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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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ananthanar
सुलभजैन ग्रन्थमाला
संस्कृत जैननित्यपाठसंग्रह ।
.. वीरनिर्वाण संवत् २४५५
sasvabhaavavatva
६३०९. A.
संपादक - पन्नालालबाकलीवाल सुजानगढ निवासी प्रकाशक और मुद्रक - श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ मंत्री - भारतीय जैन सिद्धांतकाशिनी संस्था जैन सिद्धांत प्रकाशक ( पवित्र ) प्रेस
६ विश्वकप लेन कलकत्ता ।
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न्योछावर चार माने
- - 55 पर पर पंह ॐ ॐ
-K10
p53.3.
"
नं० २६
'बोभूवाला. संधी मोतीजान मास्ट
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विज्ञप्ति। अनेक धर्मात्मा भाई स्नान पूजादि करके मंदिरजीमें जाकर भकामर आदि स्तोत्रोंका पाठ भावपूर्वक किया करते हैं। पाठ करनेकी पुस्तक हस्त लिखितकी प्राप्ति न होनेसे अन्य जगहकी मांसके (सरेसके ) वेलनसे छपी, सरेससे ही जिल्द बंधो हुई पुस्तक परसेही (जिसके छूनेसे तन मन दोनों ही अपवित्र होजाते हैं) किया करते हैं इसकारण इस संस्थाने संस्कृत और भाषा दोनों प्रकारके गुटके।
अपने पवित्र प्रेसमें कपडेके वेलनसे छपाकर तैयार किये हैं। पाठ भी नित्य काममें |आनेवाले बहुत शुद्ध करके छापे हैं। अतपत्र सब भाइयोंको इस पवित्र गुटके परसे। ही नित्य पाठ करना चाहिये। भाद्रपद कृष्णा तृतीया ) . __ आपका हितपीवीर सं० २०५५। 3 पन्नालाल बाकलीवाल सुजानगढ़ निवासी
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संस्कृत पाठोंकी सूची।
संख्या
पृष्ट | संख्या १ जिनसहस्रनामस्तोत्रं
| महावीराष्टकस्तोत्र २ आदिनाथस्तोत्रं (.भकामरस्तोत्र).३६/८ मंगलाष्टकं |३.कल्याणमंदिर स्तोत्रं ४. एकीभावस्तोत्रं वादिराजप्रणीतं ६५
| & अकलंकस्तोत्र 1५ विषापहारस्तोत्रं
१५/२० मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थ सूत्राणि ) ११४ ६ जिनचतुर्विशतिका भूपालकवि ८६ | ११ भावनाद्वात्रिंशतिका
इति पाठानुक्रमणिका ।
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संस्कृत जैननित्यपाठसंग्रह
भगवजिनसेनाचार्यकृतं श्रीजिनसहस्रनाम स्तोत्र खयंभुवे नमस्तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि । खोरमनैव तथोद्धतवृत्तये चिंत्यवृत्तये ॥१॥ नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभत्रे नमो नमः।विदांवर नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥२॥ काम
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श्रीजिनसंहस्रनामस्तोत्रम् शत्रुहणं देवमामनन्ति मनीषिणः । त्वामानमत्सुरेण्मौलिभामालाभ्यर्चितक्रमम् ॥३॥ ध्यानदुर्घणनिभिन्नघनघातिमहातरुः। अनन्तभवसंतानजयोप्यासीरनन्तजित् ॥ ४ ॥ त्रैलोक्यनिर्जयाव्यातदुर्दमतिदुर्जयम्। मृत्युराज विजित्यासी बन्ममृत्युञ्जयो भवान् ॥५॥विधूताशेषसंसारो बन्धुनों भव्यबान्धवः । त्रिपुरारिस्त्वमीशोसि जन्ममृत्युजरान्तकृत् ॥ ६ ॥ त्रिकालविजयाशेषतत्स्वभेदात् त्रिधोच्छिदम्। केवलाख्यं दध: चक्षुत्रिनेत्रोसि त्वमीशितां ॥७॥ त्वामन्धकान्तकं प्राहुर्मोहा
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• श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् न्धासुरमईनात् । अर्द्धन्ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोस्युत ॥
॥ शिवः शिवपदाध्यासाद् दुरितारिहरोहरः।शंकर कृतज्ञ लोके संभवस्त्वं भवन्मुखे॥९॥वृषभोसि जगज्ज्येष्ठः गुरुगुरु गुणोदयैः। नामेयो नाभिसंभूतेरिक्ष्वाकुकुलनन्दनः ॥१०॥ त्वमेक-पुरुषस्कन्धस्त्वं द्वेलोकस्य लोचने। त्वं त्रिधाबुधसन्मार्गस्त्रिज्ञस्त्रिज्ञानधारकः ॥११॥ चतुःशरणमांगल्यमूर्तिस्त्वं चतुरः
सुधीः। पञ्चब्रह्ममयो देवः पावनस्त्वं पुनीहि माम् ॥१२॥ "स्वर्गावतारिणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नमः । जन्माभिषेक
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श्रीजिनमहसनामस्तोत्रम् . . वामाय वामदेव नमोस्तु ते॥ १३ ॥ सुनिःक्रांताय घोराय पर प्रशममीयुषे। केवलज्ञानसंसिद्धावीशानाय नमोस्तु ते ॥१४॥ पुरुस्तत्पुरुषत्वेन: विमुक्तपदभागिने । नमस्तत्पुरुषावस्था भावनानघ विभ्रते ॥१५॥ ज्ञानावरणनिर्हास नमस्तेऽनन्तचक्षुषे । दर्शनावरणोच्छेदान्नमस्ते विश्वदर्शिने ॥ १६ ॥ नमो दर्शनमोहादिक्षायिकामलदृष्टये। नमश्चारित्रमोहने विरागाय महोजसे ॥ १७ ॥ नमस्तेऽनन्तवीर्याय नमोनंतसुखाय ते ।। नमस्तेऽनतलोकाय लोकालोकविलोकिने॥१८॥नमस्तेऽनंत
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् .. . ५ दानाय नमस्तेऽनंतलब्धये । नमस्तेऽनंतभोगाय नमोऽनताय भोगिने ॥ १९॥ नमः परमयोगाय नमस्तुभ्यमयोनये । नमः परमपूताय नमस्ते परमर्षये ॥२०॥ नमः परमविद्याय नमः परमवच्छिदे । नमः परमतत्त्वाय नमस्ते परमात्मने ॥२१॥ नमः परमरूपाय नमः परमतेजसे। नमः परममार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने ॥ २२॥ परमर्द्धिजुषे धाम्ने परमज्योतिषे नमः । नमा पारेतम प्राप्तधाम्ने. ते परमात्मने ॥२३॥ नमः क्षीणकलंकाय क्षीणबंध नमोस्तु ते । नमस्ते क्षीणमोहाय क्षीण
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....श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् दोषाय ते नमः॥२४॥ नमः सुगतये तुभ्यं शोभनागतमीयुषे । नमस्तेऽतीन्द्रियज्ञानसुखायानिन्द्रियात्मने ॥२५॥ कायबंधननिर्मोक्षादकायाय नमोस्तु ते। नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनामपि योगिने ॥२६॥ अवेदाय नमस्तुभ्यमकषायाय ते नमः।नमः परमयोगीन्द्रबंदितांघिद्वयाय ते ॥२७॥ नमः परमविज्ञान नमः परमसंयम । नमः परमहरदृष्टपरमार्थाय ते नमः ॥२८॥ नमस्तुभ्यमलेश्याय शुक्ललेश्यांशंकस्पृशे । नमो भव्येतरावस्थाव्यतीताय विमोक्षणे ॥२९॥ संज्ञासंज्ञिद्वया
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श्रीजिनसहसनामस्तोत्रम् वस्थातिरिक्तामलात्मने।नमस्तेवीतसंज्ञाय नमःक्षायिकदृष्टये ॥३०॥ अनाहाराय तृप्ताय नमः परमभाजुषे । व्यतीताशेषदोषाय भवाद्वै पारमीयुषे ॥३शा अजराय नमस्तुभ्यं नमस्तेतीतजन्मने । अमृत्यवे नमस्तुभ्यमचलायाक्षरात्मने ॥३२॥ अलमास्तां गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणाः । त्वन्नामस्मृति मात्रेण परमं शं प्रशास्महे ॥३३॥ इति प्रस्तावना
: . प्रसिद्धाष्टसहस्रद्धलक्षणस्त्वं · गिरांपतिः । नानामष्ट
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् । सहस्रेण त्वां स्तुमोऽभीष्टसिद्धये ॥ १ ॥ एवं स्तुत्वा जिनं देवं भक्त्यापरमया सुधीः । पठेदष्टोचरं नाम्नां सहस्रं पापशान्तये ।। श्रीमान्खयंभूवृषभः शंभवः शंभुरात्मभूः। खयंप्रभः प्रभुभोक्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥ २ ॥ विश्वा, त्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षरः । विश्वविद्विश्ववि: येशो विश्वयोनिरनीश्वरः॥३॥ विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचनः । विश्वव्यापी विधिर्वेधाः शाश्वतो विश्वतोमुखः॥४॥ विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमार्जिनेश्वरः ।
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श्रीजिनस रखनामस्तोत्रम्
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विश्वदृक् विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वरः ॥ ५ ॥ जिनो जिष्णुरमेयात्मा जगदीशो जगत्पतिः । अनंतचिदचिंत्यात्मा भव्यबंधुरबंधनः ॥ ६ ॥ युगादिपुरुषो ब्रह्मा पंचत्रह्ममयः शिवः । परः परतरः सूक्ष्मः परमेष्ठी सनातनः ॥ ७ ॥ स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिजः । मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वजः ॥ ८ ॥ प्रशांतारिरनंतात्मा योगी योगीश्वरार्चितः । ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्त्वज्ञो ब्रोद्याविद्यतीश्वरः ॥ ९ ॥. शुद्ध बुद्धः प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः । सिद्धः सिद्धां
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'श्रीजिनसइस्रनामस्तोत्रम् तविद् ध्येयः सिद्धसाध्यो जगद्धितः ॥१०॥ सहिष्णुरच्युतो: नंतःप्रभविष्णुर्भवोद्भवः । प्रभूष्णुरजरोऽजों भ्राजिष्णु/श्वरोऽव्ययः॥११॥विभावसुरसंभूष्णुः खयंभूष्णुः पुरातनः। परमात्मा परंज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वरः ॥ १२॥
इति श्रीमदादिशतम् ॥१॥ (यहां उदकचंदनतंदुल......आदि श्लोक पढ़कर अर्ध चढ़ाना चाहिये ) दिव्यभाषापतिर्दिव्यः पूतवाक्पूतशासनः। पूतात्मा परमज्योतिर्धाध्यक्षो दमीश्वरः ॥१॥ श्रीपतिर्भगवानहन्नरजा
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् . . १९ विरजाःशुचिः तीर्थकृत्केवलीशान्तः पूजाहःस्नातकोऽमलः।। २॥ अनंतदीतिज्ञानात्मा खयंबुद्धः प्रजापतिः। मुक्तः शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वरः॥३॥ निरंजनो जगज्ज्यो तिनिरुक्तोक्तिनिरामयः अचलस्थितिरक्षोभ्यः कूटस्थः स्थाणुरक्षयः॥४॥ अग्रणीमिणीनेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् । शास्ता धर्मपतिर्धम्र्यो धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ॥ ५॥ वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुधः । वृषो वृषपतिर्भर्ता, वृषभांको कुपोद्भवः॥ ६ ॥ हिरण्यनाभिर्भूतात्मा भूतभृद्भूतभावनः ।
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१२:
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् प्रभवों विभवो भास्वान भवो भावो भवांतकः ॥ ७ ॥ हिर ण्यगर्भः श्रीगर्भः प्रभूतविभवोद्भवः । स्वयंप्रभुः प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्प्रभुः। सर्वादिः सर्वदृक् सार्वः सर्वज्ञः सर्व दर्शनः । सर्वात्मा सर्वलोकेशः सर्ववित्सर्वलोकजित् ॥९॥ सुंगतिः सुश्रुतः सुश्रुक् सुवाक् सूरिबहुश्रुतः । विश्रुतो विश्वतःपादो विश्वशीर्षः शुचिश्रवाः ॥१०॥ सहस्रशीर्षः क्षेत्रज्ञः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूतभव्यभवद्भर्ता विश्वविद्या महेश्वरः॥११॥
इति दिव्यादिशतम् ॥२॥ अघं। .
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१३
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श्रोजिनसहस्रनामस्तोत्रम् स्थविष्ठः स्थविरो ज्येष्ठः पृष्ठः प्रेष्ठो वरिष्ठधीः। स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठः श्रेष्ठो निष्ठो गरिष्ठगीः॥१॥ विश्वभृद्विश्वसृद् विश्वेद विश्वभुग्विश्वनायकः। विश्वाशीविश्वरूपात्मा विश्वजिद्विजितांतकः ॥२॥ विभवो विभयो वीरो विशोको 'विजरो जरन् । विरागो विरतोऽसंगो विविक्तो वीतमत्सरः ॥३॥ विनयेजनताबंधुर्विलीनाशेषकल्मषः। वियोगो योगविद्विद्वान्विधाता सुविधिः सुधीः ॥४॥क्षांतिभाक्पृथिवीमूर्तिःशांतिभाक्सलिलात्मकः। वायुमूर्तिरसंगात्मा वह्निमूर्ति
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४]
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् रधर्मधृक् ॥५॥ सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सुत्रामपूजितः।. ऋत्विग्यज्ञपतिर्यज्ञो यज्ञांगममृतं हविः॥९॥ व्यो मा निर्लेपो निर्मलोऽचलः। सोममूर्तिःसुसौम्यात्मा सूर्यमूतिर्महाप्रभः॥७॥मंत्रविन्मंत्रकृन्मंत्री मंत्रमूर्तिरनंतकःखतंत्रस्तंत्र कृत्वांतः कृतांतांतः कृतांतकृत् ॥८॥ कृती कृतार्थः सत्कृत्यः कृतकृत्यः कृतक्रतुः। नित्योमृत्युंजयोमृत्युरमृतात्मामृतोद्भवः. ॥९॥ ब्रह्मनिष्ठः परब्रह्म ब्रह्मात्मा ब्रह्मसंभवः । महाब्रह्मपतिब्रह्मेट महाब्रह्मपदेश्वरः॥ १० ॥ सुप्रसन्नः प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्म
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श्रीजिनसंहस्रनामस्तोत्रम् .. . . . R५ दमप्रभुः। प्रशमात्मा प्रशांतात्मा पुराणपुरुषोत्तमः॥११॥
.इति स्थविष्ठादिशतम् ॥ ३॥ अर्घ । महाशोकध्वजोऽशोकः कः स्रष्टा पद्मविष्टरः । पद्मशः पद्मसंभूतिः पझनाभिरनुत्तरः॥१॥ पद्मयोनिजंगयोनिरित्यःस्तुत्यः स्तुतीश्वरः । स्तवनाों हृषीकेशो जितजेयः कृतक्रियः ॥२॥ गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्यः पुण्यो गणाग्रणीः । गुणाकरो गुणांभोधिर्गुणज्ञो गुणनायकः ॥३॥ गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः । शरण्यः पुण्यवाक्पूतो वरेण्यः
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98]
श्रीजिनस हस्रनामस्तोत्रम्
पुण्यनायकः ॥ ४ ॥ अगण्यः पुण्यधीर्गण्यः पुण्यकृत्पुण्यशा सनः । धर्मारामो गुणग्रामः पुण्यापुण्यनिरोधकः ॥ ५ ॥ पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मषः । निर्द्वद्वो निर्मदः शांतो निर्मोहो निरुपद्रवः ॥ ६ ॥ निर्निमेषो निराहारो निःक्रियो निरुपप्लवः । निष्कलंको निरस्तैना निर्धूतांगो निराश्रयः ॥ ७ ॥ विशालो विपुलज्योतिरतुलोचिंत्यवैभवः । सुसंवृतः सुगुप्तात्मा सुवृत्सुनयतत्त्ववित् ॥ ८॥ एकविद्यो महाविद्यो मुनिः परिवृढः पतिः । धीशो विद्यानिधिः साक्षी विनेता
.
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम्
[१७ विहतांतकः॥९॥ पितापितामहःपातापवित्रः पावनो गतिः। त्राता भिषग्वरो वयाँ वरदः परमः पुमान् ॥१०॥कविः पुराण: पुरुषो वर्षीयान्वृषभः पुरुः। प्रतिष्ठाप्रसवो हेतुर्भुवनैकपिता. महः ॥११॥
इति महाशोकध्वजादिशतम् ॥५॥ अर्ध । श्रीवृक्षलक्षणः श्लक्ष्णोलक्षण्यःशुभलक्षणः। निरक्षः पुंडरीकाक्षः पुष्कलः पुष्करेक्षणः ॥१॥ सिद्धिदः सिद्धसंकल्प सिद्धात्मा सिद्धिसाधनः। बुद्धबोध्यो महाबोधिर्वधमानो मह
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१६
: श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् चिकः ॥२॥ वेदांगो वेदविद्वद्योजातरूपो विदांवरः । वेदवेद्यः स्वयंवेद्यो विवेदो वदतांवरः ॥३॥ अनादिनिधनो व्यक्तो व्यक्तवाग्व्यक्तशासनः । युगादिकृयुगाधारो युगादिर्जगदादिजः॥४॥ अतींद्रोऽतींद्रियो धींद्रो महेंद्रोऽतींद्रियार्थदृक् । अनिद्रियोऽहमिंद्रायॊ महेंद्रमहितो महान् ॥५॥ उद्भवः कारणं कर्ता पारगो भवतारकः । अग्राह्यो गहनं गुह्यं पराओं परमेश्वरः॥६॥अनंतद्धिरमेयर्द्धिरचिंत्यर्द्धिः समग्रधीः। प्रायः प्राग्रहरोऽभ्यप्रयः प्रत्यग्रोग्रयोग्रिमोग्रजः॥७॥ महातपा:महा.
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____ श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् ..... तेजा महोदर्को महोदयः। महायशो महाधामा महासत्त्वो महाधृतिः॥८॥ महाधैर्यो महावीर्यों महासंपन्महावलः । महाशक्तिमहाज्योतिर्महाभूतिर्महाद्युतिः ॥९॥ महामतिर्महानीतिर्महा क्षांतिमहोदयः। महाप्राज्ञो महाभागो महानंदो महाकविः ॥१०॥ महामहामहाकीतिमहाकांतिमहावपुः। महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुणः ॥११॥ महामहः पतिः प्राप्तमहाकल्याणपंचकः । महाप्रभुमहापातिहार्याधीशो महेश्वरः॥ १२॥.
इति श्रीवृक्षादितशम् ॥ ५॥ अर्ध ।
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् महामुनिमहामौनी महाध्यानीमहादमः महाक्षमोमहाशीलो महायज्ञो महामखः॥१॥ महाव्रतपतिर्मह्यो महाकांतिधरोड धिपः। महामैत्रीमयोऽमेयो महोपायो महोदयः ॥२॥ महाकारुण्यको मंता महामंत्रो महायतिः। महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपतिः॥३॥ महाध्वरधरो धुर्यो महौदार्यों महेष्टवाक् । महात्मा महसांधाममहर्षिर्महितोदयः ॥४॥ महा- . क्लेशांकुशः शूरोमहाभूतपतिर्गुरुः । महापराक्रमोऽनंतो महाक्रोधरिपुर्वशी ॥५॥ महाभवाब्धिसंतारिर्महामोहाद्रिसूदनः।
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् .. .. ... .२१. महागुणाकरः क्षांतो महायोगीश्वरः शमी ॥६॥ महाध्यानपतिर्ध्याता महाधर्मा महाव्रतः। महाकर्मारिरात्मज्ञो महादेवो महेशिता ॥७॥ सर्वक्लेशापहः साधुः सर्वदोषहरो हरः। असंख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकरः॥८॥सर्वयोगीश्वरोऽचिंत्यः श्रुतात्मा विष्टरश्रवाः । दांतात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वगः ॥९॥ प्रधानमात्मा प्रकृतिः परमः परमोः दुयः। प्रक्षीणबंधःकामारिःक्षेमकृत्क्षेमशासनः॥१०॥प्रणवः प्रणयः प्राणः प्राणदःप्रणतेश्वरः। प्रमाणं प्रणिधिदक्षोदक्षिणो
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२२]
श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् ध्वर्युरध्वरः॥ ११॥आनंदो नंदनो नंदो बंद्योऽनिंद्योऽभिनंदनः। कामहा कामदः काम्यः कामधेनुरारंजयः॥१२॥
इति महामुन्यादिशतम् ॥ ६ ॥ अर्ध । • असंस्कृतःसुसंस्कार प्राकृतो वैकृतांतकृत् । अंतकृत्कांतिगुः कांतचिंतामणिरभीष्टदः॥१॥अजितो जितकामारिरमितोऽमितशासनः । जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितांतक: ॥२॥ जिनेंद्रः परमानंदो मुनींद्रो दुंदुभिस्वनः। महेंद्रवंद्यो योगींद्रो यतींद्रो नाभिनंदनः ॥३॥नाभयो नाभिजो जात:
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम्
[२३ सुव्रतो मनुरुत्तमः । अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वानधिकोऽधिगुरुः सुधीः॥४॥ सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षों निरुत्सुकः। विशिष्टः शिष्टभुक् शिष्टः प्रत्ययः कामनोऽनघः॥५॥क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्यःक्षेमधर्मपतिः क्षमी । अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो. ध्यानगम्यो निरुत्तरः॥६॥ सुकृती धातुरिज्याहः सुनयश्चः तुराननः। श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुखः ॥७॥ सत्यात्मा सत्यविज्ञानःसत्यवाक्सत्यशासनः। सत्याशीः सत्यसंधानः सत्यः सत्यपरायणः॥८॥ स्थेयान्स्थवीयानेदीयान्दवीयान्दूर
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२४]
श्री जिन सहस्रनामस्तोत्रम्
दर्शनः । अणोरणीयाननणुर्गुरुराद्यो गरीयसां ॥ ९ ॥ सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशिवः । सदागतिः सदासौख्यः सदाविद्यः सदोदयः ॥ १० ॥ सुघोषः सुमुखः सौम्यः सुखदः सुहितः सुहृत् । सुगुप्तो गुशिभृद्गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वरः ॥११॥
इति असंस्कृता दिशतम् ॥ ७ ॥ अर्थ |
वृहन्वृहस्पतिर्वाग्मी वाचस्पतिरुदारधीः । मनीषी धिषणो धीमांञ्छेमुषीशो गिरांपतिः ॥ १ ॥ नैकरूपो नयस्तुंगो नैकात्मा नैकधर्मकृत् । अविज्ञेयोऽप्रतयत्मा कृतज्ञः कृतलक्षणः
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम : .... . . २५ ॥२॥ ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भ प्रभास्वरः। पद्मगर्भो जगदर्भो हेमगर्भः सुदर्शनः॥शालक्ष्मीवांस्त्रिदशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता । मनोहरो मनोज्ञांगो धीरोगंभीरशासनः॥४॥ धर्मयूपो दयायागोः धर्मनेमिमुनीश्वरः । धर्मचक्रायुधो देवः कर्महा धर्मघोषणः॥५॥ अमोघवागमोघाज्ञो निर्मलोऽमोघशासनः। सुरूपः सुभगस्त्यागी समयज्ञः समाहितः ॥६॥ सुस्थितः स्वास्थ्यभाक्स्वस्थो नीरजस्को निरुद्धवः। अलेपो निष्कलंकामा वीतरागो गतस्पृहः ॥ ७ ॥ वश्येंद्रियो
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२६] . .. . , श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् विमुक्तात्मा निःसपत्नो जितेंद्रियः । प्रशांतोऽनंतधार्षिमंगलं मलहानघः ॥ ८॥ अनीगुपमाभूतो दृष्टिर्दैवमगोचरः। अमूतों मूर्त्तिमानेको नैकोनानैकतत्त्वहक् ॥९॥ अध्यात्मगम्यो गम्यात्मा योगविद्योगिवंदितः। सर्वत्रगः सदाभावी त्रिकालविषयार्थहक् ॥१०॥ शंकरः शंवदो दांतो दमी.क्षांतिपरायणः। अधिपः परमानंदः परात्मज्ञः परात्परः ॥११ ।। त्रिजगद्वल्लभोऽभ्यय॑स्त्रिजगन्मंगलोदयः। त्रिजगत्पतिपूजांवित्रिलोकाशिखामणिः ॥१२॥
इति वृध्दादिशतम् ॥ ८॥ अर्ध।
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श्रीणिनसहस्रनामस्तोत्रम्
[२७
'त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढव्रतः । सर्वलोकातिगः पूज्यः सर्वलोकैकसारथिः ॥ १ ॥ पुराणपुरुषः पूर्वः कृतपूर्वागविस्तरः । आदिदेवः पुराणाद्यः पुरुदेवोऽधिदेवता ॥ २ ॥ युगमुख्यों युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशकः । कल्याणवर्णः कल्याणः कल्यः कल्याणलक्षणः ॥ ३ ॥ कल्याणः प्रकृतिर्दीप्तः कल्याणात्मा विकल्मषः । विकलंकः कलातीतः कलिलनः कलाधरः ॥ ४ ॥ देवदेवो जगन्नाथो जगद्वंधुर्जगद्विभुः । "जगद्धितैषी लोकज्ञः सर्वगो जगदग्रजः ॥ ५ ॥ चराचरगुरु
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१८] . श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् . गोप्यो गूढात्मा गूढगोचरं । सद्योजातः प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभः ॥६॥ आदित्यवर्णों भाभः सुप्रभः कनकप्रभः। सुवर्णवर्णों रुक्माभः सूर्यकोटिसमप्रभः॥७॥ तपनीयनिभस्तुंगो बालार्काभोऽनलप्रभः। संध्याघ्रबभ्रुहेमाभस्ततचामीकरच्छविः ॥८॥ निष्टप्तकनकच्छायः कनकांचनसनिमः। हिरण्यवर्णः वर्णाभः शातकुंभनिभप्रभः ॥९॥ द्युम्नभाजातरूपाभो दीप्तजांबूनदद्युतिः । सुधौतकलधौतश्रीः प्रदीप्तो हाटकयुतिः ॥ १०॥ शिष्टेष्टः. पुष्टिदः पुष्टः स्पष्टः स्पष्टाक्षर
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् । क्षमः। शत्रुघ्नोप्रतिघोऽमोघः प्रशास्ता शासिता वभूः ॥११॥ शांतिनिष्ठो सुनिज्येष्ठः शिवतातिः शिवप्रदः । शांतिदुः शांतिकृच्छांतिः कांतिमान्कामितप्रदः ॥१२॥श्रेयोनिधिरधिष्ठानमप्रतिष्ठः प्रतिष्ठितः। सुस्थितः स्थावरः स्थाणुः प्रथीयाअथितः पृथुः॥१३॥
.. इति त्रिकालदर्यादिशतम् ॥ ६ ॥ अर्ध । दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रथेशो निरंबर । निष्किंचनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः॥१॥ तेजोराशिरनंतौजा ज्ञा
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श्री जिनसहस्रनामस्तोत्रम्
३०].
नाब्धिः शीलसागरः । तेजोमयोऽमितज्योतिज्र्ज्योतिर्मूर्तिस्तमोपहः ॥ २ ॥ जगच्चूडामणिर्दीप्तः सर्वविघ्नविनायकः । कलिघ्नः कर्मशत्रुघ्नो लोकालोकप्रकाशकः ॥ ३ ॥ अनिद्रालु- रतंद्रालुर्जागरूकः प्रभामयः । लक्ष्मीपतिर्जगज्ज्योतिर्धर्मराजः प्रजाहितः ॥ ४ ॥ मुमुक्षुर्बंधमोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथः । -प्रशांतरसशैलूषो भव्यपेटकनायकः ॥ ५ ॥ मूलकर्ताखिलज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणः । आप्तो वामीश्वरः श्रेयाञ्छ्रायसोक्तिर्निरुक्तवाक् ॥ ६ ॥ प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्वमा
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श्रीजिनासहस्रनामस्तोत्रम्
[३१.
ववित् । सुतनुस्तनुनिर्मुक्तः सुगतो हतदुर्नयः ॥ ७ ॥ श्रीशः श्रीश्रितपादाब्जो वीतभीर भयंकरः । उत्सन्नदोपो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सलः ॥ ८ ॥ लोकोत्तरो लोकपतिर्लोकचक्षुरपारधीः । धीरधीर्बुद्धसन्मार्गः शुद्धः सूनृतपूतवाक् ॥ ९ ॥ प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिर्नियमितेंद्रियः । भदंतो भद्रकृद्भद्रः कल्पवृक्षो वरप्रदः ॥ १० ॥ समुन्मूलितकर्मारिः कर्मकाष्ठा: शुशुक्षणिः । कर्मण्यः कर्मठः प्रांशुर्हेयादेयविचक्षणः ॥ ११ ॥ अनंतशक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारित्रिलोचनः । त्रिनेत्र त्र्यंवकस्त्र्य
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१२०
.श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् ........ क्ष केवलज्ञानवीक्षणः ॥१२॥ समंतभद्रः शांतारिधर्माचार्यों दयानिधिः। सूक्ष्मदर्शी जितानंगः कृपालुधर्मदेशकः ॥१३॥ शुभंयुःसुखसाद्भुतः पुण्यराशिरनामयः। धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः॥१४॥ इति दिग्यासादि शत ॥ १०॥ प्रत्ययाधिकसासूनामावली समाता । अर्ध । धाम्नांपते तैवामूनि नामान्यागमकोविंदैः। समुच्चितान्य: नुध्यायन्पुमान्पूतस्मृतिर्भवेत् ॥ १॥ गोचरोऽपि गिरामासां त्वमवाग्गोचरोमतः स्तोता तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं
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श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम्
६३३. लभेत् ॥२॥ त्वमतोऽसि जगद्वंधुस्वमतोऽसि जगद्भिषक् । त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धितः ॥३॥ त्वमेकं जगतांज्योतिस्त्वं द्विरूपोपयोगभाक् । त्वं त्रिरूपैकमुक्त्यंग सोत्थानंतचतुष्टयः॥४॥ त्वं पञ्चब्रह्मतत्वात्मा पञ्चकल्याणना: युकः षड्भेदभावतत्वज्ञस्त्वं सतनयसंग्रहः॥५॥ दिव्याष्टगुण: मूर्तिस्त्वं नवकेवललब्धिकः । दशावतारनिर्धायों मां पाहि परस मेश्वर ॥६॥युष्मन्नामावलीहधाविलसत्स्तोत्रमालया। भवंतं. परिवस्यामः प्रसीदानुगृहाण नः॥७॥ इदं स्तोत्रमनुस्मृत्य पूतो
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५.. . श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम् भवति भाक्तिकः । यः सपाट पठत्येनं स स्यात्कल्याणभाजनं ॥ढ़ततः सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठति पुण्यधीः । पौरुहूती श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुकः ॥९॥ स्तुत्वेति मघवा देवं चराचरजंगगुरुं । ततस्तीर्थविहारस्य व्यधात्प्रस्तावनाभिमां ॥१०॥ स्तुतिः पुण्यगुणोत्कीर्तिः स्तोता भव्यः प्रसन्नधीः। निष्ठितार्थों भवांस्तुत्यः फलं नैश्रेयसं सुखं ॥११॥ यः स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुनःस्तोता स्वयं कस्यचित् ध्येयो योगिजनस्य यथः नितरां ध्याता स्वयं कस्यचित् ।।
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- श्रीनिमसहस्रनामस्तोत्रम् यो नेतन् नयते नमस्कृतिमलं नंतव्यपक्षेक्षणः . स श्रीमान जगतां त्रयस्य चगुरुर्देवः पुरुः पावनः॥ १२॥ तं देवं त्रिदशाधिपार्चितपदं घातिक्षयानंतरं
प्रोत्थानंतचतुष्टयं जिनमिमं भव्याञ्जनीनामिनं । मानस्तंभविलोकनानतजगन्मान्यं त्रिलोकीपति प्राप्ताचिंत्यबहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवंदामहे ॥१३॥
पुष्पांजलिं क्षिपेत् । इतिश्रीभगवजिनसेनाचार्यविरचितजिनसहस्रनामस्तयनं समाप्तम् ।
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___३६] ..
भक्तामरस्तोत्रम् २।श्रीमानतुंगाचार्यविरचित आदिनाथस्तोत्रं।
___ भक्तामरस्तोत्र।
- बसंततिलका। . भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणामुद्योतकं दलितपापतमोवितानं । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा-वालंबनं भवजले पततां जनानां ॥१॥ यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्ववोधादुद्भुतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः। स्तोत्रैर्जगस्त्रितयचित्तहरैरुदारैः, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथम जिनेंद्रं ॥ २॥
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[३७. :
भक्तामरस्तोत्रम् बुद्ध्या विनापि. विबुधार्चितपादपीठ स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहं । बालं विहाय जलसंस्थितमिदुबिंबमन्यः क इच्छति जनः सहसा गृहीतुं ॥३॥ वक्तुं गुणान्गुणसमुद्र शशांककांतान, कस्ते क्षमः सुरगुरुपतिमोऽपि बुद्धया। कल्पांतकालपवनोद्धतनकचक्र, को वा तरीतुमलमंबुनिधि भुजाभ्यां ॥४॥ सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कर्तुं स्तवं विगतशतिरपि प्रवृत्तः। प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्यः मृगी मृगेंद्र, नाभ्येति किंनिजशिशोः परिपालनार्थ:।।.५॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां प
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'भक्तापरस्तोत्रम् रिहासंघाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्मां । यत्कोकिलः किल मघौ.मधुरं विरोति, तच्चाम्रचारकलिकानिकरैकहेतु ॥ ६॥ त्वत्संस्तवेन भवसंततिसन्निवद्धं. पापं. क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजां । आक्रांतलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्यांशुभिन्नमिव.शावरमंधकारं ॥८॥मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेदमारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिंदुः॥८॥आस्तां तवस्तवनमस्तसमस्तदोष, त्वत्संकथापिजगतांदुरितानिहंति।
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भक्तापरस्तोत्रम् . . ३६ : दूरे सहस्रकिरणःकुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासमांजि ॥९॥ नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवंतमभिष्टुवंतः । तुल्या भवंति भवतोननुतेनकिंवा, भूत्याश्रितं. य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥ दृष्ट्वा भवंतमनिमेषविलोकनीय, नान्यत्र तोषमुमयाति जनस्य चक्षुः। पीत्वापयः 'शशिकरयुतिदुग्धसिंघोः क्षारं जलं जलनिधे रसितुं क इच्छेत्॥११ ॥ यः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापितत्रिभुवनैकललामभूत ।: तावंत. एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां
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५
भक्तापरस्तोत्रम् यत्ते समानमपरं न हिरूपमस्ति ॥ १२॥ वक्त्रं कते सुरनरोरंगनेत्रहारि, निश्शेषनिर्जितजगत्रितयोपमानं । बिंब कलंकमलिंजक निशाकरस्य, यदासरे भवति पांडुपलाशकल्पं ॥१३॥संपूर्णमंडलशशांककलाकलाप-शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयंति। ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमकं, कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टं ॥ १४॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रि. दशांगनाभिर, नीतं मनागपि मनोन विकारमार्ग। कल्पांतकालमरुता चलिताचलेन, कि मंदरादिशिखरं चलितं कदा
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[४१
भक्तामरस्तोत्रम् चित् ॥ १५॥ निघूमवरिपवर्जिततैलपूरः, कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः॥१६॥ नास्तं कदाचिदु'पयासि न राहुगम्यः स्पष्टीकरोषि सहसा युगपजगंति । नांभोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः सूर्यातिशायिमहिमासि मुनींद्र लोके ॥१७॥ नित्योदयं दलितमोहमहांधकार, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानां। विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकांति. विद्योतयजगदपूर्वशशांकबिंब ॥ १८ ॥ किं शर्वरीषु शशिनाहि
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४२] •
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विवस्वता वा, युष्मन्मुखेदुदलितेषु तमस्सु नाथ । निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियजलघरैर्जलभारनयैः ॥ १९ ॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥ २० ॥ मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कश्चिन्मनो हरति नाथ भवांतरेऽपि ॥ २१ ॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्,
भक्तामर स्तोत्रम्
WAPLANE OS X. PEMAt a fath
Tes
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भक्तामर स्तोत्रम्
४.
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि, प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालं ॥ २२ ॥ त्वामामनंति मुनयः परमं पुमांसमादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं नान्यः शिवशिवपदस्य मुनींद्र पंथाः ॥ २३ ॥ त्वामव्ययं विभुमर्चित्य' ममंख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुं । योगीश्वरं विदि-तयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति संतः ॥ २४ ॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात् त्वं शंकरोऽसि भुवनत्र
"
9.
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४४]
भक्तामर स्तोत्रम्
यशंकरत्वात् । धातांसि धीर शिवमार्गविधेर्विधानाद् व्यक्तं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ॥ २५ ॥ तुभ्यं नमस्त्रिभुवना: तिहराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिनभवोदधिशोषणाय । ॥ २६ ॥ को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं सं श्रितो निरवकाशतया मुनीश । दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वैः स्वप्नांतरे पि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७ ॥ उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूखमाभाति रूपममलं भवतो नि
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भक्तापरस्तोत्रम्
' ४५ तांत । स्पष्टोलसत्किरणमस्ततमोवितानं, विवं रवेरिव पयोधरपावति ॥ २८ ॥ सिंहासने मणिमयूखाशखाविचित्र विभ्राजते तव वपुः कनकावदातं । विवं वियद्विलसंदंशुलतावितानं तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२९॥ कुंदावदातचलचामरचारुशोभ, विभ्राजते तव वपुः कलधौत.कांतं.।.उद्यच्छशांकशुचिनिर्झरवारिधारमुच्चस्तटं सुरगिरेरिव शातकों ॥३०॥ छत्रत्रयं तव विभाति शशांककांतमुच्चैस्थितं स्थगितभानुकरप्रतापं । मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभ,
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४] .. . ... ... भक्तामरस्तोत्रम्', प्रख्यापयस्त्रिजगतः परमेश्वरत्वं ॥३१॥ गंभीरताररवपूरितदिग्विभागलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः । सद्धर्मराजजयघोषणघोषकः सन्, खे दुंदुभिर्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥मंदारसुंदरनमेरुसुपारिजातसंतानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा। गंधोदबिंदुशुभमंदमरुत्प्रयाता, दिव्या दिवः पतति. ते वयसो ततिर्वा ॥३३॥ शुभत्यभावलयभूरिविभा विभोस्ते, लोकत्रये द्युतिमतां युतिमाक्षिपंती। प्रोद्यहिवाकरनिरंतरभू रिसंख्या, दीप्त्या जयत्यपि निशामपि. सोमसोम्यां ॥३४॥
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भक्तामरस्तोत्रम् स्वर्गापवर्गगममार्गविमागणेष्टः, सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्रिलोक्या। दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्वेभाषाखभावपरिणाम: गुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥ उन्निद्रहेमनवपंकजपुंजकांती, पर्युलसन्नखमयूखशिखाभिरामौ। पादौ पदानि तव यत्र जिनेंद्र! धत्तः पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयंति ॥३६॥ इत्थं यथा तव विभूतिरभून्निनेंद्र, धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्यः। यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतांधकारा, तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोपि ॥३७॥ श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल
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४८]
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. भक्तामस्तोत्रम् मत्तभ्रमभ्रमरनादविवृद्धकोपं । ऐरावताभमिभमुद्धतमापतंतं, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानां ॥३८॥ भिन्नेभकुंभगलदुज्ज्वलशोणिताक्तमुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः।बछक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥ कल्पांतकालपवनोद्धतवह्निकल्पं, दावानलं. ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगं । विश्वं जिधित्सुमिव संमुखमापतंतं; त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषं ॥४०॥ रक्तक्षणं समदकोकिलकंठनीलं,क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतंतं । आक्रा
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भक्तामरस्तोत्रम् मति क्रमयुगेण निरस्तशंकस्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः॥४१॥ बल्गत्तुरंगगजगर्जितभीमनादमाजौ बलं बलवतामपि भूपतीनां । उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धं, त्वत्की
नात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥ कुंताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाहवेगावतारतरणातुरयोधभीमे । युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्, त्वत्पादपंकजवनायिणो लभते ॥४३॥ अंभोनिधौ क्षुभितभीषणनकचक्र, पाठीनपीठमयदोल्वणवाः डवाग्नौ । रंगत्तरंगशिखरस्थितयानपात्रास् त्रासं विहाय
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मक्तापरस्तोत्रम् भवतः स्मरणाद् व्रजति ॥४४॥ उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्ना शोच्यांदशामुपगताश्च्युतजीविताशाः। त्वत्पादपंकजरजोमृतदिग्धदेहा, मां भवंति मकरध्वज़तुल्यरूपा॥४५॥ आपादकंठमुरुश्रृंखलवेष्टितांगा, गाढं वृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः। त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरंतः, सद्यः खयं विगतबंधभया भवंति ॥४६॥ मत्तद्विद्रमृगराजदवानलाहिसंग्रामवारिधिमहोदरबंधनोत्थं । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥ स्तोत्रस्त्रजं तव
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कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् जिनेंद्र गुणैर्निबद्धां, भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पां। धचे जनो य इह कंठगतामजलं, तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥
इति श्रीमानतुंगाचार्यविरचितमादिनाथस्तोत्रं समाप्त ॥
श्रीसिद्धसेन दिवाकरप्रणीतं
३। कल्याणमंदिरस्तोत्रं। कल्याणमंदिरमुदारमवद्यभेदि भीताभयप्रदमनिंदितमंत्रिपमं । संसारसागरनिमज्जदशेषजंतुपोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य
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५२............ . कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् ..................... ॥१॥ यस्य स्वयं सुरगुरुगरिमांबुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृतमतिनं विभुर्विधातुं । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकतोस्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥ सामान्यतोपि तव वर्णयितुं खरूपमस्मादृशाः कथमधीश भवंयधीशाः । धृष्टोपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवांधो रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मः॥३॥ मोहक्षयादनुभवन्नपि नाथ मयों नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत । कल्पांतवांतपयसः प्रकटोऽपि यस्मान्मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४॥ अभ्युद्यतोस्मि
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· ·६५३
कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् तव नाथ जडाशयोपि कर्तुं स्तवं लसदसंख्यगुणाकरस्य । बालोपि किं न निंजबाहुयुगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति खधियांचुराशेः॥५॥ ये योगिनामपि न यांति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः। जातातदेवमसमीक्षितकारितेयं जलपंति वा निजगिरा ननु पक्षिणोपि ॥६॥आस्तामचिंत्यमहिमाजिनसंस्तवस्तेनामापिपाति भवतो भवतो जगंति । तीव्रातपोपहतपांथजनान्निदाघे प्रीणाति पद्मसरसः. सरसोऽनिलोपि ॥७॥ हृद्धर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीम
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कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् । भवंति जैतोःक्षणेन निविडा अपि कर्मबंधाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखंडिनि चंदनस्य ॥८॥ मुच्यंत एव मनुजाः सहसा जिनेंद्र रौद्रैरुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमाने चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः॥९॥ त्वं तारको जिन कथं भविनां त एव त्वामुहंति हृदयेन यदुत्तरंतः । यद्वा तिस्तरति यजलमेष नूनमंतर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥ १० ॥ यस्मिन्हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावा: सोपि त्वया रतिपतिः
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कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् . . [५५ क्षपितःक्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन पीतं न किं तदपि दुर्धरवाडवेन ॥ १२ ॥ खामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रपन्नास्त्वां जंतवः कथमहो हृदये दधानाः। जन्मोदधिं लघु तरंत्यतिलाघवेन चिंत्यो न हंत महतां यदिवा प्रभावः॥ १२॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो प्रथमं निरस्तो ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः। प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलगुमाणि विपिनानि न कि हिमानी ॥ १३ ॥ . ... त्वां योगिनो जिन सदापरमात्मरूपमन्वेषयंति हृदयांबुजको
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. कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् ... पदेशे। पूतस्य निर्मलरुचेर्यदि वा किमन्यदक्षस्य संभवपदं ननु कर्णिकायाः॥१४॥ यांनाज्जिनेश भवतो भविनःक्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजति। तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥१५॥ अंतः सदैव जिन यस्य विभाव्यसे त्वं भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरं। एतत्स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो.हि यद्विग्रहं प्रशमयंति महानु- . भावाः ॥ १६ ॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या ध्यातो जिनेंद्र भवतीह भवत्यभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचित्यमानं
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कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् .. १५७ किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥१७॥ त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि नूनं विभो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । किं काचकामलिभिरीश सितोऽपि शंखो नो गृह्यते विविधवर्णविपर्य-येण॥१८॥धर्मोपदेशसमये सविधानुभावादास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः। अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि किंवा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ॥१९॥ चित्र विभो कथमवाङ्मुखवृतमेव विष्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश गच्छंति नूनमध एव हि बंधनानि
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minmen-ammam
HominiumAh-animandarmshauclimminet.nn
:५८]................ कल्याणमन्दिरम्तोत्रम् .
................ ॥ २० ॥ स्थाने गभीरहदयोदधिसंभवायाः पीयूषतां तव गिरः समुदीरयंति । पीत्वा यतः परमसंमदसंगभाजो भव्या. ब्रजति तरसाप्यंजरामरत्वं ॥२१॥ स्वामिन्सुदूरमवनम्य रामुत्पतंतो मन्ये वदंति शुचयः सुरचामरोषाः। येऽस्मै नति विदधते मुनिपुंगवायतेनूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ॥२२॥ श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्नसिंहासनस्थमिह भव्यशिखंडि नस्त्वां.। आलोकयति रभसेन नदंतमुच्चैश्चामीकरादिशिर सीव नवांबुवाहं ॥२३॥ उद्गच्छता तव शितियुतिमंडलेन
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कल्याणमन्दिरस्तोत्रम्
५६ लुप्तच्छदच्छविरशोकतरुर्वभूव । सांनिध्यतोपि यदि वा तव वीतराग नीरागतां ब्रजति को न सचतेनोपि ॥२४॥ भो भोः प्रमादमवधूय भजध्वमेन मागत्य निर्वृतिपुरी प्रति सार्थ वाहं । एतनिवेदयति देव जगत्त्रयाय मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुंदुभिस्ते ॥२५॥उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः। मुक्ताकलापकलितोरुसितातपंत्रव्याजास्त्रिधा घृतधनुर्धवमभ्युपेतः॥२६॥ स्वेन प्रपूरितजगत्त्रयपिडितेन कातिप्रतापयशसामिव संचयेन । माणिक्य
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__ : कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् :हेमरजतप्रविनिर्मितेन सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ।। दिव्यस्रजो जिन नमत्रिदशाधिपानामुत्सृज्य रत्लरचितानपि मौलिबंधान । पादौ श्रयंति भवतो यदि वापरत्र त्वत्संगमे सुमनसो न रमंत एव ॥ २८ ॥ त्वं नाथ जन्मजलधर्विपराङ्: मुखोपि यत्तास्यस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् । युक्तं हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव चित्रं विभो यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥२९॥ · विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वं किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश । अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव ज्ञानं त्वयि.
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'कल्याणमन्दिरस्तोत्रम स्फुरति विश्वविकासहेतु ॥३०॥प्राग्भारसंभृतनभांसि रजांसि रोषादुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि। छायापि तैस्तव न नाथ. हता हताशो ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥ ३१॥ यद्र्जदूर्जितघनौषमदभ्रभीमभ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारं । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दधे तेनैव तस्य जिन दुस्तरवारि कृत्यम् ॥३२॥ ध्वस्तोर्वकेशविकृताकृतिमर्त्य मुंडप्रालंबभूद्धयदुवक्त्रविनियंदग्निः। प्रेतव्रजापति भवंतमपीरितोयसोऽस्यभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः॥३३॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ये
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६
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कल्यामन्दिरस्तोत्रम् .. .. ... त्रिसंध्यमाराधयंति विधिवद्विधुतान्यकृत्याः। भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मलदेहदेशाः पादद्वयं तव विभोभुवि जन्मभाजः॥३४॥. अस्मिन्नपारभववारिनिधो मुनीश मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमंत्रे किं वा विपद्विष-: धरी सविध समेति ॥ ३५॥ जन्मांतरेऽपि तव पादयुगं न देव मन्ये मया महितमीहितदानदक्षं। तेनेह जन्मनि मुनीश पराभवानां जातो निकेतनमहं मथिताशयानां ॥३६॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन पूर्व विभो सकृदपि प्रविलोकि
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. कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् तोसि। मर्माविधो विधुरयंति हि मामनर्थाः प्रोद्यत्मवंधगतयः कथमन्यथैते. ॥३७॥ आकर्णितोपि महितोपि निरीक्षितोपि नूनंन चेतसि मया विधृतोसि भक्त्या। जातोस्मि तेन जनबांधव दुःखपात्रं यस्माक्रिया प्रतिफलंतिन भावशून्याः॥३८॥ त्वं नाथ दुखिजनवत्सल हे शरण्य कारुण्यपुण्यवसते वशिनां वरेण्य । भक्त्या नते मयि महेश दयां विधाय दुखांकुरोद्दल. नतत्परतां विधेहि ॥३९॥ निःसख्यसारशरणं शरणं शरण्य मासाद्य सादितरिपुप्रथितावदानं । त्वत्पादपंकजमपि प्रणि
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कल्याणमन्दिर स्तोत्रम्
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धानवंध्यो वंध्योस्मि चेद्भुवनपावन हा हतोस्मि ॥ ४० ॥ देवेंद्रवंद्य विदिताखिलवस्तुसार संसारतारक विभो भुवनाधिनाथ । त्रायस्व देव करुणाहृद मां पुनीहि सीदंतमद्य भयदव्यसनांबुरा शेः ॥ ४१ ॥ यद्यस्ति नाथ भवदंघ्रिसरोरुहाणां भक्तेः फलं - किमपि संततसंचितायाः । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः स्वामी त्वमेव भुवनेत्र भवांतरेपि ॥ ४२ ॥ इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र सांद्रोल्लसत्पुलककंचुकितांगभागाः । त्वद्विबनिमलमुखांबुजबद्धलक्ष्याः ये संस्तव तव विभो रचयंति भव्याः
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एकीभावस्तोत्रम् ॥४३॥ जननयनकुमुदचंद्रप्रभास्वराः स्वर्गसंपदों भुक्त्वा । ते विगलितमलनिचयाअचिरान्मोक्षं प्रपद्यते॥४४॥ .
· इति कल्याणमंदिरस्तोत्रं । .
श्रीवादिराजप्रणीतं .
४। एकीभावस्तोत्रं । एकीभावंगत इव मया यः खयं कर्मबंधो घोरंदुःखं भवभवगतो दुर्निवारः करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे भक्तिरुन्मुक्तये चेजेतुं शक्यो.भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः
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६६]
एकीभावस्तोत्रम्
॥ १ ॥ ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्वांतविध्वंसहेतुं त्वामेवाहुर्जिनवर चिरं तत्त्वविद्याभियुक्ताः । चेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमानस्तस्मिन्नंहः कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे ॥ २ ॥ आनंदाश्रुस्न पितवदनं गद्गदं चाभिजल्पन्यश्चायेत 'स्वयि दृढमनाः स्तोत्रमंत्रैर्भवंतं । तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देहवल्मीकमध्यान्निष्कास्यंते विविधविषमव्याधयः काद्रवेयाः | ३| प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्य पुण्यात्पृथ्वीचक्रं कनकमयत देव निन्ये त्वयेदं । ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वांतगेहं प्रविष्ट
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एकीमावस्तोत्रम् स्तत्किं चित्रं जिन वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि ॥४॥ लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निनिमित्वेन बंधुस्त्वय्येवासी सकलविषया शक्तिरप्रत्यनीका । भक्तिस्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्तशय्यां मय्युत्पन्नं कथमिव ततः क्लेशयूथं सहेथाः॥५॥ जन्माटव्यां कथमपि मया देव दीर्घ भ्रमित्वा प्राप्तैवेयं तव नयकथा स्फारपीयूषवापी । तस्या मध्ये हिमकरहिमव्यूहशीते नितांत निर्मग्नं मां न जहति कथं दुखदावोफ्तापाः॥६॥ पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया .ते त्रिलोकी हेमाभासो
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एकीभावम्तोत्रम् । भवति सुरभिः श्रीनिवासश्च पद्मः । सर्वांगण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेष मनो मे श्रेयः किं तत्स्वयमहरहर्यन. मामभ्युपैति ॥७॥ पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपात्र्या पिवंतं कारण्यात्पुरुषमसमानंदधाम प्रविष्टं । त्वां दुरस्मरमदहरं त्वत्प्रसादैकभूमि क्रूराकाराः कथमिव रुजाकंटका नि ठन्ति ॥८॥ पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं. रत्नमूर्तिर्मानस्तंभो भवति च पुरस्तादृशो रत्नवर्गः। दृष्टिपातो हरति स कथं मानरोगं नराणां प्रत्यासचिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्तिहेतुः॥ ९॥
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एकीभावस्तोत्रम्
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इद्यः प्राप्तो मरुंदपि भवन्मूर्तिशैलोपवाही सद्यः पुंसां निरवधिरुजाघूलिबंधं धुनोति । ध्यानाहृतो हृदयकमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टस्तस्याशंक्यः क इह भुवने देव लोकोपकारः ॥ १० ॥ जानासि त्वं ममं भवभवे यच्च याद्वक्च दुःखं जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवनिष्पिनष्टि । त्वं सर्वेशः सकृप इति च त्वामुपेतोस्मि भक्त्या यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणं ॥ ११ ॥ प्रापद्दैवं तव, नुतिपदैर्जीव केनोपदिष्टैः पापाचारी मरणसमये सारमेयोपि सौख्यं । कः संदेहो यदुपलभते वास
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___... एकीमावस्तोत्रम् । वश्रीप्रभुत्वं जल्पाप्पैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रं ॥१२॥ शुद्धे ज्ञाने. शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा भक्तिों चेदनवधिसुखावश्चिका कुश्चिकयं । शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो मुक्तिद्वारं परिदृढमहामोहमुद्राकवाटम् ॥ १३॥ प्रच्छन्नः खल्वयमघमयैरंधकारैः समंतात्पंथा मुक्तः स्थपुटितपदः क्लेशगतैरंगाधैः । तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देव तत्त्वावभासी यद्यप्रेऽग्रेन भवति भवद्भारतीरत्नदीपः ॥ १४॥ आत्मज्योतिर्निपिरनवधिष्टुरानंदहेतुः कर्म
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एकीभावस्तोत्रम् शोणीपटलपिहितो योऽनवाप्यः परेषां । हस्ते कुर्वत्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाजः स्तोत्रैबंधप्रकृतिपुरुषोदामघात्रीखनित्रैः ॥ १५ ॥ प्रत्युत्पन्ना नयहिमगिरेरायता चामृताब्धेर्या देव खत्पदकमलयोःसंगता भक्तिगंगा । चेतस्तस्यां मम रुचिवशादाप्लुतं क्षालितांहः कल्माषं यद्भवति किमियं देव संदेहभूमिः ॥ १६ ॥ प्रादुर्भूतस्थिरपदसुख वामनुध्यायतो मे खय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा। मिथ्यैवेयं तदपि तहते तृप्तिमभेषरूपां दोषात्मानोप्यभिमतफलास्त्वत्प्रसादा
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.....एकीभावस्तोत्रम द्भवति ॥ १७॥ मिथ्यावादं मलमपनुदन्सप्तभंगीतरंगागं- . भोधि वनमखिलं देव पयति यस्ते । तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्चेतसैवाचलेन व्यातन्वंतः सुचिरममृतासेवया तृप्नुवंति ॥१८॥ आहार्येभ्यः स्पृहयति परं यः खभावादहृद्यः शंस्त्रपाही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः । सर्वांगेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषां तक भूषावसनकुसुमैः किं च शनैरुदौः॥ १९ ॥ इंद्रः सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं -तें तस्यैवेयं भवलयकरी श्लाध्यतामातनोति । त्वं निस्तारी
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एकीमावस्तोत्रम्
६.३. जननजलधेः सिद्धिकांतापतिस्त्वं त्वं लोकानां प्रभुरिति तव. रलाध्यते स्तोत्रमित्थं ॥ २०॥ वृत्तिवाचामपरसदृशीन त्वमन्येन तुल्यः स्तुत्युद्गाराः कथमिव ततस्त्वय्यमी नः क्रमते। मैवं भूवंस्तदपि भगवन्भक्तिपीयूषपुष्टास्ते भव्यानामभिमत: फला पारिजाता भवंति ॥२१॥ कोपावेशो न तव न तव क्वापि देव प्रसादो व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयैवानपेक्षं। आज्ञावश्यं तदपि भुवनं संनिधिर्वैरहारी क्वैवंभूतं भुवनतिलक प्राभवं त्वत्परेषु ॥२२॥ देव स्तोतुं त्रिदिवगणिकामंडली
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७४४
एकीमावस्तोत्रम् गीतकीर्ति तोतूर्ति त्वां सकलविषयज्ञानमूर्ति जनो यः । तस्य क्षेमंन पदमटतो जातु जाहूर्ति पंथास्तत्वग्रंथस्मरणविषये नैव मोमूर्ति मर्त्यः ॥२३॥ चिचे कुर्वन्निरवधिसुखज्ञानहग्वीर्यरूपं देव त्वां यः समयनियमांदादरेण स्तवीति । श्रेयोमार्गस खलु सुकृती तावता पूरयित्वा कल्याणानां भवति विषयः पंचधा पंचितानां ॥२४॥भक्तिप्रहमहेंद्रपूजितपद त्वत्कीर्तने न क्षमाः सूक्ष्मज्ञानदृशोऽपि संयमभृतः के हंत मंदा वयं । अस्माभिः स्तवनच्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते खात्माधीन
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. . . .-- ------- -- सुखेषिणांस खलु नः कल्याणकल्पद्रुमः॥२५॥ वादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकसिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः ।। २६ ॥
इति श्रीवादिराजकृतमेकीमावस्तोत्रम् । श्रीधनंजयकविप्रणीतं ।
५। विषापहारस्तोत्रं। खात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसंगः। प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्यः पायादपायात्पुरुषः पुराणः ॥१॥
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७६] .. विषापहारस्तोत्रम् ... परेचिंत्यं युगभारमेकः स्तोतुं वहन्योगिंभिरप्यशक्यः । स्तुत्योऽद्य मेऽसौ वृषभोन भानोः किममवेशे विशति प्रदीपः ॥२॥ तत्याज शक्रः शकनाभिमानं नाहं त्यजामि स्तवनानुबंधं । खल्पेन बोधेनं ततोधिकार्थं वातायनेनेव निरूपयामि ॥ त्वं विश्वहश्रा सकलैरहश्यो विद्वानशेषं निखिलैरवेद्यः । वक्तुं कियान्कीहशमित्यशक्यः स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु॥४॥ व्यापीडितं. बालमिवात्मदोषैरुल्लापता लोकमवापिपस्त्वं । हिताहितान्वेषणमांद्यभाजः सर्वस्य जंतोरसि बालवैद्यः॥५॥
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७७
विषापहारस्तोत्रम् दाता न हर्ता दिवसं विवस्वानद्यश्व इत्यच्युतदर्शिताशः। सव्याजमेवं गमयत्यशक्तः क्षणेन दत्सेऽभिमतं नताय ॥६॥ उपैति भक्त्या सुमुखःसुखानि त्वयि स्वभावाद्विमुखश्वदुःखं। सदावदातद्युतिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि ॥७॥ अगाधताब्धेः स यतः पयोधिरोश्च तुंगा प्रकृतिः स यत्र। द्यावापृथिव्योः पृथुता तथैव व्याप त्वदीया भुवनांतराणि ॥ तवानवस्था परमार्थतत्वं त्वया न गीतः पुनरागमश्च । दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषीविरुद्धवृत्तोऽपि समंजसस्त्वं ॥९॥ स्मरः
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विपापहारस्तोत्रम् सुदग्धो भवतैव तस्मिन्नुभूलितात्मा यदि नाम-शंभुः। अशेत वृंदोपहतोऽपि विष्णुः किं गृह्यते येन भवानजागः॥१०॥ स नीरजाः स्यादपरोऽधवान्वा तद्दोषकीत्यैव नतेगुणित्वं ॥ स्वतोंबुराशमहिमान देव स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥११॥ कर्मस्थिति जंतुरनेकभूमि नयत्यमुं सा च परस्परस्य । त्वं नेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ जिनेंद्र नौनाविकयोरिवाख्यः॥१२॥ सुखाय दुःखानि गुणाय दोषान्धर्माय पापानि समाचरंति। तैलाय बालाः सिकतासमूहं निपीडयंति स्फुटमत्वदीया॥१३॥
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विषापहारस्तोत्रम्
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विषापहारं मणिमौषधानि मंत्रं समुद्दिश्य रसायनं च । भ्राम्यंत्यहो न त्वमतिस्मरंति पर्यायनामानि तथैव तानि ॥ १४ ॥ चित्ते न किंचित्कृतवानसि त्वं देवः कृतश्चेतसि येन सर्वं । हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रं सुखेन जीवत्यपि चित्तवाह्यः ॥१५॥ त्रिकालतत्त्वं त्वमवैखिलोकीस्वामीति संख्यानियतेरमीषां । बोघाधिपत्यं प्रति नाभविष्यंस्तेन्येपि चेद्वयाप्स्यदमूनपीदं ॥ १६ ॥ नाकस्य पत्युः परिकर्म रम्यं नागम्यरूपस्य तवोपकारि । तस्यैव हेतुः स्वसुखस्य भानोरुद्विभ्रतच्छत्रमिवादः
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विपापहारस्तोत्रम् .. रेण ॥ १७॥ कोपेक्षकस्त्वं क सुखोपदेशः स चेकिमिच्छा. प्रतिकूलवादः। कासौ क वा सर्वजगस्त्रियत्वं तन्नो यथातथ्यमवेविजंते॥१८॥ तुंगात्फलं यत्तदकिंचनाच प्राप्यं समृद्धान धनेश्वरादेः। निरंभसोप्युच्चतमादिवाने कापि नियोति धुनी पयोधेः ।।१९।। त्रैलोक्यसेवानियमाय दंडं दधे यदिंद्रो विनयेन तस्य । तत्प्रातिहार्य भवतः कुतस्त्यं तत्कर्मयोगाद्यदिः वा तवास्तु ॥२०॥श्रिया परं पश्यति साधु निःस्वः श्रीमान कश्चित्कृपणं त्वदन्यः । यथा प्रकाशस्थितमंधकारस्थायी..
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विषापहारस्तोत्रम्
दर क्षतेऽसौ न तथा तमःस्थं ॥२१॥ स्ववृद्धिनिःश्वासनिमेषभाजि प्रत्यक्षमात्मानुभवेपि मूढः। किं चाखिलज्ञेयविवार्तबोध स्वरूपमध्यक्षमवैति लोकः॥ २२ ॥ तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य । तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यति ॥२३॥ दत्तस्त्रिलोक्यां पंटहोभिभूताः सुरासुरास्तस्य महान्स लाभः। मोहस्य मोह-. स्त्वयि को विरोद्धुर्मूलस्य नाशो बलवद्विरोधः॥२४॥मार्गस्त्क्यैको ददृशे विमुक्तेश्चतुर्गतीनां गहनं परेण । सर्वमया
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२२]
विपापहारस्तोत्रम् दृष्टमिति स्मयेन त्वं मा कदाचिद्धजमालुलोके ॥२५॥ स्वीनुरर्कस्य हविर्भुजोंभः कल्पांतवातोंबुनिर्विघातः। संसारभोगस्य वियोगभावो विपक्षपूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये ।। २६ ॥ अजानतस्त्वां नमतः फलं यत्तजानतोन्यं न तु देवतेति । हरिन्मणि काचधिया दधानस्तं तस्य बुद्धया वहतो न रिक्तः .॥२७॥ प्रशस्तवाचश्चतुराः कषायैर्दग्धस्य देवव्यवहारमाहुः । गतस्य दीपस्य हि नंदितत्वं दृष्टं कपालस्य च मंगलत्वं ॥२८॥ नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तं हितं वचस्ते निशमय्य वक्तुः ।
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विषापहारस्तोत्रम् निर्दोषतां के न विभावयंतिवरण मुक्त सुगमः स्वरेण ॥२९॥ न कापि वांछा ववृते च वाक्तेकाले कचित्कोपि तथा नियोगः। न पूरयाम्यंबुधिमित्युदंशुः स्वयं हि शीतयुतिरभ्युदेति ॥३०॥ गुणा गभीराः परमाः प्रसन्ना बहुप्रकारा वहवस्तवेति । दृष्टोयमन्तः स्तवने न तेषां गुणो गुणानां किमतः परोस्ति ॥३॥ स्तुत्या परं नाभिमतं हि भक्त्या स्मृत्याप्रणत्या चततो भजामि। स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं केनाप्युपायेन फलं हि साध्यं ॥३२॥ ततत्रिलोकीनगराधिदेवं नित्यं परं ज्योतिरनंतशाक्तं । अपु
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__ . विपापहारस्तोत्रम् । एयपापं परपुण्यहेतुं नमाम्यहं बंद्यमवंदितारं ॥ ३३॥ अशब्दमस्पर्शमरूपगंधं त्वां नीरसं तद्विषयावबोध ॥सर्वस्य मातारममेयमन्यजिनेंद्रमस्मार्यमनुस्मरामि ॥ ३४ ॥ अगाधमन्यैर्मनसाप्यलंध्यं निष्किचनं प्रार्थितमर्थवद्भिः। विश्वस्य पारं तमदृष्ट. पारंपतिं जिनानां शरणं व्रजामि ॥३५॥ त्रैलोक्यदीक्षागुरवे नमस्ते यो वर्धमानोपि निजोन्नतोभूत् । प्राग्गंडशैलः पुनरद्रिकल्पः पश्चान्न मेरुः कुलपर्वतोभूत् ॥ ३६॥ खयंप्रकाशस्य दिवा निशा वा न बाध्यता यस्यन.बाधकत्वं । नलाघवं गौर
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विपापहारस्तोत्रम् . ... . ५ वमेकरूपं वंदे वि . कालकलामतीतं ॥ ३७॥ इति स्तुति देव विधाय दैन्यादरं न याचे त्वमुपक्षकोसिः । छायातलं संश्रयतः स्वतः स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः॥ ३८॥ अथास्ति दित्सा यदि वोपरोधस्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिं । करिष्यतें देव तथा कृपां मे को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरिः॥३९॥ वितरति विहिता यथाकथंचिजिन विनताय मनीषितानि भक्तिः। त्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषाद्दिशति सुखानि यशो'धनंजयंत्र॥४०॥
.ति श्रीधनंजयकृते विषापहारस्नोत्रं ।
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जिनचतुर्विशतिका श्रीभूपालकविप्रणीता
६। जिनचतुर्विंशतिका। श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं कीर्तिप्रमोदास्पदं
वाग्देवीरतिकेतनं जयरमाक्रीडानिधानं महत् । स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं यः प्रार्थितार्थप्रदं
प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांघ्रिद्वयं ॥१॥ शांतं वपुः श्रवणहारि वचश्चरित्रं सर्वोपकारि तव देव ततः श्रुतज्ञाः।
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जिनचतुर्विंशतिका . : . .८७ संसारमारवमहास्थलरुद्रसांद्र
च्छायांमहीरुहभवंतमुपाश्रयते ॥२॥ खामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननीगर्भाधकूपोदरा
दद्योद्घाटितदृष्टिरस्मि फलवजन्मास्मि चाय स्फुटं। वामद्राक्षमहं यदक्षयपदानंदाय लोकत्रयी
नेत्रंदीवरकाननेंदुममृतस्संदिप्रभाचंद्रिकं ॥३॥ निःशेषत्रिदशेंद्रशेखरशिखारलपदीपावली .. सांद्रीभूतमृगेंद्रविष्टरतटीमाणिक्यदीपावलिः ।
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५]
जिन चतुर्विंशतिका
केयं श्रीः कं च निःस्पृहत्वमिदमित्यूहातिगस्त्वाद्दशः सर्वज्ञानदृशश्चरित्रमहिमा लोकेश लोकोत्तरः ॥ ४ ॥ राज्यं शासनकारिनाकपति यत्त्यक्तं तृणावज्ञया हेलानिर्दलितत्रिलोकमहिमा यन्मोहमलो जितः । लोकालोकमपि खबोघमुकुरस्यांतः कृतं यत्त्वया सैषाश्चर्यपरम्परा जिनवर क्वान्यत्र संभाव्यते ॥ ५ ॥ दानं ज्ञानधनाय दत्तमसकृत्पात्राय सद्वृत्तये चीर्णान्युग्रतपांसि तेन सुचिरं पूजाच बद्धयः कृताः ॥
·
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जिनचतुर्विंशतिका
शीलानां निचयः सहामलगुणैः सर्वः समासादितों, दृष्टस्त्वं निज येन दृष्टिसुभगः श्रद्धांपरेण क्षणं ॥ ६ ॥ प्रज्ञापारमितः स एव भगवान्पारं स एव श्रुतस्कंधाब्धेर्गुणरत्नभूषण इति श्लाघ्यः स एव ध्रुवं । नीयंत जिन येन कर्णहृदयालंकारतां त्वद्गुणाः संसाराहिविषापहार मणयस्त्रैलोक्यचूडामणेः ॥ ७ ॥ जयति दिविजवृंदान्दोलितैरिंदुरोचिर्निचयरुचिभिरुचैवामरैर्वीज्यमानः ।
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१०]
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जिनचतुर्विंशतिका । जिनपतिरनुरज्यन्मुक्तिसाम्राज्यलक्ष्मी- युवतिनवकटाक्षक्षेपलीलां दधानः॥८॥ देवः श्वेतातपत्रत्रयचमरिरुहाशोकभावकभाषा
पुष्पौघासारसिंहासनसुरपटहैरष्टभिःप्रातिहार्यैः । साश्रयाजमानः सुरमनुजसभांभोजिनीभानुमाली
पायानः पादपीठीकृतसकलजगत्पालमोलिजिनेंद्रः॥९॥ नृत्यत्स्वदतिदंतांबुरुहवननटनाकनारीनिकायः ।
सबलोक्ययात्रोत्सवकरनिनदातोद्यमाद्यानिलिंपः।
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जिनचतुर्विंशतिका . हस्तांभोजातलीलाविनिहितसुमनोदामरम्यामरस्त्री
काम्या कल्याणपूजाविधिषु विजयते देव देवागमस्ते।१०। चक्षुष्मानहमेव देव भुवने नेत्रामृतस्यंदिनं
त्वद्वक्त्रंदुमतिप्रसादसुभगैस्तेजोभिरुद्धासितं येनालोकयता मयानतिचिराचक्षुः कृतार्थीकृतं'
द्रष्टव्यावधिवीक्षणव्यतिकरव्याघ्रभमाणोत्सवं ॥११॥ कंतोसकांतमपि मल्लमवैति काशि
न्मुग्धो मुकुंदमरविंदजमिदुमौलि।
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20........... :- जिनाचताव श
___.. जिनचतुर्विशतिका.. मोधीकृतंत्रिदशंयोपिदपांगपात-'.
स्तस्य त्वमेव विजयी जिनराजमल्लः ॥१२॥ किसलयितमनल्पं त्वद्विलोकाभिलाषा
स्कुसुमितमतिसांद्रं त्वत्समीपप्रयाणात्। मम फलितममंदं त्वन्मुखेंदोरिदानी .. नयनपथमवाप्तादेव पुण्यद्भुमेण ॥१३॥ त्रिभुवनवनपुष्प्यत्पुष्पकोदंडदर्प
प्रसरदवनवांभोमुक्तिसूक्तिप्रसूतिः।
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जिनचतुर्विशतिका स जयति जिनराजत्रांतजीमूतसंघः
शतमखशिखिनृत्यारंभनिबंधबंधुः॥१४॥ भूपालखर्गपालप्रमुखनरसुरश्रेणिनेत्रालिमाला
लीलाचैत्यस्य चैत्यालयमखिलजगत्कौमुदींदोर्जिनस्य। उत्तंसीभूतसेवांजलिंपुटनलिनीकुड्मलास्त्रिः परीत्य
श्रीपादच्छाययापस्थितभवदवथुःसंश्रितोस्मीव मुक्ति १५ देव त्वदंघ्रिनखमंडलदर्पणेऽस्मि
नये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्त्रः।
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जिनचतुर्विशतिका श्रीकीर्तिकांतिधृतिसंगमकारणानि
भव्यो न कानि लभते शुभमंगलानि ॥१६॥ जयति सुरनरेंद्रश्रीसुधानिरिण्याः
कुलधरणिधरोयं जैनचैत्याभिरामः। 'प्रविपुलफलधर्मानोकहानप्रवाल- .
प्रसरशिखरशुंभत्केतनः श्रीनिकेतः॥१७॥ . विनमदमरकांताकुंतलाक्रांतिकांति
स्फुरितनखमयूखद्योतिताशांतरालः।
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जिनचतुर्विशतिका दिविजमनुजराजव्रातपूज्यक्रमाब्जो
जयति विजितकारातिजालो जिनेंद्रः॥१८॥ सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमंगलाय __दृष्टव्यमस्ति यदिमंगलमेव वस्तु अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वक्त्रं
त्रैलोक्यमंगलनिकेतनमीक्षणीयं ॥१९॥ खं धर्मोदयतापसाश्रमशुकस्त्वं काव्यवंधक्रमक्रीडानंदनकोकिलस्त्वमुचितः श्रीमल्लिकाषट्पदः।
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जिनचतुर्विंशतिका ।
त्वं पुन्नागकथारविंदसरसी हंसस्त्वमुत्तंसकैः कैर्भूपालन धार्यसे गुणमणिस्रङ्मालिभिर्मालिभिः ॥२०॥ - शिवसुखमजर श्री संगमं चाभिलष्य स्वमपि नियमयंति क्लेशपाशेन केचित् । वयमिह तु वचस्ते भूपतेर्भावयंतस्तदुभयमपि शश्वलीलया निर्विशामः ॥ २१ ॥
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• देवेंद्रास्तव मज्जनानि विदधुर्देवांगना मंगलान्यापेटुः शरदिंदुनिर्मलयशो गंधर्वदेवा जगुः ।
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जिनचतुर्विशतिका ___ _ शेषाश्चापि यथानियोगमखिला सेवांसुराश्चक्रिरे
तत्कि देव वयं विदध्म इति नश्चित्तं तु दोलायते ॥२२॥ देव त्वजन्माभिषेकसमये रोमांचसत्कंचुकै
देवेंद्र्यदनति नर्तनविधौ.लब्धप्रभावैः स्फुटं.। किंचान्यत्सुरसुंदरीकुचतटप्रांतावनद्धोत्तम
खल्लकिनादझंकृतमहो तत्केन संवर्ण्यते ॥२३॥ देव त्वत्प्रतिबिंबमंबुजदलस्मेरक्षणं पश्यतां
यत्रास्माकमहो महोत्सवरसो दृष्टेरियान्वर्तते।
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{5]
जिन चतुर्विंशतिका
- साक्षात्तत्र भवंतमीक्षितंवतां कल्याणकाले तदा देवानामनिमेषलोचनतया वृत्तः स किं वर्ण्यते ॥ २४ ॥ दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं दृष्टं सिद्धरसस्य सद्म सदनं दृष्टं च चिंतामणेः । किं दृष्टेरथवानुषंगिकफलैरेभिर्मयाद्य ध्रुवं
दृष्टं मुक्तिविवाहमंगलगृहं दृष्टे जिनश्रीगृहे ॥ २५ ॥ दृष्टस्त्वं जिनराजचंद्रविकसद्भूपेंद्रनुत्रोत्पलैः
स्नातं त्वन्नुतिचंद्रिकांभसि भवद्विद्वच्च कोरोत्सवे ।
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महावीराष्टक नीतवाद्य निदाघजः क्लमभरः शांति मया गम्यते देव ! त्वद्गतचेतसैव भवतो भूयात्पुनदर्शनं ॥२६॥ इति भूपालकविप्रणीता जिनचविंशतिका समाप्ता। ७। महावीराष्टकस्तोत्रं
शिखरिणी। यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः समं भांति धौव्यव्ययजनिलसंतोंतरहिताः।जगत्साक्षीमार्गप्रकटनपरोभानुरिवयोमहावीरस्वामीनयनपथगामी भवतु मे (नः) |अतानं
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...महावीराष्टक
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यच्चक्षुः कमलयुगलं स्पंदरहितं जनान्कोपापायं प्रफटयति वाभ्यंतरमपि। स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला; महावी०. ॥२॥नमन्नाकेंद्राली मुकुटमणिभाजालजटिलं लसत्पादाभोजद्वयमिह यदीयं तनुभृतां भवज्ज्वालाशांत्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि, महावीर०॥३॥ यदर्चाभावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह क्षणादासीत्स्वर्गी गुणगणसमृद्धः सुखनिधिः । लभते सद्भक्ताः शिवसुखसमाज किमुतदा, महावीर० ॥४॥कनत्स्वर्णाभासो प्यपगततनुर्ज्ञाननिवहो विचित्रात्माप्येको नृपतिवरसिद्धार्थ
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..
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[१०१. .
महावीर टर्क तनयः । अजन्मापि श्रीमान् विगतभवरागोद्भुतगतिर, महावीर० ॥ ५ ॥ यदीया वाग्गंगा विविधनयकल्लोलविमला वृहज्ज्ञानाभोभिर्जगति जनतां या त्रपयति । इदानीमप्येषां बुधजनमरालैः परिचिता, महावीर० ॥६॥ अनिर्वारोद्रेक स्त्रिभुवनजयी कामसुभटः कुमारावस्थायामपि निजवलाद्येन विजितः । स्फुरनित्यानंदप्रशमपंदराज्याय स जिनः, महावीर० ॥७॥ महामोहातंकप्रशमनंपरांकस्मिक भिष निरापेक्षो वधुर्विदितमहिमामंगलकरः शरण्यः, साधूनां भवभयभृतामुत्तमगुणों, महा०licii
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मंगलाष्टकं
महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या भागें दुना कृतं । यः पठेच्छृणुयाच्चापि स याति परमां गतिं ॥९॥ इति । ८ । मंगलाष्टकम् | श्रीमन्नम्रसुरासुरेंद्रमुकुटप्रद्योतरत्नप्रभाभास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनांभोघींदवः स्थायिनः । ये सर्वे जिनसिद्धसूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः । स्तुत्या योगिजनंश्च पञ्चगुरवः कुर्वंतु ते मंगलम् ॥ १ ॥ सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं मुक्तिश्रीनगराधिनाथजिनपत्युक्तो ऽपवर्गप्रदः । धर्मः सूक्ति
१०२]
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मंगलाष्टकं
सुधा च चैत्यमखिलं चैत्यालयं श्रयालयं, प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ २ ॥ नाभेयादि जिनाधिपास्त्रिभुवनख्याताश्चतुर्विंशतिः श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश । ये विष्णुप्रतिविष्णुलांगलधराः सप्तोत्तरा विंशतिस्त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥३॥ देव्योष्टौ च जयादिका द्विगुणिता विद्यादिका देवताः, श्रीतीकर मातृका जनका यक्षाश्च यक्ष्यस्तथा । द्वात्रिंशत्त्रिदशाविपास्तिथिसुरा दिकन्यकाचाष्टधा दिक्पाला दश चेत्यमी
T
' [१०३ .
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__...... मंगलाष्टकं: -
सुरगणाः कुर्वतुते मंगलम् ॥ ४॥ ये सवौषधऋद्धयः सुतः पसो वृद्धिंगताः पञ्च ये ये.. चाष्टांगमहानिमित्तिकुशला येऽष्टाविधाधारणाः । पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धिऋद्धीश्वराः। सौते सकलार्चिता गणभृतः कुर्वतु ते मंगलम् ॥५॥ कैलासे वृषभस्य निर्वृतिमही. वीरस्य पावापुरे चस्पायां वसुपूज्यसजिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम् । शेषाणां मपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्याहतो निर्वाणावनयः प्रसिः विभवाः कुर्वन्तु ते मंगलसू॥६॥ज्योतिव्यन्तरभावनामर
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मंगलाष्टकं गृह मेरौ कुलाद्रौ तथा जंबूशाल्मलिचैत्यशाखिषु तथा वक्षाररूप्याद्रिषु । इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ ७ ॥ यो. गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषकोत्सवो यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाक् । यः कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा सम्भावितःस्वर्गिभिः कल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥८॥ इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टकमिदं सौभाग्यसम्पत्प्रद
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१०६7
अकलंकस्तोत्रम् . : कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थकराणामुषः । ये शृण्वन्ति पठंति तैश्च सुजनैर्धमार्थकामान्विता लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि ॥५॥
इति मंगलाष्टकं । ६ अकलंकस्तोत्र।
शार्दूल विक्रीडितछन्दः । त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितं साक्षा-. धेन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलि । रागद्वेषभयामया
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अकलंकस्तोत्रम् .
__१०७.: . न्तकजरालोलत्वलोभादयो, नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया बंद्यते ॥१॥ दग्धं येन पुरत्रयं शरभंवा तीव्रार्चिषा पह्निना, यो वा नृत्यति मत्त्वपितृवने यस्यात्मजो वागुहः । सोऽयं किं मम शंकरो भयतृषारोपार्तिमोहक्षयं कृत्वा यः स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमकरः शंकरः॥२॥ यत्नायेन विदारितं कररुहेर्दैत्येन्द्रवक्षःस्थलं सारथ्येन धनंजयस्य समरे योऽमारयत्कारवान् । नासौ विष्णुरनेककालविषयं यज्ज्ञानमव्याहतं विश्वं व्याप्य विजृम्भते स तु.महाविष्णुः सदेप्टो मम ॥३॥
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१०८]
कलंकस्तोत्रम् -
उर्वश्यामुदपादि रागबहुलं चेतो यदीयं पुनः पात्रीदंडक - मंडलुप्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थितिम् ॥ आविर्भावयितुं भवंति स कथं ब्रह्माभवेन्मादृशां क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः ॥४॥ यो जग्ध्वा पिशितं समत्स्यकवलं जीव च शून्यं वदन्, कर्त्ता कर्मफलं न भुंक्त इति यो वक्ता स बुद्धः कथम् । यज्ज्ञानं क्षणवर्त्तिवस्तुसकलं ज्ञातुं न शक्तं सदा यो जानन्युगपज्जगत्त्रयमिदं साक्षात्स बुद्धो मम ॥ ५ ॥ :
लग्धरा छंदः ।
ईशः किं छिन्नलिंगो यदि विगतभयः शूलपाणिः कथं
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कलंकस्तोत्रम्
* १०६.
स्यात् नाथः किं भेक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगनः सात्मज़श्व | आर्द्राजः किंन्त्वजन्मा सकलविदिति किं वेत्ति नात्मान्तरायं संक्षेपात्सम्यगुक्तं पशुपतिमपशुः कोऽत्र घीमानुपास्ते ॥ ६ ॥ ब्रह्मा चर्माक्षसूत्री सुरयुवतिरसावेशविभ्रान्तचेताः शम्भुः खवांगधारी गिरिपतितनयापांगलीलानुविद्धः । विष्णुचक्राधिपः सन्दुहितरमगमद्गोपनाथस्य मोहादर्हन्विध्वस्तरागो जितसकलभयः कोऽयमेष्वाप्तनाथः ॥ ७ ॥ एको नृत्यति विप्रसार्य कुकुभां चक्रे सहस्रभुजानेकः शेषभुजंगभोगशयने
.
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११०
अकलंकस्तोत्रम् व्यादाय निद्रायते । दृष्टुं चारुतिलोत्तमामुखमगादेकश्चतुवर्वत्रतामेते मुक्तिपथं वदंति विदुषामित्येतदत्यद्भुतम् ॥ ८॥ यो विश्वं वेद वेद्यं जननजलनिर्भगिनः पारदृश्वा पौर्वापर्या-. विरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलंक यदीयम् । तं वंदे साधुवंचं सकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषतं बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥९॥ माया नास्ति जटा कपाल मुकुटं चन्द्रोन मूर्द्धावली, खट्वांगं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोगं मुखं । कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं
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[११:
अकलंकस्तोत्रम् न नृत्यं पुनः सोऽस्मान्पातु निरंजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः ॥१०॥नो ब्रह्मांकितभूतलं न च हरेः शम्भोन मुद्रांकितं नो चन्द्रार्ककरांकितं सुरपतेर्वत्रांकितं नैव च । षड्वक्त्रांकितबौद्धदेवहुतभुग्यक्षोरेगैनांकितं नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्रांकितं ॥ ११ ॥ मौजीदंडकमंडलुप्रभृतयो नो लाञ्छनं ब्रह्मणो । रुद्रस्यापि जटाकपालमुकुटं कोपीनखट्वांगना । विष्णोश्चक्रगदादिशंखमतुलं बुद्धस्य रक्ताम्बरं नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्रांकितं ॥१२॥ नाहं
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११२]
कलंकस्तोत्रम्
कारवशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्यबुद्धया मया । राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायोविदग्धात्मनो बौद्धौघान्सकलान् विजित्य स घटः पादेन विस्फालितः ॥ १३ ॥ खट्वांगं नैव हस्ते न च हृदि रचिता लम्बते मुंडमाला भस्मांगं नैव शूलं न च गिरिदुहिता नैव हस्तेकपालं । चन्द्रार्द्ध नैव मूर्द्धन्यपि वृषगमनं नैव कंठे फणीन्द्रः तं बन्दे त्यक्तदोषं भवभयमथनं चेश्वरं देवदेवं ॥ १४ ॥ किं वाद्यो भगवानमेयमहिमा देवोऽकलंकः कलौ काले
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.
• अकलंकस्तोत्रम् यो जनतासुधर्मनिहितो देवोऽकलंको जिनः । यस्य स्फारविवेकमुद्रलहरीजालेप्रमेयाकुला । निर्ममा तनुतेतरां भगवतीतारा शिर कम्पनम् ।।.१५॥ सा तारा खलु देवता भगवतीमन्यापि मन्यामहे, षण्मासावधिजाड्यसांख्यभगवद्भट्टाकलंकप्रभोः। वाक्कल्लोलपरम्पराभिरमते नूनं मनोमजनव्यापारं सहते स्म विस्मितमतिः सन्ताड़िततस्ततः॥
इति श्रीअकलंकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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मोक्षशास्त्रम मचायेवयेामदुमास्वामिविरचितं १० । मोक्षशास्त्रं । मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां । ज्ञातारं विश्वतस्त्वानां बंदे तद्गुणलब्धये ॥ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १ ॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन ॥ २ ॥ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥ जीवाजीवासवबंघ संवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वं ॥ ४ ॥ नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः ॥ ५ ॥ प्रमाणनयैरधिगमः ॥ ६ ॥
११४]
Phar
१०
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मोक्षशास्त्रम्
(११५ निर्देशखामित्वसाधनाऽधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालांतरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥८॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानं ॥१॥ तत्पमाणे ॥१०॥आये परोक्षं ॥ ११॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिंताऽभिनिबोध इत्यनातरम् ॥ १३॥ तदिद्रियानिद्रियनिमित्तं ॥ १४॥ अवग्रहेहाऽवायधारणाः ॥१५॥ बहुबहुविधक्षिणाऽनिःसृताऽनुक्तध्रुवाणां सेतराणां ॥१६॥ अर्थस्य ॥१७॥ व्यंजनस्यावग्रहः ॥ १८॥ न चक्षुरनिद्रियाभ्यां
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मोनशास्त्रम् ॥१९॥ श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदं ॥२०॥ भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां ॥२१॥ क्षयोपशमनिमित्तःषड्विकल्पः शेषाणां ॥२२॥ ऋजुविपुलमती मनापर्ययः ॥२३॥ विशुध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ विशुद्धिक्षेत्रवामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥२५॥ मतिश्रुतयोर्निबंधो द्रव्येध्वसर्वपर्यायेषु ॥२६॥ रूपिष्ववधेः ॥२७॥ तदनंतभागे मनापर्ययस्य ॥२८॥ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२१॥ · एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुभ्य: ॥३०॥ मति
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मोतशास्त्रम् ।
[११५ श्रुतावघयो विपर्ययश्च ।। ५१ ॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३२॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढेवंभूता नयाः ॥ ३३॥ __ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षाशास्त्रे प्रथमोध्यायः॥१॥ .
औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य खतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च ॥१॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमः॥२॥ सम्यक्त्वचारित्रे॥३॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतु
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.......................
११८]
मोक्षशास्त्रम् स्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाच ॥५॥गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्रतुस्त्येकैकैकैकपड्भेदाः॥६॥ जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥७॥ उपयोगो लक्षणं ॥८॥स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः॥९॥ संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १०॥ समनस्कामनस्काः ॥ ११ ॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२ ॥ पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा: ॥१३॥ द्वौद्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ पंचेंद्रियाणि ॥१५॥ द्विविधानि ॥ १६॥ निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येंद्रियं ॥१७॥ लब्ध्यु
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माक्षशास्त्रम्
[१६ पयोगी भावेंद्रियं ॥ १८ ॥ स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ॥१९॥ स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ श्रुतमनि- . द्रियस्य ॥२१॥ वनस्पत्यंतानामकं ॥२२॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२॥ संज्ञिनःसमनस्काः ॥२४॥ विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२५॥ अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः॥२८॥ एकसमयाऽविग्रहा ॥ २९ ॥ एकं द्वौत्रीन्वानाहारकः ॥३०॥ संमूर्छनग पपादा जन्म ॥३१॥
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१२००
पोर्तशास्त्रम् . . . सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तधोनयः॥३२॥ जरायुजांडजपोतानां गर्भः ॥३३॥ देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ शेषाणां संमूर्छनं ॥ ३५॥ औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि ॥३६॥ परंपरं सूक्ष्म ॥३७॥ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ॥३८॥ अनंतगुणे परे ॥३९॥ अप्रतीपाते ॥४०॥ अनादिसंबंधे च ॥११॥ सर्वस्य ॥ ४२ ॥ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्यः "॥५३|| निरुपभोगमंत्यं ॥४॥ गर्भसंमूर्छनजमाद्यं ॥ ४५ ॥
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पोतशास्त्रम् .............. औपपादिकं वैक्रियिकं ॥४६॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ तेजसमपि ॥४८॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयत
सैव॥४९॥ नारकसंमूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ नदेवाः. ॥५१॥शेषास्त्रिवेदाः॥५२॥ औपपादिकचरमोत्तमदेहा: संख्येयवर्षायुषोऽनपवायुपः॥५३॥
इति तत्त्याधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातम प्रभाभूमयोधनांबुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽघोऽधः ॥१॥ तासु त्रिंशत्पंचर्वि
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१२२.]
मोक्षशास्त्रम..
शतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमं ॥ २ ॥ नारका नित्याऽशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥ ३ ॥ परस्परोदीरितदुःखाः ॥ ४ ॥ संक्लिष्टाऽलुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ जंबूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥७॥ द्विद्विर्विष्कंभाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयांकृतयः ॥ ८ ॥ तन्मध्ये मेंरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्र विष्कंभो जंबूद्वीपः ॥ ९ ॥
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मोत्तशास्त्रम्
८२२३. भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षा क्षेत्राणि॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायताः हिमवन्महाहिमवनिपधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥११॥ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः॥१२॥ मणिविचित्रपार्था उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः॥१३॥ पद्ममहापद्मतिगिछकेशरिमहापुंडरीकपुंडरीका हृदास्तेषामुपरि ॥ १४ ॥ प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कंभो हृदः॥१५॥ दशयोजनावगाहः ॥१६॥ तन्मध्ये योजनं पुष्करं ॥ १७॥ तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि
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· पोशिस्त्रम च ।। १८॥ तनिवासिन्यो देव्यः श्रीदीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्षयः पल्योपमंस्थितयः संसामानिकपरिषत्काः ॥ १९ ॥ गंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकांतासीतासीतोदानारीनरंकांतासुंवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ॥२०॥ द्वंयोद्वयोः पूर्वा पूर्वगः ॥२१॥ शेषास्त्वपरगाः ॥२२॥ चतुदेशंनदींसहस्रपरिवृता गंगासिंध्वादयो नयः ॥ २३ ॥.भरतः षड्विंशतिपर्चयोजनशतविस्तारः षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य।२४ातद्विगुणद्विगुणविस्तारावर्षधरवर्षी विदेहांताः
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मोतशास्त्रम्
[१२५ . ॥२५॥ उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥२६॥ भरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यां ॥२७॥ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥२८॥ एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहांरिवर्षकदैवकुरवकाः ॥ २९ ॥ तथोत्तराः॥३०॥ विदेहेषु संख्येयकालाः ॥३१॥ भरतस्य विष्कंभो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ॥ ३२॥ द्वितिकीखंडे ॥३३॥ पुष्कराढ़े च ॥३४ ॥ प्राङ्मांनुषोत्तरान्मनुष्याः ॥३॥. आर्या म्लेच्छाचं ॥३६।भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र
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मोक्षशास्त्रम् देवकुरुत्तरकुरुभ्यः ।। ३७॥ नृस्थितीपरावरे त्रिपल्योपमांतमुहूर्ते॥३८॥ तिर्यग्योनिजानां च ॥ ३९॥.
___ इति तत्त्वार्थधिगमे मोक्षश्यास्त्रे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ : देवाश्चतुर्णिकायाः॥१॥आदितस्त्रिषु पीतांतलेश्या:॥२॥ दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाकल्पोपपन्नपर्यंताः।३।इंद्रसामानिकत्रायस्त्रिंशत्पारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिविषिकाश्चैकशः॥४॥त्रायस्त्रिंशल्लोकपालवा व्यंतरज्यो तिष्काः॥५॥ पूर्वयोर्कीद्राः॥६॥ कायप्रवीचाराआ ऐशा
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मोतशास्त्रम् ।
[१२७ नात् ॥७॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः ॥८॥ परेऽप्रवीचाराः॥९॥भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः॥१०॥ व्यंतराः किन्नर: किंपुरुषमहोरगगंधर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः।१।ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाच ॥१२॥ मेरुपद: क्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३॥ तत्कृतः कालविभागः. ॥१४॥वहिरवस्थिताः ॥१५॥वैमानिकाः॥१६॥ कल्पो-. पपन्नाः कल्पातीताय ॥१७॥ उपर्युपरि ॥१८॥सौधर्मशान
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मोतशास्त्रम् सानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलांतवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोनवसुप्रैवेयकेषु विजयवैजयंतजयंतापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १९॥ स्थितिप्रभावसुखयुतिलेश्याविशुद्धींद्रियावधिविषयतोऽधिकाः ॥२०॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः॥२१॥ पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २२॥ प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥२३॥ ब्रह्मलोकालया लोकांतिकाः ॥२४॥ सारखतादित्यवहयरुगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाच ॥ २५ ॥ विजयादिषु
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मोतशास्त्रम् द्विचरमाः॥२६॥ औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥ स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपयोपमार्द्धहीनमिताः ॥ २८ ॥ सौधर्मेशानयोः सागरोपमेंऽधिके ॥२९॥ सानत्कुमारमाहेंद्रयोः सप्त ॥ ३०॥ त्रिसप्त नवेकादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानि तु॥३॥ आरणाच्युतादूवमेकेकेन नवंसु अवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ. च॥३२॥ अपरा पल्योपममधिकं ॥३३॥. परतः परतः पूर्वापूर्वानंतराः॥३४॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु॥३५॥
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मोक्षशास्त्रम् 'दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां ॥३६॥ भवनेषु च ॥ ३७॥ 'व्यंतराणां च॥३८॥ परापल्योपममधिकं ॥ ३९॥ ज्योतिपकाणां च.॥४०॥ तदंष्टभागोऽपरा॥४१.॥ लोकांतिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषां.॥४२॥ ... इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥ . . "अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः॥१॥ द्रव्याणि ॥२॥ जीवाश्च ॥३॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥॥रूपिणःपुद्गलाः ॥ ५॥ आआकाशादेकद्रव्याणिं ॥६॥ निष्क्रियाणि च ॥७॥ असंख्येयाः प्रदेशा... धर्माधमैकजीवांनां ॥८॥
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मोक्षशास्त्रम
[१३१
आकाशस्यानंताः ॥ ९ ॥ संख्येयासंख्येयाच पुद्गलानां ॥१०॥ नाणोः ॥ ११ ॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥ एकप्रदेशादिषु भाज्य:- पुद्गलानां ॥ १४ ॥ . असंख्येयभागादिषु जीवानां ॥ १५ ॥ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ गतिस्थित्युपग्रहा धर्माधर्मयो रुपकारः ॥ १७ ॥ आकास्यस्यावगाहः ॥ १८ ॥ शरीर वाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानां ॥१९॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ परस्परोपग्रहो जीवानां ॥ २१ ॥ वर्त्तनापरि
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AR
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सोचमानमः .. णामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ।। २२ ।। स्पर्शरसगंधवर्ण'वंतः पुद्गलाः ॥ २३॥ शब्दबंधसौक्षम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च ॥ २४॥ अणवः स्कंधाश्च ॥२५॥ भेदसंघातेभ्य उत्पद्यते ॥ २६ ॥ भेदादणुः ॥२७॥ भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः ॥२८॥ सद्रव्यलक्षणं ॥२९॥ उत्पादव्ययधौ: व्ययुक्तं सत् ॥३०॥ तद्भावाव्ययं नित्यं ॥३॥ अर्पितानर्पित: -सिद्धेः ॥३२॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्वंघः ॥ ३३॥ न जघन्य. "गुणानां ॥ ३४॥ गुणसाम्ये सहशानां ॥३५॥ द्वयाधिका
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मोतशास्त्रम् ।
१३३ . दिगुणानां तु॥३६॥बंधेऽधिको पारिणामिकौ च ॥३७॥ गुणपर्ययवद्रव्यं ॥३८॥ कालश्च ॥३९॥ सोऽनंतसमय: ॥४०॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥४१॥ तद्भावः परिणामः॥४२॥ . . .
इति तच्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे पंचमोध्यायः ॥५॥ कायवाङ्मनः कर्मयोगः॥१॥स आस्रवः॥२॥ शुभः. पुण्यस्याशुभ पापस्य ॥३॥ संकषायाकषाययोः सांपरायिकेयपिथयोः ॥४॥इंद्रियकषायावतक्रियाः पंच चतुः पंच पंच
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मोक्षशास्त्रम् विंशतिसंख्या पूर्वस्यभेदाः॥५॥ तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः॥६॥अधिकरण जीवाजीवाः ॥७॥ आचं संरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥८॥ निर्वतनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परं ॥९॥ तत्पदोषनिह्नवमात्सर्या तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावर्णयोः॥१०॥ दुःखशोकतापानंदनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयंस्थानान्यसवेद्यस्य ॥११॥ भूतव्रत्यनुकंपादानसरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति
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:मोक्षशास्त्रम् ।
[१३५ सद्वेद्यस्य ॥ १२॥ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १३. ॥ कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१४॥ बहारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥ १५॥ माया तैर्यग्योनस्यः॥१६॥ अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥१७॥ खभावमार्दवं च ॥ १८॥ निशीलवतत्वं च सर्वेषां ॥ १९ ॥ सरागसंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य ॥२०॥ सम्यक्त्वं च ॥२१॥योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः॥२२॥ तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥ दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता।
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मोवशाखमः .. शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्या-: मतपसी साधुसमाधिवैयावृत्यकरणमहंदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥ परात्मानंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छा: दुनौद्भावने च नीचैगोत्रस्य ॥२५॥ तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ २६ ॥ विघ्नकरणमंतरायस्य ॥ २७॥ ...' : इति तत्वार्थाधिगमे मोकशास्त्र षष्ठोऽध्यायः ॥६॥: .. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतं ॥ १॥ देशसर्व
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मोतशास्त्रम
.. ६१३७ तोणुमहती॥२॥ तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच ॥३॥वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पंच ॥४॥क्रोषलोमभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पंच ॥५॥ शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यः शुद्धिसद्धर्माविसंवादाः पंच ॥६॥ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसखशरीरसंस्कारत्यागाः पंच ॥ ७॥ मनोज्ञामनोजेंद्रियविषयरांगद्वेषवर्जनानि 'पंच॥ ॥ हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनं ॥९॥ दुःखमेव
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.. १३८
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... मोक्षधास्त्रम् वा॥१०॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ॥११॥ जंगत्कायखभावौ वा संवेगवैराग्याथ ॥ १२ ॥ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥ असदभिधानमनृतं ॥ १४ ॥ अदत्तादानं स्तेयं ॥१५॥मैथुनमंब्रह्मः ॥ १६॥ मूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ निःशल्यो व्रती ॥१८॥ आगार्यनगारश्च ॥ १९॥ अणुव्रतोज्गारी ॥२०॥ दिग्देशानर्थदंडविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ॥ २१ ॥ मारणांतिकी
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. १६..
पोक्षशाखम सल्लेखनां जोषिता ॥ २२॥ शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टरतीचाराः ॥ २३॥ व्रतशीलेषु पंच पंच यथाक्रम ॥ २४॥ बंधवधच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ॥२५ ॥ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रिया: न्यासापहारसाकारमंत्रभेदाः॥२६॥ स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः।। ॥२७ ॥ परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीताऽपरिगृहीतागम. नानंगक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः ॥२८॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्य
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मोतशास्त्रम् सुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिकमाः ॥ २९॥ अर्धाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यंतराधानानि ॥ ३०॥ आनय: नप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः॥३१॥ कंदर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि॥३२॥ योगदुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३॥ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्था.. नानि ।। ३४॥ सचित्तसंबंधसंमिश्राभिषवदुःपकाहाराः ॥३५॥ संचितनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिकमाः ॥३६॥ .
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मोतशास्त्रम् . . . . Ev१ . जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानानि ॥ ३७॥ अनुग्रहार्थ खस्यातिसर्गों दानं ॥३८॥ विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः॥३९॥ . ... . इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्ो सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः ॥१॥ सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्तेस बंधः॥२॥ प्रकृतिस्थित्यंनुभागप्रदेशास्तद्विषयः ॥३॥ आयो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुनामगोत्रांतरायाः ॥ ४॥ पंचनव
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१४२] . . . . . मोक्षशास्त्रम व्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपंचभेदा यथाक्रमं ॥५॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानां ॥६॥ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥७॥ सदसद्वद्ये।ा दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकपायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदा अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानंसज्वलनविकल्पाश्चैकश क्रोधमानमायालोभाः॥९॥ नारकतैयंग्योनमानुषदैवानि ॥१०॥गति-.
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मोतशास्त्रम् . . . .[१४३. जातिशरीरांगोपांगनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यगुरुलधूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्यकशरीरत्रससुभगसुखरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययश-कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥११॥उच्चैर्नीचैश्च ॥१२॥ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां।१३॥ आदितस्तिसृणामंतरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः परा स्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ १५॥ विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥ १६॥ त्रयत्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ १७॥ अपरा द्वादश मुहूर्ता वेद
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१.१४४१ ।
मोनशाखम नीयस्य॥१८॥नामगोत्रयोरष्टौ ॥ १९॥शेषाणामंतमुहूतों ॥२०॥ विपाकोऽनुभवः ॥ २१॥ स यथानाम ॥२२॥ ततश्र निर्जरा ॥२३॥ नामप्रत्यया सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ॥ २४ ॥ सद्वेधशुभायुनामगोत्राणि पुण्यं ॥२५॥ अतोऽन्यत्पापं ॥२६॥ '... . इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रेऽष्टमोध्यायः ॥ ८॥ .. . · आसवनिरोधः संवरः॥१॥स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजयचारित्रैः॥२॥ तपसा निर्जरा च ॥३॥सम्यग्योग
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मोक्षशास्त्रम्.. निग्रहो गुप्तिः ॥ ४॥ ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः॥५॥ उत्तमक्षमामार्दवाजवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाः किंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः॥६॥अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्याततत्त्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः॥७॥ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः ॥८॥क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्री:चर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्काः रपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥९॥ सूक्ष्मसांपरायछद्मस्थवीत
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. मोतशास्त्रम् रागयोश्चतुर्दश ॥ १०॥ एकादश जिने ॥११॥ वादरसांप: । राये सर्वे॥१२॥ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने॥१॥दर्शनमोहांतराययोरदर्शनालाभौ ॥१४॥चारित्रमोहेनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः॥१५॥वेदनीये शेषाः॥१६॥एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतः ॥१७॥ सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातमिति चारित्रं ॥ १८॥अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः॥१९॥ प्रायश्चित्त
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मोतशास्त्रम्
१४० विनयवैयावृत्त्यखाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरं ॥२०॥नवचतुः दशपंचदिभेदा यथाक्रम प्रारध्यानात् ॥२१॥आलोचनप्रतिक्रममतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥ २२ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः॥२३॥ आचार्योपाध्यायतपखिशैः क्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानां ॥२४॥ वाचनापृच्छनानुः प्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशः ॥२५॥ बाह्याभ्यंतरोपध्योः॥२६॥उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमांतर्मुहूर्तात् २७॥ आर्चरौद्रघHशुक्लानि ॥२८॥ परे मोक्षहेतू ॥२९॥आर्चममनोज्ञ
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१४८].
मोक्षशास्त्रम् स्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय · स्मृतिसमन्वाहारः ॥ ३० ॥ विपरीतं मनोज्ञस्य ॥३१॥ वेदनायाश्च ॥ ३२ ॥ निदानं च. ॥३३॥ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानां ॥३४॥हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः॥३५॥आज्ञापायविपाकसंस्थानवित्रयाय धयं ॥ ३६॥ शुक्ले चाये पूर्व विदः॥३७॥ परे केवलिनः ॥३८॥ पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतिक्रियानिवर्चीनि ॥३९॥ त्र्येकयोगकाययोगायोगानां ॥४०॥ एकाश्रयेसवितर्की
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मोक्षशास्त्रम् :
[१४६
;
अवीचारं द्वितीयं ॥ ४२ ॥ वितर्कः श्रुतं ॥ ४३ ॥ वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रांतिः ॥ ४४ ॥ सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानंतवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमको पशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥ ४५ ॥ पुलाकव कुश: कुशीलनिर्गंथस्नातका निर्ग्रन्धाः ॥ ४६ ॥ संयमश्रुतप्रतिसेवः नातीर्थलिंगलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥ ४७ ॥
1
इति तत्त्वार्थाधिगमें मोक्षशास्त्रे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणांतराय क्षयाच्च केवलं ॥ १ ॥ बंघ
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१५०1 . . . मोक्षशास्त्रम् हेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः॥२॥औपशमिकादिभव्यत्वानां च ॥३॥ अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः॥४॥तदनंतरमूवं गच्छत्यालोकांतात् ॥५॥ पूर्वप्रयोगादसंगत्वाबंधच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥ ६ ॥ आविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालाबुवदेरंडबीजवदग्निशि- . खावच ॥७॥धर्मास्तिकायाभावात् ॥८॥ क्षेत्रकालगतिर्लिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनांतरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥९॥ इति तस्याधिगमे मोक्षशास्त्र दशमोऽध्यायः ॥ १०॥
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मोक्षशास्त्रम्
- [१५१
अक्षरमात्रपदखरहीनं व्यंजनसधिविवर्जितरेकं । साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ॥ १॥ दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवैः ॥ २ ॥ तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितं । वंदे गणीन्द्रसंयातमुमाखामिमुनीश्वरं ॥ ३ ॥
इति तत्त्वार्थसूत्रापरनाम तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र समाप्त ॥ ३२ ॥ -
10T
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१५२]
भावनाद्वात्रिंशतिका श्रीअमितगतिसूरिविरचिता .
११ । भावनाहात्रिंशतिका। सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । मध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव! ॥२॥ शरीरतः कर्तुमनंतशक्ति विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेंद्र कोषादिव खड्गयष्टिं तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः॥२॥.. दुखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे योगे वियोगे भुवने वने वा। “निराकृताशेषममत्वबुद्धेः समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ ॥३॥
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.
१५३ .
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भावनाद्वात्रिंशतिका मुनीश लीनाविव कीलिताविव स्थिरौ निषाताविव विम्बिताविव पादौ त्वदीयो मम तिष्ठतां सदा तमोधुनानौ हृदि दीपकाविव॥ एकेंद्रियाद्या यदि देव ! देहिनः प्रमादतः संचरता इतस्ततः। क्षता विभिन्नामिलिता निपीडिता, तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा विमुक्तिमार्गप्रतिकूलवर्तिना मया कषायाक्षवशेन दुधिया। चारित्रशुद्धेर्यदकारि लोपनं तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतंप्रभो॥६॥ विनिंदनालोचनगर्हणैरह, मनोवच कायकषायनिर्मितं । . निहन्मि पापं भवंदुःखकारणं भिषग्विषं मंत्रगुणैरिवाखिलं॥
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। १५४] .
भावनाद्वात्रिंशतिका अतिक्रमं यद्विमतेयतिक्रमं जिनातिचारं सुचरित्रकर्मणः। व्यधामनाचारमपि प्रमादतः प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥८. क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेविलंघनम्। प्रभोऽतिचारं विषयेषुवर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्ततां ॥॥ यदर्थमात्रापदवाक्यहीनं मया प्रमादायदि किञ्चनोक्तं । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी सरस्वती केवलबोधलब्धिम् ॥ बोधि-समाधिःपरिणामशुद्धिःस्वात्मोपलब्धिःशिवसौख्यसिद्धिः चिंतामणिचिंतितवस्तुदाने त्वांवंद्यमानस्य ममास्तु देवि॥११॥
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भावनाद्वात्रिंशतिका . . ५५ यः स्मर्यते सर्वमुनींद्रबुंदैः यः स्तूयते सर्वनरामरेंद्रैः। यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१२॥ यो दर्शनज्ञानसुखखभावः समस्तसंसारविकारवाहः। समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥१३॥ निषूदते यो भवदुःखजालं, निरीक्षते यो जगदंतरालं। योऽतर्गतो योगिनिरीक्षणीयः,स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युव्यसनाद्व्यतीतः। त्रिलोकलोकी विकलोऽकलंकः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥
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भावनाद्वात्रिंशतिका
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कोडीकृताशेषशरीरवर्गाः, रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १६॥ यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुद्धो घुतकर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकलं विकारं, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१७॥ न स्पृश्यते कर्म कलंकदोषैः, यो ध्वान्तसंघैरिव तिग्मरश्मिः । निरंजनं नित्यमनेकमेकं तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥ १८ ॥ विभासते यत्र मरीचिमाली, न विद्यमाने भुवनावभासी । स्वात्मस्थितं बोघमयप्रकाशं तं देवमातं शरणं प्रपद्ये ॥ १९ ॥
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भावनाद्वाविंशतिका . .. [१५७ विलोक्यमाने सति यत्र विश्व, विलोक्यते स्पष्टमिद विविक्तम् । शुद्धं शिवं शांतमनाद्यनन्तं,तं देवमा शरणं प्रपद्ये ॥२०॥ येन क्षता मन्मथमानमूर्छा, विषादनिद्राभयशोकचिन्ता । क्षताऽनलेनेव तरुप्रपंचस्तं देवमातं शरणं प्रपद्ये ॥२१॥ नसंस्तरोमानतृणं न मेदिनी विधानतो नो फलको विनिर्मित यतोनिरस्ताक्षकषायविद्विषःसुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मतः २२ न संस्तरों भद्र! समाधिसाधनं, न लोकपूजान चसंघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतोभवानिशं, विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनां।
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भावनाद्वा शतिका न सन्ति बाह्या मम केचनार्थी भवामि तेषां नकदाचनाहम् । इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्य स्वस्थः सदा त्वं भव भद्र मुक्त्यै आत्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्धः। एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोपि साधुर्लभते समाधि ।२५। एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्तान शाश्वता कर्मभवाः स्वकीयाः२६ यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि साई तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रै। पृथक्कृते चर्मणिरोमकूपाः कुतो हि तिष्ठति शरीरमध्ये ॥२७॥
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भावनाद्वात्रिंशतिका
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संयोगतो दुःखमनेकभेदं यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी । ततस्त्रिधासौ परिवर्जनीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् २८ सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं संसारकान्तारनिपातहेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥२९॥ स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते, स्फुटं स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ ३०॥ निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किंचन विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुंच शेमुषीम् ॥३१॥
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भावनाद्वात्रिंशतिकाः यै परमात्माऽमितगतिवन्धः सर्वविविक्तो भृशमनवद्यः। शश्वदधीतो मनसि, लभन्ते मुक्तिनिकेत विभववर ते ॥३शा
इति द्वात्रिंशता वृत्तैः, परमात्मानमीक्षते । योऽनन्यगतवेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययम् ॥ ३२ ॥
॥ इति भावनाद्वात्रिंशतिका ।
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मुद्रक और प्रकाशक-श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ · जैनसिद्धान्त प्रकाशक (पवित्र) प्रेस नं० विश्वकोष लेन, बाघबाजार-कलकता।
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सुलमजैन-ग्रंथमाला। आजकल बहुतसे धन-लोलुपी घुकसेलर पतले फायज थोरबारीक.. अक्षरों में. मांसफे वेलनसे अनेक ग्रन्थ छपा छपाकर उनकी दुगुणी तिगुणी न्योछावर रखकर लवे चौड़े स्तहार के देकर भोले भाले जैनी भाइयोंको उग रहे हैं, और महा अपवि. त्रतासे छपेहुये ग्रंथोंका प्रचार कर रहे हैं, इसकारण संस्थाने यह. 'सुलभ जैनथ: माला' प्रकाशित करना प्रारंभ किया है । इस ग्रंथ-मालामें दर्शन-पाठ सत्र भक्तामरसे: आदि लेकर हरिवंशपुराण पद्मपुराण आदि बड़े २ भाषा प्राय सर्व साधारण. माइयोंके । हितार्थ छपाकर बहुत थोड़ी न्योछावरमें देनेका बीडाउठाया है। अतः सव भाइयोंको. सबसे सस्ती न्योछावरमें कपडेके वेलनसे चिकने पुष्ट कागजों में बडे.२ अवरोंमें : पवित्रताके साथ छपे हुये ग्रन्थ इसी संस्थासे लेना चाहिये, संस्थाकी वरावर सस्ती
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________________ न्योछावरमें कोई भी पुस्तकनिकता. कदापि नहिं दे सक्ता / अगर पेली सस्ती न्योछावरमें कोई बुकसेलर देने का इस्तहार देथे तो समझ लेना चाहिये कि या तो कागजपतले रही हैं या अक्षर बारीक. 'या उस प्रथको संक्षेप करके थोडा पाठ (छोटा प्रथ) छपाया है, क्योंकि वे जी.प्रथा छपाते हैं सो कुछ पैदा करनेके लिये सो छपाते है और यह संस्था सिर्फ ज्ञानाचारके लिये छपाती है, पैदा करने के लिये यह.संस्था स्थापन गति हुई हैं। ... .. व्यवस्थापक --- ... भारतीय जैनसिद्धांतप्रकाशिनी संस्था - विश्वकोप लेन, पो० वाघबाजार, (कलकचा)