Book Title: Sanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Author(s): Chandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
Publisher: Kalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મૃતિયન્જ જે દિશા-નિર્વે વાર્ય શ્રી તુનસી - 8 | * * - - - - છે.. - . • - - - - • • • - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा आचार्य श्री कालूगणी स्मृति ग्रन्थ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મહીમનસ્વી સાવાર્ય શ્રી કાનૂપાળી જી નન્મ-શતાબ્લી के उपलक्ष मे Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संर1-प्राकृत जी व्याकरण और कोशकी परापरा दिशा-निर्देश युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी सपादक-मडल मुनि श्री चन्दनमल मुनि श्री नथमल मुनि श्री छत्तमल्ल मुनि श्री बुद्धमल्ल डॉ० नथमल टाटिया श्रीचन्द रामपुरिया पं० दलसुख भाई मालवणिया सपादक मुनि श्री दुलहराज डॉ० छनिलाल शास्त्री डॉ० प्रेमसुमन जैन एम० ए० (जय), पी-एच० डी० सहायक प्रोफेसर - भूतपूर्व प्राध्यापक प्राकृत-सस्कृत विभाग, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली उदयपुर विश्वविद्यालय प्रकाशक __ श्री कालू गणी जन्म-शताब्दी समारोह समिति छापर (राजस्थान) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध सपादक मोतीलाल नाहटा प्रधान मनी . श्री कालूगणी जन्म-शताब्दी समारोह समिति, छापर (राजस्थान) प्रथम संस्करण ભાવાર્ય શ્રી કાનૂપાળી નન્મશતાબ્લી દિવસ फाल्गुन शुक्ला २, स० २०३३ [२० फरवरी, १९७७] मूल्य पैतालीस रुपये मुद्रक मॉडर्न प्रिंटर्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-११००३२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय तेसपथ का उद्भव एक क्रान्तिपूर्ण इतिहास की कडियो से जुडा है। इसके आविर्भावक महान् लौहपुरुष आचार्य भिक्षु एक क्रान्ति-द्रष्टा साधक थे, जिन्होने अध्यात्म-जगत् मे अद्भुत क्रान्ति की। उन द्वारा उप्त कान्ति-वीज से अकुरित, सद्धित, पल्लवित एव पुष्पित तेरापथ का महान् वटवृक्ष सतत विकास पाता गया, जिसकी फलान्विति आज अनेक रूपो मे दृष्टिगोचर है। नूतन और पुरातन की भूल-भुलैया मे न पड़ सत्य और यथार्थ का अवलम्बन करते हुए अग्रसर होते रहना तेरापथ का मूल मन है। यही कारण है कि तेरापंथ मे समय-समय पर जव जैसे अपेक्षित हुए, विकास के नये-नये उन्मेष आते गए, सवर्द्धन, उन्नयन और विकास होता गया। सयम और श्रुत दोनो दृष्टियो से तरापथ एक उत्कर्षशील धर्म-सघ है। आचार्य भिक्षु के उत्तरवर्ती आचार्यों ने अनेक दृष्टियो से इसकी सतत अभिवृद्धि की। जैन धर्म माचार-प्रधान धर्म है। शुद्ध आचार-सवाहकता जैन श्रमण का जीवनसत्त्व है । आचार के साथ श्रुत शास्त्रज्ञान विधा का भी अपना महत्व है क्योकि उससे आचार को सवल वैचारिक पृ०भूमि प्राप्त होती है।। तेरापथ के अण्टमाचार्य श्री कालूगणी ने अपने आचार-समुन्नत अन्तेवासियो को अधिकाधिक श्रुत-समुन्नत करने का अपने शासनकाल मे अत्यधिक प्रयत्न किया। उसी के अन्तर्गत सघ मे हुए सस्कृत विद्या, प्राकृत भाषा आदि के गभीर अध्ययन का पक्ष आता है। आचार्य श्री कालूगणी चाहते थे, उनके साधु-संघ मे सस्कृत विद्या का भरपूर प्रसार हो, क्योकि इससे शास्त्र-परिशीलन मे विशेष आनुकूल्य होगा। आचार्य श्री कालूगणी परम दृढ निश्चयी थे, उसी का यह परिणाम हुआ कि तेरापय मे सस्कृत के अनेक पारगामी विद्वान् साधु-साध्वी तयार हुए। इतना ही नही, सस्कृत और प्राकृत मे अभिनव व्याकरण तक लिखे गए। प्रात स्मरणीय आचार्य श्री कालूगणी द्वारा संचालित यह महान् प्रयास उनके उत्तराधिकारी महामहिम आचार्य श्री तुलसी द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता रहा। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह बहुत सुन्दर हुआ कि परमाराध्य आचार्य श्री की प्रेरणा और मुनि श्री नथमलजी के मार्गदर्शन से एक इस कोटि के स्मृति-ग्रन्य के प्रकाशन का 'समिति' द्वारा निश्चय किया गया, जो बाचार्य श्री कालूगणी के विद्या-जीवन से अनन्यरूपेण सम्बद्ध व्याकरण आदि विषयो पर आधृत हो। उसका साकार रूप प्रस्तुत ग्रन्थ है। हम इसे आचार्य प्रवर तथा मुनि श्री नथमल जी के आशीर्वाद का ही फल मानते है कि इस कोटि के स्मृति-ग्रथ का दुसाध्य कार्य इतने अल्प समय मे सपन्न हो सका है। इसके लिए हम उनके अत्यन्त आभारी है। ___इस ग्रन्थ के सम्पादन मे प्राच्य विद्या के अध्येता मुनि श्री दुलह राज जी, प्राकृत जन शोध सस्थान, वैशाली (विहार) के भूतपूर्व प्राध्यापक डॉ० छानलाल जी शास्त्री तथा उदयपुर विश्वविद्यालय के प्राकृत के सहायक प्रोफेसर डॉ. प्रेम सुमन जी जैन ने बडी लगन के साथ श्रम किया है। इसके लिए समिति उनका हृदय से आभार मानती है। ये तीनो ही विद्वान् सस्कृत-प्राकृत क्षेत्र के सुप्रसिद्ध सेवी है। इनके मपर्क व प्रयास का ही यह परिणाम है कि बहुत कम समय मे इतनी उपादेय सामग्री या विद्वानो के समक्ष उपस्थित की जा सका है। ___ सम्पादक मंडल के आदरास्पद मुनिजनो ए१ सम्माननीय सदस्यो के भी हम आभारी हैं, जिनका सवल व मार्गदर्शन हमे सहज प्राप्त रहा है । स्मृति अन्य के लिए जिन विद्वानो ने अपने शोधपूर्ण निवन्ध प्रेपित कर इसे समृद्ध बनाया है, उनके प्रति हम हृदय मे कृतज्ञ है। साहित्य प्रकाशन सम्बन्धी कार्य के सम्यक निर्वाह हेतु समारोह समिति के अन्तर्गत एक साहित्य समिति परिगठित की गई थी। साहित्य समिति के सभी सदस्यो का मुझे हादिक सहयोग प्राप्त रहा, जिसके लिए मै उनका हृदय से आभारी है। समिति की साहित्यिक योजना तथा कार्यों में हमारे सम्माननीय सदस्य, जन विश्व भारती, लाडनू के कुलपति श्री श्रीचद जी रामपुरिया का प्रारम्भ से लेकर प्रकाशन की अन्तिम वेला तक जो सहयोग और श्रम प्राप्त हुआ, वही आज फलीभूत होकर हमारी इस योजना को सफल बना पाया है। आदरणीय श्री रामपुरिया जी की सेवाओ के लिए सदा-सदा हमारी समिति कृतज्ञ रहेगी। प्रमुख समाज सेवी श्री मानिकचन्द जी सेठिया, श्री सतोषचन्द जी बरडिया एव श्री गोपीचन्द जी चोपडा का समय-समय पर जो सत्परामर्श एव मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा, उसके लिए हम उनके भी हृदय से आभारी हैं। ___ समारोह समिति के सम्माननीय अध्यक्ष श्रीमान् मोतीलालजी कोठारी, उपाध्यक्ष श्रीमान् भीखमचदजी वंद, जिनके महत्वपूर्ण, उपयोगी सुझाव मुझे परावर मिलते रहे, का में अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। निरन्तर यन्तवत् कार्यरत श्रीमान् Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vii मानिकचदजी चोरडिया का आभार मानन। मै अपना परम कर्तव्य समझता हूँ, जिनका प्रस्तुत कार्य मे मुझे हर समय साथ मिलता रहा। समारोह समिति के सभी सदस्यो को मैं अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ, जिनकी सद्भावना, सहयोग तथा साहचर्य से मैं अपने कार्य मे गतिशील रह सका। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन-कार्य मे प० श्री शकरलालजी पारीक बी० ए० साहित्यरत्न, विज्ञानरत्न ने अपने अनवरत श्रम से जो स्तुत्य योग प्रदान किया, उसके लिए मैं अपना हार्दिक धन्यवाद देना नहीं भूल सकता। आशा है, प्राच्य विद्या जगत् के अध्येता, अन्वेष्टा तथा जिज्ञासु प्रस्तुत ग्रन्थ से लाभान्वित हो। छापर चूरू (राजस्थान) वसंत पंचमी, स० २०३३ मोतीलाल नाहटा પ્રધાન મન્ની श्री कालूगणी जन्म-शताब्दी समारोह समिति छ।पर (राजस्थान) Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भापा और भाव का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। भावो की सवाहकता मे भाषा का अपना एक ऐसा दायित्व है, जिसे अनन्य साधारण कहा जा सकता है। विभिन्न માથાબો કી વન-અપની ક્ષમતા હોતી હૈ ક્યોતિ શતાબ્દિયો સૌર સહસ્ત્રાદ્રિવ્યો के प्रयोगो के अनन्तर कोई एक भाषापरिनिष्ठित रूप प्राप्त करती है । इसे उस भाषा का शक्ति-अर्जनकाल अथवा क्षमता-सम्पादन का समय कहा जा सकता है। परिनिष्ठित, परिष्कृत तथा परिपक्व रूप प्राप्त भाषाओ मे सस्कृत का अपना अद्वितीय स्थान है। सस्कृत के शब्दो की कुछ ऐसी अनुपम क्षमता है कि गहनतम विपयो के निरूपण में भी उसका अपना विशेष महत्व है। सस्कृत की इस कोटि की परिनिष्ठितता मे उसके अपने वैज्ञानिक एव परिपूर्ण व्याकरण का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि अत्यन्त कसे हुए व्याकरण के नियम भापा को ससीम अवश्य बनाते है पर साथ ही साथ उसमे एक विशिष्ट शक्ति का आपादन भी करते है। संस्कृत का व्यकिरण विश्व की भाषाओ के व्याकरणो मे अपनी इसी विशेषता के कारण अनुपम है। ___ संस्कृत भाषा के इतिहास का यह गौरवमय पृष्ठ है कि जैन परम्परा के विद्वानो, आचार्यो और सन्तो ने सस्कृत के पल्लवन और विकास मे बहुत बड़ा योगदान किया। जन आगम-साहित्य की भाषा प्राकृत होते हुए भी उन्होने सस्कृत मे साहित्य के विविध अगो पर प्रचुर रचनाए की। अपने आगम-वाड्मय की व्याख्या, विश्लेषण तथा विवेचन मे भी उन्होने सोत्साह सस्कृत भाषा का उपयोग किया । इससे जहाँ एक ओर उनकी विचार-सम्पदा विभोग्य वनी, दूसरी ओर सस्कृतसाहित्य की भी असाधारण श्री-वृद्धि हुई। सस्कृत विद्या की निधि को आपूर्ण करने मे जन-मनीषियो का बहुत बड़ा योगदान रहा है। तेरापथ मे सस्कृत-प्राकृत की प्रगति यह वडे हर्ष का विषय है कि सस्कृतविद्या, जिसकी आज देश मे चर्चा तो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत चलती है पर क्रियात्मक रूप से जिसका पठन-पाठन दिनानुदिन क्षी और क्षीणतर होता जा रहा है, का तेरापय सघ में आज भी उत्तरोत्तर विकासमान प्रचलन है। शताधिक साधु, साध्विया सस्कृत मे पारंगत हैं। वे केवल अध्ययन और अनुशीलन ही नही, विविध प्रकार के अभिनव साहित्य के निर्माण मे भी तत्पर और कुशल है । तेरापय के वर्तमान अधिनायक युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के निर्देशन और मार्ग-दर्शन मे सरतविद्या के अभिवर्धन-उन्नयन का यह क्रम सतत प्रगतिशील है। तेरापथ मे हुए मस्कृतिविद्या के विकास के इतिहास का पर्यवेक्षण करे तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि परमाराध्य आचार्य श्री तुलसी के गुरुवर्य, तरापथ के अप्टमाचार्य प्रात स्मरणीय श्री कालूगणी ने इसमे वहुत वडा कार्य किया। उन्होंने जीवन भर इस बात के लिए निरन्तर प्रयल किया कि उनके धर्म-सच मे सस्कृत विद्या के विशिष्ट अध्येता और वेत्ता साधु तयार हो। आचार्य श्री कालूणी पल्लवग्राही पाडित्य के पक्षपाती नही थे, वे ठोस तथा मूलग्राही ज्ञान को महत्त्व देते थे। इसी लिए मस्कृत के अध्ययन मे उनका व्याकरण के ५०न पर बहुत जोर था। नि सन्देह यह एक अनुकरणीय तथ्य है कि उन्होंने प्रौढावस्या मे स्वय व्याकरण का गभीर अध्ययन किया एवं अपने अन्तवासी साधु-साध्वियो को इस ओर प्रेरित किया। व्याकरण शब्दो के शुद्ध प्रयोग की शिक्षा देता है। प्रयोग के लिए प्रयोक्ता के पास शब्दो का बहुत अच्छा संग्रह होना चाहिए । आचार्य श्री कालूगणी ने इसका अनुभव किया और कोश के अध्ययन तथा कठस्यीकरण का विशेष क्रम उन्होने चालू किया। फलत अनेक माधु-साध्वियो ने आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित अभिधान-चिन्तामणि आदि कोपो को कलान कर लिया। सस्कृत व्याकरण के साथ-साय प्राकृत व्याकरण के अध्ययन पर भी आचार्य श्री कालूगणी ने वल दिया । आचार्य श्री कालूगणी का शासनकाल तेराय मे वास्तव में विद्या-विकास का काल कहा जा सकता है। मस्कृत, प्राकृत, कोश आदि के ठोस अध्ययन के पश्चात् तेरापथ मे एक ऐसा का 1 शुरू होता है, जब मौलिक साहित्य, विशेषत लक्षण-ग्रन्थो का सर्जन चालू हुआ। उसके अन्तर्गत पृष्ट ग्रन्थो मे मुनि श्री पायमल्लजी द्वारा रचित भिक्षुशनानुशासन का अपना अनन्य स्थान है । मुनि थी पायमल्लजी ने देश मे प्रचलित, अप्रचलित अनेक व्याकरणो का गभीर परिशीलन किया तथा सरलतम, फोमलतम शैली मे इसकी रचना की। इस प्रसग पर आशुकविरत्न, आयुवदाचार्य प० रघुनन्दन शर्मा (अलीगड, उत्तरप्रदेश) का नाम बडे आदर के साथ स्मरणीय है, जो मुनि श्री के मा व्याकरण-प्रणयन के ऐतिहासिक कार्य मे अनन्य सहयोगी रहे नया दानुशासन पर वृहद् वृत्ति की रचना भी उन्होने की। निक्षुदानुजामन लिंगानुशासन, णादि, न्यायदर्पण आदि के साथ एक सम्पन्न व्याकरण है। रापय मे इसका पठन-पाठन चालू हुआ। एक प्रकार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे यह व्याकरण का एक अभिनव पीठ (New school of grammar) प्रतिष्ठित हुआ। इस महत्वपूर्ण ग्रन्य को सुसम्पादित रूप में शीघ्र प्रकाशित करने की योजना है। ___सस्कृत का व्याकरण अन्यान्य भाषाओ की तरह साधारणतया भाषा के शिक्षण या वाक्य-रचना-प्रकार-बोधन का मात्र माध्यम नहीं है। वह तो स्वय अपने आप में एक सर्वथा परिपूर्ण शास्त्र का रूप लिए हुए है। तभी तो कभी उसके लिए यह जनश्रुति प्रचलित हुई 'द्वादशभिवषयाकरणमधीयते' अर्थात् बारह वर्ष मे व्याकरण का अध्ययन पूर्ण होता है । कहने का आशय यह है कि सस्कृत व्याकरण मे निरन्तर विकास होता गया। टीका, व्याख्या, वृत्ति, वातिक, पजिका, फक्किका, प्रक्रिया आदि के रूप मे विविध प्रकार का साहित्य निर्मित होता रहा। मुनि श्री चौथमल्लजी ने भी अपने शब्दानुशासन की एक सक्षिप्त प्रक्रिया तयार की, जिसका उन्होने अपने श्रद्धेय गुरुवर्य के नाम पर 'कालुकौमुदी' नाम रखा । यह कहना अतिरजन नही है कि आचार्य श्री कालूगणी के शासनकाल मे उनके अन्तेवासी मुनि श्री चौयमल्लजी द्वारा प्रणीत भिक्षुशब्दानुशासन संस्कृत के व्याकरण-वाड्मय को एक अप्रतिम देन है। भिक्षुशब्दानुशासन पर एक लघुवृत्ति की भी रचना हुई, जिसके लेखक भ्रातृदय श्री धनमुनि एव श्री चन्दन मुनि है। आचार्य श्री कालूगणी के समय मे और भी अनेक विषयो पर संस्कृत मे नूतन रचनाए हुई। आचार्य श्री कालूगणी के दिवगमन के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी तरापथ के वर्तमान सघाधिपति, युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने सस्कृत विद्या के इस विकास को न केवल वनाए रखा वरन् उसे और अधिक गतिशील किया है। याचार्य श्री तुलसी को बचपन से ही सस्कृत से अनन्य अनुराग है। किशोरावस्या से ही उनको सस्कृत के सहस्रो श्लोक कस्य हैं । वे व्याकरण, न्याय, काव्य, कोश आदि अनेक विषयो के मार्मिक अध्येता हैं। यह उनके द्वारा रचित जनसिद्धान्तदीपिका, भिक्षुन्यायकणिका, मनोनुशासन जैसे प्रौढ ग्रन्थो से प्रकट है । आचार्य-पद का उत्तरदायित्व अपने पर आने से पूर्व तो वे अपना अधिकाश समय शास्त्र-परिशीलन मे लगाते ही थे, अब भी आचार्य-पद के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वो का वहन करते हुए भी शास्त्र-पर्यवेक्षण मे वे समय देते है। उन्होने स्वयं तो सस्कृत विद्या के अगोपागो का अत्यन्त मार्मिक अध्ययन कर अनेक विषयो मे पारगामिता प्राप्त की ही, अनेक साधुओ एव साध्वियो को भी तैयार किया। आज तेरापथ मे सस्कृत के इतने -4कोटि के जो विद्वान् दिखाई देते है, इसका वीज-उप्ता के रूप मे आचार्य श्री कालूगणी को तथा सिंचक और सवर्धक के रूप मे आचार्य श्री तुलसी को बहुत बडा श्रेय है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xii आचार्य श्री तुलसी के शासनकाल मे संस्कृत की तरह प्राकृत भाषा के अध्ययन जोर दिया गया । पर भी बहुत e एक प्रभाग हैं वि० स० २०११ का चतुर्मास बम्बई मे था । पेनिस्लेविया ( अमेरिका ) यूनिवर्सटी के संस्कृत-विभागाध्यक्ष डॉ० नॉरमन ब्राउन आचार्य श्री के पास आए। वे संस्कृत और प्राकृत भाषा के प्रकांड पंडित थे । साधुसाध्वियों के संस्कृत अध्ययन से वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होने आचार्य श्री से "महाराज प्रार्थना के स्वर मे कहा / संस्कृत मे बहुत कुछ सुना है । अब एक इच्छा है कि मैं भगवान् महावीर की भाषा प्राकृत मे कुछ सुनू ।' आचार्य श्री ने उनकी तीव्र उत्कठा को देखा और मुनि नथमल जी को प्राकृत मे प्रवचन देने का निर्देश दिया। मुनि श्री ने लगभग बीस मिनट तक प्राकृत भाषा मे धाराप्रवाह रूप से बोलते हुए परिपद् को आश्चर्यचकित कर दिया । प्राकृत भाषा मे प्रवचन सुनतेसुनते प्राच्य विद्वान् ब्राउन पंविभोर हो उठे और उनकी आखो से हर्प के आसू टपक पडे । उन्होने कहा "आज मेरी चिर अभिलापा पूर्ण हुई । मैं कृतकृत्य हो गया ।' श्रुतवर आचार्य श्री तुलसी ने जैन आगमो के सपादन तथा विवेचन का कार्य अपने हाथ में लिया । योजना वनी । याचार्य श्री वाचना प्रमुख रहे और मुनि नथमल जी सपादक और विवेचक | उनके निर्देशन मे अनेक साधु-साध्वी इस कार्य मे जुटे | कार्य गतिशील हुआ और दो दशको के इस कार्यकाल मे अनेक आगम सुसपादित और विवेचित होकर जनता के सामने आए । विवर्ग ने उनकी भूरिभूरि प्रशंसा की और वे ग्रन्थ आगम सपादन के मेरुदंड बन गए। इस योजना के अतर्गत भगवान् महावीर की पच्चीसवी निर्माण-शताब्दी पर ग्यारह अगो का सुसपादित संस्करण 'अगुसुत्ताणि' तीन भाग के रूप मे प्रस्तुत हुआ वह भी अपने-आप मे एक अमूल्य अर्ध्य था । आगम सपादन के कार्य ने अनेक साधुसाध्वियों को प्राकृत भाषा के अध्ययन की ओर अग्रसर किया । अनेक साधु-साध्वी इसमे निष्णात हुए, लेखक और वक्ता वने । श्री चन्दन मुनि ने प्राकृत भाषा मे 'ण्णीइधम्मसुत्तीओ', 'रयणवालकहा' तथा 'जयचरिअ' ये तीन ग्रन्थ लिखे । अन्यान्य साधु-साध्वियों ने भी प्राकृत मे स्फुट रचनाए की । इतना ही नही, प्राकृत के व्याकरण का भी नव सर्जन हुआ । प्रौढ विद्वान् एव चिन्तक मुनि श्री नयमल जी ने तुलसीमजरी के नाम से सिद्ध हेमशब्दानुशासन के अष्टम अध्याय के आधार पर एक प्रक्रिया -ग्रन्थ की रचना की, जो मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची, चूलिका पैशाची, अपभ्रंश और मार्ष प्राकृत का एक सुन्दर और सुगम व्याकरण है । संस्कृत व्याकरण के विकास की शृंखला मे मुनि श्री सोहनलाल जी (चूरू) द्वारा रचित तुलसीप्रभा नामक प्रक्रिया-ग्रन्थ से एक कडी और जुड जाती है । मुनि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xiii श्री सोहनलालजी सिद्ध हेमशब्दानुशासन के अच्छे पाठी थे। उन्होंने वर्तमान संघनायक आचार्य श्री तुलसी के नाम पर सिद्धहेमशब्दानुशासन पर इस नवीन प्रक्रिया-ग्रथ की रचना की। मुनि श्री सोहनलालजी एक कविहृदय मनीषी थे। उन्होने व्याकरण जैसे नीरस तथा दुरूह विषय मे जो सरसता और मृदुता का अपादान किया है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार स्वनामधन्य आचार्य श्री कालूगणी से प्रारभ हुआ सस्कृत विद्या का अभियान निर्वाध गति से आगे बढता गया, प्रसार पाता गया। इसकी फल-निष्पत्ति का यथार्थ अकन विद्वानो को तव प्रतीत हुआ, जव आचार्य श्री तुलसी अपने अनेक श्रमण-श्रमणी-समुदाय सहित भारत मे सस्कृत के विशिष्ट केन्द्र पूना तथा वारा॥सी जैसे स्थानो मे गए। पूना मे भडारकर ओरिएटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, डेक्कन कॉलेज तिलक विद्यापीठ, संस्कृत वावधिनी सभा तथा वाराणसी मे वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय आदि सस्यानो मे अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए, जिनमें आचार्य श्री के मेधावी अन्तेवासी मुनि नथमलजी के संस्कृतभाषण तथा आशुकवित्व से वहा के विद्वान आश्चर्यान्वित हो उठ । अनेक तटस्थ विद्वानो का तो यहा तक कहना रहा कि आचार्य तुलसी का धर्मसप वास्तव मे संस्कृत विद्या का एक जगम विश्वविद्यालय है । प्रस्तुत ग्रन्थ की योजना आचार्य श्री कालगणी की जन्म-शताब्दी का प्रसग आया। उस सन्दर्भ मे करणीय कार्यो पर चिन्तन चला । साहित्य सर्जन तया प्रकाशन का जब प्रश्न सामने आया तो आचार्यप्रवर की ओर से एक विशेष दिशा-सकेत इस प्रकार प्राप्त हुआ "आजकल अभिनन्दन ग्रन्थ तथा स्मृति ग्रन्थ तो बहुत अधिक निकल रहे हैं पर वे अधिकाशत व्यक्तिपरक या प्रशस्तिमूलक ही दृष्टिगोचर होते हैं, किसी महान पुरुष की स्मृति का अर्थ मैं यह लेता हूं कि उनके द्वारा जीवन मे जो महान् कार्य किये गए, उनमे से किसी एक महत्वपूर्ण पक्ष को लेकर उस पर ठोस और शोधपूर्ण सामग्री दी जाए, जो उस क्षेत्र में कार्य करने वाले तथा अग्रसर होने वाले अनुसन्धित्सु सुधी जनो के लिए एक प्रकाश-स्तभ का काम दे । आचार्य श्री कालूगणी के जीवन के अनेक ऐसे गरिमाशील पक्ष है, जिनसे आज भी हम प्रेरणा प्राप्त करते हुए अपने मे एक अभिनव शक्ति एव स्फूर्ति का संचार कर सकते हैं। आचार्य श्री कालूगणी ने अपने जीवन मे अनेक महान कार्य किए। अपने श्रमण संघ मे सस्कृत, प्राकृत आदि प्राच्य विद्याओ के विकास मे जो सतत तत्परता और अध्यवसाय उन्होंने दिखाया, निश्चय ही वह स्वर्णाक्षरो मे लिखे जाने योग्य है। उनके सतत कर्मठ और उद्यमशील जीवन की स्मृति आज भी हम लोगो मे एक नई चेतना का जागरण करती है । सस्कृत, प्राकृत, व्याकरण, कोश आदि के गहन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XIV अध्ययन की जी प्रेरणा उनसे समस्त साधु-साध्वियो को प्राप्त होती रही, वह नि - सन्देह विद्या-पथ पर अग्रसर होते अध्येताओ के लिए एक सबल सवल और पावन पायेय है। कितना अच्छा हो, आचार्य श्री कालूगणी के जीवन के इसी पक्ष को लेकर सस्कृत प्राकृत व्याकरण, मापा-विज्ञान तथा कोश वाड्मय पर एक अनुमधानपूर्ण स्मृति-ग्रन्य तैयार किया जाए।" वास्तव मे आचार्य श्री के इस दिशा-दर्शन में गभीर चिन्तन अनुम्यूत था। इस विषय को लेकर मुनि श्री नयमल जी के मान्निध्य में परिचर्चाए चली। मुनि श्री ने एततिपयक स्मृति-ग्रन्थ की महत्ता एव उपयोगिता बताते हुए व्यक्त किया कि यदि ऐसा हो सका तो भारतीय विद्या (Indology) के क्षेत्र में एक महनीय कार्य होगा। यह एक ऐसा सन्दर्भ-ग्रन्य बन जाएगा, जिसका अनुसन्धित्सु विद्वान् सोत्साह उपयोग करेंगे। मुनि श्री के मार्ग-दर्शन मे हमने स्मृति-ग्रन्य की एक परिकल्पना की। मस्कृत, प्राकृत व्याकरण, भापा-विज्ञान तथा कोश सबधी विषयो का चयन किया । इस संबंध मे विशेष रूप से यह चिन्तन रहा कि विभिन्न विशिष्ट विषयो पर उन-उन विशिष्ट विद्वानो से निवन्ध प्राप्त किए जाए, जो उन विषयो के गभीर अध्येता और गवेपयिता है । सस्कृत, प्राकृत आदि के क्षेत्र में कार्यरत रहने के कारण व विद्वानो से हमारा निकट का परिचय एवं सम्पर्क रहा है। हमने इस ग्रन्थ के सवध मे लिखने हेतु उन्हें निवेदन किया । यद्यपि जो विषय निर्धारित किए गए, वे इतने गम्भीर और गवेष्य थे कि उन पर लिखने के लिए पर्याप्त समयापेक्षी अध्ययन की आवश्यकता श्री पर फिर भी विद्वानो ने थोडे समय मे मी प्रचुर श्रम करके अपने शोधपूर्ण निवन्ध तैयार कर प्रेपित किए । हमारा प्रारम्भ से ही यह चिन्तन रहा है कि कलेवर मे सामग्री की बहुलता चाहे न रहे किन्तु गुणात्मकदृष्ट्या उममे ७.यता, गहनता तथा मूक्ष्मता हो । हमे मतोप है कि हमारा अभीप्सित सध रहा है तथा विश्वास है कि इन विषयो मे गहन अध्ययन करने वालो के लिए यह ग्रथ उपથો પ્રમાણિત હોમ | विषय-वस्तु भारतीय वाडमय मे व्याकरणशास्त्र का महत्त्व सर्वोपरि रहा है । आचार्य पाणिनि एव पतजलि आदि मनीपियो ने सस्कृत व्याकरणशास्त्र की जिस परम्परा को स्थापित एव पुष्ट किया था, उसका विकास जन परम्परा के वैयाकरणो-- जनेन्द्र, शाकटायन, हेमचन्द्र, मलय गिरि आदि के द्वारा हुआ है । उन्होने अपने-अपने ममय की शब्द-सम्पत्ति का संस्कार करने मे विशेष प्रयत्न किया है। जैन जीचार्यो ने संस्कृत के व्याकरण-गन्यो पर अनेक टीका लिखकर उन्हें सुगम ओर मुवोध बनाया है। इतना ही नहीं, अपितु प्राचीन व्याकरण प्रन्यो का परिमार्जन कर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XV उनमे शब्द, धातु, एक गणपाठो की वृद्धि भी की है। सस्कृत के जैन महाकाव्यो मे ऐसे अनेक नवीन शब्दो का प्रयोग भी जन कवियो ने किया है, जो व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भिक निवन्ध इस दिशा मे महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत कर आधुनिक युग तक सस्कृत व्याकरण शास्त्र की परम्परा को स्पष्ट करते हैं। सस्कृत की भाति प्राकृत भाषा भी भारतीय चिन्तन की सवाहक रही है। प्राकृत भाषाओ के व्याकरण को प्रस्तुत करना अधिक कष्टसाध्य था क्योकि उसके प्रयोग मे विविधता बनी रही है । किन्तु जनाचार्यों ने इस क्षेत्र मे भी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। लोक मे प्रचलित प्राकृत के अनेक शब्दो को व्याकरण की दृष्टि से वैकल्पिक रूपो के अन्तर्गत अनुशासित किया गया है। चण्ड, वररुचि, हेमचन्द्र, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणो ने ईसा की दूसरी शताब्दी से लगातार १८ वी शताब्दी तक प्राकृत के व्याकरण लिखे हैं। इधर १६-२०वी शताब्दी मे भी कई विद्वानो ने प्राकृत भाषाओ का विवेचन व्याकरण की दृष्टि से किया है। होयेफर, वेबर, कावेल, याकोबी, पिशेल, डोल्पी आदि पाश्चात्य विद्वानो ने प्राकृत व्याकरणशास्त्र को प्रकाश मे लाने का अथक परिश्रम किया है। भारतीय विद्वानो मे वैद्य, घाटगे, कन, उपाध्ये, डॉ० हीरालाल जैन, सुकुमार सेन, प० वेचरदास, मुनि नथमल आदि ने प्राकृत भाषा के अनुसन्धान को गतिशील बनाया है । इस तरह भगवान महावीर के बाद आधुनिक युग तक प्राकृत शनशास्त्र पर जो कार्य हुआ है, उसका सक्षिप्त दिग्दर्शन कराना इस ग्रन्थ के निवन्धो का विषय है। प्राकृत-अपभ्रश भाषाओ का प्रभाव जन-जीवन पर निरन्तर पडता रहा है। अत भारत की प्राय सभी आधुनिक भापाओ का अध्ययन बिना प्राकृत-अपभ्रश को जाने नही हो सकता। हमारा यह प्रयल था कि इस विषय पर विस्तृत और सोदाहरण सामग्री प्रस्तुत की जाए। किन्तु कुछ लेखकों की स्वीकृति के उपरान्त भी हमे उनके लेख नहीं मिल सके । अत ग्रन्थ का यह अश कुछ अधिक सवल नही हो सका। किन्तु प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर कितना प्रभाव है, यह प्रस्तुत ग्रन्थ के एक लेख से अच्छी तरह प्रतिपादित हो सका है। इससे हमे इस दिशा में और अधिक चिन्तन करने की प्रेरणा मिलती है । जनाचार्यो ने सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और भापा-विज्ञान के क्षेत्र मे ही नही, अपितु कोश-साहित्य के निर्माण मे भी अपूर्व श्रम किया है । आगमो मे कई एकार्थक शब्दो की सूचिया प्राप्त होती हैं। व्याख्या साहित्य मे कई शब्दो की व्युत्पत्तिया दी गई हैं। इस तरह भारतीय वाङ्मय मे कोश-निर्माण की परम्परा जन-आचार्यों के ग्रन्थो से प्रारम्भ होती है । धनपाल एव हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-कोशो मे ऐसे शब्दो का सग्रह किया है, जो भारत के सास्कृतिक इतिहास के निर्माण मे आधारशिला का काम कर सकते है। इन शब्दसग्रहो के द्वारा जनभाषाओ के कई स्वरूप Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 सुरक्षित रह सके हैं । इस परम्परा को आधुनिक युग मे जैन आचार्यों ने पल्लवित और पुष्ट किया है । अत जनकोशसाहित्य की उपलब्धिया भारतीय पाइमय के अनुसवान के लिये अपरिहार्य है। सस्कृत, प्राकृत की भाति अपभ्रश-कोण के निर्माण की नितान्त आवश्यकता भी स्पष्ट है। प्रस्तुत ग्रन्य के एतद् विषयक निवन्ध अस दिग्धतया अपनी उपयोगिता रखते है। केवल को ग्रन्थो मे ही नहीं, अपितु अर्धमागधी व शौरसेनी साहित्य में भी अनेक ऐसे विशिष्ट शब्दो का प्रयोग हुआ है, जो कोशो मे भगृहीत होने की अपेक्षा रखते है । सस्कृत के जैन महाकाव्यो की शब्दावली सस्कृत भाषा के शब्दभण्डार की वृद्धि करती है । जैनाचार्यों ने वोलचाल की भाषा के जिन शब्दो का माहित्य मे प्रयोग किया है, वे देशी' १०६ मे अभिहित होते है। जैन साहित्य में प्रयुक्त देशी शब्द भारतीय साहित्य की बहुत बडी थाती हैं। प्रस्तुत ग्रन्य के निवन्चो ने इस विषय को चिन्तन के क्षेत्र मे लाकर वित्ममाज को उपकृत किया है. अनुसन्धान की दिशाए उजागर की है। ग्रन्थ के अग्रेजी निवन्ध भी मस्कृत प्राकृत व्याकरणशास्त्र की परम्परा को स्पष्ट करने में सहायक हुए है। इस प्रकार अन्य के विद्वान् लेखको का अध्ययन व परिश्रम अवश्य ही भारतीय साहित्य के मनोपियो को प्रभावित व लाभान्वित करेगा, ऐसी आशा की जाती है। आभार इस अन्य के रूप में जो कुछ हम उपस्थापित कर रहे है, वह प्राच्य विद्या के महान् उन्नायक, युगपुरुष आचार्य श्री तुलसी की प्रेरणा व कृपा का फल है। मुनि श्री नथमल जी के मार्गदर्शन के सहारे ही हम इस कार्य मे गतिशील रह सके । इन महासत्त्वसम्पन्न साधको के प्रति शाब्दिक कृतज्ञता-ज्ञापन तो नितान्त उपचार होगा। हम श्रद्धाभिनत हो उन्हें प्रणमन करते है। ग्रन्थ के सम्पादक-मण्डल के विद्वानो का भी हम सादर आभार मानते है । जिन सम्मान्य विद्वानो ने प्रस्तुत ग्रन्थ के लिए अपने बहुमूल्य निवन्ध लिखे हैं उनके हम हृदय से आभारी है। श्री कालगणी जन्म शताब्दी समारोह समिति, छापर ने अन्यान्य साहित्यिक कृतियो के साथ साथ इस महान् ग्रन्थ के प्रकाशन का जो निर्णय लिया, वह वास्तव मे स्तुत्य है। आचार्य श्री कालूगणी जैसे महान् विधोनायक, श्रद्धेय प्रज्ञापुरु५ की इससे अधिक क्या स्मृति हो सकती है ? जिस परम श्रुताराधक अलोकिक पुरुष ने अपने जीवन मे श्रुत का सम्यक् सप्रसार करते हुए उसके विविध अगोपागो को सवलता और सपनता दी, उन महापुरु५ के प्रति ऐसी ही श्रद्धाजलि सर्वाधिक समीचीन है। अन्य का प्रकाशन भी अल्प समय मे सम्पन्न हुआ है । आशा है, ग्रन्थ की विषयवस्तु एवं प्रस्तुतीकरण से मुधोजन लाभान्वित हो। १ जनवरी १९७७ राजलदेसर (राजस्थान) मुनि दुलहराज छगनलाल शास्त्री प्रेमसुमन जैन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति आचार्यवर श्री कालूगणी की स्मृति उस प्रकाशपुज की स्मृति है, जिसकी रश्मियो से असत्य लोगो का जीवन-पथ प्रकाशित हुआ है। उन्होंने समग्र जीवन मे विद्या की आराधना की । उनकी आराधना केवल स्वमुखी नही थी, किन्तु उभयमुखी थी। दूसरो के लिए भी उनका अनुदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य-स्वभाव उनके ऋण को स्वीकारता है, जिनसे कुछ अनुदान मिलता है । हम सब आचार्यवर के ऋणी है। वणी आदमी उत्रण होने का भी प्रयत्न करता है। आगम-वाणी है कि गुरु, माता-पिता और स्वामी के ऋण से उऋण होना सरल काम नहीं है। हम ऋण से उऋण हो सके या नहीं, यह चिंता करणीय नही है। करणीय यह है कि हम उऋण होने का प्रयत्न करे । यह प्रयत्न ही सही दिशा का सूचन है। आचार्यवर की जन्मशती पर चतुर्विध धर्म-सघ ने कृतज्ञतापूर्ण भाव से उनके चरणो मे विनम्र श्रद्धाजलि समर्पित करने का सकल्प किया है। उस सकल्प के विभिन्न रूपो मे एक रूप है यह स्मृति-ग्रन्थ । इस स्मृति-ग्रन्थ की परिकल्पना और प्रकल्पना चालू परिपाटी से भिन्न है । इसमे उनके जीवन के विषय मे विशद वर्णन नहीं है और विविध विषयो पर लेख आमनित नहीं किए गए हैं। यह ग्रथ पुस्तकालय का शोभा-ग्रन्थ न बने, किन्तु उपयोगी ग्रथ बने, इस दृष्टि से यह एक निश्चित सीमा मे बधा हुआ ग्रन्थ है । इसमे विपयो का विशेषीकरण है और इस विशेषीकरण के आधार पर ही इसमे लेख आमनित किए गए है। इस योजना से यह ग्रय जैन परम्परा मे निर्मित व्याकरण और शब्दकोश को सदर्भ ग्रन्थ बन गया है। आचार्यवर के जीवन-वृत्त का एक स्वतन्त ग्रन्थ है । श्रद्धाजलि और सस्मरण एक पुस्तक मे सकलित है । उनके शिष्यो तथा प्रशसको द्वारा उनकी प्रशस्ति मे लिखित सस्कृत काव्य-काव्यकुसुमाजलि' के रूप मे एक पुस्तक मे सकलित है। ये तीनो अन्य स्मृति-ग्रन्थ से जुडे हुए नही है, किंतु स्वतन है । साधारणपाठको के लिए Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xvill इनकी उपयोगिता अधिक है और विद्या के क्षेत्र मे अनुमधान करने वालो के लिए प्रस्तुत ग्रन्य की उपयोगिता अधिक है। दोनो भिन्नक्षेत्रीय उपयोगिताओ को एक क्षेत्रीय न बनाकर उन्हे पृथक्-पृथक् नियोजित किया है। इससे स्मृतिग्रन्थ का आकार अवश्य छोटा हुआ है पर प्रकार छोटा नहीं हुआ है। जन आचार्यों ने प्राकृत और मस्कृत-दोनो भाषाओ मे ग्रन्थो का प्रणयन किया है। जैन आगम प्राकृत भाषा मे है। प्राकृत के व्याकरण और शब्दकोश की रचना मे भी जन आचार्यों का योगदान है। आचार्य हेमचन्द्र का देशी नाममाला जसा विरल ग्रन्थ उस योगदान की एक विशेष उपलब्धि है। प्राकृत का अध्ययन हिन्दी तया प्रादेशिक भाषाओ और वोलियो के अध्ययन के लिए आज भी बहुत महत्वपूर्ण है। उसकी उपयोगिता भाषाशास्त्रीय अध्ययन ने और अधिक बढ़ा दी है। भारतीय सम्यता, सस्कृति, इतिहास, तत्वज्ञान और विज्ञान की बहुमूल्य सामग्री प्राकृत ग्रन्थो मे उपलब्ध है। इस दृष्टि से प्राकृत भाषा के विविध पहलुओ पर उपलब्द मीमासा इस ग्रन्थ की गौरववृद्धि करने वाली ही नहीं है किन्तु अतीत के प्रयत्नो का मूल्याकन और वर्तमान की उपयोगिता का भी दिशा-निर्देश है। ___सस्कृत का महत्त्व सर्वविदित है ही। उसमे वैदिक, जन और वौद्ध तीनो परपराओ का देय है । जन-आचार्यो ने सस्कृत के व्याकरण और शब्द-कोशो के निर्माण मे भी अपने प्रज्ञा-कौशल का परिचय दिया है। उसका सही मूल्याकन अभी शेष है। मुझे प्रसन्नता है कि इस ग्रन्य की मयोजना ने एक नई दिशा का उद्घाटन किया है । आचार्यवर कालूगणी की स्मृति इसका निमित्त बनी है। उनकी स्मृति उनकी मनीपा के अनुरूप हुई है, इससे हम सब बहुत प्रसन्न है। अल्प समय में इसकी सामग्री का चयन और उपलजि हुई है, इसमे सपादको को तत्परता परिलक्षित होती है। छापर आचार्यवर की जन्मभूमि है। वहां के निवासी श्रावक-गण ने प्रस्तुत अन्य के प्रकाशन का दायित्व लिया है। इस ग्रन्थ से शोध-विद्यार्थियो को पथदर्शन प्राप्त हो सकेगा। બાવાર્થ તુનો नाहर भवन, राजलदेसर २०-१-७७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुक्रम लेखक एवं विषय બાવા શ્રી લાલૂમળી વ્યક્તિત્વ [વ તિવ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी तेरापथ के नवम शास्ता, अणुव्रत-अनुशास्ता २. संस्कृत के जन वैयाकरण एक मूल्याकन डॉ० गोकुलचन्द्र जैन एम० ए० (सस्कृत, प्राकृत), साहित्याचार्य, शास्त्राचार्य, पी-एच० डी० प्राच्य विद्या सकाय, હિન્દુ વિશ્વ વિદ્યાય, વારાણસી ३ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि स्व० डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य, पी-एच० डी०, डी-लिट् संस्कृत-व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी विद्यावारिधि (पी-एच० डी०), वाचस्पति, (डी-लिट्) अनुसंधान सहायक, सम्पूर्णानन्द सस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ५ भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन - मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' ६ दो प्रक्रिया-ग्रन्थ मुनि 'दिनकर' ६६ १४३ १६५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ १६३ fમક્ષશબ્દાનુશાસન વો તુલનાત્મક અધ્યયન T૦ વિશ્વનાથ મિશ્ર વ્યારા-સાહિત્યવાર્ય, gogo પ્રાવાર્ય શાર્વત સંસ્કૃત લોન, વીજાનેર ૬ પ્રાકૃત વ્યાકરણશાસ્ત્ર . સમય ઇવ વિકાસ ડૉ. પ્રેમસુમન નેના ઇમgo (પતિ, પ્રાકૃત અવ નિન્મ, બાવન ભારતીય તિહાસ ઇવ પશિયાથી અધ્યયન) વી-૦૦, સાહિત્યાનાર્ય ૪, રવીન્દ્રનાર, ૩યપુર (રાનસ્થાન) હ સાર્વે પ્રાકૃત સ્વરy gવ વિશ્લેષણ મુનિ શ્રી નયમન સુપ્રસિદ્ધ વાનિ, વિવાર, ગામ-પાવા તથા વિવેવ ! ૨૨૭ २३६ २६३ १० आधुनिक युग मे प्राकृत व्याकरणशास्त्र का अध्ययन-अनुसन्धान માનદ્ર જૈન માસ્તર મ0 g૦ (સર, પાન, પ્રાચીન કૃતિહાસ), સાહિત્યાનાર્ય, પ-૭૦ ડી. (સી ). અધ્યક્ષ પતિ-પ્રાકૃત વિમા, નિાપુર વિશ્ર્વવિદ્યાલય, નાગપુર ?? અર્ધમાગધી બારામ સાહિત્ય ની વિશિષ્ટ દ્રિાવતી નાવરાવ નૈન મ0 (વર્શનશાસ્ત્ર), સાહિત્યશાસ્ત્રી, ઉ-૨૦ દ. ભૂતપૂર્વ પ્રોફેસર પ્રાકૃત-નૈન-શોઇ સાનિ, વૈશાલી વ વતન વિશ્વવિદ્યાનય, નર્મની નિવાસ ૨૬, શિવની પાર્વ, વવ-૨૦ ૨૨ શૌરસેની બાગમ સાહિત્ય ની ભાષા + મૂલ્યાન T૦ હીરાના શાસ્ત્રી, સિદ્ધાન્તાવાર્ય શ્રી ઉત્તપન્નાના ઉદ્દે નૈન સરસ્વતી મવન, વ્યાવર ( નસ્થાન) ૨૭e Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXI २८७ ३०३ ३४३ ३८७ प्राकृत एव अपभ्रश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव ' डॉ०.महावीर सरन जैन एम० ए०, डी० फिल०, डी-लिट् स्नातकोत्तर हिन्दी एव भाषा-विज्ञान विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर १४. प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव डॉ० कृष्णकुमार शर्मा एम० ए० (हिन्दी, सस्कृत), पी-एच ० डी०, डी-लिट् - ' हिन्दी विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर १५ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश-साहित्य डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री एम० ए० (हिन्दी), साहित्याचार्य, पी-एच० डी० हिन्दी विभाग, शासकीय महाविद्यालय, नीमच (म०प्र०) १६ आधुनिक जैन कोश ग्रन्थो का मूल्यांकन ', डॉ. श्रीमती पुष्पलता जैन एम० ए० (हिन्दी, भाषा विज्ञान), पी-एच० डी० न्यू एक्सटेन्शन एरिया, सदर, नागपुर १७ १६वी-२०वी शताब्दी के जन कोशकार और उनके कोशो का मूल्याकन डॉ० नेमीचन्द जन एम० ए० (हिन्दी), पी-एच० डी० सम्पादक तीर्थङ्कर ६५, पत्रकार कॉलोनी, कनाडिया रोड, इन्दौर १८ शब्दकोश की प्राचीन पद्धति मुनि दुलहराज १६ संस्कृत के जन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति (પદ્મપુરાણ, હરિવશપુરાણ, વિપુરા રત્તરપુરા के संदर्भ मे) डॉ० रमाकान्त शुक्ल एम० ए० (हिन्दी, मस्कृत), साहित्याचार्य, पी-एच० डी० प्राध्यापक स्नातकोत्तर अनुसन्धान हिन्दी विभाग, राजधानी कॉलेज, रिंग रोड, राजा गार्डेन, नई दिल्ली ४०१ ४१७ ४२५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxj1 20. Aspects of Jaina Sanskrit Dr. W. H. Maurer Assistant Professor of Asian Studies and Curator of the South Asia Collection, University of Hawaji 21. 33 22. 69 Dialect and Sub-dialects of Prakrit Dr. Satya Ranjan Banerjee M A. Ph. D. (Calcutta), Ph. D. (Fdinburgh) F.A RS (London) Department of Comparative Philology and Linguistics, University of Calcutta. Semantic Changes in Kịta, Tretā, Dwapara and Kali Dr. Ramprakash Poddar M. A (English, Prakrit), Ph. D. Research Institute of Prakrit, Jajnology & Ahimsa, Vaishali (Bihar) Importance of Jain Literature for the study of Desya Prakrit Dr. H. C Bhayanı M. A (Linguistics), Ph. D. Ex Professor Linguistics, Gujerat University 9, High Land Park, Gulbai Tekara, Ahmedabad 23. 83 Page #25 --------------------------------------------------------------------------  Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. - - -- RTH - "an LATE . A .MMER . TM AMVA Com HRIRAM erest REYAS NAAR T r-umrTEE - -TA YHIRAL - -A " . ARTHA आचार्य श्री कालूगरणी (१६ वर्ष की अवस्या मे । प्राचार्य श्री माणकगणी के ग्रुप फोटो से) . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री पालुगणी : व्यक्तित्व પર્વ તત્વ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी जन्मभूमि गोपालपुरा की पहाडिया लाडणू, सुजानगढ़, छापर, चाडवास और बीदासर के मध्य मे स्थित है। उनके पास एक ताल है, जो मीलो मे फैला हुआ है और वह काले हिरनो के लिए प्रसिद्ध है। उसमे विशाल मात्रा मे नमक का उत्पादन हो रहा है। पहाडियो की शृखला मे आठ पहाडिया हैं। उनके नाम इस प्रकार है १ काली डूगरी, २ विनायक डूगरी, ३ सुलेर की डूगरी, ४ भेसास की डूगरी, ५. देवी डूगरी, ६ कोढणी डूगरी, ७ चरला की डूगरी, ८ विमर की डूगरी। महाभारत काल मे यह स्थान छापर के नाम से प्रसिद्ध था। आचार्य भारद्वाज (द्रोणाचार्य के पिता) आचार्यवास में रहते थे। उस युग का आचार्यवास ही वर्तमान का चाडवास है। द्रोणाचार्य आजीविका की खोज मे पूर्व की ओर जा रहे थे। पाडवो और कौरवो से सहमा मिलन हो गया । वे उनके गुरु बन गए । उन्होने राजकुमारों को धनुविद्या मे प्रशिक्षित कर दिया। धृतराष्ट्र बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा के रूप मे 'छापर' प्रदेश दिया। द्रोणाचार्य ने काली डूगरी के पास द्रोणपुर वसाया। छापर प्रदेश मे १४४० गाव थे। तीन मुख्यालय थे १ द्रोणपुर-छापर, २ लाडण, ३ किरातावाटी। द्रोणाचार्य के बाद इस प्रदेश पर शिशुपाल के पौत्र पवार डाहलिया का अधिकार हो गया । नागौर पर वागडियो का अधिकार था । डाहलियो (चन्देलो) और बागडियो मे विरोध उभर आया। बागडियो ने डाहलियो को परास्त कर छापर प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। वि० सं० ६३१ तक यह प्रदेश बागडियो के प्रभुत्व मे रहा। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और को। की परम्परा श्रीमोर प्रदेश के राणा का नाम था मोहिल । उनके पिता का नाम था राणा सुरजन । पिता और पुत्र मे अनबन हो गई। मोहिल ने नये राज्य की खोज मे दो गुप्तचरो को भेजा। द्रोणपुर की समतल भूमि पर अधिकार करना सरल है, गुप्तचरो से यह सूचना पा मोहिल ने १७ हजार सैनिको के साथ द्रोणपुर पर अचानक आक्रमण कर दिया । बागडियो के पास ५ हजार सैनिक थे, वे लडाई मे पराजित हो गए । द्रोणपुर पर मोहिल का अधिकार हो गया। मोहिल का शासन होने पर उस प्रदेश का नाम मोहिलवाटी हो गया। वि० स० १५३१ तक मोहिलो ने द्रोणपुर पर शासन किया। वि० सं० १५२३ मे राठौड नरेश जोधा ने मोहिलो के राज्य को हथिया लिया। ४-५ महीनो के वाद मोहिलो ने फिर उनसे छीन लिया। छुट-पुट लडाइया होती रही । आखिर वि० स० १५३१ मे राठौड बीदा ने उम पर अपना स्थायी अधिकार कर लिया। पूज्य कालूगणी का जन्म हुआ, तब छापर बीकानेर राज्य की सीमा में था। जन्म वि० स० १६३३ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया का पुण्य दिन । शुभ मुहूर्त और शुभ वेला । एक शिशु का जन्म हुआ। पिता का नाम भूलचन्दजी और माता का नाम छोगाजी । ओसवाल वश और कोठारी जाति। मूलचन्दजी पहले ढढेरू गाव मे रहते थे। वहा के ठाकुर से अनबन हो गई। इसलिए वे सं० १९१८ मे छापर मे वस गए। हो सकता है कि एक महान् आत्मा को जन्म देने के लिए उसके उपयुक्त भूमि का चुनाव किया हो। अज्ञात मे कुछ ऐसा घटित होता है कि ज्ञात घटना उसकी व्याख्या नहीं दे सकती। नाम-रूप जन्म-राशि के अनुसार शिशु का नाम शोभाचन्द रखा गया। उनके परिवार मे 'काला-भैरू' की मान्यता थी। इसलिए माता-पिता और परिवार के लोग उन्हे 'काल' नाम से मनोवित करने लगे। उनका प्रसिद्ध नाम यही है। वह कालू नाम शैशव मे माता को तृप्ति देता था। मुनि-जीवन मे वह मघवागणी को तृप्ति देने लगा। आचार्य-जीवन मे यह नाम लाखो यद्धालुओ के लिए आस्था का केन्द्र बन गया। यह नाम तेराप य के गौरव का प्रतीक है। शिशु का वर्ण श्याम, छरहरा वदन पुडोल आकृति और शरीर सांग-सुन्दर था। शव निशु कालू का जन्म हुआ, तब छोगाजी की अवस्था बत्तीस वर्ष की थी। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : ३ स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और श्रम की आच मे पका हुआ जीवन कालू के लिए वरदान हो रहा था। पर केवल वरदान या केवल अभिशाप विश्व-व्यवस्था के अनुकुल नही है। उसमे वरदान और अभिशाप दोनो एक साथ चलते है। कालू तीन माह का हुआ, उसके पिता मूलचन्दजी का अचानक वि० स० १९३४ मे देहावसान हो गया। छोगाजी को इससे गहरा आघात लगा। पर कालू के मुख को देख-देख उस प्रचण्ड वज्रपात को झेलने में समर्थ हो गई। छोगांजी के पिता का नाम था नरसिंहदास लूणिया। उनके छ पुन और तीन पुत्रिया थी। छोगाजी उन सबसे छोटी थी। नरसिंहदासजी कोटासर मे रहते थे। वि० स० १९४० मे वे डूगरगढ मे वस गए। छोगा जी बहुधा अपने पीहर मे रहने लगी। वहा साधु-साध्वियो का सुयोग सहज सुलभ था। वे साधु-साध्वियो के पास जाती थी। कालू भी उनके साथ-साथ जाता था। उस शिशु के मन मे धर्म के प्रति अनुराग जागृत हो गया। भावी जीवन का वीज कुछ-कुछ अकुरित होने लगा । कालू मा का इकलौता बेटा था । मा की सारी ममता उसे प्राप्त थी। पति के देहावसान के बाद वह और सधन हो गई। छोगाजी के लिए इस नश्वर ससार मे वही सब कुछ था । इसलिए उसके लालन-पालन में उनकी सारी गक्ति लग रही थी। कालू पाच वर्ष का था। तव आखें दुखने लगी। पन्द्रह दिन तक बहुत कष्ट रहा । आखें खुली ही नही । छोगाजी बहुत चिन्तित हो गई। अचानक एक योगी घर पर आया। उसने कहा-माताजी। फराश की लकडी घिसकर बच्चे की आख मे आज दो। आखें ठीक हो जाएगी। छोगाजी ने वह उपचार किया। आखें ठीक हो गई। ____ उन दिनो अध्यापक बच्चो की पिटाई करने मे स्वतन्त्र थे। मा नही चाहती थी कि मेरे शिशु के शरीर पर किसी का क्रोध से उठा हाथ लगे। इसलिए छोगा जी ने कालू को पढने के लिए स्कूल नहीं भेजा। कालू ने अपने मामा के पास ही थोडी-बहुत पढाई की। मा की ममता कभी-कभी सीमा पार कर जाती है। बच्चे का मन खेलकूद मे लगता है । और, जो बचपन मे खेलने-कूदने नहीं जाता, वह कमजोर रह जाता है। पर छोगाजी कालू को खेल-कूद मे भी नहीं जाने देती। यह बच्चा है, कही हाथ-पैर मे चोट न लगा ले, यह आशक्षा बनी ही रहती। जब मा घर पर नही होती, तव साथी बच्चे खेलने के लिए कालू को बुलाते, १२ मा को पूछे बिना कालू घर से बाहर नही जाता । कालू के शैशव का पूर्वार्द्ध मा की ममता भरी उगलियो के सरक्षण मे बीता । सस्कारो का वैभव दिन-प्रतिदिन समृद्ध होता गया। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सवोधि साध्वीश्री मृगाजी के मत्मग मे छोगाजी मे वैराग्य का अकुर फूट गया । उनका मन सामारिक विषयों से उदामीन हो गया - वे साध्वी दीक्षा के लिए तैयार हो गई । कालू अभी अवस्था मे छोटा था, केवल आठ वर्ष का था । वे चाहती थी कि हम दोनो साथ ही दीक्षित हो। उन्होने एक दिन कहा पुत्र मेरा तुम्हारे प्रति और तुम्हारा मेरे प्रति अति स्नेह है । मैं तुम्हे एक क्षण के लिए भी छोड़ना नही चाहती और तुम मुझे छोडना नहीं चाहते । पर कुछ वडे होने पर तुम्हे कमाई के लिए परदेश जाना होगा। फिर हम साथ नही रह सकेंगे । 'मा' ऐसा कोई उपाय है, जिससे हम निरन्तर साथ रह सकें ?" 'इसका उपाय है, पर बहुत कठिन है बेटे ! ' 'वह क्या है माँ | मैं उसे जानना चाहता हूँ ।' 'यदि हम दीक्षित हो जाए तो मघवागणी की सेवा मे एक गाव मे भी रह सकते है और यदि किसी दूसरे गाव मे भी रहना पड़े होगा ।' तो भी कोई कष्ट नहीं यह उपाय कालू के हृदय म पैठ गया। आठ वर्ष के शिशु ने मा की भावना का समर्थन कर दिया । दीक्षा की पूर्व तैयारी शुरू हो गई । कालू साध्वी मृगाजी के पास तत्त्र-ज्ञान मीखने लगा । पच्चीस वोल, प्रतिक्रमण आदि जो दीक्षा में पूर्व कण्ठस्थ करने होते हैं, उस शिशु ने कण्ठस्थ कर लिए । एक दिन कालू ने कहा 'मा! हम साधु कव बनेंगे ?" मा ने कहा 'हमारे आचार्य मधवागणी है । वे हमे साधु बनने की स्वीकृति देंगे, तब हम साधु बनेंगे ।' 'मघवागणी कहा है' " 'मरदार शहर मे है ।' 'तो हम उनके पास चले ।' स० १९४१ का चतुर्माम मघवागणी सरदार शहर मे बिता रहे थे । छोगाजी, कालू और कानकवर जी - तीनो उनके दर्शन करने वहा पहुचे | कानकवरजी छोगाजी की भानजी थी। वह भी दीक्षित होना चाहती थी। उन दिनो थली प्रदेश मे यातायात का मुख्य साधन वैलगाडी या ऊट था । ये ऊट की सवारी कर आ रहे थे । भचवागणी सरदार शहर के बाहर पवारे हुए थे | वहा तीनो ने उनके दर्शन किए और दीक्षा लेने की भावना उनके सामने रखी। प्रार्थना का पहला चरण सम्पन्न हो गया । कुछ दिन मघवाणी की उपासना वर होगाजी श्रीडूंगरगढ चली गई । क्षेत्र उनकी सत्रोधि के नव-कुर को मीचना मवनागणी का कर्तव्य हो गया । वे अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक थे। समय पाकर साधु-साध्वियों को भी डू गर Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालू गणी व्यक्तित्व एव कृतित्व ५ गढ या छापर भेजकर वे कालू के उस वैराग्याकुर को सीचते रहे। मुनि-दीक्षा मधवाणी मारवाड और मेवाड की यात्रा कर फिर थली प्रदेश मे आए। लाडणू मे छोगाजी ने उनके दर्शन किए और दीक्षित करने की प्रार्थना की । उस समय आचार्यवर ने उन्हे साधु-प्रतिक्रमण सीखने की स्वीकृति दी। यह साधु-दीक्षा की पूर्व स्वीकृति होती है। म. १६४४ का चतुर्मास वीदासर मे था। छोगाजी ने वहा मधवागणी के दर्शन किए। इस बार उनकी प्रार्थना स्वीकृत हो गई। उन तीनो (छोगाजी, कालू और कानकवरजी) को दीक्षा की आज्ञा प्राप्त हो गई। ___ शोभाचन्दजी वैगानी वीदासर के वरिष्ठ श्रावक थे। धर्मिष्ठ, श्रद्धालु और सौभाग्यशाली। उन्होने कालू से पूछा "तुम दीक्षा ले रहे हो, पर जानते हो कि अपने यहा पारिवारिक जनो की स्वीकृति प्राप्त किए बिना दीक्षा नही हो सकती। क्या तुमने वह स्वीकृति प्राप्त कर ली?" कालू ने कहा "मेरी मा मुझे दीक्षा की अनुमति देगी और उनको मैं दूगा, फिर और किसकी अनुमति लेनी है ? कालू के उत्तर ने शोभाचदजी का मन जीत लिया।' छोगाजी छापर गईं, अपनी जेठानी की अनुमति प्राप्त करने के लिए। जेठानी ने उन्हें अनुमति नहीं दी और कहा कालू को मैं दीक्षित नही होने दूगी । क्या मेरे देवर का घर उजाडना है ? छोगाजी ने सोचा, जेठानी मे अभी मोह का आवेश है। यह मेरी बात नही मानेगी। उन्होने गोविन्दरामजी नाहटा आदि प्रमुख श्रावको के सामने अपनी समस्या रखी और अपनी जेठानी को समझाने का अनुरोध किया। उन लोगो के कहने पर उसने अनमने भाव से दीक्षा की अनूमति दी। दीक्षा के समय शोभा यात्रा निकाली गई। उस समय शोभाचदजी बैगानी ने कालू को बहुमूल्य हार पहनाना चाहा । पर कालू ने यह स्वीकार नहीं किया। वार-बार आग्रह करने पर भी उन्होने यह स्वीकार नही किया । कालू ने कहा "मा, क्या मैं हार के बिना अच्छा नही लगता ? जो घर मे है, वही जब हम छोड़ रहे हैं, फिर दूसरो को हार क्यो पहनना चाहिए ?" कालू की इस बात ने सबके मन मे आश्चर्य पैदा कर दिया। स. १९४४ आश्विन शुक्ला तृतीया को वीदासर मे हजारो मनुष्यो की उपस्थिति मे दीक्षा की विधि सपन्न हुई। दीक्षा देनेवाले थे तेरापथ के पाचवें आचार्य श्री मधवागणी। दीक्षित होनेवाला था तेरापथ का भावी आचार्य मुनि कालू, छोगाजी और कानकवरजी। दीक्षा का स्थान था जीतमलजी दूगड का नोहरा। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा शिक्षा और जीवन-निर्माण I मुनि कालू मे विनय और विवेक का मणि- काचन योग था । उनकी बुद्धि भी प्रखर थी । वे चरित्र की अनुपालना मे बहुत जागरूक थे। इन विशेषताओं ने मधवागणी को शीघ्र ही आकर्षित कर लिया । उनकी शिक्षा मधवागणी के पास ही होती रही । मधवागणी संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान् थे । उन्होने मुनि कालू को आगम ग्रथो का अध्ययन कराया, अपना लिपि-कौशल सिखाया। उनकी हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी । वह सुन्दरता मुनि कालू ने भी हस्तगत कर ली । सारस्वत का पचसन्धि प्रकरण कठस्थ कराया, पर सस्कृत विद्या का पर्याप्त ज्ञान नहीं किया जा सका। मुनि कालू को दीक्षित हुए पाच वर्ष हो रहे थे कि मघवागणी का स्वर्गवास हो गया । मुनि कालू को मधवागणी की प्रतिकृति कहा जा सकता है । वही गति, वही चितन, वही रुचि और वही जीवन-क्रम | जीवन से जो सीखा जा सकता है, वह पुस्तको से नही सीखा जा सकता इस सिद्धात का जीवन्त भाष्य था मुनि कालू | उनके लिए मघवा एक व्यक्ति नही, आदर्श थे । जो मधवा मे नही था, वह उनके लिए मूल्यवान् नही था । इस पौद्गलिक जगत् में मधवा का जीवतशरीर नही रहा, पर कालू के मानस पटल पर वह सदा अमिट रहा । वे उसे कभी नही भुला सके । आचार्य बनने के बाद भी वे जब कभी मघवागणी की चर्चा करते, उनकी आखें प्रेमाश्रुपूरित हो जाती । देखने वालो के सामने मानो मधवा की प्रतिमा साकार हो उठती । मुनि कालू मधवा के प्रति समर्पित थे । समर्पण विनिमय के लिए नही होता। पर जहा समपर्ण होता है, वहा विनिमय अपने आप हो जाता है। मुनि कालू को मधव। का हृदय प्राप्त था, और पूर्ण विश्वास । एक स्थविर मुनि ने मधवागणी से निवेदन किया कालू प्रतिलेखन ठीक नही करता । मघवागणी ने कालू से विना पूछे ही कहा तुम से ज्यादा ठीक करता है । विश्वास उसका नाम है, जिसमे कोई छेद नही होता | मुनि कालू प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि मघवागणी के पास बैठकर ही किया करते थे । इसलिए वे कालू की मुनि-चर्या से भली-भांति परिचित थे । कालू के प्रति उनका आत्मीय भाव दिन-प्रतिदिन बढ रहा था । एक दिन मुनि कालू मघवागणी के उपपात मे प्रतिलेखन कर रहे थे । सर्दी का मौसम था । ठिठुरा देने वाली सर्दी पड रही थी। मुनि कालू ने प्रतिलेखन के लिए ओढने के सारे वस्त्र एक साथ उतार लिए । उनका शरीर कापने लगा । मघवागणी ने तत्काल अपनी पछेवड़ी उन्हे ओढा दी । इस घटना को हमारी परम्परा मे विरल घटनाओ मे गिना जाता है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व . ७ मुनि कालू के जीवन-निर्माण मे छोगाजी का भी बहुत बड़ा योग रहा है । वे दीक्षित होने के बाद भी मुनि कालू के जीवन-निर्माण का पूरा ध्यान रखती थी। मुनि कालू भी उनके प्रति बहुत कृतज्ञता का भाव रखते थे। एक बार मुनि कालू किसी मुनि के पास पाठ-वाचन कर रहे थे। उस समय साध्वी छोगाजी वहा आ गई। उन्हें देखते ही मुनि कालू उनके पास जाकर बोले मैं बात नहीं कर रहा था। मैं उनसे पाठ-वाचन कर रहा था। सुनि कालू के जीवन को प्रभावित करने वाला तीसरा व्यक्तित्व था मुनि मगन । मुनि कालू दीक्षित होते ही मुनि मगन से अभिन्न हो गए। उनकी अभिन्नता निरन्तर प्रगाढ होती गई और जीवन भर उनमे कोई अन्तर नही आया । दो शरीर और एक आत्मा यह अनुभूति सबको होती रही । मुनि मगन बहुत प्रबुद्ध और विवेकति थे। उनका परामर्श मुनि कालू का पथ-दर्शन करता रहा। निमित्त सहायक ही होते हैं, मूल होता है उपादान । जिसमे योग्यता का उपादान होता है और अनुकूल निमित्त मिल जाते है, तब ज्योति प्रज्वलित हो जाती है। मुनि कालू की योग्यता पर मघवा ने मुहर छाप लगा दी थी। मघवागणी प्रात काल प्रवचन करते थे। दोपहर और मध्याह्न मे दूसरे साधु व्याख्यान देते थे। एक दिन उन सबने व्याख्यान देने मे अपनी असमर्थता प्रकट की। मधवागणी बहुत कोमल प्रकृति के थे। उन्होने उन साधुओ की स्वच्छता को सह लिया। उन्होने कालू से कहा 'तुम व्याख्यान दोगे ?' कालू बोले-'गुरुदेव ! मैं दे सकता हू, पर मेरी कठिनाई है कि मुझे गीतिका की लय नही आती । न मुझे पदो का अर्थ ही आता है, फिर मैं कैसे व्याख्यान करूगा ? कसे गाऊगा? मधवा ने कहा'लय मैं सिखा दूगा। अर्थ मैं बता दूगा।' 'गुरुदेव । तब मै व्याख्यान दे दूगा।' और मुनि कालू व्याख्यान देने लगे। अपनी छोटी अवस्था मे ही मुनि कालू मधवागणी के लिए सहारा बन गए थे। विकास का नया आयाम स० १९६० मे डालगणी वीदासर मे विराज रहे थे । यह कस्वा ठाकुर हुकम सिंहजी के आधीन था । उनको सस्कृत के अध्ययन मे रुचि थी। उन्होने हालगणी के पास एक सस्कृत श्लोक भेजा और उसका अर्थ जानना चाहा। डालगणी ने वह श्लोक मुनि कालू को दिया। वह यह है "दोषास्वामरुणोदये रतिमितस्तन्वीरयात शिव, यामममितथाः फलान्यदशुभ त्वय्यादृतेऽङ्ग च का । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : मन्त-प्राकृत व्यापार और कोग की परम्परा नाराम नमजापयोधरहित मारस्य रगाहृ , मोभाधी गृहमेधिना-पि कुविधामीयोऽमि नन्दादिभू ॥" मुनि कालू में संस्कृत विद्या का बीज-वपन मघवागणी ने किया था किन्नु उनक स्वर्गवास के पश्चात् उसे अंकुरित होने का अवसर नहीं मिला। इन लोक ने मुनि काल के गुप्त सस्कार ५० एक चोट की। वह चोट इतनी गहरी यी कि फिर वह सकार मो नहीं सका। इस लोक का अर्थ न समझ पाना उनके लिए प्रेरणा का लोत बन गया। उन्होंने भारत का पूर्वाद्ध काय कना शुरु कर दिया, कुछ ही दिनों में वह कंठस्थ कर लिया। उन्ही दिनो डालगणी चूरू पधारे । रायचन्द जी सुराणा मं-कृत विद्या में अति कचि रखते थे। वे चूरू के गुण परिवार के प्रमुग्न व्यक्ति और प्रमुख श्रावक थे । वे पंडित वनश्यामदामजी के पास मंकृत पढा करते थे। मुनि कालू का उनसे परिचय हुआ। उन्होंने पडितजी के सामने मस्कृत पढने को भावना रखी। पडितजी ने उसका समर्थन किया और उनके लिए अपनी सेवा समर्पित की। मुनि कालू की भावना, रायचन्दजी की गामन-भक्ति और पडित वनश्यामजी की श्रद्धा का अद्भुत समन्व्य हुआ और संस्कृत के अध्ययन का कम चालू हो गया। ___'जैनों को सकृत व्याकरण पढाना साप को दूध पिलानी है' इस बार के पडिता ने प० जनयामजी का विरोध शुरु कर दिया । प० घनश्यामजी बगड के रहने वाले थे। भाजीविका के लिए चूरू मे रह रहे थे। बहुत कट्टर क्रियाकण्डिी ब्राह्मण थे। मुनि कालू के साथ उनका ऐसा संस्कार जुडा कि उन्होने किसी भी विरोध की परवाह नहीं की। वे मुनि कालू को पढ़ाने लगे। हमारे संघ मे भी मंस्कृत विद्या के लिए अनुकूल वातावरण नहीं था। आगम सूत्रों के अभ्यास को जितना महत्व दिया जाता था, उतना महत्व संस्कृत के अध्ययन को नहीं दिया जाता था । अवैतनिक रूप में पढ़ाने वाले विद्वान् भी नही मिलते थे। उन समग्र वातावरण को निप्पत्ति हालगणी के इन पदो के द्वारा दुई 'पडितजी खुले मुंह कम पढाएंगे?' रायचन्दजी मुराणा ने कहा 'मुखवस्तिक वाचकर पढ़ा देगे।' इमे नियति ही करना होगा कि पडित जी ने मुखवस्तिका वापर पढाना स्वीकार कर लिया । यदि मुनि काल के साथ उनका कोई पूर्व मस्कार नही होता तो वे इसे स्वीकार नहीं करते । उनके मन में कोई स्वार्थ की प्रेरणा नहीं थी। उनकी अन्त प्रेरणा ही इसमे काम कर रही थी। चूरू-प्रवाम मे मुनि काल मस्कृत का अध्ययन करते रहे। कुछ दिनो बाद वहां से प्रस्थान हो गया । मुनि कालू का अध्यवसाय अपरिवर्तनीय था । स्थान-परिवर्तन होने पर भी वह नहीं बदला | उनके अध्ययन का कम चालू रहा । वीच-बीच मे पहितजी का योग मिलता रहा। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालू गणी व्यक्तित्व एव कृतित्व : ६ भावी आचार्य की नियुक्ति स० १९६६ मे डालाणी का शरीर अस्वस्थ हो गया। वे अपने दायित्व के प्रति सजग थे। मुनि मगनलालजी ने अपनी प्रार्थना भी आचार्यवर के चरणों मे प्रस्तुत कर दी। श्रावण कृष्णा एकम को अपने उत्तराधिकार का पत्र लिख दिया। उस समय रूपचन्दजी सेठिया और साध्वी प्रमुखा जेठाजी बाहर थे। तीसरा कोई व्यक्ति आसपास भी नही था। डालगणी ने उस पत्र को पुठे मे सुरक्षित रख दिया और साधु-सघ को उसकी सूचना दे दी। समूचा सघ हर्षविभोर हो गया। अब सबका मन भावी आचार्य का नाम जानने को छटपटाने लगा। कुछ साधुओ और श्रावको ने डालगणी से प्रार्थना की आपने भावी व्यवस्था कर दी, उसके लिए हम आपके कृतज्ञ है। हम सबकी इच्छा है कि आप युवाचार्य का नाम प्रकट करें और वे आपके चरणो मे बैठकर आपके अनुभवो का लाभ लें। डालगणी ने इस प्रार्थना को एक मुस्कान मे ही टाल दिया। साधुओ और श्रावको की भावना पूरी नहीं हुई। ____ लाडणू के ठाकुर आणदसिंहजी थे। वे डालगणी के प्रति बहुत ही श्रद्धा रखते थे। उन्हें पता चला कि डालगणी ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्ति कर दिया। उनके मन मे जिज्ञासा पैदा हुई। वे डालगणी के पास आए। उन्होने कहा मैंने सुना है कि आपने उत्तराधिकारी का नाम लिख दिया है । मेरे मन मे उन्हें देखने की उत्सुकता है । इसलिए मैं अचानक अकेला आया हू । डालगणी उनके प्रति बहुत ही कृपालु थे। उन्होने एक साधु से कहा मुनि कालूजी को बुलाओ। साधु ने मुनि कालू से कहा- आचार्यवर आपको याद कर रहे है । वे तत्काल उस मुनि के साथ आए। मुनि कालू जैसे ही दृष्टिगोचर हुए, वैसे ही डालगणी ने उन्हे वापस भेज दिया । ठाकुर साहब ने भावी आचार्य के दर्शन कर लिए । कालगणी ने कहा- अभी यह नाम आप तक ही सीमित रहे। इसका कही भी प्रचार न हो। मैंने जानबूझकर इसे गुप्त रखा है और मैं अभी इसे गोपनीय ही रखना चाहता हू। [कुर साहब ने प्रतिज्ञापूर्वक कहा आप निश्चिन्त रहे, यह रहस्य कही भी उद्घाटित नही होगा । ठाकुर साहब जैसे ही नीचे आए, लोगो ने उन्हे घेर लिया और भावी आचार्य का नाम जानने का प्रयत्न किया। ठाकुर साहब वोले आप मुझ से यह बात न पूछे। यदि भावी आचार्य का नाम प्रकट होता तो आप मुझे नहीं पूछते । यह प्रकट नही है । आचार्यवर ने यदि मेरे सामने उसे प्रकट किया है तो यह सोच समझकर ही किया है कि मैं उसे प्रकट नही करूआचार्यवर का मुझ ५२ जो विश्वास है, उसे मैं कभी आघात नही पहुचाऊगा । आप धैर्य रखें, जो है वह अपने आप सामने आ जाएगा। डालगणी के जीवन काल मे पत्र रहस्य ही वना रहा । भावी आचार्य का नाम जानने की उत्सुकता पूरी नही हुई । अनुमान चलते रहे, लोग अटकलें लगाते रहे । मुनि कालू की Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : संस्कृत - प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा जीवनचर्या वैसी ही चल रही थी, जैसी युवाचार्य पद पर नियुक्त करने से पहले थी । डालगणी वडे अद्भुत व्यक्ति थे । उन्होने मुनि कालू को अब भी कोई विशिष्टता प्रदान नही की। मुनि कालू की अपनी यही विशिष्टता थी कि वे प्रदत्त विशिष्टता से कभी विशिष्ट नही बने, जो वने वह अपनी ही आन्तरिक विशिष्टता से बने | आचार्य पद का दायित्व संवत् १९६६ भाद्रपद के शुक्ल पक्ष मे डालगणी का स्वास्थ्य अधिक गिर गया । अब उनके ठीक होने की संभावना क्षीण हो गई। उनका सकेत पाकर मुनि कालू ने मारावना सुनाई। वह समाधिपूर्ण मृत्यु का एक अनूठा सवल है । जैनसाधना मे समाचिपूर्ण जीवन का जितना महत्त्व है, उससे कही अधिक महत्त्व समाधिपूर्ण मृत्यु का है । आराधना श्रीमज्जयाचार्य का अनुपम अनुदान है। उससे समाधिपूर्ण मृत्यु का वरण करने वाला हर व्यक्ति लाभान्वित हो सकता है, और होता है | आरावना सुनते-सुनते डालगणी ने सबके साथ 'समत- खामणा' किए । भाद्रपद शुक्ला वारस के दिन डालगणी स्वर्गवासी हो गए । मुनि मगनलालजी ने कहा आप पद पर आसीन होकर हमे सनाय करें । मुनि कालू ने सहज ही यह स्वीकार नही किया । उन्होंने कहा- पहले पत्र पढो, फिर बात करो । मुनिश्रेष्ठ मगनलालजी ने कहा पत्र पढ लिया । अव कोनसा पत्र पढना वाकी है । सब सन्तो ने आग्रहपूर्वक मुनि कालू को पद पर आसीन कर दिया । वे उदासीन भाव से पद पर बैठे रहे । वे चाहते थे, यह सारा कार्य पत्र-वाचन के बाद मे हो, पर साधुओ के आग्रह ने उन्हें पद पर बैठने के लिए वाघ्य कर दिया । भाद्रशुक्ला त्रयोदशी को मध्याह्न के समय तीर्थ-चतुष्टय को विशाल परिषद् जुडी | उसमे मुनि मगनलालजी ने डालगणी द्वारा लिखित आचार्य-पद का नियुक्ति पत्र पढा । वह इस प्रकार है 'भिक्षु पाट भारीमाल | भारीमाल पाट रायचंद | रायचंद पाट जीतमल । जीतमल पाट मघराज | मधराज पाट माणकलाल | माणकलाल पाट डालचंद । डालचंद पाट कालू | विशेष आज्ञा प्रमाणे चाल्या फायदो होसी । वि० स०१६६६ प्रथम श्रावण प्रतिपदा ' इस पत्न-वचन द्वारा साधुओ की भावना, कार्य और व्यवहार की पुष्टि हो गई। यह अज्ञात नहीं था, किन्तु जो ज्ञात था, वह सवादी प्रमाण से प्रमाणित हो सुज्ञात हो गया । अव मुनि कालू तेरापथ के भाग्य विधाता हो गए । अष्टम आचार्य के जयघोष से वायुमंडल गूज उठा | समूचा सघ हर्ष-पुलकित हो गया । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व ११ डालगणी के चयन-कौशल की सर्वत्र प्रशसा होने लगी । कालू जैसे अनासक्त और कर्मक्षम आचार्य को पाकर तेरापथ धर्मसंघ धन्य हो गया । भाद्रशुक्ला पूर्णिमा को सकल कला से समन्वित उस पूर्णचन्द्र का आचार्यपदाभिषेक हुआ । तेरापथ का भाग्यचन्द्र अपनी अमल-धवल चादनी से जन-जन की मनोभूमि को उद्योतित करने लगा | सब लोग नए दायित्व के अभिनव सृजन की प्रतीक्षा करने लगे । • अध्ययन का पराक्रम हमारे धर्मसंघ मे संस्कृत विद्या के अध्ययन का श्रीगणेश जयाचार्य ने किया था । उन्होने अपने उत्तराधिकारी मघवा को संस्कृत का अध्ययन करवाया । वे कहा करते थे हमारे यहा मधजी पंडित हैं । मघवागणी मुनि कालू को संस्कृत पढाना चाहते थे । वे मुनि कालू को कहते संस्कृत हमारे आगमो की कुजी है । मागम प्राकृत भाषा में है । उनकी टीकाए संस्कृत मे लिखी गई हैं। संस्कृत जानने वाला टीकाओ के माध्यम से आगमो के रहस्य को समझ सकता है । इसलिए हमे संस्कृत अवश्य पढ़नी चाहिए । मघवागणी ने मुनि कालू के हृदय में संस्कृत पढने की भावना का बीज बो दिया था, पर वे उसे पर्याप्त समय तक सिञ्चन नही दे पाए । फलतः वह बीज अकुरित नही हुआ । डालगणी के शासनकाल मे फिर मुनि कालू संस्कृत पढने लगे । इस अध्ययन काल मे उन्हे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडा । उस समय हमारे सघ मे संस्कृत पढाने वाला कोई मुनि नही था । ब्राह्मण पंडित जैन मुनि को संस्कृत पढाने मे सकुचाते थे । सबसे बडी समस्या थी अर्थ देकर विद्या न पढना । इन सव कठिनाइयो के होते हुए भी मुनि कालू ने अपना अध्ययन चालू रखा । उनका संस्कृत अध्ययन परिपक्व होने लगा । 1 मुनि कालू आचार्य बने, तब उनकी अवस्था ३३ वर्ष की थी । उस अवस्था मे भी वे विद्यार्थी बने हुए थे । ३६ वर्ष की अवस्था (सं० १९७० ) मे छापर प्रवास हुआ। उस समय उन्होने फिर संस्कृत का अध्ययन शुरू किया। उन्होने अपने अव्यवसाय से यह प्रमाणित कर दिया कि ४० वर्ष के आसपास का आदमी भी विद्यार्थी हो सकता है और ७० वर्ष का भी हो सकता है । आचार्य पद का दायित्व उनके कन्धो पर आ गया । फिर भी उनके अध्ययन को क्रम नही टूटा | वे पहले केवल व्यक्ति थे अपने आपमे सिमटे हुए । अब उनकी सीमाए विस्तृत हो गई, उनका कार्य क्षेत्र विशाल हो गया । समूचे सघ के हितो का यह ध्यान रखना उनका कर्तव्य हो गया । उन्होने अपने आचरण से यह प्रमाणित कर दिया कि व्यक्ति दायित्वपूर्ण पद पर रहते हुए भी अध्ययन के लिए समय निकाल सकता है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मम्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ____ मुनि मगनलालजी स्वामी जनता के बीच रहते और आचार्यवर एकान्त में वैठ अध्ययन करते । उस समय कण्ठस्थ करने की पद्धति चाल थी। वडे-बडे ग्रन्थ कण्ठस्थ कराए जाते थे। आचार्यवर ने भी सिद्धान्तचन्द्रिका का पाठ कण्ठस्थ कर लिया । प्रौढ अवस्था और सघ का दायित्व दोनो उनके दृढ अव्यवसाय मे सहायक बने और उनका स्वप्न साकार होता गया। विकास के स्वप्न कालूगणी के मन में विकास के स्वप्न उठते रहते थे। उनका स्वभाव निस्तरंग समुद्र की भाति शान्त था । हलचल और कोलाहल से वे दू· रहते थे। पर विकास की तरंगे उन्हे तर गित करती रहती थी। स्वप्न उसी व्यक्त भावना के प्रतीक हो सकते हैं । हो सकता है कि विकास की सूचना देने के लिए वे आत हो । फाल्गणी ने एक स्वप्न देखा उनकी आखो के सामने एक सूखा वृक्ष है । वह देखते-देखते लहलहा उठा है । दूसरे दर्शन मे वह फलो से लदा हुआ है। इस स्वप्न की व्याख्या उन्होने की अव मेरे सघ मे सस्कृत विद्या का सूखा वृक्ष पत्रो, पुष्पो और फूलो के भार से झुका हुआ होगा । अव हमारा भविष्य विद्या के त९ को तशाखी बनायेगा। पूज्य गुरुदेव ने एक स्वप्न देखा गाय के मकेद बछडे और वछिया चारो तरफ फैल रहे है । इस स्वप्न का अर्थ उन्होने लगाया श्वेत वस्त्रधारी अनेक तरुण साधु-साध्विया होगी । सचमुच ऐसा ही हुआ। कालूगणी के समय मे तरुण साधु-साध्वियो की वडी सख्या मे दीक्षा हुई। सघ वहुत शक्तिशाली हो गया। कालूगणी जागृत अवस्या मे भी बहुत स्वप्न लिया करते थे। उन्होने अपने विकास को ही सीमा नहीं माना । अपने शिष्यो को भी विकास के पथ पर अग्रसर करना शुरू किया। अनेक साधु सस्कृत पढने लगे। आचार्यवर स्वयं उन्हे पढाते थे । सारस्वत और सिद्धान्त चन्द्रिका का प्रवल घोष सुनाई देने लगा। ___आचार्यवर ने अनुभव किया सिद्धान्त चन्द्रिका का पूर्वाद्ध अपर्याप्त है, सारस्वत का उत्तरार्द्ध अपर्याप्त है। वे अपने शिष्यों को सारस्वत का पूर्वार्द्ध और सिद्धान्त चन्द्रिका का उत्तराद्ध पढाते थे। कुछ वर्षों बाद उनके मन मे इसका विकल्प खोजने की प्रेरणा जागी । प्रयत्न शुरू हुआ। मुनि मगनलालजी बहुत दूरदर्शी, सूक्ष्म-बुद्धि के धनी थे। वे यतियो के उपाश्रयो मे जाते, उनके पुस्तकभंडार देखते और जो हस्तलिखित ग्रथ प्राप्त होते, उन्हे ले आते। उन्होने हस्तलिखित ग्रथो का महत्त्वपूर्ण सग्रह किया। उनमे अनेक दुर्लभ ग्रथ हैं । लिपिसौन्दर्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। श्रीचन्दजी गणेशदासजी गया, विरधीचन्दजी मदनचन्दजी गोठी, वालचन्दजी मालचन्दजी सेठिया सरदारबाहर, ईमरचन्दजी चोपडा गगा शह', तोलारामजी सुराना चूरू, मालचन्दजी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व . १३ वैद रतनगढ तथा दानचन्दजी चोपडा सुजानगढ आदि कुछ परिवारो ने भी यतियो के पुस्तक-भडारो से अनेक ग्रथ खरीदे । इस प्रकार तेरापथ सघ के साधुओ तथा श्रावको के पास हस्तलिखित ग्रथो का एक अच्छा सग्रह हो गया। ___कालूगणी को सारकौमुदी की एक प्रति प्राप्त हुई। उसे प्राप्त कर आचार्यवर को सतोप हुआ। उन्होने कहा इसकी अष्टाध्यायी मिल जाए तो अच्छा रहे। जिसकी ऊर्जा आज्ञाचक्र की ओर प्रवाहित होती है, उसकी हर कल्पना वास्तविकता बन जाती है और हर सपना साकार हो जाता है। आचार्यवर का स्वप्न साकार लेने लगा। मुनि चम्पालालजी (मीठिया) भाद। (जिला गगानगर, राजस्थान) मे गए। वहा रावतमलजी पारख रहते थे। उनके पास यतियो के पुस्तक-भडारो से खरीदी हुई कुछ पुस्तके थी। मुनि चम्पालालजी ने पुस्तके देखी। उनमे उन्हे विशालकीर्तिगणी द्वारा निर्मित विशाल शब्दानुशा सन (अष्टाध्यायी) की एक प्रति मिली। वे उसे प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा आचार्यवर को जिसकी खोज है, वह शायद यही ग्रथ है । वे उस ग्रथ को ले आए। आचार्यवर को भेट किया। आचार्यवर ने उसे देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष प्रकट किया। उस उपलब्धि के लिए उन्हे साधुवाद दिया। सघ जब विकासोन्मुख होता है, तब आचार्य और उनके अनुयायी सभी एक दिशा मे गतिशील हो जाते हैं । आचार्य कल्पना करते है और शिष्य-समुदाय उस काल्पनिक चित्र मे प्राण भरने का प्रयत्न करता है। कालू गणी ऐसे ही सौभाग्यशाली आचार्य थे। उन्हे शिष्यो का ऐसा विनम्र समुदाय मिला, जो उनके इगित पर प्राण निछावर करने को तैयार रहता था। तेरापथ की परम्परा मे यह सामान्य वात रही है। पर, कालू गणी मे कुछ विशिष्ट चुम्बकीय प्रभाव था । वह शिष्यो के हृदय को सहज आकर्षित किये रहता था। पडित रघुनन्दनजी विकास का चरण जैसे-जैसे आगे बढता है, वैसे-वैसे सामग्री की अपेक्षाए भी वढती जाती है । ग्रथो की अपेक्षा पूरी हुई तो उन्हे पढानेवालो की अपेक्षा का अनुभव हुमा। जव विकास होता है तो अपेक्षा अपने आप पूरी होती है । आचार्यवर स. १६७४ मे सरदारशहर का चतुर्मास सपन्न कर चूरू पधारे । वही रावतमलजी यति थे। वे धर्मसंघ के प्रति बहुत अनुराग रखते थे। आचार्यवर के प्रति उनके मन मे गहरा अनुराग था। उन्होने कहा--महाराज | यहा एक विद्वान् आया हुआ है । अभी युवक ही है। पर उसमे अद्भुत विशेषताए हैं। वह सस्कृत का पारगामी विद्वान् है। आयुर्वेदाचार्य है । एक दिन मे मैकडो श्लोक बना लेता है । आशुकवि है । किसी भी विषय ५२ धाराप्रवाह श्लोक बोल सकता है। ऐसा विद्वान् मैने पहले कभी नहीं देखा । वह सुनामई गाव (जिला--- अलीगढ, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : -कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा उत्तर प्रदेश) का निवासी है। यहा आजीविका-अर्जन के लिए आया है। यदि वह अनुरन हो जाए तो अपने सब मे सस्कृत विद्या का अच्छा विकास हो सकता है। का स्वभाव भी निराला है। वह एकान्तप्रिय है। विज्ञापन से दूर रहता है। गंभीर और धीर है । बहुत कम वोलता है । लोगो से मिलने-जुलने मे भी सकोच करता है । अपने आप मे मस्त है । रघुनन्दन शर्मा उसका नाम है। यतिजी ने एक सस्कृतज्ञ विद्वान् का परिचय पाकर कालूगणी को हर्प हुआ। इस हपं के पीछे उनका गुणानुराग तो था ही, किन्तु अपनी अपेक्षा की पूर्ति की परिकल्पना भी थी। आचार्यवर ने कहा कभी योग मिला तो उस विद्वान् से बातचीत करेंगे। यतिजी ने पडित रघुनन्दनजी के सामने पूज्य कालूगणी का परिचय दिया। उन्होने कहा वे जैन आचार्य हैं, तेरापथ के नेता है। उनका बहुत बड़ा सघ है। वे बहुत -क्तिशाली है । स्वय विद्वान् है और विद्या के अनुरागी हैं। विद्वान् को बहुत महत्व देते हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम उनके पाम चलो, मैं तुम्हे उनसे परिचिन का दूगा। यतिजी की बात पडितजी सुन रहे थे । ५९, समझ नहीं पा रहे थे। वे यतिजी ५ मामान करते थे। इसलिए उनकी वात को अस्वीकार करना भी नहीं चाहते थे । और जन्त रण मे जैनाचार्य और उसमें भी तेरापंथ के आचार्य के पास वे जाना नहीं चाहते थे। उन्होने प्रकारान्तर मे इस बात को टालना चाहा । यतिजी अपनी बात ५. अदित रहे। उन्होने पडितजी से कहा मुझे लगता है कि तुम्हारे मन में जैन धर्म और तेरापय के प्रति कुछ भ्रान्तिया है। उन भ्रान्तियो को दूर करने का यह अच्छा अवसर है। इस अवसर का लाभ उठाना दूरदर्शिता ही होगी। पति जी ने यतिजी का अनुरोध स्वीकार कर लिया। वे दोनो आचार्यवर गोवा में उपस्थित हुए। प्रारभिता परिचय के बाद जैन धर्म और तेरापथ के बारे में चर्चा न की। पडितजी के प्रश्नो का समाधान किया गया । अब पडितजी दिन ही वरल गए । मातिाल में मनुष्य जो होता है, वह उनके निरस्त हो जाने पर नीता, दूसरा ही हो जाता है। उनके मन में प्रथम मप में ही minाहीचा । उन्हें अनुभव हुआ कि वे पूज्य कालू गणी और उनके ग या के लिए ही उत्तर प्रदेश ने राजस्थान मे आए हैं। गिरि आनायंप्रबर सीमा में स्थित हुए। उन्होने विनम्र ना को एा पालिपि दी। बाचायप्रवर ने पूछा 'पदित जी । {"T ENT रोनी ने TELI 'यनिजी मुरे, यहा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व . १५ नही लाते तो मेरा मन आपके प्रति घृणा से भरा ही रहता। मैं आपके सपर्क मे आया। मेरी शकाए निरस्त हो गई। मैंने अकारण ही आपके प्रति घृणा को पाला मुझे अपनी भूल का अनुभव हुआ। उसके प्रायश्चित्त स्वरूप यह साधु-शतक बना कर लाया हूँ । इसमें साधु की चर्या है। वह बहुत पवित्र है। उससे पापो का विनाश होता है। मैंने अपने मन मे पाली हुई घृणा का प्रायश्चित्त इन शब्दो मे किया है "अनागत को न जहाति सत्ये रतो जनोऽसत्यसमूहजालम् । न नीलिमा कस्य निवर्तते हि, ममीरिकायोगगतस्य सद्यः।"२ आचार्यवर | आपके चरणो मे आया हुआ कौन सत्यप्रेमी मनुष्य है, जो असत्य के जाल को नही छोड देता। ममीरा के स्पर्श से किस नीली वस्तु की नीलिमा दूर नहीं होती। आचार्यवर ने तीन घटा मे बनाई हुई उस कृति को देखा और देखा कि पंडितजी की ग्रहणशीलता कितनी प्रवल है। उन्होने एक बार के सपर्क मे साधूचर्या को समझा और उसे काव्य मे गुम्फित कर दिया। पडितजी के प्रति माचार्यवर के मन मे आकर्षण पैदा हो गया । उन्होने पडितजी मे वह सब पाया, जो यतिजी ने बताया था। पडितजी के मन मे अगाध श्रद्धा पैदा हुई। उन्होने आचार्यवर के चरणो मे अपने आपको समर्पित कर दिया। साधुशतक के एक श्लोक मे उसकी स्पष्ट ध्वनि "नेदानी त्वा त्यक्तुमामि साधो ! भक्ति मे त्व शीघ्रत सगृहाण । हस्ताभ्यामाबद्धवन्ध प्रकार , कि नाह स्या धारितानन्तसेवः ॥४ आचार्यवर | अब मैं आपको नहीं छोड़ सकता। आप मेरी भक्ति को स्वीकार करें। मैं हाथ जोडे हुए जीवन-पर्यन्त क्या आपकी सेवा मे नही रहूगा? अवश्य रहगा। आचार्यवर ने पडितजी के अनुरोध को मूक स्वीकृति दे दी। वे अपना आयुर्वेद का काम करते और जब कभी अवकाश होता आचार्यवर की सेवा मे आ जाते । साधुओ को सस्कृत-अध्ययन का विशेष अवसर हाथ लग गया। पहले प०धनश्यामदास जी पढाते थे। अब पडित रघुनन्दनजी और पढाने लगे। उनका ज्ञान बहुत विशद था। वे साधुओ को सारकोमुदी और विशाल शब्दानुशासन की अष्टाध्यायी पढाने लगे। स० १९७८ मे आचार्यवर लाडणू विराज रहे थे। उस Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ . संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और को। की परम्परा समय हेमादानुशासन का एक प्रकाशित सस्करण जैचन्दलालजी व रमेचा के । यहा उपलब्ध हुआ। साधुओ ने आचार्यप्रवर को वह दिखाया । वह सर्वांगसपूर्ण व्याकरण था । कुछ साधुओ ने उसे पढना शुरू किया। fમધુશવાનુશાસન નિર્માણ विशालशब्दानुशासन के परिभाषा-सूत्र सरल थे, हेमशब्दानुशासन के कठिन । पडितजी दोनो को पढाते थे । आचार्यवर भी दोनो को देखते रहते थे। उनकी यह धारणा बन गई कि हेमशब्दानुशासन के सूत्र कठोर है। उसका प्रक्रिया-अथ भी प्राप्त नहीं है। इसलिए विशालशब्दानुशासन मे ही आवश्यक सशोधन कर उमे अध्ययन में प्रयुक्त करना चाहिए। मुनि चीयमलजी' आचार्यवर की उस इच्छा की सपूर्ति मे लगे। वे विशाल भानुशासन के अध्येता थे। उनका अध्यवसाय स्थिर था। वे श्रमपटु थे। जिस कार्य मे लग जाते, उसे बीच मे छोडना उन्हे पसन्द नहीं था। पडित रघुनन्दनजी को उन्हे सहयोग मिला । विशालगन्दानुशासन के परिष्कार का कार्य प्रारभ हो गया। मुनि चौथमलजी ने विशाल शब्दानुशासन के परिष्कार का कुछ कार्य मपन्न कर लिया । पडिन (धुनन्दनजी ने उसकी वृहद् वृत्ति तैयार की। उसमे सिद्धान्तकौमुदी और सिद्धहमगव्दानुशासन आधार रहा। इस कार्य की सपूर्ति पर सवको बहुत प्रसन्नता हुई । आचार्यवर का स्वप्न पूरा हुआ। उन्हे इस बात का सतोष हुआ कि अव सम्कृत विद्या के अध्ययन का क्रम व्यवस्थित ढग से चल पाएगा। विशालगन्दानुशासन को परिष्कृत करने का उपक्रम चला था । पर उसमे इतना परिवर्तन हो गया कि एक नया ही व्याकरण-अथ बन गया। तब मत्री मुनि मगनलालजी के सुझाव के अनुसार उसका नाम 'श्रीभिक्षुशब्दानुशासन' रखा गया। वह नवीनतम शब्दानुशासन है। उसके सूत्र कोमल है। परिभाषा की जटिलता से वह मुक्त है। पडित रघुनन्दनजी ने हेमादानुगासन की तुलना मे उसका चित्र प्रस्तुत किया है . हेममिद मम दक्षिणहस्ते, वामकरे भैक्षवमति रम्यम् । ब्रूहि किमिच्छसि कोमल बुद्ध कर्कश भूत्रमकग सूत्रम् ॥ भिक्षुशब्दानुशासन के प्रथम अव्येताओ मे मैं और मेरे सहपाठी मुनि वनराज जी और चन्दाम जी ये । उस समय तक इसके प्रक्रिया-प्रथ का निर्माण नहीं हुआ था। इसलिए हम लोगो ने पहले सिद्धान्त चन्द्रिका कण्ठरथ की, फिर Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व १७ भिक्षुशब्दानुशासन का पारायण किया। मुनि चौथमलजी ने भिक्षुशब्दानुशासन के प्रक्रिया-ग्रथ के रूप मे कालूकीमुदी की रचना की। इसके प्रथम अध्येताओ मे मेरे विद्यार्थी मुनि नथमल, बुद्धमल्ल आदि रहे। पडितजी ने भिक्षुशब्दानुशासन का पद्यवद्ध लिङ्गानुशासन तैयार किया। न्यायदर्पण, उणादिपा०, धातुपाठ और गणपाठ भी तैयार हो गया। इस प्रकार देखते-देखते महाव्याकरण सर्वांगपूर्ण हो गया। चर्चा के अवसर और समता का अवगाहन ___ कालूगणी का विहार क्षेत्र सस्कृतज्ञ विद्वानो का क्षेत्र था। उस समय रामगढ, फतेहपुर, चूरू, रतनगढ और बीकानेर मे सस्कृत विद्या के केन्द्र थे। इनमें सैकडो सस्कृतज्ञ विद्वान थे। जैसे-जैसे हमारे सघ मे सस्कृत विद्या का विकास हुआ, वैसेवैसे उन विद्वानो का सपर्क बढने लगा। एक बार चन्द्रशेखरजी शास्त्री आचार्यवर के पास आये । वातचीत हो रही थी। मुनि सोहनलालजी ने पडितजी के सामने एक जिज्ञासा प्रस्तुत की। उन्होने कहा 'कथ द्वयेषामपि मेदिनी भृताम्' इस श्लोक मे 'द्वयेपा' का प्रयोग कैसे हुआ है ? यह व्याकरण से सिद्ध नही होता है। शास्त्रीजी ने इस जिज्ञासा को दूसरे अर्थ मे लिया । उन्होने सोचा, जैन मुनि महाकवि कालिदास के प्रयोगो मे त्रुटि निकालना चाहते हैं। वे उस शब्द की सिद्धि के लिए धाराप्रवाह सस्कृत मे बोलने लगे। वे विना रुके बोलते ही गये। उन्होने दूसरो को अपनी बात कहने का मौका ही नहीं दिया। उनकी वाशक्ति पर सव आश्चर्यचकित थे । आचार्यवर को लगा कि यह समय का सदुपयोग नही हो रहा है। उन्होने कहा शास्त्रीजी। साधुओ ने जानकारी की दृष्टि से प्रश्न पूछा था। उनके मन मे कोई विरोधी भावना नहीं थी। आप इसे सहज रूप मे ही लें। आपकी वाक्-पटुता से मैं मुग्ध हू । पर जो कम बोलता है, उसे मैं कम समझदार नही समझता । आचार्यवर के इस वचन से शास्त्रीजी का विवेक जाग उठा । वे तत्काल सभल गये। विनम्रता पूर्वक बातचीत कर अपने स्थान चले गये। तिरस्कार तिरस्कार की भावना को जगाता है और सम्मान सम्मान की भावना को । आचार्यवर ने शास्त्रीजी के सम्मान की सुरक्षा की। उनके मन मे भी आचार्यवर के प्रति सम्मान की भावना जागी। वे दूसरे दिन आये और विनम्र स्वर मे वोले - सायतने गतदिने भवदीयशिष्य , साक विवादविषयेऽत्र यते । प्रवृत्ते । यत् किञ्चिदल्पमपि जल्पितमस्तु कोण, क्षन्तव्यमेव भवताऽत्र कृपापरेण ।। विशदबोधविशुद्धमतिप्रभा, धवलिता ललिता वचनावलि । भगवतो मुखपद्मविनि मृता, सुमुदमातनुतेऽतनुतेजस । आचार्यवर ने उनकी विनम्र भावनाओ को स्वीकार किया। वे जीवनभर Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा आचार्यवर के प्रति कृतज बने रहे। स० १९७० मे आचार्यवर रतनगढ पधारे। प० हरिनन्दनजी सस्कृत के अच्छे विद्वान थे। वे आचार्यवर के पास आये । प्रसंगवश आचार्यवर ने पूछा आपने कौन-सा व्याकरण पढा है ? पडितजी ने गर्वोक्तिपूर्ण वाणी मे कहा भट्टोजी दीक्षित रचित सिद्धान्त कौमुदी मैंने पढी है । वही एक मात्र सस्कृत व्याकरण है । उसके सिवाय दूसरा कोई सींगपूर्ण व्याकरण है ही नही। महर्षि अगस्त्य जैसे तीन अजुलियो मे समुद्र को पी गये, वैसे ही तीन मुनियो ने समग्र २०५-सिन्धु का निपान किया है। ऐसा कोई ०६ शेष नही बचा है, जो इस त्रिमुनि रचित व्याकरण से सिद्ध न हो। गर्वोक्ति किसी के लिए भी अच्छी नही होती। एक विद्वान के लिए तो वह अच्छी होती ही नही। विद्या अनन्त है। उसका अन्त पाना किसी भी व्यक्ति के लिए सभव ही नही है । फिर भी मनुष्य अपनी अल्पज्ञता के कारण समय-समय पर गर्वोक्ति कर बैठता है। यह कैसा आश्चर्य है कि सर्वन को गर्वोक्ति करने का अधिकार है पर वह करता नही । अल्पज्ञ को वह अधिकार प्राप्त नहीं है, फिर भी वह करता है । पडितजी की गर्वोक्ति पर आचार्यवर को आश्चर्य हुआ। उन्होने कहा पडितजी, मैं सिद्धान्त-कौमुदी का प्रशसक हू । उसका महत्व भी समझता हू । पर, आपकी गर्वोक्ति ने मुझे वाध्य कर दिया है यह कहने के लिए कि आप सिद्धान्त-नौमुदी के द्वारा 'तुच्छ' शब्द की सिद्धि करे। सिद्धान्त-कौमुदी की पुस्तक पडितजी के पास थी। वे उसमे तुच्छ' शब्द को सिद्ध करने वाला सूत्र देखने लगे। पुस्तक को काफी टटोला पर वह सूत्र मिला नही। उन्होने कहा महाराज | आज वह सूत्र नहीं मिला है। कल उसे देखकर मैं आपकी सेवा मे उपस्थित होऊंगा। दूसरे दिन मध्याह्न मे वे आये। बातचीत के प्रसग मे कहा -'तुच्छ' शब्द को सिद्ध करने वाला सूत्र मुझे नही मिला। मैने गर्वोक्ति की, उसके लिए आप मुझे क्षमा करें। आचार्यवर ने मुस्कान भरते हुए कहा - इस जगत् मे सव-कुछ अपूर्ण है, फिर हम पूर्णता और अपूर्णता को मापेक्ष दृष्टि से ही देखें । यही क्षमा है। यही हमारा मैत्री-सूत्र है, जो सबको जोडता है, किसी को किसी से दूर नही करता। मचमुच वह प्रमग मधुरता मे बदल गया। आचार्यवर ने पडितजी को पराजय का अनुभव नहीं होने दिया। आचार्यवर के जीवन मे तत्वचर्चा के भी अनेक अवसर आए। वह वादविवाद का युग था। शास्त्रार्थ करना बहुत रसपूर्ण कार्य था। जय-पराजय की भावना प्रबल थी। इसलिए तत्त्वचर्चा की अपेक्षा इसे अधिक महत्त्व दिया जाता या कि कौन जीता और कौन हारा। आचार्यवर को भी इस युग के अनुभवो से गुजरना पड़ा। पर, उनका गहज रग इममें नही था। इसका श्रेय उनके जल कमलबत् निलप स्वभाव को ही दिया जा सकता है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी . व्यक्तित्व एव कृतित्व १६ सवत् १९७६ की बात है । भीनासर मे कुछ व्यक्ति तत्वचर्चा करने आए। चर्चा प्रारम्भ हो गई। उसके बीच आचार्यवर ने सूत्रकृताग के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के ११वे अध्ययन (१६-२१) की टीका का एक पाठ उन्हे वनलाया। वे सस्कृत नहीं जानते थे। अत उन्होने कहा हम कल किसी सत्कृत विद्वान् को साथ लेकर आएगे। आपने जो अर्थ बताया वह हमे जचा नहीं। वह जचता भी कसे, उस पाठ से उनके पक्ष को समर्थन नहीं मिल रहा था। एक ही दिन बाद वे पडित गणेशदत्तजी को साथ लेकर आए । तत्वचर्चा को सुनने के लिए बीकानेर के लोग भी काफी संख्या में उपस्थित थे। आचार्यवर ने फिर प्रसग को चालू करते हुए टीका का अर्थ उन्हें बताया। उन लोगो ने पडित जी से कहा आप बताइए, टीका के इस पाठ का अर्थ क्या है ? पडितजी ने टीका का पन्ना अपने हाथ मे लिया, उसे ध्यान से पढा। उसका अर्थ समझने का प्रयत्न किया। फिर वे बोले मैं आपके साथ आया है। आपका पक्षधर होकर आया है। फिर भी मुझे यह कहना होगा कि टीका के इस पाठ का वही अर्थ है, जो पूज्य कालूगणी जी ने लिया है। उन लोगो ने कहा पडितजी आप फिर इसे ध्यान से पढिये। यह अर्थ हमारी समझ मे नही आया है। पडितजी ने दुबारा उसे पढ़ा और कहा आपकी समझ मे आए या न आए, पर इसका अर्थ वही है, जो अभी-अभी आपको बताया गया था। सब लोग मौन हो गए ! कनीरामजी बाठिया ने कहा-पडितजी | आप भले ही पूज्यश्री का समर्थन करें, मैं इस अर्थ को नहीं मानता। तब आचार्यवर ने कहा- 'मैं नही मानता'--इसका उपाय मेरे पास भी नही है । शायद दुनिया की किसी भी शक्ति के पास नहीं है। तत्वचर्चा के अनेक प्रसग आते थे । आचार्यवर की अन्तर्-आत्मा बहुत निर्मल थी। अत हर प्रसग निर्मलता के साथ ही सम्पन्न हो जाता था। कोई-कोई प्रमग खेदजनक भी बन जाता था। स० १६६१ की घटना है। आचार्यवर जोधपुर चतुर्मास के लिए यात्रा कर रहे थे। कालू पधारे। वहा के कुछ दिगम्बर भाई तत्वचर्चा के लिए आए। स्त्री की मुक्ति होती है या नही होती, इस विषय पर चर्चा हो रही थी। आचार्यवर ने गोम्मटसार की निम्नाकित गाथाए उद्धृत की, जिनसे स्त्री की मुक्ति का समर्थन होता है "होति खवाइगि समये बोहियवृद्धा य पुरिसवेदा य । उपकुसेण त्तर-सयप्पमा सग्गदो य चुदा ॥ पत्ते यवुद्ध तित्थय रत्थि णउसयमणोहिणाण जुदा । दस छक बीस दस बीसट्ठावीस जहाकमसो ॥ जेट्ठा पर वहु मज्झिम ओगाहणगादु चारि अव । जुगव हवति खवगा उपसमगा सद्धमेदेसि ॥"१० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० . संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा वे लोग गोम्मटसार की हस्तलिखित प्रति लाए। इस गाथा का पन्ना निकाला। वह पन्ना इधर-उधर लेते-देते फट गया। पता नहीं, किसके हाथ से फटा, पर फट गया। इस पर हगामा शुरू हो गया। तत्वचर्चा बीच में ही रह गई। माकोश उभर आया। मव्याल से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक वातावरण तनावपूर्ण रहा। बीच-बीच में आचार्यवर के प्रवास-स्थल पर पथराव भी होता रहा । इस प्रकार की घटना से यह वोव-पाठ मिला कि ये तत्वचर्चा के प्रमंग कभी-कभी सार्थकता की अपेक्षा व्यर्थता को ही मिद कर देते है । तत्वचर्चा के अनुकूल या प्रतिकूल किमी भी प्रसग मे बाचार्यवर की समता को खंडित होते नही देखा। उनकी आकृति पर भृकुटि को तनते नही देखा। यह उनकी महज सिद्ध क्षमा का ही अनुदान है। मक व्यक्ति पूर्वधारणा को तुष्टि के लिए ही नत्वचर्चा नहीं करते । किन्तु जानधारा मे अभिनव उन्मेप लाने के लिए भी करते है। उनका वाद निश्चित ही जानवर्धक होता है । तत्त्ववेत्ता के जीवन मे इस प्रकार की तत्त्वचर्चा के भी अनेक प्रमग आते हैं। नये प्रयोग : नई दिशाएं ( १ ) पाचार्य का पद बहुत उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। आचार्य के सामने अनेक समस्याए होती हैं। वे कभी-कभी नीद को भी प्रभावित कर देती हैं । आचार्यवर को जब नीट नही आती, तव वे स्वाध्याय का प्रयोग करते। कुछ लोग नीद की गोलिया खाकर नीद लेते है । यह स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है। स्वाध्याय का प्रयोग बहुत लाभप्रद है। मस्तिष्क मे तनाव नही रहता, ज्ञान-तन्तु कसे हुए नही रहते । स्नायविक तनाव नही होता, तब नीद अपने आप आ जाती है । कुछ लोग गिनती करते-करते नीद मे चले जाते हैं। कुछ लोग वास गिनते-गिनते नीद ले लेते हैं। आचार्यवर को नीद नही आती, तब वे मुझे बुलाकर कहते रवाध्याय शुरू करो। मैं किसी ग्रय के पाठ का पुनरावर्तन शुरू कर देता। आचार्यवर उसे सुनने लग जाते । कुछ ही मिनटो मे नीद आने लगती। आचार्यवर आगम-मूतो का वाचन संस्कृत टीकाओ के माध्यम से किया करते थे। उस समय हमारे मघ मे वे ही एकमात्र इसके अविकारी थे। दूसरा कोई सस्कृत का विद्वान् नही था। कोई विषय उनके ध्यान मे नही आता, उसे चिन्तन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व : २१ के लिए छोडकर आगे बढ जाते। वह चिन्तन मे पड़ा रहता। कुछ दिनो बाद अर्द्धनिद्रा मे उसको अर्थ ध्यान मे आ जाता। ऐसा अनुभव होता, मानो मधवागणी उन्हे वह अज्ञात् विषय समझा रहे है। ऐसी घटना उनके जीवन मे अनेक बार घटित होती थी। मनोविज्ञान इसकी व्याख्या अपने ढग से करता है कि अवचेतन मन मे गया हुआ विषय स्वय समाधान प्रस्तुत कर देता है। आचार्यवर ने इसकी व्याख्या अपने ढग से की। पर वे इस मनोवैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग __ करते थे और उसमे सफल भी होते थे । ( ३ ) __ आचार्यवर के हाथ के लिखे हुए कुछ पन्ने प्राप्त हैं। उनमे सरस्वती-मन लिखे हुए हैं। सरस्वती की उपासना बहुत प्राचीन काल से प्रचलित है। अनेक आचार्यों ने इस विषय मे अनेक मंत्रो की रचना की। आचार्यवर ने उनमे प्रमुखप्रमुख मन अपने पत्नों मे लिखे थे। इससे पता चलता है कि उनके मन मे विद्या के विकास की भावना बहुत प्रबल थी। सभव है, उन्होने सरस्वती-मत्र की साधना भी की हो। हमारे धर्मसंघ मे आज विद्या की जितनी शाखाए विकसित हैं, उनका बीजवपन आचार्यवर ने ही किया था। तेरापथ धर्मसघ वर्तमान युग मे एक प्रबुद्ध धर्मसघ के रूप मे प्रतिष्ठित है। उसके प्रबुद्ध साधु-साध्वियों के कर्तत्व से विज्ञसमाज प्रभावित है। उसका मूल श्रेय आचार्यवर की दूरदर्शिता को ही है । सस्कृत विद्या का विकास उनके युग मे ही हो चुका था। हेमशब्दानुशासन का आठवा अध्याय प्राकृत परिवार की छ भाषाओ का व्याकरण है । आचार्यवर ने मुझे और मेरे विद्यार्थी मुनि नथमलजी को उसका पा० कठस्य करा दिया था। न्यायशास्त्र के विषय मे उन्होंने 'प्रमाणनयतत्वालोक' का चुनाव किया। उसकी एक हस्तलिखित प्रति वे अपने पास रखते थे और समय-समय पर उसका पारायण किया करते थे । साहित्य के क्षेत्र मे अनेक आयाम खुल चुके थे। उस समय का मुनिगण काव्यपाठी ही नहीं था, काव्य-निर्माता भी हो चुका था। आचार्यवर कविता को बहुत प्रोत्साहन देते थे। वे स्वय बहुत अच्छे कवि थे, पर स्वय कविता नहीं लिखने थे। दग्धाक्षर की आशका से ही ऐसा हुआ था। वे कभी-कभी कविता लिखते, वह बहुत सुन्दर होती थी। स० १६६१ की बात है। मारवार्ड प्रदेश की याना हो रही थी। आचार्यवर बडे गुडे मे विराज रहे थे। फाल्गुन वदी सप्तमी को" सायकालीन प्रतिक्रमण के बाद मैं आचार्यवर की वन्दना करने गया। तब आचार्यवर ने मुझे लक्ष्य कर तत्काल एक सोरठा बनाकर मुझे कहा सीखो विद्यासार, परहो कर परमाद नै । बधसी बहु विस्तार, धार सीख धीरज भने । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा फाल्गुन वदी ६ को मध्याह्न मे आचार्यवर ने पुन. एक सोरठ। कहा शिशु मुनिवर सुविसेख, क्रिया नित्य निर्मल करो। रच न चूको रेख, देख-देख पगला धरो ।। यह पद्य उनकी ललित, प्रसन्न और मुदु शैली की काव्य-क्षमता की सूचना करते हैं। पर उक्त आशका ने उनकी क्षमता का उपयोग नहीं होने दिया। आचार्यवर के जीवन की सध्या का समय चल रहा था। वे मालवा-यात्रा से लौटकर चित्तोड पचार। वहा वह प्राणघाती व्रण उ०। । आचार्यवर को कुछ आन्तरिक आभास हो गया। उन्होने भक्तामर का पाठ शुरू किया। वे भक्तामर की एक हस्तलिखित प्रति अपने पास रखते थे। उस समय वह प्रति मुनि नथमल को दी हुई थी। उन्होने वह प्रति मगवाई और पाठ शुरू किया। वह पाठ प्रतिदिन चलता था । शारीरिक व मानसिक समस्या आने पर स्तुति-मनो के पा० का बहुत महत्त्व है । वे उसका महत्व जानते थे। उनका ज्ञान संघ मे सक्रात हुआ। आज वह अनेक दिशाओ मे प्रसार पा रहा है। जयाचार्य के समय महासती गुलावाजी ने भगवती-सूत्र की जोड की हस्तलिपि की थी। कुछ समय बाद उसकी एक हस्तलिपि बड़े कालूजी स्वामी ने की । उसके वाद उसकी कोई हस्तलिपि नही हुई। वह विशाल अथ है। सा० हजार से अधिक उसके पद्य हैं। आचार्यवर के समय मे उसकी दो हस्तलिपिया हुईं। एक मुनि कुन्दनमलजी ने की और एक साध्वी खूमाजी ने। अन्य अनेक सावियो ने भी लिपि-कौशल का अद्भुत विकास किया। ___ मुनि कुन्दनमलजी का लिपि-कौशल बहुत चमत्कारी सिद्ध हुआ। स०१९७७ (भिवानी-चतुर्मास) मे उन्होंने एक पत्र लिखा । उसमे समूचा उत्तरा०ययन सूत्र और व्यवहार चूलिका लिखी हुई है। उस ..८'X४' ३-4 के पन्ने मे लगभग अस्सी हजार अक्षर है । जितना सूक्ष्म, उतना ही सुन्दर । लिपि-कौशल के इतिहास मे उसका अद्वितीय स्थान है। मुनि सोहनलालजी चूरू, मुनि अमीचन्दजी सुजानगढ, मुनि सोहनलालजी चाडवास आदि अनेक साधुओ ने ऐसी सुन्दर हस्तलिपिया की, जिन्हें देखकर कोई भी व्यक्ति आश्चर्यचकित हुए विना नही रह सकता। सिलाई, पात्र की रगाई, रजोहरण आदि के निर्माण मे भी कला का इतना विकास हुआ कि उनकी कलात्मकता सहज ही आकर्षण का हेतु वन गई। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व २३ प्राचीनता और नवीनता की देहलीज पर आचार्य कोलूगणी उस समय अस्तित्व मे थे, जब हजार वर्ष की लम्बी परतत्रता के बाद हिन्दुस्तान स्वतन्त्रता की लडाई लड रहा था। महात्मा गांधी उस लडाई का नेतृत्व कर रहे थे। पुरानी धारणाए टूट रही थी, नई धारणाए स्थापित की जा रही थी। पुरानी परम्पराओ और सीमाओ का स्थान नई परम्पराए और सीमाए ले रही थी। उस सन्धिकाल मे कोई सर्वथा पुराना नही रहा था, और कोई भी सर्वथा नया नही हो पा रहा था। आचार्यवर नए विचारो के समर्थक थे, यह कहकर मैं अतिशयोक्ति करना नहीं चाहता। किन्तु यह अत्युक्ति भी नही होगी कि वे सन्धिकाल के अनुरूप प्राचीनता की मिट्टी मे नवीनता के वीज बो रहे थे। वे ययावत् स्थिति के पोषक नही थे। यथार्थ की स्वीकृति के लिए उनका मानस तैयार था । स० १९८४ का प्रसग है । आचार्यवर बीदासर मे विराज रहे थे । मानसिंह जी (मुर्शिदावाद, पश्चिम बगाल) दर्शन करने आए। उन्होने कहा महाराज श्री ! आप माधु-साध्वियो को बगाल प्रान्त मे क्यो नही भेजते ? आचार्यवर ने परम्परानुसारी उत्तर दिया वह अनार्य देश है । वहा हम लोग जा नही सकते । अपने कयन की पुष्टि के लिए आचार्यवर ने वृहत्कल्प का एक सूत्र उन्हे बताया, जिसमे मुनियो के विहार की सीमा बतलाई गई है। आचार्यवर ने कहा-इस सूत्र के अनुसार हम पूर्व मे अग-मगध, दक्षिण मे कौशाम्बी, पश्चिम मे थूणा और उत्तर मे कुणाल तक जा सकते है । यही आर्य क्षेत्र है। इससे आगे अनार्य क्षेत्र है। अत इस सीमा से आगे नही जा सकते। इससे आगे जाने पर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की हानि होती है। मानसिंहजी बोले। महाराज श्री सीमा के बारे मे आपने जो कहा वह ठीक है किन्तु मैंने सुना है कि इस सीमा से आगे जहा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, वहा मुनि जा सकते हैं। आचार्यवर ने वृहत्कल्प का टवा (भावानुवाद) देखा । उसमे उस्सपाति का अर्थ 'हानि होती है' किया था। उसके भाष्य और टीका मे इसका अर्थ 'वृद्धि होती है', किया था। आचार्यवर ने कहा वृद्धि का अर्थ ठीक है । उन्होने पृष्ठो मे 'हानि होती है' यह अर्थ कटवा दिया और उसके स्थान पर 'वृद्धि होती है' यह अर्थ लिखवा दिया। कुछ समय बाद आचार्यवर ने मुनि चौथमल जी से कहा टवा मे वह अर्थ किया हुआ था, जो अर्थ अब हमे पुन मान्य नही होगा, फिर भी वही कर दो । यद्यपि यह अर्थ सही नही है पर टवाकार द्वारा किया हुआ अर्थ हम कैसे बदल सकते हैं ? यह अर्थ अब हमे मान्य नहीं होगा, फिर भी हमे उसे बदलने का अधि Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा कार नही। साधु-साध्वियो को वगाल मे भेजने का अवसर आचार्यवर के सामने नही आया। पर सुदूर क्षेत्रो मे उन्हें भेजने का मार्ग खुल गया। बबई, पूना आदि क्षेत्रो मे साधु गए उसके पीछे इस धारणा का योग अवश्य होना चाहिए कि जहा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो वहा किसी भी क्षेत्र मे मुनि विहार कर सकते हैं। (२) वार्मिक पुस्तको का प्रकाशन पहले से ही होता रहा है। पर व्यवस्थित रूप मे सपादित होकर पुस्तक प्रकाशन आचार्यवर के समय से ही प्रारभ हुआ। गुलाबचन्द जी लूणिया (जयपुर) आचार्य के युग मे एक विशिष्ट श्रावक थे । उन्होने श्री जयाचार्य रचित प्रश्नोत्तर-तत्व-बोध का सम्पादन किया। उसका प्रकाशन हीरालाल जी आचलिया (गंगाशहर निवासी) ने किया। श्री जयाचार्य का एक दूसरा महत्वपूर्ण अन्य है भ्रम विध्वसन । उसमे तेरापथ के सैद्धान्तिक पक्ष १. बहुत सूक्ष्म प्रतिभा से प्रतिपादन किया गया है। उसका प्रकाशन वेला (कच्छ) के श्रावक मूलचन्द जी कोलवी ने कराया था। वे तपस्वी और आस्थावान् श्रावक थे। उन्होने 'भ्रम विध्वंसन' देखा। उन्हें बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ लगा। उन्होने साधुओ के पुठे से उसकी प्रति निकाल ली और उसे प्रकाशित कर दिया। पर, वह बहुत ही अशुद्ध रूप मे प्रकाशित हुआ। सं० १९७६ मे आचार्यवर का चतुर्मास वीकानेर मे था। उस समय सैद्धान्तिक चर्चाओ का दौर चलता था। भ्रम विवसन की बहुत उपयोगिता थी। तब अनायास ही उसके सपादन की ओर ध्यान आकर्षित हुआ। आचार्यवर ने अपने शिष्य मुनि चौयमलजी आदि को उसके मपादन का आदेश दिया। उन साधुओ ने प० 'घुनन्दनजी के सहयोग से उसका सपादन किया। ईसरचन्दजी चोपडा ने उसे प्रकाशित करवाया। वह उस समय की सुसपादित पुस्तक है । उसका चर्चा वार्ता मे बहुत उपयोग हुआ। इन शताब्दियो मे आगम-सूत्रो को ८वे के माध्यम से पढ़ने की प्रवृत्ति चल रही थी। आचार्यवर ने सस्कृत टीकाओ के माध्यम से आगम पढने शुरू किए। वे बहुत बार कहने थे केवल शब्दार्थ से काम नही चलता। उसका तात्पर्य समझना चाहिए । वह समझने के लिइटीकाए पढना बहुत आवश्यक हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व २५ परीक्षा के क्षण और प्रोत्साहन (१) शिक्षा का अगला चरण है परीक्षा । आचार्य शिष्यो को शिक्षा देता है और समय-समय पर उसकी परीक्षा भी लेता है। आचार्यश्री कालूगणी भी अनेक बार अपने शिष्यो की परीक्षा लेते थे। एक वार प्राय सभी सन्तो को सामत्रित कर कहा - 'असवारी' (पूरी पक्ति है राणाजी थारी देखण धो असवारी) यह रागिनी गाओ। ___मुनि कुन्दनमलजी, चौथमलजी, सोहनलाल जी, (चूरू) आदि सन्तो ने वह रागिनी गाई । पर आचार्यवर की दृष्टि मे वह ठीक नही गाई गई । आचार्यवर के निर्देशानुसार मैंने वह रागिनी गाई। मैंने कुछ दिन पहले ही आचार्यवर के पास बैठकर उस रागिनी को गाने का अभ्यास किया था। आचार्यवर ने कहा यह ठीक गाता है। परीक्षा मे मैं उत्तीर्ण हो गया। (२) पिछली रात के समय हम अनेक साधु आचार्यवर की सन्निधि मे बैठे थे। व्याकरण का प्रसंग चल पडा। आचार्यवर ने कहा ५ठन के साथ-साथ मनन होना चाहिए। तुम लोग पढते हो, पर मनन कौन-कौन करते हो, यह बताओ। मनन के बिना व्याकरण व्याधिकरण बन जाता है। परीक्षा की मुद्रा मे आपने पूछा "कुमारीमिच्छति, कुमारी इव आचरति इति कुमारी ना" इसमे कौन-सी विभक्ति है ? विद्यार्थी मुनि उलझन मे फम गए । कुमारी शब्द का तृतीया विभक्ति का रूप कुमार्या बनता है और यह 'कुमारीना' भी तृतीया विभक्ति जैसा प्रतीत होता है। क्या उत्तर दिया जाए। मुझे सबोधित कर पूछा -मैंने उत्तर दिया यह प्रथमा विभक्ति है । ना पुरुषवाची पद है । कुमारी उसका विशेषण है । जो पुरुष कुमारी को चाहता है या उसके अनुरूप आचरण करता है, वह कुमारीना कहलाता है। (३) आचार्यवर का सस्कृतज्ञ विद्वानो से काफी सपर्क था। वे विद्वान् आते और विद्यार्थी साधुओ की परीक्षा ले लेते । कभी-कभी दूसरे सप्रदाय के मुनि भी परीक्षा ले लिया करते थे। स० १९८७ के भीनासर प्रवास की घटना है। पायचदिया गच्छ के श्री पूज्य Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा जी देवचदजी ने आचार्यवर को अपने उपाश्रय मे आने के लिए निवेदन किया। आचार्यवर वहा पधारे। कुछ समय तक वार्तालाप होता रहा। आचार्यवर वापस जाने लगे, तव वहा उपस्थित सवेगी मुनि लावण्य विजयजी ने कहा 'कदागुरोकसो भवन्त ?' इसका सधि-विच्छेद करिए। मुनि सोहनलालजी (चूरू) ने तत्काल बताया कदा आगुः ओकसो भवन्तः अर्थात् आप घर से कब आए? यह उत्तर सुनकर मुनि जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने आचार्यवर की और नुडकर कहा आप सन्तो को खूब अच्छे ढग से तैयार कर रहे हैं। (४) उसी वर्ष (स० १९८७) आचार्यवर बीकानेर मे प्रवास कर रहे थे। वहा यतियो और सवेगी मुनियो का प्रवास भी होता रहता था। कभी-कभी परस्पर मिलने के अवसर भी आते थे। मिलन के एक अवसर पर एक सवेगी मुनि ने पूछ। 'कुमरी नव भूपस्य' इस पद मे सन्धि क्या है ? मुनि सोहनलालजी (चूरू) ने उसका उत्तर दिया कु अरीन् अव भूपस्य अर्थात् हे राजन! पृथ्वी की रक्षा और शत्रुओ का अन्त कर । यह सुन मुनि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होने आचार्य वर के नेतृत्व मे चल रहे विद्या-विकास के प्रति बहुत आदर व्यक्त किया। आचार्यवर विकास की प्रक्रिया के कुशल ज्ञाता थे। वे उसकी साधना और साधनो को भी जानते थे। उनका अनुभव था कि परीक्षा एक प्रोत्साहन है। प्रोत्साहन के और भी अनेक उपाय हैं। उन्होने अन्य उपायो को भी काम मे लिया। वे विद्यार्थी और अध्यापन कराने वाले मुनियो को समर्थन देते, उन्हें पुरस्कृत भी करते। ____ मुनि भीमराजजी उस युग के प्रबुद्ध चेता विद्वान् थे। उनका विद्यानुराग और गुणानुराग अनुकरणीय था। वे समय और धुन के बडे पक्के थे । वे साधुओ को आगमसून तथा सस्कृत ग्रन्थ पढाते थे। उनका सारा कार्य व समय दूसरो के लिए ही होता था। एक बार उन्होने कुछ विद्यार्थी साधुओ को अन्वय सहित 'सिन्दूर प्रकर' सिखाया। आचार्यवर को इसका पता चला। उन्होने विद्यार्थी मुनियो को बुलाकर उनसे सिन्दूर प्रकर के श्लोक सुने । स्पष्ट उच्चारण और मन्वय सहित श्लोको को सुनकर आचार्यवर बहत प्रसन्न हुए। उन्होने विद्यार्थी मुनियो और मुनि भीमराजजी--सभी को पुरस्कृत किया। परिष्ठापन एक सघीय व्यवस्था है। आचार्य अनुग्रह करते हैं, तब वे जमा होते हैं और प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर उनका उपयोग होता है। आचार्यवर ने विद्यार्थी मुनियो को पाच-पाच और मुनि भीमराजजी को इकावन परिष्ठापनो से पुरस्कृत किया। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालुगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व ( ६ ) विद्यार्थी मुनि अध्ययन मे जब कम रुचि लेते, तब आचार्यवर उन्हें बार-बार पुरस्कृत कर प्रोत्साहित करते । कभी संस्कृत का श्लोक कठस्थ कराते और कभी मारवाडी का दोहा । उसका अर्थ बताते और उसका मनन करने की प्रेरणा देते । वे इतने वडे प्रेरणा-स्रोत थे कि उससे प्रेरणा की अनेक रश्मिया निकलती थी और मानस को आलोक से भर देती थी । स० १६८० की घटना है । आचार्यवर जयपुर मे चतुर्मासविता रहे थे। मुनि धनराजजी और मुनि चन्दनमलजी दोनो ससार पक्षीय भाई, जिन्हे दीक्षित किए कुछ ही समय हुआ था, एक दिन दोनो मे विवाद हो गया। मुनि चन्दनमलजी ने कहा -- मैं नही रटू गा । आप रटते जाइए, मैं सुन-सुन कर कठस्थ कर लू गा । मुनि धनराजजी ने कहा- मैं क्यो र ? सीखने की अपेक्षा तुझे है या मुझे है ? मुनि चन्दनमलजी ने कहा सिखाने की अपेक्षा आपको है या मुझे है ? इस विवाद को लेकर दोनो भाई आचार्यवर के पास पहुचे। उन्होने अपनी-अपनी बात आचार्यवर के सामने रखी । दोनो की बात सुनकर आचार्यवर ने उनके सिर पर हाथ रखकर कहा न तो इसे अपेक्षा है और न तुझे अपेक्षा है । अपेक्षा मुझे है, इसलिए जाओ ध्यानपूर्वक अध्ययन करो । विवाद समाप्त हो गया। सीखने और सिखाने का काम नए उत्साह से शुरू हो गया । २७ गंगापुर का चतुर्मास आचार्यवर उदयपुर चतुर्मास के बाद प्रस्थान कर गंगापुर पहुचे । तब तक वे आठ सौ मील की यात्रा कर चुके थे । उनके घुटनो मे दर्द रहता था । मत्री मुनि भगनलालजी को भी चलने मे कष्ट होता था । फिर भी उन्होने मालवा की यात्रा वडे उत्साह से की। कौन जानता था कि यह उनकी अन्तिम यात्रा है | कोन जानता था कि गंगापुर का चतुर्मास उनका अन्तिम चतुर्मास है । उनकी आयु षष्टिपूर्ति नही कर पाई थी । उनका शरीर बहुत शक्तिशाली था । घुटने के दर्द को छोड़कर बुढापा उन पर आक्रमण नही कर पाया था । कुछ ऐसी ही नियति बन गई कि मृत्यु ने असमय मे ही उन पर अपने डोरे डालने शुरू कर दिये । घटनाओ से निष्कर्ष निकलता है कि उन्होने उसका सहयोग किया। वे शरीर की उपेक्षा कर केवल मनोबल से जीवन-यात्रा चलाने लगे । गंगापुर मे चातुर्मासिक प्रवेश वडे उत्साह के साथ हुआ । आचार्यवर ने ५० मिनट तक पहला प्रचवन किया। प्रवचन के समय प्रतीत नही होता था कि उनका शरीर अस्वस्थ है । यदि हाथ पर वधी हुई पट्टी को न देखे तो कोई कह नही सकता कि आचार्यवर अस्वस्थ है । रगलालजी हिरण के भवन ( रग- भवन ) मे आचार्यवर का निवास हुआ । उस Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा समय आचार्यवर के साथ चौवीस साध और सत्ताईस साध्विया थी। साधुओ के छत्तीस और साध्वियो के पचास सिंघाडे (कुल ८६) अन्य क्षेत्रो मे चतुर्मास कर रहे थे । एक सौ इकतालीस साधु और तीन सौ चौतीस साध्विया उनके नेतृत्व मे आत्म-साधना और उसके साथ-साथ जन-कल्याण कर रही थी। उनके शक्तिगाली नेतृत्व मे धर्मसघ अभ्युदय के शिखिर का स्पर्श कर रहा था। प्रगति के नये उन्मेप नई सभावनाओ को खोज रहे थे। आचार्यवर गगापुर पहुचकर बहुत प्रसन्न हुए। प्रसन्नता का पहला कारण था वचन का निर्वाह और दूसरा कारण था शारीरिक बाधाओ के होने पर भी लक्ष्य की पूर्ति । आचार्यवर प्रतिदिन प्रवचन करते थे। और भी दैनिक कार्यक्रम पूर्ववत् चलता था। पर स्वास्थ्य दिन-दिन चिन्तनीय वनता जा रहा था। घाव भरा नही था। मधुमेह की मात्रा मे कभी नहीं हुई। अन्न की अरुचि हो गई। ज्वर सतत् रहने लगा। लीवर विकृत हो गया। खासी भी सताने लगी। शरीर मे शोथ हो गया। एक शरीर अनेक रोग। रोग ने एक ऐसे महापुरुष ५२ आक्रमण किया, जिसकी वेदना केवल उसी को नही, अनगिन श्रद्धालुओ को अभिभूत कर रही थी। रोगी वीर योद्धा की भाति रोगो से जूझ रहा था और उसके श्रद्धालु उस युद्ध मे उसका साथ नहीं दे पा रहे थे, किन्तु प्राण का मोह उन्हें त्रास दे रहा था। प० रघुनन्दनजी की चिकित्सा चतुर्मास का प्रारभ हुआ, तब प० रघुनन्दनजी के आमगन की प्रतीक्षा की जाने लगी। पंडितजी चतुर्मास मे प्राय आचार्यवर की सन्निधि मे रहते थे। वे श्रावण मे आते और दीवाली के आसपास अपने घर चले जाते । श्रावण के शुक्ल पक्ष मे पडितजी आए। आचार्यवर के शरीर को देखकर वे स्तब्ध रह गए। यह क्या हुआ जैसे शतदल कमल के वन पर तुपारापात हो गया हो। उन्हे अपनी आखो पर भरोसा नही हुआ। मत्री मुनि मगनलालजी से पूछा यह क्या हो गया? उन्होने कहा पडितजी | कुछ समझ मे नही आ रहा है । एक छोटी-सी फुन्सी निकली थी। यह सब उसी का विस्तार है। पुरानी कहावत चरितार्थ हो गई छोट व्रण, चिनगारी, छोटे क्षण और अल्पप्राय कषाय की उपेक्षा नही करनी चाहिए। उपेक्षा करने पर उनका छोटा रूप भी बड़ा बन जाता है। हमने भी फुन्सी को छोटा समझकर उसकी उपेक्षा की। आज उसका रूप भयकर बन गया है । अव आप आचार्यवर के रोग का निदान कर चिकित्सा शुरू करें। पडितजी के आने पर सभी बडे-बडे सत एकत्र हो गए। उनकी भावना का ज्वार प्रवल हो गया। वे बोले पडितजी ! इस बार आपके आगमन से हमे उतना ही हर्प हुआ है, जितना मेह के आने से मोर को होता है । यह छोटा क्षेत्र है। यहा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व २६ कोई अच्छा डाक्टर नहीं है । अच्छे वैद्य भी नही हैं। बाहर से आने वाले डाक्टरो और वैद्यो की दवा आचार्यवर ले नहीं रहे हैं। एक अच्छे वैद्य से निदान और उपचार की अपेक्षा थी। अब आप आ गए। बहुत अच्छा हुआ। आप शीघ्रातिशीघ्र रोग का निदान कर उपचार शुरू करें। पडितजी समूचे सघ के मन को पढ़कर हर्ष से गदगद् हो रहे थे। सबके मन मे आज एक ही भावना है आचार्यवर शीघ्र स्वस्थ हो। मैं आचार्यवर के स्वास्थ्य-लाभ मे कारण बनू, यह मेरा सौभाग्य होगा। उन्होने नाडी की परीक्षा की। आखो, नाखूनो, जीभ, यकृत और प्लीहा को देखा । रोग का निदान कर आत्म-विश्वास के साथ रोग का उपचार शुरू कर दिया। पडितजी ने रोग का निदान इस प्रकार किया- उदर-व्याधि, मदाग्नि, विषम ज्वर, सूखी खासी, शोथ, उदर वृद्धि और मधुमेह । पडितजी ने इस निदान के आधार पर चिकित्सा शुरू की। सव रोगो को निर्मल करने के लिए अनेक औषधिया दी। उनकी औषधि की एक विशेषता थी कम मात्रा। उदर पर गोमूत्र का सिंचन भी शुरू किया गया । प्रात और साय दोनो समय नाडी की परीक्षा करते और आवश्यकतानुसार औपधि मे परिवर्तन भी। एक सप्ताह बीत गया। बीमारी में कोई कमी नहीं हुई। दूसरा सप्ताह बीत रहा था, फिर भी विशेष लाभ प्रतीत नही हुमा ।पडितजी ने सोचायह क्या हुआ? टीप जल रहा है । पर अन्धकार ज्यो का त्यो है। ठीक वैसे ही हो रहा है कि दवा चल रही है पर रोग ज्यो का त्यो है। यदि लाभ नहीं, तव दवा कब तक चलेगी? और यह समाज का प्रश्न है, आचार्यवर का शरीर एक व्यक्ति का शरीर नहीं है, यह समाज का शरीर है । यदि कोई घटना घटित होती है तो उसका समूचे समाज पर असर होता है। मैं दवा देना बद कर चिकित्सा से हाथ खीच लू, यह कैसे हो सकता है और लाभ न होने की स्थिति मे दवा चलती रहे, यह भी उचित नहीं। वे एक भारी मानसिक उलझन मे फस गये । उन्होने अपने मन की उलझन मनी मुनि मगनलालजी के सामने रखी। उनसे परामर्श चाहा कि मुझे क्या करना चाहिए । इस परामर्श के मध्य एक बात ध्यान मे जची कि यदि स्वामी लच्छीरामजी आ सके तो मन को कुछ समाधान मिले । वे बहुत बडे अनुभवी कुशल चिकित्सक हैं। उनकी तुलना का वैद्य आसपास मे नही है। वे आचार्यवर के शरीर की परीक्षा कर औषधि का निर्णय करें। पडितजी ने स्वामी लच्छीरामजी को सस्कृत मे २१ पधो का एक पत्र लिखा। उसमे रोग-निदान और रोग-चिकित्सा दोनो प्रस्तुत कर उनसे परामर्श मागा। वृद्धिचन्दजी गोठी और पूर्णचन्दजी चोपडा उस पत्र को लेकर स्वामी लच्छीरामजी के पास जयपुर गए। उनके चिकित्सालय में उनसे मिले । अपने आने का प्रयोजन बता पडित रघुनन्दनजी का पत्र उन्हें दिया। स्वामीजी पत्र को पढ़ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा चिन्तन मे निमग्न हो गए । गोठीजी ने कहा-आप गगापुर चलें । उन्होंने कहाअभी मैं वहा जाने की स्थिति में नही हू । पडितजी को अपना परामर्ग लिन दूगा । उन्होने यकृत मे छ ५लोको का एक परामर्श पडितजी को लिखा । गोठीजी और चोपडाजी उस पत्र को लेकर गगापुर आए और वह पत्र उन्हान पडितजी को दे दिया। स्वामी लच्छीरामजी ने पटिनजी की चिकित्सा का पूरा समर्थन किया। उन्होने कुछ औषधियाँ और जोड़ने का सुझाव दिया। पत्र के अन्त में उन्होने एक मार्मिक मकेन भी दे दिया। उन्होंने लिया रोग कष्ट साध्य है, अवस्था वृद्ध है, रोगी मशक्त नहीं है, वर्षा ऋतु उपद्रव कर रही है। इन स्थिति को ध्यान मे रखकर ही आप चिकित्सा चलाए । स्वामी लच्छीरामजी के पत्र से पडितजी को स्फनि मिन्नी। माधुओ तया समाज के लोगो का भी विश्वास जमा। फिर नई उमंग के साथ पडितजी ने चिकित्मा शुरू की। अडूसा के सूखे पत्ते के साथ एक दवा दी। उसमें मूली खामी का वेग वन्न हो गया। उसमे वडी भाति मिली। कुछ नीद भी आई। सबको वडा उल्लास हुआ। ___ सरदारशहर से डॉ० श्यामनारायणजी आए। उन्होने आचार्य र के गरीर की जाच की। पडितजी द्वारा संचालित चिकित्सा का अध्ययन किया । वे पडितजी की चिकित्सा से प्रभावित होकर बोले -चिकित्सा वहुत सुन्दर चली है। इसके लिए पडितजी को जितना साधुवाद दिया जाय, उतना कम है। ५२ रोग बहुत जटिल स्थिति में चला गया है । कलकत्ता, बबई आदि नगरो से भी डाक्टर और वैद्य आए । उनका भी अभिमन यही रहा । बीमारी की समस्या सुलझने के बजाय उलझती ही गई। महाप्रयाण भाद्र शुक्ला चौथ का दिन जाति मे बीता। रात को वास का प्रकोप वढ गया । साधुओ ने प्रार्थना की गुरुदेव । आज स्थिति नाजुक है। शरीर का रंग बदलने लग गया है। अब क्या किया जाए। आचार्यवर स्वयं जागृत थे और अपने शिष्य-समुदाय का सकेत मिलने पर उनकी जागरूकता द्विगुणित हो गई। वे पोले अभी रात है । रात को कुछ खाना-पीना नहीं है । कलमवत्सरी है इसलिए सहज ही उपवास है । इस अववि मे यदि प्राण-त्याग हो जाए तो मुझे यावज्जीवन चतुर्विध आहार का त्याग है। आत्रायवर ने सशर्त अनसन स्वीकार कर लिया ! उनकी साधना कसोटी पर पंढ गई। जिसे गरीर त्यागे, वह माधक कसौटी में अनुत्तीर्ण हो जाता है। जो पहले ही शरीर को त्याग दे, वही साधक कमोटी में नीर्ण होता है। आचार्य वर इस परीक्षा में पूर्ण उत्तीर्ण हुए। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व ३१ सवत्सरी पर्व जैन धर्म का सबसे बडा पर्व है । इस पर्व को समूचा जैन समाज त्याग, तपस्या के द्वारा मनाता है । इस दिन महत्त्वपूर्ण प्रवचन होते है । वर्ष भर नही आने वाले लोग भी उस दिन प्रवचन सुनने आते हैं । आचार्यवर सवत्सरी के दिन प्राय वारह बजे तक प्रवचन किया करते थे। आज वे प्रवचन नही कर सके । उनका यह कार्य मैंने किया । आचार्यवर उस दिन शात, मौन लेटे रहे । नाडी मन्द थी । वातावरण पूर्ण नीरव था। रात भी उसी प्रकार बीती । पिछली रात मे थोडी ठड हुई । आचार्यवर ने मौन खोलते हुए कहा- कल तो पूर्ण विश्राम किया । उसे ( मुझे ) पूछा भी नही कि लम्बे समय तक प्रवचन किया, उससे थकान आई या नही ? प्यास लगी या नही ? मुझे आमन्त्रित किया । मैं तत्काल वहा पहुचा और मैंने कहा आपकी कृपा से सब ठीक रहा । छठ का सूर्य उदित हुआ । आचार्यवर का सकल्प पूरा हो गया । साधुसाध्वियों के अनुरोध पर आचार्यवर ने उपवास का पारणा किया। सबको कुछ आश्वासन मिला। ऐसा लगा मानो दुस्तर समुद्र तैर लिया गया हो । शरीर की इस क्षीणावस्था मे सवत्सरी का उपवास कैसे होगा, पानी विना यह शरीर कैसे टिकेगा ? जब यह हो गया, तब समझा, अब खतरा टल गया । पर हमारी सद्भावना और मन का स्वप्न नियति को मान्य नही था । हमारे मन का आश्वासन चिरकाल तक टिक नही सका । दिन का चौथा पहर आया । साझ ढल रही थी । आचार्यवर ने पूछा दिन कितना शेष है ? मैंने पता लगाकर बताया पौने छः वजे है । नीम मिनट दिन शेष है। आचार्यवर वोले मुझे बैठा करो, पानी पीना है । मैंने प्रार्थना की आज बैठने की शक्ति नही है इसलिए आप लेटे-लेटे ही जल लें, आचार्यवर ने कहा भेटे-लेटे तरल वस्तु नही पीनी चाहिए । साधुओ ने हाथ का सहारा दिया । आचार्यवर बैठ गये । थोडा-सा जल लिया । फिर लेट गये। जैसे ही लेटे, वैसे ही श्वास का प्रकोप हो गया । धीमी-सी आवाज मे आचार्यवर ने पूछा मगनलालजी स्वामी जगल से लौटे या नही ? मैंने कहा अभी आये नही हैं, याने ही वाले हैं । तत्काल सत उनके सामने गए और इस घटना की उन्हें सूचना दी। मगनलालजी स्वामी तेज नही चल सकते थे पर जितनी शीघ्रता हो सकी, उतनी शीघ्रता से वहा पहुचे । मैंने कहा --- मगनलालजी स्वामी आ गए हैं । आचार्यवर ने उनकी ओर देखकर कहा – 'अब ' इससे अधिक कुछ नही कहा जा सका । 1 , मगनलालजी स्वामी ने पूछा अनशन करा प्रत्याख्यान कराए ? 'हा', कहकर आचार्यवर ने स्वीकृति दी । मगनलालजी स्वामी ने ऊचे स्वर मे कहा आज से अर्हन्त, सिद्ध के साक्ष्य से आजीवन चतुर्विध आहार का त्याग है । इसके वाद वे जोर-जोर से बोलते गए 'अर्हन्तो की शरण है, सिद्धो की शरण है, हम सब भी आप की शरण है ।' शरण-सूत्र की ध्वनि ने समूचे वातावरण को जागरण से Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा भर दिया और सब वात विस्मृत हो गई। केवल अर्हन्त और सिद्ध सब की आखो के सामने मूर्त हो गए। जागरण के उस पवित्र वातावरण मे सात मिनट का अनशन पूर्ण कर आचार्यवर समाधिस्थ हो गए। उनके प्राण आखो के मार्ग से बाहर चले गए केवल स्यूल शरीर शेष रह गया । आचार्यवर अन्तिम क्षण तक जागृत रहे । ऐसी जागृत मृत्यु किसी महान् साधक को ही उपलब्ध होती है। विहगावलोकन जन्म दीक्षा आचार्यपद स्वर्गवास जन्मस्थान दीक्षा-स्थान आचार्यपद-स्थान स्वर्गवास-स्थान गृहस्थ साधारण साधु आचार्य सर्व आयु १९३३ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया १६४४ आश्विन शुक्ला तृतीया १९६६ भाद्रपद पूर्णिमा १६६३ भाद्रपद शुक्ला षष्ठी छापर (राजस्थान) वीदासर , लाडणू , गगापुर , १०। वर्ष २२ वर्ष २७ वर्ष ५६।। वा टिप्पणी १ २ ३ छापर प्रदेश का विवरण राठोड रामदेव के विभक्खरी छन्दो पर आवृत है। साघुशतक, १६ । ममीरा नेन की दवा है। उसकी यही परीक्षा है कि उसे नीले वस्त्र पर लगाने से उस की नीलिमा मिट जाती है । नारानक, ६२ ! विद्यावाचस्पति, राष्ट्रपति समदात, राष्ट्रीय सस्कृत-विद्वान् प्रोफेसर विद्याधरजी मात्री का एक पन्न फुछ विस्तृत जानकारी प्रस्तुत करता है। उसका अ॥ इस प्रकार है "पूज्य श्री पागणीजी महाराज के चूर पधारने पर मुझे पूज्य पिताजी विधायानपति श्री देवीप्रगादी शास्त्री महाराज के दर्शनार्य श्री रायचन्दजी सुराना Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एव कृतित्व ३३ के अतिथि निवास मे ले गए थे। वहाँ श्री चौयमलजी मुनि भी उपस्थित थे और मेरे से लघु सिद्धान्त कौमुदी के प्रश्न पूछे गये थे। उस समय मुझे स्मरण है कि किसी प्रसग मे श्री रघुनन्दन जी ने अपने श्लोको मे से "श्रावृत किं न जानीते मिष्ट वस्तु पिपीलिका" यह पद सुनाकर मुझे मुग्ध कर दिया था । श्री रघुनन्दनजी अपनी आशुकवित्व-शक्ति प्रदर्शित करने के लिए श्री पूज्यजी महाराज की सेवा मे पधारे थे और वही उन्होंने निर्वाध रूप से श्री कालगणीजी की प्रशस्ति मे १०० श्लोक सुनाये थे।" बीकानेर, २०-६-७६ [डॉ० छगनलालजी शास्त्री को लिखे गए पन से] उसके प्रथम अध्येता थे मुनि भीमराजजी, मुनि सोहनलालजी (चूरू), मुनि कानमलजी और मुनि नथमलजी (वागोर)। ७ कालूगणी के एक विशिष्ट शिष्य । ८ पडितजी का यह श्लोक महाकवि कालिदास के निम्नाकित श्लोक की छाया है पमिद मम दक्षिणहस्ते, वामकरे लसदुत्पलमेतत् । भूहि किमिच्छसि पङ्कजनेने । कशनालमकानालम् ॥ ६ फनीरामजी पाठिया आदि । १० गोम्मटसार, जीवकाण्ड, विचार ६ । ६२६.६३१ । ११ यह घटना 'चतराजी का गुडा' की है। १२ वृहत्कल्प सून १४७ कप्पइ निगयाण वा निगयीण वा पुरत्यिमेण जाव अगमगहाम्रो एत्तए, पचत्यिमेण जाव थूणाविसयानो एत्तए, दक्षिणेण जाव कोसम्वीनो एत्तए, उत्तरेण जाव कुणाल विमयानो एत्तए, एयावया कप्प३, एयावयाव पारिए खेत्ते, नो से कप्प६ एत्तो वाहि, तेण पर जत्य नाण दसणचरित्ताइ उस्सप्पति । श्रीमता वद्य -वैद्याना, वारीन्द्राणा यशस्विनाम् । लक्ष्मी रामाह्व साधूना, सेवायामिति तन्यते ॥ १ ॥ साम्प्रत श्री जिनाचार्य, कालूरामाभिधो महान् । पीड्यते कृण् साध्येन, रोगणकेन भूरिश ॥ २ ॥ चिकित्सा जायतेऽस्माक, यथावण्यास्तसमता । तथापि कमशो लाभो, विशेपो न विलोक्यते ।। ३ ॥ लिख्यते रोग नामापि, निर्णा- यन्मया स्वत । लक्षणान्यपि पश्यन्ते, कार्या निर्धारणा बुध ॥ १ ॥ कुक्षेराध्मानमाटोप, शोथ पादकरस्य च। इत्यादि लक्षणं स्पष्टशयिते ह्य दरामय ।। ५ ।। मन्दोऽग्नि ततेऽनल्पो ऽनल्पकालसमुद्भव । सपामिति कष्टाना, प्रारम्भो दृश्यते यत ॥ ६ ॥ વૃષ્યતે ज्वरवैषम्यमेकाधिकशताकगम् । शुष्ककासो विशेषेण, पूर्वराने च बाधते ।। ७ ।। १३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा વ્યાપ્ત. સવંત રેડ, તથાપિ ત્રમયો | શોવો વિપિતા યાતો, વિસ્માયિતિ માનવાનું || 5 | રોતિ મિનાવથે ' તૈલીયા જ ક્યા થતું ! તૃશ્યતે પાÇતા તેન, જિ મૂ, મોપિ = I હ છે શ્વાધિવયે નિત્તન્દ્રા, હત્નાઈનાશનાન્તિા સરસ્યોન્નતિર્થીનન ! યજાયેંડપિ વધેતે | ૧૦ મા પિડકા નાતા, મધુમેહસમુદ્મવા | વાગે પાળ મઠ્ઠામા, સત્ય વિપરિતા ૧૧ છે. સાશ્વત નિખ્વારિ, યોનાથનતા ! શાત્તાપ રોપણ ધૂપ, મનને 7 વિપાયિતા કે ૧૨ | વતુ સત્ય પ્રતિશતે, મg-મૂત્ર પરીક્ષ ! નિશ્વિત તસ્ય માનો, વૃધ્યતે જ ભયાવહ્યું ૧૨ .. વિના પ્રષ્યિતા, નાથતે દુષ્ટએસ ! સત્યસ્મિનું સુકમાળેf, મધુમેહોન્મીયતે ૫ ૧૪ . સાસ્વત મય fif, ત્રિજ્યતેન્ન વિલ્લિતમ્ ! સફેબ ૪ તત્ વર્ક્સ, વિવાર્ય વૈદ્યવ7ઐ 19 ચટ્ટરવંશારિર, fસંહનાકરસસ્તયા ! મધ્વન કાન-વત્તો મેકેશરી | ૧૬ | હરીતકી ૨ રોહીતો, મૂત્ર ૨ વૃવો મથું ! સર્વ વિયાવ વિધ્વની મૂરિપવિતા | ૧૭ | #ાટે મળે—પાને ૪, પ્રયુત્તે યયા તથા જાનૂવસ્ય = સેડપિ, ત્રિજ્યતેવોપરિ ૫ ૧૬ ! શ્રાહારે સુ વિશેન, પયો (વ્ય પ્રવીયતે ! થવા વાતાવ, લીયતેવિ વાવન છે ૧૯ . વનસ્ય તુ દુધસ્ય, પ્રયોગો જૈવ વર્તરે ! વદ્ય, અતિમૂવો, વિજ્ઞવલું ! પ્રપદ્યતે | ૨૦ | કૃપા વિઘાય રોપાઓંરાય fમવા ! ચરોત મવાન્ ધીમાનું, તાર્યામિતિ પૂર્યતામ્ | ૨૧ | શ્રીમદ્મ વત પ્રાપ્ત, સામ્પ્રત પદ્યવેકાનમ્ | તવિજ્ઞાન, વ્યવસ્થા ૨ પ્રાય / ૧ / વ્યાધે સ્વરૂપમાન, વનછાતાનુસાર| અનુમોદામહે સાઇ, વ્યવસ્થા મવતા તામ્ W ૨ | ન્તુિ યદુવર નાત, ઉમાબે તો તવા નવરારિનામાત્ર, માન્નયા હોયતા ૨ | ૩ | પુનર્નવાહ વાઘ, પ્રાત સાય પિ વી ! હૃવાવનામાન, મધુના ૨ નિદેવું રમ્ ૪ || fજ વાવ વન દુવ, નવ વાપિ રિમેમ્ ! વિદાયન પ્રતિ મારોથાલયા છે . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આખાયે શ્રી ભૂિમળી . વ્યવિતત્વ વ તિત્વ રો। તમો વયો નહિ નવ નાવ્યક્તિ ધાન્તોવી, ગેંગ નોપદ્રવપીડિતોડથ સમયો ઘારાધર જોધન । ્ વિવિખ્યાત્મના, ધર્િ પ્રાર્યયે ॥ ૬ ॥ દ્વૈતત્ મનસાલય્ય યત્તતા સ તસ્યારો યમદ્ प्रपन्नशरण ३५ Page #62 --------------------------------------------------------------------------  Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण: एक मूल्यांकन डॉ० गोकुलचन्द्र जैन ભારતીય વાડ્મય को समृद्ध करने मे जैनाचार्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । उन्होने ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखा प्रशाखाओ पर सहस्राधिक ग्रन्थो की रचना की है । भापा और देशकाल के बन्धन मे वे कभी नही बन्धे । इसलिए प्राचीन भारतीय भाषाओ से लेकर आज तक की भाषाओ मे ग्रन्थ रचना की स्रोतस्विनी का अजस्र प्रवाह प्रवर्तमान है । I समय के दीर्घ अन्तराल मे भारतीय वाड्मय के अनेक ग्रन्थ रत्न काल के कराल गाल मे समा गये | जैनाचार्यों की भी अनेक महनीय निधिया लुप्त हो गयी, फिर भी जितना शेष है, उससे भी भारत के सांस्कृतिक इतिहास को जैनाचार्यों के महत्त्वपूर्ण योगदान का मूल्याकन किया जा सकता है । प्रस्तुत निबन्ध मे हम संस्कृत व्याकरणशास्त्र को जैनाचार्यो के योगदान का मूल्याकन करेंगे । व्याकरणशास्त्र पर जैनाचार्यों ने जितने ग्रन्थ लिखे, उनमे से अनेक अव उपलब्ध नही है । अन्य ग्रन्थो मे उनके यत्र-तत्र बिखरे हुए जो सन्दर्भ मिलते हैं, उनसे उन ग्रन्थो की महनीयता का पता चलता है । वर्तमान मे जो ग्रन्थ उपलब्ध है, वही इस मूल्याकन के आधार स्रोत है । मेरी राय मे यह मूल्याकन मुख्य रूप से निम्नलिखित दृष्टियो से किया जाना चाहिए । १ जैनाचार्यो ने संस्कृत व्याकरणशास्त्र की दीर्घकालिक परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए पूर्वाचार्यों की उपलब्धियों को अपने ग्रन्थो मे उदारतापूर्वक सरक्षित किया तथा प्राचीन ग्रन्थो पर न्यास, टीका आदि लिख कर संस्कृत व्याकरणशास्त्र का विस्तार, स्पष्टीकरण और सरलीकरण करके संस्कृत व्याकरणશાસ્ત્ર ની પરમ્પરા જોયો વઢાને મે નો યોાવાન વિયા, સા મૂલ્યાન સ प्रकार के अध्ययन का एक पहलू है । २ भारत के सास्कृतिक इतिहास की जिस महत्त्वपूर्ण सामग्री को पूर्वाचार्यो ने अपने ग्रन्थो मे सरक्षित किया था, उसे सुरक्षित रखते हुए उसमे समसामयिक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ . सकृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा विशि८ मामग्री को जोडकर उदाहरणो आदि के माध्यम से अपने व्याकरण ग्रन्थो मे सुरक्षित किया। इसका मूल्याकन अध्ययन का दूसरा पहलू है। ३ जैन आचार्य इस बात के लिए विशेष जागरूक थे कि जैन तीर्थकरी ने दार्शनिक चिन्तन में जिस एक विशेष दृष्टि को उद्भत किया था, उसका प्रयोग ज्ञान-विनान की विभिन्न शाखाओ मे किस प्रकार किया जाए । व्याकरण ग्रन्थो की रचना के समय भी जनाचार्य इस विषय मे पूर्ण रूप से सजग रहे । उनके द्वारा लिखे गये अन्यो का मूल्याकन करने का यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू है। जन वाड्मय मे व्याकरणशास्त्र की परम्परा जन आगमो में बारहवा अग दृष्टिवाद है । वर्तमान मे यह पूर्ण रूप मे उपलय नहीं है । दृष्टिवाद मे चौदह पूर्व शामिल थे । प्रत्येक पूर्व का वस्तु और वस्तु का अवान्तर विभाग 'प्राभृत' नाम से कहा जाता था। आवश्यक-पूणि, अनुयोगद्वारणि, मिसेनगणिकृत तत्वार्थभाष्यटीका और मलधारी हेमचन्द्र सूरिकृत अनुयोगदार मूत्रटीका मे 'दप्रामृत' का उल्लेख मिलता है। ___ भिमेनगणि ने कहा है कि पूर्वो मे जो शब्दप्रामृत है, उसमे से व्याकरण का उद्भव हुआ है। शब्दप्रामृत लुप्त हो गया है । वह किस भाषा मे था, यह निश्चित ६५ मे नहीं कहा जा सकता। ऐसा माना जाता है कि चौदह पूर्व सस्कृत भाषा मे थे । इसलिए शब्द प्राभृत' भी संस्कृत मे रहा होगा। ___ डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि सत्यप्रवाद पूर्व मे व्याकरणशास्त्र के गभी प्रमुख नियम माये है। इसमे वचन संस्कार के कारण, शब्दोच्चारण के स्थान, प्रयत्न, वचन-प्रयोग, वचन-भेद आदि का निस्पण है । वचन संस्कार का विवेचन करत हु। इसके दो कारण बताये गये हैं रयान और प्रयत्न । शब्दोपारण के आठ न्यान बताये गये है - हृदय, कठ, मस्तक, जिह्वामूल, दन्त, तालु, नासिका और औ- । शब्दोच्चारण के प्रयत्नों का विवेचन करते हुए स्पृष्टता, ईपत् स्पृष्टता, विवृनता, पद्विवृतता और मवृतता इन पाच की परिमापाए दी गयी है । वचन cि और दुपट प्रयोगो के विश्लेषण में शब्दो के साधुत्व और असाधुत्व का मी प्रयल किया गया है। इस प्रकार 'मत्यप्रवादपूर्व' मे व्याकरणशास्त्र की एक स्पष्ट • १२॥ दृष्टिगोचर होती है। जैन अनुभूति के अनुसार पूर्व अन्य भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के थे। भगवान महावीर के उपदेशो का जयनग्रह किया गया तो पूर्व ग्रन्यो को बारहवें विवाद ना.५५ जग में शामिन के लिया गया। जैनथानमोगभाषा प्रायन है । 1से प्रतीत होता है कि प्राकृत मे रचा गया रोप्राचीन प्रान या न्हा होगा। सीमा न्यो में व्याकरण की अनेक वाते आई है। 'ठाणाग' के Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन ३६ अष्टम स्थान मे आठ कारको का निरूपण किया गया है । अनुयोगदारसूत्र मे तीन वचन, लिंग, काल और पुरुषो का विवेचन मिलता है। इसी ग्रन्थ मे चार, पाच और दस प्रकार की सशानो का उल्लेख आया है। सूत्र १३० मे सात समासो और पाच प्रकार के पदो का कथन किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि संस्कृत मे व्याकरण मन्थो के प्रणयन के पूर्व जैनाचार्यों ने प्राकृत मे व्याकरण ग्रन्यो की रचना की होगी, जो आज उपलब्ध नही हैं। सस्कृत व्याकरण ग्रन्यो मे पाणिनि का अष्टाध्यायी सर्वप्राचीन उपलब्ध व्याकरण है । यद्यपि पाणिनि ने अपने ग्रन्य मे पूर्वज वैयाकरणो का उल्लेख किया है पर आज उनके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । पाणिनि का समय ईसा पूर्व ५०० से ४०० तक माना जाता है। जैन परम्परा मे सस्कृत व्याकरण ग्रन्थो की रचना कब से आरम्भ हुई, इसका ठीक-ठीक निर्णय करना कठिन है । इस कथन मे आशिक सत्यता प्रतीत होती है कि जब ब्राह्मणो ने शास्त्रो पर अपना सर्वस्व अधिकार कर लिया तव जन विद्वानो को व्याकरण आदि विषय के अपने ग्रन्थ बनाने की प्रेरणा मिली।३ यह कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है कि जैन परम्परा मे जव संस्कृत मे ग्रन्थ रचना होने लगी तो आचार्यों ने यह अनुभव किया कि उपलब्ध सस्कृत व्याकरणो से उनका पूरा काम नहीं चल सकता। वे इस बात के लिए भी अत्यधिक जागरूक थे कि तीर्थकरो ने जिस दार्शनिक चिन्ताधारा का प्ररूपण किया था, उसका उपयोग व्याकरण शास्त्र मे कैसे किया जाये । इसलिए उन्होने स्वतन्त्र व्याकरण अन्थो की रचना की। पर शब्दप्रामृत या सहपाहुड के विषय मे कहा गया है कि परम्परानुसार ऐसा ज्ञात होता है कि इसकी रचना सस्कृत में की गयी थी । शब्दप्रामृत पूर्व ग्रन्थो का अग है । 'पूर्व' भगवान् पाव की परम्परा के माने जाते हैं। पार्श्वनाथ का समय भगवान महावीर से दो सौ पचास वर्ष पूर्व माना जाता है । महावीर का समय ईसा पूर्व छठी शताव्दी है। इससे ज्ञात होता है कि पूर्वो की रचना ईसा पूर्व मा०वी शती मे हुई होगी। महावीर के समय में भी व्याकरण रचे जाने का उल्लेख मिलता है । ऐसी परम्परा एव मान्यता है कि भगवान् महावीर ने इन्द्र के लिए एक शब्दानुशासन कहा। उसे उपाध्याय ने सुन कर लोक मे ऐन्द्र नाम से प्रकट किया। आवश्यकनियुक्ति तया हारिभद्रीय आवश्यक वृत्ति मे कही है। सक्को मा तत्समक्ख भगवत आसणे निवेसित्ता। सहस्स लक्खण पुच्छे वागरण अवयवा इद ।। डॉ० ए० सी० वर्नल ने ऐन्द्र व्याकरण सम्बन्धी चीनी, तिब्बतीय और भारतीय Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा साहित्य के उल्लेखो का संग्रह करके 'आन द ऐन्द्र स्कूल आफ ग्रामेरियन्स' नामक ग्रन्थ लिखा है। पूज्यपाद देवनन्दि के जैनेन्द्र व्याकरण को ही ऐन्द्र व्याकरण मानने का भ्रम भी वहुत समय से चलता रहा। यह भ्रम कम से कम सत्रहवी शती जितना पुराना तो है ही। उपाध्याय विनय विजय (स० १६६६) और लक्ष्मीवल्लभ मुनि (१८वी शती) ने जैनेन्द्र को भगवत्प्रणीत बताया है। इस प्रकार के भ्रम फैलाने के लिए रत्नपि का 'भगवद्वाग्वादिनी' नामक ग्रन्य जिम्मेदार है। रलपि नामक किसी मुनि ने लगभग वि० स० १७६७ मे देवनन्दिकृत जनेन्द्र व्याकरण के उत्तरवर्ती पा० के सूत्रो को तोडमरोड कर उनकी दुख्यिा करके ८०० श्लोक प्रमाण 'भगवद्वावादिनी' नामक ग्रन्थ रचा और उसमे उन्होंने जनेन्द्र व्याकरण का कर्ता साक्षात् भगवान् महावीर को बताया। यही नही इसे महावीर की जीवनी मे इस प्रकार पिरोया कि सामान्य व्यक्ति को उस पर सन्देह भी नही हो सकता। ऐन्द्र व्याकरण के अतिरिक्त 'क्षपणक व्याकरण' के भी उल्लेख प्राप्त होते है। क्षपणक नामक किसी आचार्य ने इसकी रचना की थी। मवय रक्षित ने अपने 'तन्नप्रदीप' नामक ग्रन्थ मे क्षपणक व्याकरण का एकाधिक बार उल्लेख किया है। एक स्थान पर लिखा है "अतएव नावमात्मान मन्यते, इतिविग्रहपरत्वादनेन हस्पत्य बाधित्वा अमागमे सति 'नाव मन्ये' इति क्षपणकव्याकरणे दशितम् ।" (भारतकौमुदी भाग २, पृ० ८६३ की टिप्पणी) तन्नप्रदीप सून ४ १ १५५ मे 'क्षपणकमहान्यास' का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि क्षपणक रचित व्याकरण पर न्यास की भी रचना की गयी होगी। ___ज्योतिविदाभरण' मे विक्रमादित्य राजा की सभा के जिन करलो के नाम उल्लिखित है, उनमे क्षपणक का नाम सर्वश्रेष्ठ है "क्षपणकोऽमरसिंहाइकुवेतालમદ્રવદરનાંસા ક્યાંતો વરાહમિહિરો ફૂપતે સમાયા રત્નાનિ વૈ વરહર્નિવ विक्रमस्या" क्षपणक रचित व्याकरण, उसका न्यास या उनका कोई अश अभी तक उपलब्ध नही हुआ है। पर्याप्त प्रमाणो के अभाव मे यह कहना युक्तिसगत नही होगा कि सिद्धसेन दिवाकर का ही दूसरा नाम क्षपणक था। संस्कृत व्याकरण साहित्य के इतिहास में महर्षि पाणिनि, कात्यायन और पतजलि को मुनिलय के रूप मे प्रतिष्ठा प्राप्त है। उत्तरवर्ती व्याकरण शास्त्रकारो ने इस मुनित्रयी को अत्यन्त आदर के साथ स्मरण किया है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ४१ जैन व्याकरण साहित्य के इतिहास मे जिनेन्द्र शाकटायन और हेम ऐसे ही निलय है। जिनेन्द्र अर्थात् आचार्य पूज्यपाद देवनदी, शाकटायन अर्थात् आचार्य પાલ્યીર્તિ શાતાયન તયા ફ્રેમ અર્થાત્ અનાર્ય હેમન્તત્ત્ત ન તીનો તે જૈન વ્યારબ के प्रवर्तन, प्रवर्धन और प्रसार मे संस्कृत व्याकरण शास्त्र के मुनित्रय के समान ही अनुपम कार्य किया । यद्यपि शाकटायन ने जैनेन्द्र पर तथा हेम ने जैनेन्द्र या शाकटायन पर कोई वृत्ति या महाभाष्य नहीं लिखा, फिर भी जैनेन्द्र की उपलब्धियो को शाकटायन ने सुरक्षित रखा और आगे बढाया तथा जैनेन्द्र और शाकटायन की નપત્તન્ધિયો જો ફ્રેમ ને બપને શાસ્ત્ર મેં સુરક્ષિત યિા ગૌર સે આને વઢાયા । इस मुनित्रयी के व्याकरणो का अध्ययन संस्कृत व्याकरणशास्त्र मे जैनाचार्यो के योगदान को स्पष्ट रूप से प्रतिविम्बित करता है । ऊपर हमने जिन तीन दृष्टियों से जैन व्याकरणशास्त्र के अनुशीलन की बात कही है, उनमे से प्रथम दो दृष्टियों से पाणिनि का अध्ययन डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपने 'पाणिनिकालीन भारतवर्ष' मे किया है । इस प्रकार के अध्ययन का यह कीर्तिमान है। जैन व्याकरण के इस प्रकार के अध्ययन की भूमिका डा० अग्रवाल ने जैनेन्द्रमहावृत्ति की भूमिका मे प्रस्तुत की है। पूज्यपाद देवनन्दी को समर्पित उनका वह नैवेद्य उन्ही के लिए अर्घ्यदान के रूप मे यहा प्रस्तुत है । डा० अग्रवाल ने संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास की चर्चा से आरम्भ करते हुए लिखा है ' "भारतवर्ष मे व्याकरणशास्त्र का अध्ययन लगभग तीन सहस्र वर्ष से चला आ रहा है | भाषा के शुद्धज्ञान के लिए व्याकरण का महत्त्व सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ, अतएव व्याकरण को 'उत्तरा विद्या' अर्थात् अन्य विद्याओं की अपेक्षा श्रेष्ठ कोटि में माना गया । किसी भी भाषा के इतिहास मे धातु और प्रत्ययो की पहचान उस गौरवपूर्ण स्थिति की सूचक है जिसमे सूक्ष्म दृष्टि से भापा के आन्तरिक सगठन का विवेक कर लिया जाता है, और शब्दो की उत्पत्ति और निर्माण की जो प्राणवन्त प्रक्रिया है उसके रहस्य को आत्मसात् कर लिया जाता है । यो तो सभी मनुष्य अपनी-अपनी मातृभाषा मे बोलकर अपना अभिप्राय प्रकट कर लेते है, किन्तु व्याकरण की प्रक्रिया का जन्म उस राजपथ का निर्माण है जिस पर चलकर निर्भय से हम भाषा के विस्तृत साम्राज्य मे जहा चाहे वहा पहुच सकते हैं और शब्दो मे भावप्रकाशन की जो अपरिमित क्षमता है उसको भी प्राप्त कर सकते है | संस्कृत वैयाकरणो ने ससार मे सर्वप्रथम इस प्रकार का महनीय कार्य किया । शब्दो के विभिन्न रूपो के भीतर जो एक मूल सज्ञा या धातु निहित रहती है उसके स्वरूप का निश्चय और प्रत्यक्ष जोडकर उससे बनने वाले क्रिया और सज्ञा रूपी अनेक शब्दों की रचना एवं प्रत्ययो के अर्थों का निश्चय ભાવ इस प्रकार के विविध विचार Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा की पद्धति का जिस शास्त्र में आरम्भ और विकास हुआ उसे शब्दविद्या या व्याकरणशास्त्र कहा गया है । मस्कृत साहित्य मे पाणिनि की अष्टाध्यायी व्याकरणशास्त्र का सर्वागपूर्ण विवेचन है। उसके लगभग चार सहस्र सूत्रो मे लौकिक और वैदिक संस्कृत का जैसा अद्भुत विचार किया गया है, वह विलक्षण है । पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण का जो स्वरूप स्थिर किया उसी का विकास अनेक वृत्ति, वार्तिक, भाष्य, न्यास, टीका, प्रक्रिया आदि के रूप मे लगभग इस शती तक होता आया है । किन्तु पाणिनि के अतिरिक्त, पर मुख्यत उन्ही की निर्धारित पद्धति से और भी व्याकरण-ग्रन्थो का निर्माण हुआ । इस विषय मे एक प्राचीन श्लोक ध्यान देने योग्य है इन्द्रश्चन्द्र काशकृत्स्नापिशली शाकटायन पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टी च शाब्दिका ॥ यह श्लोक मुग्धबोध के कर्ता प० वोपदेव का कहा जाता है । इस सूची मे वैयाकरणो की दो कोटिया स्पष्ट दिखाई पडती हैं। पहली कोटि मे इन्द्र, शाकटायन, आपिशलि, काशकृत्स्न और पाणिनि, ये पाच प्राचीन वैयाकरण थे । दूसरी कोटि मे अमर, जैनेन्द्र और चन्द्र इन नवीन शाब्दिको की गणना है । पाणिનીય सूत्र 'तू क्या दिसूनान्ताट्ठक्' (४/२/६०) के एक वार्तिक पर काशिका मे 'पचव्याकरण' यह उदाहरण पाया जाता है, इसका अर्थ या पाच व्याकरणो का અધ્યયન રને વાલા ચા ખાનને વાલા વિજ્ઞાન્ । (તવથીતે તદેવ) । સમે નિન પાત્ર व्याकरणो का एक साथ उल्लेख है, वे यही पाच प्राचीन व्याकरण होने चाहिए, जिनकी सूची मुग्धबोध के इस श्लोक मे है । इस पर सूक्ष्म विचार करने से यह तथ्य सामने आता है कि पाणिनि से पूर्वकाल मे व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन व्यापक रूप से हो रहा था, जैसाकि पाणिनीय व्याकरण के इतिहास से ज्ञात होता है । प्रातिशाख्य, निरुक्त और अष्टाध्यायी मे लगभग ६४ आचार्यों के नाम आये हैं जिन्होंने शब्दशास्त्र के सम्बन्ध मे उस प्राचीनकाल मे ऊहापोह किया था। इनमे से शाकटायन, अपिशलि और काशकृत्स्न के व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु पाणिति से पहले वे अवश्य विद्यमान थे। ज्ञात होता है कि उन प्राचीन व्याकरणो की अधिकाश सामग्री के आवार पर एव स्वत अपनी सूक्ष्मेक्षिका द्वारा लोक से शब्द सामग्री का संग्रह करके पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी का નિર્માપ વિયા । વહેંગારૢ નો મેં ઇતના મહાન્ ઔર સુવિતિ સમલા ગય) (પર્ણાગनीय मह्त् मुविहितम्, भाप्य श३२६६ ) कि पाणिनि के उत्तरकाल मे नये व्याकरणो का रचना-त्रम एक प्रकार से वन्द मा हो गया । उसके बाद व्याकरण का परिष्कार केवल वार्तिक, भाग्य और वृत्तियो द्वारा चलता रहा । कात्यायन जैसे प्रखर बुद्धिगोली आचार्य ने पाणिनि व्याकरण पर लगभग सवा चार सहस्र वार्तिको की रचना र उस महान् शान्त्र के प्रति अपनी निष्ठा अभिव्यक्त की, पर कोई स्वतन्त्र इन्द्र, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ४३ व्याकरण रचने का उपक्रम नही किया। इसी प्रकार भगवान् पतजलि का महाभाष्य भी पाणिनीय व्याकरण की सीमा के भीतर एक अद्भुत प्रयत्न था। पाणिनि लगभग पाचवी शती विक्रम पूर्व मे नन्द राजाओ के समय मे हुए थे। यह अनुश्रुति ऐतिहासिक तथ्य पर आश्रित जान पडती है जैसाकि हमने अपने पाणिनिकालीन भारतवर्ष' नामक ग्रन्थ मे प्रदशित किया है। अतएव यह स्पष्ट है कि पाणिनि के वाद लगभग एक सहस्र वर्ष तक नूतन व्याकरण की रचना का प्रयन नहीं किया गया। भारतीय साहित्यिक इतिहास का यह सुविदित तथ्य है कि कुषाण काल के लगभग सस्कृत भाषा को पुन सार्वजनिक रूप मे साहित्यिक भाषा और राजभाषा का पद प्राप्त हुआ। कनिष्क के समय मे अश्वघोष के काव्यो की रचना और रुद्रदामा के जूनागढ लेख से यह स्पष्ट विदित होता है । वस्तुत: इस समय भाषा के क्षेत्र मे जो क्रान्ति घटित हुई उसका ठीक स्वरूप कुछ इस प्रकार था ब्राह्मण साहित्य मे तो संस्कृत भाषा की परम्परा सदा से अक्षुण्ण थी ही, पर उसके अतिरिक्त वौद्ध और जैन आचार्यों ने भी सस्कृत भाषा को उन्मुक्त भाव से अपना लिया और उसके अध्ययन से दोनो ने अपने क्षेत्र मे विपुल साहित्य का निर्माण किया जिसमे किसी समय सहस्रो ग्रन्थ थे । कुपाण काल से जो भाषा सम्बन्धी नया परिवर्तन आरम्भ हुआ था वह उत्तरोत्तर सबल होता गया, यहां तक कि लगभग चौथी-पाचवी शती ईस्वी मे संस्कृत भाष) को न केवल भारत वर्ष मे अखण्ड राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, वरच मध्य एशिया से लेकर हिन्द एशिया या द्वीपान्तर तक के देशो मे पारस्परिक व्यवहार के लिए वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा भी बन गई। इस पृष्ठभूमि मे शब्दविद्या का पुन वह छूटा हुआ सूत्र आरम्भ हुआ और नए વ્યાવળશાસ્ત્ર નિલે નાને ના સ્વય પાણિનીય વ્યવરો પર વામન બહિત્ય कृत काशिका वृत्ति और जिनेन्द्र बुद्धि कृत न्यास की रचना हुई। यह टीका के मार्ग से प्राचीन व्याकरण का ही विशदीकरण था, किन्तु बौद्ध और जैन दो बडे समुदाय सस्कृत भाषा की नयी शक्ति से परिचित हो रहे थे, उन्होने अपने अपने क्षेत्र मे दो नये व्यकिरणो का निर्माण किया । वौद्धो मे आचार्य चन्द्र गोमी कृत चान्द्र व्याकरण और जनो मे आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद कृत जनेन्द्र व्याकरण गुप्त युग मे अस्तित्व मे आए। ज्ञात होता है कि दोनो की ही रचना लगभग ५वी शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध मे हुई। चान्द्र व्याकरण की स्वीपज्ञ वृत्ति मे 'अजयद् जता हूणान्' (१।२।८१) उदाहरण से सिद्ध है कि पाचवी शती के मध्य मे स्कन्दगुप्त ने हूणो पर जो बडी विजय प्राप्त की थी उसकी समकालीन स्मृति इस उदाहरण मे अवशिष्ट है । इससे चान्द्र व्याकरण के रचनाकाल पर प्रकाश पडता है। पूज्य पाद देवनन्दी ने दो सूत्रो मे प्रसिद्ध आचार्य, सिद्धसेन (वेत्ते सिद्धसेनस्य, ५।१७) और Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा समन्तभद्र 'चतुष्टय समन्तमद्रस्य ' ( |४| १४० ) का उल्लेख किया है । ये दोनो देवनन्दी से कुछ समय पूर्व हो चुके थे । यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर का समय भी सर्वथा निश्चित नही है, किन्तु अनुश्रुति के अनुसार उन्हे विक्रमादित्य का समकालीन माना जाता है । विक्रम के नवरत्नो की सूची मे जिस क्षपणक का उल्लेख है उन्हे विद्वान् चन्द्रसेन दिवाकर ही मानते है । श्री राइस ने सिद्धसेन का समय पाचवी शती के मध्यभाग मे माना है, किन्तु चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ( ३७५४१३ ) और सिद्धसेन की समसामयिकता का आधार यदि सत्य हो तो सिद्धसेन को चौथी शती के अन्त मे मानना ठीक होगा । लगभग यही समय समन्तभद्र का होना चाहिए । श्री प्रेमी जी ने अपने पाडित्यपूर्ण लेख मे देवनन्दी के समय के विषय जो प्रमाण सगृहीत किये है उनकी सम्मिलित साक्षी से भी यही सूचित होता है कि आचार्य देवनन्दी लगभग पाचवी शती के अन्त मे हुए है । इस सम्बन्ध मे एक विशेष प्रमाण की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है । इसके अनुसार सवत् ६६० मे बने हुए दर्शनसार नामक प्राकृत ग्रन्थ मे कहा है कि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी ने दक्षिण मधुरा से ५२६ विक्रमी मे (४६९ ई०) द्राविड सघ की स्थापना की । इससे भी पूज्यपाद का समय पूवी शती के उत्तरार्ध मे सिद्ध होता है । इसी का समर्थन करने वाला एक अन्य प्रमाण है – कर्नाटक-कविचरित के अनुसार गगवशीय राजा अविनीत ( वि० स० ५२३ ) के पुत्र दुर्विनीत ( वि० स० ५३८, ईस्वी ४८२ ) आचार्य पूज्यपाद के शिष्य थे, अतएव पूज्यपाद श्वी शती के उत्तरार्ध के सिद्ध होते है । महाराज पृथिवीकोकण के दानपत्र मे लिखा है श्रीमत्कोंकण महाराजाधिराजस्याविनीतनाम्न पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारती निवद्धबृहत्कथेन किरातार्जुनीयपचदशसर्गटीकाकारेण दुर्विनीतनाममधेयेन अर्थात् अविनीत के पुत्र दुर्विनीत ने शब्दावतार नामक ग्रन्थ की रचना की थी। जैसे प्रेमी जी ने लिखा है शिमोगा जिले की नगर तहसील के शिलालेख मे देवनन्दी को पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार त्यास का कर्ता लिखा है । अनुमान होता है कि दुर्विनीत के गुरु पूज्यपाद ने वह ग्रन्थ रच कर अपने शिष्य के नाम से प्रचारित किया था । जैनेन्द्र व्याकरण उस श्रृंखला की पहली कडी है जिसमे गुप्तकाल से लेकर मध्यकाल तक उत्तरोत्तर नये-नये व्याकरणो की रचना होती चली गई । जैनेन्द्र ( पाचवी शती), चन्द्र ( पाचवी शती), शाकटायन ( नवमी शती का पूर्वार्द्ध), सरस्वतीकण्ठाभरण (ग्यारहवी शती का पूर्वार्द्ध) और प्रसिद्ध हेमशब्दानुशासन ( वारहवी शती का पूर्वार्द्ध) इन सबने उन्मुक्त मन से और अत्यन्त सौहार्द भाव से पाणिनीय व्याकरण की मूल सामग्री का अवलम्बन लिया। इनमे भी जैनेन्द्र व्याकरण ने भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण को छोड़कर अपने आपको पाणिनीय सूत्रो के सबसे निकट रखा है। किसी भी प्रकरण के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैनेन्द्र ने पाणिनि सामग्री की प्राय अविकल रक्षा की है । केवल स्वर ४४ 1 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन ૪૫ और वैदिक प्रकरणो को अपने युग के लिए आवश्यक न जानकर उन्होने छोड दिया था। जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता ने पाणिनीय गणपाठ की बहुत सावधानी से रक्षा की थी । मूल व्याकरण मे पाणिनि के गणसूत्रो को प्राय स्वीकार किया गया है । यद्यपि वैदिक शाखाओ वाले और गोत्र सम्बन्धी गणो से सिद्ध होने वाले नामो का जैन साहित्य के लिए उतना उपयोग न था, किन्तु जिस समय इस व्याकरण की रचना हुई उस समय भाषा के विषय मे लोक की चेतना अत्यन्त स्वच्छ और उदार भाव से युक्त थी, अतएव जैनेन्द्र व्याकरण की प्रवृत्ति पाणिनि सामग्री के निराकरण मे नही वरन् उसके अधिक से अधिक मरक्षण मे देखी जाती है। जैनेन्द्र व्याकरण के साथ उसका अलग गणपाठ किसी समय अवश्य ही रहा होगा, यद्यपि अव वह पृथक् रूप से उपलब्ध न होकर अभयनन्दी कृत महावृत्ति के अन्तर्गत ही सुरक्षित है । कात्यायन के वार्तिक और पतजलि के भाष्य की दृष्टियों मे जो नये नये रूप सिद्ध किये गये थे उन्हें देवनन्दी ने सुत्रो मे अपना लिया है, इसलिए भी यह व्याकरण अपने समय मे विशेष लोकप्रिय हुआ होगा । यह प्रवृत्ति काशिका मे भी किसी अश मे आ गई थी और चन्द्र आदि व्याकरणो मे भी बराबर पाई जाती है । आचार्य अमयनन्दी की महावृत्ति लगभग काशिका के समान ही वृहत् ग्रन्य है । इसके कर्ता ने कात्यायन के वार्तिक और पतजलि के भाष्य से बहुत अधिक उपादेय सामग्री का अपने ग्रन्थ मे मकलन कर लिया है । महावृत्ति का काल आठवी शताब्दी का प्रारम्भ माना जाता है और सम्भावना ऐसी है कि अभयनन्दी ने काशिकावृत्ति का उपयोग किया था । वस्तुत किसी भी पाठक से यह तथ्य छिपा नही रह सकता कि अष्टाध्यायी और काशिका का ही रूपान्तर जैनेन्द्र पचाध्यायी और उसकी महावृत्ति मे प्राप्त होता है । फिर भी काशिका और महावृत्ति की सूक्ष्म तुलना करने पर यह प्रकट हो जाता है कि अभयनन्दी ने कुछ ऐसे उदाहरण दिये हैं जो काशिका मे उपलब्ध नही होते और फलस्वरूप ऐसी सामग्री की शिक्षा की है जो काशिका से प्राप्त नही हो सकती। उन्होने जहाँ सम्भव हो सका वहाँ जैन तीर्थंकरो के महापुरुषो के, या ग्रन्थो के नाम उदाहरणो मे डाल दिये है । जैसे, सूत्र ११४/१५ के उदाहरण मे 'अनुशालिभद्रम् आढ्या, अनुसमन्तभद्र तार्किका सूत्र १|४|१६ के उदाहरण मे 'उपसिहनन्दिन कवय उपसिद्धसेन वैयाकरणा सूत्र ११४/२० की वृत्ति मे 'आकुमारेभ्यो यश समन्तभद्रस्य, सूत्र ११४१२२ की टीका मे 'अभयकुमार श्रेणिकत प्रति, सूत्र शहद की टीका मे 'भरतगृह्य, भुजवलिगृह्य सूत्र ११३ १० की वृत्ति मे 'आकुमार यश समन्तभद्रस्य ऐसे उदाहरण है जो वृत्तिकार ने मूलग्रन्थ के अनुकूल जैन वातावरण का निर्माण करने के लिए अपनी प्रतिभा से बनाये है। सूत्र ११३ ५ की वृत्ति मे प्राभृतपर्यन्तमधीते' उदाहरण महत्वपूर्ण है, उसी के साथ 'सम्बन्धम्, सटीकम् अधीते' भी ध्यान देने 1 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण मो. कोण को पर योग्य है । यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्रामृत से तात्पर्य महाकमप्रति प्राभूतन था जिसके रचयिता आ० पुप्पदन्त तथा मृतवलि माने जान है (प्रथम-द्वितीय शती)। इसी का दूसरा नाम पदनाम प्रसिद्ध है। मी या भागविनय बन्ध' या महावन्ध (महावन मिहानमात्र) था जिम के अध्ययन में यह अयनन्दी का तात्पर्य जात होता है, अर्थात् समय भी विद्वानों में प्रामन या पदनाम मे पृथक् महावन्य का अस्तित्व या और दोनो का अध्ययन जीवन का आधा माना जाता था। 'सटीकमधीने में जिन टीका का है वह यवलाटी। नहीं हो सकती क्योकि उसकी रचना दीरसेन ने ८१६६० में की थी। श्रुतावतार के अनुसार महाकर्मप्रामृत ५९ आचार्य कुन्दपुर ने भी 10 बडी प्रात टीका निजी ची जो इस समय अनुपलब्ध है । सम्भवत वही टीका प्रामृत और बन्धक माय पटी जाती थी। उनके स्थान पर पाणिनि सूचक उदाहरणो मे किली समय प्टि, पशुबन्छ, अग्नि, रह-4 नाम आतपय बाल के तत्तद् काण्डो ५.। अध्ययन विद्या । माश माना जाता था। देवनन्दी ने सूत्र ११४१३४ मे जिन श्रीक चायका sex किया है उन्हें कुछ विद्वान् काल्पनिक समझते है, परन्नु भयनन्दी की महावृत्ति से भूचित होता है कि श्रीदत्त को अत्यन्त प्रसिद्ध या थे जिनका लोक मे प्रमाण माना जाता है। 'इतिथीदनम्,' यह प्रयो। तिपाणिनि' के ना लोकाप्रनिह था । इसी प्रकार तच्छीदतम्' 'अहोश्रीदत्तम् प्रयोग भी बीदत्त की लोकप्रियता और प्रामाणिकता अभिव्यक्त करते है (श्रीदत्तादो लोक प्रकाशत, महावृत्ति ११३१५) । मूत्र ३।३१७६ ५२ तेन प्रोक्तम्' के उदाहरण मे अभयनन्दी ने श्रीदत्त के विरचित अन्य को श्रीदत्तीयम् कहा है। इससे ज्ञात होता है कि श्रीदत्त का बनाया कोई अन्य अवश्य था। ११४१४ को वृत्ति मे १९८ मयुरा रमणीया, माम कल्याण काची' ये दोनो उदाहरण अभयनन्दी की मौलिकता भूचित करते है । पाणिनि मूत्र 'कालावनात्यन्तसयोग' (२।३।५) वी काशिका वृत्ति में मास कल्याणी' उदाहरण तो है किन्तु 'माम कल्याणी कात्री' यह ऐतिहामिक सूचना अभयनन्दी ने किसी विशेष त्रोत से प्राप्त की थी। जिस कात्रीपुरी के मासव्यापी उत्सवो कोविणे शोभा की ओर इस उदाहरण मे सकेत है वह महेन्द्रवर्मन्, नरसिंह वर्मन् आदि पल्लव नरेशो की राजधानी के सम्बन्ध मे होना चाहिए । अतएव सप्तम ती से पूर्व यह उदाहरण भाषा मे उत्पन्न न हुआ होगा। सूत्र ४।३।११४ को वृत्ति मे अभयनन्दी ने माध के पटाछटामिन धनेन विनता ' लोक का वरण दिया है । माघ के दान सुप्रभदेव वर्मलात के मत्री थे जिसका एक शिलालेख ६२१ ई० का पाया जाता है। अतएव माव का समय सप्तम शती का उत्तरार्ध होना चाहिए। उसके बाद ही समयनन्दी ने महावृत्ति का निर्माण निया होगा। मुत्र ११४।६६ पर 'चन्द्र गुप्तसभा' उदाहरण तो पाणिनीय परम्परा में प्राप्त होता है किन्तु उसके साथ काशिका मे जो 'पुष्पमिनसभा' दूसरा उदाहरण Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ४७ है उसकी जगह महावृत्तिकारने 'सातवाहनसभा' उदाहरण रखा है । उसी प्रकार काशिका (२२४१२३) मे केवल 'काष्ठसभा' उदाहरण है, किन्तु अभयनन्दी ने 'पाषाणसभा और पक्वेष्टकासभा' ये दो अतिरिक्त उदाहरण दिये है । कहीं-कही अमयनन्दी ने काशिका की अपेक्षा भाष्य के उदाहरणो को स्वीकार किया है । जैसे सूत्र १|४|१३७ मे ओदालकि पिता, ओद्दालकायन पुत्र' यह भाष्य का उदाहरण था. जिसे बदलकर काशिका ने अपने समय के अनुकूल आर्जुन पिता, अर्जुनायन पुत्र ' ( काशिका २२४४६६ ) यह उदाहरण कर दिया था । 'आर्जुनायन' का शिकाकार के समय के अधिक सन्निकट था जैसा कि समुद्रगुप्त की प्रयागस्तम्भ प्रशस्ति मे आर्जुनायनगण के उल्लेख से ज्ञात होता है | कही कही महावृत्ति में काशिका की सामग्री को स्वीकार करते हुए उससे अतिरिक्त भी उदाहरण दिये गये है जो सूचित करते है कि अभयनन्दी की पहुंच अन्य प्राचीन वृत्तियो तक थी, जैसे सूत्र ११४८३ की वृत्ति मे 'येरावति' तो काशिका मे भी है किन्तु 'विपाट्चक्रमिदम् ( विपाशा और चक्रभिद् नदी का सगम) उदाहरण नया है । ऐसे ही सून २४२६ मे मयूरिकावन्ध, कोचबन्ध, चक्रवन्ध, कूटवन्ध उदाहरण महावृत्ति और काशिका मे समान है, पर चण्डालिकावन्ध और महिपिकवन्ध उदाहरण महावृत्ति मे नये हैं | काशिका का मुष्टिबन्ध महावृत्ति मे दृष्टिबन्ध और चोरकवन्ध चारकबन्ध हो गया है । सुत्र १।३।३६ मे भी चारकबन्ध पाठ है | सूत्र ५४६ पान देशे' की वृत्ति मे काशिका के 'क्षीरपाणा उशीनरा' को 'क्षीरपाणा आन्ध्रा' और 'सोवीरपाणा वालीका' को 'सोवीरपाणा द्रविणा ' कर दिया है । 'द्रविणा ' द्रमिल या द्रमिड का रूप है । ये परिवर्तन अभयनन्दी ने किसी प्राचीन वृत्ति के आधार पर या स्वय अपनी सूचना के आधार पर किये होगे । आन्ध्र देश मे दूध पीने का और तमिल देश मे काजी पीने का व्यवहार लोक मे प्रसिद्ध रहा होगा । कहीं-कही महावृत्ति मे कठिन शब्दो के नये अर्थ सग्रह करने का प्रयास किया है इसका अच्छा उदाहरण सूत्र २२४।१६ का 'अपडक्षीण' शब्द है । पाणिनि सूत्र २४७ की काशिकावृत्ति मे 'अषडक्षीणो मन्त्र' उदाहरण है अर्थात् ऐसा मन्त्र या परामर्श जो केवल राजा और मन्त्री के बीच मे हुआ हो (यो द्वाभ्यामेव क्रियते न बहुभि ) । 'पटुकर्णो भिद्यते मन्त्र' के अनुसार राजा और मुख्य मन्त्री की 'चार आखो' या 'चार कानो' से वाहर जो मन्त्र चला जाता था उसके फूट जाने की आशका रहती थी । अभयनन्दी ने काशिका के इस अर्थ को स्वीकार तो किया है, किन्तु गोण रीति से । उन्होने 'अपडक्षीणो देवदत्त ' उदाहरण को प्रधानता दी है । अर्थात् कोई देवदत्त नाम का व्यक्ति जिसने अपने पिता पितामह और पुत्र मे से किसी को न देखा हो । अर्थात् जो स्वयं अपने पिता पितामह की मृत्यु के बाद उत्पन्न हुआ हो और स्वयं अपने पुत्र जन्म के कुछ मास पहले गत हो गया हो। इसके अतिरिक्त गेंद को भी अपक्षीणा कहा है (येन वा कन्दुकेन द्वौ क्रीडत सोऽप्येवमुक्त ) । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा योन्य है। यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्रामृत से तात्पर्य महाकर्मप्रकृति प्राभृतसे था जिसके रचयिता आ० पुष्पदन्त तथा भूतवाल माने जाते है (प्रथम-द्वितीय शती) । इसी का दूसरा नाम पट्खण्डागम प्रसिद्ध है। इसी का भागविशेप 'वन्ध' या महावन्ध (महायवल सिद्धान्तशास्त्र) था जिसके अध्ययन से यहाँ अभयनन्दी का तात्पर्य ज्ञात होता है, अर्थात् उस समय भी विद्वानो मे प्रामृत या पट्खण्डागम से पृथक महावन्ध का अस्तित्व था और दोनो का अध्ययन जीवन का आदर्श माना जाता था । 'सटीकमधीते' मे जिस टीका का उल्लेख है वह धवला टीका नही हो सकती क्योकि उसकी रचना वीरसेन ने ८१६ ई० मे की थी। श्रुतावतार के अनुसार महाकर्मप्राभृत पर आचार्य कुन्दकुन्द ने भी एक बडी प्राकृत टीका लिखी थी जो इस समय अनुपलब्ध है । सम्भवत वही टीका प्रामृत और बन्धके साथ पढी जाती थी। इनके स्थान पर पाणिनि सूत्रके उदाहरणो मे किसी समय इष्टि, पशुवन्ध, अग्नि, रहस्य नाम शतपथ ब्राह्मण के तत्तद् काण्डो का अध्ययन विद्या का आदर्श माना जाता था। देवनन्दी ने सूत्र ११४।३४ मे जिन श्रीदत्त आचार्यका उल्लेख किया है उन्हे कुछ विद्वान् काल्पनिक समझते है, परन्तु अभयनन्दी की महावृत्ति से सूचित होता है कि श्रीदत्त कोई अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण थे जिनका लोक मे प्रमाण माना जाता है। 'इतिश्रीदत्तम्,' यह प्रयोग 'इतिपाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था। इसी प्रकार तच्छीदत्तम्' 'अहोश्रीदत्तम् प्रयोग भी श्रीदत्त की लोकप्रियता और प्रामाणिकता अभिव्यक्त करते है (श्रीदत्तशब्दो लोके प्रकाशते, महावृत्ति १।३।५) । सून ३।३।७६ पर तेन प्रोक्तम्' के उदाहरण मे अभयनन्दी ने श्रीदत्त के विरचित ग्रन्थ को श्रीदत्तीयम् कहा है। इससे शात होता है कि श्रीदत्त का बनाया कोई ग्रन्थ अवश्य था। ११४४ की वृत्ति मे 'शरद मथुरा रमणीया, माम कल्याणो कापी' ये दोनो उदाहरण अभयनन्दी की मौलिकता सूचित करते हैं। पाणिनि मूत्र 'कालावनोरत्यन्तसयोगे' (२।३।५) की काशिका वृत्ति मे मास कल्याणी' उदाहरण तो है किन्तु 'मास कल्याणी काची' यह ऐतिहासिक सूचना अभवनन्दी ने किसी विशेष स्रोत से प्राप्त की थी। जिस काचीपुरी के मासव्यापी उत्सवो का विशेष शोभा की ओर इस उदाहरण मे सकेत हैं वह महेन्द्रवर्मन्, नरसिंह वर्मन् आदि पल्लव नरेशो की राजधानी के सम्बन्ध मे होना चाहिए । अतएव सप्तम ती से पूर्व यह उदाहरण भाषा मे उत्पन्न न हुआ होगा। सूत्र ४१३।११४ की वृत्ति मे अभयनन्दी ने माध के 'सटाछटाभिन्न धनेन विभ्रता ' एलोन का हरण दिया है । माघ के दाद। सुप्रभदेव वर्मलात के मत्री थे जिसका एकजिनालख ६२१ ई० का पाया जाता है । अतएव भाव का समय सप्तम शती ५.ा इन होना चाहिए। इसके बाद ही अभयनन्दी ने महावृत्ति का निर्माण किया होगा। मुत्र ११४६६ ५२ 'चन्द्र गुनसभा' उदाहरण तो पाणिनीय परम्परा में माल होता है किन्तु उसके माय काशिका मे जो 'पुष्पमित्रसभा' दूसरा उदाहरण Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जन वैयाकरण एक मूल्याकन ४७ है उसकी जगह महावृत्तिकारने 'सातवाहनसभा' उदाहरण रखा है। उसी प्रकार कोशिका (२१४।२३) मे केवल 'काठसभा' उदाहरण है, किन्तु अभयनन्दी ने 'पाषाणसभा और पक्वेटकासभा' ये दो अतिरिक्त उदाहरण दिये है। कही-कही अभयनन्दी ने काशिका की अपेक्षा भाष्य के उदाहरणो को स्वीकार किया है। जैसे सूत्र १।४।१३७ मे औदालकि पिता, औदालकायन पुन ' यह भाष्य का उदाहरण था. जिसे बदलकर काशिका ने अपने समय के अनुकूल आर्जुन पिता, अर्जुनायन पुन '(काशिका २१४१६६)यह उदाहरण कर दिया था। 'आर्जुनायन' काशिकाकार के समय के अधिक सन्निकट था जैसा कि समुद्रगुप्त की प्रयागस्तम्भ प्रशस्ति मे आर्जुनायनगण के उल्लेख से ज्ञात होता है । कही-कही महावृत्ति मे काशिका की सामग्री को स्वीकार करते हुए उससे अतिरिक्त भी उदाहरण दिये गये है जो सूचित करते है कि अभयनन्दी की पहुच अन्य प्राचीन वृत्तियो तक थी, जैसे सूत्र १।४।८३ की वृत्ति मे 'उद्धयेरावति' तो काशिका मे भी है किन्तु विपाट्चक्रमिदम् (विपाशा और चक्रभिद् नदी का संगम) उदाहरण नया है । ऐसे ही सूत्र २।४।२६ मे मयूरिकाबन्ध, क्रौचबन्ध, चक्रवन्ध, कूटबन्ध उदाहरण महावृत्ति और काशिका मे समान है, पर चण्डालिकाबध और महिपिकवन्ध उदाहरण महावृत्ति मे नये हैं । काशिका का मुष्टिबन्ध महावृत्ति मे दृष्टिबन्ध और चोरवन्ध चारकबन्ध हो गया है । सून १।३।३६ मे भी परिकबन्ध पा० है । सून ५।४।६६ पान देशे' की वृत्ति मे कोशिका के क्षीरपाणा उशीनरा' को क्षीरपाणा आन्ध्रा' और 'सौवीरपाणा वालीका' को सौवीरपाणा द्रविणा ' कर दिया है। 'द्रविणा' द्रमिल या द्रमिड का रूप है । ये परिवर्तन अभयनन्दी ने किसी प्राचीन वृत्ति के आधार पर या स्वयं अपनी सूचना के आधार पर किये होगे । आन्ध्र देश मे दूध पीने का और तमिल देश मे काजी पीने का व्यवहार लोक मे प्रसिद्ध रहा होगा। कही-कही महावृत्ति मे कठिन शब्दो के नये अर्थ सह करने का प्रयास किया है इसका अच्छा उदाहरण सूत्र २।४।१६ का 'अपडक्षीण' शब्द है । पाणिनि सूत्र ५।४।७ की काशिका वृत्ति मे 'अषडक्षीणो मन्त्र' उदाहरण है अर्थात् ऐसा मन्त्र या परामर्श जो केवल राजा और मन्त्री के बीच मे हुआ हो (यो द्वाभ्यामेव क्रियते न बहुभि )। 'पट्कर्णो भिद्यते मन्त' के अनुसार राजा और मुख्य मन्त्री की 'चार आखो' या 'चार कानो' से बाहर जा मन्त्र चला जाता था उसके फूट जाने की आशका रहती थी। अमयनन्दी ने कोशिका के इस अर्थ को स्वीकार तो किया है, किन्तु गौण राति से। उन्होने 'अपडक्षीणो देवदत्त' उदाहरण को प्रधानता दी है । अर्थात् कोई देवदत्त नाम का व्यक्ति जिसने अपने पिता, पितामह और पुत्र मे से किसी को न देखा हो । अर्थात् जो स्वयं अपने पिता पितामह की मृत्यु के बाद उत्पन्न हुआ हो और स्वयं अपने पुत्र जन्म के कुछ मास पहले गत हो गया हो। इसके अतिरिक्त गेद को भी अपडक्षीणा कहा है (येन वा कन्दुकेन द्वौ क्रीडत सोऽप्येवमुक्त )। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा या तो ये अर्थ अभयनन्दी के समय मे लोकप्रचलित थे या उनकी कल्पना है। महावृत्ति मे 'अपडक्षीण' का एक अर्थ मछली भी किया है ५९ उसमे खीचतान ही जान पड़ती है। सूत्र ३।४।१३४ मे 'अयानयीन' शब्द के अर्थ का भी महावृत्ति मे विस्तार है। ___महावृत्ति सून २।२।९२ मे इतिहास की विशे५ महत्वपूर्ण सामग्री सुरक्षित रह गयी है। उसमे ये दो उदाहरण आए है। 'अरुणमहेन्द्रो मयुराम् । अरुणद् यवन साकेतम् । व्याकरण की दृष्टि से यह आवश्यक था कि कोई ऐसा उदाहरण लिया जाता जो लोकप्रसिद्ध पटना का सूचक हो, जो कहने वाले के पक्ष मे घटित हुआ हो किन्तु जिसको देख सकना उसके लिए सम्भव हो अर्थात् उसके जीवन काल की ही कोई प्रसिद्ध घटना हो, पर जिसे सम्भव होने पर भी उसने स्वयं देखा न हो। भाष्यकार पतजलि ने इसका उदाहरण देते हुए अपनी समसामयिक दो घटनाओ का उल्लेख किया था 'अरुणद् यवन साकेतम्, अरुणद् यवनो मध्यमिकाम् ।' इनमे शाकल के यवन राजाओ द्वारा किये हुए उन दो हमलो का उल्लेख है जिनमें से एक पूर्व की ओर साकेत पर और दूसरा पच्छिम मे मध्यमिका पर | मध्यमिका चित्तोड के पास का वह स्थान था जिसे इस समय नगरी कहते है और जहाँ खुदाई मे प्राप्त पुराने सिक्को पर मध्यमिका नाम लिखा हुआ मिला है। ये हमले किस राजा ने किये थे उसका नाम पतजलि ने नहीं दिया, किन्तु यूनानी इतिहासलेखको के वर्णन से ज्ञात होता है कि उस राजा का नाम मिनडर था जिसे पाली भाषा मे मिलिन्द कहा गया है। उसके सिक्को पर तत्कालीन वोलचाल की प्राकृत भाषा मे उसका नाम मनन्द्र मिलता है। महावृत्ति के 'अरु-महेन्द्रो मयुराम्' इस उदाहरण मे दो महत्वपूर्ण सूचनाए है । इसमे राजा का नाम महेन्द्र दिया हुआ है, पर हमारी समिति में इसका मूलपाठ 'मनन्द्र' था। पीछे के लेखको ने भेनन्द्र नाम को ठीक पहचान न समझ कर उसका सस्कृत रू५ महेन्द्र कर डाला। इस उदाहरण से सस्कृत साहित्य की भारतीय साक्षी प्राप्त हो जाती है कि पूर्व की ओर अभियान करने वाले यवनराज का नाम भेनन्द्र या मिन-डर था। यवनराज मेनन्द्र ने पाटलिपुत्र पर दात गडा कर पहले धक्के मे मयुरा पर अधिकार जमाया और फिर आगे 46 कर साकेत को छेक लिया । साकेत पहुंचने के लिए मयुरा का जीतना आवश्यक था। अब यह सूचना के रूप मे अभयनन्दी के उदाहरण से प्राप्त हो जाती है। इसमें यह भी पता लगता है कि काशिका के अतिरिक्त भी अभयनन्दी के सामने पाणिनि व्याकरण की ऐसी सामग्री थी जिससे उसे यह नया ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त हुआ। मूव ११३१३६ की वृत्ति मे आरण्यक पर्व १२६१८-१० का यह श्लोक पनि है उलूखलराभरण पिशाची यदभापत् । एतत्तु ते दिवा नृत्त रातो नृत्त तु द्रक्ष्यमि॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जन वैयाकरण एक मूल्याकन ४६ काशिका २।११४५ मे यह श्लोक किन्ही प्रतियो मे प्रक्षिप्त और किन्ही मे भूल के अन्तर्गत माना गया है, किन्तु महावृत्ति से सिद्ध हो जाता है कि वह काशिका के मूल पाठ का भाग था। श्लोक के उत्तरार्द्ध मे जो 'दिवानृत्त रानी नृत्त' पा० है उसका समर्थन महाभारत की कुछ प्रतियो से होता है पर कुछ अन्य प्रतियो मे 'वृत्त' पाठ है जैसा कि काशिका मे और महाभारत के पूना सस्करण मे भी स्वीकार किया गया है । आचार्य अभयनन्दी ने अपनी महावृत्ति को जिस प्रकार पाणिनीय व्याकरण की पुष्कल सामग्री से भर दिया है, वह सर्वथा अभिनन्दन के योग्य है। आशा है जिस समय का शिकावृत्ति, अभयनन्दीकृत महावृत्ति और शाकटायन व्याकरण की अमोधवृत्ति इन तीनो का तुलनात्मक अध्ययन करना सम्भव होगा तो यह बात और भी स्पष्ट रूप से जानी जा सकेगी कि प्रत्येक वृत्तिकार ने परम्परा से प्राप्त सामग्री की कितनी अधिक रक्षा अपने-अपने ग्रन्य मे की थी। यह सन्तोष का विषय है कि इन कृतियो ने सावधानी के साथ प्राचीन सामग्री को बचा लिया। आचार्य देवनन्दी ने पाणिनीय अष्टाध्यायी को आधार मानकर उसे पचाध्यायी मे परिवर्तन करते समय दो बातो की ओर विशेष ध्यान रखा था- एक तो धातु प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्थ महासज्ञाओ को भी जिनके कारण पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरण मे इतनी स्पष्टता और स्वारस्य आ सका था, इन्होने बीजगणित के जैसे अतिसक्षिप्त सकेतो मे बदल दिया है। दूसरे जितने स्वर सम्बन्धी और वैदिक प्रयोग सम्बन्धी सूत्र थे उनको आ० देवनन्दी ने छोड दिया है। किन्तु ऐसा करते हुए उन्होने उदारता से काम लिया है, जैसे आनाय्य, धाय्या, सानाच्य, कुण्डपाय्य, परिचाय, उपचाय्य, (२।१।१०४-१०५), ग्रावस्तुत् (२।२।१५६) आदि वैदिक साहित्य मे प्रयुक्त होने वाले शब्दो को रख लिया है। इसी प्रकार सास्य देवता प्रकरण (३।२।२१-२८) मे शुक्र अपोनप्त, महेन्द्र, सोम, द्यावापृथिवी, शुनासीर, मरुत्वत्, अग्नीपोम, वास्तोस्पति, गृहमेध आदि गृह्यसूत्र कालीन देवताओ के नातो को पाणिनीय प्रकरण के अनुसार ही रहने दिया है। प्रत्येक मे आने वाले फ, ढ, ख, छ, घ, और यु, वु, एवं उनके स्थान मे होने वाले आदेशो को भी ज्यो का त्यो रहने दिया है। (५।११, ५।१।२) । तेन प्रोक्तम्' प्रकरण (३।३।७६-८०) मे वैदिक शाखाबो और ब्राह्मण अन्यो के नाम भी ज्यो के त्यो जैनेन्द्र व्याकरण मे स्वीकृत कर लिये गए है । कही-कही जैनेन्द्र ने उन परिभाषाओ को स्वीकार किया जो प्राक्पाणिनीय व्याकरणो मे मान्य थी और जिनका उल्लेख भाष्य या वातिको मे आया है। उदाहरण के लिए जनेन्द्र सून १।३।१०५ मे उत्तरपद की धुसना मानी गयी है । पतजलि के महाभाष्य मे सूत्र ७।३।३ पर श्लोकवातिक मे द्यु पा० है और वहाँ किमिद घोरिति उत्तरपदस्थति' लिखा है। सूत्र ७।१२१ के भाष्य मे अघु को अनुत्तरपद क्ता पर्याय माना है पर कोलहान Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा का सुझाव था कि घु का शुद्ध पाठ द्यु होना चाहिए। वह वात जैनेन्द्र के सूत्र १।३।१०५ 'उत्तरपद धु' से निश्चयेन प्रमाणित हो जाती है । और अब भाष्य मे भी द्यु ही शुद्ध पा० मान लेना चाहिए। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि पाणिनि के 'पूर्वनासिद्धम्' (८।२।१)सून और उससे सम्वन्धित असिद्ध प्रकरण को भी जो पाणिनि के शास्त्र निर्माण कोशल का अद्भुत नमूना है, जनेन्द्र व्याकरण मे 'पूर्वनासिद्धम्' सूत्र (५।३।२७) मे स्वीकार किया है । तदनुसार जनेन्द्र के साढे चार अध्यायो के प्रति अन्त के लगभग दो पाद असिद्ध शास्त्र के अन्तर्गत आते है। देवनन्दी ने अपनी पचाध्यायी मे पाणिनीय अण्टाध्यायी के सूत्रक्रम मे कम से कम फेरफार करके उसे जैसे का तसा रहने दिया है। केवल सूत्रो के शब्दो मे जहाँ-तहाँ परिवर्तन करके सन्तोष कर लिया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वाति के तत्वार्य सून पर सवार्थसिद्धि नामक टीका का निर्माण किया था जो जानपी० से प्रकाशित हो चुकी है । उस ग्रन्थ मे उन्होने कई स्थलो पर व्याकरण के सूत्रो का उद्धरण दिया है। उनमे विना पक्षपात के जनेन्द्र सूनो को भी और पाणिनीय सूत्रो को भी उद्धृत किया गया है। उदाहरण के लिए अध्याय ४ सून १६ की सर्वार्थसिद्धि टीका मे दो सूत्रों का उल्लेख है तदस्मिन्नस्तीति' और 'तस्य निवास'। इनमें पहले के विषय मे यह कहना कठिन है कि वह किस व्याकरण से लिया गया है, किन्तु दूस। पाणिनीय व्याकरण का ही है (४।२।६६) क्योकि उसका जनेन्द्रगत पा० 'तस्य निवासादू रभवो' रूप मे मिलता है (सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृ०० ५०)। पूज्यपाद ने न केवल नवीन व्याकरण सूत्रो की रचना की, वरन् उन पर जनेन्द्रन्यास भी बनाया था। उन्होंने पाणिनीय सूत्रो पर शब्दावतार न्यास भी लिखा था किन्तु अभी तक ये दोनो ग्रन्थ उपलब्ध नही हुए है। इसमे सन्देह नही कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनीय व्याकरण, कात्यायन के वातिक और पतजलि के भाष्य के पूर्ण मर्मज्ञ थे, एव जैनधर्म और दर्शन पर भी उनका असामान्य अधिकार था। वे गुप्तयुग के प्रतिभाशाली महान् साहित्कार थे जिनकी तत्कालीन प्रभाव कोकण के नरेशो पर था, किन्तु कालान्तर मे जो सारे देश की विभूति बन गये। डॉ० अग्रवाल ने जनेन्द्र के उपर्युक्त विश्लेपण मे जो बात कही हैं उन्हे विद्वान् शत प्रतिशत रूप मे ज्यो को त्यो स्वीकार कर ले, यह आवश्यक नहीं है। वे अपनी व्याख्या अलग दे सकते है। इस प्रकार के अध्ययन के लिए यह आकाशदीप है, इसमे दो राय नही हो सकती। जन व्याकरण शास्त्र के अध्ययन की जिस तीसरी दृष्टि का हमने ऊपर जिक्र किया है, उसे किन्ही अर्यों में पारस्परिक तरीके से देखने-सोचने की वात Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एके मूल्याकन ५१ भी कहा जा सकता है पर है वह एक विशेष दृष्टि । उस दृष्टि से भी जब हम देखते हैं तो सर्व प्रथम हमारा ध्यान जैनेन्द्र पर ही जाता है । उपलब्ध जैन व्याकरण ग्रन्थो मे पूज्यपाद देवनन्दी का जैनेन्द्र व्याकरण प्रथम है । देवनन्दी दिगम्बर परम्परा के विश्रुत जैनाचार्य थे। उनके पूज्यपाद तथा जैनेन्द्रबुद्धि नाम भी प्रचलित थे । नन्दीसघ पट्टावली में इसका उल्लेख निम्नप्रकार किया गया है "यश कीर्तिर्यशोनन्दि देवनन्दी महामति । श्री पूज्यपादापराख्यो गुणनन्दी गुणाकर || " श्रवणबेलगोल के ४० वे शिलालेख मे देवनन्दी का जिनेन्द्रबुद्धि नाम बताया गया है "यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धि । श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजित पादयुग यदीयम् ॥ इस इससे ज्ञात होता है कि आचार्य का प्रथम नाम देवनन्दी था, बुद्धि की महत्ता के कारण वह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये तथा देवो ने उनके चरणो की पूजा की, વ્યારા ઉના નામ પૂન્યપાવ દુબા। નિનેન્દ્રવ્રુદ્ધિ નામ के एक बौद्ध साधु विक्रम की आठवी शती में हुए । उन्होने पाणिनीय व्याकरण की काशिकावृत्ति पर एक न्यास की रचना की थी, जो 'जिनेन्द्रबुद्धिन्यास' के नाम से प्रसिद्ध है । ये जिनेन्द्र बुद्धि पूज्यवाद जिनेन्द्रबुद्धि से भिन्न है | श्रवणबेलगोल के एक अन्य लेख १०८ (२८५) में उनका उल्लेख इस प्रकार है "जिनवद् वभूव यदनङ्गचापहृत् स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णित ।" पूज्यपाद अद्भुत प्रतिभा के धनी थे । दर्शन और लक्षणशास्त्र के वे अद्वितीय पण्डित थे । प० युधिष्ठिर मीमासक के अनुसार पूज्यपाद के 'अरुणन्महेन्द्रो मयुराम्' उदाहरण मे गुप्तवशीय कुमारगुप्त (४१३-४५५) की मयुरा विजय की ऐतिहासिक घटना सुरक्षित है।' इससे ज्ञात होता है कि पूज्यपाद कुमार गुप्त के समकालीन थे । पूज्यपाद ने जैनेन्द्र व्याकरण मे अपने पूर्ववर्ती छह आचार्यों का उल्लेख इस प्रकार किया है १ गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् ।।१।४।३४।। २ कुवृषिभृजा यशोभद्रस्य ||२१|| ३. राट् भूतवले ( 1३|४|८३ || ४. राते कृति प्रभाचन्द्रस्य || ४ | ३ | १८० ।। ५. वेत्ते सिद्धसेनस्य ॥५१॥७॥ ६ चतुष्टय समन्तभद्रस्य || ५|४|१४० ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा इन छह आचार्यों में से किसी एक का भी कोई व्याकरण अन्य अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। न ही कही इनके वैयाकरण होने का उल्लेख मिलता है। इस लिए मात्र इन उल्लेखो के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि इन आचार्यों ने व्याकरण ग्रन्यो की रचना की होगी। उतना अवश्य है कि ये आचार्य पूज्यपाद से पूर्ववर्ती तथा विश्रुत आचार्य हुए है। उनके अन्यो मे व्याकरण के प्रयोगो का जो वैशिष्ट्य मिलता है उससे उनके वैयाकरण होने का प्रमाण मिलता है । पूज्यपाद के इन उल्लेखो मे उक्त आचार्यों के समय निर्णय के लिए एक निश्चत आधार उपलब्ध हो जाता है । जैनेन्द्र व्याकरण के दो पाठ ऊपर बताया गया है कि उपलब्ध जैन व्याकरण-ग्रन्थो में पूज्यपाद देवनन्दी का जनेन्द्र व्याकरण सर्वप्रथम है। वर्तमान मे इसके दो पाठ मिलते हैं। दोनो पाठो पर अलग-अलग टीका या वृत्ति ग्रन्थ भी उपलब्ध है। एक सूत्र पाठ के अनुसार जनेन्द्रव्याकरण मे कुल ३००० सूत्र हैं। इन पर आचार्य अभयनन्दीकृत महावृत्ति आचार्य प्रभाचन्द्र कृत भन्दा मोजमास्कर, श्रुतकातिकृत १चवस्तु नाम की प्रक्रिया तथा पडित महा चन्द्रकृत लधु जैनेन्द्र टीका उपलब्ध है। दूसरे सूत्र पा6 के अनुसार ग्रन्थ मे कुल ३७०० सूत्र हैं । इस पर सोमदेव सूरि कृत शब्दार्णवचन्द्रिका तथा गुणनन्दी कृत प्रक्रिया उपलब्ध है। इस पा० मे ७०० सून अधिक होने के अतिरिक्त शे५ ३००० सून मी पूर्णतया एक जैसे नही है। इस सूत्र पा० के अनेक सूत्र परिवर्तित और परिवर्तित किये गये हैं। सज्ञाओ मे भी भिन्नता है। इतना होने पर भी दोनो मे पर्याप्त समानता है। जनेन्द्र व्याकरण के सूत्र पाच अध्यायो मे विभक्त है। इस कारण इसे पचाध्यायी भी कहा जाता है। जनेन्द्र व्याकरण की अनेक विशेषताए हैं, जो उसे पाणिनी व्याकरण से अलग करती है। उदाहरण के लिए १ जनेन्द्र का सर्वप्रथम सूत्र है सिद्धिरनेकान्तात् ॥१११११।। अर्थात् शब्द की सिद्धि बनेकान्त द्वारा होती है। __ अनेकान्त जैन दर्शन का अन्यतम सिद्धान्त है। इसके द्वारा वस्तु की अनेक धर्मात्मकता का प्रतिपादन किया जाता है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। शब्द पुद्गल की पर्याय है। इसलिए वह भी अनन्त धर्मात्मक है। शब्द मे नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुमयत्व आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं। ऐसे शब्दो की सिद्धि अनेकान्त मे ही सम्भव है। एकान्त सिद्धान्त से अनेक धर्मविशिष्ट शब्दो का साधुत्व नहीं बताया जा सकता। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ५३ २ "स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेपानारम्भ ||१|१||| इस सूत्र द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि शब्द स्वभाव से ही एक शेष की अपेक्षा न कर एकत्व, द्वित्व, और बहुत्व मे प्रवृत्त होते है । अत एकशेष मानना निरर्थक है । इसी कारण जैनेन्द्र व्याकरण अनेक शेष है । पूज्यपाद की मान्यता है कि लोक व्यवहार मे जो चीज सर्वत्र प्रचलित है उसे सूत्रबद्ध निर्देश करने से शास्त्र का निरर्थक कलेवर वढता है । पाणिनि ने 'रामा' जैसे बहुवचन के प्रयोगो की सिद्धि के प्रसग मे अनेक के स्थान पर एकशेप करने के लिए "सरूपाणामेकशेष " सूत्र की रचना की है । जैनेन्द्र ने इसे निरर्थक माना है | ३. जैनेन्द्र का सज्ञा प्रकरण बहुत ही मौलिक और साकेतिक है। इसमे धातु, प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्य महा-सज्ञाओ के लिए बीजगणित जैसी अति सक्षिप्त और पूर्ण सज्ञाए दी गई है । पाणिनि की तुलना में ये सज्ञाए अति सक्षिप्त हैं । दोनो की तुलना करके देखने पर इसका स्पष्ट ज्ञान होता है पाणिनि को सज्ञाएं १ अर्द्धधातुकम् ३ द्वितीया विभक्ति ५ उपधा ७ वृद्धि ૨ સવ્રુદ્ધિ ११ सज्ञा १३ अगम् १५ लघु १७ भावकर्म १६. अव्ययम् २१ पष्ठी विभक्ति २३. प्रत्यय २५. आत्मनेपदम् २७ दीर्घम् २६ उत्तरपदम् ३१ अकर्मकम् ३३ निपात जैनेन्द्र की पाणिनि की सज्ञाए संज्ञाएं अग इप् उड् પે कि झि ता त्य १०. लोप खु १२ उपसर्ग द दी द्यु २ चतुर्थी विभक्ति ४ सप्तमी विभक्ति धि नि ६ ५लु पचमी विभक्ति १४ अगम् १६ अनुनासिकम् १८ अभ्यास २० कर्मव्यतिहार २२ गति २४ अभ्यस्तम् २६ प्रगृह्यम् २८ वृद्धस् ३०. सर्वनाम स्थानम् ३२. धातु ३४ नपुंसक लिंगम् जैनेन्द्र की संज्ञाएं अप् પ उच् का F to de by the Ip to be too गि ति दि दु धम् धु નક્ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सत् ३५ उपसर्जनम् न्य ३६ प्लुत ३७ हस्व प्र ३८ बहुव्रीहि ३६ सवोधनम् વોધ્યમ્ ४० तृतीया विभक्ति ४१ परस्मैपदम् ४२ नदी ૪૩ પ્રાતિપવિમ્ ४४ कर्मधारय ४५ द्विगु ४६ गुरु ४७ प्रथमा विभक्ति ४८ उपपद्म ४६ कृत्य ५० तत्पुरुष ५१. समास ५२ वर्तमानम् પરૂ સયો ५४ सवर्णम् स्वम् ५५. सर्वनाम ५६ संख्या ५७ अव्ययीभाव ५८. तद्धित ५६ जुहोत्यादि हवादि । ४ जनेन्द्र का विधानक्रम पाणिनि की तरह है, किन्तु जैनेन्द्र मे स्वर और वैदिक प्रयोग सम्बन्धी सूत्रों का परित्याग कर दिया गया है। छान्दस प्रयोगो को भी लौकिक मान कर सिद्ध किया गया है। ५ सूत्र शैली की सबसे बड़ी विशेषता शब्द लाधव है। पाणिनि की अपेक्षा जनेन्द्र के सूत्रो मे पर्याप्त लाघव है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित सून दृष्टव्य १२५ पाणिनि व्याकरण १ ल कर्मणि च भावेचाकर्मभ्य । २ हलोतरा सयोग । ३ ईदूदेद्विवचन प्रगृहयम् । ४ भूवादयो धातव । ५ परिव्यवेभ्यः क्रिय। ६ विपराभ्या जे । ७ नविश। ८ व्यापरिभ्यो रम । હ વિશાળ વિશળેખમ્ વહુનમ્ १० पति समास एका ११ दूरान्तिकार्यस्तृतीय।। १२. दिवादिभ्य श्यम् । १३. सदाति सर्वनामानि। १४ प्रादय । जैनेन्द्र व्याकरण ल कर्मणि च भावे चधे । हलोऽन्तरा स्फ । વે દિ ! भूवादयो धु। परिव्यवक्रिय । विपराजे । निविश । व्या५च रम । विशेषण विशेष्यति। पति से। दूरान्निकार्यस्ता च। दिवादे ५५ । સર્વાધિ સર્વનામ છે प्रादि । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ५५ ६ जैनेन्द्र मे "सैन्धौ " || ४ | ३ |६० || को अधिकार सूत्र कह कर चतुर्थ अध्याय के तृतीय और चतुर्थ पाद तथा पंचम अध्याय के कुछ सूत्रो मे सन्धि का निरूपण किया गया है । अधिकार सूत्र के बाद छकार के रहने पर सन्धि मे तुगागम का विधान किया गया है । तुगागम करने वाले चार सूत्र दिये गये हैं । इन सूत्रो द्वारा ह्रस्व, आड्, माड् तथा सज्ञको से परे प्रयोगों का साधुत्व प्रदर्शित किया गया है । यह प्रक्रिया पाणिनि के समान है, किन्तु इसमे अधिक सूत्रो की आवश्यकता उपस्थित नही होती । सज्ञाओ की मौलिकता के कारण ही यह सम्भव हुआ है । ७ जैनेन्द्र पंचाग व्याकरण है । इसमे धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र तथा लिंगानुशासन के प्रयोग पूर्णतया उपलब्ध होते है । जैनेन्द्रव्याकरण के सम्बन्ध में इस प्रकार के मन्तव्य सर्वथा निराधार हैं तथा जैनेन्द्र व्याकरण विषयक इतिहास और अध्ययन की अज्ञता के द्योतक है कि પિછલે ન્દી વિાવર ખૈન વિદ્વાનો ને પાણિનીય અષ્ટાધ્યાયી સૂત્રો જો અસ્તવ્યસ્ત कर यह कृत्रिम व्याकरण बना कर देवनन्दि के नाम पर चढा दिया है ।"" इतिहास ग्रन्थो मे इस प्रकार के मन्तव्यो को उद्धृत करना गैरजिम्मेदाराना ही कहा जाएगा। स्वोपज्ञ जैनेन्द्रन्यास पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र पर स्वोपज्ञ न्यास की रचना की। इसके उल्लेख प्राप्त होते है । शिमोगा जिले मे प्राप्त एक शिलालेख मे पूज्यपाद द्वारा रचित स्वोपज्ञन्यास तथा पाणिनीय व्याकरण पर लिखे शब्दावतारन्यास का निम्नलिखित रूप मे उल्लेख प्राप्त होता है न्यास जैनेन्द्रसज्ञ सकलबुधनत पाणिनीयस्य भूयो, न्यास शब्दावतार मनुजततिहित वैद्यशास्त्र च कृत्वा । इन दोनो न्यासो मे से वर्तमान मे कोई भी न्यास उपलब्ध नही है | अभयनन्दीकृत जैनेन्द्रमहावृत्ति નૈનેન્દ્ર જ વપત્તબ્ધ સમી ટીાબો મે મયનન્વીદ્યુત મહાવૃત્તિ સર્વાધિળ प्राचीन है । अमयनन्दी दिगम्वर परम्परा के मान्य आचार्य थे । इनका समय विक्रम की ८-हवी शताब्दी माना जाता है । डा० बेल्वलकर ने इनका समय सन् ७५० बताया है । " जैनेन्द्र के एक अन्य टीकाकार श्रुतकीर्ति ने अभयनन्दी की इस महावृत्ति को जैनेन्द्रायव्करण रूप महल के किवार्ड की उपमा दी है । पच-वस्तु के अन्तिम दो पद्यो मे कहा गया कि जैनेन्द्रव्याकरणरूपी महल सूत्र रूपी स्तम्भो पर खड़ा किया गया है। न्यास रूपी उसकी भारी रत्नमय भूमि है । वृत्ति रूप उसके कपाट है, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा भाण्यरूप शय्यातल है, टीका रूप उसके भाल या मजिल है और यह पंचवस्तु टीका उसकी सोपान श्रेणी है । ' अभयनन्दी की यह महावृत्ति १२,००० श्लोक परिमाण है । काशिका की तरह वृहत् है | इसकी निम्नलिखित विशेषताए हैं १. अभयनन्दी ने अपनी इस वृत्ति में कात्यायन के वार्तिक और पतजलि के महाभाष्य से सार ले कर वार्तिक, परिभाषा और उपाख्यान लिख कर उन व्याकरण नियमों की पूर्ति की है जिनकी कमी उन्हें जैनेन्द्र के सूत्रो मे महसूस हुई । २ इस वृत्ति मे शिक्षासूत्र भी उपलब्ध होते है । भूत ११११२ की व्याख्या मे लगभग ४० शिक्षा-सूत्र दिये गये है । ३ परिभाषाओं की व्याख्याए भी वृत्ति मे दी गयी है । ४ अभयनन्दी ने अपनी वृत्ति मे अनेक उणादिसूत उद्धृत किये है। इसमे कतिपय प्राचीन पचपादी से मिलते हैं और कुछ पाठान्तर है । इसलिए जैनेन्द्र के उणादि सूत्रो को जानने के लिए इस महावृत्ति का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है । ५ अनेक नवीन शब्दो का साधुत्व प्रदर्शित किया गया है । जैसे सूत्र १|१|EE की व्याख्या मे 'प्रविनय्य' प्रयोग की सिद्धि मे असाधारण पाण्डित्य दिखाया गया है । ६ महावृत्ति मे दिये गये उदाहरणो से अनेक ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश मे आते है | सुत्र ११४१४ की वृत्ति मे दिये गये शरद मथुरा रमणीया' मास कल्याणी काची' उदाहरणो से ज्ञात होता है कि काचीपुरी मे मासव्यापी उत्सव होता था तथा मयुरा मे शारदोत्सव मे विशेष शोभा की जाती थी । ७ महावृत्ति के उदाहरणो मे तीर्थंकरो, महापुरुपो, ग्रन्थो और ग्रन्यकारी के नाम भी आये है । जैसे सूत्र १४/१५ मे 'अनुशालिभद्रम्' माढ्या, 'अनुसमन्तभद्र तार्किका ' । सूत्र १|४|१६ मे 'उपसिंहनन्दिन कवय', 'उपसिद्धसेन वैयाकरणा'। सूत्र १|३|१० मे 'आकुमार यश समन्तभद्रस्य' । प्रभाचन्द्र का शब्दाम्भोजभास्कर न्यास आचार्य प्रभाचन्द्र ने जैनेन्द्र व्याकरण पर 'शब्दाम्भोजभास्कर' नाम से न्यास की रचना १६,००० श्लोक परिमाण मे की थी । इस न्यास के अध्याय ४, पाद ३, सूत्र २११ तक की हस्तलिखित प्रतिया मिलती है । शेष ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नही हुआ । आचार्य प्रभाचन्द्र विक्रम की ११वी शती के प्रसिद्ध विद्वान् थे । उनके ग्रन्यो की प्रशस्तियों और शिलालेखो " से ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजदेव Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ५७ और जयसिंह देव के राज्यकाल में विद्यमान थे। एक स्थान पर तो यह भी कहा गया है कि भोजदेव उनकी पूजा करता था। प० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने न्यास रचना का समय सन् ६८० से १०६५ बताया है ।१२।। प्रभाचन्द्र ने सर्वप्रथम पूज्यपाद और अकलक को नमस्कार करके न्यास रचना का आरम्भ किया है। अपने न्यास के विषय मे उन्होने कहा શબ્દાનુશાસનાનિ નિવિના ધ્યાયર્નિશ, यो य सारतरो विचार चतुरस्तल्लक्षणाशो गत । त स्वीकृत्य तिलोत्तमेव विदुपा चेतस्चमत्कारक सुव्यक्तरसमै प्रसन्नवचनंन्यास समारम्भते ।। इस आरम्भ वचन से प्रभाचन्द्र के व्याकरण विषयक पाण्डित्य का पता चलता है। प्रभाचन्द्र अपने समय के एक महान् टीकाकार और दार्शनिक विद्वान थे। न्यास मे उन्होने दार्शनिक शैली अपनाई है और विवेचन स्फुट रीति से किया है। શ્રુતકીર્તિત વવસ્તુ ___ पचवस्तु टीका (वि० स० ११४६) जैनेन्द्रव्याकरण का प्रक्रिया ग्रन्थ है। यह ३३०० श्लोक परिमाण है। शैली सुवोध और सुन्दर है। व्याकरण के प्रारम्भिक अभ्यासियो के लिए यह ग्रन्थ बडा उपयोगी है। जनेन्द्र व्याकरण रूपी महल मे प्रवेश के लिए इस पचवस्तु को सोपानपक्ति की तरह बताया गया है। इसकी दो पाण्डुलिपिया भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना मे है। ग्रन्थ के आदि अन्त मे अन्धकार का उल्लेख नहीं मिलता। एक स्थान पर सधि प्रकरण मे "सन्धि निधा कथयति श्रुतकीतिरार्य" ऐसा उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि इसके कत्ता श्रुतकीति आचार्य थे। नन्दीसघ की पट्टीवली मे श्रुतकीति को वैयाकरण भास्कर कहा गया है "विध श्रुतकीयाख्यो वैयाकरणभास्कर ।" कन्नड चन्द्रप्रभचरित के रचयिता अगलकवि ने श्रुतकीर्ति को अपना गुरु बताया है। यह ग्रन्थ शक स० १०११ (वि० स० ११४६) मे रचा गया था। यदि आर्य श्रुतकीति और श्रुतकीर्ति वैविध चक्रवर्ती एक ही हो तो पचवस्तु' वि० की १२वी शती मे रची गयी मानना चाहिए। महाचन्द्रकृत लघुजैनेन्द्र प० महाचन्द्र ने विक्रम की १२वी शताब्दी मे जनेन्द्रव्याकरण पर अभयनन्दी की महावृत्ति के आधार पर 'लघु जनेन्द्र' नामक टीका लिखी। इसकी एक प्रति अकलेश्वर दिगम्बर जैन मन्दिर मे तथा दूसरी अपूर्ण प्रति प्रतापगढ़ (मालवा) के दिगम्बर जैन मन्दिर मे है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा गुणनन्दीकृत शब्दार्णव ___ आचार्य गुणनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रो को परिवर्तित और परिवधित करके इस व्याकरण को सागपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। इसकी रचना वि० स० १०३६ के पूर्व हुई। शब्दार्णवप्रक्रिया के अन्तिम श्लोक मे कहा गया है सेपा श्रीगुणनन्दिता नितवपु शब्दार्णवे निर्णय, नावत्या श्रयता विविक्षुमनसा साक्षात् स्वय प्रक्रिया।" इससे ज्ञात होता है कि गुणनन्दी ने जैनेन्द्र के सूत्रो का विस्तार किया और उन पर प्रक्रिया भी लिखी। गुणनन्दि ने जैनेन्द्र के आधे से अधिक सूत्र वही रखे है । सज्ञाओ और सूत्रो मे अन्तर किया है। गुणनन्दी नाम के अनेक आचार्य हुए है। एक गुणनन्दी का उल्लेख श्रवणवेलगोल के ४२, ४३ और ४७वें शिलालेखो मे है। उसके अनुसार वे वलाकपिच्छ के शिष्य, गृध्रपिच्छ के प्रशिष्य थे। वे तर्क, व्याकरण तथा साहित्यशास्त्र के निपुण विद्वान थे। उनके पास ३०० शास्त्रपारंगत शिष्य थे। 'कर्णाटकक विचरित' के लेखक ने गुणनन्दी का समय वि० स० ९५७ निश्चित किया है। सोमदेवकृत शब्दार्णवचन्द्रिका उपर्युक्त शब्दार्णव पर आचार्य सोमदेव ने शब्दार्णवचन्द्रिका नामक एक विस्तृत टीका की रचना की थी। ग्रन्थकार ने स्वयं लिखा है श्री सोमदेवयतिनिमितमादधाति या नौ પ્રતીતયુગનન્દ્રિતશદ્વારિ, अर्थात शब्दार्णव मे प्रवेश करने के लिए नौका के समान यह टीका सोमदेव मुनि ने बनाई है। यह अन्य जनेन्द्रप्रक्रिया नाम से प्रकाशित हुआ है।" ग्रन्थ के अन्त मे गुणनन्दि का उल्लेख निम्नलिखित रूप मे हुआ है जन्मृगाधिराजो गुणनन्दी भुवि चिर जीयात् ।" __इस उल्लेख के आधार पर इस प्रक्रिया का लेखक गुणनन्दी मानने मे कतिपय विद्वानी को सकोच है। उनका कहना है कि लेखक स्वयं इस प्रकार आत्मप्रशसा नही कर सकता। इसी अन्य के तीसरे पक्ष मे श्रुतकीति नाम का इस प्रकार उल्लेख है Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ५६ "सोऽय य श्रुतकीर्ति देवयतिपी भट्टारकोत्तसक 1 ररम्यान्मम मानसे कविपति सद्राजहसश्चिरम् ॥ यह श्रुतकीर्ति 'पचवस्तु' के रचयिता से भिन्न होगे क्योकि इसमे श्रुतकीर्ति को कवि पति कहा गया है | श्रवणबेलगोल के शिलालेख सख्या १०८ मे जिन श्रुतकीर्ति का उल्लेख है, सम्भवतया वही यह हो । इन्ही के शिष्य ने यह प्रक्रिया ग्रन्थ बनाया । यह टीका ग्रन्थ सोमदेव की शब्दार्णवचन्द्रिका के आधार पर प्रक्रियावद्ध रूप मे लिखा गया है । जैनेन्द्रव्याकरण पर कुछ अन्य टीकाओ की भी जानकारी प्राप्त होती है । ऊपर जिस भगवद्वाग्वादिनि की चर्चा की है, उसे वि० स० १७६७ मे रत्नषिनामक किसी मुनि ने लिखा था। इसमे जैनेन्द्र व्याकरण का शब्दार्णवचन्द्रिकाकार द्वारा मान्य सूत्र पाठ मात्र है जो ८०० श्लोक परिमाण है । मेघविजयकृत जैनेन्द्रव्याकरणवृत्ति राजस्थान के जैन शास्त्रभडारो की ग्रन्थसूची भाग २ पृ० २५० मे मेघविजय द्वारा लिखित वृत्ति का उल्लेख है । यदि वे हमकोमुदी ( चन्द्रप्रभा ) व्याकरण के कर्ता ही हो तो इस वृत्ति की रचना १८वी शताब्दी मे हुई मान सकते हैं । विजयविमलकृत अनिटकारिकावचूरि जैनेन्द्रव्याकरण की अनिटकारिका पर श्वेताम्बर जैन मुनि विजयविमल ने १७ वी शती में अवचूरी की रचना की है । जैनेन्द्र पर इतने टीका ग्रन्थो से उसके प्रसार का पता चलता है । पात्यकीर्ति का शब्दानुशासन या शाकटायन व्याकरण ऊपर हमने जैन व्याकरणशास्त्र की जिस मुनित्रयी का उल्लेख किया है, उसमे जैनेन्द्र के बाद आते है आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन । पाणिनि ने अष्टाध्यायी मे आचार्य शाकटायन का उल्लेख किया है । सन् १८६४ मे बुहलर को जब पात्यकीर्ति के शब्दानुशासन की पाण्डुलिपि का कुछ अश प्राप्त हुआ तो उन्होने संस्कृत जगत् को सूचित किया कि उन्हे पाणिनि द्वारा उल्लिखित शाकटायन व्याकरण उपलब्ध हो गया है । वास्तव मे यह भ्रम था । बाद मे ज्ञात हुआ कि उपलब्ध व्याकरण पाल्यकीर्ति शाकटायन का है । तब से लेकर अब तक शाकटायन व्याकरण के अध्ययन-अनुसन्धान के प्रयत्न बरावर होते रहे और इसका जो नवीनतम संस्करण अमोघवृत्ति सहित भारतीय ज्ञानपीठ, काशी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० . गम्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा से प्रकाशित हुआ है, उसकी अगरेजी प्रस्तावना में जर्मन विद्वान् डा० आर० विरखे ने शा८यन व्याकरण का एक विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत भाकटायन व्याकरण का मूल नाम शब्दानुशासन है। इसके रचयिता का नाम पाल्यकाति प्राप्त होता है। किन्तु ग्रन्थ मे सर्वन्न ग्रन्थकार का नाम साकिटायन ही उपलब्ध होता है। पाल्यकीति शाकटायन जैन परम्परा के यापनीय संघ के अग्रणी और प्रसिद्ध आचार्य थे। वे अमोधवर्ष के राज्यकाल में हुए । अमोघवर्ष शक संवत् ७३६ (वि० स० ८७१) मे राजगद्दी पर बैठा। इसी के आसपास पाल्यकीति ने अपने व्याकरण अन्य की रचना की होगी। पाल्यकीति ने अपने पूर्ववर्ती व्याकरणो मे पाणिनि, चन्द्र, और जनेन्द्र के व्याकरणो का गहन अध्ययन किया था । डा. विरवे ने पाणिनि, चन्द्र, जनेन्द्र तथा धाकटायन की तुलना करके यह स्पष्ट किया है कि शाकटायन के ४० से ५० प्रतिशत तक नियम उth व्याकरण ग्रन्थो के समान हैं। शाकटायन की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताए है १ शाकटायन का अध्याय विभाजन पूर्वाचार्यो से भिन्न है । पाणिनि मे मी०, चन्द्र मे छह तथा जनेन्द्र मे पाच अध्याय है, किन्तु शाकटायन व्याकरण चार अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय मे चार-चार पाद है। प्रथम अध्याय मे ७२१ सूत्र, द्वितीय मे ७५३, तृतीय मे ७५५ तथा चतुर्थ मे १००७ सूत्र है। इस प्रकार कुल सूत्र संख्या ३२३६ है । इसमे १३ शिव सूत शामिल नहीं है, जो ग्रन्य के प्रारम्भ में उपलब्ध है। अध्याय विभाजन में शाकटायन कातन्त्र के निकट है। २ भकिटायन ने अपने व्याकरण की विषयवस्तु को भी पूर्वाचार्यों की तरह प्रस्तुत न करके उसे स्वतन्त्र रूप से प्रस्तुत किया है। यह विपयक्रम भी कातन्त के अधिक निकट है। ३ शाकटायन व्याकरण में कोतन्न तया जैनेन्द्र की तरह स्वर नियम नही दिये है। इसी प्रकार छान्दस प्रयोगो का भी सर्वथा अभाव है। ४ गाकटायन और पाणिनि के पारिमापिक शब्दो की तुलना करने पर निम्नलिखित तथ्य ज्ञात होते है (क) भाकटायन तथा पाणिनि में प्रयुक्त अनेक पारिभाषिक शब्द समान है। जम अनुनामिक (१।१।६८),अनुस्वार (१११११०), अव्यय (११११३९), अव्ययीभाव (२०१६) इत्यादि। (ख) का८यन ने पाणिनि के शब्दों के स्थान पर नये शब्द दिये है जैसे पाणिनि के अग के लिए प्रकृति (११११५६), अविकरण के लिए आधार (१।३।१७६) यादि । (ग) शकिटायन ने पाणिनि की अनेक परिभाषाओ को छोड़ दिया है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन ६१ जैसे अनुदात्त, उदात्त, कर्मप्रवचनीय, प्रातिपदिक, षष सहिता, सत्, सम्बन्धी और स्वरित् । ५ शाकटायन मे नो प्रकार के भूतो का कयन किया गया है १ सज्ञा, २ नियम, ३ निषेध, ४ अधिकार, ५ नित्यापवाद, ६ विधि, ७ परिभाषा, ८ अतिदेश और विकल्प | सज्ञा नियम निषेधाधिकारनित्यापवादविधिपरिभाषाः । अतिदेशविकल्पाविति गतयशब्दानुशासने सूत्राणाम् ॥ ६ शाकटायन पंचाग है । सूत्रपाठ, गणपीठ, धातुपाठ, लिंगानुशासन और उणादि ये पचाग हैं | इसमे पाणिनीय या जैनेन्द्र के समान वार्तिक, उपाख्यान अथवा अन्य नियम-वाक्यो की आवश्यकता नही है । कुल ७ शाकटायन मे सामान्य सज्ञाए बहुत कम है । स्वर्ण सज्ञा के मात्र दो सूत्र हैं । (१) इत्सा विधायक (२) स्वर सज्ञा विधायक | पूरे सज्ञा प्रकरण मे छह सूत्र हैं । अन्य किसी भी व्याकरण मे इतने कम सूत्रो से सज्ञाओ का काम नही चलाया गया । सरलता और आशुवोधता की दृष्टि से इस सज्ञा प्रकरण का अधिक महत्व है। प्रत्याहार सूत्र शाकटायन में तेरह प्रत्याहार सूत्रो का निरूपण किया गया । ये प्रत्याहार सुन्न न तो पाणिनि जैसे है और न इनका क्रम जैनेन्द्र से मिलता है । शाकटायन ने इन दोनो मे ही सगोधन और परिवर्तन किया है । शाकटायन के प्रत्याहार सून इस प्रकार हैं-- (१) अइउण्, (२) ऋक्, (३) एओड्, (४) ऐ ओच्, (५) हयवरल, (६) मङ्गणनम्, (७) जबगडदश् ( ८ ) झभघढवष्, (६) खफछठथट्, ( (१०) चटतव्, (११) कपय्, (१२) शषस अ अ क पर, (१३) हल् । स्पष्ट है कि शाकटायन ने इन सूत्रो मे न तो पाणिनि का अनुसरण किया है और न ही जैनेन्द्र का । शाकटायन ने लृकार को स्वर नही माना । इसी प्रकार अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय की गणना व्यजनो के अन्तर्गत कर ली है। पाणिनि ने अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय को विकृत व्यजन माना है | वास्तव मे अनुस्वार मकार या नकार जन्य है । विसर्ग कही से और कही रेफ से स्वत उत्पन्न होता है । जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय दोनो क्रमश क, ख तथा प फ के पूर्व विसर्ग के ही विकृत रूप है । पाणिनि ने इन सभी को अपने प्रत्याहार सूत्रो मे कोई स्वतन्त्र स्थान नही दिया । बाद के पाणिनीय व्याकरणो मे से कात्यायन ने उक्त चारो को स्वर, व्यजन दोनो मे ही परिगणित करने का निर्देश दिया है । शाकटायन ने अनुस्वार, विसर्ग आदि के मूल रूपो को ध्यान मे रख कर ही उन्हे प्रत्याहार सुत्रो मे स्थान दिया तथा उन्हें व्यजन सकार माना । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा शाकटायन के प्रत्याहार सूत्रो की दूसरी विशेषता यह है कि उनमे 'लण्' सूत्र को स्थान नही दिया और लवर्ण को पूर्व सूत्र मे ही शामिल कर लिया गया है । इसमे सभी वर्णो के प्रथम अक्षरो के क्रम से अलग-अलग प्रत्याहार सूत्र दिये गये है । मात्र वर्णो के प्रथम वर्णों के ग्रहण के लिए दो सूत्र दिये गये हैं । पाणिनीय, वर्ण समाम्नाय की तरह शाकटायन मे भी हकार दो बार आया है। पाणिनीय व्याकरण मे ४१, ४३ या ४४ प्रत्याहार रूप मिलते है किन्तु शाकटायन मे मात्र ३८ प्रत्याहार ही उपलब्ध है । ६२ १० शाकटायन ने 'न १|१|७० ' सूत्र द्वारा विराम मे सन्धि कार्य का निषेध किया है तथा अविराम सन्धि का विधान मानकर 'न' सूत्र को अधिकार सूत्र बताया है । अच् सन्धि के आरम्भ मे सर्वप्रथम अयादि सन्धि का विधान किया है | इसके बाद "अस्त्रे १|१|७३ || ” द्वारा यण् सन्धि का प्रतिपादन किया है । इसी प्रसग मे "ह्रस्वो वा पदे १|१|७४" सूत्र दिया गया है । इसके द्वारा "दधी +अत्र = दधियत, दव्यत, नदी + एषा नदिएपा, नद्येपा रूप सिद्ध होते हैं । पाणिनि तस्व विधान का नियम नही है । यह शाकटायन की अपनी उद्भावना है । ==द मे शाकटायन ने प्रकृति भाव सन्धि को निषेध सन्वि कहा है । इस प्रकरण मे १।१।६६ से १।१।१०२ तक मात्र चार सूत्र है । पाणिनि की अपेक्षा इसमे नवीनता नही है फिर भी यह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इतने कम मूत्रो से शाकटायन ने अपना प्रयोजन साध लिया है । ११. शाकटायन ने 'सम्राट्' शब्द की सिद्धि "सम्राट् १|१|११३" सूत्र द्वारा की है। इस सूत्र की वृत्ति मे लिखा है "समित्यस्य राजतो क्विवन्ते, उत्तरपदे परेनुस्वाराभारो निपात्यते ।" इससे स्पष्ट है कि शाकटायन ने मकार को निपातन से ही ग्रहण कर लिया है । यद्यपि इस सूत्र के पहले शाकटायन मे वैकल्पिक अनुस्वार का अनुशासन विद्यमान है तो भी उन्होने अनुस्वार के अभाव की बात नही कही । निपातन का अर्थ है अन्य विकार्य स्थितियो का अभाव । संभवतया इसी कारण शाकटायन ने हेम की तरह अनुस्वाराभाव कहने की आवश्यकता नही समझी । १२ शब्दसाधुत्व मे शाकटायन का दृष्टिकोण पाणिनि के समान ही है । उन्होंने एक शब्द को लेकर सातो विभक्तियों में उनके रूपो को सिद्ध करने की विधि बतायी है । १३ स्त्री प्रत्यय शाकटायन ने स्त्री-प्रत्यय प्रकरण मे स्त्री-प्रत्यान्त शब्दो को सिद्ध नहीं किया। जैसे दीर्घपुच्छी, दीर्घपुच्छा, कवरपुच्छी, मणिपुच्छी, अश्वकीति, मनसाकीति मदृश प्रयोगो का अभाव है | हेमचन्द्र ने इसके लिए स्वतन्त्र सूत्रो का विधान किया है। १४ शाकटायन मे कारक सामान्य तथा कर्ता, कर्म, करण आदि की परि Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन ६३ भाषा नही दी गयी है | इसमे विभक्ति विधायक सूत्रो का सीधे ढग से ही कथन किया गया है । १५ समास प्रारण शाकटायन मे समास प्रकरण के आरम्भ में ही बहुब्रीहि समास विधायक सूत्र का निर्देश किया गया है । इसके बाद कुछ तद्धित प्रत्यय आ गये हैं, जिनका उपयोग प्राय बहुव्रीहि समास मे होता है । बहुव्रीहि समास का प्रकरण समाप्त होते ही अव्ययीभाव समास का प्रकरण आरम्भ हो जाता है । यहा युद्ध वाच्य मे ग्रहण और प्रहरण अर्थ मे केशाकेशि और दण्डादण्डि को शाकटायन ने अव्ययीभाव समास माना है । शाकटायन के अनुसार अव्ययीभाव के प्रधान दो भेद हैं (१) अन्यपदार्थप्रधान, (२) उत्तरपदार्थप्रधान । इसलिए "केकाश्च केशाश्च परस्परस्य ग्रहण यस्मिन् युद्धे", इस प्रकार के साध्य प्रयोग विग्रह वाक्य मे अन्य पदार्थ प्रधान अव्ययीभाव समास है । पाणिनि ने जिन प्रयोगो को बहुव्रीहि समास मे गिनाया है शाकटायन ने उनमे से कतिपय अव्ययीभाव समास मे परिगणित किये है | समास १६ तद्धित, कृदन्त और लिडन्त - शाकटायन मे तद्धित, कृदन्त और तिडन्त प्रकरण प्राय पाणिनि के समान है । विशेषता यह है कि शाकटायन का प्रत्यय विधान और प्रत्ययो के अर्थ अपनी मौलिकता लिये हुए है । શાજ્યાયન અમોષવૃત્તિ शाकटायन पर अमोवृत्ति नाम की एक बृहद् वृत्ति है । यह अठारह हजार श्लोक परिमाण है । अमोधवृत्ति शाकटायन की स्वोपज्ञवृत्ति है । 'अमोधवृत्ति' इस श्लिष्ट ५५ के द्वारा शाकटायन ने एक ओर अन्य वृत्तियों की अपेक्षा अपनी वृत्ति की महनीयता प्रतिपादित की है, दूसरी ओर अपने समकालीन राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम का आदरपूर्ण स्मरण किया है । शब्दानुशासन के सक्षिप्तसूत्रो मे जो बाते कहने से रह गयी थी, उनकी भी पूर्ति इस वृत्ति द्वारा कर दी गयी है । मुनित्रशाभ्युदय काव्य के रचयिता ने लिखा है कि "उस मुनि ( शाकटायन ) ने अपने बुद्धिरूप मंदराचल से श्रुतरूप समुद्र का मयन कर यश के साथ व्याकरण रूप उत्तम अमृत निकाला । शाकयाटन ने उत्कृष्ट शब्दानुशासन को बना लेने के बाद अमोधवृत्ति नाम की टीका, जिसे बडी शाकटायन कहते है, बनायी, जिसका परिमाण १८०० श्लोक है । जगत्प्रसिद्ध शाकटायन मुनि ने व्याकरण के सूत्र और साथ ही पूरी वृत्ति भी बना कर एक प्रकार का पुण्य संपादन किया । एक बार अविद्धकर्ण सिद्धान्त चक्रवर्ती पद्मनन्दी ने मुनियों के मध्य-पूजित शाकटायन को मन्दर 'पर्वत के समान धीर विशेषण से विभूपित किया । यक्ष वर्मा ने अपनी चिन्तामणि Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा वृत्ति मे अमोधवृत्तिको विशालकाय (अतिमहती) तथा शाकटायन की स्पोपत्रवृत्ति बताया है। अमोधवृत्ति के प्रार+भ मे अन्यावतार के विषय मे किटायन ने लिखा है "परिपूर्णमल्पग्रन्थ लघूपाय शब्दानुशासन शास्त्रमिद महाश्रमणसघाधिपतिभंगवानाचार्य शाकटायन प्रारभते ।" अमोघवृत्ति के समस्त पुष्पिका पाक्यो मे शाकटायन का उल्लेख इस प्रकार आया है તિ ધૃતવનિલેશીયારાર્થનાટાથનતી શવ્વાનુશાસને અમોધવૃત્તી” यहा कृती का अन्वय शब्दानुशासन तथा अमोधवृत्ति दोनो से है । डा० विरखे का सुझाव है कि यदि इन पुष्पिका वाक्यो मे "शब्दानुशासने अमोधवृत्ती" के स्थान पर "शदानुशासनामोधवृत्ती" पा० हो तो पुष्पिकावाक्य मे जो अस्प८८ता है, वह दूर हो जाती है। उस स्थिति मे तनिक भी सन्देह की गुजाइश नही रहती कि यह वृत्ति स्वय सूत्रवार की है। चिन्तामणिकार ने अपनी टीका मे शाकटायन के विषय मे लिखा है इण्टिनष्ट। न वक्तव्य वक्तव्य सूत्रत पृथक् ।। सख्यान नोपसख्यान यस्य शब्दानुशासने ।। इन्द्रचन्द्रादिभि शादयंदुक्त शलक्षणम् । तदिहास्ति समस्त च यन्त्रहास्ति न तत्क्वचित् ।। अर्थात् शाकटायन व्याकरण मे इष्टिया पढने की आवश्यकता नहीं है। सूत्रो से । अलग वक्तव्य कुछ नही है। उपसख्यानो की भी आवश्यकता नहीं है। इन्द्र चन्द्र आदि वैयाकरणो ने जो शब्द लक्षण कहा वह सब इस व्याकरण मे मा जाता है । इसमे और जो विशेप है वह अन्यन नही है। डा० बिरवे की राय मे यक्ष वर्मा का यह कथन इस बात को धोतित करता है कि शाकटायन की अमोघवृत्ति पतजलि के महाभाष्य से विशिष्ट है, क्योकि महाभाष्य मे इष्टिया अनेक वार आयी है। ___ वर्धमान सूरि ने गणरत्नमहोदधि मे शाकटायन के नाम से जो अनेक उल्लेख दिये है वे अमोधवृत्ति मे उपलब्ध है। डा. विरवे ने ऐसे १२४ सन्र्दभो की गणना की है। आचार्य मलयगिरि ने नन्दिसूत्र की टीका मे अमोधवृत्ति के मगल पच "वीरसभूत ज्योति' इत्यादि को शाक्टायन को स्वोपजवृत्ति बताया है। इस प्रकार सन्देह की गुजाइश नही दीखती कि अमोघवृत्ति शाकटायन की स्वोपनवृत्ति है। अमोधवृत्ति की विशेषता बताते हुए चिन्तामणिकार ने लिखा है Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन ६५ गण-धातुपाठयोगेन धातून लिंगानुशासने लिंगतम् । औणादिकानुणादी शे५ नि शेपमन वृत्तौ विद्यात् । अर्थात् गणपाठ, धातुपाठ, लिंगानुशासन और उणादि के अतिरिक्त इस वृत्ति मे सभी विषय वर्णित है। ___अमोधवृत्ति की एक अन्य विशेषता इसका लिंगानुशासन है । प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद के प्रथम सूत्र "नपो चो ह्रस्व" के उपरान्त लिंगानुशासन दिया गया है। हेमचन्द्र ने शाकटायन की इस पद्धति को अपनी बृहद्वृत्ति मे अपनाया है। सून १।१।२६ के बाद उन्होने लिंगानुशासन दिया है। शाकटायन मे उणादि प्रकरण नही है। हेमचन्द्र ने अपनी वृत्ति मे उणादि प्रकार सूत्र ५।२।६२ के बाद दिया है। शाकटायन ने अमोधवृत्ति मे धातु पा6 के अन्तर्गत सभी नव धातु गणो को गिनाया है । यथा १ अदादि (४।३।२१) २ वादि (४।३।२१) ३ दिवादि (४१३१२२) ४ स्वादि (४।३।२८) ५ तुदादि (४।३।३२) ६ रुधादि (४।३।३४) ७ तनादि (४।३।३३) ८ ऋयादि (४।३।३०) ६ चुरादि (४११७) अमोघवृत्ति मे मान एधादि धातुगण नहीं है जो शाकटायन का प्रथम धातुपा० है। शाकटायन ने काशिका की पद्धति पर अमोधवृत्ति का निर्माण किया है। कहीकही शकिटायन ने भी वही उदाहरण दिये है जो काशिकाकार ने बृहद्वृत्ति मे दिये हैं। यथा १ शाकटायन सून ११४।३७ की वृत्ति मे किरातार्जुनीय का 'सशय कणादिषु तिष्ठते य ।' उदाहरण दिया है। यही उदाहरण पाणिनि सून १।३।२३ की काशिका मे दिया गया है। २ शाकटायन मूत्र ३।१।१६६ की वृत्ति मे निम्नलिखित उदाहरण दिये गये , "भद्रबाहुना प्रोक्तानि भद्रवाहाण्युत्तराध्ययनानि, याज्ञवल्केन प्रोक्तानि याज्ञवल्कानि ब्राह्मणानि, पाणिना श्रोक्त पाणिनीयम्, आपिशलिना प्रोक्तमापिशलम्, काशकृस्तिना प्रोक्त काशकृत्स्नम्।" Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___६६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पाणिनि सूत्र ४।३।१०१ की कोशिका मे "पाणिनीयम्," "आपिशलम्" और "काशकृत्स्नम्" उदाहरण आये हैं । किटायन तथा व्याकरण शास्त्र का इतिहास शाकटायन ने अपने पूर्ववर्ती वयाकरणो का अनेक बार उल्लेख किया है। ये उल्लेख कही नाम से तथा कही एक , एके, एकेपाम्, कश्चित्, केनचित्, केषाचित्, अन्य , अन्ये, अन्येपाम्, अपर आदि शब्दो के साथ दिये गये है । डा० विरवे ने इस प्रकार के लगभग २१० सन्दर्भो का जिक्र किया है। कुछ सन्दर्भ ऐसे भी है जहा न तो वैयाकरण का नाम दिया है और न ही 'कश्चित्' आदि कहा है। आपिशलि का महत्वपूर्ण उल्लेख शाकटायन मूत्र २।४।१८२ के उल्लेख से ज्ञात होता है कि पाणिनि की तरह आपिशलि का व्याकरण भी आ० अध्यायो मे निवद्ध था "अटका आपिशलपाणिनीया"। व्याकरणशास्त्र के इतिहास में इस प्रकार का दूसरा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है जिससे आपिशलि के व्याकरण के सम्बन्ध मे इतनी निश्चित सूचना प्राप्त हो । इससे ज्ञात होता है कि व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे अष्टाध्यायी व्याकरण रचने वाले अकेले पाणिनि नही है। उनके पहले आपिशलि ने भी अष्टाध्यायी व्याकरण की रचना की थी। पाणिनि ने अपने व्याकरण को अण्टाध्यायी वनाने का सूव मी से ग्रहण किया होगा। डा० पेलवलकर ने लिखा है कि शाकटायन ने शब्दानुशासन और अमोघवृत्ति के अतिरिक्त निम्नलिखित प्रकरणो की भी रचना की थी १ परिमापासून २ गणपा० (१६ पाद) ૨ ધાતુપાઈ ४ उणादिसून (४५ाद) ५ लिंगानुशासन (१७ आर्या छन्द) वास्तव में इनमें से लिंगानुशासन तया गणपाठ अमोघवृत्ति मे शामिल है । लिंगानुशासन अलग से भी प्राप्त है । इसलिए इमे स्वतन्त्र मानना भी उचित लगता है। ___गणपा० कु० पाण्डुलिपियो मे स्वतन्त्र रूप से प्राप्त होता है । इस बात मे नन्देह नही कि यह अमोचवृत्ति से ही मकलित किया गया है । यद्यपि अमोघवृत्ति मे गणपाल लिंगानुशासन की तरह स्वतन्त्र उपलब्ध नहीं है फिर भी उन उन सूत्रो की वृनि में निबद्ध है। गाकटायन ने गणो काम्पाट विभाजन इस प्रकार बताया है - Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन ६७ १ परिपूर्णगण मे किसी नियम विशेष के अन्र्तगत आने वाले सभी शब्दो की गणना दी जाती है। २ आकृतिगण के अन्तर्गत कुछ नमूने मात्र दिये जाते हैं। शिष्टप्रयोग के आधार पर अन्य शब्दो को इसके अन्तर्गत शामिल किया जा सकता है। पाणिनि सूत्रो से शब्दो के गण-विभाजन का स्पष्ट पता नहीं चलता। इसके लिए वृत्तियो पर निर्भर करना पडता है । शाकटायन ने इनको स्पष्ट भेदक एकवचन और बहुवचन के रूप मे दिया है। एकवचन के प्रयोग परिपूर्णगण और बहुवचनान्त आकृतिगण के अन्तर्गत परिगणित है । उदाहरण के लिए सूत्र "कच्छादेन्टन्टस्थे ।३।११४६" के अन्तर्गत परिगणित शब्द परिपूर्णगण तथा रूढादिभ्य १।३।४" के अन्तर्गत दिए गए शब्द आकृतिगण है । वृत्ति मे स्पष्ट लिखा है कि "वहुवचनादाकृतिगणोऽयम्।" ____ शाकटायन के पूर्व इस प्रकार का गण-विभाजन जैनेन्द्र मे उपलब्ध है (दृष्टय सूत्र ३।२।१४६, ३।१।८६, ३।११४६ तथा ३।१४) । हेमचन्द्र ने शाकटायन को इस परम्परा को आगे बढाया है। पाणिनि के साथ तुलना करने पर ज्ञात होता है कि शाकटायन मे गणसूते नही है । पाणिनीय गणसूत्रो को जैनेन्द्र की तरह शाकटायन ने भी त्याग दिया है । हेमचन्द्र ने भी इसी परम्परा को अपनाया है। शाकटायन के परिभाषा सूत्र ___ व्याकरण नियमो की सही व्याख्या के लिए कतिपय विशेष सिद्धान्तो की आवश्यकता होती है। इन्हें परिभाषा कहते है । शाकटायन सूतो तथा अमोधवृत्ति मे यत्र-तत्र परिभापा-सून उपलब्ध है किन्तु एक साथ नहीं है । स्वतन्त्र रूप से जो सौ परिभापा सूत्र प्राप्त होते है, उनका तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह निर्णय करना कठिन है कि ये परिभाषा सूत्र स्वय पाल्यकीति शाकटायन के है या अन्य किसी शाकटायन के । क्योकि इन सौ सूत्रो मे सम्पूर्ण रूप से वे परिभाषाए भी नही आ पाई, जो शाकटायन और अमोघवृत्ति मे उपलब्ध है । डाक्टर विरवे ने ज्ञानपी० सस्मरण मे उक्त परिभाषा सूत्र अपनी प्रस्तावना के परिशिष्ट एक के रूप मे प्रकाशित किए है तथा प्रस्तावना मे इनका विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है। यक्षवर्मा कृत चिन्तामणि वृत्ति शाकटायन पर यक्षवर्मा कृत चिन्तामणि नाम की वृत्ति है। अपनी वृत्ति के विषय मे उन्होने स्वयं लिखा है कि अमोधवृत्ति नामक वृहद् वृत्ति को सक्षिप्त Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा करके यह वृत्ति वनाई है। अपनी वृत्ति का महत्त्व उन्होने निम्नलिखित शब्दो मे व्यक्त किया है - તસ્યાતિમહતી વૃત્તિ સહૃય નીયમી सम्पूर्णलक्षणा वृत्तिर्वक्ष्यते यक्षवर्मणा ।। વાતાવરણનોગચાડવૃત્તેિરખ્યાવૃત્તિના ! ममस्त वाड्मय वेत्ति वर्षणकन निश्चयात् ।। अमोधवृत्ति नामक अत्यन्त विस्तृत वृत्ति को सक्षिप्त करके यह अल्पकाय किन्तु सम्पूर्ण लक्षण युक्त वृत्ति को यक्षवर्मा कहता है । वालक और स्त्री जन भी इस वृत्ति के अभ्यास से एक वर्ष मे निश्चय ही सम्पूर्ण वाड्मय को जान लेता है। यक्षवर्मा के विषय में अन्य जानकारी नहीं मिलती। प्रभाचन्द्रकृत शाकटायन न्यास माधवीयधातुवृत्ति (१४वी शती) मे प्रभाचन्द्र कृत शाकटायनन्यास का उल्लेख है । इसके मात्र दो अध्याय उपलब्ध होते है । ये प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रमाचन्द्र से भिन्न व्यक्ति है, ऐसा डाक्टर महेन्द्र कुमार जी का मत है। ___माधवीयवृत्ति मे अमोघ विस्तर नामक एक अन्य टीका का भी उल्लेख है किन्तु इसके विषय मे अन्य विवरण नहीं मिलता। भावसेन नैवेद्य ने भी शाकटायन पर एक टीका ग्रन्थ लिखा था। કિસી મનાત નેવને શાદાયનત રળિી નામ ટીના નિવી! डा० बुहलर ने एक अन्य अपूर्ण टीका का उल्लेख किया है जिसका नाम तथा लेखक अज्ञात है। (इडिया आफिस केटलाग न० ५०४३) ___ अजितसेन (१२वी शती) ने चिन्तामणि के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए चिन्तामणिप्रकाशिका, मगारस ने चिन्तामणि प्रतिपद तथा समन्तभद्र ने चिन्तामणिविषमपदटीका लिखी। एक अन्य अपूर्णचिन्तामणिवृत्ति की प्रति इडिया आफिस लायनेरी (५०४७) मे उपलब्ध है। रूपसिद्धि द्रविडसघ के आचार्य मुनि दयापाल ने शाकटायन पर एक सक्षिप्त टीका रू५सिद्धि नाम से लिखी। श्रवणवेलगोल के ५४वे शिलालेख मे इनके विषय मे कहा गया है कि वे वादिराज के सधर्मा थे। उनके गुरु का नाम मतिसागर था। गणरत्न महोदधि गोविन्दमूरि के शिष्य वर्धमानसूरि नामक श्वेताम्बर आचार्य ने शाकटायन के Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ६६ गणो का सग्रह करके गणरत्नमहोदधि नामक ग्रन्थ लिखा। यह ४२०० श्लोक प्रमाण है। इसकी रचना वि० स० ११९७ मे हुई। इस प्रकार शाकटायन की टोकाओ से ज्ञात होता है कि जैन परम्परा मे उसका प्रसार अत्यधिक मात्रा मे हुआ। ભાવાર્ય હેમવદ્ર જો સિદમશદ્વાનુશાસન जन व्याकरणशास्त्र की मुनित्रयी मे पूज्यपाद और शाकटायन के बाद तीस२॥ नाम आचार्य हेमचन्द्र का है। सौभाग्य से आचार्य हेमचन्द्र का विपुल साहित्य उपलब्ध है । उससे उनके जान वैभव का पता चलता है। गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह के अनुरोध पर आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धराज के साथ अपना नाम जोड कर सिम शब्दानुशासन की रचना की । इसकी रचना का समय वि० स० ११४५ के लगभ माना जाता है। हेमशब्दानुशासन का परिमाण सवा लाख श्लोक माना जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण पर छोटी-बडी वृत्तिया तथा उणादिसून, धातुपाठ, गणपा०, लिंगानुशासन स्वय ही बनाए है । हेम में पाठ अध्याय है। पहले सात मे संस्कृत शब्दानुशासन है तथा आठवें मे प्राकृत शब्दानुशासन । स्व. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने हेम शब्दानुशासन की निम्नलिखित विशेषताओ की ओर ध्यान आकृष्ट किया है १ हेम के पूर्व पाणिनि, पान्द्र, पूज्यपाद, शाकटायन और भोजदेव आदि कितने ही वैयाकरण हो चुके है। इन्होने अपने समय मे उपलब्ध समस्त शब्दार्थ को अध्ययन कर एक सागपूर्ण, उपयोगी एप सरल व्याकरण की रचना कर सस्कृत और प्राकृत दोनो भाषाओ को पूर्णतया अनुशासित किया है। तत्कालीन प्रचलित अपभ्र श भाषा का अनुशासन लिख कर हेम ने इस भाषा को अमर बना ही दिया है, किन्तु अपभ्र श के प्राचीन दोहो को उदाहरण के रूप में उपस्थित कर लुप्त होते हुए महत्त्वपूर्ण साहित्य के नमूनो की रक्षा भी की है। वास्तविकता यह है कि शब्दानुशासक हेम का व्यक्तित्व अद्भुत है। उन्होने धातु और प्रातिपदिक और प्रत्यय, समास और वाक्य, कृत और तद्धित, अव्यय और उपसर्ग प्रभृति का निरूपण विवेचन एक विश्लेषण किया है। २ शब्दानुशासन के क्षेत्र मे हेमचन्द्र ने पाणिनि, भट्टोजिदीक्षित और भति का कार्य अकेले ही सम्पन्न किया है। इन्होने वृत्ति के साथ प्रक्रिया और उदाहरण भी लिखे है । सस्कृत शब्दानुशासन सात अध्यायो मे और प्राकृत शब्दानुशासन एक अध्याय मे, इस प्रकार कुल आठ अध्यायो मे अपने अष्टाध्यायी शब्दानुशासन को Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की पग समाप्त किया है । गस्कृत शब्दानुशासन के उदाहरण द्यायय काव्य मे और प्राकृत शब्दानुशासन के उदाहरण प्राकृत याश्रय काव्य मे लिप है। ३ सस्कृत शब्दानुशासन के प्रथम अध्याय मे २४१ मूत्र, द्वितीय में ४६०, तृतीय मे ५२१, चतुर्थ मे ४८१, पचम मे ४६८, पप्ठ मे ६६२ और सप्तम में ६७३ सूत्र हे । कुल सूत्र सख्या ३५६६ है । प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में मनाओ का विवेचन किया है। इसमे स्वर, तस्व, दीर्घ, प्लुत, नामी, समान, सन्ध्यक्षर, अनुस्वार, विसर्ग, व्यजन, घुट, वर्ग, अधोप, धोपवत्, अन्तथ शिट, 4 प्रथमादि, विभक्ति, पद, वाक्य, नाम, अव्यय, और मध्यावत् इन चौबीम का प्रतिपादन किया है। शिष्टायस्य द्वितीयो वा १४३१५६ द्वारा खणीरम, क्षीरम तथा अफ्सरा, अप्सरा जैसे शब्दो की सिद्धि प्रदर्शित की है। हिन्दी सार शब्द हेमचन्द्र के पीरम से बहुत नजदीक है । हेम ने इस प्रकरण मे व्यजन और विसर्ग इन दोनो मन्धियो का सम्मिलित रूप मे विवेचन किया है । इसके कुछ सूत्र व्यजन मधि के है तया कुछ विसर्ग के और आगे बढ़ने पर विसर्ग सन्धि के सूत्रो के पश्चात् पुन व्यजन गधि के सूत्रो पर लोट आते है और अन्त मे पुन विसर्ग सन्धि की वात बतलाने लगते है। सामान्य रूप से देखने पर एक गडवड झाला दिखलाई पडेगा, पर वास्तविकता यह है कि हेमचन्द्र ने व्यजन मधि के समान ही विसर्ग सन्धि को भी व्यजन सन्धि ही माना है, अत दोनो एक जातीय स्वरूप है। दूसरी बात यह है कि प्राय देखा जाता है कि व्यजन सन्धि के प्रसग मे आवश्यकतानुसार ही विमर्ग मन्धि के कार्य का समावेश हो जाया करता है। हेम विसर्ग को 'र" और "स" का प्रतिनिधि ही मानते है । प्रथम अध्याय के चतुर्य पाद मे कतिपय स्वरान्त और न्यजनात शब्दो का भी नियमन किया गया है। ४ द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद मे अवशेप शब्द रूपो की चर्चा द्वितीय पाद मे कारक प्रकरण, तृतीय पाद मे पत्व-णत्व विधान और चतुर्थ पाद मे स्त्री प्रत्यय प्रकरण है। तृतीय अध्याय के प्रथम और द्वितीय पाद मे समास प्रकरण तथा तृतीय और चतुर्थ पाद मे आख्यान प्रकरण का ही नियमन किया गया है । पचम अध्याय के चारो पादो मे कृदन्त और ५०० तथा सप्तम अध्याय मे तद्धित प्रकरण सन्निविष्ट हैं। ५ यह पहले ही कहा जा चुका है कि हेम ने अपने पूर्ववर्ती समस्त व्याकरण शास्त्र का अध्ययन कर अपने शब्दानुशासन को सागपूर्ण और अद्वितीय बनाने का ५लाचनीय प्रयास किया है। अब यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि हेम मे अन्य व्याकरणो की अपेक्षा क्या वैशिष्ट्य है। ६ सर्वप्रथम पाणिनि और हेम की तुलना करने से ज्ञात होता है कि हम ना पाणिनि से बहुत कुछ लिया है, पर इस अवदान को मौलिक और नवीन रू५ मे ही उन्होने प्रस्तुत किया है। विचार करने से अवगत होता है कि सस्कृत के शब्द Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जन वैयाकरण एक मूल्याकन ७१ नुशासकी ने विभिन्न प्रकार से अपनी-अपनी सज्ञाओ के साकेतिक रूप दिये है। यत्र-तत्र एकता होने पर भी विभिन्नता प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। यही तो कारण है कि जितने विशिष्ट वयाकरण हुए, उनकी रचनाए अलग-अलग व्याकरण के रूप मे अभिहित हुई। विवेचन शैली की विभिन्नता के कारण एक ही संस्कृत भाषा मे व्याकरण के कई तन्त्र प्रसिद्ध हुए। ७ हेमचन्द्र की सर्वत्र व्यावहारिक प्रवृत्ति है। इन्होंने स्वर तथा व्यजन विधान सशाओ का विवेचन करने के अनन्तर विभक्ति, पद, नाम और सज्ञाओ का बहुत ही वैज्ञानिक निरूपण किया है । पाणिनीय व्याकरण मे इस प्रकार के विवेचन का ऐकान्तिक अभाव है । पाणिनि तो वाक्य की परिभाषा देना ही भूल गये है। परवर्ती वयाकरण कात्यायन ने सभालने की कोशिश अवश्य की है, पर इन्होने जो परिभाषा एकतिड्वाक्यम्' दी है, वह भी अधूरी ही रह गई है। बाद के पाणिनीय तन्तकारो ने इसे व्यवस्थित करना चाहा है, किन्तु वे भी एकतिवाक्यम् के दायरे से दूर नहीं हो सके है। फलत इनकी वाक्य परिभाषा सीधा स्वरूप ले कर उपस्थित नहीं हो सकी है। और उसकी अपूर्णता ज्यो-की-त्यो बनी रही। किन्तु हेम ने वाक्य की बहुत स्पष्ट परिभाषा दी है "सविशेषमाख्यात वाक्यम् १।१।२६" त्यायन्त पदमाख्यात साक्षापारम्पर्येण वा यान्याख्यातविशेषणानि त प्रयुज्यमानरप्रयुज्यमान सहित प्रयुज्यमानमप्रयुज्यमान वा आख्यात वाक्यसज्ञ भवति।" अर्थात् मूल सूत्र मे सविशेषण आख्यान को वाक्य सज्ञा वतलाई गई है। यहा आख्यान के विशेषण का अर्थ है अव्यय, कारक, संज्ञा, विशेषण और क्रियाविशेषण का साक्षात् या परम्परया रहना। इस सूत्र के वृत्यश से स्पष्ट है कि प्रयुज्यमान अथवा अप्रयुज्यमान विशेषणो के साथ प्रयुज्यमान अथवा अप्रयुज्यमान आख्यान ही की वाक्य मे प्रधानता रहती है। यहा विशेषण शब्द से केवल सज्ञा विशेषण को ही ग्रहण नही किया गया है, अपितु साधारणत प्रधान मर्य मे इसे ग्रहण किया है। 'वैयाकरणो का यह सिद्धान्त भी है कि वाक्य मे अख्यात अर्थ ही प्रधान होता है। हेम ने अपनी वाक्य परिभापा का सम्बन्ध पदायुविभक्त्येक वाक्ये रस्न सी बहत्व' २।१।२१ सूत्र से भी माना है। अत पाणिनीय तन्तकारी की अपेक्षा हेम की वाक्य-परिमापा अधिक तक सगत है। ८ हेम ने सात सूत्रो मे अव्यय सजा का निरूपण किया है। इस निरूपण मे सबसे बड़ी विशेषता यह है कि निपात सज्ञा को अव्यय सज्ञा मे ही विलीन कर लिया है। इन्होने चादि को निपात न मान कर सीधा अव्यय मान लिया है। यह सक्षिप्तीकरण का एक लघुतम प्रयास है। इत् प्रत्यय और संख्यावत् समाओ का विवेचन भी पूर्ण है। हेम ने अनुनासिक' का अर्थ व्युत्पत्तिगत मान लिया है, अत इसके लिए पृथक् सूत्र बनाने की आवश्यकता नही समझी है । सज्ञा प्रकरण की हम की सज्ञाए शब्दानुसारी है, किन्तु आये वाली कारकीय ससाए अर्थानुसारी हैं। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा पाणिनि के समान हम को सलाओ का तात्पर्य भी अधिक शब्दावली को अपने अनुशासन द्वारा ममेटना मालूम पड़ता है। अत हेम ने पाणिनि और जनेन्द्र की अपेक्षा कम सनाओ का प्रयोग करके भी कार्य चला लिया है। इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हेम ने पाणिनीय व्याकरण का अवलोकन कर उनकी मनाओ को ग्रहण नही किया है। हस्व, दीर्घ और प्लुत सज्ञाए पाणिनि ने भी लिखी है, किन्तु हम ने इन सनाओ मे स्पष्टता और सहज वोधगम्यता लाने के लिए एक, द्वि और तिमानिक को क्रमश हस्व, दीर्थ, दीर्थ और प्लुत कह दिया है । यद्यपि पाणिनि के 'उकालो भ्रस्वदीर्थप्लुत' १।२।२६ सून मे हेम का उक्त भाव अकित है, किन्तु हेम ने एक मालिक, द्विमालिक और निमालिक कह कर सर्वसाधारण के लिए स्पष्टीकरण कर दिया है। ___ हेम और पाणिनि की सजाओ मे एक मौलिक अन्तर है कि हेम प्रत्याहारो के झमेले मे नही पड़े हैं। इनकी सज्ञामो मे प्रत्याहारो का विलकुल अभाव है । वर्णमाला के वर्णो को ले कर ही हेम ने सज्ञा विधान किया है। पाणिनि ने प्रत्याहारो द्वारा सज्ञाओ का निरूपण किया है, जिससे प्रत्याहार क्रम को स्मरण किये विना संज्ञाओ का अर्थ वोव नही हो सकता है । अत हेम का समाविधान पाणिनि और जनन्द्र की अपेक्षा सरल एव स्प८८ है।। १० सन्धि-प्रकरण मे भी हेम ने लाधव को कायम रखने की पूरी चेष्टा की है। गुण मन्धि मे ऋ के स्थान पर अर् और लू के स्थान पर अल् किया है । पाणिनि को इमी कार्य की सिद्धि के लिए पृथक रणरपर' ११११५ सूत्र लिखना पडा है। हेम ने इस एक सूत्र की वचत कर ली है। पाणिनि ने 'एडिपररूपम्' १११।६४ सूत्र द्वारा पहले न हो और बाद में ए हो तो पर रूप करने का अनुशासन किया है। हम ने 'वोप्ठाता ममास' १।२।१७ द्वारा लुक का नियमन किया है । अत पाणिनि को अपमा हेम मे लायक है । हेम ने यह प्रक्रिया शाकटायन से अपनायी है। पाणिनि ने ७।११५७ के द्वारा जिस के स्थान मे 'शी' होने का विधान किया है, हेम ने ११४१६ द्वारा मीधे जम् के स्थान पर 'ई' कर दिया है। इसका कारण यह है कि पाणिनि के यहा यदि 'ई' का विधायन होता, तो जस के अन्तिम वर्ण स् को भी होने लगता, अतएव उन्होने शकार अनुवन्ध को लगाना आवश्यक समझा और समस्त जन् के म्यान पर भी का विधान किया। हेम के यहा इस तरह कुछ भी जमेना नही है। इनके यहा जम् के स्थान पर किया गया 'ई' का नियमन समस्त भर के स्थान पर होना है। अत यहा हेम की लाधव दृष्टि प्रशसनीय है। हेम ने पाणिनि पी तरह सर्वादि की मर्वनाम मना नहीं की है, किन्तु सर्वादि कह कर ही गाम चलाया है। जहा पाणिनि ने सर्वनाम को रोक कर सर्वनाम प्रयुक्त कार्य गं है, बहामने नदि ही नहीं मान कर काम चलाया है। यह भी हेम की लापय दृष्टि । नृपा है । पाणिनि ने साम् को माम् बनाने के लिए मुद आगम Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन ७३ किया है, पर हेम ने १।४।१५ सूत्र द्वारा आम को सीधे साम बनाने का अनुशासन किया है। ११ अजन्त स्त्रीलिंग मे लताये, लताया और लताया की सिद्धि के लिए पाणिनि ने बहुत द्रविड प्राणायाम किया। उन्होने ७।३।११३ सून से याद किया है, पुन वृद्धि की, तब लताय बनाया तथा दीर्घ करने पर लताया और लतायाम् का साधुत्व सिद्ध किया। पर हेम ने १।४।७ सूत्र द्वारा सीधे ये, याद और याम् प्रत्यय जोड कर उक्त रूपो का सहज साधुत्व दिखाया है । हेम की यह प्रक्रिया सरल और लाधव सूचक है। मुनि शब्द की औ विभक्ति को पाणिनि ने पूर्व सवर्ण दीर्घ किया है। हेम ने ११४।२१ सूत्र द्वारा इकार के बाद औ हो तो दीर्घ ईकार और उकार के वाद औ हो तो दीर्घ ॐकार का अनुशासन किया है। हेम की यह प्रक्रिया भी शब्द शास्त्र के विद्वानो के लिए अधिक रुचिकर और आनन्ददायक है। मुनी प्रयोग मे पाणिनि ने ७।३।११६ के द्वारा इ को ऊ और डी को औ किया है तथा वृद्धि कर देने पर मुनी की सिद्धि की है, किन्तु हेम ने १।४।२५ सूत्र के द्वारा डी को डौ किया है जिससे यहा ड् का अनुबन्ध होने से मुनि शब्द का इकार स्वयं ही हट गया है, अतएव मुनि शब्द के नकार में रहने वाले इकार के स्थान पर हेम को अकार करने की आवश्यकता प्रतीत नही हुई। १२ हेम ने कारक प्रकरण आरम्भ करते ही कारक की परिभाषा दी है, जो इनकी अपनी विशेषता है। पाणिनि तन्त मे किया विशेषण को कर्म बनाने का कोई भी नियम नहीं है, बाद के वैयाकरणो और नैयायिको ने क्रियाविशेषणाना कार्यत्व' का सिद्धान्त स्वीकार किया है। हेम ने २।२।४१ सूत्र मे उक्त सिद्धान्त को अपने तन्न मे संग्रहीत कर लिया है । पाणिनि ने २।३।१६ सूत्र द्वारा अल शब्द के योग मे चतुर्थी का विधान किया है, किन्तु हेम ने शक्त्यिर्थक सभी शब्दो के योग मे चतुर्थी का नियमन किया है, इससे अधिक स्पष्टता आ गई है। पाणिनि के उक्त नियम को व्यावहारिक बनाने के लिए अल शब्द को पर्याप्तार्यक मानना पडता है, अन्यथा 'अल महीपाल तब श्रमेण' इत्यादि वाक्य व्यवहित हो जाएगे। हेम ने शक्त्यर्थक और पर्याप्तार्थक शब्दो के साधुत्व को पृथक कर दिया है, जिससे किसी भी प्रकार का विरोध नही आता है।५ १३ उपर्युक्त सक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि हेम मे पाणिनि जनेन्द्र और शाकटायन की अपेक्षा अधिक लाधव और स्पष्टता है, पर यह भी हमे नही भूलना चाहिए कि हेम ने उक्त तीनो व्याकरणो से प्रचुर सामग्री ग्रहण की है। पूज्यपाद और पाणिनि की अपेक्षा हेम ने शाकटायन से बहुत कुछ ग्रहण किया है। जनेन्द्र के सिद्धरनेकान्तात्' का प्रभाव सिद्धि स्याहादात् १।१।२' पर स्पष्ट है। हेम ने तद्धित और कृदन्त प्रकरण में जनेन्द्र के सून ज्यो के त्यो अपनाये है। १४. शाकटायन व्याकरण की शैली का प्रभाव तो हेम पर सर्वाधिक है। यहा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और काया की परम्परा एक उदाहरण देकर उक्त कथन का स्पप्टीकरण किया जाता है। पाणिनि ने 'पारमध्येपप्ठ्यावा' २।१।१८, पूज्यपाद ने 'पारे मध्ये तथा वा' १।३।१५, और शाकटायन ने पार मध्येऽन्त पठ्या वा' २।१।६ सूत्र लिखा है। हेम ने उक्त सूत्र के स्थान पर पारेमध्येऽग्रेऽन्त पठ्या वा' सूत्र लिखा है। उपर्युक्त प्रसिद्ध वैयाकरणो के सूत्र की हेम सूत्र के साथ तुलना करने पर अवगत होता है कि हेम ने शाकटायन का सर्वाधिक अनुकरण किया है। १५ शाकटायन के 'ननृपूजार्यध्वजचित्रे' ३।३।३४ का अमोघवृत्ति सहित हेम ने 'न न पूजार्यध्वजचित्रे' ७।१।१०६ में शब्दश अनुकरण किया है। यद्यपि हेम ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से बहुत कुछ लिया है, तो भी अपनी मौलिकता प्रतिभा द्वारा शब्दानुशासन में अनेक नवीनताए लाने का उनका प्रयास प्रशस्य १६ हेमशब्दानुशासन का अष्टम अध्याय प्राकृत भाषा का अनुशासन करता है। इसमें चार पाद और कुल १११६ सूत्र है। प्रथम पाद मे स्वर और व्यजन विकार, द्वितीय मे सयुक्त, व्यजन विकार, तृतीय मे सर्वनाम, कारक, कृदन्त एव चतुर्य पाद में धात्वादेश, शौरसेनी, मागधी, पंशाची, चूलिका पैशाची तया अपभ्र श का अनुशासन वणित है। प्राकृत भाषा की जानकारी के लिए इससे वडा और मांगपूर्ण व्याकरण अन्य कोई नहीं है। पाणिनि ने जिस प्रकार संस्कृत और लौकिक संस्कृत भाषा का अनुशासन किया, उसी प्रकार हम ने लौकिक संस्कृत तथा उसकी निकटवर्ती प्राकृत का नियमन उपस्थित किया । भाषा के तत्वो की जानकारी हेम की अद्भुत है। हेम शब्दानुशासन इतना पूर्ण है कि इस व्याकरण के अकले अध्ययन मे ही लोक प्रचलित सभी पुरातन भारतीय भाषाओ की ययेष्ट जानकारी हो सकती है । यह गुजरात का व्याकरण कहलाता है। हेमशब्दानुशासन पर अनेक टीका अन्य उपलब्ध है। उनका परिचय जन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ५ मे दिया गया है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पट हो जाता है कि जैन व्याकरण शास्त्र की इस मुनित्रयो ने सस्कृत व्याकरण शास्त्र के संरक्षण, संवर्द्धन एवं प्रसार मे जो योगदान दिया, वह व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे अद्वितीय है। व्याकरणशास्त्र पर होने वाले भविष्य के अनुसंधान कार्यो मे इन उपलब्धियों का उपयोग किया जाना चाहिए। और अधिक विस्तार के भय से अन्य ग्रन्थो, टीकाओ आदि ५२ इस निबन्ध मे विचार नहीं किया जा सका। जिस प्रकार देवनन्दी, शाकटायन और हेमचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के कृतित्व को अपनी कृतियो मे समाहित करके उसे सरक्षित किया और उनकी उपलब्धियों को सम्बादत करके प्रसारित किया उसी प्रकार प्रस्तुत निबन्ध मे हमने Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यकिन ७५ स्व. डा. वासुदेवशरण अग्रवाल की 'जैनेन्द्र महावृत्ति की भूमिका, डा० आर० विवे की शाकटायन व्याकरण की अगरेजी प्रस्तावना, १०डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के निबन्ध तथा जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग (पाच) की सामग्री को भी समाहित किया है। ___आचार्य श्री कालूगणी की शताब्दी के पुण्य-प्रसग पर उन सभी विद्वानो के लिए हमारा यह नवेद्य निवेदित है। सदर्भ १. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ६ । २ जन विद्या का सास्कृतिक अवदान, पृ० ४२-४३ । ३ जन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ४ । ४ टा० आ० ने० उपाध्ये, जनरल एडिटोरियल, शाकटायन व्याकरण, पृ० १२। । ५ जन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५। ६ डा. वासुदेवशरण अग्रवाल-जनेन्द्र महावृत्ति की भूमिका पृ० ६-१२ । ७ युधिष्ठिर भीमासक-जनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके खिल पाठ, जैनेन्द्र महावृत्ति, पृ०३६। ८ वही, पृ० ४३.४४। ६ प्रबन्ध पारिजात, पृ० २१४, उद्धृत जै० सा० वृ० इ०, भाग ५। १० सिस्टम्स आफ संस्कृत ग्रामर, परा ५० । ११ शिलालेख संग्रह, भाग १, पृ० ११८ । १२ प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रस्तावना, पृ० ६७ । १३ सनातन जन ग्रन्थमाला ५, वाराणसी । १४ सिस्टम्स आफ सस्कृत ग्रामर, पृ० ७१ । १५ जैन विद्या का सास्कृतिक अवदान, पृ० ५३-६० । १६ द्रष्ट०५ --आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन । Page #104 --------------------------------------------------------------------------  Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि स्व० डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री सस्कृत व्याकरण की रचना बहुत प्राचीनकाल से होती आई है। सस्कृत के प्रकाण्ड वैयाकरण महर्षि पाणिनि के पूर्व भी कई प्रभावशाली वैयाकरण हो चुके थे, किन्तु पाणिनि के व्याकरण की पूर्णता एव प्रभावशालिता के कारण सूर्य के सामने नक्षत्रो की भाति उनकी प्रभा विलीन हो गई और व्याकरण जगत् मे पाणिनीय प्रकाश व्याप्त हो गया। इतना ही नहीं अपितु इस भास्वर प्रकाश के सामने बाद मे भी कोई प्रतिभा उद्भासित नहीं हो सकी। विक्रम की बारहवी शताब्दी मे एक हैमी प्रतिभा ही इसके अपवाद रूप मे जागरित हुई । यह प्रतिभा केवल प्रकाश ही लेकर नही आई अपितु उस प्रकाश मे रसमयी शीतलता का सहयोग भी था । हेम ने शब्दानुशासन के साथ शब्दप्रयोगात्मक द्वयाश्रय काव्य की भी रचना की। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने शब्दानुशासन को पाणिनीय शब्दानुशासन की अपेक्षा सरल बनाने की सफल चेष्टा की है, साथ ही पाणिनीय अनुशासन से अवशिष्ट शब्दो की सिद्ध भी बतलाई है। सक्षेप मे यह कह सकते हैं कि शब्दानुशासन-प्रक्रिया मे पाणिनीय वैयाकरणो के समस्त मस्तिष्को से जो काम पूरा हुआ है, उसे अकेले हेम ने कर दिखाया है। सच कहा जाए तो इस दृष्टि से सस्कृत भाषा का कोई भी वैयाकरण चाहे वह पाणिनि ही क्यो न हो, हेम की बराबरी नही कर सकता। हमे ऐसा लगता है कि हेम ने अपने समय मे उपलब्ध कातन्त्र, पाणिनीय, सरस्वती कण्ठाभरण, जैनेन्द्र, शाकटायन आदि समस्त व्याकरण ग्रथो का आलोडन कर सारग्रहण किया है और उसे अपनी अद्भुत प्रतिभा के द्वारा विस्तृत और चमत्कृत किया है। प्रस्तुत निवन्ध मे शब्दानुशासन की समस्त प्रक्रियाओ को ध्यान में रखते हुए हेम की पाणिनि के साथ तुलना की जाएगी और यह बतलाने का आयास रहेगा कि हेम मे पाणिनि की अपेक्षा कौन सी विशेषता और मौलिकता है तथा शब्दानुशासन की दृष्टि से हेम का विधान कैमा और कितना मौलिक एवं उपयोगी है। सर्वप्रथम पाणिनि और हेम के मज्ञाप्रकरण पर विचार किया जाएगा और Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा दोनो की तुलना द्वारा यह बतलाने की चेष्टा की जाएगी कि हेम की सजाए पाणिनि की अपेक्षा कितनी सटीक और उपयोगी है । ७८ संस्कृत भाषा के प्राय सभी ग्रंथो मे सर्वप्रथम पारिभाषिक मज्ञाओ का एक प्रकरण दे दिया जाता है। इससे लाभ यह होता है कि आगे सज्ञा शब्दो द्वारा सक्षेप मे जो काम चलाये जाते है वहा उनका विशेष अर्थ समझने मे बहुत कुछ सहूलियत हो जाया करती है । संस्कृत के व्याकरणग्रथ भी इसके अपवाद नही । वास्तव मे व्याकरणशास्त्र मे इस बात की और अधिक उपयोगिता है, यत विशाल शब्दराशि की व्युत्पत्ति की विवेचना इसके बिना संभव नही है । उसमे विशेष कर संस्कृत व्याकरण में जहां एक-एक शब्द के लिए सविधान की आवश्यकता पड़ती है । संस्कृत के शब्दानुशासको ने विभिन्न प्रकार से अपनी-अपनी सज्ञाओ के साकेतिक रूप दिए हैं । कही कही एकता होने पर भी विभिन्नता प्रचुर मात्रा मे विद्यमान है | यही तो कारण है कि जितने विशिष्ट वैयाकरण हुए उनकी रचनाए अलग-अलग व्याकरण के रूप मे अभिहित हुई । विवेचन शैली की विभिन्नता के कारण ही एक संस्कृत भाषा मे व्याकरण के कई तन्त्र प्रसिद्ध हुए । हेमचन्द्र की सर्वत्र व्यावहारिक प्रवृत्ति है, इन्होने सजाओ की परया बहुत कम रखकर काम चलाया है । इन्होने स्वरो का सजाओ मे वर्गीकरण करते हुए, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, नाति, समान और सन्ध्यक्षर ये छ सज्ञाएसकलित की हैं । ये है घुट्, वर्ग, घोषवान्, अघोप, अन्तस्थ, और शिट् । स्वर सज्ञाओ तथा व्यजन सज्ञाओ का विवेचन कर लेने के बाद एक स्वसज्ञा का विधान है। जिसका उपयोग स्वर एव व्यजन दोनो के लिए समान है । स्वर तथा व्यजन विधान सज्ञाओ के विवेचन के अनन्तर विभक्ति, पद, नाम, और वाक्य मनाओ का बहुत ही वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है । पाणिनीय व्याकरण मे इस प्रकार के विवेचन का ऐकान्तिक अभाव है । पाणिनि तो वाक्य की परिभाषा देना ही भूल गए हैं । परिवर्ती वैयाकरण कात्यायन ने सभालने का प्रयत्न अवश्य किया है, पर उन्होने वन की जो परिभाषा एकतिडवाक्यम्' दी है, वह भी अधूरी ही रह गई है । वाद के पाणिनीय तन्त्रकारो ने इसे व्यवस्थित करना चाहा है, किन्तु वे 'एकतिङ वाक्यम्' के दायरे से नही जा सके है । फलत उनकी वाक्य परिभाषा सीधा स्वरूप लेकर उपस्थित नही हो सकी है और उसकी अपूर्णता ज्यो की त्यो बनी रही है । किन्तु हेम ने वाक्य की बहुत स्पष्ट परिभाषा दी है 'सविशेपणमाख्यात वाक्यम्' १।१।२६ 'त्याद्यन्त पदमाख्यतातम्, साक्षात् पारस्पर्येण वा यात्याख्यातविशेषणानि त प्रयुज्यमानैरप्रयुज्यमानैर्वा सहित प्रयुज्यमानमप्रयुज्यमान वा आख्यात वाक्यमज्ञ भवति ।' अर्थात् मूल सूत्र मे सविशेषण आयात वाक्य की वाक्यसना दूर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ७६ वतलाई गई है। यहा आख्यात के विशेषण का अर्थ है अव्यय, कारक, कारक विशेषण और क्रिया विशेषणो का साक्षात् या पर+परया रहना। आगे वाले वृत्यश से स्पष्ट है कि प्रयुज्यमान अयवा अप्रयुज्यमान विशेपणो के साथ प्रयुज्यमान अथवा अप्रयुज्यमान आख्यात को वाक्य कहा गया है। यहा विशेषण शब्द द्वारा केवल सज्ञा विशेषण का ही ग्रहण नही है, अपितु साधारणत अप्रधान अर्थ लिया गया है और आख्यात को प्रधानता दी गई है। वैयाकरणो का यह सिद्वान्न भी है कि वाक्य मे आख्यात का अर्थ ही प्रधान होता है। तात्पर्य यह है कि हेम की वाक्य परिभाषा सर्वाङ्गपूर्ण है। इन्होने इस परिभाषा का सन्नध्वाक्य प्रदेश पदाधुग्विभक्त्येकवाक्ये वस्नसौ बहुत्वे' २१११२१ सूत्र से भी माना है। पाणिनि या अन्य पाणिनीय तन्त्रकार वाक्यपरिभाषा को हेम के समान सर्वागीण नही बना सके हैं । यो तो 'एकतिड वाक्यम्' से कामचलाऊ अर्थ निकल आता है और किसी प्रकार वाक्य की परिभापा बन जाती है, पर समीचीन और स्पष्ट रूप मे वाक्य की परिभाषा सामने नही आ पाती है। अत: आचार्य ने वाक्य परिभाषा को बहुत ही स्पष्ट रूप से उपस्थित किया है। हेम ने सात सूत्रो मे अव्ययसज्ञा का निरूपण किया है । इस निरूपण मे सबसे वडी विशेषता यह है कि निपातमज्ञा को अव्ययसजा मे ही विलीन कर लिया है। उन्होने चादि को निपात न मानकर सीधा अव्यय मान लिया है। यह एक सक्षिप्तीकरण का लघुतम प्रयास है। इत् प्रत्यय और सख्यावत् सज्ञाओ का विवेचन भी पूर्ण है। हेम ने अनुनासिक का अर्थ व्युत्पत्तिगत मान लिया है, अत इसके लिए पृयक सूत्र बनाने की आवश्यकता नही समझी है। सज्ञाप्रकरण की हेम की सज्ञाए श०दानुसारी हैं, किन्तु आगे वाली कारकीय सज्ञाए अर्थानुसारी है। पाणिनि के समान हेम की सज्ञाओ का तात्पर्य भी अधिक से अधिक शब्दावली को अपने अनुशासन द्वारा समेटना मालूम पडता है । अत हेम ने पाणिनि की अपेक्षा कम सज्ञाओ का प्रयोग करके भी कार्य चला लिया है । यह सत्य है कि हेम ने पणिनीय व्याकरण का अवलोकन कर भी उनकी सशाओ को ग्रहण नही किया है। ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत सज्ञ.ए पाणिनि ने भी लिखी हैं किन्तु हेम ने इन सज्ञाओ मे स्पष्टता और सहज बोधगम्यता लाने के लिए एक, द्वि और त्रिमात्रिक को क्रमश ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत कह दिया है। वस्तुत पाणिनि के 'कालोऽज्झस्वदीर्घप्लुत' १।२।२७ सूत्र का भाव ही अकित करके हेम ने एकमात्रिक, द्विमानिक और विमात्रिक कहकर सर्वसाधारण के लिए स्पष्टीकरण किया है। हेम के 'औदन्ता स्वस: १।१।४ को अनुवृत्ति भी उक्त सज्ञाओ मे विद्यमान पाणिनि का सवर्णसज्ञा विधायक 'तुल्यायस्यप्रयत्न सवर्णम् १।शा सूत्र है। हेम ने इमी सजा के लिए 'तुल्यस्थानास्यप्रयत्न स्व.' १११।१७ सूत्र लिखा है। इस Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सज्ञा के कथन मे हेम की कोई विशेषता नहीं है, बल्कि पाणिनि का अनुकरण ही प्रतीत होता है । हा, सवर्णसज्ञा के स्थान पर हेम ने स्वसजा नामकरण कर दिया है । दोनो ही गब्दानुगासको का एक सा ही भाव है। हम और पाणिनि की सजाओ मे एक मौलिक अन्तर यह है कि हेम प्रत्याहार के झमेले मे नही पडे है, उनकी सज्ञाओ ने प्रत्याहारो का बिल्कुल अभाव है। वर्णमाला के वर्णो को लेकर ही हेम ने सज्ञाविधान किया है। पाणिनि ने प्रत्याहारो द्वारा सज्ञाओ का निरूपण किया है जिससे प्रत्याहारक्रम का स्मरण किए विना मज्ञाओ का अर्थबोध नही हो सकता है । अत हेम के सनाविधान मे सरलता पर पूर्ण ध्यान रखा गया है। पाणिनि ने अनुरवार, विसर्ग, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय को व्यजनविकार कहा है। वास्तव मे अनुस्वार मकार या नकारजन्य है। विसर्ग सकार या कही रेफजन्य होता है। जिवामूलीय और उपध्मानीय दोनो क्रम. क, ख तथा प, फ के पूर्व स्थित विसर्ग के ही विकृत रूप हैं। पाणिनि ने उक्त अनुस्वार आदि को अपने प्रत्याहार सूत्रो मे - वर्णमाला में, स्वतन्त्र रूप से कोई स्थान नही दिया है। उत्तरकालीन पाणिनीय वैयाकरणो ने इसकी बडी जोरदार चर्चा की है कि इन वर्गों को स्वरो के अन्तर्गत माना जाए अथवा व्यजनो के । पाणिनीय शास्त्र के उद्भट विद्वान् कात्यायन ने इसका निर्णय किया कि इनकी गणना दोनो मे करना उपयुक्त होगा । पाणिनीय तत्ववेत्ता पतजलि ने भी इसका पूर्ण समर्थन किया है। हेम के अनुस्वार, विसर्ग, जिनामूलीय और उपध्मानीय को 'अ अ कप पा. शिट्' १।१।१६ मूत्र द्वारा शिट् सज्ञक माना है। इससे स्पष्ट है कि हेम ने अपने गन्दानुशासन मे विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय को व्यजनो मे स्थान दिया है। हेम की शिट् सज्ञा व्यजनवर्णो की है तथा व्यजन वर्णों की सज्ञाओ मे हेम ने उक्त विसर्गादि को स्थान दिया है। कायन व्याकरण मे भी अनुम्वार, विसर्ग, जिवामूलीय और उपध्मानीय को व्यंजनो के अन्तर्गत माना है । ऐसा लगता है कि हम इस स्थल पर पाणिनि की पेक्षा जाकटायन से ज्यादा प्रभावित हैं। हेम का अनुस्वार, विमर्ग आदि का व्यजनो मे स्थान देना अधिक तर्कसंगत जचता है। उपयुक्त विवेचन के आधार पर हम सक्षेप मे इतना ही कह सकते हैं कि हम ने अपनी आवश्यकता के अनुसार सज्ञाओ का विधान किया है। जहा पाणिनि के निरूपण मे क्लिष्टता है वहा हेम मे सरलता और व्यावहारिकता पाणिनि ने जिसे अच सन्वि कहा है हेम ने उसे स्वर सन्धि । हेम ने गुण सन्धि मे ऋो म्यान ५२ अर् और ल के म्यान पर अल् किया है। पाणिनि को इसी कार्य की मिद्धि के लिए पृथक् 'उरण रपर' ११११५१ मूत्र लिग्वना पड़ा है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८१ हेम ने इस एक सूत्र की वचत कर १।२।३ सूत्र मे ही उक्त कार्य को सिद्ध कर दिया है। हेम ने ऐ और और को सन्धि-स्वर कहा है, पाणिनि और कात्यायन ने नही । उत्तरकालीन व्याख्याकारो ने इनकी सन्ध्यक्षरो मे गणना की है। पाणिनि ने 'एडि पररूपम् ६।१।६४ सूत्र द्वारा पहले अहो और बाद मे ए, ओ हो तो पररूप करने का अनुशासन किया है। हेम ने 'वौष्ठौती समासे' ११२।१७ द्वारा लुक का विधान किया है। पाणिनि ने अयादि सन्धि के लिए 'एचोऽयवायाव' ६।११७८ सूत्र का कथन कर समस्त कार्यों की सिद्धि कर ली है, किन्तु हेम को इस अयादि सन्धि कार्य के लिए 'एदैतोऽयाय' १।२।२३ तथा 'ओदोतो वाव' १।२।२६ इन दो सूत्रो की रचना करनी पड़ी है। स्वर सन्धि मे हेम का 'हस्वोऽपदे वा' ११२।२२ बिल्कुल नवीन है । पाणिनि व्याकरण मे इसका जिक्र नहीं है। मालूम होता है कि हेम के समय मे 'नदि एपा' और 'नोपा' ये दोनो प्रयोग प्रचलित थे। इसी कारण इन्हे उक्त रूपो के लिए अनुशासन करना पडा। गव्यति, गव्यते, नाव्यति, नाव्यते, लव्यम् एव लाव्यम् रूपो के साधुत्व के लिए हम ने 'य्यक्ये' ११२।२५ सूत्र लिखा है। इन रूपो की सिद्धि के लिए पाणिनि के 'वान्तो यि प्रत्यये' ६।११७६ तया 'धातोस्तन्निमित्तस्यैव' ६११८० ये दो सूत्र आते हैं। अभिप्राय यह है कि हेम ने लव्यम् और लाव्यम् की सिद्धि भी १११।२५ से कर ली है, जब कि पाणिनि को इन रूपो के साधुत्व के लिए ६।११८० सूत्र पृथक लिखना पडा है। पाणिनि के पूर्वरूप और पररूप का कार्य हेम ने लुक द्वारा चला लिया है। पाणिनि ने जिसे प्रकृतिभाव कहा है, हेम ने उसे असन्धि कहा है। उ, इति, विति तथा ऊ इति इन रूपो की साधनिका के लिए पाणिनी ने 'उन' १११।१७ तथा 'अ' १११११८ ये दो सूत्र लिखे हैं हेम ने उक्त रूपो की सिद्धि 'ऊ पोम' २।२।३६ सूत्र द्वारा ही कर दी है। ___पाणिनि ने जिसे हल सन्धि कहा है, हेम ने उसे व्यजन सन्धि । हेम ने व्यंजन सन्धि मे कवर्गादि क्रम से वर्णों का ग्रहण किया है, जब कि पाणिनि ने प्रत्याहारक्रम ग्रहण किया है। पाणिनि ने विसर्ग को जिह्वामूलीय और उपध्मानीय बताया है, पर हेम ने र खपफयो क–पौ १६३१५ सूत्र मे रेफ को ही विसर्ग तथा जिह्वामूलीय और उप-मानीय कहा है। जो काम पाणिनि ने विसर्ग से चलाया है, वह काम हेम ने रेफ से चलाया है। हेम ने 'नोऽप्रशानोऽनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्याधुट् परे' १।३।८ सूत्र द्वारा न को सीधे स बना दिया है, जबकि पाणिनि ने न व स= र स क्रम रखा है, यही नही बल्कि अनुनासिक और अनुस्वार करने के लिए पाणिनि ने 'अत्राननासिक पूर्वस्य तु वा' ८।३।२ और 'अनुनासिकात्पराऽनुस्वार' ८।३।४ इन दो सूत्रो को लिखा है । हेम ने उपर्युक्त सूत्र मे ही इन दोनो सूत्रो को समेट लिया है। हेम ने ११३।१३ मे पतजलि के 'समो वा लोप मेके' सिद्धान्त को अर्थात् सम् के म् Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ स'कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा का वैकल्पिक लोप होता है, को निहित किया है। इससे अवगत होता है कि हेम ने पाणिनीय तन्त्र का अवगाहनकर उनकी समस्त विशेषताओ को अपने शब्दानुशासन मे स्थान दिया है तथा अपनी सूक्ष्म प्रतिभा द्वारा सरलीकरण और लघ्वीकरण की ओर भी ध्यान दिया। हेम ने 'सम्राट' १।३।१६ सूत्र मे सम्राट र लिखकर सम्राट की मिद्धि मान ली है जवकि पाणिनि ने ८।३१२५ सूत्र में इसकी प्रक्रिया भी प्रदर्शित की है। हेम ने ११३१२२ सूत्र मे स का लुक कर दिया है। पाणिनि ८।३।१७ के द्वारा स को य बनाकर ८।३.२२ सूत्र मे लो५ किया है । हेम का लाधव यहा नितान्त वैज्ञानिक है। हेम ने १।३।३५ मे अस्पष्ट और ईपरस्पष्टतर मे व और य का विधान किया है। पाणिनि ने ८।३।१८ मे इन्हे लघुप्रयत्न कहा है। हेम ने ११३१२८ मे छ को द्वित्व किया है, जबकि पाणिनि ने ६।११७५ द्वारा तुक का आगम किया है, ५०चात् त् को च किया है। तुलना करने से ज्ञात होता है कि पाणिनि की अपेक्षा हेम का यह अनुगासन सरल होने के साथ वैज्ञानिक भी है, क्योकि हेम छ को द्वित्व कर पूर्व छ को च कर देते हैं । पाणिनि तुक् आगम कर त् को च् बनाते हैं, इसमे प्रक्रिया गौरव अवश्य है। पाणिनि का मूत्र है 'आइमाडोरच' ६।१।७४ । इसके द्वारा तुक किया जाता है, किन्तु हेम ने १।३।२८ के अनुसार आ, मा को छोडकर २५ दीर्घ पदान्त शब्दो से विकल्प से छ का विधान किया है। किन्तु वृद्धि के अनुसार आ भा के पास छ का होना नित्य सिद्ध होता है, पर यह सत्य है कि उक्त सूत्र के अनुसार कथन मे स्पष्टता नही आने पाई है। हेम ने तच्शेते, तशेते मे 'त शिट' १३१३६ द्वारा श को द्वित्व किया है, जो हेम की मौलिकता का द्योतक है। हम ने विसर्ग सन्धि का निरूपण पृयक नही किया है, बल्कि उसे रेफ कहकर व्यजन सन्धि मे ही स्थान दिया है। हेम ने 'रो रे लुम् दीर्घश्चादिदुत' ८।३।४१ इस एक ही सूत्र मे 'रो रि' ८।३।१४ तथा 'लोपे पूर्वस्य दीर्घोऽ' ६।३।१११ पाणिनि के इन दोनो सूत्रो के कार्यविधान को एक साथ रख दिया है। हेम ने ट्याधस्य द्वितीयो वा' १।३।५६ सूत्र में एक नया निधान किया है। बताया गया है कि श, प, स के ५२ वर्ग के प्रयम अक्षर का द्वितीय अक्षर होता हैं, जेसे क्षीरम्, स्पीरम्, अप्सरा , अफ्सरा आदि । भाषाविज्ञान की दृष्टि से हेम का यह अनुशासन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ऐसा लगता है कि पाणिनि की अपेक्षा हेम के समय मे स्कूल भाषा की प्रवृत्तिया लोकभाषा के अधिक निकट आ रही थी। इसी कारण हेम का उक्त अनुशासन सभी सस्कृत वैयाकरणो की अपेक्षा नया है। यह सत्य है कि हेम को अपने समय की भाषा का यथार्थ ज्ञान था। उसकी समस्त प्रवृत्तियो की उन्हे जानकारी थी। इसी कारण उन्होने अपने अनु Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८३ शासन मे भाषा की समस्त नवीन प्रवृत्तियो को समेटने की चेष्टा की है। २०६रूपो की सिद्धि को हेम ने प्रथम अध्याय के चतुर्थपाद मे आरम्भ किया है। पाणिनि ने अजन्त की साघनिका आर+भ करने से पूर्व अर्थवदवातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्' १।२।४५ सूत्र द्वारा प्रातिपदिक सज्ञा पर प्रकाश डाला है। हेम ने 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थयनाम' १६११२७ सूत्र मे नाम की परिभाषा बतलाई है। पाणिनि ने जिसे प्रातिपदिक कहा है हेम ने उसको मात्र नाम का अन्तर माना है, अर्थ का नहीं । हेम ने इसी नाम सज्ञा का अधिकार मानकर विभक्तियो का विधान किया है। हेम शब्दानुशासन मे पाणिनि के द्वारा प्रयुक्त विभक्तिया ही प्राय. गृहीत हैं। केवल प्रथमा एकवचन में पाणिनि के सु के स्थान पर कातन्त्र के समान 'सि' विभक्ति का विधान किया गया है। हम ने ११४१२ सूत्र से 'अत' की अनुवृत्ति कर 'मस् ऐस्' ११४१२ सूत्र रचा है जो पाणिनि के 'अतो मिस ऐस्' ७।१।६ के समान प्रयास है। पाणिनि ने 'जसो शि' ७१।२० के द्वारा जस् के स्थान में 'शि' होने का विधान है, हेम ने 'जस इ' ११४६ द्वारा सीधे जस् के स्थान पर 'इ' कर दिया है। इसका कारण यह है कि पाणिनि के यहा यदि केवल इ का विधान हाता तो वह जस् के अन्तिम वर्ण स् को भी होने लगता, अतएव उन्होने शकार अनुवन्ध को लगाना आवश्यक समझा और समस्त जस् के स्थान पर शि का विधान किया। हेम के यहा इस तरह का कुछ भी झमेला नही है। इनके यहा जस् के स्थान पर किया गया 'इ' का विधान समस्त जस् के स्थान पर होता है। अत यहा हेम की लाधव दृष्टि प्रशसनीय है । हेम ने पाणिनि की तरह सर्वादि की सर्वनामसज्ञा नही की, किन्तु सर्वादि कहकर ही काम चलाया गया है। जहा पाणिनि ने सर्वनाम को रोककर सर्वनाम प्रयुक्त कार्य रोका है, वहा हेम ने सर्वादि को सर्वादिही नही मानकर काम चलाया है। यह भी हेम की लाधव दृष्टि का सूचक है। पाणिनि ने आम को साम् बनाने के लिए सुटु का आगम किया है, पर हम ने 'अवर्णस्याम साम्' ११४:१५ सूत्र द्वारा आम् को सीधे साम् बनाने का अनुशासन किया है। ____ अजन्त स्त्रीलिंग मे लताय लताया और लताया की सिद्धि के लिए पाणिनि ने बहुत द्रविड प्राणायाम किया है। उन्होने 'याडाप' ७।३।११३ सूत्र से याद किया, पुन वृद्धि की, तब लताय बनाया तथा दीर्घ करने पर लताया और लताया का साधुत्व सिद्ध किया। पर हम ने ११४११७ सूत्र द्वारा सीधे ये यास् और याम् प्रत्यय जोडकर उक्त रूपो का सहज साधुत्व दिखलाया है। हेम की यह प्रक्रिया सरल और लाघवसूचक है। मुनि शब्द की औ विभक्ति को पाणिनि ने पूर्वसवर्ण दीर्घ किया है। हेम ने इदुतोऽस्तरीदूत्' १।४।२१ के द्वारा इकार के बाद औ हो तो दीर्घ ईकार और Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ सस्कृन-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा उकार के वाद औ हो तो दीर्घ ॐकार का विधान किया है। हेम की यह प्रक्रिया भी शब्दशास्त्र के विद्वानो को अधिर्फ रुचिकर और आनन्ददायक है। ___'मुनो' प्रयोग मे पाणिनि ने 'अच्च घे' ७।३।११६ के द्वारा इ को अ और डि को औ किया है, तथा वृद्धि कर देने पर मुनी की सिद्धि की है किन्तु हेम ने ११४११५ के द्वारा डि को डौ किया है जिससे यहा ड का अनुबन्ध होने के कारण मुनि शब्द का इकार स्वय ही हट गया है, अतएव मुनि शब्द के इकार के स्थान पर हेम को अकार करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। ____देवानाम्' मे पाणिनि ने नुट् का आगम किया है, किन्तु हेम ने 'ह्रस्वापरच' ११४१३२ के द्वारा सीधे आम् को नाम कर दिया है । हेम ने पाणिनि के 'स्त्रय' ६।११५३ सूत्र को ज्यो का त्यो 'स्त्रयः ११४१३४ में ले लिया है। इसी तरह 'ह्रस्वस्य गुण' ७।३।१०८ को भी ११४।४१ मे ज्यो का त्यो ले लिया है। पाणिनि ने नपुमक लिंग मे मत रद् प्रयोग की सिद्धि के लिए 'अड्डतारादिम्य पचम्य.' ७।१।२५ सूत्र द्वारा सु और अम् विभक्ति को अद् का विधान किया है और अ का लोप किया है, पर हेम ने सि और अम् को सिर्फ 'द' बनाकर कतर की सिद्धि की है। इससे इन्होने अकार लो५ को बचाकर लाधव प्रदर्शित किया है। ____ पाणिनि ने कुर्वत् शब्द को पुल्लिग मे कुर्वन् बनाने के लिए 'उगिदचा सर्वनामस्थानेऽधातो.' '७।१।७० द्वारा 'तुम्' और 'मयोगान्तस्य लोप' ८१२।२३ द्वारा 'त् के लोप होने का नियमन किया है। हेम ने सीधे 'ऋदुदित' ११४१७० द्वारा 'त्' के स्थान पर 'न्' कर दिया है। ___उशनस् शब्द के सम्बोधन मे रूप सिद्ध करने के लिए कात्यायन ने 'अस्थ सम्वुदो वान नलोप२च वा वाच्य ' वात्तिक लिखा है। इस वात्तिक के सिद्धान्त को हेम ने 'वोगनसोनश्चामन्यसौ' ११४१८० मे रख दिया है। पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती अनेक वैयाकरणो का नाम लिया है, कही-कही ये नाम मात्र प्रशसा के लिए ही आते हैं, किन्तु अधिकतर वहा उनसे सिद्धान्त का प्रतिपादन ही किया जाता है। जहा सिद्धान्त का प्रतिपादन रहता है, वहा स्वयमेव विकल्पार्थ हो जाता है । हेम न अपनी अष्टाध्यायी मे पूर्ववर्ती आचार्यों का नाम नही लिया है। विकल्प विधान करने के लिए प्राय 'वा' शब्द का ही प्रयोग किया है। ___ युष्मद् और अस्मद् शब्दो के विविध रूपो की सिद्धि के लिए हेम ने अपने सूत्रो मे तत्द्र पो को ही सकलित कर दिया है, जव कि पाणिनि ने इन रूपो को प्रक्रिया द्वारा सिद्ध किया है। ३६ शब्द के पुल्लिंग और स्त्रीलिंग के एकवचन मे रूप बनाने के लिए पाणिनि के अलग नियम हैं। उन्होने 'इदमो म. ७१२।१०८ के द्वारा म विधान और 'इदोऽयपुसि' ७।२१११ के द्वारा इद को अय विधान किया है। स्त्रीलिंग मे 'इयम्' Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८५ बनाने के लिए पाणिनि ने 'य सौ' ७।२।११० से इद के 'द' को 'य' बनाया है, किन्तु हेम ने सीधे 'अयमियम पुस्त्रियो मौ २१११३८ के द्वारा अय और इय रूप सिद्ध किए है । यहा पाणिनि की अपेक्षा हेम की प्रक्रिया सीधी, सरल और हृदयग्राह्य है। हेम की प्रयोगसिद्धि की प्रक्रिया से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये शब्दानुशासन मे सरलता और वैज्ञानिकता को समान रूप से महत्व देते हैं। पाणिनि की प्रक्रिया वैज्ञानिक अवश्य है, पर कही-कही जटिल और वोझिल भी है। हेम अपनी सूक्ष्म प्रतिभा द्वारा प्राय सर्वत्र ही जटिलता के बोझ से मुक्त है। पाणिनि के त्यद् यद् आदि शब्दो के पुलिंग मे रूप बनाने के लिए 'त्यदादीनाम.' ७।२।१०२ मूत्र द्वारा अकार का विधान किया है. इस प्रक्रिया मे त्यद् आदि से लेकर द्वितक का ही ग्रहण होना चाहिए, इसके लिए भाष्यकार ने द्विपर्यन्तानामेवेष्टि' द्वारा नियमन किया है। हेम ने भाष्यकार के उक्त सिद्धान्त को भिलाते हुए 'अद्वेर २।११४१ के द्वारा उसी वात को स्पष्ट किया है । पाणिनि ने 'अचि श्नुधातुभुवायवोरियुकवडो' ६।४१७७ के द्वारा इ को इयड का विधान किया है । हेम 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयुत् स्वरे प्रत्यये' २१११५० के द्वारा इय्, उव् मान का विधान कर एक नया दृष्टिकोण उपस्थित किया है। पाणिनि ने विदुप शब्द की सिद्धि के लिए, 'वसो सम्प्रसारणम्' ६।४।१३१ सूत्र द्वारा म-प्रसारण किया है तथा धात्व विधान करने पर विदुपः का साधुत्व प्रदर्शित किया है । हेम ने 'क्वसूपमती च' २।१।१०५ सूत्र से विद्व स् के व-स् को उप कर दिया है । वृत्रन बनाने के लिए पाणिनि ने हन् मे हकार के आकार का लोप कर ह. के स्थान पर ध् बनाने के लिए 'हो हन्तेगिन्नेषु' ७।३।५४ सूत्र लिखा है। हेम ने हन् को 'हनो हो घ्न' २।१।११२ के द्वारा सीधे घ्न बना दिया है। हेम का प्रक्रियालाघव शब्दानुशासन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। हेम ने कारक प्रकरण आरम्भ करते ही कारक की परिभापा दी है, जो इनकी अपनी विशेषता है। पाणिनीय अनुशासन मे उनके बाद के आचार्यों ने 'क्रियान्वयित्वम् कारकत्वम्' अथवा 'क्रियाजनकत्व कारकत्वम्' कहकर कारक की परिभाषा बताई है, किन्तु पाणिनि ने स्वय कोई चर्चा नहीं की है। हेम और पाणिनि दोनो ने ही कर्ता की परिभाषा एक समान की है। पाणिनि ने द्वितीयान्त कारक जिसे कर्मकारक कहते हैं, बताने के लिए कभी तो कर्मसज्ञा की है और कभी कर्मप्रवचनीय तथा इन दोनो सज्ञाओ द्वारा द्वितीयान्त पदो की सिद्धि की है। 'कर्मणि द्वितीया' तथा 'कर्मप्रवचनीय युक्ते द्वितीया' सूत्रो द्वारा द्वितीया के विधान के साथ सीधे द्वितीयान्त का भी विधान किया है । हेम ने कर्मकारक बनाते समय सर्वप्रथम कर्म की सामान्य परिभाषा 'कतु व्याप्य कर्म' २।२।३ सूत्र में बताई है, इसके पश्चात् विशेषपद, मन्निधान मे जहा द्वितीयान्त बनाना है, वहा कर्मकार Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ यकृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा कत्व का ही विधान है अर्थात कर्म कह देने में द्वितीयान्न ममम लिया जाता है। हेम के अनुसार कर्म स्वत: मिद्र द्वितीयान है, उममे द्वितीया विभक्ति लाने के लिए सामान्यत किसी नियमन की आवश्यकता नहीं है। किन्तु एक बात यहा विशेष उल्लेखनीय है, वह यह है कि जहा पाणिनि ने यह स्वीकार किया है कि द्वितीयान्न बन जाने से ही कर्मकारक नही कहलाया जा सकता, बल्कि उममे कर्म की परिभाषा भी घटित होनी चाहिए, फिर भी द्वितीयान्तमात्र होने के कारण उन रूपो का भी कारक प्रकरण के कर्मभाग में सग्रह कर दिया गया है। बत पाणिनि की दृष्टि मे विभक्ति और कारक पयका वन्तु है। विभक्ति अयं की अपेक्षा रखती है, पर कारक शब्द मापेक्ष है, हेम ने भी किया विशेषणात्' २१२१४१ तथा कालावनोव्याप्ती' २१२१४२ मे इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । हेम का यह प्रकरण पाणिनि के समान ही है। हेम का 'मान्वघ्याड्वम ' २१२१२१ सूत्र पाणिनि के ११४१४८ के तुल्य तथा 'साधकतम कर गम्' २।२।२४ सूत्र पाणिनि के ११४१४२ के तुल्य हैं । पाणिनि ने 'धुवम पायेादानम्' ११४१२५ सूत्र मे 'धुव' शब्द का प्रयोग किया है, जिसकी व्याख्या परवर्ती आचार्यों ने अवधि अर्य द्वारा की है। हेम इस प्रकार के झमेले मे नही पड़े हैं। इन्होने मीधे 'अपायेऽवधिरपादानम्' २।२।२६ सूत्र लिखा है। पाणिनि के रचित मूय में मन्देह के लिए अवकाश था, जिसका निराकरण टीकाकारो द्वारा हुआ। परन्तु हेम ने सूत्र मे ही अवधि शब्द का पाठ रखकर अर्थ सन्देह की गुजाय नही रखी है। ___ 'सम्बोधने चे' २।३।४७ पाणिनि का सूत्र है पर हम ने 'आभन्ने च' २।२।३२ सूत्रसम्बोवन का विधान करने के लिए लिखा है। ___ पाणिनीय तत्र मे किया विशेषण को कर्म बनाने का कोई भी नियम नहीं है, वाद के वैयाकरणो और नैयायिको ने किया विशेषणाना कर्मत्वम्' का सिद्धान्त स्वीकार किया है । हेम ने 'क्रिया विशेषणात्' २।४१४१ सूत्र मे उक्त सिद्धान्त को अपने तन्त्र मे संगृहीत कर लिया है। पाणिनि ने 'नम स्वस्तिम्वाहास्ववाऽलवष ड्योगाच' २।३।१६ सूत्र द्वारा अल शब्द के योग मे चतुर्थी का विधान किया है, किन्तु हेम ने शक्त्यर्थ सभी शब्द के योग मे चतुर्थी का नियमन किया है इससे अधिक स्पष्टता आ गई है। पाणिनि के उक्त नियम को व्यावहारिक बनाने के लिए उपयुक्त सूत्र मे अलं शब्द को ५प्तिार्थक मानना पड़ता है। अन्यत्र 'अल महीपाल तव श्रमेण' इत्यादि वाक्य व्यवह त हो जायेंगे । हेम व्याकरण द्वारा सभी वाते स्पष्ट हो जाती हैं, मत किसी भी शक्त्यर्थक या पर्याप्त्यर्थक शब्द के सावुत्व मे कही भी विरोध नही आता है। पाणिनि ने अपादान कारक की व्यवस्था के लिए 'घुवमपायेऽपादानम्' ११४२५ मूत्र लिखा है, किन्तु इस मूत्र से उक्त कारक की व्यवस्था अधूरी रहती Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८७ है। अतएव वात्तिककार ने वात्तिक और पाणिनि ने अन्य सूत्र लिखकर इस व्यवस्था को पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। इस प्रकरण मे 'जुगुप्सा विराम-प्रमादार्थानामुपसख्यानम्' (का० वा०), 'भीत्रार्थाना भयहेतु' ११४१२५, 'पराजे रसोढ' ११४१२६, 'वारणार्थानामीप्सित' ११४१२७, 'अन्तर्थों येनादर्शनमिच्छति' ११४४८, 'जनिक प्रकृति ' ११४१३०, "भुव प्रभव १।४।३१, पचमी विभक्ते' २।३।४२ 'यतचा वकालनिर्माण तनपचमी' (का० वा०) स्त्र और वात्तिक लिखे गये है। पर आचार्य हेम ने 'अपायेऽवधि र पादानम्' २।२।१६ इस एक सूत्र मे ही उक्त समस्त नियमो को अन्तभुक्त कर लिया है। ___इस प्रकार हेमचन्द्र ने पाणिनि के उक्त कार्यों का एक ही सूत्र मे अन्तर्भाव कर लिया है । यद्यपि महाभाष्य मे 'धुवमपायेऽपादानम्' १।४।२५ मे हेम की उक्त समस्त बाते पाई जाती हैं, तो भी यह मानना पडेगा कि हेम ने महाभाष्य आदि ग्रन्थो का सम्यक अध्ययन कर मौलिक और सक्षिप्त शैली मे विषय को उपस्थित किया है। पाणिनीय तन्न मे जातिवाचक शब्दो के बहुवचन का विधान कारक के अन्तर्गत नही है। पाणिनि ने 'जात्याख्यायामेकस्मिन्वहुवचनमन्यतरस्याम्' ११२१५८ सूत्र द्वारा विकल्प से जातिवाचक शब्दो मे एक मे बहुत्व का विधान किया है और अनुशामक सूत्र को तत्पुरुष समास मे स्थान दिया है। पर हेम ने इसी तात्पर्यवाले 'जात्याख्यायाऽनवकोऽमल्यो वहुवत् '२।२।१२१ सूत्र को कारक के अन्तर्गत रखा है। ऐमा मालूम होता है कि हेम ने यह सोचा होगा कि एक वचनान्त या बहुवचनान्त प्रयोगो का नियमन भी कारक प्रकरण के अन्तर्गत आना चाहिए। इसी आधार पर दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के अन्तिम चार सूत्र लिखे गये हैं। हेम के कारक प्रकरण का यह अन्तिम भाग पाणिनि की अपेक्षा विशिष्ट है। उक्त चारो सूत्र एकार्थ होने पर भी बहुवचन विभक्तियो के विधान का समर्थन करते हैं । विभक्ति-विधायक किसी भी तरह के सूत्र को कारक से सम्बद्ध मानना ही पडेगा । अत इन चारो सूत्रो का यद्यपि विभक्ति नियमन के साथ साक्षात् सबध नही है, फिर भी परम्परागत सम्बन्ध तो है ही किन्तु विभक्त्यर्थ के साथ एक. वचन या बहुवचन के नियमन का सीधा सम्बन्ध नहीं है, इसी कारण हेम ने इन्हे कारक प्रकरण के मध्य मे स्थान नहीं दिया । कारक के साथ उक्त विधान का पारस्परिक सम्बन्ध है, यह बात बतलाने के लिए ही इन्होने कारक प्रकरण से दूर कर के उसी के अन्त मे ग्रथित किया है। पाणिनि की अष्टाध्यायी का स्त्रीप्रत्यय प्रकरण चौथे अध्याय के प्रथम पाद से आरम्भ होकर ७७वें सूत्र तक चलता है। आरम्भ मे सुप् प्रत्ययो का विधान है। इसके पश्चात् तृतीय सून स्त्रियाम्' ४११।३ के अधिकार मे उक्त सभी सूत्रो को मानकर स्त्री प्रत्यय-विधायक सूत्र निश्चित किए गए हैं। प्रत्ययो मे सर्वप्रथम Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा टाप् और डीप आए है, अनन्तर डाप, डीन्, डीप और ती प्रत्यय आये है । हेभव्याकरण में दूसरे अध्याय के सम्पूर्ण चौथे पाद में स्त्री प्रत्यय समाप्त हुआ है। सुप् प्रत्ययो का समावेश न करके स्त्रिया नतो स्वस्थादेडी' २१४११ सूत्र मे ही 'स्त्रियाम्' ५द आया है जिसकी आवश्यकता स्त्रीत्व के ज्ञान के लिए है, हेम ने यही से स्त्रीत्व का अधिकार मान लिया है। पाणिनि ने ऋकारान्त और नकारान्त शब्दो से डीप् करने के लिए 'ऋन्नेभ्यो डीप्' ४१११५ अलग सूत्र लिखा है तथा 'न षट् स्वलदिभ्य' ४।२।१० द्वारा यहा डीप, टाप् का प्रतिपेध किया है। पाणिनि ने 'उगितरच' ४।१६ के द्वारा भवती, प्राची जैसे दो तरह के गब्दो का साधन कर लिया है, परन्तु हेम ने इसके लिए 'आवातूदृदित' ११४,२ और 'अच' ३।४१३ ये दो सूत्र बनाए है । अत्यन्त लाघवेच्छु हेम का यहा गौरव स्पष्ट है। पाणिनि ने बहुप्रीहि समास सिद्ध शब्दो को स्त्रीलिंग बनाने के लिए प्राय बहुव्रीहि विषय के सामान्य सूतो की रचना की, लेकिन हेम यहा विशेष रूप से ही अनुशासन करते दिखाई पड़ते हैं । अशिशु से अशिपी बनाने के लिए 'अशिशो' २१४१८ सूत्र की अलग रचना है। पाणिनि ने सर्वप्रथम स्त्री प्रत्यय मे 'अजाद्यतष्टाप' ४५११४ सूत्र लिखा है, हेम ने इस प्रकरणिका मे ही परिवर्तन किया है। हेम व्याकरण मे पहले डीप प्रत्यय का प्रकरण है, उसके अन्त मे उमका निषेव करने वाले 'नोपान्त्यवत' २।४।१३ और 'मन' २।४।१४ ये दो सूत्र हैं। उक्त दोनो सूत्रो के कारण जिन शब्दो मे अन् और मन् प्रत्यय लगे होते हैं, उनके बाद स्त्रीलिंग बनाने के लिए डी प्रत्यय नहीं आता है । इस प्रकार डी प्रत्यय को स्त्रीलिंग बनाने के लिए ताभ्या वाप डित्' २।४।१५ सूत्र द्वारा आम् प्रत्यय का विधान किया है । तत्पश्चात् 'अजाये' २।४।१६ सून को रखा है। पाणिनि ने कुमारी आदि शब्दो को सिद्ध करने के लिए क्यसि प्रथमे' ४।१।२० सूत्र की रचना की, जिसका तात्पर्य है कि प्रयम अवस्था को बतलाने वाले शब्द से स्त्रीलिंग बनाने के लिए डीप् प्रत्यय होता है। हेम के यहा उक्त सूत्र के स्थान पर 'क्यस्यन्त्ये' २।४।२१ सूत्र है। इसमे अन्तिम अवस्था बुढापा से भिन्न अर्थ को बतलाने वाले सभी शब्दो के आगे डी प्रत्यय लगता है। जैसे कुमारी, किशोरी और वधूटी आदि । पाणिनि के उक्त सूत्रानुसार वधूटी और किशोरी शब्द नहीं बनने चाहिए, क्योकि ये शब्द प्रथम अवस्थावाची नही है, अत इनकी सिद्धि उक्त सूत्र से नही हो सकती है। मतएव किशोरी और वधूटी के स्थान पर पाणिनि के अनुसार किशोरा और 4बूटा ये रूप होने चाहिए। पर हेम के सूत्र से उक्त सभी उदाहरण सिद्ध हो जाते हैं । हेम ने 'वयस्यनन्त्ये' २।४।२१ मूत्र वहुत सोच समझ कर लिखा है। पाणिनि के दोपपरिमार्जन के लिए कात्यायन ने 'वयस्यचरमे इति वाच्यम्' पातिक लिखा है । सचमुच मे हेम का उक्त अनुशासन अध्ययन पूर्ण है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८६ पाणिनि ने समाहार मे द्विगु समास माना है और उसको 'द्विगो' ४११२१ के द्वारा त्रिलोकी को नित्य स्त्रीलिंग माना है। हेम ने उसके लिए 'द्विगोस्समाहारात्' २१४१२१ सूत्र लिखा है। यहा समाहारात् २०६ जोडने का कोई विशेष नात्पर्य नही मालूम होता। पाणिनि ने वहादिगण पठित शब्दो को स्त्रीलिंग बनाने के लिए वैकल्पिक डीप का विधान किया है। उक्त गण के अन्तर्गत पद्धति श०६ को भी मान लेने पर पद्धति , पद्धती इन दो रूपो की सिद्धि होती है जिसको 'पद्धते '२।४।३३ के द्वारा हेम ने भी स्वीकार किया है। स्त्री प्रत्यय प्रकरण मे आया हुआ 'यूनस्ति' ४१११८७ सूत्र दोनो मे एक है। ___अव्ययीभाव समास के प्रकरण मे पाणिनि की अपेक्षा हेमव्याकरण मे निम्न मौलिक विशेषताए है - (१) पाणिनि ने 'अव्यय विभक्तिसमीपसमृद्धिवृध्यर्थाभावात्ययासम्प्रतिशब्दप्रादुर्भावपश्चाद्यथानुपूर्वर्ययोगपद्यसादृश्यसम्पत्तिसाकल्यान्तवचनेषु' २१११६ सूत्र लिखा है। प्रयोग की प्रक्रिया के अनुसार एक सूत्र रखने मे सगति नही वैठती, क्योकि केवल अव्यय का विभक्ति आदि अर्थों के अतिरिक्त भी समास होना चाहिए, इसके लिए उत्तरकालीन पाणिनीय व्याख्या कारो ने अव्यय का योगविभाग करके काम चलाया है, पर हेम ने अपने व्याकरण को इस झमेले से बचा लिया है। इन्होने ३।२।२१ वा सूत्र 'अव्यम्' पृथक् लिखा है। इसके अतिरिक्त इन्होने एक विशेषता और भी बतलाई है, वह यह है कि इससे द्वारा निष्पन्न समस्त शब्दो का बहुव्रीहि संज्ञा दी है। (२) पाणिनि ने केशा-केशि, मुसला-मसलि, दण्डा-दण्डि इत्यादि शब्दो मे बहुव्रीहि समास माना है। उक्त प्रयोगो मे 'अनेकमन्यपदार्थे' २।२।२४ सूत्र द्वारा बहुव्रीहि समास हो जाने के बाद 'इच् कर्मव्यतिहारे' ४।४।१२७ तथा विदण्ड्या दिभ्यश्च'५।४।१२८ सूत्रो द्वारा इच् प्रत्यय का विधान किया है। किन्तु हेम ने इसके विपरीत उपर्युक्त प्रयोगो मे अव्ययीभाव समास माना है । इस प्रक्रिया के लिए हेम ने 'युद्ध व्ययीभाव ' ३।१।२६ सूत्र की रचना की है। हेम की यह मौलिक विशेषता है कि इन्होने उक्त स्थलो पर अव्ययीभाव का अनुशासन किया (३) पाणिनीय व्याकरण में 'अव्यय विभक्ति' इत्यादि सूत्र मे यथा शब्द आया है । वैयाकरणो ने उसके चार अर्थ किये हैं। (१) योग्यता, (२) वीप्सा, (३) पदार्थान तिवृत्ति और (४) सादृश्य । उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार ही पाणिनि का बाद मे आया हुआ सूत्र 'यथा सादृश्ये' २।११७ सगत होता है। उसका अर्थ है यथा २०६ का समास सादृश्य अर्थ से भिन्न अर्थ मे हो । इसका उदाहरण 'यथा हरिस्तथा हर' मे समास को रोकना Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० · सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा है । अर्थात् यथा के अर्थ मे कई अव्यय है, जिसमे स्वयं यथा का समास सादृश्यभिन्न अर्थ मे होता है। हेम ने 'विभक्तिसमीपसमृद्धिव्यद्ध यर्थाभाव-अव्ययम् ३।११३६ सूत्र से यथा को हटा दिया और 'योग्यता वीप्सार्थान तिवृत्तिसादृश्ये' ३।११४० अलग सूत्र लिखा, इसका तात्पर्य यह है कि इन चारो अर्थों मे किसी अव्यय का समास हो जाता है । यथा अनुरूपं, प्रत्यर्थ, यथाशक्ति, सशीलम् इत्यादि। इसके बाद 'वथा था' ३।११४१ सूत्र द्वारा यथा हरि यथा हर प्रयोगो की सिद्धि भी हेम ने कर ली है । उपयुक्त प्रकरण मे हेम ने अपनी अत्यन्त कुशलता का परिचय दिया है । हेम के अनुसार यथा शब्द दो प्रकार के होते हैं (अ) प्रथम प्रकार का यथा शब्द यत् २००८ से 'था' प्रत्यय लगाने पर लगता है। (ब) द्वितीय प्रकार का यथा २००८ स्वय सिद्ध है। यथा शब्द के इन दो रूपो के अनुसार समासस्थलीय और असमासस्थलीय ये दो भेद हैं। जिस यथा शब्द मे 'या' प्रत्यय नही है, ऐसे यथा शब्द का तो समास होता है जैसे यथारूप चेष्टते, यथासूत्रम् अधीते, किन्तु यहा यथा शब्द 'या' प्रत्ययवाला है, वही समास नही होता है। जैसे - यथा हरिस्तथा हर यहा समास नहीं है। इसी प्रकार यथा चैत्रस्तथा मैत्र में भी समास का अभाव है। _____ इस प्रकार हेम ने अव्ययीभाव समास मे पाणिनि की अपेक्षा मौलिकता और नवीनता दिलाई है । हेम ने यथा शब्द का व्याख्यान कर शब्दानुशासक की दृष्टि से अपनी सूक्ष्म प्रतिभा का परिचय दिया है। समास प्रकरण मेहेम की प्रक्रिया प्रद्धति मे लाघव और सरलता ये दोनो गुण विद्यमान हैं। हेम का तत्पुरुप प्रकरण 'गतिवकन्यस्तत्पुरुष' ३।१।४२ से आरम्भ होता है । इस सून्न के स्थान पर पाणिनि ने 'कुगतिप्रादयः' २।२।१८ सूत्र लिखा। उनके यहा गति और प्रादि अलग-अलग हैं, किन्तु हेम ने दोनो का समावेश गति मे किया है । हेम की एक सूक्ष्म सूझ यहा यह है कि 'कुमित पुरुषो यस्थ स कुपुरुष 'इस स्थल पर पहुव्रीहि समास न हो इसके लिए उन्होने अन्य पद लिखा है, जिसकी व्याख्या उन्होने स्वय कर दी है। 'गतिकवन्धस्तत्पुरुष' ३।१।४२ सूत्र की लधुवृत्ति मे हेम ने लिखा है 'अन्यो वहुव्रीह्यादिलक्षणहीन' पाणिनी ने भी उक्त स्थल मे अन्य पदार्थ की प्रधानता होने के कारण बहुब्रीहि समास होने मे सन्देह नही किया है। पाणिनि तन्त्र के प्रादया' गतार्थे प्रथमया' 'अत्यादय क्रान्ताद्यथ द्वितीयया अवादय कुष्टाद्यर्ये तृतीया' आदि पाच वातिको को हेम ने प्रात्यवपरिनिरादयो गतकान्तकुण्टग्लानक्रान्तार्था प्रथमान्तै ३।१।४७ सूत्र मे ही समेट लिया है। 'कुम्भकार' पाणिनि का उपपद समास है जिसका विग्रह 'कुम्भकरोति' और Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि : ६१ समास कुम्भ | ऊम् । कार मे होता है। उक्त समास स्थल मे पाणिनीय तन्त्र मे कुछ द्रविड प्राणायाम करना पड़ता है, किन्तु हेम ने 'डस्युक्त कृता' ३११४६ सूत्र द्वारा स्पष्ट अनुशासन कर दिया है । न समास विधायक न ३।११५१ सूत्र दोनो के यहा समान है। पाणिनि ने द्विगु समास के लिए 'सख्यापुर्वो द्विगु.' सूत्र लिखा है, जिसकी त्रुटिपूर्ति कात्यायन ने समाहारे चायमिष्यते' कातिक द्वारा की है। इसी प्रकरण मे पाणिनि ने तद्धितार्थ, उत्तरपद और समाहार मे तत्पुरुष समास करने के लिए 'तद्धितार्थोनरपद समाहारे च' २।११५१ सूत्र लिखा है। हेम ने इस बृहत् प्रक्रिया के लिए एक ही 'सख्या समाहारे च द्वि[श्चानान्ययम' ३।११६६ सूत्र रखा है। प्राय: यह देखा जाता है कि जहा पाणिनि ने सक्षिप्त शैली को अपनाया है वहा हेम की शैली प्रसार प्राप्त है किन्तु उपयुक्त स्थल से हेम का सक्षिप्तीकरण २लाध्य है। यहा एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहा पाणिनीय तन्त्र में विस्तृत प्रक्रिया होने पर भी विश्लेषण नहीं हो पाया है । वहा हेम की सक्षिप्त शैली से भी पाठक को विषय समझते मे अधिक सरलता होती है। पाणिनि ने चित्रा गावो यस्य स चित्तगु' मे बहुप्रीहि समास किया है किन्तु साथ ही चित्राओ मे कर्मधारय समास मानकर चित्रा का पूर्व निपात किया है। हेम ऐसे स्थलो से एकमात्र बहुव्रीहि समास मानते हैं, अत चित्रा पद की व्यवस्था के लिए 'तृतीयोक्त वा' ३।११५० सूत्र का पृथक निर्माण किया है। इससे ज्ञात होता है कि बहुव्रीहि मे विशेषण का पूर्व निपात करने के लिए पृथक नियम बनाना आवश्यक है क्योकि बहुव्रीहि समास स्थल मे विशेष्य-विशेषण पदो मे अलग-अलग ममास हेम के मत मे नही होता है। यदि होता तब तो पिता शब्द का पूर्व निपात हो ही जाता, किन्तु हेम ने सिद्धान्तानुसार बहुव्रीहि समास हो जाने के उपरान्त विशेष्य-विशेषण समास का निषेध हो जाता है पर इसमे यह सदेह नहीं रहता कि विशेषण का पूर्व निपात हो या विशेष्य का। इस सन्देह का निरसन करने के लिए हेम ने विशेषण का स्पष्ट रूप से पूर्व निपात करने का पृथक् विधान कर दिया है। पाणिनि के उदीची उत्तरवासियो के मत मे 'मातरपितरौ' को शुद्ध माना है अर्थात् उसके अनुसार 'मातरपितरौ ? और मातापितरौ' ये दोनो प्रयोग होने चाहिए। हेम ने भी मातरपितर वा ३।२।४७ मे वैसा ही विधान स्वीकार किया है, परन्तु इनके उदाहरणो मे मतभिन्नता भी प्रकट होती है । पाणिनि ने द्वन्द्व समास की विभक्ति मे ही 'मातरपितर' रूप ग्रहण किया है। किन्तु हेम ने सभी विभक्तियो के योग मे 'मातरपितर' रूप ग्रहण किया है, जैसे-मातपितरयो आदि। इससे ऐसा ज्ञात होता है कि हेम के समय मे मातर पितर, यह वैकल्पिक रूप सभी विभक्तियो के योग मे व्यक्त होने लगा था। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___६२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सस्कृत मे यह साधारण नियम है कि न ममाग मे दूसरा पद जहा व्यजनादि होता है वहा न के स्थान पर अ होता है । और उत्तरपद स्वरादि हो तो न के स्थान पर अन् होता है । पाणिनि ने इन प्रयोगो की सिद्धि के लिए क्लिष्ट प्रक्रिया दिखलायी है। उन्होंने व्यजनादि शब्द के सम्पर्क मे रहने वाले 'न' के न् का लोप किया है और उत्तरादि उत्तरपद के पूर्व स्ति न मे न् का लोप कर अवशिष्ट अ के वाद नु का आगाम कर अनु बनाया है। हेम ने इस प्रसग मे अत्यन्त सीधा एव स्पष्ट तरीका अपनाया है। इन्होने न त् ३।२।२५ सूत्र के द्वारा सामान्य रूप से न के स्थान मे अ का विधान किया और अन् स्वरे ३।२।१२६ सूत्र के द्वारा अपवाद स्वरूप स्वरादि उत्तरपद होने पर अनु का विधान किया है। तिऽन्त प्रकरण पर विचार करने से ज्ञात होता है कि हेम के पूर्वकालसवधी प्रक्रिया के लिए दो विधिया प्रचलित थी। प्रथम कातन्त्र प्रक्रिया की विधि, जिसमें वर्तमाना, सप्तमी, पचमी हस्तनी, अद्यतनी,परोक्षा, आशीश्वस्तनी, भविष्यन्ति एव क्रियातिपत्ति ये दश काल की अवस्थाए थी। दूसरी पाणिनि की प्रक्रिया जिसमे लट्, लिट्, लुट, लेट, लोट, लड्, लि, लुड एक लुड ये दश लकार कालद्योतक माने गये थे। हेम ने कातन्त्र पद्धति को अपनाया है। इसका कारण यह है कि पाणिनीय तन्त्र मे एक तो प्रक्रिया मे अर्थ-ज्ञान के पूर्व एक मूल कोटि का ज्ञान आवश्यक था अर्थात् लकारो के स्थान मे आदेशो को समझना पडता था और साथ ही अर्थो को भी, किन्तु कातन्त्र तन्त्र मे केवल अर्थों के अनुसार प्रत्ययो को समझना आवश्यक था। अतएव हेम ने सरलता की दृष्टि से कातन्त्र पद्धति को ग्रहण किया । हेम का यह सिद्धान्त समस्त शब्दानुशासन मे पाया जाता है कि ये प्रक्रिया को जटिल नही बनाते । जहा तक सभव होता है वहा तक प्रक्रिया को सरल और वोधगम्य बनाने का आयास करते हैं। पाणिनि के लड़ (ह्यस्तनी हेम) का विधान अद्यतन सूत्र के लिए किया है और परीक्षा के लिए लिट् का। इसमे यह कठिनाई हो सकती है कि अनद्यतन परीक्षा मे लिट् लकार का ही सर्वथा प्रयोग किया जाय । हेम ने उक्त कठिनाई का निराकरण 'अनद्यतने ह्यस्तनी' के व्याख्यान मे तथा 'अविक्षिते' ५।२।१४ सूत्र द्वारा कर दिया है अर्थात् इनके मत मे परोक्ष होते हुए भी जो विषय दर्शन अविवक्षित शक्य हो वहा तथा परोक्ष जहा परोक्ष की विवक्षा न हो, वहा ह्यस्तनी का ही प्रयोग होना चाहिए। हेम के तिडत प्रकरण मे पाणिनि की अपेक्षा निम्नाकित धातु नवीन मिलती है। धातुरूपो की प्रक्रिया पद्धति मे दोनो शब्दानुशासको का समान ही गासन उपलब्ध होता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ६३ ઇતું अर्थ रूप अधुड गत्याक्षेप અર્ન प्रतियन अटुड गति आशा सूकि इच्छा गति इजुड गति उगु उष પતિ दाह मान और क्रीडा शोषण उदि ओवै कर्ज व्यथन किकि हिंसा कुत्सिण अवक्षेप कूणिण सकोचन कुख्, खुज् स्तेय अड्धने, अधिष्ट, आनड्ये। आज यति, आजियत्, अर्जया चकार । अण्ठते, आण्ठिष्ट, आनण्ठे। आशास्ते, आशामिष्ट, आशशासे । अयति, अयेत्, अयतु आयत् ऐषीत्, इयाय, यात्, एता, एष्यति, ऐष्यत् । ऐजिष्ट, इ जा चक्र, इ जामसि, इ जाम्बभूव । उडगा चकार, उड्गामास, उडगा बभूव । ओषति, ओषेत्, ओपतु, औषत् । ऊर्दत, औदिष्ट, ऊर्दा चक्रे । ओक्यात्, ओवयास्ताम्, ओवयासु । कर्जति, ककर्ज, कत्,ि कणिता, कजिष्यति, अकजिष्यत् किष्यते, अचिकिष्कत, किष्कया चक । कुत्सयते, अचुकुत्सत, कुत्सया पक। कूणयते, अचू कुणत, कृणया चके। खोजति, कोजति, खोजेत्, कोजेत्, खोजतु, कोजतु, अखोजत्, अकोजत्, अखोजीत्, अकोजीत् खुखोज, फुकोज, खुज्यात् । कृणाति, कृणीयात्, कृणातु, अकृणात्, अकारीत्, चकार, कर्यात् । केवते, अके विष्ट, चिकेवे। वनथति, अवनाथीत्, अवनथीत्, चवनाथ । गडति, अगाडीत्, अगडीत् । गग्धति, गग्घेत्, गग्धतु, अगध्यत्, अगरवीत्, गगग्य। गुवति, गुवेत्, गुवतु, अगुवत्, अगुपीत्, जुगाव, गूयात् । जेपते, अजेपिष्ट, जिजिये। टुडति, अटुडीत्, टटोड, हिंसा केवड् वनथ सेवन हिंसा सेवन हसन गई गग्घ પુરીષોત્સ जेण्ड गति ८५ टुड निमज्जन Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुवृण नित्रु નિષ્પ ६४ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा डपि, डिपि सघात डम्पयते, डिम्पयते, अडडापत, अडी डिस्पत, डम्पया चक्र, डिम्पया चक्र। बु, डिवुण क्षेप उबयति, डिबियति, अडडात्रवत्, अडि डिम्वत्, डावया चकार । मर्दन तुम्बयति, अतुतुम्वत, तुम्बया चकार । त्सर छद्मगति सरति, अत्सारीत्, तत्सार । नख नसति, नखेतु, नखतु, अनखत्, अनखीत्, ननाख, नख्यात् । नर्व गति नर्वति, अनीत्, ननर्व। सोचन निन्वति, अनिन्वीत्, निनिन् । सेवन नेपति, अनेपीत्, निनेप। पिच्च कुट्टन पिच्चयति, अपिपिच्चत, पिच्चया चकार । नीश वरण लिनाति, अन्लेपीत्, विलाय । ब्लेकण दर्शन नष्कयति, अविप्लेकण व्लेष्कयामास । મુડતુ सघात भुडति, अभुडीत, बुभुडिम । मिथग् मेधा और हिमा मेथति, अमेथीत्, मिमेय, मेयते, अमेथिष्ट, मिथे। सगम मेयात, अमेथीत्, मिमेय, मेथते, अमेथिष्ट, मिथे। वर्फ गति वर्फति, अवीत, ववर्फ। रोटन वाघते, अवाधिष्ट, बवाधे। हेड वैष्टन हेडति, अहेडीत, जिहेड। पाणिनि और हेम के कृदन्त प्रकरण पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इन दोनो वैयाकरणो ने इस प्रकरण को पर्याप्त विस्तार दिया है। दोनो मनुशासको के प्रयोगो मे समता रहने पर यत्र तत्र विशेषताए भी दिखलाई पडती हैं। पाणिनि ने 'वास्तव्य ' प्रयोग की सिद्धि के लिए कोई अनुशासन ही नही किया है। कात्यायन ने इसकी पूर्ति अवश्य की है, किन्तु उनका अनुशासन प्रकार पूर्ण वैज्ञानिक नही रहा है । उन्होने उक्त प्रयोग की सिद्धि के लिए 'वसेस्तव्यत् कर्तरि णिच्च' वानिक लिखा है, जिसका अभिप्राय है कि वस् धातु के कर्ता अर्थ मे तव्यत् प्रत्यय होता है और वह स्वय णित् भी होता है। णित् करने का लाभ यह है कि णित् करने से आदिम स्वर की वृद्धि भी हो जाती है। हेम ने उक्त प्रयोग की सिद्धि निपातन के द्वारा की है, यद्यपि निपातन की विधि अगतिक गति ही है, किन्तु हेम के यहा यह स्थिति मौलिक बन गई है। पाणिनि ने रुच्य और अव्यय को निपातन के द्वाग ही मिद किया है । हेम ने उक्त प्रयोग हय मे वास्त मेथग वाघड Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि व्य को भी मिलाकर 'रुच्या व्यथ्यवास्तव्यम्' ४|१|६ द्वारा नेपातनिक अनुशासन किया | हेम के ऐसा करने से यह लाभ हुआ है कि वास्तव्य की सिद्धि से अष्टाध्यायी के अभाव की पूर्ति तो हुई ही है, साथ ही कात्यायन की गौरवग्रस्त प्रक्रिया से बचाव भी हो गया है । , " पाणिनि ने तव्य, तव्यत्, अनीयर्, यत् क्यप् और घ इन प्रत्ययो की कृत्य सज्ञा देने के लिए एक अधिकार सूत्र "कृत्या ३ १ ९५ की रचना की है, जिससे ण्वुल् के पहले आने वाले उपर्युक्त प्रत्यय कृत्य बोधक हो जाते है | हेम ने इससे भिन्न शैली अपनायी है । पहले उन सभी प्रत्ययो का उल्लेख कर देने के बाद 'ते कृत्या ' ५।१।४७ सूत्र के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि ऊपर के सभी प्रत्यय कृत्य कहे जाते हैं । ऐसा करने से इस सन्देह का अवसर ही नही आता कि आगे आने वाले कितने प्रत्यय कृत्य कहे जा सकते हैं । पाणिनि की अष्टाध्यायी का "कृत्या " सूत्र इस बात को स्पष्ट करने मे अक्षम है कि उसका अधिकार कहा तक रहे ? इसका स्पष्टीकरण उत्तरकालीन पाणिनीय वैयाकरणो के द्वारा ही हो सका है । नन्दिग्रहिपचादिभ्यो युणिन्यच ३ । १ । १३४ सूत्र से पाणिनि ने नन्द्यादि से अन् ग्रहादि से णिनि और पचादि से अच प्रत्यव का विधान किया है, किन्तु हेम ने इन तीनो प्रत्ययो के विधान के लिए पृथक्-पृथक् तीन मूत्र रखे हैं । अच्-विधाय अच् ५।१।४६ सूत्र, अन् - विधायक नन्द्यादिभ्योऽन: ५।१।५२ और णिन् -विधायक ग्रहादिभ्यो णिन् ५|१|१|५३ सूत्र है । हेम ने सरलता की दृष्टि रखकर तो विभाजन किया ही है, साथ ही अनुशासन शैली में मौलिकता भी स्थापित की है । यह स्पष्ट है कि अच् प्रत्यय - विधायक सूत्र का हेम ने सामान्यत उल्लेख किया है, इसमे एक बहुत बडा रहस्य है । नन्दादि एव ग्रहादि दोनो गणो मे पठित शब्द परिगणित हैं, इसी कारण पाणिनि ने भी पचादि को आकृतिगण माना है । आकृतिगण का मतलब यह होता है कि परिगणितो के सदृश शब्द भी उसी तरह सिद्ध समझे जायें | यहा पचादि को आकृतिगण मानने से पाणिनि का तात्पर्य यह है कि पचादिसबन्धी अच कार्य पचादि गण मे अनिर्दिष्ट धातुओ से भी सम्पन्न हो । ६५ हेम व्याकरण मे जैसा कि - -ऊपर कहा जा चुका है कि सामान्य रूप से सभी धातुओ से अच् प्रत्यय का विधान माना गया है। इससे फल यह निकलता है कि पचादि का नाम लेकर उसे आकृतिगण मानने की आवश्यकता नही होती । इस शैली मे एक यह अडचन अवश्य होती है कि क्या सभी धातुओ के आगे अच् प्रत्यय लगे ? मालूम होता है कि विशेष रूप से अभिहित अण और णन् प्रत्ययो मे प्रकृति स्थलो को छोडकर सर्वत्र अच् प्रत्यय का अभिधान करना हेम को स्वीकार है । सभव है इनके समय मे इस तरह के प्रयोग किये जाने लगे होगे । पाणिनि ने नृ धातु से अतन् प्रत्यय विधान कर जर शब्द सिद्ध किया है, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा जिसका स्त्रीलिंग रूप जरती होगा। हेम ने जृप धातु से अत् प्रत्यय करके उक्त रूपो की मिद्धि की है। _____ सस्कृत भाषा की यह मामान्य विधि है कि इसमे परस्मैपदी धातुओ के साथ अत् और आत्मनेपदी धातुओ के साथ आन प्रत्यय (होता हुआ अर्थ मे) लगते है। इसके विपरीत परस्मैपदी धानुओ से आन तथा आत्मनेपदी धातुओ से अत् प्रत्यय नही आ सकते । पाणिनीय व्याकरण में इस बात का पूर्ण निर्वाह किया गया है। पर हेम व्याकरण मे पाणिनि की अपेक्षा प्रक्रिया की विशेषता है। हेम ने अवस्था, शक्ति एव गील अर्थ मे गच्छमान आदि प्रयोग भी सिद्ध किये है । यह भापा शास्त्र की एक घटना ही कही जायगी। ऐमा मालूम होता है कि पाणिनि के बहुत दिनो के बाद उक्त अर्थों में गच्छमान आदि प्रयोगो का भी औचित्य मान लिया गया होगा। इसलिए हेम ने कुछ विशेष अर्थों मे परस्मैपदी धातुओ से भी आन प्रत्यय का अनुशासन किया ! कृदन्त प्रकरण मे और पाणिनि के अवशेष प्रत्ययो के अनुशासन मे प्राय समता है । हेम ने अपने इस प्रकरण को पर्याप्त पुष्ट बनाने का प्रयास किया है। कृदन्त के अनतर हेम ने तद्धित प्रत्ययो का अनुशासन किया है । यद्यपि पाणिनीय अनुशासन मे तद्धित प्रकरण कृदन्त के पहिले आ गया है। भट्टोजि दीक्षित का पाणिनीय तन्त्र की प्रक्रिया को व्यवस्थित रूप देने के लिए सिद्धान्त कौमुदी का पाणिनीय मस्करण तैयार किया है । इसमे इन्होने प्रतिपादित शब्दो के साधुत्व के अनन्त र उनके विकारी तद्धित रूपो की साधना प्रस्तुत की है। यह एक साधारण मी बात है कि सुबन्त शब्दो का विकास तद्धित-निप्पन्न शब्द है, और तिडन्त गदी का विकार कृदन्त शब्द है । अत. व्याकरण के क्रमानुसार वर्णमाला, सन्धि मुवन्त आन्द, उनके स्त्रीलिंग और पुल्लिग विधायक प्रत्यय, अर्थानुसार विभक्ति विधान, सुबन्तो के सामाजिक प्रयोग, सुवन्तो के विकारी तद्धित प्रत्ययो से निप्पन्न तद्धितान्त वाद, तिडन्त, तिजन्तो के विभिन्न अर्थो मे प्रयुक्त प्रक्रिया रूप एवं तिइन्त के विकारी कृत प्रत्ययो से मयोग से निष्पन्न कृदन्त शब्द पाते हैं। हेम व्याकरण मे निडतो के अनन्नर कृदन्त शव्द और उसके पश्चात् विभिन्न अर्थों मे, विभिन्न तद्धित प्रत्ययो से निप्पन्न सुवन्त विकारी तद्धितान्त शब्द आए हैं। हेम का क्रम इस प्रकार है. पहले वे सुवन्त, तिडन्त की समस्त पर्वा कर लत हैं, इसके ५.चान उनके विकारो का निरूपण करते हैं। इन विकारो मे प्रयम तिडन्तविकारी कृत प्रत्ययान्त कृदन्तो का प्ररूपण हैं, अनन्तर सुवन्तो के विकारी तद्वितान्त शब्दो का कथन है । अत हेम ने अपने क्रमानुसार तद्वित प्रत्ययो का मबसे अन्त में अनुशासन किया है। पाणिनि ने ण्य प्रत्यय के द्वारा दिति मे दैत्य, अदिति और आदित्य दोनो से Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ६७ आदित्य तथा पत्यन्त वहस्पति आदि शब्दो से वार्हस्पत्य आदि शब्दो की व्युत्पत्ति की है। हेम ने अनिदम्यवादे च दित्यदित्यादित्ययमपत्युत्तर पदा-ज्य ६।१११५ द्वारा नवप्रयुक्त याम्य शब्द की भी व्युत्पत्ति उक्त शब्दो के साथ प्रदर्शित कर पाणिनि की अवशिष्ट-पूर्ति की है। पाणिनि ने गोधा शब्द से गोधेर , गौधार और गौघेय इन तीन तद्धितान्त रूपो की सिद्धि की है हेम ने भी गौधार और गौघेर की सिद्धि गोधाय। दुष्टणार च ६।३।८४ के द्वारा की है। पाणिनीय तन्त्र मे गौवार और गौधेर की सामान्यत: व्युत्पत्ति भर कर दी है अर्थात् गोधा के अपत्य अर्थ मे उक्त शब्दो का साधुत्व प्रदर्शित किया गया है। पर हेम ने आर्थिक दृष्टि से एक विशेष प्रकार की नवीनता दिलायी है। इनके तन्त्र मे ६।१।८१ के द्वारा निष्पन्न गौधार और गोधेर शब्द मात्र गोधा के अपत्यवाची ही नहीं है, किन्तु दुष्ट अपत्यवाची हैं। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार मनोरपत्यम् अर्थ मे अण् प्रत्यय कर मानव शब्द की सिद्धि की गयी है। हेम ने भी मानव शब्द की सिद्धि के लिए वही प्रयत्न किया है, किन्तु हेम ने इस प्रसग मे एक नवीन शब्द की उद्भावना भी की है। माणव कुत्यासाम् ६।१।६५ सूत्र द्वारा कुत्सित अर्थ मे मानव मे णत्व विधान कर मनोरपत्य मूढ माणव' की सिद्धि भी की है। पाणिनीय तन्त्र मे सम्राज शब्द से तद्धितान्त भाववाची साम्राज्य शब्द तो बन सकता है, पर कर्तृवाचक नही। हेम ने साम्राज्य शब्द को कतृवाचक भी माना है, जिसका अर्थ है क्षत्रिय । इसकी साधनिका सम्राज क्षत्रिय ६।१।१०१ सूत्र द्वारा बतलायी गई है। अर्थात् पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'सम्राज भाव या सम्राज, कर्म' इन विग्रहो मे साम्राज्य शब्द निष्पन्न हो सकता है, जिसका अर्थ सम्राट् का स्वभाव या सम्राट् सम्बन्धी होगा। पर हेम के अनुसार सम्राज अपत्य पुपान्' इस विग्रह मे भी साम्राज्य शब्द बनता है, जिसका अर्थ होगा सम्राट की पुरुष सन्तान, इस प्रकार यहा यह देखा जाता है कि साम्राज्य शब्द के कर्तृवाचक स्वरूप की ओर या तो पाणिनि का ध्यान ही नही गया था अथवा उनके समय मे इसका प्रयोग ही नही होता था। जो भी हो, पाणिनि की उस कमी की पूर्ति हेम ने अपने इस तद्धित प्रकरण मे की है। पाणिनीय शब्दानुशासन मे वस धातु से ति प्रत्यय करने पर वसति रूप बनता है, हेम के यहा भी वसति रूप सिद्ध होता है । इस वसति शव्द से राष्ट्र अर्थ मे अक और अण करने पर वासातक तथा वासात ये दो रूप बनते हैं। इन दोनो रूपो की सिद्धि के लिए हेम ने वसातेर्वा ६।२।६७ सूत्र की रचना की है, जिसके लिए पाणिनीयतन्त्र मे कोई अनुशासन नही है। पाणिनि ने 'युति या यस्य' इस अर्थ मे बहुव्रीहि समास का विधान करने के बाद जाया के अन्तिम आकार को निड आदेश करने का नियमन किया है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पश्चात् उसके पूर्ववर्तीय य का लोपकर युवजानि प्रयोग बनाने का विधान है, यह एक बहुत क्लिष्ट प्रक्रिया मालूम पडनी है, इसीलिए हेम ने सरलतापूर्वक उक्त प्रयोग की सिद्धि के लिए जाया या जानि ७३।१६४ के द्वारा जाया शब्द को जानि के रूप मे आदिष्ट किया है । तक्षित का यह प्रयोग हेम के सरल अनुशासन का अच्छा परिचायक है। हेम और पाणिनि दोनो ही महान् है। दोनो ने संस्कृत भाषा का श्रेष्ठ व्याकरण लिखा है। हेम मे पाणिनि बहुत पहले हुए हैं। अत इन्हें पाणिनि के शब्दानुशासन के अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। पर हेम ने पाणिनि का पूर्ण अनुकरण नहीं किया है। जहा अनुकरण किया भी है, वहा उसमे मौलिकता का भी समावेश किया है। हेम ने एक नहीं अनेक स्थलो पर पाणिनि की अपेक्षा वैशिष्ट्य दिखलाया है । सरलता के लिए तो हेम प्रसिद्ध है ही। इन्होने आरम्भ मे विकार दिखलाया है। पश्चात् उत्सर्ग और अपवाद के सूत्र लिखे। वास्तव मे हेम ने गन्दानुशासन के क्षेत्र मे बडी समझदारी और वारीकी से काम लिया है। जहा पाणिनि ने वैदिक भापा का अनुशासन दिया है, वहा हेम ने प्राकृत भापा का । दोनो के व्याकरण अष्टाध्याय प्रमाण है । हेम के प्रयोगों के आधार पर से मस्कृत भाषा की प्रवृत्तियो का सुफर इतिहास तैयार किया जा सकता है। शब्द सम्पत्ति की दृष्टि से हेम का भाण्डार अधिक समृद्धशाली है । अपने समय तक की सस्कृत भाषा मे होने वाले नवीन प्रयोगो को भी इन्होने समेट लिया है। अत यह निष्पक्ष कहा जा सकता है कि जिस काम को समस्त पाणिनि तन्त्र के आचार्यों ने मिलकर किया, उसको अकेले हेम ने कर दिखलाया। भाषा की विकसनशील प्रकृति का बहुत ही सुन्दर और मौलिक विश्लेषण इनके आदानुशासन मे उपलब्ध होता है। हेम और पाणिनि के इस तुलनात्मक विवेचन से ऐसा निष्कर्ष निकालना नितान्त भ्रम होगा कि पाणिनि हेम की अपेक्षा हीन है या उनमे कोई वहुत बडी त्रुटि पायी जाती है । सत्य यह है कि पाणिनि ने अपने समय मे शब्दानुशासन का बहुत वडा कार्य किया है। सस्कृत भाषा को व्यवस्थित बनाने मे इनके दिए गए अमूल्य सहयोग को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। हेम ने जहा अपनी मौलिक निप्पत्तिया उपस्थित की है, वहा उन्होंने पाणिनि से बहुत कुछ ग्रहण भी किया है। अनेक नियमान स्थलो में उनके ऊपर पाणिनि का ऋण है।' १ विशेष के निद्रव्य--प्राचार्य हेमचन्द्र पोर उनका शब्दानुशामन-एक अध्ययन, अध्याय चार । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणों पर जैनाचार्यों की टीकाएँ : एक अध्ययन डॉ० जानकी प्रसाद द्विवेदी संस्कृत व्याकरण शास्त्र पर आचार्यो ने अपनी ज्ञानसाधना से जो अनेक व्याकरण ग्रन्थ लिखे उनमे आठ या नव को अपनी स्वतन्त्र विशेषताओ के कारण संस्कृत वाङ्मय मे प्रमुख स्थान प्राप्त है । इनमे भी कुछ व्याकरण लौकिक-वैदिक उमयविध हैं तथा कुछ केवल लौकिक शब्दो का ही अन्वाख्यान करते है । ८ या प्रमुख व्याकरणो के भी दो मूल स्रोत माने जाते है - माहेश्वर और ऐन्द्र । माहेश्वर व्याकरण को समुद्रवत् तथा ऐन्द्रव्याकरण को उसकी तुलना मे बहुत ही सक्षिप्त बताया गया है फिर भी पाणिनीय व्याकरण की अपेक्षा वह विस्तृत ही था । पाणिनि से पूर्व लगभग ८५ वैयाकरण आचार्यों के नाम प्राप्त होते है । दश आचार्यो के नाम पाणिनीय अष्टाध्यायी मे भी स्मृत है । पाणिनि से पूर्वभावी व्याकरणो मे केवल कुछ प्रातिशाख्य ही सम्प्रति प्राप्त होते है, जो वैदिक शाखाओ के व्याकरण है । लौकिक-वैदिक उभयविध पाणिनीय व्याकरण शब्दलाघव का प्रातिनिध्य करता है और उसे सर्ववेदपारिपद कहा गया है | पा पाणिनि-परवर्ती कातन्त्र व्याकरण मे अर्थ लाघव को मान्यता दी गई है और वह अनेकत पाणिनीय व्याकरण की अपेक्षा सरल, सुबोध तथा भावप्रकाशक है। इसे मैंने अपने ग्रन्थ "कातन्त्रसूत्राणा पाणिनीयसूत्र सह तुलनात्मकमध्ययनम्" मे प्रत्येक सूत्र की समीक्षा करते हुए लिखा है ( ग्रन्थ अप्रकाशित है ) । अपनी कुछ विशेषताओ के कारण ही वङ्गाल, उडीसा, कश्मीर, राजस्थान एव दक्षिणी प्रदेशो तथा तिब्बत, श्रीलङ्का, कम्बोडिया आदि अन्य देशो मे भी कातन्त्र का पर्याप्त अध्ययन-अध्यापन होता रहा । टीकासम्पत्ति के अतिरिक्त कातन्त्र को आधार मानकर कुछ अन्य व्याकरणों की भी रचना की गई । कातन्त्र के अतिरिक्त पाणिनीय परवर्ती लगभग ४० व्याकरणो के नाम Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा __उपलब्ध होते हैं, जिनमें कुछ तो अद्यावधि अप्रकाशित ही हैं, कुछ प्रकाशित व्याकरणो का भी प्रचार नहीं हो सका । सम्भवत साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से लिखे जाने वाले हरिनामामृत आदि व्याकरण इस श्रेणी मे आते हैं। शाकटायन, जनेन्द्र, हेमचन्द्र आदि प्रमुख जन व्याकरणो का भी सम्प्रति विरल ही प्रयोग होता है। गुस्पद हालदार ने अपने "व्याकरणदर्शनेर इतिहास" (पृ० ४५५-५८) मे व्याकरणो के प्रचार-प्रसार आदि को विशद रूप मे समझाया है। सकृत वाड्मय के दर्शन, साहित्य, आयुर्वेद आदि क्षेत्रो मे तो जैनाचार्यों का कार्ययोग प्रशसनीय रहा ही है, व्याकरण क्षेत्र मे भी उन्होने स्वतन्त्र व्याकरणग्रन्थ तया अनेक टीकाग्रन्थो की रचना कर जो महत्वपूर्ण कार्य किए है वे सस्कृतसाहित्य की निधि के रूप मे सदैव मान्य होते रहेगे। प्रकृत निवन्ध मे पाणिनीय, कातन्त, मारस्वत तथा सिद्धान्त चन्द्रिका नामक ४ जनेतर व्याकरणो ५२ ६५ जनाचार्यो द्वारा प्रणीत टीकापन्यो का परिचय दिया गया है जिनमे १६ टीकाओ पर विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। विशेष अध्ययन मे किन्ही अन्य टीकाओ के साथ सामान्यतया तुलना नहीं की गई है, केवल ग्रन्य की भापाशैली, विषयपरिचय, रचनाप्रयोजन तथा ग्रन्यगत कुछ मुख्य विशेषताओ को बताया गया है, जिनसे प्रन्यनाम, रचनाप्रयोजन, ग्रन्थकार के ज्ञान तथा श्रम आदि की सार्थकता सिद्ध होती है। उक्त चार व्याकरणो के अतिरिक्त वर्धमानकृत गणरत्नमहोदधि तया उसकी स्वोपजवृत्ति पर भी एक संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि यह ग्रन्थ किसी एक निश्चित व्याकरण पर आधारित नहीं है, फिर भी इतना अवश्य है कि वह किसीजन व्याकरण के गणपाठ की भी व्याख्या नही है तथा संस्कृत व्याकरण मे गणपा० का प्रौढ ग्रन्य है । ऐसे टीका ग्रन्थो का परिचय यहाँ नही दिया गया है जिनके अन्यकार असन्दिग्ध रूप मे जैनाचार्य नही थे। सम्भवत इनमें कुछ ऐसे भी अन्यकार होगे जो ग्रन्थ लिखते समय तक जैनधर्मानुयायी नही हो सके हो और इसीलिए उनके नामो के साथ किसी जनीय उपाधि का उल्लेख भी न किया गया हो । प्रस्तुत लघुनिबन्ध मे जिन टीकाओ का विशेष अध्ययन या सामान्य परिचय दिया गया है उन टीकाप्रन्यो तथा टीकाकारो की सूची अन्त मे मलग्न है। पाणिनीय प्रभृति सम्प्रदायो मे राघवमूरि, पेरुसूरि, रामकृष्ण दीक्षितसूरि आदि कुछ अन्य जनाचार्य वानिकभाप्य आदि ग्रन्यो के प्रणेता माने जाते है। उन ग्रन्थो के अनुपलच होने से या विस्तारमय से उनका परिचय यहाँ नही दिया गया है। फातन्त्र सम्प्रदाय मे दुर्गसिंह को एक प्रधान व्याख्याकार के रूप मे मान्यता प्राप्त है, उन वृत्तिटीका-परिमापावृत्ति आदि ग्रन्य भी प्राप्त है, परन्तु जैनाचार्यत्व मे प्रसन प्रमाण न होने से उनकी कृतियों का परिचय नहीं दिया गया है। कोतव के आधार प.. नरंप या विस्तार में बनाए गए वालशिक्षाव्याकरण तथा कातन्नोत्तर Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १०१ (अपरनाम विद्यानन्द) को स्वतन्त्र व्याकरण भी माना जाता है--फिर भी इनमे कातन्त्र के ही अधिकाश सूत्रोको व्याख्या देखी जाती है, अत उन ग्रन्थो का परिचय कातन्त्रव्याकरण की टीकाओ के क्रम मे दिया गया है । जिनरत्नप्रणीत 'सिद्धान्त रत्न' को सारस्वतव्याकरण का रूपान्तर कहा गया है, परन्तु अन्य के अनुपलब्ध होने से यहाँ उसकी चर्चा सारस्वत व्याकरण की टीकाओ के अन्तर्गत की गई है। पाणिनीय व्याकरण टीकाएँ . पाणिनीय व्याकरण पर चार जैनाचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं, जिनमें से किसी का तो नाममात्र ही शेष है, परन्तु ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता। (१) पूज्यपाद देवनन्दी ने शब्दावतारन्यास' नामक टीकाग्रन्थ का प्रणयन किया था। (२)विद्यासागर मुनि ने कोशिकावृत्ति की प्रक्रियामञ्जरी' नामक व्याख्या लिखी थी, जो मद्रास, त्रिवेन्द्रम के हस्तलेख भण्डारी मे ही सुरक्षित है। (३) आचार्य जिनदेवसूरि ने पाणिनीय धातुपा० पर क्रियाकलाप' नामक एक टीका लिखी थी। (४) आचार्य विश्वेश्वर सूरि ने 'व्याकरणसिद्धान्त-सुधानिधि' नामक अष्टाध्यायी क्रम से एक व्याख्या की रचना की है, जो तीन अध्यायो पर ही उपलब्ध होती है। सम्पूर्ण सूत्रो पर यह व्याख्या लिखी गई या नही असन्दिग्धरूप से नही कहा जा सकता। यहाँ सर्वप्रथम इसी ग्रन्थ का विशेष अध्ययन प्रस्तुत है। १ व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि आचार्य विश्वेश्वरसूरि ने अष्टाध्यायीसून क्रम से यह व्याख्या लिखी है। 'सुधानिधि' नाम के अनुसार यह विस्तृत व्याख्या है, जिसमे क्वचित् एक ही विषय के निरूपण मे अनेक मतसम्बन्धी वचन प्रस्तुत किए गए हैं । ग्रन्थ के अन्त मे ग्रन्थकार ने लक्ष्मीधर का परिचय अपने पिता के रूप मे दिया है । अपने पिता से ही इन्होने विद्याध्ययन भी किया था ऐसा प्रतीत होता है । यह ग्रन्थ प्रारम्भिक ३ अध्यायो पर ही प्राप्त है, जो १६२४ मे विद्याविलास प्रेस से दो भागो मे प्रकाशित हुआ था। इसके द्वितीय भाग मे भण्डारी श्रीमाधवशास्त्री ने ग्रन्थकार का परिचय देते हुए एक किंवदन्ती को भी उद्धृत किया है। जिसके अनुसार श्रीलक्ष्मीधर पाण्डेय अपनी वृद्धावस्था मे अपत्यहीनता के कारण अत्यन्त सन्तप्त थे। दम्पति की तपस्या से भगवान् शङ्कर प्रसन्न हुए और उन्होंने लक्ष्मीधर को कर दिया कि आप मेरे समान पुत्र प्राप्त करेंगे । सातवे महीने मे ही उत्पन्न होने वाले पालक का नाम विश्वेश्वर रखा गया, क्योकि विश्वेश्वर के प्रसाद से ही इनका जन्म हुआ था। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ___पांचवे वर्ष मे ही पिता लक्ष्मीधर ने विधिवत् उपनयन सस्कार किया और उन्हे वेद-शास्त्रादि की शिक्षा दी। विश्वेश्वर ने शीघ्र ही विविध विद्याओ मे पारमिता प्राप्त कर ली तथा ३२ वर्ष की आयु से पहले ही इन्होने तकौतूहल, अलकारकौस्तुभ, सिद्धान्तसुधानिधि, रुक्मिणीपरिणय, आर्यासप्तशती एव अलकारकुलप्रदीप जैसे महान् ग्रन्थो की रचना की थी। ३२ वर्ष की आयु मे इनका देहावसान हो गया था "अयं च वार्धक्य एवानपत्यत्वक्लेशप्रतप्रमानसाम्या दम्पतिम्या प्रतप्ततीप्रत५ - प्रसन्नेन यत किलाय सप्तम एव मासि गर्भवासान्निर्गत्य ३२ द्वातिशतोऽन्देश्य प्रागेव परममहनीयान् तर्ककानुहल अलकारकुलप्रभृतीन् नैकग्रन्यान् महनीयान् विरच्य कीतिमात्र शरीरता लेभे इति च किंवदन्ती वदन्ति" (भूमिका, पृ० ३)। ग्रन्थ के आरम्भ मे वाड्मय ब्रह्म को नमस्कार कर मुनिलय तथा पिता लक्ष्मीधर को लोकोत्तर बताते हुए उनकी स्तुति की है । यह भी बताया गया है कि यद्यपि फणिनायक (पतजलि) द्वारा किए गए भाष्य के सम्बन्ध मे अल्पबुद्धिवाला कोई भी व्यक्ति सिद्धान्त निर्धारित करने में समर्थ नही हो सकता, फिर भी भगवान् शङ्कर के प्रसाद से यह कार्य सम्भव हो जाता है विषये फणिनायकस्य मार्ग क्षमते नैन विधातुमल्पमेधा । विवुधाधिपतिप्रसादधारा पुनरारादुपकारमारभन्ते मगलाचरण, श्लोक ५ इस कथन के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि उन्होने महाभाष्य को आधार मानकर अपनी व्याख्या लिखी है । इस विषय को स्पष्टीकरण भूमिका मे श्रीमाधवशास्त्री ने भी किया है। फिर भी कही-कही भाष्यकार-वातिकार के मतो मे लाधव या गौरव दिखाया गया है। भूमिका मे उth आधार पर इसे प्रकरणग्रन्थ कहा गया है, जिससे ५ अध्यायो पर व्याख्या के न होने पर भी कोई न्यूनता नही कही जा सकती (द्र०- भूमिका, पृ० २)। तृतीय अध्याय के अन्त मे विद्वानो को लक्ष्य कर जो कहा गया है कि इसमे पणित वस्तु पर मनन करते हुए विद्वान् उसमे परिकार करें। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होने ३ अध्यायो पर ही यह व्याख्या लिखी थी। ग्रन्थकार ने अपने अन्य को सशय नष्ट करने वाला तया विद्वानो के कौतूहल को बढाने वाला कहा है। यद्यपि प्रतिज्ञानुसार महाभाष्य के अनेक मत उद्धृत किए गए है फिर भी अनेकन विषय से सबद्ध काशिका, पदमञ्जरी, शब्दकण्टकोद्धार आदि ४० से भी अधिक प्रन्यो तथा २० से भी अधिक ग्रन्थकारो के मतवचन उद्धृत किए गए है। भूमिका-लेखक ने विश्वेश्वर सूरि का जीवनकाल भट्टोजिदीक्षित के अनन्तर तथा उनके पौत्र हरिदीक्षित से पूर्व माना है, क्योकि सिद्धान्तसुधानिधि मे शब्द Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १०३ कौस्तुभ के मत अनेकल उद्धृत है परन्तु शब्दरत्न का उल्लेख नहीं किया गया है। अन्य प्रमाणो के अभाव मे यह विचार ही मान्य प्रतीत होता है । संस्कृत-विद्वानो को शब्दकौस्तुभ तथा व्याकरण सिद्धान्तसुधानिधि की अपूर्णता पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए तथा प्राप्त अशो का विधिवत् अन्वेषण कर नवीन तय्य प्रकाश मे लाने चाहिए। २ २२०दावतारन्यास जनेन्द्र व्याकरण के प्रणेता पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने व्याकरण तथा पाणिनीय व्याकरण पर 'न्यास' ग्रन्थ बनाया था। पाणिनीय व्याकरण पर रचित 'न्यास' का नाम 'शब्दावतारन्यास' था, परन्तु यह सम्प्रति अप्राप्य है। इसकी रचना मे प्रमाण प्राप्त हैं। नाथूराम प्रेमी, युधिष्ठिर मीमासक तथा अम्बालाल प्रे० शाह ने शिमोगा जिले की 'नगर' तहसील के एक शिलालेख को उद्धृत कर इसे स्पष्ट किया है। शिलालेख को सबद्ध मेश यह है-- વ્યાસ બંનેન્દ્રસરા સાવુધનુત પાણિનીયસ્થ મૂયો न्यास शब्दावतार भनुजततिहित वधशास्त्र च कृत्वा । यस्तत्वार्थस्य टीका व्यरचयदिह भात्यसौ पूज्यपाद स्वामी भूपालवन्ध स्परहितवच पूर्णदृरबोधवृत्त ।। इसमे पूज्यपादरचित वैद्यशास्त्र तथा तत्वार्थटीका का भी उल्लेख किया गया है। वृत्त विलास ग्रन्थ मे कनाडी भाषा के काव्यग्रन्थ 'धर्मपरीक्षा की प्रशस्ति को गई है। प्रशस्तिवचन मे पूज्यपाद द्वारा पाणिनीय व्याकरण पर किसी टीकाग्रन्थ के लिखे जाने का उल्लेख है (द्र ० --सस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४१३) । सम्भवत शिदावतारन्यास' को लक्ष्य कर ऐसा कहा गया हो। आचार्य वर्धमान ने स्वरचित 'गणरत्नमहोदधि' की स्वोपज्ञवृत्ति मे अनेकत दिग्वस्त्र या दिगम्बर नाम से इन्हे अभिहित किया है और गणरत्नमहोदधि के प्रारम्भ मे इनकी स्तुति भी की है दिवस्तभत हरिवामनभोजमुख्या । ३ प्रक्रियामजरी विद्यासागर मुनि ने काशिकावृत्ति पर यह टीका लिखी थी, इसके हस्तलेख मद्रास तथा त्रिवेन्द्र म मे सगृहीत है । प्रारम्भिक लेख के अनुसार ग्रन्थकार के गुरु का नाम श्वेतगिरि था । लेख इस प्रकार है "वन्दे मुनीन्द्रान् मुनिवृन्दवन्धान, श्रीमद्गुरुन् श्वेतगिरीन् वरिष्ठान् । न्यासकारवच पलनिकरोद्गीमम्बरे । गृलामि मधुप्रीतो विद्यासागरषट्पद ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा वृत्ताविति । सूत्रार्थप्रधानो ग्रन्थो भट्टनल्पूरप्रभृतिभिविरचितो वृत्ति' ( द्र०-सस्कृतव्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ०४६१-६२, युधिष्ठिर मीमासक ) । इस लेख में न्यासकार का स्मरण बडे आदर के साथ किया गया है । इससे प्रतीत होता है कि इन्होने अपने ग्रन्थ मे न्यासकार के मतो का विशेष अनुसरण किया होगा । यहाँ न्यासकार शब्द का प्रयोग पूज्यपाद देवनन्दी के लिए किया गया है जो जैनाचार्य हैं और जिन्होने पाणिनीय व्याकरण पर 'शब्दावतार' नामक त्यास बनाया था अथवा बोधिसत्त्वदेशीय आचार्य जिनेन्द्रबुद्धि के लिए, जिन्होंने अपर नाम काशिकाविवरणपञ्जिका न्यास की रचना की है और समग्र रूप मे जो प्राप्त भी है यह स्पष्ट नही हो पाता । ग्रन्थ के अन्त का लेख इस प्रकार है 11 “કૃતિ શ્રીમત્પરમસરિદ્રાખાષાવિદ્યાસાગરમુનીન્દ્રવિરવિતાયા ।” ४ क्रियाकलाप जैनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५ के लेखक प० अम्बालाल प्रेम शाह के अनुसार इसकी रचना जिनदेवसूरि ने की है। ये भावडारगच्छीय आचार्य थे तथा वि० ० स० १४१२ मे पार्श्वनाथचरित्र की रचना करने वाले आचार्य भावदेवसूरि के गुरु थे । इससे यह कहा जा सकता है कि आचार्य जिनदेव ने वि० स० १४१२ के पूर्व या उसके आसपास क्रियाकलाप लिखा होगा | ग्रन्थ सम्प्रति अप्राप्य है । I कातन्त्रव्याकरण पर टीकाएँ कातन्त्रव्याकरण के जैन तथा जैनेतर होने मे अलग-अलग उल्लेख प्राप्त होते हैं ।" यहाँ जैनेतर मानकर उस पर जैनाचार्यों द्वारा लिखी गई टीकाओ का परिचय दिया जा रहा है । कातन्त्र व्याकरण की अनेक विशेषताओं मे से कुछ इस प्रकार हैं अर्थलाघव तथा लोकव्यवहार का पर्याप्त समादर करना । इस व्याकरण मे यद्यपि वैदिक शब्दो का अन्वाख्यान नहीं किया गया है तथापि ऐसे अनेक शब्दो की साधनप्रक्रिया बताई गई है जो मतान्तर से वेदप्रयुक्त भी माने जाते है । 'मोदक देहि' को संकेत मानकर आचार्य शर्ववर्मा द्वारा लिखे गए इस व्याकरण मे सन्धि (मा | उदकम् ), नाम ( मोदकम् ) तथा आख्यात (देहि) नामक तीन अध्याय एव ११ पाद है (क्रमश ५+६+८= १९) । आचार्य शर्ववर्मा द्वारा इन तीन अध्यायो मे ८५५ सूत्र बनाए गए हैं । चतुर्थ अध्याय ( कृदन्त ) वररुचि द्वारा प्रणीत है जिसमे ५४६ मूत्र हैं । शब्दानुशासन भाग के अतिरिक्त खिलपाठ, शिक्षा, छन्द - प्रक्रिया, कातन्त्र परिशिष्ट आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध है । अनेकत्र पाणिनि की Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए . एक अध्ययन १०५ अपेक्षा आचार्य शर्ववर्मा ने सरलप्रक्रिया का निर्देश किया है, जिसे मैंने प्रत्येक सूत्र के साथ तुलना करते हुए अपने एक ग्रन्थ मे स्पष्ट किया है। ____ कातन्त्रवाड्मय, सूत्र रचना, धातुपा० आदि पर विशेष जानकारी के लिए मेरा गन्य "कातन्वव्याकरणविमर्श" (प्रकाशित १९७५ ई०) देखना चाहिए। पाणिनीय उत्तरवर्ती लगभग चालीस व्याकरणो मे प्रमुख तथा सर्वप्रथम इस कातन्त्रव्याकरण का अध्ययन-अध्यापन भारत के अनेक प्रदेशो तथा देशान्तरो मे भी होता रहा। देवनागरी, शारदा, पड्ग, उत्कल, तेलुगु लिपियो मे लिखे गए अनेक अन्य आजतक प्रकाशित नही हो सके है, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करते हैं। प्रक्रियाक्रम के आविष्कारक इस व्याकरण पर अनेक सम्प्रदाओ के आचार्यों ने व्यास्याएं प्रस्तुत की हैं, जिनमे २८ आचार्य जैनसम्प्रदाय के हैं। इन आचार्यो के अधिकांश टीकानन्य अप्रकाशित है। यहाँ १३ टीकाओ पर विशेष अध्ययन प्रस्तुत कर १५ टीकाओ का सक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। १ कलापदीपिका दुर्गसिंहकृत कातन्त्रवृत्ति पर गीतम पण्डित ने यह लघु टीका लिखी है, इसका हस्तलेख विक्रमविश्वविद्यालय, उज्जन के सिविया प्राच्यविद्या शोवप्रतिष्ठान मे सुरक्षित है। नामाध्याय के प्रथम पाद की समाप्ति पर उपन्यस्त वचन से ऐसा लगता है कि अन्यकार के पिता का नाम वीर सिंहदेव था "इति वीरसिंहदेवीपाध्यायगीतमपण्डितविरचिताया दुर्गसिंहोक्तकातन्तवृत्तिटीकाया कलापदीपिकाया नाम्नि प्रयम पाद समाप्त ।" टीकाकार ने यद्यपि अपने लेख की प्रामाणिकता के लिए व्याघ्रभूति, विद्यानन्द, वर्धमान आदि अनेक आचार्यों के अभिमत वचनो को उद्धृत किया है तम्यापि कुछ स्थलो के अध्ययन से पता चलता है कि विद्यानन्द के प्रति ग्रन्थकार की विशेष श्रद्धा थी। जैसे 'अतिजर' शब्द के सवव मे कुछ विद्वानो का मत है कि नपुंसकलिङ्ग मे अम् का पाक्षिक लोप होगा तथा लोपपक्ष मे विसन्ति रूप होगा अतिजर कुल तिष्ठति, अतिजर कुल ५५य । विद्यानन्द ने यह मत उपेक्षणीय माना है अत ग्रन्थकार ने विद्यानन्द का अभिमत उचित सिद्ध किया है तदिहाप्रमाणम् इत्युपेक्षिते इति विद्यानन्द । तस्माद् उभयन 'अतिजरम्' इत्येव भवति (पत्र ४२ अ)। २ कातन्त्रदीपक: मुनीश्वर सूरि के शिष्य मुनि हर्ष ने इसकी रचना की है। इसका आख्यातान्त , भाग हस्तलेखो मे सुरक्षित है। ग्रन्थ की रचना का प्रयोजन बुद्धिवर्धन बताया Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा गया है । प्रारम्भ मे जिनेश्वर तथा भारती का स्मरण कर ग्रन्थरचना की प्रतिज्ञा की गई है - સૂર્ભુવ સ્વસ્વયીશાન वरिवस्य स्मृत्वा च भारती सम्यग् वक्ष्ये अन्त मे गुरु का नाम तथा रचनाप्रयोजन श्री मुनीश्वरसूरीक शिष्येण जिनेश्वरम् । कातन्तदीपकम् ॥ नाम्ना इस प्रकार दिया गया है लिखितो मुदा । कातन्त्रदीपक ॥ मुनिहर्ष मुनीन्द्रेण વ્યને વિમુનિર્ભ્રાજ્યેાનવુંહિવૃદ્ધયે ॥ તિ । ३ कतिसमन्तप्रकाश कातन्त्रव्याकरण के रहस्यो को स्पष्ट करने के उद्देश्य से श्रीकर्मधर ने इस ग्रन्थ की रचना की है । चार खण्डो मे विभक्त ४६५ पत्रो का इसका हस्तलेख अलवर (रा० प्रा० वि० प्र० ) मे प्राप्त है । ग्रन्थ के प्रारम्भ मे ४० श्लोको मे हुसेनशाह के मन्त्री भवनाथ का वशपरिचय चित्रित किया गया है जिनके आदेश से यह ग्रन्थ लिखा गया है । ग्रन्थकार कर्मधर के साथ भवनाथ का क्या सबंध है ? स्पष्ट नही कहा जा सकता । अपने ग्रन्थ की उपयोगिता के सन्दर्भ मे ग्रन्थकार ने यह बताया है कि यद्यपि आचार्य त्रिलोचन की टीका से दुर्गसिंह की वृत्ति सुगम हो जाती है, तथापि उन्होने जो कुछ आवश्यक तथ्य छोड दिए है उनकी योजना मैंने यथास्यान कर दी है अत लवन कर्म के अनन्तर क्षेत्र मे शेष पडे हुए 'शिल' तथा 'उञ्छ' का भी जैसे महत्त्व होता है उस प्रकार मेरे भी प्रकृत ग्रन्थ का कुछ महत्त्व तो अवश्य ही है । ग्रन्थरचना के आदेष्टा भवनाय का परिचय इस प्रकार दिया गया है--कायस्थवशीय श्रीमेघ के आत्मज त्रिलोचन, उनके आत्मज गदाधर, उनके पुत्र भूधर तथा उनके पुत्र भवनाथ हुए | इन्हे माह हुसेन का मन्त्रीपद प्राप्त होने पर अपने प्रशसनीय कार्यकलापो के कारण देवनाथ की पदवी प्राप्त हुई थी । ग्रन्थकार ने आशीर्वादात्मक मड्गलाचरण करते हुए लक्ष्मी का स्मरण किया है । इससे ऐसा लगता है कि ग्रन्थकार ने ग्रन्थवणित विषयो मे तो शेषपूर्ति की ही है, मडुगलाचरण मे भी शेपपूर्ति की है। मङ्गलाचरण मे शिव, सरस्वती, गणेश की तुलना मे लक्ष्मी का स्मरण अत्यन्त ही विरल देखा जाता है | दुर्गसिंह तथा त्रिलोचनदास ने तो लक्ष्मी का स्मरण नही किया है। उक्त विवरण का ग्रन्थाश इस प्रकार है શેયારોપળામ ળતિારે જાન્તાનૃત્તિ વિન્વિતામ્, પશ્યન્તી રદ્દસિ સ્વિતાપિ પરિભ્રાન્ત્યા ચિયાનુર્મુ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १०७ या प्रौढाऽपि नव समागमरस भाव समातन्वती, श्लिष्टा गाढमुर स्थलेन हरिणा लक्ष्मी श्रिये साऽस्तु व ॥१॥ त्रिलोचनख्यातमभिन्नदुर्ग सार्ध नमस्कृत्य विविक्तविद्यम् । कातन्त्रमन्तार्यविनिश्चयार्थमय प्रयत्न क्रियते शिशूनाम् ।। २ ।। दुर्गवमुन्नीय सपनिकाया वृत्तेविवेके विजय प्रवृत्त । विवेचयस्तवचनानि वामी स्वय पुनर्दुर्गतमो बभूव ।। ३ ।। ततस्तता युक्तिभिरुक्तिमुक्ता विविक्तपङ्क्ति क्वचिदप्यमुख्याम् । सयोजयिष्ये निजगीर्गुणेन सता हृदि श्रीमति सश्रयाय ।। ४ ।। लिलोचनाचार्यवच प्रसादाद् दुर्गस्य वृत्ति सुगमा यदीयम् । क्वचित् क्वचिन्मे वचसोऽवकाश शिलो-वृत्या घटते तथापि ।।५।। इति करणकुलालड्करणश्रीदेवनाथसमादिष्टपण्डितकर्मधरविरचिते कातन्त्रमन्तप्रकाशे प्रथमः पाद परिसमाप्त ।" आदि। ग्रन्थ के आशिक अध्ययन से ही ग्रन्यनाम की सार्थकता के लिए अनेक प्रमाण प्राप्त हो जाते है। ४. कातन्त्र रूपमाला वादिपर्वतवत्री मुनीश्वर भावसेन ने प्रक्रियाक्रम से कातन्तसूत्रो की दो सदर्भो मे व्याख्या की हे । प्रथम सन्दर्भ के सजासन्धि, स्वरसन्धि, व्यजनसन्धि, विसर्जनीयसन्धि, स्वरान्त पुल्लिङ्ग, स्वरान्त स्त्रीलिड्ग, स्वरान्त नपुसकलिग, व्यजनान्त पुलिङ्ग, व्यजनान्त स्त्रीलिङ्ग, व्यजनान्त नपुसकलिङ्ग, व्यजनान्त अलिड्ग, कारक, समास एव तद्धितप्रकरणो मे ५७४ सूत्र व्याख्यात है। इनमे पड्गीय तया कश्मीरी सस्करणो के कातन्त्रव्याकरण की अपेक्षा कुछ सूत्र बिलकुल भिन्न है तथा कुछ की योजना भिन्न स्थानो मे की गई है। जैसे "वा विरामे" (२।३।६२) सून अनेक हस्तलेखो तथा मुद्रित कातन्त्र ग्रन्थो मे "अघोषे प्रथम" (२।३।६१) के पश्चात् पठित है। तदनुसार इसका अर्थ है धुट्सशक प्रथम वर्ण के स्थान मे तृतीय वर्णादेश विकल्प से होता है । अत 'पाक, वाग्' दो रूप निष्पन्न होते हैं । परन्तु कातन्त्र रूपमाला मे व्यजनसन्धि के अन्तर्गत मोऽनुस्वार व्यञ्जने" (सू० ६१) सूत्र के पश्चात् पढकर पदान्त मकार के स्थान मे वैकल्पिक अनुस्वारादेश किया जाता है, जिससे पदान्त मे विद्यमान होने पर भी 'देवानाम्, देवाना' ये दो रूप साधु माने जाएंगे। ऐसी प्रक्रिया अन्यत्र नही देखी जाती। फिर भी इतना निश्चित है कि कातन्त्र व्याकरण का सम्यग् बोध इस ग्रन्थ द्वारा पयप्ति सरल ढग से किया जा सकता है। द्वितीय सन्दर्भ के तिइन्त तथा कृदन्त प्रकरणो मे ८०६ सूत्र व्याख्यात हैं। इस प्रकार ५७४ --८०६=१३८३ सूत्रो की व्याख्या इसमे की गई है। वररुचि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा कात्यायन द्वारा रचित कृत्प्रकरण के ५४६ मूत्रो मे यहा केवल ८०६-४६० = ३१९ ही सून व्याख्यात हुए हैं। शेप को कठिनता या विस्तार के भय से अनावश्यक जैसा समझकर छोड दिया गया है। ___ ग्रन्थ के प्रारम्भ मे ग्रन्थकार ने इसकी रचना का प्रयोजन मन्दधी बालको को कातन्त्रव्याकरण का सरलतया अववोधन कहा है, जिसकी चर्चा उन्होने ग्रन्थ के अन्त मे भी की है वीर प्रणम्य सर्वज्ञ विनाशेपदोषकम् । कातन्त्र रूपमालेय वालवोधाय कथ्यते ॥११ (ग्रन्थारम्भ)। भावसेनानिविद्येन वादिपर्वतत्रिणा। कृताया रूपमालाया कृदन्त पर्यपूर्यत । मन्दबुद्धिप्रबोधार्थ भावसेनमुनीश्वर । कातन्त्र रूपमालाख्या वृत्ति ०५२ रचत् सुधी ।। (ग्रन्थान्त) तद्धित प्रकरण की समाप्ति पर भावसेन ने इस व्याकरण के 'कालापक' तथा 'कोमा' नामो की विलक्षण व्याख्या की है। कहा गया है कि जो स्त्रियो मे ६४ तथा पुरुषो मे ७४ कलाएं होती है उन सभी के प्राप्तिकत्ता तीर्थकर ऋषभदेव है, उनसे प्रोक्त होने के कारण इसे 'कालापक' एव कुमारी के प्रति कहे जाने से इसे 'कौमार' नाम से अभिहित किया जाता है। उन्होने इस मान्यता को अयुक्त बताया है कि जो यह कहा जाता है कि स्वामिकात्तिकेय के वाहन मयूर के पुच्छ से सूतो का निर्गमन होने के कारण इस व्याकरण का नाम कालापक है। भावसेन ने इस मान्यता को इसलिए अयुक्त बताया है कि मयूर के निमालिक प्लुत का ही उच्चारण प्रसिद्ध है और कातन्तव्याकरण के वर्णसमाम्नाय मे प्लुतवर्णों का पाठ नहीं किया गया है चतु पष्टि कला स्त्रीणा ताश्चतु सप्ततिनृणाम् । सापक प्रा५कस्तासा श्रीमानृषभतीर्थकृत् ।। तेन ब्राह्म य कुमार्य च कथित पाहेतवे । कालापक तत् कौमार नाम्ना शब्दानुशासनम् ॥ यद् वदन्त्यधिय केचित् शिखिन स्कन्दवाहिन ॥ पुच्छान्तिर्गतसून स्यात् कालापकमत परम् ।। तन्न युक्त यत केकी वक्ति प्लुतस्वरानुगम् । निमात्र च शिखी ब्रूयादिति प्रामाणिकोक्तित ॥ न पात्र मातृकाम्नाये स्वरेषु प्लुतसग्रह । તસ્માત્ શ્રીપમાવિષ્ટfમયેવ પ્રતિપદ્યતામ્ | (तद्धितप्रकरण के अन्त मे) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १०६ ग्रन्थ के अन्त मे उन्होने अपने वचनो को उन विद्वानो के गर्वकुहर के लिए वनवत् कहा है जो अपने बुद्धिवंभव के गर्व से उद्धृत होकर स्पर्धा करने का साहस करते है । यह वचन अभी अनुसन्धान द्वारा परीक्षणीय है। अभी तक इसके दो सस्करण प्राप्त हैं १ निर्णयसागर यन्त्र, वम्बई । स० १९५२ । २ वीर पुस्तक भण्डार, वीर प्रेस, जयपुर । वीरनिवणि सवत् २४८१ । दोनो सस्करणो मे प्राय साम्य ही देखा जाता है। ५ कातन्त्रविभ्रमावणि ____व्याकरण के लोकव्यवहाराधीन होने से काव्यशास्त्र आदि मे प्रयुक्त कुछ सूत्रो की सिद्धि बताने के उद्देश्य से किसी आचार्य ने कुछ सूत्र बनाए थे। जिस ग्रन्थ को 'कातन्त्र विभ्रम' नाम दिया गया था, परन्तु वे सूत्र आज उपलब्ध नहीं है। उन सूत्रो का गौरव और अप्रसिद्धि टीकाकार गोपालाचार्य के एक वचन से ज्ञात होती है कातन्त्र सूत्रविसर किल साम्प्रत यद् । नीतिप्रसिद्ध इह चातिखरी गरीयान् ।। प्रकृत ग्रन्थ के रचयिता चारित्रसिंह के पचनानुसार ऐसा प्रतीत होता है कि कातन्तविभ्रम-सूत्रो पर सर्वप्रथम क्षेमेन्द्र ने व्याख्या थी। क्षेमेन्द्रकृत व्याख्या की टीका मण्डन नामक किसी विद्वान् ने की थी। सम्प्रति ये दोनो टीकाएँ प्राप्त नही होती हैं। कातन्त्र सम्प्रदाय के किसी विद्वान् ने विभ्रमसूत्र तथा कातन्तशब्दानुशासन के सूती से सिद्ध किए जा सकने वाले १५२ शब्दो को २१ श्लोको मे निबद्ध किया है। इन शब्दो के साधन की प्रक्रिया प्रश्नोत्तर के रूप मे दशित हुई है। इनके अतिरिक्त ५४ शब्दो की योजना १० श्लोको द्वारा वाद में की गई है। श्लोकनिदिष्ट शब्दो की अवरि नामक व्याख्या के कर्ता का परिचय प्राप्त नहीं होता। मुद्रित कातन्त्रविभ्रम के प्रारम्भिक लेख 'कातन्त्र विभ्रम सूत्र सवृत्तिक लिख्यते' के अनुसार श्लोको को भी सूत्र माना जा सकता है । अवचूरिकार ने प्रसङ्गत दो अन्य लोको की योजना इसमे की थी इसका उल्लेख चारितसिंहकृत टीका मे प्राप्त होता है। प्राप्त टीकाओ के परिचय से पूर्व श्लोकबद्ध कातन्त्र विभ्रम का सक्षिप्त विषयपरिचय दिया जा रहा है प्रारम्भ मे ही प्रश्न किया गया है कि परस्पर विरुद्ध किस धातु के १३ रूप एकही प्रत्यय होने पर निष्पन्न होते हैं । व्याख्याकारो ने 'अव' पूर्वक 'ग' धातु से अद्यतनी (लुइ) के मध्यमपुरु५ बहुवचन मे 'ध्वम्' प्रत्यय करने पर (१) अवागरिध्वम्, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा (२) अवागरीध्वम्, (३) अवागलिध्वम्, (४) अवागलीध्वम्, (५) अवागरित्वम्, (६) अवागरीढ्वम्, (७) अवागलिवम्, (८) अवागलीदवम्, (६) अवागारिध्वम्, (१०) अवागारीध्वम्, (११) अवागालिध्वम्, (१२) अवागालीध्वम् तया (१३) अवागीदवम् ये १३ (५ दिखाए गए है । ग्रन्थान्तरो मे इसके १०४ ६५ भी वताए जाते हैं। ___इस प्रकार स्याद्यन्तप्रतिरूपक त्यादि, बहुवचनप्रतिरूपक एक वचन, त्यादि के विपरीत रूप, विभक्तिव्यत्यय के रूप, स्याचन्त की तरह प्रतीत होने वाले त्याचन्त रूप, अप्रसिद्ध त्याचन्त तया दुर्लक्ष्य यन्त शब्दो का पाण्डित्यपूर्ण निर्देश किया गया। है। उदाहरणार्य वहुवचनप्रतिस्पक एकवचन के शब्दो का निर्देश इस प्रकार किया गया है एतेपा कयमेकत्व वनानि ब्राह्मण रमी। वृक्षा पचन्ति येषा यान् वायुभ्य पार्थिवा सुरा ||८|| पुराणि वणिमठान्यमीना धनानि सर्वाणि विलान्यपाच ॥१०॥ कातन्त्रविभ्रम की प्राप्त टीकाओ मे दो हस्तलिखित हैं तथा एक मुद्रित है। मुद्रित टीका चारितसिंहकृत 'अवचूणि' नामक है। जिसका परिचय इस प्रकार वि० स० १६२५ मे साधु चारितसिंह ने यह टीका लिखी है। इन्होने अपने को मतिभद्रगणि का शिष्य बताया है । टीका के नाम तथा उसके रचनाकाल आदि का परिचय इस प्रकार दिया है वाणाश्विषडिन्दु (१६२५) मिति सव्वति धवलकपुरवर समहे । श्रीखरतगणपुष्करसुदिवापुष्टप्रकाराणाम् ।।१।। શ્રીનિનમાણિજ્યાધિસૂરીલા સનસાર્વભૌમાનામ્ पट्टे वरे विजयिषु श्रीमज्जिनचन्द्रसूरिराज्येषु ॥२॥ गीति । वाचकमतिभद्रगणे शिष्यस्तदुपास्त्यवाप्तपरमार्थ । चारितसिंहसाधुर्व्यदधादवचूणिमिह सुगमाम् ।।३।। उन्होने अपनी उदारता का परिचय देते हुए यह भी कहा है कि मैंने इन प्रश्नोत्तरी की व्याख्या मे यदि कुछ अनृत लिखा हो तो उसे अपने तथा दूसरो के उपकारार्थ विद्वान् स्वयं सशोधित कर ले । यह व्याख्या १९२७ ई० मे इन्दौर से प्रकाशित भी हो चुकी है। इसमें सारस्वत व्याकरण के सूत्रो का उपयोग किया । गया है लिखामि सारस्वतसूक्युक्त्या। ____ ग्रन्यरचना का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि कातन्त्र विभ्रम मे दशित प्रयोग अत्यन्त दुय है, उनके विषय में श्रेष्ठ वैयाकरण भी जडवत् हो जाते हैं, अत अपने तथा दूसरो के जानवर्धन-हेतु इस टीका को लिखने का सफल प्रयास किया जा रहा है Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १११ स्वस्थेतरस्य च सुबोधविवर्धनार्थ रित्वत्थ ममात्र सफलो लिखनप्रयास ॥३॥ टीका मे प्रासङ्गिक मूलातिरिक्त कुछ शब्दो की सिद्धि ग्रन्थकार ने स्वयं भी वताई। ग्रन्थ के अन्त मे चार कारिकाओ द्वारा अप्रसिद्ध त्याद्यन्त रूपी को भी अपनी ओर से बताया गया है.---'इति रूपमनुक्तमपि प्रसगादिह लिखितम्'। 'अन्येऽपिकेचिद् विभ्रमप्रयोगालिख्यन्ते ।। प्रमाण के लिए क्षेमेन्द्र, हेमचन्द्र, अभिधानकोश, एकाक्षरनिघण्टु आदि के वचनो को अनेकन उद्धृत किया गया है । इसके अनुशीलन से ऐसा कहा जा सकता है कि प्रतिज्ञानुसार ग्रन्थकार ने अपने बुद्धिकोशल का पर्याप्त परिचय दिया है। ६ कातन्त्र विभ्रमावचूणि नागर नीलकण्ठ के पुत्र गोपालाचार्य ने स० १७६३ के दक्षिणायन-पोषमास मे इसकी रचना की थी। बालको की हितकामना, अपने एव दूसरो के ज्ञानसंवर्धन के लिए यह ग्रन्थ लिखा गया था। इसके हस्तलेख जोधपुर, बीकानेर, अहमदाबाद आदि स्थानो मे संगृहीत हैं। हस्तलेखो के अवलोकन से ऐसा विदित होता है कि इन्होने केवल मूल की २१ कारिकाओ पर ही अपनी व्याख्या रची है। प्रक्षिप्त १० कारिकाओ पर इनकी टीका नही देखी जाती। ग्रन्थकार ने स्वरचित टीका को विशुद्ध, रम्य तथा सुगम बताया है। ग्रन्थरचना के काल आदि का परिचय इस प्रकार है-- संवद्रामरसाद्रिभू (१७६३) परिमिते वर्षायने दक्षिणे, पौष मासि शुचौ तिथिप्रतिपदि प्राइ भौमवारऽकरोत् । श्रीमन्नागरनीलकण्ठतनयो नाम्ना तु गोपालक टीकामस्य विशुद्ध रम्यसुगमा काव्यस्य दुर्गस्य वै ॥ इस कातन्त्रविभ्रम को यहा काव्य कहा गया है, सम्भवत विशेष अर्थों मे प्रयुक्त काव्यशास्त्रीय कुछ शब्दो की चर्चा होने से इसे काव्य की सज्ञा टीकाकार ने दी हो। टीका की सुगमता के बोधक कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं १ अग्निभ्य' ५८ को प्रथमा विभक्त्यन्त सिद्ध करने के सन्दर्भ मे बताया है, कि भयार्यक 'भ्यस्' धातु का विवन्त रू५ 'भ्य' होता है, अत 'अग्नि से होने वाला भय' इस अर्य का वाचक प्रथमाविभक्त्यन्त पद 'अग्निभ्य' ५ञ्चमी तत्पुरुष समास से निष्पन्न होगा। विकल्प मे भयार्यक 'भी' शब्द का प्रथमा बहुवचन 'भ्य ' बताकर 'अग्निभ्य' पद को सावना दिखाई गई है। (कारिका २)। २ 'भवेताम्' शब्द को षष्ठी वहुवचनान्त इस प्रकार सिद्ध किया गया है 'इण् धातु का विवन्त रूप 'इत्' होता है । भव संसार को प्राप्त करने वाले "भवत' कहे जाएंगे, उससे पष्ठी बहुवचनान्त रूप 'भवेताम्' निष्पन्न होगा (कारिका ३)। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ३ यानि, शुभानि, रणानि' आदि स्थाधन्त पद तो प्रसिद्ध है परन्तु त्याद्यन्त प्रसिद्ध नही । इन त्याद्यन्त पदो की सिद्धि 'या शुभ, रण' धातुओ से 'आनि' प्रत्यय होने पर बताई गई है। इसी प्रकार अनेक शब्दो की साधनिका मे प्राय सरल भाषा तथा सरल शैली का व्यवहार किया गया है, जिसे सवद्ध स्थलो मे ही देखा जा सकता है। सरलता के लिए इसमे अनेक ग्रन्यो व अन्यकारो के मतो को नहीं दिखाया गया है। વાન્નિત વૂહ-સિદ્ધાન્તમુદ્ર તથા વનેલર જોશ વવ વવખ્ય પ્રાપ્ત होता है। ७. कातन्त्रविस्तर वर्धमान-विरचित इस विस्तृत टीका का कारक भागीय कुछ अश मजूषा पतिका (वर्ष १२ अङ्क ६) मे प्रकाशित है। इसके अनेक हस्तलेख उत्कलाक्षरी मे भुवनेश्वर के अभिलेखागार मे संगृहीत है ) । राजस्थान मे संस्कृत साहित्य की खोज (पृ० ३२) के लेखक श्रीधर रामकृष्ण भण्डारकर के अनुसार जैसलमेर मे भी इसकी हस्तलिखित प्रति है । जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ५२ पर मारा तथा चूरू मे भी इसके हस्तलेख बताए गए है। ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा के अनुसार इसके सन्धि तथा नाम अध्यायो मे उन सभी शब्दो की सिद्धि बताने का प्रयास किया गया है, जिनका प्रयोग शिष्टो ने लक्ष्यग्रन्थो मे किया है महेश्वर नमस्कृत्य कुमार तदनन्तरम् । सुगम क्रियतेऽस्माभिरय कातन्सविस्तर । अभियोगपरा पूर्व भापाया यद् वभापिरे। प्रायेण तदिहास्भाभि परित्यक्त न किचन ।। कृभागीय व्याख्यान मे ग्रन्थकार ने कहा है कि सूत्रकार शर्ववर्मा द्वारा जिनकी सर्वथा उपेक्षा की गई तथा कात्यायन ने भी जिन पर विचार नहीं किया, उन सभी शब्दो को यहा उदाहरण के रूप में दिया गया है। अन्त मे ग्रन्थकार ने यह भी बताया है कि यद्यपि अपने प्रशसनीय गुणो के कारण यह शास्त्र अनेकन प्रचलित है प्रचुर प्रचार है, तथापि पिताजी के मुख से सुने जाने के कारण या उनके या उनके आदेश से मैंने इस अन्य की रचना की है उपेक्षित सूत्रकृता सुदूर कात्यायनेनापि न चिन्तित यत् । सक्षिप्तभापागतमन लक्ष्यसमस्तमस्मामिरुदाहृत तत् ।। सुप्रचार शास्त्र यद्यपि सुगुणरिह। પિતૃવવત્તાનું વાવેતરન્જિવિત વિદુપા મયી | मजूपा पत्रिका मे कारकप्रकरणीय अपादन तथा सम्प्रदान-मजक जो सूत्र Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन ११३ व्याख्यात है उनमे पाणिनीय सूत्रो की भी विशद व्याख्या देखी जाती है । पाणिनीय अपादानसशक जिन सूत्रों की आवश्यकता महाभाष्यकार आदि ने नही मानी है उन सूत्रो पर भी व्याख्या करने का कारण बताते हुए कहा गया है कि १ यहा प्रत्याख्यान करने के उद्देश्य से ही इन सूत्रो का उपादान किया है। अथवा। २ उन्हें स्वीकार भी किया जा सकता है क्योकि अन्य व्याकरण मे उनकी मान्यता होने से यहा उनको खण्डन करना मेरा उद्देश्य नहीं है। अर्थात् कातन्त्रोक्त ही ग्राह्य है, अन्य व्याकरणोक्त ग्राह्य नही है इस प्रकार का मेरा कोई पक्षपात नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि व्याकरणान्तर मे प्रवल आग्रहवश उन्हे समादृत किया गया है अत उनका प्रत्याख्यान करने के लिए द्विगुणित यत्न की बावश्यकता होगी, अत उन्हे स्वीकार कर लेना ही समीचीन है प्रत्याख्यातुमिहाख्यात मिति तन्त्रान्तरोदितम् । स्वीकतुमथवाऽस्माक पक्षपाती न विद्यते ।। किञ्च तन्नान्तरप्रणीताना सूत्राणा परमाग्रहात् । प्रत्याख्यानेन यत्नस्य द्वैगुण्यमुपजायते ।। ऐसा प्रतीत होता है कि यदि इस विपुलकाय ग्रन्थ का प्रकाशन हो जाए तो कातन्त्र व्याकरण का एक विस्तृत रूप सामने आ जाए। कातन्तविस्तर की कुछ टोकाएँ भी प्राप्त होती है (१) वामदेव विद्वान्-विरचित मनोरमा, (२) श्रीकृष्णरचित वर्धमानसग्रह, (३) अज्ञातनामा आचार्य रचित कातन्त्रप्रक्रिया, (४) गोविन्ददासरचित वर्धमानानुसारिणी प्रक्रिया, तथा (५) रघुनाथदास-रचित वर्धमानप्रकाश । ८ कातन्त्रवृत्तिपन्जिका आचार्य त्रिलोचनदास द्वारा प्रणीत यह व्याख्या वड्गाक्षरो मे मुद्रित है और प्राय सभी सूत्रों पर प्राप्त होती है। इसकी रचना को उद्देश्य अन्यकार ने स्वयं ग्रन्थारम्भ मे बताया है, तदनुसार कातन्त्रव्याकरण पर दुर्गसिंह द्वारा रचित एक प्रामाणिक वृत्ति मे प्रयुक्त कठिन या अस्पष्टार्यक पदो को सरल या स्पष्ट करने के उद्देश्य से इसकी रचना की गई थी। कठिन या अस्पष्टायक पदो के व्याख्यान की आवश्यकता मन्दबुद्धि वालो को भी विषय के सम्यक् अवबोधार्थ होती है પ્રખ્ય સર્વાતંર સર્વઃ સર્વવિનમ્ | सवाय सर्वग सर्व सर्वदेवनमस्कृतम् ।। दुसिंहोक्तकातन्त्रवृत्तिदुर्गपदान्यहम् । विवृणोमि ययाप्रशमशानहेतुना। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा व्याख्या के अध्ययन से ऐसा लगता है कि ग्रन्थकार ने न केवल दुसिंहोक्त वृत्ति मे ही कठिन या अस्पष्टार्थक शब्दो की ही व्याख्या की है, किन्तु उन्होंने सूत्रनिदिष्ट विषय को पूर्णत समझाने के लिए अनुक्त विषयो का भी समावेश किया है और अनेकन अपने मत के समर्थन मे अन्य अन्यकारो के भी पत्रनो को उद्धृत किया है। इनके कुछ विशेप विचार इस प्रकार है--- १ नमस्कारविषयक । इसमें कहा गया है कि अभिप्रेत विषय की सिद्धि केवल नमस्कारमानसाध्य नही होती किन्तु कभी यागादिसाध्य तथा नमस्कार साध्य होती है। (मङ्गलाचरण) २ मङ्गलार्थक सिद्ध शब्द का विवेचन । “सिट्टो वर्णसमाम्नाय" इस प्रथम सूत्र की व्याख्या मे सिद्ध' शब्द के नित्य, निप्पन्न तथा प्रसिद्ध अर्थो के अतिरिक्त भी कुछ महत्त्वपूर्ण विचार किया गया है। कातन्तव्याकरण मे आदि, मध्य तथा अन्त मे किए गए मङ्गलार्यक पदो की योजना स्५८८ की है (१११११)। ३ 'आदि' शब्द के चार अर्यो की व्याख्या आपिशलीय मतानुसार की गई Stic तथा चापिलीया पठन्ति, सामीप्येऽय व्यवस्थाया प्रकारेऽवयवे तथा। चतुवयपु मेधावी आदि शब्दं तु लक्षयेत् ॥ (१।१८)। ४ अनुनासिक मे 'अनु' शब्द की योजना का तात्पर्य । इसकी व्याख्या मे 'अनुनासिक' सना को पूर्वाचार्यप्रणीत तथा अन्वर्य कहा गया है (१।१।१३) । ५ 'अनुस्वार, विसर्जनीय' सजाओ के क्रम का औचित्य । इसमें बताया गया है कि स्वरसम्बद्ध होने के कारण यद्यपि इन सजाओ का निर्देष सन्ध्यक्षर सज्ञा के ही अनन्तर करना चाहिए था, तथापि अप्रवान एव स्वर-यजनोभय से सब होने के कारण इनका पा० अन्त मे किया गया है। सूत्र निदिष्ट होने के कारण अनुस्वार-विसर्जनीय को भी कातन्त्र व्याकरण मे योगवाह माना जाता है, पाणिनीय व्याकरण की तरह अयोगवाहनही (१११११६)। ६ आपिशनीय मतानुसार आगम आदि की परिभाषा । तथा चापिशलीया पठन्ति , आगमोऽनुपातेन विकारचोपमर्दनात् । ___आदेशस्तु प्रसङ्गेन लोप सर्वापकपणात् ।। (२१११६) । ७ नौपचारिक आधार की अयुक्तता वताना 'अड् गुल्यग्रे करिशतम्' आदि स्यलो मे कुछ आचार्य औपचारिक आधार मानते है, परन्तु वस्तुत अङ्गुलि के अग्रमाग का विषय ही करिशत है अत यहा औपश्ले पिक आधार मानना ही सगत है (२१४१११), Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन ११५ ८ निमित्त के पर्यायवाची कारक' शब्द को अव्युत्पन्न तया स्वभावत नपुसकलिङ् मानना । क्रिया के निमित्तमान प्रधान या अप्रधान को कारक कहते हैं । व्युत्पन्न तथा प्रत्ययान्त कारकशब्द का अर्थ 'कर्ता' होता है तथा वह वायलिड् माना जाता है । (२।४।२३)। ६ वृत्तिकार दुर्गसिंह द्वारा समादृत चन्द्रगोमी के सूत्र की सूचना देना । "तादयं चतुर्थी" सूत्र को शर्ववर्मकृत न मानकर चन्द्र गोभिकृत माना है। इसकी सूचना देते हुए कहा गया है कि वृत्तिकार ने मतान्तरप्रदर्शन के उद्देश्य से यहा चन्द्रगोमिकृत इस सूत्र को पढा है (२।४।२७)। इस प्रकार अनेक विशेषताए देखी जाती हैं। दुर्गसिंह कृत वृत्ति तथा टीका के विपयो को प्रौढ स्पष्टीकरण इस व्याख्या मे देखा गया है। इस व्याख्या का स्तर कातन्त्र सप्रदाय मे वही माना जा सकता है जो कि पाणिनीय सम्प्रदाय मे का शिका वृत्ति पर जिनेन्द्रबुद्वि द्वारा प्रणीत कोशिका विवरणपलिका (न्यास) का है। इसमे जयादित्य, जिनेन्द्रबुद्धि प्रभृति लगभग ४० अन्यकारो तथा कुछ ग्रन्यो के मतवचनो को दिखाया गया है। बहुत से मत 'केचित्, अन्ये, इतरे' शब्दो से भी प्रस्तुत किए गए है। इन सभी मतो मे कुछ मतो को युक्तिसगत नही माना गया है। इस पंजिका मे दशित मतो के प्रति कुछ आचार्यों ने दोष भी दिखाए है, जिन दोपो का समाधान सुपेण विद्याभूषण ने अपने कलापचन्द्र नामक व्याख्यान मे किया है। श्रीनिविक्रम ने उद्योत, मणिकाभट्टाचार्य ने त्रिलोचनचन्द्रिका सीतानाथ सिद्धान्तवागीश ने कुछ अशो पर सजीवनी तया धातुसूत्रीय पञ्जिका पर पीतावर विद्याभूषण ने पनिका नामक व्याख्या की रचना की है। ६ कातन्त्रवृत्तिपजिका प्रदीप पण्डित श्रीनन्दी के आत्मज पण्डित श्री देसल ने इसकी रचना की थी। २८३ पतो का इसका हस्तलेख जोधपुर राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान मे विद्यमान है। पलिका मे जो कुछ विशेष रूप मे कहा गया है उसी का विवरण प्रस्तुत करने की प्रतिज्ञा ग्रन्थारम मे लेखक ने की है। कृदभागीय व्याख्या का प्रारम्भ करने से पूर्व ही ग्रन्थकार के पिता दिवगत हो गए थे, मत पितृवियोगरूपी अनल से दग्धमानस होने पर भी दुखो की कमी की समाप्ति न समझकर श्रीदेसल ने अग्रिम ग्रन्थभाग की पूर्ति की है। "अत्र चान्तरे दिवगते पितरि तद्वियोगानलदमानसाना कीदृश हि ग्रन्थ दूपण समाधान बुद्विकोशलमुपजायत इति जान द्भिरप्यस्माभि प्रारब्धापरिसमाप्तिदुखमवगम्य यथामति किञ्चिदुच्यते" (कृत प्रकरण का प्रारम्भ)। ग्रन्थ के अन्त मे ग्रन्थकार ने अपने पिता द्वारा घातुपरायण के रचित होने की भी सूचना दी है। शाड्कर नामक शिष्य की प्रार्थना पर श्रीदेसल ने जैसा अपने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पिता से पढा था उसी के स्मरणार्थ इस ग्रन्थ का निवन्धन किया है, अत अपना कोई दोष न बताकर युक्तायुक्त के विचार का भार विद्वानो पर छोड़ दिया है कात्तिकेय समाराध्य कृत शास्त्रमनाकुलम् । તમૈ નમોડસ્તુ ગુરવે શ્રીમતે શર્વવર્મળે છે धातुपारायणक व्याकरणनितयवेदिने । શબ્દસરોનસવિલે વિદ્યાવાત્રે નમ વિવે છે उक्त मया यथावोध शङ्कराय सुवोधिने । युक्तायुक्तविचारस्तु कर्तव्य खलु सूरिभि ।। याचितोऽह चुरा तेन प्रतिपन्न मयाऽपि तत् । स्मृत्ययं क्रियते यस्मात् तस्मान्नो नान दूषणम् ॥ पितृभिर्यदुपन्यस्त स्मरणाय कृत मया ।। स० १४६५ मे श्रावणवदी ५ बुधवार को राणा श्रीउदयसिंह विजय के राज्य मे इसे लिखा गया था। १० कातन्त्रपजिकोयोत. वर्धमान के शिष्य त्रिविक्रम ने कातन्तपलिका पर उद्योत नामक टीका लिखी है । इसका हस्तलेख सङ्घभण्डार-पाटन मे सगृहीत है। आख्यात के सम्प्रसारणपादपर्यन्त यह उपलब्ध है। इसका लेखनकाल स० १२२१, ज्येष्ठपदी तृतीया, शुक्रवार है। ग्रन्थकार ने कहा है कि कुछ पूर्वभावी आचार्यों ने अपने असारवचनो से पलिका को प्राय निरर्थक बताया था और इसी कारण वह ५जरस्थ शारिका की तरह पराधीन होकर अपने गुणो को प्रकाशित करने मे असमर्थ हो गई थी। मैंने पूर्वाचार्यों के उन आक्षेपवचनो का खण्डन कर इसे पूर्ण उज्ज्वल कर दिया है। उक्त यदालूनविशीर्णवाक्यनिरगल किजन फल्गु पूर्व । उपेक्षित सर्वमिद मया तत् प्रायो विचार सहते न येन ॥ आसीदिय ५ रचिनसारिकव हि पजिका। ઉદ્યોતવ્યપરોન મયા પૂગ્વતી9તા इस प्रकार टीकाकार का प्रयास तथा टीका का नाम सार्थक ही कहा जा सकता है। ११ कातन्त्रोत्तरम् इसकी रचना विजयानन्द ने की है, इसका दूसरा नाम विद्यानन्द भी है। ३६० पत्रो का ५ हस्तलेख अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर मे सुरक्षित है, वीच का कुछ अश इसमे त्रुटित है। ग्रन्यकार Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाएं एक अध्ययन ११७ के वचनानुसार इसकी रचना महान् प्रयास से की गई है तथा समस्त प्रतिपक्षिप्रदशित आक्षेपो का सहेतुक समाधान किया गया है। नाटक के भरतवाक्य की तरह विश्वकल्याण की भावना से प्रेरित होकर लेखक ने अन्त मे यह भी कहा है कि इस सद्ग्रन्थ की रचना से मुझे प्राप्त होने वाला पुण्य तीनो दुखो का शमन करता हुआ मनुष्यों की प्रवृत्तिको मङ्गलमयी भावना या शिव की ओर उन्मुख कर સહેતુકમિટ્ટારોલ લિવિત સોધુ સાતમ્ | कातन्त्रोत्तरनामाऽय विद्यानन्दापराऽऽदय । मान चास्य सहस्राणि स्वर्वद्यगुणिता रसा ॥ निर्माय सद्ग्रन्थमिम प्रयासान, आसादित पुण्यलवो मया य । तेन विदु खापहरो नराणाम् , ર્યાદ્ વિવેક શિવમવનાયામ્ | सूत्र-टीका-पलिका-पूर्वाचार्यानुमोदित वचनो की चर्चा के अतिरिक्त महाकवि आनन्दवर्धन द्वारा सामान्य विवक्षा में भी किए गए पुल्लिङ्ग प्रयोग का उल्लेख किया है। आनन्दवर्धन ने यह प्रयोग अपने अन्य देवीस्तवयम मे किया है। इस व्याकरण के चार नामो मे हेतु दिखाए गए है शावमिक, कातन्त्र, कालापक, कामार। १२ कालापप्रक्रिया नृपतिशिरोमणि रामसिंह की आज्ञा से क्षत्रिय बालको के बुद्धिवर्धनार्य आचार्य वलदेव ने इसे बूंदी मे स० १६०५ मे लिखा था। १२४ पत्रो का एक हस्तलेख जोधपुर मे प्राप्त है। ग्रन्थकार ने अपने गुरु का नाम आशानन्द बताया fic बाणखा केन्दुमिते (१९०५) विक्रमादित्यतो गते । वर्षेऽत्र रामसिंहाशाप्रेरितन द्विजेन वै॥ बलदेवेन रचिता कालापप्रक्रिया शुभा । ઉપદેશાત્ લુડો રાશાનન્દોથાત્ માથિયોતિ | सभी धातुओ पर पूर्णतया व्याख्यान करना सम्भव नही होता, क्योकि धातुए अनन्त तथा अनेकार्थक होती है, अत ग्रन्थकार ने सभी धातुओ पर व्याख्यान नही किया है धातूनामप्यनन्तत्वान्नानार्यत्वा-५ सर्वथा। अभिधातुमशक्यत्वादाख्यात व्यापनरत्नम् ।। १ ॥ आख्यात प्रकरण के अनन्तर कृरप्रकरण के लगभग २० ही सूत्रो की व्याख्या Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा की गई है, शेप को आवश्यकता से अधिक समझकर छोट दिया गया है। १३ वालक्षिाव्याकरणम् गुजराती भाषा के माध्यम से मस्कृत शिक्षण देने का प्रयास जिसमे किया गया हो उस रचना को औक्तिक' कहते है। वान शिक्षाव्याकरण एक ऐसी ही रचना है। इस ओक्तिक ग्रन्य के लेखक श्रीमालवशीय करसिंह के पुत्र ठकुर संग्रामसिंह है। इसका रचनाकाल स० १३३६ है । सम्पूर्ण ग्रन्य का परिमाण १८५० प्रलोक हैं। इसमे मजा, सन्धि, स्यादि, कारक, समास, उत्तिविनान, सस्कार तथा त्यादि नामक मा० प्रक्रम है । प्रन्यकार ने प्रारम्भ मे ही यह प्रतिज्ञा की है कि शर्ववर्मप्रणीत कातन्त्रव्याकरण के आधार पर मक्षेप मे वालशिक्षा की रचना की जा रही है। अपनी निरभिमानिता तथा सरलता का परिचय देते हुए अन्यकार ने यह भी कहा है कि जैसे सूर्य के अभाव मे दीपक के भी प्रकाश का महत्व होता है, वैसे कातन्तव्याकरण के अभाव मे सभी सज्जन इम बालशिक्षा को अपनाएं श्रीमन्नत्वा पर ब्रह्म वालशिक्षा यथाक्रमम् । सक्षेपाद् रचयिष्यामि कातन्त्रात् शावमिकात् ।। १ ।। आदी संज्ञा तत सन्धि स्यादय कारकाणि च ।। समासा चोक्तिविमान सस्कारस्थादयतया ॥२॥ इत्यष्टप्रक्रमोपेतामेता कुर्वन्तु हृद्गृहे । कातन्तभास्कराभावे यथा दीपश्रिय जना ॥ ३ ॥ सप्तम मस्कार प्रक्रम मे अनेक अव्यय तथा तत्कालीन क्रियापदी को उद्धृत कर उनके संस्कृत शब्द दिए है । रखड, पोलइ, आवइ, धूमइ' आदि उद्धृत क्रियापदो को अवधी, वज, राजस्थानी तथा गुजराती भापा की सपत्ति माना जाता है। इस प्रकार यह ग्रन्थ भाषाविज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्व का हो गया है । राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से १६६८ ई० मे प्रकाशित इस गन्थ के प्रधान सम्पादक डॉ० फतहसिंह ने इस सस्कारप्रक्रम मे उद्धृत अनेक क्रियापदो को लक्ष्यकर विश्वासपूर्वक यह कहने का प्रयास किया है कि ग्रन्यलेखन के समय तक संस्कृतभाषा केवल विद्वानो की ही सम्पर्क भाषा रह गई थी और जनसाधारण की भाषा सस्कृत से बहुत दूर चली गई थी अत इस दूरी को दूर करने के लिए ही ग्रन्थकार ने सस्कार प्रक्रम मे भापाशब्दो का संस्कृत के साथ मेल बिठाने का प्रयत्न किया। ___ अस्तु, यह तो निश्चित है कि ग्रन्यकार भारतभूमि का एक ऐसा पुनरत्न था जो जन-अर्जन आदि के भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टि से सोच सकता था और वर्तमान भेदबुद्धिविधायिनी प्रवृत्ति के विपरीत एक मात्र राष्ट्रीय दृष्टि से Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन ११६ भाषाप्रश्न पर विचार करके तत्कालीन जनसाधारण की भाषाओ को सुसंस्कृत रूप प्रदान करने के लिए अपने व्याकरण मे 'सस्कृतप्रक्रम' को लिख सकता था। ग्रन्थ मे दर्शित प्रकरण, विषययोजना, उदाहरणो आदि से न केवल बालकों के लिए ही उपयोगी है किन्तु प्रौढधी विद्वानो के लिए भी मननीय है। ____ ग्रन्थ के अन्त मे लेखक ने कहा है कि यद्यपि अनेक शास्त्रो का अध्ययन कर बडे परिश्रम से संशोधित कर इस बालशिक्षा को बनाया है तथापि सज्जनी द्वारा यह शोधनीय ही है। इस प्रकार ग्रन्थ के दीर्घकालीन प्रचार की शुभकामना भी ग्रन्यकार द्वारा की गई है। सज्जनो के प्रसाद से ही इस ग्रन्थ की रचना बताकर लेखक ने महती उदारता का परिचय दिया है। प्रशस्ति, रचनाकाल, शुभकामनादिविषयक वचन इस प्रकार है सदोपकार्यात् साध्योऽय लक्षणद्रव्यसग्रह । साष्टिादशशत्यड्कोऽप्यक्षय सन् तदथिनाम् ।।१।। भुपन्ति मुक्ता जलजन्तवोऽपि स्वायम्भसा तल्ललित न पाम् । ययोपला अप्यमृत श्रवन्ते तद् वलिगत चन्द्रमस कराणाम् ।।२।। सता प्रसाद स हि यन्मयापि श्रीमालवश्येन कृति कृतयम् साढाकभू-ठकुरक्रूरसिंहपुत्रेण पनिन्तियुतकव (१३३६) ॥३।। बहूनि शास्त्राणि विलोक्य तावद् विनिर्मितेय महतोयमेन । मशोधिता सद्भिरथापि शोध्या सल्लक्षण क्षोदसह सहैव ।। ४ ।। यविद् धत्ते गगनसरसी राजसप्रचारम्, भे९५चाग्निवरदिनवधू शर्वरी मड्गलानि । तावद् बोध भृति विदधती वाल शिक्षा सदेषा, जीया योगादतिमतिमता वर्धमानाधिकश्री ॥५॥ १४ कातन्तभूषणम् आचार्य धर्मधोपसूरि ने कातन्त्र व्याकरण के आधार पर इसकी रचना की है। इसका परिणाम २४००० श्लोक है। (द्र०---जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५) । १५ कातन्त्रवाक्यविरतर कौशिक वशीय नागरशातीय सर्वदेव के पुत्र पण्डित राम ने इसकी रचना की है। रचना का प्रयोजन मन्दमति वालो को भी सुखपूर्वक वाक्यो की प्रयोगविधि का Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा परिजान बताया गया है। इसका हस्तलेख अहमदावाद में प्राप्त है । ग्रन्थ के अन्त मे इस प्रकार परिचय दिया गया है कोशिकान्वयस भूत सर्वदेवात्मजो भुवि । रामाख्यया प्रसिद्वो हि नगरो विप्रसेवक. ।। जडाना मुखवोधार्य कृतवान् वाक्यविस्तरम् ।। इति श्रीनगरमहास्थानवास्तव्यनागरशातीय-कोशिकान्वयव्याससर्वदेवसुतपण्डितराम विरचित शब्द-कारक-समास-तद्धितक्रिया-कृत्प्रयोगाणा लौकिकमापया विहित वाक्यविस्तर समाप्तमिति भद्र भूयात् । १६ कातन्त्रविभ्रमटीका ___ स० १३५२ मे जिनप्रभसूरि ने इस टीका की रचना की थी। यद्यपि इस टीका के अनेक हस्तलेख जयपुर, बीकानेर, अहमदावाद आदि मे देखने को मिले, परन्तु उनका अध्ययन न किए जा सकने से टीका का स्वरूप नही बताया जा सकता । ग्रन्थकार द्वारा रचनाकाल, रचनास्थान का निर्देश इस प्रकार किया गया है પક્ષેષ શકિતશશિગૃન્મિતવિમાવે ઘાલ્યકિતે હૃતિથી પુરિયોયિનીના कातन्त्र विभ्रम इह व्यतनिष्ट टीकाम् સીદવીરપિ નિનકમમૂરિતામ્ II १७ कातन्त्रवृत्तिपन्जिका __आचार्य जिनेश्वर सूरि के शिष्य सोमकीति ने कातनवृत्ति पर इस टीका की रचना की है, इसका हस्तलेख जैसलमेर मे है। इस व्याकरणसम्प्रदाय मे आचार्य त्रिलोचनदास द्वारा प्रणीत पाजका' व्याख्या सुप्रसिद्ध है। दोनो आचार्यों का समय निश्चित न होने से यहा विशे५ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । (द्र० जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५)। १८ क्रियाकलाप धातुपा० पर यह व्याख्या कायस्यवशीय विद्यानन्द ने लिखी थी। ग्रन्थकार ने इस व्याख्या के सबन्ध मे कहा है कि जो व्युत्पन्न नही है उन्हे इसका व्यवहार नही करना चाहिए, क्योकि ग्रन्थ मे दशित धातु, उनके अर्थों का निरूपण करने से ही उनकी बुद्धि मोहित हो सकती है । इसके हस्तलेख बीकानेर तथा अहमदावाद मे देखे गए है । ग्रन्यकार ने वणित विषय मादि के सम्बन्ध मे कहा है Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाएं एक अध्ययन १२१ पूर्व पूर्वक विप्रणीतविविधग्रन्थेषु दृष्टास्तत , निर्णीता हृदये निरूप्य निपुण ये धातुपारयिणम् । धातूना तनुधीरपि व्यरचयत्तेषामिम संग्रहम्, विद्यानन्दकविविशुद्धहृदय कायस्थवशोद्भव ।। વ્યુત્પત્તિવર્મચાવેશ શાસ્ત્ર નરેંદ્રમુવી રળીયા धात्वर्थतन्मातनिरूपणेन यतो मतिमोहमुपैति तेषाम् ।। १६ क्रियाकलाप जिनदेवसूरि ने भी यह ग्रन्थ लिखा था। स० १५२० का एक हस्तलेख श्रीजयप्रभसूरि के शिष्य मुनि पूर्णकलश द्वारा लिखा गया अहमदाबाद मे प्राप्त है। २० चतुष्कव्यवहारदण्डिका ___श्रीधनप्रभसूरि ने इसे लिखा था। इसका तद्धितप्रकरणात भाग ही हस्तलेखो मे प्राप्त होता है । प्रारम्भ मे देवी सरस्वती को नमस्कार कर उनसे यह मडगलकामना की गई है कि मेरी इस व्याख्या का समादर विद्वज्जन करे। अन्य हस्तलेखो मे गुरुप्रसाद से चतुकव्यवहाराख्य ग्रन्थ के विस्तार करने की बात कही नम श्रीसरस्वत्यै भगवत्यै । प्रणम्य ता जगत्पूज्या गुरू५च देवी सरस्वतीम् । यस्या प्रसादमात्रण स्याद् रुद्रोऽपि कवीश्वर ॥ सुप्रसाद चतुष्कस्य लिखिता दुण्डिकामिमाम् । करोतु मे महायोगिध्याया गी परमेश्वरी ।। इति ।। ॐनमो विघ्नराजाय । नत्वा जिन गुरो सत्प्रसादाद् अन्य प्रतन्यते । चतुको व्यवहाराख्य श्रीधनप्रभसूरिणा ।। इति ।। २१ दुर्गपदप्रबोध जिनेश्वरसूरि के शिष्य प्रबोधमूतिगणि ने १४ वी शताब्दी मे सम्पूर्ण कातन्तसंतो पर इसकी रचना की थी। उनके प्रारम्भिक लेख के अनुसार इस ग्रन्थ मे सभी मतो का सार सन्निहित होना चाहिए ग्रन्थ सम्यगम विभाव्य निखिला वृत्ति प्रसगात् तथा, क्वापि वापि च ५जिकामति सभावार्थ विदित्वा जनात् । વિજ્ઞાથ મસ્તતોગવિનમતચળ્યોર્થસાર સમા लोच्यसेव्य च मुक्तिमार्गमचिराज् ज्ञान लभन्ता परम् ॥ इति ।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा २२ दुर्गपदप्रवोध _____ इस नाम की एक टीका जिनप्रवोधसूरि ने भी वि० स० १३२८ मे बनाई थी। इसका उल्लेख 'जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ३ मे डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी ने किया है। टीका का अन्य विवरण प्राप्त नही होता है। २३ दुर्गवृत्तिटिप्पणी पण्डित गोल्हण ने १६वी शताब्दी में इसे लिखा था। १५४ पन्नो को एक हस्तलेख राजस्थानप्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, जोधपुर मे तथा ३४८ पन्नो का अहमदाबाद मे सहीत है । इसमे त्रिलोचनदासकृत कातन्त्र वृत्तिपलिका को भी उद्धृत किया गया है। २४ दौर्गसिही वृत्ति ___ दुर्गसिंह रचित वृत्ति पर आचार्य प्रधुम्न सूरि ने वि० स० १३६६ मे इस वृत्ति को लिखा है, जिसका परिणाम ३००० श्लोक माना जाता है। बीकानेर के भण्डार मे इसका हस्तलेख है (द्र०-जनमाहित्य का वृहद इतिहास, भाग ५) । २५ धातुपारायणम् __कातन्त्रवृत्तिपत्रिकाप्रदीप के लेखक पण्डित देसल के पिता पण्डित नन्दी ने कातन्त्रव्याकरण के धातुपाठ पर इसे लिखा था, इसकी सूचना कातन्त्रवृत्तिपलिकाप्रदीप के अन्त मे देसल ने दी है। राजस्थान मे संस्कृत साहित्य की खोज' नामक सूचनापन मे श्रीधर रामकृष्ण भाण्डारकर ने नन्दिकृत टीका के कठिन पदो पर धनेश्वर के शिप्य चन्द्रसूरिकृत एक व्याख्या का उल्लेख किया है (१०० ३१)। जैसलमेर के किसी हस्तलेख-भण्डार मे यह व्याख्या श्रीभाण्डारकर को उपलब्ध हुई थी। पर्वतीय विश्वेश्वरसूरिचित व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि मे इस ग्रन्थ को उद्धृत किया गया है । धातुपारायण का अन्य विवरण अप्राप्त है। २६ वालाववोध. ___ अचलाछेश्वर मेस्तुड्गसूरि ने इसका प्रणयन किया था। इसके अनेक खण्ड। हस्तलेख अहमदाबाद, जोवपुर तथा बीकानेर में उपलब्ध होते है । किसी किमी हस्तलेख मे अचूणि'टीका का भी उल्लेख हुआ है सम्भवत मेस्तुड्गसूरि ने इसे भी बनाया हो। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे शारदा देवी को प्रणाम कर शर्ववर्मप्रणीत सूत्रो पर व्याख्या करने की प्रतिज्ञा की है Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १२३ प्रणम्य शारदा देवी ज्ञाननेनप्रबोधिनीम् । शावमिकसूत्राणा प्रक्रिया च क्रमाद् अ॒वे ।। २७ बालावबोध राजगन्छीय हरिकलश उपाध्याय ने बालको के ज्ञानार्थ इसे लिखा था। इसके हस्तलेख बीकानेर में प्राप्त है । पण्डित गोल्हणकृत सुगम टीका का अध्ययन करने के अनन्त र ग्रन्थकार ने टिप्पणी के रूप में इसकी रचना की है दृष्ट्वा गोल्हणटीका सुगमा लिखति स्म राजगन्छीय । हरिकलशोपाध्यायष्टिपनक वालबोधार्थम् ।। २८. वृत्तित्रयनिबन्ध आचार्य राजशेखर सूरि ने कातन्त्रव्याकरण के आधार पर इसका प्रणयन किया है। ग्रन्थ के नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि कातन्त्र की तीन वृत्तियो का इसमे विचार किया गया होगा, परन्तु ग्रन्थ के अप्राप्त होने से अधिक कहा नही जा सकता। (द्र०-जनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५)। वर्णित ग्रन्थो के अतिरिक्त वर्धमानप्रकाश, वर्धमानसारव्याकरण, वर्धमानप्रक्रिया, वर्धमानसंग्रह आदि उपलब्ध अनेक ग्रन्थो के रचयिता भी जैनाचार्य जैसे प्रतीत होते हैं, परन्तु सन्देहवश उनका परिचय यहा नही दिया जा रहा है। सारस्वत व्याकरण पर टीकाएँ अनुभूति स्वरूपाचार्य द्वारा प्रोक्त सारस्वत व्याकरण मे मूल सूत्र ७०० माने जाते हैं। इस व्याकरण की रचना विद्याधिष्ठात्री देवी सरस्वती की विशेष अनुकम्पा से की गई थी। इसके अनेक रूपान्तर भी किए गए है, जिनमे रामाश्रमप्रणीत सिद्धान्तचन्द्रिका प्रमुख है । सारस्वत व्याकरण पर अनेक सम्प्रदाय के आचार्यों ने टीकाए लिखी है । इनमे जैनाचार्यों की भी २५ टीकाओ का उल्लेख प्राप्त होता है । यहा आचार्य चन्द्रकीति-प्रणीत 'सुवोधिका' टीका का विस्तृत परिचय पहले दिया जायेगा, शेष २४ टीकाओ का सामान्य ही परिचय प्रस्तुत होगा। इन सभी टीकाओ मे से २३ का उल्लेख अम्बालाल प्रेम शाह ने तथा शेष दो का युधिष्ठिर मीमासक आदि ने किया है। १ सुबोधिका आचार्य चन्द्रकीतिसूरि ने सारस्वत व्याकरण की यह टीका लिखी है, जिसे ग्रन्यकार के नाम चन्द्रकीति से भी अभिहित किया जाता है । सरल, सुवोध Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ गग-II [ व्याण और न होने गे गुबोका, तथा अपति -- मागिता में नागपंगा प्रकाशन करने में दीपिका नाम भी रिदयं में अपने को नागपुरीय तपागच्छाधिराज गदाग कम आम्याग पर • Timi राज रत्नमूरि को नमार गिा। प्रनीता शिगजानगरिन र थे । युधिष्ठिर मीमामा संयोति को सोनिया विमान हर्षकीनि नाम गमगार शिष्य का , जि -प्रनिनितिन कार्य किया था । जंगाकि निगमाग प्रमागिन (३६१०) मा.न व्याकरण की प्रमानिकी नमानि पर लगानी - मुबांधिकाया जाया गरिबीच नीतिभिः । म्यादीना प्रक्रिया पूर्ण वभूबर मनो, ||१|| नेपामय दिनलियो गीत्या पाटप । निखनी चाया पर प्रीनिमम ||२|| म मरण के मन में व्याख्यान-अनि दी है... अनुमान राजरत्ननरि के अनन्तर चन्मगीति को उपद्रका गच्छाधिप नाराया। यह भी पाहा गया है कि चन्मीति ने यह टी श्रीपगन्द्र उपाध्याय की अभ्यर्थना पर की थी और महावीति ने लिया या.. तत्पटोदयण हनिमल बीजेगवाया .... नकार कनियादपंदमन श्रीरानप्रा । तत्पी जिनविश्ववादिनिया गजगाधिपा सम्प्रति मूरिश्रीप्रभ चन्द्र कीतिर पो गम्भीयं धश्रिया ॥६॥ तैरिय पाचन्द्राव्योपाध्यावाभ्यर्थनात् त।। शुभा मुंबोधिवानाम्नी श्रीगारस्वतदीपिका ॥७॥ श्रीचन्द्रकीतिमूरीन्द्रपादा मोजमधुव्रत । हर्पकोतिरिमा टीका प्रयमादर्शकऽलिसत् ।।८।। अन्यरचना के प्रामाणिक समय का उल्लेख प्राप्त नहीं होता, फिर भी युधिष्ठिर भीमासक द्वारा दर्शित समय १६वी शती पा। अन्त या १७वी शती का आर+भ मान्य प्रतीत होता है। ____ यद्यपि सारस्वत व्याकरण के तीन विगेपण दिए गए है स्वल्प, सिद्ध तथा सुबोधक । अत 'सुबोधक' व्याकरण पर 'सुवोधिका' जैमी टीकाओ के बनाने की कोई आवश्यकता मामान्यतया प्रतीत नही होती, फिर भी सूनो तथा टीकाओ की सुबोधकता मे पर्याप्त भिन्नता होती है, इसलिए श्रीचन्द्रकीति ने भी अपनी टीका द्वारा सुवोधक सूबो के भी विषय को सरलता से समझाने का प्रयास कर अपने ग्रन्थ की सार्थकता सिद्ध की है Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १२५ स्वल्पस्य सिद्धस्य सुवोधकस्य सारस्वतव्याकरणस्य टीकाम् । सुबोधिकाख्या रचयाचकार सूरीश्वर श्रीप्रभुचन्द्रकीति ।। (व्याख्यातृ प्रशस्ति , श्लोक १०)। ग्रन्थ के अध्ययन से सुबोधिका' नाम अन्वर्थ ही प्रतीत होता है, क्योकि इससे खण्डन-मण्डन के पक्ष प्राय नही ही दिखाए गए है। कुछ ही स्थलो मे पूर्वाचार्यों का भ्रम प्रदर्शित किया गया है । जैसे "भजा विण" (कृत् ० ४८) सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है कि कुछ आचार्य तत्त्व पृच्छता ति तत्वप्राट' शब्द को भी विण्प्रत्ययान्त मानकर यहा उद्धृत करते है परन्तु वह इसलिए ठीक नहीं है कि उसे 'क्विप् प्रत्यय के अधिकार में भी सिद्ध किया ही जाता है अत यहां उसे भ्रम वश पढ़ा जाता है ___"अन्न केचित् तत्त्व पृच्छतीति तत्त्वप्राट् इत्युदाहरण ५०न्ति, तदत न युज्यते । अग्रेक्विपप्रत्ययाधिकारे साधितत्वात् । इह तु भ्रमात् प०न्ति" (कृत ०४८)। सामान्यतया आचार्य ने मन्दमतिवाली के अववोधार्थ अनेक उपायो का अवलम्बन किया है। कहीं-कही पर कुछ शब्दो की व्युत्पत्ति या समासादि को भी बालबावार्थ ही दशित किया है। जैसे "वु से" सूत्रस्थ 'वु' पद की व्युत्पत्ति-- "७५च ऋच वृ तस्मात् वु से । अय समासो बालबोधनार्य दशित” (उत्तरर्धि २८।१-३)। यद्यपि खण्डन-मण्डन की चर्चा इसमे प्राय नही ही की गई है तथापि किन्ही पाठान्तर, शब्दो के प्रयोग आदि की प्रामाणिकता के लिए कुमारसम्भव, चन्द्रिका, प्रक्रियाकौमुदी, सरस्वतीकण्ठाभरण, भट्टि, श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्यो तया पाणिनीय, वृत्तिकार, ग्रन्थकार, माघ आदि आचार्यों का उल्लेख किया है। अनेक सरल उपायो के साथ ग्रन्थ मे प्राय सूत्रस्थ पदो की संख्या का भी स्पष्ट निर्देश किया गया है । आख्यात प्रकरण मे धातुओ के रूप दिखाए गए है । अनुभूतिस्वरूप द्वारा दर्शित कुछ विशिष्ट रूपो की ही सिद्धि बताई गई है, मूलप्रोक्त सभी रूपो को नही बताया गया है । वे रूप जो पूर्वोक्त अन्य सूत्रो से सिद्ध होते हैं उन्हे भी सुगम कहकर प्राय नहीं दिखाया गया है। अन्य व्याकरण के मतो या सूनो को व्याकरणान्तर कहकर ही दिखाया गया है । जैसे क्वचित् दो या तीन कारको के युगपत् प्राप्त होने पर किसकी प्रवृत्ति होगी इसके निर्णय के लिए कातन्तसून को उद्धृत किया गया है याकरणान्तरे तु युगपद्धचने पर पुरुषाणाम्" (उत्तरधि १।१६) । 'प्, अ' आदि अनुबन्धो का प्रयोजन स्पष्ट किया है। किन्ही धातुओ के उकारादि अनुबन्धो का प्रयोजन उपारणसोकर्य भी बताया गया है। उभयपदी धातुओ के प्रकरण में कुछ ऐसी भी धातुए पढी गई है जिन्हे अन्य आचार्य केवल आत्मनेपदी या केवल परस्मैपदी ही मानते है टीकाकार ने ऐसे स्थलो मे 'एके आचार्या' Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा आदि वचनो से मतान्तरो का सकेत किया है। कुछ ऐसे भी सूत्रो पर यह टीका देखी जाती है, जिन्हे कुछ आचार्य पढते ही नही । वहाँ भी टीकाकार ने मतान्तर का सकेत अवश्य किया है। २ क्रियाचन्द्रिका खरतरगच्छीय गुणरत्न ने वि०स० १६४१ मे इसकी रचना की थी। इसकी हस्तलिखित प्रति वीकानेर मे है । ३ चन्द्रिका पजाव भण्डारसूची, भाग १ के अनुसार मेघविजय जी ने यह टीका लिखी थी। इसका समय निश्चित नहीं है। ४ दीपिका विनयसुन्दर के शिष्य मेघरत्न ने वि० म० १५३६ मे इसे बनाया था। इस टीका का नामान्तर मेधीवृत्ति भी है। १७वी शताब्दी मे लिखित ६८ पत्रो की तथा वि० स० १८८६ मे लिखित १६२ पत्रो का हस्तलेख लालभाई दलपतभाई सस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में सुरक्षित है । प्रारम्भिक श्लोक इस प्रकार नत्वा पाश्व गुरुमपि तथा मेघ रत्नाभिधोऽहम् । टीका कुर्व विमलमनस भारतीप्रक्रिया ताम् ।। युधिष्ठिर भीमासक ने इसका नामान्त र ढुण्ढिका बताया है और स० १६१४ के हस्तलेख को प्राप्त होने की सूचना दी है । ५ धातुतगिणी ___ इसकी रचना नागोरी तपागच्छीय आचार्य हर्षकीति सूरि ने की है। इसमे १८६१ धातुओ के रूप बताए गए हैं। वि० स० १६६६ मे लिखित ७६ पत्नी की प्रति तथा वि० स० १७६५ मे लिखित ५७ पत्नी की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में विद्यमान है। टीकाकार का निर्देश-वचन इस प्रकार है वातुपाठस्य टीकेय नाना धातुत रङ्गिणी। प्रक्षालयतु विज्ञानामज्ञानमलमान्तरम् ।। डॉ० वेल्वाल्कर के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना स० १७१७ मे की गई थी। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरणो पर जनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १२७ ६ न्यायरत्नावली खरतरगच्छीय आचार्य जिनचन्द्रसूरि के शिष्य व्यारत्नमुनि ने स० १६२६ मे सारस्वत व्याकरण के न्यायवचनो का एक विवरण इसमें प्रस्तुत किया है। वि० स० १७३७ मे लिखित एक प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद मे है। ७ प-सन्धिटीका मुनि सोमशील द्वारा यह प्रणीत है। रचनाकाल अज्ञात है। हस्तलिखित प्रति पाटन के भण्डार मे प्राप्त है । ८ पञ्चसन्धिबालाववोध (सामान्य) १८वी शती मे उपाध्याय राजसी ने इसकी रचना की थी। विषय का सकेत नामकरण से ही प्राप्त हो जाता है। बीकानेर के खरतर आचार्यशाखा के भण्डार मे इसका हस्तलेख है। ___६ प्रक्रियावृत्ति ___खरतरगच्छीय मुनि विशालकीति ने १७वी शती मे इसे बनाया था। बीकानेर मे श्री अगर चन्द नाहटा के संग्रह मे इसकी हस्तलिखित प्रति है। १० भाषाटीका मुनि आनन्दनिधान ने १८वी शताब्दी मे इसकी रचना की थी। नामकरण से ऐसा लगता है कि सरल सस्कृत भाषा का इसमे प्रयोग किया गया होगा। इसका हस्तलेख भीनासर के वहादुरमल वाठिया-सग्रह मे है। ११ यशोनन्दिनी दिगम्बर मुनि धर्म भूषण के शिष्य यशोनन्दी ने इसे बनाया था । ग्रन्थकार का स्वविषयक निर्देश निम्नावित है राजवाजविराजमान चरणश्रीधर्मसद्भूषण स्तपट्टोदयभूधरधुमणिना श्रीमद्यशोनन्दिना । १२ रूपरत्नमाला ___ तपागच्छीय भानुमेरू के शिष्य मुनि नयसुन्दर ने वि० स० १७७६ मे इसे बनाया था। अन्य मे प्रयोगो की साधानका है। ग्रन्थ का परिमाण १४००० श्लोक Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा प्रति चतुर्भुज जी के भण्डार मे सुरक्षित है । युधिष्ठिर मीमासक ने सस्कृतव्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग १ मे सहजकीति द्वारा प्रणीत व्याख्या का नाम 'प्रक्रियावात्तिक' लिखा है। उनके लेखानुसार हेमनन्दनमणि के शिष्य सहजकीति थे । ग्रन्थकार ने रचनाकाल का निर्देश स्वय किया है वत्सरे भूमिसिद्धयड्गकाश्यपीप्रमितिश्रिते । मावस्यशुक्लपञ्चम्या दिवसे पूर्णतामगात् ।। २४ सारस्वतवृत्ति __ श्रीचतुरविजय जी के 'जनेतर साहित्य और जैन" लेख के सन्दर्भानुसार हर्षकातिसूरि ने एक वृत्ति को लिखा था। सम्भवत इस वृत्ति का नाम दीपिका था। २५ सिद्धान्त रत्नम् ____ युधिष्ठिर मीमासक ने सारस्वत के रूपान्तरकारो मे जिनेन्द्र वा जिनरल का भी नाम गिनाया है। इसके अनुसार जिनरत्न ने यह टीका लिखी थी, जो बहुत अर्वाचीन मानी जाती है। सिद्धान्त चन्द्रिकाव्याकरण पर टीकाएँ सारस्वत व्याकरण के रूपान्तरका रामाश्रम या रामचन्द्रश्रिम ने "सिद्धान्तचन्द्रिका" नामक एक विशद वृत्ति लिखी है। इसमे लगभग २३०० सूत्र है। मङ्गलाचरण मे दिए गए परिचय से इस वृत्ति को महाभाष्यकार पतञ्जलि के मत का पूर्ण अनुसरण करने वाली कहा जा सकता है मत वुवा पतलले इस सिद्धान्तचन्द्रिका पर खरतरगच्छीय जिनमक्तिसूरिशाखा के सदानन्दाणि ने 'सुबोधिनी' नामक एक महती वृत्ति की रचना की है। इसके अतिरिक्त ७ अन्य टीकाओ का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इनमे सदानन्दमणिप्रणीत 'सुबोधिनी' टीका का विशेष परिचय प्रस्तुत कर ७ अन्य टीकाओ का सामान्य परिचय यह। दिया जाएगा। ૧ સુવોધિની कृदन्तवृत्ति के अन्त मे रचनाकाल १७६६ वर्प लिखा है, इससे ग्रन्थ का रचनाकाल निश्चित ही है । ग्रन्थरचना का प्रयोजन यद्यपि स्पष्टतया उल्लिखित नही है तथापि 'कृरप्रकाशिका, सुधीभुदे' इन दो शब्दो के आधार पर अर्थ का स्पष्ट प्रकाशन एव बुधजनानुरजन को प्रयोजन माना जा सकता है Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १३१ सदानन्द प्रतीष्ट्रय्य जगन्नाथ सदानन्देन समुद।। सिद्धान्त चन्द्रिकावृत्ति क्रियते कृत्प्रकाशिका॥ (उत्तरार्ध २३।१)। નિધિનન્દાર્વ મૂવર્ષે સાનન્દ સુધીમુદ્દે सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति कृदन्ते कृतवानृजुम् ।। (उत्तरार्ध ३१।११६)। वृत्ति के प्रारम्भ मे पुराणपुरु५ अर्हन्तनायक को नमस्कार कर ग्रन्थकार ने वृत्ति रचना की प्रतिज्ञा की है और अपनी गुरु-शिष्यपरम्परा प्रस्तुत की है। उसके अनुसार जगत्पूज्य खरतर आम्नाय मे भट्टारक श्रीजिन भक्तिसूरि हुए, जो अपने निर्मल यश से चन्द्रवत् तथा तेज से सूर्यवत् थे। उनसे यतीन्द्र श्रीकातिरत्नसूरि हुए, उनके शिष्य पाठकप्रवर श्रीसुमतिरड्ग, उनके शिष्य पाठक श्रीसुखलाभ, उनके शिष्यवर्य पाठकवारणेन्द्र श्रीभागचन्द्राणि, उनके शिष्य श्रीभक्तिविनय हुए। इन्ही के विनयप्रधान शिष्य थे सदानन्दगाणि । द्विरुक्तप्रक्रिया एव कृदन्त की समाप्तिपर भी अपने साक्षाद् गुरु भक्तिविनय की विशेषताओ का उल्लेख किया है। ___ ग्रन्थकार ने विषयविवेचन मे किसी पूर्वाचार्य के मत का सामान्यतया खण्डन नही किया है । विरोध उपस्थित होने पर उसे लोकमान्यता या शिष्टसम्मत पक्ष प्रस्तुत करते हुए हेय या उपादेय कहने का प्रयास किया है। कही-कही समन्वयार्य तृतीय मत को भी दिखाया है। जैसे 'अदस्' शब्दोत्तरवर्ती 'सि' प्रत्यय को औकारादेश होने पर 'असो' रूप तथा इसी मे 'अक' प्रत्यय होने पर 'असका असुक 'ये दो रूप निष्पन्न होते है । दकार को मकारादेश करने पर अमुक' रूप भी साधु माना जाता है । परन्तु वृत्तिकार ने पूर्वाचार्यों का अनुसरण कर इसे साधु नही माना है। तथापि अव्युत्पन्न नाम मानकर वृत्ति विषय (समास आदि) मे ही इसका प्रयोग किया जा सकता है इसे भी दिखाया है (द्र०-पूर्धि १०।६६, १७।१०६)। प्रातिपदिक के १ से ५ तक अर्थ अन्यान्य आचार्यों द्वारा मान्य है स्वार्थ, द्रव्य, लिड्ग, सख्या तथा कारक । ऐसे स्थलो मे वृत्तिकार ने पृथक्-पृथक् आचार्यों के मतविशेष को स्पष्ट किया है। इससे यह सुनिश्चित है कि वृत्तिकार को पाणिनीय व्याकरण के भी मतो का परिज्ञान था (द्र०-पूर्वार्ध १६११)। प्रसगत अनेक आवश्यक अवशिष्ट अशो की पूति-हेतु विशेष वचन प्रस्तुत किए गए है, जिनमे सिद्धान्तचन्द्रिका का अर्थ सुबोध हो जाता है और इस प्रकार 'सुबोधिनी' टीका की अन्वर्थता भी सिद्ध हो जाती है । यथा परिभाषाप्रकरण मे सूत्रज्ञापित पन्द्रह परिभाषाओ की तथा कर्मसंज्ञा के प्रकरण मे अकथित आदि कर्मसज्ञाविधायक पाणिनीय सूत्रो की व्याख्या करना । इसी प्रकार विभक्तिसज्ञा के प्रसङ्ग मे "इदम इ५ विभक्ती" आदि तीस सूत्रो की भी व्याख्या की है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा कहा जाता है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति बीकानेर के कृपाचन्द्रसूरि-ज्ञान भण्डार मे, दूसरी प्रति अहमदाबाद मे है। सिद्ध हेमचन्द्र तथा पाणिनि के भी मतो का इसमे समादर किया गया है । अधोशित परिचय के आधार पर नयसुन्दर ने सारस्वत व्याकरण पर वात्तिको की भी रचना की थी। ग्रथिता नयसुन्दर इति नाम्ना वाचकवरेण च तस्याम् । सारस्वतस्थिताना सूत्राणा पात्तिक लिखत् ।।३७।। श्रीसिद्धहमपाणिनिसम्मतिमाधाय सार्थका लिखिता । ये साधव प्रयोगास्ते शिशुहितहेतवे सन्तु ।।३८॥ १३ विचिन्तामणि अपलगच्छीय कल्याणसागर के शिष्य मुनि विनयसागर सूरि ने इसकी रचना पद्यो मे की थी। ग्रन्थकार ने इसका परिचय स्वयं इस प्रकार दिया है श्रीविधिपक्षगच्छेशा सूरिकल्याणसागरा । तेपा शिष्यवराचार्य सूरिविनयसागरै ॥२४॥ સારસ્વતસ્ય ભૂવાળા પદ્યવર્ધીવિનિમિત ! विचिन्तामणिग्रन्थ कपा०स्य हेतवे ॥२५॥ वि० स० १८३७ मे लिखी गई ५५तो की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद मे सुरक्षित है। १४ श०६प्रक्रियासाधनी ___ आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने २०वी शताब्दी मे इसकी रचना की थी, इसका उल्लेख उनके जीवनचरितसम्बन्धी लेखो मे किया गया है (जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५)। १५ शब्दार्थचन्द्रिका विजयानन्द के शिष्य हसविजयगणि ने अत्यन्त साधारण इस टीका को बनाया था। इसका अन्य परिचय प्राप्त नहीं है, केवल स० १७०८ मे ग्रन्यकार के विद्यमान होने का उल्लेख युधिष्ठिर मीमासक ने किया है सस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ५७५ । १६ सारस्वतटीका मुनि सत्यप्रवोध ने सारस्वतव्याकरण पर एक टीका लिखी थी, इसका रचनाकाल अज्ञात है। पाटन और लीवडी के भण्डारी मे इसके हस्तलेख प्राप्त होत है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन · १२६ १७ सारस्वतटीका श्रीचतुरविजय जी के "जनेत र साहित्य और जैन" लेख के अनुसार यतीश विद्वान् ने एक टीका लिखी थी। सम्भवत ग्रन्थकार का नाम सहजकीति हो सकता १८ सारस्वतटीका तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र के शिष्य देवचन्द्र ने एक श्लोकवद्ध टीका की रचना की थी। इसकी हस्तलिखित प्रति बीकानेर मे श्री अगरचन्द नाहटा के भग्रह में प्राप्त है। १९ सारस्वतटीका इसे मुनि धनसागर की कृति कहा जाता है । धनसागरप्रणीत होने से यह टीका 'धनसागरी' नाम से भी अभिहित की जाती है। इसका उल्लेख जनसाहित्य के सक्षिप्त इतिहास में किया गया है। २० सारस्वत (क्रिया) रूपमाला पभसुन्दरमणि ने इसमे धातुरूप दिखाए हैं । ग्रन्थारम्भ मे कहा गया है सारस्वतक्रियारूपमाला श्रीपमसुन्दरै । सदृधाऽलकरोत्वेषा सुधिया करुदली ।। वि० स० १७४० मे लिखी गई ५ पनो की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय सस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद मे प्राप्त है। २१ सारस्वतमण्डनम् श्रीमालज्ञातीय मन्त्री मण्डन ने १५वी शताब्दी मे इसकी रचना की थी। २२ सारस्वतवृत्ति क्षेमेन्द्र रचित सारस्वत-टिप्पण पर तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र ने १७वी शताब्दी मे एक वृत्ति रची थी। हस्तलेख की प्रतिया पाटन तथा छाणी के शानभण्डारी मे प्राप्त है। २३ सारस्वतवृत्ति खरतरगच्छीय मुनि सहजकीति ने वि० स० १६८१ मे इसकी रचना की थी। इसकी हस्तलिखित एक प्रति बीकानेर के श्रीपूजा जी के भण्डार मे तथा दूसरी Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ . सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ____किमी एक ही अर्थ की प्रामाणिकता के लिए अनेक कोशवचनो को उद्धृत किया है । जैसे १ भरतीति वभ्र . । 'वभ्र वैश्वानरे शूलपाणी च ॥णध्वजे । विशालेनकुले पुसि पिङ्गले त्वभिधेयवत्' इति मेदिनी । बभ्रुमन्वन्तरे विष्णौ वभ्र नकुलपिड गली' इति धरणि (उत्तरार्ध २७.१७) । २ मृग यातीति मृगयु । 'मृगयु पुसि गोमायौ व्याधे च परमेष्ठिनि' इति मेदिनी । 'मृगयुर्ब्रह्माणि ख्यातो गोमायुयाधयोरपि' इति विश्व (उत्तरार्ध २७१३२)। ३ नभ । 'नभो व्योम्नि मेधे श्रावणे च पतद्गृहे। ध्राणे मृणालमूने च वासु च नमा स्मृत' इति विश्व । 'नभ ख श्रावणो नभ' इत्यमर । नभ तु नभसा सार्धम् इति द्विरूपकोश (उत्तरार्ध २७।३१४)। यद्यपि वृत्तिकार ने व्याख्यात विषय के प्रमाण मे रामायण, श्रीमद्भागवत, भारत, भाष्य, हरिटीका, भट्टि, सिद्धान्तकौमुदी आदि अनेक ग्रन्थो, भाष्यकार, कयट, हरदत्त, यास्क, माधव, कालिदास, श्रीहर्ष, वोपदेव प्रभृति अनेक आचार्यो का उल्लेख किया है। इनमे भी अजयकोश, मसारावर्त, विक्रमादित्यकोश तया वोपालित प्रभृति कुछ नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है तथापि किन्ही शब्दो के अकारान्तत्व आदि मे प्रमाण के लिए पुराणवचन भी उद्धृत किए गए हैं । यथा १ थिन शिर कि । श्रिन सेवायामस्मादसु स्यात् स च कित् धातो गिरादेशश्च । शिर । 'उत्तमाइगं शिर शीपम्' इत्यमर । प्रत्यये तु 'शिर' इत्यदन्तोऽपि । गिरोवाची शिरोऽदन्ती रजोवाची रजस्तथा' इति कोशान्तरम् । 'पिण्ड दद्याद् गयाशिर' इति वायुपुराणे। कुण्डलोद्धृष्टगण्डाना कुमाराणा तर स्विनाम् । निचकत शिरान् द्रौणिनलिभ्य इव पकजान् ।। इति महाभारते (उत्तरार्ध २७।३०५)। इस प्रकार यह वृत्ति सरल, प्रमाणयुक्त तथा पूर्ण है सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति कृदन्ते कृतवानृजुम् । पतलिमतानुसारिणी सिद्धान्तचन्द्रिका' के विपयो का स्पष्टीकरण भी पतजलि के ही मतानुसार करना सगत प्रतीत होता है, वृत्तिकार ने इसका पूर्ण व्यान रखा है, जिसमें यह कहा जा सकता है कि सुबोधिनी' टीका का मुख्य आधारअन्य पतजलि का महामान्य है। यद्यपि ग्रन्यकार ने कही इस प्रकार की कोई प्रतिना तो नहीं की है परन्तु ग्रन्थ के परिशीलन से ऐसा प्रतीत होता है । निम्नाकित कुछ वेचन द्रष्टव्य हैं १ प्रश्न । प्रच्छेतु सम्प्रमारण न भायेज्नु क्तत्वात् (पूर्वि ५७) २ दम्य म । (इमम्, इमो, इमान्) त्यदायत्वे मत्ले औत्व च इमो । त्यदादे. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १३३ सवोबन नास्तीत्युत्सर्ग । प्रचुरप्रयोगादर्शनमेवान मूलम् । भाष्ये तु 'हे स' इत्युक्तम् (पूर्वार्ध १०।२०)। ३ पिद्भिदाम (उत्तरार्ध ३०१५२) । मृजूप शुद्धो मृणा। कय तर्हि 'मधुमुरभिमुखाजगन्धलवे' (७१४१) इति मा५ । 'प्रेक्षोपलब्धिश्चित् सवित्' इत्यमरश्च । पित्वादिहाड् प्रत्यय उचित , सत्यम् । अनर्थकास्तु प्रतिवर्णमर्यानुलब्धे' इति भायप्रयोगाद् बाहुलकात् क्तिप्रत्ययोऽपि बोध्य । २ अनिट्कारिकावचूरि ___ मुनि क्षमामाणिक्य ने इसे लिखा था। इसकी हस्तलिखित प्रति बीकानेर के श्रीपूज्य जी के भण्डार मे है। ३ अनिट्कारिका-चोपज्ञवृत्ति __नागपुरीय तपागच्छ के हपकीतिसूरि ने इसकी रचना की है । अनिट्कारिका का रचना काल म० १६६२ तथा स्वोपजवृत्ति का स० १६६६ है। हस्तलिखित प्रति वीकानेर के दानसागर-भण्डार मे है । ४ भूधातुवृत्ति खरतरगच्छीय क्षमाकल्याणमुनि ने इस वृत्ति की रचना वि० स०१८२८ मे की है। इसका हस्तलेख राजनगर के महिमाभक्ति-भण्डार मे है। ५ मुग्धाववोध-औक्तिकम् तपागच्छीय आचार्य देवसुन्दरसूरि के शिष्य कुलमण्डनसूरि ने १५ वी शताब्दी मे इसे बनाया है। ६ सिद्धान्तचन्द्रिका-टीका आचार्य जिनरत्नसूरि को इसका प्रणेता माना गया है । जनसाहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५ मे प० अम्बालाल प्रेम शाह के अनुसार यह टीका प्रकाशित होनी चाहिए, परन्तु मैंने इसे नहीं देखा है। ७ सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति खरतरगच्छीय मुनि विजयवर्धन के शिष्य ज्ञानतिलक ने १८ वी शताब्दी मे इसे लिखा है। इसकी हस्तलिखित प्रतियां बीकानेर के महिमाभक्तिभण्डार और अबीर जी के भण्डार मे है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ८ सुबोधिनी ___खरतरगच्छीय रूपचन्द्र ने भी १८ वी शताब्दी मे इसका प्रायन किया था। ३४६४ श्लोक इसका परिमाण बताया गया है। बीकानेर के किसी भण्डार मे इसकी प्रतियां है। गणपाठ पर आधारित यद्यपि प्रत्येक व्याकरण का एक निश्चित गणपा० होता है, जिस पर अन्यान्य ___ आचार्य विद्वानोकोटीकाएं भी प्राप्त होती हैं । तथापि कुछ ऐसे भी अन्य हैं जिनका किसी व्याकरणविप से ही सम्बन्ध नहीं होता। किन्तु अनेक व्याकरणो के आवार पर उनकी रचना होती है। संस्कृत व्याकरण मे एक ही आचार्य द्वारा लिखे गए गणपाल सम्बन्धी दो अन्य उक्त श्रेणी मे माने जा सकते है, अत उनका विशेष परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जाएगा। १ गणरत्नमहोदधि श्रीगोविन्दसूरि के शिष्य श्रीवर्धमान ने गणरत्नमहोदधि नामक अन्य की रचना वि० म० ११९७ मे की थी। यह ग्रन्थ मा० अध्यायो मे विभक्त है और इसमे ४६० श्लोक देखे जाते हैं । ग्रन्थ के अन्त मे स्वय ग्रन्यकार ने रचनाकाल आदि का स्पष्ट उल्लेख किया है ફિન્નિત્ ર્વાન્વિત્ બૂિ રતિ પદ્યાનુસારતોમામિ ! सुन्दरमसुन्दर वा तल्लक्ष्य सहृदयरेव ॥१॥ सप्तनवत्यधिवेकादशसु शतेवतीतषु । વર્ષાબા વિમતો મળરત્નમવિહિત રા किम व्याकरण के अनुसार इसमे गणपा० प्रस्तुत किया गया है इस विषय ५. विद्वानों द्वारा परस्पर कुछ भिन्न विचार किए गए है। युधिष्ठिर मीमासक ने अपने 'मतव्याकरण शास्त्र का इतिहास' (भाग १, पृ० ५६३) अन्य मे वर्धमान के स्वरचित व्याकरण की सम्भावना की है, अन तदनुसार ही गणरत्नमहोदधि में दो का पा० होना चाहिए । प० अम्बालाल प्रेम शाह ने 'जनसाहित्य का वृहद् इनिहाम' (भाग ५, पृ० २०-२१) मे शाकटायन व्याकरण के अनुसार इसमे गण ब्दो का पा० माना है । परन्तु गणरत्नमहोदधि का अनुशीलन करने पर ये दोनो विचार प्रामाणिक प्रतीत नहीं होते। नियों की प्रार्थना पूर्ण करने के लिए वर्धमान ने इस अन्य की रचना की है। उन्होंने ग्रन्थारम्भ में इस हेतु का उल्लेख करते हुए Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाएं एक अध्ययन १३५ यह स्प८८ स्वीकार किया है कि अनेक शब्दशास्त्री तथा महाकाव्यो का परिशीलन करके ही प्रकृत ग्रन्थ की रचना मे प्रवृत्त हो रहा हूँ विदित्वा शब्दशास्त्राणि प्रयोगानुपलक्ष्य च। स्वशिष्यप्रार्थिता कुर्मो गणरत्नमहोदधिम् ।।३।। इससे यही कहा जा सकता है कि उन्होंने किसी एक स्वरचित या शाकटायनादिप्रणीत व्याकरण के अनुसार प्रकृत ग्रन्थ की रचना नही की थी। इस विषय की सम्पुष्टि मङ्गलाचरण के श्लोक २ से भी की जा सकती है, जिसमे उन्होने पाणिनि, शाकटायन, चन्द्रगामिप्रभृति अनेक शाब्दिक आचार्यो की जो सुप्-तिड लक्षण दो प्रकार के पद मानते है, स्तुति की है । यदि स्वरचित व्याकरण के अनुसार गणपाठ करना अभीष्ट होता तो स्वशिष्यप्रार्थना को ग्रन्थ रचना मे हेतु बताना सड्गत नही होता। क्योकि ग्रन्यकार को स्वयं ही अपने व्याकरण की सार्थकता के लिए गणपाठ करना आवश्यक हो जाता। इसी प्रकार यदि शाकटायन व्याकरण ही इसका आधार होता तो पाणिनि, चन्द्रगोमि, भर्तृहरि, वामन आदि आचार्यों की स्तुति का कोई महत्व नहीं होता। इस विषय पर सपादक जुलियस एकलिड्ग ने भी कोई प्रकाश नहीं डाला है, केवल हेमचन्द्र के कुछ गणो से साम्य की चर्चा अवश्य की है । इसके लिए कुछ और भी प्रमाण हो सकते है जिनकी चर्चा गणरत्नमहोदधि की स्वोपज्ञवृत्ति के परिचय मे की जाएगी। यहाँ यह भी ध्यान रखना पाहिए कि पाणिनीय और शाकटायन व्याकरण मे जो गण या गणपठित शब्द है उनसे गणरत्नमहोदधि के गणनाम, उनकी सख्या तथा गणपठित शब्दो मे अनेकत्र अन्तर दृष्ट है । गणरत्नमहोदधि के गणो की कुल संख्या २२१ है, जबकि पाणिनीय गणपा० मे २६१ गण देखे जाते है । इसके विषयो की सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है अध्याय १ 'चादि' प्रभृति नाम गण। अध्याय २ 'अर्धादि' प्रभृति समासप्रक्रिया सम्बन्धी । अध्याय ३ तद्धितप्रक्रियान्तर्गत स्वायिक-अपत्यप्रत्ययसम्बन्धी गण। अध्याय ४. तद्धितान्तर्गत समूह-विकार-अवयव-वेत्ति-अधीते अर्थ सम्बन्धी गण। अध्याय ५ तद्धितान्तर्गत शेष-साध्वर्थ-भव-आख्यान-आगत-अर्थ-कृत-अभिजन पाक-३८मर्थविहित प्रत्ययसम्बन्धी गण।। ___ अध्याय ६ करोति-आहेत-गच्छति-प्राप्त-प्रभावित कार्यम्-दीयते-प्रयोजनचरति--उत्पात--सयोग--हरति-वहति-आवहति--पृच्छति-गच्छति-आह-तेन चरतिजीवति-हरति-निवृत्त-वसति-धर्ना-प्रहरण-शील-पण्यलक्षणार्थ-विहितप्रत्ययसम्बन्धी गण। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा अध्याय ७ अस्य सजातम्, अस्य भाव फर्म वा, अनेनास्यान वाऽस्त्यर्यविहितप्रत्ययसवन्धी गण। अध्याय ८ आख्यात-कृदाश्रितप्रत्ययसम्बन्धी गण।। कुछ गणशब्दो का पाठ ग्रन्थकार ने किसी पूर्ववर्ती आचार्य विगेप के मतानुसार किया है, जैसे केदारादि गण मे पठित शब्द वामनाचार्य के मतानुसार लिए गए है केदारादी राजराजन्यवत्सा उष्ट्रोरभ्रौ वृद्धयुक्तो मनुष्य । उक्षा ज्ञेयो राजपुनस्तयेह केदारादौ वामनाचार्यदृष्टे ।। (४।२५८) किन्ही गणो के सन्दर्भ मे आचार्य विशेष का नाम न लेकर उन्हे वुध या विबुध मतानुसार माना गया है। जैसे कुण्डादि-पानादि, ज्योत्स्नादि गण द्रष्टव्य है ५लेपद्रव्ये खलो लक्ष्यो विदारशमोपधौ । दूत संदेशहारिण्या कुट्टिन्या शम्भलो वुधै ।। (१९५७) । ज्योत्स्नाशब्दस्तमित्रा च कुतु५ स्याद् विपादिका। विसो नखरश्चापि कुण्डलोऽपि मतो बुध ॥ (७।४१६) । दण्डार्ध मेधामुसलानि मेयो वधोदकेमा मधुपर्कयुक्ता । युग कशासौ पितृदेवता च दण्डादिरेव विवुधै प्रणीत ।। (६।३७१)। लोम वस्तु मुनि को गिरिवधू हरि कपि । लोमादी विवुधया रू रोम तथा भुरु ॥ (७।४।२१)। ग्रन्थ मे उपसर्गों के लिए न तो स्वतन्त्र 'प्रादि' गणपठित है तथा न उन शब्दो का पा० 'चादि' या 'स्वरादि गण मे किया गया है। इसका कोई उचित समाधान प्राप्त नही होता । कादि, लोहितादि, सुखादि' कुछ गण भिन्न-भिन्न प्रत्ययो के लिए दो-दो बार पढे गए है, जैसा कि पाणिनीय गणपा० मे भी देखा जाता है। गणपठित शब्दो का विवरण तथा औचित्यादि स्थिर करने के लिए ग्रन्थ पर स्वतन्त्र अनुसन्धानकार्य अपेक्षित है। सामान्यतया यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि सस्कृत-व्याकरण के क्षेत्र मे गणरलमहोदधि ही एक ऐसा प्राचीन ग्रन्थ है जो गणवन्धी प्रामाणिक सूचनाएँ प्रस्तुत करता है। २ गणरत्नमहोदधि स्वीपज्ञवृत्तिः । वि० स० ११६७ मे स्वरचित गणरत्नमहोदधि के गणशब्दो का सुखपूर्वक बोध कराने के उद्देश्य से आचार्य वर्धमान ने स्वीपज्ञ वृत्ति की रचना की है। स्वय अन्यकार ने इसे कण्ठत स्वीकार किया है સુલેનૈવ બહીષ્યન્તિ મારત્નાનિ જા ઉછતા ! वृत्ति साऽऽरभ्यते स्वीयगणरत्नमहोदधे ॥१।। यद्यपि अन्यकार ने इसकी रचना का समय नही लिखा है तयापि वि० स० ११६७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १३७ के अनन्तर ही उस वृत्ति की रचना की होगी-ऐसा सामान्यतया कहा जा सकता है। ___शब्दो के प्रयोगस्थलो तथा मतविशेषो को दिखाते हुए वृत्तिकार ने ५० से भी अधिक ग्रन्थकार तथा २५ से भी अधिक ग्रन्यो का नामोल्लेख किया है। जिनमे निर्वाणनारायण, वल्लभ, श्रीवसुक, छित्तप, परिमल, अरुणदत्त, भलूट तथा अजितदेव जैसे अप्रसिद्ध ग्रन्थकार भी उल्लिखित हुए है। इसी प्रकार अमरमाला, वृहत्तन्त्र, शाश्वतकोश, अजय तया मानवी वृत्ति जैसे कुछ अप्रसिद्ध ग्रन्थ भी उद्धृत किए गए है। वर्धमान ने कुछ उदाहरण स्वरचित काव्यग्नन्थ सिहराज वर्णन से भी दिए है, जिनका निर्देश उन्होने पाँच स्थानो मे इस प्रकार किया है १ प्रादु प्राकाश्य । यथा ममैव नि सीमाश्चर्यधाम त्रिभुवन विदित पत्तन यत् त्वदीयम्, तन्मध्ये वृद्धिमीयुः फलभरनमिता शाखिन५चूतमुख्या । તંતપિત્ત વિવિજ્ઞાન્ વિહિતવૃતયુ ત્વ...માવાત્ સતીશ ! प्रादु पन्ति प्रभूता यदि सुरतरवश्चितमेतद् बुधानाम् ।। (२।६७)। २ यथा वा ममैव દૂરાવપિ રિપુનો મનીષિત થન્નતિ સામા ! अविमिवेतरभूभृन्निरुद्धगतयोऽपि कूलिन्य ।।(२।१४६) । ३ यथा ममैव सिद्धराजवर्णने प्रत्युप्तमुक्ताफलपमग जगत्काकिलोहितीकम् ।। (३।१६२) । ४ यथा ममैव सिद्धराजवर्णने जति यस्य प्रयाणे जातसध्या भिशका ॥(१३३४) । ५ यथा ममैव नवे योनिकोद्भेदे मनीषिण ॥(७।४०६)। एक उदाहरण स्वरचित क्रियागुप्तक से भी दिया गया है १ यथा ममैव क्रियागुप्तके उद्यत्तीवानगनाराचविद्धा स्वप्राणेभ्यो वल्लभ वामदृष्ट्वा । वेगादेषा चक्रवाकी वराकी तीसत्तीरे प्रातरेव प्रयाति ।। (२।१५५)। परन्तु इस एक उदाहरण से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि 'क्रियागुप्तक' नामक कोई Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा प्रकरणमात्र है या स्वतन्त्र ग्रन्थ । अस्तु किसी शब्द के अर्थ को बताने के लिए अपने ही किसी अन्य ग्रन्थ से यदि उदाहरण दिए जाते है तो सम्भवत उन ग्रन्थो की भी प्रामाणिकता नापित करना होता है । १३८ गणरत्नमहोदधि' किस व्याकरण के आधार पर बनाया गया इसकी चर्चा 'गणरत्नमहोदधि' के परिचय सन्दर्भ मे की गई है । वृत्ति मे कुछ ऐसे वचन प्राप्त होते हैं, जिनसे यह निश्चित है कि वर्धमान ने किसी व्याकरणविशेष के अनुसार उक्त ग्रन्थ नही बनाया है । ग्रन्थकार ने अनेकन यह स्पष्ट कहा है कि यह गणविशेष मैंने आचार्य के अमुक दिखाया है । यथा मतानुसार १ अरुणदत्त के अभिप्राय से 'अर्धचदि' गण का पाठ "अरुणदत्ताभिप्रायेणते दर्शिता " ( २७८ ) 1 २ भोजदेव के मतानुसार किशुकादि, वृन्दारकादि, मतल्लिकादि, खसूच्यादि' गणो का पाठ "अय च गण श्रीभोजदेवाभिप्रायेण” (२२१०७ ) । "एत गणत्रय श्रीभोजदेवाभिप्रायेण द्रष्टव्यम्” (२।११४) । 'शरदादि' गण का पाठ वृद्धवैयाकरणो के मतानुरोध से किया गया है "ऋक्पूरब्धूपयादित्यनेनैव समासान्तस्य सिद्धत्वादस्य पाठो न संगत प्रतिभाति पर वृद्धवैयाकरणमतानुरोधेन पठित" (२।१३५) 1 चन्द्र तथा दुर्ग को अभीष्ट होने से 'नाम्राडादि' गण पठित है "मय च गणश्चन्द्रदुर्गाभिप्रायेण” (२।१५५) । रत्नमति के अनुसार 'हरितादि' गण के शब्दो का सकलन किया गया है શ્વન્દ્રાચાર્યેળ ચબબોવંદુવ્રુત્ત્તિયામિત્યન્ન સૂત્તેપ્રત્યમાત્ર ત્યેવ વાઘા દત્તા इत्युदाहृतम् । रत्नमतिना तु हरितादयो गणसमाप्ति यावदिति व्याख्यातम् । तन्मतानुसारिणा मयाऽप्येते किल निवद्धा " ( ३।२३८ ) | इस प्रकार विविध आचार्यों के मतानुसार कुछ गणो या गणशब्दो का पाठ किए जाने से यह सिद्ध हो जाता है कि वर्धमान ने किसी व्याकरण ग्रन्थ की रचना नही की थी तथा न उसके अनुसार गणपाठ का विवेचन ही प्रस्तुत किया था । यदि उन्होंने स्वरचित व्याकरण के खिलपाठ के रूप मे गणो का प्रवचन किया होता तो उतने ही गणो पर विचार होना चाहिए था । जितने गणो का निर्देश शब्दानुशासन मे किया गया होता । उस स्थिति मे यह कहना सम्भव न होता कि ऋक्पूरब्धूपयात्" भूत्र से ही समासान्त प्रत्यय की सिद्धि हो जाने पर भी 'शरदादि' गण का पाठ वृद्धवैयाकरणो के मतानुरोध से किया गया है (२।१३५) । उपरिदर्शित प्रकरण के अनुसार ग्रन्थकार ने अनेक प्रामाणिक आचार्यों के मतो का संग्रह किया है । इसके अतिरिक्त क्वचित किन्ही मतो को अनुचित बताकर स्वाभिमत भी दिखाया है, जिससे ग्रन्थकार की समीक्षापरक वुद्धि का परिचय 4 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाएं एक अध्ययन १३६ प्राप्त होता है । इसके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है १ ५ञ्चकृत्व' आदि विभक्त्यर्थप्रधान अव्ययो से कौन विभक्ति होती है इसके सम्बन्ध मे सुधाकरप्रभृति आचार्यों का मत स्वीकार नही किया है जिसके अनुसार अव्ययो से पञ्चमी आदि विभक्तियो की उत्पत्ति तथा उनका लुक माना जाता है। यहाँ ग्रन्यकार ने उत्सर्गत प्राप्त प्रथमा-एकवचन को न्याय्य कहा है "५-चकृत्व प्रभृतयस्तु विभक्त्यर्थप्रधाना । स च विभक्त्यर्थ प्रातिपदिकार्थ सपन्न इति प्रातिपदिकार्य प्रथमेव भवति । साऽपि सख्या विशेषाभावान्न सर्वा कि तहि एकवचनमेव, तस्योत्सर्गत्वात् । तथा चोक्तम् एकवचनमुत्सर्गत करिष्यत इति । एतन्न समतम् । सुधाकरस्वाह । प्रथमैन नि सख्येभ्योऽपि न्याय्या" (१११७)। २ भाष्य, वृत्ति के अनुसार परमसपि कुण्डिका' प्रत्युदाहरण को ही ठीक बताया है "परमसपि फलमित्येवमादिप्रत्युदाहरण पारायणिका आहु । भाष्ये, वृत्ती "नित्य समासेऽनुत्तरपदस्थस्य" (पा० ८।३।४५) इत्यत्र परमसपि कुण्डिका इत्येतदेव प्रत्युदाहरणम् । अस्माक चायमेव पक्ष समत" (१३१६) । ३ 'स्वस्राणि गण मे पाणिनि द्वारा युष्मद्, अस्मद् शब्दो का पा० न करना सगत नही माना है (द्र०-११४२)। ४ गौरादिगण मे पठित 'अनही' शब्दविषयक वामन आदि के मतो को अयुक्त सिद्ध किया है। ५ कुण्डादिपानादिगणपठित 'शम्भली' शब्द को वामनाचार्य द्वारा निर्दिष्ट 'दूती' अर्थ को लक्ष्यहीन बताया है (१९५७) । ६ सुन्दर शब्दविषयक किसी आचार्य के मत को समीचीन नही बताया है (११५७)। ७ 'उत्कर्थिक 'सार' शब्द का प्रयोग केवल पुल्लिड्ग मे ही होता है। इस जयादित्य के मत की अयुक्तता अनेक उदाहरणो द्वारा सिद्ध की है (२०७२) । ८ अन्नविकार तथा अपूपादि के विषय मे अपना स्वतन्न मत प्रस्तुत किया "शाकटायनमतमाश्रित्यान्न विकाराश्चेति न पठितम् । अन्ये तु प्रदीपशब्दमपि ५०न्ति। शकटाड्गज । अस्माक त्वयमाशय शकुलीमोदकप्रभूतयोऽनविकारा पृथु कापूपादयस्वनमेव विशिष्टावस्य नानविकार इति पृथगुपादानम्" (५।३५६)। इस प्रकार अनेक पूर्वाचार्यों के मतो की समीक्षापूर्वक लिखे गए वृत्तिअन्य का सस्कृतव्याकरण के क्षेत्र मे अद्वितीय स्थान है। यदि इस ग्रन्थ की सभी सूचनाओ का अन्वेषण कर उनकी समीक्षा की जाए तो उससे किसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि की सम्भावना की जा सकती है । संक्षेप मे इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आचार्य Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० मत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा वर्धमान ने गणरत्नमहोदधि तथा उसकी स्वोपनवृत्ति बनानार मस्त वयाकरणों का महान् उपकार किया है। उन्होने जिन मतो को अयुक्त माना है उनमें प्रवल प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं और अपने निजी अभिमत को भी तर्फसम्मत होने के कारण ही दर्शाया है। जिन अनेक आचार्यों के मतानुसार गणो तया गणशब्दो का समादर किया है उनका नामोल्लेख करने में सकोच नहीं किया गया है, जिसमें किसी मतविशेष का समादर करने या उपेक्षा करने के उद्देश्य से ग्रन्य की रचना नही कही जा सकती है। गणरत्नमहोदधि के प्रारम्भ मे जिन आचार्यों के प्रति अपनी विशेप श्रद्धा व्यक्त की गई है वे आचार्य विविध सम्प्रदायो के है, जिससे यह ग्रन्थ किसी संप्रदाय विशेष का भी अनुकरण करने वाला नहीं कहा जा सकता है। किरण r m " (३) पाणिनीय आदि व्याकरणों पर जैनाचार्यो की टीकाएँ क्रम स टीकाएँ १ अनिट्कारिकावचूरि मुनि क्षमामाणिक्य सिद्धान्त चन्द्रिका (२) २ अनिट्कारिकास्वीपज्ञवृत्ति हपंकीतिसूरि सिद्धान्तचन्द्रिका (३) ३ कलापदीपिका गौतम पण्डित कातन्त्र (१) ४ कातन्तदीपक મુનિહર્ષ कातन (२) ५ कान्त्रिपलिकोद्योत त्रिविक्रम " (१०) ६ कातन्तभूपणम् धर्मधोपसूरि (१४) ७ कातन्त्रमन्तप्रकाश कर्मधर ८ कातन्त्र रूपमाला मुनीश्वर भावसेन , (४) ६ कान्तिवाक्यविस्तर પડિત રામ ॥ (१५) १० कातन्त्र विभ्रमटीका जिनप्रभसूर ११ कान्तिविभ्रमावणि साधुचारितसिंह १२. कातन्त्र विभ्रमावणि મોપોનાવાર્ય , (६) १३ कातन्त्रविस्तर વર્ધમાન , (७) १४ कातन्त्रवृत्तिपलिका તિનો વનવાસ " (८) १५ कातन्त्रवृत्तिपलिका सोमकीति , (१७) ૨૬ તિન્નવૃત્તિપન્ન પ્રવીપ પુષ્મિતે વેતન " (8) १७ कातन्नोत्तरम् विजयानन्द " (११) १८ कालापप्रक्रिया ભાવાર્ય વનવા , (१२) १६ क्रियाकलाप નિવેવસૂરિ पाणिनीय (४) २० क्रियाकलाप નિનવેવસૂરિ कातन्त्र (१६) २१ क्रियाकलाप विद्यानन्द (विजयानन्द) , (१८) Sm Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १४१ २२ कियाचन्द्रिका गुणरत्न सारस्वत (२) २३ गणरत्नमहोदधि श्रीवर्धमान अनेक व्याकरण (१) २४ गणरत्नमहोदधिस्वोपशवृत्ति श्रीवर्धमान " , (२) २५ चतुष्कव्यवहारदुण्डिका धनप्रभसूरि कातन्त्र (२०) २६ चन्द्रिका મેધવિનય सारस्वत (३) २७ दीपिका मेघरत्न " (४) २८ दुर्गपदप्रवोध નિનપ્રવધસૂરિ कातन्त्र (२२) ૨હ દુપવવોઘ प्रबोधमूतिगणि " (२१) ३० दुर्गवृत्ति टिप्पणी पण्डित गोल्हण " (२३) ३१ दोगसिंहीवृत्ति प्रद्युम्नसूरि " (२४) ३२ धातुतगिणी हर्षकीतिसूरि सारस्वत (५) ३३ धातुपारायणम् पण्डित नन्दी कातन्त्र (२५) ३४ न्यायरत्नावली दयारत्नमुनि सारस्वत (६) ३५ ५-चसन्विटीका મુનિ સોમશીન " (७) ३६ पञ्चसन्धिवालावबोध ઉપાધ્યાય રાની " (८) ३७ प्रक्रियामरी વિદ્યાસાગર મુનિ पाणिनीय (३) ३८ प्रक्रियावृत्ति विशालकीर्ति सारस्वत (8) ३९ वालशिक्षाव्याकरणम् कुर संग्रामसिंह कातन्त्र (१३) ४० वालीववोध હરિજન શોપાધ્યાય " (२७) ४१. वालाववोध मेस्तुड्गसूरि " (२६) ४२ भाषाटीका માનન્દનિધાન सारस्वत (१०) ४३ भूधातुवृत्ति क्षमाकल्याण मुनि सिद्धान्त चन्द्रिका (४) ४४ मुग्धाववोध-औक्तिकम् कुलमण्डनसूरि सिद्धान्तचन्द्रिका (५) ४५ यशोनन्दिनी યશોની सारस्वत (११) ४६ रूपरत्नमाला नयसुन्दर " (१२) ૪૭ વિન્તિામણિ विनयसागरसूरि ४८ वृत्तित्रयनिबन्ध રાનરો વરસૂરિ कातन्त्र (२८) ४६ व्याकरणसिद्धान्त सुधानिधि विश्वेश्वरसूरि पाणिनीय (१) ५० शब्दप्रक्रिया साधनी विजयराजेन्द्रसूरि सारस्वत (१४) ५१ शब्दार्यचन्द्रिका हसविजयगणि सारस्वत (१५) ५२ शब्दावतारन्यास देवनन्दी पाणिनीय (२) ५३ सारस्पतक्रियारूपमाला ५सुन्दरमणि सारस्वत (२०) ५४ सारस्वतटीका मुनि सत्यप्रबोध ५५ सारस्वतटीका यतीश विद्वान् (सहजकीर्ति) । (१७) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ मत्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा (१८) मण्डन 9૬ સારસ્વતી देवचन्द्र ५७ मारस्वतटीका (धनसागरी) धनसागर ५८ सारस्वतमण्डनम् ५६. सारस्वतवृति भानुचन्द्र ६० मारस्वतवृत्ति महजकीति ६१ मारस्वतवृत्ति हर्षकीतिर ६२ सिद्धान्तचन्द्रिका टीका जिननमूरि દૂર સિદ્ધાન્ત દ્રિાવૃત્તિ जान तिलक ૬૪ નિદાન્તરત્નમ્ जिनरत्न ६५ सुबोविका चन्द्रकीति દદ સુવોધિની सदानन्दगणि ૬૭ સુવોધિની , (१९) " (२१) " (२२) " (२३) , (२४) सिद्धान्त चन्द्रिका (६) मारस्वत (२५) मिछातचन्द्रिका (2) स्पचन्द्र व्याकरण विशेष पर टीकाओ की संख्या व्याकरण फुल टीकाएं પાણિનીય कान्ति सारस्वत सिद्धान्त चन्द्रिका गणपाठ व्याकरण યો टिप्पणी इस पातन्त-व्याकरण को जन व्याकरण स्वीकार किया गया है। डॉ० (स्व०) नमिचन्द्र शास्त्री ने 'प्याकरणशास्त्र को जैन आचार्यों के योगदान' नामक लेख मे इस बात को सत्रमाण पुट किया है દ્રઢ મનન વિદ્યા છેસાસ્કૃતિક અવવાન” आदर्श साहित्य सध प्रकाशन, १९७५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन : एक परिशीलन मुनि श्रीचंद्र 'कमल' तेरापय धर्ममघ के अष्टमात्रार्य कालगणी का सस्कृत विद्या के प्रति विशेष लगाव था। वे अपने सघ मे इस विद्या का विकास देखना चाहते थे । इस विद्या के विकास के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक था। उस समय सारस्वत और सिद्धान्त चद्रिका ये व्याकरण उपलब्ध थे। सारस्वत का पूर्वार्द्ध और सिद्धान्त चद्रिका का उत्तरार्द्ध पढा जाता था। सार कौमुदी मिलने पर उसका अध्ययन चलने लगा। सिद्धान्त चद्रिका के समास आदि अपूर्ण स्थलो की पूर्ति सार कौमुदी से की जाती थी। दोनो व्याकरणो को मिलाकर पढना अपने आप मे उलझन भरा था। उस स्थिति मे आचार्यश्री कालूगणी की प्रबल भावना बनी कि तेरापथ सघ मे एक ऐसा सस्कृत व्याकरण हो जो सरल, सुवोध और समयोपयोगी हो । उनकी इम भावना को आकार देने वाले विद्वद्वर्य मुनिश्री पोथमल जी हुए। उनका अध्ययन आचार्य कालगणी की देख-रेख मे सपन्न हुआ था। व्याकरण उनका सबसे प्रिय विषय रहा। इसी सदर्भ मे उन्होने पाणिनीय, शाकटायन, सारस्वत, सिद्धान्त चद्रिका, मुग्ववोध, सारकौमुदी, जैनेन्द्र और सिद्धहमशब्दानुशासन आदि व्याकरणो का गहरा अध्ययन व अनुशीलन किया। वर्षों के अध्ययन के बाद आपने एक सङ्गिपूर्ण सस्कृत व्याकरण की रचना की जिसका नाम विशालशब्दानुशासन रखा । विशालशब्दानुशासन के सूत्रो मे परिवर्तन और परिवर्धन कर इस व्याकरण का निर्माण हुआ था। इमलिए प्रारभ मे इसका नाम विशालशब्दानुशासन रखा । मुनिश्री गणेशमल जी की प्रेरणा रही कि इसका नाम भिक्षुशब्दानुशासन रखा जाए। मुनिश्री चोश्रमलजी आचार्य कालूगणी के पास गए और नाम के लिए निवेदन किया। पास मे विराजित मत्री मुनि मगनलालजी स्वामी ने कहा मैं तो प्रारभ से कहता आ रहा है कि इसका नाम भिक्षुरादानुशासन रखा जाए। मत्री मुनि की बलवती प्रेरणा पर ध्यान देकर कालगणी ने स्वीकृति दे दी। उदयपुर मे विक्रमी संवत् १९६२ मे उसका नाम भिक्षुशब्दानुशासन कर दिया गया। भिक्षुशब्दानुशासन के सूत्रो की रचना मुनिश्री चोथमलजी ने की और Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा उसकी वृहद् वृत्ति की रचना सोना मई (अलीगढ, उत्तरप्रदेश) निवासी आयुर्वेदाचार्य आशुकविरत्न पडितश्री रघुनदन शर्मा ने की । पडितजी व्याकरण के पारगामी विद्वान थे। पाणिनीय व्याकरण के अष्टाध्यायी सून्न उनकी स्मृति मे इतने जमे हुए थे कि कभी अनुलोम से, कभी विलोम से, उनका धाराप्रवाह पाठ करते थे। इन सूत्रो के पाठ करने का उनका समय होता था, जब प्रात वे घूमने जाते थे। प्रतिदिन पूर्ण अण्टाध्यायी के सूत्रो का पाठ करना उनका क्रम बन गया था। उनका यह क्रम लवे समय तक चला। मुनिश्री चोयमलजी और आशु कविरत्न प० रघुनन्दनजी- दोनो के सयोग से विशालकाय श्री भिक्षुगदानुशासन व्याकरण तैयार हुआ। यह व्याकरण अपने आप मे पूर्ण है। इसमे शब्दो को अनुशासन करने वाले केवल सूत्र ही नही हैं, उनकी व्याख्याए भी है, लघु और वृहद् वृत्ति भी है । यह व्याकरण धातुपा०, गणपाठ, उणादि, लिङ्गानुशासन, न्याय दर्पण कारिका संग्रह वृत्ति आदि अवयवो से पूर्ण है। यह अभी अप्रकाशित है इसलिए सर्वजन भोग्य न होकर केवल तेरापथ के साधु, साध्वियो के अव्ययन तक ही सीमित है । इसकी प्रक्रिया कालूकीमुदी के नाम से प्रकाशित है। कालूकौमुदी के माध्यम से श्री भिक्षुशब्दानुशासन का परिचय सहज ही मिल जाता है। श्री भिक्षुशब्दानुशासन मे सूत्रो की रचना सरल व स्पष्ट है, उच्चारण की क्लिष्टता नही है। जैसे प्रत्याहार सूत्र अ इ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ ह य व र ल न ण न ड म झ ढ घ घ भ ज ड द ग व ख फ छ ठ थ च ट त क प श प स । इस सूत्र मे सधि के अभाव मे उच्चारण की स्पष्टता है। रचनाकाल श्री भिक्षुशब्दानुशासन की रचना थली प्रदेश मे छापर (आचार्य कालगणी की जन्मभूमि) मे सपन्न हुई। इस व्याकरण का रचनाकाल विक्रम संवत् १९८० से १९८८ है । वि० स० १९८८ के माघ शुक्ला त्रयोदशी शनिवार को पुष्य नक्षत्र मे यह व्याकरण पूर्ण हुआ। यह उसकी प्रशस्ति से स्पष्ट है वृहद् वृत्तिकार द्वारा कृत प्रशस्ति इस प्रकार है मामीत् कश्चिद् विपश्चिद् घृतपदकमलो भिक्षुनामा मुनीन्द्रो। य श्री जनादिताना मनुभव विभवै भूरि भावान् विभाव्य । मुग्वानुतु काम सपदि निपतितान् पापि पापण्डि जाले। तेरापन्था मर्य व्यरचयत सता सपद सम्प्रदायम् ।।१।। મારીમાન સ્તવનુમુનિ રાયવન્દ્ર સ્તનભૂત जात. पश्चादऽगणितगुणो जीतमल्लो गणोश ।। स्यान्तेऽमूद् गणपमधवा तत्पदे चोत्तमोऽस्यात् । श्री माणिक्य स्तदनु च मतो डालचन्द्रो मुनीन्द्र ।।२।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन . एक परिशीलन १४५ समुपगम्य ततोटमपट्टक, नियमिना यमिना धुरिकीर्तित , क्षितितले गणिकालुरय गुण-रति विभाति विभाकरवत् करै ॥३।। शुभगुणगणाराम मेघ कुमार्गनगाशनि., दुरिततिमिरवसे भानुर्भवाब्धि-घटोद्भव. । सुगतिकमला पातु भक्तो जिनेन्द्रसमो भुवि, स जयतु महाराज कालुश्चिर गुणमदिरम् ॥४॥ तच्छिण्यवर्य पुनिचौथमलाभिधेन, सम्यक्तया मथितनमहार्णवेन । एक कलासु सकलास्वपि दिक्षु भिक्षुशब्दानुशासनमिद निरमाय्यमेयम् ।।५।। सर्व गुरोर्भवति यन्मम किञ्चन स्यादेव विचार्य मतिमानिति श०दशास्त्र । अन्थे स्वतो विरचितेऽपि गणिप्रधानश्रीभिक्षुनाम निजकर्तृपदे न्ययुडक्त ।।६।। नोणादिधातुगणवद्ध विधिः परेषा, पुष्टे कृशाम्वरमिवेह सुजाघटीति । तत्रोक्त पा०मपि तत् परिवर्य सम्यगक्षुण्णधी परिचय. समदायि का ॥७॥ एतद् विवृण्वन्तमलीगढस्थितसुनामयीग्रामनिवासि भूसुरम् । स्थलीस्थले वैद्यकवृत्तिवतिन, जानीत त मा रघुनन्दनवियम् ॥८॥ श्री पूज्यसेवकपलाभिलाषिण , सत् साधुसङ्गे सुतरा विलासिनम् । प्राप्यारका निज वैद्यवृत्तित , प्रवर्तमान वृतवृत्तिवर्णने ॥६॥ सरससरलसूत्र निर्विवाद वरेण्य, सदयहृदयसेव्य स्वल्पकालाभिलभ्यम् । निजविषयविशेष भैक्षव शशास्त्र, जयतु जगति नित्य साधुसाव्य तदेतत् ।।१०॥ नगाङ्गनिध्यजतपस्त्रयोदशीदिने सचन्द्र शनिपुष्ययोजिते । निवेशने छापरनामके वरे, वृत्ते समाप्ति सुखपूर्विकाऽभवत् ॥११॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा वृहद्वृत्तिकार का मगलाचार इस प्रकार है થાપિપલ્તવતનો પિતવસ્સવોપિ, प्राप्नोति लोकविरल कविवल्लमत्वम् । तस्या गुणीन्द्रगणवन्धपदोत्पलाया, वाण्या वरेण्यशरण प्रणिपधमानः ।।१।। श्रीचोयमल्लमुनिनिमितरम्य भिक्षुगदानुशासनमिद विवृणोमि वृत्त्या। हृप्यन्तु यल्ललितमूत्रम निपीय, भृङ्गा मरन्दमिव विजजनानगण्या ।।२।। यंपा नितान्तनिहितं करुणाकटाक्ष - नव्योधमो भवति संस्कृतशास्त्र । तपा गणाधिपतिकालुमुनीश्वराणा, जीयापिर चिरस-परणाजरोपि ॥३।। श्रीमज्जनश्वेताम्बरत रापयाभिवसंप्रदायाद्यपुत्पभिक्षुगणिराज सबन्धिसमानुशासन भिक्षुशब्दानुशासनम् । ग्रथका महामहिम्नामादिगुरूणा श्री भिक्षूणामेव तत्कृपयेव जायमानत्वादभिवानेन प्रकाश्यते ।। भिक्षुशब्दानुशासन के ८ अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय मे चार चरण हैं । आठ अव्याओ मे ३७५१ सूत्र हैं । उनका संख्याक्रम इस प्रकार है अध्याय करण બેન્જાય चरण सूत्र or م or r ८५ ل १०५ m r mx س 80 or ه १२४ or or or sr or or ur ur ur ur 9 م in orr 900 amrakura oo.m. م n ه or so و १५३ १४६ ६४ १३२ १६१ mr an ہ mr in 9 m ہ س mr 9 १०८ y m 9 م ११४ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय अध्याय चरण अध्याय चरण १ भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन . १४७ सूत्र अध्याय परण सूत्र १४२ ८ १ १४३ १३४८ २ १२२८३ ११७ ११४८ १३६ is is < Www १०१ is ३७५१ ३७५१ सूत्रो की टिप्पण सहित वृहद् वृत्ति की पहली प्रतिलिपि मुनिश्री चोयमलजी और सगतमलजी ने लिखी थी। फिर उसमे इतने काट-छाट हुए कि वह प्रति पढने मे दुरूह हो गई। फिर स्पष्ट रूप मे प्रथम हस्त प्रतिलिपि मुनिश्री चौथमलजी ने स्वयं लिखी। विक्रम सवत् १९८६ कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी शनिवार को सरदारशहर मे वह प्रति पूर्ण हुई। वह प्रति २६१ पत्रो मे है । प्रत्येक पत्र दोनो ओर लिखा गया है। प्रत्येक पत्र मे ३८ पक्तिया हैं व प्रत्येक पक्ति मे ५६ से ६० तक अक्षर हैं। इस नाथ का परिमाण लगभग १८ हजार श्लोक हैं। इसकी दूसरी प्रति मुनिश्री केवलचन्दजी ने लिखी। तीसरी प्रतिलिपि मुनि सगतमलजी ने लिखी। भिक्षुशब्दानुशासन लधुवृत्ति भिक्षुशब्दानुशासन की लघुवृत्ति लिखने का कार्य मुनि तुलसीरामजी ने प्रारम्भ किया था। कुछ ही समय बाद आचार्य पद का भार सभालने से अन्य कार्यों में समय अधिक लगने लगा और वह वृत्ति लिखने का कार्य स्थगित हो गया। फिर इस कार्य को मुनि युगल श्री धनराजजी और श्री पन्दनमलजी दोनो ने प्रारम्भ कर विक्रम संवत् १९६५ मे पूर्ण किया। प्रशस्ति श्लोक सच्छन्दवारानिधिपारदृश्वभि , श्रीचोथमल्लपिभिरातकौशली। सहोदरी केवलचन्द्रनन्दनी, नाम्ना प्रसिद्धौ धनराज-चन्दनी ॥८॥ ताभ्या निदेशाद् गणनायकाना, विनिर्मिता वृत्तिरिय सुखेन । अक्षाङ्क निध्यात्ममिते सुवर्षे, बोधाय भूयाल्लघु पाठकानाम् ॥६॥ यह लघुवृत्ति ७६ हस्तलिखित पत्रो मे पूर्ण हुई है। प्रत्येक पन के दोनो ओर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ . संस्कृत प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ४० ५क्तिया हैं । प्रत्येक पक्ति मे ५७-५६ तक अक्षर है । यह गन्थ ५७०० श्लोकपरिमाण है । इसकी हस्त-लिखित प्रतिलिपि मुनिश्री पूनमचदजी गगाहर वालो ने वि० स० १९८८ कार्तिक कृष्णा नवमी मगलवार, सिद्धियोग मे हासी नगर मे लिखी। મિક્ષ ધાતુપીઠ यह पातुपा० ८ पत्रो मे पूर्ण हुआ है । इसमे भ्वादिगण की १०८० धातु, अदादिगण की ८७, दिवादिगण की १४१, स्वादिगण की २६, तुदादिगण की १६२, रुवादिगण की २६, तनादिगण को ६, क्यादिगण की ६१, चुरादिगण ४०७, कुल २००२ पातुए हैं। इसकी प्रतिलिपि मुनिश्री चदनमलजी (सिरमा) ने वि० स० १९८६ फाल्गुन कृष्णा ३ को लिखकर पूर्ण की। माठ पत्रो मे अकारादि अनुकम से धातुओ की अनुक्रमणिका है। इसके प्रतिलिपि कर्जा मुनिश्री हीरालालजी (बीदासर) वाले है। भिक्षु गणपाठ गण पाठ की हस्तलिखित प्रति तैयार नही की गई है। बृहद् वृत्ति के अन्तर्गत गणपाठ पूर्णरूप से दिया गया है । केवल मकलन अवशेप है । जव आवश्यकता होगी तब उसका संकलन कर लिया जाएगा। इसी कारण अभी उसकी प्रतिलिपि नही है। કબદ્રિ વૃત્તિ उणादि के चार चरण है। पहले चरण के २५० मूत्र, दूसरे चरण के २५० सूत्र, तीसरे चरण के २५० सूत्र और चौथे चरण के २५५ सूत्र हैं। कुल १००५ सूत्र है । इस ग्रन्थ मे १००५ सूत्रो ५९ वृत्ति है। इस ग्रन्थ के वृत्तिकार मुनिश्री पौयमलजी हैं । विक्रम संवत् १९८३ वैशाख कृष्णपक्ष मे चन्द्रवार को वृत्ति पूर्ण हुई । इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति ३५५त्रात्मक है। प्रत्येक पन मे ३८ पक्तिया हैं और एक पक्ति मे ७०-७३ तक अक्षर हैं। इसके प्रतिलिपि-कर्ता मुनिश्री मागीलालजी (पहुना) हैं। वि० स० १९८३ पौष कृष्णा ८ चन्द्रवार को प्रतिलिपि पूर्ण की। भिक्षुन्यायदर्पण लधुवृत्ति ____ इसके १५पत्र है। एक पत्र मे ३८ पक्तिया हैं । एक पक्ति मे ६४ अक्षर हैं। इसमे भिक्षुशन्दानुशासन के १३५ सूत्रो की लघुवृत्ति है। इसकी हस्तलिखित प्रतिलिपि सर्वप्रथम मुनि तुलमीराम (वर्तमान नाम आचार्य तुलसी) ने विक्रम सवत् १९८६ मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया को रतनगढ़ मे पूर्ण की। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन १४६ भिक्षुन्यायदर्पण वृहद्वृत्ति इसमे १३५ न्यायो पर विस्तृत वृत्ति है । वृत्तिकार मुनिश्री चौथमलजी स्वय है । उन्होने वि० न० १९९४ के भाद्र शुक्ला ३ को इसकी वृहद्वृत्ति की रचना पूर्ण की। वर्गखण्ड रसात्माब्दे, भाद्रमासे सिते दले । कर्मवाट्या तृतीयाया श्रीभिक्षुन्यायदर्पणे ॥१॥ चोथमल्लाभिव साधुवृहद्वृत्ति व्यधान् मुदा । श्रीमता तुलसीराम-गणीन्द्राणा प्रसादत ॥२॥ यह न्यायदर्पण ३४ पत्रो मे पूर्ण हुआ है । प्रत्येक पत्र मे दोनो ओर ३८ पक्तिया है। प्रत्येक पंक्ति मे ६५ ६७ अक्षर है । इसकी हस्तलिखित प्रतिलिपि मुनिश्री नयमलजी (टमकोर) ने वि० स० १६६५ मे आषाढ कृष्णा १२ बुधवार को छापर मे की। भिक्षुलिगानुशासन सवृत्तिक १५७ श्लोकात्मक यह ग्रंथ विभिन्न छदो मे आवद्ध है । इसमे २२ वृत्तो का उपयोग हुआ है। वे ये है अनुष्टुप्वृत्त, वसंततिलकावृत्त, उपजातिवृत्त, दोधकवृत्त, पज्झटिकावृत्त, विद्युन्मालावृत्त, शार्दूलविक्रीडितवृत्त, भुजङ्गप्रयातवृत्त, मृदङ्ककवृत्त, इद्रवज्रावृत्त, मदाक्रान्तावृत्त, शिखरिणीवृत्त, द्रुतविलम्बिवृत्त, मालिनीवृत्त, प्रमाणिकावृत्त, त्रोटकवृत्त, आर्यावृत्त, सग्वरावृत्त, स्रग्विणीवृत्त, इद्रवशावृत्त, हरिणीवृत्त, पथ्योपगीतिवृत्त । उसके १५८ श्लोको के रचनाकार है आशुकवि - रत्न प० रघुनदनजी शर्मा | इसमे पुल्लिंग अधिकार के २१ श्लोक, स्त्रीलिंग अधिकार के ३६ श्लोक, नपुंसक लिंग अधिकार के ३० श्लोक, स्त्रीलिंग । पुल्लिंग अधिकार के १२ श्लोक, पुनपुसक अधिकार के ३७ श्लोक, स्त्री नपुसक अधिकार के७ श्लोक, स्वयत्रिलिंगाधिकार के ६ श्लोक, परवलिंगाधिकार के ६ श्लोक हैं । इन श्लोको के वृत्तिकार हैं मुनिश्री चंदनमलजी (सिरसा) । सवृत्तिक लिंगानुशासन हस्तलिखित २३ पत्रो मे पूर्ण हुआ है । प्रत्येक पत्र मे ४० पक्तिया हैं और प्रत्येक पक्ति मे ६३-६५ अक्षर है । वि० स० १६६७ ज्येष्ठ शुक्ला को श्लोको की वृत्ति पूर्ण हुई | वृत्तिकार की प्रशस्ति के अतिम तीन श्लोक इस प्रकार हैं तत्पादसेवा समुपाश्रयद्भि, सुधीवरेण्यै रघुनदनाह्वयै । आयुविदाचार्यवरस्तदाशु, कवित्व कृद् - रत्ननुपादधद्भि ||५|| विनिर्मित तैर्ननुभिक्षुलिंगानुशासन पद्यपरम्परासु । तदीयवृत्तिर्मुनिचन्दनेन, व्यधायि बोधाय गुरो कृपात ॥६॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० , सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा सवत्यात्मनिधि द्वार द्वीपे भरदि शोभने । शुक्रमासे सिते पक्षे, नवम्या पूतिमासदत् ॥७॥ कारिका-संग्रह वृत्ति ___ भिक्षुशब्दानुशासन के सूत्रो मे जो कारिकाएँ आई हैं, उन श्लोको की वृत्ति इसमे की गई है। सेट अनिट निरूपण, धातु प्रत्यय अनुबंध निरूपण, वृद्गणफल निरूपण, विशेषधातुफल निरूपण, पात्वर्थ विशेष निरूपण, धात्वर्थ उपसर्जन्य भेद प्रका निरूपण, द्विकर्मक गणना निरूपण, सकर्मक अकर्मक निस्पण, अनुस्वारादि निरूपण, णोपदेश निरूपण, सधि निरूपण, मान निरूपण, स्वाङ्ग निरूपण, जाति निरूपण, गुण निरूपण, इदमाद्यर्थ निरूपण, इनकी व्याख्या इस लधुकाय ग्रन्थ मे है । यह ८ पतात्मक है। प्रत्येक पत्र मे ३८ पक्तिया और प्रत्येक पक्ति मे ५६. ६० अक्षर हैं । इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि मुनिश्री नथमलजी (८मकोर) ने वि० म० १९६७ श्रावण शुक्ला ६ शुक्रवार को लाडनू मे पूर्ण की। कालुकौमुदी यह भिक्षुशब्दानुशासन की लघुप्रक्रिया है। इस कालुकौमुदी के रचयिता मुनिश्री चौथमलजी हैं। वि० स० १६६१ आश्विन कृष्णा दशमी बुधवार को जोरपुर मे उन्होने यह प्रक्रिया परिसमाप्त की। प्रगस्ति श्लोक तत्पादाजप्रसादेन, भैक्षुब्दानुशासनी मुनिना चोथमल्लेन, कृतय कालुकौमुदी॥६॥ भूनिधिनिधिचन्द्रेऽन्दे पुज्य, નોવપુરે વરામીવૃદિવસે ! आश्विनमासे कृष्ण पक्षे पूर्णा कालुगणेन्द्र-समक्षे ॥७॥ यह कालुकौमुदी दो भागो मे विभक्त है पूर्वाद्ध और उत्तरार्द्ध। पूर्वार्द्ध मे विषयानुक्रम इस प्रकार है सज्ञा प्रकरण, मधि प्रकरण मे स्वर सधि, प्रकृतिभाव, हस सधि, विसर्ग मधि । स्यादिप्रकरण मे स्वरान्त पुल्लिङ्ग, स्वरान्त स्त्रीलिङ्ग, स्वरान्त नपुसकलिङ्ग, हसान्त पुल्लिङ्ग, हसान्त स्त्रीलिङ्ग, हसान्त नपुसकलि।। अलिङ्गी युष्मद् अस्मद्, अव्यय प्रकरण, स्त्री-प्रत्यय प्रकरण, कारक प्रकरण, समास प्रकरण, और तद्धित प्रकरण। उत्तरार्द्ध मे विषयानुक्रम इस प्रकार है आख्यात प्रकरण मे स्वादिगण, अदादिगण, दिवादिगण, स्वादिगण, तुदादिगण, रुवादिगण, तनादिगण, क्यादिगण, चुरादिगण, कण्ड्वादिगण है । निन्नन्त Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन : १५१ · प्रक्रिया, सन्नन्तप्रक्रिया, यन्तप्रक्रिया, यङ्लुगन्तप्रक्रिया, नाम धातुप्रक्रिया, प्रत्ययमालाप्रक्रिया, पदव्यवस्थाप्रक्रिया, भावकर्मप्रक्रिया, कर्मकर्तृ प्रक्रिया, विभक्त्यर्थप्रक्रिया | कृदन्त प्रकरण मे पूर्वकृदन्त, उणादि उत्तरकृदन्त । पूर्वार्द्ध मे ७५१ सूत्र हैं और उत्तरार्द्ध मे ७२१ सूत्र | ८३३ धातुए हैं । વિશેષતાણું १ भिक्षुशब्दानुशासन की अपनी विशेषताए है । क्योकि आज तक उपलब्ध व्याकरणो मे यह अन्तिम व्याकरण है, अत अन्य व्याकरणो की अपेक्षा इसे सरल बनाने का प्रयत्न किया गया है । जैसे पाणिनीय मे प्रत्याहार के लिए १४ सूत्र दिए गए हैं । इस व्याकरण मे केवल एक सूत्र मे सारे वर्णो का प्रत्याहार किया गया है, वर्ण अनुबन्ध रहित हैं, केवल उच्चारण की सुविधा के लिए सधि नही की गई है । २. इस व्याकरण मे धातुओ का ज्ञान प्रथम क्षण मे उच्चारण से ही हो जाता है कि यह आत्मनेपदी है, परस्मैपदी है या उभयपदी । आत्मनेपदी के लिए ड् अनुबंध है और उभयपदी के लिए 'न्' अनुबंध स्वीकार किया गया है । परस्मैपदी के लिए कोई अनुवन्ध नही हैं । जैसे गाड् गाने=आत्मनेपदी डुकृत् करणे = उभयपदी हम् हंसने = परस्मैपदी हेमशब्दानुशासन को छोडकर अन्य व्याकरणो मे ऐसी सरलता नही है कि उन्पारण के साथ ही आत्मनेपदी, परस्मैपदी आदि का बोध हो जाए । हेमशब्दानुशासन मे आत्मनेपदी और उभयपदी के लिए दोदो अनुवध स्वीकार किए हैं। आत्मनेपदी के लिए इ और ड्, उभयपदी के लिए ई और ग् । जैसे डुपचीस् पाके= उभयपदी डुकृ ग् करणे =उभयपदी ईक्षि दर्शने = आत्मनेपदी वदुड् स्तुत्यभिवादनयो. = आत्मनेपदी भू सत्तायाम्=परस्मैपदी भिक्षुशब्दानुशासन मे केवल एक-एक अनुबंध स्वीकार किया गया है । ३. धातुओ के अनुबन्ध से गणो का वोघ सुगमता से हो जाता है । भ्वादिगण की धातुए अनुबन्ध रहित हैं, शेष गणो के लिए एक-एक अनुबन्ध है । जैसे Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा अदादि गण के लिए क अनुबन्ध । जैसे इक स्मरण । दिवादिगण के लिए च अनुबन्ध । जैसे शोच् तनुकरणे । ४. धातुओ के सेट, वेट और अनिट् की पहचान धातु के उच्चारण मात्र से हो जाती है । अनिट् धातु के लिए अनुस्वार का अनुबन्ध है और वेट के लिए दीर्घ अकार । सेट् धातु के लिए कोई अनुबंध नहीं है। उद् | स्थानम् = उत्यानम् । भिक्षुशब्दानुशासन में इसकी सिद्धि केवल एक सूत्र 'उद स्या स्तम्भो. स' १।३।६४ से हो जाती है, जबकि पाणिनीय मे इसकी सिद्धि के अनेक सूत्र लगते है । वहा उत् के त् को द्, स को थ्, फिर थ् का लोप, द् को त् करके उत्थानम् रूप बनाया जाता है। ६. शिल्पी, खनक , रजक. आदि शब्दो के लिए भिक्षुशब्दानुशासन मे एक सूत्र है 'नृतिखनिरजिभ्य शिल्पियकट्' ५।११७६, जबकि पाणिनीय मे शिल्पिनिक ३।११४५, सूत्र है और उसकी कात्यायन वार्तिक है 'नृति खनिरजिभ्य एव' और पतजलि का भाष्य है 'नृति खनिभ्यामेव प्वन्' उणादी क्वनि । ७. लघु सिद्धान्त कौमुदी के हल सधि प्रकरण मे ४१ सूत्रो और कई वातिको से जो कार्य किया जाता है, वह कार्य इस व्याकरण के केवल २३ सूत्रो से हो जाता है। इस व्याकरण मे सरलता पर विशेष ध्यान दिया गया है। यदि 'युष्मदस्म(प्रकरण' के २२ सूत्रो को एक सूत्र मे उनके रूपो को निपात कर देते तो और सुगमता हो जाती। वैसे ही इंगलिश और हिन्दी व्याकरण की तरह द्विवचन को स्वतत्र स्थान नहीं देते तो और सुगमता हो सकती थी। 'गुरोवेकरच' गुरु के लिए एक वचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग होता ही है। पाणिनीय और भिक्षुशब्दानुशासन मे मुख्य अन्तर इस प्रकार है १. तृदन्ता समाना ११११९ असे लेकर ल तक के वर्ण हस्व, दीर्घ और प्लुत हो तो उनकी समान संज्ञा होती है। __पाणिनीय मे ह्रस्व और प्लुत लकार होता है परन्तु दीर्घ लुकार नहीं होता। २. क समासेऽध्यर्ध ११११५६ अव्यर्ध २००८ से क प्रत्यय या समास होने पर सख्यावद् होता है । अध्यर्ध 'क', अध्यर्ध सूर्पम् यह सून पाणिनीय मे नही है। ३. अर्धपूर्वपद पूरण ११११६० यह सूत्र भी पाणिनीय मे नही है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन . १५३ ४. ऋणप्रवसनकम्वलदार्णवत्सरवत्सतरस्यार् १।२।२३। पाणिनीय मे वत्सर शब्द नहीं है। इसलिए उससे 'वत्सराण' इस रूप की सिद्धि नही होती। ५. प्लुताच्च १।३।२४ पदान्त मे दीर्थस्थानीय प्लुत से परे कार को द्वित्व करता है। आगच्छ भो इन्द्र भूते ३च्छन्नमानय । पाणिनीय मे प्लुतविधि नही है । ६. पाना शसे खया वा १।३।३६ चप को शस परे हो तो खथ विकल्प स होता है। स्पीर, क्षीरं, अफ्सरा अप्सरा ७ नेमाल्पप्रथमच रमतयडयऽऽधकतिपथानाम् ११४१२० ___इस सूत्र मे पाणिनीय से अयट् का ग्रहण अधिक हुआ है। इसलिए पाणिनीय व्याकरण मे त्रया. यह एक रूप ही बनता है, जबकि इसमे नये और त्रया ये दो रूप बनते हैं। ८. नुमि वा ११४१६६ यह सूत्र अ५ शब्द की उपधा को विकल्प से दीर्घ करता है। स्वाम्पि, स्वम्पि । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। है जरसो वा २।१२ जरस् अन्तवाले शब्द से नपुसक मे सि और अम् का लो५ विकल्प से होता है। अजर , अजरस कुल-ये रूप बनते हैं । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है, इसलिए ये रूप नही बनते। १० मास निशासनस्य शसादी वा लोप. २१११२३ इस सूत्र से आसन शब्द के अत का लोप कर आसन् रूप बनाया जाता है। पाणिनीय मे यह विधान नहीं है। वही आस्य शब्द को आसन् आदेश किया जाता है। ११. श राज भ्राज् यज् सृज् मृज् भ्रस्न वृश्च परित्राणा ष-२।१।११७ शकारान्त और राज् आदि के चज को प आदेश होता है। लेष्टा, लिड् । आदेश होने वाले शकार को भी ष आदेश करता है प्रष्टा, प्रष्टु । पाणिनीय मे तो तश्च भ्रज ८।२।३६ से छ कार को ष कार का विधान है। इस व्याकारण मे छ्वो शूटी मे च ४१३।३८ से छ कार को प कार सिद्ध होता है। १२ मातुलाचार्योपाध्यायाद् वा २।३।५६ उपाध्याय का स्त्रीलिंग मे प्रयोग करने पर ई५ के साथ आनुक का आगम विकल्प से होता है, इसलिए दो रूप बनते है उपाध्यायानी, और उपाध्यायी । पाणिनीय मे, जो स्वयं ही अध्यापिका है उसके लिए दो रूप Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा वनते है उपान्यायी और उपाध्याया। भिक्षुशब्दानुशासन मे स्वय अध्यापिका के लिए विशेष विधान नहीं है, इसलिए केवल एक ही रूप उपाध्याया ही बनता है। १३ अरोपमानसहितसहित सह शफ लक्ष्मण दामादे २।८।८५ लक्ष्मणोरु । पाणिनीय मे इस सूत्र में लक्ष्मण शब्द नहीं है इसलिए वहा लक्ष्मणोरु ०८ सिद्ध नहीं होता। १४ कालावभावदेशमकर्म चाकर्मणाम् २।४।१८ __ अकर्म धातु के योग मे काल, अध्व, भाववाची शब्दों के आधार की कर्मसज्ञा विकल्प से होती है, और यकम होता है। मामे आस्त, मास मस्तेि ये दो रूप बनते हैं। पाणिनीय मे एक ही रूप बनता है मासमास्ते । १५ अविवक्षितकर्मणामनिन् कर्ता नौ वा २।४।२० जिन्नन्त बनाने से पहले अविवक्षित कर्म का जो कता हो उसका जव जिन्नन्त मे प्रयोग किया जाए तो उस कर्ता की कर्म सज्ञा विकल्प से होती है। जैसे पचति चैत्र । यहा कर्म की विवक्षा नहीं की गई है। जिन्नन्त मे इसका रूप बनेगा पाचयति चैत्र चैत्रेण मंत्र । यही चैत्र कर्ता की कर्म सज्ञा विकल्प से हुई है। पाणिनीय निन्नन्त कर्ता की कर्म संज्ञा विकल्प से नहीं करता, इसलिए वहा एक ही रूप बनेगा पाचयति चैत्रेण मंत्र । १६. निकषासमयाहाविगतरान्तरेणातियेनतेने २१४१४६ निकषा आदि युक्त नाम मे द्वितीया विभक्ति होती है। पाणिनीय मे येन तेन' शब्द नहीं है, इसलिए उनके वहा 'येन तेन' युक्त नाम मे द्वितीया विभक्ति नही होती। येन तेन वा पश्चिमा गत' ऐसा वाक्य नही बनता। १७ द्विद्रोणादिभ्यो वीप्साया वा २।४।६२ __वीप्सा के अर्थ मे द्विद्रोण आदि गौण शब्दो से तृतीया विभक्ति विकल्प से होती है । 'द्विद्रोणेन धान्य क्रीणाति द्विद्रोण द्वि द्रोण क्रीणाति'। पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। १८ हितसुखाभ्या २१४१७२ हित और सुख के योग मे चतुर्थी और पठी विभक्ति होती है। मैत्राय मैत्रस्य सुरवम् । पाणिनीय मे सुख के योग मे केवल चतुर्थी ही होती है, 40ठी नही । मैत्राय सुखम्, एक रूप ही बनेगा। १६. भावे वा २।४।१०१ भाव मे क्त प्रत्यय हो तो कर्ता मे ५७ठी और तृतीया विभक्ति होती है । छात्रस्य हसित, छात्रण हसितम् । पाणिनीय मे इस अर्थ मे षष्ठी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुगन्दानुसिन एक परिशीलन : १५५ विभक्ति विधायक कोई सूत्र नही है लेकिन 'अधिकरणवाचिनश्च' २१३।६८ इस सूत्र से नित्य षष्ठी होती है, तृतीया विभक्ति नहीं होती। इसलिए छात्रण हसितम् यह रूप पाणिनीय मे नही बनेगा। २० पारेमध्येन्त पष्च्या वा ३।१।३० पार आदि नाम षष्ठी अन्त वाले नाम के साथ विकल्प से समास होता है। उसके योग मे पारे, मध्ये, अग्रे इन तीन नामो मे जो एकारान्त है, वह निपात रहता है, उसका लोप नही होता। पार गङ्गाया. = पारेगङ्ग, मध्येगङ्ग, अग्र वनस्य =अग्रेवण, अन्तर्वण । पाणिनीय मे इस सूत्र मे अग्रे और अन्तर् इन दो शब्दो का ग्रहण नही किया गया है। इस सूत्र से उनके अग्रेवण और अन्तर्वण ये रूप नही बन सकते। २१ द्वित्रिचतुष्पूरणापादय. ३३१३६ यह सूत्र द्वि, नि और चतुर शब्द पूरण प्रत्ययान्त तथा अन आदि शब्दो से अश-अशि-समास मानता है। पाणिनीय अग्र आदि शब्दो से अग-अशि-समास नही मानता है। अर्धचतस्रा ३।११४६ अर्धचत्तस्त्र भात्रा. पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। २३ परशत पर सहस्र परोलक्षा ३३११६२ इस सत्र से पर शत, पर सहस्र , परो लक्षा. ये तीन रूप बनते हैं । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है अत. ये रूप नही बनते। २४ सर्वपश्चाददय: ३।१।६८ सर्वपश्चाद् सर्व चिर ये शब्द निपात है । पाणिनीय मे यह सून नही है। २५. सिंहादिभि पूजायाम् ३।११७६ पूजा के अर्थ मे सिंह आदि शब्द उपमा के अर्थ मे निपात हैं । समरे सिंह इव समरसिंहः। पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। २६. अव्यय प्रवृद्धादिभि ३।११६७ अव्यय नाम प्रवृद्ध आदि के नाम के साथ नित्य समास होता है। पुन प्रवृद्ध, पुनरुत्स्यूत वास:। पाणिनीय मे यह सून नही है। इन शब्दो का अव्यय के साथ समास नही होता। २७ कृतापकृतादय ३३१११०६ कृतापकृत आदि शब्द निपात है । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है । २२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : सरकृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा २८. आसन्नगधिकाध्यर्धार्धादिपूरण द्वितीयाधन्याय ३।१।१२६ अध्ययं विशा, अर्ध पचम विशा । पाणिनीय मे इस मूत्र में होने वाले शब्दो मे अध्यर्ध और अब ये दो शब्द नहीं हैं, इसलिए वहां इनके साथ समास नहीं होता। २६ मासर्तु भ्रातृनक्षत्राण्यानुपूव्र्येण ३।१।१८२ मास, ऋतु आदि शब्दो का द्वद्व ममाममे अनुपूर्व मे निपात होता है। फाल्गुनचैत्री, वैशाखज्येष्ठौ । पाणिनीय इनमे भास वाचि शब्दो मे यह क्रम स्वीकार नहीं करता। ३० सख्या समासे ३।१।१८६ समास मात्र मे सख्यामओ को अनु पूर्व से प्राक निपात करता है। द्वित्रा , विचतुरा । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। ३१ ओजोजोम्भ महस्तपस्तमस्तृतीयाया ३३१११२ इन शब्दो से आगे उत्तरपद हो तो उनकी तृतीया विभक्ति का लोप नही होता । मोजसा कृतम्, तपसा कृतम् । पाणिनीय तपसा कृतम् रूप को स्वीकार नहीं करता। ३२ अपाययोनिमतिचरेपु ३।२।२८ अप् शब्द से परे य, योनि, मति और चर शब्द हो तो सप्तमी विभक्ति का लुक नही होता । पाणिनीय मे भति और पर शब्द इस अर्थ मे ग्रहण नहीं किए गए है। इसलिए अप्सुमतिः, अप्युचर ये दो रूप पाणिनीय मे नही बनते । ३३ वर्षक्षरावराप्सरउरो मनसो जे ३।२।२६ ज उत्तर पद मे हो तो इन शब्दो की सप्तमी विभक्ति का लोप विकल्प से होता है। वर्षेज वर्पज । पाणिनीय अ५, सरस्, उरस, मनस् इतने शब्दो से सप्तमी का लोप विकल्प से नही मानत।। ३४. प्रावृड्वशिरत्कालदिव ३।२।२७ प्रावृष्, वर्पा, २॥ रत्, काल और दिन शब्दो से परे ज शब्द उत्तर पद मे हो तो इन शब्दो की सप्तमी विभक्ति का लोप नही होता । पाणिनीय मे वर्षा २१०८ ग्रहण नही किया गया है। उनके अनुसार वर्षासुज रूप नही बनता । ३५ शुन पपुच्छलाङ्ग लेषु सज्ञायाम् २।३।३५ वन् शब्द की पठी विभक्ति का लुक नहीं होता, यदि उत्तर पद मे शेप आदि शब्द हो और यदि उससे सज्ञा का अर्थ निकलता हो। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन १५७ पाणिनीय सज्ञा अर्थ के विना ही इस सूत्र को स्वीकार करता है। ३६. नस् नासिकायास्तस् क्षुद्रर्यो ३।२।११६ नासिका शब्द को नस् आदेश होता है, य प्रत्यय परे हो तो, वर्ण अर्थ को छोडकर । नासिकाय हितं तत्रभव वा नस्यम् । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। ये ऽ वर्ण ३।२।१२० नासिका शब्द को नस् आदेश होता है, य प्रत्यय परे हो तो, वर्ण अर्थ को छोडकर । नासिकार्य हितं तत्र भव वा नस्यम् । पाणिनीय मे यह सूत्र नही है। ३८ क्रिया व्यतिहारेऽगतिहिंसाशदार्थहसोहवहवाऽनन्योन्यार्थे ३।३।२० क्रिया व्यतिहार मे वर्तमान गति, हिंसा शब्दार्थ और हस धातु को छोडकर ह तथा वह धातु से कर्ता में आत्मनेपद होता है। व्यतिहरन्ते भार स सविवहन्ते वर्ग । पाणिनीय इस विधान मे वह धातु को स्वीकार नही करता। ३६ के जिज्ञासायाम् ३।३।६२ शक धातु को जिनासा के अर्थ मे प्रयुक्त करे तो कर्ता मे आत्मनेपद होता है। विद्या शिक्षते, ज्ञातु शक्नुयामितीच्छतीत्यर्थ । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है । वह इसे स्वीकार नहीं करता। __ चल्याहारार्थबुधयुधनजनेड्पद्रुस भ्य. ३।३।१०३ चल और आहार अर्थ वाली चातुए तथा बुध आदि धातुमओ से अत्रिन् कर्ता की जिन्नन्त मे कर्म सज्ञा करता है। पाणिनीय इस सूत्र मे आहार अर्थ वाली अद् धातु को स्वीकार नहीं करता है। ४१ नगृणाशुभरुच ४११६ गृण, शुभ और रूच् धातु के योग से भृशाभीक्ष्ण्यादि अर्थ मे यह प्रत्यय नही होता है । गर्हित गृणाति, भृग शोभते । पाणिनीय गृण धातु को यहा स्वीकार नहीं करता। ४२ नोत: ४।१।१२। उकारात से विहित यड् प्रत्यय का लुक नहीं होता। योयूय रोरूय । पाणिनीय मे ये दोनो रूप नही बनेंगे, क्योकि वहा यड् का लोप होता ४३ वाष्पोमधूमफेनादुद्वमने ४११।२८ । वाष्प, अम, धूम और फेन शब्दो से उद्वमन अर्थ मे क्यड् प्रत्यय विकल्प से होता है। वाष्पायते, ऊष्मायते, धूमायते, फेनायते । पाणिनीय मे धूमायते नहीं होता । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ४४. पुनरकेषाम् ४११८१ ___यह सूत्र पाणिनीय मे नही है। ४५. इको वा ४।२।१६ इक स्मरणे, इस धातु को यकार आदेश विकल्प से होता है, पिद्पजित स्वर आदि शित् प्रत्यय परे हो, अधियन्ति, अधीयन्ति । पाणिनीय नित्य स्वीकार करता है। ४६. जृ भ्रम वम त्रस फण स्यम स्वन राज भ्राज भ्राश लाशा वा ४११११३० इन धातुओ के अकार को एकार आदेश विकल्प से होता है। लेकिन द्वित्व नहीं होता, पिद् वर्जित वादि और सेट् यप् प्रत्यय परे हो तो। औरंतु जजरतु. । पाणिनीय वम धातु से विकल्प से स्वीकार नहीं करता। ४७ विश्रमे ४।२।२७ विपूर्वक श्रम धातु को विकल्प से वृद्धि करता है, जिति, कृत्प्रत्यय और णि प्रत्यय पर हो तो विश्राम., विश्रम: । पाणिनीय वृद्धि का निषेध करता है। ४८ नशे नेश वाडे ४।२१७० नश् धातु को डे परे होने पर ने२ विकल्प से आदेश होता है। अनेशत्, अनशत, ये दो रू५ बनते हैं। पाणिनीय तो केवल 'अनशत्' यह एक रूप ही स्वीकार करता है। ४६ कृपऋतलुदकृपणादीनाम् ४।२.७२ कृ५ धातु के ऋकार को लकार आदेश होता है परन्तु कृपणादि शब्दो को नही। क्लृप्तः। कृपण.। पाणिनीय कृपण आदि शब्दो का निषेध स्वीकार नहीं करता। ५० ठिपिपोरनटि वा ४।३।३५ सिन् और पिन् धातु को दी विकल्प से होता है, अनिट् प्रत्यय परे हो तो। निष्ठीवनम्, सीवन । पाणिनीय इस विधान को स्वीकार नहीं करता। ५१. वेटो ऽपत: ४।३।६१ पत् धातु को विकल्प से इट् न होने से नित्य ३८ होता है, पतित रूप बनता है। पाणिनीय मे 'तनि पति दरिद्रातिभ्य. सनो वा इड़ वाच्य' इति सद्भावात् यस्य विभाषा ७।२।१५ इति इनिषेधवारणाय पतते निषेधोन्वेषणीय.। २२ वम जप त्वर ०५ मधुपा स्वनऽ श्वमा म ४१३।१०३ वम आदि शब्दो से परे क्त प्रत्यय हो तो इस विकल्प से होता है । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन १५६ वान्त., वमित । जप्त जपित । पाणिनीय वम्, जप्, २१स् इन तीन धातुओ से विकल्प से इट् स्वीकार नहीं करता, उनके अनुसार वमित , जपित. वसित. रूप ही बनेंगे। ५३ सस्मे दिवादिश्च ४।४।१११ स्म शब्द सहित माड् उपपद मे हो तो धातु से दिवादि और द्यादि विभक्ति होती है। मास्म करोत्, मास्मकापीत् । पाणिनीय इस विधान को स्वीकार नहीं करता है। ५४ लिप गीङ् स्यास वस जन रुह भज जृभ्य ५।१।१० इन धातुओ से होने वाला क्त प्रत्यय कर्ता मे विकल्प से होता है, विभक्ता भ्रातरो रिक्थम्, विभक्त भ्रातृभि रिक्थम् । पाणिनीय मे भज् वातु से कर्ता मे विकल्प से नहीं होता। ५५ यजिभजिभ्या वा ५।१।२८ यज् और भज् धातु से य प्रत्यय विकल्प से होता है । पक्ष मे ध्यण भी होता है । यज्य, भज्य, याज्य भाज्यम् । पाणिनीय मे विकल्प से दो रूप नही बनते। ५६ ऋदुपधादऽकृपिवृदृच ५।१।३६ यह सूत्र कृप, चद् और ऋ को छोडकर ऋ कार उपधा वाली धातुओ से क्य५ प्रत्यय होता है । इस सूत्र से ऋ का अच्र्य रूप नही बनता परन्तु पाणिनीय अर्य रूप स्वीकार करता है । वह ऋच् का निषेध नही करता। ५७. कृ वृषि मृजि शसि दुहि गुहि जपेर्वा ५॥१४४ इन धातुओ से क्यप् प्रत्यय विकल्प से होता है । दुह्य , दोह्य, गुह्य गोह्य , जप्य जाप्य, ऐसे दो रूप बनते हैं। पाणिनीय मे दुह्य, गुह्य, जप्य ये रूप ही बनते हैं। ५८. तिष्यपुष्यसिद्धया नक्षत्र ५।११४७ नक्षत्र अर्थ मे ये तीन निपात हैं। पाणिनीय मे तिष्य शब्द निपात नही है। ५६. नाम्युपधज्ञाप्रीकृगिर क. ५।११६५ इन धातुओ से क प्रत्यय होता है। उत्किर., गिल । पाणिनीय मे गिर. शब्द स्वीकार नहीं किया गया है। ६० धनुर्दण्डसलाङ्गलाई कुशष्टिशक्तियष्टितोमरघटेषु ग्रहे व ४।२।२४ इन शब्दो से अच् प्रत्यय विकल्प से होता है। पक्ष मे अण् । धनुग्रह , धनुहि , दण्डअह , दण्डाह , त्सरुग्रह , त्साह , ऋष्टिग्रह ऋष्टिनाह । पाणिनीय मे दण्ड, त्सरु ऋष्टि शब्द नही है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० मस्कृन प्राकृत व्याकरण ओर कोण की परम्परा ६१. आद्यन्तानन्त कार बाह्व वह दिवा विभा निशा प्रभा भा कर्तृ नान्दी लिपि लिचि वलि भक्ति क्षेत्र गवाक्षा क्षणदा रजनी दोषा दिन दिवस धनु रक. सख्यासु ५।२-२८ इन शब्दो से करोति धातु में ट प्रत्यय होता है । आदिकर, वनकर. । पाणिनीय में क्षपा, क्षणदा, रजनी, दीपा, दिन, दिवम ये शब्द नही हैं। उसके अनुसार क्षपाकर क्षणाकर, रजनीकर, दीपाकरः, दिनकर, दिवसकर ये ९५ नहीं बनते । હેારારૂ૨ ૬૨ ને રો મળેવું इस सूत्र मे फलेग्रहिवृक्ष, रजोगहि चुक, मन्नग्रह कम्बल. । पाणिनीय मे रजोग्रहिः और मलग्रहि. ये दो शब्द नहीं बनते । ६३ देववातयोरापे ५२२३३ देवापि वातापि । पाणिनीय में ये दोनो शब्द नहीं है । } ६४ क्षेम प्रिय भद्र भद्रेध्वण् च ५२२१४० क्षेमकार क्षेमकर, प्रियकार: प्रियंकर, भद्रकार, भद्रं कार पाणिनीय मे भद्र शब्द नहीं हैं, उससे भद्रकार भद्र कर नहीं बनते | ६५ बहु विध्वरु स्तिलेषु तुद ५२२५१ तुद । पाणिनीय मे वहुतुद ऐसा स्प नहीं बनता । बहुतुद, ६६ शं स स्वयं विप्रेभ्यो भुवो डु. ५|३|६३ शभुः सभु स्वयभुः विभु, प्रभु । पाणिनीय मे नभु. સૌર સ્વયમ્ ગદ્દ નહીં વનતે 1 ६७ नीपा दाय् शसु यु युजस्तु तुद सि सिचमिह पतन हे स्त्रट् साधने श२६४ नेत्र, पातं, पानी, दात्र, शस्त्रम् । पाणिनीय मे पात्री नही बनता । ६८ अन्तर्घनान्तर्पणी देशे ५।४।७३ अन्तर्धन अन्तर्घुण | पाणिनीय मे अन्तर्धण नही बनता । ૬. સાતિįતિભૂતિભૂતિજ્ઞપ્તિીર્ણય પૂI૦ है । ७० युव साति, ज्ञप्ति आदि शब्द निपात हैं । पाणिनीय मे ज्ञप्ति शब्द नही पौत्रादी कुत्साऽर्चयो ६ २२६ માર્ચસ્વ અપત્યે યુવા છુત્સિત નાર્યે માર્યાચળો વા નાભૅ. । તંત્ર भवान् गाग्र्यो, गाग्र्ग्यायणो वा इति द्वपमपि भवति । पाणिनीये यून कुत्साया गोत्रसज्ञा, वृद्धस्य पूजायां युवसज्ञा । तेन गार्यो जाल्म, तत्रभवान् गार्ग्ययण इत्येव रूप भवति । ७१ एदोद्देश एवेयादो ६२११२ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुादानुशासन एक परिशीलन : १६१ ७२. प्राग् देशे ६।२।१३ पाणिनीय मे इन दो सूत्रो के स्थान पर एक ही सूत्र है एड, प्राचा देशे ११११७५ ७३ अनिदम्यणपवादे च दित्यदित्यादित्ययमपत्युत्तरपदाय. ६।२।१६ इदम् अर्थ को वर्ज कर अपत्यादि अर्थ मे प्रत्यय करता है। पाणिनीय मे अनिद शब्द नहीं है। ७४. २च विश्रवसो विश लोपश्च वा ६।२६५० विश्रवसोऽपत्यं वैश्रवण., विश् लोपे तु रावणः । पाणिनीय मे ये रूप नही बनते। ७५ अग्निशमगोवृपाणे ६।२१७० आग्निशर्मायणो वृप गण । पाणिनीय मे यह सून नही है। ७६. कृष्णरणाद् ब्राह्मणवाशिष्ठे ६१२१७१ काष्णयिनो ब्राह्मणः राणायनो वाशिष्ठ । पाणिनीय मे यह सूत्र नही है। ७७ दशु कोशल कर्मारच्छाग वृपेभ्यो युट् च ६।२८२ दागव्यायनि । पाणिनीय मे दगु शब्द नहीं है, इसलिए दागव्यायनि रूप नहीं बनता। ७८ दुष्टे गोधाया एरण च ६।२।१०३ गोवा शब्द से दुष्ट अपत्य अर्थ मे एरण् प्रत्यय होता है। गोधरे । पाणिनीय मे दुष्ट शब्द नही है। ७९ उदितगुरोरन्दे ६॥३॥६ पुष्पेण उदित गुरुणा युक्त वर्षे पोष वर्षम् । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। ८० धेनोरनन. ६।३.१६ वेनु शब्द से समूह अर्थ मे इकण् प्रत्यय होता है, यदि वह नन समास न हो तो। धनुकम्। पाणिनीय मे अनब २००८ नही है। ८१ पुरुषात् कृत हितवधविकारम्समूहे वेयन ६।३।६४ पुरुषेण कृत पौरुषेयो ग्रन्थ , पौरुषेयमार्हत शासनम् । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। ८२ र को प्राणिनि वा ६।४।१२ रड्कु शब्द से प्राणि अर्थ मे पायनण् प्रत्यय विकल्प से होता है। राड कवायण । मनुष्य अर्थ मे राड कवको मनुष्य । पाणिनीय मे कोरमनुष्ये णच् यह सूत्र है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पाता। ८३ कुशले ७।१।१८ पाणिनीय मे 'तत्र कुशल पथ' ऐसा पाठ है । ८४ स्यदादेर्मयट् ७११७१ तन्मय, तन्मयी, भवन्मयम् । पाणिनीय मे यह सूत्र नही है । ८५ ज्योतिषम् ७।१।७७ पाणिनीय मे यह सूत्र नही है। ८६ वामाधादेरीन ७।३।४ वामाधूर्वा मधुरा, वामधुरीण । सर्वधुरीण । पाणिनीय मे सर्वधुर शब्द नहीं है। इसलिए वहा सर्वधुरीण रूप नही बनता। ८१ विध्यत्यऽनन्येन ७।३।८ विध्यति के अर्थ मे द्वितीयान्त नाम से य प्रत्यय होता है, यदि वह अन्य साधन से न हो। पादौ विध्यन्ति पद्या, अनन्येन इति किम् चौर विध्यति चैत्र । अत्र हि चैत्रश्वोर विध्यत् धनुषा पाषाणे वा विध्यति । पाणिनीय केवल धनुषा शब्द को छोडता है। विध्यत्यधनुषा इति । ८८ सर्वजनाण्ये नभौ ७।३।१६ सार्वजन्यः, सार्वजनीन । पाणिनीय मे 'प्रति जनादिभ्य खम्' इससे केवल खन् प्रत्यय होने से 'सार्वजनीन , केवल यह एक रूप ही वनेगा, 'सार्वजन्य' रूप नही बनेगा, बनेगा। ___ ८६ नम् सुदुर्य सक्तिहलिसक्य ८।३४७ ___ नम सुदुर से परे सक्ति, हलि, सक्यि ये शब्द हो तो बहुव्रीहि समास मे अप्रत्यय विकल्प से होता है। असक्त , असक्ति सुसक्त', मुसक्ति दु सक्न दु सक्ति । पाणिनीय मे सक्ति २००८ का ग्रहण नही किया गया है इसलिए उपरोक्त रूप वहा नही बनेंगे। ६० सर्वाश सख्यात पुण्य वर्षा दीर्घाच्च रात्र ८।३।५५ ।। इस सूत्र मे जो शब्द हैं, उनमे वर्षा और दीर्घ ये दो शब्द पाणिनीय मे नहीं है। इसलिए वर्षारात्र. और दीर्घ रान ये रूप पाणिनीय मे नही बनेंगे। ६१ सुप्रात सुश्वसु दिवशारि कुक्ष चतुर श्रेणी पदाज पद प्रोष्ठपद भद्रपदा ८३७१ इस सूत्र मे उपर्युक्त शब्द बहुव्रीहि समास मे उ प्रत्ययान्त निपात हैं । पाणिनीय मे भद्रपद श०६ नही है। इसलिए भद्रपद शब्द निपात नहीं है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन : १६३ ६२ मन्दाल्पाच्च मेधाया ८।३।७३ मन्दमेधस् अल्पमेधम् । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है, इसलिए वहा ये दो रूप नहीं बनते। ६३ भृशाभीक्षण सातत्यत्रीप्सासु द्वि प्राक् तमादे ८।३।८५ पाणिनीय मे प्राक् तमादे यह पाठ नही है । ६४ नानावधारणे ८।४।६७ ___ अवधारण के अर्थ मे वर्तमान शब्द द्वित्व होता है । माष माष देहि । पाणिनीय मे यह सूत्र नही है। ६५ पूर्वप्रथमावन्यतोतिशय ८।४१६८ प्रथम प्रयम पच्यन्ते । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। ६६ डत रडतमी समाना स्त्रीभावप्रश्ने ८।४।६६ कतरा कतरा एषा माढयता। कतमा कतमा एषा माढयता। पाणिनीय मे यह सूत्र नही है। श्री भिक्षुशब्दानुशासन महाव्याकरण की कोटि मे अब तक अतिम है। इसलिए इसमें पूर्ववर्ती सभी व्याकरणो का सार-मोहन उपलब्ध है। अतिम को पूर्ववर्ती रचनाओ का जो लाभ मिलता है, वह लाभ भिक्षु शब्दानुशासन को भी प्राप्त है। सस्कृत व्याकरण के अष्टाध्यायी पद्धति से होने वाले अध्ययन के सरलीकरण के उद्देश्य मे यह सफल हुआ है । यह सफलता ही इसकी अपनी विशेषता है। विशालगन्दानुशासन, हेमशब्दानुशासन और पाणिनीय आदि पूर्ववर्ती महाव्याकरणो के अनुदान की उपेक्षा कर इसका मूल्याकन नही किया जा सकता । सभव है, अगले वर्ष यह व्याकरण प्रकाशित होकर विद्वानो के हाथो मे आ जाए। Page #192 --------------------------------------------------------------------------  Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो प्रक्रिया-ग्रन्थ मुनि 'दिनकर' भिक्षुशब्दानुशासन महाव्याकरण की प्रक्रिया है कालुकौमुदी । इसके प्रणेता है विद्वद्वर्य मुनि श्री चौथमलजी । इसकी रचना वि० स० १९८१ मे हुई और तब से यह हमारे सघ के साधु-साध्वियो तथा पारमायिक शिक्षण-सस्या मे संस्कृत का अध्ययन करनेवाले मुमुक्षुओ के लिए प्रयुक्त होती रही है। इसका अध्ययन कर अनेक व्यक्ति संस्कृत मे निष्णात हुए है। मैं उसकी विशेषता के विषय मे कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहा हू।। प्राचीन व्याकरण लघुसिद्धान्त कौमुदी तथा मुनि श्री चौथमल जी द्वारा रचित कालुकौमुदी के तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से कुछ उदाहरण यहा प्रस्तुत है । कितने कठिन व्याकरण के विषय को किस प्रकार सरलता और सुगमता से रखा है, यह निम्नाकित सूत्रो के द्वारा समझा जा सकता है । लघुसिद्धान्त कौमुदी के प्रत्याहार सूत्र हैं अ इ उ ण् १, ऋल क् २, ए ओ ड् ३, ऐ औ च ४, ह य व र ट् ५, लण् ६, न म ड ण न म् ७, झ भ ञ् ८, घ ढ ध स् ६, ज ब ग ड द श् १०, ख फ छठ थ च ट त व् ११, क प य १२, श ष स र १३, ह ल १४ । इस प्रकार प्रत्याहार बताने के लिए चौदह सूत्रों का निर्माण किया गया है । इन सूनो के अन्तिम अक्षरी की इत् सज्ञा बताई गई है। यहा प्रत्याहार ग्रहण करने की विधि कुछ कठिन पडती सी नजर आई। क्योकि अक्षरो की शृखला टूट सी जाती है। जैसे-अण् अ इ उ, अक्-अ इ उ ऋ ल, इक्-इ उ ऋ ल । उक्-उ ऋ ल । इस प्रकार प्रत्याहार सूनो का सम्बन्ध अलग थलग सा ही प्रतीत होता है। अत उसमे कोई सरलता दिखाई नहीं देती । इस स्थल मे कालुकौमुदी का सूत्र बहुत सरल एव उच्चारण करने मे पूर्ण स्पष्ट है। जैसे अ इ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ ह य व र ल बण न ड म झ ढ ध घ भ-ज ड द ग ब ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स १११।४। स्पष्टता के लिए सधि नही की गई है। यहा प्रत्याहार ग्रहण करने की विधि अत्यन्त सुगम है। जैसे किसी ने 'अलप्रत्याहार' का उल्लेख किया, वहा "अ इ उ ऋ ल ए Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सरकार या जीवगम्यम TM aka na du? Tal. t यह विधि सरन ती ही नाम गरि नो में कुछ ठप है। इसलिए कौमुदी के सूत्र उच्चारण कुछ सूत्र प्रस्तुत है । जैसे स्याम्भ्यस्तनि श्याग्यम् नाम् दशसु ०१५३ मोडयन्ि गा० २६० प To 120 Á cum « à bra mita hitz, the paraभ्यो दीर्घाांत्गुतिग्य पृक्त छन् तिनम् विमिव गुना प्रतीके उन्मानित क साथ गि ३४ अनुभव होता है । उपर्युक्त सूत्रों के स्थान मे सूत्रो का निर्माण किस प्रकार की में किया गया है. यह भी कहा बताना अत्यावश्यक प्रतीत होता है। सूत्र नं० १ के -पान मेग की जय अम् टाया मिम्, उभ्या पग्या महे ओग्- जाम् जिम नुपान् । सूत्र न०२ के स्थान मे रंग से लोग तथा सूत्र ०३ मे स्थान में वर्तमाने तिप् तम् अन्ति, सिप् बन् ध म बस्ने इस प्रकार कालुकीमुदी को व्याकरण सम्बन्धी सभी प्रकार से जटिताओं से मुक्त रखा गया है। उसके अतिरिक्त शव्द गित्रि भी उनका अपना एक नम्न प्रकार है, जो अन्यान्य व्याकरणों में कम मात्रा में पाया जाता है । उतरण 金 तोर पर "रामान्" द्वितीया विभक्ति के बहुवचन का पहै। यह गीता दीर्घशसश्चन पुसि” केवल उस एक सूत्र से ही सिद्ध हो जाता है। अर्थात् राम् अकार सहित पूर्व के स्वर को दीर्घ एवं शन् के सकार को 'न्' हो जाता है। प्रथम प्रकारें इसी सूत्र की विशेषता के लिए कहा गया है । किन्तु न शब्द को पिने के लिए लघुमिद्धान्तकौमुदी मे कितने सूत्रो को काम में लिया है, यह निम्नोक्त प्रकार से विदित होता है, जैसे "राम-शम्" सर्वप्रथम सूत्र न० १७१ तद्धिते १1३1८ से इस शकार की ३त् सज्ञा की गई। सूत्र न० ६ अदर्शन लोप १|१|६० से लोप की परिमापा । फिर सूत्र न० ७ तस्य लोप ११३ह से इत् सनिक वर्ण का लोप और सूत्र न० १६२ प्रथम यो पूर्वसवर्ण ६।१।१०२ से "राम" के अकार को दीर्घ किया गया । फिर सूत्र न० १७१ तस्माच्छमोन पुसि ६।१।१०३ से "सकार" को नकार हुआ अत रूप बना "रामान्" किन्तु फिर भी यहा सूत्र १७३ अट् कुप्याड, तुम्व्यपायेऽपि ८।४।२ से नकार को णकार होने की प्राप्ति हुई । तव उसे निषिद्ध करने के लिए सूत्र न० १७४ पदान्तस्य ८ | ४ | ३७| सूत्र का निर्माण करना पडा । न० इसी प्रकार का एक उदाहरण और प्रस्तुत है । सखि शब्द से प्रथमा विभक्ति का "सि" प्रत्यय लाया गया। इस अवस्था मे कालुकौमुदी का सूत्र ऋदुशन { Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो प्रक्रिया-ग्रन्थ १६७ स्पुसदशोऽने हसश्च से रडा' से 'सि' को डा हुआ और डित्वात् टि का लोप होने से राखा' ऐसा रूप सिद्ध होता है। किन्तु लघुसिद्धान्तकौमुदी मे एतदर्थ अनेक सूत्र और युक्तिया काम मे लाई गई हैं। वे निम्नोक्त प्रकार से हैं-सखि सु यहा सूत्र न. २१ अ न ड सौ ७।१।१०३ से सखि शब्द को अनड आदेश होता है । यह आदेश सूत्र न० ७२ डि ०५ ११११५३ के अनुसार अन्त के वर्ण को प्राप्त हुआ। सूत्र न० ५ हलन्त्यम् १।३।३ से ड का लोप तथा गूत्र न०४१ 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' ११३१२ से अकार का लोप सूत्र न० ४२ प्रतिज्ञाअनुनासिक्यापाणिनीया से अनुनासिक मानकर किया जाता है । सखान् सु ऐसा स्थित है। सूत्र न २१२ "अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा" १।१।६५ से अकार की उपधा की सज्ञा की, तथा सूत्र न० २१३ सर्वनामस्थाने चाऽसबुद्धौ ६।४।१ से नकारान्त शब्द की उपधा को दीर्घ किया गया। अब हमारे सामने सखान्-सु ऐसा रूप प्रस्तुत है। सूत्र न० २१४ अपृक्त एकालप्रत्यय १।२।४१ से सकार की अपृक्त संज्ञा, तथा सूत्र न० २१५ 'हल्या भयो दीर्घात् सुतिष्य पृक्त हल से' ६।१।६८ विभक्ति के सकार का लोप किया गया । "सखान्" ऐसा अवशिष्ट रहा। सूत्र न० २१६ “न लो५ प्रातिपदिकान्तस्य" ८।१७ से नकार का लो५ करने पर सखा रूप सिद्ध हुआ। देखने की वात यह कि एक रूप की सिद्धि के लिए कितने सूत्रो का निर्माण किया गया है। प्रारम्भिक सस्कृत विद्यार्थी को काफी कठिनाइयो का सामना करना पडता है। कालुकौमुदी मे इस बात पर पूरा ध्यान रखा गया है । इसके निर्माणकर्ता ने किस प्रकार सरलता से शब्द-सिद्धि का यह लेखा जोखा किया, यह समझने जैसी बात है। यहा यह बताना उचित होगा कि इसके रचनाकाल मे पाणिनि हैम, सिद्धान्त कौमुदी, चन्द्रिका, सारस्वत आदि अनेक व्याकरणो का पारायण किया गया था। उनके जिस किसी भी स्थल की सरल पद्धति ध्यान मे आई, उसे यहा स्वीकार किया गया है। हमने लघुसिद्धान्तकौमुदी, सिद्धान्त चन्द्रिका तथा सारस्वत आदि कई प्रक्रियाए देखी परन्तु कालुकौमुदी जैसी स्पष्ट व सरल कोई भी हमारी दृष्टि मे नही आई। यहे। इतना अवकाश नही कि सबका निचोड यही प्रस्तुत किया जा सके। किन्तु लघुसिद्धान्तकौमुदी के अनेक स्थल हमने पढे है। हमे वे स्थल बडे दुरूह से नजर आए। स्यानाभाव के कारण इस लघुकीय निबन्ध मे उन सभी स्थलो को उद्धृत नहीं किया जा सकता है। फिर भी विद्वान् इन दो-एक उदाहरणो से ही वस्तुस्थिति को आक सकग, ऐसा हमार। अनुमान है। तुलसीप्रभा आचार्य कालगणी के समय कुछ सतों ने हेमशब्दानुशासन का अध्ययन किया Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा था। किन्तु उस महाव्याकरण पर कोई उपयुक्त प्रक्रिया नहीं थी। जो थी वे या तो अधिक विस्तृत थी या अधिक सक्षिप्त थी। मुनि सोहनलालजी (चूरू) ने इस कमी को पूरा करना चाहा। उन्होंने कुछ श्रम किया और तीन हजार श्लोक પરિમાળ વાની પ્રક્યિા ના નિર્માણ કરવાના હસવ નામ વર્તમાન ભાવાર્ય श्री तुलसी के नाम पर 'तुलसीप्रभा' रखा। वि० स० १६६६ फाल्गुन शुक्ला ५ सोमवार को उसकी रचना प्रारभ हुई और स० १६६६ की विजयदशमी को चूरू मे उसकी पूर्ति की गई। उसकी अपनी विशेषता यह रही कि उसमें प्रयुक्त सभी उदाहरण ऐतिहासिक, आगमिक, तात्विक या सधीय परपरा से अनुस्यूत हैं। इसका प्रयोजन यह था कि व्याकरण के अध्ययन के साथ साथ विद्यार्थी को जन इतिहास, आगम, जैन तत्त्व और तेरापथ की परपरा को भी बोध हो जाए। उदाहरण के रूप मे आडावधी आड् प्रत्यय के योग मे पचमी विभक्ति होती है । आइ अव्यय के दो अर्थ हैं मर्यादा और अभिविधि। दोनो के दो उदाहरण इस प्रकार हैं १ मर्यादा आत्रयोदशगुणस्थानात् कर्मवन्ध । २ अभिविधि आसिद्ध संसार । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन पं० विश्वनाथ मिश्र व्याकरण रवरूप और परम्परा भाषा भावाभिव्यक्ति का साधन है और विद्या भावाभिव्यक्ति के साथ अमृतोपलब्धि का भी । सस्कृत मात्र भाषा ही नहीं अपितु वह विद्या भी है। व्यापकता, प्राचीनता, सर्वाङ्गीणता तथा ज्ञानगरिमा के कारण सस्कृत विश्व की सर्वातिशाथिनी भाषा है। विश्व मे वही भाषा सक्षम तथा सशक्त समझी जाती है, जिसके पास स्वयं का व्याकरण हो । व्याकरण वह निकषोपल है, जिसके द्वारा भापा का विशुद्ध एव परिमार्जित रूप सामने आता है । शब्द की व्याक्रिया करना ही व्याकरण का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। धातु और प्रत्ययो की आधारशिला पर शब्दो का निर्माण कर उनके अन्तराल मे निहित स्वारसिक अर्य की अभिव्यक्ति करना किसी भी भाषा के लिये गौरवपूर्ण स्थिति का सूचक होता है। व्याकरण वह निरापद राजमार्ग है, जिसपर अवधिरूप से चलते हुए भाषा की समस्त विधाओ का आलोउन भली भाँति किया जा सकता है। भारत मे व्याकरण के अध्ययन और अध्यापन की परम्परा बहुत पुरानी है। लगभग सहस्राब्दियो से भी अधिक समय से यह परम्पर। अक्षुण्ण रूप से यही चलती आ रही है । सस्कृत व्याकरण ने शब्द के जिस व्यापक, नित्य स्वरूप और इसके अर्थ-प्रकाशन के अपूर्व सामर्थ्य का जो चित्रण किया है, वह अपने मे अनुपम है। વ્યાંગ ની વિવિધતા संस्कृत वाड्मय मे महर्षि पाणिनि का शब्दानुशासन आज सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त व्याकरण के रूप में उपलब्ध होता है। इसमे वैदिक और लौकिक उभयविध शब्दो का निर्वचन किया गया है। इसकी अपूर्व विशिष्टता के फलस्वरूप इस पर कात्यायन ने वातिक तथा पतअलि ने महाभाष्य लिख कर इसके गौरव को आगे बढाया। इसके ऊपर वामन जयादित्य दीक्षित, नागेश प्रभृति विद्वानो ने वृत्ति, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा कौमुदी तथा खरादि टीकाग्रन्थो का प्रणयन कर इसका काफी विकास किया है। फलस्वरूप इसका अध्ययन जटिल हो गया है और यह साधन न रह कर स्वयं साव्य वन गया । फिर भी इसका पठन पाठन आज व्यापक स्तर पर हो रहा है । पाणिनि का शब्दानुशासन परवर्ती अनेक व्याकरणो का प्रेरणास्रोत रहा है। इन परवर्ती व्याकरणो मे पाणिनि स्पष्ट रूप से प्रतिविम्बित है | व्याकरणो की संख्या आठ मुनी जाती है । इस सम्बन्ध मे निम्नलिखित श्लोक प्रसिद्ध हैं इन्द्रश्चन्द्र काशकृत्स्नापिली शाकटायन 1 पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टी च शाब्दिका ॥ कही कही यह श्लोक इस रूपान्तर मे भी उपलब्ध होता है शाकटायनम् 1 ऐन्द्र चान्द्र काशकृत्स्न कोमार सारस्वत चापिशल शाकल पाणिनीयकम् ॥ इन श्लोको से विदित होता है कि आठ वैयाकरणो ने आठ व्याकरणो की रचना લી । નમે પાિિન ળા શવ્વાનુશાસન સર્વત્રાવીન હૈ ગેસ છ લોનો ા અભિમત है । पाणिनि के पहले ऐमा सर्वाङ्गपूर्ण व्याकरण नही था, ऐसी भी कुछ लोगो की मान्यता है । पहले श्लोक मे "शाब्दिका शब्द आया है | 'शाव्दिक' का अर्थ होता है शब्द-शास्त्र मे प्रौढ प्राप्त करने वाले अथवा शब्द शास्त्र पारगत विद्वान्, अथवा शब्दशास्त्र के प्रचारक | 'शाब्दिक' शब्द का ऐसा अर्थ करने पर उन सभी ने स्वतन्त्ररूप से व्याकरण का निर्माण किया था, यह कथन सर्वथा असदिग्ध नही कहा जा सकता । 33 पातञ्जल महाभाज्य के पस्पशाह्निक मे उल्लेख आता है कि इन्द्र वृहस्पति के पास व्याकरण के अध्ययन के लिये गये । वृहस्पति ने दिव्यवर्षसहस्रपर्यन्त शब्दो का पारायण किया, पर उनका अन्त नही पा सके । इससे सिद्ध होता है कि इन्द्र जो कि प्रथम वैयाकरण के रूप मे अनुश्रुत है, केवल शब्दकोप रूप व्याकरण के प्रणेता हो सकते हैं । धातु प्रकृति प्रत्ययादि का निर्वाचन पुर मर किसी व्याकरण का निर्माण इन्द्र के द्वारा हुआ था, ऐसा निर्भ्रान्त रूप से नही कहा जा सकता । इन्द्र नामक किसी मनुष्य ने ऐन्द्र व्याकरण बनाया था, ऐसा कहना भी युक्ति मगत प्रतीत नही होता | क्योंकि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी मे शाकल्य, स्फोटायन, शाकटायन प्रभृति जिन आचार्यों का उल्लेख किया है, उनमे इन्द्र का उल्लेख नहीं किया है । इससे मिद्ध होता है कि पाणिनि से पूर्व ऐन्द्र नामक कोई सर्वाङ्ग सम्पन्न व्याकरण नहीं था । जैनेन्द्र महावृत्ति की भूमिका (पृष्ठ ७) मे डा० वासुदेव शरण अग्रवाल ने स्पष्ट किया है कि चान्द्रव्याकरण वौद्ध विद्वान् आचार्य चन्द्रगोमी की रचना है, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १७१ जो गुप्त काल मे अस्तित्व मे आयी । इस सम्बन्ध मे राजतरगिणी १।१७१ मे एक श्लोक आता है चन्द्राचार्यादिभिर्लब्ध्वा देश तस्मात्तदागमम् । प्रवर्तित महाभाष्य स्व च व्याकरण कृतम् ।। इस श्लोक से विदित होता है कि चन्द्र प्रभृति जो प्राचीन वैयाकरण थे, उन्होने महाभाष्य का प्रचार किया तथा स्वयं का व्याकरण भी बनाया। इससे सिद्ध होता है कि ये चन्द्राचार्य न केवल पाणिनि के परवर्ती है किन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि से भी परवर्ती हें | इससे यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पाणिनि से पूर्व चीन्द्र नाम का कोई व्याकरण नही था । ये चन्द्राचार्य तथा बौद्ध विद्वान् चन्द्रगोमी दोनो एक ही है या अलग अलग यह भी ऐतिहासिक अनुसन्धान का विषय है । स्थूल दृष्टि से कहा जा सकता है कि वौद्ध विद्वान् के द्वारा पातञ्जल महाभाष्य का प्रचार सन्देहास्पद होने के कारण ये दोनो चन्द्र पृथक् पृथक् हैं तथा पाणिनि से परवर्ती भी है । युधिष्ठिर मीमासक ने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' नामक अपनी पुस्तक में पाणिनि पूर्ववर्ती आपिशलि, काशकृत्स्न और भागुरि आदि अनेक शाब्दिक आचार्यों के सूत्र, धातु और गण के वचन उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पाणिनि से प्राचीन आचार्यो के भी पाणिनि के समान ही सर्वाङ्गपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ थे । अस्तु जो भी हो इन्द्र, शाकटायन, आपिशली और काशकृत्स्न व्याकरण इस समय उपलब्ध नही हैं । आज प्रचलित जो शाकटायन व्याकरण दृष्टि गोचर हो रहा है, वह नवमी शती की रचना है जब कि पाणिनि लगभग पाचवी शती विक्रमपूर्व नन्द राजाओ के समय मे हुए थे । इस शाकटायन व्याकरण मे न केवल सूत्रकार पाणिनि का ही अनुकरण है अपितु वार्तिककार कात्यायन और भाष्यकार पतञ्जलि की भी अनुकृति इसमे स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है । कतिपय उदाहरणो द्वारा इसे स्पष्ट करना आवश्यक है । पाणिनि के वर्णसमाम्नाय मे १४ सूत्र है, किन्तु शाकटायन के अक्षर समाम्नाय मे १३ सूत्र है । महाभाष्य के द्वितीय आह्निक मे वार्तिककार ने "ऋलृक्” सूत्र मे लृकार का प्रत्याख्यान किया है । तदनुसार शाकटायन ने 'ऋलृक् की जगह " इस पर ऋ" सूत्र लिखा है । पाणिनि ने "अइउण्" तथा लण्” इन दो सूत्रो मे दो वार णकार अनुबन्ध लगाया है । इन दो णकारो का उपादान क्यों किया गया "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति नहि सदेहादलक्षणम्" यह परिभाषा ज्ञापित की गई है । शाकटायन इस विवाद मे नही पडना चाहते । इन्होने "हयवरलन " ऐसा सूत्र बनाकर कार के दो बार आने की समस्या का सदा के लिए निराकरण कर दिया । इससे शाकटायन की पतञ्जलि से परवर्तिता स्पष्ट हो जाती है । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पाणिनि सूत्र "छोऽटि' ५२ कात्यायन वार्तिक है "छत्वममीति वाच्यम्"। शाकटायन ने इस आधार पर "५५छोऽमि" सून ही बना डाला। शाकटायन ने कतिपय सूत्र अपने व्याकरण मे जैसे के तैसे गृहीत किये हैं। पाणिनि शाकटायन १ तेस्रय स्त्रय २ पूर्वकालकसर्वजरत्पुराणनव पूर्वकालकसर्वजरत्पुराण केवल समानाधिकर नवकेवलम् ३ वृन्दारकनागकुजरे पूज्यमानम् वृन्दारकनागकुर ४ कतरकतमौ जातिपरिप्रश्ने कतरकतम जाति परिप्रश्ने ५ यावदवधारणे यावदवधारणे पाणिनि पूर्ववर्ती शाकटायन निश्चित ही एक प्रौढ वैयाकरण हैं, किन्तु उनकी __ कोई भी कृति पाणिनि के समय थी, यह अमदिग्ध रूप से नही कहा जा सकता। पाणिनि ने अपनी सूक्ष्मेक्षिका द्वारा जिस अण्टाध्यायी का निर्माण किया, वह विश्ववाड्मय मे अनुपम है । ऐतिहासिक तथ्यों के साक्ष्य पर पाणिनि पाचवी शती विक्रम पूर्व मे हुए थे। इसके अनन्तर एक हजार वर्ष तक की अवधि मे कात्यायन के वातिक तथा पतञ्जलि के महाभाष्य के अलावा कोई भी स्वतन्त्र व्याकरण अन्य नही लिखा गया । बौद्ध और जैन विद्वान्, क्रमश पालि और प्राकृत जिनके धामिक वाड्मय की, धर्म की भापाए थी उनका ध्यान जब सस्कृत की ओर गया और उसकी व्यापकता तया अर्याभिव्यक्ति-क्षमता का उन्हें पता लगा तो उन्होंने इसे अपने व्यवहार के लिए अपनाया। कनिक के समय अश्वघोष ने अपने काव्य की रचना संस्कृत मे की, यह वात ऐतिहासिको से तिरोहित नहीं है। इसी पृष्ठभूमि मे वो विद्वान् चन्द्रगोमी ने तथा जैन विद्वान् आचार्य देवनन्दि ने अपने अपने व्याकरणो की रचना की। चान्द्र व्याकरण तो आजकल उपलब्ध नही है पर जनेन्द्र व्याकरण सर्वत्र उपलब्ध है। पाणिनि के बाद व्याकरण निर्माण-परम्परा मे जनेन्द्र व्याकरण सर्वप्रथम है । इसका समय ईसा की पाचवी शती है। चान्द्र व्याकरण का भी समय यही है। प्रचलित शाकटायन व्याकरण नवमी शती तथा हेमशब्दानुशासन बारहवी शती पूर्ति की रचना है। इन सव ने स्वेच्छया तथा पूर्ण सौहार्द से पाणिनि व्याकरण की मूलसामग्री का आकलन अपने ग्रन्थो मे किया है। जनेन्द्र व्याकरण के अध्ययन से विदित होता है कि केवल स्वर और वैदिक प्रक्रिया को अपने लिये अनावश्यक समझ कर जनेन्द्र व्याकरणकार ने इन्हे तो छोड अवश्य दिया ५२ शेप पाणिनि सामग्री की अविकल रक्षा की। हेमशदानुशासन के बाद जैन सम्प्रदाय के आचार्य विशाल कातिगणि “વિશાળવાનુશાસન' તયા માયરિવૃત “માયશવાનુશાસન” જી નામ માતા है पर ये दोनो व्याकरण इस समय उपलब्ध नहीं हैं । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १७३ आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने अपने शब्दानुशासन में निम्नलिखित ६ आचार्यो के नाम का उल्लेख किया है १ गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् १|४|३४ २ कृवृषिमृजा यशोभद्रस्य श१शह ३ शद् भूतवले ३।४१८३ ४ रातेः कृति प्रभाचन्द्रस्य ४।३।१८७ ५ वेत्ते सिद्धसेनस्य ५।१।७ ६ चतुष्टय समन्तभद्रस्य |४| १४० इन नामोल्लेखो से विदित होता है कि जैनेन्द्र से पूर्ववर्ती ये ६ वैयाकरण थे । परन्तु इन्होने किसी व्याकरणग्रन्थ की रचना की थी, उसका कोई पुष्ट प्रमाण इस समय उपलब्ध नही होता । फिर भी कहा जा सकता है कि ये विशिष्ट वैयाकरण थे, जिनका व्याकरण के प्रसार मे महत्त्वपूर्ण योग रहा होगा । पाणिनि व्याकरण मे भी आये हुए शाकल्य, गार्ग्य, गालव, स्फोटायन प्रभृति के सम्बन्ध मे भी बहुतो की ऐसी ही धारणायें हैं । जैन व्याकरण परम्परा मे अग्रिम तथा अन्तिम कडी के रूप मे “भिक्षुशब्दानुशासन” का नाम आता है । इसके रचयिता तेरापन्थ सम्प्रदाय के मुनि श्री चौयमल्ल है । इसकी रचना बीकानेर राज्यान्तर्गत छापर ग्राम मे की गई । विक्रम सम्वत् १९८८ माघ शुक्त त्रयोदशी शनिवार को पुष्य नक्षत्र मे यह ग्रन्थ पूर्ण किया गया, जैसा कि इसमे उल्लेख किया गया है | भिक्षु शब्दानुशासन का परिमाण इसमे आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय मे चार चरण है | सूत्र सख्या कुल ३७५१ है । इन सूत्रो के ऊपर आयुर्वेदाचार्य आशुकवि प० श्री रघुनन्दन शर्माद्वारा रचित वृहद्वृत्ति है । इसमे सूलो की प्रोढ तथा विस्तृत व्याख्या की गई है। भिक्षुशब्दानुशासन की यह सूत्र संख्या जैनेन्द्र तथा शाकटायन के सूत्रो से अधिक है । निम्नलिखित तालिका से यह बात स्पष्ट है पाणिनि अध्याय आठ, पाद वत्तीस, कुल सूत्र ३६८२ । इसमे लौकिक और वैदिक दोनो प्रकार के सूत्र है । जैनेन्द्र अध्याय पाच, पाद वीस, तथा सम्पूर्ण सूत्र २६६३ है । अध्याय चार, पाद सोलह, सम्पूर्ण मूत्र ३२३६ हैं । शाकटायन शब्दों की सिद्धि मे पाणिनि के सूत्रो की अपेक्षा भिक्षुशब्दानुशासन के सूत्रो की अधिकता का कारण इसकी लाघव तथा सरलीकरण की प्रक्रिया है । मूलत व्याकरण को सरलतया छाती को वोधगम्य कराना ही इसका उद्देश्य है । इसलिये पाणिनि के अधिकाश लम्बे सूत्रो को कई खण्डो में विभाजित करके छोटे छोटे सूत्र इसमें बनाये गये है । उदाहरण के लिये पाणिनि सूत्र “टोड मिडसा मिनात्स्या " इस सूत्र को लिया जाय । यह सूत्र टा, डसि डस् प्रत्ययो के स्थान पर क्रमश इन, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा आत् और स्य आदेश करता है। भिक्षुशब्दानुगासन मे इस सूत्र की जगह तीन सूत्र है १ टेन १।४।१५ इससे टा के रथान पर इन आदेश होता है। २ डसिराद् १।४।१३ डसि को आत् का विधान करता है। ३ डस् स्य १।४।१४ डस् के स्थान स्य का विधायक मूत्र है। इसके अतिरिक्त पाणिनि व्याकरण मे आये हुए कतिपय वचनो एव वातिको को भी इसमे सूत्र का रूप दे दिया गया है । जैसे -. १ अ अनुस्वार १११।११ २. अ विसर्ग १।१।१२ ३ कु चु टु तु वर्गा ११११।१५ भट्टोजिदीक्षित कृत सिद्धान्त कौमुदी मे इन सूत्रो के लिये निम्नलिखित वचन मिलते है "अ अ इत्यच परावनुस्वारविसगा" "कु चु टु तु पु" इत्येते उदित" पाणिनि परम्परा मे ऋकार और लकार की परस्पर सवर्ण सज्ञा करने के लिए "ऋलवर्णयो मिथ सावण्यं वाच्यम्" ऐसा वातिक आता है । भिक्षुशब्दानुशासन मे इसे सूत्र का रूप दे दिया गया है ऋलवाँ वा १११११६ इसी प्रकार "शकन्ध्वादिषु पररूप वाच्यम् ।।" "शकिपायिवादीना सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसख्यानम् ।।" इन दो वातिको के स्थान पर भिक्षुशब्दानुशासन मे निम्नलिखित सूत्र मिलते हैं १ शकादीना टेरध्वादिपु १।२।११ २ शाकपायिवादीना मध्यमपदलोपश्च । ३।१।११० जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि पाणिनि के अनन्तर जितने व्याकरणो को रचना हुई है, उन सब पर पाणिनि का अविकल प्रभाव है। यह व्याकरण भी उस परम्परा से अछूता नही है, फिर भी इसकी निजी विशेषताये हैं, जिनका विवेचन બા વિયા નામા ! भिक्षुशब्दानुशासन मे प्रत्याहार सूत्र ___सक्षेपीकरण व्याकरणशास्त्र की अपनी विशेषता है। सामभित छोटे छोटे सूत्रो के द्वारा महत्त्वपूर्ण तथा विस्तृत व्याख्या सापेक्ष तथ्यों का प्रस्तुतीकरण व्याकरणशास्त्र के अतिरिक्त अन्यन्न कम जगहो पर देखने को मिलता है । प्रत्याहार भी कुछ इसी प्रकार के कार्य करते हैं । अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ऐ, ओ, औ इन नौ अक्षरो को पाणिनि व्याकरण मे "अच्" जसे छोटे शब्द के द्वारा कहा गया है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १७५ पाणिनि व्याकरण के मूलाधार चौदह माहेश्वर सूत्र है। इन्हे अक्षर समाम्नाय, वर्ण समाम्नाय तथा प्रत्याहार सूत्र इत्यादि विभिन्न नामो से जाना जाता है। ये चौदह सूत्र इस प्रकार है अइउण् ।१। ऋलुक् ।२। एमओड्।३। ऐऔन् ।४। हयवरट् ।। लण् ।६। अभडानम् ।७। झभन ।८। पढधष् ।६। जबगडदश् ।१०। खफछठयचटत ।११। कपम् ।१२। शपसर् ।१३। हल् ।१४। जनेन्द्र व्याकरण में प्रत्याहार सूत्र नहीं है, किन्तु सूत्रपाठ मे जहाँ अनेक वर्णो का निर्देश करना अभीष्ट है, वहीं सक्षेपार्थ पाणिनि अनुशासन के प्रत्याहारो का ही प्रयोग किया गया है । जैसे अच् ११११५६ इक् १११।१७ यण १।११४५ हल् ५।४।१३८ ऐच १।१।१५ एड ११११७० अट् ५।४।१३७ झर ५।४।१३६ इन प्रत्याहारो के उल्लेख से यह स्पष्ट है कि ये सारे प्रत्याहार पाणिनि प्रत्याहार सूत्र पर आधारित है । प्रत्याहार सूत्रों के अभाव में भी प्रत्याहार बनाने के लिए "अन्त्यनेतादि" १।१।७३ यह सूत्र जनेन्द्र मे उपलब्ध होता है । इस सूत्र के द्वारा अजादि प्रत्याहारो का निर्माण तभी सभव है, जब इस ग्रन्थ मे पाणिनि सम्मत प्रत्याहार सून स्वीकृत हो। अन्यथा अन्त्यनेता दि सूत्र का अर्थ समझ मे ही नही आयेगा। __शाकटायन व्याकरण मे प्रत्याहार सून उपलब्ध है। इनका मूलाधार भी पाणिनि सून ही है । किन्तु पाणिनि सूत्रो मे कुछ वर्ण-विपर्यय करके शाकटायन ने इस प्रकार से प्रत्याहार सूत्रो को बनाया ___ अ३७ ।। ऋक् ।२। एओड् ।३। ऐऔन् ।४। हयवरल ।। जमानम् ।६। जबगडदश् ।७। झभचढधः ।८। खफ७०थट् ।। चटतन् ।१०। कपम् ।११। शपसअअ 8 क 8 प र् ।१२। हल् ।१३। भिक्षशब्दानुशासन का अपना प्रत्याहार सूत्र है। यहाँ प्रत्याहार सूत्र की सख्या तेरह या चौदह न होकर एक ही है। अनुबन्ध रहित यह एक प्रत्याहार सूत्र निम्नलिखित प्रकार से है अइउल-एएओऔ - हयवरल - अणनडम-झदधषभ - जडदाब - खफ४थचटतकप-शपस ११११४ पूर्ववर्ती व्याकरणो मे प्रत्याहार सूत्रो के अन्त मे एक-एक वर्ण ऐसे लगे हुए हैं, जिनकी इत्सज्ञा का लो५ करना पड़ता है। भिक्षुशदानुशासन गौरवग्रस्त इस पद्धति को छोडकर अनुबन्ध विनिमुक्त प्रत्याहार सून स्वीकार करता है। शाकटायन जहाँ लु को अनावश्यक समझते है और प्रत्याहारसूत्रो मे उसका उल्लेख नही करते, वही पर भिक्षुशब्दानुशासन लवर्ण को आवश्यक समझता है और प्रत्याहारसूत्रो मे उसका पाठ स्वीकार करता है। शाकटायन ने प्रत्याहार सूत्रो मे Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा उन्ही अनुवन्धो को लगाया है, जिनका प्रयोग पाणिनि व्याकरण मे किया गया है। इतना आवश्यक है कि शाकटायन विवाद से बचना चाहते है। पाणिनि के प्रत्याहार सूत्रो मे कार अनुवन्ध दो वार और आया है। जिज्ञासा स्वाभाविक हे कि णकार का अनुवन्वरू५ मे द्विरुपारण क्यो किया गया। समावान में कहा गया है कि णकार के द्विरुपारण से 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपति नहि मदेहादलक्षणम्।" इस परिभाषा का ज्ञापन किया जाता है। शाकटायन इस चक्कर में पड़ना नहीं चाहते । वे एक कार को हटा देते है। इन्होने अनुस्वारविसर्गजिवामूलीय और उपध्मानीय का पा० र प्रत्याहार के अन्तर्गत कर दिया है । भिक्षुशब्दानुशासन का प्रत्याहार सूत्र अपने ढग का अलग है। इसमे हवर्ण का द्विपादान पाणिनि और शाकटायन की भॉति नहीं किया गया है । शाकटायन लिखते हैं "हकारस्य द्विरुपदेशोऽपादी पलादी च महणार्य । पाणिनि परम्परा मे हकार का दो वार पा० अट् और गल प्रत्याहार मे हकार के ग्रहण के लिये कहा जाता है, जिसका फल अhण और अधुक्षत् प्रयोग की सिद्धि मानी गई है। भिक्षुशब्दानुशासन के अनुसार "अवकुप्वनुस्वार विसर्गजिह्वामूलीयोपध्मानीय रन्तरेऽपि" २।२।७० इस सूत्र से अव के व्यवधान मे नकार को णकार करके उपर्युक्त दोनो । प्रयोगो की सिद्धि कर दी गई है। इसलिये हकार का द्विपादान यहा अनावश्यक समझा गया। भिक्षुशब्दानुशासन की सर्वाङ्गपूर्णता व्याकरणसम्प्रदाय मे शब्दानुशासन शब्द केवल सूत्रपा० के लिये आता है। धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिंगानुशासन किसी भी व्याकरण की पूर्णता के लिये आवश्यक होता है। सूत्रो के सहित इन चारो को मिलाकर पञ्चपाठी व्याकरण कहा जाता है। प्रचलित शाकटायन व्याकरण मे प्रथम अध्याय के द्वितीयपाद के आरम्भ मे ही श्लोकबद्ध लिंगानुशासन का पाठ है। स्त्रीलिंग, पुल्लिा तथा नपुसकलिग के सारे शब्द ६० श्लोको मे उल्लिखित है । इस व्याकरण मे धातुज रूपो की सिद्धि के लिये प्रक्रिया की विस्तृत चर्चा होने पर भी धातुपाठ नही देखा जाता। सभवत पाणिनि की धातुओ से ही तत्तद् रूपो को बनाना इन्हे अभीष्ट रहा हो। इसलिये रूपसिद्धि के लिये सूत्र तो बनाये गये पर धातुओ का निर्माण अलग से नही किया गया। इसमे गणपा० की विस्तृत चर्चा है। व्याकरण मे आये सारे गण के शब्दो का पा० ग्रन्थ के परिशिष्ट मे दिया गया है। उणादि प्रकरण के सन्दर्भ मे शाकटायन व्याकरण मे केवल एक सूत्र उपलब्ध होता हे "उणादय" ४।३।२८०। यहाँ बहुल की अनुवृत्ति करके "उणादयो वहुलम्" ऐसा निर्देश मान लिया गया है। इससे यह बात निश्चित हो जाती है कि Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययना. १७७९ पाणिनि परम्परा मे प्रचलित उणादि सूत्रो के रचयिता ये शाकटायन नहीं है।' । जनेन्द्रव्याकरण मे धातुपा० मूल अन्य के परिशिष्ट मे छपा हुआ है। इसमे धातुओ की धुसज्ञा की गई है। इनकी कुल संख्या १४५८ है। सामान्य परिवर्तन के साथ यहाँ पर धातु वे ही है, जो पाणिनि व्याकरण मे प्रचलित है। अभयनन्दी की महावृत्ति मे जैनेन्द्र गणपा० यथास्थान उल्लिखित है। जनेन्द्र मे, उणादि के लिये एक मात्र मूत्र उपलब्ध है, उणादयो बहुलम् २।४।६२। इसके अतिरिक्त और कोई उणादिसून जैनेन्द्रव्याकरण का उपलब्ध नही होता। लिंगानुशासन भी जनेन्द्र का अनुपलब्ध ही है। इनके अतिरिक्त जनेन्द्र में पाणिनि की अनुकृति के, आधार पर ४८३ पातिक तथा ६७ परिभाषाओ का उल्लेख मिलता है। जिनेन्द्रः के ऊपर अभयनन्दी की महावृत्ति का अवलोकन करने से विदित होता है कि अभयः नन्दी केवल जनेन्द्र व्याकरण के जानकार ही नही थे अपितु पाणिनि व्याकरण मे. उनकी अप्रतिहत गति थी। पातिक तथा परिभाषाओ की समानानुकृति से यहां बात सम्पुष्ट होती है। - 17 . इस पञ्चपाठी व्याकरण के परिवेश मे "भिक्षुशब्दानुशासन" का पालोचना करने पर विदित होता है कि जैनेन्द्र तथा शाकटायन की अपेक्षा यह शब्दानुशासन कतिपय अपनी निजी विशेषताएं रखता है। उदाहरणार्थ जैनेन्द्र जहाँ प्रत्याहारीके लिये पाणिनि के अक्षरसमानाय पर अवलम्बित है, वहाँ भिक्षुशब्दानुशासन का स्वय का प्रत्याहार सूत्र है। उणादि सूत्र न तो जनेन्द्र मे है और न शाकटायन मे हैं । किन्तु भिक्षुशब्दानुशासन मे उणादि सूत्रो को चार पादो मे विभक्त कर इनका विधिवत् विवेचन, किया गया है। --- ! }y fir . भिक्षुशब्दानुशासन प्रवेशिका कालुकोमदी" मे १११ उणादि सूत्रो का: उल्लेख है। इससे सकेत मिलता है कि इस शब्दानुशासन के और भी उणादि) सूना है। ; - २ . . . . , 3 2 7--173717 गणपाठ - इस शब्दानुशासन की मूल पाण्डुलिपि मे गणपाठ, उपलब्ध, नही, है। सभवत इसका उल्लेख अलग किया गया हो । " - : धातुपा० इसका धातुपा० स्वयं का है। कालुकौमुदी मे ८३३ धातुओ का उल्लेख है। इससे विदित होता है कि इसके धातुओ की संख्या इससे अधिक है। इस सम्बन्ध मे भिक्षुशब्दानुशासन की निम्नलिखित पक्तियां ध्यातव्य है , ___ "भिक्षु धातुपाठ सन्तोऽपि ये धातव पररपि स्वस्वधातुपाठेषु अन्यया पठिता सन्ति, ये च पररधिका एक पठितास्तेऽपि ५र५ठितत्वेन विवक्षिता इहोच्यन्ते"-17 तात्पर्य यह है कि इस धातुपाठ मे कुछ धातु स्वनिर्मित और कुछ अन्य व्याकरण से गृहीत है । अन्य व्याकरण से तात्पर्य पाणिनि व्याकरण से है। क्योकि पाणिनि के धातु अर्थ सहित यहाँ गृहीत किये गये है। । कुछ धातु जो भिक्षुशब्दानुशासन के स्वयं के हे Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ . संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा तन्द्राति १ तन्द्रा आलस्ये २. निद्रा शयने निद्राति 3 कक्व कर्कहासे कक्वति मर्कति ४ मर्कस् पृच्छने પ્રાત્ બાવાને નર્તાત इस प्रकार अनेक धातु है, जो भिक्षुशब्दानुशासन के अपूर्व धातु हैं । વિધાનુશાસન સ દ્રાનુળાસન મૂળ હસ્તલેદ્ય મેં લાાનુગાસન નહી हैं । किन्तु श्लोकबद्ध इसका लिंगानुशासन बना हुआ है। ऐसा विदित हुआ है । इन सभी वातो के अतिरिक्त यहां का न्यायदर्पण एक महत्त्वपूर्ण वस्तु है । इन न्यायो के द्वारा मदिग्ध अर्थ को एक निश्चित रूप दिया जाता है । पाणिनि परम्परा मे इस प्रकार के कार्य परिभाषाओ के द्वारा सम्पन्न किये गये है । "अनियमे नियम कारिणी परिभाषा" इस व्युत्पत्ति के आधार पर परिभाषाओं से भी वे ही कार्य किये जाते है, जो न्यायो से किये जाते हैं । पाणिनि व्याकरण मे दो प्रकार की परिभाषाये उपलब्ध होती है । एक तो सूत्र रूप मे पढ़ी गई परिभापायें, जैसे "डको गुणवृद्धी" "स्यानेऽन्तरतम " इत्यादि । दूसरे प्रकार की परिभाषाये वे हैं, जो सूत्रकार के द्वारा पढी तो नही गई है, पर उनसे अभिमत है । ऐसी परिमापायें सूत्रो से अथवा सूत्रों के अशो से ज्ञापित की जाती हैं। ऐसी परिभाषाओं के आधार पर निर्मित पाणिनि सम्प्रदाय मे परिमाषेन्द्रशेखर नामक एक विशिष्ट ग्रन्थ है । भिक्षुशब्दानुशासन मे भी दो प्रकार की परिभापाये उपलब्ध होती हैं । एक तो सूत्रकार के द्वारा सूत्र रूप मे पठी गई है, जैसे "शिदनेकवर्ण सर्वस्य" ८४१२४ जो कार्य शित् रूप हो या अनेक वर्णों वाला हो, वह सम्पूर्ण के स्थान पर होता है । पण्ठ्यान्त्यस्य ८|४|१२३ पष्ठी निर्दिष्ट कार्य अन्तिम वर्ण के स्थान पर होता है । यद्यपि इन्हे सूत्रकार ने परिभाषा नाम नही दिया है तथापि इनके द्वारा वे ही कार्य होते हैं, जो परिभाषाओं से किये जाते हैं | भिक्षुशब्दानुशासन मे दूसरे प्रकार की परिभाषाओ के लिए न्याय शब्द का प्रयोग किया गया है । "थ ये तु शास्त्रे सूचिता लोक प्रसिद्धाश्च न्यायास्तदयं यत्न क्रियते”” यद्यपि न्याय शब्द से "सूचीकटाहन्याय", "काकाक्षिगोलकन्याय” “जल तुम्विकान्याय" इत्यादि लोकप्रसिद्ध न्याय गृहीत किये जाते हैं किन्तु इस शब्दानुशासन मे "नीयते सदिग्धार्यो निर्णयमेभिरितिन्याय " इस व्युत्पत्ति के आधार पर सदिग्धार्य का निर्णय जिसके द्वारा किया जाय वह न्याय कहा गया है । भिक्षुशब्दानुशासन मे तीन प्रकार के न्याय उपलब्ध होते है पाणिनीय सूत्र यहाँ न्याय रूप में स्वीकार है १ कुछ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १७६ (1) स्वरूप शब्दस्याशब्दसज्ञा ( 11 ) आद्यन्तवदेकस्मिन् ( 111 ) यथासख्यमनुदेश समानाम् । २ पाणिनिसम्प्रदाय की अनेक उपयोगी परिभाषाये मूलरूप मे या रूपान्तरित होकर यहाँ न्याय रूप मे स्वीकृत हैं (1) सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्त तद्विधातस्य । ( 11 ) एकदेशविकृतमनन्यवत् । ( 111 ) उपपदविभक्ते कारकविभक्ति वलीयसी । (IV) अर्धवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणम् । (v) लक्षणप्रतिपदोक्तयो प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम् । ३ कुछ ऐसे न्याय भी यहाँ स्वीकृत है, जो लोक सिद्ध है (1) द्विद्ध सुबद्ध भवति । ( 11 ) यस्य येनाभिसम्बन्धो दूरस्यस्यापि तेन स । ( 111 ) अपेक्षातोऽधिकार । भिक्षुन्यायदर्पण मे कुल १३५ न्याय है । इन न्यायो पर शब्दानुशासन के श्लोककार मुनि चोथमल की वृहद्वृत्ति है, जो बहुत ही उपयोगी है । इस शब्दानुशासन को सर्वाङ्गसम्पन्न बनाने में इन न्यायो का महत्त्वपूर्ण स्थान है । 4 लाघव और सरलता भिक्षुशब्दानुशासन का प्रधान लक्ष्य है | व्याकरण સમ્બન્ધી સારે તો લા સાપોવા વિવેશ્વન રને વાલે ફ્સ શબ્દાનુશાસન ળી નિખી विशेषताये इस प्रकार है १ पाणिनि शब्दानुशासन लौकिक और वैदिक दोनो प्रकार के शब्दो का अनुशासन करता है । भिक्षुशब्दानुशासन के अनुसार वैदिक शब्दों की सिद्धि तथा तत्सम्बन्धी स्वरविधान की प्रक्रिया मान्य नही थी, अत यह वैदिक शब्दो का अनुशासन नही करता । ૨પાગિનિ સૂત્રો પર બાધારિત તૈયારળસિદ્ધાન્ત લૌમુવી મે પત્તિયો લી परम्परा, जिसके कारण व्याकरण को कठिन मानने की एक धारा चल पडी, उस परम्परा को यहाँ स्थान नही दिया गया है । इसका उद्देश्य सरल प्रक्रिया द्वारा व्याकरण का ज्ञान कराना है । पक्तियो की शास्त्रार्थी प्रणाली शब्द व्याक्रिया से जिज्ञासु को दूर कर देती है । ३ पाणिनि व्याकरण एक शेष का विधिवत् विवेचन करता है । जनेन्द्र ने एक शेप को आवश्यक नही समझा । वे लिखते है "स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैक शेपानारभ ।' अर्थात् लोक व्यवहार के आधार पर प्रयोगो की अवधारणा के कारण एक शेपविधायक सूत्र आवश्यक नही है । यह बात कहाँ तक उचित है, इस पर गभीर विचार की आवश्यकता है । जैनेन्द्र के परवर्ती शाकटायन ने एक शेप Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० . सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा को आवश्यक समझा और इस कार्य के लिये इन्होने बारह भूत्रों का प्रणयन किया। पाणिनि व्याकरण मे एक शेप के लिये नौ सूत्र है। शाकटायन ने पाणिनि के वातिको को मूत्र का रूप देकर यह संख्या वारह कर दी है। भिशब्दानुशासन एक शेप की आवश्यकता का अनुभव करता है । इसका पहला एक शेप विधायक सूत्र "स्यानावसंख्यय" ३१११३५ है। जमा कि पहले संकेत किया जा चुका है कि किसी भी व्याकरण की सर्वाङ्गपूर्णता के लिये उसका धातुपाठ, गणपाठ, लिंगानुशासन, शिक्षा तथा उणादि सूत्र आवश्यक समझे जाते है। पाणिनि व्याकरण मे ये सारी वात उपलब्ध हैं। इनमे लिंगानुशासन, धातुपा० तथा गणपा० के पाणिनि कत करव मे किसी की विप्रतिपत्ति नही है किन्तु पाणिनि शिक्षा और उणादि मूत्रो के सम्बन्ध मे विद्वानो मे मतभेद है। शिक्षा का पाणिनि द्वारा रचित न होने का कारण यह प्रतीत होता है कि इसका पहला श्लोक अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि पाणिनीय मतं यथा। शास्त्रानुपूर्व तद् विधात् यथोक्त लोकवेदयो । है । इसमें पाणिनीय मतानुसार शिक्षा का निरूपण करने का कहा गया है । पाणिनि स्वय के लिए ऐसा प्रयोग नहीं करते । साथ ही शिक्षा के अन्त मे दो वार पाणिनि को नमस्कार भी किया गया है, जो पाणिनि के द्वारा सभव नही है। इसलिए बहुत सभव है कि पाणिनि परम्परा के किसी विद्वान् ने शिक्षा को पीछे से इसमे जोड दिया है। ___उणादिसून जो पञ्चपादो मे विभक्त है तथा जिनकी संख्या ७५५ है, के विषय मे विद्वानो मे 46। मतभेद है। पाणिनि ने "उणादयोवलम्" सूत्र का उल्लेख किया है। जनेन्द्र ने उसे उसी प्रकार उद्धत किया है। शाकटायन ने "उणाय" मूत्र बनाया तथा इसमे वहुलम् की अनुवृत्ति स्वीकार की। इन दोनो व्याकरणो मे सिद्धान्तकौमुदी के उणादि प्रकरण के प्रथम सूत्र "कृवायोजिम स्वदिसाध्यशून्य उण" सूत्र के उदाहरण प्रस्तुत किये गये है। भिक्षुशब्दानुशासन उणादि के सम्बन्ध मे जनेन्द्र और शाकटायन से आगे है। भट्टीजिदीक्षित की मिहान्त कौमुदी मे जिस प्रकार पूर्व और उत्तर कृदन्त के मध्य में णादि प्रकरण है, उसी प्रकार भिक्षुशब्दानुशासन की प्रवेशिका "कालु कौमुदी" मे पूर्व और उत्तर कृदन्त के मध्य मे शादिप्रकरण को रखा गया है । कौमुदी वाले इणादि सूत्रों में पांच पाद है किन्तु भिशब्दानुशासन मे उणादि के पार पाद है। उसे देखने से विदित होता है कि जिस सरलीकरण की पद्धति का अवलम्वन १. भिक्षादानुशासन के अन्य सूत्रो की रचना हुई है, वही पद्धत मादि मुन्नी के निा भी अपनाई गई है। दो उदाहरणो में इस बात को स्पष्ट किया जा सकता है Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १८१ येनागविकार ' यह पाणिनि सूत्र है। दीक्षित ने इसकी वृत्ति मे लिखा है। "येन विकृतेनागनागिनो विकारो लक्ष्यते तन तृतीया स्यात्" अर्थात् जिस विकृत अग से अगी का विकार परिलक्षित हो, उस अगवाचक शब्द मे तृतीया विभक्ति होती है। यहा अग शब्द से अच् प्रत्यय करके अग शब्द बनाया गया है। जिसका अर्थ होता है 'अगी' । अगम् अस्ति यस्य स..अग अर्थात् अगी" इस प्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा वाञ्छित अर्थ की प्रतीति की जाती है।।, भिक्षुशब्दानुशास। इस प्रकार के क्लिष्ट व्याख्यान मे न उलझकर सीधा सूत्र बनाता है येनागिविकार १।४।६० अर्थ और उदाहरण तो वही है, जो दीक्षित ने दिये है परासूत्रार्य मे वह काठिन्य नही है जो दीक्षित के आगे है। - । । " : . इसी प्रकार "चन्द्रमस्" शब्द बनाने के लिए "चन्द्र मो जित्"। यह सून वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी मे उपलब्ध होता है। इसके द्वारा चन्द्रपूर्वक मा धातु से असि प्रत्यय तथा उसे जित् की प्रतिज्ञा की गई है । जित् के कारण धातु-के आकार का लोप होकर "चन्द्रसस्" शब्द बनता है। इस पन्द्रमस शब्द की सिद्धि भिक्षुशब्दानुशासन मे 'चन्द्र रमस् ।। इस सून से चन्द्र धातुःसे रमस् प्रत्यय करके किया गया है। स्पष्ट है कि भिक्षुशब्दानुशासन मे प्रक्रिया को सरल करने का प्रयत्न जिस प्रकार अन्य प्रकरणो मे किया गया है उसी प्रकार उणादि सूत्रो के सम्बन्ध मे भी यहा का प्रयत्न प्रशसनीय है।।, T-7. THE - भिक्षुशदानुशासन मे पाणिनि की गगा, कात्यायन की कालिन्दी और पताल की सरस्वती का एकत दर्शन होता है। उदाहरण के लिए पाणिनिके सूत्र "शिल्पिनिष्ठन्" ३।१।१४५ को ले, जो शिल्पवाचक शब्दो से वुन् प्रत्यय करता है । इस पर कात्यायन का वातिक है "नृतिखनिजिभ्याएक"111५तजलि का कहना है यह वुन् प्रत्यय "नृतिखनिभ्यामेव" । वुन् प्रत्यय से अनुबन्ध को हटा कर वु को अक करके नर्तक इत्यादिरूपो की सिद्धि-की जाती है। इस प्रक्रिया को लाघवपूर्ण बनाते हुए भिक्षुशब्दानुशासन कहता है ' 'T 11 "नृतिखनिरनिभ्य शिल्पिन्यकट" '। स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया मे वु को अक करने की आवश्यकता नही है। । पाणिनि परम्परा की वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी के हल सन्धि प्रकरण मे ३८ सूत्रों तथा कुछ वातिको के द्वारा जितने कार्य किये गये है, वे स कार्य भिक्षुशब्दानुशासन पर आधारित कालुकौमुदी' के हल्सन्धि प्रकरण मे केवल २.३, सूत्रो से कर लिया गया है। सूत्रो को कम करने की यह प्रक्रिया प्रयोगसिद्धि की सरल प्रणाली पर आधारित है। उदाहरण के लिए : उत्यानम्" प्रयोग को लिया जा सकता है। -- : '.." :: उद्+ स्थानम्' इस स्थिति मे पाणिनि ने "उद स्थास्तम्भो पूर्वस्य" इस सूत्र द्वारा स्थानम् के सकार के स्थान पर पूर्वसवर्ण करके थकार, का विधान Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा किया है। उसके वाद "झरोझरि सवर्णे" सूत्र से थकार का लोप तथा श्वरि च " सूत्र से दकार को तकार करके "उत्थानम् " प्रयोग की सिद्धि की गई है । भिक्षुशब्दानुशासन इस प्रयोग की सिद्धि के लिये इतनी लम्बी प्रक्रिया की जगह सरल प्रक्रिया को अपनाता है । उसका सूत्र है 'उद स्थास्तम्भो स ।" उसके द्वारा उद् शब्द के आगे रहने वाले स्था और स्तम्भ के सकार का लोप कर दिया जाता है । फलस्वरूप सकार का पूर्वसवर्ण तथा थकार का लोप जैसी प्रक्रिया नही करनी पडती । यह एक लाघव है । भिक्षुशब्दानुशासन के पूर्ववर्ती जैनेन्द्र ने तो उत्थानम् की सिद्धि के लिये पाणिनि की सरणि को ही अपनाया । इनका सूत्र "स्यास्तम्भो पूर्वस्योद " ५।४।१३५ उद् से पर मे रहने वाले स्था और स्तम्भ को पूर्व का रूप करता है | इससे स्पष्ट है कि ये पाणिनि की परम्परा का अनुसरण कर रहे है । शाकटायन यहाँ पाणिनि से भिन्न सरणि को अपनाते है । इन्होंने “उद स्वास्तम्भ १|१|१३४ सूत्र बनाया और इसके द्वारा स्था के सकार का लोप कर दिया गया । इतना अवश्य है कि सकार के लोप के लिये "जर्" प्रत्याहार का अवलम्वन किया गया । अर्थात् उद् से पर मे रहने वाले जर् ા જોષ हो जाता है यदि उसके आगे भी जर रहे तो । इस प्रकार सकार का लोप करके શાČાયન ને પ્રયિા તાધવ ળા પ્રવર્ધન યિા । મિક્ષુધાવ્વાનુશાસને યક્ષ્ાઁ શાદાયન से प्रभावित है । किन्तु शाकटायन जहाँ जर् प्रत्याहार के द्वारा सकार लोप विधान करते है, वहाँ भिक्षुशब्दानुशासन "उद स्थास्तम्भो स सूत्र के द्वारा सीधे सकार का लोप विधान कर सरलीकरण की प्रक्रिया को और आगे बढाता है । 1 31 पाणिनि परम्परा मे जो रूप पूर्वरूप या पररूप करके बनाये जाते है, भिक्षुशब्दानुशासन वहाँ लोप करके उसको बनाता है । उदाहरण के लिए 33 १ राम् +अम् "अमिपूर्व " सूत्रसे पूर्वरूप करके रामम् बना (पाणिनि) । राम् [ अम् = "समानादम सूत अम् के अकार का लोप करके रामम् वना, (भिक्षुशब्दानु० ) । २ प्र + एजते = "एडि पररूपम् " सूत्र से पररूप करके प्रेजते रूप बनता है (41 FUIFFT) 1 प्र + एजते=एदेतोरुपसर्गस्थलीप " सूत्र से उपसर्ग के अकार का लोप करके प्रेजते रूप की सिद्धि होती है ( भिक्षु० ) । ३. शक | अन्धु =शकन्ध्वादिपु पररूप वाच्यम् इस वार्तिक से ककारोत्तरवर्ती अकार का पररूप करके "शकन्धु" रूप बनता है (पाणिनि) । शक + अन्धु = "शकादीना टेरन्धादिषु" इस सूत्र से टिलोप (अकारलोप) करके शकन्धु वना । ( भिक्षु० ) । गुण और १२ वृद्धि सज्ञाए भिक्षुशब्दानुशासन मे नही है। साथ ही अकार के आगे जहां ऋ और लृ रहता है वहाँ क्रमश गुण रूप मे अर् और अल् तथा वृद्धिरूप मे લાર્ ઔર્ બાત્ હોતા હૈ ખૈલે Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १८३ उ५+३द्र = उपेन्द्र (गुण) देव+ऐश्वर्यम् =देवश्वर्यम् (वृद्धि) कृष्ण | ऋद्धि =कृष्णा (गुण) तव | लकार =तवलकार (गुण) प्र | ऋच्छति -प्रार्छति (वृद्धि) प्र+लकारीयति =प्राकारीयति (वृद्धि) (पाणिनि) भिक्षुशब्दानुशासन मे "अवर्णस्यवदावेदोदरल" ११७।२३ इस सूत्र के द्वारा अवर्ण के आगे इ, उ, ऋ और ल के रहने पर पूर्व और पर के स्थान पर क्रमश ए, ओ, अर् और अल् आदेश होता है। इस पद्धति से भी उपर्युक्त रूपो की सिद्धि की जाती है। इतना अवश्य है कि पाणिनि मे जहाँ गुण सकेत से कार्य किया जाता है, वहाँ भिक्षुशब्दानुशासन विधेयो का साक्षात् उल्लेख करके कार्य कर रहा है। यहां कुछ गौरव तो अवश्य है, पर प्रक्रिया ज्ञान मे लाधव भी है। इसी प्रकार वृद्धि विधान के द्वारा पाणिनि ने जिन रूपी की सिद्धि की है, उनके लिए भिक्षुशब्दानुशासन मे एदतारत् ११२।१६ ओदीतोरीत् १।२।२२ अवर्ण के आगे ए रहने पर ऐ तथा ओ रहने पर औ होता है। रूप सिद्धि तो वही होगी, जो पाणिनि मे हुई है किन्तु जैसी जैसी वृद्धि करनी होगी, वैसे से नाना सूत्र यहाँ वनाने पड़ेंगे। यह यहाँ का एक गौरव है । वृद्धि कही तो पूर्व पर के स्थान पर होती है यथा "तवैषा"। कही आदि अच् के स्थान पर होती है जैसे सीमिति । इसमे सन्देह नही कि ऐसे विभिन्न स्थलो के लिये भिक्षुशब्दानुशासन मे विभिन्न सूत्र अपेक्षित हो। फिर भी अलग अलग विधियो का विधान प्रक्रिया सारल्य मे उपयोगी तो होगा ही। गुण वृद्धि संज्ञा न करके लक्ष्य मे सीधे आदेश का विधान जनेन्द्र और शाकटायन की देन है । जनेन्द्र ने गुण करने के लिये "आदेप्" ४।३।७५ सूत्र बनाया है। इसका अर्थ है 'अवर्ण के आगे अच् रहे तो एक आदेश होता है। उदाहरण के रूप मे यहाँ 'देवेन्द्र ' तथा गन्धोदकम्' ये प्रयोग प्रस्तुत किये गये है। जनेन्द्र ने एच्य५ ४।३।७६ सूत्र बनाया है। अवर्णान्त से एच् पर मे रहने पर दोनो के स्थान पर एक ऐप होता है। महा +-औपचम् = महौषधम् ।। यह उदाहरण रूप मे दिया गया है। शाकटायन ने भी जैनेन्द्र की प्रणाली का अनुसरण कर गुण विधान के लिये इक्येडर ११११८२ तथा वृद्धि करने के लिए 'एजूच्यच् ॥११११८३ सून Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ . संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परपरा बनाया। इस प्रकार सज्ञा के बिना सीधे आदेश विधान की परम्परा को भिक्षुशब्दानुशासन ने अपनाया और उसे ऐसा परिष्कृत रूप दिया, जो अव्याप्ति आदि दोपो से विनिर्मुक्त है। उपर्युक्त वातो के अतिरिक्त भिक्षुशब्दानुशासन मे लगभग एक सौ के करीब ऐसे स्थल हैं, जिनकी तुलना पाणिनिशब्दानुशासन से करने पर दोनो की अपनी २ विशेषता स्पष्ट परिलक्षित होती है। उनमे से कुछ उदाहरण नीचे प्रस्तुत है । । । १ । एकदितिमात्रा हस्वदीर्थ लुता ।१।११६ के उदाहरण मे दीर्घ ल का पा० है । इससे दीर्थ ल की सत्ता भिक्षुशब्दानुशासन मे स्वीकृत है। ___ भट्टोजिदीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी मे "लुवर्णस्थ द्वादश तस्य दीर्धाभावात्" यह पा० देखकर समझा जाता है कि पाणिनि परम्परा मे दीर्घ लकार नहीं है। किन्तु वात कुछ और ही है । "लुतिल वा" इस पातिक से विधेय जो ल होता है वहाद्विमालिक अर्थात् दीर्घ होता है और इसका प्रयत्न विवृत न होकर ईपरस्पृष्ट होता है। इसीलिये ऐसा नहीं समझना चाहिये कि पाणिनि परम्परा मे दीर्थ लकार नहीं होता। २ऋणे प्रवसन क बलदशावत्सरवत्सतरस्यार् । १।२।१४ (भिक्षु०) प्रवत्सतर कम्वलवसनाणदशानामृणे (वै० सि० कौमुदी) भिक्षुशब्दानुशासन का उपर्युक्त सूत्र तथा सिद्धान्तकौमुदी का वार्तिक दोनो के द्वारा कार्य एक ही किया जाता है पर भिक्षुशब्दानुशासन आर् का विधान करता है जब कि वातिक के द्वारा वृद्धि करके आर् किया जाता है । यहाँ पाणिनि की अपेक्षा वत्सर शब्द भिक्षुशब्दानुशासन मे अधिक है। इससे "वत्सराणम्" की सिद्धि होगी। ३ नेमोल्प प्रथम चरमतयडयडर्घकतिपयाना वा ।।१।४।२० (भिक्षु०) प्रथम चरमतयाल्पाकतिपयने भाश्च ॥११११३३ (पाणिनि) Fi भिक्षु शब्दानुशासन 'सून पठित शब्दो के आगे जश् विभक्ति को इश् आदेश विकल्प से करता है और पाणिनि शब्दानुशासन जश् विभक्ति के ५२ मे रहने पर सर्वनाम सज्ञा विकल्प से करता है, जिससे जश् को शी विकल्प से होता है । वात एक ही है भेद केवल प्रक्रिया का है। 11 पाणिनि सून की अपेक्षा भिक्षुशब्दानुशासन मे ."अय" पा० अधिक है। इसलियनिय शब्द का रूप प्रथमा के बहुवचन मे नये, नया ' भिक्षुशब्दानुशासन के द्वारा बनेगा और पाणिनि के अनुसार केवल 'नया' वनेगा। किन्तु पाणिनि परम्परा के विवेचकोका कहना है कि यहाँ पर "जय" शब्द मे मूल प्रत्यय तय है जिसे निभ्या तयस्यायज् वा" सूत्र से अयच् आदेश, कर दिया गया है। अत स्थानिवद्भाव के द्वारा यहाँ तय५ बुद्धि करके वैकल्पिक सर्वनाम सज्ञा के द्वारा "जय जया प्रयोग वनाने मे कोई वाधा नही है। ::.., - : Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशव्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १८५ ।' १४. निकषा समयाहाधिगन्तरान्तरेण तियेन तेने २।४।४६ । ', (भिक्षु शब्दानुशासन) 'अभित परित समयानिकपा हा प्रतियोगेऽपि (पाणिनीय वातिक) । अन्तराअन्तरणयुक्त २।३।४ (पाणिनि )... - । - [.. - | अतितिक्रमणेच १४॥६५ ।। {} T. . . - ।। उपर्युक्त सूत्र और वातिक द्वितीया विभक्ति का विधान करते हैं। विवेचन करने से स्पष्ट होता है कि पाणिनि परम्परा के दो सूत्र और एकावातिक मे जितने शब्दो का उल्लेख किया गया है, वे सारे शब्द भिक्षुशब्दानुशासन के एक ही सून मे समाहित हैं। इसके अतिरिक्त "येन और तन" 'ये दो५८ पाणिनिासे यहा अधिक हैं। येन तेन वा पश्चिमाात।" इस प्रयोग मे द्वितीया विधायक सूत्र पाणिनि मे अभित और परित के योग मे द्वितीया करने के लिये । । । । । सर्वोभयाभिपरिभिस्तसन्त २।४।५० यह भिक्षुशब्दानुशासन का सूत्र है।। ५ कालभावाध्वदेशमकर्मचाकर्मणाम २।४।१७ (भिक्षु शब्दानु) । अकर्मक धातुओ के योगा रहने पर कालादि आधार की कर्म सज्ञा विकल्प से होती है। विकल्प से करने का तात्पर्य यह है कि कर्म सज्ञा के अभाव पक्ष मे वह अधिकरण सशक हो जाता है। एक बात यह विशेष रूप से ध्यान देने का है कि जिस पक्ष मे आधार की कर्म साहोती है, उसी पक्ष मे उसे अकर्म 'सशाभी विकल्प से की गई है । , । । पाणिनि परम्परा मे इस कार्य के लिये निम्नलिखित वातिक पाया जाता है 1 अकर्मधातुभियोग देश कालो . भावो गन्तव्योऽवा' च कर्मससक इतिवाच्यम् । । 1. इस वातिक के द्वारा कालादिको की कर्मसंज्ञा नित्य ही की गई है। इसलिये पाणिनि मतानुसार मासमारते प्रयोग बनेगा और भिक्षुशब्दानुशासन के द्वारा "मासमास्ते" के साथ मासे आस्ते" यह प्रयोग भी बनेगा। किन्तु भिक्षुशब्दानुशासन मे कालादिको की कर्मसंज्ञा के साथ "अकर्म" सज्ञा करने का क्या फला है, यह बात अन्वेषणीय है। - । । - ।। . ६. अविवक्षित कर्मणाम निन् कर्ता जो वा २।४।२० (भिक्षु०) । ।' जिन धातुओ के कर्म की अविवक्षा कर दी जाती है, उन धातुओ की अजित् अवस्था का जो का होता है, वह जित् प्रत्यय करने पर कर्मसशक विकल्प से होता है। उदाहरणार्य । 1,"पेय पचति, मल प्रेरयति "इस अर्थ मे जिच् प्रत्यय करने पर पापयति" यह क्रियारूप बनता है। पैन जो निच प्रत्यय से पूर्व प्रेरणाश विहीनधात्पर्य का का है, उसे इस अवस्था मे वैकल्पिक कर्मसज्ञा होकर "चन चत्रेण वा पापयति Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा मैत्र" यह प्रयोग भिक्षुशब्दानुशासन के अनुसार बनेगा। पाणिनि ने ऐसे स्थल पर कर्मसज्ञा करने के लिये "गतिबुद्धिप्रत्यवमानार्थ शब्दकर्माकर्मकाणामणिकर्ता स गो" ११४१५२ सून बनाया है। इसमें अकर्मकपद आया हुआ है। व्याख्याकारों का कहना है कि अकर्मकपद से यहा वे ही धातु लिये जायेगे, जिनका कर्म पहले से ही नही है । यदि कर्म के रहते हुए भी धातु को अकर्मक कहना वाञ्छित है तो वे कर्म देश, काल, भावादि से अतिरिक्त नही होने चाहिये । कर्म की अविवक्षा करके वातु की अकर्मकता पाणिनि को वाञ्छित नहीं है। इसलिये पच् धातु के कर्म की अविवक्षा करके निन् (पाणिनि मे णिच् ) प्रत्यय होने पर शुद्ध धातु के कर्ता को कम सज्ञा नहीं की जा सकती । फलस्वरूप पाणिनि मतानुसार उपर्युक्त उदाहरण का पापयति मैत्र पत्रण" यही रूप होगा। ७ भावे वा २।४।१०१ (भिक्षुशब्दानुशासन) भाव अर्थ मे जोक्त प्रत्यय होता है उसके कत्ता मे ५७ठी विभक्ति विकल्प से होती है । "छात्रस्य हसितम्" "छात्रेण हसितम्"। ___पाणिनि मे इस प्रकार के प्रयोगो मे पी करने के लिये कोई सून नहीं है, किन्तु महाभाष्य मे "नपुसके मावक्तस्य योगे ५७०या उपसख्यानम्" यह पातिक उपलब्ध होता है। इससे नित्य ही पष्ठी होकर "छातस्यहसितम् यही प्रयोग पाणिनि मे वनेगा "छात्रेण हसितम्" नही बनेगा। ८ पारे मध्येऽग्रेऽन्त पण्ठया वा ३।११३० (भिक्षु०) __पार मध्ये ५००या वा २।१।१८ (पाणिनि ) पाणिनि की अपेक्षा भिक्षुशब्दानुशासन मे अग्रे और अन्त शब्द अधिक है। इसलिये "अग्रेवनम्", "अन्तर्गङ्गम्" ये दोनो प्रयोग भिक्षुशब्दानुशासन के द्वारा वनेंगे। पाणिनि के यहाँ उक्त सूत्र मे यद्यपि अंग्रे और अन्त शब्द नहीं है तथापि वनस्याग्रे इस विग्रह मे ५ष्ठी समास और राजदन्तादि गणपा० के प्रभाव से अग्रे शब्द का पूर्व प्रयोग सप्तमी का अलुक और नकार को पार करके "अग्रेषणम्" । प्रयोग बनाया जाता है। ६ मातुलाचार्योपाध्यायाद् वा २।३।५६ (भिक्षुशब्दानुशासन) इन शब्दो से स्त्रीलिंग बनाने पर ई५ प्रत्यय, आनुक का आगम ये दोनो कार्य होते है। इनमे आनुक का आगम विकल्प से होता है। इस प्रकार उपाध्यायस्यस्त्री "उपाध्यायानी" और "उपाध्यायी" ये दो रूप बनते है। पाणिनि मे इस सन्दर्भ मे "मातुलोपाध्याययोरानुग वा" यह पातिक मिलता है। इसके अनुसार उपाध्याय की स्त्री इस अर्थ मे "उपाध्यायानी और उपाध्यायी" ये ही रूप यहाँ भी बनेगे किन्तु "या तु स्वय अध्यापिका" इस अर्थ की विवक्षा कर Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु शब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १८७ दी जायेगी तो वहां पाणिनि के अनुसार वैकल्पिक डीष् होकर "उपाध्यायी और उपाध्याया" ये रूप बनेंगे | भिक्षुशब्दानुशासन मे स्वयं अध्यापिका अर्थ मे डीप का विधान नही है । इसलिये उक्त अर्थ मे यहाँ केवल "उपाध्याया" यह प्रयोग बनेगा । १०. नोत ४।१।१२ ( भिक्षुशब्दानुशासन ) उकारान्त धातु से विहित जो यड, प्रत्यय होता है, उसका लोप नही होता यदि अच् प्रत्यय पर मे रहे । उदाहरण के लिये रोरूप, लोलूप' इत्यादि प्रयोगो को लिया जा सकता है | पाणिनि मे अच् प्रत्यय पर मे रहने पर यड् का लोप होता ही है । "नोत" जैसा सूत्र पाणिनि में नहीं है। इसलिये इस मत के अनुसार "लोलुव और पोपुव " रूप बनेंगे । ११ हितसुखाभ्याम् २।४।७२ ( भिक्षुशब्दानुशासन ) हित और सुख के योग मे चतुर्थी विभक्ति विकल्प से होती है | ग्रामस्य ग्रामाय वा हितम् । पाणिनि मे "हितयोगे च" इस वार्तिक से केवल हित के योग मे चतुर्थी विहित है और वह भी नित्य ही विहित है । सुख का इसमे उल्लेख नही है | इन कतिपय उदाहरणो के द्वारा पाणिनि और भिक्षुशब्दानुशासन का पारस्परिक महत्वपूर्ण पार्थक्य दिखलाया गया। इस प्रकार के पार्थक्यों की सख्या बहुत है, जिनका विवेचन स्वयं मे एक पुस्तक हो सकता है । अत विस्तार के भय से इस प्रकरण को यही स्थगित किया जाता है । બાપાયે તેવનસ્ત્રી તે પાિિન અષ્ટાધ્યાયી જો બાધાર માના ઔર સે पञ्चाध्यायी मे परिवर्तित कर दिया । धातु, प्रातिपदिक, प्रत्यय, समास और विभिन्न सज्ञायें यत्किञ्चित् परिवर्तन के साथ स्वीकार कर ली गई । जैसे पाणिनि जैनेन्द्र ધોતુ अधिकरण करण अपादान विभक्ति धु अधिकरण करण પાવાન विभक्ती इस प्रकार सारी समानताओ के साथ जैनेन्द्र व्याकरण मे बाध्यबाधक भाव की प्रणाली भी वही अपनाई गयी जो पाणिनि व्याकरण मे प्रचलित है । पाणिनि का पूर्वसासिद्धम्” ८२१ सूत्र तथा तत्सम्बद्ध असिद्ध प्रकरण "जैनेन्द्र मे ययावत् स्वीकृत है । विना किसी परिवर्तन के पूर्वतासिद्धम् " ५।३।२७ सूत्र यहा स्वीकार Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सन्कृत-प्राकृत व्याकरण और कांग की परम्परा किया गया है। उसके अनुसार गाई चार अध्याय के प्रति ढाईपाद के सूत्रो को अमिद किया गया है। ___ भिक्षुशब्दानुशासन के रचयिता के सामने पाणिनीय, शाकटायन जनेन्द्र, हम, सारस्वत, कातन्त्र मादि विभिन्न व्याकरण थे। इन सबो के गभीर मन्यन और आलोडन के बाद बडी सूक्ष्मेक्षिका से इन शब्दानुशासन का निर्माण किया गया। इसके पूर्ववर्ती व्याकरणो की जटिलता तया काठिन्य सानुभूत है। इसे दूर करने पा। इसमें सफल प्रयास किया गया है। बाध्य वाधक भाव जो व्याकरणशास्त्र का महत्त्वपूर्ण जग है उसका समावेश बडी कुशलता से न्याय के भीतर किया 141 है। यहा का न्याय दर्पण विषयवाहुल्य की दृष्टि से बहुत ही व्यापक है। इसक બીતર સારે વાધ્ય ધમાવ નિયમ નિયમરિત્વ' ત્યાદ્ધિ સારે વિષયો ! एकल समावेश कर दिया गया है। प्रयोगो की सिद्धि मे भिक्षुशब्दानुशासन शाकटायन के निकट पड़ता है। एक उदाहरण द्वारा इस बात को स्प८८ किया जाता है "युप्माकम्" प्रयोग की सिद्धि के लिये 'पाणिनि' का "साम आकम्" सूत्र है। युध्मद | आम्" इस स्थिति में अवर्ण से पर मे न होने के कारण आम् प्रत्यय को मुटु नही हो सकता। यदि कहा जाय कि देकार की लो५ करके नाम को अवर्ण से पर मे किया जा सकता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योकि आकम् आदेश के पहले अनादेश अजादि प्रत्यय होने के कारण दकार का लोप नही हो सकता। इसलिये पाणिनि परम्परा मे 'आम्' को ही 'साम्' मान कर माकम् कर दिया जाता हैं। इस प्रकार माकम् करने का प्रभाव यह होता है कि स्थानिवद्भाव से माकम् को आम नही माना गया। अन्यथा आकम् मे थाम् बुद्धि करके पीछे से सुट होने ના નાતા ! બત ભાવિન લુટો નિવૃત્ય સસુનિલ”સા હા મયા પાનિ को इस बात का जनेन्द्र पर पूर्ण प्रभाव है। यहाँ मी "साम आकम्” भून ययावत् गृहीत है। इस सूत्र की वृत्ति मे अभयनन्दी लिखते है "भाविन सुट भूतवदुपादाय साम इति निदश कृत । आकमि कृते सुट् निवृत्यर्य"। इससे स्पष्ट है कि जनेन्द्र अपेक्षा कृत सरल अवश्य है पर पाणिनि द्वारा प्रदर्शित पय ही इनका गन्तव्य है। शाकटायन ने यहा कुछ नवीनता अवश्य की है। युष्माकम् वनाने के लिये इनका सूत्र है "युष्मदस्मद्भ्यामाकम्" ११२।१७७ । इस सूत्र से युष्मद् के आगे रहने वाले 'साम्' को सीधे 'साकम्' मादेश कर दिया गया है । आकम् अदिश करने के बाद "दो लुक" १।२।१८१ सूत्र से दकार का लोप हो जाने पर "सामाम" १।२।१७६ मून से माकम् को आम समझकर साम् आदेश क्यो नही होता । इसका उत्तर शाकटायन के यहा अन्वेपणीय है। - કામ્ નો લાવ ને જ પ્રેરણા fમજૂશબ્દાનુશાસન બાદાયન સે મિની है। इसका मूत्र "आम माकम्” २१११५३ है। इससे आकम करने के उपरान्त या Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन-का तुलनात्मक अध्ययन १८६ पहले 'युष्मदस्यदोर्लोप स्यादी" २।११४१ सूत्र से दकार का लोप हो जाने पर "अवर्णस्याम सुट्" १।३।२३ सून से सुट् क्यो नही होता यह प्रश्न यहा भी समाधान की अपेक्षा रखता है। किन्तु इतना अवश्य है कि पाणिनि के बाद सरलीकरण की प्रक्रिया जो व्याकरण के नवनिर्माताओं के द्वारा अपनायी गई थी, उसकी चरम और विकसित परिणति 'भिक्षुशब्दानुशासन' मे देखने को मिलती है। "पाणिनि जहाँ "टाड सिड सामिनास्था' सूत्र से 'टा, सि, उस को क्रमश इन, आत् और स्य आदेश करते है, और शाकटायन "ड सास्येस्स्येनाद्यम्" १।२।१६५ से वही कार्य करते है वहाँ भिक्षुशब्दानुशासन मे ) १ टेन १।४।१५ टा को इनादेश+रामेण जिनेन इत्यादि उदाहरण । २ डेर्य ११४११६ डे० को यादेश →जिनाय देवाय इत्यादि उदाहरण। । ". ३ डसिशद् १।४।१३ डसि को आत्-देवात् इत्यादि उदाहरण । । ४ उसस्य १।४।१४ उस को स्थ→ देवस्य, जिनस्य इत्यादि उदाहरण । इस प्रकार के सूत्र निर्माण द्वारा प्रक्रिया को अत्यन्त सरल एव सुबोध बनाया गया है। व्याकरणशास्त्र के जिज्ञासु के लिये निश्चय ही यह प्रणाली सर्वाधिक उपादेयं सिद्ध हो सकती है। ____ इस निवन्ध मे उणादि सून भी बहुचर्चित है, इसलिये इनके ऊपर थोडा विचार करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। । पाणिनि की अष्टाध्यायी मे "उणादयो बहुलम्' सूत्र आता है। इसी प्रकार का सून जनेन्द्र और शाकटायन ने भी स्वीकृत किया है। भट्टोजिदीक्षित की वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी मे उणादि पाच पादो मे विभक्त है। जैनेन्द्र और शाकटायन में केवल एक एक सूत्र हैं । भिक्षु शब्दानुशासन मे उणादि चारपादो मे विभक्त है तथा इसमे सैकडों सूत्र है। प्रश्न होता है कि ये उणादि सून सर्वप्रथम किसके द्वारा बनाये गये। इस पर कुछ विद्वानो की राया है कि उणादि सूत्र शाकटायन के बनाये हुए है। किन्तु इस सम्बन्ध मे विशेष ध्यातव्य है कि जन सम्प्रदाय के आचार्य शाकटायन का सम्बन्ध इन उणादि सूत्रो से नहीं हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं १ ये प्रसिद्ध जनाचार्य शाकटायन केवल लौकिक शब्दो का अपाख्यान करते है । वैदिक शब्दो का अन्वाख्यान इन्हे अभिप्रेत नही था। इसीलिये वैदिक शब्दो मे अभीष्टस्वरी की सिद्धि के लिये पाणिनि ने जो 'अनुवन्ध प्रत्ययो तथा आगमो मे लगाया है इस शाकटायन ने उन सभी अनुबन्धो का परित्याग कर दिया है। उदाहरण के लिये स्त्री प्रत्यय मे डीप और डी का भेद पाणिनि ने केवल स्वर सिद्धि के लिये ही किया है। शाकटायन ने दोनो प्रत्ययो के लिये केवल डी प्रत्यय का ही उल्लेख किया है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा २ पाणिनि दिवादिभ्यश्यन् करते हे और शाकटायन यहाँ पर केवल श्य का विधान अनुवन्ध विनिर्मुक्त का कर रहे है । ३ पाणिनि जहाँ चिण् प्रत्यय करते हैं, वहाँ शाकटायन जि प्रत्यय करते हैं । ४ अणु शब्द की सिद्धि के लिये "धान्ये नित्" यह सूत्र है । यहाँ नित् करण केवल स्वर के विधान के लिये है । १६० ५ शाकटायन ने सम्प्रसारण सज्ञा नही की है किन्तु उणादि सूत्र मे सम्प्रसारण सज्ञा की गई है जैसे "रुहे वृद्धिएच, "स्पन्दे सम्प्रसारण धश्च” सिन्धु । ६ शाकटायन ने टिसज्ञा नही की है किन्तु उणादि मे टिसना का उल्लेख आता है । यथा "मृजेष्टिलोपश्च" मलम् । ७ पित् प्रत्यय का पित्व प्रयुक्त डीप् करना शाकटायन में नही देखा जाता किन्तु उणादि मे "कृशवृञ्चतिभ्य वरच्” प्रत्यय करके डीप् की सभावना स्पष्ट की गई है । इसके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने की है कि यदि जैनाचार्य शाकटायन उणादिसूत्रो के रचयिता होते तो अपने व्याकरण मे केवल मात्र एक सूत्र 'उणादय का उल्लेख क्यों करते ? इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पाणिति सूत्र "अप्नृन् तृच्स्वसृनप्तृ" इत्यादि मे पठित नप्तृ आदि के ग्रहण से यह ज्ञापन किया जाता है उणादि निष्पन्न तृन् तृच् प्रत्ययान्त शब्दों की उपधा को दीर्घ हो तो केवल नप्तृ आदि शब्दों की उपधा को हो, अन्य की उपधा को न हो । उणादि सूत्र "नप्तृनेष्टृत्वष्टृ इत्यादि" (२५२) से नप्तृ आदि शब्दों की सिद्धि की जाती है । વિ ા જી નવમી યા વશમી શતાબ્વી મે હોને વાલે શાળટાયન હાવિ સૂત્રો के रचयिता होते तो पाणिनि के सूत्र घटक शब्द अपनी उणादि निष्पन्नता के आधार पर ज्ञापन किस प्रकार करते ? क्या परवर्ती सूत्रो को ध्यानस्थ करके पाणिनि ने सूत्रो का निर्माण किया था ? સનિયે પ્રજિત શાČાયન વ્યારણ પાણિનિ પૂર્વવર્તી શાČાયન વી રત્નના है और वे ही उणादि सूत्रो के रचयिता हैं 'यह बात बुद्धिगम्य नहीं होती । पूर्वप्रदर्शित अनुवन्ध सम्बन्धी सात बिन्दुओ के आधार पर यह निश्चय किया जा चुका है कि प्रचलित शाकटयन व्याकरण का उणादि सूत्रो से कोई सम्बन्ध नही है । सिद्धान्तकौमुदी बालमनोरमा टीकाकार वासुदेव दीक्षित का कहना है कि उणादिसूत्र शाकटायन प्रणीत है न कि पाणिनि प्रणीत । “उणादयो बहुलम्” इस સુન્ન के भास्य म कहा गया है "नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम्” अर्थात् निरुक्तकार और शाकटायन ने कहा है कि सारे शब्द धातु से ही वनते हैं । यहाँ शाकटायन का नामोल्लेख तथा उनके द्वारा सारे शब्दो को धातुज कहने से स्पष्ट हो जाता है कि उणादि सूत्र शाकटायन प्रणीत है । उणादि सूत्रो का , Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १६१ प्रणयन पाणिनि के द्वारा न होकर शाकटायन के द्वारा होने का एक प्रमुख कारण "वायु" शब्द की निष्पत्ति भी है। "अजेयं धत्रयो" इस सूत्र के भाष्य मे "अज्" धातु से यु प्रत्यय करके प्रकृति को वी भाव निपातन के द्वारा वायु शब्द को सिद्ध किया गया है। यदि उणादि सूत्र पाणिनिकृत होते तो उणादि के पहले सूत्र "कृवाया जिमिस्वादिसाध्यशूभ्य उण्" के द्वारा वातीति वायु इस विग्रह मे वा धातु से उण प्रत्यय और युगागम के द्वारा वायु शब्द बनाया गया होता। इससे सिद्ध होता है कि पाणिनि पूर्ववर्ती कोई शाकटायन नामक ऋपि हो चुके है, जिन्होने न केवल उणादि सूत्र ही बनाये किन्तु उनका कोई स्वतन्त्र व्याकरण अन्य भी रहा होगा, जो आज अनुपलब्ध है। पाणिनि ने अपने अण्टाध्यायी मे शाकटायन का स्मरण बडे सम्मान के साथ किया है "लड शाकटायनस्य"। भिक्षुशब्दानुशासन जिस सरलीकरण की प्रक्रिया को लक्ष्य करके प्रवृत्त हुआ है, उसमे इसे पूर्ण सफलता मिली है। इसकी इस प्रवृत्ति से उणादि सूत्र अछूते नही है पलेराश ३१३४ = पलाश कलेर्मष ३।६३ कलमपम् समेखि ३११२४ = सखा सारेरथि ३।१६६ = सारथि अतेरिथि ३।१७२ = अतिथि तडेराग ११९७ = तडाग कमरेलक ११६६ = क्रमेलक इन कतिपय उदाहरणो से स्पष्ट है कि भि क्षुशब्दानुशासन आणादिक विचार मे जनेन्द्र और शाकटायन से बहुत आगे है। सूत्रो के पढते ही अर्थ की अभिव्यक्ति और प्रयोगो पर उनका तात्कालिक प्रभाव यह इस शब्दानुशासन की अनुपम देन इन सारे विवेचनो से सिद्ध होता है कि भिक्षुशब्दानुशासन एक सर्वाङ्गसम्पन्न ध्याकरण है। इसमे नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात तथा सन्धियो का प्रोड किन्तु सरल प्रणाली से विवेचन किया गया है । नवीन सूत्रो की रचना, धातुओ की नयी परिकल्पना तया उनके अर्थों की व्यवहारोपयोगिता ये सारी चीजे इसके रचयिता की अपूर्व प्रतिभा को अभिव्यजन करती है। यह शब्दानुशासन प्रकाशित होकर संस्कृत पाड्मय को गौरवान्वित करेगा और इसकी उपयोगिता निविचिकित्स होगी। सदर्भ १ देखिये भिक्षुशब्दानुशासन का न्यायदर्पण Page #220 --------------------------------------------------------------------------  Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास डॉ० प्रेम सुमन जैन प्राचीन समय से ही भारत में शिष्ट और जन-सामान्य की भाषा का समानान्तर प्रयोग होता रहा है। भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भी यही स्थिति थी। इन दोनो महापुरुषो ने भापा की इसी महत्ता को समझते हुए जनभापा को ही अपने उपदेशो का माध्यम बनाया था। तत्कालीन वह जनभाषा इतिहास मे मागधी (पालि) व अर्धमागधी (प्राकृत) के नाम से जानी गयी है। प्राकृत भाषा का सम्बन्ध भारतीय आर्य शाखा परिवार से है। अत प्राकृत का विकास भी भारतीय आर्य भापा के साथ साथ हुआ है। प्राकृत भाषा वैदिक युग मे भी लोक भाषाओ का अस्तित्व था। भाषाविदो ने उन्हें तीन भागों में विभक्त किया है (१) उदीच्य या उत्तरीय विभाषा (२) मध्यदेशीय विभापा तथा (३) प्राच्या या पूर्वीय विभाषा। इनमे से प्राच्या देश्य भाषा उन लोगो के द्वारा प्रयुक्त होती थी जो वैदिक संस्कृति से भिन्न विचार वाले थे। वैदिक साहित्य मे छान्दस भाषा का प्रयोग हुआ है। अत छान्दस भाषा से जो भाषा विकसित हुई उसे सस्कृत या लौकिक सस्कृत के नाम से जाना गया तथा प्राच्या विभापा से जी भाषा विकसित हुई उसे भगवान महावीर के समय मे मागधी के नाम से जाना गया है। इस प्रकार विकास की दृष्टि से प्राकृत और संस्कृत दोनो सहोदरा है । जनभाषा से दोनो उद्भूत है। क्रमश इन भाषाओ का साहित्य धार्मिक एव विद्या की दृष्टि से भिन्न होता गया अत इनके स्वरूप मे भी स्पष्ट भेद हो गये। सस्कृत व्याकरण के नियमो से शासित हो जाने से निश्चित स्वरूप को प्राप्त हो गयी तथा उसका सस्कृत' नाम रूढ हो गया। यह देवभाषा हो गयी। जबकि प्राकृत मे निरन्तर लोकभापा के शब्दो का समावेश होता रहता था। अत यह रही तो प्राकृत, किन्तु नाम नये-नये धारण करती रही। मागधी, Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा अर्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची, अपभ्रश आदि नाम प्राकृत भाषा के विकास के परिचायक है। प्राकृत भाषा के अनेक तत्व वैदिक मस्कृत में उपलब्ध होते है। लौकिक सस्कृत भी यत्र-तन्न उससे प्रभावित है। उसी प्रकार प्राकृत मे भी सस्कृत भाषा के दो को तत्सम और तद्भव ५ मे ग्रहण किया है। प्राकृत वैयाकरणो ने 34 प्रकार के शब्दो का शामन किया है। प्राकृत मे कुछ ऐसे शब्दो का भी प्रयोग हुआ है, जिनका अर्थ ९८ हो गया है तथा जिनकी कोई व्युत्पत्ति नहीं हो सकती। ऐसे ५०५ देश्य या देशी कहे गये है, जो जनसाधारण की वोलचाल की भाषा मे सम्मिलित होते रहते है। इस तरह प्राकृत भाषा का व्याकरण प्रस्तुत करना उतना सरल नही था, जितना मस्कृत का। अत संस्कृत को आधार मानकर प्राकृत व्याकरण का प्रारम्भ किया गया है। ___प्राकृत भापा के वैयाकरणो ने इस भापा की प्रकृति सस्कृत को माना तथा उससे उत्पन्न होने वाली भाषा को उन्होने प्राकृत कहा है 'प्रकृति मस्कृतम् तत्रभव प्राकृत उच्यते' इत्यादि । संस्कृत के कुछ अलकारिको ने भी यही मत प्रगट किया है। किन्तु इन सबने 'प्रकृति' का अर्थ मस्कृत भाषा करके भ्रान्ति की है। प्राकृत को 'प्रकृति' शब्द से उत्पन्न मानना और उसे संस्कृत से जोडना ठीक नहीं है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी यह सही नहीं है। इस विषय पर पर्याप्त लिखा जा चुका है। मत अवविद्वान् इस मत से सहमत होने लगे हैं कि प्राकृत स्वतन्त्र रूप से विकसित भाषा है, सस्कृत का विगडा हुआ रूप नही। प्राचीन ग्रन्यो मे प्राकृत (पाइय, पागय) शब्द का कई वार प्रयोग हुआ है। किन्तु रुद्रकृत काव्यालकार के टीकाकार नमि साधु ने प्राकृत शब्द को सुन्दर और सटीक व्याख्या की है। उनके अनुसार 'प्राकृत' शब्द का अर्थ है व्याकरण आदि सस्कारों से रहित लोगो का स्वाभाविक वचन-व्यापार । उससे उत्पन्न अथवा वही वचन-व्यापार प्राकृत है। 'प्राक् + कृत' पद से प्राकृत शब्द वना है, जिसका अर्थ है पहले किया गया। जन धर्म के द्वादशाग ग्रन्थो मे ग्यारह अग अन्य पहले किये गये हैं अत उनकी भाषा प्राकृत है। यह भापा वालक, महिला आदि सभी को सुवोच है। इसी प्राकृत के देश भेद एव क्रमश मस्कारित होने से अवान्तर विभेद हुए है। प्राकृत वयाकरणो ने विभिन्न प्रकार की प्राकृतो का अनुशासन किया है। किन्तु सामान्य रूप से प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति करते समय 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम्' अथवा 'प्रकृतीना साधारण जनानामिद प्राकृतम्' अर्य को स्वीकार करनी चाहिए। इस तरह जन-सामान्य की स्वाभाविक भापा प्राकृत है। प्राकृत भाषा मे केवल जनागम ही नहीं लिखे गये, अपितु ईसा की प्रथम ताब्दी मे स्वतन्त्र काव्य ग्रन्यो की रचना भी प्राकृत मे होने लगी थी। आगमो की भापा जहा अर्धमागधी है, वहा दिगम्बर आगम शौरसेनी प्राकृत मे लिखे गये Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास १६५ हैं। गाहासत्तसई, तरगवती, ५७मचरिय, पसुदेव हिण्डी आदि प्राचीन काव्यो की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है । गुणाढ्य की बृहत्कथा पैशाची मे निवद्ध थी। इस तरह ईसा की तृतीय शताब्दी तक प्राकृत भाषा के कई रूप प्रचलित थे। उनमे कुछ सामान्य नियम भी व्याकरण की दृष्टि से निश्चित हो चुके थे, जैसा कि इन ग्रन्यो की भाषा को देखने से पता चलता है। भले ही लिखित रूप मे प्राकृत का कोई व्याकरण ग्रन्थ उस समय प्रचलित न रहा हो, किन्तु सामान्य व्याकरणशास्त्र के अनुसार विभिन्न प्राकृत अनुशासित होकर साहित्य में प्रयुक्त होती रही होगी। यद्यपि कुछ अपवाद भी उपलब्ध होते है, जो प्राकृत के लोक भाषा होने के कारण हैं। सभवत लोकभापा की विश्रुति के कारण ही बहुत समय तक प्राकृत का व्याकरण लिखने की आवश्यकता अनुभव न की गयी होगी। किन्तु ईसा की द्वितीय या तृतीय शताब्दी तक प्राकृत का व्याकरण अवश्य अस्तित्व में आ गया होगा । अन्यथा इस समय के प्राकृत साहित्य की भापा इतनी व्यवस्थित न होती। प्राकृत व्याकरण के सिद्धान्त प्राकृत के जितने व्याकरण आज उपलब्ध है वे सब सस्कृत मे लिखे गये हैं। हो सकता है कि प्रारम्भ मे कोई व्याकरण प्राकृत भाषा मे भी लिखा गया हो, किन्तु आज उपलब्ध नही है । आगम ग्रन्थो मे अवश्य प्राकृत भाषा मे व्याकरण के कुछ नियमो का उल्लेख है। कुल सन्दर्भ इस प्रकार है आचारागसूत्र मे एकवचन, द्विवचन एव बहुवचन, स्त्रीलिंग, पुल्लिग एक नपुसकलिंग तथा वर्तमानकाल, भूतकाल एव भविष्यत्काल के वचनो का उल्लेख है। यथा ___ समियाए सजए भास मासेज्जा, त जहा एगवयण, दुवयण, बहुक्यण, इत्थीवयण, पुरिसवयण, णपुसावयण अणागययण, पच्चक्खवयण, परोक्खवयण ॥ आधारचूला, ४ १ सूत्र ३ स्यानागसूत्र मे आठ कारको का सोदाहरण निरूपण है । यथा अटुविधा वयणविभत्ती पण्णता, त जहा णिद्देसे पढमा होती, वितिया उयएसणे । ततिया करणमि कत्ता, चउन्थी सपदावणे ॥१॥ પત્રમી વાવાળે, છઠ્ઠી સસ્તામવાળે ! सत्तमी सण्णिहोणत्थे, अट्ठमी आमतणी भवे ।।२।। तत्थ पढमा विभत्ती, णिसे-सो इमो अह वत्ति । वित्तिया उण उवएसे भण कुण व इम व त वत्ति ।।३।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ततिया करणम्मि क्याणीत व कत तेण व भए वा । हदि णमो साहाए, हवति चत्थी पदाणमि ||४|| લવશે વિમુ તત્તો, ત્તોત્તિ વધત્તમી મન્ત્રાવાળું | छुट्टी तस्म इमम्स व गतस्स वा सामि मवधे ||५|| हवड पुण मत्तमी तमिमम्मि आहारकाल भावे य । आमतणी भवे अट्टमी उ जह है जुवाण । ति ॥६॥ स्थानागमूर्व, अष्टम स्थान, सूत्र २४ इस प्रकार इसमे बताया गया है कि निर्देश मे प्रथमा विभक्ति होती है । यथा - सो, इमो, अह आदि । उपदेश मे द्वितीया विभक्ति होती है । यया त आदि । करण मे तृतीया होती है । यथा - तेण णीत, मए कत आदि । सम्प्रदान मे चतुर्थी विभक्ति और अपादान मे पचमी होती है | स्वामित्व भाव अथवा सम्बन्ध मे पण्ठी होती है । जैसे तस्स, इमस्स आदि । अधिकरण मे सप्तमी और आमन्त्रण सम्बोधन मे आठवा कारक होता है । यथा हे जुवाण | आदि । इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारसूत्र मे शब्दानुशासन सम्बन्धी पर्याप्त विवेचन हुआ है । समस्त शब्दराशि को नामिक, नेपातिक, आख्यातिक, ओपसर्गिक और मिश्र के अन्तर्गत विभक्त किया गया है ।" नाम शब्दों की चार प्रकार की निप्पत्ति होती है आगम, लोप, प्रकृतिभाव एव विकार । इन चारों के उदाहरण स्वरूप प्राकृत शब्द दिये गये हैं । १६६ इम, पदो को तीन लिंगो मे विभक्त किया गया है तथा अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त और ओकारान्त शब्दो को पुल्लिंग कहा गया है । स्त्रीलिंग शब्द जोकारान्त से रहित होते है । तथा नपुसकलिंग मे अकारान्त और उकारान्त शब्दो के उदाहरण दिये गये है । यया त पुणणाम तिविहि इत्थी पुरिस णपुसग चेव । एएसि तिन्ह पि अतम्भि अ परुवण वोच्छ ॥१॥ તત્વ રિસસ્ત મ્રુતાબા ૩ બો હેત્તિ પત્તારિ । ते चेव इत्यिाओ हवति ओंकार परिहीणा ॥२॥ अतिम इति उति अताउ णपुसगस्स वोद्धव्वा । एतेसि तिष्ह पि अ वोच्छामि निदसणे एत्तो ॥ ३॥ आगारतो राया ईमारतो गिरि अ सिहरी अ । उगारतो विण्हू दुमो अ अताउ पुरिसाण ||४|| आगारता माला ईमारता सिरी अ लच्छी अ । ऊगारता जनू बहू अ अतार इत्यीण ॥५॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्यापारणशास्त्र का उद्भव एव विकास १६७ अकरत धन्न इकरत नपुसग 'अस्थि '। उकारत पीलु महु च अता पुसाण ।।६।। ___ अणुओगदारसुत्त (व्यावरसस्करण), सूत्र १२३ समास, तद्धित, धातु और निरुक्त का विवेचन भी इस ग्रन्थ मे है। समास के सात भेद बतलाये गये है। यथा - ददे अ बहुब्बीहि कामधारय दिगु अ । तत्पुरिस अव्वइभावे एकक सेसे अ सत्तमे ॥१॥ द्वन्द, बहुव्रीहि, कर्मधारय, द्विगु, तत्पुरुष, कर्मधारय और एकशेष ये सात समास हैं। इनमें प्रत्येक के उदाहरण भी इस ग्रन्थ मे दिये गये है। तद्धित के आठ भेद बतलाए गये है', यथा कर्मनाम, शिल्प, सिलोक, सयोग, समीप, समूह, ईश्वरीय एवं अपत्य नाम कम्मे सिप्पसिलाए सजोग समीअवो अ सजूहो। इस्सरिअ अवच्चेण य तद्धितणाम तु अट्टविह ॥ इसी ग्रन्थ मे आठो विभक्तियो का उल्लेख है तथा किस-किस अर्य मे ये विभक्तिया होती है इसका भी सोदाहरण उल्लेख किया गया है । इस तरह अन्य आगम ग्रन्थो व उनकी टीकाओ मे शब्दानुशासन सम्बन्धी कुछ सामग्री उपलब्ध हो सकती है। यह इस वात की द्योतक है कि प्राकृत भाषा के साहित्यकार भी व्याकरण के नियमो से परिचित थे तथा उनका प्रयोग अपने ग्रन्थो की भाषा में करते थे। इससे एक यह भी सभावना होती है कि प्राचीन समय मे प्राकृत का व्याकरण अवश्य लिखा गया होगा, जिसकी परम्परा मे प्रसिद्धि थी, किन्तु आज वह उपलब्ध नही है।। अनुपलब्ध प्राकृत व्याकरण प्राकृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास में ऐसे कई वैयाकरणो और उनके ग्रन्थो का उल्लेख मिलता है, जो आज उपलब्ध नहीं हैं। उनका यहा विवरण दे देना आवश्यक है, क्योकि पता नही कव शास्त्र भण्डारो से उनके व्याकरण ग्रन्थ प्राप्त हो जाय। ऐन्द्र-व्याकरण जैन ग्रन्थो मे परम्परागत से यह उल्लेख है कि भगवान महावीर ने इन्द्र के लिए एक शब्दानुशासन कहा था, उसे उपाध्याय (लेखाचार्य) ने सुनकर लोक मे ऐन्द्र नाम से प्रगट किया Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ मन्त-प्राकृत व्याकरण और कोण की । म्परा स+को अतस्ममपख भगवत आगणे निमित्ता। महस्स लख॥ पुच्छे वागरण अवयवा इद ।। हारिभद्रीय यावश्यकवृत्ति, भाग १, पृ० १८२ इम ७९ख से इतना तो ज्ञात होता है कि महावीर के समय में कोई व्याकरणअन्य अवय था, जिसमे मस्त के अतिरिक्त हो सकता है कि प्राकृत का भी अनुशासन सम्मिलित रहा हो। उस ऐन्द्र व्याकरण' का अन्यपरवर्ती लेखको ने भी उल्लेख किया है। किन्तु मूल रू५ मे यह व्याकरण अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। डा० ए० सी० बर्नल ने इस ग्रन्य विषयक पर्याप्त शोध की है। सहपाहुण आवश्यक चूणि, अनुयोगहारचूणि एक सि सेनगणिकृत तत्वार्थभून-माप्यटीका (पृ ५०) मे सहपाहुण' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। यह अन्य किस भाषा मे था तथा उसमे संस्कृत अथवा प्राकृत व्याकरण का क्या स्वरूप वर्णित था, इसका कुछ सकेत नहीं मिलता। किन्तु यह व्याकरण का ही ग्रन्थ रहा होगा। क्योकि सिद्धसेनगणि ने कहा है कि पूर्वो मे जो शब्दप्रामृत' है, उसमे से व्याकरण का उद्भव हुआ है । समन्तभद्र-व्याकरण देवनदि पूज्यपादकृत जैनेन्द्र व्याकरण मे समन्तभद्र के किमी व्याकरण अन्य का उल्लेख है । डा० हीरालाल जैन का मत है कि मभवत इस ग्रन्थ मे सस्कृत व प्राकृत दोनो भापाओ का व्याकरण रहा होगा। किन्तु यह ग्रन्य अभी उपलब्ध नही है। डा० ए० एन० उपाध्ये ने इस ग्रन्य के सम्बन्ध मे अनेक तथ्यों को सकलित कर उन पर विचार किया है तथा इस अन्य के अस्तित्व की सभावना व्यक्त की है। पद्यात्मक प्राकृत व्याकरण धवला टीकाकार वीरसेन ने किसी अजानकातक पद्यात्मक व्याकरण के सूत्रो का उल्लेख किया है। किन्तु यह व्याकरण अभी तक अनुपलव्य है । इस व्याकरण के सम्बन्ध मे अन्य सूचनाएं देते हुए डा० जैन ने इसका रचनाकाल ८वी शताब्दी के लगभग माना है। पाणिनि का प्राकृत व्याकरण . केदारभट्ट ने 'कविकपा मे और मलयगिरि ने भी बताया है कि पाणिनि ने 'प्राकृत लक्षण' नामक ग्रन्थ लिखा था। डा० पिशल का कथन है कि पाणिनि Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास १६६ प्राकृत के व्याकरण पर भी बहुत कुछ लिख सकता था। सम्भवत उसने अपने सस्कृत व्याकरण के परिशिष्ट के रूप मे प्राकृत व्याकरण लिखा हो। किन्तु पाणिनि का प्राकृत व्याकरण न तो मिलता है, न उसके उद्धरण ही कही पाये जाते हैं ।१४ किन्तु पाणिनि के सस्कृत व्याकरण मे ही कई प्राकृत धातुओ का उल्लेख है १५ और पाणिनि के समय मे प्राकृत का प्रयोग भी होने लगा था अत पाणिनि के प्राकृत व्याकरण के उपलब्ध होने की अभी भी सभावना की जा सकती है। स्वयम्भू-व्याकरण अपभ्रश के प्रसिद्ध एक प्राचीन कवि स्वयम्भू की अनुपलब्ध रचनाओ मे एक स्वयम्भू व्याकरण भी है। इस ग्रन्थ के सम्बन्ध मे कहा गया है कि अपभ्र श का मस्त गज तभी तक स्वच्छन्द घूमता है जब तक स्वयम्भू का व्याकरण रूपी अकुश उसे नही लगा। यद्यपि इस उल्लेख मे स्वयम्भू व्याकरण की विषय-वस्तु स्पष्ट नही होती, किन्तु वह महत्वपूर्ण व्याकरण रहा होगा। प्राकृत और अपभ्र श के सधिकाल का यह व्याकरण होने से उससे प्राकृत के व्याकरण पर भी प्रकाश पड सकता है। किन्तु अभी तक यह स्वयम्भू-व्याकरण उपलब्ध नही हुआ है। अन्य प्राकृत व्याकरण जनप्रन्थावलि (पृ० ३०७) ५२ उल्लेख है कि देवसुन्दरसूरि ने 'प्राकृतयुक्ति' नाम का व्याकरण लिखा था। अभी यह उपलब्ध नही हुआ । हैमशब्दानुशासन के आठवे अध्याय पर १५०० श्लोक-प्रमाण 'हेमदीपिका' अथवा 'प्राकृतवृत्तिदीपिका' की रचना द्वितीय हरिभद्र ने की है। किन्तु यह अनुपलब्ध है।" पिशल द्वारा सम्पादित शाकुन्तलम् की चन्द्रशेखरवृत्त टीका मे 'प्राकृत साहित्य रत्नाकर' नामक ग्रन्थ का उल्लेख है, यह भी आज तक अनुपलब्ध है । 'प्राकृत कौमुदी' नामक ग्रन्थ की भी उपलब्धि अभी नहीं हुई है, जिसका उल्लेख पिशल ने किया है। अभी जैसे-जैसे जैन साहित्य प्रकाश मे आयेगा यह सूची और घट-बढ सकती है । प्राकृत वैयाकरण एव उनके ग्रन्थ उपलब्ध प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ सभी सस्कृत मे लिखे गये है। प्राकृत वैयाकरणो एव उनके ग्रन्थो का परिचय डा० पिशल ने अपने ग्रन्थ मे दिया है। डोल्पी नित्ति ने अपनी जर्मन पुस्तक 'ले ग्रामरिया प्राकृत' (प्राकृत के वैयाकरण) मे आलोचनात्मक शैली में प्राकृत के वैयाकरणो पर विचार किया है। इधर प्राकृत व्याकरण के बहुत से ग्रन्थ छपकर प्रकाश मे भी आये है। उनके सम्पादको ने भी प्राकृत वैयाकरणो पर कुछ प्रकाश डाला है। इस सब सामग्री के आधार पर Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण ओर कोण की परम्परा प्राकृत वैयाकरणो एव उनके उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों का परिचयात्मक मूल्याकन यहा प्रस्तुत है, जिसमे ग्रन्थकार का परिचय, ग्रन्य की विषयवस्तु, वैशिष्टय एव प्रकाशन सम्बन्धी जानकारी को प्रमुखता दी गयी है। आचार्य भरत ___प्राकृत भाषा के सम्बन्ध मे जिन मस्कृत आचार्यों ने अपने मत प्रकट किये है, इनमे भरत सर्व प्रथम है । प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत-सर्वस्व' के प्रारम्भ मे अन्य प्राचीन प्राकृत वैयाकरणो के माय मरत को स्मरण किया है।" भरत का कोई अलग प्राकृत व्याकरण नही मिलता है । भरतनाट्यशास्त्र के १७वे अध्याय मे ६ से २३ ५लोको मे प्राकृत व्याकरण पर कुछ कहा गया है। इसके अतिरिक्त ३२वे अध्याय मे प्राकृत के बहुत से उदाहरण उपलब्ध है, किन्तु स्रोतो का पता नहीं चलता है। डॉ० पी० एल० वैद्य ने त्रिविक्रम के प्राकृतशब्दानुशासन सम्करण के १७वें परिशिष्ट में भारत के लोको को सशोधित ६५ मे प्रकाशित किया है, जिनमें प्राकृत के कुछ नियम वणित है । डा० वैद्य ने उन नियमो को भी स्पष्ट किया है । भरत ने कहा है कि प्राकृत मे कौन से स्वर एक कितने व्याजन नही पाये जाते । कुछ व्यजनो का लोप होकर उनके कवल स्वर वचते है। ख, घ, थ, ध एव भ का परिवर्तन ह मे हो जाता है । यथा पच्चति कगतदयवा लोप, अत्य च से वहति सरा। खयधभा उण हत्त उति अत्थ अमुचता ।।८।। प्राकृत की सामान्य प्रवृत्ति का भरत ने सकेत किया है कि शकार का सकार एक नकार का सर्वत्र णकार होता है । यथा -विप-विस, शङ्का सका आदि । इसी तरह ट = ड, = ढ, प=व, ड =ल, च =य, य= ध, प=फ आदि परिवर्तनो के सम्बन्ध मे सकेत करते हुए भरत ने उनके उदाहरण भी दिये हैं तथा श्लोक १८ से २४ तक में उन्होंने सयुक्त वर्णो के परिवर्तनो को सोदाहरण सूचित किया है और अन्त मे कह दिया है कि प्राकृत के ये कुछ सामान्य लक्षण मैंने कहे हैं। वाकी प्रसिद्ध ही है, जिन्हे विद्वानो को प्रयोग द्वारा जानना चाहिए एवमेतन्मया प्रोक्त किंचित्प्राकृतलक्षणम् । शेष देशीप्रसिद्ध च ज्ञेय विप्रा प्रयोगता ।। प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी भरत का यह शब्दानुशासन यद्यपि सक्षिप्त है, किन्तु, महत्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि भारत के समय मे भी प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गयी थी। हो सकता है, उस समय प्राकृत का कोई प्रसिद्ध व्याकरण रहा हो अत भरत ने केवल सामान्य नियमो का ही सकेत करना आवश्यक समझा है । इसी १७वे अध्याय के ५६-६३ श्लोको मे भरत ने कुछ देशी Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एवं विकास २०१ भाषाओ की विशेषताए कही है, जो अपभ्र श व्याकरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पैशाची और शौरसेनी की विशेपताए भी उसमे इगित होती है । चण्ड प्राकृतलक्षण प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणो मे चडकृत प्राकृतलक्षण सर्वप्राचीन सिद्ध होता है। भूमिका आदि के साथ डा० रूडोल्फ होएनले ने सन् १८८० मे बिब्लिओयिका इडिका मे कलकत्ता से इसे प्रकाशित किया था।२३ सन् १९२६ मे सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला की ओर से यह अहमदाबाद से भी प्रकाशित हुआ है । इसके पहले १६२३ मे भी देवकीकान्त ने इसको कलकत्ता से प्रकाशित किया था। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे वीर (महावीर) को नमस्कार किया गया है तथा वृत्ति के उदाहरणो मे अर्हन्त (सू० ४६ व २४) एव जिनवर (सूत्र ४८) का उल्लेख है। इससे यह जैनकृति सिद्ध होती है। ग्रन्थकार ने वृद्धमत के आधार पर इस ग्रन्थ के निर्माण की सूचना दी है, जिसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि चण्ड के सम्मुख कोई प्राकृत व्याकरण अथवा व्याकरणात्मक मतमतान्तर थे । यद्यपि इस ग्रन्य मे रचना काल सम्बन्धी कोई राकेत नही है, तथापि अन्त साक्ष्य के आधार पर डा० हीरालाल जैन ने उसे ईमा की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना स्वीकार किया है ।२४ प्राकृत लक्षण मे चार पाद पाये जाते हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे चड ने प्राकृत शब्दो के तीन रूपो तद्भव, तत्सम एव देश्य-को सूचित किया है तथा सस्कृतवत् तीनो लिंगो और विभक्तियो का विधान किया है । तदनन्तर चौथे सूत्र मे व्यत्यय का निर्देश करके प्रथमपाद के ५वे मूत्र से ३५ सूत्रो तक सज्ञाओ और सर्वनामो के विभक्ति रूपो को बताया गया है। द्वितीय पाद के २६ सूत्रो मे स्वर परिवर्तन, शब्दादेश और अव्ययो का विधान है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रो मे व्यजनी के परिवर्तनो का विधान है। प्रथम वर्ण के स्थान पर तृतीय का आदेश किया गया है। यथा-एक = एग, पिशाची = विसाजी, कृत कद आदि । ___इन तीन पादो मे कुल ६६ सूत्र हैं, जिनमे प्राकृत व्याकरण समाप्त किया गया है। हाएनले ने इतने भाग को ही प्रामाणिक माना है। किन्तु इस ग्रन्थ की अन्य चार प्रतियो मे चतुर्थपाद भी मिलता है, जिसमे केवल ४ सूत्र है । इनमे क्रमश कहा गया है १ अपभ्रश मे अधोरेफ का लोप नही होता, २ पैशाची मे र् और स् के स्थान पर ल और न् का आदेश होता है, ३ मागधी मे र् और स् के स्थान पर ल और श् का आदेश होता हे तथा ४ शौरसेनी मे त् के स्थान पर विकल्प से द् आदेश होता है। इस तरह ग्रन्थ के विस्तार, रचना और भापा स्वरूप की दृष्टि से चड का यह व्याकरण प्राचीनतम सिद्ध होता है। परवर्ती प्राकृत वैयाकरणो पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जाते है। हेमचन्द्र ने भी, चड से बहुत कुछ ग्रहण किया है ।२५ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ गस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा 'प्राकृत लक्षण' पर सूत्रकार चड ने स्वय वृत्ति की रचना की है। इस वृत्ति मे उन्होंने सूत्रो को सक्षेप मे स्पप्ट किया है । इस वृत्ति का प्रकाशन सन् १८८० मे कलकत्ता से विलिओयेका इण्डिका में हुआ। उसके बाद १६२३ मे वही से श्री देवकीकान्त भट्टाचार्य ने इसे प्रकाशित किया और बाद में मुनि दर्शनविजय निपुटी द्वारा संपादित होकर यह वृत्ति चारितग्रन्थमाला अहमदाबाद से प्रकाशित हुई वररुचि-प्राकृत प्रकाश . प्राकृत वैयाकरणो मे चण्ड के वाद वररुचि प्रमुख वयाकरण है । प्राकृतप्रकाश मे वणित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है । अत विद्वानो ने वररुचि को ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग का विद्वान् माना है । विक्रमादित्य के नवरत्नो मे भी एक वररुचि थे । वे सम्भवत प्राकृतप्रकाश के ही लेखक थे। छठी शताब्दी से तो प्राकृतप्रकाश पर अन्य विद्वानो ने टीकाए लिखना प्रारम्भ कर दी थी। अत वररुचि ने ४-५वी शताब्दी में अपना यह व्याकरण ग्रन्थ लिखा होगा। प्राकृतप्रकाश विषय और शैली की दृष्टि से प्राकृत का महत्वपूर्ण व्याकरण है। प्राचीन प्राकृतो के अनुशासन की दृष्टि से इसमे अनेक तथ्य उपलब्ध होते हैं। अत न केवल प्राचीन आचार्यों ने इस पर कई टीकाए लिखी हैं, अपितु आधुनिक युग मे भी इसके कई सस्करण प्रकाशित हुए है। यथा हार्ट फोर्ड वनारस ૨ જીવન १८५४ द प्राकृत प्रकाश, प्र० स० २ , १८६८, भामह की टीका सहित, द्वि० स० लन्दन ३ रामशास्त्री तलग, १८६६ मूल पाठ, वनारस ४ वसन्तकुमार शर्मा १६१४ कात्यायन और भामह की वृत्तियो कलकत्ता વટ્ટોપાધ્યાય तथा वगाली अनुवाद सहित ५ , १६२७ वसन्तराज और सदानन्द ની દીવાલો સહિત ६ पी० एल० वद्य १६३१ । भूमिका, पाठभेद सहित मूलपा०, પૂન યશેની મનુવાવ ७ उद्योतन शास्त्री १९४० मनोरमा टीका सहित વારાણસી કવયરામ ડવ રાત ૧૯૭૭ મનોરમાં વ્યસ્થા સહિત वाराणसी वि० स० 6 डी०सी० सरकार १९४३ मूलपा० एव अग्रेजी अनुवाद कलकत्ता યુનિવર્સિટી Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृित व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २०३ मद्रास १०. डी० सी० सरकार १९७० सशोधित एव परिवधित सस्करण, बनारस मोतीलाल बनारसीदास ११ कुनहन राजा १६४६ भूमिका एव रामपाणिपाद वृत्ति सहित १२ के० वी० त्रिवेदी १६५७ गुजराती अनुवाद सहित नवसारी (गुजरात) १३ जगन्नाथ शास्त्री १६५६ हिन्दी अनुवाद सहित वाराणसी प्राकृतप्रकाश मे कुल वारह परिच्छेद है । प्रथम परिच्छेद के ४४ सूत्रो मे स्वरविकार एव स्वरपरिवर्तनो का निरूपण है। दूसरे परिच्छेद के ४७ सूत्रो मे मध्यवर्ती व्यजनो के लोप का विधान है तथा इसमे यह भी बताया गया है कि शब्दो के असयुक्त व्यजनो के स्थान पर किन विशेष व्यजनो का आदेश होता है। यथा (१) प के स्थान पर व शा५= सावी, (२) न के स्थान पर ण वचन= वअण, (३) श, प के स्थान पर स शब्द = सद्दो, वृषभ-वसहो आदि । तीसरे परिच्छेद के ६६ सूत्रो मे सयुक्त व्यजनो के लोप, विकार एव परिवर्तनो का अनुशासन है । अनुकारी, विकारी और देशज इन तीन प्रकार के शब्दो का नियमन चौथे परिच्छेद के ३३ सूतो मे हुआ है। यथा १२वे सून मोविन्दु मे कहा गया है कि अतिम हलन्त म् को अनुस्वार होता है वृक्षम् = वच्छ, भद्रम् = भद्द आदि। पाचवे परिच्छेद के ४७ सूत्रो मे लिग और विभक्ति का अनुशासन दिया गया है । सर्वनाम शब्दो के रूप और उनके विभक्ति प्रत्यय ७० परिच्छेद के ६४ सूत्रो मे वर्णित है । आगे सप्तम परिच्छेद मे तिइन्तविधि तथा अष्टम मे धात्वादेश का वर्णन है । प्राकृत को धात्वादेश सम्बन्धी प्रकरण तुलनात्मक दृष्टि से विशेष महत्व का है। नवे परिच्छेद मे अव्ययो के अर्थ एव प्रयोग दिये गये है। यथा णवरः केवले ॥७॥ केवल अथवा एकमात्र के अर्थ मे णवर शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरणार्थ एसो णवर कन्दप्पो, एसा णवर सा रई। इत्यादि यहा तक वररुचि ने सामान्य प्राकृत महाराष्ट्री का अनुशासन किया है। इसके अनन्तर दसवे परिच्छेद के १४ सूत्रो मे पैशाची भाषा का विधान है। १७ सून वाले ग्यारहवे परिच्छेद मे मागधी प्राकृत का तथा वारहवें परिच्छेद के ३२ सूत्रो मे शौरसेनी प्राकृत का अनुशासन है । प्राकृतप्रकाश पर एक टीका नारायण विद्याविनोद की भी मानी जाती है, जिसका नाम 'प्राकृतपाद' है। राजेन्द्र लाल मित्र ने सर्व प्रथम इसका परिचय दिया था। प्रारम्भ मे विद्वान् इस टीका को क्रमदीश्वर के 'मक्षिप्तसार' की टीका मानते थे। किन्तु अब 'प्राकृतपाद' वररुचि के अन्य की ही टीका स्वीकार की Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ या कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा जाती है। क्योकि उसके छह परिच्छेद प्राकृतप्रकाश के प्रथम सात परिच्छेदो मे ठीक-ठाक मिलते हैं। वरचि के ग्रन्थ पर चीयी टीका वसन्तराजकृत 'प्राकृतसजीविनी' है। १४-१५वी शताब्दी में यह टीका लिखी गयी थी। कर्पूरमजरी मे इस ग्रन्थ का नाम आता है-'तदुक्तम् प्राकृतसजीविन्याम् ।' डा० पिशेल इस टीका को वसन्तराज का स्वतन्त्र प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ मानते है। किन्तु प्राकृत प्रकाश से इस ग्रन्थ की इतनी समानता है कि इसे उसकी टीकाही मानना उचित है। क्योकि वसन्तराज ने कोई स्वतन्त्र मूत्र नही कहे है । प्राकृतप्रकाश पर सदानन्दकृति 'प्राकृत सुबोधिनी' नाम की भी टीका है, जिसका प्रकाशन वनारस से हुआ है। १७वी शताब्दी मे रामपाणिपाद ने प्राकृत प्रकाश पर एक सस्कृत वृत्ति लिखी है। इसमे सेतुबन्च, गाहासत्तसई आदि से उदाहरण दिये गये है। यह वृत्ति १९४६ मे मद्रास से कुनहन राजा द्वारा प्रकाशित हुई है। इस तरह प्राकृत व्याकरण के गहन अध्ययन के लिए वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश एवं उसकी टीकाओ का अध्ययन नितान्त अपेक्षित है। महाराष्ट्री के साथ मागधी, पैशाची एक शौरसेनी का इसमे विशेष विवेचन किया गया है। प्राकृत प्रकाश की इस विषयवस्तु से स्पष्ट है कि वररुचि ने विस्तार से प्राकृत भाषा के रूपो को अनुशासित किया है । चई के प्राकृत लक्षण का प्रभाव वररुचि पर होते हुए भी कई बातो मे उनमे नवीनता और मौलिकता है। प्राकृतप्रकाश पर टीकाए __वररुचि का प्राकृत व्याकरण प्राचीन होते हुए पूर्ण भी है । अत उस पर कई विद्वानो ने टीकार लिखी है । डा० पिशेल ने इसका सबसे प्राचीन टीकाकर भामह को माना है, जिसकी टीका का नाम 'मनोरमा' है। किन्तु पिशेल जिस अज्ञातनामा टीका 'प्राकृतमजरी' का उल्लेख करते है और जिसे विशेष महत्व की नही मानते ३१ उसके टीकाकार का नाम विद्वान् कात्यायन निश्चित करते हैं । अत कात्यायन भामह से पूर्ववर्ती है। लगभग छठी-सातवी शताब्दी मे कात्यायन ने प्राकृतमजरी नामक टीका पद्य मे लिखी थी । इसका प्रकाशन १९१३ मे निर्णय सागर प्रेस से हुआ। १६१४ मे कलकत्ता से बी० के० चटर्जी ने मूल ग्रन्थ के साथ इसे प्रकाशित किया। यह टीका पूरे प्राकृतप्रकाश पर नही है। भामहकृत मनोरमा टीका का कई स्थानो से प्रकाशन हुआ है। यह टीका प्राकृतप्रकाश के १२वे परिच्छेद पर नहीं है। इस टीका मे वररुचि के कई सूत्रो को यथावत् नही समझा गया है। स्वयं भामह ने कई स्थानो से उद्धरण ग्रहण कर दिये हैं। डा० पिशेल ने उनमे से कुछ की खोज-बीन की है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २०५ सिद्धहमशदानुशासन प्राकृत व्याकरणशास्त्र को पूर्णता आचार्य हेमचन्द्र के सिद्धहमशब्दानुशासन से प्राप्त हुई है। प्राकृत वैयाकरणो की पूर्वी और पश्चिमी दो शाखाए विकसित हुई है । पश्चिमी शाखा के प्रतिनिधि प्राकृत वैयाकरण हेमचन्द्र हैं (सन् १०८८ से ११७२) ।३३ इन्होने विभिन्न विषयो पर बनेक ग्रन्थ लिखे है। इनकी विद्वत्ता की छा५ इनके इस व्याकरण ग्रन्थ पर भी है। इस व्याकरण का अनेक स्थानो से प्रकाशन हुआ है । डा० पिशेल द्वारा सम्पादित होकर यह अन्य सन् १८७७-८० के बीच दो बार प्रकाशित हुआ है । डा० पी० एल० वैद्य द्वारा सम्पादित होकर १६३६ मे यह प्राकृत व्याकरण छपा तथा सशोधित होकर १६५८ मे इसका पुन प्रकाशन हुआ। इसके गुजराती, अग्रेजी और हिन्दी अनुवाद भी निकल चुके हैं । व्यावर से प्रकाशित हिन्दी सस्करण मे अनेक परिशिष्ट सलग्न है अत उसकी विशेष उपयोगिता सिद्ध होती है। हेमचन्द्र के अपने इस व्याकरण ग्रन्थ मे आठ अध्याय हैं । प्रथम सात अध्यायो मे उन्होने सस्कृत व्याकरण का अनुशासन किया है, जिसकी संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र मे अलग महता है।३४ आठवे अध्याय मे प्राकृत व्याकरण का निरूपण है। उसकी सक्षिप्त विषयवस्तु द्रष्टव्य है। आठवें अध्याय के प्रथम पाद मे २७१ सून है । इनमे सधि, व्यजनान्तशब्द, अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर-व्यत्यय और व्यजन-व्यत्यय का विवेचन किया गया है । इस पाद का प्रथम सून प्राकृत शब्द को स्पष्ट करते हुए यह निश्चित करता है कि प्राकृत व्याकरण सस्कृत के आधार पर सीखनी चाहिये । द्वितीय सूत्र द्वारा हेमचन्द्र ने प्राकृत के समस्त अनुशासनो को वैकल्पिक स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट है कि हेमचन्द्र ने न केवल साहित्यिक प्राकृतो को, अपितु व्यवहार की प्राकृत के रूपो को ध्यान में रखकर भी अपना व्याकरण लिखा है । इस पाद के तीसरे सून आर्षम् ८।१।३ द्वारा ग्रन्थकार ने आर्षप्राकृत और सामान्य प्राकृत मे भेद स्पष्ट किया है। इसके आगे के सूत्र स्वर आदि का अनुशासन करते है। जिस बात को प्राचीन वैयाकरण चद्र, वररुचि आदि ने सक्षेप मे कह दिया था, हेमचन्द्र ने उसे न केवल विस्तार से कहा है, अपितु अनेक नये उदाहरण भी दिये है। इस तरह प्राकृत भाषा के विभिन्न स्वरूपो का सागोपाग अनुशासन हैमव्याकरण मे हो सका है।३५ द्वितीयपाद के २१८ सूत्रो मे मयुक्त व्यजनो के परिवर्तन, समीकरण, स्वर भक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययो का निरूपण है। यह प्रकरण आधुनिक भापाविज्ञान की दृष्टि मे बहुत उपयोगी है । हेमचन्द्र ने नकृत के कई द्वयर्थ वाले शब्दो को प्राकृत मे अलग-अलग किया है, ताकि भ्रान्तिया न Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सम्पूत-प्राकृत व्याकरण और कोश की पर हो । सरकत जण शब्द का अगमय भी है और दाव भीमचन्द्र ने उमर अर्थ मे छणो (क्षण ) और समय अयं में राणो (जण ) + ५ निष्टि हैं। उसी तरह हेम ने अब्धयो को भी विस्तृत मूनी पाद मेवी है। तृतीयपाद में १८२ कार. विनियो, जियाना बाधि सम्बन्धी नियमो का कथन किया गया है। शाम्प, निया-५ और प्रत्यको का वर्णन वि५ ' ने ध्यातव्य है । वैरी प्रावतप्रकाश ममान हो सका विवेचन हम ने किया है 4.1 का व्यय था पर अ-प्रमाणाना है। मप्रति व्याकरण का चयं पाद विशेष महत्व है। इसके ४४८ मूवी मे गारमेनी, मागधी, पैशात्री, वनिका पंशाची ओर अपने प्रानो का शब्दानुशासन ग्रन्या ने किया है। जग पाद म मात्वादे को प्रमुखता है ।मत चातुओ पर देशी अपभ्रश धानुओ आदे॥ किया है । यथा - म०-T. प्रा०-ह को वोल्ल, चव, जप आदि आदेगा। मागवी, भोरमेनी एन पैशाची का अनुमान तो पानीन या.जो ने भी सक्षेप मे किया था। हैम ने इनको विस्तार में गमलाया है। किन्तु इनके माय ही चूलिका पैशाची की विशेषताए भी स्पष्ट की है। ग पाद के ३२६ सूत्र मे ४४८ भून तक उन्होंने अपभ्र श व्याकरण पर पहली बार प्रकाश डाला है ।"दाहरणों के लिए जो अपभ्रश के दोहे दिये है, वे अप न श नाहित्य की अमूल्य निधि है । आचार्य हेम के समय तक प्राकृत भाषा का बहुत अधिक विकास हो गया बा । इस भाषा का विशाल साहित्य भी था । अपन श के भी विभिन्न १५ प्रचलित थे। अत हेमचन्द्र ने प्राचीन वयाकरणो के ग्रन्यो का उपयोग करते हुए भी अपने व्याकरण मे बहुत सी वात नयी और विशिष्ट शैली में प्रस्तुत की है। हेम एव अन्य प्राकृत वैयाकरण . ___ आचार्य हेमचन्द्र के पूर्व कई प्राकृत वैयाकरण हो चुके थे। हेमचन्द्र ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने प्राचीन ग्रन्थो का पर्याप्त उपयोग किया है। यद्यपि किसी का नाम नहीं लिया है। कश्चित, केचित्, अन्य आदि शब्दो द्वारा इसकी सूचना दी है। प्राकृत व्याकरण के अनुशीलन से यह स्प८८ हो जाता है कि चड एव वररुचि का उन पर पर्याप्त प्रभाव है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि हेमचन्द्र मे कोई मौलिकता नही है । डा० डोल्पी नित्ति के इस कथन को समर्थन नहीं दिया जा सकता है कि हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण की पूर्णता और प्रौढता प्राप्त नही की है या उसमे कोई विशे५ प्रतिभा नही है ।३८ वस्तुत हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण मे उस समय तक प्रचलित सभी अनुशासनो को सम्मिलित किया है तथा जहाँ नये नियमो व उदाहरणो की आवश्यकता थी उनको अपने ढंग से प्रस्तुत किया है । चइ के प्राकृत लक्षण सूत्र Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २०७ १७, १८, १६, २३, २४ हैमव्याकरण मे ८ ३ २४, ८ ३ ७, ८ ३ ६, ८ १८, ८११६ मे उपलब्ध है । हेम ने आर्ष प्राकृत के उदाहरण वे ही दिये हैं, जो चड ने। किन्तु स्वर और व्यजन परिवर्तन के सिद्धान्त प्राकृत लक्षण मे बहुत सक्षिप्त है, जिनका हेमचन्द्र ने बहुत विस्तार किया है। तद्धित, वृतप्रत्यय, धात्वादेश __ और अपभ्र श व्याकरण का अनुशासन च की अपेक्षा हैमव्याकरण मे नवीनता और विस्तार लिये हुए है। विषयक्रम और वर्णनशैली दोनो मे हेमचन्द्र ने वररुचि का अनुकरण किया है। कुछ सिद्धान्त ज्यो के त्यो प्राकृतप्रकाश के उन्होने स्वीकार किये है । किन्तु अनेक बातो मे हेमचन्द्र वररुचि से अपनी विशेषता रखते हैं। वररुचि ने धातुओ के अर्थान्तरी का कोई सकेत नही दिया है, जबकि हेम ने धातवोर्थान्तरेऽपि ८ ४ २५६ द्वारा धातुओ के बदलते हुए अर्थों का निर्देश किया है । जैसे बलि धातु प्राणन अर्थ मे पठित है, किन्तु खादन अर्थ मे भी इसका प्रयोग होता है। कलि धातु गणना के अर्थ मे पठित है पर पहिचानने के अर्थ मे भी वह प्रयुक्त होता है कलइ जानाति सख्यान करोति वा । इत्यादि । हेमचन्द्र ने यश्रुति का विधान किया है, जिसका पररुचि मे अभाव है। सेतुबन्ध, गउडवहो आदि काव्यो मे यश्रुति का प्रयोग है, जिसका हेम ने नियमन किया है । वररुचि ने जहा तीन-चार तद्धित प्रत्ययो का उल्लेख किया है, वहा हेम ने सैकडो प्रत्ययो का नियमन किया है । डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने हेम और वररुचि के सूत्रो की तुलनाकर भी यह निष्कर्ष निकाला है कि हेमचन्द्र का व्याकरण अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणो की अपेक्षा अधिक पूर्ण और वैज्ञानिक है ।३९ यही कारण है कि हैमव्याकरण से परवर्ती वैयाकरण भी प्रभावित होते रहे है । यद्यपि उनकी अपनी मौलिक उद्भावनाए भी हैं, जो उनके व्याकरण ग्रन्थो के मूल्याकन से स्पष्ट हो सकेगी। हेमप्राकृत व्याकरण पर टीकाए आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण पर 'तत्वप्रकाशिका' नामक सुवोधवृत्ति (बृहत्वृत्ति) भी लिखी है। मूलमन्थ को समझने के लिए यह वृत्ति बहुत उपयोगी है। इसमे अनेक ग्रन्थो से उदाहरण दिये गये है। एक लघुवृत्ति भी हेमचन्द्र ने लिखी है, जिसको 'प्रकाशिका' भी कहा गया है। यह स. १६२६ मे बम्बई से प्रकाशित हुई है। हेमप्राकृतव्याकरण पर अन्य विद्वानो द्वारा लिखित टीकाको मे निम्न प्रमुख stic १ द्वितीय हरिभद्रसूरि ने १५०० ५लोक प्रमाण हैमदीपिका' नाम की टीका Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा लिखी है, जिसे 'प्राकृतवृत्तिदीपिका' भी कहा गया है। यह टीका अभी तक अनुपलब्ध है। २ जिनसागरसूरि ने ६७५० श्लोकात्मक 'दीपिका' नामक वृत्ति की रचना की है। ३ आचार्य हरिप्रममूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण के अष्टम अध्याय मे आगत उदहरणो की व्युत्पत्ति सूत्रो के निर्देश-पूर्वक की हे। २७ पनो की यह प्रति एल० डी० इन्स्टीट्यूट अहमदाबाद मे उपलब्ध है । हरिप्रभसूरि का समय अज्ञात है। ४ वि० स० १५९१ मे उदयसौभाग्याणि ने 'हैमप्राकृतदुढिका' नामक वृत्ति की रचना की है । इसे 'व्युत्पत्तिदीपिका' भी कहते है । यह वृत्ति भीमसिंह माणेक, 4बई से प्रकाशित हुई है। ५ मलवारी उपाध्याय नरचन्द्रसूरि ने हैमप्राकृत व्याकरण पर एक अवचूरि रूप ग्रन्थ की रचना की है। इसका नाम 'प्राकृतप्रबोध' है। 'न्यायकन्दली' की टीका मे राजशेखरसूरि ने इस ग्रन्य का उल्लेख किया है। प्राकृतप्रवोध को पाण्डुलिपिया ला द० भारतीय संस्कृति विद्यामदिर अहमदाबाद मे उपलब्ध हैं। ६ आचार्य विजयराजेन्द्रसूरि ने हेमचन्द्र निर्मित वृत्ति को पद्य मे निर्मित किया है। इसका नाम 'प्राकृतव्याकृति' है, जो 'अभिवानराजेन्द्र' कोश के प्रथम भाग के प्रारम्भ मे रतलाम से वि० स० १६७० मे छपी है। ___७ हेमचन्द्र द्वारा जो अपभ्र श व्याकरण के प्रसग मे दोहे दिये गये है उन पर 'दोधकवृत्ति' लिखी गयी है, जो हेमचन्द्राचार्य जैन सभा, पाटन से प्रकाशित ८ 'हेमदोक्कार्थ' नामक एक टीका की सूचना जनप्रन्थावली' से प्राप्त होती है । उसमे (पृ० ३०१) यह भी कहा गया है कि १३ पनो की इस टीका की एक पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है। हेमन्दानुशासन ५२ दुढिका लिखी गई है। उसके दो परण ही अब तक उपलब्ध और प्रकाशित थे। किन्तु पारो चरणवाली एक प्रति श्वेताम्बर तेरापथ श्रमण ग्रन्य भडार, लाउनू मे उपलब्ध है। मुनि श्री नथमल ने स्वरचित 'तुलसीमजरी' नामक प्राकृत-व्याकरण मे इस (दुढिका वृत्ति) का विशेष रूप से उपयोग किया है । तुलसीमजरी अपनी सुवोध शैली एव विशद विवेचन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह प्राकृत व्याकरण शीत्र प्रकाशनाधीन है। तरह प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे हेमप्राकृतव्याकरण का कई दृष्टियो से महत्व है। आपप्राकृत का सर्वप्रथम उममे उल्लेख हुआ है। प्राकृत व अपभ्रश भाषा के प्राय मभीपी का उसमे अनुशासन हआ है। न केवल गाहित्य में प्रयुक्त गर अपितु व्यवहार में प्रयुक्त प्राकृत, अपभ्रण एव देशी शब्दो Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २०६ का नियमन हेमचन्द्र ने किया है। इस तरह की आदर्श प्राकृत व्याकरण की रचना कर हेमचन्द्र ने परवर्ती प्राकृत वैयाकरणो को भी इस क्षेत्र मे कार्य करने के लिए प्रेरित किया है । परवर्ती प्राकृत व्याकरणग्रन्यो के मूल्याकन से यह स्पष्ट होता है कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण ने उन्हे कितना आधार प्रदान किया है। पुरुषोत्तम-प्राकृतानुशासन हेमचन्द्र के समकालीन एक और प्राकृत वैयाकरण हुए है पुरुषोत्तम । ये बगाल के निवासी थे। अत इन्होने प्राकृत व्याकरणशास्त्र की पूर्वीय शाखा का प्रतिनिधित्व किया है। पुरुषोत्तम १२ वी शताब्दी के वैयाकरण हैं। उन्होने प्राकृतानुशासन नाम का प्राकृत व्याकरण लिखा है। यह ग्रन्थ १६३८ मे पेरिस से प्रकाशित हुआ है । एल० नित्ती डोल्पी ने महत्वपूर्ण फैन्च भूमिका के साथ इसका सम्पादन किया है ।" १६५४ मे डा० मनमोहन चोप ने अंग्रेजी अनुवाद के साय मूल प्राकृतानुशासन को 'प्राकृतकल्पतर' के साथ (पृ० १५६-१६६) परिशिष्ट १ मे प्रकाशित किया है। प्राकृतानुशासन मे तीन से लेकर बीस अध्याय है। तीसरा अध्याय अपूर्ण है। प्रारम्भिक अध्यायो मे सामान्य प्राकृत का निरूपण है। नौवे अध्याय मे शौरसेनी तथा दस मे प्राच्या भाषा के नियम दिये गये है। प्राच्या को लोकोक्ति-बहुल बनाया गया है। ग्यारहवे अध्याय मे अवन्ती और वारहवे मे मागधी प्राकृत का विवेचन है। इसके बाद विभापाओ मे शाकारी, चाडाली, शाबरी और टक्कदेशी का अनुशासन किया गया है । उससे पता चलता है कि शाकारी मे 'क' और टक्की मे उद् की बहुलता पाई जाती है । इसके बाद अपभ्रश मे नागर, ब्राचड, उपनागर आदि का नियमन है । अन्त मे कैकय, पैशाचिक और शौरसेनी पैशाचिक भाषा के लक्षण कहे गये हैं। त्रिविक्रम-प्राकृतशब्दानुशासन त्रिविक्रम १३ वी शताब्दी के वैयाकरण थे। उन्होने जैनशास्त्री का अध्ययन किया था तथा वे कवि भी थे। यद्यपि उनका कोई काव्यग्रन्य अभी उपलब्ध नही है। त्रिविक्रम ने 'प्राकृतशदानुशासन' मे प्राकृत सूत्रो का निर्माण किया है तथा स्वयं उनकी वृत्ति भी लिखी है प्राकृतपदार्यसार्यप्राप्त्य निजसूत्रमार्गमनुजिगमिषताम् । वृत्तियथार्थसिद्धय विविक्रममेणामक्रमाक्रियते ।। ६ ।। इन दोनो का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन व प्रकाशन डा० पी० एल० वद्य ने सोलापुर से १९५४ मे किया है । यद्यपि इससे पूर्व भी मूल ग्रन्थ का कुछ अश १८६६ एव १६१२ मे प्रकाशित हुआ था। किन्तु वह ग्रन्य को पूरी तरह प्रकाश मे नही लाता Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा था। अत डा० वैद्य ने कई पाण्डुलिपियो के आधार पर ग्रन्य का वैज्ञानिक सस्करण प्रकाशित किया है। इसके पूर्व वि० स० २००७ मे जगन्नाथशास्त्री होशिंग ने भी मूलप्रन्य और स्वोपज्ञवृत्ति को प्रकाशित किया था। इसमे भूमिका सक्षिप्त है, किन्तु परिशिष्ट मे अच्छी सामग्री दी गई है। प्राकृतशब्दानुशासन मे कुल तीन अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय मे ४-४ पाद है । पूरे ग्रन्थ मे कुल १०३६ सूत्र है। यद्यपि त्रिविक्रम ने इस ग्रन्थ के निर्माण मे हेमचन्द्र का ही अनुकरण किया है, किन्तु कई बातो मे नयी उद्भावनाए भी हैं। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अध्याय के प्रथम पाद मे प्राकृत का विवेचन है। तीसरे अध्याय के दूसरे पाद मे शौरसेनी (१-२६), मागधी (२७-४२), पैशाची (४३-६३) तथा चूलिका पैशाची (६४-६७) का अनुशासन किया गया है । ग्रन्य के इस तीसरे अध्याय के तृतीय और चतुर्थ पादो मे अपभ्र श का विवेचन है। त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत व्याकरण मे ह, दि, स और ग आदि नयी सज्ञाओ का निरूपण किया है। तया हेमचन्द्र की अपेक्षा देशी शब्दो का सकलन अधिक किया है । हेमचन्द्र ने एक ही सूत्र मे देशी शब्दो की बात कही थी, क्योकि उन्होने 'देशीनाममाला' अलग से लिखी है। जबकि त्रिविक्रम ने ४ सूत्रो मे देशी शब्दो का नियमन किया है। प्राकृतशब्दानुशासन मे अनेकार्य शब्द भी दिये गये हैं। यह प्रकरण हेम की अपेक्षा विशिष्ट है। इससे तत्कालीन भापा की अन्य प्रवृत्तियो का भी पता चलता है । कुछ अनेकार्थक शब्द इस प्रकार निविक्रम ने दिये हैं अमार = टापू, कछुआ ओहमनीवी, अवगुण्ठन करोड = कोआ, नारियल, वल गोपी=सम्पत्ति, वाला आदि। इसी प्रकार त्रिविक्रम का अपभ्र श का अनुशासन भी महत्वपूर्ण है। क्योकि उन्होने हेम द्वारा उदाहृत अपभ्रंश उदाहरणो की संस्कृत छाया भी दे दी है। 440 सूत्र ३ ३ ३८ का उदाहरण साबसलोणी गोरडी नवखी कवि विसगठि। भड़ पच्चलिउ सो मरइ जासून लाड कठि।। ५७ ।। (हेम० ४२०३) [सर्वसलावण्या गौरी नवीना कापि विपनन्थि । भट प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठ] इत्यादि। इस तरह म कृत छाया द्वारा अपभ्र श पद्यो को समझने मे उन्होने सौकर्य उपस्थित किया है । त्रिविक्रम ने हेमचन्द्र के सूत्रो की सख्या घटाकर लाधवप्रवृत्ति का परिचय दिया है । अत कई दृष्टियो मे त्रिविक्रम का प्राकृत व्याकरणशास्त्र के विकास में योगदान है। इससे यह भी पता चलता है कि प्राकृत वैयाकरणो ने अपने समय की भाषागत प्रवृत्तियो को अनुशासित करने का पूरा प्रयत्न किया है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास : २११ प्राकृतशब्दानुशासन पर टीकाए त्रिविक्रम के इस ग्रन्थ पर स्वय लेखक की वृत्ति के अतिरिक्त अन्य दो टीकाए भी लिखी गयी हैं । लक्ष्मीधर की 'षड्भापाचन्द्रिका' एव सिंहराज का 'प्राकृतरूपावसार' त्रिविक्रम के अन्य को सुवोध बनाते है । (१) पड्भापाचन्द्रिका लक्ष्मीधर ने अपनी व्याख्या लिखते हुए कहा है कि त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सरल करने के लिये यह व्याख्या लिख रहा हू। जो विद्वान् मूलग्रन्य की गूढ वृत्ति को समझना चाहते है वे उसकी व्याख्यारूप पड्भाषाचन्द्रिका' को देखें वृत्ति विक्रमीगूढा व्याचिख्या सन्ति ये बुधा । पड्भापाचन्द्रिका तैस्तद् व्याख्यारूपा विलोक्यताम् ॥ वस्तुत लक्ष्मीचर ने त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सिद्धान्त कौमुदी के ढग से तैयार किया है तथा उदाहरण प्राकृत के अन्य काव्यो से दिये है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे प्राकृत (महाराष्ट्री), शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची और अपभ्र श इन छह भाषाओ का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है। आगे चलकर इन छह भाषाओ के विवेचन के लिए अन्य कई ग्रन्य भी लिखे गये है। उनमें भामकवि पडभाषाचन्द्रिका', दुर्गणाचार्य पड्भाषारूपमालिका', तथा 'पड्भाषामजरी', 'पङ्भापासुवन्तादर्श,' 'पभाषाविचार' आदि प्रमुख हैं।" (२) प्राकृतरूपावतार सिंहराज (१५ वी शताब्दी) ने त्रिविक्रम प्राकृतव्याकरण को कौमुदी के ढग से 'प्राकृतरूपावतार' मे तैयार किया है। इसमें सक्षेप मे सज्ञा, सन्धि, समास, धातुरूप, तद्धित आदि का विवेचन किया गया है। सज्ञा और क्रियापदो की रूपावली के ज्ञान के लिए प्राकृतरूपावतार' कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। कही-कही सिंहराज ने हेम और त्रिविक्रम से भी अधिक रूप दिये है।५० रूप गढने मे उनकी मौलिकता और सरसता है। क्रमदीश्वर-सक्षिप्तसार हेमचन्द्र के बाद के वयाकरणो मे क्रमदीश्वर का प्रमुख स्थान है। उन्होने 'सक्षिप्तसार' नामक अपने व्याकरण ग्रन्थ को आठ भागो मे विभक्त किया है। प्रथम सात अध्यायो मे सस्कृत एव आठवे अध्याय 'प्राकृतवाद' मे प्राकृत व्याकरण का अनुशासन किया है। ग्रन्थ के इस स्वरू५ मे ही क्रमदीश्वर हेमचन्द्र का अनुकरण करता है। अन्यया प्रस्तुतीकरण और सामग्री की दृष्टि से उनमे पर्याप्त Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा भिन्नता है। वस्तुत पर९चि के प्राकृतप्रकाश' और 'सक्षिप्तसार' मे वडा घनि०० सम्बन्ध दिखायी देता है। किन्तु कई स्थलो पर क्रमदीश्वर ने अन्य लेखको की सामग्री का भी उपयोग किया है। लास्सन ने क्रमदीश्वर के इस ग्रन्थ पर अच्छा प्रकाश डाला है । 'प्राकृतपाद' का सम्पूर्ण संस्करण राजेन्द्रलाल मित्र ने प्रकाशित कराया था। तथा १८८६ मे कलकत्ता से इसका एक नया सस्करण भी प्रकाणित हुआ था। मार्कण्डेय-प्राकृत सर्वस्व . प्राकृत व्याकरणशास्त्र का प्राकृतसर्वस्व' एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके ग्रन्यकार मार्कण्डेय प्राच्य शाखा के प्रसिद्ध प्राकृतियाकरण थे। मार्कण्डेय का यह प्राकृत व्याकरण प्रारम्भ मे भट्टनाथ स्वामी द्वारा सम्पादित होकर १९२७ मे ग्रन्यप्रदर्शिनी, विजापट्टम से प्रकाशित हुआ था। किन्तु बाद मे अन्य पाण्डुलिपियो के आधार पर विद्वत्तापूर्ण वजानिक मस्करण डा० के० सी० आचार्य ने १९६८ मे प्राकृत टेक्ट सोसायटी अहमदाबाद से प्रकाशित किया है । इस सस्करण मे मार्कण्डेय की तिथि १४६०-१५६५ ई० स्वीकार की गयी है तथा ग्रन्थकार और उनकी कृतियों के सम्बन्ध मे विस्तार से विचार किया गया है ।५३ मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के चार भेद किये हैं – भापा, विमापा, अपभ्र श और पंशाची। भाषा के पाच भेद है महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी। विमापा के कारी, चाण्डाली, शबरी, आभीरी और ढक्की ये पाच भेद है। अपभ्र श के तीन भेद है नागर, प्राचर्ड और उपनागर तया पंशाची के कैकई, पाचाली आदि भेद है। इन्ही भेदोपभेदो के कारण डा० पिशल ने कहा है कि महाराष्ट्री, जनमहाराष्ट्री, अर्धमागधी और जनशौरसेनी के अतिरिक्त अन्य प्राकृत वोलियो के नियमो का जान प्राप्त करने के लिए मार्कण्डेय कवीन्द्र का 'प्राकृतसर्वस्व' वहुत मूल्यवान है ।५५ । प्राकृत सर्वस्व के प्रारम्भ के आठ पादो मे महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये गये हैं। इनमे प्राय वररुचि का अनुसरण किया गया है। नौवें पाद मे शौरसेनी और दसवे पाद मे प्राच्या का नियमन है। विदूपक आदि हास्य पात्रो की भाषा को प्राच्या कहा गया है । ग्यारहवें पाद मे अवन्ती वाल्हीकी का वर्णन है। बारहवें मे मागवी के नियम बताये गये है। अर्धमागधी का उल्लेख इसी पाद मे आया है। इस प्रकार से १२ पादो को भापाविवचन का खण्ड कहा जा सकता है। १३वे से १६वे पाद तक विभाषा का अनुशासन किया गया है। शाकारी, चाण्डाली, गावरी आदि विभापाओ के नियम एक उदाहरण यहां दिये गये है। एक सूत्र म ओडी (उडिया) विमापा १०। कथन है तथा एक मे आभीरी का। ग्रन्य के १७७ ॥ १८वे पाद मे अपभ्रश भाषा का तथा १६व और २०वे पाद मे पैशाची भाषा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्यापारणणारत्न का उद्भव एव विकास २१३ का नियमन हुआ है । अपभ्रश के उदाहरण स्वरूप कुछ दोहे भी दिये गये है। इस तरह मार्कण्डेय ने अपने समय तक विकसित प्राय सभी लोक भापाओ को, जिनका प्राकृत से घनिष्ठ सम्बन्ध था, अपने व्याकरण में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया है। ___मार्कण्डेय केवल वैयाकरण ही नहीं था, अपितु प्राकृत का कवि भी था। उसने अपने प्राकृत सर्वस्व मे अनेक ऐसे उदाहरण दिये हैं, जिनके स्रोतो का पता नहीं चलता। और वे सभवत स्वय ग्रन्थकार के ही किसी काव्यग्रन्थ के होने चाहिए । डा० आचार्य ने 'विलासवतीसट्टक' को मार्कण्डेय की रचना होने की सम्भावना व्यक्त की है। इस ग्रन्थ की एक सम्भावित गाथा इस प्रकार है पदुम जीविअसरिच्छ। तत्तो सुहवी तदो पुणो धरिणी। चडि ति भणसि एण्हि ण मुणमि काहे हुवेज चामुडा॥ [प्रयम मुझे जीवन-सदृश (प्राणप्रिय) कहा, फिर सुखदातृ तथा बाद मे गृहणि । और जब तुम मुझे चडी (क्रोध करने वाली) कह रहे हो । मैं नही जानती कि मैं कव चामुडा कही जाने लगी ] इसी प्रकार मार्कण्डेय ने प्राचीन वैयाकरणो के सम्बन्ध मे भी कई तथ्य प्रस्तुत किये है ।५° उनमे से शाकल्य एव कोहल निश्चित रूप से प्राकृत के प्राचीन वैयाकरण रहे होगे, जिनके प्राकृत सम्बन्धी नियमन से प्राकृत व्याकरणशास्त्र समय-समय पर प्रभावित होता रहा है। यद्यपि अभी तक इनके मूल ग्रन्थो का पता नहीं चला है। इस तरह मार्कण्डेय का 'प्राकृतसर्वस्व' कई दृष्टि से महत्वपूर्ण अन्य है। पश्चिमीय प्राकृत भाषाओ की प्रवृत्तियो के अनुशासन के लिए जहा हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप मे प्रसिद्ध है, वहा पूर्वीय प्राकृत की प्रवृत्तियो का नियमन मार्कण्डेय के इस व्याकरण से पूर्णतया जाना जा सकता है । पूर्वीय प्राकृत वैयाकरणो के सम्बन्ध मे डा० सत्यरजन बनर्जी ने अपनी थीसिस मे पर्याप्त प्रकाश डाला है।५८ अन्य प्राकृत व्याकरण प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे लगभग २-३वी शताब्दी से १५-१६वी शताब्दी तक मे हुए इन प्रमुख प्राकृत वैयाकरणो के ग्रन्थो से स्पष्ट है कि प्राकृत भापा के विभिन्न पक्षो पर विधिवत् प्रकाश डाला गया है। प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से १६वी से २०वी शताब्दी तक अनेक प्राकृत के व्याकरण ग्रन्य लिखे गये हैं। इन्हे दो भागो मे विभक्त कर सकते हैं । (१) १६वी से १८वी शताव्दी तक के परम्परागत प्राकृत व्याकरण तथा (२) १६वी-२०वी शताब्दी के Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा आधुनिक सम्पादन से युक्त प्राकृत-व्याकरण । यहाँ प्रयम कोटि के कुछ प्रमुख प्राकृत व्याकरण-ग्रन्थो का परिचय प्रस्तुत है। १ अप्पयदीक्षित-प्राकृतमणिदीप : ईसवी सन् १५५३-१६३६ के शैव विद्वान् अप्पयदीक्षित ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उन्होने 'प्राकृतमणिदीप' नामका प्राकृत व्याकरण लिखा है। यह १९५४ मे मैसूर से छपा है ।५९ अप्पयदीक्षित ने कहा है कि पुष्पवननाथ, पररूचि और अप्पयज्वन ने जो व्याकरण ग्रन्थ लिखे है वे वहुत विस्तृत है। अत. सक्षेप सचिवाले पाठको के लिए मणिदीपिका लिखी गयी है। इन्होने त्रिविक्रम, हेमचन्द्र और लक्ष्मीचर का भी उल्लेख किया है। अत इनका यह व्याकरण इन्ही प्राचीन वयाकरणो के ग्रन्थो पर आधारित है। इस प्राकृतमणिदीप के सम्पादक श्रीनिवास गोपालाचार्य ने इस व्याकरण पर सस्कृत मे टिप्पणी लिखी है। २ श्रुतसागर-औदार्यचिन्तामणि दिगम्बर जैन मुनि श्रुतसागर ने वि० स० १५७५ मे औदाचिन्तामणि व्याकरण की रचना की थी। इसमे प्राकृत भाषा के सम्बन्ध मे छह अध्याय हैं। यह अन्य हेमचन्द्र और त्रिविक्रम के व्याकरणो से बड़ा है। किन्तु इस व्याकरण की अपूर्ण प्रति ही प्राप्त हुई है। भट्टनायस्वामिन् ने इस ग्रन्थ के तीन अध्याय विजागापट्टम से प्रकाशित किये है। श्रुतसागर ने प्राय हेमचन्द्र का ही अनुसरण किया है। ३. शुभचन्द्र-चिन्तामणि व्याकरण . पड्भापाचक्रवर्ती शुभचन्द्रसूरि ने वि० स० १६०५ मे चिन्तामणिव्याकरण' की रचना की है। पाण्डवपुराण को प्रशस्ति मे इस व्याकरण का उल्लेख इस प्रकार हुआ है योऽकृत सद्व्याकरण चिन्तामणिनामधेयम् । इस प्राकृत व्याकरण मे तीन अध्याय है। प्रत्येक मे पार पाद हैं। कुल मिलाकर १२२४ सूत्र हैं। इसमे हेमचन्द्र के व्याकरण के अनुसार ही प्राकृत का नियमन किया गया है।६२ चिन्तामणिन्याकरण' पर आचार्य शुभचन्द्र ने स्वीपज्ञवृत्ति भी लिखी है। ४ समसमा तवागीश-प्राकृतकल्पतरु रामशर्मा तकवागीश भट्टाचार्य वगाल के निवासी थे। इनका समय १७वी शताब्दी माना गया है। उन्होने 'प्राकृतकल्पतरू' नाम का प्राकृत व्याकरण लिखा Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २१५ है। इस ग्रन्थ का सर्वप्रथम प्रकाशन १६३६ मे श्रीमती लुइगा नित्ति डोल्पी ने पेरिस से किया। उसके बाद यह ग्रन्थ प्राकृत के विद्वानो का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। १९५४ मे डा० मनमोहन घोप ने इसे कलकत्ता से प्रकाशित किया है। 'प्राकृतकल्पतर' मे तीन शाखाए है। प्रथम शाखा मे दस स्तवक है, जिनमे महाराष्ट्री के नियमो का प्रतिपादन किया गया है। दूसरी शाखा मे तीन स्तवक है । इनमे शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती, वाल्हीकी, मागधी, अर्धमागधी और दाक्षिणात्या भाषा का विवेचन है। दाक्षिणात्या के सम्बन्ध मे कहा गया है कि पदो से मिश्रित, संस्कृत आदि भाषाओ से युक्त इस भाषा का काव्य अमृत से भी अधिक सरस होता है। इस दूसरी शाखा मे अन्य सभी विभाषाओ के स्वरूप की विवेचन है। तीसरी शाखा मे नागर और नाचड अपभ्र श तथा पैशाचिक का विवेचन है। ५ लकेश्वर-प्राकृतकामधेनु लकेश्वर अथवा प्राकृत लकेश्वर रावण ने 'प्राकृतकामधेनु' की रचना की है। ग्रन्थ के मगलाचरण से ज्ञात होता है कि लकेश्वर ने प्राकृत व्याकरण पर प्रारम्भ मे कोई वडा ग्रन्थ लिखा था, जिसे सक्षिप्त कर 'प्राकृतकामधेनु' लिखा गया है। डा० मनमोहन घोप एच डा० जी० सी० वसु आदि ने इस ग्रन्थ पर प्रारम्भ मे कुछ लेख लिखे थे।६६ वाद मे डा० घोष ने इस ग्रन्थ को 'प्राकृतकल्पतर' के साथ परिशिष्ट २ मे पृ०० १७०-१७३ पर प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ मे ३४ सूतो मे प्राकृत के नियमो को विवेचन है। कुछ सूत्र अस्पष्ट है। अपभ्रश की उकार प्रवृति का भी इसमे सकेत है। __ अभी हाल मे ही वृन्दावन के एक ग्रन्थ भण्डार से 'प्राकृतकामधेनु' की एक पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है, जिसका परिचय डा० एस० आर० वनर्जी ने अ० भा० प्राच्यविद्या सम्मेलन के २८वे अधिवेशन धारवाड मे प्राकृत के विद्वानो के समक्ष प्रस्तुत किया था। सभव है, इसके विधिवत् सम्पादन से इस ग्रन्थ व ग्रन्थकार पर कुछ विशेष प्रकाश पडे। ६ शेषकृष्ण-प्राकृत चन्द्रिका शेपकृष्ण की 'प्राकृतचन्द्रिका' श्लोकबद्ध प्राकृत व्याकरण है। इसके कुछ उद्धरण पीटर्सन ने अपनी तृतीय रिपोर्ट (पृ० ३४२-४८) मे दिये थे। उसके बाद कुछ अन्य विद्वानों ने भी इस पर ध्यान दिया । इधर १९६६ ई० मे श्री सुभद्र उपाध्याय ने पाच कोशो की सहायता से 'प्राकृतचन्द्रिका' का प्रकाशन Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा ६० किया है। इस ग्रन्थ मे नौ प्रकाश है। श्री नृसिंह गुरु को प्रणाम कर शेपकृष्ण ने प्रारम्भिक पाठको के लिए यह प्राकृतचन्द्रिका' लिखी है श्रीनृसिंहगुरोर्नत्वा पदपंकर्जतल्लजम् । विशदार्थ्य शिशुहिता कुर्वे प्राकृतचन्द्रिकाम् ||३|| इस ग्रन्थ के प्रथम प्रकाश मे सामान्य नियम, द्वितीय मे अमयुक्त आदेश, तृतीय मे मयुक्त आदेश तथा चतुर्थ मे अव्ययो का वर्णन है। पंचम प्रकाश मे सुवन्त और ४० मे मख्या आदि पर विचार है । तिगन्त का विवेचन नातवे प्रकाश मे एव कृदन्त का आठवे प्रकाश मे है | नवा प्रकाश विविध भाषाओ का अनुशासन करता है | इस 'प्राकृतचन्द्रिका' मे हेमचन्द्र एवं त्रिविक्रम के ग्रन्थों को दाधार बनाया गया है | 1 ७. रघुनाथकत्रि प्राकृतानन्द प० रघुनाथ कवि १८वी शताब्दी के विद्वान् थे । इनके 'प्राकृतानन्द' मे ४१९ सूत्र है । ग्रन्थ के प्रथम परिच्छेद मे शब्द और दूसरे परिच्छेद में धातु-विचार किया गया है । प० रघुनाथ ने वररुचि के प्राकृतप्रकाश' के सूत्रो का यह सक्षिप्त सस्करण निकाला है ।" यह ग्रन्थ सिंघी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई मे प्रकाशित हुआ है | ८. अज्ञातकर्ता के प्राकृतपद्यव्याकरण તાલમારૂં લપતાઈ ભારતીય સંસ્કૃત્તિ વિદ્યા વિર બમવાવાવ મેં ૬ પત્રો की एक अपूर्ण प्रति उपलब्ध है, जो लगभग १७वी शताब्दी मे लिखी गयी है | यह एक प्राकृत पद्य व्याकरण है। उसका कर्ता अज्ञात है । ग्रन्थ के नाम का भी पता नही चलता । इस प्रति मे कुल ४२७ श्लोक है । ग्रन्थ का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है मस्कृतस्य विपर्यस्त सस्कारगुणवजतम् । विज्ञेय प्राकृत तत् तु (यद् ) नानावस्यान्तरम् ||१|| समानशब्द विभ्रप्ट देशीगतमिति तिधा । सौरसेन्य च मागध्य पैशाच्य चापभ्र शिकम् ॥२॥ देशीगत चतुर्धेति तदग्रे कथयिष्यते ।" 1 इस ग्रन्थ के सम्पादन व प्रकाशन से इसकी पूरी विषय वस्तु का पता चल सकेगा । जात होता है कि इन शताब्दियों मे पद्यवद्ध प्राकृत व्याकरण लिखने की प्रवृत्ति चल पडी थी । इन उल्लिखित प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्राकृत व्याकरणो के भी ग्रन्थो मे उल्लेख मिलते है । कुछ उपलब्ध भी हुए हैं । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २१७ विष्णुधर्मोत्तर की 'प्राकृतलक्षण' डा० घोप ने 'प्राकृतकल्पतर' के परिशिष्ट मे प्रकाशित किया है । डा० पिशल ने अपने ग्रन्थ मे 'प्राकृतदीपिका' (बडीदेवशर्मन्)", 'षड्भाषासुबन्तरूपादर्श' (नागोवा), 'प्राकृतकौमुदी,' 'प्राकृतसाहित्यरत्नाकर', भाषार्णव (चन्द्रशेखर) आदि प्राकृत व्याकरण ग्रन्थो का मात्र उल्लेख किया है। नरसिंहकृत 'प्राकृतशब्दप्रदीपिका' तथा ऋपिकेश शास्त्री के 'प्राकृतकल्पलतिका' नामक प्राकृत व्याकरणो का भी पता चला है। इन सबके प्रकाश मे आने पर आधुनिक युग के प्राकृत व्याकरणशास्त्र की प्रवृत्तियो का ठीक-ठीक पता चल सकेगा। वैसे आधुनिक भारतीय भाषाओ के विकास के उपरान्त प्राकृत-अपभ्र श व्याकरणो के मूल ग्रन्थो के प्रणयन मे कमी आना स्वाभाविक है। इस युग मे तुलनात्मक ग्रन्थ अवश्य इस विषय के लिखे गये हैं। प्रमुख प्राकृत भाषाओ का स्वरूप प्राकृत भाषा के याकरण) एव उनके ग्रथो के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्राय सी वैयाकरणो ने महाराष्ट्री को सामान्य प्राकृत के नाम से कहकर उसका स्वरूप विवेचित किया है एवं उससे भिन्न लक्षण वाली अन्य शीर सेनी, मागवी, पैशाची, अपभ्रश आदि का बाद मे अनुशासन किया है। यद्यपि चड, पररुचि एव हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरणो मे 'महाराष्ट्री' प्राकृत का कोई उल्लेख नही है। किन्तु काव्य की भाषा प्राकृत महाराष्ट्री ही मानी जाती थी। अत उसी को सामान्य प्राकृत स्वीकार किया है ।७२ वररुचि के १०वे एव ११वे परिच्छेदो मे शौरसेनी की प्रधानता है। किन्तु १२वे परिच्छेद मे 'महाराष्ट्री' शब्द का प्रयोग कर उसे सामान्य प्राकृत कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि वररुचि के इस १२वे परिच्छेद की रचना के समय महाराष्ट्री शौरसेनी से भिन्न प्राकृत भाषा के रूप मे प्रतिष्ठित हो चुकी थी। बाद के वैयाकरणो ने उसे ही आधार मानकर अपने ग्रन्थ लिखे हैं । अत यहा महाराष्ट्री या सामान्य प्राकृत के कुछ प्रमुख नियमों का उल्लेख कर बाद मे अन्य प्राकृतो के स्वरूप को स्पट किया जावेगा। सामान्य प्राकृत (महाराष्ट्री) प्राचीन प्राकृत वैयाकरण चड ने अपने व्याकरण मे जिन नियमो की मात्र सूचना दी थी पररूचि ने उन नियमो को स्थिर और समृद्ध किया है। हेमचन्द्र ने सूक्ष्मता से साहित्य और लोक मे प्रचलित रूपो के आधार पर अपने नियम प्रस्तुत किये हैं। वाद के वैयाकरणो ने प्राकृत के इन सामान्य नियमो को अपने ग्रन्यो द्वारा प्रचारित किया है। १ भारतीय आर्य भाषा के ऋ, ऋ, लु एव ल का सर्वथा अभाव । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा २ वर्ण के स्थान पर अ, इ, उ औ रि का प्रयोग। यथा नृत्य >णच्चो, तृण >तिणो, मृषा> मुसा, ऋपि > रिसि आदि । ३ ऐ और ी के स्थान पर ए, ओ का प्रयोग पाया जाता है। यथा शैल >सेली, कौमुदी>कोमुई आदि। कही-कही अइ और अउ रूप भी मिलते है-देव >दइवे, पौर >पउरो आदि। ४ प्राय हस्व स्वर सुरक्षित है। यथा अक्षि > अक्खि, अग्नि > अगि आदि। ५ सयुक्त व्यजनो के पूर्ववर्ती दीर्थस्वर ह्रस्व हो गये है। यथा शान्त > सती, शाक्य > सक्को आदि । ६ सानुनासिक स्वर बदलकर दीर्थस्वर हो जाते हैं । यथा सिंह > सीहो आदि। ७ प्राकृत मे विसर्ग का प्रयोग नहीं होता। उसके स्थान पर ए या ओ हो जाता है । यया- राम > रामो, देव > देवे । ८ पदान्त व्यजनो का लोप हो जाता है। यथा पश्चात् >५च्छा, यावत् > जाव आदि। ६ श, प और स के स्थान पर केवल स का प्रयोग। यथा--अश्व > अस्सी, मनुष्य > माणुसो आदि । १० दो स्वरो के बीच मे आने वाले क ग च ज त द व का प्राय लोप हो जाता है । यथा मुकुल > मुउलो, नगरम् > णयर, शची>सई, प्रजापति >पयावई, यति >जई, मदन >मयणो, रिपु >रिउ, जीव >जीओ आदि। ११ सयुक्त व्यजनान्त ध्वनियो का समीकरण हो गया है। यया पक > चक्को, लक्ष्मी > लच्छी, वृक्ष >वच्छो आदि । १२ द्विवचन का लोप हो गया है। १३ हलन्त प्रतिपादिक समाप्त हो गये है। १४ पप्ठी का प्रयोग चतुर्थी के स्थान पर और चतुर्थी का प्रयोग पठी के स्थान पर होने लगा है। १५ न के स्थान पर प्राय ण का प्रयोग होता है। इत्यादि । अर्धमागधी (आर्ष प्राकृत) जन आगमो की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। याकरणो ने अर्धमागधी को आप भापा मानकर उसके नियमो का विधान नहीं किया है। क्योकि अर्धमागधी का रूपगठन मागधी और शौरसेनी की विशेषताओ से मिलकर हुआ है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र मे अर्धमागधी का उल्लेख किया है (१८३५-३६) । किन्तु वररुचि ने अपने ग्रन्थ मे इसका नाम नहीं लिया है। क्योकि उनका उद्देश्य Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २१६ जन सूत्रो की भाषा का नियमन करना नही था। हेमचन्द्र ने आप प्राकृत के अन्तर्गत इसे ग्रहण किया है और कुछ उदाहरण भी दिये है । टीकाकारो मे अभयदेव ने भी अर्धमागधी को मागधी के पूर्ण लक्षणो से युक्त नही माना। अत अर्धमागधी मागधी और शौरसेनी के कुछ लक्षणो से मिलकर बनी है। कुछ उसकी अपनी विशेषताए भी है । यथा १ दो स्वरो के मध्यवर्ती असयुक्त क के स्थान मे सर्वत्र ग और अनेक स्थलो पर त् या य् पाये जाते है। यथा-श्रावक > सावगी, आराधक >आराहत, लोक >लोय आदि। २ ग् का प्राय लोप नही होता। यथा आगम> आगम, भगवान् > भगव । ३ च और ज् के स्थान पर त् और य का प्रयोग। यथा दाचित् > कयाती, पूजा>पूता आदि। ४ शब्द के आदि, मध्य और सयोग मे सर्वत्र ण् की तरह न भी स्थित रहता है । यथा नदी>नई, शातपुत्र >नामपुत्त । ५ गृह शब्द के स्थान पर गह, घर, हर, गिह आदि आदेश । ६. अकारान्त पुलिग शब्दो के प्रथमा एकवचन मे प्राय सर्वत्र ए और क्वचित् ओ का प्रयोग। ७ धातुओ के भूतकाल के बहुवचन मे इसु प्रत्यय का प्रयोग। यथा गछिसु, पुच्छिसु इत्यादि ।५ शौरसेनी हेमचन्द्र ने ६ सूनो मे शौरसेनी भाषा का अनुशासन किया है। अन्य विशेषताओ को महाराष्ट्री के समान मान लिया है। अशोक के अभिलेखो और षड्खडागम आदि प्राचीन ग्रन्थो की भाषा मे शौरसेनी के रूप पाये जाते हैं। कृत्रिमरूपी की अधिकता नाटको की शौरसेनी मे पायी जाती है। इस भाषा की प्रमुख विशेषताए निम्न है १ त् के स्थान पर द और थ के स्थान पर ध् या ह होता है। यथा महन्त >महन्दो, यथा> जधा, नाथ >नाध, णाह आदि। २ र्य के स्थान पर य्य अथवा ज्ज होता है । यथा सूर्य>सूय्य, सुज्ज। ___३ क्त्वा के स्थान पर इय, दूण, ता, अहुअ आदि आदेश होते हैं। यया भविय, भोदूण, भोत्ता, कृत्वा> कडुअ आदि। ४ यश्रुति एव वश्रुति का प्रयोग मिलता है। यथा पदार्थ >पयत्थो, वालुका>वालुवा आदि। ५ अन्य पुरुष एकवचन मे ति को दि । यथा भवति > भोदि, होदि आदि । ६ इदानीयम् > दाणि, तस्मात् >ता आदि प्रयोग होते हैं। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा मागधी १ पुलि। मे सि प्रत्यय के परे अकार के स्थान पर एकार। यथा-- एप > एते, पुरुष >पुलिशे, कर>कले आदि। २ प एव स के म्यति पर ण का प्रयोग। यथा सारस > शालशे, मेष > भेगे आदि। ३ र काल मे परिवर्तन । यथा नर >नले आदि । ४ ज को य । यथा जानासि >याणासि, जानपदे>यणपदे। ५ छ के स्थान ५२ ५च । यथा-- -> १५च आदि। ६ दृ तथा ष्ठ के स्थान पर स्ट आदेश । यथा भट्टारिका>भस्टालिका, सुष्ठ> शुस्टु आदि। ७ क्या को दाणि आदेश । यथा कृत्वा > करदाणि । पैशाची वररुचि एव हेमचन्द्र ने पैशाची भाषा की विशेषताओ का उल्लेख किया है। आगे के वैयाकरणो ने पैशावी के भेद-प्रभेद बतलाए है। कुछ विशेप उदाहरण भी दिये है। मार्कण्डेय ने इसे शूरसेन और पाचाल की भाषा कहा है। वस्तुत यह भ्रमणशील किसी जाति विशेष की भाषा थी। इसलिए इसमे कई प्रदेशो की वोलियो के तत्व सम्मिलित है । यथा १ज्ञ के स्थान पर होता है। प्रना>५आ आदि। २ वर्ग के तृतीय व चतुर्य वर्ण का प्रथम व द्वितीय वर्ण मे परिवर्तन । यया भेष > मेखो, राजा>राचा, मदन >मतन आदि। ३ ष्ट के स्थान पर सट और स्नान के स्थान पर सन आदेश । यथा कष्ट > कसट, स्नान > सनान आदि।। ४ मध्यवर्ती क, ग, च आदि वर्णो का लोप नही होता। यथा शाखा> साखा, प्रतिभास >पतिभास आदि। हेमचन्द्र, त्रिविक्रम, लक्ष्मीवर आदि प्राकृत वैयाकरणो ने चूलिका पेशाची का भी उल्लेख किया है । पैशाची से इसमे योडा-सा अन्तर है। यथा १ र के स्थान पर विकल्प से ल। यथा गोरी >गोली, चरण>चलन, राजा>लाचा आदि। २ भ् को फ् आदेश । यथा-- भवति >फोति आदि।६।। इस प्रकार प्राकृत वैयाकरणो ने साहित्य में प्रयुक्त होने वाली विभिन्न प्राकृतो को नियमन अपने ग्रन्थो मे किया है। तथा उन शब्दो का भी अनुशासन किया है जो लोक मे प्रचलित थे। मस्कृत नाटको व प्रकरणो मे वाद मे कई प्रकार की Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २२१ भाषाओ का प्रयोग होने लगा था। अत मध्ययुग के प्राकृत वैयाकरणो ने शाकारी, ढकी, चाण्डाली, आभीरी आदि वोलियो का भी नियमन किया है। किन्तु ये सभी भापाए थोडे-सी भिन्नता के उपरान्त उपर्युक्त प्रमुख प्राकृतो के अन्तर्गत आ जाती है। अपभ्रश प्राकृत भाषाओ के अन्तर्गत वैयाकरणो ने अपभ्रश भाषा का भी नियमन किया है। उनमे हेमचन्द्र प्रमुख है । अपभ्र श भापा मे छठी शताब्दी के लगभग से साहित्य रचना होने लगी थी और १२वी शताब्दी तक यह साहित्यिक भाषा बन चुकी थी। हेमचन्द्र ने अपभ्र श को व्याकरण के नियमो से बाधने का प्रयत्न भी इसी युग मे किया था। अपभ्रश मे प्राकृत व्याकरण से भिन्न कई विशेषताए पायी जाती है । यथा -- १ यह अपभ्र श उकार वहुला होती है। २ स्वर आपस मे बदल जाते है। यथा -- सीता>सीय, माना>मेत्त, मूल्य > मोल्ल आदि। ३ आदि व्यजन मे भी अपवादस्वरूप परिवर्तन हो जाते है। यथादुहिता>धीय, यमुना> जमुना आदि। ४ कुछ व्यजन ही बदल जाते हैं। यथा क्रीड> खेल, कपर>खप्पर, दहति > डहइ। ५ शब्दरूप तथा क्रियारूप अधिक सरल है । ६ सर्वनामो मे पर्याप्त परिवर्तन हुमा है । यथा अहम् >हउ, >अहे, (वम् >तुहु ५६ आदि। ७. अनुकरणमूलक धातुओ का सर्वाधिक प्रयोग। ८ ह्रस्व स्वर को अनुस्वार । यथा दर्शन > दसण, स्पर्श> फस, अश्रु> असु आदि। ६ मकार को विकल्प से अनुनासिक । यथा - कमल > कलु, भ्रमर > भवर आदि। इसी तरह की अनेक विशेषताए हैं जो समय-समय पर अपभ्र श भाषा साहित्य मे सम्मिलित होती रही हैं, जिनका अनुशासन वैयाकरणो ने किया है । इस प्रकार प्राकृत व्याकरणशास्त्र के इतिहास मे अनेक प्राकृत भाषाओ के स्वरूप का नियमन प्राकृत वैयाकरणो द्वारा हुआ है। किन्तु उनमे अनुकरण की प्रवृत्ति अधिक है। कुछ ही ग्रन्थकारी मे मौलिकता है। कभी-कभी तो इन प्राकृत वैयाकरणो के निष्कर्ष एक-दूसरे के विरुद्ध भी पडते है । यथा भरतमुनि ने मध्य और सयुक्त व्यजन मे 'न' को 'ण में परिवर्तित माना है । जव कि हेमचन्द्र देश्यभाषा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा मे नकारादि शब्द को असम्भव मानते हैं। इसके विपरीत त्रिविक्रम देशी भाषा मे 'न' को बनाये रखने के पक्ष मे थे। यथा---'निरुप्पइ', 'अनल' आदि। अत यह आवश्यक है कि इन सब प्राकृत वैयाकरणो के अनुशासन को उपलब्ध प्राकृत भोपाओ के साहित्य के परिप्रेक्ष्य मे पुन जाचा-परखा जाय । डा० पिशल ने जो परिश्रमपूर्वक 'प्राकृतभाषाओ का व्याकरण' लिखा है उस पति पर अव पुन एक ऐसा प्राकृत व्याकरण भाष्य तयार होना चाहिए, जिसमे पिशल के अतिरिक्त एव अन्य प्राकृत कोशो के बाहर के प्राकृत शब्दो पर व्याकरण की दृष्टि से अनुसंधान सम्मिलित हो। पिछले दशक मे पर्याप्त प्राकृत-अपभ्र श साहित्य प्रकाश में आया है। उस सबका उपयोग करते हुए एक वृहत् प्राकृत व्याकरण के निर्माण की नितान्त आवश्यकता है। सदर्भ १ द्रष्टव्य, रत्नायेयान्, ‘ए क्रीटीवल स्टडी आफ महापुराण अफ पुष्पदन्त', महादावाद १९६६, पृ० ९.४८। २ स्थानागसूत्र, स्थान ७, सूत्र ५५३, विशेपावश्यक भाष्य, गाथा १४६६ की टीका। ३ प्राक् पूर्व कृत प्राकृत, वालमहिलादिसुवोध सकलभापानिवन्धमूत वचनमुच्यते । - __काव्यालकार २/१२ की टीका । ४ द्रप्टव्य, पाइयमदमहणावो, उपोद्घात, पृ० २३ आदि । ५ मुनि नगराज, 'प्राकृतभाषा उद्गम विकास और भेद प्रभेद', आनन्दापि अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ३-३१ । ६ अणुमोगदारसुत्त, सूत्र १३० । ७ वही, सून १२८ ।। ८ दुर्गाचार्य की निरक्तवृत्ति, पृ० १०, पाकटायन-व्याकरण (सूत्र १ २ ३७), यशस्तिलक__ चम्पू (म० १, पृ० ६०) आदि । ९८०य, डा० वर्नेल 'ऑन दी ऐन्द्र स्कूल आफ ग्राभेरियन्स' । १० शाह, प० अम्बालाल, जन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग ५, पृ० ६ । ११ जैन, हीरालाल , भारतीय संस्कृति मे जन धर्म का योगदान, पृ० १८३ । १२ Upadhye, A N , A Prakrit Grammar attributed to Samantabhadra Indian Historical Quarterly Vol XVII 1942, PP 511-516 १३ जन, हीरालाल, 'ट्रेसेज ओफ एन ओल्ड मीट्रिकल ग्रामर' -मारतकौमुदी (पृ० ३१५-२२) । १४. पिशेल, 'प्राकृतभापाओ का व्याकरण' (हिन्दी अनुवाद-जोशी), पृ० ६५-६६ । १५ वही, अनुवादक डा० हेमचन्द्र जोशी का फुटनोट द्रष्टव्य । १६ मायाणी, एच मी , ५उमचरिउ, भूमिका, पृ० १२१ । तथा तावच्चिय सच्दो ममइ अवघ्भम-मच-मायगो। जावण सयभु-वायग्ण-अकुसो पड६॥ ५मचरिउ, गाथा, ३-४ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २२३ १७ शाह, वही, पृ० ७० । १८ वही, पृ० ८६ । १६ द्रष्टव्य, ई०बी० कावेल का मूल लेख तया उसका अनुवाद 'प्राकृत व्याकरण सक्षिप्त परिचय', भारतीय साहित्य, १०, अक-३-४, जुलाई-अक्तूबर १९६५ । २० शाकल्यमरतकोहलपरचिभामहवसन्तराजाय । प्रोक्तान ग्रन्थान्नानालक्ष्याणि च निपुणमालोक्य ।। आव्याकीण विशदसार स्वल्पाक्षर अथितपद्यम् । मार्कण्डेयकवीन्द्र प्राकृत सर्वस्वमारमते ॥ २१ हिमवसिन्धुसोवीरान ये जना समुपाश्रिता । उकारबहुला तसस्तेपु भाषा प्रयोजयेत् ।।६२॥ २२ द्र०८०य, वैद्य, पी०एल०, 'प्राकृत प्रामर आफ त्रिविक्रम, परिशिष्ट । २३ द्रष्टव्य 'द प्राकृतलक्षणम् एण्ड चहा ग्रेमर आफ द एशिएट प्राकृत'-डा० होएनले । २४ जैन, भा० स० में जैन धर्म, पृ० १८२ । २५ पिशल, वही, पृ० ७३ द्रष्टव्य । २६ शाह, वही, पृ० ६७ । २७ कले, 'प्राकृतभाषाए और भारतीय संस्कृति मे उनका अपदान' प० २५-२६ । २८ कोवेल-पररूचि की भूमिका पृ० १० आदि, औफरष्ट-का० का० १, पृ० ३६० । २६ पिशल, वही, पृ०८७ । ३० कापडिया, पाइय भाषामो भने साहित्य, पृ० ५५ । ३१ पिशल, वहा, पृ०७१ । ३२ द्रष्टव्य, वराल द्वारा सम्पादित प्राकृत प्रकाश (मनोरमासहित), चौखम्बा प्रकाशन, वि० स० १६६६ (दि. स.) ३३ बनर्जी, एस० आर०, 'प्राकृत वैयाकरणो की पाश्चात्य शाखा का विहामावलोकन', भनेकान्त १६, १-२, १९६६ (अप्रैल-जून) ३४ द्रष्टव्य, नमिचन्द्र शास्त्री, आचाय हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन एक अध्ययन । ३५ भायाणी, एच० सी०, 'प्राकृतव्याकरणकारो' (गुजराती), भारतीयविद्या, २,४, जुलाई १९४३, पृ.० ४०१-१६ । ३६ द्रष्टव्य, सास्ती, वही, पृ० १५७-५८ । ३७ ६०८०५, उपाध्याय, शालिग्राम, 'अपभ्रश व्याकरण' तथा श्रीवास्तव, वीरेन्द्र, अपभ्रशभाषा का अध्ययन । ३८ डोल्पी नित्ति ले ग्रामरिया प्राकृत (प्राकृत के व्याकरणकार), पृ० १४७-५० । ३६ द्रष्टव्य, शास्त्री, वही, पृ० १८०-८४ ४० पडित, प्रबोध, 'हेमचन्द्र एण्ड द लिंग्विस्टिक ट्रेडिशन, महावीर जन विद्यालय सुवर्ण महोत्सवमन्थ, बम्बई, भाग-१ ४१ व्यूलर, 'इयूवर डास लेविन डेस जैन मोएशेस हेमचन्द्रा' (वियना १८८६), पृ० ७२, फुटनोट ३४ । ४२ शाह, वही, पृ० ७३-७१ । ४३ वर्मा, जगन्नाथ, 'आर्ष प्राकृत व्याकरण', काशी नागरी प्रचारिणी सभा, १६०६ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सस्कृत प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ४४ डोल्पी, 'ले प्राकृतानुशामन डे पुरुषोत्तम केहिबस', पेरिस । ४५ जन, जगदीशचन्द्र, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ६४० । ४६ द्रव्य, वैद्य, पी० एल०, 'प्राकृत ग्रामर आफ त्रिविक्रम', जीवराजग्रन्थमाला, सोलापुर, १६५४ । ४७ शास्त्री, जगन्नाथ, 'प्राकृतव्याकरणवृत्ति', चौखम्बा सीरिज, वाराणसी। ४८ त्रिवेदी, के०पी०, 'पभाषाचन्द्रिका (लक्ष्मीधर)' की भूमिका पृ० ४, पवई, १९१६ । ४६ हुल्श द्वारा सम्पादित, रायल एशियाटिक सोसायटी की ओर से सन् १६०६ मे प्रकाशित । ५० पिशल, वही, पृ० ८७ । ५१ वही, पृ० ८२ । ५२ लास्मन, 'इन्स्टीट्यून्सीओनेस' परिशिप्ट, पृ० ४० आदि। ५३ द्रष्टय, आचार्य, के सी 'प्राकृतसर्वस्व' भूमिका। ५४ प्राकृत सर्वस्व, २-५ श्लोक । ५५ पिशल, वही, पृ०८६ । ५६ प्राकृतमर्वस्व, भूमिका, पृ० १३१ । ५७ वही, पृ० १२४ ।। ५८ बनर्जी, एम० आर०, 'द ईस्टन स्कूल आफ प्राकृत ग्रेभिरियन्स', कलकत्ता, १९६४ । ५६ गोपालाचार्य, श्रीनिवाम, 'प्राकृतमणिदीप आफ अप्पयदीक्षित', ओरियन्टलरिसर्च इन्स्टीट्यूट पब्लिकेशन, मैसूर यूनिवर्सिटी, १९५४ । ६० द्रष्टव्य ---एलन्स आफ भडारकर मोरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना, जिल्द १३, पृ० ५२-५३ । ६१ उपाध्ये, ए० एन०, 'शुभचन्द्र एण्ड हिज प्राकृत ग्रामर', वही, भाग-१ पृ० ३७-५८, पूना, १९३२ । ६२ उपाध्ये, ए० एन०, 'शुमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण', अनेकान्त, २२,१, अप्रैल १९६६, पृ० ३२। ६३ डोल्पी नित्ति, हु प्राकृत कल्पतर डेस रामशर्मन् विलियोथिक 'डि ले आल हेट्स इट्यून्स, पेरिस, १६३६ । ६४ चोप, मनमोहन, रामशर्मन्स प्राकृत कल्पतरु', एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता, वि० ई० २७८ । ६५ जन, जगदीशचन्द्र, प्रा० सा० इ०, १० ६४१ । ६६ न्यू इडियन एरिक्वेरी, जिल्द ८, पृ० ३७-३६, १६४६ । ६७ प्रभाकर झा, सम्पादक-'शेपकृष्णकृत प्राकृतचन्द्रिका', प्रकाशक-ममर पब्लिकेशन, वाराणसी, १९६६ । ६८ द्रप्टव्य, 'प्राकृतानन्द पर होएनले का लेख'--प्रोसीडिंग आफ द एशियाटिक सोसायटी, ___ वगाल १८८०, पृ० ११० पिशल, (पृ० ८६) पर उद्धृत। ६६ गाह, जैन मा० वृ० इ०, माग ५, पृ० ७३ पर उद्धृत । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २२५ ७० द्रष्टव्य, वनर्जी, एम० आर०, 'चण्डीदेवाज् प्राकृतदीपिका, कमेन्टरी आफ क्रमदीश्वराज प्राकृत ग्रामर आइडेन्टीकल विद द वृत्ति आफ जुमरनन्दि, अ० भा० प्राच्यविद्या सम्मेलन, १६६८ । ७१ पिशल, वही, पृ० ८६-९२ । ७२ द्रष्टव्य - शास्त्री, प्रा० भा० सा० का इ०, पृ० ७९-८० । ७३ द्रष्टव्य, मार्कण्डेय - 'प्राकृतसर्वस्व' १२ ३८ एव क्रमदीश्वर - 'सक्षिप्तसार' आदि । ७४ द्रष्टव्य, उपासगदमाओ की टीका । ७५ शास्त्री, नेमिचन्द्र, प्रा० भा० सा० इ०, पृ० ६०-६५ । ७६ विस्तार के लिए द्रष्टव्य, पिशल, 'प्राकृतभाषाओ का व्याकरण' ७७ द्रष्टव्य, शास्त्री, देवेन्द्रकुमार, 'अपभ्रश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तिया' ७८ श्रीवास्तव, वीरेन्द्र, 'अपभ्र श भाषा का अध्ययन' ७६ जैन, देवेन्द्र कुमार, 'अपन भाषा और साहित्य' Page #254 --------------------------------------------------------------------------  Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગાઉં પ્રાકૃત સ્વરૂપ પ્રવ વર્ષ * શ્રી નકલ - - - - - માવા મનદ્ર ને અપને પ્રાકૃત વ્યારા રે વાર્ષ-વિંધયો છેવૈલ્પિત વતાયા હૈ ફસ 'નિયમ છે અનુસાર કન્હોને મામ-સૂત્રો છે ન સ્વનો નિશ નિયા હૈ, નો ની વૃદ્ધિ મે વ્યાજળ-સિદ્ધ નહી થે વાળw ૧ કુછ કયો प्रस्तुत है પબ્લેમ્સ', “બહેન” દેવોનોસાઈ-પ્રયોગ ફનમે નો ઈશાર હૈ, વહુ વ્યાવળ-સિદ્ધ નહી હૈ '' બાવળ” ફલ પ્રયો એ નો નજારો ટાર’ વરેશ હૈ, વહ ચાવળસિદ્ધ નહી હૈ - મહુવાય', બહાનાય” બાત વ્યાકરણ જે અનુસાર ભાવિ થનાર' જો નાર’ વર્ગાશ હોતા હૈ ઉલ્લુ બાર્ષ-પ્રયોમે તોપ મી છે નાતા વોનો પ્રયો ૩૩ કદાહરળ હૈં' '' ' હુવાનસરો” પ્રાકૃત વ્યવિરળ છે અનુસાર ફસ ગયો “નાર’ વર્ષાવેશ પ્રાપ્ત નહી હૈં, વિખ્ત વાર્થ કે પેલા પ્રયોજી મિત્રતા હૈ" " ''ફલૂ, વીર, સારિવ' જે બાર્ષ-પ્રયોહૈં' બાત યાવરણ અનુસાર ક્યા િળ + યુક્ત ” જો છાર’ બાવેશ દ્રોતા હૈ કંસે , છોડ, સારિઝ ' મારુ ભાષા સામાન્યત ઘ' કો જ કાર માટેના ફોત છે ” યંગયોગી કે પ્રાયવી મિત્રતા હૈ ' સાર્વ-પ્રયો કે ' જો નજાર માવેશ હોતા હૈ નવવિ જે વસે છાર’ વાવેશ વિય મયા હૈ - વાછત જાળ ને પમાન' જા મતા' વનતા હૈ આનં-કયો છે.કાને પુ મિતે હૈ સીબાગ, સુમિ | कृत व्याकरण Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा प्राकृत मे 'स्रोत' शब्द का सोत्त' रूप बनता है किन्तु आर्ष मे 'पडिसोओ' 'विस्सोअसिआ' रूप भी मिलते है । आप-प्रयोग मे सयुक्त वर्ण के अन्त्य व्यजन से पूर्व 'अकार' होता है तथा 'उकार' भी होता है । आर्ष-प्रयोग मे किरिया' पद का किया' रूप भी मिलता है। १३ आप-प्रयोग मे द्रह शब्द का हरए' रूप मिलता है।" 'कट्टु' यह आर्ष-प्रयोग है ।१५ निपात प्रकरण मे आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि आप प्रकरण मे जो प्रयोग उपलब्ध है, वे सब अविरुद्ध है ।१६ आप-प्रयोगानुसार सप्तमी के स्थान मे तृतीया तथा प्रथमा के स्थान मे द्वितीया विभक्ति भी होती है। आर्ष-प्रयोग मे सस्कृत-सिद्ध रूपो के प्रतिरूप भी मिलते है ।१० गौरसेनी मे 'ण' ननु के अर्थ मे निपात है, किन्तु आप-प्रयोगो मे वह वाक्यालकार मे भी प्रयुक्त होता है ।१८ आगम सूत्रो के व्याख्याकार व्याकरण से सिद्ध न होने वाले आर्ष-प्रयोगो को मलाक्षणिक और सामयिक कहते है। 'वत्यगध-मलकार' (दसवैआलिय २२) इस पद मे 'मलकार' का 'म' अलाक्षणिक है । हरिभद्रसूरी ने लिखा है अनुस्वार अलाक्षणिक है । मुख-सुखोपारण के लिए इसका प्रयोग किया गया है। प्राकृत व्याकरण मे सुखोच्चारण और श्रुतिसुख दोनो को महत्व दिया गया है । प्राकृत व्याकरण मे पकार के लुक का विधान है और पकार को वकार वदिश भी होता है। इन दोनो की प्राप्ति होने पर क्या करना चाहिए, इस जिज्ञासा के उत्तर मे आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है जिससे श्रुतिसुख उत्पन्न हो, वही करना चाहिए । ___दतसोहणमाइस्स' (उत्तर १६।२७)--इस पद मे भी सकार अलाक्षणिक माना जाता है। किन्तु इन सबके पीछे सुखोच्चारण तथा छदोवद्धता का दृष्टिकोण है। 'वत्यगधालकार' तथा 'दतसोहणास्स' इन प्रयोगो मे उच्चारण की मृदुता भी नष्ट होता है और छपीभग भी हो जाता है। हरिभद्र सूरी ने गोचर' शब्द को सामयिक (समय या आगमसिद्ध) बतलाया है। प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार गोचार' होना चाहिए था। २३ आगमिक प्रयोगो मे विभक्तिरहित पद भी मिलते है। गिहाहि साहूगुण मुचऽसाहू (दश० ६।३।११) यहा 'गुण' शब्द द्वितीया विभक्ति का बहुवचन है। पर यहाँ इसकी विभक्ति का निर्देश नही है। 'इगालधूमकार' इम पद मे विभक्ति नहीं है। आचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार के विभक्ति-लोप का हेतु आप-प्रयोग बतलाया है।" Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप प्राकृत स्वरूप एव विश्लेपण २२६ आप या सामयिक प्रयोग के प्रतिपादन का हेतु काल का अन्तराल है | आगम सूत्रों के कुछ प्रयोग व्याकरणसिद्ध नही है, इस धारणा के पीछे दो हेतु थे १ प्राकृत व्याकरणकारो के समय जो व्याकरण उपलब्ध थे या उन्हे जो नियम ज्ञात थे, उनसे वे प्रयोग सिद्ध नही होते थे । मे २ प्राकृत व्याकरणकार प्राकृत की प्रकृति संस्कृत मानकर चले । आगमसूत्रो बहुत सारे देशी भाषा के प्रयोग है, जिनका संस्कृत से कोई संबध नही है | इन धारणाओ से उन्होने उन प्रयोगो को अलाक्षणिक, आर्प या सामयिक कहा । यदि हम काल के अन्तराल पर ध्यान दे तो कुछ नए तथ्य उद्घाटित होगे । निशीथ भाष्य मे आगमसूलो को 'पुराण' कहा गया है । उनका विषय भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित है और उनका सकलन गणधरो द्वारा कृत है, इसलिए वे पुराण -- प्राचीन है । उनकी भाषा 'प्राकृत अर्द्धमागधी' है और उसमे अठारह देशी भाषाओ का समिश्रण है । २५ अनेक वैयाकरण आर्ष और देश्य भाषाओ को व्याकरण के नियमो से नियत्रित नही मानते | डॉ० पिशल ने इस विषय पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी की हैं "भारतीय वैयाकरण पुराने जैन-सूत्रों की भाषा को आर्षम् अर्थात् 'ऋषियो की भाषा' का नाम देते है । हेमचन्द्र ने १, ३ मे बताया है कि उसके व्याकरण के सव नियम आर्प भाषा मे लागू नही होते, क्योंकि आर्ष-भाषा मे इसके बहुत से अपवाद हैं और वह २, १७४ मे बताता है कि ऊपर लिखे गये नियम और अपवाद आर्ष-भाषा में लागू नही होते, उसमे मनमाने नियम काम मे लाये जाते है त्रिविक्रम अपने व्याकरण मे आर्ष और देश्य भाषाओ को व्याकरण के बाहर ही रखता है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति स्वतंत्र है जो जनता मे रूढि वन गई थी (रूढत्वात्) । इसका अर्थ यह है कि आर्ष-भाषा की प्रकृति या मूल संस्कृत नही है और यह बहुधा अपने स्वतंत्र नियमो का पालन करती है (स्वतन्त्रत्वा भूयसा ) । प्रेमचन्द्र तर्कवागीश ने दण्डिन् के काव्यादर्श १, ३३ की टीका करते हुए एक उद्धरण दिया है, जिसमे प्राकृत का दो प्रकारो मे भेद किया गया है । एक प्रकार की प्राकृत वह बताई गई है, जो आर्ष भाषा से निकली है और दूसरी प्राकृत वह है जो आर्ष के समान है आर्षोत्थम् आर्षतुल्यम् च द्विविधम् प्राकृतम् विदु । 'रुद्रट' के काव्यालकार २, १२ पर टीका करते हुए 'नमिसाधु' ने प्राकृत नाम की व्युत्पत्ति यो बताई है कि प्राकृत भाषा की प्रकृति अर्थात् आधारभूत भाषा वह है जो प्राकृतिक है, और जो सब प्राणियो की बोलचाल की भाषा है तथा जिसे व्याकरण आदि के नियम नियन्त्रित नही करते, चूकि वह प्राकृत से पैदा हुई है अथवा प्राकृतजन की बोली है, इसलिए इसे प्राकृत भाषा कहते हैं । अथवा इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि प्राकृत प्राक्कृत शब्दो से वनी हो । इसका तात्पर्य हुआ कि वह भाषा जो बहुत पुराने समय से चली आई Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० . संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा हो। साथ ही यह भी कहा जाता है कि वह प्राकृत जो आप शास्त्रो मे पाई जाती है अर्थात् अर्द्धमागध वह भाषा है, जिसे देवता बोलते हैं 'आरिसक्यणे सिद्ध देवाण अदमागही वाणी' । इस लेखक के अनुसार प्राकृत वह भाषा है जिसे स्त्रियाँ, बच्चे आदि विना कष्ट के समझ लेते हैं, इसलिए मध्यभाषा सब भापाओ को जड है। बरसाती पानी की तरह प्रारम्भ मे इसका एक ही रूप या, किन्तु नाना देशो मे और नाना जातियो मे वाली जाने के कारण (उनके व्याकरण के नियमो में भिन्नता आ जाने के कारण) तथा नियमो मे समय-समय पर सुधार चलते रहने से भाषा के रूप मे भिन्नता आ गई। इसका फल यह हुआ कि सस्कृत और अन्य भापाजो के अपभ्र श रूप बन गये, जो 'रुद्रट' ने २ १२ मे गिनाये हैं। यहाँ यह वात ध्यान देने योग्य है कि 'नमिसाधु' के मतानुसार संस्कृत की आधारभूत भा५। अथवा कहिए कि संस्कृत की व्युत्पत्ति प्राकृत से है । यह बात इस तरह स्पष्ट हो जाती है कि वोडो ने जिस प्रकार मागधी को सव भापाओ के मूल मे माना है, વસી પ્રકાર નૈનો ને ર્ધિમાગધી કો સચવા તૈયાર છો દારા વખત માર્ષમાવા જો यह मूल भाषा माना है जिससे अन्य वोलिया और भाषाए निकली हैं ।"२६ अर्धमागधी मे मागधी और शौरसेनी का सम्मिश्रण माना है । डा० पिशल के अनुसार मार्प और मागधी भाषा एक ही है। किन्तु निशीथ चूणिकार के अनुसार अर्धमागधी मे केवल शौरसेनी को ही नही किन्तु अतारह देशी भाषागत विशेषताए उपलब्ध हैं । इसलिए जिसे उत्तरवती वैयाकरणो ने आप कहा है, वह व्याकरण के नियमो से सर्वथा अनियतित भी नहीं है और लौकिक सस्कृत की भांति बहुत नियनित भी नहीं है । आप-प्रयोग प्राचीन व्याकरण से नियनित है । उन नियमो की जानकारी वैदिक व्याकरण के नियमो के संदर्भ मे की जा सकती है। ____ अनुयोगहार के चूणिकार ने श०५-प्रामृत या पूर्व शास्त्रों के अन्तर्गत व्याकरणो का निर्देश किया है। इससे ज्ञात होता है कि आगमसूनो की रचना के समय जो व्याकरण थे, उनके आधार पर आगमसूतो के प्रयोग किए गए। भाषा का प्रवाह और उसके प्रयोग काल-परिवर्तन के साथ-साय परिवतित होते रहते है। पन्द्रह सौ वर्ष वाद बनने वाले व्याकरणो मे उन पूर्ववर्ती व्याकरणों के नियमो का अनुवर्तन सभव नहीं होता। इसीलिए प्राचीन प्रयोगो को 'आर्ष' कहने की मनोवृत्ति निर्मित हुई। आगमसूतो मे प्राचीन व्याकरणो के कुछेक सकेत सौभाग्य से आज भी उपलब्ध है। उनके आधार पर हम अलक्षिणिक प्रयोगो को कसोटी पर कस सकते हैं। स्थानाग सूत्र मे शुद्धवचन अनुयोग के इस प्रकार बतलाए हैं। . १ पकार अनुयोग चकार शब्द के अनेक अर्थ हैं । (क) समाहार सहति, एक ही तरह हो जाना।' Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप प्राकृत स्वरूप एव विश्लेषण २३१ (ख) इतरेतरयोग मिलित व्यक्तियो या वस्तुओ का संबंध । (ग) समुच्चय शब्दो या वाक्यो का प्रयोग। (घ) अन्वाचय 'मुख्य काम या विषय साथ मे गौण काम का विषय जोडकर । (ड) अवधारण--निश्चय। (च) पादपूरण । २ मकार अनुयोग इस अनुयोग के द्वारा मकार का विधान किया गया है। यह समस्त और असमस्त पदो मे होता है। जेणा- एव = जेणामेव, तेणा+एव =णामेव । प्राकृत व्याकरण के अनुसार इनके जेणेव' 'तेणेव' रूप बनते है । 'छदनिरोहेण उवेइ मोक्ख' (उत्त० ४।८) यहां समस्त पद मे अनुस्वार किया गया है । 'अन्नमन्नण' (उत्त० १३।७) यहाँ भी मकार विहित है। ३ पिंकार अनुयोग – 'अपि' शब्द के अनेक अर्थ है, जैसे सभावना, निवृत्ति, अपेक्षा, समुपय, नहीं, शिष्यामर्षण, विचार, अलकार तथा प्रश्न । 'एवपि एगे आसासे' यहां अपि का प्रयोग ऐसे भी' और 'अन्यथा भी' इन दो प्रकारान्तो का समु-44 करता है। ४ सेयकार अनुयोग 'से' शब्द के अनेक अर्थ हैं--- अथ, वह, उसका आदि। से भिक्खू'- यहाँ 'से' का अर्थ 'अथ' है । 'न से चाइत्ति .ई' । यहाँ से का अर्थ यह (वे) है । अथवा 'सेय' शब्द के अनेक अर्थ है। श्रेयस्, भविष्यत्काल आदि। सेय मे अहिज्जिउ अज्झयण यहाँ सेय' शब्द श्रेयस् के अर्थ मे प्रयुक्त है । 'सेयकाले अकम्म यावि भवई' यहाँ सेय' भविष्यत काल का द्योतक है । डॉ० पिशल ने 'सकार' की विशद मीमांसा की है । देखेंप्राकृत भाषाओ का व्याकरण पृ० ६२२-२५। ५ सायकार अनुयोग साय शब्द के अनेक अर्थ है सत्य, सद्भाव, प्रश्न आदि। ६ एकत्व अनुयोग बहुवचन के स्थान पर एक वचन का प्रयोग । 'एस मगुत्ति पन्नत्तो' (उत्त० २८।२) यहाँ 'मग' शब्द एकवचन का प्रयोग है, जबकि यहां बहुवचन होना चाहिए था। । ७ पृथक्त्व अनुयोग जैसे धम्मत्यिकाये, धम्मस्थिकायदेसे, धम्मत्थिकायपदेसा । यहाँ 'धम्मत्यिकीयपदेसा' - इनमें दो के लिए बहुवचन नही है किन्तु धर्मास्तिकाय के प्रदेशो का असख्यत्व बतलाने के लिए है। । । ८ सयूथ अनुयोग 'सम्मत्तदसणसुद्ध' इस समस्त पद का विग्रह अनेक प्रकार से किया जा सकता है, जैसे । । । । । । । (क) सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध (तृतीया) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा (ख) सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध (चतुर्थी) (ग) , से शुद्ध (पचमी) ६ सक्रामित अनुयोग इसके अनुसार विभक्ति और वचन का सक्रम होता है। विभक्ति संक्रमण • इसिं छह जीवनिकायाण (दस० ४ २) यहाँ सप्तमी के अर्थ मे पष्ठी विभक्ति है। • वीएसु हरिएसु (दस० ५।१।५७) यहां तृतीया के अर्थ मे सप्तमी विभक्ति है। • भोगेसु (दस ० ८।३४) यहाँ पचमी के अर्थ मे सप्तमी विभक्ति है। • अदीण मणसो (उ० २।३) यहाँ प्रयमा के अर्थ मे षष्ठी विभक्ति है। • कडाण कमाण (वत्त०१३।१०) यहां पंचमी के अर्थ मे पष्ठी विभक्ति है। वचन संक्रमण • मन्ने (दस ६।१८) यहाँ बहुवचन के स्थान पर एक वचन है । • से दसगेऽभिजायई (उत्त० ३।१६) यहाँ बहुवचन के स्थान पर एकवचन है। • उच्चार समिईसु (उत्त० १२।२) __यहाँ एकवचन के स्थान पर बहुवचन है। १० भिन्न अनुयो। जैसे 'तिविह तिविहेण' यह सग्रह-वाक्य है। इसमे (१) मणेण वायाए कायेण तथा (२) न करेमि, न कारवे मि, करतपि मन्न न भमणुजागामि इन दो खडों का संग्रह किया गया है। द्वितीय ख७ नकमि आदि तीन वाक्यो में 'तिविह' का स्पष्टीकरण है और प्रथम खड मण' आदि तीन पाचागो मे 'तिविहण' का स्पष्टीकरण है। यहाँ 'न करेमि' आदि वाद में है और नणण' आदि पहने । यह कम भेद है । कालभेद - 'सक्के देविदे देवराया वदति नममति'- यहा अतीत के अर्थ मे वर्तमान की जिन्या का प्रयोग है।। ___ अनुयोगद्वार मे आ० वित्तिया पत्तलाई गई है। उनमे आठवी का नाम आमन्त्रणी है । वृत्तिकार ने न पर टिप्पणी करते हुए लिखा है इस आठवी विपनि का आधार प्राचीन वैयाकरण है । आधुनिक वैयाकरण मे प्रथमा विभक्ति Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप प्राकृत स्वरूप एव विश्लेषण २३३ ही मानते हे |" अनुयोगद्वार के चूर्णिकार ने इसी के लिए शब्दप्राभृत और पूर्व के अन्तर्गत व्याकरण का निर्देश किया है । आप प्राकृत का वैदिक व्याकरण से साम्य पाया जाता है ।" इससे भी यह प्रमाणित होता है कि उसके नियम प्राचीन व्याकरणो से सबद्ध है । अनुयोगद्वार मे लिंगानुशासन के नियम भी मिलते है पुल्लिंग राया, गिरि, सिहरी, विण्हू, दुमो । स्त्रीलिंग - माला, सिरी, लच्छी, जवू, बहू | नपुसलिंग धन्न, अस्थि, पीलु, महु । प्रज्ञापना मे लिंग-विपयक निर्देश अनुयोगद्वार से अधिक विशद मिलते है - १२ पुल्लिंग मणुस्से, महिसे, आसे, हत्थी, सीहे, वग्धे, वगे, दीविए, अच्छे, तरछे, परम्स रे, सियाले विराले, सुणए, कोलसुणए, कोक्कतिए, ससए, चित्त, चिल्ललए । " स्त्रीलिंग मणुस्सी, महिसी, बलवा, हत्थिणिया, सीही, वग्धी, वगी, दीविया, अच्छी, तरच्छी, परस्सरा, सियाली, विराली, सुणिया, कोलसुणिया, कोक्कतिया, ससिया, चितिया, चिल्ललिया ३५ नपुंसकलिंग -- कम, कमोय, परिमंडल, सेल, थूम, जाल, थाल, तार, रूव, अच्छि, पव्र्व, कुड, परम, दु, दहि, णवणीय, आसण, सयण, भवण, विमाण, छत्त, चामर, भिंगार, अगण, निरंगण आभरण, रयण । १६ 'पुढवी' यह स्त्रीलिंग है । 'आउ' यह पुल्लिंग है । 'धण्ण' यह नपुसकलिंग है।" प्राकृत में लिंग का विधान इतना नियंत्रित नही है जितना संस्कृत मे है । 'आई' का संस्कृत रूप 'अप्' होता है । संस्कृत मे यह स्त्रीलिंगवाची शब्द है और प्राकृत मे पुल्लिंगवाची । प्राकृत का प्रसिद्ध सूत्र है लिंगमतन्त्रम् ।' प्रज्ञापना मे सोलह प्रकार के वचनो मे एकवचन द्विवचन और बहुवचन - इन तीनो का निर्देश है ।" यह निर्देश मस्कृत-व्याकरणानुसारी प्रतीत होता है । प्राकृत व्याकरण के सदर्भ मे एक वचन और बहुवचन ये दो ही निर्देश मिलते है मणुस्से, महिसे यह एकवचन है ।" मणुस्सा महिसा यह वहुवचन है । इस प्रसग मे द्विवचन का उल्लेख नही है । द्विवचन को बहुवचन का आदेश" इसलिए करना पड़ा कि उन्होने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति मान लिया । किन्तु जो आचार्य जनभाषा को प्राकृत की प्रकृति मानते हैं, उनके सामने द्विवचन को बहुवचन का आदेश करने का प्रश्न ही उपस्थित नही होता । वर्णमाला प्राकृत भाषा के साथ ब्राह्मी लिपि का घनिष्ठ सवध रहा है । समवाय सूत्र मे उसकी वर्णमाला के ४६ अक्षर बतलाए गए है ।" उनका स्पष्टीकरण वहा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा प्राप्त नहीं है। वृत्तिकार अमयदेवसूरि ने सभावित रूप से छियालीस मातृकाक्षरो की जानकारी इस प्रकार दी है" * ऋ ल ल इनका वर्जन कर शेष १२ स्वर। क से म तक व्यंजन (५४५) = २५ अन्तस्य य र ल व ऊष्म श प स ह - K क्ष आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्राकृत वर्णमाला के अक्षर ३८ होते हैं। उनके अनुसार प्राकृत मे *, ऋ, लु, ल, ऐ, औ, अ ये स्वर तथा ड, ब, श, प व्यजन नहीं होते। स्ववर्य सयुक्त ड और न को मान्य किया है। ऐ और औ को भी मतान्तर के रूप मे मान्य किया है। मागधी मे दन्त्य मकार के स्थान पर तालव्य शकार होता है। इस प्रकार पाच वणों के बढ जाने पर वर्णमाला के अक्षर ४३ हो जाते है । तीन वर्गों के प्रयोग आधुनिक प्राकृतो में नहीं मिलते। पालि व्याकरण मे ४१ अक्षर निर्दिष्ट है अ आ इ ई उ ऊ ए ओ। क ख ग घड। च छ ज झ न । ट ठ ड ढ ण त थ द ध न । प फ ब भ म । य र ल व । स प ह ळ अ । आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण मे ड और न इन दोनो वों को वजित माना है, किन्तु पालि व्याकरण मे ये दोनो मान्य हैं। सत्यवचन के साथ व्याकरण का सबंध माना गया है। सत्यभापी को नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्धित, समास, सन्धि, पद, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविवान, धातु, स्वर, विभक्ति और वर्ण को वोध होना चाहिए । सत्यवचन इनके वोध से युक्त होता है । ५० इस प्रतिपादन से ज्ञात होता है कि व्याकरण-वोध की अनिवार्यता प्राचीनकाल से मानी गई है। दशवकालिक के आचार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद इन तीनो शब्दो का अर्थ चूणि और टीकाकाल तक व्याकरण से संबंधित था। अगस्त्यमिह स्थविर ने आचारधर और प्रतिघर का अर्थ भाषा के विनयोनियमों को धारण करने वाला किया है। जिनदास महत र के अनुसार 'आचारधर' शब्दो केनि. को जानता है ५२ टीhi 1• ने भी यही अर्थ किया है। प्रप्तिधर का अर्थ लिंग का विशेष जानकार और दृष्टिवाद के अध्येता का अर्थ प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्णाधिया, कान, १२ आदि व्याकरण के अगो को जानने वाला किया है।५१ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' आप प्राकृत स्वरूप एक विश्लेपण २३ उक्त उद्धरण आपप्राकृत के प्राचीन व्याकरण की ओर इंगित करते है आर्षप्राकृत के वदिश और 'श०८ भी आधुनिक प्राकृत व्याकरण से भिन्न है आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार दकार को तकार आदेश होता है दिन = मतन सदन ==सतन, प्रदेश = प्रतेश ।५४ किन्तु आर्षप्राकृत मे अनेक स्वरो तथा व्यजन के स्थान मे तकार आदेश मिलता है एरावण तेरावण (सून कृता। १।६।२१ ) । मुसावाय मुसावात , ११।१०) । साहुक साहुतं' ' (. , १२११।३३) विसएसण विसतेसण (... , ११।२८) ओरभिए तारभिए । - ....... " २।२।१६ ) काय कात (f , २।२।४ ) समए समते । । ।(, । " २।२।१६ ) रुईण तीण ! । । ' (,, , २।२।१८ ) ઉદ્ધત્વાકેશ आर्ष-प्रयोगो मे कुछ द्वित्वादेश ऐसे है, जो प्राकृत व्याकरणो से सिद्ध नहीं होते सति = सचित्त, । अवित्त अचित्त, सगडभि = स्वकृत भिद् तहकार तयाकार, काय गिरा ' कायगिरा, पुरिस+कार=पुरुषका अणुव्वस =अनुवश, अल्लीण =आलीन' . . हस्वादेश प्राकृत व्याकरण के अनुसार सयुक्त वर्ण.से.पूर्व दीर्घ वर्ण हस्व हो जाता है : किन्तु आर्ष प्राकृत मे यह नियम लागू नहीं होता। प्राचीन आदर्शों में कुछ रूप आज भी सुरक्षित है, जिनमे सयुक्त वर्ण से पूर्व दीर्घ वर्ण उपलब्ध है . ओगह गह→अवग्रह - - . . । पागल+पुगल→पुद्गल - . ।। एक्क+इकएक एत्तो+इत्तो+इत । - ।। . .. , आगम सूत्रो की मूलभाषा अर्धमागधी रही है। देवद्धिगणी ने आगमो का नया सस्करण पल्लभी मे किया था। महाराष्ट्र मे जैन श्रमणो का विहार होने लगा। उस स्थिति मे आगमसूत्रो की अर्धमागधी भाषा महाराष्ट्री से प्रभावित हो गई। आचार्य हेमचन्द्र का विहार-स्थल भी मुख्यात गुजरात -था। वह महाराष्ट्र का समीपवर्ती प्रदेश है। उन्होने महाराष्ट्री के प्रचलित प्रयोगो को अपने प्राकृत व्याकरण मे प्रमुख स्थान दिया । 'अर्धमागधी के उन प्राचीन रूपो, जो उस समय तक आगमो मे सुरक्षित थे, को आर्ष प्रयोग के रूप मे उल्लिखित किया। मूलत प्राचीन आगम-सूत्रो (आयारो, 'सूयगड, उत्तरज्झयणाणि 'आदि) की भापा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सर कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा महाराष्ट्रीय नही थी, किन्तु उत्तरकालीन आगमो तथा उनके व्याख्याअन्यों की भाषा महाराष्ट्री हो गई। सभी जैन आगमो की भापा न अर्धमागधी है और न महाराष्ट्री और आर्ष प्राकृत का अध्ययन करते समय यह तथ्य विस्मृत नहीं होना चाहिए। सदर्भ १ हेमादानुशासन, ८।१।३ आ हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते । २ , , ८१७६ आ अन्यत्रापि । पच्छे म । असहज्ज देवासुरी। ३ । । ८.११७७ आ अन्यदपि दृश्यते । आपु-चन आउण्टण । बन प4 टत्वम् । ८।१२४५ मा लोपोपि । ययाख्यातम्-महखाय । यथाजातम् महाजाय ॥ ८।१।२५४ आर्षे दुवालसर्ग इत्यापि । ८।२।१७ आर्ष ३५खू, खीर, सारिक्वमित्याद्यपि दृश्यते । सारा३ क्ष ख पचित्तुजसी । ८-२।२१ आ तथ्ये चोपि तच्च । ८१२१९६ मार्षे श्मशानशब्दस्य सोमाण सुसाणमित्यपि भवति । ८।२।६८ मा पहिसोओ विस्सोमसिमा । ८।२।१०१ मा सूक्ष्मेऽपि, सुहम । ८।२।११३ आर्षे सूक्ष्मम्, सुहुम । ८।२।१०४ किरिआ, आर्षे तु हय नाण कियाहीण । सा२।१२० आर्षे हरए महपुण्डरिए। ८।२।१४६ कटु इति तु आयें। ८।२।१७४ मा तु यथादर्शन समविरुदम् । १७ (क),,, ८।३।१३७ आ तृतीयापि दृश्यते । प्रथमाया अपि द्वितीया दृश्यते । (ख), ८३१६२ आ दविन्दो इणम०ववी इत्यादी सिद्धावस्याश्रयणात् हस्तन्या प्रयोग । १८ हेमशब्दानुशासन, ८१४१२८३ मा वाक्यालकारपि दृश्यते । १६ दशकालिक, हारिभद्रीया वृत्ति, पन ८६ अनुस्वारोऽलाक्षणिक । मुखसुखोपारणार्थ । २० हेमशब्दानुशासन, ८।१।१७७ क-ग च-ज-त-द-प-य वा प्रायो लुक् । २१. ॥ ॥ ८।१।२३१ पोव । २२ , , ८११२३१ वृत्ति-एतेन पकारस्य प्राप्तयोलापविकारयोस्मिन् कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तन कार्य । २३ दशकालिक, हारिभद्रीया वृत्ति पन १६ सामयिकत्वात् गोरिव परण गोचर अन्यथा गोचार । २४ पिनियुक्ति, गाथा १, वृत्ति-सूने च विभक्तिलोप आपत्वात् । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ निशीथभाष्य, गाथा ३६१८ पोराणमद्धमा गहमासाणियय हवति सुत || चूर्णि - तित्ययरभासितो जस्सत्थोगधो य गणधरणिबद्धो त पोराण | महवा-पायर्यबद्ध पोराण, मगहऽद्धविसयभासणिबद्ध अद्धमाह । अधवा-अट्ठारसदेसी भाखाणियत अद्धमागध भवति सुत्त २६ डा० पिशल- प्राकृत भाषाओ का व्याकरण पृ० २५, २६ । २७ अनुयोगद्वार चूर्णि पृ० ४७ वागरणादिसु । २८ ठाण १०६ २६ विशेष विवरण के लिए देखें (१) दशवंकालिक एक समीक्षात्मक अध्ययन, व्याकरण-विमर्श | (२) उत्तराध्ययन एक समीक्षात्मक अध्ययन, व्याकरण-विमर्श । "" ३० अनुयोगद्वार, मलयधारीया वृत्ति पत्र १२३ वृद्धर्वयाकरण दशनेन चेयमष्टमी गण्यते एयुगीनाना त्वसौ प्रथमैवेति मन्तव्यमिति । ३१ देखें - डा० पिशल, प्राकृत भाषाओ का व्याकरण, पृ० ८, ६ टिप्पण | ३२ मणुयोगद्दाराइ, सूत्र २६४ ॥ ३३ पण्णवणा पद ११ । ३४ पण्णवणा पद ११, सूत्र २१ । ३५ सूत्र २३ । ३६ सूत्र २४ । सूत्र २६ । " " ,, " 33 33 आर्ष प्राकृत स्वरूप एव विश्लेषण २३ "1 "1 वित्थरो सि सहपाहुडातो णायव्वो पुव्वणिग्गतेसु व ३७ ३८ पण्णवणा ११८६ | ३६. ११।२१ । ११।२२ । ४० " ४१ हेम० श० ८।३।१३० द्विवचनस्य बहुवचनम् । ४२ 11 51919 प्रकृति संस्कृतम् । तत्र भव तत आगत वा प्राकृतम् । 37 ४३ वृहत्कल्प भाष्य १२, मलयगिरि वृत्ति ४४ समवाय, ४६।२ प्रकृतो भव प्राकृत स्वभावसिद्धमित्यर्थं । ४५ समवायागवृत्ति, पत्र ६५ ४६ हेम० श० ८1१19 ४६ हेम० श० ८ 1919 मो स्ववग्यं सयुक्तो भवत एव । एदोती च केषाचित् कंतवम् कैअव सोन्दर्यम्, सोमर, कोरवा । ४८ ,,,, ८|४|२८८ मागध्या रेफस्य दन्त्यसकारस्य च स्थाने यथासस्य लकारस्तालव्य शकारश्च भवति ॥ ४६ कच्चायन व्याकरण १।१।२ अक्खरापादयो एकचत्तालीस | ५० पण्हावागरणाई ७|१४ नामवखाय-निवासोवसग्ग-तद्धिय-समास-सधि-पद- हेउ-जोणिय उणादि-किरियाविहाण-धातु-सर- विभत्तिवण्णजुत्त । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ५१ दशवकालिक ८।४६, मगम्त्यसिंह स्थविर चूणि वयणनियमणमायागे। " मायारधरो भासेना तेसु विणीतभामाविणओ, विसेसेण पन्नत्तिधरो एत पयलगवण्णविवज्जासे ण अवधसे । ५२ दशवकालिक ८।४६, जिनदाममहत्तर चूणि, पृ० २८६-आयारधरी ३त्योपुरिगण सग लिगाणि जाण । ५३ दशवकालिक, हारिभद्रीय टीका पन २३६ आचारघर स्त्रीलिंगादीनि जानाति, प्राप्तिकर स्तान्येव मविशेपाणीत्येव भूतम् । तथा प्टिवादमधीयान प्रकृतिप्रत्यय नोपागमवावकार कालकारकादिवेदिनम् । ५४ हेम० श० ८१४१३८७ तदोस्त । ५५ , , ८१।८४ हस्व सयोगे । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक युग में प्राकृत व्याकरणशास्त्र का अध्ययन-अनुसन्धान डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' प्राकृत भारोपीय भापा परिवार की भारतीय आर्यशाखा की प्राचीनतम और अन्यतम भापा मानी जाती है। वैदिककाल मे वह एक जनबोली थी, जो क्रमश विकसित होती गई और पालि-प्राकृत तथा अपभ्र श के सोपानो को पार करती हुई आधुनिक आर्य भाषाओ के विविध रूपो मे प्रतिष्ठित हुई। अत भापाविज्ञान के आधार पर यह तय्य प्रस्तुत किया जा सकता है कि वर्तमान जनबोलियो का सीधा सम्बन्ध पालि-प्राकृत भापाओ से अधिक है। उनका परिनिष्ठित रूप भले ही सस्कृत के परिसर मे उपलब्ध हो सकता है। ___सदियो से प्राकृत भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ मे विवाद के स्वर,गू जते रहे हैं । प्राकृत और सस्कृत इन दोनो भाषाओ मे प्राचीनतर, तथा मूल भाषा कौनसी है ? इस प्रश्न के समाधान मे दो पक्ष प्रस्तुत किए गए है। प्रथम पक्ष का कथन है कि प्राकृत की उत्पत्ति सस्कृत से हुई है तथा दूसरा पक्ष उसका सम्बन्ध किसी प्राचीन जनभाषा से स्थापित करता है । प्राकृत व्याकरण-शास्त्र मे दोनो पक्षो का विश्लेषण इस प्रकार मिलता है - १ प्रथम पक्ष (1) प्रकृति संस्कृतम् । तत्र भव तत आगत वा प्राकृतम् -हेमचन्द्र । ' (11) प्रकृति सस्कृतम्, तत्र भव प्राकृतम् उच्यते मार्कण्डेय । । (iii) प्रकृते सस्कृताया तु विकृति प्राकृती मता नरसिंह। (iv) प्राकृतस्य तु सर्वमेव सस्कृत योनि वासुदेव । (v) प्राकृते आगतम् प्राकृतम् । प्रकृति संस्कृतम् धनिक । । (vi) मस्कृतात प्राकृत श्रेष्ठ ततोऽपभ्र शभापणम् शकर । (vii) प्रकृते सस्कृताद् आगत प्राकृतम् - सिंहदेवगणिन् । ' Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ( VI11 ) प्रकृति संस्कृतम्, तत्र भवत्वात् प्राकृतम् स्मृतम् पिटसन ( प्राकृतचन्द्रा ) २ द्वितीय पक्ष ( 1 ) 'प्राकृतेति' सकलजगज्जन्तूना व्याकरणादिभिरना हित सरकार सहजो वचनव्यापार प्रकृति, तत्र भव सैव वा प्राकृतम् । 'आरिनवयवो सिद्ध देवाण अद्धमागहा वाणी' इत्यादि वचनात् वा प्रा पूर्व कृत प्राक्कृत वालमहिलादिमुबोध मलमापानिवन्यभूत वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैक स्वरूप नदेव च देशविशेपात् मस्कारकरणाच्च नमासादितविशेष सत् संस्कृताद्युत्तर विभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादी निर्दिष्ट तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन सस्करणात् संस्कृतमुच्यते - नमिसाधु । ( 11 ) सयलाओ इम वाया विसति एतो य णेंति वायाओ । एति समुद्द चिय णेति सायराओ च्चिय जलाइ || वाक्पतिराज | ( 111 ) या योनि किल संस्कृतस्य सुदृशा जिह्वामु यन्मोदते । राजशेखर उपर्युक्त दोनो पक्षो का विश्लेषण हम इस प्रकार कर सकते हैं कि प्राकृत वस्तुत जनबोली थी, जिसे उत्तरकाल मे संस्कृत के माध्यम से समझने-समझाने का प्रयत्न किया गया । प्राकृत भाषा के समानान्तर वैदिक संस्कृत अथवा छान्दम भाषा थी, जिसका साहित्यिक रूप ऋग्वेद और अथर्ववेद मे विशेष रूप से दृष्टव्य है । यास्क ने इसी पर निरुक्त लिखा और पाणिनि ने इसी को परिष्कृत किया । विडम्वना यह है कि प्राकृत के प्राथमिक रूप को दिग्दर्शित कराने वाला कोई साहित्य उपलब्ध नही, जिसके आधार पर उसकी वास्तविक स्थिति समझी जा सके । हा, यह अवश्य है कि प्राकृत के कुछ मूल शब्दो को वैदिक मस्कृत मे प्रयुक्त शब्दों के माध्यम से समझा जा मकता है । वैदिक रूप विकृत, किंकृत, निकृत, दन्द्र, अन्द्र, प्रथ्, ग्रथ्, क्षुद्र क्रमश प्राकृत के विकट, कीकट, निकट, दण्ड, अण्ड, पठ, घट, क्षुल्ल, रूप थे जो धीरे-वीरे जनभाषा से वैदिक साहित्य मे पहुच गए। इन शब्दो और ध्वनियों से यह कथन अतार्किक नहीं होगा कि प्राकृत जनबोली थी, जिसे परिष्कृतकर छान्दस भाषा का निर्माण किया । जनबोली का ही विकास उत्तरकाल मे पालि, प्राकृत, अपत्र ण और आधुनिक भारतीय भाषाओ के रूप मे हुआ । तथा छान्दस भाषा को पाणिनि ने परिष्कृत कर लौकिक संस्कृत का रूप दिया साधारणत लौकिक संस्कृत मे तो परिवर्तन नही हो पाया पर प्राकृत जनबोली सदैव परिवर्तित अथवा विकसित होती रही । संस्कृत भाषा को शिक्षित और Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान : २४१ उपवर्ग ने अपनाया तथा प्राकृत सामान्य समाज की अभिव्यक्ति का साधन बना रही । यही कारण है कि सस्कृत नाटको मे सामान्य जनो से प्राकृत मे ही वार्तालाप कराया गया। ____ डा० पिशल ने होइफर, लास्सन, याकोबी, भडारकर आदि विद्वानो के इस मत का सयुक्तिक खण्डन किया है कि प्राकृत का मूल केवल सस्कृत है । उन्होने सेनार से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि प्राकृत भापाओ की जड़ें जनता की बोलियो के भीतर जमी हुई हैं और उनके मुख्य तत्त्व आदि काल मे जीती-जागती और बोली जाने वाली भाषा से लिए गए हैं, किन्तु बोलचाल की वे भाषायें, जो बाद को साहित्यिक भाषाओ के पद पर चढ गईं, सस्कृत की भाति ही बहुत ठोकीपीटी गई, ताकि उनका एक सुगठित रूप बन जाय । अपने मत को सिद्ध करने के लिए उन्होने सर्वप्रथम वैदिक शब्दो का प्राकृत शब्दो से साम्य बताया और बाद मे मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय बोलियो मे सनिहित प्राकृत भाषागत विशेषताओ को स्पष्ट किया। इसमे कोई सन्देह नहीं कि जिस प्रकार वैदिक भाषा उस समय की जनभाषा का परिष्कृत रूप है, उसी प्रकार साहित्यिक प्राकृत भी प्राकृत बोलियो का परिस्कृत रूप है। उत्तरकाल मे तो वह सस्कृत व्याकरण, भाषा और शैली से भी प्रभावित होती रही। फलत लम्बे-लम्बे समास और सस्कृत से परिवर्तित प्राकृत रूपो का प्रयोग होने लगा। प्राकृत व्याकरणो की रचना की आधारशिला मे भी इस प्रवृति ने काम किया। प्राकृत भाषा पर देशी-विदेशी विद्वानो ने काफी अध्ययन अनुसन्धान किया है, फिर भी उसे हम सपूर्ण नहीं कह सकते । अध्ययन कभी सम्पूर्ण होता भी नहीं । यहा हम प्राकृत भाषा और व्याकरणशास्त्र पर जो भी पाश्चात्य विद्वानो ने कार्य किया है, उसका सक्षिप्त सर्वेक्षण प्रस्तुत कर रहे है। हम अपने इस सर्वेक्षण को स्थूलत पाच भागो मे विभाजित कर सकते हैं। १. भाषाविज्ञान के आधार पर प्राकृत भाषाओ का अध्ययन । २ प्राकृत व्याकरणो का अध्ययन । ३ प्राकृत भाषाओ पर आधुनिक भाषाओ मे लिखे गए व्याकरण । ४ प्राकृत भाषाओ का आलोचनात्मक अध्ययन । ५ सस्कृत नाटको मे प्रयुक्त बोलियो का अध्ययन । १ प्राकृत भाषाओ का भाषावैज्ञानिक अध्ययन प्राकृत भाषाओ ने पाश्चात्य विद्वानो को अपनी विशेषताओ की ओर १९वी शताब्दी के मध्यकाल मे आकर्षित किया। A Hoefer सम्भवत प्रथम विद्वान् रहे होगे जिन्होने १८३६ मे Berotini से De Prakuta Dialecto Libri duo Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा प्रकाशित किया। इसमे उन्होने प्राकृत भाषाओ का भाषाविज्ञान की दृष्टि से विशेष अध्ययन किया और सस्कृत को उसका मूल उद्गम सिद्ध करने का प्रयत्न किया । J Beames ने भी Outlines of Indian Philology (द्वितीय मस्करण, १८६८) मे गोरसेनी से कुछ उदाहरण देकर यही निष्कर्ष निकाला । इसके बाद G Goldschamidt ने Bildungen aus Passive Stammen in Prakrit (Seitscrhift, der deutschen morgenlanelischen Gesellschrift Vol. XXIX, PP. 491-495, Vol XXX, P. 779 Leipzig, 1875-1876) 791 Der infininitive des passive in Prakrit, ZDMG, Vol XXVIII, P,491-493, Leipzig, 1874) मे प्राकृत के कर्मवाच्य पर विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया। E Muller ने आर्य भापाओ के विकास में प्राकृत भाषाओ का महत्व प्रदशित करते हुए प्राकृत की रूपिम विशेषताओ को उपस्थित किया। (Beitrage, Zer Grammatik des Jaina Prakrit, Berlin, 1876) A. F Rudolf, Hoernle 41 A Sketch of the History of Prakrit Philology (CR. LXXI, Art. 7, 1880) नामक अन्य भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । इसी बीच Wilson ने बबई विश्वविद्यालय मे भाषाविज्ञान पर कुछ भाषण दिए, जिनमे उन्होने सस्कृत भाषा के विकास को स्पष्ट करते हुए प्राकृत और आधुनिक भापाओ की सरचना पर प्रकाश डाला। John Beams ने १८७२ से १८७९ के वीच कुछ भाग प्रकाशित किए, जिनमे उन्होने आर्य भाषाओ की विकासात्मक स्थिति को स्पष्ट करते हुए उन पर प्राकृत भाषाओ के प्रभाव को परिलक्षित किया। H Jacobi Uber Unregelmassige Passive in Prakrit, (Kuhne's Zeitschift fur deutcshen morgenlandischen cesellschaft, Vol XXXIII, P 249-259, Gutersloh, 1887) तथा Uber das Prakrit in der Erzahlungs – Literatur der Jainas (Rivista degli studi Orientali, Vol II PP 231-236, Roma, 1908-1909) भी यहा उल्लेखनीय हैं, जिनमे उन्होने प्राकृत की विभिन्न विशेषताओ को भाषाविज्ञान के क्षेत्र मे अध्ययन का विषय बनाया। हरिभद्रमूरि की सम राइ कहा तथा विमलसूरि के पउमचरिय के अध्ययन के आधार पर यह निश्चित करने का प्रयत्न किया कि जैन महाराष्ट्री प्राकृत के गद्य और पद्य साहित्य की विशेषताए पृथक-पृथक हैं। ____R Pischel ने 1900 मे Strassburg से Grammatik der Prakrit sprachen (Grundriss der indo-arischen Philologie un Altertums Kunde, Band I, Heft 8) प्रकाशित कर भापावैज्ञानिको को प्राकृत Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान • २४३ का अध्ययन करने के लिए और भी प्रेरित कर दिया। यहा लेखक ने यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्राकृत जैन आगमो की भाषा को अर्धमागधी नाम दिया जाना चाहिए, जैन प्राकृत नही। इसी प्रकार महाराष्ट्री जैन प्राकृत के स्थान पर सौराष्ट्री जैन प्राकृत तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राकत आगम ग्रन्थो की भाषा को शौरसेनी जैन प्राकृत कहा जाना चाहिए। Sten Konow (I R A S 1901) ने भी प्राकृत भाषाओ का भाषाविज्ञान की दृष्टि से अध्ययन किया । T Burrow का Sanskrit Language (London) तथा J Bloch का फ्रेञ्च मे लिखित 'ल' ऑर्दा एरिया (भारतीय आर्यभाषा) आदि जैसे ग्रन्थो का भी यहा उल्लेख किया जा सकता है, जिनमे विद्वानो ने प्राकृत के विभिन्न विकासात्मक सोपानो को स्पष्ट करते हुए भारतीय भाषाओ के विकास मे उनके योगदान की चर्चा की। Alsdorf का Origins of New Indo-Aryan languages लेख भी महत्त्वपूर्ण है। इसी सन्दर्भ मे हम हल्श के Inscriptions of Ashok (Oxford, 1925), दूलर के Ashoka's text and Glossary (कलकत्ता, १९२४), Bloch के Ashoka a la Magadhi (BSOS, VI, 2, 1932) जैसे कार्यों का भी उल्लेख करना चाहेगे, जिनमे शिलालेखो की प्राकृत का विचार किया है। इन विद्वानो ने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि प्रस्तर-लेखो पर प्राकृत का बहुत प्रभाव ५डा है और ये विशेषताये केवल साहित्यिक प्राकृत मे ही मिलती हैं। इन प्रस्तरलेखो की भाषा मे कुछ कृत्रिमता दिखाई देती है। फिर भी वे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं प्राकृत के विकास को समझने की दृष्टि से।। २ प्राकृत-व्याकरणो का अध्ययन-अनुसन्धान प्राकृत-व्याकरणो को साधारणत: दो सम्प्रदायो मे विभक्त किया गया है पूर्वी और पश्चिमी । पूर्वी सम्प्रदाय का नेतृत्व वररुचि करते हैं और पश्चिमी सम्प्रदाय का हेमचन्द्र । पाश्चात्य विद्वानो ने इन दोनो सम्प्रदायो पर काम किया है। पूर्वी व्याकरण-सम्प्रदाय पर शोध प्रारम्भ करने का श्रेय Cl Lassen को दिया जा सकता है जिन्होने १८३७ मे Bonnae से Institutions linguae Pracritieae नामक ग्रन्य प्रकाशित किया। इसके प्रथम खण्ड में हेमचन्द्र आदि प्राकृत-वैयाकरणो तथा मागधी आदि प्राकृत बोलियो पर विचार किया गया है। दूसरे खण्ड मे वररुचि के प्राकृत प्रकाश के प्रथम चार अध्याय प्राकृत-सस्कृत अनुक्रमणिका के साथ प्रस्तुत किए गए हैं । ग्रन्थ का तृतीय खण्ड मागधी, पैशाची, अपभ्रश आदि प्राकृत बोलियो के विवेचन पर आधारित है। १८३६ मे N Delius ने Radices Pracratcae का वही से प्रकाशन किया। इसमे लेखक ने पररुचि के आठवे अन्याय पर अपना अध्ययन विशेषत केन्द्रित किया। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की ५५-परा इन दोनो ग्रन्थो से प्रेरणा पाकर E B Cowcll ने बरमचि के प्राकृतप्रकाश की छह प्रतियो के आधार पर सर्वप्रथम गपादितकार भामह की प्राचीनतम मनोरमा टीका के साथ १८५४ मे Hertvhrd मे प्रकाशित किया। वही मे मी का द्वितीय सस्करण १८६८ मे और कलकत्ता ने तृतीय म-कण १९६२ में हुआ। Cowell ने अपनी भूमिका में प्राकृत व्यान.२.पी-विशेषत. वाचि और हेमचन्द्र की --का सर्वेक्षण किया। मूल के माय ही अग्रेजी अनुवाद और पाच परिशिष्ट भी जोडे गये । इन परिशिष्टो में एक परिशिष्ट ऐमा भी है जिनमें हेमचन्द्र द्वारा लिग्वित गोरमेनी प्राकृत के नियम-नून सवालिन यि ये है और अन्य मे हेमचन्द्र के ही स्वर नविगत मूत्रो को रख दिया गया है। अन्त में एक विस्तृत शब्दसूची दी गई है जिसमे प्राकृत गन्दो की मस्कृत छाया भी गमाहित कतिपय विद्वान् चाड के प्राकृत लक्षण को वरचि से भी पूर्ववत्ती मानने है । प्राकृत लक्षण का सर्वप्रथम म-पादन I Hocrnle ने किया जो १८८० मे कलकत्ता से The Prakrit Lakshanam or Chanda's Grammer of the ancient (714) Prakrit, Pt I text with a critical introduction and indexes नाम से प्रकागित हुआ। इसका सम्पादन चार प्रनियो के आधार पर हुआ | Hoernle की दृष्टि मे चड ने आप (अर्थ मागवी महाराष्ट्री) ०. करण लिखा है और यह चण्ड वररुचि से पूर्ववर्ती है। परन्तु Block ने अपने Vararuci Unt Hemachandra शीर्षक निवन्ध मे इस मत का खण्डन किया और कहा कि चण्ड ने अपना व्याकरण हेमचन्द्र आदि अनेक वैयाकरणो से उधार लिया है। इतना ही नहीं, उसमे अशुद्धिया भी बहुत है। पिशेल ने इन दोनो मतो का खण्डन किया और कहा कि चण्ड उतना प्राचीन नहीं जितना Hoernle मानते हैं । चण्ड ने प्रथम श्लोक मे ही 'वृहमतात्' शब्द का प्रयोग कर यह स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने पूर्ववर्ती वैयाकरणो का आधार लिया है। यह श्लोक क्षेपक या प्रक्षिप्त नही बल्कि लगभग सभी प्रतियो मे उपलब्ध है। उन्होने अपने ग्रन्य मे महाराष्ट्री, अर्धमागधी, जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी के सामान्य नियमो को प्रस्तुत किया है । व्यूलर ने इस ग्रन्य की समीक्षा "साइटश्रिफ्ट डेर मौन लेण्डिशन गेजेलशाफ्ट' मे प्राकृत भाषान्तर विधान कहकर की है। कमदीश्वर का सक्षिप्तसार हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के आधार पर लिखा गया है। इसके अध्यायो को प्राकृतपाद कहा गया है। प्रथम सात प्राकृत पाद मे सस्कृत व्याकरण और अण्टमपाद मे हेमचन्द्र के समान प्राकृत व्याकरण को निबद्ध किया है। इस व्याकरण का सर्वप्रथम सम्पादन Lassen ने १८३६ मे 'इन्स्टीट्यूत्सीओनेस' मे किया जिसका कुछ भाग राडियत प्राकृतिका ए (वीन्नाए Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान . २४५ आर्डरनुम) नाम से प्रकाशित हुआ । क्रमदीश्वर ने इस पर स्वोपज्ञ टीका लिखी और चण्डीदेव शर्मन् ने प्राकृत दीपिका लिखी है । क्रमदीश्वर का समय १२-१३ वी शती मानी जाती है। पुरुषोत्तम के प्राकृत शब्दानुशासन का सर्वप्रथम सम्पादन Nitti Dolce ने नेपाल से प्राप्त एक ही प्रति के आधार पर किया जिसका प्रकाशन १९३८ मे परिस से हुआ। इसका समय १३वी सती से पूर्व माना गया है। Dolci ने पिशल के इस मत का खण्डन किया कि व्याकरणकारो की प्राचीनता तथा नवीनता की पहचान या वर्गीकरण इस सिद्धान्त पर करें कि पुराने व्याकरणो मे प्राकृत के कम भेद गिनाए गए हैं तथा नयो मे उनकी संख्या वढती गई है। वास्तव मे पाया तो यह जाता है कि जितना नया व्याकरणकार है, वह उतनी कम प्राकृत भाषाओ का उल्लेख करता है। पिशल के इस मत को भी उन्होने स्वीकार नहीं किया। वररुचि, महाराष्ट्री छोड, अन्य प्राकृत भाषाओ के बारे मे कम सूत्र देते है । कौवेल और ऑफरेष्ट के भी प्राकृत-अध्ययन का मूल्याकन Dolcr ने किया। उन्होने यह स्पष्ट किया कि प्राकृत सजीविनी स्वतन्न ग्रन्थ नही बल्कि टीका का नाम है । टीकाकार वसन्तराज का समय १४-१५ वी शती माना जा सकता है। पिशल के काल से ही हेमचन्द्राचार्य द्वारा उल्लिखित 'हुग्ग' की पहिचान अभी तक नही हो सकी। Dolci ने हुग के स्थान पर 'सिद्ध' पाठ सही माना है और कहा है कि हेमचन्द्र के व्याकरण के मूल स्रोतो की खोज अभी तक पूर्ण सफल नहीं हुई। यह सही भी है। प्राकृतकल्पतरु के रचयिता रामतर्कवागीश का समय लगभग १७वी शती माना जाता है । लास्सन ने इसका उल्लेख अपने इन्स्टीटयूत्सी ओस मे किया। उसके समूचे भाग को एक साथ प्रकाशित नही किया जा सका । नियरसन ने उसके कुछ भागो को निबन्धो के रूप मे अवश्य प्रस्तुत किया है। बाद मे सम्पूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन E Hultzsch ने किया जिसका प्रकाशन रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, Hertford से १९०६ मे हुआ। लकेश्वर की प्राकृत कामधेनु, मार्कण्डेय का प्राकृत सर्वस्व, नरसिंह की प्राकृत २००६प्रदीपिका आदि और भी अन्य प्राकृत व्याकरण हैं पर विदेशी विद्वानो ने उनपर प्राय अपनी लेखनी नही चलाई। __ प्राकृत व्याकरण के पश्चिमी सम्प्रदाय के प्रमुख वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र को कहा जा सकता है। उनका प्राकृत व्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन का अष्टम अध्याय है जिसकी सर्वप्रथम स-पाद R Pischel ने दो भागो मे किया जिनका प्रकाशन Halle से १८७७ और १८८० मे हुआ । प्रथम भाग मे मूल ग्रन्थ और शब्द-सूची दी गई है और द्वितीय भाग मे उसका जर्मन अनुवाद, विशद व्याख्या और तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इसमे पिशल ने हेमचन्द्र के Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा मिद्धान्तो की भीमासा की है। कही वे उनसे सहमत भी नहीं हो सके । कही उन्होंने अकथ्य की भापा को कथ्य भी बना दिया । अर्धमागधी, महाराष्ट्री आदि के अतिरिक्त ढक्की, दाक्षिणात्या, आवन्ती और जैन शौरसेनी जैसी प्राकृत बोलियो पर पिशल ने विलकुल नई सामग्री प्रस्तुत की है। त्रिविक्रम के शब्दानुशासन के आधार पर सिंहराज ने प्राकृत रूपावतार लिखा जिसका प्रथम सम्पादन E Hultzsch ने किया और प्रकाशन रायल एशियाटिक सोसाइटी, Hertford से १६०६ मे हुआ। सम्पादक ने इसकी भूमिका मे लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। ३. प्राकृत भाषाओ पर आधुनिक भाषाओ में लिखे गये व्याकरण ____ उपयुक्त व्याकरणो के आधार पर विदेशी विद्वानो ने अनेक व्याकरण ग्रन्थ लिखे। उनमे से कतिपय कार्यों का उल्लेख हम प्राकृत भाषाविज्ञान के सन्दर्भ मे कर चुके हैं। पाश्चात्य विद्वानो मे स्वतन्त्र रूप से सर्वप्रथम व्याकरण लिखने वालो मे Hoeffar को नाम उल्लेखनीय है जिन्होने अपना ग्रन्थ De Prakrita Dialects Librio Duo १८३६ मे पालन से प्रकाशित किया था। लगभग उसी समय १५३७ मे Cl Lassen का Institutions Linguae Pracritieae नामक प्राकृत व्याकरण का ग्रन्थ Bonnae से प्रकाशित हुआ। ये अन्य सर्वसाधारण पाठको को अच्छी सामग्री प्रस्तुत करते है। इसी प्रकार R Pischel ? De Grammaticis Pracriticis (Vratıslaciae, 1874', E Muller dit Beitrage Zur Grammatik des Jaina Prakrit (Berlin, 1876), S Goldschmidt 61 Prakritiea (Strassburg, 1879, Zeitschrift der deutschen morgendischen Gesellschaft, Vol XXXII, pp. 99112, Vol XXXVII, pp 457-458, Leipzig, 1878-1883), H Jacobi 41 Das guantitatsgestz in den Prakritsprachen (Kuhn's Zeitschrift fur vergleichende Sprachforschung, Vol. XXXV, pp 292298, Berlin, 1881), R F Pavolini 47 Le Novello Prakrit de Mandia edi Aglaladatta (Rome, 1872), Alfred C Woolner ! Introduction to Prakrit (Lahore, 1917), Sir George Abraham Grierson का Prakrit Dhatvadesase(AS B, Calcutta, 1924) आदि और भी प्राकृत व्याकरण हैं, जो प्राकृत भापाओ के अध्येता के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यहा Woolner का ग्रन्थ Introduction to Prakrit विशेष उल्लेखनीय है। इसे दो भागो मे विभक्त किया गया है। प्रथम भाग मे ग्यारह अध्याय है जिनमे विभिन्न प्राकृतो के सामान्य रूप से तुलनात्मक नियम दिये गये हैं और Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान २४७ दूसरे भाग में प्राकृत ग्रन्थो के उद्धरणो के साथ उनका अनुवाद और विस्तृत शब्दसूची प्रस्तुत की गई है । लेखक का इस ग्रन्थ की रचना के पीछे एक उद्देश्य "सस्कृत नाटको ‘के शौरसेनी और महाराष्ट्री पाठो का अधिक ध्यान और व्युत्पत्ति पूर्वक अनुशीलन करने के लिए विद्याथियो के हाथ मे एक पथप्रदर्शक रखना है। किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य वैदिक काल से आधुनिक भाषाओ तक के विद्यार्थियो को सहायता पहुंचाना है । प्रस्तुत व्याकरण अपने उद्देश्य मे सफल भी रहा। इसके बाद विद्वानो ने प्राकृत की किसी एक बोली पर अध्ययन करना प्रारम्भ किया। इस सन्दर्भ मे Weber की Maharashtri and Ardhamagadhi, Adverd Mullar at Ardhamagadhı, H Jacobi ait Maharashtri, Cowell 4t A Short Indroductions to the ordinary Prakrit of the Sanskrit Dramas with a list of Common irregular Prakrit words (London, 1875), R. Schmidt mit Elementarbuch der Sauraseni (Hannover, 1924), Pischel के Materialen Zur Kenntris des Apabhramsa (Gottingen, 1902), तथा Ein Nachtrag Zur Grammatik der Prakrit sprachen (Berlin, 1902) ग्रन्थ अथवा निबन्ध विशेष उल्लेखनीय है। ४ प्राकृत भापाओ का तुलनात्मक अध्ययन सामान्य अध्ययन के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी आवश्यक है। पाश्चात्य विद्वानो ने इस क्षेत्र मे भी कार्य किया। H Jacobi के Ueber Vocaleinschub und Vocalısırung des Y in Pali and Prakrit (Kuhn's Zeitschrift fur Vergleichende Sprachforschung, Vol XXIII, pp 594-599, Berlin, 1877), Uber den clocka in Pali and Prakrit (वही, Vol XXIV, pp 610-614, Berlin, 1879), Zur genesis der Prakritsprabhen (वही, Vol, XXV, pp, 603 609, Berlin 1881), Noch einmal das Prakritische guantitatsgesetz (akt, Vol XXV pp 314-360, Berlin 1883) Ueber unregelmassige passiva in Prakıt (96! Yol XXX) VIII, pp 249-256, Gutersloh, 1887), Uber die Betonung in Klassischen Sanskrit und in den Prakrit-Sprachen (Zeitschrift der deutschen Morgenlandischen Gesellschaft, Vol XLVII, pp 574-582, Leipzig, 1893) आदि कार्य उल्लेखनीय है। विद्वान् लेखक ने इन निवन्धो मे आयारण, सूयगडग, उत्तरज्झायण आदि जैन ग्रन्थो का विशेष आधार लिया है। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा 54 afafest S Goldschmidt ã Prakulische miscellen (Kuhn's Zeitschrift fur vergleichende Sprachforschung, Vol XXV, pp, 436-438, 610-617, Vol XXVI, pp 103-12, 327-328, Vol XXVII, P. 336, Berlin, 1881-1885 farat À 957 alcatue 341401177feu forar fugacito FT 378464 Herayuret R Morris hl Notes on some Pali and Jain Prakrit words (The Academy, 1892, PP 217-218, 242-243, 318, London, 1892) 27 set 2011 का निवन्ध है जिसमे पम्प, समिति, विवित्त आदि शब्दो का तुलनात्मक अध्ययन four 4401 Th Bloch 91 Vararuci Und Hemacanda (Gutersloh, 1893) VT R Pischel 401 Der Akzent des Prakrit (Kuhn's Zeitschrift fur Vergleichende Sprachforschung, Vol XXXIV, PP. 568-576; Vol XXXV, PP 140-150, Glutersloh, 1896-1897) HT 5441.it निवन्ध हैं । पिाल ने प्राकृत और वैदिक ध्वनियो की यहा तुलना की है। Z Wickrema Singhe # 447 Index of all the Prakrit words occurring in Puschel's "Grammatic der Prakrit-Sprachen" (Bombay, 1905-1909) À fuaica 197 34141 eup 216 $7078 1067 की एक सूची तैयार की जो Indian Antiquary, Vol. XXXIV मे प्रकाशित 6. George A Grierson ã Paisachi and Chulikapaisachi (J A L11 1923, pp. 161-7) 791 The Eastern School of Prakrit Grammarians and Paisachi Prakrit (Sir Ashutosh Mukherji Silver Jublee Volumes (Vol III, Part II, orientals, Calcutta, 1925, PP 119-141) f 344tuit Frigre IWE Clerk 01 Magadhı and Ardhamagadhi (JAOS, 44 1925) J Block 41 Ashoka's et la Magadhi (BSOS, W), Alsdorf 41 "Vasudevahindi, a specimen of Arctric Jaina Maharashtri (BSOS, 1936), Grierson 4 Rajasekhar on the Home of Paisachi (JRAS, 1921), Paisachi and Chulikapaisachi (IA. 1923), Konow Home of Paisachi (ZDMG, 1910), Grierson fit Parkrit Bibhasa (IRAS, 1918), FB J Kuiper 41 Paisachi fragment of the Kuvalayamala (IIJII 1957) ife fatarer HT 41457 77141 के तुलनात्मक क्षेत्र के लिए दृष्टव्य हैं। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान २४६।। ५. सस्कृत नाटको में प्रयुक्त प्राकृत बोलियो का अध्ययन सस्कृत नाटको मे कुछ प्राकृत भाग नियमत आता है जिसे लेखक, महिला वर्ग, वाल वर्ग अथवा अन्य निम्न वर्ग से बुलवाता है। अत स्वभावत इन बोलियो मे वैविध्य मिलता है। E B Cowell ने सभवत' इस ओर सर्वप्रथम ध्यान आकर्षित किया और A short introduction of the ordinary Prakrit of the Sanskrit dramas (London, 1875) निबन्ध प्रस्तुत किया । Pischel ने कालिदास के 'शाकुन्तलम्' का सपादन करते हुए उसमे प्रयुक्त प्राकृत का विश्लेपण किया । Printz का Bhasa's Prakrits (Frankfurt, A M. 1921) तथा Luder का The fragments of Asvaghosa's Dramas (Berlin, 1911) भी उल्लेखनीय है। Keith का Sanskrit Drama सस्कृत नाटको मे प्रयुक्त प्राकृत बोलियो का एक अच्छा अध्ययन प्रस्तुत करता है। लेखक ने लिखा है कि भास और अश्वघोष ने शौरसेनी, अर्धमागधी और मागधी का प्रयोग किया है। मृच्छकटिक मे तो यह वैविध्य और अधिक पाया जाता है। कदाचित् सर्वाधिक । कालिदास के नाटको मे माधारणत: गद्य मे शौरसेनी का और पद्य मे महाराष्ट्री का प्रयोग हुआ है। भवभूति ने शौरसेनी, विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस मे शौरसेनी और महाराष्ट्री, भट्टनारायण ने वेणीसहार मे शौरसेनी और मागधी तथा राजशेखर ने शौरसेनी का प्रयोग अपने प्राकत नाटको मे किया है। लेवी और ग्रिल का भी इस क्षत्र में योगदान रहा है। इस प्रकार पाश्चात्य विद्वानो ने प्राकृत भाषा और व्याकरणशास्त्र के विभिन्न पक्षो पर अपना अध्ययन अनुसन्धान किया है। उनका शोधकार्य आज भी एक मानदण्ड बना हुआ है। प्राकृत भाषा और व्याकरण-शास्त्र पर शोधकार्य का सूत्रपात यद्यपि पाश्चात्य विद्वानो ने किया पर वाद मे उसे भारतीय विद्वानो ने सवारा और परिवधित-परिष्कृत किया। यहा हम ऐसे ही विद्वानो के कार्यों का मूल्याकन तीन प्रकार से करेंगे १ प्राकृत व्याकरण-शास्त्रो का सपादन और अनुवादन । २ स्वतन्त्र व्याकरणात्मक ग्रन्थो का प्रणयन । ३ भाषात्मक चिन्तन । १ प्राकृत व्याकरण-शास्त्रो का सपादन और अनुवादना प्राकृत व्याकरण-शास्त्र की परम्परा का प्रारम्भ 'भरत' से माना जाता है। मार्कण्डेय ने भारत के साथ ही शाकल्य और कोहल को भी प्राकृत वैयाकरणके रूप मे उल्लेखित किया है । कहा जाता है, पाणिनि ने भी एक 'प्राकृत लक्षण' नामक अन्य लिखा था। परन्तु इनमे से कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नही। अत साधारणत Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सरकत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा प्राकृतप्रकाश के कर्ता वररुचि को ही प्राचीनतम प्राकृत वैयाकरण माना जाना चाहिए । रामशास्त्री तेलग ने इसका सम्पादन कर भात्र मूल पाठ के साथ १८६६ मे वाराणसी से प्रकाशित किया था। प्राकृतप्रकाश पर अनेक टीकायें भी लिपी गई है । बटुकनाय शर्मा और बलदेव उपाध्याय के सपादकत्व मे 'प्राकृत-मजरी' नामक कात्यायन की टीका निर्णयसागर प्रेस से १६१३ मे प्रकाशित हुई। इसके बाद वसन्तराज की मजीविनी और सदानन्द भी सुबोधिनी टीका के माय प्राकृत प्रकाश यू०पी० गवर्नमेट प्रेस से १९२७ मे सामने आया । एक अन्य सस्करण डा० पी० एल० वैद्य ने पूना से अंग्रेजी अनुवाद सहित १६.१ मे निकाला । उद्योतन शास्त्री भामह की मनोरमा व्याख्या के साथ (वाराणसी, १९४०), और कुनहन राजा ने रामपाणिवाद की व्याख्या के साथ (अडयार लायब्रेरी, मद्रास, १९४६) भी इसे प्रस्तुत किया। भामह और कात्यायन की वृत्तियो के साथ और बगाली अनुवाद के साथ वसन्तकुमार चट्टोपाध्याय ने इसका सम्पादन १६१४ मे कलकत्ता से प्रकाशित किया । दिनेशचन्द्र सरकार ने अपनी पुस्तक Grammer of the Prakrit Language (कलकत्ता विश्वविद्यालय,१९४३) मे प्राकृत प्रकाश का अग्रेजी अनुवाद तथा के० पी० त्रिवेदी ने गुजराती अनुवाद, (नवमारी, १६५७) भी प्रकाशित किया है। इसी का एक अन्य सस्करण भारतीय विद्या प्रकाशन वाराणसी से भी हुआ है। इन सभी सस्करणो मे प्राय प्रथम आठ अध्याय प्रकाशित हुए हैं जो दक्षिणी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु E B. Cowell ने उसके बारह परिच्छेदो को सम्मिलित किया है। जगन्नाथ शास्त्री होशिंग का हिन्दी अनुवाद सहित प्राकृतप्रकाश का नवीन सस्करण भी उल्लेखनीय है (वाराणसी, १६५६) इसके बाद चण्ड के प्राकृत लक्षण को Hoerrle के सस्करण के आधार पर देवकीकान्त ने पुन सम्पादित कर कलकत्ता से १९२३ मे निकाला। उसी का एक अन्य सस्करण सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला की ओर से अहमदाबाद से भी १९२६ मे प्रकाशित हुआ। लीविश ने अपने 'पाणिनि' ने चण्ड के स्थान पर 'चन्द्र' माना पर मण्डारकर के उद्धरणो से ही यह नाम चण्ड ही सिद्ध होता है।" लकेश्वर की प्राकृत कामधेनु या प्राकृत लकेश्वर रावण का प्रथम सम्पादन मनमोहन घोष ने किया, जिसे उन्होने प्राकृत कल्पतर के साथ (परिशिष्ट क्रमाक २, पृ० १७०-१७३) प्रकाशित किया। क्रमदीश्वर का 'सक्षिप्तसार' यद्यपि प्रथमत Lassen ने किया पर उसका सम्पूर्ण सस्करण राजेन्द्रलाल मित्र ने Bibliothika Indica मे कलकत्ता से १८७७ मे प्रकाशित किया और इसी का एक अन्य सस्करण कलकत्ता से ही १८१६ मे हुआ। पुरुषोत्तम की प्राकृत शब्दानुशासन को Nitti Dolci के बाद मनमोहन घोष ने प्राकृत कल्पता के परिशिष्ट क्र० १, पृ० १५६-१६६ पर सपादित कर अग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया। रामतर्फवागीश भट्टाचार्य का प्राकृत Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान २५१ कल्पतरु अभी तक प्रतिलिपि के दोष के कारण सपूर्ण रूप मे प्रकाशित नही हो सका था । इसका श्रेय डॉ० मनमोहन घोप को दिया जा सकता है, जिन्होने उसके सपूर्ण रूप का संपादन कर एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता से १९५४ मे प्रकाशित किया । इसी के परिशिष्ट मे प्राकृत कामधेनु आदि जैसे अल्पकायिक प्राकृत व्याकरणो को भी सम्मिलित कर दिया गया । प्राकृत व्याकरण के पूर्वी सम्प्रदाय मे मार्कण्डेय का प्राकृत सर्वस्व ( १६ - १७वी शताब्दी) सम्भवत सर्वोत्तम माना जा सकता है | इसका प्रथम सम्पादन एस० पी० व्ही० भट्टनाथ स्वामिन् ने किया जिसका प्रकाशन विजगापट्टम से १९२७ में हुआ । अभी एक नया संस्करण प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, अहमदाबाद से १६६५ मे हुआ जिसके सपादक हैं कृष्णचन्द्र आचार्य । कुछ और नई प्रतियो का आधार लेकर उसे आधुनिक दृष्टि से सपादित किया गया है। सपादक ने १६४ पृष्ठ की अग्रेजी मे भूमिका लिखी है जिसमे उन्होने मार्कण्डेय का काल, प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति, प्राकृत वोलियो का तुलनात्मक अध्ययन आदि विषयो पर सप्रामाणिक सामग्री प्रस्तुत की है । आचार्य हेमचन्द्र ( १०८८ - ११७२ ई० ) पश्चिमी सम्प्रदाय के सर्वमान्य प्राकृत वैयाकरण हुए हैं। मिद्धहेमशब्दानुशासन के अष्टम अध्याय मे उन्होने प्राकृत व्याकरण को परिबद्ध किया । इसका सर्वप्रथम सम्पादन Pischel ने (Halle, १८७७, १८८० ) किया । इसके पूर्व कृष्ण महावल ने Introductien to the Hemachandra Vyakarana (बम्बई, १८७२) लिखा । SP पण्डित ने अपने कुमारपालचरित के परिशिष्ट मे इसका पुन सम्पादन किया (BSS. १९००) (पूना, १९२८) और उसी का बाद मे डॉ० पी० एल० वैद्य ने उसे १९२८ मे सम्पादित किया । संशोधित संस्करण १९५८ मे पूना से ही प्रकाशित हुआ । इसकी प्रियोदय नामक हिन्दी व्याख्या सहित उपाध्याय रत्न मुनि ने अनुवा दित कर व्यावर से दो भागो मे प्रकाशित किया। प्रथम भाग विक्रमाब्द २०२० मे निकला और द्वितीय भाग २०२४ मे । इस संस्करण के परिशिष्ट भाग मे प्रत्यय बोध, सकेत बोध, तृतीय पाद शब्दकोष रूप सूची और चतुर्थपाद शब्दधातुकोष रूप सूची दी गई है । इससे इस सस्करण की विशेष उपयोगिता सिद्ध हो सकी । शा० भीमसिंह माणेक ने निर्णय सागर प्रेस, मुबई से दुढिका टीका भापान्तर सहित भी १९०३ मे इसका प्रकाशन किया था । त्रिविक्रम ( १३वी शती) के प्राकृतशब्दानुशासन के तीन अध्यायो मे से प्रथम अध्याय विजगापट्टम् से १८९६ मे प्रकाशित हुआ और सपूर्ण सस्करण टी० लड्डू ने १९१२ मे प्रकाशित किया । एक अन्य संस्करण बटुकनाथ शर्मा और बलदेव उपाध्याय के सपादकत्व मे बनारस से भी निकला । पी० एल० वैद्य ने भी अच्छी भूमिका सहित उसे सपादित कर जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से १९५४ मे प्रकाशित किया वृत्ति के साथ। सपादक ने इसके सपादन मे विजगा Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा पट्टम तथा चौग्वम्भा से प्रकागिन मस्करणों का नो उपयोग किया ही, साथ ही तजोर और मद्राम से प्राप्त हस्तलिखित प्रतियो का भी आधार लिया गया है। अपनी विस्तृत भूमिका मे डॉ० वैद्य ने हेमचन्द्र और त्रिविक्रम से पूर्ववर्ती तथा पश्चात्वर्ती प्राकृत वैयाकरणो पर विचार किया। यही त्रिविक्रम और हेमचन्द्र के व्याकरण-ग्रन्थो के सूत्रपाठ का तुलनात्मक अध्ययन तथा त्रिविक्रम और लक्ष्मीधर की तुलना की। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने ग्रिविक्रम के शब्दानुशासन का रचनाकाल १२३६ ई० माना। इसके परिशिष्ट मे सूत्रपाठ, मूत्रानुक्रमणिका, छन्द छायापन्न सूत्रपाठ, अपभ्र श पद्यसूची तथा देगशब्दसूची दी गई है। इसके अतिरिक्त जगन्नाय शास्त्री होशिंग ने स० २००७ मे वृत्ति माहित प्राकृत शब्दानुशासन को विद्याविलास, वाराणमी से मुद्रित कराया था। इसी का एक सस्करण १६१२ ई० मे लड्डू ने भी प्रकाशित किया था, जिस पर उनको पी० एच. डी० उपाधि से विभूपित किया गया। प्राकृत शब्दानुशासन के आधार पर सिंहराज (१५ वी शती) ने प्राकृत रूपावतार और लक्ष्मीधर ने पड्भापाचन्द्रिका लिखी। पड्भापाचन्द्रिका का मपादन कमलाश कर प्राणशकर त्रिवेदी ने किया (वाम्वे संस्कृत और प्राकृत सीरिज, १६१६) । इसकी भूमिका मे सपादक ने महाराष्ट्री प्राकृत, गौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रश इन छह प्राकृत बोलियो का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। हेमचन्द्र के अतिरिक्त भामकवि की पडभाषाचन्द्रिका, दुर्गणाचार्य की पड्भाषारूपमालिका तथा पड्भापामजरी, पड्भाषासुबतादर्श और पड्भापाविचार मे भी इन्ही छह वोलियो का विवेचन है। इनके अतिरिक्त अप्पय दीक्षित (१५५३-१६३६ ई०) की प्राकृत मणिदीपिका का सटिप्पण मपादन श्रीनिवास गोपालाचार्य ने (ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पब्लिकेशन्स, युनिवर्सिटी आफ मैमूर, १९५४)तथा रघुनाथ (१८ वी शती) के प्राकृतानन्द का सपादन और प्रकाशन मुनि जिन विजय ने (सिंघी जैन ग्रन्यमाला, वम्बई) किया। इन अन्यो के सपादन और प्रकाशन ने प्राकृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन को सुरुचिपूर्ण और सुविधापूर्ण बना दिया। छात्रो और अध्यापको को ये ग्रन्थ सुलभ हो गये। २ स्वतन्त्र प्राकृत व्याकरणात्मक ग्रन्थो का प्रणयन उपयुक्त प्राकृत-व्याकरण शास्त्री के आधार पर बीसवी शती मे आधुनिक भाषाओ मे भारतीय विद्वानो द्वारा प्राकृत व्याकरण ग्रन्थो का प्रणयन प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम ऋषिकेश शास्त्री की प्राकृत व्याकरण का प्रकाशन कलकत्ता से १८८३ मे हुआ। यद्यपि मूलत: वह सस्कृत मे था पर साथ ही उसका अग्रेजी Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान : २५३ अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। ___Woolner का Introduction to Prakrit कलकत्ते से १६२८ मे प्रकाशित हुआ था। उसकी उपयोगिता और लोकप्रियता को देखकर डॉ. बनारसीदास जैन ने उसका हिन्दी अनुवाद 'प्राकृत प्रवेशिका" के नाम से पजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से १६३३ मे प्रकाशित किया । "भारतीय नाटको तथा भारतीय भाषा-विज्ञान को सुगम बनाना इसका मूल उद्देश्य था । प्राकृत की विभिन्न स्थितियों का परिचय भी इस ग्रन्थ से हो जाता है। प० वेचरदास दोसी प्राकृत के मूर्धन्य विद्वान् है । उन्होने १६२५ मे गुजरात पुरातत्व मन्दिर, अहमदाबाद से गुजराती भाषा मे प्राकृत व्याकरण प्रकाशित की, जिसका हिन्दी रूपान्तर माध्वी सुबताजी ने और उसका प्रकाशन १९६८ मे मोतीलाल बनारसीदास ने किया। प्रस्तुत ग्रन्थ मे "सस्कृत, पालि, शौरसेनी, मागधी, पैशाची तथा अपभ्र श के पूरे नियम बताकर सस्कृत के साथ तुलनात्मक दृष्टि से विशेष परामर्श किया है और वेदो की भाषा, प्राकृत भाषा तथा सस्कृत भाषा, इन तीनो भाषाओ का शब्द समूह कितना अधिक समान है, इस बात को यथास्थान स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। सुनीतिकुमार चाटुा के शब्दो मे "इसे पिशेल के वृहत् प्राकृत व्याकरण का गुटका सस्करण कहा जाए तो अत्युक्ति नही होगी।" इसके बाद डॉ० पी० एल० वैद्य ने A Mannual of Ardhamagadhi Grammar (पूना, १६३४) प्रकाशित की। पुस्तक छोटी ५२ उपयोगी है। इसके पूर्व डा० बनारसीदास जैन ने पजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से १६२३ मे Ardhamagadhi Reader प्रकाशित की थी, जिसमे अर्धमागधी की सामान्य विशेषताओ को स्पष्ट करते हए जनागमो मे से प्राकृत-उद्धरण प्रस्तुत किए गये थे। इसी शृखला मे डा० A M Ghatage की Introduction to Ardhamagadhi कृति १६५१ मे कोल्हापुर (School and College Book-stall) से प्रकाशित हुई। इसमे लेखक ने प्राकृत को सस्कृत से उत्पन्न मानकर अर्धमागधी अथवा जैन महाराष्ट्री की विशेपताओ को तीन भागो में विभाजित किया ध्वनि, रूपिम और वाक्यविज्ञान तथा समास । यहा भाषाविज्ञान का विशेष रूप से आधार लिया गया है । अर्धमागधी का विश्लेषण करते हुए उन्होने भूमिका मे कहा है कि यह भाषा एक जैसी नही रही । प्राचीन और नवीन विकास का सकेत आगमो मे स्पष्टत देखा जा सकता है। उदाहरणत प्रथमा विभक्ति के एकवचन मे अ तथा ए प्रत्यय मिलते हैं। इनमे ओ प्रत्यय प्राचीन रूप है जो गाथाओ मे मिलता है तथा ए प्रत्यय अपेक्षाकृत नवीन रूप है जिसे हम गद्यभाग मे पाते है। प्राकृत, विशेषत अर्धमागधी, भाषाओ के विकासात्मक रूपो Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सरबत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा को तुलनात्मक अध्ययन के साथ प्रस्तुत करने वाली यह कृति निःसन्देह अनुपम इसके बाद डा. दिनेशचन्द्र सरकार की "Grammar of the Prakrit Languages" उल्लेखनीय है जिसमे उन्होने अर्धमागधी के साथ ही अन्य प्राकृती पर भी विचार किया है । शिलालेखी प्राकृतो पर डा० एम ए महेन्दले का बहुत अच्छा कार्य हुआ है। उन्होने Historical Grammar of Incriptional Prakuts (पूना, १९४८)मे प्राकृत की विभिन्न विकासात्मक स्थितियो को स्पष्ट किया है। पूना से ही प्रकाशित तगारे का Historical Grammar of Apabhramsa (१९४३) तथा दावाने का Nominal Composition in Middle Indo-Aryan (पूना, १९५६) ग्रन्य भी यहा उल्लेखनीय है । Comparative Syntax of Middle Indo-Aryan नाम से एक अन्य ग्रन्थ कलकत्ता से १९५३ मे प्रकाशित हुआ । इन ग्रन्यो मे भाषाविज्ञान की दृष्टि से प्राकृत पर विचार किया गया है। __डॉ० सरयूप्रसाद अग्रवाल का 'प्राकृत विमर्श' लखन विश्वविद्यालय से १९५३ मे प्रकाशित हुआ। इसमे लेखक ने मुख्य प्राकृतो के अतिरिक्त प्रारम्भिक प्राकृत-पालि, शिलालेखी प्राकृत और उत्तरकालीन प्राकृत-अपभ्र ग का सक्षिप्त परिचय दिया है। नियमो को स्पष्ट करते समय सूत्रो का उल्लेख तथा साथ ही सस्कृत से तुलना कर दी गई है। इससे सस्कृत और प्राकृत को एक साथ समझा जा सकता है । पिशेल के प्राकृत व्याकरण का भी यहा भरपूर उपयोग हुआ है। पुस्तक पाच अध्यायो मे विभक्त है १ प्राकृत और उसकी विभिन्न बोलियो का परिचय, २ प्राकृत बोलियो की सामान्य विशेषताए, ३ प्राकृत की ध्वनि मम्वन्धी विशेषतायें, ४. प्राकृत के पद, रूपो का विकास, ५ प्राकृत के क्रियापदो का विकास । अन्त मे प्राकृत साहित्य से २१ उद्धरणो को चयनिका भाग मे देकर प्राकृत के विकास को और भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया परन्तु ये उद्धरण कालक्रम से नहीं दिए गए । कालक्रम से दिए जाते तो और अधिक अच्छा रहता। प्राकृत भाषाओ का वर्गीकरण यहा तीन प्रकार से किया गया है धार्मिक साहित्यिक और नाटकीय । ___डा० प्रबोध पडित भाषाविज्ञान के विश्रुत प्राध्यापक थे। उन्होने पावनाथ विद्याश्रम, वाराणसी द्वारा आयोजित 'प्राकृत भाषा' पर १९५३ मे, तीन भाषण दिए थे, जो १९५४ मे प्रकाशित हो गए। इन तीन भाषणो के शीर्षक थे प्राकृत की ऐतिहासिक भूमिका, २ प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग, और ३ प्राकृत का उत्तरकालीन विकास । डा० पडित ने प्राकृत को स्पष्ट करते हुए कहा है कि 'एक ओर से वर्तमान काल की बोलचाल की नव्य भारतीय आर्यभापाये और दूसरी ओर से प्राचीनतम भारतीय आर्यभाषा जैसे कि वेद की भापा, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान : २५५ यह दोनो स्वरूपो के बीच की जो भारतीय भाषा इतिहास की अवस्था है, उसको हम प्राकृत कह सकते हैं । प्राकृत मे 'प्रकृति' का अर्थ उन्होने आदर्श लिया है अर्थात् प्राकृत का आदर्श है सस्कृत ९ १९६० मे पोखमा विद्याभवन, वाराणसी से प्राकृत व्याकरण नामक ग्रन्थ निकला जिसके लेखक हैं मधुसूदनप्रसाद मिश्र । इसे हेमचन्द्र का आधार लेकर लिखा गया है। पुस्तक ग्यारह अध्यायो मे विभक्त है । सर्वप्रथम महाराष्ट्री के लक्षणो को स्पष्ट किया गया है और उसके बाद शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्र श को। बीच-बीच मे यया स्थान प्राकृतप्रकाश, कल्पलतिका आदि का भी उल्लेख किया गया है । सप्तम अध्याय मे कुछ विशिष्ट पदो को एकत्रित किया गया है और पादटिप्पणी मे विशेष सूत्रो का भी उल्लेख कर दिया गया है । डा० सुकुमार सेन का एक ग्रन्थ Comperative Grammar of Indo Aryan भारत की Linguistic Society के विशेष प्रकाशन के रूप मे १९६० मे सगोधित करके प्रकाशित हुआ है । उसी का हिन्दी रूपान्तर 'तुलनात्मक पालिप्राकृत-अपभ्र श व्याकरण' के नाम से प्रकाशित किया गया १९६६ मे (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद) । डा० सेन प्रकृति का अर्थ सस्कृत मानकर चलते हुए लगते है । उन्होने प्राग्भारतीय आर्य भाषा (१२०० ई० पू०) से क्रमश. प्रारम्भिक वैदिक १२००-८०० ई० पू० (साहित्यिक तथा बोलचाल का रूप), परवी वैदिक ८००-५०० ई० पू० (साहित्यिक तथा कथ्य रू५), सस्कृत-- ५०० ई० पू० (साहित्यिक और जन सामान्य) । प्रथम मध्य भारतीय आर्यभाषायें वौद्ध सस्कृन--२००-३०० ई०पू० (उत्तर पश्चिमी, पश्चिम मध्यवर्ती, पूर्व मध्यवर्ती और पूर्वी), द्वितीय मध्यवर्ती आर्यभाषाए (निय प्राकृत २०० ३०० ई , पालि २०० ई०पू० प्राकृत अपभ्रंश -(१-६०० ई० ) तृतीय मध्य भारतीय आर्यभाषाए अवहट्ट-६००-१२०० ई०)। यहा अपभ्र श को भारतीय आर्य भाषा के विकास की सीधी परम्परा मे बैठाया है और कहा है कि मध्य भारतीय आर्यभाषा का द्वितीय पर्व वस्तुत अपभ्र श का प्रारम्भिक पर्व है। वैयाकरणो द्वारा प्रस्तुत अपभ्र श इसके दूसरे पर्व का कुछ गढा हुआ रूप है। अपभ्रश का तीसरा पर्व आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का प्रारूप है और अवहट्ट या लौकिक कहा जाता है।८ डा० एस० एम० को ने १९४५ मे भारतीय विद्याभवन, बम्बई मे जो भाषण दिए थे, उनका प्रकाशन Prakrit Languages and their contribution to Indian culture के नाम से हुआ। उसी का हिन्दी अनुवाद 'प्राकृत भाषाए और भारतीय संस्कृति मे उनका अवदान' राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी जयपुर से (१९७२ मे प्रकाशित हुआ)डा० को ने भी प्राकृत को सस्कृत से उद्भूत माना है। उन्होने कहा है कि प्राकृत भापा मे सस्कृत की ही सीधी उपज है, जो स्थान और काल की दृष्टि से परिवर्तित और परिवधित होती रही Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ सस्कृन-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा हैं । या अन्तत. यो कहा जा सकता है कि ये भाषाए जिम समान सोत ने उत्पन्न हुई है, वह मस्कृत है। यहा हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकृत बहु सख्यक प्राचीन भारतीय वोलियो से मानव ५ मे परिनिटिन और परिष्कृत हुई है। ये वोलियां ऋग्वेद काल में भी प्रचलित थी और गंकृत के साथ-साथ पाणिनि और पतजलि के युग मे और उसके बाद भी तादियों तक बनी रही। ये ही पालि-प्राकृत भापाए थी। उन्हे को ने सात श्रेणियो में विभक्त किया है। १. धार्मिक प्राकृत, २ साहित्यिक प्राकृत, ३. नाटकीय प्राकृत, ४ वैयाकरणो द्वारा वणित प्राकृत भाषाए, ५ भारत बहि म्थ प्राकृत, ६ मभिलेन्द्रीय प्राकृत, और ७ लोक प्रचलित सस्कृत ।" आगे के पृष्ठो मे इन प्राकृतो ५. पुंछ विस्तार से ही विचार किया गया है। ___ उपलब्ध व्याकरणो का आधार लेक. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'अभिनव प्राकृत व्याकरण' लिखा जिसका प्रकाशन तारा प्रिंटिंग प्रेस से १६६३ मे हुआ। इसमे डा० शास्त्री ने हेमचन्द्र आदि के प्राकृत व्याकरणो को आधुनिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है । साथ ही उन्होने आधुनिक भापाओ मे लिखे प्राकृत व्याकरणो का भी उपयोग किया है। अतः वह छात्रो को विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ है। डा० शास्त्री का प्राकृत भाषा और माहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' अन्य भी यहा उल्लेखनीय है, जिसमे उन्होंने प्राकृत भाषा का विकास प्राचीन आर्यभापा छान्दस से माना है। उपल० प्राकृत साहित्य को उन्होने द्वितीय स्तरीय प्राकृत के अन्तर्गत रखा, जिसके पाच भेद किए १ आप प्राकृत जिसमे पालि भी सम्मिलित है, २ शिलालेखी प्राकृत, ३ नियप्राकृत, ४ चमपद की प्राकृत, और ५ अश्वधो५ नाटको की प्राकृत । द्वितीय स्तरीय मध्ययुगीन प्राकृत मे महाराष्ट्री, मागधी, पंगाची, चूलिका पैशाची, शौरसेनी, २ाकारी, ढक्की, आदि भापाली पर विचार किया गया है तथा द्वितीय स्तरीय तृतीय युग मे अपभ्रंश भापा को सयोजित किया है। इन सभी की विशेषताए सक्षेप मे इस ग्रन्थ मे उपस्थित की गई है। इन प्रन्यो मे अपभ्र श को भी सम्मिलित किया गया है। परन्तु कुछ विद्वानो ने पृथक् रूप से अपभ्र श व्याकरणो की रचना की है। पतजलि से लेकर हेमचन्द्र तक प्राय. सभी वैयाकरणो ने अपभ्र श का उल्लेख किया है। अपभ्रश व्याकरणो की कुछ पृथक् रचनाए भी हुई है, जिनमे डा० देवेन्द्र कुमार जैन का अपम्र श व्याकरण (वाराणसी), तया अपभ्र श भापा और साहित्य (भारतीय ज्ञानपीठ, कागी, १९६६) डा० परममित्र शास्त्री का सूत्रशैली और अपभ्र श व्याकरण आदि जैसे ग्रन्थ उल्लेखनीय है । डा० नामवर सिंह और डा० शिवप्रसाद सिंह के गन्यो ने भी अपभ्रश और अवहट्ट भापामओ तथा उनके व्याकरणो को समझने मे अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । प्रस्तुत निवन्ध के लेखक का भी पालि-प्राकृत Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान २५७ भाषा और साहित्य' नामक ग्रन्थ पालि- प्राकृत और अपभ्रंश के अध्ययन के लिए उपयोगी है। इसका प्रकाशन इसी वर्ष नागपुर विश्वविद्यालय से हुआ है । डा० कोमल जैन ने भी वूलर के आधार पर एक प्राकृत प्रवेशिका का (वाराणसी, १९६४) प्रकाशन किया था । ये सभी ग्रन्थ आधुनिक भाषाओ मे प्राकृत व्याकरणो पर उपलब्ध हैं। छोटेमोटे कुछ और भी ग्रथ लिखे गए है, जिन्होने प्राकृत भाषा के अध्ययन को प्रोत्साहित किया । ३ प्राकृत भाषात्मक चिन्तन पिछले कुछ वर्षो मे प्राकृत ग्रन्थो का आधुनिक दृष्टि से सपादन- प्रकाशन हुआ है । उनमे सपादको ने ग्रन्थो की भाषा पर विचार किया है। इसी प्रकार कुछ फुटकर निवन्ध भी प्रकाशित हुए हैं । ये सभी यद्यपि स्वतन्त्र ग्रन्थ नही है, फिर भी भाषान्तर चिन्तन की दृष्टि से उनका मूल्याकन अवश्य किया जा सकता है । एम० शाहीदुल्ला का 'Magadhi Prakrit and Bengali ( IHQ 1925) डा० घाटगे के Instrumental and Locative in Ardhamagadhi (IHQ. 1937), Locative form in Paumacariya (BBRAS 1957) और Maharashtri language and literature (JBU 1936 ) तथा डा० PV वापट The Relation between Pali and Ardhamagadhi (IHQ Vol. VI 1928) निबन्ध मागधी, अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत से सबद्ध है । एस० पी० व्ही. रंगनाथ स्वामी का Paisacı Prakrit ( 1A, XLVIII, 1919, pp 211-213) PV रामानुज स्वामी का Hemachandra and Paisacı Prakrit (1A L1, 1922 pp 51-54), ए० एन० उपाध्ये Paisacr Language and literature ( Annals of the B ORI XX11–2, pp 1-37, Poona, 1940), आदि निवन्ध पैशाची प्राकृत की विभिन्न समस्याओ को उद्घाटित करते है । इसी प्रकार के कुछ अन्य निबन्ध भी उल्लेखनीय हैं । डा० के० बी० पाठक का The text of the Jainendra Vyakarana and the Priority of Candra to Pujyapada (ABORI, Vol XIII, 1931-32, pp 25-36 ), डा० ए० एन उपाध्ये के Jounder and his Apabhramsa works (ABORI, Vol XII, 2PP 132-168, Poona, 1931), Subhachandra and his Prakrit grammar, (ABORI, Vol XIII, 1931-32, pp 37-58) The Prakrit Dialect of Pravacanasara of jaina Sauraseni (JUB II, 6, Bombay, May, 1934), Prakrit studies their latest progress and future (AIOC, हैदराबाद, 1941 मे दिये गए भाषण का Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और को की परम्परा भाग), A Prakrit Grammar attributed to Samantabhadra (IH Q.XVII, pp 511-16, कलकत्ता, 1952), Language and dialects used in the Kuvalayamala (Summary of Papers, AID.C. XXII Session, Gauhati, 1965) आदि । डा० भयाणी, डा हीरालाल जैन, मुनि नयमल, के ऋषभचन्द्र आदि विद्वानो के भी कुछ निवन्ध प्राकृत व्याकरण के विभिन्न पक्षो पर प्रकाशित हुए है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी भारतीय विद्वानो ने प्राकृत भाषा की उपयोगिता पर विचार-मन्थन किया है । इस दृष्टि से डा एस एम. कत्रे के Introduction to Modern Indian Linguistics with special reference to Indo-Aryan and Assamese (University of Gauhati, 1941) डा० एस० एम० घाटगे के Historical Linguistics and Indo Aryan Languages (University of Bombay, 1962) तथा डा० प्रबोध पण्डित के 'प्राकृत भापा' (वाराणसी, १६५४) पर दिए गये भाषण भारतीय आर्य भाषाओ के विकाम मे प्राकृत के योगदान को स्पष्ट करते है। इसी प्रकार डा० एस० के० चटर्जी और डा० सुकुमार सेन का Middle IndoAryan Reader, (University of Calcutta, 1957), डा० P D. गुणे का 'Introduction to Comparative Philology, Apabhramsa Literature and its importance to Philology (Poona, 1919 AIOC), S.N घोषाल का 'On the Etymology of the Prakrit Vocable Pore (VIG , होशियारपुर, मार्गव, मार्च, १९६७, पृ० ३८-४०), गुरुसेवी शर्मा का "मागधीभासासु क्रियापदाना विश्लेपणम्' (AIOC , अलीगढ), मुनीश्वर झा 01 Modal Relation in Prakrits (967) 29 Desi words in Kalidasa's Prakrit (वही) आदि लेख भी उपयोगी हैं। प्राकृत और अपभ्र श के मूल ग्रन्थो के सम्पादन मे सपादको ने ग्रन्थो की भाषाओ पर भी विचार किया है। इस दृष्टि से डा० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित ग्रन्थ उल्लेखनीय है १ णायकुमारचरित (प्रथम सस्करण कारजा सीरिज से १६३१ मे और द्वितीय सस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से १९७२ मे), २. पाहुड दोहा (कारजा सीरिज से १६३३ मे), ३ सावयधम्म दोहा (कारजा सीरिज, १०३२), ४ करकडघरिज (कारजा से १६३४ मे प्रथम सस्करण और भारतीय ज्ञानपीठ से १६६४ मे द्वितीय सस्करण), ५-२० पट्खण्डम धवलाटीका व हिन्दी अनुवाद के साथ १६ भागो मे (शि० ला० जैन साहित्योहार फण्ड, १६३६-५८), २१ सुगवदसमी कहा (भारतीय ज्ञानपीठ, १९६२), २२ मुदमणचरिउ (भारतीय ज्ञानपीठ, १९७०), २३ मयण पराजय (भारतीय ज्ञानपीठ, १९६२), २४ कहक्कोसु (प्राकृत सोसाइटी, अहमदाबाद, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान २५६ १९६९), २५. जसहर चरिउ (भारतीय ज्ञानपी०, १९७३), तथा वीरजिणिदचरिउ (भारतीय ज्ञानपीठ, १९७५) । डा० हीरालालजी के अन्यतम विद्वान् मित्र डा० ए० एन० उपाध्ये ने भी अनेक प्राकृत ग्रन्थो का सपादन किया है, जिनमे उन्होने उन ग्रन्थो की भाषा पर भी विस्तार से विचार किया है। उनके कतिपय सम्पादित ग्रन्थ इस प्रकार है। पंचसूत्र (१९३४), २ प्रवचनसार (रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, १६३५), ३. परमात्म प्रकाश (१९३७), ४ कसवहो (हिन्दी ग्रन्य रत्नाकर ववई, १९४०), ५ धूर्ताख्यान (भारतीय विद्याभवन, वम्बई, १९४४), ३ लीलावई (सिंधी जैन ग्रन्थमाला, १६४६), ७ आणद सुन्दरी (मोतीलाल बनारसीदास, १९५५), ८ उसाणिरुद्ध (बम्बई विश्वविद्यालय जर्नल, १९४१), ६ कुवलयमाला (सिंधी जैन ग्रन्यमाला, १९५६), १० चदलेहा (भारतीय विद्याभवन, १९४५), ११ सिंगारमजरी, (पूना विश्वविद्यालय जर्नल, १९६०), १२. कट्टियाणुपेक्खा (रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, १६६०), आदि । इनके अतिरिक्त डा० उपाध्ये ने डा० हीरालालजी के सहयोग से कुछ और ग्रन्थो का सम्पादन किया, जिनका प्रकाशन जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से श्री प० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री के हिन्दी अनुवाद सहित हुआ। इन ग्रन्थो मे तिलोयपण्णत्ती (प्रथम संस्करण, १६४३, द्वि० स० १६५६) भाग, तिलोय पण्णत्ती भाग २ (१९५१) तथा जवूदीवपण्णत्ती (१९५७) प्रमुख ग्रन्थ हैं। मुनि नथमलजी प्राकृत और जैन दर्शन के विश्रुत विद्वान् हैं । उन्होने उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि ग्रन्थो का सम्पादन तथा अनुवादन किया है। ग्रन्थभाग की व्याख्या और उसके विश्लेषण मे प्राकृत व्याकरण को भी स्पष्ट किया गया है। मुनिजी ने प्राकृत भाषा के सन्दर्भ मे पृथक् रूप से भी यत्र-तत्र अपने गभीर विचार प्रस्तुत किये हैं। इसके अतिरिक्त डा० विमल प्रकाश जैन द्वारा सपादित जम्बू स्वामि चरि (भारतीय ज्ञानपीठ) । डा० भयाणी द्वारा संपादित आहिल का पाउमसिरिचरिउ, डा० राजाराम जैन द्वारा सपादित विवध श्रीधर का वडढमाणपरिउ आदि ग्रन्थ भी दृष्टव्य हैं, जिनकी भूमिकाओ मे सपादको ने सम्बद्ध ग्रन्थो की भाषा पर विस्तार से विचार किया है। सस्कृत नाटको मे प्रयुक्त प्राकृत की भी भारतीय विद्वानो ने मीभासा की है। एस० बी० पण्डित ने विक्रमोर्वशीय (BSS १८८६) और मालविकाग्निमित्र (BSSS , 1889) की भूमिका मे, गोडवोले ने मृच्छकटिक (BSS १८६६) की भूमिका मे, तेलग ने मुद्राराक्षस (१६००) की भूमिका मे तथा आर० जी० भण्डारकर ने मालतीमाधव की भूमिका मे (१९०५), प्राकृत वोलियो की विशेषताओ को स्पष्ट किया है । भास के नाटको पर गणपति शास्त्री (१९१०. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा १९१५) तथा मुखतकर ने (JAOS ४०-४२), भवभूति के महावीरचरित पर टोडरमल्ल ने (आक्सफोर्ड, १६२८), महाराजविजय पर दलाल ने (बडोदा, (१९१८), बलविजय ५२ एल० वी० गाधी (बडोदा, १९२६) ने तथा विक्रमोर्वशीय ५२ एच० डी० वेलकर ने (साहित्य अकादमी, १९६१) विशे५ लिखा है। उन्होंने इन नाटको मे प्रयुक्त मागधी, शौरसेनी, पैशाची आदि प्राकृत वोलियो का विश्लेषण किया है। ___इस प्रकार भारतीय विद्वानो ने प्राकृत भाषा और व्याकरण की विविध विधायो पर गोवकार्य किया है। प्रारम्भ मे उनका शोध कार्य पाश्चात्य विद्वानो के आदर्श को सामने रखकर किया गया प्रतीत होता है। बाद मे उन्होने कुछ मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया । आज वे स्वय जादवनने की स्थिति मे है वशते कि वे अपेक्षित श्रम और निष्ठा के साथ कार्य करें। याकोबी और मल्सडोर्फ के आदर्ग आज भी पुराने नही हुए । डा० हीरालाल जैन और ए० एन० उपाध्ये जैसे प्राकृत के सर्वमान्य विद्वानो के कार्य नयी पीढी के लिए प्रेरक सूत्र बन सकते है । सर्वश्री मुनि नथमलजी, प० सुखलाल सधवी, प० वेचरदास दोसी, प० दलसुख मालवणिया, डा० भयाणी, प० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, प० वालचन्द सद्धान्तशास्त्री आदि जैसे प्राकृत भापा के निष्णात विद्वान् अपनी लेखनी और विद्वत्ता से प्राकृत भाषा और माहित्य के अनुसन्धान के क्षेत्र को प्रशत कर रहे है। तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अभी भी प्राकृत भापा और साहित्य के विविध पक्षो का उद्घाटित होना गेप है। आशा है नयी और पुरानी पीढी का सामनस्य तथा परिपरिक सहयोग इस दिशा की और अपने कदम बढायेगा। १ भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, द्वि० स०, १७५ । २ मारत भापायो का व्याकरण, हिन्दी अनुवाद, पृ० १४ । ३ वही, पृ० ८-१४ । ४. १५८०५-(1) प्रेम सुमन जन-विदेशी विद्वानो का जनविद्या को योगदान' वैशाली बुलेटिन न० १, पृ० २३२-४४ । (11) F Wiesinger German Indology-Past & Pre sent (111) AM Ghatge A brief sketch of Prakrit studies in progress of Indic studies (11)ो मार हानी-अपनी भाषा और साहित्य वी गोध प्रनिया -- !) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण का अनुसन्धान २६१ ५ मलयगिरि द्वारा कथित-प्राकृत मापानी का व्याकरण, पृ० ६५ । ६ पिशेल ने इसे स्वतन्त अन्य माना है, टीका नही-प्राकृत भाषामो का व्याकरण, पृ० ८७। ७ प्राकृत भाषामो का व्याकरण-पिशेल, पृ-७४ (हिन्दी अनुवाद) । ८ पड्भापचिन्द्रिका, भूमिका, पृ० ४। ६ प्राकृत प्रवेशिका, भूमिका, पृ० ४ । १० प्राकृत मापदेशिका, भूमिका, पृ० १० । ११ वही, प्रस्तावना, पृ० ७ । १२ कलकत्ता, १९४३ । १३ प्राकृत विमर्श, प्रक्कियन, पृ० २। १४ प्राकृत मापा, पृ० १। १५ वही, पृ० ४२ । १६ तुलनात्मक पालि-प्राकृत-अपभ्रंश व्याकरण, पृ० १४-१५ । १७ प्राकृत भापायें और भारतीय संस्कृति मे उनका अवदान, पृ० १ । १८ वही, पृ० ७-८। १६. मभितन प्राकृत व्याकरण, प्रस्तावना, पृ० २२ । Page #290 --------------------------------------------------------------------------  Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31ર્ધમાગધી 30મમ-સાહિત્ય વડી વિશિષ્ટ શરવાવત डॉ. जगदीशचन्द्र जैन वो के पालि त्रिपिटक की तुलना मे अर्धमागधी मे लिखे हुए जैन आगमसाहित्य का अध्ययन अपेक्षाकृत कम मात्रा में हुआ है । जैन आगमो के अध्ययन को प्रकाश मे लाने का श्रेय खासकर वेबर, याकोबी, पिशल, लॉयमान, शूबिंग, માન્સપોર્ટ ભાવિ નર્મન મનીષિયો હી દિયા નામા, નિન્હોને મકાશિત आगम-साहित्य की हस्तलिखित प्रतियो को पढकर उनका आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। आगम-साहित्य का महत्त्व जैन आगम-साहित्य अनेक दृष्टियो से महत्वपूर्ण है । सर्वप्रथम, भगवान महावीर एव उनके शिष्य-प्रशिष्यो के अमूल्य उपदेशो का इसमे संग्रह है, भले ही यह साहित्य अपने मूल रूप मे सुरक्षित न हो । इस साहित्य मे तत्कालीन सामाजिक सास्कृतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक विषयो के अतिरिक्त कितनी ही ऐतिहासिक एव अर्ध-ऐतिहासिक परपराओ का उल्लेख है, जो अन्यन्न उपलब्ध नहीं । भारत के प्राचीन इतिहास के सागोपा। ज्ञान के लिए इस सामग्री का विश्लेषण आवश्यक है। जन श्रमण चातुर्मास को छोडकर, एक वर्ष मे आठ महीने एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन करते थे। वृहत्कल्प भाष्य के अध्वप्रकरण के अन्तर्गत जनपद परीक्षा में उल्लेख है कि श्रमण निग्रंथो को विविध देशी भाषाओ मे कुशल होना चाहिये, जिससे कि वे अपने उपदेशो को अधिक-से-अधिक लोगो तक पहुचा सके। भापा के अतिरिक्त उन्हे उन-उन प्रदेशो के रहन-सहन और रीति-रिवाजो का ज्ञान होना भी आवश्यक है। उदाहरणार्य लोक ज्ञान के लिए यह जानना जरूरी है कि किस प्रदेश मे किस प्रकार से अन्न उपजाया जाता है जैसे लाट देश मेवा से, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ . सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सिंधुदे मे नदियो से, द्रविड देश में तालाबो से, उत्तरापथ मे कुओ से, और डिभरेलक (?) मे महिरावण (?) की वाट से खेतो की सिंचाई होती है (वृहत्कल्पभाष्य १-१२२६-३६)। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी जैन आगम साहित्य का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है। प्राकृत भापाओ ने कालान्तर मे किस प्रकार अपभ्र श का रूप लिया મીર વિસ પ્રકાર ન્હોને હિન્દી, નરાતી, મરાઠી વાઢિ નિવમોર્ય બાપાનો को प्रभावित किया, इसकी कल्पना जैन आगम-साहित्य के अध्ययन के विना नही हो सकती है । इस संबंध मे हेमचन्द्र की 'देशी नाममाला' का उल्लेख अप्रासगिक न होगा। स्वय हेमचन्द्र के शब्दो मे "जो शब्द सिद्धहम शब्दानुशासन' व्याकरण मे सिद्ध नहीं किए जा सके, जो संस्कृत के अभिधान कोपो में मौजूद नहीं है, तथा गोण लक्षणा शक्ति से जो सभव है, उन शब्दो का संग्रह इन देशी शब्दो मे नही किया गया। उन्ही शब्दो का यहा संग्रह है जो महाराष्ट्र, विदर्भ और आभीर आदि देशो मे प्रसिद्ध है। किन्तु इस प्रकार के शब्दों की संख्या का अन्त नही, अतएव जीवन भर मे भी इन शब्दो का सग्रह कर सकना सभव नही । ऐसी दशा मे अनादिकाल से प्रचलित प्राकृत भाषा के विशेष शब्दो का ही यही सकलन किया गया है ।" इसमें सदेह नही कि हेमचन्द्र द्वारा किया हुआ यह संग्रह देशी शब्दो का अनुपम संग्रह है जो प्राकृत, अपभ्र श एवं उत्तर भारत मे वोली जाने वाली आधुनिक भारतीय भाषाओ के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए परम उपयोगी है। भाषा की अनेकरूपता भाषा के सवध मे एक महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवान महावीर ने जिस मागधी भाषा मे अपना प्रवचन दिया था, उसका सही रूप जानने के हमारे पास साधन नहीं हैं। फिर, आगे चलकर पाटिलपुन, मसुरा और वलभि मे जो समयસમય પર અમિ કી વાવનાર્થે પ્રસ્તુત ફી , ડનમે ડન-ઇન પ્રવેશ ફી વોતિયો का प्रभाव आ जाना स्वाभाविक है । हम देखते है कि व्याकरण के प्रयोगो मे भी जैन आगमो मे एकरूपता दिखाई नही देती । कही यश्रुति मिलती है, कही नही मिलती, कही उसके स्थान मे 'इ' का प्रयोग किया गया है। वररुचि आदि वयाकरण यत्रुति को स्वीकार नहीं करते, हेमचन्द्र करते है, लेकिन उन्होने भी अपवादो की और लक्ष्य किया है। 'ण' और 'न' के प्रयोग के संबंध में भी एकपता नही । वररुचि ने सर्वत्र 'ण' के प्रयोग को स्वीकार किया है । हेमचन्द्र के अनुसार स्वर के पश्चात् असयुक्त और आदि मे न आने वाला 'न' 'ण' मे परिवर्तित हो जाता है, जबकि आप प्राकृत मे यह नियम लागू नही होता। आदि मे आने वाले Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २६५ असयुक्त 'न' के सबंध मे वैकल्पिक नियम है कभी वह 'ण' मे परिवतित होता है, कभी नही (प्राकृत व्याकरण, ११२२८१६) । यही बात 'हु-खु' तथा 'अपि पि-वि-मि-अवि, आदि के प्रयोगो के सबध मे है। प्राकृत वैयाकरणो ने व्याकरण के नियम बनाते समय जगह-जगह 'प्राय ' 'बहुल' 'क्वचित्', 'वा' आदि शब्दो का प्रयोग किया है। आगम-साहित्य मे कही महावीर के स्थान पर मवावीर, और देवेहिं के स्थान पर देवेभि आदि का प्रयोग हुआ है। प्रकाशित आगम-साहित्य मे ही नहीं, उनकी मूल प्रतियो मे भी भाषा की विविध रूपता देखने में आती है । मुनि पुण्यविजय जी ने भगवती सूत्र की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियो (क) वि० स० १११० की प्रति, (ख-ग) १३वी सदी की जैसलमेर की दो ताडपत्रीय प्रतिया, (घ) १३वी सदी की खंभात की प्रति (ड) १३वी सदी की बडौदा की प्रति-- का उल्लेख किया है जिनमे भाषा की दृष्टि से विविध प्रयोग पाये जाते है। ___ कहना न होगा कि भगवान महावीर तथा समय-समय पर होनेवाली अनेक वाचनाओ मे दीर्घकालीन व्यवधान पड जाने के कारण, मूल परम्पराओ के विस्मृत हो जाने से आगमो मे बहुत से परिवर्तन एव संशोधन करने पडे । अनेक स्थलो पर सूत्रो मे विसवाद उपस्थित होने के कारण स्वय नवागवृत्तिकार अभयदेवसूरि ने अपनी अल्पज्ञता की ओर लक्ष्य किया है (देखिये, स्थानागटीका, पृ० ४६६-५०० प्रश्न व्याकरण टीका, प्रस्तावना) । इसी प्रकार आचार्य मलयगिरि ने वाचनाभेद तथा सूत्रो के गलित हो जाने की ओर लक्ष्य करते हुए सूत्रो के अर्थ को सम्यक सप्रदाय' के द्वारा जानने और समझने की सिफारिश की है। हस्तलिखित प्रतियो की नकल करने वाले लेखक और सपादक भी कम दोषी नहीं । जहाँ कोई पा० उनकी समझ मे न आया अथवा उन्हे अनुकूल दिखाई न पडा तो उन्होने उसमे मन-माना परिवर्तन कर दिया। इस संबंध मे प्रोफेसर आल्सडोर्फ लिखते है स्वर्गीय प्रोफेसर लॉयमान के कागजो मे मुझे एक पुरजा मिला, जिस पर उन्होने विशेषावश्यक भाष्य के पाठ एकत्र किये थे। पा० मे वार-वार अद्यतन भूत (Aorist) का प्रयोग किया गया था, किन्तु लेखक ने उसकी जगह निश्चयार्थ सूचक वर्तमान काल लिखना पसंद किया। यह केवल एक उदाहरण है जबकि हस्तलिखित प्रतियो की नकल करने वालो ने व्याकरण के असामान्य प्रयोगो को निकाल दिया । हमे उसी से सतो५ करना होगा कि जो थोडा बहुत उन्होने छोड दिया है। आगम ग्रन्थों की शैली पालि त्रिपिटक की भाँति जैन आगम ग्रन्थो की शैली भी मन्दगति से अग्रसर Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सस्थात-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा होती है। किसी घटना का वर्णन पढकर ऐसा लगता है कि सामने खडा हुआ कोई व्यक्ति स्वाभाविकता, सरलता एव बोधगम्यता के साथ अपनी बात सुना रहा है । हाँ, बीच-बीच मे कया को गभीर रूप देने और उसे रोचक बनाने के लिए वर्णको का समावेश कर लिया जाता है । ये वर्णक प्राय वधे-वधाये रूप मे एक जैसे होते है, जिनका प्रयोग सर्वमान्य रूप में किया जाता है। उदाहरण के लिए जो बात चपा नगरी के वर्णन-प्रसग मे औपपातिक सूत्र मे पणित है, वे ही साकेत के सबंध मे अन्यत्र समझ लेनी चाहिए। बीट सूत्रो मे 'वेपाल' (पातु अल) की भाति यह वर्णन प्राय 'जहा वण्णओ 'शदो से मूचित किया जाता है । आगमसाहित्य मे इस प्रकार के वर्णन राजा, नगर, चैत्य, साधु-सतो का आगमन, पुन-जन्म-उत्सव, प्रीतिदान, निक्रमण-सत्कार आदि के प्रसग उपस्थित होने पर जहां-तहाँ पाये जाते है। इस प्रकार के वर्णन केवल जैन आगम-साहित्य मे ही नही, प्राकृत, संस्कृत एव अपभ्र श के अन्य ग्रन्थो मे भी उपलब्ध होते है। १४वी शताब्दी के मिथिला निवासी ज्योतिरीश्वर के वर्ण रत्नाकर मे राजाओ के भाट, आखेट, रणभूमि के लिये प्रस्थान, दूतियो, देश-देशान्तर की तरूणियो तथा नारियो के आपण आदि के मनोरजक वर्णन मिलते है। डॉ० वी० जे० सडेसरा द्वारा सम्पादित वर्णकसमुन्वय इस प्रकार की दूसरी महत्त्वकी रचना है, जिसमे नगर, हाथी, सर्प, समुद्र आदि के वर्णन उपलब्ध होते है। आगमी के विशिष्ट शब्द યહાં કામ વીર નવી વ્યાયાલો મે સન્નિહિત પ્રાøત તપય વિશિષ્ટ शब्दो का अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है । आशा है, यह अध्ययन जैन आगमसाहित्य के अनुशीलन मे प्रेरणादायक सिद्ध होगा। १ शैलीगत शब्दावलि • ___ जन आगमो की शैली के संबंध में कहा जा चुका है । भगवतीसून, नायाध+मकहा आदि बागमो मे सर्वमान्य रूप में प्रयुक्त निम्न शब्दावलि आगम-साहित्य की विशिष्ट शैली की ओर सकेत करती है १ कालमासे काल किपा (मृत्यु आने पर काल करके)। ૨ તમેય વિતય જસવંદ્વય નિયમેય પડિછિયમેય ફછિયपडिच्छियमेय सण एसमठ्ठ ‘ज तुम्भे यह (यह वात तयारूप है, अवितथ है, असदिग्ध है, ३८८ है, विशिष्ट है, इष्ट-विशिष्ट है और सत्य है, जो आपने कही Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २६७ ३ पडिबुद्धा समाणी हतुट्ठा चित्तमाण दिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया धाराहयकलव पुप्फग पिव समूससिय रोमकूवा (उd कर वह हर्पित हुई, सतुष्ट हुई, मन मे आनदित हुई, प्रसन्न हुई, परम सौमनस्यभाव प्राप्त किया, हर्ष के कारण फूली न समाई और वर्षा की धारा से जैसे कदम का पुष्प खिल जाता है, वैसे ही वह रोमाचित हो उठी)। - ૪ ય સોખા નસમ્સ હતુહે પૈણામેવ સમો ભાવ મહાવીરે તેનામેવ उवागच्छइ २ समण भगवतिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिण करेइ वदेह नमस३२ समस्स भगवओ नपासन्ने नाइद्रे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पजलिउडे अभिमुहे विणए पज्जुवासइ (यह श्रवण कर, सुनकर, वह हर्षित हुआ, सतुष्ट हुआ और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजते थे, वहा पहुंचा। वहां पहुच कर श्रमण भगवान की तीन वार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, उन्हे वदन किया, नमन किया। नमन करने के पश्चात् श्रमण भगवान के न बहुत निकट और न बहुत दूर उनकी सुश्रूषा करता हुआ, उन्हें नमन करता हुआ, सामने की ओर दोनो हाथ जोडकर विनयपूर्वक उनकी पर्युपासना मे लीन हो गया)। ___५ अ हे एक पुत्त इ कते पिए मणुन्ने मणामे येज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भडक रडकसमाणे रयणे रयणभूए जीवियउस्सासए हिययाणदजणणे उपरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए किमग पुण पासणयाए ? (तुम मेरे इकलौते बेट हो इष्ट हो, कमनीय हो, प्रिय हो, मनोज्ञ हो, मन को अच्छे लगते हो, स्थिर हो, विश्वसनीय हो, सम्मत हो, बहुमत हो, अनुमत हो, रलो की पिटारी के समान हो, रत्न हो, रत्न स्वरूप हो, जीवन के उच्छ्वास रूप हो, हृदय मे आनन्द पैदा करने वाले हो और उदुवर पुष्प की भाँति हो जिसका सुनना भी दुर्लभ है, देखने की बात तो दूर रही)? ६ आसुरुत्त तिवलिय भिउडि निडाले कटु (क्रोध से लाल-पीला होकर अपनी तीन वलवाली भृकुटि को मस्तक पर चढाकर)। ७ मिसिमिसायमाणा (क्रोध से दात पीसकर)। ८ निप्पपसिणवागरण (निष्पृष्टप्रश्न व्याकरण = निरुत्तर)। ६ जाणुकोपरमाया (केवल घोटू और कोहनी की माता=वध्या)। १० गिरिकदरमल्लीव चपा पायवे सुहसुहेण वड्ढइ (पर्वत की कन्दरा मे सुरक्षित चपक लता की भाति वह सुखपूर्वक बड़ा होने लगा)। ११ मारामुक्के विव काए (वचस्यान से मुक्त कौए की भाति । २ समानधर्मी विशिष्ट शब्द सूची १ ग्राम आदि वाचक शब्दावलि, ग्राम नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा મડવ, ધ્રોળમુલ, પત્તન (અથવા પટ્ટન) પુટમૅવન, ગાર, યાત્રમ, નિવેશ (અવા સનિર્દેશ), વિહાર, સવાધ (અથવા નહિ) । ર્વન આદિ વાવ શવાલિ વન, વનવડ, વનરાપિ, બાનન, બારામ, સુગ્ગાળ (દ્યાન) નિષ્નાન (નિŕ) । રૂવાળી આવિવાન ધન્વાતિ વાપી, દુર્બારખી, સર, મરતિ, સરસરપત્તિ, મવર (અથવા ચવડ), તાપ, વ્રTM (થવા હ્ર), વીધિા, ગુનાલિયા । ૪ પર્વત આવિ વાત્તવ બૅન્દ્રાવલિ ટ, લૂંટ, શૈલ, શિવરી, પ્રામારી, નયન, પુન્નર, નિષ્નર, (નિર્ધાર) પન્નર (ક્ષર) વખિળ । "ભવન આવિ વાત્ત શન્દ્રાવલિ ક્ષાનિો, વરિí, ગોપુર, પ્રામાવે, ગૃહ (શીતગૃહ ભી), શરળ, દાર, તોર, પરિધિ, ઇન્દ્રવીન ૬ માર્ચે બાવિ વાન શવ્વાવત્તિ ઝુપા, ત્તિ, વસ્તુ, પત્થર, તુર્કુલ, પથ, મહાવૈં, શબ્દ, રથ, પાયા, યુગ્મ (ખુશ), ચિત્ની, ચિત્તો, શિવિા સ્પન્દ્વમાની । ૭ આપળ-શાનો કવિ વાન શબ્દાવલિ કુતિનાપણ દુમાર કાલા ખિતશાલ, ભાનુશાતા, ર્મશાલા, પનશાતા, ધનશાના, વ્યાધરાશાતા, મ્મતસાના, જોન્ડાનારોષ્ઠાયાર),ભડાવાર (મડાનાર), પાળાચારી (પાનાગાર) હીરધર (ક્ષીગૃહ) પધસાના, નિસાના (નળાના), મહાળતાના (મહાનસશનિ), રયિાસાના (પશિાના), વોયિ સાના (વોધિત શાળા), વોસિય સાળા (ૌચિ શાલા), સોત્તિય સાલા (સૌનિ શાના), ધિય સાના (ધિ શાના), સમઁક્રિય સાલા(શોંહિ શાળા) | ૬. નટ આવિ વાવ શબ્દાવલિ નટ, નર્ત્ત, ખત્ત, મા, મૌષ્તિળ, વિડવ, ચ, પ્નવા, ભાસ, વૈધ્યોપ, લલ, મવું, તૂબત્ત (તૂખાવત્) āવી,િ તાતાવર રાના આવિ વાવ શબ્દાવત્તિ રાખા, પાત્ત પ્રધાન પુરુષ રાના, યુવાન અમાત્ય, શ્રેષ્ઠી, પુરોફ્તિ ઈશ્વર, ળનાય, વડનાય, તલવર, માવિય (માવિ), તુવિજ, મન્ની, મહામત્તી, રાળ, અમાત્ય, પેટ, રમ્ય, શ્રષ્ઠી, પુરોહિત, સેનાપતિ, સાયૅવાહ, પીખવું, દૂત, સધિયાન, ધ્રુવી, વર્ષઘર, મહત્તર, ડઘર, વારક્ષિત, વૌવારિજ । રૂપ્રાત સાહિત્ય જે મનોરના ગુન્દ્ર o વિચ વિ સંસ્કૃત રૂપાતર યિા ના તો સ્નાપિત જ્ઞોના વાજ્ઞિ, ઍનિ સĐત જોશો મે નાપિત (અર્થાત્ વાલાને વાલા નાડું) યિા ગયા હું (મરાઠી મે નાવો સી બર્ચ મે)। પદ્દાનિય TM શન્વાર્ય હોતા હૈ સ્નાન રાનેવાલા Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २६६ विपाक सूत्र (६) मे उसे अलकारिक भी कहा है, अर्थात् जो स्नान आदि कराकर वस्त्राभूपण से अलकृत करे। मथुरा के राजा के चित्त नामक अलकारिक को सर्वन अन्त पुर तक मे आने-जाने की छूट थी। ज्ञाताधर्मकथा में (१३) अलकारिक सभा (बाल काटने के सलून') का उल्लेख है जहाँ वेतनभोगी अनेक नौकर-चाकर श्रमण, अनाथ, रुण और कगाल पुरुषो का अलकार-कर्म करते थे। २ गणिका का अर्थ है जो गणो के द्वारा मान्य हो । वसुदेव हिडि (१०३, १२२४) मे उल्लेख है . सामन्त राजाओ ने कुछ कन्याये चक्रवर्ती राजा भरत को उपहार मे दी। वे छन और चमरवारी सखियो के साथ राजा भरत की सेवासुश्रूपा में रहने लगी। अपनी रानी के कहने से भारत ने उन्हे गणो को प्रदान कर दी। भगवान बुद्ध को भोजन के लिये निमत्रित करने वाली सुप्रसिद्ध अवापाली वैशाली के गणराजाओ द्वारा भोग्य थी। किन्तु जान पडता है कि आगे चलकर गणिका का मूल अर्थ वदल गया। वात्स्यायन ने कामसूत्र मे गणिकाओ को वेश्याओ का एक उपभेद माना है । आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन (विवेक, पृ० ४१८) मे अपनी कला की प्रगल्भता और धूर्तता मे कुशल स्त्री को गणिका कहा है (कलाप्रागल्भ्यचौाभ्या गणयति कलयति गणिका")। ३ वेस्सा (वृहत्कल्प भाष्य ६२५६) = द्वेष्या, लेकिन कालान्तर मे यह शब्द वेश्या के अर्थ मे रूढ हो गया। पाइअसहमहाण्णवो मे विशेषावश्यक का उद्धरण प्रस्तुत करते हुए वेस्सा का अर्थ पण्यागना या गणिका किया गया है। ४ छिन्नाला (हिन्दी मे छिनाल, कुलटा)। वृहत्कल्प भाष्य (२३१५) के टीकाकार ने छिन्नाला का अर्थ किया है छिन्ना नाम ये 5 आगमनाचपराध कारित्वेन छिन्न हस्तपाद । नासादय कृता , अर्थात् अगम्य गमन का अपराध करने के कारण जिसके हाथ, पैर और नासिका आदि को छिन्न कर दिया गया है। पाइअसहमहण्णवो मे foालिआ अथवा छिणाली शब्द को देशी बताया गया है। ५ मेहुणिम (वृ० भा० २८२२), मेहुणिआ (निशीथ भा० ५७७५) । मेहुणि अर्थात् भानजा (मराठी मे मेहुणा बहनोई या साले के अर्थ में प्रयुक्त) और मेहुणिमा अर्थात् मामा या बुआ की लडकी या साली (मराठी मे भी यही)। मेहुण का सस्कृत रूप मैथुन होता है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि मेहुणिअ और मेहुणिआ का परस्पर विवाह सबध हो सकता था वे मैथुनगम्य थे। मामा की लडकी से विवाह करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। स्वय महावीर का विवाह उनकी भानजी से हुआ था। इस प्रकार का विवाह लाट देश और दक्षिणापय मे विहित तथा उत्तरापथ मे निषिद्ध समझा जाता था (आवश्यक चूर्णी २, पृ० ८१)। बोधायन मे इस प्रकार के विवाह का उल्लेख है। कुमारिल भट्ट ने दाक्षिणात्यो के मामा-भानजी के विवाह का उपहास किया है (एच० सी० चकलदार, मोशल Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा लाइफ इन ऐंशियेंट इंडिया, स्टडीज़ इन वात्स्यायन 'म कामसूत्र, पृ० १३३ ) । निशीथ चूर्णी ( पीठिका, पृ० ५१ ) मे अपनी बुआ अथवा मोसी की कन्या के साथ विवाह किये जाने का उल्लेख है । पाइअसहमहण्णवो मे उक्त दोनो शब्दो को देशी बताया गया है । ६ भोयडा - (निशीथ भा० १२६ ) | जिसे लाट देश मे कुच्छ कहा जाता था, સે महाराष्ट्र . मे भोडा कहते थे | महाराष्ट्र की कन्याये इस वस्त्र को वचपन से पहनती थी और विवाह होने तक पहने रहती थी । उसके बाद गर्भवती होने पर सगे-मवधियो को भोज दिया जाता और उत्सव समाप्त होने के पश्चात् इम वस्त्र को निकाल दिया जाता । इस तरह का या इससे मिलता-जुलता रिवाज आज भी महाराष्ट्र में प्रचलित है या नहीं, इसकी खोज की जानी चाहिये । ३४२१४-२२, ७ कुत्तियावण ( वृ० भा० भगवतीसूत्र और नायाधम्मका मे भी ) का संस्कृत रूप कुत्रिकापण मानकर आचार्य मलयगिरि ने इस शब्द की वडी विचित्त व्याख्या प्रस्तुत की है कु इति पृथिव्या सना, तस्या त्रिक कुत्रिक स्वर्गमर्त्यपाताललक्षण तस्यापण हट्टु । पृथिवीतये यत् किमपि चेतनमचेतन वा द्रव्य सर्वस्यापि लोकस्य ग्रहणोपभोगदाम विद्यते तत् आपणे न नास्ति (देखिये आवश्यक टीका भी, पृ० ४१३ अ ) अर्थात् जहा स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोक में मनुष्य के उपभोग्य चेतन व अचेतन कोई भी वस्तु मिल सकती हो ( आजकल का 'जनरल स्टोर', पालि मे अन्तरापण ) | उज्जैनी, राजगृह और तोसलिनगर मे कुत्तियावण होने का उल्लेख मिलता है । कहते हैं कि भूत-प्रेत भी इन दुकानो पर सुलभ थे । भृगुच्छ का कोई वैश्य उज्जैनी की दुकान से एक भूत खरीद कर ले गया, जिसके द्वारा भूततडाग नामक तालाव बनाये जाने का उल्लेख है । तोसलि देश के किसी वणिक् ने ऋषिपाल नामक व्यतर લડીવા, નિને ઽસિતડા (ઋષિ તડાયા) તાનાવ ના નિર્માણ નિયા । ઽસિતડા का उल्लेख खारवेल के हाथी गुफा शिलालेख मे पाया जाता है । यदि कुत्तियावण के स्थान पर कोलियावण पाठ रक्खा जाय तो उसका अर्थ कोतुकिकशाला, यानी जहा कुतूहल पैदा करने वाली चीजे मिलती हो, किया जा सकता है । माहण (ब्राह्मण) । माहण शब्द की व्युत्पत्ति भी कुछ विचित्र ही लगती है । कहते हैं कि भरत के राज्य काल मे श्रावक धर्म उत्पन्न होने पर ब्राह्मणो की उत्पत्ति हुई । राजा भरत ने उन्हें जीवो को हनन न करने की प्रतिज्ञा વિલવાઈ (મા હળદ નીવે) તત્ર સે થે તોા માળ હે ખાને તો (વેલિયે વસુદેવ हिडि, १८४, २३, आचारांग चूर्णी, पृ० ५, आवश्यक चूर्णी, पृ० २१३ आदि) । इसी प्रकार द्विजाति शब्द से विज्जाइ ( = धिक् जाति) वना लिया गया मालूम देता है । जिनेश्वर मूरि कृत कथा कोप प्रकरण मे ब्राह्मण के लिये डोड्डु शब्द का प्रयोग हुआ है । कन्नड मे दोड्ड आचार्य का अर्थ शेखी बघारनेवाला होता है । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २७१ __ धिज्जाइ' की भाति बहुत करके इस शब्द का प्रयोग भी ब्राह्मणो के उपहास के लिये किया गया जान पडता है। ६. अगोहलि (आकठ स्नान) अग +होल के सयोग से बना है। कन्नड मे होल का अर्थ धोना होता है। मराठी मे आधोल १० स्नान के अर्थ मे प्रचलित है। आवश्यक चूर्णी, व्यवहार भाष्य टीका आदि मे इसका उल्लेख है। १० तक (बृ० भा० १७०६) । सस्कृत मे तक। प्राकृत मे उदसी (बृ० भा० ५६०४) भी। छास रूप में भी उल्लेख है, जो खानदेश मे बोली जाने वाली अहिराणी (अहीरो की भाषा) मे आज भी प्रचलित है। ११ जल्ल और मल (निशीथ भाष्य ५३४) । जल का अर्थ शरीर का मल होता है। दोनो मे अन्तर यही है कि जल्ल मे गीलापन रहता है जब कि मल हाथ आदि से रगड कर निकाला जाता है और फूक मारने से उड जाता है। १२ उज्जल्ल (बृ० भा० २४५७) अर्थात् विशेप मलिन (उत्=प्राबल्येन मलिन), लेकिन हिन्दी मे उज्वल शब्द का अर्थ उज्वल हो गया है, जैसे सस्कृत के भद्रक शब्द से भद्दा उल्टे अर्थ मे प्रयुक्त होता है। १३ तुप (नि० भा० २०१) अर्थात् मृत शरीर की चर्वी। मराठी मे तूप का अर्थ घी और कन्नड मे तेल होता है। किस प्रकार परिस्थितियों के अनुसार शब्दो के अर्थ मे फेरफार हो जाता है ? यह अध्ययन का विषय है। १४ उत्तरोदरोम (निशीथ सूत्र ३५६), सस्कृत मे उत्तरी०रोम = अपर के मो० के वाल = मूछ। १५ वेणूसुइय (नि० सून) अर्थात् वास की बनी सूई। इससे जान पडता है कि उस समय लोहे की सूई प्रचलित नहीं थी। १५ माडग्गाम (बृ० भा० २०६६, निशीथ सूत्र मे भी) अर्थात् स्त्रीसमूह । मराठी मे स्त्री के अर्थ मे, प्रयुक्त, भोजपुरी मे मउगी। १६ टिक (टिटा अथवा टा)। टिंटर का अर्थ धूतगृह होता है। भविसत्त कहा, सुपासनाहचारिस आदि मे इसका उल्लेख है (देखिये पाइअसहमहण्णवो) कर्पूरमजरी मे टेटा का अर्थ द्यूतगृह किया गया है। ज्ञानेश्वरी के १८वे अध्याय मे टिटेघर का प्रयोग हुआ है किन्तु टीकाकार ने उसका सही अर्थ नही किया। टिट या टेंटा की हिन्दी के ८८ (झगडा) शब्द के साथ तुलना की जा सकती है। १७ घोडयकडुइय (व्यवहार भा० ४ १०५) का अर्थ है दो साधुओ का परस्पर प्रश्नोत्त, सभवत जैसे दो घोडे मिलकर आपस मे खुजलाते हैं। १८ खट्टामल्ल (बृ० भा० २६२३-२५) अर्थात् सौ वर्ष का बूढा जो बीमारी के कारण खाट पर से उठने में असमर्थ हो। खासने और थूकने मे भी उसे कष्ट होता है। वह पूआ खाते समय केवल चचव शब्द करता है, खा नही सकता, इसलिये उसे पूवलिया खाओ (पूयलिका खादक) भी कहा गया है। TIE Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा १६ अगठिम (वृ० भा० ३०६३) अर्थात् जिसमें गाठ न हो = कोला । २० उल्लुगच्छी (नि० भा० ३६८६), जो उल्लू की आय के समान हो = सूई की नोक। २१ खलहाण (नि० भा० ३१८०) = खलिहान । २२ झझड़िया (नि० भा० ३७०४) = ऋण न चुका सकने पर वणिको मे परस्पर होने वाला गाली गलोज । __ २३ डगलक (वृ० भा० ४ ४०९६) =शीच जाते समय ही पोछने के लिये जैन साधुओ द्वारा उपयोग मे लाये जाने वाले मिट्टी बादि के ढेले । २४ ६६९ (पिंड नि० ३६४) = जीना, मराठी और गुजराती मे दादर । २५ दोहसुत्त फरेइ (नि० सूत्र ५२४) = कातता है (भूत को बढ़ाता है)। २६ दुस्तिय (वृ० भा० ३२८१) = दौष्पिक-वस्त्र बेचने वाला । गुजरात व महाराष्ट्र मे दोशी, हिन्दी मे धुस्सा। सुदसणाचरिय मे दोसियह (वस्त्र की दुकान) का उल्लेख है। २७ पट्टखुर (वृ० भा० ३७४७) = गोल खुर वाला =धोडा। २८ सुमेही (वृ० भा० ३२५२) ---अच्छे घर वाली, क्या के अर्थ मे रूढ । २६ इडर (ोध नियुक्ति ४७६) =डी।। ३० उपपुर (वृ० भा० १९२५)-कचरे का ढेर, हिन्दी मे कूडी, गुजराती मे उकरडी। ३१ कट्टर (पिंड नि० ६२५) = कटी मे डाला हुआ घी का पडा। ३२ कडुहड पोलिक (०५० भा०६८) =गले मे दारुण कुरूप पोटली वाला काला बकरा। ३३ दोद्धिअ (व्य० भा० १० ४६४) = लौकी, मराठी मे दूधी। ३४ बप्प (नि० चूर्णी ३१८७) = वा५ । कतिपय सात के पडतो ने इसे __व५ (वीना) धातु से सिद्ध करने की चेष्टा की है। ३५ वठ (ओधनियुक्ति २१८) = अविवाहित, गुजराती मे वाढी। ३६ सीताजन्न (वृ० भा० १ ३६४७) =सीताय , हलदेवता के सम्मान मे किया जाने वाला उत्सव । ४ प्राकृत के कुछ शब्द जिनकी परम्परा विनष्ट हो गई है और अर्थ मे खीचा तानी करनी पड़ी है। (१) भिभिसार । जैन ग्रथो मे श्रेणिक (बौद्ध ग्रथो मे सेनिय अथवा विविमार) को भिमिसार (तुलनीय विविसार से), भिभिसार अयवा भंभसार भी कहा गया है। कहा जाता है कि कुशाप्रपुर (राजगृह) के महल मे आग लग जाने ५२ जल्दी-जल्दी में कोई राजकुमार हायी, कोई घोडा और कोई मणि-मुक्ता Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २७३ लेकर भागा, श्रेणिक एक भभा (एक वाद्य) लेकर चले। तभी से उनका नाम भभसार पड गया (आवश्यक चूर्णी, २, पृ० १५.८) । आचार्य हेमचन्द्र ने यही व्युत्पत्ति स्वीकार की है। बौद्ध ग्रथो मे बिंबिसार का अर्थ सुनहरे (बिबि) वर्ण वाला किया गया है)। २ कूणिक जैन ग्रथो मे कूणिक (अजातशत्रु बौद्ध ग्रयो मे) को अशोकचन्द्र, वजिविदेहपुन अथवा विदेहपुत्त भी कहा है । जान पडता है कि इस शब्द की व्याख्या करते हुए भी जैन आचार्यों को खीचातानी करनी पडी। वज्जिविदेहयुक्त (भगवती ७६) अथवा विदेहपुत्त कहे जाने का कारण स्पष्ट है कि उनकी माता पेलणा विदेहवश की थी। बौद्ध सूत्रो मे भी अजातशत्रु को वेदेहिपुत्त कहा गया है । यद्यपि दीघनिकाय के टीकाकार अश्वघोप ने 'वेदेन इहति इति वेदेहि', अर्थात् बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने वाले को वेदेहिपुत्त माना है (अट्टकथा १, पृ० १३६)। जैन टीकाकारो की कूणिक और अशोक चन्द्र की व्युत्पत्ति भी इसी तरह हास्यास्पद कही जायेगी। कथन है कि कूणिक के पैदा होने पर उसे नगर के वाहर एक कूडी पर छुडवा दिया गया, जहा किसी मुग की पूछ से उसकी कून उगली मे चोट लग गई। तभी से वह कूणिक कहा जाने लगा। एक दूसरी परपरा के अनुसार कूणिक के जन्म के पश्चात् जिस अशोक वन मे उसे छोड दिया गया था, वह प्रकाशित हो उठा। अतएव कूणिक अशोकचन्द्र नाम से प्रसिद्व हो गया (आवश्यक चूर्णी २, पृ० १६६) निरयावलि १, ११ ब , हेमचन्द्र, महावीरचरित उल्लेखनीय है कि उक्त दोनो परपरायें एक ही ग्रय आवश्यक चूर्णी मे उद्धत है, जिससे जान पडता है कि चूर्गीकार इस मवध मे स्वय अमदिग्ध नही थे। बौद्ध ग्रथो मे कणिक को अजातशत्रु कहा जाना उसके प्रति विशेप आदर का सूचक प्रतीत होता है। ३ वज्जी वज्जी एक जाति अथवा वश का नाम है । बौद्धसूत्रो मे वज्जियो के आ० कुलो का उल्लेख है, जिनमे वैशाली के लिच्छवी और मिथिला के विदेह मुख्य माने गये है। भगवती सून मे वज्जी की गणना १६ जनपदो में की गई है। वजिविदेहपुत्र का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। फिर भी लगता है कि जैन और बौद्ध दोनो ही टीकाकारों के काल मे यह मूल ५२५रा विस्मृत हो चुकी थी। उपर्युक्त प्रसग पर वज्जी विदेहयुत्त के अन्तर्गत बज्जी शब्द का अर्थ टीकाकार ने इन्द्र किया है वजम् अस्य अस्ति (भगवती ७ ६ टीका)। आचार्य हेमचन्द्र ने यही अर्थ स्वीकार किया है । मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा मे भी वज्जी वश की विचित व्युत्पत्ति दी हुई है जिससे उपर्युक्त वक्तव्य का समर्थन होता है। ४ लिच्छवि (अथवा लेच्छइ) शब्द के संबंध मे भी यही हुआ। परपरा के अभाव मे टीकाकारो ने अर्थ का अनर्थ कर डाला। कालिदास के टीकाकार Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा मल्लिषेण द्वारा उष्ट्र को एक प्रकार का पक्षी (उष्ट्र पक्षी विशे) वताना, गम्त साहित्य मे सुप्रसिद्ध है । टीकाकार शीला ने 'लेच्छइ' का अर्थ किया है लिप्सुक स च वणिगादि (मूनाताग टीका २, ? पृ० २७७ ब), अर्थात् लिप्सायुक्त वणिक् आदि को लिच्छवि कहते है। चूर्णीकार ने इस अर्थ का समर्थन किया है (सूनचूर्णी, पृ० ३१५)। पाइअसहमहणको मे लिच्छविका यही अर्थ दिया गया है। भज्झिमनिकाय के अकयाकार अश्वघोप ने लिच्छवि का मबध निच्छवि (पारदर्शक) शब्द से जोड दिया है, अर्थात् जो कुछ लिच्छवी लोग खाते थे, वह आरपार दिखाई देता था। आचाराग (२, ३, ३६६-४००) सूत्र में महावीर भगवान के वश और कुल आदि का वर्णन करते हुए कहा गया है कि लिच्छवी वश मे पंदा होने के कारण वे प्रियदर्शी और सुन्दर थे। आश्चर्य है कि फिर भी उत्तरकालीन टीकाकार लिच्छवी वश का अर्थ ही भूल बैठे। ऐसी हालत मे उनके जन्म और निर्वाण स्थान के सवव मे अनेक विसंगतियो एक विसवाद का उत्पन्न हो जाना अस्वाभाविक नही माना जायेगा। __५ साली-(वैशाली)। वैशाली (वसाट, जिला मुजफ्फरपुर) भगवान महावीर की जन्मभूमि थी। भगवतीसूत्र (शातक २) मे महावीर की जीवन संबंधी चर्चाओ के प्रसग मे महावीर के श्रावको को 'बमालियमावक' अर्थात् वैशालीनिवासी महावीर के श्रावक कहा गया है। किन्तु टीकाकार अभयदेव ने 'वैशालीय' का अर्थ विशाल गुण सपन्न (वेसालीए' गुणा अस्य विशाला इति वैशालीया ) कर डाला है । सूत्रकृताग मे भी भगवान महावीर को वेसालिय नाम से उल्लिखित किया गया है। लगता है कि इस प्रकार भ्रातियो के कारण ही विशाला नाम से प्रसिद्ध उज्जनी महावीर का जन्म स्थान मान ली गई। ६ कासव -(काश्य५) भगवान महावीर का गोत्र है। समवाया। (७) मे उल्लिखित सात गोत्रो मे कासव गोत्र सर्वप्रथम है। कल्पसूत्र मे कासवज्जिया नाम की जैन श्रमणो की शाखा का उल्लेख है। फिर भी आश्चर्य है कि टीकाकार अभयदेव सूरि ने इसका सवध इक्षुरस के साथ कैसे जोड़ दिया- काश उच्छु तस्य विकार कास्य रस स यस्य पान म काश्यप । ७ आजीविक आजीविक संप्रदाय की परपरा भी विस्मृत हो गई थी। सूत्रकृताग के टीकाकार शीलाक अमदिग्ध नही थे कि गोशाल के मतानुयायी ही आजीविक हैं, इसलिए उन्हे लिखना पडा – गोशाल-मतानुसारिया आजीविका दिगम्बरा वा (३ ३-८,पृ० ६० ब), अर्थात् वैकल्पिक रूप मे उन्होने दिगबरों को भी आजीविक बताया। निशीयचूर्णी १३-४४२० मे गोशाल के शिष्य अथवा पड र भिक्षुओ को आजीवक कहा है। उल्लेखनीय है कि पाइअसद्दमहण्णवो मे श्वेतावर सप्रदाय के भिक्षुओ को पड़र भिक्षु बताया है, जो ठीक नहीं। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २७५ वस्तुत मखलि गोशाल और उनके सिद्धातो की परंपरा विच्छिन्न हो जाने (या विच्छिन्न कर दिये जाने) के कारण यह सब घोटाला हुआ जान पडता है। चित्रपत्र दिखाकर आजीविका चलाने वाले को मख कहा है (बृहत्कल्प माज्य पीठिका २०० आवश्यकचूर्णी, पृ० ६२, २८२), फिर भी अश्वघोप जसे विद्वान् ने 'मत गिर' (मा खलि) इत्यादि व्युत्पत्ति प्रस्तुत कर अपने को उपहास का ही भाजन बनाया है। ८ अधगवहि यादववशी एक सुप्रसिद्ध राजा। लेकिन अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र की टीका (१८ ३, पृ० ७४५ अ) मे इस शब्द का निम्नलिखित अर्थ किया है अहिपा-वृक्षास्तेपा वयस्तदाश्रयत्वेनेत्यहिपवहयो बादरतेजस्कायिका इत्यर्य । यहा बादरतेजस्कायिक जीवो को अवगवहि बताया गया है लेकिन इस ___ अर्थ के बारे मे पूर्णतया अस दिग्ध न होने से टीकाकार दूसरो की मान्यता भी प्रस्तुत करते हैं अन्ये त्वाहु -अधका अप्रकाशका सूक्ष्मनामकर्मोदयाये वह्नयस्ते अधकवह्नयो जीवा , यहा सूक्ष्म अग्निकायिक जीवो को अधकवहि कहा है। गुणभद्र ने उत्तरपुराण मे (७० ६४) मे अधगवहि को अधकति रूप मे प्रस्तुत कर अधकवृष्टि के रूप मे उल्लिखित किया है, इससे भी इस विषय मे एकमत न होने का ही समर्थन होता है। ९ वीतिभय--सिन्धु-सौवीर की राजधानी मानी गयी है। चम्पा से वीतिभय पहुचकर वीतिभय के राजा उद्रायण को भगवान महावीर द्वारा श्रमण दीक्षा देने का प्रसग भगवतीसूत्र में उल्लिखित है। टीकाकार अभयदेव सूरि ने वीतिमय की निम्नलिखित व्याख्या की है विगता ईतयो भयानि च यतस्तद्वीतिभय, विदर्भ इति केचित् (भगवती १३६), अर्थात् जिस स्थान पर भय की आशका न हो, वह वीति भय है। अपनी इस व्याख्या से सतुष्ट न होने के कारण आगे चलकर टीकाकार को अन्य किसी आचार्य का मत उद्धृत करना पडा, जिसने विदर्भ को वीतिभय स्वीकार किया है। वस्तुत वीतिभय सिन्धु-सौवीर का मुख्य नगर था अतएव विदर्भ से उसकी पहचान नहीं की जा सकती। १० कुत्तियावण- की टीकाकारो द्वारा दी हुई व्याख्या ऊपर आ चुकी है । और भी कितने ही शब्द ऐसे है जिन्हे उदाहरण रूप मे प्रस्तुत किया जा सकता है, किन्तु विस्तारभय से ऐसा न कर कुछ गिने-चुने शब्दो से ही सतोष किया जा रहा है। कर्पूरमजरी के विद्वान् सपादक डॉ. मनमोहन घोष ने अपनी भूमिका मे ठीक ही लिखा है कि प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह जाने से आगे चलकर इसके रूप नियत करने मे काफी कठिनाई का सामना करना पडा। नतीजा यह हुआ कि इतस्तत विखरे हुए प्राकृत साहित्य को पढ़-पढ़कर ही वैयाकरण अपने सूत्रो को ढने लगे। ऐसी हालत मे प्राकृत व्याकरण सबधी जो विवेचन उन्होने प्रस्तुत Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा किया, उसका अस्पष्ट और अपूर्ण रह जाना स्वाभाविक था। वस्तुत जिस साहित्य का विश्लेषण कर वे लोग व्याकरण के सूत्रो की रचना कर रहे थे, वह सर्वथा भिन्न काल का साहित्य था। ऐसी दशा मे जैन आगम साहित्य के मूल रूप का निर्धारित करना कठिन ही नही, असभव जान पडता है। फिर भी इतना तो किया ही जा सकता है कि प्रामाणिक मूल प्रतियो की सहायता से जैन आगमो और उनकी प्राचीन टीकाओ के समालोचनात्मक (क्रिटिकल) सस्करण प्रकाशित किये जाये । इस दिशा मे भगवान महावीर की पचीसवी निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष मे जैन विश्वभारती, लाडनू द्वारा आगम-ग्रन्थो का प्रकाशन एक स्तुत्य प्रयत्न है। आगम ग्रन्यो का पालि त्रिपिटक के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने की आवश्यकता है, इससे आगमो का विषय अधिक स्पष्ट हो सकेगा और विषय की पूर्वापर ऐतिहासिक दृष्टि हमारे समक्ष आ सकेगी । आगमो के प्रत्येक आगम का पृथक् रूप से समयनिर्धारण की भी बहुत आवश्यकता है । यह कार्य आगमो मे उल्लिखित विषयवस्तु के विश्लेषणात्मक अध्ययन से सभव हो सकता है। जरूरत इस बात की है कि आगम-साहित्य को देश-विदेश मे उपादेय बनाने के लिये तुलनात्मक व्यापक दृष्टि से उनका अध्ययन और चितन किया जाये। हरगोविन्ददास सेठ के हम अत्यन्त आभारी है जिन्होने प्राकृत की अनेक हस्तलिखित प्रतियो का अध्ययन कर ई० १९२८ मे पाइअसहमहण्णवो जैसा महत्वपूर्ण कोष प्रकाशित किया। किन्तु क्या पिछले ४८ वर्षों में इस दिशा मे हमने कुछ प्रगति की है ? १६६३ मे प्राकृत टैक्स्ट सोसायटी की ओर से इसका कायाकल्प किया गया, किन्तु मुनिराज श्री पुण्य विजयजी द्वारा सूचित कतिपय शब्दो को छोडकर उसे ज्यो का त्यो छाप दिया गया। कहने की आवश्यकता नही कि प्राकृत के कितने ही महत्त्वपूर्ण शब्दो का इस कोप मे समावेश नही है। आगमो के अन्तर्गत छेदसूत्रो के भाष्य एव चूर्गी-साहित्य मे कितनी सामाजिक एव सास्कृतिक सामग्री भरी पडी है, यह कहने की आवश्यकता नही। जैनकया साहित्य तो इस प्रकार की सामग्रो का अनुपम भडार है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह समस्त साहित्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भापाविज्ञान के पडितो का लक्ष्य इस और अभी तक नही पहुचा है। दिगम्बरो के प्राचीन ग्रन्य भगवती आराधना, मूलाचार आदि के तुलनात्मक अध्ययन की भी कुछ कम आवश्यकता नही। इस अध्ययन से दिगवर-श्वेतावर परपरा के मतभेद की गुत्थियो पर प्रकाश पड सकेगा। भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् भारतीय विद्या के क्षेत्र मे जो महत्त्वपूर्ण खोजबीन हुई है, उसका पर्याप्त लाभ उठाया जा सकता है। Page #305 --------------------------------------------------------------------------  Page #306 --------------------------------------------------------------------------  Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरसेनी आगम-साहित्य की भाषा का मूल्यांकन पं० हीरालाल सिद्धान्ताचार्य आचार्य हेमचन्द्र ने महाराष्ट्री प्राकृत से विभिन्नता बतलाते हुए शौरसेनी प्राकृत की विशेषताओ का कुछ वर्णन अपने प्राकृत व्याकरण में किया है । परन्तु यह नाम कसे ५डा, २सका कुछ उल्लख उन्होने नहीं किया है। पड्भापाचन्द्रिकाकार ने उसका स्व९५ इस प्रकार बतलाया है शूरसेनोद्भवा भाषा शोरमेनोति गीयते' अर्थात् शूरसेन देश मे उत्पन्न हुई भाषा शौरसेनी कही जाती है । यह शूरमेन देश कौन मा है ? यह विचारणीय है । पन्नवणासून के "सात्तियमया चेदी वीतभय मिन्धुसोवीरा। महु। य सूरमेणा पावा भगीय मास पुस्विट्टा॥" 5मकी टीका करते हुए आचार्य मलय गिरि सूरसेन देश की राजधानी पावा बतलाते हैं । यथा-- "वेदिषु शुक्तिकाती, वीतमय सिन्धुपु, सौवीरेषु मथुरा, सूरसेनेपु पावा, भगिपु मास पुस्विट्टा"। इस उल्लेख के अनुसार सूरसेन की राजधानी पावा वतलाकर वे विहार प्रान्त के अन्तर्गत सूरसेन देश का होना मानते है। किन्तु नेमिचन्द्र सूरि ने अपने प्रवचनमारोद्धार गन्य मे पन्नवणासूत्र के उक्त पाठ को अविकल रूप से उद्धत किया है और उसकी टीका में श्री सिद्धसेन सूरि ने मलय गिरि की उक्त व्याख्या को 'अतिव्यवहृत' कहकर उक्त पाठ की व्याख्या इस प्रकार की है ___"शुक्तिमती नगरी चेदयो देश , वीतभय नगर सिन्धुसोवीरा जनपद , मथुरा नगरी सूरसेनाख्यो देश , पापा नगरी भड्कयो देश , मासपुरी नगरी वर्तादेश"। इसमे स्पष्ट रूप से मथुरा नगरी को सूरसेन देश की राजधानी बताया गया है। इससे यह सिद्ध है कि मथुरा के समीपवर्ती देश को शूरसेन या सूरसेन देश कहा जाता था। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा भ० अरिष्टनेमिके पूर्वजो मे शूरसेन राजा हुए हैं, वे शीर्थपुर नगर के स्वामी थे। यया अवार्य निज शायण निजिताशेप विहिप ।। ख्यातशौर्यपुराधीशमूरमेनमहीपते ।। ६३ ।। सुतस्य शूरवीरस्य धारिण्याच तनूभयो । विख्यातोऽन्धकवृष्टिश्च पतिप्टिन रादिवाक् ॥ १४॥ धर्मा पान्धकवृष्ट५च मुभद्रायाश्च तुवरा । समुद्रविजयोऽक्षोभ्यस्तत स्तिमितसागर ।। ६५ ।। हिमवान् विजयो विद्वानचलो धारणाय । पूरण पूरितार्थीच्छो नवमोऽप्यभिनन्दन ।। ६६ ।। वसुदेवोऽन्तिमश्चैव दशाभूवन शशिप्रभा । कुन्ती माद्री च सोमेवा सुते प्रादुर्वभूवतु ।। ६७ ॥ (उत्तर पुराण, पर्व ७०) अर्थात् राजा सूरसेन के शूरवीर पुत्र के दो पुत्र हुए--अन्धकवृष्टि और नरवृष्टि । अन्धकवृष्टि के १ समुद्रविजय, २ अक्षोभ्य, ३ स्तिमितसागर, ४ हिमवान्, ५ विजय, ६ अचल, ७ धारण, ८ पूरण, ६ अभिनन्दन और १० वसुदेव, ये दश पुत्र हुए। आज भी शीर्थपुर नगर सीरीपुर वटेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है और जो मयुरा के समीप ही है । इस उल्लेख से यह वात सिद्ध है कि मयुरा के आस-पास का प्रदेश शूरसेन नाम से प्रसिद्ध था और उस देश की भापा शौरसेनी कहलाती थी। उक्त उल्लेख से इस भापा की प्राचीनता अरिष्टनेमि से भी पूर्ववर्ती काल तक पहुंचती है। शौरसेनी भाषा की कुछ विशेषताए आ० हेमचन्द्र ने इस प्रकार बतलाई है--- १ (तो दो ४,२६०) त के स्थान पर द, यथा तत तदो, पूरित પૂરિયો, મારુતિ ભાવિ ભાવિ . २ (अध क्वचित् ४,२६६) महान्त महन्दो, निश्चिन्त णिचन्दो, अन्त पुरम् अन्देसर आदि। ३ (वादेस्तावति ४,२६२) तावत् ताव, दाव । ४ (मो वा ४, २६४) भो राजन् भो राय, विजयवर्मन् विजयवझ आदि। ५ (भवद् भगवतो ४,२६५) भवान् भव, भगव, भयव आदि। ६ (न वा र्यो य्य ४,२६६) मार्यपुन अय्यउत्त, पक्षे अज्जपुत्त आदि। ७ (थो घ ४,२६७) ययति धेदि, कहेदि, नाथ णाधो, णाही, कय कध कह, राजपथः- राजपयो, राजपहो आदि। ८ (इह होर्यस्य ४,२६८) इह इच, भवथ-होध, होह, परियायध्वे परित्तायध, परित्तावह आदि। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरसेनी आगम साहित्य की भाषा का मूल्याकन २८१ ६ भुवो भ ४,२६६) भवति –भोदि, होदि, भुवदि, हुवदि, भवदि, हदि __ आदि। १० (क्त्व इय दूणौ ४,२७१) भूत्वा-- भविय, भोदूण, हविय, होदूण, पठित्वा पढिय, पढिदण, त्वा रमिया रन्दूण आदि। ११ (कृ गमो उडुअ ४,२७२) कृत्वा, कडुअ, गडुअ, पक्षेकरिय, कारण, गत्वा गच्छिय गच्छिदूण आदि। १२ (दि रि चे चो ४,२७३) नयति –ने दि, ददाति देदि, भवति भोदि, होदि। १३ (अतो देश्च ४,२७४) आस्ते अच्छदि, अच्छदे, गच्छति गच्छदि, गच्छेदे, करोति - किज्जदि, किज्जदे आदि। १४ (भविष्यति रिस ४,२७५) भविष्यति- भविस्सिदि, करिष्यति करिस्सिदि आदि। १५ (तस्माता ४,२७८) तस्मात् ता। संस्कृत नाटको मे प्राकृत गद्याश प्राय शौरसेनी भाषा मे लिखे गए है । अश्वघोष भास और कालिदास के नाटको मे तथा इनके परवर्ती नाटको मे प्राय शौरसनी के उदाहरण दिखाई देते हैं। ___ ऊपर जा हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के सूत्र और नियम दिए गए है, प्राय वे ही नियम, उनसे मिलते-जुलते सूत्र और प्रयोग वररुचि, लक्ष्मीधर और त्रिविक्रम आदि के प्राकृत व्याकरणो मे भी पाए जाते है। दण्डी, रुद्रट और वाग्भट आदि ने भी अपने ग्रन्थो मे इस भाषा का उल्लेख किया है। भरत के नाट्यशास्त्र मे भी सौरसेनी भाषा का उल्लेख इस प्रकार उपलब्ध है 'नायिकाना सखीना च सूरसेनाविरोधिनी' अर्थात् नायिका स्त्री और उनकी सखियो के लिए सौरसेनी का प्रयोग अविरोधी है। इस प्रकार शौरसेनी या सौरसेनी भाषा की प्राचीनता और उद्गम स्थान शात हो जाने पर स्वभावत ये प्रश्न उपस्थित होते हैं (१) क्या वे सब दिगम्बर आचार्य शूरसेन देश के ही निवासी थे, जिन्होने कि अपने ग्रन्थो की रचना शौरसेनी मे की है ? । (२) यदि नही थे, तो फिर दि० कुन्दकुन्दाचार्य और नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती जैसे दक्षिण प्रान्त मे जन्मे अनेक दि० आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थो की रचना शौरसेनी प्राकृत मे ही क्यो की? (३) अथवा इसमे रचना करने का और कोई अन्य कारण विशेष रहा है, जिससे प्रेरित होकर प्राय सभी दिगम्बर आचार्यों ने इसे अपनाया है ? उक्त प्रश्नो का समाधान करने के पूर्व यह ज्ञातव्य है कि भारतवर्ष मे उत्तर से Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा दक्षिण तक जाने-आने का जो मध्य मार्ग था और जिसमे हिन्दुओ के परम उपास्य श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, वह मयुरा नगरी इस उत्तरापथ और दक्षिणापथ के मध्य मे पडती है। आज भी सुदूर दक्षिण के तीर्थयात्री जव उत्तर प्रान्तो के तीर्थों की यात्रार्य निकलते है तो वे उत्तर के बदरीनारायण, गगोती, और कैलाश की यात्रार्थ जाते-आते हुए मध्यवर्ती मथुरा मे अवश्य उतरते है। इस आवागमन से आज भी दक्षिणयात्री जमे इस शूरसेन देश की राजधानी मयुरा की वर्तमान भाषा हिन्दी से परिचित हो जाते है, उमी प्रकार श्री कृष्ण के समय इस देश में बोली जाने वाली शौरसेनी से परिचित हो जाते थे। __ अब हम ऊपर दिए गए प्रथम प्रश्न का समाधान करेंगे दि. जैन ग्रन्थो, अनुश्रुतियो एव दक्षिण मे प्राप्त अनेक शिलालेखो से यह सिद्ध है कि आ० भद्रवाई श्रुत-केवली के समय उत्तर भारत मे १२ वर्ष का भयकर दुकाल पडा था। अपने निमित्तज्ञान से जब आ० भद्रवा ने यह जाना कि निकट भविष्य मे ही भयकर दुष्काल पउनेवाला है तो अपने मधस्थ २४ हजार साधुओ को सम्बोधित करते हुए इस देश को छोडकर सुदूर दक्षिण देश मे चलने को कहा। उसमे से १२ हजार साधु तो उनके साय दक्षिण देश को चले गए। किन्तु शेप १२ हजार इधर के श्रावको के आग्रह और दुर्भिक्षकाल मे भी भिक्षा-सुलभता के आश्वासन पर स्यूलभद्र के नेतृत्व मे यही उत्तरभारत मे रह गये। ___ उक्त परिप्रेक्ष्य मे यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि जो साधु भद्रवाहुश्रुतकेवली के साथ दक्षिण प्रान्त मे गये, वे प्राय अधीतश्रुत एव गीतार्य थे, क्योकि उस समय अगो और पूर्वो का ५०न-पाठन प्रचलित था। दक्षिण प्रान्त की तात्कालिक भाषाए आज के समान ही उत्तर भारत की बोलचाल की भाषा से सर्वथा भिन्न थी, फिर भी उबर के निवासी उधर के सूरसेन देश की वोली से आवागमन के कारण परिचित थे, इस कारण उक्त सघ के बहुश्रुतज्ञ साधुओ ने अपनी ही बोली सौरसेनी मे उपदेश देना प्रारम्भ किया और समयानुसार ग्रन्थ रचना करना प्रारम्भ किया। अत. प्रारंभ मे जिन आचार्यों ने शौरसेनी भाषा मे ग्रन्यो की रचना की, उनमे अधिकतर उत्तर भारत के थे। इन हजारो साधुओ के दक्षिण प्रान्त मे विचरण से, उपदेश देने से एव सत्सा से दक्षिण देशवासी भली भाति परिचित हो गये थे, अत दक्षिण देश में जन्मे हुए पीछे के दिगम्बर आचार्यों ने भी उसी सर्वाधिक समझी जाने वाली शौरसेनी भाषा मे ही अपने ग्रन्थो की रचना की। (२) म प्रकार उth कथन से दूसरे प्रश्न का समाधान भी स्वयं ही हो जाता है । यत ५५चाद्वर्ती ग्रन्यकारो की मूल-परम्परा आ० भद्रबाहु तक पहुचती है, मत उनके संघस्थ साधुओ को जो वोलचाल की भाषा थी, और जिसे कि आज शौरसेनी नाम से कहा जाता है, उसी मे उन पीछे के दक्षिणी आचार्यों ने उत्तर Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरसेनी आगम साहित्य की भाषा का मूल्यांकन २८३ और दक्षिण के प्रान्तो मे समझी जाने वाली शौरसेनी भाषा मे ही अपने सिद्धान्तो का प्रतिपादन करना उचित समझा । (३) तीसरे प्रश्न का समाधान यह है कि जैसे प्राकृत की शाखा मागधी. अर्धमागधी, या महाराष्ट्री आदि प्राचीन बोलचाल की प्राकृतिक (स्वाभाविक ) बोलियो का संस्कार करके संस्कृत भाषा के रूप में तात्कालिक महर्पियो ने एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का निर्माण किया, और जो समान रूप से बिना किसी परिवर्तन के सारे भारतवर्ष मे समझी जाने लगी थी, उस सस्कृत भाषा के अति समीप या अत्यधिक साम्य होने के कारण परवर्ती दिगम्बर जैनाचार्यों ने शौरसेनी मे अपने ग्रन्थो की रचना करना अधिक उपयोगी और श्रेयस्कर समझा । यह बात इस नीचे दी जाने वाली तालिका से सहज मे ज्ञात हो सकेगी प्राकृत अइसय મંદિ अउभ अहर अहिगरण अधिगरण आमपिअ आकपिय आएस વેસ आउत्त इइ ईसा उदअ उड एअ ओइण्ण कई कडुअ कवलिअ शौरसेनी अदिसय અતિહિ गोआऊरी પલોય चक्क चलिअ યુવ अचिर कडुग कवलिद कोअड कोदड સેન गइ [માનુત્ત मागुत्त વિ इरिसा उदग पुड एग ओदिण्ण कदि સ્કેન વિ गोदावरी ઘોવ चदुक्क चलिद संस्कृत प्राकृत अतिशय अइरेअ अतिथि अईअ अयुत अकुरिअ अचिर સૈન્ अमअ आअव आमास अधिकरण आकम्पित આવેશ [ आयुक्त आगुप्त इति ફૈર્ષ્યા उदक पुट एक अवतीर्ण आवस्सअ શબ્દ [હિં ईइस उप्पायपुत्र कति एअत चतुष्क चलित कटुक વર્જિત कउह कोदण्ड करआ ओक्षण વેદ कायच તિ खाइर गोदावरी खोह ધૃતોવ ાળમ गोअ घाया શૌરસેની अदिरेग अदीद अकुरिद आरिय आगद आतब आगास आयास आयस्सय | अवस्सग इयाणि ફેનિસ उदु उप्पादपुव्व एगत બોળ ककुध करगा फादब खादिर खोभ गणग गोव घायग संस्कृत अतिरेक નતીત ઐતિ માર્ય आगत आताम्र आकाश आवश्यक इदानीम् ईदृक्, ईदृश ऋतु उत्पादपूर्व एकान्त સોવન फकुद करका (ओला) कादम्ब खादिर क्षोभ गणक ગોપ घातक Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा चाग છેવળ नदी તૃતીયા હતિદ્ર नर्तक तृतीय पगड प्रकृति ધ્રુવ ध्रुव वउर छ। उमरियम छादुमत्यिय छानस्थिक | चओर चगोर चकोर जड जदि યદ્રિ चाय त्याग छेअण છેવન तइय तदिय जी जाव નીવ दलिअ વનિતા पट्टा ट्रग अ धव धव (पति) तडअ તક્રિય ५३ दिआबर दिवागर दिवाकर फल फलग फलक धुआ वदर वदर [प्रकृत पय पाय सज सजद सयत प्रगत फुल्ल फुल्लग फुल्लक भिउर (विनश्वर) | हम हद हत अपर से दिये गये शब्द-रूपो के भेद से प्राकृत (महाराष्ट्री) और शौरसेनी का अन्तर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाता है । अब हम आ० कुन्दकुन्द रचित ग्रन्यो से कुछ प्रयोग उद्धत करते है, जिससे कि पाठक दि० शौरसेनी की विशेषता से स्वय परिचित हो जायेंगे। મદુર भिदुर समयसार से प्रयोग 5 પસક્રિય जाणगो भूदत्य आदा વંવિદ્રો थुदा (स्तुता) વિજ્ઞ બાહૂબ अविरदि ३० ५१ ७२ गायांक प्रयोग गायांक प्रयोग गाथांक વિવાદ્ધિની સુપરવિવાબુભૂવા ૪ जाणिदूण १७ अणुचरिदव्या २२ मोहिदमदी २३ इदर २६ નતિ वदिदो २८ थुणदि २६ कदा (कृता) णादूण ३४ एदे હોદ્યાવિહુ ६६ कुणदि ७४ परिणमदि ७८ कुपदि (करोति) ८५ ८८ आदा (आत्मा),६७, अप्पा, अत्ता ६४,६७, १०२ विधाद १०२ णादव १५६ १६० विजाणादि નિષ્ફળાવો १७१ બાળમુખાવો १६६ બાવમિ fમળદુ मुचदि १५०, २८१ વ્યવો નિદ્રિ વિક્લન્દ્રિ १६५ [छिज्ज . Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरसेनी आगम साहित्य की भाषा का मूल्याकन २८५ २१६ २११ अधम्मस्स पजाहिदूण वेददि आधाकम्म २१६ विणस्संदे २८७ जिज्जदि प्रवचनसार से चरित्तादो चदिद १,१ सपज्ज दि १,६ (जाणदि पहाणादो तिघ, तधा तधा १,६७ १,५५ १,१६ रजाणाद जाणादि अदिदिओ जिहदि किध (कथ) १७२ लहदि १,८१ समधिदन १,८६ पचास्तिकाय से १, पिज्जादि १४५ पेदिय १६६ इदसवदियाण षट् खण्डागमसूत्र (छक्खडागमसुत्त) णाणाणि १,१ इमाणि १,१ अणियोगद्दाराणि १,५ सजदासजदा १,१३ पमत्तसजदा १,१४ अप्पमत्तसजदा १,१५ ओदेसण १,२४ णिरयगदी आदि १,२४ असजदसामादिट्टी १,२७ छदुमत्था १,२७ साधारणसरीरा १,४१ सोधम्मीसाण १,६६ पुरिसदा १,१०१ पदुसु १,१०५ भदिअण्णाणी १,११६ इस प्रकार के प्रयोगो से सारा ग्रन्थ भरा हुआ है। कसायपाहुडसुत्त की सारी गाथाए शुद्ध शौरसेनी मे ही रची हुई है। यहा पर हम केवल एक गाथा ही उदाहरणार्थ देते है गाहासदे असीदे अत्थे ५०णरसधा विहत्तम्मि । वोच्छामि सुलगाहा जयि गाहा जम्मि अथिमि ॥२॥ रेखाकित तीनो पद स्५०८त शौरसेनी भाषा के परिचायक हैं। उक्त ग्रन्थो के पश्चात् जितने भी मूलाचार, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, भगवती आराधना, दर्शनसार, तिलोयपण्णत्ती, भावसग्रह, लब्धिसार, गोमटसार जीवाड, कर्मकाड आदि प्राकृत दि० जन ग्रन्थ है, वे सभी शौरसेनी मे ही रचे गये है। मैंने वसुनन्दि श्रावकाचार के परिशिष्ट न० ५ मे प्राकृत धातु रूप और परिशिष्ट न० ६ मे प्राकृत शब्द रूप सग्रह दिया है, उससे भी दि० ग्रन्थो की शौरसेनी भाषा को अपनाने की बात भली भाति सिद्ध होता है। इस प्रकार शौरसेनी प्राकृत का मूल उद्गम भले ही उत्तरी मथुरा का समीपवर्ती प्रदेश रहा हो, परन्तु दक्षिणी यानियो के उत्तर भारत में आने से तथा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा उत्तर प्रान्तीय भद्रबाहु के मुनि सघ के दक्षिण मे जाने से यह भाषा वहा पर (दक्षिणी मदुरा तक) अच्छी तरह समझी और बोली जाने लगी थी। यही कारण है कि शेषगिरि राव जैसे अजैन दक्षिणी विद्वान् ने अपने लेख 'दी एज आफ कुन्दकुन्द' मे लिखा है कि मेरे पास तमिल साहित्य में और लोक बोली में इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि जिस प्रकार की प्राकृत मे आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने अन्य निवद्ध किये हैं, वह केवल समझी ही नही जाती थी, बल्कि आन्ध्र और कलिग प्रदेशो मे जन-सामान्य के द्वारा बोली जाती थी। (जन गजट, १८ अप्रैल सन् १९२२ पृ० ६१) भाषा की दृष्टि से विचार करने पर यह कयन पूर्णरूपेण सत्य प्रतीत होता है। ___ आ० हेमचन्द्र ने सज्ञा शब्दो के जो सातो ही विभक्तियों में अनेक रूप दिये है, उनमे से शौरसेनी भाषा मे कुछ सीमित ही रूप अपनाये है, जो कि संस्कृत के साथ वहुत अधिक साम्य रखते है । यथा प्राकृत शौरसेनी । संस्कृत प्राकृत | शौरसेनी सस्कृत ठाणाइ ठाणाणि स्यानानि | एए । एदे । एते। वच्छाओ | वच्छादो वृक्षात् | अच्छीइ | अच्छीणि | अक्षीणि इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत की अपेक्षा शौरसेनी के धातुरूप भी सस्कृत के बहुत अधिक समीप है । यथा प्राकृत शौरसेनी । सस्कृत । प्राकृत शौरसेनी सस्कृत भवदि भवति । गच्छई गच्छदि गच्छति भवभवदु भवतु गच्छउ | गच्छदु । गच्छतु इस प्रकार जन-साधारण को सुगम होने से बहुजन हिताय दि० जनाचार्यों ने अपनी रचनाए शौरसेनी प्राकृत मे की हैं। भव Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं अपभ्रश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं पर प्रभाव डॉ० महावीर सरन जैन प्राकृत एव अपभ्रश के विविध भाषिक रूपो से ही आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ के विविध रूपो का विकास १०वी से १२वी शताब्दी के बीच मे हुआ। यह बात अलग है कि इस विकास परम्परा का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करना एक सीमा तक असम्भव सा है। इस सवध मे अभी तक जितने कार्य सम्पन्न हुए है उनमे अधिकाशत अज्ञात से ज्ञात की ओर आया गया है। इस सम्बन्ध मे यह ध्यान रखना जरूरी है कि सात से अज्ञात की ओर वैज्ञानिक ढग से उन्मुख होने पर ही अज्ञात अनुपलब्ध रूपो को पुनर्निर्मित किया जा सकता है और पुननिर्माण के सिद्धान्तो पर अविलम्बित होकर ही प्राकृत से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ तक की विकास यात्रा का वैज्ञानिक अध्ययन अशत सम्पन्न किया जा सकता है । आज हमारे पास प्राकृत एव अपभ्र श की जो सामग्री उपल०ध है उसके आधार पर आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ के विकास की सारी कडिया अलगअला सुस्पष्ट रूप से जोड पाना दुष्कर कार्य है । इसके निम्नलिखित कारण है १ हमारे पास प्राकृत युग एव अपभ्रश युग के साहित्यिक भाषिक रूप ही उपलब्ध है। मध्य भारतीय आर्य भापाकाल मे उसके सम्पूर्ण क्षेत्र मे विभिन्न भोपाओ के जो विविध क्षेत्रीय एवं वर्गीय भाषिक रूप बोले जाते हो, वे उपलब्ध नहीं है। २ प्राकृत एव अपभ्र श के जो साहित्यिक भापिक रूप प्राप्त है उनके क्षेत्रीय प्रभेदो का विवरण मिलता है । इस सम्बन्ध मे विचारणीय यह है कि उपलब्ध क्षेत्रीय भेद आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ यथा पजावी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बगला, असमिया, उडिया आदि की भाति भिन्न साहित्यिक भावार्य है अथवा उस काल की किसी एक ही साहित्यिक प्राकृत अथवा Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा माहित्यिक अपभ्र श के विभिन्न क्षेत्रीय रूप है। दूसरे शब्दो मे प्राकृतो के उपलब्ध क्षेत्रीय २५ भिन्न-भिन्न भापार्य हैं अथवा किसी एक ही भाषा के क्षेत्रीय रूप हैं। 5- दृष्टि से जब हम विविध प्राकृत रूपो ५२ विचार करते है तो पाते हैं कि इनका नामकरण विभिन्न दूरवर्ती क्षेत्रों के आधार पर हुआ है तथापि इनमे केवल उच्चारण के धरातल पर थोडे से ध्वन्यात्मक अन्तर ही प्रमुख है। महाराष्ट्री मे स्वर बाहुल्यता है, हिस्वरान्तर्गत व्यजन का लोप हो जाता है तथा श् , स् सची वनिया काकल्य सघी 'ह' मे बदल जाती है । शौरसेनी मे द्विस्वरान्तर्गत स्थिति में अघोप व्यजनो का घोपीकरण हो जाता है। मागधी प्राकृत मे >ल् मे तथा मूर्वन्य प्' तथा दन्त्य 'म्' >तालव्य 'श्' मे परिवर्तित हो जाते है । अर्धमागधी प्राकृत मे दन्त्य > मूर्धन्य तथा मूर्धन्य ‘प्' एव तालव्य 'श्' > दन्त्य 'स्' मे परिवर्तित हो जाते है तथा हिवरान्तर्गत श्रुति का आगम हो जाता है। पंशाची प्राकृत मे सघोष >अधो५, र >ल तथा मूर्धन्य प्'> श् स् मे परिणत हो जाते है। प्राकृतो के ये अन्तर अथवा इनकी विशिष्ट विशेषताये इतनी भेदक नहीं हैं कि इन्हें अलग-अलग भाषाओ का दर्जा प्रदान किया जा सके। मराठी, हिन्दी, गुजराती, वगला आदि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे केवल थोडे से ७०पारणगत भेद ही नही है अपितु इनमे भापागत भिन्नता है, पारस्परिक सरचनात्मक एक व्यवस्थागत अन्तर है तया पारस्परिक अवोधन का अभाव है। आज कोई मराठी भापी मराठी भाषा के द्वारा मराठी से अपरिचित हिन्दी, वाला, गुजराती आदि किमी आधुनिक भारतीय आर्य भाषा के व्यक्ति को भापात्मक स्तर पर अपने विचारों, सवेदनाओ का बोध नहीं कर पाता। भिन्न भापी व्यक्ति अभिप्रा को मकेतो, मुख मुद्राओ, भावभगिमाओ के माध्यम से भले ही समजावे, भाषा के माध्यम से नहीं समझ पाते । किन्तु अर्धमागधी का विद्वान् मागधी अथवा शो सेनी अथवा महाराष्ट्री प्राकृत को पढकर उनमे अभिव्यक्त विचार को समझ लेता है। इस रू५ मे जो साहित्यिक प्राकृत रूप उपलब्ध हैं उनका नामकरण भले ही सुदूरवर्ती क्षेत्रो के आधार पर हुआ हो किन्तु तत्वत ये म यु। के जन-जीवन मे उन विविध क्षेत्रो मे वाली जाने वाली भिन्न-भिन्न भाषाय नहीं है और न ही आज की भाति इन क्षेत्रो मे लिखी जाने वाली भिन्न माहित्यिक मापाय हैं, प्रत्युत एक ही मानक अथवा साहित्यिक प्राकृत के क्षेत्रीय स्प हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि दसवी-बारहवी शताब्दी के बाद तो भिन्न-भिन्न भाषाय विकमित हो गई हो किन्तु उसके पूर्व प्राकृत युग मे पूरे क्षेत्र मे भापात्मक अन्त' न रहे हो । आधुनिक युग मे भारतीय आर्य भापा क्षेत्र' मे जितने भापात्मक Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एव अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव २८९ अन्तराल है उसकी अपेक्षा प्राकृत युग में भारतीय आर्य भाषा क्षेत्र' मे भाषात्मक अन्तराल कम होने का तो प्रश्न ही नही उठता, ये निश्चय ही बहुत अधिक रहे होगे । प्राकृत युग १ ईस्वी से ५०० ईस्वी तक है । आधुनिक युग की अपेक्षा डेढदो हजार साल पहले तो सामाजिक-सम्पर्क निश्चित ही बहुत कम होगा फिर भापात्मक अन्तराल के कम होने का सवाल कहा उठता है ? सामाजिक सम्पर्क जितना सधन होगा, भाषा विभेद उतना ही कम होगा। आधुनिक युग मे तो विभिन्न कारणो से सामाजिक सम्प्रेषणीयता के सावनो का प्राकृत युग की अपेक्षा कई कई गुना अधिक विकास हुआ है । इनके अतिरिक्त नागरिक जीवन, महानगरी का सर्वभाषायी स्वरूप, यायावरी वृनि, शिक्षा, भिन्न भाषायी क्षेत्रो मे वैवाहिक, व्यापारिक एव सास्कृतिक सबध तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष मे एक केन्द्रीय शासन आदि विविध तत्त्वो के द्रत विकास एवं प्रसार के कारण आज भिन्न भाषाओ के बीच परस्पर जितना आदान-प्रदान हो रहा है उसकी डेढ दो हजार साल पहले कल्पना भी नही की जा सकती थी। इनके अतिरिक्त आधुनिक भारतीय आर्य भाषा काल मे तो अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओ की शब्दावली, ध्वनियो एव व्याकरणिक रूपो ने सभी भाषाओ को प्रभावित किया है। इतना होने पर भी आज भी भिन्न-भिन्न क्षेत्रो की भाषाओ मे पारस्परिक वोधगम्यता नही है । आज भारतीय आर्य भाषा क्षेत्र मे जितनी भिन्न भाषाय एव किसी भाषा के जितने भिन्न-भिन्न उपरूपो का प्रयोग होता है प्राकृत युग मे तो उस क्षेत्र मे निश्चित रूप से अपेक्षाकृत अधिक संख्या मे भिन्न भाषाओ तथा उनके विभिन्न क्षेत्रीय उपरूपो का प्रयोग होता होगा किन्तु हमे आज जो प्राकृत रूप उपलब्ध हैं वे एक ही प्राकृत के क्षेत्रीय रूप है जिनमे बहुत कम अन्तर है एक भाषा की क्षेत्रीय बोलियो मे जितने अन्तर प्राय होते है उससे भी बहुत कम । भाषा की बोलियो के अन्तर तो सभी स्तरो पर हो सकते हैं जबकि इन तथाकथित भिन्न प्राकृतो मे तो केवल उन्चारणगत भेद ही उपलब्ध हैं। विभिन्न प्राकृतो को देश भाषाओ के नाम से अभिहित किया गया है किन्तु तात्त्विक दृष्टि से ये देश की अलग-अलग भापायें न होकर एक ही प्राकृत भाषा के देश भाषाओ से रजित रूप हैं। एक ही मानक साहित्यिक प्राकृत के विविध क्षेत्रीय रूप है जिनमे स्वभावत विविध क्षेत्रो की उच्चारणगत भिन्नताओ का प्रभाव समाहित है । आधुनिक दृष्टि से समझना चाहे तो ये हिन्दी, मराठी, गुजराती की भाति भिन्न भाषायें नही है अपितु आधुनिक साहित्यिक हिन्दी भाषा के ही 'कलकतिया हिन्दी,' 'वनइया हिन्दी,' 'नागपुरी हिन्दी' जैसे रूप है। मेरी इस प्रतिपत्तिका का आधार केवल भाषा वैज्ञानिक ही नही है, इसकी पुष्टि अन्य स्रोतों से भी सम्भव है । भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र मे यह विधान किया है कि नाटक मे चाहे शौरसेनी भाषा का प्रयोग किया जाये चाहे अपनी Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा इच्छानुसार किसी भी देशभापा का, क्योकि नाटक मे नाना देशो मे उत्पन्न हुए काव्य का प्रसग आता है। उन्होंने देश भापाओ का वर्णन करते हुए उनकी संख्या सात बतलायी है (१) मागवी, (२) आवती, (३) प्राच्या, (४) शौरसेनी, (५) अर्धमागधी, (६) वालीका, (७) दाक्षिणात्य।।। इस विवेचन के आधार पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि भरत मुनि सात भापाओ की वात कर रहे है किन्तु यदि हम सदर्भ को ध्यान में रखकर विवेचना करे तो पाते हैं कि भरत मुनि यह विधान कर रहे है कि नाटककार किसी भी नाटक में इच्छानुसार देश प्रसग के अनुरूप किसी भी देश भाषा का प्रयोग कर सकता है। कोई भी नाटककार अपने नाटक मे पानानुकूल भापा नीति का समर्थक होते हुए भी विविध भापाओ का प्रयोग नहीं करता, नही कर सकता। इसका कारण यह है कि उसे ऐसी भाषा का प्रयोग करना पड़ता है जिसका अभिनेता ठीक प्रकार उच्चारण कर सके और उस नाटक का दर्शक समाज भिन्न-भिन्न पात्रो के भिन्न-भिन्न सम्वादो को समझ सके। यदि सम्प्रेषणीयता ही नही होगी तो रस' कैसे उत्पन्न होगा ? यही कारण है कि समाज के विविध स्तरा एव विभिन्न क्षेत्रो के पात्रो के स्वाभाविक चरित्र-चित्रण की दृष्टि से पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग करते समय एक ही भाषा के विविध रूपो तया उस भाषा के अन्य भापियो के ७.पारण-लहज़ो के द्वारा प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। कोई हिन्दी नाटककार अपने हिन्दी नाटक मे वगला भापी पान से गला भापा मे नही बुलवाता अपितु उसकी हिन्दी को वगला उच्चारण से रजित कर देता है। इस दृष्टि से सात देश भाषायें अलग-अलग भाषाय नहीं हैं, किसी एक ही साहित्यिक प्राकृत के भिन्न देशो की भाषाओ से रजित रूप है। यदि ये देश भाषाये अलग-अलग भापाये ही होती तो मरत मुनि यह विधान न करते कि अन्त - पुरनिवासियो के लिए मागधी, चेट, राजपुत्र एव सेठी के लिए अर्ध मागधी, विदूपकादिको के लिये प्राच्या, नायिका और सखियो के लिए शौरसेनी मिश्रित आवती, यो हा, नागरिको और जुआडियो के लिए दाक्षिणात्या और उदीच्य, खमो, शबर, शको तथा उन्ही के समान स्वभाव वालो के लिए उनकी देशी भाषा पालीका उपयुक्त है। जहा तक इन तयाकथित भिन्न प्राकृतो के प्रयोग का प्रश्न है शौरसेनी प्राकृत का उपयोग म कृत नाटको मे गध की भाषा के रूप में हुआ है। भागवी प्राकृत मे कोई स्वतन्त्र रचना नही मिलती। संस्कृत नाटककार निम्न श्रेणी के पानी मे मागधी का प्रयोग कराते है । अर्थ मागधी में मागधी एव शौरसेनी दोनो की प्रवृत्तिया पर्याप्त मात्रा मे मिलती हैं। महाराष्ट्री प्राकृत को आदर्श प्राकृत कहा गया है। दण्डी ने यद्यपि महाराष्ट्री को महाराष्ट्र आश्रित भाषा कहा है तथापि मत्य यह है कि यह क्षेत्र विशेष की प्राकृत न होकर शौरसेनी प्राकृत का परवर्ती विकमित ५५ है। यह जरूर विवादास्पद है कि शौरसेनी एव महाराष्ट्री Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव २६१ का अन्तर कालगत है अथवा शैलीगत | कालगत अन्तर मानने वालो का तर्क है कि प्राकृत के वैयाकरणो ने महाराष्ट्री का अनुशासन आठवी शताब्दी के पश्चात् निबद्ध किया है । डा० मनमोहन घोप ने स्थापित किया कि प्राचीन शौरसेनी महाराष्ट्री की जननी है। डा० सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ने भी शौरसेनी प्राकृत तथा शौरसेनी अपभ्रंश के बीच की एक अवस्था को महाराष्ट्री प्राकृत माना है ।" इनका शैलीगत अन्तर मानने वालो मे स्टेन कोनो प्रमुख है, जिन्होने यह नियम प्रतिपादित किया कि पद्य की महाराष्ट्री एव गद्य की शौरसेनी होती है । शौरसेनी मे द्विस्वरान्तर्गत व्यजनो का घोषीकरण अर्थात् व्यजन वर्ग के प्रथम व्यजन के स्थान पर उसी वर्ग के तृतीय व्यजन की स्थिति पायी जाती है जबकि महाराष्ट्री मे द्विस्वरान्तर्गत व्यजनो का लोप होकर स्वर बाहुल्य स्थिति हो जाती है । डा. मनमोहन घोष ने विकास एव शैली मे तारतम्य स्थापित कर प्रतिपादित किया कि पहले शौरसेनी प्राकृत थी जिसमे गद्य रचना हुई। संस्कृत के नाटककार जब गद्य मे पानी से वार्तालाप कराते थे तो शौरसेनी प्राकृत का उपयोग करते थे क्योकि वह तत्कालीन जनता के भाषिक रूपो के निकट थी। बाद मे उसका विकास महाराष्ट्री प्राकृत के रूप में हुआ । जब कवियो ने पद्यरचना मे महाराष्ट्री प्राकृत का उपयोग किया तो उन्होने मृदुता के लिए व्यजनो का लोप कर भाषा को स्वर बाहुल्यता प्रदान कर दी । प्राकृतो की भाति अपभ्रशो की भी स्थिति है । अपभ्रंश शब्द के भापागत प्रयोग का जो प्राचीनतम उल्लेख प्राप्त है उसमे तो अपभ्रंश किसी भाषा के लिए प्रयुक्त न होकर संस्कृत के विकृत रूपो के लिए प्रयुक्त मिलता है । नाट्यशास्त्रकार के समय प्राकृतो के युग मे अपभ्रंश एक बोली थी । कालान्तर मे इस बोली रूप अपभ्रंश पर आधारित मानक अपभ्रश का उत्तरोत्तर विकास हुआ जिसका स्वरूप स्थिर हो गया । अपनी इसी स्थिति के कारण हिमालय से सिन्धु तक इसका रूप उकार बहुल । था । प्राकृतो के साहित्यिक युग के पश्चात् उकार बहुला अपभ्रंश साहित्यिक रचना का माध्यम बनी । आठवी नौवी शताब्दी तक राजशेखर के समय तक यही अपभ्रंश सम्पर्क भाषा के रूप मे पजाव से गुजरात तक व्यवहृत होती थी । "समस्त मरुएव टक्क, और भादानक से अपभ्रंश का प्रयोग होता है "" तया सौराष्ट्र एव त्रिवणादि देशो के लोग सस्कृत को भी अपभ्रंश के मिश्रण सहित पढते है' जैसी उक्तिया इसकी परिचायक हैं । आगे चलकर इसी मानक साहित्यिक अपभ्रंश रूप के विविध क्षेत्रो मे उच्चारण भेद हो गए। नौवी शताब्दी में ही रुद्रट ने स्वीकार किया कि अपभ्रंश के देशभेद से बहुत से भेद है ।" अपभ्रंश भाषा के उपनागर, आभीर एव साम्य भेदो को 'भूरिभेद' कहकर Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा अर्यात् भूमि की भिन्नता के कारण एक ही भापा के स्वाभाविक भेद बतलाकर रुद्रट ने एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर सकेत किया है। ईसा की १२वी शताब्दी तक अपभ्र श लोकभाषा न रहकर साहित्य मे प्रयुक्त होने वाली रूढ भाषा बन चुकी थी। वस्तुत ११वी शताब्दी से तो आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ के प्राचीन भापा रूपो मे लिखित साहित्यिक ग्रन्थ मिलने आरम्भ हो जाते है। इसका अर्थ यह हुआ कि बोलचाल की भाषा के रूप मे तो अपभ्र श के विविध रू५ ६०० ई० या अधिक से अधिक १००० ई० तक ही व्यवहृत होते होगे । अपभ्र श के इन विविध रूपो की सामग्री, जिनसे विविध आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ का विकास हुआ, उपलब्ध नहीं है। अपभ्र श के देशगत भेद उसी प्रकार अथवा उससे भी अधिक विद्यमान रहे होगे जिस प्रकार आज आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ के भेद विद्यमान है। विष्णुधर्मोत्तरकार के अनुसार तो स्थान भेद के आधार पर अपभ्र श के भेदो का अन्त ही नही है ।१९ प्राकृत सर्वस्व से भी पता चलता है कि अपभ्र श के २७ भेद स्वीकृत थे।१२ ____ 'प्राकृतानुशासन' मे भी नागर, वाचड, उपनागर, पचाल, वैदर्भी, लाटी, ओड़ी, कैकेयी, गोडी, टक्क, वर्वर, कुन्तल, पाड्य तथा सिंहल आदि अपभ्र शो का उल्लेख है। अपभ्र श के विविध रूप बोले जाते थे इसमे कोई सन्देह नही है किन्तु इन भिन्न-भिन्न रूपो मे साहित्य उपलब्ध न होने के कारण इनका परिचय प्राप्त नही है । अपभ्र श साहित्य का विकास मालवा, राजस्थान तथा गुजरात मे ही हुआ। इन्ही प्रदेशो की अपभ्र शो के आधार पर विकसित साहित्यिक अपभ्र श मे साहित्यिक रचना हुई। इसी साहित्यिक अपभ्र श का रूप आज सुरक्षित है जिसमे कालान्तर मे प्रत्येक प्रदेश के साहित्यकारो ने साहित्य रचना की। इस प्रकार साहित्य के रूप मे जिस मानक अपभ्र श का प्रयोग हुआ है उसमे प्राकृतो की भाति यत्किचित स्थानीय भेदो की झलक तो है किन्तु वस्तुत वे एक ही साहित्यिक अपभ्र श भाषा के रूप हैं। ३ अपभ्र श के विविध रूपो से नि मृत होते समय आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ का जो रूप वोला जाता होगा उसकी भी हमे जानकारी नही है। इस प्रकार के विवरण तो उपलब्ध है कि किस अपभ्र श रूप से किस आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का विकास हुआ है। इस सम्बन्ध मे पाइअ-सहमहण्णवो' का विवरण उल्लेखनीय है जिसमें कहा गया है कि "महाराष्ट्री अपभ्र श से मराठी और कोकणी भाषा, मागधी अपभ्र श की पूर्वी शाखा से बगला, उडिया और असमिया भापा, मागधी अपभ्रश की विहारी शाखा से मैथिली, मगही और भोजपुरिया, अर्द्धमागधी अपभ्र श से पूर्वीय हिन्दी Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एव अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव २६३ भापार्य अर्थात् अवधी, बघेली, और छत्तीसगढी, शौरसेनी अपभ्र श से बुन्देली, कनौजी, ब्रजभाषा, वागरू, हिन्दी या उर्दू ये पाश्चात्य हिन्दी भापायें, नागर अपभ्र श से राजस्थानी, मालवी, मेवाडी, जयपुरी, मारवाडी तथा गुजराती भापा, पालि से सिंहली और मालदीवन, टाकी अथवा ढाकी से लहडी या पश्चिमीय पजाबी, टाकी अपभ्र श (सौरसेनी से प्रभावयुक्त) से पूर्वीय पजावी, प्राचड अपभ्र श से सिन्धी भाषा, और पशाची अपभ्र श से कश्मीरी भाषा का विकास हुआ।९३ यद्यपि यह विवरण भी केवल ऐतिहासिक सम्बन्धो का द्योतन कराने के उद्देश्य से ही प्रस्तुत है फिर भी इसमें यह दृष्टि तो मिलती ही है कि अपभ्र श मे ही विविध भापिक धारायें थी तथा अलग-अलग धारा से किस प्रकार आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ की किन प्रमुख शाखा प्रशाखाओ का विकास हुआ है। जिस प्रकार हमे अपभ्र श की अलग-अलग भाषा धारा के वैशिष्ट्य की जानकारी एव सामग्री प्राप्त नही है उसी प्रकार इन धाराओ से नि सृत होते समय आधुनिक भारतीय आर्य भाषा की किस शाखा का क्या जन प्रचलित स्वरूप था इसका ज्ञान नहीं है। ४ आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे से कुछ भाषाओ मे प्राचीन साहित्य अवश्य उपलब्ध है । इस सम्बन्ध मे भी दो सीमायें हैं (क) उपलब्ध साहित्य सक्रान्तिक काल के प्रथम चरण का न होकर परवर्ती युग का है। हिन्दी मे ग्यारहवी सदी मे राउलवेल, उडिया मे १०५१ई० मे अनन्त वर्मा के उरजम शिलालेख, बगला मे १०५० ई० से १२०० ई. तक के परियागीति, मराठी एव गुजराती मे १२वी शताब्दी मे क्रमश मुकुन्द राय के गीत तथा शालिभद्र कृत भारतेश्वर बाहुबलिरास मिलता है। पजाबी मे तो १२वी शताब्दी के भी अन्तिम चरण मे वावा फरीद शकरगज की रचनायें तथा असमिया मे १३वी शताब्दी मे जाकर हेम सरस्वती, हरि विप्र, माधवकदाले तथा शकरदेव की रचनायें प्राप्त हो पाती हैं। (ख) इससे लिखित साहित्यिक भाषा के ही स्वरूप को पता चल सकता है, ___ जनजीवन मे व्यवहृत तत्कालीन भाषिक रूपो का पता नहीं चलता। इस प्रकार यह यद्यपि निर्विवाद है कि आधुनिक भारतीय मार्य भाषाओ के विविध रूपो का विकास उनके प्राकृत एव अपभ्र श रूपो से हुआ किन्तु उपर्युक्त कारणो से हम इस विकास यात्रा का पूरा लेखा जोखा प्रस्तुत नही कर सकते । अतएव प्राकृत एव अपभ्र श के साहित्यिक भाषा रूपो की सामान्य उच्चारणगत अभिरचनाओ, व्याकरणिक व्यवस्थाओ एव सरचनाओ ने आधुनिक भारतीय Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ गंगान-प्रावति व्याकरण और बोण नी परम्परा आर्य भाषाओ को जिस प्रकार सामान्य म्प गे प्रभावित किया है यहा गायन उगी प्रभाव की चर्चा प्रस्तुत की जा रही है। (ग) ध्वन्यात्मक १ प्राकृत अपभ्र श की ध्वन्यात्म अभिचनाओ एव प्रमुख स्वर वजन ध्वनिया आधनिक भारतीय आर्य भापामओ की केन्द्रवर्ती भाषाओं में सुरक्षित है। इसके विपरीत सीमावर्ती भार्य भागामओ में प्रात अपण यन्यात्मक अभिरचना से भिन्न ध्वन्यात्मक विपतामओ का भी विकास हुआ है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है (क) असमिया मे दन्त्य एव मूर्धन्य व्यजनो की भेदकता एव वैपभ्य समाप्त हो गया है । तालव्य व्यजन दन्त्य गर्थी में तथा दन्त्य भी 'म्' का कोमल तालव्य सघी के रूप मे विकास हुआ है। (ख) मराठी मे चवर्गीय ध्वनियो का विकास दो स्पो में हुआ है तथा बरो की अनुनासिकता का लोप हो गया है। केन्द्रवर्ती भाषाओ मे पूर्व भारतीय आर्य भाषा की परम्परानु-प महाप्राण ध्वनियो का उपयोग होता है किन्तु यन्य भाषाओ मे सपो५ महाप्राण व्यजनो एव हकार का भिन्न-भिन्न रूपो मे उच्चारण होता है। इस दृष्टि से डा० सुनीतिकुमार पाटुज्या पूर्वी बगला मे क.५८नालीय स्पर्श के साथ-साथ आशिक रूप में विशिष्ट स्वर विन्यास का व्यवहार तथा पजावी मे स्वर विन्याम परिवर्तन मानते है तथा राजस्थानी मे ह-कार की जगह कण्ठनालीय स्पर्श ध्वनि तथा सधोप महाप्राणो के आश्वसित उच्चारण की उपस्थिति से यह अनुमान व्यक्त करते है कि राजस्थानी तथा गुजराती में इस प्रकार का उच्चारण कम से कम अपभ्र श काल की रि+य तो अवश्य ही है।" (घ) सिन्धी एवं लहदा मे अन्त स्फोटात्मक ध्वनियो का विकास हुआ है। (ड) पजावी मे तान का विकास हुमा तथा सघोप महाप्राण व्यजन तानयुक्त अल्पप्राण व्यजनो के रूप में परिवर्तित हो गए। इस सम्बन्ध मे डा० सुनीति कुमार चाटुा ने डा० सिद्धेश्वर वर्मा के मत का उल्लेख किया है कि श्रुति की दृष्टि से पजावी में 'भ, घ, ढ' आदि के परिवर्तन मे महाप्राणता सुनायी नही पडती, वाद के स्वर के साथ श्वास का कुछ परिमाण सलग्न रहता है, जो उसके स्वर-विन्यास की एक विशिष्टता माना जा सकता है । ५ २ 'ऋ' को कारण पालि युग मे ही समाप्त हो गया था। इसका उच्चारण आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ मे 'र' 'रि' एवं 'रु' रूप मे हुआ। आज भी 'रि' Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं पर प्रभाव २६५ मे 'र' के बाद का 'इ' का उच्चारण अग्र की अपेक्षा मध्योन्मुखी होता है। ३ 'प' वर्ण का मूर्धन्य उच्चारण किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा मे नही होता। ४ अपभ्र श के 'ऐं' एवं 'ओ' के ह्रस्व उपारण आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे सुरक्षित है। इसी कारण 'ए' 'ऐ' 'ओ' 'औ' का उच्चारण मूल स्वरो के रूप मे होने लगा है। ५ हिन्दी, उर्दू, सिन्धी, पजाबी, उडिया आदि मे मूर्धन्य उत्क्षिप्त 'ड' एव 'ढ' विकसित हो गए है। ६ मध्य भारतीय आर्य भापा काल मे जिन शब्दो मे समीकरण के कारण एक व्यजन को द्वित्व रूप हो गया था, अपभ्र श के परवर्ती युग एक व्यजन शेष रह गया तथा उसके पूर्ववर्ती अक्षर के स्वर मे क्षतिपूरक दीर्धीकरण हो गया। सिन्धी, पजाबी एव हिन्दी की बागरु एव खडी बोली के अतिरिक्त सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे यह प्रवृत्ति सुरक्षित है । यथा कम >+म>कामु>कामु>काम् ७. अपभ्र श मे अन्त्य स्वर के हस्वीकरण एव लोप की प्रवृत्ति मिलती है। पासणाह पार से कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है महिला> महिल १।१०।१२ । जघा>जघ ३।२।८। गृहिणी>घरिणि १।१०।४ । गम्भीर > गहिर ३।१४।२। पापाण>पाहण २।१२।६ । पुडरीक > पुडरिय १७।२१।२ । बिहारी, काश्मीरी, सिन्धी और कोकणी के अतिरिक्त अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे भी यह प्रवृत्ति है। हिन्दी मे अकारान्त शब्दो को प्राय व्यजनान्त रूप मे उच्चारित किया जाता व्याकरणिक १ विभक्ति रूपो की संख्या मे कमी प्राकृत काल मे ही विभक्ति रूपो की सख्या मे कमी हो गयी थी। विभिन्न कारको के लिए एक विभक्ति तथा एक कारक के लिए विभिन्न विभक्तियो का प्रयोग होने लगा था। एक ओर कर्म, करण, अपादान तया अधिकरण के लिए षष्ठी विभक्ति का तया कर्म एव करण के लिए सप्तमी विभक्ति का तो दूसरी ओर अपादान के लिए तृतीया तथा सप्तमी विभक्तियो का प्रयोग मिलता है।८ अपभ्र श मे विभक्ति रूपो की संख्या मे और कमी हो गयी। कर्ता-कर्मसम्बोधन के लिये समान विभक्तियो का प्रयोग आरम्भ हो गया। इसी प्रकार एक और करण-अधिकरण के लिए तो दूसरी ओर सम्प्रदान-सम्बध के लिए समान Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ मा कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा विभक्तियो का प्रयोग होने लगा। उदाहरणार्थ, अपभ्रश के विमपित रमों को न प्रकार प्रदर्शित किया जा मवाना है वहुवचन एक वचन | पुस्लिग म्वनि फर्ता-कर्म-सम्बोधन -अ, -आ, -3,-ओ -अ, आ, -अ, आ,-3 एक वचन वहुवचन ત્તિતા | સ્ત્રીના | નિનમ | સત્રની करण-अधिकरण | -ए, -ए ___-हिं । -हि -एण. -इण The - सम्प्रदान-सम्वन्ध -आसु आहे अपादान अपादान -हो, हे-हु । -हे, -हि। -आतु। -हिं आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे विभक्ति स्पो की संख्या में क्रमश हास हुआ है। जिन भाषाओ की सश्लिष्ट प्रकृति अभी भी विद्यमान है उनमे विभक्ति रूपो की संख्या अभी भी अधिक है किन्तु जिन भाषाओ ने वियोगात्मकता की ओर तेजी मे कदम बढाया है उनमे विभक्ति प्रत्ययो की संख्या बहुत कम रह गयी है। इस दृष्टि से यदि हम मराठी एव हिन्दी का अध्ययन करे तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। मराठी मे सज्ञा शब्द के जहा अनेक वैभक्तिक रूप विद्यमान हैं मुलास (द्वितीया) मुलाने (तृतीया), मुलाला (चतुर्थी), मूलाहून (पचमी), मुलाचा (५७ठी), मुलात (सप्तमी), मुला (सम्बोधन) वहा दूसरी ओर हिन्दी मे पुल्लिग संज्ञा शब्दो मे या तो केवल विकारी कारक बहुवचन के लिए अथवा अविकारी कारक बहुवचन, विकारी कारक एकवचन एव विकारी कारक बहुवचन के लिए विभक्तिया लगती है। स्त्रीलिंग सज्ञा शब्दो मे केवल अविकारी बहुवचन एव विकारी बहुवचन के लिए विभक्तिया जुडती है, एकवचन मे प्रातिपदिक ही प्रयुक्त होता है। २ परसर्गों का विकास अपभ्र श मे विभक्ति रूपो की कमी के कारण अर्थों Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं पर प्रभाव २९७ मे अस्पष्टता आने लगी होगी। कारको के अर्थों को व्यक्त करने के लिए इसी कारण अपभ्र श मे शब्द के वैभक्तिक रूप के पश्चात् अलग से शब्दो अथवा शब्दाशो का प्रयोग आरम्भ हो गया। यद्यपि सस्कृत मे भी रामस्य कृते' तथा प्राकृत मे रामस्य के रक धरम्' जैसे प्रयोग मिल जाते है तयापि इतना निश्चित है कि अपभ्र श मे परसर्गों की सुनिश्चित रूप से स्थिति मिलती है। करण के लिए सहु, सउ, समाणु, सम्प्रदान के लिए तेहिं, केहिं, अपादान के लिए लई, होन्तउ, ठिन, -पासिउ, सम्बन्ध के लिए तण, तणि-के रउ तथा अधिकरण के लिए मज्झे,--- मज्झि जैसे परसर्गों का बहुल प्रयोग अपभ्र श साहित्य मे हुआ है। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे परसर्गों का विकास हुआ है। इनके प्रयोग मे सभी भाषाओ की स्थिति समान नही है। आज भी कुछ भाषाय कारकीय अर्थों को परसर्गों से नहीं अपितु शब्द के विभक्तियुक्त रूप से द्योतित कर रही है किन्तु फिर भी परसों का प्रयोग कम या अधिक सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे होता है। जिन भाषाओ मे विभक्तियुक्त शब्द द्वारा कारक का अर्थ व्यक्त किया जाता है उनमे भी अलग-अलग कारक के लिए अलग-अलग विभक्ति रूपो का सम्बन्ध सुनिश्चित नहीं है। यथा मराठी में एक ही कारक को व्यक्त करने के लिए अनेक विभक्तियो का प्रयोग होता है तथा एक ही विभक्ति अनेक कारको का अर्थ व्यक्त करती है। उसमे भी तृतीया के ने, नी, पचमी के -ऊन, -हून तथा षष्ठी में प्रयुक्त -पा, ची, चे, च्या आदि रूपो को परसर्ग कोटि मे रखा जा सकता है। इसी प्रकार बगला की प्रकृति भी अपेक्षाकृत सश्लिष्ट है किन्तु वहा भी दिया, द्वारा, के दिया, सगे, हइते, थेके जैसे शब्दाशी की स्थिति परसों की ही है । यथा मन दिया पढ (मन से पढी), तोमा द्वारा हाइवे ना (तुमसे नही होगा) बहू के दिया गधाउ (बहू से रसोई वनवाओ) आमी बधु सगे देखा करित गेल (मैं मित्र से मिलने गया) पाडी हइते चलिया गेल (घर से चला गया) बाडी के चलिया गेल ( , , )।१ गुजराती मे भी सम्प्रदान मे 'माटे' तया सम्बन्ध के लिए 'ना', 'नी' का प्रयोग होता है । पजावी मे भी सम्बन्ध मे 'दा', 'दी' का प्रयोग होता है। परसों के प्रयोग के सम्बन्ध मे हिन्दी की स्थिति अधिक स्पष्ट है। हिन्दी मे सज्ञा शब्दो मे कारकीय अर्थों को विश्लिष्ट प्रकृति के परसों द्वारा ही व्यक्त किया जाता है। हिन्दी मे परसों का विकास आरम्भ से ही अधिक हुआ। हिन्दी के आदिकालीन साहित्य मे ही विभिन्न कारकीय रूपो को सम्पन्न करने के लिए परसों Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की ५.५ का प्रयोग मिलता है। कर्ता के अर्थ में डा० उदयनारायण तिवारी ने चदरवरदाई की भाषा मे 'ने' का प्रयोग स्वीकार किया है। कातिलता की भाषा मे कता के __ अर्थ में -आ, -ए, -ओ का प्रयोग हुआ है। कर्म के अर्थ मे 'को' का प्रयोग ११वी सदी से राउलवेल में मिलने लगता है। वीसलदेव रानो" में 'नू' 14 कातिलता मे 'हि', 'हिं' का प्रयोग कर्मकारक के अर्थ में हुआ है। करण के अर्थ मे फीतिलता में 'ए' एन' 'हि' का, पृथ्वीराज रासो मे 'ते', 'वाचा', 'स', सहु', 'मू', 'सो', तया खुसरो के काव्य मे 'से' का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार की स्थिति अन्य कारकीय अर्थों को व्यक्त करने के सम्बन्ध में है। ३ भाषा प्रकृति अर्द्ध अयोगात्मक आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ की विवेचना करते समय प्राय विद्वानो ने उन्हें अयोगात्मक भापायें कहा है । यह ठीक है कि हिन्दी' ने अपभ्र श की अर्द्ध-अयोगात्मक स्थिति की अपेक्षा अयोगात्मकता को और अधिक विकास किया है तथापि भापा-प्रकृति की दृष्टि से आज भी आधुनिक भारतीय आर्य भापायें अर्द्ध-अयोगात्मक हैं। शब्द के वैभक्तिक रूप भी मिलते है तया परमों का भी प्रयोग होता है। कारकीय रूपरचना मे विभिन्न भापालो मे विभक्तिया मंश्लि५८८५ मे भी व्यवहृत होती है। उदाहरणार्थ सिन्धी एवं पजाबी मे अपादान एव अधिकरण कारको मे, गुजराती मे करण एव अधिकरण मे, मराठी मे करण, सम्प्रदान तथा अधिकरण मे तया इसी प्रकार डिया मे अधिकरण मे विभक्तियो का सयोगात्मक रूप द्रष्टव्य है । वाला मे भी सम्बन्धितत्व मलिट रूप में प्राप्त होता है। हिन्दी मे भी सर्वनाम रूपों में कर्म सम्प्रदान में इसे, उसे, इन्हे, उन्हें, तुझे जसे रू५ मिलत है जिनकी प्रकृति सलिप्ट है। यह बात अलग है कि हिन्दी मे इनके वियोगात्मक रूप भी उपलब्ध हैं या इसको, उसको, उनको, इनको, તુબજો સી પ્રજાર વર્તમાન સન્માવનાર્ય પદ્ધ , પહે, પઢે, પઢો તયા નાજ્ઞાર્ય पना, पहियेगा, पटो, ५८ मे सयोगात्मकता की स्थिति देखी जा सकती है। ४ नपुसकलिगा की स्थिति अपभ्रश काल मे नपुसकलिग का लोप हो गया था। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे मराठी एप गुजराती को छोडकर ५ ममी मे नपुसकलिग नहीं हैं। सिंहली मे प्राणी तया अप्राणीवाची आधार पर प्राणवान तथा प्राणहीन दो लिग है, जो द्रविड परिवार की भापाओ के प्रभाव के मूचक. प्रतीत होते हैं । २५ मे पुल्लिग एवं स्त्रीलिंग दो लिंग हैं। इनमे भी वगला एव डिया मे देशज शदी मे लिग विवान शिथिल है। जान बीम्स के अनुसार इनमे तत्सम शब्दो को छोडकर २५ शब्दो मे लिग व्यवस्था नही है । ५. बहुवचन द्योतक सदावली सिन्धी, मराठी तया पश्चिमी हिन्दी के Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं अपभ्रंश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं पर प्रभाव २६६ अतिरिक्त शेष अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे कर्ता कारक के शब्दो मे बहुवचन का द्योतन विभक्तियों से न होकर बहुवचन द्योतक शब्दो अथवा शब्दाशो से व्यक्त होने लगा है । उदाहरणार्थ बगला मे 'सकल' यथा कुक्कुर सकल ( कुत्ते ) । इसी प्रकार उडिया मे 'मनि' असमिया मे 'बोर' मैथिली 'सम' एव भोजपुरी 'लोगनि' इत्यादि शब्द रूप बहुवचन द्योतक है । पश्चिमी हिन्दी, सिन्धी, मराठी मे कर्ता कारक बहुवचन के वैभक्तिक रूप उपलब्ध है । यथा पिउ सिन्धी एकवचन मराठी एकवचन---रात बहुवचन पिउर बहुवचन - - राती हिन्दी ---एकवचन लडका बहुवचन लडके यहा यह उल्लेखनीय है कि इन भाषाओ मे भी बहुवचन को स्वतंत्र शब्दो द्वारा व्यक्त करने की प्रवृत्ति बढ रही है । यथा इस प्रकार की प्रवृत्ति सज्ञा शब्दों की यथा - पश्चिमी हिन्दी हम लोग | भोजपुरी मैथिली हमरा सम | बगला - आमि सब । पुरुष हिन्दी एकवचन मराठी - - एकवचन उत्तम पुरुष आधुनिक भारतीय भाषाओं की यह प्रवृत्ति मध्ययुगीन भाषाओ की व्यवस्था से अवश्य भिन्न है तथा अयोगात्मकता की ओर उन्मुख होने की सूचक है । ६ प्राकृत एवं अपभ्रंश के क्रिया रूप मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा की क्रिया संरचना का प्रभाव आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे वर्तमान अथवा वर्तमान सम्भावनार्थ काल एव आज्ञार्थक रूपो पर पडा है । मध्यम अपभ्रंश मे वर्तमान काल द्योतक उत्तम पुरुष उ, –हु, मध्यम पुरुष - हि, -हु एवं अन्य पुरुष -अ, हि, अन्ति विभक्तिया थी । आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे ये प्रवृत्तिया इस प्रकार है હિન્દી યુનવાણી મરાઠી -ऊ पुरुष वचन एकवचन बहुवचन -ए राजा दोघे एकवचन बहुवचन -ओ -ऊ बहुवचन बहुवचन अपेक्षा सर्वनाम रूपी मे अधिक है । हमनीका । मागधी हमनी । - इये - ए - ओ राजा लोग दोघे जण - ए -मो -ऊ -अस -आ बगला - इ -इस -अ | રવિયા બનાવી -अड -अ -उ -अ -अय - ए -ओ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० संस्कृत-प्राकृत व्याक' और कोश की परम्परा -ए - | -अड | -ए -एन-अन्ति। -अण पुरुप अन्य एकवचन | -ए -ए बहुवचन - | -ए -अत ___ आधुनिक भारतीय भाषाओ के वर्तमान आनायक स्पो का विकास भी मध्यकालीन भारतीय क्रिया रूपो से हुआ है। ___ अपभ्र ण मे भविष्यकालिक पो की रचना मे धातु मे विभक्ति लगने के पूर्व 'इस्स' अथवा 'इह' प्रत्यय जुटता था। गुजराती -करी, -करिशु, को-आदि रूपो से 'इसस' का तथा हिन्दी की ब्रज आदि बोलियो के -करिहों -करिह आदि मे 'इह' का प्रभाव विद्यमान है। ७ क्रिया के कृदन्तीय रूपो का प्रयोग प्राचीन भारतीय अर्थ भापाकाल मे भूतकालिक रचना के कई प्रकार थे। लड़ से असम्पन्न भूत, लुड० से मामान्य भूत तथा लिट् से सम्पन्न भूतकाल की रचना होती थी। उदा० गम् धातु के रूप अगच्छत्, अगमत् एव जगाम बनते थे । इनमे क्रिया ५ विद्यमान था। प्राकृत अपघ्र श युग मे इनके बदले भूतकाल भावे या कर्मणि-कृदन्त 'गत' लगाकर बनाया जाने लगा। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे कर्मणि कृदन्त रूप तो विद्यमान है ही, कृदन्तीय रूपो से काल रचना होने लगी है। अधिकाश आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे वर्तमान कालिक कृदन्तीय रूप मे पुरुप एव लिग वाचक प्रत्यय लगाकर काल रचना होती है। यथा--हिन्दी -करता। गुजराती -करत । बगला –करित। मराठी- करित । उडिया करन्त। इसी प्रकार भूतकालिक कृदन्तीय रूपो से भी कालरचना सम्पन्न होती है। अपभ्र श मे भूतकालिक कृदन्त रू५ विशेषणात्मक रूप मे पूर्ण क्रिया के स्थान मे भी व्यवहृत होने लगे थे। आधुनिक भारतीय आर्य भापाओ मे हिन्दी गया गुजराती लीधु जैसे रू५ वर्तमान है। ___ आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे से वगला, उडिया, असमिया, भोजपुरी मैथिली, मराठी आदि मे भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय 'ल' जुडता है। यथा बगला गेल, होइल, मराठी गेलो, गेलास, भोजपुरी मारली, मारलास । इस सम्बन्ध मे यह उल्लेखनीय है कि इस भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय का प्रयोग परवर्ती अपभ्र श मे हुआ है। राउलवेल की भाषा मे इसका प्रयोग देखा जा सकता है। ८ क्रियाओं मे लिंगभेद - अपभ्र श मे कृदन्तीय रूपी मे लिगभेद किया जाता था। हिन्दी जैसी भाषाओ मे क्रियाओ मे लिंगभेद का कारण अपभ्रश के कृदन्तीय रूपो का क्रिया रूपो मे प्रयोग है । कृदन्त रूपो को क्रिया रूपो मे अपनाने के कारण Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एव अपभ्रश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव ३०१ हिन्दी मे पढता, पढती, पढा, पढी आदि क्रियाओ मे लिंगभेद मिलता है । मराठी मे भी मी जातो (मैं जाता हू) एव मी जाते (मैं जाती हू) तथा तू जातोस (तू जाता है) एव तू जातस (तू जाती है) क्रियाओ मे लिंगभेद द्रष्टव्य है। ६ सयुक्त कालरचना एवं संयुक्त क्रिया निर्माण --हिन्दी जैसी भाषाओ मे मूल धातुओ मे प्रत्यय लगाकर काल रचना की अपेक्षा वर्तमानकालिक कृदन्त एव भूतकालिक कृदन्त रूपो के साथ सहायक क्रियाओ को जोडकर विविध कालो की रचना की जाती है। इसी प्रकार क्रिया के विभिन्न अर्थों को व्यक्त करने के लिये मुख्य क्रिया रूप के साथ सहकारी क्रियाओ को संयुक्त किया जाता है। मध्यभारतीय आर्य भाषाकाल तक इस प्रकार की भापायी प्रवृत्ति परिलक्षित नही होती। इस कारण विद्वानो ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे सयुक्त काल रचना ए१ सयुक्त किया निर्माण को द्रविड भाषाओ के प्रभाव का सूचक माना है। इस सम्बन्ध मे मेरा यह अभिमत है कि हिन्दी ने इस परम्परा को परवर्ती अपभ्र श परम्परा से स्वीकार किया है। स युक्त काल एव सयुक्त क्रिया निर्माण की प्रवृत्ति 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' एव 'राउलवेल' की भाषा मे दिखायी देती है और इसी का विकास हिन्दी मे हुआ है। परवर्ती अपभ्रंश मे इस प्रकार की व्यवस्था भले ही द्रविड परिवार की भाषाओ के प्रभाव के कारण आयी हो। सदर्भ १ नाट्यशास्त्र १८।३४-३५ । २ नाट्यशास्त्र १८१३६-४० । ३ महाराष्ट्राश्रया भाषा प्रकृष्ट प्राकृत विदु ।-काव्यादर्श १।३४ । 8 Introduction to Karpurmanjarı, p 75 University of Calcutta (1948) ५ भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, पृ० १०३ (१९६३) तृतीय परिवद्धित सस्करण, दिल्ली ६ Mana Mohan Ghosh, Maharastri, a late phase of Sauraseni Journal of the Department of Letters of the Calcutta University, Vol XXXII, 1933 ७ गरीयान५ शब्दोपदे । एककस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्र शा । तद्यथा गौरित्यस्य सदस्य गावी गोणी गोता गोपातलिका इत्येवमादयो बहवोऽपभ्र शा (पातजल, महाभाष्य १।१।१)। ८ सापघ्र शप्रयोगा सकलमरुभुव०८वकु भादानकाच (काव्यमीमासा, अध्याय १०)। ६ सुराष्ट्रनवणाद्या ये पठन्त्यर्पितसौष्ठवम् ।। ___ अपघ्र शवदशानि ते संस्कृत पचास्यपि (काव्यमीमासा, अध्याय ७) १० । भूरिभेदो देशविशेषादपभ्र श (काव्यालकार २।१२) । ११ स चान्यरूपनागराभीर ग्राम्यत्व भेदेन निधोक्तस्तन्निरासार्थमुक्त भूरि भेद इति ।। १२ ब्राची लाट वैदर्भानुपनागर नागरौ वावरावन्त्यपाचालाकमालवककया । गोडीद वनपाश्चात्यपाड्यकौन्तल सहला। कलिंग्यप्राच्य कार्णाटिका पद्राविडगाजरा। आभारो Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा मध्यदेशीय सूक्ष्म भदव्यवस्थिता सप्तविंशत्यपम्र णा वेतालादि प्रमेदता (प्राकृत सर्वस्व २)। १३ पडित हरगोविन्ददाम त्रिकमपद गोठ, पाइअ-सह-महायो (प्राकृत ५i०५ महार्णव ) लाता, प्रथम आवृत्ति मवत् १९८५ (सन १६२८ ई०)। १४ दे० भारतीय आर्य मापा और हिन्दी, पृष्ठ १२२-१३२ । १५ भारतीय आर्य मापा और हिन्दी, १० १२७-१२८ । १६ पामणाहचरिउ सम्पादक प्रफुल्लकुमार मोदी (सन् १९६५)। १७ डा० महावीरसरन जैन, परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन । प० २०-२२ १८ दे० (१) कोमल चद जैन, प्राकृत-प्रवेशिका, पृ० ५८ । (२) प० मपिकेश भट्टाचार्य, प्राकृत ग्रामर, पृ० १२८ । १६ डा० महावीर सरन जैन, हिन्दी मजा, भाषा, हिन्दी मापा विशंपाक । २० महादेव मा० वासुतकर, मराठी को कारक व्यवस्या, गवेषणा, पृ० ८२-८४ वर्ष १०, प्रक २० । २१ मरोजिनी शर्मा --हिन्दी और बगला के परसों का व्यतिरेकात्मक अध्ययन, गवेपणा, पृ० ६३-११०, वर्ष १०, अक २० । २२ म० उदयनारायण तिवारी-वीरकाव्य, पृ० १६५ स० २०१२ । २३ स० वासुदेवशरण अग्रवाल कीतिलता २।२२८, २०२१८, ४२४ । २४ स० उदयनारायण तिवारी वीरकाव्य, पृ० २२० । २५ स० वासुदेवशरण अग्रवाल -कीतिलता २।२७, ३१७८ । २६ वही-मश ११५०, १४६, ४१४०। २७ स० हजारीप्रसाद द्विवेदी, नामवरसिंह पक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, पृ० २५, ३१, ३२, १०८। २८ स० बालकृष्ण राव हिन्दी काव्यसंग्रह (खुसरो), पृ० २७ । Pe John Bzim, A C)mparative grammar of the Modern Indian Aryan Languages, p 177 ३० दे० डा० कैलाश चन्द्र भाटिया, राउलवेल मे प्रयुक्त क्रियाएं, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, मालवीय शती विशेषाक पृ० ४५७, वर्ष ६६, अ क २-३-४ (सम्वत् २०१८)। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृति-अपभश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव डॉ० कृष्णकुमार शर्मा राजस्थानी-भाषा' ५६वध के 'राजस्थानी' पद को विशेष सावधानीपूर्वक प्रयुक्त करने की अपेक्षा है। इस पदव के राजस्थानी' पद का अर्थ आधुनिक वृहत्-राजस्थान नही है। परन् 'राजस्थानी भाषा' से तात्पर्य उस भापा से है, जिसका मूल भारत के इस पश्चिमी प्रदेश मे ५०० ई० से १००० ईसा तक प्रचलित जनभापा अपभ्र श मे है। इसी राजस्थानी भाषा का साहित्यिक रूप डिंगल' है। राजस्थान की इस साहित्यिक भाषा डिंगल की दो अवस्थाओ का उल्लेख विद्वानो ने किया है । ईसवी सन् की १३वी शताब्दी से लेकर १६वी शताब्दी के अत तक के युग कोटसीटोरी ने प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का युग कहा है।' १७वी शताब्दी के प्रारभ से लेकर आज तक के समय को आधुनिक मारवाडी का युग कहा जाता है। इसी आधार पर इन दो कालो की डिंगल को 'प्राचीन डिंगल' एवं 'अर्वाचीन डिंगल' कहा गया। किन्तु ध्यान देने पर ज्ञात होगा कि अपने मूल से पृथक होने के समय से अब तक की राजस्थानी की तीन अवस्याएँ स्पष्ट है । एक वह जिसे 'प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी' नाम दिया गया है। यही रूप अपभ्र श का उत्तराधिकारी है। द्वितीय अवस्था वह है जो पृथ्वीराज रचित 'वेलि किसन रुकमणी री' मे मिलती है । 'वेलि' की भाषा मे ढाचा तो प्राचीन राजस्थानी का है, परन्तु माध्यमिक राजस्थानी मे विकसित कतिपय विशेषताए भी 'वेलि' की भाषा मे है। 'वेलि' साहित्यिक राजस्थानी मे रची गई है । तृतीय अवस्था वीरसतसई एव आधुनिकतम काव्यो, जसे--वादली, साझ आदि मे देखी जा सकती है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के उदाहरण 'मुग्धाववोधमौक्तिक' की भाषा मे है। इस प्रकार कान्हडदे प्रवध', वेलि, वीरसतसई, वादली, साझ आदि रचनाएँ राजस्थानी के ऐतिहासिक विकास की सामग्री प्रस्तुत करती है। प्राकृत-अपभ्र श से आधुनिक राजस्थानी तक की विकास यात्रा का इतिहास इन रचनाओ के माध्यम से ही जाना जा सकता है। इसी दृष्टि से राजस्थानी के लिखित साहित्य Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा को आवारभूत सामग्री के २५ मे ग्रहण करना समुचित है। विकास के ऐतिहासिक स्वर५ को ध्वनि (उच्चारण), १५, वाक्य और शब्दसमूह की दृष्टि से परखा जा सकता है। प्रस्तुत निबध मे 'ध्वनि' और 'र५' को ही आधार बनाया गया है। 'ध्वनि' मे भी उन परिवर्तनो को दिखलाना अभिप्रेत है, जो प्राकृत-अपभ्र श से राजस्थानी मे किचित् अतर के माथ आए हैं, अथवा वैसे ही प्रयुक्त हो रहे हैं। उपारण पर विचार नहीं किया जा रहा है। स्पज्ञानिक विकास में सभी समव आयामो का आध्यान करना उचित होगा। भारत के पश्चिमी प्रदेश की जन-मापा शौरसेनी अपभ्र श से विकसित राजस्थानी रूपात्मक दृष्टि से कितने विकास स्तरो से गुजरी यह स्वय में महत्त्वपूर्ण शोध का विषय है। पिंगल अपभ्र श प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का स्रोत नहीं है । उसमें अनेक तत्व ऐसे है जो पूर्वी राजस्थानी वोलियो की विशेषता है। प्रस्तुत निवध का उद्देश्य प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी से विकसित माध्यमिक राजस्थानी और फिर आधुनिक राजस्थानी मे दिखलाई पडने वाले प्राकृत-अपभ्रश के प्रभाव की रूपरेखा प्रस्तुत करना है । (क) ध्वनि विवेचन राजस्थानी की ध्वनि-व्यवस्था वही है जो प्रा प राजस्थानी मे थी और प्रा प रा में वह अपभ्र श से आई थी। टेसीटोरी ने प्रा प राजस्थानी मे 'ळ' ध्वनि की समावना व्यक्त की है । सभावना इसलिये कि पाडुलिपियो मे उन्हें इसके लिए पृथक से चिह्न नहीं मिला। परन्तु जो भी हो माध्यमिक राज की कृति 'वेलि क्रिमन रुकमणी री', आधुनिक राजस्थानी की सतसई, वादली आदि मे यह ध्वनि है और इसे 'ल' चित्त द्वारा प्रकट किया जाता है। ल और/ल/ दो स्वनिम है। इनके अल्पतम युग दल और दल है। प्रयम का अर्थ समूह और द्वितीय का दलना, कुचलना आदि है। अपभ्रण का 'अ' प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे सुरक्षित रहा परन्तु जहा आद्य अथवा मध्य 'अ' के पूर्व या पश्चात दीर्घ स्वर वाला अक्षर हो तो अ> इ हो जाता है, पिशेल के अनुसार प्राकृत मे ऐसा नहीं होता। प्रा प रा के कतिपय उदाहरण ये हैं अण्डकम् > अप० अण्डउँ > इंडउँ (आदिनाथ चरित्र) __ कपाट>, कवाड>किमाड( , , ) मारवाडी मे अइहोता है । 'किमाड' को प्रयोग भी लोकभाषा है और अपभ्र श की प्रवृत्ति के अनुसार 'hais' भी प्रचलित है 'कांड दे द्यो' और किमाड लगायो' दोनो प्रयोग चलते हैं । 'कवाड' अपभ्र श के प्रभाव स्वरूप ही है। इसी प्रकार 'गिमार' (गवार) शब्द भी है। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३०५ इसी प्रकार 'अ' 'उ' में भी परिवर्तित होता है । प्राकृत मे यह प्रवृत्ति पाई जाती है, अपभ्र श मे नही है। प्रहर >अ५० पहर>पुहर या पुहुर 'बेलि किसन रुकमणी' मे अपभ्र श रूप 'पहर' ही प्रयुक्त हुआ है वधै मास ताइ पहर वधन्ति (छन्द १३) ५मसान > अप० मसाण > मुसाण (उपदेशमाला बालावबोध) आधुनिक राजस्थानी मे अपभ्र श 'मसाण' और प्रा प रा का 'मुसाण' दोनो प्रचलित है। 'मुसाणा' बहुवचन प्रयोग प्राय मिलता है। परवर्ती और पूर्ववर्ती 'उ' के कारण भी 'अ' 'उ' में परिवर्तित हो जाता है गरुड> गुरुड ? (पचाख्यान) दर्द >दुर्दुर कभी-कभी 'अ' का रूपात र 'अ' हो जाता है। मारवाडी मे ऐसे स्थलो पर 'ऐ' होता है। अपभ्र श के आद्य 'अ' का लोप भी प्राय राजस्थानी मे होता है। यह प्रवृत्ति प्रा प रा से ही प्रारभ हो गई थी अपभ्र श अच्छ>अछइ> छ। मारवाडी दूढाडी मे 'अइ', ऐ मे परिवर्तित हुआ है, 'छै' का प्रयोग लिग और वचन का अनुसरण करता है कुणछी (स्त्री०), कुण छै या 'कुण छ।' (पुलि०) । मात्मनक > अप० अप्पणउ>पणउ। तण का प्रयोग 'वेलि' मे है कमलापति तणी कहेवा कीरति (छन्द-३) श्रुति के रूप मे 'अ' का आगम राजस्थानी की विशेष प्रवृत्ति कही जा सकती है। यह प्रवृत्ति भी प्रा प रा मे ही प्रारभ हो गई थी गर्भ > गरम जन्म >जनम 'वेलि' मे इस प्रकार की श्रुति के शतश उदाहरण हैं अन्तर्यामी> अतरजामी अदर्शन > अदरसणि आदि । अपभ्र श 'इ' के राजस्थानी मे निम्नलिखित परिवर्तन हुए है (क) 'इ' दुर्वल होकर 'अ' हो जाता है। (ख) ई ह्रस्व हो जाता है। नीणि> अ५० ति>िमणि परन्तु पृथ्वीराज ने 'त्रिणि' = तीन का प्रयोग किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह अ५० के तिणि से ही अनुमत है । द्वित्त का सरलीकरण और 'इ' का पुन दीर्धीकरण Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा त्रिणि दीह लगन वेली आडात (छन्द-६६) 'इ' का दीर्घरूप ई भी होता है नास्ति>प्राकृत मे णत्यि> नथी 'गुजराती' मे 'नथी' का प्रयोग सुरक्षित है, राजस्थानी में भी इसका प्रयोग हुआ है। सूर्यमल मिश्रण की वीरसतसई का निम्नलिखित दोहा द्रष्टव्य है नयी रजोगुण ज्या नरा वा पूरी न उफाण (दोहा-८) वेलि' मे अन्त्य 'इ'का लोप और 'य' के महाप्राण अश वाला ५ 'नह' पाया जाता है-- निसा पडी चालियो नह (छन्द-४६) प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे अपभ्रश का मध्यम 'इ' 'य' में परिवर्तित हुआ है वर> अप० वर>वयर परन्तु राजस्थानी मे 'इ' का यह रूप नही मिलता वरन् 'वर' ही प्रयुक्त हुआ है। हाँ वीरसतसड मे 'व' का 'व' अवश्य हो गया है । पर पर वैर बसाविया दिन दिन लूवं धाड' (दोहा-६६) अपभ्र श का 'अअ' प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे दो रूपो मे मिलता है (क) या तो 'अअ' सयुक्त होकर 'आ' हो जाते थे, अथवा (ख) दोनो 'अ' के वीच 'य' श्रुति आ जाती थी रत्न>अ५० रअण>रयण वचन > , वअण>वयण मदन > ,, मअण> भयण 'य' श्रुति वाला रूप भी अपभ्र श मे मिलता है-- त सुविणु भयण राएण (मयण पराजय चरिउ-१५) वेलि मे भी 'य' श्रुति युक्त प्रयोग मिलते हैं आयु रमणी तुटन्ति इम (छद-१८१) अपभ्र श के 'अअ' और 'अआ' मे सामान्यत सधि हो जाती है। राजस्थानी मे ये सधीकृत रूप ही मिलते है उष्णकालक > अपभ्र श उण्हमालउ>उहालउ (आदिनाय च०) यह प्रा प रा की स्थिति है। मारवाडी तथा अन्य पोलियो मे 'अउ' ओ मे परिवर्तित होकर 'उहालो' रूप मिलता है। अपभ्र श 'अउ' का नकोचन राजस्थानी मे 'ऊ' के रूप मे मिलता है अपभ्र श महु > Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३०७ अपन श के इन प्रयोगो का आख्यान हेमचंद्र ने मावस्मदो हउ' (३७६) तया महु मझुडसि डस्भ्याम् (३७५) सूत्रो मे किया है । इनके उदाहरण atic तसु हउ कलजुगि दुल्हहो तथा महु होन्त आगदो 'अ' का यह सकोचन राजस्मानी के सभी विकास चरणो मे पाया जाता हुआ आज भी सुरक्षित है वेलि मे, महण मथे मू लीध महमहण (७८ ६२) तथा कहिया मूं मैं तेम कहे गावण गुणनिधि हूँ निगुण वीर सतसइ मे हूँ' का प्रयोग अधिक है हूँ बलिहारी राणियाँ (दोहा ६४,६५) राजस्थानी वर्ग की मेवाडी मे 'मु' अधिक प्रचलित है। अपभ्र श 'इअ' का सकोचन 'ई' मे मिलता है। दिवस >अ५० दिअह>दीह (प्रा प. रा ) 'वेलि' में भी यह प्रयोग मिलता है-- त्रिणि दीह लगन वेला आडा ते (७६-६६) अपभ्र ण 'ए' प्रा प रा मे निम्नलिखित रूपो में परिवर्तित हुआ है (क) ए>इ अम्हे>अहि यह 'वेलि' मे भी है, 'ढोलामारू रा दूहा' मे भी है । एवं> इम के > किम >जिम प्रा प रा. के ये प्रयोग वेलि मे भी उपलब्ध होते हैं પદ્ધિ વિમ પૂર્વ પાપુની'प्रमणन्ति पुत्र इम मात पिता प्रति (छद-४) जा सुख दे स्थामा नै जिम (छद-३१) इस प्रकार माध्यमिक राजस्थानी मे तो ये प्रयोग मिलते हैं, पर आधुनिक राजस्थानी मे विरल है। मध्यवर्ती अनुस्वार का पूर्ववर्ती स्वर जब दीर्थ हो जाता है तो अनुस्वार अनुनासिक मे परिवर्तित हो जाता है Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सस्मरति >प्राकृत सभरड>अ५० सभलइ> माँभलइ । अपभ्र श मे प्राकृत __ 'र'>ल हो गया है। इसी सांभलऽ' का पूर्वकालिक रूप 'वेलि' मे प्रयुक्त मिलता है रथ बैठा साँभलि अरथ (६६) स्मरण करने के अर्थ मे 'सभरइ' 'ढोला मारू रा दूहा' मे भी प्रयुक्त हुआ है । अपभ्र श का पदान्त अनुस्वार प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे तो सुरक्षित रहा पर वाद मे नही मिलता - अ५० पल्लह]>वाहला मध्यवर्ती 'आ' मे प्राय अनुनासिक श्रुति के रूप मे आ जाता है-- ग्राम > गाँम नाम आदि प्रयोग मिलते है। सामान्यत 'ज', 'य' मे परिवर्तित हुआ है--- अप० कहीज्जड >कहीजड>कहिया प्रा. प रा मे तो यह है ही, 'वेलि' मे 'कहिया' का प्रयोग है कहिया मूं मैं तेम कहे (३०२) 'क' का धोपीकरण भी हुआ है कातिक > कातिग चातक > चातिग 'त' का 'प' हो जाता है નીતવ> નીપવડ बेलि मे जाणे वाद माँडियो जीपण (३) 'ह' यदि अन्त्य अक्षर के दो स्वरी के बीच आए और पदान्त का एक भाग हो तो प्राय उसका लोप हो जाता है । दोनो स्वर प्राय सयुक्त हो जाते है, पर कभी-कभी वैसे ही रह जाते हैं ___अप० करहह >करहाँ 'ढोलामारू रा दूहा' मे ये प्रयोग उपलब्ध है। आद्य सयुक्त व्यजन और उसके बाद वाले स्वर के बीच मे कभी-कभी 'र'का बागम हो जाता है । बहुधा ग, त, प, भ और स के साथ 'र' का आगम होता है। यह प्रवृत्ति अपभ्र श मे भी थी और प्रा प रा मे भी। गोध > गोहली>ोहली> गिरोहली> ग्रीधणी आधुनिक राजस्थानी मे भी यह प्रवृत्ति मिलती है। अपभ्रश के द्वित्त व्यजन प्रा प, रा मे नियमत सरलीकृत हो गए है। यही प्रवृत्ति आगे भी रही है-- Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३०६ અપ૦ નાછી> નાછી महुमास लज्छि ण तरुवरहि (सदेश रासक-३०५) परन्तु वेलि मे लक्ष्मी से लिखमी' बना है। लिखमी समी रुकमणी लाडी (छद-३३) आधुनिक राजस्थानी मे लिखमी' ही मिलता है। पालि और प्राकृत मे लक्ष्मी का लखमी होता है। राजस्थानी मे आदि 'अ' का इ मे परिवर्तन होकर लिखमी' बना है। इसी प्रकार अ५० पुत्तली>पूतली हो गया है किरि कठचीन पूतली निज करि (छद-२) उपर्युक्त परिवर्तनो के अतिरिक्त अन्य ध्वनि परिवर्तनो के कतिपय उदाहरण निम्नलिखित हैं १. कालिदी > कालिद्री (वे कि रु री) २ कर्दम > कादो ( , , ) ३ किंजल्क > किंजलक ( , , ) ४ कीर्तन > कोरतन श>स ५ किशुक > किसुक ( , , ) ६ पलाश > पलास ७ केशव > केसव क्ष>ख ८ क्षणान्तर> खिणतर ६ क्षीण > खीण १०. क्षीर > खीर ११ क्षुधा > खुधा ऋ>इ यह परिवर्तन पालि मे ही हो गया था। ऋ के अ, इ और उ मे परिवर्तन पालि मे इस प्रकार मिलते हैं नृत्य >न तृण>तिन वृद्ध > बुड्ढो प्राकृत अपभ्र श मे यही परपरा रही। बलि मे-कृ०॥> किसन मिलता है। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्प >ग्य वेलि मे जान और ज्ञाति को क्रमश ग्यान' और ग्याति लिखा गया है । भ, घ>ह गभीर >मुहिर (वेली) मिहनी>सीहणी (वीर मतसई) मेघ> मेह दो महाप्राण एक साय आने पर प्रथम के अल्पप्राण होने के उदाहरण भी मिलते है भाभी>वाभी न>ण अपभ्र श को विशेष प्रवृत्ति थी जो राजस्थानी में भी मिलती है धनी>धणी खाना >खाणो પીના>પીળો अतएव ध्वनि परिवर्तन की दृष्टि से राजस्थानी ने प्राकृत अपभ्रश की परपरा को सुरक्षित रखा है। (ख) रूपवैज्ञानिक विवेचन रूपवजानिक विवेचन मे दीर्घ उक्तियों को उनके लघुतम सरचको मे विभक्त कर इन सरचको का कार्यकलन की दृष्टि से अध्ययन अपेक्षित होता है । रूपरचना मे सरलीकरण की प्रक्रिया आर्यभापाओ के मध्यकाल में ही प्रारंभ हो गई थी। प्राकृतो मे दो लिग और दो वचन रह गए थे। अपभ्र श मे भी दो वचन है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे भी दो वचन है एक वचन और वहुवचन । प्राकृतो मे सस्कृत के मन्धि नियम शिथिल हो गए थे। हनन मनाएं न रहने के कारण उनकी कारकावली भी सरल हो गई। करण, अपादान और मप्रदान-सवध के रूपो मे समानता पालि मे ही आ गई थी, कता और कर्म भी समरूप होने लगे। वैभक्तिक प्रत्ययो के स्थान पर स्वतन्त्र शब्द का प्रयोग प्राकृत मे ही होने लगा था, अपभ्र श मे भी यह प्रवृत्ति चलती रही । सर्वनामो मे जटिलता रही पर एकरूपता का आधार इनमे भी खोजा जा सकता है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे टेसीटोरी के अनुसार नियमत सभी सजाओ के रूपान्तर केवल करण, अपादान, अधिकरण और सम्पोवन मे ही होते है । अन्य कारको मे केवल स्वरान्त प्रातिपदिक ही होते है, व्यजनान्त प्रातिपदिक अपरिवतित रहते है', यद्यपि इसमे कुछ अपवाद मिलते हैं। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३११ कत्ता-कर्म एकवचन पुल्लिग स्वरान्त प्रातिपदिको मे-उ प्रत्यय लगता है। अपभ्र श व्याकरण मे हेमचन्द्र ने इस स्थिति का आख्यान किया है। सूत्र है 'स्यमोरस्यात्' अर्थात् अपभ्र श मे प्रथमा और द्वितीया के एकवचन सज्ञा शब्दो के अन्त्य 'अ' का 'उ' होता है। 'सि' और 'अम्' क्रमश प्रथमा (का) एक० व० और द्वितीया (कर्म) एकवचन के बद्ध रूपिम हैं । हेमचंद्र ने दहमुहु भुवण भयकर तोसिअ सँकरू उदाहरण दिया है । दहमुहु (दशमुख) पुल्लिग एकवचन का कताकारकीय रूप है और सकर' द्वितीया एकवचन पुल्लिा रूप । प्राचीन राजस्थानी मे भी यह प्रवृत्ति प्राण (आदिनाथ चरित्र) कुशीलउ (आदिनाथ चरित्र) विवेकरूपीउ हाथीउ (शीलोपदेशमाला) परन्तु माध्यमिक और आधुनिक राजस्थानी मे यह प्रवृत्ति नहीं है। इसके साथ ही अपभ्र श मे एक और प्रवृत्ति विभक्ति लोप अथवा शून्य विभक्ति की भी पाई जाती है। हेमचंद्र ने कहा है - स्यम्-जस्-शसा लुक ॥३४४।। अर्थात् सि, अम्, जस् और शस् मे विभक्ति का प्राय लोप होता है। सि, अम्, जस् और शस् क्रमश प्रथमा एक ०व०, द्वितीया एक०व०, प्रथमा ब०व० और द्वितीया बहु०व० के रूपिम हे । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे व्यजनान्त और आकारान्त प्रातिपदिक निविभक्तिक पाए जाते है। विकल्प से इकारान्त प्रातिपदिको की भी यही स्थिति रही है। कभी कभी व्यजनान्त प्रातिपदिक भी उ-विभक्ति ग्रहण कर लेते हैं । राजस्थानी मे लोप की यह प्रवृत्ति है। कर्ता एकवचन और बहुवचन मे प्रातिपादिक ही पद के रूप मे प्रयुक्त होते है । बहुवचन मे भी व० व० सूचक रूपिम जोड। जाता है, कर्ता की कोई विशेष विभक्ति नहीं होती । आधुनिक राजस्थानी के घोडो घास खार्या है ? घोडा घास खाऱ्या है---२ प्रथम वाक्य मे घोडो' एक वचन मे का विभक्ति शून्य है, द्वितीय मे 'आ' बहुवचन सूचक है, कताकार की विभक्ति नहीं है । प्रातिपदिक ही पद के रूप मे कार्य कर रहा है। वेलि' के व्याकरण के प्रसंग मे कर्ता और कर्म की शून्य विभक्ति भी प्रदर्शित की गई है-- १ जाणे वाद माँडियो जीपण वागहीन वागेसरी (७६-३) Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण बोर कोश की परम्परा ___ उपर्युक्त उदाहरण मे वागहीन कर्ता एक वचन है, इसके साथ कर्ताकारक की विभक्ति नही है। २ राजति एक भीखमक राजा सिरहर अहि नर असुर सुर (छद-१०) इसमे भी कर्ता 'भीखमक राजा' कतकारक विभक्ति रहित है । कर्मकारक मे भी यही स्थिति है १ पेखि रुखमणी जल प्रसन (८-१३२) २ वेलखि अणी मूठि द्रितिवन्धि (छद-१३१) ३ केस उतारि विरूप कियो (७८-१३४) ४ करै भगति राजान किसन ची (छद-१४६) ढोलामारू रा दूहा मे भी विभक्तिरहित कर्ता और कर्म के प्रयोग मिलते हैं ___ कूड़ियाँ कलख कियउ (दोहा-५४) उपर्युक्त उदाहरण मे 'कूझडिया' और 'कलख' क्रमश कर्ता और कर्म मे प्रयुक्त हैं परन्तु इनमे इन कारको की विभक्तियाँ नही है । परन्तु 'ढोला मारू रा दूहा' मे ही कर्ताकारक मे अपभ्रंश का 'उ' भी मिलता है जोवण आँव फलि रह्यउ (दोह। ११७) कर्मकारक मे भी यह 'उ' प्रयुक्त हुआ है ढाढी एक सदेशडउ ढोलइ लगि लइ जाई (दोहा-१२१) भविष्यकाल के प्रयोगो मे का विभक्ति रहित भी है जोवण वधन तोडसाइ इससे यह स्पष्ट होता है कि 'ढोलामारू रा दूहा' मे 'उ' विभक्ति और शून्य विभक्ति वाले दोनो रूप प्रयुक्त हुए हैं । 'वेलि' मे केवल शून्य विभक्ति वाले रूप । अपभ्रश मे जहा प्रातिपदिक के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'उ' होता था, 'ढोला मारू रा दूहा' की भाषा मे प्रातिपादिक के साथ 'उ' पृथक् से जोडा गया है आँवउ, સસડક માદ્રિ परन्तु उन्नीसवी शताब्दी की 'वीर सतसई' मे कता और कर्म विभक्ति रहित ही हैं १ धणिया पग लूवी धरा, अवखी ही घर आय (दोहा-३२) । 'धरा' स्त्रीलिंग है और विभक्तिरहित भी। २. तियां धरीज चाव (दोहा-३३) । 'तियाँ' बहुवचन स्त्रीलिंग है, विभक्ति यहाँ भी नहीं है। ३ एय घराण सोहणी कवर जण सो काल उपर्युक्त उदाहरण मे कर्ता और कर्म दोनो मे शून्य विभक्ति है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३१३ ४. नागण जाय। चीटला, सीहण जाया साव राणी जाया नहँ एक, सो कुल वाट सुभाव (दोहा-४०) इस प्रकार माध्यमिक राजस्थानी और आधुनिक राजस्थानी मे कर्ता और कर्म एकवचन तथा बहुवचन मे शून्य विभक्ति के साथ ही मिलते है । शून्य विभक्ति का कार्यफलन गणित के शून्य सदृश है। जसे शून्य के योग से अक मे कोई अतर नहीं आता वैसे ही शून्य विभक्ति के योग से प्रातिपदिक अप्रभावित रहता है। वस्तुत शून्य विभक्ति की परिकल्पना नियम पालनार्य है। पाणिनि ने इस परिकल्पना का सूत्र-विन्यास किया था । आधुनिक राजस्थानी का निम्नलिखित उदाहरण इस दृष्टि से उल्लेखनीय है ओ भूडो बगत दिन रात हार ५सवाई मे रसोली ज्यू कुल (जागती जोत, पृ० ४७) कर्ता 'बगत' पुल्लिा एक व० विभक्ति रहित है। रात धनख डोर ज्यू तरणाव रीस मे भरियोडी (वही-पृ० ४८) रात' स्त्रीलिंग एक० व० भी विभक्तिरहित है। अतएव यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि राजस्थानी के विकास स्तरो मे अपभ्र श की स्यम्-जस्-शसा लुक प्रवृत्ति ही चली। स्यमोरस्यात्' सूत्र का विधान बहुत कम पाया जाता है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में भी स्त्रीलिंग शब्द विभक्ति रहित प्रयुक्त हुए है। नपुसक लिंग शब्द लिगा सकोचन के कारण पुल्लिगवत् रूप रचना वाले होते है। इनमे प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे अपभ्र श का ॐ मिलता है, पर कालान्तर मे यह भी लुप्त हो गया । ०५जनान्त प्रातिपदिक और 'इ', 'ई', 'उ' और 'ऊ' अन्त वाले प्रातिपदिक तथा स्त्रीलिंग प्रातिपदिक निविभक्तिक ही प्रयुक्त हुए मिलते हैं। अपभ्र श और प्राचीन પશ્વિમી રાખસ્થાની કી યહી પ્રવૃત્તિ માધુનિક વાનસ્થાની ને પાઉં નાતી. है। वस्तुत यह भी सरलीकरण की प्रक्रिया का ही प्रतिदर्श है। इस प्रकार अपभ्रश मे कर्ताकारक के रूपिम 'सि' के योग से सज्ञा शब्दो के अन्त्य स्वर मे परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन 'सि' रूपिम और शब्द के अन्त्य स्वर मे सधि के कारण नहीं होता । हेमचंद्र ने कर्ता का चिह्न 'सि' माना है, जैसे पाणिनी ने 'सु' माना है । आधुनिक भाषाविज्ञान की शब्दावली मे 'सि' बद्ध रूपिम है। शून्य इसी 'सि' का सहरूपिम है। आधुनिक राजस्थानी मे इसी सहरूपिम का प्रचलन रह गया है, अन्य सहरूपिम काल के प्रवाह मे लुप्त हो गए है। अपभ्रंश मे करण कारक के लिये ६ सूत्र हेमचंद्र ने दिए है--- १ एट्टि अपभ्र श मे तृतीय एकवचन के रूप मे सज्ञान के अन्त्य 'अ' के Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा स्थान पर 'ए' होता है, यथा दइएँ । दई मे एँ करण एकवचन का सूचक है। सूत्र मे 'एँ' के ' का निर्देश नहीं है। २ आट्टोणानुस्वारी अपभ्र श मे तृतीया एकवचन मे 'ण' और अनुस्वार आदेश होते है। ३ एँ चेदुत इकारान्त और उकारान्त शब्दो के परे तृतीया एक० व० की विभक्ति टा' को 'एँ आदेश होता है। 'च' से सून सख्या दो का भी ग्रहण किया जाएगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि 'अग्गि' जैसे प्रातिपदिक के तीन रूप हो सकते है अग्गिएँ, अग्गिण और अगि। ध्यातव्य है कि एँ, ण औरतीनो मुक्त वितरण (Free distribution) मे है । मूल शब्द मे रूप स्वनिमिक (Morphophonemic) परिवर्तन नही होता। किन्तु उकारान्त मे यह परिवर्तन होता है, वायु से वाएँ बनता है। ४ ट ए स्त्रीलिए शब्दो मे 'टा' को एँ आदेश होता है-- चन्द्रिमा+टा+चन्द्रिम+एँ→ चन्द्रिमएँ ५ भिस्सुपोहि तृतीया बहुवचन की विभक्ति भिस् पर होने पर हिं' आदेश होता है, शब्द के अत मे कोई भी स्वर हो सकता है। गुण | भिस्→गुहि ६ भिस्येद्वा- सज्ञा शब्द के अन्त्य 'अ' को तृतीया व० व० की विभक्ति परे रहते विकल्प से 'ए' होता है गुण + भिस् → गुणे। इस प्रकार तृतीया के वर्धा रूपिम टा के निम्नलिखित सहरूपिम होग अन्त्य 'अ' पु० ए० व० के परिवेश मे एँण - इ और उ पु० ए० व० के परिवेश मे स्त्रीलिा एक० व० के परिवेश मे व० व० मे किसी भी स्वर के परिवेश मे प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे करण कारक एकवचन के दो विभक्ति चिन मिलते है इँ (इ) और 3 ( ---इहिं) । प्रथम का विकास अपभ्र श के एँ से माना गया है, द्वितीय का प्राकृत 'एहिं' से, अपभ्र श मे प्राकृत एहि' का 'हिं' ही रह गया है। टेसीटोरी के अनुसार प्रथम का प्रयोग नियमत स्वरान्त प्रातिपदिको के साथ ही होता है, दूसरे का प्रयोग विरल है। व्यजनान्त प्रातिपदिको के साथ 'हि' का प्रयोग अधिक प्रचलित है। कभी-कभी ये प्रातिपदिक विभक्ति से मुक्त भी होते है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के उदाहरण निम्नलिखित है पसाई (शालिभद्र च७५६) पाई (दशवकालिका सूत्र) राई (उपदेशमालाबालाववोध) पायीहुँ (पचाख्यान) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृन-अपभ्रंश का राजस्थानी भापा पर प्रभाव ३१५ पाणी. (दशवकालिक सूत्र) स्त्रीलिंग मे भी मालाई मिलता है, अपभ्र श मे 'ए' प्रयुक्त होता था। रूपिहि, दैविहिं जैसे प्रयोगो मे टसीटारी ने 'इहि' प्रत्यय माना है। मेरा मत है कि प्रत्यय तो 'हिँ ही है, इसके पूर्व 'इ' का आगम रूपस्वनिमिक परिवर्तन के कारण है । सीटोरी के ही अनुसार प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का 'अ' मारवाडी मे 'अई' हो जाता है। बेलि की भाषा मे करणकारक के सहरूपिम निम्नलिखित हैं शून्य (०), इ, ए, सू, करि, और आ 'इ' का उदाहरण जेणि उपायौ, जेण→जेणि (६, २) ए , , विचित्र सखिए समावृत ( १६१) करि , मुख करि किसू कहीज माहव (, ६४) शून्य , , (१) एकणि अहियो अगुली (, ८४) (२) भूप कणय तुलता भू भाति ( , २१२) (३) किसा अग मापित करल (, १६) इसके अतिरिक्त सस्कृत के रूप भी प्रयुक्त हुए है करण, जनेन । अन्य उदाहरण निम्नलिखित है १ पालण खल खगि खेन चढि (२७८) (इ) २ छत्रे अकास एम औछायो (१४४) (ए) ३ जलियाँ धारा ऊवडियो (१२०) (आँ/याँ ब व) ४ निहसे वूठौ धण विणु नीलाणी (१९७) (ए) ५ पकवाने पाने फल सुपुहपे (२३०) (ए) (ब व ) ६ परनाल जल रूहिर प. (१२०) (ए) (ब व ) ७ वलि रितुराई पसाइ वेसन्नर (२५४) (इ) जण भुरडीतौ रहे जगि 'अपभ्र श की ही तरह 'अ' पुल्लिग एकवचन के परिवेश मे तो 'ए' आया ही है, बहु व मे भी प्रयुक्त हुआ है अपभ्रश मे गुण+भिस्→गुणे वेलि मे पान + , →पाने फल+, →फले सुपुहुप + , →सुपहुये परनाल | " →परनाल छन+ ,, छत्र लेकिन 'इ' जहा है वह अन्त्य 'अ' के स्थान पर ही है खग+टा→खम् ~ अ +इ→खगि Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ग-कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पसाअ-+टा→पसा- अ | इ+पसाइ करण बहुवचन मे प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे ए तृतीया व० व० मे मिलता है, इँ भी प्रयुक्त हुआ है, इहिँ भी है। अपभ्र श मे तृतीया व०व० मे 'ए' स्त्रीलिंग मे और 'हि' अन्यत्र प्रयुक्त होता था । परन्तु राजस्थानी मे तृतीया व० व० मे-ए स्त्रीलिंग मे ही सीमित नही रहा, पुल्लिा मे भी चला। हिं' का 'ई' ही रह गया । बेलि की भाषा मे बहुवचन मे 'आँ' भी प्रयुक्त हुआ है । वीर सतसई मे भी बहु० व० मे 'आँ' माना जा सकता है १ तुंडा गज फेटा तुरी डाढा भड वोझाड (दोहा-५७) २ भाला थभ वणाय (दोहा-६०) तुड (एक० व०) तुडा (ब० व०) फेट (, ") फेटाँ (, , ) भालो (एक० व०) भाला (व० व०) भाला (व० व०) ३ भर खप्पर वाहै रुहिर (रुधिर से) आधुनिक राजस्थानी मे करण कारक की अभिव्यक्ति पृथक् शब्द से कराई जाती है। 'सू' ऐसा ही परसर्ग है, अचर तत्प है, लिंग-वचन और पुरुष से प्रभावित नही होता मिया-मिया सवदा सू नी वा सवदा र लार लुक्योडो एक उतावली हॉफ सू अरथ दिया करती। (जागती जोत, पृ० ५३) वीर सतसई के 'भाला', 'तुडा' मे व० व० और तृतीया ब०व० का एकीकरण है । आधुनिक राजस्थानी के उपर्युक्त उदाहरण मे 'सवदा केवल व० व० है । करणकारकीय परसर्ग 'सू' पृथक् से प्रयुक्त हुआ है। गद्य मे भी यह 'सू' ही चलता है (क) एक निजर सू देखा। (ख) ई दी० सू विचार करा । इसके साथ ही पगा-पगा चाल जैसे प्रयोग भी मिलते हैं। इस दृष्टि से आधुनिक राजस्थानी प्राकृत-अपभ्र श से पृथक हो गई है । करण कारक मे योगात्मक रूप नही मिलते, परसर्गीय 'सू' वाली सरचनाएँ ही प्रयुक्त होती हैं। माध्यमिक राजस्थानी तक ही अपभ्र श का प्रभाव रहा है । अपादान के मदर्भ मे अपभ्र श मे निम्नलिखित विधान का कथन है डसि~हे अकार/कार/उकार से परे और स्त्री एक वचन मे (डसि-भ्यस्डीना हे हु हय , इसेहे?) ___ डस् डस्यो है) Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३१७ Phco hce हु अकार से परे ब० व० मे (भ्यसो हु) हुँ इकार/उकार से परे ब० व० मे हु अकार से परे एक० व० मे (डसेहहु) अपादान कारक के लिए प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे----ऑ और ओ दो बद्ध रूपिम है। प्रथम का प्रतिबंधित प्रयोग सर्वनामो के स्थानवाचक क्रियाविशेषण रूपो के साथ होता है, जैसे तिहाँ, ता, जिहाँ, जौ आदि । परन्तु, ये रूप प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे कम मिलते हैं । विचितता यह है कि इसी प्रा प रा से विकसित मारवाडी मे 'आँ' वाले अपादान रूप अधिक प्रयुक्त होते है और गुजराती मे इनका अभाव है। टैसीटोरी ने इस आँ को अपभ्र श मे प्रयुक्त अपादान बहुवचन रूपिम अहुँ से निकला हुआ कहा है तथा मारवाडी के 'ऑ' मे अ (ह) उँ का सकोचन विशेषता के रूप मे स्वीकार किया है। परन्तु, हेमचद्र के अनुसार अपभ्र श मे प्रयुक्त अपादान कारकीय रूपिमो मे - 'अहुँ' का परिगणन नही है, वहाँ पर रूपिम --'हुँ' है। आँ वाले अपादान रूपो के उदाहरण टसीटोरी ने निम्नलिखित दिए है-- १ कोपा जलि थयउ २ सुख केडाँ दुख आवइ द्वितीय अपादान कारकीय रूपिम प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे ओ है। इसकी व्युत्पत्ति अपभ्र श अहु से मानी गई है, पर जैसा कि उपरिलिखित सूत्री से स्पष्ट है, अपभ्र श मे सीधे-'हु' का आदेश है । विभक्ति अहु मानकर पुन हुका विधान नहीं किया गया है। प्रा प रा मे ये प्रयोग नही हुए है जहाँ अपादान सज्ञा रू५ के बाद अधिकरण सज्ञा रूपो से युग्म बने है। हाथो-हाथई, खण्डो-खण्डि, दिसो-दिसि मध्यकालीन राजस्थानी मे (वेलि मे) अपादान के लिए निम्नलिखित सहरूपिम मिलते हैं ०, हू, हुँताँ, हुँती, हुँवा, हूत, हूता, हूती, हूतो, प्रति हू का उदाहरण हूँ ऊधरी पताल हूँ हुँता ,, , कुन्दणपुर हुँता वसा कुन्दपुरि हूंत , , दखिण हूँत आवतो उत्तर दिसि कुसमथली हूँता कुन्दगपुरि हूंती, " -- हूँ ऊधरी निकुटगढ हुँती इन रूपो मे अपभ्र श का केवल प्रथम अद्धशि ही है। पुन अपभ्र श मे यह अद्वाश हूँता ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा भी विभक्ति की तरह अर्थात् प्रातिपदिक के साथ सयुक्त होकर प्रयुक्त होता था, जैसे 'वच्छहु' आदि मे । माध्यमिक राजस्थानी मे यह एक परसर्ग की भांति प्रयुक्त हो रहा है। वीर सतसई मे 'यी' अपादान कारकीय परसर्ग के रूप में प्रयुक्त हुआ है 'देखीज निज गोख थी' (दोहा-८८) पीर सतसई मे 'हूत' अधिकरण मे भी आया है धावा कत पधारिया, पावाँ हूत प्रणाम (दोहा-११७) आधुनिक राजस्थानी की वोलियो मे 'सू' परसर्ग अपादान कारक में प्रयुक्त होता है 'ओ ही कारण है के शौरसेनी प्राकन सू विगम्योटी गुर्जरी अपभ्र स सू निकली जूनी गुजराती या राजस्थानी री परपरागत कविता ऊपर कथणी अर मडणी दोन्यू ही द्रिस्टिया मू अपभ्र स रो पूरी अर गरो असर दीख है।' (जागती जोत, पृ० ३१) अपादान के उपर्युक्त विवेचन में यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृत अपभ्र श का प्रभाव आशिक रूप से माध्यमिक राजस्थानी तक ही रहा। आधुनिक राजस्थानी मे प्रयोगात्मक स्थिति है, पृथक् से परसर्ग प्रयुक्त होता है। करणकारकीय और अपादान कारकीय रूप एक हो गए है। जहा तक सू' की व्युत्पत्ति का प्रश्न है, यह हूँ' का परिवर्तित रूप हो सकता है । 'स' का राजस्थानी मे 'ह' होता है, सभवत हूँ' से 'सं' विपर्यथित परिवर्तन हुआ हो । एक और प्रयोग भी अपादान मे मिलता है। जोधपुरु आयो है' अर्थात् प्रातिपदिक के साथ 'उँ' जुडता है, यह निश्चय ही अपभ्र श 'हुँ' का अवशेष है। इस दृष्टि से 'सू' और 'उँ' दोनो ही मूल रूप अपभ्र श की परपरा से आए प्रतीत होते है । काल प्रवाह मे ध्वनि-परिवर्तन हो गया है। सम्बन्ध कारक अपभ्रश मे सवध कारक एकवचन मे अकारान्त शब्दो के आगे 'सु', हो, स्सु आदेश होते है -डस सु हो सव । पर, तस और दुल्लह के इसके अनुसार परस्सु, तमु और दुल्लहो रूम बनते है । इस प्रक्रिया में भी रूपस्वनिमिक परिवर्तन नही होते। पहुवचन मे अकार के परे 'ह' आदेश होता है 'आमोह'। इकारान्त और उकारान्त शब्दो मे परे 'हुँ' आदेश होता है हुँ' चेदुद्भ्याम्'। सूत्र मे आए 'च' से पूर्वमूत्र का 'ह' भी ग्रहग करना पडेगा। अर्थात् इकारान्त और उकारान्त के आगे 'ह' और 'हँ' दोनो हो सकते है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत- अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव हुँ तरु+आम्→तरु+हु सउणि +, सउणि + ह सहि → सूत्र मे 'हुँ' और 'ह' है, पर उदाहरणो मे " दिया गया है । स्त्रीलिंग सज्ञा शब्दो मे पष्ठी बहुवचन मे 'हु' आदेश होता है- 'यसामो हुँ' प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में 'ह' प्रत्यय का प्रयोग रहा और संभवत सभी प्रातिपदिको के साथ समान रूप से प्रयुक्त होता था । पर बाद मे यह लुप्त हो और प्रातिपादिक ही पद के सदृश प्रयुक्त होने लगा । फिर भी 'अ अ' वाले रूपो के साथ इसका प्रयोग मिलता है । गद्य मे यह 'ह' वाला रूप नही मिलता, परपद्य में मिलता है जैसे गया वन > वनह सुपन > सुपनह कटक > कटकह उपर्युक्त वन, सुपन, कटक आदि व्यञ्जनान्त प्रातिपदिक कहे गए है । स्वरान्त के साथ यह संधि में घुल गया । 'ई' और 'ऊ' वाले प्रातिपदिको मे 'ह' के अवशेष पाए जाते है और इसके निम्नलिखित रूप मिलते हैं 'बाँधिया हायीया' 'सोसइ तालुआ' प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे स्त्रीलिंग इकारान्त और उकारान्त प्रातिपदिको मे यह प्रत्यय एकदम छूट गया प्रतीत होता है । सबधकारक बहुवचन मे रूप तो एकवचन की ही भाँति होता है पर सानुनासिक होता है । अपभ्रंश में 'हूँ' होता था जिसके पूर्व का 'अ' विकल्प से 'आ' हो जाता था । इस प्रकार दो रूप बनते थे 'अहं' और 'आ' । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे 'अहं' और 'आह' सकुचित होकर आँ हो जाता है, जैसे करहाँ, वाहला પામત ધોડાં चारित्रियाँ ३१६ वैसे 'गयाँह' और 'नयाँह' जैसे उदाहरण भी कही कही मिलते है माध्यमिक राजस्थानी मे सबधकारक के लिए पृथक् से परसर्गों का प्रयोग मिलता है रो, को, चो, तण, तणो, तनि इनके अतिरिक्त 'आं' और 'काँ' भी वैक्तिक प्रत्यय है । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा १ वयण डेडरॉ किसी वस | आँ (४८-५) वयण डेड गं= मेटको के वचन २ कामणि कर मुवाण काम रा (.,- २३) वाण कामग-काम के वाण रा ३ वाककति करि हम ची वानक (, १२) ('चौ' का हस चो वालकहम को वा व व ५ चाँ है । एक स्त्रीलिंग रूप भी) ४ कहण तो तिणि तणो को रतन तिणि तणी कीरतन = उनका कीर्तन तणी (, ६०) ५ हलवर का बाहता हलाह | का (,, -१२४) हलधर के (काँ) चलाए हुए हलो से ६ ग्याति किसी राजवियाँ वाला राजवियाँ = राजवणियो का वेलि गलि तस्वगविलागी गलतरा वृक्षो के गले आँ (, २५१) ८ क्रमियी तासु प्रणाम कर उसे प्रणाम करके चला હ તિહિ સુમિત વેલે उसको कुसुमित देखा १०. दला दूंह વોનો વનો જી ११ पुहपा, पाता १२ वरहासा नासा वन्ति वोडो के नथुने वज रहे है वेलि के उपर्युक्त उदाहरणो मे अपभ्रश का 'सु' है, 'आह' का मकुचित रू५ 'आँ' है। याँ मे भी आँ माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त तणा, तणी, चौ/चां/ची, तथा रा, री आदि परसर्ग हैं। मध्यकालीन राजस्थानी मे, इस प्रकार अपभ्र श का प्रभाव भी है और विकास के दौर मे गृहीत परसर्गीय प्रवृत्ति भी। परन्तु इन रूपो का इतिहास स्पष्ट है, विकास याना की पूरी रूपरेखा राजस्थानी के तीनो चरणो मे सुरक्षित है। वीर सतमई मे मवधकारक एक व मे शून्य भी मिलता है-- ? વાંખી નળી વાત મેં ગીતાની મૂઠ (वाणी जगरानी का चिन्तन किया) शून्य (दोहा---२) . सुमिण लगा वीर स4, वीग रौ कुलबाट वीरा रो कुलवाट = वीरो का कुलमाग रौ (, ६) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३२१ FF " ३ वीर धणी री धान वीर स्वामी का अन्न ४ डाकी ठाकर रौ रिजक, ताखा रौ विष एक जबरदस्त स्वामी का रिजक और तक्षक का वि५ । रौ (, १२) एक है ५. निज भगा तो नाह रौ, साथ न सूनो टाल । रौ ६ पण वण रौ किम पेखही, नयण विणला नाह ७ भड घोडा रा भामणा जेथ जुडीज कत । रा (., २०) ८ मिजमानी री वार ६ वीर जमी। जे जण १० सतियाँ आयो साथ ___ सतियां साथ =सतियो का समूह ११ धणियाँ पग लूवी धरा धणियो के परो से लटकती धरती १२ वाजा रे सिर चेतना, भ्रूणा कवण सिखाय ।रै (, ५१) १३ घोडा घर ढाला पटल, भाला थभ वणाय । ऑ १४ कोसा चा सण ढोलडा ॐ नीद विछोड ।चा १५ घणी रे रुण्ड (धणी का शरीर) १६ वव सुणीज पार को, लीज हात लगाम १८ आपा रा मिजमान १८ पहर धणी चा पुगरण धनी के वस्त्र पहनकर |चा (, १०६ १६ पीत खटक्क मास चौ २० जोडी हदा घोर जम, रोडी हदा राव हदा (पजावी) = का (, १७७) उपर्युक्त उदाहरणो के परीक्षण से ज्ञात होगा कि अपभ्र श से प्रभावित 'आँ' वाले सबंधकारकीय रूप उन्नीसवी शताब्दी की सतसई मे अत्यल्प है । 'हदा' परसर्ग तो एक दोहे मे आया है। अधिकाश प्रयोगो मे 'रौ' परसर्ग का ही प्रयोग हुआ है। 'रौ' वचन और लिंग से प्रभावित होता है, परिणामत रो, री, रा, तीनो रूप चलते हैं। इस समय तक अपभ्रश का प्रभाव इस सदर्भ मे बहुत कम रह गया है। सवधकारकीय परसर्ग 'को' भी प्रयुक्त हुआ है। आधुनिक राजस्थानी मे 'का', को', की जैसे, 'कुण को वेटो', 'कुण का बेटा', 'कुण की बेटी' प्रयोग होते है। रा, रौ तो बहु प्रयुक्त है ही। आधुनिक राजस्थानी के कतिपय उदाहरण यहा दिए जा रहे है। । चौ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा १ "समाज सुधार री लहर ₹ साय प्रवासी राजस्थानी लेखका वृद्धविवाह, दहेज, जीमण रै वार में जिकी रचनावा करी" (जागती जोत पृ० ५५) २ अर टेम री नस पिछीणवो वीया भी देश भगती है मिरकार री सोराई साल નસવવી પૈસા નો વાનગી ३ जिको, किण रेई भाई कि रै ई भतीजो किणरै ई काको (वही पृ० ५२) निष्कर्ष ८५ मे कहा जा सकता है कि प्राकृत-अपभ्र श के विभक्ति प्रत्यय माध्यमिक राजस्थानी और प्रत्यल्प रूप मे उन्नीसवी शती की राजस्थानी में भी रहे। परन्तु आज की राजस्थानी मे सबध अर्य व्यक्त करने के लिए परसर्ग ही प्रयुक्त होते है, कही-कही शून्य भी । सर्वनामो के साथ भी यही री, री, री जुडते है- थारो, यारो, म्हारो, म्हारा, हारी, वणी री, वणी रा आदि आधुनिक राजस्थानी के सिद्ध प्रयोग है । एक उदाहरण देखे - "यारो, म्हारो व्याव कोनी हो सके म्है विरजरी एक गूजरी थारी जान री किण विध खातरी करस्यूँ" अपभ्र श मे सप्तमी एक व० मे प्रातिपदिक के अन्त्य 'अ' को 'इ' और 'ए' होते है । 'इ' और 'ए' मे मुक्त वितरण है, यह निश्चित नहीं है कि अ' का 'इ' कहाँ हो और 'ए' कहाँ )डि ने 14) डसि-भ्यस्डीना हे-हू-हय सूत्र के अनुसार अन्त्य 'इ' और उकार को सप्तमी एकवचन मे 'हि' आदेश भी होता है । सप्तमी बहुवचन मे भिस्सुपाहि सूत्र से हिं आदेश होता है। स्त्रीलिंग शब्दो मे सप्तमी एकवचन मे डि को 'हि' आदेश होने का विधान भी निहित है। हेमचद्र ने सस्कृत की डि विभक्ति को आधार रूप मे ग्रहण किया हैं। रूपवैज्ञानिक धारणा के अनुसार 'डि' वरूपिम है तथा इसके परिपूरक वितरणीय सहरूपिम निम्नलिखित है। डि~ इ/ए (मुक्त वितरण मे) अन्त्य 'अ' के परिवेश मे हि अन्त्य इ और 'उ' के परिवेश मे हिं पहुवचन के हेतु हि स्त्रीवाचक प्रातिपदिक के परिवेश मे अपभ्र श के उपयुक्त सहरूपियो मे दो ही रूप प्रमुख है हिँ (हि) और Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३२३ इ/ये दोनो ही रूप प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे भी प्रयुक्त होते रहे, परन्तु यातव्य यह है कि 'हि' भी -5 (ई) के रूप मे रह गया था। अपभ्रंश की भाति है' 'अ' को छोडकर शेष स्वरान्त प्रातिपदिको के साथ आता था, इ,ए अकारान्त साय। टैसीटोरी ने हिँ अथवा हि प्रत्यय से निष्पन्न रूपो के उदाहरण नम्नलिखित दिये हैं -- विद्याइ, शिविका, रात्रइ, आदि परन्तु धरि, सूरि, गोअलि, पेटिमझारि आदि रूपो की व्युत्पत्ति अपभ्र श के ए, एँ, इ से मानी माती है। पुल्लिग और आ, ई तथा ऊ अत वाले प्रातिपदिक अइ और--अ' प्रत्यय हण करते है नगरीअइँ, नगरीय' आदि । अधिकरण ब० व० मे प्राचीन 'श्चिमी राजस्थानी में प्रयुक्त होने वाला प्रत्यय ए है श्रवणे, कॉने, घणी देसे आदि स प्रकार अविकरण में प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे प्रयुक्त प्रत्यय है - -~-इ अथवा हू (अपभ्र श हिँ अथवा हि से व्युत्पन्न) (ए/ड से व्युत्पन्न) अइ और अ. इ वहुवचन मे e माध्यमिक राजस्थानी कृति वेलि मे 'इ' और 'ए' दोनो प्रयुक्त हुए है, साथ ही 'मैं', 'महि', 'परि', लगि, लगी, लग परसर्ग भी मिलते है। उदाहरण निम्नलखित है १ जिणि सेस सहस फण फणि फणि बि वि जीह -'इ' (७८-५) २ लखण वतीस वाल लीलाम ३ सुणि स्रवणि वयण मन माहि थियो सुख -माहि ४ ५खी कवण गयण लगि पहुँच ५ राज लग मेलिहयो रूखमणी ६ आयो अस खेडि अरि सेन अतर ७ पूछत पूछत ग्यौ अतहपुरि ८ ऊपडी धुडी रवि लागी अम्बरि ६ अम्बि अम्बि कोकिल आलाप १० उतमग किरि अवर आधो अधि ११ आणि जल तिरय उप अलि पिअति , १२ ए अखियात जु आउधि आउध १३ आवासि उतारि जोडि कर ऊभा १४ झांखाणा उरि उठि झल ts to be too ho he too to to Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा shcb EE EPE OF१ ० ० अतएव माध्यमिक राजस्थानी तक अपभ्र श 'इ' ही अधिकरण मे अधिक प्रयुक्त हुआ है। परसर्गों का प्रयोग--इ वाले रूपो की तुलना में कम मिलता है। वीरसतसई मे प्रथम दोहे मे ही परसर्ग 'पै' का प्रयोग हुआ है-- १ लाऊँ पे सिर लाज हू सदा कहाॐ दास २ वीर हुतासण बोल मे, दीस हेक न दोस ३. सूरा आलस ऐस मे अकज गुमाई आव ४ खोयो मै घर मे अवट, कायर जवुक काम ५ उरसां खेती वीज धर, रजवट उलटी राह ६ आज घरे सासू कहे, हरख अचाणक काय ७ देख सखी होली रम, फौजों मे धव एक ८ जगता यावां चैकसी, जे सुसी बवाल & विण माथै दल वाढियो, आँख हिये के सीस १० मोनू ओछ कचुवै हाय दिखाता लाज ११ तोहि मचाई छोकर, वैरी रे घर बूव १२ गो० गया सब गेहरा, वणी अचाणक आय १३ भाभी हू डोढी खडी लीधाँ खेटक रूक १४ घोड़ा चढणी सीखिया भाभी किस काम १५ सूने घर सीधू थिया आपा रा मिजमान १६ हूँ बलिहारी राणियों, भ्रूण सिखावण भाव १७. घर मे देखू दोय कर रण मे दोय हजार १८ सीहा रे गल साकल बे भड घाल हाथ १६. पैला काकड, पीव घर वीच बुहारे खेत २०. भाभी कुल खेती बिचा, भय न हुवे धव भग २१. रण हाली चारणा चाहै अब लग चन उपर्युक्त उद्धरणो से स्पष्ट होता है कि 'ऑ' और 'ए' वाले रूप अपभ्रश परपरा के है । 'मे' प्राकृत परपरा से मध्ये >मज्झे > माँझ >मॉहि > मे से आया है, जो पहले इस रूप मे नही मिलता। एक नई विशेषता जो आधुनिक राजस्थानी मे विकसित हुई है, अविकरण मे शून्य प्रत्यय का योग है। उपर्युक्त उदाहरणो मे 'घर', 'गोठ', डोढी, गल और रण पद अधिकरण मे है, पर इनके आगे अधिकरण सूचक विभक्ति नहीं है। आधुनिक राजस्थानी मे 'आँ' चलता है-'घरों चालो' जैसे वाक्य नित्य वोलचाल की राजस्थानी मे मिलते ही हैं। परन्तु परसर्ग का प्रचलन ही अव अधिक है ओल यू --- थारी ओल यू ० " ० ० ० Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३२५ धीमै धीमै हालत पाणी मे (जागती जोत, पृ० ५०) मे के अतिरिक्त 'माय' का भी प्रयोग होता है 'उणरै माय' । तब भी यह कहना पडेगा कि 'मे' का ही प्रयोग अधिक होता है या फिर शून्य का।मां वाले प्रयोग भी मिलते है, पर 'मे' की तुलना मे कम। उपयुक्त विभक्ति प्रत्यय और परसर्गो मे से परसों की परिगणना इस प्रकार की जा सकती है इनका प्रयोग प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे होता रहा है कर्म नई, प्रति, रहई करण - कार, नई, पाहि, साथि सिउँ सप्रदान कन्हई (कन) नई, मा८३ (माट) अपादान कन्हई, लउ, थउ, थक, थाकी, थी, पासइ,लगइ, लगी, हुतउ, हुती । सबध करउ, तणउ, नउ अधिकरण ताई, पास३, मझारि, माझि, माँ, माहि इन्ही से विकसित रूप आधुनिक राजस्थानी मे प्रयुक्त होते हैं। अतएव इस दृष्टि से प्राकृत--अपभ्र श का प्रभाव निर्विवाद है। क्रियापद ___ अपभ्र श व्याकरण मे हेमचंद्र ने तिड् रूपो से सबद्ध केवल सात सूत्र दिए है। इनमे से ५ वर्तमान काल का विधान करते हैं तथा दो भविष्य और आशा का निर्देश करते है। भूतकालिक प्रयोग के लिए अपभ्र श मे कृदन्त रूप) का प्रयोग होता रहा। पूर्वकालिक और तुमुनन्त अर्य मे अनेक प्रत्यय प्रयुक्त होते थे। वर्तमानकालिक कृत् प्रत्ययो से निष्पन्न रूप विशेषणवत् भी प्रयुक्त हुए है और क्रिया के स्थान पर भी। अस्तिवाचक सहायक क्रिया इसकी व्युत्पत्ति 'भू' और ऋच्छ धातु से हुई है। 'भू' धातु से होवॐ और ऋछ से अवउँ (प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी)। 'भू' धातु से बनने वाले रूप निम्नलिखित है सामान्य वर्तमान काल अन्य पुरुष एकवचन हुइ, होइ (सभवति >अ५ होइ) प्राकृत मे हुवइ मिलता है। आधुनिक मारवाडी मे हुई व्है प्रयुक्त होता है। अन्य पुरुष बहुवचन हुई, हुइ, होई, होइ सयुक्त वर्तमान काल की रचना मे 'हुइ' के साथ सहायक क्रिया छवउँ का वर्तमान कालिक रूप जोडा जाता है हुई ७३ =होता है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ३२६ सस्कृति-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा आजावोधक मे अन्य पुरुष एकवचन, 'हुउ' य = भवतु > अप० होउ>हुउ है । विधि मे उत्तम पुरु५ मे हुजि, मध्यम पुरुष मे होडणे, अन्य पुरुष मे हुए, मध्यमपुरुष बहुवचन होयो। भविष्यकाल मे होइसि', हुएसि, हुइसिड, होसि, आदि रूप बनते हैं । वर्तमानकालिक कृदत का सर्वाधिक प्रचलित रूप है-हुँत । अपभ्रश मे भूतकालिक कृत् प्रत्यय 'उ' है जिससे हूअर, हूयउ वने। अव द्वितीय क्रिया है, परन्तु यह मुख्य और सहायक दोनो प्रकार से प्रयुक्त होती थी। यह स ऋच्छति से अपभ्र श मे अच्छइ हुई है। पिशेल के अनुसार मादि 'अ' प्राय लुप्त होकर ७४' रूप बनते है जो वचन और पुरुष के अनुसार बदलते हैं। यह छई ही छै, छो, छी के रूप मे आधनिक राजस्थानी मे सहायक क्रिया के रूप में प्रयुक्त होता है। राजस्थानी मे धातु से निष्पन्न क्रिया रूपो मे अपभ्र ण का प्रभाव विशेष रूप से उल्लेखनीय है । अपभ्र श व्याकरण के अनुसार अन्य पुरुप की एक ब० द्विव० और व० व० की विभक्ति को विकल्प से हि' आदेश होता है। (त्यादेराद्यनयस्य सवधिनी हिं न वा) इसी प्रकार मध्यम पुरुप एक व० को विभक्ति को हि' आदेश होता है । वहुवचन मे 'हु' आदेश होता है (बहुत्वे हु ) उत्तमपुरु५ एक व० मे 'उ' और बहुवचन मे हु होता है। इन्ही रूपो से आधुनिक राजस्थानी के रूपो की सिद्धि होती है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानो के रूप तो अपभ्र श जैसे ही है अपभ्रश प्रा०प० रा० राजस्थानी (अन्य पुरुष एकवचन कअइ करअ कर३> करें ।" , ब० व० कअहिं कई करड> करें (मध्य , एकवचन कअहि कर्सइ , , व० व० कबहु कबउ (उत्तम ,, एकवचन कर्-अ-उँ ।" , व० व० कहुँ कआउँ अ> पेलि किस रूकमणी री' मे वर्तमान काल के अन्य पुरुष एक व० (सकर्मक) (१) मूकै (२) मूकई (३) मूकति, आदि रूप मिलते है, इनमे से प्रथम और द्वितीय तो अपभ्रश से प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी की परपरा से आए है। द्वतीय सस्कृत के '५०ति' के सादृश्य पर निर्मित लगता है। स्त्रीलिंग मे भी मूक रूप ही चलता है। मध्यम पुरुष एक व० मे 'मूक', मूकई, भूक तया स्त्रीलिंग मे भी यही प्रचलन है। उत्तम पुस्प एकवचन मे 'मूक' और बहुवचन मे आँ वाला 6५ 'मूकाँ' चलता है, जिसकी परपरा अपभ्र श दिखलाई है। वेलि मे इस काल रचना के उदाहरण निम्नलिखित हैं क A.ABAR करा Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३२७ अन्य पुरुष एकवचन पुल्लिंग स्त्रीलिंग १ आलोच आपो आप सू ( ५३ ) २ सीखावि सखी राखी आखे सुजि (७९) ३ धू ढलिये ऊकसं धड ( १२१ ) ४ रतधण " 31 सामान्य भविष्य काल के रूप भी भविष्यकाल से सबद्ध एक सूत्र दिया है भविष्यत् अर्थ मे 'स्य' के स्थान पर 'स' " 33 " ॐच छिंछ ऊछले अति (१२५) ५ कहै वेलिवर लहे कुमारी (२८१ ) ६ काई रे मन कलपसि कृपणा ( २८६ ) ७ किसन पधार्या लोक कहन्ति ( ७२ ) मध्य पु० अन्य पु०व०व०,” अत वेलि की भाषा मे वर्तमान काल मे वही रूप चलते है, जो अपभ्रश की परपरा से आये है । 'कलपसि' जैसे लट् लकार के मध्यम पुरुष एक वचन के अनुवर्ती है । 'कहति' आदि संस्कृत के 'पठति' के सादृश्य पर बनाए गए हैं । वीरसतसई मे भी वर्तमान मे इन्ही रूपो का प्रयोग हुआ है अ० पु० ए० व० स्त्री० ) 11 १ झरे इम रंगरेजणी कूडा ठाकुर काम (८५) २ चून सलूणी सेर ले, मोल समप्पै सीस ( १०० ३ रुण्ड हुवा जीवे जिके, सदा न हेरे साथ ( १०१) ४ पग पग पाछा देण रौ, हुलसे अच्छर हेत ( १०७ ) ५ भोला की चहरो भडा ईखी धारण ऐण (१२२) म० पु० ब० व० पु० अ० 33 ,, ए० व० ६ धावा कत पधारिया, पावा हूत प्रणाम ( ११७) ७ पथ निहारै पाहुणा, गीध विहारै गैंण (१२१) आधुनिक राजस्थानी मे 11 " " " ,, ब०व०पुल्लिंग 11 33 17 " स्त्रीलिंग પુર્વત્તા ब० व० पु० पु०,,,, अ० पु० ए० व० पु० अ० पु० ब० व० पु० अ० पु० ए० पु० अ० पु० ए० स्त्री ज्यू मोर खुजाल पाख। हलवो हेवण ने नारखे आ बिणी तराज ओलू (जुगजुगानी रूप ही हिलोरा लेवें) अतएव धातु से निष्पन्न वर्तमानकालिक रूपो की धारा आधुनिक राजस्थानी मे भी अपना मूल स्रोत अपभ्रश से ही ग्रहण किये है, यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है । अ० पु० ए० पुल्लिंग अपभ्रंश से ही प्रेरित हैं । हेमचंद्र ने 'वर्त्स्यति स्यस्य स ' अर्थात् अपभ्रंश मे आदेश होता है ज अच्छइ त माणिअइ होसइ करतु म अच्छि इस पक्ति मे 'होसइ' भविष्यत् अर्थ मे है | अपभ्रंश मे भविष्यकालिक क्रिया की रूप सारिणी निम्नलिखित है Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ गस्त-प्राशन व्याकरण और कोण को पांग एव० व०व० अन्य पु० करिम. करिहर कारिगहियाम्हिहि मध्यम पु० करिहिराि कगिसहि परिमागरम उत्तम पु० परीसुकीसु करिसह/गरि प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे भी अपभ्र श के यही म-मूलभ प भविष्यमान के लिए प्रयुक्त होते है । कुछ उदाहरण ये है - जाईमु, बोलिसु, धरिसिउँ । उत्तम पु. ए१.५चन मे वोलिसिउ, करिस्य, उपजिस्या , व. व० में जाइसि, हुइसिइ । मध्यम पु० क० ५० मे थाइसिउ, जीमिस्यउ व०व० मे कहिसिइ, देमिइ, करिसइ । अन्य पु० ए०व० में कहिसि, घरस्य , व० व० मे प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे लड -> लो वाले रूपो के उदाहरण अत्यल्प हैं। आधुनिक राजस्थानी के पूर्वी स्प मे यही चलते हैं तथा लिंग, वचन और पुप से प्रभावित होते है । वर्तमान निश्चयार्य से भी भविष्य की प्रतीति होती- - 'मू अवार नी मरू' (मैं अभी नही मरूगा) यह स्थिति प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में भी थी और आज भी है । वेलि मे 'स' वाले स्प प्रयुक्त हुए है। पूजा मिसि आविसि पु-खोतम (६६) उत्तम पु० ए० व० स्त्री० किं कहिसु तासु जसु अहि थाको कहि (२७२) , , , पुल्लिा वेलि मे भविष्यकालिक स्पो की सारणी निम्नलिखित है-- ए०व० व०व० अन्य पु० मूकिसी, मुकिस्य मध्यम पु० उत्तम पु० मुकिस्यो उत्तम पु० मध्म पु० मुकिसि, मुकिस्यो मूकिस्या, मूस्या, मूकस्या वीरसतसई मे भविष्यकाल अर्थ मे यही 'म' वाले रूप प्रयुक्त हुए हैं १ चगता धावां चैकसी, जे सुणसी बवाल (६२) अ० पु० ए० व. पु. २ भर खप्पर वाल्हे रूहिर, देसी कत धपाय (६७),, , , , ३ वलण कढायो अतर धण, मुहंगी लेसी कोण (८६) , , , ४ मुडिया मिलसी गीदवी वलन धणरी वॉह (६७) , " ॥ आधुनिक राजस्थानी के प्राय सभी विविध रूपो मे यही रूप चलते है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे 'लो' वाले रूप कम प्रयुक्त हुए है, आधुनिक राजस्थानी मे यह भी 'स' वाले रूपो के सदृश ही चलता है । आधुनिक राजस्थानी के कतिपय उदाहरण निम्नलिखित है-- थारी जान री किण विधि खातरी करस्यू दायजो कठा सू लास्यु Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासरा नै कैया केवटस्यु X X मध्य पु० कोई राजकवारी थारा चितराम कोर-कोर दूतिया ने दिखाती होसी कामण' करती होसी (जागती जोत, पृ० ३७) निष्कर्षत इन रूपो के विषय में कहा जा सकता है कि इनमे पूर्णत अपभ्रश की ही परपरा प्रवहमान है । अपभ्रश मे आज्ञार्थ मध्यम पु० एकवचन और बहुवचन मे इ, उ और एका वैकल्पिक प्रयोग 'हि स्वयोरिदुदेत्' सूत्र द्वारा निर्दिष्ट है । प्राचीन पचिश्मी राजस्थानी मे यह 'इ' अन्तवाला होता है । कविता मे 'ए' वाले रूप भी मिलते हैं । अउ या उ वाले रूप मध्यम पुरुष बहुवचन माध्यमिक राजस्थानी मे मे प्रयुक्त होते है । मे मिलते है । प्रयुक्त होते है । विध्यर्थ प्राकृत अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३२६ आधुनिक राजस्थानी मे अकारान्त रूप थू भण 11 एक व० 31 मूक, मूकि, मूकहि 73 X प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे विध्यर्थ तीनो पुरुषो मे मिलता है । अन्य पुरुष एक व ० ચે, ખોળે मध्य करिजे, जाणिजे, जोजे व० व० मूकी 11 12 ब० व० एक व० अज्ये, अजो वाले रूप मिलते है | लासेन उत्तम,” मारवाडी मे 'अजइ, ईजइ, ने इनकी व्युत्पत्ति संस्कृत विध्यर्थं से सकेतित की है । टेसीटोरी के अनुसार यह प्राचीन प्राकृत मे भी रही है । प्राकृत वैयाकरणो ने होज्जइ, होज्जसि जैसे रूपो का आख्यान किया है । टेसीटोरी प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के 'हुजिॐ' की व्युत्पत्ति अपभ्रंश के होज्जउँ से मानते है, तथा इमे होज्जामि के समकक्ष प्रतिपादित करते हैं । अर्द्धमागधी और जैन महाराष्ट्री प्राकृत मे 'होज्जामि' का प्रयोग होता रहा है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के अन्य रूपो का विकाससूत्र निम्नलिखित है- था भणौ सुणजो, करज्यो, जाज्यो हुजिउँ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० गम्तृत-प्राकृत व्याकरण और TIM को पगपग अप० प्रा०प०० होएहि हो कारज्जह करिज्यों 'होटजे' और 'करिज्यो' ५मवाच्य के रूप नहीं है। क्योकि व मवाच्य में 'इ' हव नहीं होता। -जहि मे कामवाच्यीय ५ जद' बनता है। परन्तु, वेलि' के सपादको ने 'मण्डिज' जैसे पो को कमवा-य में ही माना है। गाला 'मगलाप गाज माहब' का अर्थ 'मगला प माधव का गुणानुवाद गाया जाता है दिया है। -सका विधिपरा अर्थ होगा - 'मगल' माधव का गुणगान ५.ना पाहिए।' वीरसतमई दोहा मध्या १११ मे. रिण हालोज चारणा पदबंध प्रयुक्त हुया है। हालीज, गाज के ही समान रूप है। सतसई के मपादको ने 'हालोज' का कर्मवाच्य वाच्यीय अर्थ नही किया, परन से विध्ययंक मानकर 'अवयुद्ध में चलो' अर्थ किया है। इसी प्रकार के अन्य प्रयोग भी है १ मतवाला दल आविया छोडीज गलबाह (२३०) २ लहंगे मूझ लुकीजिय वरी रो न विसान (७५) ३ दरजण लबी अगिया आणीजे अव भू.. (८३) आधुनिक राजस्थानी मे इन म्पो का प्रयोग प्राय, नहीं मिलता परन् कर, कर करजो, करज्यो। 'चाइज/चाईज' निथार्यमा सना रूपो के साथ प्रयोग आधुनिक राजस्थानी मे अधिक होता है। भूतकाल अपभ्र श मे भूतकाल की अभिव्यक्ति के लिए कृदत स्पो का प्रयोग हुआ है। प्राकृतो मे भी अख्यात के स्थान पर कृदन्त रूपो का प्रचलन होने लगा था। अपभ्र श मे ऐसे कृत् प्रत्यय निम्नलिखित थे १ उ थिउ, गउ, घाइड, किउ, परिगलर, जीसरि७ आदि २ य-- भिलिय, भिडिय, लुट्टिय, तुट्टिय, गय आदि ३ ओ हिंडिओ, सेवियो, भणिओ, रमिओ ४ य पडिय, भणिय, रमिय आदि प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे भूत कृत् प्रत्ययो की सारणी इस प्रकार प्रस्तुत की जा सकती है १ इउ, इम, 43 कर जोयउ, थायउ, कहिउ, हुय आदि २ आणउ उल्हाणउ (बुझा), चपाणउ (चापा हुआ) ___ सधाणउ (पूर्ण) आदि ३ घउ----कीधउ, साघउ, दीघउ, आदि Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३१ ४ व्यजनान्त धातुओ मे बने त या--- न वाले सस्कृत कृदतो से बने रूप। इनमे एक धातु का अतिम व्यजन होता है, दूसरा संस्कृत प्रत्यय है। अपभ्र श मे इनका समीकरण हो गया । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे सरलीकरण होकर रूप प्रयुक्त हुए भागउ, लागउ, छूटउ, दी65, आदि माध्यमिक राजस्थानी मे उ, ए, और 'यो' वाले रूप चलते रहे आरभिया, अहिया, औछायो, उतारे, काढे, करेउ, आदि आधुनिक राजस्थानी मे यो प्रचलित है गयो, पढ्यो, भण्यो कह यो, आदि '' पाला रूप 'धो' में परिवर्तित हो गया है कीधो, खाधो, पीधो, दीधो आदि १ गोठ गया सब गेहरा (वीर सतसई १०) २ वा५ गयो ले माहिरी (, , ८६) ३ पूत महा दुख पालियो (.. , ११५) ४ नाराजण वाधावियो (, , २६) इन उदाहरणो से यह स्पष्ट होता है कि अपभ्र श के 'उ', 'य' और ओ भूत कृत प्रत्यय ही आधुनिक राजस्थानी मे भी भूतकालिक रूपो का निर्माण करते हैं। भूतकृदन्त जव विशेषण की भाति प्रयुक्त होता है तो इसके साथ सहायक क्रिया का वर्तमान अर्थ मे निर्मित कृदन्त हूतउ' का प्रयोग पश्चिमी राजस्थानी मे होता है। जैसे गिउ हूँतउ = गया हुआ, इस हूँत के स्थान पर थकउ (थिक) भी मिलता है, जैसे 4ठी यकी= बैठी हुई, हपिउ थिकई = हपित हुआ आदि। अपभ्र श भूतकृदन्त के ऐसे प्रयोगो के साथ रहे:' का प्रयोग होता था। परन्तु यह रहइ' सातत्य का बोध कराता था। भूतकृदन्त से सयुक्तकाल का निर्माण भी होता रहा है, जैसे १ आविउ छू इहा २ निद्रावसि हुई छह वाल ३ अख्या छू अन्हे ४ लोक भेला या छ प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का यह प्रयोग जिसमे-भूतकृदन्त +अवउँ, से सरचना हुई है, आधुनिक राजस्थानी मे पूर्णत चलता है। आयो छु, गयो छै, वा आयी छी आदि बोलचाल की भाषा के प्रयोग है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी से लेकर आधुनिक राजस्थानी तक भूत कृदत रूप कर्तरि सरचना मे तो आता ही है Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा १ प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी हर बोलिउ~~-मैं बोला २ . , करहउ भणिउ = करहा बोला ३ ढोला मारू रा दूहा दाढी गाया निसहभरि ४ वेलि क्रिसन रुकमणी री हूँ उधरी पाताल हूँ ५ आधुनिक राजस्थानी मू वोल्यो, मैं वोल्यो प्राचीन प्रयोगो और यदा कदा आधुनिक राजस्थानी मे कर्मवाच्य संरचना में भूत-कृदन्त के रूपो का प्रयोग होता है । १ राजकन्या मई दीठी = मैंने राजकन्या देखी २ देवताए दुन्दुभी बजावी = देवताओ ने दुदुभी बजाई अपभ्र मे भी ऐसे प्रयोग होते रहे है । उपर्युक्त प्रयोगों के अतिरिक्त क्रियार्यक सना के रूप मे भूतकृदन्त के प्रयोग होते हैं--- 'यो काम कयी विना न चालसी' प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे भी ऐसे प्रयोग हुए है १ पुण्य कय विना २ नासर्या पछी पूर्वकालिक रूप प्राकृत-अपभ्र श मे पूर्वकालिक अर्य मे 'ड', इउ, इवि और अवि ये चार प्रत्यय होते है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे 'एवि' और 'ई' प्रत्यय से पूर्वकालिक के रूप निप्पन्न होते ये __ भणेवि, धरेवि, पणमेवि आदि लेई, जाई इन 'ई' वाले रूपो के साथ 'नई' परसर्ग भी जोडा जाता रहा है ફરી , વવી નર્ક, છડી નર્ક બાદ્રિ 'नई' के स्थान पर 'करी' परसर्ग भी प्रयुक्त किया जाता था તેડાવી-રી, તેવી જ રીતે માહિ विलि' मे 'अवि' का प्रयोग किया गया है __परमेसर प्रणवि प्रणव पुणि सरसति (१) 'इ' वाले रूप का उदाहरण यह है-- दसमास उदर धरि ले बरस दस (8) आधुनिक राजस्थानी मे 'ड' और 'ड' वाले रूपो के साय 'नई' परसर्ग युक्त सरचनाओ का प्रयोग होता है। नई का परिवर्तित रूप 'न' अथवा केवल 'न' है। 'वठ जाईन पर्छ आॐ' अथवा 'वठ जाइर आउ' आधुनिक प्रयोग हैं। अपभ्रश का अश 'ड' मे ही रह गया है, परसर्ग वाद का योग है । सीटोरी के अनुसार Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३३ 'भूतकृदन्त का भावे सप्तमी प्रयोग अपभ्र श मे धडल्ले से होता था। यही ढ। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी तथा अन्य सजातीय भापाओ मे भी सुरक्षित रहा। ऐसे ही भाव सप्तमी कृदन्तो से प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के ईवाले पूर्वकालिक कृदन्त उत्पन्न हुए है।' 'नई' और 'करी' सप्तमी परसर्ग हैं। यही 'नई' आधुनिक राजस्थानी मे 'न' अथवा 'न' रह गया है। सभवत 'करी' का ही सक्षिप्त रूप क्रियार्थक सज्ञा प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे अण और इवउँ-----अवउँ प्रत्ययो से बनी है। यह अपभ्र श के अण से मिलती जुलती है। राजस्थानी मे----अण और-बा रूप प्रचलित है। १ जीमवा गयो छ ૨ ટેવ પાયો. इन्ही 'अ' वाले रूपो के साथ-हार जोडकर कर्तृवाचक सज्ञा बनाई जाती है । करणहार, भोगणहार आदि रूप इसी प्रकार बने है । केवल अण वाले रूप भी मिलते है-- १ दमंगल विण अपचौ दियण, वीर धणी रौ धाण (वीरसतसई १०) २ नह डाकी अरि खोबणो बायाँ केवल बार। वधावधी निज खाबणो, सो डॉकी सरदार ॥ ( , ११) ३ सहणी सबरी हूँ सखी, दो उर उलटी दाह ( , १४) ४ असिधाबण तो पीव पर, वारी वार अनेक सिधाबण ता पाव पर, वारा वार अनक , ४१) ५ इणरा भोगणहार जे आज भिडाणा आय ( , ४०) गद्य मे भी 'मायला बदलावा मे फूट रापौ लखाण रो बदलती नजरियो' जैसे प्रयोग मिलते है । आधुनिक राजस्थानी मे आलो लगाकर भी क्रियाक संज्ञा वनाई जाती है। परन्तु आलो के पूर्व वा वाला रूप होता है। 'जावाऽलो' 'देखबालो' आदि बोलचाल की भाषा के प्रयोग है। अणहार की व्याख्या मे टेसीटोरी ने लिखा है "यह प्रणवाली क्रियार्थक सज्ञा के षष्ठी रूप तथा 'कार' (करनेवाला) के सयोग से बना है। अपभ्र श के पालणह+कार से 'क' का लोप होकर पालणहार' वना।" अतएव यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक राजस्थानी की क्रियायक संज्ञा का स्रोत भी प्राचीन है और किसी न किसी अश मे अपभ्र श से जुडा है । अपभ्र श से प्राचीन राजस्थानी मे प्रयुक्त होता हुआ ध्वनिपरिवर्तन के साथ आधुनिक राजस्थानी मे प्रचलित है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा कर्मवाच्य वातु मे ईज और 'इ' जोडने से कर्मवाच्य रूप निष्पन्न होता है । अपभ्र श में इसका द्वित्व रू५ 'उज्ज' ही मिलता है । प्राकृत पंगल में 'इज्ज' ही 'ईज' हुआ है। अपभ्र श मे ईअइ वाने पो का विधान नही है, इससे टेसीटोरी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि ईअड वाले रूप भी 'इज्ज' के ईजड रूप से बने है ईजs > ईय 'य' के निर्वल होने पर ईयड' ही 'ईय' रह गया होगा। आधुनिक राजस्थानी मे ईज' रूप ही प्रचलित है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में वर्तमान कर्मवाच्य के निम्नलिखित उदाहरण किए जा सकते है अ५० कीजs>कीजइ , दिज्जs >दीज ,, दीज्जs>दीय , कहीजइ>कहीय कर्मवाच्य सयुक्त वर्तमान मे इन रूपो के साथ 'छड' जोडा जाता है __ 'कहीअइ ७६' (आदिनाथ चरित) भविष्यत् कर्मवाच्य मे 'ईज' और ई ही चलते थे कोजसी = किया जाएगा लीजिस्य३=लिया जाएगा कहोस्य३= कहा जाएगा वखाणीस्य-वखाना जाएगा आदि ___माध्यमिक राजस्थानी मे 'इज' हो गया है। वेलि मे निम्नलिखित उदाहरण मिलते है १ कुंअर कम कहि विमलकथ (११) और रकम कहे जाते थे। ૨ વીવરબળ પહિની લડીને તિબિ (5) स्त्री का वर्णन पहले करना चाहिए । ३ जगनि जगनि कोज जप ता५ (५०) ४ आगमि सिसुपाल मण्डिज ॐछ१ (३८) ५ ५८मण्ड५ छाइज कुदणपुरि (३८) ६ दूरा नयर कि कोर, दीम (४१) उपर्युक्त उदाहरणो मे सिद्ध होता है कि सामान्यत 'ईज' वाले रूप प्रयुक्त हुए है, Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३५ कही 'ई' के परिवर्तित रूप 'ऐ' वाले भी। अतएव कर्मवाच्यीय रूपो को अपभ्र श __ स्रोत से ही मानना ठीक है। प्रेरणार्थक रूप प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे प्रेरणात्मक क्रिया-रूप निम्नलिखित विधि __ और प्रत्ययो से निष्पन्न होते हैं १ स्वरवृद्धि से 2सीटोरी ने इसमे मूल स्वर की वृद्धि मानी है। परन्तु मूल स्वर से उनका तात्पर्य क्या है, यह स्पष्ट नही किया गया। (क) अतरइ> ऊतार (ख) पडइ> पाड प्रयम उदाहरण मे द्वितीय अक्षर का स्वर दीर्घ हुआ है, द्वितीय मे प्रथम अक्षर का स्वर । परन्तु सामान्यत प्रथम अक्षर का स्वर ही वृद्धिगत होता है। क्योकि मर>मार३, मिलइ>मेल इ मे यही स्थिति है। 'तर' मे पहले ही प्रथम स्वर दीर्घ है अत द्वितीय अक्षर के स्वर की वृद्धि हुई लगती है। २ आव प्रत्यय से निष्पन्न प्रेरणार्थक रूप आव प्रत्यय की व्युत्पत्ति अपभ्र श के आव प्रत्यय से है, बल्कि वही है। प्राकृत मे यह प्रत्यय है। इस प्रत्यय के योग मे रूपस्वनिमिक परिवर्तन होता है। क्रिया के प्रथम अक्षर का स्वर ह्रस्व हो जाता है, परन्तु यह सदेव नही होता आयइन आव>अपाव बोल+ आव>बोलाव मानइ+ आव>मनाइ लिइ + आव>ल्यावइ एक बात और ध्यातव्य है, यह प्रत्यय क्रिया रूप के बीच मे आता है। आ का एक सहरूपिम (allomorph) और है -अब जो प्रथम अक्षर मे दीर्घ स्वर वाली क्रियाओ के साथ आता है जैसे મેન > મેતવ वीनइ>वानव सीखइ> सीखव यह स्थिति प्राकृत-अपभ्र श से ही प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे आई है। उपर्युक्त उदाहरणो के मूल प्राकृत रूप 'पटुवइ', विण्णवई' 'मेल' आदि है, जो 'सिद्धहम' व्याकरण मे मिलते है। ३ आड-प्रत्यय से निर्मित रूप उडा = उडाता है। जगाडइ = जगाता है। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा देखाऽइ = दिखाता है | ४ आर घटइ > घटारड दिवड > दिवारह ५ आल प्रत्यय से निर्मित रूप घटाता है । प्रचलित रहा = दिलाता है । प्रत्यय से निर्मित रूप जैसे, दिखालड = दिखाता है । मारवाडी मे 'र' के विपर्यय से 'दिरावइ' और 'लिरावई' रूप मिलते हैं, इनके मूल रूप दिवारई' और 'लिवार' है । वेलि मे पधरावितिया वा प्रभाव (१५७) (प्रिया को बांई ओर विठाकर ) मिलता है - यह रूप 'प्रभुणई' मे 'अव' प्रत्यय से बना है । परन्तु प्रत्यययोग के पूर्व अत्य स्वर 'इ' का लोप हुआ है । अव > प्रभण + अव > प्रभाव प्रभणइ+ इस प्रातिपदिक पुरुष और लिंग के प्रत्यय से रूप बनते है । यहाँ कतिपय उन रचनात्मक प्रत्ययो पर भी विचार करना प्रासंगिक होगा जो प्राकृत अपभ्रंश से प्रा० पश्चिमी राजस्थानी मे आए हैं और जो आधुनिक राजस्थानी मे भी प्रयुक्त हुए है । १ इलउ अपभ्रंश के इल्लउ से सरलीकरण होकर प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे आगिलर = आगे पूर्विल७ = पहले का उ आधुनिक राजस्थानी मे 'लड' का 'लो' हो गया है, तथा 'आगलो', 'पाछ्लो' यदि रूप बनते हैं । इसी प्रकार प्रा० प० रा० के माहिल आदि से आधुनिक राजस्थानी के मायलो (भीतरी) बीचलो / विचलो (बीच का ) रूप बने है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी और आधुनिक राजस्थानी के रूपो मे अंतर अन्त्य 'उ' और 'ओ' का है। अपभ्रंश अवरिल्ल से प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे 'ओरिलउ' और फिर ओलिउ वना । इसी प्रकार परिल्लड से परिलउ और पइलउ । इन्ही परिलउ से परलो' और पइल मे 'पैलो' आधुनिक राजस्थानी के रूप निष्पन्न हुए है । こ अलड इसी प्रकार एक और प्रत्यय है--- अलउ, जो प्रा० प० रा मे आंधन और एल जैनेम्पो में दिखाई पड़ता है। अपत्र ण मे भी यह - अल ५ मे ही । आधुनिक राजस्थानी के 'कॉवलो' और 'एकलो' जैसे शब्दों के साथ मि Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यय प्राकृत अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३७ उ> लो परिवर्तन के साथ प्रयुक्त हुआ है । AS अपभ्र श से आगत यह प्रत्यय प्रयोग मे भी अपभ्रंश के सदृश है अर्थात् स्वार्थे प्रयुक्त होता है कागडी, गांठडी, चामडउँ, आदि मे यही प्रत्यय है । कभी-कभी इसके साथ जैसे अलउ प्रत्यय और जुड जाता है, कूखडली, माडली आधुनिक राजस्थानी में भी यह प्रत्यय ( स्वार्थ प्रयोगो मे आता है गोरडी (गोरी) कुरजडली ( कुरज पक्षी) आदि प्रयोगो मे यही प्रत्यय है । ये वे प्रत्यय है, जिनका राजस्थानी मे धडल्ले से प्रयोग होता है और जो सीधे अपभ्र श स्रोत से राजस्थानी मे आए है । प्राकृत સર્વનામ जैसे राजस्थानी के रचनात्मक प्रत्यय, पूर्वकालिक क्रिया रूप, भविष्यकालिक क्रिया रूपो मे प्राकृत अपभ्रंश का असदिग्ध प्रभाव दिखलाई पडता है, वैसे ही सर्वनामो की स्थिति भी है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम का रूप 'हूँ' प्रचलित था । निश्चय ही यह अपभ्रंश 'हाँ' का सकुचित रूप है | हेमचंद्र ने ह का विधान 'सावस्मदो हउ' सूत्र में किया है । माध्यमिक राजस्थानी मे इस उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम का यही रूप सुरक्षित है बेलि मे इसके निम्नलिखित रूप मिलते है कर्ता हूँ कर्म मूं, हूँ, मुझ, अह्म सबध अधिकरण अह्म प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे सवध कारक मे 'मझ', 'मुझ' और मूं मिलते ही है । आधुनिक राजस्थानी मे 'हूँ', मूं, म्हारा, म्हैं, आदि रूपो के प्रयोग हेतु प्रमाण की आवश्यकता नही है | मूझ, माहरो, मो, मू, अम्हीणो उत्तम पुरुष बहुवचन का रूप अपभ्रंश मे – 'जसशसोरम्हे, अम्हइ' सूत्र के अनुसार कर्ताकारक मे 'अम्हे' और कर्मकारक में 'अम्हई' होता है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे एकदम यही रूप 'अम्हे' था | मारवाडी मे यह आदिस्वर लोप के पश्चात् 'म्हे' रह गया है । इसी 'म्हे' से सबंध कारकीय रूप 'म्हारा' बनता है । मध्यम पुरुष एक वचन मे अपभ्रंश मे 'तु हु' आदर्श होता था । प्रथमा और Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा द्वितीया ब० व० मे इसके क्रमश 'तुम्हें और तुम्हेई रूप होत थे। तृतीया एकवचन, सप्तमी एक वचन और द्वितीया एक वचन मे ५६' और 'तइ' प्रयोग प्रचलित थे। तृतीया बहुवचन मे 'तुम्हेहि', पचमी एक वचन और पठी एक वचन मे तउ और तुज्झ आदेशो का कथन हेमचंद्र ने किया है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे अपभ्रंश तुहुँ>तूं हो गया है। मारवाडी मे तुहँ का 'ह', 'त' मे मिलकर उसे महाप्राण बना देता है, इस प्रकार 'यू' रूप बनता है। वहुवचन मे 'तम', यम, तुम्हे, रू५ प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में पाए जाते है । आधुनिक राजस्थानी मे 'था' और 'थे' रूप चल रहे है । अपभ्रश के प्रश्नवाचक तया अनिश्चयवाचक सर्वनामी के लिए हेमचंद्र ने 'किम काइ कवणी वा' सून दिया है । अर्थात् अपभ्र श मे किम् के स्थान पर का और कवण आदेश विकल्प से होते हैं । अपभ्र श मे इनके निम्नलिखित प्रयोग मिलते હર્તા-ર્મ सवध --कवणह વિવધુ कोई, को-वि अधिकरण कवण) अधिकरण (काई कहिं । करण कवणएं, प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे कवण, कउँण, कूण, कुण, काइ, काई रूपो के । उदाहरण मिलते हैं। माध्यमिक राजस्थानी की साहित्यिक कृति वेलि मे का को, कवण, केड, किणि, किण, कुण, कर्म किणि, किण मिलते है १ स्त्रीपति कुण सुमति पूझ गुण जु तवति ___ तारुकवण जु समुद्र तर। पखी कवण गयण लगि पहुचे। कवण रक करिमेह कर। (६) २ काइ इवडा ह० निग्रह किया (२८८) आधुनिक राजस्थानी मे 'कवण' का 'कुण' और 'कूण' वाले रूप ही प्रचलित है। यह परिवर्तन प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे ही घटित हो गया था । वेलि' मे भी 'कुण' मिलता है। मेवाडी मे 'कूण' चलता है, टूढाडी मे 'कुण'। 'काई' का प्रयोग राजस्थानी के सभी रूपो मे किचित् अतर के साथ किया जाता है । मेवाडी मे कई/कई चलता है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३६ 'कड है' - क्या है कोइ छै = क्या है इसी प्रकार एम, केम रूप अपभ्रंश से प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे आए है । माध्यमिक राजस्थानी तक ये रूप 'इम', 'फेम' आदि चलते रहे । १ स्रम कीधा विणु केम सरें २ कागल दीधो एम कहि मे (मेवाडी) ( ढूंढाडी ) आधुनिक राजस्थानी मे 'केम', 'एम' लुप्त हो गए है । इसके स्थान पर कई से बने रूप क्या अथवा 'कय्या' और 'अय्याँ' का प्रयोग होता है । आधुनिक राजस्थानी मे 'केम सरै' का रूपांतर 'कय्या चाले' होगा । वेलि मे उपर्युक्त कतिपय उदाहरणो मे राजस्थानी मे प्राकृत- अपभ्रंश से किञ्चित् ध्वनिपरिवर्तन के साथ आगत सर्वनामो का स्वरूप सकेतित होता है । इस दृष्टि से यह कहना अनुचित न होगा कि सर्वनामो के ऐतिहासिक विकास की कहानी राजस्थानी के तीनो विकास चरणो मे भलीभाँति सुरक्षित है । विशेषण विशेषणो के प्रयोग के विषय में उल्लेखनीय है कि प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे जो स्थिति थी, वही आधुनिक मारवाड़ी मे भी है । इनकी रूपरचना सज्ञा शब्दो के 'सदृश ही होती है तथा ये विशेष्य के लिंग, वचन आदि से प्रभावित होते है । स्त्रीलिंग विशेषणो के सदर्भ मे ध्यातव्य है कि वचन और कारक सबधी विशेषता इनमें नही होती, तथा 'ई' का रूपरचना - रहित रूप ही इनके लिए प्रयुक्त होता है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे यह प्रवृत्ति अपभ्रंश से आई है । पउमचरिउ (वाइसवी सधि ) ( ) १ दिव्वइँ गन्वोदयाइँ २ सुरसमर सहासे हि दुम्महेण दसरहेण ३ वित्तन्तु कहेप्पिणु णिरवसेसु १ पीला भमर २ फल मोतियाँ प्रयोग मिलते है । किया (न) यह प्रवृत्ति सिद्ध है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे १ विवेक-रूपीड हाथी उ २ कष्ट रूपिणी सापिणी ३ घणइ आडवरि (५६) पहराइत 71 11 "" 11 ( शीलभद्रचरित्र ) ( कल्याणमंदिर स्तोत्र) ( आदिनाथ चरित्र ) (वेलि १७) (,, ε१) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा कितु जब विशेषण क्रिया० वि० की भाँति प्रयुक्त होते हैं तो १ नपुसक एकवचन मे रहते हुए सभी कारको मे अपरिवर्तित रहते है। अथवा २ समानाधिकरण विशेषण की तरह लिंग, वचन और कारक के अनुसार रूप-रचना करते हैं। यह प्रवृत्ति प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे तो है ही, मारवाडी मे भी जीवित है। टेसीटोरी ने मारवाडी मे हमे, परो, वरो, दो विशेपणो का उपयोग करके एक प्रकार के Veibal intensives बनाये जाने का उल्लेख किया है। सस्कृत व्याकरण के अनुसार तुलनासूचक सरचना मे जिस वस्तु से तुलना की जाती है उसका वाचक अपादान कारक मे होता है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे प्राकृत के तुलनात्मक रूपो को तर, यर प्रत्ययो के साथ प्रयुक्त किया है। तुलना के अर्थ मे प्रयुक्त अपादान परसर्ग निम्नलिखित हे--- पाहि,, पाहन्ति, तथा यकी और यी उदाहरण १ तुझ नई जीव्या पाहिँ मरण रूईं तुझे जीवन से अधिक अच्छा मरण है। २ समुद्र ना पाणी थक गाढउ घणउ – समुद्र के पानी से भी धना गाढा । ३ गुरु-थकी ऊँचाइ आसनि वइसइ = गुरु से भी ऊंचे आसन पर बैठता है। परन्तु आधुनिक राजस्थानी मे 'सू' और 'उँ' प्रयुक्त होते है जो अपादान कारकीय परसर्ग हैं। १ उण सू चोखो उनसे अच्छ।। २ उणुं बीच अच्छी है = उनसे अच्छा है। इन 'सू' और उ का सवध अपभ्र श से पहले बतलाया जा चुका है। ध्वनि के कतिपय और रूपरचना के विविध तत्वो के आधार पर यह स्पष्ट किया गया कि राजस्थानी कितने अश मे आज भी प्राकृत-अपभ्र श की परपरा को ग्रहण किए है। भाषावैज्ञानिको के मतानुसार 'भाषा चिर परिवर्तनशील है। यह परिवर्तन सभी स्तरो मे घटित होते हैं। यदि परपरा-स्यापन मे हम मूल रूप को ही आधुनिक भाषा मे पाने का प्रयत्न करें तो भूल होगी, हाँ परिवर्तित रूप के परिवर्तन--चरणो का क्रमबद्ध सूत्र स्थापन आवश्यक है। भाषा के विकास के दौर मे प्रतिवेशिनी भाषाओ के प्रभाववश ऐसे तत्व भी आ जाते हैं जिनका मूल भापा से सबंध-स्थापन नभव ही नही होता। प्राकृत-अपभ्र श से राजस्थानी के विकास मे इन आगत तत्त्वो का ध्यान रखना आवश्यक है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३४१ पूर्व पृष्ठो मे रूप-तत्त्व के आधार पर यह सिद्व किया गया है कि आधुनिक राजस्थानी का साँचा उना विशेषताओ को सुरक्षित रखते हुए ही विकसित हुआ है। चाहे क्रिया रूप हो या सनापद, सभी मे सरलीकरण की जो प्रवृत्ति प्राकृत-अपभ्र श मे उत्पन्न हुई थी, आज भी है। विभक्ति लोप सरलीकरण का ही प्रतिदर्श है, इसी को सूत्रबद्ध रूप मे हेमचद्र ने 'स्यम् जस् शसालुक्' कहा था। यह प्रवृत्ति राजस्थानी में ही नही, अन्य आधुनिक आर्य भाषाओ मे भी है, वस्तुत इसमे और परिवर्तन का अवसर भी नही है अत यथावत् चल रही है। इसी प्रवृत्ति ने प्रातिपदिक और पद का भेद भी लुप्त कर दिया है। प्रस्तुत निबंध मे राजस्थानी परिनिष्ठित राजस्थानी की विशिष्ट कृतियो को आधार बनाया गया है। एक तरह से यह विवेचन प्रयोगाश्रित है, यह इसलिए किया गया है कि प्रामाणिक बन सके । और इन प्रमाणो से यह सिद्ध होता है कि प्राकृत-अपभ्र श से ही राजस्थानी भाषा के मूल तत्व विकसित हुए है। अतएव राजस्थानी के सही स्वरूप को समझने में प्राकृत-अपभ्र श की परंपरा का अध्ययन बहुत आवश्यक है। राजस्थानी के लोकप्रचलित विविध रूपो के तुलनात्मक अध्ययन की भी नितान्त अपेक्षा है। सदर्भ-ग्रथ १ डा० सुनीतिकुमार चटर्जी, राजस्थानी भाषा । २ प० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पुरानी हिन्दी ३ डा० टेसीटोरी (हिन्दी, अनुवाद डा० नामवर सिंह), पुरानी राजस्थानी । ४ श्री भूपतिराम साकरिया, आधुनिक राजस्थानी साहित्य । ५ ता० शिवस्वरूप शर्मा, राजस्थानी गद्य साहित्य । ६ डा० मनोहर शर्मा (सपादक) 'जागती जोत' का समीक्षा अ क । ७ श्री सीताराम लालस राजस्थानी सबद कोस ८ गोड, आशिया एव सहल, वीरसतसई (द्वितीय आवृत्ति) ह" " वलि क्रिसन कमिणी री। १० डा. वीरेन्द्र श्रीवास्तव, अपभ्रश भाषा का अध्ययन ११ आ० हेमचद्र, सिद्धहेमशब्दानुशासन १२ " अपभ्रश व्याकरण (शालिग्राम उपाध्याय) १३ डा० पिशेल प्राकृत भाषाओ का व्याकरण । १४ डा. प्रेमसुमन जन, आचार्यप्रवर आनद ऋपि अभिनदन ग्रय मे प्रकाशित 'राजस्थानी भाषा में प्राकृत अपभ्र श के प्रयोग' लेख। १५ " " कुवलयमाला कहा का सास्कृतिक अध्ययन, वैशाली, १९७५ १६ डा० प्रेम सुमन जैन और डा० कृष्ण कुमार शर्मा-अपभ्रश काव्य-धारा । १७ श्री पद्रसिंह 'बादली' १८. डा० नारायणसिंह भाटी, 'साँझ' Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा १ Gleason, Descriptive Linguistics २० 33 Linguistics and English grammar २१ Hockett, Modern Linguistics RR Robert A Hall, Introductory Linguistics ३ कृष्णकुमार शर्मा शोध पत्रिका मे प्रकाशित 'अपभ्रंश का वर्णनात्मक व्याकरण' लेख | ४ डा० तगारे 'हिस्टारिकल ग्रामर आव अपभ्रश' Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्पति, प्राकृत तथा अपभ्रंश की आनुपूर्वी में પોરા સાહિત્ય डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री भारतीय वाड्मय मे शब्दकोशो की एक सुदीर्थ परम्परा उपलब्ध होती है । लगभग एक सहस्र से भी अधिक शब्दकोशो की रचना हो चुकी है। ये शब्दकोश भारत की विभिन्न भाषाओ मे लिखे हुए मिलते हैं । प्रत्येक भाषा की अपनी भिन्न शब्द-सम्पदा तथा प्रकृति है, जिनके आधार पर अन्य भाषाओ से उसका लक्षण्य सूचित होता है। प्रत्येक कोश एक सन्दर्भ ग्रन्थ के समान होता है, जिसमे शब्दरूपो की परिचिति, उ.पारण, कार्य, व्युत्पत्ति, अर्थ, वाक्यात्मक विन्यास तथा मुहावरे के प्रयोग के माय शब्दो का वर्णादि क्रम से सयोजन किया जाता है। यथार्थ मे शब्दकोश की अपनी विशिष्ट पद्धति है । सिडनी एम० लम्ब ने शब्दकोश के अन्तर्गत उपलब्ध सभी प्रकार के शब्दो और अर्थों के छह प्रकार के सम्बन्धो का विवेचन किया है। (१) अनेकार्य शब्द, (२) विभिन्न एकार्यक शब्द, (३) सहयोगी विनिश्चयार्थक श०६, (४) सयोगी शब्दो का अर्थ-निर्णय , जसे कि अमा-ताप, विध्वस-विस्फोट, लूट-खसूट इत्यादि, (५) विपर्यय शब्द, (६) सामान्य गभित अर्थ का घोतन करने वाले शब्द, जैसे पंड शब्द मे पौधे का भाव भी निहित है। कोश के मुख्य अग माने गये हैं शब्द-रूप, उ.पारण, व्याकरण-निर्देश, व्युत्पत्ति, व्याख्या, पर्याय, लिंग आदि । यदि कोई भाषा अपने पीछे इतिहास की दीर्घ परम्परा रखती है, तो यह स्वाभाविक है कि वह साहित्य से सामग्री का चयन कर प्रचलित साहित्यिक स्तर का भी सन्धान करे। शब्दकोशकार ऐतिहासिक पद्धति के आधार पर कोश का सकलन करता है, किन्तु यह सभव नही होता कि बोलियो के प्रकारों को भी वह चित्रित कर सके। यद्यपि शब्दकोश या कोश का निर्माण शब्दो से होता है, किन्तु कोशगत शब्दो मे तथा सामान्य शब्दो मे अन्तर किया जाता है । सामान्य शब्द पूर्णत एक Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा व्याकरणिक ५५ है, किन्तू कोणगत शब्द एक निश्चित अर्थ का वाचक है । उदाहरण के लिए, "मुझे फल खाने की चाह है" इस वाक्य मे 'चाह' एक कोशीय शब्द है, किन्तु "वह फल खाना चाहता है" मे 'चाहता' कोशीय शब्द नहीं है । यद्यपि वाक्यरचना मे दोनो समान स्थिति मे हैं, परन्तु प्रयम 'चाह' शब्द मुक्त पदिम है और दूसरे वाक्य मे "चाहता" शब्द आवद्ध रूप है, इसलिये दोनो मे "चाह" समान होने पर भी अन्तर है। भाषाशास्त्री यह मानकर चलता है कि प्रत्येक सक्रिय अर्थवान इकोई पद के अर्थ की दृष्टि से स्थिर तथा निश्चित है। वह अपने अर्य से भिन्न किसी अन्य अर्थ से अन्वित हो सकता है, किन्तु अन्य अर्थ के समान नही होता । पदिम का अर्थ ही सक्रिय अर्थ इकाई है। भाषा का प्रत्येक मिश्र रूप पदिमो से निर्मित होता है। पदिमी की रचना ध्वन्यात्मक रूपो से होती है। भापा का सम्पूर्ण पदिम-भण्डार कोश कहलाता है।' कोश और व्याकरण शब्द-रचना की दृष्टि से कोश एव व्याकरणिक शब्द-रूपो मे समानता लक्षित होती है, किन्तु शब्द-व्यवस्था मे दोनो भिन्न हैं । स्पष्टत भाषिक सकेतो के अर्थवान लक्षण दो प्रकार के हैं कोशीय रूप, जिनमे ध्वनि-ग्राम और व्याकरणिक रूप एव व्याकरणिक लक्षण भी व्याप्त हैं। कोशीय रूप व्याकरणिक रूपो से दोनो ओर से सम्बद्ध होते है । एक ओर से, साराश रूप मे वह अर्थवान व्याकरणिक सरचना है और दूसरी ओर से भापिक रूप मे वह वास्तविक उच्चार है जो मदा व्याकरणिक रूप से समन्वित रहता है।' भाषा के सम्बन्ध मे प्राचीन वैयाकरणो की दृष्टि साधु तया असाधुता का निर्णय करने में व्याप्त रही है। व्याकरण मे शब्दो के शुद्धाशुद्ध रूप सम्बन्धी सिद्धान्तो का निरूपण मिलता है। प्रमुख रूप से उसमे सत्य-असत्य तथा साधु-असाधु का विवेचन पाया जाता है। व्याकरण सावु शब्द का विवेचन इसलिए करता है कि हम असाधु शब्द के प्रयोगो से बचें। कोश की आवश्यकता इसलिये मानी गई है कि उसमे अर्य का अनुशासन किया जाता है, इसलिये निश्चित अर्थ के वोध के लिए कोश का ५०न-पाठन आवश्यक होता है। कुछ टीकाकार व्याकरण को प्रामाणिक मानते हुए भी कोश को विशेष बलवान मानते है । उनके अनुसार जिस शब्द की सिद्धि किसी भी शब्दशास्त्र के वचन मे न होती हो, उसके सावुत्व का वोध केवल कोश से किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, अकारान्त "मरत" शब्द की सिद्धि व्याकरण के उणादि मूवी से नहीं होने पर भी इसे साधु माना जाता रहा है, क्योकि "विक्रमादित्य कोश" मे इस4] उद्धरण इस प्रकार है "मरुत स्पर्शन प्राण ममी माती मरुत् ।" जब तक यह जानकारी नही थी, तब तक "मरुत" शब्द को अमाध माना जाता था जो कि एक भ्रान्त धारणा थी।" यथार्थ मे शब्द के Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की आनुपूर्वी मे कोण साहित्य ३४५ सम्बन्ध में प्रत्येक प्रकार की जानकारी देने वाला कोश ही प्रामाणिक माना जाता है। कोश केवल शब्दो की सकलना मात्र नहीं है । उममे शब्द के प्रकृत रूप से लेकर उच्चारण, व्युत्पत्ति, लिंग, धातुगत अर्थ, पर्यायवादी शब्द तथा व्याकरणिक निर्देश यथास्थान किया जाता है। शब्दकोश की उत्पत्ति ___ कोश को सस्कृत-साहित्य मे व्यावहारिक साहित्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अग माना गया है। इस देश मे कोशो का अस्तित्व छब्बीस सौ वर्ष से भी अधिक काल का मिलता है। भारतीय परम्परा अत्यन्त प्राचीन काल मे मौखिक थी। इसलिये यह कहना बहुत ही कठिन है कि यह कब से प्रारम्भ हुई। किन्तु इसे वैदिक तथा शास्त्रीय संस्कृत साहित्य का समकालीन रूप कहा जाता है जो कि सामान्यत निघण्टुओ के रूप में प्रचलित था। परवर्ती काल मे इसमे परिवर्तन होते रहे । वस्तुत कोश भाषिक शब्दो का अविछिन्न अग है । इसलिये यह उतना ही प्राचीन है, जितनी कि भाषा।। प्राय यह समझा जाता रहा है कि प्राकृत जनो की, पालि बौद्धो की और सस्कृत ब्राह्मणो की भापा रही है । इस कथन मे सचाई भी है। किन्तु जन ग्रन्थकारो ने भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओ मे साहित्य-सर्जना की और विभिन्न भापाओ मे उनके लिखे हुए शब्दकोश भी सम्प्रति उपलब्ध है । अत युग विशेष की आम प्रचलित भाषा से वर्ग विशेष का सम्बन्ध जोडना उचित नहीं है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि जैनो मे युग विशेष के अनुरूप साहित्य-रचना की प्रवृत्ति विशिष्ट रूप से लक्षित होती है। जैन साहित्य के इतिहास से यह भी स्पष्ट है कि ईसा की तीसरी शताब्दी के पूर्व कोई भी जैन रचना सस्कृत मे लिखी हुई नही मिलती। जैन परम्परा के अनुसार सम्पूर्ण जैन वाड्मय द्वादशागवाणी के अन्तर्गत निवद्ध है । मत कोश-साहित्य की रचनाए भी सत्यप्रवादपूर्व और विद्यानुवाद की पांच सौ महाविद्याओ मे से अक्षर विद्या मे सन्निविष्ट हैं । प्रारम्भ मे एकादश अगो, चतुर्दश पूर्वो के भाष्य, चूर्णिया, वृत्तियाँ तथा विभिन्न प्रकार की टीकाएँ कोश-साहित्य का काम करती रही, किन्तु जब कालान्तर मे उनका परिज्ञान न रहा, तब शब्दकोशो की आवश्यकता अनिवार्य हो उठी।" यह कथन सत्य ही है कि निघण्टु तथा शब्दकोशो की प्रारम्भिक परम्परा मौखिक रही है । जनो में यह परम्परा परवर्ती काल मे "नाम माला" के रूप में प्रचलित रही है। वास्तव मे यह पर-५५) व्यावहारिक आवश्यकता के अनुरूप स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई। आदि तीर्थकर वृषभ के कयानक से यह स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि के आदि कल्प मे उन्होने जग के प्राणियो के हित के लिए असि, मसि, कृपि, वाणिज्य तथा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ सस्कृत-पाकृत व्याकरण और कोश की परम्परा विविध प्रकार की विद्याओ की शिक्षा दी थी। सभी कलाओ को उन्होने सिखाया था । ___ सस्कृत मे शब्दकोश की प्राचीनतम परम्परा वैदिक युग से ही प्रारम्भ हो जाती है । निरुक्तो की गणना वैदिक ग्रन्थ-समुदाय मे की जाती है । यद्यपि महर्षि यास्क कृत "नित" अत्यन्त प्रसिद्ध है, किन्तु उनके पूर्व भी कई निethका हो चुके थे । श्री दुर्गाचार्य ने चतुर्दश निरुक्तो का उल्लेख किया है ।१२ उनके रचयिताओ के नाम है--आग्रायण, औदुम्बरायण, औपमन्यव, आर्णवाम, कात्थक्य, कोष्टु कि, गार्य, गालव, तटीकि, यास्क, वाायणि, शतवलाक्षमौद्गल्य, शाकपूणि, स्थौलाष्ठीवि, कौत्स, चर्मशिरा, परुच्छेप, पारस्कर, भारद्वाज, भूताश काश्यप, मुद्गल भाग्यश्व, शाकटायन, शाकपूणिपुत्र, शाकल्य । इन चौवीस निरुक्तारी का उल्लेख यास्क ने अपने निरुक्त मे किया है। परन्तु इनमे प्रारम्भ के चतुर्दश निरुक्तकार थे, यह निश्चित है, किन्तु सम्प्रति उनकी कोई कृति उपलब्ध नहीं है। निरुक्त तथा निघण्टु वैदिक कोश रहे है । इनसे स्पप्ट हो जाता है कि वेदो की भापा शिष्टो की साहित्यिक भापा है । उसे मानकरूप अवश्य प्राप्त नही हुआ था, किन्तु प्रक्रिया सतत चालू थी । अतएव उनकी भाषा मे परिवर्तन लक्षित होते है । यहाँ तक कि ऋग्वेद के प्रथम मण्डल तथा दशम मण्डल की भाषा मे अत्यन्त भेद परिलक्षित होता है । परन्तु प्राकृत मे निवद्ध आगम साहित्य के सम्बन्ध मे यह वात लागू नहीं होती। इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि आगम सीधे जन-भापा के प्रवाह रूप मे निवद्ध हुए है, किन्तु वे वैदिक संस्कृत से सर्वथा अछूते नही है । पालि पर प्राकृत की अपेक्षा सस्कृत का अधिक प्रभाव परिलक्षित होता है । ऐतिहासिक तथा भाषावैज्ञानिक प्रमाणो से यह निश्चित है कि वैदिक युग मे प्राकृत बोल-वाल की भाषा थी । जव सस्कृत एक पूर्ण तथा साहित्य की भाषा थी, तब भी प्राकृत बोलियां थी। कालान्तर मे जब प्राकृत साहित्य की भाषा बनी, तब सस्कृत वैयाकरणो के आदर्श (मॉडल) पर भाषा का निर्वचन करने के लिए विशेष नियम बनाने पडे । वैयाकरणो ने ही सस्कृत को प्राकृत भाषा मे ढालने के लिए वचन-व्यवस्था का आदेश किया और उन्होंने ही प्राकृत बोलियो को प्राकृत-अपभ्रश नाम दिए । यही कारण है कि प्रथम, द्वितीय शताब्दी तक प्राकृत बोलियो के प्रचलित रहते श०कोश की आवश्यकता प्रतीत नही हुई। जनता की भाषा जनता समझती थी। जनता के लोक जीवन मे प्राकृत प्रतिष्ठित थी। किन्तु साहित्य मे आरूढ होने के अनन्तर धीरे-धीरे उनको समझने मे भी कही-कही कठिनाई होने लगी। सस्कृत-साहित्य की स्पर्धा मे प्राकृत शब्दो मे बहुत तोड-मरोड होने लगी। इसलिए टीकाओ का युग आरम्भ हुआ। किन्तु प्राकृत आगम-ग्रन्थो की टीकाएं विक्रम की छठी शती से पूर्व की लिखी हुई नही मिलती। अत अनुमान यही किया जा सकता है कि पांचवी-छठी शदादी से पूर्व Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे को साहित्य ३४७ प्राकृत मे व्याकरण तथा शब्दकोश की रचना नही हुई होगी। यही समय नियुक्तियो तथा चूणियो का भी रहा है । लगभग पांचवी शताब्दी से दसवी शताब्दी के मध्य अधिकतर आगम-साहित्य के अन्य सूत्र ग्रन्थो, नियुक्तियो एवं चूणियो की रचना हुई । प्राकृतो के रूढ होते ही लगभग छठी शताब्दी से अपभ्रश अस्तित्व मे आ जाती है । अध्ययन से यह भी स्पष्ट है कि आगम ग्रन्थो के लिपिवद्ध होने तक किसी प्रकार की रचना की आवश्यकता नही थी। जन परम्परा के अनुसार जैन आगम ग्रन्थ भगवान महावीर के ६६३वे वर्ष मे सर्वप्रथम वल्लभी मे देवधिगणिक्षमाश्रमण ने लिपिवद्ध किए । इतने लम्बे समय तक उन्हें कण्ठस्थ ही रखा जाता रहा और उसका परिणाम भी जो बतलाया गया है, वह वर्तमान मे प्राप्त ग्रन्थो की अपेक्षा बहुत ही अधिक था। इसका अर्थ यह है कि लगभग ईसा की पांचवी शताब्दी मे जैनागम लिपिबद्ध हुए और तब तक निश्चित रूप से कोई शब्दकोश नही रचा गया था। किन्तु संस्कृत मे निरुक्त लिखे जा रहे थे। निघण्टु ग्रन्थो की परम्परा प्रचलित थी। अतएव साहित्य-रचना की दृष्टि से सस्कृत-परम्परा प्राचीन है। सस्कृत-शव्दकोश की परम्परा यह पहले ही कहा जा चुका है कि यास्क के निरुत मे जिन चौवीस नामो का उल्लेख किया गया है, उनमे से एक नाम शाकटायन का भी है । सस्कृत वैयाकरणो मे आठ की प्रसिद्धि है५ इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशल' शाकटायन, पाणिनि, अमर, जैनेन्द्र । भट्टोजी दीक्षित ने अमरकोश की टीका मे आचार्य आपिशल का एक वचन उद्धृत किया है, जिससे स्पष्ट है कि उनका लिखा हुआ कोई कोशग्रन्थ भी था जो उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार केशव स्वामी ने "नानाणिव सक्षेप" मे शाकटायन के कोश से वचन उद्धृत किए है। किन्तु आज उनका लिखा हुआ कोश उपलब्ध नही है। भले ही निरुत मे अनेक निरुक्तकारो का उल्लेख हुआ हो और उनके उद्धरण भी मिलते हो, किन्तु यास्क के पूर्ववर्ती आचार्यों मे शाकटायन, गार्य और औदुम्बरायण ऐसे आचार्य हुए हैं जिन्होने भाषाशास्त्र की दिशा मे मौलिक प्रयोग किए। इन्ही शाकटायन का व्याकरण भारतीय ज्ञानपी० प्रकाशन से प्रकाशित हो चुका है । सम्भवत कोश भी किसी भाण्डागार मे दवा ५डा होगा। प्राच्यविद्या-विशारद वूलर ने सर्वप्रथम सस्कृत-शब्दकोशो की विवरणिका प्रस्तुत की थी। सस्कृत मे अनेक ऐसे शब्दकोशो का उल्लेख कोशो मे तथा टीका ग्रन्यो मे मिलता है, जो लुप्तप्राय हैं । इन कोशो मे भागुरि, व्याडि, कात्यायन और विक्रमादित्य के शब्दकोश प्राचीन माने जाते है । भागुरि कृत शब्दकोश, उत्पलिनी (व्याडि), नाममाला (कात्यायन), शब्दार्णव (वाचस्पति), ससारावर्त Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा (विक्रमादित्य) आदि कोश लुप्त हो चुके है। श्री शिवदत्त मिय के शिवकोण की व्याख्या मे ५१ कोशो का उल्लेख है । उनके नाम इस प्रकार है शब्दार्णव, मेदिनी विश्व, धन्वन्तरि, भावमिथ कृत, सिंह विरचित, राजनिघण्टु, अमरमाला, केयदेव रचित, अभिधानचूडामणि, अमर, अजेय उल्लण, हृदयदीपक, वाचस्पति, वाप्यचन्द्र, अशोकमल्ल, वाभिट, मदन विनोद, त्रिकाण्डप, हैम, बोपदेव, रभस, लोचन, मिष्ठ, देवल, हलायुध, स्वामी, द्विरूपकोश, नाममाला, हारावली, मदन विनोद, अनेकार्थध्वनिमजरी, केशव, केसरमाला, गालव, गुणरत्नमाला, धरणि, नामगुणमाला, पुरुषोत्तम, मदनपाल, निधण्ट, रत्नकोश, रन्तिदेव, विद्वद्वद्यवल्लभ, जयन्ती, व्याडि, शाश्वतकोश, शिवप्रकाश, शिवदत्त, हट्टचन्द्र, हेमाद्रि । प्रकाशित कोथो मे "अमरकोश" प्राचीन है। इसका रचना-काल लगभग ५०० ई० कहा जाता है।" शाश्वत कृत "अनेकार्यसमु-य" इससे भी प्राचीन माना जाता है, किन्तु समय अज्ञात है। हलायुध कृत · अभिधानरत्नमाला" का समय लगभग ६५० ई० है । इसके लगभग सौ वर्ष पश्चात् यादव कृत "वैजयन्ती कोश" लिखा गया। इसका सम्पादन जी० आपर्ट ने किया था जो मद्रास से सन् १८६३ ई० मे प्रकाशित हुआ था। महेश्वर कवि कृत "विश्व प्रकाश" ११११ ई० की रचना है। इनकी एक अन्य रचना शब्दमेदप्रकाश है । इनके ही अनुकरण पर “मेदिनी", "अनेकार्यसग्रह" आदि कोशो का निर्माण हुआ। मख कवि कृत "अनेकार्यकोश" लगभग ११५० ई० मे कश्मीर में निर्मित हुआ था। यह को सम्पादित होकर सन् १८९७ ई० मे प्रकाशित हो चुका है। "अमरकोश" कापूरक पुरुषोत्तमदेव कृत "निकाण्डशेप कोश" है जो तेरहवी शताब्दी का रचा हुआ कहा जाता है । उनके रपे हुए दो अन्य ग्रन्थ है हारावली और एकाक्षर कोश । महामहोपाध्याय पाण्डेय श्री रामावतार शर्मा ने पार अन्यकारी का विशेष रूप से उल्लेख किया है२२ रत्नाकर, मल्ल, सोमदेव और भावि। श्री केशव कृत "कल्पद्रुमकोश" तथा राघव विरचित "नानार्थमजरा" प्रकाशित हो चुके हैं । इसी प्रकार से महीप रचित "अनेकार्थतिलक" भी प्रकाशित हो चुका है। यह कोश चौदहवी शताब्दी के लगभग रचा गया माना जाता है । कोशकार ने जिन पूर्व रचनाओ के आधार पर कोश की रचना की है उनके नाम हैं। पाणिनि, अहीन्द्र, भागुरि, भोज, भेड, हेमचन्द्र, और अमर इत्यादि । वास्तव मे सस्कृत मे इतने अधिक कोशो की रचना हुई, इतने अधिक उनके उल्लेख मिलते है और अभी इस दिशा मे इतना अधिक कार्य अस्पृष्ट पडा है कि शोध-अनुसन्धान मे सकडो वर्ष लग सकते है। वणव, जैन और बौद्ध आदि कोई भी ऐसा शाब्दिक सम्भवत न होगा, जिसने शब्दकोश की रचना न की हो । दक्षिण भारत के भाण्डागारो मे भी अनेक अनात एव अप्राप्त दुर्लभ कोश-ग्रन्थो की सूचनाएं उपलब्ध होती हैं । अनेकार्यकोश के नाम से ही सस्कृत मे लगभग एक दशक रचनाएँ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३४६ मिलती है। इसी प्रकार से "शब्दभेदप्रकाश" के नाम से चार-पांच को उपलब्ध होते हैं। उनमे से कुछ प्रकाशित भी हो चुके है। उन सब का यहाँ उल्लेख करना इस छोटे-से लेख मे सम्भव नहीं है। संस्कृत के जैन कोशकार सस्कृत मे जिन जन आचार्यों ने शब्दकोश-निर्माण का महान् कार्य किया, उनमे शाकटायन का नाम उल्लेखनीय है। शाकटायन का काल पाणिनि से भी पूर्व का है। पाणिनि का समय विक्रम के पांच सौ वर्ष पूर्व माना जाता है। उन्होने अष्टाध्यायी मे शाकटायन का उद्धरण देते हुए उनके नाम का उल्लेख किया है। यद्यपि कोई उल्लेख नहीं मिलता है, तथापि अनुमान यह है कि आचार्य पूज्यपाद ने कोई कोश ग्रन्य अवश्य लिखा होगा। उपलब्ध जैन कोशो मे आचार्य धनजय कृत नाममाला' सर्वप्रथम है। महाकवि धनजय का समय आठवी शताब्दी माना गया है। इस शब्दकोश की विशेषता यह है कि महाकवि ने २०० श्लोको मे संस्कृत भाषा के प्रमुख शब्दो का सकलन कर गागर मे सागर भरने की उक्ति चरितार्थ की है । शब्द से अन्य शब्दान्तर रचने की इनकी अपनी विलक्षण पद्धति है। इस पद्धति से सस्कृत का सामान्य जानकार भी शब्दान्त र रचना कर सस्कृत शब्द-कोश का भण्डार बढा सकता है । जैसे कि यह एक सामान्य नियम है पृथिवी वाचक शब्दो के आगे 'धर' शब्द जोड देने से वे पर्वतवाची हो जाते है भूधर, महीवर आदि । इसी प्रकार दूसरा नियम है मनुष्य वाचक शब्दो के साथ 'पति' शब्द जोड देने से वे राजा अब के वाचक हो जाते है नरपति, मानवपति, जनपति आदि । इसी प्रकार वृक्ष वाचक शब्दो के आगे पर' शब्द जोड देने से वे बन्द र अर्थ के वाचक हो जाते है तरुचर, पादपचर आदि । इस तरह के अनेक नियम इस कोश मे दिए गए है, जिनमे से कुछ इस प्रकार हैं १ आकाश शब्द के साथ 'चर' शब्द जोड देने से वह विद्याधर का वाचक हो जाता है नभश्चर, नगनचर, मेधपयचर, अभ्रमार्गचर, अन्तरिक्षचर आदि। २ हल वाचक शब्द के साथ 'कर' शब्द जोड देने से बलभद्र के वाचक हो जाते है जित्याकर, हलिकर, हलकर, सीरकर, लागलकर इत्यादि । ३.. जल वाचक शब्द के साथ 'चर' शब्द के जोड देने से मत्स्य वाची नाम वन जाते है, जैसे कि जलचर, नीरचर, पयश्चर, अम्भश्चर, वि५चर, जीवनचर, तीयचर, कुशचर इत्यादि। ४ जल पाचक शब्द के साथ 'प्रद' शब्द जोड देने से मेघवाची नाम बन Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा जाते हैं, जैसे कि- तोयप्रद, जीवनप्रन, कप्रद, वारिप्रद, अप्प्रद, शरप्रद, सलिलप्रद, कुशप्रद इत्यादि। ५ जल वाचक शब्द के साथ 'उद्भव' शब्द जोड देने से कमलवाचक वन जाते हैं और 'धि' शब्द जलवाचक शब्दो के साथ जोड देने से वही समुद्र का वाचक बन जाता है । ५ इस प्रकार इस कोश के अध्ययन से अत्यन्त सरलता के साथ सस्कृत का शब्दभाण्डार वृद्धिगत हो जाता है। इस कोश का मौलिकता यह है कि उस युग में शब्दनिर्माण की प्रचलित प्रक्रिया को जो रूढ हो चुकी थी, यह प्रस्तुत करता है। वास्तव में शिक्षार्थियो के लिए यह कोश अत्यन्त उपयोगी है । इस कोश मे कुल २०३ श्लोक है । इस लघुकाय ग्रन्थ मे १७०० शब्दो का सकलन किया गया है। सामान्य रूप से विद्यार्थियो के लिए इतना ज्ञान होना आवश्यक है। महाकवि धनजय की 'नाममाला' के अतिरिक्त 'अनेकार्य नाममाला' ४४ ५लोको की लघुतम रचना तथा 'अनेकार्थ-निघण्टु' रचनाएं भी मिलती है जो 'नाममाला सभाष्य' के अन्तर्गत भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुकी है। 'अनेकार्थ-निघण्टु' मे १५३ श्लोक हैं और १६ श्लोक 'एकाक्षरी नाममाला' के है । वास्तव मे ये सब नाममाला के ही उपविभाग है। वस्तु-कोश केवल उत्तर भारत में ही नही, दक्षिण भारत मे भी जैनाचार्यों ने सस्कृत और प्राकृत मे विशाल साहित्य की रचना की है। कविशिरोमणि नागवर्म द्वितीय ने जहाँ सस्कृत मे 'भाषा-भूषण' नामक उत्कृष्ट व्याकरण की रचना की, वही 'वस्तु-को' की रचना कर कन्नड़ भाषा मे प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्दो का अर्य परिचायक पद्यमय निघण्टु या कोश की प्रसिद्धि की । यह को५ वररुचि, हलायुध, शाश्वत, अमरसिंह आदि के कोशमन्थो को देखकर निर्मित हुम।। इसका रचनाकाल ११३६-११४६ ई० है । यह सस्कृत-कन्नड का सबसे बड़ा कोश माना जाता है । इसी प्रकार देवोत्तम का नानारत्नाकर' भी उल्लेखनीय है।" किन्तु सम्प्रति इस कोश के सम्बन्ध मे विशेष विवरण उपलब्ध नही है। इस प्रकार के अन्य कोश भी हो सकते हैं जो हमारी जानकारी मे नही हैं। अभिधानचिन्तामणि जन कोशो मे 'अभिधान चिन्तामणि' का एक विशिष्ट स्थान है। इसका प्रमुख कारण यह है कि आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने इसमे जन पारिभाषिक शब्दो का विशेष रूप से उल्लेख किया है। उनके अनेक पर्यायवाची शब्द भी दिए है। यह कोश Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३५१ छह काण्डो मे निबद्ध है। प्रथम देवाधिदेवकाण्ड है, जिसमे निकाल चौबीस तीर्थंकरो की नामावली, उनके अन्य उपनाम, माताओ के नाम, शासनदेवता, ध्वजाओ आदि का वर्णन किया गया है। सम्पूर्ण कोश मे जन साहित्य मे आगत प्रमुख पारिभाषिक शब्दो का अर्थोल्लेख किया गया है। कोश मे कुल १८८६ श्लोक है। केवल 'अभिवानचिन्तामणि' मे १५४२ श्लोक है, शेष श्लोक 'शेपनाममाला' के हैं। प्रस्तुत कोश मे कई मौलिक विशेषताएँ लक्षित होती है। प्रथम कोश का विभाजन ही अपनी मौलिक सूझ-बूझ को प्रदर्शित करता है। वास्तव मे पार गतियो के आधार पर कवि ने चार काण्डो का नामकरण किया है। प्रथम काण्ड मगलाचरण रूप मे है और अविशिष्ट शब्दो का सकलन सामान्यकाण्ड मे किया गया है। वास्तव मे पार गतियो मे सभी वस्तुएँ और उनके नाम सगृहीत हो जाते है । अपनी इस पद्धति का उल्लेख स्वय कोशकार ने किया है ।२८ ___ कोशकार की मुख्य प्रतिज्ञा है "रूढयौगिक मिश्राणा, नाम्ना माला तनोम्यहम्" अर्थात् रूढ, यौगिक और मिश्र तीनो प्रकार के शब्दों का सकलन कर उनका विस्तार करूंगा। सैकडो वर्षों से जिन शब्दो का प्रयोग रूढ हो चुका था, उनका यथास्थान उसी अर्थ मे सकलन करना स्वाभाविक भी था। कोशकार ने इस बात का बराबर ध्यान रखा है कि रूढ शब्दो मे से कोई छूटने न पावे। उदाहरण के लिए, अमरकोश, विश्वप्रकाश तथा मदिनी अनेकार्थक कोशो मे "क्षुल्लक" शब्द के दो अर्थों का उल्लेख है "क्षुल्लक स्वल्पनीयो" थोडा, छोटा या नीच । 'अभिधान चिन्तामणि' मे यह उल्लेख इस प्रकार है "क्षुद्रकवव शखनका क्षुल्लकाश्च ।" श्लोक १२०५ यद्यपि सस्कृत के सभी कोशो मे थोडे-बहुत देशी तया लोकभाषा के शब्दो का संग्रह भी मिलता है, जैसाकि होरा, होलक, खटक्किका, कट्टार, खुड, खुड, छाग, उल्लक और घुटक आदि । सामान्यत सस्कृत मे 'क' स्वार्थिक प्रत्यय जोड कर अन्य भाषाओ से शब्दो के ग्रहण करने की प्रवृत्ति प्रचलित रही है । अत टिटहरी के लिए 'टिट्टिभक', मूली के लिए 'मूलक', कटोरा के लिए 'कटोरक', झाश के लिए 'अल्लक', डलिया के लिए 'डल्लक' और करेला के लिए 'करिल्लक' नादि देशी शब्द कहे जाते हैं । सस्कृत मे अनेकार्थक शब्दो के विकास का भी रहस्य यही प्रतीत होता है । क्योकि जव चूल्हे के लिए 'मूषक' या 'मूषिक' शब्द प्रचलित था, तब उन्दुरु या उन्दूर' कहने का क्या कारण था ? केवल इतना ही कि जिस समय जो संस्कृतकोश निर्मित हो रहा था, तब ये शब्द विशेष चलन मे थे। अत ऐसे शब्दो को साधारण रूप से कोई भी कोशकार नही छोड सकता था। फिर भी, इस दृष्टि से निकाण्डशेप' कोश विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें मूषक के पर्यायवाची शब्द तीन (उन्दुरु, तुटुम और रन्ध्रवभ्र) और छुछुन्दरी के पार पर्यायवाची शब्द दिए गए है२९ चिक, वेश्मनकुल पुवृप और गन्धमूषिक । किन्तु Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३५२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा 'अभिधान चिन्तामणि' मे 'छुन्दरी' शब्द का स्पष्ट अभिधान किया गया है। जो निश्चित ही देश्य भापाओ से आगत है। 'अभिवानचिन्तामणि' कोश मे अनेक नवीन शब्दो का समावेश लक्षित होता है जो उसके पूर्व के सस्कृत कोशो मे उपलब्ध नही होते । उदाहरणार्थ चौल, चोटी, गोणी, हेरिक, कृमिला, समिता, पिण्डोलि, फेली, प्रोज्जासन, फरक, छुरी, ईपिय, सवर, इत्मी, तरपालिका, पाटी, झम्फान, खोल, पृपातक, ५८1का, टकपति, हैरिक, गन्दुक, मकुट, सिंघाण, सिंघाणक, गोनाम, गोराटी, गोरुत, गोहिर, घुटक, घुटिक, धूकारि, घृतेली, घोणम, धोल, चडिल, चलच चु, चिकिल, चिहुर, चीनक, चीनपिष्ट, पीरिल्लि, छगण, जडल, जलालीका, जलसपिणी, जागुड, जोनाला, डिंगर, ढोकन, तन्तुल, तीर्थकर, तीर्थवाक्, दन, भरूटक भोलि, मनस्ताल, मिथ्यात्व, मुसटी, मूनपुट, मेरक, राटि, पा, वड्, खण, वण्ड, वर्चस्क, वाहिक, वोल्लाह, वोहित्य, शूकल, श्वेतकोलक, सर्वभूपक, सापी, सार्व, मृपाटिका, स्थलशृगार, हारहूरा इत्यादि। सम्भव है कि इनमें से कोई एक-दो शब्द किसी प्राचीन शब्दाकोश मे हो, जो हमारे देखने मे न आए हो। किन्तु जानकारी के अनुसार ये अधिकतर नवीन शब्द हैं । इन दो के अध्ययन से यह भी निश्चय हो जाता है कि आचार्य हेमचन्द्र ने अमरकोश और उसकी परम्परा का अनुगमन किया है। अनेकार्यक कोशो मे प्राचीनतम उपलब्ध विश्वप्रकाश' को आधार मानकर 'अभिधानचिन्तामणि' की रचना नहीं हुई । 'अमरकोश' के अवश्य अधिकतर शब्दो का सकलन इस कोश मे किया गया है, किन्तु वे मम्कृत साहित्य मे या लोक-जीवन मे भी प्रचलित प्रतीत होते है । जैनागम-परम्परा के कई द अमरकोश मे मिलते हैं,यथा मिथ्यादृष्टि, मिथ्यामति, मुनि, मुनीन्द्र, जिन, अर्हत्, आश्रव आदि। विश्वप्रकाश' कोश मे कई ऐसे शब्द है जो अनेक सस्कृत कोशो मे लक्षित नहीं होते। उनमे से कुछ शब्द इस प्रकार है जैमुरि, मर्करा, एलावली, दुम्बरिका, चौड्ग, लम्पा, चावटीर, कम्बिका, शिराला, कदैवत, वरधू, जराटक, वशकम्बिका आदि । इस कोश मे कुछ कोशकार के गढे हुए शब्द भी मिलते हैं, जैसे कि –दध्या (दही के ऊपर की मलाई), दुग्धान (दूध के ऊपर की मलाई), वेणुमार (वशलोचन), नीरविकार (समुद्रफेन) आदि । ये सव शब्द 'अभिधान चिन्तामणि' मे भी सकलित नही हुए है। परन्तु कवि महेश्वर की भांति आचार्य हेमचन्द्र ने भी कुछ श०६ गते हैं। उदाहरण के लिए कुछ शब्द ये है---जलमारि (जलविलाव), जलवालिका (विद्युत्), झलक्का (चिनगारी), वायुवाह (धूम, धुआँ), अग्निवाह (धूम), तलाटी (वर), वर्पकरी (झीगुर) गृहमृग (कुत्ता), रानिजागर (कुत्ता), चामण्डलि (अजगर), भेवसुहृत् । मयूर), अम्बुप (चातक) इत्यादि । कही-कही मदिनी कोण' का भी प्रभाव लक्षित होता है।" किन्तु कही-कही दोनो के अर्थ मे भिन्नता भी लक्षित होती है। उदाहरण के लिए, 'अभिधानचिन्तामणि' मे 'जगल' Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३५३ का अर्थ निर्जल है, किन्तु 'मेदिनी' में निर्जन स्थान है ।३२ इसके अतिरिक्त 'अभिधानचिन्तामणि' मे सकलित अनेक शब्द मेदिनी' मे परिलक्षित नही होते, जैसे कि--चषाल, तेलपायिका, निशाटनी, पिक, विक्क, पारिन्द्र, पारीन्द्र, चिक्कस, गृहोलिका, शूलिको, शलल, शयु, विसार, शल्की, वादाल, शखमुख इत्यादि । इसका एक कारण यह भी है कि 'मेदिनी' अनेकार्यक कोश है। 'अभिधानचिन्तामणि' की एक विशेषता यह भी है कि इसमे पर्यायवाची शब्दो की सख्या बहुत है। एक 'मीन' शब्द के सोलह पर्यायवाची शब्द दिए हुए है।३ मत्स्य, पृथुरोमा, झष, वैसारिण, अण्डज, सघाचारी, स्थिरजित, आत्माशी, स्वकुलक्षय, विसार, शकली, शकी, शम्बर, अनिमिप और तिमि । इसी प्रकार १७ प्रकार के धान्यो का वर्णन 'अभिधानचिन्तामणि' मे किया गया है । फिर, उनकी पहचान भी बताई है। उदाहरण के लिए, पीला छोटे दाने का चावल 'क' कहा गया है "क गुस्तु फगुनी कइगु प्रियड्गु पीततण्डुला ।' (११७६) उडद के सम्बन्ध मे कहा गया है __"मापस्तु मदनो नन्दी वृष्यो बीजवरी व" (११७१) इस कोश मे सबसे अधिक नाम ११८ पार्वती के सकलित हैं। इसी प्रकार सुन्दरता के पर्यायवाची २७ शब्द है ।५ निकट के वाचक २० पर्यायवाची शब्द हैं।६६ अन्य शब्दो के भी इसी प्रकार अधिक-से-अधिक पर्यायवाची शब्दो का सकलन लक्षित होता है। कई महत्त्वपूर्ण शब्दो के भी पर्यायवाची शब्द दिए गए है। जैन का पर्यायवाची शब्द अनेकान्तवादी दिया गया है। चावकि को लोकायतिक और वैशेषिक को 'कणाद' कहा गया है। अग्नि के २४ पर्यायवाची नामो का उल्लेख किया गया है। मुर्गे के १८ पर्यायवाची नाम और कोयल के ११ नामो का वर्णन किया गया है। नारकाण्ड' मे इस धरती के नीचे सात भूमियो का नरक के पर्यायवाची शब्द का उल्लेख किया गया है। नरक सात हैं और पर्यायवाची नाम भी सात है। अन्य सस्कृत के शब्दकोशो मे इन सात नरको का उल्लेख नहीं मिलता। ____ आचार्य हेमचन्द्र के इस कोश मे सस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत भाषा के शब्दो का भी समावेश परिलक्षित होता है । जैसे कि पट्टन, बोहित्य,वप्पीह, खडक्किका, कण्डोलक, पोटी, सिड् घाण, सिड्याणक, झम्पा और गोविन्द आदि । कुछ देशी शब्द भी इस कोश मे लक्षित होते हैं । वे इस प्रकार है १ लह रमणीय । हिन्दी मे 'लाड' (लाड-प्यार)। २ चिल्ल---एक पक्षी । हिन्दी मे 'चील'। ३ लडुक --- मोदक (अभि० १६४०) । हिन्दी मे लड्डू, बुदेली मे लडुआ, राजस्थानी मे लाडू गुजराती मे लाडु । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ४ खल्ल पर्ममयी (अभि० १०२५)। हिन्दी में खाल'। खल्ला (देशी० २,६६)। ५ गेदुक गेद (अभि० ६८६) । हिन्दी मे गेद', बज-बुन्देली मे गद। ६ तारि तलवार (अभि० ७८२) । ब्रज, बुन्देली, गुजराती मे 'तरवार'। ७ चालनी चलनी (अभि० १०१८) । आधुनिक भारतीय आर्य मापाओ में चलनी। ८ खटी खजी मिट्टी (अभि० १०३७)। राजस्थानी 'खडी', गला, उडिया मे 'खडी', मराठी में 'खडी' और गुजराती 'खडी' । ६ पुरुल भ्रमरालक (अभि० ५६६) । प्राकृत कुरुल (लट), जूनी गुजराती मे 'कुरुल', मराठी में 'कुरुल'।" द्रविड भाषाओ मे 'कुरुल'। १० तम्बा गाय (अभि० १२६६) । तवा-गो (देशीनाममाला ५,१)। ११ फुल्ल फूला हुआ (अभि० ११२७) । पालि-प्राकृत "फुल्ल' । आधुनिक भारतीय आर्यभापाओ मे 'फूल' अर्थ है।" १२ वप्पीह पपीहा (अभि० १३२६) । वप्पीह (देशीनाममाला, ६,६०)। १३ पुत्तिका पतगिका (श्वेत चोटी, अभि० १२१४) । कानड 'पुत्तु' तेलुगू ____ पट्ट', परजी (द्राविडी) 'पुटकल'। इनके अतिरिक्त कई अन्य ऐसे शब्द भी परिलक्षित होते है जिनका निश्चित पता नही है, ५२ वे देशी ही प्रतीत होते है। इन शब्दो मे कुछ ये है (१) पोटा, (२) वोटा, (३) चुन्दी, (४) पट्टी, (५) पोटी इत्यादि । पाठ इस प्रकार है सा वारमुख्याथ चुन्दी कुट्टनी शम्भली समा । पोटा वोटा च चेटी च, दासी च कुटहारिका । अभि०, ५३३-३४ इसी प्रकार से सस्कृत के अन्य शब्दकोशो की भाँति इसमे भी अन्य भाषाओ के परम्परागत शब्दो की भी उचित रूप से सन्निवेश परिलक्षित होता है । अतएव कई दृष्टियो से इस कोश का अध्ययन स्वतन्त्र रूप से शोध खोज का महान कार्य है। अभी तक इस दिशा मे कोई कार्य नही किया गया है। अनेकार्थकसग्रह ___आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि का यह कोश 'अभिधान चिन्तामणि' का पूरक है। क्योकि 'अभिधानचिन्तामणि' मे पर्यायवाची शब्दो का सकलन है और इसमे एक शब्द के अनेक अर्थों का पालन किया गया है। यह कोश सात काण्डो मे निबद्ध है, जिनमें कुल १६३१ ५ोक है। इस कोश में कई नवीन शब्द मिलते है, जो मदिनी' में नही पाए जात । उनमे से कुछ ये है Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ह सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३५५ घृणि, घोषा, चन्द्रिल, चमरी, चोरवाल, चूडाल, चौल, छगली, छत, छत्ता, चास, चिन, चित्या, चुकी, चुलक, चुलुक, चुल्ल, छित्वर, जलाटनी, जवनी, जिह्वा, झसरी, झल्लरी, झषा, झिल्ली, झूणि, तण्डके, तण्डुला, तमोनु, तल्प, तानित, त्रपु, निगा, निपुटा, विष्, दक्षा, दक्षिणा, दण्डयाम, दन्ति, दस्म, दादा, दाय, दाव, दिष्टि, द्रू, धन्य, धनिक, धवल, धातु, धात, धाराधर, ध्रुवा, नलिन, नली, नवकलिका, नवाह, निर्नर, पक्षी, फलि, फली फल्गु, फेरव, पद्धशिख, महाधोपा, रक्तागा, रल्लक, लतामर्कटक, १२८, वरना, परद, शावर, शिलीन्ध्री, शीतशिव इत्यादि। यद्यपि विश्वप्रकाश' और 'मेदिनीकोश' के आधार पर इस कोश का निर्माण हुआ प्रतीत होता है, किन्तु अनेक औषधियो के नाम तथा अन्य नाम इस कोश मे नही मिलते । मेदिनीकोश के निम्नलिखित शब्द इस कोश मे नही है ऋद्धि, कुनटी, चिरटी, चेष्टित, जलतापिक ज्वलित, जह्न., जाड् गूली, जातु, जानपद, जालक, जालिक, जाहक, जीर्ण, गर, टुण्टक, डिलारी, डिम्बिका, तर्ष, तलुनी, तातगु, तातल, नायमाणा, त्यक्षर, स्वपन, दत्त, दन्तधावन, दानु, दान्त, दार, दारण, दीना, दीर्ण, दुधी, दुच्छक, दूषिका, द्वीपवान्, घट, धूसरी, ध्वजी, नर्मद, नर्मरा, निग्रन्थक, पाल, मसूरी, महाकच्छ, यक्षराट्, यूथिका, रज्जु, वारक, वारकी वारकीर इत्यादि । सस्कृत के इन प्रकाशित मूल ग्रन्थो का सम्पादन ठीक से नही हुआ है। प्रथम बार यह सम्भव भी नही था। अत कई स्थानो पर अनेक अशुद्ध पा० रह गये हैं। यह कार्य तभी हो सकता है जबकि विश्वप्रकाश, मेदिनी, अनेकार्थसग्रह आदि अनेकार्थक कोशो का तुलनात्मक अध्ययन कर प्रामाणिक पा० निर्धारित किए जाए । उदाहरण के लिए ___"पानपान दैत्यभेदे कारू शत्तयायुधे रुजि।" अनेकार्थ० २,५६१ 'अनेकार्थसग्रह' की यह पक्ति ज्यो की त्यो हमे विश्वप्रकाश' और 'मेदिनीकोश' मे मिलती है। किन्तु उनमे 'कार' के स्थान पर का' पाठ है । अत क्या 'कासू होना उचित है ? इसी प्रकार एक अन्य पाठ है ___स्याद् गोरिलस्तु सिद्धार्थ लोहचूर्णेऽथ चन्द्रिल । अनेकार्थ० ३,६८१ 'चन्द्रिल' के स्थान पर विश्वप्रकाश' मे 'चण्डिल' पाठ है। अनेकार्थसंग्रह की मुद्रित पुस्तक मे टिप्पणी मे 'चण्डिल' पा० भी है । अत यही उचित प्रतीत होता है कि 'चण्डिल' पा० ठीक है, चन्द्रिल नही । अतएव अनेकार्थसग्रह का 'चन्द्रिल' शब्द चण्डिल होना चाहिए । ऐसे अनेक पाठ है जो स्वतन्त्र अध्ययन के विषय हैं। 'विश्वप्रकाश' कोश के कई शब्द 'अनेकार्यमग्रह' मे लक्षित नहीं होते । कुछ शब्द इस प्रकार है कदला, खण्डाली, विडाली, विशाल, विशाला, विमला, शीवल, विकेशी, वीतसी, भूयस् , ३रदक, एकसहा, कुटार, नाह, अश्व इत्यादि । सस्कृत के अनेकार्थक कोशो के तुलनात्मक अध्ययन से यह निश्चित प्रतीत Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण वी पपरा होता है कि सभी कोशकार 'विश्वप्रकाश' मे किसी-न-किगीप ग प्रभावित अवश्य रहे है। मेदिनी और अनेकार्य पर इसका विशेष प्रभाव पनि दिसत होता है। उदाहरण के लिए कुछ उद्धरण लिए जा सकते है अन्नः शिरसिजे कोणे ग्यादम गोणिते अणि । अनेकार्य० २,४०५ तरिर्दशाया नौकाया वस्त्रादीना चटके । यही, २.४३८ पूर यादम्भमा वृटो बाशुद्धिपाययो । पोत्र वस्ने मुखाग्रे, च भूपस्य हलन्य च । व्ही, २,४५२-५३ होरा तु लग्ने सध्यर्धे शास्त्ररेणाप्रभेदयो । वहीं, २,८८५ शालु कपायद्रव्ये त्या पोरका योपधेऽपि च । वहीं, २,५२४ लध्वी हस्वविवक्षाया प्रभेदे स्पन्दनस्य च । वहीं, २,५४६ अवध्यमववाह स्यादनर्थवाव चयपि । वहीं, ३,५०६ मलयो देश आराम शैलागे पर्वतान्तरे। वहीं, ३,५३० विशल्या लागलीदन्तीगुडूचीनिपुटानु च । वही, ३,५३८ ऋक्षर वारिधारायामृक्षर पुन ऋत्विजि । वही, ३,५६० कपर कुत्सिते तक -~- .... वही, ६,५६४ कनार कुम्भिनरके गिर कपालसन्धिषु । वही, ३,५८० कोहारो नागरे कूपे पुष्करिण्याच पाटके । वही, ३,५८१ खिड्खिरस्तु शिवाभेदे खट्वाङ्गे वारिवालक। वही, ३,५८४ जम्बीर प्रस्थपुप्पास्यशाके दन्तशद्रुमे । वही, ३,५६२ नरेन्द्रो वातिक राशि विपर्वोऽय नागरम् । वही, ३,६०१ वल्लूर तु वनक्षेत्रे वाहनोपरयोरपि । वहीं, ३,६३३ वशिर किणही सिन्धुलवणे कुम्भकेषु च । वहीं, ३,६३४ वागरो वारके शाणे निर्णय वाडवे वृके। वही, ३,६३५ शणार शोणमध्यस्यपुलिने ददरीतटे । वही, ३,६४३ शिलीन्ध्र कदलीपुष्पे कवकनिपुटास्थयो.। वही, ३,६४८ सड्गर तु फले शम्या सन्मार मभृता गणे । वही, ३,६५२ सरन्ध्री परवेमस्यशिल्पकृत्स्वशास्त्रियाम् । वर्णसङ्करस भूतस्त्रीमहल्लियोरपि । वही, ३,६५६-५७ अड् गुलि कारशाखाया कणिकाया गजस्य च । वही, ३,६६० નતાશયમુળી ત્યાજ્ઞાશયો નનાવે છે तण्डुलीय शाकभेदे विडङ्गतरुताप्ययो । वही, ४,२२६-३० मरकर वणकरे भल्लातकफलेऽपि च । वही, ४,२४१ उत्पलपन मुत्पलदले स्त्रीणा नखक्षते । अनेकार्य० ५,४४ तमालपत्र तिलके तापिच्छे पत्रकेऽपि च । वही, ५,४५ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३५७ भवेदुद्दण्डपालस्तु मत्स्यसर्पप्रभेदयौ । वही, ५,५१ भवेत्सुरतताली तु दूतिकाया गिर सजि। वही, ५,५५ उक्त सभी पक्तिया शब्दश विश्वप्रकाश' कोश मे उपलब्ध होती हैं। अत यही जान पडता है कि ये वहा से उद्धृत की गई है । केवल विश्वप्रकाश' से ही नही, 'मेदिनी' से भी कुछ उद्धत है । परन्तु 'मेदिनी' की अपेक्षा विश्वप्रकाश' की उद्धत पक्तिया बहुत अधिक है। 'मेदिनीकोश' से उद्धृत कुछ ही पक्तिया हैं जो इस प्रकार है प्रत्युद्गमनीयमुपस्येये धौताशुकद्वय । अनेकार्य० ६,६ एककुण्डल इत्येष बलभद्रे धनाधिपे । वही, ५,५२ रोचना रक्तकल्हारे गोपित्त परयोपिति । वही, ३,४३४ इस प्रकार यह 'अनेकार्थसग्रह' कोश पूर्व परम्परागत शब्दो की सकलना का एक सुन्दर कोप है। इतना ही नही, इसमे कई देशी भाषा के ऐसे प्रचलित शब्दो का भी समावेश है जो अन्य कोशो मे नही मिलते । जैसे कि (१) लच घूस (अनेकार्थ० ३,७७१) । बुन्देलखडी 'लाच' (रिश्वत)। (२) गेन्दुक तकिया (अनेकार्य० ४,१६६) । विश्वप्रकाश' मे 'गेण्डुक' शब्द है । बुन्देलखड मे इसे 'गेडुआ' कहते है। (५) गान्धिक गाधी (अनेकार्य० ३,३६) । ब्रज, बुन्देली मे 'गधी', 'उडिया, बिहारी और हिन्दी मे भी 'गधी' । प्राकृत गधिय' । (४) ब०. मूर्ख, मन्दबुद्धि (अनेकार्थ० ३,६१५) । वर, मा०र बुन्देली, मालवी और हिन्दी मे। (५) चिल्ल चील (अनेकार्थ० २,४६७) । कुमायू, नेपाली, बगाली, उडिया और अवधी मे चील' ।। (६) १० अविवाहित (अनेकार्थ० २,११०, देशीनाममाला ७,८३) । प्राकृत 'वठ' और उडिया 'वाठिया' । ५ अनेकार्यसग्रह' मे कुछ ऐसे शब्द भी मिलते हैं, जो सस्कृत मे तथा प्राकृत मे भी समान रूप से प्रचलित रहे है, किन्तु अर्थ की दृष्टि से उन शब्दो को तथा रचना की दृष्टि से भी गढे हुए होने के कारण देशी कहा जाता है । अर्थ की दृष्टि से यह है कि जब एक शब्द का एक अर्थ नियत है और अधिक-से-अधिक दो-तीन शब्द एक ही अर्थ को बतलाने वाले हैं, तो उसमे दो या दो से अधिक शब्दो की वृद्धि कसे हुई ? निश्चित ही वे शब्द किसी-न-किसी धारा से होकर भाषा विशेष मे समा गए होग, जो कालान्तर मे उस भाषा के अपने बन गये। यह क्रम सैकडो-हजारों वर्षों से चला आ रहा है। 'अनेकार्यसग्रह' मे भी इसी परम्परा का पालन दिखलाई पडता है। उदाहरण के लिए यहा सस्कृत का 'कुट' शब्द लिया जा सकता है। सस्कृत मे 'कुट' शब्द के निम्नलिखित अर्थ है "कोट, पत्थरफोडी, घड़ा और Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा मकान । मूल मे यह शब्द द्राविड 'कुट्ट' से निकला है। पालि मे यह 'कूट' हे और प्राकृत मे 'कूड' है । इसका अर्थ लोहे की हथोडी हे । सिन्धी मे इसी अर्थ मे 'कुलु' शब्द प्रचलित है। इसके अतिरिक्त अन्य अर्थों में यह शब्द परिलक्षित नही होता। 'कुट' का अर्थ 'कोट' इसलिए शब्दकोशो मे आ गया, क्योकि प्राकृतबोलियो मे 'कुट' और 'कोड' दोनो शब्द प्रचलित रहे है। घट और गेह अर्थ के सम्बन्ध मे यह ज्ञातव्य है कि ये दोनो ही सादृश्य से सम्बन्वित है । सस्कृत मे अनेक शब्दो का निर्माण इसी प्रक्रिया से हुआ । आचार्य हेमचन्द्र मे यह प्रकृति विशेष रूप से लक्षित होती है । 'अनेकार्थसग्रह' मे भी यही प्रवृत्ति भली-भाति देखी जा सकती है। यही आगे चलकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओ तथा वोलियो मे कुट, कूटनी, कुहा, कूटा आदि शब्दो मे धोतित होती है । यह विषय अत्यन्त रोचक तथा शोव-अनुसन्धान का है। इससे भारतीय आर्यभाषाओ की पुननिर्माण की प्रक्रिया में कुछ नवीन सकेत भी उपलब्ध हो सकते है। નિધશેષા आचार्य हेमचन्द्र कृत 'निघण्टुशेप' शब्दकोश-ग्रन्थो मे एक विलक्षण रचना है। क्योकि इसमे एकार्थक और अनेकार्यक दोनो प्रकार के देशी शब्दो का संग्रह किया गया है। स्वयं उन्होने इस बात का उल्लेख किया है कि जो शब्द शेष रह गए है, उनका यहा समुच्चय किया गया है । " डॉ० दुल्हर के अनुसार यह एक श्रेष्ठ वनस्पतिकोश है। उनका यह कथन तथ्यपूर्ण है । क्योकि यह कोश छह काण्डो मे विभक्त है। प्रथम वृक्षकाण्ड है, द्वितीय गुल्मकाण्ड, तृतीय लताकाण्ड, चतुर्थ शाककाण्ड, पचम तृणकाण्ड और ५०० धान्यकाण्ड है। इस प्रकार यह सम्पूर्ण कोश स्वतन्त्र रूप से एक वनस्पतिकोश है जो 'अभिवानचिन्तामणि' कापूरक प्रतीत होता है। 'अभिधानचिन्तामणि' और 'अनेकार्थसह' मे आ० हेमचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती जिन अनेकार्थक कोश मे उल्लिखित औषधियो तथा वृक्षो आदि के नाम छोड दिए थे, उनका पृथक रूप से इस कोश मे सकलन किया है । यह वास्तव मे उनकी ही सूझ-बूझ है । आयुर्वेद के निघण्टुओ के अतिरिक्त अन्य इस प्रकार के को उपलब्ध नही होते । अत आयुर्वेद के निघण्टु ग्रन्थो की ५२-५॥ मे यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इसका कारण यह है कि यह कोश कुल ३९६ ५लोको मे निबद्ध होने पर भी वनस्पति-जगत् की लगभग सभी वस्तुओ का उनके पर्यायवाची नामो के साथ अभिधान प्रस्तुत करता है । यद्यपि विश्वप्रकाशकोश' तथा 'शिवकोश' एव राजनिव' आदि कोशो मे उल्लिखित सभी अभिधानो का सकलन इस छोटे-से कोश मे नहीं है, किन्तु कई अप्रसिद्ध शब्दो की जानकारी के लिए यह अत्यन्त सहायक है । जैसे कि 'गोपकन्या' का अर्थ सारिवा किया गया है। यह अर्थ शिवकोष' Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३५६ (५०७) मे भी उपलब्ध है । अत इसकी प्रामाणिकता का पता चलता है। इसी प्रकार बहुसुता' का अर्थ 'शतावरी' किया गया है। यह शब्द 'शिवकोष' मे नही मिलता। अतएव ऐसे अप्रसिद्ध शब्दो का अर्थ समझने के लिए भी इसकी उपयोगिता निस्सन्देह है । 'निघण्टुशेप' मे कई ऐसे अप्रसिद्ध शब्द मिलते हैं जो आयुर्वेद के सामान्य निघण्टुओ मे दृष्टिगोचर नहीं होते। उदाहरण के लिए- गोपवल्ली, प्रतानिका, मृदङ्गफलिनी, कुटा, घण्टाली, अजाण्टा, फरण, पुस्तिका, कर्वरी, वर्वरी, अर्जुन पास, उलपू, मुशटी इत्यादि । इनमे से अनेक शब्द देशी प्रतीत होते है, जो तत्कालीन लोक बोलियो मे प्रचलित थे। अतएव आयुर्वेद के शब्दकोशो मे उनका प्रवेश सहज तथा स्वाभाविक था । अतएव कोशकार के वचन सत्य प्रमाणित होते हैं। लिङ्गानुशासन आचार्य हेमचन्द्र प्रणीत लिंगानुशासन' भी एक स्वतन्त्र लघु रचना है। यह भी एक अभिधानकोश है जो १३८ श्लोको मे निबद्ध है । इसमे सात विभाग है प्रयम पुलिगाधिकार मे १७ श्लोक, द्वितीय स्त्रीलिंगाधिकार मे ३३ श्लोक, तृतीय नपुसकलिगाधिकार मे २४ श्लोक, चतुर्थ पुस्त्रीलिंगाधिकार मे १२ श्लोक, पचम पुनपुसकलिंगाधिकार मे ३६ और ५०० स्त्रीनपुसकलिंगाधिकार में केवल ५ तथा स्वतस्तिलिंगाधिकार मे केवल ६ श्लोक है । अन्त मे पाच श्लोक और है । अन्त मे ३८ श्लोको मे निबद्ध एकाक्षरकोश' भी है, जिसमे केवल एक अक्षर वाले शब्दो के विभिन्न अर्थों का उल्लेख किया गया है। विश्वलोचनकोश श्रीधरसेन कृत विश्वलोचनकोश' संस्कृत के सुबन्ध कोशो मे एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसका एक अन्य नाम मुक्तावलिकोश भी है। कवि श्रीधरसेन दिगम्बर आम्नाय के सेन सघ की परम्परा के थे। वे स्वय शास्त्रो के पारगामी कवि और नैयायिक थे । वे स्वय शास्त्री के पारगामी कवि और नैयायिक थे। श्रीधरसेन भी अपने गुरुवर के समान विद्वान् तथा महान् राजाओ के द्वारा सम्मान्य थे। सस्कृत के 'विश्वप्रकाशकोश' की भाति विश्वलोचनकोश' के भी टीका ग्रन्थो मे उद्धरण मिलते है, जिससे इसके ५०न-पाठन तथा लोकप्रियता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । सुन्दरगणि ने अपने ग्रन्थ 'धातु रत्नाकर' मे इस कोश के कई उद्धरण दिए है। यह शब्दकोश न अधिक विशाल और न अधिक सक्षिप्त होने के कारण विद्वानो और विद्यार्थियो दोनो के लिए समान रूप से उपयोगी है। विक्रमोर्वशीय की गनाथ कृत टीका मे भी विश्वलोचनकोश' का उल्लेख मिलता Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सस्कृति-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा है। शैली की दृष्टि से विश्वलोचनकोग' पर हैम विश्वप्रकाश और मेदिनी इन तीनो कोगो का प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। विश्वप्रकाश' का रचनाकाल ई० ११११ हे, मेदिनी और अनेकार्थसंग्रह आदि का बारहवी शताब्दी है । अत इस 'विश्वलोचनको' का समय तेरहवी शताब्दी कहा जाता है।" ____इम विश्वलोचनकोश' मे कुल २४५३ श्लोक है। अन्य सस्कृत कोशो की भाँति इसमे भी वर्णादिक्रम से शब्दो का संकलन है। यह कोण सन् १९१२ मे निर्णयसागर प्रेस मे प्रकाशित हुआ था । इसका सम्पादन प० नन्दलाल शर्मा ने किया था। उनके ही शब्दो मे "स्कृत मे कई नानार्थ-कोण है, परन्तु जहाँ तक हम जानते हैं, कोई भी इतना 45। और इतने ही अधिक अर्थों को बतलाने वाला नही है । इसमे एक-एक शब्द को जितने अर्यो का वाचकवतलाया है, दूसरो मे प्राय इससे कम ही बतलाया है। उदाहरण के लिए, एक रुचक शब्द को ही लीजिए जहाँ तक अमर मे इसके चार व मेटिनी मे दश अर्थ पतलाये गये है, वहाँ इसमे १२ अर्थ बतलाये गये है, यही इस कोण की विशेषता है । इसके अतिरिक्त इसमे कई शब्दो के ऐसे भी अर्थ मिलते हैं जो सामान्य रूप में संस्कृत के अन्य किसी कोश मे नहीं मिलते । अत सम्भव है कि किसी अन्य प्राचीनतम सस्कृतको के आधार पर इस को की रचना हुई हो जो आज उपलब्ध नहीं है । नाममालाशिलोछ श्री जिनदेवसूरि ने 'अभिधानचिन्तामणिकोश' के पूरक के रूप मे वि० स० १४३३ मे 'नाममालाशिलो' की रचना की थी। यह १४६ ५लोको का लघुतम कोश है। यह कोश 'अभिधान चिन्तामणिकोश' के परिशिष्ट रूप मे श्रेष्ठि देवचन्द लालभाईजनपुस्तकोद्धार सस्था, सूरत से १९४६ ई० मे प्रकाशित हो चुका है। इसी अन्य मे आचार्य हेमचन्द्र, कृत "ओपनाममाला" और श्री सुधाकलश विरचित "एकाक्षरनाममाला" भी सकलित है। શેપનમત્તિ आचार्य हेमचन्द्र मूरि का यह कोश पांच काण्डो मे निवद्ध है। इसमें कुल २०८ श्लोक हैं । प्रथम देवाधिदेवकाण्ड मे २, द्वितीयकाण्ड मे ६०, तृतीय नरकाण्ड मे ६५, चतुर्थकाण्ड मे ४० और पचम नारककाण्ड मे २ तथा अन्य ६ श्लोक हैं। इन सभी कोशो मे लोकप्रचलित शब्दावली का सुन्दर ग्रह परिलक्षित होता है। कई नवीन शब्द भी मिलते है। जैसे कि डकारी (किनरी), ८ट्टरी (पाय विशे५), मड्ड (वाद्य), तिमिला (वाच), किरिकिचिका (पाच), फुल्लक (आश्चर्य) इत्यादि । इसी प्रकार मे कई नवीन अर्थो का सूचन भी इस कोश से Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रण की आनुपूर्वी मे कोश माहित्य ३६१ मिलता है, जो इसकी अपनी विशेषता है। ऐसे कई नये शब्द है जो पर्यायवाची रूप मे मिलते हैं ।५३ अनेकार्थध्वनिमजरी महाक्षपणक कृत 'अनेकार्थध्वनिमजरी' के सम्बन्ध मे अभी तक विशेष ऊहापोह नहीं हो सका है। यह शब्दकोश प्रकाशित हो चुका है। इसका सम्पादन क्षुल्लक सिद्धसागर महाराज ने किया है। उनका कथन है कि यह महाक्षपणक जैन मुनि की रचना है जमाकि वासवे श्लोक मे जिन शब्द के अर्थ करने से प्रतीत होता है ५४ इसी प्रकार समिति का अर्थ 'समय' और 'स्व' का अर्थ 'आत्म' से भी पता चलता है कि ग्रन्थकार जन होगा। ___'अनेकार्थध्वनिमजरी' एक लधुकाय रचना है। इसमे कुल २२४ श्लोक हैं। यह कोश तीन परिच्छेदो मे निवद्ध है । प्रथम श्लोकोविकार मे १०४, द्वितीय अर्द्धलोकाधिकार परिच्छेद मे ८७, और तृतीय पादाधिकार परिच्छेद मे ३३ श्लोक है। यह एक अनेकार्यक कोश है । इसके प्रथम परिच्छेद मे एक श्लोक मे एक शब्द के अनेक अर्थो का उल्लेख किया गया है। दूसरे परिच्छेद मे केवल अर्द्ध श्लोक मे ही शब्द का अर्थ वर्णित किया गया है और तृतीय परिच्छेद मे चौथाई श्लोक मे एक शब्द के जाक अर्थ निव है । कुछ नवीन शब्दो का सकलन भी इस कोश मे मिलता है। उदाहरण के लिए, चुवर (लोमवस्त्र, ऊनी कपडा), तुरायण (क्रियाहीन), तोक (पुत्र), भूकुडी (शूकर, किसान), पासुरा (चलनी, छज्जा), प्रहि (कूप, सरोवर)इत्यादि । सामव है कि इस तरह के कुछ शब्द देशज हो जो परम्परा से शब्दकोश मे सकलित होकर उन-उन अर्थ के वाचक हो। द्विरूपकोशनिवण्टु इस शब्दकोश के रचयिता हर्ष कवि हैं । कोश संस्कृत श्लोको मे निबद्ध है और आज दिन तक अप्रकाशित है । इस कोश मे कुल २३० श्लोक है। इस ग्रन्थ की ताडपत्रीय प्रति श्री दिगम्बर जैन म० के शास्त्र-भाण्डार मे साउथ आरकाड के जिजी जिला के अन्तर्गत चित्तामूर मे सुरक्षित है । इसके १७ ताडपत्र है । अनुमान यही किया जाता है कि यह जैन कवि की रचना है। वहाँ पर १४० ताडपत्रीय ग्रन्थ हैं जो सभी जैन विद्वानो की रचनाएँ है। उनमे से अधिकतर प्रकाशित हो चुकी हैं । किन्तु कई अज्ञात रचनाएं भी वहाँ पर उपलब्ध है। एकाक्षरनाममाला इसके रचयिता जैन मुनि विश्वशम्भु हैं । यह ११५ श्लोको मे निबद्ध लघुकाय Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और बोश की परम्परा रचना है। दिगम्बर जैन शास्त्र-भाण्डारो मे इस की कई हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध होती हैं। वर्णादिक्रम से इसमें एक-एक वर्ण का अलग-अलग अर्थ वर्णित किया गया है। श्री जिनदत्तसूरि के शिष्य अमरचन्द्र कृत 'एकाक्षरनाममाला' भी कही जाती है। ५६ श्री राजशेखर के शिष्य सुधाकलश विरचित 'एकाक्षरनाममाला' के सम्बन्ध मे कहा जा चुका है । उक्त कोशकार चौदहवी-पन्द्रहवी शताब्दी के जान पडते अन्य संस्कृतकोश ____ संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि तथा कोशकार महेश्वर सूरि कृत 'विश्वप्रकाश' की वृत्ति वि०स० १६५४ मे खरतरगच्छ के आचार्य भानुकेश के शिष्य जिनविमल ने रची थी, जो महत्वपूर्ण मानी जाती है । इसका प्रकाशन होना अत्यन्त आवश्यक साधुकीति यतिकर के शिष्य साधुसुन्दरमणि ने 'धातु रत्नाकर' नामक बृहत् ग्रन्थ वि० स० १६८० मे रचा था। इस मे संस्कृत की प्राय सभी वातुओ का सग्रह किया गया है और उनके रूपाख्यानो का विशद आलेखन किया गया है।५० डॉ० नेमिचन्द्र जैन शास्त्री के अनुसार उन्होंने 'शब्दरत्नाकर' की रचना की थी। इस कोश मे कुल १०११ श्लोक है। कोश छह काण्डो मे विभक्त है ।५८ सक्षेप मे, डॉ० शास्त्री के शब्दो मे "राजचन्द्र का देश्यनिदेश-निघण्टु और विमलसूरि का देश्यशब्दसमुच्चय भी महत्त्वपूर्ण हैं।" वि०स० १६४० मे विमलसूरि ने 'देशीनाममाला' के शब्दो का सार ले कर अकारादि क्रम से 'देश्यनिदेश-निघण्टु' की रचना की थी। पुण्य रत्नसूरि का 'द्वयक्षरकोश', अमगकवि का 'नानायकोश', रामचन्द्र का 'नानार्यसग्रह', एक हपंकीति की नाममाला की गणना भी उपयोगी कोशो मे की जा सकती है। तपागच्छ के आचार्य सूरचन्द्र के शिष्य भानुचन्द्र ने 'नामसग्रहकोश' की रचना की। हपंकीतिसूर की 'लघुनाममाला' भी भाषा और साहित्य के अध्येताओ के लिए उपयोगी है। इनके अतिरिक्त भी सस्कृत के कुछ अन्य कोश जैन शास्त्र-भाण्डारी मे मिलते है, जिनका विवरण न मिलने से उल्लेख नहीं हो सका है। श्री ज्ञान विमलगणि ने ई० १५९८ मे 'शब्दभेदप्रकाश' की रचना की थी। सम्भवत उपर्युक्त उल्लिखित जिनविमल कृत वृत्ति वाली यह रचना है। क्योकि महेश्वरसूरि कृत विश्वप्रकाश' और 'शब्दभेदप्रकाश दोनो रचनाए एक ही ग्रन्य मे है । अत दोनो को एक समझना चाहिए । ज्ञानविमलगणि के नाम से कोई शब्दभेदप्रकाश' अभी तक हमारे देखने मे नही आया है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहान पाकृत त का अपभश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३६३ प्राकृत के गदकोश यह निश्चित है कि सात की अपेक्षा प्राकृत के शब्दकोशो की रचना बहुत बाद में हुई। ऐमा होना स्वाभाविक भी था। क्योकि लोक मापा के लिए व्याकरण, फो। की आवश्यकता नहीं पड़नी । प्राकृत के जिन प्राचीनतम शब्दसंग्रहकारो के उल्लेख मिलते हैं, उनमें अभिमानचिल, गोपान, देवराज, द्रोण, धनपाल और हेमचन्द्र के नाम स्मरणीय है । इनके अतिरिक्त कुछ दक्षिण भापाओ के, विशे५ कर कन्न: के कोशकारों ने प्राकृत-अपभ्रश शब्दो का उल्लेख किया है। पाइअलछीनाममाला उपलब्ध प्राहातकोशो मे महाकवि धनपाल कृत 'पाइअलच्छीनाममाला' प्रथम कोश कहा जा सकता है । यह दसवी शताब्दी की रचना है। वि० स०१०२६ में धारानगरी के अन्तर्गत भानखेड ग्राम मे अपनी छोटी बहन सुन्दरी के लिए कवि ने इस शब्दकोश की रचना की थी। यह कोश २७६ गाथाओ मे निबद्ध है। विद्याथियो के लिए यह अत्यन्त उपयोगी कोश है। इसमे ६६८ शब्दो के पर्यायवाची शब्दो का सकलन लक्षित होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने "अभिधानचिन्तामणि" की स्वोपज्ञ विवृति मे "न्युत्पत्तिर्धनपालत" का सकेत कर इनकी प्रशना की है। इसका एक कारण यह भी है कि देशी शब्दो का अभिधान करने वाला एक मात्र यही अन्य उनके सम्मुख था । स्वय महाकवि धनपाल ने देशी शब्दो के सकलन का उललेख किया है । वास्तव मे परम्परा से प्राप्त जो भी शब्द प्रचलित थे (चाहे वे सस्कृत-प्रवाह के हो अथवा लोक-बोलियो के) उनका संग्रह मान मरलता से प्रस्तुत किया गया है । अतएव आज भी हमारे बोलचाल के बहुतमे शब्द इस कोश मे ज्यो-के-त्यो मिलते हैं । उदाहरण के लिए . कुपल (कोपल), ओली (अवलि, पक्ति), मुक्खा (मूर्ख), कच्छा, तुद (तोद), दहिज (दही), भडुक्का (मेढक), विरालोलो (विलाडी, दिल्ली), खाईया (खाई), लपा (लाच, घूस), छल्ली (छाल), गुच्छा (गुच्छा), मामी (मामी), असमजस, गुद (गोद), उल्ल, आल (वाला अर्थ मे प्रत्यय) इत्यादि । इसी प्रकार से सस्कृत तथा अन्य भापाओ से मिश्रित शब्द भी द्रष्टव्य हैं । ६५ यह वास्तविक तथ्य है कि हजारो वर्षों तक भारतीय जनता को इस बात की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ी कि प्राकृत का भी शब्दकोश होना चाहिए। यद्यपि सस्कृत के शब्दकोशो मे कई स्रोतो से देशज शब्दो का समावेश लक्षित होता है, किन्तु उनसे प्राकृत काव्य को समझने में विशेष सहायता नहीं मिलती। हम यह भी नही कह सकते कि संस्कृत के कवि अपने साहित्य तक सीमित रहे या उन्होंने प्राकृत की उपेक्षा की। किन्तु वास्तविक यह है कि चाहे सस्कृत के नाटक Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा हो, ध्र वा या गीतियाँ हो अपवा दोहे वा गायाएं', उनकी प्राकृत इतनी सरल या सस्कृत मिश्रित रही है, जिसका अर्थ जानने के लिए किसी प्राकृत-शब्दकोश को ले कर बैठने की आवश्यकता नहीं थी। यही कारण है कि प्राकृत मे इने-गिने चारपाँच शब्दकोशो की रचना का ही उल्लेख मिलता है। प्राचीन शब्दकोशो से महाधनपाल कृत कवि "पायलच्छीनाममाला" और आचार्य हेमचन्द्र विरचित "देशीनाममाला" ये दो कोश उपलब्ध है। देशीनाममाला ___ 'देशीनाममाला' भारतीय आर्यभाषाओ के ऐतिहासिक अध्ययन के लिए एक विशिष्ट कोश है । आठ वर्गो मे विभक्त देशी शब्दो का यह एक अपूर्व सकलनात्मक ग्रन्थ है । मूल शब्दकोश प्राकृत मे है, जिसकी सस्कृत व्याख्या स्वय ग्रन्थकार की है। देशी शब्द के सम्बन्ध मे कोशकार यह प्रतिज्ञा कर चला है कि जो शब्द न तो व्याकरण से व्युत्पादित है और न सस्कृत कोशो मे निबद्ध है तथा लक्षणा शक्ति से भी जिनका अर्थ प्रसिद्ध नहीं है, उन शब्दो का सकलन इस कोण मे किया जा रहा है। कहने का आशय यह है कि जो शब्द व्याकरण के अनुसार प्रकृति, प्रत्यय आदि विभाग से सिद्ध नहीं होते और संस्कृत के कोशो मे जिनकी प्रसिद्धि नही है तथा लक्षणा शक्ति से भी जिनका अर्थ वाच्य नहीं है, वे देशी शब्द कहे जाते है । ये देशी शब्द प्रादेशिक भाषाओ मे प्रसिद्ध रहे है, जो सख्या में अनन्त है, इसलिये उन सर्व का सकलन होना सम्भव नही है । ये अनादिकाल से प्रवृत्त तथा प्राकृत भाषा मे विशेष रूप से प्रचलित देशी शब्द है। वास्तव मे देशी शब्द प्रचलित मुद्रा के समान देशी सिक्के है जो समय-समय पर चलन से बाहर होते रहे है । किन्तु कुछ-न-कुछ श०८ वरावर प्रत्येक भाषा मे प्रचलन मे रहे हैं, जिन्हे आज हम देशी शब्द के रूप मे जानते हैं। इस कोश मे कुल शब्दो की संख्या ३९७८ है। सबसे अधिक शब्दो की सख्या ऐसी है जो प्रकृति-प्रत्यय से निष्पन्न नहीं होते अथवा अव्युत्पादित प्राकृत शब्द है । तत्सम शब्दो की संख्या १०० है, गर्भित तद्भव १८५० है, सशय युक्त तद्भवो की संख्या ५२८ है और अव्युत्पादित प्राकृत शब्द १५०० है । वास्तव में प्रो० बनर्जी ने अव्युत्पन्न शब्दों की संख्या कम बताई है, किन्तु है अधिक । आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ और उनकी बोलियो मे पाये जाने वाले अनेक शब्दो का सीधा सम्वन्ध इन देशी शब्दो मे देखा जा सकता है । ऐसे कुछ शब्त निम्नलिखित है। (१) अक्का भगिनी (देशी० १, ६)। प्राकृत अपभ्रश मे अक्क और अपका द मिलते हैं। इनका अर्थ माता और ज्ये७० भगिनी दोनो है । मोनियर विलिय ने 'पचतन्त्र' मे आगत 'सका' शब्द को कोकणी बताते हुए ज्येष्ठ भगिनी अर्थ किया है। टी० बरो ने इसे द्रविड वर्ग को शब्द माना है। अन्य Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३६५ विद्वानो ने भी इसे द्रविड भाषाओ से आगत माना है । वास्तव मे यह कन्नड आदि भापाओ से उधार लिया हुआ शब्द है । कन्नड, तमिल, तेलुगु, और तेलु मे यह शब्द ज्येष्ठ भगिनी का वाचक है । यह कन्नड से 'अक्क', तमिल में 'अक्का', तेलुगु से 'कोडगु' और तुलु मे 'अक्के' है । " २ कडप्प- -ढेर (देशी ० २, १३) । प्राकृत अपभ्रंश में यह 'कडप्प कलाप अर्थ मे मिलता है । यह शब्द भी मूल रूप मे द्रवि० भाषाओ का माना जाता है । दक्षिण की भाषाओ मे यह समूह अर्थ वाचक है । यह कन्नड में 'कल', तेलुगु मे 'कलपे', तमिल मे 'कलप्पड' और तुलु मे 'कल' है । कन्नड मे समूह अर्थ का वाचक एक 'कम्प' शब्द भी है ।" प्राकृत मे यह 'कडप्प' है, जो मराठी मे 'कडप' प्रचलित है ।" ३ कुरल कुटिल केश (देशी० २,६३) । प्राकृत अपभ्रंश मे यह देशी शब्द अत्यन्य प्रसिद्ध है | भारत की लगभग सभी भाषाओ मे यह प्रचलित रहा होगा । इसका मूल स्रोत द्रविड वर्ग की भाषाएँ माना जाता है । कन्नड मे यह 'कुरुल' है, तमिल मे कुरुल-कुरुल है, मलयालम मे 'कुरुल' है और तेलुगु मे 'कुरुलु' है। जूनी गुजराती मे यह 'कुरुल' है और मराठी मे 'कुरुल' है ।" ४ गोड, गोडी मजरी, वोर (देशी ० २,६५) । ये दोनो ही शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ मे प्राकृत-अपभ्रंश में प्रचलित रहे । यह कनड मे 'गोण्डे', 'गुड', तेलुगु, मलयालम मे 'कोण्डे' है । यह द्रष्टव्य है कि प्राकृत मे भी 'गोड' के स्थान पर 'कोड' शब्द प्रसिद्ध रहा । महाकवि पुष्पदन्त के अपभ्रंश महाकाव्य 'महापुराण' मे (६६,४,३) भी 'गोड' शब्द मिलता है । अभिमानमेरु पुष्पदन्त मान्यखेड (हैदराबाद) के थे, इसलिये उनकी भाषा मे इस शब्द का होना स्वाभाविक है । ७४ ५ चिक्क, चिक्का अल्प, स्तोक ( देशी० ३,२१) । टी० वरो ने इसे द्रविड शब्द बताया है।' कन्नड में यह 'चिक्क' है और अर्थ भी अल्प है । मराठी मे 'चिके इसी अर्थ का वाचक है । खोवार ( दर्दिक ) भाषा मे भी 'चिक्' का अर्थ अल्प कहा जाता है। ६ चिप्पि अग्नि (देशी० ३,१० ) । चिच्चि या चिच्ची द्रविड शब्द माना गया है । तेलुगु मे यह 'चिच्चु' है और कन्नड मे 'किच्चु ' है । अपभ्रंश के 'महापुराण' मे भी 'चिच्चि' शब्द अग्नि अर्थ मे लक्षित होता है । ५ ७ छाण गोवर (देशी ० ३,३४) । यह भी द्रविड शब्द माना गया है । तमिल मे यह 'छाणि' है और गुजराती मे 'छान' है । छत्तीसगढ़ी बोली मे गोवर से बने हुए 'कडे' को 'छेणा' कहा जाता है जो 'छा' से विकसित है | अपभ्रंश के 'महापुराण' (५७,१०,११ ) मे भी 'छाण' शब्द का प्रयोग उक्त अर्थ मे ही परिलक्षित होता है । 5 तण्णाय गीला (देशी ० ५,२ ) । यह प्राकृत अपभ्रण मे भी मिलता है । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा वैसे यह भी द्रविड शब्द माना जाता है। कन्नड मे 'तण्ण' शब्द का अर्य ठडा है। तमिल मे 'तण्णि' का अर्थ आर्द्र है । ___ तलार कोतवाल (देशी० ५,३) । प्राकृत-अपभ्रश और द्रविड भापाओ मे 'तलार' और 'तलवर' दोनो शब्द उपलब्ध होते है। कन्नड मे यह 'तलवार' शब्द है जिसका अर्थ है नगररक्षक । द्रविड १०८ 'तलेयारि' का भी उल्लेख मिलता है।६ अपभ्रश के महापुराण (३०,१७,१०) मे 'तलवर' शब्द का प्रयोग मिलता है। १० पोट्ट ५८ (देशी० ६,६०) । यह द्रविड शब्द है। प्राकृत-अपभ्रश मे यह शब्द बहुत प्रचलित रहा है । इसी शब्द से 'पोट्टल' बना । तेलुगु में 'पोट्ट' ही है। प्राकृत मे इसके अतिरिक्त 'पिट्ट' शब्द भी पेट अर्थ का वाचक है। इसी शब्द से सस्कृत का पेटक, पेटा शब्द आदि निर्मित हुए प्रतीत होते है। पश्चिमी पहाडी और उसकी बोलियो भद्रवाही और भलेसी मे 'पैट', कुमायू, नेपाली और असमी मे 'पेट' है । बगला मे भी यह पेट' है । उडिया मे इसके लिए 'पेटा' है और प्राचीन मारवाडी मे भी यही है । अवधी और उसकी बोली लखीमपुरी मे, हिन्दी, भोजपुरी तथा गुजराती मे यह 'पेट' ही है। मैथिली मे इसे 'पेट' वोलते है। सिन्धी और उसकी बोलियो मे भी यह प्रचलित है । इस प्रकार नव्य भारतीय आर्य भाषाओ मे यह सर्वाधिक प्रचलित शब्द है। इस प्रकार के अनेक शब्द जो केवल द्रविड भाषाओ मे ही नही, सिनो-तिब्बती कोल-मुण्डा या आस्ट्रिक वर्ग की भापाओ के शब्द भी 'देशी' शब्द के रूप मे उपलब्ध होते हैं । भारोपीय भाषाओ से उक्त अन्य वर्गों की भाषाओ का निकट सवध होने से उनके शब्द प्रवेश पा गये । इन सभी वर्गों मे द्रविड वर्ग महत्त्व का है। विशेष कर उसके ही शब्द 'देशीनाममाला' मे मिलते है । अत देशी शब्दो का सम्बन्ध द्राविड भाषाओ की शब्द-सम्पदा से मानना चाहिए । कुछ अन्य शब्द हैं णेसर (देशी० ४,४४,) सूर्य । कन्नड 'नमृ' (रवि), तमिल 'नहर' (रवि-किरण), मलयालम 'नर' (दिवसप्रकाश), पुल्ली (देशी० ६,७६) व्याघ्र । प्राकृतअपभ्रश 'पुलिन', कन्नड पुलि', तमिल, तेलुगु, मलयालम, तुलु, 'पिलि' (व्याघ्र), पावो (देशी० ६, ३८) सर्प । कन्नड पावु' तेलुगु 'पामु', तमिल पामवु' सर्प इत्यादि । ___आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ और उनकी बोलियो मे आज भी घर मे, खलिहान मे, वर्ग विशेष मे ऐसे देश्य शब्दो का चलन है, जिसका सीधा सम्बन्ध हमे देशीनाममाला मे सकलित शब्दो मे दिखलाई पडता है तथा जिनके अध्ययन से हम सरलता से इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि इन देश्य शब्दो का विकास प्राकृत तथा इन देशी शब्दो से हुआ है। डॉ० गुप्त ने ऐसे सैकडो शब्दो का विवरण दिया है, जो कृपि जीवन में प्रचलित हे और जिनको देशी कहा गया है। इसी प्रकार से डॉ० वैद्य Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोसाहित्य : ३६७ ने अपने निवन्ध मे अनेक मराठी शब्दो को देश्य बताते हुए कहा है कि इन शब्दो का मूल प्राचीन महाराष्ट्री प्राकृत है।" डॉ० चटर्जी ने निश्चित रूप से इन देशी शब्दो का मूल स्रोत द्रविड भाषाएँ मानी हैं और यह सम्भावना व्यक्त की है कि अवशिष्ट शब्द आयत र भाषाओ के हे, सम्भवत वे द्राविड तथा आस्ट्रिकपूर्व की भाषाओ मे भी विद्यमान रहे हो।" यथार्थ मे ऐसे ही शब्द प्राकृत के मूल है जो वैदिक काल से वोलियो में प्रचलित चले आ रहे है। इनका मूल स्रोत सस्कृत न होकर प्राथमिक प्राकृत है । अमृत रो ने ऐसे ही कुछ शब्दो का साम्य द्रविड माषाओ की शब्दावली से स्थापित कर देशी को द्रविड, पारसी आदि कई भाषाओ से आगत शब्द माने है । डॉ० उपाध्ये ने प्राकृत नाटक मे तथा 'देशीनाममाला' मे आगत देशी शब्दो का सम्बन्ध कन्नड, मराठी आदि दक्षिण की भापाओ से माना है । यद्यपि आचार्य हेमचन्द्र की 'देशीनाममाला' के देशी शब्दो के सम्बन्ध मे कई शोध-निवन्ध प्रकाशित हो चुके है, जिनमे कई महत्त्वपूर्ण तथ्य व्यक्त किए जा चुके हे । स्वतन्त शोध-प्रबन्ध के रूप मे डॉ० श्रीमती रत्नाश्रियन् का शोधप्रबन्ध 'ए स्टडी ऑव देश्यवर्ड स फ्रॉम द महापुराण ऑव पुष्पदन्त' इस दृष्टि से अध्ययन करने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है । परन्तु मेरी दृष्टि मे अभी भी नवीन शोध अनुसन्धानो के प्रकरण मे देशीनाममाला' का अध्ययन आर्य तथा आर्यत र भाषाओ के सम्बन्ध मे तुलनात्मक अध्ययन कर प्रस्थापित किया जाना चाहिए । केवल इस एक अध्ययन से ही इन भाषाओ के विकास पर एक प्रामाणिक तथा महत्वपूर्ण भूमिका प्रकाश मे आ सकेगी। इसी प्रकार तत्सम, तद्भव और देशज पर भी नये प्रकाश की आवश्यकता है। यह कार्य अत्यन्त श्रमसाध्य होने पर भी विशिष्ट महत्त्व का है। इस प्रकार के अध्ययन से ही 'देशीनाममाला' की वास्तविक उपयोगिता प्रकट हो सकेगी। उक्तिव्यक्तिप्रकरण यद्यपि प्राकृत के प्राचीन शब्दकोशो मे पाइयलच्छी नाममाला' तथा 'देशीनाममाला' इन दो का ही उल्लेख किया जाता है, किन्तु प० दामोदर कृत 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' को भी देश्यश०सग्रह के अन्तर्गत परिगणित किया जाना चाहिए। केवल इसे ही नही, 'उक्ति रत्नाकर' को भी देश्यभाषा के शब्द-सग्रह ग्रन्थो मे महत्वपूर्ण मानना चाहिए । 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' बारहवी शताब्दी की रचना मानी जाती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि तत्कालीन लोकबोली का सम्यक परिचय देता है । प० दामोदर बनारस के निवासी थे। उन्होने विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए इस रचना का निर्माण किया था। डॉ० चटर्जी इस रचना की भाषा प्राचीन कौशल देश की बोली कौशली मानते है। जनपदीय भाषा का व्याकरण की दृष्टि से कैसा सवध है और किस प्रकार देश्य शब्दो का सस्कार करने से सस्कृत का शुद्ध Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा रूप बनता है, यह बहुत अच्छी तरह से इस रचना मे समझाया गया है। इस ग्रन्थ मे केवल प्राचीन कौशली भाषा का नमूना ही हमे नही मिलता है, अपितु व्याकरणशास्त्र विषयक कई अन्य महत्व की बातो को भी इसमे उल्लेख है।५ उक्तिरत्नाकर 'उक्तिरत्नाकर' के रचयिता साधु सुन्दरगाणि १७वी शताब्दी के जैन विद्वान् थे। इसमे देश्यभापा के सभी प्रकार के उक्ति मूलक प्रयोगो का सग्रह मिलता है। जैसे 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' का दूसरा नाम 'प्रयोग प्रकाश' है, वैसे ही इसका दूसरा नाम 'औक्तिकपद' भी है । देश्य शब्दो के सस्कृत-रूप जानने के लिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्य है । कुछ देश्य शब्द और उनके सस्कृत-रूप इस प्रकार है ___असोई (उपश्रुति ), पोज (चौद्यम्), छावडउ (शावक), रीसालू (ईर्ष्यालु), माखण (म्रक्षण), हिडकी (हिकका),पान्ही (पाणि), हेरू (हैरिक) पाहू (प्रतिभू), कारू (कार), खलहाण (खलधान), पासी (पाशिका), भाठ (भ्राष्ट्र), तूरी (तुवरी), नीमी (नीवी) आदि । इनमे से कुछ शब्द ऐसे हैं जिनके सस्कृत रूप होने से अर्य-निर्धारण मे सुगमता हो जाती है। जैसे ध्रोव (दूर्वा), खूणउ (कोगक), सीख (शीतरक्षिका), ईडउ (अण्डक), धाहडी (धातकी) आदि । किन्तु कुछ शब्द ऐसे है कि उन से ठीक अर्थ समझ मे नही आत।। जैसा कि तगोटी (तगपटी), खीचडी (क्षिप्रचटिका), राख (रक्षा), बूब (बुम्बा), गोफाटी (गोफणी) इत्यादि । इसमे सस्कृत के अनेक गडे हुए शब्द भी मिलते हैं। उदाहरणार्थ गादी (गव्दिका), मिठाई (मृष्टादिका), सूखडी (सुखादिका), पडी (वटिका), कडुछउ (कटुच्छक), वानी, वानगी (वणिका), टार (टार), डर (दर), टसर (तसर ) तथा लाच (लचा) आदि। ___आधुनिक युग मे प्राच्य विद्याओ के अध्ययन के परिणामस्वरूप भारतीय भाषाओ तथा साहित्य के समानान्तर प्राकृत का भी अध्ययन होने लगा। किन्तु सस्कृत की अपेक्षा प्राकृत की ओर बहुत वाद मे विद्वानो की दृष्टि पहुच पायी। सस्कृत-नाटको के प्राकृत अशो को देख कर वहुत समय तक केवल यही अनुमान किया जाता रहा कि यह सस्कृत की कोई उपभापा रही होगी। सर्वप्रथम प्राकृत भापा और साहित्य की ओर जर्मन विद्वानो का व्यान आकर्षित हुआ। उन्नीसवी शताब्दी के प्रथम चरण मे ही जर्मनी मे प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रारम्भ हो गया था। सर्वप्रथम प्राकृत भाषा पर होएफर ने 'डे प्राकृत डिअलेक्टो लिब्रिदुओ' (१८३६ ई०)निवन्ध मे अपने विचार प्रकट किए थे। लगभग इसी समय लॉस्सन और ऑल्सडोर्फ ने प्राकृत भाषा व वोलियो के सम्बन्ध मे महत्त्वपूर्ण निवन्ध लिख कर शोध व अनुसन्धान किया था। प्राकृत भाषा का परिचय मिलते ही उनका महत्त्व जान कर भाषाविदो का तुरन्त ध्यान प्राकृत के गन्दकोपो की ओर गया। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३६६ डॉ० व्युहर ने इस दिशा मे अग्रसर हो दो निबन्ध लिखे, जिनमे आचार्य हेमचन्द्र कृत 'देशी नाममाला' और धनपाल कृत 'पाइयलच्छीनाममाला' पर प्रकाश डाला। इतना ही नही, सन् १८७६ मे उन्होने स्वय ‘पाइयलच्छीनाममाला' का सम्पादन कर उसे गॉटिंगन से प्रकाशित कराया। इस प्रकार प्राकृत भाषा, व्याकरण और कोष आदि के प्रति पाश्चात्य जगत् विमुग्ध भाव से आकृष्ट हुआ। किन्तु प्राकृत साहित्य मे उपलब्ध शब्दो का अर्थ सस्कृतज्ञो के लिए दुरूह एव दुर्बोध था। अत यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि कोई अच्छा प्राकृत-शकोश तैयार किया जाए जो साहित्य-जगत् के लिए उपयोगी हो। इसी आवश्यकता से प्रेरित होकर इटली के विद्वान डॉ० ल्युइजी स्वाली ने सन् १९१२ मे प्राकृतकोष निर्माण करने की अपनी अभिलाषा प्रकट की। किन्तु उसी समय विश्व युद्ध की विभीपिका चल पडी, जिससे वह कार्य नहीं हो सका। भारत मे यह कार्य मुनि श्री विजयराजेन्द्र सूरीश्वर ने वि० स० १६४६ मे प्रारम्भ किया था। ६३ वर्ष की वृद्धावस्या मे इस महान कार्य का आरम्भ कर लगभग चौदह वर्षों तक वे अनवरत जुटे रहे । सूरिप्रवर की महान् साधना से आठ हजार शब्दो का विशाल संग्रह 'अभिधान राजेन्द्र कोश' के रूप मे हुआ। प्राकृत का यह वृहत्कोश सात भागो मे निबद्ध है। इसका प्रथम भाग १६१३ ई० मे, द्वितीय भाग १६१० मे, तृतीय भाग १६१४ मे, चतुर्थ १६१३ मे, पचम १९२१ मे, पष्ठ १६३४ मे और सप्तम भाग १६३४ मे मध्यप्रदेश के रतलाम नगर से प्रकाशित हुए। इसी बीच इन्दौर के श्री सरदारीमल भण्डारी के पिता श्री केसरीचन्द्र ने सन् १९१० ई० मे प्राकृत-कोश-निर्माण का कार्य आरम्भ किया । उन्होने निरन्तर श्रम कर लगभग चौदह हजार शब्द भी शीघ्र सकलित कर लिये थे। किन्तु दुर्दैव से यह कार्य आगे नहीं चल सका। अन्त मे मुनिश्री रत्नचन्द्र जी म० के अथक प्रयत्न से यह पवित्न कार्य "सचिन अर्धमागधीकोश" के रूप में सामने आया। इसका प्रथम भाग सन् १९२३ ई० मे श्वेतावर स्थानकवासी जैन कान्फेन्स की ओर से इन्दौर से प्रकाशित हुआ। इसके चार वर्षों के पश्चात् वि० स० १९८३ मे इस कोश का द्वितीय भाग, वि० स० १९८६ मे तृतीय भाग, १९८८ मे पतुर्थ भाग और वि० स० १९६५ मे पचम भाग प्रकाशित हुआ। ___इसी अवधि मे कलकत्ता विश्वविद्यालय मे प्राकृत के प्राध्यापक पण्डित हरगोविन्ददास निकमचद सेठ ने "पाइस-स६-महण्णवो" नामक बृहत्कोश तैयार किया, जिसका प्रकाशन सन् १९२८ मे हुआ। इस कोश के निर्माण की प्रेरणा सन् १९१३ के लगभग लेखक को श्री विजयधर्मसूरीश्वर म० से प्राप्त हुई थी। यह एक सयोग की बात थी कि बीसवी शताब्दी के प्रारम्भ होते ही देश-विदेशो मे प्राकृत-शब्दकोश की खलने वाली अभाव की पूर्ति हेतु निर्माण की दिशा मे कार्य प्रारम्भ हुआ था। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा अभिधान राजेन्द्रकोग आज तक प्राकृत के जो भी शब्दकोश लिखे गये, उन सब का भिन्न-भिन्न उद्देश्य रहा है । 'पाइयलच्छीनाममाला' प्राकृत के प्राथमिक विद्यार्थियों को ध्यान में रख कर लिखी गयी प्रतीत होती है । अतएव इसमे लगभग एक हजार शब्दों और उनके पर्यायवाची नामो का सकलन मिलता है । 'देशी नाममाला' अधिकतर देशी शब्दों का संग्रह उपलब्ध होता है । इन दोनो ही कोशो मे न तो जैनागमो मे आगत शब्दो के दर्शन होते है और न जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्दो को समझने के लिए उस समय तक हमारे पास कोई कोण जैसा माध्यम था । 'अभिधान राजेन्द्रकोण' ने निस्सन्देह इस अभाव की पूर्ति बहुत कुछ अशो मे की । अत इस विशाल कोप के प्रकाशन पर प्राच्यविद्या जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् सिल्वा लेवी ने उच्छ्वसित भाव से ये उद्गार प्रकट किए थे "अभिधान-राजेन्द्र" के पाँच वर्षों तक सतत स्वाध्याय के अनन्तर में यह कह सकता हूँ कि प्राच्यविद्या का कोई जिज्ञासु इस आश्चर्यजनक ग्रन्थ की अनदेखी नही कर सकता । अपने विशेष क्षेत्र मे इसने कोशविद्या के रत्न पीटर्सवर्ग कोश को भी अतिक्रांत कर दिया है । इस कोण मे प्रमाण और उद्धरणो से पुष्ट न केवल सारे शब्द ही आकलित हैं, अपितु शब्दो से परे जो विचार, विश्वास अनुश्रुतियाँ है, उनका सर्वेक्षण भी इस मे है ।" 'अभिधान-राजेन्द्र कोश' का कई दृष्टियो से विस्तृत अध्ययन किया जा सकता है । इस कोश में अनेक ऐसे प्रचलित शब्दों की विस्तार से व्याख्या की गई है, जो केवल जैनो के सांस्कृतिक जीवन से सम्बन्व रखते है । आज भी ये शब्द परम्परागत रूप से प्रचलित है । जैसेकि थुइ (स्तुति), समझ, सामाइय ( सामायिक), पडिक्कमण ( प्रतिक्रमण ), समायारी ( समाचारी ), पडिलेहणा (प्रतिलेखना ), थाणग, थानक ( स्थानक ), सधाड ( सिघाडा ), किरिया (क्रिया, भाव) सथार ( सथारा ), इत्यादि । " एक-एक शब्द की व्याख्या इतने विस्तार से इस कोश मे की गई है कि आश्चर्यचकित हो जाना पडता है । उदाहरण के लिए, 'श्रमण' शब्द सातवे भाग में निबद्ध है । इसी खण्ड मे "सम्मत" (सम्यक्त्व, पृष्ठ ४८२-५०३), सरीर (शरीर, पृष्ठ ५३४-५५८), सिद्ध ( पृ० ८२१-८४५) सुय (श्रुत, पृष्ठ ६६६ - ६६८) व्याख्यायित है । इतना ही नही, कई शब्दो की व्याख्या मे सन्दर्भ पुर सर कथाओ का भी वर्णन है । साथ ही शब्दों की सुन्दर निरुक्तियों से कोश भरपूर है । " जैनागमो की भाषा का अध्ययन करने की दृष्टि से यह कोश नितान्त महत्त्वपूर्ण है । प्रत्येक शब्द के साथ ग्रन्थकार ने व्याकरणादि व्युत्पत्तियों तथा तद्विपयक सूत्रो का भी निर्देश किया है । ऐसा प्राकृत का शब्दकोश आज तक निर्मित नही हो सका । वास्तव मे बीसवी शताब्दी की यह महोपलब्धि है, जिससे जैन वाड्मय कृतार्थ हुआ है । गत Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३७१ दो दशको मे इस ओर जैन विद्वानो का बराबर लक्ष्य रहा है । अतएव श्री जिनेन्द्र वर्णीकृत ----'जनेन्द्रसिद्धान्तकोश' चार भागो मे भारतीय ज्ञानपी० से प्रकाशित हुआ और “जनलक्षणावली" कोश तीन भागो मे वीर-सेवा-मन्दिर, दिल्ली से प्रकाशित हो चुका है। अपनी-अपनी दृष्टि से इन सभी कोशो का महत्त्व है। किन्तु सभी प्रकार के प्राकृत के विशाल वाड्मय को प्रत्येक प्रकार के शब्दों के रूप मे सकलित व आकलित करने वाले विशालशब्द-सागर' की आज भी आवश्यकता बनी हुई है । सम्प्रति हमारी दृष्टि मे प्राकृत-शव्दकोश की दिशा मे दो प्रकार के प्रकाशनो का होना अत्यन्त अनिवार्य है। प्रथम 'अभिधान-राजेन्द्रकोश' पुन सुसम्पादित होकर प्रकाशित हो। द्वितीय एक ऐसे स्वतन्त्र कोश का निर्माण हो जो 'बृहत्हिन्दीकोश' की भाँति एक लाख से अधिक शब्दो का न अत्यन्त सक्षिप्त और न विस्तृत कोश हो । क्योकि भारी-भरकम कोश विद्याथियो, अध्येताओ तथा सामान्य शिक्षितो तक नही पहुँच पाते है। यह एक ऐसा बुनियादी कार्य है जिससे आगमो की सपी सेवा होगी। पाइयसबुहि 'पाइयसबुहि' या 'प्राकृतशदाम्बुधि' के रचियता भी श्रीमद् विजयराजेन्द्र सूरि थे। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १८९६ ई० है। १८६० ई० मे 'अभिधान-राजेन्द्र' का सम्पादन सकलन का सूत्रपात हुआ था। उसके लगभग नौ वर्षों के उपरान्त पाइय सहबुहि' का निर्माण हुआ। वास्तव मे यह शब्दकोश बृहत् 'अभिधान-राजेन्द्र' का ही लधु सस्करण है । हमारी जानकारी मे यह अद्यावधि अप्रकाशित है। जनशासन के धरोहरो को चाहिए कि वे अविलम्ब इसका सम्पादन करा कर प्रकाशन करायें, जिससे एक तपस्वी की प्राणवती आकाक्षा मूतिमान् हो सके । ग्रन्थ सम्मुख न होने से उसके सम्बन्ध मे कुछ नही कहा जा सकता। સદ્ધમાગધી-કોશ T૦મુનિ રત્નનન્દ ની શતાવધાની મહારાગ નંનામો છે અને સ્વાધ્યાયી प्रखर विद्वान थे। उन्होने प्राकृत भाषा के हजारो शब्दो का सकलन कर 'अर्द्धमागधी-कोश' का निर्माण किया था। यह कोश विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। किन्तु चार भागो मे विभक्त होने के कारण सामान्य अध्येताओ के लिए यह सुलभ नही था। अतएव इस दृष्टि से मुनिश्री ने एक सक्षिप्त कोश भी तैयार किया था जो सन् १९२६ मे "जनागम शब्दकोश के नाम से प्रकाशित हुआ। जहाँ 'अभिधान-राजेन्द्र' मे व्याकरण, रूप-रचना आदि सभी विषयो का समावेश हुआ है, वही 'अर्द्धमागधी-कोश' केवल प्राकृत-मस्कृत Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा अभिधानो का ही परिचय मान दिया गया है। यथास्थान शब्दो के लिंग, वचन आदि का भी निर्देश किया गया है । कोशगत सभी सामग्री प्रामाणिकता की दृष्टि से यथोचित सचित की गयी है । यही इस कोश की विशेषता है। पाइअ-सह-महण्णवो ___ "पाइअ-सद्द-महण्णवो" या "प्राकृत-शब्द-महार्णव" के कर्ता कलकत्ताविश्वविद्यालय के सस्कृत, प्राकृत और गुजराती भापा के अध्यापक पण्डित हरगोविन्ददास निकमचद्र सेठ थे । अकेले ही पण्डित जी ने बिना किसी की सहायता के लगभग चौदह वर्षो तक कठोर श्रम करके इस प्रामाणिक कोश का सम्पादन किया। इसमे कोई सन्देह नहीं है कि जैन एवं जनेतर प्राकृत ग्रन्यो से लेकर अपभ्रंश तक के प्राकृत भाषाओ के विस्तीर्ण शब्दो के विशाल संग्रह का सकलन कर संस्कृत प्रतिशब्द, हिन्दी अर्य तथा सभी आवश्यक उद्धरणो तथा प्रामाणिक सामग्री से भरपूर कर इस शब्दकोश को सम्पादित किया । एक अकेले व्यक्ति का यह महान कार्य आश्चर्यकारी है । 'अभिधान राजेन्द्र' के सम्बन्ध मे उनका कथन है "अभिधान राजेन्द्र कोश का निर्माण केवल पचहत्तर से भी कम प्राकृत जन पुस्तको के ही, जिनमे अर्धमागधी के दर्शन विषयक ग्रन्थो की बहुलता है, आधार पर किया गया है और प्राकृत की ही इतर मुख्य शाखाओ के तथा विभिन्न विषयो के अनेक जन तथा जनेत र ग्रन्यो मे से एक का उपयोग नहीं किया गया है । इससे यह कोश व्यापकन होकर प्राकृत भाषा का भी एकदेशीय कोश हुआ है। इसके सिवाय प्राकृत तथा संस्कृत ग्रन्थो के विस्तृत अशो को और कही-कही छोटे-बडे सम्पूर्ण ग्रन्थ को ही अवतरण के रूप मे उद्धृत करने के कारण पृष्ठ संख्या मे बहुत बडा होने पर भी शब्द-संख्या मे ऊन ही नहीं, बल्कि आधारभूत ग्रन्थो मे आए हुए कई उपर्युक्त शब्दो को छोड देने से और विशेपार्थहीन अतिदीर्घ सामाजिक शब्दो की भरती से वास्तविक शब्द-संख्या में यह कोश अतिन्यून भी है।' ययार्य मे किसी भी शब्दकोश का महत्व व मूल्य शब्दो की सकलना मात्र से नही आका जा सकता । उसका सबसे महत्वपूर्ण अग है प्रमाणपूर्वक अर्थ का विनिश्चय कराना तथा सभी ज्ञातव्य तथ्यो का यथास्थान निर्देश करना। इस दृष्टि से "पाइस-सह-महणव" प्राकृत का श्रेष्ठ कोष है। इसकी श्रेष्ठता को ध्यान में रख कर ही सन् १९६३ मे इसका द्वितीय सस्करण 'प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी से प्रकाशित हुआ। यह सभी दृष्टियो से प्राकृत भाषा का एक अच्छा कोश कहा जा सकता है। किन्तु जिस समय सन् १९२८ मे इसका प्रथम सस्करण प्रकाशित हुआ था, उस समय तक बहुत कम प्राकृत-माहित्य प्रकाश में आ सका था। कई ग्रन्थो का विधिवत् सम्पादन तक नही हुआ था। अतएव प्राकृत की विशाल शव्द-सम्पदा अभी तक शब्दकोशो में निबद्ध होने से वचित है । यद्यपि Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३७३ "पाइअ-सह-महणव" के द्वितीय सस्करण मे अपभ्रश भाषा के अनेक शब्दो को सम्मिलित कर दिया गया है, फिर भी "अपभ्रश-कोश" की आवश्यकता विशेष रूप से कचोट रही है । लेखक स्वयं इस प्रकार के कोश-निर्माण की दिशा मे कार्य रत है, किन्तु कई प्रकार की कठिनाइयाँ सम्मुख है। अपभ्र श-कोश यह अत्यन्त विचित्र बात है कि जिस भाषा मे पांच सौ से अधिक काव्य ग्रन्थ मिलते हो और जिससे आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओ का विकास हुआ हो तथा जो राष्ट्रभाषा हिन्दी की जननी हो उस भाषा का आज तक छोटा-बडा किसी भी प्रकार का शब्दकोश उपलब्ध नही होता । न तो मध्यकाल मे और न आधुनिक काल मे 'अपभ्रश-कोश' लिखने का कोई प्रयत्न किया गया। अपभ्रश-साहित्य का अध्ययन करते समय बार-बार यह विचार मेरे सामने आया कि इस भापा का एक शब्दकोश अवश्य होना चाहिए। किन्तु मेरे अग्रज तथा गुरुजन यही समझाते रहे कि अलग से अपभ्रशकोश की आवश्यकता नही है, प्राकृत मे ही अपभ्रश गभित हो जाती है। उनका यह तर्क सदा खटकता रहा है। किन्तु उत्साह भले ही मन्द हुमा हो, पर मैं हतोत्साह नही हुआ। क्योकि मेरी इस धारणा को सदा वल मिला है कि अपभ्रश प्राकृत से एक भिन्न भाषा है, इसलिये उसका शब्दकोश भी भिन्न होना चाहिए । अपभ्रंश भाषा मे अधिकतर प्राकृत-शब्द-सम्पदा लक्षित होती है। किन्तु उनका कई स्थलो पर अर्थ-निर्धारण करते समय पता चला है कि एक ही शब्द का जो अर्थ प्राकृत मे है, वह अपभ्रश मे नही है । ऐसे पांच सौ से भी अधिक शब्द मिलते है, जिनका अर्थ प्राकृत मे कुछ है और अपभ्रश मे कुछ और दूसरा है। उदाहरण के लिए, प्राकृत मे पाहल' शब्द का अर्थ म्लेच्छ की एक जाति है, किन्तु अपभ्रश मे व्याघ्र या नाहर है । प्राकृत मे 'डमर' का अर्थ विप्लव तथा कलह है किन्तु अपभ्रश मे भय है। इसी प्रकार प्राकृत मे "जत्त" का अर्थ जय या उद्योग है और अपभ्रश मे यात्रा है ।२२ इस तरह के अनेक शब्द है, जिनके आधार पर एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है । इनके अतिरिक्त कुछ माता-भेद से समानार्थी होने पर भी कोश मे उल्लेखनीय हैं, जैसे कि पसुलिपसुली, णास-णासा, विहल-विहाल, णालि-णाली, मड्डमड्डा इत्यादि । माताभेद के कारण कही-कही बहुत अन्तर परिलक्षित होता है । 'पाइअ-सद्द-महण्णव' मे मड्ड शब्द मर्दन अर्थ मे एक सकर्मक क्रिया है, किन्तु देशी नाममाला' मे उसका अर्थ बलात्कार है । बलात्कार अर्थ मे "पाइअ-सह-महणव" मे "मड्डा" शब्द आया है। इस शब्द से साम्य रखने वाला 'मड" शब्द का प्रयोग'पउमचरिउ' तथा 'भविसयतकहा' मे मिलता है । किन्तु पुष्पदन्त के 'महापुराण' मे (१३, २, ३) मे “मड्ड" का अर्थ नारिकेलवन (माड' मराठी) Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा હૈ “ભરૂર છે અર્થ મી મહાપુરાણ” (૩૦, ૨૪, ૨૨) એ નારિયન રે સી प्रकार व्यजन-भेद होने पर भी कही-कही अर्थसाम्य लक्षित होता है । जैसे कि ડિમ-થિ, વળવુળ, વોર-વીજ, ફુડા-નડળ, વોય-વોડ, રામ-વાયવાવ, ડિય-ઠિડ, ઢ , વોન-વોલ, પોર-પાત, વંદુરસુર, ભૂવન્ત્ર, મૂરવિ-ભૂવિઝ ઇત્યાદિ ! અપભ્રશ બાપા , પાત્ર પ્રાહિત્ય કપરા નહી અતUવ પ્રાકૃત-બ્રોશ રે જ છે ના સકતે હું? સબતિ વનને નિશ્વિત સયા વતાના સમવ નહી હૈ. મનુમાનત ના પ્રતિશત શબ્દ ને હું નો કકૃત જે શબ્લોગો મે નહી હું નીર તમામ દસ કતિગત અદ્ર પેસે ટૂંકો રસ્કૃત શબ્દો જે ધિસર વિલિત માત્ર બે ના મળે . જે શબ્દ અધિકાર પ્રાકૃત-શો નહીં મિનતે વધવા મન અર્ચને મિતતે વવાહરણ વે નિg છે બદ્ધ નિમ્ન-તિવિત છું વિસુલ--વિદ્યુત વીમોયર સામોર સાવયા લાપતા રારાજ્ઞા केई केकी से श्रेय છમ છમ, છત તળ તત્વની બિરય નિષ્પાપ હિય હત પરત્ત પ્રાપ્ત વિરોડ વિડીના. ઇન્દ્ર બનાવ નાનાપ પરિતાહિય પ્રતિહિતા વદૂત મૂવ(દુબા ) પહૃત્ત પ્રમુવ વેયન વેત્તનતા પપીરહિ યય (હો) બાળ બાનેપળ પાનય નાનિય | ( નિય) હોય છે (વવા) બનીઢ અતિપ્તા મારું તિ, વિના નાગ્નિ તત્તનીય વડુત્ર વદુ (વાન) વછાયબ વાત્સ્યાયન વોહર વૃત્તઘર વાર્બ-વા વિડ દિગુણ વિક્કાર વિકાર વિસમ વિશ્રામ વિસાવાડ થાવાટ દ્ર સદ્દા સવિતા સવર્ડ સાન્ત મવિય રસ્થાપિત સથક સાર્થવાહ सभउ सम्भव સાદ્ધ રાનવું સનિહ નિમ सालत्तय सालक्तक વા વા (તમામ) દુતિ પ્રહરળ વિરોપ સુરત સુવર્શન સિરાડ શિરપુટ સવાટુ તાડૂત મMિવિ નિવM अभेय अभेद પર્વત-રિવર વનય વન, વામન વક લોન સાવ વ્યિ कुहर पर्वत ડું જોડું તમય તાત तो वि तो भी કવિ મી भइय भय महराय महाराज મિત્તય પૈવી મહાડ મહાવી वइयागरण वयाकरण - વિજ્ઞફ વિયા નાતા Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथ। अपभ्रंश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य घियऊरि ३७५ ददुर पाहोह जेही जैसी टीला घृतपूर पइहिउ प्रहृष्ट पायोद ( समुद्र ) पहुल्ल प्रफुल्ल, फूल इस प्रकार के शब्दों का अध्ययन बुद्धि का पूर्ण व्यायाम करा देता है । यह निश्चय करना बहुत कठिन है कि ये शब्द संस्कृत के भ्रष्ट रूप है अथवा प्राकृत के शब्दो का संस्कृत के साहित्य मे संस्कृतीकरण किया गया । पीटर्सन के विचार मे प्राकृत और वैदिक संस्कृत समानान्तर रूप में प्रवाहित रही है । डा० पुसालकर का यह कथन भी विचारणीय है कि भारतीय पुराणो की भाषा विषयक अनियमितताओ को देखते हुए यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जन-बोलियो से प्रभावित संस्कृत के पुराण आधे के लगभग प्राकृतत्व को सहेजे हुए हैं । इनके अध्ययन से यह निश्चय किया जाता है कि मौलिक रूप मे पुराण प्राकृत मे लिखे गये थे, जिन्हे हठात् संस्कृत मे अनूदित किया गया । प्राकृत भाषा को अपनाने की प्रवृत्ति का प्रभाव वैदिक ग्रन्थो मे लक्षित होता है । परवर्ती काल मे प्राकृतो का यह प्रभाव धार्मिक ग्रन्थो, महाकाव्यों और पुराणो पर भी परिलक्षित होता है ।" यह पहले ही कहा जा चुका है कि वेदो के समय मे प्राकृत वोली रूप में थी । बोलियो के प्रवाह . से आगत अनेक शब्द वेदो मे दृष्टिगोचर होते हैं । ऋग्वेद मे आगत कुछ प्राकृत शब्द इस प्रकार है सन्यासज्य वचसी (सत्यासत्य वचन, म० ७, सू० १०४, म० १२ ), दूलभ (दुर्लभ, ४, ६, ८ ), चरु १५ (काष्ठपाल, ६, ५२, ३) - पत्तो (१०,२७,१३ ), अजगर (ऋक्प्रातिशाख्य, ५, ४, २२), मेह ( नियुक्त, २, ६, ४), इत्यादि । श्री चोकसी की यह मान्यता है कि प्राकृत का विकास शास्त्रीय संस्कृत से न हो कर वैदिक संस्कृत से हुआ । भारतीय वैयाकरण इसी तथ्य को स्वीकार करते है । " किन्तु भाषाविद् इस मान्यता से सहमत नही हैं । उनका कथन है कि द्वितीय स्तर की प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति वैदिक या लौकिक संस्कृत से न होकर प्रथम स्तर की प्राकृतो से हुई है।" इस कथन की सचाई अब नवीन शोध व अनुसन्धानो से प्रमाणित हो चुकी है । प्राकृतो मे "ऋ" के स्थान पर जो "रि" मिलती है, उसका मूल निश्चित रूप से वैदिकयुगीन लोक बोलियो मे रहा है । दक्षिण भारत के अनेक शिलालेखो मे "ऋ" के स्थान पर "रु" मिलता है ।" आज भी दक्षिण तथा महाराष्ट्र के विद्वान् "संस्कृत" का उच्चारण 'सस्करुत' रूप मे करते हैं । यह लोक बोली के प्रवाह मे आज भी ज्यो का त्यो बना हुआ है । किन्तु प्रातिशाख्याकार ने इस उच्चारण को सदोष माना है ।" यही स्थिति 'रि' की है । किन्तु प्राचीन पाण्डुलिपियो तथा विदेशी भाषाओ मे लिखे गए संस्कृत-शब्दों के उच्चारण से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल मे भी 'ऋ' का उच्चारण अशत 'रि' के समान होता था ।" उत्तरकालीन भारतीय भाषाओ मे संस्कृत 'ऋ' के स्थान पर इकार तथा उकार वाली ध्वनियों के विकास से प्रतीत होता है कि Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा अति प्राचीन काल से 'ऋ' के उपारण मे दोनो प्रकार की प्रवृत्तियाँ विद्यमान रही होगी, यथा-धृत-धी, शृगाल-सियार, ऋक्ष-रीछ, परन्तु वृक्ष-रूख, पृच्छा-पूछ वृद्ध-बूढा । कतिपय वैदिक शाखाओ मे 'ऋ' का उच्चारण गत 'रे' के सदृश भी किया जाता था।०१ वस्तुत उत्पारण भिन्नता का कोई कारण अवश्य होता है। यह भिन्नता वोलियो मे विशिष्ट २५ से लक्षित होती है। इसी प्रकार वेद में आगत 'लागल' शब्द को जाँ प्रजिलुस्की मुण्डा भाषा का शब्द मानते है । ०१ संस्कृत का 'पिप्पल' तथा 'पिप्पलि' ग्रीक शब्द है । आज भी भारतीय ग्रामो मे 'पीपर' शब्द प्रचलित है जो कि ग्रीक पेपरी' से साम्य रखता है। १०३ ____ इस प्रकार के शब्दो का समावेश विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान तथा भारतीय श्रेष्ठियो के विदेश-व्यापार के कारण हुआ। ऋग्वेद का शाल्मलि (सेमल का वृक्ष, १०,८५, २०) और शिम्बल (सेमल का फूल, ३, ५३, २२)मुण्डा भाषा के शब्द माने जाते है। पक्षियो मे 'कपोत' (ऋग्वेद १०, १६५, १) जो दुर्भाग्यदाता अर्थ मे प्रयुक्त है, मुण्डा भाषा का शब्द है। यही हाल 'मयूर' (ऋक्० १, १६१, १४) का है । सम्भवत इसी ओर लक्ष्य कर शवर मुनि ने कहा था कि जिन शब्दो का आर्य लोग किसी अर्थ मे प्रयोग नहीं करते, किन्तु जिनका म्लेच्छ लोग प्रयोग करते हैं, जैसे कि----पिक, नेम, सत, तामरक आदि, उन शब्दो मे सन्देह हैं। ५ भौगोलिक दृष्टि से शिक्षा ग्रन्थो मे स्वरभक्ति का पारण जिस क्षेत्र मे निदिष्ट किया गया है, यह अर्धमागधी और अपभ्रश का क्षेत्र है ।१०६ इस प्रकार के अन्य तथ्यों का भी निर्देश किया जा सकता है, जिन सब के अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि प्राकृत वोलियो का प्रवाह निश्चित ही भिन्न रहा है । वे किसी शास्त्रीय भापा से कदापि विकसित नहीं हुई। डॉ० आल्सडोर्फ के अनुसार भारतीय आर्यभापा की सबसे प्राचीनतम अवस्था वैदिक ऋचाओ मे परिलक्षित होती है। कई प्रकार की प्रवृत्तियो तथा भापागत स्तरो के अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि वोली ही विकसित होकर संस्कृत काव्यो की भाषा के रूप में प्रयुक्त हुई । अतएव उसमे ध्वनि-प्रक्रिया तथा अन्य अनेक शब्द वोलियो के लक्षित होते है । शास्त्रीय संस्कृत का विकास-काल चौथी शताब्दी से लेकर आठवी शताब्दी तक रहा है, किन्तु उन पर प्राकृतो का प्रभाव नि सन्देह रूप से है ।१०७ आ० आर्यभापाओ को प्राकृत की देन आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओ के विकास में प्राकृतो की भूमिका अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है। प्राकृतो के भाषा सम्बन्धी सर्वेक्षण की सुविधा के लिए हम उनके तीन विभाग कर सकते हैं प्रथम आगमो की प्राकृत, द्वितीय साहित्यिक प्राकृत और तृतीय उत्तरकालिक प्राकृत या अपभ्रश भापा । सर्वप्रथम हम जनागमो Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३७७ की प्राकृत के कुछ शब्दो के आधार पर आधुनिक भाषाओ तथा बोलियो के शब्दो के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते है । ये शब्द है खुड्ड यह एक देशी शब्द है । ओछे, नीच के अर्थ मे इसका प्रयोग उत्तराध्ययन सूत्र (१, ६) मे मिलता है । देशीनाममाला (२,७४ ) मे यह लघु अर्थ मे वर्णित है | तमिल भाषा मे "कुट्टई" शब्द इसी अर्थ का वाचक है । "खुड्ड" का विकास तमिल शब्द से माना जाता है । कोड संस्कृत के "कीट" से विकसित कीडा अर्थ मे प्रयुक्त है । यह शब्द प्राय सभी आगम ग्रन्थो मे मिलता है । दशवेकालिकसूत्र मे (४, १ ) भी यह शब्द है । इस शब्द का सीधा सम्बन्ध हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओ मे प्रयुक्त कीड, कीडा शब्द से है । बप्प यह शब्द दशवेकालिक (७,१८) मे मिलता है, जिसका अर्थ बाप है । आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओ से इसका सीधा सम्बन्ध है । छत्त यह शब्द भी दशवैकालिक ( ३, ४ ) मे मिलता है । इसका अर्थ छत्ती है | यह कोई देशी शब्द प्रतीत होता है । इसी से हिन्दी मे "छाता " तथा "छत्ता" शब्द प्रचलित हैं । थिग्गल यह शब्द भी दशवैकालिक (५, १, १५ ) मे मिलता है । इसका अर्थ येग्गली है । 'थिंगल' से ही थेगली का विकास हुआ खलुका यह शब्द उत्तराध्ययन सूत्र ( २७, ८) मे प्रयुक्त है । इसका अर्थ जुता हुआ अयोग्य वैल किया जाता है । इस शब्द के सम्बन्ध मे विशेष कुछ नही मिलता । सम्भवत कोई देशी शब्द रहा होगा । पेडय यह शद उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका (पत्र ८४ ) मे मिलता है । इसका अर्थ समूह है । प्राकृतकोश मे भी यही अर्थ है। बिहारी, हिन्दी आदि भाषाओ मे भी यह शब्द अपने विकसित रूप पेर, पेरा आज भी इसी अर्थ मे प्रचलित हैं । १०८ कुछ अन्य शब्द इस प्रकार है छिपाय ( जबूद्वीप०३) छिपी, छीपा, दर्जी | बुन्देली मे 'छिपी' । मोरग (निशीथ चूर्णि ११,३७०० ) कर्णाभूषण, हिन्दी 'भुरकी' । सुइंग (मुयिंग, निशीथभाष्य २६१ ) चीटी, मराठी 'मुगी' । देशी 'मुअगी' (देशीनाममाला ६, १६४ ) कोटिका, कीडी ( चीटी) । विस्तीर्ण | मराठी 'रुद्र' | देशी 'रुदो' रुंद बृहतकल्पभाष्य २३७५ ) - ( देशी नाममाला ७, १४ ) - विपुल | वरंग ( बृहतकल्पभाष्य ४८२४ ) ढिकुण (बृहत कल्पभाष्य ५३७६ ) ढेकुण' (देशीनाममाला ४, १४) खटमल । बरामदा | बुन्देली, हिन्दी 'वरडा' । खटमल | मराठी 'ढेकूण' । देशी 'ढकुण' Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૭૬ . સંસ્કૃત-પ્રાકૃત વ્યારા મીર એન વી પરમ્પરા. Hવય (વૃતપમાષ્ય ૪૧૨) માનેય | મરાઠી ભવા' ! સાય (વૃતત્પમાળું રૂદ્ર) પડતી મરાઠી નાડી' ! દર (fપનવિત ૨૬૪)--ળીના ! ગુન રાતી પાવર'. વસુન્ના (ગ્રાવ થવૂબ પૃષ્ઠ 9૪૦) જુડિયા : હિન્દી પુતત, તુવેની પુતરિયા', મરાઠી પુતના' ! ચિત્ની (વૂદીપપ્રાપ્તિ ટી. ૨) ધો ની યારો ધોડો કી થી હું જોઉં રેશી શબ્દ હૈ પાસમવ બને” “ચિન્ત” શબ્દ હૈ સેડિયા (સાવા રામસૂત્ર ૨, ૩, ૬, ૩) સફેદ મિટ્ટી, વડિયા સંસ્કૃત સેટિ’ | પેડળ (વૃતજ્યમાષ્ય ૪૬૩૬) જોરપીંજો દેશી શબ્દ પ્રતીત શ્રોતા હૈ વસાર (વ્યવરિમાળ ૨, ૭૨) સૌs મરાઠી પોત’ યહ પ્રવેશી શબ્દ સૈા વેશીનામમાતા કે પોગાન” (૬, ૬૨) વૈત અર્થ વાવ હૈ પોખંડ (નિશીથમાષ્ય રૂ૭૦૪) જૈન . મરાઠી પોવડ' પાત્રસદમળવ’ જે શી શબ્દ હૈ, નસ કર્થ મનિન ક્રિયા યા હૈ પત (વ્હલ્લપમાડ્યું હ) સૂતી વસ્ત્ર | થઇ છે વેશી શબ્દ હૈ ! હત્ત (નિશીથમાષ્ય રૂ૭૨૬) વરિદ્રા યહ શબ્દ વેશીનામમાતા (૬, ૬પ). मे इसी अर्थ मे आया है। કબૂત્ર (સૌપપાતિક સૂત્ર ૩૦) જૂન ય જોર્ડ વેશી શબ્દ હૈ. વિન્તિ (ાનબર્ન રૂ) લગ્વારી પારૂમસમહષ્ણવ મેં યહ શી હા માયા હૈ ફસાં કર્થ હાથ માં હવા હૈ વિવ7 (વૃહત્પમાગે ૨૨૭૨) વીવત, જીવડા મરાઠી વિન’ કોળી નિવવન” ! વોખાન (બૃહસ્પષ્ય ૪૭૭૦) નીપાના હિન્દી જપાન, લંડયા (નિશીથ૦ ૨૭૦૪) લક્ષટ કરને વાલા | નદી વ્યક્તિા ઢવાણ (બૃહત્પમાળે રહ૪૨)--તર માધુનિક ભારતીય કાર્યમાપાકો હનુ, ના, હવન યાદિ (રિગેમિ- ૨૩, ૨૦, હ) છોરા મુખ રાતી વીરો ! પનર (ડ્રિમ , ૨૦, ૭) પટા નોટ્ટિયર (રિટ્ટને મિ૨૪, શરૂ, 9) નવયુવામારવાડી, મુખ રાતી મોદ્યાર’ - વાઢિયા (વાડી), પરધર, મટુ (છુરા), મોરડ (તિન ભાવિ છે ત), રોટ્ટ (વાવત છે બાટા), વોuડય (વુપડ ૨), વિયાય (પ્રસૂતા, વ્યાના) ત્યાદિ ” વુન્ટેરવક્કી માવા મે સહુન્નો છે શબ્દ હૈ નો વ્યુત્પત્તિ કી દૃષ્ટિ છે Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३७६ प्राकृत से सम्बद्ध है और जिनका विकास निश्चित रूप से प्राकृत-अपभ्रश से हुआ है। उदाहरण के लिए कुछ शब्द इस प्रकार है વુન્વેની સીસો’ (તરિયા) પ્રાછત છે ‘સય” (પુન રાત મોરીસા) શબ્દ સે વિકસિત દુલા હૈ ફૂલી કાર પ્રાછત છે સરિકા' શબ્દ સે ગુન્વેની પણ સારી’ વિકસિત દુલ, નિસને તિણ વેશીનામમાતા’ (૪૦) મે ‘સારો' શબ્દ મિત્રતા હૈ ફલી બાર વુન્વેની દુલા, વટી,વૃદૈયા, છુર્ક, સુરયા, ન , , ટા, નિરાટ, હ, વારી, વસા, વલ્ડ, વરી, વદર, વતન, વિત્તી, અડવડ, ધામ, શામર, દુરિયા, તિદ્દા, થર્ડ, પાન બર વિચાર પ્રતિ બે ત્રમશ દુર્યો, વષ્ટિ, વોટ્ટિય, ઝુરિયા, શૂર, નડ, લવ, દol, નિરાય, થ વારિયા, રીસ, વદ્દ, વાવ, વડા, વત્ત, ત્નિ, -વડ, ધમ્મ, શામર, ડોરી, તેડ, થયા, Fાન મ ર વિધાનિક શબ્દો સે વિસિત હૈ"ફન ગતિરિત વુન્હેતી કે છુટ્ટાર જે વારતા' હતે હૈં નો પ્રાછત છે વારિ’ શબ્દ સે વિસિત હૈ પશુ છે તિ ઢોર' શબ્દ વાધનિક ભારતીય કાર્ય માવાનો પ્રતિત હૈ નો મૂન બાત હૈ હિન્દી જે જૂના, ઘુઘ, વાવ, સમોસા, લૂંટ, લૂંટેરા, વાર, છ, ની, વોના, દોરા, માડી, વોર વોલ, વોત્તી, વાર, વરા, કતવાર, છોટી, રુદાર, eવડ, તવન, વાવ, પાવર, સસરાર માત્ર શબ્દો છે નિકાસ પ્રાકૃત છે તુલ્ત, ધુમધુર, ઢવ, સોસિય, નુક, બુટ્ટા, મારિ, વિ, ળિય, ખ્યોન, ૧દ્દોરમ, દ્ધિ, જલિય, રવો, વોલ્ત, રવોલ્જિય, યાર, ખેરા, લત્તર, છોટી, છટ્ટાર, વડયડ, વાય, પવવર, જસરાને બાવિ વિકાસ સ્પષ્ટ રૂપ સે નલિત હોતા હૈ ફન અતિરિક્ત અને પેલે શ4 મિનતે હૈંનો ટેક પ્રાકૃત તથા અપભ્રશ કે હી fમનતે હૈ, ડન સવવી વી ના સમવ નહી હૈ. ઉદાહરણ છે નિણ છ શવો ના હસ્તેવ ફલ પ્રાર વડા વડાં ક્ષમાન સમેનાં છેડી ઝંડી, છિડિયા, નાની નોર્વ જોવ મોવર મોવર કોફતા હોયના હવન યોવની વોટ્ટિયાડ વોટર વડિય વડી મોડી ફૂડ મૂવડ, જુવડ વન્નાં રવાના ટોપ ટોપી (મિષ્ઠાન્ન) टोपर टोप ટિવિના તવનાં મન્નિય—-માની (કરવી) વફાળવાન દુલ્ડ હોડ ઉન્નડ ૩નાડ હ7 ડીલ कुर ठाकुर વોન્ગ– વોન (ભાવ) મડ મારી નાડુય નાડૂ, નÇ પટ્ટોન પદોના (જૈન) વિઠ્ઠી વેદી વેડ વેડા વોડ વરા Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्पग मुभल मोनी छिल्लर ---छोलर टोल टोला (मुहल्ला) (पोखर) सव्वल-सबल, विमूरय विसूरना टिअप --ठी कुशी चुपया- --चूक, मूल गिलन -गीला चिटिआ चिट्ठी कहि----कहा सेल्लग-~-सेला, च५ चापना, भीचना भाला झप झापना, नभालिउ सम्हाला ढाकना खिसिय-खिसक खट्टलटना च७ि- पंगा मच्छर मच्छर तोमण तमन (साग), तेउन खर हावर मुगदालि मूग पक्कल बकला, छिनको पक्कल बकला, TE पीट पीटना की दाल પટવારી ૫દવારી નાની નાની નવોન્મ પ્રોનના दद दद मेर-~मर्यादा ऊ छिना, उमेड उमडना उड ओडा, गहरा रालि राड, कलह इस प्रकार अपभ्रश मे भी अनेक देशी शब्द मिलते है जो वर्तमान जन-वोलियो मे परम्परा से अधिगृहीत हुए है । ११२ इनमे दक्षिण की भाषाओ तया वोलियो मे ही नहीं, किन्तु उत्तर भारत की विभिन्न भाषाओ तथा बोलियो मे प्रयुक्त शब्द उपलब्ध होते है । इस प्रकार की देशी-शब्दावली का एक स्वतन्न शब्दकोप' निमित होना चाहिए । अन्त मे हम प्राकृत के कुछ ऐसे शब्दो की वानगी दे रहे है जो भारभीय भाषाओ मे अत्यन्त प्रचलित है। प्राकृत हिन्दी पजावी उर्दू सिन्धी मराठी गुजराती बगला ओडिया अन्य અત્ન ના ના મના નન્ના મના પિત ના પાન વોટ્ટ પેટ ૪ પેદુ પો પેટ પેટ પેટ हड्डिय हड्डी हड्डी हडी हड्डो हाड हाडकु हा हा दहि दही दही दही द्रही दही दही ६५ दहि नासपेअ नास० ना५पा० नाश० नास० नास० नास्पा० न्यास्पानास्पा० बहेडय बहेडा बहेडा वेहेडा बहेरो बेहड़ा बहेडा क्यडा पाहाड। चाउल चावल चावल चावल पावर भात भात भात x चोर (मलयालम) ८५कारि तरकारी त२० तर० x x x तर० x तरकारि (कन्नड) Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३८१ चक्कलय चकला x चकली चकली भक्खण मक्खन मक्खपा मक्खन मक्खणु लोणी माखण माखन x माखन (असमिया) चालय चकला x चकला चकला चकुलो चकलो चाकी x चकलु (कश्मीरी) कुंदीर कुदरू कुदरू कुदरू x x x x कुदुर वाइगण बैगन वगण बैगन वाणु वागे रीगुणु वेगुन वागण वागुन् (कश्मीरी), बेडना (असमिया) चोरु चोर चोर चोर चोरु चोर चोर चोर चोर चूर (कश्मीरी), पोर (असमिया) पाणिअ पानी पाणी पानी पाणी पाणी पाणी जल पाणि पानी (असमिया) पद्दल बादल बद्दल बादल ककर ढग वादलु मेघ मेध घोड़ घोडा घोडा घोडा घोडो घोडा घोडो घोडा घोडा चोरों (असमिया), गुरंभु (तेलुगु) __इसी प्रकार वलह' (बलद), 'वधार' (धार), 'खट्टा' (खट्टा), 'गिल्ल' (गीला), 'पाहुण' (पाहुना) और विहल' (विटाल, अस्पृश्य) आदि शब्दो के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय भाषाओ के सम्यक अध्ययन व अनुसन्धान के लिए प्राकृत-अपभ्रश भाषाओ का अध्ययन आवश्यक ही नही, अनिवार्य भी है। सदर्भ १ ए०ए० हिल (स०) लिपिस्टिक्स, १९६६ प० ४५ । २ कने, सुमिन भगेश लैक्सिकोग्राफी, १९६५, पृ० १२ ३ मरियो पेई इन्विटेशन टु लिग्विस्टिक्स, लन्दन, १९६५, पृ० ६६ ४ लिओनार्ड ब्लूमफील्ड लग्वेज, लन्दन, १९५८, पृ० १६२ ५ वही, पृ० २६४-६५ ६ “साधुत्व ज्ञानविषया सपा व्याकरणभूति ।"-पाक्यपदीय (भतृहरि) ७ भट्टाचार्य, रामशकर सस्कृत भाषा मे कोप प्रामाण्य, हिन्दी अनुशीलन, पौष-फाल्गुन, वि०स० २०१०, पृ० २१-२६ ८ डा० हेमचन्द्र जोशी 'सरस्वती' पत्रिका में प्रकाशित लेख, अक्तूबर, १९६०, पृ० २३१ ६ कले, सुमित मगेश लेक्सिकोग्राफी, १९६५, पृ० ५ १० डा० नेमिचन्द्र जन जन को-साहित्य, आचार्य भिक्षु स्मृति-ग्रन्थ, कलकत्ता १९६१, द्वितीय खण्ड, पृ० १८६ ११ त णिसुवि वयणु जा-सारउ सयल-कल दक्खव३ भडार । अण्ण् असि मसि किसि वाणिज्ज अण्णाहु विविह पयारउ विजउ ।। -पसभपरिउ, २, ८-६ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂર સંત-પ્રાકૃત વ્યાકરણ ર વોશ જ પરસ્પર ૧૨ મહીપ યાd છત નિરવત ટીવી, ૧ ચ૦ ૧૩ વંs! ૧૨. વિન, હમ (૧૦) g fૉવિટિ રીડર, ન્યૂયા, ૧૯૬૭, go 59 १४ वही, पृ० ८७ ૧૪ વસવેલીયા, વાવના-મુવ ભાવાર્થ તુલના પાવ વીર વિવેવ મુનિ નથતિ ! ભૂમિ પૂ૦ ૨૨૭ ૧૬ ફન્દ્રજવ 1શત્નાશિની શાનદાયન ! પાબિન્યમનનેન્દ્રા નન્દબ્દ ર શાબ્દિા | ૧૭ બમશ-દીવ, ૧ ૧ ૬૬ ૧૬ નૌવખ્યા જે પ્રકાશિત બધાનનતામણિ' વી પ્રસ્તાવના, ૬૦ હ ૧૯ રોના, વાવસ્પતિ સક્ષર બમર રહે વારાણસી, ૧eye, g. ૯૩ po Zachariae in Die Indischen wörterbücher in Buhler's Ency clopaedia, 1897 ૨૧ સાર્થ go મેદાનને હિસ્ટ્રી સંવ સત નિદરવર, વિત્ની, પાવવા સરળ, ૧ess, ૬૦ ૪૩૩ ૨૨ વાડમયા’ ફી ભૂમિ, પૃ૨૨, વારાણસી, ૧૯૬૬ ૨૩ પાનન્યહીન્દ્રકુમાર મોનમેહ, હેમામાલિમુરતશાસ્ત્ર સાડાત્ ! નાનાર્યરત્નતિના સિદ્ધશત્ર, રત્નાર સમતનોત્સુમતિદ્દીપ છે અને જાતિ, ૨૧૨ ૨૪ મહેન્દ્રકુમાર નન નામમાતા સમાગ વી પ્રસ્તાવના, પૃ. ૧૧ રક તત્પર્યાયવરો મલ્યસ્તત્પર્યાયવો ધન | તત્પર્યાયોમવ પમ તત્પર્યાયઘિરા નામમાતા, ૧૬ ૨૬ ૧૦ પરમાનન્દ પાસ્ત્રી નૈનધર્મ આ બાવન તિહાસ, દ્રિતીય મા , g૦ ૨૧૪ ર૭. દ્રબ્દવ્ય ઈં–મુનિ શ્રીનારી મત સ્મૃતિગ્નન્ય, વતુર્થ દિયાય,૬૦ ૬૬૦ રક વાદિવેવા પ્રથમે છેખે તેવા દિતી | નાસ્તૃતીયે ઉતર્યવતુર્ય ઇન્દ્રિયાય છે ન્દ્રિયા ઉચિવુતેનોવાયુમહીહ | કૃમિતિનૂતાદ્યા, સ્મૃત્રિવતુરિન્દ્રિયા છે ન્દ્રિય પર્વ વેવા, ના ય બપ | નારા પવને સામા વર્ષે સાધારા દમ્ | પ્રસ્તોમ્બબ્લેડ૧યાયામ, –ન્તાચારી ને પૂર્વી અમિદાનવન્તામણિ, ૧,૨૦-૨૩ રહ કન્દુસ્તુમો ધ્રુવ બુર્કીના ૩ પક્ષ ! રચાન્નો વેશમના કુપો ઘમૂપિયા 1 ત્રિાખોપ, ૨,૧૦-૧૧ ૩૦ મૂપિ. મૂપનો વષ્યવાન વનોન્ો હન્દુ વાવ, સૂચાયો નૃપોવન છે છન્દરી રામૂળ્યા-જમવાનવન્તામણિ, ૧૨૦૦, ૧૩૦૧ ૨૧. “વલાસ' (નહ) શબ્દ વિશે નિદ્રદવ્ય શું “પરીવાદો નોવાકે મદ્દીવોથવસ્તુનિ ” વિની, ૩૪,૩૩ ચ પતિ “વિવકાશ' મેં ભી હૈ “રવી નાનક્વાસી, જૂધાતુ વિવાર ” સમધાન ૦, ૧૦૬૬ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तया अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कश साहित्य ३८३ ३२ “जङ्गलो निजलो नूपोऽबुमान" - अभिधान चिन्तामणि, ६५३ ___जङ्गल निर्जनस्थाने."-मेदिनीकोश, २८,६३ ३३ मत्स्यो मीन पृथुरोमा, झपा वैसारिणोऽण्डज । मचारी स्थिरजिह्व, आत्माशी स्वकुलक्षय । विसार शकली शल्की, शम्बरो निमिपस्तिभि । अभि०, १३४३-४४ ३४ अभिधानचिन्तामणि, तिर्थक्काण्ड १५६१ १६०३, ३५ वही, तियकाण्ड, १४४४-४५ ३६ वही, तिर्थक्काण्ड, १४५० ३७ "लडह रमणीय च" अभि० १८७९ ___ “लयलाहा कुसुम्मरम्मसु ।"-देशोनाममाला, ७,१७ ३८ खल्लो वस्त्रप्रभेदे स्याद् गत चमणि चातक । मेदिनी, २८,१२ ३६ टर्नर, आर०एल० एकम्पेरेटिव किशनरी ऑप द इण्डो आर्यन लवोन, लन्दन, १९६६, पृ० १९८ ४० वही, पृ० १७१ ४१ वही, पृ० ५११ ४२ वही, पृ० ४६८ तथा-टी०वरो ट्रान्सलेशन्स ऑप द फिलालॉजिकल सोसायटी, लन्दन, १६४५,१११ ४३ टर्नर, आर०एल० ए कम्पेरेटिव डिक्शनरी ऑप द इण्डो-आर्यन लैंग्वेजेज, लन्दन १९६६, पृ० २२१ ४४ वही, पृ० २६२ ४५ वही, पृ० ६५५ ४६ "कुट कोटे शिलाकुट्ट घटे गेहे" अनेकार्थसग्रह, २,८५ ४७ टनर, आर०एल० ए कम्परेटिव डिक्शनरी माप द इण्डो-आर्यन लग्वेजेज, १९६६, लन्दन, पृ० १७५ ४८ पण्डित, प्रबोध वे० 'हेमचन्द्र ए७४ द लिपिस्टिक ट्रेडिशन', श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ, भाग १,१६६८, पृ० २१२ ४६ विहितकार्यनानायंदेश्यशब्दसमुच्चय । निघण्दोष वक्ष्येऽह, नत्वाऽहत्पादपकजम् ॥१८६० तथा शास्त्राणि वीक्ष्य भातशो, धन्वन्तरिनिमित निघण्टु च । लिंगानुशासनानि च क्रियतेऽने काटीयम् ॥ टीका में ५० द्रप्टव्य है-पीटर्सन कृत ग्रन्थ-सूची, भाग ५, पृ० १६२ ५१. 'जन-सिद्धान्त भास्कर', भाग ४, किरण १, पृ० ६ तथा डा० नेमिचन्द्र शास्त्री जन कोश-साहित्य', आचार्य भिक्षु स्मृति-प्रन्थ, द्वितीय खण्ड, पृ० १६६ ५२ शर्मा, प० नन्दलाल (स०) विश्वलोचनकोश की प्रस्तावना, पृ० ५ ५३ पारागनाडीपरणी, मयूर चिनपिंगल । नृत्यप्रिय स्थिरमद, खिलखिल्लो गरजत ।। मारिकण्ठो मरूको, मेघनादानुलासक । मयूको बहुलग्नीवो, नगावासश्म चन्द्रकी ॥ १७३०-३१ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ५४ वीतरागो जिन प्रोक्तो जिनो नारायण स्मृत । कन्दर्पहा जिनरचय जिन सामान्यकेवली ॥६२॥ ५५ कासनीवाल, डा० कस्तूरचन्द (स.) राजस्थान के जैन शास्त्र-भाटारो की ग्रन्य सूची, भाग २, पृ० २६७ ५६ शास्ती, डा० नेमिचन्द्र जैन 'जन कोश-साहित्य', आचार्य भिक्षु स्मृति-ग्रन्य, पृ० १६६ ५७ मुनि जिनविजय 'उक्तिरत्नाकर' की प्रस्तावना, पृ०६ ५८ आचार्य भिक्षु स्मृति-ग्रन्थ, पृ० १६६ ५६ वही, पृ० १६६ ६० अफेजत, थ्योडर (स.) केटालोगम केटेलोगोरम, भा० १,१९६२, जर्मनी, प० ६३३ ६१ विक्कमकालस्स गए अउणत्तीसुत्तर सहस्मम्मि । मालवनरिदधाडीए लडिए मन्नखेडम्मि।। धारानयरीए परिट्टिएण मग्गे ठिाए अणज्जे । कज्जे कणिपहिणीए 'सुन्दरी' नामधिज्जाए । अन्तिम प्रशस्ति ६२ कइमो अध जकिया कुसल त्ति पयाणमतिमा पण्णा । नामम्मि जस्स कम सो तेणेसा विरइया देसी ॥ वही ६३. 'पोयो वहण सवरा य किराया'-पाइयलच्छी० २७४ ६४ जे लक्खणे ण सिद्धा ण पसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु ।। णय गणलक्षणासत्तिसमका ते इह णिवद्धा ॥ देशी० १,३ ६५ देसविसेसपसिद्धी भण्णमाणा अणन्तया हुति । तम्हा अणाइपाइपयट्टमासाविससओ देसी ।। वही, १,४ ६६ वनर्जी, मुरलीधर देशीनाममाला की भूमिका, १० ३३ ६७ परो, टी० बुलेटिन ऑव द स्कूल ऑव ओरियन्टल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज, लन्दन, जिल्द १२ पृ० ३६५ ६८ नियन् रत्ना एन० सिम फोरिन लोन वस इन पुप्पदन्ताज अपभ्रश', 'भारतीय विद्या', जिल्द २५, स० १-२, पृ० २७ ६६ वही, पृ० २८ ७० टर्नर, आर०एल० ए कम्पेरेटिव डिक्शनरी ऑप द इण्डो-आर्यन लैंग्वेजेज, लन्दन, १९६६, पृ० १३२ ७१ वही पृ० १७१ ७२ द्रष्ट०५ है भारतीय विधा', जिल्द २५, स० १-२, पृ० २६ ७३ वरो, टी० बुलेटिन ऑप द स्कूल ऑप ओरियन्टल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज, लन्दन, जिल्द १२, पृ० ३७६ ७४ टनर, आर०एल० ए कम्पेरेटिव डिक्शनरी ऑप द इण्डो-आर्यन लवजेज, लन्दन, १६६६, पृ० २५६ ७५ महाकवि पुष्पदन्त कृत महापुराण, ३,१४,११ । ७६ 'देशीनाममाला' के परिशिष्ट मे सलग्न शव्दकोप, पृ० ४७ ७७ टनर, आर०एल० एम्परेटिव डिक्शनरी ऑन द इण्डो-आर्यन लैंग्वेजेज, लन्दन १९६६, पृ० ४७५ ७८ श्रियन, डा० रत्ना 'ए स्टडी नाव देश्य वर्ड्स फ्रॉम द महापुराण ऑप पुष्पदन्त', द जनल ऑव द यूनिवमिटी ऑव वाम्बे, जिल्द ३१, भाग २, सित०, १९६२, पृ० १०३ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३८५ ७६ गुप्त, डा० हरिहर प्रसाद 'देशीनाममाला मे कृषि-शब्दावली', हिन्दुस्तानी, भाग १६, क ३, जुलाई-सितम्बर १९५८, पृ ८१-१०५ ८० वध, डा० पी०एल० 'आजशन्स ऑन हेमचन्द्राज देशोनाममाला', एनल्स ऑप द भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जिल्द ८, पृ० ६३-७१ ८१ चटर्जी, डा० सुनीतिकुमार - प्रकाशित लेख 'तमिल करपर', जिल्द ८, स० ४, अक्तूबर दिसम्बर, १९५६, पृ० ३०६ ८२ रो, अमृत 'द द्राविडियन एलीमेन्ट इन प्राकृत' इण्डियन एन्टिवेरी, जिल्द ४६, १९१७, पृ० ३३-३६ ८३ उपाध्ये, डा० आ० ने० 'कनारीज वर्ड्स इन देशी लेक्सिकन्स', एनल्स माँव द भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जिल्द १२, भाग २ १६३१, पृ० १३२-१६३ तथा 'मराठी एलीमेन्ट्स इन ए प्राकृत ड्रामा', इण्डियन लिंग्विस्टिक्स, भाग १६, १६५५, प० १४७-१५२ ८४ पटी, डा० सुनीतिकुमार 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण' की प्रस्तावना, पृ०६ तथा "ततो देशे देशे प्रतिविषय लोक पामरजनो यया यया गिरापभ्रष्टया यत् किचित् अभिधेय वस्तु पक्ति व्यवहरति सापभ्रश भापा।"-उक्तिव्यक्तिप्रकरण, श्लो० ७ की विवृति । ८५ भनि जिनविजय 'उपितरत्नाकर' की प्रस्तावना, पृ०७ ८६ शास्त्री, डा. देवेन्द्रकुमार अपन भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तिया, १६७२, पृ० ५५-५६ ८७ व्यह लर, डा० जे०एच० द देशी शब्दसाग्रह मा हेमचन्द्र, इण्डियन एन्टिवरी जिल्द २, १८७३, पृ० १७.२१ तथा'मॉन ए प्राकृत ग्लासरी इनटाइटिल6 पाइयलच्छी, इण्डियन एन्टिवेरी, जिल्द २, भाग १८, जून १८७३ 55 Zeitschrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellschaft, १९१२, पृ० ५४४ ८६ द्रष्टव्य है-तीयंकर' का श्रीमविजयराजेन्द्रसूरीश्वर विशेषाफ, १९७५, पृ० ५६ ६० शास्त्री, डा० देवेन्द्र कुमार जैन दर्शन पारिभाषिक शब्दो के माध्यम से', वही, श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर विशेषाक, पृ० १२६-१३१ ११ वही, पृ० १४७-१५१ ६२ शास्त्री, देवेन्द्रकुमार 'अपभ्रश कोश एक परिचय', हिन्दुस्तानी, भाग ३१, अक १-२, पृ० २१-२२ ६३ पीसन 'वैदिक संस्कृत एण्ड प्राकृत', जर्नल ऑन द अमेरिकन कोरियन्टल सोसायटी, जिल्द ३२, १६१२, पृ० ४२३ ६४ पुसालकर, ए०डी० 'वेयर द पुराणाज ओरिजनली इन प्राकृत', आचार्य ध्रुव स्मारक ___ग्रन्थ, भाग ३, गुजरात विद्यासभा, महमदाबाद, पृ० १०३ ६५ पुष्पदन्त कृत महापुराण, २६,२४,११ ६६ चौकसी, वीजे० कम्पटेटिव प्राकृत अमर, अहमदाबाद, १६३३, पृ० ८ ६७ पाइअ-सद्द महण का उपोद्घात, पृ० २२, द्वितीय सस्करण, १६६३ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ६८ इपिग्राफिका इण्डिा , ८,३५६, ५,३२ ६६ वेदप्रातिशाज्य, १४,३८ १०० जेकब, पोकरनाग आल्टइण्डिया ग्रानातिका, मा० १,१८६६, पृ० ३१ १०१ डा० रामगोपाल वैदिक व्याकरण, प्रथम भाग, दिल्ली, १९६५, ०५ से उदृत । १०२ द्रष्टव्य है प्रिआर्यन एण्ड प्रि-द्रवटियन, १०६ १०३ डा० मोतीचन्द्र मार्थवाह, पृ० ४४ १०४ मिश्र, टा० हरिमोह्न विदीय भारत की भाषा-म्यिति', परिषद्-पतिका, वर्ष ८, क ३४, मापा-सवक्षणाक, पृ०५२ से ज्दत १०५ 'अथ यादान यार्या न मिचिदय याच रति म्लेच्छास्तु कस्मिाश्चत् प्रयुज्यन्ते, यथा--पिक-नेम सत-तामरस आदि दाते५ मन्दह ।' भवरमाप्य, म०१ पा० ३, सू० १०, म०५ १०६ वर्मा, सिद्धवर द फोनेटिका आजन्म माफ इण्डियन ग्रामेरियन्स, दिल्ली, १९६१, पृ० ५० १०७ बाल्मडोर्फ, लुडविग 'द ओरिजन भाव द न्यू-३०टो-आर्यन स्पीन', अनु० एम०एन० घोपाल, जनल ऑन द ओरियन्टल इस्टीट्यूट, बडोदा, जिल्द १०, म० २, दि.० १९६०, पृ० १३२.३३ १०८ टनर, आर०एल० ए कम्पेरेटिव डिक्शनरी ऑव दण्डो आर्यन लग्वेजेज, १९६६, पृ०४७५ १०९ जैन, डा० जगदीशचन्द्र जैन आगम माहित्य में भारतीय समाज, परिशिष्ट ३ ११० पटव्य है-प्रोमीडिस ऑन द सेमिनार ऑव स्कालर्स इन प्राकृत एण्ड पालिस्टडीज, मग यूनिवर्सिटी, वोधगया, १९७१, पृ०६१ १११ शास्त्री, डा. देवेन्द्रकुमार 'भगवान महावीर की मूल वाणी का मापा-वज्ञानिक महत्त्व', द विक्रम जर्नल ऑव द विक्रम-युनिवर्सिटी, उज्जैन, जिल्द १८, स० २.४, मई-नव० १९७४, पृ० १५५-५६ ११२ शास्त्री, डा० देवेन्द्रकुमार कन्ट्रीव्युशन ऑव अप ३५ टू इण्डियन लग्वेजेज', कन्ट्रीव्युशन ऑव जैनिज्म टु इण्डियन कल्पर, १९७५, पृ० ७६ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक जैन कोश-ग्रन्थों का मूल्यांकन डॉ० श्रीमती पुष्पलता जैन किसी भाषा और उसमें रचित साहित्य का सम्यक्-अध्ययन करने के लिए तत्सम्बद्ध कोशो की नितान्त आवश्यकता होती है । वेदो और सहिताओ को समझने के लिए निघण्टु और निरुक्त जैसे कोशो की रचना इसीलिए की गई कि जनसाधारण उनमे सन्निहित विशिष्ट शब्दो का अर्थ समझ सके । उत्तरकाल मे इसी आधार पर सस्कृत पालि और प्राकृत के श०कोशो का निर्माण आचार्यों ने किया। अमरकोश विश्वलोचनकोश, नाममाला, अभिधानप्पदीपिका, पाइयलछीनाममाला आदि जैसे अनेक प्राचीनको उपलव्य है । इनमे कुछ एकाक्षर कोश है और कुछ अनेकार्थक शब्दो को प्रस्तुत करते हैं । कुछ देशी नाममाला जैसे भी शब्दकोश है जो देशी शब्दो के अर्थ को प्रस्तुत करते है। प्राचीन कोश-साहित्य के अध्ययन से हम कोशो को कुछ विशेष वर्गो मे विभाजित कर सकते हैं । उदाहरणत व्युत्पत्ति कोश, पारिभाषिक कौश, पर्यायकोश, व्यक्तिकोश, स्यान-कोश, एकभाषा कोश, बहुभाषा कोश आदि । इन कोशो के माध्यम से साहित्य की विभिन्न विधाओ एव उनमें प्रयुक्त विशिष्टशब्दो के आधार पर भाषावैज्ञानिक तथा सास्कृतिक इतिहास की सरचना भी की जा सकती है। ___आधुनिक कोशो का प्रारभ उन्नीसवी शताब्दी से माना जा सकता है। इन कोशो की रचना-शैली का आधार पाश्चात्य विद्वानो द्वारा लिखित शब्द कोश रहा है । उन्नीसवी-वीसवी शताब्दी मे प्राकृत और जैन साहित्य तथा दर्शन के विद्वानो ने भी कुछ कोशमन्थो का निर्माण किया है । अध्येताओ के लिए उनकी उपयोगिता निर्विवाद रूप से सिद्ध हुई है । ऐसे कोश ग्रन्थो मे हम विशेष १५ मे अभिधान राजेन्द्र कोश, पाइयसहमहण्णव, अर्धमागधी डिक्सनरी, जनेन्द्र सिद्धान्त कोश Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा तथा जैन लक्षणावली का उल्लेख कर सकते है। यही हम सक्षेप में इन कोशमन्यो का मूल्यांकन करने का प्रयत्न करें। १ अभिधान राजेन्द्रकोण इस कोश के निर्माता श्री विजय राजेन्द्र मूरि का जन्म स० १८८३, पोप शुक्ल सप्तमी, गुरुवार (सन् १८२६) को भरतपुर मे हुआ। आपका वाल्यावस्था का नाम रत्नराज या, पर स० १९०३ मे स्थानकवासी मप्रदाय मे दीक्षित होने पर रत्न विजय हो गया। बाद में उन्होंने व्याकरण दर्शन आदि का अव्ययन किया। सन् १९२३ मे वे मूर्ति पूजक सम्प्रदाय मे दीक्षित हुए और विजय राजेन्द्र सूरि के नाम से आचार्य पदवी प्राप्त की। उन्होने अनेक मदिर बनवाये और उनकी प्रतिकार्य करायी । वे अच्छे प्रवक्ता और शास्त्रार्यकर्ता थे । उपाध्याय वालचदजी से उनका मास्त्रार्य हुआ और वे विजयी हुए । आपको विद्वत्ता के प्रमाण स्वरूप आपके अनेक ग्रय है जिनमे अभियान राजेन्द्र कोश, उपदेश रत्न सार, सर्वसग्रह प्रकरण, प्राकृत व्याकरण विवृत्ति, शब्द कौमुदी, उपदेश रत्न सार, राजेन्द्र सूर्योदय आदि प्रमुख है। उनके ग्रयो से उनकी विद्वत्ता स्पष्ट रूप से झलकती है। श्री सूर्य का अत काल ३१ दिसम्बर सन् १६०६ मे राजगढ मे हुआ। अभिवान राजेन्द्र कोग के लेखक विजय राजेन्द्र सूरि ने जैन साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के दौरान यह अनुभव किया कि एक ऐसा जैन-आगम कोश होना चाहिए जो समूचे जैन दर्शन को अकारादि क्रम से मयोजित कर सके। लेखक ने अपने कोशमय की भूमिका मे लिखा है कि "इस कोश मे अकारादि क्रम से प्राकृत शब्द बाद मे उनका मस्कृत मे अनुवाद, फिर व्युत्पत्ति, लिंग निर्देश तथा जैन मागमो के अनुसार उनका अर्थ प्रस्तुत किया गया है। लेखक का दावा है कि जैन आगम का ऐसा कोई भी विषय नहीं रहा जो इस महाकोश मे न आया हो। केवल इस कोश के देखने से ही सम्पूर्ण जन आगमो का बोध हो सकता है। इसकी श्लोक सख्या साढे चार लाख है और अकारादि वर्णानुक्रम से सा० हजार प्राकृत शब्दो का संग्रह है।" लेखक के ये शब्द स्पष्ट सकेत करते हैं कि उनका उद्देश्य इसे सही अर्थ मे महाकोश बनाने का या । इस महाकोश के मुख्य पृष्ठ पर लिखा है श्री सर्वज्ञापित गणधर निवतिताऽद्य श्रीनोपलम्यमानाऽशेष-सून्नवृत्ति भाष्य निमुक्ति चूादि निहित सकल दार्शनिक सिद्धन्ततिहास शिल्प वेदान्त न्याय वैशेषिक भीमासादि प्रणितपदार्थयुक्तायुक्तत्व निर्णायक । વૃ ભૂમિ પઘાત પ્રતિવ્યાતિ પ્રાકૃત શબ્દ સ્પાવત્યાદ્રિ પરિશિષ્ટ हित । इससे पता चलता है कि कोशकार ने प्राकृत-जैन आगम, वृत्ति, भाष्य, नियुक्ति Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक जैन कोश-ग्रन्थो का मूल्यांकन ३८६ 8४ प्रकाशन काल चूणि, आदि मे उल्लिखित सिद्धान्त, इतिहास, शिल्प, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, मीमासा आदि का संग्रह किया गया है। इसका प्रकाशन जैन प्रभाकर प्रिन्टिग प्रेस रतलाम से सात भागो मे हुआ। इसकी भूमिका मे लिखा है कि "इस कोश मे भूलसूत्र प्राचीन टीका, व्याख्या तथा ग्रथान्तरो मे उसका उल्लेख बताया गया है । यदि किसी भी विषय पर कथा भी उपलब्ध है तो उसका भी उल्लेख है। तीर्थ और तीर्थंकरो के बारे मे भी लिखा गया है।"२ यह महाकोश यद्यपि सात भागो मे समाप्त हुआ है परन्तु भूमिका मे चार भागो की ही विपय सामग्री का उल्लेख है। इसे हम सक्षेप मे इस प्रकार देख सकते है १ प्रथम भाग अवर्ण सन् १९१० २ द्वितीय भाग आ से ऊ वर्ण तक , ११७८ सन् १९१३ ३ तृतीय भाग 'ए' से 'क्ष' वर्ण तक , १३६४ सन् १९१४ ४ चतर्थ भाग 'ज' से 'न' वर्ण तक , २७७८ सन् १९१७ ५ पचम भाग-- 'प' से 'भ' वर्ण तक , १६३६ सन् १६२१ ६ षष्ठ भाग म से 'व' वर्ण तक , १४६६ सन् १६२३ ७ सप्तम भाग स से ह वर्ण तक , १२४४ सन् १९२५ इन सातो भागो के प्रकाशन मे लगभग पन्द्रह वर्ष लगे और कुल १०५६० पृष्ठो मे यह महाकोश समाप्त हुआ। इसमे अच्छेर, अहिंसा, आगम, आधकिम्म, आयरिय, आलोयगा, ओगाहणा, काल, क्रिया, केवलिपण्णति, गच्छ, चारित्त, चेइय, जोग तित्थयार, पवज्जा, रजोहरण, वत्य, वसहि, विहार, सावय, हेउ, विनय, स६ पट्टावलि, पच्चक्खाण, पडिलेहणा, परिसह, वधण, भावणय, मरण मूलगुण, मोक्ख, लोग, वत्य, वसहि, विणय, वीर, वेयावच्च, सखडि सच्च, समाइय इत्यादि जैसे मुख्य शब्दो पर विशेष विचार किया गया है । इसी तरह अचल, अज्जचन्दणा, अणुबेलधर, अभयदेव अरिष्टनेमि, आराहणा, इलादत्त, इसिमपुत्त, उदयण काकदिय, कोसीराज चक्कदेव, दयदेत, धणसिरि, धणवइ, मूलदत्ता, मूलसिरी, मेहधोस रयनेमि, रोहिणी, समुहपाल, विजयसेन, सीह, सावत्थी, हरिभ६ आदि जमी महत्वपूर्ण कथाओ का विस्तार से उल्लेख किया गया है। यह महाकोश अवश्य है परन्तु महाकोश के प्रयोजन को सिद्ध नही कर पाया। प्रथम तो इसे हम मोटे रूप मे अर्धमागधी महाकोश कह सकते है जिसमे अर्धमागधी प्राकृत जैन आगमो को छोड़कर शेष प्राकृत साहित्य का उपयोग नहीं किया गया और दूसरी बात यह है कि यह मान उद्धरणकोश बन गया। ये उद्धरण इतने लम्ब रख दिये कि पाक देखकर ही धवडा जाता है। कही-कही तो ग्रथो के समूचे भाग प्रस्तुत कर दिये है। फिर इसके बाद उनका सस्कृत रूपातर और भी बोझिल Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोच की परम्परा बन गया। पाइयमहमहण्णव के लेखक प० हरगोविन्द दाम मेट ने मकी जो सटीक आलोचना की है वह इस मन्दर्भ में दृष्टव्य है। परन्तु खेद के साथ कहना पडता है कि इसमे कर्ता को सफलता की अपेक्षा निष्फलता ही अधिक मिली है और प्रकाशक के धन का अपव्यय ही विशेप हुआ है। सफलता न मिलने का कारण भी स्पष्ट है इस ग्रथ को थोडे गौर से देखने पर यह सहज ही मालूम होता है कि इसके कर्ता को न तो प्राकृत भाषाओ का पर्याप्त जान था और न प्राकृत शब्दकोश के निर्माण की उतनी प्रबल इच्छा, जितनी जन दर्शन शास्त्र और तर्कशास्त्र के विषय मे अपने पाहित्य प्रत्यापन की धुन । इसी धुन ने अपने परिश्रम को योग्य दिशा में ले जाने वाली विवेक बुद्धि का भी हास कर दिया है। यही कारण है कि इस कोश का निर्माण केवल ७५ मे भी कम प्राकृत जन पुस्तको के ही, जिनमें अर्धमागधी के दर्शन विषयक ग्रथो की बहुलता है, आधार पर किया गया है और प्राकृत को ही इतर मुख्य शाखाओ के तथा विभिन्न विषयो के अनेक जैन तथा जनेतर ग्रथो मे एक का भी उपयोग नहीं किया गया है। इससे यह को व्यापक न होकर प्राकृत भाषा का एकदेशीय कोश हुआ है। इसके सिवा प्राकृत तथा सस्कृत ग्रथो के विस्तृत अशो को और कही-कही तो छोटे वडे सम्पूर्ण ग्रथ को ही अवतरण के रूप उद्धृत करने के कारण पृ५८ सख्या में बहुत वडा होने पर भी, शब्द सध्या मे ऊन ही नहीं, बल्कि आधारभूत ग्रथो मे आये हुए कई उपयुक्त शब्दो को छोड देने से और विशेपार्यहीन अतिदीर्थ सामासिक शब्दो की भर्ती से वास्तविक शब्द मख्या मे यह कोश अति न्यून भी है। इतना ही नही, इस कोश मे आदर्श पुस्तको की, असावधानी की, और प्रेस की तो असख्य अशुद्धिया हैं ही, प्राकृत भाषा के अज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली भूलो की भी कमी नही है और सबसे बढकर दो५ इस कोश मे यह है कि वाचस्पत्य, अनेकन्ति जय पताका, अटक, रत्नाकरावतारिका आदि केवल संस्कृत के और जन इतिहास जैसे केवल आधुनिक गुजराती ग्रथो के संस्कृत और गुजराती शब्दो पर से कोरी निजी कल्पना से ही बनाये हुए प्राकृत शब्दो की इसमे खूब मिलावट की गयी है, जिससे इस कोश की प्रामाणिकता ही एकदम नष्ट हो गयी है । ये और अन्य अक्षम्य दोषो के कारण साधारण अभ्यासी के लिए इस कोश का उपयोग जितना भ्रामक और भयकर है, विद्वानो के लिए भी उतना ही क्लेशकर है।" ___अभिधान राजेन्द्र कोश के कोशकार विजय राजेन्द्र सूरि तथा सशोधक दीपविजय और यतीन्द्र विजय है। उनके अभिवान राजेन्द्र कोश के सन्दर्भ मे सेठ की यह आलोचना नि सन्देह अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। कोश के निर्माण की सार्थकता यहा पूरी नहीं हो सकी इसके बावजूद इस विशालकाय कोश को विल्कुल निरर्यक भी नही कह सकते । जिस समय इस कोश का निर्माण हुआ है उस समय अर्धमागधी आगमो का प्रकाशन अधिक नही हुआ था और जो हुआ भी था वह सभी सुसपादित Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक जैन कोश-ग्रन्थो का मूल्यांकन ३६१ नही था। अनुसधाता को एक ही स्थान पर सम्बद्ध विषय की जानकारी मिल जाती है । इस दृष्टि से उसका विशेष उपयोग कहा जा सकता है। ____ विजयराजेन्द्रसूरि ने एक और कोश लिखा था जिसका नाम उन्होने शब्दाबुधि कोश रखा था परन्तु इसका प्रकाशन नहीं हो सका। इसमे लेखक ने अकारादि क्रम से प्राकृत शब्दो का संग्रह किया था और साथ ही सस्कृत और हिन्दी अनुवाद दिया था किन्तु अभिधान राजेन्द्र कोश की तरह शब्दो पर व्याख्या नहीं की गई। यह कोश कदाचित अधिक उपयोगी हो सकता था परन्तु न जाने आज वह पाडुलिपि के रूप मे कहा पडा होगा। २ अर्धमागधीकोश इस कोश के रचयिता मुनि रत्नचन्द्र लीम्बडा-सम्प्रदाय के स्थानकवासी साधु थे। उन्होने जन-जनेत र ग्रथो का अध्ययन कर बहुश्रुत व्यक्तित्व प्राप्त किया था। उनके द्वारा कुछ और भी ग्रथो की रचना हुई है जिनमे अजरामरस्तान (स० १९६६), श्रावकन्नतपत्रिका (स० १९७०), कर्तव्यकामुदी (स० १९७०), भावनाशतक (स० १९७२), रत्नधर्मालकार (स० १६७३), प्राकृत पाठमाला (स० १६८०), प्रस्तर रत्नावली (स० १९८१), जनदर्शन मीमासा (स० १९८३), रेवतीदान समालोचना (स० १६६१), जनसिद्धान्त कौमुदी (स० १६६४) - अर्धमागधी का सटीक व्याकरण प्रमुख है। । यह अर्धमागधी कोश मूलत गुजराती मे लिखा गया और उसका हिन्दी तथा अग्रेजी रूपातर प्रीतमलाल कच्छी आदि अन्य विद्वानो से कराया गया। इस कोश के रचने मे लेखक को मुनि उत्तमचद जी, उपाध्याय आत्माराम जी, मुनि माधवजी तथा मुनि देवचन्द्रजी का भी सहयोग मिला है। डॉ० वनारसीदास जी एव डॉ० वेलवेलकर ने भी इसमे सहयोग दिया। इन सभी विद्वानो के सहयोग से प्रस्तुत की। इस रूप मे प्रकाशित हो सका है। डॉ० बूलर की विस्तृत प्रस्तावना और सरदारमल मडारी की विस्तृत अंग्रेजी भूमिका के साथ यह कोश पार भागो मे इस प्रकार प्रकाशित हुआ भाग १ 'अ' वर्ण पृ० ५१२ प्रकाशन काल सन् १६२३ भाग २ 'अ' से 'ण' वर्ण तक पृ० १००२ ॥ सन् १९२७ भाग ३ 'त' से 'ब' वर्ण तक लगभग पृ० १०००,, , सन् १९२६ भाग ४ 'भ' से ह वर्ण तक पृ० १०१५ , सन् १९३२ (परिशिष्ट सहित) इस प्रकार लगभग ३६०० पृष्ठो मे यह कोश समाप्त हो जाता है। इसे हम ५च भाषा कोश कह सकते हैं क्योकि यह प्राकृत के साथ ही सस्कृत गुजराती हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओ मे रूपातरित हुआ है । लगभग सभी शब्दो के साथ यथावश्यक Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ साकृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा मूल उद्धरणो को भी इसमे सम्मिलित किया गया है। ये उद्धरण सक्षिप्त और उपयोगी है। उनमे अभिधान राजेन्द्र कोश जैसी बोझिलता नही दिखती । अभिधान राजेन्द्र कोश की अन्य कर्मियो को भी परिमार्जित करने का प्रयत्न किया गया है। इस कोण मे आम साहित्य तथा आगम से निकटत संबंध रखने वाले विशेषावश्यक भाज्य, पिंड, नियुक्ति, ओधनियुक्ति आदि ग्रथो का उपयोग किया गया है साथ ही शब्द के साथ उसका व्याकरण भी प्रस्तुत किया गया है। अर्धमागधी से अतिरिक्त प्राकृत वोलियो के शब्दों को भी इसमे कुछ स्थान दिया गया है। इसके चारो भागो मे कुछ परम्परागत चिन भी सयोजित कर दिये गये है जिनमे आवलिकावध विमान, आसन्, ऊवलोक, उपशमश्रेणी, कनकावली, कृष्णराजी, कालचक्र, क्षपकश्रेणी, धन रज्जु, घनोदधि, १४ रत्न, चन्द्रमडल, जम्बूद्वीप नक्षत्रमडल, भरत, मेरू, लवणसमुद्र, लोभ, विमाण आदि प्रमुख है। इस कोश का सपूर्ण नाम An Illustrated Ardha-Magadhi Dictionary है और इसका प्रकाशन S S Jaina Conference इन्दौर द्वारा हुआ है। इस कोश के परिशिष्ट के रूप मे सन् १९३८ मे पचम भाग भी प्रकाशित हुआ। इसमें अर्धमागधी, देशी तथा महाराष्ट्री शब्दो का संस्कृत, गुजराती, हिन्दी और अग्रेजी भाषाओ के अनुवाद के साथ सग्रह हुआ है। परन्तु उनका यहा व्याकरण नहीं दिया जा सका। यह भाग भी लगभग ६०० पृष्ठो का है। मुनि रत्नचंद्र जी का यह सपूर्ण कोश छात्रो और शोधको के लिए उद्धरण ग्रथ-सा बन गया है । मुनिजी का जन्म स० १६३६ वैशाख शुक्ल १२ गुरुवार को कच्छ के भारी नामक ग्राम मे हुआ। आपका विवाह १३ वर्ष की अवस्था मे हुआ और स० १९५३ मे पत्नी की मृत्यु के बाद मुनि दीक्षा ले ली। इसके बाद उन्होने सस्कृत और प्राकृत ग्रथो का गहन अध्ययन किया और जीवन के उत्तरकाल में ग्रथ-निर्माण का कार्य हाय मे लिया। वे शतावधानी भी थे और तपस्वी भी। ३ पाइय-सह-महण्णव इस कोश के लेखक प० हरगोविन्ददास निकमचद सेठ का जन्म वि० स० १९४५ मे राधनपुर (गुजरात) में हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा बहुत कुछ यशोविजय जन पा०शाला, वाराणसी में हुई। यही रहकर उन्होने सस्कृत और प्राकृत भाप। का अध्ययन किया। प० वेचरदास डोसी उनके सहाध्यायी रहे है । दोनो विद्वान् पालिका अध्ययन करके श्रीलका भी गये और बाद मे वे संस्कृत, प्राकृत और गुजराती के प्राध्यापक के रूप मे कलकत्ता विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए। न्यायव्याकरणतीर्थ होने के कारण जैन-जनेतर दार्शनिक प्रयो का गहन अध्ययन हो चुका या। यशोविजय जन अयमाला से उन्होने अनेक सस्कृत-प्राकृत ग्रथो का संपादन भी किया। लगभग ५२ वर्ष की अवस्था मे ही स० १६६७ मे वे कालकवलित हो Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक जन कोश ग्रन्थो का मूल्याकन ३६३ गये । अपने इस अल्पकाल मे ही उन्होने अनेक ग्रथो का कुशल सपादन और लेखन किया। से०जी के ग्रथो मे पाइयसहमहणव का एक विशिष्ट स्थान है । इसकी रचना उन्होने सभवत अभिधान राजेन्द्रकोश की कमियो को दूर करने के लिए की। जैसा हम पीछे लिख चुके है, सेठजी ने उपर्युक्त ग्रथ की मार्मिक समीक्षा की और उसकी कमियों को दूर कर नये प्राकृत कोश की रचना का सकल्प किया। उन्होने स्वयं लिखा है "इस तरह प्राकृत के विविधभेदो और विषयो के जैन तथा जनेतर साहित्य के ययेष्ट शब्दो से सकलित, आवश्यक अवतरणो से युक्त, शुद्ध एव प्रामाणिक कोश का नितान्त अभाव बना ही रहा है। इस अभाव की पूर्ति के लिए मैंने अपने उक्त विचार को कार्यरूप में परिणत करने का दृढ सकल्प किया और तदनुसार शीघ्र ही प्रयत्न भी शुरू कर दिया गया। जिसका फल प्रस्तुत कोश के रूप मे चौदह वर्षों के कठोर परिश्रम के पश्चात् आज पाठको के सामने उपस्थित लेखक के इस कथन से यह स्पष्ट है कि कोश के तैयार करने मे उन्होने पर्याप्त समय और शक्ति लगायी। प्रकाशित सस्करणो को शुद्ध रूप मे अकित करने का एक दुष्कर कार्य था, जिसे उन्होने पूरा किया। इतना ही नही बल्कि उन्होने इस वृहत्काय कोश का सारा प्रकाशन-व्यय भी स्वय उठाया। कोशकार ने आधुनिक ढग से लगभग ५० पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावना भी लिखी, जिसमे प्राकृत भाषाओ का इतिहास तथा भारतीय भाषाओ के विकास मे उनके योगदान की विशेष चर्चा की। इस ग्रय के निर्माण मे उन्होने लगभग ३०० ग्रयो का उपयोग किया जो प्राय श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध है। लगभग प्रत्येक शब्द के साय किसी प्रथ का प्रमाण भी दिया गया है। इस दृष्टि से यह कोश अधिक उपयोगी हो सका है। एक शब्द के जितने सभावित अर्थ हो सकते है उनका भी कोशकार ने उल्लेख किया है। सदिग्ध पाठ को कोष्ठक मे प्रश्नचिह्न के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह व्यवस्था उनकी विद्वत्ता और सावधानता को सूचित करती है। ४ पुरातन-जन-वाक्य-सूचि प्रस्तुत प्रथ के सम्पादक श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार प्राचीन जैन विद्या के प्रसिद्ध अनुसन्धाता रहे है । उन्होने वीर सेवा मदिर जैसे शोध-सस्थान और उसके अनेकान्त जैसे शोध-पत्र की स्थापना और उसका सम्यक संचालन कर जन विद्या के अनुसंधान क्षेत्र मे महत्त्वपूर्ण योग दिया है। श्री मुख्तार स्वयं भी एक वरिष्ठ अनुसंधाता रहे है। उन्होने अपनी अवस्था के लगभग ५० वर्ष इसी कार्य मे व्यतीत किये है। उनके ग्रथो मे स्वयभूस्तोत्र, स्तुति-विद्या, युक्तयनुशासन, समीचीन धर्मशास्त्र , अध्यात्म, रहस्य, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, देवागम Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण को परापरा "तोत्र आदि सपादित और अनुवादित अथ तथा शताधिक शोध-निवध गोधको के लिए मार्गदर्शक बने हुए है। ___पुरातन-जैन, वाक्य-सूचि वस्तुत एक ढग का कोशन थ है, जिसमे ६४ मूलनको के पश-वाक्यो की अकारादिक्रम से सूचि है। इसी मे ४८ टीकादि ग्रथो मे उद्धृत प्राकृत-पच भी सगृहीत कर दिये गये है। कुल मिलाकर ५०वीस हजार तीन सौ पावन प्राकृत-पद्यो की अनुक्रमणिका के रूप मे इस ग्रथ को तैयार किया गया है। इसके आधारभूत ग्रय विशेषत दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं। जहा तहा आचार्य 'उक्तच' लिखकर अपने पूर्वाचार्यों के पद्यो का उल्लेख करते रहे हैं जिनका खोजना कभी-कभी कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से यह ग्रथ शोषको के लिए अत्यधिक उपयोगी बन जाता है। इसके सपादन मे डॉ० दरवारीलाल कोठिया और प० परमानद शास्त्री ने विशेष सहयोग दिया है। इसका प्रकाशन वीरसेवा मदिर से सन् १९५० मे हुआ। इस ग्रथ की प्रस्तावना १६८ पृष्ठ की है, जिसमे मुख्तार सा० ने सम्बद्ध ग्रथो और आचार्यों के समय और उनके योगदान पर गभीर चितन प्रस्तुत किया है। ५ जनप्रथ-प्रशस्ति-सग्रह ___इसका दो भागो मे वीर सेवा मदिर से प्रकाशन हुआ है। प्रथम भाग का सपादन प० परमानदजी के सहयोग से श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने सन् १९५४ मे किया। इसमे संस्कृत प्राकृत भाषाओ के १७१ ग्रथो की प्रशस्तियो का संकलन किया गया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से बडी महत्वपूर्ण है । इन प्रशस्तियो मे सघ, गण, गच्छ, वश, गुरुपरम्परा, स्थान, समय आदि का सकेत मिलता है। इस भाग मे कुछ परिशिष्ट भी दिये गये है जिनमे प्रशस्तिगत मौगोलिक नामो, मों, गणो, गच्छो, स्थानो, राजाओ, राजमनियो, विद्वानो, आचार्यो, भट्टारको तया श्रावकश्राविकाओ के नाम की सूची को अकारादिक्रम से दिया गया है। प० परमानदजी द्वारा लिखित ११३ पृष्ठो की प्रस्तावना विशेष महत्त्वपूर्ण है। जनप्रथ-प्रशस्ति-संग्रह के दूसरे भाग के सम्पादक है प० परमानद शास्त्री जो जनशोध क्षेत्र में इतिहास और साहित्य के सर्वमान्य विद्वात् है। आपने वीरसेवा मदिर के अनेकान्त पत्र का लगभग प्रारभ से ही सम्पादन का भार उठाया और શતાધિશોવ નિવવો સ્વય નિરવર પ્રકાશિત ફિયા વિદદ્ નાનું પરમાનદ્ર जी की सूक्ष्मेक्षिका से भलीभाति परिचित है। उन्होंने मस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश तथा हिन्दी के अनेक आचार्यों का काल-निर्धारण किया एवं उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर असाधारण रूप से शोध-खोजकर प्रथमत प्रकाश डाला । उनका एक नवीनतम ग्रथ जनधर्म का प्राचीन इतिहास अपने वृहदाकार मे देहली से प्रकाशित हुआ है, जो उनकी विद्वत्ता का परिचायक है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक जैन कोश ग्रन्थो का मूल्यांकन ३६५ इस द्वितीय भाग मे विशेष रूप से अपभ्रंश ग्रंथो की १२२ प्रशस्तिया दी गयी है, जो साहित्य और इतिहास के साथ ही सामाजिक और धार्मिक रीति रिवाज पर अच्छा प्रकाश डालती है । इन प्रशस्तियों को हस्तलिखित ग्रथो पर से उद्धृत किया गया है और अधिकाश अप्रकाशित ग्रंथो को ही सम्मिलित किया गया है । इसमे कुछ उपयोगी परिशिष्ट भी जोड दिए गये है जिनमे भौगोलिक ग्राम, नगर, नाम, सघ, गण, गच्छ, राजा आदि को अकारादिक्रम से रखा गया है । लगभग १५० पृष्ठ की सपादक की प्रस्तावना शोध की दृष्टि से और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । इसका प्रकाशन वीरसेवा मंदिर, देहली से सन् १९६३ मे हुआ । एक अन्य प्रशस्ति संग्रह श्री के० भुजबली शास्त्री के सपादन मे जैन सिद्धान्त भवन आरा से वि०स० १९०६ मे प्रकाशित हुआ था । इसमे शास्त्री जी ने ३६ ग्रथकारों की प्रशस्तिया दी है और साथ ही हिन्दी मे उनका सक्षिप्त साराश भी दिया है । ६ लेश्या-कोश इसके संपादक श्री मोहनलाल बाठिया और श्रीचन्द चोरडिया है और इसके प्रकाशन-कार्य का गुरुतर भार श्री बाठिया ने उठाया है, जो कलकत्ता से सन् १९६६ मे प्रकाशित हुआ। ये दोनो विद्वान् जैनदर्शन और साहित्य के संशोधक रहे है । सम्पादको ने सपूर्ण जैन वाड्मय को सारभौमिक दशमलव वर्गीकरण पद्धति के अनुसार १०० वर्गो मे विभक्त किया और आवश्यकता के अनुसार उसे यत्र-तत्र परिवर्तित भी किया । मूल विषयो मे से अनेक विषयों के उपविषयो की भी सूचि इसमे सन्निहित है। इसके सम्पादन मे तीन बातो को आधार माना गया है- ( १ ) पाठो का मिलान (२) विपय के उपविषयों का वर्गीकरण तथा ( ३ ) हिन्दी अनुवाद | मूल पाठ को स्पष्ट करने के लिए सम्पादको ने टीकाकारो का भी आधार लिया है । इस सकलन का काम आगम ग्रंथो तक ही सीमित रखा गया है । फिर भी सपादन, वर्गीकरण तथा अनुवाद के कार्य मे नियुक्ति, चूर्णि, वृत्ति, भाष्य आदि टीकाओ का तथा सिद्धान्त ग्रंथो का भी ययास्थान उपयोग हुआ है । दिगम्बर ग्रथो का इसमे उल्लेख नही किया जा सका । सम्पादक ने दिगम्बर लेश्या कोश को पृथक् रूप से प्रकाशित करने का सुझाव दिया है। कोश-निर्माण मे ४३ प्रयोका उपयोग किया गया है । ७ क्रिया-कोश इसके भी सपादक श्री मोहनलाल बाठिया और श्री श्रीचन्द चोरडिया है और प्रकाशन किया है जैनदर्शन सीमिति कलकत्ता ने सन् १९६९ मे । श्री बाठिया जैनदर्शन के सूक्ष्म विद्वान् है । उन्होने जैन विषय-कोश की एक लम्बी परिकल्पना बनाई थी और उसी के अन्तर्गत यह द्वितीय कोश क्रिया-कोश के नाम से प्रसिद्ध Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा हुआ। इस कोश का भी मकलन दशमलव वर्गीकरण के आधार पर किया गया है और उनके उपविषयो की एक लम्बी सूची है। प्रिया के माथ ही कम विषयक सूचनाओ को भी इसमें अकित किया गया है। लेश्या-कोश के समान ही इस कोश के सम्पादन में भी पूर्वोक्त तीन बातो का आवार लिया गया है। इसमे लगभग ४५ ग्रथो का उपयोग किया गया है, जो प्राय श्वेताम्बर आगम ग्रथ है। कुछ दिगम्वर आगमो का भी उपयोग किया गया है। ___ सपदिक ने उक्त दोनो कोशो के अतिरिक्त पुद्गल-कोश, दिगम्बरलेश्या कोश और परिभाषा कोश का भी सकलन किया था परन्तु अभी तक उनका प्रकाशन नही हो सका है। इस प्रकार के कोश जैनदर्शन को समुचित रूप से समझने के लिए नि सदेह उपयोगी होते हैं । ८ जन जेम डिक्शनरी __Jaina Gem Dictionary का सपादन जैनदर्शन के मान्य विहान् जे० एल० जनी ने सन् १९१६ मे किया था, जो आरा से प्रकाशित हुआ है। श्री जैनी ने Heart of Jainism जैसे अनेक ग्रथो को स्वतन्त्र रूप से तैयार किया और तत्वार्य सूत्र जसे मान्य ग्रथो का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया। जैनधर्म को अग्रेजी के मध्यम से प्रस्तुत करने मे सी० आर० जैन और जे० एल० जनी का नाम अविस्मरणीय रहे।।। ___श्री जैनी का यह कोश जैन-पारिभाषिक शब्दो को समझने के लिए एक प्रस्थान ग्रथ कहा जा सकता है। भूमिका मे उन्होने स्वय लिखा है--"यह मुझे अनुभव हुआ कि एक ही जैन शब्द के विभिन्न अनुवादो मे विभिन्न अग्रेजी पर्याय प्रयुक्त हो सकते है । इससे एकरूपता समाप्त हो जाती है और ग्रयो के जैनेतर-पाठको के मन मे दुविधा का कारण बन जाता है। इसलिए सबसे अच्छा उपाय सोचा गया कि अत्यत महत्त्वपूर्ण जैन पारिभापिक शब्दो को साथ रखा जाय और जैनदर्शन के आलोक मे सही अर्थ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जाय । निश्चय ही इस तरह के कार्य को अतिम कहना उपयुक्त न होगा। यह उत्तम प्रयास है कि जन पारिभाषिक शब्दो को वर्ण-क्रमानुसार नियोजित किया जाय और उनका अनुवाद अग्रेजी मे दिया जाय।" __इस कोश का माचार प० गोपालदास वरया द्वारा रचित जैन सिद्धान्त प्रवेशिका प्रतीत होता है। एक अन्य कोश श्री वी० एल० जन और श्री शीतलप्रसाद जैन ने 'वृहज्जन-शब्दार्णव' नाम से सन् १९२४ और १९३४ मे दो भागो मे वारावकी से प्रकाशित किया था। इसी प्रकार का आनद सागरसूरि द्वारा लिखित "अल्पपरिचित-सद्धान्तिक शब्दकोश' भाग १, सूरत से सन् १९५४ मे प्रकाशित हुआ था जिसमे जन संातिक शब्दो को सक्षेप मे समझाया गया है। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक जन कोश ग्रन्थो का मूल्याकन ३६७ __जैनेन्द्र-सिद्धान्त-कोश इसके रचयिता क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी है, जिन्होने लगभग २० वर्ष के सतत अध्ययन के फलस्वरूप इसे तैयार किया है । इसमे उन्होने जैन तत्वज्ञान, आचारशास्त्र, कमसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक व्यक्ति, राजे तथा राजवश, आगम, शास्त्र व शास्त्रकार, धार्मिक तथा दार्शनिक सम्प्रदाय आदि से सम्बद्ध लगभग ६००० शब्दो तथा २१०० विषयो का सागोपाग विवेचन किया है । सम्पूर्ण सामग्री सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश मे लिखित प्राचीन जन साहित्य के १०० से अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रथो से मूल सदर्भो, उद्धरणो तथा हिन्दी अनुवाद के साथ सकलित की गयी है। इसमे अनेक महत्वपूर्ण सारणिया और रेखाचित्र भी जोड दिये गये हैं, जिससे विषय अधिक स्पष्ट होता गया। हर विषय को मूल शब्द के अन्तर्गत ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। साथ ही यह ध्यान रखा गया है कि शब्द और विषय की प्रकृति के अनुसार उसके अर्थ, लक्षण, भेद-प्रभेद, विषय-विस्तार, शका समाधान व समन्वय आदि मे जो-जो और जितना-जितना अपेक्षित हो वह सव दिया जाय । प्रस्तुत शब्द कोश भारतीय ज्ञानपीठ से चार भागो मे ८ और १० प्वाइट मे प्रकाशित हुआ है। मुद्रण की दृष्टि से भी इसमे अन्य कोषों की अपेक्षा वैशिष्ट्य है । टाइप की मिन्नता से विषय की भिन्नता को पहिचाना जा सकता है। मूल उद्धरणो को दे देने से इस ग्रथ की उपयोगिता और अधिक बढ गयी है। वस्तुत यह सही अर्थ मे सदर्भ ग्रंथ बन गया है। इसमे अधिकाश दिगम्बर ग्रथो का उपयोग किया गया है। इसके चार भा। इस प्रकार हैं भाग १ 'अ' से 'औ' वर्ण तक पृष्ठ ५०४ प्रकाशन काल सन् १९७० भाग २ 'क' से 'न' वर्ण तक , ६३४ ॥ १६७१ भाग ३ 'प' से 'व' वर्ण तक , ६३८ , १९७२ भाग ४ 'स' से 'ह' वर्ण तक , ५४४ , १९७३ इतने छोटे टाइप मे मुद्रित २३२० पृष्ठ का यह महाकोश निस्सदेह वर्णी जी की सतत साधना का प्रतीक है । उनका जन्म १९२१ मे पानीपत मे हुआ। आपके पिता जयभगवान एडवोकेट जाने-माने विचारक और विद्वान थे। आपकी जिजीविषा ने ही सन् १९३८ मे आपको क्षयरोग से बचाया तया इसी कारण एक ही फेंफडे से आज भी अपनी साधना मे लगे हुए हैं। एम० इ० एस० जैसी उ4 उपाधि प्राप्त करने के बावजूद प्रवृत्ति पथ मे उनका मन नही रम सका और फलत १६५७ मे घर से सन्यास ले लिया और १६६३ मे क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। प्रकृति से अध्यवसायी, मृदु और निस्पृही वर्णीजी के कुछ अन्य ग्रथ भी प्रकाशित हुए हैं और हो रहे है, जिनमे शातिपथ-प्रदर्शक, नये दर्पण, जन-सिद्धान्त Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा शिक्षण, कर्म-सिद्धान्त, श्रद्धा-विन्दु, द्रव्य-विज्ञान, कुन्दकुन्द-दर्शन आदि ग्रथ उल्लेखनीय है। १० जनलक्षणावली प्रस्तुत ग्रथ के संपादक प० पलिचन्द्र जी सिद्वान्त शास्त्री है, जिन्होने अनेक कठिनाइयो के बावजूद इस ग्रथ का सपादन किया। उनका जन्म सं० १९६२ मे सोर (शासी) मे हुआ और शिक्षा का बहुत र माग स्याहाद विद्यालय वाराणसी मे पूरा हुआ। सन् १९४० से लगातार साहित्यिक कार्य में जुटे हुए है। डॉ. हीरालाल जी के साथ उन्होंने पट्खण्डागम (धवला)के छह से सोलह भाग तक का सपादन और अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त जीवराज जनप्रयमाला से आत्मानुशासन, पुण्याश्रव, कयाकोण, तिलोयपणत्ति और पवनन्दिपचविशतिका हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुए। लक्षणावली के अतिरिक्त वीर सेवा मदिर से ध्यानशतक भी विस्तृत प्रस्तावना के साथ प्रकाशित हुआ है। आप मौन सावक और कर्मठ अध्येता है। लक्षणावली एक जैन पारिभाषिक शब्दकोश है। इसमे लगभग ४०० दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रयो से ऐसे शब्दो का सकलन किया गया है, जिनकी कुछ न कुछ परिभाषा उपलब्ध होती है। सभी सम्प्रदायो मे प्राय ऐसे पारिभाषिक शब्द उपलब्ध होते हैं। उनका ठीक-ठीक अभिप्राय समझने के लिए उन-उन ग्रथो का आश्रय लेना पड़ता है । जैनदर्शन के मदर्भ मे इस प्रकार के पारिभाषिक शब्दकोश की आवश्यकता थी जो एक ही स्थान पर विकास क्रम की दृष्टि से दार्शनिक परिभाषाओ को प्रस्तुत कर सके। इस कमी की पूर्ति लक्षणावली ने भलीभाति कर दी। इसमे परिभाषाओ के साय ही सक्षिप्त हिन्दी अनुवाद भी कुछ भिन्न काटे टाइप मे दिया गया है। अनुवादित ग्रथ भाग का क्रम भी साथ मे अकित किया गया है। अनेक वर्षों के परिश्रम के बाद इस ग्रथ का मुद्रण हो पाया है। लगभग १०० पृष्ठो की शास्त्री जी द्वारा लिखित प्रस्तावना ने इसे और भी अधिक सार्थक बना दिया। श्री जुगलकिशोर मुख्तार और वाबू छोटेलाल की स्मृतिपूर्वक इस ग्रथ को प्रकाशन हुआ है । अभी इसके दो भाग क्रमश १९७२ और १९७५ई० मे प्रकाशित हुए है जिनमें लगभग ७५० पृष्ठ मुद्रित है। तृतीय भाग मुद्रणाधीन है। ११ ए डिक्शनरी ऑफ प्राकृत प्रापर नेम्स __A Dictionary of Prakrit Proper names का सकलन और सम्पादन डॉ० मोहनलाल मेहता और डॉ० के० आर० चन्द्र ने सयुक्त रूप मे किया है और एल० डी० इन्ट्रीट्यूट, अहमदाबाद ने उसे सन् १९७२ मे दो भागो मे प्रकाशित Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक जैन कोश ग्रन्थो का मूल्याकन ३६६ किया है। डॉ० मेहता और डॉ० चन्द्र प्राकृत और जैन क्षेत्र के लिए अज्ञात नही। दोनो विद्वानो के अनेक शोधग्रथ और निवन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ० मेहता के द्वारा लिखित ग्रथो मे प्रमुख है Jaina Psycholgy, Jaina Culture, Jaina Philosophy जैन आचार, जैन साहित्य का वृहद इतिहास, जन-धर्म-दर्शन आदि । डॉ० चन्द्र ने विमलसूरि के ५उमचरिय का अंग्रेजी मे अध्ययन प्रस्तुत किया है जो प्रकाशित हो चुका है। इन दोनो विद्वानो ने उपर्युक्त कोश को रचना डॉ० मलाल शेखर के "A Dictionary of Pali-Proper names के अनुकरण पर की है। जैन साहित्य, विशेषत आगमो मे उल्लिखित व्यक्तिगत नामो के सदर्भ मे यह कोश अच्छी जानकारी प्रस्तुत करता है। १२ Jaina Bibliography . (Universal Encyclopaedia of JainReferences) लगभग २५ वर्ष पहले बाबू छोटेलालजी ने एक Jaina Bibliography प्रकाशित की थी जो आज उपलब्ध नहीं है। वीर सेवा मदिर दिल्ली की ओर से एक और Jaina Bibliography प्रकाशित हो रही है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये के सपादन मे इसके लगभग दो हजार पृष्ठ मुद्रित हो चुके है। शेष भाग का कार्य डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर, नागपुर कर रहे है। इस वर्ष के अत तक उसके सम्पूर्ण प्रकाशित हो जाने की आशा है । प्रस्तुत Bibliography मे देश-विदेश मे प्रकाशित ग्रयो और पत्रिकाओ से ऐसे सदर्भो को विषयानुसार एकत्रित किया गया है जिनमे जैनधर्म और सस्कृति से सम्बद्ध किसी भी प्रकार की सामग्री प्रकाशित हुई है । इसमे निम्नलिखित शीर्षको के अन्तर्गत विषय सामग्री सकलित की गई है। Encyclopaedias, Dictionaries Bibliographtes, gazetteers, Census Reports and guides, Historical and Archaeological accounts, Archaeology (including Museum), Archaeological Survey, History, Geography, Biography, Religion, Philosophy and Logic, Sociology, Ethnology, Educational statistics, Languages, Literature, general works इन समस्त शीर्षको को आ० विभागो मे विभाजित किया गया है। लगभग २०० पृष्ठो के word Index का प्रकाशन होना बाकी है । इस वृहदाकार ग्रथ मे देशी-विदेशी विद्वानो द्वारा लिखित लगभग ३००० पुस्तको और निवन्धो आदि का उपयोग किया गया है फिर भी कुछ आवश्यक सामग्री सकलित होने से रह गयी है। इसके बावजूद यह प्रथ निविवाद रूप से प्राचीन भारतीय संस्कृति, विशेषत जैन सस्कृति के संशोधन के लिए अत्यंत उपयोगी सन्दर्भ ग्रथ कहा जा सकता है । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा १३. अन्य कोग उपर्युक्त कोशो के अतिरिक्त कुछ और भी छोटे मोटे कोश जन विद्वानों ने तयार किये है। उनमे निम्नलिखित उल्लेखनीय है। श्री वलगी छगनलाल का 'जन कक्को' अहमदाबाद मे सन् १८१२ मे प्रकाशित हुआ था, जिसमें प्राकृत शब्दो का गुजराती में अनुवाद दिया गया था। इसी तरह एच० आर० कापटिया का English-Prakrit Dictionary के नाम से एक कोश सूरत में सन् १९४१ मे प्रकाशित हुआ था। यहा हम डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर द्वारा संकलित और सम्पादित विद्व दिनोदिनी' का भी उल्लेख कर सकते है, जिसमे उन्होने मस्कृत, पालि, प्राकृत हिन्दी और गुजराती साहित्य में उपलब्ध प्रहेलिकाओ का संग्रह किया है । इसका प्रकाशन अमोल जैन ज्ञानालय, धूलिया की ओर से सन् १९६८ मे हुआ था। इसमे सस्कृत, प्राकृत साहित्य मे उपलब्ध कुछ और भी प्रहेलिकाओ का सग्रह कर आकार को कुछ और भी बढाकर दिया जाता तो कदाचित् वह अधिक उपयोगी हो जाता। ___इस प्रकार आधुनिक युग में अनेक जैन विद्वानो ने विविध प्रकार के कोशग्रथो को तैयार किया, जो अध्येताओ के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं । यह। हमने कतिपय कोथो का ही उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त कुछ और भी छोटे-मोटे अनेक कोश नयो की रचना जैन विद्वानो ने की होगी पर उनकी जानकारी हमें नहीं हो सकी। यहा विशेष रूप से ऐसे कोश-ग्रयो का उल्लेख किया गया है जिनका सबध प्राकृत और जैन साहित्य मे रहा है। संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, अग्रेजी आदि भापाओ के जैन विद्वानो द्वारा लिखित कोश इस सीमा से बाहर रहे है। जैनप्रय सूचियो को भी हमने जानबूझकर छोड़ दिया है क्योकि आधुनिक दृष्टि से वे कोशो की परिधि मे नही आती । हाँ, यदि हम को का सकीर्ण अर्थ न कर उसका प्रयोग विस्तृत अर्थ मे करें तो निस्संदेह कोशकार एव कोशपथो की एक लम्बी सूची तैयार हो सकती है। सदर्भ १ अभिधान राजेन्द्रकोश, भूमिका, पृ० १३ २ वही। ३ जैसे 'पेइय' द की व्याख्या में प्रतिमा-शतक नामक सटीक संस्कृत प्रथ को नादि से __ अत तक उद्धृत किया गया है । इस ग्रथ की श्लोक संख्या करीव पाच हजार है। ४ पाइयसहमहण्णव, द्वितीय संस्करण, भूमिका, पृ० १३-१४ ५. अभिधान राजेन्द्रकोश, भूमिका पृ० १३-१४ ६ पाइयसहमहण्णव, भूमिका, द्वितीय सस्करण, पृ० १४ ७ जैनेन्द्र-सिद्धान्त-कोश, भाग १, प्रास्ताविक । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११वी २०वीं शताब्दी के जैन कोशकार और उनके कोशों का मूल्यांकन डा० नेमीचन्द जैन १ शब्दज्ञान की परम्परा वैदिक युग से अविच्छिन्न चली आ रही है। निघण्टु' और निरुक्त' इसके स्पष्ट साक्ष्य है । शब्द और अर्थ रूढ सम्बन्धी है। अर्थ-बोध, अर्थ-निर्णय और अर्थ-सप्रेपण की समस्याए लेखक-पालक तथा वक्ताश्रोता के मध्य सदैव जीवन्त रही है। कोश-रचना की पृष्ठभूमि पर सम्यक अर्थसप्रेपण का लक्ष्य ही सर्वत्र सक्रिय रहा है। सही अर्थ और सही सदर्भ खोजने के यत्न मे ही कोश बने है और उन पर भारतीय मनीपा ने अटूट वस्तुनिष्ठा से कार्य किया है । जैन कोश आज जिस रूप मे उपलब्ध हैं, वह रूप, पद्धति और परम्परा बहुत प्राचीन नही है, उसने उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवी शताब्दी के आरभ मे ही आकार ग्रहण किया है। भारत मे अगरेजो के आगमन (१६०० ई०) से इस तरह के विशिष्ट अध्ययन को प्रेरणा मिला । यद्यपि अगरेजो का भारतीय भाषाओ के अध्ययन का लक्ष्य आरभ से पवित्र नही था, क्योकि वस्तुत वे यहा के निवासियो की भाषाए सीखकर उनपर अपना साम्राज्यवादी पजा और अधिक दृढ करना चाहते थे, तथापि उनकी इस प्रवृत्ति के भी अन्ततोगत्वा बड़े सुखद परिणाम निकले । हिन्दुस्तानी को लेकर अगरेजो ने कई शब्दकोश और श०सग्रह (डिक्शनरिया और व्होकेब्युलरिया) सपादित किए, किन्तु ये सब अगरेजी मे ही थे। जॉन अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वे मे इस तरह के कोशो और शब्दावलियो की एक व्यापक तालिका दी है। इस सूची मे अगरेजी मे तैयार कोश ही अधिक हैं, कहना चाहिए कि उन्नीसवी शताब्दी के आरभ होते ही अगरेजो का ध्यान इस महत्वपूर्ण कार्य की ओर गया और उन्होने अपने प्रशासनिक सुभीता के लिए उक्त प्रकार की शब्दावलिया बनाई। इस तरह तैयार कुछ व्यक्तिगत टीपे उपयोगी दस्तावेजो के रूप में भी प्रकाशित हुई है। कैप्टेन जोसेफ टेलर और Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा विलियम हटर के नाम इस दृष्टि में उल्लेख्य है। हिन्दी मे हिन्दीभापा-कोश १८६२ ई० मे छपा। सभवत सबसे पहला हिन्दीभापा-कोण --जिसमे रोमन लिपि मे हिन्दी-अगरेजी, अगरेजी-हिन्दी शब्दार्य दिए है (फर्गुसनकृत) अठारहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे लदन से प्रकाशित हुआ और तदनन्तर यह 4-परा लगभग अटूट चलती रही है । मन् १८६४ ई० मे 'श्रीधरमापाकोश' प्रकाशित हुआ। इसके चार वर्ष पूर्व 'अभिधान-राजेन्द्र' का सियाणा नगर में सूत्रपात हो चुका था। वैसे यूरोप मे कोश-रचना एन्सायक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के साथ आरभ हुई। इसके बाद यह परम्परा अविच्छिन्न बनी रही, जिसने आगे चलकर भारतीय कोश-परम्परा को प्रभावित किया। इस परम्परा मे हिन्दी मे कई विशिष्ट कोश बने । यिसा रस (पर्याय-कोण) की परम्परा भारत मे नई नहीं है, किन्तु इधर आधुनिक पद्धति पर पर्याय-कोशो के क्षेत्र में प्रशस्त प्रयत्न हुए है। विख्यात हिन्दी-कोशकार स्व० रामचन्द्र वर्मा ने वर्षों पर्यायको विज्ञान पर काम किया है । अगरेजो ने तो शब्दकोशो के क्षेत्र मे अद्वितीय काम किया है, उन्होंने भारतीय पौर और दलाल-भाषाओ (आगेट्स) तक के कोश बनाए हैं। प्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वे मे इनकी चर्चा की है। २ जैन कोश-परम्परा का आविर्भाव १९वी शताब्दी के नवें दशकान्त से मानना चाहिए। इस दृष्टि से 'अभिधान-राजेन्द्र' प्रथम मानक पूर्वज हरता है। इसके बाद कई कोश आए, किन्तु इतना बृहत् कोश नही बनाया जा सका। प्राकृत-अर्द्धमागधी के इस प्रथम पारिभापिक शब्दकोश के आरभिक पृ०० हिन्दी मे है किन्तु शब्द-विवृत्तिया सस्कृत मे हैं ।प्रश्न उठ सकता है कि आखिर इतने शब्दकोशो की आवश्यकता ही क्यो हुई ? बात यह है कि किसी भी शब्द के कई प्रयोगार्थ हो सकते है । एक ही शब्द विभिन्न प्रकरणो और मदर्भो मे भिन्न-भिन्न अर्थ रख सकता है, वस्तुत ०८ की इस तरह से विकसित आर्थी छवियो और भगिमाओ को भली-भाति समझना अतीव दुष्कर कार्य है। शब्द-व्यक्तित्व कई-कई काल-पों मे दवा रहता है । उसकी इन आर्थी विवक्षाओ को कोश की अनुपस्थिति ऐ जानना कठिन ही होता है। कोश जब भी प्रकाश मे आता है अपनी पूर्ववर्ती साहित्य-सपदा को स्वीकार करता है । उसकी सामग्री का प्रधान स्त्रोत यही होता है। इसके विना वह एक कदम भी आगे नहीं बढ सकता । इस तरह वह अपने पूर्व कालीन और समकालीन प्रयोगार्थों पर ही अवलम्बित रहता है। किसी कोश को शब्दो का एक व्यापक सूचीकरण मात्र मान लेना बहुत बड़ी भूल है, क्योकि शब्दो की तालिका देना कोश नहीं है, वस्तुत एक कोशकार को शब्द की अन्तरात्मा मे गहरे पैठना होता है और उसके अन्तर्मुख व्यक्तित्व के जाने-अजाने सारे अशो, मुद्राओ और भगिमाओ को देना होता है। ३ शब्दकोशो की अनुपस्थिति मे अर्थसप्रेषण लगभग असभव ही होता है, Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६वी २०वी शताब्दी के जैन कोशकार और उनके कोशो का मूल्याकन ४०३ इसीलिए विशिष्ट ज्ञान-क्षेत्रो मे विशिष्ट अध्ययन के निमित्त विशिष्ट शब्दकोश) की जो विषय-कोप ही होते है आवश्यकता बनी रहती है। जो अर्थविज्ञान के अध्येता है, वे अर्थ की जटिलताओ को भली-भाति जानते है, और इस तथ्य से परिचित होते है कि किसी भी शब्द का अर्थ सुस्थिर नही रहता, उसमे कमोवेश अर्थपरिवर्तन की प्रक्रिया सक्रिय रहती ही है। जो शब्द कल शाम तक एक विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त था, सभव है किसी पारिभापिकता के कारण वही दूसरी शाम अपने अर्थ मे सीमित हो उठ । अर्थ-सकोच, अर्थ-विस्तार और अर्थ-परिवर्तन की कुछ प्रमुख दिशाए हैं । अर्थविज्ञान का क्षेत्र विभिन्न परिवर्तनों पर विचार करना है, किन्तु जहा तक धर्म या दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली का सवाल है, वह रूढ होती है और उस पर अर्थ की परिवर्तनशीलता का मदगामी प्रभाव पड़ता है। कई ऐसे शब्द है, जो लोकव्यवहार मे कुछ और, विशिष्ट ज्ञानक्षेत्र मे कुछ अन्य अर्थ रखते हैं, उदाहरणत 'सधि', 'गुण', 'रस', 'वृद्धि', 'वासना', 'प्रयोग', 'योग', 'ग्राम', आगम', ऐसे शब्द है जो व्याकरण, राजनीति, मायुद, काव्य, पाकशास्त्र, गणित, विज्ञान इत्यादि मे एक और लोक मे उससे जुदा अर्थ रखते है । वास्तव मे शब्द के सम्यज्ञान के बिना कई गलतफहमिया होना सभव है। कई बार धर्म और दर्शन के क्षेत्र मे यही हुआ है। इस दृष्टि से जैन दर्शन के शब्दो का अध्ययन हुआ है। उसके कई शब्द अन्य भारतीय दर्शनो मे प्रयुक्त शब्दार्थ से भिन्न है, यथा---'धर्म', 'आकाश', 'उपयोग', 'अणु', 'आरभ', 'उल्लेखना', 'सम्यक', 'अनुप्रेक्षा', 'शिक्षा' । अत आवश्यक है कि ऐसे शब्दो की कालानुक्रमिक आर्थी मुद्राओ को स्पष्ट रूप मे व्याख्यापित किया जाए । एक कोशकार ही यह कार्य कर सकता है, वह वस्तुनिष्ठा से शब्दार्थ-अध्ययन करता है । वह शब्दार्थों का सकलयिता या सपादक होता है, अपनी ओर से न तो वह कोई अतिरजन करता है, और न ही अतिरिक्त प्रवेश । वह तो तथ्यो को ज्यो-का-त्यो प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति, विश्वसनीय और. प्रामाणिक होता है, इसलिए शब्दकोशो और कोशकारो का समाज को जो बहुमूल्य प्रदेय है, उसके प्रति अपार कृतज्ञता व्यक्त किये बगैर कोई विकल्प हमारे पास नही है। ४ आधुनिक पद्धति पर जैन कोशो की रचना का कार्य उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशको मे शुरू हुआ, किंतु प्रकाशन बीसवी शताब्दी के पहले दशक मे ही सभव हो सका। 'अभिधान-राजेन्द्र' सकलित १८६० ई० से १६०३ ई० के मध्य हुआ, किन्तु उसका प्रकाशन-कार्य १६१० ई० से पहले शुरू नहीं हो सका। इस कोश के सपादन-सकलन से पूर्व ही अगरेज भारत मे पूरी तरह स्थापित हो चुके थे, स्वभावत इस पर अग्रेजी कोश-पद्धति का प्रभाव है। यह कहना तो कठिन ही होगा कि राजेन्द्रसूरी ५वर और उनके सहयोगी कोशकार अगरेजी जानते थे, किन्तु यह सच है कि जो लोग कोश के प्रकाशन-महयोग मे तत्पर थे, वे अगरेजी भाषा Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ स्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा और साहित्य के किसी-न-किसी रूप मे जुड़े हुए थे। वैसे 'अभिधान-राजेन्द्र' वय मे परिपूर्ण कोश नहीं है, उसकी भी अपनी सीमाए और विवशताए है, किन्तु वह उस तक हुए प्रयत्नो मे सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ है। एक तो वह म कृत मे है, “वभावत इस कारण उसकी व्याप्ति सीमित हो गई है, दूसरे वह उद्धरणो और साक्ष्यों से भरा पडा है । श्री शाह ने जन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ५ मे लिखा है कि कही-कही तो अवतरणो मे पूरे ग्रन्य तक दे दिये है' । जो हो यह महाकोश अद्वितीय है और जन तथा प्राच्य विद्या का एक बहुमूल्य सदर्भ है । इसमें प्रथम भाग के रिभ मे दिये गये ३ परिशिष्टो" मे प्राकृत मे मवधित व्याकरणिक सामग्री मयोजित है । इसी तरह उपोद्घात में भी कई तथ्यो को योजित किया गया है। "आवश्यक कतिपय मकेत" शीर्षक से सहयोगी कोशकार उपाध्याय श्रीमोहनविजयजी ने प्रस्तावना में कई आवश्यक और उपयोगी विषयो पर प्रकाश डाला है । इस पर रोमन लिपि मे 'जैन एन्सायक्लोपीडिया' छापा गया है । वस्तुत 'डिक्शनरी' और 'एन्मायक्लोपीडिया' में अन्तर है। एक विश्वकोश और शब्दकोश मे सबसे बडा बन्तर यह है कि विश्वकोश मे विविध शीर्षको के अन्तर्गत व्यापक जानकारियो का आकलन होता है, जबकि एक शब्दकोश मे शब्द-विवृतिया ही होती है । इस दृष्टि से हम 'अभिधान राजेन्द्र' या उससे मिलते-जुलते कोशो के लिए एक नया अभिवान विश्वकोशीय शब्दकोश (एन्साक्लोपीडिक डिक्शनरी) चुन सकते हैं। इसमे शीर्षक और शब्द दोनो विवृत है। ५ वस्तुत आधुनिक पद्धति से जन कोशो की सकलना का कार्य १८६० ई० से आरभ हुआ। 'अभिधान-राजेन्द्र' को इस क्षेत्र मे हुए प्रयत्नो मे मानक और सर्वप्रथम माना जा सकता है । इसके बाद जे० एल० जैनी की जन जेम डिक्शनरी १६१८ ई० मे प्रकाश में आयी। इसकी भी अपनी सीमाए है, स्वय श्रीजन ने इसे अन्तिम नही माना है ! उसमे श्री जनी ने पारिभाषिक शब्दो के अगरेजी-पर्यायशब्दो मे एकरूपता रखने की बात कही है क्योकि उनका अनुभव है कि इन पारिभापिक या लाक्षणिक दो के अनेक अंग्रेजी पर्याय रखने से पाठक या अध्येता द्विविधा मे फस जाता है, अत यह अत्यन्त आवश्यक है कि एक तो ऐसे पर्याय-शब्दो का उपयोग किया जाए जो बहुअर्थी न हो और दूसरे सर्वसम्मत हो। श्री जनी के कोश के वाद १९२३ई०-१९३२ ई० को कालावधि मे श्रीरत्नचन्द्रजी शतावधानी द्वारा पाच भागो मे मपादित 'एन इलस्ट्रेटेड अर्धमागधी डिक्शनरी' नामक कोश प्रकाशित हुआ। इसकी भी अपनी सीमाए है, समीक्षक मानते है कि इसमें कई पर्याय शब्द और कई आर्थी विवाए स्पष्ट नही है। वही अगरेजी-पर्याय-शब्दो की एकरूपता की समस्या यहा भी बनी हुई है। अमल मे अगरेजी-पर्याय देनेवाली डिशनरियो की यह मीमा तब तक रहेगी जबतक हम एक सर्वसम्मत मस्कृत-प्राकृत अर्द्धमागधी-हिन्दी-अगरेजी पर्याय दकोण का प्रकाशन नही कर लेते । इसके लिए Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९वी २०वी शताब्दी के जन कोशकार और उनके कोशो का मूल्याकन ४०५ किसी विशिष्ट विद्वन्मडल को योजनाबद्ध कार्य करना चाहिये। इसके बाद १९२४ ई०-१९३४ ई० की समयावधि मे श्री वी० एल० जन द्वारा आबद्ध और श्री शीतलप्रसादजी द्वारा समाप्त 'वृहज्जन शब्दार्णव' (२ भाग) प्रकाशित हुआ।" यह काफी उपयोगी कोश है। और यदि एक ही व्यक्ति की निष्ठा और लगन का परिणाम है तो सचमुच विस्मयजनक है। इसके बाद १९५४ ई० मे आनन्दसूरि का अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश, भाग १' प्रकाशित हुआ, जिसमे जन सैद्धान्तिक शब्दो को हिन्दी मे दिया गया है । इस कोश की अपनी जुदा किस्म की उपयोगिता है। ६ इन कोशो के बाद - जो अपने लक्ष्य मे व्यापक और उदार थे-- १९६६ ई० मे कलकत्ता से एक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय प्रयत्न हुआ। बाठिया और चौरडिया बन्धुओ ने विषय-कोशो की व्यापक परिकल्पना की। उन्होने जैन विषयो की एक बृहद् तालिका तैयार की और उसे दशमिक पद्धति पर व्यवस्थित किया जन कोशो के क्षेत्र मे यह एक वैज्ञानिक आरभ था, किन्तु इस प्रयत्न के अन्तर्गत प्रकाशित क्रियाकोश, १९६६' के उपरान्त इसके सबन्ध मे कोई समाचार नही मिला । उक्त योजना को मान जैन-कोश-विज्ञान ही नही वरन संपूर्ण कोश-विज्ञान के क्षेत्र की एक अपूर्व घटना कहा जाना चाहिये । यद्यपि 'लेश्या-कोश' के सामग्री स्रोत विशुद्ध श्वेताम्बर ग्रन्थ है तयापि पद्धति की दृष्टि से इस कोश का प्रकाशन एक ऐतिहासिक प्रसग है । इससे दिशा ग्रहण कर अधिक वैज्ञानिक कार्य किया जा सकता है । वस्तुत विषय-कोशो की रचना का कार्य एक महत्त्वपूर्ण कार्य है, जिसे एक बड़े पैमाने पर उठाया जाना चाहिए। इसके बाद १९७० ई० मे जिनेन्द्रसिद्धान्त-कोश' का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ। इस कोश का मेरुदण्ड प० गोपाल दास बरैया प्रणीत 'जन-सिद्धान्त-प्रवेशिका (१६०० ई०) है।" बरैयाजी की यह गुटकानुमा पुस्तक एक किस्म की 'जेवी एन्सायक्लोपीडिक डिक्शनरी' ही है, जिसमे जैन सिद्धान्तो को सक्षेप मे प्रस्तुत किया गया है। असल में इस तरह की जेबी डिक्शनरियो का सकलन-सपादन भी युगापेक्षित है। 'जनेन्द्र सिद्धान्त कोश' अपने नाम से ही एक पारिभाषिक शब्दकोश है, जिसमे सभित विपयो को बडे विस्तार के साथ प्रस्तुत किया गया है। 'अभिधान-राजेन्द्र' के उपरान्त यह उसी शृखला का एक महत्वपूर्ण लाक्षणिक शब्दकोश है। इसके सकलयिता है क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी । इसके तीन और भाग क्रमश १९७१, १६७२ और १९७३ मे प्रकाशित हुए है। इसके बाद जैन सिद्धान्तो को कोश के रूप मे प्रस्तुत करने वाला एक कोश वीर सेवा मदिर, दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इसका प्रथम भाग १६७२ और द्वितीय १६७३ मे प्रकाशित हुआ है। जिन लक्षणावली' अपने पूर्ववर्ती पारिभाषिक शब्दकोशो से अधिक सार्थक, सफल और वैज्ञानिक है। यह इतनी समस्त है कि इसने 'जनेन्द्र सिद्धान्त को' की पगडडियो पर चलकर मक्षेप या सारणियो के रूप मे Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा विपयो की पुनरावृत्तिया नहीं की है। हिन्दी अनुवाद सटीक और चुने हुए हिस्सो के ही दिये गये हैं। लक्षणावली मे दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनो मप्रदायो के सामग्रीस्रोतो का यथासंभव उपयोग और दोहन किया गया है। इसके परिशिष्ट पर्याप्त उपयोगी है, जिनके अन्तर्गत ग्रन्थ, ग्रन्यकार, और कालानुक्रम से अनुक्रमणिकाए दी गयी है । विद्वान् कोशकार हैं वालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री। एल० डी० इस्टीट्यूट ऑफ इडोलोजी द्वारा 'लक्षणावली' के समानान्तर वर्षों मे प्रकाशित 'प्राकृत व्यक्ति वाचक सज्ञा कोश'२३ भी एक महत्वपूर्ण सदर्भ है । यह अग्रेजी मे है, और श्वेताम्बर सामग्री-स्रोतो पर आधृत है। इसकी सकलना मे प्रकाशित-अप्रकाशित सभी प्राकृत ग्रन्थो का उपयोग किया गया है । सकलनकर्ता हैं डा० मोहनलाल मेहता और ऋषभ के० चन्द्रा। 'श्रमण' मासिक वाराणसी ने जनवरी १९७६ के अक मे 'जनागम-पदानुक्रम' कोश का प्रकाशन आरभ किया है। इसके सपदिक है डॉ० मोहनलाल मेहता, जमनालाल जैन ।२४ आगम-शोध-कार्य के वाचना-प्रमुख आचार्य श्री तुलसी तथा संपादक और विवेचक, आगमति मुनि श्री नथमलजी के निर्देशन मे जैन आगम कोश निर्माणाधीन है। इसमे शब्दो के साथ-साथ आगम-ग्रन्थो के सन्दर्भ भी रहे। छह आगमो का कार्य संपन्न हो चुका है। यह जैन विश्व भारती, लाडणू द्वारा प्रकाश्य है। ७ नीचे प्रकाशन-वर्प-क्रम से कोशो तथा कोशकारो की सारणी प्रस्तुत है वर्ष कोश-नाम भाग कोशकार प्रकाशक +१९१३ अभिवानराजेन्द्र १ ७ राजेन्द्रसूरि श्री अभिधान राजेन्द्र કાર્યાનય, સતનામ १६१८ जन जैम डिक्शनरी जे० एल० जैनी आरा १६२३ एन इलस्ट्रेटेड १ ५ रतनचन्द्रजी अर्द्धमागधी डिक्श शतावधानी नरी (१९२३-३२) अजमेर-बबई १९२४ वृहज्जन शार्णव १,२ बी० एल० जैन (१६२४-३४) शीतलप्रसाद बारावकी-सूरत १९५४ अल्प परिचित १ आनन्दसागरसूरि વૈદ્ધાત્તિ શબ્દકોશ सूरत + इस कोश का संपादन १८६० ई० में आरभ हुआ और समापन १९०३ ई० मे। इसका प्रथम भाग १६१३ और द्वितीय १६१० मे प्रकाशित हुआ, सपूर्ण कोश १९१० से १९३४ ई० की समयावधि में प्रकाशित हुआ। राजेन्द्रसूरिजी ने १८६६ ई० मे पाइयसहि ' का संपादन भी किया था, जो अप्रकाशित है। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९वी २०वी शताब्दी के जन कोशकार और उनके कोशो का मूल्यांकन ४०७ १९६६ लेश्याकोश __ मोहनलाल बाठिया १६ सी डोवर लेन श्रीचन्द चौरडिया कलकत्ता-६ १९६६ क्रियाको , , , १९७० जनेन्द्र सिद्धान्त- १-४ क्षु० जिनेन्द्र वर्णी भारतीय ज्ञानपीठ કોશ दिल्ली-१ (१९७०-७३) १६७० एडिक्शनरी ऑफ १ २ मोहनलाल मेहता एल० डी० इस्टी प्राकृत प्रॉपर नेस के० रिपभ चन्द्र ट्यूट ऑफ (१९७०-७२) इडोलोजी, अहमदाबाद-६ *१९७२ जन लक्षणावली १ २ वालचन्द्र सि०० वार सेवा मन्दिर, (१९७२-७३) दिल्ली-६ +१९७५ जनागम-पदानुक्रम मोहनलाल मेहता पालनाथ जमनालाल जन विद्याश्रम, शोध संस्थान वाराणसी-५ ८ आगे अधोलिखित कोशो का सक्षिप्त परिचय एव मूल्याकन दिया जा रहा है (क) अभिधानराजेन्द्र, ७ भाग राजेन्द्रसूरि अभिधान-राजेन्द्र कार्या लय, रतलाम १६१०-१९३४ । (ख) लेश्याकोश मोहनलाल बाठिया, श्रीचन्द चौरडिया १६ सी डोवर लेन, कलकत्ता-६ १९६६ । (ग) जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, ४ भाग क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी भारतीय शनिपी०, बी-४५/४७, कनाट प्लेस, नयी दिल्ली-१ १९७० १९७३। (घ) एडिक्शनरी ऑफ प्रॉपर नेम्स, २ भाग मोहनलाल मेहता, के रिषभ चन्द्रा एल०डी० इस्टीट्यूट आफ इंडोलॉजी, अहमदाबाद-६ १९७०-१६७२। * इसके २ भाग प्रकाशित हो चुके हैं, एक प्रका५५ है । + यह पावनाय विधाश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के तत्वावधान में प्रकाशित शोध मासिक 'श्रमण' के जनवरी १९७५ से प्रकाशित है। अक्तूबर १९७६ के अक तक (अबाहिरिय' श०८ तक) इसका प्रकाशन हुआ है। 'धारावाहिक कोश-प्रकाशन' की दिशा में यह एक स्वस्थ प्रयोग है । नवम्बर, दिसम्बर १९७६ के अ को में इसका प्रकाशन नही हुआ है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ संस्कृत - प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा (घ) जैनलक्षणावली, २ भाग बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागज, दिल्ली-६ १६७२-१९७३ । अभिधान राजेन्द्र यह १९वी शताब्दी के अन्त मे सपादित प्राकृत-मागधी शब्दी का एक बृहद् मानक कोश है, जिसकी शब्द-विवृत्तिया संस्कृत मे है और प्राथमिक जानकारिया हिन्दी मे दी गई है । जब यह कोश अपने सकलन-संपादन के दौर से गुजर रहा था तब हिन्दी शब्दकोशो की परम्परा का आरम्भ हुआ हुआ ही था । हिन्दी मे भी उन्नीसवी शताब्दी मे कोश के लिए 'अभिधान' पर्याय प्रयुक्त था। श्रीधरभाषाकोप (१८९४ ई० ) की भूमिका मे एक वाक्य आया है 'एक झापा का अभिधान लिखना समयानुसार उचित है २५ । प्रसन्नता की बात है कि 'अभिधान-राजेन्द्र' की प्रस्तावना हिन्दी भाषा मे लिखी गयी है । " आभारप्रदर्शन, ग्रन्थकर्ता का परिचय, आवश्यक कतिपय सकेत इत्यादि भी हिन्दी मे ही दिये गये है । इसमे इस तथ्य की सूचना नही है कि प्रस्तावना कब लिखी गयी किन्तु लगभग तय ही है कि यह बीसवी शताब्दी के प्रथम दशका मे कभी लिखी गयी है । इससे ऐसा लगता है कि तब तक हिन्दी मे कोश-रचना की परम्परा इतनी प्रशस्त नही हो पायी थी कि 'अभिधान-राजेन्द्र' जैसे महाकोश को वह બ્રેન પાતી, સનિ सभवत इसकी रचना हिन्दी की अपेक्षा संस्कृत मे हुई है, सभव है और भी कारण रहे हो किन्तु प्रमुख कारण यही प्रतीत होता है । लगता है मुद्रण-सबधी या सपादन सबधी किसी कारण से भी ऐसा हुआ हो। कोई धार्मिक कारण भी हो सकता है । प्रकाशन सबधी एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इसका द्वितीय भाग प्रथम की अपेक्षा ज्येष्ठ है प्रथम १९२३ ई० और द्वितीय १९१० मे प्रकाशित हुआ है । मभव है इस घटना की पृष्ठभूमि पर कोई सपादन या मुद्रण-मबधी कठिनाई रही हो। इस महाकोश का सम्पादन श्रीमद्विजय राजेन्द्रमूरि द्वारा सियाणा ( राजस्थान ) आश्विन शुक्ल २, वि० स० १९४६ मे हुआ और १४ वर्षों के अविश्रान्त परिश्रम के बाद चैत्रशुक्ल १३, वि० स० १९६० को सूरत, गुजरात मे सम्पन्न हुआ । यह ७ वृहद् जिल्दो मे प्रकाशित एक विशाल कोश है । महाकोशकाल की हिन्दी कैसी थी, इसका एक नमूना ग्रन्यकर्त्ता की जीवनी से प्रस्तुत है "श्रीविज जयरत्नसूरिजी महाराज तक तो कोई आचार्य पालखी मे न बैठे, परन्तु 'लघुक्षमासूरिजी' वृद्वावस्या होने से अपने शिथिलाचारी साधुओ की प्रेरणा होने पर बैठने लगे | उनी रीति कायम रखी कि गाम में आते समय पालखी से उतर जाते थे, तदन्तर 'दयामूरिजी ' तो गाव नगर मे भी बैठने लगे । ३७ इस हिन्दी - शैली की तुलना 'श्रीवरभापाकोप' की भूमिका के अन्तिम अश से करे "प्रकट हो कि निवाय मेरे उक्त कोप गोवर्द्धन उपनाम मान त्रिपाठि कान्यकुब्ज निवासी की पनि नजीराबाद शहर लखनऊ मे भी ग्राहक जनो को मूल्य प्रेपित करने पर प्राप्त हो सकेगा।" समापन Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९वी २०वी शताब्दी के जैन कोशकार और उनके कोशों का मूल्यांकन ४०६ 'अभिधानराजेन्द्र' के सबध मे अन्य उपयोगी तथ्य इस प्रकार है कोशकर्ता श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि (१८२७ ई० १६०६ ई०) है, जो श्वेताम्बर समाज के त्रिस्तुतिक वर्ग के एक क्रान्तिनिष्ठ साधु थे। ये सौधर्मबृहत्तपागच्छीय आचार्यपरम्परा मे ६७वे आचार्य थे जिन्होने उक्त कोश के अलावा सन् १८६६ मे 'पाइयसबुद्धि' की रचना भी की थी और तत्कालीन यतियो मे व्याप्त शिथिलाचार के विरुद्ध एक व्यापक सुधारवादी क्रान्ति की। प्रस्तुत कोश सुपर रायल १।४ २५ सेंटीमीटर चौडे और ३५ मेटीमीटर लम्बे आकार मे छपा हुआ है। इसके मुद्रण मे २६ ५ाइट ग्रेट न० १ और १२ पॉ० पका न० १ का उपयोग हुआ है। इसमे तीन प्राचीन भापाए प्रयुक्त हैं प्राकृत, अर्द्धमागधी, सस्कृत । शब्द प्राकृतअर्द्धमागधी के है और शब्दविवृत्तिया सस्कृत मे। इसकी रचना में प्रयुक्त सदर्भ ग्रन्थो की संख्या ६७ है और विवृत शब्द ६० हजार है। इस महाकोश के संबंध मे तत्कालीन भारतीय विद्वानो ने ही नही अपितु विदेशी विद्वानो ने भूरि-भूरि प्रशसा की है। जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है "यह विश्वकोश एक सदर्भ-ग्रन्थ की भाति तथा जैन प्राकृत के अध्ययन के निमित्त अतीव मूल्यवान है।" प्रो० सिल्वा लेवी, आर० एल० टनर जैसे भापाशास्त्रियों ने भी इस कोश की उन्मुक्त प्रशसा की है। इस कोश का ऐसा कोई परवर्ती कोश नही है, जिसने इसका उपयोग न किया हो। यद्यपि इसकी नकलना मे श्वेताम्बर सामग्री-स्रोतो का ही उपयोग हुआ है तथापि कोशकार की दृष्टि व्यापक और उदार है। कोश क रूपाकार पर एक विहगम दृष्टि इस प्रकार सभव है प्रकाशन-वर्ष पृष्ठसख्या विवत शब्द क्रम प्रथम १६१३ १४४+८६३ अ अहोहिय દ્વતીય १६१० ११८७ आ---ऊहापन्नित तृतीय १६१४ १६३३+१ ए- छोह १६१३ १४०४ ज नोमालिया पचम १६२१ १६२७ प भोल १९३४ १४६८ म वासु १९३४ १२५२ श हव २४ । ६३३६ अ--ह व ६०,००० ર્મા चतुर्थ ५७०म सप्तम ग्रन्थ की कतिपय विशेषताए इस प्रकार हैं १ यह १९वी शताब्दी का सर्वप्रथम मानक पारिभाषिक कोश है, जो जैन विद्या का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करता है। जैन प्राकृत-अर्द्धमागधी पारिभाषिक शब्दो के लिए तो यह एकमेव सदर्भ है। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा २ इसका मपादन १९वी शताब्दी के अन्त तक विकसित कोशपद्धति के अनुसार तो हुआ ही है, भारतीय कोश-परम्परा का भी इसमे समावेश और निर्वाह हुआ है। ३ साधनो के कम होते हुए और जैन ग्रन्थो के मुद्रित रूप मे उपलब्ध न होते हुए भी इसकी सकलना जैन ग्रन्थागारो मे उपलब्ध पाडुलिपियो के माध्यम से हुई है। निश्चय ही इसकी सकलना मे अपार श्रम हुआ है, दुर्लभ सामग्री-स्रोतो के दोहन की दृष्टि से इस महाकोश ने एक अप्रतिम कीति मान स्थापित किया है। ४ जन साधु कितने अध्ययनशील होते है, श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि ने यतियो मे से शिथिलाचार समाप्त करने के लिए महाकोश की सकलना का किस तरह का उपयोग किया कि उनका समकालीन यति वर्ग उनके साथ इस काम मे प्राणपण से जुट गया, किस तरह यातायात और सचार-साधनो की कमी के बावजूद धर्मसाधना करते हुए जैन साधुओ ने इस महान कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न किया, प्रस्तुत कोश इस सबका एक सर्वोत्तम प्रामाणिक दस्तावेज है। १० लेश्याको। यह जैन वाड्मय का श्वेतावर सामग्री-स्रोतो पर आधूत सर्वप्रथम विषय-कोश है । यद्यपि कोशकारो की योजना है कि वे दिगम्बर सामग्रीस्रोतो पर आधारित एक अन्य लेश्या-कोश सपादित करें, तथापि उनकी इस परिकल्पना ने अभी कोई आकार ग्रहण नही किया है। प्रस्तुत कोश जैन कोशविज्ञान के क्षेत्र मे एक ऐतिहासिक आरभ है। समय कोश ज्ञानिक विधि से सपादित है, इसीलिए इसे हम केवल लेश्या-सबधी शब्दो की विवरणिका नही कहेगे, परन् एक ठोस कोश-रचना का अभिधान देगे। विद्वान् कोशकारो ने प्रस्तावना मे कोश-रचना पद्धति मेथाडोलोजी पर भी विशद प्रकाश डाला है । सपूर्ण योजना, जिसके अन्तर्गत कई महत्वाकाक्षी सकल्प घोपित है, भारतीय कोश-रचना के क्षेत्र मे एक महत्त्वपूर्ण देन है। कोशकारो के शब्दो मे 'लेश्या-कोश हमारी कोण-परिकल्पना का परीक्षण ट्रायल है, अत इसमे प्रयमानुभव की अनेक त्रुटिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।" प्रस्तुत कोश एक विशिष्ट कोश है। इन दिनो तीन प्रकार के कोश सामने आये है (१) विषय-कोश, (२) ग्रन्थ-कोश, (३) ग्रन्थकार-कोश। कोशसपादको ने अनुसधित्सुओ और अध्येताओ की उन कठिनाइयो का भी ध्यान रखा है, जो किसी विषय के गहन अध्ययन अनुसंधान मे व्यवधान उत्पन्न करती है। उन्होने इस तरह के दो-तीन मस्मरण भी प्रस्तावना मे दिये है ।३० वैसे कोशकारो ने विशिष्ट पारिभापिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक विपयो की एक व्यापक सूची बनायी थी और तदनुसार १००० विषय भी चुने थे, किन्तु बाद मे इस तालिका Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६वी २०वी शताब्दी के जैन कोशकार और उनके कोशो का मूल्याकन ४११ को सीमित कर लिया गया और कुल १०० विषय ही निश्चित कर लिये गये । इन्हे विवृति के लिए दार्शनिक पद्धति से योजित किया गया है । सकलना मे तीन बातो का विशेष ध्यान रखा गया है--पाठी का मिलान, विषय के उपविषयों का वर्गीकरण हिन्दी अनुवाद | इन सावधानियो से कोश अधिक उपयोगी बन गया है । प्रस्तावना केवल 'लेश्या-कोण' के अनुभवो और कोशकारो की प्रयोगधर्मिता का ही विवरण नहीं है, अपितु इसके द्वारा कोशकारो ने अपनी सपूर्ण योजना ( प्रोजेक्ट) को भी प्रस्तुत कर दिया है । वस्तुत उक्त कोश के सपादन मे कोशकारी का दृष्टिकोण सुस्पष्ट, निर्भ्रान्ति और वैज्ञानिक है । जैन विद्या के क्षेत्र में यह पहला कोश है, जिसने दाशमिक पद्धति से विषयों का वर्गीकरण प्रतिपादन किया है । कोशरचना की प्रक्रिया वैज्ञानिक, प्रयोगधर्मी और समीचीन तो है ही, रोचक और सुविधाजनक भी है । कोश १६६६ ई० मे प्रकाशित हुआ है। सपादक परम्परावादी नही हैं, प्रयोगधर्मी है । कोश रायल आकार मे मुद्रित है, इसमे कुल ४० + २१६= ३३६ पृष्ठ है । आरभ में एक सार्थक प्रस्तावना है, जिसमे कोशकारो ने कोश की उपादेयता, पद्धति, प्रक्रिया और उपयोगिता पर प्रकाश डाला है, साथ ही उस परिकल्पना को भी स्पष्ट किया है जो कोश की जननशीलता जेनरेटिनेस का द्योतक है। इस तरह यह कोश एक पडाव है, अन्तिम गन्तव्य नही है । मूलत कोशकारो की एक बृहत् योजना है, प्रस्तुत कोश जिसकी एक नगण्य किस्त है । प्रस्तावना से लगा हुआ श्री नथमल टाटिया का प्राक्कथन है, जिसमे उन्होंने कोश की उपयोगिता और उसकी विशिष्टताओ का उल्लेख किया है। हीराकुमारी वोरा ने आमुख लिखा है, जिसमे अनेक सभावनाओ, योजनाओ और परिकल्पनाओ को दिया गया है । आमुख का व्यक्तित्व समीक्षात्मक है । कुल मिलाकर 'लेश्या-कोश' एक ऐसा संदर्भग्रन्थ है, जिसने न केवल जैन विद्या अपितु प्राच्यविद्या को भी अलकृत समृद्ध किया है। इसी श्रृंखला मे १६६६ ई० मे 'क्रियाकोश' प्रकाशित हुआ है, किन्तु इसके बाद क्या हुआ, वह अविदित है । शास्त्र, ११ जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश इसे भारतीय ज्ञानपीठ जैसी विख्यात प्रकाशन संस्था ने ४ भागो मे प्रकाशित किया है । १९७० ई० - १९७३ ई० की मध्यावधि प्रतिवर्ष इसका एक भाग प्रकाश मे आता रहा है । कोश में जैन तत्त्वज्ञान, आचारकर्मसिद्धान्त, भूगोल, इतिहास, पुराण, तत्सवधी व्यक्ति, राजे-राजवंश, आगम, शास्त्र, शास्त्रकार, धर्म और दर्शन के विविध संप्रदाय इत्यादि से सबन्धित ६००० शब्दो और २१,००० विषयो का सांगोपांग विवेचन किया गया है । विद्वान् सपादक क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी और उनकी सहयोगी ब्र० कु० कौशल ने इसकी सकलना में अपरपार परिश्रम किया है। इसमे सकलित सामग्री १०० से अधिक ग्रन्थो से सदोहित है । आरभ मे सपादकीय है, फिर प्रास्ताविक और सकेत-सूची । प्रास्ताविक मे शब्दसकलन और विषय-विवेचन मे अनुसृत पद्धति पर प्रकाश डाला Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा गया है, इसी मे सारणियो, चित्रो और मुद्रणाक्षरो के गवन्ध मे भी विवरण दिये गये है । कोश मे सारणियो द्वारा विषय सक्षेप मे रूपरेखात्मक शैली मे प्रस्तुत किये है तथा हिन्दी अनुवाद भी दिये गये है। प्रधान संपादकीय में कोश की परिकल्पना की एक इतिहासिक झलक दी गयी है, कहा गया है कि इस ग्रन्थ का मूल आधार १९०६ ई० मे प्रकाशित स्व० प० गोपालदाम वरैया कृत 'जैन सिद्वान्त प्रवेशिका ' है । यह कोश द्रव्य, करण, चरण और प्रथमानुयोगो के अन्तर्गत परिगणित विषयोव्यक्तियों की वर्णक्रमानुसार विवेचना करने वाला एक बहुमूल्य वृहत् कोश है । इसके रूपाकार पर एक विहंगम दृष्टि इस प्रकार सभव हे भाग प्रकाशन वर्ष शब्दक्रम प्रथम १६७० अ ओ द्वितीय १६७१ क न १९७२ प--व १६८३ श ह ૪ વર્ષ अ ह २३१८ 1 १२ एडिक्शनरी ऑफ प्राकृत प्रॉपर नेम्स अगरेजी यह भी एक विशिष्ट कोश है, जिसे एल० डी० इस्टीट्यूट ऑफ इडोलोजी, अहमदाबाद जैसी यशस्विनी सस्था ने दो भागो मे प्रकाशित किया है । पहला भाग १९७० ई० और दूसरा १९७२ ई० मे प्रकाश मे आया है । यह भी प्राच्यविद्या के क्षेत्र का एक अप्रतिम सदर्भग्रन्थ है । दोनो भागो मे १०१४ पृष्ठ है और ८,००० व्यक्तिवाचक पदो को विवृत किया गया है । सस्या के निदेशक प० दलसुख मालवणिया ने अपने प्राक्कथन मे कहा है कि इसकी मूल प्रेरणा 'वैदिक इंडेक्स' और "डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स" से मिली है । यद्यपि "वैदिक इंडेक्स" और "पालि प्रापर नेम्स" को तैयार करना इसलिए सरल सहज था कि इनके सारे सामग्री-स्रोत लगभग प्रकाश मे आ चुके थे किन्तु प्राकृत के लगभग अधिकाश ग्रन्थ अप्रकाशित ही है, अत सपादको को अनेक पाडुलिपियो से अपना न्यास जुटाना पडा है । इसमें केवल श्वेताम्बर आगम ग्रन्थो से ही पदो का चयन किया गया है तथा आगममूलो के अलावा प्रकाशित टीकाओ नियुक्तियो, भाष्यो, चूर्णियो से भी सामग्री आकलित की गयी है । कोश- सपादन मे केवल एक दो व्यक्तियो ने नही वरन् एक पूरे विद्वन्मण्डल ने काम किया है । कार्ड - विवरण तैयार हो जाने के बाद डा० मेहता और डा० चन्द्रा ने कोश को अन्तिम रूप दिया है । प्राक्कथन यद्यपि वडा नही है, किन्तु उसमे प्राय सभी महत्वपूर्ण मुद्दो पर प्रकाश डाल दिया गया है । कोश के प्रथम भाग में अडड से फेणामालिणी तथा द्वितीय मे वउस से होलिया तक पद मकलित है, दोनो मे कुल १०१४ पृष्ठ है और अन्त मे एक शब्दानुक्रमणिका તૃતીય चतुर्थ ४ पृष्ठ ५०३ ६३४ ६३७ ५४४ +3 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९वी २०वी शताब्दी के जन कोशकार और उनके कोशो का मूल्याकन ४१३ है । इस तरह इस्टीट्यूट का यह प्रदेय "लेश्या-कोश" की भाँति ही एक बहुमूल्य प्रदेय है। १३. जैनलक्षणावली : अब तक इसके दो भाग प्रकाश मे आये हैं, तीसरा प्रस्तावित अथवा मुद्राधीन है। 'जैन लक्षणावली" एक पारिभाषिक शब्दकोश है । इसके प्रथम भाग मे अ औ और द्वितीय मे क+वशील पौष्णकाल तक सकलित और व्याख्यायित हैं। प्रथम भाग के आरम मे प्राक्कथन अगरेजी , दो शब्द, प्रस्तावना, प्राकृत शब्दो की विकृति वा उनका रूपान्तर इत्यादि हैं, लक्षणावली मे कुल ७३० पृष्ठ है, जिनमे से प्रथम भाग मे १---- ३१२ और द्वितीय मे ३१६---३७० है । प्रस्तावना मे विद्वान् कोशकार ने "जैन लक्षणावली" की उपादेयता, उपयोगिता, उसमे स्वीकृत पद्धति, उपयुक्त ग्रन्यो के परिचय, लक्षण वैशिष्ट्य के अन्तर्गत विभिन्न पारिभाषिक शब्दो की बहुविध भगिमाओ पर विचार इत्यादि है । अन्थान्त मे उपयुक्त ग्रन्थो की एक सागोपाग विवरणयुक्त अनुक्रमणिका है, जिसमे ३५१ ग्रन्थ विवृत है । इसके तुरन्त बाद ग्रन्यकारानुक्रमणिका है, जिसमे १३७ ग्रन्यकारो के विवरण है, तदनन्तर कालानुक्रम से ग्रन्थकारानुक्रमणिका दी गयी है। इस तरह इन तीनो अनुक्रमणिकाओ मे महत्व की सामग्री सयोजित है । सपादकीय मे "जैनलक्षणावली" की परिकल्पना पर प्रकाश डाला गया है। उक्त कोश मे दिगम्बर एव श्वेताम्बर संप्रदायो के लगभग ४०० प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्यो से पारिभापिक शब्दो की प्रामाणिक सकलना की गयी है। "लक्षणावली", इस तरह, न केवल जैन विद्या परन् सपूर्ण प्राच्य जगत् का एक महत्त्वपूर्ण सदर्भ ग्रन्थ बन पडा है । इसकी परिकल्पना १९३६ ई० मे की गई थी, किन्तु आकार १९७२ ई० मे दिया जा सका। कोशकार ने जिस अन्त प्रेरणा से कार्य किया है, वह है, कि "अब तक श्वेताम्बर ग्रन्थो के आधार अर्द्धमागधी और प्राकृत शब्दकोश थे, किन्तु ऐसा कोई कोश नही था, जिसमे दोनो सप्रदायो के प्रमुख सामग्री-स्रोतो का उपयोग करते हुए किसी कोश की रचना की गई हो, प्रस्तुत कोश मे दोनो साप्रदायिक स्रोतो का उपयोग किया गया है । प्रस्तुत कोश की प्रमुख विशेषता यह है कि न तो यह विशालकाय है और न ही इसमे अधिक जटिलताए है, हिन्दी-अनुवाद भी किसी एक चुने हुए अश का, जो अधिक असदिग्ध और सार्थक दिखायी दिया है, किया गया है। कोशकार ने अपने पूर्ववर्ती कोशकारो के अनुभवो का अच्छा उपयोग किया है, यही कारण है कि यह कोश अन्य कोशो की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण, सुबोध और उपयोगी है। १४ उक्त अध्ययन के वाद, जिसमे प्रमुख जैन कोश और कोशकार मूल्याकित हैं, हम नीचे उन सभावनाओ पर विचार कर हे है, जिन्हे मूर्त रूप दिया जा सकता है। कोशो को हम मुख्यत ४ कोटियो मे विभाजित कर सकते है १- शब्दकोश , २ विषय-कोश, ३ ग्रन्थ-कोश, ४ ग्रन्थकार-कोश । अभी Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की ५२५२॥ जैन विद्या के क्षेत्र मे शब्द और वि५य-कोश ही अधिक प्रकाश मे आय है, ग्रन्थको और ग्रन्यकार-कोश नही ही ह । विषय-कोशो के अन्तर्गत लेण्या-कोश और क्रियाफो। उल्लेखनीय है । इनके द्वारा एक वैज्ञानिक परम्परा का सूत्रपात हुआ है, जिसे किसी भी स्थिति में अक्षुण्ण- अविच्छिन्न रखना चाहिए । अद्यतन जो भी को। निर्मित हुए है, वे लाक्षणिक यानी पारिभापिक ही है, किन्तु इस लीक से हटकर किसी अन्य परम्परा का विकास हम नही कर पाये हैं । अगरेजी, और अब हिन्दी मे भी, ग्रन्थ एव ग्रन्थकार-कोशो की निर्मिति की ओर कोशकारो का ध्यान गया है। अगरेजी मे शेक्सपीअर इत्यादि पर पृथक् कोश है, कई महत्वपूर्ण ग्रन्यो पर भी अलग से को प्रकाशित हुए है । हिन्दी मे तुलमी, सूरदास इत्यादि पर अलग से स्वतन्त्र कोण सपादित हुए है । प्रसाद-कोश, सूरजज-कोश इसी तरह के कोश है। जनवाइमय के क्षेत्र में भी अब इस तरह के ग्रन्यकोश और ग्रन्यकारकोश बनाये जाने चाहिये । ----कुन्दकुन्दाचार्य पर स्वतन्त्र को बनाया जा सकता है, इसी प्रकार विभिन्न अगसूत्रो पर अलग-अलग कोश-भकलनाए सभव है। इससे अध्येताओ और अनुसंधानकर्ताओ को अध्ययन की सुविधाए उपलब्ध हो सकेगी। १५ इस दृष्टि से ऐसे ग्रन्थो की एक वृहत्तालिका बनायी जाए, जो बडे है, महत्व के है, और जिनका स्वतन्त्र अध्ययन आवश्यक है। इनमे धवला, महाबवला, समयसार, मोलशास्त्र, महापुराण इत्यादि को सम्मिलित किया जा सकता है। इनके आविर्भाव से ग्रन्यो के अन्तर्मुख अध्ययन के द्वार खुल जाएगे और कोशरचना के क्षेत्र मे कुछ नये क्षितिज उद्घाटित हो सकेगे। १६ ग्रन्यकार-कोगो की दृष्टि मे कुछ ऐसे ग्रन्थकारो, जिनमे विभिन्न आचार्य तो होगे ही, को चुना जाए जिनका जैन विद्या के क्षेत्र मे विपुल प्रदेय है । प्राचीन मध्य और आधुनिक युगो से चुने गये इन ग्रन्यकारो की शव्दमपदाओ के स्वतन्त्र सकलन, अध्ययन और सपादन होने चाहिये, जिनमे शब्द-विवृत्तियां तो हो ही सबन्धित पात्रो, स्यानो, प्रवृत्तियो, पारिभाषिक शब्दो इत्यादि की भी जानकारियां हो । जहाँ-जहाँ जैन चेयर स्थापित हुई हैं, वहाँ-वहाँ इस-इस तरह की योजनाओ को हाथ में लिया जाना चाहिए, ग्रन्यकोशो और ग्रन्यकारकोशो के माध्यम से तुलनात्मक अध्ययन के नये क्षितिज उजागर होंगे और अनुसंधान को प्रोत्साहन मिलेगा। १७ इनके अलावा कुछ तुलनात्मक कोश भी बनाये जाने चाहिये । उदाहरणत श्वेताम्बर और दिगम्बर मप्रदायो के साम्य और अ-साम्य पर आधारित कुछ વનૂભુર્વ ર વૈજ્ઞાનિ જોશ વનને વાહિયે. ડસને નડ્યાં મોર વોનો सप्रदायो के मध्य एक सेतु स्थापित हो सकेगा, वही दूसरी ओर विशिष्ट अध्ययनो के लिए नयी मभावना भी जन्म ले सकेगी । ऐसे को विशुद्ध वस्तुनिष्ठा के साथ तैयार होने चाहिये, जिनमे अति रजन, अनुरजन, या तथ्यो को दावने की हीन Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९वी २०वी शताब्दी के जैन कोशकार और उनके कोगो का मूल्याकन ४१५ प्रवृत्ति को कोई महत्व न दिया गया हो । विशुद्ध तथ्यान्वेषणा की दृष्टि से ही ऐसी योजनाओ का सूत्रपात किया जाना चाहिये । १८ जिस तरह १६०६ ई० मे प० गोपालदास वरैया की 'जैन सिद्धान्त प्रवेशिका" प्रकाशित हुई उमसे कही अधिक वैज्ञानिक विधि से कुछ "जेवी विश्वकोशीय कोश" प्रकाशित होने चाहिये । ये कोश आकार मे लघु हो, किन्तु इनकी प्रामाणिकता और पूर्णता अमदिग्ध हो । अग्रेजी मे ' एविज्ड" कोशो की परम्परा है, हम भी इस तरह की परम्परा का श्रीगणेश कर सकते हैं । ये जेवी कोश सभी कोटि के हो सकते हैं शव्दकोश, विपय-कोश, अन्य-कोश, ग्रन्यकारकोश, । इस तरह के लोकप्रिय कोशो के प्रकाशन की योजनाओ को मूर्तरूप देते समय वडे उत्तरदायित्व की भावना से काम करना चाहिये, वस्तुत एक वारह मासी कोश-विभाग ही किसी जैन शोध सस्थान मे स्थापित करना चाहिये, जिसमे कोश-सकलन, सपादन, संशोधन, परिवर्धन के अलावा कोई काम हो ही नही। १६ भारत से बाहर कई देशो में कोश-निर्माण को बडी गभीरता से लिया जाता है । कई ऐसे कोश हैं जिनके संपादन के लिए योग्य सपादक नियुक्त है, जो आगामी मस्करणो की तैयारी में लगे रहते है । ये सपादक अधुनातन प्रकाशनो का अध्ययन करते है और जो भी शब्दसपदा उन्हे सकलनीय दिखाई देती है, उस पर उत्तरदायी भावना से विचार करते हैं और फिर उसे भावी संस्करणो मे स्थान देते हैं। ऐसे शब्दो को जो अप्रयुक्त होते है, नये सस्करणो मे से निकाल लिया जाता है। लेखक को विश्वास है कि किसी सस्या अथवा विश्वविद्यालय के जैन विद्या विभाग मे एक ऐसी शाखा स्थापित होगी, जो सतत कोश-रचना का अध्ययन करेगी और एक ऐसा सर्वसम्मत मानक कोश प्रकाशित करेगी, जिसके अभिनव सस्करणो की जैन विद्या जगत् को बराबर प्रतीक्षा बनी रहे। यदि हम कर सके तो यह एक अप्रतिम और अविस्मरणीय कार्य होगा। सदर्भ I Linguistic Survey of India, vol 1x, part i G A Grierson ___Summary of important dates, p 11 2 lbid Section 11, pp 16-27 3 Ibid p 18 4 Ibid p 25 Baiju Das, Baba, Bibek Kosh (A Hındı Dictionary in Hindi) Bankipore, 1892 5 Ibid p 17, London 1773 ६ श्रीधरभाषाको५ प० श्रीधर त्रिपाठी नजीराबाद, लखनऊ १८६४ । ७ कोणकला रामचन्द्र वर्मा साहित्यरल-माला कार्यालय, २० धर्मकूप, वाराणसी १६४८ । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ८ पालिकाससगहो डा० भागचन्द्र जन भास्कर आलोक प्रकाशन, गाधीचौक, सदर, नागपुर १९७४ ६ जन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५ प अवालाल प्रे०शाह पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध सस्थान वाराणसी " १९६६ । १० अभिधान राजेन्द्र राजेन्द्रसूरि श्री अभिधान-राजेन्द्र कार्यालय, रतलाम १९१० भाग १-७-१९३४ । ११ लेश्याकोश मोहनलाल वाठिया, श्रीचन्द्र चौरडिया, १६-सी, डोवर लेन, फलकत्ता-६ १९६६ । १२ जनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग १-४ जिनेन्द्र वर्णी भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली १९७० १९७३। १३ जनलक्षणावली, भाग १-२ वा नचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली १९७२ १९७३ । १४ वृहत् पर्यायवाची कोश मोलानाथ तिवारी किताव महल प्रा. लिमि०, ५६ ए जीरो रोड, इलाहावाद प्र० १९५४, द्वि० १९६२ । १५ 'तीर्थकर' मासिक, इन्दौर राजेन्द्रसूरीश्वर विशेषाक हो। मया प्रकाशन, ६५, पत्रकार ____ कालोनी, कनाडिया रोड, इन्दौर-१ जून-जुलाई १९७५ । १६ शब्दार्थ-दर्शन रामचन्द्र वर्मा रचना प्रकाशन, इलाहाबाद १९६८ । 960 Dictionaries Kenneth whittaker Asia Publishing House, Bombay 1966 95 Linguistic Survey of India, vol ix part i GA Grierson Motilal Benarasidas, Delhi 1916, reprint 1963 9€ Prakrit Proper, Partı & 11, compiled by Molian lal Mehta, K Rishbha chandra L D Institute of Indology, Ahmedabad9 1970, 1972. Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश की प्राचीन पद्धति सुनि दुलहराज जैन आगम साहित्य मे द्वादशागी का प्रथम स्थान है । आयारो, सूयगडो आदि अग हैं । बारहवा अग है दृष्टिवाद | चौदह पूर्व इसी के अन्तर्गत हैं । सत्यप्रवाद और विद्याप्रवाद ये दो पूर्व शब्दो के अनुशासन से संबधित हैं । जब तक पूर्वधर रहे, तब तक अन्य शब्दानुशासन की आवश्यकता प्रतीत नही हुई । काल के प्रवाह मे दृष्टिवाद की परपरा लुप्त हो गई । केवल ग्यारह अग शेष रहे । वे लिपिबद्ध नही थे । वह प्रवचन काल था । सारा ज्ञान प्रवचन के माध्यम से सुरक्षित रखा जाता था । गुरु-शिष्य की परपरा सुदृढ थी । काल वीतता गया । आगम-युग का अन्त हुआ । आगमों को समझना समझाना दुरूह-सा होने लगा । मत व्याख्यासाहित्य लिखा जाने लगा । प्राकृत भाषा चल ही रही थी । लोग इसको समझते थे । आचार्यो ने प्राकृत भाषा मे नियुक्तिया और भाष्य लिखे । प्राकृत के युग का दीप टिमटिमा रहा था । आगम की प्राकृत व्याख्याए समझना भी कष्टसाध्य हो गया । संस्कृत का युग प्रारम्भ हो रहा था । कतिपय आचार्यों ने प्राकृत और संस्कृत इन दो भाषाओं का मिश्रण कर चूर्णि साहित्य रचा। उस समय तक कोश की परपरा नही थी । आगमो के साथ ही साथ शब्दज्ञान भी करा दिया जाता था । किन्तु जब ऐसे आचार्यो की परपरा विलुप्त हो गई तब कोश या व्याकरण को अलग से सिखाने की आवश्यकता महसूस हुई | जैन परंपरा मे चूर्णिकाल तक कोश-ज्ञान के लिए अलग ग्रन्यो का निर्माण नही हुआ था। चूर्णिकार व्याख्या के साथ-साथ शिष्य को पर्यायवाची शब्दों का भी ज्ञान कर देते थे । शिष्य को पर्यायवाची शब्दों के लिए अन्यत्र भटकना नही पडता था । यह एक बात है । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨૬ : સંસ્કૃત-પ્રાકૃત વ્યાખ ર ોગ કિ પરમ્પરા દૂસ વાત હૈ ના નૃન કાયમ ઈનામથી પ્રાકૃત મે નિ ૧ણા ફન સવર્ડ નિખિજાન હૈ મમવાનું ભાવી નિર્વાળ વ વસવી શતાવી જા અન્તા અર્થમાધી પ્રાત મે બહારહ વેળી માપાનો વા સમ્મિગ્ર –- વિ-મમ્મત ત હૈ ન શ્વમળો કા વિહાર ભારતવર્ષ વિભિન્ન જવનો મેં હોતા રહી વિમન્ન દેશો જે મુમુલ નિ શ્રમણ વને ! કની અપની વોલી થી ભગવાન મહાવીર ઝવત્વનો की मूल भाषा मे उन बोलियो के शब्द मिश्रित होते गए। हजारो-हजारो शब्द બામ સાહિત્ય મે બા ! વન સ્વ શ થાય છે તે સમય વહત બાવાર્ય શબ્દો છે પર્યાયવાવી શબ્દ વેતે નg : ડસા તાત્પર્ય હૈ વિ જે વિશ્વ પર્યાયવાવી શવો માધ્યમ છે વિભિન્ન વોતિયો જે શબ્દ પ્રસ્તુત કર તત્તશીય ઘમળો વી નિજ્ઞાસાનો જ સમાહિત શરતે નાણ. sન નાનાળીય શિન્હો જો પાર્થ પર સત્તન પર વિયા નાના થી ડરો ગલ્લોગ નિખ પ્રારંભિક તપ માંનાં ના સતા હૈ! માના નાતા હૈ કિ નામ જ હાર નિમિત હુઈં પ્રકા મે બાનેવાના સવરે પન્ના સંસ્કૃત શબ્દકોશ હૈ અમર જોશી ફસે પૂર્વ વોડું શવજો પ્રકાશિત નહી હુબા થા વિભિન્ન પ્રન્યો ને વિભિન્ન જોશો જે રદ્ધરળ પ્રાપ્ત હોતે હૈં ડુિ ના સમજ પ વાન પ્રાપ્ત હૈ રે મ કવનિત રહે હો, કિન્તુ માનવે તુપ્તપ્રાય ફ્રા નન પરંપરા છે શબ્દોમાં જ મૂન બામ-સાહિત્ય, નિતિ, માળ - જૂળ જે પત્તવ્ય હોતા હૈ મમવતી સૂત્ર કે જોશ વી તત્પત્તિ વિથ કે સુન્દર વર્ષા પ્રસ્તુત તમ ને ખાવાનું મહાવીર સે પૂછા મતે 1 કયા ની પદ્ધ પાર્થ, નાના ધોષ વીર નાના બંનન વાને હું વવા અને ચે, નાનાપોષ ઔર નાના વ્યનન વાતે હૈં? મમવાનું મહાવીર કે લઠ્ઠા ભૌતમ ! ફનમે પ્રથમ વાર પદ્ધ કાર્યા, નાના ર નાનાવ્યનન વાને હું નીર રોષ પાત્ર પદ અનેરાર્થના, નાનાધોપ બૌર નાનાચનન વાતે ’ वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि ने इस विषय मे चार विकल्प प्रस्तुत किए chc ૨. છાર્ય, ઇ વ્યાન વાતે વેળા પીર ક્ષીર, ભાવિ ૨ હજાર્યા, અને ગન વારે થયા ક્ષીર, પય બાદ્રિા રૂ અને કાર્ય, અને વ્યાન વાતેવચા “ક્ષીર, ક્ષીર, મહિષક્ષીર ૪ નાનાર્ય, નાના થનન વાને યથા ધટ, ૫ટ, નટ બાદ્રિ ! ડનમે દૂસરા કૌર વોયા વિકલ્પ છે. વળી તત્પત્તિ ! મૂલ હૈ વનમાન વનિત, વીર્યમાળ કવીરિત, વેદ્યમાન દ્રિત અટ્ટીયમાળ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश की प्राचीन पद्धति ४१६ प्रहीण ये चार पद उत्पाद-पर्याय की अपेक्षा से एकार्थक, नानाघोप और नानाव्यजन वाले हैं। छिद्यमान छिन, भिद्यमान भिन्न, दह्यमान दग्ध, म्रियमाण मृत और निर्यभाण निर्जीर्ण ये पाच ५६ विनाश की अपेक्षा से नानार्थ, नानाघोष और नाना व्यजन वाले हैं। इनका नानार्य इस प्रकार है • छिचमान छिन्न यह कर्मों के स्थिति-बध की अपेक्षा से है। इसमे स्थिति का विनाश है। • भिद्यमान भिन्न---यह कर्मों के अनुभाग-बध की अपेक्षा से है। इसमे अनुभाग का विनाश है।। • दह्यमान दग्ध यह कर्मों के प्रदेश-वध की अपेक्षा से है। इसमें प्रदेश का विनाश है। • म्रियमाण मृत यह कर्मों के आयुष्य-बध की अपेक्षा से है। इसमे आयुष्य का विनाश है। • निर्जीयमाण निर्जीर्ण यह कर्मों के समय अभाव की अपेक्षा से है। जीव के अभिवचन भगवती सूत्र मे 'जीव' शब्द के अनेक अभिवचन एकार्थ शब्द बतलाए है, जैसे ___जीव (जीव), पाणे (प्राण), भूए (भूत), सत्ते (सत्व), विष्णू (विज्ञ), जेया (जेता), आया (आत्मा), रगण (रगण), हिंदुए (हिंडुक), पोगले (पुद्गल), माणवे (मानव), कत्ता (का), विकत्ता (विकर्ता), जतू (जन्तु), जोणी (योनि), सयभू (स्वयभू), ससरीरी (सशरीरी), नायए (नायक), अतरप्पा (अन्तरात्मा) आदि ।' आकाश के अभिवचन आगासे (आकाश), गगणे (गगन), नभे (नभ), समे (सम), विसमे (वि५म), खहे (ख), विहे (विह), वीथी (वीथि), विवर (विवर), अवर (अम्बर), छिड्डे (छिद्र), मग्गे (मार्ग), विमुहे (विमुख), आधारे (आधार), वाम (व्योम), भायणे (भाजन), अतलिक्खे (अतरिक्ष), अगमे (अगम), फलिहे (स्फटिक, परिघ), अणते (अनन्त) आदि । __ क्रोध के एकार्थक शब्द कोहे (क्रोध), कोवे (कोप), रोसे (२५), दीसे (दोष), अखमा (अक्षमा), सजलणे (सज्वलन), कलहे (कलह), चडिक्के (चाडिय), भडणे (भडन), विवाद (विवाद)। __ भान के एकार्थक शब्द माणे (मान), मदे (मद), दप्पे (दप), थभे (स्तम्भ), गवे (ग), अत्तुकोसे (अत्युत्कर्ष), परपरिवाए (परपरिवाद), उक्कोसे (उत्कर्प), अवक्कोसे (अपकर्ष), उण्णते (उन्नत), उण्णामे (उन्नमन), दुग्णामे (दुर्भाम)। माया के एकार्थक शब्द---माया (माया), उवही (उपधि), निथडी (निकृति), Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पलए (वलय), गहणे (गहन), णूमे (णूम), कक्के (कलक), कु०५ (कुरुक), जिन्हे (जिन्ह), किविसे (किल्वि५), सायरणया (आदरण), गृहणया (गून), चणया (वचन), पलिउचणया (परिकुचन) सातिजोगे (माचियोग)। ____ लोभ के एकार्यक शब्द- लोभे (लोभ), इच्छा (इच्छा), मुच्छा (मूच्छf), कखा (काक्षा), गेही (गृह), तण्हा (तृष्णा), भिज्जा (भिध्या), अभिज्झा (अभिध्या), आसासणया (आश्वासन), पत्यया (प्रार्थना), लालपणया, (लालपन) कामासा (कामाशा), भोगासा (भोगाशा), जीवियासा (जीविताशा), मरणामा (मरणाशा), नदिरागे (नदिराग)। प्रश्नपाकरण दसवा अग है । इसमें भी एकार्थक शब्दो की अनेक स्थलो पर निर्देश हुआ है । वहा प्राणवध (हिंसा) के तीस पर्याय नाम बताए हैं। उनमे से कुछेक ये है अवीसभो (अविश्रभ), अकि. (अकृत्य), घायणा (घातन), मारणा (मारण), वहणा (वध), उ६वणा (उद्रवण), मधू (मृत्यु), असजमो (असयम), दुगतिप्पवाओ (दुर्गतिप्रपात), पावकोवो (पापको५), पावलोभो (पापलोभ), वज्जो (वय), आदि। इसी सूत्र मे असत्य के तीस नाम गिनाए है। उनमें से कुछेक ये हैं अलिय (अलीक), स० (५०), अणज्ज (अनार्य), कंकणा (कल्कन), पचणा (वचना), साती (साचि), अट्ट (आत्त), अ०भक्खाण (अभ्याख्यान), किविस (किल्वि५), अ५.ओ (अप्रत्यय), असमओ (असमय), नूम (नूम), आदि-आदि। अब्रह्मचर्य के तीस नामो मे से कुछेक ये है अवभ (अब्रह्म), मेहुण (मैथुन), सकप्पो (सकल्प), दप्पो (दर्प), मोहो (मोह), मणसखोमो (मन सक्षोभ), अणिमहो (अनिग्रह), विभमो (विभ्रम), अधम्मो (अधर्म), वेर (वर), रहस्स (रहस्य), कामगुणो (कामगुण)। परिग्रह के तीस नामो मे से कुछेक ये है परिगहो (परिग्रह), संचयो (सचय), चयो (चय), उवचयो (उपचय), निहाण (निधान), ६०वसारी (द्रव्यसार), महिन्छ। (महेच्छा), कलिक रडी (कलिकरड), अणत्यो (अनर्य), सथवा (सस्तव), अमुत्ती (अमुक्ति), तहा (तृष्णा), आसत्ती (नासक्ति), असतोसो (असतो५)।१० अहिंसा के सा० पर्यायवाची नामो मे से कुछेक ये हैं अहिंसा (महिमा), दीवो (ही५), ताण (नाण), सरण (शरण), निवाण (निर्वाण), रती (रति), विरती विरति), विसुद्धी (विशुद्धि)।१ आगमो के व्याख्या साहित्य में नियुक्तियों का प्रथम स्थान है। आचार्य भद्रबाहु द्वितीय ने अनेक आगमो पर नियुक्तिया लिखी। वे पद्यमय है। उनकी Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश की प्राचीन पद्धति ४२१ भाषा है प्राकृत नियुक्तियो मे अनेक स्थलो पर एकार्थक शब्दो की चर्चा है । • प्रवचन के एकार्थक शब्द सुयधम्म ( श्रुतधर्म), तित्थ (तीर्थ), मग्ग (मार्ग), पावयण (प्रावचन), पवयण (प्रवचन) । • सूत्र के एकार्थक शब्द सुत्त (सून), तत (तन), गथ (ग्रन्थ), पाढो (पाठ), सत्य (शास्त्र) | १२ अनुयोग (अर्थ) के एकार्थक शब्द अणुयोग (अनुयोग), नियोगो (Phulu), HIH (H141), fanını (faxiur), afay (alfa) 1?? • सामायिक शब्द के पर्याय सामाइय (सामायिक), समइय (समयिक), सम्मावाओ (सम्यग्वाद), समास (समास ), सखेवो (संक्षेप), अणवज्ज (अनवद्य), परिण्णा (परिज्ञा ), पपक्खाणे (प्रत्याख्यान) ।" साम (साम), सम (सम), सम्म (सम्यक् ), इग (इक) १५ । समया (समता), AHITI (Hfuqca), QHET (vaen), Afa (afra), ylalga (gfalen), सुह (शुभ), अनिंद (अनिन्द्य), अदुगुछिअ ( अजुगुप्सित), अगरिहिअ (अग्रहित), अणवज्ज (अनवद्य) १६ जैन आगमों के व्याख्या साहित्य मे चूर्णियों का महत्वपूर्ण स्थान है । अनेक आगामो पर चूर्णिया लिखी गई । ये सब संस्कृत + प्राकृत मे लिखी गई । इनका रचनाकाल विक्रम की पाचवी-सातवी शताब्दी है । जिनदास महत्तर चूर्णिकारो मे अग्रणी हैं । उनकी अनेक चूर्णिया आज उपलब्ध है । दशवेकालिक सूत्र पर एक प्राचीन चूर्णि जैसलमेर भडार मे मुनि पुण्यविजय जी को प्राप्त हुई थी । उन्होने उसके फोटो प्रिन्ट करवाए। वह अगस्त्यसिंह स्थविरकृत है और उसका कॉल विक्रम की तीसरी से पाचवी शताब्दी का अन्तराल माना जाता है । वह अभी-अभी प्रकाशित हुई है । उसका सर्वप्रथम उपयोग हमने 'दसवे आलिय' के सपादन तथा विवेचन के समय किया है । इन चूर्णियो मे अनेक शब्दो के पर्याय-नाम उल्लिखित है । कुछ उदाहरण इस प्रकार है ● मग्गतोत्ति वा पिउत्ति वा । १७ • अप्पियववहारियति वा विसेसादिट्ठति वा एगट्ठा १ • भाणति वा परिच्छेदोति वा ग्रहणपगारोत्ति वा एगट्ठा ।" • अभिप्पायोत्ति वा बुद्धिनिवा एगट्ठ २२ • उज्जोत करेतीति प्रकटन करोतीति प्रकाशयतीत्यर्थं • खमत्ति वा तितिक्खत्ति वा कोहनिरोहति वा । आचार शब्द के पर्यायवाची नाम- R ܐ • 31412 (311), Malà (Alala), ● आगालो (आगाल), आगारो (आगार), ● आसासो (आश्वास)।" Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा • सातति वा सुहति वा अभयन्ति वा परिणिव्वाणति वा एगट्ठा। • असातति वा अपरिणिवायति वा महमयति वा एगट्ठा ।२५ • तसतित्ति वा उवियति वा सकुयति वा वीभिति वा एगट्ठा ।२६ • वधो वक्खोडो बधणति वा एगढ़। ।२७ • विजयो विचारणा मगणा एगढ़। ।२८ • मूल प्रतिष्ठा आधारो वा एगढ़। ।२१ • सुरेत्ति वा वीरत्ति वा सत्तिएत्ति वा एगट्टा ३० • समयत्ति वा माहणेत्ति वा मुणित्ति वा एगट्टा ।" • सगोति वा विग्थोत्ति वा वखामिति वा एगह।।२ • યજ્ઞથિત હિત મુખિત વિંતિતતિ દ્રિ • फुसित दुझोसएत्ति वा एगट्ठा।" • आणत्ति वा नाणत्ति वा पहिलेहित्ति वा एगट्ठा ३५ • कखति पत्थति गच्छति एगह।।२६ • वसित्तु वा पालित्तु वा एगदा ३७ • पजाति वा भेदोत्ति वा गुणोति वा एगढ़।।३८ । णाणति वा सवेदणति वा अधिगमोत्ति वा चेतणति वा भावत्ति वा एते सह। एगट्ठा।" परिगिज्झति वा पत्थणति वा गिद्धित्ति वा अभिलासोत्ति वा लेप्पत्ति वा करवति वा एगट्ट।।० ,, विउस्सग्गोत्ति वा विवेगोत्ति वा अधिकिरणति वा छहणति वा वासिरणति वा एगट्ठा।" • चिक्कणति वा दारुणति वा एगट्ठा । २ • गुणोति वा पज्जतात्ति वा एगदा।३ • णामतिवा ठाणति वा भेदोत्ति वा एगह।।४ • मलति वा पाति वा एगट्ठा ।४५ • मुणित्ति वा नाणित्ति वा एगढ़।। ६ • लगलति वा हल ति वा एगट्ठा। • कित्ति-व-सह-सिलोगट्टया एगहा। ये उदाहरण शब्दकोश के निर्माण का प्रारभिक रूप प्रस्तुत करते है। मूल आगम और उनके व्याख्या-ग्रन्थ इन उदाहरणो से भरे पडे है। इस एकार्थक शब्दसकलना से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये अनेक भाषाओ मे व्यवहृत देशीय शब्द शिष्यो के लिए शब्दकोश का कार्य करते और विभिन्न प्रान्ती के शिष्यो के लिए भगवद् वाणी को समझने में सहयोगी बनते । Page #451 --------------------------------------------------------------------------  Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ सम्मृति-पाहत व्याण और कोण की परम्परा २८ CE ३४ ३६ , पृ० ४३ । २६ १०४४। ३० पृ० ६३ । पृ०६३ । १० १७०। पृ० १७१ ॥ पृ० १७३ । ३५ पृ० १६८। पृ० २०५। ३७ पृ० २०६। ३८ दशवकालिक चूणि (जिनदासत) पृ० ४ । पृ० १०॥ पृ०३० । पृ० ३७। पृ० २३२। १० २६६ । पृ० ३५३ । पृ० २६४ । पृ० ३२४ ॥ पृ० २५४ । पृ० ३२८ । ३६ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यों की शब्द-सम्पत्ति (पद्मपुराण, हरिवशपुराण आदिपुराण तथा उत्तर पुराणके सन्दर्भ में) डा० रमाकान्त शुक्ल सस्कृत के जैन पौराणिक-काव्यो की श०८-सम्पत्ति पर विचार करते समय महाकवि माध का यह वाक्य सहसा ध्यान मे आ जाता है "शब्दार्थों सरकविरिव द्वयं विद्वानपेक्षते।" पौराणिक काल्यो की सर्जना करते समय जैन-कवि शब्दो के प्रयोग मे वडा जागरूक रहा है। अपने युग के सम्पूर्ण जीवन तथा चिन्तन को, शब्दो के माध्यम से, वह एक ही काव्य मे अन्तर्मुक्त करके प्रस्तुल करना चाहता है और अपने पाठक को 'कान्तासम्मिततयोपदेश' देने के साथ-साथ उसके सामान्य और विशिष्ट ज्ञान में परिवर्द्धन भी करना चाहता है। वह अपने पाठक को केवल कल्पना-लोक-विचरण का ही अवसर देने मे अपने कर्तव्य की इतिश्री नही समझ लेता अपितु उससे अपेक्षा रखता है कि वह अपने देश-काल से परिचित रहे एव लोक से अपने को कटा हुआ न अनुमव करे। वह अपने समय तक विधमान लोक तथा शास्त्र को अपने शब्दो के माध्यम से प्रस्तुत करता है। सस्कृत के जन पौराणिक काव्यो मे प्रयुक्त महान् अर्थवैभव के व्यजक शब्दो का अनुशीलन करने के लिए पाठक को भी लोक और शास्त्र की व्यापक और गम्भीर पैठ अपेक्षित है। जैनाचार्य रविणकृत 'पद्मपुराण' पुन्नाटसधी जिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराण' भगवजिनसेनाचार्य विरचित 'आदिपुराण' तथा गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' ऐसे ही सस्कृत के जैन पौराणिक काव्य हैं जिनकी शब्द-सम्पत्ति पर हम, प्रस्तुत लेख मे स्थान-सापेक्ष विचार करना चाहते है। इन चारो ग्रन्थो को हमने 'पुराण' न मानकर पौराणिक काव्य' माना है। हमारी इस धारणा को इन चारो ग्रन्थो की रचना-पद्धति पुष्ट करती है । 'पुराण' नाम रखने पर भी इनके कवि इन्हे काव्योचित गुणो से सम्पन्न रखना चाहते है। रविषेण बाणभट्ट तथा कालिदास की शैली मे 'पद्मपुराण' की रचना करते है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ गस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा 'हरिवशपुराण' के का पर्वो' के स्थान पर सों- से अपनी कृति का विभाजन करते है तथा अपनी रचना को 'काव्य' स्वीकार करते हैं। कही विपरीत लक्षणा से इसकी काव्यात्मकता व्यजित होती है। 'आदिपुराण' के कत्ता तो स्पष्ट कवि, कविता, काव्य तथा अलकार आदि की चर्चा करते हुए अपने ग्रन्य को 'महाकाव्य' स्वीकार करते हैं। गुणभद्र भी 'अपहस्तितान्यकाव्य और 'मिच्याकविदर्पदलन' आदि पदो से अपनी रचना को काव्य स्वीकार करते है । गुणभद्र के शिय लोकसेन भी जिनसेन, गुणभद्र तथा स्वय को 'कवि' कहते है। इन सभी कवियो ने पौराणिक कथ्य को काव्य-शिल्प मे मवलित करके अपने साम्प्रदायिक और धार्मिक दायित्व के साथ-साथ साहित्यिक और सास्कृतिक दायित्व का निर्वाह किया है। 'पुराण' नामधारी होने से इन ग्रन्थो के प्रति श्रद्धा होना स्वाभाविक है और श्रद्धापूर्वक इनका पारायण करने पर पाठक इनमे एक ही स्थान पर इतना कुछ पा लेता है जितना और कई स्थानो पर मिलना समभव है। न तज्ज्ञानं न तच्छिल्य न सा विद्या न सा कला । जायते पन काव्यागमहो भारो महान् को. ॥' जैसी उक्तियां इन काव्यो के विषय मे अन्वर्य सिद्ध होती हैं । लगभग २०० वर्षों के अन्तराल (६८० ई० से ८६७ ई०) मे आनुपूर्वी से रचित इन पौराणिक काव्यो का सामाजिक, सास्कृतिक, भाषावैज्ञानिक, शैली ___ शास्त्रीय, धार्मिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक तथा दार्शनिक दृष्टिकोणो से अभी तक उतना अध्ययन नहीं हो पाया जितना कि होना चाहिए । अध्ययन की अनेक तरगोसे इनके विषय मे महत्त्वपूर्ण परिणाम निकल सकते है। प्रस्तुत निन्बध मे हम इन काव्यो की शब्द-सम्पत्ति का एक सर्वेक्षणात्मक परिचय देने का प्रयत्न करेंगे । इन चारो ग्रन्थो का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थ पूर्ववर्ती का पूरक है । साहित्य, समाज, जीवन, कला, दर्शन, धर्म, देश-काल आदि से सम्बद्ध जिस शब्द-सम्पत्ति का उपयोग पूर्ववर्ती कवि ने किया है उसमे उत्तरवर्ती कवि ने अपने काल तक वृद्धि गत शब्द-सम्पत्ति को और जोड दिया है। उदाहरणार्थ, रविपेण 'समवसरण' का वर्णन करते समय जिन पारिभाषिक शब्दो को छोड गये थे उनका हरिवशपुराण' कार' तथा 'आदिपुराण' कार ने उपयोग किया। रविषेण केकया की कलामो की चर्चा करते हुए संगीत-शास्त्रपरक शब्दावली मे जिन शब्दो को निविष्ट नहीं कर पाये उनका प्रयोग जिनमेन ने अपने 'हरिवशपुराण" मे किया है। सामुद्रिक-शास्त्र परक शब्दावली का प्रयोग रविपेण नही कर पाये थे, जिनसेन ने 'हरिवंशपुराण' मे इसका प्रयोग किया। क्रियामन्च तथा कर्मकाण्ड परक जिस शब्दावली का प्रयोग 'पपुराण' तथा 'हरिवंश पुराण' मे नही हो सका उसका प्रयोग 'आदिपुराण' मे दृष्टिगत होता है । क्षेत्र-काल-परक शब्दावली का जितना प्रयोग 'पपुराण' मे हुआ उससे कही अधिक 'हरिवशपुराण' और 'आदिपुराण' मे हुआ है । नामपरक Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पति ४२७ शब्दावली के प्रयोग में भी यही स्थिति देखने को मिलती है। चौरासी गणधरो के नामो का निर्देश रविपेण नही कर पाये थे तो इस कार्य को जिनसेन ने 'हरिवपुराण' मे पूरा कर दिखाया ।" जिनेन्द्र के एक सहस्त्र आठ नामो को पपुराणकार और हरिवशपुराणकार नहीं गिना सके तो उन्हे आदिपुराणकार ने गिना दिया 1१५ वर्णाश्रम-स्थिति, पट्याम तथा ग्रामनगरसनिवेशपरक शब्दावली का रविषण पूर्ण प्रयोग नही कर पाये तो इसे जिनसेन ने आदिपुराण मे कर दिखाया। इस प्रकार हम देखते है कि शब्द-सम्पदा के प्रयोग मे चारो कवियो मे एक तालमेल है । प्रत्येक कवि ने पूर्व-परम्परा प्राप्त शब्द-निधि को अपना योगदान देकर समृद्ध करने की चेष्टा की है। इन चारो कवियो मे विभिन्न क्षेत्रो से सम्बद्ध शब्दो का चयन करके प्रसगानुसार एक साथ ही उनका प्रयोग करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। श०६-प्रयोग के प्रति ये जागरूक है। अवसरानुसार अपने शब्द-वैभव का ये अपने काव्य मे नियोग करते है अथवा अपने शब्द-वैभव का उपयोग करने के लिए ये अवसर निकाल लेते है भले ही काव्य की सरसता कही-कही घबरा उठे ? उदाहरणार्य स्थानवाची शब्दो का परिगणनात्मक शैली मे सभी कवियो ने एक स्थान पर उल्लेख किया है १ रविण सन्ध्याकार सुवेल५च मनोलादो मनोहर । हसद्वीपो हरिोध समुद्र काचनस्तया ।। अर्धस्वर्गोत्कट५चापि निविशा स्वर्गसन्निभा । શીર્વાબ રક્ષસ પુર્મહાવૃદ્ધિપરા છે आवत विघटा भोदा कटस्फुटदुग्रहा । તરતીયાવની રત્નદીપાવામાન્તિ રાક્ષસૈ " पुरखेटमटमेन्द्र विषयादीश्वराच ये। वशत्व स्थापितास्ताम्या कांश्चित्तान् कीर्तयामि ते ।। ऐते जनपदा केचिदार्या म्लेच्छास्तथा परे । विद्यमानद्वया केचिद् विविधाचारसम्मता ।। भीरवो यवना कक्षाश्चार वस्त्रिजटा नटा। शककेरलनेपाला मालवारुलशवरा ।। વૃષપર્વદ્યાશ્મીરા ફિડિવાવષ્ટવર્વા ! त्रिशिरा पारशैलाश्च गौशालोसीन रामका ॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ संकृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा सूयरिका सनाश्च खशा विन्ध्या णिवापदा । मेखला शूरसेनाश्च पातीकोलूककोराला ।। दरीगान्धारसीवीरा पुरीकोवरकोहरा ।' अन्ध्रकालालिगाधा नानाभापा पृथगुणा ।। २ हरिवशपुराणकार जिनसेन (अ) दशोत्तरशत तेपा नगराणि खगामिनाम् । पष्टित्तरमागे स्यु पचाशदक्षिणे पुन ।। आदित्यनगर रम्य पुर गगनवल्लमम् । पुरीचमरचम्पा च पुर गगनमण्डलम् ।। विजय जयन्त च शकजयमस्जियम् । पमाल केतुमाल च रुद्राश्व च धनजयम् ।। वस्वोक सानिवह जयन्तमपराजितम् । वराह हस्तिन सिंह सोकर हस्तिनायकम् ।। पाण्डुक कौशिक वीर गोदिक मानव मनु । चम्पा काञ्चनमशान मणिव जयावहम् ।। नैमिप हास्तिविजय खण्डिका मणिकापनम् । अशोक वेणुमानन्द नन्दन श्रीनिकेतनम् ।। अग्निज्वाल महाज्वलि माल्य तत्पुरनन्दिनी । विद्यत्प्रभ महेन्द्र च विमल गन्धमादनम् ।। महापुर पुष्पमाल मेघमाल शशिप्रभम् । चूडामणि पुष्पचूड हसगर्भ बलाहकम् ।। वशालय सौमनस तयव परिकीर्तितम् । विजयाोत्तरश्रेण्या पष्टिरिष्टा इमा पुर ।। रथनूपुरमानन्द चक्रवालमरिज्जयम् । मण्डित बहुकेत्वाख्य नगर शकटामुखम् ।। पुर गन्धसमृद्ध च नगर शिवमन्दिरम् । वैजयन्त रथपुर श्रीपुर रत्नसचयम् ।। आषाढ मानव सूर्य स्वर्णनाभ शतहदम् । अगावत जलावत तथावत्तं वृहद्गृहम् ।। शखवज्ज़ च नाभान्त मेघकूट मणिप्रभम् । कुजरावर्तनगर तथैवासितपर्वतम् ।। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४२६ (आ) सिन्धुकक्ष महाकक्ष सुकक्ष चन्द्रपर्वतम् । श्रीकूट गौरिकूट च लक्ष्मीकूट धराधरम् ।। कालकेशपुर रम्य पार्वतेय हिमाह्वयम् । किन्नरोद्गीतनगर नभस्तिलकनामकम् ।। मगधामारनलका पाशुमूल पर तथा । દ્વિવ્યવઘ વાયૂન તથૈવીયપર્વતમ્ विख्यातामृतधार च मातंगपुरमेव च। भूमिकुण्डलफूट च जम्बूशकुपुर परम् ।। श्रेण्या तु दक्षिणस्या हि पुराण्येतानि पर्वते । शोभया स्वर्गतुल्यानि पञ्चाशचव सख्यया ॥ सुकुमार कुमारस्तव्यासह सदैव हि। ज्ञेयानि व्यक्तदेशाना नामानीमानि पण्डित । कुरजागलपाचालसूरसेनपाच्च। तुलिगका शिकौशल्यमद्रकारवृथार्यका सोल्वावृष्टनिगाश्च कुशाग्रो मत्स्यनामक । कुणीयाम् कोशलो मोको देशास्ते मध्यदेशका ॥ वालीकाश्रेयकाम्बोजा यवनाभीरभद्रका । वथितोयश्च शूर५५ वाटवानश्च कैकय ॥ गाधार सिन्धुसीवीरभारद्वादशे रुका। प्रास्थालास्तीर्णकर्णाश्च देशा उत्तरत स्थिता ।। खड्गाड्गारकपौण्ड्राश्च मल्लप्रवकमस्तका। प्राधौतितश्च वगश्च मगधो मानवतिक ।। मलदो भार्गवचामी प्राच्या जनपद स्थिता । वाणमुक्तश्च वैदर्भा माणव सककापिरा ॥ मूलकाश्मकाण्डीककलिड्गासिककुन्तला । नवराष्ट्रो माहिपक पुरुषो भोगवर्धन ।। दाक्षिणात्या जनपदा निरुच्यन्ते स्वानामभि । माल्यकल्लीवनोपान्तदुर्गसूपरिकर्बुका काक्षिनासारिकागा ससारस्वततापसा । माहेभो भत्कच्छच सुराष्ट्री नर्मदस्तथा । एते जनपदा सर्व प्रतीच्या नामभि स्मृता । दशार्णकेति किष्किन्धस्तिपुरावनिया ॥ नेपालोत्तमवर्णश्च वैदिशान्तपकौशला । પત્તનો વિનિહાતત્ત્વ વિધ્યાવૃષ્ટનિવાસિન છે Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा भद्रवत्मविदेहाश्च वज्रखण्डिक इत्येते ३ आदिपुराणकार जिनसेन (अ) તેપા ૬ નામનિર્દેશો संतवा | कुशभगाश्च मध्यदेणाश्रिता मता ॥ भवेयमनुक्रमात् । पश्चिमा दिशमारम्य यावत् पष्टितम् पुरम् ॥ अर्जुनी वारुणी चैव सकैलासा च वारुणी । विद्युत्प्रभ किलिकिल चूडामणिशशिप्रभे । वशाल पुष्पचूल च हसगर्भबलाहको । शिवकर च श्रीहर्म्य चमर शिवमन्दिरम् । वसुमत्क वसुमती नाम्ना सिद्धार्थक पुरम् | केतुमालाख्य च भवेत्पुरम् ॥ सुरेन्द्रकान्तमन्यत् स्यात्ततो गगननन्दनम् । अशोकान्या विशोका च वीतशोका च सत्पुरी ॥ अलका तिलकाख्या च तिलकान्त तथाम्वरम् । मन्दिर कुमुद कुन्दमतो शत्रुजय तत विजयसाह्वयम् । गगनवल्लभम् ॥ द्युभूमितिलके पुर्यो पुर गन्धर्वसाह्वयम् । मुक्ताहार सनिमिष चाग्निज्वालमत परम् ॥ महाज्वाल च विज्ञेय श्रीनिकेतो जयाह्वयम् । श्रीवासो मणिवज्राख्य भद्राश्व सधनजयम् I गोक्षीरफेनमक्षोभ्य गिर्यादिशिखराह्वयम् । धरणी धारणी दुर्गं दुर्धराख्य सुदर्शनम् ॥ महेन्द्राखयपुर चैव पुर सुगन्धिनी च वज्रार्धतर रत्नाकराह्वयम् ॥ भवेद्ररत्नपुर चान्त्यमुत्तरस्या पुराणि वै । શ્રેળ્યા સ્વર્તીપુરથીઽિ માન્યેતાનિ મહાત્ત્વનમ્ ॥ (आ) कोसलादीन् महादेशान् साकेतादिपुराणि च । સારામસીનાનું લેટાવીશ્વ न्यवेशयत् ॥ देशा सुकोसलावन्ती पुण्ड्रोग्राश्मकरम्यका | कुरुकाशीकलिंगागवगसुह्या समुद्रका ॥ काश्मीरोशीनरानर्त्तवत्सपाचालमालवा । दशार्णा कच्छ्मगधा विदर्भा कुरुजागलम् ॥ करहाटमहाराष्ट्रसुराष्ट्रामी रकोकणा । वनवासान्ध्रकर्णाटकोसलाश्वोलकेरला ॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४३१ दाभिसारसीवी रशूरसेनापरान्तका । विदेहसिन्धुगान्धारयवनाश्चेदिपल्लवा ।। काम्बोजारवाहीकतुरुशककया । निवेशितास्तथान्येऽपि विभक्ता विषयास्तदा ।।२२ ४ उत्तरपुराणकार गुणभद्र अमी च विषया सुपरिभाषिता । महाकच्छा तथा कच्छकावत्यावर्तलागला ।। पुष्कला पुष्कलावत्यो वत्सा नाम्ना च कीतिता। सुवासा च महावत्सा विख्याता वत्सकावती।। रम्या च रम्यकाख्या रमणीया मगलावती । पा सुपड़ा महापमा पावत्यभिख्यया ।। शखा च नलिनान्या च कुमुदा सरिता परा। वा सुवप्रा च महावप्रया वप्रकावती ।। गन्धा सुगन्धा गन्धावत् सुगन्धा गन्धमालिनी। एताश्च राजधान्योऽत्र कुमारालोकयस्फुटम् ।। क्षेमा क्षेमपुरी चान्याऽरिष्टाऽरिष्टपुरी परा। खड्गाख्यया च मजूषा चौषधी पुण्डरी किणी॥ सुसीमा कुण्डला सार्द्धमपराजितसशया । प्रभकराकवत्याख्या पावत्यभिधोदिता। शुभा शब्दाभिधाना च नगरी रत्नसचया। अश्वसिंहमहापुयाँ विजयादिपुरी ५।। अरजा विरजाश्चैवमशोका वातशोकवाक । विजया जयन्ती च जयन्ती चापराजिता ।। अथ चक्रपुरी खड्ापुर्ययोध्या च वणिता । अवध्येत्यथ सीतोत्तराभाभागामे रुस निधे ।।२३ इसी प्रकार विद्या-सम्बन्धी शब्दावली के एकन्न सन्निवेश का उदाहरण लिया जा सकता है। रविषण और जिनसेन ने अपने 'पपुराण' और 'हरिवशपुराण' मे विद्यापरक पारिभाषिक शब्दावली का अवसर निकालकर परिगणनात्मक शैली मे उल्लेख किया है रविषण सक्षे५॥ करिष्यामि विद्याना नामकीतनम् । अर्थसामर्थ्यतो लब्ध भवावहितमानस ॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा જાય યની नभ सचारिणी નિવારા जगत्कम्पा મિમિની પ્રજ્ઞપ્તિમાંંનુમાનિની अणिमा लघिमा क्षोभ्या मन स्तम्मनकारिणी । સવાહિની સુરધ્વસી બીમારી વઘારિણી 11 સુવિધાના તોપો વની વિપુનોવરી । । शुभप्रदा રખોપા વિનાવિવિધાયિની સમાૠટિરવર્ક્શન્સનરામTI वज्रोदरी બૅનનસ્તમ્ભની તોયસ્ત બની નિરિવારિખી ।। મવલોન્ચરિવસી ખોરા ધીરા મુનાની । વાળી મુવનાવધ્યા વાTM મવનાશિની ! મારી યસમૂતિ શાની વપ્નયા નયા | વન્યની મોનની વાન્યા વરાહી ટિલાકૃતિ || વિત્તોકૂવારી શાન્તિ વેરી વશારિખી । યોગેશ્ર્વરી વણોત્સાવી નખ્યા મીતિ પ્રર્વાષળી !! | વમાદ્યા મહાવિદ્યા પુરાસુઋતમંખા | પ્રાપ વશગ્રીવ મુનિશ્વન સ્વલ્પરેવ વિન (રિવશપુરા(ર) બિનસેન પોડષાનો નિષ્ઠાયાનામિમાં વિદ્યા પ્રીતિતા । સર્વવિદ્યાપ્રઘાનત્વ या પ્રપદ્ય વ્યવસ્થિતૉ ।। ત્રનપ્તી રોહિણી વિદ્યા વિદ્યા નાજ્ઞરિણીરિતા । મહાગૌરી ( ગૌરી ૬ સર્વવિદ્યાપ્રપિળી ! મહાશ્વેતાઽવિ માયૂરી હારી નિર્દેશાના સતિરરિળી વિદ્યા છાયાામિળી પરા ।। માાણમાતા च સર્વવિદ્યાવિરાનિતા । લાયબ્માષ્ડવેવી च વેવવેવી નમżI II અશ્રુતાર્યવતી વાષિ માન્યારી નિવૃત્તિ પરા दण्डाध्यक्षगणश्चापि दण्ड भूतसहस्त्रकम् ॥ મદ્રા મહાાતી છાતી ાનમુવી તથા । વમાઃ સમાવ્યાતા વિદ્યા વિદ્યાધરેશિનામ્ ॥ પર્યાં દિપર્વા વ ત્રિપર્વા દુશર્પાવા ! શતપર્વ सहस्राख्या લક્ષપર્વાવનક્ષિતા ! ઉત્પાતિન્યન્ન તા મર્વાસ્ક્રિપાતિન્યસ્તાવિત્રી ઘારિન્ધવિનારિવ્યો ખલાગ્નિાતિક્ષિા ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४३३ नि शेखेसु निकायेसु नानाशक्तिसमन्विता । नानानानिवासिन्यो नानीखधिदिदस्तथा ।। सर्वार्थसिद्ध सिद्धार्था जयन्ती मगला जया। सङ्क्रामिण्य प्रहाराणामशय्याराधनी तथा ।। विशल्यकारिणी चैव वणसरोहिणी तथा। सवर्णकारिणी व मृतसजीवनी परा ॥५ इसी प्रकार अन्य अनेक विषयो से सम्बद्ध शब्दावली के एकल प्रयोग सभी कवियो की रचनाओ मे हुए है। नाम, आख्यात, उपसर्ग और नियत शब्दो के झुण्ड एक साथ देखने हो तो सस्कृत के इन जैन पौराणिक काव्यो का पारायण परम लाभकारी है। इन कवियो के द्वारा प्रयुक्त शब्दो मे बहुत से पूर्वपरम्परा प्राप्त है और बहुतो का निर्माण इन कवियो ने स्वय भी किया है। _____नाभिक शब्दो की कल्पना मे इन कवियों का मेधा-विलास देखने के योग्य है । कही कही छन्द के अनुरोध से एक सज्ञापद कई खण्डो मे विभक्त हो जाता है यथा 'समवशरण', 'शरण समवादिकम्'२६ तथा कही रूढ' पद भी 'योग'-पद हो जाते है । कही-कही व्यक्तिवाचक नाम भी पर्याय रूप मे अथवा परिवर्तित रूप मे प्रयुक्त हुए हैं। इनकी सगति के लिए आधारमन्थो का अवलोकन आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के लिए रविषेण के द्वारा प्रयुक्त 'अकीति' शब्द लिया जा सकता है जो 'आदित्ययशा' का पर्याय है ।२० जो व्यक्ति विमलसूरि के 'पउमचरिय' में प्रयुक्त व्यक्तिवाची नाम 'आइच्चजस' से परिचित है यह तो अकात्ति' का अर्थ 'आदित्य (अ) यशा (कीति)' लगा लेगा किन्तु जिसे इसका ज्ञान नही है वह यही निर्धारण करता रह जाएगा कि उस व्यक्ति का मूल नाम क्या है 'अर्ककाति' या 'आदित्ययशा' ? ऐसे ही शब्दो की श्रेणी को बढ़ाते हुए रविषण 'भानुकर्ण' के लिए 'भास्क (कर्ण'२८ 'भास्कर श्रवण'२९ तथा 'आदित्यश्रवण'३०, दशानन' के लिए विशत्यर्धमुख'२१, 'अशनिर्वग' के लिए 'अशनि रहा'२२, 'विजयपर्वत' के लिए 'जयपर्वत'२३, 'तिलोकमण्डल' के लिए निजगद्भ षण' का प्रयोग करते हैं। विमलसूरी के द्वारा “पउमचारिय' मे प्रयुक्त व्यक्तिवाचक नामावली और रविषण के द्वारा 'पद्मपुराण' में प्रयुक्त नामावली की तुलना करने पर कई स्थलो पर दोनो मे बड़ा अन्तर मिलता है। यदि मूल आधार ग्रन्थ को न पढा जाये तो व्यक्तिवाचक नामो का किसी और रू५ मे ही प्रयोग होने लगे। ____नामिक शब्दो के निर्माण मे, इन कवियो के द्वारा अनेक प्रक्रियायो का अगीकार किया गया है। कही एक ही शब्द से आरम्भ होने वाले नामो की रचना की गयी है तो कही एक ही शब्द से अन्त होने वाले नामो की। कही एक ही उपसर्ग से प्रारभ होने वाले अनेक नामो की उद्भावना की गयी है तो कही एक Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और काश का परम्परा ही परसर्ग से अन्त होने वाले नामो की । उदाहरणार्थं ( १ ) एक ही शब्द से प्रारम्भ होने वाले नाम विश्वभू, विश्वात्मा, विश्वलोकेश, विश्वतश्चसु विश्वविद्, विश्वविद्येश, विश्वयोनि, विश्वदृश्, विश्वेश, विश्वलोचन, विश्वव्यापी, विश्वतोमुख, विश्वकर्मा, विश्वमूर्ति, विश्वदृक, विश्वभूतेश, विश्वज्योति, विश्वरीश, विश्वशीर्ष, विश्वभृद्, विश्वसृड्, विश्वेत्, विश्वभुक्, विश्वनायक, विश्वाशी, विश्वरूपात्मा, विश्वजित् । ३५ महातपा महातेजा महोदके, महायशा, महाधामी, महासत्त्व, महावृति, महाधैर्य, महावीर्य महासम्पत्, महावल, महाशक्ति, महाज्योति, महाभूति, महाद्युति, महामति, महानीति, महाक्षान्ति, महादय, महाप्राज्ञ, महाभाग, महानन्द, महाकवि, महामहा, महाकीति, महाकान्ति, महावपु, महादान, महाज्ञान महायोग, महागुण, महामहपति, महाप्रभु, महाप्रातिहार्य, महेश्वर, महामुनि, महामोनी, महाध्यान, महादम, महाक्षम, महाशील, महायज्ञ, महामख, महाव्रतपति, महाकान्तिधर, महामंत्रीमय, महोपाय, महोमय, महाकारुणिक, महामत्र, महायति, महानाद, महाघोप, महेज्य, महसा पति, महाध्वरधर, महोदार्य, महात्मा, महाक्लेशाकुश, महाभूतपति, महापराक्रम, महाक्रोध रिपु, महाभवाब्धिसत्तारी, महामोहाद्रिसूदन, महागुणाकर, महायोगीश्वर, महाध्यानपति, महाधर्मा, महाव्रत, महाकर्मा, महादेव, महेशिता आदि । वज्रजध, वज्रसेन, वज्रदंष्ट्र, वज्रध्वज, वज्रायुध, वज्र, वज्रभृत्, वज्राम, वज्रबाहु, वज्रसज्ञ, वज्रास्य, वज्रपाणि, वज्रजातु, वज्रवान् आदि । ३७ चन्द्रमएचूड, एकचूड, द्विचूड, 1 २ एक ही शब्द से अन्त होने वाले नाम तिचूड, वज्रचूड, भूरिचूड, अर्कचूड १८ ऋक्षरजा सूर्यरजा | ३ एक ही उपसर्ग से प्रारम्भ होने वाले नाम विजर, विराग, विरत, विविक्त, वीतमत्सर वियोग । ४० विभय विभव, विशोक, सुगति, सुश्तुत, सुवाक् आदि । " ४ एक ही ५ सर्ग से अन्त होने वाले नाम सहिष्णु प्रभविष्णु प्रभूविष्णु भ्राजिष्णु, अमभूष्णु, स्वयम्भूष्णु आदि । कही आदि का शब्द तो समान है किन्तु अन्त का शब्द समानार्थक है यथा महामख, महायज्ञ, महेज्य, महाध्वरधर आदि नामिक शब्द विधान मे आदिपुराणकार जिनसेन ने कमाल कर दिखाया है । उन्होने 'विष्णुसहस्रनाम' की कडी को आगे बढाते हुए 'जिनसहस्त्रनाम' की Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४३५ रचना की है और एक स्थान पर ही एक हजार आठ नामो की उद्भावना की है। व्यक्तिवाची नामो के रूप मे विशेषण कैसे परिवर्तित हो जाते है इस सहस्त्रनाम मे यह देखते ही बनता है। इन नामो की व्याख्या के लिए पर्याप्त स्थान और समय अपेक्षित है। व्यक्तिवाची नामो के अतिरिक्त भौगोलिक शब्दावली मे भी इन कवियो का कल्पना-विलास तथा शब्द-निर्माण-कौशल देखने को मिलता है। शोधको द्वारा भूगोलपरक स्थान-पर्वत-वन-नदियों का अस्तित्व सिद्ध होना न होना अलग वात है जिससे हमारा यहाँ कोई प्रयोजन नही है। हमारा उद्देश्य तो कवियो के शब्दनिर्माण-कौशल का प्रत्यायन करना है जो अपने मे एक रोचक विषय है। सज्ञापदो के अतिरिक्त विशेषणपरक शब्दावली भी अत्यन्त समृद्ध है। विशेषणो के निर्माण मे जिन प्रक्रियाओ का अवलम्बन इन कवियो ने किया है । उनका अध्ययन भी रोचक हो सकता है। इन पौराणिक काव्यो की पद्यमयता को ध्यान में रखते हुए परिमित मात्राओ तथा अक्षरो मे विशेष्य की विशेषताओ को प्रकट करने वाले विशेषण-पदो की रचना मे ये जन कवि अत्यन्त सिद्धहस्त हैं। विशेषणमालाओ का प्रयोग करते हुए रविषण ने 'रण' और 'विपिन' के साक्षात् चिन उपस्थित कर दिये है रणपाक विशेषण "कणदवसमुधूढस्यन्दनोन्मुक्तचीत्कृतम् । तुरगजवविक्षिप्तभटसीमन्तिता विलम् ।। नि कामद्रुधिरोद्गारसहितोरुभटस्वनम् । वेगवस्त्रसम्पातजातवाहककरम् ॥ करिशरकृतसम्भूतसीकरासास्त्रालकम् । करिदारितवक्षस्कभटसकट भूतलम् ॥ पर्यस्तकरिसरुद्ध रणमार्गाकुलायतम् । नागमेधपरिश्च्योतन्मुक्ताफलमहोपलम् ।। मुक्तासारसमाघातविकट कर्म रगकम् । नागोज्छालितपुन्नागकृतखेच रसगमम् ।। शिर क्रीतयशोरत्न मूच्छजिनित विश्रमम् । मरणप्राप्तनिर्वाण वभूव रणमाकुलम् ॥ (वनपरक विशेषण) ततस्ते भूमहीध्रानगावातमुकर्कशम् । महातसमारूढवल्लीतालसमाकुलम् ।। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ક્ષુવતિ દ્ધશાર્દૂલન વિજ્ઞતપાવમ્ । સિંહાન્નતદ્વિષોવ્વીખેરતૌવિત્તપિત્ત્તનમ્ ।, उन्मत्तवारणस्कन्वतष्टस्कन्ध महात रुम् । સરિધ્વનિવિતસ્તસમુળીબંરામ્ । સુપ્તાનરનિવાસવાયુપૂરિતાન્નુરમ્ । વૈરાયૂથપોતાત્રવિધમાતપત્ત્વમ્ ॥ મહામįિાાશ્રમનવમીસાનુમ્ । II ીભૃતમહામો નનડ્રોવિભીષણમ્ । તરક્ષતસારાહધિરભ્રાન્તમસિમ્ । હ્રષ્ટાસન્તપુઘ્ધાશ્વત્રતામ્યમ્બમનીષાણમ્ વર્વસમ્પૂરિતશ્ર્વવિન્મુતસૂત્રોવિન્નિતિતમ્ । વિષવુમ્હોત્રાળગિતાને ખન્નુમ્ II વિદ્મહાસમુત્ત્તીદત ઇન્સ્યુતઃવમ્ । હસ્ત્રાન્તાવયવ્રતમનપત્નવાલમ્ ॥ નાનાપક્ષિવ્ઝનરનિત પ્રતિનાવિતમ્। શાસ્ત્રોમ્બુલન્તિવનવ્યા મારાપમ્ ॥ તીવ્રવે ગિનિસ્રોત શતનિર્વાંતિક્ષમમ્ । વૃક્ષા*વિરીતવિવારરોરમ્ ।। નાનાપુષ્પનાળીળ વિત્તિજ્ઞામોવવાસિતમ્ I વિવિધૌષધિસમ્પૂર્યાં વનસચસમાનમ્ ॥ નિત્નીનું નૃત્તિપીત નિવ્ર હરિવચિત્ । પિત્તર∞ાયમન્યજ્ઞ વિવિશ્વપિન મહ્ત્વ ખ अनेक मूल શબ્દો સે નિમિત ન્હન વિશેષાપવો મે સયોઝનનન્ય સામૂહિ અર્થવ્યન્નતા નિહિત હૈ । ના અર્થો શૈલીશાસ્ત્રી નોર સાહિત્યશાસ્ત્રી વિદ્વાનો જે લિ રોન વિષય દ્દો સર્જાતા હૈ । છોટે-વડે મૌને વિશેષળો જ નહતી નિધિ ફન પૌરાણિજ ાવ્યો મે નિતિ હૈ, ખિસછે ન્વેષણ વળી આન ભી આવશ્યતા વની તુર્દ હૈ । જૈન સે વિશ્વ નો મારને નિદ્ વિશ્વ સ્વર ઔર વ્યગ્નન સે સન્નિત સિ શબ્દ ા વાસ સમાસપદ્ધતિ ા વિશેષળ-fનર્મા૫ મે બવનશ્ર્વન યિા ગયા મૈં યહ્ાપરવા મી મી વાળો હૈ । સર્વનામો વે પ્રયો મેં મ પ્રવૃત્તિત ન્તુિ સદી ‘હ્દયળા' 'ત' બાવિ प्रयोग यथावसार इन कवियो ने किये हैं । पद्मपुराण मे रविषेण, वरुण के नगर જી સ્ત્રિયો જો વત્ત્વી વનાને વાત્તે માનુર્ખો દારતે मुख સે, ત્વચા' (છુભિતેન ત્વયા) જ પ્રયોગ રાતે હૈ--- हुए रावण के Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जन पौराणिक काव्यों की शब्द-सम्पत्ति ४३७ 'खलीकारमिमा येन त्वयका प्रापिता मुधा ।।४६ इसी प्रकार आदिपुराण मे जिनसेन ने 'कुत्सिता ते' के अर्थ मे 'तके' का प्रयोग किया है "अकरा भोक्तुमिच्छन्ति गुरुदत्तामिमा तके।" आख्यात-पदो के समस्त सभावित रूपो की छट। इन काव्यो मे देखने को मिलती है। कुछ अनुरागात्मक क्रियाओ का निर्माण भी इन कवियो ने किया है जिस पर प्राकृत का प्रभाव है। जिस प्रकार विमलसूरि ने अपने उमचारिय' मे 'कडकडकन्ति, कढकढकन्ति', 'कणकणकणन्ति',५० किलिकिलिकिलत',५१ 'खणखणखणति',५२ गुमसुमायर',५३ 'मुगुमुगुमत',५४ 'मुगुमुगुमेन्त',५५ 'गुलगुलगुलान्त',५६ गुलगुलायन्त', 'गुलगुलगुलेन्त',५८ धुषुधुधुधुपेन्त',५९ 'धुलहुलवहन्त,'६० 'चडचडपडन्त', 'छिमिछिमिछिमन्त,,६२ 'तडतडतडत्ति,६३ भुगुभुगेन्त आदि अनुरणनात्मक शब्दो का प्रयोग किया है। उसी प्रकार रविषण ने अपने पद्मपुराण मे किया है। उदाहरणार्थ (अ) "नपनपायतेऽन्यत तया दमदमायते । छमाछमायतेऽन्यत्र तथा पटपटायते ।। छलछलायतेऽन्यत्र ८६८६ायते तया। तटतटीयतेऽन्यत्र तया चटचटायते ॥ घरधनग्यायतेऽन्यत्र रण शस्त्रोत्यितै स्वर ॥"६५ (आ) भवन्मृगनिस्वानात् क्वचिद् गुलुगुलायते । भुभुद्भुम्मायतेऽन्यत्र कृचित्५८५८ायते ॥ इन कवियो की यह बलवती इच्छा रही है कि इनके पाठको को एक ही स्थान पर एक श्रेणी के शब्दो का सघात मिल जाये। रविषण ने एक ही स्थान पर लट्लकार के प्रथम पुरुष बहुवचन की क्रियाओ का भव्य सयोजन किया है। आख्यातपदो का यह प्रयोग यह देखने योग्य है। "चक्रवत्परिवर्तन्ते व्यसनानि महोत्सव । શનૈયાયો હોપ પ્રયાન્તિ પરિવર્ધનમ્ . क्रिश्यन्ते द्रव्यनिर्मुक्ता नियन्ते बालतासु च । पूर्तापात्तायुपि क्षीणे हेतुना चोपसहृते ।। नाना भवन्ति तिन्ति निघ्नते शोचयन्ति च । रुदन्त्यदन्ति बाधन्ते विवन्ति ५०न्ति च ॥ ध्यायन्ति यान्ति पलान्ति प्रभवन्ति वहन्ति च । गायन्त्युपासतेऽनन्ति दरिद्रति नदन्ति च ।। जयन्ति रान्ति मुञ्चन्ति राजन्ते विलसन्ति च । तुष्यन्ति शासति शान्ति स्पृह्यन्ति हरन्ति च ।। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की 4.म्परा नयन्ते द्रान्ति मज्जन्ति दूयन्ते कूटयन्ति च । मार्गयन्तेऽभिधावन्ते कुहयन्ते मृजन्ति च ।। क्रीडन्ति स्यन्ति यच्छन्ति शीलयन्ति वमन्ति च । लुयन्ति मान्ति सीदन्ति क्रुध्यन्ति विलयन्ति च ।। तुष्यन्त्यन्ति पञ्चन्ति सान्त्वयन्ति विदन्ति च । मुह्यन्त्यन्ति नृत्यन्ति स्निह्यन्ति विनयन्ति च ।। नुदन्त्युच्छन्ति कर्षन्ति भृज्जन्ति विनयन्ति च । दीव्यन्ति दान्ति शृण्वन्ति जुह्वत्यगन्ति जाग्रति ।। स्वपन्ति विभ्यतीङ्गन्ति श्यन्ति दन्तितुदवि च । प्रान्ति सुन्वन्ति सिन्वन्ति रुन्धन्ति विरुवन्ति च ॥ सीव्यन्त्यन्ति जीर्यन्ति पिवन्ति रचयन्ति च । वृणते परिमृद्नन्ति विस्तृणन्ति पृणन्ति च ॥ मीमासन्ते जुगुप्सन्ते कामयन्ते तरन्ति च। चिकित्स्यन्त्यनुमन्यन्ते वारयन्ति गृणन्ति च ॥ एवमादिक्रियाजालमततव्याप्तमानस । शुभाशुभसमासक्ता व्यतिक्रामन्ति मानवा ॥"५७ इसी प्रकार क्रियाविशेषणो, उपसर्गो, नियाती, अव्ययो के एकल सन्निधि के अनेक उदाहरण मिलते हैं। 'सहार्यक' अव्ययो की एक-साथ प्रस्तुति का एक उदाहरण प्रस्तुत है "रथिनो रथिभि साई तुरगास्तुरंगरमा।६८ । साक गर्गजा सना पानातत्त पदातिभि ॥" कही-कही शब्दो का लयात्मक और संगीतात्मक दृष्टि से भी योजन और निर्माण किया गया है। एक ही लय की पदशय्या के लिए 'वृत्तगन्धि गद्य' की शैली का आश्रय लिया गया है। सक्षेपत , सवेदना, युगवोध तथा शिल्प की दृष्टि से इन जैन पौराणिक काल्यो मे महत्वपूर्ण शब्दयोजना की गयी है। इनके शब्दो मे अपने समय का देशकाल और शब्दप्रयोग का इतिहास समाया हुआ है जिसके साक्षात्कार के लिए अन्तर्दृष्टि और अध्यवसाय अपेक्षित है। वस्तुत संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द सम्पत्ति' योजना पर सर्वागीण कार्य कर लेना एक व्यक्ति के बूते की बात नही है । एक-एक शब्द से परम्परा, प्रयोग, इतिहास, समाज, सस्कृति, धर्म, दर्शन, व्याकरण, व्याकरण भाषाविज्ञान, विम्बयोजना, अप्रस्तुत-विधान, शिल्प तथा सवेदना के विविध आयाम जुड़े हए है जिनका उद्घाटन अनेक विषयो के विद्वान् एक साथ बैठकर कर सकते हैं । इस कार्य के लिए शान्त मन स्थिति, लगन, समय तथा साधन अपेक्षित है। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४३६ प्रकान्त चारो पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति पर अभी तक थोडा ही कार्य हो पाया है । हरिवंशपुराण'° आदि पुराण' एव उत्तरपुराण'७२ के परिशिष्ट रूप मे सुधी सम्पादक प. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य ने पारिभाषिक, भौगोलिक, विशिष्ट तथा व्यक्तिवाचक समापदो की सूचियाँ दी है तथा उनके स्थानानुरोधी अर्थ भी दिये है किन्तु रविणकृत 'पद्मपुराण' के परिशिष्ट के रूप मे ये सूचिया नहीं दी गयी है। रविष्णक 'पद्मपुराण' की शब्दावली पर स्वतन्त्र रूप से कोई कार्य हमारे देखने मे नहीं आया है। इस दिशा मे इस लेख का लेखक 'रविषेणकृत पद्मपुराण की शब्दावली का परिशीलन' शीर्षक से कुछ विचार कर रहा है। _____१० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य के कार्य ने, नि सदेह, आगामी शोधाथियो के लिए एक मसृण मार्ग तयार कर दिया है। अकारादिक्रम से सूची बनाकर सज्ञा शब्दो का अर्थ दे देना अपने मे एक श्रमसाध्य कार्य है। किन्तु इस कार्य की अपनी कुछ सीमाएं हैं। ___उदाहरण के लिए 'आदिपुरा के दो स्थलो को हम लेते हैं। पहला स्थल वाईसवे पर्व से और दूसरा सोलहवे पर्व से उद्धत है। वाईसवे पर्व मे 'समवसरण' रचना से सम्बद्ध ये सज्ञा तथा विशेषण शब्द, प्रमुखत , प्रयुक्त हुए है --आस्थानमण्डल (२२१७५), शिलि (२२७६), आर०धपरायरचनाशत (२२१८६) (२२१७६), द्विपड्योजन विस्तार (२२।७७), हरिनोलमहारत्नघटित विलसत्तल (२२१७७), समवृत्त (२२।७८), मगलादर्श (२२।७८), पर्यन्तभूभाग (२२।८१), धूलीसाल (२२१८१), वलयाकृति (२२।८२), कटिसून (२२१८३), जिनास्थान भूमि (२२।८३),अजनपुजाभ(२२।८४), चामीकरच्छवि (२२।८४), विद्रुमसच्छाय (२२।८४), रत्नपामु (२२।८४), चन्द्रकान्तशिलाचूर्ण (२२।८६), मरकत (२२।८७), अ भोजराग (पद्मराग) (२२।८७), कलम्वित (२२१८७), हेमस्त मानलम्बिततोरण (२२६६१), मकारास्योट रत्नमाला (२२।६१), हाटक निर्मितमानस्तम्भ (२२।६२), चतुर्गापुरसबद्धसालतितयवेष्टित जगतीनाथस्नपनापवित्रित जगती (२२।६३), हेमपोडशसोपानस्वमध्यापितपीलिका (२२।९४), यस्तपुष्पोपहारा (२२१६४), नृसुरदानव (२२।६४), घण्टा (२२२६६), चामर (२२।६६), ध्वज (२२।६६), दिक्चतुष्टय (२२।६७), स्तम्भचतुष्टय (२२१६७), जिनानन्त चतुष्टय (२२।९७), हिरण्मयी जिनेन्द्र ाा (२२।६८), क्षीरोदा भोभिषेचन (२२।६८), नित्यातीयमहावाद्य (२२।६६) नित्यमगीतमगल (२२।६६), नित्यप्रवृत्तनृत्य (२२ ६६), पीठिका (२२।१००), निमेखल (२२।१००), पी० (२२११००), छत्तत्रय (२२।१०१), इन्द्रध्वज (२२११०१), प्रसन्नसलिला वापी (२२११०३), स्तन्मपर्यन्तभूभाग (२२।१०३), मणिसोपान (२२।१०७), स्फटिकोपतटी (२२।१०७), जैनेशजय (२२।१०८), जिनस्तोत्र (२२।१०६), नन्दोत्तरादिनाम Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा (२२।११०), पादप्रक्षालनाकुण्ड (२२।११०), वीथी (२२।१११), जलखातिका (२२।१११), जिनजयोत्सव (२२।११५), प्रथम प्राकार (२२११२८), हिरण्मय निपध (२२।१२८), साल (२२।१२६), चकवालाद्रि (२२।१२६), उपरितल (२२।१३१), मौक्तिकावली (२२११३१), विद्रुममधात (२२११३२), परागाशु (२२।१३२), द्विपहरिव्याघ्ररूपमिथुन (२२।१३५), विचित्ररत्ननिर्माण-मनुष्य-मिथुन (२२।१३६), उपसर्पत्प्रतिध्वनि (२२।१३७), गोपुर (२२।१३६), भृगारकलशादि अष्टोत्तरशतमगलद्रव्यसम्पत् (२२।१४३), रत्नाभरणभाभारपरिपिंजरितावर तोरण (२२११४४), अनुतोरण उद्धद्धाभरण (२२११४५), खादिनवनिधि (२२।१४६), महावीथी (२२॥१४८), उभयभाग (२२।१४८), नाट्यशालाद्वय (२२।१४८), नाट्यमण्डपरग (२२११५१), सुरयोजित (२२।१५४), किन्नर (२२११५५), धूपघट (२२।१६२), वीप्यन्तर (२२।१६२), चतस्त्रो वनवीथय (२२३१६२), त्रिकोण चतुरस्त्रिका वापी (२२।१७४), स्तनकुकुम (२२।१७४), पुष्करिणी (२२११७५), कृतकादि (२२।१७५), हर्म्य (२२।१७५), आक्रीडमण्डप (२२।१७५), प्रेक्षागृह (२२।१७५), चित्रशाला (२२।१७६), एकशाला (२२।१७६), द्विशाला (२२११७६), महाप्रासादपक्ति (२२।१७६), वनचतुष्टय (२२।१७८), जम्बूद्वीप (२२।१८६), रणदालम्बिधण्टा (२२।१९२), भूर्भुवस्वर्जय (२२३१६२), ध्वजाशुक (२२११६३), मुक्तालम्वनभूषित छत्रनय (२२।१६४), नभाग (२२।१६५) जिनेश्वरप्रतिमा (२२।१६५), गधस्नग्धूपरीपार्धा (२२।१६६) नित्यार्चन (२२।१६६), क्षीरोदोदकवीतानी हिरण्मयी अर्हताम; (२२।१९७), पनवेविका (२२।२०५), घण्टाजाल (२२।२०६), अष्टमगल (२२।२१०), ध्वजपक्ति (२२।२११), संगीतातीचनृत्य (२२।२१०), रत्नाभरण तोरण (२२१२१०), ध्वजस्तम्भ (२२१२१२), मणिपी० (२२।२१२), अष्टाशीत्यगल-रुद्रित्व (२२१२१३), पञ्चविंशतिकोदण्डअन्तर (२२१२१३), सिद्धार्थ चैत्यवृक्ष (२२।२१४), प्राकारवनवेदिका (२२१२१४), स्तूप (२२।२१४), कतव (२२।२१४) तीर्यकृदुत्सेध (२२१२१५), दशभेदक ध्वज (२२।२१६), अष्टोत्तरशत केतन (२२।२२०), स्नध्वज (२२।२२२), ५लपणाशुकध्वज (२२।२२३), पहिध्वज (२२।२२४), पनवज (२२।२२५), हसध्वज (२२१२२८), गरुत्मध्वज (२२१२२६), विनायक (२२।२२६), मृगेन्द्रकेतन (२२।२३१), वषम (उक्षा) ध्वज (२२।२३३), इभ (गाजाधि५) ध्वज (२२।२३४), पक्रवज (२२।२३५), अशातियुक् महस्तध्वजा (२२१२३८), शून्य द्वित्रिकसागर ध्वज (२२।२३८), अर्जुन निर्माण द्वितीय साल (२२१२३६), कल्पभरुहवन (२२१२४६), दशप्रभेद कल्पतरु (२२।२४६), उदक्कु० (२२।२४६), ज्योतिक (२२।२४६), ज्योतिरङ्ग Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४४१ (२२।२४६), दीपा। (२२।२४६), कल्पन (२२।२४६), स्नगग (२२।२४६), भावनेन्द्र (२२।२४६), सिद्धार्थपादप (२२१२५१), कल्पद्रुम (२२।२५२), सभागृह (२२।२५३), प्रतोली (२२।२५६), परिवीथी (२२।२५६), सुरशिल्पिनिर्मित प्रासादतक्ति (२२।२५६) अधिष्ठानवन्धन (२२।२५७), कान्त भित्ति (२२।२५७), रत्नचित्रित (२२।२५७), सहयं (२२।२५८), द्वितल (२२।२५८), त्रिचतुस्तल (२२।२५८), चन्द्रशाला (२२।२५८), वभिन्छन्दशोभी (२२।२५८), कूटागार (२२।२५६), गन्धर्व (२२।२६१), सिद्ध (२२।२६१), विद्याधर (२२।२६१), पन्नग (२२।२६१), किन्नर (२२।२६१), गान (२२।२६२), वादिनवादन (२२।२६२), सगीतन्टेत्यगोष्ठी (२२ २६२), नवस्तूप (२२।२६३), सिद्धाहत्प्रतिविम्बोधचिनमूति (२२।२६४), नवकेवललब्धि (२२।२६६), भव्य २२२२६६), नभ स्फटिकसाल (२२।२७०), सद्वृत्त (२२।२७०), खगेन्द्र (२२।२७१), द्वारोपान्त (२२।२७४), सताल (२२।२७५), सुप्रतिक (२२।२७५) गदादिपाणिभौमभावनकल्पज (२२।२७६), महावीप्यन्त। षोड५ भित्ति (२२।२७७) श्रीमण्ड५ (२२।२८०), गुह्यक (२२।२८३), योजनप्रमित (श्रीमण्ड५) (२२।२८६), देव (२२।२८६), देव (२२।२८६), दानव (२२।२८६), वैदूर्य रत्ननिर्माण प्रपमा पीठिका (२२।२६०), षोडशसोपान मार्ग (२२।२६१), षोऽशान्तर (२२।२६१), सभाकोष्ठप्रवेश (२२।२६१), धर्मचक्र (२२।२६२), यक्षमूर्धा (२२।२६२), सहस्रार (२२।२६३), हिरण्मय द्वितीय पी० (२२।२६४), सिद्धाटगुणनिर्मलध्वज (२२।२६६), सर्वरत्नमय तृतीय पी० (२२।२६८), गिमेदवल पी० (२२।२६६), सिद्धपरमेष्ठी (२२।३०४), विभाग (२२।३१२), जिनास्थायिका (२२।३१२), कंवल्यपूजा (२२।३१५), अमरनिकाय (२२।३१५), समवसरण भूमि (२२१३१५), आस्थानभूमि (२२।३१६) । प० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य के द्वारा दी गयी सूचियो मे इन सभी शब्दो का समावेश नही हो पाया है। आस्थानमण्डल, मगलादर्श, कटिसूत्र, जिनास्यानभूमि, भरकत, हेमस्तम्भावलम्बिन तोरण, स्तम्भचतुष्टय, पीठिका, निमरवल पी०, छत्रत्रय, जलखातिका, प्रथम प्राकार, द्विपहरिव्याघ्ररूप मिथुन, गोपुर, अनुतोरण उद्बद्धाभरण, नवनिधि, महावीथी, कैतवा , चतस्त्रोवनवीय, आकोडमण्डप, पनचतुष्टया स्त्रग्ध्वज, अर्जुननिर्माण, द्वितीय साल, अधिष्ठानबन्धन, नवस्तूप, त्रिमेखल पीठ तथा समवसरणभूमि आदि अनेक शब्द इन सूचियो मे स्थान नही पा सके है जबकि ये विशिष्ट, पारिभाषिक एवं महत्वपूर्ण है और अपने सास्कृतिक और प्रासगिक आशय का स्पष्टीकरण चाहते है। इन शब्दो के इन सूचियो मे समावेश न होने के कारणो मे सम्पादक महोदय के लिए इन शब्दो का साधारणत्व अथवा अनुवाद के समय इनका अर्थ-विधान कर देने पर यहा पुनरुक्ति Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की ५२५ की व्यर्थता अथवा सूचीदेशिका आदि हो सकते ह जो सर्वया मनोवैज्ञानिक है। वस्तूत माहित्यशास्त्रियों के लिए रस, भाव, छन्द, अलकार, रीति, गण आदि शब्द जैसे रोजमर्रा के ५०द हो जाते है और उनके पदे-पदे अर्थ-स्फोट की, उनके लिए कोई समस्या नही होती वैसे ही जैन वाङ्मय और जैन धर्म-दर्शन से परिचित व्यक्ति के लिए उपयुक्त शब्द नये नहीं लगते । किन्तु उस परम्परा से अनभिन व्यक्ति के लिए ये साधारण से शब्द भी विशिष्ट, पारिभाषिक एव महत्वपूर्ण प्रतीत होते है। इन दो का इस प्रसंग मे अपना इतिहास है जिसमे लोकरीति, विश्वास, शिप, धर्म, दर्शन तथा सस्कृति छिपी हुई है। कवि ने बडे कौशल से इस वैभव को शत्रो मे छिपाकर पाठको को समर्पित कर दिया है जिसकी पहचान उसे करनी है और अपने अतीत और अनागत से वर्तमान को जोडकर उसका तुलनात्मक आस्वाद लेने का अवसर प्राप्त करना है। दूसरा उदाहरण आदिपुराण के सोलहवे पर्व से लिया जा सकता है।१४४वे श्लोक से २६३वे श्लोक तथा पट्कम, वर्णाश्रमस्थिति तथा ग्रामगृहादिसस्त्याय से सम्बद्ध शब्दावली प्रयुक्त हुई है जिसके अनेक शब्दो का इन सूचियो मे समावेश नहीं हो पाया है । वर्णाश्रमस्थिति (१६।१४४),७६ स्वोच्चस्य ग्रह (१६११४६), वप्र (१६१६२), प्राकार (१६।१६२), परिखा (१६।१६२), गोपुर (१६१६२), अट्टालक (१६११६२), साराम (१६।१६४), तत्कर्तृ भोक्तृनियम (१६।१६८), योगक्षेमानु चिन्तन (१६।१६८), असि (१।१७६), मसि (१६।१७६), कृषि (१६।१७६), विद्या (१६।१७६), वाणिज्य (१६।१७६), शिल्प (१६।१७६), क्षत्रिय (१६।१८३), वणिज ((१६।१८३), शूद्र (१६।१८३), प्रजानाह्य (१६।१८६), वर्णसंकोणि (१६।२४८) तथा मात्स्यन्याय (१८४२५२) आदि अनेक पारिभाजिक द ऐसे है जो साधारण पाठक के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और व्याख्यासापेक्ष है । जैन मान्यता के सन्दर्भ मे 'वणाश्रम' की कुछ और मकल्पना है। 'व', 'प्राकार', 'परिखा', 'गोपुर' तथा 'अट्टालक' आदि शब्द पातुशास्त्र से सम्बद्ध है। 'क्षत्रिय', 'वणिक' तथा 'शूद्र' शब्द की आदिपुराणकार ने विशेष व्युत्पत्ति दी है । 'असि' का अर्थ, इस प्रस। मे, केवल तलवार न होकर शस्त्रकर्म है । 'मसि' का अर्थ केवल स्याही न होकर लेखन-कर्म है। किम व्यक्ति को कौनसा शस्त्र दिया जाता था और किससे कोनसा लेख अपेक्षित या इसका भी कुछ विचार अवश्य होता होगा। "शिल्प' का क्या अर्थ है और उसके कितने प्रकार हैं आदि प्रश्नो का उत्तर भी शिल्प' शब्द की प्रया विशेप मे युत्पत्तिपरक और प्रवृत्तिपरक व्याख्या करने से ही मिल सकता है। 'वर्णसंकोणि' की सकल्पना के पीछे कवि की क्या मनास्थिति और वारणा रही है तथा 'मास्यन्याय' शब्द का प्रचलन इम अर्थ मे कब से हो रहा है आदि प्रश्नो के इनर पाठन को चाहिए । वस्तुत ये शब्द अपनी यात्रा के दौरान पारिभाषिक Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द- सम्पत्ति ४४३ तथा विशिष्ट बन गये है जिनका उल्लेख इन सूचियो में रहता तो और अच्छा रहता । ऐसे अनेक शब्द है जो इन सूचियो मे स्थान प्राप्त करने से वञ्चित रह गये है, जिनका समावेश करके एक वृहत् सज्ञा शब्द सूची तैयार करने की आवश्यकत बनी हुई है। सज्ञा शब्दो के अतिरिक्त, भाषाशास्त्रीय और शैलीशास्त्रीय दृष्टि से, आख्यातपदो, निपातो, उपसर्गों तथा पदबन्धादिको की सूची की भी आवश्यकता है जिसके आधार पर शब्दावली का व्युत्पत्तिपरक और प्रवृत्तिपरक अध्ययन किया जा सके । किन्तु इतने पर भी इन पौराणिक काव्यो की शब्दावली के सम्वन्ध मे प० पन्नालाल जैन के कार्य का अपना महत्त्व है । जिज्ञासुओ के लिए ये परिशिष्ट अवलोकनीय और सहायक है । पुनरुक्ति से बचने के लिए हम, हरिवशपुराण, आदिपुराण और उत्तरपुराण की शब्दावली को न देकर, केवल 'पद्मपुराण' की विविध विषय-परक शब्दावली को ही प्रस्तुत कर रहे है । इस शब्द-सम्पत्ति को देखकर शब्द-मर्मज्ञो को रविपेण के विशाल 'लोक-शस्त्रिकाव्याद्यवेक्षण' का आभास मिल सकेगा । हरिवशपुराण तथा उत्तरपुराण के परिशिष्टो मे सकलित शब्द पद्मपुराण के उत्तरवर्ती है । हम अकारादिक्रम की उपेक्षा करते हुए विषयानुसार शब्दों की सूची उसी आनपूर्वी से दे रहे हे जिससे रविपेण ने उनका प्रयोग किया है | चूकि समस्त शब्दो का समावेश प्रस्तुत लेख मे नही हो सकता था अत अकारादिक्रम से शब्द सूची अधिक उपयोगी नही प्रतीत हुई । नाही परिमित स्थान मे सभी विपयो से सम्बद्ध शब्दो का उल्लेख किया जा सकता है, अत मुख्य विषयानुसारी शब्दसूची ही यहा दी जा रही है । उसमे भी प्रधानत संज्ञापदो एव कुछ विशेषणपदो को ही लिया गया है । इस लेख में इन शब्दों की निर्माणप्रक्रिया तथा अर्थवैभव का भी सकेत नही किया जा सकता, उसके लिए स्थानाधिक्य अपेक्षित है । वस्तुत यह लेख, उत्तरवर्ती पौराणिककाव्यत्तयो की शब्द के विद्यमान रहते, पूर्ववर्ती पौराणिक काव्य-पद्मपुराण की शब्द-सूची निर्माण की पूर्वपीठिका है । चारो ग्रन्थो की शब्दसूची बन जाने पर इनकी शब्दावली का तुलनात्मक अध्ययन करने मे कुछ सुविधा सभव होगी । 'पद्मपुराण' की शब्द-सम्पत्ति की चर्चा करते समय हमे ज्ञात होता है कि रविषेण ने समाज और जीवन के विशाल क्षेत्र से सम्बद्ध शब्दो का चयन किया है । रविषेण ने 'पद्मपुराण' मे राम (पद्म) की कथा कहने के बहाने समयानुसार समवसरण जिनेन्द्रमन्दिर, जिनपूजा, शास्त्रार्थ, जैनमुनि, धर्मकथन, पर्वे, क्षेत्र काल, अनेक नगर-नगरियो प्रकृति, नारी सौन्दर्य व्यापार-आलापो, पुरुष-सौन्दर्य वैभवव्यापारो, सम्भोग-क्रीडा, उत्सव आमोद, युद्ध, सेना, यात्रा, उपद्रव, शस्त्र, वाद्य, वेषभूषा, विरह-विलाप, पशु-पक्षी, शकुनापशकुन, यन्त्र, वाहन, नगरसमृद्धि, Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा साहित्य, विविध शास्त्र तथा विविध कलाओ का वर्णन करते हुए तत्सम्बद्ध शब्दावली का भरपूर उपयोग किया है । यहा कुछ शब्द प्रस्तुत है। १ समवसरण सम्बन्धी शब्द समवस्थान (१।४६), प्राकार (२।१३५), गोपुर (२।१३६), अष्टमगल (२।१३७), स्फटिकभित्ति (२।१३८), द्वादश विभाग (२।१३८), प्रादक्षिण्य पथ (२।१३८), निम्रन्थ (२।१३६), गणनाथ (२।१३६), इन्द्रपत्नी (२।१३६), कल्पवासिसुराङ्गना (२।१३६), आर्यिकासघ (२।१४०), गणपाली (२।१४०), द्योतिपा योणित (२।१४०), क्यन्तरी (२।१४०), भावनस्त्री (२।१४१), धोतिषा गण (२।१४१), व्यन्तर (२।१४१), भावनसंघ (२११४१), कल्पवासी (२।१४२), मानुष (२।१४२), तिर्यञ्च (२११४२), अशोकपादप (२११५१), यक्षराज (२।१५२), चामर (२।१५२), गतित्रय (२।१५३) तथा समवसरण (१२२१७२) मादि । २ जिनेन्द्रमन्दिर-सम्बन्धी शब्द रत्नवातायन (२८।८६), मुक्ताजालक (२८1८६), शातकोभमहास्त+मसहस्र (२८।८६), नानारूपसमाकीर्ण (२८।६०), भे गसमप्रभ (२८।६०), वजवनमहापी० (२८।६०), जिनाधिप (२८९४), नित्यालकृतपूजित (३१।२२४), चन्द्रनाम्मोऽनुलिप्तक्ष्म (३११२२४), निद्वार (३१।२२४), तुगतारण (३१।२२४), दर्पणादिविभूष (३१।२२५), मणिपीठ (३१।२२८), जिनविम्ब (३१।२३०), चैत्य (४०।२७), महावष्ट भसुस्तम्भ (४०।२८), युक्तविस्तारतुरता (४०।२८), गवाक्ष (४०।२८), हर्य (४०।२८), वलभी (४०।२८), तोरण (४०।२६, ११२।४६), महाद्वार (४०।२९); शाला (४०।२६), परिखा (४०।२६), सितचापताका (४०।२६), बृहद्घण्टा (४०।२६), सगीत (४०।३०), महोत्सव (४०।३१), जिनप्रासादपक्ति (४०।३१), जिनेन्द्राणा पचवर्णा प्रतिमा (४०।३२), शासनदेवत (६७।१२), कृताभिपवपूजन (६७।१३), निसन्ध्यवदना (६७।१७), विविधाश्चर्य (६७।१७), चितपुष्पोपशोभित (६७।१७), महाध्वज विराजित (६७।१८), हेमप्यादिति (६७।१६) जावूनदमय (११२।४४), भानुकूटप्रतिम (११२-४४), अशेषोत्तमरत्नीधभूपित (११२।४५), मुक्तादामसहस्राढ्य (११२।४५), बुद्बुदादर्शशीमित(११२।४५), किंकिणीपट्टलवूषप्रकीर्णकविराजित (११२।४६), उत्तुगगोपुर (११२।४६), प्राकार (११२१४६), नानावर्णपलकेतु (११२।४७), काचनस्तम्भ (११२।४७) तया प्रासादालीसमावृत (६६।२) आदि। ३ जिनपूजा-सम्बन्धी शब्द अभिषेक (६६।४), वादित (६६।४), माल्य (६६।४), धूप (६९।४, १०।८६), वलि (६६।४), उपहार (६६।४), सद्वर्ण __अनुलेपन (६६।४), पूजा (६६।५), विविध प्रणाम (६९।७), पर्यकार्धनियुक्ता। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४४५ (६९।८), अक्षमाला (६९।६), आलेपन (१०८६), पुष्प (१०।८६), भक्ति (१०८६) तथा स्तुति (१०६०) आदि । ४ जैन मुनि सम्बन्धी शब्द : ५-चोदारलतोत्तुगमातगस्कन्धवर्ती (६।२६०), निगुप्तिदृढनीर ध्रककाच्छन्नविग्रह (६।२६०), पचभेद समिति (६।२६१, १४१११६६), नानातपोमहातीक्ष्णशस्नयुक्तमनस्क र (६।२६१), कषाय ६।२६२), मोह (६।२६२), भवाराति (६।२६२), निम्बरमहानृप (६।२६२), सार+भपरित्याग (६।२६३), सम्यदर्शनसात (६।२६३), अनगार (६।२६३), नासिकान निविष्टातिसौम्यनिश्चल चक्षु (२१।६४), मुमुक्षा (२११६५), विमुक्ति (२११६६), कल्याणाभिनिविष्टधी (२११६६), सम (२११६७), मानमत्सरनिर्मुक्त (२११६७), वशीकृतहषीकात्मा (२११६८), निष्प्रकम्प (२१।६८), नीराग (२११६८), श्रेय (२१।६८), मलकचुकसवीत (२२।१), धोरतपोवारी २२।१), वीतमान (२२।१), महामना (२२।१), त५ शोपितसर्वांग (२२१२), धीर (२२।२), लुचविभूषण (२२।२). प्रलम्वितमहावाहु (२२।२), युगावन्यस्तलोचन (२२।२), निविकार (२२।३), समाधानी (२२१३), विनीत (२२॥३), लोभवजित (२२१३), अनुसून समाचार (२२।४) दयाविमलमानस (२२।४), स्नेहपक विनिर्मुक्त (२२।४), श्रमणश्रीसमन्वित (२२।४), नग्न (२२१६), श्रमण (२२।७), लिङ्गी (२२।१३), योगी (२२।१२), मुनि (२२।१४), गगनाम्बर (२६।३३), रोपतोपविनिर्मुक्त (३८।१६), प्रशान्तकरण (३८।१६), शुभध्यानगतात्मा (३८६१७), श्रमणश्री (३८।१७), सध्यानारूढ (३६।३३), प्रतिमा (३९।३३), शरीरचेतनान्यत्ववेदी (३६१३४), मोहजित (३६१३४), सयत (३६।३५), महायोगेश्वर (३६।४६), सुचेष्टित (३६१४६), अर्हदक्षर (३९।५०) धर्मानुष्ठान (३९।५१), महाभाग (३६।१०६), वनरेणुसमुक्षित (३६।१०६), मुक्तियोग्यक्रियायुक्त (३६।१०६) प्रशान्तहृदय (३६।१०६), प्रलम्वितभुजद्वय (३६।१०७), पाण्टमादिभिस्तीन रुपवासविशोषितान् (३६११०७), स्वाध्यायनिरत (३६।१०८), पाणिपादसमाहित (३६।१०८), ज्ञानलितपसम्पन्न (४१।१४), महाव्रतपरिग्रह (४१।१४), दुस्पृहामुक्तमानस (४१।१४), मासोपवासी (४१।१५), यथोक्ताचारसम्पन्न (४१।१६), गाम्भीर्यधर्यसम्पन्न (१०५।६०), परासनकृतस्थिति (१०५।६०), परमादक (१०५।६१),केवलज्ञान (१०५।६२), विसृष्टसर्वसग (१४।१६५), महात्मा (१४११६५), सुव्रतनायस्य मते लीना (१४११६६), निखिलवेदिन (१४।१६६), मृत्यु-जन्म-समुद्भूतमहालाससमन्वित (१४११६६), सगेन रहिता (१४।१६७), पञ्चमहाव्रत (१४११६८), तत्वावगमनतत्पर (१४।१६८), गुप्ति (१४११६६), महिमा (१४।१७०), सत्य (१४।१७०), अस्तेय (१४११७०), ब्रह्मचर्य (१४११७०), परिग्रह (१४।१७०), राग (१४।१७१), ग्रन्थ (१४।१७२), समस्तप्रतिवन्धेन Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा समीरणवदुज्झिता (१४११७३), मलसम्वन्धरहित (१४।१७४), श्लाध्यचेष्टित (१४।१७४) सौम्य (१४११७४), दीप्त (१४।१७४), गम्भीर (१४।१७५), भीतकूर्मवदत्यन्तगुतेन्द्रियकदम्बक (१४।१७५), कपायोद्रेकवजित (१४।१७६), अशीत्या गुणलक्षाणा चतु सहितयान्विता (१४।१७६), अष्टादशजिनोद्दिशीललक्षसमन्विता (१४।१७७), सिद्ध्याकाक्षतत्पर (१।१७७), जिनोदितार्यससक्त (१४११७८), विदितापरशासन (१४११७८), श्रुतसागरपारस्थ (१४११७८), यमधारी (१४।१७७), नियमाना विधातार (१४११७६), समुन्नतयोज्झिता (१४११७६), नानालब्धिकृतासग (१४।१७६), महामनगलमूत्ति (१४६१७६), तनुकर्मा (१४।१८०), प्रासुकस्थान (२२।६४), चातुर्मामीव्रत (२२।६४), दिग्विरामवत (२२।६५) तथा शुक्लध्यान (३६।६८) आदि। ५ जैन-गृहस्थ-सम्बन्धी शब्द . गृहाश्रमनिवासी (१४।१८२), द्वादशधा स्थित धर्म (१४।१८२), ५-५ अणुव्रत (१४११८३), चतुविधा शिक्षा (१४।१८३), नयो गुणा (१४।१८३), ययाशक्ति सहनश नियम (१४।१८३), स्यूल-प्राणातिपात-विरति (१४।१८४), परवित्तग्रहण (१४।१८४), परदारसमागम (१४।१८४), अनन्तगर्दा (१४।१८५), भावना (१४।१८५), दया (१४।१८६) अनर्थदण्ड-विगम (१४।१९८), दिग्विदिक परिवर्जन (१४।१९८), भोगोपभोगसख्यान (१४।१६८), गुणवत (१४।१९८), सामायिक (१४११६६), प्रोपधानशन (१४।१६६), अतिथि-स विभाग (१४।१६६), सल्लेख (१४।१६६), भिक्षोपकरण (१४।२०१) मधु (विरति) (१४१२०२), मास (विरति) (१४।२०२), मद्य (विरति) (१४।२०२), रात्रिभोजन (विरति) (१४।२०२) वेश्यासगम (विरति) (१४।२०२) गृहधर्म (१४१२०३), रलय (१४।२०४), आसन्न शिवालय (१४।२०५), सम्यग्दर्शनलाभ (१४।२०६), जिनेन्द्रनमस्कार (१४।२०७), जिनविम्ब (१४१२१३), जिनाकार (१४।२१३), जिनपूजा (१४१२१३), जिनस्तुति (१४।२१३), कृत्या कृत्यविचलक्षण (१४।२१५), शील (१४।२२६), त्याग (१४।२२६), सम्यक्त्व (१४।२२६), दिनभोजन (१४।२६०), मनिलावत (१४।३२८), एकभक्त (१४।३३४), चतुर्दशी-अष्टमी-उपवास (१४।३३९), जिनशासन (१४।३४३), विरति (१४।३४७) तया चतु शरण (१४१३७२) आदि। ६ पर्व तथा उत्सव-सम्बन्धी शब्द : आपाधवलाष्टमी (२६।१) पञ्चवर्णचूर्ण (२६।३), माल्य (२६।३), उदक (२६।४), बहुविधच्छवि (२६।४), द्वारशोभा (२६५), नानाधातुरस (२६।५), भित्तिमण्डन (२६।५), जिनस्नपन (२६७), अष्टोहोपोपित (२६८), शान्तिगन्धोदक (२६।१०), शान्त्युदक (२६।११), जिनवरोदक (२६।१२), नन्दीश्वरभट्ट (६८1१), धवलाप्टमी (६८-१), पौर्णमासी (६८।१), पलाशादिपुट (६८७), सभा (६८।११), प्रपा (६८।११, मच Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पति ४४७ (६८।११), पट्टशाला (६८।११), नाट्यशाला (६८।११), वापी (६८।११), सर (६८।१२), सोपामक (६८।१२), चैत्यकूट (६८।१२), रम्भादि विभूपितसवार (६८।१३), कनकादिरजश्चित्रमण्डलादि (६८।१३), घृत-क्षीरादिपूर्ण कलश (६८।१४), मुक्तादामादिसक० (६७।१४), जातरूपमय रजतादिमय मणिरत्नशरीर ५ (६८।१८) ५८ह (६८।१९), तूर्य (६८।१९) काहल (६८।१६) तथा शख (६८।१६) आदि। __ ७ जनदर्शन-सम्बन्धी शब्द सत्ता (२११५५), तत्व (२११५५), जीव (१।१५५), अजीव (२।१५५), सिद्ध (२।१५५,१०५,१४६),ससारवाम् (२।१५५), भव्य (२।१५६), अभव्य (२।१५६), जिनदेशित तत्त्व (२।१५८), एकेन्द्रियादि (२।१५८), गति (२।१५९), काय (२।१५९), ज्ञान (२।१५९), योग (२।१५९), वेद (२।१५९), लेश्या (२।१५६), कषाय (२।१५९), शान (२।१५६), दर्शन (२।१५९), चारित्य (२।१५९), गुणश्रेण्यधिरोहण (२।१५६), निसर्गशास्त्रसम्यक्त्व (२।१६०), नामादिन्यासभेद (२।१६०), सदाधष्टानुयोग (२।१६०), चेतन (२।१६०), ससारिजीव (२।१६१), नारक (२।१६२), तिर५चा (२।१६३), मानुप (२।१६४), देव (२।१६५) चतुर्गति (२।१६६), कर्मभूमि (२।१६६), धर्मोपार्जन (२११६६) मिथ्यादृष्टि (२।१८६), मिथ्यादर्शन (२।१८७), समाधि (२।१८६), निदानकृत दोष (२।१८६), वासुदेव (२।१८६), वलदेव (२।१६१), षोडश जिनकर्म (२।१६२), तीर्यकृत (२।१६२), कष्टिकलक (२।१६३), घातिकमविनाशन (१२२।७१), पृथिवी (१०५।१४१), आप (१०५।१४१), तेज (१०५।१४१), मातरिश्वा (१०५।१४१), वनस्पति (१०५।१४१), त्रम (१०५।१४१), जीव (१०५।१४१), निकाय (१०५।१४१), धर्म (१०५।१४२, २।१५७), अधर्म (१०५।१४२, २११५७), वियत् (१०५।१४२), काल (१०५।१४२), जीव (१०५।१४२), पुद्गल (१०५।१४२), द्रव्य (१०५।१४२), सप्तमगीवचामार्ग (१०५।१४३), प्रमाण (१०५।१४३), नय (१०५।१४३), एकद्विनिचतु पञ्चहृषीकेषु सत्त्वम् (१०५।१४४), सूक्ष्यमत्वादरभेद (१०५।१४५), भव्याभव्यादिभेद (१०५।१४६), जीवद्रव्य (१०५।१४६) उपयोग (१०५।१४७), अष्टविध ज्ञान (१०६।१४८), चतुर्धा दर्शन (१०५।१४८), ससारी (१०५।१४८), विमुक्त (१०५।१४८), सचित्त (१०५।१४८) वितस् (१०५।१४८), स्थावर (१०५।१४६), शेषक (१०५।१४६), पञ्चेन्द्रिय (१०५।१४६), गर्भसम्भव (१०५।१५०), उपपाद (१०५।१५०) नारक (१०५।१५१), सम्मूर्छन (१०५।१५१), औदारिक (१०५।१५२), वैक्रिय (१०५।१५२), आहारक (१०५।१५२), तेजस् (१०५।१५२), कार्मण (१०५।१५२) सूक्ष्म (१०५।१५२), चारणपि (१२२१७१), केवल (१२२।७३) केवलज्ञान (३६७५) आदि । ८ ब्रह्माण्डकल्पना-सम्बन्धी शब्द अनन्तालोक (१०५:१०६) लोक Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा (१०५।१०६), सप्तभूमि (१०५।११०), रत्नाभा (१०५।१११), शर्करा-वालुकापकवान्तमोनिभा (१०५।११२), नरक (१०५।११७), देवारण्य (१०५।१४०), अर्णव (१०५।१४०), द्वीप (१०५।१४०), योग्य भूमि (१०५।१४०),जम्बूद्वीप प्रमुखद्वीप (१०५।१५४,१५५),लवणादिसागर (१०५।१५४), मेरु (१०५।१५६) कुलपर्वत (१०५।१५७), हिमवान् (१०५।१५७), निपध (१०५।१५७), नील (१०५:१५७), रुक्मी (१०५।१५८), शिखरी (१०५।१५८), भरतक्षेत्र (१०५।१५६) ६ विद्या-सम्बन्धी शब्द २४ सख्यक टिप्पणी से दशित स्थल मे विद्यासम्बन्धी शब्दो की सूची दी गई है। उन शब्दो के अतिरिक्त कुछ ये है साहा (७।३३३), रतिसंवृद्धि (७।३३३), ऋम्भिणी (७।३३३), व्योमगामिनी (७।३३३), निद्राणी (७।३३३), सिद्धार्था (७।३३४), शत्रुदमनी (७।३३४), नियाधाता (७।३३४), खगामिनी (७।३३४), भ्रामरी (८।३०८), योधिनी (१९६१), प्रतियोधिनी (६०।६२), सिंहयान (६०।१३५), गारुड (६०।१३५), अमोवविजया (६५।४२) तथा प्रज्ञप्ति (६५।४२) आदि। १० शास्त्रार्थ सम्बन्धी शब्द ग्यारहवे पर्व मे शास्त्रार्य का वर्णन है जिसमे वैदिक मतानुयायी तया जैन मतानुयायी विचार पद्धतियो पर वाद प्रतिवाद हुआ है। इस प्रमग मे पर्याप्त पारिभापिक तथा विशिष्ट श०६ प्रयुक्त हुए है, यथा यजदीक्षाज्यपातक (११।६), अजेयष्टव्यम् (११॥ ४१), आलमन (११।४३), पशु (११।४३, ८४, २४४), प्राश्निक (११।४५)। यौनसम्बन्ध (१११५५), शास्त्रीय मबध (१११५५), दक्षिणा (१११५७), ऋपि (११।५८), चतुर्विधि जनपद (१११६५), नाना प्रकृति (१११६५), सामन्त (११६६५), मन्त्री (१११६५), जल्पमण्डल (११।६५), विवाद (१११६६), तत्व (११६७), वितयसामर्थ्य (१११७०), परमार्थनिवेदन (११७०), हिंसाधर्मप्रवर्तन (१११७२), वामस्कन्वस्थसूत्रक (१११७६),कमण्डलल्वक्षमालादिनानोपकरणावृत (१११७६), हिंसाकर्मपर शास्त्र (१११८०), तापस (११।८१), सूत्रकण्ठ (१११८१, १०८, २३८), हिंसाधर्म (११।८१), पक्ष (१११८२), यन (११३८३), ब्रह्मा (१११८३), वध (१११८४), सौतामणि (१११८५), सुरापान (१११८५), अगम्यागमन (१११८५), गोसव (१११८५), मातृमेध (१११८६), पितृमेध (११८६), अन्तर्वदि वध (१११८६), आशुशुक्षणि (१११८७), जुवक (१११८७), स्वाहा (१११८७), शुद्ध द्विजन्मा (११।८८) खलति (१११८८), आस्थदन (१११८६), ज्वलन (१११८६), आहुति (११।८६) पुरुष (११।६०), ईशान (११।६०), अमृत्व (११।६०), अन्न (११।६०), प्राणिनिपातन (११।९१), मास-भक्षण (११।६२), यायजूक (११।६२), देवोद्देश्य (११।९२) हिमायनस्यनी (१११९४), दीक्षित (११।६४, १२८), मुअन्य (११।१०३), यसवाट (११।१०६), ऋत्विक (११११०७, १६२), Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४४६ यथाविधि उपदेश (११।१०७), निमन्तित (११।१०८), यज्ञमही (११।१०६), वेदमगलनिस्वन (११११०६), अब्रह्म (११।१०६), आत्विजीन (११।१६३), माणवक (११।१६३), हेतुजित असम्बद्ध भाषण (११।१६४), उपपत्ति (११।१६५, १६६), अकत क वेद (११११६७), प्रमाण (११।१६७), अतीन्द्रिय (११।१६७), वर्णतय (११११६७), कर्म (११।१६७), अपूर्व धर्म (११।१६८), याग (११।१६८), फल (११।१६८), स्वर्ग(११।१६८), प्रत्यवाय (११११६६), शास्त्रचोदित (११।१६९), वितान (११।१७०), दुर्ग्रन्थभावनादूषितामा (११।१७१), सर्वज्ञ (११।१७२, १७७), शब्दार्थबुद्धिभेद (११।१७२), असत् अर्थ (११।१७४), वाव्यतिक्रम (११।१०४) अनुमान (११११७६), प्रतिज्ञा (११।१७६), अभाव (११।१७६), आगम (११।१७८), विरोध (११।१७८), अनेकान्त (११।१७८), साध्य अर्थ (११।१७८), सिद्धप्रसाधक (११११७८), सर्वथा अयुक्तवक्तृत्व (११।१७६), असिद्ध (११।१७६), स्याद्वाद् (११।१७६), सिद्ध (११।१८०), विरुद्ध (११।१८०), साधन (११।१८०, १८६), दोषवान् आगम (११।१८१), साध्यविहीन दृष्टान्त (११।१८२), एकान्तयुक्तोक्ति दृष्टान्त (११।१८३), साध्यसाधनवकल्य (११।१८३), संघर्मा (११।१८३), अदृष्टवस्तु (११११८४), वेद (११।१८४) दूषण (११११८४), हेतु-समाश्रयण (११।१८४), सर्वशतायोग (११।१८५), व्यतिरेक (११।१८६), अविनामाव (११।१८६), स्वपक्ष (११।१८७), अपेक्षितविपर्यय (११।१८८), वेदस्य कर्तभाव (११।१८६), युक्त्यमात्र (११११८६) ससाध्य (११।१८९), दृश्य (११।१८९), हेतुसभव (११।१८६), पदवाक्यादिरूप (११११६०), विधेयप्रतिषेध्यार्थ (११।१६०)। प्रजापति (११।१६१), श्रुति (११।१६२), रागद्वेष (११।१६२) ग्रन्यदेशन (११११९३), जात्या चातुर्विध्यम् (११।१६४), ५लोकाग्नि (११११९४), मातिभेद (११।१९५), वर्णव्यवस्थिति (११।१९८), ब्रह्मा मुखादिसमव (११।१६६), निहतु (११।१६६), भाषमाणक (११११६६), गुणयोग(११।२००), ब्राह्मण (११।२०१), क्षत्रिय (११।२०२), वैश्य (११।२०२), शूद्र (११।२०२), जाति (११।२०३), गुण (११।२०३), चातुर्वर्ण्य (११।२०५), अपूख्यि धर्म (११।२०६), नित्य (११।२०६), अनित्य (११।२०६) प्रायश्चित्त (११।२१०), सोम (१११२११), प्रतर्पण (११।२१२), द्वादशीदक्षिणा (११।२१३), मायु (११।२१४), व्यभिचार (११।२१५), स्वयम्भू (११२१७), लोक (११।२१७), सर्ग (११।२१७), पुराणतणदुर्बल (१११२१७), कृतार्य (१११२१८), सम्यक्त्व (१११२२३), एकान्तवादी (११।२२३), निश्चय (११।२२६), अनवस्था (११।२२७), प्रश्न (११।२३१), बीज पादप (११।२३१), ब्रह्मलोक (११।२३७) वसु (११।२३८), स्वपक्षानुमतिप्रीति (११।२३६), पति (११११३६, २४४), Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा પિષ્ટ (।૨૪૦), યજ્ઞúના (??।૨૪), યજ્ઞમાન (।૨૪૨), વિર્તાવા (૧૨૪૨), પુરોહાગ (।૨૪૨), વિ (।૨૪૨), વર્ભ (।૨૪૩), દક્ષિળા (૫૨૪૩), પ્રાણાયામ (૫૨૪૩), સિતધ્યાન (શર્૪૨), સિદ્ધપ૬(૨૫૨૪૩), જ્બ (શર્૪૩), ચૂપ(૧૨૪૪), મિત્ (।૨૪૪), ઘર્મયજ્ઞ (૧।૨૪૪), દૈવતૃપ્તિ (oાર૪%), સ્પર્શ (૧૨૪૬), રસ (।૨૪૬), રૂપ (।૨૪૬), Æ (।૨૪૬), સૈંયો નય (।૨૪૬), રક્ષિખાતિ(૧।૨૪૬), અનેાન્તવિવાર (શર્૫૨), શાસ્ત્રાર્ય(૨૫૨), વેવાર્થામ્યસન (૨૩૨૫૩) બાવિ જાનશાસ્ત્રીય શબ્દ : તામ્બ્રેનરા (૬।૪%), માલ્ય (૩૬૪૬), બનુત્રેપન (દ।૪૬) યો (૬।૪૯), સહી (૨૬૯%), સ્તમ (૬।૬૯), વેષયુ (૬।૬,૬૯), સશ્રમ (૬।૨૭૦), ત્રેવ (દા૯૨), પુન (૨૬૬૨૭૨), સ્પર્શે (૨૬૬૨૭૨), અર્જુન (૨૬૨૭૨), તપમાળ (૧૬।૧૭૪), વિલક્ષ, (દા?%), બાયસમાવળ (૬।૨૭૬), નવુદ્ધ નિનિયાનમ્ (૬।૨), મુોન્નમન (૨૬।૨), ધરાઇ (દા૬૦), પ્રણામ (૬।૬૦), પ્રસાદ (૧૬।૨૬૦), સમાજ્ઞેષ (૬।૬૩), સુલામીલિતોષન(દ્દાÆરૂ), વિયો (૬ા ૬૪,), માલાન (૬।૬૫), પાવ (ન્નુમ્નન) (૨૬।૬૬), ર્ (સુમ્નન) (૬।૬૬), નામિ (નુમ્નન) (૨૬૪૬૬), સ્તન (નુમ્નન) (દ્દા૬૬), અતિ(સુમ્નન) (૬ા૬૬), s(ન્યુમ્નન) (૧૬।૬૬), મવનાનુ(૧૬।૬૬), વવજ્ઞ ન્યુમ્નન (૨૬।૨-૭), અવરવાન(૬।૨૬૬), નીવીવિમોનન(દા{૬ē), નિતમ્ના (૬।૨૯૦), વે (દાË), બ્રા (oIE(), વૈજ્બ (૨૬।Æર), મ્મર (દ।૯૨)। બનુરાગ (૬।૨), રતિ (૧૬।૨૯૩), વમ્પતી (૬।૨૯૩), સ્તન (૬।૨૪), નષન (દાશ્Æ૪-‰૨૬), રત(૬ાo&%), રત્તિભ્રમ (૬।૨%), ઘરળ (૬।૨૬), સૌાર (૬।૨૬), નવા (૬।૨૯૭), સેવનરવ (૧૬।૨૬), વનયરાર (૬ાર્CT), તાનાવ (ÇICE), સ્નેવવિવું (૨૬।૨૦૨), તાન્ત (૬ાફ્૦), રવ“હાળીભૂત અવર (દાર્૦૨), સુતોત્સવ (૬।૨૦૪), નિદ્રા(૬।૨૦૪, ૨૦૨), વિન્નવેત્ (દાર્૦૪), બૅન્યોન્યમુનાને (૬ાર્૦૬), સૌરભ, નિ વાસ (૧૬।૨૦૭), રિધ્વા તિસ્તનમ′′ત (દા૨૦૭), યેવ્ઝવેશ, વિન્યસ્તનાનાાડોષવાન (૬ાર્૦૬), સ્પર્ધાનુવ દાર્૦૯), શયનીય (૬।૨૨૦), વરમન (૬ાર), પ્રમવ (ાર), વષા (૬ાર), નવ્રૂમનોરથા દાર્o), નૃતધ્વનિ (દાર), વિષ્ણુમ્મળ (૬।૨૨૭), નિદ્રાગવાદળનિરીક્ષા (o૬ ૨૪૯), વાનતર્ગન્યા થવા ઝૂયન (૬ારÆ), રક્ષિળવાઝુમોન (૬ાર૬), સ્મિત (૬ાર૨૦), સુધરાજ્ઞિ (૬ાર૨૦), Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४५१ निवेदन (१६।२२०), लज्जन (१६।२२३), काण्डदर्शन (३६।१८६), मार (३०।१८६), लावण्यरस (६६।१८६), वक्ष सिजद्वय (३६।१६०), सनस्त, नीविरतग्रहम् (३९।१६१)- उत्तेजनाभिमण्डल (३९।१६१), कक्षोद्देश्य (३९।१६१), स्मरवण (३९।१६३), स्र समानाशुक (१२२।५७), वाहुमूलदर्शन (१२२१५७)- नितम्वफलक (१२२।५६) आदि । १२ युद्ध, सेनायात्रा उपद्रवादि से सम्बद्ध शब्द चतुरग सैन्य (४१६८), दृष्टियुद्ध (४।७१), वाहुरण (४।७३), चक्ररत्न (४।७२), चमू (६।४३६, ५१।४)), वाहिनी (६।४४६), गज (६।४४७), रथ (६।४४७), पदाति (६।४४७), तुमुल (६।४५१), नगर-रोध (६।४५८), ध्वज (६।४५८), रणसज्ञा-विधान (७।६७), सन्नाहमण्डनोपेत (७।६८), ककटछन्नविग्रह (७७१), सप्ति (७७३), वाजि (७७३), शस्त्रवर्ष (७८१), स्वकनामाश्तिशर (७८५), पलायन (७।६०), अनुमार्ग (७।६१), महारथ (८।१९७), विमान (८।१९८), स्यन्दन (८।१६६), सेना-सम्पात (८।२०१), शस्तसम्पात (८।२०१, १०।११२), रणमस्तक (८।२०८), वीर-शय्या (८।२४१), कलकल (८।२४०), प्रतिक्रिया (८।२४३), चिकित्सक (८।२४३), लुटन (८।४४२), प्रयाणक (१०॥४३), धनव्यूह (१०।१०७) भर्तृवाक्य (१०१११४), धानुक (१०।१२१, १२७) रयस्य (१०।१२१), मत्तवारण (१०।१२२, १२।१६०), ककट (१०।१२५), धनुर्वेद (१०।१२८), व्रणभगविधान (१०।१३६), गवेषण (१०।१३६), प्रभातहतत्र्य (१०।१३७), सन्नाहमण्डप (१२।१८१), सन्नाहमज्ञार्थ तूर्यवादन (१२।१८१), आधोरण (१२।१६०), चमूमुख (१२।१६३), मुखभग (१२ १९४), सेवामुखावसाद (१२।१६५), पृतनावक्त (१२।१६५), सुमनर (१२।१६७), सुशस्त्र (१२।१९७), सुयान (१२।१९७), सैन्यवक्त्र (१२।१६६), समरविधि (७५॥१), न्याय्य सग्राम (१२।२६०), युद्ध-ग्रहण (१९८६), जीवनाह (१९६१), लुटित (१९७०) उपद्रव (१९६१), पत्ति (५६।४), सेनामुख (५६।४), गुल्म (५१।४), पृतना (५६।४), अनीक (५६।५), अक्षौहिणी (५६।४, १०।१६) आदि। १३ सैनिक वेषभूषा-शस्त्रास्त्र सम्बन्धी शब्द हेति (७।६८), सन्नाह (१२।१८१), मण्डला (१२।१८२), ककट (१०।१२५, १२।१८२), धनु (१२।१८३), शिरस्त्राण (१२।१८३), अर्द्धवाटिका (१२।१८३), सायकत्रिका (१२।१८३), असि (१०।११२, १२।१८८, २११, २५७, ६२।७), तोमर (१२।१८८), पाश (१२।१८८, २५८), ध्वज (१२।१८८), छत्र (१२।१८८), शरासन (१२।१८८), करवाल (१२।२१५, ७३।१७६), कनक (१२।२११, २३४, २५७, २७।६१, ७४।४६), गदा (१०।११२, १२।२११, २५७, Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश को परम्परा ५०।३२), शक्ति (७।८६, १२।२११, २५८, ५२।३६, २७।६१), चाप (१२।२११, २५७, ५२।३७), मुद्गर (१२।२११, २५८, ५०।३२, ६२।७), कोदण्ड (१२।२३२), भिण्डिमाल (१२।२३६, ८।२३६), प्रास (१०१११२, २४।४२१), बाण (१०।११२, १२५, ५०।३२, ५२।३८), सायक (१०।१३०, ८।२३५), कुन्त (१२।२५७, ५२।४०), मुसल (१२।२५७, ५२।४०, ६०।१४०), शर (१२।२५७, ५२।३६, परिच (८।२०६, ६२।७, १२।२५७), चक (१२।२५७, ५२।४०, ५२।७, ३४१५६, २७।६१), करवाली (१२।२५७), अहिप (१२।२५७), शूल (१२।२५८, २६।६१, ६२।७४), पाश (१२।२५८), भुशुण्डि (१२।२५८, ५०।३२), कुठार (१२।२५८), धन (१२।२५८, ६२।७), ग्रावा (१२।२५८), लागल (१२।२५८), दण्ड (१२।२५८), कोण (१२।२५८), सायकवेणु (१२।२५८), परशु (५०१३२, ५२।४०), शतघ्नी (५०।३२, ५२।४०), शैलशिखर (५०।३२) उल्का (५०।३७, ७५।५७, १९५५), लागूल (५६।३७, ७५।५७), शिला (५२।४०), वनदण्ड (८।२३८, ५२१४०), ऋकच (६२१७, २७।६), यष्टि (६२।७), अष्टि (६२।७ ७४।४२), कृपाण (६।४५२, ८।२२६), विशिख (७।८२), शशाकार्धेषु (०२३६) वज्रसूची (८।३११), चन्द्रार्धसायक (२२।२१६), लागूलपाश (१९१५४) असिधेनु (२७।६७), हल (६०।१४०), प्राकृतास्त (१२।३१२), आग्नेय (१२।३२२), वरुण (लक्षित) अस्त्र (१२।३२५), तामसास्त्र (१२।३२८ ६०।१००), प्रभास्त्र (१२।३३०), नागास्त्र (१२।३३२), गरुडास्त्र (१२।३३६), नागसायक (६०।१०२) आदि। १४ पाच-सम्बन्धी-शब्द शख (१२।३५५, ५८।२६ ७८।६२-६३, ८८।२६) तूर्य (७६३६५, ५८।२६, ६८।१६, ८८।२७), भभा (५८।२७), भेरी (५८।२७, ७८१६२-६३, ८८।२६) मृदग (५८।२७, ६८।१६, ७८।६२-६३, ११०।६७), लम्पाक (५८।२७), धुन्धु (५८।२७) मण्डुक (५८।२७), झल्ला (५८।२७), अम्लातक (५८।२७), हक्का (५८।२२) हुकार (५८।२२), दुन्द्रकोणक (५८।२७), झर्झर (५८।२८), हेकगुजा (५८।२८), काहल (५८।२८, ६८।१६), दर्दुर (५८।२८), ५८ह (६८।१६, ७८।६२-६३), सुमुन्द (६८।६२-६३), अर्बरीक (७८।६२-६३), दुन्दुभि (७८१६२-६३, ८८।२७), झल्लरी (८८२७), प्रवर (८८।२७), वश (८८।२७, १२२।५१), घण्टा (१२।१८६) पटल (१२।३५५), वीणा (३।१०५ ११४, ४०११३० , ७८१६२-६३, ११०।६७, १२२।५१), तन्त्री (३।१०५) वेणु (११०।६७) आदि। १५ वास्तुकला (भवन-निर्माण कला) सम्बन्धी शब्द . कुछ शब्द संख्या (२) Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यों की शब्द-सम्पत्ति ४५३ मेजिनेन्द्र मन्दिरो से सम्बद्ध सूची मे दिये गये है, प्रासादो से सम्बद्ध कुछ शब्द यहा दिये जा रहे हैं प्रासाद ( ११०।६३), कनकस्तम्भसहस्रपरिशोभित (१९०१६३) कुट्टिम (१४११२६, ११०६४), सर्वोपकरणान्वित ( ११०१६४), स्नानादिविधिसम्पत्तियोग्य निर्मल भूमि (११०/६५), वलभीशोभि ( ४९/२), रत्न निर्मितशेखर (४६ २ ), हेमद्रवन्यस्त लेप्यतेज समुज्ज्वल (४६२), मुक्तादामसमाकीर्ण ( ४६ ३ ), वातायनविराजित ( ४६३), उद्यानाकीर्णपर्यन्त (४४१३ ) हेमस्फटिक वैडूर्यस्तम्भ निर्माण-निर्मित ( १४ १२८ ), बहुभूमिक प्रासाद (१४ १२८), भित्ति ( १४ । १२८), विचित्रमणिकुट्टिम ( १४ १२९ ), रुरु चमर-सिंह-गजादि-रूप-निचित-पार्श्व वेदिकालकृत ( १४ | १३० ), चन्द्रशीलादियुक्त ( १४|१३१), ध्वजमालाविभूपित ( १४/१३१), सोपाश्रयमनोहारिशयनासनसगत ( १४ १३१), आतोद्यवरसम्पूर्ण ( १४ १३१), शृगकोटि ( ८ २०) तथा शखशुभ्र महागृह (८२५) आदि । १६ स्त्रियो के लिए ज्ञातव्य कलाओ से सम्बद्ध शब्द : केकया की कलाओ के वर्णन मे तथा कुछ अन्य प्रसगो मे इन कलाओ से सम्बद्ध शब्दावली का प्रयोग हुआ है, यया (अ) नाट्यकला परक शब्दावली नृत्त (२४/६ ), गीत ( २४/१६), वाद्य ( २४/२१), नाट्य ( २४/२२), अगहाराश्रय ( २४ ६ ), अभिनयाश्रय ( २४१६), व्यायामिक (२४४६), तेवालेवाध्वनि ( ३७।१००), रेचक ( ३७।१०३), ललितागविवर्तन (३७।१०३), सस्मितालोकित ( ३७।१०४), विगलद् भ्रुसमुद्गम (३७।१०४), गमकानुगतस्तनकम्प ( ३७|१०४), जघनसचार ( ३७|१०५ ), बाहुलताहार ( ३७/१०५), सुलीलकरपल्लव ( ३७|१०५), पादन्यास (३७।१०६), लघुस्पृष्ट विमुक्तधरणीतल ( ३७।१०६), आशुसम्पादितस्यान ( ३७/१०६), केशपाशविवर्तन ( ३७|१०६), त्रिकवलग्न ( ३७|१०७), गातसन्दर्शन ( ३७|१०७), मूच्र्छना ( ३७|१०८), परिलीनसखीस्वर ( ३७|१०८), आतोद्यानुगतनृत्य ( ३७|११२), (३७।११२), कण्ठ (२४/७ ), शिरस् (२४/७ ), उरस् (२४/७ ), पड्ज (२४८), ऋषभ ( २४८) गान्वार (२४।८) मध्यम (२४1८), पञ्चम (२४८), वैवत ( २४/८), निषाद, ( २४८), द्रुत (२४१६ ), मध्य ( २४/६ ), विलम्बित ( २४१६ ), लय (२४1९ ) अत्र (२४९), चतुरस्त्र ( २४/६ ), तालयोनि ( २४५६ ), वर्ण ( २४|१० ), ५५ (२४|१० ) स्थायी (२४|१०), मचारी ( २४/१०), आरोही ( २४|१० ), अवरोही (२४|१०), नाम (२४|११), आख्यात (२४|११ ), उपसर्ग ( २४|११ ), निपात (२४|११), संस्कृता, ( २४|११ ), प्राकृती ( २४|११ ), शौरसेनी (२४|११ ), झापा (२४|११ ), धैवती ( २४/१२), आपभी ( २४/१२), पड्जपडजा (२४११२), उदीच्या (२४१२), निपादिनी (२४|१२), गान्धारी (२४/१२), Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पड्जककशी ((२४।१२), पड्जमध्यमा (२४।१२), गान्धारीदीच्या (२४।१३) मध्यमपञ्चमी (२४।१३), गान्धारपञ्चमी (२४।१३), रक्तगान्धारी (२४।१३), मध्यमा (२४।१३), आन्ध्री (२४।१४), मध्यमादीच्या (२४।१४), कारवी (२४।१४), नन्दनी (२४।१४), कौशकी (२४।१४), अष्टजाति (२४११५), दशजाति (२४।१५), प्रयोदश अलकार (२४।१५), प्रसन्नादि (२४।१६, १८), प्रसन्नान्त (२४।१६, १८), मध्यप्रसादवान् (२४।१६) प्रसन्नाद्यवसान (२४।१६), चतुर्धा स्यायिभूपण (२४।१६), निवृत्त (२४११७), प्रस्थित (२४।१७), विन्दु (२४।१७), प्रेखोलित (२४।१७), तार (२४।१७), मन्द्र (२४।१७), प्रसन्न (२४।१७), षोढासचारिभूषण (२४११७), आरोहण एकमेव विभूपणम् (२४।१८), कुहर (२४।१८), अलकार योजन साधुगीत (२४।१६) । तत (२४।२०), तन्त्रीसमुत्थान (२४।२०), अवनद्ध (२४।२०), मृदगज (२४।२०), शुपिर (२४।२०), वशस भूत (२४।२०), धन (२४।२०), तालसमुत्थित (२४।२०), चतुर्विद्यावाध (२४।२१), नानाभेद (२४१२१), शृगार (२४।२२), हास्य (२४।२२), करुण (२४।२२), वीर (२४।२२), अद्भुत (२४१२२), भयानक (२४१२२), रोद्र (२४।२३), वीभत्स (२४।२३), शान्त (२४।२३), नव रस (२४।१३)। (आ) लिपि-विज्ञान-सम्बन्धी शब्द अनुवृत्त (२४।२४), विकृत (२४।२४) कल्पित (२४१२४), सामायिक (२४१२५), नैमित्तिक (२४१२५), प्राच्य (२४।२६), मध्यम (२४।२६), यौधेय (२४।२६), समन्द्र (२४।२६), लिपिज्ञान (२४।२४, २६) (इ) उक्तिकौशल-सम्बन्धी शब्द उक्तिकोशल (२४।२७), स्थान (२४।२७), स्वर (२४।२७), सस्कार (२४।२७), विन्यास (२४।२७), काकु (२४१२७), समुदाय (२४१२८), विराम (२७१२८), सामान्याभिहित (२४१२८), समानर्थत्व (२४।२८), भापा (२४।२८), जाति (२४।२८), लक्षणा (२४।३०), उद्देश्य (२४।३०), पदविन्यास (२४-३०), वाक्यविन्यास (२४।३०), सापेक्षा काकु (२४।३१), निरपेक्षा काकु (२४।३१), गद्य (२४१३१), पद्य (२४१३१), मिश्र (२४।३१), सक्षिप्तता (२४।३२), तुल्यार्थता (२४१३३) एकशब्देन वह्वर्थप्रतिपादनम् (२४१३३), आर्यभाषा (२४१३३), लक्षणभापा (२४१३३), लेच्छभापा (२४१३३), पधन्यवहृति (२४१३४), लेख (२४।३४), व्यक्तवाक् (२४१३४), लोकवाक् (२४१३४), मार्गव्यवहार (२४१३४), मातृका (२४१३४)। (ई) चित्रकला-सम्बन्धी शब्द : शुप्कचिन (२४१३६), नानाशुष्क (२४।३६), वजित (२४१३६), आचिन (२४१३६), चन्दनादिद्रवोद्भव (२४३६), कृत्रिम रंग (२४१३७), अकृत्रिमरण (२४१३७), भूजलावरगोचर (२४१३७), वर्ण कलेप (२४१३७) । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४५५ (उ) पुस्तकर्म-सम्बन्धी शब्द : पुस्तकर्म (२४।३८), क्षय (२४।५८), उपचय (२४।३८), सक्रम (२४१३८), तक्षण (२४।३८), काष्ठादि (२४१३८), उपचिति (२४।३९), मृदादि (२४।३९), उपपेय (२४१३९), सक्रान्त (२४।३९), प्रतिबिवाधान (२४१५६) यन्त्र (२४।४०), नियन्त्र (२४।४०), सच्छिद्र (२४।४०) निश्छिः (२४१४०)। (अ) पत्रच्छेद्य-सम्बन्धी २०८ : पनप्छेद्य (२४।४१), बुष्किम (२४।४१), छिन्न (२४१४१), अच्छिन्न (२४।४१), सूची (२४।४१), दन्त (२४१४१), कर्तरी (२४।४२), सम्बन्धसयुत (२४।४२), सम्बन्धपरिवजित (२४।४२), पनवस्त्रसुवर्णादिसम्भव (२४१४३), स्थिर (२४।४३), चचल (२४।४३), सवृतासवृतादिन (२४।४३)। (ऋ) माल्यनिर्माण सम्बन्धी सन्द आई (२४।४४), शुक (२४।४४), तन्मुक्त (२४।४४), सिक्यकादि समुद्भूत (२४।४५), रणप्रबोधन (२४१४६), व्यूह सयोग (२४१४६)। ___ (ऋ) सुगन्धित पदार्थ-निर्माण सम्बन्धी शब्द : योनि (२४।४७), द्रव्य (२४।४७), अधिष्ठान (२४।४७), रस (२४१४७), वीर्य (२४१४७), कल्पना (२४।४७), परिकर्म (२४।४७), गुण (२४।४७), दोष (२४।४८), तगर (२४।४८), वर्ण (२४।४८), पतिका (२४१४८), कषाय (२४१४६), मधुर (२४१४६), तिक्त (२४।४६), कटुक (२४१४६), अम्ल (२४१४६), शीतवीर्य (२४१५०), उष्णवीर्य (२४१५०), विवादानुवादसवादयोजन (२४-५०), स्नेह (२४१५१), शोधन (२४१५१), क्षालन (२४।५१), स्वतन्त्र (२४१५२), अनुगत (२४।५२), गन्धयुक्ति (२४१५२),। (ल) आस्वाधविज्ञान-सम्बन्धी : भक्ष्य (२४।५३), भोज्य (२४१५३), पेय (२४१५३), लेह्य (२४१५३,५५), चूष्य (२४।५३), कृत्रिम (२४१५३,५५) अकृत्रिम (२४१५३,५५), यवागू (२४१५४), ओदन (२४१५४), शीतयोग (२४१५४), जल (२४१५४), मद्य (२४।५४), राग (२४।५५), खाण्डव (२४१५५), पाचना (२४।५६), छेदन (२४१५६), उष्णत्वकरण (२४१५६), शीतत्वकरण (२४१५६), आस्वाद्यविज्ञान (२४१५६) । (ल) रत्न-परीक्षा सम्बन्धी शब्द वज (२४१५७), मौक्तिक (२४१५७), वैडूर्य (२४।५७), सुवर्ण (२४।५७), रजतायुध (२४।५७), वस्त्र (२४१५७), सख (२४।५७), रत्न (२४१५७), लक्षण (२४।५७)। (ए) सिलाई-कढाई-सम्बन्धी शब्द तन्तुसन्तानयोग (२४१५८) बहुवर्णक रागाधान (२४१५८)। (ऐ) उपकरण-निर्माण सम्बन्धी शब्द लोह (२४१५६), दन्त (२२।५६), Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा નતુ (રાષહ), ક્ષાર (૨૪હ), શિતા (૨૪હ), સૂત્ર (રાફe, ઉપર (૨૪ise) (બો) નાનજ્ઞાન વધી શવ મેય (૨૪૬૦), કેશ (૨૪૬૦), તુના (૨૪૬૦), લાલ (૨૪૬૦), પ્રસ્થ (૨૪૬૦), વિતસ્તિ (૨૪૬૬), પલા (૨૪૬૬), સમય (ર૪૬૨), મારોહ (૨૪૬૨), પરીખાહ (૨૪૬૨), તિર્ય (૨૪૬૨), મૌરવ (રાદર), યિામમુત્પન્ન (૨૪ર), માન (૨૪૬૨) : (સી) કીડા-સજ્વરઘી સત્ર દ્ધા (૨૪૬૭), કપરા (૨૪૬૭), વાળી (ર૪૬૭), વત્તાવ્યત્યસન (૨૪૬૭), શરીરના (૨૪૬૭), çાવિ (૨૪ દક), વાડન (ર૬), સુમપિત (૨૪૬૬), દુરોન્યાના (રજાદહ), વસુમેર (૨૪૬૯), નીડા (૨૪૬૯) | (અં) તો જ્ઞાન-સન્ડથી જ્ઞાન પ્રાશ્રિતો (૨૪૭૦), થાશ્રયનોવા (૨૪૭૦), નીવ (૨૪૭૦), નિર્જીવ (૨૪૭૦), gવ્ય (૨૪૭૦), નાના મવોત્પત્તિ (ર૪૭૨), સ્થિતિ (ર૪૭૭), નવરતા (૨૪૭૬), પૌર્ય (૨૪૭૨), ઘર (ર૭ર), (૨૪૭૨), દીપ (૨૪૭૨), કેશ (૨૪૭૨), સ્વભાવાવસ્થિત તો (૨૪૭૨), નોર્વજ્ઞત્વ (૨૪૭૨) . (૪) વાહનના-સજ્વરઘી જ્ઞાન સક્રયા (ર૪૭૩), શોપવારિકા (૨૪૭૩), વાલાસ્વિમન -સીક્ય (૨૪૭૪), પૃષ્ટ (૨૪૭૪), પૃહીત (૨૪૭૪), મુતિ (૨૪૭૪), જતિત (૨૪૭૪), ભાત (૨૪૭૪), મતિ (૨૪૭), વિક્ટ (રજા), પીડિત (૨૪૭), fમનપાદિત (૨૪૭૬), મૃદુ (૨૪૭૬), મધ્ય (૨૪૭૭), પ્રકૃષ્ટ (૨૪૭૫), સુવુમાર (૨૮૭૬), મધ્યમ (૨૪૭૬), વત્કૃષ્ટ (૨૪૭૬ ), મૃદુનીતિ (૨૪૭૬), વોપ (૨૪૭૭), પ્રતીપ (૨૪૭૭), નોમ (૨૪૭૭), વર્તન (૨૪૭૭), નિર્માસપીડિત (૨૪૭૭), પાર્ષ (૨૪૭૭), અદ્ભુત (૨૪૭૭), અષ્ટપ્રાપ્ત (૨૪૭૬), અમાપ્રયાત (૨૪૭૬), અતિમુનિ (૨૪૭૬), બળાત (૨૪૭૦), સત્યર્ય (૨૪૭૬), અવમુપ્તપ્રતીપ (૨૪૭૬), ચોથા યુજી (ર૪૭૭), કુમાર (ર૪૭e, જ્ઞાતાભૂત (૨૪૭૯), શોભન (૨૪૭૯), કેરળ (૨૪૬૦), શોપનરણાત્મિો (૨૪૬૦), વાહનવલા (૨૪ ) . (f) શરીરવે-સૌરાન સન્વી શ શરીરવેપસન્દ્રારાત (૨૪૬૨) મે ના (૨૪૬૨), મૂર્ધનવાસ (૨૪૬૨) જ્ઞાન-પાપીઠ (હારૂદ ૨), વ (૭૩૬૨). નત બુમ (હારૂદ્ર), પન્નવમન્ના (૨૬), હારવિનિત (૨૪૩૬૨), બામોર-વામિનાશપતિનારિત (ાર ૬૨, ૭૬), [+ાને મુવ (૭૩૪), મન્દ (કારૂક્ષ) પર્વર્તન (રા૬િ, કાર૬), વન્તિવિધાન (રદ), અમિપરા (૭૬), દિવ્યવ-ન્નવિભૂપળ (વાદ દ), મન (૭૬૬), રાગત કલા (૭૨ા૨૨), Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ प्रालम्ब संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति હાટ-ના (૭૨૩), પદ્મળિનિર્માણ-TM (૭૨૪૨૪), નાનામળિસ્વાતપ્રભામા ૢ વરાસત (૨૪), પદ્મન્નમનો મેં (૩૬૨), સાર્ધ (૩૬૬), બનુલેખન (1) । સ્નાનવીય (૬૦૦૭૩) શ્રૃવારપ્રસાઘન વિમૂળ (૩૬૭) છુખ્તન (રૂ।૬૭,૭૬ાર્), વસ્ત્રપૂજૈવિભિન્નાખે (૫૬૬), પદ્માવળિ (૩૨૯), સૂઢા (રૂ।૧૭૨), અર્હન્દ્રાકૃત્તિ જનાનિા (રૂ।૨૦), નાત્યન્નેમયૂર (૯૦), બેયૂરી (૬૬ાર), નૅલન્નટ્યૂનમુō (IE), હાર્ (।૯), પીનલેયર (૬/૬), શ્રીવત્સ (૨૯), રિTMિ (।૯૨) સરોશ્રીરત્ન (।૨૯૨,૬૬ાર), (૫êર), ૮૬ (શoST), પટ્ટઃશુ (રૂ।૨૯૪), (lk&F) ટિન (૩૫૨૯૪), વામ (૫૨૯૪) મુદ્રિાભૂષળ (/&%), વન્દ્રન (।૨૯૭), રોષના (૨૭), સ્વાસ (રૂ।૨૨૭), ખત્તરીય (રૂ।૬), અબુ ધૃતપુષ્પ (ies), શેવર (શ×ä), 'ત્તિ (રૂ।૨૦૦), લમ્નર (૫।૨૨૩), રવત્તાશુ (૨૪।૨૩૭), શુળા (૬૬), ધીતવાસસી ({૦૨૬૫), શુર્પેટ (૦૦૬%), અન્નાર (૨૧૨), આમોન (રૂ।૨૩), વલેપન (==ારૂ), સૌમન્તળિ (૬/૭૦), મુત્તાપરીતપદ્માભિળિસીમન્તમૂળ (૨૪૯૪૩), અવનુન (।૭૦), વાનિીં (દાઉ), શાસ્ત્રી (વા૭૨, ૨૪।૨૩૬), તુનાોટિ (૪૩૭), રત્નાવTM (૪।૨૪૦), મહામળિયાષાનવલય (૪।૪), શત્તાપ (૪૯૪૪), સિતોપ્પનવામ (રૂ।૨૦૦), તમાલવત (।૦૨), રત્નન′ત (રૂ।o૦૨), રત્નપ્રભાપ્રીપ (૩।૨૦૩), પડવાસ (૨૫૨૦૪), પૂરવાશુ (૫ર્૦૪), અમરાયા (૦૬), ૌમ (સ્૦૬), મૃખાનશન (।૨૦૭), હારમાર (૨૦૬), પેન્ક્રીનનૂપુર (રૂ।૨૦), વપુ ષળ (૬૦૧૭૪), વાનીયવિસર્ગન (૬૦૫૭૪), ન્દ્રો (૬૦૭૫) ભાવિ (ઘ) વિવિધતાવિષય શત્ત્વ : ભૂતિમં (૨૪૫૬૩), નિધિજ્ઞાન (૨૪૬૩), રૂપજ્ઞાન (૨૪।૬૩), વખિવિધિ (૨૪૯૬૩), નીવિજ્ઞાન (૨૪।૬૩), માનુષદિવાોવાનિવૃતીના વિિિત્સત્તમ્ (૨૪૯૬૨)- નિવાન (૨૪।૬૪), માયાત (૨૪।૬૫), પીડા (૨૪૬), શનાન (૨૪૬૫), વિમોહન (૨૪૯૬૫), મન્ત્ર (૨૪૫૬૬), ગૌષધિ (૨૪૯૬૫) આવિ । ૨૭ શેશ-સમ્બન્ધી રાવ ઃ મહારોા (૬૪ારૂ૪), રોધાત (૬૪ારૂ૫), મન્નાવાળ્વર (૬૪૯૩૫), નાનાપરિસ્રાવ (૬૪૯૩%), સર્વેશૂલ (૬૪ારૂ૫), અત્તિ (૬૪૩%), જીવ (૬૪૧૩′), વયયુ (૬૪૬૫), ોટ (૬૪૨૫) સાવિ ૨૬ રાનાવાન-મન સમ્બન્ધો શબ્દ મૂનિ મ્યુન્વિત (૨૬ા૬૦), રક્ષિણેત્તાખ઼િળા પૂર્વ તોન્માન (૨૬ાવર), વૈક્ષિળવાદુળ (૬ા૬૨), Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सपल्लवमुखपूर्ण पुन्म (१६१८३), शकुन (५४।६६), दक्षिणावर्तनिधू मज्वाला (५४।५०)- यस्वनणिखी (५४।३०)- परमालकृत नारी (५४१५०), सुरभिप्रेरक अनल (५२।५०), निग्रन्यसयत (५४१५१), छन्न (५४१५१), गम्भीरवाजिहेपित (५४१५१),घनिस्वनित (५४।५१), दधिपूरिन कलश (५४१५१), निर्मुक्तमधुर स्वर विस्फुरत्यक्ष वामतो गोमयोरिकरणकारी वायस (५४१५२), भे रोशखर (५४१५३), मंगलशब्द (५४१५३)। __ अनिमित्त (७१४२), शुष्कद्रुम (७।४३), शुष्ककाष्ठ (७४४), वाक्ष (७।४४)- ज्वालामुखी शिवा (७।४५), पतविम्वपरिवेश (७।४६), कवन्ध (७।४६), वृष्टकीलाललवालक (७।४६), निर्धात (७।४६), पर्वत, कम्पन्न (७।४७), मुक्तकेशी वनिता (७।४७), खरस्वर (७१४८), दक्षिणतो भयानकमहास्वन प्रयाणवारणोधुक्त बद्धमण्डल भल्लूक (५७१६६), विकृतनिस्वन-मृद्ध-भ्रमण (५७७०), पृष्ठत क्षुत (७३।१७), अग्रे महाहिछिन्न मार्ग (७३।१८), हा-ही-विक्त्वावयासीति वचासि (७३।१८), छतभाग (७३।१६), उत्तरीयपात (७३।१६) दक्षिणवालभुप्रटन (७३।१६), नानाशकुन विज्ञानप्रवीणधिषण (७३।२१), महोत्पात (७३।२१), शुष्कद्रुमसमारवायसकुलरटन (६७१७५)- परिदेवनारोदन (६७।७६), दुनिमित्त (६७१७७)- (स्त्री) दक्षिणचक्षु सस्पन्द (४६६) आदि। उपर्युक्त विपयो के अतिरिक्त अन्य अनेक विपयो से सम्बद्ध पारिभाषिक तथा विशिष्ट शब्दो का रविण के पद्मपुराण मे उल्लेख हुआ है। भौगोलिक शब्दावली मे, नदी, समुद्र, पर्वत, वन, ग्राम, नगर, जनपद- राष्ट्र, देश, राज्य तया ५ परक शब्दो का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार व्यक्तिवाचक वृहत् नामावली का प्रयोग रविण ने किया है। ये दोनो सूचियाँ पर्याप्त स्थान की अपेक्षा रखती है। यहाँ उनका उल्लेख सम्भव नही है । हमने इन दोनो सूचियो को अपने ग्रन्थ जिनाचार्य रविषणकृत 'पपुराण और तुलसीकृत रामचरित मानस' मे दिया है । कृपालु विद्वान् इन्हे वही देखने की कृपा करे। सदर्भ १ द्रव्य (5) जैनाचार्य रविषणकृत ५मपुराण और तुलसीकृत रामचरितमानस (डा० रमाकान्त शुक्ल)। प्रका० वाणी-परिषद्, दिल्ली । सस्त १९७४ । पृ० १८-३१ । (2) 'Influence of Bāna's 'Harsh-charita on Ravisna's Padmapurana' (Dr Rama Kant Shukla) The Journal of the Ganganath Jha Research Institute, Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यों की शब्द- सम्पत्ति ૪૫૨ Allahabad, Vol XXIII, Pt 1 4, Jan 1967 Dec 1967, Issued in March 1969 pp 91 105 (૩) વિવેખાવાય નિવાસસ્ય પ્રમાવ ' (ST૦ માન્ત વર્લ્ડ )'A I O C XXVIII Session 1976 Summaries of Papers Editors Dr K Krishnamoorthy & Dr Shrinivas Ritti Karnatak university, Dharwar pp III 29 ૨. સાધુસ્મૃતિ વાન્ધન્ય હોષવત્તામાનિત । વાવ શોધૈયત્યેવ નોતસ્ય તિામ્ ॥ વાસ્યાન્તર્યાત તેવ બુતન્નિત્તિ સત્મમાં । (વિપુરાણ ૧૯૪૩-૪૪) હરિવંશપુરાણ સમ્મા--૧૦ પન્નાલાદ નૈન સાહ્રિયાનાર્ય, ભારતીય જ્ઞાનવીય શી, ૧૯૬૨૪ ૩૬ વાચ્યવન્પસમાનુવન્ધતો મૈં ઔત્તિસન્તાનમન્નામનીવયા । न फाष्यवर्गेण न चान्यवीक्षया નિનસ્ય ભવન્ત્ય શ્રુત નૃતિર્યંચા (વિશ ૬૬૫૩૬) દ્ ૪ વીના નૃતિનિર્વાફે સસ્તો મત્ત્વાવવનમ્ । વિતામ્મોધિમુદ્દેન નિતયિષુરમ્યમ્ II વેર્માવોડવવા મેં બાન્ય જ્ઞજ્ઞનિયંત્તે । તપ્રતીતાયમગ્રામ્ય સાલેવામનાભમ્ ॥ केचिदयंस्य સૌર્થમપડે. સૌષ્ઠવમ્ । વાત્તામલધ્યિા પ્રાઝુસ્તાય નો મત મતમ્ ।। સાજારમુઢરસમુદ્ભૂતસૌષ્ઠવમ્ । નષ્તિ સતા ાવ્ય સરસ્વત્યા મુદ્દાયતે 1 અસ્પૃવન્ધલાલિત્યમપેત રસવત્તયા । મૈં તામિતિ પ્રામ્ય વત્ત નર્ણયો 11 સુíિપવિન્યાસ પ્રવન્ધ રત્નન્તિ ચે 1 શ્રાવ્યવન્ય પ્રસન્નાથં તે મહાળવયો મતા ॥ મહાપુરાણસદ્દિ મહાનાય૫ોત્તમ્ । ન્નિવાળાન્વમ મહાળાવ્ય ત િવખતે ।। નિસ્તનનું તિત્તિછો(ન્ સર્વોપ તે વિ પૂર્વાપરાયંધરનું પ્રવન્ધો . ટુરો મત 11 ધાન્વરાશિ પર્યન્ત સ્વાધીનોડ્થા રસા 1 મુળમાત્ત પ્રતિચ્છન્દ્ાવિવેારિદ્રતા | પ્રયાન્મતિ વાના વિન્નોડર્યંચનારને 1 મહાવિત છાયા વિશ્વનાયાશ્રયેત્ વિ પ્રજ્ઞામૂલો મુળોપ્રન્થો વા૫ત્ત્તવોન્ગ્વન ! મહાવિતĒત્ત યશ સુમનન્ગરીમ્ II Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० सरकृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा પ્રજ્ઞાન પ્રમાણરત્નપરિગ્રહ ! મહાદ્વાન પૃયુન્નતા વિરજોનિધી તે . યોક્તમુપયઝીદ્ધ સુઘા વ્યરસાયનમ્ | યેન ત્યા તરસ્યાય વપુર્વ સ્થાવશોમય થશોધન વિવીબા પુષપાપળાધિનામ્ ! પર મૂલ્યમિહાજ્ઞાત કાવ્ય ઘમંથામયમ્ II (બાવપુરાણ (યમ માટે મમ્માત–૫૦ પનાના ન સાહિત્યવાય, મારતીય જ્ઞાનપીઠ, વળી, ૧૯૬રાવારૂ-૧૦૬) ૬ વ્યાવનાનુસાર મીકાત્કૃતમવંશાસ્ત્રસજાવમ્ | અપતિતાન્યાવ્ય દ્રવ્ય વ્યુત્પન્નમતિમિરાયમ્ II નિનોન વોક્ત મિથ્યાવિવાંવનનમતિનિતમ્ સિદ્ધાન્તોષનિવાર્તા અન્ન વિનેયાનામ્ | (ત્તરપુરાળ માવ ૪૦ પનોત્તાન જૈન, હિંન્યાવાર્યા મારતીય જ્ઞાનપીઠ પ્રકિાન ! દ્વતીય સ. ૧૯૬૬ ૫ પ્રશસ્તિ ૧૬-૧૭ ! 9 999) ૬ (૪) વવવવતશાસ્ત્રો તો તેનો મુનીલા - કવિ રવિનવૃત્તસ્તસ્ય શિષ્ય મુલ્ય છે. (વહી, બળતિ, રંs) (સા) મઠ્ઠાપુરસ્ય પુરાણપુસ પુરા પુરાળે તવાર નિત્ | વીધિનાનેન યથા ન વ્યવર્વાસુ તોવિના નવીન્દ્રા છે. मजयति जिनसेनाचार्यवयं कवीड्य વિમલમુનિરાળો મવ્યમાનાસમય ! સનળસમાહ્યો ફુટવા મહો વિતિસરનશાસ્ત્ર સર્વરાનેન્દ્રવન્ય | કે સત્તાવીન્દ્રોતસૂવતપ્રવાર વળમરસતાન્તત્ત્વમેવ સર્વે ! ચા ! વિવનિનોનાનાર્યવવત્તા રવિન્દ્ર ઝવતપુરાખાનામાં છે જ નથતિ મૂળ મુદ્ર મર્વયોગેન્દ્રવન્ય સત્તવિવરાછામ સૂરિવન્ય | નિતમદનવિનાનો વિતતતુ રતતવાર સર્વભૂપાનવન્ત || ઘમ શ્વવિદ્યાસ્ત તતિ વસ્તુ પુરાણ મહત્વ અવ્યા તુ યાન્નિષ્ટપુટપાથાના વરિત્રાવ ! શોભિવતાયુગોગસ્ત વયોડખેતદ્વનોજ્ઞાનય સાવદ્રવ રવીન્દ્રધુમદ્રાવાયંવર્ય સ્વયમ્ | (વહી, પ્રશસ્તિ ૪૦-૪૩) ૭ (૪) નનાન્ત સ્વરાન્ત વા નિમ્નામેટું ઉત્તિતમ્ ! બર્થસ્ય વાવ શબ્દ શબ્દો વાક્યમિત સ્થિતમૂ લક્ષમાનતી વાન્ય પ્રમાણ ઇન્દ્ર જામ ! સર્વ વામનરેન રોયમન્ન મુવાતમ્ | Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत के जन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४६१ (पापुराण (रविण) १२३११८५-१८६ । सम्पादक प० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य । भारतीय ज्ञानपी०, काशी । १९५८-५६) (आ) प्रकाममाकाक्षितकामसिद्धय प्रसिद्धधमर्थिविमोक्षलब्धय । भवन्ति तथा स्फुटमलपयत्नत __ पठन्ति भक्तया हरिवशमन ये ।। (हरिव० ६६।४६) (इ) धर्मोऽन्न मुक्तिपदमन कवित्वमान तीर्थेगिना चरितमान महापुराणे । યા વીન્દ્રબિનસેનમુવા વિન્ડनियंपासि न मनासि हरन्ति के पाम् ? (उत्तरपुराण, प्रशस्ति ।३८) ८ द्र० हरिव पुराण ५७।१-१८३ ६ द्र० मादिपुराण २२ ७६-३१६ १०. द्र० पमपुराण २४१७-२१ ११ द्र० हरिवशपुराण १६।१४१-२६१ १२ द्र० हरिवंशपुराण २३१५६-१०७ १३ F० आदिपुराण ३८, ३६ तथा ४० वा पर्व । १४ द्र० हरिवंशपुराण १२१५५-७० १५ द्र० आदिपुराण २५११००-२१७ १६ द्र० आदिपुराण १६।१४३-७५ १७ पद्मपुराण १३७१-३७३ १८ वही १०११७६-८४ १६ हरिवशपुराण २२१८४-२२१८४-१०१ २० वही १११६३-७५ २१ आदिपुराण १९७७-८७ २२ वही १६३१५१-१५६ २३ उत्तरपुराण ६३।२०८।२१७ २४ पापुराण ७१३२४-३३२ २५ हरिवशपुराण २२।६१-७३ २६ वही ५७१३ २७ ५मपुराण १४ तथा ६७५ २८ वही १९७७ २६ वही ८।१४३, १९४८ ३० वही ६०१५५ ३१ वही १६४५, ६२१७७ ३२ वही ६।४६२ ३३ वही ३६।१०६, १८४ (विमलसूरि विजय५०पअ' ५उमचारय ३६।३८) ३४ वही १०1१२२ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ३५ आदिपुराण २५११००-१०३, १२०, १२४ ३६ वही २५।१५१-१६२ ३७ पमपुराण ५।१७-१६ ३८ वही ५१५२-५३ ४६ वही ७७७ ४० आदिपुराण २५१२४ ४१ वही २५।१२० ४२ वही २१०६-११० ४३ वही २५।१५६, १५८, १५६ ४४ पद्मपुराण १०२।१६५-२०० ४५ वही ३३।२२-३३ ४६ वही १९८५ ४७ आदिपुराण ३४।६३ ४८ ५उमचरिय (विमलसूरि) प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी वाराणसी ५, अहमदावाद-६, १९६२, १९६८ (दो भाग) २६६६६ ४६ वही २६।५० ५० वही २६।५३, ५३।८६ ५१ वही ३३१८ ५२ वही १२।११२ ५३ वही ६६८ ५४ वही २१४० ५५ वही ६।२०६ ५६ वही २२।३२ ५७ वही ८।२६२ ५८ वही १०२।२० ५६ वही १०५।५६ ६० वही ३१८१ ६१ वही २६५१ ६२ वही २६१४८ ६३ वही १२११२ ६४ वही १०५२५६ ६५ पद्मपुराण १२।२६१-२६३ ६६ वही १०५॥३३ ६७ वही २१।५६-७१ ६८ वही १०१११३ ६६ वही ७८।६२ श्लोक के अनन्तर गद्य ७० हरिशपुराण, परिशिष्टानि, पृ० ८०-१५६ ७१ आदिपुराण (प्रथम भाग) पृ० ६८८-७४६, (द्वितीय भाग) ५५८-५८८ ७२ उत्तरपुराण पृ० ६४५-७०७ ७३ द्र० पमपुराण (तीनो भाग) Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत के जैन पौराणिक काव्यो की शब्द- सम्पत्ति ७४. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा स्वीकृत योजना कर लेने की माशा है । १४ अध्यायों मे यह योजना विशेषणपरक शब्दावली का अध्ययन होगा | ४६३ जिसे दो वर्ष के अन्तराल मे पूरा विभाजित है जिसमे सज्ञा तथा ७५. कोष्ठको मे आदिपुराण के पर्वो तथा श्लोकों की संख्या दी हुई है । ७६ कोष्ठको मे आदिपुराण के पर्वो तथा श्लोको की सख्या दी हुई है । ७७ कोष्ठको मे पद्मपुराण के पर्वो तथा श्लोको की सख्या दी हुई है । ७८ द्र० "जैनाचार्य रविषेणकृत 'पद्मपुराण' ओर तुलसीकृत 'रामचरितमानस' (डा० रमाकान्त शुक्ल ), भौगोलिक शब्दावली के लिए पृ० २६८ ३०२ तथा व्यक्तिवाचक सभा शब्दावली के लिए पृ० १३४- १४५ ) 11 Page #492 --------------------------------------------------------------------------  Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASPECTS OF JAIN SANSKRIT AS EXEMPLIFIED BY MUNI SUMATIVIJAYA'S VRTTI ON THE MEGHADUTA by Dr W H MAURER A LARGE portion of Jaina literature is written in a peculiar kind of Sanskrit (Sht) to which scholars have devoted relatively little attention 1 In fact, the greater part of the extra-canonical literature of the Jaina-s is composed in it Much of this literature consists of independent works, but much is exegetical in character and hence of considerable importance to text-critics and literary historians The characteristic features of this Skt are numerous and rather far-reaching and concern every department of the language its phonological laws, morphology, syntax and vocabulary The differences from standard or classical Sanskrit (cl Skt ) within each of these spheres are often only slight and of sporadic occurrence, they may even pass unnoticed, except with a careful reading, or be imputed to these imperfect transcription Undoubtedly, certain of these phenomena might easily be explained away by scribal blundering, but their continual recurrence inevitably suggests that, if indeed they are 'errors', they must have been committed with method and plan A somewhat analogous situation prevails with Buddhist Hybrid Sanskrit (BHS) in which most northern Buddhist texts are written a casual reading of a few pages gives the impression that either one is confronted with a badly transcribed MS or the author did not know how to write the language correctly But a careful reading reveals the same forms and usages again and again, the deviations from the standard language fall into well-defined patterns so that scribal carelessness or imperfect acquaintance with Skt on the part of the author are quite insufficient to explain the fact, and it has long since been clearly demonstrated that the language of these texts is really not Skt at all, but a Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? Fleshy-ylgist 04142 311c 75)91 47447447 Middle Indic Prakrit (Pkt ) which was subjected to partial, haphazard Sanskritization There is, then, no question about its being 'bad' Skt in any sense because it is another language which obeys different laws. But it must not be supposed that in a similar fashion this peculiar Skt of the Jaina-s is basically not Skt at all, but only some Pht dialect imperfectly disguised as Skt, or, to put it more directly, simply the Jaina version of BHS In point of fact, Jaina Sanskrit (IS) is quite the reverse of this it is essentially nothing clse than Skt which has been Prakritized and vernacularized, but this process has been carried out to a lesser degree than that of Sanskritization in the case of BHS In its basis JS is always Sht, whereas BHS is an unidentified Pkt , JS is Prakritized Skt , BHS is Sanskritized Pkt. The origin of JS certainly lies in the intense desire of the Jaina-s to popularize and disseminate their faith, this could only be achieved by adopting a means of communication meaningful to the majority of people Skt was the language of the few, Pkt of the many, yet the Jaina muni-s were versed in Skt as the medium of the susţa-s Their contact with the lasty, however, caused them to introduce into their discourses, doubtless unconsciously, many localısms and popular words which were more readily understood by their listeners In the course of time these words became part and parcel of the language they used also in their writings There was probably not a great deal of difference between the two levels, at least between the language of certain types of exegetical and narrative writing on the one hand and that of the discourses on Jaipa dharma on the other Not only was there a tendency towards popular words, but there was a general liberalization of the vocabulary which readily permitted many Skt words to enlarge their periphery of meaning under the influence of local vernacular usage There was also a fairly general relaxation of the rigid laws of Skt grammar and free rein was given to analogy All these tendencies and impulses gradually produced a freer, less fettered language than ordinary Skt but different enough from it, not always to be readily intelligible to one unacquainted with its peculiarities and more especially its strange and diverse vocabulary In the light of present research, however, no accurate description of these peculiarities for JS as a whole is possible, to do this would require the Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskrit : 3 critical examination of a considerable number of texts. Even then it is doubtful whether any systematic account could be presented, for by nature it is a language of infinite variety and fluctuation differing with time, place, and author So indeterminate a thing cannot be described if taken in its whole extent, except in the most general terms The most that can be done is to describe this language as exhibited in a single work Here too, there is an element of uncertainty in the absence of an accurate tradition thus, peculiarities are liable to be attributed to JS which are due only to imperfect transcription What is said, tben, even of a particular text must be regarded as tentative and to some extent hypothetical Of course, when certain features recur independently in otber Jaina works, it may be accepted that they belong to JS as a whole Clearly, therefore, it is only by means of a comparison of the characteristics of many texts that the minimal features of JS can be stated In this article it is proposed to set forth the peculiar properties of JS as exemplified in a vitti on Kālıdāsā, Meghadüta by Muni Sumativijaya (Su) of the Kbarataragaccha who flourished in Bikaner in the first half of the 17th century. These matters are arranged under the following broad topical headings 1 Phonology , 2 Morphology, 3 Derivation, 4 Composition, Syntax and Idiom, 5 Vocabulary, 6 Orthography These categories are by no means mutually exclusive, and often an item discussed under one subject might well have been included elsewhere in the arrangement, ex pūrāyamānāh is treated under 'Derivation', but could, with equal justification, have been put under 'Vocabulary', since the word does not occur in cl Skt I. Plionology The rules governing sandh between words in a sentence (sentence-sandhi) are in general haphazardly and sporadically applied, exx valmikah mţttıkāsamcayah tasyāgran (15), mayūrasya meghena saha samtosah atah megharūpabandhavam drstva mayūrāh nstyantiti bhāvah (36), kathambhūtaih garitaih (48), kinnarībluh tripuravijayah mahādevo gīyate (60), yatra alakāyām bhavanaśıklınan gi hamayūrāh mtyabhāsvatkalāpāh vartante (77), Jatia puri trād/sah jalamuco meghāl yantrajālaih gavāksaih kiirā Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. Acha yight of trout al 741 til 4<+421 jarjarāh jarjaribhūtāl suntah mhpatantı nihsarantı (79), etc It does not seem possible to discover any principle or pattern in this usage in the very same paragraph a recurrent phrase may appear both with sandhi and without sandhı as, for example, in the comment on stanza 1 where we read kathambliūtah yaksah and a few lines farther on punah kathambhūto yaksah At wordjunctures within compounds also sandhi is oftentimes omitted, exx varsā-rtau (9, 25, 83), vegavat-visgyā (18), but cf vegavadvarsanaih (47), vanastha amravi ksaih (18), piasıddhadık-laksanāni (26), vidyut-mālādedīypamānā (29), paścât-bhāge (40), balutaraīrsyāluh (43), kusumav! sţikit-megharüpatām (47), bhavat-śyāmakāntyā (55), prāpitaadharostliau (91), I āmagii l-āšrame (107); atiucchi āsasahitena (108) II. Morphology The present participle feminine of vkrin c) Skt is supposed to be formed without the nasal infix, thus, kurvatī not kurvanti 5 But In late MSS the nasalized form is frequent, and in Su this is the predominant form by far , in only one of many occurrences does the testimony of the MSS favour kurvatī (31). The Dasalized version occurs also in the Bihat Kathākośa of Ācārya Harisena Conversely, from abhi-/las (bhū-class) is found abluilasatīm (97) for olasantīm.? Infinitives from causatives (cur-class) in cl Skt are required to retain the causative affix prāpayıtum, kārayıtum, dhārayıtum, etc There are, however, sporadic examples where this affix is dropped and the -tum is added to the strengthened root with or without the 'Bindevokal -1-.8 Su has bhedituni (41), the causative sense is wanting in this case, and perhaps this influenced the omission, but this is extremely doubtful, as so very many c] Skt roots of the cur-class are non-causative and, nevertheless, retain the affix -aya- in the infinitive, furthermore, bhedayatı is also used in cl Skt without causative meaning The full form occurs in vidhyāpayıtum (57), atikramayıtum (58), etc According to rule, the gerund in cl Skt ends in-tvā when the root is uncompounded, otherwise in -ya, but this distinction is not always observed, and usage uş reversed, In Su too, there Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskrit 5 is frequent reversal of this prescription, exx sthāpya (11), āι ādhayıtvā (49), prasārayıtvā (50, but also the 'correct' form prasārya nearby'), uttaritvā (51), ullanghayıtvā (61), utpādayıtvā (79) 40 The addition of the secondary derivative suffix -vant to participles of intransitive verbs, though found in cl Skt, is generally a later phenomenon 11 Su has sthitavantam (81) and sthitavati (123) From √grath Su has two past participles, namely grahıta în agi athitavenidandā (31) and granthita in agranthita (also 31) The former is the usual classical form, but the latter occurs sporadically and is frequent in late MSS 12 The nasalized variety is probably due to association with grantha Anomalous from the point of view of the standard language is uddharita ('taken out' hence 'remaining' in 32 and 42, 'remainder' in 33) It may be a past participle of either ud-/dhr or udVhi, since the combination of ud- and h-or dh yield uddh-, thus rendering many of the formations from these two roots indistinguishable The anomaly here lies in the short penultimate vowel, the causative of both verbs in cl Skt is uddhärayatı of which the participle is uddhārta Perhaps therefore, Su knew a causative with the guna-vowel instead of the vrddhi Another anomaly involving vowel-quantity is seen in lambayamānam (91), cl Skt has only lambayate. A transfer of a root from the bhu-class to the div-class is exemplified by avagāhyamānah (52) which according to the context must be taken as a middle participle, though the form is not separable from the passive In explanation of nayanasalilam tears santim neyam (43) 'the should be soothed' Su gives vastrena karena vā natrāmbu pramį stavyam 'the tears are to be wiped away' Now, pramy stavyam might be derived from pra- in combination with mrj, or √ms, cerebral -s- results from -7- or - when in contact with dental -t- which is then, of course, assimilated, and therefore, many forms form these roots coalesce The sense of the passage suggests that it is form pra-mr 'wipe away', but Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की पराग V miś means primarily stroke, rub' (cf Lalin mulcco) and with pra- might be nearly synonymous with pra-vir), though the attested occurrenccs mcan rather 'lay hold of, handle' and figuratively 'lay hold of mentally, rcflcct upon, consider'. The meanings under vms as well as pravers seem to exclude this rool from consideration here But whether pram;sjargam is based on pra-v mr) or prav mrs, it is certainly not classical the gerundive should have the same stem as the infinitivc.13 Thus, if from Vinsj thc gerundive is mārstarja or märjilaija, since the infini. tive is either mürsum or mārpitum," Monier-Williams (MW) also lists marsjum (with the guna-increment) which thcorctically would allow *marsjavya,16 If, on the other hand, it is from V mộs, the infinitive of which is only marssimi, the gerundive ought to be *marsțavya, in practice, however, only marśanīya is used 16 In any case then, Su's pramrsavyam is not a standard form 17 It is of some interest to note that in two MSS pramarśanījam is subjoned to piamrsfayyam, a clear indication that the author of that gloss derived omrstaryam from pra.vmś instead of the more plausible pra-v/mirj The geaitive singular of strī is striyain the classical language, but Su uses striyah with short final syllable in at least five instances (45, 72, 85, 102, 104), there is also a doubtful example in 106 This usage seems to be based on the analogy of the monosyllabic stems like dhī which allow either the brief or fuller form in the genitive i e dhiyal or dluyah Polysyllabic feminines in long -ī form their locative in -ām in cl Skt , thus, from valabhī is made valabhyām But in the vigraha of the compound bhavanavalablau (42) Su uses valabhau which would be allowable only from a feminine in short -1 bhavanas ya valabli grhopari kuțțih varandīsi vā tasyām bhavanavalabhau Only, therefore, if valabhī here were a transcriptional error for valabhih would valabhau be the 'correct locative, in this case, of course, valabhyām would be equally 'correct', since faminines in short -1 have either option In the analysis of varsāgi abundūn (39) agre is employed as the nominative masculine plural of agra 'first varsāyāh ye agre bindayah prathamajalakanāh vai sāgrabinūaval tän varsāgra Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskrit 7 bindūn CI Skt prescribes pronominal terminations in certain cases of numerals and words of numerical character, 18 ex prathama the nominative masculine plural of which is prathame, agre, which is here synonymous with prathame, may, therefore, be an analogical creation A considerable number of words in Su have a gender different from that of cl Skt,, exx mandatvagunam and saityagunam for °gunah (46), tam puram tyaktvā for tat puram (29), vpksām foi vi ksāh (28), rasam for rusah (53), suc is masculine in 83 instead of feminine as indicated by the agreement of the adjectives vjapagatah gamitah śuk soko yais te vyapagataśucah A few words are used in a gender that is very rare in cl. Skt randhra (46) is masculine, but in the standard language almost always neuter, so also aśru (100) and vana (80) Contrarıly, avaśeşa is neuter in 33, but usually masculine in cl Skt , also apanga in 29, but in the 48 it is masculine and maccha, ie matsya (44) In 120 is found āśvāsanā for cl Skt āśvāsana. III Derivation -apamarsana which is given in explanation of -apanayanain gandasvedāpanayanarujā (28) 'from the abrasion of wiping away the perspiration from their cheeks', is not recorded in the lexicons, from its form it appears to be derived from apa-viss, but the sense required here, namely 'removal, wiping away', precluded this, and furthermore v mrs is not found in composition with apa. On the other hand, apamai asana may stand for °marśana (Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 4799-9180 - toru t il ud til syoristal leaving one marsana, whose diverse lines of meaning can only be explained by resorting to both v mrs and vors The cercbral -s- got the upper hand probably because on the whole it is commoner than -“- in the infectional forms of V 115ś -tyajati- 'abandonment' occurs in nadīvirahan as-thālyajan. yam (31), but the passage may be corrupt, and the genuineness of this word is, therefore, subject to some doubt. It is a nomen actionis formed from the present stem of Viyaj in the same way as jasati, ramati, iratani in ci Skt. Ordinarily, of course, nouns in -ti are formed on a weakened or abbreviated base wbich is usually indentical with that of the past passive participle. Thus, ukti (Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ spects of Jam Sanskrit 9 Pīrājamānch (60) is apparently formed on analogy with sabdaj a- or the like, pūra 'filling' (adjective or noun) could yield pūrāy'ā- with lengthening of the final syllable according to Whitney ($1059 b) But pūra is active in sense, and in the context a passive is wanted. 'caused to be filled' (not 'filling'). IV Composition, Syntay and Idiom (a) COMPOSITION In cl Skt. iu the forepart of a harmadhāiaya compound the masculine stem-form is used even when the final element is a feminine noun; so Wackernagel, Altidische Grammatic, Band II, Teil 1, p 50 (21 b), and cf. Paniai VI 3 42• pumvat karmadhārayajātīyadesiyesu 'In a karmadhāraya compound and beforc thc suffixes -jātīga. and desīya the scminine takes the masculine form' But in about a dozen instances Su uses the seminiac instead of the masculine stem-form narmadānāmıninadyālı (21) '(water) of the river named Narmadā', nirvindhyānānınīnadyāl (30) '(in the path) of the river named Nirvindhyā, sindhunāmninadirūpā (31) '(a sweetheart) in the form of the river named Sindhu', siprānûmininadisambandhi (35) (wind) connected with the river Damed Sipra', mdrasambhadhmisenānām (47) '(for the protection) of the armies connected with Indra In the first two examples it is possible to argue that onāmnī is scribal for onāmino (1 e. sandlu for onānal) which would then be an uncompoundcd bahurīlu with genitive ending agreeing with nadyāl as a separate word, the similarity of postconsonantal kära and okāia could have facilitated this kind of nistake But the other examples cannot be explained away on palacographic grounds, and this fact, combined with the complete unanimity of the MSS. in these two cases, indicates that it is a regular construction in JS Exceptions to the general rule are occasionally met with in ordinary Skt 2 An extremely anomalous type of compound is seen in the explanation of darsitāvartanābheh (30) where the two components are separated from cach other by the emphatic eva, thus avalokitajalabhramanarūpa eva-irāblupradeśāyāh Unfortunately, however, this solitary example is insufficient to establish whe Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सस्कृत प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ther the phenomenon really belongs to the grammer of JS or is due to defective transmission of the text The so-called cvi-compounds of cl Skt, which consist of a substantive (with modified final vowel) and Vks or Vbhū and denote a conversion to the state indicated by the substantive, are extended in JS to Vjan and sam-V jan when used as synonyms of Vbhū, eix śyāmījātāni (25) 'become black', namrījāte (50) 'become bent', pustījālam (36) become well-nourished and ekatrījātah (62) 'become in one place' The classical construction is also found, sometimes alongside this extension, as in 36 where sthūlībhūtam is used with pustījātam to explain the textual upācita-, also in explanation of rāšībhūtah (62) are given both puñibhūtah and ekatıījātah The transition to this construction with Vjan is provided by equivalences like jātam for abhūt (34), the synonymity of Vjan and vbhū in cl Skt and their mutual substitution are common enough, but no example of the use of Vjan in cya- compounds is available An isolated instance with Vgam occurs in sammukhīgatanı (18) [ie sanmukhio]23 'gone opposite for the textual pratunukhagatain. When there is a distinction between strong and weak stems, cl Skt requires the latter in the forepart of a compound, but in one example all the MSS attest a final lengthened vowel kāmījanāh (80) for kāmī° Again want of additional instances renders it a questionable JS formation In two undoubted instances the adverbial suffix -vat is added to inflected forms • yastrāniyat for amśukānīva (66) 'like clothes' and mamarat for evam (122) just as [there is a separation) of me' In a single instance the the laudatory prefix su- is replaced by sad, 1e sat 'good', neuter participle of vas, used adverbiaily sadablıyastablirūlatāvilāsānām (51) '(eyes) whose conquettish movements of the brow are well practised' Cl Skt. has apparently no example of sat used adverbially either as a separate word or in composition Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspecis of Jam Sanskut 11 (b) SYNTAX When an instrumental cxpresses pure instrumentality or means in contrast to accompaniment or association, the gerund of v ky is often subjoined, thus, vidyutā kļīvā (41) 'by means of lightning', garjāravail kştrā (48) 'by means of thunderous roars', prāsādaih kitya (67) 'by means of the palaces', aśrubluh kyrvä (112), by means of tears' In cl Skt a number of gerunds are used postpositionally in a similar way, exx nuktvā 'except, save', ādāja 'with', etc But this use of krtvā seems to be confined to JS In one instance pārsvatah replaces krtvā in this sense meghena pārsvatah (4) 'by mcans of the could' By another curious construction prati is appended to an accusative to mark a direct object, obviously this has grown out of the primary sense of 'with reference to', and its use thus binds the object more closely to the action of the verb, kim adreh parvatasya śrngam sıhharam parti pavanah vāto haratı (14) 'Is the wind carrying off the peak of a mountain?' kāntım sobhiām pral (śyāmam vapur āpatsyate] (15) [your swarthy body will obtain] beauty , ātmabımbam svakiyabımbam prati pätrikurvan sthānikurvan (51) 'making your reflection an object (of the eyes )' Placed after a noun in the ablative case pārsvät emphasizes the concept of separation tābhyah sui astribhyah pärśvāt (64) ‘from the wives of the gods' It is probably a kind of afterthought or parenthesis, at least in origin, otherwise the genitive would be expected in ostrībhyah. In cl Skt paścāt is construed with the genitive or ablative, but Su bas an instance with the accusative tirtham paścât in explanation of anukanakhalan (54) But the meaning here is 'near' beside', not 'behind, after' and thus, it seems to be used as though it were the Skt original of Hindī pás ‘near', of course, this is etymologically wrong, since pas comes from pārsve via Middle Indic pasa Words denoting provimity in cl Skt. require the genitive, but Su has an instance of the ablative bhūmniśayanāt samīpaga Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ संस्कृत-प्राकृत व्यकिरण और कोश की परम्परा väksah san 'situated at the window near the ground which serves as her bed' for avanisyanāsannavātāyanasthah (95) This is perhaps, an example of analogy just as word of opposite meaning like similarity and dissimilarity are construed with the same case (whether instrumental, genitive or locative), so words of nearness and distance may be both associated with the ablative, though logically only with the notion of separation. In a single instance the ablative without a post-position means 'after' mukhāvalokanāt (53) 'after seeing her face' This usage is very rare in cl Skt, 21 except in the technical literature of the grammarians, thus, cf Panini III 1.73 svādibhyah śnuh 'After Vsu, etc [let there be] śnu (1 e. the infix -nu-)' Adhikyam is employed adverbially with sabdayan to explain di ghikui van (35), but in cl Skt the adverbial accusative is fairly restricted to certain substantives such as those listed by Whitney in §1111 b and Monier-Williams §713 b The adverbial locution anekavārān (113) 'many times' is apparently modelled on formation like bhūrivārān or vārāms trīn 'thrice' where an accusative plural replaces the commoner singular In Rajvaidya JK Shastri's commentary on the same stanza of the Meghaduta (114 in his sequence) anekavāram occurs 25 Obviously the plural is a logical usage based on the meaning According to Whitney 'genitives of apposition or equivalence (city of Rome) and of characteristic (man of honour)' do not Occur 26 Su has an instance where there are the two elements of apposition and characteristic in an expression in ablative humavato nämnah paravatat (54) 'from the mountain of the name Himavat' A curious usage which is repeated with considerable frequency juxtaposes two locatives of which the first is in apposition to the second visālāyām nagaryām (33) in the city of Visālā,' Ujjayinyām puri (twice in 34) 'in the city of Ujjayini', alakāyām puri (76) 'in the city of Alaka', etc, but cf alakanagaryām (68) There are more than a dozen instances in Su of the locative Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskıt 13 of the relative (or the relative adverb yatra, which is equivalent to it) where the genitive only is appropriate mtyablāsvatkalāpā [11] (77) '(peacocks) whose tail-feathers are always shiny' is thus analyzed mityam bhāsvantı dedipyamānām kalāpānı bai hapicchām yesu te mtya' In cl Sht the disjunctive particle id is always placed after the second of two alternative terms, unless, of course, two va-s are used, in which case the particle is adjoined to each member Su, however, very frequently subjoins it to the first term instead of the second, exx galvarāni vā latācchädıtasthánāni (20) 'thickets or places coverd over with creepers’, utkanthūyuktām va utsähayuktām (23) 'provided with longing or provided with intense fceling (?)' Deravisesänām vā kimnarānām (49) 'of godlike beings or Kinnara-s' In one of the MSS a second võ is appended The classical placement also occurs vastrena karena vā (43) 'with the garment or with the band' In a single instance a prohibition is expressed by mā with the optative, this construction is rare in cl Skt27 mā gaccheh (29) do not go', but note the imperative in 116 mā gaccha A remarkable and frequency recurrent phenomenon is the omission of the relative pronoun in the analysis of bahuvi ili compounds That the omission is deliberate on the part of the vrttıkāra and not the work of scribes is proved by the unanimity of the MSS and the frequency with which the omission occurs That Su did not misconstrue these particular bahuvrihı s as tatpursa-s or karmadhāraya s is clear from his use of the interrogative adjective kathambhūta? 'What sort of?' to elicit the bahuvrilu in reply,28 ex the bahuvrīlı sphafikaphalīka (86), given in answer to kathambhūtā kāñcanī vāsayasțih?, omits the relative in the vigrala sphatikasya phalıkā pāțıkā sphaţıkaphalıkā '(a golden perching-stick) having a pedestal of crystal There is an instance in the comment on 25 where, in answer to the question kathambhūtāh deśāh? What sort of regions?', the answer, which consists of the epithet pānducchāyopavanav; tayah is followed by synonyms of the two principal part of the compound separated syntactically (dhavalaprabhāh upavanavātıkāl) but unaccompained by the relative pronoun yesām (or its equi Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 Hegoat-410 O4101ui apie 0,141 07 42+421 valent yatra) essential to show that the factors involved belong to the noun deśāh in the question Farther on, however, where the same compound is analyzed, yatia is included pānducchāy. āh dhavalaprabhāh upavanavı tinām yatra te 'the Daşārna country) where the enclosures around the groves are pale colour ed ’29 Of course, this strange process of abbreviation may be a peculiarity of analysis belonging only to Su, and perhaps it ought to be so regarded until examples are forthcoming from other JS texts A characteristic features is the use of causative stems with the value of the primitive 30 This phenomenon is well enough known from cl Skt where many verbs belonging to the cur-class do not have, or only occasionally have, causal meaning 31 But the verbs in Su which are causative in form but not in sense are nearly always causative in cl Skt, furttermore, in most instances these 'causatives' are given as synonyms of the simplex of the same root, that is to say, they are used interchangeably and with no prceptible difference in meaning Thus, bhramitah for udbhıāntah 'having wandered off, (34), uttaritvā for uttrīya 'having crosssed' (51), uttaritām for -avatīrnām “having descended' (54), 32 atıkramayıtum 'to surpass, overcome' (58), but the cl. Skt causative of ati-v kram means 'allow to pass' (of time, prāpita- (91) 'arrived at', sparsıtam for spsstanı 'touched'(114), harsita- for pramudita- (123) and hșsta- (124) 'Joyful', siñcitām for -sıkta- 'sprinkled' (111) Uttaritvā is remarkable not only because it is without causative value, but because the causative affix -aya- is omitted 33 (cf blieditum above) and the vowel of the root has the guna instead of the ręddhi vowel-change, uttaritām too, has the same vowelgradation Furthermore, cl Skt requires that -ya be added to the compounded root, not-tva (vide supia) There is a single example of a stem which is causative in form as well as in meaning but never has causative value in cl Skt when inflected in the cur class avalokaya for darśaya ‘make to see, show' (41). (C) IDIOM Past passive participles are used as nouns with much greater frequency than in Skt This phenomenon is especially remarkable in composition with -anantaram 'aster .'; thus, skanda Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskrit 15 pūstānantaram (48) after worshipping Skanda’, langhitānantaram (54) "after traversing', sambhogakstānantaram (103) 'after taking pleasure' in pusparasāsvādıtakvanitaśabdāh (77) '(trees) having the sound of humming of bees which have lasted of the nectar of the flowers' -kvanıta-, literally 'sounded, humming, hence, the humming one, ie a bee', has acquired a specialized meaning Other examples of participles used normally are uddharitam for araśesam (33) ‘remainder', nisiddham for mısıddıh (38) ‘prohibition, parıcıta for parıcaya (51) ‘practice'. In 51 -anuga-, a verbal adjective in kundaksepāniugamadlıukaraśrīmusan '(eyes) which steal the beauty of bees going after the movement of the kunda-flower', is analyzed by Su as a noun which is a turn explained in the vigiala by the past participle of ā-vgam used as a noun kundaksepanugena mucukundapuspavāsanāpreranāgatena kundakusumopai istritānām idršānām madhukarānām śrıyām śobhām vā sādı śyatām musnanititi . . Though not all of this is crystal-clear, nevertheless, the noun-value to be attached to -anuga- and -āgata is sufficiently certain. A curious instance of specialization in this use of past participles is seen in svakīyāngagupta., a synonym for nida- 'nest in nidāramblair (25) Clearly, -gupta-does not here function as a past participle 'protected by , a noun to which svakiyānga- is in the genitival relation is wanted Now, there is some precedent in Skt for gupta in the role of a noun, thus, the locative singular (gupte) may mean'in a hidden or secret place' (so MW, p. 359, col 1) 34 Once the use of gupta as a noun became established, the meanings of the abstract guptı would naturally have been transferred to it a place of concealment, a hole in the ground, a place where refuse is thrown, a leak in a boat, a prison' (MW, P 359 under gupti) The compound, then, is presumably a genitival tatpuruşa and means 'a secluded place for their limbs or bodies, viz. a nest Nouns are very frequently combined with V kr to form clusters quite identical with those which belong to the idiomatic structure of the modern Indo-Aryan languages The germs of it are found in cl Skt , but at no period is this usage so pervasive and so intimate a part of the language as in this vernacularized Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8€ AT 37-41 0414340 212 512 417427431 Skt of the Jaina-s; cxx. vrs'un kalià (20) having raincd', nrtyam kārayel (48) 'you should cause to dance', krīdām kurianti (78) 'they play', etc V Vocabulary (a) WORDS WHICH ARE UNKNOWN OR RARELY USED IN CL. SKT. Adhirjatvam for kātaraiyam (116) 'faint-hearted-ncss', a rare word, or more accurately, based on a rarc word, since only the positive dhīrya is recorded, the usual word is dhira MW (p 517, col. I, under dhirya) refere to 2. dhira 'stcady, constant, resolute', eic, and records an occurrence in the Sankhāyana. brālimiana XIX. 3, Böhtlingk, Sanskrit-Morterbuch in Kurzerer Fassung, (1879-83) (BR) gives 2 dhira' as the cquivalent of dhirya but defincs it thus ‘verstandig, Klug, weise, geschicht, kunstfertig, sich verstehend auf', but these meanings are inappropriate to the context in which Su's adhiryao is used, furthermore, since this equivalence is not adopted by MW, probably '2 dhīra' is a typographical error for 'Idliīra'. Kalācıke for -prahospha- (2) 'forearm' in hanakaralayarıktapiakosphah is rare in cl Skt, and it is doubtless in this circumstance that the explanation of the interpolation bālū in two MSS is to be sought Khețanam for -utkasana- (16) 'ploughing' in sadyalısīrotkasanasu, ablui is not listed in MW or BR, under v klug'be terrified, terrify' MW gives a participial from klețita 'ploughed' but only on the authority of the lexicons, i e the indigenous kosa-s of the Indian lexicographers The meaning required in the context (ʻploughing') is the noun-counterpart of this khetita Unquestionably there is some relationship between khetita, kletana and kheţa 'village, residence of farmers' as well as khețaka, apparently the diminutive of kheța V cay which is used participially (cațitam) in explanation of ārūdham (8) 'having arisen' and in the primary derivative catana in cațanāya to explain -ārohanāya (65) ‘for climbing' is a vague word in cl Skt (like v kal) with many very diverse meanings Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskrit 17 (ʻreach, fall to the share of, liang down from, rain; cover, break, kill in MW) It is frequent in the Pārsvanāthacaritia and occurs once in the Pañcadandacchatiraprabandha, but in both works always in connection with kare or haste in the sense of 'getting into one's hand' 35 Cūca in cicapradese (19) 'in the region of the nipple' is quite obviously related to clicuka, cucuka and cucuka ‘nipple (of the breast)' which appear to be diminutive formations of it A variant cūñcan occurs in two MSS. Jyotirangana- for khadyota- (88) 'fire-lly is organa in cl Skt, literally moving light' Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा 37 The pappiha (or vāpīha) 'cātaka-bird' with -kah subjoined suffix -kah must be supposed to account for the long terminal vowel in Hindi Vappiha seemes to be the older and original Skt. word, and väpiha a new formation based on a fanciful etymology deriving it from vapi 'lake' and the verbal extracted from √hā 'abandon', thus, literally 'abandoning lakes' 38 The initial p- in the Hindi papīha (etc) and JS papiha is probably due to regressive assimilation rather than any isolated phonological law involving a change of v- to p -phalikä occurs in sphațikaphalika 'a perching-stick having a base of crystal' in pāda a of 78, but only phalaka ( phalakā in the feminine at the end of a compound) is found in cl Skt That Su did not regard the penultimate -- as a particular form of phalaka in composition is clear from his vigraha of phalikā where he gives this form independently Perhaps it is an analogical form based on JS pāṭīkā (vide infra) Pratyañca for jyä (81) bowstring' is also found in Hindi, but not in cl Skt, it is probably to be derived from pratyañc literally 'turned towards, coming from behind' and, when applied to the bowstring, may refer to the fact that the string (Jy'ā) is drawn towards the archer or to its position behind the bow, thus, cf Platts, 'that which comes behind' (the bow) 39 But it need not originally have been connected with pratyañc, but could have been derived from Middle Indic *pațijjā (<*prati-jyā 'near the bowstring') wrongly assumed to be the Pkt equivalent of pratyañca 40 MW records a curious patañcikā as a word given by the kosa-s for bowstring,41 but it looks suspiciously like an error for *pratyañcikā, if so, this would be an extension of Su's pratyañcă Rātrimukhāh (masc or fem ?) for piadosah (77) 'evenings', literally 'faces of the night' or perhaps rather 'openings of the night' or 'foreparts is not given in the lexicons as a compound of ratri-, cf Abhidhānacintamani (cited by Su here) where the precise equivalent yāminīmukham occurs pradoso yāminīmukham iti -vipathaga in śribhagirathapathaprasthutavipathagapayaḥpū Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskrit: 19 raplārtāl (54) '(the sons of Sagara) washed by a flood of water from the licavenly strcam (10 tic Gangī) gone forth as a result of the course for penance) of Bhagiratha' Thus word is not attested, though the clements of which it is compounded arc perfectly clear. their application to a 'stream' and more parlicularly the Ganges is somcu liat obscurc If ypathaga is only a general word for 'river', thic ctymological incaning would be 'going by diverse (14.) paths, if it is an ad hoc compound and hence, applicabic only to the Ganges, it probably means literally 'going by different paths, ie by a celestial as well as a terresinal course'. Vluch of these semantic explanations is correct can only be determined by further uscs of the word in other conicits a V splu is listed in the Dhatupājha X. 91 with the meaning humslāvim 'huri', but asterisked by BR, it is given by MW but Without cxampic Su uses this root three times, always in thic sense of doing away with, removing! It first occurs in the past participlc sphicpila (17) as a synonym for -prašamıta- in äsälaprasamlaronopaplavam where the specific sense 'cxtinguished' is required in 35 splejayati ca plains harani 'removes', and in 73 the same icnsc in the plural explains wyalumpantı 'destroy', in both these instances it is used in an identical setting, namely with reference to dispelling the languor induced by amorous pleasures (surataglānım and angaglānım respectively). In the latter two occurrences there are variant readings from v splut, which may occasionally be used in the causative in the meaning 'destroy, kill', etc. These variae lectiones, however, are probably just transcriptions of an carlier copyist's crror where the superscript vowel 'e' was converted to 'o' by the addition of a vertical staff or danda (b) WORDS WHICH DITTER IN MEANING FROM CL SKT. -ākāra is a synonym for -višesa 'kind of' in ayojālākārah (73) 'a kind of iron network”. •udbheda ‘source, origin' in puspodbhedam (72) which Su makes an adjective to madlıu 'honey which has its origin in flowers', is taken by the other wittikūra-s in the sense of 'sprout, Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा shoot' There are no recorded examples with the meaning assigned by Su Kävya is frequently used by Su as a synonym for śloka, exx asının kāyye (39) 'in this stanza,' pūrvakāvyād grāhyah (40) ([The word] tatra is) to be understood from the foregoing stanza, ced h kāyya (46) ‘for if in the stanza ,' kāvyayugmasya vyākhyā (89-90) 'commentary on the two stanzas', kävyatrayasya vyākhyā (92-4) 'commentary on the three stanzas'. Without parallel in cl Skt is Su's use of the interrogative kva in the sense of 'when? Since his commentary is of the kathambhūtini ţikā type, it occurs with considerable frequency in asking questions on temporal locutions, exx kra? nirtyārambhe (40) 'When? At the time of beginning the (tändava) dance', kva? savituh udaye (75) 'When? At the rising of the sun' This usage is perhaps only an extension of meaning from the spatial to the temporal sphere, as seen, for example, in the case of the pronominal adverb tatra, which may mean 'there as well as 'then', but kva is not employed in this dual capacity in cl Skt Kva is also commonly combined with sati (present participle locative singular of Vas) to phrase questions concerning locative absolute or other locative phrases of attendant circumstances, exx: kva sati? nabhası śrāvane māse pratyāsanne samīpasthe satı (4) ‘Under what conditions? While the month of Srāvana was near', kva satı? viprayoge satı bharruh virale sati (10) 'Under what circumstances? When there is a separation, 1e when one's husband is away'. The plural of this curious phrase is keşu satsu, exx · kesu satsu ? śanakain nirantaram puskaresu inļdangesu āhatesu vādyamānesu satsu ‘Under what conditions? While drums are beaten gently · This suggests that kva in the singular phrase is just a substitute for kasmin in a rather vague and general way without reference to any particular noun. -gamanıkā. (or °ka-?) occurs in a compound divasagamanikopāyāh (94) 'means of passing the days' in explanation of vinodāh 'amusements, pastimes' Obviously it is a synonym of yāpana 'passing (of time) and like this is formed on a causative base, phrases with V gam referring to time are in fact common Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jam Sanskrit 21 with the passage of time', kālam Gamanikā is listed in MW only in cl Skt., cf. kāle gacchat gamayatı 'he passes the time' in the meaning 'explanatory paraphrase'. -parimala- (75) which occurs in pada c in the long compound muktālagnastanaparımalacchınnasūtraih (by necklaces) whose threads are broken due to rubbing against the breast. is defined by -sammarda 'rubbing together, friction,' a meaning wholly unknown to cl Skt parimala Perhaps -parimala- was taken as another form of parimarda, substantially a synonym of sammarda, indeed, parimala may be originally a Pkt word from pari-v/mrd applied to perfume produced by the trituration (parmarda) of fragrant substances. Yet in explaining the textual sphuļutakamalāmodamaıtrīkasāyah (35) '(the wind from the Sipra River) which is fragrant through contact with the perfume of full blown lotuses' Su uses parimala for -āmoda-, the ordinary meaning in cl Skt Bhujamadhya used as a synonym for -prakostha- 'forearm' in kanakavalayabhramsarıktaprakosthah (2) means in cl. Skt. 'breast', literally 'interval between the arms' But here it means 'the middle of the arm', probably with reference to the forearm (prakostha), though the elbow or upper arm may equally well be meant by so vague a word (at least when viewed only from its etymological constituents) -roga in gallasthalotpannaprasvedadūrīkaranenotpannaι ogena 'on account of the affliction which has arisen from removing the perspiration appearing on the cheeks' is a synonym for -rujā in gandasvedapanayanarujā (28) In cl Skt, however, roga refers only to 'bodily affliction, disease', whereas ruj (instrumental rujā) has the same senses as the parent Vruj afflict, hurt, harm', if, then, the sense of roga in this passage is typical of JS, it may be that it has preserved an older range of meaning no longer attested for roga in cl Skt where only a specialızation of the original concept has been retained VI-lok which in the gerundive vilokaniyaıh explains anvestavyaih (78) 'to be sought after' preserves its literal sense 'look for in different places (v-)', whereas cl Skt vi-lok means Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : सरकृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा 'look upon, examine, study, uspect and appears, therefore, to be only an intensification of Vlok. V'sabdaya- incl Skt. only means 'give forth sounds, cry, call' but in 35 Su employs the present active participle sabdayan in a transitive sense as an explanation of di ghiku van Ordinarıly denominatives with causative value are derived from adjectives, exx kalusayatı 'makes turbid', sitlulayatı 'makes loose 13 Sala- (with variant sarala- in two MSS ) for nīda- (ʻnest') in nīdāi ambhaih (25) is unrecorded in the lexicons in this or any related sense As used here it can be plausibly referred to všal in the Dhātupāțha (1 519) which is defined calanasamyai anayoh 'to move and to cover' With V sal are to be connected śarman, sarana, and śarīra,44 in all of which the concept of 'cover' is involved in one way or another The simple všal is not found in cl Skt, only forms compounded with ut, sann-ut, etc , though none of these compounds of V'sal has the meaning 'cover', there cannot be any doubt that Indo-Aryan possessed V*ýr, V*śļ in this sense This is proved not only by the inclusion of Všal in the Dhātupājha and the obvious derivates of its variant Visar, but also by its well-attested status in other Indo-European languages where the meaning 'cover' is preserved, thus, cf Latin cēl-āre 'hide' (with lengthened grade of ablaut), cl-am (with total loss of vowel), and Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskrit 23 on top of the house in cxplanation of bharangvalabhau is a Prakritism for kutyām 15 MW records kudi, but regards it as a wrong reading for kuti Actually both kuți and kudi are found in Skt MSS (apart from JS texts), nor is this phenomenon surprisiug, as the vocabulary of standard Skt has many Pkt words Kumpalāni wnich occurs in a discussion of the compound višakisalayacchedapăthey'avantal (12) as a synonym for -kisalaya'sprout' is a Pkt word with Skt termination. It derives from kumala, 46 but Pischel states that since there is also a form kuñcala, which cannot be derived from hurmala or hudmala, a dialectical form in addition to the latter is to be postulated in order to explain kumpala (or kuīcala) 47 Jäsī in jāsūkusumam, as a synonym of -japā- 'China rose' in vikasıtajapāpusparaktam (40) '(glow) red as the China rose in full bloom', is undoubtedly identical with Pkt jāsumana jāsumina and jāsuyana which according to Sheth48 derive from japāsumanas probably through the stages *javāsumana > *jaāsumana > jūsumana > jāsuyana > *jāsūna This last form is in fact one of the variants afforded by two MSS and may well have appeared in Su's autograph, especially since jāsūn (with dental-11) occurs in Urdu (see Platts, p 371) Pātikā in explanation of -phalkā 'plank, board', 'pedestal in sphaţikaphalıkā (86) 'having a pedestal of crystal' is Pht pāta (< earlier patta < pattra "leaf') with the sufix -rkā, cf also Pañjābī paft 'sandy place and Hindī pāt 'board' 49 -macchāny (-1), for -saplara- in catulašapharodyartanapreksitāni (44) is an obvious Prakritism for matsya 50 Note also the neuter gender, whereas Skt matsya is always masculine Melāpo (-ah) occurs in the analysis of asthānopagatayamunāsamgamā (55), cl Skt has only melāpaka, an extension of a supposed *melāpa, but probably *melāpa here is simply vernacular milāpa (cf Hindi milāp ‘meeting', with change of -2- to redue to the gunated derivatives of Vinil, especially the causative melāpayarı Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा Lastikā, a synonym for - yasdi 'stick' in kāñcaní rāsayastih (86), is a Sanskritization of the common Pkt word lafthu or latthi (in Ardhamāgadhī, Māhārāstrī, etc. and also in the modern Indo-Aryan vernaculars generally in the form lätlı, but Pañjābs has latth axle of a water-wheel) 51 Since Pkt. -thcorresponds to Skt -St-, lațğlu (or latthi) could theoretically represent Skt *lasti (or lasți), to this, as in the case of pātikā above, was added the secondary derivative suffix -kā, which here seems to have diminutive value as seen in Skt putraka, rājaka, aśvaka, pädaka, etc The use of -ka or -kā in the formation of such diminutives is determined by the gender of the primitive, and hence, since lajthi (or lajthi) is feminine, the Sanskritized form is provided with .kā Ultimately, of course, Pkt lathi and lathi are probably derived from yastı with change of y- to l Vādati, locative singular masculine, present participle, in explanation of valatı (57) 'while (the wind) blows' seems to be based on a Pkt *vāddai, though the form of the participle is patterned after Skt , this is, of course, an artificial creation from vāta 'wind' with verbal termination and softening of medial -- to-d- Or is vādatı an error in transcription for vâtı ? Vädyantı (39) is a passive with parasmaipada ending formed from the causative of Vvad 'speak’, thus, "are caused to speak, 1 e. sound' (said of the tinkling of the kațimekhalā) According to the general rule Pkt uses active endings for passives 52 Vinasisyatı (49) is a curious, partial Sanskritization, apparently modelled on cl Skt vinaśisyatı 'will be ruined, go to ruin' ( vi-vnas), but the cerebral -n- and dental -s- seem explainable only on the assumption of influence from a Pkt *vinasissadı The use of this word is peculiar too it occurs in a sentence which explains why the sıddha-s fear the drops of water released by the cloud (jalakanabhayād) due in Su's view to the vinā being ruined when it gets wet ( jale lagne rīnā vinasisyatı); vi-vnaś in its classical cannotations seems a very strong word to describe a vīnā whose strings have been wet Vidhyāpayıtum, synonym of praśamayıtum (57) 'to extin Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sansknt 25 guish' (a forest-fire), is a false Sanskritization of the Pkt stem vijjhāve-, forms of vidhyāpaya- are common in Jaina works 53 Vijhāve is presumably from *viksāpaya-, causative of vi v ksai In cl Skt , however, Vksai is not found in composition with VI-, so that both the combination and the reversive meaning attaching to vi-1 ksai are in the hypothetical sphere, and Turner too, expresses doubt about the semantics involved 54 Pkt -]jh- - can represent an original -ks- or -dhy- (ex inajiha > madhya), and since the -jih- in vijjhāve- was wrongly supposed to have stemmed from -dhy-, the spurious stem vidhyāpaya- was created With vyjhāve- cf Hindi buzlānā, Gujarātī bujhāyvum, Marāthī vijhavinem, and Nepālī bujhāunu 'extinguish' Pāli has vijjhāpeti 'extinguish' and vijjhāyati 'be extinguished' (d) FOREIGN WORDS Tila- 'arrow given as a synonym for -sara. in śıtaśaraśatair (52) is a late Persian loan-word The feminine tīrī is one of the four varieties of arrows listed by Hemacandra in the Abhidhānacintāmanı 66 Both tīra and tirikā (a diminutive?) occur in the Pañcadandacchattrapi abandha in a long aggregative compound containing the names of weapons 56 Persian tir is to be compared with Avestan tigri- 'arrow', in which is seen the cognate of Skt. V tu 'be sharp', and Pahlaví tīr 'arrow' 67 Varandı (or °7) for valabhı (42) 'a turret or separate building on the roof of a house' Hindi has vai andā 'portico' which Platts derives from Skt varanda with suffix -ka (to explain the long final vowel),68 but Skt varanda is an umbrella-word with many diverse meanings ('string of a fishhook, multitude, eruption on the face, heap of grass, package, rampart separating two combatant elephants', etc) MW lists varandaka inimediately after varanda, the meanings of these two words are very nearly the same, though vai andaka has also some standing as an adjective 'round, large, miserable, fearful') Thus, Skt varanda +ka (according to Platts) and MW's varandaka would practically coalesce the meanings of one being communicated to the other Varanda appears in a variety of forms in almost all the vernaculars, 69 and Skeat, 60 following a suggestion by Yule and Burnell, was of the opinion that the Skt word was Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा borrowed from Portuguese vai anda 'balcony', and from Skt into the vernaculais But if the vernacular words were borrowed from Skt vai anda in turn < Portuguese vai anda), it is difficult to explain the widely different forms this word has assumed Skt loan-words would normally be less subject to change in the vernaculars Furthermore, it is a priori implausible for a Portuguese word of this import to enter Skt directly: some intermediary language seems necessary Since the Portuguese had early contact with Konkani- and Marāthī- speaking Indians, either of these two languages might have served as the bridge There are variant readings in two MSS of Su's vrtti, viz varamki (or oi) and paramdı (or °ī), but they seem valueless in tracing out the affiliations of this difficult word.01 (c) VERNACULARIZATION Uttarayantīn for sārayantīm (98) fremoving, pushing aside' (a braid of hair) has probably fallen under the semantic influence of New Indo-Aryan the causative of ut-vts in Skt sometimes means 'remove' with reference to clothing or ornaments, but in the vernaculars this is perhaps its commonest meaning, though the etymological value of the root still persists in its modern forms, thus, cf Hindi utārnā, 62 Pañjābī utārnā, Gujarātī utāı vum, Marăthi utai nem and Nepāli utārnu,68 all with more or less the sense of 'set down' -utsāha ‘joy' in nirutsāhām, a synonym for nirvinodām (95) 'without pleasures or amusements' has almost certainly been infected by Hindi utsāh ‘joy', since Skt utsäha regularly means 'effort (mental or physical) MW records the meaning 'joy, happiness' from the Vetālapancavimśatıkā, but it is doubtful whether miro which he defines 'without energy or courage, indolent, indifferent', would ever mean 'joyless' in Skt But since the concept of 'joy' is, on the contrary, uppermost in the Hindi word, it can be reasonably assumed that this predominant value was imparted to the word as used in JS Chojanīyām in explanation of udvestanīyām (98) 'to be loosed or undone' (said of the veni“braid of hair') is Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jain Sanskut 27 but this root is apparently never used in Skt. In other JS texts it generally has the sense of 'escape' from some sort of dangerous situation, so, in the Pārsvanāthacaritra I 175 tava bānapraharatah katham chut ye 'How shall I escape from the blow of your arrow764 As used by Su, the range of meaning appears to have been extended by influence from the semantic development of this root in the vernaculars, thus, cf Hindi chutnä ( < Pkt passive stem chust < chuttaī, present passive with parasmaipada ending Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा interchange of kh and s, - Iplz. instead of -sph- after -l- and -u-, the confusion of ś and s, and of b and v, the use of anusvāra before all occlusives instead of the pai asavai na nasal (but this is hardly peculiar to JS') the frequent spelling svarna for suvarna 'gold'70 There is a marked tendency to double a constant after r in most of the MSS Occasional vulgarisms like parsurāma for parasurama (61) and ujainī for ujjayınī (34) are also found References 1 See Albrecht Weber's introd to his ed of the late Jaina text (c 17th century) entitled Pascadandacchattraprabandha, in Abhandlungen der Koniglichen Akademie der Wissenschaften zu Berlin Philosophische und Historische Klasse (1877), pp 1-103 Also Maurice Bloomfield's digest of Bhāvadevasūri's Párśvanāthacaritra entitled The Life and Stories of the Jaina Saviour Parcvanātha, Baltimore, The Johns Hopkins Press, 1919 (Appendix II 'The Language of the Pārci anātha', pp 220-39), and 'Some Aspects of Jaina Sanskrit', Festschrift Jacob Wackernagel zur Vollendung des 70 Lebensjahres am 11 Dezember 1923, gen idmet von Schülern, Freunden und Kollegen (Gottingen, Vandenhoeck & Ruprecht, 1923) pp 220-30 Unfortunately, a copy of this Festschrift was not available to me during the preparation of this article See Also AN Upadhye in the Brhat Katlākośa of Ācārya Harışenā (Singhi Jain Series, No 17, Bombay, Bharatiya Vidya Bhayan, 1943), pp 94-110 of the Introd (He includes a list of the peculiar words on pp 102 ff), B J Sandesara and J P Thaker, Lexicographical Studies in “Jaina Sanskrit', 1 Prabandhacıntāmanı of Merutsugasūrı (AD 1305),' Journal of the Oriental Institute vol 8, No 2 (Dec 1958), pp 1-40 (Supplement MS University Series, No 5) cf Mohanlāla Dalıcamda Desāı in Jaina Gürjara Kavio, Bombay Sri Jaina Svetāmbara Conference Office, (1926-44) part I, pp 228-30, (In Gajarātī) 2 For particulars regarding BHS, vide Franklin Edgerton, Buddhist Hybird Sanskrit Grammar and Dictionary (New Haven Yale University Press, 1953), vol I Grammar, Introduction, pp i ff 3 Su's commentary, called Suganānvayā Vfiti, has not so far been publish ed in toto, but excerpts in extenso were made by Gopal Raghunath Nandargikar in The Meghadüta of Kalidasa with the Commentary of Mallınátha (Bombay Gopal Narayen and Co, 1894) Variant readings for the text of the Meg hadüta were extracted from Su's yrttı (probably from Nandargıkar's edition above) by Kashinath Bapu Pathak in Kälıdas's Meghadūra, or The Cloud-Messenger (as Embodied in the PārśvābliPudaya) with the Commentary of Mallınātha (2nd ed, Poona, Oriental Books-Supplying Agency, 1916) Similar variae lectiones, though far Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspect of Jama Sanskrit. 29 fewer in number, are given by Sushil Kumar De in The Megha-dita of Kälıdāsa, New Delhi, Sahitya Akademi, 1957 In the preparation of the present investigation five MSS cf Su's vill have been used Nos 510 and 511 in Volume 13, pt 2 of the Descriptive Catalogue of the Bhandarhar Oriental Reasearch Institute, pp 155.7 No 510 was copied in the year 1851 Vikrama Samvat, and No 511 in 1803 VS The author is indebted to the BORI for its kindness in allowing these two MSS to be cxanlıncd A third MS emanates from the personal library of Muni Sri Punyavijavaji and bears the number 369 It is undated The other two are in London in the Wellcome Historical Medical Library collcction, listed for the first time by Dr V Raghavan They were provided with the tentativc identification numbers P 87 and R 122, of those the formers bcars the date 1916 VS, but the latter, being an incomplete MS, is without date The writer is obliged to Mr FNL Poynter, Librarian of the Wellcome Historical Medical Library, for his courtesy in putting these MSS at his disposal Another MS is listed in the Catalogue of the Vishveshvaranand Vedic Research Institutc, Hoshiarpur, 1959, pt Ip 318, MS Nol 231, pt. II, pp 267-8, gives cxtract from thc MS This MS IS complete and bears the date dasūştasaram of the YS (1e [1] 810 VS? but the Cata logue entry gives 800) 4 cf Weber's comments on sandhi in the Pascadanda , p 7, also Upadhye Brhat Kathūkośa, p 97 5 William Dwight Whitney, Sanskrit Grammar (2nd ed Harvard Univer sity Press 1955), 449 and h, 1, ) 6 Upadhye, Brhar Kathākośa, p 99 7 Whitney, Grammar, 8449 C 8 ibid ,$1051 and a, c 9 ibid,, $989 and a 10 This usage is seen also in the Brhat Kathākośa, exx vyāpayitva (XII 128), snãoya (LVI 260 and 263) and sthāpya (XCII 286)and it is frequent in the Pancadanda vide Weber's notes 14 and 15, pp 13 and 223, p 25, also his remark, p 3, sthūpya occurs on p 37, 1 13 11 Whitney, Gramniar $$ 959 and 960 end 12 Whitney, The Roots, Verb-forms, and Primary Derivatives of the Sanskrit Language (Leipzig, 1885, lithoprinted in 1945 as vol 30 in the American Oriental Series), does not list grantura 13 Whitncy, Grammar, $ 964 b 14 Whitney, Roots, has mārştavya, Monier-William A practical Grammar of the Sanskrit Language (4th ed, Oxford, 1877 $ 651 lists mārstavya and marntavya 15 Monier-Williams, A Sanskrit-English Dictionary, p 829 under Vmri 16 So according to Whitney, Roots, under myś where the form in -tavya is not recorded 17 In the Pārśyanāthacaritra III 653 occurs vimrstar (noun of agency) 'reflecting conservative, vide Blomfield, Pārcvanatha, p 232 18 Whitney, Grammar, SS 522 ff, esp $ 526 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा 19 According to MW, p 50, apamarsa is a varia lectio for ablumarśana in the Sākuntala 20 Whitney, Grammar, §1157 3 g 21 ibid, §§ 1208 and 1211 22 Monier-William, Grammor, § 755 b 23 For -- before -m- instead of -m- or anusvāra, vide Weber, Pañcadnda, p 6 24 Whitney, Grammar, § 219 b affords one example agacchan ahoraträt tirtham (Mbh) 'They went to the shrine after a whole day' 25 Meghadutan of Mahakavi Kalidas with the Katyayani Sanskrit Commentary, Gujarati Samashloki and Gujarati Translation by Kt C Rajvaidya JK Shastri (Gondal, Kathiawad, 1953), p 109 26 Whitney, Grammar, §295 27 ibid, $579 b 28 Su's vṛtil is of the so-called kathambhūtini tikă variety in which a scries of questions is asked by the commentator in order to set forth the epithets of the mula in reply and show what nouns they modify 29 In this vigraha, pānducchāya- appears to be taken as a karmadhurya instead of a bahuvrilu and upavanavṛti as a possessive genitive 'where there are pale colours belonging to the enclosures 'This is, of course, at variance with the relationship of the parts of the compound implied in dhavalaprabhāh upavanavāṭıkāh where dhavala° is a bahuvrihi adjective limiting upa 30 vide Upadhye, Introduction, p 110, eg in the Bihat Kathakosa Weher also notes occasional non-causative uses of causative stems, exx p 35, I 21 äkarsıtam (' erwartet man hier statt des Causatives das einfache ākṛṣṭam') and p 36, 1 9 mocayısyāmı ('das Causativ hat heir keine rechte Stelle, moksyāmi wäre passender') 31 Whitney, Grammar, §1041 b, c 32 For ut-/t in the sense of the aya-vtr, vide Bloomfield, Parcvanatha, p 221 33 Whitney, Grammar, §1051, a 34 cf Kathasaritsägara LXXV 92 dattämbuyavasau vahau gupte' vasthāpya cātra sah | rajaputre sthute vṛddām mantriputro jagāda tām || 35 In connection with cat cf Bloomfield' Parcvanatha, pp 221-2 and Weber, Pañcadanda, p 37,1 16 yady esasmatkare catati Whitney, Roots, under cat gives the meaning 'go' 36 John T Platts, A Dictonary of Classical Urdu, Hindi and English (London, Oxford University Press, 1930) wrongly gives pakşa for pakşma under pototā, p 223 37 ibid, under pāpīkā, p 223 38 cf MW under vapiha, p 941, col 1 , 39 Platts, Dictionary, p 244 40 de Ralph Lilly Turner, A Comparative and Etymological Dictionary of the Nepali Language (London, Kegan Paul, Trench, Trubner, 1931), p 365 under parijo 41 MW, p 582, col, 1 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jaina Sanskrt. 31 42 cf friparhagā for the Ganges (ed) 43 Whitney, Grammar, $ 1058 C 44 The change from -- to -r- is common in Skt which is predominantly an fri-language, cf Skt śruta Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा Saranda 'a stair-railing' given by Pedro de Alcalā This is likely to bc correct, since Persian barāmadal appears to be a modern artificial crcation -a Volhsetymologie probably based on one of the vernacular Indic words! 61 Turner, Dictionary, concludes his entry under Nepālī barandā (p 422) on a note of uncertainty, but feels all the vernacular words may have a common origin 62 Platts, Dictionary, p 14 under utārnā 63 Turner, Dictionary, p 47 under Nepālī attārnu 64 cf Bloomfield's notc on v chut in the Pārcvanātha, pp 232-3 65 cf Platts, Dictionary, p 460 under c lunā 66 cf Turner, Dictionary, p 199, under Nepāli chutnu, also in Addenda p 647 where the assumption is made that ✓ chui is a t- extension of vichu 67 cf angusthamotana in the Pancadanda , pp 15 and 20, where it is used in the sense of walking somcone with a snapping of the fingers 68 Platts, Dictionary, p 1090 69 Weber, Pañcadanda,, p 6 70 ibid , p 18, note 60 svarna [sic] 1st lucr die reguläre Form des Wortes, nur einmal (s Notc 148a) findet sich die vollere Form' In Su 2 and 78 the fuller form is found Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DIALECT AND SUB-DIALECTS OF PRAKRIT Dr. SATYA RANJAN BANERJEE Prākrta, europeanised as Prakrit, or linguistically Middle Indo-Aryan (=MIA), belongs to the middle period of the Indic group of the Indo-Iranian sub-branch of the IndoEuropean family of languages It is, therefore, intimately connected with the Old Indo-Aryan (=OIA), ie, with the Vedic and classical Sanskrit on the one hand, and remotely with the Iranian, and still more remotely with the IndoEuropean on the other. The world Prākrta is used to include a number of languages or dialets, traces of which are found in the religious, literary and dramatic literature of the Jains and non-Jains, beginning from about the 6th or 5th century BC down to the 10th or 11th century A.D, covering a period of over fifteen centuries It is very difficult to say whether the term Prāksta as employed by the Indian grammarians and rhetoricians in their respective treatises included Pāli and Inscriptional languages It is normally considered that the Indian authorities, perhaps, excluded them from their considerations As a result, the linguists have employed the term Middle Indo-Aryan as opposed to Indian term Prakrit, by maintaining a parity with the Old and New stages of Indo-Aryan languages Hence the Middle Indo-Aryan does not only include Prakrit as described by the grammarians and rhetoricians, but also Pāli and other Inscriptional languages, such as, the edicts of Asoka, the pillar edicts of Kāluvāki and Heliodora, the copper plate Inscription of Kalawan and the Hathigumpha Inscription of Khẩravela, the Kharosthi documents from Niya region and the Khotan Dhammapada from Chinese Turkestan, etc The Middle Indo-Aryan also Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा includes the Buddhist literature in the gatha dialects and in the hybrid Sanskrit, the Apabhramsa and the Avahattha In a nutshell, it covers all the languages and dialects which lie between the Vedic and classical Sanskrit (OIA) and the New Indo-Aryan (=NIA) languages So linguistically the term Middle Indo-Aryan is wider and appropriate The etymological meaning of the word Präkṛta is 'natural', 'common' ('Prakrtā svabhāvena siddham) as opposed so 'artificial' which stands for Samskṛta The Prakrit dialects in India have a parallel with the Vulgar Latin in Italy This parallelism is described by Max Muller in the following lines "Dante ascribed the first attempts at using the vulgar tongue in Italy for literary compositions to the silent influence of ladies who did not understand the Latin language Now this vulgar Italian, before it became the literary language of Italy, held very much the same position there as the so-called Prakrit dialects in India, and these Prakrit dialects first assumed a literary position in the Sanskrit plays where female characters, both high and low, are introduced as speaking Prakrit, instead of the Sanskrit employed by kings, noble men, and priests Here, then, we have the language of women, or, if not of women exclusively, at all, events of women and domestic servants, gradually entering into the literary idiom, and in later times even supplanting it altogether, for it is from the Prakrit, and not from the literary Sanskrit, that the modern vernaculars of India, branched off in course of time Nor is the simultaneous existence of two such representatives of one and the same language as Sanskrit and Prakrit confined to India On the contrary, it has been remarked that several languages divide themselves from the first into two great branches one showing a more manly, the other a more feminine character; one richer in consonants, the other richer in vowels, one more tenacious of the original grammatical terminations, the other more inclined to slur over these terminations, and to simplify grammar by the use of cricumlocutions. Thus we have Greek in its two dialects the Aeolic and the Ionic, with their sub-divisions, the Doric and Attic, In German we find the Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakrit : 35 High and the Low German, in Celtic, the Gadhelic and Cymric, as in India the Sanskrit and Prakrit, and it is by no means an unlikely explanation, that, as Grimm suggested in the case of High and Low Guman, so likewise in the other Aryan Languages, the stern and strict dialects, the Sanskrit, the Aeolic, the Gadhelic, represent the idiom of the fathers and brothers, used at public assemblies, while the soft and simpler dialects, the Prakrit, the Ionic, and the Cymric, sprang originally from the domestic idiom of mothers, sisters and servants at home” Although compared with some dialects of Europe the position of Prakrit dialects in India is different from Europe. A comprehensive history of Prakrīt dialects can easily be reconstucted on the basis of documents written in different Prakrit dialects Thus the early or first MIA (600 BC 200 BC) and the first two stages of the second MIA (200 BC 200 AD and 200 AD 400 A-D) are replenished with Inscriptions, Pālı, Jaina-Writings, Ašvagbosa's Prakrits, etc Some of the very important and noteworthy Inscriptional Prakrit are given below BC 3rd Century i The Asokan Inscriptions (with Brahmi and Kharoşthi scripts) 2 Jogimara Cave Inscriptions of Deva didna, Ramgar hill 3 Mahāsthan Stone Plaque Inscriptions, Bogra, North Central Bengal 4. Sobgaura Copper-plate Inscriptions, Gorakhpur, UP 5 Piprahwa Vase Inscriptions, Piprahwa Basti Distt UP 6 Heliodora's Besnagar Pillar Inscrip tions, MP 7 Hathi gumpha Inscriptions of Khara vela 8 Tışya Abhaya's Ritigala Cave Ins cription, Ritigala, Ceylon. 9. Kharosthi or Khotan Dhammapada. B C 2nd Century BC 1st » AD Ist , Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. High-4180 04101<47 311 0744 037 42+421 10. Patika’s Taxıla Copper Plate Inscrip tion. 11. Mathura Stone Inscription 12 Kalawan Copper-Plate Inscription, near Taxila. A D. 2nd Century 13. Vakanapati's Mathura Stone Inscrip tion 14. Gautamīputra Sātakarni's Mother's Nasik Cave Inscription A D. 3rd , 15. Nāgārjuni Konda Stūpa Inscription, Guntur, Andhra, 16. Niya Documents from Chinese Turkestan. AD 4th , 17 Sivaskapdavarman's Hirahadagallı Copper-plate Inscription. Then come the literary documents in Pāli and Ardhamāgadhi and the Digambara canonical texts in Saurasenī The dramas of Aśvaghosa fall within this stage The thrid stage of the second MIA (400 A D-600/700 A D) is represented by the literary Prakrits whose characteristic features have been described by the Prakrit grammarians, like Vararuci, Hemacandra, Purusottama, Kramadıśvara Rāmatarka vāgīsa, Mārkandeya and others These Literary Prakrits have got numerous dialects and sub-dialects of which the Mahārāstrī, Saurasenī, Māgadhi, Paisācī and Apabhramsa are important for their literary documents Apabhramsa in fait, belongs to the third stage of MIA (600 A.D-1000A D) which is ended with Avahattha (1000 A-D 1500 A D) Leaving aside the Inscriptional Prakrits, I am concerned in this dissertation only with the dialects and sub-dialects of Prakrit which have been described by the Prakrit grammarians and rhetoricians, The Prakrit grammarians are again divided into two Schools-an Eastern and a Western The names of the Prakrit grammarians belonging to these two schools are given below in a tabulated form. Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakrit . 37 The Eastern School Authors Works Sākalya . ? Ref in Pu RT. MK. Māndavya ? Ref. in RT MK Kohala : ? Ref in MK. Kapila i ? Ref in RT MK 2. Bharata ? Ref in MK. cf NS Ch XVII. 3 Vararuci Prāksta-prakāśa 4 Commentators on Vararuci (1) Kātyāyana : Prākṣta-mañjari (11) Bhāmaha Manoramā-Vrtti (11) Vasantarēja Prākrta-Sañjīvam (iv) Sadananda Subodhini (v) Nārāyana Prākrta pāda-Tikā Vidyāvinoda (vi) Rāmapām vāda Prāksta-Tīkā (vii) Raghunātha Prākrtananda 5 Kramadiśvara Prākrtādhyāya 6. Puruşottama : Prākrānuśāsana 7 Rāma Śarmā Prākrta-Kalpataru 8. Mārkandeya Prākrta-Sarvasva 9. Jīva Gosvāmī Prākrtapāda 10 Rāvana Lankeśvara Prākrta kāma-dhenu. The Western School Authors 1. (Vālmīki ?] 2 Namisādhu Works [Some Sūtras] Ref Commentary on Rudrata's Kāvyālankāra II 2. Prākrtavyākarana 3 Hemacandra : Commentators : (1) Udaya Saubhāgya gani (11) Nara (Narendra) Candra Sūri Vyutpattıdıpıkā i Prākrta-prabodha Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा Followers (111) Simhadevagani 4 Trivikrama (1) Narasimha 5 Simbarāja 6 Laksmīdhara 7 Appayyadīksita 8 Bālasarasvati 9. Subhacandra 10 Śruta Săgara Ref Commentary on Vāg bhatalankāra II. Prākrta-vyākarana Selection from him by Prākrta-(Sabda) Pradīpika Prākrta-rūpāvatāra Sadbhāsā-candrikā Prākrta-manidipa Sadbhāsā-Vivarana Sabda-Cintamani Audārya-Cintamani These two schools differ quite a lot in their accounts of Prakrit dialects The Easterners describe a number of dialects and sub-dialects which, are altogether omitted from the consideration of the westerns As for example, Vararucı (following the edition of cowell) mentions only the Mahārāstrī, Paiśācī, Māgadhi, and Saurasenī dialects and to these Hemacandra adds Cūlikapaišācī and Apabhramsa Hemacandra also incidentally mentions Ārsa and Ardhamāgadhi Trivikrama, Simharāja, Lakşmīdhara, and Appayyadīksita follow the classification of Hemacandra, but they have excluded Ārşa or Ardhamāgadhi from their considerations of the eastern Prakrit grammarians Bharata is the first one, so far as it is known so us, who mentions several Prakrit dialects in his Nātyaśāstra He divides the Prakrit dialects mainly into bhāsā, and vibhāsā, and bhāṣā includes not only Māgadhi, Saurasení and Ardha māgadhi, but also Avantī, Prācyā, Bāhliki and Dāksinātya, and vibhāsā includes Sākārī, Ābbīrī, Cândāli, sābarī, Drāvidī, Audrs, and the languages of foresters But he has not given the characteristic features of these dialects Bharata describes various forms of Prakrit and its dialects and sub-dialects as employed in dramatic performance together with the fundamental classification of languages in the following manner Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + Atibhāsā Four types of Language ↓ Jātibhāṣā Aryabhāṣā Samskrta ↓ Samānaśabda Präkrta Vibhraşta Bhāṣā Māgadhi Avanti ↓ Yonyantarībhāsā Pracyā Sauraseni Ardha Mg Bālhiki Dākṣinātyā + Deśī ↓ Vibhāsā Śākārī Ābhiri Cândālī Šābarī Dravida Odra Vanecara bhāsā Dialect and Sub-dialects of Prakrit⚫ 39 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yo : Hegid-High 041004 AT 474 fit 42+421 Kramadīśvara also mentions several other sub-dialects, such as, Vrácata, Nāgara, Upanāgara, Srāvanti, etc, besides the four principal Prakrits mentioned by Vararucı He too has not dealt with the Characteristics of those dialects It is only when we come down to Purusottama that we find sundry Prakrit languages or dialects as opposed to the above six of Hemacandra He divides Prakrit into four categories Bbāşā, Vibhāsā, Apabhramśa, and Piśāca Among the bhāsās he includes Mahārāstrī, Sauraseni, Prācyā, Avantī and Māgadlī. To these Rāma Sarmā and Mārkandeya, add three more dialects, such as, Bāblīkī, Däksinātyā, and Ardhamāgadhī, but they have not given any characteristic features of them, because they are the same with the other dialects Bāblīkī with Āvanti, Ardha-māgadhi with Māgdhī, and Daksınātyā is called when it is used in a poem 'sweeter in its essence than even nectar intermingled with words from the south, influenced by sanskrit and other languages' Rāmaśarmā says Dāksinātya-pada-sambalıtam yat Samskrtā dibhirabhicchuritam ca / Svadusaram amstāt apı Kāvyam Daksinātyām iti tat Kathayanti || (II 2,32) Mārkandeya (XII. 38 Vstu) also defines the Dākşınātya as follows: Dāksinātyā-padāvalambı Samskrtāngam Vijrmbhitam / Kāyyam pīJūsanıhşyandi Daksinātyam itīritam || Under the vibhāsās he mentions Śākārī, Cândālī, śābarī and Țakki He treats of the three principal Apabhramśas besides several others, such as, Pāñcāla, Vaidarbhī, Lātī, etc., of the many Paiśācī dialects he enumerates the three · Kaikeya, Saurasena and Pāñcāla It is to be noted that Rāmaśarmā and Mārkandeya truly follow the classification of Purusottama with the exception that the former two enumerate many more sub-dialects than the latter A few characteristic features of some of them are mentioned below with their authorities Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakrit 41 1 Māgadhi The characteristics of Magadhi as collected from the texts of the eastern grammarians along with Hemacandra are given below I is substituted for s and s Pu XII 2-3, RT II 2 13, 288), eg, esoh ese, II The change of 1 to 11 (Simha Vagbha 2 2) III is substituted for the first letter in the combinations it, tth, tt, tṭh and cch (RT II 2 16, Mk 12 7) IV t becomes dha in the word vasatı (Mk 12 6) V kkh (>ks) becomes śka except in the (Pu. XII 6-7, RT. II, 2. 15, Mk XII 4-5) VI r becomes 1 (Kr V 86, Pu XII 4, RT II. 2 14, Mk XII 3, Hc IV 288 and Simha-Vagbha) VII y is substituted for J (Vr XI 4, Kr V 89, RT II 2 14, Hc IV 293) But Purusottama says that 7 and jh are respectively substituted by y and yh (Pu XII 5) VIII cchu, except when initial, becomes śca (Pu XIII 11, RT II 2 18, Hc IV 295) (Vr XI 3, Kr. V. 85, Mk XII. 2; Hc. IV word kkhu IX The palatal letters are pronounced with but a very slight contact of the tongue with the roof of the mouth (Vr XI. 5, Kr V. 87, Pu. XII 13-14, RT II 2 18 and Mk. XII 21 (y is prefixed to c and j) X h is substituted for dh The commentary adds "when not initial" and says that tha is sometimes changed to h (Pu XII 12, Mk XII 9) XI Before the suffix ka the vowel is optionally lengthened (Pu XII 17, RT II 22, Mk XII 22) XII sk is substituted for ks (Vr XI 8, Pu XII 8, Hc IV. 29) XIII. s and s in consonant groups become s, except in the word grisma (Hc. IV 289) XIV. ksa, when not initial, becomes Jihvāmūliaya plus k (Hc IV 296). Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा XV stha and tha become sta (Hc IV. 291) XVI fa and stha become sta (Hc IV. 290) XVII nya, nya, jña and ñja become ñiña (Hc IV 293) XVIII yy is substituted for ny and rj (Vr XI 7) XIX Sauraseni it and tỊ are changed to śt and strespe ctively (Pu XII. 10) XX The sauraseni conjuncts tth and 11h are changed to Śt(li) and st respectively (Pu XII 9) XXI The nominative singular of nouns in a stems ends in 1, c, or a (Vr XI 10, Pu XII. 25-26, RT II 2 27, Mk XII 26, Hc. IV. 287, Simha-Vagbhata. II 2) XXII The nominative singular of nouns in ta ends in u, 1, e, or a (Vr XI 11) XXII The nominative plural ends in āhu or ā (Lassen, p 393) XXIV ha may optionally be substituted for the ending of the genitive singular, and before it the vowel is lengthened (Vr. XI. 12, Kr V 93, Pu XII 27-28, Mk XII 29, Hc IV 299-300) XXV The vocative singular of nouns in a ends in a (Vr XI 13, Kr V 92, Pu XII 29-30, Mk XII 27-28) XXVI Case-endings are often dropped or interchanged (Pu XII 26, Mk XII 35) XXVII. hake, hage and ahake are substituted for aham (Vr XI 9, Kr V 96, Pu XII 31, RT II 2 12, 28, Mk XII 30, Hc IV 301, Simgha-Vagbha. II 2) XXVIII The nominatve plural of the second personal pronoun is tupphe or tumhe (RT II 2. 28) XXIX tumhamn or tumhe are used for Yusmān (Pu XII 32, Mk XII 31) XXX bhaviadı or bhuviadı are used for bhavişyatı (Pu XII 35, Mk XII 33) XXXI Ścința is used for cığțha (Mk XII 32), and ycința by RT (II 2 28). XXXII cistha is substituted for cittha (Vr XI 14, Kr. V 94, Pu XII 33, Hc IV 298, Simha-Vagbha. II 2) Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakıt : 43 XXXIII. The root krt is changed into kappa (Pu XII 36, RT II 2 30) XXXIV da is substituted for ta in the past passive particip les of hr, mr and gam (Vr XI 15, KI V 92, Pu XII 37-38, Mk XII 34-35) XXXV dāni is substituted for the gerund ending in tvā (Vr. XI 16, Kr V 91, Pu XII 15-16, RT II 2 20, Mk. XII 23) XXXVI. The personal endings of verbs sometimes have the final vowel lengthened The commentary gives osaladhā as an example (Mk XII 37) XXXVII vaññadı is substituted for vrajati (Hc IV 294) XXXVIII u takes the place of ava and apa (Pu XII 18, RT. II 2 22, Mk XII 25) XXXXI kva cid it The commentary says ktvästhāne syāt and quotes from the sixth act of the Sakuntalā pašumālı kaled. These seems to be some confusion here (Mk XIT 24), XL ladana is used for ratna (RT II 223, Mk XII 20) XLI hadakka is substituted for hrdaya (Vr XI 6, Kr V 89 Mk XII 14), and also hidakka (RT II 2 22) XLII. stāla, siāle or stālake are substitutes for śrgāla (Vr XI 17, Mk XII 12) XLIII vašca is used for yrksa (Pu XII 34, Mk XII 19) XLIV pivvava is used for piśācaka (Mk XII 18), also piśallaa (RT II 2 23) XLV gannā is used for gananā (Mk XII 17), and also likkhā (RT II 2 23) XLVI vațau va (du)vyaah (RT II 2 23, Mk XII 16) XLVII macchikā is used for mātr (Mk XII 15) XLVIII kośna etc are use for kosna and other compounds of usna (RT II 2 24, Mk XII 13) XLIX. vaamšā is used for vayasya (RT I 2,23, Mk XII. 11) gomıka is used for gauravita (RT II 2 24, Mk XII 10) LI bu of bubluksā is dropped (RT II 2 23, Mk XII 8). LII lele and ale are used to indicate āksepa (reproach) and sambhāsana (address) (Pu XI, 24, RT II 2 28) Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा LIIT fu is used to indicate vismaya (surprise), upahāsa (ridicule) and kušala (happiness) (Pu. XII 23) LIV The words kosana etc become kośına etc. (Pu. XII. 22) LV purusa becomes pulisa (Pu XII. 21, RT II 2 22). LVI The word vasatı becomes vasadhi (Pu. XII 20). LVII aluni is used in the sense of adhunā (Pu. XII 19; RT II 2 13). LVIII. The word tattha (Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakrit : 45 II. Sometimes there are elision, augmentation and subs titution of letters (Pu XIII 9, RT II 3.2, 5-6, Mk XIII 6) III. In the Sākāri dialect y is to be prefixed to the letters of ca-varga (Pu. XIIT 14) IV The pleonastic suffix k is often added to a word (Pu XIII 7, RT. II. 35, Mk III 5) e.g. eśake dāśikāe puttake V. The conjunct ith is not changed, it may remain as it is (Pu XIII 4; RT II 34, Mk XII 4) e g. ycin tbāmi atthānagade kkhu hakke. VI. The conjunct kkha is not changed (Mk. XIII. 4). But in Māgadbi sth>śk (Mk XII 7.4) VII kş is optionally substituted by kkh in the words like duspreksa and sadrksā (Pu XII 2) But RāmaŚarmā says that śc is optionally substituted for kş in the words duspeksa and sadrksa (RT II 32) eg duppeśca ycândāla-saliśca ycinta. On the other hand the regular form will be saliccha, duppeccha (Mk XIII 2) VIII šļa is used in place of śța in the word visțara. (Pu. XIII 3) IX sala is used for syala (Pu XIII 5, RT. III. 3 5) X hitaka is optionally used for lisdaay (Pu XIII. 6). But hadakka is optionally used for the same accord ing to Rāmaśarmã (RT II. 35) XI. Sometimes yatra becomes yantha and tatra becomes tantha (RT. II 3 4) eg vaam silam miśśaśı tantha dāva. XII. iva is optionally substituted by yva (Pu. XIII 7) and also by va (RT. II 35) VIII Sometimes the declensional terminations (like su etc ) are elided (Pu XIII II, RT II 37, MK. XIII 8, cf Mg XII, 36) XIV Often there is also confusion of the vowels of declensional and conjugational terminations (Pu XIII. 10, RT II 3.7, MK XIII 7) (a) Confusion of declensional terminations - Mk XIII 7 for eg tumam etc (Acc for locative) hakke etc (Inst for Acc, or Loc) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YE 27-419.86 6413844 2112 4.we 4x4447 (6) Confusion of conjugational terminations - Mk XIII 7 for eg se etc. (3/pl for 3/sg ) tum etc (1/sg for 2/sg ). hakka etc (2/sg for 1/sg.) (c) Confusion of gender. saire etc Masc pl for fem. pl. ku Neut sg for fem pl (d) Pulling apart of vowels (i e diphthongs are separated into their component) – sailini Mg śelini, Skt svairini miaindo Skt mrgeodrah aschaubini Skt aksauhini XV The nominative plural termination of a feminc pro noun is optionally e (RT II 3.7) XVI The Māgadhi ścmtadı (Skt tisthani) should be j ciśadı in Säkāri (Mk XIII 3). 3. Candāli Cāņdālī is a corrupt form of the Māgadhi dialect (Pu XIVI) Truly speaking Cāndālī, a variety of Vibhāsā, is based on an admixture of Sauraseni and Māgadhi (RT II. 3 10, Mk XIV.1) In Cāņdāli sub-dialect many rustic or vulgar expressions are used (Pu XIV 9, RT II 3.13, Mk XIV.9). The following are the characteristics of Candālī I The intervocalic 1 is elided like Mahārāștrī, bearing its vowels behind (RT. II 3 15) II. ya is sometimes elided (Pu XIV 6) III The conjunct tļā is not changed, it remains in its original furm (Pu XIV 5) IV. The conjunct (tha is not changed, eg rama hattha tutttha (RT. II 312; Mk XIV 7) V. Nominative singular (su) of a-bases is substituted by o and e (Pu XIV. 2, Mk XIV. 3) According to Rāmaśarmā it should be in u (RT II 3.12) e g. peśka utthie ycandu maharigananımı VI The termination of the nominative and accusative plural of feminine nouns is e, (RT II 311, Mk XIV 2) eg ye uttluke tattha yeilam rasantı majjham Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakrit : 47 pi tānam harinā lamantim te lāhike peśka kudan gaanmar VII Genitive singular (nas) is substituted by śća (Pu. XIV 3, RT IL 3.12, Mk XIV 5) e g. pulisassa atthe. Locative singular (11) is substituted by mm (Pu XIV 4, RT. II 313) eg peśka gharammi kanham. Sometimes it ends in e, (Mk XIV 6} eg peska vane vi edam IX The termination of Vocative is o and ā, but they are used in two different senses (a) When used respectfully it always ends in o (Mk XIV 2) e g bhasțako tum malāälavesi (b) But when it is not used respectfully, it ends in ä, (RT II 3 14) eg kaha ettha ycedā āneśı me ayija vi na kkhu vedhani X The nominative plural of pronouns, irrespective of Masculine and feminine, ends in e (Mk. XIV 4) XI Some pronominals substitutions (RT II 315) e g. tvadīya> tuhakelia, madiya> mahakelia, ātmiya> appānaakelia XII. The gerundial suffix ktvā is substituted by ia, (Pu, XIV 8, Mk, XIV 8) XIII va is optionally used in place of iva (Pu. XIV 7, RT II 313) XIV. The interjection arū is used in place of are (RT. II 3 15) 4. Šābarī The Sābarī vibhāsā is another variety of Māgadhi(Pu, XV 1, RT II. 3 16) But Mārkandeya (Mk XV 1-2) derives it from Gāndāli as well as from Sauraseni and Māgadhi (cf NŠ XVII 53-64) It is said that this dialect is spoken by the charcoalburners, by hunters and by those who make their livlihood by boats and by woodcutting (RT II 316) In this dialect the want of agreement between the former and the later sentences is noticed The peculiarities of this dialect are to be gathered from the usages of the poets (RT II 321 cf Mk XV 8) Deśī vocables Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 god-18d our deur alle ler t742+4*1 are often used in Sabarī (Pu XV 8, RT. II 3 20) The characteristics of Sābari are noted below I In Śābari c (or 1) remains unchanged (Pu. XV.2). II kkk (Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakrit 49 infected by Drāvida has no special characteristics (RT II.3 27). It is said Takkadesīya-bhāsāyām drsyate Drāvidī tathā / tatra cāyam višeso'sti Drāvidair ādi tāparam || ie Drāvidi is found in the language of the Takka country Its peculiarity as a language is this it is honoured by Drāvidas The grammarian Hariscandra intends to say that this Takka-dialect is an Apabhramśa, because Apabhramśa is used by the poets (lit. skilled) in dramatic compositions (Mk XVI 2) It is, therefore, not an ordinary Prakrit says Puruşottam (Pu XVI 10) These are the characteristics of Takki I The suffix u is profusedly used in Țakki (Pu XVI 2), but not always (Mk HVI.3) II The instrumental singular termination of a-base is em optionally (Pu XVI.3) but Mārkaņdeya (XVI 4) admits only e III The (dative)-ablative and genitive plural termination is ham and hum (Pu XVI 4-5, MK XVI 5-6) IV. Even the pronominal terminations of ablative and geni tive plural are also ham and hum optionally In this case the penultimate is lengthened (Pu.XVI 6, Mk XVI 7) e g. kaham (kesam), jaham (yesam), taham (tesam), edaham (eteşām), imāham (eşām) V The following pronominal substitutes are found tvam> tuhum (Pu XVI 7 and MK XVI 8 reads tunga) aham> hamam and hamum (Pu XVI 7, hammi, hym (Mk XVI 9) mama>mahum (Mk XVI.10) VI. The substitute of yatbā > jidha (Pu XVI 8) and jabā (Mk XVI 11-12) tathā - tidha (Pu XVI 8) and tahā (Mk XVI. 11-12) VII. The rest depends on usage (Pu XVI 9, Mk XVI 13) 6 Audhii Audhri is the same as Sābari It becomes Audhrī only when Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ yo Traba-Migori 04144 ale $141 042 4<+421 some local words of the Odhra country are added to it. (Mk. XV 9), 7 Ābhīri Ābhiri is the same as Sābari The only distinction is that the gerundive ends in ia or ua (Mk.XV 10) e g Skt gatvā> gascia, or gadua, Skt, pathitvā murakkha (RT II 22), muru kkha (Mk X 3), duhıtā> dhidā (Pu X 4, RT II 2 2) VI The Future participial form of the root bhū is hattamāno (Pu X 9, RT II 2 2) and otthamāno (Pu X 9, RT II 22) and okkhamāno (M6 X 2). Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect ard Sub-dialects of Prakrit 51 VII The following is used in the sense noted below (a) Iulibho (in the sense of satisfaction) Mk X 9 (b) hīmānahe (in the sense of surprise) Mk X 11. (c) avida avida (as an expression of sorrow) Pu X 12, Mk X.12 (d) (v) bankuda (Pu X7) in the sense of crooked, vaknu (Mk X 5), vankubha (Mk X 6) also valana ? (Mk X 7) (e) avalada (in the sense of upakrta, favoured) Pu X.8 VIII eva is substituted by ppeva, cia and cea (Pu X 10) and jjea, jsia (Mk X 10) IX āre is used in the vocative and upekşă (deplore) (Pu X 11) X The peculiarities of this dialect should generally be gathered from the usuage of the people (Pu.X 13, RT II 2.3, 9. Avanti Puruşottama derives Avantī from an admixture of Mahāraş. tri and Sauraseni (Pu XI 1) But according to Rāmaśarma (II 2.5) the Avanti and the Bāhliki dialects are practically the same The only difference is that they are used by different characters in a drama Basically the forms of Bāblīkī are derived from an admixture of Sauraseni and Prācyā (II 2 5) But Mārkandeya (XI 1) follows the view of Purusottama when he says“Avantī syān Mahārāsfrī-Saurasenyostu sankarāt" In this commentary he adds that the countries Malava, Ujjayini etc, constitute the Avantideśa, and says—"rad bhavā Āvanti-Dandikādibhāsā" He quotes a verse from Bharata which is not found in the Nātyśāstra Dāndika-pānika-pānţika-nagarādhipa-dāndapānika sadrksesu / madhyama-pâtresu sada yojyāvanti tu nāfyavıdhau // As for example "esa kirādo maam anusaranto vedasalaagahanam paittho atro hırādo vedasa iti Saurasens anyāni padāni Mahārāstri" According to the Canons of dramaturgy the Avanti is spoken by characters of medium rank, a town mayor, Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा a door-keeper and a knove, and also by constables and merchants (RT.II 2 10) The characteristics of Avanti are noted below I The intervocal t and d are optionally elided leaving be hind their accompanying vowel (Pu XI 3, RT.II 2 6) II The word sadrksa is replaced by sariccha (RT II 26, Mk XI 2) III. The pronominal substitute for tava is tuha (text tuddhu, Pu XI 10) and mama is mulia (Pu. XI 10) IV In Avanti the active voice (parasmaipada) and middle voice (ātmanepada) are used side by side. bean> bhannai, bhannae (Mk XI. 11) vrdh> vaddhai, vaddhae (Mk XI 11) V Puruşottama says that in the present and future tenses and in the imperative mood ja and jjā are used for conjugational suffixes (Pu XI. 4, RT II 26, Mk XI 4) eg bhojja, bhojjā VI. The suffixes jja and ijā are also used between the verb and the conjugational suffix (Pu. XI 5, RT. II. 26, Mk XI 5) eg dejjau, dejjāu VII The following verbal substitutes are found – (a) Active bhū>l1o, (Pu XI. 8, RT II. 27, Mk XI 6) and hoi (Pu XI 8) dịś> pekkha (RT II 27) peccha (Mk XI.7). drs (causal)>darisa (RT II 2 7; Mk XI 8) also darasa (according to some, Mk XI 8 comm ) (b) Passive Śru>suyra (Pu XI 6, RT. II 28, Mk XI 9 ji>jippa RT. II. 28) bhan> bhanna (RT II. 28). gam>gamma (RT II 28, Mk XI 9) kr>kijja (RT II 28) jñā>munijja (RT II 28). lih > lijja (Mk. XI 9) dru>duvva (Mk XI 9) darbh>dubbha (Mk XI 9) VIII. The following verbal substitutes are found in the Future Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakıt 53 śru>soccham (Pu XI 7, RT II 29, Mk XI 10) bru>voccham (Mk. XI 10) ruc>roccham (Mk XI 10) IX. In Avantī the suffix tvā is tûna (RT. II, 27; Mk XI 3) e g lankam gantūna sia dittha X. The word ccea and ccia are used in the sense of iva. (RT II. 26, M7 XI 12) 10 Bālliki Mārkandeya says Bāblīkī is the same with that of Avanti, the only difference is--ra becomes la in it (Mk XI 13) e.g. salası-luhaso-laha-nıbbhalo mäludo vahai. It is the language of dhúrta and others 11 Nāgaraka Apabhramsa Purusottam recognises three clear dialects of Apabhramsa, eg Nāgaraka, Vrācadaka and Upanāgaraka, besides less remarkable local variants Rāmaśarmã and Mārkandeya also follow him, but mention some other varieties without giving their characteristics These are-Vrācada, Lāta, Vaidarbha, Upanāgara, Nāgara, Vārvara, Āvantya, Pāñcāla, Tākka, Mālava, Kaikeya, Gauda. Audra, Daiva, Pāścātya, Pandya, Kauntala, Simhala, Kalinga, Prācya, Kärnāta, Kāñca, Dravida, Gaurjara, Abhira, Madhyadesiya and Vaidāla (=27 in all) Kramadīśvara's Srāvanti (or Srāvasti) is not mentioned by any of them He has given also twelve varieties of Apabhramśa which will be found in the classification of Rāmaśarmā and Mārkandeya Of these Nāgara is regarded as the maio dialect The chief charcteristics of Någara are given below I The following consonantal changes are noticed k>g, nāka>pāgu, kh>gh, sukha> sughu, t>d, patita> padida, th>dh; sotha> sodha. (Pu XVII. 3,13; RT. III 12, Mk XVII 2) Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा Il şk and sk>kk, puşkara >pukkara, maskara>makkara (RT III 13). III The suffixes dā, di, ulla, ulli and a are added to the noun and adjective stem As, hiadā, goladi etc (Pu XVII 16-19, RT. III 1-6-7, Mk XVII. 5-8) VI In all genders the declensional termination is elided, and the termination of the base is optionally lengthened As, aggi, aggi, vanadam, vanādām (Pu XVII 41, RT III 1 8-9, Mk XVII. 10) V The nominative singular may be in o, as, narao, narao (Pu XVII 41) VI u is added to a and a bases. as kanhu, kılantu, mālāu. (Pu XVII. 42, RT. III. 1.11, Mk XVII 15-16) VII. In all genders Instrumental singular termination is e, as, vanae vahue, panālie, but in i and u base it is ena. VIII The ablative singular termination is he and ho, as, gharahe, gharaho (Pu XVII 43, III 1.12, Mk XVII 18-19). TX The following substitutes are noticed: stokam>thodam, bhadram>bhallam, tvadīyam>teram, toharam, madiyam>meram, moharam, kidrśı> kebi (Pu XVII. 30, RT III 1 5) X Some pronominal substitute yat>jadru (m), tat>tadru (m) idam>imu, etad>eha, e, (Pu XVII 56-57, RT III I 20-21; Mk XVII 34-38) XI yusmad is declined as follows: Nom Acc. Inst. Singular tuham páim paim Plural. tumbhajm tumbhaim tumbahım Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakrit 55 Abi tumha, tumhe tuba, tumbha. Gen tumba, tumbe tuha, tumbha Loc paim (Pu XVII 63 64, RT III 123, Mk. XVII 41-46) XII, asmad is declined like the following. Singular. Plural Nom humu amhaim Acc. maim amhaim Inst. maim ambahim, amhehim, amhe Abi maha, majjha majjhu amha Gen maba, majjha, majjhu, amha no Loc. maim ahmāsu, abmasu (should be ambāsu, amhasu) (Pu. XVII. 65-67, RT. III 1 23,Mk. XVII 48-55). XV XIII The terminations of the third person singular and of the first person plural are di and hum respectively As, so hasedı, hasahum amhaim (Pu XVII 70-71, RT III. 1 26, Mk XVII 57-58) XIV The suffix of the future is thi and isu, as, bālau edu hasıhui, ehu hasisar kanha (Pu XVIII 73-75, RT III 128, Mk XVII 59-61) The following dhātvādeśas are found 10 Nãgaraka Apabhraņía - sthā>thakka, thā, sthapaya>thāva, thẫvva, pra-viś> paisara, a-ślış>ārunda (=āruņņa?), tim>timma, dịś> dekkha, passa, yad > volla; darśaya>dākkha, darasa, vraj>vanca, muc>mukkha, mua, mulla, grab>gunha, kr V kada, ānaya >āņāva; ã-cakş>akkha XVI The following Apabbramsa words occur in the meanings described thereon — Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 +358-441964 0414 cui fe 7191 tot 44+420 tvām=tomme, adhună=muebi, tesām=tāạna, amībhih=ehim, dvi=dui, tri=tinni>mod Beng tin catur=cārı>mod. Beng. car. 12 Vrācadaka Apabhramsa The basis of Vrācada Apabbramba, which is current in the Sindhu country, is recorded as being nothing but Nāgara. The following are its chief characteristics I ș, s> Ś II The C-varga is pronounced as clear palatals, (spaşta talavsaḥ), t and dh are pronounced as slurred (aspasta) (Pu XVIII. 2-4, RT III. 2 2-3, Mk XVIII. 2-4) III. t and d> ț and d respectively. IV. Some substitutes. eva>je, ili, saiva>sojji, bhū>bho; obadgah> khandu, brū>bro; vrş> varha, vraj>vanja 3. Upanāgaraka-Apabhramsa Puruşottama says that Upanāgara is an admixture of Nāgaraka and Vracada, and it has several other local speeches, such as, Vaidarbhī, Lātí, Audrï, Kaikeyī, Gaudi and the speeches of the countries such as Țakka, Varvara, Kuntala, Pāņdya, Simhala etc The characteristics of these dialects as found in Purusottama (XVIII 16-23) and Rāmasarmā (III 2.5-13) have been summed up by Mārkandeya in his commentary on XVIII.12 There are the following 1. tu-bahulā Mālavi II vadī-bahulā Pāncalı III ulla-prāyā Vaidabrhi IV. sambodhanāddyā Lātī v īkāro’kāra-babulā Audhri VI savīpsā Kaikeyī VII. samāsādhyā Gaudi Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialccts of Prakrit 57 VIII da-kārababulā Kauntali IX. ekārini ca Pandya. X yuktādhyā Saimhali. XI. himyuktā Kālmgi. XII. Pracyā tad-desīya-bhāsādhyā XIII. bhattyādı-babulā Ābhiri. XIV varna-viparyayāt Kārnāti Xy Madhyadesiya tad-desiyādhyā. XVI samskrtādhyā ca Gaurjarī XVII. ca-kärāt pūrvo'kta-Takka-bhāṣāgrahanam XVIII ra-la-ha-bhyām vyatyayena Pāścālyā XIX repha-vyatyayena Drāvidi XX dha-kāra-babulā Vaitālıkī. XXI e-o babulā Kāñci. 14. Kaikeya Paišāci The easterners describe the Paisāci dialect much more fully than the westerners Grierson (The Prakrit Dhātvädeśas, p 84) says that “when we come to Paiśāci we find two very different dialects described. Vararuci, Rāmśarmā and Märkandeya all agree in their accounts of a language which they call 'Paisāci' or "Paisacika', and which is not the same as the langage described under that name by Trivikrama, Hemacandra, Lakşmidhara and Simharāja" They have mentioned numerous Paiśācī dialects, such as, Kaikeya, Saurasena, Pāñcālā, Kāñca, Gauda, Dāksiņātya, Drāvida, Pāņdya, Māgadha, Vrācada and Sābara, but they did not mention Cülikā-paiśācī Of these the Kaikeya-paiśācī is the basis of all other varieties, excluding Cúlıkā-paiśācī The chief characteristics of Kaikeya-paiśācī, corrupt form of Saurasenī mixed with Sanskrit, are given below. I Ś and ş>s II cerebral n> dental 8, (Vr X 5-8, Pu, XIX 8,12, RT.III 3.3, Mk.XIX 3-7) III Generally intervocative g>k, and similarly, gh>kh, j>c, „ „ jb>ch, d>t, „ „ dh>th, Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 +54-4194 0414207 011e 011 97 67 yenye e>t, „ dh>th, b>p, , , bh>ph IV Conjuncts are treated like the following: ny, jñ, ny>ñ ñ, ry>ria (Vr X 11-12, Pu XIX 21-22, Mk XIX 6-12) I>I (RT III 37) VI Some words are substituted like the following grham>kiham, iva> piva, prthivī> pệthumī, brdayam>hitapakam, parthamam>prthumam, vismayaḥ>pisumao; kvacit> kupaci, suksma> sukhama, kāryam>kaccam, paksma>pakhamam; rājan>rāci, krta>kada: mrta>mada, gada gada (analogically). (RT.III 3 4-8) 15 Saurasona Paišācī The Suarasena-paiśācī is based on Kaikeyapaıśācı sts chief characteristics, as given by Purusottama, are given below I >1 (Pu XX 2), II s and s>s (Pu XX 3) III The pronunciation of ca-varga is clear palatal (cu-vya kta-tālavya, Pu XX.4) IV ks>śk (Pu XX 5) V cch>śc (Pu XX 6) VI tth>śt (Pu XX 7) VI. st, șt, remain unchanged (Pu XX 8-9). VIII piba>pia (Pv XX 10) kada, mada and gada are also used in this dialect (Pu XX 11) IX adhunā>ohunā (Pu XX 12) X Declensional engine :-(Pu.XX.14-16) ah>o, a, am>am, o. a 16 Pāñcāla Paišācı The Pāñcāla-paiśācī is strictly based on the Kaikeya and Saura Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakıt 59 sena-paiśāci It does not vary very much from these to standard of speeches of Paiśācí He mentions only one characteristics of Pāñcala 1>r(P.XX 19, RT III 311, Mk XX 14) Rāmaśarmā (III 3 11) says that in Gauda Paiśācıka either r or I may be used for r or for 1 According to Rāmaśarmā (III 3 13-17) Paisăci can mainly be divided into two groups suddha and asuddha Lastly it may be added that in the works of Kramadīśvara, Purusottoma, Rāmaśarma and Mărkandeya, we find some interesting modern Bengalı forms These forms though can be derived directly from Prakrit, are still important, because the eastern grammarians recorded them a few centuries ago Some forms are directly mentioned by them, and some can be obtained with easy phonetic equations As these forms will be interesting, I have noted them below. [As all the forms are mentioned by them, I have avoided references, except in some particular cases which are not mentioned by all} āthikāhāvanochādanı) Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा pālam pallankapırthumi) Skt. Viadya be (y)ādā viaddha(maj) and ghrs>(ghas) michaPage #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APPENDIX Alphabetical list of Prakrit Languages [This index is prepared to facilitate the study of Prakrit dialects The references are in two column which stand for the two schools of Prakrit grammarians ] Apabhramsa Ardhamāgadhi (cf Arsam) Atibhāṣā Avahatta bhāṣā Abhira'pabhramśa Andhra Ārṣam (Ardhamg.) Abhira Ābhīrikā Ābhīrī Avanti Ki V 1-113 Pu 17-18 chapters RK III 1-2 Stavakas HC IV. 329-448. MK 17-18 chapters Tr III 3 1-58. III 4 1-71. Bb XVII KT V 98 RT II 2-12 MK. XII. 38 Bh XVII 26-28 KT V 99 (vrthi) RT III 2 11 MK (Introduction) Bh XVII Bh XVII RT II 3 23-26 MK. XV 1-10 Bh XVII KT V 99 (Vrtti) Pu XI 1-10 RT II 2 5-10 MK XI 1-13. Avantya' pabhramśa KT V 99 (vṛtti) MK (Introduction) C III 41 NS KV II 11-12 HC IV 287. Pischel § 28 HC. 1 3 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा Inscriptional Mehendale-HisPrakrits torical Grammar of Insci ptional Prakrits Udīcī MK (Introduction) Upanāgarā' pabhramsa KT V 99 (Vrtti) Pu XVII 14-15 RT III 2-5 MK XVIII 1-12 Audhrā' pabhramsa MK (Introduction) Odhra KT V 99 (Vrtti) RT II 2 9 Audhrī (cf Audbra) Audbrīyā Kāñcyā’ pabhramśa RT III 2 12. MK (Introduction) Kāñcya-paisācí MK (Introduction) Kālingā pabbramsa RT III 2 10 MK (Introduction) Kārnatā’ pabhramśa RT III 2 11 MK (Introduction) Kirāta Nitti-Dolci p 77 Kaikayā, pabhramsa Pu XVII 21 Kaikeyi RT III 2 9 MK (Introduction) Kaikaya-paiśācī (cika) Pu XIX 1-24 Kaikeya-paiśācī (cika) RT III 3 1-6 MK XIX 1-21 Kauntalā pabbramsa Pu XVIII 23 RT III 39 MK (Introduction) Kharoşthi-Prakriti Burrow-Language Khotanese Prakrit of the Kharoşthi documents Gathā Dialect Leumann, 2 DMG XXIX. 212-34 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-hualebts of Prakrit · 63 Gandhari Dialect Macdonell, HSL, 25-26 Brough, The Gandhari Dhammapada Nittı-Dolci p 164 Pischel § 27 Grāmyā pabhramsa Grāmya-bhāsā Gaudā pabhramśā Pu XVIII 22 (cf Gaudī) RT III 29 MK (Introduction) Gaudā-pai sācıkā RT. III.3 11 MK (Introduction) Gaurjā' pabhramśā RT III 2-11 MK (Introduction) Cīņļāla Bh XVII. Cāņdali ) Pu XIV 1-9 RT II 3 10-15. MK XIV. 1-9. Cūlikā-paiśācī HC. IV 325-28 Tr III 2. 63-67. NS. XVII 26, 28. Jātibhāsā Jaina Prakrit Jaina Mahārāştrī Pischel § 16 Nittı-Dolci p 172 Pischel SS 16, 20 Nitti Dolci pp-172, 174 Pischel § 21 Pischel § 20 Jaina-Sauraseni Jaina-Saurāștri Takkā' pabhramba Pu XVIII 23 RT III. 26 MK (Introduction) Pu XVI. 1-10 RT. II 3 27-31 MK XVI 1-13 Takki Dhakki Pischel & 25 Grierson, JRAS, 1913, pp 875-83 Dākşinātyä Bb XVII Ki V 99 (Vitt) Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & Hega-4 194 culteur alle 08.121 67 4Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakrit: 65 Paisācıka Paisācis Vr. X 1-14 KI V 96, 102 Pu XIX-XX RT. III 3 1-21 MK, XIX-XX. C. II] 42. HC IV. 303-24 Tr III, 2. 43-62. Prākrta-Dhammapada bbāşa (See Kharosthi Prakrit) Pràcyā Prācyā'pabhramsa Bh XVII KI V. 99 (Vrtti) Pu X 1-14 RT II. 2 1-4. MK X 1-12 KI. V. 99 (Vștti) RT III. 2-10 MK (Introduction) Pu XVIII 23 MK (Introduction) KI. V. 99 (Vrtti) Bh XVII RT. II 2 5-10 MK, XI 13 Başbarā' pabhramšā Bābliki Buddhist Hybrid Sanskrit Bbāsā Bhutabhāsā Dandın, KV. I. 38. Pischel § 27 Madhyadesiyā' pabhramsa ÅT III 2 11 MK (Introduction) Mãgadha-Paiśācī (Cikā) Māgadhi RT JIL 2 12 MK (Introduction) Bh XVII VI XI 1-17 KI V. 86-97 Pu XII 1-38 RT. II 2. 11-32 MK, XII 1-13, C IV 43 HC IV 287-330 Tr III. 2 27-42. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा Mālrā' pabbramsa MK (Introduction) Mahārāştri Bh XVII 6-25 C I-III 1-40. Vr I-IX chaptas HC I-IV. 259 Ki I-IV , Tr. I-III. Pu III-VIII. , RT I 1-9 Stabakas MK I-VIII chapters. Ji 38 sūtras La 38 sūtras Miśrārdbamāgadhi Ki Raptıkā Lātā' pabhramsa Pu XVIII 19 (Lāti) RT JII 28 MK. (Introduction) Lena Dialect Pischel § 27 Vārendra Bhāsā Pischel § 28 Vibhāsā Grierson, JRAS, 1918, pp. 489-517. Vibhrasta Pischel § 8 Vrācata-Apabhramsa 1 MK (Introduction) Vrācada Apabhramśaj Ki V 99 Pu XVIII 1-13 RT III 2 1-13 MK XIII 1-12 Vrācada Paišācıkā RT III 3 12 MK (Introduction) Vaidāla Vaitāla Apabhramsa RT III.2 12 MK (Introduction) Vaidarbhí Apabhramsa Pu XVIII 18 MK. (Introduction) Sākkí Sākki Ś Pischel $ 3, 28 Sākārı Bh. XVIII Śākārikā Ki V 99 (Vrttı) Pu XIV 1-15 RT. II 3 1-9. MK XIII 19. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dialect and Sub-dialects of Prakıt 67 Sabara Bb XVII Sàbarī Ki V 99 (Vrtti) Šābari Pu XV 1-7 RT II 2 16-22 MK XV 1-10 Saurasena Paišāci Pu XX 1-20 RT III 3. 7-10. MK XX 1-16 Sauraseni Bh. XVII Vr XII 1-32 KI V Pu IX 1-93 RT II I 1-38 MK IX 1 158 Srāvanti Kí V 99 (Vrttı) Srāvasti s Sarı Kīrna Paiści RT III 3 Saippalā'pabhramsa RT III 2 10 Saimhalā'pabhramsa Pu XVIII 23 MK (Introduction) Haiva cf Daiva Ap Haimarat S MK. (Introduction) C III. 44 HC IV 260-86. Tr III 2 1-26 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा Bh Ki Ку Abbreviations used in the Appendix =Bharata's Nātya-Šāstra =Canda's Prākrta-laksanam HC =Hemacandra's Prakrit grammar HSL =History of Sanskrit literature. JI =Jiva Gosvami's Prakrit grammar JRAS =Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland =Kramadīśrvara's Prakrit grammar =Dandin's Kāvyādarśa La =Rāvana Lankeśvava. MK =Mārkandeya's Prāhrtasarvasva MK (Introduction)=Introductory verses of Mārkandeya's Pra kệta Sarvasra NŚ =Nātya-Šāstra of Bharata Nittı-Dolci =Nittı-Dolci's Les Grammairiens Prakrit Pu =Purusottama's Prakrtānu sāsana Pischel =Pischel's Grammatik der Prakrit Sprachen RK =Rāmatarkavāgiśa's Prākrta Kalpatarum Tr =Trivikrama's Praksta-Prakāśa =Yararuci's Prākrta-Prakāśa ZDMG =Zeitschift der Deuschen Morgenlandischen Geseuschaft Vr Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEMANTIC CHANGES IN KRTA, TRETA, DVAPAR AND KALI DR RAM PRAKASH PODDAR The words Kita, Tretā, Dvāpara and Kalı denote the four consecutive ages Viz Kệtayuga, Tretāyuga, Dvāparayuga and Kalı yuga According to the Pauranic reckonings Kitayuga consists of 1728000 years, Tretā of 1296000 years, Dvāpara of 864000 years and Kalı of 432000 years The present age is Kalı which began on 18th February 3102 BC In early references to these ages the periods assigned to them are respectively 4000, 3000, 2000 and 1000 years To these main periods are added mornings and evenings each comprising of 400 years in case of Kita, 300 years in case of Tretā, 200 years in case of Dvāpara and 100 years in case of Kali Thus together with their mornings and evenings the four ages extended respectively to 4800 years, 3600 years 2400 years and 1200 years, the whole cycle was complete in a period of 12000 years Dr. Fleetassumes that the mornings and evenings are latter additions to convert the decimal system of the earlier reckoning into the duodecimal one for astronomical purposes He further suggests that the extension of the periods from 4800 years etc. to 1728000 years etc pertains to the astronomical period viz 4th century A D. when the astronomers reckoned a coincidence of the planets about 3500 years back and took it as the beginning point of the current yuga viz kalı Dr Fleets contention is further corroborated by the retrograde nature of dating as evinced by the some what vague etymology of these words Kali may be associated with the v kal=to count, and may be interpreted as the initial point of counting viz one Dvāpara Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० . संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा and Tretā can be easily associated with two and three respectively on the basis of their phonetic similarity with Dvi and Tri Though etymological association of Kịta with four is not evident yet it may be concluded that Krta, Treta, Dyāpara and Kali dating is going backward into the past, the present is marked as the first, the immediate past as the second and farther and farthest pasts as the third and the fourth respectively Apart from the etymological associations as suggested above the words Kļia, Tretā, Dvāpara and Kalı were connected with the numbers 4, 3, 2 and 1 respectively from very early times. These four words were primarily associated with the game of dice The ancient practice of playing with dice was to pick up tiny Vibhitaka nuts, which were thrown on the board for this purpose, and to count them If the number picked up by a player happened to be the multiple of four he had obtained Kita which was the highest score If it was not so the score was determined according to the remainder three fetched Tretā, two Dvāpai a and one Kal The first three scores viz Kệta, Tretā and Dyāpara were winning once in descending order The last viz Kal entailed lose ? In the Vedas these words have been used to denote scores in the game of dice as mentioned above where as they have not been used to denote the four ages The ancient practice of playing with dice underwent a change, centuries before the beginning of the Christian era and the place of the Vibhitaka nuts was taken by the four-faced metallic or earthern die marked with the digits 4, 3, 2, and 1 or bearing as many points on the respective faces After the throw by the player the figure or points on the upward face decided the score, ie it was Krta when the face bearing the digit 4 or as many points was upward and so on down to Kali These words are met with in ancient Jaina Āgamas viz. Ācārāmga and Bhagavati 4 Here they have been used to denote different organizations of the atoms in matter When the number of atoms is a multiple of four the organization is called Katajunima (Sanskrit Kitayugma) When it is not so the nomen clature follows the remainder after a division by four, being Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Semantic Changes in the Kita, treta, Drapai and Kalı 71 Tretā when the remainder is three, Dräpai a when it is two and Kali when it is one In the Pālı canonical literature also these words have been used in the context of the game of dice In the Vidhura Pandita Jātak Kața (Sanskrit Kyta) denotes the highest score in the game of dice and kalı occurs as its antonym 5 These words have also been used figuratively Thus Kaliggaha means unlucky and Kațaggaha lucky Here they are in compound with gaha (Sanskrit graha)=Score So the literal meanings will be 'one who scores Kali' and 'one who scores Kața' respectively lu the Theragatha (1 462) we come across the phrase 'ubliayattha kațaggaha' meanig lucky in both the worlds i e here and beyond Vinaya (6 93 360) uses 'Kaliñ āropeti in the sense of putting allegation on somebody The lexicons have not recorded any use of these words in the sense of the ages (yugas) either in the Ardhamāgadhi Jaina canons or in the Pāli canonical literature But by this absence we should not be led to conclude that the four ages came to be denoted by these words at a date later than the compilation of the Pāli and Ardha māgadhi canons Utmost this can prove, is the comparative immunity of these conons from the Brahmanical tradition in which we find the above denotations occurring much earlier In the late Brahmanas the words Krta, Tretā, Dvāpara and Kali have been used to denote the four consecutive ages The Sadyınıśe Brahniana mentions the four ages krta khārvā, Dvāpara and Pusya 6 Dvāpara as denoting the third age in mentioned in the Gopatha Brahmana As regards the mention of these pames in the famous 'Kalı sayāno bhavatı ?, verse of the Artareya Brahmana it may be noted that some scholars interpret them in the context of the game of dice while thus regard this verse itself as a later interpolation But the verse has been adapted in the manusmiti (1 x 302)8 and explicitly interpreted as the consecutive ages Commenting on ch 231 verses 19 onwards of the Mahābhārata Nilakantha refers to the Kalı sayāno bhavatı' verse of the Aitareya Brahmana and explains the words kyta etc. Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ og 37-41gitt 0414144 77 42141 titueruel of the verse as standing for the four ages but used figuratively in that context Stray references to Kșta, Tretā, Dvāpara and Kalı as denoting the ages are met with in the upanısads In the Ramāyana these words seem to have settled down as the names of the four consecutive ages But here we do not come across any deliberations regarding their nature and extent In the study of the semantics of these words the Mahābhārata is of immense importance Here we find the words used to denote different throws in the game of dice At the same time they have also been used to denote the consecutive ages with elaborations upon their nature and extent. In between these two denotations there are also abundant evidences of their figurative uses which form a sort of bridge between the two denotations and indicate the process of transition In Udyoga Parva Krishana intending to cow down karna and avert the war describes to him the seats and fury, the Pandavas would exhibit, in the ensuing war This description runs through ten verses and each pair is concluded with the refrain 'Na tadā bhavitā Tretāna kstam Drāpai am na ca "Obviously the words kría, Tretā and Drāpara, here are figuratively used in the sense of winning scores in the game of dice Krishna makes an oblique reference to the game in which Duryodhana and his friends including Karnū, had got an easy victory securing frequently Ksia, Tretā and Dräpara In the battle field it was not going to be like that where they would not secure Kyta etc as they had donc in the game of dice On the contrary here they would face the wrath of the brave Pändaras which would utterly rout and ruin them The allusion here to the game of dice is quite apt and pointed of such oblique hints to the game, there is no dearth in thc cpic in the Virāļa Parva (50-24) Aśvatihamā warns Juryodhana Moksánkypari gândiam na kstam Drāparam na cal Jsalaro n11f1lünbanámstiksnānksipatı gündivam// Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Semantic Changes in Kita, Treta, Dvapar and Kalı· 73 But the commentator Nilakantha interprets the words Krta etc of the line Na tada bhavita Treta etc as the names of the ages and misses the mark It is through an exalted strain of ingenuity that he fits the 'ages' into the context He says that krta implies Moksa for in this age it is Moksa alone which is coveted, the other three 'Purusārthas' being always at hand. In the same way he interprets Tretā as Dharma and Dvāpara as Artha and Kāma Thus the whole line according to him means that the war will not deliver any Purusartha to Duryodhana and his friends It will only bring about their annihilation A very ingenious interpretation indeed110 But it is obstructed by the last verse of Krishna's speech in the same chapter When Karna would not be dissuaded Krishna concludes that in the inevitable war 'Duryodhana's followers would die and attain the highest course Now the highest course for the dead is obviously Moksa The above interpretation of Nilakantha denies all the Purusãi thas to Duryodhana and his side but the original vouchsafes the highest one!"'11 This meandering on the part of the commentator is on account of the original denotations of the words viz those associated with the same of dice becoming comparatively obsolete in course of time In the Mahabharata there are numerous examples of these words being used as the names of the four consecutive ages with elaborations upon their respective nature and extent In chapter 188 of the Vana Paiva Mārkandeya relates to the Pandavās the duration of the ages viz Krta, Tretā, Dvāpara and Kalı He says, "There are four thousand years in Kitayuga, its morning and evening each comprises four hundred years In Treta there are three thousand years, its morning and evening each comprises three hundred years, Dvapara has two thousand years, its morning and evening each has two hundred years Kalı proper lasts for one thousand years, its morning and evening each consists of one hundred years Kalı having been spent up Krta sets in again and thus the cycle consisting of twelve thousand years Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा goes on The reckoning of time is again taken up and claborated in the Shantı Par va at chapter 231 Verses 19 onwards. It compares with the reckoning of time given in the Manusinsti at chapter I Verses 69 onwards Neither the Mahābhārata nor the Manusiiti contains any suggestion to warrant that the texts mean the celestial years and not the human years But the commentators invariably impose the celestial years each of which, according to them, consists of 360 human years This sort of reckoning of the four ages is a recurrent theme in the Purānas, Linga, Kūrma, Vāyu, Brahmānda, Matsya, Visnu and Bhagavata-all these Purānas contain the yuga-reckoning which falls in with that of the Mahabhārata cited above, except that Visnu, Matsya and Bhāgavat explicitly mention the celestial years It seems that the imposition of the celestial years is a postMahābhārata manipulation Dr. Fleet assums that the astronomers of the 4th century India found a coincidence of planets some 3500 years thence which they took as the beginning point of the Kalı era Now the 1000 years duration for Kalı not reconciling with the astronomical reckonings the celestial years were imposed to make it sufficiently accomodating Since one human year contained 360 days, one celestical year come to 360 human years At this rate the whole periods of Krta, Tretā, Dvāpara and Kalı came to 1728000, 129600, 864000 and 432000 years respectively 12 At this stage these words are so metamorphosed that they caunot be easily traced back to the primary denotations in the game of dice, nay, it is difficult to believe that they had ever anything to do with the game of dice But a close examination would reveal that the genu of the primary meanings are not extinct for the ratio of the total periods of duration of the ages is 4 3 2 1 which reminds one of the primary denotations of the terms Krta, Tretā, Dvāpar and Kalı In the game of dice these words were associated with the numbers 4, 3, 2 and 1 respectively Moreover they also denoted the best, second best, Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Semantic Changes in Kita, Treta, Dvapai and Kalı 75 third best and the worst in the game If a player obtained Krta he won all the five points at stake If he obtained Tieta or Dvāpara only 3 or 2 points respectively were won over all the participants Kalı was not only a barren score but also entailed loss of one's own stake Now in the Kita age there is unsullied good which goes on diminishing till the worst is reached in kalı Thus it may be assumed that through a process of figurative denotations the words Kita etc, which primarily denoted die fferent throws at the game of dice, also implied the best, second best, third best and the worst of the ages In course of time, the ancient practice of playing with dice dwindling and ultimately disappearing the primary denotations became obsolete and the secondary ones survived and gained popularity This conclusion is corroborated by the fact that the consecutive order of the ages Kļta etc, which was later strictly established, seems to be in a state of fluse in their earlier occurrences According to the reckoning of time in terms of Kșta, Tretā, Dvāpara and Kali the Mahābhārata war was fought in the twilight period of Dvāpara and Kalı 13 So Dhrtrāshtra Pāndu and Vidura were born towards the end of Drāpaia But in the Ādiparva of the Malābhārata chapter 109, werses 5 onwards, it has been said that when these children - Dhstarāsțra etc - were born, Kęta prevailed, not only in the vicinity but also among the nations 14 This shows that in denominating the period as Krta what is taken into account here is the nature of the period rather than its consecutive order in the Udyogaparva chapter 132 verse 16, it is said that the king (by virtue of his deeds) causes Kria etc among his people.15 The same idea is found in the Manusmrti at IX 301 10 In the Mahābhārata this theme is taken up again and celebrated in the Shantiparva, chapter 69 The account begins with the statement that it is the king who brings about the periods designated as Kţta ctc When he administers justice in its entirety he causes the krta age But when he administers only three out of the four parts of justice, lic brings in Pretā and wlien he employs only two parts he causes Drāpara and Kali comcs in when the king is altogether bercft of justice Here the terms Kria etc have been used to denote periods of time But these do not seem to be fixed and consecutive ones So the secondary denotations of the words still remain in a state of flux The pri Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा mary ones somehow linger in the fact that all the four parts of justice are employed by the king to causes the Kita age, three to cause the Tretă and two to cause the Dyāpara To Kalı not even the one part of justice, wbich would have been its due on the basis of analogy, is vouchsafed This theme is repeated at many places in the Shantı Parva 17 The Dharmayısa, as described in the Mahābhārata at several places in course of delineating the nature of the ages (Yugadhai ma), stands on all four legs in Kyta age He loses one leg as he proceeds to subsequent ages, having three in Tretū two in Dvāpara and only one in Kalı 18 This bull allegory is found in the Manusmặti also Besides, the Manusmiti further adds that in the Kịta age human life span was 400 years It diminished by one fourth in subsequent ages and thus came to 300 years in Tretā 200 years in Dvāpara and 100 years in Kalı All these facts evince the primary association of these words with the numbers 4. 3. 2 and 1 as in the game of dice and also suggest the process of semantic transition from the context of the game of dice to that of the reckoning of time In the Nala episode the two meanings of the word Kalı, the one related with the game of dice and the other with the age of this name, move side by side The personified Kalı brings defeat to Nala in the game of dice So he can be taken as the Kalı of the game Nevertheless he has all the evil intentions of the Kalı age Kalı and Dvāpara, going to participate in Damayanti's Svayamvara were informed by the deities of the quarters that Nala had already won her hand Infuriated at this they conspired to ruin Nala Kalı entreated Dräpara to assist him by entering into the dice and he himself possessed Nala. Further he encouraged Puskara to play at the game of dice with Nala and assisted him in completely routing the latter Later when Nala learnt the mystery of the dice from Rtuparna he could get rid of Kali The episode is concluded with the remark that the tab of Nala annihilated all the evils of the Kalı (age) In the encounter of king Parīksita with Kalı as described in the Bhagavata the two meanings of Kalı are combined The king saw Kali in the form of a Sūdra's kingship tormenting a cow Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Semantic Changes, in Kita, Treta, Dvapai and Kalı 77 bull. Here the Sudra's kingship indicates that the order of the castes had suffered reversion The cow and the bull being tormented are the symbol of righteousness So what is suggested here is the disorder of Kalı age The king washing to restore order aimed an arrow at Kali and subjugated him But Kalı entreating for a shelter, he bade him live in gambling drinking, women, murder and gold The places of shelter indicate that here two meanings of kalı vız the losing throw in the game of dice and strife are at the focus Kalı lives in gambling in the form of the losing throw and also in the form of strife strife has always been an usual feature of the game of dice Since drunken people, women, murderers and those covetous of gold are all prove to lighting, Kalı lives in them in the form of strife Strife a denotation of Kalı may be a figurative one and derived from its primary meaning in the game of dice-association of strife with this game is very natural, the more so with the throw Kali which is the worst in the game Besides the main semantic transition from the context of the game of dice to that of the reckoning of time, the words Kita etc have had some derivatives associated with their primary meanings Thus the word kitava clever, shrewd, may be a Prakritization of KrtavidPage #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा holder of all four is the holder of Krta throw, everybody should fear him for he will Vanquish them all In this context the use may be a figurative one as many commentators have opined But it is plain that the holder of the four is the holder of the Kita throw, so it is not far-fetched to assume that the word 'Catui a' is a syncopation of 'Catui rūn'=holder of the four viz Kita Generally the lexicons connect this word with the V cat or vcad in the sense of asking or begging. But one fails to establish any direct semantic link between the root and the derivative The form Kata as noted above is a Prakritization of Krța obtained through the cerebralization of the dental proceded by r Later this form seems to have been absorbed in Sanskrit for Darduraka of the Micchakatika, a Sanskrit speaker says, 'Kațena Vinipātito yānu'. In the same way it can also be concluded from the speech of the same person that 'Pāvara' a derivative from Dyāpara (Dvāpai a tassimilation >*Vāparat-metathesis > pāvara) has also been absorbed in Sanskrit, for the same speaker says, 'pāvara patanacca Sositaśarīrah' The game of dice in course of time, beoming more popular among the Prakrit speaking people, the Prakrit names of the terms associated with the game ousted their Sanskrit counterparts It should be investigated if the phrase 'pau bāj alia' is not a popular etymology of the above mentioned 'Pāvara'-doubtless it is connected with the game of dice, they say, 'pade pāsā pau vāraha' etc Now one may ask : ‘Was the game of dice so extensive and popular that the terms primarily connected with it yielded such rich harvest of semantic expansions? If one looks into the Vedic literature and the ancient Sanskrit literature in general and the Mahābhārat in particular one cannot but conclude that the game of dice was fairly wide-spread in ancient India The Apabiranisa literature testifies that the tradition continued in the medieval period too Anyway, for undergoing a semantic expansion it is not necessary that the term should be wide-spread On the Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Semantic Changes in Krta, Tietā, Drāpar and Kalı 79 contrary its being wide-period may hinder the process of semantic change The word 'kušala' initially meant 'one who was an expert in uprooting the Kusa grass'. The present popularity is hardly commensurate with its limited scope at the initial stage Another example is 'Pravina' and there may be numerous others. Notes 1 Dr J F Fleet THE KALIYUGA ERA OF BC 3102 Journal of the Royal Asiatic Society 1911 (pp 479-496 and 675-698) 2 H. Luders THE GAME OF DICE IN ANCIENT INDIA ("'Das Wurfelspiel in alter Indian" an article collected in "Philologica Indica" Gottingen 1940 pp 106-175) 3. Rgveda 1 112 24 10 429 10 43 5 Athai vaveda 7 50. 8 4 Ācārāmga 111 Bhagavati 34 1 25 3 5 À qilat hahan HH1 <1v1 yoort you til arfa vgrati <1041 ffan faran queri come you eit 4414 veel in Ħare via JHUT numa cool Hold naan Hotel ville veut reaftung #40447 447 449 11 Vidhura Pandita Jātaka (91-92) Here one fact may be noted that the game of dice referred to in the gathas is the one played with the Vibhitaka nuts But the prosc explanation imposes the type played with the four Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૦ સંસ્કૃત-પ્રાકૃત વ્યાકરણ ર શ ી પરમ્પરા faced earthen or metallic dice, which fact evinces that by the time of the prose explanation the earlier type had grown abso lute so the commentator imposed upon it the later type. 6. Sadvimśa Brāhmana . V. 6 6 તિ શયાનો મવતિ નિહાનતુ દ્વાપર ! તિષ્ઠત્તેતા મવતિ શત સાતે વન્ | 8 ક્ષતિ પ્રસુન્તો મત જ નાન્ દ્વાપર યુ ! મેન્યુદ્યતત્તેતા વિવસ્તુ છત યુગ // 9 ઉદ્યોગ, ૧૪૨ (-૧૫) થવા દ્રશ્ચંત સદ્ગામે તાવ swલા ચિમ્ | હેન્દ્રમાસ્ત્ર વિનુનમે વાનિમાતે દા ભાઠીવર્ય ૫ નિવ વિખૂનતમિવાળાને ! 7 તવા વિતા તા ર ત દાપર ર ર ા ડ્રત્યાદિ.. 10 7 તતિ ! તે હિં સર્વે તજીત્યા હવેતિ જ વિવ પિન્નવલતે તાયા તુ ધર્મ પ્રાધાનામાવાનુપાન કાપેક્ષત્તે દારેસુ બર્થડામો પ્રાધાન્યન ધર્મ ૨ તવન ! ત ત ન મવિતેતિ મોક્ષાત્ બ્રશ કરત છે તેતિ | ઘર્માત્ બ્રશ ફક્ત ટુર્યોધનાવિનામત્યેવા દ્વાપર ર્માવતિ તેવામર્થનામાવપિ વિગતો યુદ્ધન મરાહ્યાવશ્વખ્યાવાહિત્યર્ચ | 11. પાનાનો રાનપુવા દુધનવાનું ! બાધ શત્સંગ નિઘન કાર્યાન્તિ અતિમુત્તમામ્ | 12. All those Purānas which do not specifically mention the celestical years need not be taken to be interior to the so called astronomical period These may not be aware of the new reckonings of time cooked up by the astrono mers On the contrary those which impose the celestical years can be safely placed in the post-astronomical period. The Vīşnu Purāna contains clear evidence of its awareness of the approach of the astronomers It talks of a co-relation between the coincidnce of planets and the extent of the ages (4-24-102) Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Semantic Changes in Krta, "Treta, Dvāpar and Kalı: 81 13 अन्तरे व सप्राप्त कलिद्वापरयोरभूत् । समन्त५पके युद्ध कुरुपाण्डवसेनयो ।। महाभारत 1-2-13 14 तेषु नि कुमारेषु जातेषु फुरुजाङ्गलम् । પ્રોબ્લપિ રાઠ્ઠાણા કૃત યુગમવર્તત 1 महाभारत 1-109-5 15 कालो वा कारण शो राजा वा कालकारणम् । इति ते सायो मा भूद् राजा कालस्य कारणम् ॥ 16 कृत त्रेतायुग चव द्वापर कलिरव च। राशो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगमुच्यते ॥ 17 कालो वा कारण रासो राजा वा कालकारणम् । इति ते सशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम् ।। दण्डनीत्या यदा राजा सम्बक्कास्यन वर्तते । तदा कृतयुग नाम कालसृष्ट प्रवर्तते ॥ दण्डनीत्या यदा राजा तीनशाननुवर्तते । તુમહામૃત્યુથ તવી વેતા પ્રવર્તતે માઁ ત્યવતુવા વવા રાની નીત્યર્ધમનુવતંતે . ततस्तु द्वापर नाम स काल सप्रवर्तते ॥ दण्डनीति परित्यज्य यदा कास्न्यन भूमिप । प्रजा क्लिनात्ययोगेन प्रवर्तत तदा कलि ॥ __ xxx कृत नेता द्वापर च कलिश्च भरतर्षभ । राजवृत्तानि सर्वाणि राजव युगमुच्यते ॥ महाभारत १२-६१-६ xxx कृत नेता द्वापर च कलिश्च भरतर्षभ ! राजमूला इति मतिभम नास्त्य सशय ॥ महाभारत १२-१४१-१० Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा 18 તે વતુષ્માત્ સનો નિર્ચાનોપાધિનત | વૃષ પ્રતિષ્ઠિતો ઘર્મો મળે મરતપુંજ ! અધર્મપાવઢતુ બ્રિમિરો પ્રતિષ્ઠિત ! તાયા દાપરેડને વ્યામિત્રો ઘમં સભ્યતે | તિમિરરઘમંડુ નાનામ્ય ઉતષ્ઠતિ | તામસ યુગમામાદ્ય તવા ભરતત્તમ વતુશેન મિસ્તુ મનુષ્યાનુવતિષ્ઠતિ ! મઠ્ઠા ભારત વનપર્વ અધ્યાય ૧૯૦–(૧૨) X વસુબાત્મનો ધર્મ સત્ય વંવ તે યુ ! નાઘબારામ કિવન્મનુષ્યાત વતંતે | ફિતવાળમાદ્ધર્મ પાવાવરોપિત છે. પરિવાનૃતમાયાધિશ્વાÉતિ પાવા | મા સર્વસિદ્ધાવતુર્વવંશાતાયુગ ! તે વધુ વાયુદ્ધત પાવા મનુસ્મૃતિ ૧ (૧-૨) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IMPORTANCE OF JAIN LITERATURE FOR THE STUDY OF DESYA PRAKRIT Dr H C BHAYANI [1] The term desī (alternatively, desya, deśaja etc ) has been used in several distinct but interconnected meanings Ancient Indian works on poetics defined Sanskrit and Prakrit as languages of literature The latter comprised a cluster of literary idioms (Sanskrit-dependent, considerably 'artificial and highly stylized) like Mābārāstrī, Apabhramśa, Paišācı, Sāurasenī, Māgdhi etc Sanskrit and Prakrit had to be learnt through formal instruction, and manuals of grammar and dictionaries were periodically composed by way of text books Prakrit grammars provided a set of rules for Sanskrit poets for turping Sanskrit into Prakrit of different varieties On the basis of phonological difference and derivability from Sanskrit, Prakrit words were traditionally into three categories Tatsama, Tadbhava and Deśya Those words which had the same sounds and meaning as their corresponding words in Sanskrit were Tatsamas, those which had modified sounds but the same meaning as their Sanskrit correspondents were Tadbhavas, those which were not derivable from Sanskrit ie not accountable either as tatsamas or as Tadbhavas and hence considered to be substitutes for Sanskrit words of correspondingly same meanings were Deśya words The Deśya class of words, traditionally used in literary works, were listed with meanings in special lexicons, like Hemacandras Rayanārali (also popularly known as Desināmamāla), which itselt refers to numerous earlier similar compilations The Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 H al-Highed out thout 3272 019 41 42+421 term desya or desī was usually and most frequently employed in this sense It designated that stock of Prakrit words which was found in the works of standard Prakrit authors, but which, unlike the rest of Prakrit words, was not derivable (according to the then accepted grammatical canons) from Sanskrit Manuals of Prakrit grammars had started to be composed from about the second century AD as shown by Vararuci's Prākrta prakāśa. Deśya lexicography too seems to have its begipnings there-about Among the earlier authorities on Deśya words cited by Hemacandra we find the name of Sālāhana, the famous royal poet and campiler of an anthology Prakrit lyrics, the Saptaśataka, who is generally assigned to the period of the second century AD From Hemacandra we also know that a dozen or more Deśya lexicographers preceded him, but their works are lost to us we are completely in dark about them, excepting a few citations and allusions in later works The importance of the Jain writings for studying Desya words is twofold Some Jain writers have made direct contribution to Deśya lexicography But the indirect contribution of the Jain literature in this regard is even much greater In sanskrit and Prakrit there is vast amount of literature, religious, exegetical and narrative, composed by the Jainas It camprises canonical texts and their commentaries (Cūrnis, Bbāsyas, etc), religious monographs (prakaranas) and the enormous amount of narrative works legendary biographies, tales, parables, anecdotes etc The language of these works is marked by causal or liberal use of Deśya words Hence they are an invaluable source for studying the character, function and history of the Deśis But so far very little work has been done in this regard. Hence, in the present short sketeh, no precise or reliable account the materials available from those sources can be given We offer just a few observations and rather haphazard illustrations with a view to impress on the readers the importance of studying the Jain writings from this view-point. [2] We came across a considerable number of Deśya words in Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of Jam literature for Deśya Prakut 85 thic language of the Jain canonical texts The following few words casually gleaned from only two or three texts may serve to illustrate? એન્જિય બઇ મન ईसत्य डाह છપય દેહિયા કોમચિય to resort to bear archery censure thiefs accomplice termite headlong harsh, fat curtain with mained hands कक्खड ડેય ૩૩ રે gum pit વ ૨૮ વહિના વિસ મડી गुठो મોન્તા गोल्हा lo smear squrrel to censure spittle log of wood cart bad horse olibanum the Bimba plant mendicants home angry multitude, pomp slap whip mud curtain wet and sticky skin, bark ઘસાના નતિથિ चडगर વડવેના વખે વિવવત્તા વિનિમિતી (બી) વોય Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ . संकृति-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा છત્તી છળ fછા छुक्करण છિવાડિયા छुरधर bark cow-dung touched shooing soit of book razor-case to release to burn to cause to shed search to rattle slice child, small branch લામ્ લોડ લોસા ટિટ્ટિયાત્ डगल डहर डाल crane तपण તુવ૮ ચિત્ત दवह्वस्त पहकर પાપાનિ પામિ શ્વ પારા પિરિપિરિયા પિરિની પુનપુલ પેહુબ પોડ વો groats to turn on sides occassion Patch quickly multitude slap borrow Pickase kind of musical instrument ss son continuous Peacock's feather frint swollun and depressed flesh પોમન belly પોડ પોન્ન to cross over hollow Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of Jain literature for Deśya Prakrit 89 પોતી loin cloth, piece of cloth suriye lung बप्प father dos matmaker વિનોની deceptive change of voice बोदि body shaven-headed વોડ મડી cart fમતિ मगुस મોડયા माढि મિસિમિસ્ મેરા रूअ लचा लडह ને છારિય વધાવી વધારિય वल्लर वहिलग सएज्झिग सयराह to ammount mongoose large ant armour to flare up boundary cotton rice flour bribe beautiful smeared hooting hanging down field beast of burden neighbour quickly deformed Similarly a much bigger list can be easily prepared from the huge commeterial literature Not only words but new formative suffixes and postpositions are found which after-wards gained wider currency in New Indo-Aryan Several past passive participles extended with -ella-(like gaellaya-, jāellaya-., laddhellaya-. siddhellaya, kahiellaya are found in Haribhadra's commentaries tanaina used with genetive to signify 'due to, an account of müla meaning ‘near' and ccāya as a possessive suffix are also attested from the same source, Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s૬ સંસ્કૃત-પ્રાકૃત વ્યાકરણ ર લ વ પરસ્પર The proportion of Deśya words in the Kathā-literature is still greater We may note some Deśya words from the Vasudevahimdi and the Kuvalayamāla From the Vasudevahimdi अवारी आल કમ્મર कुल्लरिय વોટ્ટી બિયારો shop useless infaluation Jungle sweetmeat seller servant girl cow elephant to throw vagaband nailcutter lonely lullaby bundle headman chief maternal uncle's daughter Fડિયા नहरण પરિવા થવાય વંદનિયા યહુલ્ય मेहुणया Past passive participlės in-ella કાબિલ્તિય, કદાનિયત્નિ, વિષ્ણત્તય, પડિલ્યન્તિય, ઇન્શિયા From the Kuvalayamālā બનીઢ માઠિયતિથ आयल्लय आलप्पाल untouched agent yearning meaningless, Prattle niche to touch to strike, to beat आलय બાલુ કાઢો Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of jam literature for Deśya Prakrit 89 उक्कठुल्लेय उक्कुरुड उक्खुड उत्तावल उप्पित्य સપ્પીના उपफागल उरुपुल्ल મોડું મોરન્તિ મોપ ओलग्न બોનેહડ longing garbage heap to pluck hurrying frightened multitude to tell cake earth digger roar scraping to serve fond of to decrease Asoka tree lotus multitude, Stock gambling board dough dumb bow ओहट्ट ककल्ली વો कडप्प ડિર कणिका कल्ल कोलवट्ठ किट्ट dirt कुभीरय कुडग कुडिन्छ कुहय कुहाड જોટી જોતુથ જોન્સિય aquatic creature bower hole, opening magic trick axe sort of veapon jackal Present oil cake contracted to fall short shield खल खल्लइय खुट्ट વેડયા Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा गहाभ પોહ મોસા गोसम्म चप्प चक्क चट्ट चडफड sport harsh noise cluster of blossoms morning morning to seize adorned pupil to be restless to destroy sticky dirt cricket round window चमढ़ નિતીશય चीरि चुपालय चोपालय छप्पण्णय fછવું छूढ छछईया जपाण जीमल्ल લોનિયા ठकुर डिभ, डिभरूय કોવિનય ढढा તવિય તડ્ડવિય तरवारि तल्लिन्छ નિિિ6 દુવડયા વિત્નિવિતિય दुप्परियल्ल કોન્સ man of taste and culture to touch thrown unchaste woman palanquin watchman bag village chief child domb drum spread sword eager Pollen sulky child unfathomable offense, treachery Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of Jam literature for Deśva Piakrit 91 निकमण निधोल નિસુવ નિવૂડ नेडालि ५च्चल ५.फिउिय पडिया village sewage to scowl to hide to result head ornament able bounced back to serve expert youthful tiger bundle पत्तट्ट पुअर्ड પુત્ર પોટ્ટાય OX वइल्ल વનામોડિયા वोल्ल મજુ भेल्लिय मउद मगुल मडह मुट forced to speak vixen attacked musical instrument bad, ugly small having bodily defect chaff fire to found dumb supporting beam to leave, to place to crawl guard beautiful मुम्मुर भूयल मेढी મલ્લ रग रक्खवाल रम्माउल रिछोलि row to hum to appear beautiful Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा लल्ल लल्लाय વ वकिय speaking indistinctly child eaten वच्चं वज्जर वट्ट वणे वलत्था વશ્વીય वारमा વાફિયાની વિરય વિસટ્ટ विहडफड वण्ण वेगसर वेल्लहल वोक्किल વોદ્રહ ordure to say to be sure possibly to mount horse's stable musical instrument quickly riding ground rivulet bloomed agitated dejected mule tender boasting youth kind of horse astrologer small stick, chip child exhausted kind of horse bed room din agitation to stir agitated haste વોત્તા सवर ક્ષિતિજ fસતિવ સુઢિયા से राह सोवणय हलवोल हलहल हल्लू हल्लफल हिरिमथ gram Page #585 --------------------------------------------------------------------------  Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा Next we pass on to the most extensive and outstanding extent work of Deśya lexicography, viz , Hemacandra's Rayanāvarī or Dešināmamālā Hemacandra aimed at preparing an up-to-date authentic lexicon of Dėśya words for Prakrit writers and readers on the basis of various previous works It was a very difficult and taxing task in view of the fact that something like utter confusion prevailed at that time in the field of Desya lexicography owing to disagreement among authorities, immature writers, ignorent scribes and poor condition of preservation of old texts It highly rebounds to Hemacandra's credit that, owing to his scientific attitude and practical approach, he succecded in introducing considerable measure of order where disorder reigned As a consequence the Dešināmamālā bad such a suceess that it eclipsed almost all the earlier Deśí lexicons, which in course of time went out of use and eventually disappeared altogether The success achieved by Hemacandra 10 this regard owes much to his adoption of some definite principles and methods in compiling his work He set up five criteria for defining the character and scope of the Deśya words (1) Those words which were confined to the ordinary speech of the peoples in various regions like Mahārāstra, etc (1 e words of regional dialects) were to be ignored. (11) Those prakrit words only which were handed down through the tradition reaching back to a boary past were to be noted (11) Of these words only those were Desya which were not analysable as complexes of root and suffix, and which could not be derived from Sanskrit through the grammatical processes of Loss, Intrusion, Modification etc (iv) Certain Prakrit words inspite of being analysable and derivable from Sanskrit, were to considered Deśya, if, in their Sanskrit form they were not found recorded in standard Sanskrit lexicons Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of Jain literature for Deśya Prakrit 95 (v) If the meaning of a Prakrit word could be explained through metaphorical transfer as compared with the meaning of the corresponding Sanskrit form of that word, that word was not be considered Desya Hemacandra introduced certain methodological innovations in the arrangement and presentation of his lexical material This made for greater orderliness and clarity and enhanced the reference value of his work He adopted an alphabetical order for the items selected, and under each latter-head he arranged the words according to the number of syllables Items with multiple meanings were separately grouped He composed verses to illustrate the use of the recorded items these also provided the necessary context to remove ambiguities where the glossing word (in Prakrit or Sanskrit) had several meanings Against the former practice, he excluded the verbal substituted (dhātvädeśas) from the lexion and assigned them to the Prakrit grammar, because of their special characteristic of combinability with derivative affixes of Sanskrit origin But for the sake of convenience and to avert any sudden break with the tradition, he noted them in his commentary on the Desī nāmamālā This commentary also served the purpose of a clearing house Hemacandra critically evaluated earlier work in Deśya lexicography, distinguishing between inaccurate and authentic ones on the other In his work he incorporated the materials from the latter sources In numerous cases of doubt or disagreement, he selected and rejected after properly weighing the available evidence, noted the alternatives where he found them equally authoritative and left the choise open where no decisive evidence was available. We can well imagine the enormous effort involved in this sort of task, and appreciate the high scholarly spirit which saved the Deśya lexicography from utter confusion and threatened oblision Hemacandra's Desīnāmamālā gives the meanings of about four thousand words. If we count a word with multiple meanings as so many separate words, then the number may go up by a thousand on the other hand the total would go down by a Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा few hundreds if we leave out those items which are mere orthographic or phonological variants of some other items, or are such as can be shown to be the result of some confusion or errori Even a superficial examination of the Deśis recorded by Hemacandra makes obvious some of its striking characteristics. A majority of these words are such that they are not known so far from any other source The Pāiasaddamahannavo (and other modern Prakrit dictionaries) do not cite for them any other authority It is however a fact that a considerable amount of Prakrit and Apabhramśa literature has remained as yet unpublished Our experience so far shows that newly published Prakrit works are found to contain Deśya words which had remained so far unattested from the published literature A considerable number of words of the Deśīnānamālā are such that though technically considered Deśya by Hemacandra's criteria, are quite good Tadbhavas and Hemchandra himself is fully aware of this alternative opinion The following are a few instances out of hundreds नववधू रहस्यभेदी अइसारा अरजुवई અમુલ્ફહરો अगक्खघो માયો મિત્રો अकुस इस બનાવો બન્નો જિજ્ઞો अचिरयुवति अ-गुह्यधर अग्रस्कन्व अग्रवेग आग्निक. अकुशित બરાનપર્ણ રળમુવમ્ नदीपूर इन्द्रगोपकोट. अकुशाकारम् अम्लिकावृक्ष ગિન चञ्चल अत्यधि अघधू अनेक+ध्य अस्ताचम् अन्यान्धु आत्म+ध्य अर्हति બધન્નો अरिह। अवगो अगाधम् कूप आत्मवश नूनम् कटाक्ष अपाङ्ग Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of Jain literature for Deśya Prakrit 97 अमिण्णपुडो अवरज्जो अविणयवरो अहिहर उरं आलयण आलासो मालीवण इदग्गी इदमहकामुओ उण्होदयभडो ऊआ एक्कधारिल्लो एक्कसाहिल्लो ओरतो બોનુ ओसीस कमणी अभिन्नपुट अपर+ छु । अविनयवर अहिगृहम् आतुरम् आकुलम् आलयनम् आलास्य બાવીપનમ્ इन्द्राग्नि इन्द्रमहाकामुक उष्णोदकभाण्ड यूका एक + गृह+'इल्ल' एक+शाख्य+'इल्ल' अवहप्त अवरूण બપશીર્ષ રિતપુટ યતિતં વિનમ્ जार पलभीक सग्राम અરણ્યમ્ वासगृहम् वृश्चिक પ્રદીપ્તમ્ तुहिनम् श्वा भ्रमर यूका देवर સમગી कुट्टक ટ્ટીયો एकस्थानवासी વિષ્ય नि स्थामा अपवृत्तम् नि श्रेणि चर्मकार वृत्तिविरम् सुपा कुलकलङ्क ग्रीवा प्राभृतम् नक्षत्रम् જુદી રમ્ ક્યનેપની कुलपासन कोड कुडीर જોવણી कुलफसणो कोलो વોનિય વાબો खुड्ड खेआलू પત્તિી ડીવ कोशलिकम વદ્યોત क्षुद्रम् लघु खेदालु नि सह अक्षमाला धनु गय गाण्डीवम् गतम् गगन रति गतस्वाद+उल' મળી गयणरई गयसाउलो गामेणी મેધ नि स्नेह छागी Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E गोसण्णो ધાવાહી ઘરઘંટો ધરચવો चउरविधो संस्कृते-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ૉસન્ન ધનાહી નવુરક્ષી વિધાન છડવરો છપ્પળો છાનો છિપ્પોન્મવા છુદહીરો છુરમઠ્ઠી હો ત્તસોવાય ન ંદ્રબો નવેન્ટિમારો जहणरोहो નહાનાબો નાનડિયા નેમાય નોાળો भिओ વિખી ખનવત્તખમી પા હેમુહો બત્તી માહિવામ ળાિિવજ્યેનો ખિસખ ાિર્બેડી ખિમ્મTM णिव्वित्ता गृहघण्ट गृहचन्द्र જંતુવિજ્ઞ સ્વસૂલી નિજ્ઞ યાન' षडक्षर પદ્મન છાયા | ફત્તું' fઇન્નોદ્મવા क्षद्रहीर ક્ષુરમવી क्षुरहस्त ક્ષેત્તવપનમ્ યજીન્દ્રઃ यद् + प्रेक्ष् + इ | म +માર્ચે ફર’ નધનરોદ્ યથાનાતઃ નાલયટિતા નેમનમ્ જ્યોતિર્િલૢા. વાલ્મિ ન્દ્રિની नक्षत्रनेमि નખોમુવ નમોવળી નાભિવામ નાભિવિન્દ્રેવ નિવસનમ્ નિશ્રૃતિ नि श्मश्रु નિવૃત્ત મૂર્હુ इन्द्र चटक આવશે सातवाहन વા મુખ્યત્ स्कन्द विदग्ध પ્રવીપ દૂર્વા શિશુ શશી નાપિત. નાપિત क्षेत्रे जागरणम् स्वच्छन्द् તવેવ મુાયતે यो यद् दृष्ट ન વન્દ્રશાલા दक्षिणहस्त ન્દ્રયોપ द्यूतकार गौ વિષ્ણુ धूक વિદ્યુત્ હણોનમાધ્યવામ નયનમ્ वस्त्रम् ૬+ तरुण સુપ્તોલ્પિત Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of Jam literature for Deśya Prakrit 99 મિત્ર બીસીમિત્રો તવમી તવસુમો તિવ તોવટ્ટી તૂળીમ્ નિર્વાસિત રૂદ્રમો कुरवक સત્યર્યમ્ fથળો. दृप्त નિર્મા सूकर રિલીસા નધોળ થેળિત્તિમ थेरासण दहिउफ વિધુત્તો વિહુના વિસામો વિશ્વાસ તુવેવસ્વરો નિમ્રતમ્ નિ સિમિત તાબ્રકૃમિ તામ્રકુસુમ तीनम् ત્રપુપટ્ટો स्त्यान સ્થિર શીર્ષ શૂનધોળા સ્તન +ન્તિ” વિરાસનમ્ વધપુષ્પમ્ નિધૂત વિવાદમુવતમ્ द्विजाधम વિશ્વાસ કચર કુમ हृतम् પૌમ્ નવનીતમ્ काक પૂર્વામાનનમ્ भासपक्षी નામુણ્ડા ષડ ઉદ્દનો તેવર કુવા મટ ત્તિમરમ્ દુમુદ્દો કુરાનોનો ઘવાસણો ઘારાવાયો ધારાવાસો धुअगाओ भ्रमर ટુરાનો धवलशकुन धारावाश ઘારા. યુવાય धूमाङ्ग ધૂમદારમ્ ધૂમÈવન ધૂમધ્વનહિષ્ય ધૂમ મહિલી धूमशिखा भ्रमर ધૂમો गवाक्ष ધૂમરિ ઘૂમદ્દબો ધૂમધ મહિલીબો ધૂમ મહિલી धूमसिहा પાહો पक्कसावओ પો પન્નગુની તતા ત્તિ નીટ્ટાર नीहार मकर शरभ સમર્થ पक्वमाह पक्वश्वापद पक्व પષ્નાકૃતિ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा रुद्र मयूर रहस्यभेदी शिर हस कुक्कुट कोकिला गुद पडरगो पयलायभत्तो પત્તનીહો पवरग પાડનસ ડખો પાયખહળો. पिअमाहवी पिट्टत पिंगगो पुडइ वप्फाउल वहुमुहो वभहर बहुरावा भयवगामो भाउज्जा મિસિના भुक्खा भूअण्णो भूमिपिसाओ માડમોળી मउ मगलसज्झ મગ્ન मज्झिमगड મડવોક્સા मकट પિડીતમ્ મયૂળ દુર્બન कमलम् શિવા मोढेर कम् पाण्डुराग प्रचलाक-भक्त पर्यस्तजित प्रवराङ्गम् पाटलशकुन पादप्रहण प्रियमाधवी पृष्ठान्त पिङ्गाङ्ग पुटाकतम् वाष्पाकुलम् बहुमुख ब्रह्मगृहम् वहुरावा भयवगामो ઝાતુર્નાયા वृसिका वुभुक्षा भू+यज्ञ भूमिपिशाच. मतिमोहिनी मृदुकम् मङ्गलसाध्यम् मर्यादा मध्यमकाण्डम् भृत+वाह्या મૃત मणिनागगृहम् मणिरचिता માનવતા મનવાસ महाङ्ग મમૃખમ્ महानट ખે વસે યજ્ઞ ताल વીનમ્ વનવાપરોષ ક્ષેત્રમ્ उदरम् शिविका मडो मणिणायहर मणिरा मधाओ मणिवासो महगो मसिण महानडो समुद्र कटिसूत्रम् पाढ्य कन्दप उष्ट्र रम्यम् रुद्र Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મહાવિજ્ઞ મહાલવવો महावल्ली महासउणो महासहा મહુમુદ્દો माउआ मारिलग्गा माह मुहरोमराई मुहल मूअलो मेरा मेहच्छी र રહેવું रछामओ रतच्छो रतय रयणिद्धय રસાળો रसाल रिच्छी भल्लो रिट्ठो રવર્તનો रोमलयासय નાસવિદ્યો वइरोअणो वको वगच्छा वच्छ વણસવાર્યું વર્ત્યકો वायण વાયાડો Importance of Jam literature for Deśya Prakrit 101 महाविलम् વ્યોમ महालय पक्ष भाद्रपदे श्रद्धपक्ष મહાવી नलिनी महाशकुन महाशब्दा મધુમુલ मातृका मारीलग्ना माघम् मुखरोमराजि मुख + 'ल' मूक + 'ल' મર્યાવા मेघक्षीरम् રતિલક્ષ્યમ્ रथ्यामृग रक्ताक्ष रक्तक रजनीध्वज रसाद रसाल तक्ष+भद्र अरिष्ट રેવત रोमलताशयम् लासकविहग वैरोचन पङ्क वकाक्षा पक्ष वनश्वपाकी वस्त्रकुट उपायनम् वाचाट उ શિવા पिशुन दुर्गा कुत्सिता कुन्दकुसुमम् भ्रू मुखम् मूक जलम् जघनम् श्वा हस बन्धूकम् कुमुदम् भ्रमर मार्जिता ऋक्ष काक मातर उदरम् मयूर बुद्ध कलङ्कम् प्रमथा પાર્શ્વમ્ कलहकण्डी वस्त्राश्रय भोज्योपायनम् शुक Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा कुन्द श्वा मन्त्री राहु वालवासो वासदी વાસવાનો वाहगणओ વિનુત્તત્રિો विममय विसारओ विहुडुओ વેબાનો. वेणुणासो सरपसहो सालासो स३ सिलिपो सत्तावीमजोअणो सहाल समुणवणी मिगिणी मिसिर મિડફો मिहरिणी मितरिल्ला मिहिण मिही नीरोहोनिमा मीतगती मुजट्टो वालपाश शिरआभरणम् पासन्ती वासपाल विवाहगणक विलुप्तहृदय य काले कार्य कर्तुं न जानाति विपमयम् भल्लातकम् વિવાર धृष्ट विधुन्तुद વેનાના अन्धकार વેળુનાશ भ्रमर खेरवृषभ धर्मार्थमनोवृषभ सदालक्षक सनीशिशु स्कन्द સપ્તવાતિદ્યોતના इन्दु शब्द + 'आल' नूपुरम् સમુદ્રનવનીતમ્ अमृतम्, चन्द्र शृङ्गिणी शिशिरम् दधि शिखण्ड | 'इल्ल' वाल , मयूर શિવરણી માનતા शिखर डल्ला' માનતા शिखिन् स्तन શિવ कुक्कुट शिरउपहासिका लज्जा सिंहनसी करमन्दिका सुरज्येष्ठ वरुण सुखस्वावा मूर्यध्वज વિન पोडणावर्तक श हरिचन्दनम् पुपु.मम् हरित कल्यम् मुहाणी मयूरी नइओ गोल्हावतो हरिन शुक हिजो त्य Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of Jain literature for Deśya Prakrit 103 Allied to the above, and more or less distinguishable from it is another growth of words, whose Sanskritic origin is not so obvious, but which can be made out with some effort Note for example the following words agarach words ततम કસ્તુતિમાં अअ માવો अइगय ફરો अकाक्ष Vedic 3f44147 અતિરાના Vedic affaritat ऋष्यक नि+बुक्क ] अन તૃપ્તિ હિત વિસ્તારિતમ્ नि स्नेह પ્રવિટમ્ आयुक्त માનીતમ્ મૃવિશેષા ફેંસલો નિહાળો वायस = So also વાળો= ૩qવવા–પ્રાપિતમ્, વુવાસા =મી વોન્નિો 3467 toege contain 444 'to boasť 'to babble' ગ્રીષ્મમુવમ્ હસ્તી હવહુને દુધુ વેહળી લાસિનો ओहसो ओहरिसो પ. झत्य નોમય વન્દનપર્વ શિના નદમ્ पादपतनम् नख સમાર્નની =વમિમુવમ્ . / = પિમ્ from rae 'smear' =માનસિકોત્રમાસિક બેવધર્ષ ધ્વસ્તમ્ =ાવડા पर्वज = વૈદુમાર = વહુારી from મy sel from 1776 from | જૈવી મf+ વન–૬+ફર a from 5 to roar રોનિક Vedic ay મમેં વિરે वलयागी પાડવાની પવષ્પો વલદ્દારી મસુબા અવળો. મમીસિના मग्गणिरो વો. રોમણિયા વઝ વમીસ કો वलयगी શિવા વા अभय प्रदानम् अनुगमनशील मन्यान ડાવિની તવષ્યમ્ काम વૃતિમતી Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सिंधुओ (from The +59) सिता (from tga) fમમ્ Past passive participles like au (014), qe (eran), fee (27) etc are to be explained as analogical formations A very large number of words from those recorded by Hemacandra have been inherited by the New Indo-Aryan languages. They are very valuable for thc History of non-Aryan element of the NIA vocabulary and convessely, some uncertainties about the proper form and meaning of the Desya words can be cleared with the help of the corresponding NIA words fear and not Tuol is the correct form (DN 8 29.7461 = Hifolia) as shown by Gujarati Htet etc, 45€ is the correct form and not 455 (DN 6, 66 4551 =la ) in view of Gujarati qart 465011 (6, 8=7241919 ) Should be TE 311 as shown by Gujarati 4ic Besides this lexical importance, the Desya materials of the Desinamamala Prove to be a valuable source for data on Middle Indo Aryan word-formation in view of several suffixes like °7, 044 'S, °527, °37154, °$07, o$x, Sony, Oct etc From quite a different angle the Desinamamala proves further its great importance for us Numerous items are useful for sheding light on the cultural condition prevalent in the later part of the first millenium Names of several popular festivals, customs and games are recorded by Hemacandra We may draw attention to the explanations of words like 37$crunt, fuul 51, 34154441,31144951, 5 so116441, Atl, Tetunt, pogoda HU1, 419941, care 4145431), HEIS19401, 4ovej, alessil, 45GHET, IR+Eo? etc We have here very rich materials for studying religious, sociological and economic aspects of the society of those times Trivikrama's Prakrit grammar almost wholly depends upon Hemacandra for its section on the Desya words, and it is quite obvious that Henicandra standing at the dawn of New Indo Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Importance of Jam literature for Deśya Prakrit 105 Aryan also symbolized the end of fresh lexicographical activity in Prakrit Before we close this brief account it is necessary to point out a third source of information about the Deśya expressions, for which all the credit goes to the Jain writers Since the period of the Cūrnis Jain writers practised a style of writing in which Prakrit was liberally interspersed with Sanskrit From about the eighth century another style becomes current in which the Sanskrit is characterized by an under current of Prakrit that becomes in course of time more and more pronounced and vigorous The narratives found in the Bhāsya, Carīta, Dharmakathā, Kāvya and Prabandha literature of the Jainas are composed in a peculiar kind of Sanskrit, called Jain Sanskrit, which contains numerous Prakrit (and later on, New Indo-Aryan) words, expressions and idioms in a Sanskritic garb Upamıtıbhayaprapancakatha of Siddharşı, the canonical commentaries of Abhayadeva and others, Hemcandra's Trisastišalākāpuruşacarita, Harişena's Bihatkathakosa and the Prabandha's Merutunga, Rājasekhara and others are the typical examples Some of these texts have been already studied from this point of view, but the literature being vast much remains still to be done It is hoped that even this sketching account would not fail to impress upon the readers the great value of Jain writings for the study of the Desya words and hence for the history of middle and New Indo-Aryan This field of study has unfortunately attracted very few scholars So long as this area is not fully explored, we cannot hope to full large gaps in the history of Indo-Aryan, Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ । सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा Notes 1. For two small efforts by way of making a beginning in this direction, see the following two articles of mine 2 cita ihmet 412 412 537 (for sit ame]464 c4fa7-7727), qui a44 AM 6H46 21667 (TEN 1764017 4126-1977) a con il lett 4 HIYOT 5418 I 247-4415 Hit #f471427 Shule YHT || (pret-c105-tel, 5) 3 See the word index to the three volumes of Svayambhủ, deva's Paumacarıya edited by H C Bhayanı, 1953, 1960 4 See R. N Shriyan, A critical study of the Deśya and rare words from Puspadanta's Mahāpurāna, and other Apabhramśa works, 1969 The Paumasırı Caniya of Dhāhila (ed by M C Modi and H C Bhayanı,) has Deśya words The number for the Vilāsavaikahā of Sādhārana (ed Shah to be shortly published) is about one hundred and fifty. The word index given in other Apabhramśa works take the Karakanda Cariya, the Jambūsamı Cariya of Vira etc. also Deśya words 5 See the word index (prepared by R N Shriyan) to śānti sūri's Puhaicamdacarıya edited by Muni Ramnikvijaya, 1972 In the Index of Deśya word given in the third Appendix to Sīlānka's Caupannamahapusisacariya (ed by A M. Bhojaka, 1961), composed in 869 A D same five hundred items are listed Similarly from the Ākhyanakamanikośayrtti of Āmradeva (ed by Muni Punyavijaya, 1962), composed in 1134 AD about four hundred Deśya words are noted in the third Appendix to that work Actually both those works contain many more Deśya words 6 See H C Bhayanı, Studies in Hemcandra's Deśînāmamālā, 1966 7. See H C Bhayanı, 'Origins of multiple meanings of Desya words', Vidya, 9 1967, pp 30-37 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- _