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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन
आराधन
श्री महावी
केन्द्र को
कोबा.
॥
अमतं
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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साङ्ख्यदर्शनम्।
महर्षि-श्रीकपिल-प्रणीतम्। विज्ञानभिक्षु-विरचित-भाष्यसहितम्।
पण्डितकुलपतिना
वि, ए उपाधिधारिणा श्रीजीवानन्दविद्यासागरभट्टाचार्येण
संस्कृतं प्रकाशितञ्च ।
हितीयसंस्करणम्।
कलिकातानगरे सरस्वतीयन्ते
मा श्री कैलाममार्ग मरि ज्ञान मंदिर भी महापार जन आराधना केन्द्र, कोवा मा... ई १८८३ প্রকাশক শ্রীজীবানন্দবিদ্যাসাগর বি, এ, ২ নং রমানাথমজুমদারের স্ত্রী কলিকাতা। প্রিন্টর শ্রীক্ষেত্ৰমােহনমুখােপাধ্যায় १४ मा यामाठे वी कलिका।।
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कार
X
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पण्डितकुलपतिः
श्रीataraन्दविद्यासागर भट्टाचार्य्य वि,
ए,
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एतानि मुद्रितसंस्कृतपुस्तकानि ।
4 पापो व्याकरणम् ● अष्टकम् पाणिनीयम्
३ उबादिसूत्रम् सटीक
• कविकल्पद्रुम (धातुपा:)
५ कलापव्याकरणं वा कातन्त्र
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८ धातुरूपादर्शः
• परिभाषेन्दुशेखर सटीक
८ मुग्धबोधव्याकरणम् सटीक
८ वाक्यमञ्जरी (वनाचरैः)
१० वैयाकरणभूषणसार
११ लघुकौमुदीव्याकरणम् १२ लिङ्गानुशासनं सटीक
१३ शब्दरुपादर्थः
२
1.
२
10
२
१५०
१
१५०
10
10
lo
10
10
१४ शब्दार्थरत्वम्
१५ सारस्वतव्याकरण सटीक पूर्वाईम्१ १६ सारस्वतव्याकरणं सटीक उत्तरार्द्धर १७ सिद्धान्तकौमुदी सरलासहिता १० १८ ऋतुसंहार काव्य सटीक
V
१८ काव्य संग्रह मूलमाव २० काव्यसंग्रह सटीक प्रथमभागः २१ काव्यसंग्रह सटीक द्वितीयभागः २२ काव्यसंग्रह सटीक तृतीयभागः २ २१ किरातार्जुनीयकाव्य सटीक १ ॥ ० २४ कुमारसम्भवकाव्यपूर्व खण्ड सटीक ॥ ० १५ कुमारसम्भवकाव्य उत्तरखण्डसटीक ॥ २६ गीतगोविन्द काव्य सटीक
oil
५
३
२
Mo
२७ चन्द्रशेखर चम्प ू काव्य
19
२८ नवोदय काव्य सटीक २८ नैषधचरितम् काव्य सम्पूर्ण सटीक५
३०
. नैषध काव्य नवम सर्ग पय्यन्त सटीक २ ॥ २१ पुष्पवायविलास काव्य सटीक ॥e १२ विन्मोदतरङ्गिणी (चम्प काव्य) ॥ ० १३ भट्टिकाव्य टोकाइयसहित २४ भामिनीविलास काव्य सटीक
१
No
३५ भामिनीविलास चिटोकास |
३६ चम्प ूरामायणम् सटीक
१
३७ (चम्प ूरामायणम्) भोजनम् ॥•
३८ शतकावलिः
३८ माधवचम्प ू काव्य
४० मेघदूत मल्लिनाथकृत टोकासहित
४१ मेघदूत सटीक सुलभ मूल्यकम् . ४२ रघुवंश काव्य सटीक
1.
१॥०
४३ रघुवंश मूलमात्र ७, ८, १२ सर्गा :
·
४४ राजप्रशस्ति सटीक
४५ शिशुपालबधकाव्य सटीक (माघ) २ ४६ गद्यकथासरित्सागर सम्पूर्ण
४७ कादम्बरौ विस्तृतव्याख्यासहिता ४८ दशकुमारचरितमद्यकाव्य सटीक १ ४८ दाविंशत्पुत्तविकासिंहासन १ ५० पञ्चतन्त्रम् विष्णुशर्मकृत सटीक १ ५१ बहुविवाहवाद
10
५२ वासवदत्ता गद्यकाव्य सटोक R ५३ वेतालपञ्चविंशति: ( सरक्षगद्य) No ५४ शङ्करविजय १५०
५५ भोजप्रबन्ध सरख गा
१
५६ हर्षचरित सटीक बाणभट्टकृत २० ५७ हर्षचरितवाणभट्टकृत गद्य ५८ संस्कृत शिक्षामारी प्रथमभागः ६६ संस्कृतशिक्षामझरो द्वितीयभागः ॥ ६० संस्कृतशिचामञ्जरी तृतीयभागः ॥ - ६१ संस्कृतशिक्षा मञ्जरी चतुर्थभागः । ६२ हितोपदेश सटीक
६३ अमरकोष
fa
६४ वाचस्पत्यम् (वृहदभिधान) १०० ६५ मेदिनीकोष
६६ शब्दस्तोममहानिधि:
(७ अनर्धराघवनाटक सटीक [सुरारि] १ ६८ अनर्धराघवनाटक मूलमान
C
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to
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[
२ ]
६९ उत्तररामचरितनाटक मटोक १ | १०३ काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तिवामनकत ॥. ७० कर्परमन्नरोनाटिका सटीक ०१०४ वागभटालङ्कार ७१ चण्ड कौशिकनाटक सटीक ० १.५ सरखतीकण्ठाभरण सटीक १ ७२ चैतन्य चन्द्रोदयनाटक सटीक २ १०६ सङ्गीतपारिजात[सङ्गीतशास्त्र] १६ ७३ धनञ्जयविजयनाटक सटीक । १०७ छन्दीमञ्जरी वृत्तरत्नाकर सटीक ॥ ७४ नागानन्द नाटक सटीक १०८ शुतबोध: (छन्दीयन्य) सौक । ७५ नागानन्द नाटक मूल
१०८ पिङ्गलछन्दः शास्त्र वृत्तिसहित २॥ ९६ प्रबोधचन्द्रोदयनाटक सटीक १ ११. महानिर्वाणतन्त्रम् सटीक ४ ७७ प्रसनराघवनाटक जयदेवकत १ १११ सारदातिलक तन्त्रम् ०८ प्रियदर्शिका नाटिका सटीक ॥ ११२ मन्त्रमहोदधि तन्न सटीक ७६ वसन्ततिलक भाण नाटक ११३ रुद्रयामल तन्त्र ८. बालरामायणनाटक सटीक ३ ११४ इन्द्रमालविद्यासंग्रह ८१ विक्रमोर्वशी नाटक (सटीक) १ ११५ कामन्दकी नौतिसार: ८२ बिद्धशालभचिकानाटिका सटीक॥० | ११६ चाणक्य शतकम् सटीक ८३ वेणीसंहारनाटक सटीक | ११७ शुक्रनीतिसारः सटीक ८४ मल्लिकामारुत नाटक सटीक २ | ११८ गयावाहादिपद्धतिः । ८५ महानाटक हनुमन्नाटक सटीक १॥ | ११६ तुलादानादिपद्धति: (बडायरैः)४ ८६ महानाटकम् (हनुमन्नाटकम्) ॥. १२० धर्मशास्त्रसंग्रह:
१. ८७ महावीरचरितनाटक सटीक १० १२१ वीरमिवीदय (स्मृतिशास्त्र) ५ ८८ महावीरचरितनाटक मूलमाव ॥० / १२२ मनुसंहिता कुम कभक्त टौका८८ मालतीमाधवनाटक सटीक . सहित ४० मालविकाग्निमिवनाटक सटीक १ | १२३ वेदान्तदर्शन सभाष्य सटीक . ८१ मुद्राराक्षसनाटक सटीक १ १२४ भामती (वेदान्त)वाचस्पतिमित्रवत १२ मृच्छकटिकनाटक सटीक १० ! १२५ वेदान्तपरिभाषा २३ रनावलीनाटिका सटीक
१२६ वेदान्तसार सटीक ६४ शकुन्तलानाटक सटीक १ १२० विवेकचूड़ामणि वेदान्त ॥ २५ काव्यप्रकाश मलङ्कार सटीक ४१२८ पञ्चदशौ (सटीक) वेदान्त १० ८६ काव्यादर्श सटीक (अलङ्कार) १ १२६ सिद्धान्तविन्दुसार: (वेदान्त) ॥. २७ काव्य दीपिका अलङ्कार सटीक ॥ १३० पूर्माप्रशदर्शनम् सभाष्य . ८८ कुवख यानन्द अलङ्कार सटीक २ | १३१ मामादर्शन ( भाष्यसहित ) २ १६ चन्द्रालोक प्राचीन अलङ्कार ।। १३२ सांख्य सूत्र अनिसहत्तिसहित ॥ १०. दशरूपकम् ( अलङ्कार) १ १३९ साशासार १.१ साहित्यदर्पण सटौक पखकार१॥ १३४ सांख्य तत्वकौमुदी सटीक २ ११ साहित्यदर्पणम् (मूलमात्र) | १३५ सांख्यकारिका गौड़पादभाष्य ।।
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[३]
१२६ मीमांसादर्शनम् भाष्यसहित १२
१३० मीमांसापरिभाषा
10
१२८ शाण्डिल्यभूव सभाष्य
Do
१३८ नैमिनीय (न्यायमालाविस्तरः ) ६ १४० अर्थसंग्रह (लौगाचिमीमांसा) 10 १४१ न्यायदर्शन सभाष्य सहत्ति १४२ भाषापरिच्छेद: मुक्तावली १४३ भाषापरिच्छेदमुक्तावली दिनकरो१॥
२॥०
॥०
१४४ शब्दशक्तिप्रकाशिका ( न्याय) He
१४५ कुसुमाञ्जलि सटीक (न्याय) 10 १४६ उपमानचिन्तामणिः
夕
110
१४७ आत्मतत्त्वविवेक (वाधिकार) २ १४८ अनुमान चिन्तामणिः सटीक ४ ॥ १४८ तर्कामृत (जगदीशक्कत ) न्याय 10 १५० तर्कसंग्रह दूं अनुवादसहित १५१ पातञ्जलदर्शन ( सभाष्य सटीक ) २ १५२ पातञ्जलदर्शन भोजवृत्तिसहित १ १५३ वैशेषिकदर्शनम् सटीक १५४ सर्वदर्शनसंग्रह: [ दर्शनशास्त्र] १
३
१५५ आथर्वणोपनिषद् सभाष्य
॥०
१
१५६ भारसंहिता समाप्य १५७ ईश केन कठ प्रश्न मुण्ड माण्डूक्ध उपनिषद (सटीक सभाष्य ) १५८ गायत्री व्याख्या १५८ गोपथब्राह्मण (अथर्ववेदस्य ) १६० छान्दोग्य उपनिषद सटीक सभाष्य १६१ तैत्तिरीय ऐतरेय श्वेताश्वतर सभाष्यर १६२ दैवत तथा षड्विंशब्राह्मणसभाष्यर १६३ निरुक्त सभाष्य सटीक १६४ नृसिंहतापनी सभाष्य १६५ बृहदारण्यक सटीक सभाय १६६ मुक्तिकोपनिषत्
१६७ शुक्लयजुर्वेदसंहिता समाच
२
11.
१२
२
७
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१६८ शुक्लयजुर्वेदस्य प्रातिशा
सभाष्य
१६८ सामवेदसहिता सभाष्य
१७० अग्निपुराणम्
१७१ अध्यात्मरामायणम् सटोक
१७२ वाल्कि पुराणम्
१७३ गरुडपुराणम्
१७४ सटीक बाल्मीकिरामायण
बालकाण्डम्
१७५ विष्णुपुराणम् सटीक
१७६ ब्रह्मवैवर्तपुराण सम्पूर्ण
१७७ मत्स्य पुराणम्
१७८ मार्कण्डेयपुराणम् १७८ लिङ्गपुराणम्
२
१८० श्रीमङ्गगवद्गीता सभाष्य सटीक ४ १८१ अष्टाङ्गहृदय (वाग्भट) बैद्यक ३ १८२ चक्रदत्त (वैद्यक) १८३ चरकसंहिता (वैद्यक ) सम्पूर्ण १८४ माधवनिदान सटीक
?".
४
कलिकाता संस्कृतविद्यामन्दिरे वि, ए, उपाधिधारिणः श्रीजीवानन्दविद्यासागर - भट्टाचार्यस्य सकाशात चरनि ।
२
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१०
१
१८५ भावप्रकाश (वैद्यक) १८६ मदनपालनिर्घण्टु: (वैद्यक) १८७ रसेन्द्र चिन्तामणितथारसरताकर १८८ शार्ङ्गधरसंहिता ( वैद्यक ) १८८ सुश्रुतसंहिता सटीक (वैद्यक) १ १८० सुश्रुतसंहिता मूलमात्र (वैद्यक) १९१ चिकित्सासारसंग्रह वज्रसेनकृत ५ १९२ गणिताध्याय: भास्कराचार्यकृत १ १६३ गोलाध्यायः भास्कराचाय्यकृत ॥ ● १८४ वृहत्संहिता वा वाराही संहिता २
१०
५
do
१८५ भावकुतूहल ( ज्योतिष )
१८६ लीलावती भास्कराचार्यरचित ॥ १८७ वीजगणित भास्कराचार्यरचित go 8 १९८ सूर्यसिद्धान्त सटीक
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[ 8 ]
१८८ दायभाग जीमूतवाहनकृत स्मृतिशास्त्र श्रीकृष्णतर्कालङ्कारकृत व्याख्यासहित
२०० अश्वशास्त्र तथा व्यश्ववैद्यक जयदत्तकृत
२०१ आश्वलायन गृह्यसूत्र सभाष्य २०२ अष्टाविंशतितत्त्व स्मृतिशास्त्र रघुनन्दनकृत २०३ प्रायश्चित्तविवेक शूलपाणिकृत स्मृतिशास्त्र सटीक
२०४ गोभिल गृह्यसूत्र
२०५ प्राणतोषिणौ तन्त्रशास्त्र
२०६ कविकल्पलता
२०७ विवादरत्नाकर
२०८ तैत्तिरीय प्रातिशाख्य
२०९ दत्तकचन्द्रिका दत्तकमौमांमा सटीक
२१० मिताचरा ( याज्ञवल्कात ) २११ तत्त्वचिन्तामणिः प्रत्यक्ष खण्ड २१२ आपस्तम्ब श्रौतसूत्रम् २१३ ऐतरेय आरण्यक [ सभाष्य ] २१४ कूर्मपुराण
२१५ देवीभागवतम्
२१६ वाल्मीकि रामायण ( सम्पूर्ण सटीक )
C
२१७ वराहपुराणम्
२१८ महाभारतम् सटोकम्
२१८ हरिवंश (सटीक )
२२० आयुर्वेद विज्ञान १म + २य भाग सम्पूर्ण
१ ॥
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३
MY
IS
२५/०
१८०
१ ॥ ०
५
६
४५०
१ ॥ ८०
३||०
१२
१०
३५.
१०
४
२२१ भैषज्यरत्नावलौ
२२२ हारीतसंहिता
२
२२३ श्रीमद्भागवतं तथा श्रीधरस्वामिकृत टीकासहित १२
श्रीजीवानन्द-विद्यासागर वि, ए,
संस्कृत-विद्यामन्दिर । कलिकाता ।
2
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साङ्ख्यदर्शनम्।
एकोऽद्वितीय इति वेदवचांसि पुंसि मर्वाभिमानविनिवर्त्तनतोऽस्य मुक्त्यै । वैधयलक्षणभिदा विरहं वदन्ति नाखण्डतां ख इव धर्म गताविरोधात् ॥ तस्य श्रुतस्य मननार्थमथोपदेष्ट सद्युतिजालमिह सायकदाविरासीत् । नारायणः कपिलमूर्तिरशेषदुःखहानाय जोनिवहस्य नमोऽस्तु तस्मै ॥ नानोपाधिषु यन्नानारूपं भात्य नलार्कवत् । तत् समं सवभूतघु चित्मामान्यमुपास्महे ॥ ईश्वरानौखरत्वादि चिदेकरमवस्तुनि । विमूढ़ा यत्र पश्यन्ति तदस्मि परमं महः ॥ कालाभक्षितं साङ्खयशास्त्र ज्ञानसुधाकरम् । कलावशिष्टं भूयोऽपि पूरयिष्ये वचोऽमृतैः ॥ चिदचिटुग्रन्थिभेटेन मोचयिष्ये चितोऽपि च । साङ्खाभाष्यमिषेणास्मात प्रीयतां मोक्षदो हरि: । तत् त्वमेव त्वमेवैतदेवं श्रुतिशतोदितम् ।
सर्वात्मनामवैधम्य शास्त्रस्यास्यैष गोचरः ॥ आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यामितच इत्यादिश्रुतिषु परमपुरुषार्थसाधनस्याधनस्यात्मसाक्षात्कारस्य हेतुतया श्रवणादित्रयं विहितम्। तत्र श्रवणादावपायाकाझायां समय॑ते ।
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सांख्यदर्शनम् । श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः । मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शनहेतवः ॥ इति। ध्येयो योगशास्त्र प्रकारणेति शेषः। तत्र श्रुतिभ्यः श्रुतेषु पुरुषार्थत तुज्ञानतहिषयात्मस्वरूपादिषु शुत्यविरोधिनौरुपपत्तीः षड़ध्यायोरूपेण विवेकशास्त्रण कपिलभूर्तिभंगवानुपदिदेश। ननु न्यायवैशेषिकाभ्यामप्येतेष्वर्येषु न्याय: प्रदर्शित इति ताभ्यामस्य गतार्थत्वं सगुणनिर्गुणत्वादिविरुद्धरूपैरात्मसाधकतया तद्युक्तिभिरत्नत्ययुक्तौनां विरोधेनोभयोरपि दुर्घटं च प्रामाण्यमिति। मैवम्। व्यावहारिकपारमार्थिकरूपविषयभेदेन गतार्थत्वविरोधयोरभावात् । न्यायवैशेषिकाभ्यां हि मुखिदुःख्याद्यनुवादतो देहादिमावविवेकनात्मा प्रथमभूमिकायामनुमापितः। एकदा परसूक्ष्मे प्रवेशासम्भवात्। तदीयं च ज्ञानं देहाद्यात्मतानिरसनेन व्यावहारिक तत्त्वज्ञानं भवत्येव । यथा पुरुषे स्थाणुनमनिरासकतया करचरणादिमत्त्वज्ञान व्यवहारतस्तत्वज्ञानं तहत्। अतएव । प्रकृति गुणसम्मढ़ाः सज्जन्ते गुण कर्मसु । तानकत्नविदा मन्दान् कृत्स्नविन विचालयेत् ॥
इति गौतायां कत्तत्वाभिमानिनस्ताकिकस्या तत्ववित्त्व. मेव कृत्स्न वित्सांख्यापक्ष योक्तम् । न तु सर्वथैवानवमिति । तथा तदीयमपि ज्ञान मप रवैराग्य द्वारा परम्परया मोक्षसाधन भ वत्येवेति। तज्ज्ञानापेक्षयापि च सांख्य ज्ञानमेव पारमाधिक परवैराग्यहाा साक्षान्मोक्षसाधनं च भवति। उक्तगौतावाक्ये नात्माकर्तत्ववित्त्वस्यैव कृत्स्नवित्त्वसिद्धेः। तोर्णो हि तदा भवति हृदयस्य शोकान् कामादिकं मन एव मन्चमानः सभी लोकावनुसञ्चरति ध्यायतीव लेलायतीव स यदत्त किञ्चित् पश्यत्यनन्नागतस्तेन भवतीत्यादि तात्त्विक श्रुतिशतैः।
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भूमिका ।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गणेः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्त्ताहमिति मन्यते ॥ निर्वाणमय एवायमात्मा ज्ञानमयोऽमलः । दुःखाज्ञानमया धर्माः प्रकृतेस्ते तु नात्मनः ॥ इत्यादितात्त्विक स्मृतिशतैश्च ।
।
न्यायवैशेषिकोक्त ज्ञानस्य परमार्थभूमौ बाधितत्वाञ्च । न चैतावता न्यायाद्यप्रामाण्यम् । विवचितार्थे देहाद्यतिरेकांशे बावाभावाद यत्परः शब्दः स शब्दार्थ इति न्यायात् । श्रात्मनि सुखादिमत्त्वस्य लोकसिद्धतया तत्र प्रमाणान्तरानपेक्षणेन तदंशस्यानुवादत्वान्न शास्त्रतात्पय्यविषयत्वमिति । स्यादेतत् । न्यायवैशेषिकाभ्यामत्राविरोधो भवतु । ब्रह्ममीमांसायोगाभ्यां तु विरोधोऽस्त्येव । ताभ्यां नित्येश्वर साधनात् । अत्र चेश्वरस्य प्रतिषिध्यमानत्वात् । न चात्रापि व्यावहारिकपारमार्थिकभेदेन सेश्वर - निरीश्वरवादयोरविरोधोऽस्तु सेखरवादस्योपासनापरत्वसम्भवादिति वाच्यम् । विनिगमकाभावात् । ईश्वरो हि दुर्ज्ञेय इति निरीश्वरत्वमपि लोकव्यवहारसिद्ध मैश्वर्य्यवैराग्यायानुवदितु शक्यत श्रात्मनः सगुणत्वमिव न तु क्वापि श्रुत्यादावीश्वरः स्फुटं प्रतिषिध्यते येन सेश्वरवादस्यैव व्यावहारिकत्वमवधार्य्येतेति । श्रत्रोच्यते । अत्रापि व्यावहारिकपारमार्थिक भावो भवति । श्रसत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुर नौश्वरम् ।
इत्यादिशास्त्रे निरीश्वरवादस्य निन्दितत्वात् । अस्मिन्नेव शास्त्रे व्यावहारिकस्यैवेश्वरप्रतिषेधस्यैश्वय्य वैराग्याद्यर्थमनुवादत्वौचित्यात् । यदि हि लोकायतिकमतानुसारेण नित्यैश्वय्र्यं न प्रतिषिध्येत तदा परिपूर्णनित्य निर्दोषैश्वय्र्यदर्शनेन तत्र चित्तावेशतो विवेकाभ्यासप्रतिबन्धः स्यादिति सांख्याचाय्र्यायामाशयः । नेश्वरवादस्य न क्वापि निन्दादिकमस्ति । येनो
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रांशे बलवत्वम् । तथा ।
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सांख्यदर्शनम् ।
मासनादिपरतया तत् शास्त्रं सङ्कोच्येत । यत् तु ।
नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम् । अत्र वः संशयो मा भूज्ज्ञानं सांख्य परं मतम् ॥ इत्यादि वाक्यम् । तद्विवेकांश एव सांख्यज्ञानस्य दर्शनान्तरेभ्य उत्कर्ष प्रतिपादयति न त्वोश्वरप्रतिषेवांशेऽपि । तथा पराशराद्यखिल शिष्टसंवादादपि सेश्वरवादस्यैव पारमार्थि कत्वमवधार्य्यते । अपि च ।
I
अक्षपादप्रणीते च काणादे सांख्ययोगयोः । त्याज्यः श्रुतिविरुद्धोऽ'शः श्रुत्य कशरणैर्नृभिः ॥ जैमिनीये च वैयासे विरुद्धांशो न कश्चन ।
या वेदार्थविज्ञाने श्रुतिपारं गतौ हि तौ ॥ इति पराशरोपपुराणादिभ्योऽपि ब्रह्ममीमांसाया ईश्क
न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभिः ।
हेत्वागमसदाचारैर्यद्युक्तं तदुपास्यताम् ॥
इति मोक्षधर्मवाक्यादपि पराशराद्यखिल शिष्टव्यवहारेण ब्रह्ममीमांसान्यायवैशेषिकायुक्त ईश्वरसाधकन्याय एक ग्राह्मो
बलवत्त्वात् । तथा ।
यं न पश्यन्ति योगोन्द्राः सांख्या अपि महेश्वरम् । श्रनादिनिधनं ब्रह्म तमेव शरणं व्रज
इत्यादिकर्मादिवाको सांख्यानामौखराज्ञानस्यैव नारायणादिना प्रोक्तत्वाच्च । किञ्च ब्रह्ममीमांसाया ईश्वर एव मुख्यो विषय उपक्रमादिभिरवधृतः । तत्रांशे तस्य बाधे शास्त्रस्यैवाप्रामाण्यं स्याद् यत्परः शब्दः स शब्दार्थ इति न्यायात् । सांख्यशास्त्रस्य तु पुरुषार्थतत्साधन प्रकृतिपुरुष विवेकावेव मुख्यो विषय दूतौखरप्रतिषेधांशबाधेऽपि नाप्रामाख्यं यत्परः शब्दः
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भूमिका।
म शब्दार्थ इति न्यायात् । अतः सावकाशतया सांख्यमेवेश्वरप्रतिषेधांश दुर्बलमिति । न च ब्रह्ममीमांसायामपोखर एव मुख्यो विषयो न तु नित्य खय्यमिति वक्तु शक्यते। स्मृत्यन. वकाशदोषप्रसङ्गरूपपूर्वपक्षस्यानुपपत्त्या नित्य श्वर्यविशिष्टत्वेनै व ब्रह्ममीमांसाविषयत्वावधारणात् । ब्रह्मशब्दस्य परब्रह्मण्ये व मुख्यतया तु अथातः परब्रह्मजिज्ञासेति न सूवितमिति। एतन सांख्यविरोधाद ब्रह्मयोगदर्शनयोः कार्येवरपरत्वपि न शङ्कनीयम्। प्रकृतिस्वातन्त्र पापत्त्या रचनानुपपत्तेश्च नानुमानमित्यादिब्रह्मसूत्र परम्परानुपपत्तेश्च । तथा स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदादिति योगसूत्रतदीयव्यासभाष्याभ्यां स्फटमोशनित्यतावगमाञ्चेति। तस्मादभ्युपगमवादप्रोढ़िवादा. दिनैव सांख्य स्य व्यावहारिकेश्वरप्रतिषेधपरतया ब्रह्ममौमांमायोगाभ्यां सह न विरोधः। अभ्य पगमवादश्च शास्त्रे दृष्टः । यथा विष्णु पुरायो ।
एते भिन्नदृशां दैत्य विकल्पाः कथिता मया। कलाभ्युपगमं तव संक्षेपः श्रूयतां मम ॥ इति। अस्तु वा पापिनां ज्ञानप्रतिबन्धार्थमास्तिकदर्शनेप्वयं शतः श्रुतिविरुद्धार्थ व्यवस्थापनम् । तेषु तेष्वंशेष्वप्रामाण्य च । श्रुतिस्मृत्यविरुद्धेषु तु मुख्यविषयेषु प्रामाण्यमस्त्येव । अत. एव पद्मपुराणे ब्रह्मयोगदर्शनातिरिक्तानां दर्शनानां निन्दाप्य. पपद्यते । यथा तन्त्र पार्वती प्रतोखरवाक्यम् ।
शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि तामसानि यथाक्रमम् । येषां श्रवणामाचेण पातित्य ज्ञानिनामपि । प्रथमं हिस्सी वोक्त शैवं पाशुपतादिकम् । मच्छत्यायितैर्विप्रैः संप्रोक्तानि ततः परम् ॥ कणादेन तु नम्प्रोक्त मास्त्रं वैशेषिकं महत्। '
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सांख्यदर्शनम्।
गौतमैन तथा न्यायं सांख्य न्तु कपिलेन वै॥ दिजन्मना जैमिनिना पूर्व वेदमयार्थतः । निरीश्वरेण वादेन कृतं शास्त्रं महत्तरम् । धिषणेन तथा प्रोक्तं चार्वाकमतिगर्हितम् । दैत्यानां नाशनार्थाय विष्णुना बुद्धरूपिणा । बौद्धशास्त्रमसत् प्रोक्तं नग्ननौलपटादिकम् । मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्न बौड़मेव च ॥ मयैव कथितं देवि ! कलौ ब्राह्मणरूपिणा। अपाथं श्रुतिवाक्यानां दर्शयल्लोकगहितम् ॥ कर्मस्वरूपत्याज्यत्वमत्र च प्रतिपाद्यते । सवैकमेपरिन शान्नैष्कम्यं तत्र चोच्यते ॥ परात्मजीवयोरैक्यं मयात्र प्रतिपाद्यते। ब्रह्मणोऽस्य परं रूपं निर्गुणं दर्शितं मया ॥ सर्वस्य जगतोऽप्यस्य नाशनाथं कलो युगे । वेदार्थवन्महाशास्त्रं मायावादमवैदिकम् ॥
मयैव कथितं देवि ! जगतां नाशकारणात् ॥ - इति। अधिकं तु ब्रह्ममीमांसामाथे प्रपञ्चितमस्माभिरिति । तस्मादास्तिकशास्त्रस्य न कस्याप्यप्रामाण्य विरोधी वा। स्वस्वविषयेषु सर्वेषामबाधात् । अविरोधाच्चेति। नन्वेवं पुरुषबहुत्वांशेऽप्यस्य शास्त्रस्याभ्युपगमवादत्वं स्यात् । न स्यात्। अविरोधात्। ब्रह्ममौमांसायामप्यंशोनानाव्यपदेशादि. त्यादिसूत्रजार्जीवात्मबहुत्वस्यैव निर्णयात् । सांख्यसिद्ध पुरुषाणामात्मत्वं तु ब्रह्ममौमांसया बाध्यत एव। पामेति तूपयन्तौति तत्सूत्रेण परमात्मन एव परमार्थभूमावात्मत्वावधारणात् । तथापि च सांख्यस्य नाप्रामाण्यम् । व्यावहारिकात्मनो जीवस्येतरविवेकज्ञानस्य मोक्षसाधनले विवक्षितार्थे
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भूमिका ।
बाधाभावात् । एतेन श्रुतिस्मृति प्रसिद्धयोर्नानात्मैकात्मत्वयोव्यवहारिकपारमार्थिकभेदेनाविरोध इति ब्रह्ममीमांसायां प्रपञ्चितमस्माभिरिति दिक् । नन्वेवमपि तत्त्वत्समासाख्यसूत्रे : महास्याः षड़ध्याय्याः पौनरुक्त्यमिति चेत् । मैवम् । संक्षेपविस्तररूपेणोभयोरप्यपौनरुक्त्यात् । अत एवास्याः षड़ध्याय्या योगदर्शनस्येव सांख्यप्रवचनसंज्ञा युक्ता । तत्त्वसमासाख्यं हि यत् सङ्क्षिप्त सांख्यदर्शनं तस्यैव प्रकर्षेणास्यां निर्वचनमिति । विशेषस्त्वयं यत् षड़ध्याय्यां तत्त्वसमासाख्योक्तार्थविस्तरमाव योगदर्शने त्वाभ्यामभ्युपगमवादप्रतिषिद्धस्यैवेश्वरस्य निरूपणेन न्यूनतापरिहारोऽपीति । अस्य च सांख्यसंज्ञा सान्वया । संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते । तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्याः प्रकीर्त्तिताः ॥ इत्यादिभ्यो भारतादिवाकयेभ्यः । संख्या सम्यग्विवेकेनात्मकथनमित्यर्थः । श्रतः सांख्यशब्दस्य योगरूढ़तया तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यमित्यादिश्रुतिषु ।
एषा तेऽभिहिता सांख्य बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु । इत्यादिस्मृतिषु च । सांख्यशब्देन सांख्यशास्त्रमेव ग्राह्यम् । न पुनरर्थान्तरं कल्पनीयमिति । तदिदं मोक्षशास्त्र चिकित्साशास्त्रवच्चतुर्व्यूहम् । यथा हि रोग आरोग्यं रोगनिदानं भैषज्यमिति चत्वारो व्यूहाः समूहाचिकित्साशास्त्रस्य प्रतिपाद्यास्तथैव हेयं हानं हेयहेतुर्हानोपायचेति चत्वारो व्यहा मोक्षशास्त्रस्य प्रतिपाद्या भवन्ति । मुमुक्षुभिर्जिनासितत्वात् । तत्र त्रिविधं दुःखं हेयम् । तदत्यन्तनिवृत्तिहीनम् । प्रकृतिपुरुषसंयोगद्दारा चाविवेको हेयहेतुः । विवेकख्यातिस्तु हानोपाय इति । व्यहशब्देन चैषामुपकरणमंग्रहः । तत्र चादी फलत्वेनाभ्यर्हितं हानं तत्प्रतियोगिविधयैव च हेयं
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सांख्य दर्शनम् ।
प्रतिपादयिष्यन् शास्त्रकार: शिष्यावधानाय शास्त्रारम्भं प्रतिजानौते।
-due
प्रथमोऽध्यायः।
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥१॥
अथशब्दोऽयमुच्चारणमात्रेण मङ्गलरूपः । अतएव मङ्गलाचरणं शिष्टाचारादिति स्वयमेव पञ्चमाध्याये वक्ष्यति। अर्थस्व त्राथशब्दस्याधिकार एव। प्रश्नानन्तर्यादीनां पुरुषार्थेन सहान्वयासम्भवात् । ज्ञानाद्यानन्तर्यस्य च सूत्रैरैव वक्ष्यमाणतया तत्प्रतिपादनवैयात् । अधिकारभिन्नार्थत्वे शास्त्रारम्भ प्रतिज्ञाद्यलाभप्रसङ्गाच्च। तस्मात्य रुषार्थस्योपक्रमोपसंहार दशनादधिकारार्थत्वमेवोचितम् । तटुच्छित्ति: पुरुषार्थ इत्य पसहारो भविष्यतीति । अधिकारश्चाधिक्येन प्राधान्ये नारम्भरणन् । प्रारम्भश्च यद्यपि साक्षाच्छास्त्रस्यैव तथापि तद्वारा शास्त्रातद्विचारयोरपौति । तथा च साधनाापकरणमा हता यथोक्त पुरुषार्थोऽधिकत: प्राधान्यन निरूपयितुम स्माभिः प्रारच दात सूत्रवाक्याथः। विधमाध्यात्मिकमाधिभौतिकमाधिविकं च दुःखम् । तत्वात्मानं स्वसङ्घातमधिकृत्य प्रवृत्तमित्याध्यात्मिकम् । शारीरं मानस च। तत्र शारौरं व्याध्यायुत्थम् । तथा भूतानि प्राणिनोऽधिकृत्य प्रवृत्तमित्याविभौतिकम्। व्याघ्रचोराद्युत्थम्। देवानग्निवायादौनांधजात्य प्रवृत्तमित्याधिदैविकम्। दाहशीताद्युमिति भावः । यद्याप सर्वमेव दुःखं मानसं तथापि मनोमानजन्यत्वाजन्य
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प्रथमोऽध्यायः।
त्वाभ्यां मानस त्वामानसत्वविशेषः । एषां विविधदुःखानां यात्यन्तनिवृत्तिः स्थलसूक्ष्मसाधारण्येन निःशेषतो निवृत्तिः । सोऽत्यन्त: परमः पुरुषार्थः पुरुषाणां बुडेरिष्ट इत्यवान्तरवाक्यार्थः। तत्र स्थलं दुःखं वर्तमानावस्थ तच्च हितोयक्षणा. दुपरि स्वयमेव नङ्खयति। अतो न तत्र ज्ञानापेक्षा। अतीतं तु प्रागेव नष्टमिति न तत्र साधनापेक्षेति परिशेषादनागता. वस्थ सूक्ष्म दुःख निवृत्तिरेव पुरुषार्थतया प्रकृते पर्यवस्यति । तथा च योगसूत्रम्। हेयं दुःखमनागतमिति । निवृत्तिश्च न नाशोऽपित्वतोतावस्था ध्वंसप्रागभावयोरतोतानागतावस्थास्वरूपत्वात् सत्कार्यवादिभिरभावानङ्गोकारात्। ननु कदाचिदप्यवर्तमानमनागतं दुःखमप्रामाणिकम् । अत: खपुष्पनिवृत्तिवत् तब्रिहत्तेर्न पुरुषार्थत्वं युक्तमिति । मैवम् । सर्वत्र हि खखकाय॑जननशक्तिर्यावदव्यस्थायिनौति पातञ्जले सिद्ध दाहादिशक्तिशून्यस्याग्न्यादेः क्वाप्यदर्शनात् । सा च शक्तिरनागतावस्थतत्तत्काय्यरूपा। इयमेव चोपादान कारणस्वरूपयोग्यतेत्यपि गीयते। अतो यावञ्चित्तसत्ता तावदेवानागतदुःखसत्तानुमौयते तबित्तिश्च पुरुषार्थ इति। जीवन्मुक्तिदशायां च प्रारब्धकर्मफलातिरितानां दुःखानामनागतावस्थानां वीजाख्यानां दाही विदेहकैवल्ये तु चित्तन मह विनाश इत्यवा. न्तरविशेषः। वौजदाहश्चाविद्यासहकार्युच्छेदमात्र ज्ञानस्याविद्यामानोच्छेदकत्वस्य लोके सिद्धत्वात् । अतएव चित्तेन सहैव दुःखस्य नाशः । ज्ञानस्य साक्षाद्द :खादिनाशकत्वे प्रमाणाभावादिति । ननु तथापि दुःखनितिन पुरुषार्थः सम्भवति दु खस्य चित्तधर्मलेन पुरुषे तन्नित्त्यसम्भवात् । दुःखनिवृत्तिशब्दस्य दुःखानुत्पादार्थकत्वेऽपि पुरुषे तस्य नित्यसिद्धवात्। यत् तु कण्ठचामौकरवत् सिद्धेऽप्यसिद्धत्वनमात्
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सांख्यदर्शनम् । पुरुषार्थता स्यादिति। तब। एवमपि पुमाविदुःख इति श्रवणमननोत्तरं दुःखहानार्थ निदिध्यासनादौ प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। बह्वायाससाध्ये ह्युपाये फलनिश्चयादेव प्रवत्तिर्भवति प्रकृते तु श्रवणमननाभ्यां सिद्धत्वज्ञानावाप्रामाण्यवानानास्कन्दितः फलस्यासिद्धत्वनिश्चयोऽस्तौति । किञ्च भवतु कदाचित् भ्रमादिना पुरुषेच्छाविषयत्वं दु:खाभावस्य श्रुतिस्तु मोहनाशिनी कथं सिद्धस्य फलत्वं प्रतिपादयेत् । तरति शोकमात्मविहिवान् हर्षशोको जहातीत्यादिरिति । अत्रोच्यते । न नित्यशुद्धबद्धमुक्तस्वभावस्य तद्योगस्तद्योगात इति हेय हेत्ववधारकसूत्रे. शैवायं पूर्वपक्षः समाधास्यते । तथाहि । प्रतिविम्वरूपेण पुरु. षेऽपि सुखदुःखे स्व: । अन्यथा तयोर्नोग्यत्वानुपपत्तेः। सुखा. दिग्रहणं हि भोगः । ग्रहणं च तदाकारता। सा च कूट स्थचितो बुद्धेराकारवत् परिणामो न सम्भवतीत्यगत्या प्रतिविम्बस्वरूपतायामेव पर्यवस्यति । अयमेव बुद्दित्तिप्रतिविम्बो बत्तिसारूप्यमितरत्नेति योगस्तूत्रेणोक्तः। सत्त्वेऽनुतप्य. माने तदाकारानुरोधात् पुरुषोऽप्यनुतप्यत इव दृश्यत इति योगभाग्थे च तदाकारानुरोधशब्देन विशिष्थैव तापादिदुःखस्य प्रतिविम्ब उक्तः। अत एव च पुरुषस्य वुद्धिवृत्त्युपरागे स्फटिकं दृष्टान्तं सूत्रकारो वक्ष्यति। कुसुमवच्च मणेरिति । वेदान्तिभिरपि चेतनेऽध्यस्ततयैव दृश्यभानमुच्यते। स चाध्यासः प्रतिविम्बं विना न घटेत ज्ञानमात्रत्याध्यासत्वे आत्माश्रयात् । अध्यासाजज्ञानं ज्ञानमेव चाध्यास इति । तदेतत् स्मयतेऽपि ।
तस्मिंश्चिद्दपणे स्फार समस्ता वस्तुदृष्टयः । इमास्ताः प्रतिविम्बन्ति सरसीव तटद्रुमाः ॥ इति । अत्र हि दृष्टिशब्दो बुद्धित्तिसामान्यपरो युक्तिसाम्यात्। प्रतिविम्बश्च तत्तदुपाधिषु विम्बाकारश्चित्तपरिणाम
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प्रथमोऽध्यायः ।
इति। तस्मात् प्रतिविम्बरूपण पुरुषे दुःखसम्बन्धो भोगाख्योऽस्ति । अतस्तेनैव रूपेण तबियत्तेः पुरुषार्थत्व युक्तम् । अत एव दुःखं मा भुञ्जीयेति प्रार्थनाम्यापामरं दृश्यते । तच्च दुःखभोगनिवृत्त: पुरुषार्थत्व मन्यशेषतया न सम्भवतीति सैव स्वत: पुरुषार्थः। दुःखनित्तिस्तु कण्टकादिनिरुतवत् तादर्थेन न स्वत: पुरुषार्थः। एवं सुखमपि न स्वत: पुरुषार्थः । किन्तु तद्भोग एव स्वत: पुरुषार्थत्वं यातीति। तदिदं दु:खभोगनिवृत्त: पुरुषार्थ योगभाष्ये व्यासदेवैरुतम् । तस्मिन् निवृत्ते पुरुषः पुनारदं तापत्रयं न भुत इति। अतः श्रुतावपि दुःखनिवृत्त : पुरुषार्थत्वं विषयतासम्बन्धेनैव बोध्यम्। तटेतद्योगदार्त्तिके प्रपञ्चितमम्माभिरिति दिक्। तदेवमनेन मूत्रेण व्यहवयं संक्षेपेणोद्दिष्टं विस्तरस्वनयोः पश्चाद्भवितेति ॥ १॥
अतः परं वक्ष्यमाणस्य हानोपायव्यहस्याकासाथ तदितरेषां हानोपायल्य प्रत्याचष्टे सूत्रजातन।
न दृष्टात् तत्मिद्धिनिहत्तेऽप्यनुवृत्तिदर्शनात् ॥२॥
लौकिकादु मायाचनादेरत्यन्त दुःखनिरतिसिद्धिर्नास्ति । कुतः। धनादिना दुःखे निवृत्त पश्चाइनादिक्षये पुनरपि दुःखानुवत्तिदर्शनादित्यर्थः । तथा च अबिः। अमृतत्वस्य तु नाशास्ति बित्ते नेत्यादिः ॥ २ ॥ __ नन्वेवं धनाद्यर्जनस्य कुञ्जरशौचवद् दुःखानिवर्तकले कथं तत्र प्रवृत्तिस्तवाह।
प्रात्यहिकक्षुत्यतीकारवत् तत्प्रतीकारचेष्टनात् पुरुषार्थत्वम् ॥ ३॥
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१.२
सांख्यदर्शनम् ।
दृष्टसाधनजन्यायां दुःख निवृत्तावल्यन्त पुरुषार्थत्वमेव नास्ति । यथाकथञ्चित् पुरुषार्थत्वं त्वस्त्येव । कुतः । प्रात्यहिकस्य तदुदुःखस्य निराकरणवदेव तेन धनादिना दुःखनिराकरणस्य चेष्टनादन्वेषणादित्यर्थः । अतो धनाद्यर्जन प्रवृत्तिरुपपद्यत इति भावः । कुञ्जरशौचादिकमप्यापातदुःखनिवर्त्तकतया मन्दपुरुषार्थो भवत्येवेति ॥ ३ ॥
स च दृष्टसाधनजो मन्दपुरुषार्थो विज्ञैर्हेय इत्याह । सर्बासम्भवात् सम्भवेऽपि सत्त्वासम्भवाङ्गेयः प्रमाणकुशलैः ॥ ४ ॥
स च दृष्टसाधनजो दुःखप्रतीकारो दुःखादुःखविवेकशास्वाभिज्ञैर्हेयो दुःखपचे निक्षेपणीयः । कुतः । सर्वासम्भवात् । सर्वदुःखेषु दृष्टसाधनैः प्रतीकारासम्भवात् । यत्त्रापि सम्भवस्तवापि प्रतिग्रहपापात्यदुःखावश्यकत्वमाह । सम्भवेऽपीति । सम्भवेऽपि दृष्टोपायनान्तरीयकादिदुःख सम्पर्कावश्यम्भावादित्यर्थः । तथा च योगसूत्रम् । परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाञ्च सर्वमेव दुःखं विवेकिन इति ॥ ४ ॥
ननु दृष्टसाधनजन्ये सर्वस्मिन्नेव दुःखप्रतीकारे दुःखसम्भेदनियमोऽप्रयोजकः । तथा च मय्यते ।
यन्न दुःखेन सम्भिन्नः न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च तत् सुखं खःपदास्पदम् ॥
इति । तत्राह उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कर्षन्तेः ॥ ५ ॥
दृष्टसाधना साध्यस्य मोक्षस्य दृष्टसाध्यराज्यादिभ्य उत्कर्षात् तेषु दुःखसत्तावधार्य्यते । अपिशब्दात् त्रिगुणात्मकत्वा
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प्रथमोऽध्यायः।
देरपि । मोक्षस्योत्कर्षे प्रमाणं सर्वोत्कर्षश्रुतेरिति। न ह वै सशरीरस्य सत: प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति। बशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्मृशत इत्यादिना विदेहकैवल्यस्योत्कर्षश्रुतेरित्यर्थः ॥ ५ ॥
ननु मा भवतु दृष्टसाधनादत्यन्तदुःखनिवृत्तिः। यदृष्टसाधनात् तु वैदिककर्मणः स्यात् । अपाम सोमममृता अभूमेत्यादिश्रुतरिति तबाह।
अविशेषश्चोभयोः ॥६॥ उभयोरेव दृष्टादृष्टयोरत्यन्तदुःखनिवृत्त्यसाधकत्वे यथोततहेतुत्वे चाविशेष एव मन्तव्य इत्यर्थः । एतदेव कारिकायामुक्तम् । दृष्टवदानुअविक: स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः।
इति । गुरोरनुयत इत्यनुश्रवो वेदः । तहिहितयागादिरानुविकः। स दृष्टोपायवदेवाशुद्धया हिंसादिपापन विनाशिसातिशयफलकत्वेन च युक्त इत्यर्थः । ननु वैधहिंसायाः पापजनकले बलवनिष्टाननुबन्धौष्टसाधनत्वरूपस्य विध्यर्थस्थानुपपत्तिरिति चेन्न । वैधहिंसाजन्यानिष्टस्येष्टोत्पत्तिनान्तरोयकत्वेनेष्टोत्पत्तिनान्तरोयकदुःखाधिकदुःखाजनकत्वरूपस्त्र बलवदनिष्टाननुबन्धित्वस्य विध्यंशस्याक्षतेः। यत् तु वैधहिंमातिरिक्तहिंसाया एव पापजनकत्वमिति तदसत् सङ्कोचे प्रमाणाभावात् । युधिष्ठिरादौनां स्वधर्मेऽपि युद्धादी जातिबधादिप्रत्यवायपरिहाराय प्रायश्चित्तश्रवणाच्च ।
तस्माद्यास्याम्यहं तात ! दृष्ट्वे मं दुःखसन्निधिम् । बयोधर्ममधर्माब्य किम्याकफलसन्निभम् ॥ इति मार्कण्डेयवचनाच्च । अहिंसन् सर्वभूतान्वन्यत्र
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१४
सांख्यदर्शनम्।
तीर्थेभ्य इति श्रुतिस्तु वैधातिरिक्तहिंसानिवृत्तेरिष्टसाधनत्वमेव वक्ति न तु वैधहिंसाया अनिष्टसाधनत्वाभावमपोत्यादिक योगवार्त्तिके द्रष्टव्यमिति दिक। न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुरिति तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्या विद्यतेऽयनायेत्यादिश्रुतिविरोधेन तु सोमपानादिभिरमतत्वं गौणमेव मन्तव्यम् ।
आभूतसंप्लवं स्थानममृतत्वं हि भाष्यते । इति विष्णु पुराणात् ॥ ६ ॥ तदेवं दृष्टादृष्टोपाययोः साक्षात्परमपुरुषार्थासाधनत्वे माधिते तदुपायाकाङ्क्षायां विवेकज्ञानमुपायो वक्तव्यः। तत्र विवेकज्ञानमविवेकाख्य दुःखहेतूच्छेदहाव हानोपाय इत्याशयेनादावपि विवेकर्मवेतरप्रतिषेधेन हेयहेतुतया परिशेषयति प्रघट्टकेन।
न खभावतो बदस्य मोक्षसाधनोपदेशविधिः
दुःखात्यन्तनिवृत्त र्मोक्षत्वस्योक्ततया बन्धोऽत्र दुःखयोग एव । तस्य बन्धस्य पुरुष न स्वाभाविकत्वं वक्ष्यमाणलक्षणमस्ति यतो न स्वभावतो बदस्य मोक्षाय साधनोपदेश स्य श्रौतस्य विधिरनुष्ठानं नियोज्यानां घटते। न ह्यग्ने: स्वाभाविकादौष्णयान्मोक्ष: सम्भवति। स्वाभाविकस्य यावद्रव्यभावित्वादित्यर्थः । तदुक्तमौश्वरगोतायाम् ।। यद्यात्मा मलिनोऽस्वच्छो विकारी स्यात् सभावतः । न हि तस्य भवेन्मतिर्जन्मान्तरशतैरपि ॥ इति । यस्मिन् मति कारणविलम्बादि जम्बो यस्योत्पत्तौ न भवति तस्य तत् स्वाभाविकमिति स्वाभाविकत्वलक्षा
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प्रथमोऽध्यायः ।
सम् । ननु सर्वदोपलम्भापत्तेर्दुःखस्य स्वाभाविकत्वशङ्गैव
नास्तीति चेत्र । विगुणात्मकत्वेन चित्तस्य दुःखखभावत्वेऽपि सत्त्वाधिक्येनाभिभवात् सदा दुःखानुपलब्धिवदात्मनोऽपि तदनुपलब्धिसम्भवात् । दुःखखाभाविकत्ववादिभिर्बोहैश्चित्तस्यैवात्मताभ्युपगमाच्च । यथैवमात्मनाशादेव मोचोऽस्त्विति चेन । श्रहं बद्धो विमुक्तः स्यामिति बन्धसामानाधिकरण्यनंद मोचस्य पुरुषार्थत्वादिति ॥ ७ ॥
1
भवत्वननुष्ठानं तेन किमित्यत बाह ।
स्वभावस्यानपायित्वादननुष्ठानलचणमप्रा
१५
माण्यम् ॥ ८ ॥
स्वभावस्य यावद्द्रव्यभावित्वान्मोक्षासम्भवेन तत्साधनोपदेश श्रुतेरननुष्ठानलचणमप्रामाण्य स्यादित्यर्थः ॥ ८ ॥ ननु श्रुतिबलादेवानुष्ठानं स्यात् तत्राह । नाशक्योपदेशविधिरुपदिष्टेऽप्यनुपदेश: ॥ ॥
नाशक्याय फलायोपदेशस्यानुष्ठानं सम्भवति । यत उपदिष्टेऽपि विहितेऽप्यशक्यस्योपाये स उपदेशो न भवति । किन्तूपदेशाभास एव बाधितमर्थं वेदोऽपि न बोधयतीति न्यायादित्यर्थः ॥ ८ ॥
अत्र शङ्कते ।
शुक्लपटवद्दीजवञ्चेत् ॥ १० ॥
ननु स्वाभाविकस्याप्यपायो दृश्यते । यथा शुरूपटस्य स्वाभाविक शौक्का रागेणापनयते । यथा च वीजस्य स्वाभा विक्ाप्यङ्कुरशक्तिरग्निनापनीयते । अतः शुक्लपटवद्दीनवच्च
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१६
सांख्यदर्शनम् ।
स्वाभाविकस्य बन्धस्याप्यपायः पुरुषे सम्भवतीति तदेव तत्साधनोपदेशः स्यादिति चेदित्यर्थः ॥ १ ॥
समाधत्ते ।
शक्त्युङ्गवानुद्भवाम्यां नाशक्योपदेशः ॥ ११॥
।
उक्तदृष्टान्तयोरपि नाशक्याय स्वाभाविकायापायोपदेशो लोकानां भवति । कुतः । शक्त्य इवानुद्भवाभ्याम् । दृष्टान्तsafe शौक्कादेराविर्भावतिरोभावावेव भवतः । न तु शौक्यावरशक्त्योरभावो भवति । रजकादिव्यापारैयगिसङ्कल्पादिभिश्व रक्तपटसृष्टबोजयोः पुनः शौक्तशङ्कुरशक्त्याविर्भावादित्यर्थः । नन्वेवं पुरुषेऽपि दुःखशक्तितिरोभाव एव मोहोस्विति चेत्र दुःखात्यन्तनिवृत्तेरेव लोके पुरुषार्थत्वानुभवात् श्रुतिस्मृत्योः पुरुषार्थत्वसिद्धेश्च । न तु दृष्टान्तयोरिव तिरोभावमात्रस्येति । किञ्च दुःखयक्तितिरोभावमावस्य मोचले कदाचिद्योगीश्वरसङ्कल्पादिना शक्त्युद्भवस्य भृष्टवोजेष्विक मुक्तेष्वपि सम्भवेनानिर्मोक्षापत्तिरिति ॥ ११ ॥
।
स्वभावतो बन्धं निराकृत्य निमित्तभ्योऽपि बन्धमपाकरोति सूत्रजातेन । पुरुषे दुःखस्य नैमित्तिकत्वेऽपि ज्ञानाद्यपायोच्छेद्यत्वं न घटेत । श्रनागतावस्थ सूक्ष्म दुःखस्य यावदद्रव्यभावित्वादित्याशयेन नैमित्तिकत्वं निराक्रियते ।
न कालयोगतो व्यापिनो नित्यस्य सर्वसम्ब
ग्वात् ॥ १२ ॥
कुतः ।
नापि कालसम्बन्धनिमित्तकः पुरुषस्य बन्धः । व्यापिनो नित्यस्य कालस्य सर्वावच्छेदेन सर्वदा मुक्तासुक्त - सकलपुरुषसम्बन्धात् । सर्वावच्छेदेन सदा सकलपुरुषाणां बन्वापत्तेरित्यर्थः । अत्र च प्रकरणे कालदेशकर्मादीनां
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१७
प्रथमोऽध्यायः। निमित्तत्वसामान्यं नापलप्यते श्रुतिस्मृतियुतिभिः सिहत्वात् । किन्तु यनैमित्तिकत्व पाकजरूपादिवनिमित्तजन्यत्व तदेव बन्धे प्रतिषिध्यते पुरुषे बन्धस्यौपाधिकत्वाभ्युपगमात् । ननु कालादिनिमित्तकत्वेऽपि सहकार्यान्तरसम्भवासम्भवाभ्यां व्यवस्था स्यादिति चेत् । एवं सति यत् संयोग सत्यवश्यं बन्धस्तत्रैव सहकारिणि लाघवाइन्धो युक्तः पुरुषे बन्धव्यवहारस्यौपाधिकले नाप्युपपत्ते रिति कृतं नैमित्तिकत्वेनेति ॥ १२ ॥
न देशयोगतोऽप्यस्मात् ॥ १३ ॥ देशयोगतोऽपि न बन्धः । कुतः । अस्मात् पूर्वसूत्रोक्तान्मुक्तामुक्ता सर्वपुरुषसम्बन्धात् । मुक्तस्यापि बन्धापत्तरित्यर्थः ॥१३॥
नावस्थातो देहधर्मत्वात् तस्याः ॥ १४ ॥ सङ्घातविशेषरूपताख्या देहरूपा यावस्था न तन्निमित्ततोऽपि पुरुषस्य बन्धः। कुतः । तस्या अवस्थाया देहधर्मत्वात् । अचेतनधर्मवादित्यर्थः । अन्यधर्मस्य साक्षादन्यबन्धकत्वेऽतिप्रसङ्गात् । मुक्तस्यापि बन्धापत्तरित्यर्थः ॥ १४ ॥ ननु पुरुषस्याप्यवस्थायां किं बाधकं तवाह।
असङ्गोऽयं पुरुष इति ॥ १५ ॥ इतिशब्दो हेत्वर्थे । पुरुषस्यासङ्गत्वादवस्थाया देहमानधर्मत्वमिति पूर्वसूत्रेणान्वयः । पुरुषस्यावस्थारूपविकारखोकारे विकारहेतुसंयोगाख्यः सङ्गः प्रसज्येतेति भावः । असङ्गत्वे च श्रुतिः। स यदन किञ्चित् पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवति असङ्गो द्ययं पुरुष इति । सङ्गश्च संयोगमात्र न भवति । कालदेशसम्बन्धस्य पूर्वमुक्तत्वात् । श्रुतिस्मृतिषु पद्मपत्रस्थज.
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सांख्यदर्शनम् । लेनेव पद्मपवस्वासङ्गतायाः पुरुषासङ्गतायां दृष्टान्तताव. णाच ॥ १५ ॥
न कर्मणान्यधर्मत्वादतिप्रसतोश्च ॥ १६ ॥
न हि विहितनिषिदकर्मणापि पुरुषस्य बन्धः। कर्मणामनात्मधर्मत्वात् । अन्यधर्मेण साक्षादन्यस्य बन्धे च मुक्तस्यापि बन्धापत्तेः। ननु स्वखोपाधिकर्मणा बन्धाङ्गीकारे नायं दोष इत्याशयेन हेत्वन्तरमाह। अतिप्रसक्त श्चेति । प्रलयादावपि दुःखयोगरूपबन्धापत्तश्चेत्यर्थः । सहकार्यान्तरविलम्बतो विलबकल्पनं च प्रागेव निराकृतं न कालयोग इत्यादिसूत्र इति ॥१६॥ ___नन्वेवं दुःखयोगरूपोऽपि बन्धः कर्मसामानाधिकरण्यानुरोधेन चित्तस्यैवास्तु। दुःखस्य चित्तधर्मतायाः सिद्धत्वात् । किमर्थं पुरुषस्यापि कल्पाते बन्ध इत्याशङ्कायामाह। . विचित्रभोगानुपपत्तिरन्यधर्मत्वे ॥ १७ ॥
दुःखयोगरूपबन्धस्य चित्तमात्रधर्मत्वे विचित्रभोगानुपपत्तिः। पुरुषस्य हि दुःखयोग विनापि दुःखसाक्षात्काराख्य. भोगवीकारे सर्वपुरुषदु सादौनां सर्वपुरुषभोग्यता स्थानियामकाभावात् । ततथायं दुःखभोक्तायं च सुखभोतो त्यादिरूप. भोगवैचित्रं नोपपद्यतेत्यर्थः। यतो भोगवैचित्रयोपपत्तये भोगनियामकतया दुःखादियोगरूपो बन्धः पुरुषेऽपि खौकार्यः । स च पुरुषे दुःखयोगः प्रतिविम्बरूप एवेति प्रागवोक्तम्। प्रतिविम्बश्च खोपाधिवृत्तेरेव भवतीति न सर्वपुंसां सर्वदुःखभोग इति भावः। चित्तवृत्तिबोधे पुरुषस्यानादिः खखामिभावः सम्बन्धी हेतुरिति योगभाष्यादयं सिद्धान्तः
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प्रथमोऽध्यायः।
सिद्धः । चित्ते च पुरुषस्य स्वत्वं स्वभुक्ता कृत्तिवासनावत्त्वमिति । यत् तु चित्तस्यैव बन्धमोक्षो न पुरुषस्येति श्रुतिस्मृतिष गोयते तविम्बरूपदुःखयोगरूपं पारमाथिकं बन्धमादाय बोध्यम् ॥१७॥ साक्षात् प्रतिनिमित्तकत्वमपि बन्धस्यापाकरोति ।
प्रकृतिनिबन्धनाचेन्न तस्या अपि पारतवाम् ॥ १८॥
ननु प्रकृतिमिमित्ताइन्धो भवविति चेन्न । यतस्तस्या अपि बन्धकत्व संयोगपारतन्त्रामुत्तरत्र वक्ष्यमाणमस्ति । संयोगविशेषं विनापि बन्धकत्व प्रलयादावपि दुःखबन्धप्रसङ्गादित्यर्थः । प्रकृतिनिबन्धना चेदिति पाठे तु प्रकृतिनिबन्धना चबन्धनेत्यर्थः ॥ १॥
अतो यत्परंतन्त्रा प्रतिबन्धकारणं सम्भवेत् तस्मादेव संयोगविशेषादौपाधिको बन्धोम्निसंयोगाजलौष्णावदिति खसिद्धान्तमनेनैव प्रसङ्गेनान्तराल एवावधारयति ।
न नित्यशुद्धबुद्धमुक्तखभावस्य तद्योगस्तद्योगाहते ॥ १६ ॥
तस्मात् तद्योगादृते प्रकृतिसंयोग विना न पुरुषस्य तद्योगो बन्धसम्पर्कोऽस्ति । अपि तु स एव बन्धः । बन्धस्यौपाधिकत्व. लाभाय नञ्हयेन वक्रोक्तिः । यदि हि बन्धः प्रकृतिसंयोगजन्यः स्यात् पाकजरूपवत् तदा तहदेव तहियोगेऽप्यनुवर्तते । न च द्वितीयक्षणादेवुःखनाशकत्व कल्पं कारणनाशस्य कार्यनाशकतायाः क्ल तत्वेन तेनैवोपपत्तावस्माभिस्तदकल्पनात् । वृत्तिहि दुःखादेरुपादानम्। अतो दीपशिखावत् क्षणभङ्गराया वृत्त राशुविनाशित्व नैव तदर्माणां दुःखेच्छादौनां
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सांख्यदर्शनम्। विनाशः सम्भवतीति । अत: प्रकृतिवियोगे बन्धाभावादौपा. धिक एव बन्धो न तु स्वाभाविको नैमित्तिको वेति । तथा संयोगनिवृत्तिरेव साक्षादानोपाय इत्यपि वक्रोक्तिफलम् । तथा च स्मृतिः।
यथा ज्वलद्ग्रहाश्लिष्टम्यहं विच्छिद्य रक्ष्यते। तथा सदोषप्रकृतिविच्छिन्नोऽयं न शोचति ॥ इति। वैशेषिकाणामिव पारमार्थिको दुःखयोग इति भ्रमो मा भूदित्येतदर्थ नित्ये त्यादि। यथा स्वभावशुद्धस्य स्फटिकस्य रागयोगो न जपायोगं विना घटते तथैव नित्यशुद्वादिस्वभावस्य पुरुषस्योपाधिसंयोगं विना दुःखसंयोगो न घटते खतो दुःखाद्यसम्भवादित्यर्थः । तदुक्तं सौरे ।
यथा हि केवलो रक्तः स्फटिको लच्यते जनैः। रञ्जकाद्यप्रधानेन तहत् परमपूरुषः । इति । नित्यत्वं कालानवच्छिन्नत्वम् । शुद्धादिखभावत्वं च नित्यशुद्धत्वादिकम्। तत्र नित्यशुद्धत्वं सदा पापपुण्य. शून्यत्वम्। नित्यबुद्धत्वमलुप्तचिद्रूपत्वम्। नित्यमुक्तत्वं सदा पारमार्थिकदु:खायुक्तत्वम्। प्रतिविम्बरूपदुःखयोगस्वपारमार्थिको बन्ध इति भावः। आत्मनो नित्यशुद्धत्वादी च श्रुतिः। अयमात्मा सन्मावो नित्यः शुद्धो बुद्धः सत्यो मुक्तो निरञ्जनो विभुरित्यादिः। नन्वस्य मननशास्त्रत्वादनार्थे युक्तिरपि वक्तव्येति चेत् सत्यम्। न तद्योगस्तद्योगात इत्यनेन नित्यशुद्धत्वादी युक्तिरप्य क्तव। तथाहि
आत्मनि नित्यत्वविभुत्वादिकं तावन्यायादिदर्शनेष्वेव साधितम्। तत्र नित्यस्य विभोरात्मनो यद्योगं विना दुःखाद्यखिलविकारैर्योगो न भवति तस्यैवान्तःकरणस्य सर्वसम्मतकारणस्य तपादानकारणत्वमेव युक्तं लाघवात् । सर्वविक्तारेवन्तःकर
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'प्रथमोऽध्यायः ।
२१
यस्यैवान्वयव्यतिरेकाभ्याञ्च । न पुनरन्तर्विकारेषु मनसो निमि 'तत्वमात्मनयोपादानत्व' युक्त कारणदयकल्पने गौरवात् । नन्वहं सुखौ दुःखो करोमीत्याद्यनुभवादात्मनो विकारोपादानत्वसिद्धिरिति चेत्र । अहं गौर इत्यादिभ्रमशतान्तः पातित्वेनाप्रामाण्यशङ्कास्कन्दित तयोक्त प्रत्यक्षाणामुक्ततर्कानुग्टहीतानुमानापेचया दुर्बलत्वात् । श्रात्मनश्विन्द्मावत्वे तु युक्तिरग्रे वक्ष्यत इति दिक् । अस्य सूत्रस्यैवार्थः कारिकयाप्युक्तः ।
तस्मात् तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् । गुणकर्त्तृत्वे च तथा कर्त्त व भवत्युदासीनः ॥
इति । कर्त्तृत्वमात्र दुःखित्वादिसकलविकारोपलक्षणम् । तथा योगसूत्रेऽप्यस्य सूत्रस्यैवार्थ उक्तः । द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुरिति । गोतायां च ।
पुरुषः प्रक्कृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रक्कतिजान् गुणान् । इति । प्रकृतिस्थः प्रकृतौ संयुक्तः । तथा च श्रुतावपि । यात्मन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।
जन्मापर
इति । न च कालादिवदेव प्रकृतिसंयोगोऽपि मुक्तामुक्तपुरुषसाधारणतया कथं बन्धहेतुरिति वाच्यम् । नामः खखबुद्धिभावापद्मप्रकृतिसंयोगविशेषस्यैवात्र संयोगशब्दार्थत्वात् । योगभाष्ये व्यासैस्तथा व्याख्यातत्वात् । बुद्धिवृत्त्युपाधिनैव पुरुषे दुःखयोगाच्च । वैशेषिकादिवदेव भोगजनकतावच्छेदकत्वेनान्तःकरणसंयोगे वैजात्य' चास्माभिरपौष्टम् । अतो न सुषुप्त्यादो बन्धप्रसङ्गः । स्वस्वभुक्तवृत्तिवासनावद्यत्किचिदवत्तितत् संस्कारप्रवाहोऽप्यनादिरतः स्वस्वामि भावव्यवस्थितिः । कश्चित् तु प्रकृतिपुरुषयोः संयोगाङ्गीकारे पुरुषस्य परिणामसङ्गी प्रसज्येयाताम् । अतोऽत्राविवेक एव योगशब्दार्थो न तु संयोग इति । तन्न । तद्योगोऽप्यविवे
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२२
सांख्यदर्शनम् ।
कादिति सूत्रेणाविवेकस्य योगहेतुताया एव सूत्रकारेण वक्ष्यमाणत्वात् । खखामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगस्तस्य हेतुरविद्येति सूत्राभ्यां पतिञ्जलेऽपि संयोगहेतुत्वस्यैवाविद्याया उक्तत्वाच। किञ्च विवेकाभावरूपस्याविवेकस्य संयोगवे प्रलयादावपि प्रकृतिपुरुषसंयोगसत्त्वन भोगाद्यापत्तिः । मिथ्याज्ञानरूपस्याविवेकस्य च संयोगवे आत्माश्रयः पुम्प्र. कतिसंयोगस्याज्ञानादिहेतुत्वादिति। तस्मादविवेकातिरिक्तो योगो वक्तव्यः। स च संयोग एवान्यस्याप्रामाणिकत्वात् । संयोगश्च न परिणाम: सामान्य गुणातिरिक्तधर्मोत्पत्त्य व परिणामित्वव्यवहारात् । अन्यथा कूटस्थस्य सर्वगतत्वरूपविभुत्वानुपपत्त:। नापि संयोगमात्र सङ्गः परिणामहेतुसंयोगस्वैव सङ्गशब्दार्थताया वक्तव्यत्वादिति। ननु तथापि कथं नित्ययोः प्रकतिपुरुषयोर्महदादिहेतुरनित्यः संयोगो घटत इति चेन्न। प्रकृतेः परिच्छिन्नापरिच्छिन्नत्रिविधगुणसमुदायरूपतया परिच्छिवगुणावच्छेदेन पुरुषसंयोगोत्यत्त: सम्भवात्। श्रुतिस्मतिसिद्धत्वात् प्रकृतिसंयोगक्षोभयोरिति । एतच योगवाति के प्रपञ्चितमस्माभिः । अपरस्तु भोग्यभोक्तयोग्यतैवानयोः संयोग इत्याह । तदपि न । योग्यताया नित्यत्व ज्ञाननिवत्यं त्वानुपपत्तः। अनित्यत्वे किमपराई संयोगेन परिणामित्वापत्त: समानत्वात् । भोग्यभोतयोग्यतायाः संयोगरूपत्वस्थ सूत्रादिष्वनुक्तत्वेनाप्रामाणिकत्वाञ्चेति । तस्मात् संयोगवि. शेष एवान बन्धाख्यहेयहेतुतया सूत्रकाराभिनत इति स्वयं बन्धहेतुरवधारितः ॥ १८ ॥
इदानों नास्तिकाभिप्रेता अपि बन्धहेतवो निराकर्तव्याः। तत्र।
षड़भिज्ञो दशबलोऽवयवादी विनायकः ।
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मथमोऽध्यायः।
२३
. इत्यनुशासनादिसिद्धाः क्षणिकविज्ञानात्मवादिनो बौद्धप्रभेदा एवमाहुः । नास्ति प्रकत्यादि वाह्यं वस्त्वन्यत् । येन तत्सयोगादौपाधिकस्तात्त्विको वा बन्धः स्यात्। किन्तु क्षणिकविज्ञानसन्तानमात्रमहितीयं तत् त्वमन्यत् सर्वं सांवत्तिक संवत्तिश्चाविद्यामिथ्याज्ञानाख्या तत एव बन्ध इति । तथा च तैरुक्तम्।
अभिन्नोऽपि हि बुद्ध्यात्मा विपर्यासनिदर्शनैः। ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते । इति। तन्मतमादी निराक्रियते ।
नाविद्यातोऽप्यवस्तुना बन्धायोगात् ॥२०॥
अपिशब्दः पूर्वोक्त कालाद्यपेक्षया। अविद्यातोऽपि न साक्षाहन्धयोगः । अद्वैतवादिनां तेषामविद्याया अध्यवस्तुत्व न तया बन्धानोचित्यात्। न हि वापरवा बन्धनं दृष्टमित्यर्थः । बन्धोऽप्यवास्तव इति चेन्न। स्वयं सूत्रकारण निराकरिष्यमाणत्वात्। विज्ञानाईतश्रवणोत्तरं बन्धनिवृत्तये योगाभ्यासाभ्य पगमविरोधाच। बन्धमिथ्यात्वश्रवणेन, बन्धनिवृत्त्याख्यफलसिइत्वनिश्चयात् तदर्थ बह्वायाससाध्ययोगाङ्गानुष्ठाना. सम्भवादिति ॥ २०॥
वस्तुत्वे सिद्धान्तहानिः ॥ २१॥ यदि चाविद्याया वस्तुत्व स्वीक्रियते तदा स्वाभ्युपगतस्याविद्यानृतत्वस्य हानिरित्यर्थः ॥ २१ ॥
विजातीय तापत्तिश्च ॥ २२॥ किञ्चाविद्याया वस्तुत्व क्षणिकविज्ञानसन्तानाद्विजातीयं
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२४
सांख्यदर्शनम् ।
हैतं प्रसज्येत। तच्च भवतामनिष्टमित्यर्थः । सन्तानान्तःपातिव्यक्तीनामानन्त्यात् सजातीयहतमिष्यत एवेत्याशयेन विजातीयेति विशेषणम्। नन्वविद्याया अपि ज्ञानविशेषत्वाद. विद्ययापि कथं विजातीयहतमिति चेन्न। ज्ञानरूपाविद्याया बन्धोत्तरकालीनतया वासनारूपाविद्याया एव तैर्बन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् । वासना तु ज्ञानाहि जातोयैवेति। एभिश्च सूत्रब्रह्ममौमांसासिद्धान्तो निराक्रियत इति भ्रमो न कर्तव्यः । ब्रह्ममीमांसायां केनापि सूत्रणाविद्यामानतो बन्धस्यानुक्तत्वात्। अविभागो वचनादित्यादिसू त्रैब्रह्ममीमांसाया अभिप्रतस्याविभागलक्षणाईतस्याविद्यादिवास्तवत्वेऽप्यविरोधाच्च। यत् तु वेदान्तिब्रुवाणामाधुनिकस्य मायावाद स्यात्र लिङ्ग दृश्यते तत् तेषामपि विज्ञानवाद्येकदेशितया युक्तमेव ।
मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमेव च । मयैव कथितं देवि ! कलो ब्राह्मणरूपिणा॥ इत्यादिपद्मपुराणस्थशिववाक्य परम्पराभ्यः । न तु तहेदान्तमतम् ।
वेदार्थवन्महाशास्त्रं मायावादमवैदिकम् । इति तदाक्य शेषादिति । मायावादिनोऽत्र च न साक्षात् प्रतिवादित्व विजातीयेति विशेषणवैयर्थ्यात् । मायावादे सजातीयाहैतस्याप्यनभ्युपगमादिति। तस्मादत्र प्रकरणे विज्ञानवादिनां बन्धहेतुव्यवस्थैव साक्षाविराक्रियते। अनयैव च रीत्या नवीनानामपि प्रच्छवबौहानां मायावादिनामविद्यामात्रस्य तुच्छस्य बन्धहेतुत्व निराकृतं वेदितव्यम् । अस्मन्मते त्वविद्यायाः कूटस्थनित्यतारूपपारमार्थिकत्वाभावेऽपि घटादिवहास्तवत्वेन वक्ष्यमाणसंयोगहारा बन्धहेतुत्व यथोक्तबाधा. नवकाशः। एवं योगमते ब्रह्ममीमांसामनेऽपौति ॥ २२ ॥
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प्रथमोऽध्यायः।
२५
शकते।
विरुद्धोभयरूपा चेत् ॥ २३ ॥ ननु विरुडं यदुभयं सदसच्च सदसविलक्षणं वा तद्रूपैवाविद्यावतव्यातो न तया पारमार्थिकाद्वैतभङ्ग इति चेदित्यर्थः । स्वयं तु सदसत्त्व प्रपञ्चस्य यहक्ष्यति तत्र सत्त्वासत्त्वे व्यक्ताव्यक्तत्वरूपत्वाविरुडे एव न भवत इति सुचयितु विरुद्धपदोपादानम् ॥ २३ ॥ परिहरति ।
न ताहक पदार्थाप्रतीतेः ॥ २४॥ सुगमम्। अपि चाविद्यायाः साक्षादेव दुःखयोगाख्य. बन्धहेतुत्वे ज्ञानेनाविद्याक्षयानन्तरं प्रारब्धभोगानुपपत्तिः । बन्धपयायस्य दुःखभोगस्य कारणनाशादिति। अस्मदादिमते तु नायं दोषः संयोगहारैवाविद्याकर्मादीनां बन्धहेतुत्वात् । जन्माख्यश्च संयोगः प्रारब्धसमाप्ति विना न नश्यतीति ॥ २४ ॥
पुनः शङ्कते। न वयं षट्पदार्थवादिनी वैशेषिकादिवत् ॥२५॥ ___ ननु वैशेषिकाद्यास्तिकवन्न वयं षट्षोड़शादिनियतपदार्थशादिनः । अतो प्रतीतोऽपि सदसदात्मकः सदसदिलक्षणो वा पदार्थोऽविद्येत्यभ्यु पेयमिति भावः ॥ २५ ॥ परिहरति।
अनियतत्वेऽपि नायौक्तिकस्य संग्रहोऽन्यथा बालोन्मत्तादिसमत्वम् ॥ २६ ॥
पदार्थनियमो मास्तु तथापि भावाभावविरोधेन युक्तिविरुदस्य सदसदात्मकपदार्थस्य संग्रही भवहचनमानाच्छि
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२६
सांख्यदर्शनम् । थाणां न सम्भवति। अन्यथा बालकायुक्तस्याप्ययौक्तिकस्य संग्रहः स्यादित्यर्थः। शुत्यादिकं चास्मिन्नर्थे स्फट नास्ति युक्तिविरोधेन च सन्दिग्धश्रुतेरन्तरसिद्धिरिति भावः ।
नासटूपा न सद्रूपा माया नैवोभयात्मिका। सदसद्भ्यामनिर्वाच्या मिथ्याभूता सनातनी ॥ इत्यादिसौरादिवाक्यानां त्वयमर्थः ।
विकारजननी मायामष्टरूपामजां ध्रुवाम् ॥ इत्यादिश्रुतिसिद्धा मायाख्या प्रकृति: परमार्थसतो न भवति पूर्वपूर्वविकाररूपैः प्रतिक्षणमपायात्। नापि परमार्थासती भवत्यर्थक्रियाकारित्वेन शशशृङ्गविलक्षणत्वात्। नापि तदु. भयात्मिका विरोधात। अतः सदसद्भ्यामनिर्वाच्या सत्ये वेत्य सत्येवेति च निर्धार्योपदेष्टुमशक्या। किन्तु मिथ्याभूता लयाख्यव्यावहारिकासत्ववती परिणामिनित्यतारूपव्यावहारिकसत्त्ववती चेति। एतच्चाग्रे प्रपञ्चयिष्याम इति दिक् । एतत्प्रकरणोपन्यस्तानि च सर्वाण्ये व दूषणान्याधुनिकेऽपि मायावादे योजनीयानि ॥ २६ ॥
अपरै नास्तिका याहुः क्षणिका बाह्यविषयाः सन्ति तेषां वामनया जीवस्य बन्ध इति तदपि दूषयति । नानादिविषयोपरागनिमित्तकोऽप्यस्य ॥२७॥
अस्यात्मनः प्रवाहरूपेणानादिर्या विषयवासना तबिमित्तकोऽपि बन्धो न सम्भवतीत्यर्थः । निमित्ततोऽप्यस्येति पाठस्तु समोचौनः ॥ २७॥ अत्र हेतुमाह।
न बाह्याभ्यन्तरयोरुपरजोपरञ्जकभावोऽपि देशव्यवधानात् स्वघ्नस्थपाटलिपुत्रस्थयोरिव ॥२८॥
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प्रथमोऽध्यायः ।
२७
तन्मते परिच्छिन्रो देहान्तस्थ एवात्मा तस्याभ्यन्तरस्य न बाह्यविषयेण सहोपरज्ञ्जयो परज्ञ्जकभावोऽपि सम्भवति । कुतः । सुप्रस्थपाटलिपुत्रस्थयोरिव देशव्यवधानादित्यर्थः । संयोगे सत्येव हि वासनाख्य उपरागो दृष्टः । यथा मञ्जिष्ठावस्त्रयोः यथा वा पुष्पस्फटिकयोरिति । अभिशब्देन खमतेऽपि संयोगाभावादिः समुच्चयते । सुनपाटलिपुत्रौ विप्रकृष्टौ देशविशेषौ ॥ २८ ॥
ननु भवतामिन्द्रियाणामिवास्माकमात्मनो विषयदेशे गमनाद्विषयसंयोगेन विषयोपरागो वक्तव्यस्तत्राह ।
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द्वयोरेकदेशलब्धोपरागान्न व्यवस्था ||२६|| दयोर्बद्धमुक्तात्मनोरेकस्मिन् विषयदेशे लब्धविषयोपरागान बन्धमोच व्यवस्था स्यात् । मुक्तस्यापि बन्धापत्तेरित्यर्थः
॥ २८ ॥
यत्र शङ्कते ।
अदृष्टवशाच्चेत् ॥ ३० ॥
नन्वेकदेश सम्बन्धेन विषयसंयोग साम्येऽप्य दृष्टवशादेवीपरागलाभ इति चेदित्यर्थः ॥ ३० ॥
परिहरति ।
न हयोरेककालायोगादुपकार्य्योपकारक
भावः ॥ ३१ ॥
क्षणिकत्वाभ्युपगमाद्दयोः कर्त्तृभोक्कोरेककालासत्त्वेन नोपकार्य्योपकारकभावः । न कर्तृनिष्ठादृष्टेन भोक्तृनिष्ठो विषयोपरागः सम्भवतीत्यर्थः ॥ ३१ ॥
शङ्कते ।
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सांख्य दर्शनम्। पुत्रकर्मवदिति चेत् ॥ ३२॥ ननु यथा पिटनिष्ठेन पुत्वकर्मणा पुत्रस्योपकारो भवति तहाधिकरणनैवादृष्टेन विषयोपरागः स्यादिव्यर्थः ॥ ३२ ॥ दृष्टान्ता सिधा परिहरति ।
नास्ति हि तत्र स्थिर एकात्मा यो गर्भाधानादिना संस्कियते ॥ ३३ ॥
पुत्रेध्यापि तन्मते पुत्रस्योपकारो न घटते हि यस्मात् तत्र तन्मते गर्भाधानमारभ्य जन्मपर्यन्तं स्थायी एक प्रात्मा नास्ति यो जन्मोत्तरकालौनकर्माधिकारार्थं पुत्रेट्या संस्कियेतेति दृष्टान्तस्याप्यसिद्धिरित्यर्थः । अस्म मते तु स्थैर्याभ्यपगमात् तत्राप्यदृष्ट सामानाधिकरण्यमेवास्ति पुत्रेध्या जनितेन पुत्रो पाधिनिष्ठादृष्टेनैव पुत्रोपाधिद्वारा पुत्रस्योपकारादित्यान्मतेऽपि न दृष्टान्तासिद्धिरिति भावः ॥ ३३ ॥ ___ ननु बन्धस्यापि क्षणिकत्वादनियतकारणकोऽभावकारणको वा बन्धोऽस्त्वित्याशयेनापरो नास्तिकः प्रत्यवतिष्ठते ।
स्थिरकाOसिद्धेः क्षणिकत्वम् ॥ ३४॥ बन्यस्येति शेषः। भावस्तुक्त एव । अत्रायं प्रयोगः विवादास्पदं बन्धादि क्षणिक सत्त्वाहीपशिखादिवदिति । न न घटादौ व्यभिचारस्तस्यापि पक्षसमत्वात्। एतदेवोतं स्थिर कार्यासिझेरिति ॥ ३४ ॥ समाधत्ते ।
न प्रत्यभिज्ञाबाधात् ॥ ३५ ॥ न कस्यापि क्षणिकत्वमिति शेषः। यदेवाहमद्राक्षं तदे
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प्रथमोऽध्यायः।
वाई स्मुशामौत्यादिप्रत्यभिनया स्थैर्यसिहे: क्षणिकत्वस्य बाधात्। प्रतिपक्षानुमानेनेत्यर्थः । तद्यथा बन्धादि स्थिर सत्त्वाइटादिवदिति । असमत एवानुकूलतर्कसत्वेन न सत्प्रतिपक्षता। प्रदौपादौ च सूक्ष्मानेकक्षणानाकलनेन क्षणिकत्वम एव परषामिति ॥ ३५ ॥
श्रुतिन्यायविरोधाच्च ॥३६॥ सदेव सौम्येदमग्र आसीत् तम एवेदमग्र आसौदित्यादिश्रुतिभिः कथमसतः सज्जायतेत्यादिौतादियुक्तिभिश्च कार्यकारणात्मकाखिलप्रपञ्चे क्षणिकत्वानुमानस्य विरोधान्न क्षणिकत्वं कस्यापौत्यर्थः ॥ ३६॥
दृष्टान्तासिद्धेश्च ॥३७॥ प्रदीपशिखादिदृष्टान्ते क्षणिकवासिडेश्च न क्षणिकत्वानुमानमित्यर्थः ॥ ३७॥
किञ्च क्षणिकतावादिनां मृवटादिस्थ सेऽपि कार्यकारणभावः प्रवृत्तिनिवृत्त्यन्यथानुपपत्तिसिद्धो नोपपद्यतेत्याह। युगपज्जायमानयोन कार्यकारणभावः ॥ ३८॥
किं युगपज्जायमानयोः कार्यकारणभाव: किं वा क्रमिकयोः। तत्र माद्यो विनिगमकाभावादिभ्य इति भावः ॥३८॥ नात्य इत्याह।
पूर्वापाये उत्तरायोगात् ॥ ३९ ॥ पूर्वस्य कारणस्यापायकाल उत्तरस्य कार्यस्योत्पत्त्यनौचित्यादपि न क्षणिकवादे सम्भवति कार्यकारणभावः । उपादानकारणानुगततयैव कार्यानुभवादित्यर्थः ॥ ३८ ॥
उपादानकारणमधिकृत्य व दूषणान्तरमाह।
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सांख्यदर्शनम् । तद्भावे तदयोगादुभयव्यभिचारादपि न ॥४०॥
यतः पूर्वस्य भावकाल उत्तरस्यासम्बन्धोऽत उभयव्यभिचारादन्वयव्यतिरेकव्यभिचारादपि न कार्यकारणभाव इत्यर्थः । तथाहि यदोपादेयोत्पत्तिस्तदोपादानं यदा चोपादानामावस्तदोपादेयोत्पत्त्यभाव इत्यन्वयव्यतिरेकेणैवोपादानोपादेययोः कार्यकारणभावग्रहो भवति। तत्र क्षणिकत्वेन क्रमिकयोस्तयोविरुद्धकालतयान्वयव्यतिरेकव्यभिचाराभ्यां न कार्यकारणभावसिद्धिरिति ॥ ४० ॥
ननु निमित्तकारणस्येवोपादानकारणस्यापि पूर्वभावमात्रेणैव कारणतास्तु तबाह ।
पूर्वभावमात्रे न नियमः ॥ ४१ ॥ पूर्वभावमात्राभ्युपगमे चेदमेवोपादानमिति नियमो न स्यानिमित्तकारणानामपि पूर्वभावाविशेषात्। उपादाननिमित्तयोविभागः सर्वलोकसिद्ध इत्यर्थः ॥ ४१ ॥
अपरे तु नास्ति का आहुः। विज्ञानातिरिक्तवस्त्वभावेन बन्धोऽपि विज्ञानमात्रं स्वप्नपदार्थवत्। अतोऽत्यन्त मिथ्यात्वेन न तत्र कारणमस्तीति । तन्मतमपाकरोति।
न विज्ञानमात्र बाह्यप्रतीतेः ॥४२॥ न विज्ञानमात्र तत्त्व बाह्यार्थानामपि विज्ञानवत् प्रती. तिसिदत्वादित्यर्थः ॥ ४२ ॥ __ ननु लाघवतर्केण स्वादिदृष्टान्तै श्यत्वहेतुकमिथ्यात्वानुमानेन बाह्यवस्वनुभवी बाधनोयोऽत्र भवतां श्रुतिस्मती अपि स्तश्चिद्धौदं सर्वं तस्मादिज्ञानमेवास्ति न प्रपञ्चो न सतिरित्यादी इत्यतो दूषणान्तरमाह।
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प्रथमोऽध्यायः ।
तदभाव तदभावाच्छ्न्यं तर्हि ॥ ४३॥ तहि बाह्याभावे शून्यमेव प्रसज्येत न तु विज्ञानमपि । कुतः । तदभावे तदभावाहाह्याभावे विज्ञानस्याप्यभावप्रमङ्गाहिज्ञानप्रतीतेरपि बाह्यप्रतौतिवदवस्तुविषयत्वानुमानसम्भवात् । विज्ञानप्रामाण्य स्य क्वाप्यसिद्धत्वाच्च। तथा विज्ञान प्रमाणानामपि बाह्यतयापलापाचेत्यर्थः। नन्वनुभवे कस्यापि विवादाभावेन नास्ति तत्र प्रमाणापेक्षेति चेन्न शून्यवादिनामेव तत्र विवादात्। अथासतापि प्रमाणेन वस्तु सिध्यति विषयाबाधस्यैव प्रामाण्यप्रयोजकत्वान्न तु प्रमाणपारमार्थिकत्वस्येति चेन्न। एवं सत्यसप्रमाणस्य सर्वत्र सुलभत्वेन क्वाप्यर्थे प्रमाणान्वेषणस्यायोगात्। अथासन्मध्येऽपि व्यावहारिकसत्त्वरूपो विशेषः प्रमाणादिष्वेष्टय इति चेत्। आयातं मार्गेण । किं पुनरिदं व्यावहारिकत्वम्। यदि परिगामित्वं तदास्माभिरपीदृशमेव सत्त्वं ग्राह्यग्राहकप्रमाणानामिष्टं शुतिरजतादितुल्यत्वस्यैव प्रपञ्चेऽस्माभिः प्रतिषेधात्। यदि पुनः प्रतीयमानतामात्रं तदापि तादृशैरव प्रमाणैर्बाह्याथस्यापि सिद्दिप्रसङ्गात् । लाघवतर्कानुग्रहौतन यथाकथञ्जिदनुमानेनैव बाधस्तु विज्ञानेऽपि समान इति। एतेनाधुनिकानां वेदान्तिब्रुवाणामपि मतं विज्ञानवादतुल्ययोगक्षेमतया निरस्तम्। विज्ञानमात्रसत्यताप्रतिपादक श्रुतिस्मृतयस्तु कूटस्थत्वरूपां पारमाथिकसत्तामेव बाह्यानां प्रतिषेधन्ति। न तु परि. णामित्वरूपां व्यावहारिकसत्तामपि ।
यत् तु कालान्तरेणापि नान्यसंज्ञामुपैति वै । परिणामादिसम्भूतां तहस्तु नृप ! तच्च किम् ॥ . वस्तु राजेति यलोके यत् तु राजभटादिकम् ।
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सांख्यदर्शनम् ।
तथान्यञ्च नृपेवं तु न सत् सङ्कल्पनामयम् ॥ इति विष्णु पुराणादिभ्यः परिणामित्वस्यैवासत्तात्वावंगमादिति। सङ्कल्पनामयमोखरादिसङ्कल्परचितम् । एतेन ।
विज्ञानमयमेवैतदशेषमवगच्छत । इत्यादिना विष्णु पुराणे मायामोहरूपिणा विष्णुनासुरभ्योऽपि तत्त्वमेवोपदिष्टम् । ते वनधिकारादिदोषैविपरीतार्थग्रहणेन विज्ञानवादिनो नास्तिका बभूवुरित्यवगन्तव्यम्। तदेतत् सर्व ब्रह्ममीमांसाभाष्थे मायावादनिरसनप्रसङ्गतो विस्तारितमस्माभिः ॥ ४३ ॥
नन्वेवं भवतु शून्यमेव तत्त्व तदा सुतरामेव बन्धकारशान्वेषणं न युक्तं तुच्छत्वादिति नास्तिकशिरोमणिः प्रत्यवतिष्ठते ।
शून्य' तत्त्वं भावो विनश्यति वस्तुधर्मत्वादिनाशस्य ॥४४॥ __ शून्यमेव तत्त्व यतः सर्वोऽपि भावो विनश्यति यश्च विनाशो स मिथ्या स्वप्रवत्। अत: सर्ववस्तनामाद्यन्तयोरभावमात्र त्यामध्ये क्षणिकसत्त्व सांवत्तिकं न पारमार्थिक बन्धादि । ततः किं केन बध्येतत्वाशयः। भावानां विना. शित्वे हेतुर्वस्तुधर्मवाहिनाशस्येति। विनाशस्य वस्तुस्वभाजत्वात्। स्वभावं तु विहाय न पदार्थस्तिष्ठतौत्यर्थः ॥४४॥ परिहरति ।
अपवादमावमबुद्धानाम् ॥ ४५ ॥ भाववाहिनाशित्वमिति मूढ़ानामपवादमान मिथ्यावाद एव । नाशकारणाभावेन निरवयवद्रयाणां नाशासम्भवात् ।
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प्रथमोऽध्यायः। कार्याणामपि विनाशासिद्धेश । घटो जीर्ण इति प्रत्ययवदेव घटोऽतीत इत्यादिप्रतीत्या घटादेरतीताख्याया अवस्थाया एवं सिद्धेः। अव्यक्ततायाश्च कार्यातीतताभ्युपगमेऽस्मन्मत. प्रवेश एव। किञ्च विनाशस्य प्रपञ्चतत्त्वाभ्युपगमेऽपि विनाश एव बधस्य पुरुषार्थः सम्भवत्ये वेति । कश्चित् तु व्याचष्टे । शून्य तत्त्वमित्यज्ञानां कुत्सितवादमानं न पुनरत्र युक्तिरस्ति । प्रमाणसत्त्वासत्त्वविकल्पासहत्वात्। शून्ये प्रमाणाङ्गीकार तेनैव शून्यताक्षतिः । अनौकार प्रमाणाभावान शून्यसिद्धिः । स्वतः सिद्धौ च चिद्रूपताद्यापत्तिरित्यर्थ इति। न च ।
न निरोधो न चोत्पत्तिन बद्धो न च साधकः । न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्यषा परमार्थता ॥ सर्वशून्य निरालम्ब स्वरूपं यत्र चिन्त्यते । अभावयोगः स प्रोक्तो येनात्मानं प्रपश्यति ॥ इति श्रुतिस्मृतिभ्यामपि शून्यं तत्त्वतया प्रतिपाद्यत इति वायम् । पुरुषाणां निरोधाद्यभावस्यैव तादृशौष श्रुतिषु तत्त्वतयोतत्वात्। पूर्वोत्तरवाक्याभ्यां पुरुषस्यैव प्रकरणात् । विलौनविश्वचिदाकाशस्यैवैतादृशस्मृतिषु तत्त्वतया प्रतिपादनाच।
त्रैलोक्यं गगनाकारं नभस्तुल्यं वपुः स्वकम् । वियदुगामि मनो ध्यायन् योगी ब्रह्मैव गोयते ॥ इत्यादिवाक्यान्तरैरेकवाक्यत्वात् । आकाशशून्ययोः पर्यायत्वादिति। मनोमहत्तत्त्वाखिलान्तःकरणं वियद्गामि चिदाकाशे लोनम् ॥ ४५ ॥
दूषणान्तरमाह।
उभयपक्षसमानक्षेमत्वादयमपि ॥ ४६ ॥
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सांख्यदर्शनम् । क्षणिकबाह्यविज्ञानोभयपक्षयोः समानलेमत्वात् तुल्यनिरसन हे तुकवादयमपि पक्षो विनश्यतीत्यनुषङ्गः । क्षणिकपक्षनिरासहेतुर्हि प्रत्यभिज्ञानुपपत्त्यादिः शून्यवादेऽपि समानः । तथा विज्ञानपक्षनिरासहेतुर्बाह्यप्रतीत्यादिरप्यत्र समान इत्यर्थः ॥ ४६ ॥
यदपि दुःखनिवृत्तिरूपतया तत्साधनतया वा शून्यतैवास्तु पुरुषार्थ इति मन्यते तदपि दुर्घटमित्याह ।
अपुरुषार्थत्व मुभयथा ॥ ४७॥ उभयथा स्वतः परतश्च शून्यतायाः पुरुषार्थत्व न सम्भवति । स्वनिष्ठत्वेनैव सुखादीनां पुरुषार्थत्वात्। स्थिरस्य च पुरुषस्यानभ्यु पगमादित्यर्थः ॥ ४७ ॥
तदेवं बन्धकारण विषये नास्तिकमतानि दूषिताति । इदानीं पूर्वनिरस्तावशिष्टान्यास्तिकसम्भाव्यान्यप्यन्यानि बन्धकारणानि निरस्यन्ते ।
न गतिविशेषात् ॥४८॥ प्रकरणादबन्धो लभ्यते। न गतिविशेषात् शरीरप्रवेशादिरूपादपि पुरुषस्य बन्ध इत्यर्थः ॥ ४८ ॥
अत्र हेतुमाह।
निष्क्रियस्य तदसम्भवात् ॥ ४६॥ निक्रियस्य विभोः पुरुषस्य गत्यसम्भवादित्यर्थः ॥ ४८ ॥
ननु श्रुतिस्मृत्योरिहलोकपरलोकगमनागमनश्रवणात् पुरुषस्य परिच्छिवत्वमेवास्तु । तथा च श्रुतिरपि । अङ्गष्ट. मात्रः पुरुषोऽन्तरात्मेत्यादिरित्याशङ्कामपाकरोति ।
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प्रथमोऽध्यायः।
मूर्त्तत्वाहटादिवत् समानधर्मापत्तावपसिशान्तः ॥५०॥
यदि च घटादिवत् पुमान् मूर्तः परिच्छिनः स्वीक्रियते। तदा सावयवत्वविनाशित्वादिना घटादिसमानधर्मा पत्तावपसिद्धान्तः स्यादित्यर्थः ॥ ५० ॥
गतिश्रुतिमुपपादयति। गतिश्रुतिरप्युपाधियोगादाकाशवत् ॥५१॥
या च गतिश्रुतिरपि पुरुषेऽस्ति सा विभुत्वश्रुतिस्मृतियुक्त्यनुरोधेनाकाशस्येवोपाधियोगादेव मन्तव्येत्यर्थः । तत्र च प्रमाणम्।
घटसंवृतमाकाशं नीयमाने घटे यथा ।
घटो नौयेत नाकाशं तहज्जीवो नभोपमः ॥ बडेगुणेनात्मगुणेन चैव पाराग्रमानो ह्यवरोऽपि दृष्टः ।
इत्यादिश्रुतिः। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरित्यादिका च स्मृतिः । मध्यम परिमाणत्वे सावयवत्वापत्त्या विनाशित्वमणुत्वं च देहव्यापिज्ञानाद्यनुपपत्तिरित्यादिश्च युक्तिरिति । अत एव।
प्रकृतिः कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम् ।
प्रकृतिश्च तदनाति त्रिषु लोकेधु कामगा ॥ __ इत्यादिस्मृतिभिः प्रकृतरेव विशिष्य क्रियारूपा गतिः स्मर्य्यत इति ॥५१॥
न कर्मणाप्यतधर्मत्वात् ॥ ५२॥ कर्मणा दृष्टेनापि साक्षाव पुरुषस्य बन्धः । कुतः। पुरुषधर्मवाभावादित्यर्थः । पूर्व विहितनिषिव्यापाररूपेण कर्मचा
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सांख्यदर्शनम्।
बन्धो निराकृतः। यत्र तु तज्जन्यादृष्टेनेत्यार्थिकविभागादपौनरुत्यम् ॥ ५२॥ नन्वन्यधर्मेणाप्यन्यस्य बन्ध: स्यात् तबाह ।
अतिप्रसक्तिरन्यधर्मवे ॥ ५३ ॥ बन्धतत्कारणयोभिन्नधर्मतिप्रसक्ति मुक्त प्रापि बन्धा. पत्तिरित्यर्थः ॥ ५३॥
किं बहुना। स्वभावादिकर्मान्तरन्येन वा केनापि पुरुषस्य बन्धात्पत्तिर्न घटते श्रुतिविरोधादिति साधारणं बाधकमाह।
निर्गुणादिश्रुतिविरोधश्चेति ॥ ५४॥ पुरुषबन्धस्यानोपाधिकले साक्षी चेता केवलो निर्गणश्वेत्यादिश्रुतिविरोधश्चेत्यर्थः। इतिशब्दो बन्धहेतुपरीक्षा समाप्तौ ॥ ५४॥
तदेवं न स्वभावतो बद्धस्सेत्यादिना प्रघट्टकेनेतरप्रतिषेधतः प्रकतिपुरुषसंयोग एव साक्षाहन्ध हेतुरवधारितः। तत्रेयमाशङ्का। ननु प्रकृतिसंयोगोऽपि पुरुषे स्वाभाविकत्वादिविकल्पग्रस्तः कथं न भवति संयोगस्य स्वाभाविकत्वकालादिनिमित्तकत्वं हि मुक्तस्यापि बन्धापत्तिरित्यादिदोषा यथायोग्य समाना एवेति । तामिमामाशङ्कां परिहरति ।
तद्योगोऽप्यविवेकान समानत्वम् ॥ ५५ ॥
पूर्वोतातद्योगोऽपि पुरुषस्याविवेकाहक्ष्यमाणादविवेकादेव हि निमित्तात् संयोगो भवति। अतो नोक्तदोषाणां समानत्वमस्तीत्यर्थः। स चाविवेको मुक्तोषु नास्तीति न तेषां पुनः संयोगो भवतीति । नन्वविवेकोऽत्र न प्रकृतिपुरुषाभेद
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प्रथमोऽध्यायः।
साक्षात्कारः। संयोगाप्रागसत्त्वात् । किन्तु विवेकपागभामे विवेकाख्यज्ञानवासना वा तदुभयमपि न पुरुषधर्मः। किन्तु बुद्विधर्म एवेत्य न्यधर्मेणान्यत्र संयोगेऽतिप्रसङ्गदोषसाम्यमस्त्येवेति चेत् । मैवम् । विषयतासम्बन्धेनाविवेकस्य पुरुषधर्मत्वात्। तथा च प्रकतिर्बुद्धिरूपा सती यस्मै खामिपुरुषाय तनुं विविध न दर्शितवती वत्तिदर्शनार्थं तदीयबुद्धिरूपेण तत्रैव पुरुषे संयुज्यत इति व्यवस्थयातिप्रसङ्गाभावात् । तदुक्तं कारिकया।
पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्या) तथा प्रधानस्य । पङ्ग्वन्धवटुभयोरपि संयोगस्तत्वतः सर्गः ॥ इति । स्वामिने पुरुषाय प्रधानेन दर्शयितु तयोः कैवल्यार्थं चेत्यर्थः । अविवेकस्य वृत्तिरूपत्व तु वामान न तु तत्त्व चित्तस्थितेरित्यागामिसूत्रे वक्ष्यामः । अविवेकच संयोगहारैव बन्धकारणं प्रलये बन्धादर्शनात्। अविवेकनाशेऽपि जीवन्मुक्तस्य दु:खभोगदर्शनाच्च । अतः साक्षादेवाविवेको बन्धकारणं प्राडोमः। ननु भोग्यभोक्तभावनियामकले न लप्सस्थानादिखखामिभावस्य कर्मादीनां वा संयोगहेतुत्वमस्तु किमित्य विवेकोऽपि संयोगहेतुरिष्यत इति चेन्न ।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणान् । कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
इति गौतायां सनाख्याभिमानस्य संयोगहेतुत्वस्मरणात् । वक्ष्यमाणादिवाक्ययुक्तिभ्यश्चान्यथा ज्ञानतामोक्षस्य श्रुतिस्मतिसिद्धस्यानुपपत्तेश्च । अथैवमपि खोपाधिकर्मादिकमपि संयोगकारणं भवति तहिहाय कथमविवेक एव केवलं तत्र कारणमुच्यत इति । उच्यते । अविवेकापेक्षया कर्मादीनामपि परम्परयैव पुरुषसम्बन्धः। तथाविवेक एव पुरुषेण साक्षाच्छेत्तु
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१८
सांख्यदर्शनम् ।
शक्यते कर्मादिकं त्वविवेकाख्य हेतूच्छेदद्वारे वेत्याशयेनाविवेक
1
।
एव मुख्यतः संयोग हेतुतयोक्त इति । श्रयं चाविवेकोऽग्टहीतासंसर्गक मुभयज्ञानमविद्यास्थलाभिषिक्त एव विवक्षितः । बन्धो विपर्ययाद्विपर्ययभेदाः पञ्चैत्यागामिसूत्रद्दयात् । तस्य हेतुरविति योगसूत्र ऽप्यविद्याया एव पञ्च पर्याया बुद्धिपुरुषसंयोगहेतुतावचनाच्चान्यथाख्यात्यनभ्युपगममात्र एवं योगतोऽत्र विशेषौचित्यात् । न पुनरविवेकोऽवाभावमाचं विवेकप्रागभावो वा । मुक्तस्यापि बन्धापत्तेः । जीवन्मुक्तस्यापि भाविविवेकव्यक्तिप्रागभावेन धर्माधर्मोत्पत्तिद्दारा पुनर्बन्धप्रसङ्गाश्च । तथागामिसूत्रस्थध्वान्तदृष्टान्तानुपपत्तेश्च । अभावस्य ध्वान्तवदावरकत्वासम्भवात् । तथा वृद्धिहासावप्यविवेकस्य श्रूयमाणौ नोपपद्येयातामिति । अस्मन्मते च वासनारूपस्यैवाविवेकस्य संयोगाख्यजन्म हेतुतया तमोवदावरकत्ववद्धिप्रासादिकमञ्जसैवोपपद्यते । तस्य हेतुरविद्येति पातञ्जलसूत्रे च भाष्यकारेरविद्याशब्देनाविद्यावीजं व्याख्यातम् । ज्ञानस्य संयोगोत्तरकालीनत्वेन संयोगाजनकत्वादिति । अपि च पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुक्त इत्यादिवाक्येष्वभिमानाख्य संयोगस्य व प्रकृतिस्थताख्य संयोग हेतुतावगम्यते । अत एव चाविद्या नाभावोऽपि तु विद्याविरोधिज्ञानान्तरमिति योगभाष्ये व्यासदेवैः प्रयत्न नावष्टतम् । तस्मादविवेकाविद्ययोस्तुल्ययोगक्षेमतयाविवेकस्यापि ज्ञानविशेषत्वमिति सिद्धम् । श्रयञ्चाविवेकस्त्रिधा संयोगाख्यजन्म हेतुः साचाद्धर्माधर्मोत्पत्तिद्वारा रागादिदृष्टद्वारा च भवति । सति मूले तद्विपाक इति योगसूत्रात् कर्त्तास्मीति निवध्यत इति स्मृतेः । वीतरागजन्मादर्शनादिति न्यायसूत्राच्च । तदुक्तं मोचधर्मेऽपि । ज्ञानेन्द्रियाणीन्द्रियार्था नोपसर्पन्यतर्षुलम् ।
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प्रथमोऽध्यायः ।
होनश्च करणैर्देही न देहं पुनरर्हति । तस्मात् तर्षात्मकाद्रागाहोजानायन्ति जन्तवः ।
इति। रागस्त्वविवेककार्य्य इति योगसूत्राभ्यामप्य तत् प्रत्य तव्यं समानतन्त्र न्यायात् । तच सूत्रहयं क्लशमूलः को शचाकर्माशयः। सति मूले तद्दिपाको जात्यायु गा इति सोशवाविद्यादिपञ्चकमिति। अविवेकस्य बन्धजनने हारजातं च पिण्डोवत्य श्वरगौतायामुक्तम् ।
अनात्मन्यात्मविज्ञानं तस्माद् दुःख तथेतरत्। रागहेषादयो दोषाः सर्वे धान्तिनिबन्धनाः ॥ कार्यो यस्य भवेद्दोषः पुण्यापुण्यमिति श्रुतिः । तहोषादेव सर्वेषां सर्वदेहसमुद्भवः ॥
इति। एतदेव न्याये सूवितम्। दुःखजन्मपत्तिदोषमिथ्याझानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्ग इति तदेवं संयोगाख्यजन्महारा बन्धाख्यहेयस्य मूलकारणमविवेक इति हेयहेतुः प्रतिपादितः ॥ ५५ ॥
इतः परं क्रमप्राप्तं हानोपायव्यूहमतिविस्तरेणाशास्त्रसमाप्तिः प्रतिपादयति । अन्तरान्तरा चोक्तव्यूहानपि विस्ता. रयिथति।
नियतकारणात् तच्छित्तिर्ध्वान्तवत् ॥५६॥
शक्तिरजतादिस्थले लोकसिई यत्रियतकारणं विवेकसाक्षात्कारस्तस्मात् तस्याविवेकस्योच्छित्तिर्भवति ध्वान्तवत् । यथा ध्वान्तमालोकादेव नियतकारणावश्यति नोपायान्तरेण तथैवाविवेकोऽपि विवेकादेव नश्यति न तु कर्मादिभ्यः साक्षादित्यर्थः । तदेतदुक्त योगसूत्रेण विवेकख्यातिरविधवा हानी
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सांख्यदर्शनम्। पाय इति कर्मादौनि तु ज्ञानस्यैव साधनानि योगाङ्गानुष्ठानादशक्षिये ज्ञानदौप्तिराविवेकख्यातेरिति योगसूत्रण सत्त्वशद्विहारा ज्ञान एवं योगानान्तर्गतसर्वकर्मणां साधनत्वाव. धारणादिति। प्राचौनास्तु वेदान्तिनो मोक्षेऽपि कर्मणो जानाङ्गत्वमाहुः। विद्यां चाविद्यां च यस्तह दोभयं महाविययामृत्य तो| विद्ययामृतमश्रुत इति श्रुतौ सहकारित्वेन चेति वेदान्तसूत्रे चाङ्गाङ्गिभावेन जानकर्मणोः सहकारित्वावधारणात्।
ज्ञानिनाज्ञानिना वापि यावद्दे हस्य धारणम् । ताववर्णाश्रमप्रोक्तं कर्त्तव्य कर्ममुक्तये॥
इत्यादिस्मृतेश्च । उपमर्द चति वेदान्तसूत्रेण तु कर्मत्यागो योगारूढस्य न्यायप्राप्तोऽनद्यत एव भानस्य मुख्यतो मोक्षहेतुत्व व्यवस्थापयितुम् । यदि हि विक्षेपकत्वात् कर्म जानाभ्यासस्य विरोधि भवेत् तदा गुणलोपे न गुणिन इति न्यायेन प्रधानरक्षार्थमङ्गभूतं कर्मैव त्याज्यं जडभरतादिवदित्याशयादिति । तेषां मतेऽपि विवेक हारतां विना विवेकनाश. कत्व कर्मणो नैव सिध्यतीति न तहिरोधः। अत्र सूत्रे ध्वान्तस्यालोकनाश्यत्ववचनात् तमोऽपि द्रव्यमेव। न त्वालोकाभावः । असति बाधके नीलं तम इत्यादिप्रत्ययानां नमः वानौचित्यात् । न च कप्त नैवोपपत्तावतिरिकल्पनागौरव. मेव बाधकमिति वाच्यम् । एवं च सति विज्ञानमात्रेणैव स्वप्न वत् सर्वव्यवहारोपपत्तावतिरित कल्पनागोरवेण बाह्यार्थप्रती. तेरपि बाधापत्त: । तस्मादत्र प्रामाणिकवादगौरवं न दोषायेति । ननु विवेकज्ञानं विनाप्यविवेकाख्यज्ञानव्यक्तीनां स्वस्वबतौयक्षणेऽवश्यं विनाशाजमानस्य तन्नाशकत्वं किमर्थमिथत इति चेत् । प्रविवेकशब्देन तहासनाया एव पूर्वसूत्र व्याख्या
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प्रथमोऽध्यायः ।
तत्वात् । अनागतावस्थस्य अविवेकस्यास्मन्मते नाशसम्भवाञ्चेति
॥ ५६ ॥
ननु प्रकृतिपुरुषाविवेक एव चेत्थं संयोगद्दारा बन्धहेतु - स्तयोर्विवेक एव च मोक्षहेतुस्तर्हि देहाद्यभिमानसत्त्वऽपि मोक्षः स्यात् । तञ्च श्रुतिस्मृतिन्यायविरुद्धमिति तत्राह । प्रधानाविवेकादन्याविवेकस्य तड्वाने हानम्
४१
॥ ५७ ॥
पुरुषे प्रधानाविवेकात् कारणाद्योऽन्याविवेको बुझाद्यविवेको जायते काव्याविवेकस्य कार्य्यतयानादिकारणाविवेकमूलकत्वात् तस्य प्रधानाविवेकहाने सत्यवश्यं हानमित्यर्थः । यथा शरीरादात्मनि विविक्त शरीरकार्येषु रूपादिष्वविवेको न सम्भति तथा कूटस्थत्वादिधर्मेः प्रधानात् पुरुषे विविक्त तत्कार्येषु परिणामादिधर्मकेषु बुद्धयादिष्वभिमानो नोत्पत्तुमुत्सहृत तुल्य न्यायात् कारणनाशाचेति भावः । तदेतत् प्रयते । चित्राधारपटत्यागे त्यक्त तस्य हि चित्रकम् ।
प्रकृतविरमे चेत्थं ध्यायिनां के स्मरादयः ॥
इति । विरमो विरामस्त्यागः | आदिशब्देन द्रव्यरूपा अपि विकारा ग्राह्या इति । यच्च बुद्धिपुरुषविवेकादेव मोक्ष इत्यपि क्वचिदुच्यते । तत्र स्थूलसूक्ष्म बुद्धिग्रहणात् प्रकृतेरपि ग्रहणम् । अन्यथा बुद्धिविवेकेऽपि प्रक्कत्यभिमानसम्भवादिति । ननु बुझाद्यभिमानातिरिक्ते प्रक्कत्यभिमाने किं प्रमाणमहमन्त्र इत्याद्यखिलाभिमानानां बुयादिविषयत्वेनैवोपपत्तेरिति
चेन्न ।
मृत्वा मृत्वा पुनः सृष्टौ स्वर्गी स्यां मा च नारकी । इत्याद्यभिमानानां प्रधानविषयत्वं विनानुपपत्त े ।
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४२
सांख्यदर्शनम्।
प्रतीतानां बुयायखिलकार्याणां पुनः सृध्यभावात् प्रधानस्य विदमेव प्रलयानन्तरं जन्म यबु धादिरूपैकपरिणामत्यागेनापरबुधादिरूपतया परिणमनमिति। न चात्मनि जन्मादिज्ञानमभिमान एव न भवति पुरुषस्यापि लिङ्गशरीर. संयोगवियोगरूपयोर्जन्ममरणयोः पारमार्थिकत्वादिति वाच्यम्।
न जायते वियते वा कदाचित् ।
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । इत्यादिवाक्य जन्मादिप्रतिषेधेनोत्पत्तिविनाशाभिमानरूपस्यात्मनि जन्मादिज्ञानस्य सिद्धेरप्रसत्तास्य प्रतिषेधायो. गात्। किञ्च बुद्धयादिषु पुरुषाणामभिमानोऽनादिवक्त न शक्यते बुद्धग्रादीनां कार्य वात् । अत: कार्येष्वभिमानव्यवस्थार्थ नियामकाकाङ्क्षायां कारणाभिमान एव नियामक तया सिध्यति लोके दृष्टत्वात् कल्पनायाश्च दृष्टानुसारित्वात् । यथा लोके दृष्टः क्षेत्राभिमानात् क्षेत्रजन्यधान्यादिष्वभिमान: । सुवर्णाभिमानाञ्च तज्जन्यकटकादिष्वभिमानः । तयोनिवृत्त्या च तयोनिवृत्तिरिति प्रधानाभिमानत हासनयोश्च वीजाकरवदनादित्वान तदभिमाने नियामकान्तरापेक्षेति ॥ ५७॥
एवं प्रतिपादिते चतुर्य हे पुनरियमाशङ्का। ननु पुरुषे चेबन्धमोक्षौ विवेकाविवेकी खौकतो तर्हि नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्यति खोक्तिविरोधः । तथा च ।
न विरोधो न चोत्पत्तिन बडो न च साधकः । न मुमुक्षुन वै मुक्त इत्योषा परमार्थता। इत्यादिश्रुतिविरोधश्चेति। तां परिहरति ।
वाङ्मात्रौं न तु तत्व चित्तखितेः ॥३८॥
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प्रथमोऽध्यायः।
बधादीनां सर्वेषां चित्त एवावस्थानात् तत् पुरुषे वानावं सर्व स्फटिकलौहित्यवत् प्रतिविम्बमानत्वाव तु तत्त्व तस्य भावः । अनारोपितं जपालौहित्यवदित्यर्थः। अतो नोक्ता. विरोध इति भावः । स समान: सबभी लोकावनुसन्चरति ध्यायतीव लेलायतीवेत्यादिश्रुतयस्त्वत्व प्रमाणम्। पुरुषः समानो लोकयोरेकरूपः । इवशब्दाभ्यां नानारूपत्वस्यौपाधिकत्वमुक्ताम् । तथा चोक्तम्। बन्धमोक्षौ सुखं दुःखं मोहापत्तिश्च मायया। खप्ने यथात्मनः ख्याति: संमृतिर्न तु वास्तवौ ॥
इति । मायया मायाख्यप्रवत्योपाधिकौत्यर्थः । नन्वेवं तुच्छस्य बन्धस्य हानं कथं पुरुषार्थः कथं वान्यधर्माभ्यामविवेकविवेकाभ्यामन्यस्य बन्धमोक्षस्वीकार कर्मादिभिरिव नाव्यवस्थेति चेदवोक्तप्रायमपि पुन: प्रपञ्चाते। यद्यपि दु:खयोगरूपो बन्धो रत्तिरूपी च विवेकाविवेको चित्तस्यैव तथापि पुरुषे दुःखप्रतिविम्ब एव भोग इत्यवस्तुत्वेऽपि तहानं पुरुषार्थः । दुःखं मा भुनायेति प्रार्थनात्। एवं यस्मै पुरुषाय प्रकांतरविवेकेनात्मानं दर्थितवती तहासनावशात् तमेव संयोगहारा बध्नाति नान्यम् । तथा यसै विवेकेनात्मानं दर्शितवतो तमेव स्ववियोगहारा मोचयति । वासनोच्छेदादिति व्यवस्थापि घटत इति । कर्मादिभिर्बन्धाभ्य पगमे त्वेवं व्यवस्था न घटते। कर्मादीनां साक्षिभास्यत्वाभावेन साक्षात् पुरुषेष्वप्रतिविम्ब. नादिति ॥५॥ ___ ननु बन्धादिकं चेत् पुरुषे वामात्र तर्हि श्रवणेन युक्त्या वा तस्य बाधो भवतु किमर्थ अतिस्पत्योः साक्षात्कारपर्यन्त विवेकन्जानमुपदिश्यते मोक्षहेतुतयेति। तबाह ।
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४४
सांख्यदर्शनम्।
युक्तितोऽपि न बाध्यते दिमूढ़वदपरोक्षाहते ॥ ५९॥
युक्तिर्मननम्। अपिशब्दः श्रवणसमुच्चयार्थः। वाङ्मावमपि पुरुषस्य बन्धादिकं श्रवणमननमात्रेण न बाध्यते साक्षात्कारं विना यथा दिन ढस्य जनस्य वामानमपि दिग्दै । परीत्य श्रवणयुक्तिभ्यां न बाध्यते साक्षात्कारं विनेत्यर्थः । प्रकते चेदमेव बाध्यत्व यत्पुरुषे बन्धादिबुद्धिनिवृत्तिनं त्वभावसाक्षात्कारः श्रवणादिना तदुत्पत्तिसम्भावनाया अप्यभावादिति। अथवेत्थं व्याख्येयम्। ननु नियतकारणात् तदुच्छित्तिरित्यनेन विवेकज्ञानमविवेकोच्छेदकमुक्तम्। तजज्ञानं किं श्रवणादिसाधारणमुतास्ति कश्चिहिशेष इत्याकाकायामाह। युतितोऽपौत्यादिसूत्रम् । अविवेको युक्तित: श्रवणतश्च न बाध्यते नोच्छिद्यते विवेकापरोक्षं विना दिमोहबदित्यर्थः । साक्षात्कार मे साक्षात्कारविशेषदर्शनस्य व विरोधित्वादिति ॥५॥
तदेवं विवेकसाक्षात्कारान्मोक्षं प्रतिपाद्यतः परं विवेकः प्रतिपादनीयः । तत्रादौ प्रकृतिपुरुषादीनां विवेकत: सिद्धी प्रमाणान्युप न्यस्यन्त ।
अचाक्षुषाणामनुमानेन बोधो धूमादिभिरिव वरुः॥ ६ ॥
अचाक्षुषाणामप्रत्यक्षाणाम् । केचित् तावत् पदार्थाः स्थूलभूततत्कायंदेहादयः प्रत्यक्षसिद्धा एव। प्रत्यक्षेणासिद्धानां प्रकृतिपुरुषादीनामनुमानन प्रमाणेन बोध: पुरुष. निष्ठफल सिद्धिर्भवति यथा धूमादिभिर्जनितेनानुमानन वड़े: सिद्धिरित्यर्थः। अनुमानासिहमप्यागमात् सिध्यतीत्वपि
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प्रथमोऽध्यायः।
४५
बोध्यम् । अस्य शास्त्रस्यानुमानप्राधान्यात् तु केवलानुमानस्थ मुख्यतयैवोपन्यासो न त्वागमस्यानपेक्षेति । तथा च कारिका।
सामान्यतस्तु दृष्टादतीन्द्रियाणां प्रतीतिरनुमानात् । तस्मादपि चासिद्ध परोक्षमाप्तागमात् सिद्धम् । इति । अनेन च सूत्रेणदं मननशास्त्रमित्यवगम्यते ॥६० ॥
उक्तप्रमाणैः साध्यस्य विवेक स्य प्रतियोग्यनुयोगिपदार्थानां संग्रहसूत्र वक्ष्यमाणानुमानोपयोगिकार्यकारणभावमपि प्रदशयति। __ सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेमहान् महतोऽहङ्गारोऽहङ्कारात् पञ्च तन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं तन्मावेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः ॥ ६१॥
सत्वादीनि द्रव्याणि न वैशेषिका गुणा: संयोगविभागवत्त्वात्। लघुत्वचलत्वगुरुत्वादिधर्मकत्वादिधर्मकत्वाच । तेष्वत्र शास्त्रे श्रुत्यादौ च गुणशब्दः सुरुषोपकरणत्वात् पुरुषपशुबन्धकत्रिगुणात्मकमहदादिरज्जुनिर्माटत्वाञ्च प्रयुज्यते । तेषां सत्त्वादिद्रव्याणां या साम्यावस्था न्यूनानतिरिक्तावस्था न्यूनाधिकभावेनासंहतावस्थेति यावत्। अकार्य्यावस्थे ति निष्कर्षः । अकार्य्यावस्थोपलक्षितं गुणसामान्य प्रकृतिरित्यर्थः । यथाश्रुते वैषम्यावस्थायां प्रकृति नाशप्रसङ्गात् ।
सत्त्वं रजस्तम इति एषैव प्रकृतिः सदा । एषैव संसृतिर्जन्तोरस्याः पारे परं पदम् ॥ इत्यादिस्मृतिभिर्गुणमात्रस्य व प्रकृतित्ववचनाच । सत्त्वा. दौनामनुगमाय सामान्येति । पुरुषव्यावर्तनाय गुणेति । महदादिव्यावर्तनाय चोपलक्षितान्तमिति। महदादयोऽपि
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84
सांख्यदर्शनम् ।
हि काय्र्यसत्वादिरूपाः पुरुषोपकरणतया गुणाय भवन्तौति । तदत्र प्रकृतेः स्वरूपमेवोक्तम् । अस्या विशेषस्तु पश्चादक्ष्यते । प्रकृतेः कार्य्यो महान् महत्तत्त्वम् । महदादीनां स्वरूपं विशेषश्च वक्ष्यते । महतव कार्योऽहङ्कारः । श्रहङ्कारस्य कार्य्ययं तन्मात्राण्य भयमिन्द्रियं च । तत्त्रोभयमिन्द्रियं बाह्याभ्यन्तरभेदेनैकादशविधम् । तन्मात्राणां कार्य्याणि पञ्च स्थूलभूतानि । स्थलशब्दात् तन्मात्राणां सूक्ष्मभूतत्वमभ्युपगतम् । पुरुषस्तु काव्यकारणविलक्षण इति । इत्येवं पञ्चविंशतिर्गणः पदार्थव्यूह ह एतदतिरिक्तः पदार्थो नास्तीत्यर्थः । अथवा सत्त्वादीनां प्रत्येक व्यक्त्यानन्त्य' गणशब्दो वक्ति । अयं च पञ्चविंशतिको गणो द्रव्यरूप एव । धर्मधर्म्यभेदात् तु गुणकर्मसामान्यादीनामत्रैवान्तर्भावः । एतदतिरिक्तपदार्थसत्त्वे हि ततोऽपि पुरुषस्य विवेक्तव्यतया तदसंग्रह न्यूनतापद्येत । एतेन सांख्यानामनियतपदार्थाभ्य ुपगम इति मूढप्रलाप उपेक्षणीयः । दिक्कालौ चाकाशमेव। दिक्कालावाकाशादिभ्य इत्यागामिस्वात् । एत एव पदार्थाः परस्परप्रवेशाभ्यां क्वचित् तन्त्र एकमेव क्वचित् तु षट् क्वचिश्च षोडश कचिच्च संख्या न्तरैरप्युपदिश्यन्ते । विशेषस्तु साधम्यवैधम्र्म्य मात्र इति मन्तव्यम् । तथा चोक्तं भागवते ।
ܘ
एकस्मिन्नपि दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च ।
पूर्वस्मिन् वा परस्मिन् वा तत्त्वे तच्त्वानि सर्वशः ॥ इति नानाप्रसंख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतम् । सर्व न्याय्यं युक्तिमत्वादिदुषां किमशोभनम् ॥
1
इति । एते च पदार्थाः श्रुतिष्वपि गणिताः यथा गर्भोपनिषदि । अष्टौ प्रकृतयः षोडश विकारा इति । प्रश्नोपनियदि च पृथिवी च पृथिवीमात्रा चेत्यादिना । एवं मैत्रेयोप
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प्रथमोऽध्यायः।
निषदादिष्वपि । अष्टौ च प्रकृतयः कारिकया व्याख्याताः।
मूलप्रकृतिरविवतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिनं विकृतिः पुरुषः ॥
इति । एकमेवाद्वितीयं तत्त्वमिति श्रुतिस्मतिप्रवादस्तु सर्वतत्त्वानां पुरुषे विलापनेन शक्तिशक्तिमदभेदेनेल्यविरोध: । लयस्तु सूक्ष्मीभावेनावस्थानं न तु नाश इति तदुक्तम् ।
बासौज्ञानमयोऽप्यर्थ एकमेवाविकल्पितम्। अविकल्पितमविभक्तम् । एतच्च ब्रह्ममीमांसाभाष्येऽहेतप्रसङ्गतो विस्तरेणोपपादितम् । विशेषस्वयं यत् सेश्वरवादेन्यतत्त्वानां तत्रैवाविभागादीवरचैतन्यमेवैकं तत्त्वम् । निरीखस्वादे तु विवेणिवदन्योन्याविभक्त तयैकस्मिन् कूटस्थे तेजोमण्ड लवदादित्यमण्डले प्रकृत्याख्य सूक्ष्मावस्थया महदादेरविभागादात्मैवैकं तत्त्वकिति तथा च वक्ष्यति। नाईतयुतिविरोधो जातिपरत्वादिति ॥ ६१ ॥
एतेषु पदार्थेष्वचाक्षुषाणामनुमानेन बोधं प्रतिपादयति सूत्रजातन।
स्थूलात् पञ्चतन्मात्रस्य ॥ १२॥ बोध इत्यनुवर्तते स्थलं तावञ्चाक्षुषमेव तञ्च सन्मावकार्यतयोक्तम् । ततः स्थूलभूतात् कार्यात् तत्कारणतया तन्मात्रानुमानेन स्थलविवेकतो बोधः इत्यर्थः। आकाशसाधारण्याय स्थूलत्वमत्र बाह्येन्द्रियग्राह्यगुणकत्व शान्तादिविशेषवत्त्वं वा। तन्मात्राणि च यज्जातीयेषु शान्तादिविशेषत्रयं म तिष्ठति तज्जातीयानां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानामाधारभूतानि सूक्ष्मद्रव्याणि स्थूलानामविशेषाः।
तस्मिंस्तस्मिंस्तु तन्मात्रास्तेन तम्मानता स्मता।
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सांख्यदर्शनम् ।
न शान्ता नापि घोरास्ते न मूढाश्चाविशेषिणः ॥
इति विष्णुपुरादिभ्यः । अस्यायमर्थः तेषु तेषु भूतेषु तन्मावास्तिष्ठन्तीति कृत्वा धर्मधर्म्य भेदाद्द्रव्याणामपि तन्मावता स्मृता । ते च पदार्थाः शान्तघोरमूढाख्यैः स्थूलगतशब्दादिविशेषः शून्या एकरूपत्वात् । तथा च शान्तादिविशेषशून्यशब्दादिमत्त्वमेव भूतानां शब्दादितन्मात्रत्वमित्याशयः । अतोऽविशेषसंज्ञिता इति । शान्त सुखात्मकं घोरं दुःखात्मकं मूढं मोहात्मकम् । तन्मात्त्राणि च देवादिमालभोग्यत्व ेन केवलं सुखात्मकान्येव सुखाधिक्यादिति । अत्र दमनुमानम् । अपकर्षकाष्ठापनानि स्थूलभूतानि स्वविशेषगुणवद्रव्योपादानकानि स्थूलत्वाइटपटादिवदिति । अत्रानवस्थापत्त्या सूक्ष्ममादायैव साध्यं पर्व्यवस्यति । व्यनुकूलतर्कश्चात्र कारणगुणक्रमेण कार्य्यगुणोत्पत्तेर्बाधिक व्यतिरेकेणापरिहार्यत्वम् । श्रुतिस्मृतयश्चेति । प्रकृतेः शब्दस्पर्शादिमत्त्व तु बाधकमस्ति । शब्दस्पर्शविहीनं तद्रूपादिभिरसंयुतम् ।
त्रिगुणं तज्जगद्योनिरनादिप्रभवाप्ययम् ॥
इति विष्णुपुराणादिवाक्यजातम् । बुद्धाहङ्कारयोश्च शब्दस्पर्शादिमत्त्व भूतकारणत्वश्रुतिस्मृतय एव बाधिकाः सन्ति । बाह्येन्द्रियग्राह्यजातीयविशेषगुणवत्त्वस्यैव भूतलक्षपत्वेन तयोरपि भूतत्वापत्त्या स्वस्य स्वकारणत्वानुपपत्तेरिति । नन्ववं कारणद्रव्येषु रूपाद्यभावे तन्मात्ररूपादेः किं कारणमिति चेत् खकारणद्रव्याणां न्यूनाधिकभावेनान्योऽन्य संयोगविशेष एव हरिद्रादीनां संयोगस्य तदुभयारब्धद्रव्ये रक्तरूपादिहेतुत्वदर्शनात् । दृष्टानुसारेण खाश्रय हेतु संयोगानामेव रूपादिहेतुत्वसम्भवे तार्किकाणां परमाणुषु रूपकल्पनं तु हेयम् । वजातीयकारण गुणस्यैव कार्यगुणारम्भकतेति तु तेषामपि न
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प्रथमोऽध्यायः ।
४८
नियमः । वसरेणुमहत्त्वादाववयवबहुत्वादेरेव तैरपि हेतुत्वाभ्युपगमादिति दिक। इन्द्रियानुमानं चाकाशानुमानवद्दर्शनस्पर्शनवचनादिभिः प्रत्यक्षाभित्तिभिरेवेति तदत्र नोक्ताम् । तत्त्वान्तरेण तत्त्वान्तरानुमानानामेव प्रकतत्वादिति न न्य नता। तन्मात्राणां चोत्पत्तो योगमायोक्तप्रक्रियैव ग्राह्या । यथाहकाराच्छन्दतन्मात्रं तत्रचाहकारसहकताच्छब्दतमानाच्छन्दस्पर्श गुणकं स्पशतन्मात्रम्। एवं क्रमेणै कैकगुणरया तन्मावाण्य - त्पद्यन्त इति । या तु।
आकाशस्तु विकुर्वाणः स्पर्शमात्र ससर्ज ह। बलवानभवहायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः ॥ इत्यादिना विष्णुपुराणे स्पर्शादितन्मात्रसृष्टिराकाशादिस्थलभूतचतुष्टयाटुक्ता। सा भूतरूपेण परिणमनरूपैव मन्तव्या । आकाशादौनि जलान्तानि हि स्थूलभूतानि खस्खोत्तरभूतरूपेण खानुगततन्मात्राः खोपष्टम्मत: परिणमयन्तीति
वाह्याभ्यन्तराभ्यां तैश्चाहकारस्य ॥ ६ ॥ बाह्याभ्यन्तराभ्यामिन्द्रियाभ्यां तैः पञ्चतन्मात्रैश्च कार्येस्तकारणतयाहङ्कारस्यानुमानेन बोध इत्यर्थः। अहङ्कारश्चाभिमानवृत्तिकमन्तःकरणद्रव्यं नत्वभिमानमात्र व्यस्यैव लोके द्रव्योपादानत्वदर्शनात्। सुषुस्यादावहङ्कारत्तिनाशेन भूतनाशप्रसङ्गाहासनाश्रयत्वेनैवाहाराख्यद्रव्यसिद्धेचेति । अत्रेस्थमनुमानम् । तम्मानन्द्रियायभिमानवद्रव्योपादानकान्यभिमानकार्य्यद्रव्यत्वात् । यत्रैवं तत्रैवम् । यथा पुरुषादिरिति । नन्वभिमानवद्रव्यमेवासिद्धमिति चेदह गौर इत्यादिवृत्त्यपादानतया चक्षुरादिवत् तसिः । अनेन चानुमानेन मन
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सांख्यदर्शनम्।
आद्यतिरेकमात्रस्य तत्कारणतया प्रसाध्यत्वात्। अत्र चायमनुकूलस्तक: बहु स्यां प्रजायेयेत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यस्तावद्भूतादिसृष्टेरभिमानपूर्वकत्वाद्बुद्धित्तिपूर्वकसृष्टौ कारणतयाभिमान: सिद्धः। तत्र चैकार्थसमवाय प्रत्यासत्त्य वाभिमानस्य सृष्टिहेतुत्व लाघवात् कल्पात इति। नन्वेवं कुलालाहकारस्थापि घटोपादानत्वापत्त्या कुलालमुक्तौ तदन्तःकरणनाशे तनिर्मितघटनाशः स्यात्। न चैतद्युक्तम् । पुरुषान्तरेण स एवायं घट इति प्रत्यभिज्ञायमानदादिति। मैवम् । मुक्तपुरुषभोगहेतुपरिणामस्यैव तदन्तःकरण मोक्षोत्तरमुच्छेदात्। न तु परिणामसामान्यस्यान्तःकरणखरूपस्य वोच्छेदः कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वादिति योगसूत्र मुक्तपुरुषोपकरणस्याप्य न्य पुरुषार्थसाधकत्वसिद्धेरिति । अथवा घटादिष्वपि हिरण्यगर्भाहकार एव कारणमस्तु न कुलालाद्यहङ्कारस्तथापि सामान्यव्याप्ती न व्यभिचारः समष्टिबुयायपादानिकैव हि सृष्टिः पुराणादिषु सांख्ययोगयोग प्रतिपाद्यते न तु तदंशव्यष्टिबुद्घायुपादानिका यथा महापृथिव्या एव स्थावरजङ्गमाद्युपादान त्वं न तु पृथिव्यंशलोष्टादेरिति ॥३॥
तेनान्तःकरणस्य ॥ ६४॥ तेनाहङ्कारेण कार्येण तत्कारणतया मुख्यस्यान्तःकरणस्य महदाख्यबुझेरनुमानेन बोध इत्यर्थः। अत्राप्ययं प्रयोगः । अहङ्कारद्रव्यं निश्चयवृत्तिमद्रव्योपादानकं निश्चय कार्यद्रव्यत्वात् । यत्रैवं तत्रैवं यथा पुरुषादिरिति। अत्राप्ययं तर्कः सर्वोऽपि लोकः पदार्थवादी स्वरूपतो निश्चित्य पश्चादभिमन्यते। अहमहं मयेदं कर्त्तव्यमित्यादिरूपणेति तावत् सिहमेव । तत्राहकारद्रव्यकारणाकाङ्क्षायां कृत्योः कार्यकारण
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प्रथमोऽध्यायः । भावेन तदाश्रययोरेव कार्यकारणभावो लाघवात् कल्पाते कारणस्य वृत्तिलाभेन कार्यत्तिलाभस्यौम निकत्वादिति । श्रुतावपि स ईक्षाञ्चके तदैक्षतेत्यादौ सर्गाद्युत्पन्नबद्धित एव तदितराखिलसृष्टिरवगम्यत इति। यद्यप्ये कमेवान्तःकरणं वृत्तिभेदेन त्रिविधं लाघवात् ।
गुणक्षोभे जायमाने महान् प्रादुर्बभूव ह।
मनो महांश्च विजय एक तद्दत्तिभेदतः । इति लैङ्गात्। पञ्चत्तिमनोवद्यपदिश्यत इति वेदान्तसूत्रेण प्राणदृष्टान्तविधया मनसोऽपि रत्तिमात्रभेदेन बहुत्वसिद्धेश्व। अन्यथा निश्चयादित्तिभिरिव भ्रमसंशयनिद्राक्रोधादित्तिभिरपि स्वसमसंख्यानन्तान्तःकरणापत्तेः। बुद्यादिष्वव्यवस्थया मन आदिप्रयोगस्य पातञ्जलादिसर्वशास्त्रेष्वनुपपत्तेश्च । तथापि वंशपर्वस्खिवावान्तरभेदमाश्रित्यान्तःकरणनये क्रम: कार्यकारणभावश्चोक्तः। योगोपयोगिश्रुतिस्मृतिपरिभाषानुसारादिति मन्तव्यम्। तदुक्तं वाशिष्ठे ।
अहमर्थोदयो योऽयं चित्तामा वेदनात्मकः । एतचित्तगुमस्यास्य वीज विधि महामते ! ॥ एतस्मात् प्रथमोद्भिवादनुरोऽभिनवाकृतिः । निश्चयात्मा निराकारो बुद्धिरित्यभिधीयते ॥ अस्य बुद्दाभिधानस्य याङ्करस्य प्रपौनता। सङ्कल्परूपिणी तस्याश्चित्तचेतोमनोऽभिधा ॥ इति। अहमर्थोऽन्तःकरणसामान्यम् । अत्र वाक्ये वीजासरन्यायेनैकस्यैवान्तःकरणक्षस्य वृत्तिमावरूपेण चित्ताद्या. ख्यावस्थाभेदा: क्रमिकास्त्रिविधा: परिणामा उता इति । सांख्यशास्त्र च चिन्तात्तिकस्य चित्तस्थ बुद्धावेवान्तर्भावः । अहङ्कारस्य चात्र वाक्ये बुद्दावन्तर्भायः ॥ ६४ ॥
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सांख्यदर्शनम्। ततः प्रकृतेः ॥ ५॥
- ततो महत्तत्त्वात् कार्यात् कारणतया प्रकृतेरनुमानेन बोध इत्यर्थः। अन्तःकरणसामान्यस्यापि कार्यत्वं तावदेकदा पञ्चेन्द्रियन्नानानुत्पत्त्वा मध्यमपरिमाणतया देहादिवदेव सिडं श्रुतिस्मृतिमामाख्याच । तस्य च प्रकृतिकार्यत्वेऽयं प्रयोगः । सुखदुःखमोहधर्मिणौ बडिः सुखदुःखमोहधर्मकद्रव्यजन्या कार्यवे सति सुखदुःखमोहात्मकत्वात् कान्तादिवदिति कारणगुणानुसारेणैव कार्य गुणौचित्यं चालानुकूलस्तर्कः श्रुतिस्मृतयोऽपौति मन्तव्यम् । ननु विषयेषु सुखादिमत्त्वे प्रमाण नास्ति । अहं सुखोल्यायेवानुभवात् तत् कथं कान्तादिविषयो दृष्टान्त इति धेन। सुखाद्यात्मकबुद्धिकार्यतया सक्सुखं चन्दनसुखमित्याद्यनुभवेन च विषयाणामपि सुखादिधर्मकत्व. सिद्धेः श्रुतिस्मृतिप्रामाण्याच। किञ्च यस्यान्वयव्यतिरेको सुखादिना सह दृश्येते तस्यैव सुखाद्युपादानत्वं कल्पाते। तस्य निमित्तत्व परिकल्पान्यस्योपादानत्वकल्पने कारणइयकल्पनागौरवात्। अपि चान्योऽन्यसंवादेन प्रत्यभिज्ञया च विषयेषु सर्वपुरुषसाधारणस्थिरसुखसिद्धिः । तत्सुखग्रहणायास्मन्वये वृत्तिनियमादिकल्पनागौरवं च फलमुखत्वान्न दोषावहम् । अन्यथा प्रत्यभिज्ञयावयव्य सिद्धिप्रसङ्गात् तत्कारणादिकल्पनागौरवादिति । विषयेऽपि सुखादिकञ्च मार्कण्डेये प्रोक्तम्।
तत् सन्तु चेतस्यथवापि देहे
सुखानि दुःखानि च किं ममात्र । इति। अहं सुखीत्यादिप्रत्ययस्तु । अहं धनौत्यादिप्रत्ययवत् स्वखामिभावाख्यसम्बन्धविषयकस्तेषां प्रत्ययानां समवाय
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प्रथमोऽध्यायः।
सम्बन्ध विषयकत्वधमनिरासार्थं तु सुखिदुःखिमूढेभ्यः पुरुषो विवियते शास्त्रेष्विति। शब्दादिषु च सुखाद्यात्मताव्यवहार एकार्थसमवायात् । अस्तु वा शब्दादिषु साक्षादेव सुखमुक्तप्रमाणेभ्यः । विषयगतसुखादेश बुद्धिमावग्राह्यत्वं फलबलात् । यत् तु विषयासम्प्रयोगकाले शान्तिसुखं साक्विक मुषत्यादौ व्यज्यते तदेव बुद्धिधर्म यात्मसुखमुच्यत इति । यद्यपि वैशेषिकाद्या अपि तार्किकाः प्रपञ्चेऽन्यथापि कार्यकारणव्यवस्थामनुमिमते तथापि बहुलश्रुतिस्मृत्यु पोदबलनेनास्माभिरनुमितैव व्यवस्था मुमुक्षुभिरुपादेया मूलशैथिल्यदोषेण परानुमानानां दुर्बलत्वात्। अत एव तर्काप्रतिष्ठानादिति वेदान्तसूत्रणाप्रतिष्ठादोषतः केवलतर्कोऽपास्तः। तथा मनुनापि ।
पार्षे धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना। यस्तणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः । इति वेदाविरुइतकं स्यैवार्थनिचायकत्वमुक्तम् । तस्मात् । श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यचोपपत्तिभिः ।
इत्यादिवाक्येभ्यः श्रवणसमानार्थकमेव मननं बलवत् । अन्धाकारं मननं तु परेषां दुर्बलम् । एवं पुरुषेऽपि सुखदुःखादिमत्त्वेन तेषामनुमान बहुलश्रुत्यादिविरोधाद दुर्बलमिति दिक् । प्रतिगतविशेषं च पश्चाहक्ष्यामः ॥६५॥
नन्वखिलजड़ भ्यः पुरुषविवेक एव मुक्ती हेतुस्तत् किमर्थ जड़ानामन्योऽन्य विवेकोऽत्र दर्शित इति चेत् । प्रकृत्यादि. तत्त्वोपासनया सत्त्वशुद्दाथ विवेकस्याप्यपेक्षितत्वादिति । कार्यकारणमुद्रया प्रकृतिपर्यन्तस्थानुमानेन विवेकतः सिद्धिमुक्का यथोक्त कार्यकारणभावशून्यस्य पुरुषस्य प्रकारान्तरेणानुमानतस्तथा सिधिमाह।
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सांख्यदर्शनम् । संहतपरार्थत्वात् पुरुषस्य ॥ ६६ ॥ संहननमारम्भकसंयोगः स चावयवावयव्यभेदात् प्रक. तिकार्य साधारणः । तथा च संहतानां प्रकृतितका-यां परार्थत्वानुमानेन पुरुषस्य बोध इत्यर्थः । तद्यथा विवादास्पदं प्रकृतिमहदादिकं परार्थं खतरस्य भोगापवर्गफलकं संहतत्वात् शय्यासनादिवदित्यनुमानेन प्रकृतेः परोऽसंहत एव पुरुषः सिध्यति तस्यापि संहतत्वेनवस्थापत्तेः। पातञ्जले च पराथं संहत्य कारित्वादिति सूत्रकारणानुमानं कृतं तत् तु यथाश्रुतमेवान्त्यावयवसाधारणम्। इतरसाहित्य नार्थक्रियाकारित्वस्यैव संहत्यकारिताशब्दार्थलात्। पुरुषस्तु विषयप्रकाशरूपायां स्वार्थक्रियायां नान्यदपेक्षते नित्य प्रकाशरूप. वात्। पुरुषस्यार्थसम्बन्धमान बुद्धिवृत्त्यपेक्षणात् । सम्बन्धस्तु नासाधारण्यर्थक्रियेति। अत्र च न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवतीत्यादिश्रुतिस्मतयोऽनुकूलताः। अन्यच्च मुखादिमत् प्रधानादिकं यदि वस्य सुखादिभोगार्थ स्यात् तदा तस्य साक्षात् स्वजेयत्वे कर्मकर्टविरोधो न हि धर्मिभानं विना सुखस्य भानं सम्भवति। अहं सुखौत्य वं सुखानुभवादिति। अपि च संहन्यमानानां बहनां गुणानां तत्कार्याणां चानेकविकाराणामनेकचैतन्य गुणकल्पनायां गौरवेण लाघवादेक एव चित्प्रकाशरूपः पुरुषः सर्वसंहतेभ्यः परः कल्पयितु युज्यत इति। अनेन सूत्रेण निमित्तकारणतया पुरुषानुमानमुक्तं पुरुषार्थस्याखिलवस्तुसंहनननिमित्तत्ववचनात् । अत एव सर्गाद्युत्पन्न पुरुषं प्रकृत्य विष्णु पुराणादौ स्मयते ।
निमित्तमानमेवासो सृज्यानां सर्गकर्मणि।
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प्रथमोऽध्यायः।
५
प्रधानकारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तयः ॥ गुणसाम्यात् ततस्तस्मात्। क्षेत्रज्ञाधिष्ठितान्मुने ।। गुणव्यञ्जनसम्भूतिः सर्गकाले हिजोत्तम ! ॥
इत्यादिक्षेत्रज्ञाधिष्ठानं चासमाप्तपुरुषार्थस्य संयोगमात्र गुणव्यञ्जनं महत्तत्वं कारणतया त्रिगुणात्मप्रधान व्यञ्जकत्वादिति। तदेवमचाक्षुषाणामनुमानेन सिद्विरुक्ता ॥ ६६ ॥ __ इदानीं सर्वकारणत्वोपपत्तये प्रतिनित्यत्वमुपपाद्यते पुरुषकौटस्थ्यसिद्धार्थम् ।
मूले मूलाभावादमूलं मूलम् ॥ ६७॥ त्रयोविंशतितत्त्वानां मूलमुपादानं प्रधानं मूलशून्यम् । अनवस्थापत्त्या तत्र मूलान्तरासम्भवादित्यर्थः ॥ ६ ॥
ननु । तस्मादव्यक्तमुत्पत्रं त्रिगुणं हिजसत्तम ! ।
इत्यादिना प्रधानस्यापि पुरुषादुत्पत्ति श्रवणात् पुरुष एव प्रकृतमूलं भवतु पुरुषस्य नित्यतया च नानवस्थाविद्याहारकतया च न पुरुषकौटस्थ्यहानिः । तथा च स्मर्यते ।
तस्मादज्ञानमूलोऽयं संसारः पुरुषस्य हि। इति। इत्याशझ्याह। पारम्पर्येऽप्येकन परिनिष्ठेति संज्ञामात्रम्
___ अविद्यादिहारण परम्परया पुरुषस्य जगन्मूलकारणत्वे. ऽप्येकस्मिवविद्यादौ यत्र कुत्रचित्रित्य द्वार परम्परायाः पर्यवसानं भविष्यति पुरुषस्थापरिणामित्वात् । अतो यत्र पयंवसानं सैव नित्या प्रकृतिः। प्रततिरिह मूलकारणस्य संज्ञा मानमित्यर्थः ॥ ६८ ॥
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'ફ્
सांख्यदर्शनम् ।
नन्वेवं पञ्चविंशतितत्त्वानीति नोपपद्यते महत्तत्त्वकारणाव्यक्तापेचयापि जड़तत्त्वान्तरापत्तेरित्याशयेन मूलसमाधान
माह ।
समानः प्रकृतेर्द्वयोः ॥ ६६ ॥
वस्तुतस्तु प्रकृतेर्मूलकारणविचारे द्वयोर्वादिप्रतिवादिनोरावयोः समानः पक्षः । एतदुक्तं भवति यथा प्रकृतेरुत्पत्तिः श्रूयते एवमविद्याया श्रपि ।
व्यविद्या पञ्चपर्वेषा प्रादुर्भूता महात्मनः ।
इत्यादिवाक्यः । अत एकस्या अवश्य गौण्युत्पत्तिर्वक्तव्या । तत्र च प्रकृतेरेव पुरुषसंयोगादिभिरभिव्यक्तिरूपा गौण्य - त्पत्तिर्युक्ता । संयोगलक्षणोत्पत्तिः कथ्यते कर्मज्ञानयोरिति कर्मवाको प्रकृतिपुरुषयोर्गौण्योत्पत्तिस्मरणात् । व्यविद्यायाश्च क्वापि गौणोत्पत्त्यश्रवणात् तस्या अनादितावाक्यानि तु प्रवाहरूपेणैव वासनाद्यनादिवाक्यवद व्याख्येयानीति । श्रविद्या च मिथ्याज्ञानरूपा बुद्धिधर्म इति योगे सूत्रितमतो न तत्त्वाधिक्यम् । अथवा द्वयोः प्रकृतिपुरुषयोः समान एव न्याय इत्यर्थः ।
यतः प्रधानपुरुषौ यतश्चैतच्चराचरम् ।
कारणं सकलस्यास्य स नो विष्णुः प्रसीदतु ॥ इत्यादिवाक्यैः पुरुषस्याप्युत्पत्तिश्रवणादिति भावः । तथा च पुरुषस्येव प्रकृतेरपि गौस्य वोत्पत्तिः । नित्यत्व श्रवणादित्यपि समानमिति । तस्मात् प्रकृतिरेवोपादानं जगतः प्रकृतिधर्मश्वाविद्या जगत्रिमित्तकारणं तथा पुरुषोऽपीति सिद्धम् । यत् तु ।
अविद्यामाहुरव्यक्त' सर्गप्रलयधर्मिणम् ।
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प्रथमोऽध्यायः ।
सर्गप्रलयनिर्मुक्त विद्यां वै पञ्चविंशकम् ॥
इति मोचधर्मे प्रकृतिपुरुषयोरविद्याविद्येति वचनं तत् तदुभयविषयतयोपचरितमेव परिणामित्वेन हि पुरुषापेक्षया प्रकृतिरसतौति तस्या व्यविद्याविषयत्वमुक्तम् । एवमेव तस्मिन् प्रकरणे स्वस्वकारणापेचया भूतान्तं कार्य्यजातमविद्येत्यक्त' स्वस्वापेचया च स्वस्वकारणं विद्येति । पुरुषस्य परिणामरूपं जगदुपादानत्वं तु प्रक्कृत्यु पाधिकमेव कर्त्तृत्वादिवच्छ्रुतिस्मृत्योरुपासार्थमेवानूद्यते । अन्यथा स्थूलमनखइखमित्यादिश्रुतिविरोधापत्तेरिति मन्तव्यम् । मायाशब्देन च प्रकृतिरेवोच्चत मायां तु प्रकृतिं विद्यादिति श्रुतौ ।
।
कास्मान्मायो सृजते विश्वमेतत्
तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुधः ।
इति पूर्व प्रक्रान्तमायायाः प्रकृतिस्वरूपतावचनात् । सत्त्वं रजस्तम इति प्राकृतं तु गुणत्रयम् । एतन्मयी च प्रकृतिर्माया या वैष्णवी श्रुता ॥
पूज
लोहितवंत कृष्णेति तस्यास्तादृग्बहुप्रजाः । इत्यादिस्मृतिभ्यश्च । न तु ज्ञाननाश्याविद्या मायाशब्दार्थो नित्यत्वानुपपत्तेः । किञ्चाविद्याया द्रव्यत्वे शब्दमात्त्रभेदो गुणत्वं च तदाधारतया प्रकृतिसिद्धिः पुरुषस्य निर्गुणत्वादिभ्यः । अथ द्रव्यगुणकर्मविलक्षणैवास्माभिरविद्या वक्तव्येति चेन तादृक् पदार्थाप्रतीत रुक्तत्वादिति ॥ ६८ ॥
नन्वेवं चेत् प्रकृतिपुरुषाद्यनुमानप्रकारोऽस्ति तर्हि सर्वेषामेव कथं विवेकमननं न जायते तत्राह ।
अधिकारिचैविध्यान्न नियमः ॥ ७० ॥
श्रवणादाविव मननेऽप्यधिकारिणस्त्रिविधा मन्दमध्य
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सांख्यदर्शनम् ।
मोत्तमा इत्यतो न सर्वेषामेव मनननियमः कुतर्कादिभिर्मन्दमध्यमयोधिसत्प्रतिपक्षतासम्भवादित्यर्थः । मन्दहि बौडा]. त कुतर्कजातेनोसानुमानानि बाध्यन्ते । मध्यमैश्च बुहाद्युक्तरेव विरहास लिङ्गः सत्प्रतिपक्षितानि क्रियन्ते। अत उत्तमाधि. कारिणामेवैतादृशमननं भवतीति भावः । प्रकृते: स्वरूपं गुणसाम्यं प्रागेवोक्तम्। सूक्ष्मभूतादिकं च प्रसिहमेवास्तौति ॥७॥
अवशिष्टयोर्महदहङ्कारयोः स्वरूपमाह सूत्राभ्याम् । ५. महदाख्यमाद्यं कायं तन्मनः ॥ ७१॥
महदाख्यमाद्यं कायं तन्मनो मननवृत्तिकम्। मननमव निश्चयस्तदत्तिका बुद्धिरित्यर्थः।
यदेतद्विस्तृतं वीज प्रधानपुरुषात्मकम् । महसत्त्वमिति प्रोक्तं बुद्धितत्त्वं तदुच्यते ॥ इत्यादिवाकोभ्यो बुढेरेवाद्य कार्य त्वावगमात् ॥ ७१ ॥
चरमोऽहङ्कारः ॥ ७२॥ तस्यानन्तरो य: सोऽहङ्करोतीत्यहङ्कारोऽभिमानवृत्तिक इत्यर्थः ॥७२॥
यतोऽभिमानत्तिकोऽहङ्कारोऽतस्तत्कायंत्वमुत्तरेषामुपपमित्याह।
तत्काय॑त्वमुत्तरेषाम् ॥ ७३ ॥ सुगमम् । एवं त्रिसूत्री व्याख्याय पौनरत्याशङ्गापास्ता ॥ ७३॥
नन्वेवं प्रकृतिः सर्गकारणमिति श्रुतिस्मृतिविरोध इत्या. शङ्कायामाह।
आद्यहेतुता तड्वारा पारम्पर्येऽप्यणुवत् ॥७॥
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प्रथमोऽध्यायः ।
पारम्पर्येऽपि साचादहेतुत्वे ऽप्याद्यायाः प्रकृतेर्हेतुताहङ्गारादिषु महदादिद्वारास्ति । यथा वैशेषिकमतेऽणनां घटादिहेतुता हाणुकादिहा रेवेत्यर्थः ॥ ७४ ॥
ननु प्रकृतिपुरुषयोरुभयोरेव नित्यत्वात् प्रकृतेरेव कारणत्वं किं नियामकं तत्राह ।
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पूर्व भावित्वे योरेकतरस्य हानेऽन्यतरयोगः ॥ ७५ ॥
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इयोरेव पुम्प्रत्योरखिलका पूर्व भावित्वेऽप्ये कतर स्व पुरुषस्यापरिणामित्व ेन कारणता हान्यान्यतरस्याः कारणत्वौचित्र्यमित्यर्थः । पुरुषस्यापरिणामित्वं चेदं वीजम् । पुरुषस्य संहृत्य करिव परार्थत्वापत्त्यानावस्था । श्रसंहत्यकारित्वे सर्वदा महदादिकार्य्य प्रसङ्गः । प्रकृतिद्वारा परिणामकल्पने च लाघवात् तस्या एव परिणामोऽस्तु पुरुषे तु स्वामित्व न स्त्रष्टृत्वोपचारो यथा योधेषु वर्त्तमानौ जयपराजयौ राजन्युपचर्य्यते तत्फलसुखदुःखभोक्तृत्वेन तत्स्वामित्वादिति । किञ्च धर्मिग्राहकमानेन कारणतयैव प्रकृतेः सिद्धौ नान्धकारणाकाङ्क्षास्ति । यथा धर्मिग्राहकप्रमाणेन द्रष्टृतया पुरुषसिद्धौ नान्यद्रष्ट्राकाङ्क्षति । अपि च पुरुषस्य परिणामित्व कदाचिचतुर्मन आदिवन्ध्यत्वमपि स्यात् । तथा च विद्यमानमपि सुखदुःखादिकं न ज्ञायेत ततश्चाहं सुखी न वेत्यादिसंशयापतिः । श्रतः सदा प्रकाशस्वरूपत्वामपायेन पुरुषस्यापरिणामित्व सिध्यति । तदुक्तं योगसूत्रेण सदा ज्ञाताश्चित्तस्य वृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वादिति । तद्भाष्येण च सदा ज्ञानविषयत्वं तु पुरुषस्यापरिणामित्व परिदोपयतीति ।
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सांख्यदर्शनम् ।
सदा प्रकाशवरूपत्व ऽपि यथा नेकदा विश्वप्रकाशत्व तथा वक्ष्यामः ॥ ७५ ॥ ___ प्रकृतयुगपत्कारणत्वोपपत्तये विभुत्वमपि प्रतिपाद. यति। . परिच्छिन्नं न सर्वोपादानम् ॥ ७६ ॥
सर्वोपादानं प्रधानं न परिच्छिन्नं व्यापकमित्यर्थः । सर्वोपादानत्वमत्र हेतुगर्भविशेषणम्। परिच्छिन्ने तदसम्भवादिति। ननु प्रतेरपरिच्छिन्नव नोपपद्यते प्रतिहिं सत्त्वादिगुणवयादतिरिक्ता नु भवति सत्त्वादीनामतधर्मत्वं तद्रूपत्वादित्या. गामिसूत्रात्। योगसूत्रभाष्याभ्यां स्पष्टमवतत्वाञ्च । तेषां च सत्त्वादीनां लघुत्वचलत्वगुरुत्वादयो धर्मा वक्ष्यमाणा विभुत्वं सति विरुध्यन्ते सृध्यादिहेतवः संयोगविभागादयश्च नोपपद्यन्त इति। अत्रोच्यते । परिच्छिन्नत्वमत्र दैशिकाभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नत्वं तदभावश्च व्यापकत्वम् । तथा च जगत्कारणत्वस्य दैशिकाभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वमेवेति प्रकृतेर्व्यापकत्वमिति पय॑ वसितम्। यथा प्राणस्य स्थावरजङ्गमाद्यखिल शरीरव्यापकत्व प्राणत्वसामान्येनोच्यते प्राणव्यक्तीनां सर्वदेहसम्बन्धात्। तहत् प्रकृतेर्व्यापकत्वमिति। प्रकृतेरक्रियैकत्वादिकं च साधयंवैधय॑सूत्र प्रतिपादयिष्यामः
न केवलं सर्वोपादानत्वात् । अपि तु ।
तदुत्पत्तिश्रुतेश्च ॥ ७७॥ तेषां परिच्छिन्नानामुत्पत्तिश्रवणाञ्च । अथ यदल्प तन्मय मित्यादिश्रुतिषु मरणधर्मकत्वेन परिच्छिन्नस्योत्पत्त्यवगमात्। श्रुत्यन्तरेभ्यश्चेत्यर्थः ॥ ७७ ॥
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प्रथमोऽध्यायः ।
६ १
इदानीं प्रकृतिकारणतोपपत्तयेऽभावादिकारणतां निर
स्यति ।
नावस्तुनो वस्तुसिद्धिः ॥ ७८ ॥
वस्तुनोऽभावात्र वस्तुसिद्धिर्भावोत्पत्तिः । शशशृङ्गाज्जगदुत्पत्त्या मोक्षाद्यनुपपत्तेः । तददर्शनाश्चेत्यर्थः ॥ ७८ ॥ ननु जगदण्यवस्त्वं वास्तु स्वप्नादिवदिति तत्राह । अबाधाददुष्टकारणजन्यत्वाच्च नावस्तुत्वम् ॥७६॥
स्वप्नपदार्थस्येव प्रपञ्चस्य बाधः श्रुत्यादिप्रमाणैर्नास्ति । तथा शङ्खपौतिमादेरिव दुष्टेन्द्रियादिजन्यत्वमपि नास्ति दोषकल्पने प्रमाणाभावादित्यतो न कार्य्यस्यावस्तुत्वमित्यर्थः । ननु वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यमित्यादिश्रुतिभिरेव प्रपञ्चस्य बाधो बाधाश्वाविद्याख्यदोषोऽपि स्वकारणेऽस्तीति चेन्न । मृदुदृष्टान्त सिद्धान्यथानुपपत्त्या खकारणापेक्षकास्यैव्यरूपासत्त्वपरत्वात् तादृग्वाक्यानामन्यथा सृध्यादिवाक्यविरोधाञ्च । किञ्च श्रुत्या प्रपञ्चबाध श्रात्माश्रयः खस्यापि प्रपञ्चान्तर्गततया बाधेन तद्दोधितार्थे पुनः संशयापत्तिश्चेति । यत एव बाधाबाधादिवैधर्म्यादुपलम्भाच्च जाग्रग्रपञ्चस्य स्वप्नपुष्पादितुल्यत्वमतिनिर्बन्धेन प्रत्याचष्टे वेदान्त सूत्रयम् । वैधर्म्याच्च न स्वप्नादिवदिति उपलब्धेश्चेति च । नेति नेतीत्येवंविधवाक्यानि च विवेकपराज्य व न तु स्वरूपतः प्रपञ्चनिषेधपराणि प्रकृतैतावत्त्व' प्रतिषेधतीति वेदान्तत्वात्। एवमन्यान्यपि वाक्यानि ब्रह्ममीमांसाभाष्येऽस्माभिर्व्याख्यातानि
19211
नावस्तुनो वस्तुसिद्धिरिति यदुक्तं तत्र हेतुमाह ।
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सांख्यदर्शनम्। __ भावे तद्योगेन तत्मिदिरभावे तदभावात् कुतस्तरां तत्सिद्धिः ॥ ८॥
भावे कारणस्य सद्रूपत्वे तद्योगेन सत्तायोगेन कार्यसिद्धिघंटेत कारणस्याभावेऽसदूपत्वे तु तदभावात् कार्यस्याप्यसत्त्वात् कथं वस्तुभूतकार्या सिद्धिः कारणखरूपस्यैव कार्य स्यौचित्यादित्यर्थः ॥ ८० ॥
ननु तथापि कर्मवावश्यकत्वाज्जगत्कारणमस्तु किं प्रधानकल्पनयेति तत्राप्याह ।
न कर्मण उपादानत्वायोगात् ॥८१॥ कर्मणोऽपि न वस्तुसिद्धिनिमित्तकारणस्य कर्मणो न मूल. कारणत्वं गुणानां द्रव्योपादानत्वायोगात् । कल्पना हि दृष्टानुसारेणैव भवति वैशेषिकोतगुणानां चोपादानत्वं न कापि दृष्टमित्यर्थः। अत्र कर्मशब्दोऽविद्यादीनामप्युपलक्षको गुणत्वाविशेषण तेषामप्युपादानत्वायोगात्। चक्षुषः पटलादिवदविद्यायाश्चेतनगतद्रव्यत्वे तु प्रधानस्य संज्ञामात्रभेद इति ॥८१॥
तदेवं परिणामित्वापरिणामित्वपरार्थत्वापरार्थत्वाभ्यां पुम्नवत्योविवेको दर्शितः। इदानीं विवेकज्ञानस्यैवाविवेकनाशहारा परमपुरुषार्थ हेतुत्वं न तु तत्र वैदिककर्मणां साक्षाद्दे तुतास्तौति यत् प्रागुक्तमविशेषश्चोभयोरिति सूत्रेण तदेव प्रपञ्चयति पञ्चभिः सूत्रः।
नानुविकादपि तत्मिविः साध्यत्वेना. त्तियोगादपुरुषार्थत्वम् ॥ ८॥
यपिशब्देन न दृष्टात् तसिद्धिरिति प्रागुक्त दृष्टसमुच्चयः ।
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प्रथमोऽध्यायः।
गुरोरनुयत इत्यनुत्रवो वेदस्तहिहितो यागादिरानुअविक कर्म तस्मादपि न पूर्वोक्तपुरुषार्थसिद्धिः। यतः कर्मसाध्यत्वेन पुनरावृत्तिसम्बन्धादत्यन्तपुरुषार्थत्वाभाव इत्यर्थः । कर्मसाध्यस्य चानित्यत्वे श्रुतिः । तद्यथेह कर्मचितो लोकः चीयत एवमेवामुव पुण्यचितो लोकः क्षीयत इतौति । न कर्मणान्यधर्मत्वादिति सूत्रेण पूर्व कर्मणा बन्धो निराकत इदानों च मोक्षो निराक्रियत इत्यपौनरुत्यम्। अन्यधर्मत्वेन पूर्वोक्तहेतुना बन्ध इव मोऽपि कर्मणो हेतुत्वं निराकृतप्रायमिति पुनराशव नोदेतीति चेत्र। बन्धहेतुले नाविवेके सिद्धे तत्पुरुषो. याविवेकजवेन कर्मणां तदीयत्वव्यवस्थोपपत्तेरिति ॥ २॥
नन्वेवं पञ्चाग्निविद्यारूपेणोपासनाख्यकर्मणा तीर्थमरणादिकर्मणा च ब्रह्मलोकं गतस्यानात्तिश्रुतिः कथमुपपद्यते तवाह। - तत्र प्राप्तविवेकस्यानात्तिश्रुतिः ॥८॥
तवानुअविककमणि ब्रह्मलोकगतानां यानावृत्तिश्रुतिः सा तव प्राप्तविवेकस्त्र मन्तव्या। अन्यथा हि ब्रह्मलोकादप्याकृत्तिं प्रतिपादयतां वाक्यान्तराणां विरोध इत्यर्थः। तथापि साप्यनात्तिर्विवेकज्ञानस्यैव फलं न तु साक्षादेव कर्मण इति। एतच षष्ठाध्याये प्रपञ्चयिष्यति। ब्रह्ममौमांसाभाष्ये च तयोक्यान्युदाहत्यास्माभिर्व्याख्यातानि ॥ ३ ॥ कर्मणस्तु फलं तदाह।
दुःखाद दुःखं जलाभिषेकवन्न जायविमोकः ॥८४॥
भानुश्रविकात् तु हिंसादिदोषण दुःखात्मकभोगेन च दुःखादहःखं दुःखधारैव भवति न तु जाधविमोकोऽविवेक
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सांख्यदर्शनम् ।
निवृत्तिदुःखविमोकस्व तिदूर एव तिष्ठति । यथा जाद्यात स्थ जलाभिषेकाटुःखानिवत्तिरेव भवति न तु जाविमोच
इत्यर्थः। तदुक्तम् ।
यथा पङ्गेन पशाम्भः सुरया वा सुराततम् । भूतहत्यां तथैवै कां न यज्ञैर्माष्टुमहतौति : श्रूयते च ब्रह्मलोकस्थानां विष्णुपार्षदानामपि जयविजयादौनां पुनाराक्षसयोनौ दुःखधारेति । कारिकया चेदमुक्तम् ।
दृष्टवदानुश्रविकः स विशुदिक्षयातिशययुक्तः । इति ॥ ८४॥
ननु निष्कामादन्तर्यागजपादिरूप कर्मणो न दुःखं प्रत्युत मोक्ष: फलं श्रूयत इति तबाह ।
काम्यऽकाम्येऽपि साध्यत्वाविशेषात् ॥५॥
काम्येऽकाम्ये च कर्मणि दुःखाद दुःखं भवति। कुतः साध्यत्वाविशेषात्। कर्मसाध्यस्य सत्त्वशुविहारकज्ञानस्यापि त्रिगुणात्मकतया दुःखात्मकवादित्यर्थः । न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशरित्यादिश्रुतिभ्यश्च कर्मणो न साक्षान्मोक्षः फलमिति भावः। त्यागेनाभिमानत्यागेन । एके केचिदेवामृतत्वमानशः प्राप्तवन्त्रो न सर्वे। अभिमानत्यागस्य तत्त्वज्ञानजन्यतया दुर्लभवादित्यर्थः ॥ ८ ॥
ननु भवन्मतेऽपि कथं ज्ञानसाध्यस्य न दुःखत्वं साध्यत्वा. विशेषादिति तनाह।
निजमुक्तस्य बन्धध्वंसमावं परं न समानत्वम्
निजमुक्तास्य खभावमुक्त स्थाविद्याख्यकारणनाशेन यथोक्त. बन्धनिवृत्तिमात्रं परमात्यन्तिक विवेकज्ञानस्य फलं ध्वंस
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प्रथमोऽध्यायः ।
१५
पाविनाशी न तु कर्मण इव मुखादिकं भावरूपं कार्य येन नाशितया दुःखदं तत् स्यात् ॥ कर्मणश्च दृष्टकारणं विना न साधादेवाविद्यानाशकत्वं घटत इति । अतो ज्ञानस्याचय. त्वाब समानत्व ज्ञानकर्मणोरित्यर्थः। ज्ञानाब पुनरावृत्तिः सम्भवति। अविवेकाख्यकारणनाशादिति सिद्धम्। तदेवं विवेकज्ञानमेव साक्षाज्ञानोपाय इत्यताम् ॥ ८६ ॥ ___ इदानी विवेकज्ञानस्यापि साक्षादुपायाः प्रमाणानि परीश्यन्ते । आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्य इत्यादिश्रुतिभिहि प्रमाणत्रयेणात्मज्ञानमित्यवगम्यते । कर्मादिकं त्वन्यन्मन यादिप्रमाणानां शुद्धयादिकरमेवेति ।
हयोरकतरस्य वाप्यसन्निकष्टार्थपरिच्छित्तिः प्रमा तत्साधकतमं यत् तत् त्रिविधं प्रमाणम्
व्यसनिकष्टः प्रमातर्यनारूढ़ोऽनधिगत इति यावत्। एवंभूतस्यार्थस्य वस्तुनः परिच्छित्तिरवधारणं प्रमा सा च इयोबुद्धिपुरुषयोरुभयोरेव धर्मो भवतु । किं वैकतरमावस्योभयथैव तस्या: प्रमाया यत् साधकतमं फलायोगव्यवच्छिन्नं कारणं तञ्च विविधं वक्ष्यमाणरूपेणेत्यर्थः । स्मृतिव्यावर्त नायानधिगतति। भ्रमव्यावर्त्तनाय वस्त्विति । संशयव्यावर्त्तनाय त्ववधारणमिति। अत्र यदि प्रमारूपं फलं पुरुषनिष्ठमात्रमुच्यते तदा बुद्दित्तिरेव प्रमाणम् । यदि च बुद्धिनिष्ठमात्रमुच्यते तदा तूकेन्द्रियसन्निकर्षादिरेव प्रमाणम्। पुरुषस्तु प्रमासात्येव न प्रमातेति । यदि च पौरुषेयबोधो बुद्धित्तिश्चोभयममि प्रमो. यते तदा तूत मुभयमेव प्रमाभेदेन प्रमाणं भवति। चक्षुरादिषु त प्रमाणव्यवहारः परम्परयैव सर्वथेति भावः। पात
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सांस्थदर्शनम् ।
ञ्जलभाथे तु व्यासदेवैः पुरुषनिष्ठबोध: प्रमत्युक्तः । पुरुषार्थमेव करणानां प्रवृत्त्या फलस्य पुरुषनिष्ठताया एवौचित्यात् । अतोऽत्रापि स एव मुख्यः सिद्धान्तः । न च पुरुषबोधस्वरूपस्य नित्यतया कथं फलत्वमिति वाच्यम्। केवलस्य नित्यत्वेऽप्य
र्थोपरक्तस्य कार्यत्वात् । पुरुषार्थोपरागस्यैव वा फलवादिति। अत्रयं प्रक्रिया। इन्द्रियप्रणालिकयार्थसत्रिकर्षण लिङ्गनानादिना वादौ बुझेराकारा तिर्जायते तत्र चेन्द्रियसन्त्रिकर्षजा प्रत्यक्षा वृत्तिरिन्द्रियविशिष्टबुयाश्रिता नयनादिगतपित्तादिदोषैः पित्ताद्याकारवृत्त्य दयादिति विशेषः । सा च वृत्तिरर्थोपरता प्रतिविम्बरूपेण पुरुषारूढ़ा मती भासते पुरुषस्यापरिणामितया बुद्धिवत् स्वतोऽर्थाकारत्वासम्भवात्। अर्थाकारताया एव चार्थग्रहण त्वात् । अन्यस्य टुर्वचत्वादिति। तदेतदक्ष्यति जपास्फटिकयोरिव नोपरागः किन्वभिमान इति । योगसूत्र च। हत्तिसारूप्य. मितरत्रे ति। स्मतिरपि।
तस्मिंश्चिद्दपणे स्फारे समस्ता वस्तुदृष्टयः। इमास्ता: प्रतिविम्बन्ति सरसीव तटद्रुमाः ॥ इति। योगभाष्यञ्च बुद्धेः प्रतिसंवेदी पुरुष इति प्रति. ध्वनिवत् प्रतिसंवेदः संवदनप्रतिविम्बस्तस्याश्रय इत्यर्थः । एतेन पुरुषाणां कूटस्थविभुचिद्रूपत्वेऽपि न सर्वदा सर्वाभासनप्रमशः। असङ्गतया स्वतोऽर्थाकारत्वाभावात्। अर्थाकारतां विना च संयोगमात्रेणार्थग्रहणस्यातौन्द्रियादिस्थ ले बद्धावदृष्टत्वादिति। पुरुषे च स्वस्खबुद्धिसत्तौनामेव प्रतिविम्बार्पणसामध्यमिति कलबलात् कल्पात । यथा रूपवतामेव जलादिषु प्रतिविम्बनसामयं नेतरस्य ति। रूपवत्त्व च न सामान्यतः प्रतिविम्बप्रयोजक शब्दस्यापि प्रतिध्वनिरूपप्रतिविम्बदर्शनात् ।
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प्रथमोऽध्यायः ।
न च शब्दजन्य' शब्दान्तरमेव प्रतिध्वनिरिति वाच्यं स्फटि क्लौहित्यादेरपि जपासत्रिकर्षजन्यतापत्त्या प्रतिविम्बमिथ्यात्वसिद्दान्तचतेरिति । प्रतिविम्बश्च बुडेरेव परिणामविशेषो विम्बाकारो जलादिगत इति मन्तव्यम् । केचित् तु वृत्तों प्रतिविम्बितं सदेव चैतन्य वृत्ति प्रकाशयति तथा वृत्तिगतप्रतिविम्व एव वृत्ती चैतन्यविषयता न तु चैतन्य वृत्तिप्रतिविम्बोऽस्तीत्याहुः । तदसत् । उपदर्शितशास्त्रविरोधेन केवलतर्कस्याप्रयोजकत्वात् । विनिगमनाविरहेगा वृत्तिचैतन्ययोरन्योन्यविषयताख्य सम्बन्धरूपतयान्योन्यस्मिन्नन्योन्य प्रतिविम्बसिद्धेश्व | बाह्यस्थलेऽर्थाकारतया एव विषयतारूपत्वसिद्धान्तरेऽपि तत्तदर्थाकारताया एव विषयतात्वौचित्याच्चेति । ये तु तार्किक ज्ञानस्य विषयतां नेच्छन्ति तन्मते ज्ञानव्यक्तीनामनुगमकर्माभावेन घटविषयकं पटविषयकं ज्ञानमित्याद्यनुगतव्यवहारानुपपत्तिः । केचित् तु तार्किका अनयैवानुपपत्त्या विषयतामतिरिक्तपदार्थमाहुः । तदप्यसत् । चनुभूयमानाम श्रीकारतां विहाय विषयतान्तरकल्पने गौरवादिति । ननु तथापि स्वस्वोपाधिवृत्तिरूपैव वृत्तिचैतन्ययोरन्योन्यविषयतास्तु खोमाधिवृत्तित्वेनैवानुगमादलमा काराख्यप्रतिविम्बइयेनेति चेन्न । प्रतिविम्बं विना खत्वस्यापि दुर्वचत्वात् । स्वत्वं हि स्वभुक्तवृत्तिवामनावत्त्वम् । भागश्च ज्ञानम् । तथा च विषयतालक्षस्य विषयसामग्रौघटितत्व नात्माश्रयः । तस्मादचैतन्यचैतन्ययोरन्योन्यविषयतारूपोऽन्योन्यस्मिन्नन्योन्यप्रतिविम्बः सिद्धः । अधिकन्तु योगवाति के द्रष्टव्यमिति दिक् । अत्रायं प्रमावादिविभागः ।
प्रमाता चेतनः शुद्धः प्रमाणं वृत्तिरेव नः । प्रमार्थाकारवत्तीनां चेतने प्रतिविम्बिनम् ॥
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सांख्यदर्शनम्।
प्रतिविम्बितवृत्तीनां विषयो मेय उच्यते । साक्षाहर्श नरूपं च साक्षित्व वक्ष्यति स्वयम् ॥ अतः स्यात् कारणाभावाद वृत्तेः साक्ष्येव चेतनः । विष्णादेः सर्वसाक्षित्व गोणं लिङ्गाद्यभायतः ॥ इति ॥८॥ ननु। यथा प्रकाशयत्ये कः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्र क्षेत्री तथा सत्न प्रकाशयति भारत ! ॥
इत्यादिवाक्येषपमानादि प्रकृतिपुरुषविवेक प्रमाणमुप. न्य स्तं तत् कथमुच्यते त्रिवि मति तत्राह।
तत्सिडी सर्वसिद्धेर्नाधिक्यसिद्धिः ॥ ८८॥
विविधप्रमाणसिद्धी च सर्वस्यार्थस्य सिद्धेन प्रमाणाधिक्यं सिध्यति गौरवादित्यर्थः । अतएव मनुनापि प्रमाणत्रयमेवोपन्यस्तम्। प्रत्यक्षमनुमानं च शास्त्रं च विविधागमम् । क्यं सुविदितं कायं धर्मशद्धिमभीमता ॥
इति । उपमानैतिह्यादीनां चानुमानशब्दयोः प्रवेशः । अनुपलब्धयादीनां च प्रत्यक्ष प्रवेश इति। उक्तवाक्ये चेदमनुमानमभिप्रेतम् । पापादतलमस्तकं बत्न स्वव्यतिरिक्त - नैकेन प्रकाश्यं स्वयमप्रकाशत्वात् त्रैलोक्यवदिति। तेजश्चैत. न्यसाधारणं च प्रकाशत्वमखण्डोपाधि: प्रकाशव्यवहारनिया. मकतया सिद्ध इति ॥ ८८॥
पुरुषनिष्ठा प्रमति मुख्यसिद्धान्तमाश्रित्य प्रमाणानां विशे. पल क्षणानि वक्त सुपक्रमते।
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प्रथमोऽध्यायः ।
यत् सम्बद्ध सत् तदाकारोल्लखि विज्ञानं
६८
तत् प्रत्यक्षम् ॥ ८६ ॥
सम्बद्धं भवत् सम्बद्धवस्त्वाकारधारि भवति यहिज्ञानं बुद्दिवृत्तिस्तत् प्रत्यक्षं प्रमाणमित्यर्थः । अत्र सदित्यन्तं हेतुगर्भविशेषणम् । तथा च स्वार्थसन्निकर्षजन्याकारस्याश्रयो वृत्तिः प्रत्यचं प्रमाणमिति निष्कर्षः । वृत्तिः सम्बन्धार्थं सर्पतौव्यागामितान वृत्तेः सत्रिकर्षजन्यत्वमित्याकारा श्रयग्रहणम्। चक्षुरादिद्दारकबुद्धिवृत्तिश्च प्रदीपस्य शिखातुल्या बाह्यासन्निकर्षानन्तरमेव तदाकारोल खिनो भवतीति नासम्भवः
15211
ननु योगिनामतीतानागतव्यवहितवस्तु प्रत्यक्षेऽव्याप्तिः सम्बहवस्वाकाराभावादित्याशङ्क्य तस्यालच्यत्व ेन समाधत्ते ।
योगिनामवाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः ॥ ६० ॥
ऐन्द्रियकप्रत्यक्षमेवात्र लक्ष्य योगिनश्चाबाह्यप्रत्यक्षकाः । तो न दोषो न तत्प्रत्यक्षेऽव्याप्तिरित्यर्थः ॥ ८० ॥
वास्तवं समाधानमाह ।
लौन वस्तु लब्धातिशयसम्बन्धाद्दादोषः ॥ ६१ ॥
अथवा तदपि लच्यमेव तथापि न दोषो नाव्याप्तिः । यतो लौनवस्तुषु लब्धयोगजधर्मजन्यातिशयस्य योगिचित्तस्य सम्बन्ध घटत इत्यर्थः । अत्र लौनशब्दः पराभिमतासनिक ष्टवाची सत्कार्य्यं वादिनां ह्यतीतादिकमपि स्वरूपतोऽस्तीति तत्सम्बन्धः सम्भवेदिति व्यवहितविप्रकृष्टषु सम्बन्धहेतु विधया लब्धातिशयेति विशेषणम् । अतिशयश्च व्यापकत्व वृत्तिप्रतिबन्धकत मोनिवृत्त्यादिशति । इदं चात्रावधेयम् । यत्सम्बद्ध सदिति पूर्वसूत्र बुद्धेरर्थसन्निकर्षस्यैव प्रत्यक्ष हेतुतालाभात्
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सांख्यदर्शनम्।
प्रत्यक्षसामान्ये बायार्थसाधारणे बुहार्थसत्रिकर्ष एव कारणम् । इन्द्रियमविकर्षास्तु चाक्षुषादिप्रत्यक्षेषु विशिष्व कारणानि । नन्वेवमिन्द्रियसद्रिकर्षयोगजधर्माद्यभावेऽपि बुद्धया बावार्थप्रत्यक्षापत्तिः। मैवम् । तमःप्रतिबन्धेन तदानी बुद्धिसत्त्वस्य वृत्त्यसम्भवात् । तञ्च तमः कदाचिदर्थेन्द्रिययोः सत्रिकर्षण कदाचिञ्च योगजधर्मेणापसार्यते। अञ्जनसंयोगेन नयन. मालिन्यवत् । न चैवं तडेतोरेय तदस्विति न्यायेनेन्द्रियसवि. कर्षादेरेव बायार्थ प्रत्यक्षमामान्य हेतुतास्विति वाच्य सुषुस्यादौ तमसो बुद्धित्तिप्रतिबन्धकत्वसिद्धेः।
सत्त्वाज्जागरणं विद्याद्रजसा स्वप्रमादिशेत् । प्रस्खापनं तु तमसा तुरीयं विषु सन्ततम्॥
इत्यादिस्मृतिभ्यः सुषुत्यादौ वृत्तिप्रतिबन्धकान्तरासम्भ वाञ्च। चाक्षुषवृत्तावपि तमसः प्रतिबन्धदर्शनाञ्च । यत् तु शुष्कतार्किका: सुषुप्तौ वृत्त्यनुत्पादार्थ ज्ञानसामान्य त्वजनो. योगं कारणं कल्पयन्ति । तदसत् । त्वगिन्द्रियोत्पत्तेः प्रागपि केवलबुया खयम्भुवः सर्वप्रत्यक्षवणात् । त्वमनोयोगानुत्या. देऽपि तमस एव निमित्तताया वतव्यत्वाच्च । केवलतर्कस्याप्रतिष्ठादोषग्रस्तत्वाञ्चेति दिक् । ८१ ॥
ननु तथापोखर प्रत्यक्षेऽव्याप्तिः तस्य नित्यत्वेन सत्रिकर्षाजन्यत्वादिति तत्राइ।
ईखरासिद्धेः॥१२॥ ईश्वरे प्रमाणाभावाब दोष इत्यनुवर्तते। अयं चेखरप्रतिषेध एकदेशिनां प्रौढवादेनैवेति प्रागेव प्रतिपादितम् । अन्यथा होखराभावादित्य वोच्थेत। ईश्वराभ्युपगमे तु सबिकर्षजन्यजातीयत्वमेव प्रत्यक्षलक्षणं विवक्षितं साजात्य च जानवसाक्षाप्राप्यजात्येति भावः ॥ २ ॥
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प्रथमोऽध्यायः।
श्रुतिस्मृतिभ्यां कथमोशो न सिध्यतीत्याकाहायां तर्कविरोधं लौकिकमेव बाधकमाह ।
मुक्तबड्डयोरन्यतराभावान्न तसिद्धिः ॥१३॥ ईखरोऽभिमतः किं के शादिमुत्तो वा तैर्बद्धो वा। अन्यतरस्याप्यसम्भवाने खरसिद्धिरित्यर्थः ॥ ८३ ॥
उभयथाप्यसत्करत्वम् ॥१४॥ मुक्तत्व सति स्रष्टत्वाद्यक्षमत्व तत्प्रयोजकाभिमानरागायभावात् । बद्धत्वेऽपि मूढत्वान्न सध्यादिक्षमत्वमित्यर्थः ॥२४॥
नन्वेवमीश्वरप्रतिपादकश्रुतीनां का गतिस्तवाह । मुतात्मनः प्रशंसा उपासा सिवस्य वा ॥६५॥
यथायोगं काचित् श्रुतिर्मुतात्मनः केवलात्मसामान्यस्य जेयताभिधानाय सन्निधिमात्रैश्वर्येण स्तुतिरूपा प्ररोचनार्था । काचिच्च सङ्कल्पपूर्वकस्रष्टत्वादिप्रतिपादिका श्रुति: सिद्धस्य ब्रह्मविष्णुहरादेरेवानित्य खरस्याभिमानादिमतोऽपि गौणनित्यत्वादिमत्त्वान्नित्यत्वाद्युपासापरेत्यर्थः ॥ ४५ ॥
ननु तथापि प्रशात्याद्यखिलाधिष्ठानत्वं श्रयमाणं नोपपद्यते लोके सङ्कल्पादिना परिणमनस्यैवाधिष्ठात्वव्यवहारादिति तनाह। तत्सन्निधानादधिष्ठाटत्वं मणिवत ॥
यदि सङ्कल्पेन स्रष्टुत्वमधिष्ठात्वमुच्यते तदायं दोषः स्यात्। अस्माभिस्तु पुरुषस्य सविधानादेवाधिष्ठाटत्व स्रष्ट्रत्वादिरूपमिष्यते मणिवत् । यधायस्कान्तमणे: साविध्यमात्रेण शत्यनिष्कर्षकलं न सङ्कल्पादिना तथैवादिपुरुषस्व संयोग.
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सांख्यदर्शनम्। मात्रेण प्रकृतमहत्त्वरूपेण परिणमनम्। इदमेव च खोपाधिस्रष्टत्वमित्यर्थः । तथा चोक्तम् ।
निरिच्छे संस्थिते रत्ने यथा लोहः प्रवर्तते । सत्तामात्रेण देवेन तथा चायं जगज्जनः । अत आत्मनि कर्तत्वमकर्तृत्वं च संस्थितम् । निरिच्छत्वादक सौ कर्ता सन्निधिमानतः ॥ इति। तदैक्षत बहु स्यामित्यादिश्रुतिस्तु कूलं पिपतिषतोतिवदगौणी प्रकृतेरासबबहुतरगुण संयोगात् । अथवा बुट्विपूर्वसृष्टिविषयमेतादृशवाक्यजातं न त्वादिसर्गपरं तस्याबुडिपूर्वकत्वस्मरणादिति भावः । यथा कौमें ।
इत्येष प्राकृतः सर्गः सङ्घ पात् कथितो मया ।
अबुद्धिपूर्वकस्त्वष ब्रामों सृष्टि निबोधत ॥ इति। अस्य च वाक्यस्यादिपुरुषबुद्धाजन्यत्वेन सोचे गौरवमिति ॥८६॥ __ न केवलं सदावेव पुरुषस्य संयोगमात्रेण स्रष्टत्वादिकमपि त्वन्येष्वपि सङ्कल्पादिपूर्वकेषु भूतादिष्वखिलेषु विशेषकार्येष्वपि सर्वपुरुषाणामित्याह ।
विशेषकार्येष्वपि जीवानाम् ॥१७॥
अधिष्ठासत्व सन्निधानादित्यनुषज्यते। अन्तःकरणोपलचितस्यैव जीवशब्दार्थत्व षष्ठाध्याये वक्ष्यति तथा च विशेषकार्य विसर्गाख्ये व्यष्टिसृष्टावपि जौवानामन्तःकरणप्रतिविम्बितचेतनानां सविधानादेवाधिष्ठातत्व न तु केनापि व्यापारेण कूटस्थचिन्मात्ररूपत्वादित्यर्थः ॥ ८७ ॥
ननु चेत् सदा सर्वज्ञ ईश्वरो नास्ति तर्हि वेदान्तमहा. वाक्यार्थस्य विवेकस्योपदेशेऽन्धपरम्पराशयाप्रामा प्रमज्येत तनाह।
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मथमोऽध्यायः।
सिद्ध रूपबोड़ त्वादाक्यार्थोपदेशः ॥१८॥ हिरण्यगर्भादीनां सिद्धरूपस्य यथार्थस्य बोद्धृत्वात् तहक्तकायुर्वेदादिप्रामाण्येनावताच्चैषां वाक्यार्थोपदेशः प्रमाणमिति शेषः ॥ ८॥
ननु पुरुषस्य चेत् सन्निधिमात्रेण गौणमधिष्ठात्व तर्हि मुख्यमधिष्ठाटत्व कस्येत्याकाझायामाह।
अन्तःकरणस्य तटुज्वलितत्वाल्लोहवदधिठाटत्वम् ॥६६॥
अन्तःकरणस्यानुपचरितमधिष्ठाटत्व सङ्कल्यादिहारक प्रत्य तव्यम्। नन्वधिष्ठाटत्व घटादिवदचेतनस्य न युक्त तत्राह। लोहवत् तदुज्ज्वलितत्वादिति। अन्तःकरणं हि तप्तलोहवञ्चतनोज्ज्वलितं भवति। अतस्तस्य चेतनायमानतयाधिष्ठाटत्व घटादिव्याहत्तमुपपद्यत इत्यर्थः। नन्वं वं चैतन्ये नान्त:करणस्योज्ज्वलने चितैः सङ्गित्वमग्निवदेव स्यादि. ति चेन्न। नित्योज्ज्वलचैतन्यसंयोगविशेषमात्रस्य संयोगविशेषजन्यचैतन्यप्रतिविम्ब स्यैवान्तःकरणोज्ज्वलनरूपत्वात्। न तु चैतन्यमन्तःकरणे संक्रामति येन सङ्गिता स्यात् । अग्न रपि हि प्रकाशादिकं न लोहे संक्रामति। किन्वग्नियोगविशष एव लोहस्योज्ज्वलनमिति। नन्व वमपि संयोगेन परिणामि: त्वमिति चेन्न सामान्यगुणातिरिक्तधर्मोत्यत्तावेव परिणामव्यवहारादिति। अयं च संयोगविशेषोऽन्तःकरणस्य व सत्त्वो. ट्रेकरूपात् परिणामाझ्यतौति फलबलात् कलप्यते पुरुषस्यापरिणामित्वेन संयोग तबिमित्तकविशेषासम्भवादिति । अयमेव च संयोगविशेषो बुद्यात्मनोरन्चोऽन्यप्रतिविम्बने हेतुः ।
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७४
सांख्यदर्शनम्।
ननु प्रतिविम्बहेतुतया संयोगविशेषावश्यकत्वे प्रतिविम्बका ल्पना व्यर्था प्रतिविम्बकार्य स्यार्थज्ञानादेः संयोगविशेषादेव सम्भवादिति। मैवम् । बुद्धौ चैतन्यप्रतिविम्बश्चैतन्यदर्शनार्थ कल्पाते दर्पणे मुखप्रतिविम्बवत् । अन्यथा कर्मकर्ट विरो 'धेन स्वस्य साक्षात् खदर्शनानुपपत्तः। अयमेव च चित्प्रति'विम्बो बुद्धौ चिच्छायापत्तिरिति चैतन्याध्यास इति चिदावेश इति चोचते। यश्च चैतन्ये बुड़ : प्रतिविम्बः स चारूढ़विषयैः सह बुद्धे नार्थमिष्यते। अर्थाकारतयैवार्थग्रहणस्य बुद्दे: स्थले दृष्टत्वेन तां विना संयोगविशेषमात्रेणार्थभानस्य पुरुघेऽप्यनौचित्यात्। अर्थाकारस्यैवार्थग्रहगाशब्दार्थत्वाचति । म चाकारः पुरुषे परिणामो न सम्भवतीत्यर्थात् प्रतिविम्बरूप एव पर्यवस्यतीति दिक। स चायमन्योऽन्य प्रतिविम्बो योगभाष्ये व्यासदेवैः सिद्धान्तितः। चितिशक्तिरपरिणामिचप्रतिसंक्रमा च परिणामिन्चर्थ प्रतिसंक्रान्ते व तवृत्तिमनुपतति तस्याश्च प्राप्तचैतन्योपग्रहरूपाया बुद्धिहत्तेरनुकारिमात्रतया बुद्धिवृत्त्यविशिष्टा हि ज्ञानवृत्तिरित्याख्यायत इत्यादिना। योगवाति के चैतहिस्तरतोऽस्माभिः प्रतिपादितम् । कश्चित् तु बुद्विगतया चिच्छायया बुद्धेरेव सर्वार्थज्ञाटत्वमिछादिभिज्ञानस्य सामानाधिकरण्यानुभवादन्यस्य ज्ञानेनान्यस्य प्रवृत्त्यनौचित्याचे त्याह। तदात्माज्ञानमूलकत्वादुपेक्षणीयम्। एवं हि बुद्ध रेव ज्ञात्व चिदवसानो भोग इत्यागामिसूत्रहयविरोधः पुरुष प्रमाणाभावश्च पुरुषलिङ्गस्य भोगस्य बुद्धावेव स्वीकारात् । न च प्रतिविम्बान्यथानुपपत्त्या विम्बभूतः पुरुषः सेहर तौति वाचम् । अन्योऽन्याश्रयात् पृथग्विम्मसिद्धो बुद्धिस्थ चैतन्यस्य प्रतिविम्ब तामितिः प्रतिविम्बतासिद्धौ च तत्प्रतियोगितया विम्बसिद्धिरिति। अस्न मते च
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प्रथमोऽध्यायः।
৩
माटतया पुरुषसिद्धानन्तरं तस्य ज्ञेयत्वान्यथानुपपत्त्या प्रतिविम्बसिहौ नान्योऽन्याश्रयः। अथ वृत्तिसाक्षितया विम्बरूपश्चेतन: सिध्यतीति चेत् तर्हि साक्षिण एव प्रमाढत्वमप्यु । चितम्। उभयोटित्वकल्पने गौरवात्। वृत्तिज्ञानघटनानयोः सामानाधिकरण्यानुभवाच्च । किञ्चवं सति बुझे रेव भोक्तृत्व भोक्तभावादित्यागामिसूत्रण भोक्ततया पुरुषसाधनं विरुध्येत । अथ बुद्धिगचिच्छायारूपेण सम्बन्धे न विम्बस्यैव ज्ञानं न तु चितौ बुद्धिप्रतिविम्बः कल्पात इत्येतावन्मात्रे चेत् तस्याशयो वयेत। तदप्यसत्। सूर्य्यादेः स्वप्रतिविम्बरूपसम्बन्धन जलादितत्स्थ वस्तुभासकवादर्शनात् । किरणरैव तदुभयभासनात्। मरुमरीचिकादौ तु स्वाध्यस्तजलादिभासकत्वं दृष्टमेवेति दृष्टानुसारेणास्माभिश्चितौ बुद्धिप्रतिविम्ब एव सर्वार्थभानहेतुतया सम्बन्धः कल्पित इति। यच्चोतमन्यस्य जाननान्यस्य प्रत्त्यनुपपत्तिरिति। तदपि न। अकरपि फलोपभोगोऽत्राद्यवत् । इत्यागामिसूत्रेण ज्ञानप्रत्योर्वैयधिकरण्यस्य दृष्टान्त नोपपादयिष्यमाणत्वात् । बुद्धेः सङ्कल्पेन देहक्रियायामिवात्रापि संयोगविशेषादेरेव नियामकत्वादिति ॥८६॥
प्रत्यक्षप्रमाणं लक्षयित्वानुमानं लक्षयति । प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम् ॥१०॥
प्रतिबन्धो व्याप्तिाप्तिदर्शनायापकज्ञानमनुमानं प्रमाणमित्यर्थः । अनुमितिस्तु पौरुषेयो बोध इति ॥ १० ॥ शब्दप्रमाणं लक्ष्यति ॥
आप्तोपदेशः शब्दः ॥ १०१ ॥ याप्तिरत्र योग्यता वेदस्यापौरुषेयतायाः पञ्चमाध्याये
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सांख्यदर्शनम् ।
वक्ष्यमाणत्वात् । तथा च योग्यः शब्दस्तज्जन्यं ज्ञानं शब्दाख्य प्रमाणमित्यर्थः । फलं च पौरुषेयः शाब्दो बोध इति ॥१०॥ प्रमाणप्रतिपादनस्य स्वयमेव फलमाह ।
उभयसिदिः प्रमाणात् तदुपदेशः ॥१०२॥ उभयोरात्मानात्मनोविवेकेन सिद्धिः प्रमाणादेव भवति । अतस्तस्य प्रमाणस्योपदेशः कृत इत्यर्थः ॥ १.२॥
तत्र येनानुमानविशेषेण प्रमाणेन मुख्यतोऽत्र प्रकृतिपुरुषो विविच्य साधनोयौ तहर्णयति।
सामान्यतो दृष्टादुभयसिदिः ॥ १०३ ॥ अनुमानं तावत् त्रिविधं भवति । पूर्ववत् शेषवत् सामा. न्यतो दृष्टं चेति। तत्र प्रत्यक्षीकृतजातीयविषयकं पूर्ववत्। यथा धूमेन वहानुमानम्। वह्निजातीयो हि महानसादौ पूर्व प्रत्यक्षीकत: । व्यतिरेकानुमानं शेषवत् शेषोऽपूर्वोऽर्थोऽस्य विषयत्व नास्तीति शेषवत् । अप्रमिइसाध्यकमिति यावत्। यथा पृथिवीत्वे नेतरभेदानुमानम्। पृथिवीतरभेदो हि प्रागसिद्धः । मामान्यतो दृष्टं च तदुभयभित्रमनुमानम् । यत्र सामान्यतः प्रत्यक्षादिजातीयमादाय व्याप्तिग्रहात् पक्षधर्मताबलेन तद्विजातीयोऽप्रत्यक्षाद्यर्थः सिध्यति । यथा रूपादिजाने क्रियात्वन करणवत्त्वानुमानम् । अत्र हि पृथिवी. त्वादिजातीयं कुठारादिकरणमादाय व्याप्ति ग्टहोला तहिजातीयमतौन्द्रियं ज्ञान करणमिन्द्रियं साध्यत इति। तत्र सामान्यतो दृष्टादनुमानाइयोः प्रकृतिपुरुषयोः सिद्धिरित्यर्थः । तत्र प्रकृतेः सामान्यतो दृष्टमनुमानम्। यथा महत्तव सुख. दुःखमोहधर्मकद्रव्योपादानकं कार्यत्वे सति सुखदुःखमोहधर्मकत्वात् सुवर्षादिजकुण्डलादिवदित्यादि । पुरुषे तु या
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प्रथमोऽध्यायः ।
प्यनुमानापेक्षा नास्ति सर्वसम्मतत्वात् तथापि प्रकृत्यादिविवेके सामान्यतो दृष्टमेवापेक्ष्यते । तद्यथा। प्रधानं परार्थं संहत्यकारित्वादग्टहादिवदिति । अव हि प्रत्यक्षसिद्धं देहाद्यर्थकत्व' गृहादिषु गृहीत्वा तद्विजातीयः पुरुषः प्रधानादिपरत्वेनानुमौयते । देहादौनां च भोक्तृत्वमविवेकेन प्राग्टहीतमित्य भयसिद्धिरिति ॥ १०३ ॥
या प्रमाणस्य फलभूता प्रमाख्यसिद्धिरुक्ता तथा पुरुषस्य परिणामापत्तिरित्याशङ्कायां तस्याः स्वरूपमाह ।
चिदवसानो भोगः ॥ १०४ ॥
पुरुषखरूपे चैतन्य पर्य्यवसानं यस्यैतादृशो भोग : सिद्धिरित्यर्थः । बुद्धेर्भोगस्य व्यावर्त्तनाय चिदवसान इति । चितः परिणामित्वसधर्मत्वादिशङ्कानिरासायाव सानपदम् | चितौ भोगस्य स्वरूपे पर्य्यवसितत्वान कौटस्यादिहानिरित्याशयः तथाहि प्रमाणाख्यवृत्त्यारूढ प्रकृतिपुरुषादिकं प्रमेयं वृत्त्या सह पुरुषे प्रतिविम्बितं सद्भासते । यतोऽर्थोपरक्तवत्तिप्रतिविम्बावच्छिन्न' स्वरूपचैतन्यमेव भानं पुरुषस्य भोगः प्रमाणस्य च फलमिति । ततश्च प्रतिविम्ब रूपेणार्थसम्बन्धे द्वारतया वृत्तीनां करणत्वमिति । तदुक्तं विष्णुपुराणे ।
·
गृहीतानिन्द्रियैरर्थानात्मने यः प्रयच्छति । अन्तःकरणरूपाय तस्मै विश्वात्मने नमः ॥
इति । राज्ञी हि करणवर्गः खामिने भोग्यजातं समर्पय तौति दृष्टमिति । मोगशब्दार्थश्वाभ्यवहरणम् । श्रात्मसात्क - रणमिति यावत् । स च देहादिचेतनान्तेषु साधारणः । विशेषस्त्वयम् । अपरिणामित्वात् पुरुषस्य विषयभोगः प्रतिविम्बादानमात्रम् । अन्येषां तु गरिणामित्वातु पुषादिर
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सांख्यदश नम्। पौति । अयमेव च परिणामरूपः पारमार्थिको भोग: पुरुषे प्रतिषिध्यते बुद्धेर्भोग इवात्मनीत्यादिभिरिति मन्तव्यम् । अस्मिन् सूत्रे पुरुषस्यापि, फलव्याप्यता सिद्धा चिदवसानताया एवोभयसिद्धित्ववचनादिति ॥ १०४ ॥ ___ ननु कर्तुरेव लोके क्रियाफलभोगो दृष्टः। यथा सञ्चरत एव सञ्चारोत्थदुःखभोग इति। तत् कथं बुद्धिकतधर्मादिफलस्य सुखाद्यामिकाया अर्थोपरक्तबत्ति भॊग: पुरुषे घटेतेत्याशङ्कायामाह।
अकर्तुरपि फलोपभोगोऽन्नाद्यवत् ॥१०॥
बुद्धिकर्मफलस्यापि रत्ते रुपभोगस्तदकर्तुरपि पुरुषस्य युक्तः । अन्नाद्यवत् । यथान्यकतस्याबादेरुपभोगो राज्ञो भवति तहदित्यर्थः । अविवेकस्य स्वस्खामिभावस्य वा भोगनियामकलात् तु नातिप्रसङ्गः । सुखदुःखादेः कर्मफलत्वमभ्युपेत्य बुद्धिगतं कर्मफलं पुरुषो भुङक्त इत्युक्तम् ॥ १०५ ॥
इदानीं पुरुषगतभोगस्यैव कर्मफलत्वं स्वीकृत्य बुद्धिकर्मणा पुरुष एव फलमुत्पद्यत इति मुख्य सिद्धान्तमाह । अविवेकाहा तत्सिद्देः कत्तुंः फलावगमः ॥१०॥
अथवा कर्तरि फलमेव न भवति सुखं भुजौयेत्यादिकामनाभिर्भोगस्यैव फलत्वात्। अतो भोक्तनिष्ठ मेव फलं भवति शास्त्रविहितं फलमनुष्ठातरौति। शास्त्रेषु कर्तः फलावगमस्तु तत्सिद्देरकर्तनिष्ठाया भोगाख्यसिद्धः कर्तभावविवेकादित्यर्थः ॥ योऽहं करोमि स एवाहं भुन इति हि लौकिकानुभव इति। या च सुखं में भूयादित्यादिकामना सा पुत्रो मे भूयादितिवत् फलसाधनलेनैवोपपद्यते। भोगस्तु नान्यस्य साधनम्। अत स एव फलमिति मुख्यः सिद्धान्तः । भोगस्य
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प्रथमोऽध्यायः।
se
पुरुषस्वरूपत्वेऽपि वैशेषिकाणां मते श्रोत्रवत् कार्यता बोध्या सुखाद्यवच्छिन्नचितेरेव भोगत्वात्। अस्मि च भोगस्य फलत्वपक्षे दुःखभोगाभाव एवापवर्गो बोध्यः । अथवा भोग्यतारूपस्वत्वसम्बन्धेन सुखदुःखाभावयोरेव फलत्वमस्तु तेन सम्बन्धेन धनादेरिव सुखादेरपि पुरुषनिष्ठत्वादिति ॥ १० ॥ __तदेवं प्रमाणानि प्रमाणफलभूतां प्रमयसिदिच प्रतिपाद्य अमेयसिद्धेरपि फलमाह।
__ नोभयं च तत्त्वाख्याने ॥ १०७॥
प्रमाणेन प्रकृतिपुरुषयोस्तत्त्वाख्याने तत्त्वसाक्षात्कार सत्यु भयमपि सुखदुःखे न भवतः । विहान् हर्ष शोको जहा. तौति श्रुतायाञ्चेत्यर्थः ॥ १०७॥
सझेपतो विवेकेनानुमापितो प्रकृतिपुरुषो तयोः प्रकृति. पुरुषयोरनुमानेऽवान्तरविशेषा इत: परमध्यायसमाप्ति यावहिचाास्तत्र चादौ प्रकृत्याद्यनुमानेष्वनुपलम्भबाधकमपाकरोति।
विषयोऽविषयोऽपतिदूरादेहानोपादानाभ्यामिन्द्रियस्य ॥ १०८॥
___ इन्द्रियानुपलभ्यतामाबतो घटाद्यभाववत् प्रत्यक्षेप चार्वाकः प्रकृत्याद्यभावः साधयितुं न शक्यते यतो विद्यमानोऽप्यर्थ इन्द्रियाणां कालभेदेन विषयोऽविषयश्च भवति। अतिदूरत्वादिदोषात्। इन्द्रियजातेन्द्रियग्रहाभ्यां चेत्यर्थः । सामग्रीसमवधाने सत्यनुपलम्भस्यैवाभावप्रत्यक्षहेतुता। प्रकृत्याधुपलम्भे तु वक्ष्यमाणप्रतिबन्धान्न सामग्रीसमवधानमिति भावः। अतिदूरादयश्च दोषा विशिष्य कारिकया परिगणिताः । अतिदूरात् सामोप्यादिन्द्रियघातान्मनोऽनत्रस्थानात् ।
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सांख्यदर्शनम् ।
सौक्ष्मप्रावधानादभिभवात् समानाभिहाराश्च ॥ इति । समानाभिहारः सजातीयसंवलनम् । यथा माहिषे गव्यमिश्रणान्माहिषत्वाग्रहणमिति ॥ १०८॥
नन्वतिदूरत्वादिषु मध्ये प्रकृत्याद्युपलम्भे किं प्रतिबन्धकमिति तत्राह ।
सौक्ष्मप्रात् तदनुपलब्धिः ॥ १०६ ॥
तयोः पूर्वोक्तयोः प्रकृतिपुरुषयोरनुपलब्धिस्तु सौक्ष्मादित्यर्थः । सूक्ष्मत्वं च नाणुत्वम् । विश्वव्यापनात् । नापि दुरूचत्वादिकम् । दुर्वचत्वात् । किन्तु प्रत्यक्षप्रमाप्रतिबन्धिका जातिः | योगजधर्मस्य चोत्तेजकतया प्रकृतिपुरुषादीनां प्रत्यक्षप्रमा भवति । जातिसाङ्गय्र्यं च न दोषावहम् । अथवा निरवयवद्रव्यत्वमेवात्र सूक्ष्मत्वं योगजधर्मथोत्तजक एवेति
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॥ १०८ ॥
नन्वभावादेवानुपलब्धिसम्भवे किमर्थं सौक्ष्मंत्र कल्पते । अन्यथा च शशशृङ्गादेरपि सौक्ष्मादनुपलब्धिः किं न स्यादिति
तत्राह ।
कार्य्यदर्शनात् तदुपलब्धेः ॥ ११० ॥
कार्यान्यथानुपपत्त्या प्रक्कत्यादिसिद्धौ सत्यां तेषां सूक्ष्मत्व' कल्पते । अनुमानात् पूर्वं च सूक्ष्मत्वादिसंशयेनाभावानिर्णयादनुमानमुपपद्यत इत्यर्थः ॥ ११० ॥
अत्र शङ्कते ।
वादिविप्रतिपत्तेस्तदसिद्धिरिति चेत् ॥ १११ ॥
ननु कार्य्यं चेदुत्पत्त ेः प्राक् सिद्धं स्यात् तदा तदाधारतया नित्या प्रकृतिः सेव्यति काय साहित्येनैव कारणानु
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प्रथमोऽध्यायः ।
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मानस्य वक्ष्यमाणत्वात्। वादिविप्रतिपत्त स्तु सत्कार्य स्यैवासिद्धिरिति यदीत्यर्थः ॥ ११ ॥
अभ्युपेत्य परिहरति। तथाप्येकतरदृष्ट्या एकतरसिव पलापः ॥११२॥
मास्तु सत् कार्य तथाप्येकतरस्य कार्यस्य दृध्यान्चतरस्य कारणस्य सिद्धेरपलापो नास्त्येवेति नित्यं कारणं सिद्ध मेव तत एव च परिणामिनः सकाशादपरिणामितया पुरुषस्य विवेकेन मोक्षोपपत्तिरित्यर्थः । अनेनैवाभ्युपगमवादेन वैशेषिकाद्यास्तिकशास्त्र प्रवर्तते। अतो न सत्कार्यवादिश्रुतिस्मृतिविरोधेऽपि तेषामंशान्तरेष्वप्रामाण्यमिति मन्तव्यम् ॥ ११२॥ परमार्थतः परिहारमाह।
त्रिविधविरोधापत्तेश्च ॥ ११३ ॥ अथ सर्वे काये विविधं सर्ववादिसिद्धमतौतमनागतं वर्तमानमिति। तत्र यदि कायं सदा सन्नेष्यते तदा त्रिविधवानुपपत्तिः। अतीतादिकाले घटाद्यभावेन घटादेरतीतादिधर्मकत्वानुपपत्तेः। सदसतोः सम्बन्धानुपपत्तेः। किञ्च प्रति. योगित्वस्य प्रतियोगिरूपत्व तहोषतादयस्थ्यात् । अावमात्रखरूपत्वं पटाद्यभावो घटाघभावः स्यादभावत्वाविशेषात् । अभावेष्वपि स्वरूपतो विशेषाङ्गीकारे चाभावत्वस्य परिभाषामानत्वप्रसङ्गात् । अथ प्रतियोग्येवाभावविशेषक इति चेन्न । असतः प्रतियोगिनः प्रागभावादिषु विशेषकत्वासम्भवादिति । तस्मानित्यस्यैव कार्यस्यातीतानागतवर्तमानावस्थाभेदा एक वक्तव्याः। घटोऽतीतो घटो वर्तमानो घटो भविष्यन्निति प्रत्ययानां तुल्यरूपतौचित्यात्। न त्वं कस्य भावविषयत्वमन्ययो
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सांख्यदर्शनम्।
साभावविषयत्वमिति। ते एवातीतानागतत्वे अवस्थे ध्वंस. मागभावव्यवहारं जनयतस्तदतिरिलाभावहये प्रमाणाभावा. दिति दिक्। अधिकं तु पातञ्जले दृष्टव्यम् । एवमत्यन्ता. भावान्योऽन्याभावावप्यधिकरणस्वरूपावव । न चैवं प्रतियोगिसत्ताकालेऽप्यधिकरणस्वरूपानपायादत्यन्ताभावप्रत्ययप्रसङ्ग इति वाच्यम्। परैरपि प्रतियोगिमतिदेथे तदत्यन्ताभावाङ्गीकारात्। प्रतियोगिसम्बन्धस्यातीतानागतावस्थयोरेव सामयिकात्यन्ताभावत्वसम्भवाच। तस्मात्रामसिहान्तेऽभावोअतिरिक्त: । किञ्च घटो ध्वस्तो घटो भावो घटोऽत्र नास्तीत्यादिप्रत्ययनियामकतया किञ्चिदस्त्वाकाङ्क्षायां तद्भावरूपमेव कल्पाते लाघवात्। अमावस्यादृष्टस्य कल्पने गौरवादिति मन्तव्यम् ॥ ११३॥ इतव सत्कार्यसिद्धिरित्याह।
नासटुत्पादो नृश्टङ्गवत् ॥ ११४ ॥ नरशृङ्गतुल्य यासत उत्पादोऽपि न सम्भवतीत्यर्थः ।११४॥ अत्र हेतुमाह।
उपादाननियमात् ॥ ११५ ॥ मृद्येव घट उत्पद्यते तन्तुष्वेव पट इत्येवं कार्याणामुपादानकारणं प्रति नियमोऽस्ति । स न सम्भवति । उत्पत्ते: प्राक कारणे कार्यासत्तायां हि न कोऽपि विशेषोऽस्ति येन कञ्चिदेवासन्तं जनये वेतरमिति। विशेषाङ्गीकार च भावत्वापत्तेगतमसत्तया। स एव च विशेषोऽस्माभिः कार्यत्यानागता. वस्थेत्युच्यत इति । एतेन यदैशेषिकाः प्रागभावमेव कार्योत्यत्तिनियामकं कल्पयन्ति तदप्यपास्तम्। अभावकल्पनापेक्षया भावकल्पने लाघवात् । भावानां दृष्टवादन्यानपेचत्वाच ।
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प्रथमोऽध्यायः ।
८३
किञ्चाभावेषु खतो विशेषे भावत्वापत्तिः। प्रतियोगिरूपविशेषश्च प्रतियोग्यसत्ताकाले नास्ति। अतोऽभावानामविशिष्टतया न कार्योत्पत्ती नियामकत्वंयुक्तमिति ॥ ११५ ॥ उपादाननियमे प्रमाणमाह ।
सर्वत्र सर्वदा सर्वासम्भवात् ॥ ११६ ॥ सुगमम् । उपादानानियमे च सर्वत्र सर्वदा सर्व सम्भवेदिल्याशयः ॥ ११६ ॥ इतश्वनासदुत्पाद इत्याह ।
शक्तस्य शक्यकरणात् ॥ ११७॥ कार्यशक्तिमत्त्वमेवोपादानकारणत्वम् । अन्यस्य दुर्वचत्वात्। लाघवाञ्च। सा शक्तिः कार्य स्यानागतावस्थैवेत्यतः शतस्य शक्यकार्यकरमावासत उत्पाद इत्यर्थः ॥ ११७ ॥
इतश्च ।
कारणभावाच्च ॥ ११८ ॥ उत्पत्तेः प्रागपि कार्यस्य कारणाभेदः श्रूयते तस्माच्च सत्कार्यसिद्ध्या नासदुत्पाद इत्यर्थः। कायस्यासत्त्वे हि सद. मतोरभेदानुपपत्तिरिति। उत्पत्तेः प्राक् कार्याणां कारणाभेदे च श्रुतिः। तदेदं तद्ययावतमासीत्। सदेव सौम्येदमग्र आसीत्। आत्मैवेदमग्र आसीत्। आप एवेदमग्र आसुरित्याद्या ॥ ११८॥
शकते। - न भावे भावयोगश्चेत् ॥ ११६ ॥ नन्वेवं कार्य्यस्य नित्सल्ले सति भावरूपे कार्ये भावयोग
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सांख्यदर्शनम्।
उत्पत्तियोगो न सम्भवति। असतः सत्त्व एवोत्पत्तिव्यवहारादिति चेदित्यर्थः ॥ ११८ ॥
परिहरति। नाभिव्यक्तिनिबन्धनी व्यवहारव्यवहारौ ॥१२०॥
कार्योत्पत्तेर्व्यवहाराव्यवहारी कार्याभिव्यक्तिनिमितको। अभिव्यक्तित उत्पत्तिव्यवहारोऽभिव्यक्त्यभावाचोत्पत्तिव्यवहाराभावः । न त्वसतः सत्तयेत्यर्थः। अभिव्यक्तिश्च न ज्ञानं किन्तु वत्त मानावस्था। कारणव्यापारोऽपि कार्य स्य वर्तमानलक्षणपरिणाममेव जनयति। सतश्च कार्यस्य कारणव्यापारादभिव्यक्तिमात्र लोकेऽपि दृष्टम् । यथा शिलामध्यस्थप्रतिमाया लैङ्गिकव्यापारणाभिव्यक्तिमान तिलस्थतैलस्य च निष्पौड़नेन धान्यस्थतण्डुलस्य चावघातेनेति । तदुतां वाशिष्ठे।
सुषुप्तावस्थया चक्रपझरेखाः शिलोदरे। यथा स्थिता चितेरन्तस्तथेयं जगदावलौ ॥ इति। प्रकृतिहारणेत्यर्थः ॥ १२० ॥
ननु भवतूत्पत्त: प्राक् सतो यथाकथञ्चिदुत्पत्तिः । जाशस्वनादिभावस्य कथं स्यादित्याकाङ्क्षायामाह।
नाशः कारणलयः ॥ १२१ ॥ लौङ् श्लेषण इत्यनुशासनालयः सूक्ष्मतया कारणेष्वविभागः । स एवातीताख्यो नाश इत्यच्यत इत्यर्थः । अनागताख्यस्तु लयः प्रागभाव इत्युच्यत इति शेषः। लौनकार्यव्यक्तस्तु पुनरभिव्यक्तिर्नास्ति। प्रत्यभिज्ञाद्यापत्त्या पातञ्जले निराकृतत्वात्। परेषामिवास्माकमप्यनागतावस्थाया: प्रागभिवाख्याया अभिव्यक्तिहेतुत्वाञ्चेति। नन्वतौतमप्यस्तीत्यत्र किं
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प्रमाणं न धनागतसत्तायामिव श्रुत्यादयोऽतीतसत्तायामपि स्फुटमुपलभ्यन्त इति। मैवम् । योमिप्रत्यक्षत्वान्यथानुपपत्त्यानागतातौतयोरुभयोरेव सत्त्वसिः । प्रत्यक्ष सामान्य विष. यस्य हेतुत्वात्। अन्यथा वर्तमान स्थापि प्रत्यक्षेणासियापत्त: । तस्मापियामौत्सर्गिकप्रामाण्येनासति बाधके योगिप्रत्यक्षेणातौतमबस्तौति सिध्यति। योगिनामतीतानागतप्रत्यक्षे च श्रुतिस्मृतीतिहासादिकं प्रमाणं योगवाति के प्रपखितमिति दिक। तदेवमभिव्यक्तिलयाभ्यां कार्याणामुत्पत्तिनाशव्यवहारावुनी। नन्वभिव्यक्तिरपि पूर्व सती वासती वा। थावे कारण व्यापारात् प्रागपि कार्य स्याभिव्यक्त्या स्वकार्य जनकत्वापत्तिः कारण व्यापारच विफलः । अन्त्य चाभिव्यक्तावेव सत्कार्यसिद्धान्तक्षतिः। असत्या एवाभिव्यक्तरभिव्यक्तयङ्गीकारादिति । अत्रोचते। कारण व्यापारात् प्राक सर्वकार्याणां सदासत्त्वाभ्य पगमेनोक्तविकल्पानवकाशा हटवत् तदभिव्यक्तरपि वर्तमानावस्थया प्रागसत्वेन तदसत्तानिवृत्त्यथं कारण व्यापारापेक्षणात् । अनागतावस्थया च सत्कार्यसिद्वान्तस्याक्षतेः। नन्वेकदा सदसत्त्वयोर्विरोध इति चेत् । प्रकारभेदस्योतत्वात्। नन्वेवमपि प्रागभावानङ्गीकारण प्रागसत्त्वमेव कार्याणां दुर्वचमिति | मैवम् । अवस्थानमेव परस्पराभावरूपत्वादिति ॥ १२१ ॥
ननु सत्कार्यसिद्धान्तरक्षार्थमभिव्यक्तरप्यभिव्यक्तिरेष्टया। तथा चानवस्थेत्याशझ्याह। पारम्पर्यतोऽन्वेषणा वीजाङ्गरवत् ॥ १२२ ॥
पारम्पर्य्यतः परम्परारूपेणैवाभिव्यक्तेरनुधावनं कर्तव्यम् । वौजाकरवत् प्रामाणिकत्वेन चास्या अदोषत्वादित्यर्थः ।
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सांख्यदर्शनम् ।
वीजाङ्कुराभ्यां चात्रायमेव विशेषो यद्दोजाङ्गरस्थले क्रमिकपरम्परयानवस्थाभिव्यक्तौ चैककालीनपरम्परयेति । प्रामाणिकत्वन्तु तुल्यमेवेति । सर्वकाय्याणां स्वरूपतो नित्यत्वमवस्थाभिर्विनाशित्वं चेति पातज्जलभाष्ये वदद्भिर्व्यासदेवैरपौयमनवस्था प्रामाणिकत्वेन खोक्शतेति । अत्र च वौजाङ्कुरदृष्टान्तो लोकदृष्ट्योपन्यस्तः । वस्तुतस्तु जन्मकर्मादिवदित्यचैव तात्पय्र्य्यम् । तेन वीजाङ्कुरप्रवाहस्यादिसर्गावधिकत्वेनानवस्थाविरहेऽपि न चतिः । आदिसर्गे हि वृक्षं विनैव बोजमुत्पद्यते हिरण्यगर्भसङ्कल्पेन तच्छरीरादिभ्य इति श्रुतिस्मृत्योः प्रसि
।
इम् ।
यथा हि पादपो मूलस्कन्धशाखादिसंयुतः । आदिवीजात् प्रभवति वौजान्यन्यानि वै ततः ॥ इति विष्णुपुराणादिवाक्यैरिति ॥ १२२ ॥ वस्तुतस्त्वनवस्थापि नास्तीत्याह ।
उत्पत्तिवद्दादोषः ॥ १२३ ॥
यथा घटोत्पत्तेरुत्पत्तिः स्वरूपमेव वैशेषिकादिभिरसदुत्पादवादिभिरिष्यते लाघवात् तथैवास्माभिर्घटाभिव्यक्तेरप्यभिव्यक्तिः स्वरूपमेवैष्टव्या लाघवात् । अत उत्पत्ताविवाभिव्यक्तावपि नानवस्थादोष इत्यर्थः । श्रथैवमभिव्यक्तेरभिव्यक्तयनङ्गीकारे कारणव्यापारात् प्राक् तस्याः सच्वानुपपत्त्या सत्कार्य्यवादचतिरिति चेन्न । अस्मिन् पचे सत एवाभिव्यक्तिरित्येव सत्कार्य्यं सिद्धान्त इत्याशयात् । श्रभिव्यक्तेश्चाभिव्यक्तय। भावेन तस्याः प्रागसत्त्वेऽपि नासत्काय्यैवादत्वापत्तिः । नन्वेवं महदादीनामेव प्रागसत्त्वमिष्यतां किमभिव्यक्त्याख्यावस्थाकल्पनेनेति चेन्न । तद्भेदं तर्ह्यव्याकृतमासीदित्यादिश्रुतिभिर
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व्यक्तावस्था सतामेव कार्याणामभिव्यक्तिसिडेः तथाप्यभिव्यक्त: प्रागभावादिखीकारापत्तिरिति चेन्न । तिसृणामनागताद्यवस्थानामन्योऽन्यस्याभावरूपतयोक्तत्वात् । तादृशाभावनिवृत्त्यैव च कारणव्यापार साफख्यादिसम्भवात् । अयमेव हि सत्कार्य्य वादिनामसत्कार्य्यवादिभ्यो विशेषो यत् तैरुभ्यमानी प्रागभावध्वंसौ सत्कार्य्य वादिभिः कार्य्यस्यानागतातीतावस्थे भावरूपे प्रोच्येते । वर्त्तमानताख्या चाभिव्यक्त्यवस्था घटाद्यतिरिक्तेष्यते । घटादेरवस्थात्मयवत्त्वानुभवादिति । अन्यत् तु सर्वं समानम् । अतो नास्त्यस्यास्वधिकशङ्खावकाश इति दिक्
॥ १२३ ॥
कार्यदर्शनात् तदुपलब्ध रिति सूत्रेण कार्य्येण मूलकारणमनुमेयमित्यक्तं तत्र कियत्पय्र्यन्तं कार्य्यं मित्यवधारfaतु सर्वकार्याणां साधर्म्यमाह ।
हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं
८७
लिङ्गम् ॥ १२४ ॥
कारणानुमापकत्वाल्लयगमनाद्दात्र लिङ्गं कार्य्यं जातम् । न तु महत्तत्त्वमात्रमत्र विवचितं हेतुमत्त्वादीनामखिलकार्य्यसाधारण्यात् ।
हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् । सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम ॥
इति कारिकायामप्यत एव व्यक्ताख्यं सर्वं कार्य मेव लिङ्गमित्युक्तम् । तथा च तलिङ हेतुमत्त्वादिधर्मकमिति वाक्यार्थः । तव हेतुमत्त्वं कारणवत्त्वम् । अनित्यत्व' विनाशिता । प्रधानस्य या व्यापिता पूर्वोक्ता तद्वैपरीत्यमव्यापित्वम् । सक्रियत्वमध्यवसायादिरूपनियतकाय कारित्वम् । प्रधानस्य तु
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सांख्यदर्शनम् । सर्वक्रियासाधारण्य न कारणत्वाब कार्येकदेशमात्रकारित्वम् । न च क्रिया कर्मैव वक्ता शक्यते। प्रकृतिक्षोभात् सृष्टिश्रवणेन प्रकृतेरपि कर्मवत्तयात्र सक्रियत्वापत्तेरिति। अनेकत्वं सर्गभेदेन भिन्नत्वम् । मर्गहयासाधारण्यमिति यावत्। न पुन: सजातीयानेकव्यक्तिकत्वम्। प्रकृतावतिव्याप्तेः। प्रकृतेरपि सत्त्वायनेकरूपत्वात्। सत्त्वादीनामतधर्मत्वं तद्रूपत्वादित्यागामिसूत्रादिति। आश्रितत्वं चाक्यवेष्विति ॥ १२४ ॥ ___ कार्य कारणयोर्भेदे हेतुमत्त्वादि सिध्यतीत्यत: कारणा. तिरिक्त कार्य सिद्धी प्रमाणान्याह ।
आजस्थादभेदतो वा गुणसामान्यादेस्तत्सिद्धिः प्रधानव्यपदेशादा ॥ १२५ ॥
तमिद्धिलिङ्गाख्यकार्यस्य कारणातिरेकत: सिद्धिः कचिदाञ्जस्यात् प्रत्यक्षत एवानायासेन भवति। यथा स्थौल्यादिना धर्मेण तन्वादिभ्यः पटादौनाम् । कचिच्च गुणसामान्यादेरभेदतो गुणसामान्याद्यात्मकत्वेन लिङ्गेनानुमानेन भवति । यथाध्यवसायादिगुणात्मकत्वरूपेण कारणवैधर्म्यग्ण महदादीनाम्। यथा च महापृथिवौत्वादिसामान्यात्मकतारूपेण तन्माववैधhण पृथिव्यादौनाम् । क्वचित् त्वादिशब्दग्रहीतन कर्माद्यात्मकतावैधयेण। यथा स्थिरावयवेभ्योऽतिरिक्तस्य चञ्चलावयविनः । तथा प्रधानव्यपदेशात् प्रधानश्रुतेरपि कारणातिरिक्त कार्यसिद्धिर्भवति। प्रधीयतेऽस्मिन् हि कार्य जात. मिति प्रधानमुच्यते। तच्च कार्य कारणयोर्भेदाभेदी विना न घटते । अत्यन्ताभेदे खस्याधारवासम्भवादिव्यर्थः । कार्याणां साधम्यरूपं लक्षणं कारणातिरिक्त कार्येषु प्रमाणं च सूत्राभ्यां दर्शितम् ॥ १२५ ॥
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प्रथमोऽध्यायः।
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इदानों कार्यमधर्मकतया कारणानुमानाय कायं कारणयोरपि साधम्यं प्रदर्शयति ।
त्रिगुणाचेतनत्वादि इयोः ॥ १२६ ॥
हयोः कार्यकारणयोरेव विगुणत्वादिसाधर्म्यमित्यर्थः । आदिशब्दग्राह्याच कारिकायामुक्ताः ।। विगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि । व्यक्त तथा प्रधानं तहिपरीतस्तथा च पुमान् ॥
इति । त्रयः सत्त्वादिव्यरूपा गुणा पत्र सन्तौति विगु. णम्। तत्र महदादिषु कारणरूपेण सत्वादीनामवस्थानं गुण वयसमूहरूपेण तु प्रधाने सत्त्वादौनामवस्थानं वने वृक्ष. वदेवावगन्तव्यम् । अथवा सत्त्वादिशब्देन सुखदुःखमोहानामपि वचनात् कार्य कारणयोखिगुणत्व समन्नसमिति । अविवेकिविषयोऽचरैव दृश्यम्। भोग्यमिति यावत्। अविवेकि च विषयश्चेति तच्छेदे बविवकिय सम्भय कारित्व विषयत्वं तु भोग्यत्वमेव । सामान्य सर्वपुरुषसाधारणम् । पुरुषभेदेऽप्यभित्रमिति यावत्। प्रसवधर्मि परिणामि। व्यक्त कार्यम् । प्रधानं कारणमित्यर्थः । कार्यकारणयोरन्योऽन्यवैधय॑मपि कारिकया दर्शितम्।
हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रित लिङ्गम्। सावयवं परतन्त्र व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥
इति। यत्रैकत्व सर्गभेदेऽप्य भिनत्वम् । अतः प्रकरने. कव्यक्तिकत्वेऽपि नैकत्वक्षतिः ।
महान्त च समात्य प्रधानं समवखितम् । अनन्तस्य न तस्यान्तः संख्यानं चापि वियते ।
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सांख्यदर्शनम् ।
इति विष्णु पुराणेनासंख्येयतावचनात् तु प्रधानस्य व्यक्तिबहुत्वसिद्धिरिति॥ १२६ ॥
प्रधानाख्यानां जगत्कारणगुणानामन्योऽन्यविवेकाय तेषामयान्तरमपि वैधयं सिद्धान्तयति । विविधजगत्कारणत्वोपपत्तये च। न ह्यकरूपात् कारणाविचित्र कार्याणि सम्भवतौति।
प्रौत्यप्रौतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योऽन्यं वैधHम् ॥ १२७॥
गुणानां सत्त्वादिद्रव्यत्रयाणामन्योऽन्य सुखदुःखाद्यवैधम्य कार्येषु तद्दर्शनादित्यर्थः । सुखादिकं च घटादैरपि रूपादियदेव धर्मोऽन्तःकरणोपादानत्वादन्य कार्याणामित्युताम् । व्यत्रादिशब्दग्राह्याः पञ्चशिखाचार्य रुताः। यथा सत्त्वं नाम प्रसादलाघवाभिष्वङ्गप्रीतितितिक्षासन्तोषादिरूपानन्तभेदं समासतः सुखात्मकम्। एवं रजोऽपि शोकादिनानाभेदं समामतो दुःखात्मकम् । एवं तमोऽपि निद्रादिनानाभेदं समासतो मोहात्मकमिति । अत्र प्रोत्यादीनां गुणधर्मत्ववचनादागामिसूबे च लघुत्वादेर्वक्ष्यमाणत्वात् सत्त्वादीनां द्रव्यत्व सिद्धम् । सुखाद्यात्मकता तु गुणानां मनसः सङ्कल्पात्मकतावद्धर्मधयभेदादेवोपपद्यते। न वैशेषिकोकाः सुखादय एव सत्त्वादिगुणा इति । सत्त्वादित्रयमपि व्यक्तिभेदादनन्तम् । अन्यथा हि विभुमात्रत्वे गुणविमर्दवैचित्रमात् कार्यवैचिवामिति सिद्धान्तो नोपपद्यते विम वान्तरभेदासम्भवात् ॥ १२७ ॥
गुणानां सत्त्वादौनामकैकव्यक्तिमावत्वे वृद्धिह्रासादिक नोपपद्यते तथा परिच्छिन्नत्वं च तत्समूहरूपस्य प्रधानस्य परिच्छिन्नत्वापत्त्या श्रुतिस्मृतिसिद्धमेकदासंख्य ब्रह्माण्डादिक
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प्रथमोऽध्यायः ।
८१
नोपपद्येत । अतोऽसंख्यत्वे गुग्णानां त्रित्वसंख्योपपादनाय विवेकाद्यर्थं च तेषां साधय॑ वैधम्ये प्रतिपादयति ।
लघ्वादिधर्मः साधर्म्य वैधम्यं च गुणानाम् ॥१२८॥
अयमर्थः । लपादौति भावप्रधानो निर्देशः। लघुत्वा. दिधर्मेण सर्वासां सत्त्व व्यक्तीनां साधर्म्य वैधयं च रजस्तमोभ्याम् । तथा च पृथिवीव्यक्तीनां पृथिवौत्व नेव सत्त्वव्यनौनामेकजातीयतयैकता सजातीयोपष्टम्भादिना वृद्धिहासादिकं च युक्तमित्याशयः । एवं चञ्चलत्वादिधर्मेण सर्वासां रजोव्यक्तीनां साधय सत्त्व तमोभ्यां च वैधय म्। शेषं पूर्व वत्। एवं गुरुत्वादिधर्मेण सर्वासां तमोव्यक्तौनां माधये सत्त्वरजोभ्यां वैधम्य म्। शषं पूर्ववदिति। वैधयं स्य प्रागेवोततयात्र पुनर्वधर्म्य कथनं सम्यातायातम्। अत्र वैधयं चेति पाठः प्रामादिक एवेति। अत्र सूत्रे सत्त्वादौनां कारणद. व्याणां प्रत्ये कमनकव्यक्तिकत्व सिद्धम्। अन्यथा लघुत्वादीनां साधम्य त्वानुपपत्तेः समानानां धर्मस्य व साधम्य त्वात् । न च कार्यसत्त्वादीनामन कतया लघुत्वादिकं साधय स्यादिति वाय त्रिगुणात्मकत्वेन घटादौनामपि कार्यसत्त्वादिरूपतया लघुत्वादीनां सत्त्वादिसाधम्य त्वानुपपत्तेः। तस्मात् कारणगुणानामवान साधर्म्यादिकमुच्यत इति । सत्त्वादीनां लघत्वादिकं चोतं कारिकया।
सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रजः । गुरु वरण कर्मव तमः प्रदौपवञ्चार्थतो हत्तिः ॥ इति। अर्थतः पुरुषार्थनिमित्तात्। नन्वेवं मूलकारणस्य
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सांख्यदर्शनम् ।
परिच्छिन्नासङ्ख्यव्यक्तिकत्वे वैशेषिकमतादत्र को विशेष इति चंत्। कारणद्रव्यस्य शब्दस्पर्शादिराहित्यमेव ।
शब्दस्पर्शविहीनं तु रूपादिभिरसंयुतम् । त्रिगुणं तज्जगद्योनिरनादिप्रभवाप्ययम् ॥
इति विष्णुपुराणादिभ्यः । एतञ्च पाताले स्माभिः प्रपञ्चितम् ॥ १२८॥
ननु महदादौनां स्वरूपतः सिद्धावपि तेषां प्रत्यक्षेणोत्यत्वदर्शनात् कार्यवे नास्ति प्रमाणं येन तेषां हेतमत्त्वं साध. म्यं स्यात् तबाह।
उभयान्यत्वात् कार्य त्वं महदार्घटादिवत् ॥ १२६ ॥
महदादिपञ्चभूतान्तं विवादास्पदं तावन्न पुरुषो भोग्यत्वात्। नापि प्रकतिर्मोक्षान्यथानुपपत्त्या विनाशित्वात् । अत: प्रकृतिपुरुषभिन्नं तद्भिवत्वाञ्च कायं घटादिवदित्यर्थः । १२८ ॥ __ ननु विकारशक्ति दाहादिनैव मोक्षाद्य पपत्तेविनाशित्वमपि तेषामसिद्धमित्याशङ्कायां कार्य व हेवन्तराण्याह ।
परिमाणात् ॥ १३० ॥ परिच्छिन्नत्वाई शिकाभावप्रतियोगितावच्छेदकजातिमवादित्यर्थः । तेन गुणव्यक्तीनां कियतीनां परिच्छिनत्वेऽपि न तत्र व्यभिचारः ॥ १३० ॥
किञ्च।
समन्वयात् ॥ १३१॥ उपवासादिना दोणं हि बुधादितत्त्वमवादिभिः सम
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प्रथमोऽध्यायः।
न्वयेन समनुगतेन पुनरुपचीयते । अत: समन्वयात् कार्यत्वमुन्नौयत इत्यर्थः। नित्यस्य हि निरवयवतयावयवानुप्रवेश रूपः समन्वयो न घटत इति। समन्वये च श्रुतिः प्रमाणं मन: प्रकृत्य । एवं ते सौम्य षोड़शानां कलानामेका कलातिशिशभूत् सानेनोपसमाहिता प्राज्वालीदिति । योगसूत्रं च जात्यन्तरपरिणामः प्रत्यापूरादिति ॥ १३१ ॥ किञ्च।
__ शक्तितश्चेति ॥ १३२॥ करणतश्चेत्यर्थः । पुरुषस्य यत् करणं तत् कार्य चक्षुरादिवदिति भावः । पुरुष साक्षादिषयापकत्व प्रकृतेर्नास्तीति प्रकतिर्न करणमिति। अतो महत्त्वस्य करणतया कार्यले सिद्ध सुतरामन्येषामपि कार्य त्वम्। इतिशब्दश्च हेतुवर्गसमाप्तिसूचनार्थः ॥ १३२ ॥ ___ यदि च महदादिमध्य किञ्चिदकायं स्वीक्रियते तदापि तदेव प्रकृति: पुरुषो वेति सिद्ध न: समीहितम् । प्रकृतिपुरुषो प्रसाध्य परिणामित्वापरिणामित्वाभ्यां विवेक्तव्यावित्यत्वे वास्माकं तात्पर्यादित्याह।
तदाने प्रकृति: पुरुषो वा ॥ १३३ ॥ तहाने कार्य वहाने यदि परिणामौ तदा प्रकृतिः । यदि वा परिणामी भोक्ता तदा पुरुष इत्यर्थः ॥ १३३ ॥ ननु नित्यमप्यु भयभिन्न स्यात् तत्राह।
तयोरन्यत्वे तुच्छत्वम् ॥ १३४ ॥ अकार्यस्य प्रकतिपुरुषभिवत्वे तुच्छत्व शशशृङ्गादिवत् प्रमाणाभावात् । बकायं हि कारणतया वा भोक्ततया वा सिध्यति नान्यथेत्यर्थः ॥ १३४ ॥
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६४
सांख्यदर्शनम् ।
तदेवं महदादिषु काय्य त्व' मसाध्य साम्प्रतं तैः प्रक्कत्य
नुमानेऽनुक्त विशेषमाह ।
कार्य्यात् कारणानुमानं तत्साहित्यात् ॥ १३५॥
कार्यान्महादेर्लिङ्गात् सामान्यतो दृष्टं कारणानुमानं यदुक्तं तत् ताटस्थ्य निवृत्तये तसाहित्यात् काय्र्यसाहित्य नैव कर्त्तव्य सदेव सौम्य दमग्र आसीत् तम एवेदमग्र आसीदित्यादिश्रुत्यनुसारात् । तद्यथा । महदादिकं खोपहितत्रिगु णात्मकवस्तु पादानकम् । कार्य्यत्वात् । शिलामध्यस्थप्रति
मावत् । तैलादिवच्च त्यर्थः । अत्रानुकूलतर्कः प्रागेव दर्शित:
॥ १३५ ॥
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ܬ
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तस्याः प्रकृतेः कार्य्याद्वैधर्म्य विवेकार्थमाह ।
अव्यक्त' चिगुणाल्लिङ्गात् ॥ १३६ ॥
अभिव्यक्तात् त्रिगुणान्महत्तत्त्वादपि मूलकारणमव्यक्त' सूक्ष्म महत्तत्त्वस्य हि सुखादिर्गुणः साचात् क्रियते प्रकृतेख गुणोऽपि न साचात् क्रियत इति । प्रधानं परमाव्यक्तं महतत्त्व तु तदपेक्षया व्यक्तमित्यर्थः ॥ १३६ ॥
ननु परमसूक्ष्म चेत् तर्हि तस्यापलाप एवोचित इत्याकाङ्क्षायां पूर्वोक्तं स्मारयति ।
तत्कार्य्यतस्तत्सिद्धेर्नापलापः ॥ १३७ ॥
सुगमम् ॥ १३७ ॥
प्रकृत्यनुमानगता विशेषा विस्तरतो विचारिताः । इतः परमध्यायसमाप्तिपर्य्यन्त पुरुषानुमानगता विशेषा विचास्तव काञ्चनादौ विशेषमाह ।
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प्रथमोऽध्यायः ।
८५ सामान्य न विवादाभावाइर्मवन्न साधनम् ॥ १३८॥
यत्र वस्तुनि सामान्यतो विवादो नास्ति न तस्य स्वरूपत: साधनमपेक्ष्यते धर्मस्येवेत्यर्थः । अयं भावः । यथा प्रकृते: सामान्येनापि साधनमपेक्षितं धर्मिण्यपि विवादात् । नैवं पुरुषस्य साधनमपेक्षितम्। चेतनापलापे जगदाध्यप्रसङ्गतो भोक्तयहम्पदार्थे सामान्यतो बौहानामप्यविवादात्। धर्म इव। धर्मो हि सामान्यतो बौद्धरपि स्वीक्रियते तप्तशिलारोपणादिषु धर्मत्वाभ्युपगमात्। अतः पुरुषे विवेकनित्यत्वा. दिसाधनमात्रमनुमान कार्यमिति ॥ १३८ ।
संहतपरार्थत्वात् पुरुषस्य त्यु तसूत्रेणापि विवेकानुमानमेवाभिप्रेतम् । न तु तत्र पुरुषस्य सर्वथैवाप्रत्यक्षत्वमभिप्रेतमिति। तत्र चादौ विवेकप्रतिज्ञासूत्रम् ।
शरीरादिव्यतिरिक्तः पुमान् ॥ १३६ ॥ शरीरादिप्रकत्यन्त यच्चतुर्विंशतितत्त्वात्मकं वस्तु ततोऽतिरिक्तः पुमान् भोक्तत्यर्थः । भोक्तृत्व च द्रष्टुत्वमिति ॥१३८१
यत्र हेतूनाह सूत्रैः।
____ संहतपरार्थत्वात् ॥ १४०॥ यतः सर्व संहतं प्रक्कत्यादिकं परार्थं भवति शब्यादि. वत्। अतोऽसंहतः संहतदेहादिभ्यः परः पुरुषः सिध्यतीत्यर्थः । अयं च हेतुः संहतपरार्थत्वात् पुरुषस्येत्यत्र व्याख्यातः । उक्त स्यापि हेतोः पुनरुपन्यासो हेतुवर्गसङ्कलनार्थः ॥ १४ ॥ किञ्च।
त्रिगुणादिविपर्ययात् ॥ १४१ ॥
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८६
सांख्यदर्शनम्।
सुखदुःखमोहात्मकत्वादिवपरीत्यादित्यर्थः । शरीरादीनां हि यः सुखाद्यात्मकत्व धर्मः स सुखादिभोक्तरि न सम्भवति । स्वयं सुखादिग्रहणे कर्मकर्तविरोधात्। धर्मि पुरस्कारणेव सुखाद्यनुभवादिति । ननु बुद्धित्तिप्रतिविम्बितं वसुखादिक पुरुषेण रायतां स्ववदिति चेन्न । एवं सति बुडेरे व सुखादिकल्प नौचित्यात्। पुरुषगतसुखादेबुद्धौ प्रतिविम्बकल्पने गौरवात्। अहं सुखो दुःखो मूढ इत्यादिप्रत्य यास्तु न पुरुषे सुखादिसाधकाः । तत्स्वामित्व नाप्युपपत्तेः। बुद्धेः सुखादिमत्त्वनाप्युपपत्तेश्च । लौकिक्यां यहम्ब द्धाववश्य बुद्धिरपि विषयो मिथ्याज्ञानवासनादिरूपदोषानुवृत्त स्तप्रतिविम्बकल्पनायां च गौरवादिति। श्रादिशब्देन चान त्रिगुणमविवेकि विषय इति कारिकोक्ताविवेकित्वादयो ग्राद्याः। तथा रूपा. दयः शरीरादिधर्मा ग्राह्याः ॥ १४१ ॥ किञ्ज।
- अधिष्ठानाच्चेति ॥ १४२ ॥ भोक्तरधिष्ठात्वाच्चाधिष्ठेयेभ्यः प्रकृत्यन्तेभ्योऽतिरिक्तते. त्यर्थः । अधिष्ठानं हि भोक्तः संयोगः स च प्रकृत्यादौनां भोगहेतुपरिणामेषु कारणम्। भोक्तरधिष्ठानात् भोगायतननिर्माणमिति वक्ष्यमाणसूत्रात्। संयोगश्च भेदे सत्येव भवतीति भावः । इतिशब्दो हेतुसमाप्तौ ॥ १४२ ॥ उक्तानुमानेऽनुकूलतर्क प्रदर्शयति सूत्राभ्याम् ।
भोतृभावात् ॥ १४३ ॥ यदि हि शरीरादिस्वरूप एव भोक्ता स्यात् तदा भोक्तत्वमेव व्याहन्येत। कर्मकर्तृविरोधात् । स्वस्य साक्षात् स्वभोकृत्वानुपपत्ते रित्यर्थः । अनुपपत्तिश्च पूर्वमेव व्याख्याता। अत्र
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प्रथमोऽध्यायः ।
सूत्र पुरुषस्य भोगः स्वीकत इति स्मर्तव्यम्। अपरिणामिनश्च पुरुषस्य भोगश्चिदवसानो भोग इत्यत्र व्याख्यातः ॥१४३॥ किञ्च।
कैवल्यार्थ प्रहत्तेश्च ॥ १४४ ॥ शरीरादिकमेव चेभोक्त स्यात् तदा भोक्तः कैवल्यार्थं दुःखात्यन्तोच्छेदाथ कस्यापि प्रत्तिर्नोपपद्येत। शरीरादीनां विनाशित्वात् प्रकलेश्च धर्मिग्राहकमानेन दुःखवाभाव्यसिया कैवल्यासम्भवात् । न हि स्वभावस्यात्यन्तोच्छेदो घटत इत्यर्थः । अत्र कैवल्याधे प्रकतेरिति सूत्रपाठः प्रामादिकत्वादुपेक्षणीयः ।
सङ्घातपरार्थत्वात् त्रिगुणादिविपर्ययादधिष्ठानात् । पुरुषोऽस्ति भोक्तभावात् कैवल्यार्थं प्रवृत्तश्च ॥ ।
इति कारिकातः कैवल्यार्थ प्रवृत्त श्चेति पाठात्। अर्थासङ्गतेश्चेति ॥ १४४॥
चतुर्विंशतितत्त्वातिरिक्ततया पुरुषः साधितः । इदानीं पुरुषगतो विशेषो विवेक स्फुटीकरणायानुमीयते ।
जड़प्रकाशायोगात् प्रकाशः ॥ १४५ ॥ वैशेषिका आहुः। प्रागप्रकाशरूपस्य जडस्यात्मनो मन:मंयोगाज्ज्ञानाख्यः प्रकाशो जायत इति तन्न । लोके जडण्याप्रकाशस्य लोष्टादेः प्रकाशोत्यत्त्वदर्शनेन तदयोगात्। अतः सूर्यादिवत् प्रकाशस्वरूप एव पुरुष इत्यर्थः। तथा च स्मृतिः।
यथा प्रकाशतमसोः सम्बन्धो नोपपद्यते। तहदैक्यं न शंसध्वं प्रपञ्चपरमात्मनोः ॥ इति । यथा दीपः प्रकाशात्मा इस्खो वा यदि वा महान् । जानात्मानं तथा विद्यात् पुरुषं सर्वजन्तुषु ॥
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२८
सांख्यदर्शनम् । इति च । प्रकाशत्व च तेजःसत्त्वचैतन्येष्वनुगतमखण्डोपाधिरनुगतष्यवहारादिति ॥ १४५ ॥
ननु प्रकाशखरूपत्वेऽपि तेजोवामधर्मिभावोऽस्ति न वा
निर्गुणत्वान्न चिदर्मा ॥ १४६ ॥ सुगमम् । पुरुषस्य प्रकाशरूपत्वे सिचे तत्सम्बन्धमावेणान्यव्यवहारोपपत्तौ प्रकाशात्मकधर्मकल्पना गौरवमित्यपि बोध्यम् । तेजसश्च प्रकाशाख्यरूपविशेषाग्रहेऽपि स्पर्शपुरस्कारेण ग्रहात् प्रकाशतेजसोर्भेदः सिध्यति । आत्मनस्तु ज्ञानाख्यप्रकाशाग्रहकाले ग्रहणं नास्तीत्यतो लाघवाधर्मार्मभाव. शून्यं प्रकाशरूपमेवात्मद्रव्यं कल्पाते। तस्य च न गुण त्वम् । संयोगादिमत्त्वात् । अनाश्रितत्वाचेति । तथाच स्मयं ते।
ज्ञानं नैवात्मनो धर्मो न गुणो वा कथञ्चन । ज्ञानस्वरूप एवात्मा नित्यः पूर्णः सदा शिवः ।
इति । ननु निर्गुणत्व एव का युक्तिरिति चेत् । उच्यते पुरुषस्येच्छाद्यास्तावन्नित्या न सम्भवन्ति जन्यताप्रत्यक्षात् । जन्यगुणाङ्गोकार परिणामित्वापत्तिः। तथा चोभयोरेव प्रकृतिपुरुषयोः परिणामहेतुत्वकल्पने गौरवम्। आन्ध्यपरिणामेन कदाचिदन्जत्वस्यापत्त्या ज्ञानेच्छादिगोचरसंशयापत्तिश्च। तथा जड़प्रकाशायोगस्योक्तवादपि न नित्यस्यानित्यजानसम्भव इति । इच्छादिकमन्वयव्यतिरेकाभ्यां मनस्येव लाघवात् सिध्यति । मनःसंयोगस्यात्मनश्चोभयोस्तछेतुत्वे गौरवात्। गुणशब्दश्च विशेषगुणवाचीत्य तमेव । अत आत्मा निर्गुणः। अपिच ये तार्किका यात्मनः कर्तत्वमिच्छन्ति तेषां मोक्षानुपपत्तिः। यहं कतै ति बुद्धेरेव गौतादिष्वदृष्टोत्
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प्रथमोऽध्यायः।
पत्तिहेतुतयोलात्वात्। तस्याच तन्मते मियाजानत्वाभावेन तत्त्वज्ञाननिवर्त्य त्वासम्भवात् । अतः श्रुत्युक्तमोक्षानुपपत्त्यात्मनोऽकर्तवमस्माभिरिष्यते। अकर्तृत्वाचादृष्टसुखाद्यभावः । ततश्च मनसः कत्यादिहेतुत्वे कल्पनीये लाघवादन्तदृश्यगुणत्वावच्छेदेनैतत् कल्पाते। अत पात्मा निर्गुण इति। यथोतस्य च परमसूक्षमस्यात्मनः स्वरूपं वाशिष्ठे करामलकवत् प्रोक्तं विविध प्रतिपादितम् । यथा ।
असम्भवति सर्वत्र दिगभूम्याकाशरूपिणि । प्रकाश्ये यादृशं रूपं प्रकाशस्यामलं भवेत् ॥ विजगत् त्वमहं चेति दृश्ये सत्तामुपागते । द्रष्टुः स्यात् केवलोभावस्तादृशो विमलात्मनः ॥ इति ॥ १४६ ॥
नन्वहं जानामौति धर्मधर्मिभावानुभवात् पुरुषस्य चिद्धमकत्वं सिध्यति गौरवस्य प्रामाणिकत्वेनादोषत्वादिति तबाह।
श्रुत्या सिद्धस्य नापलापस्तव्यत्यक्षबाधात्
॥ १४७॥
भवेदेवं यदि केवलतणास्माभिनिर्गुणत्वाच्चिद्धमत्वादिक प्रसाध्यते किन्तु अत्यापि। अत: श्रुत्या सिद्धस्य निर्गुणत्वादे पलापः सम्भवति तत्प्रत्यक्षस्य गुणादिप्रत्यक्षस्य श्रुत्य व बाधात् । अहं गौर इत्यादिप्रत्यक्षवदित्यर्थः । अन्यथा हि गौरोऽहमिति प्रत्यक्षबलेन देहातिरिक्तात्मसाधिका अपि युक्तयो बाधिता: स्यु रिति जितं नास्तिकः। निर्गुणत्वे च श्रुतयः साक्षी चेताः केवलो निगुणश्चेत्याद्याः। चिन्मावत्वे तु श्रुतयोऽकर्ता चैतन्य चिन्माव सञ्चिदेकरसो वयमात्मत्याद्या इति। सर्वत्रत्वादिश्रुतयस्तु राहोः शिर इतिवल्लौकि
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सांख्यदर्शनम्।
कविकल्पानुवादमात्राः । विधिनिषेधश्रुतिमध्ये निषेधश्रुतेरेव बलवत्वात् । अथात आदेशो नेति नेति न घेतम्मादिति नेत्यन्यत् परमस्तौति श्रुतेः । किञ्चाज्ञानामहं जानामौति प्रत्यये प्रमात्वकल्पनायामेव गौरवम् । अनाद्यविद्यादोषस्यानुवर्त - मानतया भ्रमत्वस्यैवौत्सर्गिकत्वात्। अतो भ्रमशतान्तःपाति. त्वेनाग्रामाण्यशङ्कास्कन्दितत्वाञ्चैतप्रत्यक्षबाधने लाघवतर्काधनुग्रहौतमनुमानमपि समर्थमिति। नन्वात्मनो नित्यज्ञानस्वरूपत्वे कीदृशं लाघवमिति चेत्। उच्यते । नैयायिकादिभिरन्तःकरणं व्यवसायानुव्यवसायौ तदाश्रय लि चत्वारः पदार्था: कल्पान्ते। अस्माभिस्त्वन्तःकरगां व्यवसायस्थानीया च तत्तिरनन्तानुव्यवसायस्थानीयश्च नित्य कन्ज्ञानरूप प्रा. मोति त्रयः पदार्थाः कल्पान्त इति ॥ १४७ ॥
ननु यदि प्रकाशरूप एवात्मा तदा सुषस्याद्यवस्थाभेदो नोपपद्यते सदा प्रकाशानपायादिति तबाह ।
सुषुप्तपाद्यसाक्षित्वम् ॥ १४८॥ सुषुत्याद्यस्यावस्थात्रयस्य बुद्धिनिष्ठस्य साक्षित्वमेव पुसौत्यर्थः। तदुक्तम्।
जाग्रत् स्वपः सुषप्तं च गुण तो बुडित्तयः । तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन व्यवस्थितः ॥
इति। तासां बुद्धिकृत्तीनां माक्षित्वेन तहिलक्षणो जानदाद्यवस्थारहितो निर्णीत इत्यर्थः। तत्र जाग्रन्नामावस्थेन्द्रि यहारा बुद्धेविषयाकार: परिणामः । स्वप्नावस्था च संस्कार• मात्र जन्यस्तादृशः परिणामः । सुषुस्यवस्था च द्विविधाईसमग्रलयभेदेन । तत्राईलये विषयाकारा वृत्तिनं भवति । किन्तु खगत सुखदुःखमोहाकारैव बदित्तिर्भवति। अन्यथोस्थित स्य
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प्रथमोऽध्यायः।
मुखमहमखासमित्यादिरूपसुषुप्तिकालौनसुखादिस्मरणानुपपत्तेः। तदुक्त व्यास सूवेण मुग्धेऽई सम्पत्ति: परिशेषादिति । समप्रलये तु बुद्धेत्तिसामान्याभायो मरणादाविव भवति। अन्यथा समाधिसुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपतेत्यागामिसूत्रानुपपतेरिति । सा च समग्रसुषुप्तिहत्त्यभावरूपेति पुरुषस्तत्माक्षी न भवति पुरुषस्य वृत्तिमात्रसाक्षित्वात्। अन्यथा संस्कारा. दैरपि बुद्धिधर्मस्य साचिभास्यतापत्त:। सुषुयादिसाक्षित्वं तु तादृशबुद्धिवृत्तीनां स्वप्रतिविम्बितानां प्रकाशनमिति वस्यामः। अतो ज्ञानार्थं पुरुषस्य न परिणामापेक्षेति । स्यादेतत् । सुषुप्ते यदि सुखदुःखादिगोचरा बुद्धिवृत्तिरिष्यते तहि जाग्रदादावष्यखिलरत्तीनां हत्तिग्राह्यत्वस्वीकार एव युक्त इति व्यर्था तत्साक्षिपुरुष कल्पना खगोचरवृत्तिले नैव खयवहारहे तुताया: सामान्यतः सुवचत्वादिति । मैवम्। नियमेन खगोचरवृत्तिकल्पने नवस्थापत्तिौरवं च स्यात्। किच्चाहं सुखीत्यादित्तिष सुखादीनां विशेषणतया निर्विकल्पक तज्ज्ञानमादावपेक्ष्यते। तत्र चानन्तनिर्विकल्पकतृत्त्यपेक्षया लाघवेन नित्यमे कमवात्मस्वरूपं जानं कल्पते। अहं सुखोत्यादिविशिष्टज्ञाना) बुद्धिवृत्त रेव तादृशाकारत्व पुरुषे वृत्तिसारूप्यमानखीकारण वृत्त्याकारातिरिक्ताकारानभ्युपगमात् खतन्त्राकारण परिणामापत्तेरिति। अथैवं पुरुषस्य सुषुप्त्यादिसाक्षिमात्रत्वेन पुरुषैक्यस्याप्य पपत्तौ स किमेकोऽनेको वेति संशयः। तत्रायं पूर्वपक्षः । लाघवतर्कसहकारेण बलवतीभ्योऽभेदश्रुतिभ्य एक एवात्मा सिध्यति जाग्रदाद्यवस्थारूपाणां वैधाणां बुद्धिधर्मत्वात् । यद्यप्ये कस्यात्मन: सर्वबुद्धिसाक्षित्व तथापि यत्या बुडेर्या वृत्तिः सैव बुद्धिस्तवत्तिविशिष्टतया साक्षियं राति घटं जानामौत्यादिरूपैः। प्रत
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सांख्यदर्शनम् |
एकस्या बुडेरयं घट इति वृत्तौ सत्यामन्यबुद्धिवृत्तिद्वारा नानुभवो घटमहं जानामीति ॥ १४८ ॥
तत्र सिद्धान्तमाह ।
जन्मादिव्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम् ॥ १४८ ॥
पुण्यवान् स्वर्गे जायते पापी नरकेऽसो बध्यते ज्ञानी मुच्यत इत्यादेः श्रुतिस्मृतिव्यवस्थाया विभागस्यान्यथानुपपत्त्या पुषा बहव इत्यर्थः । जन्ममरणे चात्र नोत्पत्तिविनाशो पुरुषनिष्ठत्वाभावात् ।
किन्त्वपूर्वदेहेन्द्रियादिसङ्घातविशेषेण
संयोगश्च वियोगश्च भोगतदभावनियामकाविति । जन्मादिव्यवस्थायां च श्रुतिः ।
जामेकां लोहितशुक्लकृष्णां
बह्रोः प्रजाः सृजमानां मरूपाः । जो ह्येको जुषमाणोऽनुशे ते
जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥
ये तद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरं दुःखमेवापि यन्ति 1
इत्यादिरिति ॥ १४८ ॥
ननु पुरुषैक्येऽप्युपाधिरूपावच्छेदकभेदेन जन्मादिव्यवस्था भवेत् तत्राह ।
उपाधिभेदेऽप्येकस्य नानायोग आकाशस्येव
घटादिभिः || १५० ५
उपाधिभेदेऽप्येकस्यैव पुरुषस्य नानोपाधियोगोऽस्त्य व यथेकस्यैवाकाशस्य घटकुड्यादिनानायोगः । व्यतोऽवच्छेदकभेदेनैकस्यात्मन एव विविधजन्ममरणाद्यापत्ति: कायव्यूहादावि वेति न सम्भवति व्यवस्था । एकः पुरुषो जायते नापर इत्यादिरित्यर्थः । न ह्यवच्छेदकभेदेन कपिसंयोगतदभाववत्य
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प्रथमोऽध्यायः।
कस्मिन्नेव वृक्षे व्यवस्था घटते। एको वृक्षः कपिसंयोगी। अन्यश्च नेति । किञ्चैकोपाधितो मुक्तस्याप्यात्मप्रदेशस्योपाध्यन्तः पुनबन्धापत्त्या बन्धमोक्षाव्यवस्था तदवस्यैव। यथैकघटमुक्तस्याकाशप्रदेशस्यान्यघटयोगाहटाकाशव्यवस्था तहदिति। न च बन्धमोक्षव्यवस्थाश्रुतिरपि लोकिकनमानुवादमात्रमिति वाच्यम्। मोक्षस्यालोकिकत्वात्। मिथ्यापुरुषार्थप्रतिपादनेन श्रुतेः प्रतारकत्वाद्यापत्तेश्च ॥ १५० ॥
ननु चैतन्यै क्येऽपि तत्तदुपाधिविशिष्ट स्यातिरिक्त तामभ्युपगम्य व्यवस्थोपपादनौया तत्राह ।
उपाधिर्भिद्यते न तु तहान् ॥ १५१ ॥ उपाधिरेव नाना न तु तहानुपाधिविशिष्टोऽपि नानाभ्युपेयो विशिष्टस्यातिरिक्तवे नानात्मताया एव शास्त्रान्तरेऽप्यभ्यपगमापत्तरित्यर्थः। बन्धभागिनो विशिष्टत्वे विशेषण वियोगेन विशिष्टनाशात्र मोक्षोपपत्तिरित्यादौन्यपि दूषणानि । ननु विशिष्ट स्थ जीवत्वमन्वयव्यतिरेकादिति षष्ठाध्याये स्वयमेवाहङ्कारविशिष्ट स्यैव जीवत्वं वक्ष्यतीति चेन्न प्राणधारकत्वरूपजीवस्यैव विशिष्टाधेयत्ववचनात्। न तु बन्धमोक्ष व्यव. स्थाया विशिष्टाथितत्वं वक्ष्यते मोक्षकाले विशिष्टासत्त्वादिति। यदपि केचित्रवीना वेदान्तिब्रुवा आहुः। एकस्यैवात्मनः कार्यकारणोपाधिष प्रतिविम्बानि जीवेश्वराः प्रतिविम्बानां चान्योऽन्यं भेदाज्जन्माखिलव्यवस्थोपपत्तिरिति । तदप्यसत् । भेदाभेदविकल्पासहत्वात्। विम्बप्रतिविम्बयोर्भेदे प्रतिविम्बस्याचेतनया भोक्तत्वबन्धमोक्षाद्यनुपपत्तिः जीवब्रह्माभेदरूपतसिद्धान्तक्षतिश्च । जीवेश्वरभिन्न स्यात्मनोऽप्रामाणिकत्वं च । अभेदे तु सायापरिहारः। भेदाभेदाभ्युपगमे तु तसिद्धान्त
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सांख्यदर्शनम्।
हानिः। भेदाभेदविरोधश्च । अस्मन्मते त्वभेदोऽविभागलक्षणो भेदश्चान्योऽन्याभाव इत्यविरोध इति। अवच्छेदप्रतिविम्बादिदृष्टान्तवाक्यानि त्वग्रे व्याख्यास्यामः। स्यादेतत् । विम्बप्रतिविम्बादिभेदं परिकल्पा श्रुत्या बन्धमोक्षव्यवस्थाकल्पितेत्ये वास्माभिरुच्यते नतु परमार्थतो विम्बप्रतिविम्बभावस्तयोर्भेदो बन्धमोक्षादिकं चेष्यत इति। मैवम् । एवं सति बन्धमोक्षादिश्रुतिगणस्य भेदश्रुतिगणस्य चोभयोर्बाधापक्षया केवलाभेदश्रुतिगणस्य वाविभागपरतयैव सङ्कोचो लाघवाद्यक्तः। श्रुतिस्मत्यन्तरैरविभागस्य सिद्धत्वाचेति ॥ १५१ ॥
आत्मैक्यवादिषक्त दूषणमुपसंहरति ।
एवमेकत्वेन परिवर्त्तमानस्य न विरुद्धधर्माध्यासः ॥ १५२ ॥
एवं रौत्य कत्वेन सर्वतो वर्तमानस्यात्मनो जन्ममरणादिरूपविरुद्धधर्मप्रसङ्गो न युक्त इत्यर्थः । यह कद इति छेदः । एकत्वेऽभ्युपगम्यमाने परितः सर्वतो वर्तमानस्य सर्वोपाधिष्वनुगतस्य विरुद्धधर्माध्यासो नेति न किन्तु सर्वथा विरुधर्मसङ्गरोऽपरिहार्य इत्यर्थः । ननु पुरुषो निर्धर्मकस्तत्र कथं जन्ममरणबन्धमोक्षादिविरुद्धधर्ममार्यमापद्यते भवद्भिरपि सर्वेषां धर्माणामुपाधिनिष्ठत्वाभ्युपगमादिति चेत्र । उक्तधर्माणां संयोगवियोगभागाभोगरूपतया पुरुषे खौकारात् । परिणामरूपधर्माणामेव पुरुषे प्रतिधस्योक्तत्वादिति। यथा स्फटिकेषु लौहित्यनीलिमादिधर्माणामारोपितानामपि व्यव. स्थास्ति तथा पुरुषेष्वपि बुद्धिधर्माणां सुखदुःखादीनां शरीरादिधर्माणां च ब्राह्मण्य क्षत्रियत्वादौनामारोपितानामपि व्यवस्थास्ति यालेषु। यथा विष्णुपुराणे।
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प्रथमोऽध्यायः।
यथै कस्मिन् घटाकाशे रजोधूमादिभिर्वते । न च सर्वे प्रयुज्यन्त एवं जीवाः सुखादिभिः । इति ॥ १५२ ॥
सापि व्यवस्थैकात्मे सति जन्मादिव्यवस्थावदेव नोपपद्यत इत्याह।
अन्यधर्मत्वेऽपि नारोपात् तसिविरेकत्वात् ॥ १५३॥
अन्यधर्मत्त्वेऽपि धर्माणां सुखादीनामारोपात् पुरुषे व्यवस्था न सिध्यति। यारोपाधिष्ठानपुरुषस्यैकत्वादित्यर्थः । याकाशस्यैकत्वेऽपि घटावच्छिन्नाकाशानां घटभेदेन भिन्नतयोपाधिकर्मव्यवस्था घटते। आत्मत्वजीवत्वादिकन्तु नोपाध्यवच्छिन्नस्य। उपाधिवियोग घटाकाशनाशवत् तन्मान जोवो न मियत इत्यादिश्रुतिविरोधप्रसङ्गात्। किन्तु केवलचैतन्यस्येति प्रागेवोक्तम् । इमां बन्धमोक्षादिव्यवस्थानुपपत्तिं सूक्ष्मामबुद्धवाधुनिका वेदान्तिब्रुवा उपाधिभेदेन बन्धमोक्षव्यवस्थामैकात्मेऽम्याहुः । तेऽप्येतेन निरस्ताः। योऽपि तदकदेशिन इमामवानुपपत्ति पश्यन्त उपाधिगतचित्प्रतिविम्बानामेव बन्धादौन्याहस्ते त्वतीव घान्ताः। उक्ताद्भेदाभेदादि. विकल्पासहत्वादिदोषात्। अन्तःकरणस्य तदुज्ज्वलितत्वादित्यत्रोक्तदोषाच्च। किञ्च वेदान्तसूत्रे कापि सर्वात्मनामत्यन्तैक्यं नोक्तमस्ति। प्रत्यु त भेदव्यपदेशाचान्यः। अधिकन्तु भेदनिर्देशात्। अंशो नानाव्यपदेशा। इत्यादिसूत्रैर्भेद उक्तः। अत आधुनिकानामवच्छेदप्रतिविम्बादिवादा अपसिद्धान्ता एव । स्वशास्त्रानुक्तसन्दिग्धार्थेषु समानतन्त्र सिद्धान्तस्यैव सिद्धान्तत्वाचेत्यादिकं ब्रह्ममीमांसाभाष्ये प्रतिपादितमस्माभिः ॥१५३
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सांख्यदर्शनम्
नन्वेवं पुरुषनानात्वे सति । एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् । नित्यः सर्वगतो ह्यात्मा कूटस्थो दोषवर्जितः । एकः स भिद्यते शत्या मायया न स्वभावतः ॥
इत्याद्याः श्रुतिम तय आत्मैकत्वप्रतिपादिका नोपपद्यन्त इति तवाह।
नाईतश्रुतिविरोधो जातिपरत्वात् ॥१५४॥ यात्मैक्य श्रुतीनां विरोधस्तु नास्ति तासां जातिपरत्वात् । जाति: सामान्यमकरूपत्वं तत्रैवाईत श्रुतीनां तात्पर्य्यात् । न त्वखण्डत्वे प्रयोजनाभावादित्यर्थः । जातिशब्दस्य चैकरूप. तार्थकत्वमुत्तरसूत्रालभ्यते । यथाश्रुतजातिशब्दस्यादरे । आत्मा इदमेक एवाग्र आसीत्। सदेव सौम्येदमग्र आसीत्। एक. मेवाद्वितीयम्। इत्याद्यद्दतश्रुत्य पपादकतयैव सूत्र व्याख्येयम् । जातिपरत्वात्। विजातीयह तनिषेधपरत्वादित्यर्थः ।
तत्राद्यव्याख्यायामयं भावः। आत्मैक्यश्रुतिस्मृतिष्वेकादिशब्दाश्चिदेकरूपतामात्रपरा भेदादिशब्दाच वैधर्म्यलक्षणभेदपराः । एक एवात्मा मन्तव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिष स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यत इत्यादिवाक्य वेकरूपार्थत्वावश्य. कत्वात्। अन्यथावस्थात्रयेप्यात्मन एकतामात्रज्ञानेन स्थानजयव्यतीतशब्दोक्ताया अवस्थात्रयाभिमाननिवृत्त रसम्भवात् । तथैकरूपताप्रतिपादनेनैव निखिलोपाधिविवेकेन सर्वात्मनां स्वरूपबोधनसम्भवाच्च । न ह्यन्यथा निर्धर्मकमात्मस्वरूपं विशिष्य ब्रह्मणापि शब्देन साक्षात्प्रतिपादयितुं शक्यते । शब्दानां सामान्यमानगोचरत्वात्। आब्रह्मास्तम्बपर्यन्तेष्वा.
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प्रथमोऽध्यायः ।
मन एकरूपत्वे तु प्रतिपादिते तदुपपत्त्यर्थं शिष्यः स्वयमेव तावहिवेचयति यावनिर्विशेषे शब्दगोचर खरूपे पर्यवस्यतौति। ततश्च निःशेषाभिमाननिवृत्त्या कृतकृत्यो भवति । यदि पुनरह तवाक्यान्यखण्डतामात्र पराणि स्युस्तहि तेभ्यो नाभिमाननिवृत्तिः सम्भवति । याकाशे विविधशब्दवदखण्डेऽप्यात्मनि सुखदुःखतदभावादीनामवच्छेदकभेदैरुपपत्तेः । एकस्यैव वाक्य स्याखण्डत्वावैधर्योभयपरत्वे च वाक्यभेदोऽखण्डतापरकल्पनायां फलाभावश्च । अवैध ज्ञानादेव सर्वाभिमाननिवृत्त: । अतोऽईतवाक्यानि नाखण्डतापराणि। न्यायानुग्रहेण बलवतीभिर्भेदग्राहकश्रुतिस्मतिभिर्विरोधाच्च । किन्त्ववैध लक्षणाभेदपराण्य व। साम्यबोधकश्रुतिस्मतिभिरकवाक्यत्वात् । सामान्यात् विति ब्रह्मसूत्राच्चति । तत्र साम्य श्रुतयः। यथोदकं शुढे शुद्धमासिक्त तागेव भवति । एवं मुनर्विजानत आत्मा भवति गौतम निरञ्जनः परमं साम्यसुपतीत्याद्याः स्मृतयश्च ।
ज्योतिरात्मनि नान्यत्र सर्वभूतेषु तत् समम् । स्वयं च शक्यते द्रष्टुं सुसमाहितचेतसा ॥ यावानात्मनि बोधात्मा तावानात्मा परात्मनि । य एवं सततं वेद जनस्थोऽपि न मुह्यति ॥ इत्याद्याः। उक्तश्रुतौ मोक्षदशायामपि भेदघटितसाम्यवचनात् स्वरूपभेदोऽप्यात्मनामस्तौति सिद्धम्। अवैधाभेदपरत्वं चास्मन्मते विष्णुरहं शिवोऽहमित्यादिवाक्यानां मन्तव्यम्। न तु तत्त्वमस्यहं ब्रह्मास्त्रौव्यादिवाक्यानामपि । तत्र सांख्यमते प्रलयकालीनस्य पूर्णात्मन एव तदादिपदार्थतया नित्यशुद्धमुक्तस्त्वमसीत्यादियथाश्रुतस्य तादृशवाक्यार्थत्वात् । यदि तु सर्गाद्युत्पन्नपुरुषो नारायणाख्य एव तत्
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सांख्यदर्शनम् । पदार्थस्तदा तत्त्वमसीत्यादिवाक्यानामप्यवैधार्थकतैवास्तु । ननु प्रयोजनाभावान भेदपरत्व श्रुतीनां सम्भवतीति चेत्र मोक्षोपपादनस्यैव प्रयोजनवात्। सृष्टिसंहारयोः प्रवाहरूपेणानुच्छेदात् तस्य क्ये मोक्षानुपपत्तः। अथैवमात्मभेदम्य लोकसिद्धतया न तत्परत्व श्रुतीनां घटत इति मैवम् । लाघवतणाकाशवदात्मन्येकत्वस्यानुमानतः प्रसतस्य श्रुत्यादि. भिनिषेधात्। स्वपरचैतन्ययोर्भेदस्य चाप्रत्यक्षत्वात्। देहा. दिष्वेवानुभवात्। य एतस्मिन्बुदरमन्तरं कुरुतेऽथ तस्य भयं भवतीत्यादिभेदनिन्दा तु वैधम्यविभागान्य तरलक्षणभेदपरति। नन्वेवं मुक्तानां प्रतिविम्बावच्छेदश्रुतीनां का गतिरिति चेदुयते। अनेकतेजोमयादित्यमण्ड लवत् । अनेकात्ममयपि चिदादित्यमण्डलमे करसमविभक्तमकपिण्डौकत्य तस्य किरणवत् खांशभूतैरसंख्य पुरुषैरसंख्योपाधिष्वसंख्यविभाग एव प्रतिविम्बादिदृष्टान्तैः प्रतिपाद्यते विभागलक्षणान्यत्वस्य वाचा. रम्भणमात्रत्व बोधयितुं न पुनरखण्ड त्वम् ।
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।
इत्यादिसांप्रदृष्टान्तश्रुतीनां न्यायानुग्रहेण बलवत्त्वादिति। यथा च स्मयते।
यस्य सर्वात्मकत्वेऽपि खण्डयते नैकपिण्डता ।
इति ब्रह्ममौमांसायां तु नित्याभिव्यक्त परमेश्वरचैतन्येऽन्येषां लयरूपाविभागेनाप्य तमुक्तमविभागो वचनादिति सूत्रेणेति । अधिकं तु ब्रह्ममौमांसाभाष्ये प्रोक्तमस्माभिरिति दिक। सूत्रस्य हितीयव्याख्यायां त्वयं भावः । प्रलयकाले पुरुषविजातीयं सर्वमेवासत्। अर्थक्रियाकारित्वाभावात्। पुरुषाणां कूटस्थत्व नार्थक्रियैवाप्रसिद्धेति। अत: सर्गकाल इव प्रलयेऽपि सत्त्वम् । अतस्तदात्मनां विजातीयतराहित्यम्। तथा सर्ग
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प्रथमोऽध्यायः।
कालेऽपि कूटस्थत्वरूपपारमार्थिकसत्त्वेनान्यन्नेति विजातीयहैतराहित्यात् सर्गकालौनाहतश्रुतयोऽप्युपपना इति ॥१५४॥
नन्वात्मन एकलवटेकरूपत्वमपि नानारूपताप्रत्यक्षेण विरुद्धं तत् कथमुक्त जातिपरत्वादिति तबाह । विदितबन्धकारणस्य दृष्ट्यातद्रूपम् ॥ १५५ ॥
विदितं स्पष्ट बन्धकारणमविवेको यत्र तस्य दृष्ट्ये व पुरुषेष्वतद्रूपं रूपभेद इत्यर्थः। अतो वान्तदृष्ट्या न रूपभेदसिद्धिरिति ॥ १५५ ॥
ननु तथाप्यनुपलम्भादेकरूपत्वाभावः सेत्स्यति तत्राह। नान्धादृष्ट्या चक्षुष्मतामनुपलम्भः ॥ १५६ ॥
अनुपलम्भ एवासिद्धः। अरदर्शनेऽपि जानिभिरेकरूयत्वस्य दर्शनादित्यर्थः ॥ १५६ ॥
अह तश्रुत्यनुपपत्ति समाधायाखण्डाईते बाधकान्तर
माह।
वामदेवादिमुक्तो नाइतम् ॥ १५ ॥ वामदेवादिर्मुक्तोऽस्ति तथापौदानी बन्धः स्वस्मिन्ननुभवसिद्धः। अतो नाखण्डात्मा तमित्यर्थः। स चापि जातिस्मरणाप्तबोधस्तत्र व जन्मन्यपवर्गमापत्यादिवाक्यशतविरोधश्चेति शेषः । न चैवं बन्धमोक्षावुपाधेरेवेत्यवगन्तव्यम् । श्रुतिस्मृतिसिद्धान्तविरोधात्। दुःखं मा भुञ्जीयेति कामनादर्शनेन पुरुषमोक्षस्थ व मोक्षाख्यपरमपुरुषार्थत्वाच। उपाधेर्दु:खहानस्य च तादर्थ्येन परम्परयैव पुरुषार्थत्वात् पुत्रादिदिति । यदप्याधुनिकर्मायावादिभिरुच्यते । अतश्रुतिविरोधाबन्धमोक्षष्टिसंहारादिश्रुतयो बाध्यन्त इति । तदप्यसत् । मोक्षाख्यफलस्यापि श्रवणकाल एवाभावनिश्चये श्रवणोत्तरं मनना.
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११०
सांख्यदर्शनम्।
दिविधेरननुष्ठानलक्षणाप्रामाण्यप्रसङ्गात् । प्रपञ्चान्तर्गतस्य वेदान्तस्याप्यतश्रुत्या बाधे वेदान्तावगतेऽप्यते पुन: संशयापत्तेश्च । स्वाप्रवावयस्य जाग्रति बाधे तहाक्यार्थे पुनः संशयवत्। किञ्च मिथ्याबुद्धिर्नास्तिकतेत्यनुशासनाधर्मादिषु स्वापवन्मिथ्यादृष्टयो बौद्धप्रभेदा एव सांकृत्तिकशब्दन प्रपञ्चस्याविद्यकतायाश्च तैरभ्य पगमादिति दिक् ॥ १५७ ॥
ननु वामदेवादेरपि परममोक्षो न जात इत्यभ्यु पेयं तवाह। अनाहाबा यावदभावाविष्यदप्य वम् ॥१५८॥
अनादी कालेऽद्य यावश्चन्मोक्षो न जातः कस्यापि तर्हि भविष्थत्कालोऽप्येवं मोक्षशून्य एव स्यात् सम्यक्साधनानुष्ठानस्याविशेषादित्यर्थः ॥ १५८ ॥
तत्र प्रयोगमाह। दूदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः ॥ १५॥
सर्वत्र काले बन्धस्यात्यन्तोच्छेदः कस्यापि पुसो नास्ति वर्तमानकालवदित्यनुमाम सम्भवेदित्यर्थः ॥ १५८ ॥
पुरुषाणां यदेकरूपत्वमेकत्वप्रतिपादक श्रुत्यर्थावधारितं तत् किं मोक्षकाले किं सर्वदैवेत्याकाङ्क्षायामाह ।
व्याहत्तोभयरूपः ॥ १६० ॥ स च पुरुषो व्याहत्तोभयरूपो व्याहत्तो निवृत्तो रूपभेदो यस्मात् तथेत्यर्थः। श्रुतिस्मृतिन्यायेभ्यः सदैकरूपतासिद्धरिति शेषः। तदुक्ताम्।
बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया। रममाणो गुणेष्वस्था ममाहमिति बध्यते ॥ इति ।
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प्रथमोऽध्यायः ।
जमदाख्य महान स्वाप्नात् स्वप्नान्तरं व्रजत् ।
रूपं त्यजति नो शान्तं ब्रह्म शान्तत्वहं हितम् ॥
इति च ॥ १६० ॥
ननु साचित्वस्यानित्यत्वात् पुरुषाणां कथं सदैकरूपत्वं
तत्राह ।
भ्याम् ।
साक्षात् सम्बन्धात् साचित्वम् ॥ १६९ ॥ पुरुषस्य यत् साचित्वमुक्त' तत् साचात्सम्बन्धमात्रात् । न तु परिणामत इत्यर्थः । साचात्सम्बन्ध ेन बुद्धिमात्वसाक्षितावगम्यते साक्षाद्द्रष्टरि संज्ञायामिति साक्षिशब्दव्युत्पादनात् । साक्षादद्रष्टृत्व चाव्यवधानेन द्रष्टृत्वम् । पुरुषे च साचात्सम्बन्धः स्वबुद्दिष्टत्तेरेव भवति । अतो बुद्धेरेव साचौ पुरुषोऽन्येषां तु द्रष्टृमात्रमिति शास्त्रीयो विभागः । ज्ञाननियामकश्वार्थाकारतास्थानीयः प्रतिविम्बरूप एव सम्बन्धो न तु संयोगमात्रमतिप्रसङ्गादित्यसकृदावेदितम् । विष्यादेः सर्वसाचित्वं त्विन्द्रियादिव्यवधानाभावमात्र ेण गौणम् । अक्षसम्बन्धात् साचित्वमिति पाठे त्वक्षमात्र बुद्धिः करणत्वसामा न्यात् । तस्या यथोक्तात् प्रतिविम्बरूपात् सम्बन्धादित्यर्थः ॥ १६१ ॥
उभयरूपत्वाभावसिद्धार्थं पुरुषस्यापरौ विशेषावाह सूत्रा
???
नित्यमुक्तत्वम् ॥ १६२ ॥
सदैव पुरुषस्य दुःखाख्यबन्धशून्यत्वम् । दुःखादेर्बुद्धिपरिणामत्वादित्यर्थः । पुरुषार्थस्तु दुःखभोगनिवृत्तिः प्रतिविम्ब - रूपदुःखनिवृत्तिर्वेत्युक्तमेव ॥ १६२ ॥ औदासीन्यं चेति ॥ १६३ ॥
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११२
सांख्यदर्शनम्।
औदासीन्यमकर्तवं तेन चान्ये ऽपि निष्काम त्वादय उपलक्षणीयाः। कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा अहाहा धृतिरतिर्थीह्रीं रित्य तत् सबै मन एवेति श्रुतेः। इतिशब्दः पुरुषधर्मप्रतिपादनसमाप्तौ ॥ १६३ ॥
नन्वेवं प्रकतिपुरुषयोरन्योऽन्य वैध>ण विवेके सिहे पुरुषस्य कर्तत्व बुझेरपि च जाटव श्रुतिस्मृत्योरुथमानं कथ. मुपपद्येयातां तबाह। ___ उपरागात् कर्ट त्वं चित्सान्निध्याच्चित्सा. निध्यात् ॥ १६४॥
अत्र यथायोग्यमन्वयः। पुरुषस्य यत् कर्तत्व तबुडायरागात् । बुद्धेश्च या चित्ता सा पुरुषसानिध्यात्। एतदुभयं न वास्तवमित्यर्थः । यथाग्न्ययसोः परस्परं संयोगविशेषात् परस्परधर्मव्यवहार औपाधिको यथा वा जलसूर्ययोः संयो. गात् परस्परधर्मारोपस्तथैव बुद्धिपुरुषयोरिति भावः । एतच कारिकयाप्युक्तम्।
तम्मात् तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् । गुणकर्तत्वं च तथा कर्तव भवत्यु दासौनः ॥
इति। चित्माबिध्यादिति हिःपाठोऽध्यायसमाप्तिसूचनार्थः ॥ १६४ ॥
हेयहाने तयोर्हेतू इति व्यूहा यथाक्रमम्। चत्वारः शास्त्र मुख्यार्थी अध्यायेऽस्मिन् प्रपञ्चिताः ॥ सङ्क्षिप्तसांख्य सूत्राणामर्थस्थान प्रपञ्चनात्। शास्त्र योगवदेवेदं सांख्यप्रवचनाभिधम् ॥ इति विज्ञानाचार्यनिर्मिते कापिलसांख्यप्रवचनस्य
भाष्ये विषयाध्यायः प्रथमः ।।
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हितीयोऽध्यायः।
हितीयोऽध्यायः ।
शास्त्रास्त्र विषयो निरूपितः। साम्प्रतं पुरुषस्यापरिणामित्वोपपादनाय प्रकृतितः सृष्टिप्रक्रियामतिविस्तरेण हितीयाध्याये वक्ष्यति। तत्रैव प्रधान कार्याणां वरूपं विस्तरतो वनव्यं तेभ्योऽपि पुरुषस्थातिस्फटविवेकाय। अत एव ।
विकारं प्रकृतिं चैव पुरुषं च सनातनम् ।
यो यथावद्विजानाति स विष्णो विमुच्यते ॥ इति मोक्षधर्मादिषु त्रयाणामेव ज्ञेयत्ववचनम्। तवा दावचेतनाया: प्रतिनिध्य योजनस्रष्टुत्वे मुक्तस्यापि बन्धप्रसङ्क इत्याशयेन जगत्सर्जने प्रयोजनमाह ।
विमुक्तमोक्षार्थ स्वार्थं वा प्रधानस्य ॥ १॥
कर्तत्वमिति पूर्वाध्यायशेषसूवादनुषज्यते स्वभावतो दुःखबन्धादिमुक्तस्य पुरुषस्य प्रतिविम्बरूपदुःखमोक्षार्थ प्रतिविम्बसम्बन्धेन दुःखमोक्षार्थ वा प्रधानस्य जगत्कर्तत्वम् । अथवा स्वार्थम्। स्वस्य पारमार्थिकदुःखमोक्षार्थमित्यर्थः । यद्यपि मोक्षवद्भोगोऽपि सृष्टेः प्रयोजनं तथापि मुख्यत्वान्मोक्ष एवोक्तः ॥१॥
ननु मोक्षार्थं चेत् सृष्टिस्तहिं सवत् सृथ्य व मोक्षसम्भव पुनः पुनः सृष्टिन स्यादिति तबाह ।
विरक्तस्य तत्सिद्देः ॥ २॥ नैकदा सृष्ट र्मोक्षः किन्तु बहुथो जन्ममरणव्याध्यादिवि. विधदुःखेन भृशं तप्तस्य ततश्च प्रकतिपुरुषयोविवेकख्यात्योत्यनपरवैराग्यस्यैव मोक्षोत्पत्तिसिद्धरित्यर्थः ॥ २ ॥
सकत् सध्या वैराग्यासिद्धी हेतुमाह ।
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सांख्यदर्शनम् ।
न श्रवणमानात ततसिद्धिरनादिवासनाया बलवत्वात् ॥३॥
श्रवणमपि बहुजन्मकतपुण्येन भवति। तत्रापि श्रवणमावान वैराग्यसिद्धिः किन्तु साक्षात्कारात् । माक्षात्कारश्व झटिति न भवति। अनादिमिथ्यावासनाया बलवत्त्वात्। किन्तु योगनिष्ठया। योगे च प्रतिबन्धबाहुल्यमित्यतो बहुजन्मभिरेव वैराग्यं मोक्षश्च कदाचित् कस्यचिदेव सिध्यतीत्यर्थः ॥ ३॥ सृष्टिप्रवाहे हेत्वन्तरमाह।
बहुभृत्यवहा प्रत्येकम् ॥४॥ यथा एहस्थानां प्रत्ये कं बहवो भर्तव्या भवन्ति स्त्रीपु. लादिभेदेन। एवं सत्त्वादिगुणानामपि प्रत्ये कमसलापुरुषा विमोचनीया भवन्ति। अत: कियत्पुरुषमोक्षेऽपि पुरुषान्तरमोचनार्थ सृष्टिप्रवाहो घटते। पुरुषाणामानन्त्यादित्यर्थः । तथा च योगसूत्रम्। कतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वादिति ॥ ४॥
ननु प्रकर्तरेव स्रष्टत्वं कथमुच्यते । एतस्मादात्मन आकाश: सम्भत इति श्रुत्या पुरुषस्यापि स्रष्ट्रव सिद्धेरिति तत्राह।
प्रकृतिवास्तवे च पुरुषस्याध्याससिद्धिः ॥५॥
प्रकतौ स्रष्टत्वस्य वस्तुत्वे च सिद्धे पुरुषस्य स्रष्टत्वाध्यास एव श्रुतिषु सिध्यति । उपासनायामेव श्रुतेस्तात्ययात् । अजामेकामित्यादिश्रुत्यन्तरेण प्रकृतेः स्रष्टुत्वसिद्धेः पुंसां कूटस्थ. चिन्मावताबोधक श्रुत्यन्तरविरोधाच त्यर्थः। अयं चाध्यास उपचाररूपो लोके सिद्ध एवास्ति । यथा स्वशक्तिषु योधेष वत्त मानी जयपराजयौ राजन्युमचा ते तथा खशक्ती प्रकृती
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द्वितीयोऽध्यायः ।
वर्तमान स्रष्ट त्वादिकं शक्तिमत्स, पुरुषेषपचर्य ते शक्तिशक्तिमदभेदात् । तदुक्त कोर्मे ।
शक्तिशक्तिमतोर्मेदं पश्यन्ति परमार्थतः । अभेदं चानुपश्यन्ति योगिनस्तत्वचिन्तकाः ॥ इति भेदमन्योऽन्याभावभेदं चाविभागरूपं प्रवत्यादि. तत्त्वोपासकाः पश्यन्तीत्यर्थः। तयोचोदाहरणम्। अथात आदेशो नेति नेतीत्यादिश्रुतिः । आत्म वेदं सर्वमित्यादिश्रुतिश्चेति भावः ॥ ५ ॥
नन्वेवं प्रकृतावपि स्रष्टत्वं वास्तवमिति कुतोऽवतं सृष्टः खादितुल्यताया अपि श्रवणादिति तवाह।
कार्य तस्तसिद्धेः ॥ ६॥ कार्याणामर्थक्रियाकारितया वास्तवत्वेन कार्य्यत एव धर्मिग्राहकप्रमाणेन प्रकृतर्वास्तवस्रष्टसिद्धेरित्यर्थः । स्वपादितुल्यताश्रुतय स्वनित्यतारूपासत्त्वांशमात्रे पुरुषाध्यस्तत्वांशे वा बोध्याः। अन्यथा सृष्टि प्रतिपादक श्रुतिविरोधात् । स्वापदाथानामपि मनःपरिणामत्वेनात्यन्तासत्ताविरहाच्चेति ॥ ६ ॥
ननु प्रकृतः स्वार्थत्वपक्षे मुक्त पुरुषं प्रत्यपि सा प्रवर्तत तत्राद।
चेतनो शान्नियमः कण्टकमोक्षवत् ॥७॥ चिती संज्ञान इति व्युत्पत्त्या चेतनोऽत्राभिज्ञः। यथैकमेव कण्टकं यश्चेतनोऽभिजस्तस्मादेव मुच्यते तं प्रत्ये व दुःखात्मक न भवत्यन्यान् प्रति तु भवत्येव तथा प्रकृतिरपि चेतनाद. भिज्ञात् कतार्थादेव मुच्यते तं प्रत्येव दुःखात्मिका न भवति । अन्याननभिज्ञान् प्रति तु दुःखात्मिका भवत्येवेति नियमो
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सांख्यदर्शनम्।
व्यवस्थेत्यर्थः। एतेन स्वभावतो बहाया अपि प्रकृतेः स्वमोक्षी घटत इत्यतो न मुक्तपुरुष प्रति प्रवर्तते ॥७॥ ___ ननु पुरुष स्रष्टुत्वमध्यस्तमात्रमिति यदुक्त तब युक्तम् । प्रकृतिसंयोगेन पुरुषस्यापि महदादिपरिणामौचित्यात्। दृष्टी हि पृथिव्यादियोगेन काष्ठादेः पृथिव्यादिसदृशः परिणाम इति तवाह।
अन्ययोगेऽपि तसिड्र्नािञ्जस्येनायोदाहवत् ॥८॥
प्रवतियोगेऽपि पुरुषस्य न स्रष्टत्वसिद्धिराञ्जस्येन साक्षात्। तब दृष्टान्तोऽयोदाहवत्। यथायसा न दग्ध त्वं साक्षादस्ति किन्तु खसंयुक्ताग्निहारकमध्यस्तमेवेत्यर्थः । उक्तदृष्टान्ते तूभयोः परिणामः प्रत्यक्षसिद्धत्वादियते सन्दिग्धस्थले त्वेकस्य व परिणामेनोपपत्तावुभयोः परिणामकल्पने गौरवम् । अन्यथा जपासंयोगात् स्फटिकस्य रागपरिणामापत्ते रिति ॥ ८ ॥
सृष्टेः फलं मोक्ष इति प्रागुक्तम् । इदानों सृष्टेमुख्य निमित्तकारणमाह।
रागविरागयोर्योगः सृष्टिः॥१॥ रागे सृष्टिवैराग्ये च योगः स्वरूपेऽवस्थानम् । मुक्तिरिति यावत् । अथवा चित्तवृत्तिनिरोध इत्यर्थः । तथा चान्वयव्यतिरैकाभ्यां राग: सृष्टि कारणमित्याशयः । तथा च श्रुतिरपि ब्रह्मादिरूपां विविधकर्मगतिमुत्बाह इति तु कामयमानो योऽकामो न तस्य प्राणा उत्क्रामन्तीति। रागवैराग्य अपि प्रकतिधर्मावेव ॥
इतः परं सष्टिप्रक्रियां वक्तमारभते ।
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हितीयोऽध्यायः।
महदादिक्रमेण पञ्चभूतानाम् ॥ १० ॥
सृष्टिरिति पूर्वसूवादनुवर्तते। यद्यप्येतस्मादात्मन आकाशः सम्भत इत्यादिश्रुतावादावेव पञ्चभूतानां सृष्टिः श्रूयते तथापि महदादिक्रमेणैव पञ्चभूतानां सृष्टिरिष्टे त्यर्थः । तेज आदिसृष्टिश्रुती गगनवायुसृष्ट रापूरणवदुक्तात्रुतावप्यादी महदादिसृष्टिः पूरणीयेति भावः। अत्र च प्रमाणं घटसृष्टिवदन्तःकरणातिरिक्ताखिलसृष्ट रन्तःकरणकृत्ति-पूर्वकत्वानुमानम् । किञ्च । एतस्माज्जायते प्राणो मन: सर्वेन्द्रियाणि च । खं वायुयोतिरापश्च पृथिवी विश्वस्य धारिणी । इति श्रुत्यन्तरस्थपाठक्रमानुरोधेन स प्राणमसृजत् प्राणा. छहां खं वायुमित्यादिश्रुत्यन्तरेण च पञ्चभूतसष्टेः प्रामह. दादिसृष्टिरवधार्य्यत इति । प्राणश्चान्तःकरणस्य वृत्तिमद इति वक्ष्यति। अतोऽस्यां श्रुतौ प्राण एव महत्तत्त्वमिति । तथा वेदान्तसूत्रमपि महदादिक्रमेणैव सृष्टिं यक्ति । अन्तरा विज्ञानमनसी क्रमेण तलिङ्गादिति। सदाकाशयोमध्ये बुहिमनसो उत्पादो इति क्रमेणेत्यर्थः। मनसि चाइवारस्य प्रवेश इति ॥१०॥
प्रकृतेरेव स्रष्टुत्वं खमोक्षार्थ तस्या नित्यत्वात् । महदा. दीनां तु वस्खविकारस्रष्टुत्वं न खमोक्षार्थमनित्यत्वादिति । विशेषमाह।
आत्मार्थत्वात् सृष्टे षामात्मार्थ आरम्भः ॥११॥ एषां महदादौनां स्रष्टुत्वस्यात्मार्थत्वात् पुरुषमोक्षार्थत्वान खार्थ प्रारम्भः स्रष्टत्वं विनाशित्वेन मोचायोगादित्यर्थः । पर
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११८
सांख्यदर्शनम्।
मोक्षार्थको चावश्यके पुरुषमोक्षार्थकत्वमेव युक्त' न प्रतिमोक्षार्थकत्व तस्याः पुरुषगुणत्वादिति ॥११॥ खण्डदिक्कालयोः सृष्टिमाह ।
दिक्कालावाकाशादिस्यः ॥ १२॥ नित्यौ यो दिकालो तावाकाशप्रकृतिभूती प्रकृतेर्गणवि. शेषावेव। अतो दिकालयोविभुत्वोपपत्तिः । याकाशवत् सर्वगतच नित्य इत्यादिवत्यक्त विभुत्व चाकाशस्योपपत्रम्। यौ तु खण्डदिकालौ तौ तु तत्तदुपाधिसंयोगादाकाशादुत्पद्येते इत्यर्थः । श्रादिशब्देनोपाधिग्रहणादिति। यद्यपि तत्तदुपाधिविशिष्टाकाशमेव खण्डदिकालौ तथापि विशिष्टस्यातिरिकताभ्युपगमवादेन वैशेषिकनये श्रोत्रस्य कार्य तावत् तत्कायं. त्वमत्रोक्तम् ॥ १२ ॥
इदानीं महदादिक्रमेणेत्यतान् खरूपतो धर्मतश्च क्रमेण दर्शयति।
अध्यवसायो बुद्धिः ॥१३॥ महत्तत्त्वस्य पर्यायो बुद्धिरिति। अध्यवसायश्च निश्चयाख्यस्तस्या साधारणौ वृत्तिरित्यर्थः। अभेदनिदेशस्तु धर्मधयभेदात्। अस्याच बुद्देमहत्त्व स्खेतरसकल कार्याध्यापकत्वान्महैश्वर्याच मन्तव्यम् ।
सविकारात् प्रधानात तु महत्तत्त्वमजायत । महानिति यतः ख्यातिर्लोकानां जायते सदा ॥ इति स्मृतेः। अस्य महतो भूतस्य निःखसितमेतद्यदृग्वेद इत्यादिश्रुतिस्मृतिषु च हिरण्यगर्भे चेतनेऽपि महानितिशब्दो बुधभिमानित्व नैव। यथा पृथिव्यभिमानिचेतने पृथिवीशब्द. स्तहत् । एवमेव रुद्रादिष्वहङ्कारादिशब्दोऽपि बोध्यः । प्रकृत्य
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हितीयोऽध्यायः।
भिमानिदेयतामारभ्य सर्वेषामेव भूताभिमामिपर्यन्तानां स्वस्वबधिरूपाश्च प्रतिनियतोपाधयो महत्तत्त्वस्येवांशा इति ॥ १३ ॥ महत्तत्त्वस्यापरानपि धर्मानाह।
तत्कायं धर्मादि ॥ १४ ॥ धर्मज्ञानवैराग्य वाण्यपि बयपादामकानि नाहकाराद्यपादानकानि बुडेरेव निरतिशयसत्त्वकार्यत्वादित्यर्थः ॥१४॥ __ नन्वेवं कथं नरपवादिगतानां बुधशानामधर्मप्राबल्यमुपपद्यतां तबाह।
__ महदुपरागादिपरौतम् ॥ १५ ॥ तदेव महन्महत्तत्त्वं रजस्तमोभ्यामुपरागादिपरोतं क्षुद्रधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्यधर्मकमपि भवतीत्यर्थः। एतेन सर्व एव पुरुषा ईश्वरा इति श्रुतिस्मृतिप्रवादोऽप्युपपादितः सर्वोपाधीनां स्वाभाविकैश्वर्यस्य रजस्तमोभ्यामेवावरणादिति । नन्वेवं धर्माद्यवस्थानार्थ बुझेरपि नित्यत्वात् कथं कार्य तेति चेन्न । प्रकृत्य शरूपे वीजावस्थमहत्तत्त्वे सत्त्वविशेषे कर्मवासनादौनामवस्थानात् तस्यैव जानकारणावस्थायामगुरवदुपपत्त्यङ्गीकारात्। तथा चाकाशवदेव नित्यानित्योभयरूपा बद्धिः । यथा कारणं खाकारः प्रकृतिप्रभावादिति ॥ १५ ॥ महत्तत्त्वं लक्षयित्वा तत्कार्य महङ्कारं लक्षयति ।
अभिमानोऽहङ्कारः ॥ १६॥ अहङ्करोतीत्य हङ्कारः कुम्भकारवत् । अन्त:करणद्रव्यं स च धर्मधर्म्यभेदादभिमान इत्युक्तोऽसाधारणत्तिता । सूचनाय बद्या निश्चित एवार्थेऽहङ्कारममकारौ जायेते। अतो वृत्त्योः कार्यकारणभावानुसारेण वृत्तिमतोरपि कार्यकारणभाव उन्नौ
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१२०
सांख्यदर्शनम् |
यत इति प्रागेवोक्तम् । बन्तःकरणमेकमेव वोजाङ्कुरमहावृक्षादिवदवस्थात्रयमात्रभेदात् कार्य्यकारणभावमापद्यत इति च प्रागेवोक्तम् । अत एव वायुमास्ययोर्मनो महान् मतिर्ब्रह्मा पूर्बुद्धिः ख्यातिरीश्वर इति मनोबुझोरेकपय्यायत्वमुक्तमिति
॥ १६ ॥
क्रमागतमहङ्कारस्य कार्यमाह । एकादशपञ्चतन्मात्रं यत्काय्यम् ॥ १७ ॥ एकादशेन्द्रियाणि शब्दादिपञ्चतन्मात्रं चाहङ्कारस्य कार्यमित्यर्थः । मयानेनेन्द्रियेणेदं रूपादिकं भोक्तव्यमिदमेव सुखसाधनमित्याद्यभिमानादेवादिसर्गेष्विन्द्रिय तद्विषयोत्पत्त्याहङ्कार इन्द्रियादिहेतुः ॥ लोके भोगाभिमानिनैव रागद्वारा भोगोपकरणकरणदर्शनात् । रूपरागादभूच्चतुरित्यादिना मोचधर्मे हिरण्यगर्भस्य रागादेव समष्टिचक्षुराद्योत्पत्तिस्मरणाचेति भावः । यतश्च भूतेन्द्रिययोर्मध्ये रागधर्मकं मन एवादावह - ङ्कारादुत्पद्यत इति विशेषस्तन्मात्रादीनां राग कार्य्यत्वादिति
॥ १७ ॥
तत्रापि विशेषमाह ।
सात्त्विकमेकादशकं प्रवर्त्तते वैकृतादह
ङ्कारात् ॥ १८ ॥
1
एकादशानां पूरणमेकादशकं मनः षोड़शात्मनणमध्ये सात्त्विकम् । यतस्तद्वैकृतात् सात्त्विकाहङ्काराज्जायत इत्यर्थः श्रतश्च राजसाहङ्काराद्दशेन्द्रियाणि तामसाहङ्काराच्च तन्मात्राखौत्यपि गन्तव्यम् ।
वैकारिकास्तैजसश्च ताम्रसखेत्यहं विधा । अहन्तत्त्वाद्विकुर्वाणान्मनो वैकारिकादभूत् ॥
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द्वितीयोऽध्यायः ।
१२१
चैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यञ्जनं यतः । तेजसादिन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ॥ तामसो भूतसूक्ष्मादिर्यतः ख लिङ्गमात्मनः । इत्यादिस्मृतिभ्य एव निर्णयात्। अत एव पुराणाद्यनुसारेण कारिकायामप्येतदुक्तम्।।
सात्त्विक एकादशकः प्रवर्त्तते बैलता दहङ्कारात् । भूतादेस्तन्मात्रः स तामसस्तैजसादुभयम् ॥
इति । तैजसो राजसः। उभयं ज्ञानकर्मेन्द्रिये। ननु देवतालमश्रुतिरित्यागामिसूत्र करणानां देवान् वक्ष्यति तत् कथं कारिकयापि देवानां सात्त्विकाहङ्कारकार्यत्व नोक्तमिति। उच्यते । समष्टिचक्षुरादिशरौरिण: सूर्यादिचेतना एव चक्षुरादिदेवताः श्रूयन्ते। अतश्च व्यष्टिकरणामां समष्टिकरणानि देवतेत्य व पयं वस्यति। तथा च व्यष्टिसमध्योरेकताशयेनात्र शास्त्रे देवा: करणेभ्यो न पृथङ्गिर्दिश्यन्ते । अत: समष्टीन्द्रियाणि मनोऽपेक्षयाल्यसत्त्वत्वेन राजसाहकारकाव्य. त्वेनैव निर्दिष्टानि । स्मृतिषु च व्यष्टौन्द्रियापेक्षयाधिकसत्त्वत्वन सास्विकाहङ्कारकार्यातयोक्तानीत्य विरोध इति गन्तव्यम् । तदेवमहङ्कारस्य वैविध्यामहतोऽपि तत्कारणस्य तैविध्य मन्तव्यम् ।
सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्च विधा महान् ।
इति स्मरणात्। वैविध्यं चानयोयक्तिभेदादंशभेदाई त्यन्यदेतत् ॥१८॥
एकादशेन्द्रियाणि दर्शयति। कर्मेन्द्रियबुड्वौन्द्रियैरान्तरमेकादशकम् ॥१६॥ कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपाययस्थानि पञ्च माने द.
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१२२
सांख्यदर्शनम्।
याणि च चतुःश्रोत्रत्वग्रसनघ्राणाख्यानि पञ्च । एतैर्दशभिः सहान्तरं मन एकादश कमेकादशेन्द्रियमित्यर्थः । इन्द्रस्य सङ्घातेश्वरस्य करणमिन्द्रियम्। तथा चाहङ्कारकाय त्वे सति करणत्वमिन्द्रियत्वमिति ॥ १८ ॥ इन्द्रियाणां भौतिकत्वमतं निराकरोति ।
आहङ्कारिकत्वश्रुतेनं भौतिकानि ॥ २० ॥ इन्ट्रियाणौति शेषः । आहङ्कारिकत्वे च प्रमाणभूता श्रुति: काललुप्ताप्याचार्यवाक्यान्मन्वाद्यखिलम्मतिभ्यश्चानुमोयते । प्रत्यक्षा श्रुतिरहं बहु स्यामित्यादिः। नन्चन्नमयं हि सौम्य मन इत्यादिौतिकवेऽपि श्रुतिरस्तीति चेन्न । प्रकाशकत्व. साम्येनान्तःकरणोपादानत्वस्यवोचिततयाहङ्कारिकत्वश्रुतरेव मुख्यत्वात्। भूतानामपि हिरण्यगर्भसङ्कल्पजन्यतयान स्य मनोजन्यत्वाच्च । व्यष्टिमन आदीनां भूतसंसृष्टतयैव तिष्ठतां भूतेभ्योऽभिव्यक्तिमात्रेण तु भौतिकश्रुतिगौणौति ॥ २० ॥
ननु तथाप्याहङ्कारिकत्वनिर्णयो न घटतेऽस्य पुरुषस्याग्नि वागप्यति वातं प्राणश्चक्षुरादित्यमित्यादिश्रुतौ देवताखिन्द्रिचाणां लयकथनेन देवतोपादानकत्वस्याप्यवगमात् कारण एव हि कार्यात्य लय इत्याशङ्याह ।
देवतालयश्रुति रम्भकस्य ॥ २१ ॥ देवतासु या लयश्रुतिः सा नारम्भ कस्य नारम्भकविषयिणीत्यर्थः। अनारम्भकेऽपि भूतले जलविन्दोलयदर्शनात्। अना रम्भकेष्वपि भूतेष्वात्मनो लय श्रवणाच। विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यतीत्यादिश्रुताविति आवः ॥ २१॥
इन्द्रियान्तर्गतं मनो नित्यमिति केचित् तत् परिहरखि।
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द्वितीयोऽध्यायः ।
तदुत्पत्तिश्रुतेर्विनाशदर्शनाच्च ॥ २२ ॥
तेषां सर्वेषामेवेन्द्रियाणामुत्पत्तिरस्ति ।
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
१२३
इत्यादिश्रुतेः । वृद्दाद्यवस्थासु चतुरादीनामिव मनसोऽप्यपचयादिना विनाशनिर्णयाश्चेत्यर्थः । तथा चोक्तम् । दशकेन निवर्त्तन्ते मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
इति । मनसो नित्यत्ववचनानि च प्रक्कव्याख्यवीजपरागौति ॥ २२ ॥
गोलक जातमेवेन्द्रियमिति नास्तिक मतमपाकरोति । तौन्द्रियमिन्द्रियं भ्रान्तानामधिष्ठाने
॥२३॥ इन्द्रियं सर्वमतौन्द्रियं न तु प्रत्यक्षं भ्रान्तानामेव त्वधिष्ठाने गोलके तादात्मेग्नेन्द्रियमित्यर्थः । अधिष्ठानमित्येव
पाठः ॥ २३ ॥
एकमेवेन्द्रियं शक्तिभेदाद्विलक्षण कार्यकारीति मतमपा करोति ।
शक्तिभेदेऽपि भेदसिङ्घौ नकत्वम् ॥ २४ ॥
एकस्यै वेन्द्रियस्य शक्तिभेदस्खौकारेऽपौन्द्रियभेदः सिध्यति शक्तीनामपौन्द्रियत्वात् । यतो नैकत्वमिन्द्रियस्येत्यर्थः ॥ २४ ॥ नन्व कस्मादहङ्कारान्नानाविधेन्द्रियोत्पत्तिकल्पनायां न्यायविरोधस्तत्राह ।
न कल्पनाविरोधः प्रमाणदृष्टस्य ॥ २५ ॥
सुगमम् ॥ २५ ॥
एकस्यैव मुख्येन्द्रियस्य मनसोऽन्ये दश शक्तिभेदा इत्याह । उभयात्मकं मनः ॥ २६ ॥
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सांख्यदर्शनम् ।
ज्ञानकर्मेन्द्रियात्मक मन इत्यर्थः ॥ २६ ॥
उभयात्मकमित्यस्यार्थं स्वयं विवृणोति ।
'माह।
गुणपरिणामभेदान्नानात्वमवस्थावत् ॥२७॥
यथैक एव नरः सङ्गवशान्नानात्वं भजते कामिनीसङ्गात् कामुको विरक्तसङ्गाहिरक्तोऽन्यसङ्गाच्चान्य एवं मनोऽपि चत्तुरादिसङ्गाच्चक्षुराद्येकोभावेन दर्शनादिवृत्तिविशिष्टतया नाना भवति । तत्र हेतुर्गुणेत्यादि । गुणानां सत्त्वादीनां परिणा मभेदेषु सामर्थ्यादित्यर्थः । एतच्चान्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमित्यादिश्रुतिसिद्धाच्चतुरादौनां मनः संयोगं विना व्यापाराचमत्वादनुमीयते ॥ २७ ॥ ज्ञानकर्मेन्द्रिययोर्विषयमाह ।
रूपादिरसमलान्त उभयोः ॥ २८ ॥
अन्नरसानां मलः पुरीषादिः । तथा रूपरसगन्धस्पशशब्दा वक्तव्यादातव्य गन्तव्यानन्दयितव्योत्स्रष्टव्याश्वोभयोनकर्मेन्द्रिययोर्दश विषया इत्यर्थः । श्रानन्दयितव्यं चोपस्थस्योपस्थान्तरं विषय इति ॥ २८ ॥
यस्येन्द्रियस्य येनोपकारेणेतानीन्द्रियाणीत्युच्यते तदुभय
द्रष्टृत्वादिरात्मनः करणत्वमिन्द्रियाणाम् ॥२६॥
द्रष्टृत्वादिपञ्चकं वक्तृत्वादिपञ्चकं सङ्कल्पयितृत्व' चात्मन: पुरुषस्य दर्शनादिवृत्तौ करणत्वं विन्द्रियाणामित्यर्थः । ननु द्रष्टृत्वोत्वादिकं कदाचिदनुभवे पर्यवसानात् पुरुषस्याविकारिणोऽपि घटतां वक्तृत्वादिकं क्रियायात्रं तत् कथं कूटस्थस्य घटतामिति चेन्न । श्रयस्कान्तवत् सान्निध्यमात्रेण दर्श नादिवृत्तिकत्वस्यैवात्र द्रष्टृत्वादिशब्दार्थत्वात् । यथा हि
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द्वितीयोऽध्यायः ।
१२५
महाराजः स्वयमव्याप्रियमाणोऽपि सैन्येन करणेन योद्धा भवत्याज्ञामात्रेण प्रेरकत्वात् तथा कूटस्थोऽपि पुरुषश्चक्षुराद्यखिलकरणैर्द्रष्टा वक्ता सङ्कल्पयिता चेत्येवमादिर्भवति संयोगाख्यसान्निध्यमात्र खैव तेषां प्र रकत्वादयस्कान्तमणिवदिति । कर्त्तृत्व ं चात्र कारकचक्रप्रयोक्तृत्वं करणत्वं क्रिया हेतुव्यापारवत्त्वं तत्साधकतमत्वं वा कुठारादिवत् । यत् तु शास्त्रेषु पुरुषे दर्शनादिकर्तृत्वं निषिध्यते तदनुकूलकृतिमत्त्वं तत्तत्क्रियावत्त्वं वा । तथा चोक्तम् ।
अत आत्मनि कर्त्तृत्वमकर्तृत्व ं च संस्थितम् । निरिच्छत्वादकर्त्तासौ कर्त्ता सन्निधिमानतः ॥
इति । अत एव कारकचक्रप्रयोक्तृताशक्तेरात्मस्वरूपतया द्रष्टुत्ववक्तृत्वादिकमात्मनो नित्यमिति श्रूयते । न द्रष्ट र्हष्टेविपरिलोपो विद्यते न वक्तुर्वक्त विपरिलोपो विद्यत इत्यादिनेति । ननु प्रमागविभागे प्रत्यक्षादिवृत्तीनामेव करणत्वमुक्तमत्र कथमिन्द्रियस्योच्यत इति चेन्न । अत्र दर्शनादिरू पासु चक्षुरादिद्दारकबुद्धिवृत्तिष्वं वेन्द्रियाणां करणत्ववचनात् । aa पुरुषनिष्ठ बोधांख्यफले हत्तीनां करणत्वस्योक्तत्वादिति
॥ २८ ॥
इदानीमन्तः करणत्वयस्यासाधारणवृत्तीराह ।
त्रयाणां खालक्षण्यम् ॥ ३० ॥
त्रयाणां महदहङ्कारमनसां वालक्षण्यं स्वं स्वं लक्षणमसाधारण वृत्तिर्येषामिति मध्यमपदलोपौ विग्रहस्तस्य भावस्तत्त्वमित्यर्थः । लोके च महतो लक्षणमध्यवसायादिप्रकृष्टगुणवत्त्वम् । अहङ्कृतस्य चात्मन्यविद्यमान गुणारोपः । मनसश्च ेदमस्त्वित्यङ्गीकरणमिति । तथा च बुद्धेर्वृत्तिरध्यवसायो :
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१२६ सांख्यदर्शनम् । ऽभिमानोऽहङ्कारस्य सङ्कल्पविकल्पौ मनस इत्यायातम्। सङ्कल्पश्चिकौर्षा सङ्कल्पः कर्ममानसमित्यनुशासनात्। विकल्पश्च संशयो योगोतन्त्रमविशेषो वा न तु विशिष्टज्ञानं तस्य बुद्धिवृत्तित्वादिति ॥ ३० ॥ त्रयाणां साधारणी वृत्तिमप्याह । सामान्यकरण दृत्तिः प्राणाद्या वायवः पञ्च
प्राणादिरूपाः पञ्च वायुवत् सञ्चारात् वायवो ये प्रसिहास्ते सामान्या साधारणी करणस्यान्तःकरणत्रयस्य हत्तिः परिणामभेदा इत्यर्थः । तदेतत् कारिकयोक्तम् ।
खालक्षण्यत्तिस्त्रयस्य सैषा भवत्यसामान्या। सामान्य करणत्तिः प्राणाद्या यायवः पञ्च ॥
इति । अत्र कश्चित्प्राणाद्या वायुविशेषा एव ते चान्तःकरणहत्त्या जीवनयोनिप्रयत्नरूपया व्याप्रियन्त इति कृत्वा प्राणाद्याः करणवृत्तिरित्यभेदनिर्देश इत्याह। तन्न । न वायुक्रिये पृथगुपदेशादिति वेदान्तस्तूत्रेण प्राणस्य वायुत्ववायुपरिणामत्वयोः स्फुटं प्रतिषेधादत्रापि तदेकवाक्यतोचि. त्यात्। मनोधर्मस्य कामादः प्राणक्षोभकतया सामानाधिकरण्य नैवौचित्याच्च । वायुप्राग योः पृथगुपदेशश्रुतयस्तु । एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च । खं वायुज्योतिरापश्च पृथ्वी विश्वस्य धारिणी । इत्याद्या इति । अत एव लिङ्गशरीरमध्ये प्राणानामग. णनेऽपि न न्यूनता बुद्धेरेव क्रियाशक्त्या सूत्रात्मप्राणादिनामकत्वादिति। अन्तःकरणपरिणामेऽपि वायुतुल्य सञ्चारवि. शेषाहायुदेवताधिष्ठितत्वाच्च वायुव्यवहारोपपत्तिरिति ॥३॥
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हितीयोऽध्यायः।
वैशेषिकाणामिवास्माकं नायं नियमो यदिन्द्रि यत्तिः क्रमेणैव भवति नैकदेत्याह ।
क्रमशोऽक्रमशश्चेन्द्रियवृत्तिः ॥ ३२ ॥
सुगमम् । जातिसाङ्र्यास्यास्माकमदोषत्वात् सामग्रीसमवधान सत्यनेकैरपोन्द्रियैरेकदैकहत्त्य त्पादने बाधकं नास्तीति भावः। इन्द्रियवृत्तीनां विभागश्च कारिकया व्याख्यातः ।
शब्दादिषु पञ्चानामालोचनमात्रमिष्यते वृत्तिः । वचनादानविहरणोत्सर्गानन्दाच पञ्चानाम् ॥ आलोचनं च पूर्वाचार्याख्यातम् ।
अस्ति धालोचनं ज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । पर पुनस्तथा वस्तुधर्मर्जात्यादिभिस्तथा ॥
इति। परमुत्तरकालौनं च पुनर्वस्तुधर्मेद्रव्यरूपधमैस्तथा जात्यादिभिज्ञानं विकल्पकं तथालोचनाख्य भवतीत्यर्थः । तथा च निर्विकल्प कसविकल्परूपं विविधमप्यन्द्रियकं ज्ञानमालोचनसंमिति लब्धम् । कश्चित् तु निर्विकल्पकं ज्ञानमेवालोचनमिन्द्रियजन्य' च भवति सविकल्पकं तु मनोमानजन्यमिति श्लोकार्थमाह । तन्न। योगभाथे व्यासदेवेविशिष्टज्ञानस्याप्यन्द्रियकत्वस्य व्यवस्थापितत्वात्। इन्द्रियविशिष्टज्ञान बाधकाभावाच्च । स एव सूत्राथमप्येवं व्याचष्टे बाह्येन्द्रियमारभ्य बुद्धिपर्यन्तस्य वृत्तिरुत्सर्गतः क्रमेण भवति कदाचित् तु व्याघ्रादिदर्शनकाले भयविशेषाद्दिालतेव सर्वकरणेष्वेकदैव त्तिर्भवतीत्यर्थ इति। तदप्यसत् । सूत्र इन्द्रियवृत्तीनामेव क्रमिकाक्रमिकत्ववचनात् । न बुद्धाहकारवृत्त्योः प्रसङ्गोऽप्यस्ति । किञ्चैकदाने केन्द्रियहत्तावेव वादिविप्रतिपत्त्या तबि.
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१२८
सांख्यदर्शनम् । संयपरत्वमेव सूत्रस्योचितं मनोऽणुत्वप्रतिषेधाय न तु काकदन्तान्वेषणपरत्वमिति ॥ ३२ ॥
पिण्डीकत्य बद्धित्तीः संसारनिदानताप्रतिपादनार्थमादौ दर्शयति।
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ॥ ३३ ॥ लिष्टा अलिष्टा वा भवन्तु वृत्तयः पञ्चतय्यः पञ्चप्रकारा एब नाधिका इत्यर्थः । क्लिष्टा दुःख दाः सांसारिकवृत्तयोऽक्लिशाश्च तहिपरीता योगकालोनवृत्तयः। वृत्तीनां पञ्चप्रकारत्व पातञ्जलसूत्रेणोक्तम्। प्रमाणविपर्य यविकल्पनिद्रास्मृतय इति । तत्र प्रमाण वृत्तिरत्राप्युता विषय्य यस्त्वस्माकं विवेकाग्रह एवान्यथाख्यातनिरास्यत्वात् । विकल्पस्तु विशेषदर्शनकालेऽपि राहोः शिरः पुरुषस्य चैतन्यमित्यादिज्ञानम्। निद्रा च सुषुप्तिकालीना बुद्धिहात्तः। स्मृतिश्च संस्कारजन्यं ज्ञानमिति। एतत् सर्व पातञ्जले मूत्रितम् ॥ ३३ ॥
या एता बुद्धिवृत्तय उक्ता एतदीपाधिक्येव पुरुष स्यान्वरूपता न स्वत एतन्निरत्तो च पुरुषः स्वरूपेऽवस्थितो भवतोत्यनयापि दिशा पुरुषस्य स्वरूपं परिचाययति।
तन्नित्तावुपशान्तोपरागः खस्यः ॥ ३४॥ तासां वृत्तीनां विरामदशायां शान्ततत्प्रतिविम्ब कः स्वस्थो भवति कैवल्य इवान्यदापीत्यर्थः। तथा च योगसूत्रत्रयम् । योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। तथा द्रष्ट : स्वरूपेऽवस्थानम् । वृत्तिसारूप्यमितरत्रे ति। इदमेव च पुरुषस्य स्वस्थ त्वं यदुपाधिवृत्तेः प्रतिविम्ब स्य नित्तिरिति । एतादृशी चावस्था पुरुष स्य वासिष्ठ दृष्टान्तेन प्रदर्शिता । यथा। __ अनाप्ताखिलशैलादिप्रतिविम्बे हि यादृशी।
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द्वितीयोऽध्यायः ।
स्यार्पणे दर्पणता केवलात्मस्वरूपिणी ॥
यहं त्वं जगदित्यादौ प्रशान्ते दृश्यसम्भ्रमे । स्यात् तादृशी केवलता स्थिते दृष्टर्यवौक्षणे ॥
इति ॥ ३४ ॥
एतदेव दृष्टान्तेन विवृणोति 1
१२८
कुसुमवच्च मणिः ॥ ३५ ॥
चकारो हेतौ कुसुमेनेव मणिरित्यर्थः । यथा जपाकुसुमेन स्फटिकमणी रक्तोऽस्वस्थो भवति तनिवृत्तौ च रागशून्यः स्वस्थो भवति तद्वदिति । तदेतदुक्तं कौमें ।
यथा संलक्ष्यते रक्तः केवलः स्फटिको जनैः । रष्ञ्जकाद्युपधानेन तद्दत् परमपूरुषः ॥
इति ॥ ३५ ॥
-
ननु कस्य प्रयत्नेन करणजातं प्रवर्त्ततां पुरुषस्य कूटस्थ त्वादोश्वरस्य च प्रतिषिद्धत्वादिति तत्राह ।
पुरुषार्थं करणोवोऽप्यदृष्टोल्लासात् ॥ ३६ ॥ प्रधानप्रवृत्तिवत् पुरुषार्थं करणोद्भवः करणानां प्रवृत्तिरपि पुरुषस्यादृष्टाभिव्यक्तेरेव भवतीत्यर्थः । श्रदृष्टं चोपाधेदेव ॥ ३६ ॥
परार्थं स्वतः प्रवृत्तौ दृष्टान्तमाह ।
धेनुवद्दत्साय ॥ ३७ ॥
यथा वत्सार्थं धेनुः स्वयमेव चौरं स्रवति नान्यं यत्नमपेचते तथैव खामिनः पुरुषस्य कृते स्वयमेव करणानि प्रवर्त्तन्त इत्यर्थः । दृश्यते च सुषुप्तात् स्वयमेव बुद्धेरुत्थानमिति । एतदेव कारिकयाप्युक्तम् ।
स्वां स्वां प्रतिपद्यन्ते परस्पराकूतहेतुकां वृत्तिम् ।
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सांख्यदर्शनम् ।
पुरुषार्थ एव हेतुर्न केनचित् काय ते करणम् ॥ इति ॥३७॥ बाद्याभ्यन्तमिलित्वा कियन्ति करणानौत्याकाझायामाह।
करणं त्रयोदशविधमवान्तरभेदात् ॥३८॥ अन्तःकरणत्वयं दश बाह्य करणानि मिलित्वा त्रयोदश तेष्वपि व्यक्तिभेदेनानन्त्यं प्रतिपादयितु विधमिल्युतम् । बुद्धिरेव मुख्य करणमित्याशयेनोक्तमवान्तरभेदादिति। एकस्वैष बुद्धयाख्यकरणस्य करणानामनेकत्वाटित्यर्थः ॥ ३८॥
ननु बुद्धिरेव पुरुषऽर्थसमर्पकत्वानमख्य करणमन्येषां च करणत्वं गौणं तत्र को गुण इत्याकाझायामाह ।
इन्द्रियेषु साधकतमत्वगुणयोगात् कुठारवत् ॥ ३६॥
इन्द्रियेषु पुरुषार्थसाधकतमत्वरूपः करणस्य बुद्धेर्गुण: परम्परयास्त्यतस्त्रयोदशविध करणमुपपद्यत इति पूर्वसूत्रेणान्वयः। कुठारवदिति । यथा फलायोगव्यवच्छिन्द्रतया प्रहारस्यैव छिदायां मुख्यकरणत्वेऽपि प्रकष्टसाधनत्वगुणयोगात् कुठारस्यापि करणत्व तथेत्यर्थः । अन्तःकरणस्यैकत्वमभिप्रेत्याहङ्कारस्य गौणकरण त्वमत्र नोक्तम् ॥ ३८ ॥ गौणमुख्यभावे व्यवस्थां विशिष्थाह ।। हयोः प्रधानं मनो लोकवद्भुत्यवर्गेषु ॥४०॥
हयोर्बाह्यान्तरयोर्मध्ये मनो बुद्धिरेव प्रधान मुख्यम् । साक्षात्करण मिति यावत् । पुरुषेऽर्थसमर्पकत्वात्। यथा भृत्यवर्गेषु मध्ये कश्चिदेव लोको राश: प्रधानो भवत्यन्ये च तदुपसर्जनीभूता ग्रामाध्यक्षादयस्तद्ददित्यर्थः । अत्र मन:
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हितीयोऽध्यायः ।
शब्दो न तौयान्तःकरणवाची। वक्ष्यमाणस्याखिलसंस्काराबारत्वस्य बुद्ध्यतिरिक्तेष्वसम्भवात्। सम्भवे वा बुद्धिकल्पनवैया ादिति ॥ ४०॥ बुद्धेः प्रधानत्वं हेतूनाह त्रिभिः सूत्रैः ।
अव्यभिचारात् ॥ ४१ ॥ सर्वकरणव्यापकत्वात् फलाव्यभिचाराइत्यर्थः ॥ ४१ ॥
तथाशेषसंस्काराधारत्वात् ॥४२॥ बुद्धे रैवाखिलसंस्काराधारता न तु चतुरादेरहङ्कारमनसोर्वा पूर्वदृष्टश्रुताव्यर्थानामन्धवधिरादिभिः स्मरणानुपपत्तेः । तत्त्वज्ञानेनाहकारमनसोलयेऽपि स्मरणदर्शनाच। अतोऽशेषसंस्काराधारतयापि वुद्धेरेव सर्वेभ्यः प्रधानत्वमित्यर्थः ॥ ४२ ॥
स्मृत्वानुमानाच॥ १३ ॥ म्म त्वा चिन्तनरूपया हत्या प्राधान्यानुमानाचेत्यर्थः । चिन्ता वृत्तिहि ध्यानाख्या सर्ववत्तिभ्यः श्रेष्ठा तदाशयतया च चित्तापरनाम्नी बुद्धिरेव श्रेष्ठान्यत्तिकरणेभ्य इत्यर्थः ॥४३॥ ननु चिन्तात्ति: पुरुषस्दैवास्तु तत्राह ।
सम्भवन्न स्वतः ॥४४॥ स्वतः पुरुषस्य स्मृतिर्न सम्भवेत् कूटस्थत्वादित्यर्थः । इत्थं वा व्याख्येयम् । नन्वेवं बुद्धिरेव करणमस्तु कतमवान्तरकरणैरित्याशङ्कायामाह। सम्भवेन्न स्वत इति । चक्षुरादिहारता विनाखिलव्यापारेषु बुद्धेः स्वतः करणत्व न सम्भवेदन्धादेरपि रूपादिदर्शनापत्तेरित्यर्थः ॥ ४४ ॥
नन्वेवं बुद्धेरेव प्राधान्य कथं मनस उभयात्मकत्व प्रागुक्त तनाह।
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१३२
सांख्यदर्शनम् ।
___ आपेक्षिको गुणप्रधानभावः क्रियाविशेषात
॥४५॥
क्रियाविशेषं प्रति करणानामापेक्षिको गुणप्रधानभावश्चक्षुरादिव्यापारेषु मनः प्रधानं मनोव्यापार चाहङ्कारोऽहङ्कारव्यापार च बुद्धिः प्रधानम् ॥ ४५ ॥
नन्वस्य पुरुषस्येयं बुद्धिरेव करणं न बुद्दान्तरमित्य वं व्यवस्था किनिमित्तिकेत्याकाङ्क्षायामाह ।
तत्कर्मार्जितत्वात् तदर्थमभिचेष्टा लोकवत् ॥ ४६॥
तत्पुरुषोयकर्मजत्वात् करणस्य तत्पुरुषार्थमभिचेष्टा सर्वव्यापारो भवति लोकवत् । यथा लोके येन पुरुषेण क्रयादिकर्मणार्जितो यः कुठारादिस्तत्पुरुषार्थमेव तस्य छिदादिव्यापार इत्यर्थः। अत: करणव्यवस्थेति भावः। यद्यपि कूटस्थतया पुरुषे कर्म नास्ति तथापि भोगसाधनतया पुरुषखामिकत्वेन राज्ञो जयादिवदेव पुरुषस्य कर्मोच्यते । ननु कर्मण एव तत्पुरुषोयत्व किं नियामकमिति चेत् तथाविधं कर्मान्तरमेव । अनादित्वात् तु नानवस्था दोषायेति। यत् तु कश्चिदविवेकी वदति बुद्धिप्रतिविम्बितपुरुषस्य कर्मेति । तन। योगभाष्येऽत्मदुक्तप्रकारस्येवोक्तत्वेनान्यप्रकारस्याप्रामाणिकत्वात् । प्रतिविम्बस्यावस्तुत्वन कर्माद्यसम्भवाच्च। अन्यथा प्रतिविम्बस्य कर्मतद्भोगाद्यङ्गीकारे विम्बत्वाभिमतपुरुषकल्पनावैयर्थ्यस्य पूर्व प्रतिपादितत्वादिति ॥ ४६ ॥
बुद्धेः प्राधान्य प्रकटीकर्तुमुपसंहरति ।
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टतीयोऽध्यायः ।
१३३ समानकर्मयोगे बुद्धेः प्राधान्य लोकवल्लोकवत् ॥४७॥
यद्यपि पुरुषार्थत्व न समान एव सर्वेषां करणानां व्यापारस्तथापि बुद्देरेव प्राधान्य लोकवत्। लोके हि राजार्थकत्वा. विशेषेऽपि ग्रामाध्यक्षादिषु मध्ये मन्त्रिण एव प्राधान्य तहदित्यर्थः । अत एव बुद्धिरेव महानिति सर्वशास्त्रेषु गोयत इति। वीपाध्यायसमाप्तौ । ४७ ॥
लिङ्गदेहस्य घटकं यत् सप्तदशसंख्यकम् । प्रधानकायं तत् सूक्ष्ममत्राध्यायेऽनुवर्णितम् ॥ इति श्रीविज्ञानाचार्यनिर्मिते कापिलसांख्य प्रवचनस्य
भाष्ये प्रधान कार्याध्यायो हितोयः ।
तृतीयोऽध्यायः। इतः परं प्रधानस्य स्थूलकायं महाभूतानि शरीरहयं च वक्तव्यं ततश्च विविधयोनि गत्यादयो ज्ञानसाधनानुष्ठान हेत्वपरवैराग्या) ततश्च परवैराग्याय ज्ञानसाधनान्य खनानि वक्तव्यानौति हतीयारम्भः ।
अविशेषाधिशेषारम्भः ॥ १॥ नास्ति विशेषः शान्तघोरमूढत्वादिरूपो यत्रेत्यविशेषो भूतसूक्ष्म पञ्चतन्मात्राख्य तस्माच्छान्तादिरूपविशेषवत्वेन विशेषाणां स्थूलानां महाभूतानामारम्भ इत्यर्थः। सुख्खायामकता हि शान्तादिरूपा स्थूलभूतेष्वेव तारतम्यादिभिरभिव्यज्यते न सूक्ष्मेषु तेषां शान्तैकरूपतयैव योगिभिव्यक्तेरिति ॥ १॥
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सांख्यदर्शनम्।
तदेवं पूर्वाध्यायमारभ्य बयोविंशतितत्त्वानामुत्पत्तिमुक्का तस्माच्छरोरहयोतपत्तिमाह।
तस्माच्छरीरस्य ॥२॥ तस्मात् त्रयोविंशतितत्त्वात् स्थूलसूक्ष्म शरीरदयस्यारम्भ इत्यथः ॥२॥
सम्प्रति त्रयोविंशतितत्त्वे संसारान्यथानुपपत्तिं प्रमाणयति।
तहोजात् संहतिः ॥ ३ ॥ तस्य शरीरस्य वीजात् बयोविंशतितत्त्वरूपात् सूक्ष्मातो: पुरुषस्य संमृतिगंतागते भवतः कूटस्थस्य विभुतया खतो गत्याद्यसम्भवादित्यर्थः । त्रयोविंशतितत्वेऽवस्थितो हि पुरुषस्तेनैवोपाधिना पूर्व कृतकर्मभोगाथै देहाट् देहं संसरति ।
मानसं मनसैवायमुपभुङक्ते शुभाशुभम् ।
वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव तु कायिकम् ॥ इत्यादिस्मृतिभिः पूर्वसर्गीयकरणैरेवोत्सर्गतः सर्गान्तरेषपभोगसिद्धेः । अतएव ब्रह्मसूत्रमुपसंहरति सम्परिष्वक्त इति
संमृतेरवधिमप्याह।
आविवेकाच्च प्रवर्तनमविशेषाणाम् ॥४॥ ईश्वरानीश्वरत्वादिविशेषरहितानां सर्वेषामेव पुंसां विवे. कपर्यन्तमेव प्रवत्तनं संमृतिरावश्यको विवेकोत्तरं च न सत्यर्थः ॥ ४॥ तत्व हेतुमाह
उपभोगादितरस्य ॥५॥
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बतीयोऽध्यायः ।
इतरस्थाविवेकिन एव खोयकर्मफलभोगावश्यम्भावादित्यर्थः ॥ ५ ॥ देहसत्त्वेऽपि संमृतिकाले भोगो नास्तीत्याह ।
सम्प्रति परिमुक्तो हाभ्याम् ॥६॥
सम्प्रति संमृतिकाले पुरुषो दाभ्यां शीतोष्णसुखदुःखादि. इन्दः परिमुलो भवतीत्यर्थः। तदेतत् कारिकयोलम् । संसरति निरुपभोगं भावैरधिवासितं लिङ्गम् । इति। भावा धर्माधर्मवासनादयः ॥ ६ ॥ अतः परं शरीरदयं विशिय वक्नु मुपक्रमते ।
मातापिट स्थूलं प्रायश इतरन्न तथा ॥७॥
स्थूलं मातापिटज प्रायशो बाहुल्येनायोनिजस्यापि स्थलशरीरस्य स्मरणादितरच सूक्ष्म शरीरं न तथा न मातापिबजं सर्गाद्युत्पनत्वादित्यर्थः । तदुक्त कारिकया। पूर्वोत्यनमसक्तं नियतं महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम् । संसरति निरुपभोगं भावैरधिवासित लिङ्गम् ।
इति। नियतं नित्य हिपराधस्थायि गौणनित्य प्रतिशगैरं लिङ्गोत्पत्तिकल्पने गौरवात्। प्रलये तु तवाशः श्रुतिस्मृतिप्रामाण्यादिश्यते। गतिकाले भोगाभाववचनमुर्गाभिप्रायेण। कदाचित् तु वायवीयशरीरप्रवेशतो गमनकालेऽपि भोगो भवति। पतोऽयममार्गे दु:खभोगवाक्यान्य पपदन्त ॥ ७॥ . स्थूलसूक्ष्म शरीरयोर्मध्ये किमुपाधिकः पुरुषस्य इन्दयोमस्तदवधारयति।
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सांख्यदर्शनम् ।
पूर्वोत्पत्त स्तत्काय्र्यत्वं भोगादेकस्य नेतरस्य
॥८॥
पूर्व सर्गादात्पत्तिर्यस्य लिङ्गशरीरस्य तस्यैव तत्कार्य्य व सुखदुःखका कत्वं कुत एकस्य लिङ्गदेहस्यैव सुखदुःखाख्यभोगात् न त्वितरस्य स्थूलशरीरस्य मृतशरीरे सुखदु:खाद्यभावस्य सर्वसम्मतत्वादित्यर्थः ॥ ८ ॥
उक्तस्य सूक्ष्मशरीरस्य स्वरूपमाह । सप्तदशैकं लिङ्गम् ॥ ६ ॥
सूक्ष्मशरीरमप्याधाराधेयभावेन द्विविधं भवति तत्र सप्तदश मिलित्वा लिङ्गशरीरं तच्च सर्गादौ समष्टिरूपमेकमेव भवतीत्यर्थः । एकादशेन्द्रियाणि पञ्चतन्मात्राणि बुद्धियति सप्तदश । अहङ्कारस्य बुद्धावेवान्तर्भावः । चतुर्थ सूत्रवक्ष्यमाप्रमाणादेतान्य व सप्तदश लिङ्गं मन्तव्यं न तु सप्तदशमेकं चेत्यष्टादशतया व्याख्येयम् । उत्तरसूत्रेण व्यक्तिभेदस्योपपाaorta लिङ्गेकत्व एकशब्दस्य तात्पर्य्यावधारणाञ्च ।
कर्मात्मा पुरुषो योऽसौ बन्धमोचैः प्रयुज्यते । स सप्तदशकेनापि राशिना युज्यते च सः ॥ इति मोक्षधर्मादौ लिङ्गशरीरस्य सप्तदशत्वसिद्धेश्वमतदशावयवा यत्र सन्तीति सप्तदशको राशिरित्यर्थः राशिशब्द ेन स्थलदेहवल्लिङ्ग देहस्यावयवित्वं निराकृतम् । - श्रवयविरूपेण द्रव्यान्तरकल्पनायां गौरवात्। स्थूल देहस्य -चावयवित्वमेकतादिप्रत्यक्षानुरोधेन कल्पात इति । पत्र च लिङ्गदेहे बुद्धिरेव प्रधानेत्याशयेन लिङ्गदेहस्य भोगः प्रागुक्तः । प्राणश्चान्तःकरणस्यैव वृत्तिभेदः । अतो लिङ्गदेहे प्राणपश्चकस्याप्यन्तर्भाव इत्यस्य सप्तदशावयवकस्य शरीरत्वं स्वयं
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aateisध्यायः ।
१३७
वच्यति लिङ्गशरीरनिमित्तक इति सनन्दनाचा
इति
सूत्रेण । श्रतो भोगायतनत्वमेव मुख्य शरीरलक्षणम् । तदाश्रयतया त्वन्यत्र शरीरत्वमिति पश्चाद्यक्ती भविष्यति । चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरमिति तु न्यायेऽपि तस्यैव लक्षणं कृतमिति ॥ ८ ॥
ननु लिङ्गं चेदेकं तर्हि कथं पुरुषभेदेन विलक्षणा भोगाः स्य स्तत्राह ।
व्यक्तिभेदः कर्मविशेषात् ॥ १० ॥
यद्यपि सर्गादौ हिरण्यगर्भोपाधिरूपमेकमेव लिङ्ग तथापि ata yarsafaisो व्यक्तिरूपेयांगतो नानात्वमपि भवति । यथेदानीमेकस्य पिलिङ्गदेहस्य नानात्वमंशतो भवति पुत्रकन्यादिलिङ्गदेहरूपेण । तत्र कारणमाह कर्मविशेषादिति ॥ जीवान्तराणां भोगहेतुकर्मादेरित्यर्थः । अत्र विशेषवचनात् समष्टिसृष्टिर्जीवानां साधारणैः कर्मभिर्भवतीत्यायातम् । श्रयं च व्यक्तिभेदो मन्वादिष्वप्युक्तः । यथा मनौ समष्टिपुरुषस्य षडिन्द्रियोत्पत्त्यनन्तरम् ।
तेषां त्ववयवान् सूक्ष्मान् षण्णामप्यमितौजसाम् । सन्निवेश्यात्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे ॥
इति षणामिति समस्त लिङ्गशरीरोपलक्षणम् । श्रात्ममात्रासु चिदंशेषु संयोज्येत्यर्थः । तथा च तत्रैव वाक्यान्त
रम् ।
तच्छरीरसमुत्पत्रैः कायैस्तैः करणैः सह ।
क्षेत्रज्ञाः समजायन्त गात्रेभ्यस्तस्य धीमतः ॥
इति ॥ १० ॥
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सांख्यदर्शनम् ।
नन्वेवं भोगायतनतया लिङ्गस्यैव शरीरत्व स्थूले कथं
शरीरव्यवहारस्तत्राह । तदधिष्ठानाश्रये देहे तद्वादात् तद्वादः ॥ ११॥
तस्य लिङ्गस्य यदधिष्ठानमाश्रयो वक्ष्यमाणभूतपञ्चकं तस्याश्रये पाटकौशिक देहे तद्दादो देहवादस्तद्दादात् तस्याधिष्ठानशब्दोक्तस्य देहवादादित्यर्थः लिङ्गसम्बन्धादधिष्ठानस्य देहत्वमधिष्ठानाश्रयत्वाच्च स्थलस्य देहत्वमिति पर्यवसितोऽर्थः । अधिष्ठानशरीरं च सूक्ष्मं पञ्चभूतात्मकं वक्ष्यते तथा च शरौरत्त्रयं सिद्धम् । यत् तु ।
श्रतिवाहिक एकोऽस्ति देहोऽन्यस्त्वाधिभौतिकः । सर्वासां भूतजातीनां ब्रह्मणस्त्वक एवं किम् ॥ इत्यादिशास्त्रेषु शरौरद्दयमेव श्रूयतं तल्लिङ्गशरीराधिष्ठानशरौरयारन्याऽन्यनियतत्वेन सूक्ष्मत्वन चैकताभिप्रायादिति
॥ ११ ॥
ननु षाट् कोशिकातिरिक्त लिङ्गशरीराधिष्ठानभूते शरौरान्तरे किं प्रामाणमित्याकाङ्गायामाह ।
न स्वातन्त्रप्रात् तहते कायावञ्चितवच्च ॥ १२॥
तल्लिङ्गशरीरं ततेऽधिष्ठानं विना स्वातन्त्र्यान्न तिष्ठति । यथा छाया निराधारा न तिष्ठति यथा वा चित्रमित्यर्थः । तथा च स्थूलदेहं त्यक्त्वा लोकान्तरगमनाय लिङ्गदेहस्याधारभूतं शरीरान्तरं सिध्यतीति भावः । तस्य च स्वरूपं कारिकायामुक्तम् ।
सूक्ष्मा मातापिढजाः सहप्रभूतैस्त्रिधा विशेषा स्युः । सूक्ष्मास्तेषां नियता मातापितृजा निवर्त्तन्ते ॥
H
इति ।
अन तन्मात्र कार्य्यं मातापिढजशरीरापेचया
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तीयोऽध्यायः। सूक्ष्मं यद्भूतपञ्चकं यावलिङ्ग स्थायि प्रोक्तं तदेव लिङ्गाधिष्ठानं शरीरमिति लब्ध कारिकान्तरेण । चित्र यथाश्रयमृते स्थाखादिभ्यो विना यथा छाया। तहहिना विशेषैन तिष्ठति निराश्रयं लिङ्गम् ॥
इति। विशेषैः स्थ लभूतैः सूक्ष्माख्यः। स्थलावान्तरभेदैरिति यावत्। अस्यां कारिकायां सूक्ष्माख्यानां स्थ लभूतानां लिङ्गशरीराने दावगमन । पूर्वोत्पन्नमसक नियतं महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम् ।
इत्यादिपूर्वोदाहृतकारिकायां सूक्ष्मभूतपय न्तस्य लिङ्गत्वं नार्थः किन्तु महदादिरूपं यलिङ्गं तत् स्वाधारसूक्ष्मपर्यन्त संसरति तन सह संसरतीत्यथः। नन्ववं लिङ्गघटकपदार्थाः कियन्त इति कथमवधार्य मिति चेत् ।
वासनाभूत सूक्ष्म च कमविद्य तथैव च । दन्द्रियं मनो बुद्धिरताल्लङ्ग विदुर्बुधाः ॥
इति वाशिष्ठादिवाक्य भ्यः। अत्र लिङ्गशरीरप्रतिपादने. नेव पुथ्य ष्टकमपि व्याख्य यमित्याशयेन बुद्धिधर्माणामपि वासनाकविद्यानां पृथगुपन्यासः । भूतसूक्ष्म चात्र तन्मात्रा दशेन्द्रियाणि च ज्ञानकीन्द्रयमदन पुरहयमित्याशयः । यत् तु मायावादनो लिङ्गशरीरस्य तन्मात्रस्थान प्राणादिपञ्चक प्रक्षिपन्ति पुर्यष्टकं चान्यथा कल्पयन्ति तदप्रामाणिकमिति ॥ १२॥
ननु मूर्त्तद्रव्यतया वायादेरिव लिङ्गस्याकाशमेवासङ्गेनाधारोऽस्तु व्यर्थमन्यत्र सङ्गकल्पनमिति तवाह। मूतत्वेऽपि न सङ्घातयोगात् तरणिवत् ॥१३॥ मूर्त्तत्वेऽपि न स्वातन्त्रवादसङ्गतयावस्थानं प्रकाशरूप
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सांख्यदर्शनम्। त्वेन सूर्यस्येव सङ्घातसङ्गानुमानादित्यर्थः। सूयादौनि सर्वाणि तेजांसि पार्थिवद्रव्यसङ्गेनैवावस्थितानि दृश्यन्ते लिङ्ग च सत्त्वप्रकाशमयमतो भूतसङ्गमिति ॥ १३ ॥ लिङ्गस्य परिमाणमवधारयति।
अणुपरिमाणं तत् कृतिश्रुतेः ॥ १४ ॥ तल्लिङ्गमणुपरिमाणं परिच्छिन्नं न त्वत्यन्तमेवाणु सावयवस्योतत्वात्। कुतः कृतिश्रुतेः क्रियाश्रुतेः ।
विज्ञानं यज्ञं तनुते कर्माणि तनुतेऽपि च । इत्यादिश्रुतर्विज्ञानाख्यबडिप्रधानतया विज्ञानस्य लिङ्गस्थाखिलकर्मश्रवणादित्यर्थः । विभुल्वे सति क्रिया न सम्भवति । तद्गतिश्रुतेरिति पाठस्तु समीचीनः। लिङ्गशरीरस्थ च गतिश्रुतिस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनुक्रामति प्राणमनुक्रामन्तं सविज्ञानो भवति सविज्ञानमेवानुक्रामतीति सविज्ञानो बुद्धिसहित एव जायते सविज्ञानं यथा स्यात् तथा संसरति चेत्यर्थः
परिच्छिन्नत्वे युक्त्यन्तरमाह ।
तदन्नमयत्वश्रुतेश्च ॥ १५ ॥ तस्य लिङ्गस्यैकदेशतोऽन्नमयत्व श्रुतेने विभुत्व मम्भवतीति । विभुत्व सति नित्यतापत्तरित्यर्थः। सा च तियन्त्रमयं हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयौ वागित्यादिः। यद्यपि मनयादीनि न भौतिकानि तथाप्य त्रसंसृष्टसजातीयांशपूरणादन्त्रमयत्वादिव्यवहारो बोध्यः ॥ १५ ॥ .. अचेतनानां लिङ्गानां किमर्थं संसृतिदेहाहान्तरसञ्चार इत्याशडायामाह।
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तीयोऽध्यायः ।
१४१
पुरुषार्थ संसृतिर्लिङ्गानां सूपकारवद्रातः
यथा राज्ञः सूपकाराणां पाकशालासु सच्चारो राजाथें तथा लिङ्गशरीराणां संसृतिः पुरुषार्थमित्यर्थः ॥ १६ ॥
लिङ्गशरीरमशेषविशेषतो विचारितमिदानी स्य लशरीरमपि तथा विचारयति ।
पाञ्चभौतिको देहः ॥१७॥ पञ्चानां भूतानां मिलितानां परिणामो देह इत्यर्थः ॥ १७॥ मतान्तरमाह।
चातुर्मी तिकमित्येके ॥ १८॥ याकाशस्यानारम्भकत्वमभिप्रेत्येदम् ॥ १८ ॥
ऐकभौतिकमित्यपरे ॥ १६ ॥ पार्थिवमेव शरीरमन्यानि च भूतान्यपष्टम्भकमावाणीति भावः। अथवैकभौतिकमेकै कभौतिकमित्यर्थः । मनुष्यादिगरौरे पार्थिवांशाधिक्येन पार्थिवता सूर्यादिलोकेषु च तेजआद्याधिक्येन सैजसादिता शरीराणां सुवर्णादौनामिवेतीममेव पक्ष पञ्चमाध्यायेऽपि सिद्धान्तयिष्यति ॥ १८ ॥ देहस्य भौतिकत्वेन यत् सिध्यति तदाह ।
न सांसिद्धिकं चैतन्य प्रत्येकादृष्टेः ॥२०॥
भूतेष पृथक कतेषु चैतन्यादर्शनाभौतिकस्य देहस्य न खाभाविक चैतन्यं किन्त्वौपाधिकमित्यर्थः ॥ २० ॥ बाधकान्तरमाह।
प्रपञ्चमरणाद्यभावश्च ॥ २१॥
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१४२
सांख्यदर्शनम्।
प्रपञ्चस्य सर्वस्य व मरणसुषुत्यावभावश्च देहस्य स्वभा. विकचैतन्ये सति स्थादित्यर्थः । मरणसुषुत्यादिकं हि देहस्थाचेतनता सा च स्वाभाविकचैतन्ये सति नोपपद्यते स्वाभा. वस्य यावद्रव्यभावित्वादिति ॥ २१ ॥ प्रत्येकादृष्ट रिति यदुक्तं तत्राशय परिहरति ।
मदशक्तिवञ्चेत् प्रत्येकपरिदृष्टे साहये तटुद्भवः ॥ २२॥
ननु यथा मादकता शक्ति: प्रत्ये कद्रव्यात्तिरपि मिलितद्रव्ये वर्तत एवं चैतन्यमपि स्यादिति चेन्न प्रत्ये कपरिदृष्टे सति सांहत्ये तदुद्भवः सम्भवेत्। प्रक्वते तु प्रत्ये कपरिदृष्टत्वं नास्ति । प्रतो दृष्टान्त प्रत्येकं शास्त्रादिभिः सूक्ष्मतया मादकत्व सिडे संहतभावकाले मादकत्वाविर्भावमात्र सिध्यति । दार्शन्तिके तु प्रत्येकभूतेषु सूक्ष्मतया न केनापि प्रमाणेन चैतन्य सिद्धमित्यर्थः। ननु समुचिते चैतन्यदर्शनेन प्रत्ये कभूते सूक्ष्मचैतन्यशक्तिरनुमेयेति चेन्न । बनेकभूतेष्वनेकचैतन्यशक्तिकल्पनायां गौरवेण लाघवादेकस्यैव नित्यचित् खरूपस्य कल्पनौचित्यात्। ननु यथावयवेऽवतमानमपि परिमाणजलाहरणादिकायं घटादौ दृश्यत एवमेव शरीरे चैतन्य स्यादिति मैवम् । भूतगतविशेषगुणानां सजातीय. कारणगुणजन्यतया कारणे चैतन्य विना देहे चैतन्यासम्भवादिति ॥ २२॥
पुरुषार्थ संमृतिर्लिङ्गानामित्युक्त तत्व लिङ्गानां स्थ लदेह. सञ्चाराख्यजन्मनो यो यः पुरुषार्थो येन येन व्यापारण सिध्यति तदाह सूत्राभ्याम् ।
ज्ञानान्मुक्तिः ॥ २३॥
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हतीयोऽध्यायः ।
लिङ्गसंमृतितो जन्महारा विवेकसाक्षात्कारस्तस्मान्म क्तिरूपः पुरुषार्थो भवतीत्यर्थः। ज्ञानादिकं च प्रत्ययसर्गतया कारिकायां परिभाषितम्। एष प्रत्ययसर्गो विपर्य याशक्तितुष्टिसियाख्यः ।
इति । विपर्य यादयो व्याख्यास्यन्तेऽत्र च स एव बुद्धिसर्ग: प्रयोजनयोगेन सूरुच्यत इति विशेषः ॥ २३ ॥
बन्धी विपर्ययात् ॥ २४॥ विपर्ययात् सुखदुःखात्मको बन्धरूपः पुरुषार्थो लिङ्का संमृतितो भवतीत्यर्थः ॥ २४ ॥
ज्ञानविषय याभ्यां मुक्तिबन्धावुक्तौ तत्रादौ ज्ञानान्मुक्ति विचारयति।
नियतकारणत्वान्न समुच्चयविकल्पौ ॥२५॥
यद्यपि विद्यां चाविद्यां च यस्तद्देदोभयं सहेत्यादि श्रूयते तथाप्यविवेकनिवृत्ती लोकसिद्धतया ज्ञानस्य नियतकारणत्वादविद्याख्यकर्मणा सह ज्ञानस्य मोक्षजनने समुच्चयो विकल्यो वा नास्तीत्यर्थः । तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यते यनाय न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानचरित्यादिश्रुतिभ्योऽपि कर्मणो न साक्षान्मोक्षहेतुत्वं समुबयानुष्ठानं श्रुतिष्वङ्गाङ्गिभावादिभिरभ्युपपद्यत इति ॥२५॥ समुञ्चविकल्पयोरभावे दृष्टान्तमाह।
खपजागराध्यामिव मायिकामायिकाभ्यां नोभयोमुक्तिः पुरुषस्य ॥ २६ ॥
यथा मायिकामायिकाभ्यां खनजागरपदार्थाभ्यामन्योऽन्यसहकारिभावेनै कः पुरुषार्थो न सम्भवति। एवमुभयोर्मायि
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१४४
सांख्यदर्शनम्।
कामायिकयोरनुष्ठितयोः कर्मज्ञानयोः पुरुषस्य मुक्तिरपि न युक्तोत्यर्थः। मायिकत्व चासत्यत्वम्। अस्थिरत्वमिति यावत्। तच्च स्वाप्नऽर्थेऽस्ति जाग्रत्यदार्थस्तु स्वानापेक्षया सत्य एव कूटस्थपूरुषापेक्षयैवास्थिरत्वेनासत्यत्वादतः स्वप्नविलक्षणखानादिकार्यकरः । एवं कर्माप्यस्थिरत्वात् प्रकृतिकार्यत्वाच मायिकम् । आत्मा तु स्थिरत्वादकार्यत्वाचामायिकः । अतस्तयोरनुष्ठितकर्मज्ञानयोः समानफलदाढत्वमयौक्ति कमिति विलक्षणमेव कार्य युक्तम् । २६ ॥
नन्वेवमप्यात्मोपासनाख्यज्ञानेन मह तत्त्वज्ञानस्य ममुचयविकल्पो स्यातामुपास्यस्यामायिकत्वादिति तबाह ।
इतरस्यापि नात्यन्तिकम् ॥ २७॥
इतरस्याप्युपास्यस्य नात्यन्तिकममायिकत्वमुपास्यात्मन्यध्यस्तपदार्थानामपि प्रवेशादित्यर्थः ॥ २७ ॥ उपासनस्य मायिकत्वं यस्मिन्न शे तदाह ।
सङ्कल्पितेऽप्य वम् ॥ २८॥ मनःसङ्कल्पिते ध्येयांश एवमपि मायिकत्वमपीत्यर्थः । सर्व खल्विदं ब्रह्मेत्यादिश्रुत्युक्ते घपास्ये प्रपञ्चांशस्य मायिकत्वमेवेति ॥ २८॥
तर्युपासनस्य किं फलमित्याकाङ्क्षायामाह । भावनोपचयाच्छुतस्य सर्वे प्रकृतिवत् ॥२६॥
भावनाख्योपासनानिष्यत्त्या शुद्धस्य निध्यापस्य पुरुषस्य प्रकृतेरिव सर्वमैखयं भवतीत्यर्थः । प्रकृतियथा सृष्टिस्थितिसंहारं करोति। एवमुपासकस्य बुद्धिसत्त्वमपि प्रकृतिप्रेरणेन सध्यादिक भवतीति ॥ २८ ॥
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तीयोऽध्यायः ।
१४५
जान मेव मोक्षसाधनमिति स्थापितम्। इदानों ज्ञानसाधनान्याह।
रागोपहतिया॑नम् ॥ ३० ॥ ज्ञानप्रतिबन्धको यो विषयोपरागश्चित्तस्य तदुपघातहेतुOनमित्यर्थः। उपचारेण कार्य कारणयोरभेदनिर्देशो रागनयस्य ध्यानत्वासम्भवात् । अत्र ध्यानशब्देन धारणाध्यानसमाधयो योगोतास्त्रय एव ग्राह्या: पातञ्जले योगाङ्गानामष्टानामव विवेकसाक्षात्कार हेतुत्व श्रवणादिति। एतेषां चावान्तरविशेषास्तव द्रष्टव्याः। इसराणि च पञ्चाङ्गानि स्वयं वक्ष्यति ॥ ३० ॥
ध्याननिष्यत्त्व व ज्ञानोत्पत्ति रम्भमात्रेणेत्याशयेन ध्याननिष्यत्तेलक्षणमाह।
वृत्तिनिरोधात् तत्मिविः ॥ ३१ ॥ ध्येयातिरिक्त त्तिनिरोधरूपेण सम्प्रज्ञातयोगेन तत्मिदिवा॑नस्य निष्पत्तिर्जानाख्यफलोपधानरूपा भवतीत्यर्थः । अतस्तावत्पर्यन्तमेव ध्यानं कर्तव्यमित्याशयः। इतरवृत्तिनिरोध मत्येव विषयान्तरसञ्चाराख्यप्रतिबन्धापग माद्देश्यसाक्षात्कारी भवतीति कृत्वा योगोऽपि जाने कारणं योगाङ्गध्यानादिवटियपि मन्तव्यम् । अध्यात्मयोगाधिगमन देवं मत्वा धीरो हष. शोको जहातीत्यादिश्रुतिस्मत्योस्तदवगमादिति ॥ ३१ ॥ ध्यानस्यापि साधनान्याह।
धारणासनखकर्मणा तत्सिसिः ॥ ३२ ॥ वक्ष्यमाणेन धारणादित्रयेण ध्यानं भवतीत्यर्थः ॥ ३२ ॥ धारणादित्रयं क्रमात् सूत्रत्रयेण लक्षयति ।
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१४६
सांख्यदर्शनम्। निरोधश्चर्दिविधारणाभ्याम् ॥ ३३ ॥ प्राणस्येति प्रसिद्ध्या लभ्यते। प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्यति योगसूत्रे भाष्यकारेण प्राणायामस्य व्याख्यातत्वात् । छर्दिश्च वमनम् । विधारणत्याग इति यावत्। तेन प्ररणरचनयोर्लाभः । विधारणं च कुम्भ कम्। तथा च प्राण स्य पूरकरेचक कुम्भकर्योनिरोधो वशीकरणं साधारण्य त्यधः । प्रासनकर्मणोः स्वशब्देन पश्चालक्षणीयतया सूत्र परिशेषत एव धारणाया लक्ष्यत्वलामाद्वारणापदं नोपात्तम्। चित्तस्य धारणा तु समाधिवड्यानशब्दनैव होता इति ॥ ३३ ॥ क्रमप्राप्तमासनं लक्षयति।
स्थिरसुखमासनम् ॥ ३४॥ यत् स्थिरं सत् सुख साधनं भवति स्वस्तिकादि तदासनमित्यर्थः ॥ ३४॥
खकर्म लक्षयति।
सकर्म स्वाश्रमविहितकर्मानुष्ठानम् ॥३५॥ 'सुगमम् । तत्र कर्मशब्देन यमनियम योग्रहणं जितेन्द्रिय त्वरूपः प्रत्याहारोऽपि सर्वाश्रमसाधारणतया कर्ममध्ये प्रवेशनौयः। तथा च पातञ्जलसूत्रे ज्ञानप्ताधनतया प्रोक्तान्यष्टौ योगाङ्गान्यत्रापि लब्धानि। यथा तत्सूत्रम्। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानौति । तेषां च स्वरूपं तव द्रष्टव्यम् ॥ ३५ ॥
मुख्याधिकारियो नास्ति बहिरङ्गास्य यमादिपञ्चकन्यापेन! केवलाद्वारणाध्यानादित्रयरूपात् संयमादेव ज्ञानं योगश भवतीति पातञ्जलांसद्धान्तः । जड़भरतादिष च तथा दृश्यनजप । अतस्तदनुसारेणाचार्योऽप्याह।
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तीयोऽध्यायः।
१४७ वैराग्यादभ्यासाच्च ॥ ३६ ॥ केवलाभ्यासात् ध्यान रूपादेव वैराग्यसहिताजज्ञानं तत्माधनयोगश्च भवत्यु त्तमाधिकारिणामित्यर्थः । तदुक्तं गारुडेऽपि ।
आसनस्थानविधयो न योगस्य प्रसाधकाः । विलम्बजननाः सर्वे विस्तरा: परिकीर्तिताः ॥
शिशुपाल: सिडिमाप स्मरणभ्यासगौरवात्। इति । अथवा वैराग्यध्यानाभ्यासावत्र ध्यानस्य व हेतुतयोती चकारश्च धारणासमुच्चयायेति । तदेवं ज्ञानान्मोक्षो व्याख्यातः
अतः परं बन्धो विपर्ययादित्य तो बन्धकारणं विपर्ययो व्याख्यास्यते तत्रादी विपर्ययस्य स्वरूपमाह।
विपर्ययभेदाः पञ्च ॥३७॥
अविद्यास्मितारागद्देषाभिनिवेशाः पञ्च योगोता बन्धहेतुविषय्ययस्यावान्तरभेदा इत्यर्थः । तेन शुक्त्यादिज्ञानरूपाणां विपर्य याणामसंग्रहेऽपि न क्षतिः। तत्राविद्यानित्याशचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरिति योगे प्रोता। एवमस्मिताप्यात्मानात्मनोरकताप्रत्ययः। शरीरायतिरिक्त यात्मा नास्तीत्येवरूपः। अविद्या तु नैवरूपा। आत्मनः शरीराशरीरोभयरूपत्वेऽपि शरीरेऽहम्बुडापपत्तेः । रागद्देषौ तु प्रसिद्धावेव। अभिनिवेशश्च मरणादित्रास इति । रागादौनां विपर्यय कार्यतया विपर्ययत्वम् ॥ ३७॥ विपर्ययस्य स्वरूपमुक्त्वा तत्कारणस्याशक्तरपि स्वरूपमाह।
अशक्तिरष्टाविंशतिधा तु ॥ ३८॥ सुगमम् । एतदपि कारिकया व्याख्यातम् ।
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१४८
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सांख्यदर्शनम् ।
एकादशेन्द्रियवधाः सह बुद्धिवधेरशक्तिरुद्दिष्टा । सप्तदश वधा बुद्धेर्विपर्य्ययात् तुष्टिसिद्धीनाम् ॥ इति । बाधियं कुष्ठितान्धत्वं जडताजित्रता तथा । मूकता कौण्यपङ्गत्व' क्लव्योदावर्त्तमुग्धताः ॥
इत्येकादशेन्द्रियाणामेकादशाशक्तयः स्वतश्च बुद्धेः सप्तदशाशक्तयः । यथा वक्ष्यमाणानां नवतुष्टीनां विधाता नव तथा वच्यमाणानामष्टसिद्दोनां च विघाता अष्टाविति मिलित्वा चेमाः स्वतः परतश्चाष्टाविंशतिर्बुद्धेरशक्तय इत्यर्थः । तुशब्द एषां विशेषप्रसिद्धिख्यापनार्थः ॥ ३८ ॥
J
ययोर्विधात बुद्धेरशक्ती ते तुष्टिसिद्धी सूत्रइयेनाह । तुष्टिर्नवधा ॥ ३८ ॥
स्वयमेव नवधात्वं वच्यति ॥ ३८ ॥
सिरिष्टधा ॥ ४० ॥
एतदपि स्वयं वच्यति ॥ ४० ॥
उक्तानां विपर्य्ययाशक्तितुष्टिसिद्धीनां विशेष जिज्ञासायां क्रमेण सूत्रचतुष्टयं प्रवर्त्तते ।
अवान्तरभेदाः पूर्ववत् ॥ ४१ ॥
विपर्ययस्थावान्तरभेदा ये सामान्यतः पञ्चोक्तास्ते पूर्वबत् पूर्वाचार्यैर्यथोक्तास्तथैव विशिष्यावधार्याः । विस्तरभया - नेहोच्यन्त इत्यर्थः । ते चाविद्यादयो मयापि सामान्यत एक व्याख्याताः पञ्चेति । विशेषतस्तु द्वाषष्टिभेदास्तदुक्तं कारि
कायाम् ।
भेदस्तमसोऽष्टविधो मोहस्य च दशविधो महामोहः ।
तामिस्रोऽष्टादशधा तथा भवत्यन्धतामिस्रः ॥
इति । अस्यायमर्थः । व्यष्टस्वव्यक्तमहदहङ्कारपचतन्मात्रेषु
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तीयोऽध्यायः । १४८ प्रक्रतिष्वनामबुद्धिरविद्या तमोऽष्टधा भवति। कार्य कारणाभेदेन केवलविक्रतिष्वात्मबुद्धेरप्यत्रान्तर्भावः। एक्मविद्याया विषयभेदेनाष्टविधत्वात् तत्समानविषयकस्यास्मिताख्यमोह. स्थाष्टविधत्वम् । दिव्यादिव्यभेदेन शब्दादीनां विषयाणां दशत्वात् तहिषयको रागाख्यो महामोहो दशविधः । अविद्यास्मितयोरष्टौ ये विषया ये रागस्य दश विषयास्तविघातकेष्वटादशस्वष्टादशधा तामिम्राख्यो देषः । एवं तेषामष्टादशानां विनाशादिदर्शनादष्टादशधान्धतामिस्राख्योऽभिनिवेशो भयमिति। एतेषां च तम आदिसज्ञा तहेतुत्वादिति ॥ ४१ ॥
एवमितरस्याः ॥ ४२ ॥ एवं पूर्ववदेवेतरस्या अशक्तरप्यवान्तरभेदा अष्टाविंशतिविशेषतोऽवगन्तव्या इत्यर्थः । अशक्तिरष्टाविंशतिधेत्येतस्मिन्नेव सूत्रेऽष्टाविंशतिधात्व मया व्याख्यातम् ॥ ४२ ॥
आध्यात्मिकादिभेदान्नवधा तुष्टिः ॥४३॥ इदं सूत्र कारिकया व्याख्यातम् । आध्यात्मिकाश्चतस्रः प्रात्य पादानकालभाग्याख्याः । वाह्या विषयोपरमात् पञ्च नव तुष्टयोऽभिहिताः॥
इति। अस्यायमर्थः। अात्मानं तुष्टिमतः सङ्घातमधिकत्य वर्तन्त इत्याध्यात्मिकास्तुष्टयश्चतस्रः । तत्र प्रकृत्याख्या तुष्टि
था। माक्षात्कारपर्यन्तः परिणाम: सर्वोऽपि प्रहातेरेव तं व प्रकृतिरेव करोत्यहं तु कूटस्थः पूर्ण इत्यात्मभावनात् परितोषः। इयं तुष्टिरम्भ इत्य चत। ततश्च प्रव्रज्योपादानेन या तुष्टिः सोपादानाख्या सलिलमित्य च्यते। ततश्च प्रव्रज्यायां बहकालं समाध्यनुष्ठानेन या तुष्टिः सा कालाख्या तुष्टिरोध इत्य च्यते। ततश्च प्रज्ञानपरमकाष्ठारूपे धर्ममेघसमाधी सति या
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१५०
सांख्यदर्शनम्।
तुष्टिः सा भाग्याख्या हष्टिरित्युच्यत इति चतन आध्यात्मिकाः। बाह्याः पञ्च तुष्टयो बाह्यविषयेषु पञ्चसु शब्दादिवर्जनर. क्षणक्षयभोगहिंसादिदोषनिमित्तकोपरमाज्जायन्ते। ताश्चतुष्टयो यथाक्रमं पारं सुपारं पारपारमनुत्तमाम्भ उत्तमाम्भ इति परिभाषिता इति। कश्चित् विमां कारिकामन्यथा व्याख्यातवान् । तद्यथा विवेक साक्षात्कारोऽपि प्रकृतिपरिणाम एवेत्यलं ध्यानाभ्यासेनेत्य वं दृष्ट्या या ध्यानादिनिरत्ती तुष्टिः मा प्रकृत्याख्या। प्रव्रज्योपादानेनैव मोक्षो भविश्थति किं ध्यानादिनति या तुष्टिः सोपादानाख्या। सतसंन्यासस्यापि कालेनैव मोक्षो भविष्यत्यल मुह गेनेति या तुष्टिः सा कालाख्या । भाग्याटव मोक्षो भविष्यति न मोक्ष शास्त्रोक्त साधनैरेवं कुतकें या तुष्टिः सा भाग्याख्येत्यादिपर्थ इति नन्न । तयाख्याततुष्टीनामभावस्य ज्ञानाद्यनुकूलत्व नाशक्ति परिभाषानौचित्यादिति
जहादिभिः सिदिः ॥ ४४॥ जहादिभेदैः सिद्विरधा भवतीत्यर्थः । इदमपि सुत्र कारिकया व्याख्यातम्।
ऊहः शब्दोऽध्ययनं दुःखविधातास्त्रयः सुकृत्प्राप्तिः । दानं च सिद्धयोऽष्टौ सिद्धेः पूर्वी स्त्रि विधः ॥
इति। अस्थायमर्थः । अनाध्यात्मिकादिदुःखवयप्रतियोगिकत्वात् त्रयो दु.खविघाता मुख्यसिद्धयः । इतरास्तु तत्माधनवाद्गौण्यः सिद्धयः । तत्रोहो यथा । उपदेशादिकं विनैव प्राग्भवीयाभ्यासवशात् तत्वस्य खयमूहनभिति। शब्दस्तु यया। अन्यदीयपाठमाकण्य रूयं या शास्त्रमाकलय्य यज नानं जायते तदिति। अध्ययनं च यथा। शिवाचार्यभावेन
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बतीयोऽध्यायः।
शास्त्राध्ययनाचानमिति। मुहृत्प्राप्तियथा । स्वयमुपदेशार्थ एहागतात् परमकारुणिकाजज्ञानलाम इति। दानं च यथा। धनादिदानेन परितोषिताजनानलाभ इति । एषु च पूर्वस्विविध अहशब्दाध्ययनरूपा मुख्यसिद्धेरङ्कुश आकपकः। सुहृत्प्राप्तिदानयोरूहादिवयापेक्षया मन्दसाधनत्वप्रतिपादनावेदमुताम्। कश्चित् त्वेतासामष्टमिहीनामङ्गशो निवारकः पूर्वस्त्रिविधो विपर्य याशक्तितुष्टिरूपो भवति बन्धकत्वादिति व्याचष्टे तन्न। तुध्यभावस्याशक्तितया वाधिादिवत् सिद्धिविरोधितालाभेन तुध्य तुथ्योः सिद्धिविरोधित्वासम्भवात् ॥ ४४॥
ननहादिभिरेव कथं सिडिरुच्यते मन्त्रतपसमाध्यादिभिरप्यणिमाद्यष्टसिद्ध: सर्वशास्त्रसिद्धत्वादिति तबाह ।
नेतरादितरहाने विना॥ ४५ ॥
इतरादूहनादिपञ्चकभिन्नात् तपादेस्तात्त्विको न मिहिः कुत इतरहानन विना यतः सा सिद्धिरितरस्य विपर्यायस्य हानं विनैव भवत्यतः संसारापरिपन्थित्वात् सा मियाभास एक न तु तात्त्विको सिद्धिरित्यर्थः। तथा चोक्नं योगसूत्रेण । ते समाधावपसर्गा व्यु स्याने सिद्धय इति। तदेवं ज्ञाना. मणिरित्यारभ्य विस्तरतो बुद्धिमुगरूपा प्रत्ययसर्गः सकार्यबन्यो मोक्षरूपपुरुषार्थेन सहोताः । एतौ च बुद्धितदगुणरूपौ मर्गौ प्रवाहरूपेणान्योऽन्य हेतू वीजाङ्रवत्। तथा च कारिका।
न विना भावैलिङ्गं न विना लिनेन भावनित्तिः। लिङ्गाख्यो भावाख्य स्तम्मादिविधः प्रवर्तते सर्गः ॥ इति। भावो वासनारूपा बहिर्जानादिगुणा लिङ्गं मह
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सांख्यदर्शनम् ।
१५२
तत्त्व' बुद्धिरिति । समष्टिसर्गः प्रत्ययसर्गय समाप्तः ॥ ४५ ॥ साम्प्रतं व्यक्तिभेदः कर्मविशेषादिति सङ्घ पादुक्ता व्यष्टिसृष्टिर्विस्तरतः प्रतिपाद्यते ।
दैवादिप्रभेदाः ॥ ४६ ॥
देवादि: प्रभेदोऽवान्तरभेदो यस्याः सा तथा सृष्टिरिति शेषः । तदेतत् कारिकया व्याख्यातम् ।
यष्टविकल्पो दैवतैर्यग्योनच पञ्चधा भवति । मानुष्य व कविधः समासतो भौतिकः सर्गः ॥ इति । ब्राह्मप्राजापत्यं न्द्रपैव गान्धर्वयाक्षराक्षस पैशाचा इत्यष्टविधो देवः सर्गः । पशुमृगपचिसरीसृपस्थावरा इति तैर्यग्योनः पञ्चविधः । मानुष्य सर्गखेकप्रकार इति । भौतिको भूतानां व्यष्टिप्राणिनां विराजः सकाशात् सर्ग इत्यर्थः ॥ ४६ ॥ अवान्तरसृष्ट रष्युक्तायाः पुरुषार्थत्वमाह ।
ब्रह्मस्तम्भपर्य्यन्तं तत्कृते सृष्टिराविवेकात्
॥४७॥
चतुर्मुखमारभ्य स्थावरान्ता व्यष्टिसृष्टिरपि विराटसृष्टिवंदेव पुरुषार्था भवति तत्तत्पुरुषाणां विवेकख्यातिपय्यन्त मित्यर्थः ॥ ४७ ॥
व्यष्टिष्टावपि विभागमाह सूत्रत्रयेण ।
ऊर्द्ध सत्त्वविशाला ॥ ४८ ॥
ऊ भूर्लोकादुपरि सृष्टिः सत्त्वाधिका भवतीत्यर्थः ॥ ४८ ॥
तमोविशाला मूलतः ॥ ४६ ॥
मूलतो भूर्लोकादध इत्यर्थः ॥ ४८ ॥
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तीयोऽध्यायः।
१५३ मध्ये रजोविशाला ॥ ५० ॥ मध्ये भूर्लोक इत्यर्थः ॥ ५० ॥
नन् कस्या एव प्रकृतेः केन निमित्त न सत्त्वादिविशालतया विचित्राः सृष्टय इत्याकाझायामाह।। कर्मवैचिचयात् प्रधानचेष्टा गर्भदासवत् ॥५१॥
विचित्रकर्मनिमित्तादेव यथोक्ता प्रधानस्य चेष्टा कार्य वैचिवारूपा भवति। वैचित्रो दृष्टान्तो गर्भदासवदिति। यथा गर्भावस्थामारभ्य यो दासस्तस्य भृत्यवासनापाटवेन नानाप्रकारा चेष्टा परिचा खाम्यर्थे भवति तददित्यर्थः
ननु चेदूई सत्त्व विशाला सृष्टिरस्ति तहि तत एव कृतार्थत्वात पुरुषस्य किं मोक्षेणेति तनाह।
आत्तिस्तत्राप्युत्तरोत्तरयोनियोगाड्वेयः ॥५२॥ ___ तत्राप्य गतावपि सत्यामावृत्तिरस्त्यत्र उत्तरोत्तरयोनियोगादधोऽधो योनिजन्मनः सोऽपि लोको हेय इत्यर्थः ॥ ५२ ॥
किञ्च।
समानं जरामरणादिजं दुःखम् ॥ ५३॥ ऊर्ध्वाधो गतानां ब्रह्मादिस्थावरान्तानां सर्वेषामेव जरा. मरणादिजं दुःखं साधारणमतोऽपि हेय इत्यर्थः ॥ ५३ ॥ किंबहुना कारणे लयादपि न कतकत्यतेत्याह ।
न कारणलयात् कृतकृत्यता मग्नवदुत्थानात ॥५४॥
विवेकन्नानाभावे यदा महदादिषु वैराग्य प्रकल्य पास. नया भवति तदा प्रकृती लयो भवति वैराग्यात् प्रकृतिलय
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सांख्यदर्श नम्।
इति वचनात्। तस्मात् कारगलयादपि न कतकत्यतास्ति मग्नवदुस्थानात् । यथा जले मग्नः पुरुषः पुनरुत्तिष्ठति एवमेव प्रकृतिलौनाः पुरुषाः ईश्वरभावन पुनराविर्भवन्ति । संस्कारादेरक्षयेण पुनरागाभिव्यक्त विवेकख्यातिं विना दोष. दाहानुपपत्तेरित्यर्थः ॥ ५४॥ __ननु कारणं केनापि न कार्य नेऽतः स्वतन्त्रा कथं स्वोपासकस्य दु.खनिदानमुस्थानं पुन: करोति तबाह ।
अकार्यत्वेऽपि तद्योगः पारवश्यात ॥५५॥ प्रकृतेरकाय वेऽप्यप्रेयलेऽप्यन्येच्छानधौनत्वेऽपि तद्योगः पुनरुत्थानौचित्य तल्लीनस्य कुतः पारवश्यात् पुरुषार्थतन्त्रत्वात्। विवेकख्यातिरूप पुरुषार्थवशेन प्रकृत्या पुनरुत्थाप्यते स्खलीन इत्यर्थः । पुरुषार्थादयश्च प्रकृतेन प्रेरका: किन्तु प्ररत्तिस्वभावायाः प्रत्ती निमित्तानोति न स्वातन्त्राक्षतिः । तथा च योगसूत्रम्। निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकदिति । वरणभेदः प्रतिबन्धनित्तिः ॥५५॥ प्रकृतिलयात् पुरुषस्योत्थान प्रमाणामप्याह।
स हि सर्ववित् सर्वकर्ता ॥ ५६ ॥ स हि पूर्वसर्ग कारण लौनः सर्गान्तरे सर्ववित् सर्वकर्तेश्वर यादिपुरुषो भवति प्रकृतिलये तस्यैव प्रकतिपदप्राप्यौचित्यात्। तदेव सक्तःसह कर्मणेति लिङ्ग मनो यत्र निषितमस्येत्यादिश्रुतेरित्यर्थः ॥ ५६॥ नन्वेयमौतरप्रतिषेधानुपपत्तिस्तवाह।
ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा ॥ ५॥ प्रकृतिलौनस्य जन्ये खरस्य सिद्धिर्य: सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तप इत्यादिश्रुतिभ्यः सर्वसम्मतैय। नित्ये श्वरस्यैव
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हतीयोऽध्यायः।
१५५
विवादास्पदत्वादित्यर्थः। सूत्रहयमिदं व्याख्याय पारवश्यमपि प्रतिपादयति स हौति सूत्रेण । स हि परः पुरुषसामान्य मर्वज्ञानशक्तिमत् सर्वक ताशक्तिमच। अयस्कान्तवत् सन्त्रिधिमात्रेण प्रेरकत्वादित्यर्थः । तदा चासमाप्तार्थपुरुषसाबिध्यात् तदर्थमन्ने छानधोनाया अपि प्रकृतेः प्रवृत्तिरावश्य. कोति। नन्वेवमोश्वरप्रतिषेधविरोधस्तवाह। ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा। सान्निध्यमावे णेहरस्य सिद्धिस्तु श्रुतिस्मतिषु सर्वसम्मतत्यर्थः ।
अङ्गष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति। ईशाना भूतभव्यस्य न तता विभुरश्न ते ॥ सृजत च गुणान् सर्वान् क्षेत्र जस्त्वनुपश्यति । गुमान् विक्रियत सानुदासौनवदीश्वरः ॥ इत्यादिश्रुतिस्मृतमश्चैतादृशश्वर प्रमाणमिति ॥ ५७ ॥ हितीयाध्यायादारभ्य तावत्माय्यन्तं सूत्रब्ध है: प्रधानसृष्टिः समापिता। इतः परं मोक्षोपपत्त्याचं प्रधानसृष्टे निपुरुषं प्रत्यन्तनिहत्तरत्यन्त लयाख्या वक्तव्या तदुपपत्त्यर्थमादौ प्रधानसृष्टेः प्रयोजनं हितीयाध्यायस्यादिसूत्रे दिमाल णोक्त विस्तरत: प्रतिपादयति ।
प्रधानष्टिः पराथं खतोऽम्यभोक्तृत्वादुष्ट्रकुडमवहनवत् ॥ ५८॥ .
प्रधानस्य स्वत एव सृष्टियद्यपि तथापि परार्थमन्य स्य भोगापवर्गार्थम् । यथोष्ट्रस्य कुङ्गमवहनं स्वाम्यशं कुतोऽभोक्तत्वादचेतनत्व न भीगापवर्गामम्भवादित्यर्थः । ननु विमुक्तमोक्षार्थे स्वाथं वेत्यनेन स्वार्थापि सृष्टिकतो ति चेत् सत्यम् । तथापि पुरुषार्थतां बिना स्वार्थतापि न सिध्यति । खार्थो हि प्रधानस्य
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सांख्यदर्शनम् ।
कृतभोगापवर्गात पुरुषादात्मविमोक्षण मिति। ननु भृत्य तुल्या चेत् प्रकृतिस्तहि कथं स्वामिनो दुःखार्थमपि प्रवर्तत इति
चेन्न। सुखार्थप्रवृत्त्य व नान्तरीय कदुःखमम्भवाद्दष्टभृत्यतुल्यत्वाति ॥ ५८॥
ननु प्रधानस्याचेतनस्य स्वतः स्रष्टत्वमेव नोपपद्यते रथादः परप्रयत्न नैव प्रत्तिदर्शनादिति तबाह । अचेतनत्वेऽपि चौरवच्चेष्टितं प्रधानस्य ॥५॥
यथा क्षौरं पुरुषप्रयत्ननरपेक्ष्येण स्वयमेव दधिरूपेण परि. ण मते । एवमचेतनत्वेऽपि परप्रयत्न विनापि महदादिरूपपरिणामः प्रधानस्य भवतीत्यर्थः । धेनुवहत्मायेत्यनेन सूत्र णास्य न पौनरुक्त्यम् । तत्र। करणप्रवृत्तेरव विचारितत्वात्। धेननां चैतनत्वाचेति ॥ ५८ ॥ दृष्टान्तान्तरप्रदर्शनपूर्वकमुक्तार्थ हेतुमाह।
कर्मवदृष्टेवा कालादेः ॥६॥ कालादेः कमवहा स्वतः प्रधानस्य चेष्टितं सिध्यति दृष्टत्वात् । अथैको गच्छति ऋतुरितरच प्रवर्तत इत्यादिरूपं कालादिकर्म खत एव भवत्येवं प्रधानस्यापि चेष्टा स्यात् कल्पनाया दृष्टानुसारित्वादित्यर्थः ॥ ६ ॥
ननु तथापि ममदं भोगादिसाधनमिति प्रतिसन्धानाभावान्म ढ़ायाः प्रकृतः कदाचित् प्रत्तिरपि न स्यादिपरोता च प्रहत्तिः स्यात् तनाह। खभावाच्चेष्टितमनभिसन्धानाइत्यवत् ॥६॥
यथा प्रकृष्टभृत्यस्य स्वभावात् संस्कारादेव प्रतिनियतावश्यकी च स्वामिसेवा प्रवर्तते न तु स्वभोगाभिप्रायेण तथैव प्रकृतेश्च ष्टितं संस्कारादेवेत्यर्थः । ६१ ॥
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वतीयोऽध्यायः ।
कर्माकृष्टेर्वानादितः ॥१२॥ वाशब्दोऽत्र समुच्चये। यत: कर्मानाद्यत: कर्मभिराकर्षणादपि प्रधानस्यावश्यको व्यवस्थिता च प्रवृत्तिरित्यर्थः ॥६२॥
तदेवं प्रधानस्य परार्थतः स्रष्टत्वे सिद्धे परप्रयोजनममाप्ती स्वत एव प्रधाननिवृत्त्या मोक्षः सिध्यतीत्याह प्रवट्टकेन ।
विविक्तबोधात् सृष्टिनिवृत्तिः प्रधानस्य सूदवत् पाके ॥ ६३॥
विविक्त पुरुषज्ञानात् परवैराग्येगा पुरुषार्थसमाप्ती प्रधानस्य सृष्टिनिवर्तते। यथा पाके निष्पन्न पाचकस्य व्यापारी निवर्तत इत्यर्थः। इयमेवात्यन्तिकप्रलय इत्य च्यते ! तथा च श्रुतिः। तस्याभिध्यानाद्योजनात् तत्त्वभावाद्भूयश्चान्त विश्वमायानिवृत्तिरिति ॥ ६३ ॥
नन्वे वमेक पुरुषस्योपाधौ विवेकज्ञानोत्पत्त्या प्रकृतेः सृष्टिनिवृत्ती सर्वमुक्तिप्रसङ्ग इति तनाह ।
इतर इतरवत् तदोषात् ॥ ६४ ॥ इतरस्तु विविक्तबोधरहित इतरवहदवदेव प्रकृत्या तिष्ठति । कुतस्तद्दोषात्। तस्य प्रधानस्यैव तत्पुरुषार्थासमापनाख्यदोषादित्यर्थः । तदुक्त योगसूत्रे । कतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वादिति। तथा च पूर्वसूत्र या प्रधाननिवत्तिरुता सा विविक्तबोद्धपुरुष प्रत्वं वेति भावः । विश्वमायाश्रुतिरपि जानिनं प्रत्येव मन्तव्या। अजामिति श्रुत्वं कत्राक्यत्वादिति ॥ ६४ ॥
सृष्टिनिवृत्त : फलमाह। इयोरेकतरस्य वौदासीन्यमपवर्गः ॥६॥
१४
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सांख्यदर्शनम् ।
इयोः प्रधानपुरुषयोरेवोदासीन्यमेकाकिता । परस्परवियोग इति यावत् । सोऽपवर्गः । व्यथवा पुरुषस्यैव कैवव्यमहं मुक्तः स्यामित्य ेव पुरुषार्थतादर्शनादित्यर्थः ॥ ६५ ॥
नन्वेकपुरुषसुक्तावेव विवेकाकारवृत्त्या विरक्ता प्रकृतिः कथमन्य पुरुषार्थं पुनः सृष्टौ प्रवर्त्तताम् । न च प्रकृतेरंगभेदानैष दोष इति वाच्यम् । मुक्तपुरुषोपकरणैरपि पृथिव्यादिभिरन्यस्य भोग्यसृष्टिदर्शनादिति तत्राह । अन्यसृष्ट्युपरागेऽपि न विरज्यते प्रबुद्धरज्जु
तत्त्वस्यैवोरगः ॥ ६६ ॥
एकस्मिन् पुरुषे विविक्तबोधादिरक्तमपि प्रधानं नान्यस्मिन् पुरुषे सृट्युपरागाय विरक्तं भवति किन्तु तं प्रति सृज त्येव । यथा प्रबुद्दरज्जुतत्त्वस्यैवोरगो भयादिकं न जनयति मूढ़ प्रति तु जनयत्य वेत्यर्थः । उरगतुल्यत्वं च प्रधानस्य रज्जुतुल्ये पुरुषे समारोपणादिति । एवंविधं रज्जुसर्पादिदृष्टान्तानामाशयभबुडेवाबुधाः केचिद्वेदान्तिब्रुवाः प्रकृतेरत्यन्ततुच्छत्वं मनोमात्रत्वं वा तुलयन्ति । एतेन प्रकृतिसत्यतावादिनांख्योक्तदृष्टान्तेन श्रुतिस्मृत्यर्था बोधनीया न केवलं दृष्टान्तवत्त्वनायमर्थः सिध्यति ॥ ६६ ॥
कर्मनिमित्तयोगाच्च ॥ ६७ ॥
सृष्टौ निमित्त ं यत् कर्म तस्य सम्बन्धादप्यन्य पुरुषार्थं सृजतौत्यर्थः ॥ ६७ ॥
ननु सर्वेषां पुरुषाणामप्रार्थकतया नैरपेक्ष्याविशेषेऽपि कञ्चित् प्रत्येव प्रधानं प्रवर्त्तते कञ्चित् प्रति निवर्त्तत इत्यत्र किं नियामकम् । न च कर्म नियामकं कस्य पुरुषस्य किं कर्मेत्यत्र नियामकाभावादिति तत्राह ।
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हतीयोऽध्यायः । नरपेक्ष्येऽपि प्रकृत्युपकारोऽविवेको निमित्तम् ॥ ८॥
पुरुषाणां नैरपेक्ष्येऽप्ययं मे स्वाम्ययमेवाहमित्यविवेकादेव प्रकृतिः मृष्ट्यादिभिः पुरुषानुपकरोतीत्यर्थः। तथा च अस्सी पुरुषायात्मानमविविय दर्शयितु वासना वर्त्तते तं प्रत्ये व प्रधानं प्रवर्तत इत्येव नियामकमिति भावः ॥ ६८ ॥
प्रवृत्तिखभावत्वात् कथं विवेकेऽपि नित्तिरुपपद्यतां तनाह।
नर्तकौवत् प्रवृत्तस्यापि निवृत्तिश्चारिता. र्यात् ॥ ६६ ॥
पुरुषार्थमेव प्रधानस्य प्रवृत्तिस्वभावो न तु सामान्येन । अत: प्रत्तस्यापि प्रधानस्य पुरुषार्थसमाप्तिरूपचरितार्थत्वे मति निवृत्तियुक्ता। यथा परिषद्भ्यो नृत्यदर्शनार्थं प्रवृत्ताया नर्तक्यास्तत्सिद्धौ निरत्तिरित्यर्थः ॥ ६८ ॥ निवृत्ती हेत्वन्तरमाह।
दोषबोधेऽपि नोपसर्पणं प्रधानस्य कुलबधूवत् ॥ ७० ॥
पुरुषेण परिणामित्वदुःखात्मकत्वादिदोषदर्शनादपि लज्जितायाः प्रकृतः पुनर्न पुरुषं प्रत्य पसर्पणं कुलबधवत्। यथा स्वामिना मे दोषो दृष्ट इत्यवधारणेन लज्जिता कुलबधून स्वामिनमुपसर्पति तहदित्यर्थः । तदुक्तं नारदीये।
सविकारापि मौव्य न चिरं मुक्त्वा गुणात्मना । प्रकृति तदोषेयं लज्जयेव निवर्त्तते ॥ इति । एतदेवोक्त कारिकयापि।
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१६
सांख्यदर्शनम् ।
प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चिदस्तीति मे मतिर्भवति । या दृष्टास्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य |
इति ॥ ७० ॥
ननु पुरुषार्थं चेत प्रधानप्रवृत्तिस्तर्हि बन्धमोक्षाभ्यां पुरुषस्य परिणामापत्तिरिति तत्राह ।
नैकान्ततो बन्धमोक्षौ पुरुषस्याविवेकादृते
॥ ७१ ॥
दुःखयोगवियोगरूपों बन्धमोक्षौ पुरुषस्य नैकान्ततस्तस्वतः किन्तु चतुर्थ सूत्रवक्ष्यमाणप्रकारेणाविवेकादेवेत्यर्थः ॥७१॥ परमार्थतस्तु यथोक्तो बन्धमोक्षो प्रकृतेरेवेत्याह ।
प्रकृतेराञ्जस्यात् ससङ्गत्वात् पशुवत् ॥७२॥ प्रकृतेरेव ततो दुःखेन बन्धमोचौ मसङ्गत्वाददुःखमाधधर्मादिभिर्लिप्तत्वात् । यथा पशुरज्ज्वा लिप्ततया बन्धमोचभागौ तदित्यर्थः । एतदुक्तं कारिकया ।
तस्मात्र बध्यतेऽध्वा न मुच्यते नापि संसरति पुरुषः । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ इति । द्वयोरेकतरस्य वौदासीन्यमपवर्ग इति सूत्र े च पुरुषस्यापवर्ग उक्तः स प्रतिविम्ब रूपस्य मिथ्यादुःखस्य वियोग पवेति ॥ ७२ ॥
तत्र : साधनैर्बन्ध : कैर्वा मोक्ष इत्याकाङ्गायामाह । रूपैः सप्तभिरात्मानं बन्धाति प्रधानं कोशकारवहिमोचयत्ये करूपेण ॥ ७३ ॥
धर्मवैराग्यख धर्माज्ञानावैराग्यानेश्वर्यैः सप्तमौरूपधमैं दु:खहेतुभिः प्रकृतिरात्मानं दुःखेन बघ्नाति कोशकारवत् ।
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तृतीयोऽध्यायः ।
कोशकारकृतिर्यथा स्वनिर्मितेनावासेनात्मानं बध्नाति तद्दत् । सैव च प्रकृतिरेकरूपेण ज्ञानेनैवात्मानं दुःखान्मोचयतीत्यर्थः
॥ ७३ ॥
ननु बन्धमुक्ती व्यविवेकादिति यदुक्त तदयुक्तम् । अविवे कस्याहेयानुपादेयत्वात् । लोके दुःखस्य तदभावसुखादेरेव च खती हेयोपादेयत्वात् । श्रन्यथा दृष्टहानिरित्याशङ्क्य चतुर्थसूत्रोक्त स्वयं विवृणोति ।
निमित्तत्वमविवेकस्य न दृष्टहानिः ॥७४॥
अविवेकस्य पुरुषेषु बन्धमोक्षनिमित्तत्वमेव पुरोक्त न त्वविवेक एव ताविति नातो दृष्टहानिरित्यर्थः । एतच्च प्रथमाध्यायसूत्रेषु स्पष्टम् । अविवेकनिमित्तात् प्रकृतिपुरुषयोः संयोगस्तस्माच्च संयोगादुत्पद्यमानस्य प्राकृतदुःखस्य पुरुषे यः प्रतिविम्बः स एव दुःखभोगो दुःखसम्बन्धस्तनिवृत्तिरेव च मोक्षाख्यः पुरुषार्थ इति ॥ ७४ ॥
तदेवमादिसर्गमारभ्यात्यन्तिकलय पय्यैन्तोऽखिल परिणामः प्रधानतद्विकाराणामेव पुरुषस्तु कूटस्थपूर्ण चिन्मात्र एवेत्यध्यायद्वयेन विस्तरतो विवेचितं तस्य विवेकस्य निष्पत्य पायेषु सारभूतमभ्यासमाह ।
तत्त्वाभ्यासान्नेति नेतीति त्यागाद्दिवेक सिङ्घिः
J
॥ ७५ ॥
प्रकृतिपर्य्यन्तेषु जडेषु नेति नेतीत्यभिमानत्यागरूपात् तत्त्वाभ्यासाद्दिवे कनिप्पत्तिर्भवति । इतरत् सर्वमभ्यासस्याङ्गमात्रमित्यर्थः । तथा च श्रुतिः । अथात आदेशो नेति नेति न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत् परमस्ति स एष आत्मा नेति नेतीव्यादिरिति ।
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सांख्यदर्शनम्। अव्यक्ताद्यविशेषान्त विकारेऽस्मिंश्च वर्णिते । चेतनाचेतनान्यत्वज्ञानेन ज्ञानमुच्यते । इति । यथा।
अस्थिस्थ णं सायुयुतं मांसशोणितलेपनम् । चर्मावनई दुर्गन्धिपूर्ण मूत्रपुरोषयोः । जराशोकसमाविष्टं रोगायतनमातुरम् । रजस्खलमसन्निष्ठं भूतावासमिमं त्यजेत् ॥ नदीकूलं यथा वृक्षो वृक्ष वा शकुनियथा । तथा त्यजत्रिमं देहं कच्छ्राद्ग्राहादिमुच्यते । इति। एतदेव कारिकयाप्युक्तम् । एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मिन् मे नाहमित्यपरिशेषम् । अविपर्य याविशुद्ध केवलमुत्पद्यत ज्ञानम् ॥
इति। नामोत्यात्मनः कर्तत्वनिषेधः । न मे इति सङ्गनिषेधः। नाहमिति तादात्मनिषेधः। केवलमित्यस्य विवरणमविपर्यायाहि शुद्धमिति। अतोऽन्तरा विपर्याण विप्ल तमित्यर्थः । इदमेव केवलव सिदिशब्द न सूत्र प्रोक्तम् । विव
ख्यातिरविप्ल वा हानोपाय इति योगसूत्रणेतादृशज्ञानस्यैव मोक्षहेतुत्वसिद्धिरिति ॥ ७५ ॥
विवेकसिद्धौ विशेषमाह।
अधिकारिप्रभेदान्न नियमः ॥ ७६ ॥
मन्दाधिकारिभेदसत्त्वादभ्यासे क्रियमाणेऽप्यस्मिन्न व जन्मनि विवेकनिष्पत्तिर्भवतीति नियमो नास्तीत्यर्थः। अत उतमाधिकारमभ्यासपाटवेनात्मनः सम्पादयेदिति भावः ७६॥
विवेक निष्पत्त्य व निस्तारो नान्यथेत्याह।
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aaौयोऽध्यायः ।
बाधितानुवृत्त्या मध्यविवेकतोऽप्यपभोगः
॥७७॥
सकृत् सम्प्रज्ञातयोगेनात्मसाक्षात्कारोत्तरं मध्यविवेकावस्थो मध्यमविवेकेऽपि सति पुरुषे बाधितानामपि दुःखादीनां प्रारब्धवशात् प्रतिविम्ब रूपेण पुरुषेऽनुवृत्त्या भोगो भवतीत्यर्थः । विवेकनिष्पत्तिश्चापुनरुत्थानादसम्प्रज्ञातादेव भवतीत्यतस्तस्यां सत्यां न भोगोऽस्तीति प्रतिपादयितु मध्यविवेकत इत्युक्तम् । मन्दविवेकस्तु साक्षात्कारात् पूर्वं श्रवणमननध्यानयावरूप इति विभागः ॥ ७७ ॥
जीवन्मुक्तश्च ॥ ७८ ॥
जौवन्म क्तोऽपि मध्यविवेकावस्थ एव भवतीत्यर्थः ॥ ७८ ॥ जीवन्म के प्रमाणमाह ।
१६५
उपदेश्योपदेष्टृत्वात् तत्सिङ्घिः ॥ ७९ ॥
शास्त्रेष विवेकविषये गुरुशिष्य भावश्रवणाज्जीवन्मुक्तसिद्धिरित्यर्थः । जीवन्मुक्तस्यैवोपदेष्टृ त्वसम्भवादिति ॥ ७८ ॥
श्रुतिश्च ॥ ८० ॥
श्रुतिश्च जीवन्मतोऽस्ति ।
७
दोचयैव नरो मुच्येत् तिष्ठन्म कोऽपि विग्रहे । कुलालचक्रमध्यस्थो विच्छिन्नोऽपि भ्रमेटः ॥
ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येतीत्यादिरिति । नारदौयस्मृतिरपि । पूर्वाभ्यासबलात् कार्य्यं न लोको न च वैदिकः । पुण्यपापः सर्वात्मा जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ इति ॥ ८० ॥
ननु श्रवणमात्रेणाप्युपदेष्टृत्वं स्यात् तत्राह ।
ू
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सांख्यदर्शनम्।
इतरथान्धपरम्परा ॥८१॥ इतरथा मन्दविवेकस्याप्युपदेष्टुत्वेऽन्धपरम्परापत्तिरि. त्यर्थः । सामग्रेषणात्मतत्त्वमज्ञात्वा चेदुपदिशेत् कस्मिंश्चिदंश स्वभ्रमेण शिष्यमपि भ्रान्तीकुर्यात् सोऽप्यन्य सोऽप्य न्यमित्येवमन्धपरम्परेति ॥ ८१ ॥ ननु ज्ञानेन कर्मक्षये सति कथं जीवनं स्यात् तत्राह।
चक्रधमणवद्धृतशरीरः ॥८२ ॥ कुलालकर्मनिहत्तावपि पूर्वकर्मवेगात् स्वयमेव कियत्कालं चक्रं भ्रभति। एवं ज्ञानोत्तरं कर्मानुत्पत्तावपि प्रारब्धकर्म वेगेन चेष्टमानं शरीरं धृत्वा जीवन्मुक्तस्तिष्ठतीत्यर्थः ॥ ८२ ॥ ___ ननु ज्ञानहेतुसम्प्रज्ञातयोगेन भोगादिवासनाक्षये कथं शरीरधारणम्। न च योगस्य संस्काराभिभावकले किं मानमिति वाच्यम्। व्य स्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुभर्भावी निरोधपरिणाम इति योगसूत्रतस्तत्सिद्धेः। चिरकालौनस्य विषयान्तरावेशस्य विषयान्तरसंस्काराभिभावकतया लोकेऽप्यनुभवाञ्चति तबाह ।
संस्कारलेशतस्तत्सिड्दिः ॥८३॥ शरीरधारणहेतवो ये विषयसंस्कारास्तेषामल्यावशेषात् तस्य शरीरधारणस्य सिद्धिरित्यर्थः। अत्र चाविद्यासंस्कारलेशस्य सत्ता नापेक्ष्यते । अविद्याया जन्मादिरूपकर्मविपाकारम्भमात्र हेतुत्वात्। योगभाष्ये व्यासैस्तथा व्याख्यातत्वात्। वीतरागजन्मादर्शनादिति न्यायाच्च। न तु प्रारच. फलककर्मभोगेऽपोति । यत्र च नियमेनाविद्यापेक्ष्यते स प्रयासविशेषरूपो भोगो मूढ़े व वास्ति जीवन्मुक्तानां तु भोगाभास एवेति मागुतम्। यत् तु कश्चिदविद्यासंस्कारले शोऽपि
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चतुर्थोऽध्यायः।
१६५
जीवन्म तस्य तिष्ठतोत्याह तन्न। धर्माधर्मोत्पत्तिप्रसङ्गात् । अन्धपरम्पराप्रमझात्। अविद्यासंस्कारलेशसत्ताकल्पने प्रयोजनाभावाच। एतच्च ब्रह्ममीमांसाभाथे प्रपञ्चितमिति ॥८३॥ शास्त्रवाक्यार्थमुपसंहरति ।
विवेकान्निःशेषदुःख निवृत्तौ कृतकृत्यता नेतरान्नेतरात् ॥८४॥
उक्ताया विवेकसिद्धितः परवैराग्यहारा सर्ववृत्तिनिरोधेन यदा निशेषतो बाधिताबाधितमाधारण्येनाखिलदुःखं निवतते तदैव पुरुषः क्तवत्यो भवति। नेतराज्जीवन्म त्यादेरपौत्यर्थः। नेतरादिति वौसाध्यायसमाप्तौ ॥८४ ॥
अत्यन्तलयपर्यन्तः कार्योऽयक्तस्य नात्मनः । प्रोक्त एवं विवेकोऽव परवैराग्यसाधनम् ॥ इति विज्ञानभितुनिर्मिते कापिलमाङ्क्षयप्रवचनस्य
भाष्ये वैराग्याध्यायस्तृतीयः ।
चतुर्थोऽध्यायः । शास्त्र सिद्धाख्यायिकाजातमुखेनेदानी विवेकज्ञानसाध. नानि प्रदर्शनीयानोत्येतदर्थ चतुर्थाध्याय प्रारभ्यते ।
राजपुत्रवन् तत्त्वोपदेशात् ॥१॥ पूर्वपादशेषसूत्रस्थविवेकोऽनुवर्तते । राजपुत्रस्य व तत्त्वो. पदेशादिवेको जायत इत्यर्थः । अत्रे यमाख्यायिका कश्चिद्राजपुत्रो गण्डनजन्मना पुरात्रिःसारित: शवरण केनचित् पोषितोऽहं शवर इत्यभिमन्यमान आस्त तं जीवन्त ज्ञात्वा कश्चिदमात्यः प्रबोधयति न त्वं शबरो राजपुत्रोऽसौति। स
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सांख्यदर्शनम।
यथा झटित्य व चाण्डालाभिमानं त्यक्त्वा तात्त्विकं राजभावमेवालम्बते राजाहमस्मोति। एवमेवादिपुरुषात् परिपूर्णचिन्मावेगाभिव्यक्तादुत्पन्नस्त्व तस्यांश इति कारुणिकोपदेशात् प्रकत्यभिमानं त्यत्वा ब्रह्मपुत्रत्वादहमपि ब्रह्मैव न तु तहिलक्षण: संसारीत्य वं स्वस्वरूपमेवालम्बत इत्यर्थः । तथा गारुड़े ।
यथैकहेममणिना सर्व हेममयं जगत् । तथैव जातमोशेन जातेनाप्यखिलं भवेत् ॥ ग्रहाविष्टो हिजः कश्चिच्छद्रोऽहमिति मन्यते । ग्रहनाशात् पुनः खोयं ब्राह्मण्यं मन्यते यथा ॥ मायाविष्टस्तथा जीवो देहोऽहमिति मन्यते । मायानाशात् पुनः खौयं रूपं ब्रह्मास्मि मन्यते ॥ इति ॥१॥
स्त्रोशूद्रादयोऽपि ब्राह्मणेन ब्राह्मणस्योपदेशं श्रुत्वा कतार्थाः स्यरित्य तदर्थमाख्यायिकान्तरं दर्शयति ।
पिशाचवदन्यार्थोपदेशेऽपि ॥ २ ॥ अर्जुनार्थं श्रीकृष्णन तत्त्वोपदेशे क्रियमाणेऽपि समीपस्थ स्थ पिशाचस्य विवेकज्ञानं जातमेवमन्येषामपि भवेदित्यर्थः ॥२॥
यदि च सकदुपदेशाजनानं न जायते तदोपदेशात्तिरपि कर्तव्येतीतिहासान्तरणाह । ___ आत्तिरसकटुपदेशात् ॥ ३ ॥
उपदेशावृत्तिरपि कर्त्तव्या छान्दोग्यादी खेत केवादिक प्रत्यारुणिप्रभृतीनामसकदुपदेशेतिहासादित्यर्थः ॥ ३॥
वैराग्याथें निदर्शनपूर्वकमात्मसङ्घातस्य भङ्गरत्वादिकं प्रतिपादयति।
पितापुत्रवदुभयोदृष्टत्वात् ॥ ४ ॥
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चतुर्थोऽध्यायः । स्वस्थ पितापुत्रयोरिवात्मनोऽपि मरणोत्यत्त्योदृ त्वादनुमितत्वावैराग्य ग विवेको भवतीत्यर्थः । तदुक्तम् ।
आत्मनः पिटपुत्राभ्यामनुमेयौ भवाप्ययो । इति ॥ ४ ॥ इतः परमुत्पन्नज्ञानस्य विरक्तस्य च जाननिष्पत्त्यङ्गान्याख्यायिकोक्तदृष्टान्तैर्दर्शयति ।
श्येनवत् सुखदुःखौ ल्यागवियोगाम्याम् ॥५॥
परिग्रहो न कर्तव्यो यतो द्रव्याणां त्यागेन लोकः सुखी वियोगेन च दुःखी भवति श्ये नवदित्यर्थः । श्ये नो हि सामिषः केनाप्यपहत्यामिषाद्वियोज्य दुःखी क्रियते स्वयं चेत् जति तदा दुःखादिमुच्यते । तदुक्तम् ।
सामिषं कुररं जन बलिनोऽन्ये निरामिषाः । तदामिषं परित्यज्य स सुख समविन्दत ॥ इति। तथा मनुनाप्य तम् । नदीकूलं यथा वृक्षो वृक्षं वा शकुनियथा । तथा त्यजत्रिमं देह कच्छ्राद्ग्राहादिमुच्यते । इति ॥ ५ ॥
अहिनिव यिनीवत् ॥ ६॥ . यथाहिजोणा त्वचं परित्यजत्यनायासेन हेयबुद्या तथैव मुमुक्षुः प्रकृति बहुकालोपभुक्तां जीणी हेयबुद्धा त्यजेदित्यर्थः। तदुक्तम् । जीणां त्वचमिवोरग इति ॥ ६ ॥ त्यक्तं च प्रकत्वादिकं पुनर्न स्वीकुर्यादित्यत्राह ।
छिन्नहस्तवहा ॥७॥ यथा छिन्नं हस्तं पुनः कोऽपि नादत्त तथैवैतत् त्यह मुन भिमन्य तेत्यर्थः । वाशब्दोऽप्यर्थे ॥ ७ ॥
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१६८
सांख्यदर्शनम्।
असाधनानुचिन्तनं बन्धाय भरतवत् ॥८॥ विवेकस्य यदन्तरङ्गसाधनं न भवति स चेद्धोऽपि स्यात् तथापि तदनुचिन्तनं तदनुष्ठाने चित्तस्य तात्पर्य न कर्त्तव्यं यतस्तबन्धाय भवति विवेकविस्मारकतया भरतवत् । यथा भरतस्य राजर्षेर्धर्म्यमपि दीनानाथहरिण शावकस्य पोषणमित्यर्थः । तथा च जडभरतं प्रकृत्य विष्णुपुराणे ।
चपलं चपले तस्मिन् दूरगं दूरगामिनि । आसौचेतः समासतं तस्मिन् हरिणपोतके ॥ ८॥ बहुभिर्योंगे विरोधो रागादिभिः कुमारौशङ्खवत् ॥१॥
बहुभिः सङ्गो न कार्यः। बहुभिः सङ्गे हि रागाद्यभिव्यत्या कलही भवति योग शकः । यथा कुमारोहस्तशङ्खानामन्योऽन्य सङ्गेन झणकारो भवतीत्यर्थ: ॥ ८ ॥
दाग्यामपि तथैव ॥१०॥ हाभ्यां योगेऽपि तथैव विरोधी भवत्यत एकाकिनैव स्थातव्यमित्यर्थः । तदुक्तम् ।
वासे बहूनां कलहो भवेद्वार्ता इयोरपि । एक एव चरेत् तस्मात् कुमाा इव कङ्गणम् ॥ इति ॥ १०॥
पाशा वै वश्यविरसे चित्ते सन्तोषवर्जिते । म्नाने वक्त्रमिवादर्श न ज्ञानं प्रतिविम्बति ॥ इति वचनानिराशता योगिनानुष्ठेयेत्याह।
निराशः मुखौ पिङ्गलावत् ॥ ११ ॥ व्याशा त्यत्वा पुरुषः सन्तोषाख्यसुखवान् भूयात् पिङ्गला
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चतुर्थोऽध्यायः । बत्। यथा पिङ्गलानाम वेश्या कान्तार्थिनी कालमलब्धा निर्विमा सती विहायाशां मुखिनो बभूव तहदित्यर्थः । तदु. तम ।
आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् । यथा सञ्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिङ्गला॥
इति। नन्वाशामिवृत्त्या दुःखनिवृत्ति: स्यात् सुखं तु कुतः साधनाभावादिति । उच्यते। चित्तस्य सत्त्वप्राधान्य न खाभाविकं यत् सुखमाशया पिहितं तिष्ठति तदेवाशाविगमे लब्धवृत्तिकं भवति तेजः प्रतिबद्धजलशैत्यवदिति न तत्र साधनापेक्षा। एतदेव चार्थे सुखमित्यु च्यत इति ॥ ११ ॥
योगप्रतिबन्धकत्वादारम्भोऽपि भोगार्थ न कर्तव्योऽत्यथैव तदुपपत्ते रित्याह।
अनारम्भऽपि परगृहे सुखो सर्पवत् ॥१२॥ सुखो भवेदिति शेषः। शेषं सुगमम् । तदुक्तम् । रहारम्भो हि दुःखाय न सुखाय कथञ्चन । सर्पः परकतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥ १२ ॥
शास्त्र भ्यो गुरुभ्यश्च मार एव ग्राह्योऽन्यथाभ्यु पगमवादादिभिरंशतोऽसारभागेऽन्योऽन्यविरोधेनार्थबाहुल्यन चैकाप्रताया असम्भवादित्याह। .
बहुशास्त्रगुरूपासनेऽपि सारादानं षट्पदवत् ॥१३॥ कर्तव्यमिति शेषः । अन्यत् सुगमम् । तदुताम् । अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्यः कुशलो नरः । सर्वतः सारमादद्यात् पुष्य भ्य इव षट्पदः । इति। मार्कण्डेय पुराणे च।
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१७०
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सांख्यदर्शनम् ।
सारभूतमुपासीत ज्ञानं यत् स्वार्थसाधकम् ।
ज्ञानानां बहुता यैषा योगविघ्नकरी हि सा ॥ इदं प्रयमिदं ज्ञेयमिति यस्तृषितश्चरेत् । असौ कल्पसहस्रेषु नैव ज्ञानमवाप्न ुयात् ॥ इति ॥ १३ ॥
"
साधनान्तरं यथा तथा भवत्वं काग्रतयैव समाधिपालनद्वारा विवेकसाक्षात्कारो निष्पादनीय इत्याह ।
इषुकारवन्नैकचित्तस्य समाधिहानिः ॥ १४॥
यथा शरनिर्माणायैकचित्तस्येषुकारस्य पार्श्वे रातो गमनेनापि न वृत्त्यन्तरनिरोधो हीयत एवमेकाग्रचित्तस्य सर्वथापि न समाधिहानिर्वृत्त्यन्तरनिरोधक्षतिर्भवति । ततञ्च विषयान्तरसञ्चाराभावे ध्येयसाक्षात्कारोऽप्यवश्यं भवतीत्य काग्रतां कुय्यादित्यर्थः । तदुक्तम् ।
तदेवमात्मन्यवरुद्धचित्तो न वेद किञ्चिद्दहिरन्तरं वा । यथैषुकारो नृपतिं व्रजन्तमिषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे ॥ इति ॥ १४ ॥
सत्यां शक्तौ ज्ञानबलाच्छा स्वक्क्त नियमो वृथा लङ्घयते तदा ज्ञानानिष्पत्त्यानर्थक्यं योगिनो भवतीत्याह ।
कृतनियमलङ्घनादानर्थक्य लोकवत् ॥१५॥
यः शास्त्रेषु कृतो योगिनां नियमस्तस्योल्लङ्घने ज्ञाननिष्यत्त्यायोऽर्थो न भवति लोकवत् । यथा लोके भैषज्यादौ विहितपध्यादीनां लङ्घने तत्तत्सिडिर्न भवति तद्ददित्यर्थः । ज्ञानरक्षार्थं वा लङने तु न ज्ञानप्रतिबन्धः ।
अशक्तया
श्रपेतव्रतकर्मा तु केवलं ब्रह्मणि स्थितः । ब्रह्मभूतश्चरन् लोके ब्रह्मचारीति कथ्यते ।
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चतुर्थोऽध्यायः। इति मोक्षधर्मादिभ्यः । इति वसिष्ठादिस्मृतिभ्यश्च । चत एव विष्णु पुराणादौ वृथा कर्मत्यागिन एव पाषण्डतया निन्दिताः पुंसां जटाधारणमौण्डावतां तथैवेत्यादिनेति ॥१५॥ नियमविस्मरणेऽप्यामर्थक्यमाह ।
तविस्मरणेऽपि भेकौवत् ॥ १६ ॥ सुगमम्। भेक्याथेयमाख्यायिका। कश्चिदाजा रणयां गतो विपिने सुन्दरों कन्यां ददर्श। सा च राज्ञा भार्याभावाय प्रार्थिता नियमं चक्र यदा मह्यं त्वया जल प्रदर्यते तदा मया गन्तव्यमिति । एकदा तु क्रोडया परिवान्ता राजानं पप्रच्छ कुत्र जलमिति। राजापि समयं विस्मृत्य जलमदर्शयत् । तत: सा भेकराजदुहिता कामरूपिणी भेको भूत्वा जलं विवेश ततश्व राजा जालादिभिरविष्थापि न तामविन्ददिति ॥ १६॥
श्रवणवद्गुरुवाक्यमीमांसाया अप्यावश्यकले इतिहास
माह।
नोपदेशश्रवणेऽपि कृतकृत्यता परामर्शादृते विरोचनवत् ॥ १७॥
परामर्शो गुरुवाक्य तात्ययं निर्णायको विचारस्तं विनोपदेशवाक्य श्रवोऽपि तत्त्वज्ञाननियमो नास्ति प्रजापतेरुपदेशवणेऽपौन्द्रविरोचनयोर्मध्ये विरोचनस्य परामर्शाभावेन भ्रान्तत्वश्रुतरित्यर्थः । अतो गुरूपदिष्टस्य मननमपि कार्यमिति। दृश्यते चेदानीमप्ये कस्यैव तत्त्वमस्युपदेशस्य मानारूपैरथैः सम्भावना। अखण्डत्वमवैधर्म्यलक्षणाभदो विभागश्वेति ॥ १७॥
प्रतएव च परामर्थो दृश्यत इत्याह।
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१७२
सांख्यदर्शनम् । दृष्टस्तयोरिन्द्रस्य ॥ १८ ॥
तच्छब्देनोक्तोच्यमानयोः परामर्थः । तयोरिन्द्रविरोचनयो
मध्ये परामर्श इन्द्रस्य दृष्टश्चेत्यर्थः ॥ १८ ॥
सम्यग्ज्ञानार्थिना च गुरुसेवा बहुकालं कर्त्तव्येत्याह । प्रणतिब्रह्मचर्य्योपसर्पणानि कृत्वा सिद्धि
र्बहुकालात् तद्दत् ॥ १८ ॥
तदिन्द्रस्य वान्यस्यापि गुरौ प्रणति वेदाध्ययनसेवादीन् क्त्वैव सिद्धिस्तत्त्वार्थस्फूर्त्तिर्भवति नान्यथेत्यर्थः । तथा च श्रुतिः ।
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ । 'तस्यैते कथितार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः
इति ॥ १८ ॥
न कालनियमो वामदेववत् ॥ २० ॥ ऐहिकसाधनादेव भवतौत्यादिर्ज्ञानोदये कालनियमो नास्ति वामदेववत् । वामदेवस्य जन्मान्तरीयसाधनेभ्यो गर्भेsपि यथा ज्ञानोदय स्तथान्यस्यापीत्यर्थः । तथा च श्रुतिः । तद्वैतत् पश्यन्नृषिर्वामदेवः प्रतिपेदेऽहं मनुरभवं सूर्य्यश्चेति तदिदमप्येत य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवतीत्यादिरिति । श्रहं मनुरभवमित्यादिकमवैधर्म्यलचणाभेदपरं सर्वव्यापकताख्यब्रह्मतापरं वा । सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व इत्यादिस्मरणात् । स इदं सर्वं भवतीति त्वौपाधिक परिच्छेदस्यात्यन्तोच्छेदपरमिति ॥ २० ॥
ननु सगुणोपासनाया अपि ज्ञानहेतुत्वश्रवणात् तत एव ज्ञानं भविष्यति किमर्थं दुष्करस्सूक्ष्मयोगचर्येति तत्राह ।
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चतुर्थोऽध्यायः ।
१७३
अध्यस्तरूपोपासनात् पारम्पर्येण यज्ञोपा
सकानामिव ॥ २१ ॥
सिद्धिरित्यनुषज्यते । श्रध्यस्तरूपैः पुरुषाणां ब्रह्मविष्णुहरादीनामुपासनात् पारम्पर्येण ब्रह्मादिलोकप्रातिक्रमेण मत्त्वशुद्धिद्वारा वा ज्ञाननिष्पत्तिर्न साक्षात् । यथा याचिकानामित्यर्थः ॥ २१ ॥
ब्रह्मादिलोकपरम्परयापि ज्ञाननिष्पत्तौ नास्ति नियम
इत्याह ।
इतरलाभेऽप्यावृत्तिः पञ्चाग्नियोगतो जन्म
श्रुतेः ॥ २२ ॥
निर्गुणात्मन इतरस्याध्यस्तरूपस्य ब्रह्मलोकपय्र्यन्तस्य लाभऽप्यवृत्तिरस्ति कुतो देवयानपथेन ब्रह्मलोकं गतस्यापि धूपजन्यधरामरयोषिद्रूपाग्निपञ्चके पञ्चाहुतितो जन्मश्रवणात् । छान्दोग्य पञ्चमप्रपाठके । असौ वावलोको गौतमाग्निरित्यादिनेत्यर्थः । यच्च ब्रह्मलोकादनावृत्तिवाक्यं तत् तत्रैव प्रायेणोत्पन्नज्ञानपुरुषविषयकमिति ॥ २२ ॥
ज्ञाननिष्पत्ति विरक्तस्यैवेत्यत्र निदर्शनमाह 1 विरक्तस्य हेयहानमुपादेयोपादनं हंसतीरवत् ॥ २३ ॥
विरक्तस्यैव देयानां प्रकृत्यादीनां हानसुपादेयस्य चात्मन उपादानं भवति । यथा दुग्धजलयोरेकीभावापत्रयोर्मध्येऽसारजलत्यागेन सारभूतचौरोपादानं हंसस्यैव न तु काकादेरित्यर्थः ॥ २३ ॥ सिद्धपुरुषसङ्गादप्येतदुभयं भवतीत्याह ।
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१७४
सांख्यदर्शनम् । - लब्धातिशययोगाहा तहत्॥२४॥
लब्धोऽतिशयो ज्ञानकाष्ठा येन तत्मादप्युक्तं भवति हंसववेत्यर्थः । ययालकस्य दत्तात्रे यसङ्गममाबादेव स्वयं विवेकः प्रादुरभूदिति ॥२४॥ रागिसङ्गो न कार्य इत्याह ।
न कामचारित्वं रागोपहते शुकवत् ॥२५॥ रागापहते पुरुष कामतः सङ्गो न कर्तव्यः शुकवत् । यथा शुकपक्षी प्रकष्टरूप इति लत्वा कामचरं न करोति रूपलोलुपैबन्धनभयात् तदित्यर्थः ॥ २५ ॥ गगिसङ्गे तु दोषमाह।
गुणयोगाबद्धः शुकवत् ॥ २६ ॥ तेषां सङ्गे तु गुणयोगात् तदीयरागादियोगाबद्धः स्यात् शुकवदेव। यथा शुकपक्षी व्याधस्य गुणै: रज्जुभिब दो भवति तहदित्यर्थः । अथवा गुणितया गुण लोलुपैबंद्धो भवति शुकवदित्यर्थः । अत्रैवोक्तं सोभरिणा। म में समाधिजलवाममित्रमत्स्यस्य मङ्गात् सहसैव नष्टः । परिग्रहः सङ्गकतो ममायं परिग्रहोत्याश्च महाविधित्माः ॥
इति ॥ २६॥ वैराग्यस्याप्यपायमवधारयति द्वाभ्याम् ।
न भोगाद्रागशान्तिर्मुनिवत् ॥ २७ ॥ यया मुनेः सौभरे गान रागशान्तिरभूत्। एवमन्येषामपि न भवतीत्यर्थः । तदुक्तं सौभरिणैव ।
मृत्यु तो नैव मनोरथानामन्तोऽस्ति विज्ञातमिदं मयाद्य। मनोरथासक्तिपरस्य चित्त न जायते वै परमार्थसङ्गि ॥ इति ॥ २७॥
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चतुर्थोऽध्यायः ।
__ १७५
अपितु। ___ दोषदर्शनादुभयोः ॥ २८॥ उभयोः प्रकृतितत्कार्ययोः परिणामित्वदुःखात्मकत्वादिदोषदर्शनादेव रागशान्तिर्भवति मुनिवदेवेत्यर्थः। सौभरहि सङ्गदोषदर्शनादेव सङ्गे वैराग्यं श्रयते ।
दुःखं यदेवैकशरीरजन्म तथाईसंख्यं तदिदं प्रसूतम् । परिग्रहेण क्षितिपात्मजानां सुतैरने कैबहुलौ कृतं तत् । इति ॥ २८॥ रागादिदोषोपहतस्योपदेशग्रहणेऽप्यनधिकारमाह । न मलिनचेतस्युपदेशवौजप्ररोहोऽजवत् ॥२६॥
उपदेशरूपं यज्ज्ञानवृक्षस्य वीजं तस्याङ्गुरोऽपि रागादिमलिनचित्त नोत्पद्यते। अजवत्। यथाजनाम्नि नृपे भार्याशोकमलिनचित्त वशिष्ठेनोक्त स्याप्युपदेशवीजस्य नाङ्गुर उत्पन्न इत्यर्थः ॥ २॥ किं बहुना।
नाभासमात्रमपि मलिनदर्पणवत् ॥ ३० ॥
आपातज्ञानमपि मलिनचेतस्य पदेशान जायते विषयान्तरसञ्चारादिभिः प्रतिबन्धात् । यथा मलैः प्रतिबन्धान्मलिनदर्पणेऽर्थो न प्रतिविम्बति तहदित्यर्थः ॥ ३० ॥
यदि वा कथञ्चिज्ज्ञानं जायेत तथाप्युपदेशानुरूपं न भवेदित्याह।
न तज्जस्यापि तद्रूपता पङ्कजवत् ॥ ३१ ॥ तस्मादुपदेशाज्जातस्यापि ज्ञानस्योपदेशानुरूपता न भवति सामग्रेपणानवबोधात् । पङ्कजवत्। यथा वौजस्यो
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१७३
सांख्यदर्शनम् ।
तमत्वेऽपि पङ्कदोषाद्दीनानुरूपता पङ्कजस्य न भवति तद्ददित्यर्थः । पङ्कस्थानौयं शिष्यचित्तम् ॥ ३१ ॥
ननु ब्रह्मलोकादिष्वं खयं चैव पुरुषार्थता सिधा किमर्थ - मेतावता प्रयासेन मोचाय ज्ञाननिष्पादनं तत्राह ।
न भूतियोगेऽपि कृतकृत्यतोपास्यसिद्दिवदुपास्यसिङ्घिवत् ॥ ३२ ॥
ऐश्वय्य योगोऽपि कृतकृत्यता कृतार्थता नास्ति चयातिशय दुःखैरनुगमात् । उपास्यसिद्दिवत् । यथोपास्यानां ब्रह्मादोनां सिद्धियोगेऽपि न कृतकृत्यता तेषामपि योगनिद्रादी यागाभ्यासश्रवणात् तथैव तदुपासनया प्राप्ततदैश्वय्यस्यापीत्यर्थः । उपास्यसिद्धिवदिति वौठा अध्याय समाप्तौ ॥ ३२ ॥ ध्यायत्रितयोक्तस्य विवेकस्यान्तरङ्गकम् ।
आख्यायिकाभिः सम्प्रोक्तमत्त्राध्याये समासतः ॥ इति विज्ञानभितुनिर्मिते कापिलसांख्यप्रवचनस्य भाष्य व्याख्यायिकाध्यायश्चतुर्थः ॥
पञ्चमोऽध्यायः ।
स्वशास्त्र सिद्धान्तः पर्याप्त इतः परं स्वशास्त्रे परेषां पूर्वपचानपाकत्तुं पञ्चमाध्याय आरभ्यते । तत्रादावादिसूत्रऽथशब्द ेन यन्मङ्गलं कृतं तद्दार्थमित्याक्षेपं समाधत्ते ।
मङ्गलाचरणं शिष्टाचारात् फलदर्शनात्
श्रुतिश्चेति ॥ १ ॥
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पञ्चमोऽध्यायः।
१७७
मङ्गलाचरणं यत् कृतं तस्यैतैः प्रमाणैः कर्तव्यतासिद्धिरित्यर्थः । इतिशब्दो हेवन्तराकाहानिरासार्थः ॥ १ ॥
ईखरासिहोरिति यदुक्त तन्नोपपद्यते कर्मफलदारतया तसिद्धेरिति ये पूर्वपक्षिणस्तानिराकरोति।
नेश्वराधिष्ठिते फलनिष्पत्तिः कर्मणा तत्सिद्धेः॥२॥
ईखराधिष्ठिते कारणे कर्मफलरूप परिणामस्य निष्पत्तिन युक्ता। यावश्यकेन कर्मणैव फलनिष्पत्तिसम्भवादित्यर्थः ॥२॥ ईश्वरस्य फलदाटत्व न घटतेऽपौत्याह सूत्र: ।
खोपकारादधिष्टानं लोकवत् ॥ ३ ॥ ईश्वराधिष्ठाटत्व खोपकारार्थमेव लोकवदधिष्ठानं स्यादित्यर्थः ॥ ३ ॥ भवत्वोखरस्याप्य पकारः का क्षतिरित्याशङ्याह ।
लौकिकेश्वरवदितरथा ॥ ४ ॥ ईखरस्याप्युपकारखौकार लौकिकेश्वरवदेव सोऽपि संसारौ स्यात्। अपूर्ण कामतया दुःखादिप्रसङ्गादित्यर्थः ॥४॥ तथैव भवत्वित्याशङ्कयाह।
पारिभाषिको वा ॥५॥ संसारसत्त्वेऽपि चेदीश्वरस्तहि सर्गाद्य त्पबपुरुषे परिभापामात्रममाकमिव भवतामपि स्यात्। संसारित्वाप्रतिहतेछत्वयोर्विरोधानित्य खानुपपत्तरित्यर्थः ॥ ५ ॥ ईश्वरस्याधिष्ठाटले बाधकान्तरमाह। न रागाहते तत्सिद्धिः प्रतिनियतकारणत्वात
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'१७८
सांख्य दर्शनम् ।
किञ्च। रागं विना नाधिष्ठात्व सिध्यति प्रपत्तौ रागस्य प्रतिनियतकारणत्वादित्यर्थः। उपकार इष्टार्थसिद्धिः। रागस्तत्कटे च्छोति न पौनत्यम् ॥ ६ ॥ नन् वमस्तु रागोऽपोखरे तबाह ।
तद्योगेऽपि न नित्यमुक्ताः ॥७॥ रागयोगऽपि खौक्रियमाणे स नित्यमुक्तो न स्यात् ततश्च ते सिद्धान्तहानिरित्यर्थः। किञ्च। प्रकृति प्रत्य स्वयं प्रकृतिपरिणामभूतेच्छादिना न सम्भवति। अन्योऽन्याश्रयात् । नित्ये च्छादिकं च प्रकृती न युक्त श्रुतिस्मृतिसिहसाम्यावस्थानुपपत्तेः। अत: प्रकारद्वयमवशिष्यते तद्यथा। ऐवयं किं प्रधानशक्तित्व नास्मदभिमतानामिछादीनां साक्षादेव चेतनसम्बन्धात्। किं वायस्कासमणिवत् सविधिसत्तामात्रेण प्रेरकत्वादिति ॥ ७॥ तवाद्यं पक्षं दूषयति।
प्रधानशक्तियोगाचेत् सङ्गापत्तिः ॥८॥ प्रधानशक्तरिच्छादेः पुरुषे योगात् पुरुषस्यापि धर्मसङ्गापत्तिः । तथा च स यत् तत्र पश्यत्यनन्वागतस्तन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष इत्यादिश्रुतिविरोध इत्यर्थः ॥८॥ अन्त्य त्वाह।
सत्तामानाचेत् सर्वेश्वर्यम् ॥६॥ अरस्कान्तवत् सविधिसत्तामात्रेण चेचतनैश्वर्य सहि सर्वेषामेव तत्तत्सर्गेषु भोलणां पुंसामविशेषेणैवयमस्मदभिप्रतमेव सिद्धम्। अखिलभोक्तसंयोगादेव प्रधानेन महदा. दिसनादिति। ततक एवेश्वर इति भवसिद्धान्तहानिरित्यर्थः । ।
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पञ्चमोऽध्यायः।
स्यादेतत्। ईश्वरसाधकप्रमाणविरोधेनैतेऽसत्तर्का एव । अन्यथैवंविधासत्तकै सहस्रः प्रधानमपि बाधितुं शक्यत इति तवाह।
प्रमाणाभावान्न तसिद्धिः॥ १०॥ तत्मिद्धिनित्ये बरे तावत् प्रत्यक्षं नास्तौल्यनुमानशब्दावेव प्रमाणे वक्तव्ये ते च न सम्भवत इत्यर्थः ॥ १० ॥ असम्भवमेव प्रतिपादयति सूत्राभ्याम् ।।
सम्बन्धाभावान्नानुमानम् ॥ ११ ॥ सम्बन्धी व्याप्तिः। अभावोऽसिद्धिः। तथा च महदादिकं सकर्तकं काय त्वादित्याद्यनुमानेष्वप्रयोजकत्वेन व्याप्यत्वासिया नेश्वरेऽनुमानमित्यर्थः ॥ ११ ॥ नापि शब्द इत्याह ।
श्रुतिरपि प्रधान कार्यत्वस्य ॥ १२ ॥ प्रपञ्चे प्रधान कार्यात्वस्यैव श्रुतिरस्ति न चेतनकारणत्वे । यथा।
अजामेकां लोहितशुल कृष्णां
बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । तडेदं तद्ययावतमासीत् तन्नामरूपाभ्यां व्याक्रियतेत्या दिरित्यर्थः । या च तदैक्षत बहु स्यामित्यादिश्चेतनकारण ताश्रुति: सा सर्गादावत्पन्नस्य महत्तत्त्वोपाधिकस्य महापुरुषस्य जन्यज्ञानपरा। किं वा बहुभवनानुरोधात् प्रधान एव कूलं पिपतिषतौतिवद्गौणौ । अन्यथा साक्षी चेता केवलो निर्गणश्वेत्यादिश्रुत्यक्तापरिणामित्वस्य पुरुषेऽनुपपत्ते रिति। अयं चेश्वरप्रतिषेध ऐश्वर्ये वैराग्यार्थमौवरजानं विनापि मोक्षप्रतिपादनार्थं च प्रौढिवादमावमिति प्रागेव व्याख्यातम् ।
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सांख्यदर्शनम् ।
१८०
अन्यथा जौवव्यावृत्तस्येश्वर नित्यत्वादेगणत्वकल्पनागौरवम् । चौपाधिकानां नित्यज्ञानेच्छादीनां महदादिपरिणामानां चाङ्गौकारेण कौटस्थ्याद्युपपत्तेरित्यादिकं ब्रह्ममीमांसायां द्रष्टव्यमिति ॥ १२ ॥
नाविद्यातो बन्ध इति यत् सिद्धान्तितं प्रथमपादे तत्र परमतं विस्तरतः प्रघट्टकेन दूषयति । नाविद्याशक्तियोगो निःसङ्गस्य ॥ १३ ॥
परे प्राहुः प्रधानं नास्ति किन्तु ज्ञाननाश्यानाद्यविद्याख्या शक्तिश्व तने तिष्ठति तत एव चेतनस्य बन्धस्तन्नाशे च मोक्ष इति । तवेदमुच्यते । निःसङ्गतया चेतनस्याविद्याशक्तियोगः साक्षान्न सम्भवतौति । अविद्या ह्यस्मिंस्तदाकारता सा च विकारविशेषोऽधिकारहेतुसंयोगरूपं सङ्ग विना न सम्भवतौत्यर्थः ॥ १३ ॥
नन्वविद्यावशादेवाविद्यायोगो वक्तव्यः । तथा चापारमार्थिकत्वान्न तथा सङ्ग इति तत्राह । तद्योगे तत्सिद्दावन्योऽन्याश्रयत्वम् ॥१४॥ श्रविद्यायोगादविद्यासिद्धौ चान्योऽन्याश्रयत्वमात्माश्रयत्वम् । अनवस्था वेति शेषः ॥ १४ ॥
ननु वीजाङ्गरवदनवस्था न दोषायेत्याशङ्कयाह । न वोजाङ्क ुरवत् सादिसंसारश्रुतेः ॥ १५ ॥
वोजाङ्कुरवदप्यनवस्था न सम्भवति पुरुषाणां संसारस्याविद्याद्यखिलानर्थरूपस्य सादित्वश्रुतेः । प्रलयसुषुप्त्या - दावभावश्रवणादित्यर्थः । विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुन्याय तान्येवानुविनश्यतीत्यादिश्रुतिभिर्हि प्रलयादी बुद्धिभावेन तदीपाधिका विद्याविद्याद्यखिल संसारशून्य चिन्मा
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पञ्चमोऽध्यायः ।
१८१ वत्वं पुरुषाणां सिहमिति। तस्मादविद्याप्याविद्यकीति वानानम् ॥ १५॥
नन्यस्माकमविद्या पारिभाषिको न तु योगोलानात्मन्यात्मबुयादिरूपा तथा च भवतां प्रधानवदेवास्माकमपि तस्या पखण्डानादितया पुरुषनिष्ठत्वेऽपि नामङ्गताहानिरित्याश. कायां परिकल्पितमविद्याशब्दार्थ विकल्पा दूषयति ।
विद्यातोऽन्यत्वे ब्रह्मबाधप्रसङ्गः ॥ १६ ॥ यदि विद्यान्यत्वमेवाविद्याशब्दार्थस्तहिं तस्य ज्ञाननाश्यतया ब्रह्मण यात्मनोऽपि बाधो नाश: प्रसज्यते विद्याभिन्नत्वादित्यर्थः ॥१६॥
अबाधे नैष्फल्यम् ॥१७॥ यदि त्वविद्यारूपमपि विद्यया न बाध्येत तर्हि विद्यावैफल्यम्। अविद्यानिवत्त कवाभावादित्यर्थः ॥ १७ ॥ पक्षान्तरं दूषयति। विद्याबाध्यत्वे जगतोऽप्येवम् ॥ १८॥ यदि पुनर्विद्यया चेतने बाध्यत्वमेवाविद्यात्वमुच्यते तथा सति जगतः प्रकृतिमहदाखिलप्रपञ्चस्याप्येवमविद्यावं स्यात्। अथात प्रादेशो नेति नेत्यस्थलमनखित्यादिश्रुतिमिर्मिथ्याज्ञानस्येव प्रकत्यादेरप्यात्मनि बाधितत्वादित्यर्थः । तथा चाखिलप्रपञ्चस्य वाविद्यात्वे सत्य कस्य ज्ञानेनाविद्यानाशादन्यैरपि प्रपञ्चो न दृश्येतेति भावः । विद्यानाश्यत्वचावि द्यात्वं वक्तुं न शक्यते विद्यानाश्यत्वेन विद्यानाश्यग्रहासम्भवादात्माश्रयादिति ॥ १८॥
तद्रूपत्वे सादित्वम् ॥ १६॥
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१८२
सांख्यदर्शनम्।
भवतु वा यथाकथञ्चिविद्याबाध्यत्वमेवाविद्याल तथापि तादृशवस्तुमः सादित्वमेव पुरुषेषु न त्वनादित्व सम्भवति। विज्ञानघन एवेत्यायुक्त श्रुतिभिः प्रलयादौ पुरुषस्य चिम्मानत्वसिद्धेरित्यर्थः । अस्मन्मते च प्रलये पुरुषस्यासंसारित्वेऽपि स्वतन्त्रनित्यप्रधानसंयोगात् पुनर्बन्ध उपपादितस्तथा प्रधानसंयोगेऽपि प्राग्भवीयाविवेक एव वासनादृष्टादिद्वारा निमित्तमित्यप्युक्तम् । तस्माद्योगदर्शनोक्तादन्या नास्त्यविद्या सा च बुद्धिधर्म एव न पुरुषधर्म इति सिद्धम् ॥ १८ ॥ ____ अत्रैवाध्याये कर्मनिमित्ता प्रधानप्रत्तिरिति यदुक्तं तत्र परपूर्वपक्षं समाधत्ते प्रघट्टकेन ।
न धर्मापलापः प्रकृतिकार्यवैचिल्यात् ॥२०॥ अप्रत्यक्षतया धर्मापलापो न सम्भवति प्रकृतिकार्येषु वैचित्रवान्यथानुपपत्त्या तदनुमानादित्यर्थः ॥ २० ॥ प्रमाणान्तरमप्याह।
श्रुतिलिङ्गादिभिस्तसिदिः ॥ २१ ॥ पुण्यो वै पुण्येन भवति पापः पापेनेत्यादिश्रुतेः स्वर्गकामोऽश्वमेधेन यजेतेति विध्यादिरूपाल्लिङ्गाद्योगिप्रत्यक्षादिभिश्च तसिद्धिरित्यर्थः ॥ २१॥ प्रत्यक्षाभावाधर्मासिद्धिरिति परस्य हेतुमाभासीकरोति ।
न नियमः प्रमाणान्तरावकाशात् ॥२२॥ प्रत्यक्षाभावाहस्त्वभाव इति नियमो नास्ति प्रमाणान्तरेणापि वस्तूनां विषयीकरणादित्यर्थः ॥ २२ ॥ धर्मवदधर्ममपि साधयति ।
उभयवाप्येवम् ॥ २३ ॥
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पञ्चमोऽध्यायः ।
धर्मवदधर्मेऽप्येवं प्रमाणानीत्यर्थः ॥ २३ ॥
अर्थात् सिद्धिश्चेत् समानमुभयोः ॥ २४ ॥
ननु विध्यन्यथानुपपत्तिरूपयार्थापत्त्वा धर्मसिद्धिः सा च नास्त्यधर्म इति कथं श्रौतलिङ्गातिदेशोऽधर्मं इति चेत्र यतः समानमुभयोर्धर्माधर्मयोर्लिङ्गमस्ति परदाराव गच्छेदिति निषेधविध्यादेरेवाधर्मलिङ्गत्वादित्यर्थः ॥ २४ ॥
ननु धर्मादिकं चेत खोकतं तर्हि पुरुषाणां धर्मादिमत्त्वेन परिणामाद्यापत्तिरित्याशङ्कां परिहरति । अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् ॥ २५ ॥
श्रादिशब्देन वैशेषिकशास्त्रोक्ताः सर्व आत्मविशेषगुणा गृह्यन्ते । न चैवं प्रलयेऽन्तः करणाभावाडर्मादिकं क तिष्ठत्विति वाच्यम् । आकाशवदन्तः करण स्यात्यन्तविनाशाभावात् । अन्तःकरणं हि काय्र्यकारणोभयरूपमिति प्रागेव व्याख्यातम् । अतः कारणावस्थे प्रकृत्यंशविशेषेऽन्तःकरणे धर्माधर्मसंस्कारादिकं तिष्ठतीति ॥ २५ ॥
१८३
स्यादेतत् । प्रकृतिकाय्यैवैचित्रयाच्छ्रुत्यादेव धर्मादिसिद्धिरिति यदुक्तं तदयुक्तम् । त्रिगुणात्मकप्रकृतस्तत्कार्य्यीणां च भवतां श्रुत्यैव बाधात् । साची चेता केवलो निर्गुणश्च । अथात आदेशो नेति नेति ।
व्यशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथा रसं नित्यमगन्धवच्च यत् । इत्यादिना । न निरोधो न चोत्पत्तिः । वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यमित्यादिना चेति । तदेतत् परिहरति ।
गुणादीनां च नात्यन्तबाधः ॥ २६ ॥
गुणानां सत्त्वादीनां यद्दर्माणां च सुखादीनां तत्कार्य्या
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१८४
सांख्यदर्शनम् ।
णामपि महदादीनां स्वरूपतो नास्ति बाधः किन्तु संसर्गत एव चेतने बाधोऽयस्यौण्यबाधवत् । तथा कालत एवावस्थादिभिर्वाधगुणाद्यखिलपरियामिन इत्यर्थः ॥ २६ ॥
कुतः पुनः स्वरूपत एव बाधो न भवति स्वप्नमनोरथादिपदार्थवदिव्याकाङ्गायामाह ।
पञ्चावयवयोगात् सुखसंवित्तिः ॥ २७ ॥
sa विशिष्य पचौकरणाय विवादविषयैकदेशस्य सुखमात्रस्य ग्रहणं सर्वविषयोपलचकम् । सुखादिसंवित्तिरिति पाठस्तु समीचीनः । पञ्चावयवाश्व न्यायस्य प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि तेषां योगान्मलनात् सुखाद्यखिलपदार्थसिद्धिरित्यर्थः । प्रयोगश्चायम् । सुखं सत् । अर्थक्रियाकारित्वात् । यद्यदर्थक्रियाकारि तत् तत् सत् । यथा चेतनाः । पुलकादिरूपार्थक्रियाकारि च सुखं तस्मात् सदिति । चेतनानां चाविकारित्वेऽपि विषयप्रकाश एवार्थक्रियेति । नास्तिकं प्रति च व्यतिरेक्यनुमानं कर्त्तव्यं तत्र च शशशृङ्गादिदृष्टान्त इति ॥ २७ ॥
प्रत्यक्षातिरिक्त प्रमाणमेव न भवति व्याप्यत्वाद्यसिद्धेरिति चार्वाकः पुनः शङ्कते ।
न सक्कद्ग्रहणात् सम्बन्धसिद्धिः ॥ २८ ॥
मक्कत् सहचारग्रहणात् सम्बन्धो व्याप्तिर्न सिध्यति भूयस्त्व चाननुगतम् । अतो व्याप्तिग्रहासम्भवान्नानुमानेनार्थसिद्धिन
रित्यर्थः ॥ २८ ॥
समाधत्ते ।
व्याप्तिः ॥ २८ ॥
नियतधर्म साहित्यमुभयोरेकतरस्य वा
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पञ्चमोऽध्यायः ।
१८५
धर्मसाहित्य धर्मतायां साहित्यम् । सहचार इति यावत् । तथा चोभयोः साध्यसाधनयोरेकतरस्य साधनमात्त्रस्य वा नियतोऽव्यभिचरितो यः सहचारः स व्याप्तिरित्यर्थः । उभयोरिति समव्याप्तिपचे प्रोक्त नियमश्वानुकूलतर्केण ग्राह्य इति न व्याप्तिग्रहासम्भव इति भावः ॥ २८ ॥
व्याप्तिर्वच्यमाणशक्त्यादिरूपं पदार्थान्तरं न भवतीत्याह ।
न तत्त्वान्तरं वस्तुकल्पनाप्रसक्तः ॥ ३० ॥ नियत साहित्यातिरिक्ता व्याप्तिनं भवति व्याप्तित्वायस्य वस्तुनोऽपि कल्पनाप्रसङ्गात् । अस्माभिस्तु सिद्धवस्तुन एव व्याप्तित्वमाचं क्ल प्तमित्यर्थः ॥ ३० ॥
परमतमाह ।
निजशक्त्यङ्गवमित्याचार्य्याः ॥ ३१ ॥
अपरे त्वाचार्या व्याप्यस्य स्वशक्तिजन्य शक्तिविशेषरूपं तत्त्वान्तरमेत्र व्याप्तिरित्याहुः । निजयक्तिमात्र तु यावद्द्रव्यस्थायितया न व्याप्तिः । देशान्तरगतस्य धूमस्यापि वकाव्याप्यत्वात् । देशान्तरगमनेन च सा शक्तिर्नाश्यत इति नोक्तलक्षगणऽतिव्याप्तिः । स्वमते तूत्पत्तिकालावच्छिन्नत्व ेन धूमो विशेषणीय इति भावः ॥ ३१ ॥
आधेयशक्तियोग इति पञ्चशिखः ||३२||
बुदयादिषु प्रकृत्यादिव्याप्यताव्यवहारादाधारताशक्तिर्व्यापकताधेयताशक्तिमत्त्वं च व्याप्यत्वमिति पञ्चशिख इत्यर्थः
॥ ३२ ॥
नन्वाधेयशक्तिः किमर्थं कल्पयते व्याप्यस्य वस्तुनः स्वरूपशक्तिरेव व्याप्तिरस्तु तत्राह ।
न स्वरूपशक्तिर्नियमः पुनर्वादप्रसक्तः ॥ ३३ ॥
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१८६
सांख्यदर्शनम्।
स्वरूपशक्तिस्तु नियमो व्याप्तिनं भवति पोनरुत्यप्रसङ्गात्। घटः कलश इतिवद्बुद्धिाप्ये त्यत्राप्यर्थाभेदेनेत्यर्थः। स्वरूपमिति वक्तव्ये शक्तिपदोपादानं व्याप्त व्याप्यधर्मतोपपादनाय
पोनरुत्य स्वयमेव विहगोति ।
विशेषणानर्थक्यप्रसतोः ॥३४॥ पूर्व सूत्र एव व्याख्यातप्रायमिदम् ॥ ३४ ॥ दूषणान्त रमाइ। ___ पल्लवादिष्वनुपपत्तश्च ॥ ३५ ॥ पल्लवादिषु रक्षादिव्याप्य तास्ति खरूपशक्तिमात्रन्तु तस्य लक्षण न सम्भवति। छिन्नपल्लवेऽपि स्वरूपश तरनपायेन तदानौमपि व्याप्यतापत्तेरित्यथ:। आधेय शाक्तस्तु छेदकाले विनष्टेति न तदानों व्याप्तिरािंत भावः ॥ ३५ ॥ ___ ननु किं पञ्चशिखेन निजश त्य द्भवो व्याप्तिरेव नोच्यते ताई धमत्य वयाधेयत्वाभावाहणाव्याप्यतापत्तिरिति तनाह। ___ आधेयशक्तिसिड्डौ निजशक्तियोगः समानन्यायात् ॥ ३६॥
आधेयश ताप्तित्वसिद्धौ निजशक्य नवोऽपि व्याप्तित्व न सिद्ध एव समानन्यायात् । युक्ति साम्यादित्यथ । अननुगमस्तु नानाथ शब्दवन्न दोषाय। एवं खमतऽपि नानाविधसहचारा एव व्याप्तयो बोध्याः । न चैवमप्यनुमितिहेतुत्व व्याप्तीनाम: ननुगमः स्यादिति वाच्यम्। बणारणिमण्यादिवत् काय्यगतबजात्याद्यपपत्तोरति। पञ्चावयवयोगाद्गुणादिसिद्धिरिति यदुक्तं तदुपपादनाय व्याप्तिनिवचनेनानुमानप्रामाण्य बाधक मपास्तम् ॥ ३६॥ .
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पञ्चमोऽध्यायः ।
{૭
इदानीं पञ्चावयवरूपशब्दस्य ज्ञानजनकत्वोपपत्तये शब्दभक्त्यादिनिर्वचनेन तदनुपपत्तिरूपं शब्दप्रामाख परेषां बाधकमपास्यते ।
शक्तिग्राहकाण्याह ।
वाच्यवाचकसम्बन्धः शब्दार्थयोः ॥३७॥
अर्थ वाच्यताख्या शक्तिः शब्दे वाचकताख्या शक्तिरस्ति सैव तयोः सम्बन्धोऽनुयोगितावत् । तजज्ञानाच्छब्देनार्थापस्थितिरित्यर्थः ॥ ३७ ॥
त्रिभिः सम्बन्धसिद्धिः ॥ ३८ ॥
व्याप्तोपदेशो वृद्धव्यवहारः प्रसिद्द पदसामानाधिकरण्यम् । इत्य तैस्त्रिभिरुक्तसम्बन्धो ग्टह्यत इत्यर्थः ॥ ३८ ॥
न का नियम उभयथा दर्शनात् ॥ ३८ ॥
..
स च शक्तिग्रहः कार्य एव भवतीति नियमो नास्ति लोके काव्यदकाय्यऽपि वृद्धव्यवहारादिदर्शनादित्यर्थः । यथाहि गामानयेत्यादिकार्य परवाक्याद्द्स्य गवानयनादिव्यवहारो दृश्यते । एवमेव पुत्रस्ते जात इत्यादिसिद्धपरवाक्यादपि पुलकादिव्यवहारी दृश्यत इति । सिद्धार्थशब्दप्रामाख्यसिद्धौ च विवेके वेदान्तप्रामाख्य सिद्धमित्याशयः ॥ ३८ ॥
1
ननु भवतु लोके सिद्धे शक्तिग्रहोऽर्थप्रत्ययादिदर्शनात् । वेदे तु कथं भविष्यत्यकार्य बोधनवैयर्थ्यादिति तत्राह । लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीतिः ॥ ४० ॥
लोके शब्द यक्तिव्युत्पन्नस्य पुरुषस्य तदनुसारेणैव वेदार्थप्रतीतिः । न हि लोके शक्तिभिन्ना वेदे च भिन्ना य एव लौकिकास्त एव वैदिका इति न्यायात् । अतो लोके सिद्धाथपरत्वसिद्धो वेदेऽपि तृत् सिध्यतीत्यर्थः ॥ ४० ॥
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१८८
सांख्यदर्शनम्। अत्र शङ्कते। न त्रिभिरपौरुषेयत्वाइदस्य तदर्थस्याप्यतीन्द्रि. यत्वात् ॥४१॥
ननु विभिराप्तोपदेशादिभिर्वदशब्देन शक्तिग्रहः सम्भवति वेदस्थापौरुषेयत्वेन तदर्थेष्वाप्तोपदेशासम्भवात् । तथा वेदार्थस्थातौन्द्रियतया तत्र वृद्धव्यवहारस्य प्रसिद्धपदमामानाधिकरण्यस्य च ग्रहीतुमशक्यत्वादित्यर्थः ॥ ४१ ॥
तत्रातीन्द्रियार्थत्वमादौ निराकरोति । न यज्ञादेः खरूपतो धर्मत्वं वैशिध्यात् ॥४२॥
यदुक्तं तन्न। यतो देवतोद्देश्य कद्रव्यत्यागादिरूपस्य यज. दानादेः स्वरूपत एव धर्मत्वं वेदविहितत्व वैशिध्यात् प्रकफलकत्वात्। यज्ञादिकं चेच्छादिरूपत्वान्नातौन्द्रियम् । न तु यज्ञादिविषयकापूर्वस्य धर्मत्व येन वेदविहितस्यातीन्द्रियता स्यादित्यर्थः। ननु तथापि देवताद्यतीन्द्रियार्थघटितत्वमा स्तौति चेन्न । अतीन्द्रियेष्वपि पदार्थतावच्छेदकेन सामान्यरूपेण प्रतीतर्वक्ष्यमाणत्वादिति ॥ ४२ ॥
यञ्चोक्तमपौरुषेयत्व नातोपदेशाभाव इति तदपि निराकरोति।
निजशक्तियुत्पत्त्या व्यवच्छिद्यते ॥ ४३ ॥ अपौरुषेयत्वेऽपि वेदानां स्वाभाविकीयार्थेष शक्तिरस्ति मैवाप्त हद्धपरम्पराभिव्युत्पत्त्यास्य शब्द स्यायमर्थ इत्य वरुपया व्यवच्छिद्यते शिष्येभ्योऽर्थान्तराद्यावपदिश्यते न त्वाधुनिकशब्दवत् स्वयं सङ्केल्यतं येन पौरुषेयत्वापेक्षा स्यादित्यर्थ:
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पचमोऽध्यायः ।
१८
ननु तथाप्यतीन्द्रिय देवताफलादिषु कथं शक्तिग्रहो वैदि
कपदानां स्वात् तत्राह ।
योग्यायोग्येषु प्रतौतिजनकत्वात् तत्सिद्धिः
# ४४॥
प्रत्यचाप्रत्यचेषु पदार्थेषु सामान्यधर्मपुरस्कारेण तत्सिद्धि: शक्तिग्रहो भवति साधारण्येन पदानां प्रतीतिजनक त्वस्यानुभवसिद्धत्वात् । विशेषस्त्वतीन्द्रियोऽपूर्व एव वाक्यार्थो न च तस्य ग्रहणं प्रागपेक्ष्येत इत्यर्थः ॥ ४४ ॥
स्पष्टम् ॥ ४८ ॥
शब्दप्रामाण्यप्रसङ्गेनैव शब्दगतं विशेषमवधारयति । न नित्यत्वं वेदानां कार्य्यत्वश्रुतेः ॥ ४५ ॥ स तपोऽतप्यत तस्मात् तपस्तेपानात त्रयो वेदा अजायन्तेत्यादिश्रुतेर्वेदानां न नित्यत्वमित्यर्थः । वेदनित्यतावाक्यानि च सजातीयानुपूर्वीप्रवाहानुच्छेदपराणि ॥ ४५ ॥
किं पौरुषेया वेदा नेत्याह ।
न पौरुषेयत्वं तत्कर्त्तुः पुरुषस्याभावात् ॥४६॥
ईश्वरप्रतिषेधादिति शेषः । सुगमम् ॥ ४६ ॥
अपरः कर्त्ता भवत्वित्याकाङ्गायामाह ।
न मुक्तामुक्तयोर योग्यत्वात् ॥ ४७ ॥ जीवन्मुक्तधुरौणो विष्णुर्विशुद्धसत्त्वतया निरतिशय सर्व जोऽपि वीतरागत्वात् सहस्रशाखवेदनिर्माणायोग्यः । श्रमुक्तस्त्वसर्वज्ञत्वादेवायोग्य इत्यर्थः ॥ ४७ ॥
नन्वेवमपौरुषेयत्वानित्यत्वमेवागतं तवाह ।
नापौरुषेयत्वान्नित्यत्वमङ्कुरादिवत् ॥४८॥
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१८.
सांख्यदर्शनम् ।
नन्वङ्कुरादिष्वपि कार्यत्वेन घटादिवत् पौरुषेयत्वमनुमेयं तवाह। तेषामपि तद्योगे दृष्टबाधादिप्रसक्तिः ॥४६॥
यत पौरुषेयं तच्छरौरजन्यमिति व्याप्तिर्लोके दृष्टा तस्याबाधादिरेवं मति स्यादित्यर्थः ॥ ४ ॥ नन्वादिपुरुषोच्चरितत्वाइदा अपि पौरुषेया एवेत्याह ।
यस्मिन्नदृष्टेऽपि कतबुद्धिरुपजायते तत्पौरुषयम् ॥ ५० ॥ ___ दृष्ट इवादृष्टेऽपि यस्मिन् वस्तुनि कृतबुद्धिबुद्धिपूर्वकत्वबुद्धिः र्जायते तदेव पौरुषेयमिति व्यवहियत इत्यर्थः । एतदुक्त भवति न पुरुषोत्चरिततामात्रेण पौरुषेयत्व पूवासप्रश्वासयोः सुषुप्तिकालौनयोः पौरुषेयत्व व्यवहाराभावात् । किन्तु बुद्धिपूर्वकत्वेन वेदास्तु नि:वासवदेवादृष्टवशादबुद्धिपूर्वका एव स्वयम्भुवः सकाशात् स्वयं भवन्ति । अतो न ते पौरुषेयाः । तथा च श्रुतिः । तस्य तस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्य. दृग्वेद इत्यादिरिति॥ ५० ॥ ___ नन्वेवं यथार्थवाक्यार्थज्ञानपूर्वकत्वाच्छकवाक्यस्येव वेदानामपि प्रामाण्य न स्यात् तबाह ।
निजशक्त्यभिव्यक्ती : खतः प्रामाण्यम् ॥५१॥ वेदानां निजा स्वाभाविको या यथार्थ ज्ञानजननशक्तिस्तस्या मन्त्रायुर्वेदादावभिव्यक्त रुपलम्भादखिलवेदानामेव स्वत एव प्रामाण्य सिध्यति म वक्त यथार्थज्ञानमूलकत्वादिनेत्यर्थः । तथा च न्यायसूत्रम्। मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवञ्च तत्प्रामाण्यमिति। गुणादौनाञ्च नात्यन्तबाध इति प्रतिज्ञायां न्यायेन सुखादिसिद्धेरित्य को हेतुरुपन्य स्त: प्रपश्चितश्च ॥ ५॥
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पञ्चमोऽध्यायः ।
साम्प्रतं तस्यामेव हेत्वन्तरमाह ।
नासतः ख्यानं नृश्टङ्गवत् ॥ ५२ ॥
वास्तां तावत् पञ्चावयवेन सुखादिसिद्धिः । ज्ञानमात्रादपि तत्सिद्धिः । अत्यन्तासत्त्वे सुखादीनां ज्ञानमेव नोपपद्यते नरशृङ्गादीनामभानादित्यर्थः । तथा च ब्रह्मसूत्रम् । नाभाव उपलब्ध रिति । शुक्तिरजतस्वप्नमनोरथादौ च मनःपरिणामरूप एवार्थः प्रतीयते नात्यन्तासन्निति वच्यति ॥ ५२ ॥
Rea
नववं गुणादित्यन्तं सन्नेव भवतु तथा च नात्यन्तबाध इत्यन्तपदवैयर्थ्यामिति तत्राह ।
न सतो बाधदर्शनात् ॥ ५३ ॥
व्यत्यन्ततोऽपि गुणादेर्भानं न युक्तम् । विनाशादिकाले बाधदर्शनात् । चैतन्ये भासमानस्य जगतश्च तन्य एव बाधदर्शनाच्च । अथात आदेशो नेति नेति नेह नानास्ति किञ्चन यत्र देवा न देवा माता न मातेत्यादिश्रुतिभिन्ययैश्व त्यर्थः
॥ ५३ ॥
नन्वेवमपि सदसद्भ्यां भिन्नमेव जगद्भवतु तथाप्यत्यन्त - बाधप्रतिषेधोपपत्तिरिति तत्राह ।
नानिर्वचनीयस्य तदभावात् ॥ ५४ ॥
नासत्त्व न चानिर्वचनीयं तादृशस्यापि भानं न घटते सदभावात् । सदसद्भित्र व स्वप्रसिद्धेरित्यर्थः । दृष्टानुसारेणैव कल्पनाया श्रौचित्यादिति भावः ॥ ५४ ॥
नन्वेवं किमन्यथाख्यातिरेवेष्टा नेत्याह । नान्यथाख्यातिः स्ववचोव्याघातात् ॥ ५५ ॥ अन्यस्त्वन्यरूपेण भासत इत्यपि न युक्त खवचो व्याघा
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१८२
सांख्यदर्शनम् ।
तात् । अन्यत्त्रान्यरूपस्य नुम्हङ्गतुल्यत्वमन्यथा शब्द ेनोच्यतेऽन्यथा च तस्य भानमुच्यत इति स्ववच एव व्याहतम् । असतो भानासम्भव स्यान्यथाख्यातिवादिभिरपि वचनादित्यर्थः । पुरोवर्त्तिन्यसत्त्वेऽन्यत्र तत्सत्ताया भानाप्रयोजकत्व - मिति भावः । न च सर्ववासतो भाने सामग्री न सम्भवति सन्निकर्षाद्यभावादित्यतः क्वचित् सत्तामात्रमपेक्ष्यत इति | अनादिवासनाधाराया एव भ्रम हेतुत्वसम्भवादिति
वाच्यम्
॥ ५५ ॥
नात्यन्तबाध इति पूर्वोक्तं विहखानः स्वसिद्धान्तमुपसंहरति ।
सदसत्ख्यातिर्बाधाबाधात् ॥ ५६ ॥
सदसत्ख्यातिरेव सर्वेषां गुणादीनां कुतो बाधाबाधात् तत्र स्वरूपेणाबाधः सर्ववस्तूनां नित्यत्वात् संसर्गतस्तु बाधः सर्ववस्तूनां चैतन्येऽस्ति यथा पटादिषु लौहित्यादेस्तद्वत् । तथावस्थाभिरपि बाधोऽखिलपरिणामिनां कालादिष्वित्यर्थः । बाधश्व प्रतिपन्नधर्मिणि निषेधबुद्धिविषयत्वम् । असव त्वभावः सोऽप्यधिकरणस्वरूप इति । न च सदसत्त्वयोर्विरोध इति वाच्यम् । प्रकारभेदेनाविरोधात् । यथाहि लौहित्यं विम्बरूपेण सत्स्फटिकगतप्रतिविम्वरूपेण चासदिति दृष्टम् । यथा वा रजतं बणिग्वोथौ स्थरूपेण मच्छुक्तयध्यस्तरूपेण चासत् तथैव सर्वं जगत् स्वरूपतः सत् चैतन्यादावध्यस्तरूपेण चामदिति । तदुक्तम् ।
विद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्त्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥
इति । एवमेवावस्थाभेदेनापि सदसत्त्वमविरुद्दम् । यथाहि
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पञ्चमोऽध्यायः।
१८३
हक्षादिः प्ररूढ़ायवस्थाभिः सवप्यश्राद्यवस्थाभिरसन् भवति तथैव प्रकत्यादिकं सदसदात्मकमिति । तदुक्तम् ।
अव्यक्तं कारणं यत् तबित्य सदसदात्मकम् । प्रधानं प्रकृतिश्चेति यदाहुस्तत्त्वचिन्तकाः ॥ इति। एतच्चास्माभिब्रह्ममौमांसाभाथे योगवार्तिके च अपञ्चितमिति दिक् ॥ ५६ ॥
अयं विचारः पर्याप्त इदानीं शब्दविचार: प्रसङ्गागत भागन्तुकतयान्ते प्रस्तूयते । प्रतीत्यप्रतीतियां न स्फोटात्मकः शब्दः ॥५॥
प्रत्येकवणेभ्योऽतिरिक्त बलश इत्यादिरूपमखण्ड मेकपदं स्फोट इति योगैरभ्युपगम्यते कम्बुप्रीवाद्यवयवेभ्योऽनिरितो, घटाद्यवयवौव स च शब्दविशेषः पदाख्योऽर्थ स्फटीकरणात् स्फोट इत्युच्यते स शब्दोऽप्रामाणिकः । कुतः प्रतीत्यप्रतीतिभ्याम्। स शब्दः किं प्रतीयते न वा। बाये येन वर्णसमुदायेनानुपूर्वीविशेषविशिष्टेन सोऽभिव्यज्यते तस्यैवार्थप्रत्यायकत्वमस्तु किमन्तर्गहना तेन। अन्त्ये त्वज्ञातस्फोटस्य नास्त्यर्थप्रत्यायनशक्तिरिति व्यर्था स्थोटकल्पनेत्यर्थः ॥ ५७ ॥
पूर्व वेदानां नित्यत्वं प्रतिसिहमिदानी वर्णनित्यत्वमपि प्रतिषेधति।
न शब्दनित्यत्वं कार्यताप्रतीतेः ॥ ५८॥ स एवायं गकार इत्यादिप्रत्यभिज्ञाबलाहर्णनित्यत्वं न युक्तम् । उत्पनो गकार इत्यादिप्रत्ययेनानित्यत्वसिद्धरित्यर्थः । प्रत्यभिज्ञा च तज्जातीयताविषयिणी। अन्यथा घटादेरपि प्रत्यभिजया नित्यतापत्तेरिति ॥ ५८॥
शकते।
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१८४
सांख्यदर्शनम् । पूर्वसिद्धसत्वस्याभिव्यक्तियॊपेनेव घटस्थ ॥५६॥
ननु पूर्वसिहसत्ताकस्यैव शब्दस्य ध्वन्यादिभिर्याभिव्यक्तिस्तन्मात्रमुत्पत्ति: प्रतीतेविषयः। अभिव्यक्तौ दृष्टान्तो दौपेनेव घटस्योति ॥ ५८॥ परिहरति। सत्कार्य सिद्धान्तश्चेत् सिद्धसाधनम् ॥६॥
अभिव्यक्तिर्यद्यनागतावस्थात्यागेन वर्तमानावस्थालाभ इत्युच्यते तदा सत्कार्यसिद्धान्तः । तानित्यत्वं च सर्वकार्याणामवेति सिद्धसाधनमित्यर्थः। यदि च वर्तमानतया सत एव ज्ञानमावरूपिण्यभिव्यक्तिरुयते तदा घटादौनामपि . नित्यतापत्तिः। कारणव्यापारेण ज्ञानस्य वोत्पत्तिप्रतीतिविषयत्वौचित्यादिति भावः ॥ ६ ॥
आत्माइते पूर्वानुक्तमपि बाधकमुपन्यसनीयमित्येतदर्थमात्माहैतनिरासः पुनरारभ्यते। नाईतमात्मनो लिङ्गात् तझेदप्रतीते : ६१॥
यद्यप्यात्मनामन्योऽन्यं भेदवाक्यवदभेदवाक्यान्यपि मन्ति तथापि नाहतं नात्यन्तमभेदः । प्रजादिवाक्यस्थैः प्रतिव्यागात्यागादिलिङ्गैर्भेदस्य व सिहेरित्यर्थः । न ह्यत्यन्ताभेदे तानि लिङ्गान्युपपद्यन्ते । अभेदवाक्यानि तु साम्यादिश्रुत्य कवाक्यतया वैधादिलक्षणाभेदपरतयोपपद्यन्ते। अभिमानादि. निरत्त्यन्यथानुपपत्त्यापि तत्परत्वावधारणाचेति ॥ ६१ ॥
यात्मनामभेदे लिङ्गं बाधकमुक्तम् । प्रात्मैवेदं सर्वं ब्रह्मैवेदं सर्वमिति श्रुत्यात्मनोऽनात्मभिर ते तु प्रत्यक्षमपि बाधकमस्तोत्याह।
नानात्मनापि प्रत्यक्षबाधात् ॥ ६२ ॥
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पञ्चमोऽध्यायः ।
१९५
अनात्मनापि भोग्यमपञ्चेनात्मनो नाहतं प्रत्यक्षेणापि बाधात् । प्रात्मनः सर्वभोग्याभेदे घटपटयोरप्य भेदः स्यात् । घटादेः पटाद्य भिवात्माभेदात्। स च भेदग्राहकप्रत्यक्षबाधित इत्यर्थः ॥ ६२॥ शिष्यबुद्धिवेशद्याय प्राप्तमप्यर्थं विशदयति ।
नोभाभ्यां तेनैव ॥६॥ उभाभ्यां समुचिताभ्यामप्यात्मनात्मभ्यां नात्यन्ताभेदस्ते. नैव हेतुद्दयेनेत्यर्थः ॥ ६३ ॥ नन्वेवमात्मैवेदमित्यादिश्रुतौनां का गतिरिति तवाह।
अन्यपरत्वमविवेकानां तच ॥६४॥ अविवेकानामविवेकि पुरुषान् प्रति तबाह तेऽन्यपरत्वमुपासनार्थकानुवाद इत्यर्थः । लोके हि शगैरशरीरिणो ग्यभोनोश्वाविवेकेनाभेदो व्यवयितेऽहं गौरो ममात्मा भद्रसेन इत्यादिः। अतस्तमेव व्यवहारमनद्य तानेव प्रति तथोपासनां श्रुतिर्विदधाति मत्त्व शुद्धयाद्यर्थमिति। अत एव परमार्थदशायामुपास्यानामात्मत्वप्रतिषेधति श्रुतिः ।
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विडि नेदं यदिदमुपासते ॥ इत्यादिनेति ॥ ६४ ॥ एकात्मवादिनां जगदुपादानकारणमपि न सम्भवतीत्याह ।
नात्माविद्या नोभयं जगदुपादानकारणं निःसङ्गत्वात् ॥६५॥
केवल आत्मा यात्माश्रिता वाविद्या समुचितं वा कपालहयवदुभयं न जगदुपादानं सम्भवति। यात्मनोऽसङ्गत्वात् । सङ्गाख्यो हि यः संयोगविशेषस्तेनैव द्रव्याणां विकारो भवति।
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१८६
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सांख्यदर्शनम् ।
अतोऽङ्गत्वात् केवलस्यात्मनोऽद्वितीयस्य नोपादानत्व' मावि -
याहारापि सम्भवति । सङ्गत्व नाविद्यायोगस्य प्रागेव निरस्तत्वात् । प्रत्य कोपादानत्ववदेवो भयोपादानत्वमप्यस ङ्गत्वादेवासम्भवौत्यर्थः । यदि चाविद्या द्रव्यरूपा पुरुषाश्रिता गगने वायुवदिष्यते तदात्माद्वैतहानिः । तथा प्रकृतिरेव सेति सिद्धसाधनं च । तादृशं चाविभागेनाई तमस्माक पौष्टमेव । सदेव सौम्य दमग्र आसीदेकमेवाद्दितीयं ब्रह्मत्यादिश्रुत्यापि चाविभागरूपमेवाइतं प्रतिपाद्यते । न तु तदुद्दितीयमस्ति ततोऽन्यद्दिभक्त यत् पश्येदिति श्रुत्यन्तरात् । तथा चोक्तम् ।
आसीज्ज्ञानमयोऽप्यर्थं एकमेवाविकल्पितम् । तयोरेकतरो ह्यर्थः प्रकृतिश्वोभयात्मिका ॥ ज्ञानं त्वन्यतमो भावः पुरुषः सोऽभिधीयते । इति । अविकल्पितम विभक्तम् । तस्माद्वेदान्तानामखरहात्माद्वैतं नार्थः । तथाप्याधुनिका वेदान्तिनोऽव त्यपूर्वपचजातमेव ब्रह्ममीमांसा सिद्धान्ततया कल्पयन्ति । तत् तु ब्रह्मसूत्रानुकत्वेन प्रत्युत तद्विरोधेन चास्माभिस्तत्रैव निराकृतमिति । अत्र च ब्रह्ममीमांसासिद्धान्तो न दूष्यते । श्रपि तु वेदान्तं व्वापाततः सम्भावितोऽर्थं एव निराक्रियत इति स्मार्त्तव्यम् । एवमुत्तरस्तूत ष्वपि ॥ ६५ ॥
प्रकाशस्वरूप आत्म ेति स्वयं सिद्धान्तितं तत्र सत्यं विज्ञानमानन्द ब्रह्मेति श्रुतेरानन्दोऽप्यात्मनः खरूपमिति पूर्वपचं निराकरोति ।
·
नैकस्यानन्दचिद्रूपत्वे द्वयोर्भेदात् ॥ ६६ ॥
एकधर्मिण आनन्दचैतन्योभयरूपत्वं न भवति दुःखज्ञान
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पञ्चमोऽध्यायः।
काले सुखाननुभवेन सुखज्ञानयोर्भेदादित्यर्थः । न च ज्ञानविशेषः सुखमिति वक्त शक्यते। प्रात्मस्वरूपज्ञानस्याखण्डत्वात् । अत एव चैतन्यानुभवकाले सुखस्यावरणमपि व न शक्यते। अखण्डत्वे नानन्दावरणे दुःखं जानामौत्यनुभवानुपपत्तेः। न यात्मनोंशभेदोऽस्ति येनानन्दांशावरणेऽपि चैतन्यांशो मायादिति। न च श्रुतिबलेनैतेऽसत्तर्का इति वाच्यम्। नानन्द न निरानन्दमित्यादिश्रुत्यादुःखमस ब्रह्म भूतभव्यभवात्मकमित्यादिस्मत्या चानन्दाभावस्थापि प्रतिपादितत्व न तस्यैवात्रादर्तव्यत्वादिति ॥६६॥ नन्वेवमानन्दरूपताश्रुतेः का गतिस्तत्राह।
दुःखनिहत्तर्गौणः ॥ १७॥ दुःखनिवृत्त्वात्मनि श्रौत आनन्दशब्दो गौण इत्यर्थः । तदुतम्। सुखं दुःखप्तखात्यय इति। न निरानन्दमिति श्रुतिम्योपाधिकानन्दपरा सत्यसङ्कल्पत्वादिश्रुतिवदिति। यत् तु निरुपाधिप्रियत्वेनात्मनः सुखरूपत्वानुमानं कश्चिदाह। तत्र। दुःखाभावरूपतयापि प्रमोपपनेः। सुखत्वादिवदात्मत्वस्यापि प्रेमप्रयोजकत्वाच। अन्यथा परसुखेऽपि प्रेमापत्ते रिति
गौणप्रयोगे वीजमाह।
विमुक्तिप्रशंसा मन्दानाम् ॥ ८॥ मन्दानज्ञान् प्रति दुःखनित्तिरूपामात्मस्वरूपमुक्ति सुखत्वेन श्रुतिः स्तौति प्ररोचनार्थमित्यर्थः ॥ ८॥ __ अन्तःकरणोपपत्तेः पूर्वोक्ताया प्राञ्जस्येनोपपत्तये मनोवैभवपूर्वपचमपाकरोति।
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१६८
सांख्यदर्शनम् |
न व्यापकत्वं मनसः करणत्वादिन्द्रियत्वाद्दा वास्यादिवत् चक्षुरादिवत् ॥ ६६ ॥
मनसोऽन्तःकरणसामान्यस्य न विभुत्वं करणत्वात्। वास्यादिवत् । वाशब्दो व्यवस्थित विकल्पे । इन्द्रियत्वादप्यन्तःकरणविशेषस्य तृतीयस्य न विभुत्वमित्यर्थः । देहव्यापिज्ञानादिकं तु मध्यमपरिमाणेनैवोपपद्यत इति ॥ ६८ ॥ कात्त्राप्रयोजकत्वशङ्कायामनुकूलतर्कमाह ।
सक्रियत्वाद् गतिश्रुतेः ॥ ७० ॥ आत्मनो लोकान्तरगमनश्रवणेन तदुपाधिभूतस्यान्तःकर स्य सक्रियत्वसिद्धेर्न विभुत्व' सम्भवतीत्यर्थः ॥ ७० ॥ कार्यत्वोपपत्तये मनसो निरवयवत्वमपि निराकरोति । न निर्भागत्वं तद्योगाहटवत् ॥ ७१ ॥
तच्छब्द: पूर्वसूत्रस्थेन्द्रियं परामृयति । मनसो न निरवयवत्वम् । अनकेन्द्रियेष्वेकदा योगात् । किन्तु घटवन्मध्यमपरिमाणं सावयवमित्यर्थः । कारणावस्थ' चान्तःकरणमखं - बेति बोध्यम् ॥ ७९ ॥
मनःकालादीनां नित्यत्वं प्रतिषेधति ।
प्रकृतिपुरुषयोरन्यत् सर्वमनित्यम् ॥ ७२ ॥
सुगमम् । कारणावस्थं चान्तःकरणाकाशादिकं प्रकृतिरेवोच्यते । न तु मन व्यादिकं व्यवसायाद्यसाधारणधर्मा
भावात् ॥ ७२ ॥
ननु ।
मायां तु प्रकृतिं विद्यामायिनं तु महेश्वरम् । यस्यावयवभूतैस्तु व्याप्त' सर्वमिदं जगत् ॥
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पञ्चमोऽध्यायः। .
१८८ इत्यादिश्रुतिभिः पुम्पकत्योरपि सावयवत्वादनित्यत्वमिति तवाह। न भागलाभो भोगिनो निर्भागवश्रुतेः ॥७३॥
भोगिनः पुरुषस्य प्रधानस्य चावयवो न युज्यते निरवयवत्व श्रुतेः।
निष्कलं निष्कृियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् । इत्यादिनेत्यर्थः। उक्त श्रुतिश्चाकाशजलयोरिव पितापुत्रचेतनयोरिव च विभागमात्रणांशांशिभावं बोधयतौति ॥७३॥
दुःखनिवृत्तिर्मोक्ष इत्य त तदवधारणाय तत्र मोक्षे परेषां मतानि निराकरोति ।
नानन्दाभिव्यक्तिमुक्तिर्निर्मित्वात् ॥ ७४ ॥
आत्मन्यानन्दरूपोऽभिव्यक्तिरूपश्च धर्मो नास्ति स्वरूपं च नित्यमेवेति न साधनसाध्यम्। अतो नानन्दाभिव्यक्तिर्मोक्ष इत्यर्थः ॥ ७४ ॥
न विशेषगुणोच्छित्तिस्तहत् ॥ ७५ ॥ अशेषविशेषगुणोच्छेदोऽपि न मुक्तिस्तहत् निधर्मवादेवेत्यर्थः। ननु तर्हि दुःखनिवृत्तिरेव कथं मोक्ष उक्तो दुःखाभावस्थापि धर्मत्वादिति चेन्न। अस्माभिर्भोग्यतासम्बन्धेनैव दुःखाभावस्य पुरुषार्थतावचनादिति ॥ ७५ ॥
न विशेषगतिर्निष्क्यिस्य ॥ ७६॥ ब्रह्मलोकगतिरपि न मोक्षः । आत्मनो निष्कियत्वेन गत्यभावात्। लिङ्गशरीराभ्युपगमे च न मोक्षो घटत इत्यर्थः
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सांख्यदर्शनम् ।
नाकारोपरागोच्छित्तिः . क्षणिकत्वादिदोषात् ॥ ७७।
क्षणिकञानमेवात्मा तस्य विषयाकारता बन्धस्तहासनाख्योपरागस्य नाशो मोक्ष इति यन्नास्तिकमतं तदपि न क्षणिकत्वादिदोषेण मोक्षस्थापुरुषार्थत्वादित्यर्थः । ७७ ॥
नास्तिकस्यैव मुक्त्यन्तरं दूषयति । न सर्वोच्छित्तिरपुरुषार्थत्वादिदोषात् ॥७८।
ज्ञानरूपस्यात्मनः सामग्राणैवोच्छित्तिरपि न मोक्षः । यात्मनाशस्य लोके पुरुषार्थत्वादशनादिभ्य इत्यर्थः । ७८ ॥
एवं शून्यमपि ॥ ७६॥ ज्ञाने जेयात्म काखिलप्रपञ्चनाशोऽप्येवमात्मनाशेनापुरुषार्थत्वाब मोक्ष इत्यर्थः ॥ ७ ॥
संयोगाश्च वियोगान्ता इति न देशादिलाभोऽपि ॥ ८०॥ प्रकष्टदेशधनाङ्गनादिखाम्यमपि न मोक्षो यतः ।
संयोगाश्च वियोगान्ता मरणान्तं च जौवनम् । इति श्रयत इत्यर्थः। तथा च विनाशित्वात् वाम्यं न मुक्तिरिति ॥ ८०॥
न भागियोगो भागस्य ॥ ८॥ ... भागस्यांशस्य जीवस्य भागिनि अंशिनि परमात्मनि लयो न मोक्षः। संयोगा हि वियोगान्ता इत्य का हेतोः। ईखरानभ्युपगमाञ्च । तथा खलयस्यापुरुषार्थत्वाञ्चत्यर्थः ॥ ८॥
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पञ्चमोऽध्यायः।
२०१
नाणिमादियोगोऽप्यवश्यंभावित्वात् तदुच्छित्तेरितरयोगवत् ॥ ८॥ ___ अणिमाद्यैश्वर्य सम्बन्धोऽपि न मुक्तिः। ऐश्वर्यान्तरसम्ब. ग्ववदेव तस्याप्युच्छेदनियमादित्यर्थः ॥ २ ॥
नेन्द्रादिपदयोगोऽपि तहत् ॥ ८३ ॥ इन्द्राद्यैश्वर्य लाभोऽपि न मुक्तिरितरैवयंवत् चयिष्णु त्वादित्यर्थः ॥ ८३॥
इन्द्रियाणामाहारिकत्व यदुक्तं तत्र परविप्रतिपत्ति निराकरोति । ___ न भूताप्रतित्वमिन्द्रियाणामाहङ्कारिकत्वश्रुतेः ॥८४॥
सुगमा योजना। पूर्व चैतद्याख्यातम् ॥८४ ॥
शत्यादिकमपि तत्त्वमस्तोत्यायेन परेषां पदार्थप्रति. नियमं तन्मात्रज्ञानान्मुक्तिं च निराकरोति ।
न षटपदार्थनियमस्तबोधान्मुक्तिः ॥८५॥ द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवाया एव पदार्था इति यदेशषिकाणां नियमो यश्च तज्ज्ञानान्मोक्ष इत्यभ्युपगमः । सोऽप्रामाणिकः। शक्त्याद्यतिरेकात्। पृथिव्यादिनवद्रव्येभ्यः प्रखतेरतिरकाञ्चेत्यर्थः। गन्धादिमत्त्वेनैव हि पृथिव्यादिव्यवहारो गन्धादिश्च साम्यावस्थायां भास्ति । अत: पृथिवौत्वादिजातिरपि घटत्वादिवत् कार्य मावत्तिरिति। तदुक्तम् ।
नाहो न रात्रिन नभो न भूमि. सौत् तमो ज्योतिरभूब चान्यत् ।
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सांख्यदर्शनम् ।
शब्दादिबुद्धयाापलभ्यमेकं
प्राधानिकं ब्रह्म पुमांस्तदासीत् ॥ इति ॥ ५ ॥
षोड़शादिष्वप्येवम् ॥८६॥ न्यायपाशुपतादिमतेषु षोडशादिष्वपि न नियमो न वा सम्मानज्ञानान्मुक्तिः। उक्तरूपेण पदार्थाधिक्यादित्यर्थः । अस्ममते तु नित्य पदार्थ हयमेव। नित्यानित्यसाधारणास्तु पदार्थाः पञ्चविंशतिरेवेति नियमः। पञ्चविंशतिद्रव्येष्वेव गुणकर्मसामान्यशक्त्यादीनामन्तर्भाव इति ॥८६॥
पञ्चभूतानां पूर्वोक्त कार्यत्वोपपत्त्वर्थ वैशेषिकाद्यभ्य पगतं पार्थिवाद्यणुनित्यत्वमपाकरोति।
नाणुनित्यता तत् कार्यत्वश्रुतेः ॥ ८७॥ पृथिव्याद्यण नां नित्यता नास्ति तेषामणनामपि कार्यत्वश्रुतेरित्यर्थः । यद्यप्यस्माभिः सा अतिनं दृश्यते काललुप्तत्वा. दिना तथाप्याचायवाक्यान्मनुस्मरणाच्चानुमेया। यथा मनुः ।
अख्यो मात्रा विनाशिन्यो दशार्धानां च याः स्मृताः । ताभिः साईमिदं सर्वं सम्भवत्यनुपूर्वशः।
इति। दशार्धानां पृथिव्यादिपञ्चभूतानाम्। न चान वाक्येऽणुशब्देन हाणुकाद्य व ग्राह्यमिति वाच्यम्। सोचे प्रमाणाभावादिति। पत्राणुशब्दो भूतपरमाणुपर एव । वैशेषिकाद्यभिमतं च तस्य नित्यत्वमनेन सूत्रेण निराक्रियते । न त्वणुपरिमाणद्रव्यसामान्य स्य नित्यत्वं रजोगुणस्य चाञ्चल्या. नुरोधेनामुत्वसिद्धेः। मध्यमपरिमाणत्वे नित्यत्वस्य विभुत्व च क्रियाया अनुपपत्ते रिति । ८७ ॥
ननु निरवयवस्य परमाणोः कथं कार्यत्व घटते तबाह ।
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पञ्चमोऽध्यायः।
२०३
न निर्भागत्वं कार्यत्वात् ॥८८॥ अतिसिद्ध कार्य त्वान्यथानुपपत्त्या पृथिव्याधणूनां न निरवयवत्वमित्यर्थः। अत एव तन्मात्राख्यसूक्ष्मद्रव्याण्य व पार्थिवाद्यणनामवयवा इति पातञ्जलभाथे व्यासदेवैः प्रतिपादितम्। पृथिवीपरमाणुजल परमाणुरित्यादिव्यवहारस्तु पृथिव्यादौनामपकर्षकाष्ठाभिप्रायेणैव । अतः प्रकृतिपर्यन्तमणुवेऽपि न क्षतिरिति । यद्यपि तन्मात्रे ष्वपि गन्धाद्यस्ति तथापि तस्याप्रत्यक्षतया न पृथिवीत्वादिनियामकत्वम् । व्यङ्गयगन्धादेरेव पृथिवौत्वादिसिडेः। अतो न तन्मात्राणि पृथिव्यादयः । तेषु च सूक्ष्मभूतव्यवहारो भूतसाक्षात्कारणत्वादिनवेत्यपि बोध्यम् ॥८८॥
प्रतिपुरुषसाक्षात्कारो न सम्भवति रूपस्य द्रव्यसाक्षात्कारहेतुत्वादिति नास्तिकाक्षेपं निराकरोति।
न रूपनिबन्धनात् प्रत्यक्षनियमः ॥॥ रूपादेव निमित्तात् प्रत्यक्षतेति नियमो नास्ति । धर्मादिनापि साक्षात्कारसम्भवादित्यर्थः। व्यञ्जकानियमस्याननादौ दृष्टव नादोषत्वात् । अतो वहिद्रव्यलौकिकप्रत्यक्षं प्रत्ये वोङ्गतरूपं व्यञ्चकमिति भावः ॥ ८ ॥
नन्वेवं किमणु परिमाणं वस्त्वस्ति न वेत्याकाङ्कायां परिमाणनिर्णयं करोति। न परिमाणचातुर्विध्यं हाभ्यां तद्योगात् ॥१०॥ __ घणु महद्दीषं इस्वमिति परिमाण चातुर्विध्यं नास्ति। दैविध्यं तु वर्तत एव । हाभ्यां तद्योगात् । हाभ्यामवाणुमहत्परिमाणाभ्यां चातुर्विध्यसम्भवादित्यर्थः। महत्परिमाणस्याअन्तरभेदावेव हि इखदौधौं। अन्यथा वक्रादिरूपैः परि
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२०४
सांख्यदर्शनम्।
माणानन्त्यप्रसङ्गादिति। तत्रास्मन्नयेऽणु परिमाणमाकाशस्य कारणं गुणविशेषं वर्जयित्वा भूतेन्द्रियाणां मूलकारणेषु सत्त्वादिगुणेषु मन्तव्यम्। अन्यत्र यथायोग्य मध्यमादिपरममहत्त्वा. तपरिमाणानि तानि च महत्त्वस्य वावान्तरभेदा इति ॥६॥
पुरुषैकत्वं मामान्येनेति कण्ठत एवोक्त प्रकृतेरेकत्व मामान्य नेत्यर्थादुक्त तदर्थ सामान्य षु नास्तिकविप्रतिपत्ति निराकरोति।
अनित्यत्वेऽपि स्थिरतायोगात् प्रत्यभिज्ञानं सामान्यस्य ॥११॥
व्यक्तौनामनित्यत्वेऽपि स एवायं घट इति स्थिरतायोगेन यत् प्रत्यभिज्ञानं तत् सामान्यस्य सामान्यविषयकमेव तत् प्रत्यभिज्ञानमित्यर्थः ॥ ११ ॥ तस्मान्न सामान्यापलायो युक्त इत्याह ।
न तदलापतक्षात् ॥१२॥ सुगमम् ॥ ८२॥ नन्वतयारत्तिरूपेणाभावेनैव प्रत्यभिज्ञोपपादनीया सैव च सामान्यशब्दार्थोऽस्तु तत्वाह ।
नान्यनित्तिरूपत्वं भावप्रतीतेः॥१३॥ स एवायमिति भावप्रत्ययानिवृत्तिरूपत्व न सामान्यस्य - त्यर्थः । अन्यथा हि नायमवट इत्येव प्रतौयेत । किञ्चान्यव्यावृत्तिशब्दस्याघटव्यात्तिरित्यर्थो वाच्यः । तत्राघटत्य घट. सामान्यभिन्नत्वमिति सामान्याम्य पगम एवापतित इति ॥३॥ मनु सादृश्यनिबन्धना प्रत्यभिज्ञा भविष्यति तवाह। न तत्त्वान्तरं सादृश्यं प्रत्यक्षोपलब्धे ॥१४॥
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पञ्चमोऽध्यायः।
भूयोऽवयवादिसामान्यादतिरिक्त न सादृश्यमस्ति प्रत्यक्षत एव सामान्यरूपतयोपलम्भादित्यर्थः ॥ ४ ॥
ननु स्वाभाविको शक्तिरेव सादृश्यमस्तु न तु तत् सामान्वमित्याशङ्कामपाकरोति।
निजशक्त्यभिव्यक्तिर्वा वैशिध्यात् तदुपलब्धेः
वस्तुनः स्वाभाविकशक्तिविशेषोत्पादोऽपि न सादृश्यं शक्य - पलब्धि तः सादृश्योपलब्धेविलक्षणलात्। शक्ति ज्ञान हि नान्यधर्मिन्नानसापेक्षं सादृश्यज्ञानं पुनः प्रतियोगिज्ञानमपेक्षतेऽभावज्ञानवदिति ज्ञानयोर्वेलक्षण्यमित्यर्थः । किञ्च धर्मिणः शक्तिसामान्यं न सादृश्यं बाल्यावस्थायामपि युवमाश्यापत्तेः । किन्तु युवादिकालीन: शक्तिविशेषो युवादिसादृश्यमिति वक्तव्यं तथा च प्रतिव्यत्य नन्तशक्ति कल्पनापेक्षया सर्वव्यक्तिसाधारण कसामान्य कल्पनैव युक्तोति ॥ ८५ ॥ . ननु तथापि घटादिसंजकत्वमेव घटादिव्यतीनां सादृश्यमन्तु तत्राह।
न संज्ञासंतिसम्बन्धोऽपि ॥१६॥ यथोक्तः संज्ञासंजिनोः सम्बन्धोऽपि न सादृश्यं वैशिष्ट्यात् नदपलब्ध रेवेत्यर्थः । संज्ञासंनिभावमजानतोऽपि सादृश्य ज्ञानादिति ॥२६॥ अपिच।
न सम्बन्धनित्यतोभयानित्यत्वात् ॥१७॥ मंज्ञामंजिनोरनित्यत्वात् सत्सम्बन्धस्यापि न नित्यता। अतः कथं तेनातीतवस्तुसादृश्यं वर्तमानवस्तुनि स्यादि यर्थ: ।। ८७ ॥
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सांख्यदर्शनम्।
ननु सम्बभ्यनित्यत्वेऽपि सम्बन्धी नित्यः स्यात् किमत बाधकं तवाह। नातः सम्बन्धी धर्मिग्राहकप्रमाणबाधात् ॥८॥
कादाचित्कविभागे सत्य व सम्बन्धः सिध्यति। अन्यथा वद्यमाणरीत्या स्वरूपेणैवोपपत्तौ सम्बन्धकल्पनानवकाशात् । स च कादाचित्को विभागो न सम्बन्धनित्यत्वे सम्भवति। अतः सम्बन्धग्राहकप्रमाणे नैव बाधान नित्यः सम्बन्ध इत्यर्थः ॥८॥
नन्वेवं नित्ययोर्गुणगुणिनोनित्यः समवायो नोपपद्येत तवाह।
न समवायोऽस्ति प्रमाणाभावात् ॥१६॥ सुगमम् ॥ ८॥
ननु वैशिष्ट्यप्रत्यक्षं विशिष्टब धन्यथानुपपत्ति प्रमाणं तवाह।
उभयवाप्यन्यथासिद्देन प्रत्यक्षमनुमानं वा
उभयत्रापि वैशिष्ट्यप्रत्यक्षे तदनुमाने च स्वरूपेणैवान्यथासिद्धेनं तदुभयं समवाये प्रमाणमित्यर्थः । अयं भावः । यथा समवायवैशिध्यबुद्धिः समवायखरूपेणैवेष्यतेऽनवस्थाभयादिति तत्र प्रत्यक्षानुमाने अन्यथासिद्धे । एवं गुणगुणिप्रभृतौनां विशि
बहिरपि गुणादिस्वरूपेणैवेष्यताम् । अतस्तत्रापि प्रत्यक्षानुमाने अन्यथासिद्धे इति। नन्वेवं संयोगोऽपि न सिध्यति भूत. लादौ घटादिप्रत्ययस्यापि स्वरूपेणैवान्यथासिद्धेरिति चेन्न । वियोगकालेऽपि भूतलघटयोः स्वरूपतादवस्थ्येन विशिष्टबुद्धिप्रसङ्गात् । समवायस्थले च समवेतस्य कदापि स्वाश्रयवि.
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पञ्चमोऽध्यायः ।
योगो नास्तीति नायं दोषः । कचित् तु तादामासम्बन्धेनाव समवायस्यान्यथासिद्दिमाह तत्र । शब्दमात्रभेदात् । तादामंत्र ह्यत्र नात्यन्तं वक्तव्यम् । गुणवियोगेऽपि गुणिसत्त्वात् । वैशिष्ट्याप्रत्ययाश्च । किन्तु भेदाभेदबुद्दिनियामक: सम्बन्धविशेष एव श्रगत्या वक्तव्यः । तथाच तस्य समवाय इति वा तादात्मामिति वा नाममात्रं भिन्नम् । सम्बन्धियातिरिक्तः सम्बन्धस्तु सिद्ध एवेति । यदि च तादात्मा' स्वरूपमेवोच्यते तदास्माभिरपि तदेवोक्तमिति शब्दमात्रभेद इति ॥ १०० ॥
प्रकृतेः चोभात् प्रकृतिपुरुषसंयोगस्तस्मात् सृष्टिरिति सिद्धान्तः । तत्रायं नास्तिकानामाक्षेपो नास्ति चोभाख्या कस्यापि क्रिया सर्व वस्तु क्षणिकं यत्त्रोत्पद्यते तत्रैव विनश्य तौत्यतो न देशान्तरसंयोगोनेया क्रिया सिध्यतीति तत्राह ।
२०७
नानुमेयत्वमेव क्रियाया नेदिष्ठस्य तत्तदतोरेवापरोक्षप्रतीतेः ॥ १०१ ॥
न देशान्तरसंयोगादिना क्रियाया अनुमेयत्वमेव । यतो नेदिष्ठस्य निकटस्थस्य द्रष्टुः क्रियाक्रियावतोः प्रत्यक्षेणापि प्रतीतिरस्ति वृक्षचलतीत्यादिरित्यर्थः ॥ १०१ ॥
द्वितीयाध्याये शरौरस्य पाञ्चभौतिकत्वादिरूपैर्मतभेदाएवोक्ता न तु विशेषोऽवष्टतः । अनापरपचं प्रतिषेधति ।
न पाञ्चभौतिकं शरीरं बहूनामुपादानायोगात् ॥ १०२ ॥
बहूनां भिन्नजातीयानां चोपादानत्वं घटपटादिस्थले न दृष्टमिति सजातीयमेवोपादानम् । इतरञ्च भूतचतुष्टय
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२०८
सांख्य दर्शनम्।
मुपष्टम्भकमित्याशयेन पाञ्चभौतिकव्यवहारः। एकोपादानकत्वेऽपि पृथिव्येवोपादानं सर्वशरीरस्यति वक्ष्यति ॥ १०२ ॥
स्थूलमेव शरीरमिति केचित् तनिराकरोति ।
न स्थूलमिति नियम आतिवाहिकस्यापि विद्यमानत्वात् ॥ १०३ ॥ इन्ट्रियाश्रयत्व शरीरत्वम् । यन्मूत्य वयवाः सूक्ष्मास्तस्य मान्याश्रयन्ति षट । तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूर्ति मनीषिणः ॥ इति मनुवाक्यात्। एतादृशं च शरीरं स्थ लं प्रत्यक्षमवेति न नियमः । कुतः । आतिवाहिकस्याप्रत्यक्षतया स्नूक्ष्म स्य भौतिकस्य शरीरान्तरस्थापि सत्त्वादित्यर्थः । लोकाल्लोकान्तरं लिङ्गदेहमतिवाहयतौल्यातिवाहिकम्। भूताश्रयतां विना चित्रादिवद्गमनाभावस्य प्रागेवोक्त त्वात् । इदं च सूत्रं तस्यैव स्पष्टीकरणमानार्थम् । लिङ्गस्य च शरीरत्वं भोगाश्रयतया पुरुषप्रतिविम्बाश्यतया वेति बोध्यम्। यातिवाहिकशरीर च प्रमाणम्।
अङ्गठमावः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सनि विष्टः।
___ अङ्गुष्ठमात्र पुरुषं निश्कर्ष बलाद्यमः । इति श्रुतिस्मृती। न हि लिङ्गशरीरस्य सकलशरीरव्यापिन: स्वतोऽङ्गुष्ठमात्रत्व सम्भवति। अत आधारस्याङ्गुष्ठमात्रमर्थात् सिध्यति। यथा दीपस्य सर्वग्टहव्यापित्वेऽपि कलिकाकारत्व तैलवादिसूक्ष्मांशस्य दशोपरि सम्पिण्डि तस्य पार्थिवभागत्य कलिकाकारतया तथैव लिङ्देहस्य देहयापि
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पञ्चमोऽध्यायः।
२०८
त्वेऽप्यङ्गष्ठ परिमाणत्वं सूक्ष्म भूतस्याङ्गुष्ठपरिमाणवे नानुमेयमिति ॥ १.३॥
गोलकेभ्योऽतिरिक्तानौन्द्रियाणि प्रागुक्तानि तदुपपादनायेन्द्रियाणामप्राप्तप्रकाशकत्व निराकरोति।
नाप्राप्तप्रकाशकत्व मिन्द्रियाणामप्राप्तेः सर्वप्राप्तेर्वा ॥ १०४॥
खासम्बद्धार्थानौन्द्रियाणि न प्रकाशयन्ति। अप्राप्तः । प्रदीपादौनामप्राप्तप्रकाशकत्वादर्शनात् । अप्राप्तप्रकाशकत्व व्यवहितादिसर्ववस्तुप्रकाशकत्वप्रसङ्गाचेत्यर्थः । अतो दूरस्थसूर्यादिसम्बन्धाथं गोल कातिरिक्तमिन्द्रियमिति भावः । करणानां चार्थ प्रकाशकत्वं पुरुषेऽर्थसमर्पणहारैव। खतो जडत्वात्। दर्पणस्य मुखप्रकाशकत्ववत्। अथवार्थप्रतिविम्बोद: ग्रहणमेवार्थप्रकाशकत्वमिति ॥ १४ ॥ __नन्वेवं चक्षुषस्तैजसत्वमेव युक्तं तेजस एव किरणरूपेणाशु दूरापमर्पणदर्शनादिति शङ्कां निराकरोति ।
न तेजोऽपसर्पणात् तैजसं चक्षुत्तितस्तत्सिद्धेः ॥ १०५ ॥
तेजसोऽपसपणं दृष्टमिति कृत्वा तैजसं चक्षुर्न वाच्यम् । कुतः। अतैजसत्वेऽपि प्राणवदेव वृत्तिभेदेनापसर्पणोपपत्तेरित्यर्थः । यथा हि प्राणः शरीरं सन्त्यज्यैव नासाग्राहिः कियदृरं प्राणनाख्यरत्त्यापसरति । एवमेवातैजसद्रव्यमपि चतुर्देहमसन्त्यज्यापि वृत्त्याख्यपरिणामविशेषेण भटित्य व दूरस्थ सूर्यादिकं प्रत्यपसरेदिति ॥ १०५ ॥
नन् वम्भतरत्तो किं प्रमाणं तबाह ।
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सांख्यदर्शनम् । प्राप्तार्थप्रकाशलिङ्गाद्वृत्तिसिदिः ॥ १०६ ॥ सुगमम् ॥ १०६ ॥ देहमपरित्यज्यापि गमनोपपत्तये वृत्त : स्वरूपं दर्शयति ।
भागगुणाभ्यां तत्त्वान्तरं दृत्तिः सम्बन्धार्थ सर्पतौति ॥ १०७॥
सम्बन्धाथं सर्प तौति हेतोश्चक्षुरादेर्भागो विस्फलिङ्गवधिभक्तांशो रूपादिवट्गुणश्च न हात्तः। किन्तु तदेकदेशभूता भागगुणाभ्यां भिन्ना वृत्तिः। विभागे हि सति तद्दारा चक्षुषः सूयादिसम्बन्धो न घटते गुणत्वं च सर्पणाख्यक्रियानुपपत्तेरित्यर्थः । एतेन बहित्तिरपि प्रदीपशिखाबद्र्व्यरूप एव परिणामः स्वच्छतवार्थाकारतोद्ग्राही निर्मलवस्त्रवदिति सिद्धम् ॥ १०७ ॥
नन्व वं वृत्तीनां द्रव्यत्वे कथमिच्छादिरूपबुद्धिगुणेषु रत्तिव्यवहारस्त नाह।
न द्रव्य नियमस्तद्योगात् ॥ १०८॥ वृत्ति व्य मेवेति नियमो नास्ति । कुतः । तद्योगात् । तन वृत्तौ योगार्थसत्त्वात् । वृत्तिवर्तन जीवन इति हि यौगिकोऽयं शब्दः । जीवनं च स्वस्थितिहेतुापारः । जीवबलप्राणधारणयोरित्यनुशासनात् । वैश्यत्तिः शूद्रवत्तिरित्यादिव्यवहाराच । तत्र यथा द्रव्यरूपया वृत्त्या बुद्धिर्जीवति तथेच्छादिभिरति तेऽपि वृत्तयः सर्वनिरोधेनैव चित्तमरणादित्यर्थः ॥ १०८॥
इन्द्रियाणां भौतिकत्वस्यापि श्रवणात् कदाचिल्लोकविशेषभेदेन श्रुतिव्यवस्था शयत तनाह ।
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पञ्चमोऽध्यायः ।
न देशभेदेऽप्यन्योपादानता स्मदादिवन्नियमः ॥ १०६ ॥
न ब्रह्मलोकादिदेशभेदतोऽपोन्द्रियाणामहङ्कारातिरिक्तोपादानकत्वं किन्त्वस्मदादीनां भूलॊकस्थानामिव सर्वेषामेवा. हङ्कारिकत्वनियमः । देशभेदेनकस्यैव लिङ्गशरीरस्य सचारमाजश्रवणादित्यर्थः ॥ १० ॥ नन्वेवं भौतिकत्वश्रुतिः कयमुपपद्यतां तबाह ।
निमित्तव्यपदेशात् तहापदेशः ॥ ११० ॥ निमित्तेऽपि प्राधान्यविवक्षयोपादानवव्यपदेशो भवति। यऽन्धनादनिरिति । अतो भूतोपादानत्वव्यपदेश इत्यर्थः । तेज आदिभूतोपष्टम्भे नैव हि तदनुगताहङ्काराच्चक्षुरादीन्द्रियाणि सम्भवन्ति। यथा पार्थिवोपष्ट शेन तदनुगतात् तेजमोऽग्निर्भवतीति। अन्नमयं हि सौम्य मन इत्यादिश्रुतिस्तदुक्तयुक्तिश्चात्र प्रमाणम् ॥ ११० ॥ स्थलशरीरगतं विशेषं प्रसङ्गादवधारयति ।
ऊष्मजाण्डजजरायुजोझिज्जसाझल्पिकसांसिविक चेति न नियमः ॥ १११ ॥
तेषां खल्वेषां भूतानां लौण्खेव वीजानि भवन्ति । अण्डज जीवजमुद्भिज्जमितिश्रुतावण्ड जादिरूपं शरीरत्रैविध्यं प्रायिकाभिप्रायेणोक्तं न तु नियमः । यत ऊपजादि षड्विधमेव शरीरं भवतीत्यर्थः । तत्रोमजा दन्दशूकादयः। अण्डजाः पक्षिसादयः। जगयुजा मनुष्यादयः। उद्भिज्जाः वृक्षादयः। सङ्कल्पजाः सनकादयः। सांसिद्धिका मन्त्रतप आदि. सिद्धिजाः । यथा रक्तवीजशरीरोत्पन्नशरीरादय इति ॥१११॥
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सांख्यदर्शनम् ।
शरीरस्यैकमात्रभूतोपादानकत्वं पूर्वोक्तमनेनेव प्रसङ्गेन
विशिष्याह ।
सर्वेषु पृथिव्युपादानमसाधारण्यात् तापदेश: पूर्ववत् ॥ ११२ ॥
सर्वेषु शरीरेषु पृथिव्येवोपादानम् । असाधारण्यात् । व्याधिक्यादिभिरुत्कर्षात् । अत्रापि शरौरे पञ्चचतुरादिभौतिकत्वव्यपदेशः पूर्ववत् । इन्द्रियाणां भौतिकत्ववदुपष्टम्भकत्वमात्रेणेत्यर्थः ॥ ११२ ॥
ननु प्राणस्य शरीरे प्राधान्यात् प्राण एव देहारम्भकोऽस्तु
२१२
तत्राह ।
न देहारम्भकस्य प्राणत्वमिन्द्रियशक्तितस्तत्सिद्धेः ॥ ११३ ॥
प्राणो न देहारम्भकः । इन्द्रियं विना प्राणानवस्थानेनान्वयव्यतिरेकाभ्यामिन्द्रियाणां शक्तिविशेषादेव प्राणसिद्धेः प्राणीस्पत्तेरित्यर्थः । श्रयं भावः । करणवृत्तिरूपप्राणः करणवियोगे न तिष्ठति । अतो मृतदेहे करणाभावेन प्राणाभावान्न प्राणा देहारम्भक इति ॥ ११३ ॥
नन्वेवं प्राणस्य देहाकारणत्वं प्राणं विनापि देह उत्पद्येत
तवाच ।
भोक्तुरधिष्ठानाह्नोगायतन निर्माणमन्यथा पूर्ति - भावप्रसङ्गात् ॥ ११४ ॥
भोक्तुः प्राणिनोऽधिष्ठानाद्यापारादेव भोगायतनस्य शरीरस्य निर्माणं भवति । अन्यथा प्राणव्यापाराभावे शक्रशोणितयोः पूतिभावप्रसङ्गात् । मृतदेहवदित्यर्थः । तथा च रस
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पञ्चमोऽध्यायः ।
२१३
चारादिव्यापारविशेषेः प्राणो देहस्य निमित्तकारणं धार
कत्वादिति भावः ॥ ११४ ॥
ननु प्राणस्यै वाधिष्ठानत्वं सम्भवति व्यापारवत्त्वात् । न प्राणिनः कूटस्थत्वात् । निर्व्यापारस्याधिष्ठाने प्रयोजनाभावाचेति तत्राह ।
भृत्यद्दारा स्वाम्यधिष्ठितिनैकान्तात् ॥११५॥
देहनिर्माणे व्यापाररूपमधिष्ठानं खामिनचेतनस्यैकान्तात् साक्षान्नास्ति किन्तु प्राणरूपभ्भृत्यद्वारा । यथा राज्ञः पुरनिर्माण इत्यर्थः । तथा च प्राणस्याधिष्ठातृत्व' साक्षात् पुरुषस्याधिष्ठातृत्व' प्राणसंयोगमात्रेणेति सिद्धम् । कुलालादीनां घटादिनिर्माणेष्वप्येवम् । विशेषस्त्वयं तत्र चेतनस्य बुधाटेश्वाप्युपयोगोऽस्ति बुद्धिपूर्वकसृष्टित्वादिति । यद्यपि प्राणाधि छानादेव देहनिर्माणं तथापि प्राणद्वारा प्राणिसंयोगोऽप्यपेच्यते पुरुषार्थमेव प्राणेन देहनिर्माणादित्याशयेन भोक्तुरधिष्ठानादित्युक्तम् ॥ ११५ ॥
विमुक्तमोक्षार्थं प्रधानस्येत्युक्तः प्राक् तत्र कथमात्मा नित्यमुक्तो बन्धमुक्तो बन्धदर्शनादिति परेषामाक्षेपे नित्यमुक्तिमुपपादयितुमाह ।
समाधिमुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता ॥ ११६ ॥
स्व स्वरूप
समाधिरसंम्प्रज्ञातावस्था । सुषुप्तिश्चात्र समग्र सुषुप्तिः । मोक्षश्च विदेहकैवल्यम् । आत्ववस्थासु पुरुषाणां ब्रह्मरूपता बुद्धिष्टत्तिविलयतस्तदौपाधिक परिच्छेदविगमेन पूर्णतयावस्थानम् । यथा घटध्वंसे घटाकाशस्य पूर्णतत्यर्थः । तदेतदुक्तम् । तनिवृत्तावुपशान्तोपरागः स्वस्थ इति । तथा च ब्रह्मत्वमेव पुरुषाणां स्वभावो नैमित्तिकत्वाभावात् स्फटिकस्य
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२१४
सांख्यदर्शनम्।
शोलामिव । बुद्धित्तिसम्बन्धकाले तु परिच्छिन्नचिद्रूपत्वेनाभिव्यक्त्या परिच्छेदाभिमानः। तथा वृत्तिप्रतिविम्बवशाह :खादिमालिन्यमिव च भवतीति तत् सर्वमोपाधिकमेव । उपाध्याख्यनिमित्तान्वयव्यतिरेकानुविधानात् स्फटिकलौहित्यवदिति भावः। तथा च योगसूत्रम् । इत्तिसारूप्यमितरत्रेति। अस्मच्छास्त्रे च ब्रह्म शब्द औपाधिकपरिच्छेदमालिन्यादिरहितपरिपूर्णचेतनसामान्यवाची न तु ब्रह्मामीमांसायामिवैश्वर्योपलक्षितपुरुषमात्रवाचौति विवक्तव्यम्। प्रत्रैते श्लोकाः शिष्यव्युत्पत्त्यर्थमुच्यन्ते।
चिदाकाशेऽनभिव्यक्त नानाकारैरितस्ततः । धोरटन्तौ सह व्यक्त्या चिदटन्ती प्रदर्शयेत् ॥ वस्तुतस्तु सदा पूर्ण मेकरूपं च चिनमः । वृत्तिशून्यप्रदेशेषु दृश्याभावान्न पश्यति ॥ चक्षुषो रूपवत् पुसो दृश्या वृत्तिहि नेतरत् । समाध्यादौ च सा नास्तीत्यतः पूर्णः पुमांस्तदा ॥११६॥ तर्हि कः सुषुप्तिसमाधिभ्यां मोक्षस्य विशेषस्तत्राह।
हयोः सवौजमन्यत्र ततिः ॥ ११७॥ हयोः समाधिसुषु त्योः सवौज बन्धवौजसहितं ब्रह्मत्वमन्यत्र मोक्षे वौजस्याभाव इति विशेष इत्यर्थः । ननु चेत् समा. ध्यादी बन्धवोजमस्ति तहि तेनैव परिच्छेदात् कथं ब्रह्मत्वमिति चेत्र। बन्धवौजस्य कर्मादेस्तदानौमुपाधावेवावस्थानात् । न तु चेतनेषु पुरुषे च तेषामप्रतिविम्बनादिति । जाग्रदाधव थायां तु बुरित्तिप्रतिविम्बवशादौपाधिको बन्ध इत्यसकदावेदितम् ॥ ननु पातञ्जले तद्भाष्ये चासम्प्रज्ञातयोगो नि:ज उक्तः। अत्र कथं सवीज उच्यत इति चेन्न ।
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पञ्चमोऽध्यायः ।
२१५
असम्प्रज्ञाते क्रमेण वीजक्षयो भवतीत्याशयेनैव तत्र निर्वीजत्ववचनात् । अन्यथा सर्वासामेवासम्प्रज्ञातव्यक्तीनां निरूजत्वे व्युत्थानानुपपत्तरिति ॥ ११७ ॥
ननु समाधिसुषप्ती दृष्टे स्तो मोक्षे तु किं प्रमाणमिति नास्तिकाक्षेपं परिहरति। इयोरिव त्रयस्यापि दृष्टत्वान्न तु हौ ॥ ११८॥
समाधिसुषुप्तिदृष्टान्तेन मोक्षस्यापि दृष्टत्वादनुमितत्वान्न तु हौ सुषुप्तिसमाधी एव। किन्तु मोक्षोऽप्यस्तीत्यर्थः । अनुमानं चेत्थम् । सुषस्यादो यो ब्रह्मभावस्तत्त्यागश्चित्तागताद्रागादिदाषवशादेव भवति । स चेद्दोषो जानेन नाशितस्ताह सुषप्त्यादिसशस्य वावस्था स्थिरा भवति सैव मोक्ष इति ॥११८॥
ननु वासनाख्यवौजसत्त्वेऽपि वैराग्यादिना वासना कीण्यादाकारा हत्तिः समाधौ मा भवतु सुषुप्त तु वासनाप्राबल्यादर्थज्ञानं भविष्यत्वे वेति न सुषुप्तौ ब्रह्मरूपता युक्तति तवाह।
वासनयानर्थख्यापनं दोषयोगेऽपि न निमित्तस्य प्रधानबाधकत्वम् ॥ ११६ ॥
यथा वैराग्य तथा निद्रादोषयोगेऽपि सति वासनया म स्वार्थख्यापनं स्वविषयस्मारणं भवति । यतो न निमित्तस्य गुणीभूतस्य संस्कारस्य बलवत्तरनिदादोषबाधकत्व सम्भवतीत्यर्थः। बलवत्तर एव हि दोषो वासनां दुर्बला स्वकार्यकुण्ठां करोतीति भावः ॥ १८ ॥ __ संस्कारलेशतो जीवन्म तस्य शरीरधारणमिति तोयाध्याये प्रोताम्। तत्रायमाक्षेपः । जीवन्म तस्य शवदेकस्मिबप्यर्थेऽस्मदादौनामिव भोगो दृश्यते सोऽनुपपत्रः प्रथमं भोग
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२१६
सांख्यदर्शनम्। मुत्पाद्य व पूर्वसंस्कारनाशात् संस्कारान्तरस्य च ज्ञानप्रतिबधेन कर्मवदनुदयादिति तनाह।
एकः संस्कारः क्रियानिवर्तको न तु प्रतिक्रियं संस्कारभेदा बहुकल्पनाप्रसक्तः॥ १२० ॥
येन संस्कारेण देवादिशरीरभोग प्रारब्धः स एक एक संस्कारस्तच्छरोरसाध्यस्य प्रारब्धभोगस्य समापकः। स च कर्मवदेव भोगसमाप्तिनाश्यो न तु प्रतिक्रियं प्रतिभोगव्यक्तिसंस्कारनानात्व बहुव्यक्ति कल्पनागौरवप्रमादित्यर्थः । कुलालचक्रनमणस्थ लेऽप्येवं वेगाख्यः संस्कार एक एव भ्रमणसमा. तिपय न्तस्थायो बोध्यः ॥ १२ ॥
उद्भिज्जं शरीरमस्तीत्यु क्तं तत्र बाह्यबुद्धाभावाच्छरीरत्व नास्तीति नास्तिकाक्षेपमपाकरोति। __न वा बुड्विनियमो टक्षगुल्मलतीषधिवनस्पतिवणवीरुधादीनामपि भोक भोगायतनत्वं पूर्ववत् ॥ १२१ ॥
न वाच्यज्ञानं यजास्ति तदेव शरीरमिति नियमः किन्तु वृक्षादीनामन्तःसंज्ञानामपि मोक्तभोगायतनत्वं शरीरत्व मन्तव्यम् । यतः पूर्ववत् पूर्वोक्तो यो भोक्त्रधिष्ठानं विना मनुथादिशरीरस्य पूतिभावस्तहदेव वृक्षादिशरौरेष्वपि शुष्कतादिकमित्यर्थः। तथा च श्रुतिः। अस्य यदेकां शाखां जीवो जहात्यथ सा शुष्थतीत्यादिरिति । न वाह्यबुद्धिनियम इत्यशस्य पृथक सूत्रत्वेऽपि सूत्रयमको कत्येत्थमेव व्याख्येयम् । सूत्रभेदस्तु दैयं भयादिति बोध्यम् ॥ १२१ ॥
स्मृतेश्च ॥ १२२॥
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पञ्चमोऽध्यायः ।
शरीरजेः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः । वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् ॥ इत्यादिस्मृतेरपि वृचादिषु भोक्तृभोगायतनत्वमित्यर्थः
वाह ।
॥ १२२ ॥
ननु वृक्षादिष्वप्येवं चेतनत्वेन धर्माधर्मोत्पत्तिप्रसङ्गस्त
२१७
न देहमात्रतः कर्माधिकारित्वं वैशिष्टयश्रुतेः
॥ १२३ ॥
न देहमात्रेण धर्माधर्मोत्पत्तियोग्यत्व' जीवस्य । कुतः । वैशिष्ट्य श्रुतेः । ब्राह्मणादिदेहविशिष्टत्वेनैवाधिकारश्रवणादित्यर्थः ॥ १२३ ॥
देहभेदेनैव कर्माधिकारं दर्शयन् देहवं विध्यमाह । त्रिधा त्रयाणां व्यवस्था कर्मदेहोपभोगदे होभयदेहाः ॥ १२४ ॥
त्रयाणामुत्तमाधममध्यमानां सर्वप्राणिनां त्रिप्रकारो देह विभागः । कर्मदेहभोग देहोभयदेहा इतीत्यर्थः । तत्र कर्मदेहः परमर्षीणां भोगदेह इन्द्रादीनामुभयदेहश्च राजर्षीणामिति । अत्र प्राधान्येन विधा विभागः । अन्यथा सर्वस्यैष भांगदेहत्वापत्तेः ः ॥ १२४ ॥
चतुर्थमपि शरीरमाह ।
न किञ्चिदप्यनुशयिनः ॥ १२५ ॥ विद्यादनुशयं द्वेष्यं पश्चात्तापानुतापयोः ।
इतिवाक्यादनुशयो वैराग्यम् । विरक्तानां शरीरमेतत्रयविलक्षणमित्यर्थः । यथा दत्तात्रेयजडभरतादीनामिति ॥ १२५ ॥
१८
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२१८ सांख्यदर्शनम्।
उक्तस्येवराभावस्य स्थापनाय पराम्य पगतं ज्ञानेच्छाकत्यादिनित्यत्वप्रतिषेधति।
न बुड्यादिनित्यत्वमाश्रयविशेषेऽपि वह्निवत् ॥ १२६ ॥
बहिरवाध्यवसायाख्या वृत्तिः। तथा च ज्ञानेच्छाकत्यादौनामाश्रयविशेषे परैरोवरोपाधितयाभ्युपगतेऽपि नित्यत्व नास्ति । अस्मदादिबुद्धिदृष्टान्तेन सर्वेषामेव बुद्धीच्छादीनामनित्यत्वानुमानात्। यथा लौकिकवह्निदृष्टान्तेनावरण तेजसोऽप्यनित्यत्वानुमानमित्यर्थः ॥ १२६ ॥
पास्तां तावज्ज्ञानेच्छादेनित्यत्वं तदाश्रय ईश्वरोपाधिरेवासिद्ध ईखरस्यासिद्धेरित्यत आह ।
आश्रयासिद्धेश्च ॥ १२७॥ सुगमम् ॥ १२७॥
नववं ब्रह्माण्डादिसर्जनसम) सर्वज्ञत्वादिकं कथं जन्यं सम्भाव्यतापि लोके तपादिभिरेवमैश्वर्यादर्शनादिति तत्राह।
योगसिड्न योऽप्यौषधादिसिद्धिवन्नापलपनौयाः ॥ १२८॥
औषधादिसिद्धिदृष्टान्तेन योगजा अणिमादिसिहयः सूध्याद्यपयोगिन्यः सिध्यन्तीत्यर्थः ॥ १२८॥ पुरुषसिद्धिप्रतिकूलतया भूतचैतन्यवादिनं प्रत्याचष्टे।।
न भूतचैतन्य प्रत्येकादृष्टेः सांहत्येऽपि च सांहत्येऽपि च ॥ १२६ ॥
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षष्ठोऽध्यायः।
२१९ संहतभावावस्थायामपि पञ्चभूतेषु चैतन्यं नास्ति विभागकाले प्रत्ये कं चैतन्यादृष्टरित्यर्थः । तीयाध्याये चेदं स्वसिहान्तविधयोक्तम् । अत्र च परमतनिराकरणायेति न पौनरुत्य दोषायेति। वीपाध्यायसमाप्तौ ॥ १२८ ॥
खसिद्धान्तविरुद्धार्थभाषिणो ये कुवादिनः । पञ्चमे तान् निराकत्य स्वसिद्धान्तो दृढी कतः ॥ इति विज्ञानभिक्षुनिर्मित कापिलसांख्यप्रवचनस्य
भाष्ये परपक्षनिर्जयाध्यायः पञ्चमः ।
षष्ठोऽध्यायः ।
अध्यायचतुष्क ण समस्तशास्त्रार्थं प्रतिज्ञाय पञ्चमाध्याये परपक्षनिराकरणेन प्रसाध्येदानीं तमेव सारभूतशास्त्रार्थ षष्ठाध्यायेन सङ्कलयब्रुपसंहरति। उक्तार्थानां हि पुनस्तन्त्राख्ये विस्तरे कृते शिष्याणामसन्दिग्धाविपर्यस्तो दृढ़तरो बोध उत्पद्यत इत्यतः स्थ णानिखननन्यायादनुक्त युक्त्याद्युपन्यासाच्च नात्र पोनरुत्य दोषाय।
अस्त्यात्मा नास्तित्वसाधनाभावात् ॥१॥ जानामौत्येवं प्रतीयमानतया पुरुषः सामान्यतः सिद्ध एवास्ति बाधकप्रमाणाभावात्। अतस्त्वविवेकमात्रं कर्तव्यमित्यर्थः ॥ १॥ तत्र विवेके प्रमाणहयमाह सूत्राभ्याम् ।
देहादिव्यतिरित्तोऽसौ वैचिल्यात् ॥२॥ असावात्मा द्रष्टा देहादिप्रकत्यन्त भ्योऽत्यन्त भिन्नो वैचि. वात् । परिणामित्वापरिणामित्वादिवैधादित्यर्थः । प्रक.
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२२०
सांख्यदर्शनम् ।
त्यादयस्तावत् प्रत्यक्षानुमानागमैः परिणामितयैव सिद्धाः पुरुवस्यापरिणामित्व तु सदा ज्ञातविषयत्वादनुमीयते । तथाहि यथा चक्षुषो रूपमेव विषयो न सन्निकर्षसाम्येऽपि रसादिरवं पुरुषस्य बुद्धिवृत्तिरेव विषयो न तु सन्निकर्ष साम्येऽप्यन्यदस्विति फलबलात् क्लृप्तम् । बुद्धिलत्त्यारूढतयैव त्वन्यङ्गोग्यं भवति पुरुषस्य न स्वतः । सर्वदा सर्वभानापत्तेः । ताश्च बुद्धिवृत्तयो नाज्ञातास्तिष्ठन्ति ज्ञानेच्छा सुखादीनामज्ञातसत्ताखीकारे तेष्वपि घटादाविव संख्यादिप्रसङ्गादहं हं जानामि न वा सुखो न वेत्यादिरूपेण । व्यतस्तेषां सदा ज्ञातत्वात् तदुद्रष्टा चेतनोऽपरिणामीत्यायातम् । चेतनस्य परिणामित्व कदाचिदान्ध्यपरिणामेन सत्या यपि बुद्धिवत्तेरदर्शनेन संशयाद्यापत्तेरिति । एवं पारार्थ्यापारार्थ्यादिकमपि पूर्वोक्त वैधजातं बोध्यम् ॥ २ ॥
षष्ठीव्यपदेशादपि ॥ ३॥
ममेदं शरीरं ममेयं बुद्धिरित्यादेर्विदुषां षष्ठोव्यपदेशादपि देहादिभ्य आत्मा भिन्नः । अत्यन्ताभेदे षष्ठयनुपपत्तेरित्यर्थः । तदुक्त विष्णुपुराणे ।
त्वं किमेतच्छिरः किन्तु शिरस्तव तथोदरम् । किमु पादादिकं त्वं वै तवैतद्धि महीपते ! ॥ समस्तावयवेभ्यस्त्व ं पृथग्भूय व्यवस्थितः । कोऽहमित्यत्र निपुणो भूत्वा चिन्तय पार्थिव ! ॥ इति । न च स्थूलोऽहमित्यादिरपि विद्वापदेशोऽस्तीति वाच्यम् । श्रुत्या बाधिततया ममामा भद्रसेन इतिवद्गोयलजैव तदुपपत्तेरिति ॥ ३ ॥
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षष्ठोऽध्यायः।
.२२१
ननु पुरुषस्य चैतन्य राहोः शिरः शिलापुत्रस्य शरीर. मित्यादिव्यपदेशवदयमपि भवतु तबाह ।
न शिलापुत्रवड्वर्मिग्राहकमानबाधात् ॥४॥ शिलापुत्रस्य शरीरमित्यादिवदयं षष्ठीव्यपदेशो न भवति शिलापुत्रादि स्थले धर्मिग्राहकप्रमाणेन बाधादिकल्पमात्रम् । मम शरीरमिति व्यपदेशे तु प्रमाणबाधो नास्ति देहात्मताया एव बाधादित्यर्थः । यस्तु शास्त्रेत्र ममकारप्रतिषेधः न वाग्यस्यानित्य तया वाचारम्भणमावले नास यतापर एवेति भावः । पुरुषस्य चैतन्य मित्यत्राप्यस्ति धर्मियाह कमानबाधः। अनवस्थाभयेन लाघवाञ्च देहादियतिरिक्ततयात्मसिद्धौ चैतन्यस्वरूपतावगाहनादिति ॥ ४ ॥ देहादिव्यतिरिक्ततया पुरुषमवधार्थ तन्मुक्तिमधारयति।
अत्यन्तदुःखनिटत्या कृतकल्यता ॥ ५ ॥ सुगमम् ॥ ५ ॥ ननु दुःखनिवृत्त्या सुख स्यापि निवर्तनात् तुल्यायव्ययत्व न न सा पुरुषार्थ इति तवाह।
यथा दुःखात् क्लेशः पुरुषस्य न तथा सुखादभिलाषः ॥ ६॥
विषयविधया हेतुतायां पञ्चम्यौ ल शश्चात्र देषः। यथा टुःखे द्वेषो बलवत्तरो नैवं सुखेऽभिलाषो बलवत्तरोऽपि तु तदपेक्षया दुर्बल इत्यर्थः । तथा च सुखाभिलाषं बाधित्वापि दु.ख षो दुःखनिवृत्तावेवेच्छां जनयतीति न तुल्यायव्ययत्वमिति। तदुक्तम् ।
अभ्यर्थ रामभयेन साधुध्यिस्थ्य मिष्टेऽप्यवलम्बतेऽर्थे । .
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सांख्यदर्शनम् ।
इति । या तु नरकादिदुःखदर्शनेऽपि क्षुद्रसुखप्रवृत्तिः सा
रागादिदोषवशादेवेति ॥ ६ ॥
सुखापेचया दुःखस्य बहुलत्वादपि दुःखनिवृत्तिरेव पुरुधार्थ इत्याह ।
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कुत्रापि कोऽपि मुखति ॥ ७ ॥
अनन्ततृणवृक्षपशुपक्षिमनुष्यादिमध्ये स्वल्पो मनुष्यदेवादिरेव सुखी भवतीत्यर्थः । इति हेतौ ॥ ७ ॥
तदपि कादाचित्क क्काचित्कसुखं मधुविषसम्पृक्तान्न वहिचारकाणां हेयमेवेत्याह ।
तदपि दुःखशबलमिति दुःखपक्षे निःचिपन्ते विवेचकाः ॥ ८॥
तदपि पूर्वसूत्रोक्तं सुखमपि दुःखमिश्रितमित्यतो दुःखकोटो सुखदुःखविवेचका निःक्षिपन्त इत्यर्थः । तदुक्तं योगसूत्रेण ।
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुण
वृत्तिविरोधाच्च सर्वमेव दुःखं विवेकिनः ।
ध्यात् ॥ ६ ॥
इति । विष्णुपुराणेऽपि ।
यद्यत् प्रीतिकर पंसां वस्तु मैत्रेय ! जायते ।
तदेव दुःखवृक्षस्य वीजत्वमुपगच्छति ॥ इति ॥ ८ ॥
केवला दुःखनिवृत्तिर्न पुरुषार्थः किन्तु सुखोपरक्तेति म
मपाकरोति ।
मुखलाभाभावादपुरुषार्थत्वमिति चेन्न है वि -
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षष्ठोऽध्यायः।
२२३
सुखलाभाभावामोक्षाख्यदुःखाभावस्थापुरुषार्थत्वमिति चेन्न। पुरुषार्थस्य विध्यात्। हिप्रकारत्वात्। मुखत्वदुःखाभावत्वाभ्यामित्यर्थः। सुखी स्यां दुःखी न स्यामिति हि पृथगेव लोकानां प्रार्थना दृश्यत इति ॥ ८ ॥
शकते। निर्गुणत्वमात्मनोऽसङ्गत्वादिश्रुतेः ॥ १० ॥
नन्वात्मनो निर्गुणात्व सुखदुःखमोहाखिलगुणशून्यत्वं नित्यमेव सिद्धम् । असङ्गत्वश्रुतेः । विकारहेतुसंयोगाभावववणात् । तं विना च गुणाख्यविकारासम्भवात्। अतो न दुःखनित्तिरपि पुरुषार्थो घटत इत्यर्थः। ननु संयोगं विना स्वयमेव विकारो भवविति चेन्न ।
दाहाय नानलो वङ्गेनाप: लदाय चाम्भसः । तद्रव्यमेव तद्रव्यविकाराय न वै यतः ॥ किञ्च स्वयं विकारित्वे मोक्षो नैवोपपद्यते । स्वयं मोहविकारेण पुनर्बन्धप्रसङ्गतः । इति । तथा चोक्त कौमें। यद्यात्मा मलिनोऽस्वच्छो विकारी स्यात् स्वभावत: । न हि तस्य भवेन्म तिर्जन्मान्तरशतैरपि । इति ॥ १० ॥ समाधत्ते।
परधर्मत्वेऽपि तत्मिविरविवेकात ॥ ११ ॥ सुखदुःखादिगुणानां चित्तधर्मत्वेऽपि तत्रात्मनि सिडिः प्रतिविम्बरूपेणावस्थितिः। अविवेकानिमित्तात्। प्रकृतिपुरुषसंयोगहारत्यर्थः। एतच्च प्रथमाध्याये प्रतिपादितम् । निमित्तत्वमविवेकस्य न दृष्टहानिरिति बतीयाध्यायसूत्र
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२२४
सांख्यदर्शनम् ।
चेति । तथा च स्फटिके लौहित्यमिव पुरुषे प्रतिविम्वरूपेण दुःखसत्त्वात् सन्निवृत्तिरेव पुरुषार्थः । प्रतिविम्बद्दारकदुःखसम्बन्धस्यैव भोगतया प्रतिविम्ब रूपेणैव दुःखस्य हेयत्वादिति
॥ ११ ॥
व्यविवेकमूलः पुरुषे गुणबन्धोऽविवेकस्तु किम्मूलक इत्याकाङ्गायामाह ।
अनादिरविवेकोऽन्यथा दोषदयप्रसक्तः ॥ १२ ॥
अग्टहीतासंग मुभयविषयक ज्ञानमविवेकः । स च प्रवाहरूपेणानादिश्चित्तधमः प्रलये वासनारूपेण तिष्ठति । अन्यथा तस्य सादित्वे दोषइयप्रमङ्गात् । सादित्वं हि स्वत एवोत्पादे मुक्तस्यापि बन्धापत्तिः । कर्मादिजन्यत्वं च कर्मादिकं प्रत्यपि कारणत्व नाविवेकान्तरान्वेषणेऽनवस्येत्यर्थः । अयं चाविवेको वृत्तिरूपः प्रतिविम्बात्मना पुरुषधर्म इव भवतीत्यतः पुरुषस्य बन्धप्रयोजक इति प्रागेवोक्त वच्यते च
॥ १२ ॥
ननु चेदनादिस्तर्हि नित्यः स्यादिति तत्राह । न नित्यः स्यादात्मवदन्यथानुच्छित्तिः ॥ १३ ॥ श्रभवन्नित्योऽखण्डानादिर्न भवति किन्तु प्रवाहरूपेणानादिः । अन्यथानादिभावस्योच्छ दानुपपत्तेरित्यर्थः ॥ १३ ॥
बन्धकारणमुक्ता मोक्षकारणमाह ।
प्रतिनियतकारणनाश्यत्वमस्य ध्वान्तवत् ॥१४॥
अस्य बन्धकारणस्याविवेकस्य शुक्तिरजतादिस्थले प्रतिनियतं यत्राशकारणं विवेकस्तनाश्यत्व' तमोवत् । अन्धकारो हि प्रतिनियतेनालोकेनैव नाश्यते नान्यसाधनेनेत्यर्थः ।
तदुक्तं विष्णुपुराणे ।
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षष्ठोऽध्यायः।
२२५
अन्धन्तम इवाज्ञानं दीपवच्चन्द्रियोद्भवम् । यथा सूर्य स्तथा जानं यहिप्रर्षे विवेकजम् । इति ॥ १४ ॥ विवेकेनैवाविवेको नाश्यत इति प्रतिनियमस्य ग्राहकमप्याह। अत्रापि प्रतिनियमोऽन्वयव्यतिरेकात ॥१५॥
ध्वान्तालोक्योरिव प्रकृतेऽपि प्रतिनियमः शुक्तिरजतादि. वन्वयव्यतिरेकाभ्यामेव ग्राह्य इत्यर्थः । अथवैवं व्याख्येयम् । ननु विवेकस्यापि किं प्रतिनियतं कारणं तबाह। अवापि विवेकेऽपि कारण नियमोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामेव सिद्धः । श्रव. णमनननिदिध्यामनरूपमेव कारणं न तु कर्मादीनि । कर्मादिकं तु बहिरङ्ग मेवेत्यर्थः ॥ १५ ॥
बन्धस्य स्वाभाविकत्वादिकं न सम्भवतीति प्रथमपादोक्त स्मारयति । प्रकारान्तरासम्भवादविवेक एव बन्धः ॥१६॥ बन्धोऽत्र दुःखयोगाख्यबन्धकारणम् । शेषं सुगमम् ॥१६॥
ननु मुक्तो रपि कार्यतया विनाशापत्त्या पुनर्बन्धः स्यादिति तनाह। न मुक्तस्य पुनर्बन्धयोगोऽप्यनाटत्तिथ तेः ॥१७॥
भावकार्यस्यैव विनाशितया मोक्षस्य नाशो नास्ति न स पुनरावर्त त इति श्रुतेरित्यर्थः। अपिशब्दः पूर्वमुत्रोतार्थसमुच्चये ॥ १७॥
अपुरुषार्थत्वमन्यथा ॥ १८॥ अन्यथा मुक्तस्यापि पुनर्बन्धे प्रलयवदेव मोक्षस्यापुरुषाथत्व परमपुरुषार्थत्वाभावो वा स्यादित्यथैः ॥ १८ ॥
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२२६
सांख्यदर्शनम् ।
अपुरुषार्थत्वं हेतुमाह । अविशेषापत्तिरुभयोः ॥ १६ ॥
भाविबन्धत्वसाम्येनो भयोर्मुक्तबद्धयोर्विशेषो न स्यात् । तत
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स्वापुरुषार्थत्वमित्यर्थः ॥ १८ ॥
नन्वेवं बद्धमुक्तयोर्विशेषाभ्य पगमे नित्यमुक्तत्व' कथमुच्यते
तत्राह ।
λ
मुक्तिरन्तरायध्वस्तेर्न परः ॥ २० ॥
वक्ष्यमाणान्तरायस्य ध्वंसादतिरिक्तः प्रदार्थो न मुक्तिरित्यर्थः । यथाहि स्वभावशुक्लस्य स्फटिकस्य जपोपाधिनिमित्तं रक्तत्वं शोक्लावरकरूपं विघ्नमात्र न तु जवोपधानेन शौक्का नश्यति जवापाये चोत्पद्यते । तथैव स्वभावनिर्दु : खस्यात्मनो बुपाधिकं दुःखप्रतिविम्बं तदावरकरूपं विघ्नमात्रं न तु बहुपधानेन दुःखं जायते तदपाये च नश्यतीति । अती नित्यमुक्त आत्मा बन्धमोक्षौ तु व्यावहारिकावित्यविरोध इति
॥ २० ॥
नन्व ेवं बन्धमोच्चयोर्मिथ्यात्व मोक्षस्य पुरुषार्थताप्रतिपादकश्रुत्यादिविरोध इत्याह ।
तत्राप्यविरोधः ॥ २१ ॥
तत्वाप्यन्तरायध्वंसस्य मोचत्वेऽपि पुरुषार्थत्वाविरोध इत्यर्थः । दुःखयोगवियोगावेव हि पुरुषे कल्पितौ न तु दुःखभोगोऽपि । भोगश्च प्रतिविम्वरूपेण दुःखसम्बन्ध इत्यत प्रतिविम्बरूपेण दुःखनिवृत्तिर्यथार्थैव पुरुषार्थः । स एवान्तरायध्वंसः । तादृशच मोक्षो यथार्थ एवेति भावः ॥ २१ ॥
3
नन्वन्तरायध्वंसमात्र चेन्म क्तिस्तर्हि श्रवणमात्रेणैव तसि ह्निः स्यात् । अज्ञानप्रतिबद्ध कण्ठ चामोकर सिद्दिवदिति तत्राह ।
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षष्ठोऽध्यायः ।
अधिकारिवैविध्यान्न नियमः ॥ २२ ॥
उत्तममध्यमाधमास्त्रिविधा ज्ञानाधिकारिणः । तेन श्रवयमात्रानन्तरमेव मानससाक्षात्कारः सर्वेषामिति न नियम इत्यर्थः । अतो मन्दाधिकारदोषाद्विरोचनादीनां श्रवणमावाश्चित्तविलायनचमं मानसज्ञानं नोत्पन्नम् । न तु श्रवणस्य ज्ञानजननासामर्थ्यादिति ॥ २२ ॥
न केवलं श्रवणमात्रं ज्ञाने दृष्टकारणमन्यदपीत्याह ।
दायर्थमुत्तरेषाम् ॥ २३ ॥
श्रवणादुत्तरेषां स्वात्यन्तिकत्वरूप दायर्थं नियम इत्यनुषज्यते ॥ २३ ॥
उत्तराख्य व साधनान्याह ।
२२७
मनननिदिध्यासनादीनामन्तरायध्व स
स्थिरमुखमासनमिति न नियमः ॥२४॥
बासने पद्मासनादिनियमो नास्ति । यतः स्थिरं सुखं च यत् तदेवासनमित्यर्थः ॥ २४ ॥
मुख्य साधनमाह ।
शेषः ॥ २६ ॥
ध्यानं निर्विषयं मनः ॥ २५ ॥
वृत्तिशून्यं यदन्तःकरणं भवति तदेव ध्यानं योगश्चित्तवृत्तिनिरोधरूप इत्यर्थः । एतत्साधनत्वेन ध्यानस्य वक्ष्यमाणत्वादिति ॥ २५ ॥
ननु योगायोगयोः पुरुषस्यैकरूप्यात् किं योगेनेत्याशङ्क्य समाधत्ते ।
उभयथाप्यविशेषञ्च न्नैवमुपरागनिरोधाद्दि
उपरागनिरोधादृत्तिमतिविम्वापगमाद्योगावस्थायामयो
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२२८
सांख्यदर्शनम्।
गावस्थातो विशेषः पुरुषस्येति सिद्धान्तदलार्थः । शेषं व्याख्यातप्रायम् ॥ २६ ॥ ननु निःसने कथमुपरागस्त त्राह।
निःसङ्गेऽप्यपरागोऽविवेकात् ॥ २७॥ निःसङ्गे यद्यपि पारमार्थिक उपरागो नास्ति तथाप्यु पराग इव भवतीति कृत्वा प्रतिविम्ब एवोपराग इति व्यवजियते उपरागविवेकिभिरित्यर्थः ॥ २७ ॥ एतदेव विवृणोति ।
जवास्फटिकयोरिव नोपरागः किन्त्वभिमानः ॥ २८॥
यथा जवास्फटिकयो!पराग: किन्तु जवाप्रतिविम्बवशादुपरागाभिमानमात्र रक्तः स्फटिक इति तथैव बुद्धिपुरुषयो!पराग: । किन्तु बुद्धिप्रतिविम्बवशादुपरागाभिमानोऽविवे. कवशादित्यर्थः। अत उपरागतुल्य तया वृत्तिप्रतिविम्ब एव पुरुषोपराग इति सूत्रहयपर्यवसितोऽर्थः । स एव च दुःखामकवृत्तेरुपरागो दुःखनियाख्यमोक्षस्यान्तराय स्तस्य च ध्वंसश्चित्तलयात् सोऽपि च चित्तत्तिनिरोधाख्य नासम्प्रज्ञातयोगेने त्यतो योगादेवान्तरायध्वंसो भवतीति योगशास्त्रस्यापि सिद्धान्तः ॥ २८॥
ध्यानं निर्विषयं मन इति योग उक्तस्तस्य साधनान्याचा क्षाण एव यथोतोपरागस्य निरोधोपायमाह ।
ध्यानधारणाभ्यासवैराग्यादिभिस्तन्निरोध:
समाधिहारा ध्यानं योगस्य कारणं ध्यानस्य च कारणं
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षष्ठोऽध्यायः।
२२८
धारणा तस्याश्च कारणमभ्यासश्चित्तस्थ र्यसाधनानुष्ठानमभ्यासस्यापि कारणं विषयवैराग्यं तस्यापि दोषदर्शनयमनियमादिकमिति पातञ्जलोक्तप्रक्रियया तबिरोध उपरागनिरोधो भवति चित्तरत्तिनिरोधाख्ययोगहारेत्यर्थः ॥ २८ ॥
चित्तनिष्ठध्यानादिना पुरुषस्योपरागनिरोधे पूर्वाचार्यसिद्धं हारं दर्शयति ।
लयविक्षेपयोव्याहत्त्येत्याचााः ॥ ३०॥ ध्यानादिना चित्तस्य निद्रारत्ते: प्रमाणादिवृत्तेश्च निवृत्त्या पुरुषस्यापि वृत्त्य परागनिरोधो भवति । विम्बनिरोधे प्रतिविम्ब स्यापि निरोधादिति पूर्वाचार्य्या आहुरिः । यथा पतञ्जलिर्योगश्चित्तवृत्तिनिरोधस्तदा द्रष्टुः स्वरूऽवस्थानं वृत्तिसारूप्यमितरत्रेति सूत्रत्रयेणैतदेवाह। तथा ।
नित्यः सर्वत्रगो ह्यात्मा बुद्धिसविधिमत्तया । यथा यथा भवेबुद्धिरात्मा तदिहेष्यते ॥ इत्यादिस्मतयोऽप्येतदाहुरिति। तदेवमसम्प्रज्ञातयोगादेव मोक्षान्तरायध्वंस इति प्रवट्टकार्थः ।। ३० ॥ ध्यानादी गुहादिस्थाननियमो नास्तौल्याह ।
न स्थाननियमश्चित्तप्रसादात् ॥ ३१॥ चित्तप्रसादादेव ध्यानादिकम् । अतस्तत्र न गुहादिस्थाः . नियम इत्यर्थः । शास्त्रे त्वौत्सर्गिकाभिप्रायेणैवारण्यगिरिगु । दिस्थानं योगस्योद्दिष्टमिति। अत एव ब्रह्मसूत्रमपि। र काग्रता तत्राविशेषादिति ॥ ३१ ॥
समाप्तो मोक्षविचार इदानीं पुरुषापरिणामियाय - कारणं विचारयति। प्रकृतेराद्योपादानतान्येषां कार्यत्वश्रुतेः । ६१
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२३.
सांख्यदर्शनम्।
महदादोनों कार्यत्व श्रवणात् तेषां मूलकारपतया प्रकतिः बिध्यतीत्यर्थः ॥ ३२ ॥
पुरुष एवोपादानं भवतु तबाह । नित्यत्वेऽपि नात्मनो योगत्वाभावात् ॥३३॥
गुणवत्वं सङ्गित्व चोपादानयोग्यता तयोरभावात् पुरुषस्य नित्यत्वेऽपि नोपादालत्वमित्यर्थः ॥ १३ ॥
ननु बह्वीः प्रजाः पुरषात् सम्प्रसूता इत्यादिश्रुतेः पुरुषस्य पार पत्वावगमाधिवर्तादिवादा आश्रयणीया इत्याशझ्याह । श्रुतिविरोधान्न कुतर्कापसदस्यात्मलाभः ॥३४॥
पुरुषलारणतायां ये ये पक्षाः सम्भावितास्ते सर्वे श्रुतिविरुद्धा इत्यतस्तदभ्युपगन्तृणां कुताकिकाद्यधमानामात्मस्वरूपज्ञानं न भवतीत्यर्थः। एतेनात्मनि सुखदुःखादिगुणोयादानत्ववादिनोऽपि कुतार्किका एव तेषामप्यात्मयधार्थज्ञानं नास्तीत्यवगन्तव्यम्। आत्मकारणताश्रुतयश्च शक्ति शक्तिमदभेदेनोपासनार्था एव । यजामकामित्यादिश्रुतिभिः प्रधानकारणतासिद्धेः। यदि चाकाशस्यावाधिष्ठानकार ण तावदामन: कारणत्वमुच्यते तदा तन्न निराकुर्मः परिणामस्यैव प्रतिबैधादिति ॥ ३४ ॥
स्थावरजङ्गमादिषु पृथिव्यादौनामेव कारणत्वदर्शनात् कथं प्रकते: सर्वोपादानत्व तत्राह ।
पारम्पयपि प्रधानानुत्तिरणुवत् ॥३५॥ स्थावरादिषु परम्परया कारणत्वेऽपि तेषु प्रधानस्यानुमानादुपादानत्वमक्षतम्। यथाङ्गुरादिद्वारकत्वेऽपि स्थावरादिषु पार्थिवाद्यणनामनुगमादुपादानत्वमित्यर्थः ॥ ३५॥
बनन्यायेन प्ररुतापकत्वे प्रमाणमाह ।
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षष्ठोऽध्यायः ।
सर्वत्र कार्य्य दर्शनादिभुत्वम् ॥ ३६ ॥
अव्यवस्था सर्वत्र विकारदर्शनात् प्रधानस्य विभुत्वम् । यथाणोर्घटादिव्यापित्वमित्यर्थः । एतच्च प्रागेव व्याख्यातम्
१३१
॥ ३६ ॥
ननु परिच्छिनत्वेऽपि यत्त्र कार्य्यमुत्पद्यते तत्र गच्छतीति वक्तव्यं तत्राह ।
गतियोगेऽप्याद्यकारणताहानिरणुवत् ॥३७॥
गतिस्वकारेऽपि परिच्छिन्नतया मूलकारणत्वाभावः पार्थिवाद्य दृष्टान्त नेत्यर्थः । ष्यथवेत्थ व्याख्येयम् । ननु विगुणात्मकप्रधानस्यान्योऽन्यसंयोगार्थं श्रुतिस्मृतिषु क्रिया चोभाख्या श्रूयते क्रियावत्त्वाश्च तत्त्वादिदृष्टान्तेन मूलकारणत्वाभाव इत्याशङ्क्य परिहरति । गतियोगेऽप्याद्यकारणता हानिरणवत् । गतिः क्रिया तत्सत्त्वेऽपि मूलकारणताया अहानिर्यथा वैशेषिकमते पार्थिवाद्यणनामित्यर्थः ॥ ३७ ॥
ननु पृथिव्यादीनां नवानामेव द्रव्याणां दर्शनात् कथं पृथिवीत्वादिशून्य प्रधानाख्यं द्रव्यं घटेत । न च प्रधानं द्रव्यमेव मास्त्विति वाच्यम् । संयोगविभागपरिणामादिभिर्द्रव्यत्वसिद्धेरिति तत्राह ।
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प्रसिङ्घाधिक्यं प्रधानस्य न नियमः ॥ ३८ ॥
प्रसिद्ध नवद्रव्याधिक्यमेव प्रधानस्यातो नवेव द्रव्याणौति न नियम इत्यर्थः । अष्टानामेव कार्यत्वश्रवणं चात्र तर्क इति भावः ॥ ३८ ॥
किं सत्त्वादयो गुणा एवं प्रकृतिरथवा गुणत्रयरूपद्रव्यवयाधारभूता प्रकृतिरिति संययेऽवधारयति ।
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२३२
सांख्यदर्शनम् |
सत्त्वादौनामतद्धर्मत्वं तद्रूपत्वात् ॥ ३८ ॥
सत्त्वादिगुणानां प्रकृतिधर्मत्व नास्ति प्रकृतिस्वरूपत्वादित्यर्थः । यद्यपि श्रुतिस्मृतिषूभयमेव श्रूयते तथापि तर्कतः स्वरूपत्वमेवावधार्य्यते न तु धर्मत्वम् । तथाहि सत्त्वादित्रयं किं प्रकृतेः काय्र्यरूपो धर्मोऽथवाकाशस्य वायुक्त संयोगमावेण नित्य एव धर्मः स्यात् । आद्य एकस्या एव प्रकृतेद्रव्यान्तरसङ्ग विना विचित्र गुणत्रयोत्पत्त्यसम्भवः । दृष्टविरुद्धकल्पनानौचित्य च । अन्त्ये नित्येभ्य एव सत्त्वादिभ्योऽन्योऽन्यमन विचित्रसकलकार्य्योपपत्ती तदतिरिक्तप्रकृतिकल्पनावैयमिति सत्त्वादौनां प्रकृतिकार्य्यत्वादिवचनानि चांशतः प्रकाशादिकार्योपहितयाभिव्यक्त्यादिकमेव बोधयन्ति । यथा पृथिवीतो होपोत्पत्तिरिति ॥ ३८ ॥
प्रधानप्रवृत्त: प्रयोजनमवधारयति निष्प्रयोजनप्रवृत्यभ्युपगमे मोक्षानुपपत्तेरिति ।
अनुपभोगेऽपि पुमर्थं सृष्टिः प्रधानस्योष्ट्र
कुङ्कुमवहनवत् ॥ ४० ॥
aaterध्यायस्थे प्रधानसृष्टिः परार्थेत्यादिसूत्रे व्याख्या
तमिदम् ॥ ४० ॥
विचित्रसृष्टी निमित्तकारणमाह । कर्मवैचित्र्यात् सृष्टिवैचित्र्यम् ॥ ४१ ॥
कर्म धर्माधर्मौ । सुगममन्यत् ॥ ४१ ॥
ननु भवतु प्रधानात् सृष्टिः प्रलयस्तु कस्मात् । न ह्येक
स्मात् कारणाविरुद्धकार्य्यद्दयं घटते तत्राह ।
साम्यवैषम्याभ्यां काय्य इयम् ॥ ४२ ॥
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षष्ठोऽध्यायः।
२३३
सत्त्वादिगुणवयं प्रधानं तेषां च वैषम्य न्य नातिरिक्त भावेन संहननं तदभावः माम्य ताभ्यां हेतुभ्यामकस्मादेव सृष्टिप्रलयरूपं विरुद्दकार्यदयं भवतीत्यर्थः । स्थितिस्तु सृष्टिमध्ये प्रविष्टे त्याशयेन तत्कारणत्व प्रधानस्य न पृथग्विचारितम् ॥ ४२॥
ननु प्रधानस्य सृष्टिस्खाभाव्याजज्ञानोत्तरमपि संसारः स्यात् तनाह।
विमुक्तबोधान्न सृष्टिः प्रधानस्य लोकवत् ॥४३॥
विमुक्ततया पुरुषसाक्षात्काराइतोः प्रधानस्य तत्पुरुषार्थ पुनः सृष्टिर्न भवति । कृतार्थत्वात्। लोकवत्। यथा लोका अमात्यादयो राज्ञोऽयं सम्पाद्य कृतार्था सन्तो न पुन: राजार्थ प्रवर्तन्त तथैव प्रधानमित्यर्थः। विमुक्तमोक्षार्थं हि प्रधानप्रत्तिरिय तम् । स च ज्ञानानिष्पन्न इति भावः ॥ ४३ ॥
ननु प्रधानस्य सृथ्य परमो नास्ति। अज्ञानां संसारदर्शनात्। तथा च प्रधानसृष्ट्यामुक्तस्यापि पुनबन्ध स्थात् तवाह।
नान्योपसर्पणेऽपि मुक्तोपभोगो निमित्ताभावात् ॥४४॥
कार्यकारणसङ्घातादिसृष्ट्यान्यान् प्रति प्रधानस्योपसर्पगोऽपि न मुक्तस्योपभोगो भवति । निमित्ताभावात् । उपभोगे निमित्तानां स्वोपाधिसंयोगविशेषतत्कारणाविवेकादौनामभावादित्यर्थः। इदमेव हि मुक्त प्रति प्रधानसृष्ट्य - परमो यत् तद्भोगहेतोः खोपाधिपरिणामविशेषस्य जन्माख्यस्थानुत्यादनमिति ॥ ४४ ॥
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२३४
सांख्यदर्शनम्।
नन्वियं व्यवस्था तदा घटेत यदि पुरुषबहुत्व स्यात् तदेव वात्माद्वैत श्रुतिबाधितमित्याशझ्याह ।
पुरुषबहुत्व व्यवस्थातः ॥ ४५ ॥ ये हिदुरन्तास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्तीत्यादिश्रुत्यु क्त: बन्धमोक्षव्यवस्थात एव पुरुषबहुत्व सिध्यतीत्यर्थः
॥ ४५ ॥
नन पाधिभेदाइन्धमोक्षव्यवस्था स्यात् तबाह ।
उपाधिश्चेत् तत्मिड्वौ पुन तम् ॥४६॥ उपाधिश्चेत् खीक्रियते ता पाधिसबैप्रव पुनरद्वैतभङ्ग इत्यथः वस्तुतस्तूपाधिभेदेऽपि व्यवस्था न सम्भवतीति प्रथमाध्याय एवं प्रपञ्चितम् ॥ ४६॥
ननपाधयोऽप्याविद्यका इति न तैरतभङ्ग इत्यालाया
हाभ्यामपि प्रमाणविरोधः ॥ ४०॥
पुरुषोऽविद्येति दाभ्यामप्यङ्गीकृताभ्यासह तप्रमाण स्य श्रुतेविरोधस्तदवस्थ एवेत्यर्थः ॥ ४७ ॥ अपरमपि दूषणहयमाह।
हाभ्यामप्यविरोधान्न पूर्वमुत्तरं च साधकाभावात् ॥ ४८॥
हाभ्यामप्यङ्गोवताभ्यां हेतुभ्यां पूर्व पूर्वपक्षो भवतां न घटत। अस्माभिरपि प्रकृतिः पुरुषश्चेति योरेवाङ्गीकारात् । विकारस्यानित्यतया वानारम्भा माराया अस्माभिरपोष्ट. त्वात्। ननु पुरुषनानात्वस्वीकारात् प्रकृतनित्यत्वस्वीकारा
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षष्ठोऽध्यायः ।
उत्तरं चेत्या
वास्त्येवास्मद्विरोध इत्याशङ्क्य दूषणान्तरमाह । दिना । अतवादिनामुत्तरं सिद्धान्तश्च न घटते । च्यात्मसाधकप्रमाणस्याभावात् । तदङ्गीकारे च तेनैवाई तहानिरिति जितं नैरात्मावादिभिरित्यर्थः ॥ ४८ ॥
ननु स्वप्रकाशत व्यात्मा सेत्स्यति तत्राह ।
प्रकाशतस्तत्सिङ्घौ कर्मकर्त्तृविरोधः ॥ ४६ ॥
चैतन्यरूपप्रकाशतश्चैतन्यसिध कर्मकर्तृविरोध इत्यर्थः । प्रकाश्यप्रकाशसम्बन्ध हि प्रकाशनमालोकादिषु दृष्टं स्वस्य साक्षात् स्वस्मिन् सम्बन्धश्च विरुद्ध इति । श्रमन्मते तु बुद्धिवृत्त्याख्यप्रमाणाङ्गीकारात् तद्वारा प्रतिविम्वरूपस्य स्वस्य त्रिम्बरूपं स्वस्मिन् सम्बन्धो घटते । यथा सूर्खे जलद्दारा प्रतिविम्ब रूपख सम्बन्ध इति भावः । श्रात्मनः स्वप्रकाशत्व श्रुतिस्त्वनन्द्योपाधिकप्रकाशादिपरा बोध्या ॥ ४८ ॥
२३५
ननु नान्ति कर्मकर्त्तृविरोधः स्वनिष्ठ प्रकाशधर्मद्वारा स्वस्य स्वसम्बन्धसम्भवात् । यथा वैशेषिकाणां स्वनिष्ठज्ञानद्वारा स्वस्थ स्वयं विषय इति तत्राह ।
जड़व्यावृत्तो जड़ प्रकाशयति चिद्रूपः ॥५०॥
चेतने प्रकाशरूपधर्मः सूर्य्यादिष्विव नास्ति किन्तु चित्स्वरूप एव पदार्थों जड़ प्रकाशयति । यतो जड़व्यावृत्तिमात्रेण चिदित्युच्यते न तु जड़विलक्षणधर्मवत्तयेत्यर्थः । श्रत एव निर्धर्मतया स एष नेति नेतीत्येव श्रुत्योपदिश्यते न तु विधिमुखतयेति । तथा च स्मृतिरपि ।
इदं तदिति निर्देष्टुं गुरुणापि न शक्यते ।
इति । जड़व्यावृत्ताविति पाठेऽपि हेतौ सप्तम्यायमेवार्थः । यस्मिंश्व सूत्रे जड़मेव प्रकाशयांत चिद्रूपो नत्वात्मानमिति
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२३६
सांख्यदर्शनम् ।
नार्थः । तथा सति हि तस्याज्ञयत्वेन साधकाभावरूपं बाधकं परेषूपन्यासानर्हम् । स्वस्यापि तुल्यन्यायत्वादिति ॥५०॥ नन्वेवं प्रमाणाद्यनुरोधेन इतसिद्धावई तश्रुतेः का गति
स्तत्राह ।
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न श्रुतिविरोधो रागिणां वैराग्याय तत्मिवे :
॥ ५१ ॥
श्रुतिविरोधस्तु नास्ति रागिणां पुरुषातिरिक्ते वैराग्यायैव श्रुतिभिरद्वैतसाधनात् । पुरुषज्ञान इव है ताभावज्ञानं स्वतन्त्रफलान्तराश्रवणात् । तच्च वैराग्य सदई तेनैवापपद्यत सत्त्वं च कूटस्थत्वमित्यर्थः । अत एव श्रुतिरपि सदतमेव छान्दोग्ये प्रतिपादितवतीति भावः ॥ ५१ ॥
केवमुक्तयुक्त बाई तवादिनो हेया अपितु जगदसत्वताग्राहकप्रमाणाभावेनापीत्याह ।
जगत्सत्यत्वमदुष्ट कारणजन्यत्वाबाधकाभा
वात् ॥ ५२ ॥
निद्रादिदोषदुष्टान्तःकरणादिजन्यत्वेन स्वाप्नविषयशङ्खपौतिमादौनाम सत्यत्व' लोके दृष्ट' तच्च महदादिप्रपचे नास्ति । तत्कारणस्य प्रकृतेर्हिरण्यगर्भबुडेश्वादुष्टत्वात् । यथापूर्वमकल्पयदित्यादिश्रवणात् । ननु नेह नानास्ति किञ्चनेत्यादि
त्या बाधितत्व नाविद्यादिनामा कश्चनानादिर्दोषः कल्पनौयस्तत्राह । बाधकाभावादिति । अयं भावः । नेह नानास्ति किञ्चनेत्यादिश्रुतयो याः परैः प्रपञ्चबाधकतयाभिप्रेयन्ते ताः प्रकरणानुसारेण विभागादिप्रतिषेधिका एव न तु प्रपञ्चात्यन्ततुच्छतापराः । स्वस्यापि बाधापच्या स्वार्थासाधकत्वप्रस
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षष्ठोऽध्यायः ।
जात्। न हि स्वप्नकालौनशब्दस्य बाधे तजज्ञापितोऽप्यर्थः पुनर्न सन्दिह्यत इति। तस्मादात्माविघातकतया श्रुतयो न प्रपञ्चस्यात्यन्तबाधपरा इति । तत्र नेह नानास्ति किञ्चनेत्या. दिश्रुतब्रह्मविभक्तं किमपि नास्तीत्यर्थः । सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्व इत्यादिस्मत्येकवाक्यत्वात् । वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्य व सत्यमित्यादिश्रुतेस्तु नित्यतारूपपारमार्थिकसत्ताविरहोऽर्थः अन्यथा मृत्तिकादृष्टान्तासिद्धेः न हि लोके मृत्तिकाविकाराणामत्यन्ततुच्छत्वं सिद्ध येन दृष्टान्तता स्यादिति।
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बडो न च साधकः । न मुमुत्तुन वै मुक्त इत्यषा परमार्थता ।
इत्यादिश्रुतस्त्वात्मातिरिक्त स्य कूटस्थनित्यतारूपातिपरमा. थसत्ताविरहोऽर्थः । किञ्चात्मनो निरोधाद्यभावोऽर्थः । अन्यथैसादृशज्ञानस्य मोक्षफलकत्व प्रतिपादनविरोधात् । न हि मोक्षो मिथ्येति प्रतिपाद्य मोक्षस्य फल त्वमप्रमत्तः प्रतिपादय - तौति। याश्चात्मैक्य श्रुतयस्तास्तु प्रथमाध्याय एव व्याख्याताः । ब्रह्ममीमांसाभाष्ये चैता अन्याश्च श्रुतयोऽस्माभिर्व्याख्याता इति दिक् ॥ ५२ ॥ न केवलं वर्तमानदशायामेव प्रपञ्चः सन्नपितु सदैवेत्याह।
प्रकारान्तरासम्भवात् सदुत्पत्तिः ॥५३॥ पूर्वोक्त युक्तिभिरसदुत्पादासम्भवात् सूक्ष्मरूपेण सदेवोत्पद्यतेऽभिव्यक्तं भवतीत्यर्थः ॥ ५३ ॥
कर्तृत्वभोक्तृत्वयोवैयधिकरण्येऽपि व्यवस्थामुपपादयति सूत्राभ्याम्।
अहङ्कारः कर्ता न पुरुषः॥ ५४॥
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सांख्यदर्शनम्।
___ अभिमानवृत्तिकमन्तःकरणमहङ्कारः स एव कृतिमान् । अभिमानोत्तरमेव प्रायशः प्रवृत्तिदर्शनात् । न तु पुरुषोऽपरिणामित्वादित्यर्थः । पूर्वं च धर्मादिकं बुद्धेरिति यदुक्तं सदेकस्यैवान्तःकरणस्य वृत्तिमात्रभेदाशयेन ॥ ५४॥ चिदवसाना भुक्तिस्तत्कर्मार्जितत्वात् ॥५५॥
अहङ्कारस्य कर्तत्वेऽपि भोगश्चित्य व पर्यवसन्त्रो भवति । पहङ्कारस्य संहतत्वेन परार्थत्वात्। नन्वेवमन्यनिष्ठकर्मणान्यस्य भोगे पुरुषविशेषनियमो न स्यात् तत्राह। तत्कर्मार्जितत्वादिति। अहङ्कारेणासञ्जितं तस्याचितौ यत् कर्म तज्जन्यत्वाडोगस्येत्यर्थः । तथा च योऽहङ्कारो यं पुरुषमादायाचेतनेऽहं ममेति वृत्तिं करोति तस्याहङ्कारस्य कर्म तस्यात्मन उच्यते । तेनैव च कर्मणा तत्त्रात्मनि भोगोऽयंत इति नातिप्रसङ्ग इत्याशयः ॥ ५५ ॥
ब्रह्मलोकान्तगतिभिर्नास्ति निष्कतिरिति पूर्वोतो कारणं दर्शयति । चन्द्रादिलोकेऽप्यावृत्तिर्निमित्तसझावात् ॥५६॥ निमित्तमविवेककर्मादिकम् । सुगममन्यत् ॥ ५६ ॥ ननु तत्तलोकवासिजनोपदेशादनावृत्तिः स्यात् तत्राह ।
लोकस्य नोपदेशात् सिदिः पूर्ववत् ॥५७॥ यघा पूर्वस्य मनुष्यलोकस्योपदेशमात्रात्र सिद्धिर्ज्ञाननिष्यत्तिरेवं तत्तलोकस्थलोकस्योपटेशमात्रात् तद्गतानां ज्ञानमिष्यत्तिनं नियमेन भवतीत्यर्थः ॥ ५७ ॥ नन्वेवं ब्रह्मलोकादनारत्तिरिति श्रुतेः का गतिस्तत्राह ।
परम्पर्येण तत्सिद्दौ विमुक्तिश्रुतिः ॥५॥ ब्रह्मलोकादिगतानां श्रवणमननादिपरम्परया प्रायशो
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षष्ठोऽध्यायः।
जानसिौ सत्यां विमुक्तिश्रवणम् । न तु साक्षादगतिमानेणेत्यर्थः । प्रायिकत्वादन्यलोकाहिशेष इति ॥ ५८ ॥ परिपूर्णत्वेऽप्यात्मनो गतिश्रुतिमुपपादयति ।
गतिश्रुतेश्च व्यापकत्वेऽप्युपाधियोगाभोगदे. शकाललाभो व्योमवत् ॥५६॥
व्यापकत्वेऽप्यात्मनो गतिश्रवणानुरोधेन भोगदेशस्य कालवशालाभः सिध्यति । व्योमवदुपाधियोगेनेत्यर्थः । यथा ह्याकाशस्य पूर्णत्वेऽपि देशविशेषगतिघंटाद्युपाधियोगाहावद्यिते तथैवेति । तथा च श्रुतिः ।
घटसंवृतमाकाशं नीयमाने घटे यथा । घटो नौयेत नाकाशं तहज्जीवो नभोपमः ॥ इति ॥ ५८॥
भोक्तरधिष्ठानागोगायतननिर्माणमिति यदुक्तं तत् प्रपञ्चयति सूवाभ्याम् ।
अनधिष्ठितस्य पूतिभावप्रसङ्गान्न तसिद्धिः
भोजनधिष्ठितस्य शुक्रादेः पूतिभावप्रसङ्गान पूर्वोक्तभोगायतन सिद्धिरित्यर्थः ॥ ६० ॥
नन्वविष्ठानं विवादृष्टहारा भोक्तभ्यो भोगायतननिर्माणं भवतु तवाह।
___ अदृष्टहारा चेदसम्बदस्य तदसम्भवाज्जलादिवदकरे ॥ ६१॥
शुक्रादौ साक्षादसम्बइस्यादृष्टस्य शरीरादिनिर्माणे भोत. द्वारत्वासम्भवाद्वोजासम्बद्वानां जलादौनामङ्गुरोत्पत्तौ कर्ष
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२४०
सांख्यदर्शनम्। कादिद्वारत्ववदित्यर्थः। अतः स्वायसंयोगसम्बन्धेनैवादृष्टसम्बन्धः शुक्रादिषु वक्त व्यः। तथा च सिद्धमदृष्टवदात्मसंयोगरूपेणाधिष्ठानस्य भोगोपकरणनिर्माणहेतुत्वमिति भावः ॥६१॥
वैशेषिकादिनयेनादृष्टस्य सम्बन्धघटकतयात्मनाऽधिष्ठारत्वं स्थापितं स्वसिद्धान्ते त्वदृष्टादौनामात्मधर्मत्वाभावात तहारा भोत हेतुत्वमेव न सम्भवतीत्याह ।
निर्गुणत्वात् तदसम्भवादहकारधर्मा येते
भोक्तनिंगणवेनादृष्टासम्भवाच नादृष्ट हारकत्वम् । हि यस्मादेतेऽदृष्टादयोऽहङ्कारस्यान्तःकरणमामान्यस्यैव धर्मा इत्यर्थः । तथा चास्मन्मते हारनैरपेक्ष्येण संयोगमात्रेण साक्षादेव भोक्तरधिष्ठानं मिध्यतीति भावः ॥ ६२ ॥ ननु चेत् पुरुषो व्यापकस्तहि बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ इति श्रुतिप्रतिपादितं जीवपरिच्छिन्नत्व मनुपपन्नम् तथेश्वरप्रतिषेधात् पुरुषाणां चैकरूप्याज्जीवात्मपरमात्मविभागोऽपि शास्त्रीयोऽनुपपन्न इति। तामिमामाशां परिहर्तमाह विशिष्टस्य जीवत्वमन्वयव्यतिरेकात् ॥६॥
जीवबलप्राणधारणयोरिति व्युत्पत्त्या जीवत्वं प्राणित्वं तचाहङ्कारविशिष्ट पुरुषस्य धर्मो न तु केवलपुरुषस्य । कुतः । अन्वयव्यतिरेकात्। अहङ्कारवतामेव सामर्थ्यातिशयप्राणधारणयोदर्शनात्। तच्छ्न्यानां च चित्तवृत्तिनिरोधस्यैव दर्शनात्। प्रकृत्तिहेतुरागोत्पादकस्याहङ्कारस्याभावादित्यर्थः ।
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षष्ठोऽध्यायः।
२४१
तथा चान्तःकरणोपाधिकं जीवस्य परिच्छिन्नत्वं परमात्माख्यात् केवलपुरुषाद्भिन्नत्वं चेति भावः । अनेन सूत्रेण विशिटस्य मोतृत्व वा त्वमहम्प्रत्ययगोचरत्व वा नोक्तम् । साक्षात्काररूपस्य भोगस्याहङ्कारधर्मवाभावात् । त्वमहन्धर्मिपुरस्कारेण विवेकानुपपत्तेश्च । किन्तु ।
यदा त्वभेदविज्ञानं जीवात्मपरमात्मनोः। भवेत् तदा मुनिश्रेष्ठा: पाशच्छेदो भविथति ॥ आत्मानं द्विविधं प्राहुः परापरविभेदतः । परस्तु निर्गुण: प्रोक्त अहङ्कारयुतोऽपर : ॥ इत्यादिवाक्यशतोतो जीवात्मपरमात्मविभाग एव प्रदशितः । तत्र जीवतायामहङ्कार उपलक्षणमेवेति ॥ ६३ ॥
इदानों महदहङ्कारयोः कार्यभेदं प्रतिपिपादयिषुरादावहङ्कारकार्यमाह।
अहङ्कारकर्बधौना कार्य सिदिर्नेश्वराधौना प्रमाणाभावात् ॥ ६४॥
अहङ्काररूपो यः कर्ता तदधौनैव कार्यमितिः सृष्टिसंहारनिष्पत्तिर्भवति। तादृशबलस्याहङ्कारकाय्यत्वात्। अनहजतषु तत्सामर्थ्यादर्शनात् । न तु वैशेषिकायुक्तानहत्तपरमेश्वराधीना। अनहङ्गतम्रष्टत्वे नित्य श्खरै च प्रमाणाभावादित्यर्थः । अहं बहु स्यां प्रजायेर्येति बहङ्कारपूर्विकैव सृष्टिः श्रूयते तत्राहंशब्दस्यानुकरणमात्रत्व प्रमाणाभाव इति। अनेन सूत्रणाहतारोपाधिकं ब्रह्मरुद्रयोः मृष्टिसंहारकर्तत्व श्रुतिस्मृतिसिद्धमपि प्रतिपादितम् ॥ ६४ ॥
ननु भवत्वहङ्कारोऽन्येषां कर्ताहकारस्य तु कः कत तवाह।
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२४२
सांख्यदर्शनम्।
अदृष्ठोद तिवत् समानत्वम् ॥६५॥ यथा सर्गादिषु प्रक्रतिक्षोभककर्माभिव्यक्तिः कालविशेष. मात्राद्भवति तदुद्दोधककर्मान्तरस्य कल्पनेऽनवस्थाप्रमङ्गात् तथैवाहङ्कारः कालमात्रनिमित्तादेव जायते न तु तस्यापि कर्वन्तरमस्तीति समानत्वमावयोरित्यर्थः ॥ ६५ ॥
महतोऽन्यत् ॥ ६६ ॥ अहङ्कारकार्यात् मृध्यादेर्यदन्यत् पालनादिकं तन्महत्त. स्वाद्भवति। विशुद्धसत्त्वतयाभिमानरागाद्यभावेन परानुग्रहमात्र प्रयोजनकवादित्यर्थः । अनेन च सूत्रेण महत्तत्त्वीपाधिकं विष्णोः पालकत्वमुपपादितम् । महत्तत्त्वोपाधिकत्वात् तु विष्णुमहान् परमेश्वरो ब्रह्मेति च गौयते तदुक्तम् ।
यदाहुर्वासुदेवाय चित्तं तन्महदात्मकम् ।।
इति। अत्र शास्त्रे कारणब्रह्म तु पुरुषसामान्य निर्गुणमेवेष्यते। ईखरानभ्युपगमात् । तत्र च कारणशब्दः स्वशक्तिप्रकृत्यु पाधिको वा निमित्तकारणतापरो वा पुरुषार्थस्य प्रकृतिप्रवर्तकत्वादिति मन्तव्यम् ॥ ६६ ॥
अविवेकनिमित्तकः प्रकतिपुरुषयो ग्यभोक्तभाव इति प्रागुतम् । तत्राविवेक एव किनिमित्तक इत्याकाङ्क्षायामवि. वेकधाराकल्पनेऽनवस्थापत्तिरित्याशङ्गायाः प्रामाणिकत्व न परिहारः सर्ववादिसाधारण इत्याह ।
कर्मनिमित्तः प्रकृतेः खखामिभावोऽप्यना. दिौंजागुरवत् ॥ ६७॥
येषां सायकदेशिनां प्रकृतेः पुरुषस्य च स्वखामिभावो भोग्यभोक्तभावः कर्मनिमित्तकस्तन्मतेऽपि स प्रवाहरूपेणाना
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षष्ठोऽध्यायः ।
२४३
दिरेव। वीजाङ्गरवत् प्रामाणिकत्वादित्यर्थः। आकस्मिकत्व मुक्तस्यापि पुनर्भोगापत्ते रिति ॥ ६७ ॥
अविवेकनिमित्तकत्वमतेऽप्य तदनादित्व समानमित्याह ।
अविवेकनिमित्तो वा पञ्चशिखः ॥८॥
अविवेकनिमित्तो वा स्वखामिभाव इति पञ्चशिख आह । तन्मतेऽप्यनादिरित्यर्थः । एतदेव स्वमतं प्रागुतत्वात्। अविवेकश्च प्रलयेऽपि कर्मवदेवास्ति वासनारूपेणेति। विवेकप्रागभावोऽविवेक इति मते तु वीजाङ्गरवदनादित्व न घटते । अखण्ड प्रागभावस्यैवाखिलभोगहेतुत्वादिति ॥ ६८ ॥
लिङ्गशरीरनिमित्तक इति सनन्दनाचार्य:
सनन्दनाचार्यस्तु लिङ्गशरीरनिमित्तक: प्रकृतिपुरुषयोभोंग्यभोक्तृभाव खा लिङ्गशरीरहारैव भोगादिति। तन्मते. ऽप्यनादिः स इत्यर्थः । यद्यपि प्रलये लिङ्गशरीरं नास्ति तथापि तत्कारणमविवेकवार्मादिकं पूर्वसर्गीयलिङ्गशरोरजन्यमस्ति तदुहारा वीजाङ्गुरतुल्यत्व खखामिभावलिङ्गशरीरयोरित्याशयः ॥ ६ ॥ शास्त्रवाक्यार्थमुपसंहरति।
यहा तहा तटुच्छित्तिः पुरुषार्थस्तदुच्छित्तिः पुरुषार्थ: ॥ ७॥
कर्मनिमित्तो वाविवेकादिनिमित्तो वा भवतु प्रकृतिपु. रुषयो ग्यभोक्तृभावः सर्वथाप्यनादितया दुरुच्छेद्यस्य तस्यो.
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२४४
सांख्यदर्शनम्। छेदः परमपुरुषार्थ इत्यर्थः । तदेतदादो प्रतिज्ञातं विवि पटुःखात्यन्तनिवत्तिरत्यन्तपुरुषार्थ इति । नन्वत्र सुखदुःखसाधारमाभोगनिवृत्तिः पुरुषार्थ उच्यते तत्र दुःखमात्रनिवृत्तिरिति कथं तत्रोक्त स्यानोपसंहार इति चेन्न । शब्दभेदेऽभ्यर्थाभेटात । सुख हि तावद्द खपक्षे निक्षिप्तमिति सुखभोगोऽपि दु:खभोग एव दुःखभोगोऽपि प्रतिविम्बरूपेण पुरुषे दुःखसम्बन्ध एव स्वतो नित्यनिर्दु:खत्वे न च प्रथमसूत्रेऽपि प्रतिविम्बरूपेणैव दुःखनिवृत्तिर्विक्षिप्तेत्येक एवार्थ उपक्रमोपसंहारसूत्रयोरिति। बहुलांशस्य हिरात्ति: शास्त्र समास्वर्था ॥ ७० ॥
शास्त्र मुख्यार्थविस्तारस्तन्त्राख्येऽनुक्त पूरणैः । षष्ठाध्याये कृतः पश्चाहाक्यार्थचोपसंहृतः ॥ तदिदं सांख्य शास्त्र कपिलमूर्ति भगवान् विष्णुरखिललोकहिताय प्रकाशित गन् यत् तत्र वेदान्तिब्रुवः कश्चिदाह । मांख्यप्रणेता कपिलो न विष्णुः । किन्त्वग्न्यवतारः कपिलान्तरम् ।
अग्निः म कपिलो नाम सांख्यशास्त्रप्रवर्तकः । इति स्मृत रिति । तल्लोकव्यामोहनमात्रम् । एतन्मे जन्म लोकेऽस्मिन् मुमुक्षूणां दुराशवात् । प्रसख्यानाय तत्त्वानां सम्मतायात्मदर्शनम् ॥ इत्यादिस्मृतिषु विषखवतारस्य देवहूतिपुत्रस्यैव सांख्योपटेष्टत्वावगमात् । कपिलहयकल्पनागौरवाच। तत्र चाग्निप्राब्दोऽग्न्याख्यश त्यावेशादेव प्रयुक्तः। यथा
कालोऽस्मि लोकक्षय कत् प्रवृद्धः । . इति श्रीकृष्णवाक्यकालश त्यावेशादेय कालशब्दः ।
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षष्ठोऽध्यायः ।
२४३.
अन्यथा विश्वरूपप्रदर्शक कृष्णस्यापि विषखवतार कृष्णा दा
पत्तेरिति दिक् ।
सांख्य कुल्याः समापूर्य वेदान्तमथितामृतैः । कपिलर्षिज्ञानयज्ञ ऋषीनापाययत् पुरा ॥
तद्वचः श्रद्धया तस्मिन् गुरौ च स्थिरभावतः । तत्प्रसादन्लवेनेदं तच्छास्त्रं विवृतं मया ॥ इति श्रीविज्ञानभितुविरचिते कापिलसांख्यप्रवचनस्य भाष्ये तन्त्राध्यायः षष्ठः ॥
इति सांख्यप्रवचनभाष्यं समाप्तम् ॥
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