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संशयनबनभाये
अमानगर सूरि
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OG SOGO
AM
अनंतलब्धि निधान श्री इंद्रभूति गौतमस्वामि (तीर्थंकर श्री महावीर स्वामि के प्रथमगणधर)
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स्व. गच्छाधिपति प्रशान्तमूर्ति प.पू. आचार्यदेव
श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. साहेब
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सौजन्य साबरमती (रामनगर) श्वेतांबर
मूर्तिपूजक जैन संघ के साबरमती अहमदाबाद ३८०००५
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संशय सब
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दूर भये
गणधरवाद
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नमामि वीरम् गिरिसार धीरम् ॥ संशय सब दूरंभये
(गणधरवाद)
प्रवचनकार स्व. गच्छाधिपति संयमैकलक्षी पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न परमात्मरसिक पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न श्री
पद्ममसागरसुरीश्वरजी महाराज
_ -प्रेरक -- ज्योतिर्विद विद्वान मुनिराजश्री अरुणोदयसागरजी महाराज के शिष्यरत्न
हित्यप्रेमि सेवाभावि मुनिराज श्री देवेन्द्रसागरजी महाराज
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प्रकाशक श्री अरुणोदय फाउन्डेशन
सदा आनन्द' विजयविहार कोलोनी
नवरंगपुरा अहमदाबाद - ३८० ००९
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O
पुस्तक: संशय सब दूर भये ( गणधरवाद) विधा : धर्मशास्त्रीय प्रवचन
संपादक : पण्डित श्री परमार्थाचार्यजी संस्करण : प्रथम सन् १९८७ ई
प्रतियाँ : पाँच हजार किंमत : रु.२०/
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श्री अरुणोदय फाउन्डेशन
टाइपसेटींग : एफ.एस. मिस्त्री ॲन्ड अधर्स मुद्रक : गुजरात ओफसेट
शाशिकान्त जे. वोरा
"कैजल्स"
४८, हयुजिस रोड मुंबई - ४०० ००७
.न. ३८५६३५
भणसाली केमिकल्स २६. नयनीअप्पा नायकन स्ट्रीट मद्रास ६०० ००३
प्राप्तिस्थान
देवीचन्द मिश्रिमल
चीक पेठ बेंगलोर
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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
Clo. हेमन्त ब्रदर्स
सुपर मार्केट, आश्रम रोड
अहमदाबाद
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स्मिता सिल्क साडी सेन्टर नेप्च्युन टावर, आश्रम रोड ३८० ००९
अहमदाबाद
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५३
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दो शब्द : जैन दर्शन का मूलभूत तत्त्वज्ञान श्री कल्पसूत्र के 'गणधरवाद' प्रवचन में है। परमात्मा महावीर प्रभुने पूर्ण मनोवैज्ञानिक दृष्टी से अन्य दर्शनोंके विचारधाराओं को अनेकांत के माध्यम से जिस ढंग से समझाया है, वह अपूर्व है।
परमात्मा के इस मंगलप्रवचन को सामान्यजन सहज रूप से समझ सकें, जैनतत्त्व का सरलता पूर्वक परिचय प्राप्त कर पायें, इसी भावना से विद्वान् मुनिराजश्री देवेन्द्रसागरजी ने इसका सुंदर रूपसे संपादन कार्य किया है । इस पुस्तकमें । यदि कहीं पर जिनाज्ञा विरुद्ध मतिकल्पनासे कुछ कथन हुआ हो तो उसके लिये मैं मिच्छामि दक्कडं देता हूँ।
भवदीय : पद्मसागर
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Achary
एक नजर किसीने ठीक ही कहा है :
यस्याग्रे न गलति संशयः समूलो
नैवासी क्वचिदपि पण्डितोक्तिमेति ॥ अर्थात् जिसके सामने जानेपर अपना संशय मूल सहित गल न जाय, उसे कभी पण्डित नहीं कहा जा सकता. अपने सैकड़ों छात्रोंकी शंकाओंका समाधान करने वाले इन्द्रभूति आदि पण्डित ही नहीं, महापण्डिल कहलाते थे, परन्तु स्वयं उन्हींके हृदयमें वर्षोंसे एक-एक शंका छिपी हुई थी. किसके हृदयमें कौन-सी शंका थी? उसका संक्षिप्त विवरण देखिये :१. इन्दभूति : जीव है या नहीं ? २. अग्निभूति : कर्म है या नहीं ? ३. वायुभूति : जीव और कर्म भिन्न है या अभिन्न ? ४. व्यक्त : पञ्च महाभूत है या नहीं ? ५. सुधर्मा : पुरुष मरकर पुरुष ही होता है या पशु भी ? ६. मण्डित : बन्ध-मोक्ष होता है या नहीं ? ७. मौर्यपुत्र : देव होते है या नहीं ? ८. अकम्पित : नारक (नरक निवासी प्राणी) होते है या नहीं ? ९. अचलभ्राता : पुण्य-पाप होते है या नहीं ? १०. मेतार्य : परलोक होता है या नहीं ? ११. प्रभास : निर्वाण (मोक्ष) का कहीं अस्तित्व है या नहीं ? इन ग्यारह महापण्डितों की उपर्युक्त ग्यारह शंकाओंका निराकरण सर्वज्ञ प्रभु महावीरस्वामी ने किस प्रकार किया ? इसका विस्तृत विवरण ही 'संशय सब दूर भये' इस छोटी-सी पुस्तक का प्रतिपाद्य विषय है इन ग्यारह महापण्डितोंके साथ प्रभु का जो संवाद हुआ था, वही "गणधरवाद" कहलाता है. इस गणधरवाद के फलस्वरूप एक ही दिनमें प्रभुको कुल ४४११ शिष्यरत्नोंकी प्राप्ति हुई थी, उनकी गणनाके लिए इस गाथा से सहायता मिलती है:
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पञ्चहं पञ्चसया
अद्धदुसयाई हुन्ति दुन्ति गणा । दुन्नं जुयलबहा
इस प्रकार (५०० ५ १२००, २५०० ७००
तिसओ तिसओ हवइ गच्छो ॥
(प्रारंभिक पाँच पण्डितोंके पाँच सौ-पाँच सौ शिष्य थे. फिर दो के साढ़े तीन सौ साढ़े तीन सौ और अन्तिम चार (दो युगल) के तीन सौ तीन सौ)
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२५००, ३५० २ ७००, ३०० १२०० ४४००)
४
कुल चवालीस सौ की संख्यामें इन्द्रभूति आदि ग्यारह पण्डितों को मिलाने पर कुल योग चार हजार चार सौ ग्यारह हो जाता है.
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पू. गुरु म. श्री का यह प्रवचन जिन्होंने सुना है तथा जिन्होंने नहीं सुना है, दोनों ही समानरूप से लाभान्वित हो सकें और उस पर किया हुआ चिन्तनमनन वह हमारे आचरण का अंग बने यही आकांक्षा है ।
गुरुकृपाकांक्षी मुनि देवेन्द्रसागर
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शुभ संदेश परम पूज्य आचार्य श्री पद्मसागर सूरिश्वरजी महाराजनी प्रवचनधारानो लाभ लेवानुं सद्भाग्य हुं कदी चुकतो नथी. अमनी वाणीनी विशेषता अ छे के व्यापक जनसमुदायने ओ स्पर्श छे अने अमनामां जैनदर्शन विशेनी जिज्ञासा जगाडे छे अमनुं प्रभावक व्यक्तित्व, प्रवाही भाषा शैली, सचोट दृष्टांतो अने अक अनुपम वातावरण सर्जवानी शक्तिनो मने प्रत्येक्ष परिचय छे.
आवा समर्थ आचार्य भगवान पासेथी आपणे जेटलुं पामीओ तेटल ओछं छे गणधरवाद ओ जैन सिद्धांतोनो अर्क छे अने जैन दर्शननी विशेषताओंनो परिचायक छे. आवा गहन गणधरवाद विशे आ पुस्तक साचेज मूल्यवान गणाय जैन दर्शनना सिद्धांतो अहीं ओवी रीते आलेखाया छे के जेने सामान्य जाणकारी धरावतो मानवी पण समजी शके. जैन दर्शननी विशेषतानी साथे व्यपकता गहनतानी साथे हृदयस्पर्शता आ ग्रंथमां सुन्दर रीते प्रगट थई छे. आशा राखीये के परम पूज्य आर्चाय श्री पासेथी तेओना विशाल ज्ञानना नीचोडरूप आवा पुस्तको मळता रहे जेने कारणे जन समाजने साची दिशा सांपडे
श्रेणिक कस्तुरभाई
* MER
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शुभ संन्देश परम पूज्य आचार्य श्री पद्ममसागरसूरिश्वरजी महाराजनी पावन कारी वाणीनी विशेषता ओ छे के अत्यन्त सरळ अने साहजिक भाषामा मार्मिक दृष्टांतो सहित जैन दर्शननो मर्म प्रगट करी आपे छे आथीज अमनी पावन कारी वाणीना श्रवण माटे विशाळ जनमेदानी अति आतुर होय छे. गणधरवाद जेवा गहन विषय परना अमना प्रवचनोनो आ संचय आपीने ओमणे जिज्ञासुओं पर अनहद उपकार योछे. आ प्रवचनोनी योग्य संकलना साथे ओ तैयार थाय छे तेथी विशेष आनन्द थाय ठे
परम पूज्य आचार्य देवश्री पद्मसागरजी महाराजना आवा वधुने वधु प्रवचनोनो संग्रह आपणने मळतो रहे अने ओ द्वारा आपणी धर्म जिज्ञासानी प्यास वधुने वधु छीपाती रहे ओवी भावना व्यक्त करूं छु.
अरविन्द संघवी (वित्त मंत्री - गुजरात राज्य)
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N
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प्रकाशकीय प्रातः स्मरणीय बालब्रम्हचारी, सुविचारक, सम्मेतशिखर तीर्थोद्धारक, कुशल वकता, शास्त्रमर्मज्ञ, सद्गुरुदेव जैनाचार्य परम पूज्य श्रीमत् पद्मसागर सूरिश्वरजी महाराज साहब के मुखार विन्द से निःसत बारह सुमधुर सुन्दर रोचक ज्ञान वर्धक तत्त्वबोधक आत्मबोधक प्रवचनों का संकलन ज्योतिर्विद विद्वान मुनिराज श्री अरुणोदय सागरजी म.सा. के पट्टधर साहित्य प्रेमि विद्वाने मुनिराजश्री देवेन्द्रसागरजी म.सा. की प्रेरणासे श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा के प्रांगण में नवनिर्मित गगनचुंबि जिनालय की प्राणप्रतिष्ठा के सुअवसर पर 'पुस्तक' प्रकाशित करते हुए आज हमें अत्यन्त हर्षका अनुभव हो रहा है। पुस्तक का शीर्षक है- 'संशय सब दूर भये (गणधरवाद) क्योंकि इसमें सर्वज्ञ प्रभु महावीर के साथ इन्द्रभूति आदि महापण्डितों की जो महत्त्व पूर्ण चर्चाएँ हुई थी उनका विस्तृत विवरण है प्रभु के विचार से प्रभावित होकर अपनी अपनी शंकाओं का समाधान पाकर उन सभी महापण्डितोंने शिष्यता स्वीकार कर ली थी. प्रभुने उन्हें 'गणधरपद्' से विभूषित किया
था.
कम से कम समय में सुयोग्यता पूर्वक इस की पाण्डुलिपि तैयार करनेवाले पण्डित श्री परमार्थाचार्य जी के तथा मुद्रण कार्य में नवनितलाल अन्ड कुं के श्री मनोज आर. गांधी के सहयोग को हम कैसे भूल सके ? अतः हम उनके भी आभारी है। उन उदार सज्जनों के भी हम अत्यन्त आभारी हैं, जो समय - समय पर हमें आर्थिक सहयोग देते रहे आज्ञा ही नही बलकी विश्वास है कि साहित्यप्रेमी पू. मुनिराजश्री देवेन्द्रसागरजी म.सा. की प्रेरणा से पूर्व प्रकाशित प्रतिबोध मोक्ष मार्गमें बीस कदम, जीवन द्रष्टि, मित्तिमें सव्वभूएसु आदि पुस्तकों की तरह इस पुस्तक का भी समाज में स्वागत होगा.
ट्रस्टीगण (अरुणोदय फाउन्डेशन)
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सम्पादकीय इस पुस्तक में जिन ग्यारह गणधरों का उल्लेख हुआ है, उनमें जो समानताएँ थीं, वे इस प्रकार है:
१. सब वेदोंके विशेषज्ञ महान पण्डित थे. २. सब सोमिल ब्राह्मण द्वारा आयोजित यज्ञ में आमन्त्रित होकर - पावापुरीमें पधारे थे. ३. सबकी शंकाएँ परस्पर विरुद्धवेदवाक्यों पर आधारित थीं. ४. सबके हृदयमें केवल एक-एक शंका ही थी. ५. सबकी शंकाओंका समाधान प्रभुने वेदवाक्योंका वास्तविकअर्थ बताकर
किया. ६. समाधान होते ही अपनी-अपनी विद्वत्ताका अहंकार त्याग कर सबने
प्रभुको आत्मसमपर्ण कर दिया. ७. सबको प्रभुसे त्रिपदी का ज्ञान मिला ८. त्रिपदीका ज्ञान पाकर सबने द्वादशांगी की रचना की. ९. शब्दों में भिन्नता होते हुए भी सबकी द्वादशांगियोंके भावोंमें अभिन्नता
थी- सबका आशय एक था- तात्पर्य समान था. १०. सबको प्रभुने गणधर पद पर प्रतिष्ठित किया. ११. अपने छात्र समुदायके साथ ही सबने प्रव्रज्या अंगीकार की. १२. संयम और तपस्याकी साधनाके द्वारा केवलज्ञानी बनकर सबसे मोक्ष ५. प्राप्त किया.
इतनी समान्ताओंके होते हुए भी उनमें जो असमानताएँ थीं, वे इस प्रकार
१. सबकी शंकाएँ भिन्न-भिन्न थी. २. सबकी छात्रसंख्या भिन्न-भिन्न थी, ३. समवसरणमें सब अलग-अलग पहुँचे. ४. सबका नाम अलग-अलग था. इसी प्रकार सबकी गोत्र, अवस्था और
देह अलग-अलग थी. द्वादशांगियों (बाहर अंगसूत्रों) की रचना की. ५. सबने अलग-अलग समयमें केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया.
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"कल्पसूत्रम्" नामक महान् धार्मिक ग्रन्थ के रचयिता थे स्वनामधन्य श्रुतकेवली श्री भद्बाहु स्वामी गणधरवाद उसी महानग्रन्थका एक अंश है.
अपापापुरी के महान सेन नामक उपवनमें प्रभु महावीरके लिए देवोंने समवसरण की रचना की थी. वहीं उस समय के इन्द्रभूति आदि दिग्गज विद्वानोंने प्रभुके साथ संवाद किया था. उसी संवाद की यह विस्तृत रिपोर्ट है- गणधरवाद.
आचार्यश्री पद्मसागर सूरिश्वरजी म.सा. ने उसी प्रसंगको लेकर यह जो रोचक प्रवचन किये थे, उनका यह संकलन है. जैन साधुओं और खास करके जैनाचार्यों की भाषा काफी संयत होती है, इसलिए प्रमादवश यदि कहीं असंयत भाषाका प्रयोग हो गया हो तो उसे मेरी त्रुटि समझें, प्रवचनकार की नहीं.
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- परमार्थाचार्य
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समर्पण जीव, कर्म, महाभूत, बन्ध-मोक्ष,
स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, परलोक, निर्वाण आदि के विषयमें
अपनी हार्दिक जिज्ञासाओंको शान्त करके जो आत्म-कल्याण के पथ पर चलना चाहते हैं,
उन मुमुक्ष मनुष्यों के कर-कमलों में। पद्मसागरसूरि
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परम श्रद्धेय शासन प्रभावक आचार्यप्रवर श्रीमत् पद्मसागरसूरिश्वरजी महाराज साहब के श्री अरूणोदय फाउन्डेशन द्वारा प्रकाशित पठनिय चिंतनीय मननीय एवं प्रेरणादायी साहित्य
(१) चिंतन नी केडी (२) प्रेरणा (३) प्रवचन पराग (४) प्रतिबोध (५) मोक्ष मार्ग में बीस कदम (६) मित्ती में सव्वभूएसु (७) हे नवकार महान् ।
(स्नेहाञ्जली की नई आवृत्ति (८) जीवन द्रष्टि (९) अवेकनींग (प्रतिबोध की अंग्रेजी आवृत्ति) (१०) गोल्डन स्टेप्स टु सालवेशन
दूसरी आवृत्ति दूसरी आवृत्ति दूसरी आवृत्ति दूसरी आवृत्ति दूसरी आवृत्ति दूसरी आवृत्ति
गुजराती गुजराती गुजराती हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी
हिन्दी
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प्रभु महावीर के इन्द्रभूति आदि ग्यारह प्रधान शिष्य थे, जिन्हें गणधर कहा जाता है. शिष्य बननेसे पहले प्रत्येक विद्वान् के मनमें वेदवाक्यों के आधार पर एक-एक शंका थी. प्रथम सम्पर्क में ही प्रभुने जिस चर्चा द्वारा शंकासमाधान किया, वही "गणधरवाद" के नामसे प्रसिद्ध है. आइये, उस महत्त्वपूर्ण गम्भीर समाधानकारक सात्त्विक चर्चाका आज विस्तृत परिचय प्राप्त करें :
आपापायां महापुर्याम्
यज्ञार्थी सोमिलो द्विज :। तदाहूता : समाजग्मु
रेकादश द्विजोत्तमा : ॥ अपापा नामक एक महानगरी थी, जो आजकल 'पावापुरी" कहलाती है. उसमें सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था. एक बार उसने एक विशाल यज्ञका आयोजन किया. आयोजनको सफलतापूर्वक सम्पन्न करनेके लिए उसने उत्तम ब्राह्मण पंडितों को बुलाया. वे संख्यामें ग्यारह थे. प्रत्येक पंडितका अपना छात्रसंघ (शिष्यसमुदाय) था. समस्त पंडितों के कुल छात्रोंकी संख्या चवालीस सौ (४४००) थी. यज्ञानुष्ठानमें वे भी सब आये हुए थे. यज्ञमण्डपमें खूब चहल-पहल थी. यज्ञशाला में पधारे हुए उन वेदपाठी महापण्डितोंके शुभ नाम क्रमश : इस प्रकार थे :- १. इन्द्रभूति, २. अग्निभूति ३. वायुभूति ४. व्यक्त, ५. सुधर्मा, ६. मण्डित, ७. मौर्यपुत्र, ८. अकम्पित, ९.अचलभ्राता, १०. मेतार्य और ११. प्रभास. यद्यपि वेदवाक्योंके आधार पर प्रत्येक पण्डित के मनमें एक-एक शंका थी, परन्तु फिर भी वे अपनेको सर्वज्ञ मानते थे. अंहकारके कारण अपने मनकी शंका को वे मनमें ही छिपाये हुए थे. किसीके सामने प्रकट नहीं करते थे, क्योंकि प्रकट करने पर अपनी "लघुता" और समाधान करनेवालेकी "गुरुता" का सिक्का जम जाता. प्रश्न करनेसे लोग "अल्पज्ञ" समझते और अपनी सर्वज्ञताके अभिमानको चोट लगती.
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यदि अभिमान छोड़कर सब पण्डित अपनी-अपनी शंका एक-दूसरे के सामने प्रकट कर देते तो सबका एक-दूसरेके द्वारा समाधान हो जात क्यों कि सबकी शंकाएँ अलग-अलग थीं जो शंका एक को थी, वह । दूसरे को नहीं थी, परन्तु अभिमान सब पर ऐसा छाया हुआ था कि सब अपनी शंकाओंके विषयमें मौन साधे रहे. पावापुरी में जब इस महायज्ञ का आयोजन हो रहा था, उसी समय वहाँ एक और सर्वज्ञ प्रभु महावीर का पदार्पण हुआ. उनके लिए समवसरणकी रचना की गई थी. प्रभुको वन्दन करने और उनका प्रवचन सुनने के लिए दूरसे आते हुए वैमानिक देवोंको देखकर प्रधान पण्डित इन्द्रभूति भ्रमसे यह मानकर हर्षित होने लगा कि यह हमारे यज्ञकी महिमा है, जिसमें यज्ञ-भाग ग्रहण करने के लिए प्रत्यक्ष देवगणका शुभागमन हो रहा है. यह भ्रम तब टूटा, जब आगन्तुक देव यज्ञमण्डप छोडकर आगे निकल गये. श्री इन्द्रभूति विचारमें पड़ गया कि यह क्या बात हुई ? ये भूल तो नहीं गये ? यज्ञस्थल तो यही है न ? क्या इनको पता नहीं है ? कितनी दूर-दूर से लोग इस यज्ञमें सम्मिलित होने के लिए आये हैं। हम ग्यारह विद्वानोंके चवालीस सौ शिष्यों के अतिरिक्त शंकर, शिवंकर, शुभंकर, सीमंकर क्षेमंकर, महेश्वर, सोमेश्वर, धनेश्वर दिनेश्वर, गणेश्वर, गंगाधर, गयाधर, विद्याधर, महीधर, श्रीधर, विद्यापति, गणपति, प्रजापति, उमापति श्रीपति, हरिशर्मा, देवशर्मा, सोमशर्मा, विष्णुशर्मा, शिवशर्मा, नीलकण्ठ, वैकुण्ठ, श्रीकण्ठ, कालकण्ठ, रक्तकण्ठ, जगन्नाथ सोमनाथ, विश्वनाथ लोकनाथ, दीनानाथ, श्यामदास, हरिदास, देवीदास, कृष्णदास, रामदास, शिवराम, देवराम, रघुराम, हरिराम, गोविन्दराम आदि हजारों ब्राह्मण यह उपस्थित है-यज्ञ मण्डपमें इतनी चहल-पहल है, फिरभी क्या यह सब इन्हें दिखाई नहीं दिया ? क्या इनके दिव्य ज्ञानका दिवाला आउट हो गया है ? साधारण मनुष्य तो अल्पज्ञ होनेसे भूल कर सकता है, परन्तु ये तो अवधिज्ञानी देव है. इनसे ऐसी भूल कैसे हो रही है ? इतनेमें जाने वाले देवोंमें से एक देव दूसरेसे बोला:- "जरा जल्दी चलो.. चरम तीर्थंकर देव का समवसरण है. उन्हें वन्दन करनेमें हम पीछे न रह जायँ । वे सर्वज्ञ देव हैं, उनका पूरा प्रवचन हमें सुनना है -- ऐसा न हो कि उनकी देशना का कोई शब्द सुनने से रह जाय.'
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- यह सुनकर श्री इन्द्रभूतिने सोचा कि मुझसे दूसरा कौन बडा सर्वज्ञ हो
सकता है ? मैं ही सबसे बडा सर्वज्ञ माना जाता हूँ यदि सर्वज्ञको ही वन्दन करना इन्हें अभीष्ट हो तो ये मुझे वन्दन कर सकते है. यदि सर्वज्ञ के ही प्रवचन सुनना इन्हें पसंद हो तो ये मेरा प्रवचन सुन सकते है फिर क्यों ये आगे ही आगे बढे जा रहे हैं ? कवि के शब्दों में श्री इन्द्रभूति के उद्गार इस प्रकार हैं :
अहो सुरा : कथं भ्रान्तया
तीर्थांश्च इव वायसा : । कमलाकरवभेका :
मक्षिकाश्चन्दनं यथा । करमा इव सवृक्षान्
क्षीरान्नं शूकरा यथा । अर्कस्यालोकवद् घूका
स्त्यक्त्वा यागं प्रयान्ति यत् ॥ अरे ये देवता भ्रमसे यज्ञको छोडकर उसी प्रकार चले जा रहे है, जिस प्रकार कौए तीर्थोको, मेढक सरोवरको, मक्खियाँ चन्दनको, ऊँट अच्छे वृक्षोंको, सूअर खीर को और उल्लू सूर्य के प्रकाशको । अथवा जैसा वह ज्ञानी है, वैसे ही ये देव है :
अहवा जारिसओ चिय
___सो नाणी तारिसा सुरा बॅति । अणु सरिसो संजोगो
गमनडाणं च मुक्खाणं ॥ (उस ज्ञानी के साथ इन देवोंका संयोग ऐसा ही है, जैसा गाँवके नटों के साथ मूर्खाका ।) गाँव के नट भी मूर्ख और गाँवके रहने वाले लोग भी मूर्ख मूल्से मूर्ख मिलकर प्रसन्न होते हैं.. करेलेकी बेल से किसीने कहा कि तू नीम पर मत चढ, इससे तेरी कडुआहट बढ़ जायगी. परन्तु उसने कहना नहीं माना अन्तमें उस आदमी को कहना पडा- “हे बेल । इसमें तेरा कोई दोष नहीं है, क्योंकि सब प्राणी अपने समान गुणवाले प्राणियोंकी संगतिमें ही प्रसन्न रहते हैं."
॥
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कौए भले ही नीमके फलों पर (निबोरियों पर ) लट्टू हो जायँ, परन्तु आम तो आम ही रहेगा. आमका महत्त्व उससे कम नहीं हो जाता. आम फलों का राजा होता है, वैसे ही मैं पंण्डितोंका राजा हूँ मैंने बडे-बडे पंण्डितोंसे शास्त्रार्थ किया है और सर्वत्र विजय प्राप्त की है. संसारमें ऐसा कौन पंडित है, जो मुझसे वाद करनेकी शक्ति रखता हो
लाटा दूरगताः प्रवादिनिवहा मौनं श्रिता मालवा:
मूकत्वं मगधागता गतमदा गर्जन्तिनो गुर्जराः ।
काश्मीराः प्रणताः पलायनपरा जातास्तिलडो दभवाः विश्वेचापि स नास्ति यो हि कुरुते
वादं मया साम्प्रतम् ॥
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लाट देशके वादियोंका समूह हारके डरसे दूर चला गया. मालवदेश के वादियोंने मौन धारण कर लिया. मगध देशके वादियोंने बोलना ही छोड दिया. घमण्ड छोडकर गुजरातके वादियोंने गरजना बन्द कर दिया. कश्मीर देशके पण्डित तो मेरे पाँवों में झुक गये. तैलंग देशके पण्डित तो मेरा नाम सुन कर ही भाग गये अधिक क्या कहूँ ? आज इस दुनियामें ऐसा कोई पंडित नहीं है, जो मुझसे वाद कर सके.
ऐसी स्थिति में यह दूसरा सर्वज्ञ कहाँ से आ गया ? मुझे तो यह कोई जादूगर मालूम होता है, जिसने देवोंको भी भ्रम में डालकर अपनी ओर आकर्षितकर लिया है.
इस प्रकार चिन्तन चल ही रहा था कि उधरसे वन्दन करके लौटते हुए देवोंमें से किसी एक से इन्द्रभूतिने पूछा:- "क्यों भाई देख आये उस तथाकथित सर्वज्ञ को ? कैसा रूप है उसका ? कैसी शक्ल है ? कैसी अक्ल है ? देव होकर भी उसके इन्द्रजाल को भेद न सके ? शब्द जाल में फँसकर उसे सर्वज्ञ मानने लगे ? कुछ तो कहा उसके बारे में ?
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उस देवने कहाः"यदि त्रिलोकी गणनापरा स्यात्
तस्याः समाप्तिर्यदि नायुषः स्यात् । पारे परा₹ गणितं यदि स्याद
गणेयनिः शेषगुणोऽ पिसः स्यात् ।।" (यदि तीन लोक के समस्त प्राणी गिनने लग जाय-यदि गिनते-गिनते किसीकी आयु पूरी न हो (कोई मरे नहीं) और यदि परार्द्ध के ऊपर संख्या बना कर गिना जाय तो भी प्रभु महावीर के समस्त गुणों को गिना नहीं जा सकता ।) यह सुनकर बेचारे इन्द्रभूति की हालत और खराब हो गई, मानो घाव पर नमक छिडक दिया गया हो. अहंकार और ईर्ष्या के कारण उसका मन पहले से घायल हो रहा था. उस अवस्था में देव के मुँहसे अपनी प्रशंसा के बदले किसी और की प्रशंसा सुनी तो वह अत्यन्त अशान्त हो गया-बेचैनी से छटपटाने लगा. श्री इन्द्रभूति को निश्चय हो गया कि यह कोई महाधूर्त है-मायाका मन्दिर है बड़ा जादूगर है, कोई ओर्डीनरी आदमी नहीं है, अन्यथा इतनी बड़ी संख्यामें लोगोंको और देवोंको भ्रममें कैसे डाल देता - कैसे मोहित कर देता? ऐसे सर्वज्ञ को मैं अब अधिक देर तक सह नहीं सकता. एक आसमान में क्या दो सूर्य रह सकते हैं ? एक जंगल की गुफा में क्या दो सिंह रह सकते हैं ? एक म्यानमें क्या दो तलवारें रह सकती है ? कभी नहीं. मैं अभी जाकर उसे वाद में पराजित कर देता हूँ. यद्यपि मुझे वादके लिए उसने आमन्त्रित नहीं किया है तो भी क्या हुआ? अन्धकारके समूहको नष्ट करने के लिए सूर्य किसी के आमन्त्रण की प्रतीक्षा नहीं करता. स्पर्श करनेवाले हाथको अंगारा कभी माफ नहीं करता -- आक्रमण करनेवाले शत्रुको क्षत्रिय कभी क्षमा नहीं करता - केश पकडकर खींचनेवाले को सिंह कभी सहन नहीं करता, उसी प्रकार में भी किसी दूसरे की सर्वज्ञता को सह नहीं सकता.
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। बड़े-बड़े दिग्गज पण्डितोको पराजित करनेवाले मुझ महापण्डितके सामने
यह महावीर है किस खेतकी मली? बडे-बड़े वृक्षोंको उखाड फेंकनेवाले प्रचंड प्रभंजनके सामने रुई की पौनी कहाँ लगती है ? जिस नदी की बाढ में हाथी बह गये, वहाँ चींटी की क्या बिसात ? वर्षों पहले मैं दिग्विजय कर चुका हूँ उसके बाद तो कोई पण्डित ही सामने नहीं आया. मेरे सामने वादियोंका अकाल ही पड़ गया । बहुत वर्षोंसे जीभ पर खाज चल रही है कि कोई वादी मिले तो अपनी खाज मिटाने का मौका मिले. आज यह मौका बड़ी मुश्किलसे मिला है. इसका लाभ उठा लूँ. चलूँ. इस प्रकार श्री इन्द्रभूतिको वाद करने के लिए चलनेको तत्पर देखकर उनके अनुज अग्निभूतिने निवेदन किया:- "भाई साहब । कीट को पकडने के लिए कटक (सैन्य) की क्या जरूरत ? अलसिये को मारने के लिए गरुड़ की क्या जरूरत ? तिनके को काटने के लिए कुठार... (कुल्हाडे) की क्या जरूरत ? कमलको उखाडने के लिए हाथी की क्या जरूरत ? उसी प्रकार उस तथाकथित सर्वज्ञको जीतने के लिए आपके पधारने की क्या जरूरत ? मुझे आज्ञा दीजिये. मैं अभी उसे जीतकर आ
जाता हूँ."
यह सुनकर श्री इन्द्रभूतिने अग्निभूति से कहा:- "भैया । बिल्कुल ठीक कहा तुमने. सच पूछा जाय तो इसे जीतने के लिए तुम्हें भेजने की भी जरूरत नहीं क्योंकि इसे तो मेरे पाँच सौ शिष्यों में जो सबसे छोटा शिष्य है, वह भी जीत सकता है, फिर भी मुझसे रहा नहीं जा रहा है. शल्य छोटा हो तो भी वह परेशान करता है, इसलिए मैं खुद ही जाना चाहता हूँ, यों तो मैने सब वादियों पर विजय प्राप्त कर ली है, परन्तु जैसे हाथी के मुँहमें से कोई अन्नकण गिरकर रह जाय-मूंग उबालते समय कोई कोरडू रह जाय- समुद्रपान करते समय अगस्त्य ऋषि के सामने कोई जलबिन्दु रह जाय-चनों को भूनते समय कोई चना भाड़ से उछलकर रह जाय-फल काटते हुए कोई छिलका रह जाय अथवा धानी में पिलते तिलों में से कोई तिल पड़ा रह जाय, वैसे ही यह एक वादी रह गया है. इसे जीते बिना मैं सर्वविजेता नहीं कहला सकता. जैसे पतिव्रता पत्नी यदि एक बार भी. अपने शीलव्रतसे भ्रष्ट हो जाय तो वह शीलवती नहीं
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कहलाती - जीवनभर असती ही कही जाती है, उसी प्रकार इस एक वादी को जीते बिना मुझे वास्तविक यश नहीं मिल सकेगा. इसे न जीतने पर मेरी शुभ्र कीर्ति कलंकित हो जायगी. जैसे एक ईंट खिसक जाने पर पूरी दीवार गिर जाती है - जरासा छिद्र रह जानेपर पूरी नौका डूब जाती है, वैसे ही एक वादी के रह जाने पर मेरा समस्त सुयश मिट्टीमें मिल जायगा, अत: मुझे ही जाना चाहिये."
शान्ति कहाँ है ? एक सम्राटने किसी युवक की अपूर्व वीरता पर प्रसन्न होकर उसे मन इच्छित वरदान मांगने को कहा। युवकने कहा-“मुझे धन नही चाहिए चूंकि मेरे पिताने बहुत धन मेरे लिए छोडा है। मुझे प्रतिष्ठा नहीं चाहिए चूंकि मेरी वीरता के कारण वह तो स्वयं प्राप्त हो रही है. मुझे सत्ता नहीं चाहिए चूंकि वह तो मेरे शासक के हाथों में सुरक्षित है ही । मुझे तो सिर्फ शान्ति चाहिए।" युवक की मांग पर सम्राट हतप्रभ रह गया. बोला "वह तो मेरे पास भी नहीं है" फिर भी अपना वचन पूरा करने के लिए उसने अपने कुलदेवता को याद किया। देवता ने कहा सम्राट । मैं तो भौतिक सिद्धियों का स्वामि हूं शान्ति तो आत्मिक सिद्धि है, वह मेरे पास कहां है ? सम्राट के साथ युवक को लेकर कुलदेवता एक योगी के पास गया और युवक की मांग रखी। योगी ने मुस्कराते हुए कहा "मुग्ध प्राणियों । शान्ति कहीं बाहर मिलती है ? जहां से अशांति पैदा होती है वहीं से शान्ति प्राप्त होगी. बाहर नहीं भीतर देखो। तुम्हारे हृदय में ही शांति का मूल है, वह दी नहीं जाती, प्राप्त की जाती है और प्राप्त भी क्या सिर्फ अनावृत की जाती है। युवक सम्राट और कुल देवता एक साथ योगीके चरणों में विनत हुए... और शान्ति का बोधसूत्र पाकर अपने अपने स्थान की ओर चल दिए।
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सर्वज्ञ महावीरको वादमें पराजित करनेके लिए स्वयं ही जाने की आवश्यकता अपने अनुज विद्वान अग्निभूति के सामने प्रतिवादित करने के बाद इन्दभूति प्रस्थान की तैयारी करने लगे. ललाट पर उन्होंने एक सौ ग्यारह नम्बरका तिलक लगाया. नई धोती पहनी. नया रेशमी दुपट्टा धारण किया. नई लम्बी-चौडी पगडीसे मस्तक सजाया. सुवर्ण के तारोंसे बना यज्ञोपवीत उनके वक्ष-स्थलकी शोभा बढा रहा था. शास्त्रार्थ या वाद करते समय अपनी बातकी पुष्टि के लिए दिये जा सकनेवाले शास्त्रीय उद्धरणों की एक हस्तलिखित पोथी हाथ में रख ली. नई खडाऊ पर पाँव रखकर वे चल पड़े उनके पाँच सौ शिष्य (छात्र) भी उनके साथ चल दिये. वे जयजयकारके नारोंसे पूरे वातावरणको गूंजा रहे थे. शिष्य उनकी विरूदावली बोलते जा रहे थे:- हे सरस्वती कण्ठाभरण । (वाणी के रूपमें सरस्वती ही आपके कंठ को मानो भूषित कर रही है), हे वादि विजयलक्ष्मी शरण । (वादियों से वादके बाद प्राप्त विजय श्रीने ही मानो आपकी शरण ग्रहण कर ली है) हे ज्ञातसर्वपुराण । (समस्त पुराणोंकी आप जानकारी रखते है), हे वादि कदली कृपाण । (कदलियों के समान वादियों के लिए आप कृपाण के समान है), हे पण्डित श्रेणीशिरोमणि । (पण्डितों के लिए मस्तक पर धारण करने योग्य मणिके समान आप है), हे कुमतान्धकार नभोमणि (कुमत रूपी अँधेरे के लिए आप सूर्य के समान है), हेजितवादिवृन्द (वादियोंके समुदाय को आप जीत चुके हैं), हे वादिगरुडगोविन्द । (गरुडके समान जो वादी है, उन पर सवारी करने वाले श्रीकृष्ण के समान हैं आप) हे वादिघटमुद्गर । (घडोंके समान वादियोंको फोड़नेके लिए आप मुद्गर के समान है), हे वादिधूकभास्कर । (उल्लूओंके समान वादियों के लिए आप सूर्य के समान है), हे वादिसमुद्रागस्त्य । (समुद्रके समान वादियों के लिए आप अगस्त्य ऋषि के समान है) हे वादिवृक्षहस्ति । (वृक्षोंके समान वादियों को उखाड़नेके लिए आप हस्ती (हाथी) के समान है ।) हे वादिकन्दकुद्दाल । (कन्द के समान वादियों को खोदने के लिए आप कुदालीके समान है ) हे वादिगजसिंह (हाथियोंके समान वादियोंके लिए आप सिंह के समान है) हे सरस्वतीलब्धप्रसाद । (सरस्वती आप पर प्रसन्न है)... आप की जय हो- विजय हो- आपका सूयश दिग्दिगन्तमें फैला रहे.
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जहाँ सर्वज्ञ प्रभु महावीर स्वामी विराजमान है, उस समवसरणकी दिशामें जाते हुए इन्द्रभूति मनमें सोच रहे हैं आज अपनी सर्वज्ञता के :. मिथ्याभिमानमें फँसकर उसने मुझे व्यर्थ ही कुपित किया है, क्योंकि इससे उसे कोई सुख मिलनेवाला नहीं है. अपने को सर्वज्ञ घोषित करके मेरी सर्वज्ञताको चुनौती देनेका उसका यह प्रयास ऐसा ही भयंकर है, जैसा किसी मेढकका कालेनागको लात मारना- -चूहेका बिल्लीके दाँत गिनना - बैलका ऐरावत (इन्द्र के हाथी) को सींग मारना- हाथी का सूँडसे पहाड उखाडना - खरगोशका सिंहके अयाल (गर्दनके लम्बे केश). खींचना - मणि पाने के लिए बालकका शेषनागके फनकी ओर हाथ बढाना - नंदी की बाढ़ के विरुद्ध तैरने के लिए किसीका तिनके पर सवार होना - प्रमंजनके सामने खड़े होकर जंगलमें आग लगाना अथवा शारीरिक सुखकी आशासे काँच (केवाँच) की फलियोंका आलिंगन करना । महावीर को जानना चाहिये कि
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खद्योतो द्योतते तावद्यावन्नोदेति चन्द्रमाः । उदिते तु सहस्त्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमाः ॥
जुगनू तभी तक चमकता है, जब तक चन्द्रमाका उदय नहीं हो जाता, किन्तु सूर्य के उदय होने पर न जुगनू चमक सकता है और न चन्द्रमा ही ।
सूर्यके समान मैं तेजस्वी हूँ. जुगनुओंके समान अन्य वादी मेरे सामने अपनी चमक नहीं दिखा सकते.
मेरे खानकी कोई सीमा नहीं है. ऐसा कौन सा शास्त्र है, जिसका अध्ययन मुझसे न हुआ हो ?
लक्षणे मम दक्षत्वम्, साहित्ये संहिता मतिः ।
तर्केड कर्कशता नित्यम् क्व शास्त्रे नास्ति मे श्रमः ॥ लक्षणशास्त्र में मैं दक्ष हूँ. साहित्यशास्त्र में मेरी बुद्धि अस्खलित है. तर्कशास्त्र का अध्ययन तो मैंने इतनी गहराई तक किया है कि वह मुझे कर्कश (कठोर) बिल्कुल नहीं लगता. व्याकरण, कोश, छन्द, रस, अलंकार, ज्योतिष, वैद्यक, दर्शन, धर्म अर्थ, काम, मोक्ष, आदि समस्त शास्त्रोंका मैंने अनुशीलन- परिशीलन - चिन्तन मनन किया है. किस शास्त्र के आधार पर वह जादूगर मुझसे चर्चा करेगा ? अभी चलकर देखता हूँ कि वह कैसा ज्ञानी है। सबके सामने उसकी सर्वज्ञताके घमण्ड को चूर-चूर कर देता हूँ.
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कविके लिए कौन - सा रस अपोष्य है ? चक्रवर्ती के लिए कौन-सा देश अजेय है ? वज्र के लिए कौन-सी वस्तु अभेद्य है ? महायोगियोंके लिए कौन-सी सिद्धि असाध्य है ? क्षुधापीडितों के लिए कौन-सी वस्तु अभक्ष्य है ? दुष्टोंके लिए कौन-सा शब्द अवाच्य है ? कल्प वृक्ष, कामधेनु या चिन्तामणि के लिए कौन-सी वस्तु अदेय है ? इसी प्रकार मेरे जैसे सर्वशास्त्रविशारद महापणित के लिए इस जगत में कौन-सा वादी अजेय है ? कोई नहीं. शेरकी दहाड़ सुनकर जिस प्रकार जंगली समस्त पशु-पक्षी काँप उठते हैं वैसे ही मेरी गर्जना सुनकर वह बेचारा वादी व्याकुल हो जायगा तो हो जाय. मैं भी क्या कर सकता हूँ? उसने चुनौती दी है, इसलिए मुझे चर्चाके लिए जाना पड रहा है, अन्यथा किसीको लज्जित करने में मुझे कोई मज़ा नहीं आता.
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ऐसे विचारों में डूबा हुआ श्री इन्द्रभूति ज्यों ही समवसरण के द्वार पर पहुँचकर सीढीकी पहली पंक्ति पर कदम रखता है, त्यों ही अशोकवृक्षके नीचे छत्रत्त्रयमण्डित स्वर्ण सिंहासन पर बिराजमान प्रभु महावीर की निष्फल पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य शान्त- प्रकाशमय तेजस्वी मुखमुद्रा देख कर प्रविष्ट होते ही उसका गर्व गल जाता है वह सोचने लगता है कि यह महापुरुष है कौन ?
क्या यह ब्रह्मा है ? नहीं, क्योंकि वह तो जगत् के निर्माणमें प्रवृत्त है, यह निवृत्त है - वह तो वृद्ध है, यह जवान है-उसका वाहन हंस है, इसका कोई वाहन ही नहीं है - उसके साथ सावित्री है, यह अकेला है तथा उसका आसन कमल है, इसका सिंहासन.
तो क्या यह विष्णु है ? नहीं, क्योंकि उसका शरीर काला है, इसका गोरा
• उसके साथ लक्ष्मी है, यह अकेला है उसके चार हाथ है, इसके दो हाथ हैं - उसके चारों हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पदम हैं, इसके हाथ खाली है (इसके दोनों हाथोंमें कोई (हथियार नहीं
शेष नागकी शैयापर सोता है, यह सिंहासन पर बिराजमान वह
ह--उसका
वाहन गरूड़ है, यह पादविहारी है ।
तो क्या यह महेश्वर (शंकर) है ? नहीं, क्योंकि उसकी तीन आँखें हैं, इसकी केवल दो-उसके साथ पार्वती है, यह अकेला है-उसका वाहन नन्दी है, यह पदयात्री है।
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तो क्या यह प्रत्यक्ष कामदेव है ? नहीं, क्योंकि वह अशरीरी है, इसका शरीर दिखाई दे रहा है उसके साथ रति देवी है, यह अकेला है ।
तो क्या यह इन्द्र है ? नहीं, क्योंकि उसके हजार नेत्र हैं, इसके केवल दो नेत्र है उसके साथ शची है, यह अकेला है उसके हाथ में वज्र नामक प्रचण्ड अस्त्र है, यह निरस्त्र है उसका वाहन ऐरावत हाथी है, यह पैदल चलनेवाला है।
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तो क्या यह कोई विद्याधर है ? नही, क्योंकि वह विमान में बैठकर आकाश में विहार करता है, यह भूमि पर पैदल नंगे पाँव घूमता है ।
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तो क्या यह कुबेर है ? नही, क्योंकि वह खजाने का मालिक है, यह खजाने का त्यागी है वह भोगी है, यह वियोगी है, महायोगी है, विरक्त है ।
तो क्या यह सिंहासनासीन राजा नल है ? नहीं, क्योंकि उसके शरीर पर बहुत मूल्य अलंकार है- मस्तक पर राजमुकुट है, इसका शरीर अलंकारोंसे रहित होते हुए भी अतिशय सुन्दर है ।
इस प्रकार समस्त व्यक्तियोंके विकल्प निरस्त हो जानेके बाद प्रभु महावीर की समानताका उपमान ढूँढनेके लिए उस का ध्यान सृष्टि की ओर जाता है:
क्षारो वारि निधिः कलकलुषचन्द्रो रविस्तापकृत् पर्जन्यश्चपलाश्रयो भ्रपटलादृश्य: सुवर्णाचलः । शून्य व्योम रसा द्विजिव्हविघृता स्वर्धामधेनुः पशुः काष्ठं कल्पतरूर्दषत्सुरमणिस्तत्केन साम्यं सताम् ?
यद्यपि यह गम्भीर है, फिर भी समुद्र से इसकी तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि वह खारा है, इसी प्रकार चाँद में कलंक है, यह निष्कलंक है - सूर्य अपनी उष्णताके कारण प्राणियोंको सन्तप्त करता है, यह सन्ताप शान्त करता है - मेघ चपलाश्रय (बिजलीवाला), है, यह चपलताश्रय (चंचल लक्ष्मीवाला) नहीं है - सुमेरुपर्वत मेघमण्डलसे
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10 अदृश्य है, यह दृश्य है - आकाश शून्य है, यह नहीं - पृथ्वी द्विजिव्द ।
(शेषनाग) पर स्थित है, यह सिंहासन पर आसीन है-कामधेनु पशु है, यह मनुष्य है - कल्पवृक्ष काष्ठ है (कठोर है - जड है), यह ऐसा नहीं (कोमल है - सचेतन है) और इन्द्रमणि पत्थर (निर्जीव) है, यह सजीव है । तब ऐसे सज्जन का उपमान किसे बनाया जाय ? फिर चारों ओर दृष्टि दौडाने पर प्रभुकी गम्भीर वाणी का प्रभाव सृष्टिमें श्री इन्द्रभूतिको इस प्रकार दिखाई दिया:
सारसी सिंहशा
स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघपोतम् मार्जारी हंसबालं
प्रणयपरवशात् कोकिकान्ता भुजम् । वैराण्याजन्मजाता
न्यपि गलितमदा जन्तवो न्ये त्यजन्ति श्रुत्वा साम्यैकरू.
प्रशमित कलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ॥ केवल समभावमें रमण करने वाले तथा कषाय शान्त हो गये है जिसके, ऐसे मोहरहित योगी की वाणी को सुनकर हरिणी सिंहके बच्चे को, गाय बाघके बच्चे को और बिल्ली हंसके बच्चे को पुत्रकी बुद्धिसे (पुत्र के समान मानकर) स्पर्श करती है तथा मयूरी (मोरनी) प्रेमपूर्वक (स्नेहसे मजबूर होकर) साँप को छूती है - इसी प्रकार अन्य प्राणी भी गर्वरहित होकर अपने जन्मजात वैरका भी त्याग कर रहे हैं। ठीक ही कहा गया है - अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ (अहिंसाकी प्रतिष्ठामें उस (अहिंसक) के निकट (प्राणी) वैरका त्याग कर देते हैं) अहिंसक व्यक्ति जिस भूमिपर विचरण करता है, उसका वातावरण बदल जाता है- पवित्र हो जाता है. आद्य शंकाराचार्यश्रीने अपने मठ की स्थापना के लिए उपयोगी भूमि शृंगेरी में पाई. वहीं सबसे पहला मठ स्थापित किया उन्होंने. क्यों वहीं ? अन्यत्र क्यों नहीं ? उस भूमि पर धरित एक दृश्यने उन्हें प्रभावित किया था. क्या था वह दृश्य ? देखिये सबसे पहले जब उनके मनमें यह विचार आया कि “मैं अपने पहले
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मठकी स्थापना कहाँ करूँ ?" तब उन्होंने उपयोगी भूमि खोजने के लिए पूरे भारतका भ्रमण किया. इसी सिलसिलेमें वे दक्षिण भारत गये. वहाँ एक जगह उन्होंने देखा कि भयंकर धूपसे घायल परेशान एक मेढक पर । कोई साँप अपना फन फैलाकर छाया कर रहा है. उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन दोनों में भक्ष्य-भक्षक सम्बन्ध था. मेढक का भक्षक सर्प उसका रक्षक बनकर बैठा था। उस जंगल में रहनेवाले तपस्वी मुनियोंसे उन्होंने पूछा कि जो दृश्य मुझे दिखाई दिया, वह मेरी आँखों का भ्रम तो नहीं है. मुनियोंने कहा कि वह कोई भ्रम नहीं, रीयल फेक्ट है - यथार्थ है. ऐसे दृश्य यहाँ प्रायः सर्वत्र दिखते रहते है, क्योंकि वर्षों पहले शृंगेरी नामक एक अहिंसक तपस्वी यहाँ रहते थे. उनके हृदयमें प्राणिमात्र के प्रति वात्सल्य था. उनके वात्सल्यसे दक्ष भूमिका कण-कण प्रभावित हुआ है पवित्र हआ है. यही कारण है, जिससे इस भमिपर भ्रमण करने वाले प्राणियोंकी विचारधारा बदल जाती है. उनका आजन्म वैर छूट जाता है. आद्य शंकराचार्य आठवीं शताब्दीमें हुए थे, इसलिए यह बारह सौ वर्ष पहले की घटना है तो कल्पना की जा सकती है कि पच्चीस सौ वर्ष पहले जहाँ प्रभु महावीर विचारण करते रहे, वह भूमि कितनी पवित्र रही . होगी। जहाँ-जहाँ प्रभु बिराजमान होते थे, वहाँसे चारों ओर बारह योजन का एक अहिंसक वर्तुल बन जाता था. उस भूमि पर एट्रेक्शन ऑफ लव (प्रेम का आकर्षण) छा जाता था. प्रेम की उस परिधिमें प्रविष्ट होने वाले प्रत्येक प्राणी की मस्तिष्कतरंगें परिवर्तित हो जाती थीः आजन्म वैरी पशु-पक्षी तक निर्वैर होकर परस्पर प्यार करने लगते थे. उनका आचरण पवित्र हो जाता था - अहिंसक हो जाता था. गर्मीमें सड़क पर घूमनेवाला कोई बालक यदि मकानके भीतर आजाय तो उसे शान्ति मिलती है. उसी प्रकार बाहर विषय-कषाय में भटकती हुई मनोवृत्ति यदि आत्मामें रमण करने लगे तो उसे शान्ति का अनुभव होता है. श्री इन्द्रभूति गौतम को भी समवसरण में प्रभुदर्शन के बाद ऐसी ही शान्ति का अनुभव होने लगा.
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सेंट की दूकान पर जाकर आप भले ही सेंट न खरीदें न लगायें, फिर भी सुगन्ध आती है, इसी प्रकार साधु-सन्तोंके समीप जाने पर मनको शान्ति मिलती है. फिर जहाँ साधुओंके भी आराध्य सर्वज्ञ प्रभु महावीर प्रत्यक्ष विराजमान हों, वहाँ पहुँचने पर कैसी परम शान्ति मिलती होगी ? इसका वर्णन अनुभवी भी नहीं कर सकता, क्योंकि शब्दों के माध्यम से उस आनन्दको अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता.
श्री इन्द्रभूति समवसरणमें प्रविष्ट हो कर उस आनन्दका अनुभव करते हुए मनही मन समझ तो गये कि ये सर्वगुण गणमण्डित सर्वज्ञ तीर्थंकर देव ही हैं, जिनका उल्लेख ऋग्वेद की ऋचाओंमें इस प्रकार हुआ है:"ऋषभादिवर्धमानान्ताः जिना:" "चतुर्विंशतितीर्थङ्राणां शरणं प्रपद्ये" आदि. उसी प्रकार वेदोंमें शान्तिनाथ के और अरिहन्त अरिष्टनेमिके मन्त्र मिलते हैं: "ईस्ट एण्ड वेस्ट" (पूर्व और पश्चिम) नामक अपनी विश्वविख्यात पुस्तक भूतपूर्वराष्ट्रपति स्व. डॉ. राधाकृष्णन् ने लिखा है कि जैनदर्शन उतना ही प्राचीन है, जितना वेदान्तदर्शन जैनधर्म उतना ही प्राचीन है, जितना वैदिक धर्म.
सर्वज्ञ प्रभुके दर्शन कर इन्द्रभूति मन-ही-मन सोचने लगे कि मैं यहाँ कहाँ आ फँसा । वादमें इन से जीतना तो मेरे लिए सर्वथा असम्भव है. अब क्या करूँ ? यदि लौट जाता हूँ तो लोग कहेंगे- "हारके डरसे भाग गया ।" शिष्यों पर भी बुरा असर होगा. आगे बढता हूँ तो भी पराजयका सामना करना पडेगा. जीवनभर वादविवाद करके परवादियोंको परास्त करके मैंने जो सुयश अर्जित किया है, वह सब मिट्टीमें कैसे मिल जायगा अपने महत्त्वकी रक्षा मैं कैसे करूँ अब यही ज्वलन्त प्रश्न मेरे सामने खड़ा है:
कथं मया महत्त्वं में
रक्षणीयं पुरार्जितम् ।
प्रासादं कीलिकातो
भक्तुं को नाम वांछति ?
सूत्रार्थी पुरुषो हा
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कस्त्रोटयितुमीहते ?
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कः कामकलशस्यांश
स्फोटयेत ठिक्क्रीकृते ? भस्मने चन्दनं कोवा
दहेद दुष्प्राप्यमप्यथ? लौहार्थी को महाम्भोधौ
नौमड, कर्तुमिच्छति ? (पूर्वोपार्जित अपने महत्त्व (बडप्पन या सुयश) की रक्षा में कैसे करूँ ? एक कील प्राप्त करनेके लिए महल को तोडना कौन चाहता है ? धागा पानेके लिए हार तोडना कौन चाहता है ? एक ठीकरी पानेके लिए काम कुम्भको फोड़ना कौन चाहता है ? बहुत कठिनाईसे प्राप्त होनेवाले (दुर्लभ) चन्दन को राखके लिए कौन जलाना चाहता है ? लोहेका टुकड़ा पाने के लिए समुद्रमें नावको तोडना कौन चाहता है ? (कोई ऐसा मूर्खता पूर्ण कार्य करना नहीं चाहता, परन्तु तीर्थंकर महावीर को जीतने के प्रयास में यहाँ आकर मैंने वैसी ही मूर्खता की है, जैसी इन उदाहरणों में वर्णित है) लेकिन यदि मैं आगे न बढ़कर यहीं खड़ा रहता हूँ तो भी मेरा शिष्य समुदाय यही समझेगा कि मैं पराजयके भय से भीत हूँ - डरपोक हूँ, इसलिए आगे तो मुझे हर हालतमें बढना ही है.
और यदि कहीं मैं वाद में इनसे जीत गया तो सर्वज्ञको जीतने के कारण सर्वत्र मेरा सिक्का जमा जायगा. ये देव लोग भी मेरा सत्कार करने लगेंगे-मुझे वन्दन करने लगेंगे. फिर तो मै सम्मानके सर्वोच्च शिखर पर आसीन हो जाऊंगा. विश्वविजेता कहलाने लगूंगा. इस प्रकार सुयशके प्रलोभनने मनमें आशाका संचार किया-चरणोंको गतिशील बनाया. फलस्वरूप वे क्रमशः आगे बढ़ते गये. उधर प्रभु महावीरने निकट आते हुए इन्द्रभूतिको देखा तो नाम-गोत्रका उच्चारण करते हुए मधुर स्वरमें कहा:- “हे इन्द्रभूति गौतम । स्वागत. कुशल तो है न ?" श्री गौतम इन्द्रभूतिकी गोत्र थी. महावीरसे आज उनकी पहली ही बार मुलाकात हो रही थी, इसलिए श्री इन्द्रभूति विचारमें पड़ गये कि बिना
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पूर्वपरिचयके इन्होंने नाम गोत्र सहित कैसे जान लिया ? यह आश्चर्य क्षण-भर ही टिक पाया, क्योंकि दूसरे क्षण यह विचार आया कि मेरा नाम तो सारी दुनिया प्रसिद्ध है, इसलिए उसे कौन नहीं जानता? सूर्य क्या कहीं छिपा रह सकता है? किसीके लिए अज्ञात हो सकता है? फिरभी इन्होंने गोत्रसहित नाम पुकारते हुए मधुर स्वरमें जो मेरी कुशल पूछी है, वह केवल मुझे प्रभावित करनेके ही लिए है. यह बात मैं न समझू - इतना अबोध मैं नहीं हूँ. ऐसी साधारण बातसे कोई किसीको सर्वज्ञ कैसे मान सकता है?
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अहंकारका नशा श्री इन्द्रभूतिके सिर पर सवार हो गया फिरसे अहंकार व्यक्ति को भटका देता है अपने लक्ष्यसे दूर ले जाता है अपनी मंजिल तक नहीं पहुँचने देता. अहंकार अन्धकार है. वह ज्ञानके प्रकाशसे जीवको वंचित कर देता है. ज्ञानके अभावमें कैसा संघर्ष होता है ? देखिये
आँखने कहा "मैं देखनेका काम करती हूँ, इसलिए मैं बड़ी हूँ. मेरे बिना सब लोग अन्धे कहलाते हैं."
कानने कहा :- "मैं सूननेका काम करता हूँ, इसलिए मैं बडा हैं. मेरे बिना सब लोग बहरे कहलाते हैं."
नाकने कहा:- "मैं सूंघनेका काम करती हूँ और चेहरेकी शोभा बढ़ाती हूँ, इसलिए मैं बड़ी हूँ. मेरे बिना लोग नकटे कहलाते हैं.
जीभने कहा :- "सारी इन्द्रियाँ एक-एक काम करती है, परन्तु मैं दो काम करती हूँ- खाने का भी और बोलने का भी । इसलिए मैं ही बड़ी हैं. मेरे बिना लोग गूंगे कहलाते हैं."
हाथोंने कहा- "सप्लाई और सिग्नेचर ये दो काम हम भी करते हैं इसलिए हम भी बड़े हैं. हमारे बिना लोग लूले कहे जाते हैं.
पाँवोंने कहा :- "शरीरकी इतनी बड़ी बिल्डिंग को तो हम ही सँभालते हैं. हम हड़ताल कर दें तो सारा काम रुक जाय हमारे ही दम पर यह बिल्डिंग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती-आती है. हममें से यदि एक भी टूट जाय तो लोग लँगड़े कहलाते हैं."
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पेटने कहा:- "मैं भोजन पचा कर उसका सार ग्रहण करता हूँ–निस्सार अंश निकाल देता हूँ-प्रत्येक अंग को शक्ति वितरित करता हूँ, इसलिए मैं ही सबसे बड़ा हूँ. यदि मैं हड़ताल कर दूं तो पूरा शरीर कमजोर हो जाय और बीमार कहलाने लगे।" बड़ा भारी संघर्ष था यह-सेठ आत्मारामकी पेढी पर मैनेजिंग डायरेक्टर बनने के लिए. अहंकार के उदय से सब अपना-अपना बड़प्पन बघर रहे थे. सेठजी उस समय सुषुप्त दशामें थे. चैतन्य के सुषुप्त दशा में चले । जानेपर ही इस तरह अहंकार ताण्डव नृत्य कर पाता है, अन्यथा उसका ज़ोर नहीं चलता. विवेक के सो जाने पर ही मनोविकार हावी होते है-आत्मा कर्म से कलुषित होती है-विचार दूषित होते हैं. सेठने बहुत समझाया, परन्तु कोई मानने को तैयार नहीं हुआ. आखिर आत्मारामभाई एक साधु के पास गये-अपनी समस्या लेकर. आज तो हम एक फैमिलि वकील रखते है-एक फैमिली डॉक्टर रखते है, क्योंकि उनके बिना काम चल नहीं सकता. असत्य बोलना है तो वकील का सहारा लेना पड़ता है. असत्य इतना कमजोर होता है कि अपने पाँवसे वह चल ही नहीं सकता. वकील के पाँव से वह दौड़ने लगता है. स्वाद के लोभमें फंसकर पेटको लोग कचरापेटी बना लेते हैं. होटलमें खाना है तो फिर हॉस्पिटलमें ही ट्रांसफर होगा. बिना फैमिली डॉक्टर के आप स्वस्थ नहीं रह सकते । व्यवहार सात्त्विक न हो तो फैमिली वकीलकी और आहार सात्विक न हो तो फैमिली डॉक्टर की जिस प्रकार आवश्यकता का आप अनुभव करते हैं, उसी प्रकार आचरण सात्त्विक न हो तो मैं आपको सलाह देता हूँ कि आप अपने लिए एक फैमिली साधुभी चुन लीजिये, जो सुख-दुःखमें सच्चे मित्रकी तरह आपका सहायक हो-जीवनका मार्गदर्शक हो-कल्याणकार्य का प्रेरक हो. सेठ आत्मारामने साधुकी सलाहसे एक नोटिस तैयार करके शरीरके पास भेज दिया. उसमें लिख दियाः-"चौबीस घंटों में यदि समस्त अंगोंके मत-भेद समाप्त नहीं हुए, युनिटी (एकता) नहीं हुई, संगठन नहीं दिखाई दिया तो मैं अपना यह मकान (शरीर) छोड़ कर कोई दूसरा नया मकान ले लूँगा-यहाँ से ट्रांस्फर्ड (स्थानान्तरित) हो जाऊँगा."
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HD ज्यों ही नोटिस मिला, त्यों ही आँख, कान, नाक, जीभ, हाथ, पाँव और ।
पेट की इमर्जेन्सी मीटिंग बुलाई गई. वक्ताओंने कहा:--"सेठ आत्माराम चले गये तो गज़ब हो जायगा-सारी तागड़धिन्ना बन्द हो जायगी-लक्कड़में (जलाये जाने पर) अपनी सब अक्कड़ (अहंकारशीलता) भक्क से उड़ जायगी। एक कविने कहा थाउछल लो कूद लो जब तक है जोर नलियों में । याद रखना इस तनकी उड़ेगी ख़ाक गलियोंमें ।। इसलिए मिल-जुलकर रहनेमें ही समझदारी है. इस मीटिंगमें सर्वसम्मतिसे निर्णय लेकर नोटिसका यह उत्तर भेज दिया गयाः-"आजसे फिर कभी हम परस्पर अहंकार-जन्य संघर्ष नहीं करेंगे. एक-दूसरेके पूरक (सहायक) बनकर आपके द्वारा सौपा गया अपना-अपना कार्य करते रहेंगे. आपको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देंगे. संगठित रहेंगे." नोटिस का उत्तर पढ़कर सेठ आत्मराम सन्तुष्ट हो गये. आप देखिये तो जरा अपने शरीरकी ओर. इस प्राकृतिक रचनापर ध्यान दीजिये. प्रत्येक अंग कितना सन्तुलित है-कितना विनीत है-कितना परोपकार परायण है चलते समय यदि पाँवके तलेमें काँटा चुभ जाय तो उसे बाहर निकालने के लिए हाथ अपनी पाँचों उँगलियोंके साथ सहसा दौड़ पड़ता है-वह उस समय आमन्त्रणकी प्रतीक्षा नहीं करता, बिना बुलाये क्यों जाऊँ ? ऐसा घमंड उसमें नहीं होता. परोपकारके प्रसंगपर आमन्त्रण की अपेक्षा या प्रतीक्षा कैसी ? हाथ यदि काँटा निकालने के लिए जाता है तो आँख उससे भी पहले पहुँचकर अपनी टोर्च से वह स्थान दिखाती है, जहाँ काँटा चुभकर दर्द पैदा कर रहा है. मनभी अपनी सारी चंचलता छोडकर उसी स्थानपर केन्द्रिय हो जाता है. वह सोचने लगता है कि कैसे मैं शरीर के अंगोंको दर्दनिवारण का कोई उपाय सुझाऊँ और अपनी सार्थकता प्रकट करूँ. कैसी एकाग्रता है-कैसी एकता है । कैसी मंगल-भावना है। अभिमानके हाथी से नीचे उतरने पर ही ऐसी परोपकारवृत्ति पैदा होती है. जहाँ अभिमान है, वहाँ अरिहन्त से लाभ नहीं उठाया जा सकता । कहा
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"लघुतासे प्रभुता मिले प्रभुतासे प्रभु दूर ||"
चलते समय दायाँ पैर आगे बढ़कर रुक जाता है. दूसरेसे कहता है- "भइया बायें । तुझे छोड़कर मैं आगे नहीं बढ़ना चाहता. तू आगे चल." फिर बायाँ भी इसी प्रकार आगे बढ़कर रुक जाता है और दाएँ से प्रार्थना करता है:- "आपको ही आगे चलना चाहिये। पहले आप बढिये, पीछे मैं रहूँगा."
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देखा अपने दोनों पाँवोंका प्रेम ? कभी कोई संघर्ष-कोई झगड़ा होता है? कभी कोई स्ट्राइक देखी ? परस्पर पूरक बन कर शरीर को वे लक्ष्य तक पहुँचा देते हैं. चरणोंकी यह पूरकता-प्रेमलता प्रणाम करने योग्य है-अपनाने योग्य है.
अहंकारसे दूर रहनेपर ही यह सद्गुण उत्पन्न होता है, परन्तु इन्द्रभूति इसके अपवाद हैं. उनके लिए जहर भी अमृत बन गया-प्वाइजन भी मेडिसिन बन गया. शास्त्रकारोंने कहा है
"अहंकारो ऽ पि बोधाय ॥"
अहंकार भी उनकेलिए प्रतिबोधक बन गया - अरिहन्तसे परिचयमें आने का निमित्त बन गया.
परन्तु साधारण नियम यह है कि समर्पण के बिना - अहंकार का त्याग किये बिना-नम्रताको अपनाये बिना कुछ प्राप्ति नहीं होती, नलसे जल पानेके लिए घड़ा कहाँ रक्खा जाता है ? नलके माथेपर रख दिया जाता है, वह जलसे वंचित रहता है. कुएँसे जल निकालनेके लिए बाल्टी रस्सी से बाँध कर उसमें उतारने के बाद लोग उसे हिलाते हैं. ज्यों ही बाल्टी झुकती है, जलसे भरने लगती है. यदि बाल्टी झुकाई न जाय तो वह जल से वंचित रहेगी और सारा श्रम व्यर्थ चला जायगा.
ट्रेन प्लेटफार्म पर तभी प्रविष्ट होती है, जब सिग्नल झुकता है-नमता है. रात को स्विच ऑन करने पर झुकाने पर ही इलेक्ट्रिक का प्रकाश कमरे को मिलता है, यदि स्विच ऑफ रहे-ऊँचा रहे "गर्वेण तुंगं शिरः"
( घमण्ड से माथा ऊँचा रहे) तो कमरे में अँधेरा छाया रहेगा. 'मन' भी ऐसा ही स्विच है, उसे उलट दीजिये तो 'नम' बन जाता है. मनमें 'नम' के आते ही तम भाग जाता है-नमस्कार आते ही अन्धकार गायब हो
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जाता है-आत्माको ज्ञानका प्रकाश मिल जाता है. उस प्रकाशमें आत्माको भीतरी सुखका - शाश्वत आनन्दका अनुभव होता है.
जबतक श्री इन्द्रभूति झुकने को नमनेको तैयार न हुए, वे ज्ञानसे वंचित रहे और ज्यों ही नम्र बने-नमनयोग्य बन गये-वन्दनीय बन गये. उनका अज्ञान ज्ञानमें परिवर्तित हो गया. विकृति ही आत्मा की संस्कृति बन गई. यह था विनयका फल.
तृष्ण की विडम्बना
एक वृद्ध पुरुष मृत्युशय्या पर पड़ा छट पटा रहा था । डॉक्टरों ने उत्तर दिया,
परिवार के लोग उसके चारों ओर चिंतातुर बैठे थे । वृद्धने एक बार आँख खोली और...
आतुर होते हुए पूछा- "मेरी पत्नी कहाँ है ?"
पत्नीने धैर्य बंधाते हुए कहा-मैं आपके चरणों में ही बैठी हूं.
घबराइए नहीं ।
वृद्धने दूसरा प्रश्न किया-बड़ा लड़का कहाँ है ?
हाँ, पिताजी, मैं यहीं पर हूँ ।
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लड़केने उत्तर दिया ।
मंझला लड़का ?
वह भी आपके सामने खड़ा है - चिंता न करिए, अंतिम समय में जरा भगवान
का स्मरण कीजिए ।
मंझले लड़के ने उत्तर दिया
और छोटा.... ?
वह भी यह रहा .... । नालायको
सब यही जमे बैठे हो तो फिर दुकान पर कौन गया है ? वृद्धने क्रोध में
Setes
आकर कहा ।
मनुष्य की लालसा और तृष्णा की यह कितनी बड़ी विडम्बना है, कि मृत्युशय्या पर पड़े हुए भी मन दुकान में लगा हुआ है।
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४.
श्री इन्द्रभूति समवसरण में पहुँच गये थे. उनके मनमें एक शंका थी, जिसे उन्होंने किसी को बताया नहीं था. वह शंका- वह जिज्ञासा वास्तविक थी - विचार की भूमिका पर उत्पन्न हुई थी - शास्त्रों का स्वाध्याय करते-करते पैदा हुई थी. गहरे प्रश्नका उत्तर भी गहरा प्रभाव डालता है. यही कारण था कि महावीर स्वामी के उत्तर से इन्द्रभूति इतने प्रभावित हुए कि तत्काल उनके शिष्य बन गये.
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कुछ लोग अधूरा प्रशन लेकर आते हैं और कुछ लोग दूसरोंसे प्रश्न उधार लेकर चले आते हैं. उन्हें उचित समाधान नहीं मिल सकता. कई बार तो पूछनेवाले स्वयं भी नहीं जानते कि वे क्या पूछ रहे हैं-आगे का और पीछे का उस प्रश्नमें कोई सम्बन्ध ही नहीं बैठता.
उचित समाधान उसी प्रश्नका किया जा सकता है, जो विचार और चिन्तन की भूमिका पर टिका हो-साधार हो, निराधार न हो प्यास भीतरी हो असली हो, वही बुझाई जा सकती है जिज्ञासा और प्यास उधार नही मिलती. पानी पिलानेवाले तो बहुत मिलेंगे, परन्तु प्यास कहाँ सें लायँगे ? उसी प्रकार उपदेशक और पंडित बहुत-से मिल जायँगे, परन्तु जिज्ञासा आप कहाँ से लायँगे ? वह अपने भीतरसे ही निकलेगी. उत्तर प्रशनकी प्रकृतिके अनुसार दिया जाता है. जैसा प्रशन, वैसा उत्तर. एक दिन प्रोफसर मफतलालने फिलोसोफी पढ़ाते हुए एक प्रश्न छात्रोंसे पूछा:- "यदि मैं हवाईजहाज से दिल्ली के लिए प्रस्थान करूँ और उस समय हवाई जहाज का वेग तीनसौ किलोमीटर प्रति घंटा हो तो बताओ मेरी अवस्था कितनी होगी ?"
प्रश्न सुनकर सब छात्र विचारमें पड़ गये, क्योंकि प्रश्न बिना विचार किये ही पूछ लिया गया था. गणित का कोई सूत्र ऐसा नहीं था - कोई फार्मूला ऐसा नहीं था, जो इस ऊटपटाँग सवालके लिए फिट होता हो. सब एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए फुसफुसा रहे थे कि ऐसा अनोखा सवाल तो हमने पहले कभी नहीं सुना उत्तर कैसे दिया जाया ?
कुछ ही क्षणोंके बाद हिम्मत करके एक छात्र खड़ा हुआ. वह बोला"सर । अगर आप बुरा न मानें तो मैं आपके प्रश्नका उत्तर दे सकता
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छात्रने कहा:चाहिये.'
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" अरे ! इसमें बुरा मानने की क्या बात है ? प्रश्नका उत्तर सुनकर तो मुझे प्रसन्नता ही होगी. निर्भय होकर बोलो." प्रोफेसर साहबने कहा और उत्तर सुनने के लिए उत्सुक होकर उस छात्र की ओर देखने लगे. "सर । आपकी अवस्था इस समय चवालीस वर्षकी होनी
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प्रसन्न होकर प्रोफेसर मफतलाल बोले:- "बिलकुल ठीक कहा तुमने मेरी अवस्था चवालीस वर्ष की ही है, परन्तु किस फार्मूलेसे तुमने यह मालूम किया ? यह भी बता दो, क्योंकि कई महीनोंसे यह प्रश्न मुझे परेशान किये हुए था और कोई फार्मूला मुझे नहीं मिल रहा था. तुमने तो एक मिनिटमें इस सवालको हलकर दिया
छात्रने कहा:- "फार्मूला मत पूछिये उत्तर आपको मिल गया. उसीमें सन्तोष मानिये. फार्मूला जानकर आप नाराज़ हो जायँगे - बुरा मानेंगे." प्रोफेसर:- "मैं कहता हूँ कि फार्मूला सुनकर मैं जरा भी नाराज नहीं होनेवाला हूँ-बिल्कुल बुरा मानने वाला नहीं हूँ. बेखटके तुम बतला दो. छात्र ने कहा :- "तो सुनिये मेरा बड़ा भाई दिनभर ऐसे ही प्रश्न करता रहता है. बहुत-से डाक्टरोंको दिखाया - साइकोलोजिस्ट को दिखाया - वैद्योंको दिखाया-हकीमोंको दिखाया सबकी जाँचका एक ही निष्कर्ष निकला कि वह हाफ मैड है. उसकी अवस्था इस समय बाईस् वर्ष है तो आपकी चवालीस होनी ही चाहिये, क्योंकि बाईस के दूने चवालीस ही होते हैं. (दो "हाफ' को मिलाने से एक "फुल" होता है. आप फुल मैड हैं) "
कहनेका आशय यह है कि प्रश्न यदि गलत है तो उत्तर भी गलत ही मिलेगा.
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प्रभु महावीरके समीप खड़े इन्द्रभुति सोच रहे हैं कि गोत्रसहित मेरा नाम तो सारी दुनियामें प्रसिद्ध है, इसलिए इन्होंने भी जान लिया हो तो कोई बड़ी बात नहीं है. केवल यही बात इनकी सर्वज्ञता को प्रमाणित करने केलिए पर्याप्त नहीं हो सकती. हाँ, यदि मेरे मनमें छिपी हुई शंका ये जान लें और यह भी जान लें कि उसका आधार क्या है तो अवश्य मान लूँगा कि ये सर्वज्ञ है.
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इतनेमें उधरसे प्रभु बोले:- "मुझे मालूम है कि मनमें छिपी हुई एक शंका वर्षों से आपको परेशान करती रही है कि जीव या आत्माका अस्तित्व है या नहीं. इस शंका का आधार परस्पर विरोधी वेदवाक्य हैं. एकत्र वेदमें कहा गया है
विज्ञानघन एवै तेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ॥
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आप इसका अर्थ इस प्रकार समझते हैं-विज्ञानघन ( गमनागमनादि चेष्टावान् चैतन्यपिण्ड आत्मा) ही इन (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश नामक पाँच महा) भूतोंसे उत्पन्न होकर उनके नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है. मरने पर संज्ञा (जीव) नहीं रहती.
अन्यत्र वेद में कहा गया है
इस अर्थ के आधार पर आप समझते हैं कि जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है. जलमें बुलबुलेके समान अथवा मद्यांगोंमें (शराब के लिए सड़ाकर मिलाई गई वस्तुओंमें) मदशक्ति (नशे) के समान पंच महाभूतोंसे जीव उत्पन्न होकर उन्हींमें लीन हो जाता है-मरनेके बाद उसका अस्तित्व नहीं रहता.
स वै अयमात्मा ज्ञानमयो मनोमयो वाङ्मयश्चक्षुर्मय आकाशमयो वायुमयस्तेजोमय आपोमयः पृथ्वीमयः क्रोध
मयो ऽ क्रोधमयो हर्षमय श्शोकमयो धर्ममयो ऽ धर्ममय :|| यहाँ आत्माका विस्तृत परिचय देकर उसका अस्तित्व भी घोषित किया गया है, इस प्रकार परस्पर विरुद्ध वेदवाक्यों से आपके मनमें सन्देह • उत्पन्न हो गया है कि आखिर जीव (आत्मा) का अस्तित्व है भी या नहीं । ठीक है न ?"
यह सुनकर श्री. इन्द्रभूति चकित हो गये. प्रभुने मानो उनकी दुखती रग छूली थी। मनका सन्देह सबके सामने खुल जानेसे उनकी अल्पज्ञता प्रकट हो गई थी. इससे उनका गर्व गलने लगा. फिरभी किसी तरह अपने मनको समझाने लगे कि हो सकता है, वेदों का अध्ययन करते हुए • इनके मनमें भी वही सन्देह उत्पन्न हो गया है, जो मेरे मनमें उत्पन्न हुआ है, इसलिए सन्देह प्रकट कर देने मात्रसे इन्हें सर्वज्ञ मानना भोलापन
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(PD होगा. हाँ, यदि ये मेरे सन्देहका निवारण कर दें-मेरी शंका का समाधान
कर दें मेरे प्रश्नका उत्तरदेदें-मेरे संशय का निराकरण कर दें तो अवश्य मैं इन्हें सर्वज्ञ मान लूँगा, अन्यथा नहीं. कहाभी है किसीने
"यस्याग्रे न गलति संशयः समूलो
नैवासौ क्वचिदपि पण्डितोक्ति मेति ॥" (जिसके सामने अपना संशय मूलसहित गल नहीं जाता, उसे कहीं भी "पण्डित" नहीं कहा जा सकता) श्री इन्द्रभूतिने मुँह खोला :- "जी हाँ । मेरे मनमें जीवके अस्तित्व के विषयमें वैसा ही सन्देह है, जैसा आपने प्रकट किया है. उसका निवारण आप कैसे करेंगे? है क्या कोई उत्तर आपके पास मेरे प्रश्न का ? यदि हो तो बताइये, अन्यथा मैं आपको सर्वज्ञ नहीं मान सकता।" प्रभुने कहा: "सर्वज्ञताका अस्तित्व किसी के मानने-न मानने पर निर्भर नहीं होता, इसलिए किसी के मानने मात्रसे कोई असर्वज्ञ सर्वज्ञ नहीं हो जाता और कोई सर्वज्ञ असर्वज्ञ नहीं हो जाता. जरूरत माननेकी नहीं जानने की है. वेदवाक्य ठीक है, परन्तु आप उनका जो अर्थ समझते हैं, वह ठीक नहीं है. ठीक अर्थ इस प्रकार है-विज्ञानधन इतिको छ ? विज्ञानघनो ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकं विज्ञानम, तन्मयत्वादात्नापि विज्ञानधनः प्रतिप्रदेशं अनन्तज्ञानं पर्यायात्मकत्वात, सच विज्ञानघनः उपयोगात्मक: आत्मा कथंचिभूतेभ्यस्तद्वि-स्तद्विकारेभ्यो वा घटादिभ्यः समुत्तिष्ठते । उत्पद्यते इत्यर्थः । घटादिज्ञानपरिणतो हि जीवो घटादिभ्यः एव हेतुभूतेभ्यो भवति, घटादि झानपरिणामस्य घटादिवस्तुसापेक्षत्वात् । एवं चैतेभ्यः प्रमेयेभ्यो भूतेभ्यो घटादिवस्तुभ्यस्तत्तदुपयोगतया जीकः समुत्थाय समुत्पद्य तान्येवानुविनश्यति कोऽर्थ.? तस्मिन् घटादौ वस्तुनि नारे व्यवहिते या जीवो ७ पि तदुपयोगरूपतया नश्यति, अन्योपयोगरूपतया उत्पद्यते । सामान्यरूपतया वा अवतिष्ठते । ततश्च न प्रेत्य संज्ञास्ति कोऽर्थ ? न प्राक्तनी घटाधुपयोगरूपा संज्ञा अवतिष्ठते वर्तमानोपयोगेन तस्याः नाशित्वाद इति (विज्ञानघन का क्या अर्थ है ? ज्ञानदर्शनोपयोगात्मक जो विज्ञान है, वही विज्ञानघन है और उससे युक्त होनेके कारण आत्मा भी विज्ञानघन है. प्रत्येक प्रदेशमें पर्यायात्मक होने से ज्ञान अनन्त है, वह विज्ञानघन अर्थात् उपयोगात्मक आत्मा किसी तरह भूतों (पृथ्वी आदि) से अथवा उनके घटपटादि विकारों (वस्तुओं) से उत्पन्न होती है. घटादि-ज्ञान-परिणाम घटादिवस्तुसापेक्ष होने के कारण घटादि हेतुओंसे
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जीव घटादि ज्ञानमें परिणत हो जाता है. इस प्रकार इन भूतों (घटाति वस्तुओं) से उत्पन्न होकर जीव घटादि वस्तुओं के नष्ट होने पर या व्यवहित होने पर (छिप जाने पर अथवा सामने से हट जाने पर) तदुपयोगरूप से नष्ट हो जाता है-अन्योपयोगरूपसे उत्पन्न हो जाता है और सामान्यरूप से टिका (स्थिर) रहता है. उसके बाद न प्रेत्य संज्ञास्ति का क्या अर्थ है ? वर्तमान उपयोगसे नष्ट हो जाने के कारण पहले वाली घटादी उपयोग रूप संज्ञा नहीं रहती.)" इस प्रकार प्रभु के वचनोंसे संशय नष्ट हो जाने पर श्री इन्द्रभूतिजी अपने पाँच सौ छात्रों के परिवार सहित उनके शिष्य बन जाते है-श्रमणधर्म स्वीकार कर लेते हैं. प्रारंभमें श्री इन्द्रभूति जिस प्रकार धर्मशास्त्र के शब्दों में अटक गये, वैसे ही अधिकांश लोग अटक जाते है और आशय से भटक जाते है. सेठ मफतलाल एक बार किसी मेलेमें गये. रात का समय था. ध्यान नहीं रहा. चलते-चलते एक कुएँ में गिर पड़े, क्योंकि उस कुएँ पर पाल नहीं थी. कुएँ के भीतर पहुँच कर वे बहुत घबराये. बाहर निकलने के लिए उस में सीढ़ी नहीं थी. वे जोरोंसे चिल्लाये-"बचाओ, बचाओ, मुझे बाहर निकालो।" एक संन्यासीने चिल्लाहट सुन कर कहा: "भाई, भगवानने जो तुम्हें सजा दी है, उसे प्रेमसे भोग लो. कष्ट सहनेसे कर्म क्षय हो जायगा. संसारकी सेंट्रल जेल से छूट जाओगे, इसलिए बाहर आनेका प्रयास मत करो." ऐसा कह कर संन्यासी वहाँ से चले गये. फिर एक नेताजी पहुँचे. आवाज़ सुनकर बोले:- “सेठजी, कुएँ पर पाल न होने के कारण ही आप गिरे हैं, सवाल सिर्फ आपका नहीं है, भारतमें लाखों गाँव हैं और उनमें हजारों कुएँ ऐसे ही खतरनाक हैं, क्योंकि उनपर पाल नहीं है. मैं संसद के आगामी अधिवेशन में एक बिल रखूगा कि भारतभर में समस्त कुओं पर पाल बनवा दी जाय, जिससे भविष्यमें ऐसी दुर्घटनाएँ कहीं न हो. आप चिन्ता न करें." सेठजी बोलेः- "अरे, बिल जब पास होगा, तब होगा, किन्तु मुझे तो अभी मदद की ज़रूरत है, अन्यथा मैं मर जाऊँगा." नेताजी:- यह तो और भी अच्छा होगा. आपके मरने पर बिलमें जान आ जायगी और वह बहुत जल्दी पास होगा."
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नेताजी के चले जानेपर एक धर्मश्रद्धालु भक्त उधरसे निकला. कुएँ के । भीतर से निकलने वाली पुकार सुन कर उसने अपने कन्धेसे रस्सी उतार कर कुएँ में डाल दी. सेठ से कहा:- "आप इस रस्सीको कस कर पकड़ लें. मैं खींचकर आपको बाहर निकाल देता हूँ. हमारे धर्म-शास्त्रोंमें लिखा है कि कुएँ में गिरे हुए आदमी को बाहर निकालने से बहुत पुण्य होता है-स्वर्ग मिलता है. वर्षांसे मैं कन्धे पर रस्सी का भार उठाये घूमता रहा हूँ सैकड़ों कुओं के पास से गुजरा हूँ. परन्तु कोई आदमी गिरा हुआ देखने में नहीं आया. आज पहली बार आप दिख गये. मैं धन्य हो गया. मेरा जीवन सफल हो गया. मेरा परिश्रम सार्थक हो गया." "धन्यवाद" कहकर सेठजीने रस्सी पकड़ ली. श्रद्धालुने उन्हें खींचकर बाहर निकाला. सेठजी राहत की साँस ले ही रहे थे कि श्रद्धालुने उन्हें फिरसे धक्का देकर कुएँ में गिरा दिया. सेठजीने पूछा :- "अरे भाई । गिराना ही था तो मुझे निकाला क्यों ?" श्रद्धालुः- “दुबारा निकालने के लिए. अनेक बार इसी प्रकार मैं आपको गिरा-गिरा कर बाहर निकालूँगा, जिससे स्वर्गमें मेरी सीट आरक्षित हो जाय-सुनिश्चित हो जाय." सेठजी:- "लेकिन इससे तो मैं बुरी तरह घायल हो जाऊँगा-मर जाऊँगा." श्रद्धालुः- "आपके घायल होने या मरने की पर्वाह कौन करता है ? मुझे तो पुण्य कमाना है-स्वर्ग पाना है. बड़ी मुश्किल से यह मौका आज मेरे हाथ आया है. इसे मैं हाथ से न जाने दूंगा." यह है-शब्दोंकी उलझन. आप जानते हैं ? गीता, पुरान, कुरान, वेद, बाइबिल, पिटक आदि कोई भी धर्मग्रन्ध हमें पवित्र क्यों न बना सका ? शब्दोकी उलझन ही उसका एक मात्र कारण है. शब्दों के प्राणों का स्पर्श हम कर नहीं पाते. श्री. इन्द्रभूति को भी वेदके शब्दोंका परिचय था, परन्तु उनके अर्थका बोध न था, इसीलिए वे संशय के झूले में झूलते रहे. वेदके परस्पर विरुद्ध वाक्योंसे उलझनमें पड़ गये. प्रभु के सम्पर्कमें न आये होते तो वे जीवन-भर पड़े ही रहते अपनी उलझनमें ।
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श्री इन्द्रभूतिकी उलझन का कारण क्या था ? अनेकान्त दृष्टि का अभाव. एकान्त संघर्षका कारण बनता है. अनेकान्त संघर्ष मिटाता है. अनेकान्तवादी एक में अनेकको देखता है और अनेक में एकको. विश्व एक है. एक वचनमें उसका प्रयोग किया जाता है, किन्तु विश्वमें देश अनेक है-देशमें प्रदेश अनेक है-प्रदेशमें सम्भाग अनेक है-संभागमें जिले अनेक है-जिलेमें तहसील अनेक हैं-तहसील में गाँव अनेक है-गाँव में घर अनेक है-घरमें कमरे अनेक है-कमरेमें रहनेवाले अनेक हैं और रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के विचार अनेक हैं. प्रभुने आचारांग सूत्रमें कहा है
"जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ ।
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥" (जो एक को (आत्माको) जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक (आत्मा) को जानता है) बहुतसे व्यक्ति समझते हैं कि स्याद्वाद (अनेकान्तवाद) संशयवाद है, परन्तु उनकी समझ भ्रमपूर्ण है, क्योंकि संशय में दोनों कोटियोंका अनिश्चय होता है, जैसे-"यह चाँदी है या सीव ?" देखने वालेको न चाँदीका निश्चय है और न सीप का ही. इससे विपरीत अनेकान्तवाद में दोनों कोटियोंका निश्चय होता है. यदि गिलास दूध से पूरा भरा हुआ न देखकर एक आदमी कहता है-"आधा गिलास भरा है" और दूसरा आदमी कहता है-"आधा गिलास खाली है" तो इनमें से आप किसके कथन को गलत मानेंगे ? दोनों कथन परस्पर विरुद्ध होकर भी सही है. दोनों कोटियाँ जहाँ निश्चित हों, वहाँ संशय कैसे हो सकता है ? अनेकान्तवादी बहुत विवेकी होता है. उसके उत्तर से कोई अप्रसन्नता नहीं हो सकता. एक राजाने स्वप्नमें देखा कि उसकी बत्तीसी गिर गई है. प्रातः उढते ही स्वप्नफलपाठकों को बुलाया. एकने कहा:-"आपके सारे कुटुम्बी आपने सामने मर जायेंगे ।" सुनकर राजा उदास हो गया. ठीक उसी समय दूसरे स्वप्नफलपाठकने कहा:- "अपने कुटुम्बियोंमें आपकी आयु सबसे अधिक लम्बी है।"
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यह सुनकर राजा प्रसन्न हो गया, परन्तु पहले विद्वान ने भी बात वही कही थी, जो दूसरे ने कही. दोनों बातों का अर्थ एक ही था, परन्तु कहनेका ढंग भिन्न था.
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शास्त्रार्थमें धूर्तके साथ धूर्त्तताका प्रयोग करना पड़ता है. एक गाँवमें दण्डभारती नामक पंडित थे. अन्धीने काना राजा होता है, वैसे ही साधारण पढ़े-लिखे होकर भी गाँवके अनपढ़ मूखौके बीच वे महापण्डित माने जाते थे. कई शास्त्रार्थ वे जीत चुके थे. आगन्तुक को जीतने के लिए वे एक प्रश्न रखते थे- खव्या-खैयाा खैया" और कहते थे कि इसकी व्याख्या करो, अन्यथा अपने पोथी-पत्ते सौंप दो किसी शास्त्रम इन शब्दों का अर्थ नहीं था, अतः आगन्तुक हार मानकर चले जाते थे. उनकी कीर्ति एक विद्वान के कानों तक पहुँची. वह विद्वान् दण्डभारती से शास्त्रार्थ करने आया. दोनों के शास्त्रार्थ में मध्यस्थता गाँवमें रहनेवालोंने की. ये शास्त्रार्थ सुनने और फिर जीत-हार का निर्णय देनेके लिए बैठे. दोनोंके बीच यह शर्त हो गई कि जो भी हारेगा, उसे अपना सारा सामान जीतने वाले के कब्जे में देना दण्डभारतीने आगन्तुक से पूछा:आपका नाम क्या है ?"
आगन्तुक :- "लट्ठभारती ।"
दण्डभारती :- "पहले आप अपना प्रश्न रखिये. मैं उत्तर दूँगा. फिर मैं पूछूंगा लट्ठभारती:- "वेद चार होते हैं-इस बात का आप खण्डन कीजिये दण्डभारती:- "किसी घरमें केवल आदमी ही नहीं होते. जहाँ आदमी होते हैं, वहाँ औरतें भी होती है और बच्चे भी होते हैं. उसी प्रकार चार वेदोंके साथ उनकी चार पत्नियाँ और चार बच्चे भी होंगे, इसलिए वेद कुल बारह हो गये, चार नहीं रहे. हो गया आपकी बातका खण्डन अब मेरा प्रश्न सुनिये - खव्वा खैया खैया-इस पदकी व्याख्या कीजिये. लट्ठभारती:- "यह पद सन्दर्भ से रहित है. पहले खोदै खुदैया, बोवै बुवैया, सीचे सिंचैया, उगे उगैया, काटै कटैया, पीस पिसैया, बेलै बिलैया. सेकै सिकैया आदि प्रक्रियाओंके बाद अन्तमें खव्वा खैया खैया. गाँववालोंने फैसला दे दिया कि लट्ठभारतीजी जीत गये. दण्डभारतीजी को घर का सारा सामान सौंपकर उस गाँव से भाग जाना पड़ा । स्वामी विवेकानन्दसे अमेरिका में किसी ने पूछा:- "आपने जूते अमेरिकन क्यों पहिने हैं ? भारतीय संस्कृति को आप उत्तम समझते है तो जूते भारतीय क्यों नहीं पहिने ?"
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इसके उत्तरमें वे बोले:-"मस्तिष्क सारे शरीर का मालिक है, वह मस्तकमें , रहता है, इसलिए मस्तक पर भारतीय साफा पहिना, किन्तु पाँव शरीर के सेवक है. जूते पाँव की रक्षा करते हैं, इसलिए के सेवक के भी सेवक हैं. सेवक तो किसी भी देश का हो सकता है. यही कारण है कि मैंने अमेरिकन जूते पाँवोंमें पहिन लिये हैं." पूछने वाला निरुत्तर हो गया. उसी अमेरिकामें एक पादरीने किसी टेबल पर बहुत से धर्मग्रन्थ एक-पर-एक जमा दिये. उनमें जान-बूझकर सबसे नीचे गीता रखी और सबसे ऊपर बाइबल. फिर स्वामीजी को उस टेबल के पास ले जाकर खड़ा कर दिया. देखकर स्वामीजी बोल उठे:- "गुड फाउंडेशन । नींव बहुत अच्छी है. गीता को वहाँ से मत हटाइयेगा, अन्यथा आपका सारा साहित्य गिर पड़ेगा-बाइबल भी गिर जायगी।" पादरी को शर्मिंदा होना पड़ा. वहींके निवासी एक वकीलने पूछा:- “यदि आत्मा है तो मुझे प्रत्यक्ष बतलाइये.'' स्वामीजीने एक सुई मंगा कर वकील के हाथमें चुभो दी. वकील चिल्लाया-"अरे यह क्या किया ? मुझे बहुत वेदना हो रही है." स्वामीजी :- "यदि आपको वेदना हो रही है तो मुझे प्रत्यक्ष बतलाइये ।" वकील :- "वेदना तो अनुभव की चीज़ है. उसे प्रत्यक्ष नहीं बताया जा सकता." स्वामीजी :-- " आत्मा को भी प्रत्यक्ष नहीं बताया जा सकता. वेदना के समान उसका भी केवल अनुभव किया जा सकता है." पानीमें यदि काई जम जाय तो उसमें अपने शरीर का प्रतिबिम्ब नहीं दिखाई देगा. लालटेनकी चिमनी धुआँसे काली हो रही हो तो प्रकाश उससे बाहर नहीं आ सकेगा. उसी प्रकार मन जब तक विषय-कषाय से मलिन रहता है, तब तक हमें आत्मा के प्रकाश का-आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता. मन निर्मल होता है-आराधना और साधना से. उस वकील की तरह श्री इन्द्रभूति को भी आत्माका ज्ञान नहीं था. प्रभुकी कृपासे उन्हें वह ज्ञान प्राप्त हुआ. ट्रेन को देखिये. वह कितनी लम्बी-चौड़ी होती है-कितनी ताकतवर ? किन्तु ड्राइवर यदि असावधान हो और आगे पुल टूटा हुआ हो तो भयंकर दुर्घटना हो जायगी. इससे विपरीत एक छोटी-सी चींटी भी
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आसन्न खतरे से अपनेको बचा लेती है. चींटीमें जो शक्ति है, वह उसके । चैतन्य की शक्ति है. दूसरा उदाहरण कुत्तेका लिया जा सकता है. यदि आप अपने हाथसे उसे रोटीका टुकड़ा दें तो वह निर्भय होकर खायगा-प्रेमसे पूँछ । हिलायगा-अपना सन्तोष प्रकट करने वाली विभिन्न चेष्टायें करेगा, परन्तु यदि उसे आप दिन-भर भूखा रहने दें और उधर रसोई-घर में रोटियाँ बनाकर वहाँसे हट जायें-कहीं छिपकर उसकी चेष्टा देखें तो आपको पता चलेगा कि वही कुत्ता अपनी पूँछ दबा कर चारों ओर नजर घुमाता हुआ भूखको न सह सकनेके कारण धीरे-धीरे रसोईघर में घुसेगा, मुँहमें रोटी दबायेगा और तत्काल वहाँ से भाग जायगा. वहाँ खड़े रहकर खानेकी हिम्मत उसमें नहीं रहेगी. भौंक-भौंक कर दूसरों पर बहादुरी से आक्रमण करने वाले उस कुत्ते में यह कमजोरी कहाँसे आई ? पशुयोनि में भी वह इतना तो समझता ही है कि मैं गलत काम कर रहा हूँ. अगर मेरी चोरी पकड़ी गई तो पूरी मरम्मत हो जायगी. कुत्तेकी यह समझ उसकी आत्मा का सबूत है. जब पत्ते हिलते हैं तो पता लग जाता है कि हवा चल रही है. हवा प्रत्यक्ष नहीं दिखती, फिरभी उसके अस्तित्व से कोई इन्कार नहीं करता, क्योंकि कार्यसे कारणका अनुमान होता है. किसी स्कूल में विज्ञानको प्रदर्शनी देखने के लिए तीन सौ वस्तुओं के
आविष्कारक एडिसन भी बदल कर जा पहुँचे, वहाँ छात्रोंसे उन्होंने पूछा-"बिजली क्या है ? छात्र इसका उत्तर नही दे सके. उन्होंने अपने प्रोफेसर से पूछा और प्रोफेसर ने प्रिंसिपलसे. किसीको उत्तर नहीं आया. प्रिंसिपलने स्वयं वहाँ आकर आगन्तुक दर्शकसे कहा:- "देखिये, बिजली की शक्तिसे सारे कार्य होते है, पंखा चलता है-लाइट जलती है-हीटर जलता है-बहुतसी मशीनें सक्रिय हो जाती है. इस प्रकार कार्यसे कारण का अनुमान लगाया जा सकता है, परन्तु बिजली को प्रत्यक्ष हमने नहीं देखा. एक लाख छियासी हजार मीलकी गति से वह वायरके भीतर दौड़ती है, परन्तु दिखाई नहीं देती. आप अपना पता नोट करा दीजिये, क्योंकि इलेक्ट्रिसिटी क्या चीज़ है ? यह हम नहीं जानते. इसके आविष्कारक मिस्टर एडिसन है. उनसे पूछकर हम आपको फोन से यह सूचित कर
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देंगे कि इलेक्ट्रिसिटी वास्तवमें क्या चीज़ है." आगन्तुकने बहुत गम्भीरता से कहा:-"बिजली का आविष्कारक एडिसन मैं स्वयं हुँ, परन्तु मैं भी नहीं जानता कि यह वास्तवमें क्या चीज़ है. जो उत्तर आपने दिया है, वही उत्तर में भी देता कि कार्यसे कारण का अनुमान लगा लेना चाहिये." यही उत्तर आत्मा को समझने के लिए भी उपयोगी होगा. शरीरकी समस्त चेष्टाओं का कारण वही है. उसीकी उपस्थिति में आँखें देखती है, कान सुनते है, नाक सूंघती है, जीभ चखती है, पेट पचाता है और हाथ-पाँव चलते है. आत्माके निकल जाने पर मुर्दा निश्चेष्ट हो जाता है. शरीरके हाथ-पाँव, आँख, कान, नाक, जीभ आदि कुछ भी काम नहीं करते. इससे सिद्ध होता है कि शरीरके भीतर जो शक्ति है-चेतना है, वही आत्मा है. तबला गायक की गलती पकड़ लेता है. यदि गाते समय आप चूक गये तो तबला तुरन्त बता देगा. संगीत का वह चौकीदार है. उसी प्रकार तर्क भी सत्य का चौकीदार है. बड़े मियाँ खाने-पीनेके शौकीन थे, एक दिन एक किलोग्राम दूध लाकर बीबीसे कहा:-"जल्दीसे खीर तैयार कर दो. मैने आज एक दोस्तको दावतपर बुलाया है. खीर बढिया बननी चाहिये. बारह बजे तक मैं अपने दोस्त के साथ आऊँगा." मियाँ चले गये. बीबीने खीर पकाई. कैसी बनी है ? यह जाननेके लिए चखने की चेष्टा की तो वह इतनी अधिक स्वादिष्ट लगी की अकेली ही उसे वह साफ कर गई. दोस्तके साथ बारह बजे मियाँ आकर भोजन करने बैठे तो थालीमें खीर न देखकर बीबीसे पूछाः "खीर क्यों नहीं पकाई ?" बीबीः- "कैसे पकाती ? आपका सारा दूधं तो वह बिल्ली पी गई, जिसे आपने घरमें पाल रक्खा है." यह सुनते ही मियाँ घरसे बाहर चले गये. एक बनिया की दूकानसे तराजू
और एक किलोग्रामका बाँट उठा लाये. बिल्ली को तराजूके एक पलड़ेमें बिठाकर तौला. बराबर एक किलोग्राम वजन निकला. उन्होंने बीबी से पूछा:-"यदि यह दूध है तो बिल्ली कहाँ है ? और यदि यह बिल्ली है तो दूध कहाँ है ?"
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इस प्रकार तर्क से कलई खुल गई, चोरी पकड़ ली गई, बीबीने भूल कबूल करके माफी माँग ली. कहनेका आशय यह है कि सिद्धान्त की रक्षाके लिए उसमें कोई गलत चीज़ प्रविष्ट न हो जाय, इस बातकी चौकीदारी के लिए सम्यक् तर्क का उपयोग किया जाता है. शास्त्रोंके परस्पर विरुद्ध वचनोंका समन्वय भी उसीसे किया जाता है. "विज्ञानघन...." आदि वेद पदोंसे जहाँ आपाततः यह मालूम होता है कि पानी में बलबलेकी तरह पंचमहाभूतों से उत्पन्न यह शरीर मरने पर फिर उन्हीं में विलीन हो जाता है, इसलिए आत्मा नामक कोई अलग पदार्थ नहीं है, वहीं अन्यत्र कई ऋचाएँ ऐसी भी है, जिनसे आत्माके अस्तित्वक बोध होता है. जैसे-“स वै अयं आत्मा ज्ञानमयः....." "अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः ।" "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।", "सत्येन न लभ्यस्तपसा येष..." इत्यादी. इस प्रकार अनेक ऋचाओंमें आत्मा का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः....." आदि पदोका कोई अलग अर्थ होना चाहिये. वह अलग अर्थ प्रभुने इन्द्रभूतिको समझाया. प्रत्युत्पन्नमति होने से वे तत्काल समझ भी गये. चाणकय ने ठीक ही कहा है :
जले तैलं खले गुह्यं
पात्रे दानं मनागपि। प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति
विस्तारं वस्तु शक्तित: ॥ जलमें तेल की एक बूंद भी डाली जाय तो जिस प्रकार वह सतहपर फैल जाती है-दुष्ट को ज़रा-सी भी गोपनीय बात बता दी जाय तो वह सब लोगों में जिस प्रकार फैल जाती है और सपात्रको जरासा भी दान दिया जाय तो उससे बहुत पुण्य प्राप्त होता है, उसी प्रकार बुद्धिमान को शास्त्र का ज्ञान दिया जाय तो वस्तुशक्ति (अपनी महत्ता) के कारण वह बहुत विस्तार से समझ लेता है. श्री इन्द्रभूतिने क्या समझा ? यह हम कल समझने का प्रयास करेंगे. कल विचार करेंगे कि किस प्रकार अपनी उलझन से उन्होंने सुलझनमें प्रवेश किया.
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श्री इन्द्रभूति को आत्मा के विषयमें सन्देह था कि उसका अस्तित्व है या नहीं, परन्तु यह सन्देह ही आत्माके अस्तित्व को प्रमाणित कर देता है, क्योंकि जिस वस्तुका सन्देह होता है, उसका अस्तित्व कहीं-न-कहीं. अवश्य होता है, रातको दूर से किसी को अपनी ओर आते देखकर यह सन्देह होता है कि वह मनुष्य है या पशु ? चमकती हुई किसी वस्तुको देखकर सन्देह होता है कि यह चांदी है या सीप ? अथवा हल्के अँधेरेमें सड़क पर पड़ी हुई किसी लम्बी चीजको देखकर यह सन्देह होता है कि यह साँप है या रस्सी ? इन सब सन्देहों में मनुष्य, पशु, चाँदी, सीप, साँप और रस्सी इन सबका कहीं-न-कहीं अस्तित्व अवश्य है. यदि आत्माका अभाव होता तो श्री. इन्द्रभूतिजी को उसके विषयमें सन्देह भी न होता. जिस प्रकार सन्देह ज्ञानका एक प्रकार है, वैसे ही स्मृति, इच्छा, तर्क, जिज्ञासा, बोध आदि भी ज्ञान के प्रकार है. ज्ञान एक गुण है. गुण गुणीके बिना नहीं रह सकता, इस लिय यदि गुण हैं तो गुणी भी अवश्य है. वही आत्मा है. मूर्दे शरीरमें हर्ष, शोक, सुख, दुःख आदिका अनुभव नहीं होता. यह अनुभव जिसे होता है, वही आत्मा है. लाशका भी शरीर तो वैसा ही होता है, जैसा जीवित प्राणिका, परन्तु वह कोई कार्य नहीं कर सकता. आत्माका अभाव ही उसे निष्क्रिय बनाता है. मैं था, मैं हूँ और मैं रहूँगा-इस प्रकार त्रैकालिक प्रतिति जो सबको होती है, वह भी आत्माके अस्तित्व को प्रमाणित करती है. "घट नही है" यह वाक्य घट के अस्तित्व का प्रमण प्रस्तुत करता है, क्यों कि घट भले ही घर में न हो, वह कुम्भार के यहाँ तो है ही. इसी प्रकार "आत्मा नहीं है" यह वाक्य भी आत्माके अस्तित्व का प्रमाण प्रस्तुत करता है, क्योंकि जड़ पदार्थ में या मुर्दे में आत्मा भले ही न हो, वह जीवित प्राणियों के शरीर में तो है ही.. जैसे मुँह से बोला गया शब्द सुनाई पड़ता है, किन्तु अरुपी होने से दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार आत्मा भी अरूपी (अमूर्त) होने से दिखाई नहीं देती. परन्तु उसका अनुभव होता रहता है.
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अमावस्या के प्रगाढ अन्धकारमें जहाँ अपना शरीर भी हमें दिखाई नहीं । देता, वहाँ भी "मैं हूँ" ऐसा अनुभव होता है, जो आत्माका बहुत बड़ा प्रमाण है अँधेरेमें अमुक वस्तु है या नहीं - ऐसा सन्देह हो सकता है, परन्तु मैं हूँ या नहीं ऐसा सन्देह किसी को नहीं होता. प्रात: काल उठते ही हम यह अनुभव करते है कि रातको अच्छी गहरी नींद आई थी अथवा अच्छे-बुरे सपने आये थे. नींद का सुख लेने वाली या सपना देखने वाली आत्मा ही होती है. "मैं सुखी हूँ मैं दुखी हूँ-यह शरीर मेरा है" ऐसा अनुभव आत्माको ही होता है, जड़ पदार्थों को नहीं. जैसे बिना आग के धुआँ नहीं होता, वैसे ही बिना भोगी के भोग्य नहीं होता. शरीर भोग्य है इसलिए भोगी आत्मा भी है. शरीर क्या है ? पाँव रूपी दो खम्भों पर टिका हुआ एक महल है जिसमें आँख, कान, नाक आदि झरोखे है-पेट जैसा रसोईघर है-मूत्रालय है-संडास भी है. इस महल की देख-रेख करने वाली, इस महलमें निवास करने वाली, इस महल की मालकिन कौन है ? आत्मा. आत्मा शरीर की मालकिन है - मन मैनेजर है कडवी दवा रूचती नहीं, परन्तु बीमारी में पीनी पड़ती है. कौन पिलाता है ? बीमारी में मिठाई खाने की इच्छा होती है मिठाई खाने से उस समय हमें क्विनाइन पीनेके लिए और मिठाई का मोह छोड़ने के लिए प्रेरित करती है. इन्द्रियों के बीच मतभेद हो जाय झगड़ा हो जाय तो न्याय कौन करता है। आँख जिसे शक्कर कहती है, उसी का जीभ याद नमक बताता है तो उस समय फैसला करने वाला कौन है ? आत्मा. धन, तिजोरी, शरीर आदि खुद अपने पर ममता नहीं रख सकते मेरा धन, मेरी तिजोरी, मेरा शरीर ऐसी ममता जो रखती है, वही आत्मा है स्वादिष्ट रसोई, जिसमें परोसी गई, ऐसी थाली सामने रखी है. आप आनन्द से खाना प्रारंभ करते है कि उसी समय फोन से या टेलीग्राम से आपको सूचना मिलती है कि भाव अचानक उतर जाने से व्यापार में भारी घाटा हुआ है हजारों रूपयों का नुकसान हो गया है. यह सूचना पाते ही आप उदास हो जाते हैं. थाली छोड़ कर उठ जाते है सिर पकड़
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कर आराम कुर्सी पर बैठ जाते है. सोचिये, शोकमग्न कौन हुआ ? दुःख किसे हुआ ? आत्माको । शरीर तो आराममें ही था. पूरे हाथको सड़ने से बचानेके लिए सर्जन उँगली काट देता है दर्द मिट जाता है. फिर भी जीवन-भर "हाय । मेरी उँगली चली गई" - ऐसा विचार कौन करता है ? एक उँगली के अभाव का अनुभव किसे होता है ? आत्मा को. एक ही माता दो बच्चों को एक साथ जन्म देती है-समान प्यार से उन्हें पालती है-दूध पिलाती है-खिलाती है-एक ही स्कूल में पढ़ने भेजती है. फिर भी दोनों के स्वभावमें अन्तर होता है. क्यों ? इसलिए कि उन दोनों बालकों के शरीरों में आत्माएँ अलग-अलग है. सत् (विद्यमान) पदार्थ का प्रतिपक्ष भी सत् होता है. अजीव (जड़ पदार्थ) सत् है तो उसका प्रतिपक्ष "जीव' भी सत् होना चाहिये. व्यापार के लिए आरामका, बीमार पुत्र के लिए व्यापारका और पत्नी की खुशी के लिए पुत्रका भी त्याग कर दिया जाता है : परन्तु जब घरमें आग लग गई हो, तब पत्नी को भी छोड़ कर अपने प्राण बचाने के लिए वही व्यक्ति तत्काल बाहर भाग जाता है. इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणी के लिए प्रियतम आत्मा है. उसे सुख, शान्ति, लाभ, सन्मान रूचते हैं और दुःख, अशान्ति, हानि, अपमान नहीं रुचते. शास्त्रकार आत्माका लक्षण बताते हुए कहते हैं :
य : कर्ता कर्म भेदानाम्
भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता
स यात्मा नान्यलक्षण : ॥ (जो आठ कर्मों का कर्ता है, कर्मफलका भोक्ता है, जो संसार में भटकता है और निर्वाण पाता है, वही आत्मा है. उसका और कोई लक्षण नहीं है.) श्री इन्द्रभूति विस्तार से यह सब समझ गये, क्योंकि वे बुद्धिमान् थे. यदि अन्धे आदमी से कहा जाय कि लाइट बहुत अच्छी है तो वह क्या समझेगा ? पूछेगा, जिज्ञासा प्रकट करेगा, परन्तु समाधान उसका नहीं हो सकेगा.
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एक बार लाइट की प्रशंसा सुनकर एक अन्धेने पूछा "लाइट कैसी होती
आदमीने उत्तर दिया - "व्हाइट" अन्धा :- "व्हाइट कैसी ?" आदमीने :- "दूध जैसी ?" अन्धा :- "दूध कैसा होता है ?" . आदमी :- बगुलेके पंख जैसा ।" अन्धा :- "बगुला कैसा होता है ? आदमीने अपना हाथ मोड़कर अन्धेके हाथसे स्पर्श कराते हुए कहा "जिसकी गर्दन इस प्रकार झुकी हुई होती है, उसे बगुला कहते हैं" अन्धेने कहा : "बस, अब मैं समझ गया कि लाइट इतनी टेढी होती है। आदमीने अपना माथा ठोक लिया कि इसे समझानेका प्रयास बेकार गया. वह उसे चिकित्सकके पास ले जाता है आँखोंका इलाज करवाता है. ज्यों ही इलाज के बाद आँखोंकी पट्टी खुलती है, वह देखने लगता है आँख वं प्रकाश से बाहर के प्रकाशका यथार्थ परिचय प्राप्त हो जाता है प्रकाशके विषय में उसका प्रश्न ही समाप्त हो जाता है सदाके लिए उसकी जिज्ञासा शान्त हो जाती है. जिस प्रकार प्रकाशसे प्रकाश का परिचय होता है, उसी प्रकार आत्मासे आत्माका परिचय होता है. अनुभवसे अनुभवी का ज्ञान होता है, गुणसे गुणी की प्रतीति होती है. शब्दों के माध्यमसे आत्मा का यथार्य परिचय दिया ही नहीं जा सकता
"शब्दजालं महारण्यं
चित्तभ्रमणकारणम् ॥" शब्दों की भीड घोर जंगलके समान श्रोता के चित्तको भ्रममें फंसा देगी. आत्म जिज्ञासुके लिए शब्दजाल बहुत खतरनाक होगा. यदि पूछा जाय कि घी का स्वाद कैसा होता है तो क्या उसे कोई बता सकता है ? कभी नहीं. उत्तर में यही कहा जायगा कि आप स्वयं उसे चखकर देखिये स्वाद मालूम हो जायगा और किसी से पूछना भी नहीं पड़ेगा. आत्माका अनुभव भी साधनाके माध्यम से साधक को स्वयं करना होगा.
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यद्यपि शब्दोंके माध्यमसे आत्मा का परिचय नहीं मिल सकता : फिर भी जहाँ शब्दों के कारण संशय उत्पन्न हुआ हो, वहाँ शब्दों के माध्यमसे संशयको मिटाया जा सकता है प्रभु महावीर ने यही किया. श्री इन्द्रभूति को वेद के पदोंके कारण आत्मा के विषय में संशय हुआ था. प्रभुने वेद का तिरस्कार नहीं किया. यदि हमारी दृष्टि सम्यक् पर हो तो किसी धर्मशास्त्रका अनादर करने की जरूरत नहीं पड़ती अनेकान्त सिद्धान्त से परस्पर विरूद्ध बातों का भी समन्वय हो जाता है. सर्वज्ञ होते हुए भी प्रभुने ऐसा नहीं कहा कि मैं सर्वज्ञ हूँ इसलिए मेरी बात मान लो. सर्वज्ञत्व का कोई अभिमान उनमें नहीं था. वेदको उन्होंने असत्य नहीं बताया. वेदके पदों का वास्तविक अर्थ समझया. बोले :- हे गौतम । जैसे साधारण मनुष्य परमाणुको नहीं जानता परन्तु ज्ञानी जानता है, वैसे ही आत्मा को भी वह जानता है. दूसरों को समझाने के लिए अनुमान प्रमाण का प्रयोग करता है. "अस्त्यात्मा शुद्ध पदवाच्यत्वाद् घटवत् ॥” (शुद्ध (असंयुक्त) पद "घट" है तो घटपदवाच्य "घट" अर्थ (वस्तु) भी है. उसी प्रकार शुद्ध (असंयुक्त) पद "आत्मा" है तो आत्मपदवाच्य अर्थ (आत्मतत्त्व) भी है ही. "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्य : समुत्थाय तान्येवा नुविनश्यति....." इस वेदवाक्य का आशय यह है कि जीवको घटपटादि वस्तुएँ देखने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह ज्ञान घटपटादि वस्तुओंके हट जाने पर उनके साथ ही चला जाता है "न प्रेव्य संज्ञास्ति" जो पहले की ज्ञान संज्ञा थी, वह बाद में नहीं रहती. घटका ज्ञान घट में ही रह जाता है. पटमें घटके ज्ञानका उपयोग नहीं रह जाता घटको देखने के बाद वह (वस्त्र) सामने आया तो घट का ज्ञान विलीन हो गया. पटके ज्ञानने उसका स्थान ले लिया. इसी प्रकार पटके बाद मुकुट सामने आ जाय तो पटका ज्ञान विलीन हो जायगा और उसके स्थान पर मुकुट का ज्ञान प्रकट होगा. आत्मा स्थिर है परन्तु वस्तु सापेक्ष ज्ञान अस्थिर है - परिवर्तन शील है. ज्ञान आत्माकी पर्याय है, जो परिवर्तित होती रहती है. यदि "विज्ञानघन...... "उस ऋचा का अर्थ ऐसा मान लिया जाय कि मरने के बाद आत्मा पंचमहाभूतों में विलीन हो जाती है तो “साधुकारी साधुर्भवति ॥" (अच्छे कार्य करने वाला परलोक में साधु (सज्जन) बनता है) और "पापकारी पापी भवति" (पाप (बुरे कार्य) करने वाला परलोकमें
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पापी (दुष्ट) बनता है) इन वैदिक ऋचाओं की संगति कैसे बैढेगी. यदि । मरने पर शरीर के साथ ही आत्मा विलीन हो जाती है ऐसा मान लिया जाय तो परलोक में "साधु" या "पापी" के रूप में जन्म कौन लेगा ? इसी प्रकार यजुर्वेदकी एक ऋचा है "दकारत्रयं यो वेत्तिस जीव : ॥" (दमन, दया और दान - इन तीन दकारों को जानने वाला जीव है) इन तीन दकारों को शरीर नहीं जान सकता. जीव ही उन्हें जानता है. इसकी पुष्टि के लिए एक अनुमान प्रमाण यह भी प्रस्तुत किया जा सकता है "विद्यमानभोक्तक मिंद शरीरम भोग्यत्वाद, ओदनादिवत ॥" । शरीर ओदन (भात) आदि की तरह भोग्य है अत : उसका भोक्ता भी है वही आत्मा है. शरीर में रहते हुए भी शरीर से आत्मा किस प्रकार पृथक है, सो बताया गया है :
क्षीरे घृतं तिले तैलम्
काष्ठे. ग्नि : सौरभं सुमे । चन्द्रकान्ते सुधा यद्वत्
तथात्मा ७ इतः पृथक् ॥ (दूधमें जिस प्रकार घी, तिल में जिस तरह तेल, लकड़ी में जैसे आग फूलमें ज्यों सुगन्ध और चन्द्रकान्त मणिमें जिस प्रकार अमृत रहता है, उसी प्रकार शरीर में व्याप्त आत्मा उससे पृथक होते हुए भी रहती है प्रभुके स्पष्टीकरण से श्री इन्द्रभूति के हृदयमें वर्षोंसे छिपा हुआ आत्म विषयक संशय ज्यों ही मिटा, त्यों ही उन्होंने आत्मसमपर्ण कर दिया अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ तत्काल प्रव्रजित हो गये. उन्हें प्रव्रजित करके प्रभुने त्रिपदी (उत्पादव्यय धौव्य युक्त हि सत्) का बोध दिया उसके आधार पर उन्होंने "द्वादशाड़ी" की रचना कर डाली. प्रभुके सर्वप्रथम शिष्य श्री इन्द्रभूति गौतम स्वामीको कोटिश : वन्दन.
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७. तंच प्रवजितं श्रुत्वा
दध्यौ तब्दान्धावो ७ पर:। अपि जातु दवेददि
हिमानी प्रज्वलेदपि ॥ वन्हि : शीत : स्थिरो वायु :
सम्भवेन्न तु बान्धव :। हारयेदिति पप्रच्छ
लोकानश्रद्दधद् भृशम् ॥ इन्द्रभूति का दूसरा भाई था अग्निभूति. उसने जब यह सुना कि मेरे बड़े भाई साहब महाश्रमण महावीर के शिष्य बन गये है प्रव्रजित हो गये है तो उसे इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ. उसने समझा कि किसीने यह गप्प उड़ा दी है किसी विरोधी ने मुझे अशान्त करने के लिए यह अफवाह फैला दी है, क्यों कि मेरे ज्येष्ठ भ्राता तो विश्वविख्यात विद्वान् हैं - पहाड़ भले ही खड़ा-खड़ा पिघल जाय हिमानी (बर्फ का ढेर) भले ही जल जाय आगर भले ही ढंडी हो जाय और हवा भले ही स्थिर हो जाय, परन्तु मेरे भाई साहब शास्त्रार्थ में किसी से हार जायँ यह कदापि सम्भव नहीं है, इसलिए पराजित होने की खबर पर विश्वास न करता हुआ अग्निभूति आगन्तुकोंसे बार-बार पूछता है कि कोई तो कभी सच्ची खबर देगा कि वे हारे नहीं है जीतकर आ रहे हैं। जब सब लोगों से एक ही उत्तर मिला, तब अग्निभूतिको को मानना पड़ा क्योंकि दो-चार व्यक्ति झूठ बोल सकते हैं किन्तु सबके सब व्यक्ति झूठ नहीं बोल सकते.
ततश्च निश्चये जाते
चिन्तयामास चेतसि । गत्वा जित्वाच तं धूर्तम
वालयामि सहोदरम् ॥ फिर ज्यों ही ज्येष्ठ बन्धुकी पराजय का निश्चय हुआ, त्यों ही अग्निभूतिने सोचा कि वह कोई जादूगर मालूम होता है, जो सबको भ्रम में डालकर अपनी जालमें फँसा लेता है सम्मोहित कर लेता है, परन्तु मैं
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उसके चक्करमें आने वाला नहीं हूँ. अभी जाकर मैं उसके होशहवास ठिकाने लगा देता हूँ और शास्त्रार्थ में पराजित करके उस धूर्त के पंजे से अपने भाईसाहब को छुड़ा लाता हूँ. अपने इष्टदेवका स्मरण करके वह भी समवसरण की ओर चल पड़ा उसके पाँच सौ छात्र भी साथ-साथ चल दिये. ज्यों ही वे समवसरण की परिधिके भीतर प्रविष्ट हुए कि उनका मनोविकार गायब हो गया.. साधनासे आत्मा इसी प्रकार प्रकाशित होती है, परन्तु हमें तो ऐसा कभी अनुभव ही नहीं हुआ. अनुभव उसी को होता है, जो प्रयोग करता है. इलेक्ट्रिक ग्लोब (लटू) में एक छोटा-सा वायर (तार) होता है, जो जलकर (गर्म होकर) स्थिर प्रकाश देता है उसका मेटल बनाने के लिए वैज्ञानिक एडिसन को तैतीस हजार बार प्रयोग करने पड़े, तब कहीं जाकर उन्हें सफलता मिल सकी. जब एक भौतिक वस्तुको दो इंचके वायर को सिद्ध करने के लिए तैतीस हजार एक्स्पेरीमेंट्स करने पडे तो आत्माको सिद्ध करने के लिए कितने एक्स्पेरिमेंट्स करने पडेंगे? . सामायिक, प्रतिकमण, जप, तप, ध्यान, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय आदि सारे एक्स्पेरिमेंट्स है आत्मशुद्धि के लिए. महर्षि अरविंद धोष चालीस वर्षों तक एक कोठरी में बैठे रहे । जगत् से सम्बन्ध तोड़कर तब जाकर उन्हें आत्मान्वेषणमें सफलता प्राप्त हुई. हम तो जगत् को भी चाहते हैं और आत्माको भी. सेठ मफतलाल अहमदाबाद से एक बार बम्बई गये. चौमासेका समय था. जिसके यहाँ ठहरे थे, उसने उन्हें बता दिया था कि यह बम्बई है. यहाँ हर चीज की कीमत दुगनी बताई जाती है इसलिए कुछ खरीदना हो तो सावधान रहियेगा. मसलन यदि कोई दूकानदार किसी चीज का मूल्य सौ रूपये बताये तो आप उसे पचास रुपयेमें लेनेकी तैयारी बताइयेगा. सेठ मफतलालने बात गाँठ में बाँध ली. दोपहर के समय बाजार में निकले तो आकाशमें बादल छा गये. हलकी-हलकी बूंदाबांदी होने लगी. छातेकी जरूरत महसूस होते ही वे एक दूकान पर जा पहुँचे एक छाता पसंद करके उसका मूल्य पूछा दूकानदारने आढ रूपये बताये. सेठने कहा :- “चार रूपये में देना है ?"
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दूकानदार श्रावक था. सोचा कि यह अन्यत्र रहने वाला कोई साधर्मिक बन्धु मालूम होता है. पर्युषणपर्व मनानेके लिए यहाँ आया होगा. आर्थिक स्थिति इसकी बहुत साधारण होगी इसलिए बिना मुनाफा लिये ही दे देता हुँ, बोला "अच्छा, चार रूपये ही दे दो" यह सुनकर सेठ मफतलालने कहा : "दो रूपयों में देना है ?" दूकानदारने सोचा कि चलो आज दान ही कर दें एक रूपया लेने से तो मुफ्तमें देना अच्छा रहेगा. बोला "देखिये, आपके पास यदि पैसे की तंगी हो तो भी संकोच न करें मैं भी आपका साधर्भिक भाई हूँ आपको छाते की जरूरत हो तो मुफ्त में ले लें मुझे दानका पुण्य कमाने दें" सेठ मफतलाल चौंक कर बोले “यदि मुफ्त में देते हो तो एक नहीं, दो छाते लुंगा।" यही दशा हमारी है दो छातोंकी तरह हम भी दोनों हाथोंमें लड़डू चाहते है. हमें जात (आत्मा) भी चाहिये और जगत भी पैसा भी चाहिये और परमात्मा भी। दोनों मुफ्त चाहिये. यह सर्वथा असम्भव है बिना परिश्रम के उपलब्धि नहीं होती अच्छे बुरे कार्यों से पुण्य पाप का बन्ध होता है. उसी के उदय से अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आती हैं, सुख-दुःख की अनुभूति होती है. शुभा-शुभ ग्रहों का हमारे जीवन के सुख दुःख से कोई सम्बन्ध नहीं है :
कर्मणो हि प्रधानत्वम्
किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहा : वसिष्ठदत्तलग्नो पि
राम : प्रवजितो वने ॥ (कर्म की ही प्रधानता है. शुभ ग्रह क्या कर सकते है ? वसिष्ठ ऋषिने शुभ मुहुर्त (राम के राज्याभिषेक के लिए) निकाला फिर भी श्रीरामको बनमें जाना पड़ा ।) कर्म का दण्ड श्रीरामको भी वनवासी बनकर भोगना पड़ा । तब अन्य प्राणियों की बात ही क्या ? आद्य शंकराचार्यने भी कर्म का प्रतिपादन करते हुए लिखा है
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स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे
स्वयं तस्माद्विमुच्यते ॥
( आत्मा (संसार में) स्वयं कर्म करती है और स्वयं ही उसका ही फल भोगती है. स्वयं ही संसार में भटकती है और स्वयं ही उससे मुक्त होती है ।)
घरमें देखिये एक ही माता-पिता के चार बच्चे हों तो भी उनके स्वभाव भिन्न होंगे उनकी आकृतियाँ भिन्न होंगी उनके व्यावहार भिन्न होंगे उनकी आवाज में भिन्नता होगी और अक्ल में भी.
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यह भिन्नता आई कहाँ से ? इस भिन्नता का कारण क्या है। कारण है- कर्म. मनुष्य सोचता क्या है और होता क्या । दोनों का मेल नहीं बैठता.
हर मनुष्य चाहता है मैं सर्वतन्त्र स्वतन्त्र सार्वभौम सम्राट बन जाऊँ, परन्तु सारा जीवन परतन्त्रतामें ही कट जाता है। हर आदमी तन्दुरस्ती चाहता है, लेकिन पूरी जिन्दगी बीमारी भोगते-भोगते ही बीत जाती है । इसका कुछ तो कारण मानना ही पडेगा । कर्म ही वह कारण है यह कार्य परमात्माका नहीं है वह तो सर्वज्ञ - सर्वदर्शी होने से केवल जानता देखता है. संसार में प्राणियों को भटकाने की खटपट वह नहीं करता यह कार्य करता है मात्र कर्म. कहा है.
सव्वे जीवा कम्मवास, चौदह लोक भमन्त ॥
चौदह रज्जु लोक में सारे जीव कर्म के वशीभूत होकर भ्रमण करते रहते हैं गोस्वामी सन्त तुलसीदास भी अपने "राम चरित मानस " नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में लिख गये हैं.
कर्मप्रधान विस्व करि राखा'
जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥
सम्पूर्ण विश्व कर्मप्रधान है जो जैसा कर्म करता है, वह वैसा फल भोगता है जगत की सारी व्यवस्थाका आधार कर्म है. आपका जन्म भी आपके
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हाथमें नहीं था क्या आप का जन्म भी आपके हाथमें नहीं था. क्या आप मुहूर्त देखकर आये थे इस दुनियामें ? नहीं. क्या घरसे निकलते समय ( मृत्यु होने पर) मुहूर्त देखा जायगा कि आज अच्छा मुहूर्त नहीं है सो काल ही मैं इस घर से निकलूँगा ? लोग आपसे पूछे बिना और मुहूर्त देखे बिना ही आपको श्मशानमें ले जा कर जला देंगे या गाड देंगे.
"जब तेरी डोली निकाली जायगी । बिन मुहूरत के उठा ली जायगी ।"
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बिना मुहूर्त देखे आये थे और बिना मुहूर्त देखे ही जाना है. हम किसीके घर गेस्ट बनकर चले जायँ तो गेस्ट बने रहने में ही मजा है बेफिक्री है, परन्तु यदि मालिक बनने की कोशिश करें तो बहुत मुश्किलें पैदा हो जायँ.
सेठ मफतलाल स्युसाइड करना चाहते थे क्यों कि सिर पर कर्ज बहुत चढ़ गया था उसी समय उनके शहर में एक नाटक मण्डली आई उन्होंने भी वह नाटक देखा, जिसमें अन्तिम दृश्य बहुत करूण था. नायक को उसमें आत्महत्या करते दिखाया गया था. मफतलाल ने सोचा कि यदि नायक की भूमिका मिल जाय तो दृश्यमें यथार्थता आ जायगी और अभिनयके बदले परिवार को जो धन मिलेगा, उससे कर्जा भी उतर जायगा. मरना तो मैं चाहता ही हूँ. नाटक में मरने से जहाँ वह दृश्य प्रभावक होगा, वहीं मेरे परिवारको भी आर्थिक सहायता मिल जायगी. यह सोचकर वे नाटक के डायरेक्टरसे मिले उनके सामने अपनी भावना प्रकट की कहा: "मुझे आप केवल दस हजार रूपये देनेका वचन दें नायक बनकर मैं सचमुच आत्महत्या कर लूँगा आपके दृश्य में जान आ जायगी. मरने के बाद राशि आप मेरे परिवारके पास पहुँचा दें. मैं अपनी इच्छासे मर रहा हूँ ऐसा कागज पर लिखकर मैं अपनी जेबमें रख लूँगा, जिससे आपको अपराधी मानकर पुलिस परेशान न कर सके ।"
डायरेक्टर ने कहा भाई मफतलाल प्रस्ताव तो तुम्हारा बहुत अच्छा है, परन्तु आज की पब्लिक को देखा उसका स्वभाव विचित्र है यदि तुम्हारा वह प्रभावक दुःखान्त दृश्य देखकर दर्शकोंने प्रसन्न होकर मुझे आदेश दे दिया वन्स मोर । (एक बार और ।) तो सोचो, मैं तुम्हारे जैसा दूसरा आदमी कहाँ से लाऊँगा। मुझे माफ करो मुझे तुम्हारी मौत नहीं चहिये."
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कहने का आशय यह है कि यदि आप स्वेच्छा से मरना भी चाहें तो मर । नहीं सकते. ज़हर भी बाजार में असली नहीं मिलेगा. जन्म और मृत्यु ये दोनों कार्य कर्म के अनुसार निश्चित समय पर होंगे. प्रभु महावीर को सर्वज्ञता प्राप्त होने से पूर्व साढे बारह वर्षों तक घोर कष्ट (परीषह और उपसर्ग) सहने पड़े थे. क्यों ? कर्म के कारण. श्रीराम को चौदह वर्ष तक वनवास भोगना पड़ा, पाण्डव जैसे महापराकमी पाँच पतियों की उपस्थितिमें द्रौपनीको चीरहरण के अपमान का कष्ट भरी सभामें भोगना पड़ा-पांडावों को बारह वर्ष बनवास और एक बर्ष अज्ञातवास में बिताना पड़ा-श्रीकृष्ण जैसे योगीश्वर को अन्त में पानी न मिल सकने के कारण प्यास की तीव्र वेदना कर अनुभव करते हुए ही . प्राण छोडने पड़े-श्रीकृष्ण के देखते-देखते ही पूरी द्वारका जलकर भस्म हो गई । इन सबका एक मात्र कारण था कर्म. सारी दुनियाको दहलाने वाले हिटलरको आत्महत्या करके स्टील बोक्सके अन्दर मरना पडा. । कहते हैं, हिटलर को बर्लिनमें सर्दी लग जाती थी तो चर्चिलको लन्दनमें छींक आ जाती थी. कैसा आतंक था उसका । सारी दुनिया उसके नामसे काँपती थी, किन्तु जब वह मरा तो उसके लिए कोई आँसू तक बहाने वाला कहीं न मिला। पुण्य के अस्त होने पर सबकी यही दशा हो जाती है धन दौलत भी पूर्व पुण्य के उदय से प्राप्त होती है. पुण्य और पाप - दोनों कार्मण वर्गणा के परमाणु है, पुद्गल हैं ऐसा मत सोचिये कि अरूपस्वरूप (अमूर्त) आत्मतत्त्व को मूर्त भौतिक पुद्गल प्रभावित कैसे करेंगे ? बीमारी के बाद आई कमजोरी में डाक्टर की सलाहसे लिये गये टॉनिक का असर होता है या नहीं ? ब्राम्ही के सेवन से दिमाग तरोताज़ा होता है या नहीं ? शराब या भाँग अथवा तम्बाकू के प्रयोग से नशा आता है या नहीं ज़रा सा पोटैशियम साइनाइड आपके चैतन्य को मूर्छित कर देता है खत्म कर देता है बिना बुलाये अकाल मृत्यु को उपस्थित कर देता है. एक ज़रा-सा जड़ परमाणु जब इतना असर रखता है, तब कार्मण वर्गणा के सूक्ष्मतम परमाणु आपके दिल. दिमाग पर, आपके मन-मस्तिष्क पर आपकी सोचने-समझने की शक्तिपर आपके जीवन पर, व्यवहार पर आपकी अन्तरात्मा पर कितना असर डालते होंगे? इसकी कल्पना की जा सकती है.
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कर्म के विषय में इतना विस्तार से इसलिए कहा गया है कि श्री इन्द्रभूतिके अनुज अग्निभूति के मनमें कर्म के अस्तित्व को लेकर एक शंका थी श्री इन्द्रभूति की शंकाका जिस प्रकार प्रभुने निवारण किया था, उसी प्रकार अग्निभूति की शंकाका भी उन्होंने निवारण कर दिया. प्रभुके समवसरण में पहुँचते ही अग्निभूति का मन तो शान्त निरहंकार निर्वैर निर्विकार हो ही गया, परन्तु शंका का समाधान हो जाने पर किस प्रकार निःशंक भी हो गया था ? सो कल देखा जायगा. आज इतना ही पर्याप्त है.
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समझौता
हार जीत मनुष्य के अहंकार का प्रतीक है, किन्तु समझौता और सन्धि यह उसकी बुद्धिमानी का चिन्ह है.
हार-जीत का प्रश्न पशुओंमें भी खड़ा हो जाता है, किन्तु वहाँ समझौता जैसी कोई कल्पना नहीं हो सकती. दो बैल, भैसे, मैढे या कुत्ते परस्पर लड़ते-झगड़ते लहु-लुहान हो जाते हैं, दमतौड़ देते हैं, या मैदान छोड़कर भाग जाते हैं, किन्तु समझौता करके शान्ति से निबटने की बात उनके दिमाग में नहीं आती.
समझौता मनुष्य को बुद्धि की उपज है जो मनुष्य युद्धर्मे, झगडे में समझौता की भाषा नहीं जानता उस मानव में और पशु में क्या अन्तर हैं... ?
नेतृत्व के दो गुण
एक इंजन जैसे पचासों डिब्बों को लेकर चल सकता है, वैसे ही एक दृढसंकल्पी व्यक्ति हजारों मनुष्यों को अपने पीछे लेकर आगे बढ़ सकता है.
समाज का नेता, इंजन की तरह होता है, जो अपनी शक्ति पर भरोसा रखता है, किन्तु ध्यान सब का रखता है. कहीं भा गडबड़ हुई तो वह उसे सुधारे बिना आगे नहीं चलता.
इंजन की भांति नेतृत्व में अपना साहस और अनुगामियों के प्रति वात्सल्य दोनों गुण अनिवार्य है.
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Achal
८.
सोऽ प्येवमागत : शीघम्
प्रभुणा भाषितस्त था । सन्देहं तस्य चित्तस्थम्
व्यक्ती कृत्यावदद्विभु : ॥ वह (अग्निभूति) भी इस प्रकार (इन्द्रभूति के समान) वहाँ (समवसरण में) शीध्र (चलकर) आया. प्रभु (महावीर) ने उसी प्रकार (जिस प्रकार श्री इन्द्रभूति को सम्बोधित किया था) उसे पुकारा और उसके चित्तमें रहे हुए सन्देह (कर्म है या नहीं ?) को प्रकट करके कहा :
हे गौतमाग्निभूते। क:
सन्देहस्तव कर्मणः ? कथं वा वेदतत्त्वार्थी
न विभावयसि स्फुटम? हे अग्निभूति गौतम । कर्म के विषय में तुम्हें कैसा सन्देह है ? वेदके तत्त्वको तुम स्पष्ट क्यों नही समझ पा रहे हो ? वेदके जिस वाक्य को आधार बनाकर तुम्हारी शंकाने जन्म लिया है, वह इस प्रकार है "पुरूष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्य भाव्यम्" जो कुछ हुआ है और जो कुछ होने वाला है, वह सब पुरूष (आत्मा) ही है. इस वेदवाक्य में "एव" (ही) इस अव्यय पदसे तुम समझते हो कि पशु, पक्षी, मनुष्य, पर्वत आदि जो भी वस्तुएँ दिखाई देती है, वे सब "आत्मा" ही है. कर्म, ईश्वर आदि का भी इस वाक्य में कोई उल्लेख नहीं हुआ है, अतः “एव" पदसे उनका भी निषेध हो जाता है, किन्तु वेद की अन्य ऋचाओं (पुण्य : पुण्येन भवति । पाप : पापेन भवति ।) के भीतर कर्म (पुण्य-पाप) का विधान भी पाया जाता है। ऐसी हालत में वास्तविकता क्या है दूसरी बात यह भी तुम्हें विचारणीय लगती है कि आकाश को जैसे तलवार से काटा नहीं जा सकता और न उसपर चन्दन का लेप ही किया जा सकता है, क्योंकि आकाश अमूर्त है तलवार और चन्दन मूर्त है मूर्त का अमूर्त से संयोग नहीं हो सकता उसी प्रकार अमूर्त से संयोग नहीं हो सकता उसी प्रकार अमूर्त आत्मासे मूर्त कर्मका संयोग भी नहीं हो सकता इसलिए तुम मानते हो कि कर्मका शायद अस्तित्व ही नहीं है क्या मैं ठीक कह रहा हूँ ?"
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अग्निभूति : "हाँ, प्रभो। आप बिल्कुल ढीक फरमा रहे है वर्षों से मेरे मनमें कर्म के विषयमें यही शंका छिपी हुई थी. उसे मैंने कभी किसी के सामने प्रकट नहीं किया था आपके सामने भी उसका मैने कोई जिक नहीं किया, फिर भी आप मेरे मनकी बात जान गये. सचमुच आप सर्वज्ञ हैं. कृपया मेरी शंका का समाधान कर दें " महावीर स्वामी :- "हे अग्निभूति गौतम । पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम || इस वाक्यमें कर्मका उल्लेख नहीं है तो निषेध भी नहीं है. वास्तव में यह वेदवाक्य पुरूष (जीव) की नित्यता (अमरता) का प्रतिपादक है. जीव जो 'इदं' (वर्तमान) है, वही 'भूतं' (भूतकालमें मौजूद था) और वही भाव्यम्' (भविष्य कालमें भी मौजूद) रहेगा. वह सदा रहेगा. श्लोक है :
जले विष्णु : स्थले विष्णु :
विष्णु : पर्वतमस्तके । सर्वभूतमयो विष्णु :
तस्माद्विष्णुमयं जगत् ॥ जल, स्थल और पर्वतश्खिर पर विष्णु है - सब प्राणियों में वह व्याप्त है. सारा जगत् विष्णुमय है. इस श्लोक में विष्णुकी प्रशंसा है उसकी महिमाका वर्णन है, परन्तु विष्णु के अतिरिक्त अन्य वस्तुओंका निषेध नहीं किया गया है : अन्य था यदि सारा जगत् विष्णुमय है तो "जल में विष्णु है' ऐसा प्रयोग भी नहीं हो सकता. उसके बदले "विष्णु में विष्णु है" ऐसा बोला जाता । कवि और भक्त जब किसी की प्रशंसा करते है तो उसमें अतिशयोक्ति अलंकार से बच नहीं सकते. रही बात अमूर्त से मूर्त के संयोग की, सो वह जो जगत् में प्रत्यक्ष देखा जाता है अमूर्त आकाशसे मूर्त बादलका संयोग होता है या नहीं ? मूर्त मदिरा अमूर्त जीव को उन्मत्त बनाती है : इसलिए केवल संयोग की बात ही नहीं है, अमूर्त्तको मूर्त प्रभावित भी करता है. शरीर भी मूर्त है, जो स्वस्थ होने पर आत्माको प्रसन्न और रूग्ण होने पर उदास बना देता है. जैसे तुम्हारे अरूपी संशयको मैं ने जान लिया, उसी प्रकार सब जीवोंके कर्मको भी मैं जानता हूँ. सुख-दुःख की अनुभूति तो तुम्हें भी होती ही है न ? वही प्रत्यक्ष कर्मफल है. यद्यपि आत्माका स्वरूप निर्मल है फिर भी राग, देष, विषय. कषाय,
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प्रमाद आदि दोषोंके निमित्त से विविध कर्मों का उपार्जन करके जीव । उनका शुभाशुभ फल भोगने के लिए संसार की चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है. प्रत्येक कार्यका कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है. जैसा कि तुम्हारे शास्त्रों में लिखा है :
नाकारणं भवेत्कार्यम्
नाऽ न्यकारण कारणम् अन्यथा न व्यवस्था स्यात्
कार्यकारणयो : क्वचित् ॥ बिना कारण के कार्य (बिना मिट्टी के घट) नहीं होता. अन्य कारण से भी कार्य नहीं होता (पानी से घी नहीं निकल सकता) कार्य और कारण की यह व्यवस्था कभी उलट नहीं सकती अर्थात् पहले कार्य हो और बादमें कारण-ऐसा नहीं हो सकता । (घीसे मक्खन, मक्खनसे दही. दही से दूध या दूध से घास नहीं बन सकती ।) संसारमें कोई राजा है, कोई रंक-कोई स्वामी है, कोई दास - कोई स्वस्थ है, कोई रूग्ण-कोई बालक है, कोई वृद्ध-कोई स्त्री है, कोई सर्वांगसुन्दर है, कोई अपंग (लूला-लँगड़ा-अन्धा-काना-कुबडा नकटा-बहरा आदि) कोई सुखी है, कोई दुखी - कोई मालिक है, कोई मजदूर कोई महल में रहता है, कोई घासफूस की झोपडी में । यह जो विषमता देखी जाती है, वह कार्य है तो उसका कोई न कोई कारण भी अवश्य होना चाहिये. जो इस भिन्नता या विषमताका कारण है, उसीका नाम कर्म है : इसलिए कर्मका अस्तित्व है." प्रभुके सारगर्भित वचन सुनकर अग्निभूतिका संशय निर्मूल हो गया. शुभ कर्म (पुण्य) के उदय से किस प्रकार अनुकूलताएँ पैदा होती है - इसके लिए एक लौकिक दृष्टान्त मैं सुनाता हूँ :सेठ मफतलाल के पिता का स्वर्गवास हो गया वे बहुत नामी वैद्य थे. रोगियों की सेवा करके उन्होंने बहुत धन कमाया था, परन्तु उनके बेटेमें वैसी योग्यता नहीं थी. प्रेक्टिस चली नहीं. पिताजी के द्वार अर्जित धन । भी अंजलिमें जलके समान धीरे-धीरे समाप्त हो गया. परिस्थिति ऐसी आ गई कि खाने के भी लाले पड़ने लगे।
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उस जमाने में लोग बीमार बहुत कम पडते थे इसलिए आज की तरह । डाक्टरोंकी जमात नहीं थी. खान-पान में लोग संयम रखते थे. होटल ही नहीं थे तो होस्पीटल कहाँ से आते ? सारी बीमारियों की जड़ होटल है, जो उस जमाने में कहीं नहीं था. यदि कोई वैद्य किसी के धर चला जाता तो सारे मुहल्ले वाले इकट्टे हो जाते थे और कहते थे मन-ही-मन कि यमराज का यह बड़ा भाई क्यों बुलाया गया ?
वैद्यराज नमस्तुभ्यम् - यमज्येष्ठसहोदर । यमस्तु हरति प्राणां
स्त्वं पून : सवसूनसून ॥ (हे वैद्यराज । हे यमराज के बड़े भाई । तुम्हें नमस्कार हो, क्यों कि यमराज जब आते है तो केवल प्राणोंका हरण करते हैं : किन्तु तुम धन भी हरण करते हो और प्राण भी ।) कहते है :
पेट को नरम, पाँव को गरम, सिरको रखो ठंडा ।
फिर यदि डॉक्टर आये तो, मारो उसको डंडा ॥ आज तो स्थिति इतनी बदल गई है कि दिन में दस बार भी किसी के धर डॉक्टर आ जाये या कोई मर भी जाये तो मुहल्ले वालों को इकट्टा होने की फुर्सत नहीं मिलती मौत इतनी सस्ती हो गई है. अस्तु, उसी शहर में गंगा नामक एक बुढिया रहती थी उसके पेटमें कई दिनों से दर्द हो रहा था. उसने सोचा कि वैद्यराजके बेटे मफतलाल ने कुछ तो अपने बाप से सीखा ही होगा : इसलिए क्यों न उससे एक बार मिललूँ. वह वैद्यराजके धर आई. पेटदर्दकी शिकायत की मफतलाल को मालूम था कि पिताजी किसी भी रोगी की मलशुद्धिके लिए त्रिफला चूर्ण की पुड़िया सबसे पहले देते थे. पेटका मल साफ हो जाने पर अन्य दवाओं का असर झपाटे से होता है. बुढिया को पेटका ही दर्द था : इसलिए मफतलाल भाईने त्रिफला के चूर्ण की तीन पुड़ियाँ बनाकर दे दी और कह दिया कि गर्म पानी के साथ एक-एक पुड़िया सुबह उठते ही। प्रतिदिन ले लेना. फिर पाँच घंटे तक कुछ भी खाना मत पेट दर्द मिट जायगा.
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बुठियाने वैसा ही किया. दर्द सचमुच गायब हो गया. मफतलाल भाई के पुण्य का उदय प्रारंभ हुआ उन्हें बिना पैसे की प्रचारिका मिल गई वह जहाँ जाती, वहीं इस बातका जिक करती कि मेरे पेटका दर्द तीन पुडियोंमें किस तरह छूमन्तर हो गया. मफतलाल भाई बहुत अच्छे वैद्य है........ आदि. एक कुम्हार का गधा खो गया था. वह भी मफतलाल के पास जा पहुँचा बोला “यदि कोई ऐसी दवा तुम्हारे पास हो तो दे दो, जिससे मेरा खोया हुआ गधा मिल जाये." मफतलाल ने उसे भी तीन पुड़ियाँ दे दी और कहा कि गरम जलके साथ ले लेना. पहली पुडिया ली कि उसे हाजत हुई. वह लोटा लेकर बस्ती से बाहर निकला. जहाँ शौचके लिए बैढा, वहीं थोड़ी दूरी पर उसे उसका गधा भी बैठा मिल गया. खुश होकर वह उसे अपने घर लेठा आया. गधा कोई बिलायत नहीं गया था. उधर गंगा और इधर कुम्हार-अब दो प्रचारक मिल गये. दो-चार दिनमें तो सारा शहर जान गया कि वैद्य मफतलाल की दवामें बहुत असर है. बात फैलती हुई राजमहल तक जा पहुँची. वहाँ एक रानी से राजा प्यार नहीं करते थे. रानीने दासी के साथ वैद्य को राजमहल में बुलवाया और उनके सामने अपनी समस्या रक्खी. वैद्य मफतलाल भाई तो केवल एक ही इलाज जानते थे. रानी को भी उन्होंने तीन पुडियाँ त्रिफलाचूर्ण की दे दी और कह दिया कि इनके प्रभाव से राजा आपके वशमें हो जायेंगे.. आपसे पहले जैसा प्यार करने लगेंगे. वैद्य चला गया. रानीने पुडियाका सेवन किया. दस्तें लगने से वह कमजोर हो गई और उसने खाट पकड़ ली. मन्त्रिोंने राजाको सलाह दी कि आपकी रानी मृत्यु शय्यापर पडी है इसलिए आपको उससे मिलने जाना चाहिये, मृत्युशय्यापर तो लोग दुश्मन को भी माफ कर देते हैं : फिर आपकी तो वह धर्मपत्नी है. आपके जाने से उसे आश्वासन मिलेगा और शान्ति से वह अपने प्राण छोड सकेगी आप मिलने नहीं गये और वह मर गई तो लोग यही कहेंगे कि आप उससे प्यार नहीं करते थे - इस दुःख के कारण वह मरी है इस प्रकार आपकी भयंकर बदनामी होगी. इससे विपरीत यदि आप इस अन्त समय में उससे मिलने जायँगे तो लोगों में आपकी इज्जत बढ़ेगी.
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राजा को बात समझ में आ गई. वह रानी से मिलने गया. रानीने इसे पुड़िया का प्रभाव माना और धीरे धीरे वह स्वस्थ होने लगी. दो वर्षों से वह राजा के दर्शनों के लिए तरस रही थी. आज राजा को सामने देखकर प्रेम और हर्षके अतिरेक से उसकी आँखें आँसू बरसाने लगीं. राजाका हृदय भी द्रवित हो गया. उसकी आँखें भी गीली हो गईं. उसने अपने दुर्व्यवहार के लिए रानीसे माफी माँगी. दोनों की कटुता समाप्त हो जाने पर प्रेम उत्पन्न हुआ. दोनों आनन्द से रहने लगे. रानी के आग्रह से मफतलाल को "राजवैध" का पद दे दिया गया. राजकीय कोष से उन्हें भारी मासिक वेतन दिया जाने लगा.
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कुछ दिनों बाद एक दुश्मन राजाने पाँच हजार सैनिकोंकी विशाल सेना से उसका राज्य घेर लिया. गुप्तचरों से पहले उसने पता लगा लिया था कि उस राजा के पास केवल तीन हजार सैनिक हैं, इसलिए वह पाँच हजार सैनिक अपने साथ लाया. राजाके पास उसने सन्देश भिजवा दिया कि कल दोपहर तक आप अधीनता स्वीकार करलें, अन्य था युद्ध करके राज्य छीन लिया जायगा. राजा ने यह सन्देश पाकर इमर्जेंसी मीटिंग बुलाई विचार विमर्श हुआ कि दुश्मनके सन्देशका उत्तर क्या दिया जाय. किसी ने सुझाव दिया कि वैद्यराजसे भी इस विषय में राय ले ली जाय तो क्या हर्ज है. राजाने स्वीकृति दे दी.
वैद्यराज मफतलाल को बुलाकर पूछा गया कि पाँच हजार सैनिकों को साथ लेकर शत्रु राजाने अपना नगर घेर लिया है. अपने पास कुल सैनिक तीन हजार है. ऐसे मौके पर शत्रुको परास्त करके अपनी नाक बचाने का आपके पास कोई इलाज हो तो बताइये.
वैद्यराज को अब तक त्रिफला चूर्ण की पुडियोंके बल पर सफलता मिलती आ रही थी । इसलिए यहाँ भी उन्हींका उपयोग करनेका सुझाव देते हुए कहा : "यदि आज अपनी सेनाके प्रत्येक सैनिक को रातके समय दो-दो घंटे के अन्तर में गरम पानी के साथ एक-एक पुड़िया तीन बार खिला दी जाय तो मेरे खयाल से यह संकट मिट जायगा.
वैसा ही किया गया. रातको दो बजे चार बजे और छह बजे एक-एक पुडिया प्रत्येक सैनिकने गरम जलके साथ लेली. परिणाम स्वरूप सब को दस्तें लगने लगीं. लोटा लेकर हर सैनिक तीन-तीन बार शौच से निपटने
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नगर से बाहर निकला. उधर सेनापतिने अपने कुछ सैनिकोंको गिनतीके लिए तैनात कर दिया था. जब संख्या नौ हजार तक पहुँच गई तब राजा को उसने सूचित कर दिया कि अपने को गुप्तचरोंसे तीन हजार सैनिकों की जो सूचना मिली थी, सो गलत थी क्योंकि नौ हजार की तो गिनती हो चुकी है इनके अतिरिक्त और भी सैनिक हो सकते हैं, अतः युद्ध में पराजय निश्चित है.
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यह सुनकर शत्रुराजा बिना युद्ध किये ही भाग गया. नगरपर आया संकट टल गया. वैद्यराजका भारी सन्मान किया गया. शुभ कर्मों का उदय होने पर सर्वत्र इसी प्रकार अनुकूलताएँ प्राप्त होती है.
भय भाग जाता है
अज्ञानी मनुष्य ज्ञानी की संगति में जाने से भय खाता है, भोगी वैरागियों की संगति करने से कतराता है, उसके मन में अनेक संशय और भय छाये रहते है कि पता नही वहां क्या होगा ? संसार ही छूट जायेगा या खाना-पीना ही छुडवायेंगे पर जो एक बार चला जाता है, और उनका वरदान स्वरूप आशीर्वाद प्राप्तकर लेता है, उसका भय कोसों दूर भाग जाता है और वह आनन्द विभोर हो उठता है ।
सत्य
सती और सत्य का स्वभाव एक जैसा है। दोनों ही जीवन की उज्वलता को पसंद करते है ।
जैसे खुली छतवाले मकान में ही सूर्य का प्रकाश पड़ सकता है, और हवा का प्रवेश हो सकता है, उसी प्रकार आग्रह से मुक्त खुले हृदय में ही सत्य का दर्शन हो सकता है।
सत्य- दूध जैसा उज्जवल, आकाश जैसा विशाल, जल जैसा शीतल और अमृत जैसा मधुर होता है ।
हीरा जैसे पृथ्वी के गर्भ में मिलता है, मोती जैसे सागर की गहराई से प्राप्त होता है, उसी प्रकार सत्य हृदय की गहराई से चिन्तन द्वारा प्राप्त किया जाता है।
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शुभकर्मों के उदय से अनुकूलताएँ ही प्राप्त नहीं होती : बल्कि बिल्कुल उलटा भी सुलट जाता है - औंधा भी सीधा हो जाता है. एक उदाहरण देखिये. किसी अनुभवीसे यह सुनकर कि आपका पुण्योदय प्रारंभ हो गया है, एक आदमीने सीधे राजाके निकट जाकर उनके गाल पर एक तमाचा मार दिया. राजाका मुकुट तत्काल ज़मीन पर गिर गया. अंगरक्षकने सिपाहियों को आदेश दिया कि हथकड़ी-बेड़ी डाल कर इस दुष्ट को कैद कर लिया जाय क्योंकि महाराजको इसने जो अपमानित करने का अपराध किया है, वह अक्षम्य है - दण्डनीय है. परन्तु उसी समय राजाने कहा : "इसे एक लाख रूपयेका पुरस्कार देकर सन्मान के साथ बिदा किया जाय : क्योंकि तमाचा लगाकर इसने आज मेरी जान बचाई है. शामके समय मालीने फूलोंका गुलदस्ता भेंट किया था, उसमें साँप का एक बच्चा प्रविष्ट हो गया था. मैंने वह गुलदस्ता अपने मुकुट पर (मस्तक पर) रख लिया था. तमाचा लगने पर ज्यों ही मुकुट नीचे गिरा कि उसमेंसे साँपका वह बच्चा बाहर निकलता हुआ दिखाई दिया, यदि इस आदमीने तमाचा मार कर मुकुट न गिराया होता तो साँप के बच्चे के दंश से मेरे प्राण निकल जाते : इसलिए यह दण्ड का नहीं, पुरस्कार का पात्र है.'. एक लाख रूपयों का पुरस्कार प्राप्त कर वह आदमी प्रसन्नता-पूर्वक अपने घर लौट आया. सूर्यका जब उदय होता है तो लोग उसे नमस्कार करते हैं, परन्तु जब वह अस्त होने लगता है, तब कोई उसकी ओर झाँक कर भी नहीं देखता - न कोई जाननेकी कोशिश करता है कि उसके क्या हालचाल है । उसी प्रकार जब शुभकर्मों का उदय होता है - पुण्य का रनिंग पीरियड चल रहा होता है, तब सब लोग नमस्कार करते हैं - सन्मान करते हैं, परन्तु जब अशुभ कर्मों का उदय प्रारंभ होता है - पुण्यराशि समाप्त हो जाती है, तब कोई नहीं पूछता, मित्र भी सामने से आ रहा हो तो वह मुँह छिपाकर गलीमें से निकल जायगा - इस डरसे कि मिलने पर अपनी मुसीबतों का रोना रोकर यह कुछ माँग न बैठे.
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(BD कहते है :
त्रिभिर्वर्षस्त्रिभिर्मासै
स्त्रिभिः पक्षस्त्रिभिर्दिनैः । अत्युग्रपुण्यपापाना
मिहैव लभ्यते फलम् ॥ तीन वर्षों में, तीन महीनों में, तीन पखवाडो में अथवा तीन दिनों में अत्यन्त उग्र पुण्य-पाप का यहीं फल मिल जाता है) कुछ वर्ष पहले जब मैं राजस्थानमें था, उस समयकी यह घटना है. मद्रास से एक श्रावक पेटी-बिस्तर लेकर अपने माँ-बापसे मिलनेके लिए राजस्थान आया. जिस गाँवमें वह रहता था, वह स्टेशनसे तीन । किलोमीटरकी दूरी पर था. जिस स्टेशन पर उसे उतरना था, वह भी बहुत छोटा था. जब ट्रेन उस स्टेशन पर पहुँची, उस समय रात के बारह बज रहे थे. अमावस्याकी काली रात में तीन किलोमीटर पैदल चलकर अपने जन्मस्थल वाले गाँवमें पहुँचना खतरे से खाली नहीं था. उसने स्टेशनमास्टरके सामने अपनी समस्या रखते हुए कहाः- "सर । मेरे पास जोखिम है. मेरी पेटी क्लाकरूम में रखा दी जाय तो मैं अपना बिस्तर खोलकर वेटिंगरूममें बेफिकीसे सो सकूँगा." स्टेशन मास्टरने कहाः 'देखते नहीं ? यह छोटा स्टेशन है. क्लाकरूम तो बड़े स्टेशनों पर ही होते हैं. यहाँ तो वेटिंगरूम से ही काम चलाना पडेगा मेरा खयाल है, आप इस रूममें भी बेफिकीसे सो सकते है, क्योंकि सुबह तक दूसरी कोई ट्रेन आनेवाली नहीं है, इसलिए दूसरा कोई मुसाफिर आपको डिस्टर्ब करनेवाला नहीं है. आप पेटी अपने तकियेके पास रखकर आराम कीजिये." श्रावक रूममें अकेला था. बेडिंग खोलकर उस पर लेट गया. पेटी अपने पास ही रखली. उधर "मेरे पास जोखिम है" इस वाक्यने स्टेशन मास्टरके दिलमें खलबली पैदा कर दी. उसने सोचा कि पेटी में बीस पच्चीस हजारकी गड्डियाँ तो होंगी ही या फिर सोने के जेवर होंगे। यदि यह पेटी किसी तरहसे मेरे कब्जेमें आ जाय तो मुझे सर्विस करनेकी जरूरत ही न रहे. जैसे यह सेट मद्राससे धन कमाकर अपने गाँव जा रहे है, ऐसे ही मैं भी
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• अपने गाँव जाकर अपने माता-पिताके साथ रह सकता हूँ. बुढापेमें उनकी सेवा कर सकता हूँ हँसी-खुशीसे परिवार के साथ अपना शेष जीवन आराम से बिता सकता हूँ. बच्चोंकी शादी निपटा सकता हूँ किन्तु पेटी पर कब्जा तबतक कैसे मिल सकता है, एक ही बड़ा पाप करना है। इस पेटी के मालिक को परम धाम पहुँचाना है और फिर मजे ही मजे । मनमें बेईमानी आई - पाप आया-मस्तिष्क सक्रिय हुआ हत्याका उपाय खोजा गया तय हुआ कि इस पाप में किसी गरीबको साझीदार बनाकर उसी से हत्या करवाई जाय.
"लोभः पापस्य कारणम् ॥"
(लोभ पापका कारण होता है)
स्टेशन के पास ही कुछ हरिजनों के घर थे तत्काल स्टेशन मास्टर एक हरिजनके घर गया. वहाँ एकान्त में बैठ कर उसे सारी योजना समझाई:"एक काम मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ. स्टेशन पर वेटिंगरूम में एक मुर्गा सोया है. उसे हलाल करना है. रातको दो बजे यहाँ से एक मालगाडी गुजरेगी. एक बजे ही उस लाशको अपने पटरी पर ले जाकर रख देंगे केस दुर्घटनाका बन जायगा. पेटी मैं पार कर लूँगा. उसमें सेठकी सारी कमाई रखी हुई है. खोलनेपर जो कुछ मिलेगा, उसका पाँचवाँ हिस्सा मैं तुम्हें इनाम के रूपमें दे दूँगा यदि उसमें पाँच हजार मिले तो एक हजार तुम्हारे हो जायँगे जल्दी निर्णय करो, अन्यथा मैं किसी दूसरे आदमी से काम लूंगा. काम करना हो तो उठाओ छुरी और चलो मेरे साथ ।"
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हरिजन उस सेठकी हत्याके लिए तैयार हो गया. उसने कहा: "ठीक है. मुझे आपका प्रस्ताव मंजूर है. समझ लीजिये कि आपका काम हो गया है, छुरी की धार तेज़ करके अभी आधे घंटे में आता हूँ आप पहुँचिये स्टेशन पर "
आधे घंटे बाद हरिजन अपनी छुरी तेज़ करके वेटिंग रूममें पहुँचा और वहाँ सोये हुए व्यक्ति का पेट निर्दयतासे चीर डाला. फिर लाशको उठाकर पटरी पर डाला आया. स्टेशनमास्टरको नमस्कार करके अपनी झोपडी में चला गया और कहा गया कि अब अगले कार्यकी जिम्मेदारी आप पर है- कल मुझे मेरा इनाम मिल जाना चाहिये.
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स्टेशनमास्टरने पेटी उठाकर अपने रूममें रखवा ली. आधे घंटे में बिस्तर वहाँ से हावाकर कमरा घुलवा लिया, जिससे खूनका कोई दाग दिखाई न दे फिर अपने रूममें जाकर सो गया ठीक दो बजे मालगाड़ी आई. इंजन की लाइट में ड्राइवरने देखा कि पटरी पर कोई आदमी सोया है तो उसके मनमें शंका हुई कि कहीं किसीने किसीका मर्डर करके लाश पटरी पर तो नहीं डाल दी। यदि ऐसा हुआ तो व्यर्थ हो झूदा केस हम पर बन जायगा. उसने गाडीमें ब्रेक लगाना शुरू कर दिया ब्रेक लगातार लगाने के कारण धीरे-धीरे गाड़ी । उस लाश के पास जाकर रुक गई. उतरकर ड्राइवरने देखा तो स्पष्ट हो गया कि मामला मर्डर का ही है फौरन उसने स्टेशनमास्टर को जगाया. कहाः “आप चल कर देखिये किसीने हत्या करके लाश पटरी पर डाल रखी है पुलिस बुलाइये. पंचनामा कराइये. लाश हटवाइये. उसके बाद ही मैं माल गाड़ी आगे बढाऊँगा." स्टेशनमास्टर ने कहा - "मुझे गहरी नींद आ रही है आप लाश एक तरफ) हटाकर गाड़ी ले जाइये. हम आपके विरुद्ध कोई एक्शन लेनेवाले नहीं है। गार्ड भी आ गया. उसने कहा:- "देखिये, हम कानून के विरुद्ध कोई काम नहीं करेंगे. आप चलकर एक बार मामला देख लीजिये .. समझ लीजिये" स्टेशन मास्टरकी आनाकानी और बहानेबाजी चल न सकी, और उठकर उन्हें वहाँ जाना ही पड़ा, जहाँ लाश रखी हई थीं. प्रकाशमें जब लाश का चेहरा स्टेश-मास्टरने देखा तो छाती पीट-पीट कर चिल्लाने लगा:- "हाय । हारा । यह तो मेरा ही बेटा है धनकी लालचमें पड़कर मैंने इसकी हत्या करवा दी। मेरे जैसा पापी और कौन होगा ? मेरा पाप मुझे ले डूबा । धिक्कार है मुझे । इस प्रकार विलाप करनेसे सारा रहस्य खुल गया - पाप प्रकट हो गया और अपने बेटेकी हत्या कराने के अपराधमें उसे जेल जाना पड़ा और उस हत्यारे हरिजन को भी
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यह सब कैसे परिवर्तित हो गया ? इस पर विचार करें. जब उस हरिजन ( ने छुरीकी धार तेज करने के लिए आधे घंटे का समय माँगा था, तभी एक पडौसी हरिजन को दया आ गई. उसने चुपचुप सारी बातें सुन ली थीं. कहते हैं मारने वालेसे बचाने वाले के हाथ अधिक लम्बे होते है - मारनेवाले के दो हाथ होते हैं तो बचाने वालेके हजार हाथ होते हैं. श्रावकके पुण्यका उदय था. उसने पडौसी हरिजनको प्रेरित किया. वह उठकर तत्काल वेटिंगरूममें पहुँचा. सेठको जगाकर इशारेसे उसे बाहर बुलाया और पूछा:- “सेठजी । आप अपने प्राण बचाना चाहते हैं या धन ?''
सेठने कहा:- "मैं तो प्राण ही बचाना चाहता हूँ धन तो हाथ का मैल है. जिन्दा रहा तो और कमा लूंगा लेकिन, तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो ? बात क्या है ? जरा साफ-साफ समझाओं." सज्जन हरिजने कहा:- “सेठजी । यह स्टेशनमास्टर बेईमान है. मेरे पडौसी हरिजनसे मिलकर उसने आपकी हत्या करनेका षड्यनत्र किया है. वह छुरी की धार तेज करके दस-पन्द्रह मिनिट बाद ही यहाँ आने वाला है. यदि आप अपने प्राण बचाना चाहते हों तो पेटी बिस्तर यहीं छोडकर चुपचाप मेरे साथ मेरे घर पर चलिये और वहीं रात बिताइये. सुबह गाँव वालोंको इकट्ठा करके स्टेशमास्टर से आपकी पेटी आपको दिलवा दूंगा, परन्तु इस समय यहाँ रुकनेमें खतरा है. आप चलिये. षड्यन्त्र की भनक पाते ही मेरी अन्तरात्मा ने मुझे आपके पास आनेकी प्रेरणा दी और मैं चला आया. समझ लीजिये कि आपके भाग्य अच्छे हैं आपकी आयु लम्बी है." श्रावक उस सज्जनके साथ दबे पाँव उसकी झोपडीमें चला गया. फटा-टूटा जैसाभी बिस्तर उसके घरमें था, बिछाकर उसी पर सेठको सुला दिया. उधर स्टेशनमास्टरका पुत्र गाँव में होने वाला एक नाटक देखने के लिए पिताजी की अनुमति लेकर गया था. वह नाटक देखकर अपनी साइकिल पर रातको लौट आया. उसने सोचा कि घरपर जाकर माँ को जगाने की अपेक्षा क्यों न वेटिंग रूम में ही लेटकर अपनी रात बिता दूं. वेटिंगरूम का दरवाजा भी खुला था. टोर्च से देखा तो बिस्तर भी लगा हुआ
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दिखाई दिया. सोचा कि पिताजी कितने दयालु हैं. उन्होंने पहले से मेरे लिए यहाँ बिस्तर लगा रखा है, जिससे नाटक देखकर लौटने में यदि मुझे देर हो जाय तो यहाँ आराम कर सकूँ.
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उसने साइकिल वेटिंगरूममें रखीं और बिस्तर पर लेट गया. थका हुआ तो था ही. लेटते ही निद्राधीन हो गया और फिर बादमें जो कुछ हुआ, सो आप सब जानते ही हैं.
श्रावक की पेटी स्टेशनमास्टर के रूममें मिल गई, सो उसे दे दी गई. पेटी लेकर वह राजी-खुशी अपने घर पहुँचा. स्टेशन छोड़नेसे पहले उस सज्जन हरिजनको उसने उचित पारितोषिक दिया, जिसने ठीक अवसर पर आकर उसकी जान बचाई उसे नया जीवन दिया
कहने का आशय यह है कि हम जैसा भी कर्म करते हैं, वैसा शुभाशुभ फल हमें प्राप्त होता है:
यथा बीजं तथा फलम् ॥
जैसा हम बीज बोते हैं, वैसा ही फल पाते हैं. बबलूका बीज बोने पर आमका फल नहीं मिल सकता. बुरे कर्म का अच्छा फल और अच्छे कर्मका बुरा फल नहीं मिल सकता.
प्रत्येक प्राणी या तो सुखका अनुभव कर रहा है या दुःख का सुख शुभकर्म के उदय से मिलता है और दुःख अशुभ कर्मके उदय से, इसलिए यदि सुख-दुःख का अस्तित्व है तो कर्मका अस्तित्व भी है ही,
दूसरी बात यह है कि यदि कोई नाम (संज्ञा) है तो वह पदार्थ भी अवश्य होता है. "कर्म" शब्द है- असंयुक्त शुद्ध पद है- नाम है- असंयुक्त शुद्ध पद है- नाम है- संज्ञा है तो कर्म पदवाच्य अर्थ (कर्म नामक कोई तत्त्व) भी अवश्य है- ऐसा मानना चाहिये.
ज्यों ही अग्निभूतिका संशय निर्मूल हुआ, त्यों ही उन्होंने भी प्रभुके चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया दीक्षा ले ली प्रभुके शिष्य बन गये अग्निभूति के पाँच सौ छात्र भी तत्काल प्रव्रजित हो गये. प्रभुने अग्निभूतिको भी "त्रिपदी" का ज्ञान दिया ज्ञान पाकर इन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की.
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१०.
शिष्यों सहित इन्द्रभूति और अग्निभूति नामक अपने दोनों बड़े भाइयों के दीक्षित हो जाने के समाचार सुनकर 'वायुभूति' भी अपने पाँच सौ छात्रों के साथ समवसरण की ओर चल पडे :: परन्तु इन्द्रभूति और अग्निभूति के भीतर जो क्षोभ था, वह इनके भीतर नहीं था. इतना ही नहीं : बल्कि इन्हें तो मन ही मन प्रसन्नताका अनुभव यह सोच कर हो रहा था कि सर्वज्ञ प्रभुके दर्शन और सान्निध्य का जो यह सुन्दर अवसर सामने आया है, उससे मेरे हृदयमें वर्षोंसे छिपी हुई शंकाका भी अवश्य समाधान हो जायगा और मैं भी अपने ज्येष्ठ बन्धु युगल की तरह महावीर प्रभुका शिष्य बनकर अपना जीवन धन्य बना सकूँगा. प्रभुने निकट आये हुए वायुभूति से कहा :- "हे वायुभूति गौतम । वेद की जिस ऋचा का वास्तविक अर्थ न समझ सकने के कारण तुम्हारे हृदय में शंका उत्पन्न हो गई थी, वह इस प्रकार है.
विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य : संमुत्थाय ।
तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ॥ तुम इस वाक्यसे समझते हो कि पंच महाभूतोंसे उत्पन्न होकर जीव उन्हीं में लीन हो जाता है शरीर भी ऐसा ही है इसलिए जो शरीर है, वही जीव है और जो जीव है, वही शरीर है जीव और शरीर में कोई अन्तर नहीं है दोनों अभिन्न हैं. न प्रेत्य संज्ञारित अर्थात् मरने के बाद जीव या शरीर का कोई अस्तित्व नहीं रहता. दूसरी ओर वेदमें यह वाक्य भी। आता है सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा : संयमात्मान :।। अर्थात् धीरज वाले संयमी लोग इस आत्मा को, जो नित्य प्रकाशमय और शुद्ध है सत्य, तपस्या और ब्रह्मचर्य से प्राप्त करते हैं और देखते हैं इस ऋचासे स्पष्ट मालूम होता है कि आत्माका शरीर से पृथक अस्तित्व है. ऐसी अवस्थामें वास्तविकता क्या है ? शरीर से जीव को भिन्न माना जाय या अभिन्न ? ऐसा सन्देह तुम्हारे मनमें छिपा है. ठीक है न ?" वायुभूति :- "धन्य हैं प्रभो । आप, जिन्होंने बिना कहे, मेरे हृदय में छिपे सन्देह को जान लिया. इस सन्देह को मिटाने की कृपा कीजिये मैं आपकी शरण में आया हूँ पूरा विश्वास है कि आप मुझे निराश नहीं
करेंगे."
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महावीर स्वामी :- "हे वायुभूति । वेदकी उस ऋचामें जीव या शरीर के विलीन होने की नहीं, किन्तु आत्माकी पर्याय के रूप में जो वस्तु सापेक्ष ज्ञान होता है, उसी के उत्पत्ति - विनाश की बात कही गई है. जो वस्तु सामने आती है, उसका हमें ज्ञान होता है. फिर दूसरी वस्तु सामने आने पर दूसरी वस्तु का ज्ञान होता है और पहली वस्तुका ज्ञान उसी वस्तु के साथ विलीन हो जाता है. आत्मा कभी विलीन नहीं होती क्योंकि दूसरी वस्तुका ज्ञान हमें उसीसे होता है. मरने पर शरीर पाँच भूतों में विलीन हो जाता है, जीव नहीं. वह इस भावमें किये गये शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए नया शरीर धारण कर लेता है. इसलिए "अन्नो जीवो अन्नं सरीरम् ॥" जीव अन्य है और शरीर अन्य है. दोनों का पृथक् अस्तित्व है. शरीर रूपी महल में जीव निवास करता है, जैसे महल में रहने वाला राजा स्वयं महल नहीं है, महल से पृथक् है उसी प्रकार शरीर में रहने वाला जीव भी स्वयं शरीर नहीं है, शरीर से पृथक् है. मुर्दे में (शव में या लाशमें) शरीर तो ज्यों का त्यों मौजूद है, परन्तु जीव नहीं है, इससे भी दोनों का पार्थक्य प्रमाणित होता है.
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शुद्ध (असंयुक्त) नाम वाली वस्तु भी अवश्य होती है. जीव और शरीर ये. दोनों अलग-अलग नाम है. इसलिए इन शब्दोंके वाच्यार्थ (जीव और शरीर) का भी अलग-अलग अस्तित्व अवश्य है.
जीवित अवस्थामें जो शरीर सचेष्ट रहता है और सड़ता नहीं, वही मुर्दा होने पर निश्चेष्ट होकर सड़ने लगता है. शरीर को सचेष्ट रखने वाला उसे सड़ने से बचाने वाला जीव है.
दूधमें घी की तरह शरीर में जीव है. जैसे दूधमें घी अनुमान से समझ लिया जाता है, वैसे ही सचेष्ट शरीर में जीव अनुमान से समझ लेना चाहिये".
शंकाका समाधान होते ही वायुभूतिने भी पाँच सौ छात्रों के साथ आत्म समर्पण कर दिया दीक्षा लेली. प्रभुने "त्रिपटी" का ज्ञान देकर इन्हें अपने तीसरे गणधर के रूप में प्रतिष्ठित किया, त्रिपदी के आधार पर इन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की.
इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीनों सहोदर भ्रता थे. दिग्गज पंडित होते हुए भी अपनी-अपनी शंकाओंका समाधान हो जाने से इन्होंने
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प्रभु महावीर की शिष्यता स्वीकार कर ली है. ऐसा चौथे व्यक्त नामक महापण्डित ने जब सुना तो प्रसन्नतापूर्वक अपने पाँच सौ छात्रों के साथ वह भी समवसरण की ओर चल दिया. प्रभुने कहा : हे व्यक्त । जिस वेद वाक्यके आधार पर पंच महाभूत के अस्तित्व के विषय में तुम्हें सन्देह हुआ है, वह इस प्रकार है स्वप्नोपमं वै सकलं इत्येष ब्रम्हाविधिरंजसा विज्ञेय : ॥ (निश्चितरूप से यह सब सपने समान है यह ब्रम्ह (परमात्मा) को प्राप्त करने की विधि शीध्र जानने योग्य है) इससे तुम समझते हो कि पृथ्वी आदि पाँचों महाभूत स्वप्नके समान असत् है अविद्यमान है, क्यों कि सपना भी दिखता है, पर होता नहीं, उसी प्रकार पंच महाभूत भी दिखते भले ही हों पर उनका अस्तित्व नहीं
साथ ही वेदमें अन्यत्र "पृथ्वी देवता आपो देवता" (पृथ्वी देवता है-जल देवता है) आदि के द्वारा पृथ्वी आदि पंच महाभूतों की सत्ता (अस्तित्व) का भी प्रमाण मिलता है. ऐसी अवस्थामें यथार्थ क्या है ? पंच महाभूतों का अस्तित्व है या नहीं ? यह शंका तुम्हारे हृदय में वर्षों से छिपी हुई है. हे न ?" व्यक्त :- "हाँ-हाँ, प्रभो । यही शंका सचमुच मेरे मनमें बैठी मुझे परेशान करती रहती है कृपया इसका निराकरण कर मुझे अनुगृहीत करें". प्रभु :- हे व्यक्त । स्वप्नोपमं वै सकलम.... आदि जो वेदवाक्य है, उसमें जगत के कनक, कामिनी, शरीर आदि की अनित्यताका ही संकेत किया गया है, पदार्थों के अभावका नहीं. जगत् के सारे सम्बन्ध क्षणिक है. संसार के समस्त सुख नश्वर है अस्थायी हैं यह जानकारी वैराग्यको पुष्ट करती है और इसी लिए उसे ब्रम्हविधि परमात्मा को प्राप्त करने को अथवा स्वंय परमात्मा बनने का साधन कहा गया है. फिर स्वप्न स्वयं सत् (भावरूप) है, इसलिए सकलम् असत् (सब कुछ अभाव) नहीं हो सकता. यदि सकलको असत (अभाव) माना जाय तो फिर चारों वेदोंको भी अस्त मानना पड़ेगा और जिस वेदवाक्य के आधार पर तुम्हें शंका हुई है, वह भी असत् हो जायगा और उस दशामें तुम्हारी शंका भी अपने आप निरस्त हो जायगी - व्यर्थ हो जायगी.
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इसलिए वह वेदवाक्य अभाव बोधक नहीं, अनित्यता बोधक है. जो पृथ्वी आदि पंच महाभूत सबको प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उन्हें स्वप्नवत् असत् (अभावरूप) मानना केवल भोलापन है". यह सुनकर महापण्डित व्यक्तजी ने भी अपने पाँच सौ छात्रों के साथ आत्मासमर्पण कर दिया. प्रभुने सबको प्रव्रज्या दे दी. व्यक्तजी को "त्रिपदी" का ज्ञान देकर चतुर्थ गणधर के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया. व्यक्तजी ने भी प्रथम तीन गणधरोंके सामान द्वादशांगी की रचना की धन्य हो गया उनका जीवन. पाँचवें महापण्डित 'सुधर्मा जी भी अपने पाँच सौ छात्रों के साथ अपनी शंका का समाधान पाने के लिए सहर्ष समवसरण में जा पहुँचे. प्रभुने उन्हें देखते ही कहा :- "हे सुधर्मा । जिस वेदवाक्य के आधार पर तुम्हें शंका हुई, वह इस प्रकार है :- "पुरुषो वै पुरूषत्व - मश्नुते पशु : पशत्वम" इस वाक्य से तुम यह समझते हो कि परूष मरने पर परूष ही अगले जन्ममें बनता है और पशु मरकर पशु ही बनता है. जैसे गेहुँ बोने से गेहूँ पैदा होता है और चना बोनेसे चना - आम से आम पैदा होता है
और नींबू से नींबू. परन्तु वेद में अन्यत्र कहा गया है :- "शृगालो वै जायते यः स पुरूषो दस्यते ॥" (जो पुरूष जलाया जा रहा है, वह सियार बनेगा) इससे मालूम होता है कि पुरूष पशु भी बनता है.. ऐसी दशामें वास्तविकता क्या है ? दोनों बातें परस्पर विरूद्ध है इसलिए दोनों सच्ची नहीं हो सकती. किस ऋचा को झूठी मानें और किसको सच्ची ? यही है न तुम्हारी शंका ?" सुधर्माजी ने कहा :- ‘हाँ प्रभो । आप ठीक फरमाते हैं. मेरे हृदयमें यही शंका है. मुझे समझमें नहीं आ रहा है कि जब पुरुष मरकर सियार बन सकता है तो ऐसा क्यों कहा गया है कि पुरूष मरकर पुरूष ही होता है और पशु मरकर पशु ही होता है ? दोनों वाक्योंमें संगति क्या है ? यदि पहली ऋचाका अर्थ समझने में मुझे भ्रम हुआ हो तो आप वास्तविक अर्थ समझाकर मेरा संशय मिटाने की कृपा करें." महावीर स्वामी :- हे सुधर्मा । "पुरूषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशु : पशुत्वम् ।" इस वेदवाक्य का आशय यह है कि मनुष्य भी यदि आर्जवमार्द वादि
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गुणों से युक्त हो कर मनुष्य बनता है और पशु भी यदि प्रमाद क्रूरता आदि गुणों से ऊपर न उठ पाये तो मरकर पशु बनता है. इसका आय ऐसा नहीं है कि मनुष्य मरकर मनुष्य ही बनता है और पशु मरकर पशु ही बनता है, अन्यथा "मनुष्य मरकर सियार बनेगा" ऐसा नहीं लिखा
जाता.
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दूसरी बात यह है कि आम बोनेसे आमका पेड़ लगेगा और नींबू से नींबूका. ऐसी जो युक्ति तुम्हारे मस्तिष्क में छाई हुई है, वह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि मनुष्य की विष्ठा में कीड़े ( जन्तु) पैदा होते हैं और गोबर
बिच्छू । इसलिए यही मानना चाहिये कि जो जैसा व्यवहार करेगा, उसीके अनुसार अगले जन्ममें वह मनुष्य या पशु बनेगा. जो मनुष्य बनना चहता हो, उसे मनुष्योचित गुणों को अपनाना चाहिये, अन्य था मर कर उसे पशु बनना पड़ेगा यही प्रेरणा उस ऋचासे दी गई है.
यह सुनकर शंका का समाधान हो जाने के कारण सुधर्माजीने भी आत्म-समर्पण कर दिया. उनके पाँच सौ छात्रोंने भी उनके साथ दीक्षा ग्रहण की. प्रभुके द्वारा प्रदत्त "त्रिपदी" के आधार पर उन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की. प्रभुने उन्हें पंचम गणधर के रूप में प्रतिष्ठित किया.
छठवें महापण्डित मण्डित जी भी अपने साढ़े तीन सौ छात्रों के समुदायके साथ समवसरण में पहुँचे. प्रभुने उनसे कहा :- "हे मण्डित । जिस वेदवाक्यके आधार पर बन्ध मोक्षके विषय में तुम्हें शंका उत्पन्न हुई
थी, वह इस प्रकार है । स एष विगुणो विभुर्न बध्यते, संसरति, मुच्यते, मोचयति वा ॥ (वह यह विगुण विभु न बँधता है, न संसार में जन्म-मरण पाता है, न मुक्त होता है और न मुक्त करता है) इससे तुम समझने लगे कि बन्ध - मोक्ष का अस्तित्व शायद नहीं है. ढीक है न ?"
मण्डित :- "जी हाँ । यही है मेरी शंका. कृपया मेरा समाधान कर अनुगृहीत करें".
प्रभु :- "इस वेदवाक्यमें 'विगण' और 'विभु' शब्दों के अर्थ पर तुम्हारा ध्यान नहीं गया. विगुणका अर्थ है - त्रिगुणातीत अथवा विशिष्ट गुणसम्पन्न अथवा विगत (नष्ट) हो गये हैं छाद्मस्थिक गुण जिन के-ऐसे सिद्धदेव के विषयमें यहाँ कहा गया है: क्यों कि वे ही विभु केवल ज्ञान
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से विश्वव्यापक है कर्म रहित होने से वे संसार में न बँधते हैं, न जन्म-मारण के चक्कर में पड़ते हैं. वे मुक्त भी नहीं होते (क्यों कि जो बद्ध होता है, वही मुक्त होता है. वे तो पहले ही मुक्त हो चुके है. मुक्त को मुक्त होने की क्या जरूरत?) और वे किसी को मुक्त भी नहीं करते (वे अरिहन्त अवस्थामें भी केवल मुक्तिका मार्ग बताते हैं. उस मार्गपर चलकर जीव स्वयं ही मुक्त होता है). जहाँ तक संसारी देहधारी जीवोंका सवाल है, वे तो शुभाशुभ कर्म के अनुसार संसार में जन्म-मरण पाते है - बँधते हैं और मुक्त भी अन्तमें होते हैं : इसलिए कर्मबन्ध और मोक्ष-दोनों का अस्तित्व है ही. यदि ये दोनों न हों तो मुक्ति प्ररूपक समस्त धर्मशास्त्र, समस्त धर्मोपदेश और समस्त धार्मिक कार्य व्यर्थ हो जायें. पुण्य-पाप के फलस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवमें आने वाले सुख-दुःख भी असत्य हो जायँ, बीज और अंकुर की तरह जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादिकालीन है. जीव कर्म से शरीर को और शरीर से कर्म को उत्पन्न करता है और मकड़ी की तरह अपने लिए जाला बुनकर स्वयं ही उसमें फँसता है-बँधता है तथा सुदेव-सुगुरू-सुधर्म की भक्ति द्वारा आत्म शुद्वि करके स्वयं ही मुक्त भी हो जाता है." संशय मिटते ही महापण्डित मण्डितजी ने भी अपने छात्र समुदाय सहित प्रभुके चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया दीक्षित होकर द्वादशांगी की रचना प्रभुप्रदत्त "त्रिपदी" के आधार पर की.
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अब सातवें महापणिडित 'मौर्यपुत्र' की बारी आई. उनसे पहले छह पण्डित जब अपना अपना संशय मिटाकर दीक्षित हो गये, तब वे भला पीछे कैसे रह जाते । अपने साढे तीन सौ छात्रोंके समुदाय को साथ लेकर वे भी प्रसन्नता पूर्वक समवसरण में जा पहुँचे. प्रभुने कहा : "हे मौर्यपुत्र । घेद में एक वाक्य आता है को जानाति मायोपमान गीर्वाणान् इन्द्रयमकुबेरवरूणादीन् ॥ (इन्द्र, यम, कुबेर, वरूण आदि मायोपम देवों को कौन जानता है ?) इससे तुम समझते हो कि देवों का कोई अस्तित्व नहीं है. माया (इन्द्र जाल या जादू) की तरह वे दिखाई देते हैं : परन्तु है नहीं. साथ ही वेदमें अन्यत्र लिखा है स एष यज्ञायुधो यजमानो ऽ जसा स्वर्लोकं गच्छति ॥ (वह यह यज्ञ साधन वाला यत्र मान शीघ्र ही स्वर्गलोक में जाता है) चूँकि स्वर्गलोकमें देवों का निवास है इसलिए देवोंका अस्तित्व मालूम होता है. इसलिए तुम्हें शंका है कि देवोंका अस्तित्व मानना चाहिये या नहीं, ढीक है न ? मौर्यपुत्र :- हाँ प्रभो। आप सचमुच सर्वज्ञ हैं वर्षों से मेरे मनमें देवों के अस्तित्व पर शंका बनी हुई है. यह भीतर ही भीतर मुझे खटकती रहती है, इस शंका का समाधान कर मुझे अनुगृहीत करें ।" प्रभु महावीर :- हे मौर्यपुत्र । देवों के अस्तित्व के विषयमें तुम्हारी शंका व्यर्थ है : क्यों कि इस समवसरण में तुम देवों को प्रत्यक्ष देख ही रहे हो. प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती. वेदके उस वाक्य में जो देवोंके लिए "मायो पमान्" विशेषण आया है, उसका आशय यह है कि देवोंका सुख भी शाश्वत नहीं है. "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ॥" जब उनका पुण्य समाप्त हो जाता है तब देवलोक का त्याग करके वे मनुष्यलोक में प्रविष्ट होते है - यहाँ आकर उत्पन्न होते है. जैसे माया (जादू) के दृश्य अनित्य है, वैसे देवलोक के सुख भी अनित्य है : वहाँ की निकृष्ट आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु तैतीस सागरोपम है. आयु पूर्ण होने पर देवलोक अनिवार्य रूपसे छूट जाता है, परन्तु यह बल "को जानाति?" कौन जानता है ? कौन इस
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ओर ध्यान देता है ? अधिकांश लोग देवलोक पानेके लिए ही जीवन-भर । शास्त्रविहित पुण्यकार्य करते रहते हैं. शाश्वत सुख देने वाले मोक्षके लिए बहुत कम लोग जो देवलोक की अनित्यताको जानते हैं, वे ही लोग प्रयास करते है. हे मौर्यपुत्र । देवलोककी प्राप्ति किन-किन कार्यों से होती है ? इसका विस्तृत विधान वेदों में पाया जाता है. सो वह भी देवलोक के अस्तित्व का एक प्रमाण है. संसार में सर्वथा सुखी कोई नहीं है, सुख भी है दुःख भी है. सुख पुण्यका फल है और दुःख पापका. केवल पापका फल भोगने के लिए जैसे नरक है, वैसे ही केवल पुण्यका फल भोगने के लिए भी कोई स्थान होना चाहिये. वही स्वर्ग है. मौर्यपुत्र :- "प्रभो । देव स्वेच्छाविहारी होते हैं, फिर भी यहाँ प्राय : नहीं आते (बहुत कम आते हैं) ऐसा क्यों ?' महावीर स्वामी :- "हे मौर्यपुत्र । यहाँ बार-बार न आने के अनेक कारण है. मुख्य ये हैं : (१) यहाँ आनेका कोई खास प्रयोजन बार-बार नहीं आता (२) स्वर्ग की तुलनामें मर्त्यलोक उन्हें नहीं सुहाता - यह दुःख और दुर्गन्धसे भरा हुआ लगता है. मौर्यपुत्र :- "हे प्रभो । वे कौन से कारण हैं, जिनसे देव यहाँ आते है ?" महावीर प्रभु :- "हे वत्स । देवों के आनेके कुछ कारण ये हैं :१. तीर्थंकर देवों का जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण आदि महोत्सव मनाने के लिए। २. समवसरण की रचना के लिए । ३. केवल ज्ञानियों से पूछ कर अपना संशय मिटाने के लिए ४. ममताके कारण पूर्वभवके रिश्तेदारों से मिलने के लिए। ५. किसीको दिये हुए वचनकी पूर्ति के लिए। ६. विशिष्ट तपोऽनुष्ठान, मन्त्र आदि के अधीन होनेके कारण भक्तों से मिलनेके लिए। ७. कीडा - कौतुक के लिए।
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८. सत्त्विक स्त्री पुरुषों की धार्मिकताकी परीक्षाके लिए ।
ऐसे ही प्रयोजनोंसे देव यहाँ कभी-कभी चले आते हैं अन्यथा नहीं."
प्रभुके वचन सुनकर मौर्यपुत्र निःसंशय बन गये.
आज भी लाखों व्यक्तियों को देवों के विषयमें संशय है. वह संशय तभी मिटता है, जब कोई चमत्कार दिखाने वाला मिल जाता है. साधनासे सिद्धि मिलती है.
मेरे एक मित्र हैं. उन्होंने सैकडों व्यक्तियों के सामने एक प्रयोग दिखाया. पच्चीस-तीस फुटकी दूरी पर एक बड़ा बर्त्तन रखा गया. बर्त्तन बिलकुल खाली था. किसीने अपने घरसे लाकर रख दिया था. फिर बोले :"जिसे जिस वस्तुकी जरूरत हो, वह माँग ले."
दस आदमियोंने अलग-अलग दस वस्तुएँ माँग लीं. मित्रके कहने पर एक कपड़े से वह बर्त्तन ढँक दिया गया. एक सेकंड बाद कह दिया कि कपड़ा हटा कर जिसने जो वस्तु माँगी है, उसे वह दे दो, उस बर्तन (बड़े भगोने) में वे दसों वस्तुएँ मौजूद थीं, जिनकी माँग की गई थी. वहाँ के एडिशनल कलेक्टर भी उस प्रयोगको देख रहे थे. वे बोले :- "यह कोई ट्रिक (चालाकी) भी हो सकती है. यदि आप मेरी इष्ट वस्तु मँगवा दें तो मैं मान लूँ कि देव आपके वश में है."
मित्रने कहा :- "कहिये, आप कौन सी चीज़ चाहते हैं ?"
कलेक्टरने कहा :- "मेरी अमुक चीज़ घर पर सेफमें रखी है और उसकी चावी मेरे पास है क्या उसे आप यहाँ मँगाकर दिखा सकते है ?"
मित्रने मुश्किलसे आधा मिनिट ध्यान किया और अपनी मुट्ठी खोलकर बतला दी - "यही चीज है न आपकी ?"
उन्होंने फौरन कान पकड़ लिये और नास्तिक से आस्तिक बन गये. यह तो मेरी आँखों देखी बात है, मित्रने मुझे सारी बात अच्छी तरह समझाई. बहुत सरल - सी प्रकिया है, जिसमें बहुत स्वल्प साधना की जरूरत पड़ती है. मात्र हम अपनी साधु अवस्थामें यह सब कर नहीं सकते. एक उदाहरण राष्ट्रपति भवन का है. यह सन् १९५४ की घटना है, जो "धर्मयुग" और "टाइम्स ऑफ इंडिया" में प्रकाशित हो चुकी है. र्डा. राजेन्द्र
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प्रसाद उस समय राष्ट्रपति थे और पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमन्त्री. दोनों उस समय राष्ट्रपति भवन में मौजूद थे. एक व्यक्तिने डॉ. राजेन्द्रप्रसाद से कहा कि ऊपर की मंजिलमें जाकर आप एक कागजपर कुछ भी लिख दीजिये. मैं बता दूंगा कि आपने क्या लिखा है. वैसा ही किया गया. सीलबन्द लिफाफेमें अपना लिखा हुआ कागज ऊपर रख कर राष्ट्रपतिजी नीचे आ गये. उस व्यक्तिने एक कागज उढाकर वह पूरा मैटर ज्यों का त्यों लिखकर उनके हाथमें थमा दिया-मानों उसकी कार्बन कॉपी हो. पंडित नेहरू ने पूछा :- "भला बताओ, यह मैटर हू-ब-हू तुमने कैसे लिखा दिया ?" व्यक्तिने कहा :- "जैसे आपकी साइन्स है, वैसे हमारी भी साइन्स है. हमारी साइन्स आप नहीं समझ सकते." पं. नेहरू :- "क्या तुम मेरे मनके विचार पकड़ सकते हो ?" व्यक्ति बोला :- "बिल्कुल लीजिये, मैं आपके मनके विचार एक कागज पर लिखकर दे रहा हूँ पढ़ लीजिये." उस समय नेहरूजी का मन बहुत चंचल हो गया था, ऐसे चंचल मनको पकड़ने में उस व्यक्ति को कुछ कठिनाई जरूर हुई. परन्तु किसी भी तरह मनके विचार कागज पर उतार कर दे दिये. कागज़ पढ़कर नेहरूजी बहुत चकित हुए, उन्होंने अपने मनके अकस्मात् चंचल होने की बात भी स्वीकार की. ऐसे कई व्यक्ति मेरे परिचय में है, जिन्हें ऐसी अलग-अलग सिद्धियाँ प्राप्त
राष्ट्रपति भवन की ही एक घटना और है. उस समय लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री थे और राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर रहे थे डॉ राधाकृष्णन्. एक पाँच वर्ष के ब्राह्मण बालक ने वहाँ सबके सामने उदात्त अनुदात्त स्वरोंके साथ वेदकी अनेक ऋचाओं का मौखिक पाठ सुनाया. उसे सारे वेद कण्ढस्थ थे. बड़े-बड़े पंडितोंने पाठ सुनकर (उस बालकके मुँहसे ऋचाओंका उच्चारण सुनकर) चकित और प्रसन्न होते हुए यह स्वीकार किया कि इतना अच्छा पाठ तो हम भी नहीं कर सकते । वह 'छोटा-सा बालक लिखना बिल्कुल नहीं जानता था. बोलने में भी
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अशुद्धियाँ कर जाता था : परन्तु वेदोका पाठ बिल्कुल शुद्ध करता था. पूर्व भवके संस्कारोंका यह प्रभाव था. इससे आत्मा की नित्यता और उसके पुनर्जन्म की सिद्धि होती है. एक घटना महाराष्ट्रकी सुनिये. कोल्हापुरके पास ईचलकरंजी में एक श्रावक रहते थे - श्री रूपचंदजी. सांगली-बैंक के डायरेक्टर थे.- पढ़े लिखे थे - बुद्धिमान् थे. उन्होंने एक नया भवन बनवाया था । रहने के लिए. जब घूमने-फिरने के लिए भवन से सब लोग बाहर निकलते थे, उनके भवन में अकस्मात् आग लग जया करती थी. हजारों रूपयों के मूल्यका सामान जल चुका था. निपाणी के निवासी डी. सी. शाहने मुझसे कहा :- "महारज । श्री रूपचंदजी के नये बँगलेमें कोई भूतप्रेतका चक्कर है. उसका आप कोई उपाय करें, जिससे निर्भय और निश्चिन्त होकर वे शान्ति से उसमें रह सकें" मेरे जीवन में पहले ऐसा कोई प्रसंग नहीं आया था. फिर भी मैं वहाँ गया. बड़ा आलीशान बँगला बना हुआ था. श्रावक रूपचंदजी ने जली हुई चीजें बताईं, उन्होंने कहा :- "इस उपद्रवसे हमारे परिवारको कोई कष्ट नहीं है, परन्तु ज्यों ही रूम बन्द करके हम बाहर जाते हैं कि अकस्मात् चीजों में आग लग जाती है - फर्नीचर जल गया - टी.वी. जल गया पासपोर्ट गुम गया. बहुत सा नुकसान हुआ हम यदि यहाँ रहना छोड़ दें तो इतने सुन्दर बँगलेको कोई एक रूपये में भी खरीदने को तैयार न होगा : इसलिए हमको ही रहना पड़ रहा है". मैंने कहा :- "आपकी भूमि अशुद्ध होगी या यहाँ किसी की कब्र दब गई होगी, आप खोजकरके इस बातका पता लगाइये." म्युनिसिपैलिटी में पुराना रिकार्ड देखने पर पता लगा कि सचमुच वहाँ किसी की कब्र दब गई थी. मेरा अनुमान ठीक निकला. मैंने उनसे कहा :- "शान्तिस्नात्र पढवाओ और एक चबूतरा बनवाकर उस पर चिराग जलाओ चिराग से पीर-फकीर बड़े खुश होते हैं. इससे उस आत्माको सन्तोष हो जायगा." यही उपाय किया गया. उपद्रव बन्द हो गया शान्तिस्नात्रसे आत्मा शान्त हो गई. चिराग़ से सन्तुष्ट हो गई.
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ऐसे तो बहुत से प्रसंग हैं कितना क्या क्या सुनाऊँ ? यदि कोई वैसा परिचित व्यक्ति मिलने आ गया तो आपको प्रेक्टिकल करके हि बतलाऊँगा. अपनी आँखोंसे चमत्कार देखने के बाद आपको भी देवों के अस्तित्व पर विश्वास हो जायगा.
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देवों के अस्तित्व के विषय में संशय मिटते ही श्री मौर्यपुत्रजीने भी अपने साढ़े तीन सौ छात्रोंके साथ आत्मसमर्पण कर दिया. प्रभुके द्वार दिये गये त्रिपदी के बोध से उन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की. प्रभु ने सातवें गणधरके रूपमें उन्हें प्रतिष्ठित किया.
आठवें 'अकम्पित' जी भी समवसरण में पहुँचे. प्रभुने उनसे कहा :- हे अकम्पित । "न ह वै प्रेत्य नरके नारकास्सन्ति ॥" ( मरने के बाद नरकमें नारक नहीं हैं) तथा "नारको वै एष जायते यः शूदान्नमश्नाति ||" (जो शूद्र का अन्न खाता है, वह नारक बनता है) इन परस्पर विरूद्ध वेदवाक्यों से तुम्हारे मनमें यह संशय उत्पन्न हो गया है कि वास्तवमें नारक (नरक निवासी जीव) होते भी हैं या नहीं ? ढीक है न ?
अकम्पितजी: हाँ, प्रभो। आप तो मेरे हृदय में छिपी शंका ही नहीं, उसका कारण भी जानते हैं. आप सचमुच सर्वज्ञ है. मेरी शंका निराकरण कर मुझे अनुगृहीत करें.
प्रभु :- "हे अकम्पित । उस वेदवाक्य का आशय यह है कि नरक में नारकों का जीवन भी शाश्वत नहीं है, कर्मफल भोग चुकने पर उन्हें नरक छोडना पडता है. उसका आशय यह भी है कि नारक प्रेत्य (मरकर) नारक नहीं बनते. जैसे अत्यन्त पुण्य कर फल भोगने के लिए (स्थान) देवलोक है, वैसे ही अत्यन्त पापों का फल भोगने के लिए नरक है. फिर इन्द्रिय प्रत्यक्ष की अपेक्षा अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष अधिक प्रामाणिक होता है. मकान का झरोखा कुछ नहीं देखता मकानका मालिक ही देखता है. जिन्हें अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष हुआ है, नरक का वर्णन करते है. दूसरी बात यह है कि हंस, सिंह आदिका प्रत्यक्ष सबको आसानी से नहीं होता, फिर भी उन्हें कोई अप्रत्यक्ष नहीं मानता, क्योंकि कोई उनका प्रत्यक्ष कर चुका है. तुमने भी समस्त देश, समुद्र नगर, ग्राम आदि नहीं देखे हैं, फिर भी दूसरों के प्रत्यक्ष होने के कारण तुम उन्हें प्रत्यक्ष मानते हो, यही बात नारकों के विषय में समझो वे मुझे प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं".
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यह सब सुनते ही अकम्पितजी का संशय भी मिट गया. अपने तीन सौ । छात्रों के समुदायके साथ उन्होंने भी प्रभु के चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया. प्रभुने सबको दीक्षित करने के बाद अकम्पितजी को त्रिपदी का ज्ञान दिया. उस ज्ञानके आधार पर उन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की. प्रभुने उन्हें आठवें गणधरके रूप में सर्वत्र प्रतिष्ठित किया. अकम्पितजी का जीवन धन्य हो गया. उन्हें हमारा कोटिशः वन्दन.
तारक भी मारक भी सत्ता, शक्ति और संपत्ति - तारक भी है और मारक भी । जैसे दियासलाई से अग्नि प्रज्वलित कर खाना भी पकाया जा सकता है और आग लगाकर विनाश भी किया जा सकता है, वैसे ही सत्ता, शक्ति एवं संपत्ति का सदुपयोग कर समाज एवं देश गौरव भी बढ़ाया जा सकता है तथा उनका दुरुपयोग कर प्रतिष्ठा पर पानी भी फिराया जा सकता है.
शंका का अन्त शान्तिका प्रारंभ है सन्तुष्ट मनवाले के लिए सदा सभी दिशाएं सुखमयी है जैसे जूता पहनने वाले के लिए कंकड़ और काँटे आदि से दुःख नहीं होता.
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वातावरण
यदि तुम धूप में बैठे हो तो उसकी उष्णता से कैसे बच सकोगे ? यदि तुम अग्नि के समक्ष बैठे हो तो उसके ताप से कैसे बच सकोगे ? इसी प्रकार यदि क्रोध और वैमनस्य के वातावरण में जी रहे हो, तो उसके उत्ताप और बैचैनी से कैसे बच सकोगे ? पानी के किनारे पर एवं वृक्ष की छाया में बैढनेवाला जैसे शीतलता एवं शांति अनुभव करता है, वैसे ही क्षमा एवं विरक्ति के वातावरण में पलपनेवाला सदा शांति एवं प्रसन्नता अनुभव करता है । हमें केवल शारीरिक शक्ति ही अर्जित नहीं करनी हैं, शक्ति के साथ यह ज्ञान भी चाहिए कि शक्ति वही अच्छी है जो सद्गुण, शक्ति, पवित्रता सब पर उपकार करनेकी प्रेरणा तथा प्राणी मात्र के प्रति प्रेम से युक्त हो ।
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१२.
अथ पुण्ये सन्दिग्धम्,
द्विजमचल भ्रातरं विबुधमुख्यम् ।
ऊ विभुर्यथार्थम्
वेदार्थं किं न भावयसि ?
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(अचलभ्राता नामक ब्राह्मण महापण्डितसे, जिसे पुण्य के विषयमें सन्दह था, प्रभु महावीर ने कहा- "तुम वेदवाक्य का ठीक अर्थ (वास्तवविक आशय) क्यों नहीं समझते ? " )
नौवें महापण्डित 'अचलभ्रता' भी अपने तीन सौ छात्रों के समुदायको साथ लेकर अपना संशय मिटाने के लिए प्रभु महावीर स्वामी के समवसरण में पहुँचे.
केवल ज्ञान से वे सबके मनकी शंका आधार सहित जान लेते थे. अचलभ्राता के मनकी शंका जानकर वे बोले:- है सौम्य । वेदोंमें एक जगह लिखा है - पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ॥ (जो कुछ हो चुका है और जो कुछ होने वाला है, वह सब पुरुष ही है ) इससे मालूम होता है कि पुण्य नामक कोई तत्त्व नहीं है, किन्तु दूसरी जगह वेदमें लिखा है - पुण्यं पुण्येन कर्मणा || ( पवित्र कार्य से पुण्य होता है) इसमें पुण्य की बात कही गई है, इसलिए तुम्हारे मनमें यह शंका है कि "पुण्य' तत्त्व वास्तवमें है भी या नहीं ठीक है न ?
अचलभ्राता:- हे प्रभो । आप तो अन्तर्यामी है वर्षों से अन्तस्तल में छिपी हुई मेरी शंका को आपने ठीक-ठीक जान लिया है, मैं सोचता हूँ कि व्यक्ति ज्यों-ज्यों पाप से मुक्त होता जाता है, त्यों-त्यों सुख पाता जाता है, इसलिए जब समस्त पापों से वह मुक्त हो जाता है, तब अनन्त सुख या मोक्ष सुख पा जाता है. इस प्रकार केवल पाप तत्त्व मानने से ही जब अपना काम चल जाता है, तब व्यर्थ 'पुण्य' नामक एक और नये तत्त्व को स्वीकार करने से क्या लाभ ?
प्रभु ने कहा:- हे वत्स । उस वेद वाक्य में पुरुष (आत्मा) की प्रशंसा की गई है. उसे त्रैकालिक नित्य अमर माना गया है, परन्तु निषेध किसीका नहीं किया गया है. यदि उसमें पुण्य तत्त्वका उल्लेख नहीं है तो निषेध भी नहीं है. उसमें ऐसा कहाँ लिखा है कि पुण्यतत्त्व नहीं होता ? यदि
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पुण्यतत्त्व का अस्तित्व न होता तो आगे चलकर "पुण्यः पुण्यने कर्मणा ॥" ऐसा क्यों लिखा जाता ? जैसे अपवित्र कार्यों से पाप होता है, पवित्र कार्यों से पुण्य भी होता है. आत्मा नित्य है. वह अनित्य शरीर के द्वारा संसारमें भटकती हुई संचित पुण्य पाप के अनुसार सुख-दुःख पाती रहती
जब-जब व्यक्ति पुण्य कर्म करता है, तब-तब उसकी परत आत्मा पर चढ़ जाती है और जब-जब वह पाप कर्म करता है, तब-तब उसकी भी परत आत्मा पर क्रमशः चढ़ती जाती है. अगले भवमें शरीर तो नया मिलता है., परन्तु पुण्य-पाप की परतों वाली आत्मा वही रहती है. उस भवमें जब पुण्य की परत खुलती है (पुण्योदय होता है) तब आत्मा को अनुकूल परिस्थितयोंके साथ सुख प्राप्त होता है और जब पापकी परत खुलती है तब आत्माको प्रतिकूल परिस्थियोंके साथ दुःख प्राप्त होता है. जैसे पापका फल भोगना अनिवार्य है, वैसे पुण्यका फल भोगना अनिवार्य है. एक लोहेकी बेड़ी है तो दूसरी सोने की. परन्तु बन्धन दोनों हैं. जैसे अपने खुले शरीर पर तेलकी मालिश करके कोई व्यक्ति सड़क पर बैठ जाय तो तेलके परिमाणमें पुण्य-पाप की रज चिपकती रहेगी. जो राग द्वेषसे मुक्त हो जाता है, उसकी आत्मा पर कर्मरज नहीं चिपकती. पापका संपूर्ण क्षय होने पर भी यदि आत्मा पर पुण्य की रज चिपकी हुई हो तो उसे भोगने के लिए उसे देवलोकमें जन्म लेना पडेगा., इसलिए तुम्हारा यह भ्रम है कि केवल पाप तत्त्व माननेसे ही काम चल सकता है." इस प्रकार प्रभु के वचनोंसे सन्देह मिट जाने के बाद अचलभ्राताने भी अपने छात्र-समुदाय के साथ आत्मसमर्पण कर दिया सबको दीक्षित करनेके बाद अचलभ्रताको प्रभुने त्रिपदीका ज्ञान दिया. उसके आधार पर उन्होंने द्वादशांगी की रचना की. प्रभुने उन्हें नौवें गणधर के रूप में प्रतिष्ठित किया.
अथ परभवसन्दिग्धम्
मेतार्यं नाम पण्डितप्रवरम् । ऊचे विभुर्यथार्थम्
वेदार्थ किं न भावयसि ?
.....
.....
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FD (फिर परलोकके अस्तित्व पर जिसे सन्देह था, उस पण्डितराज मेतार्यसे ।
प्रभुने कहा कि वेदों का तुम वास्तविक अर्थ क्यों नहीं समझ लेते ? (वास्तविक अर्थ समझने पर ही तुम्हारा सन्देह मिट सकेगा., अन्यथा नहीं) दसवें महापण्डित मेतार्य भी अपने तीन सौ छात्रोंके समुदायके साथ प्रभुने इनसे कहा:- हे मेतार्य । परलोक है या नहीं ? ऐसा सन्देह तुम्हारे मनमें जिन पदों के आधार पर उत्पन्न हुआ था, सो ये है- विज्ञानघन एवै तेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवान विनाशयति, न प्रेत्य संज्ञास्ति ।। (विज्ञानघन ही पृथ्वी आदि पाँच महाभूतों से उत्पन्न होकर उन्हीमें विलीन हो जाता है. मरनेके बाद कोई संज्ञा (अस्तित्व) नहीं रहती) किन्तु इस वेदवाक्य का वास्तविक अर्थ यह है कि ज्ञानकी पर्यायें ज्ञेयके परिवर्तन के साथ परिवर्तित होती रहती हैं. इस वेदना वाक्यमें परलोक का निषेध नहीं किया गया है. एक अनुमान प्रमाण है- अस्ति परलोकः, इहलोकस्य अन्य थानुपपत्तेः । परलोक का अस्तित्व है., क्योंकि इहलोक (वर्तमान भव) की अन्यथा उपपत्ति सम्भव नहीं. यह लोक है तो परलोक भी होना ही चाहिये. जैसे तुम हो तो तुम्हारे पूर्वज (पिता, पितामह आदि) भी हैं ही. बालक जन्म लेते ही स्तनपानके लिए प्रवृत्त होता है. स्तनपानकी शिक्षा उसे किसने दी ? वासनाके बिना प्रवृत्ति पूर्वभवमें प्राप्त शिक्षणका परिणाम है. पूर्वभव न मानने पर जीवॉकी स्थितिमें जो विषमता है, उसके कारण का पता नहीं चलता पूर्वभवमें बाँधे गये शुभाशुभ कर्म ही विषमताके कारण है., इसलिए पूर्वभव है और यदि पूर्वभव है तो परभव भी है, जिसमें इस भवके संचित कर्मोंका शुभाशुभ परिणाम भोगा जायगा. इस प्रकार । भूतकालके अनन्त भव और प्रत्येक के बाद वाले उत्तरभव (परलोक) सिद्ध होते है. प्रभुके इन वचनोंको सुनते ही पण्डितराज मेतार्य का संशय मिट गया अपने तीन सौ छात्रोंके समुदाय के साथ उन्होंने प्रभु के चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया. प्रभु से "त्रिपदी" का बोध पाने के बाद उन्होंने भी द्वादशांगी की रचना की. प्रभुने अपने संघमें उन्हें दसवें गणधर के रूपमें प्रतिष्ठित किया.
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फिर महापण्डित प्रभावजीने सोचा कि जब दस विद्वानोंने सर्वदा प्रभु के पास पहुँचकर अपनी-अपनी शंका का समाधान पा लिया, तब अकेला मै ही क्यों पीछे रहूँ ? क्यों न मैं भी निर्वाणविषयक अपनी शंका का उनसे निवारण करवा लूँ और उन्ही के समान कल्याणपथ का पथिक बन जाऊँ ? इस विचार को कार्यरूपमें परिणत करनेके लिए वे अपने तीन सौ छात्रों के समुदाय के साथ धूम-धामसे समवसरण की ओर चल दिये. प्रभुने 'प्रभास' को ज्यों ही देखा, बोल उठे:- हे प्रभास । “जरामर्यं वा यदग्निहोत्रम्" (अथवा यह जो अग्निहोत्र है, उसे सदा करते रहना चाहिये) अग्निहोत्रका फल स्वर्ग है., इसलिए आदेशानुसार आजीवन अग्निहोत्रः करने पर स्वर्ग से अधिक कुछ नहीं मिलेगा. स्वर्ग अन्तिम प्राप्तव्य मानलिया रह जाता है ? निवार्ण किसे मिलेगा ? क्यों मिलेगा ? अग्निहोत्र से निवार्ण नहीं होता और अग्नि होत्र जीवन-भर करने का आदेश है., इसलिए अग्निहोत्री का जीवन सदा निर्वाण शून्य रहेगा. इससे मालूम होता है कि निवार्ण का अस्तित्व नहीं है., परन्तु दूसरी ओर वेद में यह भी लिखा है- द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च ॥ (दो ब्रह्म हैऐसा जनना चाहिये. एक पर और दूसरा अपर) इससे निर्वाणकी सत्ताभी प्रतीत होती है. ऐसी स्थितिमें वास्तविक क्या है ? निर्वाण है भी या नहीं | यह शंका वर्षोंसे तुम्हारे मनमें छिपी बैठी है. ठीक है न ? प्रभासः जी हाँ । यही शंका है, जो मेरे मनमें अथल-पुथल मचाती रहती है. कृपया इसका निराकरण कर मुझे अनुगृहीत करें. प्रभुः- जरामर्यंवा यदग्निहोत्रम् ॥ इसे वेदवाक्यमें 'वा' अव्यय 'आपि' (भी) के अर्थमें प्रयुक्त हुआ है., इसलिए उस वाक्य का अर्थ हो जाता है- जो अग्निहोत्र है, वह आजीवन भी करते रहना चाहिये. आशय यह हुआ कि जो स्वर्गार्थी है, उसे आजीवन भी अग्निहोत्र करते रहना चाहिये और जो निर्वाणार्थी है, उसे निर्वाण साधक अनुष्ठान आजीवन भी करते रहना चाहिये. वेद के उस वाक्य में निर्वाण का उल्लेख नहीं है तो निषेध भी नहीं है. पुण्य का फल स्वर्ग है, पाप का फल नरक है, पुण्य-पाप के मिश्रण का फल मर्त्यलोक है तो पुण्यपापके सर्वथा अभावका फल भी कुछ होना चाहिये. बस, वही निर्वाण है.
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प्रभासः- हे प्रभो । संसार अनादि है तो वह अनन्त भी होना चाहिये.. जिसकी आदि नही. उसका अन्त कैसे हो सकता है ? और यदि संसार (जन्म-जरा-मरण के चक) का अन्त नहीं तो निर्वाण कैसे हो सकता है ? प्रभुः- हे सौम्य । द्रव्य और पर्याय में भिन्नता है. अनादि द्रव्य (जीव) का अन्त नहीं होता, परन्तु पर्याय का अन्त होता है, क्योंकि वह परिवर्तनशील है. संयोग का भी वियोग होता है. प्रत्येक भवमें शरीरका जीवनसे वियोग तुम्हें समझमें आता है., वैसे ही अनादि कर्म का भी वियोग होता है. प्रत्येक मनुष्य का वंश अनादि है., क्योंकि पिताके बिना पुत्र नहीं होता., फिरभी प्रत्येक को पुत्र होगा ही- ऐसा नियम नहीं है. पुत्र न होने पर अथवा होकर मर जाने पर किसीका वंश (अनादि होते हुए भी) रुक भी जाता है (उसका अन्त भी हो जाता है), उसी प्रकार जीवनके साथ कर्मका संयोग अनादिकाल से है, फिर भी संयम और तपस्यासे-निर्जरासे उस संयोगका अन्तभी हो जाता है. जीवकी कर्मसंयोग रहित शद्ध अवस्था को ही निर्वाण कहते हैं, जीवकी उस अवस्थामें संसार का (जन्म-जरा-मरण के चकका) अन्त हो जाता है. जीव परम ज्ञानी बन जाता है. प्रभासः- हे प्रभो । ज्ञानेन्द्रियोंके अभाव में मुक्तात्मा को परम ज्ञान होता है- यह कैसे मानाजाय ? प्रभुः- ज्ञान आत्मा का गुण है, इन्द्रियों का नहीं. जैसे परमाणु कभी रूपरहित नहीं होता, वैसे ही आत्मा ज्ञानरहित नहीं होती. कर्मों के आवरण से ज्ञानमें बाधा पडती है. वह आवरण हट जाने पर आत्माकी अव्याबाध ज्ञानवस्था प्रकट होती है, यही कारण है कि मुक्तात्मा को परम ज्ञान होता है. मुर्दा शरीर न सुन सकता है, न देख सकता है, न सूंघ सकता है. न चख सकता है और न छ सकता है. जबकि पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसमें नहीं है तो अनुभव कौनकर सकता है ? मुक्ता अवस्थामें जीवको सर्वोत्तम ज्ञान और दर्शन होता है, जिसे केवलज्ञान और केवल दर्शन कहते है. केवल ज्ञान और केवल दर्शनकी प्राप्ति जिसे होती है, वह आत्मा परमानन्द का अनुभव करती है. सर्वोत्तम सुखमें रमण करती है. प्रभासः- हे प्रभो । सुख तो पुण्यका फल है. मुक्तात्मा का पुण्य नष्ट हो जाता है तो उसे सुख कैसे मिल सकता है ?
।
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(eu प्रभुः- सौम्य । पुण्यका फल सुखाभास है, सुख नहीं. जिसे लोग सुख
कहते हैं, वह व्याधिप्रतीकार मात्र है., इसलिए क्षणिक है. खुजलीको खुजलाने से जिस सुखका आभास होता है, वैसा ही संसारका समस्त सुख समझो. खुजलाने से खाज बढती ही है., इसलिए जिससे दुःख बढे, उसे सुख नहीं कह सकते. निर्वाण अवस्थामें सुखका आभास देनेवाला पुण्य नहीं होता, किन्तु सहज आभास स्वाभाविक परिपूर्ण और स्थायी सुख होता है.. इसलिए मानना चाहिये कि परम सुख की अनुभूति करानेवाला निर्वाण है. प्रभुकी वाणी सुनकर प्रभासजीका संशय मिट गया. मोक्षके विषयमें एक शंका आपको भी हो सकती है कि काल अनादिअनन्त है., इसलिए अनन्तानन्तकाल बीत चुका है. उसमें अनन्त जीव मोक्ष गये होंगे ऐसी अवस्थामें मोक्ष भर जनाा चाहिये और संसार खाली हो जाना चाहिये., परन्तु संसार ज़्यों का त्यों आबाद है. यह संसार जीवोसे खाली क्यों नहीं हुआ ? इसका रहस्य भी जैसा मैंने गुरुदेव से सुना है, आपके सामने प्रकट कर देता हूँ. जब-जब जिनेश्वर भगवान से पूछा जाता है कि कितने जीव मोक्ष गये, तब तबा सबसे एक ही उत्तर मिलता है- "निगोदका भी अनन्तवाँ भाग ही अबतक मोक्ष गया है ।'' (इक्कस्स निगोदरस वि, अनन्तभागो य सिद्धिगओ ।।) आप जानते ही है कि पहाड़ की चट्टानें बरसात के जलसे घिसकर रेत बन जाती है. बनी हुई वह लाखों टन रेत नदियों में आनेवाली बाढों में बह-बह कर हजारों वर्षों से समुद्र में मिलती रही है, फिर भी क्या कभी आपने यह देखा कि अमुक पर्वतका शिखर घिसकर गायब हो गया अथवा आठ-दस फुट कम हो गया ? क्या कभी आपने यह देखा कि समुद्र रेतसे भर गया है एवं उसमें और अधिक रेत के लिए जराभी रिक्तस्थान नहीं रह गया है ? ठीक वैसे ही पर्वत की तरह संसार जीवोंसे खाली होता नहीं है और समुद्र की तरह मुक्तजीवोसे मोक्ष भरता नहीं है.
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एक दीपकका प्रकाश पूरे कमरे में फैला रहता है. यदि उसमें क्रमशः सौ दीपक और लगा दिये जायँ तो भी उनके प्रकाशोंमें परस्पर संघर्ष नहीं होगा. प्रकाशसे प्रकाश का मिलन होता रहेगा. ठीक उसी प्रकार मोक्षमें पहुँचनेवाली मुक्तात्माएँ पहले से उपस्थित मुक्तात्माओंकी अनन्त ज्योतिमें विलीन होती रहती है. स्थान पाने के लिए उनमें कोई संघर्ष नहीं होता. संशय मिटते ही प्रभासजीने भी आत्मसमर्पण कर दिया, अपने तीनसौ छात्रों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की और प्रभुसे त्रिपदी का ज्ञान प्राप्त कर द्वादशांगी की रचना की. प्रभुने ग्यारहवें गणधर के रूपमें उन्हें प्रतिष्ठित किया. इस 'गणधरवाद" के फलस्वरूप चरमतीर्थंकर प्रभु महावीरको एक ही दिनमें कुल ४४११ (चार हचार चार सौ ग्यारह) शिष्यरत्नोंकह सम्पदा प्राप्त हई. प्रभुके चरणोंमें कोटिशः वन्दन ।
समाप्त
धोखा 'दगा किसी का सगा नहीं यह कहावत प्रायः सही है जो व्यक्ति दूसरों को धोखा देता हैं, वह स्वयं भी धोखे में फंस कर अपना अहित कर लेता है एक व्यक्तिने 'सर्पदंश' के इन्जेक्शन निकाले. १६ रुपया कीमत रखी फिर भी काफी चले... लोगों को उससे फायदा हुआ... एक व्यक्तिने उसी मार्के पर नकली इन्जेक्शन निकाले, आठ रुपये में बेचना शुरू किया. अब पहलेवाले का कारोबार बन्द पड़ गया. एक दिन नकली इन्जेक्शन बनाने वाले के लड़के को सापने काट लिया. अब असली इन्जेक्शन कहीं मिला नहीं, अत: नकली इन्जेक्शन लगाया पर लड़का नहीं बचा, तब वह सिर पीटकर रोने लगा-'हाय, हाय । मेरा पाप मुझे ही खा गया |||
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मिट्टि के समान बनो
कुछ व्यक्ति मिट्टि की तरह होते हैं, वे किसी भी उपदेश या शिक्षा को • अपने भीतर उतारकर सत्कर्म के नये नये अंकुर पैदा कर जीवन को सरसब्ज बना लेते है. कुछ व्यक्ति पत्थर के समान हृदयवाले होते हैं, उन्हें चाहे जितना उपदेश सुनाया जाय, किन्तु पत्थर की तरह हमेशा सूखा और वीरान ही बना रहता है.
मित्र, तुम अपने हृदय को पत्थर के तुल्य नहीं मिट्टि के समान बनाओ ।
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लक्ष्य के लिए
दीपक पर मंडराते हुए एक लघु शलभ को देखकर प्रणयाकुल व्यक्तिने कहा - "देखो, शलभ की प्रेम-पिपासा । अपने प्रेमी के लिए प्राण न्यौछावर करने के लिए कैसे मचल रहा है ?"
एक उदासीन विरागी ने कहा- "यह तो निरी मूढता है ।रूप मुग्ध मानव की तरह यह भी दीपक की लौ पर मुग्ध बना प्राणों से हाथ धोने जा रहा है ।"
दोनों की बात सुनकर एक वीर साधक बोला- "प्रेम और मोह की भाषा तो तुम्हारी है. शलभ को इससे क्या लेना देना ? यह तो अपने लक्ष्य में समा जाने के लिए मचल रहा है. इसके सामने प्राणों का नहीं - लक्ष काही मूल्य है ।
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प्रसारक एवं निवेदक :
ट्रस्टी गण, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा : ३८२ ००९, जिल्ला : गांधीनगर,
गुजरात. फोन नं. २१३४२
आशीर्वाद दाता :
स्व. गच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री कैलाससागरसूरीस्वरजी म.सा.
प्रेरणा एवं मार्गदर्शन :
महान् प्रभावक पूज्य आचार्य श्री पद्यसागरसूरीस्वरजी म.सा.
संस्था के वर्तमान आयोजन महावीरालय (जिन मंदिर) आ. श्री गुरूगौतमस्वामि का गुरू मंदिर. आराधना भवन (उपाश्रय). ज्ञान मंदिर पुस्तकालय वाचनालय संशोधन केन्द्र कलादीर्ध (संग्रहालय) मुमुक्षु कुटीर यात्रिक गृह भोजन गृह मुद्रणालय
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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा की पवित्र भूमि पर निर्मित होने जा रहे आचार्य श्री कैलाससागरसूरि जैन ज्ञान मंदिर का संक्षिप्त परिचय एंव
आप सब से नम्र अनुरोध अहमदाबाद से मात्र १६ कि.मी. दूर गांधीनगर अहमदाबाद राजमार्ग पर 'श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र नामक संस्था निर्मित हो रही है। अल्प समय में ही यह संस्था अपने निर्माण की आधी यात्रा पूर्ण कर चुकि है । शेष निर्माण कार्य भी पूरी गति के साथ आगे बढ़ रहा है। भगवान महावीर स्वामी के आदर्श सिद्धान्तों का प्रसार-प्रचार एंव प्राचीन जैन साहित्य का संशोधन/प्रकाशन करना/करवाना इस संस्था के प्रमुख उदेश्य है। निर्माण काल से ही यह संस्था अपने उद्देस्यों की पूर्ति के लिये सतत प्रयत्नशील है। इस संस्था में अतिभव्य-सुविशाल व कलात्मक श्री महावीरस्वामी का जिनालाय, साधु भगवन्त जहाँ रहकर अभ्यास, ध्यान, स्वाध्याय, चिन्तन, लेखन आदि कार्य सुविधापूर्वक कर सकें-ऐसा सुन्दर आराधना भवन (उपाश्रय) यात्रिक गृह, भोजन गृह एवं देश-विदेश के विद्वानों के । अध्ययन एवं संशोधनार्थ रहने के लिये स्वतंत्र मुमुक्षु कुटीरों का निर्माण किया जा रहा है। इन सब के अतिरिक्त यहाँ पर दर्शनीय आचार्य श्री कैलाससागरसूरि जैन ज्ञान मंदिर का निर्माण भी निकट भविष्य में होने जा रहा है यह ज्ञान मंदिर आधुनिक वैज्ञानिक साधनों से सुसम्पन्न होगा। इस ज्ञान मंदिर के लिये आज तक हजारों की संख्या में प्राचीन हस्त प्रतों का संग्रह किया जा चुका है। कई अलभ्य-अप्रकाशित गन्थ भी इस संग्रह में विधमान है । प्राचीन ताडपत्रीय गन्थ भी यहाँ अच्छी सख्या में उपलब्ध है । लगभग दो लाख से भी अधिक कई भाषाओं में विभिन्न विषयों की मुद्रित पुस्तकें इस ज्ञान मंदिर में रहेंगी।
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जैन आगम, चरित्र, काव्य, रास, ढाल, चोपाई, ज्योतिष शिल्प आदि साहित्य के साथ-साथ प्राचीन शैली के सुन्दर चित्र, पट्ट, मूर्तिएँ तथा अन्य कलात्मक वस्तुएँ यहाँ के संग्रह की सबसे बडी विशेषता रहेगी। इन सभी दर्शनीय वस्तुओं का कलादीर्घा में प्रदर्शन भी रखा जाएगा । तथा इनकी सुरक्षा व्यवस्था भी वैज्ञानिक ढंग से की जाएगी।
विशेष रूप से यहाँ पर अच्छे विद्वान, प्रचारक, लेखक आदि तैयार करने की योजना है। इस हेतु उस संस्था का स्वतंत्र पाठयक्रम भी होगा । साधु भगवन्त भी यहाँ पर स्थिरता पूर्वक तत्त्वज्ञान, न्याय, व्याकरण आदि का व्यवस्थित अध्ययन कर सकेंगे। देश-विदेश के विद्वान यहाँ रहकर अध्ययन एवं संशोधन आदि कार्य सुविधापूर्वक कर सकेंगे। अप्रकाशित गन्थों के प्रकाशन की व्यास्था भी संस्था द्वारा की जाएगी।
प्राचीन हस्त-प्रतों, कलात्मक वस्तुओं एंव मुद्रित पुस्तकों से समृद्ध यह जैन ज्ञान मंदिर भारत भर में अनोखा एवं अद्वितीय होगा। इस परम पवित्र पुण्य कार्य में आप भी अवश्य ही अपना आर्थिक सहयोग प्रदान कर हमें प्रोत्साहित करें। इस पंजीकृत संस्था को आयकर धारा ८०जी. के तहत कर र-मुक्ति मिली हुई है । संस्था के ट्रस्टी श्री भरतभाई शाह (बी. विजयकुमार) ने भी इस कार्य से प्रभावित होकर हमें अपनी सेवा एवं सुन्दर सहयोग दिया है ।
पुन: आप सभी सज्जनों से नम्र अनुरोध है कि इस विशाल जैन ज्ञान मंदिर के निर्माण कार्य में आप पूर्ण सहयोग देकर जैन समाज के प्रति अपने नैतिक कर्त्तव्य का पालन करें ।
आपका थोड़ा- - सा सहयोग भी हमें बहुत बड़ा बल देगा ।
कार्यालय एव संपर्क सूत्र :
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र,
C/o. हेमन्त ब्रदर्स
सुपर मार्केट, अहमदाबाद
दूरभाष : कार्यालय : ४०१३४४, ४०१४४४, ४०१५४४,
धर : ४४१४४४.
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कोई माने या न मानें यह अरुणोदय आपका ही है हां, यह अरूणोदय आपका ही है मगर यह अरूणोदय जितना आपका है इतने ही आप भी अरुणोदय के ही है और यह सिद्ध करने का कार्य भी आपका ही है, आपकी फर्ज है सहयोग के अरुणोदय पर, हृदय-पध्म विकसित होकर विस्वबन्धुत्वमयी वात्सल्यलता का प्रसारण आप और हमसे (निरन्तर) नित्य अभिषेक रूप होगा.
प्रकाशन की जटिल समस्याओं के बावजूद भी राष्ट्रसंत आचार्य श्री पध्मसागर सूरीस्वरजी म.सा. के प्रवचनों का पुस्तक के रूप में प्रकाशन हिन्दी गुजराती व अंग्रेजी में करते रहे हैं और आगामी अनेत में भी करते रहेंगे.
घर-घर में सदाचार-श्रद्धा-समर्पण की भावनाओं का प्रसारण हमारे सर्वोत्तम साहित्यों से ही संभव है । अरुणोदय फाउन्डेशन के पेट्रनसदस्य, आजीवन सदस्य बनकर दें। सहयोग के दो प्रकार पेट्रन रू ५५५५ (पेट्रन बननेवालों के फोटु होनेवाले दो महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों में गुरूभत्त्म के रूप में प्रगट होंगे आजीवन सदस्य रू. १३६२ (दो प्रकाशन में नामसूचि का प्रसारण होगा.) प्रसारक एवं निवेदक ट्रस्टीगण श्री अरूणोदय फाउन्डेशन
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खुशी की बात
स्नेहपध्म विगत कई वर्षों से मैं प्रतीक्षारत था, राष्ट्रसंत आचार्य गुरूमहाराज श्री पध्मसागरसूरीस्वरजी महाराज के अंतर की भावना पूर्ण हो । एक ऐसे क्षेत्र का निर्माण हो जहां पर ध्यान/ज्ञानकेन्द्र (जिनबिंब-जिना गम) के प्यासे भक्तजन आकर आलोट सके अनंत समुद्रों के जलबिन्दुओं की तरह अनंत करूणा के भंडार विस्व वत्सल भगवान महावीर प्रभु की मंगल प्रतिष्ठा श्री महावीर आराधना केन्द्र कोबा में दिनांक १२-२-८७ को होने जा रही है बड़ी खुशी की बातों का स्पर्श पा रहा हूँ कि परमश्रद्धेय परम पूज्यपाद आचार्य श्री पध्मसागर सूरीस्वरजी महाराज की भावना पूर्ण होने जा रही है प्रभु महावीर स्वामी जब मिले गौतम प्रभुको (गणधर भगवन्तो को) तब खुशी का ठिकाना नही रह पाया था । निर्मलता-निष्कपटता से भरी वात्सल्यपूर्ण वाणी ने जादूसा काम किया. । अहंकार क्षणभर में चूर-चूर हो गया, ज्ञान वात्सल्य का आधार इसमें धरा है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरीस्वरजी महाराज प्रशान्त भूर्ति थे-उनके चरणरजों से जिनके हृदयकमल विकसित हुए हैं वैसे आचार्य श्री पध्मसागरसूरीस्वरजी महराज जिनके मिलने से अब दुनियाभर के विद्वान जैनदर्शन के तत्वों के जिज्ञासु अपने सारे संशय दूर करेंगे यहाँ आचार्य श्री कैलाससागरसूरीस्वरजी जैन ज्ञान मन्दिर, कोबा में आकर बहुमूलयवान प्राचीन ताड़पत्र हस्तप्रतें रत्नमयी मूर्तियाँ, वस्तुएँ तथा हर विषयों के संशोधन के लिए आधार पायेंगे। यहां पर ज्ञानकी प्याऊ का निर्माण एकैक ईंट को दुनियभर से एकत्रित करके आचार्य श्री पध्मसागरसूरिस्वरजीने स्वयं ने किया है. युगों तक अनेक जन इस प्याऊँ पर आकर शीतलता की आहलादकता झेलकर अज्ञान-मोह के घेरे को तोड़कर यह गा उठेंगें "प्रभु तारा जेवू मारे थाq छे. । “प्रभु तेरे जैसा मुझे बनमा है ।" युगों तक ऋणी रहेंगे हम सब आपके
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परमात्मा श्री महावीर स्वामि के द्वारा स्वहस्त से श्री इंद्रभूति गौतम आदि गणधरों की स्थापना
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