषमो धनञ्जयः दशमोऽ र्थसिद्धः एकादशोऽभिजातो द्वादशोऽत्यशनः त्रयोदशः शतञ्जयः चतुर्दशोऽग्निवेश्म पञ्चदश उपशम इति दिषसानां भवन्ति नामधेयानि इति । सम्प्रत्येषां दिवसानां पञ्चदश तिथीः पिपृच्छिषुराह-एतेसि 'मित्यादि, एतेषां-अनन्तरोक्तानां पञ्चदशानां दिवसानां भदन्त ! कति तिथयः प्राप्ताः१, गौतम ! पञ्चदश तिथयः प्रज्ञप्ताः. तद्यथा-नन्दो भद्रो जयस्तुच्छोऽन्यत्र रिक्तः पूर्णः, अत्र तिथिशब्दस्य पुसि निर्दिष्टतया नन्दादिशब्दानामपि पुंसि निर्देशः, ज्योतिष्क रण्डकसूर्यप्रज्ञप्तिवृत्यादौ तु नन्दा भद्रा जया इत्यादिखीलिङ्गनिर्देशेन संस्कारो दृश्यते, स च पूर्णः पञ्चदश तिथ्या. त्मकस्य पक्षस्य पश्चमी इति रूढः, पतेन पञ्चमोतः परेषां षष्टयादितिथीनां नन्दादिक्रमेणैव पुनरावृत्तिदर्शिता, तथैव सूत्रे आह-पुनरपि नन्दः भद्रः जय; तुच्छः पूर्णः, स च पक्षस्य दशमी, अनेन द्वितीया आवृत्तिः पर्यवसिता, पुनरपि नन्दः भद्रः जयः तुच्छः पूर्णः, स च पक्षस्य पश्चदशी, उक्त. मर्थ निगमयति-एवमुक्तरीत्या आवृत्तित्रयरूपया एते अनन्तरोक्ता नन्दाचाः पंच त्रिगुणाः पञ्चदशसंख्याकास्तिथयः सर्वेषां-पश्चदशानामपि दिवसानां भवन्ति, एताश्च दिवस. तिथय उच्यन्ते, आह-दिवसतिथ्योः कः प्रतिषिशेषो येन तिथिप्रश्नसूत्रस्य पृथग्विधानं ?, उच्यते, सूर्यचारकृतो दिवस: स च प्रत्यक्षसिद्ध एव, चन्द्रचारकृता तिथिः, कथमिति चेत् ?, उच्यते पूर्वपूर्णिमापर्यवसानं प्रारभ्य द्वाषष्टि-भागीकृतस्य चन्द्रमण्डलस्य सदानावरणीयौ द्रौ भागौ वर्जयित्वा
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ९३
शेषस्य षष्टिभागात्मकस्य चतुर्भागात्मकः पंचदशो भागो यावता कालेन ध्रुवराहुविमानेन आवृतो भवति अमावास्यान्ते च स पर प्रकटितो भवति तावान् कालविशेषस्तिथिः। अथ रात्रिवक्तव्यप्रनमाह-'एगमेगस्स' इत्यादि, पकैकस्य भदन्त ! पक्षस्य कतिरात्रयोऽनन्तरोक्तविषसानामेव चरमांशरूपाः प्रज्ञप्ताः ?, गौतम! पञ्चदशरात्रयः प्राप्ताः, तपथाप्रतिपद्रात्रिः यावत्करणाद् द्वितीयादिरात्रिपरिग्रहः, एवं पंचदशीराविरिति । 'एआसिण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगम, उत्तरसूत्रे गौतम! पञ्चदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तपथा-उत्तमा प्रतिपद्राषिः सुनक्षत्रा द्वितीयारात्रिः पलापत्या तृतीया यशोधरा चतुर्थी सौमनसा पश्चमी श्रीसम्भूता षष्ठी विजया सप्तमी पैजयन्ती अष्टमी जयन्ती नवमी अपराजिता दशमी इच्छा एकादशी समाहारा द्वादशी तेजा. खयोदशी अतितेनाचतुर्दशी देवानन्दा पंचदशी निरत्यपि पंचदश्या नामान्तरं, इमानी रजनीनां नामधेयानि। यथा अहोरात्राणां दिवसरात्रिविभागेन संज्ञान्तराणि कथितानि तथा दिवसतिथिसंज्ञान्तराणि प्रागुक्तानि, अथ रात्रितिथि. संज्ञान्तराणि प्रश्रयन्नाह-एताप्ति णं' इत्यादि, एतासां भदन्त ! पश्चदशानां कति तिथयः प्राप्ताः ? गौतम ! पश्चतिथय: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रथमा उग्रवती नन्दातिथि रात्रिः, द्वितीया भोगवती भद्रातिथिरात्रिः तृतीया यशोमती जयातिथिरात्रिः ४, सर्वसिद्धा तुच्छातिथिरात्रिः, ५, शुभनामा पूर्णतिथि. रात्रिः, पुनरपि ६, उग्रवती नन्दातिथिरात्रिः, भोगवती भद्रातिथि:, ७, रात्रि: यशोमती जयातिथि, ८, रात्रिः सर्व. सिद्धा तुच्छातिथिर्नघमीरात्रिः, शुभनामा पूर्णतिथिदशमी रात्रिः, पुनरपि उग्रवती नन्दातिथिरेकादशी रात्रिः, भोगवती भद्रातिथिर्वादशी रात्रिः, यशोमती जयातिथिस्त्रयोदशी
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९४ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् ,
रात्रिः, सर्वसिद्धा तुच्छा तिथिश्चतुर्दशी रात्रिः, शुभनामा पूर्णातिथिः पश्चदशी रात्रिरिति, यथा नन्दादिपञ्चतिथीनां त्रिरावृत्त्या पंचदश (दिन) तिथयो भवन्ति तथोग्रवतीप्रभृतीनां त्रिरावृत्या पंचदश रात्रितिथयो भवन्तीति)
इति वचनात् ।। एवं सरपन्नत्ती मूलसूत्रेपि-दशमस्य प्राभृतस्य चतुर्दश पंचदश प्राभृत प्राभृतयोः सदृशत्वान्न लिख्यते । अत्रवृत्तिः एकैकस्य पक्षस्य पश्चदश पञ्चदश रात्रयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रतिपत् पतिपत्सम्बन्धिनी प्रथमा रात्रिः द्वितीयदिवप्तसम्बन्धिनी द्वितीया रात्रिः, एवं पञ्चदशदिवससम्बन्धिनी पञ्चदशी रात्रिः, इतिवचनात् । यो दिवसः सा चैव रात्रिः दिवसानुषंगिकीरात्रिरित्यर्थः ॥ श्रीकल्पसूत्रे "उवसमे दिवसे देवागंदा सा रयणी" इतिवचनात् । वृत्तिः-ननु दिवसेभ्यस्तिथीनां कः प्रतिविशेषो येनैताः पृथक कथ्यते उच्यते इह सूर्यनिष्पादिता अहोरात्राश्चंद्रनिष्पादितास्तिथयः, तथा पुनः अयं च पूर्वाचार्यपरंपरायात उपनिषदुपदेशः। अहोरात्रस्य द्वापष्ठिभागपविभक्तस्य ये एकषष्ठिभागस्तावत् प्रमाणा तिथि:, अहोरात्रस्त्रिशन्मुहूर्तप्रमाणः सुमतीतः ॥ औदयिकतिथिविचारः ॥ श्रीभगवती सूत्रे १२ शतके ६ उद्देसके-“से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सूरे आइने सूरे० २१, गोयमा ! सूरादियाणं समयाइ वा आवलियाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ वा अवसप्पिणीइ वा से तेणटेणं जाव आइच्चे०२।" वृत्तिः-अथादित्यशब्दस्यान्वर्थाभिधानायाह-'से केण' मित्यादि, 'सराईय' तिसरः आदिः
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ९५ प्रथमो येषां ते सुरादिकाः, के ? इत्याह-'समयाइव' त्ति समयाः-अहोरात्रादिकाल भेदानां निविभागा अंशाः, तथाहिसूर्योदयमवधिं कृत्वाऽहोरात्रारम्भका समयो गण्यते आवलिका मुहूर्तादयश्चेति ‘से तेण' मित्यादि, अथ तेनार्थेन सूर
आदित्य इत्युच्यते, आदौ अहोरात्रसमयादीनां भव आदित्य इति व्युत्पत्तेः ॥ एवं सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रे
"ता कहं ते सूरे आइच्चे आहितेत्ति घदेजा ता मुरादिया समयातिवा आवलियातिवा आणापाणूत्तिवा थोवेतिवा जाव उस्सप्पिणीति वा एवं खलु सूरे आइच्चे आहितेत्ति वदेजा।" एवं चंद्रप्रज्ञप्तिमूलसूत्रेपि । अथ वृत्तिः-ता इति पूर्ववत कथं केन प्रकारेण केनान्वर्थनेति भावः सूरःसूर्य आदित्य इत्याख्यायते इतिवदेत् ? भगवानाह सूर्य आदि प्रथमो येषां ते सूरादिकाः के इत्याह समयातिवा समया अहोरात्रादिकालस्य निर्विभागाः भागास्ते सूरादिकाः सूरकारणा तथाहि सूर्योदयमवधि कृत्वा अहोरात्रारंभकः समयो गण्यते नान्यथा, एवमावलिकादयोपि सूरादिका भावनीयाः। नवरमसंख्येय-समयसमुदयात्मिका आवलिकाः, संख्येया आवलिका एक आनमाणः, द्विपंचाशदधिकत्रिचत्वारिंशच्छत-संख्यावलिका प्रमाण एक आनप्राण इति वृद्धसंप्रदायस्तथा चोक्तं । " एगो आणापाणू, तयालीसं सयाउबावन्ना। आवलिय पमाणाणं, अणंत नाणीहिं निदिहो ॥१॥" सप्तानप्राण-प्रमाणस्तोकः, यावच्छब्दान्मुहूर्तादयो द्रष्टव्या ते च सुगमत्वात् स्वयं भावनीयाः। एवंखल
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श्रीसामाचारी समाश्रितं श्रीसप्तपदी शाखम्.
इत्यादि एवमनेन प्रकारेण खलु निश्चितः सूर आदित्य इत्याख्यात इतिवदेत्, आदौ भव आदित्यः बहुवचनात्य प्रत्ययः इतिव्युत्पत्तेः, इत्यक्षरैरुदयतिथिः प्रमाणं । अभ्येष्वपि शास्त्रेषु - उदयंमि जा तिही, सा पमाणमियरा न कायवा । इहरा आणाभंगो, आणाभंगेण मिच्छतं ॥ १ ॥ पच्चक्खाणं पूआ, पडिकमणं पोसहो अणुट्ठाणं । जीए उदेइ सरो, तीइ तिहीए य काय || २ || " इत्यादि ॥
मूल- अप्पतमेण तमेणं, उज्जल पडिवाय बुच्चइ कसिणा ।
अप्पुज्जोएणं चिय, कसिपि सियंति भाति ॥ २००॥ एवं उदयतिही विय, नायवा कसिण उज्जल तिहिव ।
आवस्य वेलाए, तिहिगहणं कथ्थवि न दिट्ठे ॥२०१॥ पुणरवि जइ गीयथ्था, दावंति य अक्खराणि एयाणि ।
ता ताणि मे पमाणं तत्तं तु त एव जाणंति ॥ २०२ ॥ आवस्य वेलाए, पचतिही हुज्ज तीइ पडिकमणं ।
तं पुन्ने जायें, अवरन्ने वावि चिंतेह ॥ २०३ ॥ अवरन्ने तं जुत्तं, नो पुव्वन्ने तहावि सुतुत्तं ।
सेयं वा कसिणं वा तं तं सव्वं मह पमाणं ॥ २०४ ॥ पढमं चिय होइ दिणं, तस्स य रयणित्ति तयणुगा ।
पच्छा जंबूसूरिय, - चंदपन्नत्तीसु य इमं भणियं ॥ २०५ ॥ तत्पूर्व्वलिखितमेवावगंतव्यं ॥
तम्हा दिणावसाणे, पडिकमणं जुत्तमेव इय मग्गो । तम्हा पवयण भणियार, उदयतिहीए अभिरमेज्जा ॥ २०६ ॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ९७
इति औदयिकतिथ्यधिकारः ॥
समणाण सावयाण य, देसिय पशुहाण जाण पंच हें | पडकमणाणं किरिया, सरिसा सुत्ताणुसारेण || २०७|| श्रावकाणां प्रतिक्रमणे यो विशेषः स उच्यतेइरियं पडिकभित्ता, पडिलेहित्ताण धम्म उवगरणं । पुत्ती देहपमुहं पुणोवि इरियापडिकमणं || २०८ || सम्म जयणा करणे, तत्तो दाऊण दोखमासमणे ।
भयवं सामाइयवर्य, संदिस्सावेमि ठावेमि ॥ २०९ ॥ नवकार - भणण- पुर्व, सामाइय- दंडगं समुच्चरइ ।
आवस्य किरियाए, वेलं जाणित्त संपत्तं ॥ २२० ॥ किरियंतराल काले, पडिक्कर्म - ताण नथ्थि उववसिणं ।
तत्तो आसणणुन्ना, एयण मेयं तु निर(वे ) क्खं ॥ २११ ॥ काळंमि किज्जगाणी, सज्झाउ जिणमयंमि सुविसुद्धो ।
सझायरस अणुना, नध्य अकाले जिणंदाणं ॥ २१२ ॥ आसण सज्झायाणं, पच्छा किरियाई संभवो अधि ।
जड़ गीयथ्या भावं. एयं मन्नंति ता सव्वं (चं) | २१३॥ हुज्जा सुत्तविरुद्धं, ता मिच्छादुकर्ड हव ।
मज्यं एएण कारणेणं, दुवालसावत्त-वंदणयं ॥ २१४॥ दच्चा पच्चक्खाणं, किच्चा तो घेइयाइ वंदित्ता ।
आयरियाई साहू, ढाविय पकुणंति उस्सगं ॥ २१५ ॥ सेस साहु - सरिथ्यं, एमेव य राइयंमि नायव्वं । वयमुच्चरितु पच्छा, राईपच्छित - उस्सगं ॥ २१६ ॥
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श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
काऊणं चिय-चंदण,-पुव्वं ठावंति तो पडिकमणं ।
एवं देसिय-राइय,-पडिक्कमणं सावयाणं च ॥२१७॥ अन्नं च पुत्ति-पडिलेहणाए, दुवालसावत्त-वंदणमि दुर्ग ।
वारदुगं च सीसो, वरियं कार्य पमजिज्जा ॥२१॥ एवं देवसिय मि य, स पञ्चक्खाणाउ अवाराओ।
पुत्तिपडिलेहणाउ, कायस्स पमज्जणाओ वि ॥२१९॥ छवारं राईए, अप्पडिलेहित्तु पुत्तियं देइ ।
वंदणयं पच्छित्तं, तस्मुत्तं पुन्वसूरीहि ॥२२०॥ वारं वारं कुज्जा, दिछीइनि(य)रक्खणेण पडिलेहं ।
पणवीसं पणवीसं, पुत्ती-देहाणुभयकालं ॥२२१॥ सेसाई तिन्नि आवस्सयाई, कायब्वाइं साहुन्य निय।
नियवयअइयारा, जहकम चेव चिंतेज्झा ॥२२२॥ आलोइऊण सम्मं, पडिक्कमित्ता तओ विसोहिज्झा । सव्वपडिकमणाण, परमरहस्सं मुणेयव्वं ।।२२३॥
अत्र गीतार्था मध्यस्था यद्वदति तदेव प्रमाणीक्रियते सूत्रानुसारेण निरीहतया प्रसादमाधाय वक्तव्यम् ।। अथोपधानाधिकार:--- मूल-अंगपविठं सुयमंग,-बाहिरं तहय चेव आवस्सयं ।
आवस्सयवितरितं, कालियमुक्कालियं चेव । २२४॥ ठाणांगे नंदीए, अणुओमंमि य सुयस्स छब्भेया ।
पए जिणेहि भणिया, अउपरं नथ्थि किंचि सुयं ॥२२॥ पुच्छेमि पंचमंगल,-नामेणं जो भवे महासुयक्खंधो।
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि अन्यमाळा पुस्तक ५० मुं. ९९
सो नहु लब्भइ कथ्थवि, पंचज्झयणेग-चूलाय ॥२२॥ पडिकमण-सुयक्खंधो, बीओ सकत्थवाभिहाणं तु । ___ तइयमरिहंतचे (थे) इय,-थव-अज्झयणं चउथ्थं तु ॥२२७॥ पंचमगं नामथयं, छठं सुय-संथवं तह चेव ।
एवं अज्झयणाणि य चत्तारि य दो सुयक्खंधा ॥२२८॥ भणियं दुवालसंग, गणिपिडगं तथ्य कथ्थ एयाई।
मन्नामि अहं भयवं, गीयथ्या तं समाइसह ॥२२९॥ एवं कुणह पसायं, चइत्त सव्वं मणोगयं कसायं ।
जेणं उत्तमपुरिसा, पणयाणं वच्छला हुँति ।।२३०॥ एतेर्सि उपहाण, महानिसीहंमि सावयाणं जं।
भणियं तेण न कप्पइ, आवस्सय-सुत्त-भणणंपि ॥२३॥
( श्रीमहानिसीथे-"पंचमंगल-महासुयक्खंधस्म पंचम. ज्ज्ञयणेग-चूलापरिक्खित्तस्स पवर-वयण-देवयाहिटियस्स" पहनउ उपधाल पहिलउ दुधालसम-विचालइ आंबिल ८ प्रांति अष्टम ए पंचमंगल-महासुयक्खंधनो ऊपधान | " से भयवं कयराए बिहीए तमिरियावहीयमहीए गोयमा जहाणं पंचमंगलमहा-सुयक्खंध से भयवं इरियावहियमहिजित्ताणं तओ किमहिज्झइ गो० सक्थ्ययाइय चेहयवं. दण तिहिं णधरं सक्वत्थयं एगट्ठम-बत्तीसाए आयंबिलेहि । अरिहंतथयं एग-चउथ्थपहिं तिहिं आयंबिलेहि, णाणथ्थय एगे चउथ्थेणं पंचधि आयंबिलेहिं अरहंतथ्थयं एगे चउथ्थेणं पंचआयंबिलेहि" | ए उपधानविधिः । १ नवकार दिन १८ २ इरियापही दिन १८ । ३ नमोत्थुणं दिन ३५ ॥ ४ सव्वलोए अरिह० दिन । ५ चउवीसथ्थयं दिन २८ । ६ ज्ञानस्तष
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१०० श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . दिन ६ = एवं सर्वमिली दिन १०९ एतावता तपसा एकमावश्यकं शुद्धं पंचावश्यक तपः कुतो लभ्यते अनुपधानावश्यकाध्ययने ज्ञानाचारविराधना इति महानीशीथे । श्रीमहानि. शीथे-"तहा साहु साहुणीसमणोवासग-समणोषासगाहिं सद्धिं सत्तसाहम्मिय जणचउधिहेणंपि समणसंघेणं निथ्थारगपारगो भधिजा। धन्नोसि पुन्नलक्खणोसि तुमं उच्चारमाणेणं गंधमुठ्ठीओ तो जगगुरूणं जिणंदाणं एगदेसाओ गंधड्ढामि. लाण-सियमल्ल-दामं गहाय सहत्थेणोभयक्खंधेसु समारोवयमाणेणं गुरुणा णो संदेहमेवं भणिययो जहातो भो जम्मंतरसंचयगुरुपुन्नपभारसुलद्र-संघिदुत्तमसहलं मणुयं देवाणुप्पियाणंपि इयं नरयतिरयगइदारमुज्झंति '' अयं विधिरस्ति साधूनां कर्तव्या वाकर्तव्या इति।) आ पाठ पानानी कांबोमांछे ॥ मूल ता किल कि बत्तव्यं, किरियाए तस्स अणुवहाणस्स ।
नाणायार-विराहण,-मावज्जइ तं पकुव्वंना ॥२३२॥ विवरीय सद्दहाणं, सद्दयमाणाय दंसणायारं । __ स कलुस-किरिया- करणे, चरणायारं विराहेइ ॥२३३।। एएण कारणेणं, आवस्सय-सुत्त-सुद्धज्वहाणं ।
कायव्वं जमवस्सं, कायव्यं समणसड्ढे हि ॥२३४॥
यदुक्तं-श्रीअनुयोगद्वारसूत्रे-" समणेणं सावएणं य अवस्स कायव्वं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ॥२॥"
(पत्तिः–'समणेण' गाहा, श्रमणादिना अहोरात्रस्य मध्ये यस्मादयश्यं क्रियते तस्मादावश्यकम्, एत्रमेवावश्यकरणीयादिपदानामपि व्युत्पत्तिर्द्रष्टव्या)
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १०१
पुनः सूत्र--"जण्णं इमे समणो वा समणी वा सावओ वा साविआधा तचित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्यज्झवसाणे तदछोवउत्ते तदप्पिकरणे तब्भावणाभाविए अण्णत्व कथइ मणं अकरेमागे उभओकालं आवस्मयं करेंति से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं,"
(वृत्ति:---'जं गंति पमिति पाक्यालङ्कारे, यदिदं अमणादयस्तशित्तादिविशेषणविशिष्टा उभयकालं प्रतिकमणा. पावश्यकं कुर्वन्ति तल्लोकोत्तरिक भावावश्यकमिति सण्टङ्का, तत्र श्राम्यतीति श्रमणः-साधुः, श्रमणी-साध्वी, शृणोति साधुसमीपे जिनप्रणीतां सामाचारी मिति श्रावक-श्रमणोपासकः, श्राधिका-श्रमणोपासिका, वाशब्दाः समुच्चयाः , तस्मिन्नेवाऽऽवश्यके चित्तं सामान्योपयोगरूपं यस्येति स तच्चिता, तस्मिन्नेष मनो-विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः, तत्रैव लेश्या शुभपरिणामरूपा यस्येति स तल्लेश्यः, तथा तदध्यवसितः-इहाध्यवसायोऽध्यवसितं, ततश्च तश्चित्तादिभाषयुनस्य सतस्तस्मिन्नेवाऽऽवश्यकेऽध्यवसितं क्रियासम्पादनविषयमस्येति तदध्यवसितः, तथा तत्तीव्राध्यवसाय:तस्मिन्नेयाऽऽवश्यके तीव्र प्रारम्भकालादारभ्य प्रतिक्षणं प्रकर्षयायि प्रयत्नविशेषलक्षणमध्यवसानं यस्य स तथा तथा 'तदर्थोपयुक्त:' तस्य-आवश्यकत्यार्थस्तदर्थस्तस्मिन्नुपयुक्तस्तदर्थोपयुक्तः प्रशस्ततरसंवेगविशुद्धयमानः, तस्मिन्नेष प्रतिसूत्रं प्रतिक्रियं चार्थपयुक्त इत्यर्थः, तथा 'तदर्पितकरणः' करणानि-तत्साधकतमानि देहरजोहरणमुखवस्त्रिकादीनि तस्मिन्-आवश्यके यथोचित-व्यापारनियोगेनार्पितानिनियुक्तानि तानि येन स तथा, सम्यग्यथास्थानन्यस्तोपकरण इत्यर्थः, तथा 'तशाषनाभावितः' तस्य-आवश्यकस्य
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१०२ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
भावना-अव्यवच्छिन्नपूर्वपूर्वतरसंस्कारस्य पुनः पुनस्तदनुष्ठानरूपा तया भावितोऽङ्गाङ्गिभावेन परिणतावश्यकानुष्ठानपरिणामस्तद्भावनाभावितः, तदेवं यथोक्तप्रकारेण प्रस्तुत. व्यतिरेकतोऽन्यत्र कुत्रचिन्मनोऽकुर्वन उपलक्षणस्वाहाचं कार्य चान्यत्राकुर्घन, एकाथिकानि या विशेषणान्येतानि प्रस्तुतोपयोगप्रकर्षप्रतिपादन पराणि, अमूनि च लिङ्गाधिपरिणामतः श्रमणीयायियोरपि योज्यानि, तस्मात् तश्चित्तादिविशेषणविशिष्टाः श्रमणादयः 'उभय कालम्' उभयसन्ध्यं यदावश्यक कुर्वन्ति तल्लोकोत्तरिकं, भावमाश्रित्य भावश्चासाचावश्यक चेति या भावावश्यकम,)
इति वचनात् ।। साधु-साध्वी-श्रावक श्राविकाणां चारश्यकं कर्त्तव्यमुपदिष्टं तत् करणं सूत्र-पाठमंतरेण न संवोभवीति स पाठो गुरुवाचनानुगतोनुयोगद्वारे प्रसिद्धः सा वाचना समुद्देशाहते न संघट्टते समुद्देश उद्देशपूर्वक इति दृश्यते, श्री अनुयोगद्वारे-" नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-आभिणिबोहियनाणं मुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं तथ्य चत्तारि नाणाई ठप्पाई वणिज्जाई णो उद्दिसंति णो समुदिसंति णो अणुण्णविज्जति, सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, जइ सुगनाणस्स उद्देसो समुहेसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ, ता कि अंगपविटस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ?, कि अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ?, अंगपविष्ठस्सवि उद्देसो जाव पवत्तइ, अणंगपविठस्सवि उद्देसो जाव पवत्तइ ?, अंगबाहिरस्सवि उद्देसो ४ पवत्तइ, जइ अंगबाहिरस्स उद्देसो
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १०३
४ पवत्तइ, ताकि आवस्सगस्स उद्देसो० पवत्तइ आवस्सगवइरित्तस्स उद्देसो ४ पवत्तइ, आवस्सगस्सवि उद्देसो ४ पवत्तइ, आवस्सगस्स वइरित्तस्सवि उद्देसो० पवत्तइ, जइ आवस्सगस्स उद्देसो ४ पबत्तइ ताकि सामाइयस्स चउवीसथ्थयस्स बंदणस्स पडिकमणस्स काउस्सग्गस्स पञ्चक्खाणस्स सव्वेसिपि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुन्ना अणुओगो पवत्तइ ।'' इतिवचनात् । आवश्यकस्योद्देश-समुद्दशानुज्ञाः ॥ मूल-इय मुत्ताणुसारेण समणाणं सावयाण तुल्लत्ति ।
आवस्सयस्स किरिया, उपहाणं तस्सवि सरिथ्थं ॥२३५॥ भणियं महानिसीहे, न होइ आवस्सयस्स उवहाणं । ___ भणणं किरिया करणं, तं च विणा तस्स नहु जुग्गं ॥२३६॥ आवस्सयंमि एगो, सुयक्खंधो धम्मराय करिखंधो ।
छच्चेवज्झयणाई, ताइ पुणो इक सरगाइं ॥२३७॥ तेसिं छहिं दिणेहिं, उद्देसाई भवे अणुहाणं ।
सुयक्रवंध-समुद्देसो, कायव्यो सत्तमदिणमि ॥२३८॥ अहमदिणे अणुन्ना, एवं अहिं दिणेहि उवहाणं ।
आवस्सयस्स सरियं, समणाणं सावयाणं च ॥२३९॥ जम्हा अंतेवासी, जिणागमे जिणवरेहि पन्नविया ।
उग्गा उग्गविहारी, समणा तह सावया चेव ॥२४॥ पासथ्याईवि दुवे, सत्तम-अंगमि पंचमंगमि ।
आयारंगे वसुवा, अणुवसुवा इत्ति चिंतेह ॥२४१॥ अज्जो इमिणा आमंतणेण, आमंतिया दुवे गुरुणा।
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श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
देस जयणाय तम्हा, जाणह समगाणुगा सदृढा ||२४२ ॥ सावय उवहाणविही, महानिसीम अथिथ जा भणिया । तं केई मन्नंतिय, केई बहुआ न मन्नंति ॥ २४३ ॥ आवस्सग अहदिणो, वहाण किरिया जईण सव्वेसिं ।
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पढम-चरित्तधराणं, सुपमाणं गच्छवासीणं ॥ २४४॥ आवस्सस्स अन्नो, उवहाण - विही न दीसई कोवि ।
जं आयरिया तु सदा, कुणंति सिक्खं निरइयारं ॥ २४५ ॥ यतः - "काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह अणिनवणे ।
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वंजण अथ्य तदुभए, अहविहो नाण - मायारो ॥ १ ॥ " इतिवचनात् ॥ श्रावकाणामपि उपधानविधानमंतरेणातिचारो ज्ञानाचारस्य पुनः प्रतिक्रमणसूत्रे श्रावकाधिकारे "वंदण वय सिक्खागारवेसु, सन्ना कसाय दंडे | गुत्तीसुय समिईसुय, जो अइयारो य तं निंदे || १||" इति वचनात् । यदि श्रावकाणामुपधानमंतरेणावश्यक सूत्राध्ययनं गीतार्थाः स्थापयेत्यथवोपधानविधिना शुद्धामावश्यक क्रियां स्थापर्यंति तथा प्रमाणीक्रियते ॥ अथोपदेशविधिः
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मूल- पाईणं पडिणं वावि, दाहिणोदीणमेवय । सुद्धसुणी विहरतो, सुद्धं धम्मं वियागरे ॥ २४६ ॥ अहिंसा लक्खणो धम्मो, जिणंदेहिं पवेइओ ।
ववहार - निच्छर हिं, उस्सग्गा अववायओ || २४७ || विहिवाcarसंमि, नथ्यि सावज्जमागमे ।
raare fast afथ्य, उवएसा जहडिओ || २४८ ॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १०५ उस्सगो अfor faही, अईयणं ताणजिणवरिंदाणं ||
तह आगमिस्साण पुणो, संक्खाणं वट्टमाणाणं ॥ २४९ ॥ अतीतानागतानामतानां संख्येयानां वर्तमानानां जिनानामुपदेशविधिर्वर्णिका लिख्यते - श्री आवश्यके " करेमि भंते सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए तिवि तिविहेणं मणेण वायाए कार्यणं न करेमि न कारवेम करतंपि अन्नं न समज्जाणामि तस्स भंते पडिकमामि निंदामि गर हामि अप्पाणं वसराम" तथा श्रीशवैकालिके-४ अध्ययने"पढगे भंते! महदर पाणाइनायाओ वेरमणं, सव्वं भंते! पाणाइवायं पचकखामि, से सुहुमं वा वायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाइजा नेवऽन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा पाणे अइवायंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं० "
( अत्र वृत्तिलेश:--' पढमे भंते' इत्यादि, सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमं तस्मिन, भदन्तेति गुरोरामन्त्रणं, 'महाव्रत' इति महच्च तदूव्रतं च महाव्रतं, महत्त्वं चास्य श्राकसंबन्ध्यणुव्रतापेक्षयेति । तस्मिन् महात्रते 'प्राणातिपाताद्विरमण' मिति प्राणा- इन्द्रियादय: तेषामतिपातः प्राणातिपातः जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव, तस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणं, विरमणं नाम सम्यग्ज्ञान- श्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनं, भगधतोक्तमिति वाक्यशेषः, यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति विनिश्चित्य 'सर्व भदन्त ! प्राणातिणतं प्रत्याख्यामी'ति सर्वमिति - निरवशेषं, न तु परिस्थूरमेव, भदन्तेति गुर्खामन्त्रणं, प्राणातिपातमिति
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१०६ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम्.
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पूर्ववत् , प्रत्याख्यामीति प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आडाभिमुख्ये ख्या प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा-प्रत्याचक्षे-संवृतान्मा साम्प्रतमना. गतप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः, ' से सुहमं वे' त्यादि, सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धः अथ शब्दार्थः, स चोपन्यासे, तथथा-'शुभमं वा वारं या असं वा स्थावरं वा' अन्न सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासंभवात, तदेतविशेषतोऽभिधित्सु. राह-'बादरोऽपि' स्थूरः, स चकैको द्विधा प्रसः स्थावरश्च, सुक्ष्म-प्रस: कुन्थ्वादिः स्थावरो बनस्पत्यादिः, बादरखसो गवादिः स्थायरः पृथिव्यादिः, पतान् , 'णेध सयं पाणे अहवाएजत्ति नैव स्वयं प्राणिनः अतिपातयामि, नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि, प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, यात्रजीवमित्यादि पूर्ववत् । ) ।
एवमाचारांगेपि । पुनः श्रीदशवकालिकेऽष्टमाध्ययने"पुढविदगअगणिमारुअ,-तणरुक्खस्स बीयगा। तसा अपाणा जीवत्ति, इइ वुत्तं महेसिणा ॥२॥ तेसिं अच्छणजोएण, निच्चं होअव्वयं सिआ । मणसा कायवकेणं, एवं हवइ संजए ॥३॥"
(वृत्तिः-'पुढवित्ति सूत्रं, पृथिव्युदकानिघायषस्तृणवृक्षसवीजा एते पञ्चैकेन्द्रियकायाः पूर्ववत् , प्रसाश्च प्राणिनो हीन्द्रियादयो जोषा इत्युक्तं 'महर्षिणा' वर्धमानेन गौतमेन घेति सूत्रार्थः ॥२॥ यतश्चैवमतः 'तेसिं ति सूत्रं अस्य व्याख्या'तेषां' पृथिव्यादीनाम 'अक्षणयोगेन' अहिंसाव्यापारेण नित्यं 'भवितव्य' स्यात् भिक्षुणा मनसा कायेन वाक्येन पभिः करणैरित्यर्थः, एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् भवति संयतो, नान्यथेति सूत्रार्थः ॥३॥)|
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १०७
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पाक्षिकसूत्रे - " से पाणाइवाए चडव्विहे पत्ते - दव्त्रओ वित्तओ कालओ भावओ दव्वओणं पाणाइवाए छसु जीवनिकासु खित्तओणं पाणाइवाए सव्वलोए कालओणं पाणाइवाए दियावा ओवा भावओणं पाणाइवाए रागेणवा दोसेणवा ॥" इतिवचनात् । श्रीउत्तराध्ययने अध्ययन ८ - “ जग निस्सिएहि भूपहिं, तसनामेहिं थावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंड, मणसा वयसा कायसा चैव ॥ १ ॥ "
( व्याख्या - जगत्-लोकस्तस्मिन् निश्रितानि-आश्रितानि नगन्निश्रितानि तेषु 'भूतेषु' जन्तुषु 'तसनामेति प्रसनामकम्र्मोदयत्सु वोन्द्रियादिषु 'स्थावरेषु' तन्नामकम्मदियषर्निषु पृथिव्यादिषु वः समुच्चये, 'नो' नैष 'तेसिति तेषु रक्षणीयत्वेन प्रतीतेषु 'आरभेत' कुर्यात् दण्डनं दण्डः स चेहातिपातात्मकस्तं, 'मणसा वयसा कायसा चैव'त्ति आर्षित्वात् मनसा वचसा कायेन, चशब्दः शेषभङ्गोपलक्षकः, ततश्चयथा मनसा वचसा कायेन च दण्डं नारभते तथा नाऽऽरम्भयेत् न चारभमाणानप्यन्याननुमन्येत 'पत्र' अत्रधारणे भिन्नक्रमश्च )
तथा श्री उत्तराध्ययने २४ अध्ययने- " संरंभ - समारंभे, आरंभंमि तवय । वयं पवत्तमाणं तु, मियत्तेज्ज जयं जइ ॥ १ ॥ "
( बृहत्वृत्तिः -- तथा वाचिकः संरम्भः- परव्यापादनक्षमक्षुद्रश्रियादिपरावर्त्तनासङ्कल्पसूचको ध्वनिरेधोपचारात्सङ्कल्पशब्दवाच्यः सन् समारम्भः - पर परितापकरमन्त्रादि परावर्त्तनम् 'आरम्भ:' तथाविधसंक्लेशतः प्राणिनां प्राणव्यपरोपणक्षममन्त्रादिजपनमिति )
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१०८ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
श्रीऔपपातिकोपांगे स्थानांगे विवाहप्रज्ञप्त्यंगे च"सत्तविहे विणए पं० २०-णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए क्यविणए कायविणए लोगोश्यारविणए "तत्रापि"से कि तं वयविणए वयविणए दुविहे पं० तं० पसथ्थवयविणए अपमथ्थवयविणए, से कितं अपसध्यवयविणए जेय वए सावज्जे स किरिए ककसे कडुए निठुरे फरसे अण्हयकरे छेदकरे भेदकरे परितावणकरे उद्दवणकरे ओवघाइए तहप्पगारं वयं धारेज्झा से तं अपसथ्थवयविणए, से किं तं पसथ्थवयविणए एवं चेव पसथ्यं णेयव्यं से । पसथ्थक्यविणए।" श्रीआचारांगे-प्रथमाध्ययन-सनपरिज्ञायाः प्रथमोद्देशके "तत्थ खलु भगवता परिणा पवेइआ इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाई-मरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं एयावंति सव्वावंति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्या भवति जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे तिबेमि ॥
(वृत्तिलेश:-'तत्र' कर्मणि व्यापारे अकार्षमहं करोमि करिष्यामीत्यात्मपरिणतिस्त्रभाषतया मनोशवाय व्यापार रूपे 'भगवता' वोर-बर्द्धमान -स्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा सा प्रकर्षेण प्रशस्ताऽऽदौ वा वेदिता प्रवेदिता, पतञ्च सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनाम्ने कथयति, सा च विधा-ज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिक्षा च, तत्र परिक्षया सावध व्यापारेण बन्धो भवतीत्येवं भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, प्रत्याख्यानपरिक्षया च सावधयोगा बन्धहेतवः प्रत्याख्येया इत्येवंरूपा चेति ।
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १०९
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तत्र जीवितमिति - जीवन्त्यनेनायुः कर्मणेति जीवितं प्राणधारणम्, तच्च प्रतिप्राणि स्वसंविदितमिति कृत्वा प्रत्यक्षानाचिनेदमनिर्दिशति च शब्दा वक्ष्यमाणजात्यादिसमुश्चयार्थः एवकारोऽवधारणे, अस्यैष जीवितस्यार्थे परिफल्गुसारस्य डिल्लताविलसित-चञ्चलस्य बहुपायस्य दीर्घसुखार्थ क्रियासु प्रवर्त्तते तथाहि जीषिष्याम्यहमरोगः, सुखेन भोगान् भोक्ष्ये, ततो व्याध्यपनयनार्थ स्नेहापान लागकपिशितभक्षणादिषु क्रियासु प्रवर्त्तते तथाऽल्पस्य सुखस्य कृते अभिमानग्रहाकुलितचेता बहारम्भपरिग्रहादू बहुशुभं कर्मादत्ते, उक्तं च - " द्वे वाससी प्रवरयोविदपायशुद्धा, शय्याssसनं करिवरस्तुरगो रथो वा । काले भिषग् नियमिताशन पानमात्रा, राज्ञः पराक्य मिश्र (पराको रोगः ) सर्वमवेहि शेषम् ॥ १ ॥ पुष्ट्यर्थमन्नमि यत् प्रणिधिप्रयोगः, संत्रासदोषको नृपतिस्तु भुके । यद् निर्भयः प्रशमसौख्यरतिश्च भैक्षं, तत् स्वादुतां भृशमुपैति न पार्थिवान्नम् || २ || भृत्येषु मन्त्रिषु सुतेषु मनोरमेषु, कान्तासु वा मधुमदाङ्कुरितेक्षणासु । विश्वम्भमेति न कदाचिदपि क्षितीशः, सर्वाभिशङ्कितमतेः कतरतु सौख्यम् १ ||३||" तदेषमन बबुद्ध तरुण किशलय पलाशचश्चलजीवितरतयः कर्माश्रयेषु जीवितोपमर्दादिरूपेषु प्रवर्तन्ते, तथाstre जीवितस्य परिबन्दनमानन पूजनायें हिंसादिषु प्रवर्तन्ते, तत्र' परिषन्दनं संस्तषः प्रशंसा तदर्थमाचेष्टते, तथाहिअहं मयूरादिपिशिताशनाद्वली तेजसा देदीप्यमानो देवकुमार इष लोकानां प्रशंसास्पदं भविष्यामीति, 'माननम्' अभ्यु स्थानासनदानाञ्जलिप्रग्रहादिरूपं तदर्थं वा चेष्टमानः कर्माचि नोति तथा पूजनं पूजा- द्रविणवत्रान्नपान सत्कारप्रणाम से वाविशेषरूपं तदर्थं च प्रवर्तमानः क्रियासु कर्माश्रवैरात्मानं सम्भावयति, तथाहि--'वीरभोग्या वसुन्धरे' ति मत्वा परा
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श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्री सप्तपदी शास्त्रम् .
क्रमते, दण्डभयाश्च सर्धा प्रजा विभ्यतीति दण्डयति, इत्येवं राज्ञामन्येषामपि यथा सम्भवमायोजनीयम् अत्र च बन्दनादीनां इसमास ( पकवद्भावं च ) कृत्वा तादयें चतुर्थी विधेया, परिवन्दनमानन पूजनाय जीवितस्य कर्माभवेषु प्रवर्तन्त इति समुदायार्थः । न केवलं परिवन्दनाथर्थमेव कर्मादत्ते, अन्यार्थमप्यादत्त इति दर्शयति-जातिश्व मरणं व मोचनं च जातिमरणमोचनमिति समाहारद्वन्द्वात्तादयें चतुर्थी पतदर्थं च प्राणिनः क्रियासु प्रवर्तमानाः कर्माददते, तत्र जात्यर्थ कौश्चारि (कार्तिकेय) वन्दनादिकाः क्रिया विधत्ते, तथा यान् यान् कामान् ब्राह्मणादिभ्यो ददाति तांस्तानन्यजन्मनि पुनर्जातो भोक्ष्यते, तथा मनुनाऽप्युक्तम्- "वारिदस्तृप्तिमाप्नोति, सुखमक्षयमन्नदः । तिलप्रदः प्रजामिष्टामायुकमभयप्रदः ॥ १" अत्र चैकमेव सुभाषितम्- 'अभयप्रदान' मिति तुपमध्ये कणिकावदिति एषमादिकुमार्गोपदेशाद हिंसादौ प्रवृत्तिं विदधाति । तथा मरणार्थमपि पितृपिण्डदानादिषु क्रियासु प्रवर्तते, यदि वा ममानेन सम्बन्धी व्यापादितस्तस्य बैरनिर्यातनार्थं बधबन्धादौ प्रवर्त्तते, यदि षा मरणनिवृत्त्यर्थमात्मनो दुर्गाद्युपयाचितमजादिना बलि विषत्ते यशोधर इव पिष्टमयकुक्कुटेन, तथा मुक्त्यर्थमज्ञानाघृतचेतसः पञ्चाग्नितपोऽनुष्ठानादिकेषु प्राण्युपमई कारिषु प्रवर्त्तमानाः कर्माददते, यदि वा जातिमरणयोविमोचनाय हिंसादिकाः क्रियाः कुर्वते, 'जाइमरणभोयणापत्ति वा पाठान्तरं तत्र भोजनार्थं कृष्यादिकर्मसु प्रवर्त्तमाना वसुधाजलज्वलन पवन वनस्पतिद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियव्यापत्तये व्याप्रियन्त इति । तथा दुःखप्रतिघातमुररीकृत्यात्मपरित्राणार्थमारम्भानासेवन्ते तथाहि व्याधिवेदनार्त्ता लायकपिशितम. दिरादि आसेवन्ते, तथा वनस्पतिमूलत्वक्पत्रनिर्यासादि
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १११ सिद्धशतपाकादितैलार्थमग्न्यादिसमारम्भेण पापं कुर्वन्ति स्वतः कारयन्यन्यैः कुर्वतोऽन्यान् समनुजानत इत्येवमतीता. नागतकालयोरपि मनोवाकाययोग: कर्मादानं विदधतीत्या. योननीयम् । तथा दुःखप्रतिघातार्थमेष सुखोत्पत्त्यर्थं च कलअपुत्रगृहोपस्कराधाददते, तल्लाभपालनार्थ च तासु तासु क्रियासु प्रवर्त्तमानाः पापकर्मासेवन्त इति,)
श्री आचारांगे प्रथमाध्ययने सप्तमोद्देशके
" एत्थंपि जाणे उवादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति, आरंभमाणा विणयं वयंति, छंदोवणीया अज्झोववण्णा, आरं. भसत्ता पकरंति संगं, से वसुमं सव्वसमण्णागयपणाणेणं अप्पागेणं अकरणिज्ज पावं कम्म णो अण्णेसि, तं परिणाय मेहाची णेव सयं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभावेज्जा णेवऽण्णे छज्जीवनिकायसत्थं समारंभावेज्जा णेवऽणे छजीवनिकायसत्थं समा रंभते समणुजाणेज्जा, जस्से ते छजीवनिकायसत्थसमारंभ परिणाया भवति से हु मुणी परिण्णायकम्मेतिबेमि ॥
(वृत्तिः-एतस्मिन्नपि-प्रस्तुते घायुकाये, अपिशब्दात् पृथिव्यादिषु च समाश्रितमारम्भं ये कुर्वन्ति ते उपादीयन्ते, कर्मणा बध्यन्त इत्यर्थः, एकस्मिन् जोधनिकाये अधप्रवृत्त: शेषनिकायवक्षजनितेन कर्मणा बध्यते, किमिति ?-यतो न ह्येकजीवनिकायविषय आरम्भः शेषजीवनिकायोपमर्दमन्तरेण कर्तुं शक्यत इत्यतस्त्वमेवं जानीहि, श्रोतुरनेन परामर्शः, अत्र च द्वितीयार्थे प्रथमा, ततश्चैवमन्धयो लगयितव्य:-पृथि. व्यापारम्भिण: शेषकायारम्भकर्मणा उपादीयमानान जानीहि, के पुनः पृथिव्याधारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणोपादीयन्ते ?
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११२ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
इति, आह 'जे आयारे ण रमंति' ये ह्यविदित परमार्था ज्ञानदर्शनचरणतपोवीर्याख्ये पश्चप्रकाराचारे 'न रमन्ते' न धृतिं कुर्वन्ति, तदधृत्या च पृथिव्याधारम्भिण:, तान् कर्मभिरुपादीयमानान् जानीहि, के पुनराचारे न रमन्ते ?, शाक्यदिगम्बरपावस्थादयः, किमिति ?, यत आह 'आरं. भमाणा विणयं वयंति' आरम्भमाणा अपि पृथिव्यादीन् जीवान् विनयं संयममेव भाषन्ते, कर्माष्टक-त्रिनयनाबिनयः संयमः, शाक्यादयो हि वयमपि पिनयव्यवस्थिता इत्येवं भाषन्ते, न च पृथिव्यादिजीवाभ्युपगमं कुर्वन्ति, तदभ्युपगमे घा तदाश्रितारम्भित्वात् ज्ञानाधाचारषिकलत्वेन नष्टशीला इति । किं पुनः कारणं ? येनैवं ते दुष्टशीला अपि विनय. व्यवस्थितमात्मानं भाषन्ते इत्यत आह-'छन्दोषणीया अज्झोबवण्णा' छन्दः-स्वाभिप्राय: इच्छामात्रमनालोचितपूर्धापरं विषयाभिलाषी वा, तेन छन्दसा उपनीताः-प्रापिता आर. म्भमार्गमधिनीता अपि विनयं भाषन्ते, अधिकमत्यर्थमुपपन्ना तचित्तास्तदात्मकाः अध्युपपन्नाः विषयपरिभोगायत्तजीविता इत्यर्थः, य एवं विषयाशाकर्षितचेतसस्ते किं कुर्युरित्याह'आरंभसत्ता पकरंदि संगं' आरम्भणमारम्भः रसायद्यानुष्ठानं तस्मिन् सक्ताः-तत्पराः प्रकर्षण कुर्वन्ति, सज्यन्ते येन संसारे जीवाः ससङ्गः-अष्टविधं कर्मविषयसङ्गो वा तं सङ्गं प्रकुर्वन्ति, सङ्गाञ्च पुनरपि संसारः, आज जयीभावरूपः, एवं प्रकारमपायमधाप्नोति षड्जीवनिकायघातकारोति ॥ अथ यो निवृत्तस्तदारम्भात् स किंषिशिष्टो भवतीत्यत आह'से' इति पृथिव्युद्देशकाभिहित निवृत्तिगुणभाक् षड्जीवनिकायहनन निवृत्तो 'वसुमान' वसूनि द्रव्यभावभेदाद द्विधा, द्रव्य. वसूनि मरकतेन्द्रनीलवनादीनि भाववसूनि-सम्यक्त्यादीनि तानि यस्य यस्मिन् वा सन्ति स वसुमान , द्रव्ययानित्यर्थः,
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ११३ इह च भाषवसुभिर्वसुमत्त्वमङ्गी क्रियते, प्रज्ञायन्ते यैस्तानि प्रज्ञानानि-यथावस्थितविषयग्राहीणि ज्ञानानि सर्वाणि समग्वागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मन: स सर्वसमन्वागतप्रज्ञान:-- सर्वाषधोधविशेषानुगतः सर्वेन्द्रियज्ञानः पटुभिर्यथावस्थित विषयपाहिभिरविपरीतैरनुगत इतियावत्, तेन सर्वसमन्यागतप्रज्ञानेनात्मना, अथवा सर्वेषु द्रव्यपर्यायेषु सम्यगनुगतं प्रज्ञानं यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मा, भगवत. चनप्रामाण्यादेवमेतत द्रव्यपर्याय जातं नान्यथेति सामान्यधि शेषपरिच्छेदान्निश्चिताशेषज्ञेयप्रपञ्चस्वरूपः सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मेत्युच्यते, अथवा-शुभाशुभफलसकलकलापपरिज्ञानान्नरकतिर्यगनरामरमोक्षसुखम्वरूपपरिक्षानाच्चापरितु. ध्यन्ननैकान्तिकादिगुणयुक्त संसारसुखे मोक्षानुष्ठानमाविष्कु. उर्धन सर्वसमन्धागतप्रज्ञान आत्माऽभिधीयते,तेनैवंविधेनात्मना “श्रकरणीयम्' अकर्तव्य मिह परलोकविरुद्धवाद कार्यमिति मत्या नान्धेषयेत् , न तदुपादानाय यत्नं कुर्यादित्यर्थः, किं पुनः तदकरणीयं नान्वेषणीयमिति ?, उच्यते, ‘पापं कर्म' अधःपतनकारित्वात्पापं, क्रियत इति कर्म, तञ्चाष्टादश विधं प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरियहक्रोधमानमायालोभप्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशून्यपरपरिषादरत्यरतिमायामृषा. मिथ्यादर्शनशस्याख्यमिति, एवमेतत् पापमष्टादशभेदं ना. धेषयेत्-न कुर्यात् स्वयं, न चान्यं कारयेत, न कुर्वाणमन्य. मनुमोदेत । एतदेवाह-तं परिणाय मेहावी ' त्यादि 'तत' पापमष्टादशप्रकारं परिः-समन्तात् ज्ञात्वा मेधावी-मर्यादापान नैष स्वयं षड्जीवनिकायशवं स्थकायपरकायादिभेदं समारभेत नैवान्य: समारम्भयेत् न चान्यान् समारभमाणान् समनुनानीयात, एवं यस्यैते सुपरीक्ष्यकारिणः षड्नीय निकायशस्त्रसमारम्भाः तविषयाः पापकर्मविशेषाः परिक्षाता
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११४ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . झापरिक्षया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च त एव मुनिः, प्रत्याख्यातकर्मत्वात्-प्रत्याख्याताशेषपापागमत्वात् , तदन्यैवंविधपुरषषदिति । इति शब्दोऽध्ययनपरिसमाप्तिप्रदर्शनाय, अवी. मीति सुधर्मस्थाम्याह स्वमनीषिकाव्यावृत्तये,)
श्री आचारांगे द्वितीयाध्ययने द्वितीयोद्देशके__ “से आयबले से नाइबले से मित्तबले से पिञ्चबले से देवबले से रायबले से चोरबले से अतिहिबले से किविणवले से समणबले, इच्चेएहिं विरूवरूवेहि कज्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कज्जइ, पावमुक्खुत्ति मन्त्रमाणे, अदुवा आसंसाए तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभिजा नेव अन्नं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभिजा नेव अन्नं एएहि कज्जेहिं दंड समारंभाविज्जा एएहि कज्जेहिं दंडं समारंभंतंपि अनं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहिं पवेइए,"
(वृत्ति:-किं च 'से आयबले' आत्मनो बलं शक्त्यु. पचय आत्मबलं तन्मे भाषीतिकृत्वा नानाविधरुपायैरात्मपुष्टये तास्ताः क्रियाः ऐहिकामुष्मिकोपघातकारिणोषिधत्ते, तथाहि-मांसेन पुष्यते मांस' मितिकृत्वा पञ्चेन्द्रियघातादावपि प्रवर्तते, अपराध लुम्पनादिकाः सूत्रेणैवाभिहिताः, एवं च ज्ञातिबलं-स्वजनबलं मे भावीति, तथा तन्मित्रपलं मे भविष्यति येनाहमापदं सुखेनैव निस्तरिष्यामि, तत्प्रेत्यबलं भविष्यतीति बस्तादिकमुपहन्ति, तवा देवबलं भावीति पचनपाचनादिकाः क्रिया विधत्ते, राजबलं षा मे भविष्यतीति राजानमुपचरति, चौरग्रामे वा वसति, चौरभागं वा प्राप्स्यामीति चौरानुपचरति, अतिथिबलं वा मे भविष्यती. त्यतिथीनुपचरति, अतिथिहि नि:स्पृहोऽभिधीयते इति, उक्तं
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ११५
च-“तिथिपर्बोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥१॥" एतदुक्तं भवति. तद्वलार्थमपि प्राणिषु दण्डो न निक्षेप्तव्य इति, पवं कृपणश्रमणार्थमपि पाच्यमिति, एवं पूर्वोक्तैः 'विरूपरूपैः' नानाप्रकारैः पिण्डदानादिभिः कार्य: 'दण्डसमादान' मिति दण्ड. यन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डस्तस्य सम्यगादानंग्रहणं समादानं, तदात्मबलादिकं मम नाभषिष्यत् यद्यहमेतन्नाकरिष्यमित्वेवं 'संप्रेक्षया' पर्यालोचनया एवं संप्रेक्ष्य वा भयात् क्रियते, एवं तावदिह भवमाश्रित्य दण्डसमादानकारणमुपन्यस्तम्, आमुष्मिकार्थमपि परमार्थमजानानैर्दण्ड. समादानं क्रियत इति दर्शयति-पायमोक्खो'त्ति इत्यादि, पातयति पासयतीति षा पापं तस्मान्मोक्षः, 'इति' हेतौ, यस्मात्स मम भविष्यतीति मन्यमानः दण्डसमादानाय प्रवर्तत इति, तथाहि-हुतभुजि षड्जीवोपघातकारिणि शने नानाविधोपायप्राण्युपघातात्तपापविध्वंसनाय पिप्पलशमीसमित्तिलाज्यादिकं शठव्युग्राहितमतयो जुहति, तथा पितृ पिण्डदानादौ बस्तादिमांसोपस्कृतभोजनादिकं द्विजातिभ्य उपकल्पयन्ति, तद्भक्तशेषानुज्ञातं स्वतोऽपि भुनते, तदेवं नानाविधैरुपायरज्ञानोपहतबुद्धयः पापमोक्षार्थ दण्डोपादानेन तास्ताः क्रियाः प्राण्युपघातकारिणीः समारभमाणाः अनेकभषशतकोटीदुम्र्मोचमघमेषोपाददत इति । किञ्च-'अदुवा' इत्यादि, पापमोक्ष इति मन्यमानो दण्डमादत्त इत्युक्तम् , अथवा आशंसनम् आशंसा-अप्राप्तप्रापणाभिलाषस्तदर्थ दण्डसमादानमादत्ते, तथाहि-ममैतत परुत्परारि वा प्रेत्य बोपस्थास्यते इत्याशंसया क्रियासु प्रवर्तते, राजानं षाऽर्थाशाविमोहितमना अबलगति, उक्तं च " आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, भोक्ष्यामहे किल धयं सततं सुखानि । इत्या
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११६
श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्रीसतपदी शाखम् .
शया धनविमोहितमानसानां, कालः प्रयाति मरणावधिरेष पुंसाम ||१|| एहि गच्छ पतोत्तिष्ठ, वद मौनं समाचर । इत्याद्याशाग्रहग्रस्तैः क्रीडन्ति धनिनोऽर्थिभिः ॥ २॥ " इत्यादि । तदेवं ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमित्याह तदिति सर्व नाम प्रकान्तपरामर्श, 'तत्' शखपरिक्षोक्तं स्वकायपरकायादिभेदभिन्नं शस्त्रम्, इह या यदुक्तम् अप्रशस्त गुणमूलस्थानं - विषयकषायमातापित्रादिकं, तथा कालाकालसमुत्थानक्षणपरिज्ञान श्रोत्रादिविज्ञानप्रहाणादिकं तथाऽऽत्मबलाधानाथये च दण्डसमादानं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् 'मेधावी' मर्यादावर्त्ती, ज्ञातद्देयोपादेयः सन् किं कुर्यादित्याह - नेवर्य' इत्यादि, नैव स्वयम्' आत्मना पतेः आत्मबलाधानादिकैः कार्यैः कर्तव्यैः समुपस्थितः सद्भिः 'दण्डं' सस्त्रोपघातं समारभेत्, नाप्यन्यम् - अपरमेभिः कार्ये - हिंसावृतादिकं दण्डं समारम्भयेत्, तथा समारभमाणमप्यपरं योगत्रिकेण न समनुज्ञापयेद् । एष चोपदेश स्तीर्थकृद्भिरभिदित इत्येतत् सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाहेति दर्शयति'एस' इत्यादि, 'एष' इति ज्ञानादियुक्तो भावमार्गो योगत्रिककरण त्रिकेण दण्ड समादान परिहारलक्षणो बा आयै: ' आराधाताः सर्वदेयधम्र्मेभ्य इत्यार्याः - संसारार्णवतटवर्त्तिनः क्षीणघातिकमीशाः संसारोदर विवरवर्तिभाषविदः तीर्थकृतस्तै: 'प्रकर्षेण' सदेवमनुजायां पर्षदि सर्वस्वभावानुगामिन्या बाचा यौगपद्याशेषसंशीतिच्छेतूच्या प्रकर्षेण वेदितः कथितः प्रतिपादित इतियावत् )
"
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ܕܩܚܤ܂
श्री आचारांगे षष्ठाध्ययने पंचमोद्देशके-“ ओए समियदंसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीर्ण आइक्खे, विभए किट्टे वेयवी, से उट्ठिएस वा अणुट्टिएस वा
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रमरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ११७
सुस्मुसमाणेसु पवेयए संति विरई उवसमं निवाणं सोयं अजवियं मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तिय सव्वेसि पाणाणं सम्वेसि भूयाणं सव्येसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खिज्जा अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइजा नो परं आसाइज्जा नो अन्नाई पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताइ आसाइजा, से अणासायए अणासायमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदोणे एवं से भवइ सरणं महामुणी,"
(वृत्ति:---'ओजः' एको रागादिविरहात् सम्यग् इतंगतं दर्शनमस्येति समितिदर्शनः, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः, यदिवा 'शमितम् उपशमं नोतं 'दर्शन' दृष्टिनिमस्येति शमितदर्शनः, उपशान्ताध्यवसाय इत्यर्थः, अथवा समतामित-गतं दर्शन-दृष्टिरस्येति समितदर्शनः, समदृष्टिरित्यर्थः, एवम्भूतः स्पर्शानधिसहेत, यदिधा धर्ममाचक्षीतेत्युत्तरक्रियया सह सम्बन्धः, किमभिसन्धाय धर्ममाचक्षीतेति दर्शयति-'दयां' कृपां 'लोकस्य' जन्तुलोकस्योपरिद्रव्यतो ज्ञात्वा क्षेत्रतः प्राचीनं प्रतीचीनं दक्षिणमुदीचीनमपरानपि दिग्विभागानभिसमीक्ष्य सर्वत्रदयां कुर्वन् धर्ममाचक्षीत, कालतो यात्रजीवं, भाव तोऽरक्तोऽद्विष्टः, कथमाचक्षीत ?- तपथा सर्वे जन्तयो दुःख द्विषः सुखलिपसवः आत्मौपमया सदा द्रष्टव्या इति, उक्तं च " न तत्परस्य संदध्यात् , प्रतिकूलं यदात्मनः । एष सग्राहिको धर्मः, कामादन्यः प्रवर्तते ॥१॥" इत्यादि, तथा धर्ममाचक्षाणो 'विभजेत्' द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदैराक्षेपण्यादिकथाविशेषैर्वा प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रीभोजन धिरति विशेषैर्वा धर्म विभजेत् , यदिशा
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११८ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . कोऽयं पुरुषः के नतो देवताविशेष अभिगृहीतोऽन भिगृ. होतो पा? एवं विभजेत, तथा कीर्तयेद् व्रतानुष्ठानफलं, कोड सौ कीर्तयेद ?-वेदषिद्, आगमषिदिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-" जे खलु समणे बहुस्सुए बम्झागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहालद्धिसम्पन्ने खेतं कालं पुरिसं समासज्ज केयं पुरिसे कं वा परिसणमभिसम्पन्नो ? एवं गुणजाइए पभू धम्मस्स आघवित्तए” इति, कण्ट्यं । स पुन: केषु निमित्तभूतेषु कीर्तयेदित्याह 'स' आगमवित् स्वसमयपरसम यज्ञः 'उस्थितेषु वा' भावोत्थानेन यतिषु, वाशब्द: उत्तरा. पेक्षया पक्षान्तरद्योतकः, पार्श्वनाथशिष्येषु चतुर्यामोत्थि. तेष्वेव धानतीर्थाचार्यादिः पञ्चयामं धर्म प्रधेदयेदिति, स्पशिष्येषु वा सदोस्थितेऽधज्ञातज्ञापनाय धर्म प्रवेदयेदिति, 'अनुत्थितेषु षा' श्रावकादिषु 'शुश्रूषमाणेषु' धर्म श्रोतुमिच्छत्सु गुर्वादेः पर्युपास्ति कुर्वत्सु वा संसारोत्तारणाय धम्मै प्रवेदयेत् । किम्भूतं प्रवेदयेदित्याह-शमनं शान्तिः, अहिंसे. त्यर्थः, तामाचक्षीत, तथा विरतिम्, अनेन च मृपावादादि. शेषव्रतसङ्ग्रहः, तथा उपशमं क्रोधजयाद, अनेन चोत्तरगुणसङ्ग्रहः, तथा निर्वृत्तिः निर्वाणं मूलगुणोत्तरगुणयोरहिकामु. मिकफलभूतमाचक्षीत, तथा 'शौचं सोंपाधिशुचित्वं निर्वाच्यव्रतधारणं, तथा आर्जवं मायावक्रतापरित्यागात् , मार्दवं मानस्तब्धतापरित्यागान , तथा लाघवं सवाधाभ्यन्तरग्रन्थपरित्यागात् , कथमाचक्षीते ति दर्शयति-'अनतिपत्य' यथावस्थितं वस्त्वागमाभिहितं तथाऽनतिक्रम्येत्यर्थः, केषां कथयति ?- सर्वेषां प्राणिनां दशविधाः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां सामान्यतः संक्षिपञ्चेन्द्रियाणां, तथा 'सर्वेषां भूतानां' मुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन भूतानां-व्यव. स्थितानां, तथा 'सर्वेषां जीवानां' संयमजीवितेन जीवतां
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूर ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. ११९
निजीविष्णां च, तथा 'सर्वेषां सत्त्वानां' तिर्यङ्जरामराणां संसारे क्लिश्यमानतया करुणास्पदानां, एकार्थिकानि वैतानि प्राणादीनि वचनानि इत्यतस्तेषां क्षान्त्यादिकं दश विधं धम्मै यथायोगं प्रागुपन्यस्तं शान्त्यादिपदाभिहितम् 'अनुविचिन्त्य' स्वपरोपकाराय भिक्षणशीलो भिक्षुर्धर्मकथा. लब्धिमान 'आचक्षीत' प्रतिपादयेदिति ! यथा च धर्म कथयेत्तथाऽऽह-स भिक्षुर्मुमुक्षुरनुविचिन्त्य-पूर्वापरेण धर्म पुरुषं वाऽऽलोच्य यो यस्य कथनयोग्यस्तं धर्ममाचक्षाणः आङिति मर्यादया यथाऽनुष्ठानं सम्यग्दर्शनादेः शातना आ शातना तया आत्मानं नो आशातयेत् , तथा धर्ममाचक्षीत यथाऽऽत्मन आशातना न भवेत् , यदिवाऽऽस्मन आशातना विधा द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो यथाऽऽहारोपकरणादेव्यस्य कालातिपातादिकृताऽऽशातना-बाधा न भवति तथा कथयेद, आहारादिद्रव्यबाधया च शरीरस्यापि पीडा भावाशातनारूपा स्यात् , कथयतो वा यथा गात्रभङ्गरूपा भावाशातना न स्यात् तथा कथयेदिति, तथा नो परं शुश्रूषू आशातयेद्होलयेद्, यत: परो हीलनया कुपितः सन्नाहारोपकरणशरीरा न्यतरपीडायै प्रवर्तेते ति, अतस्तदाशातनां वर्जयन धर्म ब्रूयादिति, तथाऽन्यान वा सामान्येन प्राणिनो भूतान जीवान् सत्यान्नो आशातयेद-बाधयेत् , तदेवं स मुनिः स्वतोऽनाशातकः परैरनाशातयन् तथाऽपरानाशातयतोऽननुमन्यमानोऽपरेषां वध्यमानानां प्राणिनां भूतानां जीवानां सत्यानां यथा पोडा नोत्पद्यते तथा धम्मै कथयेदिति, तद्यथायदि लौकिककुप्रावनिकपार्श्वस्थादिदानानि प्रशंसति अबटतटागादीनि वा ततः पृथिवीकायादयो व्यापादिता भवेयुः, अथ दूषयति ततोऽपरेषां अन्तरायापादनेन तस्कृतो बन्धविपाकानुभवः स्यात् , उक्तं च-"जे उ दाणं पसंसंति,
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१२० श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
घहमिच्छति पाणिणं । जे उणं पडिसेहिति, वित्तिच्छे अं करिति ते ॥१॥" तस्मात्तदानावटतडागादिविधिप्रतिषेधः व्युदासेन यथावस्थितं दानं शुद्धं परूपयेत् सायद्यानुष्ठान चेनि, एवं च ब्रुधन्नुभयदोषपरिहारी जन्तूनामाश्वासभूमिर्भवतीति,एतददृष्टान्तद्वारेण दर्शयति यथाऽसौ द्वीपोऽसन्दीन: शरणं भवत्येवमसावपि महामुनिः )
श्री आचारांगे सप्तमाध्ययने प्रथमोइसके-" इहमेगेसि आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति ते इह आरंभट्ठी अणुक्यमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समगुजाणमाणा"
(वृत्तिः-'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'एकेषां' पुरस्कृत ताशुभकर्मविपाकानामाचरणमाचारो-मोक्षार्थमनुष्ठानविशेष स्तस्य गोचरो-विषयः नो सुष्टुनिशान्तः-परिचितो भवति, ते चापरिणताचारगोचरा यथाभूताः स्युः तथा दर्शयितुमाह'ते' अनधीताचारगोचरा भिक्षाचर्याऽस्नानस्वेदमलपरीषहतर्जिताः सुखविहारिभिः शाक्यादिभिरात्मसात्परिणामिताः 'इह' मनुष्यलोके आरम्भार्थिनो भवन्ति, ते वा शाक्याद. योऽन्ये वा कुशीलाः साधारम्भार्थिन:, तथा विहारारामतडागकूपकरणौदेशिकभोजनादिभिधर्म बदन्तोऽनुवदन्तः, तथा जहि प्राणिनः इत्येवमपरैर्घातयन्तो नतश्चापि समनुजानन्त:,)
श्री आचारांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययने-" से भिक्खू वा. से जं पुण जाणिज्जा जाय भासा सच्चा १ जाय भासा मोसा २ जा य भासा सच्चामोसा ३ जा य भासा असचाऽमोसा ४, तहप्पगारं भासं सावजं सकिरियं ककसं
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १२१
कडुयं निरं फरुसं अण्डयरिं छेयणकरिं भेयणकरिं परियावणकरि भूइयं अभिकख नो भासिज्जा "
( वृत्तिः - इदानों चतसृणां भाषाणामभाषणीयामाह-स भिक्षु पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-सत्यां १ मृषां २ सत्यामृषाम् ३ असत्यामृषां ४, तत्र मृषा सत्यामृषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्याऽपि या कर्कशादिगुणोपेता सा न बाच्या तां च दर्शयति सहायेन वर्त्तत इति सावधां सत्यामपि न भाषेत, तथा सह क्रियया अनर्थदण्ड प्रवृत्तिलक्षणया वर्त्तत इति सक्रिया तामिति तथा 'कर्कश' चर्विताक्षरां, तथा 'कटुकां' चित्तोद्वेगकारिणीं, तथा ' निष्ठुरां' taaraarti 'परुष' ममदघाटनपराम् ' अण्डयकरिक्ति कर्माश्रवकरीम् एवं छेदनभेदनकरों यावदपद्रावणकरोमित्येमादिकां 'भूतोपघातिन' प्राण्युपतापकारिणीम्, 'अभिकाङ्कय' मनसा पर्यालोच्य सत्यामपि न भाषेतेति ॥ !
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+
श्री सूयंगडांगे- धम्मपन्नवणा जा सा तं नुसंति मूढया । आरंभाई न संकति, अवियत्ता अकोविया ॥। ११ ॥ अहावरं पुरखायं किरियावा दरिसिणं । कम्मचिंता पणट्ठाणं, संसारस्स पडणं || २४ । एते जिया भो न सरणं, जथ्थ बालो च सीयइ | हिचेण पुत्र संजोगं, सिया किच्चोवदेलगा ॥ १ ॥ तथिमा ततिया भाता, जं वदित्ताणुतप्पई । जं छण्नं तं न वत्तव्वं, एसा आणा नियंडिया ||२६|| "
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( वृत्ति: -- धर्मस्य - क्षान्त्यादिदशलक्षणोपेतस्य या प्रज्ञापना प्ररूपणा, 'तां तु' इति तामेव 'शङ्कन्ते' असद्धर्मप्ररूपणेयमित्येवमध्यवस्यन्ति ये पुनः पापोपादानभूताः समारभारतान्नाशङ्कन्ते किमिति ?, यतः 'अव्यक्ता' मुग्धाः - लहज -
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१२२
श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
सद्विवेकविकलाः, तथा 'अकोविदा' अपण्डिताः- सच्छाला. वबोधरहिता इति ॥१९॥ अथे' त्यानन्तर्य, अज्ञानधादिमतानन्तरमिदमन्यत् 'पुरा' पूर्वम् आख्यातं' कथितं, किं पुनस्तदित्याह-'क्रियावादिदर्शनं' क्रिये व-चैत्यकर्मादिका प्रधानं मोक्षामित्येवं बदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्तेषां दर्शनम् आगमः क्रियावादिदर्शनं, किंभूतास्ते क्रियावादिन इत्याह कर्मणि-ज्ञानाधरणादिके चिन्ता-पर्यालोचनं कर्मचि. न्ता तस्याः प्रणष्टा-अपगताः कर्मचिन्तामणष्टाः, यतस्ते अधि. ज्ञानाद्युपचितं चतुर्विधं कर्मबन्ध नेच्छन्ति अत: कर्मचिन्ताप्रणष्टाः, तेषां चेदं दर्शनं 'दुःखस्कन्धस्य' असातोदयपरम्पराया विवर्धनं भवति, क्वचित्संसारवर्धनमिति पाठः, ते ह्येवं प्रतिपद्यमानाः संसारस्य वृद्धिमेष कुर्वन्ति नोच्छेदमिति ॥२४॥ अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं संबन्धस्तद्यथा, अनन्तरसूत्रेऽभिहितं-'तोर्थिका असुरस्थानेषु किल्बिषा जायन्त' इति, किमिति ? यत एते जिताः परीषहोपसर्गः, परम्परसूत्रसंबन्धस्त्वयम् आदाविदमभिहितं 'बुध्येत त्रोट. येञ्च' ततश्चैतदपि बुध्येत-यथैते पञ्चभूतादिवादिनो गोशा. लकमतानुसारिणध जिताः परोषहोपसर्गः कामक्रोधलोभमानमोहमदाख्येनारिषदर्गेण चेति, एषमन्यैरपि सूत्रैः संबन्ध उत्प्रेक्ष्यः । तदेवं कृतसंबन्धस्यास्य शूत्रस्येदानी व्याख्या प्रतन्यते-'पत' इति पञ्चभूतकात्मतजोबतच्छरीरादिशादिनः कृतपादिनच गोशालकमतानुसारिणस्पैराशिकाच 'जिता' अभिभूता रागद्वेषादिभिः शब्दादिविषयश्च तथा प्रबलमहा. मोहोत्थाज्ञानेन च 'भो' इति विनेयामन्त्रणम् एवं त्वं गृहाण यथैते तीर्थका असम्यगुपदेशप्रवृत्तत्वान्न कस्यचिच्छरणं भवितुमर्हन्ति न कश्चित् पातुं समर्था इत्यर्थः, किमित्येवं ?, यतस्ते बाला इव बाला:, यथा शिशवः सदसद्विवेकवैक
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १२३
ल्याधाकिश्चनकारिणो भाषिणच, तथैतेऽपि स्वयमज्ञाः सन्तः परानपि मोहयन्ति, परम्भूता अपि च सन्तः पण्डितमानिन इति, कचित्पाठो 'जत्थ बालेऽवसीयइति यत्र' अक्षाने 'बाल!' अज्ञो लग्नः सन्नवसीदति, तत्र ते व्यवस्थिताः यतस्ते न कस्यचित् त्राणायेति । यश्च तैर्विरूपमाचरितं तदुत्तरार्द्धन दर्शयति-हित्वा' त्यक्त्वा, णमिति पाक्यालङ्कारे, पूर्वसंयोगो धनधान्यस्वजनादिभिः संयोगस्तं त्यक्त्वा किल अयं निःसङ्गा प्रजिता इत्युत्थाय पुनः सिता-बद्धाः परिग्रहारम्भेष्वासतास्ते गृहस्थाः तेषां कृत्यं-करणीयं पचनपाचनकण्डनपेष. णादिको भूतोपमर्दकारी व्यापारस्तस्योपदेशस्तं गच्छन्तीति कृत्योपदेशगाः कृत्योपदेशका वा, यदिवा-'सिया' इति आर्षत्वाद्वहुवचनेन व्याख्यायते स्युः' भवेयुः कृत्य-कर्तव्यं सावधानुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या-गृहस्थास्तेषामुपदेश:-संरम्भसमारम्भारम्भरूपः स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः, प्रव्रजिता अपि सन्तः कर्तव्य गृहस्थेभ्यो न भिधन्ते, गृहस्था इव तेऽपि सर्वावस्थाः पश्चसूनाव्यापारोपेता इत्यर्थ: ॥१॥ अपि च-सत्या असत्या सत्यामृषा असत्यामृषेत्येवंरूपासु चतसृषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृषेत्येतदभिधाना तृतीया भाषा, सा च किश्चिन्मृषा किश्चित्सत्या इत्येवंरूपा, तथथादशदारका अस्मिन्नगरे जाता मृता वा, तदत्र न्यूनाधिकसम्भवे सति सङ्ख्याया व्यभिचारात्सत्यामृषात्वमिति, यां
रूपां भाषामुदित्वा अनु-पश्चाद्भाषणाजन्मान्तरे वा तज्जनितेन दोषेण 'तप्यते' पीड्यते क्लेशभाग्भवति, यदिवाअनुतप्यते किं ममैवम्भूतेन भाषितेनेत्येवं पश्चात्तापं विधत्ते, ततश्चेदमुक्तं भवति-मिश्रापि भाषा दोषाय किं पुनरसत्या द्वितीया भाषा समस्तार्थविसंवादिनी ?, तथा प्रथमापि भाषा सत्या या प्राण्युपतापेन दोषानुषङ्गिणी सा न वाच्या, चतु.
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१२४ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम्.
र्यप्यसत्यामृषा भाषा या बुधैरनाचीर्णा ला न वक्तव्येति, सत्याया अपि दोषानुसङ्गित्वमधिकृत्याह-यद्वचः ‘छन्नति 'क्षणु हिंसायां' हिंसामधानं, तथथा-बध्यतां चौरोऽयं लूयन्तां केदारा: दम्यन्तां गोरथका इत्यादि, यदिवा-'छन्न'न्ति प्रच्छन्नं यल्लोकैरपि यत्नतः प्रच्छाधते तत्सत्यमपि न वक्त. व्यमिति, 'एषाऽऽज्ञा' अयमुपदेशो निर्ग्रन्थो भगवांस्तस्येति ॥२६॥) इत्युपदेशाधिकारः
श्री आचारांगे चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशके-"से दिटुं चणे सुचणे मयं चणे विण्णायं चणे उड्ढं अहं तिरियं दिसासु साओ सुपडिलेहियं चणे सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे सत्ता हन्तव्या अजावेयया परियावेयन्या परिघेत्तव्या उद्दवेयव्या, इत्थवि जाणइ नत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं, तत्थ जे आरिआ ते एवं वयासी से दुद्दिष्टं च भे दुस्सुयं च मे दुम्मयं च मे दुविण्णायं च भे उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सबओ दुप्पडिलेहियं च भे, जंणं तुम्मे एवं आइक्खह एवं भासह एवं परूवेह एवं पण्णवेह-सव्वे पाणा ४ हंतव्या ५, इत्थवि जाणह नथिस्थ दोसो, अणारियवयणमेयं, वयं पुण एवमाइक्खामो एवं भासामो एवं परूवेमो एवं पण्णवेमो-सव्वे पाणा ४ न हंतव्वा ? न अन्जावे यवा २ न परिचित्तव्या ३ न परियावेयन्या ४ न उद्दवेयया ५, इत्थवि जाणह नस्थित्थ दोसो, आयरियवयणमेयं,"
(वृत्तिः-'से दिठं च णे' इत्यादि यावत् 'नथिस्थ दोसो'त्ति, 'से'त्ति तच्छब्दार्थे यदहं वक्ष्ये तत् 'दृष्टम्' उप
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १२५
लब्धं दिव्यज्ञानेनास्माभिः, अस्माकं वा सम्बन्धिना तीर्थकृता आगमप्रणायकेन, च शब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, श्रुतं चास्माभिगुवादेः सकाशात , अस्मदगुरुशिष्यैर्वा तदन्तेवाप्तिभिर्धा, मतम्-अभिमतं युक्तियुक्तत्वादस्माकमस्मत्तीर्थकराणां वा, विज्ञातं च तत्वभेदपर्यायैरस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण घा, स्थतो न परोपदेशदानेन, एतचोधिस्तिर्यक्षु दशस्वपि विक्षु सर्वत:- सर्वैः प्रत्यक्षानुमानोपमानागमार्थापत्त्यादिभिः प्रकारैः सुष्टु प्रत्युपेक्षितं च पर्यालोचितं च, मनःप्रणिधाना. दिना अस्माभिरस्मत्तीर्थकरेण षा, किं तदित्याह-सर्व प्राणाः सर्वे जीवाः सर्वे भूताः सर्वे सत्ता हस्तव्या आज्ञापयितव्याः परिग्रहीतव्याः परितापयितव्या अपद्रापयितव्याः, 'अत्रापि' धर्मचिन्तायामप्येवं जानीथ, यथा नास्त्यत्र यागार्थ देवतोप याचितकतया वा प्राणिहननादौ ' दोषः' पापानुसन्ध इति, एवं शायन्तः केचन पाषण्डिका औद्देशिकभोजिनो ब्राह्मणा बा धर्मविरुद्धं परलोकविरुद्धं वादं भाषन्ते । अयं च जी शे. पमर्दकत्वात् पापानुबन्धी अनार्यप्रणीत इति, आह च-आरा याताः सर्वहेयधम्मभ्यः इत्यार्यास्तद्विपर्यासादनार्याः-फरक
र्माणम्तेषां प्राण्युपधातकारोदं वचनं, ये तु तथा भूता न ते किम्भूतं प्रज्ञापयन्तीत्याह-तत्थ' इत्यादि. 'तो' ति वाक्योपन्यासाथै निर्धारणे घा, ये ते आर्या देशभाषा चा रित्रार्यास्त पवमधादिषुः, यथा यत्तदनन्तरोक्तं दुर्दृष्टमेतद् , दुष्टं दृष्टं दुर्दृष्टं 'भे' युस्माभिर्युष्मत्तीर्थकरेण षा, एवं याषद्दुष्प्रत्युपेक्षितमिति । तदेवं दुर्दृष्टादिकं प्रतिपाथ दुष्प्रज्ञापनानुवादद्वारेण तदभ्युपगमे दोषाधिकरणमाह-'जंण' मित्यादि, णमिति वाक्यालङ्कारे, यदेतद्रक्ष्यमाणं यूयमेषमाचध्वमित्यादि यावदत्रापि यागोपहारादौ जानीथ यूयं यथा नास्त्येवात्र प्राण्युपमर्दानुष्ठाने दोषः- पापानुबन्ध इति, तदेवं
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१२६ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
परघादे दोषाविर्भावनेन धर्मविरुद्धतामाविर्भाव्य स्वमतवा. दमार्या आविर्भावयन्ति-'वय' मित्यादि, पुनः शब्दः पूर्वस्माद्विशेषमाह, वयं पुनर्यथा धर्मविरुद्धवादो न भवति तथा प्रज्ञापयाम इति, तान्येव पदानि सप्रतिषेधानि हन्तव्यादीनि याचन केवलमत्र-अस्मदीये बचनेनास्ति दोषः, अत्रापि-अधिकारे जानीथ यूयं यथा 'अत्र' हननादिप्रतिषेधविधौ नास्ति दोषः-पापानुबन्धः, सावधारणत्यावाश्यस्य नास्त्येष दोषः, प्राण्युपघातप्रतिषेधाचार्यषचनमेतत् ,
श्री सूत्रकृताङ्गे सप्तमाध्ययने-"जातिं च बुढि च विणासयंते, बीयाइ अस्संजय आयदंडे । अहाहु से लोए अणज्जधम्मे, बीयाइ जे हिंसति आयसा ते ॥९॥"
(वृत्तिः-फिञ्च-'जातिम्' उत्पत्ति तथा अङ्करपत्रमूल स्कन्धशाखाप्रशाखाभेदेन वृद्धिं च विनाशयन बीजानि च तत्फलानि विनाशयन् हरितानि छिनत्तीति, 'असंयत:' गृहस्थ: प्रव्रजितो वा तत्कर्मकारी गृहस्थ एव, स च हरितच्छे. दविधाय्यात्मानं दण्डयतीत्यात्मदण्डः, स हि परमार्थतः परोपघातेनात्मानमेवोपहन्ति,अथशब्दो वाक्यालङ्कारे 'आहुः' एवमुक्तवन्तः, किमुक्तवन्त इति दर्शयति-यो हरितादिच्छे. दको निरनुकोशः 'सः ' अस्मिन् लोके 'अनार्यधर्मा' करकर्मकारी भवतीत्यर्थः, स च क पवम्भूतो यो धर्मापदेशे नात्मसुखार्थ वा बीजानि अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् वनस्पतिकायं हिनस्ति स पापण्डिकलोकोऽन्यो वाऽनार्यधर्मा भव. तीति सम्बन्धः ॥ ९ ॥)
श्री सूत्रकृताङ्गे एकादशाध्ययने-"हणतं णाणुजाणेज्जा, आयगुत्ते जिइंदिए । ठाणाई संति सड्ढीणं, गामेसु नगरेसु
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १२७
वा ॥१६॥ तहा गिरं समारब्भ, अस्थि पुण्णंति णो वए । अहवा णत्थि पुष्णंति, एवमेयं महब्मयं ॥१७॥ दाणया य जे पाणा, हम्मति तसथावरा । तेसिं सारक्खणट्टाए, तम्हा अस्थिति णो वए ॥१८॥ जेसि तं उपकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं । तेसिं लामंतरायंति, तम्हा णस्थित्ति णो वए ॥१९॥ जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं । जे य णं पडिसेहति, वित्तिच्छेयं करंति ते ॥२०॥ दुहओवि ते ण भासंति, अस्थि वा नत्थि वा पुणो। आयं रयस्स हेच्चा णं, निव्वाणं पाउणंति ते २१"
(वृत्तिः--किश्चान्यत्-धर्मश्रद्धावतां ग्रामेषु नगरेषु वा खेटकर्बटादिषु वा स्थानानि ' आश्रयाः सन्ति ' विद्यन्ते, तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिद्धर्मोपदेशेन किल धर्मश्रद्धालुतया प्राण्युपमर्दकारिणी धर्मबुद्धया कृपतडागखननप्रपासत्रादिकां क्रियां कुर्यात् तेन च तथाभूत क्रियायाः कर्ता किमत्र धर्मोऽ. स्ति नास्तीत्येवं पृष्टोऽपृष्टो वा तदुपरोधाद्भयावा तं प्राणिनो घ्नन्तं नानुजानीयात् , किंभूतः सन् ?' आत्मना' मनोधाका यरूपेण गुप्त आत्मगुमः तथा · जितेन्द्रियो' वश्येन्द्रियः सावधानुष्ठानं नानुमन्येत ॥ १६ ।। सावधानुष्ठानानुमतिं परिहर्तुकाम आह-केन चिद्राजादिना कूपखननसत्रदानादिप्रवृत्तन पृष्टः साधुः-किमस्मदनुष्ठाने अस्ति पुण्यमाहोस्विन्नास्तीति !, एवंभूतां गिरं 'समारभ्य ' मिशम्याश्रित्य अस्ति पुण्यं नास्ति वेत्येवमुभयथापि महाभयमिति मत्वा दोषहेतुत्वेन नानुमन्येत ॥ १७ ॥ किमर्थ नानुमन्येत इत्याह-अन्नपानदानार्थमाहारमुदकं च पचनपाचनादिकया क्रियया कूपखननादिकया चोपकरुपयेत् , तत्र यस्माद् 'हन्यन्ते' व्यापाधन्ते प्रसाः स्थाय
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श्रीसामाचारी समाश्रितं - श्रीसप्तपदी शास्त्रम् .
राश्च जन्तवः तस्मात्तेषां रक्षणार्थ' रक्षानिमित्तं साधुरात्मगुप्तो जितेन्द्रियोऽत्र भवदीयानुष्ठाने पुण्यमित्येवं नो बदेदिति ॥ १८ ॥ यद्येवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयात्, तदेतदपि न ब्रूयादित्याह येषां' जन्तूनां कृते 'तद्' अन्नपानादिक किल धर्मबुद्धया 'उपकल्पयन्ति तथाविधं प्राण्युपमर्ददोषदुष्टं निष्पादयन्ति तन्निषेधे च यस्मात् 'तेषाम्' आहारपानार्थिनां तत् 'लाभान्तरायो' बिघ्नो भवेत्, तदभावेन तु ते पीडयेरन् तस्मात्कूपखननसत्रादिके कर्मणि नास्ति पुण्य मित्येतदपि नो वदेदिति ||१९|| एनमेवार्थे पुनरपि समासतः स्पष्टतरं विभणिषुराह ये केचन प्रपासनादिकं दानं बहूनां जन्तूनामुपकारी तिकृत्वा 'प्रशंसन्ति' श्लाघन्ते 'ते' परमार्था नभिज्ञाः प्रभूततरप्राणिनां तत्प्रशंसाद्वारेण 'वर्ध' प्राणातिपातमिच्छन्ति, तद्दानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः, येऽपि च किल सूक्ष्मधियो वयमित्येवं मन्यमाना आगमसद्भावानभिज्ञा: 'प्रतिषेधन्ति' निषेधयन्ति तेऽप्यगीतार्थाः प्राणिनां 'वृत्तिच्छेद' वर्तनोपायविघ्नं कुर्वन्तीति ||२०|| तदेवं राज्ञा अन्येन वेश्वरेण कूपतडागयागसत्रदानाद्यथतेन पुण्यसद्भावं पृष्टैर्मुमुक्षुभिधेयं तद्दर्शयितुमाह-यथस्ति पुण्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्यानां सूक्ष्मवादराणां सर्वदा प्राणत्याग एव स्यात् प्रीणनमात्रं तु पुनः स्वल्पानां स्वल्पकालीयमतोऽस्तीति न वक्तव्यं नास्ति पुण्यमित्येवं प्रतिषेधेऽपि तदर्थिनामन्तरायः स्यादित्यतो 'द्विधापि' अस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येवं 'ते' मुमुक्षवः साधवः पुनर्ज भाषन्ते, किंतु पृष्टैः सद्भिर्मोनं समाश्रयणीयं निर्बन्धे त्वस्माकं द्विचत्वारिंशदोषवर्जित आहार : कल्पते, पवंविधविषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्तीति उक्तं च- " सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधवलं घारिपीत्वा प्रकामं, व्युच्छिन्नाशेषतृष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणि
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १२९
सार्था भवन्ति । शोषं नीते जलौघे दिनकरकिरणैर्यान्त्यनन्ता विनाश, तेनोदासीनभावं व्रजति मुनिगणः कूपवप्रादिकार्य ॥१॥" तदेवमुभयथापि भाषिते 'रजसः' कर्मण 'आयो' लाभो भवतीत्यतम्तमायं रजसो मौनेनावधभाषणेन था 'हित्या' त्यक्त्वा 'ते' अनवद्यभाषिणो 'निर्वाणं' मोक्षं प्राप्नुवन्तीति ॥२१॥
श्री प्रश्नव्याकरणे संवरद्वितीयाध्ययने-"सोऊणं संवरद परमह मुठु जाणिऊण न वेगियं न तुरियं न चवलं न कडुयं न फरुसं न साहसं न य परस्स पीलाकरं असावज्ज सञ्चं च हियं च मियं च माहगं च सुद्धं संगगमकाहलं च समिक्खितं संजतेण कालंमि य वत्तव्यं," इतिवचनात्
(वृत्ति-श्रुत्वा-आकर्ण्य सदगुरुसमीपे 'संघरट्ठति संवरस्य-प्रस्तावेन मृषावादवितिलक्षणस्य अर्थ:-प्रयोजन मोक्षलक्षणं प्रस्तुनसंघराध्ययनस्य वाऽर्थः- अभिधेयम्संबरा. र्थस्तं, श्रवणाञ्च 'परमट्ठ सुठ्ठजाणिऊणं'ति परमार्थ हेयोपादेयवचनैदम्पर्य सुष्टु सम्यक ज्ञात्वा न नैव वेगितं वेगवत् विकल्पव्याकुलतयेत्यर्थः वक्तव्यमिति योगः, न त्वरित - वचनचापल्यतः न कटुकमर्थत: न परुषं धर्णतः न साहसंसाहसप्रधानमनिं वा न च परस्य जन्तो: पीडाकरं सापद्यं -स-पापं यत् , वचन विधि निषेधतोऽभिधाय साम्प्रतं विधित आह सन्यं च-सद्भतार्थ हितं च-पथ्यं मितं परिमिताक्षरं ग्राहकं च-प्रतिपाद्यस्य विधक्षितार्थप्रतीतिजनक शुद्ध-पूर्वोजवनदोषरहितं सङ्गत उपपत्तिभिरबाधितं अका. हलं च अमन्मनाक्षरं समीक्षितं पूर्व बुद्धया पर्यालोचितं संयतेन-संयमवता काले च अवसरे वक्तव्यं नान्यथा,)
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१३० श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम्.
श्री सूत्रकृताङ्गे एकादशाध्ययने-"एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचणं । अहिंसा समयं चेव, एतावत वियाणिया ॥१०॥” इतिवचनात्
(वृत्तिः-- एतदेव समर्थयन्नाह-खुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणे था, 'एतदेव' अनन्तरोक्तं प्राणातिपातनिवर्तनं 'ज्ञानिनो' जीवस्वरूपतद्वधर्मबन्धवेदिनः 'सार' परमार्थतः प्रधान, पुनरप्यादरख्यापनार्थमेतदेवाह-यत्कञ्चन प्राणिनमनिष्टदुःखं सुखैषिणं न हिनस्ति, प्रभूतवेदिनोऽपि ज्ञानिन पतदेव सारतरं ज्ञानं यत्प्राणातिपातनिधर्तन मिति, ज्ञानमपि तदेव परमार्थतो यत्परपीडातो निवर्तनं, तथा चोक्तम्-"कि ताए पढियाए ? पयकोडीए पलालभूयाए। जस्थित्तियं ण णायं परस्ल पीडा न कायव्या ॥१॥" तदेवमहिलाप्रधानः समय-आगमः संकेतो योपदेशरूपस्तमेवंभूतमहिमासमयमेतावन्तमेव विज्ञाय किमन्येन बहुना परिज्ञानेन ?, एताव. तैव परिज्ञानेन मुमुक्षोर्विवक्षितकार्यपरिसमाप्तेरतो न हिंस्यात्कञ्चनेति ॥१०॥)
श्रीराजमश्नीयोपांगे सूर्याभस्य नाटकप्रश्नाधिकारे-" तं इच्छामिणं देवाणुपियाणं भत्तिपुवगं गोयमानियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविट्टि दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसति बद्धं नट्टविहिं उबदसित्तए । तए णं समणे भगवं महावीरे सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे मूरियाभस्म देवस्स एयमई णो आढाति णो परियाणाति तुसिणोए संचिति ॥"
इतिवचनात् ॥
मेतानागमः संकेत कायया ॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १३१
(वृत्तिः-'इच्छामिणमित्यादि, इच्छामि णमिति. पूर्ववत् देवानां प्रियाणां पुरतो भक्तिपूर्वकं-बहुमानपुरस्सरं गौतमादीनां श्रमणानां निर्ग्रन्थानां दिव्यां देवर्द्वि दिव्यां देवद्युति दिव्यं देवानुभावमुपदर्शयितुं द्वात्रिंश द्विधं-द्वात्रिंश. त्प्रकारं नाट्यविधि-नाट्य विधानमुपदर्शयितुमिति। 'तए णमित्यादि, ततः श्रमणो भगवान महापोरः सूर्याभेण देवेन एवमुक्तःसन् मूर्याभस्य देवस्यैनम्-अनन्तरोदितमर्थ नाद्रियतेन तदर्थकरणायादरपरो भवति, नापि परिजानाति-अनुमन्यते, स्वतो वीतरागत्वात् गौतमादीनां च नाट्यविधे: स्वाध्यायादिविघातकारित्वात् , केवलं तूष्णीकोऽवतिष्ठते,) मूल-एसो जिणउवएसो, विहिवाएणं मुणीणं ।
सो चेव मुणिवरेहि, सद्दहियचो पयत्तेणं ॥२५०॥ बीयंगे सूयगडे, बीयखंधमि बीयअज्झयणे ।
पक्खा तिन्निय भणिया, धम्माऽधम्माय मीसाय ॥२५१॥ पक्वाण तिन्नि दोमुं, अवयारो धम्मऽधम्म पक्खेसु ।
सम्मदिछी पढमे, मिच्छदिठीय बोयमि ॥२५२॥ अविरय मिच्छदिही, एगंतेणं अहम्मपक्वंमि ।
सुयधम्म चरित्ताणं, तेसिपिय नथ्थि इक्कोवि ॥२५३॥ सम्मदिछी विरया, दुहविय हुंति धम्मपक्खंमि ।
अविश्य सम्मदिछी, सम्म पणिहाय धम्ममि ॥२५४॥ मिन्छादिठी रिया, चरित्तमुद्दिस्स तेय मोसंमि ।
सम्मदिटो विरया,-विरया पुण हुँति तथ्येव ।।२५५॥
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१३२ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् . जे पुण मिच्छदिट्ठी, अविरइ विरई इ ते अधम्ममि ।
जम्हा तेसि किंचिवि, न सन्बहा अथ्थि सुयधम्मो॥२५६॥ जे पुण सम्मदिठी, सव्वविरयाय अविरया चेव ।।
विरयाऽविरयाय तहा, सचे ते धम्म पक्वमि ॥२५७॥ चरित्तधम्म पणिहायमीसो, जो निच्छएणं ववहारओ वा। तं पक्खमायाय मुणी विसुद्धो, न संधए नोहु निरा
__ करेजा ॥२५॥ अधम्म पडिसेहेइ, धम्मपक्खं च संधए ॥
तिण्ह धम्म पक्खाणं, एसा य वियारणा सुत्ते ।।२५९।। एएण कारणेणं, सावज्जलवोवि नथ्यि उस्सगो।
अववाए विहु करणे, सावजस्सेह नथ्यि विही ॥२६॥ छउमत्थाणं कथ्थवि, अववाउ दंसिउ जिणंदेहिं ।
कहमवि सयमुप्पज्जइ, जहठिउ जोय जारिसओ ॥२६॥ तथ्थय जो निरवज्जो, सो जिण वयणाणुसारओ नेओ।
विहिउवएसो तस्स य, इयरो य जटिउ होइ ॥२६२॥ जो य चरियाणुवाउ, सोवि तिहाऽधम्म धम्म मोसो य।
तथ्थवि साहुवएसो, पुदि भणिओ तहा नेऊ ॥२६॥ छठं च पंचमंगे, वित्तीए अभयदेवसूरीहिं ।
दोहि संहिगारे, भणियं तं चेव नायव्वं ॥२६४॥ एवं तिन्नुवएसा, विहिचरिय जठिया समक्खाया।
ववहार निच्छएहिं, आदेयनेयहेया य ।.२६५॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं १३३ धमाधम्मवि मीसा, तिन्निय पक्खा वियाहिया एवं ।
एकारस ठाणाई, सुगुरुमुहाउ अ नायाई || २६६ ॥ पवयण अणुसारेणं, जहा य लिहियाइ संति तह चैत्र । गीयथा अणुहिह, काऊण पसायमेयाई || २६७ || जइ जाणह अविरुद्धं, ता सुपमाण करेह कारेह | इत्थवि किंचि विरुद्धे, मिच्छा मे दुकडं तस्स | | २६८॥ अन्नं च किंचित्रि पडि सेवतो, जिणुत्तमुस्सामेव मन्नतो । नियकारणं कहतो, विराहगो होइ नहु साहू || २६९ ॥ आउतो चत्तारिवि, भासाउ तहय भासमाणो य ।
आराहओय भणिओ, पन्नत्रणाए उवंगंमि ॥२७०॥ - एयाए वन्नियाए, दसाठाणंग - पमुह-सुत्ते ।
taarayer भणिया, जहहिउ तथ्य उवएसो ॥२७१॥ जम्हा नेव पवत्त, एएस विही जिणेहिं निद्दिहो ।
अरंतो एयाई, विराहगो नो मुणी होइ || २७२ || तथा च- नइउत्तरणुवएसो, जहङ्घिउ तव्बिही विहिवाओ । उत्तारो सावज्जो, उत्तर- विहीइ निरवज्जो || २७३॥ जइ नइसलिले न कुणइ, एगं पायं तहावि नहु दोसो |
अह जइथलंमि न कुणइ, पविसंतो ता महादोसो ॥ २७४॥ एवं वियारिकणं, गोयथ्या जं कहंति तं सच्चे ।
इत्थं जाणामि अहं, जहद्विउ एस उवएसो ॥ २७५॥ तुल्लाए किरियाए, छउमथ्थो केवलीय नइ सलिलं । जइ उत्तरंति तहविहु, उस्मुत्तं तह अहासुतं ॥ २७६ ||
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१३४ श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम् , रोयति इमं भणिय, भगवइसुत्तमि बहुसु ठाणेसु ।
सत्तमदसमहारस,-सएमु अर्थ अ णाणाए ॥२७७॥ जइ विहि जिण उवएसो, ता इत्तियमंतरं कहं एयं ।
एएण कारणेणं, जिणोवएसो य निवजो ॥२७८॥
तथा च-श्रीभगवतीसूत्रे सप्तमशते दशमशते अष्टादशशते च सदृशोदंडका-"जस्सणं कोहमाण-मायालोमा अवोच्छिन्ना तस्सणं संपराइयाकिरिया कजति सेणं उस्मुत्तमेव रीयति तथा च जस्सणं कोह-माण-माया-लोभा वुच्छिन्ना तस्सणं इरिया वहिया किरिया कजति सेण अहासुत्तमेव रीयति"।। इति सूत्र वचनात् । अस्य वृत्तौ उस्मुत्तमेव रीयति अस्य पदस्य व्याख्यानं अनाज्ञया इति विहितमस्ति गीतार्थैः सूत्रार्थी विचारणीयौ अहामुत्तमस्य पदस्य व्याख्यानं सुगममेव उत्सूत्रमनाज्ञा तदा सूत्रमाव ज्ञातव्येत्यर्थः। मूल-एसो उवएसविही, भणिओ य समासओ निवजो ।
सिरिसाहुरयणगुरुणो, सुपसाएणं मए नाउ ॥२७९॥ वरखरतरतवगच्छो,-वएसु विमुद्धगच्छ ऊएसो।
कोरंटचित्तगच्छा, मलहारिय पवरवडगच्छा ॥२८०॥ अंचलगच्छो तह नाणगच्छ, संडेरपल्लिपुरगच्छा।
आगमपुनिमआई, धम्मघोसाभिहाणाय ॥२८१।। अन्नेवि गच्छवासी, जे जे वट्टति संपई काले । ते ते सव्वे निय निय, परंपराए उवासंति ॥२८२॥
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १३५
तथ्य य जिण आणाए, अणुसारेणं पवत्तए जं जं ।
तं तं मह पमाणं, नियआयरिएहि भणियपि ॥२८३।। जं पवयण-पडिसिद्धं, मए लिहतेण होइ इह लिहियं ।
तस्स य संघसमक्खं, मिच्छा मे दुक्कडं होऊ ॥२८॥ ससि नंद तिहि पमाणे, विकम-संवच्छराउ परिसंमि ।
कत्तिय-पुन्निम-दिवसे. लिहियमिणं पासचंदेण । २८५॥ जुग्गं सुसाहु-वेरग्गियाणं, सिद्धतमग्गलग्गाणं ।
साहूण साहुणीणं, सावय सुस्सावियाणं च ॥२८६।। ते धण्णा ताण णमो, जिगमय-सरपवर-रायहंसाणं ।
जे सद्दहति सुद्धं, धम्मं सिद्धं परूबंति ॥२८७।। इति श्रीसामाचारीसमाश्चितं सप्तपदोशास्त्रं संपूर्णम् ॥
श्रेयो भूयात् । श्रीरस्तु ॥
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॥ इतिश्रीमन्नागपुरीयवृहत्तपागच्छाधिराजपरमपूज्ग-प्रातःस्मरणीय-स्वनामधन्य-परमगीतार्थयुगप्रवराचार्यवर्यभट्टारक श्रीश्री १००८ श्रीपार्श्वचन्द्रसूरीश्वर-विरचिता श्रीसतपदी समाता ॥
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रमरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं. अपरमगुरुदेव श्रीपाश्चचंद्रसूरीश्वरलिखितः
॥उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः॥
॥श्रीवीतरागायनमः॥ ॥ श्रीजगन्नाथ-श्रीचंद्रप्रभस्वामिने नमः ॥
श्रीतपागच्छनायक-भट्टारकश्रीजयशेखरसरि-श्रीरत्नाध्यक्ष श्रीवज्रसेनसूरि-श्रीहेमतिलकसरि-श्रीरत्नशेखरसूरि पट्टकुमुदवनविबोधन-पूर्णचंद्र-श्रीपूर्णचंद्रमूरिपट्टावतंसश्रीहेमहंससूरि पट्टप्रभावकानेकगुणरत्नसमुद्रश्रीहेमसमुद्रमूरि-पट्टालंकारश्रीहेमरत्नसूरिपट्टपूर्वाचलप्रभाकरविजयमान- श्रीश्रीसोमरत्नसूरि-पुरंदरपरिकरमण्डली-मण्डन पं०-श्रीपुण्यरत्नशिष्यशिरोमणि पं० श्रीसाधुरत्नगुणमानसहंसराजेभ्यो नमः । ॥ श्रीः॥ निम्मल नाणपहाणो, दसणजुत्तो चरित्तगुणवंतो। तिथ्थयराण य पुज्जो, बुच्चइ एयारिसो संघो ॥१॥
तस्मै श्रीसंघभट्टारकाय नमः। स्वस्तिश्री । संवत् १५७५ वर्षे कार्तिक शुक्लद्वितीयायां मंगले विहितमंगले मैत्रीपवित्रे मैत्रीनक्षत्रे श्रीपत्तने सुरत्राण श्रीमद(प्फ)फुरसाहिराज्ये विजयिनि निजनिज-निश्रित गुरुनोदित-संजातनि:कारण--मत्सर-रणरणकहानीविकानु
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १३७
चरोकेशवंशज-लोक-कतिपदिवसस्थायि पुरोगतामदमत्तपक्षरहितभिक्षुकोपरि प्रकटित-गाढ-प्रबल-बलशालि सा. वत्सराज सांराज देवचंद्रैः प्रसभप्रारब्धस्वापायोपायः श्रीवीतरागमणीतदयारसमयश्रीसमयप्ररूपणातिरस्करणं समालोक्य श्रीजिनाज्ञापालनवितंद्रेण श्रीअष्टापदतीर्थाधिपति-श्रीजिननामस्मरणसंजातभद्रेण पार्श्वचंद्रेण पत्रमिदमलेखि यात्रिकानेकदेशायातविवेकिलोकैः श्रीपत्तननगरनिवासिभिजिनाज्ञावासितचित्तैर्जनश्च वाच्यमानं चिरं नंद्यात् ।। उत्सूत्रतिरस्काराभिधानोऽयं पटो लेखितः परमेश्वरेण !!
॥ श्रीगुरुभ्यो नमः॥ जगन्नाथ जगत्त्रातः, कृपाकर कृपापद ।
शरण्यभक्तसाधार, भृणु विज्ञप्तिकां मम ॥१॥ नाथोऽसि त्वमनाथानां, जंतूनां भवतारकः ।
ममोद्धर्ता किलेदानी,-मेकस्त्वमसि नापरः ॥२॥ यदहं किंचिदज्ञाना,-द्विपरीतं तवागमात् ।
ब्रवीमि मध्ये लोकानां, तत्र त्वं मम साक्षिकः ॥३॥ वत्तः परं न देवं, मनसा ध्यायामि सर्वथा नाथ ।
वसापि न स्तवीमि, प्रणमामि न मस्तकेनाई॥४॥ भावविशुद्धिं स्वामि,-न्मम विज्ञाता त्वमेव सर्वज्ञः ।
किंबहूना गदितेन, प्रभुरेको मे त्वमेवासि ॥५॥
॥ अथ साधनां धर्मोपदेशाधिकारे-प्रथमं तीर्थाधिपतिश्रीवीरमतं ॥ श्रीप्रथमोपांगे
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१३८
उत्सूत्रतिरस्कारनामा विचारपट:
"ततेणं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रनो भंभासारपुत्तस्स सुभद्दापमुहाणय देवीणं तीसेय महतिमहालियाए परिसाए, इसि परिसाए मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, देवपरिसाए, अणेगसयाए अणेगसयर वंदा अणेगसयसहस्स बंदपरिवाराए, ओहबले अइबले महब्बले अपरिमियबलबीरियतेयमाहप्पकंतिजुत्ते, सारदनवथ्थणियमहरगंभोरकोंचनिग्घोसदुंदुभिस्सरे उरे विथ्यडाए कंठे वट्टयाए सिरे समाइपणाए अगरलाए अमम्मणाए, सव्वक्खरसन्निवाइयाए अपुणरुनाए सबभासाणुगामिणीयाए सरस्सईए जोयणणीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासति अरहा धम्म परिकहेति, तेसिं, सव्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खति, सा वियणं, अद्धमागहा भासा तेसि सव्येसिं आरियमणारियाणं अपणो भासाए परिणामेणं परिणमति, तंजहाअथ्थिलोए, अथ्यिअलोए, एवं जीवाअजीवा बंधे मोक्खे पुन्ने पावे आसवे संवरे वेदणा गिजरा, अरहंता चकवट्टी बलदेवा वासुदेवा नरगा नेरइया, तिरिक्ख जोणिया, तिरिक्ख जोणिणीओ, माया पिया रिसिणो, देवा देवलोया, सिद्धिं सिद्धा परिनिवाणे परिनिव्वुया, अथि पाणाइवाए, मुसावाए, अदत्तादाणे, मेहूणे,परिग्गहे, अध्यि कोहे माणे माया लोभे, अथ्यि जाव मिच्छादसणसल्ले, अथ्यि पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे अदत्तादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिगहवेरमणे । अथ्यि कोहविवेगे, जावमिच्छादसणसल्लविवेगे, सव्वं अथ्यि
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रमरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १३९ भावं अथित्ति वयति, सव्वं पथिभावं नथ्थित्ति वयति, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवति, फुसइ पुण्णपावे, पच्छायति जीवा सफले कल्लाणपावए, धम्ममाइक्खति । इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केलिए संसुद्धे पडिपुणे णेयाउए सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निवाणमग्गे णिजाणमग्गे अवितहमसंदिद्ध सबदुक्खपहीणमग्गे, इथ्यं ठिया जीवा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति. परिनिव्वायंति, सम्बदुक्खाणमंतं करंति, एगच्चा पुण एगे भवांतरे पुवकम्मावसेसेणं अण्णुत्तरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । महिड्दिएसु जाव महासुक्खेसु दूरंगतिएम चिरठितिएसु तेणं तथ्य देवा भवंति, महिडिढया जावचिरहितिया हारविराइयवच्छा जाव पभासेमाणा कप्पोवण्णा गतिकल्लाणा आगमेमि भद्दा जाव पडिरूवा, तमाइक्खति । एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा नेरइयत्ताए कम्मं पकरंति नेरइयत्ताए कम्म पकरेत्ता, नेरइएसु उववज्जति तं० महारंभयाए महापरिग्गहाए पंचिदियवहेणं कुणिमाहारेणं, एवं एतेणं अभिलावेणं तिरिक्खजोणिएसु, माइल्लयाए, नियडिल्लयाए, अलियवयणेणं, उक्कचणयाए, चंचणयाए, मणुस्सेसु पगतिभद्दयाए पगतिविणीययाए सानुकोसयाए अमच्छरियाए, देवेसु सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, अकामणिज्जराए, बालतवो कम्मेणं, तमाइक्खति । गाथा-जह णरगा गम्मतो, जह गरगा जातवेदणा णरए।
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२४०
उत्सुत्रतिरस्कारनामा-विचारपट:
सारीरमाणसाई, दुक्खाई तिरिक्खजोणीए ॥१॥ माणुस्सं च अणिचं, वाहि जरामरणवेदणापउरं । देवे य देवलोए, देविढि देवसुख्खाई ॥२॥ नरगं तिरिक्खनोणि, माणुस्सभवं च देवलोगं च । सिद्धेय सिद्धिवसहि, छज्जीवणियं परिकहेति ॥३॥ जह जीवा बझंती, मुचंती जह य किलेस्संति । जह दुक्खाणं अंतं, करंति केइ अपडिबद्धा ॥४॥ अट्टहट्टिय चित्ता, जह जीव-दुख्खसागरमुर्विति । जह वेरग्गमुवगया, कम्मसमुग्गं विहाडं ति ॥५॥ जह रागेण कडाणं, कम्माणं पावतो फलविवागो। जह य परिहोणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुर्विति ॥६॥
तमेव धम्म दुविहं आइक्खति तं जहा-अगारधम्म अणगारधम्मं च । अणगारधम्मो नाव इह खलु सबतो सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराउ अणगारियं पबइ तस्स सव्वतो पाणाइवायाओ वेरमणं, मुसाबाय-अदत्तादाणमेहुण-परिग्गह-राईभोयणाओ वेरमणं, अयमाउसो अणगारसामाइए धम्मे पणते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उटिए णिगंथे वा णिग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खति, संजहा पंच अणुब्बयाई, तिनि गुणव्ययाई. चत्तारि सिक्खाब्वयाई, पंच अणुव्बयाई, तंजहा-थूलाउ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाउ
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ , १४१
मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिनादाणाओ वेरमणं,सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे, तिनि गुणव्ययाई. तंजहा -अणथ्यदंडवेरमणं दिसिव्वयं, उवभोगपरिभोगपरिमाणं, चत्तारि सिक्खावयाई, तंजहा-सामाइयं, देसावगासियं, पोपहोववासो, अतिहिसंविभागो, अपच्छिममारणंतिया संलेहणा जूमणाराइणा, अयमाउसो आगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्म धम्मस्स सिक्खाए उवहिए, समणोवासिए वा समणोवासिया वा विहरमाणा आणाए आराहया भवंति। ततेणं सा महति महालया मणूसपरिसा समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हट्ट जाव हियया उढाए उद्वेति, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं करेति वंदति णमंमति, वंदित्ता णमंसित्ता, अथ्थे गतिया मुडे भवित्ता अगाराउ अणगारियं पवइया, अथ्थे गइयाणं पंचाणुवतियं सत्तसिक्खावतियं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा, अवसे साणं परिसा समणं भगवं महावीरं चंदति वंदित्ता, एवं क्यासी-सुअक्खाए भंते निग्गंथे पावयणे एवं सुपण्णत्ते सुभासिए, सुविणीए, अणुत्तरे ते भंचे निग्गंथे पावयणे, धम्मेणं आइक्खमाणा उपसम आइक्खह, उपसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खए विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह णथियणं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्म आइक्खिए. किमंगपुण इत्तो उत्तरुत्तरं एवं वंदित्ता,जामेव दिसंपाउपभूया तामेव दिसं पडिगया" ।। ए धर्म
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१४२ उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपट: कथा श्रीमहावीरनी भाखी। जि ए सांभली ति ए धर्म सर्वविरति अथवा देशविरतिरूप आदर्य उ । बीजे सांभली धर्मनउं मल उपशम विवेग विरति-पापकम्मनउ अकरण,एतल सद्दह्यउं ॥ ए धर्मकथानउ उदाहरण ठामि ठामि मूत्रमाहि फलाव्यो छ। एहने अनुसारि साधुभाषा जाणवी । तथा अतोतानागतवतमान तीर्थकराणां मतं ॥ ___ श्री आचारांगे-चतुर्थाध्ययने-प्रथमोद्देशके-" से बेमि जे अईया जे य पडुप्पन्ना जेय आगमिस्सा अरहंता भगवतो ते सव्वे एवमाइक्खन्ति एवं भासंति एवं पण्णविति एवं परूविनिसव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतवा न अन्जावेयवा न परिचित्तन्वा न परियावेयवा न उद्दवेयवा, एस धम्मे सुद्धे निइए सासए समिञ्च लाय खेयण्णेहिं पवेइए, तंजहा-उट्ठिएसु वा अणुटिएम वा उवढिएमु वा अणुहिएम वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा मोहिएमु वा अणोपहिएसु वा संजोगरएमु वा असंजागरएमु वा, नचं यं तहा चेयं अस्सि चेयं पवुच्चइ" ॥ इति श्री तीर्थकरनउ साधु-गृहस्थ प्रतिइं उपदेश जाणिवउ ॥
पुनः श्री आचारांगे-चतुर्थाध्ययने-२ उदेशके "आवंनि केयावंती लोयंसि समणा य महणा य पुढो क्विायं वनि, से दिटुं च णे सुयं चणे मयं चणे विण्णायं चणे उड़दं अहं तिरियं दिसासु सम्बओ सुपडिलेहियं चणे-सव्ये पाणा सम्वे जीवा सव्वे भूया सव्वे सत्ता हन्तहा अजावेच्या परियाव
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि प्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १४३ यन्वा परिघेत्तव्या उद्दवेयवा, इत्थवि जाणह नत्थित्थदोसो, अणारियवयणमेय, तत्थ जे आरिआ ते एवं वयासी-से दुदिई च मे दुस्सुयं च मे दुम्मयं च मे दुविण्णायं च मे उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सव्वओ दुप्पडिलेहियं च भे, ज णं तुम्भे एवं आइक्खह एवं भासह एवं परूवेह एवं पण्णवेह-सव्वे पाणा ४ इंतव्वा ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, अणारियवयणमेयं, वयं पुण एवमाइक्खामो एवं भासामो एवं परूवेमो एवं पण्णवेमो-सव्वे पाणा ४ न हतच्या १ न अज्जावेयव्वा २ न परिघित्तव्वा ३ न परियावेयव्या ४ न उद्दवेयव्या ५, इत्थवि जाणह नत्थित्थ दोसो, आयरियवयणमेयं, पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिम्सामि, हं भो पवइया ! किं भे सायं दुक्खं असायं ?, समिया पडिवण्णे यावि एवं बूया-सव्वेसि पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं महब्मयं दुक्खं तिबेमि ॥"
तथा श्री शस्त्रपरिज्ञायां प्रथमाध्ययने पंचमोद्देसके-"तत्य खलु भगवया परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जातिमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेर्ड से सयमेव वणस्सइसत्थं समारंभइ अण्णेहिं वा वणस्सइ सत्थं समारंभावेइ अण्णे वा वणस्सइसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए, से तं संबुज्ज्ञमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोचा भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु
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१४४
उत्सूत्रतिरस्कारनामा- विचारपटः
मारे एस खलु णरए, इचत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति, से बेमि इमपि जाइधम्मयं इपि वुद्धिधम्मयं एयंपि बुद्धिधम्मयं इमपि चित्तमंतयं इमपि चित्तमंतय इमपि छिण्णं मिलाइ एयंपि छि मिलाइ इमपि आहारगं एयंपि आहारगं इपि अणिच्चर्यं एपि अणिचयं इपि असासयं एयपि असासयं इमपि चओवचइयं एपि चवचइयं इमपि विपरिणामधम्मयं एपि विपरिणामधम्मयं । एत्थ सत्यं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवति, एन्थ सत्थं असमारभमाणस्स इचेते आरंभा परिण्णाया भवति, तं परिण्णाय मेहावी णेत्र सयं वणस्सइत्थं समारंभेज्जा ठेवण्णेहिं वणस्सइत्थं समारंभावेजा णेवणे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्से ते वणसतिसत्य समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मेत्तिबेमि ॥ " ए वीतरागनउ उपदेश || इणि परिई छहयकाय समारंभ त्रिकरणसुद्धिई साधुटालइ, विराधनानी छोडो सूत्रमति उत्सर्गे नइ व्यवहारि नथो दीसती । बीजी पांच कायन विवर ग्रंथवाधिवाना मेलि नथो लिख्य, वर्णिकामात्र लिख्य छइ ।
पुनः - श्री आचारांगे षष्ठाध्ययने चतुर्थोद्देशके - "ओए समिदं गे. दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं rati आइक्खे, विभए किट्टे वेयवी, से उट्ठिएस वा अणुट्ठि
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं. १४५ एमु वा सस्ससमाणेसु पवेयए संति विरई उवसमं निव्वाणं सोयं अजवियं मद्दवियं लापवियं अणइवत्तियं सव्वेसि पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खिज्जा, अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइजा नो परं आसाइजा नो अन्नाई पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताई आसाइजा, से अणासायए अणासायमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवइ सरणं महामुणी"॥ अस्य वृत्तौश्रीशीलांकाचार्यमतं,-साधुनिरवद्यानुष्ठानं प्ररूपयेदित्यर्थः ।
पुनः-आचारांगे श्रीसप्तमाध्ययने-" इहमेगेसिं आयारगोयरे नो मुनिसंते भवति ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा" इत्यादि अस्यार्थः-विहारारामतडागादिभिर्धर्म वदंतोऽनुवदंतः कुशीला इत्यर्थः । तथा श्रीराजप्रश्नीयोपांगे ॥२॥
सरियाभदेवना आभिोगी देवता श्रीमहावीरनई वांदी ऊभा छता प्रति श्रीमहावीर बोल्या ॥ "देवाय समणे भगवं महावीरे देवे एवं वयासी-पोराणमेयं देवा ! जीयमेयं देवा ! किच्चमेयं देवा ! करणिजमेयं देवा ! आइन्नमेयं देवा ! अब्भगुन्नायमेयं देवा! जणं भवणवइ वाणमंतरजोइसिय वेमाणिया देवा अरईते भगवते वदंति नमसंति । तओ साई साई नामगोत्ताई साहति ॥" एतली प्ररूपणा दीसइ छइ । परं इम न काउं "ज देवा जोयणपरिमंडलं करंति । पुप्फपगर भरंति
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१४६
उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपट.
धूवघडीओ करंति ।" तिणि कारणि जाणियइ छइ साधुनउ उपदेश निरवद्य छइ ॥ तथा फूलपगरादि सर्व आपणइ हर्षि कीघउ प्ररूप्य सूत्रमाहि दीसइ छइ ॥ तथा सूरियाम आगलि पुण प्ररूपणा एतलीजछइ । “परं नाडयं करंति," इम प्ररूप्यउं नथी । अनई सूरियाभि नाटककीघउं दीसइ छइ ।। नाटक करिवानइ पनि “नो आढइ नो परिआणइ तुसिणीए संचिटई" एहवा अक्षर छइ । निषेधइ नथो प्ररूपणा पुण नथी । सथा-श्रीकेशीकुमारश्रमण प्रदेशीराजा सभाई बइसिवा भणी प्रश्नि कीधइ-" एसा उजाणभूमी एस तुमं चैव जाणसि"। परं प्रतिबोधनउ लाभ जाणी बइसि इम कां न काउं । अथवा "अहासुई" ए भाषा कांई न बोली ॥ तथा दाननइ अधिकारि “ पुचि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे मा भविज्जासि"। एहवउ वचन चिहं दृष्टांत सहित काऊं विम उघाडउं इम म्यइ न काउं । श्रावक दानशाला मंडावी दानद्यइ तओ रमणीय थाइ । तथा श्री आगममाहि ठामि ठामि दानना भावना कथक वचन "अवगुत्तदुवारा ऊसियफलिहा" एहवा श्रावकनई अधिकारि छ।।। तउ इम जाणिज्यो साधु बोलतउ सावध थतु बीहइ । तथा चरितानुवादि सूत्रमाहि ठामि ठामि श्रीजिनागमनि सांभल्यइ प्रीतिदान साढाबारलाख, पहिलउं एकलाख आठसहस ए प्रीतिदान । तथा वांदिवानइ काजि अनेक महोत्सव श्रीप्रथम उपांगि-कूणिकनइ अधिकारि । एवं
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १४७
हामि ठामि राजाधिकारि गृहस्थनई अधिकारि श्रावकनइ अधिकारि वांदिवा भणी महोत्सव श्री भगवतिमाहि राजाश्री Starfant अपार महोत्सव तथा तीर्थंकरनई अधिकारि देवता मनुष्यना कीधा दीक्षामहोत्सव अपर सामान्यसाधु मेघकुमार, थावच्चा गयसुकुमाल जमालि प्रभृतिना अनेक गाढा सविस्तरदीक्षामहोत्सव | तथा श्रीमद् ज्ञाताधर्म्मकथांगि-श्रीमलिनउ संवत्सरीदान, श्रीआचारांग - श्रीमहावीरनउ संवत्सरीदान तथा श्रीदशाश्रुतस्कंवि श्रीमहावीर श्रीपार्श्व श्रीनेमि श्री आदीश्वरनर वार्षिक दान तथा छट्टड़ अंगि श्री मल्लिनी दानशाला, पोहिलानी दानशाला, श्रीमल्लिई ६ मित्र प्रतिबोधकाजि मोहणघर जालवर सुवर्णमय प्रतिमाकरण सिद्धानपरिशाटना तथा सुबुद्धि मंत्रीश्वरि फरिहोदक निर्मलीकरण, बीज उपांगि चित्रसारथीई प्रदेशीरायनई अश्वदमन निमंऋण तथा श्रीसूरियाभादिकना अनेक वंदन महोत्सव हियान उल्लासि दीसह छइ, परं विधिवादि साधुनइ उपदेश जाणीत नथी. नरितानुवादि दीसइ छइ || अनई ए आरंभ अर्थ हेति काम हेति जाणीव नथी, एतलामाहि मिथ्यादृष्टी पुण नथी जाणयउ, परं साधुनई भाषानउ विशेष परोछयउ जोई | तेह ऊपर वली लिखीयइ छइ || श्रीसूयगडांगे द्वितीयतस्कंधे- "तत्थ खलु भगवता छज्जीवनिकायहेऊ पन्नत्ता, तंजहा- पुढविकाइ जात्र तसकाइए, से जहा नामए मम अस्साये दंडेण वा अङ्घीण वा मुट्टीण वा लेलूण वा कवालेण
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१४८
उत्सुत्रतिरस्कारनामा-विचारपट:
वा आउडिज्जमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा तजिज्जमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परियाविजमाणस्स वा किलिज्जमाणस्स वा उद्दविजमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमायमदि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेएमि, इच्छेवं जाण सव्वे पाणा सव्वे भया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा.. आउडिजमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिजमाणा वा ताडिजमाणा वा परियाविजमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति ॥" श्रीभगवंत तीर्थकरे सर्व जीवनई आत्मसमान दुक्ख काउं। परं किहांई किणिही अर्थिं दुःख न ऊपजइ अनइ एहनी विराधना दोष नथी, इम न काउं ॥ तथा
श्रीदशवकालिके-"पुढवीचित्तमंत्तमक्खाया अणेग जीवा पुढोसत्ता अन्नथ्य सथ्यपरिणएणं । आऊचित्तमंतमक्खाया अणेग० ॥२॥ तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेग जीवा०॥३॥ वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा० ॥४॥ वणस्सई चित्तमंतमक्खाया, अणेगजीवा० ॥ ५॥” इत्यादि स्थावर ५ मांहि वनस्पति विना अनेरामांहि असंख्याता जीव बोल्या ।।
गाथा-" एगस्स दुन्ह तिन्ह व, संखिजाणं न पासिउं सका। दीसंति सरीराई, पुढविजिआणं असंखिज्जा ॥१॥ एगंमि दगबिदुमि० " इत्यादि वनस्पति माहि संख्याता असंख्याता अनंता पुण लाभइ । साधारण वनस्पति अनंतकाय
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१, मुं १४९
जाणिवी। सर्व कंदादिक भेद ३२ तथा श्रीपन्नवणा उपांगमाहि फूलनउ विशेष बोल्यउ छइ ॥ तथा च
गाथा-"पुप्फा जलया थलया, बिट बद्धाय नालबद्धाय। संखिज्जमसंखिज्जा, बोधव्वाणतजीवा य ॥१॥ जे केइ नालियाबद्धा, पुष्पा संखिज्जजीविया भणिया। निहया अणंत जीवा, जेया वण्णा तहाविहा ॥२॥" एहवा स्थावर जीक्कया, एहनइ संघट्टि केहवी वेदना थाइ ते कहइ छइ ।। गाथा-"वुडदं जज्जर थेरं, जो घायइ जमल मुठिणा तरुणो।
जारिसी तस्स वियणा, इगिदि संघटणे तारिसी"|| इसउं जाणी साधु छक्काय राखइ । यतः-श्रीदशवकालिकेगाथा-" पुढवी दग अगणि मारुय, तणरुक्खस्स बीयगा ।
तसाय पाणा जीवत्ति, इइ वुत्तं महेसिणा ॥१॥ तेसिं अत्थण जोएण, निचं होअव्वयंसिया । मणसा कायवकेणं, एवं हवइ संजए" ॥२॥ इतिवचनात्
साधु जिहां साधुनइ वचनि सावध लागइ ते भाषा न बोलइ । साधुनउ वचन ते जेहनी विधि तथा जेहना फल साधु कहइ ते विधिवाद उपदेश, ते साधु करइ करावइ अनुमोदइ ॥ बीजा चरितानुवाद यथास्थितोपदेश सिद्धांत माहि घणाई छइ, ते तेणइ मार्गि जाणिवा । इणि कारणि चारित्रियइ सावध भाषा न बोलिवी ।। यतः-श्रीमहानिशीथे
“सावज्जणवज्जाणं, वयणाणं जो न जाणइ विसेसं । वुत्तुंपि तस्स न खमं, किमंगपुण देसणं काउं ॥१॥" तथा
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उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः
श्रीसूयगडांगेऽध्ययनि ११ मे "हणं तं नाणुजाणिज्जा आयगुत्ते जिइंदिए।" इत्यादि गाथा-तेहनउ भाव, जे शत्रा गारादि करणहार साधुनई धमाधम विशेष पूछइ, तिवारी साधु अस्ति नास्ति बिहूं माहि एकइ न कहइ, मध्यस्थ भाषि रहइ । ए भाषा साधुनी छइ । तथा-वली श्रीसूयगडांगमाहि
"धम्मपन्नवणा जा सा, तं तु संकंति मूढया । आरंभाइं न संकेति, अ वियत्ता अकोविया " ॥१॥
तथा-पुन:-"दयावरं धम्म दुगुंछमाणा वहाव धम्म पसंसमाणा ।" इत्यादि अनेक अक्षर छइ ॥ तथा-श्री ठाणांगे- "दोय ठाणाई अपरियाणित्ता । आया केवलि पन्नत्तं धम्म नो लभेज्ज सवणयाए । तंजहा-आरंभे चेव परिग्गहे चे " इत्यादि । आरंभ अनइं परिग्रह जे अनर्थ इम न जाणइ ते केवली प्रणीत धर्म सांभलिवान लहइ । अनई जे आरंभनउ पञ्चक्खाण न करइ ते जीव नरकायु बांधइ, ते श्री आगममाहि ठामिठामि बोल्यउं छइ॥ " महारंभयाए महापरिग्गयाए।" इत्यादि स्थानक ४ श्री उपवाई उपांगि, श्रीठाणांगि, श्रीविवाहपत्ति प्रमुख सूत्रमा. हि छइ ॥ इणि कारणि जिहां आरंभ तिहां सावध, तिहां साधु मनि वनि कायाई प्रवर्तइ नही ॥ तथा-श्रीदशबैकालिकेऽध्ययनि ७ मेगाथा-" असच मोसं सच्चं च, अणवज्जमककसं।
समुप्पेह-मसंदि, गिरं भासिज्ज पन्नवं ॥१॥
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १५१
तथा-तहेव सावज्जं जोगं, परस्सहाय निहियं ।।
कीरमाणंति वा नचा, सावज्ज न लवे मुणी ॥२॥ मुकडित्ति सुपकित्ति, मुच्छिन्ने मुहडे मडे । मुनिटिए मुलहित्ति, सावज वज्जए मुणी ॥३॥"
तथा-श्रीसूयगडांगे-" ते सव्वे पावाउया आदिगरा धम्माणं णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणाझवसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंध किचा सव्वे एगो चिट्ठति ॥ पुरिसे य साणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडि पुग्नं अओमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावाउए आइगरे धम्माणं गाणापन्ने जाव णाणाझवसाणसंजुत्ते एवं वयासो हंभो! पावाउया ? आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणा अज्झवसाणसंजुत्ता ? इमं ताव तुब्भे सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुग्नं गहाय मुहुत्तयं मुहुत्तगं पाणिणा धरेह, णो बहुसंडारूगं संसारियं कुज्जा णो बहुअग्गिथं भणियं कुज्जा णो बहु साहम्मियवेयावडियं कुज्जा णो बहुपरधम्मियवेयावडियं कुज्जा उज्जुया णियागपडिवना अमायं कुबमाणा पाणिं पसारेह, इति वुचा से पुरिसे तेसिं पावादुयाणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुन्नं अओमएणं संडासएणं गहाय पाणिंसु णिसिरति, तए णं ते पावादुया आइगरा धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाझवसाणसंजुत्ता पाणिं पडिसाहरंति, तए णं से पुरिसे ते सव्वे पावाउए आदिगरे धम्माणं जात्र णाणाज्झवसाण संजुत्ते एवं बयासी-हंभो ! पावादया आइगरा
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उत्सृत्र तिरस्कारनामा- विचारपटः
धम्माणं णाणापन्ना जाव णाणाज्झवसाणसंजुत्ता ! कम्हा णं तुम्भे पाणि पडिसाहरह ? पाणि नो डहिज्जा, दड्ढे किं भविसइ ?, दुक्खं दुक्खति मन्नमाणा पडिसाहरह, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे, पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे, तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमातिक्खति जाव परूवेति- सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता तवा अज्जावेयवा परिघेता परतावा किलामेतवा उदवेतवा. ते आगंतुळेयाए ते आगंतुभेयाए जाव ते आगंतुजाइजरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणब्भवगब्भवासभवपर्वचकलंकलीभागिणो भविस्संति, ते बहूणं दंडणाणं बहूणं मुंडणाणं तज्जणाणं तालणाणं अंदुबंधणाणं जाव घोलणाणं माइमरणाणं पिइमरणाणं भाइमरणाणं भगिणी मरणाणं भज्जापुत्तधूतसुण्हामरणाणं दारिद्दाणं दोहग्गाणं अपियसंवासाणं पियत्रिष्पओगाणं बहूणं दुक्खदोम्भ
साण आभागिणी भविस्संति, अणादियं च मं अणवयगं दोहम चाउरंत संसारकं तारं भुज्जो भुज्जो अणुपरियद्विस्संति, ते णो सिज्झिति णो वुझिसति जाव णो सहदुक्खाणं अंत करिस्संति, एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे । तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाइक्खेति जाब परूर्वेति सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ताण अज्जावेयवा ण परिघेतव्वा ण उद्दवेवा ते णो आगंतुळेयाए ते णो आगंतुभेयाए जाव जाइ जरामरणजोणिजम्मण संसारपुणन्भवगन्भवासभवपर्वचकलंक
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १५३
लोभागिणो भविस्संति, ते णो बहणं दंडणाणं जाव णो बहूणं मुंडणाणं जाव बहूणं दुक्खदोम्मणस्साणं णो भागिणो भविस्मति, अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं भुज्जो मुज्जो णो अणुपरियटिस्संति, ते सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति ।" इतिवचनात ।। तथाश्रीदशवैकालिके-" तहेवसावजणुमोइणीगिरा, ओहारिणी जाव परोबधाइणो । से कोह लोह भयसा व माणवो, न हासमाणो वि गिरं वइज्जा ॥ १ ॥ सुवक्कमुद्धिं समुपेडिआ मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया। मिश्र अदुटुं अणुवीइ भासए, सयाणवज्जे लहई पसंसणं ॥ २॥ भासाइ दोसे अगुणे अ जाणिआ, तोसे अ दुढे परिवजए सया । छमु संजए सामणिए सया जए, वइज्ज बुद्धे हि अमाणुलोमिअं ॥३॥" इत्यादि साधुनी भाषानी विधि जाणिवी । तथा-श्री सूयगडांगे अध्ययन २० मे-शिष्यः पृच्छति-" से किं कुव्वं किं कारवं कई संजय -विरयप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे भवइ ?, आचार्य आह तत्थ खलु भगवया छजीवणि कायहेऊ पण्णत्ता, तंजहा-पुढवीकाइया जाव तसकाइया. से जहाणामए मम अस्सातं डंडेण वा" इत्यादि । आलावउ पहिलउ लिख्यउ छ । तिहडज जाणिवर । "जाव दक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं गच्चा सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता न तव्वा जाव ण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णिइए सासए समिञ्च लोग खेयन्नेहिं पवेदिए, एवं से भिक्खू०" इत्यादि साधूपदेशः॥
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उत्सूतिरस्कारनामा-विचारपटः
तथा-श्रीउत्तराध्ययनेसंरंभ समारंभे, आरंभमि तहेव य ।
मणं पवत्तमाणं तु, नियटेज जयं जई ॥१॥ संरंभ समारंभे, आरंभंमि तहेव य ।
वयं पवत्तमाणं तु, नियत्वेज जयं जई ॥२॥ संरंभ समारंभे, आरंभंमि तहेव य।
कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥३॥ इत्यादि । तथा-श्रीप्रश्नव्याकरणे सप्तमाध्ययने--
" सञ्चपिय संजमस्स उवरोहकारगं किंचि न वत्तव्वं हिंसासावज्झसंपउत्तं " तथा " बितियस्स वयस्स अलियवयपस्स वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पढमं सोऊणं संवरदं परमहं मुख जाणिऊण न वेगियं न तुरियं न चवलं न कडुयं न फरुसं न साहसं न य परम्स पीलाकरं सावज्ज सचं च हियं च मियं च गाहगं च सुद्धं संगयमकाहलं च समिक्खितं संजतेण कालंमि य वत्तव्वं."तथा-श्रीउपदेशमालायां-'छज्जीव कायवहगा॥१॥ छज्जीवकायमहरयाण परिपालणाइ जइधम्मो । जइ पुण ताई न रक्खा भणइ को नाम सो धम्मो ॥२॥ छज्जीवनिकायदया० ॥३॥ सव्वाउगे० ॥४॥ तह छक्काय महव्यय० ॥५॥ जइयाणेणं चत्त० ॥६॥ छकायरिऊण ॥७॥" इत्यादि साधुनउ मागि छकाय पालिवी कही ।। साधुनउ वचन निरवद्य
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १५५
इज थाइ ॥ तथा कोई इम कहिस्यइ । वीतरागनइ वचनि साधु नदी उतरइ । तथा मेह वरसतइ गोचरी जाइ । तथा मेहवरसतइ उपाश्रयि आवइ । एकादि वीनइ संयोगि वरसतइ नोसरइ। तउ इहां अकाय संघट्टि सावद्यलागइ । ए उपदेश किम दोधलं, तिहां इम जाणियइ छइ । एकतउ साधुनइ काउ, परं गृहस्थनई नथी काउ । तथा नदीज बहू २ ऊतरिवी नही कही। नदी ऊतर्या माहि धर्मपुण नथी बोल्यउं । जइ बीजउ मार्ग जाइवानउ हुइ तउ नदीजमाहि जाइवउ काउ नथी । इम करतां ज्ञान दर्शन चारित्रराखिवानई काजि नदी उतरतां जयणानी विधि श्रीवीनरागि बोली, परं ए सर्वदा सदा कर्तव्यनउ उपदेश नथी। तथा अल्पवृष्टिमाहि स्थविरकल्पीनई जाइबउ काउं । तउ घणइ वरसतइ जाइबउ स्यइ न काउ । परं जाणियइ कारणि जयणा हेतु काउं। अनई जिनकल्पीनइ न काउं । अथवा जे बरसतइ विहरवा न जाइ ते विराधक इम पुण नथी काउं ।। तथा-स्त्रीनइ संयोगि जइ एकांत हुइ तउ नीसरिवउ काउ, अन्यथा नथो पुण काउ, तिहां ब्रह्मचर्य राखिवानउ कारण छइ । वरसतइ उपाश्रयइ आविवानी आज्ञा छइ । ते कारण गीतार्थ जाणइ, परं जे विराधना लागी ते करिखानउ उपदेश नथी जाणिउ, ते पडिक्कमिवा योग्य जाणियइ छइ, परं गृहस्थनइ एहवउ किहांइ न काउं, तिणि कारणि साधुनइं साधुई कहतां सावधभाषा न बोलाइ । परं गृहस्थनउ जे कर्त्तव्य सुभानुबंध छइ तिहां जे
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उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः
आरंभ दीसइ तिहां साधुनउ यथास्थित उपदेश अथवा चरितानुवादि उपदेश सूत्रमाहि जाणियइ छइ । अने जे निरवद्यानुठान सुभानुबंध तिहां विधिवादई उपदेश दीसइ छइ । वली सूत्रमाहि पञ्चक्खाणनी विधि एहवी दीसइ छइ ॥
श्रीभगवतीसूत्रे-सप्तमशते-द्वितीयोद्देशके-“से नृणं भंते ! सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सबजीवेहि सव्वसत्तेहि पञ्चक्खायमिति बदमाणस्स मुपचक्खायं भवति दुपञ्चक्खायं भवति !, गोयमा ! सन्चपाणेहिं जाब सव्वसत्तेहिं पच्चकवायमिति वदमाणस्स सिय सुपच्चक्खायं भवति सिय दुपञ्चक्खायं भवति, से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ सबपाणेहिं जाव सिय दुपञ्चक्वायं भवति ?, गोयमा ! जस्स गं सन्नपाणेहि जाव सनसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स णो एवं अभिसमन्नागयं भवति इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसा इमे थावरा तस्स सबपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति बदमाणस्स नो सुपञ्चक्खायं भवति दुपञ्चक्खायं भवति, एवं खलु से दुपच्चक्खाई सव्वपाणेहि जाव सव्वसत्तेहि पञ्चकवायमिति वदमाणो नो सचं भासं भासइ मोसं भासं भासइ, एवं खलु से शुसा. वाई सबपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं तिविहिं तिविहेणं असंजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतवाले यावि भवति, जस्स णं सबपाणेहिं जाव सव्यसत्तेहिं पञ्चक्रवायमिति बदमाणस्स एवं अभिसमन्नागयं भवइ इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसा इमे थावरा, तस्स णं सन्च
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १५७
पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपत्र - क्खायं भवति नो दुपचक्खायं भवति, एवं खलु से सुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वयमाणे सच्च भासं भासइ नो मोसं भासं भासइ, एवं खलु से सच्चarat Hoards ara सव्वसतेहिं तिविहं तिविहेणं संजयविश्यपडियपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संबुडे एगंत पंडिए - यावि भवति, " ( से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ जाव सिय दुपञ्चक्रखायं भवति) इति श्रीजिनवचनात् ॥ जइ जीवाजीव जाणइ तेहनउ पञ्चक्खाण प्रमाण । तथा जाणीनई पालइ नहीं तेहनउ आणपण अप्रमाण यदुक्तं - श्रीउत्तराध्ययने(षष्ठे क्षुल्लक निग्रन्थोयाध्ययनमध्ये)
" इहमेगे उ मन्नंति, अपच्चक्रखाय पावगं । आयारियं वियत्ताणं सव्वदुक्खा विचई || १ || भणता अकरताय, बंधमुक्खपइण्णिणो । वाया वीरियमेत्तेणं, समासासंति अप्पयं ||२|| न चित्ता ता भासा, कुओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ॥३॥" इतिवचनात् । तथा श्रीउपदेशमालायां
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सुच्चा ते जियलोए, जिणवयणं जे नरा न याणंति । सुच्चा णवि ते सुच्चा, जे नाउणं नवि करंति ॥ १॥ " इतिवचनात् । तथा हिव जिनप्रतिमाधिकारि उपदेश स्वरूप लिखिइ छइ || श्रीअनुयोगद्वार मूल सूत्रि सूत्रनु उपदेश एहवउ
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उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः
नाम छइ । हिवं ते सूत्रसाधु वांचतउ उपदेशदाता बोलाइ। परं ते उपदेशना भाव भेद परीछया जोइयइ । विधिवाद १, चरितानुवाद २, यथास्थितवाद ३, ए उपदेश ते हेय १ ज्ञेय २ उपादेय ३ छइ, एतलामाहि सर्व शास्त्रनउ रहस्य गुरुप्रसादि जाणियइ ॥ श्रीआगममाहि ठामि ठामि साखि छइ, परं विशेषिई श्रीरायपसेणी तथा श्रीजीवाभिगममाहि श्रीजिनपतिमाधिकारि-" हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति । " जिननी दाढ अनइ श्रीजिनप्रतिमावंदन पूजनना एहवा फल बोल्या। तथा श्रीभगवतीमाहि खंधक परिव्राजकनई पत्रज्याधिकारि धनकाढिवानउ फल, " हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति" एहवउ बोल्यउ छइ ॥ तथा श्रीरायप्पसेणीमाहि, श्रीभगवतीमाहि, श्रीतीर्थकर वांदिवानउ फल-" हियाए सुहाए" इत्यादि बोल्यउं छइ ॥ तथा श्री आचारांगादि सूत्रमाहि ठामि २ पंचमहाव्रतपालिवानां फल “हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्तार" अथवा । "एस खलु पाणाइवायवेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेयसिए आणुगामिए " इत्यादि छहइ व्रतनयं फल बोल्यउं । हिव ए सत्र वचन सूत्रमाहि बोल्या भणी साधुनउ उपदेश कहवाइ, परं जे डाहर हुसिइ ते एहमाहि हेय उपादेय जाणिस्यइ । एतलामाहि जिनप्रतिमानउ जे उपदेश फल ते सामानिकदेवतानउ भाष्य जाणियइ छइ । साधुनइ ए यथास्थितोपदेश; परं सम्यगृदृष्टीना
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १५९ कर्त्तव्यमणी श्रीवीतराग किris निषेध्यउ नही, तिणि कारणि ए उपदेश हेय न कहियइ || तथा धननउ फल धनलुब्धनउ भाष्य अनइ वली श्रीवीतरागे ठामि ठामि निषेध्यउं । उत्तराध्ययने ४ अध्ययने - " वित्तेण ताणं न लभे पमत्तो " इत्यादि वचनात् ए हेय धर्मन अधिकारि कहिय । तथा श्रीवीतराग वांदिवान फल सम्यग्दृष्टीदेवता, मनुष्य तथा श्रावकना भाषित भणी तथा “ तहारूवस्स णं समणस्स वा माहणस्स वा पज्जुवासणा किं फला?" इत्यादि प्रश्न सवण नाण विनाण पच्चकखाण इत्यादि उत्तर वचन श्रीवीतरागना कला भणी उपादेय उपदेश जाणियइ छइ । तथा पंचमहाव्रतपालिवान उ श्रीवीतरागजिन भाषित भणी विधिवाद उपदेश जाणिय छइ || हिवं जे सम्यग् प्रकारि विधिवादि उपदेश छह, तिहां जाणिज्यो साधुनउ करण कारण अनुमोदन छ । इहां संदेहनथी । जे चरितानुवाद अनई यथास्थितइज छ, तिहां त्रिकरणन निश्चय नथी जाण्यउ : वली गीतार्थ कहइ ते प्रमाण । हिवई श्रीजिनप्रतिमा चरितानुवादि सम्यग्दृष्टी देवता मनुष्यन अधिकारि वांदी पूजी दीसइ छइ, परं ते जिनना राग भणी यथायोग्य उपादेय जाणियइ छइ । एहनी साखि सूत्रमाहि ठामि ठामि छह तथा श्रीरायपसेणीसूत्रे - " तेणं कालेणं तेणं समएणं सुरियामे देवे अहुणोववण्णमित्तिए चेव समाणे पंचविहार पज्जतीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तंजहाआहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए आणपाणप
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उत्त्र तिरस्कार नाभा - विचारपट :
ज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए, तर णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पंचविहाए पज्जतीए पज्जत्तीभावं गयस्स समाणस्स इमेयारूवे अन्भथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था - किं मे पुवि करणिज्जं ? कि मे पच्छा करणिज्जं ? किं मे पुव्विसेयं ? किं मे पच्छा सेयं ? किं मे पुव्विवि पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्तेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सर ?, तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोवनगा देवा सूरियाभस्स देवस्स इमेयाख्वम्भत्थियं जाव समुपनं समभिजाणित्ता जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छेति सरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जणं विजपणं वद्धाविन्ति वृद्धावित्ता एवं क्यासी - एवं खलु देवाणुप्पियाणं सुरियाभे विमाणे सिद्धायतणंसि जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमित्ताणं अट्ठसयं संनिखित्तं चिट्ठति, सभाए णं सुहम्माए माणवर चेइए खंभे वइरामएस गोल वसग्गए बहूओ जिणसकहाओ संनिखित्ताओ चिट्ठेति, ताओ णं देवाणुष्पिवाणं अण्णेसिं च बहूणं वेमाणियाण देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ जात्र पज्जुवासणिज्जाओ, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुत्रि करणिज्जं तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिज्जं तं एयं णं देवाणुप्पियाण पुव्वि सेयं तं एयं णं देवाणुपियाणं पच्छा सेयं तं एवं णं देवाणुप्पियाणं पुव्विपि पच्छावि हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति । तए णं से सूरियाभे देवे तेसिं
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १६१ सामाणियपरिसोववनगाणं देवाणं अंतिए एयमदं सोचा निसम्म इह तुह जाव हयहियए सयणिज्जाओ अब्भुटेति ॥” इम देवता सामानिकनउ भाषित देवतानइ अधिकारि जिनप्रतिमा वंदनीय पूजनीय एहवउ विधिवाद जाणिवउ ॥ जेहवउ फल श्रीवीरवंदनानउ सरियाभि काउ, तेहवउ फल श्रीजिनप्रतिमा वंदन पूजननउ काउ, सम्यग्वादीना भाष्याभणी बेवइ प्रमाण जाणियइ छइ ॥ श्रीजीवाभिगमे-"तते णं से विजए देवे चउहि सामाणिय साहस्सीहिं जाव अण्णेहि य बहू हि वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि यसद्धिं संपरिबुडे सविड्ढीए सबजुत्तीए जाव णिग्योसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छति २ ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणी करेमाणे २ पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छति २त्ता आलोए जिणपडिमाण पणामं करेति २ त्ता लोमहस्थगं गेण्हति लोमहत्थगं गेण्हित्ता जिणपडिमाओ लोमहत्थएणं पमजति २ ता सुरभिणा गंधोदएणं हाणेति २ त्ता दिवाए सुरभिगंधकासाइए गाताई लूहेति २ ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गाताणि अणुलिंपइ अणुलिंपेत्ता जिणपडिमाणं अहयाई सेताई दिवाई देवदूसजुयलाई णियंसेइ नियंसेत्ता अग्गेहि वरेहि य गंधेहि य मल्लेहि य अच्चेति २ ता पुप्फारुहणं गंधारुहणं मल्लारुहणं वण्णाहणं चुग्णाहणं आभरणारुहणं करेति करेत्ता आसत्तोसत्तविउलवट्टम्पारितमल्लदाम० करेति २ ता अच्छेहि सण्हे हिं [सेएहिं] रययामएहिं अच्छर
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१६२ उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः सातंदुलेहिं जिणपडिमाणं पुरतो अट्ठमंगलए आलिहति सोत्थियसिरिवच्छ जाव दप्पण अट्ठमंगलगे आलिहति आलिहित्ता कयग्गाहम्महितकरतलपभट्ठविप्पमुकेणं दसद्धवन्ने कुसुमेणं मुकपुप्फपुंजोक्यारकलितं करेति २ त्ता चंदप्पभवइ
वेरुलियविमलदंड कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविद्धं धूमवटि विणिम्मुयंत वेरुलियामयं कडुच्छुयं पग्गहित्तु पयत्तेण ध्रुवं दाऊण जिणवराण अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं महावित्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहि संथुणइ २ ता सत्तकृपयाई ओसरति सत्तहपयाई ओसरित्ता वामं जाणुं अंचेइ २ ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि णिवाडेइ तिक्खूत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि णमेइ नमित्ता ईसि पच्चुण्णमति २ ता कडयतुडियथंभियाओ भुयाओ पडिसाहरति २ त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी-णमोऽत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं तिकट्ठ वंदति णमंसति ॥"
इसीपरि सूरियाभनउ पुण आलावउ छइ ॥ एवं वैजयंत जयंत अपराजित ए आलावा सरीषा जाणिवा । सम्यगदृष्टी थुइ मंगलादि करणी करइ, ते श्रावक साधु पुण करइ, इहां संदेह न करिवउ कांई, जेह भणी एहनउं फल वीतरागे कार्ड तेहभणी अनई जे पुष्पादि छइ ते उपदेश माहि नथी जाणिउं॥ तथा श्रावकनइ अधिकारि श्रीउपासकदशांगि जिम आणंदनउ अधिकार तिम तदादि श्रावक दशनउ अधिकार जाणि
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१, मुं १६३
वउ । इणिपरि एकलाख उगुणसहि सहस्र श्रावकनइ अधिकारि सम्यक्त्वोच्चार चरितानुवादि उपदेश सरीषउ जाणिवउ । तथा श्रीउववाई उपांगि अंबडपरिव्राजक तथा तेहना शिष्य ७०० परिव्राजकनउ सम्यक्त्वनइ उच्चारि श्रीमहावीरनउ भाषित अंबड श्रमणोपासकनइ विधिवादि उपदेश छइ । तउ इम जाणियइ श्रीवीतरागि परिव्राजकानुष्टान सर्वबीजां परिवाजका सरीषां कह्यां । तिहां जाणीइ छइ अंबडनई ए परिब्राजकानुष्टानविधि छइ । परं जे इम काउं “अंबडस्सणं नोकप्पति अजप्पमिति अन्नउथिए वा, अन्नउथ्थिय देवयाणि वा, अन्नउथियपरिग्रहियाई चेइयाणि वा, वंदित्तए वा नमंसित्तए वा, पज्जुबासित्तए वा, ननथ्य अरिहंते वा अरिहंतचेइयाणि वा ॥" ए अनुष्शन बीजापरिव्राजकथकी विपरीत दीसइ छइ ।। तथा १२ व्रत ए पुण अनेरापरिव्राकनउ कर्त्तव्य न बोल्यउ । तिणि कारणि जाणिज्यो (जु) अरिहंतचैत्य कहतां श्रीअरिहंतनी प्रतिमा तेहनउ वंदनादिक अधिकार श्रमणोपासकनउ कर्त्तव्य छ।।। यद्यपि अंबडना नाम लीधाभणी चरितानुवाद किवारइ मनमाहि आवइ, परं श्रीवीर भाषित भणी विधिवाद सरीषउ छइ । तथा वली छेदग्रंथमाहिगाथा-पुणोवि वीयरागाणं, पडिमाउ चेइयालए ।
पत्तेयं संथुणे वंदे, एगग्गो भत्तिनिप्भरं ॥१॥
तथा वली उपधान वह्या अनंतर गुरु श्रावकनई काजि त्रिकालचैत्यवांदिवा उपदेश देवाना अक्षर छेद ग्रंथमाहि छ।।
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उत्सूत्र तिरस्कारनामा - विचारपट :
एतले ठामे मूलसूत्रमाहि श्रावकनई अरिहंत चैत्यवदिवाना अक्षर छइ । परं पूजिवाना अक्षर विवरासुध मूल सूत्रमाहि दीसता नथी ॥ तथा श्री आवश्यकमूल सूत्रमाहि "सब लोए अरिहंतचेइयाणं, वंदणवत्तिआए पूअणवत्तिआए, " इत्यादि अक्षर काउसग्गन अधिकारि छइ परं ते साधु श्रावकनई सरीषा छइ । तथा चडवी सध्ययनइ मूलपाठि । कित्तिया बंदि - या मए, एहवउ छइ, ते पुण साधु श्रावकनई तुल्य छइ । तथा पाठांतरे महिया इम कही व्याख्या कीधी छन्, महिताः पूजिताः पुष्पादिभिरिति । परं ए पाठ कहतां साधुन विपरीत दीसर, तथा सामाइकघर श्रावकनई पुण मिलतउ दीसतउ नथी, पछs वली जिम गीतार्थ कहइ तिम प्रमाण । तथा सूत्रमाहि जिहां पूजानउ शब्द आव्यउ छइ तिहां सर्वत्र पुष्पादिभिः, इम वखाण्यउ छइ, परं ए समुच्चयपदि जाणियइ छइ, एह ऊपरि साधुन उपदेसि फूलइज एकांति सही न थाइ । अन निषेधाइ पुण नहीं । जिम रायपसेणीमाहि केसीकुमार श्रमण वंदनाधिकारि, उववाह उपांग श्रीवीरवंदनाधिकारि एवं ठामि २ अपेगतिया वंदणवत्तियाए । अप्पेगतिया पूयणवत्तियाए । एहवा अक्षर छ । तिहांपुण पुष्पादिभिः इम इज वखाणि छतु इहां इम जाणियइ छइ जु तीर्थकर विजय
अनइ साधु तेहनी कोटि डाहउ श्रावक फूलनी माल चडावतर संभावियह नही । पछड़ गीतार्थ कहइ तिम प्रमाण । तथावली उपासक दशांग श्रीवीर नइ वर्णनि “तेलुक विद्दियमहिए"
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उत्सूत्र तिरस्कारनामा- विचार पटः
प्रतिमा देखी समवसरणस्थित श्रीवीतरागनीपरि उल्हास ऊपजिवानउ ठाम || यदुक्तं - श्री आवश्यकनियुक्त - " तित्थयरगुणा पडिमासु, नथ्थि निस्संसयं वियाणंतो । तित्थयरत्ति नमतो, सो पावइ निज्जरं विउलं ॥ १ ॥ "
इति वचनात् ॥ " स्वामी पद्मासनविराजमान छन्त्रत्रयी चामरशोभित नाशाग्रन्यस्तदृष्टि चिदानंद स्वरूप निर्विकार" एहवो वीतरागन ध्यान आणतां घणी निर्जरा छइ । त ras श्रावक अरिहंत विद्यमाननइ जिणि भावि वंदन पूजन करता, तिणि विधि अरिहंतनी प्रतिमानी भक्ति हिवडी संभावियइ छ । साधुन उपदिस्यउ डाहा श्रावकनउ कर्त्तव्य सूत्रानुसारिए जाणीयइ छइ । अनई वली जिहां सतरभेदपूजा छह, देवता मनुष्यनी कीधी, तिहां जिनप्रतिमा एहवउ नाम दीसह छइ । परं ऋषभ अजितादि तीर्थंकरना नाम नथी । rिasi प्रतिमाना नाम तीर्थकरना थाप्या दीसइ छ । अनड़ जिहां श्रावक साधुन अधिकारि सूत्रमाहि जिनप्रतिमानइ नामि चैत्य अरिहंतचैत्य एहवा शब्द छई । ते विशेष गीतार्थ कहइ तिम प्रमाण | सूरियाभ द्रौपदी विजय देवता दिकनइ | अधिकारि पंचाभिगम नथी बोल्या, अनई श्रावकनई जिनभुवन पंचाभिगम बोल्या | पछड़ जिम हुइ तिम प्रमाण । अन जइ कोइ इम कहिस्य विद्यमान तीर्थकरनी भक्ति अनेरी । तिनी स्थापनानी भक्ति अनेरी । जइ इम तउ स्थापनाचार्यनई पुष्पादि पूजा स्नात्र निरंतर नथी कीजतउ
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं. १६७
परंपराइ पुण नथी दीसत, ते किस विशेष । जिम श्री गीतार्थ कइ तिम प्रमाण करियइ । वि श्री जिनप्रतिमानी वंदना पूजना छ, तिम“ सुयस्स भगवड करेमि काउस्सग्गं । वंदण वतियाए पूयण बत्तियाए । " इम काउं । ते जेतला पुस्तक साधु श्रावक सदैव वांचेइ छई, तेहनई स्नात्र पुष्पादि पूजा नथी थाती, अपूज राषइ छइ, तेहनी आशातनानउ किम छइ, जिम गुरु कहइ, तिम करियइ । हिवं जे कर्त्तव्य जिनशासनमाहि छड़, तिहां जयणा जाणियइ छइ । यदुक्तं षष्टिशतके - " किञ्चपि धम्मकिचं, पूयापमुहं जिणंद आणाए । भूयमणुहरहियं, आणाभंगार दुहदाई || १ || "
के लाएक इम कहई छ, जे पूजा करतां पृथ्वी पाणी अनि वनस्पतीनी विराधना लागइ छड, तिहा असंयम आरंभ दोष न कहियइ, ते धर्म्मइज । इम सांभली मनि संदेह ऊपजइ । शास्त्रमाहि असंयम बोल्यउ । यतः
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दवध्यज्य भावध्यज्य, दवध्यउ बहुगुणोति बुद्धिसिया । अनि मइवयणमिणं, छज्जीवहियं जिणा बिंति ॥ १ ॥ " इति वचनात् ॥ एद्रव्यस्तवकहइ छइ, साधु अनुमोदर, ते सूत्रसि किमि मिलइ | तथा
"
"छज्जीवकायसंजम, दवथ्थए सो विरुझए कसिणो । तो कसिण संजमविऊ, पुप्फाईयं न इच्छति ||१|| द्रव्यस्तवि संपूर्ण छज्जीवकाय संयम विराधाइ । तिणि कारणि साधु पुष्पादिक न ईछइ । इम कहतां ईछिवउँ मनि,
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उत्त्रतिरस्कारनामा- विचारपट :
अनुमोदिवडे पुण मनि छ । तर साधु किम अनुमोदइ । तथा
कुशलानुबंधि- अध्ययने
"(
साहूण साहुचरियं. देसविरयं च सावयजणाणं । अणुमन्ने सव्वेसिं, सम्मत्तं सम्मद्दिट्ठीणं ॥ १ ॥
""
Fri श्रावकनी देशविरति अनुमोदिवी कही । अनई ज ए पुष्पादि पूजा करतां श्रावकनई विरति प्रमाण थाइ त ए कर्त्तव्य साधु सही अनुमोदइ । सावधानुष्ठान विरतिमा हि नथी जाण्यउ | अनइ जिहां छक्कायनउ आरंभ, तिहां सावध बोलाइ | अनई कदाचि पूजानइ अर्थि सावद्य नयी तर साधु तथा सामाइकधर श्रावक स्थई न करई । तथा वली परंपराइ इम सांभल्य जे प्रतिमा केतली एक वही पूठि श्रावक पुष्पादिक पूजा न करइ । तर सावबसही छ ।
तथा श्री आवश्यक निर्युक्तिमाहि: -
――――
66
चेइय कुलगणसंघ, अन्नं वा किचिकाउ निस्साणं । अहवा वि अज्जवयरं, तो सेवंती अकरणिज्जं ॥१॥" sri aurस्वामिनां आण्यां फूल अकरणीय बोल्यां । तर जाणिज्यो सावध सही थयउ । परं जे छक्कायनइ आरंभि सावद्य न जाणइ, ए मति श्री जिनशासनमाहि नथी । अनई जे आरंभनइ आरंभ जाणी किणही लाभ हेति हियानई उल्हासि धर्मकर्त्तव्य करइ तेहनी मति समी छइ । जइ इम न हुइ त परदर्शन अनई स्वदर्शन अंतर किसउ । यदुक्तं - श्री उत्तराध्ययने - (१२) "कुरूं च जूवं तणकट्टमरिंग, सायंच पायं
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १६९ उदगं फुसंता । पाणाई भ्याई विहेडयंता, भुज्जो वि मंदा पकरेह पावं ॥१॥” इति श्री साधुवचनात् । परं जइ एहवउ भाव जिनशासनमाहि हउत तउ परदर्शनीनई इम किम कहइ । तथा
श्रीज्ञाताधर्मकथांगि-थावच्चानउ वचन सुदर्शननई "रुहिरकयं वत्थं, रुहिरेण चेव धोविज्जा" इत्यादि छइ, ते इणि उपदेशि किम मिलइ । इणि कारणि सावध भाषा साधु न बोलइ, तथा जइ पुष्पादि पूजा सावध नथी तउ चारित्रियानइ स्यइ काजि निषेधी । पुष्पादि द्रव्यपूजा करतउ साधु अनंतसंसार वधारइ, एहवा सूत्रमाहि अक्षर छइ । तथा जे करियइ नही, ते करावियइ अनुमोदियइ किम । अनई गृहस्थ हियानइ हर्षि जिनपूजा पुष्पादिकई करइ, ते निषेध नही, जिनभक्तिरागत्वात् ॥ जिम पूर्विई दशाणभद्र, उदायन, देव, कोणिक, श्रेणिक, प्रदेशी, प्रमुख अनेक राजा महोत्सव करता निषेध्या नथी । अनई उपदेस पुण जाणीतउ नथी, जिहा उपदेश तिहां निरवद्य इज दीसइ छइ । " किं बहूक्तेन स्तोकादहु ज्ञास्यंति मेधाविनः " इत्यर्थः । तथा हिवडां जे अरिहंत २४ नी प्रतिमा आगलि जन्माभिषेकनी परि बलात्कारि बालका-वच्छा आणी जन्मस्नातकरइ छइ, ते कहा साधुनउ उपदेश। तथा-"लोणं जिणस्स भामिय खिप्पइ जलणे जलंतमि । फुट्टइ लोणं नडयडस्स, ता कणयकलस भरिकुंडिगयंदमइ न्हावउ नेमिकुमार ॥ तथा जयमंगलसूरि बोलइ महावीर भिसेउ ।" "ता कणय कलसिहि, न्हवउ भविया इहज पुज्जउ
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उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपट:
देउ"। ए केहा साधुना उपदेश नई मिलइ । ए उपदेश किंवा आदेश कहियइ, डाहउ होइ ते विचारी लेयो । तथा ए स्नात्रना ग्रंथ थोडा दीहाडाना नीपना छइ । ए पहिली सूत्रमाहि अथवा पंचांगीमाहि जन्म स्नात्र जिनप्रतिमानई करिवाना ग्रंथ केहा हुंता ते विचारिवा योग्य छइ । तथा-जे लोकमाहि मंगल प्रदीप कहवाइ छइ । ते सुश्रावक बारव्रतधारक परमेश्वरना बिंब आगलि मूंकी तेहनई पूजइ लूणपाणी करइ, फूल मूंका । मोटर्ड टोडर तोडी एक खंड डावइ हाथि बांधइ बीजउ जिमणउ हाथि त्रीजउ कोटि घाती दीवानई नमस्कार करइ । अग्नि वंदनीय जाणइ । ए केहा साधुनउ उपदेश, केहा मूत्रनीसाखि। तथा असमंजसपणउ घणा गीतार्थ कहइ छइ। ते लिखियइ छ।। गाथा-"गद्दरि पवाहओ जो, पइ नयरं दीसए बहुविहो य । __ जिनगिह कारवणाई, सुत्त विरुद्धो असुद्धो य ॥१॥ पाए अणंत देउल, जिणपडिमा कारिया अणंताओ।
असमंजस वित्तीए, नय सिद्धो दसण लवोवि ॥२॥"
तथा-"पइदिण गमणेण तस्स पच्छित् । पचतिहीसे च कारणे गमणं।" तथा "सन्नाण चरण दसण पमुक्क साहू हिं०॥
इत्यादि संकेत मात्रं ॥ "प्रोत्सर्पद् भश्मराशि ग्रहसख दशमाश्चर्य साम्राज्यपुष्य मिथ्यात्वध्वांतरुद्धे जगति विरलतां याति जैनेंद्रमार्गे ।
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं १७१
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संक्लिष्टद्विष्टमूढमखलजडजनाम्नायरक्तैजिनोक्ति
प्रत्यर्थीसाधुवेर्विषयिभिरभितः सोयममाथिपंथाः ॥१॥ अत्रोद्देशिकभोजनं जिनगृहे वासो वसत्यक्षमा
स्वीकारोधगृहस्थचैत्यसदनेष्वप्रेक्षिताधासनम् । सायद्याचरितादरः श्रुतपथावज्ञा जडद्वेषधी
धर्मः कर्महरोत्र चैत्यधिभवेन्मेरुस्तदाऽब्धौ तरेत् ॥२॥ तथाच-गृही नियतगच्छभाजिनगृहेऽधिकारो यतेः
प्रदेश(य)मशनादिसाधुषु यथा तथा भिभिः । व्रतादिविधिधारणं सुविहितांतिकेऽगारिणां । गतानुगतिकैरदः कथमसंस्तुतं प्रस्तुतम् ।।३।। तथा-इष्टावाप्तितुष्टविटनटभटचेटकपेटकाकुलं
निधुवन विधिनिबद्धदोहदनरनारी निकरसंकुलम् । रागद्वेषमत्सरेविनमघपंके निमजनं
जनयत्येव मूढजनविहितमविधिना जैनमन्जनम् ॥४॥ जिनगृहजैनबिजिनपूजनजिनयात्रादिविधिकृतां
दानतपीव्रतादिगुरुभक्तिश्रुतपठनादिचाहतम् । स्यादिह कुमतकुगुरुकुग्रहकुबोधकुदेशनांशतः
स्फुटमनभिमतकारिभोजनमिव विषलवनिवेशितः ॥६॥ आक्रष्टुं मुग्धमीनाविडिशपिशितवद्विबमादर्शजैनं
तन्नाम्ना रम्यरूपानुपवरकमठानस्वेष्टसिद्धैविधाप्य । यात्रास्नात्राथुपायैनमत्रातकनिशा जागरादिच्छलैश्च
श्रद्धालु मजैनेश्छलित इव शव॑च्यते हा जनोऽयं ॥६॥
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१७२ उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपट: किंदिग्मोहमिताः किमंधवधिराः किंयोगचूर्णीकृताः
किंदैवोपहताः किमंगठगिताः किंचाग्रहावेशिताः । कृत्वा मूनि पदं श्रुतस्य यदमी दृष्टोरुदोषा अपि व्यावृत्तिं कुपथाज्जडा न दधतेऽसूयंति चैतत् कृते ॥७॥"
श्रीसंघपट्ट श्रीजिनाज्ञातत्परयथार्थाभिधखरतरश्रीजिनवल्लभमूरिवचनात् ।। तिणि गीतार्थिई कांई असमंजस दीठउँतउ इम काउं ॥ तथा-केतलडं एक सूत्र विरुद्ध असमंजस दीसइ छइ ॥ गच्छे गच्छे पुण परस्पर विरुद्ध एक मानई एक न मानई । ते केटलाएक बोल लिखियेइ छइ । गीतार्थ कहइ तिम प्रमाण || पूछी २ करवउ ॥ छः ॥ छः ॥ श्रीः॥
१-तीर्थकर सउं गृहस्थनई जोडावउ मेलिवउ ।।
२-गृहे वीर नेमि मल्लि पार्श्वपतिमा अपूजनीय कथनं ॥ ३-स्वस्वगच्छनिश्रानामलिखनेन परिग्रहणं प्रतिमायाः ॥४१०८ कूपोदक १०८ पात्री साधु कथन मीलनं ॥५-पतिमानां विवाह वधूपचार करणं । मीडहल जवाली मउली बंधनं ॥ ६-रात्रौ जिनगृहमध्ये प्रतिष्टाथै साधुनिवासः ॥ ७अस्नातसाधुभिः शलाकासंचारणाय स्पर्शकरणं । करे कंकणमुद्रिका परिधान, जवारक करणं, वेदिकायानवेष्टकाभिः कृतिः। स्वहस्तेन दर्भवेष्टितशलाकाभिः सचित्तजलावगाहनलोडनं॥ नवग्रहस्थापन, दिक्पालानां च ॥ स्वहस्तेन तिलकुट्टीक्द फूलादि विकिरणं, लांगलीफलसुखाशिकादीनां ग्रहणं, आधा
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १७३ कर्मिकादिवखानपान ग्रहणं । प्रतिमानां वर्णपूर कंकणच्छोनादि सर्व विवाहविधि करणं. अनेक दाडिम सदाफलेक्षुदक कोमलफल कोमलफलिका पक्कानं सर्व्वधान्यसर्व तेमन जेमन पूपाघृतादि समस्तवस्तुढौकनं श्री अर्हतां पुरः कस्योपदेशात् ॥ अनेकतपसा मुद्यापनानि ॥ तंदुलैः पर्व्वतप्रासादाकारकरणं तदुपरि कलशध्वजारोपः । पार्श्व पार्श्व अनेक नवीन घटित कलश वर्त्तुलिका तथा सचित्तफलादि मोचनं कस्य साधोरुपदेशात्, चंदनबाला तपः कारणेन सुवर्ण रूप्यमय सूप कुल्माषकारण पादयोः पट्ट सूत्रादिकक्षेपण पायसेन पात्र भरणं । दुग्ध भृत भाजने रूप्यमय बेडातारणं । चैत्राश्वयुगमासतपसि सर्वांगीण सुवर्ण रूप्यमय तरुकरण ढौकनं च माघमासे घृतमय मेरु चूलिका प्रासादाकारकरणं तत्क्षणविभंगच || स्नात्रपंचाशके दिनद्वयं यावत् प्रदीपाखंडज्वालनं कस्योपदेशात् ॥ स्थानात् २ लेख प्रति प्रेषणेन श्रावकाणामाचाम्लाष्टाहिकाभोगदीपकरणादेशः कस्य साधोरनुसारी || साधुभिः समीपे जिनप्रतिमारक्षणं । पुटादीनां च कर्पूर वासक्षेप धूपादि करणेन द्रव्याचैन विधानं मुग्वलोकरंजनार्थे स्मरणमिषेण तदंतिकात् कर्पूर - मृगमदागुर्वादीनां ग्रहणं । प्रत्यहं प्रतिक्रमणावसरे पादप्रक्षालनं तद्विधिस्थापनं च । स्वस्वभावक निश्राकरणं स्वस्वनिश्रया नित्यपिंडग्रहणं । इत्यादिकुतः ॥ छ ॥ स्वस्व - गच्छनिश्रित - प्रासादे ममकरणं ॥ मृते नरेऽनेकवस्तुढौकनं पूजानामकरणं मृतस्य च षटू
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१७४ उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः त्रिसंख्ययामंगलकरणं च ।। शालामध्ये साधुजिनप्रतिमानां स्थितिः ॥ साधुभिस्तस्य संभालादिविधानं ॥ चातुर्मासकप्रारंभे प्रसभं पंचाशत्स्नात्रलेखनं साधुभिः श्रावकाणां ॥ पर्युषणापर्वणि स्वहस्तेन पुस्तकदानं जागरण करणं च ।। चैत्रशुक्लत्रयोदशीजातस्य श्रीवीरस्य भाद्रपद-सुक्लपतिपदपराह्ने जन्मोत्सवकारण। अनेक गोधूम चूर्णमुपदालिधृतगुड जीरकसुंठीप्रमुख वेषवारजुगमुशलादिवस्तु समानयनं । तद्धिविधापनं च॥ अजित शांतिस्तव कथने तैलस्य वृद्धि कारणं ।। मालारोपणे सुवर्णरूप्यप्रवाल मुक्ताफलसूत्र पट्ट मूत्रमाला कारणं कस्योपदेशात् ॥ क्षुत्करणे पर्वणि तालककुट्टनं पादप्रहारदानं । यः करोति स लिप्यते इत्यादि दुर्वचनकथनं प्रायश्चित्तदानं । देवगृहे धृपदीपदानं कस्यायमुपदेशः ॥ सम्यक्त्वमोदक कारणे प्रतिष्ठा वासक्षेपश्च वस्त्रादिग्रहणं कोयमुपदेशः कस्मिन् सूत्रे मिलति ॥ अष्टोत्तरीस्नात्रकारणेनोपद्रवोपशांतिपरूपणं ॥ गुरुणा स्वयं मंत्रादिजापे श्रावकाणां समीपात् पृथक फलादीनां प्रतिमापुरतो मोचनं ॥ मासजातस्य बालस्य तिलककरणं वासक्षेपनामस्थापनं ॥ पुस्तिकावेष्टन द्रव्यादिग्रहणं ॥ पंचम्यादितपसामुद्यापने पंचादिवस्तुमोचनं ॥ पर्वादि दिवसेषु गुरूणां पुरतः कुंकुमेन गृहलिकाकरणं उपरि द्रव्यमोचनं स्त्रीभिः स्व. हस्तैस्तंदुलगुरूणां न्युछनकरणं तंदुलोच्छालनं स्पर्शश्च । अत्रार्थे कस्य साधोरुपदेश इत्यादि बहस्ति परं वर्णिकामात्रं लिखितमस्ति ॥ये साधूनां विहितप्रतिष्टां न मन्यते ते केषां
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रमरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १७५ चित २ ग्रंथानाममानयितारः ॥ तथा च कैश्चित्स्त्रीणां पूजानिषेधः क्रियते । कैश्चित् श्राद्धानां प्रतिक्रमणं निषिद्धमस्तिा कैश्चित् चतुर्थस्तुतिपाठः श्रुतदेवता क्षेत्रदेवता स्तुतिपाठः । आस्यपोतिकाग्रहणमास्तिकानामित्यादि बहु २ निषिद्धं वर्तते ॥ तथा च द्वितीयवंदनकं पादपतित एव समापयतीत्यादिवृत्युक्तं ॥ प्रथमं सामायिकग्रहणं तत ईपिथिकीपतिक्रमणं कापि २ दृश्यते ॥ पाक्षिकं चातुमासिकं सांवत्सरिकं च भिन्नं २ क्रियते इत्यादि विरुद्धता परस्परं गच्छे २ तेषां मध्ये के सत्यवादिनः सूत्रानुसारिणः केऽसत्यवादिन उत्सूत्रानुसारिण इति निर्णयः कार्यों यदि पत्तननिवासिनः संघमुख्या धर्मार्थिनः संति । नोचेद् दृष्टिरागिणो मिथ्यात्वोपहताः पक्षरहितद्वेषिणः सपक्षभीरवः शास्त्रज्ञैर्ने प्रमाणी कर्त्तव्याः ॥ यतः"प्राप्य प्रमाणपदवीं, कः खलु मुग्धे तुले विवेकस्ते ।
नयसि गरिष्ठमधस्तात , तदितरमुच्चस्तर कुरुषे ॥१॥ मुहसीलाउ सच्छंदचारिणो, वेरिणो सिवपहस्स ।
आणाभहा बहु जाणह, मा भणह संघुत्ति ॥१॥ एगो साहू एगा य साहुणी, सावगो य सड्ढी वा । __ आणाजुत्तो संघो, सेसो पुण अहि संघाउ ॥२॥” इतिवचनात ॥ आज्ञारहितोराज्ञासहितस्य तिरस्करणं न प्रमाणकोटीमाटीकते ॥ हिवं जे साधुवेषधर जिनाज्ञा बाहिरि बोल्या छइ, ते लिषियई छई ।। अत्र श्रीजिनेंद्राणां तदाज्ञापालकसाधुसाध्वीश्रावक श्राविकाभिधानश्रीसंघस्य च मतं ॥छ।।
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१७६
उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः
"भुजइ आहाकम्म, सम्म नय जो पडिकमइ लुद्धो ॥ सबजिणाणा विमुहस्स, तस्स आराहणा नथ्थि ॥१॥"
जे आधाकम्मिक आहार ल्यइ । सम्यकप्रकारि पडिकमी पञ्चक्खाण न करइ । ते वीतरागना दर्शन बाहिरि ।।
"गोयरग्गपविट्ठस्स, निसिज्जा जस्स कप्पइ ॥ इमेवि समणायारं, आवझइ अबोहियं ॥१॥"
जे चारित्रियउ विहरवा जाई गृहस्थनइ घरि वाजवट मंडावी बइसइ ए अनाचार, बोधिवीजन नाश थाइ ॥श्रीसूयगडांगे___ "अंजू एते अणुवरया अणुटिया पुणरवि तारिसमा चेव" " अंजू" कहतां ए वात स्पष्ट गृहस्थ सावद्यानुष्टानथकउ अनुपरत-निवर्त्या नथी। जिणि कारणि सारंभ सपरिग्रह । तथा जके चारित्र लेईनइ सावद्यानुष्टानि प्रवर्तइ आधार्मिकादि आहार ल्यइ । ते पिण तेहवाईज गृहस्थ सरीषा जाणिवा ॥
श्रीउत्तराध्ययने" सयं गेहं परिचन्ज, परगेहंसि वावडे ।
णिमित्तेण य ववहरई, पावसमणित्ति वुचई ॥१॥ आयरिय परिचाई, परपासंडसेवए ।
गाणं गणिए दुब्भूए, पावसमणित्ति वुच्चई ॥२॥" इत्यादिवचनात् ।। आपापणा आचार्य छोडी गच्छ परंपरा छांडो जुआ २ गच्छ थया क्रोधादिवशथकी । ते किमप्रमाण करियइ ॥ श्रीउपदेशमालायां
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १७७
"जे घर सरणपसत्ता, छकायरिऊ स किं चणा अजया। नवर मुत्तणघरं घरसंकमणं कयं तेहिं ॥१॥" तथा-पष्टिशतके
"सो न गुरू जुगपवरो, जस्स य वयणमि वट्टए भेउ । चिइ भवण सड्ढगाणं, साहारण दव्वमाईणं ॥१॥ गुरुणो भट्टा जाया, सड्ढे थुणिऊण लिंति दाणाई। दुन्निवि अमुणियसारा, दूसम समयंमि बुडंति ॥१॥ "
श्रीआवश्यकनियुक्तौ-- " जे बंभचेर भट्टा, पाए पाडंति बंभयारीणं । ते हुति टुंटमुंटा, बोही य सुदुल्लहा तेसि ॥१॥"
श्रीगच्छाचारप्रकीर्णके"अत्थेगे गोयमा पाणी, जे उम्मग्गपइटिए । गच्छंमि संवसित्ताणं, भमई भवपरंपरं ॥११॥ कुलनाइ नगररजं, पयहिय जो तेसु कुणइ ममत्तं । सो नवरि लिंगधारी, संजमसारेण निस्सारो ॥१॥ इत्तोणागयकाले, केई होहंति गोयमा सूरी। जेसिं नामग्गहणेवि, हुन्ज नियमेण पच्छित्तं ॥१॥"
ते सूरि केहा ॥ श्रीवीतराग भाषइ ते अन्यथा नहीं ॥ सूत्रमाहि बोल्यउं छइ, बिसहस्र वरससीम साधुनउ उदय पूजासत्कारनही ।। अनई ए घणा दीहाडाना मार्गना बोलणहार उदय पूजा लहइं छइ । तेहनइ जे गृहस्थ साधुकरी जाणइ छइ । तउ इम जाणियइ छइ, ते वीतरागना वचनमाहि नथी॥
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१७८
उत्सुत्रतिरस्कारनामा-विचारपटः
"जथ्य य गोयम पंचन्ह, कहवि सूणाण इक्कमवि हुन्जा।
तं गच्छं तिविहेणं, वोसिरिय वइज्ज अन्नथ्थ ॥१॥ सूणारंभएवित्तं, गच्छं वेसुजलं न वासिज्जा ।
जं चारित्त गुणेहिं । उज्जलं तं तु वासिज्जा ॥२॥"
खंडणी १ पीसणी २ चुल्ही ३ जलकुंभ ४ वुहारी ५ ए पांचमूना कहियइ ।। एतलामाहि पाणीना घडा मात्र जिहां दीसइ ते गच्छ वोसिरावी मुंकिवउ ॥ ए वीतरागनी आज्ञा ॥ तथा ऊजल वेसिई गच्छ न वासिवउ ।। ए जिनाज्ञा जे न मानइ ते दर्शन बाहिरि । पुढविदग-अगणिमारुय, वणस्सई णं तसाणविविहाणं मरणंतेवि न पीडा,कीरइ मणसा तयं गच्छं॥१॥ "जथ्थ य मुणिणो कयविकयाई, कुव्वंति निचमभुट्ठा।
तं गच्छं गुणसायर, विसंव दूरं परिवज्जए ॥१॥ आरंभेसु पसत्ते, सिद्धंतपरमुहे विसयगिद्धे । मुत्तं मुणिणो गोयम, वसिज्ज मज्झे सुविहियाणं ॥२॥"
। ए श्री वीतरागनी आज्ञा छः ॥
“इतिश्रीसुगृहितनामधेयश्रीसिद्धान्तरहस्यपारगामीपरमगुरुदेव प्रातःस्मरणीयबृहत्तपागच्छाधिराजयुगप्रवरश्रीजैनाचार्यश्रीपाचचंद्रसूरीश्वरेण लिखितोऽयमुत्सूत्र
तिरस्कारनामा-विचारपटः ॥ श्रीरस्तु ॥ वाच्यमाMनश्चिरं नन्चात् ॥ शासनाधीश श्रीवीरपरमात्मने
नमो नमः ॥"
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५२ मुं. परमगुरुदेवश्रीपार्श्वचंद्रसूरीश्वरविरचिताश्रीस्थापना पञ्चाशिका॥
जयइ जियाजियवग्गो, समग्गलग्गोवदंसियसमग्गो। संपावियलोगग्गो, वीरजिणो जणियसुहसग्गो ॥ १॥ नाणभरकिरणविदलिय,-अन्नाणतमस्स सुगुरुदिणमणिणो, । उदएणं मह विहसउ, निच्चं मणकमलवणसंडं ॥२॥ जिणवरपडिमाणं जो, बंदण आराहणा विसंवायं। जंपइ संपइ तं. पइ. भत्तिसरूवं परूवेमि ॥३॥ जिणआणा भंगभयं, जइ वि न होहि तं तस्स कि भणिमो । अथ्थि तुम्हाणं तब्भउ, तओवि तुम्हे तं समं सुणह ।। ४ ।। उद्देस समुद्देसा,-णुन्ना पुग्यो सुयंमि अणुओगो । मुत्तुण तिन्नि तुरियं, कस्साएसा कुणह कहह ॥ ५ ॥ " श्रीगुरुना भाष्या विना सूत्रार्थ आपणे छंदे कहेतां हित नथी. यदुक्तं-नियगमइ-विगप्पिय,-चिंतिएण सच्छंदबुद्धिरइएण । कत्तो पारत्तहियं, कीरइ गुरुअणुवएसेण ॥१॥" इय सच्चं जाणंता, वियख्खणा केइ समइगारविया । नंदिसुए पन्नत्तं, महानिसीहं न मन्नति ॥ ६॥ कवि लेहगकुलिहिय,-दोसविरुद्धं पयं पुरो काउं। जिणवयणाणुगयं पि हु, पयं न मन्नंति किं भणिमो ॥७॥ यतः श्रीमहानिशोथे"पुणोवि वीयरागाणं, पडिमाउ चेइयालए । पत्तेयं संथुणे
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१८०
श्रीस्थापना पश्चाशिका।
वंदे, एगग्गो भत्तिनिन्भरं ॥१॥" अइनिहोस एयं, न हु मनिज्झइ परस्स दोसेणं । कण्णे पुढे कडि चालणव, विउसाण नहु जुत्तं ॥ ८ ॥ अन्नंमि पए संके, दृसिज्झइ दोसदाणओ अन्नं । चरणामओय करहे, गयवरदहणं किमेयंति ॥ ९ ॥ निउणो जथ्थ ससंको, सहसा कारेण तं न दृसिज्झा। जं जं जिणआणाए, तं तं सव्वं पमाणिज्झा ॥ १० ॥ अहवा चिहउ एवं, जे सच्चं तस्स सख्खिया बहवे । ताणताण य सिढिलो, लोए भणिओ सुहसहावो ॥११॥ अह जाणित्त परिन्नं, परस्स जिणपडिमहीलणासन्नं । तबावत्तिकएई, किंपि परूवेमि नेहेण ॥ १२ ॥ अंगाणि उबंगाणि य, महापुब्बनिसीहवज्झिया छेया। नंदिअणुओगदारा, इयाय गंथा पमाणं भे ॥ १३ ॥ एए य जइ पमाण, एसिं कत्ता तुमाण सम्मविऊ । जइ सम्मविऊ तो मे, पमाणमम्हाणवि तउत्तं ॥१४॥ जं नाए सुय जिणहर,-भणणं तं तह विऊण जुत्तयरं । जइ जुत्तयरं तो जिण,-पडिमाइ जिणाण तुल्लत्तं ॥ १५ ॥ भणियाउ अंगुवंगे, छत्ताइणं घराण पडिमाओ। जाओय जिणं भत्ती, पंजलिउड-सेवमाणीओ ॥ १६ ॥ देवच्छंदित्ति तहा, धृवं दाऊण जिणवराणं च । जिणउस्सेहत्ति पयं, किमजुत्तं तं व जुत्तयरं ॥ १७ ॥ जइ जुत्तं ता मन्ने, जिणपडिमा जिणवराण तुल्लत्तं । अयंच सुत्त कारय, चित्ता-भिप्पाय भणिएण ।।१८।। जिणपडिमाणं विरहे, जिणाण सढीण वितनावेण । जाणव असरिसभावं, जस्सुवएसेण तं कहह ॥१९॥ तथाच-सक्कथ्थवाइ भणणं, अन्नेसिं चेइयाण
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्ररि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५२ मुं १८१
नहु अथ्थि । अरिहंतचेइयाणं, जिणव्व थुइ मंगलं तुल्लं ।।२०।। जं तो तिहिं जिणाणं, हियमुहनिस्सेहसाणुगामित्तं । जाणिज्झइ भासिज्झइ, तहेव तच्चेझ्याणपि ।। २१ ।। इट्टी सुरलोयंमिय, जिणपडिमाण जिणेहिं जा भणिया। सा चेव जिणवराणं, चेइयरूखा हि नाणाइ ।। २२॥ उत्पन्नकेवलाणं, कीरइ देवेहि सत्तिभत्तीहिं । चेइयजिणाण एवं, जिणभलाणं समो रागो ॥२३॥ तथाच चरियाणुवायठाणा, पुचि महिया मुरेहिं बत्तीस । विहिवाया नमणिज्झा, पुव्वं पच्छा दुवे तथ्य ॥२४॥ सम्मदिठिमुराणं, मिच्छा नाणं न जुज्झए वुत्तुं । जिणभत्तिमया णंता, थुणंति थुत्तेहिं कहमेनं ॥ २५ ॥ जइ पुग इह लोगहो, जिणपडिमा संथवं च मन्नंति । मुत्तसन्ना अमुत्ते, कुणंति थुइमंगलं केसि ॥२६॥ हियसुहपएहिं सरिसं, धण जिणपडिमाण जे फलं विति । भासग मिच्छा सम्म-नाणपहं ते न चिंतति ।। २७ ।। जं मिच्छा तस्स सुए, पए पए अथ्थि पयडपडिसेहो । जं सम्मं जिणदिष्ट, विहिवाया सेवणं तस्स ॥ २८ ॥ वेयावञ्च थुइमंगलं च, दुन्निवि भणितु विहिवाया । जइ जिणपडिमा निव्वुइ.-पहउ निवारणं भणिया ॥२९।। ता एस सचं किज्झइ, तेहिं नायं जगति विख्खायं । अप्पा रुढा साहा, मोडिज्झइ किमिह कुसलेहि ॥३०॥ तथा चसकहा-सहासियाण, देवाणं जिणवराण भत्तीए । नो विसयसेवं वुत्ता, विवाहपन्नत्ति अंगंमि ।। ३१॥ जिणसकहा जिणपडिमा, जिणवरनामाणुराग नमणिज्झा । जाणामि तेण तेसिं,
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श्रीस्थापना पञ्चाशिका ।
सम्मत्तं सुगुरुवयणेणं ॥ ३२ ॥ तथा - अणुओगदार भणिया, सत्त समासा समत्त सद्दाणं । दुति च पंचाई पय, संजुत्ता ते हि किज्जैति ॥ ३३ ॥ अरिहंता भगवंतो, तेसिं जं चेइयाणि समयमि । अरिहंत चेइयाणि य, एस समासो य तप्पुरिसो ॥ ३४ ॥ पंचम अंगे भणिए, भिन्ने इह अरिहचेइयाणित्ति । सद्दे सुणित्तु सुणिया, पडिमा जिणमय महणिज्झा || ३५ ॥ चेइवैदणसद्दो, अथिथ उवंगंमि ( श्री जीवाभिगमउपांगे ) जस्स अहिगारे । तथ्येव चेहयाई, चारणसमणा पणिवयंति ॥ ३६ ॥ नंदणवर्णमि पंडगवणंमि, तह चेहयाई वंदति । पंचम अंगे एयं, सत्ता पडिमाणुवंगंमि (जंबूदीवपन्नति उपांगे ) ॥ ३७ ॥ वंदति चेइयाई, इह जं भणियं जिणेहिं तथ्येव । तस्सुत्तरं उवंगे, ( उवाइ उपांगे ) चंपापुर वन्नगे जाण ।। ३८ । तथाअरिहंत चेइयाणं, वंदणयं अंबडस्स विहिवाया । उववाइए उवंगे, नायं जिणवीर भणियंति || ३९ || चेइय वेयावचं, दसमे अंगे जिणेहिं पन्नत्तं । विहिवाया ता जाणह, गुणाण उटंभणं एयं ॥ ४० ॥ तथाच - गुरुणोय अणापुच्छा, पुव्वं न हु किंपि कप्पड़ जड़णं । एवं भणियं सुत्ते, असद्दहंताण मिच्छतं ॥ ४१ ॥ आवस्सिया निसीही, अणुजाणण मुग्गहस्स तह काउं । निख्खमणं च पवेसे, भंतेत्ति भणित्तु जं करणं ॥ ४२॥ निंदण गरिहण आलोयणाइ, तह वंदणं पडिकमणं । इच्चाइ अप्प - माणं दीes विरहे विणा ठेवणं ॥ ४३ ॥ आवस्सयस्स करणे, जे पुण किज्झति बारसावत्ता । तत्थ य कायष्फासो, गुरुं विणा
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५२ मुं १८३ पुत्तियाइणं ॥४४॥ जइ पुत्तियाइ फासो, सो खमणिज्झो कहिज्झए कस्स । जइ खमणिज्झो ठहिउँ, तो गुरुठवणावि निभंतं ॥ ४५ ॥ वायणपमहो भणिओ, जिणेहि मणिणा अबस्स करणिज्झो । पंचविहो सज्झाओ, कम्माणं निज्झराए ॥ ४६ ॥ तथ्यवि पुथ्थयपुरओ, किन्झइ सिख्खिय ठियाइ गुरुवझं । एवंपि कीरमाणे, भावावस्सयमिणं मुणह ॥ ४७॥ थुइ मंगल बंदण वायणाउ, आवस्सयत्ति मन्नेह । दुन्हं ठवगायरणं, तइयस्स कहं तु पडिसेहो ॥४८॥ ठविउण उत्तरिझं, सनाममुई तहेव समणस्स । जिणवीरस्स समीवे, पडिवज्झिय धम्मपन्नतिं ॥४९॥ विहरइ एगग्गमणो, नामेणं कुंडकोलिओ एवं । सत्तमअंगे दिस्सइ, किरिया गुरु ठवण अहिनाणं ॥५०॥ जइ नणु न होइ ठवणा, ता कीस सुरेण धम्मविग्धकए । सा चेव झत्ति गहिया, वीरयबलनिरहिलासेण ॥५१॥ विहिए निपिपसिणे, तथ्थेव ठवित्तु तं गओ अमरो । एएणं संभवेणं, जिणगुरुठवणा पमाणं मे ॥५२ ।। वेद मुणि तिहि१५ सुवरिसे, (१५७४ ) पंडियसिरिसाहुरयणसीसेण । पासचंदेण विहिया, ठवणा पंचासिया एसा ॥५३॥ इति स्थापना पंचाशिका संपूर्णा ॥ संवत् १५७४ वर्षे । ज्येष्टमासे चतुर्थी तिथौ शनिवारे लिखिता पार्श्वचंद्रेण सा. नाडूपुत्र सा. सधारणपठनाथ ॥ श्रीः॥
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं,
परमगुरुदेवश्री पार्श्वचंद्रसूरीश्वरविरचितश्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
अनु. क. प. पू, आ. श्रीसागरचंद्रसूरीश्वरजी महाराज
[श्री सामाचारी समाश्रित-सप्तपदीशास्त्रनी अंदर बधी थइने २८७ प्राकृत गाथाओ छे, अने ७० मी गाथा बे छे. ते गाथाओनो विषय जाणवानी खातर संक्षेपथी गुजराती भाषामा अनुवाद-अर्थरूपे प्राकृत-संस्कृत भाषाना अजाण पण आ ग्रन्थनो कांइक लाभ लइ शके ए हेतुथी अने केटलाएक भावुक आत्माओनी प्रेरणा थवाथी पू.आ. श्रीसागरचंद्र सूरिजोए गुजराती भाषानुवाद करेल छे. ते आ छापवामां आवे छे.]
॥ अहम् ।। प्रथम इप्रदेवने नमस्कार करी ग्रन्थकार वस्तनिर्देश करे छ:-अमरेन्द्र अने नरेन्द्रथी सेवाएला छे चरणयुगल जेमना एवा श्रीवीरजिनेन्द्रने नमस्कार करी साधुनी समाचारी सूत्रानुसारे कहीश. सात द्वारना नाम :
१-गच्छनी मर्यादा, २-संभोग-असंभोगनो विधि, ३-मुनियोनी दिनचर्या, ४-पांचे प्रतिक्रमणनो विधि, ५उदयतिथिर्नु स्वरूप, ६-श्रावकना उपधाननो विधि, ७-अने
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. आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं १८५ उपदेशनो विधि, सूत्रानुसारे सुगुरुना मुखवचन सांभळीने हुँ कई छ. गाथा १ थी ३.
प्रथम गच्छमर्यादा हारः-श्रीवीरस्वामीना अगियार गणधर अने नव गच्छ हता. गणनो अर्थ गच्छ थाय छे. गण अने गच्छ ए बन्नेनो एकज अर्थ छे. सात गणधरो सात गणने वाचना आपता अने पाछला बे गणनी अंदर एक एक गणने बेबे युगप्रधान गणधर वाचना आपता. एम गणधर अने गच्छनी संख्या जाणवी. आ बीना श्रीकल्पसूत्रमा जणावेल छे. ४-५ वाचना भेदे गणभेद छतां एक संभोग, ए प्रथम भेद श्रीदशाश्रुतस्कंधन आठप्तुं अध्ययन श्रीकल्पसूत्र, तेमां अने एक गण छतां समाचारी भेदथी असंभोग ए बीजो भेद श्रीनिशीथ चूर्णिमां बतावेल छे. ६ ___ हाल विचरतां सर्वसाधुओ एक गणना छे, ते जणावे छः-हालमां विचरतां सर्व मुनिओ श्रीसुधर्मस्वामीना शिष्यो छे, बाकोना दशे गणधरो शिष्यसंतति विनाना मोक्षे गया छे.७ ए कारणे श्रीसुधर्मा स्वामिना गच्छना थइने परस्पर असंभोगी अने जुदा आचारवाळा केम थाय? ते संबंधीनुं स्वरूप बतावेल छे. ८ गणनिश्राविना साधुओनो धर्म न प्रवर्ते ते जणावे छे:-जिनेश्वरोए मुनिओना पांच निश्रास्थान-आलंबन कह्याछे. श्रीठाणांग सूत्रना पांचमां ठाणे, तेथी साधुओ गणनिश्रामा वर्तनारा होय छे. ९ श्रीठाणांगसूत्रना चोथाटाणामां तथा श्रीव्यवहारसूत्रमा श्रीजिनाज्ञारूपधर्म अने पोताना गच्छ
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१८६
श्रीसप्तपदीशाख-गुजरातीभाषानुवाद.
नी मर्यादा, तेनी चोभंगी बतावेल छे, तेमां जिनाज्ञा सहित गच्छमर्यादा रूप चोथो भांगो वखाणेल छे. १० अथवा जिनाज्ञाविरुद्ध गच्छ मर्यादाने छोडी श्रीजिनाज्ञाने अनुसरनारा जे मुनिओ व छे, ते मुनिओ निन्दवा लायक नथी, एम श्रीगच्छाचार पयन्नामां बतावेल छे. ११ वळी जे पूर्वे सेवेली गच्छमर्यादा छोडवा समर्थ नथी अने सुधर्मने निंदता नथी, ते पण जिनाज्ञा आराधक जाणवा. ए बीना व्यवहार सूत्रनी वृत्तिमा पूर्वाचार्योए जणावेल छे. १२ जे गच्छ मर्यादा श्रीजिनेश्वरदेवे कहेल अने श्रीगौतमादि धीरपुरुषोए सम्यक प्रकारे सेवेल, ते गच्छमर्यादा ओलंघवी न जोइए. ए प्रकारे श्रीमहानिशीथ सूत्रमा कहेल छे. १३ सम्यक् दर्शनमां रक्त, चरण सत्तरी अने करण सत्तरी संबंधि गुण ग्रहण करवामां उजमाळ, आगम मर्यादा सेक्वामां तलालीन अने संसारना भयथी डरनारा मुनियो भाग्यशाळी जाणवा. १४ श्रीवीरजिनेश्वरे गौतम स्वामी प्रमुखोने आ प्रकारे कर्तुं छे-हे गौतम ! मारा शासनमां बारसो पचास कांइक अधिक वर्ष गए छते साधुओमां परस्पर भेद पेदा थशे, घणा कुगुरुओ थशे. अहंकारी ममकारी रिद्धिगारवी रसगारवी सातागारवी थशे,घणा कषायी 'अमे साचा' एम बोलनारा थशे. नथी जाण्यो सिद्धान्त सद्भाव जेमणे एवा आचार्यों थशे, हे गोतम! कॉइकज सन्मार्गी थशे; ए प्रकारे जाणो, एम श्री महानिशीयसूत्रमा कर्तुं छे. १५-१६ तेथी हाल जुदा जुदा गच्छोमां
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. १८७
जुदो जुदो आचार देखाय छे, तेमां पण जे जिनेश्वरनां वचनानुसारे होय ते प्रमाण के, एम श्रद्धा राखवी. गच्छाचार करे छे अने पोतपोताना गुरुए आचरेल छे एम बोले छे, तेओ सूत्र ने दूषित करता नथी अने जिनधर्मने शोभावे छे. एम श्री गच्छाचारपयन्नामां कहेल छे. १७-१८ जे वळी गच्छाचारने मानीने सूत्राचारनी हीलना करे छे, तेओ जिनेश्वरोनी हीलना करे छे, अने पोताना गच्छनेज माने छे. १९ सूत्र, अर्थ, ग्रन्थ, निर्यूक्ति अने संग्रहणी, ए प्रवचन- सिद्धान्तनी पंचागी जाणवी. एना अनुसारे सर्वग्रन्थो अने अर्थों मने प्रमाण छे. आ बीना श्रीसमवायांग सूत्रमां, श्रीनंदीमू
मां ने श्रीपाक्षिकसूत्रमां कहेल छे. २० पूर्वाचार्याए अग्यार अंगसूत्रनी वृत्तियोमां ठेकाणे ठेकाणे सूत्रानुसारी जे अर्थ होय तेज ग्राह्य-स्वीकार्य छे, एम कहेल छे. बळी नवांगी वृत्तिकारक श्री अभयदेव सूरीश्वरे पण श्रीभगवती सूत्र वृत्तिने विषे 'जे मत आगमने अनुसारि होय तेज स्वीकारखं अने ते सिवायनाने उपेक्षा करवी ' एम फरमावेल है. २१ हालमां विचरतां सर्वसाधुओ श्रीसुधर्मस्वामिना वंशपरंपराना छे, तेथी श्रीसुधर्म स्वामिनी कहेल समाचारी जणावे छे - श्रीवीरतीर्थनाथना चरण भक्त पांचमां गणधर, तेमणे जे समाचारी बतावी ते शुद्ध जाणवी. श्री उत्तराध्ययन सूत्रमां साधुओनी दश प्रकारनी समाचारी सर्वदुःखोनुं नाश करनारी संसारसागरथी तारनारी बतावी छे ? – आवस्सिया, २- निसीहिया, ३
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१८८
श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
आपुच्छणा, ४-पडिपुच्छणा, ५-छंदणा, ६-इच्छाकार, ७मिच्छाकार, 6-तहकार, ९-अभ्युस्थान, १०-उपसंपदा. २२
प्रथम समाचारी आवस्सइ-अवश्य कारणे उपाश्रयथी बाहार निकलतां 'आवस्सई' कहेवी; अने उपाश्रयनी अंदर प्रवेश करती वखते सदाए 'निसीहि' एम कहेवं ते बीजी समाचारी जाणवी. २३ काउसग्ग, तप अने सज्झाय अथवा बीजं कंइ पण कार्य करतां गुरुने पुच्छीने पछी करे, ते त्रीजी आपुच्छणा नामनी समाचारी जाणवी. २४ चिन्तवेल कार्य करतां तेमां कंइ पण बीजं कार्य उत्पन्न थयुं ते करवा सारुं फेर गुरुने पुच्छे, ते चोथी पडिपुच्छणा समाचारी जाणवी. २५ आहार तथा वस्त्रादि द्रव्योथी अनुक्रमे गुरु तथा सार्मिक वर्गने विनयवडे निमंत्रणा करवी. ते पांचमी छंदणा नामनी समाचारी जाणवी. २६ क्यांय पण कंइ पण शिष्योनी थती भूल जाणीने सुगुरुओ धार्मिक प्रेरणापूर्वक याद करावी फेर नहिं करवा सूचन करे त्यारे शिष्यो खुशी थयाथका कहे के आपनी हितशिक्षाने अमे इच्छिए छोए, अमने सारणा करवाथी आपे अमारापर अनुग्रह को एम बोले, ते छठी इच्छाकार नामनी समाचारी जाणवी. २७-२८ ।
हा! आ में खोटुं कर्यु, एम पोताना अनाचारने निन्दतो जे मिच्छामि दुक्कडं आपे छे, ते सातमी मिच्छाकार नामनी समाचारी जाणवी. २९ सज्झायमां अथवा वैयावचमां के कोइ पण कार्यमां गुरुओए शिष्योने हुकम कर्यो, त्यारे
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं १८९
'तहत्ति' करी स्वीकारी ले, ते आठमी तहत्ति नामनी समाचारी जाणवी. ३० गुरुदेवने जोइ उभा थयुं, अंजली करवी, सन्मुख जवं, रजोहरणे करी चरणनी शुद्धि, विधिपूर्वक गुरुपाद प्रमार्जवा, कांबल अने दंड ग्रहण करवु, आसननी रचना करवी अने विनयथी वर्ततुं, ते नवमी गुरुपूजा नामनी समाचारी जाणवी. ३१-३२. ज्ञान ग्रहण करवा सारुं बीजा गच्छना आचार्य पासे जहने आटलो काळ हूं आपनी पासे रहीश, एम कहीने रहेनुं, ते दशमी उपसंपदा नामनी समाचारी जाणवी. आ दशे प्रकारनी जिनेन्द्रे कहेली समाचारी आदरपूर्वक सहहवा योग्य छे. ३३-३४. आ समाचारीने विधिपूर्वक गच्छमां जे प्रवर्तावे, ते आचार्य सुगुरु, पोते तरे अने बीजाओने तारे. ३५ जे आचार्य गुरु प्रमाद दोषे करीआलस्ये करी के भयथी शिष्य वर्गने प्रेरणा न करे, तेणे आणा विराधी, एम जाणवु. ३६.
हवे मुनिओनी दिन - रात्रि चर्या बतावे छे:- अथ साधुओनी दिवस तथा रात्रि संबंधि करवानी क्रिया श्री जिनेवरना सूत्रानुसारे पूर्व महापुरुषाए आचरेल अने गुरु उपदेशथी जेम सांभळेल छे, तेने हुं कहीश. ३७ फैलाएल सूर्यप्रभा - कान्तिना प्रभावे करी कमलवन विकसित थए थके. अंधकार समूह नाश थए थके, नष्ट तेजवाळो तारानो गण थ थके अने सूक्ष्म हाथरेखाओ देखाए थके एवा प्रभातना समयमा बे खमासमण आपी पडिलेहणा करे. ३८-३९
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१९० श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद. खमासमण देइने "इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् पडिलेहणं संदिस्सावेमि, इच्छं.” तथा फेर खमासमणो देइने " इज्छाकारेण संदिस्सह भगवन् पडिलेहणं करेमि" एम बोली विधिपूर्वक मुहपत्तिनी २५ पडिलेहणा होनाधिक विना करवी अने पच्चीस पडिलेहणा शरीरनी करवी. पादपोंच्छन, रजोहरण, निसिद्या अने खोमीइय एटलावानानी पडिलेहणा प्रथम आदेशे करवी. ४०-४१ पछी बळी गुरुओनी पासे बे खमासण दइ विधिपूर्वक अंग पडिलेहण करे, तेमां चोलपट्टानी पचीस करे. ४२ बळी गुरुओनी भक्ति अथै एक खमासमण दइ बोले " इच्छा कारेण संदिस्सह भगवन् पडिलेहणा पडिलेडावाजी" एम आदेश मागी मुनि मंडलीमा मोटा होय ते स्थापनाचार्यनी यतनापूर्वक पडिलेहणा करे अने बीजा अनुक्रमे गुरुओना विनयने करे एटले नाना मोटाना वस्त्रनी पडिलेहणा करे. ४३-४४ पछी बेखमासमण आपीने दंडपर्यन्त सर्व उपधिने पडिलेहोने फेर एक खमासमण आपीने " इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् ! वसहिं पमजमि" एम बोली शुद्ध यतना पूर्वक कोमल दंडासणथी वसतिनी प्रमार्जना करे, काजो ले, त्रीजो अंग श्री ठाणांग, तेना पांचमां ठाणामां काजो लेवाना पुच्छणा पांच प्रकारना बतावेला छे, तेमांनां कोईथी मुहपत्तिथी मुखढांकीने, रज उडी नाक अने मुखमां न पेसे एवी रीते मुनिओ वसतिने पुंजे. ४५ थी ४७ काजाने तपासी, षट्पदी विगेरे जीवोने उद्धरी, सुगुरुना वचनथो
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. १९१
जुदा पाडी, साधुओने समर्पण करी, सेस बाकी रहेल काजो जंतु रहित विशुद्ध भूमिमां परठवीने गुरु आगल आवी इरियावहियं पडिक्कमी आलोयणा करे. ४८-४९ गुरुने पुच्छी वसतिनी चारे बाजु यावत् शो हाथ सुधी जोइ जाणीने 'शुद्धावस' एम कहे. ५० त्यारबाद कालग्रहण करी विधिपूर्वक सज्झायने पठावी गुरुथी अनुज्ञा कराएला पाँच प्रकारनी सज्झायने करे. ५९ त्यां सुधी के यावत् दिवसनो चोथो भाग पोरसी काळमां कांइक न्यून थाय ( रहे ) त्यारे मोटा नानानां क्रमे करीने जे नाना शिष्य होय, ते उठीने एम बोले " हे भगवन् ! उघाडा पोरसी" त्यारे सर्व साधुओ पण उपयोग वाळा थाय, पछी विनयपूर्वक पोतपोताना आसनथी उठीने गुरु पासे आवी एक खमासमण आपीने इरिया वही पडिक, खमासमण दइ मुहपत्ति पडिलेहण करे, पछी खमासमण दइ बधाए बोले 'इच्छा कारेण संदिसह भगवन् ! भंडोवगरण पडिलेहणं संदेसावेमि, बोजे खसासमणे भंडोवगरणं पडिलेहेमि. आ बीना श्री उत्तराध्ययनना छatani अध्ययननी बावीसमी गाथामां छे. ए प्रकारे वचन बोलीने भाजन निश्रित सात उपकरणोनी भंडक पडिलेहणा तथा प्रकारे करे. १ - पात्र, २- पात्रबंधन, ३ - पात्रने स्थापन करवानुं वस्त्र, ४- पोंजणी, ५ - पडला, ६ - पात्रने ढांकनानुं वस्त्र, अने ७ - गुच्छा. ए संबंधी श्री उत्तराध्ययन सूत्रना छवीशमां अध्ययननी गाथा २३ थी ३१ सुधीमां विस्तारे
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१९२
श्रीसप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुवाद.
विधि बतावेल छे. ए आगम वचनो प्रमाणे पडिलेहणा करे. ५२ थी ५५. पडिलेहण कर्या पछी काळवेला जाणीने दर्शन करवा माटे जिनालयमा जइ भक्तिपूर्वक श्री जिनप्रतिमाने वंदन करे. ५६ जिनालयना अभावे पूर्व अथवा उत्तरदिशी सन्मुख रही स्थापना राखी श्री जिन प्रतिमाओनुं वंदन करे. श्री अनुयोगद्वार सूत्रमां दश प्रकारनी स्थापना बतावेल छे, ते मांहेथी कोइनी पण स्थापना करे. ५७ आ आगमसिद्धान्तना अक्षरो होवाथी स्थापना अरिहंतने स्थापी वंदन करे, तेनो विधि जे जे आगमोमां बतावेल छे, ते कहे छे
छेद ग्रन्थ प्रवरश्री महानिशीथ सूत्रमां कहेल छे के स्तव, स्तुति विधिए करीने भावनायुक्त थयो थको त्रिकाळ श्री जिनेन्द्र प्रतिमाने वंदन करे तथा श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्रमां तेमज बीजा त्रिजा उपांगमां, श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्तिमां अने श्री विवाहपन्नति आगमोमां जेम कहेल छे तेम करें. श्री रायपसेणी उपांगमां तथा श्री जीवाभिगम उपांगमां अर्थयुक्त, पुनरुक्त दोषे रहित एवी १०८ स्तुतिए करी श्री जिन प्रतिमानी स्तुति करी विधिपूर्वक 'नमोत्थु थी वंदना करे. एवी रीते ज्ञाताधर्मकथांग, श्री भगवतीजी, श्री जंबुद्वीपप्रज्ञप्तिमां तथा श्री रायपसेणी सूत्रमां सूर्याभदेवनी उपमाए पूजा तथा चैत्यवंदनादि सर्व जाणवु. ५८ थोइओ ऊभे बीलीने अने शक्रस्तव विधिथी बेसीने बोलवु काउसम्गनो अंतर करी rts बोलवी नही, अने लोकिक देवदेवीनी थोड़ बोलवी नही,
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. १९३ एवी रीते सत्रमा बतावेल विधिए चैत्यवंदन करवं. जे कारण माटे गच्छाचरणाए जुदी रीते पण देखाय छे, ते जाणवू जोइए. ५९-६०. आठ थोड़, पांच शक्रस्तव, काउस्सग्ग अने साथे लोकिक देवदेवीओनी थोइओनो पाठ करवो ए प्रकारे, चैत्यवंदन सूत्र-सिद्धान्तमा नथी. ६१. ज्ञान अने अविरत देवोमा चैत्य शब्द सूत्रनी अंदर संमत नथी, तेमनो वाचक नथी अने ज्ञानने के देव-देवीओने अरिहंतपणुं संभवतुं नथीज. ६२. तेथी चैत्यवंदनना समयमां एओनो अहि अधिकार नथी. प्रथम उपांग श्री उबवाइ सूत्र, त्रीजो अंग श्री ठाणांग सूत्र अने पांचमो अंग श्री भगवतीजीसूत्र, तेमां दश प्रकारना प्रायश्चित्त बतावेला छे, तेना नाम १-आलोयणारिहे, २पडिक्कमणारिहे, ३- तदुभयारिहे, ४-विवेगारिहे, ५-विउस्सग्गारिहे, ६-तवारिहे, ७-छेदारिहे, ८-मूलारिहे, ९-अणवठ्ठ
पारिहे अने १०-पारंचियारिहे. तिहां काउस्सग्गने प्रायश्चित्तं पांचमो कहेल छे, अने प्रायश्चित्त क्षय स्थानमां (एटले दोपने दूर करवामां) आवे, इहां (देववंदनना अधिकारमां) शुं मायश्चित्त आवे ? अर्थात् न आवे. तो पछी काउस्सग्ग देववंदनना अधिकारमा केम थाय ? अर्थात् न थाय. पछी आग्रह रहित गीतार्थो-सूत्र अर्थना जाणकार जे कहे तेज प्रमाण. ६३-६४ सुत्रमा कहेल तेने छोडीने पूर्वाचार्योए कोइ पण कारणे ए आचरेल छे,शुं कारणे ए आचरेल छे,तेनुं तत्व तो तेओज जाणे. ६५.पण जे भावशुद्धिए आगममां बतावेल विधिपूर्वक देववंदन
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१९४ श्रीसप्तपदीशान-गुजरातीभाषानुवाद. करे छे, तेओनी जे हीलणा करे छे, ते हीलणाशुं युक्त छ ? ते तमो कहो. ६६. श्रीजिनेंद्र प्रतिमाओनुं वंदन करी, मध्याकाळे त्रीजी पोरसी प्राप्त थए थके दोषरहित भात-पाणीनी गवेषणा करे. ६७. वळी गोचरी जवाना काळे उपयोगर्नु काउ. स्सग्ग करीने बोले (श्रीव्यवहारसूत्रनी वृत्तिमा गोचरीना काळे उपयोग करवानो विधि बतावेल छे.)
हे भगवन् ! भात-पाणी हुं ग्रहण करीश, एम कहीने आवस्सइ एम बोले, त्यारे गुरुओ पण तेओने आ प्रकारे आदेश करे के जेम पूर्वना साधुओए ग्रहण करेल छ, तेम सूत्रविधिना उपयोगे ग्रहण करजो. श्री उत्तराध्ययन सूत्रना २६ मा अध्ययननी ३२-३३ मी गाथामां गोचरी ग्रहण करवानो विधि बतावेल छे. जोके त्रीजी पोरसीए भात-पाणी ग्रहण करवानुं का, पण ते मगध देशनी अपेक्षाए जाणवु. गीतार्थों क्षेत्र काळनी अपेक्षाए बीजी रीते पण प्रवृत्ति करे छे, तेमा दोष नथी. ६८-६९. उद्गमदोष रहित, उत्पादना दोषरहित अने एषणाशुद्ध एवं आहार ग्रहण करे. सर्व उपगरणने लइ अडधा योजन पर्यन्त गोचरी माटे जाव आव करी शके. ७० हवे भोजनना विधिने कहे छे-श्रीदशवकालिक सूत्रना पांचमां पिंडेषणा अध्ययननी गाथा ८२ थी ९७ सुधीमा जे विधि बतावेल छे ते प्रमाणे जाणवु. जे संयोजनादि पांच मांडलीना दोषोथी रहित शुद्ध मनवाळो थयो थको आहारने करे, ते श्रमण कहेवाय छे, एम जाणवू. ७०.
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. १९५
श्री उत्तराध्ययन सूत्रना छवीसमां अध्ययनमां बतावेल छे केसाधु-साध्वीओ छ कारणे आहार पाणीनी गवेषणा न करे, ए बीनाने जाणतो. वळी श्रीसिद्धांत ( श्री उत्तराध्ययन सूत्रना चोवीसमां अध्ययननी गाथा १७-१८ मी) मां बतावेल (अनापात, असंलोक विगेरे रुडा दश गुणवाळी ) tfse संबंधी शुद्धि करीने अने तृण, दगल विगेरे ग्रहण करी उच्चारादिने परवे. एज भाव श्री आवश्यक वृत्तिमां छे. ७१. दिवसे उत्तर तरफ अने रात्रे दक्षिण तरफ मुख राखी जतनापूर्वक बेसी साधु वडीनीत तथा लघुनीतनी वाघाने टाले. ७२. चोथी पोरसी प्राप्त थये उठीने वंदन करो खमासमण आपी बोले पडिपुन्ना पोरसी ! ए प्रकारे सांभळी सर्वे वे खमासमण विधिपूर्वक आपीने "भंडनिरूखेवं संदिसह भंडनिखेवं निखिखवामि " एम बोली पोतपोताना भांड उपकरणाने स्थाने मूके. ७३-७४ पछी विनयपूर्वक वंदन करीने साधुओ अंगबाह्य, अंगमविष्ट अथवा कालिकभुत, उत्कालिक श्रुतनी स्वाध्यायने करे. यतः - श्रोउत्तराध्ययनसूत्रना छवीसमां अध्ययननी छत्रीसमी गाथामां कहेल होवाथी. ७५. ज्यां सुधी वे घडी न्यून पोरसी थाय त्यां सुधी गुरु सन्मुख स्वाध्याय करीने त्यार पछी पडिलेहण काळ जाणी विनयपूर्वक इरियावहि पक्किमिने पडिलेहणा करे, तेमां मुहपत्ति, देह, पायपुंछन अने त्यार बाद रजोहरणनी पडिलेहणा करे. त्यार पछी वे स्थोभ वंदणे करी अंगपडिलेहणा करे,
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
तेमां शरीर संबंधी वस्त्रोनी पडिलेहणा करीने त्यारबाद एक खमासमण आपीने हे भगवन् ! वसति प्रमार्जना करूं "वसहि पमज्जेमि एम बोलीने वसतीनी प्रमार्जना करे. पछी काजो लइ. एकठो करी जो, विगेरेनो विधि सवारना विधिनी माफक इरियावहि पडिक्कमवा सुधी जाणवो. ७६ थी ७९. आ बीना श्रीउत्तराध्ययन मूत्रना छवीसमां अध्ययननी साड त्रीसमी गाथामां बतावेल छे. त्यार बाद एक खमासमणो आपीने बोले " इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पडिलेहणयं पडिलेहेमि" मने पडिलेहणा पडिलेहावोजी, त्यार बाद स्थापनाचार्यनी प्रमार्जना प्रमुख विनय करे, पछी पांच नमस्कारे करी स्थापनाचार्यने यथास्थाने स्थापीने. ८०-८१.गुरुना गुरु स्थापनाचार्य अने शेषबाकीनानां गुरु जे विद्यमान धर्माचार्य होय तेज जाणवा, तेनी आगल सर्व अनुष्ठान करवं, ते प्रमाणभूत कहेल छे. कारणके पूर्वाचार्योनो आवो वचन होवाथी,-"आ उपदेश दर्शन शुद्धिना माटे छे. गुरु विरहमां स्थापना गुरु जाणवा, जेम श्रीजिनविरहमां जिनबिंब सेवनानी विचारणा सफल थाय छे." ८२. त्यार पछी सुगुरु महाराजना मुखथी सूत्रमा कहेल विधिने जाणीने द्वादशावर्त्तवंदनक दइने पच्चख्खाणने करे.८३. द्वादशावतं कृतिकर्म श्रीसमवायांगसूत्रना बारमा समवायनी अंदर बतावेल छे, त्यां श्रीअभयदेवमूरिकृत वृत्तिमा बीर्जु वांदणुं " पादपतित एव समापयति" चरणमां पडयो थको समाप्त करे, एम जणावेल छे. अने श्री
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं १९७
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आवश्यक नियुक्तिमां कहेल छ के-बाहेर क्षेत्रमा रहेल आज्ञा लइ अवग्रहमा प्रवेश करे, प्रवेश करी ज्यां सुघी अवग्रह खेत्रमा रहे त्यांसुधी मस्तके करी चरण फरसे, आवं वचन होवाथी, बीजे बांदणे उभु थq नही. गुरु चरण स्पर्शविना अवग्रहमां पण जे साधु उभो रहे, ते साधुने निश्चे गुरुनी आशातना थाय. ८४. श्रीदशाश्रुतस्कंध मूलसूत्रमा विस्तारपूर्वक तेत्रीस गुरु अशातना कहेली छे. बीजा सूत्रोमां पण बतावेल छे. ते दरेकना नाम आ प्रमाणे-श्री आवश्यक सूचना त्रिजा अध्ययनमा तेमज वळी तेनाज चोथा अध्ययनमां, तथा त्रिजा श्रीठाणांगसूत्र, चोथा श्रीसमवायांगसूत्र अने दशमां श्रीप्रश्नव्याकरण अंगसूत्रमा संक्षेपथी उपर प्रमाणे कहेल छे. ८५, ८६. प्रवचनमा बतावेल विधि क्रम प्रमाणे बीजं वांदणुं गुरु चरणमां पड्या थकां आप. जे बीजा अन्यथा करे छे, ते गच्छाचरणाथी करे छे, एम जाणवू. ८७. पछी उठीने प्रमार्जना करतो, अवग्रहमांथी बाहेर निकलतो 'आवस्सइ' एम बोलतो अने जे क्रिया करवानी होय तेनो आदेश मागे. ८८. वळी वंदन पूर्वक करेळ छे पञ्चख्खाण क्रिया जेणे एवो त्यारपछी बाकी रहेल औधिक अने औपग्रहिक उपधीनी पडिलेहणा करे. ८९. पछी आचायेने वांदिने “वसहि पवेएमि, थंडिलाइं पडिलेहेमि" एम आदेश मागीने वसति संबंधी शुद्धिने करे. ९०. बार पासवणना, बार उच्चारना अने छ काळ ग्रहणना एम त्रीस मांड
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१९८
श्री सप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुषाद.
लाने दृष्टिथी जो प्रमार्जना करे. ९१. जो के उपदेश मालादिकमांत्रण काल मांडला लखेला है, अने हाल सर्वसाधुओ ते छ करता देखाय ले. प्रादोषिक- अर्द्धरात्रिक दक्षिण- उत्तरमां अने वैरात्रिक- प्राभातिक पूर्व-पश्चिममां एम त्रण त्रण मांडला लखेला होवाथी छ थाय छे. पछी काळवेलाए पूर्वोक्त विधि प्रमाणे इरियावहि पडिक्कमीने श्रीजिनप्रतिमाओने वंदन करी गोचर चरियादिनो वोस करे. ९२. त्यारपछी एक एक मासमण आपीने आचार्य, उपाध्याय अने साधुओने थोभवंदनाए वंदन करे. त्यारपछी “ देवसियं पडिक्कमणं ठावेमि " एम बोलीने उभा थका हाथमां ग्रहण करेल छे रजोहरण जेमणे अने स्वीकारेल हे योगमुद्रा जेमणे एवा उत्सर्ग - कायोत्सर्गसूत्रोने बोले. ९३, ९४. हवे प्रतिक्रमणनो विधि सूत्र, नियुक्ति प्रमुख ग्रन्थोमां कहेल छे ते लखिए छीएश्री उत्तराध्ययन सूत्रना छवीसमां अध्ययननी गाथा ३८ थी ४२ सुधीमां विधि बतावेल छे. वळी श्री भद्रबाहु स्वामिकृत आवश्यक नियुक्तियां पांचमां अध्ययननी छ गाथाओमां पण एज विधि बतावेल छे. वळी श्री आवश्यक सूत्रनी बृहद् वृत्तिमां तथा आवश्यक चूर्णिमां विस्तारथी एज विधि बता - वेल छे. वळी श्री हरिभद्रसूरिकृत 'पंच वस्तुक ग्रन्थनी अंदर आ प्रकारे विधि बतावेल छे:- गाथा- ४४२ थी ४९० पर्यन्त लखेल छे अने तेमां विस्तारथी एज विधि बतावेल छे. विस्तारना भयथी तेनो अर्थ करेल नथी. जोवानी इच्छा
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. १९९
वाळाए मूलग्रन्थथी जोइ लेवुं. आवश्यक चूर्णिमां अने श्री हरिभद्र सूरिए रखेल आवश्यक वृत्तिमां उपर बतावेल जे प्रतिक्रमण विधि को छे ते असे संक्षेपथी को. ९५. अहिं देवसिय-राइय प्रतिक्रमणमां पांचमा अध्ययनमां त्रण वांदणा कहेला छे अने चोथा अध्ययनमा चार चांदणा कहेला छे. ९६. त्यां विचारणा छे -सूत्र कोने कहेवाय - गणधर रचित होय तथा प्रत्येक बुद्ध रचित होय तेमज श्रुतकेवळी रचित होय अने संपूर्ण दशपूर्वधर रचित होय तेने सूत्र कहेवाय छे. एम मलधारि श्री हेमचंद्र सूरिना शिष्ये रचेल संघयणीमां कहेल छे. तथा श्रीआचारांग सूत्रना चोथा अध्ययनमां hamatar ने केवलीना वचन समान कहेला छे. तेम श्रीनंदी सूत्र संपूर्ण दश पूर्वी विनाना वचनमां सूत्रनी भजना बतावेल छे. ए प्रकारे सूत्रना वचनथी चौद पूर्वी अने केवलीनुं कल सूत्र कहेवाय अने ते सूत्र अन्योन्य अविरुद्ध होय छे. ९७. आवश्यक लघु वृत्तिमां तथा बृहद् वृत्तिमां तेमज जीर्णनिर्युक्ति पुस्तकमां पण सेंकडो प्रक्षेप गाथाओ कहेली छे, तेथी आ गाथा पण तेवीज हशे ? एम संभावना थाय छे, कारण के परस्पर विरुद्ध होवाथी, पछी तो जेम गीतार्थी कहे तेज प्रमाण. श्री आवश्यकसूत्रमां तथा श्रीपाasaani कं छे के आज निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य छे, प्रधान छे, केवली कथित छे, संपूर्ण छे, मोक्षने आपनार छे, यावत्परस्पर अविरुद्ध छे, आवा
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२००
श्री सप्तपदीशास्त्र-गुजराती भाषानुषाद.
वचन होवाथी. आ वचनयो विरुद्ध देखाय छे. तेथी बे मतांतर मां श्रुतानुसारी एकनुंज वचन होय, एम जाणवु, अने तेज वचन प्रमाण जाणवुं. ९८. अहिं श्रीभगवती सूत्रनी वृत्तिमां जे प्रथम कहेल छे के जे मत आगमानुसारी होय तेज प्रमाण कारण के केवली भगवानोनुं मत एकज होय छे. श्री आवश्यक निर्युक्तिना चोथा अध्ययनमां एक गाथा आपेल छे, तेमां जणावे छे के चार वांदणा प्रतिक्रमणमां अने त्रण वांदणा सज्झायमा एम पूर्वाह्न अने अपराह्नना मली चौउद वांदणा थाय छे. जेणे चौउद वांदणा कथा तेणे तंत्रीस वांदणाने सूचन करनारा ग्रन्थो अमान्य राख्या के नहिं ? ते विचा खुं जोइए. पाउसिय अने अढरत ए वे काळ अदृरत्तमां छे अने वेरतिय ए त्रिजो अथवा प्राभातिक विजो, अने अहिं प्राभातिक चोथो, एम चार काळने विषे जो दरेकना त्रण aण वांदा अने दरेक सज्झायना एटलाज ऋण ऋण वांदणा अने बे प्रतिक्रमणना आठ अने सांजना पच्चख्खाण करती वेळा एक वांदणुं, ए सर्व मेलवीए त्यारे तंत्रीस वांदणा अहिं थाय छे. हवे क्यां तेंत्रीस अने क्यां दिवस - रात्रिमां चौउद, आ मोडुं आंत प्रत्यक्ष अहिं आ प्रकारे देखाय के. पछी तो जे पक्षपातरहितपणें गीतार्थी सारी रोते विचारीने प्रवचनेकरी शुद्ध सम्यक् प्रकारे प्ररूपे तेज निश्श्रेथी मने प्रमाण छे. ९९ थी १०३. वणा सूत्रोमां तेमज घणी वृत्ति अने चूर्णिओमां प्रणवदा कहेलां छे, तेने अप्रमाण केम कराय ?
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २०१
अने करतांने कोण निवारे ? ते कहो ? १०४. अथवा तो पच्छीथी कहेल होय ते बलवान जाणवू, पहेला चार वांदणा कयां अने पच्छी त्रण कह्यां ए कारणे, पच्छीथी जे कहेल होय ते प्रमाण छे. १०५. कारणके पूर्वोक्त अने परोक्तमा परोक्त विधि बलवान होय छे. वळी का छे केः-' सामान्यशास्त्रथी खरेखर विशेषशास्त्र बलवान होय छे, अहिं प्रायेकरी जुओ परशास्त्रथी पूर्वशास्त्रनो बाध थाय छे. ' आ वचनथी, तथा वळी 'प्रथम पदथी द्वितीय पद श्रेष्ट' ए वचनथी, ए प्रकारे पूर्वाचार्य कथित अक्षरोथी चार वांदणा दरेक प्रतिक्रमणमां एम कहीने फेर त्रण वांदणा देवानो विधि बताव्यो छ. ए कारणे बन्ने प्रतिक्रमणमा त्रण वांदणाज प्रमाण छे. पछी तो जे गीतार्थी कहे तेज सत्य जाणवू. ए प्रकारे प्रतिक्रमण करीने श्रुतभाषितविधिथी पाउसिय काळने ग्रहण करे अने वसति तथा काळनी पवेयणा करे. पछी उपयोगवाला थया थका ते साधुओ सज्झायने पठाविने सज्झायने करे प्रथम पोरसी सुधी, प्रथम पोरसी पूर्ण थइ एम जाणीने पछी एक साधु उठीने हे भगवन् ! बहु पडिपुन्ना पोरसी' एम कहे, एम कहीने गुरुने वांदीने मुनिओ चैत्यवंदन करे. पूर्वकाळने पडिकमी वळी विधि पूर्वक अट्टरत्तकाळ ग्रहणकरी सूत्रार्थ सज्झायनीज चिन्तवणा करे. धर्मध्यानमा रहेला, उपयोगवाळा अने गुरु समिपमा जेम अर्थ ग्रहण करेल होय, तेने तेम सर्वज्ञ भाषित भावता थका मुनिओ हृदयमा धारण
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२०२ श्रीसप्तपदीशाख-गुजरातीभाषानुवाद. करे. १०६ थी ११०. हवे रात्रिनो त्रिजो पहोर आव्ये छते त्रिजी पोरसीमां श्रीठाणांग सूत्रमा बतावेल धर्मजागरिकाने साधुओ करे. १११. मुनिओने रात्रिना चारे भाग--पहोर उत्तरगुणने करनारा छे. श्री उत्तराध्ययन सूत्रना छवीसमा अध्ययनमा एभ का छे के:-" रात्रिना त्रीजा भागमा निद्रानुं मोक्ष साधुओए करवू जोइए," ए तेमनी करणी छे. ११२. तेनी वृत्तिमा निद्दामुख्खो' शब्दनो अर्थ निद्रा करीने एटले पहेला पहोरने मुकीने बीजा पहोरोमां ते निद्रा करवी एम कहेल छे, ११३.जे सूत्रमा कहेल होय तेना अर्थनेज वृत्तिकार ज्यां स्मरण करावे, अथवा जणावे ते वृत्तिने सर्व कोइ तहत करीने माने छे. ११४. निश्चेशी क्यारे पण लेशमात्र पूर्वापर विपरीत सूत्र न होय, ए कारणथी निद्रा करवामां त्यां सूत्रमा विधि नथी. ११५. उत्तर गुण कहेल छे निद्रा मोक्ष अने धर्मजागरिका, एत्रणे मूत्रना पदो छे तेओनो अर्थ निद्रा न संभवे. ११६. जो विजा पहोरमां निद्रा करवी एम अर्थ होय तो तिहां 'निद्दा' ए पद होय, तो कोइ पण संदेह न थार, पण 'मुख्खो' ए पद छते निद्रानी भजना जाणवी. ११७. 'मुख्ख' पदना अर्थो:-मोकलं करवू-छोडवू अने त्याग करवू इत्यादि बीजा पण घणा थाय छे. इहां सूत्रोमां तथा वृत्तिओमा युक्तिपूर्वक सूचन कराएलां छे.११८. अत्रे एक शब्दना पण घणा अर्थों संभवे छे. सिद्धान्तना जाणकार सिद्धान्तना उचित-योग्यज अर्थनो सम्यक् प्रकारे प्रयोग
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २०३
करे छे. ११९. चालती बोनाने जणावे छे:-रात्रिना त्रिजा पोरसां - त्रिजी पोरसीमां निद्राने नहि करनारा मुनिओ, तेओने लोकमां ए शिथिलाचारी छे, एम कोइ पण कहेतो नथी. १२०. अने वळी बीजुं सूत्रमां पोरसी संबंधी कहेलुं कार्य जे न करता होय ते प्रमादी, शिथिलाचारी एम लोकमां पण कहेवाय छे. १२१. जिनेश्वरोनो उपदेशविधि निद्रा करवा संबंधी नथी. तेथी ते निद्रा न करवाथी दोष नथी. बीजा सिद्धांतोमां पण निद्रा करवानो प्रतिषेध बतावेल छे. १२२. प्रवचन - सिद्धान्तमां रहेला निद्रानिषेधना अक्षरो लखिए छीए: - श्रीउत्तराध्ययन सूत्रना छवीसमां अध्ययनमां जणावेल छे के:-" विचक्षण साधु रात्रिमा चार भाग करे अने रात्रिना चारे भागने विषे उत्तरगुणनी रमणता करे ? " हवे विचारवानुं के विजा पोरसां उत्तरगुण करवानुं बतावेल होवाथी निद्रा उत्तरगुण नथी, जे उत्तरगुण, ते कर्त्तव्य होय माटे, वळी श्री उत्तराध्ययन सूत्रना चोथा अध्ययनमां जणावेल छे के:- " द्रव्यथी निद्रायां सुतेला अने भावधी मोहनिद्रामां पडेला लोको होय त्यारे साधु सावधान रहे." तथा श्रीउतराध्ययनना दशमां अध्ययनमां स्थाने स्थाने " हे गौतम! समयमात्र प्रमाद न करीश !" ए प्रमाणे बतावेल छे. तथा वळी श्रीआचारांगसूत्रना लोकविजय अध्ययनना प्रथम उद्देशामां जणावेल छे के:- " हे मुनि ! अनादि संसारमां दुर्लभ आ अवसर पामी - विचारीने धीरपुरुष थयो थको तुं एक
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
मुहर्तमात्र पण प्रमाद न करीश." वळो श्रीआचारांगसूत्रना लोकविजय अध्ययनना चोथा उद्देशाने विषे जणावेल छे के:"बारीक बुद्धिवाळा विद्वान् साधुने पांचे प्रमाद करवाथी सयु, कारणके प्रमादथीज जीवे अनंता मरणो कर्या," इत्यादि. वळी तेज सूत्रना तेज अध्ययनना छठा उद्देशामा जणावेल छे के:-"पोते जाते करेल मद्यादि प्रमाद बडे जीव व्रतोथी रहीत थाय छे, अथवा प्रमाद सेवन करवाथी फेर संसारनी वृद्धि करनार थाय छे." बळी श्रीआचारांगमूत्रना त्रिजा अध्ययनमा जणावेल छे के:-"अज्ञानी होय ते मृतेला जाणवा अने ज्ञानी मुनिओ सदा-निरंतर जागता रहे छे. हे नरो ! सदा जागता रहो, जागता रहेनारनी बुद्धि वृद्धि पामे छे, जे सूए छे, ते भाग्यशाळो न जाणयो, अने जे जागे छ ते सदा भाग्यशाळी जाणवो. १. प्रमादीनुं श्रुतज्ञान सूइ जाय, अथवा तेनुं श्रुतज्ञान शंकाबाळं अने स्खलना पामनाएं थाय छे, अने अप्रमादी तेमज जागतानु श्रुतज्ञान स्थिर अने अस्वलित थाय छे. २. ज्यां आलस होय त्यां सुख न होय, ज्यां निद्रा होय त्यां विद्या न होय, ज्यां पांचे प्रमाद होय त्यां वैराग्य न होय अने ज्यां आरंभ होय त्यां दयालुता न होय. ३. धर्मि पुरुषोनी जागरिका श्रेयस्कारी छे अने अधम्मि पुरुषोनी तो निद्रालुता सारी छे, ए प्रमाणे श्रमण भगवान श्री महावीर देवे वच्छ देशना महाराजानी बहेन जयन्तीने कहेल छे. ४. अजगर भूत थइने जे सुए छे, ते अमृतभूत श्रुत
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २०५५
ज्ञानने नाश करे छे, अमृतभूत श्रुतज्ञान नाश थए छते जीव आखला जेवो अथवा छांण जेवो बने छे. ५" आम छे, तेथी दर्शनावरणीय कर्मना विपाकोदयथी कदाचित् उघी जाय तोपण जे आत्मार्थी यतनावाळो छे, ते दर्शनमोहनीय महानिद्रानां नाशथी जाग्रत् अवस्थाबाळोज जाणवो, एम कहेल छे. अहिं निद्रा दर्शनावरणीय कर्म विपाकोदयथी आवे छे एम कह्यु, ते कर्म पोतानी मेलेज उदय थाय छे पण कोइना उपदेशथी उदय थतुं नथी, अहिं ए तात्पर्य समजवू. वळी श्रीआचारांगसूत्रना त्रिजा अध्ययनना चोथा उद्देशाने विषे जणावेल छे के:-" सर्वत्र-आ भवमां तथा परभवमा प्रमादीने भय छे पण अप्रमादीने सर्वत्र भय नथी." वळी एज सूत्रना पांचमां अध्यनना बीजा उद्देशाने विषे कहेल छे के:-" विषयादि प्रमादोमां पडेलाओ ते धर्मथी बहार के एम समजो: समजीने अप्रमादि थया थका संयम अनुष्टानमा सावधान रहो." वळी पण एज सूत्रनां नवमां अध्ययनना बोजा उद्देशाने विषे कहेल छे के:-"ए प्रकारनी पूर्व कहेल वस्तिमां त्रणे जगतने जाणनारा, तपस्यामां उजमाल, निश्चल मनवाळा उत्कृष्ट तेर वर्ष सुधी संपूर्ण रात-दिवस संयम-अनुधानमा प्रयत्न करतां निदादि प्रमाद रहित अने निःशंकपणे धर्मध्यान-शुक्ल ध्यान ध्यावता वशी रह्या छे. ६८" वळी भगवान् निद्राने पण घणी सेवता नथी, "बार वर्षेनी अंदर अस्थिक गाममा व्यन्तरे करेल उपसर्गना छेडे कायोत्सर्गमां
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श्रीसप्तपदीशाख-गुजरातीभाषानुवाद.
रह्या थकाज अन्तर्मुहूर्त्तमात्र एक वखतज निद्रा प्रमाद थएल हतो." तेटलामात्र निद्रा प्रमादथी सावधान थइने आत्माने जगाडे छे-मोक्षमार्गमां प्रवृत्ति करावे छे. ज्यां थोडी पण निद्रा थइ त्यां पण निद्रानी प्रतिज्ञा न हती. मतलब के सूवानी बुद्धिथी सूता न हता. ६९. वळी श्री सुयगडांगसूत्रना चउदमां अध्ययनमा जणावेल छ के-" कानने मीठा लागे एवा शब्दो सांभळीने अथवा कानने भयंकर लागे एका शब्दो सांभळीने, ते शब्दोमां राग-द्वेष रहितता वाळो थयो थको समितिवान साधु संयम-अनुष्ठानमां रमनार थाय, तथा उत्तम साधु निद्रा प्रमादने प्रमादर्नु अंग होदाथी न करे, अने 'च' शब्दथी बीजा प्रमादो ने पण न करे, गुरुकुलवासमां रह्यो थको आ पांच महाव्रतो में लीधेला छे तेने केवी रीते पार पमाडे ? आवा संशयनो गुरुकृपाथी पार पामनार थाय. ६" तथा बळी श्रीटाणांग सूत्रना विना अध्ययनना बीजा उद्देशामां कहेल छे के:-"श्रमण भगवान श्रीमहावीर स्वामीए गौतमादि श्रमणनिर्ग्रन्थोने " हे आर्यो" ए प्रकारे संबोधिने आम बोल्या-शाथी प्राणीओ भयवाळा ? हे श्रमण चिरंजीवीओ ! मरणादि दुःखथी भयवाळा प्राणिो छे. हे भगवन् ! ते दुःखो केणे कर्या ? प्रमादथी जीवे कर्या, हे भगवन ! ते दुःखो केम नाश थाय? अप्रमादने सेवन करवाथी ते दुःखो नाश थाय." तेमज वळी श्री ठाणांगसूत्रना चोथा अध्ययनना बीजा उद्देशाने विषे कहेल छ के-"चार
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स्थाने करो निम्रन्थ अने निग्रन्थीओने संपूर्ण केवलज्ञान अने केवलदर्शन उत्पन्न थवा- होय तो उत्पन्न थाय छे. ते आ प्रकारे-स्त्रीकथा. भक्तकथा, देशकथा अने राजकथाने करनारा न होय १, विवेके करी अने कायोत्सर्गे करी सम्यक् प्रकारे आत्माने भावनारा होय २, मध्याह्न रात्रिना समय-अवसरमा धर्मजागरिकावडे जागनारा निद्रानो क्षय करनारा होय ३, फासुनिर्जीव अने कल्पे तेवो ते पण उच्छ-थोडो थोडो अने यांचाथी प्राप्त थएल एवा आहार-पाणीनी सम्यक प्रकारे गवेषणा करनार होय ४, आ चार कारणे साधु-साध्वीओने केवलज्ञान-केवलदर्शननी प्राप्ति थाय." वळी आज सूचना पांचमा अध्ययनना बीजा उद्देशामा जणावेल छे केः-"मूतेला साधुओनां शब्द, रूप, रस, गन्ध अने स्पर्श जागता अग्निनी माफक शक्तिवाळा होय छे, केमके कर्मबन्धना अभावY कारण अप्रमाद-सावधानपणु तेओने ते वखते न होवाथी शब्दादिक कर्म बंधननां कारणो थाय छे. अने जागता साधुओना शब्दादिक सूतेलानी माफक सूतेला होवाथी राखथी ढंकाएल अग्निनी माफक हणाइ गएल शक्तिवाला थाय छे, केमके कर्मबन्धन- कारण प्रमाद तेनुं ते वखते तेओमां न होवापणुं होवाथी, शब्दादि कर्मबन्धनना कारण थता नथी." वळी श्री भगवती सूत्रना पांचमां शतकना चोथा उद्देशामां कहेल छे के:-" हे भगवन ! छद्मस्थ मनुष्य सुखेथी जागे एवी निद्राने अने उभा तथा बेठा निद्रा करे ते प्रचला, तेने करे ? हा, हे गोतम ! करे."
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श्रीसप्तपदीशास्त्र - गुजरातीभाषानुवाद.
वळी श्रीभगवतीसूत्रना बारमां शतकना बीजा उद्देशाने विषे जयन्ती श्राविकाए पूच्छेला प्रश्नना अधिकारमा उत्तर आ प्रमाणे आपेल छ:-केटलाक जीवोनुं जागवापणुं सारु, हे भगवन् ! ते शा अभिप्रायथी एम कहो छो के केटलाक जीवोन जागवापणुं सारं ? हे जयन्ती ! जे आ जीवो श्रुतचारित्र रूप धर्मे करी धार्मिक छे, श्रुत रूप धर्मना अनुसारे चालनारा छे, श्रुत रूप धर्म जेमने वल्लभ छे अथवा धमिआत्माओने जे वल्लभ छे. धर्मने कहेनारा अथवा धर्मथी प्रसिद्धि पामेला छे, आ लोकमां ग्रहण करवा लायक धर्मज छ एम जोनारा, धर्ममा प्रेमने धारण करनारा, सम्यकचारित्र रूप धर्मने सेवनारा अने श्रुत-चारित्ररूप धर्मथी पोतानी आजीविका चलावनारा विचरी रह्या छे, एवा जीवोन जागवापणुं सारं छे. ए जीवो जागता छतां घणा प्राण, भृत, जीव अने सत्वोने दुःख नहिं आपनारा अने परिताप नहिं करनारा एवी रीते वर्तनारा होय छे. ते जीवो जागता पोताने अथवा परने अथवा बनेने घणी धार्मिक सारी योजनाएकरी संयोजनारा थाय छे, ए जीवो जागता छता धर्मजागरिकाए करी पोताना आत्माने जागृत करनारा थाय छे. ए जीवोनुं जागृतपणुं सारं छे. ते कारणने लइ हे जयन्ती ! एम कहेवाय छे के केटलाक जीवोनुं जागवापणुं सारूंछे." इत्यादि श्री सिद्धान्तना वचन होवाथी. तथा श्रीदशवकालिकसूत्रना चोथा अध्ययनमा जणावेल छे के:-" सूत्रमा बतावेल इर्या
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि प्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २०९
समिति पूर्वक यतनाए चालतो, हाथ, पग विगेरेनो विक्षेप न करतो यतनाथी उभी रहे, हाथ, पग लांबा, हुंका न करतो यतना पूर्वक बेसे, रात्रिमां सावधान, अतिनिद्रा विगेरेने दूर करतो यतना पूर्वक सूए, स प्रयोजन अने प्रणीत आहारनुं त्याग करतो यतना पूर्वक खातो अने कालोचित, कोमल साधुयोग्य भाषाए यतना पूर्वक बोलतो साधु माठा एवा ज्ञानावरणादि पापकर्म बांधे नहीं. ८" अहिं ' जयं सए ' एनो अर्थ यतनापूर्वक प्रयत्न करतो साधु शयन करे. अहिं कोइ एम कहे छे के - श्रीजिनेश्वरे शयननुं कथन करेल होवाथी निद्रानो उपदेश आपेल छे. एम कहे छते कहेनाराने कहिए छीए: - शयन शब्दे एकान्ते निद्रा अर्थ न थाय, प्रचलामा व्यभिचार आववाथी, बेठेलाने पण निद्रा आवे छे. निद्रामां सात अथवा आठ कर्मोनो बन्ध छे, अने शयनमां भजना छे. यतनाथी शयनमां इर्यापथिकी क्रिया वे समय स्थितिवाली पण होय छे, अने निद्रामां तो एकान्ते सांपरायिकीज क्रिया होय छे, तेमां संशय नथी. सूता- शयन करता थका अनन्ता मुक्तिए गया, अनन्ता जसे अने संख्याता मुक्तिने पामे ले पण निद्रा करतो कोइ मुक्तिए गयो नथी, जतो नथी अने जसे पण नहि. वळी श्रीसुयगडांगसूत्रमां तथा श्री भगवती सूत्रां पण कल छे के:-" उपयोगे वर्तनार, शयन करनारने इरियावहिया किरिया लागे छे. " एम निद्रामां नथी, शयनमां यतना शास्त्रोक्त जणाय छे, परंतु निद्रामां नथी
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२१०
श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजराती भाषानुषाद.
जे कारणे गाथाना चोथा पदमां कहेल के के: - यतना पूर्वक शयन करतो पापकर्म बान्धतो नथी. निद्रामां सात अथवा आठ कर्मनो बंध छे, सूत्रमां कहेल खोढुं न होय. जो साधुओने निद्रा प्रमाद करवा योग्यपणाथी उपदेश कराशे ? तो मद्य, विषय, कषाय अने विकथा पण करवा योग्यपणे केम नहि थाय ? अहिं वणी विचारणा छे, छतां पण गीतार्थो मध्यस्थपणाए सूत्रमां कहेल नीतिए जे कहे तेज प्रमाण छे, तेमां संशय के विचारणा नथी. तथा वळी श्रीसुयगडांगसूत्रना पुंडरीकाध्ययनमां कहेल के के:- " जे कंइ आ संपराड़क कर्म कराय छे, जे कर्मे करीने चारे गतिमां जीव रखडे, ते सांपरायिक कर्म कहेवाय, ते कर्मने पोते करतो नथी, बीजाओनी पासे कराक्तो नथी अने बीजा करतां होय तेने सारुं जाणतो नथी, ते साधु जाणवो. " आवुं सूत्र वचन होवाथी, सांपरायिक कर्मनो निषेध साधुओने उपदेशेल छे. निद्रामां तो सांपरायिक कर्मज थाय छे, अने शयनमां तेनी भजना छे. तथा श्री महानिशीथसूत्रमां कहेल ले के :- " दिवसे शयन कर नहीं, करे तो 'दुवालस' प्रायश्चित्त आवे." अहिं दिवसे सुवानो पण निषेध करेल छे, तो निद्राना माटे शुं कहेतुं ? राते तो कारणे संथारा करवानो विधि छे, त्यां सूवानी यतना बतावेल छे. अहिं गीतार्थोज साक्षीओ थइ जे कहे तेज प्रमाण छे. निद्रा विधिनो उपदेश जिनेश्वर तथा छद्मस्थोना कथित उपर बतावे सूत्र तथा तेओनी वृत्तिओमां नथी. तो निद्रा
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आचायश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २११
करवानो विधि क्याथी कहेवाणो ?. १२३. छद्मस्थोने दर्शनावरणीयकर्मना उदयथी जी के निद्रा होय छे, तोपण जिनेश्वरे कहेल विधिथी निद्रा छे, ए कथन सद्दहवा योग्य नथी. १२४. रात्रिना त्रीजा पहोरे केवल ज्ञाननी उत्पत्तिनो प्रतिषेध जो होय तो ए वस्तु मानवा योग्य छे. कारणके निद्रामा केवलज्ञाननी उत्पत्ति होति नथी. १२५. छद्मस्थने प्रमाद होय, अने केवलीने प्रमादनो लेश पण न होय: ए बन्नेमांथी आणामां कोण? अने कोण आणामां नहीं ?जेनी प्रवृत्ति मूत्र प्रमाणे छे अने केवल इरियावहि किरिया जेने लागे छे ते आणामांछे, अने बळी जेने संपराइय क्रिया लागे छे, ते आणामां नथी एम जाणवू. १२६, १२७. उपशांतकषायीने तथा क्षीणकषायीने इरियावहिनी क्रिया होय छे, अने ते सिवाय बीजाने संपराइय क्रिया होय छे. आ बीना श्रीभगवतीजी मूत्रमा कहेल छे. तेना ७ मा १०मां अने १८ मां शतकने विसे रहेल आ बीना जाणो साची श्रीजिनेश्वरनो वाणी तेने सांभळीने सद्दहवी जोइए. १२८.१२९. श्रीभगवतीजी मूत्रना ७ मा १० मां अने १८ मां शतकने विषे कहेल छ के-"जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ नाश नथी पाम्या अने जे संपराइयाक्रिया करनारा छे. ते उत्सूत्रेज चाले छे" आबु मृत्र वचन होवाथी. अहिं वृत्तिकारे ' उत्सूत्रमनाजैव' उत्सूत्र ते अनाज्ञाज ए प्रकारे व्याख्यान करेल छे. अने "जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ नाश पामेला छे, तेने
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श्रीसप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुवाद.
इरियावहिनी क्रिया होय छे अने ते सूत्र प्रमाणेज प्रवृत्तिकरे छे. " आवां सूत्र वचन होवाथी निद्राना अधिकारमां उपर बतावेल थोडुं लख्युं छे. अहिं रहस्य आ छे:- गया कामां अनन्ताछद्मस्थ साधुओनुं निद्रा करवापणुं थयुं, आवता काळमां अनन्ता छद्मस्थ साधुओनुं निद्रा करवापणुं थशे अने चालता काळमां पण छद्मस्थ साधुओने निद्रापणुं छे. परंतु स्वाभाविक कर्मना उदयथीज होय छे, तेमां विधिरूप जिनवरनुं उपदेश होतुं नथी. बळी जे आप्रकारे कहे छे के:श्रीवीतरागना उपदेशविधि विना निद्राने करता साधुओ स्वच्छंदी गणाय इति. ते पते गीतार्थोंए आम कहेतुं जोइए:रात्रिना त्रिजा पोर पहेला अथवा पछी कारण विना निद्राने करता साधुओ स्वच्छन्दीज छे, तो एम प्रमाण करो. अने बीजुं जे कोइ पण छद्मस्थ साधु एक पहोरथी अधिक समयमात्र पण अहोरात्र मध्ये निद्राने न करतो होय तेवा एकने बतावो कदाचित् एक बतावासे, पण तेनाथी अन्य बीजा बधा साधुओ तेम न करता स्वच्छन्द पणाथी विराधकोज थशे. एम विचारीने जे योग्य होय तेज कर जोइए एप्रकारे हाथ जोडी करातुं मारी विनतिनुं विधान तेने गीतार्थोए सफल करवुं जोइए. उभा रहेता के बेठे छते निवारण नथाय ते कारण उत्पन्न थए छते, जे साधु सुवानी इच्छावाळो था, ते साधु संथाराने करे. १३०. जे कारणे संथारो अने उत्तरपट्टो औपग्रहिक उपधिमां कहेल छे, ए औधिक उपधि
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २१३
मां नथी. तेथी जाणवुं जोइए के ए कारणिक छे. १३१. साधुवर्गने संथारानुं कर श्रीज्ञातासूत्र छट्टा अंगना प्रथम अध्ययनमां चरितोपदेशे - चरितानुवादे कहेल छे एम जाणो. १३२. संथारो करवानt विधि:-भूमिने प्रमार्जना करीने वस्त्रोनी प्रमार्जना तो चोवीस न थाय पण एक दृष्टि पडिलेहणा करीने. १३३. त्यार पछी अढी हाथ मापवाळो संथारो पाथरीने जंघाओने संकोची उपयोग वाळो थइ यतनापूर्वक तेनापर सूर. १३४. इरियावहि पडिक्कमीने त्यार पछी आचार्यने aira a खमासमण आपीने 'वायणा संदिसाएमि अने वायणा करेमि कही वाचना करे. १३५. उक्कुडासने बेसीने रजोहरण वडे अथवा मुहपत्तिए करीने मस्तकथी लइ पग पर्यन्त शरीरनी प्रमार्जना करीने. १३६. जक्कुडासने रहेल अने डाबा पगवडे संथाराने दबावीने बेठो थको, त्यारपछी गुरु बतावेल विधि जाणवो. १३७. हे ज्येष्ठ आर्यो ! हे ज्येष्ठ आर्यो ! अनुज्ञा आपो, अन्यकार्यने निषेधुं हुं क्षमागुणमां रमण करनार महामुनिओने नमस्कार थाओ, एम कही नवकार. करे मिभंते सामाइयं अने अरिहंतो महदेवो० त्रण वार कहे, त्यारपछी गुणगण रत्ने करी शोभित शरीरवाळा हे परमगुरु ! आप अनुज्ञा आपो तो हुं बहु पडिपुन्नापोरसी रात्रि संथाराने स्थापन करूं. १. आ गाथा बोलीने संथाराना उपर यतनापूर्वक बेसीने एक पग उंचो अथवा लांबो करीने बोलवु जोइए. संथारानी अनुज्ञा आपो ! बाहुरूप ओसिके
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श्रीसप्तपदीशाख-गुजरातीभाषानुवाद
करी, डाबा पडखे कुकडीनी माफक पग पसारतो अन्तरमध्यनी भूमिने पुंजे. २. जंघाने संकोचता अने पाशा फेरवामां शरीरने पडिलेवे, द्रव्यादि उपयोगवालो उश्वासने रोकी विचारे. ३. जो आ मारा शरीरनो रात्रिमा प्रमादे-नाश थाय तो आहार, उपधि अने आ देहने छेल्ला शासोश्वासे वोसरावं छु. ४. एम बोली पछी चत्तारि मंगलं. अहार पापस्थानोने वोसरावधा, चोरासीखाल जीवाजोनीओने खमावनी अने बार भावनाओ भाववी जोइए. हुं एकलो छु, मारुं कोइ नथी, बीजा कोइनो पण हुं नथी, एवी रीते अदीन मनवाळो थयो थको पोताना आत्माने शिखामण आपे. १. जीव एकलो छे, अने एकलोज उत्पन्न थाय छे, एकलानो मरण थाय छे, कर्म-रज रहित थयो थको एकलो सिद्धिने वरेछे. २. ज्ञानदर्शनगुणे सहित, शाश्वतो मारो आत्मा एकलो छे. बाकीना सर्व भाव पदार्थों संयोग संबंधथी एकठा थएला छे, ते माराथी जूदा छे. ३. संयोगने लइनेज जीवे दुःखपरंपरा प्राप्त करेल छे, माटे सर्व संयोग संबन्धोने भावथी हुँ त्याग करुं छु. ४. पहेला नहीं पामेल एवा सुभाषित अमृत सरखा श्रीजिनवचनोने पामीने स्वीकारेल छे मुक्तिमार्ग जेणे एवो हुँ हवे मरणथी बीहितो नथी. १३८. बस-थावर जीवोने सुख आपनार अने निर्वाणमार्गनो रस्तो देखाडनार एवा श्रीजिनेश्वरे दर्शावेल ए सत्य उपदेशने त्रिविधे हुं सद्दहणा करुं छु. १३९. इत्यादि, ए संथारानो विधि जाणवो. श्रीआचारांगसूत्रना सिजणा
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २१५
अध्ययनना त्रिजा उद्देशामां जणावेल छे के:-" ते साधु अथवा साध्वी निर्दोष एवा सिज्जा- संथाराने पाथरीने निर्दोष सिज्जा - संथारापर बेसवानी वांछा करे. ते साधु अथवा साध्वी निर्दोष सिज्जा - संथारा पर बेसवा पलाज मस्तकथी पग पर्यन्त कायाने पुंजे पुंजीने त्यार पछी सम्यक् यतना पूर्वकज निर्दोष सिज्जा - संथारा पर बेसे बेसीने त्यारपछी सम्यकूयतनापूर्वक निर्दोष सिज्जा - संथारापर सूए, ते साधु-साध्वी निर्दोष सिज्जा - संथारा पर सूते छते एक बीजाने हाथे करी हाथने, पगे करी पगने, कायाए करी कायाने स्पर्श न करे, एवी रीते स्पर्श कर्या विना सम्यक् यतनापूर्वक निर्दोष सिज्जा- संथारा पर सूए. ते साधु-साध्वी श्वास लेता, श्वास मूकता, खांसी करता, छींकता, बगासा खाता, ओडकार खाता अने वा संचार करतां पलाज मुख के अधिष्ठानने हाथे करी ढांके, ढांक्या पछी सम्यकू यतनापूर्वक श्वास ले यावत् वा संचार करे. " आवा सिद्धान्तना वचन होवाथी, आवी यतना बतावेल के. आवी यतनाथी सुतेलाने निद्रा करवी केम बने ! एवी रीते तो अने सम्यक् धर्म जागरिकावडे जागतो जिनेश्वरना उपदेशने सद्दहणा करतो थको यतनाथी सुए. १४०. उपयोगवाळो छतां पण दर्शनावरणीय कर्मना उदये करी निद्राथी व्याप्त थएला नेत्रवाळो, मारो आत्मा प्रमादथी छलायो, एम जाणी आ प्रकारे विचारणा करे. १४१. जे बुद्ध उपयोगवाळा, केवलज्ञानयुक्त एवा जिनवरेन्द्रो सुबुद्धि जागरिकाए जागे छे, ते
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श्रीसप्तपदीशाख-गुजरातीभाषानुषाद.
धन्य छ, हुं तेओने नमस्कार करुं छु. १४२. चौदपूर्वी थइने निद्राना दोषे करी घणा भव हुं भम्यो, एम भुवनभान्ए सभामां पूर्वभवना निज चरित्रने कहेता कहेल छे. १४३. कयु छ के-"जो चौद पूर्वधर निद्रादि प्रमादे करी निगोदमां अनन्तकाळ वसे, तो हे जीव ! तारुं शुं थशे ?" आवां वचन होवाथी. वळी दिवसमां चिन्तवेल कार्यने करवावाळी ' थीद्धिया' निद्रा जेने होय, ते दुर्गतिमां जाय छे, माटे अहो ! निद्रा प्रमाद महा शत्रु छे. १४४. निद्रा प्रमाद दोषे करी साधुए हाथीना दान्त उखेडी नाख्या, आ दृष्टान्त घणा शास्त्रोमां संभळाय छे. १४५. आवा कारणे जिनेश्वरना उपदेशमा निद्राकरणना आदेश न होय, पण तेज निद्रानुं त्याग विधिपूर्वक जिनेश्वरोए बतावेल छे, १४६. निद्रा त्याग करी, उठीने इरियावहियं पडिकमिने रात्रि प्रायश्चित्त विशोधनार्थ-कुसुमिण दुसुमिण उड्डावणार्थ काउस्सग्ग करे, शो शासोश्वास प्रमाण-अने कारण होय तो एक नवकार-आठ शासोश्वास अधिक चार लोगसनो करे, पछी शकस्तव भणीने वैरात्रिक काळने ग्रहण करे. विधिपूर्वक सज्झायने पठावीने पछी संवेगने पामेलो असंयति-अविरतियो जेम न जागे तेम सज्झायने करे. १४७ थी १४९. बे घडी अवशेष रात्रि बाकी रहे त्यारे मुनि प्राभातिक काळ ग्रहण करे. पछी त्रण थोम वंदनाए आचार्योंदिकने वांदीने. १५०. पछी चोथे खमासमणे राइ प्रतिक्रमणने ठावे. हवे सूत्र, नियुक्ति, वृत्तियोमां, तथा
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. २१७
आवश्यक चूर्णिमां अने पूर्वाचार्योए करेला ग्रन्थोमां जेम विधि कहेल छे, तेमां पण केवलीना वचनानुसारे जेम कहेल छे तेम हुं कहुं छु. १५१, १५२, श्रीउत्तराध्ययनना छवीसमां अध्ययनमां का छे के:-" सर्व दुःखोने नाश करनार काउ. स्सग्ग करे. ४६. अने रात्रि संबंधी अतिचार ज्ञानमां, दर्शनमां, चारित्रमा अने तपमा जे लाग्या होय, तेने अनुक्रमे चिन्तवन करे. ४७. पछी काउस्सग्ग पाळी त्यारबाद गुरुने वंदन करी वळी रात्रिना अतिचारोने अनुक्रमे आलोचना करे. ४८. पछी पडिकमी निशल्य थएलो एवो गुरुने वंदन करे, करीने त्यारपछी सर्व दुःखोनो नाश करनार काउस्सग्ग करे. ४९. ते काउस्सग्गमा ' हुं आजे शुं तप स्वीकार ? ' ए प्रकारे चिन्तवणा करे, पछी काउस्सग्गने पाळीने श्री जिनेश्वरोनुं स्तवन करे. ५०. पछी पारेल छे काउस्सग्ग जेणे एवो गुरुने वांदीने, जे तप धारेल होय तेनुं पचख्खाण करीने सिद्धोनुं स्तवन करे. ५१ " वली राइप्रतिक्रमणनो विधि श्री आवश्यक नियुक्ति मध्ये पांचां अध्ययनमा बतावेल छ:" माया करणथी, वेगपूर्वक करवाथी, करवानुं न करवाथी दोषो अथवा अतिचारोने निद्राथी प्रमादथी स्मरण न करी शके तेथी प्रभातना प्रतिक्रमणमा पहेला त्रण काउसग्ग. १. तेमा प्रथम चारित्राचारविशुद्धिनो, बीजो दर्शनाचार विशुद्धिनो अने त्रीजो श्रुतज्ञाननो पण तेमां अतिचारोने चिंतवे. २ त्रीजामा रात्रिना अतिचारोने चिंतवे अने छेल्लामा
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
शुं तप करूं ? श्रमण भगवान् श्रीमहावीरस्वामीए छमासी तप कयु हे जीव ! तुं करी शके ? न शकुं, एम एक एक दिवस उणुं करतां करतां जाव पोरसी अथवा नवकारसी सुधी चिंतवे. ३" वळी श्रीहरिभद्रसरिकृत पंचवस्तुक ग्रन्थमां जणावेल छे के:-" प्रादोषिकादि सर्व-कालग्रहण अने स्वाध्यायादि ते विशेष सूत्रथी अहिं जाणी लेवू. हवे हुँ राइप्रतिक्रमण अनुक्रमे कहीश. १. सामायिक लइ पहेलाज इहां चारित्राचार विशुद्धि माटे पचीस शासवास प्रमाण धोर पुरुषो काउस्सग्ग करे. २. विधिपूर्वक 'नमो अरिहंताणं' कहीने शुद्ध चारित्रिया 'लोगस्स उज्जोअगरे' बोलीने दर्शनशुद्धि निमित्ते एक लोगस्सनो काउस्सग्ग 'चंदेसु निम्मलयरा' मुधी करे. ३. पछी विधिपूर्वक 'नमो अरिहंतागं' कहीने 'पुख्खरवरदीव ०. श्रुतस्तव बोलीने त्यार पछी उपयोग वाळा थया थका अतिचार चिन्तवनरूप काउस्सग्ग करे. ४. हवे जे चितवन करे, ते बतावे छे:-सांझना प्रतिक्रमणना अनन्तर स्तुतिथी लइने आ चालता काउस्सग्ग व्यापार पर्यन्त रात्रि संबन्धी सर्व अतिचारोने रुडी रीते चिन्तवे. ५. त्रीजा काउस्सग्गमां रात्रिना अतिचारो चिन्तवीने विधिपूर्वक 'सिद्धाण बुद्धाणं' कहीने विधिपूर्वक प्रतिक्रमण करे. ६. सामायिकनुं बहुधा करण, ते पूर्वक श्रमणना व्यापार छ; अने आ स्मरण कराववामां प्राये ते कारणभूत छे. ७. पछी गुरुने खमावीने सामायिक उच्चारपूर्वक काउस्सग्गने करे, तेमां आवं चिन्तवन करे, गुरुए
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माचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. २१९
आपणने क्या जोड्या छे. ८, गुरुए बतावेल कार्यनी जेम हानि न थाय तेम उद्यम करे, तप करवामां छ मासथी लइ यावत् पोरसी नवकारसो सुधी सरल भावनाए चिन्तवे. ९. पछी आटलं तप करवाने हुं समर्थ छु एम हृदयमां निश्चय करीने गुरुने वांदणा दइने गुरु समीपे जे चिन्तवेल तेज नवकारसी. पोरसी विगेरे ग्रहण करे. १०” जेवो प्रतिक्रमणनो विधि उपर बतावेल ग्रन्थोमां कहेल छे तेवोज आवश्यक बृहद् वृत्तिमां जणावेल छे. १५३. तेवोज आवश्यक चूणिमां वखाणेल छे. तथा श्री हरिभद्रमरिकृत पंच वस्तुक ग्रन्थमा:-" आचरणाए श्रुतदेवी विगेरेनो काउसम्म छे, वळी कोइक चोमासीमां, संवच्छरीमा क्षेत्र देवतानो काउस्सग्ग अने पख्खीमां शय्यामुरी-भवनदेवीनो अने कोइक चोमासीमां पण काउस्सग्ग करे छे. ४९२” आq वचन तेमां होवाथी. परंतु आचरणाए पण देवसिअ प्रतिक्रमणमां श्रुतदेवी तथा खेत्रदेवीनो काउस्सग्ग सूत्र, वृत्ति अने चूर्णिमा बतावेल नथी. १५४. पख्खीमां, चोमासीमां अने संवच्छरीमां देवीनो काउस्सग्ग कोइकज करे छे, एम कहेल छे. आवा विधिवादो सर्वने मान्य छे एम कहेल नथी. १५५. आचरणाए करेल होय, तेने न करवाथी आणाभंगनो दोष नथी, आचरणाने अन्योन्य-देखादेखी कोइ करे अने कोइ न करे. १५६. सर्वांनी पोतपोतानी गच्छाचरणा भिन्न भिन्न होवा छतां पण अने जुदी जुदी रीते कराती छतां कोइथी
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श्रीसप्तपदीशाब-गुजरातीभाषानुवाद.
पण निन्दाती नथी. १५७. केटलाक त्रण थोइ कहे छ, वळी केटलाक चार थोइ कहे छ, काउस्सग्गमा देवीओनी थोइ कहे छे, ते देवीओनी थोइ पण सर्वेने प्रमाण नथी. १५८. देवीओनी स्तुति करवामां प्रयोजन आलोकनोज होय छे अने ते प्रगट देखाय छे, कारण के 'वंदण वत्तियाए' ए पाठ त्यां बोलता नथी. १५९. काउस्सग्ग अभिंतर तपमां छे, वळी नवकारनु चिन्तवन कराय छे, अने जैनसिद्धान्तोमां वंदनीय अरिहंतादि पांच छे. १६०. श्रीदशवकालिकसूत्रना नवमां अध्ययनमा ‘आ लोकना अथै तप न करवू' एम तिहां खुल्ली रीते निषेध करेल छे, ते जाणवू जोइए. १६१. वळी श्री आवश्यक सूत्रमां, श्री ठाणांग मूत्रमां, श्री समवायांग सूत्रमा, श्री प्रश्न व्याकरण मूत्रमा अने श्री उत्तराध्ययन सूत्रमा आ लोकना अर्थे तप करवान निषेध बतावेल छे. १६२. श्री दशकालिकसूत्रमा का छे के:-" निश्थी तपसमाधि चार प्रकारनी छे ते आ प्रकारे आ लोकना माटे-आ लोकना निमित्ते लब्धि आदिनी वांछाधी तप-अनसनादिरूप न कर, धम्मिलनी माफक १, तथा परलोकना माटे-जन्मान्तरना भोग निमित्ते तप न करवू, ब्रह्मदत्तनी माफक २, वळी कीर्ति, वर्ण, शब्द अने श्लाघाना माटे तप न करवू ३, परंतु कर्मनिर्जराने माटेज तप करवू, तेने छोडी बीजी कोइ पण वांछाथी तप करवू नही. ४" आ प्रकारे सिद्धान्तनां वचन होबाथी. बळी श्रीआवश्यकसूत्रमा बत्रीस योगसंग्रह बता
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं २२१
वेला छे, तेनां नाम: - " आलोचन १, निरवलाप २, आपदि सुदृढधर्म ३, अनिश्रितोपधान ४, शिक्षा ५, अने निष्पतिकर्म ६ " इत्यादि नाम बतावेलां छे, तेमां चोथो योगसंग्रह - अनिश्रितोपधान छे, तेनो अर्थ 'आलोकना फलनी वांछा कर्या विना तपनुं करवापणुं' एम बतावेल छे. " एज प्रमाणे श्री ठाणांगसूत्रमा, श्रीसमवायांगसूत्रमां, श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्रमा अने श्रीउत्तराध्ययन सूत्रमां बतावेल छे. एक दिवसना पर्यायवाळो - आजनो दीक्षित, बाल अने अज्ञ एवो पण साधु शो वर्षनी दीक्षित अने बहुश्रुतवाळी पण साध्वीने वंदन करे नही. १६३. विरतिने धारण करनारी, गुणना स्थानभूत एवी पण साध्वी वंदाति नथी, एवो व्यवहार छे, तो अविरति देवीओने साधु केम वांदे ?, ते कहो ? १६४. देवीनी थोइ आचरणाए छे, ए कारणे ते शुद्ध नथी, आचरणाना लक्षणे करीने पण योग्य नथी, कारणके आचरणानुं लक्षण त्यां लागू पडतुं नथी. १६५. आचरणानुं लक्षण पूर्वाचा
ए आ प्रमाणे बतावेल छे:- "कोइ पण अशठ पुरुषे कोइ स्थाने जे कंड़ निर्दोष- पापरहित आचरण कर्यु होय, अने तेनुं बीजाओए निवारण कर्यु न होय, ते आचरण कहेवाय, तेवी आचरणा अमने प्रमाण छे. १” आवुं पूर्वाचार्यनुं वचन होवाथी तेमां जे जिनेश्वरे निषेधेल अने ते निषेधेलनंज विधान कर एज सावध - पापकारी छे, लक्षण विरुद्ध एवं आ आचरण अहिं केम प्रमाणभूत मानी शकाय ?
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२२२
श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
१६६. क्षेत्रना अवग्रह कार्यमां क्षेत्रदेवीनुं संस्तव-स्तुति करता माधुओने वसति दोष छे, ते उत्पादनना शोलदोष मांहेलो अग्यारको 'पुव्वापच्छच संथव' नामनो जाणवो. १६७. आ आचरण जे सूत्र विरुद्ध अने जे स्वच्छंदमतिए कल्पाएली गोलाए कहेवाती, ते आचरणा निश्चेथी माराक्डे नही थाय. २६८. हने पख्खी संबंधी, चोमासी तथा संवच्छरी संबंधी प्रतिक्रमणनो विधि कहे छ:-श्रीआवश्यक नियुक्तिना पांचमा अध्ययनमा जणाये के के:-" देवसिय, राइय, परिखय, चौमासिय अने संवच्छरीय ए पांचे प्रतिक्रमणमां, एक एक प्रतिक्रमणमा त्रण त्रण गमा जाणवा. १. प्रथम सामायिक उच्चार करी काउस्सग्गनी पहेला, फरी बीजीवार पडिकमतां अने त्रिजीवार काउस्सग करतां पहेला सामायिकनो उच्चार शा माटे कराय छे ? गुरु उत्तर आपे छ के-समभावमा रही काउस्सग्ग करे, एवीज रीते समभावमा रही प्रतिक्रमण करे अने समभावमां स्थितात्मा काउस्सग करे, ए माटे त्रण वखत सामायिकनो उच्चार बतावेल छे. २-३. आ पांचे देवसिय विगेरे प्रतिक्रमणोमां एक एक प्रतिक्रमणनी अंदर त्रण त्रण गमा जाणवा. सामायिकलो उच्चार करी पडिकमणने माटे अतिचार चिन्तवनरूप काउस्सग करवू ते प्रथमगमो, फेर सामायिकनो उच्चार करी प्रतिक्रमणसूत्रनु कहेवं, ते बीजो गमो अने सामायिक अध्ययन उच्चारण करीने चारित्र शुद्धि करवा काउस्सग्गनुं करवु ए त्रिजो गमो, एम त्रण गमा ना
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २२३
णवा. अहिं बीजो कोइ प्रश्न करे छ। प्रतिक्रमणना माटे प्रथम काउस्सग्गना आदिमां सामायिकनो उच्चार करीने फेर केम बीजी वार प्रतिक्रमणसूत्रनी आदिमां तेनो उच्चार करवामां आवे छे ? अने बळी त्रिजी वार चारित्र शुद्धिनी आदिमां ते सामायिक सूत्रनो उच्चार करवामां आवे छे ? एम को छते गुरु कहे छे:-समभावमा रहेल आत्मा प्रथम उच्चारण करेल छ सामायिक जेणे एवो ते काउस्सग्ग करीने अने एवीज रीते बीजी वखत उच्चारण करेल छे सामायिक जेणे, ते पतिकमणसूत्र भणे अने त्रिजी वार पण समभावमां रहेल, उच्चरित सामायिकवाळो चारित्रनी शुद्धि माटे काउस्सग्ग करे. प्रथम समभावमा रहेलनेज प्रतिक्रमण कयु गणाय, ते शिवाय न गणाय. एटला माटे त्रणवार करेमिभंते कहेवाय छे. अथवा "सज्झाय, ध्यान, तप, काउस्सग्ग, उपदेश, स्तुति, प्रदान अने संतगुण कीर्तन एटलामां पुनरुक्तदोष नथी गणतां. १" आq वचन होवाथी. पांचे प्रतिक्रमणमां अतिचार चिन्तवन रहेलज छे. उपर बतावेल नियुक्तिना बले पख्खी, चोमासी अने संवच्छरीपतिक्रमण देवसी प्रतिक्रमणनी साथे कराय छे, अने तेमां काउस्सग जे जे आवे छे ते ते जोतकल्पथी छे. १६९. देवसियप्रतिक्रमणमां शो शासोश्वास, अने राइप्रतिक्रमणमां ते पचास होय छे, परिखमां त्रणशो, चोमासीमां पांचशो. १७०. तेमज एक हजारने आठ शासोश्वास संवच्छरी प्रतिक्रमणमां जाणवा. एम श्रीआवश्यकनियुक्तिमां
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२२४
श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुषाद.
कहेल छे. १७१. पख्खिय, चोमासी अने संवच्छरीपतिक्रमणनो बीजो कोइ विधि सूत्रमा देखातो नथी. वृत्तियोमा जे विधि कहेल छे, ते पण सर्वगच्छोमां थतो नथी. १७२. सर्वांनी पूर्व सरिओए करेल पोतपोतानां गच्छनी आचरणा छे, तेमां जे प्रवचनमार्गना अनुसारे आचरणा, ते आचरणा पण आणा सरखी छे. १७३. हवे पख्खिय क्यार करवं तेनुं अधिकार जणावे छे:-पख्खिय अने पोषधमां समाधिने प्राप्त थएला साधुओनां चित्त समाधिस्थान श्रीदशाश्रुतस्कंध सूत्रने विषे दश कह्यां छे. १७४. अहिं चूर्णिमां जणावेल छे के:"परिखमा परिखकार्य अने पख्खिमां पोषधोपवास आठम अने चौदशमां, समाधि एटले ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप भावसमाधिमां प्राप्त थएला” इत्यादि बचन होवाथी, अहिं श्रीदशाश्रुतस्कंधसूत्रने विषे पख्विय शब्द छे ते चौदशीने कहनार जाणवो, जे कारणे पख्खिनो पर्याय चौदश शब्द कहेल छे पण पख्खिय शब्दे पूर्णिमा कहेल नथी. १७५. वळी श्रीभगवतीसूत्रना बारमा शतकनां पहेला उद्देशामां पख्खिय-पोसह शब्द चतुर्दशीनो संभव छे. १७६. जे कारण माटे प्रथम दिवस विना पोषध पण ग्रहण कर्यु नथी, तेथी एक दिवसचेंज आराधन इहां खुल्लु जणाय छे. १७७. तेनी ' श्रीभगवतीसूत्रनी' वृत्तिमां चौदश के पूनम आदि लेवानुं विशेष कांइ जणावेल नथी; ए कारणे चौदशीमांज पख्खिय थाय. १७८. जे माटे पूर्वाचार्योए कहेल छे के:-"अहम, छट्ट
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २२५
अने चउत्थभत्त-एक उपवास संवच्छरी, चोमासी अने पख्खिमां पोषध तथा तप कहेल छे, असमर्थ अने गिलानने माटे माफी छे ?" तेमज कळी श्रीनिशीथभाष्यमां कहेल छे के-" पख्खिमां चोथमत्त-एक उपवास करवू " हवे पूर्णिमा अने अमावास्या गणवामां आवेतो चोथभत्त-एक उपवास केम थइ शके ? आवा कारणथी चौदशमांज पाक्षिक जाणवु. वळी श्रीव्यवहारसूत्रनीवृत्तिमां कहेलछेके:-"आठमतिथी तथा परिखमा चउत्थभत्त अने चोमासीमां छह तथा संवच्छरीमां अहम तप न करे तेने प्रायश्चित्त आवे ?" तथा आवश्यकचूर्णिमां कहेलछे के:-" आठम अने चौदशमां अरिहंत अने साधुओ बांदवा" एम जणावेल छे. वळी फेर त्यांज-"वळी ते श्रावक आठम, चौदशमां उपवास करे, पुस्तक वांचे, त्यारे सागरचंदनामा श्रावक आठम चौदशने विषे शून्य घरोमां अथवा स्मशानमां एक रात्रि संबंधी पडिमा-अभिग्रह विशेषने स्थापे.चंपानगरीमा सुदर्शन श्रेष्टिपुत्र आठम अने चौदशमां चौटाने विषे श्रावक प्रतिमाने स्वीकारे. उदायनराजा आठम अने चौदशमां पोषध करे." आवा आवश्यकचूर्णिना वचन होवाथी तथा वळी-'आठम, चौदशमां प्रभावती श्राविका भक्तिरागे करीने निरंतर अवश्य साधुवंदनादि उपचारने करे" एम निशीथचूणिना वचन होवाथी घणा स्थानोने विषे पाक्षिक-कृत्यो पौषध, चैत्यपरिपाटी, साधुवंदन विगेरे चतुर्दशीमांज देखाय छे. ए कारणे पाक्षिक शब्दे करी
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुषाद.
चतुर्दशी जाणवी. कार्तिक अमावास्याए श्रीवीरजिनवरेन्द्रनु निर्वाण थयु, ते कारणे त्यारे शुद्ध पोषध-उपवास स्थाप्युं. १७९. काशी, कोशल देशना राजा विगेरे अढार गणराजाओ मलीने पख्खिय तथा अमावास्यामां त्यारे कर्यु. १८०. आ सुवचनश्रीदशाश्रुतस्कंघसूत्रनां आठमां अध्ययनमां कहेल छे. फेर वळी, तेज सूत्रमा पख्खिनी आरोपण अथवा आलोवणा कहेल छे. १८१. ते आलोवणानुं ग्रहण करवू अमावास्याए निषेधेल छे, माटे अमावास्यामां पख्खि न होय; ज्यारे अमावास्यानु निषेध कयु. त्यारे पूनमर्नु पण पख्खि न थाय एम जाणवू. १८२. जे कारणथी पंचमांग श्रीभगवतीसूत्रना पनरमांशतकमा श्रीवीरनाथनो विहार पडवाना दिवसे अने तेना पहेला दिवसे चोमासी एम कहेल छे. १८३. तेथी त्रण चोमासी पूनमना दिवसे जाणवी. वळी पख्खि तथा चोमासी एक दिवसमां न थाय. १८४. अंगसूत्रोमा तथा उपांगसूत्रोमां चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्टा-जिनकल्याणिक तिथी तथा त्रण पूर्णिमा ए रीते चार पर्वतिथीओनां नामो कयां छे. १८५. बीजोअंग श्रीसुयगडांगसूत्र, तेनां त्रेवीसमां अध्ययननीवृत्तिमा चोपर्वी संबंधी खुल्ला अर्थ रहेला छे, एम जाणवू, ते आ प्रकारेः-आठम तथा चौदश. १८६. तेमज उद्दिष्टा शब्दे करी श्रीजिनवरेन्द्रोनी महाकल्याणकतिथिओ अने चोमासीनी त्रणपूर्णिमा तिथीओज छे, एम जणावेल छे. १८७. ए कारणे चौदसना दिवसे पख्खिय जाणवू, जे
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आवार्यश्रीभ्रातृचंद्रगि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २२७
कारण माटे पूर्णिमां चोमासीनीतिथी कहेल छे, तेमां कोई प्रकारे पण पख्खि थाय नही. १८८. हवे परिक्य चौदशना दिवसे थाय, तेमां पहेला देवसिय थाय, एम योगशास्त्रना अर्थमां श्रीहेमचंद्रसूरीश्वरे कहेल छे. १८९. जे कारण माटे पूर्वाचार्योए कहेल छे के:-" बोजी पण वृत्तियोमा तेमज चूर्णियोमा अने बळी श्रीअभयदेवरि प्रमुखोए उद्दिष्टा शब्दे अमावास्या निर्देश करेल छे. १. एम उद्दिष्टानो अर्थ अमावास्या जो मानीए तो श्रीजैनशासनमा सुपसिद्ध कल्याणक तिथीओ प्राप्त थइ शके नहि, अने ज्यारे सूत्र के अर्थमा कहेल न होय तो ते केवी रीते आराधि शकाय ? २. बीजी क्रियाओमां नाग विगेरेनी पूजा, समुदना जलनी वृद्धि अने शैलक यक्षना उपचारमा त्या उद्दिष्टानो अर्थ अमावस्या जाणवो. ३. एम उद्दिष्टापदे करी प्रवचन-सिद्धान्तमां अमावास्या कहेल छे, ज्यां शेष लोकस्थिति एम विशेष जणावेल होय. ४. त्यां विवेक करको जोइए, पर तीर्थीओन के स्वतीर्थीओन आराधन छे. धर्मक्रियामां कल्याणिकतिथीओने मूकी जिनमतनो जाणकार बोजो अर्थ केम ग्रहण करे. ५." ए कारणे स्वतीर्थे उद्दिष्टा शब्दे कल्याणिक तिथी जाणवी अने जगत्स्वरुपे उद्दिष्टा शब्दे अमावास्या जाणवी. पळो संदेह विषौषधीमां जिनवल्लभमूरिए पण का छे केः-चोमासी प्रतिक्रमण पख्खियदिवसमां चतुर्विधसंघे (११ १९०. निश्वेथी पक्षनी आठम अने मासनी पशिखय जाणवी, अने त्यां
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२२८ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद. पख्खिय शब्दे चर्तुदशी एम श्रीपूर्वाचार्योए कहेल छे. १९१. वळी बीजं श्रीजंबुद्वीपप्रज्ञप्ती, श्रीचंदप्रज्ञप्ती, श्रीसूर्यप्रज्ञप्ती, श्रीभगवती अने श्रीअनुयोगदारसूत्रोमां अने बीजी जगोए पण एजप्रमाणे कहेल छे. १९२. पनरदिवसें पक्षथाय, बे पक्षनो मासथाय, बारमासनो वर्ष थाय, ए काळ प्रमाण छे, ए पर्वप्रमाण न होय. १९३. जे तिथीओमांज प्रतिक्रमण थाय एवा मोटा त्रणपणे पख्खी, चोमासी अने संवच्छरी ते आवा काळ प्रमाणनी गणनाए न थाय. १९४. श्रावण वद पडवाए तथा अभीचनक्षत्रे संवच्छरनो प्रारंभ थाय छे, एम जिनवरोए कहेल छे. १९५. अने जो एवीरीते गणिए तो आषाढीपूनिमें वरसथाय, पण भादरखासुदपांचमनादिवसे ए वरस केवीरीते थाय ? १९६. तेम बीजापक्षमा मास थाय तो मासस्थानमां चोमासी केम थाय? वळी आठ मासने विषे अने बारमासनेविषे शुं करवु ? एम करीए तो एबधुं विरुद्धजेवू थाय. १९७. ए प्रमाणे श्रुतने सांभळीने दिवसोनी गणना करी पर्वतुं करवू संभवतुं नथी, अहिं गोतार्थों जे कहे तेज प्रमाण. १९८. ए प्रमाणे पख्खीसंबंधी अधिकार जाणवो. हवे उदयिकतिथीनो अधिकार बताये छे:-श्रीचंदपन्नतिसूत्र तथा श्रीसूरपन्नत्तिसूत्र ए बे उपांगसूत्रमा तथा पंचमअंग श्रीविवाहपन्नत्तिसूत्रमा उदयतिथीनुं प्रमाण बतावेल छे. १९९. अहिं सूत्रनां पुरावा बतावे छे. श्रीजंबूद्वीपसूत्र मूलमां जणावे छे के:-" हे भगवन् !
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं २२९
एकमासना पक्ष केटला कह्या छे ? हे गौतम ! बे पक्ष का हे. ते आप्रमाणे, एक वदिपक्ष अने बीजो सुदिपक्ष, हे भगवन् ! एकपक्षनां केटला दिवस कह्या छे ? हे गौतम ! पन्नरदिवस कह्या छे, ते आ प्रमाणे- प्रतिपदा दिवस, द्वितीया दिवस यावत् पंचदशी पन्नरमो दिवस. हे भगवन् आ पन्नर दिवसोना केटला नाम का छे ? हे गौतम! पन्नर नाम कला के, ते आप्रमाणेः - प्रथम पूर्वीग, २. सिद्धमनोरम, ३. मनोरथ, ४. यशोभद्र, ५० यशोधर, ६ सर्वकामसमृद्ध, ७. इन्द्रमूर्द्धाभिषिक्त, ८. सौमनस, ९. धनंजय, १०. अर्थसिद्ध, ११. अभिजात, १२ अत्यशन, १३. शतंजय, १४. अग्निवेश्म, १५. उपशम. एदिवसोना नाम जाणवा. हे भगवन ! आपन्नरदिवसोनी केटली तिथी कहेल छे ? हे गौतम ! पन्नरतिथी कहेल छे, ते आप्रकारे-नंदा, भद्रा, जया, तुच्छा - रिक्ता अने पूर्णा एमने त्रणवखत आवर्त्तन करीए एटले पन्नरदिवसनी पन्नरतिथीओ थाय. जेम के १-६-११ नंदा, २-७-१२ भद्रा, ३-८-१३ जया, ४-९-१४ तुच्छा. ५-१०-१५ पूर्णा हे भगवन! एकपक्षनी रात्रिओ केटली कही छे ? हे गौतम! पन्नररात्रिओ कहेल छे, ते आप्रमाणे - पडिवारात्रि यावत् पन्नरमीरात्रि हे भगवन ! आ पन्नर रात्रिओना केटला नाम कला छे ? हे गौतम! पनर नाम का छे, ते आ प्रमाणे - उत्तमा पडवेनी रात्रि, सुनक्षत्रा बीजनी रात्रि, एलापत्या त्रीजनी. यशोधरा चोथी,
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
सौमनसा पांचमी, श्रीसंभूता छठी, विजयासातमी, वैजयन्ती आठमी, जयन्ती नवमी, अपराजिता दशमी, इच्छा अग्यारमी, समाहारा बारमी, तेजा तेरमी, अतितेजा चौदमी, देवानन्दा पन्नरमी, आर्नु बीजुनाम निरति पण छे. आ रात्रिओना नाम जाणवा. हे भगवन् ! आ पनर रात्रिओनी केटली तिथीओ कहेल छे ? हे गौतम ! पनरतिथीओ कहेल छे, ते आ प्रमाणे:--१. उग्रवती, २. भोगवती, ३. यशोमती, ४. सर्वसिद्धा, ५. शुभनामा, ६. उग्रवती, ७. भोगवती, ८. यशोमती, ९. सर्वसिद्धा, १०. शुभनामा, ११. उग्रवती, १२. भोगवती, १३. यशोमती, १४. सर्वसिद्धा, १५. शुभनामा, आ पन्नररात्रिओना नाम जाणवा. आवां सूत्रवचन होवाथी. उपर प्रमाणे सूरपन्नत्तीमूलसूत्रमा पण दशमां भाभृतना चौदमां अने पन्नरमां पाभृतप्राभृतने विषे सरखो पाठ होवाथी लखेल नथी. आ स्थाने एनीत्तिमां आम जणावेळ छ:-" एकेक पक्षनी पन्नर पनर रात्रिओ कहेली छे. ते आ प्रकारे-पडवे पडवा संबंधीनी प्रथमा रात्रि, बीजा दिवस संबंधीनी बीजी रात्रि, एवी रोते पन्नरमा दिवस संबंधीनी पनरमी रात्रि" आवा वचन होवायी. जे दिवस, तेज रात्रि एटले दिवसना संबंधवाळी रात्रि जाणवी. श्रीकल्पसूत्रमा जणावेल छे के:-"उपशम नामा दिवसे देवानंदा ते रात्रि" एम कहेल होवाथी वृत्तिमा जणावेल छे के:-"कोइ शंका करे ? के-दिवसोथी तिथीओमां शुं विशेषता छ ? के
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २३१
जेथी एओने जूदी केवाय छे. गुरु उत्तर आपे छे-अहिं सूर्ये निष्पादन करेल एटले सूर्यथी निष्पादन थएला अहोरात्र छे अने चंद्रथी निष्पादन थएल तिथीओ छे. तथा वळी आ पूर्वाचार्यांनी परंपराथी आवेल रहस्यभूत उपदेश के. बास भागे प्रविभक्त थल अहोरात्राना जे एकसठ भागो तेला प्रमाणवाळी तिथो जाणवी. अने त्रीस मुहूर्त्त प्रमाण अहोरात्र ते तो सुप्रसिद्ध छे. वळी श्रीभगवती सूत्रानां बारमा aasti छट्टा उद्देशमां आम कहेल छे: " हे भगवन ! शा प्रयोजने एम कहेवाय छे के सूर्य आदित्य छे ? हे ! गौतम सूर्य जेनी आदिमां के एवा समयादि अथवा आवलिकादि अथवा यावत् उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी काल छे, ते कारणथी सूर्य आदित्य कहेवाय छे. " तेनो वृत्ति आ प्रमाणे छे - " हवे आदित्य शब्दनो अन्वर्थ-सार्थकता जणावता जणावे के सूर्य हे आदि प्रथम जेओनो मध्ये ते सूर्यादिक कहेवाय, कोण कहेवाय ? बतावे के समयो- अहोरात्रादि काळ भेदोमां जेओनां बीजो विभाग न थइ शके एवा अंशो. ते समयो कहेवाय, ते आ प्रकारे सूर्योदयनी अवधिने करीने अहोरात्रानो आरंभक समय गणाय छे, तेमज आवलिका, मुहूर्त्तादिको पण गणाय छे, ते कारण माटे सूर्यने आदित्य एम कहेवाय छे. अहोरात्र, समयादिओनी आदिमां थएल ते आदित्य कहेवाय. आ प्रमाणे व्युत्पत्ति करेल होवाथी. " एवीज रोते श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रमां जणावेल छे के: - हे भगवन् शाथी सूर्य आदित्य एम
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श्रीसप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुवाद.
कहेवाय छे ? उत्तर आपे छे के:- सूर्य जेमनी आदिमां छे एवा समयो, आवलियो, शासोश्वास, स्तोक यावत् उत्सर्पिणी काल एम निथी जाण सूर्य आदित्य, एम कहेवाय छे, एम बोलाय. " एवीजरीते श्रीचंदपन तिमूलसूत्रमां पण जणावेल छे. हवे तेमनी वृत्ति जणावे छे :- " हे भगवन् ! शाकारणथी सूर्य आदित्य एम कहेवाय छे, एम बोलाय ? भगवान कहे छे, सूर्य आदि प्रथम हे जेओने ते सूर्यादिक कहेवाय. ते कोण ? समयो. समय एटले अहोरात्रादि काळ जेना बीजा विभागो न थइ शके ते समय, सूर्य जेनी आदि छे, सूर्य जेमनुं कारण छे, एवा जाणवा. ते आ प्रमाणे- सूर्यना उदयनी मर्यादाकरी अहोरात्रानो आरंभक समय गणाय छे, बीजीरीते न गणाय एवीरीते आवलिकादि पण जेमनी आदिमां छे, एवा जाणवा. विशेष असंख्याता समय समुदाय रुपने आवलिका कहिए. संख्याति आवलिकाओनो एक शासोश्वास एटले ४३५२ आवलिकाओनी एक शासोश्वास, एम वृद्धसंप्रदाय छे, तथा कहेल पण छे के:-" एक शासोश्वास ४३५२ आवलिका प्रमाण अनंतज्ञानीओए कट्टेल छे ? " सात शासोश्वासनो एकस्तोक इत्यादि यावत् शब्दे मुहूर्त्तादिक जाणी लेवा, ते सुगम होवाथी जणाव्या नथी. एवी रीते निश्रेयथी सूर्य आदित्य एम प्रसिद्धिथी बोली शकाय. आदिमां जे थएल होय ते आदित्य आवी व्युत्पत्ति होवाथी. " आवा अक्षरो जोवाय छे, तेथी उदयतिथी प्रमाण
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. २३३
छे. अन्य शास्त्रोनेविषे पण कहेल छे के:- "उदयमां जे तिथी होय तेज प्रमाण, बीजी स्वीकारवी नही बीजी स्वीकारता आणाभंग याय, आणाभंगथी मिध्यात्व लागे ?" जे तिथीमां सूर्य उदय थाय ते तिथीमा पच्चखाण, पूजा, प्रतिक्रमण अने पौषध अनुष्ठान कर जोइए २" इत्यादि बतावेल छे. अत्यन्त थोडा अंधारावाळी माटेज अजवाळी छतां अंधारीपडवे कहेवाय छे, अल्प जेमां उद्योत - अजवाळु छे खरेखर संपूर्ण जेमां अंधारुं छे, छतां पण अजवाळी पडवे कहेवाय छे. २००. एवीरीते उदयतिथी पण जाणवी. संपूर्ण अंधारी एवी उज्वलतिथीनी माफक आवश्यक वेलाए तिथीनुं ग्रहण कोइ जगाए पण देखवामां आवेल नथी. २०१. छतां पण ए सबंधीना अक्षरो जो गीतार्थो बतावे तो ते अक्षरो मने प्रमाण छे, तत्वतो तेज गीतार्थे जाणे. २०२. आवश्यकवेळा पर्वतिथी होय तेमां प्रतिक्रमण, ते पर्वतिथी पूर्वाह्न उत्पन्नथली होय के अपराह्नमां पण उत्पन्न थएली होय, ते विचार करो. २०३. ते पर्वतिथी अपराह्नमां जो उत्पन्न थली होय तेमां प्रतिक्रमण कर ते व्याजवी छे, पण पूर्वा
•
मां उत्पन्न थली होय तेमां प्रतिक्रमण करवुं ते व्याजबी नथी, ते पण जो सूत्रमां कहेल होय, पछी भले ते अजवाळीया पक्षी होय के अंधारीया पक्षनी होय, ते ते सर्व मने प्रमाण छे. २०४. निथेथी पहेलो दिवसहोय अने ते दिवसनी रात्रि ते दिवसना पाछल आवनारी जाणवी, एबीना श्रीजंबुद्वीपपनत्ति, सूर्यपन्नत्ति तथा चंदन त्तिसूत्रोम कहेल छे. २०५.
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२३४ श्रीसप्तपदोशाख-गुजरातीभाषानुवाद. ते सूत्रपाठ पहेला लखेलज छे, त्यांची जाणी लेवु. ते कारण माटे दिवसना अंतमां-समाप्तिमा प्रतिक्रमण करवं, ए मार्ग व्याजबीज छे. माटे प्रवचन-सिद्धान्तमा कहेल उदयतिथीमां पर्वतिथी आराधवानी रमणता करवी. २०६. ए प्रकारे उदयतिथी आराधवानो अधिकार समाप्त थयो. अथ साधु अने श्रावक प्रमुखोना देवसिय विगेरे पांचपतिक्रमणनी क्रिया सूत्रानुसारे सरखी जाणवी, २०७. हवे श्रावकोना प्रतिक्रमणमा जे विशेष छे, ते कहेवाय छ:-इरियावही पडिकमीने धर्मना उपगरण, मुहपत्तो, शरीर प्रमुखनी पडिलेहणा करीने वळो पण इरियावही पडिक्कमवी. २०८. सम्यकप्रकारनी जयणा करवा सारु, त्यारबाद बे खमासमण आपीने 'इच्छाकारण संदिस्सह भगवं सामाइयवयं संदिस्सावेमि, इच्छाकारेण संदि
सह भगवं सामाइयवयं ठावेमि' २०९. एक नवकार गणवा पूर्वक सामायिकदंडग करेमिभंते उच्चारण करे, पछी आवस्यक क्रियानी वेळा प्राप्त थएल के एम जाणीने. २१०. आवश्यक क्रिया करवानो काळ प्राप्त थए छते अतिक्रमण करनाराओने बेसवानुं होतुं नथी, तेथी नजीकमा प्राप्त थएल आवश्यक काळथी प्रेराएला बेसवानो आदेश निरर्थक अहिं मागे नही. २११. काळे करातो स्वाध्याय श्रीजिनमतमांसुविशुद्ध कहेल छ, स्वाध्यायकरवानो अनुज्ञा श्रीजिनेश्वरदेवोए अकाळे करेल नथी. २१२. बेसणे तथा सज्झायना खमासमण आप्या पछी क्रियानुं संभव छे, ए भाव जो गीतार्थो मानताहोय तो
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. २३५
साचं. २१३. ए ए कारणे जो मारी मान्यता श्रीसूत्रविरुद्ध होय तो मारुं मिच्छामि दुकर्ड थाओ, पछी द्वादशावर्त्त वंदन २१४. आपीने पञ्चखाण करीने त्यार पछी चैत्य- देववांदीने पछी आचार्य, उपाध्याय अने सर्वसाधुवादीने प्रतिक्रमण ढाइने अनुक्रमे काउस्सग्गने करे. २१५. बाकीनो विधि देवसियपतिक्रमण संबंधी साधु सरखो जाणवो, अने एज प्रमाणे राइप्रतिक्रमणनोविधि जाणवो. व्रतोनुं उच्चारकरीने पछी अनुक्रमे राइप्रायश्चित्तसंबंधी काउसग्गने कर. २१६. प्रथम चैत्यवंदनकरीने पछी मतिक्रमणठावे. ए प्रमाणे श्रावकोनुं देवसिय तथा राइयप्रतिक्रमण जाणवु. २१७. अने वळी बीजुं मुहपत्ती पडिलेहणा कर्यापछी बे बखत द्वादशावर्त्तवंदन harni a air मस्तक अने उपरनी कायानी प्रमार्जना करवी. २१८. एवीरीते आखादिवसमां पञ्चख्खाणथी मांडीने आठ वार मुहपत्तीनी पडिलेहणा अने शरीरनी ममार्जना पण आठ वार. २१९. अने छ वार रात्रिमां जाणवी. मुहपत्ती पडिलेह्याविना जो वांदणा आपे तो पूर्वसूरिओए तेनुं प्रायश्चिच बतावेल छे. २२०. दृष्टिनिरिक्षण पडिलेदणा वारंवार करबी, अने बन्ने काळ पचीश पचीश मुहपत्तीनी तथा शरीरनी पहिलेहणा करवी. २२१. बाकीना त्रण आवश्यक साधुनी माफक करवा, अने पोतपोताना व्रतना अतिचारो अनुक्रमे करीनेज चिन्तवा, २२२. रुडीरीते आलोवीने त्यारपछी पडिकमीने विशुद्धि करे, सर्वप्रतिक्रमणोनुं परमरहस्य ए के. एम
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२३६ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद जाणवु २२३. अहिं गीतार्थो मध्यस्थो सूत्रानुसारे दृष्टिराग रहितपणे महेरबानी धारणकरीने जे कहे तेज प्रमाण कर. अथवा अहिं मध्यस्थ गीतार्थो जे कहे, तेज प्रमाण करवू. माटे सूत्रानुसारे दृष्टिराग रहितपणे कृपाकरी बोलवू जोइए. अथ उपधाननो आधिकार लखिये छीए-१.अंगप्रविष्टश्रत अने अंगबाहयश्रुत. तथा वळी आवश्यकश्रुत अने आवश्यक व्यतिरिक्तश्रुत, तेमज कालिकश्रुत अने उत्कालिकश्रुत. २२४. श्रीठाणांगसूत्रमा तथा श्रीनंदीसूत्रमा तेमज श्रीअनुयोगद्वारसूत्रमा सूत्रना उपर बताव्या ते छभेद श्रीजिनेश्वरोए कया छे. एथी अधिक, ए विना बीजा कोइ पण सूत्र जणाता नथी. २२५. हं पुच्छं छं के पंचमंगलनामे जे महाश्रतस्कंध, जेना पांचअध्ययन अने एक चूला छे, ते जो होय तो ते कोइ जगाए होवा जोइए पण ते कोइ जगाए प्राप्त थता नथी. २२६. वळी प्रतिक्रमण श्रुतस्कंध अने शक्रस्तव नामे बीजो श्रुतस्कंध, त्रीजो अरिहंतचैत्य अध्ययन, चोथो स्तवअध्ययन, पांचमुं नामस्तव अध्ययन अने छठं श्रुतस्तव अध्ययन, एम चार अध्ययन अने बे श्रुतस्कंध. २२७. २२८. द्वादशांग गणिपिटक-आचार्यश्रीनो खजानो बारअंग कहेल छे, तेमां कइ जगाए उपरनी वस्तु बतावेल छे, ते गीतार्थो कृपाकरी मने बनावे. तो हे भगवन् ! हुँ तेनुं सुखेथी स्वीकार करु. २२९. माटे सर्वमनोगत कषायनो त्यागकरी मारापर कृपाकरो, कारणके उत्तमपुरुषो नमनार उपर वात्सल्यभाव धारणकर
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २३७
नाराहोयछे. २३०. उपर जणान्या एओना उपधान श्रीमहानिशीथसूत्रमा श्रावकोने उद्देशीने जे कहाछे, ते कारणे श्रावकोने विना उपधाने आवश्यकमूत्रनु भणवू पण नकल्पे. २३१. तो पछी आवश्यकना उपधान वह्या नहोय तेओने निश्चेथी आवश्यकनी क्रियाकरवानुं शुं को ? विना उपधाने आवश्यकनी क्रियाकरनारने ज्ञानाचारनी विराधना प्राप्तथाय छे. २३२. अने विपरीत सद्दहणाए सद्दहणा करनारने दर्शनाचारनी विराधना थायछे, तेमज निषिता रहित सदोषक्रिया करनार चारित्राचारनी विराधना करेछे. २३३. आवा कारणे आवश्यकसूत्रना शुद्धउपधान जे करवा योग्य, ते साधु तथा श्रावकोए अवश्य करवा जोइए. २३४, कारणके श्रीअनुयोगद्वारसूत्रमा कलछे के:-साधु तथा श्रावके दिवस-रात्रिना मध्यमांजे कारणे अवश्यकराय ते कारणे एनुं नाम आवश्यक कहेवाय छे.” तथा वळी एज सूत्रमा जणावेल छ के-"जे आ प्रतिक्रमणआवश्यकने साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविका बन्ने वखत सांज-सवारे करेछे. ते लोकोत्तर भावावश्यक कहेचायछे, केवा थया थका करे, ते बतावे छे:-ते आवश्यकक्रियामा चित्तना उपयोगवाळा, ते आवश्यकक्रियामां मननाविशेष उपयोगवाला, ते आवश्यकनीक्रियामां शुभपरिणामरुप लेश्यावाळा, तथा ते आवश्यकनीक्रिया सारीरीते करवामां तच्चित्वादि अध्यवसाय-भावनावाळा.तथा ते आवश्यकक्रियामां तीव्रभावनावाला एटले आवश्यक क्रियानी शुरुआतथीलइ
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२३८
श्रीसप्तपदोशाख-गुजरातीभाषानुवाद.
छेक्टसुधी दरेकक्षणे वधती भावनाना प्रयत्नवाळा, तथा ते आवश्यकक्रियाना दरेक सूत्रोना अर्थमां उपयोगवाला अने तेनेलइ अत्यन्त वखाणवायोग्य संवेगगुणथी विशुद्धि पामनारा, ते आवश्यककरवामां यथास्थाने स्थापेलाछे देह, रजोहरण, मुखवस्त्रिका वगेरे जेमणे एवा, तथा आवश्यकनी क्रियावडे भावित करेलछे आत्मा जेमणे एवा, बीजी कोई जगाए मन, वचन अने कायाने नकरता-न प्रवर्तावता बन्ने काळ जेओ आवश्यकने करेछे, ते लोकोत्तरभावावश्यक कहेवायछे." आई मूत्रवचन होबाथी साधु, साध्वी श्रावक अने श्राविकाओने आवश्यक कर्तव्य करवाने उपदेश करेल छे. ते आवश्यकन करवू सूत्रपाठविना कोइरीते थइशकतुं नथी. ते सूत्रपाठ गुरुकृपाथी प्राप्तथाय एम अनुयोगद्वार सूत्रमा प्रसिद्ध छे. ते सूत्रवाचना समुद्देशविना संगत थाय नही, अने समुद्देश उद्देशपूर्वकहोय एम श्रीअनुयोगद्वारसूत्रमा देखाय छे. ते आप्रकारे:-"ज्ञान पांच प्रकारना कह्या छे तेआ, नतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान अने केवलज्ञान, तेना चारज्ञान थापवा योग्यछे, तेओने स्थापोने कारणके तेओना उद्देश, समुद्देश अने अनुज्ञा होतो नथी, परंतु श्रुतज्ञानना उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा अने अनुयोग प्रवते छे. ते शुं अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञानना ? उद्देश. समुद्देश, अनुज्ञा अने अनुयोग प्रवर्ने छ ? के अंगबाहिरसूत्रना उद्देश, समुइंश अनुज्ञा अने अनुयोग प्रवत छ ? अंगप्रविष्टसूत्रना
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि प्रभ्थमाला पुस्तक ५३ मुं २३९
उद्देश, समुद्देशादि प्रवर्तेछे अने अंगबाह्यसूत्रना पण उद्देश, समुद्देशादि प्रवर्ते छे. जो अंगबाहिरसूत्रना उद्देश समुद्देशादि प्रवर्ते छे, तो भुं आवश्यक सूचना उद्देश, समुद्देशादि मवर्त छे ? के आवश्यकसूत्री जूदाना उद्देश, समुद्देशादि प्रवर्ते छे ? आवश्यक सूचना पण प्रवर्ते छे अने आवश्यक सूत्रथी जूदा सूचना पण प्रवर्ते छे. जो आवश्यक सूत्रना उद्देश. समुद्देशादि प्रवर्ते छे, तो शुं सामायिकना, चउविसत्थाना, वंदनना पडिकमणाना, काउस्सग्गना अने पच्चख्खाणना उद्देश, समुद्देशादि प्रवर्ते हे ? उत्तरः- ए सर्व छए आवश्यकोना उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा अने अनुयोग प्रबछे " आवुं सूत्रवचन होवाथी आवश्यकना उद्देश, समुद्देश अने अनुज्ञाविना सूत्र भणाय नहीं. उद्देश, समुद्देशादिना अर्थ आ प्रमाणे छे:आ अध्ययनादिक तमारे भणवु, आवुं जे गुरु वचन, ते उद्देश, ते अध्ययनादि सारीरीतेभणीने श्रीगुरुने संभळावे त्यारे गुरुकहे एम स्थिर परिचय करो ! आवुं जे गुरुवचन ते समुद्देश अने ते प्रमाणेकरी गुरुने निवेदनकरे त्यारे गुरु कहे के रुडीरीते वारणकरो अने बीजाने पण भणावो आबुं गुरु वचन ते अनुज्ञा कहेवाय छे गुरुना उपदेशनी प्राये अपेक्षा राखनार श्रुतज्ञान छे. आ बीना विशेषे श्रीअनुयोगद्वारवृत्तिमां छे. एम सूत्रना अनुसारे साधुओं तथा श्रावकोने आवश्यकनीक्रिया सरखी छे अने ते आवश्यक सूत्रना उपधान पण सरखा है. २३५, अने श्रीमहानिशीथ सूत्रमां जे
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૨૪૦
श्रीसप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुवाद.
उपधान कहेला छे ते आवश्यकसूत्रना उपधान नथी. माटे उपधान विना श्री आवश्यकसूत्रनुं भणवं अने श्री आवश्यकसूत्रनीक्रियाकरवी ते योग्य नथी. २३६. श्री आवश्यक सूत्रमां धर्मराजाना हस्तीस्कंघसरखो एक श्रुतस्कंध ले अने बळी एकसरगवाळा तेनाज छ अध्ययनो छे. २३७. ते आवश्यकसूत्रना छए अध्ययनना उद्देश, समुद्देश अने अनुज्ञानीक्रिया छ दिवसमा थाय छे अने सातमे दिवसे श्री आवश्यक सूत्रना श्रुतस्कंधनो समुद्देश करवो. २३८. अने आठमां दिवसे श्री श्रुतस्कंधनी अनुज्ञासंबंधी क्रियाकरवी एवीरीते श्रीआवश्यक सूत्रना आठ दिवसना उपधान साधु तथा श्रावकने सरखा का छे. २३९. कारण के श्रीजिनागममां श्रीजिनेश्वरदेate साधु तथा श्रावकोने अन्तेवासी, उग्रा अने उग्रविहारी शब्दोएकरी परुपया छे. २४० तथा श्रीसातमोअंग उपाशकदशांग पांचमोअंग श्रीभगवती सूत्र अने श्रीआचारांग - सूत्र ने विषे पासत्थादिक पण साधु, श्रावक बन्नेने ' वसुवा अणुवसुवा' विगेरे शब्दोथी सरखा कह्याछे, एपण विचारो. २४१. ' हे आर्यो !' आवा आमन्त्रणेकरी गुरुए साधु तथा श्रावक बन्नेने एक शब्दे आमंत्रण करेल हे. साधुओना पाछल चाळनारा तेथी देशयतनावाळा एवा श्रावको छे एम तमे जाणो ! २४२. वळी श्रावकना उपधाननो विधि जे श्रीमहानिशीथसूत्रमां कहेल छे, ते कोइक मानेछे अने कोइक घणा नथी मानता. २४३. श्री आवश्यक सूत्र संबंधी आठ
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं २४१ दिवसनी उपधानक्रियाने प्रथम चारित्रिया 'सामायिक चारित्र' नानी दीक्षाने धारणकरनारा सर्वमुनिओने श्री आवश्यकसूत्रना योगनी क्रिया करवी, ते सर्वगच्छवासीओ सुप्रमाण मानेछे, २४४. श्रीआवश्यकमृत्रनो उपधानविधि बीजो कोइपण देखातो नथी, जेथी आचार्यों तो सदा निरतिचार शिक्षाने करे छे. २४५. कह्यु छे के:-" काळे भणवू, विनयपूर्वक भण, बहुमानपूर्वक भणवं, उपधानवहीने भणवू, जेनी पासे भणीए तेने ओलवq नहीं, शुद्ध अक्षर, शुद्ध अर्थ अने बन्ने शुद्धशीखवा ए आठ प्रकारनो ज्ञानाचार छे" आयु वचन होवाथी. श्रावकोने पण उपधानक्रिया विना आवश्यकसूत्रनु भणवं. तेथी ज्ञानाचारना अतिचार लागे. वळी प्रतिक्रमणसूत्रमा श्रावकना अधिकार कहेल छे के-"बे प्रकारनां वंदन, बार प्रकारनां व्रत. बे प्रकारनी (ग्रहण अने आसेवनारुप ) शिक्षा, त्रण गारव, चार संज्ञा चार कषाय, त्रण दंड, त्रण गुप्ति, पांच समिति अने 'च' शब्दे श्रावकनी अगियारपडिमा तेनेविषे जे अतिचार लाग्यो होय तेने हुं निदुछु." आईं वचन होवाथी. जो श्रावकोने उपधानविना श्रीआवश्यकसूत्रनुं अध्ययन-भणवू गीतार्थों स्वीकारता होय अथवा उपधानविधिए करी शुद्ध आवश्यकसूत्रनी क्रियाने स्वीकारता होय तो तेम प्रमाण करोए. हवे मुनिओने उपदेशनो विधि बतावेछ।-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अने उत्तर विचरता शुद्धमुनि शुद्धधर्मनो उपदेश करे २४६.
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२४२
श्रीसप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुवाद.
अहिंसा लक्षणवाळो धर्म श्रीजिनेश्वरदेवोए व्यवहार- निश्चयथी अने उत्सर्ग - अपवादथी कहेल छे. २४७. विधिवाद उपदेशमां सावध पाप न होय एम आगममां कहेलछे अने अपवादमां विधि न होय, ए यथास्थित उपदेश जाणवो. २४८. उत्सर्गमार्गमां विधि छे एम अतीतकाळना अनन्ता श्रीजिनवर - देवोए कां, भविष्यकाळना अनन्ता कहेशे अने वर्तमानकाळमां विचरता संख्याता श्रीजिनेश्वरदेवो कहे छे, २४९. भूत अने भविष्यकाळना अनन्ता अने वर्तमानकाळमां विचरता संख्याता जिनेश्वरोनो उपदेशविधि तेनी वानगी लखिए छीए. श्री आवश्यकसूत्रमां जणावेलछे के:-" हे भगवन् ! सामायिक करूं छु, सर्वपापकारीव्यापारनो त्याग करूं छु, जावजीव सुधी त्रिविधे त्रिविधे मन, वचन अने कायाए हुँ न करूं, न करावें अने बीजा करता होय तेने हुं सारुं न जाणुं, तेमां जे कांइ दोष लागे तेनाथी हेभगवन् ! हूं पाछो इछु, पोताना दोषनी निन्दा करुहुँ, श्रीगुरुनी साक्षीए गर्दा करुछु अने पापकारी मननो त्याग करुछु. " तथा श्रीदशवैकालिकसूत्रमा चोथा अध्ययनमां कल छे के: - " हे भगवन् ! पहेला महाव्रतम जीवोना प्राणनो नाश तेथी विराम पामवु हेभगवन ! सर्व प्राणातिपातने हुं पञ्चखु छु, ते सूक्ष्म अने बादर, ते अकेक प्रकारे छे अने स्थावर, सूक्ष्म त्रस कुंथुंआ विगेरे, सूक्ष्म स्थावर वनस्पति विगेरे, बादर त्रस गाय विगेरे, बादर स्थावर
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि प्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं २४३ पृथ्वी विगेरे ए पाणीओने हुं जाते नाश करूं नहीं, बीजानी पासे नाश करावू नहीं, कोइ प्राणीओने नाश करतो होय तेने हुं सारं जाणुं नहीं. जावजीव सुधी त्रिविधे त्रिविधे" इत्यादि. एज प्रमाणे श्रीआचारांगसूत्रमा पण बतावेल छे. वळो श्रीदशवकालिक सूत्रना आठमा अध्ययनमा जणावेल छे केः- "पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु अने वनस्पति ए पांच एकेन्द्रियकाय अने त्रसपाणी बेइन्द्रियादिक ए जीवो छे, एम श्रीमहावीरप्रभुए कहेल छे. २. माटे पृथ्वीविगेरे जीवोनो नाश न थाय एका मन, वचन अने कायाए अहिंसक व्यापारवाळा साधुओए थq जोइए, एम दर्ते ते संयत कहेवाय. ते सिवाय नही. ३" वळी श्रीपाक्षिकसूत्रमा कहेल छ के-"ते प्राणातिपात चार प्रकारचें कहेल . द्रव्यथी, क्षेत्रथी, काळथी अने भावथी. द्रव्यथी प्राणातिपात छजीवनिकायनेविषे, क्षेत्रथी प्राणातिपात सर्वलोकनेविषे, काळथी प्राणारिपात दिवसमा अथवा रात्रिमा अने भावथी प्राणातिपात रागे करी अने द्वेषे करी" इत्यादि. एम मूत्रवचन होदाथी. तथा श्री उत्तराध्ययनसूत्रना आठमा अध्ययनने विषे कहेल छे के:"लोकमा रहेला जीवो वस अने स्थावर, तेओनो नाश न करे मन, वचन अने कायाए करी निश्चेथी, तेमज नाश न करावे अने नाश करताने भलं न जाणे. १" तथा बळी एज सूत्रना चोवीसमा अध्ययनमां कहेल छे के:-"संरंभ-बीजाने नाश करवामां समर्थसंकल्पने सूचनकरनार शब्द-वचन ते, समा
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श्री सप्तपदीशास्त्र - गुजराती भाषानुवाद.
रंभ - बीजा जीवोने संताप उत्पन्न थाय तेवुं वर्त्तन ते, तेमज आरंभ एटले प्राणीओना प्राण जेमां नाश थाय एवो व्यापार ते व्रतमां अथवा वचनमां प्रवृत्तिकरनार मुनि यतनावान् संरंभ, समारंभ अने आरंभथी निवृत्ति पामे अर्थात् तेओनो त्याग करे. १" वळी श्रीऔपपातिक उपांगसूत्रमा तथा श्रीठा
सूत्रमा अने श्रीविवाहपन्नती अंगसूत्रमां जणावेल छे के:" सातप्रकारे विनयछे, ते आ, - ज्ञानविनय, दर्शन विनय, चारित्रविनय, मनविनय, वचनविनय, कायविनय अने लोकोपचार विनय. 'तेमां पण वचनविनय केटला प्रकारे ? वचनविनय वे प्रकारेछे, एक वखाणवायोग्य वचनविनय अने बीजो नहि वखाणवालायक वचनविनय, तेमां नहि वखाणवा लायक वचनविनय केवा स्वरुपे छे ? जे वचन पापकारी होय, क्रियासहित होय, कठण, कडवु, निठुर, कर्कश होय, आस्रव करनार, भेद करनार, परिताप करनार, उपद्रव करनार अने जीवने उपघात करनार होय तेवां वचन उच्चारण करे, ते अप्रशस्तवचनविनय जाणवो हवे वखाणवायोग्य वचनविनय कोने कहिए ? ते कहेछे:- अपशस्तवचनविनयथी उलडं ते प्रशस्तवचनविनय जाणवो." बळी श्रीआचारांगसूत्रना प्रथम अध्ययन - शस्त्रपरिज्ञानामे, तेना प्रथम उद्देशामां जणान्युं छे के :- " मन, वचन अने कायाना व्यापारमां भगवान् वीरबर्द्धमानस्वामीए वे प्रकारनी परिज्ञा बतावेलछे, एक ज्ञपरिज्ञा अने बीजी प्रत्याख्यानपरिज्ञा, तेमां ज्ञपरिज्ञाए 'पापकारी
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २४५
व्यापारथी कर्मनो बन्ध थायले' एम भगवाने जणावेलछे अने प्रत्याख्यानपरिज्ञाए 'पापकारी मन, वचन अने कायाना व्यापार, तेमज कर्मबंधना हेतुओ त्यागकरवा' एप्रकारे भगवाने बतावेलछे. वळी असार, विजळोनी माफक चंचल अने बहुकटवा एवं जीवितव्य जीववामाटे जीवो आरंभादिकक्रियामां प्रवृत्ति करेछे, तथा वंदावा, पूजावा मनावामाटे कर्मों करेछे, तथा जन्म-मरणथी छूटवामाटे पापकारी क्रियामां प्रवृत्तिकरता जीवो कमेने ग्रहण करेछे, तथा दुःखनो नाश करवामाटे अने पोतानी रक्षा करवासारु आरंभोने पोते सेवन करेछे, बीजाओ पासे करावेछे अने बीज करता होय तेने सारुं माने छे. एवा मकारना सर्वलोकने विषे कर्मना आरंभो जे थइ रह्याछे, ते जाणवाजोइए अने जेने ए कर्मना आरंभो लोकनेविषे जाणवामां आव्याछे खरेखर ते मुनि परिज्ञातकर्मवाळा जाणवा. एम श्रीसुधर्मस्वामी श्रीजंबुस्वामी नामना शिष्यने कहे छे. " वळी श्रीआचारांगसूत्रना पहेला अध्ययनना सातमा उद्देशाने विषे जणावेल छे के:-" एकज पृथ्वीकायविगेरेना आरंभमां प्रवृत्त थएला जे जीवो बधी जीवनिकायना आरंभथी उत्पन्न थरला अने ग्रहण कराता कमेथी ते जीवो बंधाय छे एम जाणो. कारणके एक जीवनिकायसंबंधी आरंभ शेषजीवनिकायना नाश विना करी शकात नथी माटे कोण तेवा कर्मे ग्रहण करेछे ? जे निश्वयथी परमार्थज्ञान विनाना ज्ञानादि पांचप्रकारना आचा
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुषाद.
रमा रमता नथी, ते पृथ्वीकाय विगेरेना आरंभथी ग्रहण कराता कविडे बंधाय छे. हवे कोण ज्ञानादि आचारमा नथी रमण करता ? ते कहेछ, पृथ्वीकायविगेरे जीवोना आरंभमा प्रवृत्त थएला छतापण संयमने कहेनाराछे एटले अमे संयमी छीए एम पासत्था अने शाक्यादि बोलनाराळे अने आरंभ करे छे, ज्ञानादि आचारथी रहित छे. शा कारणथी एम कहे छ ? ते जणावे छे:-स्वच्छंदपणाने लइ, पूर्वापर विचार कर्या विना विषयना अभिलाषवाळा आरंभना मार्गने सेवता असंयमी छता अमे संयमी छीए एम बोले छे, वळी अत्यन्त विषयभोगनी आशक्तिवाळा तेओ छे. एवा तेओशुं करे छे ? आरंभ -पापकारी क्रियामां तत्पर थएला आठ प्रकारना कोना संगने करनारा अने तेथी संसारमा रखडनारा थायछे. छ कायजीवोनो घातकरनारा अनेक प्रकारना कष्टो पामेछे. हवे जे आरंभथी निवृत्त थएल होय ते केवो होय ते जणावे छे:-छकायजीवना हननथी निवृत्त थएल ते सम्यक्त्वादि भावलक्ष्मीवान अने सर्वप्रकारे मेलवेल छ विशेष बोध-ज्ञान जेणे एवो आत्मा आलोक अने परलोक विरुद्धकार्य 'अकरणीय' अकार्यकरवा प्रयत्न करतो नथी, शुं ते अकार्य ?, ते जणावे छ. 'पापकर्म' नीचे पाडनार जे कर्म, ते पापकर्मअढारपापस्थान, तेने पोते करे नही, बीजाओनी पासे करावे नही अने बोजा करता होय तेने सारं जाणे नही. ते अढारपापस्थानोने जाणनार मेधावी-मर्यादावान पोते छजीव
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २४७ निकायनो आरंभ करे नही, बीजा पासे करावे नही अने करता होय तेने सारं जाणे नही. जेने ए छजीवनिकायशास्त्र समारंभो सारीरीते जाणवामां होय छे, ते खरेखर 'ज्ञपरिज्ञा' वडे जाणीने अने 'प्रत्याख्यानपरिज्ञा' वडे तेओनो त्याग करनार मुनि जाणवो. ते सर्वथा पापकर्मोथी विराम पामेलो होय छे. एम श्रीसुधर्मस्वामी पोताना शिष्य श्रीजंबूने कहे छे के जेम श्रीवीरपरमात्माए कयु तेम हुं कहुंछं." वळी श्री आचारांगसूत्रना बीजा अध्ययनना बीजा उद्देशाने विषे कहेल छे के:-"आत्मानुं बल-शक्ति ते मने थाओं एम धारीने अनेक भकारना उपायोवडे आत्मपुष्टिनामाटे आलोक तथा परलोकनाहितने नाशकरनारी तेवीतेची क्रियाओ करेछे, पंचेंद्रिय विगेरे जीवोना घातमा प्रवृत्ति करे छ. स्वजननुं बल मने प्राप्त थशे तेना माटे. वळी मने मित्रबलनी प्राप्ति थशे, जेथी आपदा
ओने हुं सुखेथी दूर करी शकीश. वळी भविष्यमां बलनो मने प्राप्ति थशे अथवा मने देवशक्ति प्राप्त थशे ए हेतुए तेवा प्रकारनी क्रियाओ करे अथवा मने राजबल प्राप्त थशे माटे राजानी सेवा करे अथवा चोरोना गाममां वसे, चोरोनी साथे संबंध राखे के जेथी मने चोरीथी आवेल द्रव्यनो भाग मलशे. अतिथि एटले निस्पृह पुरुषोनुं बल मने थशे एम धारीने तेओनी सेवा करे. एवीरीते कृपणनी तथा श्रमणनी सेवा करे आत्मबलनेमाटे अनेक जीवोनी हिंसा-आरंभने आदरे. एम पूर्वोक्त अनेक प्रकारना कार्य-प्रयोजनने लइने
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
जेथी प्राणीओ हणाय 'तेनुं नाम दंड' तेवा दंडने ग्रहण करे, पोताना बलने वधारवा खातर जो हुं तेम नहीं करूं तो मने बलनी प्राप्ति नहीं थाय एम विचारीने अथवा भयथी परमार्थने नहीं जाणता 'पापथी हं छटीश एम धारीने अनेक प्रकारना पाप आचरण करे अथवा द्रव्यनी आशाथी मोहितमनवाळा भविष्यमा हुं सुखी थइश एम धारीने अनेक आरंभ करे. ते बधुं 'ज्ञपरिज्ञाए' जाणीने 'प्रत्याख्यान परिज्ञाए' तेनो त्याग करीने 'मेधावी' -जाणेल छ हेय उपादेय जेणे एवो थयो थको उपर बताव्या ते कारणे जीवोनो घात पोते न करे, बीजा पासे न करावे अने कोइ करतो होय तो तेने पण सारं न जाणे ए मार्ग आर्योए एटले तीर्थकरोए कहेल छे." वळी श्रीआचारांगसूत्रना छठा अध्ययनना पांचमा उद्देशाने विषे जणावेल छ के-" रागादिरहित सम्यकदृष्टि आत्मा सर्वत्र जीवलोकने द्रव्यथी जाणीने दयाळु थयोथको धर्मनो उपदेश करे, क्षेत्रथी पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अने उत्तर विगेरे दिशी विभागोने जाणीने कृपाळु धर्मनो उपदेश करे, काळयी जावजीवसुधी अने भावथी राग-द्वेष विनानो थयोथको धर्म उपदेश करे. ते आ प्रमाणे:- सर्वजीवो दुःखना द्वेषी छे अने सुखनी इछावाला छे, माटे पोताना सरखा जाणवा' एम धर्मने कहेतो द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावे करी अथवा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदिनी अने निर्वेदिनीकथा विशेषेकरी अथवा प्राणातिपात विगैरेनी विरती विशेषेकरी धर्मनो विभाग
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. २४९ करी कहे. तेमज व्रत अने क्रियाना फलने वखाणे. आगमसिद्धान्तनो जाणनार, भावथी उठेला-तत्परथएला मुनिओने विषे धर्मने कहे अथवा श्रावकोने, धर्मसांभलवानी इच्छावाळाने अने गुरु विगैरेनी सेवा-भक्ति करनाराओने, संसार सागरनो पार पमाडवाने धर्मनो उपदेश करे. केवा प्रकारनो धर्म कहे ? ते बतावे छे-शांति-अहिंसा तथा विरतिना स्वरूपने कहे,तथा उपशम एटले क्रोधने जीतवो अने निर्दृति-निर्वाणना स्वरूपने कहे, तथा शौच-चित्तनी पवित्रता तेम शरलता, तथा कोमलता अने लाघवता एटले बाह्य तेमज अभ्यंतर परिग्रहना त्यागथी उत्पन्न थनार गुण एमनुं स्वरूप जेम आगममां कहेल होय तेम फेरफार कर्या विना समजावे. हवे कोने समजावे ते कहे छ:-सर्व प्राणीओने-दशविध प्राणने धारणकरनारा संझिपंचेंद्रियोने तथा सर्वभूतोने-मुक्तिगमन योग्य जे भन्य थएला होय तेओने तथा सर्वजीवोने-संयम जीवितेकरी जीवता अने जीववानी इच्छावाळाओने तथा सर्व सच्चोने-तिर्यंच, मनुष्य अने देवो जे संसारमा क्लेशने पामता अने दयाना पात्र एवाओने क्षमादिक दशपकारना धर्मने स्वपर उपकारनामाटे धर्मकथा करवानी लब्धिवान् साधु उपदेश करे. ते पण पूर्वापर विचार करीने जे पुरुषने जे कहेवायोग्य धर्म होय ते मर्यादाथो कहे. पूर्वापर विचार करनार साधु धर्मना स्वरुपने कहे तो पोताना आत्मानी आशातना न करे, बीजानी आशातना न करे, बीजा प्राण, भूत, जीन अने सत्त्वनी आशातना न
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२५० श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद. करे. तेज मुनि पोते आशातना नहीं करनार, बीजाओपासे नहीं करावनार अने आशातना करता होय तेने पण सारु नहीं जाणनार होय छे, मतलब के प्राण, भूत, जीव अने सच्चोने पीडा न उत्पन्न थाय एवीरीते धर्मने कहे, ते अनाशातक मुनि पीडापामता प्राण, भूत, जीव अने सत्व तेओनी आशातना नहीं करनार जेम 'असंदीण' नामनो द्वीप जीवोने शरण थाय छे तेम ते पण महामुनि शरण थाय छे' तथा वळी श्रीआचारांगसूत्रना सातमा अध्ययनना पहेला उद्देशामां जणावेल छ के-" अहिं मनुष्यलोकमा केटलाक अशुभ कर्मना उदयवाळाने मोक्षसंबंधीक्रिया सारीरीते जाणवामां आवेल न होवाथी ते आलोकमां आरंभी बने छे अने आरंभ जेमा रहेल छे एवा धर्मने कहेनारा तथा कहेवरावनारा बने छे, आ प्राणीओने हणो एम बीजाओनी पासे हणावता अने हणताने सारं जाणता एवा होय छे." तेमज वळी श्रीआचारांगसूत्रना बीजा श्रुतस्कंधना चोथा अध्ययननेविषे कहेलछे के:-"हवे चार प्रकारनी भाषाओ छे, तेमां न बोलवा योग्य भाषाने न बोले ते साधु जाणवा. चारभाषानां नाम-सत्यभाषा, असत्यभाषा, सत्यमृषा अने असत्यामृषा. आ चारभाषामांथी असत्यभाषा तथा सत्यमृषाभाषा साधुने ए बे भाषा बोलवानी नथी. सत्यभाषा पण आवी होय ते न बोलाय, ते जणावे छे-पापकारी होय, अनर्थदंडवाळी होय, ओछा अक्षरवाळी होय, चित्तने उद्वेग करनारी होय, निष्ठुर-हाकोटावाळी होय,
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आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २५१ मर्मने उघाडनारी होय अने आश्रवने करनारी होय, छेदन भेदन करनारी होय अने प्राणीओनो घात करनारी एवी सत्यभाषा पण मननी साथे विचारकरी साधु न बोले." तथा श्री सूयगडांगसूत्रनेविषे जणावेल छे के:-"क्षमादि दशभेद स्वरूप जे धर्म तेनी परूपणा प्रते शंका करे मूढताना कारणे अने पापना साधनभूत जे आरंभो ते प्रते जेमने शंका पण थती नथी, ते सद्विवेकरहीत जाणवा तेमज सत्शास्त्रना बोध रहीत जाणवा. ११ अथ अज्ञानवादिमतना कहेला कहेल क्रियावादि दर्शन एटले क्रिया के तेज प्रधान मोक्षनुं अंग छे ए प्रकारे कहेवाना स्वभाववाळा ते क्रियावादी जाणवा, तेओर्नु जे दर्शन-आगम ते क्रियावादिदर्शन जाणवू, ते क्रियावादिओ केवा छे ? ज्ञानावरण्यादिकर्मना विचारथी शुन्य अविज्ञानादिथी वृद्धिपामेला चारपकारना कर्मबन्धने इच्छता नथी. तेथीज कर्मनो चिन्तारहित तेमनुं दर्शन छे. तेने लइने संसारनी वृद्धि करनारा छे पण संसारना नाशक तेओ नथी. २४ तेज जीव अने तेज शरीर आदिने कहेनारा, गोशालकना मतने अनुसरनारा अने त्रैराशिक, ए रागद्वेषादिकथी पराभव पामेलाछे, शब्दादिविषयथी अथवा प्रबल महामोहथी उत्पन्न थएल अज्ञानथो पराभव पामेला छे, एम तुं हे शिष्य जाण! एवा ए मतना आग्रहीओ असत्य उपदेशमा प्रवत्तेला होवाथी कोइना शरणभूत अथवा रक्षाकरवामां समर्थ थइ शकता नथी, कारणके ते बालकनी
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२५२ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद माफक सत् असत् विवेकथी रहित होवाथी, बोले कंइ अने करे कंइ, पोते अज्ञानथी घेराएला तेथी बोजाओने पण अज्ञानी बनावनारा एवा छतापण पोताना आत्माने पंडित माननारा तेओ छे. धनधान्य-स्वजनादि-संयोगने छोडीने अमे प्रबजित थया छीए एम गृहस्थपणामांथी निकळीने फेर परिग्रह आरंभमां आसक्त थएला गृहस्थोनी जेम पचन-पाचन, खांडवु, पीस, विगेरे पापकारी व्यापारना उपदेशने करनारा तेओ थाय छे, अने पांचसूनाना व्यापारवाळा गृहस्थनी जेम पोते प्रवृत्ति करनारा थाय छे. १ वळी १ सत्य, २ असत्य, ३ सत्यमृषा, अने ४ असत्यामृषा आ चारप्रकारनी भाषामध्ये त्रीजी सत्यमृषा के जेमां कंइक सत्य छे अने कंडक असत्य छे, जेम कोइ नगरमां 'दश छोकरा जन्म्या अथवा मूआ' एम बोल्ये छते न्यूनाधिक थएछते संख्यामा फेरफार थवाथी सत्यमृपापणुं थवाथी जीव भवान्तरमा तेवा दोषथी उत्पन्न थएला कर्मकरी पीडा पामेछ, अथवा आज भवमा पश्चात्ताप करनार थायछे. ज्यारे मिश्रभाषा दोषभणी थायछे तो बीजी असत्यभाषानुं तो कहेवून शुं ? तेमज पहेली सत्यभाषा पण जे प्राणीओने दुःख उत्पन्न करे एवा दोषवाळी ते पण न बोलवी, चोथी असत्यामृषाभाषा जे ज्ञानी
ओए न बोलवानी कहेलोछे ते पण न बोलवी. सत्यवाणी पण जे हिंसावाळी होय जेम 'आ चौर छे माटे एने मारो 'आ क्यारामांथी घास काहीनाखो' 'आ बळद जोडवा
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं २५३
लायक थयाछे' अथवा जे वाणीने लोको पण छानी राखे छे तेवी वाणी न बोलवी आ आज्ञा, आ उपदेश श्रीभगवतो कहेल छे. " ए प्रकारे उपदेश करवानो अधिकार बतावेल छे. वळी श्रीआचारांगसूत्रना चोथा अध्ययनना बीजा उद्देशाने विषे कलले के:- "जे हुं कहीश ते दिव्यज्ञानथी अमोए जोएलछे जाणेल ते कहीश अथवा अमारा पूज्य श्री तीर्थंकरो आगममां फरमावेलले अथवा अमारा गुर्वादिक पासेथी अमोए जे सांभळेल के अथवा अमारा गुरुओ अथवा शिष्योए ते बीना स्वीकारेल छे युक्तियुक्त होवाथी, अमने अने अमारा तीर्थकरोने ते व्याजबी लागेछे अथवा dear पर्यायेकरी अमोए तथा अमारा तीर्थकरोए पोतेज विशेषेकरी जाणेल छे परोपदेशथी नहीं, आ नोचे जणावेल बीना उंचे, नीचे, तिछे सर्वदिशीओमां सर्वप्रकारे प्रत्यक्षादि प्रमाणे करी, मननी एकाग्रहताएकरी अमोए अने अमारा पूज्यतीर्थंकरोए विचाराएल छे. शुं विचाराएल हे ? ते जणावेळे - सर्वप्राणिओ, सर्वजीवो, सर्वभूतो अने सर्वसच्चो ते हणवायोग्य छे, हणाववानी आज्ञाकरवायोग्य छे. पकडवायोग्यछे, परिताप उत्पन्न करवायोग्यछे, उपद्रवकरवायोग्य छे अथवा हिंसाकरवा योग्यछे एमां कोइ जातनो दोष नथी एम जाणे छे. वळी धर्मनी विचारणामां पण एम जाणे छे के - यज्ञादिकमां पशुवध छे ते दोष करनार, पापनुं अनुबंध करनार नथी. एम केटलाक पाखंडीओ धर्मविरुद्ध, परलोक विरुद्ध भाषण करेछे.
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
ते आ-तेमनो उपदेश पापने वधारनार जीवोने नाशकरनार क्ररकर्मीजीवो अनार्यलोकोर्नु ए उपदेशवचन छे. तेमा जे आर्यजीवो छे ते तो एम बोले छे, जे हमणां का ते सारं जोवाएल नथी, तमाराथी के तमारा देवोथी, तमारा गुरुओ के तमारा देवो पासेथी तमोए सारं सांभल्यु नथी, तमारो के तमारा देवोनो ए अभिप्राय सारो नथी, तमारो के तमारा देवोनु विशेष जाणपणुं सारं नथी, सर्वप्रकारे विचार्या विनानु छे वळी तमो जे आम कहोछो, भाषण करोछो, परूपणा करोछो के सर्व प्राण भूत, जीव अने सत्वोने हणवा, मारवा विगेरेमा दोष नथी अने यज्ञादिक-माणिओना नाशकारक अनुष्टानमां पाप-दोष नथी एवा तमारा वचन धर्मविरुद्ध अनार्य सरखां वचन छे. अमे तो वळी जेम धर्मविरुद्धवाद न थाय तेम कहिए छोए. भाषण करीए छीए, परूपणा करीए छीए के सर्वप्राण, भृत जीव अने सच्चोने हणवा नहीं, पोडवा नहीं, परिताप उपन्न करवो नहीं विगेरे, एम एवो उपदेश करीए छीए, तेथी अहिं दोष नथी, अने ते आर्यवचन छे." वळी श्रीसूत्रकृतांगसूत्रना सातमा अध्ययननेविषे जणावेल छे के:-"वनस्पतिकायनी उत्पत्तिने अथवा तेनी वृद्धिने अथवा बोज-फलने विनाश करता हरितकायने जे छेदन करेछे ते कर्मने करनार गृहस्थ होय के दीक्षित होय पण ते खरेखर परमाथंथी विचार करवामां आवे तो तेओ परोपघात करता पोताना आत्मानेज दंडेछे, आलोकमां हरितकायने छेदनकरनार
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. २५५ अनार्यधर्मी कहेल छे. बीज विगेरे वनस्पतिकायनी हिंसा करेले ते अनार्य जाणवा. ९ " वळी श्रीसूत्रकृतांगसूचना अग्यारमा अध्ययननेविषे जणावेलले के:- "धर्मश्रद्धावाळाओना गाम - नगरोनेविषे रहेवाना स्थानो होय छे. ते स्थानने आश्रय करनार कोइ धर्मोपदेशथी के धर्मनी श्रद्धाथी अथवा धर्मबुद्धिथी कूवा तलाव खोदावा विगेरेनी क्रिया करनार एम पूछे के आ करवामां धर्म छे के नथी ? एवीरीते पूछाएछते, तेना आग्रहथी के भयथी प्राणीओना नाशने सारुं जाणे नहीं, केवो थयोथको साधु मन, वचन अने कायाएकरी गुप्त अने पोताना आत्मानी रक्षा करनार तथा जितेन्द्रिय सावद्य अनुटानने सारुं माने नहीं. १६ कोइ राजा विगेरे पूछे के कुत्रा खोदावा विगेरेमां पुण्य छे के नथी ? एवी वाणी सांभळीने साधु पुण्य छे एम न बोले, तेमज पुण्य नथी एम पण न बोले बन्ने प्रकारे महाभय समजीने, दोषना हेतुपणाने लड़ने तेनुं अनुमोदन न करे, मौन रहे. १७ शा माटे 'पुण्यछे' एम न बोले ? ते बतावे छे - अन्नपाणी आपवामाटे आहार अने पाणी छे, आहार पचन पाचनादि क्रियाथी अने पाणी कूत्रा विगेरे खोदवायी प्राप्त थाय छे, ते क्रियामां त्रस - स्थावरजीवो हणाय छे, तेथी तेओनी रक्षाना माटे तथा साधु पोताना आत्मानी रक्षाना कारणे जितेन्द्रिय एवो तमारा अनुष्टानमां 'पुण्यछे' एम न कहे. १८ जो एम होय तो 'पुण्य' नथी एम कहे, तेम पण न बोले, ते जणावे के जे जीवोने माटे तेवं अन्न
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श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद.
पाणी विगेरे धर्मबुद्धिथी प्राणीओनो नाशकरो उत्पन्न करे छे, तेनो निषेध करवाथी ते आहारपाणीना अर्थाने माटे लाभान्तराय थाय, तेथी तेओ पीडापामे, माटे कूवा खोदवा विगेरे कार्यामां पुण्य नथी एम पण मुनि न बोले. १९ वळी पण एज अर्थने स्पष्ट बतावता कहेछे:-जे कोइ एम प्रशंसा करे के दानशाळा करवी, पाणीनी परबो मंडाववी विगेरेनुं 'दानछे ते घणा जीवोनो उपकार करनार छ' एम बोलनार परमार्थने नहिं समअनार प्रशंसाकरनार घणाजीवोना वधने इच्छेछे, कारणके ते दाननी प्राणातिपातकर्याविना उत्पत्ति थती नथी. वळी जे पोताने तीक्ष्ण बुद्धिवाळा अमे छीए एम माननारा अने आगमना सद्भावने नहीं जाणनारा ते दाननो निषेध करे ते सूत्र अने अर्थना नहीं जाणनारा प्राणीओनी आजीविकाना छेद करनारा छे. २० ते माटे कूवा, तलाव यज्ञ विगेरे करवामां उजमाल थएला राजा के शेठ-साहुकारे साधुओने पुच्छचं होय के 'ए कार्यमा पुण्यनो सद्भावछे के नहीं ?' ते जणावे छे:-जो 'पुण्यछे' एमकहे तो अनंता सूक्ष्म बादर जीवोना सदाए प्राण त्यागज थाय अने लाभ तो थोडा जीवोने थोडं थाय, माटे तेमां पुण्यछे एम न कहे, तो पुण्य नथी' एम निषेध कर्येछते पण तेना अर्थिओने अंतराय थाय, एटलामाटे बन्ने प्रकारे 'पुण्यछे' के 'पुण्य नथी' एम साधुओ न बोले, किन्तु कोइथी पुच्छाएला साधुओ मौनधारण करे. कोइ आग्रह करीने पूछे तो कहे के अमने बेता
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माचार्यश्री मातृचंद्रमरि प्रथमाला पुस्तक ५३ , २५७
लीस दोषरहित आहार कल्पे । आवा प्रकारना विषयमा साधुओने बोलवानो अधिकार नथी अने जो ए बन्ने प्रकास्मां बोले तो कौनो बंध थाय माटे निरवद्यभाषा बोलनारा मुनिओ मोक्षने पामे छे. २१" बळी श्रीपश्नव्याकरणसूत्रना संवर नामना बीजा अध्ययनमा जणावेलछे के।"सद्गुरुना समीपमा सांभळीने मृषावादविरतिरूप संवरना माटे अने सांभलवाथी हेय, उपादेय वचननु तात्पर्य रुडोरीते जाणीने बोलवु जोइए, पण वेगथी-विकल्पना व्याकुलपणाथी बोलवू नहीं, त्वरित-उतावळथी बोलवु नहीं वचननी चपलताथी बोलवू नहीं, अर्थथी कडवू बोलवू नहीं. अक्षरोथी कठण बोलवू नहीं, साहसथी-विचार्या विना बोलवू नहीं, बीजाने पीडाकरनार वचन बोलवू नहीं. त्यारे केवां वचन बोलवां ते बतावे छे:-पापरहित होय, सत्य होय, हितकारी होय, मित-थोडा अक्षरवाल्छं होय, प्रतीतिने उत्पन्न करनारूं होय, शुद्ध-पूर्व कहेला वचनना दोषोए करी रहित होय, संगत-पूर्वापर विरुद्ध न होय, मणमणा अक्षरेकरी रहित होय अने पहेला बुद्धिथी सारीरीते विचाराएल होय, एवं वचन संयमी-साधुए अवसरे बोलवू, आवां सूत्रनां वचन होवाथी ते सिवाय बोलवू नहीं." बळी श्रीसूत्रकृतांगसूत्रना अग्यारमा अध्ययनने विषे जणावेलछे के:-"एज इमणां कहेल हिंसाथी निवर्तन छे ते जीवन स्वरुप तेना वधथी कर्माना बंधने जाणनार एज ज्ञानीओना ज्ञाननो परमार्थयी प्रधान सार छे. वळी
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२५८ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुषाद. पण अहिंसा वस्तुपर आदर जणाववा माटे एज आगे कहेछे. जे माटे सुखनी इच्छाकरनार कोइपण जीवनी तेओ हिंसा करता नथी, खरुं ज्ञान पण तेज के परने पीडा न थाय तेम वर्तवू, मतलबके प्राणातिपातथी निवत्त, एज अहिंसाप्रधान सिदान्तने जाणीने मुमुक्षु साधुनी इच्छित कार्यसिद्धि थायछे विशेषनी जरुर नथी.१०" आ प्रकारे सिद्धान्तनुं वचन होवाथी कोइ जीवनी हिंसा करवी नहीं. वळी श्रीराजप्रश्नीय उपांग सूत्रमा सूर्याभदेवना नाटक करवा संबंधी प्रश्नना अधिकारने विषे जणावेल छे के:-" हु इच्छुछ देवानुपियनी आगे भक्तिबहमानपूर्वक श्रीगौतमादिक श्रमणनिग्रन्थोने दिव्य एवी देवनी ऋद्धि, दिव्य एवी देवनी यति,दिव्य एवो देवनो प्रभाव देखाडवा अने बत्रीस प्रकारना नाटयविधिने बताववा इच्छुछु, त्यारे श्रमण भगवान श्रीमहावीर सूर्याभदेवे एम कोछते सूर्याभदेवना ए अर्थने आदर-स्वीकार न करे, सारं पण न माने,मौन रहे." आवां आगमनां वचन होवाथी बोलवामां बहुविचार राखवो जोइए. आ जिनवरोनो उपदेश ते विधिवादे मुनिओनो जाणवो, तेज निश्चयथी मुनिवरोए प्रयत्नपूर्वक सदहवो जोइए. २५० । बीजुअंग श्रीसूत्रकृतांगसूत्रना बीजा श्रुतस्कंधना बीजा उद्देशाने विषे त्रण पक्ष बताव्या छे, १ धर्मपक्ष २ अधर्मपक्ष अने ३ मिश्रपक्ष. २५१ । ए त्रण पक्षोनो अवतार धर्मपक्ष अने अधर्मपक्ष एबे पक्षनी अंदर करेल छ । पहेला धर्मपक्षमा सम्यग्दृष्टि अने बीजा अधर्मपक्षमां मिथ्यादृष्टि जीवो
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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि प्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २५९
बताव्याछे. २५२ । अविरतिमिथ्यादृष्टी एकान्ते अधर्मपक्षमा जाणवा कारणके तेओमा श्रतधर्म के चारित्रधर्म ए बन्नेमांथी एक पण होतो नथी. २५३ । सम्यग्दृष्टी अने विरति ए बन्ने धर्मपक्षमा छे,अविरतिसम्यग्दृष्टी पण सम्यक्त्वने लइ धर्मपक्षमा छ एम जाणवू.२५४ । मिथ्यादृष्टी विरति चारित्रने लइने मिश्रपक्षमा छे; सम्यग्दृष्टीविरताविरति श्रावक पण मिश्रपक्षमांज जाणवा. २५५ । वळी मिथ्यादृष्टी विरति होय के अविरति होय तोपण ए अधर्मपक्षमा छ एम जाणवू, कारणके तेमां सर्वथा कांइपण श्रुतधर्म नथी. २५६ । वळी सम्यगदृष्टी, सर्व विरति होय, अविरति होय के विरताविरति होय, ते बधा धर्म पक्षमांजाणवा.२५७। व्यवहारथी के निश्चयथी चारित्रधर्मनेलइ जे मिश्रपक्षवाळा होय ते मिश्रपक्षने विशुद्ध एवा मुनि सारं छे एम स्थापन न करे अने खोटुंछ एम निषेध न करे. २५८ । मुनि अधर्मपक्षनो प्रतिषेध करे अने धर्मपक्षनी स्थापना करे. आ त्रण प्रकारना धर्मपक्षोनी विचारणा सूत्रमा बतावेल छे. २५९ । ए कारणे उत्सर्गमार्गमां सावध एटले पापनो लेशमात्र पण न होय अने अपवादमार्गमां पण निश्चयथी सावधनो करवामां विधि श्रीसिद्धान्तोमा बतावेल नथी. २६० । जिने. श्वरोए छद्मस्थोने माटे कोई स्थळे अपवाद पण बतावेल छे. पण ते कोइ प्रकारे पोतानी मेळे उत्पन्न थायछे: अने जे जेवो होय ते तेवो यथास्थित कहेवाय. २६१ । अने तेमा जे जिनवचनना अनुसारे होय ते निरवध-(पापरहितविधि) उपदेश जाणवो,
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२६०
श्रीसप्तपदीशाख-गुजरातीभाषानुवाद.
तेनाथी जे बीजो ते यथास्थित होय छे. २६२॥जे चरितानुवाद छे, ते पण प्रण प्रकारनो छे:-अधर्मचरितानुवाद, धर्मचरिता. नुवाद अने मिश्रचरितानुवाद, तेमां पण साधुनो उपदेश पहेला कहेलछे ते प्रमाणे जाणवो.२६३ । छटुं अंग श्रीज्ञातासूत्र अने पांच{ अंग श्रीभमवतीसत्र, तेनी वृत्तिमां श्रीअभयदेवसरिए द्रौपदीना अधिकारमा तथा शंखश्रावकना अधिकारमा जेम कहेल छे तेमज जाणवू. २६४ । एवीरीते त्रण प्रकारना उपदेशविधिवादोपदेश, चरितानुवादोपदेश अने यथास्थितवादोपदेश शानीओए कह्याछे, ते व्यवहारथी तथा निश्चयथी आदरवा योग्यने आदरवा, जाणवा योग्यने जाणवा अने छोडवा योग्यने छोडवा.५६५। वळी धर्मपक्ष, अधर्मपक्ष अने मिश्रपक्ष ए त्रण पक्ष कहाछे, एम अग्यारस्थानो-भेदो श्रीसुगुरुना मुखथी जाणवा जोइए. २६६ । प्रवचन-सिद्धान्तना अनुसारे आ अग्यारगणा जेम लखेला छे तेम महेरबानी करी निश्चेथी एओने गीतार्थों ग्रहणकरनारा थाओ. २६७ । जो सूत्र-प्रवचन्थी अविरुद्ध ए अग्यार बोलछे एम जो जाणो तो मुममाण करो अने बीजाने सुममाण करावो. जो एमां कांइ पण सूत्र-सिद्धान्तथी विरुद्ध लखायुं होय तो तेनुं मने मिथ्यादुष्कृत थाओ. २६८ । अने वळी कंइ अपवादने सेवतो पण श्रीजिनेश्वरोए कहेल उत्सर्गमार्गनेज मानतो अने पोताना कारणने कहेतो साधु विराधक न ज जाणवो. २५९ । तेमज उपयोगवाम् साधु चारे भाषाने बोलतो पण आरा
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आचार्यश्रीप्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं. २६१ धकज श्रीपन्नवणाजी उपांग सूत्रमा कहेलछे. २७० । ए प्रकारना वर्णनो श्रीदशाश्रुतस्कंधसूत्र तथा श्रीठाणांगसूत्र विगेरे सिद्धान्तोमा अपवादपदे कह्याछे, त्यां बतावेल बीना ते यथास्थित उपदेश छ एम जाणवू. २७१ । कारणके ए ए स्थानोमा प्रवर्तवानो विधि श्रीजिनेश्वरोए बतावेल नथी, तेथी ए स्थानोने न करतो मुनि विराधक थतो नथी. २७२। तथा नदी उतरवानो उपदेश यथास्थित जाणवो अने तेनो जे विधि ते विधिवाद जाणवो, नदीनुं उतरवु ते सावध छे, अने उतरवानो विधि ते निरवद्य छ २७३ । जो नदीना पाणीमां एक पग पण धारण न करे तो पण दोष नथीज, पण जो नदीमा प्रवेश करते। एक पग स्थलमा धारण न करे तो तेथी महादोष थाय छे. २७४ । ' एवीरीते विचारीने गीतार्थों जे कहे ते सत्य' ए उपदेश यथास्थित छ एम हुँ जाणुछ. २७५ । जोके छद्मस्थ अने केवली 'बाबथी' समान क्रियाए नदीना जलने ओलंघेछे एटले नदी उतरे छ, तथापि 'निश्चयथी' उत्सूत्र तथा यथासूत्रपणुं रहेलछे, छमस्थनी प्रवृत्ति उत्सूत्रवाळी अने केवळीनी प्रवृत्ति सूत्रानुसारी होय छे. २७६ । श्रीभगवतीसूत्रना सातमा, दशमा अने अढारमा शतकनेविषे तेमज तेना घणा स्थानोमां - रियति' एवं पद छ अने तेनो अर्थ 'चालेछे' एम कहेलछे अने अर्थमां पण समान छे-जूदापणु नथी. २७७ । जोके खरेखर जिनेश्वरनो 'विधि' उपदेशछे, तो एमां एटलो अंतर केम ? एवा
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२६२ श्रीसप्तपदीशास्त्र-गुजरातीभाषानुवाद, कारणे जिनेश्वरनो उपदेश निरवद्य होयछे. २७८ । तथा श्रीभगवतीसूत्रना सातमा, दशमा अने अढारमा शतकनेविषे समानदंडक आ प्रमाणे जणावेल छ:-"जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ नाश पाम्या नथी, ते 'संपराइया' क्रिया करनारा जाणवा, ते उत्सूत्रेज चाले छे तथा जेओना क्रोध, मान माया अने लोभ नाश पामी गयाछे. तेओन 'इरियाबहिया' क्रिया होयछे, ते सूत्रना अनुसारेज चालेछे."
आ प्रकारे सूत्रवचन हावाथी, अनीतिमा उस्मुत्तमेवरीयति' तेमां ' उस्मुत्त' ए पदनुं व्याख्यान ' अनाज्ञाए' एम करेल छे. माटे गीतार्थाए सूत्र तथा अर्थ बन्ने विचारवा. 'अहासुतं' ए पदनुं व्याख्यान तो सुगमज छे ज्यारे 'उत्सूत्रनो अर्थ अनाज्ञा त्यारे सूत्रनो अर्थ आज्ञाज जाणवो जोइए. निरवद्य-पापरहित आ उपदेशनो विधि श्रीसाधुरत्नगुरुना सुपसाए जाणीने में संक्षेपथी कहेल छे. २७९ । खरतर गच्छ, तपगच्छ, उपकेशगच्छ, अथवा विशुद्ध उकेसगच्छ, कोरंटगच्छ, चित्रवाळगच्छ, मलधारीगच्छ, प्रवर-श्रेष्ट बडगच्छ, अंचलगच्छ, नाणगच्छ, सांडेरगच्छ, पल्लिपुरगच्छ, आगमीयागच्छ, पुनमीयागच्छ विगेरे अने धर्मघोष नामे गच्छ बीजा पण गच्छवासीओ हालमा जे जे विद्यमानछे, ते ते सर्व पोतपोतानी परंपराने जणावे छे, तेमां पण जे जे श्रीजिनवरनीआणाना अनुसारे प्रवर्ने छे, ते ते मने प्रमाणछे. अने पाताना आचार्योए कहेल पण जे जे श्रीजिनवरनी आणाने
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eetर्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि प्रन्थमाला पुस्तक ५३ मुं. २६३
अनुसारे होय ते ते मने प्रमाणछे. २८० थी २८३ । जे कांह प्रवचन - सूत्रसिद्धान्तथी विरुद्ध आ शास्त्र लखतां में लख्युं होय, तेनुं श्रीसंघसमक्ष हुं 'मिच्छामिदुक्कडं' आपुंछु ते दुष्कृत मारुं मिथ्या थाओ. २८४ । विक्रम संवत् १५९१ ना वर्षे कार्तिक पूर्णिमाना दिवसे पार्श्व चंद्रे - श्रीपार्श्वचन्द्रसूरिए आ समाचारी संबंधी सप्तपदीशास्त्र लख्युं छे. २८५ । श्री सिद्धान्तमार्गना प्रेमी अने अत्यन्तश्रेष्ट वैरागी एवा साधु, साध्वी, श्रावक अने सुश्राविकाओने आ शास्त्र योग्य छे २८६ । श्रीजिनवर कथित सिद्धान्तरुप श्रेष्ट मानससरोवरमा रमणताकरनार राजहंससरखा एवा जे शुद्ध पवित्र धर्मनी सद्दहणा करेछे अने अनादिकाळी सिद्ध तथा सिद्धिने आपनार एवा धर्मनी मरूपणा करेछे, ते भाग्यशाळीओने मारो नमस्कार थाओ. २८७ | इति विश्वबंध श्रीमहावीरस्थामिशासननायक श्री गौतमस्वामी, सुधर्मस्वामिप्रमुख सुविहितपरंपरायात - श्रीनागपुरीय बृहत्तपागच्छनभोमणि श्रीजिनागम मार्गप्रकाशक- शासनप्रभाas सदूधर्म रक्षक - पंचाचार पालक-क्रियोद्धारकारकआत्मज्ञानरसिक-धर्मधुरंधरधोरी-स्वपरोपकारीआबालब्रह्मचारी उग्रविहारी- घोरतपस्वी पर
मपुरुष जगतपूज्य - युगप्रधान श्रीमत्पार्श्व चंद्रसूरीश्वरदादाविरचित 'सप्तपदीशास्त्र' नो गुजराती अनुवाद संपूर्ण । आ शास्त्र श्रमण संघनं अखंड कल्याण करनार अने शाश्वती. लक्ष्मी आपनार थाओ ।
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युगप्रधानश्रीपार्थचंद्रसूरीश्वरदादानो छंद।
(गिरिवर दरिसन विरला पावे-ए देशी ) थुम अनोपम पगलां सुंदर, रूप मनोहर महिमा मंदिर । चरणकमल बंदु आणंदा, धन धन श्रीपार्श्वचंद्रमृरीन्दा।च०१ वेलग पिता विमलादे माता, प्रागवंश गुरु जगत विख्याता। च०। साधुरतनगुरुशिष्यशिरोमणि, गच्छपतिवडतपगच्छनभोमणि पंच महावत पंचाचारा, षटकाय जीव प्रतिपालनहारा । च० मोह मदन भड वैरिजिता, पंचइंद्रियजित वदीता ।। च० ॥३ चिहुं प्रकारे धर्म प्रकाशे, उत्तम भवियण चित्त विकासे । च० गुणसागरप्रतिबोधदिवाकर, सौम्यकलागुणे जित निशाकर ॥ ४ आगम निरवद्य मधुरी वाचा, बोधिबीज गुणदायक साचा।च० करणी साची ने बुद्धि साची, प्रगटी धर्मसामग्री जाची।च०५ निर्मल शिवपद मारग साधे, शुद्धी जिनवर आण आराधेच श्रीपाश्र्धचंद्रसरि संकट चूरे, सकल कुशल वंछित फळ पूरे।च०६ श्रीसंघ चतुर्विध सेवा सारे, वहाण सम भवसायर तारे । च० पूज्य अचिंत्य चिंतामणि कहीये, विमलचारित्र सेवक सुख लहीये
श्रीपूज्याः पार्श्वचंद्रा जिनपतिसदृशा मार्गदा मार्गसंस्था,
शुद्धाचारा यतीशा व्रतसमितिरता ज्ञानदा ज्ञानवंतः । दृष्ट्वा तान् मर्त्यलोके नृपसुरमहिता वंदनार्थ सुरेंद्र,- ' राहूताः स्वर्गलोके भवभयहरणाः शांतिदा मे भवंतु ॥१॥ तुष्टिदा मे भवंतु पुष्टिदा मे भवंतु । श्रीरस्तु ।
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकलभविषु बोधे ज्ञानविज्ञानपूर्णः / / युणिगणगणनासु लब्धकीर्ति-वरेण्यः // उदयगिरिषु चन्द्रः सद्वचोम्भोषिचन्द्रः / जयति जगति सरिः सागरचन्द्रवयः // 1 // યથાવત છેઠધ્યાબિડીંગ વર્કસ टाइगरवा-सहावा For Private And Personal Use Only