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महाकवि श्री जिना वल्लभमरि विरचित
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*श्री संघपट्टक.*
टीका सहित गुजराती नावान्तर.
* प्रकाशक, एक जैन.
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F नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसरिना शिष्य
महाकवि श्री जिनवल्लभसूरि विरचित - संघपट्टक
नामनो चाळीश काव्यनो अत्युत्तम शिक्षामय ग्रंथ.
'षष्ठिशतकग्रंथना कर्ता श्रीनेमिचंजनांमागारिकना गुरु महानेयायिक श्रीजिनपतिसूरिए रचेली त्रण हजार श्लोक प्रमाणनी
उहत् टीका.
चैत्यवासिर्जना शिथिलाचार- पूरेपूरं खमन करीने विधिमार्गनी, युक्तिपूर्वक संपूर्ण पुष्टि करेली ने. श्रा बन्ने ग्रंथोना मूळपाठ तथा तेनी साथे तेनं
गुजराती-लाषांतर
उपावी प्रसिद्धका श्रावक जेठालाल दलसुख. अमदावाद-श्री जैन प्रिंटिंग प्रेस.
वि. सं. १ए६३-सने १ए०७. कीमत रु. ३-4-0 पोष्टेज जुई,
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सर्व हक्क स्वाधिन.
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* प्रस्तावना.*
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वीरप्रन्नुना साधुन “ निग्रंथ" तरीके ओळखाया बे. ग्रंथ एटले धन दोलत तेथी रहित ते निग्रंथ. तेमना आचारनुं प्रतिपादन करवा जे सूत्रो रचायां दे ते पण ते कारणे “निर्मथप्रवचन" तरीके श्रोळखवामां आवे . ए निग्रंथप्रवचनमां साधुजने माटे जे जे नियमो बांध्या जे ते प्रमाणे ज पूर्व साधु वनताहता. तेश्रो मुख्यत्वे करीने गामना पादरे रदेल वन एटले बगीचाोमां वसति मागीने ऊतरता हता अने वखते गाममा रहेता तो गृहस्थर्नु मकान मागी लश् तेमां निवास करता हता. तेमना माटे नद्देशीने रधेिला श्रादारपाणीने तेओ आधार्मिदोषवाळु गणी ग्रहण नहि करता, धर्मोपकरण बगेमीने बीजी चीज वस्तु नहि संघरता, गादी तकीया नहि वापरता अने क्लेश कंकासथी वेगळे रही समाधिमा लीन रहेता हता. ते साथे ते बळ, प्रपंच, दन तथा कदाग्रहथी श्रळगा रही लोकोने साचो मार्ग बतावता हता. एथी करीने तेओ पोतानुं तथा परर्नु नवु करवा समर्थ थता इता.
श्रावी रीते वीरप्रनुथी एक हजार वर्ष पर्यंत सरखो परंपराए तेवा साधुअोनो सीधो कारजार चालु रह्यो केमके ए बखतसुधी तेमना गुरुओ महाप्रतापी, विद्वान्, अने उपविहारी. पोताना ताबे रहेला शिष्योने सीधे मार्गे दोरता रह्या इता. बतां नगवानथी श्रावसो पचाश वर्षे थोमाक यतिओए वीरप्रचना शासनथी घेदरकार पनी जमविहार बोनीने चैलवासनी शरुयात. करी इती.
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अय श्री संघपटक
पण मुख्य नाग तो वसतिवासी ज रह्यो हतो अने ते नागमा अग्रेसर तरीके ओळखाता देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणे जगवान्थी ए८० मा वर्षे वहाजीपुरमा संघने एकत्रित करी जैनसूत्रोने पुस्तकारुढ कयाँ बे. सदरहु देवर्किगणि, जगवान्थी १००० वर्षे स्वर्गवासी थया अने ते साथे खलं जिनशासन गुम थई तेना स्थाने चैत्यवासिनोए पोतानो दोर श्रने जोर चलाववा मांझयो. आमाटे नवांगी वृतिकार श्रीअन्नयदेवसुरिश्रागम अहोत्तरी नामना ग्रंथमां नीचेनी गाथा आप दे के:
देवहिखमासमणजा-परंपरं नाव वियाणेमि, सिदिलायारे छविया दवेण परंपरा बहुदा. १
भावार्थ:-देवर्धिकमाश्रमण सुधी जावपरंपरा हुं जाणुंडं, बाकी ते पनी तो शिथिलाचारिओए अनेक प्रकारे अन्यपरंपरा स्थापित करी .
श्रा रीते नगवान्थी आउसो पचाश वर्षे चैत्यवास स्थपायो तोपण तेनुं खरेखलं जोर वीरप्रनुथी एक हजारवर्ष वीत्या केमे वधवा मांमयु, था अरसामा चैत्यवासने सिद्ध करवा माटे श्रागमना प्रतिपक्ष तरीके निगमना नामतळे उपनिषदोना ग्रंथो गुप्त रीते रचवामां आव्या अने तेओ दृष्टिवाद नामना बारमा श्रंगनाटेला ककमा डे एम लोकोने समजाववामां श्राव्यु. ए ग्रंथोमां एवं स्थापन करवामां श्राव्युं ले के आज कालना साधुओए चैत्यमा वास करवो व्याजबी ने तेमज तेमणे पुस्तकादिना जरुरी काममा खप मागे माटे यथायोग्य पैसाटका पण संघरवा जोश्ये. इत्यादि अनेक
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अथ श्री संघपट्टका
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शिथिलाचारनी तेओए हिमायत करवा मांनी अने जेथोमा घणा वसतिवासि मुनिओ रह्या हता तेमनी अनेक रीते अवगणना करवा मांमी.
देवर्षिगणिपर्यंत साधुननो मुख्य गह एकज हतो, बतां का. रणपरत्वे तेने जूदा जूदा नामथी उळखवामां आवेल जे. जेमके शरुवातमा तेना मूळस्थापक सुधर्मगणधरना नामपरथी ते सौधर्मगड कहेवातो हतो. त्यारकेके चौदमा पाटे सामंतजप्रसूरिए वनवास स्वीकार्यों एटले ते वनवासि गल कहेवायो. त्यारकेके कोटिमंत्रजापना कारणे ते कोटिकगन कहेवायो जे. बतां तेमां अनेक शाखा अने कुळो थया पण ते परस्पर विरोधी हता. केमके कोश्ने पण पोताना गबनो या शाखानो या कुळनो अहंकार अथवा ममत्वनाव नहतो. पण चैत्यवास शरु थतांतेमणे स्वगलनांवखाण अने परगडनी हेलना करवा मांझी एटले अरसपरस विरोधी गहो उन्ना थया.
गच्छ शब्दनो मूळ अर्थ ए ले के गच्छ अथवा गण एटले साधुनर्नु टोलं. माटे गब शब्द कंश खराब नथी, पण गड माटे अहंकार, ममत्व के कदाग्रह करवो तेज खराब बे. बतां चैत्यवासमां तेवो कदाग्रह वधवा मांगयो. आ उपरथी तेओमां कुसंप वध्यो, ऐक्य त्रुटयु. हवे एक गहमांथी चोरासी गढ थर पड्या. तेश्रो एकमेकने तोमवा मंमया अने आ रीते समाधिमय धर्मना स्थाने कबह कंकाशमय श्रधर्मनां बोज रोपायां
पांचमा श्रारारुप अवसर्पिणीकाळ एटले परतो काळ तो हमेशां श्राव्या करे बेपण अगाउ कांश्था जैनधर्ममां श्रावी धांधळ
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* अथ श्री संघपट्टका
नन्नी थ नथी, पण हमणानो पमतो काळ साधारण रीते पमता काळना करतां कंशक जूदी तरेहनो दोवाथी ते ढंग एटले अतिशय सुमो होवाथी तेने हुँमावसर्पिणी काळ कहेवामां आव्यो बे. श्रावो काळ अनंती अवसर्पिणीओ वीततांज आवे . तेवो पा चालु काळ प्राप्त थयो . ते साथे वीरप्रजुना निर्वाण वखते बे हजार वर्षनो जश्मग्रह बेठेलो ते साथे मळ्यो, तेमज तेनी साथे असंयति पूजारुप दशमो अछेरो पोतार्नु जोर बताववा लाग्यो. एम चारे संयोगो नेगा थवाथी आ चैत्यवासरुप कुमार्ग जैन ध. मना नामे चोमेर फेलावा मांमयो. गुरुश्रो स्वार्थी थश् योग्यायोग्यनो विचार पमतो मुकी जे हाथमां आव्यो तेने मुंमीने पोताना वामा वधारवा मांगया, अने बेवटे वेचाता चेला लइ विना वैराग्ये तेमने पोताना वारस तरीके नीमवा मांमया.
हवे कहेवत ने के “ यथा गुरु स्तथा शिष्यो यथा राजा तथा प्रजा" ते प्रमाणे गुरुयो शिथिल थतां तेमना ताबा नीचेना यतियो तेमना करतां पण वधु शिथिल थया. तेश्रो दवादारु दोराधागा वगेरे करीने लोकोने वशमा राखवा लाग्या, वेपार करवा लाग्या तथा खेतरवामी सुझां करवा तत्पर थया. तेम उतां तेश्रो पोताने महावीरप्रन्नुना वारस चेलाओ तरीके ओळखावी पोतार्नु मान साचववा मांमया.
श्राणीमेर तेमना रागी श्रावको आंधळा बनी तेमना पंजामां सपमाइ तेयो जे कांश धुंचतुं समजावे ते बधुं वगरविचारे श्रने बगर तकरारे हाजीहा करीने स्वीकारवा लाग्या. कारण के लोकोनो
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अथ श्री संघपट्टक:
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पख्य नाग हमेशां नोळो रहे बे. तेथी तेवा गोळाओने, कपटी षधारी चैत्यवासिओ अनेक बाहानां नन्ना करीने उगवा मांमया.
श्रावी गमबम थोमाज वखतमां बहु वधी पनी एटले देव(गणिना पड़ी ५५ वर्षे स्वर्गवासी थएला हरिलजसूरिए महानिजीयनो उधार करतां चैत्यवासनो सारी रीते तिरस्कार कों . सदरहु हरिजप्रसूरि चैत्यवासिओना मंगळमां दीक्षित थया हता बतां परम विधान होवाथी तेमणे तेमना पदन खुब खंमन कयु .
श्रा मामलो एटले लगण वध्यो के निर्गय मार्ग विरलप्राय यश पमयो, निर्गय प्रवचनपर ताळां देवायां अने कपोल कल्पित ग्रंथो तेमनी जग्याए नन्ना करवामां आव्या, एटदुंज नहि पण संवत् जर नी सालमां वनराज चावमाए ज्यारे अपहिलपुर पाटण वसाव्युं त्यारे तेमना चैत्यवासि गुरु शीळगुणसूरिए तेना पासेथी एवो रुको लखावी लीधोके आ राजनगरमांमारा पदना यतियो सिवाय वसतिवासि साधुओने दाखल थवा नहि देवा. ते रुक्काने तोकवा माटे अन्नयदेवसरिना गुरु जिनेश्वरसूरि तथा वुफिसागरसरिए सं. १0७४ मां दुर्लनदेवनी सजामा चैत्यवासिनो साथे विवाद करी जय मेळव्यो, त्यारथीज पाटणमा वसतिवासिओनी आवजाव
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। श्रारीते चैत्यवासियोनी पेहेली हार जिनेश्वरसूरिए करी उता इजु मारवाममांतेमनुं नारे जोर रह्यु हतुं तेजोर तोमवा तेमना प्रशिष्य जिनवद्धजसरिखमा थया. तेमणे आगमना पदने अनुसरी "पोतानी अभुत कवित्वशक्तिनाबले युक्तिपुरस्सर तेम खंकन करवा
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8. अथ श्री संघपहका
मामयु. ते प्रसंगे तेमणे था संघपट्टक' नामनो चालीश काव्यनो उत्तम ग्रंथ रच्यो . एमां तेमणे ते वखते चैत्यवासिओनु के जोर इतुं, केवी रीते ते सूत्रविरुक प्रवर्चता इता अने सुविहितमुनि तरफ ते केवो केषनाव राखता हता ते सघलु आवेहुब दर्शावीने तेमनी सारी रीते काटकणी करी विधिमार्गना रागिजनोने उत्तेजित कर्या .
त्यारवाद तेमणे चीतोमना मुख्य श्रावकोने प्रतिबोधित कर्या एटले ते श्रावकोए त्यां वीरप्रजुर्नु विधिचैत्य बंधाव्युं ते चैत्यना गर्नगृहना दरवाजाना बे स्तंनोमां एक उपर श्रा संघपट्टकनां चाळीश काव्य अने बीजा स्तंन उपर तेज आचार्य रचेल धर्मशिक्षानां चुमाळीश काव्य शिलालेखमां कोतरावी ते ग्रंथो शिलारुढ कराव्या. ते उपरांत बजामां ते चैत्यमां केवी रीते वर्चq ते माटेना नियमोनां काव्यो पण कोतराव्यां ने जेमांनां बे काव्य था प्रमाणे :
अत्रोत्सूत्रि जनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयौ न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि; जाति ज्ञाति कदाग्रदो न च न च श्राक्षेषु तांबूल मित्याज्ञा त्रेय मनिश्रिते विधिकृते श्रीवीर चैत्यालये १.
जावार्थः- स्थळे सूत्र विरुद्ध चालनार माणसनो हुकमहद्दो नथी, हमेशां राने स्नान करवामां आवनार नथी, साधुनी मालकी श्रथवा रहेगण शहाँ नथी, राने स्त्रीने पेसवा देवामां श्रावशे नहि, नात जातनो कदाग्रह शहां करवामां श्रावशे नहि
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9. अथ श्री संघपट्टक
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अने श्रावकोने थूकवा वगेरेनी मनाई करवामां आवे ने एम निश्रारहित विधिए करेला वीरप्रजुना आ चैत्यालय माटे फरमान करवामां आवे .
इह न खलु निषेधः कस्यचि बंदनादौ, श्रुतविधि बहुमानी त्वत्र सर्वाधिकारी; त्रिचतुरजन दृष्ट्या चात्र चैत्यार्थ वृद्धि, व्यय विनिमय रक्षा चैत्य कृत्यादि कार्य
भावार्थ:-इहां कोइने पण दर्शन पूजन करवा माटे ना पानवामां श्रावनार नथी; वळी सूत्रनी विधिने भान आपनार हरको माणसने इहां अधिकारी तरीके गणवामां आवशे; तेमन था देरासरना पैशाने त्रण चार जणानी नजर हेठे व्याजे धीरी वधारवा, खरचवा, उथल पाथल करवा, संचाळी राखवा, तथा देरासरना कामकाज करवानुं फरमाववामां आवे .
आबे श्लोकपरथी खुब्बु जणाय डे के तेमणे बहुज महापण जरेला नियमो त्यां कोतराव्या .
आ रीते श्रा संघपटक नामनो ग्रंथ रचवामां आव्यो तथा चीतोममा विधि चैत्य नहुँ थयुं एटले श्री जिनवजसू रिपर चैत्यवासि अतिशय गुस्से यश पांचसो जण लाकमोनल तेमने मार मारवा तेमना मुकामे आव्या, परंतु चीतोमना राणाए तेमने तेम . करतां अटकाव्या.
तेम उतां जिनवाजसरिए हिम्मत राखो श्राखो मारवाममा
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8 अथ श्री संघपट्टका
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तेमने नघामा पामी तेमने जेटला बने एटला जांखा पामया. श्रा रीते एमणे चैत्यवास खंमन माटे आ संघपट्टक नामे ग्रंथरूपी महेल चपीने ननो कर्यो.
बाद तेमना माटे महा प्रतापी श्रीजिनदत्तसूरि दादा थया, तेमणे विद्याना चमत्कारथी मोटा मोटा श्रावकोने पोताना पक्षमा लश् चैत्यवासिठना चैत्योने अनायतन एटले पेशवाने अयोग्य ठरावी पोताना गुरुए चणेला महेलपर कळशारोपण कर्यु.
जिनदत्तसूरिए घणा रजपूतोने प्रतिबोधी नवा श्रावक कर्या अने ते दादाजी तरीके आज लगण ओळखाय बे. त्यार केमे प्रवखुडिशाळी अने न्यायनिपुण श्रीजिनपत्तिसूरि पेदा थया. तेमणे पूरा जोसथी चैत्यवासिओने खोखरा करवा मांड्या, अने श्रीजिनवजसू रिए रचेला संघपट्टक उपर त्रण हजार श्लोक प्रमाणनी न्यायथी नरपुर मोटी टीका रची, जिनवबनसूरिए चणेला महेलने चुनाथी गेबंध करी तेने अतिशय टकाउ कों; ते उपरांत एमणे चोराशी वादस्थळ करीने पोतानी अथाग बुद्धि जगजाहेर करी .
सदरहु जिनपतिसूरिना प्रतिबोधित नेमिचं नामागारिक नामना पाटणना निवासी श्रावक पण एटला महाविद्वान थया के तेमणे प्राकृत नापामा एकसो साठ गाथानो षष्टिशतक नामे विधिमार्ग उत्तम ग्रंथ रची चैत्यवासिओने दिग्मूढ का आ रीते नेमिचंडनमारिए जिनववनसू रिए चणेला महेलपर धजा फरकतो करी.
बाद सदरहु नेमिचंजमारोना पुत्रे जिनपत्ति सूरि पाले दीक्षा वर जिनेश्वरसूरि नाम धारण कयु. तेमना शिष्ये जिनदत्त सूरिए
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अथ श्री संघपट्टका
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रचेली संदेहदोलावली नामना ग्रंथजपर टीका रची तेमां चैत्यवासियोना चैत्योने न्याय पुरस्सर अनायतन ठरावी जिनवबन्ने चपेला महेलने फरतो किहो बांध्यो.
आरीते पेहेला जिनेश्वरसूरि के जेओए सं. १ण्ण्व मां चैत्यवासियोने पहेल प्रथम हराव्या त्यारथी मामीने तेमना वंशना आचार्योंए उ सं. १४६६ लगी तेमनो पराजय करवो चालु राख्यो. थाथी करीने मारवाममां सघळा स्थळे तेमनी जनमुळ नखमी गइ अने वसतिवासीश्रोनो विजयको वाग्यो.
श्राणीमेर गुजरातमां तो मुळथी ज तेमनुं जोर कमती हतुं बतां मुनिचंजसूरिए तेमने सऊमरीते जखेमवा मांमया इता अने त्यार केमे पुनमिया गबना आचार्यों उठया, बीजी तरफ आंचळिक नग्या, त्रीजा आगमिक नव्या अने तेमना केमे तथा सोमसुंदरसूरिना शिष्य मुनिसुंदरसूरिए बाकी रहेला चैत्यवासियोने पुरती रीते पायमाल करी श्राखी गुजरात, तथा सौराष्ट्र, अने माळवामां वसतिवासि मुनिओनो विजयनाद वगाड्यो.
श्रा रीते विक्रमनी पंदरमी सदीना श्राखरे चैत्यवासन जोर तूट्यु, अने फरीने वसतिवासियोनी मान्यता वधी. एम वीरपत्नुना निर्वाणथी एक हजार वर्ष वीत्या बाद जोर पर चमेलो चैत्यवास लगन्नग एक हजार वर्ष लगी चालीने पाडो सदंतर बंध पड्यो तेनी हिमायतमां रचायली नियमोनी उपनिषदो गुम थई अने फरीने निर्मथप्रवचन विकाशमान थवा लाग्यो.
परंतु काळनो महिमा विचित्र एटले के जे प्राचार्योए कमर
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* अथ श्री संघपट्टका
कसी चैत्यवास तोड्यो तेमना ज वंशजो फरीने शिथिलाचारमा हमणा पाला फसी पड्या बे. ते हाल पोताने गोरजीना नामे उलखावे अने जो के ते चैत्यमां-निवास नथी करता तोपण चैत्यना परखे वांधेदा अपासरारुप मठमां रहीने हाल मठवासी वनेला , तेनमांजे समजुङ बे ते पोताना शिथिलाचारने पोतानो प्रमाद जणावी सत्यमार्गने दूषित नथी करता, पण श्रणसमजु वर्ग एम समजे ले के आ मठवास तो अमारी असल परंपराथी ज चाल्यो आवे दे तो तेवा जनोने सत्य. वात जणाववा खातर आ संघपट्टक तथा तेनी टीकार्नु भाषांतर उपावी प्रसिक करवामां श्रावे .
वळी श्राजकालना वसतिवासि मुनिउँ पण गृहस्थना घरनी वसति नहि शोधतां खास करीने तेमने उतरवा माटे ज बंधावेली धर्मशाळाठमां नतरे ले ए पण एक जातनो तेमनो प्रमाद ज डे. केमके तेमना पूर्वगुरुनए तेम करवा परा अनुज्ञा आपी नथो कारणके एवी धर्मशाळाओ आधार्मिदोषक्षित ने हवे आ समये पूर्वना माफक वनवास के वसतिवास करवो ए अलवत कठण काम बे, तोपण श्रावा ग्रंथो आद्योपांत वांचवाथी एटली असर तो जरुर अशे के समजु मुनिओ पोताना ए प्रमादने पोतानी जूल तरीके ज कबूल राखी खरा वसतिवासना निंदक के सोही नहि थशे. कारण के शास्त्रमा कहेवू डे के.
धन्नाणं विदिजोगो-विहिपकारादगा सया धन्ना, विदिवङमाणी धन्ना-विदिपकअइसगा धन्ना.. १
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अथ श्री संघपट्टका
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नावार्थः-जाग्यशाळी जनोने ज विधिनो योग मळे ने माटे विधिपक्षना सेवनारने हमेशां धन्यवाद देवो घटे. तेमज विधिने बहुनान देनार तथा डेवटे विधिपक्षने दोष नहि देनारने पण धन्यवाद देवो घटित .
श्रा कारणथी आज काळमां पण फरीने प्रमादरुप अंधकारनुं जोर वध्यु डे एटले तेमां प्रकाश आपनार संघपट्टक, संदेहदो'लावळी, तथा षष्टिशतक जेवा ग्रंथोनी टीकाओनां गुजराती जाषांतरो बाहेर पामी लोकोने फरीने जागृतिमां लाववानी जरुर उनी थई .
ते जरूरने पूरी पामवा थोमा वर्षपर विधिमार्गना पक्षनी हिमायतमां तत्पर थएला अने सत्यप्ररुपकरुप पदने धारण करनार मुनिराजश्री बुटेरावजी महाराजना परमजक्त श्रीयुत शांतिसागरजी महाराजे पोताना फूरसदना वखतमां संघपट्टकनी टीकार्नु नाषांतर तैयार कर्यु हतुं. तेज नाषांतर हाल अमे मूल पाठ साथे कायम राखीने जेम रचेवू तेम पाव्युं बे.
श्रा नाषांतरनी भाषा हालनो नापा पडतिने बंधवेस्ती थाय तेवी नथी तेमज तेमां प्रमाण तरीके अपायला पाउनो पण घणा स्थळे संपूर्ण अर्थ श्रापवामां नथी श्राव्यो तथा बीजी पण केटलीक खामी हशे ज केमके तेमनो ए प्रथम प्रयास ज हतो, उतां तेमनी कृतिमां तेमना हृदयनी केवी सरळता अने उच्चता हती ते जेवी स्पष्ट जणाय जे तेवी नाषांतर फेरवी नाख्याथी नहि जणाय ए कारपने अनुसरी अमे तेमां कंश फेरफार नहि करतां, हाल जेम रतुं
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अय श्री संघपटक
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तेम कायम राख्युं बे. बतां बीजी आवृत्ति कहारुवानो प्रसंग आवशे तो वर्तमान नाषाशैलीने अनुसरतुं नाषांतर पाववानो ज अमारो इरादो बे.
टीकाना मूलपाउने तथा नाषांतरने अमे अमाराथी बने तेटलो प्रयास ल शुद्ध करावी उपाव्यां बे, बतां तेमा असल प्रतनी अशुद्धिना कारणे तथा ग्रुफ तपाशनारनी नजर चूकना कारणे जे कंड जूलो रही बे ते माटे सुज्ञ वाचकोने विनंति करवामां आवे ने के तेमणे ते बाबत अमारापर क्षमा करीने ते सुधारी वांचवी. कारण के था अमारी प्रथमावृत्ति के एटले तेमां अवश्य मूल चूक रहे. माटे ते दरगुजर करी सुज्ञ वांचको आ पुस्तक वांची तेमांथो सार ग्रहण करी विधिमार्गना रागी था सद्गुणो तरफ आकर्षित थशे तो अमे अमारो प्रयास सफळ थयो गणीशं. __ आजकाल लोकोनी दृष्टि रास वगेरे कथानिक ग्रंथो उपर व. धती दोमे , पण खरी रीते तो आवा चाबुक समान पुस्तको वांचवामांज वधु फायदो मळे जे. केमके कहेवत ले के "कमवे उसम विन पिए मिटेन तनको ताप” माटे प्रमादरुप तावने उतारवा खातर आवा कटुकौषधसमान बतां परिणामे तावने पूर करी श्रारोग्यता आपनार उत्तम ग्रंथो दरेक जणे अवश्य वांचवा तथा वि. चारवा जोश्ये.
तेमां पण मुख्यत्वे करीने आजकालना यतिमो तथा मुनिओए तो खास व्याख्यानमांज आवा ग्रंथो वांचीने जोळा लोकोने सीधे मार्गे दोरवा जोश्ये..
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अथ श्री संघपट्टका
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वळी संस्कृतनापानी शैलीथी तद्दन अजाण रहेता केटलाएक ढुंढकमार्गी जनो परमार्थ तपाश्या वगर आंखो बंध राखीने एम लखता रहे ले के संघपट्टकमां जिनवजसूरिए जिनप्रतिमा मानवानी ना पामी दे, तो तेमणे जरा धीरज राखोने या पुस्तक एकवार श्राद्योपांत वांची ज जोश्ये के जेथी तेमने पक्की खातरी थशे के जिनवराजसरिए जिनप्रतिमा तथा जिनचैत्यने तो मगले ने पगले स्थापित काँ बे, बाकी फक्त तेश्रोए चैत्यमा यतिओए वास न करवो ए बाबतनोज पोकार करेल .
श्रा रीते आ पुस्तक एकंदरे दिगंबर, श्वेतांबर, तथा ढुंढक ए त्रणे पदना अनुयायिउँने तथा अध्यात्म मार्गिनने पण वाचवायोग्य एमां जराए संशय नथी.
हवे प्रस्तावना समाप्त करवा पहेला अमारे लोकोमा चाखता 'थोमाक शब्दब्रमने जांगवानी पण खास जरुर जे. त्यां संघ शब्दनो मूल अर्थ ए के संघ एटले साधुजेनो समुदाय, अंगर चतुर्विध संघ कहेवामां आवे तो साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविकानों समुदाय गणाय. तेना बदले आजकाल फक्त श्रावकना समुं. दायने ज संघ कहेवामां आवे . प्रथम यात्रार्थे जे संघ नीकळतो तेमां साधुसाध्वीओ पण साथे रहेता एटले तेना माटे संघ शब्द वापरवामां कंइ पण वांधो न हतो, पण हवे तो एकला श्रावकोना टोळाने पण संघ कहेवामां आवे , ते शब्दज्रम थएल लागे जे. माटे आ संघपट्टकमां वपरायला संघ शब्दनो अर्थ साधुसमूह अथवा चतुर्विध संघ बे एम जाणवू.
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अय श्री संघपट्टका -
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बीजो शब्दत्रम आजकाल कच वगेरे स्थळे देराने माननार माणसने देशवासी कडेवामां आवे ते . देरावासी ए शह चैत्यवासीनो पर्याय बे, अने तेनो अर्थ देरामा रहेनार एवो थाय बे; हवे आजकाल देराने माननाराजे देरामा कंश रहेता नथी, तां पोताने ढुंढियाथी अळगा उळखाववा माटे पोताने देरावासी तरीके नळखावे एटदुंज नहि पण खुद मुंबश्वा शहेरमां कही वीशा ओशवाळोए पोतानी पाठशाळाने देरावासी वीशा ओशवाळ पाठशाळा तरीके नाम प्राप्यु डे ए केटलीवधो अज्ञानता ! एज रीते ढुंढिया श्रावको पोताने स्थानकवासी तरीके ओळखाववामां मोटुं मान समजे ले पण ते विचाराओने पण खबर नथी के स्थानक एटले शुं ? तेमणे पोताना साधुस्रोने उतरवार्नु जे मकान बंधाव्यु होय ले तेने तेश्रो स्थानक एटले ठेकाएं एवा नामथी उळखे . कारण के ते मकानने व्याजबी रीते शुं नाम आप जोश्ये ते तेमने संस्कृत नापाना अज्ञानपणाथी मालम पम्युं नहि तेथी तेमणे यहाथी तेनुं स्थानक एवं नाम आप्यु. हवे ते नाम कबूल राखीये तो पण तेमना साधुओ स्थानकवासी कवाय, पण श्रावको तो घरवासोज उतां पोताने स्थानकवासी तरीके ओळखावी अजाणपणे मृषानाषी थाय डे एपण एक आश्चर्यनीज वातजे.
आवी रीते शब्दनमथी लांबा काळे अर्थना अनर्थ थाय बे, इतिहासना खरा मुद्दापर पाणी फरी वळे , अने विछजनोमां हास्यास्पद थर्बु प . माटे सुझजनोए धार्मिक संस्थाओनां नामवाम विचार कर्या पूर्वक ज पामवां जोश्ये.
हवे आप्रस्तावना पूरी करतां अमोआ पुस्तकना सुज्ञ
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अथ श्री संघपदक
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वाचकोने एवी विज्ञप्ति करीए बीए के आ ग्रंथ शा उद्देशथी रचवामां श्राव्यो बे ते नद्देशपर तेमणे खास नजर राखवी जोए अने तेम नजर राखवामां आवे तोज ग्रंथकारनो श्राशय समजी शकाय बे. ते उद्देश ए डे के खरो जिनमार्ग शो ले तेनी शोध करीने ते प्रमाणे व अने कदाग्रह तथा कुतर्कने र करी निष्कपटनाचे पोताथी जेटटुं धर्मकार्य थाय तेटवं तेनी विधि साचवीने साधवं के जेथी स्वपरतुं कल्याण थाय.
आ ग्रंथ जपावी प्रसिद्ध करवामां मने योग्य सलाह आपनारं मारा परमप्रिय मित्र शा. जमनादास घेहेलानाइनो श्रा स्थळे उपकार मानवामां आवे डे कारण के मने तेमणे तन, मन, अने धनथी मदद करी नपकारी को ले. तेथी ते माटे तेमनोश्रा स्थळे श्राजार मा डं.
आ पुस्तक प्रसिद्ध करवामां मारो प्रथम प्रयास . तेथी कोइपण जातनी जुलचुक जोवामां आवे ते सुझ वांचको सुधारी खेशे भने मने सुचना करवामां श्रावशे तो द्वितीयावृतिमा सुधारी लश्श.
ली. प्रसिद्ध कर्ता. .
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श्री जिन वल्लनसूरिनो संक्षिप्त इतिहास.
विक्रमनी बारमी सदीनी शरुआतमां श्रीअजयदेवसूरिनामे महाविद्यान आचार्य थया. तेमणे स्थानांगसूत्र विगेरे नव अंगोनी टीका सं. ११५० थी सं.११२७ लगीमां रची ने तेथी ते नवांगी वृत्तिकार तरीके नळखाय . ते उपरांत तेमणे नववा नामना नपांगनी टीका तथा हरिनसूरिकृत पंचाशकनी टीका पण रची.
ते समयमां कोई जिनेश्वर नामना चैत्यवासि यतिनो जिनवसन नामे शिष्य हतो. ते व्याकरण तथा न्याय शीखी सूत्रो वांचवा तैयार थयो. त्यारे तेना गुरुए तेने सूत्रोनुं ज्ञान मेळववा माटे अजयदेवसूरिना पासे मोकलाव्यो.
आ जिनवडून व्याकरण अने साहित्यमा मूळथीज एवो प्रवीण थयो हतो के तेणे अन्नयदेवसूरि पासे आवतां काव्यो बोलीने सवाल पूडवा मांड्या हवे अन्नयदेवसूरिए तेने खरेखरो बुद्धिशाळी जोश्टुंक वखतमांसूत्रज्ञान कराव्यु.सूत्र ज्ञान थतां जिनवबनने नारे वैराग्यनो रंग चड्यो एटले तेणे पोताना गुरु पासे जइ जणाव्यु के मने रजा थापो तो हूं अन्नयदेवसूरिनो शिष्य थ नय विहार श्रादरु. गुरुए तेनापर कृपा करो तेने तेम करवा रजा आपी..ते उपरथीते अन्नयदेवसूरिने उपसंपन्न थर उग्रविदारी मुनि थया. .
हवे अजयदेवसूरि स्वर्गवासी थतां ते तेमना पाटे विराजमान थया. था वखते मारवाम तथा मेवाममां चैत्यवासि लोकोनो
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(१०)
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अय श्री संघपट्टका
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एटलो जोरदोर चालु हतो के तेन सूत्र विरुद्ध श्राचारने सूत्र सिद्ध तरीके नोळा:लोकोने समजावी धमधोकारपणे जैनमार्गथी उलटुं
आचरण चलाववा लाग्या इता. तेस्रो एटला गर्विष्ट बन्या इता के साचुंःकहेनारने लाकमीओ मारवा तैयार थता इता. एथी तेमना सामे माथु नुचकवाने कोश्नी हिम्मत चालती नहि.
श्रावो मामलो जोने आ जिनववनसूरिना हृदयमा नोला सोकोना नपर करुणा पेदा थर तेश्रो:मूळथीज नारे हिम्मतवान, वैराग्यवान् अने अने महा विद्वान हता एटले तेमणे पोताना मनमां उराव कयों के गमे तो जीव जाय तो तेवा जोखमे पण मारे आ कुमार्ग तोमवा मथ.श्रा ठरावने अनुसरी तेमणे चीतोममा जश्ने चैत्यवासियोनी सामे पोकार नगव्यो. तेमनो सत्य नपदेश सांजळी त्यांना समजु श्रावको तेमना रागी थया. ते जोस्ने श्राजुवाजुना चैत्यवासिओने जय पेगो के आ माणस एवी सत्तावाळो ले के एने बूटो मेलीशुं तो श्रापणी मोमेवेदले जम उखेमी नांखशे. तेपरथी चीतोममां पांचसो चैत्यवासि यतिओ एका थइलाकमीश्रो लेश्ने जिनवबजने मारी नांखवा तैयार थया, पण त्यांना रागी श्रावकोए ते वावत चीतोमना राणाने चेतावतां राणाए तेम करतां तेमने अटकाव्या.
श्रा तकरार नपरथी चीतोमना विधिमार्ग रागी श्रावकोए पोताना माटे त्यां खास नवु मंदिर बंधाव्युं अने तेमां जिनवक्षन्नसूरिना हाथे वीरानुनी प्रतिष्टा करावी.
श्रावी रीते जिनवाजसुरिए मारवाममां गमे वामे खरा
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अब भी संपपरका
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मार्गनो उदघोष चालु कयों. ते साथे तेमणे संघपटक नामे चाळीश काव्यनो ग्रंथ तथा धर्मशिक्षा नामे चुमाळीश काव्यनो बीजो ग्रंथ रचीने ते बे ग्रंथ चीतोमना मंदिरमां शिळापर कोतरावी कायम कर्या. ए शिवाय तेमणे द्वादशकुलक एटले बार कुलको रच्यां तथा श्रागमिकवस्तु विचार तथा सूमार्थ विचार नामे बेकर्मग्रंथना उत्तम ग्रंथ रचेला . ते बे ग्रंथोपर तेमना पडी थएला मलयगिरि वगेरे धरंधर श्राचार्योए टीका रची जिनववन्नसूरिनी रुमी रीते कीर्ति गाइजे. वळी तेमणे संस्कृत सरखी प्राकृतनापामां नाबारिवारण नामर्नु वीरप्रजुनु स्त्रोत्र रची पोतानी अनुत काव्यशक्ति जगजाहेर करी .
जिनववनसूरिना-श्रा महा पराक्रमथीज चैत्यवासिउनुं जोर तूटयुं ते वात ध्यानमा राखीने सर्वे गबवाळा तेमने अंतःकरणथी धन्यवाद आपे बे.
खरेखर बावा महापुरुषनां श्रापणे जेटलां वखाण करीये तेटलां योगांबे केमके एवा हिम्मत बहार माणसो आ जगत्मा बहु विरलाज जन्मे .
श्रा जिनववजसूरि क्यारे श्राचार्यपदारुढ थया अने क्यारे स्वर्गवासी थया तेनी अमने शालसंवतनी चोकस माहिती मालम नथी तोपण तेमना गुरु अजयदेवसूरिए सं. ११२७ मां टीका रची तैयार करी एटले तेपरथी थापणे एटली अटकळ वांधी शकीये बीये के तेमना शिष्य था जिनवल्सनजी बारमी सदीना मध्यमां गाजता वाजता होवा जोश्ये.
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अब भी संवपक
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... इतिहासहारा तपासतां तेमना वखतमां सिद्धराजनुं राज्य हतुं केमके सं. ११४ए मां सिद्धराज गादीए बेगे हतो अने तेणे पचाश वर्ष राज्य कर्यु बे. माटे आ जिनवटलजसूरिने सिकराज स.. मकाळीन गणी शकाय.
श्रा महापुरुष पासे बीजो एक एवी विद्या पण हती के तेना बळे ते सोने बोलावी शकता भने पाला तेमने विसर्जन करी शकता हता.
तेमना स्वर्गवास पड़ी तेमना पाटे जिनदत्तसूरि बेग. तेश्रो जिनवटलनसूरिना जेवा जारे विधान नहि हतातोपण तेमना पाले मंत्रसिद्धि एवी सरस इती के तेमणे हजारो रजपूतोने प्रतिबोधी श्रावको कर्या तेथी तेश्रोना चरणकमळ आजलगण दादाजीनां पगलां तरीके गामोगाम पूजाय .
आ रीते जिनवटलनसूरिनो संदेपमा श्रमारी जाण प्रमाणे अमे इतिहास श्राप्यो बे. तेम उतां श्रमने खरतरगच्छनी मोटी पट्टावळी तथा गणधरसार्डशतकनी टीका हाथ लागी नथी, पण जो ते हाथ लागी होत तो चोकस साल वगेरे पापीने वधु ब्यान थापी शकत.
सी. प्रसिद्ध कर्ता.
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॥श्री वीतरागाय नमः ॥ - ॥ श्री संघपट्टकः ॥
यस्यां तःसन्न मायतांसलजुजाः स्तन्व श्चतस्त्रः समं लांतिस्म च्युततांतिकांतिलहरीलोलत्रिलोकश्रियः। . शंक वदगदग्रविग्रहनवोपमाहिकर्महिषा मास्यूता विजिगीषया जगवता पायात् सवीरोजिनः ॥१॥
अर्थः-जेना समोसरणनी सजामां चारे दिशाने विषे चार मूर्ति साथे शोने . ते वीरजिन सर्वेनी रक्षा करो, ते मू. र्ति केवी ? तो के, शोजायमान खन्नाना नागथी सुंदर दीर्घ हाथ जेना ने एवी, जेनी मोटी कांतिना समुहरूपी तरंगने विषे त्रण लोकनी लक्ष्मी विलास करी रही ने एवी चार मूर्ति जणाय बे. ते उपर कवि उत्प्रेदा अलंकार करे , जेम नवोपग्राही चार कर्मरूपी शत्रु आत्मा साथे एकनावने न पामे एवाज कारणथी जाणे जीतवानी छाए ते लगवाने चार मूर्ति साथे धारण करी ठे के शुं ? ॥१॥ . क्वेमाश्रीजिनवान्नस्य सुगुरोः सूदमार्थसारागिरः . क्वाहंतद्विवृतौकमा क्लमजुषा जुर्मेधसामग्रणीः ॥ छिद्गन्न छिपदंतमंजनजुजस्तन्नै जयश्री क्वनु प्राप्यासंगरमूर्द्धनि व्यवसित क्लीवाश्वतद्धिप्सया ॥५॥
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8. अथ श्री संघपट्टकः --
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अर्थः-टीकाकार कहे के भारा सुंदर गुरु जे श्री जिनवचनंसूरी तेमनी. घशा सूक्ष्म अर्थवाळी ने प्रधान एवी आ ग्रंथ रूपी वाणी ते क्यों ? ने खेद पामनार मंदबुद्धि पुरुषमा अग्रेसर एवो हुँ ते क्या ? जे तेमना ग्रंथनी टीका करवाने समर्थ था ? ते उपर दृष्टांत अलंकार कहे जेम मोटा संग्राममां; जेणे शत्रुना मदोन्मत्त हाथीना दांत, पोताना हाथरूपी धुन वमे चुरा कर्या ने, एवा शूरवीर पुरुषने पामवा योग्य, जे जयलक्ष्मी ते नपुंसक पुरुषने क्यांची मळे ? अर्थात् नहींज मळे. ते नपुंसक पुरुष केवो ? तोके ते जय लक्ष्मीने पामवाली श्वाए संग्रामना मस्तक उपर निश्चय करी रह्यो के एवो. ॥३॥
तथापि तस्यैव पदप्रसादःफलिष्यति बाक् मम निर्विवादः॥ 'किमंग पंगो जवनांगणस्ट कल्पमापूरयते न कामान् ॥३॥
. अर्थः-तो पण ते श्रीजिनवहालसूरिना चरणनो प्रसाद मारा:पर बे, तो शीघ्र फळीभूत थशे तेमां कांश विवाद (संशय) नथी ते उपर दृष्टांत कहे जे. जे शरीरे पांगळो ३ तेना घरना आंगणा आगळ रहेलो कल्पवृक्ष शुं तेना मनोरथ नहीं, पूरे ? अ र्थात् पूरशे ज. तेम मंदबुझिवाळो हुँ पण ते गुरुना प्रतापथी टीका.करीश. ॥३॥
टीका हहि सहशां पदार्थसार्थप्रकटनपटीयसि समूलकाषंकषितनिःशेष दोषे निर्वाणचरमशिखरी शिखर मधिरूढे जगवति जास्वति श्रीमहावीरे ॥ . ;
अर्थः-या लोकने विषे समकितदृष्टिवाळाने नव तत्वादिक पदार्थनो समूह प्रगट करी देखामवामां अतिशे चतुर अने मूळ
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rug अथ श्री संघपट्टका ..
mmms मांथी नाश कर्या ने समस्त दोष जेणे एवा नगवान महावीररूपी सूर्य निर्वाणरूप चरम शिखरिना शिखर उपर गये उते एटले महावीर स्वामी मोक्ष पामे उते. .. : :
टीका:-तदनु कुषमासमयत्नविष्नुदशमाश्चर्यमहादोषांध. कारोदयात्तनिमान मासादयति जिनराजमार्गे ॥ ' ' अर्थः-त्यार पनी दुःखमा समयने.विषे यतुं जे दशमुं अं. संयति पूजा रूपी आश्चर्य ते रूपी सहारात्रीना अंधकारना उदय जिनराजनो मार्ग अतिशे हानि पामे बते. - टीकाः-संदायमानेषु सदृष्टिषु सात्विकेषु सत्वेषु प्रोज्जुनमाणेषु सदालोकबाह्येषु तामसेषु ।।।
अर्थ:-समकितष्टि सात्विक प्राणी मंद आये ते, अने सारी दृष्टि थकी रहित तमोगुणी प्राणी अतिशे उदय पामे उते. - टीका:-निरंकुशमत्तमतंगजवद्यथेचं गर्जत् संचरिष्णुषु
प्रमादमदिरामदावदायमानानवद्या विद्यालंपत्तिषु सातशीक्षतया . . स्वकपोलकल्पनाशि पिकल्पित जिनजवननिवासेषु ॥ -
. अर्थः बळी ते तमोगुणी असदृष्टि प्राणी अंकुश : विनाना मदोन्मत्त हाथीनी पेठे पोतानीज वा प्रमाणे चालता एवा ने प्र: मादरूपि मंदिराना केफे करीने सारी विद्यारूपि संपत्ति जेमणे खंमन करी अथवा जेमनी विद्या संपत्ति नाश पामी ने एवा ते पुरुष सुखशीलपणे जिनलुवनमां निवास करवो एवी पोतानी कपोल कपनानी चतुराइ कर्ये बते.
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8. अथ श्री संघपटकः
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टीकाः-चौबुक्यवंशसुक्तामाणिक्यचारुतत्वविचारचातुरी धुरीणविलसदंगरंगनृत्यन्नीत्यंगनारंजितजगजनसमाजश्रीदुसजराजमहाराजसानायां ॥
अर्थः-चौदुक्य राजाना वंशमां मोतीमाणिक्य समान शोलायमान ने तत्वविचारनी चतुराई करवामां घणो श्रेष्ट ने जेना सुंदर अंगने विषे नीति रूपी स्त्रीविलास करी रही , तेणीए करीने जगतना जनसमूहने प्रसन्न करतो एवो श्री दुर्लन्नराज नामे मोटो राजा तेनी सनाने विषे.
टीकाः अनपजल्पजलधिसमुन्सलदतुचविकल्पकझोलमालाकवलितवहलप्रतिवादिकोविदग्रामण्या संविनमुनिनिवहाग्रण्या सुविहितवसति पथप्रथनर विणा वादिकेसरिणा श्रीजिनेश्वरसूरिणा॥
अर्थः-घणा वादरूपी समुथी उबलता मोटा विकल्परूपी कबोलोनी श्रेणीये करीने घणा प्रतिवादि पंमित समूहना तर्कनुं जहण करता एटले प्रतिवादीने हगवता जे पंमित ते मध्ये श्रेष्टने संवेगी साधु समूहमा अग्रेसर ने सुविहित पुरुषोना परघर निवास मार्गनो विस्तार करवाने अथवा शास्त्रमा कहेलो जे मुनिने आप्रकारना स्थानका रहे, इत्यादिक जे सिद्धांत मार्ग तेनो विस्तार प्रकाश करवाने सूर्य समान वादि सिंह श्री जिनेश्वरसूरि जे तेमणे.
टीकाः श्रुतयुक्तिनि बहुधा चैत्यवासव्यवस्थापनं प्रति प्रतिक्षिप्तेष्वपिलांपट्यानिनेवेशान्यां तन्निर्बध मजहत्सु यथादेषु
अर्थः-लिंगधारीए करेला चैत्यवासनास्थापनने घणा सि
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8. अथ श्री संघपट्टका
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कांतनी युक्तिए करी खंगन कर्यु तो पण लंपटपणाथी तथा श्रनिनिवेशक मिथ्यात्व (कदाग्रह ) ना उदयथी पोताना हग्वादने नहीं मूकनारा अने पोतानी इच्छा प्रमाणे वर्त्तनारा एवा ते लिंगधारी श्रये उते.
टीकाः-तत स्तऽत्सूत्रदेशनाविरलगरललहरी चरीकृष्य- ; माणहृदयशूमिनिहितचेतनाबीज मुदग्रदुर्निग्रहकुग्रहावग्रहशोशुष्यमाणविवेकांकुरं निरर्गल मुखकुहर निःसरहुर्वाणी कृपाणी- . कृतधार्मिकमाणं श्राझसंघ निरीदय ॥
अर्थः-त्यार पठी ते लिंगधारीनी उत्सूत्र देशनारूपी मोटा हलाहल फेरनी लेहेरोए करीने; “जेनुं हृदयरूपी पृथ्वीमा रहेढुं ज्ञानरूपी बीज, अतिशे खेंचाइ गयुंडे एवो तथा जेना. विवेकरूपी अंकुरा श्राकरा अने माग कदायहरूपी दुकाळ पमवाथी अतिशे सुकाया ने एवो, तथा जेने बोले बंध नथी एवां मुखरूपी बिजमांथी नीकळती माठीवाणीरूप तरवारे करीने धार्मिक लोकोनां मर्मस्थळ जेणे यां, एवो श्रावकनो समूह. थयो ते देखीने
टीकाः तदुपचिकीर्षयाहृद्यानवद्यसमग्रविद्यानितंबिनीचुंबितवदनताम रसः सांसंवेगशास्त्रार्थरसायनपानवांतकामरसः ॥
अर्थः-तेमनो उपकार करवानी बाये, सुंदर अंने निर्दोष एवी समस्त विद्यारूपी स्त्रीयोये जेना मुख कमलने चुंबन कयु के, अर्थात् जेना मुखकलमां सर्व विद्यायो पोतानी मेळे श्रावीने रहेली ने एवा, अने घणां वैराग्यवंत शास्त्रनोनावार्थ जाणवा रूप रसायन औषधनुं पान करीने कामरस वमन को ठे एवा.
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( ) •8. अथ श्री संबपट्टका - . . टीकाः-सुविहितमुनिचक्रवाल शिखामणिः सिद्धांतविपर्यस्तप्ररूपणमहांधकारनिकारतरणिःसुगृहीतनामधेयःप्रणतप्राणि..संदोह वितीर्य शुनजागधेयः ॥ .
अर्थः-(तथा) सुविहित मुनिना समूहमां चूमामणि समान, अने सिकांतनी अवळी प्ररूपसा करवारूप मोटा अंधारानो नाश करवामां सूर्य समान, तथा सुंदर ग्रहण करवा योग्य नाम डे जेनुं एवा, तथा नमस्कार करनार प्राणीना समूहने शुन लाग आपनार अर्थात तेमनु हित करनार एवा.
टीका:-चैत्यवासदोषनासनसिकांताकर्णनापासितकृतचतुगतिसंसारायासजिननवनवासः ।।
अर्थः-ने चैत्यवासना दोषने प्रकाश करनार सिद्धांतना सांनळवाथी चार गति संसारमा जगण करवारूप खेद, जेथी थाय एवो चैत्यवास जेणे त्याग कयों ठे एवा.
टीकाः-सर्वशासनोत्तमांगस्थानादिनवांगवृत्तिकृत्रीमदनयदेवसूरिपादसरोजमूले गृहीतचारित्रोपसंपत्तिः॥ ...अर्थः-ने जिन शासनना उत्तम अंग (मस्तक) समान जे स्थानांग आदि नव अंग तेमनी वृत्ति करनार श्री अन्नयदेवसूरिना चरण कमल समीपे जेणे चारित्र संपदा नहरा कररी एवा.
टीकाः करुणासुधातरंगिणीतरंगरंगत्स्वांतःसुविधिमार्गावनासनप्रापुषधिशदकीर्तिकौमुदीनिषूदितदिक्सीमंतिनीवदनध्वांतः ॥
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- अथ श्री संघपट्टका :अर्थः-करुणारूप अमृत नदीना तरंगे करीने जेनुं मन रंगायुं ने सुविधि मार्गने प्रकाश करवाथी प्रगट थएली निर्मल कीर्तिरूप चंकांतिये करीने नाश कर्यु जे दिशारूपी स्त्रीयोना मुख→ अंधारु जेणे एवा, . टीकार-खस्योपसर्ग मन्युपगम्यापि विदुषा दुरध्वविध्वंसनमेवा धेय मिति सत्पुरुषपदवी मदवीयसी विदधानः समुजितजूरिज़गवान् श्रीजिनबदलनसूरिः॥
अर्थः-अने पोताने उपसर्ग थाय तो पण जे विद्वान् होय तेणे कुमार्गलो नाश करवो ए प्रकारनी सत्पुरुषनी रीतितुं बालंबन करता एवा अने घशा कुमति लोकनो त्याग करनारा एवा समर्थ जिनवस्वानसूरि जे ते. ... . टीका-मोहांधतमसध्वंसनपटिष्टसत्पथप्रकाशनगरिष्ठरत्नदीपायमानं दुर्वासना शिलासंचयकुट्टाकं श्रीसंघपट्टकाख्यं प्रकरएं चिकीर्षुनिखिलप्रत्यूह व्यूहव्यपोहायादा वमु मिष्टदेवतानमस्कार माविश्चकार ॥ . . . . . ..
अर्थः-मोहरुप गाढ अंधकारने नाश करवामां अतिशेच. तुर, सन्मार्ग प्रकाश करवामां मोटा रत्नदीप समान, दुष्ट वासना रूप शिला समूहने चुरो करनार एवा संघपट्टक: नामे प्रकरणने करवाने श्चता सता समस्त विघ्न समूहने नाश करवाने अर्थे-इष्ट देवता नमस्काररूप आ प्रथम काव्यं प्रगट करे .. :
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8. अथ श्री संघपट्टका--
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॥ मूल काव्यं ॥ वन्हिज्वालावलीढं कुपश्रमथनधी र्मातु रस्तोकटोकस्याये संदर्य नागं कमठमुनितपः स्पष्टयन् अष्ट मुच्चैः य:कारुण्यामृताधि विधुरमपि किन स्वस्य सद्यःप्रपद्य। प्राज्ञैः कार्य कुमार्गस्खलन मिति जगा देव देवं स्तुम स्तम् ॥२॥
टीका:-अथ संघपट्टक इति कः शब्दार्थः । . अर्थ:-अथ शब्द मंगलिक ठे. प्रश्न-संघपट्टक एवं आ ग्रंथy नाम ले तेनो शो शब्दार्थ बे.
टीकाः-॥ उच्यते ॥ संघस्य ज्ञानादिगुणसमुदायरूपस्य साध्वादे श्चतुर्विधस्य पट्टका व्यवस्थापत्रं ॥ यथा राजादयः स्वनियोगिन्यो व्यवस्थापत्रं प्रयत्य ऽनया व्यवस्थया युष्मानि व्यवहर्त्तव्यमिति-एव मिहापि सादा विपदाःसंघदोषदनिधारण स्वपढ़ सुसंघस्य व्यवस्था वदयमाणा दयते तिन्न. वति संघपट्टकः ॥ - अर्थ उत्तरः-ज्ञानादि गुणना समूहरूप साधु, साधवी, श्रावक श्राविका ए चार प्रकारनो संघ तेमनो पट्टक एटले व्यवस्था करनार लेख के. जेम राजादि कोइ श्रेष्ट माणस होय ते पो' ताना सेवक लोकोने व्यवस्था पत्र आपे बे. जे आ रीते तमारे व्यवहार करवो. एम अहीं पण प्रत्यक्ष जणातो शत्रुरूप उष्ट संघ तेना दोष देखामवा ए छारे पोताना पक्षरूप रूमा संघनी आगळ
नियोगिज्यो व्यवस्थाका व्यवस्थापन
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-18 अंग श्री संघपट्टकः --
कहीभुं एवी व्यवस्था देखामी बे, माटे संघपट्टक ए प्रकारनुं या धनुं नाम स्थापन कयुं छे.
टीका - तथाप्यनिधेयादिमयवैकल्या दिद मनर्थक मिति तन्न ॥ प्रतिपादितसंघपट्टकशब्दार्थविवेचनेन त्रयस्था प्यापात् ॥
अर्थ:-तो पण विधेय एटले कड़ेवा योग्य वस्तु, संबंध तथा प्रयोजन ए त्रण वानां कह्या विना या ग्रंथ निरर्थक थशे. एम जो श्राशंका थाय तो ते न करवी. केम जे संघपट्टक एशदनानी विवेचना करी तेणे करीनेज ए त्रणे वस्तुनुं श्राकर्षण थयुंढे माटे.
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टीका - तथाहि प्रकरणानिधानार्थ पर्यालोचनयौ द्देशिक जोजनादिदोष दर्शनद्वारेण तत्परिहाररूपा व्यवस्थां ऽत्रा मि.. भेयेति गम्यते ॥
प्रर्थ:--तेज देखाने बे जे संघपट्ट ए नामनो अर्थ विचारी जोतां उद्देशिकादि श्राहार दोष जोवा एटले पोताना' निमित्ते भोजन करावी जमे बे, इत्यादि दोष देखवाना द्वारे दोष देखीने ते दोष युक्तनो त्याग करवो ने निर्दोषनुं ग्रहण करवुं, यदि शब्दे करीने जिनग्रह वासनो परिहार करवो इत्यादि रूप व्यवस्था या प्रथमां निधेय वस्तु वे एम जगाय बे.
टीका:- प्रयोजनाविनानावाञ्चानिधेयस्य, तदाक्षेपेण प्रयो.. जन मप्याक्षिसं ॥ नहि निःप्रयोजनस्य पदार्थस्या निधानाय सतः प्रवर्तते तत्वहानि प्रसंगात् ॥
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(२०) - अय श्री संघपट्टा - अर्थ नै प्रयोजन विना अनिधेय होय नहीं: माटें अनिधयना आकर्षणे करीने प्रयोजननु पण आकर्षण थयु केमके संतपुरुष प्रयोजन विना पदार्थ कहेवाने अर्थे प्रवर्तता नथी शाथी के तत्वहानिनो प्रसंग थाय माटे. एटले सत्पुरुषपणानी हानिने प्रसंग थाय ए हेतु माटे अथवा सार वस्तु (ज्ञान, दर्शन, चारित्र)नी हानि न थाय एज ग्रंथ करवानुं प्रयोजन ... , .
टीकाः-तच्च विविध मनंतरं परंपरं च ॥ पुनस्तदपि कर्तृ'श्रोतृत्नेदा विविधं ॥ तत्र कर्तुं रनंतरप्रयोजनं विनयानां सं. 'घव्यवस्थाधिगम करणं श्रोतु श्वानंतरं संघव्यवस्था धिगमः परंपर तुच्योरपि परमपदंप्रातिः॥
अर्थः-तें प्रयोजन के प्रकारनुं ने एक अनंतर ने वीजें परंपर वळी ते. पण. का पुरूषने श्रोता पुरूषना जेदयी बे प्रकारर्नु में तेमा कर्ताने अनंतर प्रयोजन तो शिष्योने, संघनी व्यवस्थानुं जाणपणुं करावq एज . ने श्रोताने अनंतर प्रयोजन ए जे के संघनी व्यवस्था. जाणीने ते प्रमाणे प्रवर्तवु, ने वळीकर्ता तथा श्रोता वेने पण एंथी मोक्षपदनी प्राप्ति थवी तें रूप परंपर प्रयोजन ... . टीकाः तथाऽस्य प्रकरणस्ये . दमजिधेय मिति झापयताज्ञापित एवास्योपायो पेयन्नावलक्षणः संबंधः ।. : . : .. "
- "अर्थः चळी. याप्रकरणने श्रा. कडेवा.योग्यं . एमजणावता या ग्रंथकारे उपाय भावने उपैयचाव के लक्षण जेनुं एवो सं. बंध जणाव्योज के " . . . . - टोकाः-तथाही दं प्रकरणं व्यवस्थितसंघव्यवस्थाधिगमोपाय: उपेयं च तदधिगम इति ।
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ति॥
. . अथ श्री संघपट्टका --- (११) अर्थः-तेज देखाने में जे; निर्धार करेली जे संधनी व्यवस्था तेने जाणपणुं करवानो उपाय ते या प्रकरण ग्रंथ बे, (ते कारण -), ने. ते संघनी व्यवस्था जाणवी ते उपेय (कार्य).
टीकाः-या द्वितीयवृत्तवर्तिना “ सुधीरित्युच्यसेत्वमये" स्पनेनानिधेयस्य तदविनाजावेनच प्रयोजनसबंधयोः स्वयमेव : प्रकरणकृता प्रतिवादनात् नानर्थकता प्रकरणस्येति ।। .. अर्थ:-अथवा बीजा काव्यमा हुँ तने सारी बुद्धिवान एवो जाणीने संघ व्यवस्था प्रत्ये कहुं हुं," ए प्रकारचें कहेढुं जै वाक्य तेणे करीने प्रयोजन तथा संबंध ग्रंथकारे पोतेज प्रतिपादन कर्या , केमजे अन्निधेयर्नु प्रयोजन संबंध विना थापणुं नथी. नथी. माटे श्री प्रकरण- अनर्थकपणुं. नथी.. ... ., . टीकाः अथ वृत्तव्याख्या ॥ स्तुमःप्रणुमः अस्मयंऽप्रयुज्यमानेप्युत्तमपुरुष प्रयोगप्रतिपादना गय मितिकर्तृपदं स्वय मिह योज्यम् ॥ .. . . . . . . . . . . अर्थः ड्वे प्रथम काव्यनी व्याख्या कहे जे जे नमस्कार करीए बीए व्याकरण शास्त्रमा कक्षु ले के अस्मत् शब्दनों प्रयोग न करयो होय तो पण क्रियापदमां उत्तम पुरुषना प्रयोग प्रतिपा'दन करवाथी " वयं” ए. प्रकारच् कर्तापद, उपरथी लेवाय माटे थहीं पोतानी मेळे अध्याहार करी जोमवू. तेथी अमो नमस्कार
_ . . . . . . . .. .. : टीकाः के देवं दिवे स्तुत्यर्थस्यापि नावात् दीव्यते स्तूयते शक्रादिनि रिति देव ॥ सचात्र प्रकरणादा विष्टदेवतावनस्तत्रा
करीए डीए ए प्रकारे
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अथ श्री संघपट्टका - हत्वाजिनः ॥ सोपीह कम तपोऽष्टतास्पष्टनलक्षणासाधारणविशेषणयोगात्पार्श्वनाथ स्तदेवं स्तुमः ॥ ... .. ' अर्थःकीया देवने नमस्कार करीये बीए ? तो के इंशादि देव जेनी स्तुति करे ने एवा देवने ॥ दिवधातुनो स्तुति अर्थ पण .माटें देव शब्दनो ए प्रकारे अर्थ थयो ते देव पण श्रा प्रकरणादिकने विषे इष्ट देवतापणे स्तुति करवा योग्य अरिहंत बे. तेमां पण अहीं कम तापसनुं मुष्ट तप ए प्रकारे लोकमां प्रगट करी देखामवारूप ले लक्षण जेनुं एवं असाधारण विशेषण बांध्यु ने तेथी पार्श्वनाथ ने ते अरिहंत देवनी अमो स्तुति करीए बीए ए प्रकारे 'श्रर्थ थयो.
टीकाः यो जगादेव प्रतिपादयामासेव ॥ श्व शब्दो त्रो स्कायोतकः ॥ किं इति ॥ इति शब्दः कर्म स्वरूप प्रतिपादनार्थः तेन इति एतत् ॥ एत देवाह ॥ विधुरमपिं किल स्वस्य सद्यः प्रपद्य प्राज्ञैः कार्य- कुमार्गस्खलन मिति ॥ ..
अर्थः-जे पार्श्वनाथ कहेता होयने शुं एंटखे प्रतिपादन करता होयने शुं ॥ अहीं श्व शब्द मे ते उत्प्रेक्षातकारने प्रकाश करे ॥ किं इति ॥ ए जगाये इति शब्द ने तेनो कर्मना वृत्तांतनुं प्रतिपादन करवा रूप अर्थ ने एटले कुमार्गनी प्रवृत्तिने बंध करवारुप क्रिया करवी ए अर्थ डे इति कहेतां ए प्रकारे कहेता होयने शं? ते प्रकार कहे जे. जे पोताने कष्ट थतुं होय तोपण तेनो अंगीकार करीने निश्चे तत्काल सारा पुरुषोये कुमार्गनो ज़छेद करवो.
टीकाः-प्राज्ञैः प्रज्ञावद्भिः कार्य विधेयं कि कुमार्गस्खलन सर्वसामध्येन पूर्वा पराऽविसंवादिशास्त्रविरुङमतनिराकरणं ॥
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18 अथ श्री संघपक - अर्थः-बुद्धिवान पुरुषोए शुं करवु ? तो पूर्वापर जेमा वि. संवाद नथो एवां जे शास्त्र तेथी विरुष्क एवो जे मत तेनो नाश सर्व सामर्थे करीने करवो अर्थात् सर्व प्रकारे कुमार्ग बंध करवोः
टीकाः किं कृत्वा प्रपद्य स्वीकृत्य किं विधुरमपिव्यसनमपि ॥ अपिः संजावने एतत् संजावयति ॥ पुष्करमपि स्व-- वैधुर्यस्वीकरण मैकलविकं ॥ सति सामर्थे स्वापायशंकया कुल पथस्खलनावधीरणं त्वनंतजंतुसंसारकारणत्वेन महतेऽनयेति।।
अर्थः-शुं करीने कुमार्गनो छेद करवो ? तो कष्ट पण अंगीकार करीने ॥ श्रपि शब्दनो संजावनारूप अर्थ माटे ए.वात संजवती ने जे पोतानी मेळे कष्टनुं अंगीकार करवू ते पुष्कर ने तो पण ते कष्ट एक नव संबंधी जे ने उती शक्तिये पोताने कष्ट यशे एवी आशंकाये करीने कुमार्गनी स्खलनानी उपेक्षा. करवी (कुमार्गमा पनि रदेवारूप परानव सहन.करवो) तेतो अनंत जंतुने संसार कारणपणुं थवाथी मोटा अनर्थ जणी बे. माटे कुमार्गको स्याग करी सन्मार्गे चालवु ए नाव बे.
., टीकाः कस्य विधुरं ॥ स्वस्यात्मनः कथं सद्य स्तरक्षणात्॥ किलेत्याप्तवादे ॥ आप्ता एव माहु रिति कस्मादेवं जगावे त्यतथाह-॥ कारुण्यामृताब्धिः कथमयंजनो मया कुमार्गका दु. करणीय शतिकृपापीयूषसागरो नगवान् ॥ नहिलोकानुकंपा मंतरेण कश्चित् स्ववैधुर्यांगीकारेण कुमार्ग प्रतिहंतीति ॥ ..
अर्थः-कोने कष्ट थाय तो पण कुमार्गनो बेद करवों ? तो पोताना श्रात्माने, तत्काळ कष्ट थाय तोपण किल शब्दे करीने यात
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. अथ श्री संघपट्टका
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हितकारी पुरुषतुं वचन एम सूचना करी॥ केमजे जे हितकारी
तेज था प्रकारे कहे . झा हेतु माटे ? एम कहेता होयने शुं एप्रकारे कडं एवी आशंका करी कहे जे पार्श्वनाथजीतो करुपाना समुपजे. माटे एम विचार कर्यो जे मारे किया प्रकारे था
सा, कुमार्गरूपी काद्वी उधरवो, ए प्रकारनी दया रूप श्रमतना समुह नगवान बे. साथी के लोक उपर अनुकंपा को विना कोइ पर्ण पोताने दुःख थq ते अंगीकार करीने कुमार्गने ने हणे माटे.. . ...ट्रीकाः किंकुर्वाण एवं जगादेवे त्यताह स्पष्टयन् प्रकटी 'कुर्वन् ।। किं कमल मुनितपः कमगनिधान लौकिक तपखिन पंचाग्निरूपकष्टानुष्टानं ॥
. .. .. अर्थ-शुं करता उता एम कता होयने शुंए प्रकारनी
आशंका करी कहे जे जे कम तापसतुं तप प्रकट करता उता, केमत नाम खोकमां तपस्वी कदेवातो हतो तेनी पंचाग्नि साधनरूप "कष्ट क्रिया हती ते प्रसिद्ध करी. . .
टीका:-ननु कमवतपो लोके स्पष्टमेव किं तत्स्पष्टनेनेत्यतबाह । पुष्टंप्राणिवधमुग्धप्रतारणलान्नपूजाख्यातिकामनादिदोषकलापयुक्तं ॥
. अर्थः-तर्क करी विशेषण प्रयोजन देखामे बे में कम तापसन तप लोकमां प्रगटज हतुं माटे तेने प्रगट कर्यु एमां शुं विशेष ? एवी श्राशंका करी ते तपर्नु विशेषणं देखा , जे एतप दुष्ट , पायारूप में, अनेक जंतुनी जेमां हिंसा, अंज्ञानी जोळा माहासने वगवाना जपाय रूपबे,अनेक प्रकारना लाल तथा लोकमां
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8. अथ श्री संघपट्टका १६ पूजावषु, तथा जस थवानी श्छा इत्यादि दोषना समूहे युक्तए तपः॥
. टीका:-अत्र च विशेषणे तात्पर्य ॥ स विशेषणे हि वि-.. . धिनिषेधौ विशेष मुप संक्रामत तिन्यायात् ।। तेनदुष्टत्त्वेनख्या. पयन्निति पुष्टत्वमत्र तपसो विधेयम् ॥ .
अर्थः-श्रहीं विशेषणमा तात्पर्य २. विशेषणे सहित एवां विधि वाचक ने निषेधवाचक पद डे, ते विशेषमा मळी जाय, एटले विशेष्य पदमा वाध श्रावे त्यारे विशेष्य विशेषणमा मळी जाय, ने. विशेषणमा बाधे श्रावे त्यारे विशेषण विशेष्यमां मळी जाय. ए. प्र. कारे न्याय शास्त्रनुं वामन कृत सूत्र डे ते वचनना न्यायथीयाजगाए तप विशेष्य पद ले. “दुष्ट" ए तपनुं विशेषण लेते हेतु माटे पुष्टपणे ए तम प्रसिद्ध कर्यु ए प्रकारे पुष्टपणुं तपने आधीन थयु. एटले तप पदमां दुष्ट पणुं मळीने पोतानुं मुख्य पणुं जगव्यं ॥ .. • टीकाः कथं दुष्टं उचै रतिशयेन किंकृत्वा स्पष्टयन संद....
ये दर्शयित्वा कं नाग पंचाग्नितपोनिमित्तज्वलितज्वलनकुंमा । 'सर्वर्तित्वाद् दारुकोटर मध्यगं जुजंगम् ॥ . . . .
अर्थः-कीये प्रकारे ए तप दुष्ट दे, तो अतिशे पुष्ट . शुं करीने प्रगट कर्यु ? तो पंचाग्नि तप निमित्त बास्यो जें अग्मिनों कम तेमा. रहेझुंजे काष्ट तेना कोतरनीमध्ये रहेलो बलतो नाग देखामीने, • टीका, किंविशिष्ट नागं वन्हि. ज्वालावलीढं । निरंतर प्र; ज्वल लिखिशिखाकवलितं ॥ अर्जदग्धमिति यावत्॥ क्वअग्रेपुरतः कस्याः मातुर्वर्मानिधाया महादेव्याः स्वजनन्या न केवल मा. तुस्तथाऽस्तोकसोकस्य कोतूहलादिमिलित सकलजनतायाः.:
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अथ श्री संचपट्टकः
अर्थः- ते नाग केवो बे ? तो, श्रग्निनी ज्वालाखे व्याप्त बे एटले निरंतर प्रतिशे वळतो जे अग्नि तेनी ज्वालाये कोळी यो क रेलो एंटले वरधो वळेलो एवो सर्प क्यां श्रगळ देखामयो ! तो पोतानी माता वर्मा नामे पट्टराणीनी गळ देखामयो || एकलो मातानी आगळज देखायो एम नहीं, त्यारे शुं ? तो कौतुहला दि कारणे मळेला सकळ लोकना समूहनी श्रगल पण देखायो.
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- टीका:- प्रथकस्मात् सकल जनमध्ये भगवान् तत्तप स्तिरथकार ॥ यतः कुपथ मथन धीः ॥ श्रसन् मार्गोछेद प्रवीण बुद्धिमान् ॥ नहितसपोदोषापादनं विना कुमागछेद कर्त्तुशक्यः ॥ एतउक्तं नवति || नहि भगवता तत् साक्षादनिहितं प्रेक्षावतां यदुतद्भवद्भिः कुमार्ग स्खलनं विधेय मिति ॥ किंतुज्ञान वलाऽवसित कमव विधास्यमाना विरलजलधरपटल विगलत्सलिलधारासंपाता दि. स्वापायाच्युपगमेनापि कमवतपसो दुष्टत्वं स्पष्टयताऽर्थादेव तत् प्रत्यपादि ॥ यन्मवद् नवद्भिरपि कुमार्गस्खलनं स्वापायांगी का रेणापि कार्यम् ॥
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अर्थः- हवे शा देतु माटे सकल लोकनी मध्ये जगवान ते ना तपने तिरस्कार करता हवा ! तो जे हेतु माटे असत् मार्गने छेद करवामां प्रवीण बुद्धिवाला भगवाने, एम विचार्यु जे ते तपना दोषनुं संपादन कर्या विना कुमार्गनो उच्छेद नहीं करी शकाय. माटे एम कही देखायुं. पण जगवाने बुद्धिमानने साक्षात् कथं नयी जे तमारे कुमार्गनो नाश करवो, त्यारे शी रीते कछु बे ? तो, पोते ज्ञान बले करीने जाणे बे निश्चय कर्यो बे जे कमव तापस घला मेघ मंग
थी पकती पाणीनी धारा ते यदि घणा उपड़वथी आपने डुख देशे तोपण कमव तापसनुं तप दुष्ट प्रगट करी देखामयुं माटे
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... अथ श्री संघपट्टका
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अर्थात् प्रतिपादन कर्यु जे मारी पेठे तमारे पण पोताने कष्ट थाय तो ते अंगीकार करीने पण कुमार्गनो उच्छेद करवो. ..
टीका:-स्वामि चरितानुसारित्वादनु जीविचरितस्येत्युत्प्रेदाद्योतकेवझब्द सूचितवृत्ततात्पर्यार्थः ॥ श्रतएवा.त्र प्रकरण: कारेणापि विपक्षःसंघदोषख्यापनपुरःसरं स्वपक्षसुसंघव्यवस्था
प्रदर्शनेन स्ववैधुर्य संजावयता स्वव्यसनाच्युपगमपूर्वककुमा
गविध्वंसनविधातुर्जिनस्य नमस्कारःकृत श्रौचित्यप्रतिपादनायेति '... अर्थ: कमजे स्वामीना आचरण प्रत्ये सेवक आचरण अनुसरे जे ए हेतु माटे या प्रकारे आ काव्यनो तात्पर्यार्थ उत्प्रेक्षा श्रलंकारने प्रकाश करनार "श्व" शब्दे सूचना कयों के एज कारण माटे श्रहीं प्रकरण कर्त्ताए पण प्रतिपदरूप मागे संघ तेना दोष प्रसिद्ध कहेवा पूर्वक स्वपद जला संघनी व्यवस्था देखामवी तेणे करीने पोताने कष्टनो संजवडे एम जाणीने पण या ग्रंथ रच्यो तेमां पार्श्वनाथजीने नमस्कार कर्यो, केम जे पार्श्वनाथजीये. पोताने कष्ट थशे एवं जाणीने पण कुमार्गनो नाश कर्यो माटे तेमने नमस्कार कर्यो ते उचितपणुं प्रतिपादन करवा नणी , माटे एमने प्रथम नमस्कार करवो घटे . . .
टीका:-अस्मिन्नेवार्थे संप्रति वृक्षसंप्रदायोऽनिधीयते ॥ श्रास्ते सु रचितावासा पवित्रकृयशालीनी ॥ उपगंगं सुरागारा कारा वाराणसीपुरी ॥१॥
- अर्थ:-एज नावार्थ निमित्त हवे वृक्ष संप्रदाय कलुलु. ए. टले वृक्ष परंपराने अंनुसरती श्री पार्श्वनाथजीनी कथा कहुंबु. जेमां सारा रचेला निवास डे ने पवित्र धर्मवमे शोचती.तथा देव
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'(१८) 8. अथ श्री संघपट्टका - मंदिर जेवो जेनो आकार ले एवी गंगाने कांवे वाराणसी नामे नगरी ॥१॥ . . . . . .
टीका:-अभू चस्यां महाकूटोणीभूतपक्षतकणः॥अश्व. सेनः सुधर्मास्थः पृथ्वीपालो यथावृषा ॥२॥ . : अर्थः-ते नगरीमा मोटा कपटी प्रतिपक्षी राजाना पड़ने नाश करनार अश्वसेन नामे राजा हतो जेम सुधर्मा सलामो इंश ने तेम. ते इंले पण पर्वतरूपी शत्रुनी पांखो नाश करी, ते वात लौकिक शास्त्रमा .जे एक समे इंश सन्नामां बेगे हतो. त्यारे ऋषि लोकोए जश्ने पृथ्वीनुं वृत्तांत कडं हे त्रिलोकि स्वामिन् पर्वसोने मोटी मोटी पांखो माटे जमे ले ने मोटां गाम नगर उपर जश्ने पमंता नांखेडे, तेथी तेमनो नाश थाय ने, माटे ए मोटा दुःखथी प्रजानु रक्षण करो, ते वात सांजळी इंजे कोप करी पृथ्वी उपर श्रावीने वन वते मेरु आदि पर्वतोनी पाखो कापी नांखी ते पर्वतोए; पण पांखोनी वृष्टि इंअ उपर घणी करी तेवामां केटलाक मैनाकादि पर्वत समुजमा जश्ने पड़या लेमने अद्यापि पांखो बे: शक्ति कथा. ॥॥ . , . . . . .।
टीका:-वर्मा तस्य महादेवी रुचिंताखंगलक्षणा ॥ शचीत. सुमनःपूज्या कुसंगविकलाऽजनि ॥३॥
अर्थते अश्वसेन राजाने सुंदर अखंग-सारां लक्षणवाळी सत्पुरुषने मानवा योग्य ने कुसंगथी रहित एवी वर्मा नामे.. पट्टरा. णी हती. जेम इंसने स्त्री वाणी तेम. ते इंशाणी पण देवताने पूजवा योग्य ले.ने पृथ्वीना संगथी रहित ॥३॥ " :,
टीका:-जयंतवं नासत्यभृ त्तयो रंगनू रजूत् ॥ जिनःपा
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8. अथ श्री संघपट्टका
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(१९)
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" स्त्रयोविंशो विबुधाराधितकमः ॥४॥ .
: ' अर्थः ते इंश इंशाणीने जेम जयंत नामे. पुत्र बे, तेम ने स्त्री पुरुषने सत्य वक्ता ने देवता जेनां चरण- आराधनं करे , एवा त्रेवीशमा पार्श्वनाथ जिनपुत्र थया. लौकिक शास्त्रमा इंजनो पुत्र जयंत नामे ले. तेनुं देवताना औषध करनार अश्विनी कुमार नामे बे वैद देवता ते लरण पोषण करे , ने देवता ते इंड.पुत्रना पग शेवे ॥४॥ : टीका:-उपेयिवान् कुमारत्वं ततः शक्तिहताहितः॥ स. जवानीहितस्वांतो गमयामास वासरान् ॥५॥
अर्थः-त्यारपती पोतानी शक्तिवते शत्रुनो नाश करनार एवा पार्श्वनाथजी कुमार अवस्थाने पाम्या, ने संसारमा जेनुं चित्त श्रासक्त नथी एवा बता दिवस निर्गमन करे , अन्यशास्त्रमा शीवनो पुत्र स्वामी कार्तिक नामे , तेनुं नाम पण कुमार , ने देवताना सैन्यनो अधीपति ने शक्ति नामना आयुधवते शत्रुनो नाश करे डे, ने पार्वती नामे पोतानी माता तेनुं हित करवामां जेनुं मन एवा अर्थने नासन करनार पद मुकवाथी पार्श्वनाथजीनां शक्ति पराक्रम दयालुता इत्यादि घणा गुण कविए सूचन कर्या ॥५॥ .. टीका:-तप्यमानोऽन्यदा पंचपावकं दुस्तपं तपः ।। जग
प्रतुं प्रतिप्राच्य जन्मसंतृतविग्रहः ॥६॥ उव/मुवीं परित्राम्यन् कर्मठ कमवः शवः॥ तप्यसुर्बहि रुद्याने तां पुरं प्राप. तापसः॥७॥ युग्मम् . . .
अर्थः-एक दिवस पांच अग्नि जेमा रह्या ले, एवं आकर
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(१०)
. अथ श्री संघपट्टक
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तप तपतो ने जगत्प्रजुश्री पार्श्वनाथ प्रत्ये जेनें पूर्व जन्मधीज वेर बंधायुं , एवो ने तापस कर्म करवामां कुशल ने धुतारो एवो कमऊँ नामे तापस घणी पृथ्वीमा जमतो जमतो बाहारना उद्यानमा सप करवाने श्वतो ते पूरीने प्राप्त भयो. ॥६॥७॥ - टीका:-अथा शा स्वनिकुमानि स चतसृ ष्वचीखनत् ॥ गतिस्थानानि चत्वारि खवासाये व शास्वतम् ॥ ७॥
अर्थः-त्यारपड़ी ते तापसे चार दिशाने विषे चार अग्निना कुंभ रच्या ते जाणे निरंतर चार गतिमा पोताने रहेवानां स्थान का होय ने शुं? ॥७॥ ... टीका:-दिदीपिरे ऽनला स्तेषु चारुदारुनिवेशतः ॥ जंघा. ख़ज्वालजटिला स्तत्कषाया श्वोच्छूिताः॥ ए॥ .. ' : .अर्थ:-ते अग्निना कुंमने विषे सुंदर काष्टना प्रवेश थकी चारे अग्नि वेगवंत ज्वालार्जए व्याप्त अतिशे जाज्वल्यमान थया. ते जाणे ते तापसना अग्नि शिखा जेवा चारे कषाय साथे उदय पाम्या होयने शुं? ॥ ए॥
बीकाः-तदंत:स्थः स्वमूर्होर्ध्वयममार्त्तमममसः ॥ चकासे नून मायास्यन् महानरक मध्यगः॥ १०॥ ..
अर्थः ते चार अग्निना कुंमनी वच्चे उन्नो रह्यो, ने पोताना मस्तक उपर पाक जे सूर्य मंगल जेने एवो ते तापस पंचाग्नि साधन करती वखंत था प्रकारे सोने बे. ते शोला उपर उत्प्रेक्षा अलंकार कहे जे महा नरक मध्येथीनारकी पुरुष जाणे साक्षात् श्राव्यो होय ने शुं ? ॥ १० ॥
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अथ श्री संघपट्टकः
( २१ )
टीका:- कृशानुभानुसंतापं सहिष्नो रथं दारुणं ॥ पारण विधानस्य स्वयं शीर्णैः फलै दलैः ॥ ११ ॥ समाहृतपद- स्तस्य : :- स्तंभस्येवोर्ध्वतस्थुषः प्रयमेव तपस्वीति प्रससार यशः पुरि ॥ .. युग्मम् ॥ ११ ॥ .
अर्थः- देवे ए रीते अग्नि तथा सूर्य तेनो आकरो ताप सदन करतो ने पोतानी मेळे पमेलां जे फळ तथा पत्र तेथे करीने पार करतो ने वे पग एका करी प्रांजलानी पेठे घटंट उन्नो रहेलो एवो तापस तेनो जश नगरीमां पसस्यो जे आज खरो तप्रस्वी जगत्मां वे ॥ १२३ ॥
टीका :- गतानुगतिकत्वेन निर्विवेकतया नया ॥ निरीक्षितुं तमाकांक्षन पोरा गौरवत स्ततः ॥ १३ ॥
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अर्थः- ए प्रकारे विवेक र हितपणुं लोकमां बे. ए हेतु माटे, एक चाल्यो, तेनी पडवामे बीजो पण चाले, एक मामर चाले तेनी पठवा बीजी पण चाले एवी रीते लोकमां गामरीठ प्रवाह बे, तेने गतानुगति कही ते हेतु माटे नगरना लोक मोटपथी तें तायसना दरशननी इवा करता हवा. ॥ १३ ॥
टीका:- क्लुप्तसंवनना नूनं गंतुमारेनिरे ऽय ते ॥ चिरनष्टंस्य सौजन्यसिंधोधो वा गमे ॥ १४ ॥
अर्थः--त्यार पछी ते तापसे जाणे वशीकरण करयुं होय नहि एम ते पुरना लोके जवानो श्रारंभ कर्यो ते उपर दृष्टांत जेम सारा गुणनो समुद्र, ने घणा काळची गयेलो एवो पोतानो बंधु श्राव्यो होय ते प्रत्ये जाय तेम आदरपूर्वक लोक दर्शने चाल्याः
.
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(२२)
-g. अथ श्री संघपट्टका
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__ . टीका:-निरंकुशं विनिर्यन्ति नागरैः सागरै रिव ॥ राजमार्माः प्रथीयांसोभूयांसोपि धनीकृताः ॥ १५ ॥ .. . .
· अर्थः-ते नगरना लोक निर्वघपणे समुनी पेठे उनराया एटले समूहे समूह चाट्या तेणे करीने राजमार्ग घणा मोटा हता तो पण अति सांकमा थया. . . . . - टीकाः-सुपर्वनिलये सौधे जातरूपमहीभृति॥ श्तःसिंहा
सनासीनो लगवान् विबुधाधिपः ॥ १६ ॥ - अर्थ:-त्यार पठी एक दिवस नगवान श्री पार्श्वनाथ स्वामि देवाधि देव, देवमंदिर समान ने सुवर्णमय पृथ्वीन धारण करती एवी पोतानी हवेलीने वीषे सींहासन उपर बेग हता.
टीका-यांतमेकाशया लोक मवलोक्य विदन्नपि ॥ असा वेति जन:क्वेति पपृछानुचरं जनम् ॥ १७॥ .
अर्थ-सर्व लोक एक चित्ते जता हता तेने देखीने पोते जारो ने तोपण आ लोक सर्वे क्या जाय दे. एम पोताना सेवकने पूबयु.॥१७॥
टीकाः-पंचवहितपस्वी ह समायातोऽ स्त्वतो जनः वंदितुं तं प्रयातीति कुमारं सव्य जिज्ञपत् ॥ १७ ॥
अर्थः त्यारे ते सेवक श्री पार्श्वनाथ कुमार प्रत्ये विज्ञापना करतो हवो जे हे महाराज श्रहीं पंचाग्नि साधन करनार तपस्वी श्राव्यो माटे तेने वंदन करवा था सर्वे लोक जाय . ॥ १७॥
टीका:-अयोवाच प्रनु श्चित्रं विपर्यस्त धियोऽधमा:॥ मोहांधत्वात् स्वयं नष्टा नाझयंत्य परानपि ॥ १ए ॥
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8. अथ श्री संघपट्टका - अर्थः त्यार पड़ी प्रनु बोल्या जे अहो अधर्ममां धर्म मान्यो ने माटे विपरीत बुझियोवाला अधम पुरुष मोहे करीने अंध थया . ए हेतु माटे पोते नाश पाम्यो ले नेबीजाने पण. नाश पमामे ठे ए मोटें आश्चर्य .॥ १५ ॥
टीकाः-उपादेयतया हेय मवस्यं त्यबुधा अहो । सुखं हि मन्यते मुग्धाः कामिनी पादतामनम् ॥ २० ॥ . . अर्थः-अहो अज्ञानी पुरुष जे त्याग करवा योग्य ले तेनुं ग्रहण करवा पणे निश्चय करे , ते उपर दृष्टांत ॥ जेमे मुग्ध पु. रुष (कामीजन) ते स्त्रीउँना पगर्नु तामन ते सुख रूप माने के, एटले स्त्रीउना पगनी लातो खाय , ने तेमां सुख माने . तेम मुढ पुरुष गंगवा योग्य ने अधर्म तेमां धर्मपणानो निश्चय करीने अमे सारं करीए बीए. एम खोटामा सारु माने जे ए आश्चर्य .
टीकाः-जन्युमन्युकृता धर्मः पंचामितपसा यदि॥ स्या नश्येत् तृष्णज: तृष्णा मृगतृष्णांनसा तदा ॥१॥
अर्थः-उत्पन्न थवानुं ने शील जेने एटले खाजाविक उत्पन्न थतो एहवो जे क्रोध तेने अति उत्पन्न करनार एह पंचाग्नि तपे करिने जो धर्म थाय तो स्वानाविक तरशो प्राणी तेनी अति उ. त्पन्न थर तरस ते कांऊवानां जले करिने नाश पामे एटले पंचाग्नि तपे करिने धर्म पण न थाय ने फांऊवाना जले करिने तरश पण न.जाय ॥ २१॥ .. . . . . . . .. __टीका:-बोधवामिततोगत्वाऽधसमिमंजनं. ॥प्रलन्यमा'नमेतेनबालवन्ति कुणाततः ॥२५॥ . . . . .
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: अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः- ते हेतु माटे - हुं जईने दुर्बुद्धि एवा या लोकने बोध करुं. मंजे एं निखारी तापसे बालकने जेम लोनावे तेस श्री लो कने लोजाव्या ने माटे ॥ २२ ॥
(२४)
टीका:- उक्तागमागन्नाथ स्तपोसिसिषयाततः ॥ मात्रामीत्रैः समंयानमधिश व्यतदंतिकम् ॥ २३ ॥
अर्थ:-एम कहिने जगत् स्वामी श्री पार्श्वप्रभुजी त्यार पढी ते तपने खोडं करि देखावा वाहन उपर बेसिने पोतानी माता तथा मित्र तेणे सहित ते तापसनी पासे गया ॥ २३ ॥
टीकाः- इतश्चा नलः कुतः प्रभु गुरुणि ॥ दारुणि मध्ये कोटर मै दिष्ट' नागं लीनं जयादिव ॥ २४ ॥
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अर्थ-त्यार पी प्रभु निना कुंरुमां मोटा काष्टना म ध्यने विषे पोलारामां जय थकी जाणे संताइने रहेला नागने ज्ञाने करीने दीठो ॥ २४ ॥
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'टीका. प्रभु रूचे वृषार्थी भूत्तपस्या जापतापस ॥ धर्मव्याजाद्रदः किं जो प्रक्रति पातकं त्वया ॥ २५ ॥
प्रर्थ:-देखीने प्रभु बोल्या जे, हे जापतापस एटले. जपतपना करना तपश्चर्या तो धर्मने चार्थे बे, माटे धर्मना मिषधी या तें शुं पाप श्रारंन्यु बे ॥ २५ ॥...
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टीका:- मूलं धर्मस्य कारुण्यं पुण्यं बीजं तरोरिव ॥ ज्वलनज्वालना चच्च कुतस्त्यं ग्रह मुन्नतेः ॥ २६ ॥
प्रर्थः- धर्मनुं मूल कारण दया बे, जेम वृदनुं मूल कारण
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- अथ श्री संघपट्टकः
(२५)
सारुं बीज बे तेम ते मूल कारण अग्निमां बालवाथी मोटयपनु घर क्यांथीज थाय ? एटले जेम बीज बालवाथी वृक्ष उत्पन्न नयाय तेम दया रूपी मूलनो नाश करवाथी धर्म न धाव ने धर्म बिना मोव्यप नथी ॥ २६ ॥
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टीका:- चेत् स्वांगस्या निषं: गेण श्रेय स्त दनिषज्यताम् तदेव शीतवाताद्यैः किं जंतुभिरतुनि ॥ २७ ॥
अर्थ:-ने जो पोताना शरीरने कष्ट करवायी श्रेय मान्यो होय तो शीत वातादिके करीने ते शरीरने कष्ट कर. पण निरपराधी जंतुनो नाड़ा शा माटे करे बे. ॥ २७ ॥
टीका:- चायुर्जायु मित्रे छूना मातुराणां शरीरिणां ॥ थमोर साधीयान् किमु जो स्तपसा सुना ॥ २८ ॥
अर्थ:-जेम रोगातुर प्राणी श्रौषधने इवे तेम श्राखाने छता प्राणीनी रक्षा करवी एज अतिशे श्रेष्ठ धर्म- बें माटे हे तापस ! या निर्दय तप बने शुं ? ॥ २७ ॥
टीका:- प्रादुर्भवति न श्रेयो न्हणां प्राणिप्रमापणात् ॥ स्पादयति नो जातु शिलाशकल मंकुरं ॥ २५ ॥
अर्थ:-माणसने प्राणीना वधथी क्यारे पण श्रेष्ठ प्रगट यतुं नथी ते उपर दृष्टांत जेम पाषाण खंरुधान्यना अंकुरने क्यारे पण उत्पन्न करे नहीं तेम ॥ २ए ॥
टीका:- अलंकर्मी दो: स्तंन संस्तं नितरिपुद्विपः ॥ निघ्न निर्विघ्नराज्यश्री विना नीतिं यथा नृपः ॥ ३० ॥ चंद्रमा श्व
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9. अथ श्री संघपट्टका
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विजाणतंधिकां चंजिकांविना ॥ न विराजति मिमीरपांमुराखंममंगलः ॥ ३१ ॥ धर्मकर्म तथा नावो हामतामसनाशने ॥वलवत्तुलितोद्गल दरुणां करुणां विना॥३॥ त्रिनिर्विशेषकम्॥
अर्थः-युझादि क्रिया करवामां कुशल एवा हस्तरूपी थंज तेणे करी थंजाव्या . शत्रुरूपी हाथी जेणे एवो ने निर्विघ्न राज्य सदमीने वश करतो एवो समर्थ राजा पण जेम नीतिविना न शोने तथा फीण सरखं धोवू डे अखंग मंगल जेनुं एवो चंडमा जेम सुंदर प्रकाशक कांतिविना न शोने, तेम उगता सूर्य समान करुणा विना पाप रूपी मोटा अंधकारने नाश करवाने धर्म कर्म बलवान् नथी. ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३ ॥
टीका:-प्राणिघातेन चेद् धर्मों धिवराः पीवरा स्तदा ॥ धातुका जंतु संदोहा नश्रुवीरं दिवं शिवम् ॥ ३३ ॥
अर्थ:-जोप्राणी घाते करीने धर्म होय तो बष्टपुष्ट अने जंतु समूइने नाश करनार एवा मानी लोक स्वर्ग सुखने अथवा मोद सुखने जोगवत् ॥ ३४॥
टीकाः-महानुनाव तन्मुंच पंचवन्हितपो ऽधुना ॥ इत्युक्ते जगदीशेन तं सखाप स तापसः ॥ ३४ ॥
अर्थ:-ते हेतु माटे हे महानुन्नाव! पंचाग्नि तपने हमणेथीज मूकी दे. ए प्रकारे जगदीश्वर श्री पार्श्वनाथजाये कडं. त्यारे ते तापस ते प्रजु प्रत्ये वोल्यो ॥ ३४ ॥
टीकाः चातुरी राजबीजि स्ते दमनीतिविचारणे न धर्मग्रंथचर्चासू जनतेधी नवाहशाम् ॥ ३५ ॥
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9. अथ श्री संघपट्टका
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(२७)
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अर्थ:-हे राजकुमार तारी बुद्धि दंगनीति विचारवामांचतुरबे, पण धर्मग्रंथनी चर्चाउने विषे तमारा जेवानी बुद्धि उदय पामती नथी. ॥ ३५ ॥
. टीकाः-ममुक्तं नान्यथे तो श स्त मवादीत् प्रियंवदः ।। न चे प्रत्येषी तत्पश्य तपसः स्वस्य हास्यताम् ॥ ३६ ॥
अर्थः-त्यार पड़ी प्रिय वचन बोलनार पार्श्वनाथ स्वामी ते तापस प्रत्ये बोल्या जे मारूं कहेढुं अन्यथा नथी ने जो तने विश्वास न आवे तो पोताना तपy हांसीपणुं थाय ते जो॥ ३६ ।।
टीका ततः परशुना नेतां तर्गतार्कोषितोरगम् ॥ विधाविधापयामास दारु तस्य तपो ध्रुवम् ॥ ३ ॥
अर्थः-त्यार पनी पार्श्वनाथ स्वामीए अग्निकुंभमांधीज काष्टमां सर्प अर्धे दग्ध थयो , ते काटने कढावीने फरसी वते बे लाग कराव्या ते जाणे ए तापसना तपनुज निश्चे बेदन कर्यु के शुं ॥३॥
टीकाः-ततः कंगेपकंगप्तजीवित: प्युष्टविग्रहः ।। दिदृक्षयेव निरंगाद पकर्तुं महोरगः ॥ ३०॥
अर्थ-त्यार पड़ी कंठने समीप प्राप्त थयु जे जीवित जेने एटले कंठे प्राण श्राव्याथी मरवानी तैयारी थपली एवो, ने थर्ड दग्ध थयुं शरीर जेनुं एवो एक मोटो सर्प ते काष्टमाथी नीकट्यो, ते जाणे अपकार करनार ए तापसने मसवानी श्छाए नीकस्यो होय ने शुं? ॥ ३० ॥
टीका दापिता विजुना पंच ॥ परमेष्टिनमस्कृतिः ॥ क
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(२८)
* अथ श्री संघपहक
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· रुणातरुणा तस्मैपुंसा नेदीयसा ततः ॥ ३ ॥
अर्थः-त्यार पडी समर्थ भगवान श्री पार्श्वनाथजीए पोताने नजीक रहेला माणस पास ते सर्पने पंचपरमेष्टि नमस्कार एटले नवकार मंत्र (जेथी दयानो जहास घणो थाय एप्रकारे) देवमाव्या एटले संतळाव्या. अथवा करुणाना काम समान अथवा करुणाए जीजाता एवा को पासेना माणसनी पासे नवकार संजलाव्या. ३ए
टीका-लघुकर्मत्यै काम स्ततः संशितया ऽनया ॥ श्रवोंजलिपुटाच्या ता मधा सीत् स सुधामिव ॥ ४० ॥
अर्थः-त्यार पनी ए सर्प लधुकर्मी ले अने संज्ञी पंचेंजिय ए हेतु माटे एकाग्र थइने कानरूपी अंजली पुट वने ते नवकार संत्ररूपी अमृततुं पान करतो हवो ॥ ४ ॥
टीका:-तन्महिम्ना स नि:सीम्ना विषय समपद्यत ॥नवनाधिपदेवेषु धरण:फण भृत्पतिः ॥४१॥
अर्थ:-जेनो अवधि नथी एवो ते नवकारना महिमाए क. . रीने ते वर्प मरीने जवनपति देवने विषे नागनोराजा धरणे नामे उत्पन्न थयो. ॥५१॥
..काः बादशांगीविदो प्येनं निधनानेहसि वयं नव्यान् पंचनमस्कारमत एवा ध्यजीगपन् ॥ ४५ ॥ - अर्थः-एज हेतु माटे बादशांगीना जाण मोटा पुरुष पण मरणकालने विषे पोते नव्यप्राणी थकी पंचनमस्कारने नणे ए टखे नव्यशाणी नमस्कार देने पोते ग्रहण करे ॥ ४ ॥
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- अथ श्री संघपट्टका - (२९) टीका-असा वेव चिरोपात पापसर्वकषो न्हां ।। धनाधना हते कोऽन्यः ॥ झोष मोष कमो वने ॥ ३ ॥
अर्थ-एज नमस्कार माणसा घणां काल सुधी उपार्जन करेला पापनो नाश करनार ते उपर दृष्टांत जेम वनने विषे अ. ग्निदाहथी रक्षा करवामां समर्थ मेघविना बीजो कोण होय ! कोइ नही तेम॥
टीका:-ये सुंजव्या अपव्याज लनंते पोतव नवं संघयंति नवांनोधि ते गनीर मन्नीरवः ॥ ४४ ॥
अर्थ:-जे नव्यप्राणी काफसमान नवकार मंत्रने पामे के, ते प्राणी निर्नय श्रका गंजीर संसार समुजनुं उद्धंघन कर ॥४॥
टीका:-पशवो प्येन मासाद्य नाकं साकं महळ्यिा ॥विदंति . कृत संसार तानवा मानवा इव ॥ ४५ ॥
अर्थ:-पशु पण ए नवकार मंत्रने पामी मोटी सदमीये सहित स्वर्गने पामे , जेम कर्यु ले संसारर्नु हलकास पणु जेमणे एवा माणस स्वर्गने पामे तेम ॥ ४५ ॥
टीका:-नमत्सुर शिरोमौलिचुविशासनवैनवं जुनक्ति शक्तिमान् प्राज्य स्वाराज्य य बचीपतिः ॥ ४ ॥
अर्थः-जे नवकार मंत्रना प्रजावथी समर्थने, इंशाणीना स्वामीने नमता जे देवताना मस्तक मुकुट तेमणे अंगीकार करी
आशा वचननी उकुस जेमां एवं पोतानुं मोटु इंच पदवीहुँ राज्य लोगो ॥४॥
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48. अथ श्री संघपट्टका
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टीका-दिक्कूस मुदुजख्यातिस्फातिप्रीणितविष्टपं ॥ कनं भारत साम्राज्यं सार्वजोमः पिपर्तियत् ॥ ॥
अर्थः-जे नवकार मंत्रना प्रनावथी दिशायोना समूहने नेदन करी चालतो जे जसनो विस्तार तेणे करीने प्रसन्न कर्यु ले जगत् जेणे एवं सुंदर चक्रवर्ती राज्यने चक्रवर्तीराज थर पालन करे ॥४ ॥
टीकाः-चंचवाया नृतः पंच नमस्कारफलमहेः विपक्रिम फलस्या स्य फलिका त हिजूंनते ॥ ४ ॥
अर्थः-देदीप्यमान लक्ष्मीनुं धारण करतो अथवा उज्जवल बायाने धारण करतो एवो ने परिपक्व जे फल जेनां एवा पंचनमस्काररूप फलवान वृदनी इंच पदवी मलवी तेतो एक फलीमात्र प्रगट शिंग थ .
टीकाः-देवभूयं गते नागे तकाम्नाथ प्रतुं जनाः ॥ नुनुवं सूक्तिपीयूषस्यंदिनो बंदिनो जनाः ॥४॥ __ अर्थः ते नाग देवपणु पाम्या पली सुंदर वाणी रूप अमृतने वरसता एवा लोक तथा बंदिजन, तेमणे नजरे दीवेला मोटा प्रसापे करीने प्रतुनी स्तुति करता हवा ॥ ४ ॥
टीका-कोन्यः संवेदमेदस्वी नगवंतं विना त्र यत् ॥ १क्षतात् पद मप्येन मंतर्दारूरगं विजुम् ॥ ५० ॥ __ अर्थः-जे अहीं नगवान विना, बीजो कोण मोटो पुरुष नजरे न दीगमां श्रावे एवा पण काष्टना पोलाणमा रहेला ए मोटा सर्पने देखे ॥ ५॥
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9 अथ श्री संघपट्टका
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टीका-कस्यापरस्य कारुण्यजरमंथरतारकाः ॥ निपतंतिदृशः प्रेष्टाः कोदिष्टेष्ट्वपि जंतषु ॥५१॥
अर्थः-दयाना समूह वमे मंद ले नेत्रनी कीकीयो जेमनी एवा जगवान विना बीजा कोनी सुंदर दृष्टिओ अतिशे कुछ एवा पण जंतुने विषे पमे ॥ ५५ ॥
टीका:-तपो दूषयितुं कोन्यः प्रलु रस्य तपखिनः ॥ तृणे ढि वियतो बाढं कस्तमस्तपनं विना ॥ ५५॥ __ अर्थः-ए तपस्वीना तपने खोटु करी देखामवाने लगवान विना बीजो कोण समर्थ डे, जेम आकाश थकी अंधाराने सूर्यवि. ना बीजो कोण अतिशे नाश करी शके डे ॥ ५५ ॥
टीका गोत्रनेदांकितः शक्र स्तमसा मलिन:शशी ॥ मंदः सहसिंघाशुः केनो पमिनुमः प्रजुम् ॥ ५३ ॥
अर्थः-लगवाननी उपमा कोनी साथे करीए ? केम जे इंच ते तो गोत्र एटले पर्वतनो जेद करवे करीने सांगित थयो (जगतमां पण जेणे गोत्रनुं छेदन नेदन कर्यु होय ते सारो न कहेवाय ए नाव ) ने चंड पण अंधाराये करीने मलिन ने एटले कलंकित डे अने सूर्य पण मागशर मासमां मंद थाय ने एटले शिशाळामां एनो प्रताप ही जाय , माटे इंश चंड अने सूर्य एत्रण प्रतापी कहेवाय ने तो पण ते प्रतापमां एक एक मोटुं दूषण ले माटे नि दोष लगवानने कोनी उपमा करिये ॥ ५३ ॥
टीका:--प्रनु रत्र न चे देण्य जनप्रतिपदं स्खलन् तदा जात्यंधव मोहा दपतिष्यद् नवावटे ।। ५४ ।।
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अथ श्री संघपट्टका :
अर्थः---जो प्रतु अहीं न आव्या होत त्यारे तो जन्माराना अंध पुरुषनी पेठे मगले मगले स्खलना पामतो आ लोक मोहथी, संसाररूप कूवामां परत एटले प्रजुए जो अहीं आवीने ए तप उष्ट न करी देखामयुं होत तो लोको मोदथी जूगमांसाचुं मानीने संसार रुप कूपमा पनी मरत ॥ ५५ ॥
टीकाः ततो विजो गुण स्तोत्र मसहिष्नुः स तापसः ॥ ततो देशादपक्रांतः प्रकाशा दंधकारवत् ॥ ५५ ॥
अर्थः-स्यार पठी ते तापसथी जगवाननी गुण स्तुति सहन न थइ ए कारण माटे जेम अजवालाश्री अंधारं नासे तेम ते देशथी नाठो ॥५५॥ .
टोकासदर्कोपि संपर्कोविन्नो दुःखाय केवलम् ॥ तस्या नव दुलूकस्य प्रकाश व जास्वतः ।। ५६ ॥
. अर्थः-सारु ने उत्तर फल जेनुं एवो पण लगवाननो संबंध से केवल ते तापसने दु:ख जणी थयो. जेस सूर्यनो प्रकाश घूमने सुख जणी थाय तेम ॥५६॥
टीकाः-ततः कृत्वा तवज्ञानात् जरठः कम स्तपः ॥ मेघमालीतिविबुधो ऽजनि स्तनितनामसु ॥ ५ ॥
. अर्थ:-त्यार परी ते वृक्ष कमल नासे तापल अज्ञानथी तप करीने स्तवित नामे दशमी निकायने विषे मेघमाली नामे देवता थयो. ॥५॥ . टीकाः-गीयमाचो जगन्नाथो गाथकै नगरी ततः॥ विवेश पेशसस्थेम्ना वृत्रहेवा मरावतीम् ॥ ५ ॥
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(३३)
अर्थ:-त्यारपठी जगतना नाथ श्रीपार्श्वनाथजी गायक लोकोये गान कर्या बता मोटा महिमाए सहित जेम इंश श्रमरावती नगरीमा प्रवेश करे तेम पोतानी नगरी प्रत्ये प्रवेश करता हवा ॥५॥
टीकाः-ततो लोकांतिकैर्देवैः प्रजुरागत्य बोधितः॥ जगवंतं स्वयं मुर्त्य वरीतुं प्रहितैरिव ॥एए॥
अर्थः-त्यार पनी मुक्ति कन्याए पोतानी मेले लगवंतने व रवाने मोकल्या होय ने शुं ? एम लोकांतिक देवताउए आवीने प्र.. जुने बोध कयों ॥ ५५ ॥
टीका:-स्वर्णस्तोमस्य वर्षेण तापनिर्यापणक्षमः ॥ जगत्यास्तर्षमाकर्षन् घनाकृतिरदीक्षत ॥ ६॥
अर्थ:-सोनैयाना समूहना वरसवे करीने लोकना संतापने नाश करवाने समर्थ अने तृष्णानो नाश करता अने मेघना सरखी
आकृति जेनी एवा नगवान दिदा लेता हवा. एटले वार्षिक दान श्रापीने दीक्षा लीधी. मेघपदे मेघ सारा जलनी वृष्टिए करीने पृथ्वीना तापने नाश करवामां समर्थ बे ने तरशने मटामनार . ६०
टीका:-अथाश्रमपदोद्याने कदाचिदिहरन् प्रनुः ॥ तस्थौ मौनं समास्थाय पानध्यानैकतानधीः ॥ ६१॥ .
अर्थः-त्यारपी कोश्क वखत विहार करता श्राश्रमपद नामे उद्यानने विषे, वृद्धि पामता ध्यानने विषे एकतान यश् बुद्धि जेमनी एवा लगवान् मौनपणुं धारश करी उन्ना रहेता हवा. ६१
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अथ श्री संघपट्टका
. टीका-स्मृत्वाथ प्राक्तनं वैरमन्वीशं मेघमालिना । - मर्षोन्मीलदुत्तावनालकुटिशालिना ॥६५॥ प्राग्जन्मनिचितस्वैरवैर निर्यातनामहं ॥ विदधामीत्युपत्रष्टुं वक्रत्वेन प्रचक्रमे ॥६॥ युग्मम् ॥
अर्थः-त्यार पळी मेघमाली जगवान प्रत्ये केटलाक ज. वथी अनुसरतु जे पूर्व वैर तेने संन्नारीने क्रोधथी उंचु उपरतुं जे विशाल सबाट तेने विषे अकुटी करीने शोलता एवा ते देवे एम विचायु जे हुँ पूर्वजन्मने विषे संचय करेj पोतानुं वैर तेप्रत्ये निर्यातना करुं, एटले वैरनो बदलो वालं. अर्थात् वैर वालु, एम धारीने वक्रपणे उपपत्र करवाने आरंन को. ॥६॥३॥
. टीका-प्रेड्खनिशातविशिखशिखासमनखांकुरान् ॥मु. खनिर्यदूधनस्वान विदीर्ष गिरिकंदरान् ॥ ४ ॥ दिग्गजैर्यो मुत्पित्सूनिव सिंहान् महीयसः॥ विनिर्ममे जगन्नेतुरुपरिष्टास्ल उष्टधीः ॥ ६५ ॥ युग्मम् ।।
अर्थः-चसकता जे तीदण वाण तेनी शिखा सरखा लेनखना अंकुरा (श्रय) जेना अनेमुखथी नीकलता मेघ जेवागंन्नीर कमाकाना शब्दे करीने कमका करी (फामी) जे पर्वतनी गुफा जे. मणे एवा, अने दिग्गज (हाथी) नी संघाते जाणे युद्ध करवाने उबलता होय ने शुं ? एका मोटा सिंहने ते पुष्टबुझि देवे जगस्वामीश्रीपार्श्वनाथजी उपर विकुळ ॥ ६४ ॥ ६ ॥
टीका:-अवग्रहं प्रनोस्तेऽथ स्प्रष्टुमप्यसहिष्णवः। श्रभूव· निष्कसा यहनिर्धनानां मनोरयाः ॥ ६६ ॥
अर्थः-ते सिंह प्रजुनो अवग्रह स्पर्श करवाने समर्थ न थया
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(३५)
* अथ श्री संघपट्टकः
जेम निर्धन - पुरुषना मनोरथ सफळ न थाय तेम ॥ ६६ ॥ टीका :- गं मस्थल गलदान नीरशी करवर्षुकाः ॥ सखिताचंशुंगाढ्यास्तेन स्तंबेरमास्ततः ॥ ६५ ॥
अर्थ:- त्यारंपढी गंगस्थल थकी नीकळतुं जे मदनुं जल तेना विंदवाने वरसता ने श्राकरा वे शुंढादक जेना एवा हाथी विकुर्व्या ॥ ६७ ॥
टीका:- उद्यमानः प्रजौ तेऽपि तेजस्विनि तमोपदे । बजुवुमंदधामानो दीपाः प्राजातिका इव ॥ ६० ॥
प्रर्थः ते मोटा हाथी पण तेजवंत ने अज्ञान अंधकारने नाश करनार एवा प्रभुने विषे जेम प्रजातकालना दीवा निस्तेज वाय तेम प्रतापरहितं थया ॥ ६८ ॥
टीकाः - इत्यादि जिर्महाजी मैर्कमरैः समरैखि ॥ - ज्यति जिने जिष्णो मेघमाली त्यचिंतयत् ॥ ६५ ॥
अर्थः- पूर्वे का ए यदि संग्रामनी पेठे मोटा जयंकर एवा उपद्रववमे जीतवानुं जेने शील बे एवा जिनपार्श्वनाथजी होन न पामे बते मेघमाली देव एम विचारतो वो ॥ ६ ॥
टीकाः कथमेव मया क्षोज्यो दीप्रोकंप्रः सुमेरुवत् ॥ श्रा ज्ञातं सलिलौधेन प्रक्षिपामि सरस्वति ॥ ७० ॥
अर्थः- जे मेरु पर्वतनी पेठे देदीप्यमान अने कंपे नहीं एवा या भगवंतने हूं कीये प्रकारे दोन पमाऊं एम विचार करतां श्ररे एमां शुं वे ? एम- अवगणना पूर्वक विचार कर्यो जे पाशीना प्रवाह
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8. अथ श्री संघपट्टका 8
बमे एने समुजमां खेंची नांखु ॥ ७० ॥
टीकाः-कर्णपालीललत्तार-प्राशुतारांशुन्नासुरा ॥ महधिस्फूजर्जखिबृंहिता गजता यथा ॥ १॥ . ___ अर्थः-एम विचारीने आकाशमां मेघ पंक्ति विस्तारी, तेनुं पांच श्लोक वमे वर्णन करे जे. जे काननी मर्यादाने विषे रह्या ने सुंदर अतिशे उंचा जे तारानां किरण, तेणे करीने देदीप्यमान ज. णाती एटले मेघ पंक्तिरुप स्त्रीये कान सुधी सुंदर अतिशे तेजस्वी तारा रुपी मोती धारण कयाँ ले तेनी कांति वमे शोने . ते उपर दृष्टांत, जे मोटाने बल पराक्रमने जणावता एवा.शब्दजेने विषे एवी हाथीनी श्रेणी शोने तेम जगाती हाथीनी श्रेणी पण मोतीना समूह धारण करवाथी शोने ॥ १ ॥
टीकाः-जिन्ना खनिमणि त्विन्जिरञ्जनाचलरिव ॥ कुंजगुंजत्कुरंगारि-प्रतिश्रुन्मिश्रितांबरा ॥ २ ॥ . अर्थः-वली ते मेघपंक्ति केवी छे ? तो खाणने, विषे रहेला मणिनी कांतिवमे मिश्र थएली एवी अंजनाचलनी जूमि होय ने शं? एम जणाती. वली कुंजने विषे शब्द करता एवा जे सिंह एटले ज्यारे मेघ गर्जना करे त्यारे सिंह पण पोताना माथा उपर गर्जना थती सांगलीने अहंकारथी तेमना सामी गर्जना करे एवो स्वन्नाव ले माटे, तेमना पमचंदाना शब्दवझे मिश्रित थयुं ने श्राकाश ते जे अकी एबी ।। ७२ ॥ . .
टीकाः-अंतःस्थकालियव्याल-मौलिरत्नांशुकीलिता॥ कालिंदीवानिलोदंचकीचिको हलाकुला ॥७३ ।।
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-g. अथं श्री संघपट्टकः
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अर्थः-वली ते मेघपक्ति केवी के ? तो के जेना जलमां कालियनामे नाग रह्यो तेना मस्तकमा रन रह्यो डे तेनी कांतिवमे व्याप्त थएली ने वायुवमेजबलता तरंगना कोलाहल शब्दवमेश्राकुल व्याकुल एवी जुमनां नामे नदी होयने शुं? कवितामा जुमना नदी-जल कालु वर्णन थाय तेमां कालिय नामे मोटो मणिधर नाग परिवार सहित रह्यो तो तेने कृष्ण वासुदेवे समुअमां काडी मुक्यो शाथी के तेना जेरथी ते नदीन कालु पाणी लोक पान करीने मरण पामता हता. ते कथा पुराणमां प्रसिद्ध है, माटे मेघमाला पण एम जणाती एवी. ॥ ३ ॥
टीकाः-उद्यत्सौदामनीदामकाम संवखितबिः ॥ कुन्यदजोनिधिध्वानगंजीरध्वनिराखुरा ॥ ४ ॥ . . अर्थः वली ते मेघपंक्ति केवी ने तो के उत्पन्न थता जे वीजलीना ऊबकारा तेणे करीने अति व्याप्त थइ बबी जेनी, श्रने क्षोल पामता समुनना शब्द सरखा गंजीर शब्दवमे व्याप्त एवी ॥ ३॥
टीकाः-आशानितंबिनीवक्त्र बिंबनीलांबरश्रियम् ॥ संदधानाम्बरं तेन तेने कादंबिनी ततः ॥ ५ ॥
अर्थः-वली ते मेघपंक्ति केवी तो के दिशारूपी स्त्रीयो मुख ढांकवानुं काढुं वस्त्र तेनी शोलाने धारण करती एवी मेघपंक्ति ते देवे विस्तारी ॥ ५ ॥
टोका-अस्ततंबास्ततः सांजाजगवन्मस्तकोपरि -॥-निपेतुः सलिलासारा नाराचा-श्व दुःसहाः ॥ १६ ॥
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(३८)
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अथ श्री संघपक:
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- अर्थः-त्यार पनी जगवानना मस्तक उपर थालसरहित अंतरायरहित पापीनी धारा पानी ते जाणे दुःसह पाणष्टि पमी होय नहि शुं एम जणाती ।। ६ ॥
टीका:-जिनदेहं ततः स्पृष्टाव ते खुतिस्म भूतसे ॥ अंतः समुच्चरद्ध्यानमरुता विधुता श्व ॥ ७ ॥ . अर्थः-त्यार पड़ी ते जलधारा पार्श्वनाथजीना देहनो स्पर्श करीने भूतलमां लोटी पनी एटले पृथ्वीमां पसरी, ते जाणे अंतरने विषे रुमे प्रकारे चालतुं जे ध्यान ते रूपी वायुवमे तिरस्कार पामी होय ने शुं ? एम हेवल (नीचे) पमी ॥ ७ ॥
टीका:-नीरन्धं नीरधारानिः पातुकानिः समंततः॥ एकावे श्वाभूतां युगांतश्व रोदसी ॥ ७ ॥
अर्थ:-त्यारपडी घामपणे निरंतर चारे पास परती पाणीनी धाराउए जेम युगांत कालमां श्राकाश पृथ्वी एक समुजमय थाय तेम सर्व जलमय ययुं ॥ ७ ॥
टीका-सोऽजितो जिनमप्पूरोऽनियः क्षीरोदसोदरः ॥बजार तनुजानिनः कालोदजलधिश्रियम् ॥ ए.॥
अर्थ:-जिननीचारे पास मेघमाथी पमतो ने कीर समुन जेवो ते पाणीनो समूह पार्श्वनाथजींनी काली कांतिवमे मिश्रथयो माटे तेणे कालोद नामे समुज्नी शोना धारण करी ॥७॥
टीका:-तमालकालजीमूतनिष्टयूतः पयसां रयः ॥ स वरीवृध्यते मोर्ध्व नारं सारं जुवं तथा ॥ ७० ॥ यथा जगवतः कंचमारोह निरंकुशासंपद्यतेऽपकाराय नीचगामी हुपेक्षितः।।
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-g. अथ श्री संघपट्टका
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अर्थ-तमाल वृक्षना जेवा काला मेघथी पोलो जे पाणीनो प्रवाह ते पृथ्वीने जरी जरीने ते प्रकारे उंचो श्रतिशे वघ्यो जे प्रकारे जंगवानना कंठ उपर निरंकुशपणे श्रारोहण थयो. ते उपर अलंकार करे . जे ए वात घटेज, जे नीचाणमां गमन करनार तेनी उपेक्षा करवी ते पोताना अपकार लणी थाय . जेम नीच पुरुष ने तेनी उवेखणा करी जे हशे श्रापणुं अपमान कयु तो करवा यो इत्यादि प्रकारे जो करे तो ते नीच पुरुष अंत्ये जतां आपणुं गेलु काले तेम ते नीचाण चालनार जल ले तेनो एवो स्वनाव थयो जे हलवे हलवे परमात्माना कंठ उपर श्रावी बेटुं ॥ ७० ॥१॥ ___टीका-श्रमोघः पाथसामोघः समैधिष्ट यथा यथा ।। Wयेव जिनस्यापि ध्यानवन्हिस्तथौर्ववत् ॥ २ ॥
अर्थः-सफळ एवो पाणीनो प्रवाह जेम जेम वृद्धि पाम्यो तेम तेम परमात्मानो पण ध्यानरूपि अग्नि ाए करीने जाणे वमवानल अमीनी पेठे देदीप्यमान यतो हवो ॥२॥
टीका-नीलकुंतलरोक्षवं पदमलाक्षिदमलम् ॥ दंततिमधुस्पंदि ग्रीवानालोपलक्षितम् ।। ३ ॥ इंदीवर श्रियंबित्र दश्यानतान नम् ॥ घनमुक्तपय पूरनिमग्रवपुषः प्रनोः॥४॥ युग्मम्
अर्थः-त्यार पनी मेघे मुकेसा पाणीना पुरमा निमन ययु के शरीर जेनु एवा लगवान तेमनुं जे, काला कमखनी शोनाने धारण करतुं एवं मुख ते प्रत्ये, लोकना समूह जोता हवा. तें मुख:
वा ॥२॥
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(४०)
8. अथ श्री संघपट्टका
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कमल के बे तो काला केशरूपी जमरा जेमा रह्या रे एवं, ने सुंदर नेत्ररुपी निर्मळ पत्र जेमा रह्यांडे एवं, ने दांतनी कांति रूप मकरंदने फरतुं ( उत्पन्न करतुं) ने कंठरूप नाले करीने जणातुं. एवं नगवंतनुं मुख, कमल सदृश जणाय ले ॥ ४ ॥
· टीका-अनणीयोमणीरश्मिकिम्मिरितककुन्मुखम् ॥ इतश्च । नागराजस्य सिंहासनमकंपत ॥ ५ ॥
अर्थः-एटर्बु थया पनी मोटा मणीनी कांतियोवतू चित्र विचित्र का दिशाओनां मुख जेणे एवं नागराजनुं सिंहासन कांपतु हवू ॥ ५ ॥
टीकाः-वृत्तांतस्तेन कृत्तांतःकरणस्थैनसा ततः ॥प्रयुक्तावधिनाऽबोधि प्रनोः पादप्रसादवत् ॥ ६ ॥
अर्थः-त्यार पनी लेदन थयु बे अंतःकरणमा रहेवं पाप जेनुं एवा ते नागराजे अवधिज्ञान प्रयोजीने प्रतु संबंधी सर्वे वृत्तांत प्रजुना पादप्रसादनी पेठे,जाएयु. एटले जेम तीर्थकरनो जन्मोत्सव जाणे तेम. अथवा पोता उपर जे पूर्वेप्रजुना चरणनो अनुग्रह थयो ने तेम अथवा कम योगीना पंचाग्नि कुंममा पूर्वे बलतो हतो तेथी नगवाने पोताना 'चरणप्रसादवके श्रा प्रकारनी पदवी पमामी बे, ए पादप्रसादसहित जेम होय तेम जाणतो हवो॥ ६ ॥..
टीका:-सत्पत्रलकुचारोहास्तिलकानुगतालिकाः ॥ कर्णिकारचितच्छाया सामंजुलवलीलताः ॥ ७ ॥ वन्यासमा: समादाय देवीः पद्मावतीमुखाः॥ धरणेजस्ततो नक्त्या स्वामिनं. समुपेयिवान् ॥ ७ ॥ युग्मम्
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•8. अंथ श्री संघपट्टका
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अर्थः-त्यार पठी सुशोनित स्तन अने कटीथी नीचयो जाग ते जेमनो एवी; अने तिलक सहित बे ललाट जेमनां एवी तथा काननां श्रानुषणवमे रची सुंदर शोना जेमनी एवीने सुंदर ले त्रीवलीरुपी लता जेमनी एवी ने वनदेवी सरखी जणाती जे पद्मावतीप्रमुख देवीयोने संघाथे लश्ने धरणे नक्तिए करीने पार्श्वनाथ स्वामी पाले आवता हवा. वनदेवी प्रत्ये विशेषरानो अर्थ जे सारा पत्र जेने जे एवा लकुच नामे वृक्षनो ने श्राश्रय जेमने एहवी ने पोतामां वधारे सुगंध डे माटे तिलकना वृत्तथी प्राप्त थया ने जमर जेमने एहवी ने कर्णिकारनां वृक्षवमे थले गया जेमने एवी ने सुंदर लवली नामे लताओ जेनी पासे एहवी.. ॥ ॥७॥
टीका:-विजुरीक्षांबभूवेथ तेन मध्येजलोच्चयम् ॥ जर्मिसंवर्मितः शौरिरंत राधिप यथा ॥ए ॥ .
अर्थः-त्यार पड़ी ते धरणे जलना समूह मध्ये तरंग वझे व्यातथएला नगवान दी.जेमसमुनी मध्ये नारायणने देखे तेम.ए दृष्टांत अन्यशास्त्रने अनुसारी ते कडं .समुपनीमध्ये शेषनागना शरीर उपर नारायण सूत्रे ने ते नाग पोतानी हजार फणारुपी बत्र तेमना उपर धरे बे. ने पासे लक्ष्मीजी पग चांपे , तेथी तेमनुं नाम शेषशायी जगवान कहेवाय डे इत्यादि कथाले ।। गए ।।
टीकाः-मणिदीधितिनि तधनसंतमसं ततः, ॥ अपारस्फारदुरांबुधाराचौरगौरवम् ॥ एंग. ॥ श्रातपत्रं श्रियः संत्रं फुद्यानवफणामयम् ॥ जुवनाधिपतेरू प्राग् - बित्नरांबभूच सः॥ ए ॥
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अथ श्री संघपकः 63-
अर्थ:-त्यार पीते धरणेंद्र, मणीनी कांतीव मे नाश कर्तुं बे घाट अंधकार जैसे एवं ने घणी मोटी ने दुःखथी निवारण थाय एवी जे जलधारानं तेने हरनार वे मोटयर जेनी एवं ने शोभानुं घर प्रफुल्लित नवफणारुपी वत्र जगवंत उपर शीघ्रपणे धारण क रतो हवो ॥ १ ॥
( ४२ )
टीका:- सोऽधस्तान्ने तुरुद्यामधाम तामरसं मुदा । उन्नालं रचयामास दासवासवोपमः ॥ ए ॥
अर्थ:- वासव इंद्र वे उपमा ते जेनी एवो जे धरणेंद्र ते स्वामी एवा भगवंत श्री पार्श्वनाथनी हेवळ अपरिमित एटले घणुं वे तेज तेजेनुं एवं अने उंचां मुखनुं बे नाल ते जेनुं एवा कमलनी हर्षे करीने दासनी पेठे रचना करतो हवो ॥ ए ॥
टीका:- थोपरि फणावत्रवारितांबुद विप्लवः ॥ अधोजांवूनदांनोजन्यस्तशस्तपदः प्रभुः ॥ ए३ ॥ प्राग्वत् प्रववृते ध्यातुं किंवमंवरवर्जितः ॥ सर्वावस्थासु साम्यं हि कामं परमः योगिनाम् ॥ ४ ॥
अर्थ:-त्यारपढी जेनाउपर फलारुप बत्र व मेघनोपडव निवारण कर्यो बे एवा ने नीचे सुवर्ण कमलने विषे थाप्या बे सुंदर पग जेणे एवा प्रभुं पूर्वनी पेठेज उपद्रवनो जे श्रामंवर तेथे रहित ध्यान करवाने प्रवर्त्तता हवा ते वात घटेज मोटा योगीश्वरने 'सुख दुःखादि सर्व अवस्थाने विषे प्रतिशे समपणुं होय वे
|| ए३ || || ए४ ॥
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-Mg अथ श्री संघपट्टका -
(४३)
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टीका तथापीशे महामर्षप्रकर्ष मेघमालिनम्।।मेघमालिनमुछीदय ततोऽवादीदहीश्वरः ॥५॥
अर्थः-त्यार पडी धरणे मेघमाली प्रत्ये पूर्वे को एवो उपव कयों ने तो पण प्रजुने विषे महाक्रोधे करीने पानी मेघ मालानी वधारे वृष्टि करवामां तत्पर थयो एवो मेघमालीदेवने देखी ते प्रत्ये नागपति धरणे बोलतो हवो ए॥
टीका:-मूढ पापीयसा धुर्य मौले दोदीयसां नवान् ।। जिनेपि किमेतद्नो व्यंजयस्यसमंजसम् ।। ए६ ॥ - अर्थ:-हे मूढ! अति पापीमा अग्रेसर,अति नीच प्राणीना माथाना मुगट समान एवो तुं जणाय ने शाथी के जिनेश्वरने विषे पण शुं आ तें अघटित प्रगट कर्यु!॥ ए॥
टीका-छिपन्नीशमधस्त्वंनो मापस्तप्तमानसः ॥ याने वश्ये पयोराशौ को नु निज मजाति ॥ ए ॥
अर्थ:-हे मेघमाली ? प्रजुनो देष करी तप्यु जे मन जेनुं एवो तुं नरकमा मापन केम जे हे निर्बज पोताने वश नौका मली पनी समुखमां कोण मुवी मरे ॥ ए॥
टीका:-अहो कालणिकायापि जिनायेयंति बालिशाः ॥ • हिषंत्यानं अदीयांसं करनाः कंटकाशिनः ॥ ए॥
__ अर्थः-मूर्ख पुरुष करुणाना समुप एवा जिननणी या करे ले ते आश्चर्य बे. त्यां अलंकार वतावे जे जे ए वात घटे ठे. मूर्खनो एवो स्वभाव होय . जेम कांटानुं जहण करनार ऊंट ने ते अतिशे कोमल एवो आंदो ते प्रत्ये द्वेष करेठे तेम ॥ एज ॥ ..
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(१४)
-g, अथ श्री संघाहका
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टीका:-विजुनाइतपोऽसारं तेने तेऽनुजिघृकया ॥ नहि जातु सतां वृत्तिः परेषां विप्रलिप्सया ।. एए॥
अर्थः-नगवाने तारा उपर अनुग्रह करवानी इच्छाये तारु श्रज्ञान तप खोटुं करी विस्तार्यु केम जे क्यारेय पण सत् पुरुषनी प्रवृत्ति बीजा पुरुषने उगवा कारणे होयज नहीं ॥ ए॥
टीकाः-बालिश त्वादृशा यहा हितमप्यऽहितं विदुः ।। संपद्यते विरहियां हरिणांकोऽपि दारुणः ॥ १० ॥
अर्थ:-माटे हे मूर्ख तारा सरखा पोता हित पण करे तेने अहित माने जे ए न्याय तो आ प्रकारे थयो.जेवो विरही (वि. योगी माणस) ने शीतल चंडमा ले तो पण आकरो सुःसह लागेले तेम ॥ १०० ॥ ..
टीका:-अतवं तात्विकत्वेन चित्रं निश्चिन्वते जमाः॥शुक्तिकाशकलं ब्रांता मन्वते रजतात्मना ॥ ११ ॥
अर्थः-जे जम पुरुष बेते अयथार्थ वस्तुप्रत्ये यथार्थपणानो निश्चय करे . जेम ब्रांति पामेलो पुरुष बीपना कमका प्रत्ये श्रातो रुपानो कमको जे एम माने जे तेम ॥१०॥
टीका-एवं कमजीवः स नागराजेन तर्जितः॥ अपराळे षुवढेने ह्रिया मंकु विलक्षताम् ॥ १० ॥ .
अर्थः-ए प्रकारे कमउनाजीवने ते नागराजे तिरस्कार कयों त्यारे, लक्षथी चुक्यो ने बाण ते जेनो एवा पुरुषनी पेठे तत्काल लजाये करीने विलक्षण पाम्यो. एटले जुगे पमयो ॥ १० ॥
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-g. अथ श्री संघपट्टका
(४६)
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टीका:-उपप्नवैरपि ध्यानसंपल्लंपटमानसम् ॥ स निकंपं जिनं वीक्ष्य निस्तरंगपयोधिवत् ॥ १०३ ॥ प्राग्जन्मवैरसंचारवि प्रतिसारनाक् ततः ॥ ममरामंचरं सद्यः संजहार वि.शारदः ॥ १० ॥
अर्थः त्यार पढी उपनवे करीने पण ध्यान संपदाने विषे संपट डे मन जेतुं एवा अने तरंग रहित समुअनी पेठे कंपाराए रहित एवा जिन श्रीपाश्वनाथजीने देखीने पूर्व जन्मना वैरनो जे समूह तेणे करीने विपरीत जजतो एटले अबदु आचरण करता एवा ते बुद्धिवंत मेघमालीए तत्काल उपवनो जे आमंबर तेने संदयों ॥ १०३ ॥ १०४॥
टीका स्वागांसि सम्यगानम्य क्षमयित्वा जिनं ततः ॥ तापस्त्यनें जियग्रामः स्वकं धाम जगाम सः ॥ १५॥
अर्थ:-त्यार पड़ी ते मेघमाली पोताना सर्व अपराध खमावीने जिन श्रीपार्श्वनाथजीने नमस्कार करीने, पोताने पश्चाताप थयो जे श्रा में खोटुं कयु, ते तापथी कृश थयो इंजियोनो समूह जेनो एवो ते देव पोताना स्थान प्रत्ये जतो हवो ॥ १५ ॥
टीका:-अथ कृतनयमाथं श्रीजिनं पार्श्वनाथं कमवि. जयदतं बुद्धसद्ध्यानलदम् ॥ मुदितजनसमाजः कीर्तयित्वाहिराजः स्वजवनमुरुशक्तिः प्राप सत्स्वामिन्नक्तिः ॥ १६ ॥ ॥ इति कथा ॥
अर्थः-त्यार पड़ी कर्यो जे नयनो नाश जेणे एवा, ने कमउने जीतवामां चतुर एवा, ने प्रगट थयुं वे सारा ध्यानने विषे लक्ष
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18. अथ श्री संघपट्टका
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जेमने एहेवा श्रीजिन पार्श्वनाथजी ते प्रत्ये, हर्ष पमाड्यो लो. कनो समूह जेणे एवो, ने घणी ने शक्ति जेनी एवो ने सुंदर स्वामी नक्ति जेनी एवो नागराज वखाण करीने अथवा स्तुति करीने पोताना स्थान प्रत्ये जतो हवो ॥ १६ ॥ ए प्रकारे कथा संपूर्ण थई ॥
टीका:-तदेवमिष्टदेवतास्तवमनिधायेदानी संघव्यवस्थोपदेशरहस्यं प्रतिपादनीयं तच्च योग्यस्य पुरुषस्य प्रतिपाद्यमानं साफल्यमासादयेत् । अयोग्याय तु दीयमानं प्रत्युतापकाराय स्यात् । यदुक्तम्-अप्रशांतमतौ शास्त्रसजावप्रतिपादनम् ॥ दोषायाजिनवोदीणे शमनीयमिव ज्वरे ॥
अर्थः-एवी रीते इष्ट देवतानी स्तुति कही हवे संघनी व्यवस्थाना उपदेशनु रहस्य कहेवार्नु बे. ते रहस्य योग्य जीवने उपदेश कर्याथो सफलताने पासशे ने अयोग्य पुरुषने अपाये तुं कदाच उलटुं अपकारनुं कारण थाय. कडं के, जेनी बुद्धी स्थिर नथी ते जीवने शास्त्रना खरा तत्वनो उपदेश दोषy कारण थाय जे. जेम जेने ताव चढ्यो बे ते माणसने शांतिने वास्ते आपाती दवा दोषनुं कारण थाय तेम. . . . . . . . , टोकाः अतोऽनिधेयमुपक्रममाण उपदेशरहस्यजणन योग्यं श्रोतारं निरूपथितुमाह ।।
अर्थः-ए हेतु माटे कहेवा योग्य वस्तुनो आरंन करता अन्निधेय वस्तुनो उपन्यास करता बता ग्रंथकार उपदेश रहस्यने कहेवा योग्य श्रोता पुरुष, निरुपण करता उता कहे , एटले श्रो. ता पुरुषनां लक्षण कहे . .
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.. अथ श्री संघपट्टका
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(४७)
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. ॥ मूल काव्यं ॥ कल्याणानिनिवेशवानिति गुणग्राहीति मिथ्यापथ प्रत्यर्थीति विनीत इत्यऽश इत्यौचित्यकारीति च ॥ दाक्षिण्यीति दमीति नीतिदिति स्थैीति धैर्योति सत् धार्थीति विवेकवानिति सुधीरित्युच्यसेत्वं मया ॥२॥
टीकाः-नुच्यसे व्यपदिश्यसे त्वमिति युष्मदा विवदितश्रोतृनिर्देशः मयेति कतरात्मनिर्देशः ततश्च नो श्रोतर्मया त्वं संघव्यवस्था प्रतिपाद्यसे इत्यर्थः ॥
अर्थ:--'त्वं' ए प्रकारे युष्मत शब्दनो प्रयोग कर्यो, तेथी या काव्यमां कहेला लक्षण सहित जे श्रोता पुरुष तेनो निर्देश कयों अने 'मया' एप्रकारना प्रयोगथी कर्ताए पोतानो निर्देश कर्यो,तेथी हे श्रोता पुरुष हुँ तारा प्रत्ये संघनी व्यवस्था प्रतिपादन करुंछ एउलो अर्थ थयो.
टीका:-कस्मादित्याह ॥ कल्याणानिनिवेशवानिति ॥ इति शब्दाः सर्वेष्यत्र हेत्वार्थाः॥ कल्याण: शुलोनिनिवेश आग्रहः सद्ग्रह इत्यर्थः । तद्वान् ॥
अर्थः-शा हेतु माटे एवा श्रोता प्रत्ये आ ग्रंथ कहं ? एवी आशंका करी कहे जे आ काव्यमा जे सर्व इति शब्द है तेनो हेतुरुपि अर्थ ने माटे कल्याण एटले शुजने विषे प्रवेश शुन वस्तुनो आग्रह एटले सद्वस्तुनुं ग्रहण करईं ने असद् वस्तुनो त्याग करवो एवा गुण सहित श्रोता पुरुष होय.
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(४८)
8. अथ श्री संघपटकः
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टीकाः यतः सग्राहियो हि सदुपदेशरत्नश्रवणे परमानंदः समुखसति असनाहीतु तवणेपि कदाग्रहग्रस्ततया सद्युक्तीरपि स्वमतिकदिपताऽतात्विकवस्तुसमर्थकत्वेन योजयति ॥
अर्थः-जे हेतु माटे साची वस्तुने ग्रहण करनार पुरुषने तो सारा उपदेशरुपी रत्न सांजळीने परमानंद (उब्लास) प्राप्त थाय , ने असद् वस्तुने ग्रहण करनार पुरुषने तो ते सारी वस्तु सानले तो पण पोते कदाग्रहमा गळायो डे माटे शास्त्रोक्त सारी युक्तिने पण पोतानी मतिये कटपेली जे खोटी वस्तु तेनुं प्रतिपादन करवा जणी जोमे ॥
टीका-यदक्तं ॥ आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा ॥ पक्षपातरहितस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरेति निवेशमिति ॥
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही जे जे आग्रही पुरुष ज्या पोतानी मति प्रवेश थने त्यां युक्ति पमामा श्छेले एटले जेक दामहमां पोतानी मति चोंटी ने त्यां शास्त्र युक्तिने लइ जवा इच्छे . ने पक्षरहित जे पुरुष तेनी मति तो ज्यां युक्ति ने त्यां प्रवेश पामे ने एटले युक्ति सहित ले तेनुज ग्रहण करे ए प्रकारे अहिं पण सारो पुरुष ले ते सारनुं ग्रहण करे ने ने असत् पुरुष नेते असतनुं ग्रहण करे ॥
टीकाः अथवा कल्याणं मोदः तत्रालिनिवेशोऽध्यवसायस्तवान् यतो जवाजिनंदिनां समुपदेशोपि न चेतसि स्थिति वनाति ॥ . .
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अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः-कल्याण शब्दनो बीजी रीते अर्थ करे जे जे कः न्याण कहेतां मोक्ष तेमां जेनो अध्यवसाय बे, एटले निश्चय ,,
वो श्रोता पुरुष होय केमजे लवालिनंदी जे प्राणी तेना-चित्तमा साचो एवो पण उपदेश रही शकतो नथ ॥ . . . टीका-यमुक्तं ॥ कल्याणकांक्षिणां नृशामुपदेशः सुधायते ॥ जवानिनंदिनां चित्रं स एव गरलायते ॥ : : ...
अर्थः ते कडं जे मोकने श्चता जे पुरुष तेमने साचो उपदेश अमृत जेवो लागे , ने नवाजिनंदि प्राणीने तेज उपदेश फेर जेवो लागे . ए वात आश्चर्यकारी बे. ॥ कवि शब्द घटनानो तात्पर्यार्थः ॥ जेम सुवर्णने श्ता नाग्यशाली प्राणीने ते संबंधि जे उपदेश एटले आप्रकारे निश्चे सुवर्ण सिद्धिथाय एवो,जे साचो उपदेश ते अमृत जेवो थाय बे, एटले लोकमां कहेवाय जे जे अमृत बिंबवमे सुवर्ण तथा अजर अमर इत्यादि गुण उत्पन्न थायडे, ने ते अव्य इच्छक पुरुषने जेवो शतवेधी सहस्रवेधी रस प्राप्त थाय है, ने जे जवानिनंदि एटले जे पोताने मन्यु ने तेज. दारिज पपामा खुशी एवा निनोग्य प्राणीने ते सुवर्ण सिजिलो उपदेश केर जेवो लागे जे ए आश्चर्य ले ए प्रकारे अर्थातर पण सूचना कोडे.
टीकाः-तथा गुणग्राहीति ॥ अल्पीयसोपि गुणस्य ग्रहण प्रवणः ॥ दोषेकग्राहिणो हि अविद्यमानेपि दोषे तदाहकत्वमेव स्यात्
अर्थः-वली श्रोता पुरुष केवो होय, गुणनाही, अतिशे थोमो गुण होय तेनुं पण ग्रहण करवामां प्रवीण, ने जे दोषपाही ने ते
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(५."
-g. अथे श्री संघपट्टका
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तो जेमां दोष न होय तेमां पण दोष खोली काढीन दोषमुंज म. हण करे ॥
टीकाः यमुक्तं ॥नात्रातीव विधातव्यं दोषदृष्टिपरं मनः॥ दोषो ह्यविद्यमानोपि तच्चितानां प्रकाशत इति ॥२॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा काले जे अतिशे दोष दृष्टिने विष तत्पर मन न करवू केम जे दोष न होय तो पण दोष दृष्टिवालाना चित्तमा दोष जासे ॥ इत्यादि ॥ .
टीका तथा मिथ्यापथप्रत्यर्थीति ॥ मिथ्यापथो वक्ष्यमा एपलक्षणो यथाबंदप्ररूपितोत्सूत्रमार्गः॥ तस्य प्रत्यर्थी विरोधी॥ उत्सूत्रमार्ग श्रोतुमप्यनिछुः ॥ उत्सूत्रपथालिलाषुकस्य हि यथार्थ सिद्धांतोपदेशस्त्रासाय स्यात् ॥
अर्थः-वली ते श्रोता केवो होय तो मिथ्यामार्गनो शत्रु, एटले आगल कहीशुं एवां जेनां लक्षण ने एवोपोतानी श्वाप्रमाणे प्ररुपणा कस्यो जे जत्सूत्र मार्ग तेनो विरोधी एटले उत्सूत्र मार्गने सांजलवानी पण श्वा नथी करता, केम के उत्सर्ग मार्गना अजि. लाषी पुरुषने निश्चे यथार्थ सिद्धांतनोजे उपदेश तेत्रासन्नणी थाय ,
टीका:-यक्त खुद्दमिगाणं पुणसुद्धदेसणा सीहनायसमेति
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कयु ने जे कुछ पुरुष रूप मृग तेमने शुकदेशनाते ते सिंहनाद जेवी ने एटले त्रास उपजावनारी के इत्यादि ॥
टीका:-तथा विनीत इति ॥ गुर्वादिष्वन्युत्थानादिकरणसाससः॥ विनीतायैव हि गुरुवः सिद्धांततत्वं प्रतिपादयंति ॥
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अथ श्री संघपट्टक
(१)
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अर्थ:-वली ते श्रोता केवो दोय तो विनीत होय एटले गुरु आदिक प्राप्त थये बते उतुं थq इत्यादि विनय करवानी लालसा वालो, केम जे गुरुमहाराज विनीत शिष्य नणीज सिझांतर्नु तत्व श्रापे .
टीकाःयदुक्तं ॥ विणयन्नयंमि सीसे दिति सुश्र, सूरिणो किमहरियं ।। कोवा न दे जिक्खं किं पुण सोवनिए थाले।
अर्थः-शास्त्रमा कडं ने विनयनो जाण एटले विनयनो करनार एवो शिष्य, ते जणी आचार्य सिकांत आपे डे एमां शुं श्राश्चर्य जे दृष्टांतः-जेम कोई मोटो पुरुष सोनानो थाल लश्ने निक्षा मागवा आवे तो तेने कोण न आपे अर्थात् सर्वे श्रापे तेम ॥ .
टीकापुर्विनीताय पुनर्न किंचिउपदिशति ॥ यदुक्तं ॥ सेहंमि पुब्विणीए विणयविहाणं न किंचि श्राश्के ॥ न यदिजाश्थाहरणं पलियंचियकनहत्थ्यस्स ॥ - अर्थ:-अने विनीत शिष्य नणी श्राचार्य का उपदेशन करे जे हेतु माटे शास्त्रमा कडं जे विनीत शिष्य नणी विनय विधानादि कांश पण नथी कहेता.ते उपर दृष्टांतः-जेम ठेदन थया डे कान हाथ जेना एवा पुरुष प्रत्ये शोनाने अर्थे श्रान्तरण नथी आपता तेम.
टीका:-तथा श्रश इति ॥ ऋजुस्वन्नावः॥ गुर्वादिषु जीविकानिरपेक्षप्रवृत्तिरित्यर्थः ॥ शगे हि न विद्यायोग्यः॥ यतो ऽविनीताय लुब्धायाऽनृजवे न मां ब्रूयादिति विवाहेति ॥
अर्थः-वली ते श्रीता पुरुष केवो होय ? तो अशठ एटखे सरल स्वन्नावी गुर्वादिकने विषे आजीविकादिकनी अपेक्षारहित
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(१२)
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अथ श्री संघपट्टका
सेवामा प्रवर्त्ततो एवो होय. जे शव पुरुषले ते विद्या योग्य नथी जे माटे सरस्वतीये पोते कडं जे अविनीत तथा लोनी तथा शव पुरुष एटला जणी मारु उच्चारण न करवू ॥
। टीका-तथौचित्यकारीति च ॥ लोकागमाविरोधेन गुर्वा- . दिषु यथानुरूपं विनयादिप्रकृत्तिरौचित्यो।तत्करणशीलः ॥ औचित्यहीनस्य हि शेषगुणाः संतोपि काशकुसुमसंकाशाः॥ · · अर्थ-वळी ते श्रोता पुरुष केवो होय तो के उचितपणुं करनार एटले लोकमां तथा शास्त्रमा विरोध ना आवे तेम गुरुश्रादिने विषे जेम घटे तेम विनयादिकन करवू तेने उचितपणुं कहीये तेने करवानो जेनो स्वजाव बे एवो, उचितपणा विना बीजा सर्वे गुण कदापि होय तो पण काश नामे कोई तृणविशेष तेना पुष्प जेवा नकामा ॥ .. टीकाः-यमुक्तं, औचित्यमेकमेकत्र गुणानां कोटि
रेकतः विषायते गुणग्राम औचित्यपरिवजित इति ॥ चो विशे. : षणसमुच्चये ॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे एक उचितपणुं करवा रूपिगुण स्थापो अने एक पास कोटीगुण थापो तो पण उचितपणा विना ते सर्व गुण फेर जेवा थाय ,श्रा जगाये चकार मुक्यो बे, ते सर्व विशेषणने एक हारमा नेलां करे ॥
टीका:-तथा दाक्षियोति ॥ दाक्षिण्यमनुकूलता ॥ जन'- चित्तानुवर्तित्वं ॥ तहान् ॥ निर्दा दिएयो हि बांधवानामप्युके. जनीयो नवति ॥
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49. अथ श्री संघपट्टक
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अर्थः-वली ते श्रोता पुरुष केवो तो के माहापण (अनुकूख) पणा सहित लोकना चित्तने अनुसरवापर्यु, अर्थात् जेने देखीने बुद्धिवान्ने एम जणाय जे आ पुरुष तो माह्यो डे एवा गुण सहित. केमके जेमां माहापणपणुं नथी, ते पुरुष पोताना बंधुने पण उठेग करनार थाय ॥
टीका:-॥ यमुक्तं ॥ निविण्यो मुच्यते बंधुनृत्यैस्तन्मुक्तस्य दीयतेऽस्य त्रिवर्गः ॥ कोणे चास्मिन्मेदिनीनारकारी कारीषानो जीवति व्यर्थमेष इति ॥७॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे पुरुष माहापण पपाए रहित , तेने पोतानो बंधु तथा सेवक ते पण त्याग करे ने ज्यारे तेमणे त्याग को त्यारे ते पुरुषना धर्म अर्थ ने काम ए त्रणे पुरुषार्थ नाश पाम्या त्यारे ते पुरुष निकेवल पृथ्वीनो नार करनार थयो ने सुका गणनी पेठे बालवा विना बीजा को कार्यमां उपयोगी न थयो माटे एनुं जीवन व्यर्थ ॥
टीकाः-तथा दमीति ॥ जितेंजियः॥ अजितेंजियो हि गुरुसेवायामपि मंदायते ॥ यदुक्तं ॥ अनिर्जितेंजियग्रामः कांताललितकीलितः ॥ न सेवते गुरुं तस्मात् कुतस्त्यस्तत्वनिर्णय इति ॥ ७॥
अर्थः-वळी ते श्रोता पुरुष केवो ने तो के दमी एटले जितेंजिय. जेणे धियो जीती नथी ते गुरुसेवाने विषे पण मंद थाय बे जे माटे शास्त्रमा कडं बेजे, नथी जीत्यो इंजियोनो समूह जेणे एवों ने स्वीयोना विलासना विष जे बंधायो एवो पुरुष गुरुने लेवे
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अथ श्री संघपट्टका
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नहीं, ते माटे ते पुरुषने तत्वनो निश्चय क्यांधीज होय ? ॥७॥
टीकाः-तथा नीतिदिति ॥ सदाचारपरायणः ॥ ततो हि सर्वेपि साहाय्यं नजते । तछिपरीतस्य च वैपरीत्यम् ॥
अर्थः-वली ते श्रोता पुरुष केवो होय तो के नीतिनो धारण करनार एटले सदाचारने विषे तत्पर, सदाचारवालाने निश्चे सर्वे पण सहाय करे ने अने असत् आचरण करनारनुं विपरीतपणुं करे ॥
टीका-॥ यमुक्तं ॥ यांति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यचोपि सहायताम् ॥ अपंथानं तु गच्छन्तं सोदरोपि विमुंचतीति ॥ ए॥ - अर्थः॥ शास्त्रमा काडे जे न्याय मार्गे चालनारनी सहाय तिर्यच एटले पशु पक्षी पण करे डे, ने उन्मार्गे चालनार पुरुषनो सोदर (ना) पण त्याग करे ॥ ९॥
टीका तथा स्थैर्वी ति॥ स्थैर्य कार्यारंने अनौत्सुक्यं तछान् ॥ उत्सुका हि राजस्यन कार्यमारजमाणाः शास्तारमप्युटजयंति ॥
अर्थः वली ते श्रोता पुरुष केवा होय तो, स्थैर्यो केहेतां कार्यना आरंजने विषे स्थिरतावाला, अने जे स्थिरतावाला नथी ने कार्यनो आरंज करे ते पुरुष पोतानो जे शिक्षक तेने पण वेग पमामे तेमां शुं कहे ?
टीकाः-यदुक्तं ॥ अस्थिरा: स्वैरिणो नूनं दोनयंति प्रभूनपि ॥ श्रचलानाकुलारना युगांतपर्वता श्वेति ॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा का जे अस्थिर होय ने स्वेता
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Ang: अथ श्री संघपट्टका
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वारी होय. ते निश्चे मोटा पुरुषने पण कोल पमामे बे,जेम प्रलय कालनो वायु पर्वतोने पण कंपावे ने तेम ॥
टीका:-तथा धैर्याति ॥ धैर्यमापत्स्वपि मनसो ऽदोन्यत्वं ॥ तद्वान् ॥ अधीरो हि विनाकुलितचेता गुरुमपि हीलयति ॥ यदुक्तं ॥ विघ्नविशोजितस्वांतः कदाचिधर्मकर्मणि ॥ कातरः सातरसिको गुरुमप्यवमन्यत इति ॥ ११ ॥ __ अर्थः-वली श्रोता पुरुष केवो होय ? तो, धैर्टी एटले धैर्य ते आपत् कालमां पण मननुं न दोन्नवापणुं एवा गुणे करी सहित ते धीरजवालो कहेवाय ने जे अधीर पुरुष . ते तो विघ्नवमे आ-' कुल ने चित्त जेनुं एवो तो गुरुनी पण हीलना करे . जे माटे शास्त्रमा कां वे जे क्यारेक विघ्नवमे कोन पाम्युं ने चित्त जेनुं एवो . पुरुष धर्म कर्मने विषे रंक जेवो थाय ने अने शातासुखनो लालची थाय डे, त्यारे गुरूनी पण अवगणना करे दे.
टीका-तथा सझार्थीति ॥ सन् शोजनो धर्मो लोकप्रवाहरहितः॥ आशानुगतः प्रतिश्रोतोपरनामा पारमेश्वरः शुको मार्गस्तस्यार्थी गवेषकः ॥ लोकप्रवाह निरते हि पुंसि जलभृतकुंनोपरिपातुकजलबिंदुरिव गुरूपदेशो वहिर्बुपति
अर्थः-वली ते श्रोता पुरूष केवो होय ? तो सद्धर्मार्थी ए. टले सारो शोलतो जे लोकप्रवाह रहित तीर्थकरनी आज्ञाने अनुसरतो प्रतिश्रोत ए प्रकारनुं जेनुं वीजुं नाम बे एवो परमेश्वर सं. बंधी शुभ मार्ग तेनो गवेखणा करनार एवा लदण सहित श्रोता जोशए. केम जे लोकप्रवाहने विषे अति आशक्त भयो. जे. पुरुष
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-8,अथ श्री संघपट्टका
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तेने विषे गुरु महाराजनो उपदेश प्रवेश पामतो नथी बारणे नीकली जाय जे जेम जलवमे संपूर्ण नरेला. कुल उपर, जेटवू पाणी पके ते सर्वे बारणे नीकली जाय बे तेम.
टीका: ॥ यदुक्तं ॥अंध प्रति यथा लास्यं गानं च बधिरं प्रति ॥ अनथिनं प्रति व्यर्थ तथा सधर्मदेशनम् ॥ १५ ॥ __ अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कडं जे आंधला प्रत्ये सुंदर नृत्य करवु तथा बेहेरा प्रत्ये सुंदर गान करवू जेम व्यर्थ डे, तेम जे पुरुषने साचा मार्गनी अभिलाषा नथी ते प्रत्ये साचा मार्गनो उपदेश करवो व्यर्थ ॥ . टीका:-तथा विवेकवा निति ॥ पारिणामिक्या बुद्ध्या युक्तायुक्त विमर्शों विवेकस्तछान् ॥ विवेकी हि हेयपरित्यागेनो. पादेयमुपादने॥
अर्थः-वली ते श्रोता पुरुष केवो होय तो के विवेकवालो एटले जे करवाथी पश्चाताप न थाय, एवं करावनारी जे बुद्धि तेने पारिणामिकी बुधि कहीए तेवी बुध्धिये करी युक्त, तथा युक्त अयुक्तनो जे विचार करवो तेने विवेक कहीए तेंवा विवेक सहित जे होय ते विवेकी कहीए ॥
टीका:-तदुक्तं-हेयं विहाय विरलाः सद्सद्विवेकादादेय मत्र समुपाददते पुमांसः ॥ संप्रत्यहो जगति हंत पिबति नी. रात्, कीर विविच्य सहसा विदगा: कियंतः॥१३॥ . अर्थः ते का , जे पुरुष सत् असत्ना विवेकथी त्याग करवा योग्यमो त्याग करे , ने ग्रहण करवा योग्यतुं ग्रहण करे ,
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.. अथ श्री संघपट्टका
(५७)
तेवा पुरुष था जगतमा विरला . एटले थोमा । जेम वर्तमान काले जगतमा केटलाक पक्षी दूधने जल बेनेगां होय जे तेमांथी ते बेने शीघ्रपणे जूदां करीने दूधनुं पान करे ने जलनो त्याग करे ॥१३॥
टीका:-॥ तथा सुधीरिति ।। सुधी प्राज्ञः ॥ अज्ञे हि व कापि गुरुर्न किंचित् संस्कारमाधातुमीष्टे ॥ यदुक्तं ॥ व्या. ख्याता के गुणं कुर्याहिनेये मंदमेघसिादुरेधसि शितोप्येति कुगर: कुंचतां हगत् ॥ १४ ॥ तदेवं पूर्वोदितसकलगुणगणसंपन्न. स्त्वं नोः श्रोतस्ततो भयोपदेशसर्वस्वं श्राव्यसे इति कृतार्थः ।।
अर्थः-वळी ते श्रोता पुरुष केवो होय तो, सुधी एटले माह्यो, केम जे अज्ञानी पुरुषने विषे, सारं कहेनार एवा पण गुरु, कां पण सारो संस्कार चमाववा समर्थ नथी. जे माटे शास्त्रमा कथु बे जे मंद बुद्धिवाला शिष्यने विषे, उपदेश करनार गुरु शो गुण करी शके ? कां न करी शके. जेम कुहामाथी न वेदाय एवं सुखदायी काष्ठ तेने विष तीखो एवो पण कुहामो बलात्कारथी कुंवित थाय बे तेम ते माटे पूर्वे कह्या एका सकल गुण गण तेणे सहित एवो तुं श्रोता पुरुष ढुं माटे, हुं उपदेशनुं सर्वस्व संनलावू. अर्थात् एवा श्रोता असे आ सर्वोपरि उपदेश संन्जलाववा योग्य बे, ए प्रकारे आ वीजा काव्यनो अर्थ थयो ॥२॥
टीका:-दानी योग्यश्रोतारं प्रति वक्तव्यं तत्प्रस्तावनामारचयितुं वृत्तघ्यमाह ॥
अर्थ:-हवे योग्य श्रोता पुरुष प्रत्ये जे कहेवा योग्य ले तेनी प्रस्तावना कहेवाने वे काव्य संघाथे कहे ते.
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(५८)
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अथ श्री संघपट्टका
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मूलकाव्यं इह किल कलिकालव्यालव क्रांतरालस्थितजुषि गततत्वप्रीतिनीतिप्रचारे ॥ प्रसरदनवबोधप्रस्फुरत्कापौध
स्थगितसुगतिसर्गे संप्रति प्राणिवर्गे ॥ ३॥ प्रोत्सप्पेनस्मराशिग्रहसखदशमाश्चर्यसाम्राज्यपुष्यमिथ्यात्वध्वांतरुझे जगति विरलतां याति जैनेज्मार्गे ॥ संक्लिष्टद्विष्टमूढप्रखलजमजनानायरक्तैर्जिनोक्तिप्रत्यर्थी साधुवेर्विषयिनिरनितः सोयमप्राथि पंथाः॥४॥
टीका:-एवं विधे प्राणिवर्गे सति साधुवेषैः सोय पंथा श्रप्राथीति संबंधः । श्रप्राथि अतानि । अत्रचापाथीति प्रथेरिनंतस्य इचि वेत्यनेन सानुबंधत्वाद्विकल्पीय-हस्वनिर्मुक्तपके रुपम्॥ • अर्थः-प्राणीनो समूह, आगळ कहीशुं ए प्रकारनो थये बते, साधु वेष धारी पुरुषोए आ मार्ग विस्तार्यों . आ काणे व्याकरस विचार जे अप्राथि एवं जे रूप थयु ते तो नंत एवो जे प्रथम धातु, तेनुं "चि वा” ए सूत्रे करीने जे पके विकल्पे-हस्वता नयी थती ते पदे अप्राथि एवं सिद्ध रूप थाय ॥
टीका-कोऽसौ पंथा मार्गः स्वमनीषिकाकल्पितं मत सोऽयं स इति सकलजनप्रतिकोऽयमिति श्दानी प्रत्यदोपलन्यमानः कथमप्राथि ? अनितः समंताद् जूरिदेशेष्वित्यर्थः ।
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49. अथ श्री संघपट्टकः
( १९ )
अर्थ:-था ते कीयो मार्ग एटले पोतानी बुद्धिये कल्पना कर्यो एवो ते कीयो मत छे ! तो सकल जनने प्रसिद्ध एवो आ प्रत्यक्ष जातो मत छे. ते कये. प्रकारे विस्ताओं ? तो चारे पासे घणा देशमा विस्वायें.
टीका:- कै. साधुवेवैः साधोः सुविहितैस्येव वेषो रजोहरणादिनेपथ्यो न त्वाचारो येषां ते तथेति ॥ सन्मुनिलिंगमात्रधारिभिः॥
अर्थः- कोणे मार्ग विस्तार्यो ? तो रजोहरणादि सुविहित साधुनो भूषण रूपी जे वेष, तेनुं धारण करता पण ते सुविहितना श्राचारनुं धारण न करता एवा, वेष मात्र धारी एटले साचा मुनिना लिंगमात्रतुंज धारण करनार एवा पुरुषोये ||
टीका:- कुत एमदित्यत श्राह ॥ विषयिभिः ॥ विषि एवं ति संसारगुप्त वति श्रासेविनं प्राणिनमिति विषयाः शब्दादयः ॥ तद्वदिनरिंडियार्थव्यासं गिजिः ॥ विषयासंगो हि यतीनां दीया विरुध्यते ||
अर्थः-शा हेतु माटे तो त्यां कहे बे जे संसार रूपी बंधीखानाना घरने विषे पोताने सेवन करनार प्राणीने बांधी राखे ते विषय कहीए, ते शब्दादि पांच विषय तेणे सहित एटले निः केवल विषय मात्रमांज श्रासक्त एवा ते साधुवेषि बे माटे केम जे यतिने, विषयमां श्रासप ने दीक्षाएं ए वेने परस्पर विरुद्ध बे. शी रीते ? तो ज्यां दीक्षापणुं वे त्यां विषयासक्तपणुं नयी अने ज्यां विषयासक्तपणुं बे त्यां दीक्षापणुं नत्री
टीकाः । यदुक्तम् ॥ मुदुरप-िहयमाणाः सारयोऽरि
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3. अथ श्री संघपट्टकः --
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वा, वफलक उदारेऽतीव बंञम्यमाणाः ॥ वधविशसनबंधैः सादमासादयंते, परमविषयचाजो दीक्षिता भूरिकालम् ।।
अर्थ:-जे माटे शास्त्रमा कडं जेम पासा वसे सोगटां, बाजीमां चारेपार घरोघर जमे ने त्या अनेक प्रकारे घात तथा नाश तथा बंधन खेद पामे ले तेम चतुर्गति संसाररूप चोपट खेलने विषे विषयनोगी दीक्षावंत प्राणी पण अतिशे ज्रमण करता करतां घणा काल सुधी अनेक प्रकारे नाशपात बंधनादिके करीने खेदपामे .
टीका:-॥ किंरूपः पंथाः, जिनानामहतामुक्तिर्वचनमागमः तस्य प्रत्यर्थी विरोधी पारमेश्वर लिहतविपर्यस्तार्थप्ररूपणरूपतया तदनिहितयुक्तिवाधितः ॥ कस्मादेवंविधः पंथाः प्रथितस्तेरित्यत आह ॥
अर्थः केवो मार्ग तेमणे विस्तार्यों ? तो जिन जे अरिहंत तेमना वचनरूपी जे शाल तेनो विरोधि,एटले परमात्मानो कहेलो जे सिद्धांत तेथी विपरीत जे अर्थनी प्ररूपणा तेणे करीने ते सिशांतमा कहेली जे युक्ति तेथी बाध पामेलो. शा माटे ए प्रकारनो मार्ग तेमणे विस्तार्यो ? ते कहे .
टीकाः-संक्लिष्टेत्यादि ॥ संक्लिष्टः सातत्येन धार्मिकजनो प्रतापकार्नरौसाध्यवसायवान्, हिष्टो मत्सरी गूणवद्गुणत्रंशनप्रवणबुद्धिः ।। मूढः ॥ हेयोपादेयविमर्शशून्यः ॥ प्रखलः॥ प्र. कर्षेण पिशुनः गुणवद्गुणासढ्षणारोपणचतुरः जमो दुम्र्मेधा यो जनस्तेषामेव चतुर्विधः संघस्तस्याम्नायः शिष्यप्रतिशिप्यादिसंतानः ॥ तत्र रक्ताः प्रीतिमंतः ॥ यहा संक्लिष्टादिवि
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4. अथ श्री संघपट :
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शेषणोपेतो जनो नाम सुविहितसंघस्तस्यानायः गुरुपारंपर्यागतः श्रुतविरुद्धाचरणा तत्र रक्ताः पक्षपातिनस्ते, ते हि स्वसदृशजनाचरितं प्रामाण्येन प्रतिपद्यते
अर्थः-जे निरंतरपणे करीने धार्मिक जनने उपताप करनार एवा जे आर्तरोऽ अध्यवसाय तेमणे सहित अने मत्सर सहित एटले गुणवान पुरुषना गुणने नाश करवा तत्पर जेनी बुद्धि अने त्याग कर तथा ग्रहण करतुं ते संबंधि जे विचार तेणे रहित माटे मूढ पुरुष अने अतिशे खल एटले अतिशे चामिन, गुणवानना गुणने विषअसत् दोषना आरोपण करवामां चतुर अने जम एटले दुष्ट बुद्धिवालो. एवो जे लोक तेनो चार प्रकारनो संघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप) तेनो जे आम्नाय एटले शिप्यने तेना शिष्य इत्यादि विस्तार ते विषे आशक्त (प्रीतिवाला) ते पुरुष , ए हेतु माटे अथवा तुंमा अध्यनलायवालो, हेपी, मूढ, प्रखल, जम ए प्रकारनां विशेषणे सहित एवो जे जन एटले नाम माने करीनेज सुविहित संघ पण गुणवसे नहीं, एवानो जेथाम्नाय एटले गुरु परंपरागत शास्त्र विरुफ जे आचरण तेने विषे श्राशक्त एटले पक्षपाति एवा जे साधुवेषी पुरुषो वे ए हेतु माटे, केम जे तेज पोताना सरखा जे लोक तेनुं आचरण प्रमाणपणे अंगीकार करे .
टीका.-॥ यदुक्तं ॥ एगरि मनता, सयंपि तेसिं पएसु वदंता ॥ रागदोसबायणता, के पसंतंति निम्मे ।
अर्थ:-जे माटे शास्त्रयां कहेलु जे एक प्राचारवालाने माननार केटला पुरुष ते तेमना मार्गमा पोते पण वर्तता बता
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(१२)
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8. अथ श्री संघपट्टका - पोताना दोषने ढांकवाने अर्थे धर्मरहित पुरुषोने पण प्रशंसा करे.
टीकाः-श्रत एवंविधा जिनोतिप्रत्यर्थिनमेव मार्ग प्र. वयंति ।। अथ नास्वतीव दीप्यमाने पारमेश्वरे पथि कुत एवंविधपथप्रथनस्य तमस श्वावकाशः ॥ तत्राद ॥ जगति लोके विरखता स्तोकतां श्रुष्पजनान्युपगमनीयतां याति पाप्नुवति सति ॥ कस्मिन् ॥ जिनेमार्गे जगवत्प्रणीते शुझे प्रतिश्रोतसि पथि ॥
अर्थः-एहीज कारण माटे ए प्रकारनो जिनेश्वर जगवंतना वचनना शत्रुरूपज मार्ग तेने विस्तारे . ते उपर आशंका करे , जे सूर्यनी पेठे देदीप्यमान परमात्माना मार्गने विषे शाथी ए प्र. कारना मार्गना विस्तार रूपी अंधकारनो प्रवेश भयो ? तो कहे जे के जगत्मां जिने जगवते कहेलो ने संसार मार्गथी उलटो एवो शुध्ध मार्ग विरलपणाने एटले थोमापणाने पामे बते जावार्थ-लोकमांश्रल्प पुरुषज शुध्धमार्गने पामवाथी उत्सूत्र मार्ग विस्तार पाम्यो.
टीकाः-कस्मादेतदित्यत आह ॥ प्रोत्सर्पद्नस्मेत्यादि ॥ . प्रोत्सlन अगवडीमहावीरमुहिसमये तजन्मराशिसंक्रांत्या तत्पक्षसंघस्य बाधाविधायित्वात् प्रोड्नमाणो नस्मराशिनामा मंगालादिवत्रो ग्रहस्तस्य सखा मित्रं राजादित्वादन्। ततश्च प्रोत्सप्पलस्मराशिग्रहसखं यदशमाश्चर्यमसंयक्तिपूजाख्यं ॥
अर्थः-शाथी एम थयुं ? तो त्यां कहे जे नगवान श्री महावीरस्वामि मुक्तं गया ते समये उदय पाम्यो, ने तेमनी जन्मराशीने संक्रमण थयो ए माटे. तेम महावीर स्वामीना पक्षपाती
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- अथ श्री संघपट्टकः
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संघने बाधा मारुतो जस्मराशि नामा ग्रह बे, ते मंगलादि प्रहनी पेठे महा करो ग्रह वे तेनुं मित्ररूप जे असंयति पूजा नामे दशमुं आश्चर्य वे तेथी.
टीका:- अत्र च सख्यं स्मराशिदशमाश्चर्ययोर्लो किकसखयो रिद्वयोरपि साहचर्येण पुष्करैककार्यकारित्वं ॥ तच्चेह कार्य द्वयोरपि यथानंदमावल्यकारित्वेन मिथ्यात्वपोषः ॥ क्वंचिदसंभाव्यवस्तुदर्शनं ह्याश्चर्यं ॥ श्रसंयजनपूजा चानंतकाल - जावित्वादसंभाव्या वर्त्ततेऽतो जवत्याश्चर्यतच्च दशमं ॥
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अर्थः-घड़ीं जस्मराशी ग्रहने अने दशमाश्चर्यने परस्पर लौक्तिक मित्रनी पेठ मित्रता बे केम जे बेने पण संघाते दुष्कर एवं एक कार्य प्रत्ये करवाप े, ते एक कार्य की युं ? तो ते येने पण पोतानी नजरमां आवे तेम वर्त्तता माटे यथाबंद एवा जे रुष तेमनुं प्रबलप करावीने मिथ्यात्वनुं पोषण करयुं. जावार्थ:स्मराशि ग्रह पण घणा मिथ्यात्वनो पोषण करनार बे, ने दशमुं श्राश्वर्य पण घला मिथ्यात्वने पोषण करनार बे. माटे ए कामने बे जण संघाते चलावे वे, तेथी तेमने मित्रता थइ बे. माटे घं मि ध्यात्वनुं बल वृधि पाम्युं छे. श्राश्वर्य ते शुं ? तो क्यारे पण संजवे नहीं एव वस्तुनुं देख ते ॥ श्रसंयति पूजा पण अनंत काले यह माटे एवढे ते गणती मां दशमुं बे ॥
टीका:--किल जिनप्रवचने दशाश्चर्याणि निरूपितामि ॥ . तदुक्तं ॥ उवसग्ग गुप्नहरणं, इथ्वी तिथ्यं श्राविया परिसा ।। कन्हस्स अमरकंका अवयरणं चंदसूराणं ॥ हरिवंश कुलुप्पत्ती
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8. अथ श्री संघका
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चमरुप्पाउं य अहसय लिध्धा। अस्संजयाण पूा, दसविधाणं तेण कालेण ॥
अर्थ:--जिन प्रवचनमा दशे आचर्य निरूपण करू , तेनां नाम गणाव्यांजे १ उपसर्ग गर्नहरण ३ स्त्री तीर्थ ४ अन्नावित सजा, ५ कृष्ण वासुदेव अमरकंकामां गया, ६ चंड सूर्यअवतरण, हरिवंश कुलनी उत्पति, चमर उत्पात, ए एक समे एकसोने आठ सिध्ध श्रया, १० असंयति पूजा ए दशे पण श्राचर्य अनंत काले थाय.
टीका:-तत्र नवानां स्वरूपं ग्रंथांतरादवसेयम् ॥असंयतप्रजाश्चर्यस्यैवदोषयोगित्वात् तदोषप्रदर्शनोदेशेन प्रकरणप्रवृत्तेः तस्य साम्राज्यमिव साम्राज्यं, यथा राज्ञः कस्यचित्सकलमंका लाधिपत्यं रिपुविजयपुरस्सरमा.श्वर्य साम्राज्यमुच्यते एव- मिहापि सुविहितजनतिरस्कारेण सकललोकस्या संयतजनाझा
वशवर्तित्वं दशमाश्चर्यस्य साम्राज्यं ।। . अर्थः-तेमां नव. आश्चर्य, स्वरूप तो ग्रंथांतर थकी जाणवू. असंयति पूजा नामे दशमा आश्चर्य- अहीं उपयोगीपणुंडे माटे तेना दोष देखामवानो उद्देश करीने या प्रकरणनी प्रवृत्ति के माटे ते दशमा आश्चर्यनुं चक्रवर्ती राज्य बे, जेम को राजाने सकल मंगलन अधिपति पणुं ने शत्रुने जीतवा पूर्वक आज्ञाए करीने झैश्वर्यपणुं जेमा डे एवं चक्रवर्ति राज्य होय, एम अहीं पण सुविहित जननो तिरस्कार करवो तेणे करीने सकल लोकने असंयतिनीयाझामा वर्ताव, ए दशमा आश्चर्यनुं चक्रवर्ति राज्य बे.
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अथ श्री संघपका
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टीका:-तेन पुष्यदेंधमानं मिथ्यात्वं ॥ अतत्वे तत्वप्रति-- प्रत्तिरुपं ॥ तदेव ध्वान्तं तमिश्रं सम्यगानालोकनिरासक्षम त्वात् । तेन रुके व्या ॥ जैनेंजमार्गे ॥
अर्थः ते राज्ये करीने पुष्ट यतुं एटले वृद्धि पामत जे मिथ्यात्व, मिथ्यात्व एटले अतत्वने तत्वपणारूपे अंगिकार करवू, ते मिथ्यात्वरूप अंधकार ज्ञानरूपी प्रकाशनो नाश करवाने समर्थ दे, माटे अंधकारे व्याप्त थएलो जिनेंॐ मार्ग बतें ॥
टीकाः-अयमर्थः । यथा ॥ श्यामायां नीरंधांधतमसेन लोचनप्रकाशावरणातस्करादिनयेन जनाऽसंन्नारामाजमार्गस्य विरलत्वं, तथा जगवति विद्यमाने तन्महिम्नैव यथाबंदाना निरस्तत्वान्न मिथ्यापथप्रथावकाशोऽभूत् ॥ निवृत्ते तु नंगवतीदानी दशमाश्चर्यप्रवृत्तेनिरगलयथाबंदोत्सूत्रदेशनया रिलोकस्य वासितत्वेन प्रबलमिथ्यात्वोदयात्सम्यग्दृशां न्यग्नूतत्वेन जिनेंजमार्गों विरलता प्राप्तः ॥ ___ अर्थ:-जेम रात्रीने विषे गाढ अंधकारे करीने नेत्रनों प्र. काश श्रावरण पामे डे, माटे चौरादिकना नये करीने लोकनो संचार थतो नथी, माटे राजमार्गर्नु विरलपणुं थाय . तेम लगवान विद्यमान हता त्यारे तेमना महिमावमेज पोतानी इब्बामां आवे एम चालनार लोको नासता हता माटे मिथ्यामार्गनो प्रकाश न हतो. ने ज्यारे जगवान मोदे गया त्यारे तो श्रा कालमां दशमा आश्चर्यनी प्रवृत्ति बे. माटे बंधन रहित पोतानी श्वामां आवे तेम उत्सूत्रंनी देशनावमे घणा लोकोने उत्सूत्रनो पट (माघ) बेसाड्यो एटले उरसूतरूनी पुगंध लोकना हृदयमा चोटामी दीधी. ते
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१६६)
8. अथ श्री संघपट्टक:
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हेतु माटे प्रबल मिथ्यात्वनो उदय थयो, ते माटे सम्यक् दृष्टि लो. कोए नीचां मुख कर्यां एटले समकित दृष्टी पोताना स्वरूपमा वरते ने. पण पोतानो उपदेश निरर्थक जाय माटे कहेता नथी माटे जिनेंज मार्ग विरलपणाने पाम्यो बे एटले घणोज थोमो मालम पमे . - टीका-यथोक्तं ॥ पातः पूष्णो नवति महते नोपतापाय यस्मात् कालेनास्तं क श्व न गता यांति यास्यति चान्य।एतावत्तु व्यथयति यदा लोकवायैस्तमोनिस्तस्मिन्नेव प्रकृतिमहति व्योम्नि लब्धोऽवकाशः॥
अर्थः-ते वात दृष्टांते करीने कही जे. जेम सूर्यनु पर्नु एटले सूर्यनु आथम ते मोटा उपताप जणी नथी. जे हेतु माटे काले करीने कोण अस्त नथी पामतुं, ने नहीं पामे अने नथी पाम्यो. सर्वे पण काले करीने नाश पामे , पण आटली वात तो पीमा करें , जे स्वान्नाविक मोटुं एहेवु आकाश तेने विषे लोक निंद्य एवं जे अंधकार तेणे आकाशने विषे अवकाश पाम्यो एटले निवास कों ॥ जावार्थ:-स्वानाविक निर्मल एवा आकाश जेवा जिने मार्गने विषे अंधकार जेवू मिथ्यात्व आवीने रद्यु ए वात मने व्यथा करे जे एम ग्रंथकारे सूचना करी. .. टीकाः अथ कसति जैनेंमार्गे मिथ्यात्वरुद्धत्वाशिरलता प्राप्त इत्याह ॥ इह किल कलिकालेल्या दि॥ इह जगति. किलशब्दार्थस्त्वये वदयते ॥ प्राणिवर्गे मानवसमुदाये सति , ॥ किंरूपे लोकोक्त्या कलिकालो जिनोक्त्या च दुःषमाकालस्तेन कलिकाल एव मुखमाकाल एव निखिलानाचारगरल
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-. अथ श्री संघपट्टकः
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(६७)
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निलयत्वाव्यातः सर्पस्तस्य वक्त्रांतरालं वदनमध्यं ॥ तत्र स्थिति अवस्थानं जुषते सेवते यस्तस्मिन् ॥ । अर्थ:-हवे शुं बते जिनेंज मार्ग मिथ्यात्ववमे व्याप्त थवाथी विरलपणाने पाम्यो एवी आशंका करीने कहे . किल शब्दनो अर्थ आगल कहीशुं आ जगतमां प्राणीनो समुदाय, लोकोक्तिये कलिकाल अने जिनोक्तिए करीने दुःखमाकाल , ते हेतु माटे कलिकाल एज दुःखमाकाल ते रूपी सर्प केम जे सकल अनाचाररूपी केरनुं स्थान माटे ते (कलिकालरूपी सर्प) ना मुखमां स्थिति करते बते.
टीका:-अयमर्थः-यथा कश्चिन्महानागमुखांतर्वर्ती तद् दंष्ट्रानिस्सरनिरंतरगरलन्नरगलितचेतनत्वान्न किंचित् कृत्याकृत्यं वेत्ति ॥ एवं कलिकालवय॑ऽपि प्राणिवर्गस्तत्पन्नवकुशी खताकृतघ्नतामोहप्रलंजनदंनाद्यनेकदोषपोषकलुषितातःकरणत्वानात्मनो हिताहितमवस्यतीति
अर्थः ॥ आ जावार्थ ॥ जेम कोश् पुरुप महा सर्पना मुखमां रह्यो ने ते सर्पनी दाढथी नीकलतुं जे निरंतर केर तेना समूहथी जेनुं चेतनपणुं गयुं . ए हेतु माटे करवा योग्य अनेन करवा योग्य तेने कां पण जाणतो नथी एम कलिकालमा रहेनारो प्राणीनो समूह पण ते कलिकालथी उत्पन्न थयु जे कुशीलपणुं तथा कृतघ्नीपणुं, जोह, उगाइ, कपट ए श्रादि श्रनेक दोषवमे जेनुं अंतःकरण जरायुं , ए माटे पोतानुं हित तथा अहित तेने नथी जाणतो.
टीका-श्रत एव तत्वेषु जगवत्प्रणीतेषु जीवाजीवादिषु
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अथ श्री संघपट्टका
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प्रीतिरेतान्येव वास्तवानि तत्वानि न तु कुतीर्थिकन्नणितानीति चेतसःप्रमोदः ॥ तथा नीतेायस्य सदाचारस्य प्रचार प्रवृत्तिस्ततश्च गतौ यथाक्रम कुदर्शनाल्यासदुर्विदग्धत्वेन प्रमादधरनाराक्रांतत्वेन च नष्टौं तत्वप्रीतिनीतिप्रचारौ यस्य स तथा तस्मिन् ॥ कलिकालमाहात्म्याकि प्राणिनां तत्वप्रीतिन्यायप्रवृत्तिश्चै नष्टा ॥
अर्थः -एज कारण माटे जगवते कहेला जे जीव अजीव श्रादि तत्व तेने विषेप्रीति एटले आ जे जगवते कह्यां ने एटलांज वस्तुताए तस्व पण कुतीर्थिक कहेलां ते तत्व नथी.ए प्रकारतो जे चित्तमा हर्ष ते प्रमोद कहीए, वली नीति कहेतां न्याय एटले सदाचार तेनो प्रचार एटले प्रवृत्ति ते नीति प्रचार कहीये ए वे कुदर्शनना अन्यासथी थर जे पोतानी अपसमजए तेथी, तथा प्रमादरूपी पर्वतना नारथी दबायां ले एटले जे पुरुषनां गयां के एवा पुरुष थये ग्ते कलिकालना माहात्म्यथी प्राणी तत्व प्रीति तथा न्याय प्रवृत्ति ते बे नाश पारयां . . टीका:-यमुक्तं ॥ कलौ कुमतसंस्कारवारपूर्णे नृणां हृदि॥ अवकाशमविदती, तत्वप्रीतिः श्रुता ध्रुवं ॥ नष्टाः श्रुतिः स्मृतिमुसा, प्रायेण पतिता द्विजाः ॥ मलेन नाशिताः शिष्टा,हा वृको वर्तते कलिः ॥
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कडं ने जे कलिकालने विषे घणा कुमतना संस्कारथी माणसनां हृदय नरायां डे माटे तेने विषेतत्व प्रीति पेसती (प्रवेश करती नथी तेथी निश्चेतत्वप्रीति नाश पामी इश्वरचं जे वचन ते वेद कहीए अथवा श्रुति कहीए तथा ते वच
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MO. अथ श्री संघपट्टका
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नने अनुसरतुं जे ऋषि वचन ते स्मृति कहीए ते श्रुति स्मृति बे पण लोप थयां केम जे तेना प्रवर्तक ब्राह्मण एटले ब्रह्मने जाणनार पुरुष ब्रह्मज्ञानी एटले आत्मा अनात्माने यथार्थ जाणनार ते पुरुष पतित थया. एटले अधम पुरुष थया ने जे लोकमां सारा पुरुष कहेवाता हता ते मेले करीने नाश पाम्या. एटले असाधु पुरुपना वचनमा विश्वासथी तेमना अंतरमा अनेक प्रकारे मल जराया माटे नाश पाम्या कहेवाय था वात खेद नरेली . अहो कलिकाल घणो वृद्धि पाम्यो बे.
टीकाः-तथा प्रसरन् । तथाविधगुरुसंप्रदायानावात् प्राउनवन् अनवबोधः सम्यक सिद्धांतापरिज्ञानं ॥ तेन प्रस्फुरंतः जन्मीलंतः कापथानां कुमार्गणामोघा:समूहास्तैः ।। स्थगितस्तिरस्कृत: सुगतेरपवर्गलक्षणाया. सो निष्पतिर्यस्य स तथा तस्मिन् श्दमुक्तं भवति संप्रति हि कालदोषेण बुद्धिमांद्यात् सातिशयगुरुसंप्रदायानावाच्च सम्यगागमार्थापरिज्ञानेन स्वस्वमतमास्थाय बहवः कुतीथिकाः प्रादुर्वृताः॥
अर्थः-वली यथार्थ गुरु संप्रदायनो अन्नावले. माटे प्रगट यतुं जे अज्ञान एटले सिद्धांतना अर्थनुं अजाणपणुं तेथी प्रगट
या जे कुमार्गना समूह तेणे करीने मोक्ष जेनुं लक्षण ने एवी जे सुगति तेनो मार्ग तिरस्कार पाम्यो एटले ढंकायो वे मोक्षमार्ग जेनो एवो प्राणीनो समूह थये ते लिंगधारीयोए था कुमार्ग चलाव्यो , ए प्रकारे शास्त्रमा का बे जे हालमां कालदोषे करीने बुझिनुं मंदपणुं माटे अने अतिशये सहीत जे गुरु संप्रदाय तेनो अनाव ठे माटे सारो आगमनो जे अर्थ तेनुं जाणपणुं नथी माटे
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अथ श्री संघपट्टका -
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पोते पोताना मन अंगीकार करीने घणा कुतीर्थिक लोको प्रगट थया .
टीकाः तेषां च परस्परविरुष्कानेककुमतशतश्रवणोद्यमानसंदेहदोलाधिरुढमनसः प्राणिवर्गस्य कुत: सुगतिः, नहि सा नेकमार्ग साध्या तात्विकसम्यक्ज्ञान दर्शनचारित्रात्मकैकमार्गसाध्यत्वात् तस्याः ॥ नच दोलायमानमानसानां वास्तवैकमुतिपयतत्वनिर्णयः ॥ तदनावाच्च कथं मुक्त्युपायानुष्टानसेवनं तदनावाच्च कथं मुक्तिरिति संप्रति इदानी किलेति संन्नावने॥ संजाव्यते एतद्यत्कलिकालानुन्नावात् संप्रत्येवंविधः प्राणिवर्गः ॥ इति वृत्तघ्यार्थः॥
अर्थःने तेमना परस्पर विरुद्ध एवा अनेक प्रकारना मन तेमनुं सेंकको वार जे सांत्नल ते थकी उत्पन्न थया जे संदेह, ते रूपी जे हिंचालो ते उपर बेटु डे मन जेनुं एवो, एटले एक वातनो निरधार थतो नथी, माटे अति चंचल जेनुं चित्त एवो प्राणीनो समूह तेने क्याथी सुगति थाय, केम जे ते सुगति बे ते अनेक मार्ग वमे सिक थती नथी, ते सुगतिनो यथार्थ सारा ज्ञान दर्श 'न ने चारित्र ते रूपज एक मार्ग,तेणे करीने साधवा योग्य ए हेतु माटे, ने जेमनुं चंचळ मन ले तेमने यथार्थ एक मुक्ति मार्गना तत्खनो निश्चय थतो नथी अने ज्यारे मुक्ति मार्गनो निश्चय न थयो त्यारे मुक्तिना उपाय रूप जे अनुष्टान तेनुं सेवन पण क्याथी थशे श्रने ज्यारे मुक्तिना उपाय रूप अनुष्टानगें सेवन न थयुं त्यारे मुक्ति पण क्याथी थशे इत्यादि वर्तमान कालमा ए वात संनवे जे कलिकासना महिमाथी ए प्रकारनो प्राणिःसमूह थयो देखाय ठे
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- अथ श्री संघपट्टका तेथी लिंगधारीयोए श्रा कुमार्ग चलाव्यो . ए प्रकारे बे काव्यनो संघाते अर्थ कह्यो.
टीका-श्दानी योग्यस्य श्रोतुः पुरतः साधुवेषकल्पिते पथि दशनि रैस्तत्प्ररूपितं धर्म प्रतिपादयन् तस्य च कर्म निर्मूलनाऽतमत्वं संभावयन्निदमाह ॥
अर्थः-हवे योग्य श्रोतानी आगल साधुवेषधारी लोकोए पोतानी मतिथी कल्पेला मार्गने विषे दशहारे करीने तेमणे प्ररू. पणा कों जे धर्म ते देखामे . ने ते धर्म कर्मने मूलमांथी उखेमवाने समर्थ नथी, एम संभावना करता बता श्रा काव्य कहे .
॥ मूलकाव्यं ॥ अत्रौदेशिकनोजनं जिनगृहे वासो वस्त्यऽदमा, स्वीकारोर्थगृहस्थचैत्यसदनेषप्रेक्षिताद्यासानं ॥ .. सावद्याचरितादरः श्रुतपथावज्ञा गुणिद्वेषधी,धर्मः कर्महरोत्र चेत्पथि नवेन् मेरुस्तदाब्धौ तरेत्॥५॥
टीका:-अत्र पथि अयं धर्मश्चेत्कर्महरो नवेत् तदा मेरुरब्धौ तरेदिति संबंधः ॥ अत्र अस्मिन् प्रत्यदोपलच्यमाने पथि लिंगिकदिधते मते धर्म औदशिकन्नोजनादिकः ॥ . अयं चेयदि कर्महरो झानावरणादिनिरासददो नवेत्स्यासदा तदानीं मेरुलायोजनयस पर्वतराजः ॥ अब्धौ सागरे तरेत् प्लवेत् ॥
अर्थः-आ लिंगाधारीये कल्पेला मार्गनो धर्म जो कर्मनो .
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(७२)
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अथ श्री संघपट्टका
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नाश करे तो मेरु पर्वत समुज्जमां तरे ए प्रकारे संबंधः, आ प्रत्यक्ष जणातो लिंगधारीये करपेलो जे मत तेने विषे औदेशिक लोजनादिक जे धर्म ते जो कर्मने हरे एटले ज्ञानावरणादिक कर्मनो जो नाश करवामां माह्यो होय तो लाख योजननो मेरु नामे पर्वतनो राजा ते समुनमा तरे, एटले जेम मेरु पर्वत समुअमां न तरे तेम लिंगधारीये कहेलो धर्म कर्मने न हरे. . .
. . टीका:-अयं च निदर्शनालंकारः ॥ अनवन् वस्तुसंबंध, उपमापरिकल्पक इति तसदणात् ॥ ततश्चात्र प्रस्तुतधर्मकमहरत्वयो मेरुसमुअतरणयोश्च संबंधोऽनुपपद्यमान उपमानोपमेयत्नावे पर्यवस्यति ॥ मेरोः समुअतरण मिव प्रस्तुतधर्मस्य कर्महरत्वं ॥ ततश्चायमर्थः ॥ समुझे पाषाणशकलमात्रस्यापि तरण मसंन्नवि, किंपुनर्मेरोः ॥ ततो यथा मेरो समुजतरण मघटमान मेव मस्य धर्मस्य कर्महरत्व मिति ॥
। अर्थ-निदर्शना नामे अलंकार थयो, तेनुं लक्षण अलंकार शास्त्रमा का उपमानी परिकल्पना करनार न थयेलो वस्तुनो संबंध ते निदर्शना नामे अलंकार कहीये माटे आ जगाये वर्णन कयों जे लिंगधारीनो धर्म तथा तेने कर्मनुं हरवापर्यु ए बे उपमेयं वस्तु बे. तेनो मेरुपर्वतने तथा ते पर्वतर्नु समुषमा तरवापणुं ए बे उपमान वस्तु ने तेमनो न भएलो एटले अघटतो जे संबंध ते जे ते उपमान उपमेय नावने विषे पर्यवसान पामे ने ए. टले स्थिति करे ले इति अलंकार विचार:-मेरु पर्वतनुं जेवू समुअमा तर तेनुं वर्णन करीशुं एवो लिंगधारी कहेलो धर्म तेने कर्मन हरखुमादे श्रीनावार्थ सिइथयो जे सनुजने विवे पापाराना
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3. अथ श्री संघपट्टक
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ककमाने पण तरवार्नु संजवतुं नथी तो मेरुपर्वतने न संजवे .तेमां शुं कहे ? जेम मेरुने समुख तर अघटतुं तेम था वेषधारीए कहेला धर्मने पण कर्मने हरवापणुं श्रघटतुंज ने.
टीका:-यत्र यस्मिन् पथि किं यतीनामौदेशिकजोजनादिर्धर्म इभ्यत इति सर्वत्र क्रियाध्याहारः । तत्र उद्देशेन वि. कटपेन यतीन्ममसि कृत्वा निवृत्तं निष्पादितम् औद्देशिकं ॥ कीतादित्वादिकः ॥ तच तद् नोजनं चाऽशनादि ॥ यद्यपि सिद्धांत औदेशिकशब्द उदमदोषद्वितीयलेदार्थः श्रूयते ॥ तथापी ह वक्ष्यमागतृतीयवृतार्थपर्यासोचनेन श्राधाकर्मिमके व
ते ॥ तस्यैवेह केवलयतिनिमित्तविधीयमानत्वेन महादोषतया विवक्षितत्वात् ॥ उद्देश निर्वृत्तत्वस्य च सामान्यव्युतत्त्यर्थस्योजयत्रापि समानत्वान् ॥
अर्थः-जे मार्गने विषे शुं ? तो यतिने आदेशिक नो. जन करवु ए आदिक अधर्म तेने विषे धर्म छेडे, एम सर्व जगाये क्रियापदनो अध्याहार करवो, त्या उद्देश शब्दनो विकल्प एटलो अर्थ ले. एटले यतिने मनमा राखीने नीपजाव्यु जे जोजन ते
औदेशिक कहीए ॥ व्याकरण विचार ॥ क्रीतादिकमां ए शब्दनो पाउ माटे श्कण प्रत्यय श्रावीने श्रौदेशिक शब्द सिक थयो ले माटे औदेशिक एहे जे अशनादिक नौजन त्यां सिद्धांतने विषे औदेशिक शब्द जे ते सोल उद्गम दोष ले तेनो बीजो नेद ।। ए प्रकारनो अर्थ सांजलीए बीए तो पण श्रा जगाए आगल क। हीशुं जे त्रीजु काव्य तेनो अर्थ विचारी जोतां श्राधाकमिकरूपि , अर्थ जणाय . आ जगाए केवल साधु निमित्त जे करेलुं होय ते.
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• अथ श्री संघपट्टकः
नोज महादोषपणे श्रगलं कद्देवानी इच्छा वे, माटे उद्देशें करी निपजायुं एवो जे सामान्य व्युत्पत्तिनो अर्थ ते तो वे जगाए सर खो तुम.
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टीकाः अत्र च यतीनामौद्दे शिकनोजनग्रहणे यथाबंदा उपपत्तिं दर्शयति ॥ पूर्वं हि अधरितधनाधिपकोशागाराणि चैत्यसाधुषु यडुपयुज्यते तदेवास्माकं वित्तमन्यदनर्थ इत्यध्यव - 'वसायव्यं जित देवगुरुनक्ति नराणि महीयांसि जूयांसि दानश्रद्धाश्राद्धकुलान्यवन् ॥ ततस्तेषु कुलेषु तत्कालीनयतीनां प्रासुकैषणीयेनापिनैदयेण निराबाधं निर्वाहोऽजविष्यत् ॥
अर्थ:-श्रा जगाये साधुने प्राधाकर्मिक जोजन ग्रहण कर वामां स्वेछाचारी लिंगधारी पुरुषो सिद्धांतथी विरुद्ध पोतानी म ति कल्पनाथ युक्ति देखाने बे, जे पूर्वेना. कुबेर भंकारीनो
कारने तिरस्कार करे एव धनाधिपति श्रावकनां कुलं हता. एम जालता हता जे आपणुं द्रव्य जेटलं चैत्य साधु निमित्त वप 'राशे तेटलुंज सार्थक बे, ने बीजुं तो निरर्थक बे ए प्रकारना अध्य वसाथी देवगुरुनी प्रक्तिना समूह जेणे प्रगट कर्यो के एवां तिशे मोटा घणांक दान धर्मने विषे श्रद्धावालां श्रावकनां कु हतां, ते हेतु माटे ते कुलने विषे ते कालना साधुने प्रासु एष पीय निकाये करीने एटले निर्दोष श्राहारे करीने पण निराबाध निर्वाह तो हतो पण.
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टीका:- अधुना तु दु:पमा कालदोषात् दुर्भिक्षराजोपद्रवपरचकादिप्राचुर्येण दरिद्रतामत्पतां च गच्छत्सु तथा विध
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अथ श्री संघपट्टका
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हननशक्ति विकलानां शुद्धेन जक्तादिना संयमयात्रानिर्वाह नावे यदि कश्चिदानश्रध्धालुस्ती व्यवच्छेदमिच्छः श्रावकः श्रमसंघनिमित्तनिर्वृत्तनतादिनापि धर्माधारशरीरमुपष्टंनये तदा को दोषः ?
अर्थः हमणां तो कुःखमा कालना दोषथी दुकाल तथा राजानो उपव तथा परचक्रादि (शत्रुना सैन्यनां युध्धादि) कारणथी ते श्रावकनां कुल दरिखपणाने तथा अल्पपणाने पाम्यां ने माटे तेने विषे श्रा कालना ते प्रकारनी संघयण शक्तिये रहित एवा साधुने शुद्ध नक्तपानादिक करीने संयमयात्रानो निर्वाह नथी थतो माटे एज निमित्त कोश्क दान श्रद्धावालो ने तीर्थनो उबेद न थाय एम श्वतो एवो जे श्रावकने साधुनिमित्त निपजाव्यु जे नो. जनादि तेणे करीने पण धर्मनुं आधारलूत एवं शरीर तेनु उपष्टंन करे एटले साधु शरीरनो निर्वाह करे तो तेमां शो दोष ने अर्थात् कांश पण नथी.
टीका-आत्मा च यतिना यथाकथंचन रक्षणीयः ॥ धर्मसाधनत्वात् ।। यउक्तं ॥ सव्वथ्थ संयम संजमाउ अप्पाणमेवरक्खंतो । मुच्च अश्वायायो पुणो विसोही मया विरई॥
अर्थः-साधुएजेते प्रकारे श्रात्मा राखवो, एटले पाप लागे तो पण श्रात्मानी रक्षा करवी. जे माटे शास्त्रमा कडं. जे सर्व जगाये संयमनी रक्षा करतो ने संजमथी श्रात्मानी रक्षा करतो एवो जे पुरुष ते पापथी मुकाय डे फरीथी शुद्ध थाय डे पण अं विरति नयी थतो एटखे चारित्रथी-रहित नथी थतो... ..
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8. अथ श्री संघपट्टका - टीकाः-तथा कथंचित् रूक्षनक्तादिदातृसपनवेपि घृतादिव्यतिरेकेणाद्यतनयतीनां शरीरधारणानुपपत्तेः ॥ तत्कृते घृतादिनिश्रापि केनचित्पुण्यात्मना श्रान विधीयमाना समीची नैव प्रतिजासते ॥
अर्थ:-वळी कोश्क प्रकारे तु जोजनादिकना देनार मले पण घृतादिक विना था काखना साधुने तेथी शरीर धारण थप शकतुं नथी, माटे ते शरीर धारण करवाने अर्थे घृतादिकनी निश्रा पण कोश्क पुण्यात्मा श्रावके करी होय ते तीकज के एम जणाय .
टीका:-किंच ॥ यथाकथंचित् साधुनिः श्राजानां श्रमायद्धये अशुद्धमपि ग्राह्यं ॥ तथैव तेषां पुण्योत्पत्तेः॥
अर्थः-वली शुं ? तो जैते प्रकारे साधुये श्रावकनी श्रद्धा वधवाने अर्थे अशुद्ध पण ग्रहण कर, केम जे तेवीज रीते ते श्रावकने पुण्यनी उत्पत्ति थाय ले ते माटे.
टीका-तदुक्तं । अनेन पात्राय नियोजितेन स्यानिर्जरा मे वसुनाधुनेति ॥ बुद्ध्या निराशंसतया ददानः पुण्यं गृहस्थः पृथु संचिनोति. - अर्थः ते वात शास्त्रमा कही जे, पात्रमा श्राप्यु जे आ धन तेणे करीने मारे हमणां निर्जरा थशे ए प्रकारनी बुद्धिए करीने को प्रकारनी वांग रहित आपतो जे गृहस्थ ते घणुं पुण्य उपार्जे के.
टीकाः परोपकारश्चायं स्वकार्यमुपेक्ष्याप्यवश्यं कर्त्तव्यः
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अर्थ श्री संघपट्टाः
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॥ ययुक्तं॥ नियकजं यरकऊंव, जे पमुतूण के विरइंतिपरकहां नियकजं व, ते सु सप्पुरिसया वसर
अथः ने श्रा परोपकार तो पोतानुं कार्य मूकीने पण अवश्य करवा योग्य बे, जे माटे शास्त्रमा कडु जे जगतमा केटलाक पुरुषो परकार्यनी पेठे पोतानुज कार्य मुकीने पोताना कार्यनी पेठे पारकुं कार्य करे ले एवा परोपकारी पुरूषने विषे सत्पुरुषता निवास करे बे.
टीका-तस्माद्यतीनामाधाकर्मिकनोजनमऽष्टं, संयमशरीरोपष्टंलकत्वात् ।। कटपग्रहणवत् ॥ शुकनोजनवछा ॥ तथा यतिनिराधाकर्मिकनोजनं विधेयं, श्राद्धश्रद्धावृधिहेतुधर्मदेशनवत् ॥ इति प्रयोगावप्युपपद्यते ॥ .
अर्थः-ते हेतु माटे यतिने आधार्मिक जोजन कर ते निर्दोष ने केम जे संजम शरीरने राखनार ने ए हेतु माटे कल्प (वस्त्र) ग्रहण पेठे, एटले जेम वस्त्रादि ले ते संयम शरीरनुं पुष्टाखंबन बे, तेम आधार्मिक नोजन पण डे, अथवा जेम शुलोजन शरीर संयम शरीरने राखनार , तेम आधार्मिक नोजन पण ने. वली तेमज साधुए श्राधाकर्मिक नोजन पण करवा योग्य बे, केम जे श्रावकनी श्रमा वधवामां कारण ए हेतु माटे धर्म देशनानी पेठे जेम धर्म देशना , ते श्रावकनी श्रद्धा वधवामां कारण ले माटे साधुने करवा योग्य , तेम ए प्रकारे अनुमान प्रमाणना पण बे प्रयोग श्रा स्थलमा सिक थाय . . - टीका:-तथा जिनानामर्हतां गृहमायतनं तत्र वासः
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अथ श्री संघपट्टकः
सर्वदावस्थानं ॥ इह केचित् सप्तशीलतयोद्यत विहारं कर्तुमशक्नुवंतो यतीनां चैत्ये सर्वदावस्थानं युक्तमिति प्रतिपेदिरे।
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अर्थः- वली जिनराजनुं घर एटले चैत्य तेमां साधुने निरंतर रहेतुं एमने लिंगधारी साधुनो धर्म देखाने बे, तेमां केटलाक श्रतिसुखसी लिया थया े ते माटे जय विहार करवाने समर्थ या माटे साधुने निरंतर चैत्यमां रहेतुं ते युक्त बे, एम अंगिकार करे बे, तेमां सिद्धांत विरुद्ध नाना प्रकारनी युक्तिर्ड देखाने बे.
टीका:- तथाहि श्राधुनिकमुनीनां चैत्यवासमंतरेण उद्यानवासो वास्यात्, परगृहवासो वेति द्वयी गतिः ॥ तत्र परगृहवासोऽये निराकरिष्यते ॥ स्त्रीसंसक्त्याद्याधाकर्मिकादिदोषकलापभावात् ॥
अर्थ:-ते युक्ति टीकाकार कही बतावे छे. जे या कालना सुनिने चैत्यवास विना उद्यानमां रहेतुं अथवा परघरमा रहेवुं ए वे प्रकारनी गति बे, तेमां स्त्रीनो संसर्ग थाय तथा प्रधाकर्मिकं यदि घला दोष उत्पन्न याय ए हेतु देखामीने परघर रहेवानुं श्रागल खंकन करीशुं ने उद्यानमां रहेवानुं हाल खंगन करीए बीए.
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टीका:- उद्यानवासो यतीनां युक्त इति चेन्न ॥ तत्रापि नूतनचूतांकुरास्वादकूजत्कलकंठपंचमोद्गारेण उन्मीलचि किलब कुलमालती परिमलेन च समाहितमनसामुत्कलिकादर्श: नात् ॥ पंचमोद्गारादीनां चोही पन विजावकत्वेन जरतादिशास्त्रेः ऽनिधानात् ॥
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:: प्रर्थः - लिंगधारी सुविहित प्रत्ये जे बोल्या तमे साधुने उद्यान
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अथ श्री संघट्टक
(७३)
मां रहेवानुं युक्त कहता हो तो ते वात युक्त नथी केम जे त्यां पण नवो बानो अंकुर तेनुं जक्षण करवाथी मधुर स्वर बोलती जे कोयल तेना पंचम स्वर एटले सात स्वरमां पांचमो कामोद्दीपक स्वर तेना उल्लासे करीने तथा चारे पास प्रसरतो एवा प्रफुलित मालती यादिना सुगंधे करीने वश करेलां एवां पण मन बहुल मोकला थाय एवं देखाय बे ए हेतु माटे ने पंचम स्वरनो उलास ते कामोद्दीपन थवानुं कारण वे एम भरतादि शास्त्रमां क हेतु म.
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टीका:- तथ चित्री मिषागतकामुकका मिनी संकुलत्वेन च स्त्री संसक्त्यादेरपि तत्र जावात् ॥ अथवा माभूवन्ननवरत शास्त्राच्या सपरावर्त्तनादिपराणां यतीनामेतान्या दोषाः ॥ - तथापि लोकसंचारशून्योद्याननूमौ वसतां चरटतस्करां दिनिरुपकरणापहारस्यापि संजवात्, तदपहारे च शरीरसंयम विराधनाप्रसंगात् ॥
अर्थ:- वली क्रीमा करवानी इडाए त्यां थव्यां जे कामी पुरुष ने कामिनी स्त्रीयो तेसे करीने व्याप्तपणुं वे माटे स्त्रीना' संबंध श्रादिकनो पण त्यां संभव बे ॥ श्रथवा निरंतर शास्त्रनो श्रन्यास तथा गण ए श्रादिकने विषे तत्पर एवा मुनिने ते उद्यान संबंधी दोष म था तो पण लोकना संचारथी रहित ते उद्यान जूमिने विषे रहेता जे मुनि तेमनां उपकरण पण नील चोर श्रादिक श्रा वीने हरशे एवो संभव बे माटे ते ज्यारे उपकरण गयां त्यारे शरीरनी तथा संयमनी विराधना थवानो प्रसंग प्राप्तं चाय ए हेतु माटे मुनिने उद्यानमा रहेनुं घटतुं नथी.
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(१०) 18. अथ श्री संघपट्टकः. टीका-यनूद्यानवास श्रागमे श्रूयते सोऽनापातासंलोकगु
कहारोयानविषयस्तस्य च प्रायेण कलिकाले लोकस्य राज: .. 'चौरचरटायुपप्लवैर्बाधितत्वेन दौस्थ्यादसंजव एवेत्यद्यान
वासः ! कथमधुनातनमुनीनां कटप्यमानः शोनते ? तस्मादिदानी जिनग्रहवास एव साधूनां संगत: प्रतिनाति. :
अर्थः-ने जे उद्यानवास आगममा संनलाय ले ते तो जेमां लोकनो आवरो न होय गुप्त एक द्वार होय. एवा उद्यानमा यतिने रहेढुं एवो शास्त्रनो अभिप्राय बे ने बहुधा तो ते प्रकारना उपनवे करीने लोक दुःखित थया . तथा दरिति थया , माटे संन्नवतुज नथी. तेथी था कालना मुनिने उद्यानवास कटपे एबुं जे कहे ते केम शोने ? नज शोने. माटे श्रा कालमांना साधुने चैत्यमांजरहेवु ए पक्ष सारो घटतो जणाय .
टीका:-न च तत्र श्राधाकर्मिकादयो दोषाः ।। तथ च प्रयोगः । चैत्यमिदानीतनमुनीनामुपन्नोगयोग्यं ॥ आधाकर्मादिदोषरहितत्वात् ॥ तथाविधाहारवत् ॥ नचायमसिको हेतुः ॥जिनप्रतिमार्थ निष्पादित श्रायतने आधाकर्मादिदोषोनव
काशात् ।। यत्यर्थ क्रियमाणे हि तस्मिन्स स्यात् ॥ ". अर्थः-ने त्यां श्राधा कर्मिश्रादि दोष पण जगाता नथी ने वली अनुमान प्रयोगथी ए वात सिह थाय ॥ते उपर न्यायशास्त्र विचार जे चैत्य था कालना मुनिने उपनोग करवा योग्य , श्राधाकर्मादि दोष रहित ने ए हेतु माटे जेम श्राधाकर्मादि दोष रहित श्राहार मुनिने जोगववा योग्य , तेम चैत्य पण श्रा 'कालना मुनिने जोगववा योग्य ॥ पण था हेतु असिद्ध नथी
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अथ श्री संघपट्टक
( ८१ )
केन जे जिन प्रतिमाने श्रर्थे निपजावेला स्थानकमां श्रधाकर्मादि दोषने पेसवान वकाश पण नथी माटे अनुमान निर्वाध बे, केम जे मुनिने कर्यु होय तो तेमां ते श्रधाकर्मादि दोष होय ने या तो मुनिने यें कर्यु नथी माटे श्राधाकर्मी दोष नयी.
टीका:- तथागमोक्तत्वमप्यस्यास्ति ॥ तथा चागमः ॥ " निस्सककम निस्सकमे” वावि चेइए सव्वहिं थुई तिन्निवेलं व वेश्याशि व नाउं क्कि किया" वि ॥
अर्थः- तेमज श्रागममां कहुं बे जे निश्राकृत तथा अनिश्राकृत ए सर्वे चैत्योमां त्रण थुइ देवी बाकी असुर थती होय - थवा काका चैत्यो होय तो एक एक थुइ पण पाय डे.
टीकाः ॥ यत्र हि निश्राकृतव्यपदेशात् चैत्यवासः साधूनां सिध्यति ॥ अन्यथा यत्र साधूनां निश्रा तन्निश्राकृतमित्यन्वर्थानुपपत्तेः ॥ तन्निवासेनैव तन्निश्रायाः संभवात् ॥ यदि च साधूनां तत्र वासो न स्यात् तदाऽनिश्राकृतमेवैकं चैत्यं जवेत् ॥ श्रन्यस्य निश्राकृतपदवाच्यस्यानुपपत्तेः ॥
अर्थः- या शास्त्र वचनमां निश्राकृत एवं चैत्य एम कहेवापडे, ए हेतु माटे साधुने चैत्यवास सिद्ध थयो. ने जो एम न कहीए तो जे साधुनी निश्राये कर्यु ते निश्राकृत कहीए ए प्रकारना साचा अर्थनी सिद्धि न थाय ए हेतु माटे साधुना निवासे करीनेज साधुनी निश्रानो संजय वे, ने जो साधुनो निवास चैत्यमां न होय तो निश्राकृत एवं एकज चैत्य कहेत, माटे निश्राकृत पदवमे कहेलुं जे बीजुं चैत्य तेनी सिद्धी न थाय ए हेतु माटे साधुने चैत्यमा रहेवानुं सिद्ध ययुं.
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(२)
* अर्थ श्री संचपक्का
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- टीका:-तथाच निश्राकृतपदवाच्यस्य शशविषाणायमानत्वेनानिश्राकृततुल्यकक्षतया तत्र वंदनानिधानमपि कथं घटामटाट्यते॥ तस्मात्तव्यपदेशान्यथानुपपत्त्यैव यतीनां तत्र वासो ऽवसीयते ॥
अर्थः-ने वली ससलानां शींगमानी पेठे वस्तुताये निश्राकृत चैत्यज नथी ने निकेवल अनिश्राकृत एवं जे एक चैत्य दे, एम अंगिकार करो तो निश्राकृत चैत्यने विषे वंदननुं जे कहेवू ते कीये प्रकारे घटशे, निश्राकृत चैत्यनो अंगीकार नहीं करोतो तेतुं कहेवें व्यर्थ थशे माटेज निश्चय करीए बीए जे साधुने चैत्यमा रहेवा, ने,
टीकाः-तथा संन्नावणे विसदो देवलियखरंटजयणजवएसो इत्याद्यागमे ग्लानप्रतिजागरणचिंतायां देवकुलिकशब्दादपि चैत्यवाससिफिः देवकुलिकनिवासमंतरेण देवकुलिकव्यपदेशानुपपत्तेः। नहि ग्रामानावे सीमाविधानं नामेति लौकिकन्यायाला एवं चैवमाद्यागमवचनप्रामाण्यादागमोक्तत्वमप्यस्येति निश्चीयते ॥
अर्थ:-वली संन्नावण इत्यादि आगम गाथाने विष देवकुलिक शब्द कह्यो , ते देवकुलिक शब्दथी पण चैत्यवासनी सिद्धि थाय बे, केम के देवकुल कहेतां देवालय ते जेमने ते देवकुलिक कहीए, एटले देवमंदिर वाला एटलोअर्थ थयो, देवमंदिरमां निवास कर्या विना देवमंदिरवालो एम कहेवू न घटेते उपर लौकिक न्याय देखामे वे जेम के गाम विना सीमामानुं क ते निश्चे होय नहीं ए प्रकारना लौकिक न्यायथी चैत्य निवास कर्या विना चैत्यवालाअमुक पुरुषो एवो व्यवहार होय नहीं. एवं कहेतां ए प्रकारना
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-8. अथ श्री संघपट्टका
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लौकिक न्यायथी तथा एवमादि केहेतां था कडं इत्यादि श्रागम वचनना प्रमाणपणाथी ए चैत्यवासने श्रागमोक्तपणुं जे एम निश्चय करीए बीए.
टीका-तथा च प्रयोगः ॥ चैत्यनिवास श्दानीतनमुनीना मुचित आगमोक्तत्वात् ॥ चैत्यवंदनवत्. ॥ नन्वेवमपि सिकांतान साक्षात् चैत्यवासः सिष्यति॥ विधेयतया तस्य, क्वचिदप्यननिधानादिति चेत् । सत्यमेवं तर्हि गीतार्थाचरि
तत्वा दयमुपपत्स्यते ॥ तथाच साधूनां जिनन्नवनवासो • विधेयः । गीतार्थाचरितत्वात् । चतुर्थ्यां पर्युषणापर्ववत् . नचायमसिद्धों हेतुः ॥ गीतार्थाचरितत्वस्योजयत्रापि प्रती
तत्वात् ॥ तथाहि ॥ श्रीमदार्यरक्षितपादैनगवति महावीरे निश्रेयससौधमध्यासीने गीतार्थानां 'बलमेधासंहननधैर्यादिहानि पृष्टवंशादिसहितवसतिव्यवछेदं चोपलच्य चैत्यवासो यतीनामाचरितः. . . . . . . . . . . . . . .
अर्थः-ते उपर अनुमान प्रयोग करी देखामे जे जे साधुये जिनलुवनमा वास करवो केम जे गीतार्थ पुरुषोए आचर्यो ने ए हेतु माटे चोथने विषे पर्युषणा'पर्व करवानी पेठे. एटले जेम चोथने विषे गीतार्थ पुरुषे पर्युषणा पर्व कयु ले. ते.साधुने करवा योग्य डे तेम चैत्यवास पण करवा योग्य , ने श्रा हेतु अंसिक पण नथी केम जे गीतार्थ पुरुषे जे आचर्यु ते वादि प्रतिवादि ए बेने प्रसिद्ध पणे मानवा योग्य ॥ ते देखामे जे जे नगवान् महावीर स्वामी मोक्षरूपी महेलमां पधार्या पठी श्री आर्यरक्षित आचार्ये गीतार्थ पुरुषनां वलबुद्धि, शरीरनां संघयण, धैर्य आदिकनी हानी जोश्ने
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(८४)
अथ श्री संघपट्टका
तथा लक्षण युक्त जे साधुने रहेवानां स्थान तेनो उच्छेद थयो एम जाणीने साधुने चैत्यवास कराव्यो रे.
टीकाः कुत एतदवसितमिति चेत् ॥ आप्तोपदेशात् ॥ तथाहि ॥ वाससपहिं वीसुत्तरोहि, सिडिं गए महावीरेजिनं च जणं, पिहीवंसाश्यं गणं ॥ वलमेहाबुद्धीणं, हाणिं नाऊण सुविहियजणस्त ॥ चेश्यमग्ावासो पकप्पिो बजारस्केहिं॥
अर्थः-वली लिंगधारी सुविहित प्रत्ये वोल्यो जे, जो तमे एम कहेता हो जे क्याथी ए वातनो निश्चय कर्यो ? तो कहीए बीए जे हितकारी मोटा पुरुषना उपदेशथी ते देखामीए बीए जे महावीर स्वामी सिकि गया पठी उसे ने वीश वर्ष थयां त्यारे यतिने रहेवा योग्य स्थानक जच्चिन थयां ने सुविहित जननां बल, बुद्धि, अने मेधानी हानि थई ते जाणीने आर्यरक्षित आचार्ये चैत्यमां निवास कल्प्यो .
टीका न चागमाविरोधिन्याचरणा प्रमाणं, श्यं तु न तथेति वाच्यं श्रागमाविरोधस्य निस्सकनेत्यादिना समर्थितत्वात् ॥ गीतार्थाचरणा चागमं प्रमाणेयनिरवश्यमन्युपेतव्या ॥ पक्कं ॥ अवलंबिऊण कऊ, किंची श्रायरंति गीयथ्था । थोवावराहबहुगुण, सहेसि तं पमाणंति
अर्थः-वली लिंगधारी-सुविहित प्रत्ये कहे जे जो तमे एम कहेता होजे श्रागमने विरोध न आवे एवं आचरण प्रमाण से अने बातो तेवी रीते नथी माटे प्रमाण नथी तो तेनो उत्तर
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(८१)
48 अथ श्री. संघका
जे श्रागमनी साये विरोध नथी ए प्रकारे निस्सकम इत्यादि शास्त्र वचने करीते यात साथै मनो चैत्यवास के एवं प्रतिपादन पूर्वे कर्युबे ने गीतार्थं श्राचरण श्रागमने प्रमाण करनार पुरुषने - वश्य प्रमाण करवा योग्य डे. जे माटे शास्त्रमां कहां बे ने गीतार्थ जनो ज्ञानादिरूप कार्यं श्रालंबन करीने जे कांइ पण कार्य करे वे. तेमां थोमो अपराध अने घणो गुण रह्यो बे माटे ते सर्वने प्रमाणरूप बे.
टीका :- इति जगवत्प्रतिपादितमुमुक्कुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपागमश्रुतादिव्यवहार पचंकांतःपात्यागम विरुद्धाचरणानत्र्युपगमे च भगवदप्रामाण्यसंजनात् ॥ तथाच जगवदाशातनाप्रसंगात्
अर्थः- हेतु माटे जगवाने प्रतिपादन कर्या जे मुमुक्षुने प्रवृत्ति निवृति रूप श्रागम श्रुतादि रूप पांच व्यवहार तेमांनुं श्रागमी विरोध श्रावे एवं जे आचरण तेनो अंगीकार नहीं करो तो भगवानने पण अप्रमाणपणानी प्राप्ति थशे माटे, वली नग वाननी श्राशातना थवानो प्रसंग थो ए हेतु माटे
टीका:- श्राचरितलक्षणस्येहोपपत्तेः ॥ तथा चागमः ॥ असढेण समाइन्नं जं कथ्यई केई असावऊं न निवारियम • हिं, बहुगुणमणुमयमाय रियं
अर्थ:-शिष्ट पुरुषे जे आचरण कर्तुं ते श्राचरण लक्षणनी सिद्धिबे, एटले शिष्ट पुरुषना सरखुं श्राचरण करवुं ते युक्त बे, ते उपर शास्त्रनुं प्रमाण बे, जे शवभाव विनाना जे पापरहित मोटा पुरुष तेमणे ज्यां जे कंडक श्राचरण कर्युते निर्दोष ठे
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( ८६ .)
- अथ श्री संघपट्टकः 8
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माटे बजाए द्रव्य क्षेत्र काल भावना अनुमाऩनी अपेक्षाये घणो गुण जाणी निवारण कर्यु नथी तो ते आचरण कल्पे बे, एटले करवा योग्य बे.
टीका:-यं च न तावच्छ हैः समाचीर्णो, द्रव्यक्षेत्र काला"द्यपेक्षया गुरुलाघव चिंतया धार्मिकैरेवास्य प्रवर्त्तितत्वात् ॥ • नाप्ययं सावद्यः सावधं हि पापं तच्च जीववधादि ॥ नच यतीनां चैत्यवास विधौ जीववधादिकं प्रयत्नेनान्वेषयं तोष्युपलनेमहि ॥ निरवद्यत्वादेवं च न बहुश्रुतैस्तत्काल ना विनिर्गीतार्थैर्निवारितः अतएव बहूनां धार्मिकाणामनुमतः ॥
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अर्थः-ने या जे चैत्यवास बे ते शठ पुरुषोए याचर्यो नथी ए तो द्रव्य क्षेत्र कालादिकनी अपेक्षाये गुरु लाघवना विचारथी एटले aharaj ने गुण घोवा विचारथी धार्मिक पुरुषोयेज ए चे - त्यवासनी प्रवृत्ति करीबे, ए हेतु माटे, वली या चैत्यवास बे ते सावध पण नथी केमजे अवद्य जे पाप तेतो जीववधादिक बे, ने सुनिने चैत्यवास करतां कां जीव वधादिक पाप प्रयत्नथी खोलतां पण नथी जगतुं, माटे ए चैत्यवासं निरवद्य वे ए हेतु माटेज ते काले थला बहुत गीतार्थ पुरुषोष निवारण कर्यो नथी ने एहीज कारण माटे. धार्मिक पुरुषोने चैत्यवास करवानो संगत बे.
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टीका: - सिद्धांत निकषपट्टानां विरचितानेक श्रुतोद्धारसारशास्त्रासां श्री हरिजसूरीणां तथाप्रवृत्तिश्रवणात् ॥ स्वरचितयंथेषु चैत्यवासप्रतिपादनेन च तथाप्रवृत्तेस्तैः सत्यापनात् ॥ ॥ तथाच तद्ग्रंथः ॥ जिबिंवपइथं श्रहवा तकम्मतुवति ॥ तथा जिविस पहा साहुनिवासो य इत्यादि ॥
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-g. अथ श्री संघपट्टा
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(८७)
AAMAAAAAnam
. अर्थ:-श्रने सिद्धांतनी कसोटी समान, अने रच्यां ने अनेक
आगमना उझारथी श्रेष्ट शास्त्र जेणे एवाश्री हरिनमसूरी तेमनी प्रवृत्ति संजलाय जे जे हरिजलसूरिए चैत्यवास को हतो केम जे पोताना रचेला ग्रंथोने विषे चैत्यवासन प्रतिपादन कर तेणे करीने चैत्यवासनी प्रवृत्ति के ते तेमणे जे सत्य थापी डे ए हेतु माटे चैत्यवास करवो वली या तेमना ग्रंथनुं वचन , जे जिनविंबनी प्रतिष्टाने अर्थे अथवा जिन कर्मतुल्य, तथा जिनबिंबनी प्रतिष्टाने त्यां साधु निवास ने इत्यादि
टीका-देयं तु न साधुज्यस्तिष्ठति यथा च ते तथा कार्य। अक्षयनीव्या ह्येवं, शेयमिदं वंशतरकांममिति
अर्थः-चैत्य साधुने आपी न दे, जेवी रीते ते साधु रहे तेम करवू अक्षय नीवीये करीने एटले मूल धननो नाश न थवा देवो, ए प्रकारे जे करवं ते वंशतरकांम जाग, एटले वंश परंपराए चाट्युं जाय.
टीका:-तथा समरादित्यकथायामपि जिननवनांतर्गतप्रति-.. श्रयस्थितायाः साध्याः केवलोत्पादप्रतिपादनात् ॥ तथाधु-: निकमुनीनां बहूनां चैत्यवासप्रवृत्तिदर्शनात् ॥ यदि ह्ययं । गीतार्थानां नानुमतः स्यात्तदा कथमकवाक्यतया सर्वत्राऽप्र- " तिहतप्रसरः प्रवर्त्तते
अर्थः-वली समरादित्यनी कथामां पण जिननवननाअंतर्गत जे प्रतिश्रय तेमा रहेली जे साध्वी तेने केवलज्ञान उत्पन्न थडे ठे एम प्रतिपादन कर्यु ले ए हेतु माटे. वली आधुनिक घणा
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(८८)
-48. अथ श्री संघपट्ट
Drama
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मुनि चैत्यवास करे ने तेनी प्रवृत्तिनुं देखवापणुं माटे. जो ए चैत्यवास गीतार्थाने संमत न होत तो केम एक वाक्यपणे सर्व जगाये निरंतर तेमनो पातार प्रवर्ते ले ? एटले जो चैत्यवास नज करवानो होत तो सर्वे गीतार्थोनुं वचन तथा प्रवर्त्त, ते एक साथे मलतुं केम आवत ?
टीकाः न च विशेषदोषोपलंनमंतरेण गीतार्थाचरितमप्रमाणीकर्तुं युक्तं ॥ नापि विरुषः साध्यविपर्ययाव्याप्तत्वात् ।। नहि गीतार्थाचरितत्वं यत्यविधेयत्वेन व्याप्तं ॥ तथासति पर्युषणाया अपि चतुर्थ्यामकरणप्रसंगात् ॥ नाप्यनैकांतिकः वि. पकेऽगतत्वात् ॥ नहि गीतार्थाचरितवं यत्य विधयेप्यनुष्ठाने गतं ॥ प्राणातिपातादीनामपि गीतार्थाचरितत्वेन हि तत् स्यात् ॥ न चैवमस्ति
अर्थः-माटे विशेष दोषनी प्राप्ति विना गीतार्थ पुरुषर्नु आ.. चरण अप्रमाण करवू ते युक्त नथी. ते उपर न्याय शास्त्रनो विचार जे, चैत्यवास साधुने करवा योग्य . गीतार्थ पुरुष आचरण कयों ए हेतु माटे ए प्रकारना अनुमान प्रयोगने विषे जे हेतु ले ते वि. रुद्ध नथी एटले खोटो नथी केम जे साधुने न करवायोग्य जे वस्तु तेमांगीतार्थना आचरण रूप जे हेतु ते होय नहीं माटे जे गीतार्थन श्राचरण ते साधुने करवा योग्य डे, ने जो एम न मानता हो तो चोथने विषे पर्युषणा पर्व करोगे तेने न करवानो प्रसंग प्राप्त थशे. वली अनुमान प्रयोगने विषे जे हेतु डे ते एकांतिक पण नथी एटले खाटो नथी केम जे यतिने न करवा योग्य जे अनुष्ठान मात्र ते रूप में विपक्ष तेने विषे गीतार्थाचरणरूपं जे हेतु ते वे
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अथ श्री संघट्टक
(<)
ही माटे, ने जो प्राणातिपातादिकनुं गीतार्थ आचरण करता त तो ए हेतु विषमां गयो कहेवात, माटे एम तोबे नहीं, तेथी अनुमान प्रयोग निर्दोष सिद्ध भयो.
टीका:- ॥ किंच, यतीनां चैत्यवासमंतरेण सांप्रतिकजिनजवनानां हानिः स्यात् ॥ तथाहि ॥ पूर्वं कालानुनांवादेव श्रीमंतोऽव्यग्रचेतसो देवगुरुतत्वप्रतिपत्तिभर निर्भरतया ह्येतदेव परं तत्व मिति मन्यमानाः श्रावकाचैत्यचिंत्यचिंतां परमादरेणाऽकरिष्यन् ॥ सांप्रतं तु दुःषमादोषा नक्तंदिवं कु 'टुंब संबल चिंता संतापजर्जरितचित्ततयेतस्ततो धावतां प्रायेण दुर्गतानां श्राद्धानां स्वजवनेध्यागमनं दुर्लनमास्तां जिनमें - दिरे तथाच कुतस्त्या तत्समारचनादिचिंता तेषां
अर्थ:- वली यतिने चैत्यवासविना या कालनां जिनजवननी हानि थाय. तेज देखा मे बे जे पूर्वे कालना महिमाथीज जे श्रीमंत लोक हता ते व्यग्र चित्तवाला न हता. ने देवगुरु तत्वनी घणी नक्ति नरेला इता, ने ते देवगुरुने एज परमतत्व बे एम मानता एवा जेने श्रावक ते चैत्य संबंधी चिंताने परम दर क रता ने दालमां तो दुःखमा कालना दोषयी रात्रि दिवस कुटुंबनुं भरणपोषण करवानी चिंताना संतापयी चाकुल व्याकुल चित्तवाला थया े. ए हेतु माटे चारे पास दोमता ने बहुधा दरिद्रि एवा श्रावक लोकोने पोताने घेर परा वकुं दुर्जन बे तो जिनमंदिरे श्राववानी वाततो बेटे रही, माटे ते जिनमंदिरने समारखं इत्या दिक चिंता तो तेमने क्यांथीज होय ?
टीका:-- श्रीमतां तु प्रतिक नमदाल सवार विलासिनी घन
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१९०)
अथ श्री संघपट्टका
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commission
सारशबलमलयजरसपंकिलपीनकुचकलशपीग्दुग्नीलितानां निरंतरमेव तुरिज़रिसिप्सया पार्थिवसेवाहेवा किनां जिनगृहावलोकनमेव न संपद्यते, दूरे तचिंता ॥ तदनावे च कालेन जिनसदनानां विशरारुता स्यात् ॥ तथाचतीर्थोच्छित्तिरापनीपद्यते __ अर्थः-आ कालना श्रीमंत श्रावक लोकोने तो ते चैत्य चिंता क्याथीज होय ? केम जे ते तो क्षणे कसे पोताना रूपादिक गुणनी केके करीने आलसु एवी जे वेश्याओ तेमना बरास कपुरवती मिश्रित जे मलयचंदननो रस तेणे करीने व्यात थएला अने पुष्ट थएला जे स्तन कलश ते रूपी पीउने विषे लोट पोट थता एटले केवल विषय शक्ति ने ते धर्म कार्य नथी करी शकता तेथी दरिखी जेवा . ने केटलाकने तो निरंतरज घणी घणी 'अव्य पामवानी वाये करीने राजाओनी सेवा करवानी कुटेव पनी जे. एवा ते गृहस्थ श्रीमंत लोकोने जिन नवननुं देखज नयी थतुं, तो तेनी चिंता तो बेटे रही ने ज्यारे ते जिननवननी चिंतान रही त्यारे सार संजाल विना काले करीने जिन नवननो विनाश थाय ने ज्यारे जिनन्नवननो विछेद थयो त्यारे तीर्थनो विवेद एनी मेलेज आवी पड्यो एम जाणवं.
टीका:-चैत्यांतर्वासे तु यतीनां तदुद्यमेन तरिकालं जिननवनान्यवतिष्टेरन् । तथा च तीर्थाव्यवच्छेदः ॥ तदव्यवच्छितिहेतोश्च किंचिदपवादासवेनस्यागमेपि समर्थनात् ॥ यदाह ॥ जो जेण गुणेश हिओ,जेण विणा वा नसिजए जंतु इत्यादि। तदेवं सूदमे दिक्या विमूश्यतां विदुषां चेतसि चैत्यवास एवे. दानीतनमुनीनां संगतिमंगतीति
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अथ श्री संघपट्टका
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(९१)
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अर्थ:-ने ज्यारे मुनि चैत्यवास करे त्यारे तो मुनिनों ते संबंधि जे उद्यम तेणे करीने जिनजुवन घणा काल सुधी रहे त्यारे तीर्थनो पण उच्छेद न थाय माटे तीर्थनो उच्छेद न थाय ए हेतु माटे कांश्क अपवाद सेवनानुं शास्त्रमा पण कधू जे जे गुणे करीने अधिक होय अथवा जेना विना जे सिक न थाय इत्यादि. ते माटे सूक्ष्म दृष्टिए विचार करो तो विद्यानना चित्तमांएम श्रावशे जे था कालना मुनिने चैत्यवास करवोज जोशए,
टीका:-तथा वसत्यदामेति ॥ वसतौ परगृहे निवास प्रति अक्षमा मात्सर्य परग्रहवासोये निराकरिष्यत इति यदुतं, तदिदानी व्यज्यते । सर्वव्रतेषु निरपवादं हि ब्रह्मव्रतं यतीनामागमे गीयते, यमुक्तं ॥ न वि किंचि अणुनायं, पमिसिद्धं वा वि जिए वरिदेहि ॥ मुत्तुं मेहुए जावं, न सो विणा रागदोसेहिं ॥ नच तत् स्त्रीशब्दश्रवणादेः सम्यक् निर्वोढुं पार्यते ॥ उत्कलिकादिप्रादुर्नावात् ॥ परगृहे वसतां चावश्यंनाविनः तच्बूवणादयः॥
अर्थः-वली ते लिंगधारी या प्रकारनी प्ररूपणा करे हे जे वसति एटले परघर तेमां जे रहेq ते प्रत्ये मत्सर करवो एटले मुनिने परघरमा न रहेQ ए रीते ते प्रतिपादन करे . पूर्वे एम कडं हतुं जे परघरमा रहेवार्नु आगल खेमन करीशुंते आ खेमन करी प्रगट करे बे. जे सर्व व्रतमा साधुने जेमां अपवाद मार्ग नथी एवं तो एक ब्रह्मव्रत आगममां कडं वे, ते शास्त्रवचन ए रे जे जे जिनवरेंड तीर्थकरे एक मैथुन नाव मूकीने वीजें कांइ पण श्राज्ञा कढे नथी. तथा निषेध पण कर्यु नथी. केम जे ते मैथुन राग विना
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(९२)
Hg अथ श्री संघपट्टका -
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होय नहीं एटले रागनी जोमे वेष पण श्राव्यो. ने ते पळवाम सर्वे दोष श्राव्या माटे, ते ब्रह्मवत स्त्रीयोना शब्दो सनिलवा तथा तेने देखवी श्यादिकथी सारी रीते निर्वाह करो पार एमातु नथी,
केम जे कामोद्दीपन आदी प्रगट थवार्नु ए कारण माटे, ने पर. घरमा रहेनाराने ते श्रवणादिक अवश्य थाय .
टीका:-तथाच नितंबिनीनांतुलितकोकिलाकलकूजितं गीतादिरवमधरितरतिसौंदर्यं च रूपमुपलभ्य नुक्तभोगानां पूर्वानुजूतनिधुवन विलसितप्रतिसंधानादयोऽनुक्तलोगानां च तत्कुतूहलादयः प्राउनवेयुः ॥
अर्थः वली स्त्रीयोनो कोयलना मधुर शब्द जेवो गीतादिकनो शब्द साचलीने तथा कामदेवनी स्त्री तेनुं सुंदरपणुं ते जेणे लघुता पमामयुं . एबुं स्त्रीयोनुं रूप देखीने पूर्व गृहस्थावस्थामां जेणे लोग नोगव्या . ते साधुने पूर्वे अनुन्नव थएलो जे मैथुनविलास तेनुं अनुसंधान थq एटले स्मरण थवू इत्यादि घणा दोष प्रगट थाय ने जे साधुये पूर्व गृहस्थावस्थामा जोग नोगव्या नथी. तेने ते मैथुननुं कौतुक वारूप घणा दोष प्रगट थाय. - टीकाः-यतिनां च सततं कर्णपीयूषवर्षि विशदगंन्नीरम
धुरस्वाभ्यायध्वानं निशम्य केषांचित् शरीराण्यगएयलावण्यश्रीणि निर्वर्ण्य प्रोषितपतिकादीनांतरुणीनांरिरसादयः प्राऽप्यु एवं चान्योन्यं निरंतररूपावलोकनगीतश्रवणादिनिर्मथमन्मथोन्माथदौस्थ्यचारित्रमोषादयोऽनेकदोषाः पुष्येयुः॥
अर्थ-ने साधुनो निरंतर कानने अमृत समान जे सुंदर
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8. अथ श्री संघपट्टका
(७)
मधुर स्वाध्यायनों शब्द तेने सांजलीने तथा केटलाक साधुनों असंख्य लावण्य शोनानां धारण करनार सुंदर शरीर तेमने देखीने विरहिशी जुवान स्त्रोयोने काम क्रीमा करवानी इच्छा थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय. ए प्रकारे स्त्रीयोने तथा साधुने परस्पर निरंतर रूपनुं देख गीतनुं सांजलq ए आदि कारणे करीने दुःखदायी महा कामदेव संबंधी विकार करीने चारित्रनो नाश-थाय ए श्रादि घणा दोष प्रगट थाय माटे साधुए परघरमां निवास न करवो. . .
टीका-॥ यथोक्तं ॥ श्रीवजियं वियाणह इत्थोएं जथ्थ काणरूवाणि ॥ सदायन सुच्चंती, ताविय तेसिं न पेच्छेहि ॥बनवयस्स अगुत्ती, बजानासो यपीश्वुट्ठीय ॥ साधु तवोवणवासो, निवारणा तिथ्य परिहाणी
अर्थ:-ते शास्त्रमा कडं ले जे साधुने रहेवानुं स्थान स्त्री वर्जित जाणवू जे स्थाने स्त्रीयोनां रूप तथा शब्द न देखाय न संजलाय तथा ते स्त्री पण ते साधुने न देखे एवं स्थान साधुने रहेवा योग्य बे केम जे एवी रीते न होय तो ब्रह्मव्रतनी गुप्ति न रहे तथा लजानो नाश थाय तथा प्रीतिनी वृद्धि थाय, माटे साधुने तपोवनमां निवास करवो जेथी तीर्थनी हानिनुं निवारण थाय..
टीका:-तथा लौकिका अन्याहुः ॥ शृणु हृदयरहस्यं य प्रशस्यं मुनीनां, न खलुन खलु योषित्संनिधिः सं विधेयः।। हरति हि हरिणादी विप्रमदिनुरप्रप्रहतशमतनुत्रं चित्तमप्युन्नताना.
अर्थ:--लौकिकमां पण एम कहे जे 'जे, मुनिने पण वखा
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अथ श्री संघपटक
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पवा योग्य एवं हृदयनु रहस्य कई टुं ते सानको जे साधुने स्त्रिउनु समीपपणुं निश्चे नन कर. केम जे हरिणना जेवां जेनां नेत्र -एवी स्त्री नेत्ररूपी तीखा शस्त्रना प्रहारवमे उपशमरूप बखतरनो नाश करे ले ने उत्तम पुरूषनां पण मन हरे .
.. टीका:-अत एव निशीथे पंचमादेशके एकद मूलगुणेसुं. .. अविसुद्धा इथि सारिया बीया ॥ तुबारोवणवसही, कारणि • तहि कत्थ वसियत्वं ॥ अत्र तुसारोवति ॥ उत्सर्गेणोन्नयोरपि वसत्योर्वासे तुल्यं प्रायश्चित्तमित्यर्थः ॥ अथापवादे क्व वस्तव्यमितिप्रश्ने ॥ श्रवा गुरुस्स दोसा, कम्मे श्वरीय हुँति सवेसि ॥ जइ ण तवोवणवासं, घसंति लोगे अ परिवार्ड ॥
अर्थः--एज हेतु माटे निशीथने विषे पांचमा उद्देशामा कडं. जे एक निवास तो मूल गुणने शुद्ध राखे एवो नथी ने बीजो निवास स्त्री संसक्तिवाळो , माटे ए बेमां निवास करतां तुल्य प्रायश्चित्त बे, कारण पमे त्यारे ते बेमाथी कीयामां रहे, ए जग्याए तुझारोवण ए शब्दनो अर्थ टीकाकार कहे जे जे उत्सर्ग मार्गे वे ए निवासने विषे रहेनारने पण तुल्य प्रायश्चित . अथ अपवाद मार्गे क्या रहेQ एम शिष्ये प्रश्न कर्यु त्यारे गुरु कहे जे
- टीका:--अत्र इतरस्यां स्त्रीसंसक्तायां वसतो वासे प्रागनु
जूतविलसितस्मृतिकरणादिना चतुर्थवतन्नंगप्रसंगेनाऽन्यशुद्ध'वसत्यलानेन च यतीनामाधाकर्मिक्यपि वसतिरनुज्ञाता
मामाद्यतर्वसन्निश्च स्त्रीसंसक्तिवियुता श्रुतोक्तनिखिलगुणयुता 'दुरापा वसतिः ॥ अंतत स्त्रीशब्दश्रवणस्यापि संन्नवात् ॥
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- अथ श्री संघपटक
१९६) अर्थः-या जगाये बीजो-स्त्री संसक्त निवासने विषे जो साधु निवास करे तो पूर्वे गृहस्थपणामां स्त्री साथे अनुभव करेसो जे विलास तेनुं स्मरण थq इत्यादिके करीने चोथा व्रतना नंगनों प्रसंग थाय तेणे करीने, ने बीजो शुरू निवासनो लाल ने थाय तेथी पतिने आधार्मिक निवास तेनी आज्ञा करेली ने प्रामादिमां रहेनारने तो स्त्री संबंध रहितने शास्त्रमा कहेला जे सर्व गुण तेणे सहित एवो निवास मळवो उर्लन्न , केम जे घरना अं. दरमां तो स्त्रीयोना शब्द सांजळवानो संचव ए हेतु माटे महासाधुए परघर वास न करवो.
टीका:-जिनगृहवासे तु यतीनां न तथासंसक्तिसन्नवा, चैत्यवंदनार्थमेव कणमात्रमागत्य गंत्रीणां श्राविकादीनां यति- . निः सह तथाविधप्रसंगानुपपत्तेः ।। नच एका मूलगुणेसु-. . मित्याद्यागमबलेन प्रत्युत स्त्रीसंसक्तवसतित्यागेना धार्मिकव :सतिवासो यतीनां संगतो, न तु जिनगृहवास इतिवाच्यं श्रा... धाकर्मस्त्रीसंसक्त्यादिदोषजालरहितजिनगृहवासखान श्राधाक. । मवसतिवासस्यात्यंतमनुचितत्वात् ॥ ..
अर्थ:-जिन घरमां निवास करे त्यारे तो यतिने ते प्रकारना स्त्री संबंधनो संजव नथी केम जे चैत्यवंदनने अर्थेज क्षण मात्र आवीने जनारी एवी श्राविकादिक साथे यतिने ते प्रकारनो प्रसंग नथी थतो जेवो तेना घरमा रहे थाय ने तेवो वली एका मूलगुणेसुं" इत्यादि आगमना बले करीने उलटो स्त्री संबंधरहित निवासनो त्याग करवो तेणे करीने आधाकर्मिक निवास साधुने करवानो संलव्यो, पण जिनघरमा रहेवानुं संजव्यु नहीं ए प्रकारे
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अथ श्री संघपट्टकः.
जो तमे कहेता हो तो ते न कहे केम जे आधाकर्मिक तथा स्त्री संबंध जेमा ठे इत्यादि दोष समूह रहित जे जिन घर निवास 'तेनो लान्न थये ते आधाकर्मिक निवास करवो ते अत्यंत अघटतो . ॥ ... टीकाःको ह्युन्मत्तः पश्याशनावाप्तावपथ्यमश्नीयात् ॥ .. तस्मात्परगृहवसतिरसमीचीनाऽधुनातनयतीनां य स्वागमे
परग्रहवासः श्रूयते स तात्कालिकातिसात्विकयत्यपेदयेति ॥ . तथा च प्रयोगः॥ यतीनां परग्रहवासोऽनुपपन्नः ॥ अनेक दोष दुष्टत्वात् प्राणातिपात वदिति ।। . .
, अर्घः कमजे कोण उन्मत्त पुरूष पथ्य नोजननी प्राप्ति थये बते.अपथ्य नोजन जमे ते माटे आ कालना मुनियोने, परघरमां निवास करतो ते ठीक नहीं, ने जे आगममां परघर निवास करवो एम संजळाय , ते तो ते कालना अति सात्विक धीरजबाळा जे मुनि, तेनी अपेक्षाए , वली ते उपर अनुमान प्रयोग पण सिक थाय जे यतियोने परघरमा रहे, ते अघटित जे. केम जे,ते अ. नेक दोषे करीने दुष्ट डे ए हेतु माटे प्राणातिपातनी पेठे जेम प्रापातिपात ते अनेक दोष उष्ट ले तो यतिने करवा योग्य नथी, तेम परघर वास परा करवा योग्य नयो. . .. टीका:-तथा स्वीकारः स्वसत्तापादन के वित्याद ॥ श्र-, योजविणं गृहस्थः श्रावकः चैत्यसदनं जिनायतनं ॥ ततोर्थश्चेत्यादि ६ तेषु ॥ तत्र अव्यस्वीकारस्यागमे निपिकखेऽपि सांप्रतिकयतीनां तत्स्वीकारो युक्तः ॥ तमंतेरेण ग्लानपरचलिकाद्यवस्थायां नैपज्यपथ्याद्यनुपपत्तेमातहिना चधर्म
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' अथ श्री संघपट्टका
(९७) शरीरस्यानावप्रसंगात् ॥ गृहमेधिनां च प्रायेण कालदोषाः निर्धर्मत्वेन च यतिचिंताद्यविधानातू ॥ ... ..
अर्थः-वली ते वेषधारी सुविहित प्रत्ये बोले जे जे अव्य तथा गृहस्थ तथा जिनमंदिर ते पोतानां करी राखवां तेमांजव्यनो अंगिकार करवो तेनो शास्त्रमा निषेध ने तो पण आ कालना साधुने ते अव्यनो अंगिकार करवो ते युक्त ने केम जे ते अव्य विना ग्लान अवस्थामा तथा परचक्रनो नय थाय तथा उकाल पमे इत्यादि अवस्थामां औषध तथा पथ्य नोजन इत्यादिकनी प्राप्ति न थाय ए हेतु माटे ने ते विना धर्म शरीरने नाश थवानो प्रसंग थाय ए हेतु माटे ने गृहस्थ तो बहुधा काल दोषे करीने धर्म र. हित थया तेणे करीने यतिनी चिंतादिकने करता नथी माटे ।।
टीका:-तथा सांप्रतं चैत्यजव्यमपि .यतितिः स्वीकृत्य वर्षनीयं मूलधनं रक्षाजस्तै वृध्यादेरधिकीनवता अव्येण प्रवचनाव्यवच्उित्तये दुर्वलश्राद्धानामुछारकरणात् ॥ तेषां चं तथादोर्गत्यपंकादुलतानां कालेनानवरतचैत्यसपचिंतादिना तीर्थप्रतावनया बहुतरपुण्यार्जनसंन्नवात् ॥ तदुखारं विना तु प्रवचनोच्छेदप्रसंगात् ॥ इत्यर्थस्वीकारोऽधुनातनमुनीनां संगत 'श्यानातीति ॥४॥
अर्थः-वली सांप्रतकाले यतियोने चैत्यव्यनो अंगिकार करी बंधार, जोश्ये. केम जे मूल अव्यनी रक्षा करी वृष्ट्यादिकथी अधिक थतु जे ते अव्य तेणे करीने प्रवचननो उच्छेद न थाय तन थर्थे ने दुर्बल श्रावकनो पण उद्धार कराय ए हेतु माटे में ज्यारे दरिखतारूपी.कादवथी ते श्रावकनो जझार को त्यारे काले ।
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re. अथ श्री संघपट्टको
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करीने निरंतर चैत्यनी पूजा अर्चादिक चिंताये करीने तथा तीर्थनी प्रनावनाये करीने अतिशे पुण्य उपार्जन करवानो संजव ने ए हेतु माटे, ने ते श्रावकनो उकार का विना तो प्रवचननो उच्छेद थवानो प्रसंग जे ए हेतु माटे उव्यनो अंगीकार ते तो आधुनिक मुनिने संगत , एटले करवो घटतो होय ने शुं ! एम जणाय .
'टीका तथा श्रावकस्वीकारोप्यद्यतनमुनीना मुत्सर्गापवादपदवी विदुराणां न नियुक्तिकः॥ पूर्व हि कालस्य सौस्थ्यादतिशयवत्पुरूषबाहुल्यात् कुतीर्थ्यानामल्पीयस्त्वात् लोकस्य प्रायेणासंक्लिष्टत्वात् च जैनमतबाह्या अपि जनाः सितांब. रनिकुन्यः सबहुमान लिक्षादिकं व्यतरिष्यन् ॥ सांप्रतं तु प्रापुर्नवद्भरिकुतीर्थिकसार्थकुमतकदर्थितांतकरणतया जैनमागैवैमुख्येन तेषां तथाविधश्वेतांबरदीकाया अनावात् ॥ अतः श्राद्धस्वीकारं विना लिक्षावातेरनुपपत्तेः युक्तं संप्रति तस्वीकारः॥
अर्थः वली ते लिंगधारी सुविहित प्रत्ये बोले जे जे श्रा कालना उत्सर्ग अपवाद मार्गना जाणनार मुनिने पोताना श्रावक करी राखवा ते युक्त ॥ केम जे पूर्वे तो काल सारो हतो ने अतिशयशाली घणा मोटा पुरूष हता ने कुतीर्थिक घणा जंग हता ने लोक पण प्राये सारा हता ए हेतु माटे जैन मत विनाना पण लोक श्वेतांबर साधुने बहु मान सहित लिदादिक आपता श्रने या कालमां तो प्रगट थयो जे घणो कुतोर्थिकनो समूह तेनो जे कुंमत तेणे करीने कदना पाम्यां जे अंतःकरण ते हेतु माटे तेमने ते प्रकारे श्वेतांबर साधुने श्रापवानी इच्छानो पण अन्नाव
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8. अथ श्री संघपट्टकः --
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मे. ए हेतु माटे पोताना श्रावक न करी राख्या होय तो निकानी प्राप्ति पण न थाय माटे आ कालमा श्रावकनो अंगीकार करखो ते युक्त जे.
टोकाः-तथा श्रागमेपि ॥ जा जस्स विई जा जस्स सं. हिई, पुवपुरिसकया मेरा ॥ सो तं श्रइकमंतो, असंतसंसारिख होइ इत्यादिना स्वीकृतगुरुपरिहारेणापरगुरोरंगीकारः श्राव. काणामनंतसंसारित्वायेतिपतिपादनेनास्यार्थस्यान्युपगमात् ॥ हरिनमसूरिणापि , सम्यक्त्वदीदारोपणावसरे श्राद्धानां धनधान्यस्वजनपरिजनादिसमेतस्या त्मनो गुरुसमर्पणानिधान नेन तत्स्वीकारस्य समर्थनात् ॥ ..
अर्थः-श्रागममां पण तेमज कधु बे जे जेनी स्थिति पूर्वपुरूषे करेली मर्यादा एटले गबनी स्थिति तेने जो अतिक्रमे तो श्रनंत संसारी थाय, इत्यादिके करीने पोते अंगिकार कर्या जे गुरु तेनो त्याग करे ने अन्य गुरूनो जो अंगिकार करे तो श्रावकने अनंतसंसारीपणानी प्राप्तिनुं प्रतिपादन कयु तेणे करीने श्राश्रमारा कहेला अर्थनी प्राप्ति थाय डे ए हेतु माटे. ने हरिजप्रसूरिये परा समकित दीक्षा आपवाना अवसरमां श्रावकने धन धान्य स्वजन परिजनादिके सहित एवो पोते श्रावक गुरूने अर्पण थाय एम कहेवाथी ते सर्वनो अंगीकार गुरूने थयो एम प्रतिपादन कर्यु ए हेतु माटे.
टीका:-॥ यदाह ॥ अहं तिपयाहिणपुवं, सम्मं सुद्धेण चिनरयणेण ॥ गुरूणो निवेयणं सबहेव दढ मप्पणो इत्थ ॥
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(१००)
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अथ श्री संघपट्टका
अर्थः-जे माटे तेमनुं वचन जे जे अथ त्रण प्रदक्षिणा करवापूर्वक शुद्ध चित्तरत्ने करीने सारी रीते सर्व प्रकारे गुरूने श्रा. स्मान निवेदन दृढपणे अहीं कर.. .. टीका:-गुरुणा च श्राझानां श्रद्धानुगुण्येन दानोपदेशात्॥ गुरोस्तत्स्वीकारं विना च तेषां तथा निवेदनाद्यनुपपत्तेः ॥ अन्योन्यापेक्षत्वात्स्वीकारस्य ॥ अन्यथेत्थमात्मनिवेदनानिधानस्य लोकपंक्तिमात्रफलत्वापत्तेः॥ एतेन दिग्बंधोपिगृहिणां यतिवन्न दुष्यतीति ॥
अर्थः-गुरूए श्रावकनी श्रद्धाने अनुसारे दान श्रापवानो उपदेश करवो ने गुरु जो ते श्रावकनो अंगीकार न करे त्यारे श्रावके जे पोतानु निवेदन कर्यु ते न कर्या जेवू थाय. केम जे पोतापपांनो जे अंगीकार ने तेने परस्परनी अपेक्षापणुं बे ए हेतु माटे. ॥नावार्थ ।। श्रावक पोताना गुरू जाणे तो गुरू पोताना श्रावक जाणे ने एम न कहीए तो ए प्रकारना आत्म निवेदन- कहे ते लोक व्यवहार मात्र फल थाय एणे करीने जेम साधुने दिग्बंध डे एटले पोतपोताना आचार्य उपाध्याय करी प्रवर्त्तवापणुं ले ते निर्दोष ले तेम श्रावकने पण दिग्बंध दोष नणी नथी एटले श्रावका ने पोताना गुरूने पोताना श्रावक करी राखवा ॥५॥ ,
टीका:-तथा चैत्यसदनस्वीकारोप्यधुनातनमुनीनां समी'चीनः ॥ उक्तन्यायेन संप्रति गृहमेधिनां चैत्यचिंतां प्रति निरवधानतया यतिस्वीकारमंतरेण कालेन तछंशसंनवात् ॥ मार्गलोपप्रसंग्रेन चागमेप्यर्थापत्या:तत्स्वीकारस्यानिधानात् ॥ ' अर्थः-वली चैत्यनो एटले चैत्य पोता करी राखवू, ते पण
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- अथ श्री संघपट्टकः --
( १०१ )
या कालना मुनिने युक्त (घटे) बे केम जे पूर्वे कह्यो जें न्याय तेरो करीने या कालना गृहस्थ लोकोने चैत्यनी चिंता प्रत्ये साबधानप
नथी माटे यतिये ते चैत्यनो अंगिकार कर्या विना काले करीने तेनो छेद थवानो संजव वे ए हेतु माटे मार्गलोप थवानो प्रसंग प्राप्त थाय ते माटे शास्त्रमां पण ते चैत्यने पोतानुं करी राख एम कहेवापले.
टीका:-- सीलेह मंखफलए इयरे चौति तंतुमाईसु ॥ श्रहिजुनं ति सवित्तिसु ? पिच्छफेमंतदी संता॥ अत्र हि लिंगिन: प्रति सुविहितानां चैत्यसमारचनादिव्यापारणमुक्तं ॥ नच तस्वीकारं विना तेषां तत्संभवति ॥ अस्वीकृते च वस्तुनि इतरप्रेरणयापि प्रायेण लौकिकानां समारचनाद्यप्रवृत्तेरिति ॥ ६ ॥
अर्थ:- जगाए लिंगधारी एम बोले बे जे प्रत्येक सुवितिने चैत्यनी सार संजाल राखवादि व्यापार को बे, ते चैत्यनो पोताणांनो अंगीकार कर्या विना ते सार संभाळ राखवानो संजव नथी. केमजे जे वस्तुनो अंगिकार कर्यो नथी तेमां बीजो प्रेरणा करे तो पण बहुधा ए लोकनी सुधारवाने विषे प्रवृत्ति देखाती नथी माटे ॥ ६ ॥
टीका:- तथा न विद्यते प्रेक्षितं प्रत्युत्प्रेक्षणा चक्षुषा निरीक्षणमादिशब्दात्प्रमार्जनं रजोहरणादिना सूक्ष्मजीवापसारणं च यत्र तत्, श्रासनं विष्टरं स्यूतगब्दिकादि शुषिरगंनीरसिंहासनादौ च प्रत्युपेक्षशादि यतीनां न शुध्यति, तेन च तत्र न कल्पते उपवेष्टुं चैत्यवासिनस्त्त्रेवं प्रतिपद्यते ॥ प्र च
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8. अथ श्री संघपट्टका
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प्रत्नावनाहेतोस्तादृशासनोपवेशनस्यापि साधीयस्त्वात् प्रवचनप्रनावनायाः प्रधानदर्शनांगत्वेन यथाकथंचन विधेयत्वात् ॥
अर्थः--वळी नथी पमिलेहण एटले नेत्र वमे देखवं. आदि शब्दथी प्रमार्ज, रजोहरणादिक करीने सूक्ष्म जीवनुं दूर करवू ने जेमा एवं श्रासन एटले दोरमाए शीवली गादी तकीया तथा जेमां गंन्नीर ब्रिज, एवां सिंहासनादि तेने शुद्ध पमिलेहणादि थर शकतां नथी ते माटे तेने विषे बेसबुं न कटपे तेने चैत्यवासी लिंगधारीतो एम माने जे जे प्रवचननी प्रनावना थवा कारण डेमादे तेवा गादी तकीयामां तथा तेवां सिंहासनादिकमां मुनिने बेसबुं ते अतिशे सारं ले केम जे ते तो प्रवचननी प्रनावनानुं प्रधान देखातुं अंग माटे जे ते प्रकारे गादीए तथा सिंहासन उपर बेसवार्नु अवश्य करवा योग्यपणुं ने एटले कल्पे ने ॥
टीका: ॥ यथोक्तं ॥ नाणाहि वरतरं, हीणो विहुपवयणं पत्नावितो इति ॥ तथा सिंहासनोपवेशनस्य गणधराणां व्या-. ख्यान विधावागमेऽपि श्रवणात् ॥ यदाह ॥ रावणीयसीहासपोवविछो व पायपीमि ॥ जिहाअन्नयरा वागणहारिकहेश बीयाए।तथाच तदनुसारेणाधुनिकसूरीणामपि धर्मदेशनादौ तमुपवेशनस्य समीचीनत्वात् ॥
अर्थः-ते शास्त्रमा कडंडे जे ज्ञानथी तथा चारित्रथी रहित होय तो पण प्रवचननी प्रत्नावना करता इत्यादि. वळी व्याख्यान विधिने विषे गणधर सिंहासन उपर बेसता एवं आगममां पण सांजळीए बीए, ते आगमनुं वचन ए जे राजाये आपेला सिंहासन उपर तथा पादपीठ उपर बेठा जेष्ठ गणधारी अथवा अ
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. अथ श्री संघपट्टका
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(१०३)
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न्यतर गणधर बीजी पोरुषीमां देशना करे ते प्रकारे आ कालना आचार्योने पण धर्मदेशनादिकने विषे ते उपर बेसवं ते वीक के.
टीकाः-अत एव लगवान् दशपूर्वधरः श्री वैरस्वामी, अहो नगवतः सर्वा तिशायिनी व्याख्यालब्धिः किंतु न तादृशी रूपसंपदिति राजांतःपुरावचनाकर्णनानंतरं द्वितीयेन्दि नैसगिकी शरीरसौंदर्यसंपदमावि व्य यत्यऽनुचितमपि हिरएमयकुशेशयमध्यास्य प्रवचनप्रनावनायै संसदि धर्मकर्मकथा प्रथयांबल्बेति ॥ ततः सिझमिदमाचार्याणां गब्दिकाद्यासन मुपादेयं, प्रवचनप्रन्नावनांगवान्, सम्मत्याद्यध्ययनवदितिजा
अर्थ:-एज कारण माटे नगवान् दश पूर्वधर श्री वयेरस्वामी तेमने देखीने राजाना अंतेउरनी स्त्रीओए एम का जे अहो नगवान वयरस्वामीनी व्याख्यान लब्धि तो सर्व करतो. अतिशे ने पण तेवी कांश रूप संपत्ती नथी एवं वचन सांजलीने त्यार पली बीजे दिवसे पोतानी स्वानाविक शरीर सुंदरता संपत्ति प्रगट करीने यतिने अघटित एवं पण सोनामय कमल तेने विषे वेसीने प्रवचननी प्रस्तावना थवाने अर्थे सन्नामां धर्म देशना विस्तारता हवा ए कारण माटे ए वात सिद्ध थइ जे आचार्योंने गादी आदि आसन ग्रहण करवं, केमजे प्रवचननी मनावनानुं अंग ए हेतु माटे संमति आदिक शास्त्रना अध्ययननी पेठे जेम संमत्यादिकनुं अध्ययन बे ते प्रवचननी प्रजावनानुं अंग दे तो आचार्यने करवा योग्य ठे तेम.
टीका:-तथा सावा सपापमाचरितं आचरणा गृहिणां नियतगउनजनादिलक्षणं ॥ तत्रादर श्राग्रहः॥ आचरणा हि
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(१०४) -
.. अथ श्री संघपट्टका
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निरवद्यैव प्रमाणं एषा च सावद्या गृहिदिग्बंधाचाचरणान्यु पगमे हि यतेस्त विधीयमानं निखलपापारंजानुमत्याद्यापत्तेः तथाप्येषा चैत्यवासिनिरादृता
अर्थः-वली पाप सहित जे आचरण एटले गृहस्थोने नियमाए पोतपोताना गच्छने नज, ए आदि जेनु लक्षण ने तेने विषे आदर एटले जे आग्रह (आचरण) ते पाप रहित होय तेज प्रमाण में आ जे पाप सहित गृहस्थोने दिग् बंधादि आचरणा तेनो अंगिकार करवाने विषे निश्चे यतिने ते गृहस्थोए करवा मांच्या जे समस्त पापना आरंज तेमां अनुमोदनादिकनी प्राप्ति बेए हेतु माटे सावद्य ..तो पण ए सावध आचरण चैत्यवासिये आदर्यु के.
टीकाः यतस्तेषामयमाशयः क्षेत्रकालाद्यपेक्षया हि सर्वजैन मतानुष्ठानं व्यवस्थितं ॥ ततो यदि गृहिनियतगनजनादिकामाचरणां वयं नाप्रियेमहि ततः कषायकबुषितहृदयत्वात्प्रायेण संप्रतितनयतीनां गृहस्थान्योन्याकृष्ट्या कसहेनाव्यवस्थायां सर्वमसमंजसमापयेत तस्मादेषाप्याचरणा ऽयतनकालापेक्षया युक्तिमती
अर्थःजे हेतु माटे ते चैत्यवासीनो आ अभिप्राय जे जे क्षेत्र कालादिकनी अपेक्षाये सर्व जैनमतनुं अनुष्ठान निश्चे रद्यु बे ते हेतु माटे जो गृहस्थने पोत पोताना गच्छनी नजनादिक आचार ते प्रत्ये अमो न श्रादर करीए तो, कषाय वमे अंतर मेला थएला माटे बहुधा आ कालना यतिने गृहस्थोनुं परस्पर खेच. वाथी कलेशे करीने अमर्यादाए करीने सर्व अघटतुं थाय माटे आ पण आचरण आ कालनी अपेक्षाये युक्त के.
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8. अथ श्री संघपटक ......(१०५) टीका:-यमुक्तं उत्पद्यते हि सावस्था देशकालामयान् प्रति ॥ यस्य मेऽकार्य कार्य स्यात्कार्यं कर्म च वर्जयेदिति॥ . अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कयु जे जे देश कालने रोगादि प्रत्ये मारी ते अवस्था उत्पन्न थाय ने जेमा न करवानुं करवा योग्य थाय डे ने करवा योग्यनो त्याग थाय ने ॥७॥ . . . . टीका:-तथा श्रुतस्य सिद्धांतस्य पंथा मार्गस्तत्रावज्ञा
मादरस्तेह्येवमाहुः नगवसिद्धांतो हि नैकांतेनैव विहितानु· टाननिष्टः निषिमानुष्टाननिषेधनिष्टोवास्ति॥ विहितानामपि केषांचिदनुष्टानानां कचिनिषेधात् ॥ निषिद्धानामपि कचिद्विधानात् ॥ अतोनास्थामास्थाय. सिद्धांतव्यवस्थया केवलया किमपि कर्तुं परिहर्नु वा पार्यते ॥ ...... ... अर्थः-वळी सिद्धांतनो जे मार्ग तेनो अनादर ते लिंगधारी एम कहे जे नगवाननो जे सिद्धांत ठे ते अनेकांत-जे ते एकांतपणे करवा योग्य जे अनुष्ठान क्रिया तेने विषे तत्पर नथी. एटले एकांतपणे था क्रिया तो करवीन एम सिद्धांत कहेतुं नथी. ने निषिद्ध जे अनुष्टान तेनो निषेध करवामां पण तत्पर नथी. एटले एकांतपणे आ किया तो नज करवी एम सिद्धांत कहेतुं नथी केम जे करवा योग्य केटलांक अनुष्टान तेनो परा कोइ जगाए निषेध देखाय ए हेतु माटे ने निषेयं करेला पण केटलांक अनुष्टान तेनुं को जगाए करवापणुं २ ए हेतु माटे. केवल सिद्धांतमां कहे, जे ते उपर आस्था राखोने का पण करवा योग्य तया परिदवा योग्य पार पासोए एम नयो.
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.(१०६)
g.. अथ श्री संघपट्टका
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• टीका:- एवंच ॥ नविकिचि अणुनायं पमिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं ॥ इति वचनादागमबहिष्टापि काचित्सुकुमारा -क्रियाऽद्यतनसाधुप्रवर्तिता विवे किनां निःश्रेयसाय नविष्यति किं श्रुतेनेति॥ यदुक्तं लंग्विणः कल्पतां यांति मुख्यापिक्रियया यथा ॥ कालेन धर्म क्रियया तथा मुक्तिं शरि
रीण इति ॥ ए॥ - अर्थः-ते नपर वली शास्त्र वचन जे जे जिनवरे कांइ पण आज्ञा करेलु नथी तेम निषेध्यु पण नथी ए.प्रकारना वचनथी; आगमथी वेगली रही एवी पण कोश्क सुखे सुखे थाय एची क्रियाने आ काळना साधुए प्रवर्तीवेली एवी पण क्रिया ते मोहलणी 'यशे माटे शुं शास्त्रवते ने कां पण नथी. जे माटे कछुडे जे थोमी क्रियाये करीने रोगीयानो रोग जाय त्यारे काकी क्रियानु शुं प्रयोजन ! शास्त्रमा तेम सुखे सुखे थती जे या क्रिया तेणे करी देहधारी मुक्ति पामे जे. जेम घणा काल सुधी धर्मक्रिया करे के तेणे करीने मुक्ति पामे ॥ ए॥
• . . टीकाः-तथा गुणिषु ज्ञानादिगुणवत्सु यतिषु वैषधीमा- त्सर्यबुद्धिः॥ स्वयं निर्गुणानां तद्गुणानसहिष्णूनां तदुपजिघांसया दुष्टामतिरिति यावत् ॥ कथमियं तन्मते न धर्म इति चेकुच्यते ॥ इदानी हि नगवहिरहात्सम्यग् मार्गापरिज्ञानेन बहुलोकप्रवृत्तिरेव मोक्षमार्गः ॥ महाजनो येन गतः स पंथा . इति न्यायात् ॥ ' अर्थः-वली ज्ञानादि गुणवान् जे यति तेमने विषे द्वेषबुद्धि
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अथ श्री संघपट्टक:
( १.७ ) एटले. मत्सर बुद्धि पोते निर्गुण बे ने गुणवानना गुण सहन नथी करता साटे तेमने मारवानी इछा राखे बे माटे दुष्ट बुद्धिवाला ते वेषधारी आशंका कहे बे जे गुणी पुरुष उपर द्वेषबुद्धि राखवी तेने धर्म कीये प्रकारे लिंगधारी थापे बे, तो कहीएडीए जे या काक्षमां निश्चे भगवाननो विरह थयो छे माटे सारी रीते मोक्षमार्गनुं ज्ञान नथी धतुं ते हेतु माटे बहु लोकनी जे प्रवृत्ति तेहीज मोह मार्ग बे केम जे जे मार्गे महाजन एटले घणा लोक चाले ते मार्ग बे. एवो न्याय बे माटे ॥
टीका:- एते च परग्रहवासिनो धार्मिकं मन्या यात्मानमेवैकं गुणैरुत्कर्षयं तो निखिलानप्यपरान् दूषयंत दयुगीनं संघमप्य वमन्यमानास्तत्प्रवृत्तिं दूरेण परिहरंतो लोकव्यवहारमप्यजानंतः संघबाह्या एव श्रतः सर्वत उत्तव्या इति द्वेष एवैतेषु श्रेयानिति ॥ १० ॥
अर्थ:- वली ते लिंगधारी एम कहे बे जे या परघरमा रहेनाराने पोताने विषे धार्मिकपणुं माननाराने पोताना आत्मानेज एक गुणे करीन मोटो देखामताने वीजा सर्वेने पण दोष-पमानताने या कालना संघने पश न मानताने या कालना संघनी प्रवृत्तिने पण बेटेथी परिहरताने लोक व्यवहारने पण न जाणता माटे ते संघ बाहार बेज. ए हेतु माटे सर्व प्रकारे उबेदवा योग्य बे. ए प्रकारनो जे द्वेष करवो तेज एमने विषे अतिशेश्रेष्ठ वे इत्यादि ॥ १० ॥
टीकाः - गौतमा दिषु वर्त्तित्वात्तादृशेषु यतिध्वनिः ॥ कथमेतेसुवर्त्तेत निर्गुणेष्वंजसेषुचेत् ||१|| कल्पदोषी रुहां यद्वगुणा योपिवर्त्तते ॥ निंवादिषु तरुध्वानो विनाविप्रतिपत्तितः H
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(१०८) ___ अथ श्री संघपट्टका ,
अर्थः-एवी रीते दश प्रकारनो धर्म प्ररुपण करनार ते निगुग आ कालना वेषधारी तेने विष मुनि शब्द केम प्रवर्ने ? केम जे मुनि शब्द तो गौतमादि महान् पुरुष तेने विषे प्रवलो ने माटे त्यां उत्तर कहे जे जे जेम लिंब आदि वृक्षनेविषे कल्प वृदना गुण नथी, तो पण केवल रुढीथी तरु ए प्रकारनो शब्द प्रवर्ने बे. तेम ते लिंगधारीने विषे मुनि शब्दनी प्रवृत्ति रुढीथी .
टीकाः यथाच जात्यरत्नानां गुणानावे पितादृशां ॥ का.. च सांझां शुचिर्चिक्ये मणी शब्दः प्रवर्तते ॥३॥ गौतमादि गुणायोगे-पीदानींतन साधुषु ॥ ज्यच्छत्सु स्वशक्यैवं प्रवर्त्यति यति ध्वनि ॥४॥ इति वास्तवक्षात्यादि दशविधयतिधर्म स्पर्द्धयेव यथादेः प्रदर्शितो धर्मः अयं चेत्कर्महरो जवेदित्यादि पूर्वव्याख्यातमिति वृत्तार्थः ॥ ५॥
अर्थः-वली जेम जातिवंत रत्नना गुण न होय, तो पण काचना ककमानो घणा किरणनो चकचकाट ले तेने विषे 'मणी शब्द प्रवर्ने बे. तेम ते लिंगधारीने विषे मुनि शब्द प्रवर्ने २ ॥ गो. तमादि मुनिने विषे रह्या जे गुण ते गुण आ कालना साधुने विषे नथी तो पण पोतानी शक्तिये उद्यम करनारने विषे यति शब्द प्रवर्तशे ॥ ४॥ए प्रकारे साचो जे क्षमाआदि दश प्रकारनो यति धर्म तेनी स्पर्काये जाणे शुं लिंगधारीनए देखायो जे धर्म था जो कर्मने हरे तो मेरु समुसमां तरे इत्यादि पूर्वे व्याख्यान कयु ए प्रकारे पांचमा काव्यनो अर्थ थयो ॥५॥ . . . ... ...
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- अथ श्री संघपटक
१.) · टीका:-सांप्रतमेतानि दशहाराणि यथाक्रमं प्रत्याचि.. ' .ख्यासुः . प्रथमं तावज्जीवोपमईनाद्यनेकदोषावि वपुरस्सरं ,
उद्देशिकलोजनहारं प्रत्याख्यातुमाह ॥ . . अर्थ:-हवे ए दश धारने अनुक्रमे खमन करता ग्रंथकार प्रथम जीवनो नाश ए श्रादि अनेक दोषने प्रकट करी देखामवा पूर्वक श्रौदेशिक नोजनहारतुं खंगन कहे .
.: . मूलकाव्यं. .. .. .. ... षटकायानुपमृद्य नियमृषी नाधाय यत्साधितं . शास्त्रेषुप्रतिषिध्यते यदसकृन्नि स्त्रिंशताधायि यत् ॥ गोमांसायुपमं यदाहु रथयनुत्का यतिर्यात्यधः .. स्तको नाम जिघित्सती (जिघृक्षतीत्यपिपागंतरं) द
सघृणः संघादि नक्तिं विदन् ॥६॥ टीका का सघृणो दयायुः विदन् संघादिनिमित्तमेतन्निष्पममितिजानन् श्रुति प्रवचने जिधित्सति अत्तुमिच्छति ॥ श्रदेः सनंतस्य घसादेशेरुपं किं तत् संघः साधुसाध्वीरुपः श्रमणगणः
आदिशब्दादेकछियादि श्रमणपरिग्रहः तस्य जक्तं तत्कृते निवृत्तमशनादिनामेति कुत्सायां अतीवकुत्सितमेतद्नक्तं मुनीनां ॥ जानतो मुनेः कृपालोरेवं विधं नक्तं नोक्तुं न कल्पत इत्यर्थः॥
अर्थ:-कोण दयालु पुरुष श्रा, संघादिनिमित्ते निपजाव्यु एम जाणतो था जिन शासनने विषेनोजन करवा इच्छे अर्थात को न इच्छे. या जगाए व्याकरणः-जे सन् प्रत्ययांत जे. अद् जक्षणे
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(११०) -g: अथ श्री संघपट्टकः-- धातु तेनो,घसादेश थये सते.जिधित्सति एवुरुप थयु ॥संघाति॥ साधुसाधवीरुप:श्रमरानो समूह ॥ श्रादि शब्दथी एक बेत्रण
आदि साधुनुं ग्रहण करवू तेथी या प्रकारे अर्थ थयो जे एक साधने निमित्ते नीपजाव्युं नोज़नादि बे साधुने निमित्ते निपजाव्यु जोजनादि त्रण साधुए इत्यादिला जगाये नाम शब्दनोनिंदितरुपी अर्थ जाणवो तेथी ओम अर्थ थयोंजे आनोजनसाधु निमित्त नीपजाव्यु डे एम जाणीने पण तेनुं ग्रहण करवं ते अति निंदित ,एप्रकार, जोजन कृपाबु मुनिने नोगवन कल्पे एटलो अर्थ थयो.
टीकाः अत्रच विदनितिग्रहणाबूतोपयोगेन बाह्यलिंगपरिकापुरःसरं यतमानस्य यतेःकदाचिदाधाकर्मग्रहणेऽपि सम्यगनवगमात्तनंजानस्यापि न दोषः॥ यथोक्तं ॥ थोवंति न पुठं न कहियंत गृहि नायरो वकओ ॥ श्यबलियो विन लग्गइ सु.. वउत्तो असढं जावो । ' " 'अर्थः-आजगाये विदन् ए प्रकारना शब्दनुं गृहण कर्यु ले माटे शास्त्रता उपयोगे करीने बाहारना चिन्हीं परीक्षापूर्वक यतनायेथी ग्रहण करता एवा साधुने क्यारेक आधाकर्मि आहारर्नु ग्रहण थाय तो पण सम्यक् न जाणवाथी तेनुं पण नोजन करें में तो पण दोष नथी॥ ते शास्त्रमा कयु डे जे . ..
टीकाः अथैतस्मिन् को दोषो येनैतदेवं कुत्सितमत थाह.. यत्साधितं तच्छब्दस्य यच्छब्देन नित्यानिसंबंधाचतश्च यदनक्तं साधितं निष्पादितं गृहस्थेनेतिशेषः ॥ किं कृत्वा श्राधायजदित्स्यकान् ऋषीन् . यतीन यतिन्यो मयैतद्देयमिति म. नसिकतेत्यर्थः ....... .... ..
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.': 'अर्थ श्री संघपट्टक - ११) " अर्थः-श्राशंका करी कहे जे जे ए नोजनमा शो दोष ले जे हेतु माटे एने आईं निंदित कहोगे तो. त्यां कहे जे तत्शब्दने यत् शब्द साथे नित्ये संबंध- माटे-जे जोजन सिद्ध कयु डे एटले निपजाव्यु (गृहस्थपद उपरथी ले) तो अर्थ आम थयो जे, गृहस्थ जे तेणे साधुने उदेशिने निपजाव्युं जे आ नोजन.मारे साधुने आपq एम मनमां धारीने कर्यु एटलो अर्थ बे. ..
टीका:-अथ निरवद्यवृत्या यतिनिमित्तं साधितेप्यस्मिन् को, दोष इत्यत आह ॥ उपमृद्य विध्वस्य कान्. षटकायान.॥ षविधजीवनिकायान् कथं उपमृयेत्याह। निर्दयमिति क्रिया विशेषणं निरनुकंपं यथा नवति ॥ अयमर्थ एतावकिल वन्हि पाकारंजोंन सानुकंपस्य नापि षट्जीवनिकायोपमर्दनमंतरेण सं. जवति ॥ एवं च निरवद्यवृत्याननक्तसाधनं कथमपि संगरते॥
अर्थः-आशंका करी कहे . जे पापरहित क्रियाए करीने यति निमित्त लोजन सिह करे तेमां शो दोष दे तो त्यां कहे जे ब जीवनिकाय उपमर्दन करीने कीय प्रकारे? तो निर्दयपणे, नि. दय पद ले ते उपमर्दनरुप क्रियानुं विशेषण के एटले आम अर्थ थयो जे निर्दयपणे उ जीवनिकायनुं मर्दन करी ए जोजन साधु निमित्ते नीपजाव्यु ले ते अग्निपाकनो आरंन. ते दयालुने न होयने षट् जीव निकायना मर्दनविना ते पाक पण संजवे नहीं माटे पापर'हित क्रियाये करीने पाक साधन को प्रकारे पण: थाय नहीं.
टीका यदर्थ चैतावानारंजस्तस्य तजन्यसकलपोपानुष. गात्वतजंगप्रसंगः ।। यदाह । जस्सहा आहारो आरनोता
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MAINA
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(११२) . . अथ श्री संघपटक - स्स होइ नियमेण ॥आरंने पाणी वहो पाणी वहेहोश्वयनंगो॥ श्रतःकथमस्य जक्तस्य न कुत्सितत्वं ॥ .' अर्थः-जेने अर्थे आटलो बधो आरंज .तेने ते अर्थ था. नथी उत्पन्न थयु जे सकल पाप तेनो संबंध थवाथीं व्रत नंगनो प्रसंग थशे. जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे जेने श्रर्थे श्राहारनो श्रारंन डे तेनेज नियमाए पाप ले केम जे आरंजने विषे प्राणीनो वध होय ने प्राणी वध थयो एटले व्रतनो जंग थयो माटे एलोजननुं निंदितपणुं केम न होय अपितु होयज ॥ .
टीकाः एतेन वस्तुत श्राधाकर्मपर्यायता संघादिनतस्य सूचिता ॥ आहाय वियप्पेणं जइण कम्ममसणाइ करणंज ॥ बकायारंजेणं तं श्राहाकम्माइंसु ॥ इत्यागमे आधाकर्मशब्द स्यैवं व्युत्पादनात्
अर्थः-एणे करीने वस्तुताये श्राधाकर्मर्नु पर्यायपणुं संघादि नोजनने ने एम सूचना करी ॥ केम जे तेनुं लक्षण शास्त्रमा कां जे जे जेने मनमांधारीने बकायनो आरंज करवो तेने श्राधाकर्म कहे , इत्यादि आगमने विषे श्राधाकर्म शब्दनी ए प्रकारे व्यु. त्पत्ति करीए हेतु माटे
टीका:-ननु नवत्वेतद्यथार्थसाधितं तथापि सिद्धांतानिषेधानन्यतीति अताह॥ शास्त्रेषु ग्रंथेषु निशीथादिषु प्रति विध्यते यतिलोज्यतया निवार्यते यदनक्तं ॥ कथं असकृदत्यंत मुष्टता ख्यापनाय मुहर्मुहुः ॥ तथाच आहारोपधिवसत्याभाकर्मविचारावसरे निशीथेऽभिहितं ॥ . . . . .:
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A. अथ श्री संघपट्टका - (११३) 'टीका:-अत श्राह ॥ निश्रृंशतां निःशूकतां निर्दयत्वमिति यावत् आधत्ते करोति यत् तदाधायि निःशूकताकारकं यद्नक्तं श्रयं जावः॥ स्वयमकृताद्यप्याधाकर्म जानन गृहानो मुनिर्भक्ति मद्गृहिणः प्रसंगात्संजादत्यंतगृध्रुनि शूकत्वेन सञ्चित्तमपि न जह्यात् अतः कथं न दोषः । ___ अर्थः-ए प्रकार लिंगधारीनु वचन तेना उत्तर रुप विशेषण कहे ॥ जे ए लोजन निर्दयपणाने करे जे आ लव जे जे पोते कर्यु नथी ने कराव्युं नथी ने अनुमोद्यं नथी. तो पण श्राधाकर्मने जाणीने गृहण करतो जे मुनि ते नक्तिवंत एवा गृहस्थनो प्रसंग थवाथी अतिशे गृधिल [रसास्वादवाळो ] थश्ने सचितनो पण त्याग
HOTOना असा नहीं करे माटे क्यम दोष नथी ? दोष रुपज डे॥
टीका तमुक्तं ॥सचं तह विमुरांतो गिएहंतो वढ्दपसंग से ॥ निद्धंधसो अगिको न मुअसजिपि सोपला.
अर्थः ते शास्त्रमा कयु डे जे आधाकर्मी जाणे के ने गृहण करे ले तो गृहस्थनो प्रसंग वधारतो ने निर्दय रस लोनी ते थइने पढी सचित्तने पण नही मूके ॥
टीका:-अत एवात्यंतमेतजिहापयिषया गणधरा आनुरुप्पेणैतज्ञोचराएयुपमानानि दर्शयामासुः ॥ तथा चाह ॥ गोमां सादीति ॥ गोसुरजेर्मासं पितितं ॥ आदिशब्दाघांतोच्चारसुरामहः तैरुपमा सादृश्यं यस्यतत्तथा यद्न्नक्तमाहुर्बुवते गणधराः स्वप्रणितागमेषु ॥ ___ अर्थ एज कारण माटे गणधर महाराजाए औदेशिक जो
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* अथ श्री संघपट्टका जननी अत्यंत त्याग कराववानी इलाए ते औदेशिक जोजनने घटे तेवी तेनी उपमा देखानी ले ते उपमा विशेषणे करीने कही देखाने
जे, गायतुं जे माल ते सरखं हलोजन आदि शब्दयी चांति तथा विष्टा तथा मदिरा तेनी संघाय सहशपएं जेतुं एटले ते वस्तुना जे ए नोजन पोताना ग्रंथोने विषे कयुं .
टीकाः यथाहि गोमांसभक्षणं लोके धर्मविरुद्धत्वेन महापापहेतुत्वादत्यंतनिंदितत्वाच्च विवेकिना सर्वथा हेयं । तथा श्राधाकर्मजक्तमपि ॥ एवं वातादिष्वपि यथासंजवंयोज्यं ॥ यथोकं ॥ वंतुच्चारलुरागो संससममिति तेण तज्जुत्तं ॥ पञ्पि कयति कप्पं कप्पा पुव्वंकरिसघमं ॥
. अर्थ:-ते कही देखामे ले. जे गोमांसतुं नक्षण लोकने विषे धर्म विरुद्ध पणे महा पापर्नु कारश ए हेतु माटे अने अति निदित ए हेतु माटे विवेकी पुरुषने सर्वथा त्याग करवा योग्य . तेम आधाकर्म नोजन पण त्याग करवा योग्य . ए प्रकारे वांति
आदिनी उपमा पण जेम घटे तेम जोमवी. ते उपर शास्त्रनुं वचन जे वांति तथा विष्टा तथा सुरा तथा गोमांस ते सर श्राधाकर्म लोजन के.
टीकाः अथ प्रकारणांतरेणाधाकर्म शब्दार्थ व्युत्पादयन् जयोत्पादनेनास्यावश्य हेयतां दर्शयति॥ यथेति प्रकारे यद्नक्तं जुत्वाऽशित्वा यतिर्मुनिति गच्छति अधोऽवस्तात्संयमादिति अष्टव्यं ।। अथवाऽधोगति नरकं ॥ एतेनाधाकर्म शब्दस्यार्थ इयं व्युत्पादयता प्रकरणकारेणाऽपरमप्यर्थक्ष्यं सूचितं ।।
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- अथ श्री संघपट्टका
(११६ ) अर्थः-हवे बीजे प्रकारे श्राधाकर्म शब्दनो श्रर्थप्रगट करतां जयने उत्पन्न कर तेणे करीने ए श्राधाकर्म जोजन अवश्य त्याग करवा योग्य डे एम देखामे . यथा शब्दनो प्रकार एटलो अर्थ करवो, एटले जे प्रकारे जे नोजनने जमीने मुनि संयमथी हेग्ल थाय (ज्रष्ट थाय ) अथवा अधोगति (नरकने) पामे वे एणे करीने श्राधाकर्म शब्दना बे अर्थ प्रगट करता जे प्रकरणना कर्ता तेणे बीजा पण बे अर्थ सूचना कर्या ले.
टीका:-यथात्मन्नमिति ॥ श्रात्मकर्मेतिच॥ तत्रात्मानं चारित्रात्मानं हंति श्रात्मन्नं ॥ श्राधाकर्मनोजिनो हि तावत्पाकारंजानुमत्यादितिश्चारित्रात्मा हन्यते॥ तथा श्रात्मनि कर्म श्रात्म कर्म आधाकर्म । परिणतो हियति रेषणीयमपि गुह्णन् गृहिणा -स्वार्थ पाकारंजादि यस्कर्म निर्तितं तदहोमत्कृते शोजनामद
मनं निष्पन्न मिति परितोषादात्मनि निवेशयति तेन च बध्यत इतिनवत्यात्मकर्म ।
अर्थः-ते कहे जे जे एक तो श्रात्मन ने बीजो श्रात्मकर्म, 'तेमां चारित्र रुपी श्रात्माने हणे माटे आत्मन्न कहीए. केम जे श्रा'धाकर्म जोजिनो चारित्र रुपी आत्मा ते पाकना आरंजनी अनुमोदना करवी इत्यादिकवने हणाय ने. वली श्रात्माने विषे जे कर्म ते श्रात्मकर्म कहीए. केम जे आधाकर्म ग्रहण करवा तत्पर थयो जे यति ते एषणीय जोजन- ग्रहण करतो सतो पण गृहस्थे पोताने अर्थे पाकादि जे काश् आरंज कर्म नीपजाव्यु तेने एम माने ले जे अहो आ गृहस्थे मारे अर्थे सारं श्रन्न नीपजाव्यु एम मानीने घणा संतोषथी (आनंदथी) पोताना श्रात्माने विषे तेनो
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- अथ श्री संघपट्टक अजिनिवेश करे बे तेणे करीने एबंधायले माटे ए श्रोत्मकर्मकहीए.
टीकाः यमुक्तं ॥ श्रहवा जंतग्गाहिं, कुण अहे संजमाउ नेए वा ॥ हणश्व चरणायं से अहकम्म तमाय हम्मवा ॥ था. हाकम्मपरिणर्ड, फासुअमवि संकिलिकपरिणामो॥ आययमाणो बजाश्तं जाणसु अत्तकम्मंतु ॥
अर्थ:-श्रा बे गायानो लावार्थ उपर श्रावी गयो . . . . टीका:-एवं विधाधाकर्मशब्दस्य चतुर्दा व्युत्पतिरार्ष
स्वात् ॥अत्रच वृत्ते एक वाक्यस्थेनैव यबब्देन शकलवाक्यार्थे
दीपिते यत्प्रतिपदं यचब्दोपादानं तसंघादिनक्तस्यात्यंतपरिहर•णीयताख्यापनार्थ ॥ एतेन यतीनामाधाकर्मनोजनसमर्थनाय
यत्परैरन्यधायि पूर्वाधरितः धनाधिपत्यादि श्रमणसंघनिमित्त निर्वृतन्नतादिनापि धर्माधारं शरीरंधारयेत्तदा को दोष इत्यंत तदीप प्रतिक्षितं मंतव्यम्
अर्थः-ए प्रकारे आधाकर्म शब्दनी चार प्रकारे व्युत्पति करी जे एक तो आधायकर्म, बीजी अधःकर्म, त्रीजी श्रात्मन्न ने चोथी आत्मकर्म; तेतो ऋषि वचनथी प्रमाणरुप बे. श्रा काठयने विषे एक वाक्यमा रहेलो जे यत् शब्द तेणे सकल वाक्यनो श्रर्थ 'प्रगट कयों ने जे पदेपदे यत् शब्दनुं ग्रहण कर ते तो संघादि जो. • जननुं अत्यंत परिहरवापणुं जगाववाने अर्थे जे. एणे करीने यतिने ‘श्राधाकर्म भोजन करवाने अर्थे लिंगधारीए प्रतिपादन कर्यु हतु जे । पूर्वे मोंटा गृहस्थ हता, इत्यादि प्रारंनीने श्रमण संघ निमित्त नीप"जाव्यु जे 'नोजनादि तेणे करीने धर्मनुं श्रधिारभूत शरीर धारण
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6. अथ श्री संघपटककरवामां शो दोष जे त्यां सुधी ते सर्व खंगन कर्यु: . टीकाः-तथाहि ॥ यदिदानींतनकालापेक्षया यतीनामाधा कर्मजोजन मिष्यते नवनिस्तत्किं यावज्जीवतया आहो स्विकादाचित्कतया ॥ यद्याद्यः कल्पः सोऽनुचितः॥ आधाकर्म नोजनस्य यावजीवतयाशास्त्रेऽननिधानात् ॥ .. अर्थः-लिंगधारी प्रत्ये सुविहित पुढे जे तुं श्रा कालनी अपेक्षाये यतिने आधाकर्म नोजन इच्छे बे,ते तुंजावज्जीव श्राधाकर्म जोजन करवु एम कहे जे के क्यारेक करवू एम कडं डं॥जो श्रादि पक्ष जे जावज्जीव कर ते इच्छतो हुँ तो ते अघटीत . केम जे
आधाकर्म नोजन- जावज्जीव करवापणुं शास्त्रमा कोजगाए कडं नथी; ए हेतु माटे.
टीकाः तस्यापवादेनैव तंत्र प्रतिपादनात् ।। तस्य च कादाचित्कत्वात् ॥ पुष्टालंबनेन कदाचिदित्यकृत्यवस्तु सेवनं ह्यपवादः न चासौ सार्वदिकः ॥ तत्त्वे नत्सर्गत्वापत्तेः॥ . . अर्थः ते आधाकर्म जोजनशास्त्रने विषे अपवादे करीनेज प्रतिपादन कयु डे ए हेतु माटे, ने ते अपवादनुं पण क्यारेक धाचरवापणुं डे ए हेतु माटे, केम जे अपवादनुलक्षण एडे जे पुष्ट यासंबने करीने क्यारेक न सेववा योग्य एवी वस्तुनुं जे सेवन. तेने अपवाद कहीए.ने ए अपवाद सर्व जगाए लेवातो नथी.ने जोसर्व जगाए अपवाद लेवातो होय तो एने उत्सर्गगुणानी प्राप्ति थाय एं हेतु माटे ॥
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( ११८ )
अथ श्री संघपटकः
टीका: - यथेोक्तं ॥ सामान्न विही नाणी ओ, जस्सग्गो तव्विसे सिश्रो इयरों ॥ ॥ पाणिवहाइ निवत्ती तिविदं तिविदेष जाजी'वं ॥ पुढवाइस सेवा, नृप्पन्ने, कारण मि जयणाए ॥ मिगर हियस्सहियस्सव, ववाओ होइ नायव्वो.
अर्थ :- सामान्य विधि ते उत्सर्ग बे, अने विशेष विधि ते अपवाद बे, त्यां यावज्जीव त्रिविधे प्राणिवध न करवो ए उत्सर्ग छाने कारण उपजतां यतनाथी पृथ्व्यादिकनी सेवना निदंजी : पुरुष करे तो ते अपवाद बे.
टीका: -- अत एव युगप्रधानैरनेका तिशय निधानैरपि श्री .वैरस्वामी पादै महादुर्निदेण हेतुना विद्यापिंगमुपभुज्यापि तस्य चाधाकर्म भोजनन्यून दोषस्यापि ॥ पिंक असोहयतो प्रचरिती इत्यसंस नत्थि । चारितंमि असने सव्वा दिरका नि-- रत्थिया ॥ इति वचनादू दुष्टतां पर्यालोचयद निस्तीर्थाव्यव- च्छित्तये शिष्यमेकमन्यत्र प्रेष्य सपरिवारैः प्रवचन विधिनाऽनशनं प्रतिपेदे ||
- प्रर्थ:-एज कारण माटे युगप्रधान एवा ने अनेक प्रतिश घनाजंकार एवा श्री वैरस्वामीए ज्यारे महा दुकाली पमी त्यारे शुद्ध भोजननी प्राप्ति न थइ ए हेतु माटे श्राधाकर्म भोजनथी न्यून दोष युक्त एवो विद्यापिंग तेनुं भोजन कयुं; तोपण शास्त्रमां कहुं जे जे अशनादिक आहार प्रत्ये अणशोधतो अचारित्री "कहीए मां संशय नथी, चारित्रने जावे सर्व दिशां निरर्थक ठे. : ए वचनथी ते भोजनना दुष्टपणानी श्रलोचना करता वैरस्वामी
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अब श्री संघपट्टका
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जे ते तेतुं अष्टपणुं वीचारीन तीर्थनो गच्छेद न थाय माटे एक शिष्यने पीजी जग्याए भोकलीने परिवार सहीत शास्त्र विधिय केरीने अनशननो अंगिकार करता हवा.
टीकाः यदिहीदानीमाधाकर्मजोजनं यतीनां यावज्जीव त्या विधेयस्याचदा कयं ताशा प्रवचनधुरंधरा विद्यापि दोषः जिया तादृशं महालाहसं कुर्बीरन् । तस्य ततोन्यूनदोषत्वात् ।। कायस्य च तदानीमपिषमात्वात. . अर्थः-जो यतिने आधाकर्म जोजन जावज्जीव करवा यो. ग्य होत तो तेवा-महान पुरुष प्रवचनना धुरंधर ते विद्यापिंगना वोपन करीनेते प्रकारचं एटले अनशनरूपी मोटु साहस कर्म करे!!! नब करे. केम जे ते विद्याजिनो भाषाकर्मि जोजनथी न्यून-दोष ए हेतु माटे. ने ते वखत काल पण मुखमा हतो ए हेतु भाटे
टीकाः न च का शक्तिरस्मा मंदलवानां तच्चरितमनुविधातुन हिंगजानामुदर्यते यो वटकाष्टमशितपचतीत्यस्माकमप्युदर्येण तेजसा तथा नाव्यमितिवक्त्तव्यं ॥ यतो न हि तच्चरितकीननेन वयं तचरितमनुविधापयितुं नवन्निव्यवसिताकतु कालानुसारेणाऽद्यापि तादृशेषु दानकुलेषु सत्सु प्रासुकैषणीये. जापि मायेण वृत्तौ संजचत्यांकिमित्याग्रहेण संघादिक्तमेवादी.. पते अवलिः
अर्थ:-एवी रौते सुविहितनां वचन सांजळीने लिंगधारी भल्या जे मंद सत्ववाला एटले निर्बळ ते अमारी एवी शक्ति क्यापा होय जे महंत पुरुषना श्राचरणने अनुसरीए, केम जे हाथीनो
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(१२०)
8. अथ श्री संघपट्टका
जठराग्नि ते नक्षण करेलां वमनां लाकमां पण पचावे . पण हमारो जठराग्नि एवो नथी एटले जे ते मोटा पुरुषतो थोगो दोष लाग्यो तेने पण न सहन करीने अनशन करी गया पण अमाराथी तो कांश एवं थाय नहीं. त्यारे सुविहित बोल्या जे जो एम तमो कदेता हो ते न कहेवू जे ए हेतु माटे ते मोटी पुरुषतुं चरित्र केहि देखामयुं तेणे करीने कांश तेमनी पेठे तमारी पासे अमारे करावq एवो व्यवसाय.नथी एटले अभिप्राय नथी. त्यारे शुं? तो कालने अनुसारे आज पण तेवां देनारनां कुल सते. पण प्रासुकने एषणीय एटले निर्दोष एवा नोजने करीने पण निर्वाह बते शा वास्ते संपादि निमित्त नोजननेज आग्रहे करीने तमो ग्रहण करोडो. ३
टीकाः-दृश्यते चाद्यापि केचिन्महात्मानःशुभेनजक्तेन संयमपालनायात्मानं यापयंतः॥अथ शुभेनाल्पीयसामेवेदानीं शरीर । '-यापना अताधाकान्युपगमः॥तर्हितावंत एव दीयंता किंतू विष्टैातावनिरेवतीर्थाव्यवच्छेदसिझेगाबहु मुंमादिवचनस्य ज. वतामपि प्रसिद्धेः ॥ तदवस्यामो नूनं संघनक्ताग्रहोऽधुनातनय... तीनामतिभ्रतानिबंधनो न धर्म शरीरधारणहेतुक इति नायः पक्षः ॥
अर्थ-आ कालमां पण केटलाक महात्मा पुरुष देखाय में जे शुद्ध नोजने करोने संयम पालवाने अर्थे आत्मानो निर्वाह करे देने वळी जो एम कहेता हो जे शुद्ध नोजने करीने थोमानो निवाह आ काळमां थाय माटे आधाकर्मनो अंगिकार करीए बीए, तो त्यां कहीए बीए जे, “ तमो जेटलानों शुरू नोजने करीने निर्वाह थाय तेटलांनज दीक्षा आपो घणाने शुं करवा आपोगे तेटलावते.
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अथ श्री संघपट्टका
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ज तीर्थनो गच्छेद नहीं थाय केम जे श्रमण अल्प ने बहु मुंमा ए वचननी तमारामां पण प्रसिद्धि एटले तमो पण एने प्रमाण करो गे ते हेतु माटे. आ काळना यतियो संघादि नोजननुं जे ग्रहण करे . तेनुं कारण एज ने एम अमो निश्चय करीए बीएं जे ते अतिशे रसलोनी थया ले. तेथी आधाकर्मी जोजन कर जे. पण धर्मशरीर धारण कर ए काइ कारण नथी, एप्रकारे जावज्जीव आधाकर्मी जोजन करवारुप तमारो प्रथम पद तेनुं खंमन थयु.
टीका:-अथ द्वितीयः तदेवमेतत् ग्लानाद्यवस्थायां अर्जिवादिषु शुझेनानिादेचाधाकर्मग्रहणस्याप्यागमे प्रतिपादनात्। शुभेन निर्वाहेतु तस्य कादाचित्कतयापि ग्रहणे दातृगृहीत्रो रहितत्वेना निधानात् ॥यदाद॥ संथरणं मि असुई, उन्हवि गिहंत दितयाणहियं ॥आनर दितेणं, तंचेव हियं असंथरणे.
अर्थः-हवे बीजो पक्ष जे क्यारेक ग्रहण करवा रुपी कल्प ते पण आ प्रकारे जे ग्लानादि अवस्थामां, उकाल पसे इत्यादि कारणे शुद्ध नोजनवते निर्वाह न थाय त्यारे प्राधाकर्म ग्रहण करवार्नु आगममा प्रतिपादन कर्यु . ने शुक्रवते निर्वाह श्राय त्यारे तो तेतुं ग्रहण करनार तथा देनार ए बेनुं अहित थाय एम शास्त्रमां कडं बे. ते वचननो अर्थ जे.
टीका:-यदप्युक्त "मात्माच यतिना यथाकथंचन रक्षणीय" इत्यादि ॥ तदप्यनालोचितानिधानात् ॥ नह्येतत्सूत्रं देहस्य धर्मसाधनत्वेन यतीनां यावजीव माधाकर्मसेवनपरं, किंतु तथा विधालंवनसदनावे कदाचिदाधाकर्मादिसेवनेनापि पुनः सं
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( १२२ )
- अथ श्री संघपट्टकः
यमकरणायात्मा रक्षणीय इत्येतत्परं प्रायश्चित्तविधानेन तजन्य पापनाशनस्य पुणो विसोहीति वचनेन प्रतिपादनात् ॥
अर्थ:-वळी जे तमे एम कधुं जे यतिये जे ते प्रकारे पोताना श्रात्मानी रक्षा करवी इत्यादि, ते पण विचार विनानुं कहेतुं वे पण विचारथी नथी. केम जे ए सूत्र कांइ एम कहेवाने तत्पर नथी जे देह धर्म साधन बे माटे साधुने जावजीव श्रधाकर्म सेवन कर. त्यारे शुं ? तो ते प्रकारनं एटले कोइ मोटुं आलंबन उत्पन्न थये सते क्यारेक धाक आदि सेवन करीने पण फरीथी संयम करवाने
आत्मा राखवो ए प्रकारना छार्थने कड़ेवाने तत्पर बे केम जे प्रायश्चित्तना विधिये करीने ते आधाकर्म थकी थयुं जे पाप तेने नाश करवाने पुणोविसाही इत्यादि वचने करीने शास्त्रमां प्र तिपादन कर्यु बे.
टीकाः - - यावजीवं तदासेवने तु शुद्धे खसराभावेन पुणोविसोही ति वचनस्याऽचरितार्थत्वप्रसंगादिति ॥ एतेन यत्यर्थं घृतादिनिश्राविधानमपि प्रत्युक्तं ॥ तस्याधाकर्मस्थापनाकीतादि दोष कलापक लितत्वेना नेकजंतु विध्वंसहेतुत्वेन च भगवद्भि निवारणात् इतरथा सत्रागारादीनामपि तत्कल्पत्वेन जैनधर्मे विधेयत्वप्रसंगात् ॥
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अर्थ:-- ने जो जावजीव श्राधाकर्मी जोजननुं सेवन होत तो शुद्ध जोजननो अवसर न श्रावत तेथे करीने “ पुणो विसोही " ए वचननुं व्यर्थपणुं थवानो प्रसंग थात ए हेतु माटे एनुं खंगन कर्यु ते करीने साधुने अर्थे घी आदि वस्तुनी निश्रानुं जे करवुं तेनु
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8. अथ श्री संघपटक
(१२३)
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पण खंमन थयु केम जे तेने आधाकर्म स्थापना वेचाथी लाव, इ. त्यादि दोषना समूहे करीने सहीतपणुं जे ए हेतु माटे ने अनेक जंतुना नाशनुं कारण , माटे जगवान तीर्थंकरे घृतादि निश्रा निवारण करीबे, जो एम न होत एटले निश्रानुं निवारण न कर्यु होत तो जैनधर्मने विषे साधुने सदावर्त आदिकनुं नोजनादि लेवानो एटले कल्पपणे करवानो प्रसंग होत पण तेतो नथी ए हेतु माटे निश्ना न कल्पे॥
टीका-नच सत्रागारादीनामसंयतजनपोषकत्वेन पापहेतु वादविधेयत्वं घृतादिनिश्राणां तु संयतोपष्टंनक्वेन पुण्यनिबंधनत्वा विधेयत्वं नविष्यतीति वाच्यम् ॥
अर्थ:-लिंगधारी बोले जे सदावर्त श्रादिकनं नोजनादि जे साधुने न कल्पे तेनुं कारण तो ए जे जे सदावर्त तो असंजति एवा लोकनुं पोषण करे . ए हेतु माटे पापर्नु कारणिक ,माटे ए साधुने लेवा योग्य नथी, पण घीआदिकनी निश्रातो संज तिने नपष्टंन करनार डे एटले टेको देनार पुष्ट करनार डे एवी ले तेणे करीने पुण्य बांधवानुं कारण ने ए हेतु माटे करवा योग्य थशे त्यारे सुविहित बोल्या जे एम तमारे न बोलवू
टीका:-निश्रादिषु घृतादिग्राहिणां यतीनामपि गाद्धर्यादिना सिद्धांतनिषिककारित्वेना संयतत्वानिधानात् ॥ तथा चोलयोरप्यनयोः समानदोषत्वेन जैनमते निषेधात् ॥ घृतादिसंग्रहस्यच श्रावकाणामपि रसवाणिज्यत्वेनागमे निषेधादतःकथं यत्यर्थं तत्संग्रहःक्रियमाण शोनेत ॥
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Re अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः-निश्रादिकने विष घृतादि ग्रहण करनार यतिने पणं रसलोनिपणुं थवादिक दोष जे तेणे करीने सिद्धांतमा निषेध कर्यु ।
तेनो करनार ए श्रयो माटे असंजतिपणुं प्राप्त थयुं माटे ए बेनो सरखो दोष थयो एटले सदावर्त्तन लेवुने निश्रा करवू लेवु ए बे असंजतिने जे माटे ए बेनुं जैनमतने विषे साधुने लेवानो निषेध डे ए हेतु माटे, ने श्रावकने पण घृतादि संग्रहनो ने तेनो वेपार करवांनो आगममा निषेध माटे यतिने अर्थे घृतादिनो संग्रह करवों ते केम शोन्ने.
टीकाः-इदानी गृहिगृहेष्वलाजेन घृतादिनिश्रां विनायतीनां शरीरधरणस्याप्यालंबनमात्रत्वात् ॥ कानुगृहेष्वधुनापियथे5 शुद्धघृतादिप्रातः॥पुर्जिदाद्यपेक्षयातु कदाचिदलानेप्यूनोदर तायास्तपस्त्वेनोपकारित्वात्।यदुक्तालच्यते लज्यते साधु, साधु चैव न लन्यते अलब्धे तपसो वृद्धिलब्धे देहस्य धारणातदहो मूढा आलंबनानासेनाद्यूनतामेव पुरःकुर्वाणाः सर्वथायतिक्रिया.. मुत्सृजंतोनलांते ॥
अर्थः-वळी श्रा काळमां गृहस्थना घरने विषे घृतादिन मळे माटे घृतादि निश्रा विना यतिने शरीरनुंधारण थश्शकतुं नथी एम जे कहो बोते पण आलंबन मात्र ने एटले श्रोटु देखामवानुं के कहेवा मात्र डे केम जे श्रद्धालु गृहस्थना घरमा आज पण पोतानी श्वा प्रमाणे शुद्ध घृतादिकनी प्राप्ति थाय ए हेतु माटे, उकालादिकनी अपेक्षाये तो क्यारेक न्यून लान थये बते उणोदरपणाने पण तपपणुं ए हेतु माटे उपकारी ते शास्त्रमा कयु डे
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+8 अथ श्री संघपट्टकः 3
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जे कोइ वखत सामले कोइ वखत सारुं न मले कोइ वखत मुद्दल . पण न मळे त्यारे साधु पुरुष तो न मळे त्यारे तपनी वृद्धि थाय बे ने मळे त्यारे देहनुं धारण थाय बे एम माने ते कारण माटे अहो मूढ पुरुष तो वालंबनना यास मात्रे करीने केवल पोतानुं खौकमपणुं श्रागळ करी देखामता सर्व प्रकारे साधुनी क्रियानो त्याग करे बेप लजाता नयी एटले ए पेटनरा एम लाज पामता नथी जे या वेष धारण करीने ते शुं करीए बीए ए मोटुं आश्चर्य बे.
टीकाः - यदाह ॥ संघयणकाल बलदूसमरूवालंबणा घेत्तणं ॥ सबंचिय नियमधुरं, निरुज्जमा पहुंचति.
अर्थ:-जे माटे शास्त्रमां कह्युं बे के केटलाक निरुद्यमी पुरुष. संघया तथा कालबल तथा दूषमच्यारो ते रुप आलंबन ग्रहण करी सर्व पोताना नियमरुपी धुराने निश्चे मुकी देवे.
टीका :- यदपि श्राश्रा वृद्धयेऽशुग्रहणमप्यदुष्ट मित्यायवाचि, तदपि विस्मृत जिनवचनस्य जवतोऽनिधानं ॥ अशुद्ध पिंमस्यदातृगृहीत्रोरहितत्वेन प्रागेव प्रतिपादनात् । तथा श्रद्धावंधुरस्यापि नरतपतेः शकटपंचशत्युपनीत स्निग्धमधुरस्वाडुनक्ष्यै तिदानंप्रति जगवतायुगादिदेवन प्रतिषेधात् ॥
अर्थ:-वळी सुविहित लिंगधारी प्रत्ये कहे बे जे तमे कहुँ जे श्रावकनी श्रद्धा वधवाने शुद्ध ग्रहण करवामां दोष नथी तोपश विसार्या जिन वचन जेणे एवो जे तुं, ते तारुं कहेतुं वे म जे शुद्ध पिंनुं दान तो दाताने ने ग्रहण करनार ए वेने श्रहित करनार बे. एम मोए प्रथम प्रतिपादन कर्यु. ब. ए. देतु
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अथ श्री संघपट्टका
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माटे. वळी जरत राजा पांचसे गामां सुंदर मधुर स्वायु एवां लोजन नरिने साधु दान प्रत्ये अति श्रद्धावंत थया तोपण नगवान श्री युगादि देवे ते दाननो निषेध कयों ने ए हेतु माटे
टीकाः-राजपिमत्वात्प्रतिषेधतिचेन्न ॥ श्राधाकर्मत्वेनैवतप्रतिषेधस्यागमेश्रवणात् ॥ अत:प्रथमपश्चापनीतयोरशुशुक पिंमयोराजपिंगत्वेनसमानत्वेपियनगवान ऽशुद्धपिनमाधाकर्म त्वेनैव न्यषेधत् तेनावगछाम श्राधाकमैव सर्वदोषेच्योमहीयानन्यथाऽ शुद्धवद् शुङमपिराजपिमत्वेनैवन्यषेधत् ॥
अर्थः-त्यारे लिंगधारी बोल्या जे एतो राजपिमहतो ए हेतु माटे निषेध कर्यो, त्यारे सुविहित बोट्या जे एम तारे न बोलवू केम जे श्राधाकर्मपणुं हतुं एज हेतु माटे निषेध कयों जे. एम शास्त्रमा सांनळीए बीए केम जे प्रथम जे त्याग कर्यो ते अशुद्धपिंग हतो ने पढ़ी जे गृहण कर्यो तेशुम पिंम हतो माटे ए बेने राजपिंपणुं तो सरखंज हतुं तो पण जगवान एने अशुद्धपिंग एटले श्राधाकर्मपणुं एमां ने एम जाणीने निषेध कर्यो ते हेतु माटे एम जाणीए बोए जे आधाकर्मज सर्व दोष थकी मोटो जे. एम जो न होय तो जेमअशुजनो त्याग कर्यों तेम शुकमिनो पण राजंपिंग एम जाणीनेज निषेध करत.
टीका:-तथा तिसारापसरणाय नगवन्निमित्तनिर्मितमोदकं दातुं समुद्यतायारेवत्या भगवता निषेधनाञ्च ॥ तस्माच्खुद्धदानेनैव श्राझानामपि पुण्योत्पादः ॥ आधाकर्मग्रहणेन च यतेः स्वार्थपरिहाएयाकीदृशः परार्थः ॥ स्ववंचनेन वस्तुतः परोपकारानुपपनेः॥
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ॐ अथ श्री संघपट्टका
(१२७"
अर्थः-वळी रेवतीजीए अतिसार रोग मटामवाने जगवानन निमित्ने मोदक निपजाव्यो ने तेने देवा उजमाल थ त्यारे नगवाने तेनो निषेध कयों ने ते कारण माटे शुद्धदाने करीनेज श्रावकने पण पुण्य नुत्पन्न थाय बे ने आधाकर्म ग्रहण करीने यतिने स्वार्थनी हानी थाय जे माटे परार्थ केवो थाय ? नज थाय. केम जे वस्तुताए तो पोताना आत्मानुं वंचन करीने परोपकारनी सिकि थती नथी ए हेतु माटे ॥
टीकाः यथोक्तं ॥ जाणेणं चत्तंअप्पणयं नाणदसण चरित्तं ॥ तश्या तस्स परेसिं, अणुकंपा नस्थिजीवेसु ॥
अर्थ:-जे माटे शास्त्रमा कडं ज्यारे जे पोताना ज्ञानदर्शन चारित्रने तजे जे त्यारे जाणवू के तेने परजीवोमां अनुकंपानथी
टीका:-तथान्यत्राप्युक्तं ॥ परलोकविरुझानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् ॥ श्रात्मानं योतिसंते, सोऽन्यस्मै स्यात् कथं हितः॥ .
अर्थः-वळी बीजे पण कडं ने जे, परलोकने विरुद्ध करतो जे पुरुष तेनो बेटेथी त्याग करवो केम जे पोताना आत्मानुं बगामे डे ते वीजानो हितकारी कीये प्रकारे होय.
टीकाः-एवंच संयम शरीरोपष्टंनकस्वादिति हेतुप्रयोगोप्यनुपपन्नो विशेषणासिद्धत्वात् ॥ उक्तन्यायेन सतताधाकर्मजोजिनो यतेः शरीरस्य संयमशरीरत्वानुपपत्तेः ॥ तथा श्राद्धश्रझावृधिहेतुत्वादिति द्वितीयहेतुप्रयोगोप्यसमीचीनः आधाकर्म नोजनोपादानस्यागमविरुकत्वेन देतो बर्बाधितविषयत्वात् ॥ ब्राह्मणेन सुरा पेया अवजव्यत्वातू कीरवदित्यादिवत् ॥ . ..
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(१८)
48. अथ श्री संघपटक
. अर्थः-वळी संयम रुपी शरीरने उपष्टंन करनार ने एटले टेको आपनार , ए हेतु माटे ए प्रकारनो जे हेतुप्रयोग को तेपण अघटित . केम जे विशेषणे करीने असिफ बे, एटले हेतुप्रयोग खोटो डे केम जे पूर्व कां ए प्रकारना न्याये करीने निरंतर आधाकर्मनुं जोजन करनार यतिने संयमरुप शरीरनीज असिधि ले माटे वळी श्रावकनी श्रझावृद्धि थाय ए हेतु माटे ए प्रकारनो बीजोहेतु प्रयोग कर्यो ते पण सारो नथी केम जे आधाकर्म जोजननुं ग्रहण करवू ते आगम विरुद्धपणे बाधहेतुनुं स्थान डे एटले ए अनुमान प्रयोग निर्बाध नथी कीये दृष्टांते ? तो जेम ब्राह्मणने सुरापान करवू ए सुरा मुघनी पेठे नरम वस्तु ए हेतु माटे ए प्रकारनो अनुमान प्रयोग जेम बाधित तेम आ अनुमान प्रयोग पण बाधित ए. टले खोटो डे.
टीका:-तथापि प्रतिवाद्युपन्यस्तहेतुदूषणमात्रेण न स्वपद सिकिरिति स्वपदोपिसाधनमुच्यते ॥ यतीना माधाकर्मन्नोजन मनुपादेयं षटजीवनिकायोपमई निष्पन्नत्वात् तथाविधवसत्यादिवत् ॥ तथा यतीना माधाकर्मजोजनमजोज्यं धर्मलोकविरुष्क वाद्गोमांसवदिति ॥ एवंचोपपन्नमेतत्संघादिनक्तं यतिना न लोक्तव्यमितिवृत्रार्थः ॥ ६॥
अर्थः तो पण प्रतिवादिये स्थापन कर्या ने हेतु तेमां दूषण देखामवा मात्रे करीने पोताना पदनी सिजि नथी थती माटे पोताना पदने विषे पण अनुमान साधनना प्रयोग करी देखा जे.जे यतीने आधाकर्म भोजन ग्रहण कर योग्य नथी केम जे न जीव निकायना मईन थकीनत्पन्न थवाप ए हेतु माटे जेम व जीवनि
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-18 अथ श्री संघपट्टकः -
( १२९ १
कायना मर्दन की निष्पन्न थयो एवो निवास गृहण करवा योग्य न ते ते प्रधाकर्म जोजन पण ग्रहण करवा योग्य नथी वळी बीजो अनुमान प्रयोग जे यतिने आधाकर्म जोजन जमवा योग्य नथी केम धर्म ने लोक ए वेमां विरुद्ध ने ए हेतु माटे गोमांसनी पेठे. जेम गोमांस बे ते धर्मने लोक ए बेमां विरुद्ध वे. माटे श्रमदय बे तेम यतिने आधाकर्म जोजन पण अजक्ष्य दे ॥ एम सिद्ध युं जे संघादि निमित्त जे जोजन ते यतिने जोगववा योग्य नथी ए प्रकारे हा काव्यनो थयो ॥ ६ ॥ ए प्रकारे हे शिकनोजननो . प्रथम द्वार संपूर्ण थयो.
टीका:-- इदानीं देवव्योपनोगादिदूषण प्रर्दशनद्वारे जिनगृहवासद्वारं निराचिकीर्षयाह ॥
अर्थ:-हवे देव द्रव्यनो उपयोग ए यदि दूषणनुं देखामनुं ए द्वारे करीने जिन मंदिरमां निवास करवा रुप द्वारनुं नीराकरण क खानी इच्छाये कहे .
मूल काव्यं.
गायधर्वनृत्यत्परमणिरण पुगुंजन्मृदंगखत् पुष्पस गुद्यन्मृगमदलसल्लोच चंचजनौघे ॥ देवपयोपोगध्रुवमव पतिताशातनाच्यत्रसंतः संतः सद्द्भक्तियोग्ये नखलु जिनगृहेऽर्ह मतज्ञा वसंति॥१॥
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(१३०)
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अथ श्री संबपट्टकः
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टीकाः-खबुनिश्चये जिनगृहेऽहंदनवनेऽर्हन्मता जगवदा गमनिष्णाता यतयोनैव वसंति सततमवतिष्टते ॥ तदागमे तन्निवासस्यात्यंत निवारणात् ॥संतोविवेकिनः॥ कुतश्त्यताह ॥ सतीशोलनाऽकृत्रिमा नक्तिःशारीरसंचमातिशयस्तस्य योग्य मुचितं तस्मिन् निक्तिरेवयतस्तत्र कर्तुं युज्यत इतिन्नक्तियोग्यता मेव विशेषतो विशेषणद्वारेण दर्शयति
अर्थः-अरिहंत मतना जाण एटले नगवाननां आगम तेना पारगामी एवा साधु निश्चे जिनघरमां निवास नहीज करे, एटले तेमां निरंतर नहीं रहे. साधुने जिनमंदिरमां निवास करवानुं शास्त्रमा अत्यंत निवारण कर्यु ले माटे संतजे विवेकी पुरुषते त्यां नहीं रहे. शा हेतु माटे ? तो त्यां कहे के जे, जिनमंदिर के ठे, तो सारी क. पटर हित जे भक्ति तेने योग्य एटले नक्ति करवा घटित डे माटे नक्तिनुं योग्यपणुंज विशेष करीने विशेषणबारे कही देखामे .
टीकार-गायंतः कलमंडादिस्वरेण ग्रामरागैगवद्गुणानेवोत्कीयंतोगंधर्वाः प्रधानगायना यत्र तत्तथा ॥ नृत्यंती नाट्य शास्त्रोक्तक्रमण करचरणायंगविदेपंकुर्वती पणरमणी वारस्त्रीनतकी यत्र ततथा
अर्थः-मधुर गंजीर एवा स्वरे करीने नाना प्रकारना रागरा गणीये सहित गंधर्व एटले प्रधान गायक लोक ते जे जिनमंदिरमा गात करे ले एवं ने नाट्यशास्त्रमा कह्या प्रमाणे हाथपग आदि अं
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अथ श्री संघपट्टक
(११)
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गनो विकेप करवो ते रुप नृत्यने करतीले वेश्या नर्तकीयो) ते जे जिनमंदिरने विषे एवं ॥ .
टीकाः-रणंतोवैण विकैर्मुखमरुताजिघातान्मधुरंध्वनंतो वे एवोवंशा यत्र तत्तथा गुंजंतोमार्दगिकै पाणिन्यांतामना गंजीर स्वनंतःमृदंगा मुरजा यत्र तत्तथा
अर्थः-वांसळीने वगामनारा पुरुष तेमना मुखवायुनो प्रवेश थवाथी मधुर वागे जे वेणु ते जे जिनमंदिरने विष एवंअने मृदंगना वगाजनारा पुरुषोना हस्ततामनथी गंन्नीर शब्द करती मृदंगो ते, जे जिनमंदिरने विषे एवं.
टीका:-खंत्योलंबमानत्वान्मंदपवनेन कंपमाना देवसपार्थ विरचिताःपुष्पस्त्रजः प्रसूनमाला यत्र तत्तथा ॥ पुष्पग्रहणेनच पुप्फामिसथुश्नेया इत्यादिना साहचर्यानिधानात्पक्वान्नादिबलिस्तुतिलकणपूजाघ्यस्यापीह ग्रहणं दृष्टव्यं
अर्थः-मंदपवने करी कंपती ने लांबी, पूजाने अर्थे रचेली डे पुष्पमाला ते जे जिनमंदिरने विषे, एवं आ जगाये पुष्पर्नु ग्रहण कयु ले तेणे करीने तेनी संघाथे शास्त्रमा ग्रहण करेली जे पक्वान्न बलि पूजा, तथा स्तुतिपूजा. ए वे पूजा, पण अहीं ग्रहण करवू.
टीका:-नयन् जगवत्प्रतिमाविलेपनाथ विमर्दनसमुबल दामोदछारेण प्रसरन्मृगमदः कस्तूरिका यत्रतचथा॥ ससंतः य- .
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( १३२)
-g. अथं श्री संघपट्टकः
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हांशुमयत्वात् मुक्ताफलादिविजिनियुक्तत्वाच्च दीप्यमाना - होचा वितानानि यत्र तत्तथा ॥ चंचंतो महाधनवसन विभूषणां । गरागप्रसाधितशरीरत्वाद् नाजिष्णवोजनौघाः श्रावकसमुदाया यत्र तत्तथा ।। ततश्च गायद्गंधर्वचतत् नृत्यत्पणयरमणि चेत्यादि कर्मधारयः तस्मिन् ॥ एतानिहिनगवद्गुणगानादीनि प्रवराणि जिनगृहे नक्तिहेतुकानि नव्यानां शुलनावोल्लासहेतुत्वावलोबुनिर्विधीयते ॥
अर्थः-नगवाननी प्रतिमाना विलेपनने अर्थे मईन करी माटे उठल्यों जे सुगंध ते सारे करीने प्रसरती ने कस्तूरी ते जे जिनमदिरने विषे, ने पकूल वस्त्रमय ने माटे शोलता ने मोतीनी विचित्र रचनाए युक्त माटे देदीप्यमान ए प्रकारना डे चंदवा ते जे जिनमंदिरने विष एवं, ने मोटा मूलनां नारे एवां वस्त्र तथा भूषण तथा अंगराग तेणे करीने देदीप्यमान एवाले श्रावकना समूह ते जे जिनमंदिरने विषे एवं, ए प्रकारनां सर्व जिनमंदिरनां विशेषण जे तेनो कर्मधारय समास करवो जिनमंदिरने विषेए सर्व जगवानना गुणगानादि श्रेष्ट कह्यां ते जिनघरने विषे नक्तिनां कारणिक माटे जव्य प्राणीने नावना उहासनां कारण माटे श्रद्धालु पुरुष करे . टीका-यमुक्तं ॥
पवरेहिं साहणेहिं पायंत्रावोवि जायएपवरो॥ • नयं अन्नो जवनगो एएसिं सयाणलक्ष्यरो॥
. अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कह्यु बे जे सारां कारणे करीने जाव पण माये सारो श्राय बे.
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48 अथ श्री संघपट्टकः -
( ११३ )
टीका:- अथैवंविधन क्तियोग्य जिनगृहे किमिति साधवोन निवसंति तत्राह । संतो विज्यतः कुतोदेवद्रव्यस्य जिन वितस्य उपजोगः सततं तत्र शयनासनाजोजनादिकरणेनोपजोगः तथा ध्रुवा शास्वती यावजीवं प्रथवा ध्रुवं निश्चितं मठो जिनगृह जगती संबद्धोय तिनिमित्त निष्पन्नउपाश्रयस्तस्य पतिता थाधिपत्यं जिनगृह लेखकोद्ग्राह णिकाकर्मातरा दिसकलचिंताकारित्वेनाधिकारित्वमितियावत् ॥ चैत्यवासिनो हि निरंतर संच रिष्नुजन संकुलतया तत्राव्ययं स्थातुमशकुवंत स्तदनुषक्तजुवि मं विधाय सर्वा तचिंता विद्यतीति भवतिमावपत्यं ॥
अर्थः- हवे लिंगधारी सुविहित प्रत्ये पूढे जे जे आ प्रकारे भक्ति करवा योग्य जे जिनमंदिर तेमां साधु केम निवास न करें ? त्यारे सुविदित कहे जे जे या प्रकारना दोषथी जय पामता साधु नथी निवास करता, ते दोष कडे बे, जे देव द्रव्यनो उपभोग थाय माटे उपजोग ते शुं तो निरंतर जिनमंदिरमां सूवुं तथा जोजनादिकनुं करवुं ते उपभोग बे तथा निरंतर एटले जावजीव श्रथवा निश्चे मठपतिपणुं थाय मांटे मठ एटले जिनघरनी जंगती संबंधि जे यतिनिमित्त निपजाव्यो उपाश्रय तेना पतिपएं एटले धणीपढ़ें, जिनमंदिरनुं लेखूं लखवं तथा नघराणी करवी इत्यादि बीजां कामकाज करवां एम सर्व चिंतानुं करवापणे अधिकारीपणुं डे वळीचैत्यवासी जे ते निरंतर त्यां श्रावता जता लोके करोनें व्याप्त बे माटे व्यग्रपणे एटले समाधिपणे रहेवा समर्थ / नथी यता ते जिंनमंदिर संबंधी पृथ्वीमां मठ करावीने सर्व तेनी चिंताने पोते करें माटे मप्रतिपणुं तेमने बे.
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( १३४ )
4- अथ श्री संघपट्टकः
टीका:- तथा जगवत्प्रतिकृतिप्रत्यासत्तौ जोजनशयनासन निष्टीवनाद्य विधिकरणेन ज्ञानाद्यायस्य शातना जंशनं ॥ जगवत्संनिधौ हि भोजनादि कुर्वाणो यतिर्ज्ञाना दिलानाद चश्यतीति नवत्याशातनाऽवज्ञा॥ ततश्च देवद्रव्योपजोग चेत्यादिद्वंद्वः ताभ्यः
अर्थः- वळी भगवाननी प्रतिमाना समीप जोजन कखुं तथा सूनुं तथा आसन करवुं तथा थुंकवुं इत्यादि अधिकरणे करीने जगवानी आशातना थाय वे. ते श्राशातना शब्दनो अर्थ जे ज्ञानादिकनो जे लाज तेनो नाश थाय जेथी एटले जगवंतनी समीपे भोजनादिकने करतो जे यतिते ज्ञानादि लाजथी ऋष्ट थाय बे, माटे अशातना एटले अवज्ञा बे. देवद्रव्योपजोग इत्यादि पदनो इंड समास करवो.
टीका:- अथग्रहिणां जगवन्निमित्तं स्वद्रव्येण निर्मापित देवगृहे वसतस्तदव्यं च कनकादिक मनुपभुंजानस्य यतेः कथं देवद्रव्योपभोगः, जिनद्रव्य निष्पन्ने हि तत्र निवसत स्तदूव्यं ! साक्षादू जानस्य वा स्यादितिचेत् न ॥
अर्थ:- हवे लिंगधारी सुविहित प्रत्ये बोले बे जे, गृहस्थ लोक पोताने द्रव्ये करीने नीपजाव्युं जे देवघर तेमां निवास करनार यतिने देवद्रव्यनो उपभोग केम करीने थयो ? केम जे ते झ व्य ते सुवर्णादिक तेनो दो उपभोग करतो नथी माटे, ने जो जिनद्रव्ये करीने नीपजावेला स्थानमां निवास करे अथवा ते अव्यनो साक्षात् उपनोग करे त्यारे जिनद्रव्यनो नृपत्जोग कदेवाय
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-g. अथ श्री संघपट्टक
खरो, त्यारे सुविहित बोल्या जे तारे एम न बोलवू.
टीकाः-गृहिणा स्ववसुनिर्मापितत्वेपि देवसदनस्य देवत्राकृतत्वेन देवव्यत्वा त्तथाच तत्र वसतः सादात्तछनमनुपचुंजानस्यापि मुने देवव्योपलोगोपपत्तेः॥ साक्षादेवजव्यनिष्पन्ने तु का वा ।। किंच नित्यं तत्र वासेन निःस्पृहस्यापि तञ्चितादौ व्या प्रियमाणस्य साक्षात्तद्ग्रंथोपयोगस्यापि संजवात् राजनियोगादिषु प्रथमं निरीहाणामपि पानथालावोपलब्धेः॥
अर्थः केम जे गृहस्थे पोताना अव्ये करीने नीपजावेलु एबुं पण देवघर ते देवने श्रर्पण कर्यु ने, ए हेतु माटे देवव्यपणुं ले माटे त्यां वसनारने अने साक्षात् ते धनने जोगवनार ए बेने पण देवप्रव्यना नपजोगनी प्राप्ति ,ने साक्षात्देव अव्ये करीने निपजावेबुं होय त्यारे तो तेनी शी वात कहेवी, वळी शुं? तो निरंतर त्यां निवासे करीने निस्पृह एवा मुनीने पण ते अव्यनी चिंतादिकने विषे वेपारवंत थवाथी साक्षात् ते ग्रंथना नपयोगनो पण ए. टले साक्षात् ते अव्य संबंधी उपलोगनो पण संनव बे, केम जे प्रथम केटलाक निरीह एटले नोगादिकनी वांजगए रहित मुनि हता ते पण राजानी आझा इत्यादि कारणे ते अव्यसंबंधने पाम्या तो पड़ी ते मुनिने ते अठ्यना नफ्लोगनी वांडा प्राप्त थ ने ए . हेतु माटे.
टीका:-अथास्तां तत्र वसतो मुनेर्देव अव्योपत्नोग स्तथापि तत्रको दोष इतिचेदुच्यते तदनोगस्यानंतजन्मसुदारुण विषाकरलेन नरवतान्तिधानात
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अथ श्री संघपट्टकः
__ अर्थः-हवे लिंगधारी कहे जे जे जिन मंदिरमा रहेनारने देव अव्यनो उपन्नोग थाय तो पण तेमां शो दोष , त्यारे सवि. हित कहे जे के घणो दोष दे. जे देव अव्यनो नपजोग करे ने तेने अनंत जन्म सुधी महा आकरुं पापर्नु फल जोगव, पके डे ए हेतुं माटे एम जगवान श्री तीर्थकरे का बे.
टीकाः-यदाह ॥ देवस्स परीनोगो अणंतजम्मेसुदारुणविवागो ।। जं देवनोगभूमिसु बुट्ठी नहु वदर चरिने । अत्रहि देवजूमिसुंजानस्य यतश्चारित्राचावेनदारुयो विपाक: प्रतिपादितः ॥ तथा संकासादिश्रावकाणां चैत्यजत्र्योपजोगिना सत्यंतदारुण विपाकस्यागमेपि बहुधा श्रवणात् ॥ .
अर्थः-जे माटे ते शास्त्र वचन जे देवव्यनो परिजोग करे ले ते अनंत जन्मने विषे दारुण पापफलने लोगवे , ए जगाए देव जमिने जोगवनार यतिने चारित्रनो नाश थयो तेणे करीने दारुण पाप फळD नोगवद् प्रतिपादन कयु वळी संकासादि श्रावके चैत्र अन्यनो नपनोग को तेणे करीने अनंत दारुण पापफळ लोगव्यु ते आगममा घणी जगाए संजळाय ने ए हेतु माटे.
टीकाः-तथा जिणपवयणबुढिकरं पन्नावगं नाणदंसणगुगाणं, नकतो जिणवं अनंतसंसारिई दो ॥ तथा चेश्य
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-g. अथ श्री संघपटक
(१७)
दवं साहारणं च जो हर मोहियमई धम्मच सोन याण अहवा बद्धाउउँ नरए.
अर्थः-ते नुपर शास्त्रना वचन जे, जिनना प्रवचननी वृ. कि करनार ने ज्ञान दर्शनना गुणनुं प्रजावक एवं जिनअव्य तेने लक्षण करनार जे पुरुष ते अनंत संसारी होय वळी मोह पामी . मति ते जेनी एवो पुरुष चैत्य अव्यने तथा साधारण अव्यने बगामे, ते पुरुष धर्म प्रत्ये जाणतो नथी. एटले परनवे धर्म न पामे ए जाव अथवा ते पुरुष, बांध्यु डे नरकनुं आनखं ते जेणे एवो थाय.
टीकाः-इत्याद्यपरापरागमवचनानि । चिंतयंतोमहामुनयो देवजव्योपत्नोगेन नवकूपपातात्कथं न त्रस्यंति तथा माम्पत्यादपि महामुनयो बियति ॥ यत:मंगेहि देवजव्य निष्पन्नोवास्यात् गृहिणा यत्यर्थ स्वभव्येणकारितोवा। तत्राद्यपद तन्निवासो यतीना मुक्तप्रकारेण देवव्योपन्नोगप्रसंगादेवानुचितः ॥
अर्थः इत्यादि बीजां बीजां आगम वचनने विचारता महामुनि, देवव्यना नपजोगे करीने संसाररुप कूवामां परवानुं थाय ले माटे केम न त्रास पामे तेमज मठपतिपणुं थवाथी पण म. हामुनि जय पामे . जे हेतु माटे मठ जे ते देवव्ये करीने नि. पजाव्यो होय अथवा गृहस्थे यतिने अर्थे पोताना अव्ये करीने निपजाव्यो होय, तेमां प्रथम पक्ष जे देवव्ये करी नोपजावेला निवासने विषे साधुने रहे तेनुं पूर्वे कछु ए प्रकारे खंमन थयु केम् जे देवन्यना नपल्लोगनो प्रसंग थाय माटे अघटित ;
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(१३८)
28 अथ श्री संपपट्टकः
टीका:- द्वितीयेत्वकल्पनीयत्वात्तन्निवासानुपपत्तेः ॥ तस्य केवलसाधु निमित्तं निष्पन्नत्वेन महासावद्यशय्यारूपत्वात् ॥ यथोक्तं ॥ कालाइकं तु वहाणा अनिकेताचेव श्रण निकंताय ॥ वजाय महावा सावजा मप्यकिरियाय । समपहा सावजाय साढूणमिति ॥
अर्थ:-गृहस्थे यतिने श्रर्थे पोताना इव्ये करीने निवास कराव्यो दोय ते रूप जे बीजो पक्ष तेने विषे पण ते निवासनुं अकदपवाप बे. केम जे ते निवास केवल साधु निमित्ते नीपजान्यो बे माटे महा सावधरूप बे ए हेतुं माटे साधुने न कल्पे, ते शास्त्रमां कनुं बेजे ॥
टीका:- अकल्पनीय वसत्यादेर्यतीनां ग्रहणनिषेधात || ॥ यदाद || पिंक सिद्धां च वनं च चतुथ्थंपायमेवय ॥ कप्पियं न गिहिका, पमिगाहिता कप्पियं ॥
"
अर्थः-न कल्पवा योग्य जे विवास आदिक तेनुं यतिने प्र eu करवानो निषेध बे ने शास्त्रमां कथं वे जे पिंक तथा निवास तथा वस्त्र तथा चौथं पात्र ते सर्व न कल्पे एवां होयतो न ग्रहण करवां ने जो कल्पे एवां होय तो ग्रहण करवां.
महासावयशय्यावा सस्याप्यागमे
टीका:- श्रथापवादेन निधानापवासे यतीनां को दोषइतिचेन्न ॥
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अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः हवे लिंगधारी कहे जे जे अपवादे महा सावद्य स्थानमां पण निवास करवो एम शास्त्रमा कां ने माटे सावद्यरुप जे मम्वास तेमां रहेनार यतिने शो दोष ने त्यारे सुविदित बोल्या जे एम तारे न बोलवं,
टीकाः-गृहिणा स्वव्येणापि यतिविधास्यमानदेवचिंतानिसंधिना तस्यनिर्मापितत्वेन देवनुवि निष्पन्नत्वेन च जिनगृह वस्तुतो देवजव्यत्वात् ॥ अपवादस्य चकदाचित्कत्वेन नित्यं अवतां तत्रवासे तस्याप्यनुपपत्तेः॥
अर्थः गृहस्थे पोताना अव्ये करीने तेस्थान नापजाव्युं पण एमां आ अभिप्राय रह्यो , जे था स्थानमा यति रहेशे ने रहीने देवचिंतादिक करशे एवा अनुसंधाने करी नीपजाववापणुं बे, ए हेतु माटे ने वळी देव संबंधी पृथ्वीने विधे नीपजाववापर्यु ले माटे जिनगृहनी पेठे वस्तुताये देवाव्यपणुंडे ए हेतु माटे, ने अपवादने तो कदाचित्पऍ डे माटे निरंतर तेमां रहेनार एवा तमारे तो अपवादनी सिद्धि प्राप्त थती नथी.
टीकाः-एवं मउवासंसदोष मन्वाना मुनयः कथमिव मउपतितामंगीकुर्वीरन् । तथा जगवदाशातनातोपि विवेकिनस्त्रस्यति
अर्थः-ए प्रकारे मउवासने दोष सहित मानता मुनि जे ते मम्पतिपणानो केमज अंगीकार करे ! नज करे. वळी विवेकी पुरुष जेम मउवासथी त्रास पामे ले तेम नगवंतनी श्राशातनाथी पण नास पामे दे.
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(१०)
अथ श्री संघपटकटीकाः अथ केयं जगवत्प्रतिकृतीनामाशातना? किं गुरुणामिवासन्नगमनावस्थानादिना मुखनाशाकुहरनि:सरद विरलोवासनि:श्वासादिनिस्तदेहोपतापायापादनलक्षणा नत तासु. जगवदध्यारोपेण पूज्यवहुमान प्रकर्षसूचकसंचमातिशयरूपाll
अर्थ:-हवे लिंगधारी वोले जे जे लगवाननी प्रतिमानीआशातना ते कर थाय , शुं गुरुनी पेठे ते प्रतिमाने समीप जq तथा बेसबुं इत्यादिके करीने मुख तथा नासिका तेना रंध्री नीकळतो जे श्वासोश्वास इत्यादिके करीने तेमना देहने नपतापादिक थाय ए रुपनी श्राशातना कहो बो के ते प्रतिमाने विषे जगवाननो अभ्यारोप थवो तेणे करीने पुज्यनुं जे वहुमान तेनो जे उत्कर्ष तेनेसू. चना करनार एवो.जे अतिशे संत्रम ते रुपनी आशातना कहो बो.
टीका न तावदाय, नगवतां परमपदप्राप्तत्वेन तत्प्रतिक• तीनां तदसंबंधेन तदसंन्नवात् ॥ नापिद्वितीय, गर्लागाराद्यवग्रहं. विहाय तिष्टतांतदसंनवात् ॥ ॥ यथोक्तं ॥ सोलालंदवलाणे रहघमियानीममढविवित्तेसु ।।
ठंति मुणीजयणाए तित्थयरावग्गहं मुटु
अर्थः तेमां प्रथम कही जे आशातना ते संन्नवती नथी केस जे नगवान तो मोक्षपदने पाम्या ने माटे तेमनी प्रतिमाने जगदानने कोई संबंध नथी माटे ते आशातना संजवती नथी ने वीजा पानी पण आशातना संत्रवती नथी केम जे जेमा प्रतिमा रहे।
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अथ श्री संघपट्टकः
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एवं ओरनो परसाल इत्यादि स्थान तेना अवग्रहनो त्याग करीने रदेता जे मुनि तेमने ते प्रतिमानी आशातनानो संजव नथी जे माटे शास्त्रमा कडं ले जे.
टीका:-अन्यथा जिनप्रतिमाध्यासिते गृहे वसतां श्रावकाणां लगवदाशातनालयेन बहिरवस्थानप्रसंगात् ॥ किंच न संजवत्येव सर्वथा जगवत्यत्नक्तिः, न हिपितुर्नवने वसतां तत्त नयानां पितर्यजक्तिर्नाम, प्रत्युत पितरं विहाय युतकसदने व. सतां तेषां लोके महानयश पटहः प्रसरति
अर्थः-जो. एम न कहीए तो जिनप्रतिमा जेमां रही ए. टले घर देरासर जेमां बे एवां घरने विषे रहेनार श्रावकने पण न. गवाननी श्राशातनाना जये करीने घर मुकीने घर बारणे रहेवानो प्रसंग प्राप्त थशे ए हेतु माटे वळी सर्वथा नगवानने विषे तेमने नक्ति नथी एम कहे पण संभवतु नथी पिताना घरमा रहेनार जे तेना पुत्र तेमने पिताने विषे नक्ति नथी एम कहे, संनवतुं नथी, उलटुं पिताने मूकीने सासरामा रहेनारनो लोकमां मोटो अपयशरुपी पमहो पसरे ने एटले मोटो अपजश गवाय ,
टीका:-जगवंतस्तु सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रदानेन संसार कांतारनिस्तारकत्वात् यतीनां पितृन्योप्यन्यधिकाः॥श्रतस्तेने दिष्टतया तेषामवश्यमादरणीया अतएव जगवतामपूर्वसमवस
रणादौ तत्र सन्निकृष्टानां श्रमणानामनागमने प्रायश्चितमा , ममे प्रत्यपादि ।।
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१४२.) , - अथ श्री संघपट्टका । ' अर्थ:-नगवान तोसम्यक् ज्ञानदर्शनचारित्रनु, दान करीने संसाररुपी मोटी अटवीमांथी निस्तार करनार जे. ए हेतु माटे य. तिने पिताथकी पण अतिशे अधिक ने माटे तेलगवंत तो अतीशे समीपपणे ते साधुने अवश्य आदरवा योग्य जे. एज हेतु माटेनगवंतना अपूर्व समवसरणादिकने विषे, त्यां समीपे रहेनार साधु जो जगवंतनी पासे न आवे तो तेमने शास्त्रमा प्रायश्चित करवानुं प्रतिपादन कर्यु डे.
टीकाः-यदाह ॥ जत्थ अपुवोसरणं अदिपुव्वंव जेणसमणेण । बारसहि जोयणे हिं सो ए३ अणागमे सहुया तदेवं - जिननवनांतर्वासेपि यतीनां न लगवदाशातनाप्रसजतीति ॥
· अर्थः-ते शास्त्रनुं वचन जे ते कारण माटे यतिने जिननवनमा रहेतां पण जगवाननी श्राशातनानो प्रसंग नथी.
टीकाः-अत्रोच्यते ॥ यत्तावदनिहितं जगवतां परमपदप्रासत्वेन प्रथमविकल्पोक्ताशातनाऽसंनवइति तदयुक्तं ॥ नगवतां मुक्तत्वेपितत्प्रतिकृतीनांतद्गुणाध्यारोपेण तत्वेनाध्यवसानाजतिवदाशातनायाअपि संजवातू ॥ अन्यथा मुक्तत्वा विशेषेनक्तेरप्यनुपपत्तेः.
· · अर्थः हवे लिंगधारीए श्रा प्रकारे चैत्यवासनुं मंकन कर्यु, तेनुं मुविहित पुरुष खेमन करे , जे तुं एम बोले जे जमवानतो
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जब श्री संघपट्टिका - १ मोक्षपदने प्राप्त थया बे. माटे प्रथम विकल्पमां कही जे आशातना तनो संलव नथी; ते तुं अयुक्त बोले डे केम जे जगवान मुक्तिए गया , तोपण तेमनी प्रतिमा विषे, ते जगवानना गुणनो आरोप करीने नगवत् रुपे करीने निश्चे करवायी जेम नक्ति उत्पन्न याय ने तेमज आशातना उत्पन्न थवानो पण संलव डे, ने जो एम नकहीए तो जगवंत मुक्ति गया , तेमनी अहीं नक्ति करवाथीन. गवंतने मुक्तिमां का विशेष यतुं नथी. माटे नक्तिनी पण अ सिद्धि प्राप्त थई एटले नक्ति पण तारे मते न करवी जोइए, तेतो तुं माने डे ने आशातना केम मानतो नथी.
__टीकाः-तत्प्रतिमानक्त्यन्नक्तिमतामुपकारापकारयोर्बहुधागमे श्रवणाच ॥ अतएवासन्नावस्थाना दिना नगवत्याशातना सिद्धेस्तकेतुकश्चैत्यवासप्रतिषेधः पूर्वपक्षपुरःसरं सिझांते निरचायि ॥ यथाह ॥ जातित्थयराण कया बंदणमावरिसणापाहुमिया ॥ नती सुरवरेहिं समणाण तहिं कहिं जणियं
_अर्थः-वळी आगममां जगवाननी प्रतिमानी जे नक्ति तथा अन्नक्ति तेना करनारने उपकार तथा अपकारनुं बहुधा सांनळवा पणुं , एटले नगवतनी प्रतिमानी नक्ति करनारले उपकार थयो ते तथा अन्तक्ति करनारने अपकार थयो ते वे शास्त्रमा संजळाय है, एज कारण माटे समीपनिवास आदि करवाथी नगवानने विषे
आशातनानी लिहिले. ते आशातनान कारण जे चैत्यवास तेनो निषेध सिद्धांतने विवे पूर्वपक्षप्रगट करोने घणोजे चरव्यो ले ते को ले..
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g अथ श्री संघका
टीका-अस्यार्थः, यद्याशातनादोषाच्चैत्यावस्थानं यतीनां न संगबते तदा तीर्थकृतां सुरैयाावर्षणादिका गंधोदकसेचन समवसरणरचनप्रमुखा प्राभूतिका पूजोपचाररूपा कृता, तत्र समवसरणे श्रमणानां कथं केन प्रकारेणाऽवस्थानं नणितमिति
। अर्थः-ए शास्त्रनां वचन कह्यां तेनो अर्थ टीकाकार कहे के जे प्रथम पूर्वपक्ष करीने उत्तर कहेशे जे जो आशातनाना दोषंथी यतिने चैत्यमां निवास करवो नथी संजवतोतो तीर्थकरनी देवताये जे पुष्पवृष्टि, सुगंधीमान जलतुं सिंचवें, समवसरणनी रचना इत्यादि जेट सामग्री पूजाना उपचार रुप करी ते समोसरणने विषे सा. धुने कीये प्रकारे रहेवानुं कडं ये
टीका: अत्रैव परःस्वपन सिद्धये प्रसंगमाह ॥जसमणाण न कप्प एवं एगाणिया जिणवरिंदा ॥ कप्पइय गश्न जे सिकाययणे तयविरुकं ॥ अत्राहि यथा जिनानामेका कित्वप्रसंगेनाऽनाहार्यप्रातिहार्यप्रवृतिसमवसरणवि यती नामवस्थान कल्पते एवं चैत्यायतनेपि न विरुध्यते ॥
अर्थः-या जगाये जेम साधु विना जिननुं एकाकीपणुं यवाना प्रसंगे करीने क्यारे पण प्रातिहार्य विनानुंसमवसरण होय नहीं माटे निश्चे प्रातिहार्य सहित जे समवसरणनी पृथ्वी तेने विषे साधुने रहे करपे तेमज चैत्यमां पण साधुने निवास करको तेमा का विरोध नथी.
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- अथ श्री संघपट्टकः 8
१९४५ )
टीका: - इत्यादौ पूर्वपके परेण कृते प्राचार्येण प्रसंगाच्चतुर्विधेपि चैत्ये यतीनां कदपाकल्पयोः समाधिरनिहितः, यथा, सादम्मियाण हा चव्विहे लिंगजह कुरुंबी ॥ मंगलसालय मत्तीए जं कयं तत्थ एसो ||
अर्थः- इत्यादि पूर्वपक्ष बीजाए कर्यो त्यारे प्राचार्ये प्रसंगथी चार प्रकारना चैत्यने विषे पण साधुने या कल्पवा योग्य बे आ कल्पवा योग्य नथी एवा प्रकारनुं समाधान कयुं बे ॥ ते गाथा ||
टीका:- त्रदि प्रथमार्द्ध लिंगवचन देन चतुर्विधस्य साधर्मिकस्य मध्यात् कुटुंबिनो वारत्तकादेरर्थाय यत्कृतं चैत्यादि तत्र यतीनामवस्थानादिकं कल्पतइत्युक्तं ॥ द्वितीयार्हेतु मंगलादि चैत्यमध्याद् नक्तिकृतेऽयमा देशोव्यवस्थारूपः प्रतिपादितस्तमाद ||
अर्थ :- टीकाकार ते गाथानो अर्थ कहे बे जे या गाथाना प्रथम विषे लिंग वचनना दे करीने चार प्रकारना साधकिनी मध्ये कुटुंबी जेवारत्तकमुनि इत्यादिकने गर्थे जे चैत्यादिक कर्यु होय तेमां साधुने रहेवानुं कल्पे बे एस क ाने गाथाना वीजा श्रर्द्धने विषे तो मंगलादिक चैत्यनी मध्ये चक्तिये कयुं जे चैत्य तेन विषे या आदेश जे ते व्यवस्थारूप प्रतिपादन कर्यो बे ते कहे ॥
टीका:--जइवि न श्रदाकम्मं, जत्तिकयं तदवि वयिं तेहिं ॥ जत्ती खलु होइ कया जिला लोए विदितो ॥ धित
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११४६)
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gअथ श्री संघपट्टका
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कासवओ, वयणं अध्यणापोतीएपस्थिवमुवासए॥खनु, वित्ति निमित्तं जयाचेव ॥ दुन्निधि मलस्स वि तणुरप्पेस अन्हाणिया ॥ उनउँ वानवहो चेव, तेण तिनचेश्ए ॥अत्राहि देवनिमित्तनिर्मितत्वेन जिननवनस्याधाकर्मत्वानावेपि यतीनां तदंतर्वासे नगवति शरीरदौगंध्यादिहेतुकाशातनादोषप्रसंगाद् जक्तिनिमिचं तन्निवासो सुनीनां निवारितः॥ श्रतएवाति परिहारख्यापनाय चैत्यवंदनादिगतानां तत्रावस्थानकालपरिमाणलणनेन प्रकारांतरेणापि तनिवासप्रतिषेध स्तत्रैवागमेऽ: ज्यधायि ॥
अर्थः-आ गाथाओने विषे देवनिमित्त नीपजाव्युं ए, हेतु माटे जिन जवनने श्राधाकर्मपणुं नथी तो पण ते साधुनी समीपे नगवंत रहे ते शरीरनो जे दुर्गध ए आदी कारणे करी आशातनादोष थवानो प्रसंग बे. माटे नक्ति निमित्ते जगवंतनी समीपे मुनिने रहेवानो निषेध कर्यों के एज कारण माटे अतिशे निषेध प्रसिद्ध करवाने चैत्यवंदनादिकने अर्थे चैत्यमा गएला जे साधु तेमने त्यां रहेवाना कालनु परिमाण का बे, बीजे प्रकारे पण चैत्यमां निवास करवानो निषेध तेहीज आगममां कह्यो ।
टीका:-यथा, तिन्नि वा कई जाव, थुश्यो तिसिलोश्या॥ ताव तत्थ अणुनायं, कारणेण परेणवि ॥
· अर्थः-त्रण श्लोकनी त्रण थोयो कहेवाइ रहे तेटलोज वखत त्यां रहेवानी रजा बाकी कारणे वधु रदेवाय तेनी जूदी वात के
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+8 अथ श्री संघपट्टकः
( १४७ )
टीका:- तएव तद्दर्शने तदवग्रहभूमिप्रदेशे वा संचमएव विधातव्यो न त्ववज्ञा ॥ यदुक्तं ॥ इत्तो प्रोसरणाइसु, दंसण मित्ते गयाइ श्रोरणं ॥ सुच्चइ चेश्य सिहराइएस सुस्तावगाणं पि ॥ गुरुदेवग्गह भूमीइ जुत्तश्रोचे व हो परिजोगो ॥ इ5फल साद्गो सफलसादगो हरा ॥
अर्थः-एज कारण माटे ते जगवंतना दर्शनने विषे वा तेमनी अवग्रह भूमिना प्रदेशने विषे नक्किनुं श्रधिक्यपणुं कर पा वज्ञा तो नज करवी ज़े माटे शास्त्रमां क बे जे ॥.
टीकाः - इतरथाशातनाप्रसंगात् तस्याश्चानंतसंसारकारण त्वात् ॥ युक्तं ॥ प्रसायण मित्तं; श्रसायणवऊपाइ समत्तं ॥ [श्राणानिमित्तं कुव्वइ दीइंच संसारं ॥ तदंतर्वासे तु यतीनां सततम्रशनपानशयनादि क्रियासंभवादवश्यंना'विनी भगवदाशातना ||
"
अर्थः- जो एम न करे तो श्राशातनानो प्रसंग थाय ने ते या शातना वे ते अनंत संसारनुं कारण बे ए हेतु माटे शास्त्रमां क बे जे श्राशातना एज मियात्व बे ने शातनानुं वर्ज ए सम कित a. म जे शातना निमित संसारनी वृद्धि करे बे माटे ते चैत्यमां निवास करे त्यारे तो यतिने निरंतर जोजन तथा पान तथा शयनादि क्रिया करवानो संभव बे माटे अवश्य भगवंतनी आशातना थशेज. टीका:- अत एव पूजार्थं जिनसदनांतर्वर्तिनां तद्न क्रिसतां पूर्वाचार्यै रशनादिक्रिया निवारिता ।
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(१४८)
अथ श्री संघपट्टक
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॥ यथोक्तं ॥ तंबोलपाणनोयणुपाणहथीनोगसयण निवणे॥
मुत्तुच्चारं जूअं वजार, जिणमंदिरस्संतो ॥
निहिवणादकरणं, असकहा अणुचियासणाया ॥ श्राययमि अन्नोगो, देवा उदाहरणं॥ देवहरयंमि देवा, विसयविस विमोहिया विन कया वि ॥ अबरसादि पिसम, हासकिड्डाइवि करंति ॥
अर्थः-एज कारण माटे पूजाने श्रर्थे जिनन्नवनमा रहेला जे नक्तिवंत पुरुष तेमनी नोजनादिक क्रिया ते मंदिरने, विषे करवानो निषेध कह्यो . जे माटे ते शास्त्रनुं वचन जे तंबोल, पान, नोजन, पगरखां, स्त्रीनो संनोग, शयन, थुकवू, मल, मूत्र, तथा जुगटुं ए दश वानां जिन मंदिरमा वर्जवां. वळी देवताने दृष्टांते ए आशातना न करवी, जेम देवता सुधर्मा सजामां जिननी दाढा ने तेयो स्त्रीनोगादिक करता नथी तेमज थुकवू तथा जोजन करवू, असत्कथा करवी, उंचा आसने बेस, इत्यादि जिनमंदिरमां न करवां. वळी विषयरुपी विषे करीने मोह पाम्या एवा देवता पण देरासरमां क्यारे पण अप्सरायोनी साथे हास्य क्रीमा इत्यादि नथी करता.
टीकाः यदपि गर्नागारं विहायेत्यादिना द्वितीयविकल्पोक्ता शातनाऽन्नाव प्रतिपादनं तदप्यऽदृष्टागमतां नवतो व्यंजयति॥ यतः ॥ सालालंदेत्यादि वचनस्य निपुणनिरूपणेनापि
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9 अथ श्री संघपट्टकः
( १४९ )
क्वचिदप्पागमेनुपलंज्ञात्, त्वाभिधाने सर्वत्राना श्वासप्रसंगात् ॥
स्वमनीषाकल्पितपाठानांत्वागम
अर्थः-वळी तें कहुं जे गजाराने मूकीने रहेता इत्यादिके करोने वीजा विकल्पमां श्राशातना नथी एवं प्रतिपादन कर्युं ते पण दारुं जिनागमनुं अणपणुं बे तेने प्रगट करी आपे बे जे देतु माटे “ सालालंद " इत्यादि तारी मतिकल्पित वचन कोइ सारा पुरुषना निरुपण करेला ग्रंथ विषे पण तथा श्रागममां पण देखातुं नयी माटे पोतानी बुद्धिये कल्पेला पाउने जो श्रागम कहीये तो सर्व जगाए विश्वास थवानो प्रसंग थाय ए हेतु भाटे ||
टीका:- किंच निश्राचैत्य विचार प्रक्रमे यात्रा निमित्तागामुकसंयतार्थं गृहिला स्वद्रव्येण देवद्रव्येण वा बहिर्निर्मा पितस्य मंरुपादेर्निषेवणेनाधाकर्मानुमत्या देवद्रव्योपनोगेन वा सुविहितानां निश्राचैत्ये गमनाभावः प्रत्यपादि ॥
अर्थ:-वळी निश्राचैत्य विचारना प्रकरणने विषे यात्रा निमित्ते श्रवता जे साधु तेमने अर्थे गृहस्थे पोताना द्रव्ये करीने अथवा देवव्ये करीने गाम बारणे निपजाव्यां जे मंरुप आदि रहेवानां स्थानक तेनुं सेवन कर तेथे करीने श्रधाकर्मनी अनुमोदना श्र थवा देवद्रव्यनो उपोग तेणे करीने सुविहितोने निश्राचैत्यमांज वानो निषेध प्रतिपादन कर्यो .
टीका:- तथाच कल्पनाष्य ॥ ठाइ माइश्रोसरण मंगवा सं जयदेवा ॥ पेढियनृमी कम्मे, निसेवा श्रमई दोसा ॥
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(१५०)
8. अय श्री संघपटक:
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अर्थः ते उपर कल्पनाष्यनुं वचन प्रमाण थापे जे जे.
. टीकाः-एवंच यदाबहिर्ममप निषेवणादिनापि प्रायश्चित्ता पत्तिरनिहिता तदा का कथा गर्लागारादिपरिहारेण शालाबलानकादिष्ववस्थाने यतीनां, तत्रततोप्यधिकतरदोषसंन्नवादिति
अर्थः-ए प्रकारे जो बाहिर मरुपमा निवासादि करे तो पण प्रायश्चित्तनी प्राप्ति कही ले तो केवल गारादिकने मूकीने श्रा. सपास निवास करनार यतीनी तो शी वात कहीए केम जे त्यां ते थकी पण अतिशे अधिक दोषनो संजव ने ए हेतु माटे
टीका:-यद्यप्यन्यथा जिनप्रतिमेत्यादिना श्राकानां गृहबहिर्वासप्रसंजनं ॥ तत्रापि तदवग्रहकल्पितभूलागस्यैव देवालय त्वात् अन्यस्य च सकलस्यापि गृहिगृहत्वात् तत्रवसतांश्राकानां नाशातनासंनवः, जिनमंदिरस्यतु समस्तस्यापि जिनोद्देशेन निमापितत्वात् कथंतदेकदेशेपि वसतांयतीनां नाशातानादोषः स्यादिति ।।
अर्थः वळी अन्यथा जिनप्रतिमा इत्यादि वाक्ये करीने श्रावकने घर थकी बारशे रहेवानो प्रसंग थशे एम जे कह्यं तेनो नुत्तर पण एम जे जे त्यां पण जिनमंदिरनो अवग्रह कल्पेलो एटलोज जे पृथ्वीनो लाग तेने देवालयपणुंडे ने वीजा समस्त नागने तो ग्रहस्थy घर एवी संज्ञा माटे ते घरमा रहेनार श्रावकने आ
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अय श्री संघपट्टका
शातनानो संनव नथी ने जिनमंदिरने तो समस्तने पण जिनना न. देशे करीने निपजाववापणुं २ माटे ते जिनमंदिरना एक देशमां पण रहेनार यतिने कम आशातना थाय ? थायज.
टीकाः-किंच पूजार्थं समुद्घकस्थापितलगवदंगवहुमान : निबंधनत्वेनचात्यंतविषयिणामपित्रिदशानां सुधर्मासलापरिवर्जनेनांगनासंगोगादेः सिझाते श्रवणात् ।।
अर्थः-वळी देवताये पूजाने अर्थे मान्नमामां स्थापेल जे नगवानना अंग तेनुं बहुमान कवू ए हेतु माटे अत्यंत विषयी एवा पण देवता सुधर्मा सनामां स्त्रीना संजोगादिकनो त्याग करे २ एम सिझांतमा सांजळीए गए माटे जगवाननी प्रतिमानुं बहुमान कयु जोएं
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टीकाः यदपि लोकिकोदाहरणेन जिननवनएंव यतीनां वाससमीचीनताव्यवस्थापनं तदपि नवतो जिनमतानैपुण्यं सूचयति ॥ लोकलोकोत्तरमार्गयोर्निन्नत्वात् ।। लोकोचरमार्गेदि नगवतिविद्यमानेपि वंदनव्याख्यानाद्यवसरएवसाधूनां तत्प्रत्यासत्तिश्रवणात् ॥
अर्थः-वळी लौकिक दृष्टांत-जे पिताने घेर पुत्र रहे इत्यादि तेणे करीने जिन नवनमांज साधुने निवास करवो, ए ठीक डे एम जे तें स्थापन कर्यु ते पण तारुं जिन मतमा अजाणपणुं बे. तेनी
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(१९२)
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अथ श्री संघपट्टका
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सूचना करे ले केम जे लौकिक मार्गने लोकोत्तर मार्ग तेमां नेदपणूं रघु ले माटे, ने लोकोत्तर मार्गने विषे पण नगवान विद्यमान बते साधुने लगवंतनु वंदन करवू अथवा व्याख्यान सांजळवू इत्यादिकने अर्थे जगवत् पासे जे आवq ते पण अवसरे हतुं एम शास्त्रमा सांजळीए बीए ए हेतु माटे.
टीका:-वैयावृत्यकरस्यापिनोजनादिसमय एव तत्सन्निकर्षजावात् सततंशयनाद्यासक्त्याहि तदाशातनापत्तेः॥ आगमेच जगवतः पारणकादौ पादन्यासभूमावपि महागौरवाईतया तदना क्रमणार्थं रत्नमयपीरनिर्मापणश्रवणात् ततश्चैवंविधगौरवाहोणांजगवतांप्रतिकृतिसदने पिकथं यतिनिवासःश्रेयान स्यात्॥
अर्थः-वळी जगवतनी वैयावच्च करनारने पण नोजनादि समयने विषेज जगवतनी समीपे जवानुं ले केम जे निरंतर जो शयनादिक पासे करे तो लगवंतनी आशातना थाय ए हेतु माटे, अने श्रागमने विषे पण नगवतना पारणादिकने विषे एटले नगवंत ज्यां पारणुं करवा बेसे त्यां तथा पग मूकवानी चूमिने विषे पण ते जगवतनुं आक्रमण न थाय एटले संघटादिक न थाय माटे रत्नमय पीठ नीपजावे एवं शास्त्रमा सांनळीए जीए ते हेतु माटे ए प्रकारनी मोट्यप करवा योग्य जे नगवंत तेमनी प्रतिमाना घरने विषे पण यतिने नीवास करवो ते श्रेय नणी केम होय एटले चै. त्यनिबास सारो ते कया प्रकारे तुं कहे जे ? ॥
टीका-लोकेप्येकगृहवासेपि तनयानांच बहुमान योग्यत्वेन पितृशय्यादि परिजोगाऽदर्शनात् ॥ यदप्य पूर्वसमवसरणादौ
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-48. अथ श्री संघपट्टक:
निकटश्रमणाना मनागमने प्रायश्चित्तापादनेन विद्यमाननगवदासत्या चैत्यवासव्यवस्थापनं तदपि भवतो मुग्धस्य केयूरपादबंधनन्याय मनुहति ॥
अर्थः-लोकने विषे पण एक घरमा रहेता एवा पण पुत्र तेमने पिता बहुमान करवा योग्य डे माटे रितानी सुखशय्यादिकनो उपनोग करवानुं देखातुं नथी ने जे अपूर्व समोसरण आदिकने विषे पासे रह्या जे साधु ते न आवे तो प्रायश्चित करवानप्रतिपादन कर्यु ले तेणे करीने जगवाननो संबंध थाय माटे चैत्यवास अवश्य करवा योग्य डे एवं जे तुं स्थापन करे जे ते तो अपसमजु एवो जे तुं, ते तारे आ प्रकारनो न्याय थयो जे हाथर्नु आजूषण बाजुबंध तेने लश्ने पगे बांधq एवा प्रकारे अणसमजुना न्याने अनुसरे ॥
टीका-यदिह्यपूर्व समवरणे जगवंतं वंदितु मनागडतोन्यर्ण देशस्थस्य मुनेः प्रायश्चितमुक्तं एतावतायतेर्जिन गृहवासस्य कि मायातं, वंदनार्थ हि यतेनंगवत्समीपागमनं वयं मन्यामहएव ॥ सततं शयनादिना निवासस्वच्यासे तदाशातनापत्त्या नेहामः॥
. अर्थ:-जो अपूर्व समवसरणने विषे जगवंतने वंदन करवा न श्रावता समीपदेशमा रहेनार मुनि तेमने प्रायश्चित कछु एणे करीने यतिने जिनमंदिरमां निवास करवा संबंधी शुं प्रमाण आव्यु ? वंदनने अर्थे यतिने जगवंतनी समीपे आवq एम तो अमो पण मानीए बीएज पण निरंतर शयनादि क्रियाए सहित तेमां निवास करे तो ते लगवतनी आशातना थाय मादेते निवास करवानुनथी इवता
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-g. अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः--इत्यबुध्वैवागमार्थं यत्रतत्र युंजानस्य कस्ते प्रतिमहति ॥ तदेवं व्यवस्थितमेतत्, नगवदाशातनातस्त्रासो महामुनीनामिति ॥ ए तेनाधुनिकमुनीनां चैत्यवासमंतरेणोद्यानवासो वा स्यादित्यादि कथमुद्यानवासोऽधुनातनयतीनां कपमानःशोनेतेत्यंतं यदुक्तं परेण तत्र संप्रतिपत्तिरुत्तरं ॥
अर्थः-ए प्रकारे आगमनो अर्थ जाण्याविना जेम तेम पा. गमना अर्थने जोमतो एवो जे तुं, तेने निवारण करवा कोण समर्थ बे, माटे ए. प्रकारे स्थापन थयु जे नगवतनी आशातना थाय तेथी महामुनिने चैत्यवास करवामां त्रास नपजे डे एणे करीने लिंगधारीए जे का तु जे आ कालना मुनिने चैत्यवास विना उद्यानवास थशे इत्यादिथी ते यतिने आ कालमा नद्यानवास केम शाने त्यां सुधी तेने विषे उपन्यास पूर्वक उत्तर ए जे.
टीकाः-यथोक्तोदयानानावेन तस्करादिनयेन च संप्रत्यु द्यानवासनिषेधस्यास्मानिरप्युपगमातू ॥ ततश्चैत्यं मुनीना मुपत्नोगयोग्य, आधाकर्मदोषरहितत्वादितिहेतु रुक्तन्योयन मुनीनां चैत्योपन्नोगयोग्यताया देवाव्योपत्तोगादिदोष रागमेन वाधित्वात् कालात्ययापदिष्टः ॥
अर्थः-जे शास्त्रमा जेई नद्यान कह्यु , तेवू श्रा कालमा मळतुं नथी. ने चोर आदिकना नय करीने आ कालमां उद्यान वासनो जे निषेध कर्यो ते पण अमारे मान्य के. वली सिंगधारीए कडं हतुं जे तेज कारण माटे मुनिने चैत्यवास करवा योग्य ते.
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-4 अथ श्री संघपट्टकः
श्रधाकर्मादि दोष रहित पणुं ढें ए हेतु माटे, ए प्रकारना हेतु तो मोए क एवा न्याये करीने चैत्यनो उपभोग करतां देव अव्यनो उपभोग थाय बे इत्यादि दोष करीने शास्त्रनी रीते बाधित लागे े. माटे ए जे तसारो आधाकर्मादि दोष रहित रूपी हेतु ते देवानास थयो एटले खोटो थयो .
टीका: - यदपि निस्सकमेत्यादिसिद्धांतवचनाच्चैत्यावासज्युपगम तदप्यविदितांगमा निप्रायस्य जवतो वचः, सम्यक् निश्राकृत शब्दार्थाऽपरिज्ञानात् । नहि यत्र साधूनां निवासारेप निश्राचात्रता जवति तन्निश्राकृतमिति निश्राकृत शब्दार्थः ॥ किंतहि यद्देशतः पार्श्वस्थादिप्रतिबोधितश्रावकैः स्वयं तथा विधिमकुर्वीणैर विविधि श्रद्धालुनिः पार्श्वस्थादीनां चैत्यगृहादन्यत्र वसतामेव निश्रया निर्मार्पितं तन्निश्राकृतमिति
अर्थ:-वळी जे तुं निस्सकन इत्यादि सिद्धांतना वचनथी चैत्यवास गिकार करवानुं कहे दे ते पण आगमना अभिप्रायने न जाणतो. जे तुं ते तारु वचन के, केम जे निश्राकृत शब्दना अर्थ - नु सारी रीते तने ज्ञान नथी. तेथी एम कर्तुं बे जे ज्यां साधुनो निवास होय ते द्वारे निश्रा आधीन बे एटले जे साघुनी निश्राए कर्यु ते निश्राकृत कहीए, एम निश्राकृत शब्दनौ अर्थ तारा कह्या प्रमाणे नथी, त्यारे शो बे ! तो जे देशथी पासथ्यादिक पुरुषे प्रतिवोध कर्या पण पोते जेम शास्त्रमां विधि को वे ते प्रकारे विधि मार्गने न करी सकता था विधि मार्गना श्रद्वालु एवा जे श्रावक तेमणे चैत्य घर थकी वीजे रहेता जे पासथ्यादिक तेमनीज निश्रा
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(१५६)
19 अथ श्री संघपटक
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ये नीपजाव्युं ते निश्राकृत कहीए एम निश्राकृत शब्दनो श्रर्थ डे.
टीकाः कथमयमों निश्राकृतशब्दस्य निर्णीतइतिचेत् ॥ उसन्नाविय तत्थेव ती चेइवंदगा जेसि निस्साइ तंजवणं सकाईहियकारिय मितिवृद्धसंप्रदायात, अयमपि कुतशतिचेत् ॥हाइमगोसरण मंगवा संजयहदेसेवाति कल्पनाष्यवचनात् ॥
अर्थ लिंग धारी पूजे जे एवो निश्राकृत शब्दना अर्थ एम कीये प्रकारे निर्णय को एटले एवा अर्थ क्याथी खाव्या त्यारे सुविहित उत्तर आपे जे जे जो तुं एम कहे तो होय तो पासथ्था उसन्ना, चैत्यवंदन करवा आवे जे जेमनी निश्राए श्रावकादिके जे चैत्य निपजाव्यु डे त्यां ए प्रकारना वृद्धसंप्रदायथी निश्चय करीए ऐ त्यारे लिंग धारी पुले जे ए प्रकारनो वृक्षसंप्रदाय पण क्यांथी आव्यो ! त्यारे सुविहित नत्तर आपे ले जे कल्पनाप्यमांथी, ते नाष्यनुं वचन ए प्रकारे कल्पनाष्यना वचनथी एवो निर्णय करीए जीए.
टीका-अत्रवसन्नादय स्तत्रैव निश्राकते चैत्ये वंदनाय गचंतीत्युक्तं ॥ अन्यत्रवसतां च तेषां तत्रागमनं संनवेत् ॥ य. दिच ते तत्रैव वसेयुस्तदायत्यर्थ बहिर्ममपकरणं वंदनायागमनं च तेषां तत्र नोपपद्येत॥ नहि तत्रैव वसतां तदर्थ मंगप विधानं ततएव वा तत्रागमनं नाम ॥ तस्मादेवमागमवचनेन निश्राकृत शब्दार्थालोचना न श्रुते निश्राकृतव्यपदेशेन यतीनां चैत्यवाससिधिः॥
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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अर्थः-था कल्पनाष्यना वचनमां श्रवसन्नादिक ते निश्राकृत एवं जे चैत्य तेमांज वंदन करवा जाय जे एम कर्तुं माटे बीजी जगाऐ रहेता एवा ते पासस्थादिक तेमने ते निश्राकृत चैत्यने विषे जवानो संजव , ने जो ते चैत्यमांज रहेता होततो यतिने अर्थे बाहिर मंगपर्नु करवु तथा तेमनुं चैत्यने वि वंदनने अर्थे श्रावq एबे वाना घटे नहीं केम जे ते जो चैत्यमा रहेता होततो तेमने अर्थे मंगप करत नहीं ने तेमने पोताना स्थानथकी चैत्यमां श्राववू पण न कहेत माटेज आगम वचने करीने निश्राकृत शब्दनो अर्थ विचारी जोतां श्रागमने विषे निश्राकृत शब्द कहेवाने मिषे यतिने चैत्यवास करवो एम सिद्ध यतुं नथी.
टीकाः-निस्सकमश्त्यादिनाहि राजनिमंत्रादिषु पुष्टालंबनेन प्रत्यासनग्रामादेनिश्राकृत वैत्ययात्राद्यवसरे समागतानां सुवि-, हितानां वंदनविधिरनिहितः॥वस्तुतस्तूत्सर्गेण तत्र पार्श्वस्थादि संसर्गपरिजिहीर्षया प्रत्यहंवंदनमपि निवारितमेव ॥
अर्थ:-निस्तकम इत्यादिके करीने तो कोइक राजानुं निमंत्रण आदिककार्य प्राप्त थयु होय तो पुष्टालंबन जाणीने समीप रहेला गामथी निश्राकृत चैत्यनी यात्रादिकना अवसरने विषेश्राव्याजे सुविहित तेमनो वंदन विधि कह्यो ने वस्तुताये तो नत्सर्गथी त्यां पासच्थादिकनो संबंध थाय तेनो त्याग करवा माटे निरंतर ते चैत्यमां वंदन करवानुं पण निवारणज कर्यु ठे.
टीका तत्थाएसो जङ्सु निस्समिति कल्पनाष्यवचनात् ॥
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(१५६) 8. अथ श्री संघपट्टका - तत्रहि नि:कारणगमने प्रायश्चित्तप्रतिपादनादिति ॥ निस्सको गगुरू कइवयसहिओ, इयवरा वए वसहिं॥ जत्थपुण अनिस्स कपूरिति ताहिं समोसरणं ॥ पूरिति समोसरणं, अन्नासइ निस्सचेश्एसुंपि॥ इहरा लोगववान, सद्धानंगोय सद्वाण मित्यागमः ॥ पुनरनिश्राकृतालावे लोकापवादरिरक्षिषया श्रापकाविवर्कयिषया ‘च माजूद्देवगृहागततथाविधोबृंखलसमुज्वलनेपथ्यपार्श्वस्थाद्यवलोकनेनामीषां विपरिणाम इत्यगीतार्थानां वसतौ प्रेषणेन व्याख्यानादिकृते कधिपयगीतार्थयतिपरिवृतस्य सुविहिताचार्यस्य निश्राकृतेऽवस्थानं प्रतिपादयन् वसतिवासमेव यतीनां प्रत्युत प्रतिष्ठापयति ॥
अर्थ:-वळी निश्राकृत चैत्यने विषे लोकापवादनी रक्षा करवानी बाए अथवा श्रावकनी श्रद्धा वधारवानी चाए वळी ते प्रकारना एटले स्वेदाचारी निरंकुशने नजला वेषने धारण करताने देवघरमां आवेला एवा पासथ्थादिक तेमने देखवाथो ए लोकोनी विपरित बुझिन थाय ए हेतु माटे अगीतार्थना निवासने विषे व्याख्यानने अर्थे केटलाक गीतार्थ साधुये वीटेला जे सुविहित आचार्य तेमर्नु निश्राकृत चैत्यने विषे जे रहेवू तेने प्रतिपादन करतां साधुने वस्तीमा रहेकुंपण चैत्यमान रहे एम नलटुं स्थापन थायजे.
टीकाः-इतरथा श्यरावए वसहि मित्यस्यांतर्गसुमात्रतापनेः॥ तदेवं निस्सकमेत्यादिना चैत्यवासं सिसाधयिषतस्तव वसतिवास सिका यत्नेनोप्ता माषाः स्फुटमेते कोजवाजाता इतिन्यायेन विपरीतमापतितमिहो भागमार्थकौशलं नवतः॥
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-8 अथ श्री संघपट्टका
(१५९)
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अर्थः केम जे जो एम वसतिवास सिद्ध थयोन होत ने चैत्थवास सिझ थयो होत तो “श्यरावए वसहिं " एटले बी. जा वस्तीमां रहे जे ए पदनी अंतर्गाठ तारे भावी पमत ते मोटे निस्सकन एटले निश्राकृत इत्यादिके करीने चैत्यवासने सिक करवाने श्चतो एवो जे तुं, ते तारे उलटो वसतिवास सिक थयो माटे प्रयत्न करीने वाव्या जे अमद ते प्रत्यक्ष कोदरा थया एवो न्याय थयो माटे तारे तो अवधं आवी पमयुं अहो ! तारुं आगमना अं. र्थने जाणवान महापण !
टीकाः यदपि देनलियखरंटेत्यादिना देवकुलिकशब्दाच्चैत्यवाससाधनं तदप्यसम्यक्, यतिवेषमात्रधारिणामेव देकुलिक व्यपदेशात् ॥ एतद्गाथाविवरणे देवकुलिका देवकुलपरिपालका वेषमात्रधारिण इति व्याख्यानात् ।।
__ अर्थ:-वळी देउलिय इत्यादिके करीने देवकुलिक शब्दथी चैत्यवासनी सिद्धि करी ते पण साची न करी केम जे यतिना वेष मात्रनेज धारण करनार ते देवकुलिक शब्दे करीने कहेवाय डे, ए गाथाना विवरणने विषे देवकुलिक शब्दनो अर्थ देवकुलने पालन करनार अने यतिवेष मात्रनोज धारण करनार एवो पुरुष ए प्रकातुं व्याख्यान कयु बे. माटे
. टीका:-श्रतएव तेपां प्रवचनोपदेशपूर्वकपरुषत्ननरुपा खरंटनानिहिता ॥ श्रागमोक्तवेतु चैत्यवासस्य तेषां यथोक्तकारिवेन सुविहितकृतखरंटनानुपपत्तेः ॥ तस्मात्यावस्थायधमा..
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(१६०)
9. अथ श्री संरपक:
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नामेव देवकुलिकव्यपदेशात, तेवांचानंततमेन कालेन दशमाश्चर्यमहिम्ना नवतेव स्वमतिकल्पित चैत्यवासान्युपगमप्रति पादनानतत: सुविहितानां चैत्यवाप्त सिद्धिः
अर्थः-एज कारण माटे ते देवकुलिक प्रत्ये सिद्धांतना नप. देश पूर्वक कगेर नाषण करवा रुप खरंटना एटले तर्जन तिरस्कारादिक करवानुं कडं थे, ने जो चैत्यवास सिद्धांतमां कह्यो होत तो शास्त्र प्रमाणे चालनार सुविहित बेए हेतु माटे, तेमने सुविहित श्रावीने तर्जनादिक करे जे एम कहे न थात ते कारण माटे पास थ्थादिक जे अधमपुरुष तेमनेज देवकुलिक शब्दवते कहेवार्नु बे, ने ते पासथ्यादिक अतिशे अनंताकाले करीने दशम आश्चर्यना महिमाए तमारीज पेठे पोतानी बुद्धिये कल्प्यो जे चैत्यवास तेनो अंगिकार करवानुं प्रतिपादन करे बे माटे सुविहितने चैत्यवास नथी. माटे तुं चैत्यवास सिद्ध करे बेते खोटो .
टीका:-किच यत्र मुनयो वसंति तनिश्राकृतं स्यात्तदाजत्य साहम्मिया वहश्त्याद्यागमेन यत्र चैत्यादौलिंगिनो वसंति तदनायतन मित्यनायतनत्वानिधानं विरुध्येत ॥ तस्मात्ततएवा वसीयते साधुनिवास रहितं निश्राकृतमिति ॥
, अर्थः वळी ते कडं हतुं जे, जे, जगाये मुनि निवास करे, ते.निश्राकृत होय ए प्रकारचें तारूं कहेवू साचं होय तो " जथसाइम्मिया वहवे” इत्यादि आगमे करीने जे चैत्यादिकने विषे लिंगभारी वसे वे ते अनायतन कहीए'ए प्रकार अनायतनपणा, क
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अथ श्री संघपट्टकः
(१६१)
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हेर्बु ते विरुद्ध थात एटले ए प्रकारनुं कहेवू न थात एवं कहेवाश्रीज निश्चय थाय जे जे साधु निवास रहीत तेज निश्राकृत ने.
टीका--एवं च चैत्यबास इदानींतनमुनीनामुचित आग. मोक्तत्वादिति हेतुरुक्तन्यायेना गमोक्तत्वस्यासिकत्वादसिधः॥ यदप्युदितमा सैरसीत्साहासिझांताच्चैत्यवास स्तथापि गी. तार्थाचरित्वा त्सेत्स्यतीति यञ्चतस्यैव च श्रीमदार्य रक्षितपादैरित्यादिना च्छवास सएही त्यंतेन समर्थनं तदप्य संगतं ।।
अर्थः-वळी ते कवू जे आ कालना मुनिले चैत्यवास करवो उचित ठे, आगममां कछु ने ए हेतु माटे एम जे स्थापन कयुंहतुं ते पूर्व कही देखायो एवा न्यायथी आगममां कहेवापणुं असिक थयु, माटे ए हेतु पण अलिक थयो एटले खोटो थयो आगममां चैत्यवास करवानो कोई जगाए कडोज नथी वळी तें कडं जे सादात् सिद्धांतमां चैत्यवास कयो नथी तो पण गीतार्थ पुरुषे आच. रण कयों बे तेथी सिद्ध थशे जे माटे आर्यरक्षित आचार्ये इत्यादि आरंजीने " उवाससएही " त्यां सुधी चैत्यवास करवानुं समर्थन कयु ते पण असंगत ठे अघटतु दे.
टीका:-आवास सएहीत्याद्याप्तोपदेशस्य नगवत्प्रणीता गमेष्वनुपलंचात् ॥ सूलागमन विरोधाच ॥ तथाहि ॥ श्रील. दार्यरक्षितपादेषु स्वर्गगतेषु प्रायेव प्रतिवादिनिराचिकीर्पया मथुरापुरीप्रेपितेन गोष्टामाहिलेन जनपरंपरया गुरूणां स्वर्ग गमनं उर्वलिकापुष्पमित्रस्य सृरिपदप्रतिष्टा माकर्ण्यदयोध्धुर
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(१६२)
8. अथ श्री संघपट्टा
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चेतसा जातमत्सरेण ततालमागत्य व्याख्याक्षणे श्रीदुर्वलिका पुष्पमित्रेण साई प्रारब्धे विवादे ततोयुक्तिसिद्धांताच्यां प्रतिपाद्यमानेनापि मिथ्यानिनिवेशातद्वचन मनन्युपगच्छता संघोद्घाटना निन्हवत्वं प्रतिपेदे इत्यचिहित मावश्यक ॥
अर्थ:-जे च्छवाससएही इत्यादि हितोपदेशक, वचन तें कडं ते तो नगवंतनां कहेला जे आगमतेने विषे क्या पण देखातुं नथी ने मूल आगमथी ए वचन विरुद्ध एटले मूल आगमनी साथे ए वचन मलतुं नथी आवतुं ते कही देखामे डे आर्य रक्षित आचार्य स्वर्गमां गया पहेढुंज प्रतिवादिनुं निराकरण करवानी श्छाये मथुरांपुरीमा मोकट्योजे गोष्टामाहिल तेणे लोकनी परंपराये गुरूस्वर्गमां गया अने दुर्बलिका पुष्प मित्रने सूरिपदनी प्रतिष्टा पापी ए वात सांजळी गर्वे करीने उन्मत्त जेनुं चित्त ने थयो अहंकार जेने एवो ते गोष्टामाहिल त्यांथी आवीने व्याख्यानने अवसरे श्री दुर्वलिका पुष्यमित्रनी साथे विवाद आरंन्यो त्यार पनी युक्तिथी तथा सिद्धांतथी घणुं समजाव्यो पण मिथ्यात्वना अन्तिनिवेश थकी ते दुर्बलिका पुष्प मित्र आचार्थनुं वचन अंगीकार न करता एवो ते गोष्टामादिल संघनो उमाह करवाथी निन्दवपणाने पाम्यो एम आवश्यकजीमां कयुं बे.
टीका:-तथाहि कार्यमत्र ज्ञानादिकं॥ कांनाणाय.मि. तिवचनात् ॥ तस्य च लेनाप्यत्रानुत्सर्पणात् ॥ गीतार्थाचरितत्वस्य कालमानविरोधना पास्तत्वात् ॥ देवव्योपनोगाशातनादि निश्च महादोषत्वेनास्य ॥ स्तोकापराधत्वानुपपत्तेः॥
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अथ श्री संघपट्टकः -
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अर्थ:-ते कही देखाने जे अहीं कार्य ते ज्ञानादिक जाणवू केमके कार्य तो ज्ञानादिक एवं शास्त्रनुं वचन , ने ते तो लेश मात्र पण यहीं प्रगट नयी ए हेतु माटे, गीतार्थनुं जे आचरित तेने कालमाननो विरोध आवे बे. तेणे करीने दूर कयु माटे चैत्यवास करवामां देवाव्यनो नपन्नोग थाय तथा आशातना थाय तेणे करीने सहा दोषनी प्राप्ति थाय ने माटे एने थोमा अपराधपणानी प्राति नथी, एटले घशोज अपराध एमा रह्यो ।।
टीका:-अत एवन बहुगुणवमिति श्रागमाविरुझाचरपानच्युपगमे जगवदप्रामाण्या संजत्वस्या आगमविरोधेन. निरस्तं चैत्यवासप्रतिषेधकागमेनैव प्रागुक्तेनास्या श्रागम विरोधस्य स्फुटत्वात् तद विरूझाया एवचास्या प्रामाण्यरे. पगमात् ॥
अर्थः-एज कारण माटे "न बहुगुणत्वं" इत्यादि जे ते क ते तो श्रागमथकी अविरूद्ध आचरणानो अंगीकार न करीए तो जगवंतना वचननुं अप्रमाणिकपणानी प्राप्ति श्रावे पण आचरणानुं. तो आगमना विराधे करीने निराकरण करवापर्यु ले माटे पूर्वे कह्यो जे चैत्यवासना निषेधतुं आगम वचन तेणे करीने ए आचरणाने. आगम विरोधपणुं स्पष्ट के, साटे ते श्रागसथी अविरूद्ध एवीज. आचरणानुं प्रमासिकपणुं टे.
टीका:-यक्तं ॥ श्रायरणा विहु श्राणाविरूझगाचेत्र होई नायतु हा तिस्थयरासायणनि ।
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(१६४)
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अय श्री संबपट्टकर
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अर्थः आचरणा पण जे तीर्थकरनी श्राज्ञानेशविन्य होय ते प्रमाण गणाय वाकी वीजी तो तीर्थकरनी चाशातना । .
टीकाः-यदप्यत्राशमा चरितवाया चरितलक्षणोपपादनं तवद्धं । तथाहि ॥ कालाद्यपेक्षया गुरुवाधवर्चितया अज्ञकैरियमाचरणा व्यधायीत्यवादिनवताव तत्रनताब दुत्सूत्रा चरसापराणां कालापेक्षा परित्राणाय ।
अर्थः-वळी जे ते अहीं अशठ पुरूषे जे पाचरण कर्यु इत्यादि आचरण लक्षण जे प्रतिपादन कर्यु ते पण दोष जरखें तेज कही देखाने जे जे कालादिकनी अपेक्षाये करीने तथा गुरु लाधवना विचारे करीने अशक पुरुषोए चैत्यवालतुं आचरण कर्यु बे एम जे तमे कहयुं. तिहां पण उल्लूत्र आचरणाने विये तत्पर एवा जे पुरुष तेने कालादिकनी अपेक्षा करवी ते कांश रक्षण जणी नथी.
टीका:-तथाच तनियुक्तिःपंचसीए चुलसीए तश्या लिर्डि गयस्त वीरस्त ॥ अवहियाणदि इसनरनयरे ससुम्पन्ना ।।
अर्थः-वली तेनो नियुक्तिकारे को ले जे.
टीका:-तथाचा नयोhथयो व्यक्तदृष्टयुत्पाद नवदुपदर्शितार्यरक्षित प्रकल्पित चैत्यवालयोः कालमानं पर्यालोच्यमानं न घटांप्रांचतीति कथं न विरोधः ॥ किंच सिझांतात् सादाद
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-g. अथ श्री संघपट्टकः
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सिकागमोक्तहेतौदूषिते स्तुतर्हिगीतार्थाचरितत्वं हेतुरिति ब्रुवाणस्य नवतो हेत्वंतरनिग्रहस्थानापत्तेः ॥
अर्थः-वळी बे गाथाने विषे अव्यक्त दर्शन अने तें बतावेला श्रार्यरक्षित तेणे कलप्यो जे चैत्यवास तेनुं कालमान विचारी जोतां अतिशेज घटतुं नथी. माटे विरोध केम न आव्यो कहुं हुं, वळी सिद्धांतथी साक्षात् सिद्ध नथी थतो एवो जे श्रागमोक्तपी तारो हेतु ते दोष पमामे सते तें कडं जे गीतार्थy आचरणपणा रुपि हेतु था. ए रोते कहेतो एवो जे तुं, ते तारा बीजा हेतुने पण निग्रहस्थाननी प्राप्ति थ एटले खंमन थयु.
टीकाः-यदपि निस्सकमेत्यादिना आचरणाया आगमाविरोधानिधानं तदपि निस्तकमेकाश्गुरुश्त्याद्यागमस्य वस्तुतोवसतिवासस्थापकत्वेना पास्तं ॥ यदपि अविलंबीलणेत्यादिना चैत्यवासाचरणायाः प्रामाएयान्युपगमवर्णनं तदप्यत्र कार्याव- : लंबनादेरनावादपाकर्णनीयम् ॥
अर्थः वळी ते निस्तकरू इत्यादि वचने आचरणानुं आगमथी विरोधपणुं का ते पण निस्सको हाइगुरु इत्यादि आगमने वस्तुताये तो वसतिमां साधुने रहे, एवं स्थापन करी देखाम्यु तेरो करीने खंमन कयु वली ते जे अविलंविजण इत्यादिके करीने चैत्यवासनी आचरणानुं प्रामिणिकपणुं कर्तुं हतुं. ते पण इहां कोई कार्यनुं अवलंवनादिक नथी माटे एतो सांजळवा जेQज लथी.
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( १६६ )
+8 अथ श्री संघपट्टकः
टीका: - ॥ यदाह ॥ कालोवि वित्तह करणेगं तेथे बहोइकरगं तु ॥ नहि एयंमिविकाले विसाइ सुहयं असंत ॥
अर्थ: खोडं काम करवामां कालतुं श्रालंबन प्रमाण गयाय नहीं केम के या कलमां पण मंत्रित कर्या वगर विषादिक खाTr] प्राण जाय वे.
टीका:- किंच के गुरु लाघवचिंता किंस्तोक गुणपरित्यागेन प्रभूततम गुणेोपार्जनं ॥ यदाह ॥ अप्पपरिया एवं बहुतरगुसाद जर्दिहोइला गुरुलाघव चिंता जम्हानानुववन्नति ॥
अर्थः- बळी ते कही जे गुरु लाघव चिंता ते कइ बे. शुं थोमा गुणना त्यागे करीने अतिशे घणा गुपनुं उपार्जन कर एवे के बीजी बे. जे माटे शास्त्रमां कह्युं ठे जे अल्पनो परित्याग करीने श्रतिशे घणा गुणनुं ज्यां साधन बे ते गुरु लाघव चिंता कहीए.
टीका: -- तथाहि अस्यांचैत्यवासा चरणायां तीर्थानु छित्यादयो नूयांसो गुणाः ॥ दोषश्च देवचिताकरणेन जव्यस्तत्रांगी कारोऽल्पइति ॥ होस्विद् गुरोर्भगवतो लाघवं श्रवज्ञाचिंतयेति ॥
अर्थः- तेज कहे वे जे था चैत्यवासनी थाचरणाने दिपे तीर्थनो उच्छेदन थाय इत्यादिक घणा गुण ठे ने दोषतो देवती चिंत्या करवी तेथे करीने द्रव्य स्तवनो अंगीकार करवारुप अल्प वे इ
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-g. अथ श्री संघपटका
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त्यादि ए तारे कहेवा, बे के गुरु एवा जे जगवंत तेनुं लाघवपj एटले अवज्ञा तेनी चिंता तेणे करीने गुरु लघुपणुं तारे केहेवार्नु बे.
टीकाः-लतावदायः पक्षः ॥ चैत्यवासाचरणाज्युपगमे यतीनां देवकुलकर्मातरवाटिकादेत्रादिचिंतादिनिश्चारित्रसवस्वापहारेण बहुत्यागात् ॥ न चाटपगुण लिप्सया बहुगुणत्यागाय स्पृहयंति प्रेक्षावंतः॥
यदुक्त नय बहुगुण चाणेणं थेव गुणपलाहणं बुहजणाणं ॥
क्या कांकुसलासु पयध्यिारंना ॥
अर्थ:-तेमां तारो जे प्रथम पक्ष ते घटतो नथी केम जे चैत्यवासनी आचरणालो अंगीकार करे त्यारे यतिने देवकुल संबंधि जे वीजां कर्म वानी खेतर इत्यादिकनी चिंता करवी पमे तेणे सर्व चारित्र जाय माटे घणो त्याग थाय ए हेतु माटे अल्प गुणने पामवानो छाए बुद्धिवान पुरुष घणा गुणनो त्याग करवानी स्पृहा नथी करता. जे माटे शास्त्रमा कडं ले जेषणा गुणनो त्याग करोने थोमा गुणनुं साधन पंमित जन नथी बता ने कुशल पुरुष कदापि करे तो सारी पेठे विचारीने आरंन करे.
टीका:-अद्वितीयपक्षः ॥ तदेवमेतत् ।। एवं विधोरसुत्रा चरणाया चगवराघवहेतुत्वात् ॥ यदाह ॥ सुषबजाचरणरया पमाणयंतो तहाविहंलोगं ॥ वणगुरुको वराया पमाणयनावगच्छंति ॥
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(१६८)
AS अथ श्री संघपट्टकः
अर्थ:-हवे बीजो जे पक्ष कहोते तेमज दे. जे एप्रकारनी उत्सूत्र आचरणा करवी. तेनेज लगवाननी लघुतानु हेतुपणु ने जे
माटे शास्त्रमा कयुं बे जे शास्त्रमा वांधेली जे आचरणा तेने विषे
सक्त एवा जे पुरुष ते जे प्रमाणे करे ने ते, जे प्रकारे करे जे ते प्रकारे लोक पण करे ले केमजे मोटा पुरुष विना बोजार्नु प्र. माण नथी थतुं.
टीका:-अतएवैवंविधानां धर्मायोग्यतैव सिकाते प्रतिपादिता ॥
' यदाद ।। सुत्तेण चोजो अन्नं उहिसिय तं न परिवो 'सो तं तवायबजो न होई धम्ममि अहिगारी॥
अर्थः-एज कारण माटे ए प्रकारमा पुरुषोने धर्मर्नु अयोग्यपणुंज सिद्धांतने विषे प्रतिपादन कर्यु बे.
टीकाः-एवंचोत्सूत्रं चैत्यवास माचरंतस्ते कथमशहास्तादशांश्रुते शठत्वानिधानात् ॥
- यदाह ॥ नस्सूत्तमायरंतो बंधई कम्म सुचिकरणं जीवोसंसारं च पवढ मायामोसं पक्कुवश्य ॥
अर्थः-माटे ए प्रकारे उत्सूत्र चैत्यवासने आचरता ते केम
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-g. अथ श्री संघपट्टका
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अशव कहीए शास्त्रसांतो तेवा पुरुषने शठ कह्या , ते शास्त्र वचन कहे जे नत्सूत्रने आचरता जे पुरुष ते अतिशे चीकणां कर्मने बांधे ने ने संसारने वधारे ने. तथा माया कपट अतिशे करे .
टीका--जीववधाधवद्यरहितत्वान्न सावद्यैषा चरणेत्येत दप्ययुक्तं ॥ जीववधादिसकलपापेभ्योप्यधिकत्वेन प्रतिपादना उत्सूत्रप्ररुपलायाः॥ तथा चाहुः श्रीमत्पूज्या एतत्प्रकरणकारा एव ।। अहह सयलनपावाहि वितहपन्नवण मणुमवि पुरंतं ॥ जं मरिइनवतदजियमुक्यश्रवसेसलेसवसा ॥ सुरथुयगुणो वि तित्थेसरोवितिहुअणअतुझमहोवि ॥ गोवाशहिंवि बहुहा कत्थिर्ड तिजयपहु तंपि ॥ थीगोबंजणणंतगावि केश्पुण द. ढप्पहारा॥ बहुपावावि पसिद्धा सिझाकिर तमिचेव जवे ॥
अर्थः-वली तें कडं जे, जीववधादि पापरहितपणुंए हतु माटे ए चैत्यवासनी आचरणा सावध नथी ए जे का ते अ. युक्त ने, केम जे जोवध आदिक सर्व पाप थकी अधिक जे नतसत्र प्ररुपणा तेनुं प्रतिपादन के ए हेतु माटे ते प्रकारे श्रीमत् पूजनीक एवा आ प्रकरणना का तेणे कर्तुं ने जे.
टीका:-अत एवैषा नूनं गीतार्थे निवारितापिकश्चिदेवहिक सुखलोलुपतया परलोकनिरपदै राहता ॥ यदपि हरिनाचार्यादीनां तथाप्रवृत्तिश्रवणादेषा वहनामनुमतेत्यवादि तदपिकि हरिनाचार्यादीनां तथाप्रवृत्ति श्रवण प्रवादपारंपर्यात् जतस्वित्तद्ग्रंथेषु चैत्यवासप्रतिपादनात
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(१७०)
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अथ श्री संघपट्टक
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अर्थः-एज कारण माटे निश्चे गीतार्थोये ए चैत्यवासनी आचरणा निवारण करी तोपण केटलाक आ लोकना सुखमां लोलुपिने परलोकनी अपेक्षा रहित एवा लिंगधारी पुरुषोये श्रादर करी. वळी ते का जे हरिनादिक आचार्यनी ते प्रकारनी प्रवृत्ति के एटले चैत्यमा रहेवानी प्रवृत्ति सांनळीए बीए माटे आ प्रवृत्ति बहु पुरुषोए अनुमोदेली ने एम जे कधु ते पण शुं हरिजअादि श्राचार्यनी तेवी प्रवृत्ति संजळाय ले ते लौकिक वातनी परंपराथी संनळाय के ते हरिलअसू रिना ग्रंथने विषे चैत्यवासतुं प्रतिपादन कर्यु ने तेथी संनळाय . ?
टीका-न तावदायः॥ प्रमाणशून्यस्यप्रवादपारंपर्यस्यश्रदारद इत्यादिवद सत्यत्वात् ।। अस्त्येवात्र तद्ग्रंथेषु चैत्यवास प्रतिपादन मेव प्रमाणं द्वितीयः पद इतिचेत्॥नातद्ग्रंथार्थपर्यासोचनेन यतीनां चैत्यवासनिषेधाध्यवसायात् ।। .
अर्थः-तमा पेहेलो पक्ष जे लोकनी परंपरारुप तेतो प्रमाण शून्य एटले लोकनी वातनुं कां प्रमाण शास्त्र चर्चामां अपाय नही केम जे कोइए कडं जे तुं आंख राख, इत्यादि लोक वचन अ. सत्य ले माटे तारो ए पहेलो पक्ष खंगन थयो एटले युक्त नथी. ने वीजो पक्ष जे ए हरिजन सूरिना ग्रंथने विषे चैत्यवासप्रतिपादन कर्यु ने एम जो कहे तो तेनो उत्तर जे ए हरिनमसूरिना ग्रंथना अर्थ- पूर्वापर विचारी जोवू तेणे करीने यतिने चैत्यवास न करवो एज निश्चय थाय ने
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अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः-तथाहि ॥ तैरेव जिनन्नवन निर्मापण विधि पंचाशके श्राधस्य स्वाशयवृद्धि मधिकृत्योक्तं ॥ पिहिस्सं एत्थ अहं, वंदणग निमित्त मागए साहू ।। कयपुन्ने जगवते, गुणरयणनिही महासत्ते
अर्थः तेज कही देखामे जे जे ते हरिना सूरियेज जिनजवननो नीपजाववानो विधिपंचाशक नामनो ग्रंथ कों ने तेने विषेश्रावकने पोताना आशयनी वृद्धिनो अधिकार करीने कयुं जे
टीका:-यदिह्ययं चैत्यवासमनिप्रेयात् तदा जिनजवन निमापयितुः श्राझस्याशयवृद्धिं निरूपयन् चैत्यवंदननिमित्त मा. गतान् साधूनहमत्र प्रेक्षिष्य इति नानिदधीत किं त्वत्र वसतः साधून प्रेक्षिष्य इति प्रतिपादयेनचैवमतो निश्चीयते नायमस्य चेतसि निविशत इति.
अर्थ जो श्रा चैत्यवास करवो एवी रीत्ये हरिजप्रसूरिने वसन होत तो जिननवन निपजावनार श्रावकना आशयनी वृद्धिर्नु निरुपण करता सता चैत्यवंदन निमित्त आवेला साधु तेमने हुँअहीयां देखीश एम न कहेत ॥ त्यारे शुं कहेत जे अहिं चैत्यमां वसता जे साधु तेने देखीश एम प्रतिपादन करत. ते तो एम प्रतिपादन नथी कर्यु माटे निश्चय करीए बीए जे ए चैत्यमा रहेवार्नु ए हरिनजसूरिना चित्तमांज न हतुं माटे ॥
टीका ननु कथमयं निश्चयोयावताऽस्यैव ग्रंथांतरेषु जि
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8. अथ श्री संघपट्टका
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णबिंब पाहत्थ मित्यादिना चैत्यवासप्रतिपादनोपलंन्नादितिचेत् ॥ न ॥ ग्रंथांतराणा मप्येतदविरोधनैव व्याख्यानात् ॥ नहि तथा विधा महाग्रंथकाराः परमात्मान दंयुगीनसमयसिकांतार्थपारावारपारगताःपरस्परविरोधिनमर्थ स्वग्रंथेषु निनंत्संतीति संन्नवति ॥
अर्थः-त्यारे लिंगधारी बोले जे जे एवो निश्चय क्याथी कयों, जे माटें एमनाज करेला बीजा ग्रंथने विषे कह्यं ने जे जिनबिंबनी प्रतिष्टाने अर्थे इत्यादि वचने करीने चैत्यवासनुं प्रतिपादन अमोए कयु , त्यारे उत्तर करनार कहे जे एम जो तारे कहे होय तो ते न कहीश केमजे बीजा ग्रंथन पण एं ग्रंथनी साथे विरोध रहित व्याख्यान डे ए हेतु माटे, केम जे तेवा मोटा पुरुष मोटा ग्रंथ करनार ने आ कालना समयनां सिद्धांत, तेना अर्थ ते रुपी समुज तेना पारगामी ते परस्पर विरोध सहित अर्थने पोताना ग्रंथोने विषे केम बांधशे नहिज बांधे एवो संचव जे.
टीका-अन्यथा तेषामपिलोकविप्रलिप्सयैव प्रवृत्तत्वेना ना. तत्वप्रसंगात् ॥ तस्मात् तदूग्रंथः सकलोपि पूर्वापराविरोधेनः सम्यक् विविच्य व्याख्येयः॥
अर्थः-जो एम न कहीए तो ते मोटा पुरुषने पण लोकने उगवानी जाए प्रवर्त्तवाथी अहितकारीपणानों प्रसंगाथाय ते हेतु माटे ते सर्वे ग्रंथ पण पूर्वां पर विरोध रहित सारी पेठे विचारीने व्याख्यान करवा योग्य , पण एक ककको तेमांथी लेने पोताना
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-g. अयं श्री संघपष्टकः
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लुमा अभिप्राय साथे मेलवीने जेम तेम व्याख्यान न कर.
टीका:-तथाह्यल्प क्रियांवसति व्याचक्षाणेन श्रीहरिन सूरिणा व्याख्यातं॥ इथ्य सयहा नेया,जा नियनोगं पमुच्चकारविया ॥ जिणबिंवपश्वत्थं, अहवा तकम्मतुति।। या निजन्नोगं स्वकुटुंबोपन्नोगं प्रतीत्योद्दिश्य गृहिणा कारिता सा स्वार्थावसतिरत्रच स्वोदेशेन कारितत्वात् स्वार्थास्फुटैव न केवल मियमेव यावदन्यापीत्यादः ॥
अर्थः-ते विरोधनो परिहार करीने व्याख्यान कही देखाने जे अल्प क्रियावाली वस्ती एटले निवास तेने कहेता एवा श्री हरिन सूरिये व्याख्या करीने जे, पोताने लोगववाने अथवा पोताना कुटुंबने जोगववानो नद्देश करीने गृहस्थ करावी ते स्वार्थी वसति कहीए केम जे अहीं पोताना नद्देशे करीने करावापणं डे माटे स्वार्थ प्रगट जणायज डे पण केवल एज स्वार्थ डे एम नहीं त्यारै हुँ ? तो बीजी पण स्वार्था बे एम कहे .
टीका:-जिनर्विवप्रतिष्टार्थ ॥ अथवेत्यनेन स्वार्थकारितेत्यः नुषज्यते ॥ जिनर्विवप्रतिष्टामुद्दिश्य गृहिणा कारिता सापिस्वाथी ।। नन्वेषा साधर्मिकनिमित्तं कृतत्वाद्यतीनां न कल्पिष्यत इत्यत्र आह॥
अर्थ:-जिनविवनी प्रतिष्टाने अर्थे करावी ते पणं स्वार्था । अथ ए पदे करीने पोताने अर्थे करावी एवो संबंध थाय ते. जिन
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(२७४)
-g. अथ श्री संघपटकः
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बिंबनी प्रतिष्ठानो उद्देश करीने गृहस्थे करावी ते पण स्वार्था कहीए, पण ए साधर्मिक निमित्त करावी . माटे यतीने नही कल्पे एम नही कहेवं एतो साधुने कल्पे ने एम कहे .
टीकाः-तत्कर्मतुल्या जिनाधाकर्मसमा॥ यथा जिनस्थासाधर्मिकत्वाचन्निमित्तं निष्पन्नं जक्तादिमुनीनां कल्पते एवं वसतिरपि॥ यथोक्तंसाहम्मिन न सक्खा, तस्सकयं तेण कप्पर जईणं ॥ जंपुण पमिमाण कयं, तस्स कहा का अजीवत्ता ॥
अर्थः-जे ते जीवना कर्मने तुल्य जे. एटले जिनना प्राधाकर्म समान केम जे जिनना साधर्मिक . ए हेतु माटे ते जिनने अर्थे निपज्यु जे नकादि ते मुनिने पण कल्पे २ ते शास्त्रमा कां ने जे.
टीकाः तेनैतदुक्तं नवति॥पूर्व हिप्रतिष्ठा प्रयोजनेन रहिणा स्वअविणेनपृथकू मंगपादिः कारितः ॥ ततः पश्चादृत्ते प्रतिष्ठाप्रयोजने प्रतिमा मध्ये जिनगृह निवेशिता, मंगपादिश्च प्रतिमाधिष्टानशून्य: श्रावकसत्यैव ॥ ततस्तदनुज्ञयातद्गो हे व तत्रापि यतीनां निवासे न चैत्यवाससिद्धिः जिनविंबशून्य त्वात्तस्येति ॥
अर्थः-तेहीज कारण माटे कछु ले जे पूर्वप्रतिष्ठानुं प्रयोजन , ते हेतु माटे गृहस्थे पोताना अव्यवते जूदा मंगपादिक क
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+8 अथ श्री संघपट्टकः --
( १७५)
राव्यो होय बे ने त्यार पढी प्रतिष्ठानुं प्रयोजन समाप्त थया पढी प्रतिमा जिनधरनी मधे स्थापन करीने ए मंगपादिक प्रतिमा विनानुं शून्य श्रावकनीज सत्ताये रधुं होय बे. त्यार पढी ते श्रावकनी श्राज्ञा लइने जाणे ते श्रावकना घरमांज निवास करे तेम ते मंग पादिकने विषे साधु निवास करे बे. माटे ए प्रकारे चैत्यवासनी सिद्धि मजे ते पादि जिन बिंबवमे रहित बे. ए हेतु माटे.
टीका:- एवं जिनजवनोद्देशेन निर्मापयितुरुत्तरोत्तरफलं प्रतिपादयता तेनैवा निहितं ॥ जिविंबस्स पहा, साहु निवासोय इत्यादि ॥ पूर्वं हि श्राद्धो जिनगृहं कारयति ॥ ततो जिनबिंबं ततस्तत्प्रतिष्ठां ॥ ततस्तत्र ग्रामादौ साधूनां निवासोऽवस्थानं जवति ॥ चैत्यगृहाध्यासितेहि नगरादौ प्रायेण विहारकर्मादिनायतीनां निवासो भवति नस्वत्रोक्तं जिनगृहे साधु निवास इत्यतः कथमितो जिनजवनवासः सिध्येत ॥
अर्थ:-एहीज प्रकारे जिनजवनना नदेशे करीने निपजावनार पुरुषने उत्तरोत्तर फल थाय एम प्रतिपादन करता तेहीज हरिभद्र सूरि तेज कयुं बे जे जिनविंदनी प्रतिष्ठाने साधुनो निवास ज्यां
इत्यादि श्रावक प्रथम जिन घर करावे बे ने त्यार पठी विंव करावे ने त्या पक्षी तेनी प्रतिष्ठा करावे बे त्यार पढी ते ग्रामादिकने विषे साधुनो निवास थाय बे. केमजे चैत्यगृह जेमां रह्युं होय एवं नगरादिके तेने विषे बहुधा विहारक्रम आदिके करीने आव्या एवा साधु तेनो निवास थाय ब्रे पण एम नथी कयुं जे ए जिनघरम
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(१७६) 8. अथ श्री संघपट्टका :साधुनो निवास थाय माटे ए वचन थकी केम जिनभवन वारु सिद्ध थाय.
टीकाः-एवंदेयंतु न साधुन्य इत्यस्याप्ययमर्थः ॥कारयिखापि गृहिणा साधुन्यः पुनर्वस्तुं जिनगृहं न देयं जगवदागमे निवारणात् ॥ यथाच येनच प्रकारेण शुक्रवसतिनक्तपानका दि धर्मोपग्रहदानेन तत्र नगरादौ विहारक्रमेणागताः संतस्ते तिष्टंति तथा कार्यं ॥ वसहीसयणासपनत्तपायजेसजवत्थएताशाजइविन पजत्तषणो, थोवाविहु थोवयं दे ॥इतिवचनात् ।। वसत्यादिदानं विना तत्रागतानामपि यतीनामवस्थानानुपपत्तेः।।
अर्थः-वळी एमज साधुने न आपq तेनो पण आ अर्थ डे. जे गृहस्थे करावीने पण साधुने निवास करवाने जिनधर न श्राप, केम जे जगवत्ना आगममां निवारण कर्यु डे ए हेतु.माटे जे प्रकारे एटले शुद्ध निवास जक्तपान आदिक धर्मनां उपकरण देवे करीने त्यां नगरादिकने विषे विहारना अनुक्रमे आव्या जे साधु ले रहे तेम करवं, निवास, शयन, आसन, जक्त, पान, औषध, वस्त्र, पात्रादिक यतिने आपे केम जे यतिनो विनय करवाने विष जेणे धन जोमयुं एवो वितित गृहस्थ थोमामांथो थोडं पण आपे इत्यादि वचनथी निवास आदीक दीधा विना त्यां नगरादिकने विषे आव्या एवा पण यतिने रहेवार्नु न थाय ए हेतु माटे.
टीकाः-गृहिणोपि च यति विहारदेश मंतरेणोत्सर्गेण वा, सानधिकारान् ।
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अथ श्री संघपट्टका
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(१७७)
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यदुक्तं॥
श्रावकविधि मनिद्घता श्रीविरहांकननिवसिज तत्थ सहो, साहूणं जथ्थ होई संपाठ ॥ चेहरा जम्मि, तदन्नसाहम्मिया चेव।।
अर्थः-गृहस्थने पण जे जगाए साधुनो विहार न तो होय तेवा स्थळमां नरसर्ग मार्गे रहेवानो अधिकार नथी. जे माटे श्रावक विधिने कहेता श्री विरहांक तेमणे कडं जे, त्यां श्रावक रहे ज्यां साधुनुं आगमन तुं होय तथा ज्यां चैत्य देरासर साधर्मिक र हेता होय ते जगाए रहे.
..टीका:-तथाऽक्षयाऽविनश्वरीली वीमूलधनंगृहिणादि जिनगृहं कारित्वता शीर्णजीर्थतत्समारचनाय समुद्घके अव्यं निक्षिसं ॥ तस्य च अव्यस्य वृध्ध्यादि वितिलालेन जिनगृह समारचनया नवत्याक्या नीवी.
अर्थ:-जळी अक्षय एटले नाश न पामतुंए मूल धन कीयु तो जिनधरने करावतो एवो गृहस्थ तेणे परतुं अथवा जिर्ण अतुं एवं जिनघर तेने समारवाने अर्थे माजनामां ताख्युं तेने सूल धन कहीए ते अव्यने वधारवाथी जे लास थाय तेणे करीने जिनघरनी सार संजाळ थया करे माटे ए धन अक्षयनीवी एप्रकारे कहेवायचे.
टीमा--तथाहि यस्मात् एवमनेन प्रकारेण इंदंजिनगृहं ज्ञेयं वैशतरकांम् ॥ एतमुक्तं जवति ॥ तन नगरादौ स्थितानां हि
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(१७८)
8. अथ श्री संघपट्टकःसाधूनां जिनगृहागतानां धर्मदेशनया नव्यलोकस्योत्तरोत्तर गुणस्थानप्रापणेनादयनीवीसमारचनादिना भूरिकाल मनु. वृत्याच कारयितुस्तश्यानां तदन्येषां चाचिंत्यपुण्यसलारकारणत्वात् संसाराकूपारतारणाच नवति जिनजवनं वंशतर कांममिति ॥
अर्थः-तेज कही देखामे ले जे जे हेतु माटे ए प्रकारे ए जिनघर वंशतहकांम एम जाणवू एटले वंश परंपराने तारणहार ने ते कडुंजे ते नगरादीकने विषे रह्या जे साधु ते धर्म देशना देवी ए हेतु माटे जिनघर प्रत्ये आवेला तेमनी धर्मदेशनाए करीने नव्य प्राणीने उत्तरोत्तर गुण स्थान- पाम, थाय ए हेतु माटे ने अक्षयनीवीए करीने जिनधरनी सारसंजाळ घणा काळ सुधी चा. लती रहे तेणे करीने करावनारने तथा तेना वंशमां थएला पुरुषोने तथा वीजाने चिंतनमां पण न आवे एवो पुन्यनो समूह थवानुं कारणपणुं . ए हेतु माटे ने संसार समुज थकी तारण करनार डे माटे ए जिनन्नवन वंशतरकांकडे एटले वंश परंपराने तारण करनारले.
टीका:-एवंचास्य तात्विके व्याख्याने कुतश्चैत्यगृहवासा वकाश ॥ यदपि समरादित्यकथायां साध्च्याश्चैत्यांतः प्रतिश्रय प्रतिपादनेन चैत्यवालव्यवस्थापनं तदपि सकलजनताप्रकृतिसु जगत्वेनास्यामसर्व दोषायामतिसरसायां माधुर्यसौकुमार्य वर्यायां कथायां पृथिव्यामिवनिहितं चैत्यवास प्रतिपादनं वीजमिव प्रयते इति विचिंत्य केनापिधूना लेखीति संजायते।।
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अथ श्री संघपट्टकर
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(१७९)
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अर्थः-ए प्रकारचें यथार्थ व्याख्यान करीएं त्यारे क्याथी चैत्यवासनो अवकाश आवे एटले चैत्यवासनुं स्थापन क्याथीज थाय वळी ते कडं जे समरादित्यनी कथाने विषे साध्वीनो चैत्यनीमांही प्रतिश्रय ले एटले तेमां रही ले तेने केवलज्ञान उपज्यु डे इत्यादि प्रतिपादन कर्यु तेणे करीने चैत्यवासतुं स्थापन करे ते पण समम लोकनी प्रकृतिने सुंदर लागे माटे निर्दोषने अतिशे सरस ने मधुर सुकुमार एवी था श्रेष्ट कथा तेने विषे जेम सारी पृथ्वीमा वीज नांखे ने ते विस्तार पामे तेम कोइक धूर्त पुरुषे ए चैत्यवासन प्रतिपादनरुपी बीज नांख्यु के. एटले ल ख्यु के एम संलव थाय ने.
टीकाः-श्रतएवावश्यक टीकायां पंचनमस्कारनिर्युक्तौ ॥रागदोस कसाया, इंदियाणी य पंचवि इत्यादि श्लोकं विवृण्वन् समरादित्यकथाकार एव चित्रमयूरनिगीर्णोदीर्णहारा दिनतिवझायां सर्वांगसुंदरीगणिन्याकथायां चैत्यवासाननिलापनैव केवलज्ञानोत्पादंप्रत्यपीपदत् ॥
अर्थः-एज हेतु माटे आवश्यकजीनी टीकाने विषे पंच नमस्कारनी नियुक्तिने विषे रागद्वेष कषाय पांच इंजियो पण इत्यादि श्लोक, विवरण करता जेम समरादित्यनी कथाना करनार तेणे चित्रमयूरे हारादिक गळी लीधो ने पागे काढी नांख्यो ३ त्यादि वात वमे बंधायली जे सर्वांगसुंदरी गणिकानी कथा तेने विष चैत्यवासकह्या विनाज केवल ज्ञाननी उत्पत्तिनुं प्रतिपादन कर्यु .
टीका-इत्थं च तत् ॥ कथमन्यथा तथा विधाः श्रुतधराः ।
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(१८०)
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अथ श्री संघपट्टका
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स्वग्रंथेषु वसति विस्तरेण यतीनां व्यवस्थाप्य क्वचिदागम वि. रुकचैत्यवास मनिधास्यति ॥ आगमविरोधश्चात्र स्फुटएव ॥
अर्थः-माटे ए वात जो ए प्रकारे न होय अने तुं कहे ले ते प्रकारे होय तो एवा मोटा पुरुष श्रतधर पंचवस्तकादि पोताना ग्रंथने विषे साधुने वसतिमां निवास करवो एम विस्तार सहित स्थापन करीने क्यारे पण श्रागम विरुक एवा चैत्यवासन स्थापन थाय एवं कहेज नहीं ने ते आगम विरुष्क तो आ जगाए प्रगटज देखाय के.
टीकाः-तथाहि ॥ अवस्यपिण्यां सुषमःषमाउ:षम सुषमयोः सामान्येनैव केवलज्ञानोत्पादप्रतिपादनात् ॥ दुष' मायां तु चतुर्थारकप्रव्रजितानामेव तदनिधानात् ॥ चैत्यवासस्य चानंत तमेन कालेन दुःषमायामेक्समाम्नातत्वात्॥
अर्थ:-तेज विरोध देखामे ले जे अवसर्पिणी कालमा सुख दुःखमा जे त्रीजो धारो ने दुःखमसुखमा जे चोथो आरो तेने विषे सामान्ये करीने ज केवलज्ञाननी उत्पत्तिनुं प्रतिपादन कयु डे माटे अने पु:खमा जे पांचमो आरो तेने विषे तो जे चोथा आरामां प्रव्रज्यो होय तेनेज केवलझान थाय, बीजाने न थाय एम कयुं ने ए हेतु माटे चैत्यवासनुं अनंतेकाले दु:खमा कालमांज थवापर्यु कडं माटे ए विरोध जणातोज .
टीका:-नच तदारंजएव चैत्यवासान्युपगम इतिवाच्यं ॥
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-g. अथ श्री संघपट्टकः
(१८१).
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बारसवाससएहिं सढेहि मित्यादिना गणधरपूर्वधरादिपुरुषसिं-- . हात्यय एव सातशीलैः कैश्चिदेव तत्प्रकल्पनस्य श्रवणात्, तरदत्रन्यायस्य क्षेत्रांतरेष्वपिनवसु प्रज्ञापनात् ॥ अतः कथं चैत्यवासकाले केवलोत्पादः संगच्छेतति ।।
अर्थः-वळी तारे एम कहे, होय जे चोथा आराना अंते पांचमा आराना आरन कालने विषेज चैत्यवास हतो एम मा. नीशुं तो, ए प्रकारे न कहेवं, केमजे साढाबारसें वरस थया पनी चैत्यवास थयो. इत्यादि शास्त्र बचने करीने ज्यारे गणधर तथा पूर्व घर आदि मोटा पुरुष सिंह] नाश पाम्या त्यारेज शाता शीललंपट एवा केटलाक पुरुषोए चैत्यवास कलप्यो बे. एम विशेषावश्यकमां संजलाय ने ए हेतु माटे ने ते आश्चर्य क्षेत्र न्याये करीने एटले जेम. आ जरतक्षेत्रमा दस आश्चर्य थयां तेम बीजांजे नव क्षेत्र तेने विषे पण वीजे रुपे दस आचर्य थाय ने एम कदेवापणुं माटे चैत्यवास काले केवलझाननी उत्पत्ति केम संचवे.
टीकाः यदपीदानी बहूनामेकवाक्यतयो चैत्यवासप्रवृत्या-. तत्समर्थनं तदप्यसंगतं॥ सुखलोलतयाश्रुतनिरपेक्षाया बहुजन प्रवृत्तेरप्यप्रामाण्योपगमात् ॥ अन्यथा मरीच्या दिप्रज्ञप्तप्रवृतरपिप्रामाण्योपपत्तेः॥
अर्थः-वळी जे तें कछु के हालमां चैत्यवास करवा एम वह पुरुषनी एक वाक्यता . एटले घणा पुरुप एम कहे ठे ने करे . तेणे करीने चैत्यवासनी प्रवृत्ति , एवी रीते प्रतिपादन कर्यु ते पण
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अथ श्री संघपट्टकः
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असंगत ने एटले खोटुं बे. केमजे सुखनी लोलुपताये शास्त्रनी श्रपेक्षा विना घणा लोकनी जे प्रवृत्ति, तेनुं पण प्रामाणिकपणुं नथी ने तेनुं जो प्रामाणिकपणुं कहीए तो मरीचि आदिक पुरुषोए कहेलोजे शास्त्रविरुष प्रवृत्ति तेनुं प्रामाणिकपणुं थशे ए हेतु माटे
टीका-सातसंपलंपटानांचेयं प्रकृता प्रवृत्तिः ॥
यदुक्तं ॥ अहमाहमे हि नामारियनवद्यायसाहुलिंगीहिं॥ जिणघरमढावासो, पकप्पि सायसीलोहिं
अर्थः-शाता सुखमां लंपटी एवा पुरुषोनी प्रवृत्ति , जे माटे शास्त्रमा कलं जे जे अधमाधम एवाने केवल नामे करीनेज श्राचार्य नपाध्याय ने साधु प्रकारे कहेवाता ने शाता सुखना लोलुपी एवा लिंगधारी पुरुषोए जिनघरमां तथा मठमां निवास करवानो कलप्यो बे.
. टीकाः यदपि विशेषदोषानु पलंन्नात् गीतार्थाचरितस्यास्या प्रामाण्य निरसनं तदप्यसमीचीनं ॥ नत्सूत्राचरणाया विशेषदोषस्य प्रागेव दर्शितत्वात् ॥ गीतार्थाचरितत्वस्य च पार्श्वस्थादिनिराचरितत्वेनापास्तत्वात् ॥ तेषां बहूनामप्या चरणाया अशुद्धिकरत्वेनाप्रामाण्यांगीकारात् ॥ गीतार्थस्य चैः कस्यापितस्याः प्रामाण्योपगमात् ॥
अर्थःवळी तें कडं जे विशेष दोष देखातो नथी माटे गी.
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अय श्री संघपट्टकः
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तार्थ पुरुषोए ए चैत्यवास आचर्यों डे, माटे अप्रमाणिक नथी. एम जे तारूं कहे ते सारु नथी. एटले खोटुं कहुं बु केमजे नत्सूत्र आचरणा करवी एज मोटो विशेष दोष , एम अमोए प्रथम दे. खामयुं . ने पासथ्यादिके ए चैत्यवास आचर्यों डे, ए प्रकारे कही देखाम, तेणे करीने गीतार्था चहितरुपी हेतुनुं खंगन कयु बे. माटे ते घणा पासथ्याए चैत्यवास आचरण कयों ने तो पण अशुहिनो करनार डे; अप्रमाणिक डे केम जे जो एक गीतार्थ पुरुषे आचरण कों होय तो पण प्रामाणिकपणुं थाय ए हेतु माटे
टीका:- यदाह ॥ जंजीय मसोहिकरं पासस्थपमत्त संजया एं बहुएहि विआनंनतेशजीएण ववहाशे। जंजीयं सोहिकरं संदिग्गपरायणेण दंतेण ॥ इक्केण वि आश्नं तेएय जीएण ववहारो॥
अर्थः-शास्त्रमा कयु जे जे ते अशुद्धि करनार कल्प ले जे पासथ्था ने प्रमत्त एटले मनमां आवे तेम चालनार नाम साधु एवा घशा पुरुषोए आचरण कयुं ते जीतकटपे करीने व्यवहार करवा योग्य नथी ने ते जीतकल्प शुकि करनार वे जे संविग्न परायण ने दांत एवा एक पुरुषे पण जे आचरण कर्यु बे. ते जीतकल्पे करीने व्यवहार करवा योग्य .
टीकाः-एतेन यदपि गीतार्थाचरितत्वस्यासिकादिहेत्वा
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(१८४)
18. अथ श्री संघपटक
जासनिरासप्रतिपादनं तदपि मुग्धस्य निविममंशुक ग्रंथी कांचनं बनतस्विप्रेण तत्पतनमनुपलकतो वृत्तांतमनुहरति ॥ हेत्वानासोछार कुर्वतापि जवता हेतोगीतार्थाचरितत्वस्योक्तन्यायेन पतनानवगमात् ॥
अर्थः-एणे करीने जे तें पूर्वे गीतार्थ आचरणरुपी खोट हेतुनो नाश प्रतिपादन कर्यो हतो एटले चैत्यवास साधुने करव योग्य बे. गीतार्थे आचरण कों . ए हेतु माटे ए प्रकारना हेतु सत्यपणुं प्रतिपादन करवा गयो, तो पण जेम कोश्क मुर्ख पुरुडे सोनानो कमको वस्त्रने मे आकरी गांठ वाळीने बांध्यो पण ते वस्त्र काणुं हतुं तेमांथी नीकळी पस्यो ते न दोगे तेम तुं पण ते मूर्ख जेवो ढुं केम जे तेनुं दृष्टांत तारा उपर लागु थाय ने शाथी के जेम जेम ते हेतुने साचो करवा प्रयत्न करुं हुं तेम तेम ते हेतु पूर्वे कह्यो एवा न्यायथी खोटो पमतो जाय डे ने उलटुं गीतार्थोये चैत्यवास कों नथी, तेमणे पण घणो निषेधज का माटे करवा योग्य नथी एवं स्थापन थाय बे.
टीका:-यदपि किंच चैत्यवासमंतरेणेत्यादिना तथा तीर्थाव्यवद इत्यंतेन तीर्थाव्यवलित्या चैत्यवासपतिष्टापनं तदपि न सुंदरं ॥ यतः ॥ केयं तीर्थाव्यवचितिः किं यतीनां चैत्यांतर्वासेन बहकालं लगवद्देवगृहविवाद्यनुवृत्तिः ॥ अहोस्वित् शिध्यप्रतिशिष्यपारंपर्येणाविविन्नमसरा सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्र
प्रवृत्ति
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8. अथ श्री संघपट्टकः -
(१८५)
अर्थ-वळी ते चैत्यवास विना अहींथी आरतीने तीर्थनो उच्छेद न थाय माटे चैत्यवास करवो त्यां सुधी स्थापन कयें हतुं ते पण सुंदर नथी.केमजे तीर्थना नच्छेदतुं न वापणुं ते शुं ? न थवो ते कीयो जे साधु चैत्यमां निवास करे तेणे करीने बहु काल सुधी जगवत् तथा देवघर बिंब इत्यादिकनी सेवा चालती रहेवी ए प्रयोजन ? के शिष्य तेना शिष्य एवी परंपराये करीने विच्छेद रहित समकित झान दर्शन चारित्रनी प्रवृत्ति थाय ए प्रयोजन ले ते कहो
टीकाः न तावदायः ॥ चैत्यवासमंतरेणापि जगवद्विवाद्यनुवृत्तिमात्रदर्शनात् ।। तथाहि पूर्वदेशेऽद्यापि तामाकृतजनेन कुलदेवताबुझ्या नमसितकीकृतापेयाजदयादिनापि नमस्यमानानां जिनबिंबानामनेकधोपलब्धेः ॥ अन्यतीर्थिकपरिगृहीतानां च तेषां तथैवानुवृत्त्युपतंजाच ॥
अर्थः-तेमां पेला पक्ष जे जगवत् पूजादिक निरंतर चालती रहे ए रुपी तीर्थनो उबेद न थाय माटे चैत्यवास करवो योग्य ले तेनो उत्तर चैत्यवास विना पण जगवत्नां प्रतिबिंबनी सेवादि अनुवृत्ति मात्रनुं देखवापणुं , तेज कही देखा जे जे पूर्व देशमा हजु सुधी पण केटलाक प्राकृत लोको पोताना कुल देवतानी बुझिए नमे डे ने खीरखांम सुखमी इत्यादिलोजन करीने सेवेलां अनेक जिनबिंव जणाय ने ने अन्यतीर्थिक लोकोए ग्रहण कर्यां जे ते बिंब तेनी पण अनुवृत्ति सेवा तेज प्रकारे चालती देखाय .
टीका:-तथाचैतावतैव नवनिमततीर्थाव्यवबित्तिसिके
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अथ श्री संघपट्टका
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कि.मिष्फलेन चैत्यवाससंरंजेण ॥ न चैतावता तीर्थाव्यवेदकायनिःश्रेयसादिफल सिद्धिः ॥ मिथ्याष्टिपरिग्रहितानां प्रतिमानां मोक्षमार्गानंगत्वेनानिधानात् ॥ मिदिहिपरिग्रहिया पमिमान जावगामो न ढुतित्ति वचनात् ॥
. अर्थमाटे एटलाज वसे ते मानेलो जे तीर्थनो न उल्लेद तेनी सिद्धि थई मादेशा वास्ते निष्फल चैत्यवासनो समारंन्न करुंटुं ने जो तुं एम कहे जे एटला वमेज तीर्थनो नछेदन थाय ने मो. क्षादि.फलनी सिकि पण थाय तो मिथ्याष्टिए ग्रहण करी जे प्र. तिमा, तेने मोक्षमार्गना अंगपणुं पण नथीएम शास्त्रमा का डे ते हेतु माटे जे मिथ्याष्टिये ग्रहण करी जे प्रतिमा तेथी नावनो समूह.न होय एवा वचनथी ए प्रथम पक्षने सुकी बीजा पदनो अंगीकार कर.॥
टीका: अथ द्वितियः कल्पः॥ तर्हि लैवतीर्थाव्यवनिति र. न्युपेयतां मोक्षमार्गत्वात् ॥ किं तदननुगुणोत्सूत्रचैत्यवासाश्रयणेन यदाद लीलो सजालगोवा गणिवेढवा न सुग्गर्शनति॥ जं तत्थ नाणदसणचरणा ते सुगईमग्गो ॥
अर्थ:-हवे ते बीजो पक्ष कहीए जीए जे परंपराये ज्ञानदर्शन चारित्रनी प्रवृत्ति थाय ए रुप बोजो कल्प तेज तीर्थनो न उबेदए प्रकारे अंगीकार करो केम जे मोक्षमार्ग बे ए हेतु माटे ते मोदमार्गने अनुगुण नहीं एवो जे नत्सूत्र चैत्यवास तेनो आश्रय करवो तेणे करीने शुं जे माटे शास्त्रमा का जे.
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-g: अथ श्री संघपट्टका
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(१८७)
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: टीकाः सम्यग् ज्ञान दर्शनचारित्रनुवृत्तिं विनाच जिनगृह • बिंबसंदनावेपितीयोंचित्तिः ॥ अतएव जिनांतरेषु केषुचिद्र
लत्रयपवित्रमुनि विरहात् कापि जिनविसंनवेपि तीर्थोच्छेदः प्रत्यपादि ॥ स्वमतिकल्पिता चेयं प्रकृतातीर्थाव्यवच्छि, ति रागमविसंवादित्वायेव ।।
अर्थः ते माटे एम सिद्धांत थयो जे सारी ज्ञान दर्शन अने चारित्रनी अनुवृत्ति एटले परंपरा ते विना जिनगृह विव होय तो पण तीर्थनो उच्छेद थाय माटेज केटलाक जिननां आंतरां तेने विषे रत्नत्रयवंते पवित्र एवा मुनिनो विरहथी को जगाए पण जिन बिबनो संलव तोपण तीर्थनो नच्छेद शास्त्रमा पतिपादन कों बे, मोटे आ चैत्यवास ते तीर्थनो न नच्छेद ते तो पोतानी मति कल्पेलो ने शास्त्र विरुद्ध माटे त्याग करवा योग्य .
टीका:-यदाह ॥ नय समइ वियप्पेणं, जहातहा कयमिणं फलेदे ॥ अवि आगमाणुवाया रोगतिगिच्छाविहाणं व ॥ किंच नवतु जिनगृहायनुवृत्ति स्तीर्थाव्यच्छित्तिस्तथापिन यति चैत्यवासजिनगृहाद्यनुवृत्त्योः श्यामत्वचैत्रतनयत्वयो रिव प्रयोज्यप्रयोजकनावः ॥ नहि यतिचैत्यांतवासप्रयुक्ता तदनुवृत्तिमा तदंतर्वस निरपि यतिन्ति रतिसातशीलतया तच्छीर्णजीर्णोकारादिचिंतामकुर्वाणै स्तदनुवृत्तेरनुपपत्ते स्तस्मात्तचिंताप्रयुक्ता तदनुवृत्तिस्तांच श्राद्धैरेव कुर्वनिस्तदनुवृत्तिः कथं न स्यात् ॥
अर्थ:-जिनघरं आदिकनी अनुवति करवी एज तीर्थनोज
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6. अथ श्री संघपटक
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वेद ए प्रकारे होय तो पण यतिने चैत्यवास करवो ने जिनघर थादिकनी अनुवृत्ति करवी ए बेने प्रयोज्य प्रयोजक नाव संबंध नथी. एटले कार्य कारणन्नाव नथी के जिनघरनी अनुवृत्ति थाय. ए का. रण माटे साधुने चैत्यवास करवा योग्य जे एम नथी. जेम श्यामपणुं ने देवदत्त पुत्रपणुं ए बेने कार्य कारणनाव नथी तेम. केमजे श्यामपणुं तो श्यामने विषे रघु जे. ने देवदत्त पुत्रपणुं ते देवदत्त पुत्रने विषे रडं . माटे यति चैत्यवास करतोज जिनघरनी अनुवृत्ति थाय एम कांश नथी केमजे ते चैत्यमां निवास करता ने अतिसुख शीलीयापणे ते जिनघर पमे त्रुटे अथवा जीर्ण थाय तो पण तेनो उद्धार करवो इत्यादि चिंताने न करता एवा यतिये करीने पण ते जिनघरनी अनुवृति आदिक थवानी सिकिनथी. एटले जिनघरनी सेवादि थव शकतुं नथी. माटे जिनघरनी चिंतादिक जे सेवा तेने करता एवा जे श्रावक तेणे करीनेज शुं सेवादि अनुवृत्ति नहि थाय थशेज. माटे शास्त्र विरुफ चैत्यवास शीद करोडो.
टीका-नचोक्तन्यायेनश्राजानां दुर्गतानां श्रीमतां चेदानीं तचिंताकरणासन्नवशति वाच्यं ॥ दुःषमदोषात्केषांचित्तथात्वेप्यन्येषां महात्मनां शु झाबंधुराणां तसंजवात् ।। तथाहि ॥ दृश्यंत एव संप्रति केचन पुण्यनाजः श्रावकाः स्वकुटुंबन्नाराटोपं कमतनयेषु निक्षिप्य जिनग्रहादिचिंतामेव सततं विदधानाः ॥ अतस्तैरेवानुवृत्तिहेतुतचिंता सिझे किममी इदानींतना मुनयश्चैत्योपदेशादने. कानारंजानारंजमाणा मुधवै निश्यति ॥
। अर्थः-वळी तें कह्यु जे श्रावकनो आ कालमां दरिखी थरा
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* अथ श्री संघपट्टकः -
नेटला श्रीमंत तेमने छामे को एवा न्याय करीने ते जिन मंदिरनी चिंतादि करवानो या कालमां संभव नथी. माटे यमो क रीए बीए. इत्यादि न बोलवु केम जे दुषमा कालना दोषथी केटलाक श्रावक एवा हशे तो पण वीजा महात्मा पुरुष शुद्ध श्रद्धावते शोभता एवा श्रावक लोक था कालमां पण वे माटे तेज वात कही देखावे जे या कालमा केटलाक पुण्यशाळी श्रावक पोताना कुटुंबनी मार खामंबर सर्व, समर्थ एवा पोताना पुत्रने विषे नांखीने एटले सोंपीने जिनमंदिरादिकनी चिंतानेज निरंतर करता देखाय बे. माटे तेथे करीनेज ते जिनमंदिरादिकनी सेवादि अनुवृत्तिनुं कारण सिद्ध थशे. एटले जिनमंदिरादिकनी सार संभार राखनार श्रावक विद्यमान तेज शा वास्ते या कालना लिंगधारी यतिश्रो चैत्यनुं मिष लेने अनेक प्रकारना चारंजने करता सता फोगटज क्लेश पामेढे.
टीका: यदपि जो जेणेत्यादि तीर्थानुच्छित्तिहेतोरपवादासेवनेन चैत्यवासस्थापनं तदपि भवतोऽविदित सिद्धांता निमायतां प्रकटयति ॥ अन्यार्थत्वादस्य ॥ अत्र हि यः कश्चिद्यत्यादि - येन ज्ञानादिना गुणेनाधिकः येनच विनायत्संघादिकार्यं महत्तमं न सिध्ध्यति तेन तत्र स्वगुणवीर्यस्फोरणं विधेय मित्ययमर्थः । तथाह्येतत्तरार्द्धमेवं स्थितं ॥ सो ते तंमि को सवत्थामं न दावे इति ॥ अतोनैतस्मादपि जवदनिप्रेतसिद्धिः ॥
अर्थ:-वळी तें जे एम करूं जो जेणे इत्यादि वचने करीने तीर्थनो नच्छेद न थाय ए हेतु माटे अपवादनुं सेवन कर ए प्रकारे चैत्पवासनुं स्थापन कर्यु ते पण तारुं सिद्धांतना अभिप्रायनुं प्र
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8. अथ श्री संघपट्टका
जाणपणुं ने तेने प्रगट करी आपे बे. केम जे “ जोजेण" इत्यादि वचननो अन्य अर्थ बे ते कहे जे जे आ जगाये यति आदिजे कोश्क झानादि गुणे करीने अधिक होय ने जेना विना जे जगाये संघोदिकनुं मौटुं काम सिद्ध न थतुं होय ते पुरुषे ते जगाएं पोतार्नु वीर्य फोरवq ए प्रकारनो अर्थ ते अर्थने प्रकाश करनारु ऐ गोथार्नु उत्तराईयां प्रकारचें ले जे बीजावतेा कार्य थाय एवं नथी माटे ते जगाए जे पोतानुं सर्व सामर्थ्य फोरव, माटे एं गाथा, वचैनथी पण तारा वाहित अर्थनी सिजि नथी. एटले गाथां वचननों अंवलों अर्थ करीने चैत्यवासन स्थापन करे ले ते नहीं थाय.
- टीका:-एवंच समस्तंपरोपन्यस्तोपपत्तिनिराकरणात् य. 'तीनां जिननवनजासनिषेधसिकौ स्वपं साधनमनिधीयते। जिनगृहवासो मुनीना मयोग्यो, जायमानदेवजव्योपजोगत्वात् प्रतिमापुरतो जक्तवितीर्णबलिंग्रहणवत् ॥
अर्थः-ए प्रकारे समस्त लींगधारी पुरुषोए चैत्यवासन स्थापन कुयुक्ति थी कयु हतुं तेनुं सिझांतने अनुसरति युक्तियो वते खंगन करवाथी यतिने जिननवनमां निवास करवानो निषेध सिद्ध थयो माटे पोताना पक्षमा पुष्टि आपनार न्याय शास्त्र अनुमान प्रयोगर्नु साधन कहे जे मुनिने जिननवनमां निवास करवो ते अयोग्य जे शाथी जे देवव्यनो नपजोग थाय ए हेतु माटे ॥ १. टीत ॥ जेम प्रतिमानी आगळ नक्तजने बलिदान मुक्या होय एटले नैवेद्य मुक्या होयं ने तेनुं जेम ग्रहण कर मुनिने अयोग्य : तेम जिनलवनमा निवास करवो ते अयोग्य बे.
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अथ श्री संघपटक :
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टीकाः-नचायमसिद्धो हेतुस्तत्र वसतां देवाव्यनोगस्यो. कन्यायेन साधितत्वात् ॥ नापि विरुद्धः हेतोर्मुनियोग्यतयाव्या. प्यत्वेहि स स्यान्नचैव मस्ति ॥ देवाव्योपनोगस्य मुनियोग्यतायाः प्रागेवापाकरणात् ॥ नाप्यनेकांतिकः ।। मुनियोग्येपिशुद्धवसत्यादौदेतोवृत्तौ हि सन्नवेनचैवंतत्रदेवव्योपत्नोगस्य लेशतोप्यनावात् ॥
। अर्थः-न्याय शास्त्रमा पांच प्रकारनो हेत्वाजास जे एटले हेतु जेवा जणाता होय पण हेतु नहि, खोटा हेतु. तेनां नाम जे एक तो असिद्ध,बीजो विरुझ,अने त्रीजो अनै कांतिक अथवा सव्यनिचारी, चोथो सत्रिपक्ष अने पांचमो बाधित ए पांच प्रकारना हेवाजासमांनो एक हेत्वाजास जे अनुमान प्रयोगमांन आवतो होयते अनुमान प्रयोग साचो कहेवाय ने वीजो जुहोकहेवाय एटले अप्रमाणिक कहेवाय माटे आ जगाए मुनिने जिनजुवनमां निवास करवो देवव्यनो नपजोग थाय ए हेतु माटे ए प्रकारना अनुमान प्रयोगने विषे ए पांच प्रकारनो हेत्वान्नास ने तेमांनो एके पण श्रावता नथी. के जेथी ए प्रयोग खोटो थाय. ए प्रकारनी दृढता टी. काकार करे ले जे चैत्यमा रहेनारने देवपच्यनो उपजोग थाय ए हेतु असिद्ध नथी केमजे तेमां रहेनारने देवजयनो उपनोग पूर्वे कह्यो एवे न्याये करीने सिद्ध थाय ए हेतु माटे. वळी ए हेतु विरुक पण नथी. केमजे देवाव्यनो नपनोग मुनिने योग्य नथी एम पूर्वे निषेध देखाइयो बे माटे मुनिनी योग्यताए सहित जो ए हेतु होय एटले मुनिने देवभव्य जोगववान शास्त्रमा जो होय तो ए हेतु विरुद्ध थाय पण ते तो नथो माटे, ने वळी ए हेतु अनेकांतिक पण
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49. अथ श्री संघपट्ट का
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नथी केमजे मुनिने योग्य एवी पण शुरू वसति आदिकने विषे ए हेतुर्नु रहेवापणुं होत तो ए हेतु अनेकांतिक केहेवात पण ते शुद्ध निवासने विषे देवाव्यना उपजोगनुं लेशमात्र पण देखवापणुं नथी माटे ए हेतु अनेकांतिक पण नथी एटले व्यनिचारी नथी.
टीका:-नापि सत्प्रतिपक्षः प्रतिबलानुमानानागमोक्तत्वादिनां प्रागेव निरस्तत्वात् ॥ नापि बाधितविषयः प्रत्यक्षादिजिरनपढ़तविषयत्वात् ॥ ननुप्रत्यदेणेव संप्रति जिनगृहेवासदर्शनेन तहासस्य धर्मिणो मुन्ययोग्यतायाः साध्यधर्मस्य हेतुविषयस्य वाधितत्वेन विषयापहारात्कथं नहेतु बाधितपिषय इतिचेन्न ॥
अर्थ-वळी ए हेतु सत्प्रतिपक्ष नथी केमजे प्रतिवादिनां अनुमान जे शास्त्रोक्त चैत्यवास ने तेनुं पूर्वे खंमन कर्यु माटे ए हेतुने हगवनार प्रतिपक्षीनो हेतु नथी. माटे वळी ए हेतु बाधित विषय वाळो पण नथी केमजे प्रतिपक्षादि प्रमाणवझे एहेतुनो विषय नाश पाम्यो नथी. माटे एटले प्रत्यक्ष जणाय ने जे मुनि होय ते चैत्यमां रहेता नथी माटे ए प्रकारे पांच हेत्वान्नास एटले दोष ते श्रा हेतु. मां नथी माटे श्रा सझेनु कहेवाय प्रतिवादिना जे सर्व हेतु ते अ. सद्धेनु करी देखामया माटे हवे लिंगधारी आशंका करे जे जे श्रा कालमा प्रत्यक्षपणे जे जिनजुवनमा साधुनो निवास देखाय ने तेणे करीने ते साधुना निवासरुपी जे धर्म तेने मुनिनी अयोग्यतारुपीजे साध्य धर्मरुप देवडव्यनो उपन्नोग थाय ए रुपी जे हेतु तेनो विषय जे अयोग्यता तेनुं बाधितपणुं थयुं तेणे करीने विषयनो अपहार थयो एटले विषय नाश पास्यो एटले अयोग्य हेतु योग्यपणुं थयुं, माटे
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- अथ श्री संघपट्टका :केम ए हेतु न बाध पाम्यो त्यारे सुविहित उत्तर आपे जे जे एम तारे न बोलवू.
टीकाः-तेषां मुन्यानासत्वेन तत्र तहास दर्शनेना पितहासस्य मुन्ययोग्यताया बाधितत्वमितिहेतोर्विषयापहारान्नावान वाधित विषयत्वमिति ॥ एवं साधनांतरमपि प्रकृतसिध्ध्यैद- . यते ॥ जिनगृहवासो यतीनांवर्जनीयः ॥ पूज्याशातनाहेतु.. त्वात् ॥ गुर्वासनावस्थानवदिति ॥ अत्रापि हेत्वान्नासोझारः स्वयजूह्यः ॥ तदेवमुपपन्नमेतद्यतिनिर्जिनगृहे न वस्तव्य मितिवृत्तार्थः ॥ ७॥
अर्थ- केम जे ते चैत्यमा रहेनारा मुनि नथी, एतो मूनिना आन्नास ने एटले मुनि जेवो वेष राखे ने पण मुनि नथी. माटे तेनो चैत्यमां निवास देखाय ने तेणे करीने पण साधुने चैत्यमां निवास करवो तेनुं अयोग्यपणुं ने माटे वाधित ने एटले निषेध ने ए हेतु माटे हेतुनो विषय जे अयोग्यपणुं तेनो नाश जे योग्यपणुं ते नथी, माटे ए हेतुने वाधित विषयपणुं नथी. ए प्रकारे बीजं पण अनुमान साधन आ प्रकृत वातनी सिद्धिने अर्थे देखाय . जे, जिनघर वास यतिने वर्जवा योग्य ले केम जे पूज्यनी आशातना थाय
ए हेतु माटे ॥ दृष्टांत । जेम गुर्वा दिकना आसन नपर वेस ते आशातना दे माटे वर्जवा योग्य ले तेम आ अनुमानमां पण हेखानासनो उझार पोतानी मेळे तर्क करी लेवो ते हेतु माटे एम सिक थयुं जे यतिने जिनघरमां न रहे ए प्रकारे सातमा काव्यनो अर्थ यो पति यतिने चैत्यवास निवेधनो नझार थयो ॥ ७॥
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(.१९४)
18. अथ श्री सघपट्टकः
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- टीकाः इदानी जिनाद्यासेवितत्वेन सिद्धांतोतत्वेन च य. तीनां परगृहवसतिं व्यवस्थापयन् वसत्यक्षमाधार वृत्तहयेन . निरसिसिषुराह ॥
अर्थ:-दवे साधुने परघरमां निवास करवो केमजे जिन परमात्मा आदिक पुरुषोए परघर वास को डे ए हेतु माटे ने सिकांतमां पण परघर वास करवानो कह्यो , माटे साधुने परघर वास करवो ए प्रकारे स्थापन करता सता वसति अक्षमा नामे मारने वे काव्य वमे निराकरण करता एटले वसति जे परघर तेमां साधुने न रहे एवां जे लिंगधारीनां वचन तेनुं खंमन करता सता कहे जे.
॥ मूलकाव्य ॥ . “ साक्षाजिनैर्गणधरैश्च निषेवितोक्तां, निःसंगताग्रिमपदं
मुनिपुंगवानां ॥ शय्यातरोक्ति मनगारपदं च जानन् विष्टि कःपरगृहे वसतिं सकर्णः ॥ ७॥ चित्रोसर्गापवादे यदिद शिवपुरीदूतजूते निशीथे, प्रागुक्ताभरिनेदा 'गृहिगृहवसती कारणे पोद्य पश्चात् ॥ स्त्रीसंसक्तादियुक्तप्यनिदितयतनाकारिण संयतानां सर्वत्रागारिघाम्निन्ययमि नतु मत क्वापि चैत्ये निवासः ॥ ५॥
. टीका-कासकर्ण:पुमान् परगृहेगृहिसदने वसति निवास विष्टि अनुशेते मात्सर्यान्नक्षमते निषेधतीतियावत् । मुनिपुंग
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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वानां सुविहितयतीनां न कश्चिदित्यर्थः । अयमर्थः ॥ अंकगोहिकर्णी विना सिद्धांतोक्तामपि परग्रह वसतिमनाकर्शयन् निष्पादपि यतोलोकेपि बधिरस्तोकमपितछचना 'श्रवणान्मा मेषोधिक्षिपतीति मन्यमानोद्विषन्नुपलभ्यते ॥ यःपुन: सकर्णः स श्रवणोऽथच हृदय:परगृहवासचैत्यांतर्वासगुणदोषविचारचतुर, इतियावत् ॥ सपरगृहवसतिं यतीनामनुमोदयत्येव नतु हेष्टि ॥
अर्थः कोण माह्यो पुरुष साधुने परघरमां निवास करवो ते प्रत्ये द्वेष करे ? नज करे जे हेतु माटे लोकमां पण बेहेरो पुरुष उपदेशकनी योनी पण वात सांनळी शकतो नथी माटे एम जाणे जे था पुरुष मारो तिरस्कार करे . एम मानीने ते नपर द्वेष करतो जणाय . पण जे कानवाळो वे ते द्वेष करतो नथी केमजे ते माह्यो पुरुष परघर निवासने चैत्यमां निवास ए बेनो गुण दोषनो विचार करवामां चतुर डे माटे ते पुरुष साधुने परघरमां निवास करवो तेनी अनुमोदनाज करे हे पण वेष नथी करतो.
टीका:-किंरूपांवसतिमित्याद॥ निषेविता निवासेनोपजुक्ता नुक्ताच स्वमुखेन यत्याश्रयणीयत्वेनागमे प्रतिपादिता निषेविता चासावुक्ताचेतिकर्मधारयः कथंसादात्प्रत्यकंस्वय मित्यर्थः ।। कैर्जिनैस्तीर्थकृषिः गणधरै गौतम स्वामिप्रभृतिनिः॥चः समुच्चये ॥
अर्थ:-ते निवास केवो वे ते कही देखा ले जे जे ग. इस्योए पोतानो निवास करवो तेणे करीने जोगवेलो ने वळी 'शा
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-18अथ श्री संघपटक
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खमां, साधुने एवा निवासनो,आश्रय करतापणे कहेलो प्रतिपादन करेखो माटे शास्त्रमा कहेलो ने गृहस्थोए नोगवेलो ए बे पदनो कर्मधारय समास करवो, कये प्रकारे कहेंलो ? तो साक्षात् प्रत्यक्ष, पोते कहेलो एटलो अर्थ बे, कोणे कहेलो तो तीर्थंकर तथा गौतमस्वामी आदि.गणधरोए कहेलो चकारनो समुच्चय अर्थ करवो. .
टीका-तथाहि ॥ नगवान् श्रीमहावीरोवर्षाचतुर्मासकं तिष्टासुर्दूयमानपाखंझिनामाश्रमं गतस्तत्कुलपतिना लगवत् पितुवयस्येन सबहुमानमनुज्ञातस्तमुटजमध्युवासेत्यादि श्रूयते तथाचावश्यकचूर्णिः ॥ ताहे सामी वासावासे उवागएतं चैव दूतग गाम ए॥ तस्ये गमि उमए वासावासंठिओत्ति' तथा ॥ ताहे सामीरायगिहर्ड तत्थवाहिरिगाए तंतुवायसालाए । एगंदिसि अहापभिरूवंअवगहं अणुन्नवित्ता चिति ॥
अर्थः-परघर वासं तीर्थंकर महाराजे कों में ते कही देखामे .जे.लगवान श्रीमहावीर स्वामी वर्षाचोमासु रहेवा इच्छतासता, उंख पामता-पाखंमि तेमना आश्रममां गया त्यारे जगवानना पितानो मित्र कुलपति तेणे बहुमानपूर्वक अनुज्ञा करी त्यारे तेनी पर्ण शाळामां निवास कर्यों इत्यादि सांजळीए बीए. वळी आवश्यक चूर्णिमां कडं जे जे.
. टीका:-तथाश्री सिंहगिरिसूरयोवैरमुनिवसतिपालं संस्थाव्य बहिः संज्ञाभूमि गता इतिचभ्रूयते॥ तथाहि ॥ अन्नयात्रा: ।
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--- अय श्री संघपट्टकः
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यरिया मलएहे साहुसु जिसुं निग्ज एसुसन्नाभूमि निजया ॥ वइरसामीवि पमिस्सयपालोति ॥
___ अर्थः-वळी श्री सिंहगिरि आचार्य वैरस्वामीने वसतिपालपिने बारणे संज्ञानूमि प्रत्ये गया एम सांजळीए बीए तेवचन जे.
टीकाः-एवं निषेविता जिनादिनिः परग्रहवसतिः ।। तथा संविग्गसन्निनगसुन्ने नीयाइमुत्तहादे ॥ वचंतस्सेएसुं वसही. एमग्गणाहो ॥ इत्यादिना वहुधा सप्रपंचं जिनादि निरुक्ता चतां ॥ तत्रच निषवितोते ति समासकरणं जगवचनक्रिकयोः सर्वदाप्यविसंवादसूचयति ॥
अर्थः-ए प्रकारे परघरनो निवास ते जिनश्रादि महांत पुरुपोए सेव्यो . .
टीका:-तथा सज्यतेजनो स्मिन्नितिसंगः ॥सदनधनकनक तनयवनितास्वजनपरिजनादिपरिग्रहः ॥ निर्जतः संगानिः - संगस्तेषांनाव: तस्याः अग्रिमंमुख्यपदं स्थानं मुनीनां परगृहवसतिः सत्यांहि तस्यांनि:संगता पदमनुबध्नाति ॥
अर्थः-वळी लोक जेने विषे बंधाय ते संग कही ते कयो तो घर, धन; सुवर्ण; पुत्र; स्त्री; सगांसबंधि, सेवकादि ए, सर्व परिग्रह कहीए, ते निसंगतानुं मुख्यस्थान मुनिने परघर नि.,
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8. अथ श्री संघपट्टका
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वास दे. माटे ते परधरनिवास करयेसते निःसंगतापदनो श्रनुजव करे . एटले निःसंग पणुं स्थिति करीने टके बे.
- टीका--तथाहि ॥साधूनां परगृहवसति मुपलभ्य लोके व. 'तारोनवंति ॥ किलातिपुगतानामपि प्रायेण तृणकटीरकमात्र स्वसत्तायां जवत्येषां तु तदपि नास्तीत्यहो नि:परिग्रहताऽमीषां ॥ तमुक्तं ॥ धन्याप्रमी महात्मानो नि:संगामुनिपुंगवाः ॥ श्रपिक्वापिस्वकं नास्ति येषां तृणकुटीरक॥ परगृहवासं विनातु सं प्रत्युद्यानवासस्याशक्यत्वेन मुनीनां स्वगृहार्थमारंचसंचवे मु. नित्वहान्या जनोपदासापत्तेः॥
. -अर्थः-ते देखामे जे जे साधुने परघरमां रहे देखीने लोकने विषे कहेनारा थाय ने जे जुउँने दरिषि उखीथाने पण बहुधा तृ. एनी कुंपनी मात्र पण पोतानी सत्तामा होय बे ने था साधुने तो ते पण नथी माटे आ साधुनुं परिग्रह रहितपणुं तो मोटुं आश्चर्य कारी ले ते आ श्लोकमां कडं जे आ महात्मा पुरुष नि.संगमुनि मध्ये श्रेष्ट बे, जेमने पोता संबंधि को जगाए पण तृणनी शं. पनी पण नथी माटे एवा पुरुषोने धन्य ले माटे परघर वास विनानो
श्रा कालमा नद्यानवास करवो ते तो अशक्य . ए हेतु माटे मु. निने पोताने अर्थे रहेवानुं घर करवानो संजव थये सते मुनिपणानी हानि थशे तेणे करीने लोकने नपहास करवानी प्राप्ति थशे ए हेतु माटे परघर वास करवो एज श्रेष्ट बे.
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hgअथ श्री संघपट्टकः
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टीका:-॥ तक्तं ॥ जे घरसरणपसत्ता बकायरिन सकिं चणाश्रजया ॥नवरं मोजूण घर निसंकमणं कयं तेहिं । निःसं.. गताया अग्निमं मौलंपदं लक्ष्म लिंग मित्यर्थः॥ पदं व्यवसिति त्राणस्थानलदमांधिवस्तुष्ट्रित्यनेकार्थवचनात ॥ नि:संगताहि मुनिषस्य लक्षणं वह्निरिवदाहपाकादि सामर्थ्यस्य तस्याश्चलिंगं .. परग्रहवसति:धूमश्ववहेनि:संगतामंतरेण हि नि:स्पृहस्य पर. . गृहवसतिमि विना धूमलेखेवानुप पद्यमानतां गमयति.
अर्थः-अथवा आ प्रकारे अर्थ करो जे नि:संगतानुं अग्निमपद कहेतां मुख्य विह ए परघर निवास बे. एटलो अर्थ , . ते पद शब्दनो चिन्हरुपि अर्थ को ते उपर कोशनुं प्रमाण आपे ले जे, पदशब्द जे ते रक्षण; स्थान, चिह्न, चरण, वस्तु एटला अर्थने विषे प्रवर्ते ए प्रकारे अनेकार्थ कोशनुं वचन ने माटे नि:संगता जे ते निश्चे मुनिपणानुं लक्षण दे. जेम दहन थर्बु परिपक्व थर्बु इत्यादि जे सामर्थ्य ते अग्निनुं लक्षण ले तेम मुनिपपार्नु लक्षण नि:संगता दे, ते नि:संगतार्नु चिह्न परघर निवास ले जेम अमिनुं चिह्न धूम डे, ज्यां धूम ने त्यां अग्नि होयज तेम निस्पृह पुरुषने परघर निवास के त्यां नि: संगपणुं पण होयज जेम अग्नि विना धूमरेखा घटती नथी तेम नि:संगता विना निस्पृहने परघर निवास घटतो नथी.
टीकाः श्रतो नि:संगतानांतरीयकत्वाद् नवति निस्पक्ष स्य परघरवसतिस्तद्विगं ॥ नहि स्वाधीने विनवे मनस्वी कश्चित्परमुपजीवेदिति ॥ अत्रच पदशब्दश्याविष्टलिंगत्वान्न विशेप्य सिंगता ॥
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(२००)
9. अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः-ए हेतु माटे निःस्पृहने परघरमां रहे, ए निसिंगतार्नु चिन्ह ले केमजे निःसंगता ढांकेली नथी नघामी डे ए हेतु माटे ने कोई पण माह्यो पुरुष पोताने आधिन विनव उते परघर प्रत्ये निवास करीने नपजीका करे ? न करे आ जगाए पद शब्द अजहत् लिंगे जे. माटे विशेष्पना जे स्त्री लौंगपणुं न थयु, नित्य नपुंसकपद शब्द रहो.
टीका:-किं कुर्वन् न विशेष्टीत्यताह ॥ जानन् आगम - श्रवणेना वबुप्यमानः ॥ कांशय्यातर इत्युक्ति षा तां ॥ सि.
शांतेहि शय्यातरति नाषा श्रूयते ॥ नचासौ साधूनां प.. 'रगृहवासं विनोपपद्यते ॥ तथाहि ॥ शय्यावसत्यायतिच्योदाना
तरत्ति संसारपारावार मिति शय्यातर शब्दार्थः॥ .
अर्थः-शं करतो तो विशेष न करे एवी आ शंकाथी.कहे जे श्रागमना श्रवणे करीने शय्यातर ए प्रकारनी उक्ति एटले नाषा तेने जाणतो बतो सिद्धांतमा शय्यातर ए प्रकारनी भाषा संनळाय , ते साधुने परघरमां निवास विना घटती नथी माटे तेज कही देखामेने जे शय्या जे वसति एटले निवास तेनुं साधुने श्रापवा थकी संसार समुज्ने तरे. तेने शय्यातर कहीए एम श. च्यातर शब्दनो अर्थ .
टीकाः तदुक्त शय्यावसतिराख्यातायतिन्योदानतस्तय।। यस्तरति नवांनोधि शय्यातर मुशंति तं ॥ परगृहवसतिं विना.
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9. अथ श्री संघपट्टका -
(२०११) तुयतीनां न कस्यचित्साधुशय्यादानेन तरणमस्तीति शय्यातर शब्दस्य स्वार्थालानेन निर्विषयत्वापत्या सिद्धांते प्रतिस्थानमुचारणं कथमिवशानां बिभूयात् तस्मादागमे शय्यातरशब्दश्रुते रपि परग्रहवसतिर्मुनीनामवसीयते ॥
.. अर्थः-ते शास्त्रमा कह्यो जे जे शय्या ए प्रकारनुं निवास माम कडं , तेनुं साधुने आपवाथकी जे संसार समुज्ने तरे . तेने शय्यातर कहीए माटे मुनिने परघर निवास विना तो कोश्ने पणे मुनिने शय्या देवाथी तरवापणुं नहि थाय त्यारे शय्यातर शदने पोताना अर्थनी प्राप्ति न थाय तेणे करीने. ते शय्यातर शब्द प्रवर्त्तवानुं स्थान न रडं तेणे करीने व्यर्थ पमशे, ने सिद्धांतमां तो गम गम शय्यातर शब्दनुं उच्चारण कयुबे, ते केम करीने शोनार्नु धारण करशे, ते माटे आगममां शय्यातर शब्द सांचळीए बीए तेथी पण साधुने परघर निवास करवो एवो निश्चय थाय .
टीका:-तथाचागमः॥ सिजायरुत्तिनानश्यालयसामिति।। तथा सिझायरो पहावा पहुसंदिहो व हाइकायवो इत्यादि। मुत्तूण गेहंतु सपुत्तदारो वणिजमावहिनकारणेहिं ॥सयंव अन्नंव वश्जा देसं सिज्जायरो तत्थ सएव होइ ॥ तथा ॥ जो देश नवसयं मुशिवराणं तवनियमनजुताण ॥ तेणं दिन्ना वत्थन्नपाणसयपासणविगप्पा इत्यादि॥ तथाऽनगारपदंचजाननिति सबंध्यते॥ ॥च: समुच्चये ॥ नवद्यतेऽगारंगृहं यस्या सावनगारस्ततश्चानगार इतिपदं व्यपदेशस्तत् श्रुतेह्यनगारपदश्रूयते ॥ तच्चतेषां स्खागारानावेन परागारवासेन च संगत।प्रत्यया स्वगारसद्
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(२०२)
8. अथ श्री संघपट्टका नावे चैत्यवासे वा यथाक्रमं यते गंहपतिमपतिव्यपदेशप्रसंगेना नगारपदवैयर्थ्यमापयेतेति ॥
अर्थः-वळी शुं जाणतो सतो शेष न करे ? तो अनगार पदने जाणतो ए प्रकारे संबंध करवो ने चकार तेने समुच्चय अर्थने विषे जाणवो, नथी घर जेन तेने अनगार कहीए ते हेतु माटे श्रनगार ए प्रकारना पदनो व्यपदेश जे. एटले व्युत्पत्ति सहित पदनो अर्थ डे ते सांनळे सते जे शास्त्रमा अनगार पद संनळाय . ते तो साधुने पोताना घरनो अन्नाव करवो एटले परित्याग करको तेणे करीने परघरमां निवास करवो ए प्रकारे ए शब्दना अर्थनो संबंध थाय ने एम जाणवू ने जो एम जाणे तो पोतानुंघर बते अथवा चै. त्यवास बते साधुनुं नाम गृहपति अथवा मम्पति ए प्रकारे स्थापवानो प्रसंग थाय एटले साधुने जो पोता संबंधी घर होय तो ते गृहपति कहेवाय पण अणगार न कहेवाय ने जो साधुने चैत्यवास होय तो ते मम्पति कहेवाय पण अणगार न कहेवाय तेणे करीने अनगार पदनुं व्यर्थपणुं प्राप्त थशे माटे मुनिने परघर वास ने एम सिक थयु.
टीका:-ननुकथमेतदेवं यावता यहि सर्वथागमे चैत्यवासोऽन- निमतः स्यात्तदापरगृहवसतिः क्षम्येतापि ॥ यदातु तत्र क्वचि
चैत्यवासेलिहिते पिहरेनैव नवनिः परगृहवसतिराश्रीयतेतदा कथं दम्यत इत्यत आह ॥
अर्थः-लिंगधारी शंका करी बोले हे, जे श्रा एम केम कहो
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श्री संघट्टकः
( २०३ )
ो ? जो सर्वथा आगममां चैत्यवास अभिमत न कह्यो होत तो परघरवास जे तमे थाप्यो तेनी क्षमा करीए पण ज्यारे तो ते यागममां को जगाए चैत्यवास कह्यो होय, तोपण हठवादथीज तमो परघरवासनो आश्रय करोढो त्यारे तो क्षमा करीए ए प्रकारनं लिंगधारीतुं श्राशंकावाक्य धारि सुविहित चित्रात्सर्ग ए काव्ये करीने उत्तर पे बे,
टीका:- चित्रोत्सर्गेत्यादि ॥ यत् यस्मात् इहेति सन्मुनीनां नित्याभ्यास विषयत्वेन पुरोवर्तिनि अथवा इह प्रवचने निशीथे प्रकल्पाध्ययने पंचमोद्देशादौ किंभूते ? सामान्य विधिरुत्सर्गः विशेषविधिरपवादः ॥ नृज्जुयमग्गुसग्गो अवार्ड तस्स चैव पविरको | जस्सग्गा पर्यंत घरेश्सालवण भवानं ॥ इतिवचनात् ॥ उत्सर्गश्चापवादश्चेति द्वंघः ततश्च चित्रौनानाविधौवसत्या दिगोचरावुत्सर्गापवादौ सामान्य विशेष विधी यत्र सतथा तत्र
अर्थः- जे चित्रोत्सर्गापवादे आ निशीथ सूत्रमां नाना प्र कारनो उत्सर्गने अपवाद संबंधि मार्ग बे या निशीथ सूत्रमां ए जेक तेनो अभिप्राय एबे जे सारा मुनियोने तेनो नित्य अभ्यास करवे करीने या प्रत्यक्ष जातुं जे निशीथ सूत्र तेन विषे या प्रवचनमां निशीथ सूत्रने विषे प्रकल्प अध्ययनना पांचमा देशाने विषे ए प्रकारे इह शब्दनो अर्थ करो तेमां सामान्य वि ते उत्सर्ग कहीए ने विशेष विधि ते अपवाद कहीए, ते कं जे उत्सर्ग मार्ग ते रुजु मार्ग कहीए ने ते उत्सर्गनो प्रतिष् अपवाद मार्ग कहीए ने जे उत्सर्ग मार्गथी पके वे. तेने
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(२०४) 4. अथ श्री संघपट्टकर सहित होय ने शुं एस डे केम जे अपवाद मार्ग धारण करे , पु प्रकारना वचनथी नत्सर्ग तथा अपवाद ए बे पदनो इंछ समास करवो त्यार पली नाना प्रकारना निवासस्थान आदिकने विषे जणाताले उत्सर्ग अपवाद कहेतां सामान्य विशेष विधि जेने विषे
एवं सूत्र ने.
टीका:-शिवपुर्य्या निःश्रेयसनगऱ्या दूतजूतःसंदेशहरसहशस्तत्र नूतशब्दस्यात्रसदृशवाचित्वात् ॥ तेनायमर्थः ॥ यथा कश्चित्परराजदौवारिकादिः कस्यांचितपुरिप्रविविकुस्तत्पृथ्वीपतिसंदिष्टदूतनणितेन प्रवेशं प्राप्नोति तथा यतिरपि निःश्रेयसपुरे निशीथप्रतिपादितविधिनेतिप्राक् प्रथमं नक्त्वा प्रतिपाद्य जूरिजेदाः प्रजूतप्रकारा गृहिगृहवसतीग्रुहस्थसदनरूपोपाश्रयान् पश्चाचरमकारणे तथा विधवसत्यलानलकणे हैतो श्र. पोद्य अपवादविषयीकृत्य ताएवेति गम्यते ॥
अर्थ:-वळी निशीथ सूत्र मोदनगरीना दूत जेवू दे. भूत शब्द आ जगाए सदृश वाची ने तेणे करीने का अर्थ थयो. जेमः कोइक परराजानो द्वारपाळ होय, तेम कोश्क नगरीमा प्रवेश करवा. श्वतो पुरूष ते पृथ्वीपति राजाए आज्ञा आपेला दूतना कहेवाथी ते नगरीमा प्रवेश पामे जे तेम यति पण मोक्षपुरीमा, निशीथ सत्रमा प्रतिपादन करेला विधिये करीने प्रवेश करे जे माटे मोक्षः पुरीना दूत जेवू निशीथ सूत्र कह्यं तेमां प्रथम घणा प्रकारनां गृहस्थनां घररूपी उपाश्रय प्रतिपादन कर्या ने पढ़ी बेला कारणमां
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8. अथ श्री संघपष्टक -
(२०५) ते प्रकारना निवासनो लान नथाय ए हेतु माटे अपवादरूप तेनेज प्रतिपादन कर्या बे.
टीकाः-अयमर्थः॥ निशीथेहि पूर्वमौत्सर्गिका वसतिन्जेदा यतिनिवासयोग्यत्वेन प्रतिपादिताः यथा मूवुत्तरगुण-सुझं थीपसुपंकगविवङियं वसहि, सेविज सबकालं विवजए डंति दोसाॐ ॥ विजिन्ना खुड्डलिया पमाणजुत्तान तिविहवसहि ॥ पढमबियासुदाणे ॥ तत्थय दोसा श्मे हुँति ॥
अर्थः-श्रा स्पष्ट अर्थ जे जे निशीथ सूत्रमा प्रथम साधुने रहेवा योग्य निवासना नेद नसर्ग मार्गे प्रतिपादन कर्या . जे मूल गुण तेणे करीने शुद्ध स्त्री तथा पशु तथा नपुंसक तेणे रहित ए प्रकारना निवासने सर्व काले सेववो ने जो दोष होय तो ते निवासनो त्याग करवो.
टीकाः-साध्वीरुद्दिश्योदिता ॥ गुत्तागुत्तदुवारा कुलपत्ते सत्तिमंतगंजीरे ॥ नीयपरिसमद्दविए अजासिझायरे जणिए ॥ घणकुड्डा सकवामा सागारियन्नगिणिमाइपेरता ॥ निप्पञ्चवायजोगा विबिन्नपुरोहमा वसही ॥
वळी साध्वी नद्देशीते का बे जे
टीका:-तदलाने पश्चात्ता एवापोदिताः ॥ यथा ॥ अन्य प्रतिवसायामपि वसतौ कारणेन वस्तव्यं ॥ तथाचाह ॥श्रद्धा
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।२०६)
अय श्री संघपट्टका
अयमान
ण निग्गयाई तिख्खुत्तो मग्गिऊण असणागीयत्थाजयणाए व संति तो दव्वपमिबजे॥
रूवं आचरण विहि वहालंकारनोयणे गंधे ॥ श्रानजनदनामयगीये सयणे य दव्वंमि ॥ अजाण निग्गयाई तिख्खुत्तो मग्गिएण असईए। गीयत्था जयगाए वसंति तो नावपमिबके। जह कारणपुरिसेसु तह कारण इस्थियासुवि वसंती ॥ अहाण वाससावय तेणेसुय कारणे वसइ ॥
टीका:-ततोऽपोद्यर्किकृतमित्याह ॥ न्ययमि संयतानां निनिवास इति संबंधः। संयतानां निवासोऽवस्थानन्ययमि ॥ सं. यतवासस्य सामान्येन सर्वत्र प्रसृतस्य पाक्षिक्यांचैत्येपि । प्राप्तावेक विषयतया व्यवस्थापने नियमः ॥ नियमः पांदिके सतीति वचनात् ॥ तेनैकविषयतया व्यवस्थापित इत्यर्थः विषयैक्यमेव दर्शयति ॥ अगारिधानिगृहस्थागारे ॥
अर्थः त्यार पड़ी अपवाद कहीन शुं कर्यु तो त्यां कहे ले के साधुना निवासनो नियम को एटले सुविहित मुनिने रहेवाना स्थाननो नियम को केम जे सामान्यपणे सर्व स्थान कह्यां तेमां सर्व जगाए मुनिने रहेवानी प्राप्ति थ त्यारे एक पके चैत्यमां पण रदेवानी प्राप्ति थइ ने नियम तो कोन कहेवाय ? जे घणी जगाउँमांथी एक जगाए रहेवानुं स्थापन कर तेनुं नाम नियम कहीए ते नियम तो चैत्यवास आदिक जोमे पक्ष होय त्यारे थाय ए प्रका
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- अथ श्री संघपट्टकः - (२०७) रतुं वचन ले माटे मुनिने रहेवानो विषय एक स्थानकनो बे. एटलो अर्थ ले. ते मुनिने रहेवा विषे एक स्थानक ने तेने देखा जे गृहस्थना घरमा रहेg बीजे न रहे.
टोकाः कीदृशे स्त्रीणां योषितां संसक्तिः संसर्गोरूपाद्यापातप्रत्यासत्तिः ॥ आदिग्रहणात् पशुपंमकादिग्रहः तयुक्तेऽपि तत्सहितेपि ॥ श्रास्तां तरहित इत्यपिशब्दार्थः ॥ नजा वयस्स अगुत्ति इत्यादि वचनात् स्त्रीसंक्तिमति पशुपंमगे सविहं मो. हानलदीवियाण जं हो ॥ पायमसुहा पविती पुबनवप्नास तहयेत्यादिवचनात्यशुपंमकसंसक्तिमति च परसदने वसतां संयतानां मन्मथोत्कलिकाद्यनेकदोषसंचवात् कथं तत्र वासो नियमित स्तत्राह ॥
अर्थः ते गृहस्थनुं घर के, बे, तो स्त्रीश्रीना संबंध सहित . एटले स्त्रीओनां रुपादिक, इत्यादि जेमां स्त्री संबंध रह्यो बे. श्रा जगोए आदि शब्द ग्रहण कर्यु ले माटे गृहस्थ- घर पशु तथा नपुंसक इत्यादिके करी सहित होय तोपण तेमा मुनिने निवास करवो, तो जेमां स्त्री आदिकनो संबंध न होय ने तेमां निवास करखो तेनी तो शी वात करवी. ए प्रकारे अपि शब्दनो अर्थ बेए प्रकारनां वचन सांजळीने लिंगधारी आशंका करे ने जे ब्रह्म बतनी अगुप्ति इत्यादि वचनथी स्त्रीनो जेमा संबंध जेमां पशु श्र. थवा नपुंसक रह्या वे. तेथी जेमां मोहरुपी अग्नि प्रदिप्त थायडे इत्यादि वचनथी पशु तथा नपुंशक तेनो संबंध जेमां बे, एवा परघरमा रेहेनारा साधुने कासन उद्दीपन थाय इत्यादि दोपनो संचव
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१.२०४)
8. अथ श्री संघपट्टक:डे माटे केम त्यां निवासनो. नियम को तेनो उत्तर सुविहित साधु उत्तर श्रापे.
टीकाः-श्रनिहिता निशीथे प्रतिपादिता यतना स्त्रीसंतत्या दिसनवात्कंदर्प विकारायसत्प्रवृत्ति नीवृत्ति पटीयसी तिरस्करणीकटाद्यंत नरूपाचेष्टा ॥ यदाह ॥ जीइपजूवतरालप्प वित्तिविणिविनिलकणं वत्, सिज्ज विहार जो “सा. -जयणा पाशविविशर्मि॥
अर्थ:-जे साधुने गृहस्थना घरमां निवास करवो एम.नि. शीथ सूत्रमा प्रतिपादन कर्यु , ने तेमां स्त्रियादिकनो संबंध यतो होय तो यतना करवानी कही बे. ते यतना तेशुं? तो काम विकार आदि असत्प्रवृत्तिनी-निवृत्ती करवामां चतुर एवी चेष्टा करवी तेनुं नमि यतना कहीए एटले स्त्रीयादिकनां रूपोंदिक न देखाय माटे : चक नाखवो अथवा कमीत, सादमी, इत्यादिकनो वच्चे पदो बांधवो जेथी ते न देखाय एम करवं ए प्रकारनी यतना करीने पण गृहस्थना घरमां निवास करवो पण चेत्यादिकमां नं करवो.
टीका:-आणाइ विविमिति॥आयात्राप्तोपदेशनीत्या विपदिव्यदेवकालभावादीत्यर्थः ॥ तत्कारिणां तयतानां॥ यदाह ॥नामि गयमाणा पढमं गयति रूवपमिबद्धे । तहियं, कमगचिलमिणी तस्सासइ ति पासवणो ॥ पासवणमत्तएसुंहाणे अन्नथ चिलिमिणीरूवे सज्जाए झाणेवा आवरणेसहकर
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अथ श्री संघपट्टक
ऐया जहि अप्ययरा दोसा ॥आजरणाईण दूरओयसिया चिखमिणि निसिजागरणं गीएं सज्जायजाणा॥ अमाण निग्गयाई तिखुत्तों मग्गिऊण असईए ॥ग्गीयत्था जयणाए वसंति तो द. वसागरिए।अद्धाण निग्गयावासे सावयतिए व तेणजए,आत्र लिया तिविहेवी, वसंति जयणाएं गीयत्था ॥
अर्थः-आगळ पाळ श्रावी गयो बे.
टीका:-इयं यतना स्त्रीसंसक्तवसतिमधिकृत्योक्ता ॥ पशु पंग संसक्तायामपि वसतो वसतामेतदनुसारेण संजविनीययः तना दृष्टव्या ॥ तदयमर्थः ॥ स्त्री संक्त्यादिसंनवेप्येवंविधयतनीसावधानानां मुनीनां न तज्जन्या दोषाः प्रादुष्यंति स. र्वत्र सर्वस्मिन्नपि वसत्यधिकारप्रवृत्तोद्देशकाप्दौ ॥
अर्थः-ए प्रकारनी यतना स्त्रीना संबंध सहित ज्यारे निवास होय तेनो अधिकार करीने कही डे माटे पशु तथा नपुंसकना संबंधवाळा निवासमां पण रहेनारने आ यतनाने अनुसारे जेम संनवे तेम यतना करवी तेनो अर्थ प्रगट डे जे स्त्रीनो संन्नव आ. दिक थवानो संन्नव होय त्यां पण ए प्रकारनी यतना करवामां साः वधान रहेता मुनियोने ते स्त्रीयादिकना संबंधथी थएला दोष नहीं प्रगट थाय एम सर्व जगाए एटले साधुना निवासना अधिकारमा प्रवर्नेक्षा सर्व नद्देशक आदिकने विषे एम जाणवू यतनावालाने स्त्रीयादिकना संबंधथी थएला दोष नही प्रगट थाय
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१२१०)
अथ श्री संघपहार
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टीका:- नन्वेवं यतनावतां चैत्यवासेपि कोदोष इत्यतयाह॥ नतु ॥ तुर्नेदेऽवधारणेवा ॥ तेन नपुन नैववा मतश्ष्टः ॥ क्वापि . नद्देशकादौ चैत्ये जिनगृहे निवासो॥ निवास इत्युत्नयत्रयोज्यते॥ एतमुक्तं भवति ॥ यदिहि चैत्यवासो यतीनां क्वचिन्मतःस्यानदा स्त्रीसंसक्त्यादियुक्तइव गृहे वसतां तत्रापि कांचियतनां : ब्रूयान्नचैवं ॥ ततोऽवसीयते आगारिधाम्न्येव संयतानां वासो,न; चैत्य इति तस्मान्न सकर्णेन तत्र विशेषो विधेयतिस्थितं ॥ :
अर्थः-प्रतिवादिये तर्क कों जे ए प्रकारनी यतनावालाने चैत्यवासमां पण शो दोष बे ? ते तर्कनुं समाधान कहे जे के कोई उद्देशादिकने विष चैत्यमां साधुने निवास करवो अनिमतज नथी एटले कडोज नथी. तु अव्यय नेदरुपी अर्थने विषे अथवा निश्चय रुपि अर्थने विषे जे माटे चैत्यवास मान्य नथीज एटलो अर्थ थयो निवास शब्दनी योजना बे पास करवी तेणे करीने आ प्रकारे अर्थ थयो जे साधुने चैत्यमा निवास करवानुं को जगाए कह्युज नथी. साधुने गृहस्थना घरमांज निवास करवो एम कयु जे जो कोश जगाये साधुने चैत्यवास करवानुं कर्तुं होय तो जेम गृहस्थना घरमां निवास करनारे स्त्रीयादिकनो संबंध थाय त्यां यतना करवी कही ने तेम चैत्यवासमां पण कांशक यतना कहेत पण ते तो कही नथी. माटे. एम निश्चय करीए बीए जे गृहस्थना घरमां निवास करनार मुनिने विषे शेष न करवो एटळ सिद्धांत थडे ॥
. टीकाः-एतेन सर्वत्रतेषु निरपवादे होत्यादिना बंजवयस्स अगुत्ती इत्याद्यतेन यद्यतीनां परगृहवसतिदूषणं बनाषे परे: .
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9. अथ श्री संघपट्टकः ।
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एतदपि पराकृतं ॥ तथाहि ।। यदीयं परगृहवसतिर्दृष्यते नवता यतीनां तत्किं सवर्दा उतस्विदिदानीमेव ॥
अर्थः-एणे करीने सर्व व्रतमा अपवाद रहित ब्रह्मवत इ. त्यादिथी आरंजीने ब्रह्मवतनी अगुप्ति थाय त्यां सुधी जे लिंगधारीये यतिने परघरमां निवास करवा विषे दूषण कह्यां हता ते सवे खंगन कयु ते हवे कांइक देखा . सुविहित लिंगधारीने पूडे जे जे, ते साधुने परघरमा रहेवा विषे दोष कह्यो ते शुं निरंतर सर्व कासमां बे के आ कालमांज ए दोष लागे जे.
टीका-। यद्याद्यः पदस्तदानीमुद्यानादिषु वसतां यतीनां कथंचिच्चौरायुपश्वात्कथं प्रतीकारः स्यात् ॥ नच तदानीं कालसोस्थ्येन चौराद्यपसर्गाजावाजुद्यानवासएव यतीनां श्रूयते न परगृहवास इतिवाच्यं ॥ तदानीमपि चौराद्यपनवस्य बहुधा श्रवणात्॥तथा तदापि यतीनां परग्रहाश्रयणस्यागमेऽनिधानाच
अर्थः-त्यारे तुं जो प्रथम पक्षनुं ग्रहण करीश जे सर्वकालें गृहस्थना घरमां निवास करतां दोष लागे ठे तो कहीए जीए जे ते कालमां नद्यान आदिकने विषे निवास करनार यतिने कांपण कोश प्रकारे चौरादिकना उपजवथी गृहस्थना घरमा रहेवा रुपि नपाय थतो हशे ए वचन सांजळीने लिंगधारी वोल्यो जे ते काल तो घणणे सारो हतो माटे चौरादिकनो नपसर्ग हतोज नहीं माटे साधुने नघानमा रहेवानुं शास्त्रमा संनळाय रे पण गृहस्थना घरमा रहेवार्नु सनसातु नथी त्यारे सुविहित वोल्या जे एम तारेन वोलते काले
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(२१२)
8. अय भी संपपटक
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पण चौरादिकनो उपश्व बहुधा 'शास्त्रमा संजळाय डे, वली ते काले पण यतिने परघरनो श्राश्रय करवा शास्त्रमा का डे ए हेतु माटे॥
टीकाः॥ यदाह ॥ बाहिरगामे वुत्था उज्जाणे गणवसहि पमिलेहा ॥ शहराज गहियजमा वसहीवाघायउड्डाहो ॥सवेविय हिंता वसहिं मन्गति जहउ समुयाणं॥ लद्धे संकलियनिवेयणं तु तत्थेवन नियाहे ॥
अर्थ:-श्रावी गयो .
टीका:-॥तथा वृषजकल्पनया स्थापिते प्रामादौ यतीनां वसतिगवेषण चिंतायामुक्त यथा, नयराइएसु घिष्पद वसही पुवामुहं नविय वसहं ।वासकमी निविहे दीकय अग्गमिकाप्रयं। सिंगरकौमे कलहोजाणं पुण नात्य होइ चलणेसु॥अहिठाणे पुट्ठरोगो,पुबंमिय फेमणं जाण ॥मुहमूलं मिय चारंसिरेय क. कुडेय पूयसकारे ॥ खंधे पहीश्नरो पुहंमिय धाययो वसहो।
अर्थः-अर्थ पाधरो .
टीका नचैवं विधावसतिर्मामादिमध्यमंतरेण संनवति ।। नयानवासएवच तदानी मनिमते प्रतिपदमुक्तन्यायेन प्रामाचं. सर्वसतिनिरूपणानोपपद्येता एवचंतदानीमपि परग्रहवसतेयंती. ना जावानप्रथमपद ॥
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अथ श्री संघपट्टक
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'अर्थः-ए प्रकारनो निवास प्रामादिना मध्ये होय त्यारेज संजवे पण ते विनानं संजवे जो तुं एम कहीश जे ते काले तो न. यानवासज हतो तो पूर्वे कह्यो एवा न्यायथी सिद्धांतमा मगले क. गले गाममा मुनिनिवासनी प्ररुपणा आवे ते केम घटे माटे ते काले पण मुनिने परघरवास हतो ए प्रकारे प्रथम पदनुं खंमन थयुं.
टीका-श्रर्थ द्वितीय पक्षाअत्रापिवक्तव्यं कुतोदोषादधुनैव यतीनां परगृहवासोदूष्यते स्त्रीसंसक्त्यादेरितिचेत् ॥ न ॥ अस्य दोषस्य तदानीमपि नावात् ॥
अर्थः हवे बीजो पर जे, साधुने परगृहमां निवास करतां श्रा कालमां दोष लागे जे ए पक्षनुं सुविहित खंमन करे जे जे श्रा पक्षमा पण कहेवा योग्य ए जे जे शा हेतु माटे आ कालमांज साधुने परघर निवास करतां दोष लागे ले ? त्यारे तुं कहीश के स्त्रीयादिकना संबंधथी तो एम नही कहेवाय केम जे ए दोष तो तेकाले पण इतोज माटे.
टीका-नच तदापि तत्संसक्तिरहितवसतिपरिग्रहे तदवाजे चालिहितयतनां विहायान्यः समाधिः ॥तथाच स श्दानीमाया श्रीयतां न्यायस्य समानत्वात् ॥ एवं चोक्तयतनाविधायिनां स्ट्यादि संसक्तवसताविदानीमपि ब्रह्मचर्यागप्त्यादयोदोषार परास्ता: ॥
अर्थः-ते काले पण स्त्री संबंध रहित निवासनो परिपड हत्तो,
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(२२४)
-18 अथ श्री संघपट्टक
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तेवा निवासनी प्राप्ति न थाय. त्यारे शास्त्रमा कहेली यतना करीने तेमां निवास करवो पण ते विनानुं बीजुं समाधान न हतु तेमंज श्रा कालमां पण तेज प्रकारनो आश्रय करो केम जे ए न्याय तो ते काले ने श्राकाले सरखो ए प्रकारे शास्त्रमा कही एवी यतनाने करता एवा मुनीयोने स्त्रीयादिकना संबंध सहित एवा पण निवासमां रहेतां तेमने ब्रह्मचर्यनी अगुतियादि दोष नही थाय ए प्रकारे लिंगधारीए जे परघरमां निवास करनारने दोष देखामया हता तेनुं खंमन कर्यु
टीका: यद्यपि तात्पर्यवृत्या चैत्यवासप्रसाधनार्थे एकामूलगुणेसु मित्यवष्टनेन स्त्रीसंसक्ताधार्मिक वसत्यो संचवे धाक. • म्मिकमेव वसतिग्रहणमुपपादितं तदप्यनवगतजिनमत तत्वस्य
नवतो वचः ॥ नह्यत्र सामान्यस्त्रीसंसक्तवसत्यपक्ष्याऽधार्मिक वसत्युपादानमुदितं किंतु तरुणयोषित् संसक्ति महसत्यपेक्षयेति बोद्धव्यं ॥
अर्थः-जे चैत्यवासनी सिधि करवानी तात्पर्य वृत्तिए करीने एटले तमारे जे ते प्रकारे चैत्यवास सिझ करवो एवा अन्तिप्रायथी एक्का मूलगुणे॥ ए गाथार्नु आलंवन करीने एक तो स्त्रीना संबंध सहित निवास डे ने बीजा आधार्मिक निवास ने तेमां आधाकमिक निवासनुं ग्रहण कर एवं जे तमे प्रतिपादन कर्यु ते तमारु जिन मतना तत्व, अजाणपणुं ले. तेथी एवं वचन कहो हो । केम
जे ए जगाए सामान्य स्त्रीना संबंध सहित निवासनी अपेक्षाए . प्राधाकर्मिक निवासतुं ग्रहण करवातुं कांइ कडु नथी ए तो जवान
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अय श्री संघपट्टका
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स्त्रीओना संबंध सहित जे निवास तेनी अपेक्षाए कत्यु एम जाणो.
टीकाः-अन्यथा पुरुषाकीर्णबालवृद्धस्त्रीसंसक्तवसत्यपेक्षा याऽधाकर्मिक वसतिवर्जना निधानस्य वैयर्थ प्रसंगात् ॥
यदुक्तं ॥ . अहवा पुरिसाइना नायायाराय जीयपरिसाय ॥ बालासु य ' वृद्वासु य नारीसु य वज्जए कम्मं ॥
अर्थः ॥ एम जो न होय एटले जवान स्त्रीओना संबंध सहित निवासना त्याग करयो एम जो अभिप्राय न होय तो जे निवास पुरुष युक्त होय बाल अथवा वृद्ध स्त्रीओना संबंधिसहत । निवास होय तेनी अपेदाए आधाकर्मिक निवासनो त्याग करवानुं जे.कडं तेने व्यर्थ थवनो प्रसंग थशे ए हेतु माटे.॥ ते शास्त्रमा कह्यु जे.
• टीका:-किंच उन्नय प्राप्तावाधाकर्मिकवसति ग्रहणमेव चैत्यवासं निषेधयति ॥ अन्यथा आधाकर्मादिदोषविकलसजावे आधार्मिकवसतिग्रहणं नाचवीत ॥ तथा स्त्रीसंसक्ताधाकर्मिकवसत्योरिव स्त्रीसंसक्तवसतिजिन गृहयोरेकतर निर्धारणस्यागमे कारणेपि क्वचिदप्रतिपादनात् ॥
अर्थः-वकी वे प्रकारना निवासनी प्राप्ति थये बतें ॥ एदसे
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(२३)
अथ श्री संघपट्टकः
जवान स्त्री ना संबंध सहित निवासने धार्मिक निवास ऍ बेनी प्राप्तिये सते धाकर्मिक निवासतुं ग्रहण करवुं ॥ एज वचन चैत्यवासनो निषेध करे बे ॥ ने जो एम न होय तो आधाकर्मादि दोष रहित नवासनि प्राप्तिः थये बते जे श्राधाकर्मिक नि वासनुं ग्रहण कर क ते न कहेत ॥ वळी स्त्रीधोना संबध सहित निवास ने धार्मिक निवास ते बेनी पेठे जवान स्त्रीमना संबंध सहित निवास ने चैत्यवास ए बेमांथी एकनो निर्धार कारण बते पण कोइ आगममां प्रतिपादन कर्यो नथी.
टीका: यद्यपि ग्रामाद्यंतर्वसंझिरित्यादिनाऽधुना जिनगृह वासस्यास्मीचीनतापादनं तदप्यज्ञान विजूभितं ॥ जवदजिमतेजिन सदनवास पक्षेप्य धिकतर विवक्षितदोषसद्भावात् ॥
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अर्थ:-वळी जे तमे ग्रामादिकना माही बसताने ॥ एव चनथी आरंभीने दालमां जिन घरवास करवो ए ठीक बे- ए.प्रकारे कयुं ते पण तमारा अज्ञाननुं प्रकाशपणुं वे. केमजे तमे मान्यों ने चैत्यवास ते पक्षमां पण आगळ अमे कहीशुं एवा अतिशय अधिव दोषतुं विद्यमानपएँ बे माटे ॥
टीका:- तथाहि प्रत्यहं भगवत्पुरतः शृंगार सार गायन्नृत्य द्वारांगनां गनंगा पांग निरीक्षण स्तनतटाव लोकनादिना तंत्र' वसतामिदानीं तनमुनीनांकथं सातिरेका मन्मथ विकारांगांरांन दीप्येरन् ॥ ततश्चेद मुपस्थितं यत्रोज्जयोः समोदोषः परिहारश्च तादृशः । नैकःपर्यनुयोक्तव्यं स्ताकशार्थ विचारणे ॥
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8. अथ श्री संघपट्टकः
(२१७)
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अर्थः ते कही देखामे जे जे नित्ये जगवाननी समीप शृं. गार रसथी गान करती ने नृत्य करती जे वेश्यान तेना शरीरनो विलास तथा कटाक्ष तेनुं देखq तथा स्तनकळशनुं देखq इत्यादिके करीने त्यां रहेनार आ काळना मुनिने कामना विकाररुपी अंगारा अतिशे घणा केम दि दीप्यमान नहि थाय ? थशेज माटे तेमांथी श्रा निर्धार प्राप्त योजे ज्यां बे वस्तुनो सरखो दोष प्राप्त थयो ने परिहार पण सरखो प्राप्त थयो तेवा अर्थना विचार करवामां एक पदार्थनो पण निर्धार थाय नहि जे आ स्थान ग्रहण करवा योग्य डे ने था स्थान परिहरवा योग्य बे.
टीका:-अयंच विशेषः॥ अस्मत्पदे स्त्रीसंसक्तपरगृहे कदाचिछसतामप्युक्तदोषासनवः तत्र यतनानिधानात् ॥नवत् पोतु चैत्यवासस्य सर्वथा वर्जनीयवेन क्वचिदपियतनाननि-- धाना देतद्दोष पोष:केन वार्येत ॥
अर्थ:--माटे तेवी जगाए सामान्य विशेषनी कल्पना करवी जोइए, तेमां श्रमारो जे पद घरघरमां निवास करवारुपी तेमां कदापि स्त्रीनो सम्बन्ध थाय त्यारे तेमां निवास करनार मुनियोने पूर्वे कह्यो जे स्त्रीउँना संबंधरुपी दोष तेनो संभव नथी, केम जे तेमां तो जतनानु केवापणुं ने माटे ॥ ने तमारो पक्ष जे चैत्यवास करवो तेनुं तो सर्वथा त्याग करवायएं , माटे कोई शास्त्रमा तेमां रहे. नारने जतना करवानुं नथी माटे ए दोष घणो पुष्ट थयो तेनं कोण निवारण करी शके.
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( २१८ )
अथ श्री संघपट्टकः
टीका:-नच वक्तव्यं गृहिग्रहाणां संकीर्णत्वाद्यतनाकरणेपि नोक्तदोषमोषः कर्त्तुं शक्यत इति प्रमाणयुक्तस्यैव गृहिमंदिरस्य प्रायेण यत्याश्रयणीयत्वेनानिधानात् ॥ तत्रचोक्तदोषपरिहारस्य सुशकत्वात् ॥ अतएव गृहिणा सकलग्रहसमर्पणे पि यतीनां तस्यान्यस्य वा दौर्मनस्य निरासाय मितावग्रहाध्यासनं सूत्रे प्रत्यादि ॥
अर्थ:-वळी तमारे एम न कहेतुं जे गृहस्थनां घर संकीर्ण होय माटे तेमां यतना करे तो पण पूर्वे कहेला दोषनो परिहार करवाने समर्थ न थवाय || केम जे बहुधार प्रमाणयुक्त एवुंज गृहस्थनुं घर साधुने श्राश्रय करवा योग्य बे, एम शास्त्रमां कहेवापशुं बे माटे तेमां तमारा कहेला दोषनो परिहार सुखेथी थाय एवो बे ॥ एज कारण माटे गृहस्थ पोतानुं समस्त अर्पण करे तो पण यति परिमाण युक्त एवाज श्रवग्रहने विषे रहेतुं केम जे ते गृह-स्थने अथवा वीजा कोइने ए स्थान संबंधी मनमां माठु चितवन न थाय माटे ए प्रकारे सूत्रमां प्रतिपादन कर्यु दे.
टीका: ॥ यदुक्तं ॥ एवंझवि जं जोग्गं तदेयं जश्नणि इ यन्नपि ॥ चुल्ली खट्टाय ममं, सेसमणुन्नाय तु मए ॥ श्रणुला एवि सबंमि, नग्गाहे घरसामिणो ॥ तहा वि सीमं बिंदति, साहू तप्पियकारिणो ॥ जाया जायणधोवाडा, दुकानया अत्थ हेजयं च, मिउग्गहं चैव श्रणिहयंति, मासो व अन्नकरिति ॥
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8. अथ श्री संघपट्टका - (२१९) अर्थः-॥ टीका ॥ प्रमाणयुक्तपरगृहालातु संकीर्णेपि तस्मिन् यतनया वसतांन दोषः॥
॥ यमुक्तं ॥
नस्थि न पमाणजुत्ता, खुज्जुलियाएव संति जयणाएत्ति ॥ यदपि नच एका मूलगुणेसुमित्यादिना तस्मात्परवसतिरसमीचीने पंतेन जिनगृहवाससमर्थनं तदपि न शालावहं ।
अर्थः-शास्त्रमा कहेला प्रमाण युक्त्त एवं, पण परघर न मळे ने संकीर्ण मले तो पण ते घरमां यतनाये करीने रहेनार साधुने दोष न थाय जे माटे शास्त्रमा कयु जे प्रमाणे जुक्त कुक्ष घरमां यतनाथी रहेनारने दोष न थाय वळी एका मूलंगुणे सुंए वचनथी आरंजीने तस्मात्परगृह वसति रसमीचीना ए वचन सुधी जिनघरमां निवास करवातुं जे समर्थन कर्यु तेपण शोजतु नथी.
टीका:-जिनगृहस्याधाकर्मरहितत्वेपि जविन श्राहाकम्म मित्यादिना तदंतर्वासस्य मुनीनां जगवदाशातनांहेतु वेनोक्तत्वात् ॥ तस्याश्चापीयस्या अप्पनंतनवामयवृद्धिकारणत्वेनापथ्याशनतुल्यत्वात् ॥ तस्मात्कथंचिदाधाकर्मिक्यामपि तस्यां वस्तव्यं नतु जिनगृह इति स्थितं ॥
अर्थः चैत्यवास करवामां आधाकर्म रहितपणुं होय तो पण ॥ जइविन ॥ इत्यादि गाथा वचने करीने तेमा रहेनार मुनि
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(२२०)
.. अथ श्री संघपट्टका
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योने नगवतनी आशातनानुं कारणपणुं रोए हेतु माटे ने तेथोनी पण आशातनाने अनंत नवज्रमण रुपी रोगनी वृद्धि यवानुं काररापर्यु ले माटे अपथ्य नोजन तुल्य वे कोई प्रकारे आधार्मिक एवा पण निवासने विषे वसतुं पण जिनघरमां तो निवास करवोज नहि ए प्रकारे निर्धार थयो.
टीका:-तस्माउक्तन्यायेन यतीनां परगृहवासस्य तदानी मिवेदानीमपि दोषालावात्समीचीनं यतीनां परगृहवासोनुपपन्नः अनेकदोषपुष्टत्वात् प्राणातिपातवदिति साधनप्रयोगो पि अपरोदित उक्तानेकदोषनिरासासिकत्वादसिकः प्रतिपादितो जवति, स्वपक्षसाधनं तु यतीनां परगृहवासो विधेयः नि:संगताभिव्यंजकत्वात् शुझोंबग्रहणवदिति ॥ तदेवं यतीनां चैत्यपरित्यागेनपरगृहवसतिरेव श्रेयसी ने तरेति वृत्त छयार्थः ॥ ए॥
अर्थ:-ते हेतु माटे श्रमारा कहेला न्याये करीने यतीने परघर निवास करवामां ते काले जेम दोष न हतो तेमज आ कालमां पण दोष नथी. माटे परघर निवास करवो ते वीक वे ने तमे जे अनुमान प्रयोग कर्यों हतो जे यतिने परघर निवास करवो ते अघटित , अनेक दोषे करीने दुष्ट ने ए हेतु माटेप्राणातिपातनी पेठे एवो जे अनुमान प्रयोग ते पण रमी पम्यो एटले व्यर्थ गयो।। केम जे अमे कह्या जे अनेक दोष तनुं निकारण न थतुं. माटे श्रसिक प्रतिपादन कयों , हवे अमारा पक्षमा तो अनुमान साधन श्रा प्रकार के, जे यतिने परघर निवास करवों ॥ निःसंगपणाने
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अथ श्री संघपट्टकः
(२२१)
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जलावनार ये ए हेतु माटे दोष वर्जित आहारने ग्रहण करवो तेनी पैठे ॥ जेम दोष वार्जत आहार ग्रहण करवामां निःसंगपणुं जणाय ने तेम परघर निवास करवामां निःसंगपणुं जणाय . माटे ए प्रकारे यतिने चैत्यवासनो त्याग करीने परघर निवास करवो. तेज अति शय कल्याणकारी, ए प्रमाणे बे काव्यनो नेगो अर्थ थयो ॥णा .
टीका:-सांप्रतं यथाक्रमं दीक्षाप्रातिकुल्यसावद्यत्वमाठ पत्यापत्तिदोषैरादित्रयगोचरस्वीकारद्वारत्रयमेकवृत्तेन प्रत्यादि दिकुराह॥
अर्थः हवे धन तथा सर्व आरंन तथा चैत्यनो अंगिकार ए त्रणमां दीदा, प्रतिकुळपणुं, तथा सावधपणुं तथा मठपतिपणु ए त्रण दोष अनुक्रमे देखानी तेनुं खंमन करता सता एत्रण घा. रने एक काव्ये करीने कदे .
॥ मूल काव्यम् ॥
प्रव्रज्याप्रतिपथिनं ननु धनस्वीकारमाहु जिना. सर्वारनपरिग्रहं त्वतिमहासावद्यमाचदते॥ चैत्यस्वीकरणेतु गर्हिततमं स्यान्माउपत्यं यते, रित्येवं व्रतवैरिणीति ममता युक्ता न मुक्त्यर्थिनां ॥ १०॥
टीकाः नन्वित्यक्षमायां न क्षम्यते एतत्, यात साधूनां
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( २२२)
श्री संप
धनस्वीकार इति यतो धनस्वीकारं प्रविणसंग्रहमाडु ब्रुवति जिना भगवंतः ॥ अत्र च जिनानां मिदानीमती तत्वेनोपदेशा संभवादादु रित्यतीतविभक्तिप्राप्तावपि शद्वर्तमानप्रतिपादनं तत्तेषां स्वागमै ग्रंथसंग्रह विपाकप्रतिपादकैः स्फुरद्भुपतयाऽद्य - यावदनुवृत्त्यजेदाध्यवसायेन वर्त्तमानतयावभासात्तदुपदेश प्रदर्शनेन विनेयानां धनस्वीकारं प्रत्यतिपरिजिहीर्षा यथा स्यादिति ज्ञापनार्थं ॥ एव मुत्तरपदेपि योज्यं ॥
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अर्थः- ननु उपसर्गनो अक्षमा एटलो अर्थ था जंगोए ठे तेथी धाम अर्थ थयो जे श्रमो ए बात सहन करता नथी साधूने धननो अंगिकार करवो ते जे माटे धननो अंगिकार एटले संग्रह तेने जिन जगवंत, यागळ कही शुं ए· प्रकारनो कहे तुम जगाए वर्तमान काळनो प्रयोग मूकयो बे ने जिन भगवंत तो थर गया बे माटे तेना उपदेशनो असंभव बे माटे आहुः ए प्रयोग विषे अतीत काळनी विजक्ति प्राप्त थइ, पण जे वर्तमान काळं प्रतिपादन कयुं बे ते तो जे द्रव्य तेना संग्रहनो विपाक तेनुं प्रतिपादन करनारने स्फुरणायमान रूपे करीने द्यापि चाल्यां यावतां एवां जे पोतानां श्रागम एटले सिद्धांत तेनी साधे ते जिन जगवंतनुं श्रजेदपणाना अध्यवसाये करीने वर्त्तमानपढे ते वर्तमान पणाना श्रानासथी ते सिद्धांतना उपदेशनुं दान देवु तेणे करीने पोताना शिष्योने धननो अंगिकार करवानी ss प्रत्ये त्याग करवानी सिद्धांतरुप भगवंतनी वा बे ते जणाववाने अतीत कालने ठेकाणे वर्त्तमान कालनो प्रयोग मूकयो बे. ॥ ए प्रकारे आगळ पण जाणवु
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ong. अथ श्री संघपटक
___टीका:-प्रवज्याया:सर्व संगत्यागरूपाया दीक्षायाः प्रतिपंथिनं विरोधिनं विरोधश्चात्र वध्यघातकलक्षण स्तथाहि ॥ अव्य संग्रहो मूपिरिणामः प्रव्रज्या तहिरतिपरिणाम स्तयोश्चात्र बलवता मूळ परिणामेनतहिरतिपरिणामो बाध्यतइति ॥
अर्थः-सर्व संगनो त्याग करवो ए रुप जेदीक्षा तेनो विरोधी एवो अव्यसंग्रह . आ जगाये विरोध केवो जाणवो के वध्यघातक डे लक्षण जेर्नु एवो जावो. हवे ते वध्यघातक लक्षण देखामे . जे अव्य संग्रह ते मूर्बानो परिणाम डे ने प्रव्रज्या ते तो अव्यसंप्रहथी विरति पामवाना परिणाम रुप ले माटे ते बेमांबळवान एवो मूर्नानो परिणाम तेणे करीने ते अव्यसंग्रहथी विरती परिणाम बाध पामे बे॥
टीकाः॥ यदुक्तं ॥ अर्थगृहीति मूर्ग,दीक्षा तहिरतिपरिणति प्रोक्ता।अनयोई रिमृगयो रिव,विरोधश्हं वध्य घातकतेति॥
अर्थ:-जे माटे शास्त्रमा कडं जे अव्यनोजे संग्रह करवो ते मूर्ग कहीए ने तेथी विरती पामवानी परिणति तेने दिक्षा कहीए॥ ने ए मूर्गने दीक्षा ए वेने परस्पर एक बीजाने नाश करवापणुं रघु २ ॥ ज्यां मूर्ग होय त्यां दोका न होय, ने ज्यां दीक्षा होय त्यां मूळ न होय ने एक नाश पामवा योग्य थाय ने बीजु तेनो नाश करनार थाय तेने वध्यघातक कहीए, जेम मृगने सिंह वे तेम ॥ माटे दीक्षाने विष धननो स्वीकार करवाते संचवे नहि ।।
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(२२४)
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अथ श्री संघपट्टका
टीका:- सहानवस्थानं ॥ तथाहि ॥ अव्य संग्रहः संगो दीक्षा च नि:संगता संगनि:सगतयो श्च युगपदेकत्रावस्थाना नावात्।।यदाह ॥ ग्रंथस्य संग्रहः संगो,दीक्षा नि:संगता स्मृता॥ सहावस्थानमनयो, न डायातपयोरिव ॥
अर्थः-ए बेनुं संघाथे रहेवापणुं संजवतुं नथी॥ते देखाने ले जे अन्य संग्रह ते संग कहीए ने दीदा ते नि:संगता कहीए ते संग ने नि:संगता ए बेनुं एक काळे एक जगोए रहेQथतुं नथी॥ जे माटे ते शास्त्रमा का डे जे ॥ ग्रंथ एटले अव्य तेनो जे संग तेने कहीए ने दीक्षा ते नि:संगता कहीये ॥ ए बेनुं जेम तमको ने गयो तेनी पेठे एक जगाए रहेवापणुं न होय.
टीका:-अव्यस्वीकारे हि यतीनांगृहिणामिव दिवा निशं तधर्धनरक्षणोपत्नोगव्यग्रत्वात् कुतस्त्या प्रव्रज्या ॥ तस्मातहिरो. धित्वान अव्यांगिकारः संगतः ॥ यमुक्तं ॥
कामाधुन्मादहेतुत्वा ऊनितानेकविग्रहः कथंचन मुमुकुणां न युक्तो अव्यसंग्रहः॥
प्रार्थ:-अव्यनो अंगिकार करे तो यतिने गृहस्थनी पेठे रात दिवस ते धनने वधार तथा तेनुं रक्षण कर तथा तेनो नपत्नोग
गे इत्यादिकने विषे आकुळव्याकुळपणुं थाय मादे क्याथी रहे,
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48. अथ श्री संघपट्टक
(२२५)
ते हेतु माटे ते दीक्षानो विरोधि अव्यनो अंगिकार श्रयो ॥ जे माटे शास्त्रमा कडं जे अव्यनो संग्रह ते कामादिक नन्मादनुं कारण बे ए हेतु माटे अनेक विरोधने उत्पन्न करनार ॥माटे संसारथकी मूकावाने श्वता जे पुरुष तेने अव्य राखवू युत नथी.
टीका-उपदेशमालायामप्युक्तं ॥ दोससयमूलजालंवुव्वरिसिविव जिय जईवंत। अत्थं वहसि अपत्थं,कीस अणत्यंतवं चरसिं। वहबंधणमारणनेयणा काउं परिग्गहेनस्थितं जइ परिग्गहुच्चिय, जश्चम्मो तो नणु पवंचो ॥
अर्थः-नपदेशमालामां पण कां ले जे धन में ते सेंकमो दोषनुं मूळ ॥ ने पूर्वना मुनीउए त्याग करेलु डे माटे. जो तेमणे वमन कर्यु डे एटले वांतिनी पेठे त्याग करेलुं तो ए अर्थ एटले धन ते अनर्थन धारण करे ने एटले अर्थ बे ते अनर्थरुप ले माटे अनर्थक एटले फोगट तप केम आचरण करे ॥ एटले तप करनारर्नु तप धन राखेथी निष्फळ थाय डे ॥वळी ए परिग्रहने विषेशी वेदनाउँ नथी रही वध, बंधन, मारण इत्यादि सर्व रघु-डे माटे जो ते परिग्रहनो त्याग करे तो यतिधर्म प्रपंच रहित होयः .
ट्रीका-अत्रच विशेषणे तात्पर्य ॥ धनस्वीकारस्य सिद्धस्य प्रवज्याप्रतिपंथित्वेन यतीनां निवेधे विश्रामात् ॥ एतेन 5. व्यस्वीकारस्यागमे निवारित्वेपीत्यादिना यतिचिंताद्यविधानादित्यतेन यजव्यस्वीकारसमर्थनं सांप्रतिकयतीनां प्रतिपादितं
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(२२६)"
अय श्री संघपटक
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परेण तदप्यपास्तं मंतव्यं ॥ केषांचिद्गहिणां निर्धनत्वा दिना 'सांप्रतं यतिचिंताद्यविधानेप्यन्येषां तथोपलंनात् ॥
अर्थः-या जगाए दीक्षानुं विरोधी एवं जे अव्य डे एमजे विशेषण दीधुं तेमां था तात्पर्य जे जे तमे यतिने धननो अंगिकार दीक्षानो विरोधी ने माटे तेनो निषेध सर्वथा सिह कयों एणे करीने तमे एम जे का हतुं जे शास्त्रमा साधुने धन राखवानो निषेध कयों . तो पण इत्यादी आरंजीने श्रावक यतीनी चिंतादि करता नयी त्यां सुधी जे धनतुं अंगिकार कर लिक कर्युदतुंश्रा कालना यतिने ते सर्वेर्नु खेमन थयुं एम मानवु केम जे केटलाक गृहस्थोनुं निर्धनपणुं ने तेणे करीने हालमा यतिनी चिंतादिकने करी शकता नथी पण बीजा केटलाक गृहस्थो साधुनी चिंतादिकने करी शके एवा देखाय बै एवा हेतु माटे॥
टीका:-। तथाहि दृश्यंतएवायापि केचिदुदाराशया ग्लानाद्यवस्थायां निरवग्रहा निग्रहपुरस्सरं पथ्यौषधादि दानेनय. तीनां संयमशरीरोपष्टंनं विदधाना:पात्रस्य अविण विसावका:
आवकाः ॥ तत्तावतैव पर्याप्तं, कि सिद्धांत निषिद्धेनानर्थ सार्थमूलेन वित्तपरिग्रहेण ॥
अर्थः-ते देखामे जे जे श्रा काळमां पण केटलाक नदार चित्तवाळा श्रावक देखाय के जे ग्लानादिक अवस्थाने विषे श्रवअह रहित अनिग्रह पूर्वक पथ्य औषध आदिकनुं जे दे, तेणे करीने साधु, संयमरुप जे शरीर तेनो जपष्टंन करे वे एदले सा.
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- जय श्री संघपट्टकः
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tad पात्र विषे पोताना द्रव्यनो व्यय करे बे माटे एवा श्रावक लोकवज कार्य थयुं त्यारे सिद्धांतमां निषेध करेलो ने - नर्थना समूहनुं मूळ एवो द्रव्यनो परिग्रह करवो तेरो करीने सर्यु एटले द्रव्यनो अंगिकार करवो घटतो नथी.
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टीका:- परमेवं कालाद्यौचित्येन पथ्यादिदातृसङ्गावेपियदिदानींतना यत्याजासा बालकाध्यापनमंत्रादिप्रयोगवैद्यकादिनिः पथ्यपुस्तकलेखना दिव्यपदेशेन गृयिज्योऽयमय मिकदा स्वापतेय निचयं संचिन्वाना उपलभ्यते तयनं विषयतृषा कर्षितान्तःकरणतयातेषामेवं द्रव्यसंग्रह प्रवृत्तिर्नतु ग्लाना दि हेतुना ॥
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अर्थः- परंतु या काळने उचित एवां पथ्यादि श्रौषधना देनार विद्यमान बते पण जे काळना या लिंगधारी पुरुषो वाळकोनुं नयावदुं मंत्रादि प्रयोग करवा तथा बैडुं कर्तुं तथा जेने जेवां जोइए तेने तेवां पुस्तक लखी आपवां इत्यादि द्रव्य उपार्जन करवानी क्रियाश्रोनो मिषवमे हुं मोटो धनाढ्य थजं हुं मोटो धनाढ्य थनं एवा अभिप्रायथी गृहस्थ लोको पासेथी धनना समूह ग्रहण करनारा एटले गृहस्थ पाथी अनेक युक्तिवमेधन लइ संचय करनारा देखाय बे ते निश्चे विषय तृष्णावने आकर्षण थयां जे अंत:करण तेणे करीने ते लिंगधारीने द्रव्य संग्रह करवामां प्रवृत्ति देखाय के, एटले ते लिंगधारी विषय जोगववानी इच्छाएज द्रव्यं पासे राखे बे पण ग्लानादि कारणे राखता नथी.
टीका :- ॥ यक्तं || एका कित्वा विशुपतनतो मंत्रतंत्रैश्च
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. (२२८ )
अथ श्री संघपट्टकः
केचिन्मारस्वाम्यान्मधुरवचनात् सर्वतः केपि नष्टाः ॥ रागालोजाऊन विढपनध्यान मापूरयंतो, लालिंगं विदधतितरां नै ष्टिनैव वृत्तिं ॥
अर्थः- ते शास्त्रमां कां बे जे केटलाक तो ढोकरांने प्रणाव वाथी ष्टथया ने केटलाक मंत्रतंत्र करवाथी ॠष्ट थयाने. केटलाक म. पतिपणाथी ष्टथया, केटलाक स्त्रीयादिना मधुर वचनथी प्रष्ट, था, ने केटलाक तो रागथी लोनथी सर्वथा ष्ट थया. एम धन राखवाना ध्यानने वधारता पुरुषो साधु वेश धारण करीने पण पोतानी जे साधुपणानी वृत्ति तेने अतिशे नथी करता.
टीकाः न च शिशुपावनाद्यपि यतिना विधातव्यमिति वक्तुमुचितं गृहिशां मातृका दिपाठना दिविधानस्य मुनीनां चात्रिभंग हेतुत्वेनागमे निवारणात् यदाह ॥ जोसनिमित्त श्र रकवर को एस भृश्कम्मेहिं ॥ करणाणुमो अणे हियसाहु...स्स तवरको होइ ॥
अर्थ:-गेकरांने जणाववुं इत्यादिक साधुने -करवा योग्य : बे --एम बालबुं - पण घटतुं नथी केमजे गृहस्थने लिपिस्यादि न - पाव इत्यादिकने करनार मुनिने चारित्र जंगनुं कारण बे ए. हेतु मांटे शास्त्रमां निवारण कर्यु े ते शास्त्र वचन कंडे बे ॥ ज्योतिष तथा निमित्त कहेतुं इत्यादिश्री तप नाश पामे बे.
टीका :- यद्यपि सांप्रतं चैत्यद्रव्यमपि यतिनि रित्या निदा
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-48. अथ श्री संघपट्टकः
(२२९)
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उबैलबाजोदिधीर्षया यतीनां चैत्यऽव्यस्वीकारतबर्द्धन मुपपादितं तदप्यसंगतं ॥ यदाहि अव्यमात्रस्वीकार स्याप्युक्त क्रमेण यतीनामागमे निषेधः प्रत्यप्रादि तदा कैव कथा चैत्यअव्य स्वीकारस्य ॥ तथा अव्येण श्राकोझारस्याप्यागमे क्वचिदप्यप्रतिपादनात् ॥ देवव्यपुंजमात्रग्रहणस्यापि श्राद्धानां सिझाते प्रतिषेधाच.॥
अर्थः-वळी जे तें कडं जे आ कालमा चैत्य अव्य पण साधुए इत्यादिथी आरंजीने दुर्बल श्रावकना उकार वास्ते यतिने चैत्य अव्यनो अंगिकार करवो तेने वधार, त्यां सुधी जे प्रतिपादन कर्यु ते पण अघटतुं ॥ जे माटे अमे कह्यो ए अनुक्रमे साधुने अव्य मात्रनो अंगिकार पण सिद्धांतमा निषेध कयों ने एम प्रतिपादन कयुं त्यारे चैत्य अन्यनो अंगिकार करवानी तो वातज क्याथी होय ॥ ने ते प्रकारना अव्ये करीने श्रावकनो नझार करवानुं को सिद्धांतमां पण प्रतिपादन कर्यु नथी माटे सिद्धांतमा श्रावकने देवडव्य संबंधी, रुर्नु पूमहुँ पण ग्रहण करवानो निषेध कर्यो है ए हेतु माटे ॥
टीकाः॥ यक्तं ।। वजेश् चेश्यालयदवंअंगेवरिंमिनहारं ॥साहारणं च एयं, न जान से पुनयं ले॥ तद्दवरिणियजायण विहीए सगमवइलमणुयाणं ॥ अहवावि खरा लएही करे तह बकश्याणं ॥ एयं पुनं न कुण, सरका वो किमिह वुचंति । वश्वेश्य तदत्वं, विसुनावो सयाकालं ॥
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(२३०)
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. अय श्री संघपट्टक:
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अर्थः ॥ टीका ॥ एवंच श्राकानां यदापुंनमात्रस्याप्येवं निषेधस्तदा का वार्ता नदिधीर्षया यतिवितीर्णसाकादेवाव्य । · ग्रहणस्येति ॥
अर्थ:-ए प्रकारे श्रावकने एक पूमहुँ मात्र पण ग्रहण करवानो निषेध शास्त्रमा कयो ले त्यारे उद्धारवानी श्छाए यतिए श्राप्यु जे साक्षात् देवप्रव्य तेनुं जे ग्रहण करवू तेनी तोवातज क्याथी होय.
टीका:-तमुक्तं ॥नरकेश्जो उविरकेश, जिगदवं तुसावन । पन्नाहीणो नवे सोन, लिप्पई पावकम्मुणा ।।आयाएं नव लुंजइ, पमिवन्नधरा न देइ देवस्स ॥ नस्संतं समुविकर, सो बिहु परिजमइ संसारे ॥
अर्थ:-ते वात शास्रमा कही ले जे.
टीकाः--देवभव्यरक्षणवर्धनादादेव श्राझानामधिकारातस्यैवच तेषां परमकोटिप्राप्तिफलाधायकत्वेन नणनात् ॥
॥ यमुक्तं ॥ जिणपवयणवुद्धिकरं, पनावगं नाणदसणगुणाणं ॥ ररकतो जिणदत्वं परित्तसंसारिदोइ ॥ जिणपवयणवुहिकरंपजावगं नाणदसण गुणाणं, वढतो जिणदव्वं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ जिसपरयणवुद्धिकरंति ॥
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9 अथ श्री संघपट्टका
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(२१
अर्थः-देव अव्यर्नु रक्षण करवु ने वधार, इत्यादिकने विषे श्रावकनोज अधिकार डे ए हेतु माटे श्रावकनेज ते अव्यर्नु रक्षण करवू, बधारदुं श्यादिकथी परमकोटीने पामे, एटले अतिशय मोटुं फळ तेनुं धारण करवापऍ डे एम सिझांतमां कडं जे जे माटे ते सिद्धांतनुं वचन जे जिनप्रवचननी वृद्धि करनार एवं ते ज्ञानदर्शन गुण- प्रजावक एवं जिनअन्य तेनी रक्षा करता जे पुरुषो ते थप संसारी होय . ने वळो एजव्यनी वृद्धि करता जे जीव ते तीर्थकरपणा रुपी रत्नने पामे ले जिणपवयणं ए पदनो अर्थ टीका. कार पोतेज कहे ॥
टीका:-जीर्ण जिनजवनादेरुद्धारविधिना तत्स्थबिंबाद्यव लोकन विहारक्रमागतसुविहितयतिधर्मोपदेशशारण भूयसां नव्यसत्वानां बोधिविधीयकृत्वान्नवति जिनअव्यं प्रवचनवृद्धिकरमिति संकासानदाहरणेनचास्यार्थस्य प्रतीतत्वात् ॥ श्रामोद्धारे च यतीनां सर्वथाऽनधिकारित्वाच ॥ तस्माड्रा रेव स्वभव्येण साधारणसमुद्वजव्येण वा वात्सल्य करपावादोधारेण तीर्थानुबित्तिः सेल्यति ॥ किं यतीनां त3धाराय विहितेन देवव्यस्वीकारेणेति ॥
अर्थ जे जुनां जिनन्नवन आदिकनो नझार करवाना वि. धिए करीने ते जिनन्नवनमा रह्यां जे बिंव श्रादिक तेने दर्शन करवाने विहारना अनुक्रमे श्रावेला जे सुविहित मुनि तेना धर्मो- - पदेश झारे करीने घणाक नव्य प्राणीने समकीतनु धारण करवा
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(२३३)
8. अथ श्री संघपट्ट -
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पणुं थाय ए हेतु माटे जिन अन्य ने ते प्रवचननी वृद्धि करनार डे. संकाश श्रावक आदिकना दृष्टांते करीने ए अर्थन प्रसिद्धपणुं २ ए हेतु माटे वळी श्रावकनों उधार करवामां यतिने सर्व प्रकारे अधिकार नथी ए हेतु माटे ॥ श्रावकज पोताना अव्ये करीने तथा समुद्रक अव्ये करीने अथवा सामी वत्सल करवाथी श्रावकनो नकार करशे तेणे करीने तीर्थनो नुच्छेद न थवो जोइए,ए वात सिक थशे. माटे श्रावकनो उकार करवाने अर्थे यतिने देवजव्यनो अं. गिकार- करवो तेणे करीने शुं॥ कांश पण अव्य राखवानुं प्रयो जन नथीं.
टीका:-तथा. सारं निणां सकलसावद्यारंनप्रवृतानां गृ. हिणां परीग्रहों मूर्गहेतुः पामकत्वबुद्धिस तथा तं ॥ तुशब्दोऽर्थस्वीकारादस्य नेदप्रदर्शनार्थः अतिशयेन महासावयं महापाप आचक्षते वदंति जिना इति पूर्वस्मादनुकृष्यते ॥ अत्र चाहु रिति क्रियानुवृत्त्यैव साध्यसिझावाचक्षत इति पुनरनिधानं हारांतरनिराकरणमेतदिति ज्ञापनार्थम् ॥
अर्थ-वळी सकल सावद्य आरंजने विषे प्रवर्तेला गृहस्थोनो परिग्रह करवो ते मुनगर्नु कारण ॥ एटले ते गृहस्थने विर्षे ममत्व बुद्धि करवी जे आ गृहस्थ तो अमारा २ एम जे कर तेने जिन लगवंत अति महा सावध कहे महा पाप कहे . जिन एटटु पद प्रथम वाक्यमाथी आकर्षण कर ॥ आ जगाए 'तु' श्र. व्यय नेते धन अंगिकार करवाथी गृहस्थनो परिग्रह करवो ते तो अति.महा-सावध डे एम जेद देखामवाने अर्थे बे.ा जगाए 'बाहुः'
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अथ श्री संघपट्टकः --
(२३)
'कहतां 'कहें' डे ऐ प्रकारर्नु क्रियापद तेनी अनुवृत्ति थती हतो तो पण 'श्राचक्षते' कहेतां 'कहे' ले ए प्रकार फरीथी क्रियापद कडं ते तो आ बीजो घार नथी एम जणाववाने अर्थे कधुंडे.
टीका:-अयमर्थः ॥ गृहिपरिग्रहेहि तत् कृतकारितादिसकलमहारंजमहापरिग्रहजनितपापानुमत्यादिना यतीनामपि तत्कृतादिनाखिलपापसत्वप्रसंगोऽत: कथं तस्य नातिमहा. सावधता परकृतमहापापस्यात्मन्यऽध्यारोपणमेव चेति शब्दार्थः॥
अर्थः-एनो स्पष्टार्थ तो आ जे, गृहस्थना परिग्रहे करीने निश्चे ते गृहस्थोए पोते करेला तथा वीजा पासे करावेला जे समस्तःमोटा आरंज तथा मोटा मोटा परिग्रह तेथो उत्पन्न थयुं जेपाप तेनी अनुमोदनादिके करी यतिने पण ते गृहस्योए कर्यु कराव्युंजे समस्त पाप तेने पामवानो प्रसंग थाय जे. माटे ते गृहस्थोनुं अं. गिकार करवू तेमां अति महासावधपणुं केम नहि. केम जे बीजार्नु करलु पाप तेनुं पोताने विषे आरोपण करई एज अति शब्दनो अर्थ ने, एटले अति महा सावधपणुं बे.
टीकाः-॥ तयुक्तं ॥ आरजनिनरगृहस्थपरिग्रहेण, तस्पातकं सकलमात्मनि संदधानाः, सत्यात् पतंत्यहह तस्करमोषदोष मामव्यनिग्रहनयं सितन्निनुपाशा, इति।।
अर्थः-ते कधू दे, जे आरंजने विये नरपुर एवा गृहस्थ .
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(१४)
48 अथ श्री संघपट्टकः
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लोक तेमनो परिग्रह करवे करीने श्वेतांबरी निहुमां अधम एटले लिंगधारी पुरुषो ते गृहस्थोए करेलां पापने पोताना विषेधारण करे
॥ते जेम चोरे चोरी करीने तेनो दोष मांगव्य नामे ऋषिने लाग्यो तेथी ते ऋषिनो निग्रह थयो एवा न्यायने सत्य करे, ते कथा अन्य दर्शनमा जे जे एक नगरने विषे राजाना राजकारमा चोर चोरी करीने नाग ते मांगव्य नामे ऋषिना श्राश्रममां गया त्यार पडी राजाए चोरने कालवा लश्कर मोकट्युं तेणे सर्वे चोरने फाल्या ते नेगा मांगव्य ऋषि तप करता हता तेने पण काल्या, त्यार पडी राजाए आज्ञा करी जे सर्व चोरने फांसी आपो, पठी
सर्व चोरने फांसी दीधी ते लेगी मांगव्य ऋषिने पण फांसी दीधी . ते ऋषिए यमराज पासे जइने प्रब्यु जे में कोई दिवस पाप कर्यु
नथी ने मने फांसी केम मळी.त्यारे यमराजेपोतानो चित्रगुप्त नामे पाप पुण्यनुं लेखं राखनार पुरुष पासे सर्वे नामुं लेखं जोवमाव्यु तेमां एटर्बुज पाप नीकळ्यु जे त्रण वरसनी अवस्था हती त्यारे रमत करतां एक देमकीने बावळनी शूळमां परोवी ने ते वात ऋ. पिने कही जे श्रा पापे करीने तमने चोरी नथी करी तो पण शूळी मळी, त्यारे ऋषिए कह्यु जे शास्त्रमा तो एम कडं ने जे पांच वरस सुधी जे जे पाप वाळक करे तेतो तेना माबापने लागे ने माटे ए पापनुं फळ अमने शाथी दीधुं, त्यारे यमराजे कडं जे घणा कामना घनराटथी जूलमा ए काम बन्यु जे. त्यारे ऋषिए यमराजने शाप दीधो इत्यादि मोटी कथा बे. माटे जेम चोरे चोरी करीने मांगव्य ऋषिने फांसी मळी तेम गृहस्थ लोके पाप कर्यु तेनी अनुमोदनाथी साधुए ली, तेथी अति महा सावधपणुं गृहस्थना परिग्रहथी कह्यु.
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अय श्री संघपटक
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टीका:-श्रतएव गृहिपरिग्रहो यतीनां प्रायश्चितापत्या श्रुते निवारितः॥ सन्नगिहिसुलहुगेत्यादि।एतेन गृहिस्वीकारं प्रति यत्णरस्य पूर्वहि कालस्य सौस्थ्यादित्यादिना युक्त्यनिधानं तदपि निरस्तं ॥कालदोषात् कुतीथिका दिनूयस्त्वेपि गृहिस्वीकारमंतरेणापि नक्तनकादिश्राफेन्यो यतीनामधुनापि निक्षादिप्राप्ते रुपपत्तेः॥
अर्थः-ए हेतु माटे साधुने गृहस्थनो परिग्रह प्रायश्चित्त करवापणुंटे माटे शास्त्रमा निवारण कयों , उसन्नगिहित्यादि गायाए करीने, एणे करीने गृहस्थनो अंगिकार करवा प्रत्ये जे विं. गधारीए पूर्वे तो काल सारो इतो इत्यादि युक्ति कही हती तेनुं खमन कयु. काळना दोषथी कुतीथिकादिक घणा ले तो पण गृहहस्थनो अंगिकार कर्या विना नक्त नमक इत्यादि श्रावक थकी यतिने हालमां पण निदादिकनी प्राप्ति थाय . ए हेतु माटे.
टीका:-श्रतः केवलौदरिकत्वा पत्यातीवोपहासपदं विदु. षां तदर्थस्तत्स्वीकार इति ॥ योपि, जा जस्स विश् इत्याद्यागमो पन्यासः सोपि न जवदन्निमतप्रसाधकः॥अन्यार्थत्वात् ॥ नहि गृहिपरि ग्रहसाधकोयं प्रकृतागमः ॥ किंतु गणधरादीनां शिष्य प्रतिशिष्यपरिग्रहविषयः॥
अर्थः-एथी एम जणाय जे जे पंमितने उपहास करवा योग्य एवू केवळ पेट नर्यापणुं लिंगधारी ले तेथी ते. गृहस्थोने पो. ताना करी राखे डे वळी जेनी जेटली स्थिति मर्यादा इत्यादि श्रा.
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(२३६)
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अथ श्री संघपट्टका
गमर्नु थापन कर्यु ते पण ते तमारं लिंगधारीनुं जितने सिक करनार नथी, केम जे ए आगमनो तो बीजो अर्थ बे, पण साधुने गृहस्थनो परिग्रह करवो एम सिद्ध करनार 'जास्सहिए था. गम वचनथी तारे शंसिक करनार ले तो ए के गणधरा दिकना शिष्य । तेमने बीजा गणधरादिकना शिष्य तेमनो परिग्रह करवा विषे ए आगम वचननो अर्थ .
टीकाः तथाहियाकाचिद्यस्य गणधरशिष्यप्रतिशिष्यादेः स्थितिः प्रतिक्रमण वंदनादौ न्यूनाधिकक्षमाश्रमणदानादि . लक्षणासमाचारी याच यस्य संततिगुरुपारंपर्येकालाचनादिदान • विषयः संप्रदायःयाच पूर्वपुरुषकृता गणधरा दिप्रवर्तिता मर्यादा • गच्छव्यवस्था तामनति ऋमिननंतसंसारिको न नवतीति ।।
अर्थः-तेज स्पष्ट करी देखा जे के जे जे कोइ जे गणरना शिष्य प्रतिशिष्य आदिकनी स्थिति एटले प्रतिक्रमण वंदनादिकने विषे न्यून तथा अधिक खामणां देवा इत्यादि लक्षण समाचारी , तथा जेनी जे संतति एटले गुरु परंपराये आलोयराबा. दिक देवाने विषे संप्रदाय . वळी जे पूर्व पुरुष करेली तें गणधर
आदिके प्रवर्तावली मर्यादा एटले गनी व्यवस्था तेनुं नवधन जे नथी करता ते अनंत संसारी नथी थता.
. टीका:-अत्राहि गणधरशिष्यादीनां स्वस्वगुरुप्रदर्शित स्थित्याद्यतिक्रमेंऽनंतसंसारितापत्या प्रतिनियतगणधरपरिग्रह विषयत्वमवसीयते ॥ श्रावकाणांतु सर्वधार्मिकग विशेषणं
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19 अथ श्री संघपट्टका
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(२१७)
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जक्तपानादिलक्त्यन्निधानात् ॥ यमुक्तं ॥ क्तगघयगुलगो-.. रसफासुंथपमिलाहरासमणसंघे ॥असगणवागाणंति ॥तथा सणं सइविहवे साहणंवत्थमाइ दायव्व।गुणवंताण विसेसोति॥
अर्थः जे माटे आ जगाए तो गणधरना शिष्यादिकने पोत पोताना गुरुए देखामी जे स्थिति आदिक तेनुं उबंधन थये सते अनंत संसारीपणुं थाय एम का माटे जे में गणधरना शिष्य होय तेने तेने पोतपोताना गणधरनी मर्यादा ग्रहण करवी एवा अतिप्राय ए शास्त्र वचन जे एम निश्चय करीए बीए. ने श्रावकने तो सर्वथा धार्मिक गच्चने विषे विशेष रहित नक्त पान आ. दिकनक्ति करवायूँ कहेवापणुंडे ए हेतु माटे, ते शास्त्रमा
टीका:-अतोनेदानीतनरुढ्या प्रतिनियतगछपरिग्रह विषयत्वं तेषां सिध्यति॥ यत्त्वशक्तस्य तदसइसबस्स गबस्स ॥ तथा दिसाइतबविन जे सत्थी इत्युक्तगाथयोश्चतुर्थपादाज्यों धर्मगुरुषु ताछेवा विशेषण दानन्नक्तिप्रतिपादनं तत्तेषां - तिकारतया नतु तत्स्वीकारविषयतयेति ॥
अर्थ:--ए हेतु माटे आ काळनी रुढि प्रमाणे पोते पोतानां गढ बांधीने ते गबना अनिमानवाळा श्रावकने पोताना करीराखवा एम शास्त्रवमे सिद्ध थतुं नथी ने वळी अशक्त तमे का जे 'तदसइसबस्स' ए गाथा तथा दिसाश्चतवि' ए गाथा, ते वे गायाना चोथा पादथी धर्मगुरुने विषे तथा तेना गबना विषे विशेष
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(२३८)
4. अथ श्री संघका
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दान नक्ति प्रतिपादन कयु,ते तो तेमना नपकारनुं सहजपणुं नथी माटे कद्यं . पण तेनो अंगिकार करवा विषे नथी कह्यु.।
टीका:-यदपि सम्यक्तदीकावसरे श्राकानां गुरोरात्मसर्वस्वसमर्पणेन परिग्रहसमर्थनं तदपि न शोलनं ॥ तथाहि ॥ कोयं परिग्रहः ॥ किमुपास्योपासकसंबंधः, श्राहो प्रतिनियता नाव्यव्यवस्था विषयतया नियमनं ॥ तत्राद्यपदे सिद्धसाधन।। एवं विधपरिग्रह विषयतायाःसाधुश्राकानामस्माकमप्यनुमतत्वात्॥
अर्थः-वळी जे तमे समकित दीक्षाने अवसरे श्रावकने पोताना गुरुने सर्वस्व अर्पण कर, तेणे करीने परिग्रह करवानुं प्रतिपादन कयुं ते पण शोजतुं नथी, ते कही देखा ए परिग्रह ते कयो ? ॥ शुं उपास्य उपासक संबंध रुपी , के नियम पूर्वक जे श्रान्नाव्यव्यवस्था ले तेणे करीने नियम करवो ए . तेमां प्रथमनो पक्ष जे उपास्य उपासक संबंध ते तो घटतो नथी; केमजे तेमां तो सिंक साधन दोष आवे ने जेए प्रकारनो परिग्रह तो सा. धुने तथा श्रावकने तथा हमारे पण मान्य बे ए हेतु माटे।
. टीका:-श्रथहितीयः ॥ तन्न ॥ श्रान्नाव्यव्यवस्थायाः प्र. .. विनजिपूत्प्रव्रजितरहि विषयतयै वागमेदर्शनात् ॥ तथाहि ॥
कल्पव्यवहारोकादि गव्यवस्थैव मुपलभ्यते ॥य:प्रविजिषु-सा. मायिका दिपावप्रवृत्त: सत्रीणि वर्षाणि यावत् पूर्वाचार्यस्य सम्यक्तदातुरेव जवति॥
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-18 अथ श्री संघपट्टकः
( २३९ )
अर्थः वळी बीजो आत्मा व्यवस्था रुपी पक्ष तेने विषे पण ते परिग्रह नथी केम जे श्रागमने विषे जेने प्रत्रज्या लेवानी इच्छा होय अथवा जेणे प्रवज्या लइने त्याग करी बे एवा गृहस्थने विषेज श्राजाव्यव्यवस्थानुं देखवापणुं वे ए प्रव्रज्या लेवानी इहा होय ते सामयीकादि पाउने विषे प्रवर्तेंलो त्रण वरस सुधी प्रथमनो प्राचार्य जे सम कितने पमागनार तेनोज होय.
टीका:- यक्तं || सामाश्याश्या खलु, धम्मायरियस्स तिनिजा वासा ॥ नियमेण होइ से होजक्वमन तडुवरिंजयणा ॥ यस्तु निजावादिर्भूत्वा पुनः प्रविवजिषति तस्य यदृच्छयादिक ॥ श्रत्यक्तसम्यक्तस्तूत्प्रवृज्ययः प्रव्रजति स त्रीणि वर्षाणि यावत् पूर्वाचार्यस्यैव ॥ यदाह ॥ परलिंगि निकएवा, सम्महंस जढे उ वसंते ॥ तद्दिवसमेव इछा सम्मत्तजुए समा तिन्नि ॥
अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कह्युं बे जे निहृवादिक थैने फart प्रवज्या लेवानी इच्छा करे बे, तेने तो ज्यां इच्छामां श्रावे त्यां रहे ए दिश बे, ने जेणे सम कितनो त्याग कर्यो नथी ने ते प्रव्रज्या ग्रहण करे तो ते त्रण वरस सुधी पूर्वाचार्यनोज बे एम जाणवुं, जे माटे कंठे जे.
टीका:- उत्पन्न जितस्तु द्विधा सारुपी गुहस्थश्च ॥ तत्र सा रूपी रजोदावर्जसाधुवेषधारी ॥ सचयावजीवं पूर्वाचार्यस्यैव ॥ सन्मुकी कतान्यपि ॥ या निपुनस्तेन नमुंगीकृतानि केवलंवो धिता
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१२४०)
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अय श्री संघपट्टका
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'न्येवतानियमाचार्य मिच्छति, तस्यासौददाति तदीयानिचतानि लवंतीत्यन पत्यस्यायं विधिः ॥
अर्थ:-जेणे प्रवज्या मूकी ले ते पण बे प्रकारनो डे एक तो सारुपी ते रजोहरण विना केवळ साधुचेषनो धरनार जे. ते तो जा: वव पूर्वाचार्यनोज ३. ने तेणे मुंमन करेला अथवा तेणे मुंमनान करेला केवळ प्रतिबोधनेज पमाड्या ते सर्वेतो जे आचार्यने इच्छे ते. नेज'ए श्रापे ते तेनाज.ए कद्देवाय विधिले ते जे शिष्य विनाना होय तेनोज ए.विधि .
टीका-सापत्यस्यत्वऽपत्यान्यपि पूर्वाचार्यस्यैव ॥ यदाह ।। सारवी जाजीव पुवायरियरिस्स जेय. पवावे ॥अहवाविएसढ़ दो इबाए जस्स सा.देइ ॥ गृहस्थःपुनहिंविधो. मुंमित: सशिखश्च स च विविधोपि पूर्वाचार्यस्य ॥ यानिच तेनोत्प्रवजनानंतरं वर्ष त्रयाध्यंतरे बोधयित्वा मुंगीकृतानि तान्यपीति ॥आहच ॥जो. पुण गिदत्यमुंगो अहव, अमुंमोन तिनि वरिसाणाआरेणं घबाबे सयंच पुवायरियसवे ॥
अर्थः-ते जे शिष्य परिवार सहित ने तेने तो पोताना शिष्य नेते पण पूर्वाचार्यनाज बे; जे माटे ते कयुं ले जे गृहस्थ पण वळी के प्रकारनो डे एक तो मुंमितने बीजो शिखा सहित ते वे प्रकारको
ते पण पूर्वाचार्यनोज ने जे तेणे प्रवज्या मूक्या पड़ी त्रण वरसमां बोध पमामीने मुंबन कयों लेते पण पूर्वाचार्यनाज ते कडं जे.
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-g. अथ श्री संघपट्टका
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(२४१३
टीका:-एवं चानाव्य व्यवस्थाया मागमे व्यवस्थापितायां जवत्प्रकल्पितसामान्यगृहिविषयान्नाव्यव्यवस्थायाः क्वावकाशः येनेदानींतनरूढया प्रतिनियतगच्चविषयतया गृहियरिग्रहः क्रियमाणो नवतः शोल्नेत ॥ किंच एषाप्पान्नाव्यव्यवस्था सुविहितानामेव प्रतिपादिता न पार्श्वस्थानां ॥
अर्थः-ए प्रकारे आगममा आन्नाव्यवस्था स्थापी ले तेमां - तमे कल्पी जे सामान्य गृहस्थने विषेश्राजाव्यव्यवस्था तेने रहेवानो अवकाश क्यां ले जे जेणे करीने आ काळनी रुढिये नियम वांधी पोतपोताना गच्उने विये गृहस्थनो परिग्रह करो ठो ते केम शोने नज शोने वळी आजे आजाव्यव्यवस्थाते तो सुविहितनेज करवानी ने एम प्रतिपादन कर्यु डे पण पातत्याने करवानुनथी प्रतिपादन कर्यु.
टोका-नन्वेवं तहि सम्यक्तूदीदाणे श्राद्धानां गुरवे स्वसमर्पणमुपचारवचनं प्रसज्येत, तन्नेदानी तथा विधशरीरादि चेष्टानिव्यंग्यवहुमानलारं नैसर्गिकन्नक्त्या तथा निदधतां तेषा मौपचारिकनावानावात् इतरथा सम्यक्त्वप्रतिपत्तेरनुपपत्तेः ॥
. अर्थः-वळी तमो एम अाशंका करता हो जे समकित दीक्षाने अवसर गुरु पाले श्रावकनुं जे पोतापणाना समर्पणतुं वचन उ ते उपचार मात्र ते एम धवानो प्रसंग आवशे, तो एवीआ कांश शंका न करवी केम जे ए अवसरे ते प्रकारनी शरीर आदिकनी चेष्टाथी जणातुं जे वहमान ते पूर्वक स्वाजाविक लक्तिए करीने तेम कहेता एटले पोतानुं समर्पण करता जे पुरुप तेमने नपचारिक नाव
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(२४२)
Ag. अथ श्री संघपटक:
Aarmanorammam
MAAAAMANARm
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न होय ए हेतु माटे । ने जो एम न कहीए तो समकित प्रातिनी सिकिन थाय ए हेतु माटे ॥
टीका:-तमुक्तं ॥ काजक्तिस्तस्य येनात्मा सर्वथा नहि युज्यते । अन्नतः कार्यमेवाहु, रेशेनाप्यनियोजनं ॥ नचैवंगुरोर
पि तदनुमत्यादिना तमताधिकरणप्रसंगः ॥ ममकारविरहित .' त्वेन तस्य जगवदाइयैव प्रवर्त्तमानस्य तदनावात् ॥
अर्थ:-जेनो नक्तिए करीने आत्मा सर्वथा न जोमाय तो ते पुरुषनी एनक्ति सारी न कहेवाय केम जे अंश मात्र पण जेने जोगाव तेतो अजक्तिनुं कार्य जे. एटले गुरुने आत्मानुं समर्पण करते गुरु साथे पोतानो आत्मा जोमवा ने जो आत्मा अंश मात्र पण न जोमाय ए नक्ति न कहेवाय. ने वळी एम पण आशंका न करवी जे गुरुने पण तेनी अनुमोदना आदिके करीने तेमा रह्यां जे अधिकरण तेनो प्रसंग गुरुने पण थाय; केम जे ते गुरुने ममतारहितपणे जगवंतनी आझाए करीनेज प्रवृतपणुं डे, माटे ते अधिकरणनी प्राप्ति नथी.
टीका-यदुक्तं ॥ गुरुणोविनाहिगरणं, ममत्तरहियस्स एत्य वत्थुमि ॥ तन्नावसुद्धिहेतुं, आणा पयहमाणस्स ॥ एतेन श्रकानुगुण्येन दानोपदेशादिना गुरोर्यबाद्धस्वीकारसमर्थनं, तदप्पसंगतमेव ॥ स्वीकारमंतरेणैव नावानुरूप्येण धर्म वृध्यर्थं गुरोस्तेषु सहिषयदानाद्युपदेशप्रवृत्तेः ॥ यमुक्तं ॥ नाऊणयतब्जावं,जह हो श्मस्सधम्मवृद्धित्तिादाणावएसाई, अणेण तइश्त्यजश्वं ॥
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-8. अथ श्री संघपट्टक:
(२४३)
PAAmanmaanaamanarana
अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कडं बे जे एणे करीने श्रझाने श्रनुसरतो जे गुरुनो दानादि उपदेश ए आदिके करीने जे श्रावकना अंगिकार प्रतिपादन कयु ते पण अघटतुंज डे केम जे श्रावकनो अंगिकार कर्या विनाज नावने अनुसरतो धर्मनीवृद्धिने अर्थ गुरुनो ते श्रावकने विषे सत्पुरुषने दान आप, इत्यादिक उपदेशनी प्रवृत्ति डे ए हेतु माटे ॥ जे माटे ते शास्त्रमा का जे.
टीका:-यदप्युक्तं ॥ गृहिणां दिग्बंधोपि यतिवन्न पुण्यतीति तदप्यसमीचीनविदा साढूण दिसा,तिविहा पुण साहुणीण विनेया ॥ इतिन्यायेन यतिदिगूबंधवद्गृहिग्रबंधस्य क्वचिदप्य श्रवणादिति ॥ एवंच प्रदिपरिग्रह स्सर्वथायतीनां नोचितः ।
अर्थः-वळी तमे जे कमु के यतिनी पेठे गृहस्थोने पण दिबंध करवामां दोष नथी इत्यादि ते पण तमारं वचन अघटतुं . केम जे शास्त्रमा एम कडं जे साधुने बे प्रकारनी दिशाने साध्वीने त्रण प्रकारनी दिशा जाणवी. इत्यादि न्याये करीने साधुना दिग्वधनीपेठे ग्रहस्थने दिग्बंध करवान कोइ शास्त्रमा सान्नलता नथी. ए हेतु माटे एम सिद्धांत थयो जे ग्रहस्थनो परिग्रह करवानुं साधुने सर्वथा अणघटतुं . ॥५॥
टीकाः-चैत्यस्य जिन गृहस्य स्वीकरणं स्वायत्ततापादनं तत्र ॥ तुरत्रापि प्रथमधारादस्य नेदभाद ॥ गर्हिततमं प्रत्यह सकलचैत्यकृत्यचिंतातव्योपलोगादिना लोकेप्यतिनिंदितं माउपत्यं मनायकत्वं स्यानवेत् यतेर्मुनेः ॥ एतदुक्तंनवति ।।
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(२४४)
rg. अथ श्री संघपट्टका -
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चैत्यस्वीकारेहि यतीनां तच्चिंतनं सकलमनुष्टेयं तस्यचारंन दोषवत्तया अव्यस्तवत्वेन यतीनां निवारणात् ॥ तदधिकगुणस्थानकलावस्तवनिष्ठत्वातेषां ॥ तदशक्तस्यच अव्यस्तवेधिकारानिधानात् ॥
अर्थ-वळी चैत्य केतां जिनमंदिर तेनो स्वीकार एटले पो. तानुं करी राख ते पण अति निंद्य बे. तेमां तु शब्द जे जे ते प्रथमहार थकी श्रा छारनो नेद कहे बे. ने साधुने निरंतर समस्त चैत्यना कामकाजनी चिंता करवी तथा ते चैत्यना अव्यनो नेपजोग करवो इत्यादिके करीने लोकमां अति निंद्यपणुं बे. ने तेथी मुनिने मतपतिपणुं होय ए वात कही ले जे जो चैत्यनो अंकिारग करे तो निश्चे साधुने ते चैत्यनुं चिंतन आदि सकल करवा योग्य कार्य तेना 'आरंजनो दोष आवे ए हेतु माटे ने ए अव्यस्तव कहेवाय ए हेतु माटे यतिने एनुं निवारण कयु केम जे ए जव्यस्तव करतां अधिक गुणस्थानक जे नावस्तव तेने विषे ते मुनिने रहेवापणुं ने माटे ने जे नावस्तव करवाने अशक्त ने एटले असमर्थ डे तेने अव्यस्तव करवानो अधिकार जे एम कडं .
टीकाः नावञ्चण मुग्रविहारिया उदवच्चणं तु जिणपूछा। नावञ्चणाननहो,ह विजादववणु जुज्तोतञ्चितनेतु यतीनां नाव स्तवान्नावप्रसंगात् ॥ अव्यस्तवस्यच षट्जीवनिकायविरोधि त्वेन ततोन्यूनतरत्वात् ॥ तत्संयमस्यैवच पूर्णस्य नगवता मनिमत्त्वात् ॥
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19. अय श्री संघपटकः
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(२४५)
अर्थः ते चैत्यना कामकाजनी चिंता करे त्यारे तो यतिने जावस्तवना अनावनो प्रसंग थाय ए हेतु माटे ने जे अव्यस्तव ने ते तो ब जीव निकायनो विरोधी बे ते हेतु माटे ते लावस्तव थकी अंतिशय तेमां न्यूनपणुं बे माटे ने लगवंते तेज संजमने पूर्णमान्या बेजे जावस्तव रुप ले ते.
टीकाः-यदाह॥ दवत्थय लावत्थन्य दवत्थो बहुगुणुत्ति बुझिसिया॥अनिडणजणवयणमिणं, छजीवहियं जिणाबिति॥ बजीवकाय संजमदवत्थ ए सोविरुज्न ए कसिणो, तो कसिणसंजमवि आ पुप्फाश्यं न छति ॥
अर्थः-पाधरो .
टीकाः अथ चैत्ययमुद्दिश्यारंजादयोपि यतेन विरुध्यते ॥ तथाहि ॥ नगवान् श्रीवैरखामी त्रिदशविनिम्मितमणिमयविमानस्योपरिष्टात्सातकौंचसुज्जृनमंनोजमध्यासीनो जुनक वृंदारकवृंदेनपुरतोविधीयमानाऽवि गानगानढद्यनाद्यातोद्यनिनादपूरितसमस्तननस्तलो हिमगिरिशिखर व ते श्रीदेवताया:सकाशानिरर्गलसमुबलदतुनावंध्यसौगंध्यसुरजितककु. प्कांताननानि विशप्रसूनानि हुताशनगृहाचप्रसूनानि समादाय पु- तथागतायतनानि विहाय विहायसा मंदानिलचल श्वेतकेतनं जिननिकेतनं पर्युषणमहसि समाजगामेतिश्रूयते ॥यथोक्तं ॥ चेइयपूया किं वश्रसामिणा मुणिअपुव्वसारण ॥ न
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( २४६ )
28 अथ श्री संघपट्टकः 8
कयापुरी तइया मुरकंगंसावि साहूणं ॥ श्रतस्तच्चरितमनुवर्त्तमानाः संप्रति कथं वयमुपालनमहीम इति चेन्न ||
अर्थ:-वळी तसे कधुं जे चैत्यने उद्देशीने जे आरंभ - दिक करवा ते पण तिने विरुद्ध नथी ॥ तेज कही देखा दे जे भगवान् एटले समर्थ श्री वैरस्वामी देवताए निपजावेला मणिमय विमान उपर सोनानुं विकस्वर कमल ते उपर वेठा, ने जुंनक देवताना समुहे आगळ कर्यां जे सुंदरगान तथा मनोहर नाट्य तेना शब्दवमे जेणे समस्त श्राकाशतल पूरण कर्यु बे एवी शोजाने धरता थका हिमाचलना शिखर नपर रही जे श्री देवता तेना समीप थकी अतिशे उबलती जे मोटी सुगंधी तेथे करीने दिशारुपी स्त्रीजनां मुख जेमणे सुगंधिमान् कर्या बे एवां कमल तथा हुताशन ग्रह थकी पुष्प ए बेने लेने मारगनी नगरीउंमां जे जे बौद्धना मंदिर श्रावे बेतेन तेनो त्याग करीने आकाश मार्गे करीने मंद वायुवमे जे जिन मंदिरनी धोली धजा चंचल बे ए प्रकारना जिनमंदिर प्रत्ये पजुसना उत्सवने विषे घ्यावता हता. जे माटे शास्त्रमां क जे चैत्य पूजा शुं वर स्वामिये नथी करी, करी बे ते वइरस्वामि केवावे, तो जाएयुं बे पूर्वनुं सार जेसे एवा माटे ते पूजा साधुने पण मोनुं अंग बे ए हेतु माटे तेमना चरित्रने अनुसरता जे श्रमे ते तमारा उलंना योग्य केम होय नथीज एवं लिंगधारीनुं वचन सांजळीने सुविहित बोले वे जे एम तमारे न बोलवु .
- नगवच्चरितस्य जवतामालंबनी कर्त्तमनुचितत्वात् रावस्यर्द्धयाऽस्मदादीनामिकुलक्षणं युज्यते । तेन हि
टीका नहि स्तंवेरम
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अथ श्री संघपट्टकः
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जगवता तथाविघसंघप्रार्थनया तथागतमनोरथपथमथनाय खतीर्थप्रोत्सर्पणायच खपाणिग्रहणं विना पूर्वो चितानि धूपे. नाऽचित्तीकृतानिच कुसुमानि सकृदानोतानि नवतांच माला काराणामिव सततं खयमुच्चयनगुंफनपाणिग्रहणादिना प्रकृत प्रवृत्तिरुपलच्यते ॥ अतोजगवचरितमालंव्य देवनमस्याछद्मना खोपत्नोगायैव केवलमनियुंजानाः कथंकारं नवंतो नत्रीमंते.
अर्थः केम जे महा समर्थ पुरुषर्नु आचरण तमारे पावन करतुं घटतुं नथी, शाथी के मोटा हाथी शेरमी आखीने आखी एटले कुचा कहानया विना नक्षण करी जाय जे ते हाथीनी साथे स्पर्दा करीने आपणा जेवाने आखी ने आखी शेरमी नक्षण करखी योग्य नथी. ने ते नगवान् एटले महा समर्थ एवा वर स्वामीए तथा प्रकारनी एटले घणीज संघनी प्रार्थनाए करीने तथा वौद्ध लोकोना मनोरथ मारगर्नु मंथन करवाने एटले वौद्धनो पराजय करवाने, ने पोताना तीर्थना जय वृद्धि करवाने पोताना हाथे लीधा विनाज पूर्वे धूपथी अचित करेलो जे पुष्पनो समूह, ते एक फेरोज आएयो ने तमारी तो माळीनी पेठेज निरंतर पोतानी मेळे पुष्प चुंटवां तथा गुंगवां हाथे कालवां इत्यादि हालमां प्रवृ. त्ति देखाय ने ए हेतु माटे मोटा पुरुषना चरित्रनुं किंचितउंटुं लेइने देव नमस्कार- मिप लइने केवळ पोताना उपत्लोगने अर्थेज पुष्पने वावरता ने आ प्रकारचें कपट लावण करता तमो केम वोलतां लजवाता नथी.
टीका-याक्तं ॥ चेश्यकुलगणसंघे, अन्नं वा किंचि कान.
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(२४८)
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अथ श्री संघपट्टका
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निस्साए ॥अहवावि अजवरंतो सेवंतीअकरगिजं। ओहावणं परेसिं सतित्थओब्जावणंच बच्चा, न गणिति गणेमाणा पुव्वुचियपुष्फमहिमंच ॥ गणेमाणत्ति आलंबनानिगणयंतः इत्यहो अविवेकसेकः सातिरेक प्रबजितानामपि यदेवमंकुरयति .महारं जमीरुहान् ॥ चश्नण घरावासं आरंज परिग्गहेसु वदंती ॥ जं सन्नाजेएणं एवं अविवेयसामत्थं ॥ सन्नानेएणंति देवाद्यर्थ मेतदितिनामजेदेन ॥ मंसनिविनिका सेवइ दंतिक्खयंति धगिनेया॥श्य चइजणारं परववएसाकुण वालो॥अथ,चोए
चेश्याणं खित्तहिरन्ना गामगोपाइलिग्गंतस्सन मुणियो तिगरण 'सुद्धा कहनु नवे ॥ इत्यादिना चैत्यक्षेत्रांदिचिंतां विदधतो यते स्त्रिकरणशुहिं दूषयत:पूर्वपक्षिणो वचनादवसीयते यतेश्चैत्यो देशेनारंनो न इष्यतीतिचेतन सिद्धांतार्थी परिज्ञात् ॥ आगमेझुत्सर्गतस्तावदारंजादिदोषेण सत्तायां क्षेत्रग्रामादीनां निषेध एवप्रत्यपादि । तथाच कुतस्त्या तच्चिता यतेः। अथ कथंचित् केनापि नकादिना राझाचैत्यस्य ग्रामादयो वितीर्णा:संति ते चकदाचिबलवता केनापि हवेनापहर्तुमारब्धास्तदा संघलाघव रिरषिया लाधुश्रावकाणां तचिंताऽनुज्ञाता यदितुलोलादिना यतिः स्वयं देशनाद्वारेण वा तान् मार्गयेत्तचिंतां वाविदध्यात्तदा तस्यचारित्राशुद्धिरेव ॥
अर्थः इत्यादि चैत्य संबंधी खेतीवामीनी चिंता करतो त्रिकरण शुछिने दोष पमामतो ने पूर्व पक्ष करतो एवो : लिंगधारी तेना वचनथीज जाणीए बीए जे यतिने चैत्यनो नई
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अय श्री संघपट्टका
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(२४)
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रीने श्रारंन करवा तेनो दोष नथी एम जो तुं कहेतो होय तोते । कहे. केम जे सिद्धांतना अर्थतुं परिझान नथी, माटे एम कहो जो ने सिद्धांतमा उत्सर्ग थकीज आरंनादि दोष करीने चैत्य सगामा एटले चैत्य संबंधी क्षेत्र गाम आदिकनुं जे करवू तेनो निषेग्ज प्रतिपादन कर्यों बे. तो ते चैत्य संबंधी खेतरगाम होयज यांथी ? जे तेनी चिंता यतिने करवी पमेने एम करतां कदाचित् कोइ प्रकारे महा आग्रहथी कोश्क नजकादि राजाए चैत्य संबंधी गाम आदिक थाप्यो होय; तेने क्यारेक कोपण वळवान पुरुषे ह. गतकारे लेवानो आरंज कों. त्यारे संघनी लघुता थाय माटे तेनी (क्षा करवानी बाए साधु श्रावकने तेनी. चिंता करवानी आझा पापी जे. पण ज्यारे तो लोन्नादिके करीने यति पोतानी मेळे देशना धारे तेने मागीले अथवा पोतानी मेळेज तेनी चिंता करे तो ते साधुना चारित्रपणानी अशुद्धताज थाय -
टीका:-तमुक्तं ॥ जन शत्थ विनासा, जो एयाई सयंविमग्रिजा ॥ नहु होइ तस्स सुद्धी, अह कोवि हरिजाएयाइंसद बामेण तहिं, संघेणं होइ लग्गियवतुं । सचरित्तचरित्तीणं एवं सबेसिकांति । अत:कथं सम्पृहतया चैत्याग्नं कुर्वतामधुना तनमुनीनां न दोषइति ॥ यदिच संप्रति संपूर्णजावस्तवस्याशक्यत्वेन तदपेक्षया चैत्यकृत्यचिंतनमपि महाफलमन्युपेयते तदा तेजकरजोहरणादिपरिहारेण गृहिनेपथ्यमन्युपगम्य जिनपूजनमाप्रियतां ॥
अर्थः-ए हेतु माटे स्पृहाये सहित चैत्यनो आरंज करनार
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( २५० )
२. अय श्री संघपट्टकः
या काळना यतिने केम दोष न लागे. ने बळी जो श्री काळमां
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एवो संपूर्ण नाव बे जे नाव पूजा करवा समर्थ नथी. माटे, तेनी अपेक्षाए चैत्य संबंधी चिंता करवी तेमां पण मोटुं फळ बे. एम जो जाणता हो तो ते साधुपणाने जणावनार रजोहरणादिक तेनो त्याग करीने गृहस्थना आभूषणरुप रुप जे जिनपूजा तेनो आदर करो.
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टीका:- यडुक्कं ॥ जइ न तरसि धार, मूलगुणनरं सउत्तर गुणंच ॥ मुतू तो तिनूमी सुसावगतं वरतरागं ॥ श्ररहंतचेश्रा, सुसाहुप्यार दढायारो ॥ सुस्सावगो वरतरं न साहुवेसे धम्मो ॥ रजोहरणादिलिंगं विचतां तु चैत्योद्देशना पि यतीनामारं विधानं महते पापाय लोकशोकायच ॥ यदाह ॥ बजीव निकायद्या विवनि नेक दिखिखर्ज न गिही ॥ जइधम्मार्ज चुको, चुक्कइ गिहिदाणधम्मार्ज ॥
अर्थ :- रजोहरणादि लिंग धारण करनार यतिने तो चैत्यनो उद्देश करीने श्रारंभ करवो ते मोटा पाप जणी ने लोकने शोक जी बे.
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टीकाः - तथा ॥ संप्रतित्र तिवेषेण, लोक मोषकमेष्वहो॥ सितांबरेषु जातेषु, चौराः किं निर्मिता मुधेति ॥ एतेनोक्तन्यायेन संप्रति गृहमेधिनामित्यादिना यतीनां चैत्यस्वी कारसमर्थनंतदपि श्रद्धा समृद्धानां केषां चिच्छ्राद्धाना मया पिश्रुतोक्तविधिना चैत्यचिंताकरादर्शनेन निरस्तं ॥
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• अथ श्री संघपट्टका - . (२५१) । ' अर्थः-वळी श्रा काळमां साधुवेषे करीने उगी लीधामा समर्थ एवा श्वेतांबरी निहु जगतमा विद्यमान ले ते शुं करवा चोर, मिथ्या, निपजाव्या हशे? माटे ए मोटें आश्चर्य जे.एकह्योजेन्याय तेणे करीने, 'संप्रति गृहमेधिनां' इत्यादि वचनी श्रारंजीने यतिने चैत्यनो अंगिकार करवानुं प्रतिपादन कयु हतुं ते सर्वेनुं खंमन थयु. . केम जे श्रझावंत केटलाक श्रावक हजु:सुधी पण शास्त्रमा कहेला विधि प्रमाणे चैत्यनी चिंतादिक करे ने तेने प्रत्यक्ष जोशए गए ए हेतु माटे.
टीका-यथापि चैत्यस्वीकारार्थतया, सीलेह मखफलए त्यागमोपदर्शनं तदष्टसंगतं ॥ अस्यान्यार्थत्वात् । तथाहि ।। केचित सुविहिता विहारक्रमेषांतरा कंचिबन्नश्रावकं मध्यस्थनूरिलोकमंत:स्थितचैत्यचिंतानिरवधान देवकुलिकजीर्णशीर्ण प्रायैकजिनसदनाधिष्टितं ग्राममेकं प्राप्तास्तत्रच तेपवादेन देव कुलिकानां शिक्षाद्यर्थं देवकुलं गताएतत्समारचनसंलवे कालेन गहता तत्रत्यलोकस्य नजकतया जैनमार्गान्युपगम गुणं सुविन हितसंपातेन संन्नावयंतो देवकुखिकान्प्रत्याहुःसीखेहेत्यादि । '.
अर्थः-जो पण चैत्यनो अंगिकार करवाने "सोलेहमख, इत्यादि श्रागम वचन देखामयां, ते पण श्रघटतां देखामयां केम जे. ए श्रागमनो अर्थ बीजो . तेज कही देखामे जे केटलांक सुविहित साधुने अनुक्रमे विहार करता थका कोइक बच्चे एवं गाम श्राव्यु जे तेमां आवकनो नहुद थयो डे पण गाममा तो लोकनी . वस्ती घणी ने तेमां चैत्यनी चिंता करवामां असावधान एवा
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(२९२)
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अय श्री संघपट्टका
पूजारी रह्या डे ने जूनू ने बहुधा पमेढुं एवं एक जिनमंदिर जे गा. ममा डे ए प्रकारना गाममां आव्या सता तेमां ते सुविहित साधु अपवाद मार्गे देवपूजारीनी शिक्षादिकने अर्थे देवकुळमां गया ने विचार कर ले जे था चैत्यनुं समार थये सते आ गामना नजिक लोक नेते जैन मार्गनो अंगिकार करशे, एवं संलव डे केम जे सु. विहित पुरुषतुं जे श्रागमन ते जैन मार्गनो अंगिकार करवारुप गुण नणी ने माटे देवकुलीक प्रत्ये ते सुविहित बोले जे जे 'सोलेहमंख' इत्यादि गाथाए करीने कहे . ।
टीकाः-लोदेवकुलिका एतानिमंखफलकानीव मंखफल कानि यथा मंखस्य फलकोज्वलतया प्रासनिर्वाह एवं नवता. मपि. चैत्यनिर्मवतया तत्सदनसऊतयाच निर्वाहः॥ श्रतो निर्वाहहेतुचैत्यानि शीलयत समारचयत ॥ इतरे सुविहिताः चोयंति प्रेरयंति तंतुमाश्सु लूतातत्वप्रसारणादिषु ॥ अथ ते लिंगिनः सवृत्तयः चैत्यचिंता विनापि प्रासंचितविणनिचयेत विद्यमाननिर्वाहा स्तदा तान् अनियोजयंति ॥ अंबामिति निष्टुरखाचा शिक्षयंति ॥ यथाजोऽझाकिमित्येतानि चै'त्यानि न समारचयथ यतएतानि विना पश्चादपि न नविता जवतां निर्वाहः॥
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अर्थः-जेलो देवकुक्षिक आजे चैत्य के तेतो मखफल जेवां..एटले मंख ते कोश्क जाति विशेष पुरुष, ते पोतानी श्र जिविकाना कारणरुपः जे चित्रफलक तेनी उज्वलता राखे तो है थकी तेनो.जेम निर्वाद थाय ने तेम तमारे पण चैत्यनी निर्मळ
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अथ श्री संघपट्टक
(२९३)
NAwaran
राखवी तथा तेनी सारी संन्नाळ करवी तेथी तमारो निर्वाह ले माटे निर्वाहना कारणरुप जे चैत्य तेने समारो एटले वीक करो ने कळी सुविहित एम प्रेरणा करे जे जे आ करोळीयानां जाळां काढी ना. खीने साफ करो. इत्यादि प्रेरणा करे ये तो पेण वळी ते लिंगधारीयो पोतानी श्राजीविकाये संपूर्ण दे तेथी चैत्यनी चिंता कर्मा विना पण प्रथमथी संचय करेलो जे अन्यनो समूह तेणे करीने ते. मनो निर्वाह विद्यमान . एवं देख त्यारे तेमने कठोर वापीथी. शिक्षा आपे जे नो अज्ञानी था चैत्यनी केम संजाळ करता नथी, जे माटे ए चैत्य विना पडीथी पण तमारो निर्वाह नहि थाय.
टीका:-अणिच्छत्ति ॥ अथ देवकुलिकाः सातलंपटतयैतदपि कर्तुनेचंति तदासुविहिताःस्वयमेव तंतुजालादीनि फेमिति अपसारयति ॥ उपहासनयाद् गृहिनिरदश्यमानाः कथमेवं सुविहितानां स्वयं चैत्यसमारचनप्रवृत्तिरिति यदि कश्चिद्व्यात् तत्समर्थना येदंगाथा युगलमुनिष्टते ॥
। अर्थः हवे देवकुलिक अतिशय साता सुखमां लंपट थया ठे माटे ए करोळीयानां जाळां दूर करवां एटवू पण करवा न ले तो ते सुविहित पोतानी मेळेज ते तंतुजाळ आदिकने दूर करे . तेमां पण गृहस्थ लोक जेम न देखे एवी रीते ते काम करें । केम जे सुविहित साधुनी पोतानी मेळे चैत्यने समारखं तेमां आ प्रवृत्ति कम थ? ए प्रकारनुं गृहस्थ लोक उपहास करे तेना जयथी. जो वळी कोश्क था वातमा संशय करे तो तेना समर्थननी करनारी मा वे. गाथा प्रसंगी खखीये बीए.
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अय श्री संघपटक
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टीका अनानावे जयणाश्यग्गनासोहविज्जमा तणापत्र कयायगणासु सिंगुण संजवेश्हा चेइयकुलगणसंये श्रायरियाणं च पश्यणसुएयातब्बेसुविते ह कयं तवसंजममुज्जुमतेण प्रस्यार्थः-अन्यानावे श्रावकायन्नावे यतस्तत्र श्राद्यान संति येन तएव समारचनं कुर्वीरन् श्रतःस्वयंयतनया कुर्वति। माभू. चैत्यसमारचनं ।। कावोहानिरितिवेत्ताह ॥मार्गनाशो जैन मार्गोच्छेदोमाजूत्तत्रतेन हेतुना पूर्वकृतायतनादिषु चिरंतनजिनगृहेषु ईषद्गुणसंनचे सति मनागलोकस्य जिनमार्गप्रवृत्ति संजावनायां ।।
अर्थ:-श्रा वे गाथानो अर्थ टीकाकार लखे ले जे श्रावक थादिनो श्रन्नाव सते जे हेतु माटे ते गाममां श्रावक रहेता नथी, जे.ते चैत्यनुं समा इत्यादि करे. ए हेतु माटे सुविहित यतनाये करीने ते काम करे . त्यारे को कहेशे के चैत्यर्नुसमालुं न याय एमां तमारी शी हानी डे ? एवी था शंका करे तो ते उपर कहे ले जे वैतमार्गनो उछेदमा थाय ते गाममां ए हेतु माटे पूर्वे करेखां मादेशतिशयजुतां थयेलां जिनमंदिर विद्यमान ले ते थोमोकगुण थवानो संजव . एटले लोकने जिन मार्गमा प्रवृत्ति थाय एम संजव .
टीका:-श्रयमाशयमा तत्राहि देशेतदेवैकं जिननवनं ततश्च श्रावकानावेन देवकुलिकानांचसुखरसिकत्वेन चैत्यचिंतायजाबे तत्रदेशे जिनगृहाजावान्मागाबदामादिति ॥ तत्रत्यक्षाकस्य
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. .. अथ श्री संघपट्टकः ( २५५ ) · माध्यस्थ्येन गुणसंभावनया सुविहिता अपितत्र जिनगृहे का
चिचितांयतनया विकति॥
अर्थः-या अतिप्राय जे ते देशमा एकज जिन जवन देने तेमां श्रावक नथी ने देवकुलिक डे ते घणा सुख शीलिया डे माटे चैत्य चिंतादिक कांश्पण करी शकता नथी माटे ते देशमां जिन मंदिरनो अन्नाव ले तेथी मार्ग तो उच्छेद न थाय ए हेतु माटे ने मध्यस्य दृष्टिए जोतां ते देशना लोकने गुण थवानुं संजवे . माटे सुविहित पण ते जिनमंदिरने विषे यतनाये करीने कांक चिंता करे ने एटले तेने पोते पण समारे .
टीकाः॥ हरति ॥ इतरथा एवंविधगुणानावे चैत्यकुल गणसंघाचार्यप्रवचनश्रुतेषु सेवेष्वपि वैयावृत्यस्थानेष्ठ तेषु तेषुतेन सुविहितेन कृतं वैयावृत्यं तपःसंयमोद्यमकुर्वतेति॥ एवं रूपालवंता नावे सुविहितस्य न चैत्यचिंतया काचित् स्वार्थ सिभिः संयमोद्योगस्यैव तस्य सर्वोत्तमत्वादित्यर्थः ।।
अर्थः-जो एम न होय तो एटले ए प्रकारनो गुण न होय तो तप संयममा उद्यमवंत एवा ते सुविहित साधु जे तेमणे चैत्य १ कुल २ गण ३ संघ ४ श्राचार्य ५ प्रवचन ६ श्रुत, र सर्व वियावच्छ करवानां स्थानक तेमने विषे वियोवच्छ करीज ३. केम जे ए रुपनुं जो श्राखंबन न होय तो सुविहितने चैत्यचिंता करवाथी कांपण स्वार्थ सिद्ध करवानी नथी तेमने तो संजमने विषे उद्योग करवो एज सर्वोनमपणुंडे एवो अर्थ वे ए हेतु माटे.
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8. अथ श्री संघपट्टक
• टीकाः एवंचास्या गमस्य तात्पर्ये नास्माच्चैत्यस्वीकारसिद्धिः । मागोंछेदनयेनहिश्रावकानावे तञ्चैत्यसमारचनंप्रति सुविहितानां देवकुलिकप्रेरणं नतु यतीनां कृत्यमेतदित्यजिसंधातेन ॥ श्रतकथमयमागमश्चैत्य स्वीकारार्थतया यतीनां प. वैवस्येदिति ॥
अर्थः-माटे ए आगमनुं तात्पर्य विचारी जोतां ए थकी चैत्यनो अंगिकार करबो ए वात सिद्ध थती नथी ने श्रावकनो श्र. जावडे ते मागोंच्छेद थवाना जय थकी ते चैत्य, समारवं कर्वा माटे सुविहित यतिनुं ए कृत्य एटले सर्व सुविहितने ए करवा योग्य डे एवा अनुसंधाने करीने देवकुलिकने प्रेरणा करवी एवो ए आगमनो अन्तिप्राय नथी.ए हेतु माटे यतिने चैत्यनोअंगिकार करवो. ए प्रकारे ए आगमनो नावार्थ केम सिंक थाय ? नन थाय.
टीकाः-एवंच त्वमेव परिजाक्य मार्गानुसारिण्यामनीषया यन्मुनेर्देवाधिकारं चिंतयतःकथं माउपत्यमतिकुत्सितं न प्रस. ज्यतति । लौकिकाअप्पाहुः । यदीच्छन्नरकं गंतुं, सपुत्रपशुवांधवः ॥ देवेष्धिकृतिकुर्यागोषुच ब्राह्मणेषुच॥ तथा ।। नरकाय मतिस्तेचेत, पौरोहित्य समाचर ॥ वर्षयावकिमन्येन माउपत्यं दिनत्रयमिति ।।
अर्थ:-वळी ए मार्गने अनुसरति बुद्धिये तु पण विचारी जो जे देवाधिकारनी चिंता करनार मुनिने मनपतिपणुं केम अतिशय
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अथ श्री संघपट्टका
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(२५७)
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निंदित नहि होय. एतो अतिशय निंदा थवानोज प्रसंग डे केमजे लौकिक शास्त्र पण एम कहे जे जे पुत्र, पशु, बांधव तेमना सहित जो नरकमां जवानी ना होय तो देवने विषे तथा ब्राह्मणने विषे अधिकार कर ने वळी जो तारी नरकमां जवानी मति होय तोएक वरस सुधी पुरोहितपणुं कर ने वळी ते करतां ए सर्वे नरकमां जवानां साधन- शुं प्रयोजन के एक त्रण दिनसुधी मठपतिपणुं कर. जेणे करीने कुटुंब सहित नरकनी प्राप्ति शीघ्र थाय इत्यादि महा निंदितपणुं अन्य दर्शनमां पण . . .
टीका:-इदानीं निगमयति ॥ इतियस्मादर्थे यस्मात् एव मित्युक्तकमेण व्रतवैरिशी चारित्रप्रतिपंथिनी इतिहेत्वार्थो जिक्रमासचाने योदयति॥ ममतां अर्थादिषुवीकारबुद्धिः इति तस्मा तो नयुक्ता नोपपन्ना मुक्त्यर्थिनां निर्वाणानिलाषिणां मुनीनामिति वृत्तार्थः ॥
अर्थः-हवे ए वातनी समाप्ति करता सता कहे जे इति शब्दनो एवो अर्थ करवो, एटले जे हेतु माटे पूर्वे कह्यो एक्रम थकी चारित्रनी वैरी एटले नाश करनारी ममता ने एंटले अव्यादिकनो अंगिकार करवानी बुद्धि ए प्रकारनी के. ए हेतुमाटे मुक्तिना वांटक मुनिने ए ममता करवी युक्त नथी, एम ए काव्यनो अर्थ बे.
टीकाः-सांप्रत मसंयमादिदोषप्रदर्शनेनाप्रेक्षिताद्यासन . प्रारं निराकर्तुमाह ॥
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(२५८)
जय श्री संघपटक
अर्थ:-हवे असंजम आदि दोष देखामवे करीने पलेवण न थाय एवां आसन तेनो घार प्रत्ये निषेध करता सता कहे ,
॥मूल काव्यम् ॥ नवति नियतमत्रा संयमःस्याविजूषा, नृपतिककुदमेतल्लोकहासेश्च निक्षोः ॥ स्फुटतरह संगः सात शीलत्वमुच्चै, रिति नखलु मुमुदोः संगतं गब्दिकादि
टीका-नवति जायते नियतं सर्वदा अत्र गब्दिकाद्यासने संयमो जीवरकाऽजावः ॥ गब्दिकादर्नित्यस्यूतत्वादिना प्रत्यु. पेक्षणाद्यन्नावे विवरादिना तदंत:प्रविष्टानां तदंतरेचोत्पन्नानां वा त्रसादीनां तत्रोपवेशनेन विनाशसंलवात् ।। निदोरितिवृत्त मध्यस्थपदं सर्वत्र संबध्यते स्यात् लवेत् विनूषाशोना तत्रोपविष्टस्य जगतोप्युपरिवय॑हमितिविजूषाकार्याजिमानप्रवृत्तेजूि'षा च यतीनामवश्यं वर्जनीया ॥
अर्थ:-गादी आदिक आसन राखे बते निश्च निरंतर श्रसंजम थाय ने एटले जीव रक्षा थ३ शकती नथी केम जे गादी
आदिकजेश्रासन ते निरंतरशीवेलांडे ए हेतु माटे पमीलेहण श्रा. दिक थर शकतुं नथी माटे तेनां विजयादि द्वारे करीने तेमांपेग जे जीव तेमनं तशा तमा थया जे त्रसादिक जीव तेमतुं ते
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4. अथ श्री संघपट्टका
१२६९)
प्रासन नपर बेसवाथी विनाश थवानों संनव . व्रतने मध्ये रह्यु जे जितु एटलुं पद तेनो सर्व जगाए संबंध करवो. जिक्नु एटले. साधु ते गादी उपर बेसे त्यारे हुं जगतना पण उपरी रहेनार ९ ए प्रकारनी शोजाथी कार्य करवामां अनिमाननी प्रवृत्ति थाय ए हेतु माटे ने मुनिने शोना तो अवश्य त्याग करवा योग्य .
टीकाः-यमुक्तं ॥ विभूसावत्तियं निक्खू, कम्मं बंधश्चिकणं . ॥ संसारसागरे घोरे, जेणं पम उत्तरे ॥इति ॥
अर्थः-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही ले जे शोनामां वर्ततो जे लिनु तेने चीकणां कर्म बंधाय ले ने ते करीने निक्कु जे ते शोनाए करीने महाघोर ने मु:खथी तराय एवो जे संसाररुपी समुज तेमां पके , इत्यादि शास्त्र वचन बे.
टीका:-नृपते राझाककुदं चिह्न राजादीनामेव प्रायेण महझिकानां तत्रोपवेशदर्शनात् ।। लोकहासो जनतोपासनं च शब्दोदोषसमुच्चये लिकोयतेः ॥ अहोनिकोपजीविनो मुं. मिता श्रप्येवं विधासनेषूपविंशतीत्यादिसेय॑जनवचनश्रवणात् ॥ स्फुटतरो लोकप्रकट इह गब्दिकादौ संगः परिग्रहो महाधनत्वेन मू हेतुत्वात् ॥ सातशीलत्वं सुखलालसत्वं ॥ तदंतरेण हंस रुतादिपूर्णेषु स्पर्शेषु तथा विधासनेषु यत्वनुचिततया सिझांत निषिद्धेपूपवेशाऽसंन्नवात् ॥
अर्थ:-वळी ए गादी श्रादिक श्रासन राजानुं चिह्न वे ने
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(२१०)
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अथ श्री संघपट्टक
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बहुधाए राजा आदिक महर्षि लोक ते तेवा आसन उपर बेसे ठे एम देखीए बीए, ने वळी यतिनी लोकमां हांसी थाय जे. चशब्दनो ए अर्थ डे जे दोषनो समूह एथी थाय . लोकनी हांसी एम थाय ने जे अहो! जीख मागीने आजीविका करनार मुंमीत माथावाला पण आ प्रकारना आसन उपर बेसे इत्यादि ी सहित लोकनां वचन संचलाय ए हेतु माटे लोकमां अतिशय प्रसिक गादी श्रादिकनो परिग्रह ले ते महा धनपणे संसारमा मू
कारण ने वळी सुखकारी जेनो स्पर्श डे ने अतिशय कोमळ रू श्रादिक वस्तुए नरेलां सात शीलपणने जणवनार एवां ते सिद्धांतमां मुनिने अघटितपणे बेसवानो निषेध करेलोले माटे गादी श्रादिक श्रासन तेने विषे साधुने बेसवानो संजवज नथी.
- टीका-उच्चै रतिशयेन इतिहेतौ एन्यो हेतुन्यो न खलु , नैव खलु रवधारणे मुमुक्षोर्मोकार्थिनो यतेः संगतं युक्तियुक्तं गब्दकिाद्यासनं पत्नोगतयेति शेषः ॥ लोकप्रसिको रूतादिजूतासनविशेषो गन्दिका ॥ आदिशब्दान्मसूरकसिंहासनादिपरिग्रहः ॥ एतेन यदपि-नाणाहिउँवरतरमित्याद्यागम बलेन प्रवचनप्रनावनांगतया यतीनां गन्दिकासिंहासनायासनोपवेशनसमर्थनं तदपि सुखशीलता विलसितं ॥ .
: . अर्थः-मोदना अर्थी यतिने गादो श्रादिक श्रासन अतिशय अघटितज बे. 'न खलु' ए अध्ययनो निश्चयवाचक अर्थ डे, माटे यतिने ए प्रकारना आसननो उपजोग करवो ते जुक्ति जुक्त निश्चे नथीज. पन्नोगतया' एटर्बु पद उपरथी शेष लेवु. लोक
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(२६१)
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जय श्री संपटक *-_(२६६)
अय श्री संघपट्टक
मां प्रसिद्ध रू आदि वस्तुए नरेलु जे श्रासन विशेष ते गादी कहीए. आदि शब्दथी मशरूनी तलाश सिंहासन इत्यादिकनुं ग्रहण करवं. एणे करीने जे पूर्वे 'नाणाहि' इत्यादि आगम वचननुं वळ लइने प्रवचन, प्रनावक अंगपणे यतिने गादी सिंहासन प्रा. दिक आसन उपर वेसवानुं प्रतिपक्षीए प्रतिपादन कर्यु हतुं ते सर्वे पण सुखशीलीयापणानो विलास बे.
टीका:-तथाहि किं यतेमहाहगब्दिकाद्यासनोपवेशनमेव प्रवचनप्रसिद्धसम्यग्ज्ञानादित्रयानिव्यंजनं ? न ताववदायः॥ श्दानीतनरूढ्या निर्गुणस्य कस्यचिदनागमज्ञस्याचार्यादेःसदसि व्याचिख्यासया महाहासनोपवेशनेपि प्रवचनप्रजावनाया अ. नुपपत्तेः प्रत्युत तादृशस्तस्य तथाभूतासनमध्यासीनस्य केनापि तर्ककर्कशवाग्जबिशख्यितारातिकोविदेन प्रतिवादिना क्षिप्तस्य स हृदय ह्रदयंगम प्रतिवचनानावेन महाप्रवचन लाघवापादनात् ॥
अर्थः-तेज प्रतिपादन करे ये जे यतिने मोटा मोटा मूलनी गादी श्रादिक आसन उपर वेस, एज प्रवचननी प्रनावनातुं अंग ने के प्रवचनमा प्रसिद्ध एवं सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र ए त्रणनो प्रकाश करवो ए प्रवचननी प्रजावनानुं अंग दे तेनो नत्तर वोखं तेमां प्रथमनो पक्ष ते तो अंगिकार करवा योग्य नथी. केम जे श्रा काळनी रुढीए कोइक आचार्य आदिक ते आगमनो अजाण ने गुणरहित के तेने सजामां व्याख्यान कराववानी श्चाए मोटा मोटा मूलना शासन नपर.वेसारीए तो पण प्रवचननी प्रनावना तेथी थइ शकती
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अय श्री संघपट्टका -
नथी. उलटो ते पुरुष प्रवचननी लघुता करे बे. केम जे. ते पुरुष तेवा प्रकारना आसन उपर वेगे ते वखत कोश्क आकरी वाणीरुपी शस्त्रना प्रहारवते शत्रुना पराजय करवाने पंमित एवो तर्कवादी प्रतिवादी पुरुष ते परान्नव पमामे .शाथी के पंमितना मनने प्रसन्न करे एवो तेथी नत्तर न थाय ए हेतु माटे तेवो पुरुष तो प्रवचननी लघुता करनार .
टीका:-तथाच पठ्यते ॥ गुणै रुत्तुंगतां याति,नचोच्चासन संस्थितः ॥ प्रासादशिखरस्थोपि काकः किं गरुमायते ॥
अर्थः-वळी ते नपर साहित्यनो श्लोक आप्रकारनो कहेवाय जे गुणे करीने मोटापणुं पमायहे. पण नंचा आसन उपर वेगथी नथी पमातुं. जेम मोटी हवेलीना शिखर उपर कागमोजइने घेतो पण ते शुं गरुम पदीनी पेठे मोटापणानुं काम करी शकशे ? नहि करे. तेम ते पुरुष पण प्रवचननी प्रत्नावना नहि करी सके.
. टीका:-अथ द्वितीयः॥ तर्हितत्रैव प्रन्नावनाकल्पलता मूलतया प्रयत्यतां किंवृहदासनाद्याटोपेन मुग्धजनबंधीकरणेन ॥ यमुच्यते ॥ गुणेषु यत्नः क्रियतां, किमाटीपैःप्रयोजनं ॥ विक्री. यंते न घंटानि, गावः कीरविवर्जिताः॥
अर्थ:-हवे बीजो पक्ष अंगिकार करो जे गुणने विषे प्रयत्न कर केम जे ते गुण माहेज प्रजावनारुपी कल्पलतानुं मूळपणुं रडं के माटे लोळा माणसने बंधन करनार एवो मोटा श्रासननो आटोप
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अथ श्री संघपट्टका :
(२६३)
तेणे करीने शुं? जे माटे नीतिवचन आ प्रकारनुं ले जे गुणने विषे प्रयत्न करवू तेमां आटोपनुं शुं प्रयोजन डे केम जे ते नपर दृष्टांत जेम दूध रहित गाय ते घंटावते वेचाती नथी. एटले जेम कोश्क गाय सदाकाळ दूध देतीज नथी.ते तेनुं सारूं मूल नपजाववा वास्ते तेनी कोटे घणी घंटा बांधीने आटोप करीए पण तेनुं मूल सारं उपजे नहि तेम गुण विना केवळ मोटा मोटा आसन उपर बेग तेणे करीने प्रवचननी प्रनावना थायज नहि.
टीकाः-आगमे च शिष्योपध्यादिमिरेवसूरिनिषद्याविधानानिधानात् ॥ उपदेशमालायामपि ॥ नवि धम्मस्स जमकेत्यत्र नमका वृहदासनाद्याटोप इति व्याख्यानेन वस्तुतः सिंहासनाद्यासननिषेधप्रतिपादनात् ॥ किंचाप्रत्युपेकत्वेनाकल्प. नीयतयागमनिषिद्रष्यपंचकांतर्वतित्वेन गब्दिकायासनस्य प्रवचनप्रनावनानंगत्वात् ॥
अर्थः श्रागमने विषे पण कडं जे जे शिष्य तथा उपधि. त्यादिके करीनेज सूरिने निषद्यानु विधान कहेवापणुं बे एटले सूरी श्रावे त्यारे शिष्य आसन पाथरी आपे, त्यारे जो सिंहासन उपर बे. सवार्नु होय तो एम नकहेत. उपदेशमालामां पण 'नविधम्मस्सन्नमका' ए जगाए जमका जे मोटा आसनादिकनो आटाटोप एम व्याख्यान करवे करीने वस्तुताए सिंहासनादि आसननो निषेधन प्रतिपादन देखाय ने ए हेतु माटे. वळी जेनी पमिलेहण न थइ शके माटे अकल्पवापणे आगममा निषेध कर्यों जे दृष्य पंचक ॥ उखे जेनी पमिलेहण थाय माटे दोषयुक्त जे पांच वस्तु तेमां गा.
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(२६४)
8. अथ श्री संघपक
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दीआदि जे आसन ते गणावेलां माटे तेने प्रवचननी प्रजावनात अंगपणुं नथी ए हेतु माटे.
. टीका-यदाह ।। अप्पमिलहियदूसे तूली उवहाणगं चना यद्या॥ गंऽवहाणालिंगिणि मसूरए चेव पोत्तमएपाहविकोय विवावारनवय अतहया दाढगालीय ॥ उप्पमिले हियदूसे एवं बीय नवे पणगं ॥
अर्थ ते शास्त्र वचन आप्रकारनां ने जे,
. टीका:-अत्रहि तूत्युपधानगब्दिकाप्रावरणपुष्पपटादयोऽप्रत्युपेक्ष्यतया यतीनाम संयमहेतुत्वेनानु पादेयतयोपन्यस्ताः ॥नवंतस्तु तूल्युपधान गब्दिकादीन्येव नगवसिद्धांतमात्सर्येणे व:हवादविरतमुपजुंजानाःप्रवचनमालित्यमानयंत उपक्षज्यंत इत्यहोमहामोहमदिरा मदयति विदुषोपि ॥
अर्थः-श्रा शास्त्र वचनने विषे तलाइ, शिकां, गादी, र. जाइ, पुष्पपट इत्यादिकनी पमिलेहण न थाय तथा उखे एवा का रणथी यतिने असंयमनुं कारण ले माटे न ग्रहण करवापणे थाप्यां बे ने तमोतो तलाइ, श्रोशिका, गादी इत्यादिक नगवंतना सिद्धांतनी साथे मत्सर पणेज एटले विपरीतपणेज हगत्कारे निरंतर उपलोग करो बो; तेथी प्रवचन- मलीनपणुं करता देखाउँ बगे माटे श्रहो एतो मोटा मोह रुपी मदीरा विद्यानने पण एटले जाण पुरुपने पण मंद करें .
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अथ श्री संघपटक
(२६५)
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टीकाः-यदपि रानवणीय इत्यागमवलने व्याख्यानादौर्सिहासनोपवेशनोपपादनं तदपि न सचेतसांचतेश्चमत्कारकरं ॥ तथाहि ॥ राजोपनीतसिंहासनोपविष्टा गणधरा व्याख्यांतीति किंराजोपनीतएव सिंहासनउपविष्टा अहोराजोपनीतेपि उपविष्टाश्त्यपि किमुउपविष्टा एव नतोपविष्टा अपीतिचत्वार: पक्षाः कषायाइव जवदनिमतव्याघातददानत्तिष्टंते ॥
अर्थः-जे पण राउवणीय इत्यादिके आगम बले करीनेव्या. ख्यानादिकने विषे सिंहासनने विषे बेसवार्नु प्रतिपादन कर्यु ते पण पंमितना चितने चमत्कारनुं करनार एवं नश्री. तेज कही देखामे के जे राजाए प्राप्त कर्यु जे सिंहासन ते नपर बेठा एवा जे गणधर ते व्याख्यान करे इत्यादि. ए जगाए तने पूरीए जे शुं राजाए श्रापेढुं एज सिंहासन ते उपर बेठेला के अहो राजाए आपेला सिंहासनने विषे पण बेठेला ने वेगए जगाए जे अपिशब्द तेथी बीजा वे विकल्प जे शुं वेठाज के बेग पण ए चार प्रकारना पक्ष नत्पन्न थया, ते जाणे तारा चार कषाय मूर्तिमान उत्पन्न थया होय ने शुं ? एम तारा मतने नाश करवामां अतिशे माह्या वे.
टीका-तत्र यद्यायः पदस्तदागणधरन्याय नुसारेण नवतामपि राजोपनीतसिंहासनस्थानामेव व्याख्याप्रसंगः ॥ श्रथ द्वितीयस्तदा राजोपनीते तदन्योपनीतेपीत्ययमर्थ स्तत्रापि विकल्पे किं तदन्योपनीते राजव्यतिरिक्तजनोपनीतं थाहोस्वोपनीतं ॥
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(२६६ ) .
अथ श्री संघपट्टक
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अर्थ:-तेमां जो प्रथम पदनो अंगिकार करो त्यारे तो गणधरना न्यायने अनुसारे तमारे पण राजाएं आपेला सिंहासनने विषेज वेशीने व्याख्यान करवानो प्रसंग श्रावशे. ने वळी बीजो पदा, जे राजाए आपेढुं ने वीजाए पण आपेढुं एवा पदनो अंगिकार करंशो तो तेमां पण वे विकल्प के जे शुं राजा विना वीजा लोके श्रापे के अहो पोताने अर्थे करावीने एटलें यतिने अर्थे करावीने वीजा लोके आप्युं राजाए पोते आपेढुं.
टीका:-न तावदायः ॥ राजव्यतिरिक्तलोकानां सिंहासना जावेनतअपनीतत्वानुपपत्तेः ॥ नृपासनंविनाऽन्यस्यानिधान कोशादिषुसिंहासनव्यपदेशासिझैः ।। नृपासनंयत्तनासनसिंहासनंचतदितिवचनात् ।। अन्यत्रतु तद्रव्यपदेशस्य लाक्तत्वात्।। ननुन्नवत्वग्निर्माणवकश्त्यादौ सर्वथातदाकारधारणतदर्थक्रिया कारित्वादिविरहेण कतिचित्तद्गुणयोगादग्निशब्दस्य माणवकेन्नाक्तत्व मिहतुमात्रयापिताधरहानावेन सकल तशुणोपपत्तेः कर्थनाक्तत्वं ।
अर्थ-तेमां प्रथमनो विकल्प जे राजा बिना वीजा लोके आपेखें तो राजा बिना वीजा लोकोने सिंहासन होय नहीं माटे तेणे आपेढुं एवात केम सिह थाय ने राजासन बिना वीजा सिंहासन एवं नाम अनिधान कोशादिकने विष लिक कर्यु नथी.॥ केमजे ते कोशनुं वचन आ प्रकार जे राजानुं श्रासन ते जप्रासनं कहीए तथा सिंहासन कहीए ए हेतु माटे नेवीजी जगाए ते सिंहासन नाम कहेवाय ने ते तो लाक्षणिक , एटंसे मुख्य
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अथ श्री संघपट्टक
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पणे नथी गौणपणे जे हवे प्रतिवादीनी आशंका ग्रहण फरीने कहे
जे॥अग्निर्माणवकः ॥ एटले आ ओकरो अग्निरुप दे इत्यादि स्थलने विषे सर्वथा प्रकारे ते अमिना जेवा आकारनुं धारण ते डोकरो करतो नथी तथा ते अग्निना गुण तेना योग ए गेकरामां बेतेमाटे अग्नि शब्दनु बोकराने विष आरोपण कर्यु तेथी ए अग्नि शब्द लाक्षणिक कहेवायो पण श्रा जगाए तो सिंहासनना जेटला गुण डे ते सर्व गुण सहित एवं सिंहासन कहेवानुं . लगार पण गुण
ओबो कहेवो नथी माटे आ जगाए सिंहासन शब्दनुं लादणिक पणुं केम कहेवाय ? नज कहेवाय.
टीका:-अग्निधानकोशपागेप्युपलक्षणतयासमाधास्यते अन्यथा जगवत्प्रातिहार्यातःपातिन्यपितस्मिनू सिंहासनशब्दे गौणत्वं प्रसज्येत् ॥ एवंचराज्ञोपनीते तदन्योपनीतेवा तस्मिन्नुपविष्टा गणधराव्याचक्षते तदनुसारेण वयमपीति किमनुपपन्न मि तिचेत् ॥ एवंतर्हिप्रत्युपेक्षायनहतया तद ध्यासनस्यमुनीनामननु गुणत्वादितिपरिहारोस्तु ॥
अर्थः-वळी अन्निधान कोश पण उपलक्षणथी समाधान करे ले जे सकल सिंहासन गुण सहित ए सिंहासन ने जो एम न कहीए तो जगवंतना प्रातिहार्यमां रद्यु जे सिंहासन तेने विषे पण सिंहासन शब्दनुं गौणपणुं प्राप्त थाय वळी जो तमो एम कहेता हो जे राजाए आपेलुं अथवा ते विना वीजाए श्रापेलु ते सिंहासन नपर बेसीने गणधर व्याख्यान करे , तेने अनुसारे श्रमे पण व्याख्यान करीए बीए, एमां शुं अघटतुं . एम जो
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. अथ श्री संघपट्टका
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होय तो पमिलेहणादि करवा योग्य ए वस्तु नथी माटे ते नपर मुनिने बेस ते गुणकारी नथी. ए प्रकारे तारी आशंकानो परिहार थशे.
टीकाः नापि द्वितीयः स्वार्थनिर्मापितसिंहासनस्याधा कर्मत्वेन यतीनां तत्रोपवेशनायोगात् ॥ यत्यर्थनक्तश्रावका. दिनिर्मापितस्यापि तहदेव वर्जनीयत्वात् ।।
पात् ।।
अर्थ:-हवे बीजो पद पण घटतो नथी केम जे तेमां पोताने अर्थे नीपजाव्यु जे सिंहासन तेने विषे आधाकर्मिक दोष लागे ए हेतु माटे साधुने ते नपर बेसवं ते अयोग्य . ने यतिने अंर्थे कोइक जक्त श्रावकादि तेणे नीपजाव्युं होय तो पण पूर्वनी पेठेज त्याग करवा योग्य .
. टीका:-नापि.तृतीयः ॥ तथाहि ॥ राजोपनीतसिंहासन समावेपि कुतोपिहेतोस्तत्रोपवेशनासंचवे न गणधराणां व्या ख्यानानावप्रसंग तथाच तदा नुसारेण नवतामपि ॥
.. अर्थः-त्रीजो पक्ष जे बेगज ते पण घटतो नथी केम जे
राजाए सिंहासन आपे सते पण कोई कारण माटे ते नपर बेसवा"नो संनव न थाय त्यारे गणधरथी पण व्याख्याम न थाय एवो प्र'संग श्रावशे तेम तमारे पण ते गणधरने अनुसारे राजाए सिंहासन
आप्यु होय त्यारेज आपेला सिंहासन नपर बेसीनेज व्याख्यानाथाय नहीं तो न थाय. एवो-प्रसंग आवशे माटेत्रीजो पक्ष पण घटयो नहीं
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8. अथ श्री संघपट्टक
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· टीका:-॥ नापिचतुर्थः । तथाहि ॥ नवतुगणधराणांराजो-: पनीत सिंहासनोपवेशनानुपवेशाच्या व्याख्यान विधिः ॥ राजोपनीतसिंहासनोपेवेशनसन्तावनास्पदत्वात्तेपालवतां तु राजोपनीतसिंहासनप्राप्ति संन्नावनायां सत्यामेवान्यपाप्युपविष्टानां व्याख्यानकरणं संगबेत ॥
अर्थः-वळी चोथो पक्ष जे, बेठो पण, तेपण घटतो नथी, जे गणधरने तो राजाए आपेल सिंहासन उपर वेसीने अथवा न वेसीने व्याख्यान विधि करवान हो केम जे ते गणधरने तो राजाए श्रापेला सिंहासनने, ते उपर बेसवार्नु संनवे . पण तमारे तो राजाए आपेल सिंहासननी प्राप्ति कदाचित् संजवेज तोपण ते विना वीजे सीने व्याख्यान करवानो संचव .
टीका:-एवंच प्रदर्शितागमावष्टनेनसिंहासनोपवेशनं कथमपि नवतां नोपद्यते॥ तस्मादयमस्यागमस्यातिप्रायः ॥यदोगणनृतां व्याख्यानानेहसि कश्चिन्ननकादिः पृथ्वीपतिरुपवेशनाय स्वं सिंहासनमुपनयति तदातञ्चतोनुवृत्यातत्राधिकं ते प्रनावना दिलानं संजावयंतस्तदा तदासनमध्यास्यापि व्याचदते॥
अर्थः-ए प्रकारे तमे देखामयुं जे आगम वचन तेनुं श्रवसंवन करवे करीने सिंहासन नपर वेसवार्नु तमारे कोइ प्रकारे पण शास्त्रथी सिद्ध थतुं नथी ते हेतु माटे एआगमनो तो था प्रकारनो अभिप्राय वे जे ज्यारे गणधरने व्याख्यान करवो समय होय त्यारे कोइक नजिक राजा गणधर महाराजाने वेसवा सारु पोतार्नु सिं.
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(२७०)
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अथ श्री संघपट्टक
हासन त्यां लइ जाय जे. त्यारे तेना चित्तनी अनुवृत्ति राखवे करीने प्रत्नावनादि लाननी संजावना करता सता ते श्रासन उपर बेसीने पण व्याख्यान करे .
टीकाः-अन्यथातु तेषांजगवत्समीपवर्तिनामुत्सर्गेणतत्पाद पीठाध्यासनेन कदाचित्ततः पृविहरतांचौपग्रहिकपट्टायुपवेशनेन स्वनिषद्योपवेशनेन वा व्याख्याविधिः प्रतिपादितः ॥ एव मधुनापिगीतार्थसूरिनिरुत्सर्गेणौपग्रहिक पट्टस्व निषयाधुपवेश नेन व्याख्यानं विधेयं ॥
अर्थः-एम जो न होय तो जगवतनी समीप रहेनार एवा ते गणधरने नत्सर्गे मार्गे ते नगवंतना पादपीठ नपर बेसवातुं ए हेतु माटे ने कयारेक ते जगवंतथी जुदा विहार करे त्यारे तो चौद नपकरणथी बाहार जे उपकरण ते औपग्रहिक कहीए ते उपग्रहीक एवां पाटप्रमुख आसन ते उपर बेसबुं तेणे करीने अथवा पो ताना श्रासन नपर बेसबुं तेणे करीने व्याख्यान विधि प्रतिपादन कों जे. एमश्रा कालमां पण गोतार्थसूरीये नत्सर्ग मार्गे उपग्रहीक पट्ट अथवा पोतानुं श्रासन ते उपर बेसीने व्याख्यान करवं.
टीका अपवादतस्तु कदाचित्राजकुलादिगमने तत्प्रार्थनया सिंहासनाद्युपवेशनेनापि॥ नत्विदानीतनरुढयाय थाकथंचिसिंहासनादावुपवेष्टव्यमिति ॥ एतेन यदपि वैरस्वाम्युदाहरणेन यतीनां महार्हसिंहासनाध्यासनप्रतिपादनं तद- .
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8 अथ श्री संघपटक
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प्यपास्तं ॥ कनककमल सिंहासनादीनां गब्दिकाद्यपेक्षयाऽटपदोषत्वेन कथंचिदपवादेन सातिशयानां तथैवजव्योपकार संन्नावनया व्याख्यानादौ सिद्धांत श्रवणात् ॥ गब्दिकादीनां चकेवलसातशीलताव्यंजकत्वेन सिंहासनाद्यपेक्षया महादोषत्वेन चव्याख्या विधौ क्वचिदप्यननुज्ञानात् ॥
अर्थः अपवाद थकी ते क्यारेक राजकुलादिकमां गये बते ते राजादिकनी प्रार्थनाए करीने सिंहासनादिक उपर बेसीने पण व्याख्यान करे पण आ कालना साधुनी रुढीए जे ते प्रकारे सिंहासनादिक उपर चढी वेसवु एम नथी एणे करीने जे श्री वैर स्वामीना दृष्टांते करीने साधुने मोटा मूलना सिंहासनादिक नपर वेसवानुं प्रतिपादन कर्यु हतुं तेनुं खंमन थयुं ने सुवर्ण कमळ सिंहासनादिक तेनुं गादी आदिकनी अपेक्षाए अल्प दोषपणुं बे तेहेतु माटे कोश्क प्रकारे अपवाद मार्गे अतिशयसहित एवा मोटा पुरुषोने ते प्रकारे नव्य प्राणीनो उपकार थाय एवं संभवतुं होय तो व्याख्याना दिकने विषे सिंहासन नपर बेसवार्नु सिद्धांतने विषेसांनलीए बीए पण गादी आदिक तो केवल साता सुखनुं जणावनार ने सिंहासनादिकनी अपेक्षाए महा दोषपणुं ए हेतु माटे व्याख्यान श्रादिकने विषे को जगाए पण शास्त्रमा आज्ञा आपी नथी.
टीका: यदपिक्वचिदपवादेन तेषामपझानं तदपिग्लाना वस्थायां गुप्तवृत्या पुरुषविशेषमाश्रित्य न यथाकथंचित् ॥ तस्मात्तयाग एवयतीना न्याय्यः । एतेन गन्दिकायासनमुपादेय
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१२७२ )
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अय श्री संघपट्टक:
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मित्यादौप्रयोगेपि गब्दिकादेः प्रवचनप्रजावनां गत्वस्योक्तन्याये
न निरस्तत्वाद्धतुरसिझोवेदितव्यनास्वपक्षसाधनं तु यतीनां ग'. ब्दिकायासन मनुपादेयं असंयमहेतुत्वात् आधाकर्मिक
जोजनवदितिवृत्तार्थः ॥ ११॥
अर्थ:-वळी जे क्यारेक अपवाद मार्गे तेमने गादी आदिकनी आज्ञा आपी , ते पण ग्लानादिक अवस्थामा गुप्तवृत्तिये करीने पुरुष विशेषने आश्रीने कंडं बे पण जे ते प्रकारे गादी गृ. हण करवानुं नथी, ते गादीनो त्याग करवो एज यतिने न्याय , एणे करीने गादी आदि आसन ग्रहण कर ए प्रकारनो जे अनुमान प्रयोग कह्यो हतो ते पण गादी आदिकने प्रवचन प्रजावनानुं अंगपणुं नथी माटे कह्यो ए प्रकारनो न्याय तेणे करीने तेनुं खंगन थवापणुं ने माटे ए हेतु असिद्ध थयो एम जाणवू ने पोताना प. कनुंजे अपमान साधन ते तो साधुने गादीआदिक आसन न ग्रहण करवं. असंयमनु कारण ले ए हेतु माटे; आधाकर्मिक नोजननी पेठे जेम श्राधाकर्मिक नोजन ले तेम गादि आदि श्रासनतुं ग्रहण कर ते पण असंयमर्नु कारण . ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ थयो ॥ ११ ॥ गादी आदि आसनना खंमननो सातमो हार थयो.
टीका-सांप्रतं सनामोच्चारसावद्याचरितानिधान पुरस्सरत दोषप्रदर्शनेन सावद्याचरितादरहारं निरस्यन्नाह ।।
अर्थः-हवे नामनु कहे, तेणे सहित सावय श्राचरीतनुं
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अथ श्री संघपट्टक'
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कहे ते पूर्वक तेना दोष देखामवा तेणे करीने सावध आचरणनो आदर करवा रूप धारनुं खमन करतासता ग्रंथकार कहे .
॥मूल काव्यम्॥
गृहीनियतगवन्नागू जिनगृहे धिकारोयतेः प्रदेयमशनादि साधुषुयथा तथारंनिभिः ॥वतादि विधिवारणं सुविदितां तिकेगारिणांगतानुगतिकैरदुः कथम संस्तुतं प्रस्तुतम् ॥१२॥
टीका:-गतस्य पूर्वप्रस्थितस्य कस्यचित अनुपश्चाद्गतंगमनमन्यस्य यत्तद् गतानुगतं तदेषामस्तीतिगतानुगतिकाः॥ अस्त्यर्थेश्प्रत्ययस्तकितः॥ अयमर्थः॥ यथा गड्डरिकाः कांचन दिशंप्रतीत्यकांचिदेकामविकां पुरोगच्छंतीमवलोक्य तदनुमानेंण पाश्चात्याः सर्वाअपितामनुगच्छंति न मार्गस्य सुगमार्गमस्वादिकं मृगयंति.
अर्थः-जेम लोकमां गामरियो प्रवाह कहेवाय ने तेम चालनार पुरुषोए अयुक्त करवा मांज्यु ले एम आगल कहेशे, कोक प्रथम चाल्यो ने तेनी पळवामे विचार्या विना वीजानुं जे चालवू ते गतानुगतिक कहीए, ने गतानुगत जेमने ते गतानुगतिक कहीए व्याकरण शास्त्रमा अस्त्यर्थे ए प्रकारना तद्धित सूत्रे करीने गतानुगतिक एवो प्रयोग सिद्ध भयो तेमां आ. परमार्थ जे जेम
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(२८)
18 अथ श्री संघपटक गामरनो समूह कोश्क दिशनी प्रतिति करीने कोइक एक श्रागख चालनार गामरने जोइने तेनी पळवामे मार्गे मार्गेपाबली सर्व गागर पण जाय ले पण श्रा मार्ग सुगम डे के उर्गम के एम कोइपण विचारती नथी.
. टीका:-तथा जिनप्रवचने सुखलोलतया कंचिदेकं प्रवाह मार्गे गच्छतं वीक्ष्य तच्चीलतयान्येपितनयाय्यान्याय्यतामविचारयंतोये तमनुगच्छंति ते सांसारपथानिनंदित्वात्तथोच्यतातिर्गतानुगतिकैर्लोकप्रवाहपतितैर्यत्यान्नासैः अदएतत् सकलजन प्रत्यक्षरहिनियतगबन्नजनादिकं सावद्याचरितं.
अर्थ तेमज जिन प्रवचनने विषे सुखनी लालचपणे कोइक एकने लोक प्रवाह मार्गे चालतो देखीने तेना जेवा न्याय अ. न्यायने न विचारता वीजा केटलाक पुरुष जे तेनी पनवामे चाले ने ते संसार मार्गमांज खुशी थएला जे ए हेतु माटे ते गामरीया प्रवाहनी पेठे चालनार कहीए बीए ते जे गतानुगतिक लोक प्र. वाहमा पमेला यतीनो श्राजास मात्रवमे जपाता ते लिंगधारी पु. रुषोए आ प्रत्यक्ष जणातु जे गृहस्थने नियमोए पोताना गर्नु सेवन कर इत्यादि सावद्य आचरण प्रगट कर्यु जे.
टीका:-अस्य सावद्याचरितस्यानेकविधस्यापि समुदायरूप तयैकत्वविवक्षणात् अदइत्येकवचनं कथमितिक्षेप गर्जप्रकार वचनोनिपात कन कुत्सितप्रकोरण असंस्तुतं यतीनामकृत्यतया
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8. अथ श्री संघपट्टका
(२८३)
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अपरिचितमप्यनुचितमितियावत प्रस्तुतं प्रारब्ध माहतमित्यर्थः। तदेव नामग्राहमाह.
टीका:-श्रनेक प्रकार- पण सावध आचरण तेनो समुदाय रुपे एकपणुं कहेवानी श्ला जे ए हेतु माटे अदस् शब्दनुं एकवचन कर्जा ले कथं प्रकारनो श्रापगनित एटले तिरस्कार सूचना करनार निपात ते आ जगाए कह्यो के लिंगधारीए शा प्रकार- आ. चरण प्रगट कर्यु ले ? तो निंदित प्रकारे एटले यतिने न करवापणे जे ले ते अनुचितनो आदर कर्यो के एटलो अर्थ डे तेनु नाम ग्रहण करीने कहे जे एटले श्रावस्तु न करवानी ने तेनो आदर करे ते वस्तु नाम जे.
टीकाः-गृहीश्रावको नियतं गन्नांतरपरिहारेणैकतरंगच्छमाचार्यप्रतिबद्धयतिसमुदायं नजते परिगृह्णातिस तथा।गृहिनियः तगच्छन्नाक्त्वेन हि यतीनामिदानी सर्वनक्त पानादि निराबा निर्वहतीतिधिया नवतीतिक्रियापदंयथासंभवमत्राभ्याहार्य ॥ गृहिनियतगच्छन्नाक्त्वंच यतीनां तद्गतसकलारंजानुमत्यादिना पापसत्वप्रसंगेनासंस्तुतं ।
अर्थः-गृहस्थने पोत पोताना गझनो अंगीकार करवो बीजा गच्छमां न जq इत्यादि अघटीत स्थापन करेठे एटले श्रावक बीजा गछनो त्याग करीने हरेक को एक गच्छ एटले आचार्य प्रतिवक जे यतिनो समुदाय ते रुपी गच तेने नजे तेनुं सेवन करे ए प्रकारनो उपदेश करे के कारण के ज्यारे गृहस्थ नियमाये करी एक
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(२८४)
8. अथ श्री संघपट्टका
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गच्छने विषे रहे तेणे करीने निश्चे आ कालना यतिने सर्व नक्त पानादिक निराबाध प्राप्त थाय, सुखे करी निर्वाह थाय, ए बुजिये करीने श्रावकने गच्चनु अनिधान धरावे . जवति क्रियापदनोश्रध्याहार करी. ज्यां जेम घटे तेम जोमवु ने ज्यारे गृहस्थ एक गच्छने नजे त्यारे यतिने ते श्रावकोए करेला जे सकळ आरंज तेनी अनु. मोदनादिके करीने पाप लागवानो प्रसंग थाय बे ते हेतु माटे ए लिंगधारी न करवानुं करे ..
टीका-यदप्युत्पद्यतेहीत्यादिनाऽद्यतनकालापेक्षया तत्समर्थनं तदपिन युंक्त तस्यापवादिक तयागमोक्ताधाकादिविषयत्वानसर्वथानिषिद्धगृहिनियतगबन्नजनविषयत्वं ॥ किंचगृहिनियतगच्छन्नजनमंतरेणाधुनातनयतीनां मात्सर्यादग्रहस्थान्योन्याकृष्टयाकलह स्यादितिनवतांतदन्युपगमःसचासंगतम्॥
' अर्थ-वळी, लिंगधारी प्रत्ये कहे जे जे तमोए नुत्पद्यते । त्यादि वचनने आरंजीने आ कालनी अपेक्षाए साधुनो निर्वाह थाय इत्यादि कारण गृहस्थने पोते पोतानो गच्छ करी खिवानुं प्रतिपादन कर्यु ते पण युक्त नथी केम जे तेतिरुप्रतिपादक वचननो अपवादपणे करीने शास्त्रमा कहेलो जे आधाकर्मादि दोष तेनुं विषयपाएँ . ए हेतु माटे सर्वथा निषेध करे, जे गृहस्थने नियमाथी एक गजमा रहेवापणुं तेनुं ए स्थान ने वळी तमे कयुं जे गृहस्थने -नियमायें एक गडमां रह्या विना हालकालना यतीने मत्सरपणा थकी मांहोमांहे एक बीजाने खेंचाताण करवाथी क्लेशनी उत्पत्ति थायाए प्रकारतुं जे तारूं कहे, तथा जाणवू ते अघटतुं .
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-g. अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः-कालदोषान्नवनवप्रापुर्नवस्सुविहितदर्शनने गुणवत्वादिबुझ्या श्रावकाणां तदंतिकगमनादिना नवतामिदानी प्रत्युत विवक्षितकलहस्याधिक्योपलं नात् इत्यहोदंदशूकनिया पलायमानस्य केसरीमुखे निपातः ॥
अर्थः कम जे नवा नवा प्रगट थता जे सुविहित तेमने देखीने गुणीपणानी बुद्धिये करीने श्रावक तेमनी पासे गमनादिक करशे त्यारे तो तमारे ा काळमां पण नलटो अधिक क्लेश थशे जे अमारा गच्छना श्रावक थश्ने ए सुविहित पासे केम गया इत्यादि, माटे अहो आतो मोटुं आश्चर्य जेवू जे तमे अल्प क्लेश मटामवानुं प्रगट करवा जतांज मोटो क्लेश प्राप्त तमारे थयो माटे ए न्याय तो ए प्रकारनो थयो जे जेम कोश्क सर्पना नयथी नागे । ते सिंहना मुखमां जश् पमयो तेम तमारे थy.
टीकाः-तथा जिनगृहे देवसदनेऽधिकार सकलतत्कृत्यचिंतननियोगोयतेच्ने श्राकानामिदानी तचिंता निरवधानताव्याजेन ॥ अस्यचासंस्पतत्वं चैत्यवीकारद्वारनिराकरणे प्रागेवदर्शितं ॥
अर्थः-वळी मुनिने जिनमंदिरने विषे अधिकार एटले समस्त देवमंदिर संबंधी कामकाजनी चिंतानुं जोमवू शाथी कैआ कालमां श्रावकने देवमंदिर संबंधी चिंता करवामां सावधान नथी इत्यादि मिप लश्ने अघटन करवा मांझ्यु ले तेअयुक्त ते चैत्य अंगिकार करवाना झारनुं खम्न कयुं तेने विपे प्रथम देखाम्मु के.
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8. अथ श्री संघपटक
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टीका:-तथा प्रदेयं वितरणीयं अशनादि अशनं जोजनमोदनादि आदिशब्दात् पानकादिग्रहः साधुषु यतिषु अत्रच संप्रदानेपि विषयविवक्षया सप्तमी ॥ यथातथा येनतेन प्रकारेण अशुभमपीत्यर्थः। आरंजिनिहस्थै रघुना केवलेन शुद्धेनाशनादिना निर्वाहानावादिति ॥ अशुद्धाशनादिदानप्रवर्तनस्यचासंस्तुतत्वमौहे शिकलोजननिरसनावसरे प्रतिपादित।।
अर्थ:-वळी साधुने श्रापवा योग्य जे श्रोदनादि भोजन तथा श्रादि शब्दथी पानक, पण गृहण कश्रा जगाए चतुर्थांना अर्थमां सप्तमी विनक्ति थ बे,अशनपान जे ते प्रकारे एटले श्रशुरू होय तोपण श्रावके साधुने श्राप, ए प्रकारे बोले ले. केम जे श्रा काळमां शुरू जोजनादिके करीने साधुनो निर्वह न थायमाटे ए प्रकार मिष वेश्ने अनु भोजनादि दवातुं प्रवर्तन अघटित ते श्रौदेशिक जोजनहुँ खंमन कर्यु ते अवसरे प्रतिपादन कर्यु ने.
टीकाःतथा व्रतं सर्वविरतिरादिशब्दादेशविरतिसम्यक्वारोपणतदंतिकगमनादिग्रहः॥ ततश्च व्रतादिविधेः सर्वविरत्याधन्युपगमस्य वारणं निषेधः सुविहितांतिके सन्मुनिसमीपेड गारिणां श्राद्धानामेतद्देशनापरिणतांतःकरणानां ॥ नास्मत्पाभ्रे दीक्षादिकमपि ग्रहीष्यंतीतिबुझ्या ॥ एतस्यचासंस्तुतत्वं तेषां सुविहिताच्यासे देशनाकर्णनव्रतादिनिषेधेनय त्याच्यासोत्सूत्र देशनासिलतालून विवेकमस्तकतया तहेतुकातिवारितप्रसर उर्गतिवजूपातापादनात् ॥
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अथ श्री संघपटक
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अर्थः-वळी व्रत एटले सर्व विरतिरुप, आदि शब्दथी देश विरतिरुप, तथा समकितनुं आरोपण इत्यादि व्रतना विधिनो निषेध करे ने एटले सुविहित पासे जइने श्रावकने कोश् व्रतनो अंगिकार न करवो एम निषेध करे शाथी के ए लिंगधारी एम जाणे जे
आ श्रावक सुविहित पासे जशे ने व्रतादिक लेशे ने श्रापणी पासे दिशादी नहि से त्यारे श्रापणो आ प्रकारनो निर्वाह नहि चाले ए प्रकारनी बुद्धि राखे डे माटे ए अघटतुं करवा मांमयुं बे ने ते श्रावक सुविहित पासे जशे, देशना सांजळशे व्रतादि ग्रहण करशे ए हेतु माटे उत्सूत्र प्ररुपणारुपी तरवारवमे ते श्रावकनां विवेकरुपी मायां कापी नांखे ने ए हेतु माटे ते लिंगधारी अतिचारना प्रवेशथी मुर्गतिरुप वजूपात पोताना नपर नांखे ले.
टीका-अन्यतिपातनं चयतीनां पापादपिपापीयः
॥ तदुक्तं॥
किमतोपि महापाप, मज्ञानातूतुकः स्वयं ॥ पातयत्यंधकूपे यन्मूढः सहचरानपि ॥ श्रागमेप्युक्तं किं एत्तो कठ्यरं, सम्म श्रणहिगयसमयसनावो ॥अन्नं कुदेशणाए कयरागंमि पोमेशा कोश्तो पावायरो,जोन निउत्तो पमाणवाणम्मि॥ जाणंतो जिणवयणं पमाणमपमाणयंतोन ॥ एवंच चिंत्यमानमाधुनिकमुनीनां सावद्याचरितमागमविरुडतया न घटामियनीतिवृत्तार्थः॥१॥
अर्थः-वळी वीजाने पुर्गतिमा नांखद् ए तो यतिनां पाप
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(२६८)
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8 अथ श्री संघपट्टका
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करतां पण अति मोटुं पाप जे. ते शास्त्रमा कडं ले जे जे पुरुष अज्ञानथी पोते पापमा पस्यो डे तेने बीजो पापमां नांखे एथी बीजं शुं मोटुं पाप ले ? केम जे मुढ पुरुष पोतानी संगाथे चालनार ने पण आंधळा कुवामां नांखे बेः आगममां पण कधु ने जे, एप्र. कारनो विचार करतां आ कालना मुनीने सावद्यतुं आचरण करवू ते श्रागम विरुक ए हेतु. माटे अतिशे घटतुं नथी.
सावद्य क्रिया निषेधनो अष्टमहार संपूर्ण थयो.
टीका: इदानींश्रुतपथावज्ञाधारनिरासमुपक्रमते ॥ तत्रच. नानाविधाः श्रुतावा जिनाझाबाह्यलिगिनिरुपकल्पिता स्तत्र प्रथम मयोग्यस्यापिस्वगुरुशिष्यस्य गलग्रहान्महाजनापूजोपलंनेन श्रुतपथावज्ञां पश्यं स्तामेवमोहमहिमप्रदर्शनधारेण निराकुर्वन्नाह।
अर्थः-हवे सिद्धांत मार्गनी अवज्ञा एटले अपमान ते धारनुं खेमन आरंने जे तेमां नाना प्रकारांनी सिद्धांत मार्गनी श्रवज्ञा जिन जगवंतनी आज्ञाथी रहित एवा लिंगधारीलोकोए कटपी ने तेमा प्रथम पोते पण अयोग्य अने पोताना सरखो अयोग्य डे गुरु जेनो एवौ जे ते शिष्य ते गच्छना आमहथी महाजन संबंधि पोताने पूजानी प्राप्ति थाय ए हेतु माटे सिद्धांत मार्गनी अवज्ञा करें . तेने जोतां जे ग्रंथकारने, एतो मोटा मोहनो महिमान . ए प्रकारनुं देखामनार द्वारे करीने ते सिद्धांतनी अवज्ञानुं खेमन क• रता बता कहे बे.
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4 अथ श्री संघपट्टक -
॥ मूल काव्यम् ॥
निर्वाहार्थिनमुकितं गुणलवैरज्ञातशीलान्वयं, ताहग्वंशजतद्गुणेन गुरुणा स्वार्थाय मुंगीकृतम् ॥ यद्विख्यातगुणन्वयाच्यपि जना लग्नोग्रगच्छग्रदा, देवेभ्योऽ धिक्रमर्च्चयंति मढ़तो मोद्स्य तनितम् ॥ १३ ॥
( २८१ )
टीका :-- निर्वाहार्थिनं केवलं उदरभरणप्रयोजनंनप संसार निस्तार कांक्षिणं, ब्रजितं हीनं गुणलवैः दमा, दिलेशैरपि ॥ प्रब्रज्यायोग्यो हि पुरुषः कमादि गुणवान् भवति ॥ यक्तं !! प्रवजाए जोग्गा, श्रारियदेसंमि जे समुप्पन्ना। जाइकुले हि वि सिहा तह खी एप्पायकम्ममला ॥ एवंपयइए च्चियश्रवगयसंसार निग्गुए सहावा ॥ तत्तो रित्तापय एकसायप्पहासाय.
अर्थः- जे श्रा प्रकारनो शिश्य केवल नदर नखानुंज जेने प्रयोजन बे एवो पण संसरनो निस्तार करवानी जेने इवा नथी एवोन वळी कमादि गुणनो लेश करीने पण रहित बे एवोने प्रवज्या योग्य जे पुरुष ते तो कमादि गुणवाळो जोइए, जे माटे शास्त्रमां क जे, जे श्रार्य देशमां उत्पन्न थयो होय ने जाति तथा कुल ए वे सारां होय तथा जेनो कर्ममल बहुधानाश पामेलो होय ने जेणे संसारनो गुण रहित स्वभाव जाएयो बे ने जेना कषाय ओग थएला एवा गुणवालो पुरुष दीक्षाने योग्य बे.
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'(२१)
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अथ श्री संघपट्टका
टीका-अयंतु दमायंशेनापि त्यक्तः॥ तथा शीलं स्वन्नावः सवृत्तंच ॥ अन्वयश्चकुलं शीलंचान्वयश्चेति इंडः॥ ततश्चाझातावविदितौशीलान्वयौ यस्य स तथा तं ॥ परी दितशीलकुलस्यहि प्रवज्यादानं शास्त्रेऽनिहितं ॥ अविदितस्वनावोहिकषाय उष्टादिः क्वचिदपराधे गुदिनाशिक्षितस्तमपि जिघांसति ॥
अर्थः ने आतो कमादि गुणना अंशे करीने पण रहित ठे, वळी शीळ कहेतां स्वन्नाव तथा शील केहेता स्वन्नाव तथा शील केहेतां सारु वृत्तांत तथा अन्वय कहेतां कुल ॥ शीलने अन्वय ए बे पदनो इंच समास करवो त्यारपनी नथी जाएयुं शीलकुल ते जेनुं एवो शिष्य , शास्त्रने विषे कडं जे शील कुलनी परीक्षा करीने गुर्वादिक अपराध थये सते शिक्षा देता रेते गुरुने पण मा. रवाने इच्छे माटे.
टीका-एवमज्ञातवृत्तोपि तस्करादिःप्रवृजितस्तच्चीलत्वास्तैन्यादिकं कदाचिदाचरन् गबमपितुलायामारोपयति॥ तथाऽ विदितकुलोदीक्षितः कथमपि कर्मोदयादीक्षां जीहासुनिरंकुशतया जहात्येव ॥कुलीनस्तुकदाचिदकार्य चिकीर्षुरपि कौलिन्यसततगुरुशिक्षानिविमनिगमनियमो न करोत्येव.
अर्थः-ए प्रकारे नथी जाएयुं वृत्तांत ते जेनुं एवा जे पुरुष ते पण कदापि चोर होय ने तसे दीक्षा लोधी होय त्यारे तेने चोरी करवानो स्वजाव होय ए हेतु माटे कदापि कोइक चोरी आदि के
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-g: अथ श्री संघपट्टका
(२८)
करीने वधागच्छने पण शूळीने विषे आरोपण करावे वळी जेनुं कुल जाण्यु नथी. ते पण कोइक कर्मना उदय थकी दीक्षाने त्याग करवा इच्छे तो निरंकुशपणे दीदानो त्याग करीज दे, ने कुलवान तो क्यारेक न करवानें काम करवाने इच्छे तो पण एने विपे कुलीनपणुं रह्यं ते ए हेतु माटे निरंतर गुरुनी शिक्षारुपी आकरी वेनीवमे बंधायो २ माटे न करवानुं काम करी शकेज नही.
टीकाः-यमुक्तं ॥ अपि निर्गतुमनसः, प्रवज्यामंदिरानरान्।। रुणकि पुरत:स्थाष्णुंरगलेव कुलीनता जविहुनिग्गयत्नावो तहविदु ररि कझाए सयन्नहि ॥ वंसकुमंगीच्छिनोवि वेणुन पावए न महि.
। अर्थ:-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे दिवारुपी मं. दिरथी नीकलवाने श्ता पुरुषोने पण वंधननी पेठे कलीनपणुं जे ते श्रागळ आगळ आवीने रोके .
टीकाः-मुंगीकृतंदीक्षितं ॥ गुरुणाआचार्यण ॥ तादृशंविनेयवंशसमे वंशे जात: सतथाअज्ञातकुलोझवश्त्यर्थः ॥ तथा ते तत्सजातीयविनेयतुल्यागुणाः निःशीलतादयो धर्मा यस्यस तथा ततः कर्मधारयसमासकरणेन गुरुशिष्ययोवंश गुणात्यंतसाजात्यं व्यक्ति ॥ तादृशोहिताश मेव मुंमयते ॥ समानशील व्यसनेषु सख्यमितिवचनात.
अर्थः-ते प्रकारनी दिक्षा, ते प्रकारना गुरु श्रापे डे. शिष्य
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(२८४)
अथ श्री संघपटक
नी समान वंशने विषे थएला गुरु अजाएया कुलमां थयेलो एटलो अर्थ . वळी ए गुरु शिष्यने तुल्य गुणवालो ने एटले शिष्यनी पे. ठेज शीलरहित जेना धर्म बे एवो, त्यारपनी तादक्वंशज ने तण ए वे पदनो कर्म धारय समास करवो तेणे करीने ए गुरुना शिष्यनी वंशने गुण ए वेनुं अतिशे सजातिपणुं एटले सरखापणुं प्रगट करी देखामे जे, तेवो गुरुज तेवा शिष्यने मुझे केम जे जेना गुण तथा श्राचरण सरखां होय तेनेज मित्रपणुं थाय ने एम नीति शास्त्रनुं वचन ए हेतु माटे.
टीका: स्वार्थाय स्वप्रयोजनाय स्वशरीरशुश्रूषादिहेतवे नतु संसारपुःखेन्यो मोचयितुं तमेवं विधं यदर्चयंति मलयजघुसूण घनसारादिना वस्त्रादिनाच सततं पूजयंति अधिकमिति क्रियाविशेषणं अतिरिक्तं देवेन्योपिजना श्रावकलोकाः॥ननुतेपित पूजयंतस्तादृग्गुणा एवन्नविष्यतीत्यताह ॥ विख्यातगुणान्धया अपि जगतीप्रतीतगांनीयौदार्य कमादिगुणमहाकुसाअपि ॥ श्रासतांतदितर इत्यपि शब्दार्थः ॥
- अर्थ:-पोताना शरीरनी सेवा कराववी इत्यादि जे पोतानो स्वार्थ तेने अर्थे ते शिष्यने मुझे डे पण संसारना दुःख थकी भु. काववाने, नथी मुमता ए प्रकारना मुमेला केवल लिंगधारी गुरुने श्रावक लोको मलयागहें, केशर, चंदन, कुंकम आदिक वस्तु वमे तथा वस्त्रादिक, करीने निरंतर तेमने पूजे जे; देव थकी पण अधिक पूजे , त्यारे आशंका करी कहे जे ते श्रावक पण तेवा गुरुने प्रजे माटे ते पण तेवा हो तोते जगाए विशेषण प्रापे ले जे
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अथ श्री संघपट्टका
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“विख्यात गुणवंशअपि” एटले जगतमां गंजीरपणुं तथा उदारपर्दा तथा मोटु कुल, दमादिगुण ए सर्वे जेमनो प्रसिद्ध बे, एवा सारा श्रावक पण गच्छरुपि गल बंधने करीने तेमने पूजे ले तो बीजा सामान्य श्रावक पूजे ने तेमां शुं कहे ए प्रकारे अपिशब्दनो अर्थ बे.
टीका:-कस्मादेव मित्यताह ॥ लग्नोग्रगच्छनहा इतिहेतु गर्नविशेषणं ॥ लग्नश्चेतसि निविष्ट नोदृढोगप्रतिबंधोयेषां ते तथा॥ जवतु निर्गुणो वा गुणीवायं किं नोऽनयाचिंतया ॥ गुरु जिरयमस्माकं प्रदर्शितः तथा अस्मश्यै रप्पयंगुरूत्वेनानैनहास्याम इतिविहितस्वस्वगच्छगोचरमनोनिनिवेगाश्त्यर्थः ॥
अर्थ-शा हेतु माटे तेमने पूजे जे त्यां विशेषण आपे जे श्रावक केवा ले तो लग्नोग्रग्रह " ए विशेषण हेतु गनित जे जेमना चित्तमां आकरो ( दृढ ) गच्छनो प्रतिबंध ले एटले श्रावक एम जाणे ले जे श्रापणो गुरू गुणी हो अथवा गुणरहित हों, प्रा. पणे एनो विचार न करवो मोटा पुरुष गुरुए आ आपणने देखाड्यो ने, वळी आपणा वंशमां थएला सर्व पुरुषोए श्रा पुरुष गुरुपणे देखाम्यो डे आपण कांश ते करतां परिक्षा करवामां माह्या नथी ए हेतु माटे तेमनी परिपाटीनो अनुसार करीने आ गुरुनो त्याग न करवो जेवो तेवो पण ए आपणो गुरु है. ए प्रकारे पोताना गड सं. बंधी मोटा श्राग्रह वझे गळाया ठे ए हेतु माटे ते लिंगधारीने पूजेडे
टीका:-अथ विपुराणामपि तेषां ताक् चेतोनिर्वधे कोहेतु रित्यताह ॥ महतोऽति प्रवलस्य मोहस्य मिथ्यानिनिवेशस्या
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(२८६)
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अथ श्री संघपट्टकर
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तदिति तादृशस्यापि तथाविधान्यर्चनादिकं जूचितं लीलायित ॥ तथाहि ॥ नगुरुपदर्शितत्वं निर्गुणे पितरिष्येऽन्यचनादि निबंधनं ॥ यदिहिगुरुस्वाजन्यादिना निमित्तेन निर्गुणमपिशिष्यं मोहादगुरुतया दर्शयति नेतावता सौ बहुमान मर्हति विवे किना। गुणानामेव बहुमानहेतुत्वात् ॥ ते चेत्तत्र नसति तदा किं निः फलेन गुरुपदर्शितेन ॥
अर्थ:-हवे जाणता एवाय पण श्रावकने ते प्रकारनो चितमा गबनो आग्रह रहे तेनुं शुं कारण ? तो ए जगाए उत्तर कहे
जे ते प्रकारना जाण पुरुषोने ते प्रकारना लिंगधारीओनु पूजन कर ए सर्व मोहनी लीला . एटले ए सर्व मिथ्यानि निवेशन प्रगटपणुं . तेज देखामे जे गुण रहित शिष्यने विषे पूजादिक जे करवातुं ते गुरुतुं देखा न जाणवू. केम जे गुरु थइने आपोतानो शिष्य में इत्यादिक कारणे पण निर्गुण शिष्यने गुरुपणे देखा तोपण ए शिष्य बहुमानपणाने न पामे केम जे विवेकीआ योनी मध्ये गुणज बहुमानपणुंडे ए हेतुं माटे जो ते गुण ते शिष्यमां नथी तो निष्फळ एवं गुरुनु देखाम, तेणे करी शुं? कांइ नहि.
टीकाः यमुक्तं ॥ गौरवबीजं शिष्ये,गुणाःसतांनगुरुदर्शित. त्वं यतागुरुदिष्टमप्पसच्चा होकायतमतमगौरव्यं ॥ तथा स्ववंशजान्युपगमस्यापि निर्गुणगुरुबहुमानहेतुत्वे लक्ष्मीप्राप्तावपि नृणां स्वकुलक्रमागतदारियादरे परित्यागप्रसंगान चैवं लोके नपलच्यते ॥
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19. अथ श्री संघपट्टकः
(२८७)
॥ यक्तं ॥
सुगुरुप्राप्तौ कुगुरुं क्रमानुषक्तमपि जहति धीमंतः ॥ चिर परिचितमपिनोज ति निधिलाने कोनु दौर्गत्यं ॥ श्रतएव सिद्धांते गुरुगुणहीनस्य गुरोरगुरुत्वेन यतीनाम प्यंगारमर्दक शिष्यापामिव समुरुगांतर संक्रमणेन तत्परित्यागः प्रत्ययादि ॥
अर्थःजे माटे शास्त्रमां कयुं वे जे शिष्यने विषे गुण बे ते ज सत्पुरुषने गौरवपणानुं कारण बे. पण गुरुनुं देखामधुं ते कांइ गौखपणानुं कारण नथी. जेम गुरुए देखामयो होय तोपण नास्तिकनो मत असत् बे माटे गौरव करवा योग्य नथी. तेमने निर्गुण शिष्य पण मानवा योग्य नथी. वळी आपणा वंशमां थयेला सर्वे वृद्धोए ए निर्गुण शिष्यने गुरुपले मान्या माटे प्रापणे पण मानवा, बहुमान करवुं . त्याग न करवो. एम जो मानता होतो लक्ष्मीनी प्राप्ती थाय तोपण पुरुषने पोतानी कुळ परंपराधी चाल्युं श्रावतुं जे दरिद्रप इत्यादिकनो पण त्याग न करवो जोइए. ते तो त्याग करो वो माटे श्री निर्गुण गुरु किष्यनो केम त्याग करता नथी. जगतमां पण लक्ष्मी मळे तो दलदर राखवानुं जणातुं नथी. ते लौकीक शास्त्रनुं वचन जे सुगुरुनी प्राप्ति थये बते कोण बुद्धिमान पुरुष परंपराथी चाल्यो यावतो जे कुगुरु तेनो त्याग न करे. दृष्टांत जेम निधनी प्राप्ति यये बते घणा काळथी परिचय करेलुं एवं पण दारिद्रप तेनो को त्याग न करे ? एज कारण माटे सिद्धांतमां पण गुरु गुण रहित जे गुरु तेनो अनुरूपणे त्याग करवानुं प्रतिपादन कर्यु ठे. जेम अंगार मद्दकना शिष्य साधुए अंगार मर्दक गुरुनो त्याग करीने सारा गुरु जे गमां वे ते गमां प्रवेश कर्यो तेम
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अथ श्री संघपट्टक
टीका:-यदाह ॥ गुरुगुण रहिओ य गुरु न गुरु विहित्वा गमोयतस्सिहो ॥ अन्नत्थसंकमणं नन एगागितणेणंपि॥ लोकिकाश्रप्याहुः ॥ गुरोरप्यवलिप्तस्य, कार्याकार्य मजानतः॥ उत्पथं प्रतिपन्नस्य, परित्यागो विधीयते ॥ ततश्चवं स्थिते यन्निर्गुणेपि गुरुवान्युपगमेनाच्यर्चना निसंधिःस महामोहमहिमतिवृत्तार्थः॥
अर्थः-जे कारण माटे ते वात शास्त्रमा कही जे. लोकिक शास्त्रमा पण का डे जे जे गुरु अहंकारी होय ने आ करवा योग्यने आ न करवा योग्य एवं न जाणता होय ने नन्मार्गे चालता होय ते गुरुनो सर्व प्रकारे त्याग करवो. ते हेतु एम सिद्धांत थयो जे गुणने विषे पण जे गुरपणुं मानीने पूजनादिक करवू ते मोटा मो. हनो महिमा डे ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ थयो. ॥१३॥
टीका:-एतर्हि गच्छ मुखामुजिततया लोकानां सद्धर्माप्रति पत्त्यादिना श्रुतावज्ञामी कमाणः सविषादमाह ॥
अर्थः-हवे गुरुपी बंधने करीने बांघेला लोकोने सारा ध. मनी प्राप्ति नथी यती ए हेतु मारे सिद्धांतनुं अपमान जोता सता ग्रंथकार खेद सहित कहे दे.
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अथ श्री संचपट्टक
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(२४९)
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॥ मूल काव्यम् ॥
दुःप्रापा गुरुकर्मसंचयवतां सधर्मबुद्धिर्नृणां,जातायामपि दुर्वनः शुनगुरुः प्राप्तस पुण्येन चेत् ॥ कर्तुं न स्वहितं तथाप्यलममी गच्छस्थितिव्याहताः, कं ब्रूमः कमिहाश्रयेमदि कमाराध्येम किं कुर्महे ॥ १४ ॥
टीका:-:प्रापा दुर्लना सद्धर्मबुद्धिनगवत् प्रणीतनिरुपचरितधर्मजिवृक्षा ॥ अथ पारमेश्वरस्य सर्वस्यापि शोजनत्वा विशेषात् किं सदिति विशेषणेने तिचेत् न तस्यापीदानी कालदोपादनुश्रोतःप्रतिश्रोतोरुपत्वेनकै विध्यदर्शनात् ॥
अर्थः-जे सारा धर्मने विषे बुद्धि थवी ते मुलन ,एटले तीर्थकरे, उपचार रहित कहेलोजे धर्म तेनी ग्रहण करवानी जे इच्छा ते पुर्लन . आशंका करे जे जे परमेश्वरे कहेलो जे ते सर्व सारोज डे तेमां को नो वधारे नथी, साटे सत् ए प्रकारचें धर्मनुं विशेषण कहेवानुं शुं प्रयोजन ले ! उत्तरः-ए प्रकारे तमारे आशंका न करवी केम जे आ कालना दोषथी धर्मनुं वे प्रकारे देख थाय ठे एक तो अनुश्रोतपणे न वीj प्रतिश्रोतपणे ॥
टीका:-तथाहि ॥ विषयकुमार्गअव्य क्रियानुकूट्ये सुखशीलजनैः सिझांतनिरपेक्षवच्छंदमतिप्ररुपितो बहुजनप्रवृत्ति गोचरपंथा अनुश्रोत- ।। अयमर्थः ॥ अनुपथेनहि गच्छतः
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(२९० )
rag अथ श्री संघपट्टक
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पुरुषस्य नदीश्रोतः सुगम सागरगामिच जवति ॥ एवमयमपि प्रकृतो मार्गः सुकरत्वात् संसारप्रापकत्वाच्च तथोच्यते श्रुतोक्त सकलयुक्त्युपपन्नः स्वयंचगवतूप्रज्ञापितः प्रेदावत्प्रवृत्ति विषयस्तु प्रतिश्रोतः॥ एतमुक्तं नवति प्रतिपथेन प्रतिष्टमानस्य हिनदीश्रोतो पुर्गमंपारप्रापकंच जायते एवमयमपिपंथा कुकरत्वात्संसारतारकत्वाञ्चैवमनिधीयते ॥
अर्थः तेज अनुश्रोत, प्रतिश्रोतपणुं देखामे बे. जे विषय तथा कुमार्ग तथा अव्यक्रिया तेमनुं अनुकूळपणुं सते जे सुखशीबीया लोकोए सिद्धांतनी अपेक्षाए रहित पोतानी श्वामां आवे तेम प्ररुपणा करेलो जेमां घणा लोकनी प्रवृत्ति थाय डे एवो जे मार्ग तेने अनुश्रोत मार्ग कहीए. आ परमार्थ जे. जे प्रवाहने श्र. नुसरीने चालनार पुरुषने नदीनो प्रवाह सुगम ने समुा प्रत्ये जवान पण थाय जे. एम आ लोक प्रवाह मार्ग पण संसार समुज्ने पमामनार डे सुगम ने माटे तेम कहीए बीए. ने शास्त्रमा कहेली सकळ जुक्ति तेणे सहित पोते लगवंते कहेलो ने जे मार्गे बुद्धिमंत चाले बे ते प्रतिश्रोत मार्ग कहीए. ए कडं जे जे सामा मार्गे चालताने एटले सामे पुर चालनार नदीनो मार्ग दुर्गम . दुखे जवाय एवो केम जे ते मार्ग पार पमामे एवो जे. एम आ मार्ग पण सं. सारने तारनार ने माटे उखकर तेथी ए मार्गने प्रतिश्रोत कहीए बीए.
टीका:-यमुक्तं ॥ अणुसोयपछिए बहुजणं मिपमिसोयलर्धलकखेणं ॥ पकिसोयमेव अप्पादायबो होज कामणअणुसोय
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अब श्री संघपटक
(२९१)
सुहो लोगो पमिसोर्ड आसवो सुविहियाण॥ अणुसोन संसारो पमिसोर्ट तस्स उत्तारो ॥ अत्रासवतिइंजियजयादिरुपपरमार्थपेशलः कायवाङःमनोव्यापारः बहुजनप्रवृत्ति विषयत्वादनुश्रोतसएवसद्धर्मत्वमि चेत्न विकल्यासहत्वात् ॥ तथा हि॥ किं वहुजनप्रवृत्तिगोचरमात्रं सद्धर्मनिबंधनं आहो सिद्धांतोक्तत्वं ॥
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अर्थः जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे ए गाथामां श्रासव ए प्रकारचें पद ले तेनो अर्थ इंजियोनुं जितद् इत्यादिरुपनो के. परमार्थ करवामां चतुर एवो जे शरीर वाणीने मन तेमनो जे व्यापार तेमां वहुजननी प्रवृत्ति थाय ठे. माटे अनुश्रोत एज सद्धर्म एम जोतुं कहेतो होय तो ते न कहेवू. केम जे एमां विकल्प के तेनुं सहन थाय एम नथी. तेज विकल्प कही देखा जे बहुजननी प्रवृत्ति जे मार्गमां थाय ते शुं सारा धर्मनुं निवंधन बे. एटले कारण , के सिद्धांतमां कह्या प्रमाणे करवू ए सारा धर्मनुं निधन बे. एटले सारो धर्म .
टीका:-न तावदायः॥ बहुजनप्रवृतिगोचरत्त्वस्य सद्धर्म निवंधनवान्युपगमे लौकिकधर्मस्यैव सद्धर्मवप्रसंगात्तस्यैवइदानी पार्थिवादिपुरुपसिंहप्र त्तिविषयत्वात् ॥ अथ तस्य . पार्थिवादिप्रतिविषयत्वेपि जगव हिनेयाप्रनि तत्वेन न सद्धर्मत्वमस्यतुल्लगवहिनयप्रणीतत्वेन तवमितिचेत् न ॥
अर्थः-तेमां पहेलो पन मानवा योग्य नथी, केमजे जेमां
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(२९२)
जय श्री संघपट्ट
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बहु जननी प्रवृत्ति थाय तेणे करीने जणातो जे धर्म ते जो सर्म पण अंगिकार करीए तो लौकिक धर्मने पण सर्मपणानी प्राप्ति थवानो प्रसंग श्रावशे केम जे ते लौकिक धर्मने विषे श्रा काळमां मोटा मोटा राजा आदि पुरुष मध्ये सिंह समान पुरुष तेमनी प्र. वृत्ति देखाय बे. माटे ने वळी तारे एम कहे, होय जे ते लौकिक धर्ममां राजादि प्रव्वार्तेला ने पण जगवंतना शिष्य प्रवर्तेला नथी. माटे एने सर्मपणुं नथी ने श्रा धर्म तो जगवंतना शिष्योए कहेलो ने ए हेतु माटे सद्धर्म एम तारेजो कहे, होय तो ते न कहे.
. .टीका-बहुजनप्रवृत्तिविषयत्वेन सद्धर्मत्वे प्रतिज्ञायाश्र'निष्टप्रसंगेन तज्ञाहतो जवतोहेतुहान्योपपत्तेः ॥ किंच नवतु · जगवहिनेयप्रणीतत्वेनास्य तत्वं तथापि नगवहिनेयत्वमेवकश्रमेषा मनुश्रोतप्रणेतृणां ॥ किं जगवन्मुंमीकृतत्वेन तदाज्ञा कारित्वेनवा ॥
___ अर्थः केम जे बहु लोकनी जे प्रवृत्ती तेणे करीने जणातो ए धर्म ने ए हेतु माटे एने सद्धर्मपणे प्रतिज्ञा पूर्वक स्थापन करनारने अनिष्टनी प्राप्ति थाय . एटले सहर्म एने कहेवायज नहि ने जो तुं, एमः कहीश के हुँ बहु लोकनी प्रवृत्तिने सकर्म कहेतो नथी तो तारा हेतुनी हानि थशे. एटले तारो हेतु खोटो थशे. ने वळी तुं कहुं हुं जे. जगवंतना शिष्योए कहेलो माटे एने सद्धर्मपणं तो त्यां तुने पूडीए बीए जे लोक प्रवाह जे अनुश्रोत मार्ग तेना कहेनार लिंगधारीने जगवंतना शिष्यपपुंज क्या. ने जो तुं कहीश के तेमने जगवंतना शिष्यपणुं बे तो त्यां तेने पूजीये बीएजे
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- अथ श्री संघपट्टकः 8
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तेमने भगवंते पोते मुंड्या ने तेणे करीने शिष्यपणुं वे के तेमनी श्राज्ञा पालवे करीने शिष्यप बे.
टीका:- न तावदाद्य: ॥ जगवन्मुंमी कृतत्वेन तहिनेयत्वेजमाल्यादीनामपि तद्विनेयत्वप्राप्तेः ॥ अथ जमाल्यादीनां तद्विनेयत्वं सकलभूतल प्रतीतमशक्यापह्नवमिति चेन्न ॥ तेषां निहूनवत्वेन सिद्धांते तद्विनेयान्नासत्व प्रसाधनात् ॥
अर्थ:-तेमां प्रथमनो पक्ष अंगिकार करवा योग्य नथी, केम जे भगवंते मुंकन कर्यु तेथे करीने जो जगवंतना शिष्यप होय तोज माली प्रादिकने पण जगवंतना शिष्यपणानी प्राप्ति थशे ने वळी तुं कहीश के जमाली यादिकने जगवंतनुं शिष्यपणुं ढें तें सकळ जगत्मां प्रसिद्ध वे ते तमारुं ढांक्युं ढंकाशे नहि तो एम तारे न कहेतुं. केम जे ते जमाली आदिकने तो निह्नवपणे सिद्धां तने विषे भगवंतना शिष्यपणानो यात्रास मात्रज प्रतिपादन कर्यो ए हेतु माटे.
टीका:- नापि द्वितीयः ॥ जगवदागमात्यंत विरुद्ध चैत्यवासादि प्रज्ञप्त्यतमेव कदर्थयतां कथंतेषां तदाज्ञाकारित्वं तथाच कथंत हिनेयत्वं ॥
॥ तदुक्तं ॥
गंजीर मिां बालातप्रत्तामोचित हकयत्थता ॥ तचैव यमनं
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अथ श्री संघपट्टक
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ता, अवमन्नंता न याति ॥ नहिलोकेपि सत्पितृविरुङमाचरतस्तदाझामप्यकुर्वतः पुत्रस्यापि वस्तुतः पुत्रत्वं नाम ॥ तस्मातहिनेयानासास्तेऽतस्तत्प्रणीतत्वेनोत्सूत्रत्वानवान्निनंदि बहुजनप्रतिविषयत्वेप्यऽनुश्रोत सहर्मत्वमेव ॥ अथ द्वितीयः तदेवमेतत् प्रतिश्रोत स एवतुजगवत् प्रज्ञप्तसिद्धांतो तत्वेन कतिपयमहासत्वप्रवृतिगोचरत्वेपि सद्धर्मत्वात् ॥ अतोनुश्रोतसो व्यवदे न प्रतिश्रोत:संग्रहीतुंसदिति विशेषणं विधीयमानं नविवादपदवीमधिरोहति॥
' अर्थ:-बीजो पक्ष पण अंगिकार करवा योग्य नथी केम जे जगवंतनी आज्ञाथी अत्यंत विरुक एवो चैत्यवास आदिक स्थापवे करीने ते जगवंतनी कदर्थना करनारा एवा ते लिंगधारीओने नगवंतनी आज्ञानुं करवापणुं कयांथी होय ने वळी नगवंतना शिष्यपर्यु कयाथी होय. ते वात शास्त्रमा कही जे जे लोकने विषे पण सारा पिताए जे कहेलुं तेथी विरुद्ध एटले नलटुं आचरण करे तो एवो पुत्र एटले पितानी आज्ञाने अंशमात्र पण न करतो एवा पुत्रने पण वस्तुताए पुत्रपणुं नथीज. ते हेतु माटे ते लगवंतना शिष्य कडेवाय ने ते तो केवल आनास मात्र दे माटे तेमनुं जे कहे तेने जत्सूत्रपणुं ते हेतु माटे 'नवान्निनंदि' एटले संसारमांज आनंद मानता घणा लोक तेमनी प्रवृत्ति ए मार्गमांवे तोपण अनुश्रोत मार्गनो त्याग करीने प्रतिश्रोत मार्गनुं ग्रहण करवाने सत् एप्रकारतुं धर्म शब्दने विशेषण आप्युं ते कांश विवाद करवानुंए स्थानक नथी.
टीका केषां उ:प्रापा नृणां पुसां गुरुकर्म संचयवता महाज्ञा.
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अथ श्री संघपट्टका
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नावरणादिसंचारनाज ।। संप्रतिहि गुरुकर्मत्वा जीवानां न प्रायेण प्रतिश्रोतसि प्रवृत्तिरुपलभ्यते॥
॥ यमुक्तं ॥
अयोग्यतावातू गुरुकर्मयोगालोकप्रवाहस्पृहया उरापा ।। प्रायोजनानामधुना प्रवृतिः प्रथि प्रतिश्रोतसि जैनचं ॥
अर्थः-कोने ए सद्धर्मनी प्राप्ति दुःख पामवा योग्य ते तो ज्ञानावरणादि नारे कर्मना समूहवाळा पुरुषोने ते वात घटे , केम जे आ काळमां नारे कर्मी जीव ने ए हेतु माटे बहुधा प्रतिश्रोत मार्गमां तेमनी प्रवृत्ति देखाती नथी. जे माटे शास्त्रमा कडं जे श्री जिनेश्वर नगवंतना कहेला प्रतिश्रोत मार्गने विषे आ काळमां वहुधा लोकनी प्रवृत्ति थती नथी एटले कुखे थाय ठे. शाथी के अजोग्य नावथी तथा नारे कर्मनो योग तेथी तथा लोक प्रवाहनी स्पृहा ठे. एटले लोक प्रवाह जे मार्गे चाले ते मार्गे श्वाराखे के. ए हेतु माटे सहर्मनी प्राप्ति कुर्लन के.
टीकाः आगमेप्युक्तं ॥ बहुजणपवित्तिमित्त, श्छतेहिं इ. हलो चेव ।। धम्मो न नजियहोजेण तहिं वहुजणपवित्ती॥ तो आशाणुगयं जंतंचव वुहेण सेविय वतु।। किमिद बहुणाजणेणंहंदिन सेअस्थिणो वहुया ॥ रयण स्थिणोतिथोवा तदायारोत्रि जहन लोग मिाश्यसुधस्म रयण स्थिदाय गाढयरनेया॥ :
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( २९६)
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अय श्री संघपट्टका :
बहुगुणविहवेण जन एए लग्नंति ता कहमिमेसुं॥ एयदरिदाणं तह, सुमिणेवि पयट्टई चिंता॥
टीका:-जातायामपि कथंचित्किंचिन्नव्यवपरिपाकात्मा {तायामपि सद्धर्मबुझौ पुर्लज्ञोदुरासदः शुज गुरुयथार्थसिद्धांत प्ररुपणनिपुगोलोकप्रवाहबहिर्भूतेचतोवृत्तिःप्रतिवादिमददो द. कमः कालाद्यपेक्षानुष्टानपटिष्टा सूरिः ॥ श्रयमर्थः ॥ सद्धर्म मनोरथनावेपि समुपदेश गुरुविना नासावासाद्यते ॥
अर्थः-कोई प्रकारे कांक नव्यपणानी परिपाक अवस्थाने विषे सम वुद्धि यये सते पण शुजगुरु मलवो उर्लन ने तोजथार्थ सिद्धांतनी प्ररूपणा करवामां कुडाळ डे ने जेना चित्तनी वृत्ति लोकप्रवाह यकी रहित , ने जे गुरु प्रतिवादिना मदने नास करवामां समर्थ डे ने वळी काळादिकनी अपेक्षाए अनुष्टान क्रिया करवामां अतिसे माह्यो डे एवौ गुरु एटले आयार्य ते मळवो उर्लन ने. श्रा अर्थ प्रगट जे सद्धर्म करवानो मनोरथ थये उते पण सारो उपदेष्टा गुरु मख्या विना सद्धर्म पमातो नथी.
टीकाः यदुक्तं ॥ धम्मायरियेण विणा, अलहंता,सिद्धिसा. होवार्य । अरएब तुवलग्गा नमंति संसारचकंमि।सच प्रायेण सांप्रतमुस्सूत्रनाषकाचार्यप्राचुर्येण तथाविधोनासन्नाग्यलच्या
अर्थ:-ते वात शास्त्रमा कही ले जे धर्माचार्य मळ्या विना सिद्धि पासवानां साधननो उपाय न पामता जीव संसार चक्रमां
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अथ श्री संघपटक
( २९७१
जमे जे. जेम गामानातुंबने लागेला श्रारा जमे तेम संसार चक्रमा ते प्राणी जमे ले माटे बहुधा आ काळम उत्सूत्रना नाषण करनार
आचार्य घणा माटे जेवो सिद्धांतमां कह्यो ले तेवा लक्षणवाळो धर्माचार्य घणा जाग्ये करीने पमाय बे.
टीकाः यमुक्तं ॥ यस्यानस्पविकल्पजपलहरीयुग युक्तयः सूक्तयः स जर्जरयंति संसदि मदं विस्फूर्जतां वादिन। यश्चोत्सूत्रपदंन जातुदिशति व्याख्यासु सप्राप्यते सञ्चारित्र पवित्रितः शुजगुरुः पुण्यैरगण्यैरको ।
अर्थ:-जेनी वाणी.अनेक विकल्प सहित जे भाषण तेनी सहेरो एटले परंपरा ते सहित युक्तिन ते जेने विषे एवी बे. वळी जे गुरु सन्नाने विषे अति शय दिदीप्यमान एवं वादी लोकना प्रवलमदने नाश करे ? ने जे गुरु व्याख्यान ते विषे क्यारेय पण नत्सूत्रप्ररुपण नथी करता एवा सुंदर चारित्रवमे पवित्र ययेला शुन गुरु ते जो अगणित पुण्यनो उदय होय तो तेने मळे .
टीका:-प्राप्त: समासादित्तः सनदितगुणः गुरुगुरुः पुण्येन नवांतरसंतृतसुकृतेन चेत्यदि तथापि शुजगुरु प्राप्तावपिकर्तुं विधातुं स्वहित मात्मनायति सुखावहं कर्म सद्धर्मप्रतिपत्ति लक्षणं नालं न समर्थाः ॥ अमीपुण्य प्राप्त शुनगुरवो माः ॥ आसादितसुगुरुवोपि ते किमिति न स्वहिताय यतंत इत्यत आह॥
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अथ श्री संघपट्टक
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:: अर्थ:-ते पूर्वे कहेला गुण सहित गुरु जन्मांतरमा संच करेखा पुण्यवमे जो कदापि मळे तोपण पोताना आत्मानुं परिणामे हित करनार एवं सद्धर्म कर्मना अंगिकाररुपि पोताने हितकारी वस्तु तेने करवाने था पुरुष समर्थ थता नथी. शुन्न गुरु मळ्या पड़ी पण ते पुरुष केम पोतार्नु हित करवानणी प्रयत्न करता नथी तो त्यां कहे .
टीकाः गच्चस्य स्वश्यान्युपेतयतिवर्गस्य स्थितिः युष्मत् कुलाहतोयं गच्छोऽतएनं विहाय युष्मानिनीन्यपार्श्वे देशनाश्नवणसम्यक्तप्रतिपत्यादिकं विधेयमिति गृहिणःप्रतीत्य लिंगिकृता व्यवस्था तया व्याहता एवं विधशुन्नगुरुप्राप्तावपि निःसत्वतया किमेनां गन्जस्थितिं मुंचामो नवेतीतिकर्तव्यतोशांतांतःकरणाः एवं गन्जस्थिति व्याहताः तेषां स्वहितकरशासामर्थ्य मुपलभ्यतदुप्रचिकिर्घश्वेतःसमुदलसत्करुण ॥ पारावारः प्रकरणकारः प्राह।।
अर्थ-गबनी जे स्थिति तेणे करीने ए पुरुष हणाया . गड ते शुं तो पोताना वंशमां थयेला जे पुरुषो तेमणे अंगिकार कयों एवो जे यतिनो समूह ते गढ कहीए ने तेनी स्थिति जे म. यादा एटले तमारा कुळना वृद्ध पुरुषोए आ गचनो आदर कयों ने माटे ए गबने मूकीने तमारे बीजानी पासे देशनानुं सांनळदुं तथा सम्र कितनुं अंगिकार करवू इत्यादि काइ पण न कर ए प्रकारे गृ. हस्थने आश्रिने लिंगधारीए करेली जे मर्यादा तेने गच्छ स्थिति कहीए. तेणे करीने हणायेला एटल्ले व्याकुल थ्रयेला पुरुषो शुल
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-8. अथ श्री संघपट्टका ।
(२२९)
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गुरु मळ्या पली पण सकर्म करवा समर्थ नथी थता. वळी ए पुरुषो केवा तो ए प्रकारनी शुन गुरुनी प्राप्ति थये बते पण निसत्व डे एटले पुरुषार्थ हीण ने माटे एम विचारे जे जे आपणे आ गबनी मर्यादा मूकीए के न मूकीए ए प्रकारना विचारमा जे करवा योग्य के ते करवामां नमी गयां अंतःकरण जेमनां एवा थाय . ते गच्छ स्थिति व्याहत कहीए.ते पुरुषने पोतार्नु हित करवानुं सामर्थ्य नथी, एम देखीने ते पुरुषोनो नपकार करवाने इच्छतो ग्रंथकार पोताना चिंतमां नत्पन्न थयो जे दयानो समुझ तेणे करीने कहे .
टीकाः किं ब्रूम इत्यादि। अतःकं पुरुषविशेषं ब्रुमो जणामः कं यह जगति आश्रयेमहि सेवेमहि ॥ कं आराध्येम दानादिनोपचरामः ॥ एतेषां लणनादीनां मध्यात्किं कुर्महे विद्महे ।। यदिहि कस्यचिन्महात्मनो जणनेनाश्रयणेनाराधनेनं वा गछ स्थितिं विमुच्य संकमप्रतिपत्तौ ते स्वहितमाचरंति तदेतदपि क्रियते ॥ परोपकृतिदीक्षितत्वात्सत्पुरुषाणामिति ॥
अर्थः-जे कया पुरुषने प्रत्येा वात कहीएं. वळी जगतमा कीया पुरुषनी सेवा करीए जे पुरुष सेवा वते श्रा वातने समजे. वळी कया पुरुषनी आराधना करीए एटले दानादिक वते तेनो उ. पचार करीए. ए सर्वनी मध्ये शुं करीए. जो कोश्क मोटा पुरुषना कहेंवाथी श्राश्रय करवाथी अथवा आराधन करवाथी गब स्थितिने मूकीने सधर्मनो अंगिकार करीने पोतार्नु हित करतो पण करीए. केम जे सत् पुरुषे तो पारको नपकार करवो एज दीक्षानो अंगिकार कर्यो द ए हेतु मादे.
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(३००)
8. अथ श्री संघपट्टक
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टीका:-॥अथवा ॥ यदाहिप्राप्तसुगुरुवोपि तत्वंजानाना श्रप्येवंगलस्थित्याव्यामुांति तदाकं ब्रुम इत्यादि ॥ अयमर्थः। अजानानोहि तत्वं स्वयं वा कस्यचिङ्गणनाराधनादिना वा तद्बोधयित्वा सद्धर्मे स्थाप्येतापि एतेच मूढा जानंतोपिगच्छस्थितिव्या हता इति कथं तत्र स्यापयितुं पार्यते॥ तत्सर्वथास्मचेतस्यमीषां
सन्मार्गव्यवस्थापने न कश्चिउपायः प्रतिस्फुरति। अतः कु. . मह इतिविषादवचनं ॥
अर्थः-॥अथवा ज्यारे तत्वना जाण एवा सुगुरु मख्या तो पण गच्छनी स्थितिये करीने व्यामोह पामे हे त्यारे कोना प्रत्ये कहीए इत्यादि जाणवू. तेमां आ प्रगट अर्थ जे पोतानी मेळे तत्वने न जाणतो होय तेने तो कहवाथी, आराधन करवाथी हरेक प्रकारे बोध करीने मार्गने विषे स्थापन करीए. पण आतों मूढ पुष ने केम जे पोते जाणे ने तो पण गच्छनी स्थितिमा हणाय ने ए हेतु माटे तेमने सद्धर्ममा स्थापन करवानें केम पार पामीए ? एटले केम समर्थ थए ? ते माटे सर्व प्रकारे अमारा चित्तमा एमने सन्मार्गमा स्थापन करवाने विषे कोई उपाय फुरतो नथी; माटे शुं करीए. ए प्रकारे खेद अखं वचन कडं.
टीका:-श्वमत्रैदंपर्यं ॥ महासत्वसत्वोपादेयोह्ययं सद्धर्म । 'एतेचा तिक्लीवा अन्यथा कि विदुषां गलस्थितिनिया॥ यदिदि सिंगिनःस्तलानादिहेतुनागन्छ स्थितिदर्शयति तथापिगृहिणा परीक्षापुरःसरंधर्मप्रतिपत्तव्यः ।।
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अथ श्री संघपट्टक
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अर्थ:-या जगाए डेवट कहेवार्नु के तात्पर्य था जे श्रा सद्धर्म के तेनुं महासत्व एटले महावलवाळो प्राणी तेनाथी प्र. हण थाय एम ने आजे पुरुष ते तो अतिशय नपुंसकले. केम जो एम न होय तो जे जाण पुरुष ने तेने गच्छ स्थितिनो नय केम राखवो जोइए ? नज राखवो केमजे जो पण लिंगधारी पोताने लान थाय ने इत्यादि कारणे गग्नी स्थिति देखा . तो पण गृहस्थोए परीक्षा पूर्वक धर्म अंगिकार करवो.
टीकाः यतो लगवानेवाह ॥ निकषलेदतापाच्या सुवर्ण मिव पमितैः ।। परीक्ष्य निक्षवो ग्राह्य, मद्दचो नतु गौरवात् ।। श्रागमेप्युदितं ॥ सलुधरणनिमित्तं गीयस्सनेसणान नकोसा जोयणसयाई सत्त न वारसव रिसाइं कायवा ॥
अर्थः-ते वात लगवाने पोते कही ले जे जेम सुवर्णनी प. रीक्षा कसोटीथी, बेदवाथी, ताप देवाथी थाय ने तेम हे नितु मोको पंमितोए अमारुं वचन परीक्षा करीने ग्रहण करवू.पण मारी महोबतथी न ग्रहण करई. वळी ए वात आगममां पण कही डे जे.
टीका-तथा संप्रदायागतस्यापि निर्गुणस्य गच्छस्यागमे पतीनामपि परिहारश्रवणात् ।।
॥यक्तं ॥
सारणमा वित्तं गर्छविहु गुरुगुणेण परिहीएं ॥परिचत्तनाश्वग्गो चइजतं सुत्तविहिणान ॥
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(३०३)
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अथ श्री संघपट्टक
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.. अर्थ-वळी आगमने विषे साधुने पण पोताना संप्रदायथी चौल्यो आवेलो एवो निर्गुण गच्छ तेनो परित्याग करवो एम सांजकीए बीए ए हेतु माटे गबनो ममत्व त्याग करीने शुन्न गुरु थकी सकर्म पामवो जे माटे ते वात शास्त्रमा कही में जे.
टीका-एवंच यदा कृतदिंगबंधानामपि यतीनां निर्गुणगड परिहारः पतिपादित स्तदा का कथा श्राद्धानामिति ॥ तदेवं विधानामपि य गस्थितिनिया तेषां न सकर्माज्युपगम स्तदहो बलीयसी गनमुना तिरयति विवेकांकुरं ॥
. ॥ यमुक्तं ॥
जीवाः प्रमादमदिरा हृतहृयविद्या अप्यन्यथा सुपथिसंप्रति नोत्सइंते ॥ हामऊनाय तु जवांजसि लिंग निः किंगच्च स्थिति विनिहतेव गले शिलैषा ॥ तद्च्छ. स्थितेरपि बिच्यतो धर्मान धिकारिण ए वतेवराकाथनात्मनीना असमर्थत्वात् समर्थस्यैवहिशास्त्रे तत्थ हिगारी अच्छी समत्थश्रो इत्यादिना धर्माधिकारित्व प्रतिपादनात् ।। समर्थस्यैवंलक्षणत्वात् ॥ होश समत्थो धम्मकुणमाणो जो न वाहश्परसिं। माइपिश्सामिगुरु माश्याण धम्मेण निन्ना।तद्यवस्थितमेतत् कंब्रम इत्यादीतीवृत्तार्थः१४
अर्थः-एम ज्यारे को दे दिग्बंध ते जेमणे एवा साधुने पण निर्माण गच्छमां रहेवानो निषेध कर्यो त्यारे श्रावकने निर्गुण ग
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अथ श्री संघपट्टक :
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च्छनो परित्याग करवो तेनी तो शी वात कद्देवी. ए हेतु माटे श्रा निर्गुण गचे एम जागनारने पण तेनी मर्यादाना नययकी लक्ष्मनो अंगिकार नथी यतो माटे अतिशय वळवान एवी ए गढ मुसाजे तेज विवेकरूपी अंकुराने ढांकी देठे जे माटे ते वात शास्त्रमा कही ठे जे प्रमादरुपि मदिरावते नाश पामी ठे सारी विद्या ते जेमनी एटले सारंज्ञान जेमनुं गयुंडे एवा जे जीव जे ते वीजी रीतनो जे सारो मार्ग ते ते प्रत्ये पण जवानो नत्साह नयी करता.ते उपर तर्क थाय ने जे संसार समुजमा बुझ्योज रहे तेमाटे गच्छ स्थितियकी जय पामनार पुरुषो धर्मना अधिकारी नथी. माटे ए वचारा आ. स्मान हित करवामां अतिशय रांकमा के केम जे असमर्थ थया ले ए हेतु माटे शास्त्रमा तो समर्थ पुरुपोज धर्मना अधिकारी कया ठे. ते हेतु माटे एवो निश्चय कर्यों जे कोना प्रत्ये कहीए कोनी आराधना करीए जेथी आ वात समजे इत्यादि. या चजदमा काव्यनो अर्थ संपूर्ण थयो. ॥१४॥
टीकाः-इदानीं कस्यचिदयोग्यस्याचार्यपदप्राप्त्या तद सच्चेष्टितप्रदर्शनेन श्रुतावझां ज्ञापयन्नाह ॥
__अर्थः इवे कोश्क अयोग्य पुरुष आचार्य पदने पाम्यो तेनी असत् चेष्टा देखामवी तेणे करीने सिद्धांतनी अवज्ञा प्रत्ये जणावता सता ग्रंथकार कहे ते.
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8. अथ श्री संघपट्टका
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॥ मूल काव्यम् ॥ क्षुत्दामःकिल कोपिरंकशिशुक प्रव्रज्य चैत्यै क्वचित्, कृत्वा कंचन पक्षमदतकलिः प्राप्त स्तदाचार्यकं ॥ ' चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गल्छेकुटुंबीयतिस्वं, • शकीयति बालिशीयति बुधान विश्वंवराकीयति ॥१५॥
. . टीका:-दुत्कामो बुजुदा श्लदणाकुतिः गृहस्थावस्थायां - किलेति:संजावनायां प्रत्यदोपलब्धमायथं संजावनास्यदतयव
संतो वदंतीतिन्यायः ॥ श्रतः स्तदज्ञापनाय किलेति पदं ॥ चन्यथा संप्रति प्रत्यक्ष एवायमर्थ इति ॥
अर्थः-जुखवते जेनुं पेट चोंटी गयु ले ने आंखो नमी न. तरी गडे एवो रांकनो पुत्र गृहअवस्थामां होय एवं संलवे . माटे आ जगाए किल अव्ययनो संजावनारुप अर्थ करवो. केमजे सत्पुरूष डे ते प्रत्यक्ष जणातो एवोपण अर्थने संभावनानुं स्थानक में ए प्रकारेज कहे जे. एवो न्याय जे. ए हेतु माटे ते न्याय जणाववाने किल ए प्रकारनुं पद मूक्यु ने जो एम न होय तो श्रा का. कमां एअर्थ प्रत्यक्ष देखाय ने एटले रांकना नोकरा ए प्रकारना श्यसा प्रत्यक्ष देखाय तो ए वात संजवे ने एम संभावना शीद कहेत?
टीकाः कोपि असात नामा रंका निकाकोऽत एव कुत्सि
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अथ श्री संघपटक
(३०५)
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तोऽनुकंपितो वा शिशुरनकः शिशुकुत्सायामनुकंपने वा कः ॥ ततोरंकश्चासौ शिशुकश्चेति कर्मधारयः ॥ रंकस्य वा कस्यचि. हिशुक इति। अनेन परंपयापि तस्य जिदाकत्वं निवेदितं ॥ एतेन प्रव्रज्यायापि तस्या योग्यता माह ॥
अर्थः-कोइक एटले जेनुं नाम पण जाणता नथी एवो रंक एटले निखारी एज हेतु माटे निंदित अथवा दया करवा योग्य एवो वालक निंदा अर्थने विषेअथवा अनुकंपा अर्थने विवेकप्रत्यय जाणवो. त्यार पबी रंक एवो जे शिशु कहीए, एम कर्मधारय समास करवो. अथवा कोश्क रंक तेनोवालक एम अर्थ करवो. एणे करीने परंपराथी एनुं जीखारीपणुं चादयु आवतुं ले एम जणाव्यु तेणे करीने प्रव्रज्या देवाने पण ए पुरुष योग्य नथी.
__ . टीका:-कुलशीलादिविकलत्वात्तद्युक्तस्यैव दीक्षा योग्यतायाः प्रामतिपादनात् ॥ प्रव्रज्य मुंमीनूय ।। चैत्ये लिंगि संबंधिनि जिनगृहे क्वचिदनिर्दिष्टनानि कृत्वा विधाय लंचादिना कंचन कमपि वझमूलं वलीयांसं संयतं श्रावकं वा पदं सहाय। नहि तादृक् साहाय्यं विना तादृशामाचार्यपदलानसंनवः ॥
अर्थः ते अयोग्यपणाने कहे ले जे ए पुरुष कुलशील श्रादिके करीने रहीत ए हेतु माटे ने पूर्व तयुक्त पुरुषनेजदीक्षा देवानुं योग्यपणुं ते एम प्रतिपादन कर्यु ठे. ए हेतु माटे ने ते पुरुष सिंगधारी संबंधी कोश्क जिनघरने विपे मुंमित थश्ने कोइने लांच
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(१०)
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अय भी संघपट्टक
श्रापवी इत्यादि कारणे करीने कोइक वळवान साधु अथवा श्रावक तेनी सहाय्य करीने एटले ते प्रकारना पुरुषने श्राचार्य पदनो लान थवो ते कां साहाय्य विना थाय नहि माटे.
टीका अक्षतकलिः यत् किंचिन्निमित्तमात्रं प्राप्य शिष्या दिनिः सह नक्तंदिनमखंमितकलहः ॥ एतेनाचार्यपदानी चित्यं तस्याह ॥ निनिमित्तात्यंतकोपनस्य सकलगच्चगेवेगवेग हेतुत्वेनाचार्यपदायोग्यत्वात् ॥ सोमो पसंतहियो गुरू हो त्यादिवचनात् ॥
अर्थः ते पुरुष श्राचार्यपद पाम्या पडीजे ते कांक निमित्त मात्रनुं ग्रहण करीने शिष्यादिकनी साथे रात दिवस कसह करे . एणे करीने ए पुरुष आचार्यपदने योग्य नथी एम जणव्यु केम जे कारण विनानो अत्यंत क्रोधी ए पुरुष सकल गहने नवेग करवातुं कारण ले माटे एने आचार्यपदनुं अयोग्यपणुं ए हेतु माटे.
टीका:-हच कलिग्रहणमन्येषामप्याचार्य पदायोग्यता पादकानां स्तंजदललोजमूर्खत्वा दिदोषाणामुपलक्षणं ॥ ततः संकलसूरिपदानुगुणगणरहित इत्यर्थः ॥ अतएवापात्राणां सूरिपददातुरपि पापीयस्त्वमुक्तमागमे ॥
अर्थः-या जगाए कलि कहेतां कलह ए शब्द ग्रहण कर्यु बे..तेणे करीने वीजा पण जेथी आचार्य पद न देवाय एवा अई.
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अथ श्री संघपट्टक
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कार, दंन, सोन, मूर्खपणुं इत्यादि दोष पण ए पुरुषने विषे एम उपलक्षणथी जाणवू. ते हेतु माटे सूरिपदने श्रनुसरता एवा समस्त गुण तेणे रहित ए पुरुष ने एटलो अर्थ थयो एज हेतु माटे अपात्र सूरिपद देनारर्नु पण अतिशय पापीपणुं ने एम आगममां कयुं .
टीकाः यदाह ॥ बूढो गणहरसहो, गोयममा हिं धीरपुरिसहिं, जोतं विश् अपत्ते, जाणंतो सोमहापावोलोगंमिवि उवघाउँ, जत्थ गुरू एरिसो तहिं सीसा॥ लध्यरा भन्नेसि,अणाय रोहोश्य गुणेसुत्ति ॥ प्राप्ताले दिवान्सन तदिति विवे किनां विमंबनास्पदं श्राचार्यकं श्राचार्यत्वं सूरिपद मित्यर्थः॥
अर्थः-जे हेतु माटे ते वात शास्त्रमा कही ले जे ते हेतु माटे विवेकीनी मध्ये विझवनाने पाम्युं एवं श्राचार्यपणुं बे,एटले सू. रिपद विम्वना पाम्युं एटलो अर्थ .
टीकाः अत्रच यो पधानृतीयादिगुरोरकणित्यनेन जावे ऽकण तद्वितः॥ चित्रमछुतमेतत् यच्चैत्य गृहे देवन्नवने गृहीयति गृहंश्वाचरतियथा निजसदने गृही शयनासनपानपचनसंलोग तांबुलनणादिकं नि:शंकमाचरति तथायमपि केवलनक्ति. योग्येपि जिनमंदिरेऽत्यंतानुचितमप्येतद्ययेचं समाचरनेव मुच्यत इति ॥
अर्थःआचार्यक ए शब्दने विषे 'योपधात्'ए सूत्रे करीने जावमां तद्धितनो थकण प्रत्यय आवीने ए शब्द सिद्ध थयोदे.
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(३८)
अथ श्री संघपट्टक
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वळी श्रावात आश्चर्यकारी ने जे जिनमंदिरने विष घरनी पेठे आ. 'चरे ने एटले जेम गृहस्थं पोताना घरमा सुवे, नोजन करे, पीये, राधे, संन्नोग करे, पान चावे इत्यादि क्रिया निःशंकपणे करे, तेम श्रा लिंगधारी पण केवळं लक्ति करवा योग्य एवं जिनमंदिर तेने विषे अत्यंत अघटती एवी पण ए क्रियाने पोतानी इच्छामां आवे तेमं करे ने माटे घरनी पेठे आचरे जे एम कहीए बीए. ,
टीका:-निजे खकीये गळे कुटुंबीयति कुटुंब इवाचरति॥ 'यथाहि गृहस्थः स्वकुटुंबे पर्वदिनेषु जातजामातृमातृतगिनिपुत्रिका दिसंबंधन निमंत्रणादानांनुप्रदानादिषु प्रवर्तत एवमेषोपि साध्वादिवर्गे तथा प्रवर्तमान एवमुच्यते ।
अर्थः-वळी लिंगधारी गुरु पोताना गउने विषे कुटुंबनी पेठे आचरे जे. जेम गृहस्थ पोताना कुटुंबने विषे पर्व दिन श्रावे त्यारे नाइ, जमार, फोई एत्रण प्रकारनो जे संबंध. एटले-मातापितानो तथा पोतानो जे संबंध तेणे करीने तेमने निमंत्रण करवू तथा आपq लेवू इत्यादि क्रियाने विषे प्रवर्ने बे, तेम लिंगधारी पण पोताना, जेवो जे साधुनो वर्ग तेने विषे तेमज प्रवर्ते डे माटे ते गृहस्थनी पठेज प्रवत्त डे एम कहीए बीए. . . . .. .
टीका: यदि वा आचार्येण हि स्मारणवारणादिपुरसंर , 'प्रत्युपते. पणनमार्जनविनयाध्ययनाध्यापनादिनोत्तरोत्तरगुण
स्थानाधिरोपणेन स्वगच्छाप्रतिक्षण मवेदपीय यथा गुणंच प्र..
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- अथ श्री संघपट्टक
(३०९ )
तीक्ष्यो यथादोषं च शिक्षणीय इति सिद्धांत स्थितिः ॥ श्रयंतु गवधुरकं धरतया तामवगणय्य यथा गृही प्रायेण कुटुंबमध्यात् सौजन्यपरोपकारादिसत्पुरुषगुणहीनमपि ग्रंथार्जनगृकर्मकरणादिमात्रप्रवणं पुत्रादिकं बहुमन्यते तदन्यं चाव मन्यते तथा गच्छमध्याहि श्रामणादिषु शुश्रूषाकारिणं सदोषमपि भूषयति । तदन्यं च सद्गुणभूषणमपि दूषयति इति गृहिकुटुंबप्र कियावर्त्तित्वात्तथा निधीयत इति ॥
अर्थः-- वळी श्रचायें पोताना गच्छनो कणे कसे तपास राखवो जे कोकने विस्मरण थयुं होय तो तेने संचारी श्राप तथा कोइ विपरीत करतो होय तो तेनुं निवारण कर. इत्यादि 'पूर्वक जे जोवुं प्रमार्जवं तथा शिष्यनुं जयतुं जणावयुं इत्यादिके करीने पोताना गहने जोवो तपासवो तथा जेनो जेवो गुण तेने ते मान श्राप तथा जेनो जेवो दोष तेने तेवी शिक्षा श्रापवी, ए प्रकारनी सिद्धांतनी स्थिति ने एटले मर्यादा बे ने श्रा यांचायेनुं तो हंकारे करीने चुं माधुं वे ए हेतु माटे ते सिद्धांतनी मर्यादानी अवगणना करीने जेम गृहस्थ बहुधाए कुटुंबना मध्यथी या प्रकारनो पुत्रादिक तेने बहु माने बे जे जे पुत्रादिकने विषे सुजनपएं तथा परोपकार इत्यादि सत्पुरूषना गुणे करीने रहितप
तो पण ते द्रव्य उपार्जन कर तथा घरनुं काम कर इत्यादिकने विपेज चतुर होय तो तेने घणुं मान थापे बे ने ते थकी अन्य गुणी होय तो तेनुं अपमान करे छे तेमज गच्छ मध्ये जे कोइ दोषवाळो होय ने ते जो विसामा करावतो होय, सेवा करतो होय तो सेने माने वे शोभावे बे ने ते विना बीजो महागुणी होय, गुणरूपी
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(३१०)
अब भी संघपट्टको
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भूषणतुं धारण करनार होय तो पण तेने दोष पमामे ,ए हेतु माटे गृहस्थनी क्रियाने अनुसरे डे माटे कुटुंबी गृहस्थ जेवो एने कह्यो.
टीका:-तथा स्वमात्मानं शकीयति ॥ शक्रमिव पुरंदर मिवाचरति ॥ सहि नीचत्वात्तथाविधचैत्यभव्यशिष्यना. वकादिसमृद्धिदर्शनान्मदिष्णुः शक्रोह मित्यजिमन्यत इति तथा कतिपयाक्षरलेशलेपदिजिहूतया मदावदेपाहालिशी. यति बालिशानिव मूर्खानिवाचरति बुधान् कुशाग्रीयबुद्धीन विचक्षणान् अहमेव सकलवाङ्मयपारपारदृश्वा किममी अज्ञा वीदंतीति ॥
' अर्थः-वळी ते श्राचार्य पुरूष पोताना आत्माने इंजनी पेठे श्राचरे . केमजे ते पुरूषने विषे नीचपणुं रघु ने माटे ते प्रकारनुं चैत्य तथा अव्य तथा श्रावकादि समृद्धि तेने देखवाथी श्रहंकार थयेलो एवो ए पुरूष एम माने जे जे हुं इंसडं वळी केटलाक श्रदर ए जएयो ने तेनो लेश मात्र खेप एटले योमुजाणपणुं तेणे करीने चारे पास मुख घालतो पण एके ग्रंथ यथार्थ न जाणतो पण मदे करीने अहंकारी ए हेतु माटे सारा सूक्ष्मदर्शी पंमितोने पण मूर्खनी पेठे श्राचरे एटले तेमने मूर्ख जाणे ने ने पोताने महा पंमित जाणे . जे ढुंज सर्व शाखरूप समुपनो पार देखनार डं माटे श्रज्ञानो शुं बोले ने शुं समजे ने इत्यादि. ,
टीका:-तथा श्रतएव विश्वं जगहराकीयति वराकभिव रंकमिवाघरति ॥. सहि रसादिगौरवमदिरामदपूर्णमान .
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-48 अय श्री संघपट्टका
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MAHARA
नयनतया जगदपि मत्पुरतः क्षितकमिति मनुते ॥
॥यक्तं ॥
अखर्वगर्वसंजाराः समासाद्य महापदं ॥ नीचा स्तृणाय मन्यंते, निर्विकल्पतया जगत् ।।
अर्थः-वळी एज हेतु माटे जगतने रंक जेवं आचरे एटखे रंक माने , केमजे ते पुरूष रसादि गारवरूपी मदिराना मदे करीने घुमरायमान जेनां नेत्र थयां बे, एवो डे ए हेतु माटे जगत पण मारा श्रागळ तरणा तुल्य एम माने , जे माटे तेवू कथु जे जे महा गर्विष्ट नीच पुरूष मोटुं पद पामीने निःशंकपणे जगतने तृण समान माने ने.
टीका:-श्रयमाशयः ॥ ईश्वरोहि कश्चित् प्रव्रज्य प्राता. चार्यपदः सन्निविवेकतया कथंचित्तचैत्यग्रहादिषु गृहीयितादिकं विधानोपि न तथा लोकानां चित्रीयते॥ गृहवापि पु. ललितत्वस्य लोकैस्तथा दर्शनात्।। अयंतु रंकशिशुर्दीक्षित्वा सू रिपदासादनेन तथा कुर्वाणो जनानामुपहासविषयतया महदाश्चर्यनाजनमिति ॥ तदहो अत्यंतमाचार्याद्यनुचित चैत्यग्रहगृहीयितादिनाऽसचेष्टितेन श्रुतपथावज्ञा पापानां मलि नयति प्रवचन मिति वृत्तार्थः ॥ १५ ॥
अर्थः-तेमां आ अतिप्राय दे जे कोइ समर्थ धनात्य होय
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(३१२)
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अथ श्री संघपट्टका ---.
ने ते दीक्षा लश्ने आचार्य पद याम्यो बतो निर्विवेकपशाए करीने क्यारेय चैत्य गृहादिकने विषे गृहस्थनी पेठे आचरणादिकने करतो होय तो पण ते प्रकारे लोकने आश्चर्यकारी न थाय पण जेनुं गृहस्थावस्थामां दाखिजपणुं दीठं होय ने तेनी श्रा प्रकारनी उद्धत दशा देखीने लोकने केम आश्चर्य न थाय, ने था तो वळी रांकनुं बोकलं दीक्षा लश्ने श्राचार्य पद पामीने तेQउजतपणुं करवामांन्यु माटे लोकने उपहास करवानुं ठेकाणु ए , ए हेतु माटे मोटा थाश्वर्यतुं पात्र ले ते माटे अत्यंत आचार्या दिकने अघटतुं जे चैत्यमां घरमां गृहस्थनी पेठे आचर इत्यादिक जे जूंनी चेष्टा एटले नगरुं आचरण तेणे करीने सिंहांत मार्गनी जे अवज्ञा करवी ए पापे करीने प्रवचनने मलीन करे ने एटले सिद्धांतनुं अपमान करे ने ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ थयो. ॥ १५ ॥
श्रीका:-संप्रति पितृपुत्रादिसंबंधं विनापि हार्दिक्षगि विहितलोकवाहनोपलनधारेण श्रुतवज्ञा प्रतिपादयन्नाह ॥ ।
अर्थः हवे पिता पुत्र आदिक संबंध विना पण हगत्कारे लिंगधारीए पोते स्थापन करीने लोक पासे उपासावी जे रीति ते संबंधी जे संनो देवो ते घारे करीने सिद्धांत अवज्ञानुप्रतिपादन करता संता ग्रंथकार कहे .
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9. अय श्री संघपष्टक
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(३१३)
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॥ मूल काव्यम् ॥ .
यै जाँतो नच वहितो नच नचक्रीतोऽधमोनच । प्राग्दृष्टो नच बांधवो नच नच प्रेयानचप्रीणितः॥ तैरेवात्यधमाधमैः कृतमुनिव्याजैर्बलाबाह्यते। नस्योतः पशु वजनोयम निशं नीराजकं हा जगत्॥१६॥
टीका:-बैलिगिनिरयं जनो नचजातो जनेरंतर्जावितज्यर्थत्वान्न जनितः पित्रादिरुपतया न जन्म लंनितः ॥चकारा: सर्वेपि समुच्चयार्थाः अवधारणार्थावा॥ अथ माजूजातस्तथापि वर्धितो नविष्यत्ये तावतापि वलातमाहनसिद्धिरतबाह ॥ वर्जितोनचेति एवमुत्तरपदेष्वप्याशंक्य योजना कार्या वर्द्धितो योगक्षेमादिसंपादत्तेन शरीरपोषं प्रापितः ॥
अर्थः-जे लिंगधारी आ श्रावक जननो कांश वाप नथी जे एनुं जेमतेम कहेढुं श्रावक अंगिकार करे ने एटले लिंगधारीए था जन उत्पन्न कर्यों नथो. जन धातुनां अंता विज्यंतनो अर्थ के ए हेतु माटे नथी उत्पन्न कर्यो ए प्रकारनो अर्थ थयो. एटले पितादि रुपपणे जन्म आप्यो नथी. आ जगाए सर्वे पण चकारनो समुच्चयरुपी अर्थ डे, अथवा अवधारणरुपी अर्थ ठे वळी आशंका करी कहे ते जे जन्म आपनार न होय तो पण वृद्धि करनार तो हो के जेथी वलात्कारे तेलिंगधारीना वचननी माथे नपानी लेवानी तिदियाय. एज हेतु मादे विशेषण कहे दे जे ए विंगधारीए
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अथ श्री संघपटकः
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पालण पोषण करीने कांइ आ जननी वृद्धि पमामी नथी के जेथी एनुं अवळू कहेवू पण माथे नपामी ले ए प्रकारे श्रागल्यां पदने विषे पण आशंका करीने योजना करवी. वर्द्धित शब्दनो ए अर्थडे जे न मळेली वस्तुनो योग करवो ने मळेली वस्तुनी रक्षा करवी ए रुप जे योग केम इत्यादिकनुं जे करवू तेणे करीने जे शरीरखें पोषण करई ते.
टीका:-नच क्रीतो मूल्यदानेनाऽन्यस्माद्गृहीतः ॥ श्रधमों नच उत्तमर्पसकाशाउकारादिप्रयोगेणाऽर्थ गृहीतोऽधमर्णः ॥ अत्रच वैरितिकर्तृतया संबंधानुपपत्तेषामिति संबंधविवक्षया यबब्दो योज्यः ॥ अर्थवशाहिजक्तिपरिणाम इतिवचनात् ॥ तेन येषां लिंगिनामयंजनोऽधमोर्थधारयितान जवति एवमुत्तरत्रापि यथासंचवं येषामिति संबंधनीयम् ॥
अर्थः-वळी लिंगधारीए आ श्रावक कोई पासेथी मूख आपीने वेचातो लीधो नथी जे एनुं बोट्युं माथे उपामे वळी आ जन एटले श्रावक लोक ए लिंगधारीऊनो देवादार नथी जे पोतानी श्राज्ञा पराणे पळावे.धनादि वस्तु आपनार जे पुरुष ते उत्तमर्षक हीए. ने जे धनादि वस्तुनो लेनार पुरुष ते अधर्मण कहीए. माटे उत्तमर्ण पासेथी उधार प्रमुख प्रयोगे करीने अर्थनो गृहण करनार एटले अधर्मण थयेलो आ जन नथी.श्रा जगाए व्याकरणादि वि. चार जे आ जगाए यैः ए प्रकारर्नु कर्ता पद जे तेणे करीने संबंधनी :सिकि.नथी थती माटे येषां ए प्रकारना संबंधनी केहेवानी शाए करीते यत् शब्दनी योजना करवी. केम जे अर्थता बरामी बिना
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18 जय श्री संघपट्टक
( ३१५ )
किनो परिणाम थाय ए प्रकारनुं वचन से ए हेतु माटे श्रा प्रकारनो अर्थ यो जे जे लिंगधारीनो श्रा जन जे ते अधमर्ण नथी. एटले ते लिंगधारी rat sorat बेनार नथी, एम आगळ पण जेम घटे सेम ' येषां' कहेतां जे संबंधी ए प्रकारे पदनो संबंध करवो.
टीकाः -- तथा ॥ यैः प्राग् पूर्वं दृष्टोऽवलोकितो नच॥ श्रयमर्थः ॥ यैलिंगि निःस्वश्रद्धा व विष्टदेशवर्ति त्वात्कदाचिदपि न दृष्टास्ते पि स्वगग्रहग्रस्तत्वादन्यं गुरुं वाचापि न संज्ञार्षते ॥ तमेव गछ गुरुं ध्यायतः कालम तिवायंति ||
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अर्थ:-वळी जे लिंगधारीउए पूर्वे दीठो पण नयी एटले अर्थ वे जे लिंगधारीए पोताना श्रावक अतिशय दूर देशमां रह्या बे माटे क्यारेय पण ते दीवा नथी ते श्रावक पण पोताना गच्छना आग्रह व गलाया वे ए हेतु माटे वीजा गुरुने वाणीए करीने पण नयी बोलावता. ने केवळ तेज गच्छ गुरुनुं ध्यान करता ता कालन निर्वाह करे बे.
टीका:-बांधवः पितृमातृव्यादि संबंधनाग् न च येषां ॥ चप्रेान वलत मैत्र्यादिसंबंधेन नच प्रीणितो दानज्ञानातिशयादिना तोषितः ॥ श्रत्रचेदानींतनरूढ्या यद्यपि केषां - चिह्नर्द्वितत्वादिसंभव स्तथाप्ययं पटसंवृतएव शोजत इति न्यायेना तिखजनी यत्वादिना तदविवकणान्नचवर्द्धित इत्यायुक्तं तथा केषां चिद्वधिवत्वादिसंजवेपि दवीयसां नूयसां च तद संजबेन तद विवपानच बांधव इत्याद्युक्तमिति ॥
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(३१६)
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अय श्री संघपट्टका -
अर्थः-वळी ए लिंगधारीनो आ जन बांधव पण नथी जे आज्ञा नपामावे बांधव एटले पिता, जाता इत्यादि संबंधवाळो जे होय ते. वळी ए लिंगधारीने आजन मैत्री आदिक संबंध वते अतिशय वहालो पण नथी. वळी ए लिंगधारीए था जन दान ज्ञान
आदि अतिशय आपीने प्रसन्न पण कर्यो नथी.जे एर्नु अवलु कहेडं वचन अंगिकार करे. या जगाए आ काळनी रुढिए करीने जो पण को लिंगधारीना श्रावकने वृद्धि पमामवी इत्यादिक गुण संनवे के तोपण एतो जेम आ पट ढांकेलोज शोने एप्रकारना न्याये करीने अतिशय सजा पामवा योग्यपणुं एमां रडुं ने इत्यादि कारणे करीने ते ढांकेली वात नघामी करी देखामवानी अमारी इच्छा नथी. ए हेतु माटे एम कयु जे नथी वृद्धि पमाड्यो इत्यादि कह्यु. वळी कोश्नो कोश् बांधव पण हशे एवो संजव थये बते पण अतिशय. दूर रहेनार घणाक लोकनेते संबंध संजवतो नथी माटे तेसंबंध कडेवानी इच्छा पण नथी माटे नथी बांधव इत्यादि कह्यु.
टीका:-तैरेव प्रायुक्तसंबंधानावेन लोकवाहनयोग्यता. विकलैलिगितिरेव एवेत्यव्ययमिह परिनवे ॥ षदर्थे पारनवे प्येवौ पम्येऽवधारण इति विश्वप्रकाशवचनात्।। ततश्चमहान् परान्नवोऽयं यत्तादृशैरपि बिगिजिलोंको वाह्यत शति ॥ बलात् हठेन नतु प्रणयेन वाह्यते वशीकृत्य स्वकार्या‘णि कार्यते ॥
' अर्थ-प्राज्ञावहन कराववाने अयोग्य एवा लिंगधारीएज पर्वे संबंध कह्या तेमांनो एके संबंध नथी, तो पण-श्रा जगाए एवं'
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अथ श्री संघपट्टक
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ए प्रकारनो अव्यय , ते परानव रुपी श्रर्थने विषे ले केम जे एव अव्यय ते लगारेक एवा अर्थने विषे प्रवर्ते, तथा परान्नव रुपी श्रर्थने विषे प्रवर्ते तथा तथा' निश्चयरुपी अर्थने विषे प्रवर्ने एम विश्वप्रकाश नामे कोशनुं वचन ने ए हेतु माटे अहीं परानवरुपी अर्थ लेवो तेथी श्री प्रकारनो अर्थ थयो जे तेवा पण लिंगधारी श्रा लोक पासे श्राझा नपामा डे एटले बलात्कारे पण स्नेहथी नहि ते श्रावक लोकने वश करीने पोतानां काम करावे ने एतो मोटो परानव को एम जाणवू.
टीका:-अयं गच्छमहाग्रहगृहीतःप्रत्यदोपलच्यमानोज.. नाश्राद्ध लोको नस्योतो नास्तितश्व पशुवत् वृषनादिरिव ॥ यथा रज्जुनियमितनासो वृषनादिर्यदृच्छया बाह्यते यत्रतत्र नी: यते तथा लोकोपि लिंगिवाह्यत्वेनोपचारानश्योत इत्युच्यते ॥
अर्थः-श्रा प्रत्यक्ष जणातो जन एटले श्रावक लोक ते गंछनो जे मोटो आग्रह तेणे करीने ग्रहण थयेलो . अथवा गच्छ एज महा मोटो पुष्ट ग्रह तेणे गळी लीधेलो जे. केम जे नाके ना. थेलो वलद श्रादि पशुनी पेठे एटले जेम वलद आदि पशु नाके नाथीने वांधेदुं होय तेने ज्यां पोतानी इच्छामां श्रावे त्यां नार उपामावीने लइ जाय तेम लिंगधारीओ आ श्रावक रुपी वळदने प. शुने गचनी ममतारुप नाके नाथ घालीने पोतानी आझारुप नार वहन करावीने पोतानी नजरमां आवे तेम फेरवे वे माटे नपचार यकी नाके नाथेला कहीए वीए. . . . . .
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अप श्री संघपहक
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टीका: ननुपशुवअज्जुबद्धनाशतया अनिशमनवरतन तु सकृत् वारमेकं किलैवमपि कोपिवाह्यतापिाएतयुक्तं भवति॥ किल जननवर्जनक्रयणाधमर्णत्वप्राग्दर्शनबांधवस्व प्रेयस्त्वप्रीएनादिसंबंधैर्बलादपि जनो वाहयितुंपार्यते लोके तथाव्यवहार दर्शनात् ॥ लिंगिनिस्तूदितसंबंधानंतरेणापि यदेवं लोको वाहते तन्महापरिनव इति ॥
अर्थः-आशंका करीने कहे जे जे पशुनी पेठे नाके दोरहुं बांधीने निरंतर पण कोश्क काम करावे पण खरं केमजे खोकमां तेवो व्यवहार देखाय . जे कोइए नत्पन्न कयों होय, वृद्धि पमामयो होय, तेनुं करज कामयु होय, तेणे प्रथम दीगे होय, तेनो बांधव होय, तेनो वहालो होय, तेणे प्रसन्न कयों होय इत्यादि संबंधना वळवते तोकदापि पोतानी आज्ञानुं वहन कराव, संनवे . लोक व्यवहारथी पण था तो लिंगधारीए पूर्वे कहेला संबंध विना पण जे श्रावक खोक पासे पोतानी आज्ञानुं वहन करावे ठे ए तो मोटो पराजव देखाय ३. एटले मोटो अन्याय देखाय .
टीका:-ननूक्तसंबंधप्रतिबंधं विनापि सदगुरुत्वेन तेषां मस्तितपशुवसोकाः कार्याणि निर्मापयिष्यते ॥ नानुपकृतपरहितरतानां गुरूणां धर्मदानोपकारस्य प्रत्युपकारः कर्तुं शक्यते।।
॥ यक्कं ॥
जावाणुवत्तणं तह, सव्वपयत्तेण तेण कायव्वं, समनदायगारां, पमियारंज जाषिपं॥
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अप श्री संघपट्टक
(३१९)
WARNAMA
अर्थः-प्रथम वितर्क करीने आगळ विशेषणरुप समाधान आपq डे माटे कदे जे पूर्वे संबंध कह्या ते विना ते लिंगधारीने विषे सद्गुरुपणुं रह्यं ने तेणे करीने ते श्रावक लोक तेमनां कार्य करशे केम जे जेनो नपगार थइ शकतो नथी एवाने पारकुं हित करवामांज आसक्त एवा गुरुनो जे धर्म दाननो उपगार तेनो प्रत्युपकार एटखे तेनो बदलो वाळवाने कोइ समर्थ थतुं नथी. ते वात शास्त्रमा कही
जे माटे ते लिंगधारी गुरुनी आज्ञा माथे उपानी जोइए एम जो तुं कहेतो होय तो ते उपर विशेषणरुप समाधान आपीए बीए जे.
टीका:-अताह ।। अत्यधमाधमैरिति॥ लोकलोकोत्तर गर्हिततमसाध्वीप्रतिसेवादेवाव्यजक्षणसुविहितघातशासनोहाहप्रभृतिभृरिपापकर्मनिर्माणादतिशयेनाधमेन्योपि हीन जाती. येन्योप्यधमै रहींनैर्यमुक्तं ॥ संजपमिसेवाए देवदवस्तन क्खणेच ॥इसिघाएपवयषुड्डादे, बोहिधाई निर्देसियो । अतः कथमेषां सद्गुरुतया लोको वाहनीयो नविष्यति ॥
अर्थः-एज हेतु माटे ते लिंगधारी गुरु केवा डे तो अधम करतां पण महाअधमठे एटले नीच करतां पण महा नीच बे केमजे सोकने सोकोत्तर तेमां अतिशय निंदित एवां जे साध्वीनीप्रतिसेवा करवी तथा देवाव्यर्नु जदण करवू तथा सुविहितनो घात करवो, तथा शासनना उड्डाह करवो इत्यादिक जे घणां महा पाप कर्म तेने करवा थकी अतिशय अधम एवाहीन जातिवाळा पुरुषोते थकी पण अतिशय अधम महा नीच एवा एलिंगधारी गुरु जे.जे माटे शासमांक ने जे सावीती मतिसेवा,देवव्यतरण सुविहितनो घात, शास:
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8 अथ श्री संघपट्टकः
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ननोनड्डाह एटलांवानां बोधिरतननांघात करनारकह्यांबे ए हेतु माटे ए लिंगधारीउने सद्गुरुपणे लोक पासे पोतानी आज्ञानुं वहन कराव क्याथी थाय! नज थाय एटले आज्ञा करवा योग्यज नथी..
टीका: अथैवं विधेरेनिः कथंतर्हि वाहयितुं लोकः पार्यते ' अत आह कृतमुनिव्याजैः ॥ प्रपंचचतुरतया विश्वासो : स्पादनेन मुग्धजनस्य विप्रलित्लयारचितशांतरुपमासोपवास कर..णादिसुविहितबद्मतिः ॥ अयमर्थः ॥ एवमसमंजसकारि
णोपि लिंगिनो विधेनहेतुतथाविधयतिरूपप्रदर्शनेन सुखकर पथप्ररूपणेन च सुखलुब्धान् मुग्धान्प्रलोच्य यथेचं वाहयंतीति।
. अर्थ:-हवे ए लिंगधारी ए प्रकारना डे त्यारे लोक पासे पोतानी श्राझार्नु वहन करावq केम करी शके ले तो ए प्रकारनी आशंकाना उत्तर रुप विशेषण श्राप बे, जेकयु मुनिपणानुं कपट ते जेमणे एवा ए ले माटे एटले प्रपंच करवामा जे पोतानुं चतुर पणं तेणे करीनेनोळां माणसने विश्वास नपजावीने तेमने उगवानी इच्छाए उपरथी कयु डे शांत रुप ते जेमणे ने मासोपवास श्रादि जे सुविहितनुं आचरण तेनुं मिष जेमणे ग्रहण कर्यु एवा तेनो आ प्रगट अर्थ जे जे ए प्रकारना अति गंमुआचरण करवामां महा कंपटी तो पण लिंगधारी पर्यु ले ते विश्वासतुं कारण माटे ते प्रकार यतिरुपनुं देखाग तेणे करीने तथा सुखे थाय एवो .मार्ग प्ररुपवो तेणे करीने सूखमां लोजायेला एवा गोळा माणसोने लोनावीने जेम पोतानी नजरमां आवे तम पोतानी आज्ञा तेमनी पासे उपाहावे बे. ..
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अथ श्री संघपटक
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(३२१ ॥
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टीकाः-यमुक्तं ॥श्रवरे नियमिपहाणा. पयमिवेसासियं “पणं रूवं ॥ सुहलुखइंजणवंचणेण कम्पिति नियवित्तिं ॥ : अमुमेवार्थ समर्थयितुं प्रकारांतरेण लोकवाहनप्रतिकारमसं. · · नावयन् सविषादमनुगुणं वैधम्र्येणार्थातरन्यासमाह ॥'
:, अर्थः-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही ले एज अर्थने समर्थ , करवाने लोकने जे ए लिंगधारी ठगेले तेनो नपाय बीजे प्रकारे सजवतो जणातो नथी माटे ग्रंथकार खेदसहित जेने अनुसरतो · गुण रह्यो ठे ए प्रकारनुं वैधर्मी दृष्टांते करीने अर्थातर न्यास अलंकारने कहे बे. .
...... टीका:-नीराजकं ॥ विगतसहारेश्वर्यन्यायगोपायित प्रजमुष्टशिवाशिष्टरदा विचक्षणपं किंराजसहितमपि , नी. राजकमिव नीराजकमुच्यते हा इतिविषादे जगदलुवनं ।। न . धन्यथोदितगणनाजि राजनि बलालोकवाहनं कर्तुं वन्यते ।। श्रयमाशयः ॥ यथा सगुणं राजानं विना तद्देशः प्रतिभूपमलिम्युचादिन्निरुपज्यते एवं संप्रति प्रौढसातिशयबहुजनापेक्ष
पीयगणधरादिपुरुपसिंह विरहाविंगिजिरयं श्राद्धजनो वाह्यत ..' इतिवृत्तार्थः ॥ १६ ॥
' अर्थः- जे आ जगत् हा इति खेदे राजा रहित होय में . शुं एम थयुं निधणीआतुं थयु: केमजे आज्ञाए सहित जैश्वर्यपएं तथा न्याये करीने प्रजानु रङ्गणं करवू तथा इष्टनी शिक्षा करवी तथा साधु पुरुपनी रक्षा करवी तेमां चतुराइ रुप जे राजापणुं तेणे
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(३२२)
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अथ श्री संघपहक
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रहित बाजिगत् अयुं ले माटे आशंका करीने कहे जे जे राजासहित एवं आ जगत् ले तेने राजा रहित होय ने शुं एम केम कहो छो तो ते नपर कहे जे आ लिंगधारीओ उगे ले ए मोटी खेद नरेली वात ले केमजे जो एम न होय ने पूर्व कहेला गुण सहित राजा होय तो बळात्कारे लोक पासे पोतानी आज्ञा मनावे ने ते केम थाय ? तेमां आ अनिप्राय डे के जेम पूर्वे काया एवा गुणवाळा राजा विना ते राजाना देश प्रत्ये शत्रु तथा चोर इत्यादिक उपभव करे ले तेम आ काळमां पण मोटाने अतिशये, सहित एवा घणा जनने अपेक्षा करवा योग्य एवा गणधर आदि पुरुषसिंहनो विरह
ए हेतु भाटे लिंगधारीओ आ श्रावक जनने गेले एटले पोताने मनमां आवे तेम प्ररुपणा करीने पोताना स्वार्थ साधवानी बात तेमना माथा उपर चमावीने जमावे के ए प्रकारनो श्रा काव्यनो अर्थ थयो ॥१६॥
टीका:-अधुना लिंगिनो वैशसं दृष्ट्वापि कदाग्रहाचत्प्रथित कापथादऽनिवृत्तमानान्मूढान्दिग्मूढत्वादिना विकल्पयन्नाह ।। -
अर्थः-हवे लिंगधारीओनी करेली प्रत्यद हिंसा देखीने 'पण कदाग्रह थकी तेणे प्ररुपण करेलो जे निंदित मार्ग ते थकी.
.निवृत्ति न पामेला एटले ते मार्गे चालता एवा मूढपुरुषोने :दिग्मूढ' पणुं इत्यादिक दोष तेन विकल्प करता सता कहें बे.
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अब श्री संघपट्टक
(३२३)
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मूल काव्यम् ॥ किं दिग्मोहमिताः किमंधबधिराःकि योगचूर्णीकृताः किं देवोपहताःकिमंग गिताः किंवा ग्रहावेशिताः ॥ कृत्वा मूर्ध्निपदं श्रुतस्य यदमी दृष्टोरुदोषाअपि।। 'व्याटत्तिं कुपथा जमा न दधते सूर्यति चैतत्कृते ॥१॥
टीका:-किशब्दाः सर्वेपि विकल्पार्थाः॥ किममी जमा दिग्मोहःकुतश्चिददृष्टादिनिमित्तात् प्राच्या दिदितु प्रतीच्यादि नमस्तमिताः प्राप्ताः ॥ श्रयमर्थः॥ यथा दिग्मूढाः प्राची प्रतीचीत्वेनाध्यवस्यतो लोकेन युक्त्या ज्ञापिततत्वाअपि तदध्य वसायान निवर्तत एवमेतेपि विदितकुपथदोषाअपि कुतोपि हेतोस्ततोऽनिवर्तमानास्तत्साम्यात्तथोज्यंते ॥ ..
: अर्थः-आ काव्यमां सर्वे पण किं शब्द ले ते विकल्प अर्थने कहेनारा ले तेथी या प्रकारे अर्थ थयो, जे आ श्रावक लोक • जम पुरुषे एटले ते कोइक कारणथकी:दिग्मूढ "थयो के शुं एटले कोश्क श्रदृष्टादि कारणथकी पूर्वादि दिशाओने विषे पश्चिम आदि दिशाथोनी ब्रांति थाय तेने दिग्मूढ कहीए. ते दिग्मूढपणाने श्रा जम पुरुषो पाम्या के शुं ? तेनो प्रगट अर्थ आ जे जे जेम दिग्मूढ पुरुष पूर्व ..दिशाने पश्चिम दिशारुपे निश्चय कर ले. तेने .बीजा लोक युक्तिए करीने यथार्थ समजावे तोपण ते पोताना खोटा निश्चयथकी पाठो निवृत्ति पामतो नथी. एम मा जक पुरुषो
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(३२६)
* अथ श्री संघाहकार
एवो ए धूर्त पुरुष पोतानो हितकारी माने ले ने तेने कोश्क यथार्थ वांत कहे जे जे आतो तारं जुएं करनार ने एनो संग त्याग कर. एम यथार्थ कहेनार मळे ले तोपण ते योग चूर्णादिकना प्रजावधी त धूतं पुरुष वचन त्याग करी शकतो नथी तेम था श्रावक लोक एम लिंगधारीना कुमार्गरुपी वशीकरणथकी बुटी शकता नथी इत्यादि पूर्वनी पेठे संबंध.करवो.
": 'टीका:-किं दैवेन प्रतिकूलविधिनोपहताः सद्बुद्धिबंश प्रापिताः ॥ तेहि विधिवशेन विपर्यस्तमतित्वादकृत्यमपि स्तेयादिकं कृत्यतया मन्वाना स्तत्वं प्रतिपाद्यमानापि वर्महिम्ना ततो न निवर्तते तथैतेपि किं अंगेति पार्श्ववया॑मंत्रणं किं गिताः मंत्रादिप्रयोगेण स्वायत्तीकृताः॥ . अर्थः-वळी प्रतिकूल देवे एटले विपरीत अदृष्ट श्रावक लोकनी सारी बुद्धिनो नाश कयों ले के शुं कमजे जेनु प्रतिकूल दैव बेतेनी विपरीत मति ने ए हेतु माटे चोरी प्रमुख न करवानुं कापने पण करवापणे माने . तेने कोश्क कहेनार मळे जे जे श्रा काम करवा योग्य नथी एम यथार्थ कहे तोपण उष्ट अष्टना महिमाये करीने ते चौर्यादिक कर्मथी निवृत्ति नथी पामता. तेम ए श्रावक पण .न, करवान करे डे माटे एमर्नु अदृष्ट वांकु थयुं के शु! अंग एप्र.
कारनुं पासे रहेलाने संवोधन आपे ले जे तमो ठगाया गे के शुं! एटले हे श्रावक लोको ए लिंगधारीनए मंत्रादिप्रयोगे करीने तमने बगी श्रीधा बे के शं! .
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2. अथ श्री संघपट्टका 8.-.... . .३२७) टीकाः यथाहि केचन केनापि धर्मात्रिकेण वशीकरणमंत्रण तथाकृता स्तचनमसमीचीनमप्यत्यतसमीचीनतयाऽज्युप - • गवंत स्तत्वमवगमिताअपि . मंत्रमहिम्ना न ततोनिवर्तते एव मेतेपि ॥ किंचेति पक्षांतरे ग्रहैजूतादिनिरावेशिताःकृतावेशाविहितशरीराधिष्टाना शतियावत् ॥ ,
अर्थः-जेम कोइ कुष्ट मांत्रिक पुरुषे कोश्क वशीकरणना . मंत्रे करीने तेवी रीते वश कर्या होय जे तेनुं विपरीत वचन होय
तेने पण सारं करीने माने. पडी तेने कोइ पुरुष यथार्थ समजावे तो . पण ए मंत्रना महिमाए करोने तेथी निवृत्ति न पामे -एटले ते. खोटाने पण साचं जाणीने काली रहे ए प्रकारे आ श्रावक लोक पण थया शुं!
. किंच-एटलो अव्यय बीजा पक्षने कहे ले के वळी भूतादिग्रह प्रवेश कर्या डे के शुं एटले ए श्रावक लोकना शरीरनु अधिष्टान करीने नूत वळग्यां के शुं ?
_. टीकार-यथा नृताद्यविटिता स्तदावेशा विधेयापरिज्ञा.
नेनाविधेयमपि पितृप्रहारादिकं विदर्धाना स्ततो निवर्त्यमाना . थपिन निवर्तते एवमेतेपि सदसद्विवेकविकल तयाकुपथान निवर्तत इति ॥ अत्रच दिग्मूढादिबहुधाविकल्प प्रदर्शनमाधुनिक श्राबलोकानामत्यंतानिवर्त्य स्वगळग्रहग्रस्तत्वज्ञापनाथ ॥ .
... अर्थः-केम जे जेना शरीरने जूतादि वळग्यां होय' तेना
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((३२८')
अथ श्री संघट्टक
श्रवेश थकीं तेने या ते करवा योग्य बे के श्राते करवा योग्य नथी एवं ज्ञान नथी रहतुं माटे पितादिकने पण प्रहार करवा मां बे त्यारे तेने कोइ तेनाथी निवृत्ति पमाकवा जाय तोपण निवृति पामे नहि एम श्र श्रावक लोक पणं सारा खोटाना विवेके रहित ठे. माटे ते कुमार्ग की नयी निवृत्ति पामता हवे या काव्यमा घेणा farer देखाड्या नो अभिप्राय ए बे जे या काळनां श्रावक लो'को अत्यंत माथी निवृत्ति न पमाय एवो पोतानों गवरुपी ग्रह 'तेथे करीने गळाया वे एम जणाववनि अर्थे घणा विकल्प कला बे.
टीका:- कृत्वा विधाय मूर्ध्नि शिरसि पदं पादं श्रुतस्य सिद्धां 'तोता तिक्रमेण निःशंकतया स्वगुरुलिंगप्रवत्तितासन्मार्गपोंषणमेव श्रुतमूर्ध्नि पादकरणं श्रुतमूर्ध्नि पादन्यसि च तेषामिदं बीजं ॥ जगवत् सिद्धांतो हिनैकांतेनैव विहितानुष्टान विधिनिष्टइत्यादि विवेकिनां निःश्रेयसाय नविष्यति किं श्रुतेनेत्यंतं 'लिंगनिर्ययुक्तं मूलपूर्वपक्षे ॥ तस्योपदेशस्य सततं सत्सकाशे श्रवणमिति ॥ एतच्चायुक्तं ॥
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अर्थः- शुं करीने ए प्रकारना थया डे तो सिद्धांतना मस्तक उपर पग दइने केम जे सिद्धांतमां जे कह्युं तेनुं निशंकपणे उल्लंधन करतुं ने पोताना जे लिंग धारी गुरु तेने प्रवर्त्ताव्यो जे सत् मार्ग तेनुं पोषण कर एज सिद्धांतने माथे पग दीधो कहेवाय माटे तेमने सिद्धांतने माथे पग दीधानुं तो आ बीज बे जे भगवत्नो सिद्धांत तो एकांतिकपणे को एवो जे अनुष्टान विधि तेने विषे 'असे तात्पर्य से जेनुं एवो नमी एवचनथी आरंजीने विवेकी ओन मोक
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अथ श्री संघपट्टक
' (१९)
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जणी सिद्धांत थवे शुंए वचन पर्यंत लिंगधारीए जे कयु हतुं. मूल पूर्वपदने विषे एटले पूर्वे ते उपदेशनुं ते लिंगधारी पासे. निरंतर सांनळ एतो घणुंज अयुक्त .
टीका:-यतः, नवि किंचीत्याद्यागमशेकलस्येदं मुतराई। एसा तोर्स आणा, को सच्चेणहोयवमिति ॥ अस्य चायमर्थः॥ एषा नगवता माज्ञा यत् कार्ये सत्येन जवितव्यं ।। कोर्थः कार्य ज्ञानादित्रयं ॥ सत्यंच संयमः ॥ यथा यथा ज्ञानादिकं संयमश्चोत्सर्पत स्तथातथा यतिना निर्माय यतितव्य।
अर्थः-जेहेतु माटे 'न विकिंची 'इत्यादिआगमनो कको लश्ने ए लिंगधारी वोले डे पण ते गाथार्नु उत्तराई तो श्री प्रकार, ले जे 'एसा' इत्यादि एनो आ प्रकारको अर्थ ले जे श्रा जगवंतनी आज्ञा ने जे कार्यने विषे सत्यपणे थq. तेनो प्रगट अर्थ शो थयो ? तो आ प्रकारे थयो जे कार्य एटल करवा योग्य ज्ञानादि त्रण ने सत्य एटले संयम ते वेय जेम जेम वृद्धि पामे तेम तेम मायारहितपणे यतिए प्रयत्न करवो.
टीका:-यदाह । कन्जं नाणाश्यं, सच्चं पुण संजमो मुणे यहो। जह जद सो होइ थिरो, तहतह कायवयं कुणंसु ॥दोसा जेण निरुज्जति, जण खिज्जति पुवकम्मा ॥ सो सो मुरकोवा श्रो, रोगावच्छासु समणंव ॥
अर्थ जे मादे ए वात शास्त्रमा कही ठे जे ज्ञानादि त्रण
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(३३) ''
अय श्री संघपट्टका
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एने कार्य कडीए ने बळी सल ते संयम जाणवो. ते वेय जेम जेम स्थिर प्राय तेम तेम कार्य कर. जेणे करीने दोप जाय ने जेणे करीने पूर्वे करेलां कर्म खपाय ते ते मोक्षनो आय जाणवो..
टीका:-नवागमे सुखलिप्सया किंचित्सुनितं, किंतहियावता विना संयमझान दियात्रा नोत्सर्पति तावन्मावत्यैव विहित निवारणस्यनिवारित विधानस्य च नगवनिः पुष्टालंबनेन काहाचिकतया तत्रानुज्ञानात् ।।
अर्थः-आगमने विप सुखनी लालचे कां पण कर्तुं नथी त्यारे शुं तो जेना विना संयम ज्ञानादियात्रा वृद्धि न पामे, तेटला विधिनो निषेध कहो ने ने निषेधनो विधि को ठे नगवते पुष्टांलंबन जाणीने क्यारेक करवापणे तेनी आज्ञा आपीठे पण निरं. तरपणे आपी नत्री.
टीका-एवंचकथं श्रुतस्याव्यवस्था ॥ नवन्मार्गस्यचोटेशिकनोजना सर्वस्यापि लार्वदिकतया निस्दंगत्वेन केवल सुखातुनवाशनेव प्रवृत्तेः । तथाच तस्य महासावद्यत्वेन झानादियात्राहयमाणत्वात् कथं प्रामाण्य मिलहो अकलितगुण दोपविनागः स्वपक्षानुरागः खलानां यनगवन्मतस्याव्यवस्थापादनेन स्वमतस्योत्कर्षप्रर्दशनं । नहितेजसः सकाशात् कदाचित् तमसउत्कर्मसंनव इति ॥
अर्थः ने जो विधिनो निमेध, निषेधनो विधि निरंतरपणे
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अथ श्री संघपट्टका
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होय तो जगवत्ना मार्गनी तथा उद्देशिक नोजन इत्यादि सर्व व. स्तुनी व्यवस्था न रहे, केमजे सर्वने सार्वदिकपणुं थाय तेम निर्दयपणे केवळ पोताने जेम सुख नपजे तेमज प्रवर्तवार्नु रहेढुंडे ए हेतु माटे वळी ते उद्देशिक नोजनादिकने महा सावद्यपर्णी
तेणे करीने ज्ञानादियात्रानी हानिपणुं तेमां रडं ने माटे केम प्रमाणिकपणुं कहेवाय ने आतो आश्चर्य हे जे खळ पुरुषोने जेमां गुणदोषना विन्नाग नीकळता नथी एवा पोताना पक्षनो अनुराग ले जे माटे लगवंतना मतनी अव्यवस्था संपादन करवी तेणे करीने पोताना मतनुं उत्कर्षपणुं देखामे डे पण ते एम नथी जाणता जे क्यारेय पण तेजना म्होंमा आगळ अंधकारनो नत्कर्ष संजवशे?. नहिज संनवे.
टीका:-किंच तीर्थंकरगणधरपूर्वधरादिसातिशयमहापुरुषविरहे संप्रति तत्सिद्धांतएव नःप्रमाणं ॥ यदुक्तं ॥ नो पिछामो सम्वन्नुणो संयं न मणपजवजिणाएं । नय चन्दस दसपुश्विप्पमुहे विस्सुयसुयहरेवि ॥ एवंपि अह्मसरणं ताणं चरकू गश् पइवोय॥ जयवं सितोच्चिय,अविरुको श् दिकेहि।
अर्थः-वळीशुं तो तीर्थंकर गणधर आदिक जे महा अतिशय वाला पुरुष तेमनो विरह थये सते आ काळमां तेमनां सि. द्धांत एज हमारे तो प्रमाण ठे जे माटे ते शास्त्रमा कडं ने जे.
टीका:-तस्य च प्रामाण्यानज्युपगमे तत्प्रणेतु नंगवतोप्याप्रामाण्यान्युपगमप्रसंगेन नवतस्तन्मूलरजोदरणादि वेपपरित्यागापत्तिः॥
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(२)
श्री संघपट्टकः
॥ यमुक्तं ॥
आसाए श्चिय चरणं, तब नंगे जाए किं न जग्गं. ति॥ श्राणं च तो कस्साएसा कुइ सेसं ॥
अर्थः- सिद्धांतनुं जो प्रमाणपणुं अंगिकार न करो तो तेना 'कनार भगवंतनुं पण प्रमाणपणुं न श्वानो प्रसंग थशे. तेथे क रीने जगवंत के मूल ते जेनुं एवो जे तारो रजोहरणादि धारण - करेलो वेष तेनो परित्याग करवानी प्राप्ति थशे. पटले जो भगवंतनुं सिद्धांत नथी मानतो तो जगवंतनो कहेलो रजोहरणादि वेष तेने मूकी दे. जे माटे से बात शास्त्रमां कहीं बे जे भगवंतनी श्राज्ञा एज़ निचे चारित्र बे, माटे ते श्राज्ञा जागे सते शुं न जायुं ! सर्वे जायुं.
- टीका:- तथाचार्य सुखाशया जवत्कल्पितः पंथाः सक बोपि विशरास्ता मापद्येते त्यहोलान मिठोनी व्याश्रपि - व्ययः संवृत्तः ॥ यदपि रुग्विणः कल्यतां यांतीत्यादिश्लोकबलेन स्वमकल्पित क्रियायाः सुकुमाराया मोहांगत्वसमर्थनं तदप्य सुंदरं ॥ यतः एत लोकार्थ एव मागमे विधीयते ॥ मश एवि किरियाए कालेयारोगयं जह नर्वेति ॥ तचैव न निव्वाणं जीवा सिद्धंत किरियाए ति ॥ अत्रदि सिद्धांत क्रियायाएव चिरंतनमुनि क्रियापेक्षया कोमलाया श्रपि निर्वायांगत्वं प्रतिपा दितं नतु त्वद निप्रेतोत्सूत्र क्रियाजासस्य ॥
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-48 अथ श्री संघपट्टक
( ३३ )
अर्थः- वळी सुखनी श्राशाए जे करवुं
तेथे करीने जगवंते करेलो जे मार्ग ते सर्व नाश पामे. माटे अहो श्रतो मोटुं श्राश्वर्य जे लाननी इच्छा करनारने मूळ धननो पण नाश थयो. तेम वळी जे पुर्वे तमे प्रतिपादन कर्यु जे रोगी पण सारा श्राय ः त्यादि जावने कहेनार श्लोकनुं बळ लइने पोतानी कपोल कल्पित क्रिया सुकुमार बे एटले सुख समाधे थाय एवी ब्रे तेने मोना गप प्रतिपादन कर्यं ते पण शोजतुं नयी केमजे ते श्लोकनो अर्थ
गमने विषे या प्रकारनो को वे जे या जगाए सिद्धांतने विषे पूर्वना महंत मुनीनी क्रियानी अपेक्षाये जे सुकुमार क्रिया कही बे तेने मोनुं अंगपणुं प्रतिपादन कयुं बे तेथे करीने कांडू तारो मानेलो जे उत्सूत्र क्रियानास तेने मोनुं अंगपणुं प्रतिपादन नपर प्रमाणे न थयुं.
टीका:- तो नवदनिमत क्रियाया उपदर्शितन्यायेन तद्विपर्ययप्रसाधनान्न वत्श्लोकवलेन नवत्प्रकल्पितश्रुता प्रामाण्यसिद्धिः ॥ एवंच लिंगदेशनया श्रुतस्य मूर्ध्नि पदकरणमसांप्रतमपि कृत्वा यदमी प्रत्यक्षगोचराः श्रावकज़नाः सुदृढगवग्रहग्रंथयो दृष्टो रुदोषाश्रपि साक्षाकृत गुरुतरपूर्वोदित कुपथापराधा श्रपि ॥ दृष्ट दोषादि विवेकिनोपि कु पथादपि न निवर्तितुमीशते किं पुनरन्य इत्यपि शब्दार्थः ॥
अर्थः- ए हेतु माटे तें मानेली जे क्रिया तेनो प्रथम दे
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(३३४) ' . अथ श्री संघपट्टका - मयो जे न्याय तेणे करीने विपर्ययनुं साधन करवापर्यु ले एटले तेमां मानेली जे क्रिया तेनुं खंमन करवापj डे ए हेतु माटे ए श्लोकना बळे करीने ते कल्पना करी जे सिद्धांतनुं अप्रमाणपणुं तेनी सिद्धि न थ माटे लिंगधारीनी देशनाए करीने सिद्धांतनामस्तक उपर पग मूकवो ते अघटित ले तोपणं तेना करनारा जे आ प्रत्यक्ष जपाता श्रावक लोको नेते अतिशयं दृढ बंधाइ गबना ग्रहरुपी ग्रंथी ते जेमने एवा ने माटे ते लिंगधारीनना प्रत्यक्ष घणाक दोष देखे डे ने वळी, साक्षात् अतिशय मोटा पूर्वे कह्या ले कुमार्गमा
प्रवर्तवारुप अपराध ते जेमना एवा ने तोपण कोइक अदृष्टना दोषे . करीने जे विवेकी जे ते पण कुमार्गमाथी निवृत्ति पामवाने समर्थ . थता नथी तो बीजा अविवेकी कुमार्गथकी निवृत्ति पामवाने कयांथी
समर्थ थाय एम अपि शब्दनो अर्थ ने.
टीकाः-व्यावृत्तिमपसरणं कुपथात् अधिकृतात् कुमागात् जमाः स्वहिताहितविवेकशून्याः नदधते न चेतसि धारयंति न कुर्वतीत्यर्थः नकेवलं व्यावृत्ति स्वयं न दधते असूयंति चयति सगुणे दोषमारोपयंतीतियावत चः समुच्चये एतां कुपथव्यावृत्तिं करोति एतत्कृत् तस्मै ॥ कुध हेयेत्यादिना चतुर्थी॥ महासत्वाय कस्मै चित्कुपथव्यावृत्ति विधायिने ॥ .
अर्थ:-जे पोतानुं हित ने अहितनो जे विवेक तेणे करीने शून्य एवा जमपुरुषो कुमार्ग थकी निवृत्ति पामवाने विचार पण करता नथी एटलो अर्थ के. केवळ एटइंज नथी करता त्यारे शं तो र्ध्या पण करे एटले गुणवानने विषे दोषनो आरोप
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अय श्री संघपक
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(३३९ )
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करे बे. चकार अव्यय जे तेनो समुच्चय रुपी अर्थ ने. तेरो करीने एम अर्थ थयो जे ए कुमार्गथकी निवृत्ति पामनार कोइक महासत्ववंत प्राणी ते प्रत्ये उलटा इर्ष्या करे . व्याकरण, विचार जे महासत्वाय ए जगाए 'कुध अहेया ए सूत्रे करीने चतुर्थी विनती थइ .
टीका-अत्रचोत्ररवाक्यार्थगतत्वेन प्रयुज्यमानो यन्नब्द स्तन्छब्दोपादानं विनापि तदर्थंगमियति ॥ यथा ॥ साधु चंजमसि पुष्करैः कृतं,मोलितं यदन्निरामताधिकं इति ॥ तेनायमर्थः ॥ तेषांहि दृष्ट दोषत्वात् कुपथाचावत्स्वयं व्यावृत्तिः कतु युक्ता॥ अथ कुतोपिहेतोः स्वयं न व्यावर्तते तदा तद्व्यावृत्ति कारिणि प्रमोदो विधातुं संगतः ॥ यत्पुनरमी यमध्यादेकमपिं कर्तृ नोत्सहते प्रत्युत कुपथ निवृत्ति विधायिनि कस्मिन्नपिझुझोपजवाय यतंते तरिकममी दिग्मोहमिता इत्यादि योज्य। तेनैतमुक्तं जवति ॥ दिग्मूढादयो हि हितैषिणा व्यावर्त्तमाना श्रपि दिग्मोहादेव्यावृत्ति मात्रमेवन कुर्वति ॥ एते तुनकेवल कुपथान्न व्यावर्तते यावताकुपथव्यावृत्तिकारिणेऽसूयंत्यपीति तेच्योप्यमीकुत्सिताइति वृत्तार्थः ॥ १७ ॥
. अर्थः-आ जगाए नत्तर वाक्यार्थमा रहेलो जे यत् शब्द ते तत् शब्दनुं ग्रहण कर्या विना पण तेनो अर्थ पमा जेम सारो चंप्रमा उदय पामे सते जे कमल मीचायां ते शोनातुं अधिक पणुं कडं ने ते हेतु माटे आ अर्थ थयो जे पोते दोषदीग माटे पोतानी मेळे ज कुमार्गथी निवृत्ति पामतुं जोइए ए युक्त ने ने
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अथ श्री संघपट्टक
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वळी कोई कारणे पोतानी मेळे ते कुमार्गथी पाबु न वळाय त्यारे जे पुरुष एकुमार्गथी पाला वळ्या होय ते उपरप्रमोद करवो घटित डे वळी आ श्रावकं तो ए बेमांथो एके पण करवानो उत्साह नथी करता. उलटो जे कुमार्गथी कोइक निवृत्ति पामे के तेना उपर पर्ण तुज उपजव करवानो प्रयत्न करे ने ते माटे आ ते शुं दिग्मोह पा. म्या के के थयु ने इत्यादि योजना करवी तेणे करीने आ स्पष्टार्थ कह्यो जे दिग्मोह पामेला में पुरुष ते निश्चे हितकारी पुरुषे तेथी निवृत्ति पमामवा मांड्या ने तोपणं ते दिग्मोहादिकथीज के वळ निवृत्ति नथी पामता में आतो केवळ कुमार्गथी निवृत्ति नथी पामता'एटर्बुज नहि त्यारे शंतो जे ए कुमार्गथी- निवृत्ति पामे ले ते उपर उलटा इर्ष्या करे के माटे ते दिग्मूढ थकी पण आतो अतिशे निंद्य ले. भूमा ने ए प्रकारे आ-काव्यनो अर्थ थयों ॥१७॥
टीकाः-सांप्रतलिंगिदेशनया' श्राद्धैरविधिविहितस्य जि. नमजनस्यापि दुर्गतिपातहेतुत्वप्रतिपादनछारेणश्रुतपथविज्ञा दर्शयन्नाद ॥
अर्थ:-हवे लिंगधारीनी देशनायें करीने श्रावक लोको विधि रहित जे जिनमज्जन नत्लाव करे जे तेपण उगतिमां पमवानु कारण एम प्रतिपादन करनार बार करीने सिद्धांत मार्गनी श्रवज्ञा देखामता सता कहे .
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अथ श्री संघपट्टक
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॥ मूल काव्यम् ॥ इष्टावाप्तितुष्टविटनटनटचेटकपेटकाकुलं निधुवनविधिनिबद्धदोहदनरनारीनिकरसंकुलं ॥ . रागोषमत्सेरयाघनमघपंकेथनिमज्जनं जनयत्येवचमूढजनविहितमविधिनांजैनमन्जनं ॥ १७॥
टीकाः जैनमजानं नगवहिवस्नानं कर्तृ जनयत्येव संपांदयत्येव नतु. कदाचिन्न जनयत्येवकारार्थः ॥ अघपके पापकर्दमे निमजानं त्रुनं कर्म तत्कर्तृणामितिशेषः ॥ अथ कथं पुण्यायविधीयमानं जिनस्नानं पापपंकनिमंजनाय प्रजवतीत्यताह ॥
अर्थः-जे नगवत्तिवतुं स्नात्र तेज पापरुपी कादव प्रत्ये बुमामे बे एम अर्थ जणावनार एक्कारनो अर्थ बे, ते कोने बुमा ' तो जे स्नान करे । तेने एम कर्तृपदशेष उपरथी लेवु त्यारे हवे अहीं आशंका करीने कहे दे जे पुण्यने अर्थ कर्यु जिन' स्नात्र ते पापकादवमां बुमामवाने केम समर्थ थाय ? तो तेनो उत्तर कहे जे जे..
टीका:-अविधिना सिद्धांतोक्तक्रमविपर्ययेण प्राक्तन विशेषणान्यथानुपपत्या रात्रावित्यर्थः॥ सिद्धांते हिरजन्यां जिन स्नानं निवारितमतस्तत्र तत्कुर्वतां कथं न पातकमित्यर्थः॥
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अय श्री सघपट्टका
अथ के दोषमनिप्रेत्य सिद्धांते रात्रिस्नात्रनिवारणमिति दोषप्रदर्शनाय हेतुगर्न विशेषणत्रयं मज्जनस्याह ।
अर्थः-विधिरहितं एटले सिद्धांतमा जे अनुक्रम कह्यो तेथी विपरीत पूर्वे कहेलां विशेषणने सार्थक करवाने रात्रिने विषे स्नात्र करे ने एटलो अर्थ थयो. विधि रहित ने रात्रि विषे जे पं. रमात्मानुं स्नान कर ते पूर्वे कर्यु ए प्रकारनुं . एटले सिद्धांतने विषे रात्रिमा जिननुं स्नान निवारण कयु डे ए हेतु माटे रात्रिने विषे स्नान करनारने केम पाप न होय एटलो अर्थ के हवे शो दोष अंगिकार करीने सिद्धांतमां रात्रिने विषे स्नात्र करवानुं निवारण कर्यु ले ए दोष देखामवाने हेतुगनित ए स्नात्रनां त्रण वि. शेषण कहे .
टीका:-इटावाप्ति इत्यादि ॥ श्ष्टाया वहनाया मज्जन दर्शनमिषेणागताया अवाप्ति मेंलकस्तया तुष्टा निःशंकमत्राद्य नः सुरतलीला प्रवस्य॑तीतिधिया मुदिता विटा वेश्यापतयः
नटा नाटकालिनयनादिकलोपजीविनः जटाः शस्त्रादिकलाजी• विनः चेटका मासादिनियमितवृत्तिग्राहिणः एषां पेटकं समुदाय
स्तेनाकुलं दुनितं प्रेयसीप्राप्त्या 'सात्विकनावेनाकुलीकृत · विटादिजना कीर्णत्वात् मज्जनमप्युपचारादाकुलं ॥
नटा नाटकासाला प्रवत्य॑तीतितया उष्टा नि
अर्थः जे ए स्नात्र के जे जेमां पोताने वचन एवी जे स्त्री तेनी प्राप्ति थाय एटले स्नान देखवानुं मिष करीने श्रावेली जे पोतानी वांछित स्त्री तेनो समागम तेणे करीने राजी थयेला
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अथ श्री संथपट्टक
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एटले आज शंकाये रहित आपणी संजोग लीला प्रवर्तशे ए प्रकारनी बुद्धिवते हर्ष पामेला जे विट कहेतां वेश्यापति, तथा नट कहेतां नाटक आदि कळावमे आजीविका करनार पुरुषो तथा जट कहेतां शास्त्रादिक कळावमे आजीविका करनारा तथा चेटक कहेतां महिने महिने अथवा वर्षे जे जे पोतानी नियमाये आजीविका वांधी ने तेनुं ग्रहण करनारा एवा जे पुरुषो तेनो जे समुदाय तेणे करीने दोन पामेलु एवं स्नात्र दे. एटले वांछित स्त्रीनी प्राप्ति थ ते रुप शृंगार रसनो हेतु भूत सात्विक नाम अव्यभिचारी एटले शृंगारनी पुष्टीनो कारणयोग तेणे करीने आकुल व्याकुल थयेला जे लोक तेणे करीने व्याप्त थयेनुं वे माटे ए स्नात्र पण उपचारथी श्राकुल युं एम कहेवाय.
टीकाः-तथा निधुवन विधिनिवद्धदोहदा मोहनविल. सितविहितानिलाषाः' या नरनार्यः पुरुपयोषित स्तासां निकरण निचयेन संकुलं व्याप्तं ॥ नारीणांहि प्रायोनिधुवनार्थमेव मजनावलोकनबद्मना तत्रागमनात् । तथाविधव्याजमंतरेण रात्रौ तत्राप्यागमनासंचवात् ॥ तथा विधव्याजेन चान्यत्र गंतु मशक्तत्वात् ॥
अर्थः-चळी ह स्नात्र केतुं ले जे जेमणे मैथुन विलास करवानी अभिलाषा.वांधी ने एवी स्त्री ने पुरुषतेमनो जे समूह तेणे करीने व्याप्त ए, एटले बहुधा स्त्रीनने .मैथुनने अर्थेज स्नात्र जो. वाना कपटे करीने त्यां श्राव, धाय ते. ए हेतु माटे केमजे ते प्र. कारनुं कपट कर्या विना रात्रिने विषे त्यां श्रावईं संभवतुं नथी. ने .
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(३४०)
+ अब श्री संघपकः -
ते प्रकारनुं कपट करीने बीजी जगाए पण जवा समर्थन थाय माटे.
टीका:-श्रतएवरागः कांचित् परवर वर्णिनी प्रत्यजिवंगः देषः स्वप्रेयसीमन्येन सह संगछमानां पश्यतस्तजिथांसा मत्सरः किंचित्सौलाग्येन कयाचित्संघद्यमानमालोकयतः स्वयंच तां कामयमानस्य तत्सौन्नाग्यविच्याविषा, ईर्ष्या स्विवचनामन्येन साई संलपंतीमीक्षमाणस्याऽसहिष्णुता ॥ ततो रागश्चेत्यादिः ॥ तानिर्धनं सांई। अत्रापि रागादिमसौकधन'त्वान्मजनमप्युपचारात्तथा ॥
अर्थः-एज कारण माटे राग एटले कोश्क पारकी स्त्री प्रत्ये अति आसक्ति, ने देष एटले पोतानी वहाली स्त्री वीजा पुरुष संघाये संगम करती देखीने ते पुरुषने हणवानी वा करवी ते, तथा मत्सर एटले कोश्क पुरुषे कोइक स्त्रीनी कामना करेली एटले प्रथम वांचा करेली ते स्त्री ते विना ते करतां अधिक सुंदर वीजो पुरुष मळ्यो तेनी संघाचे संघटन करती ते स्त्रीने प्रथमना पुरुषे देखी पठी जेनी साथे-संघटन करे ने ते पुरुषना सौलाग्यपपानो नाश करवो तेनी जे इच्छा ते, तथा इर्ष्या एटले पोतानी व.. हल स्त्री वीजानी संघाये आलाप संलाप करती देखीने जे अस"हनपणुं थाय ते सर्वे करीने ए स्नात्र अतिशे व्याप्त . रागादि पदनो इंछ समास करवो. श्रा जगाए पण रागादि सहित घणा लोक ए प्रकारना ते पण,नपचारथी ते प्रकारतुं स्नात्र कह्यु.
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टीका:-कामुकलोकमेलकेहि जिनगृहे पि निशायां रागा
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अथ श्री संघपट्टक
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दयएवोज्जूंनंते नवणीयस्यपि धर्मनावना ॥ तयुक्तं ॥ प्रा. रव्धे जिनर्विवमन्जन विधौ मुग्धै निशि श्रावकैः, श्रेयोर्थं जिनमदिरे समुदिताश्चित्रं रिंसास्पृशः ॥ स्त्रीपुंसा रनसाउपात्तसमयास्तांवूलविवाधरा,गाढालिंगननंगिसंगमसुखं विदंति नंदति च।
अर्थ:-रात्रिए जिनघरने विपे कामि लोकनो मेलावो थाय तेमां रागादिकज उत्पन्न पाय पण अतिशय थोमी पण धर्मनीना.वना तो नत्पन्न थायज नहि ते शास्त्रमा कडं जे जे रात्रिये जिनमदिरमा श्रावक लोके स्नात्र विधि श्रेयने अर्थे आरंन्यो एम जे कहे ते तो महा आश्चर्यकारी , केमजे क्रीमा करवानी इच्छाए वेगे करीने नेळां थयां जे स्त्री पुरुष ते ए समय पामीने तांबूल नक्षण करवाथी लाल होठ जेमना थया ने ने परस्पर .आलिंगननी स्वनावते संगमनुं सुख अनुभव करे ठे अने आनंद पामे बे.
टीकाः--एतमुक्तं नवति जिनस्नपनं हि स्वस्य परेषांचना , मृणांरागडेपांदियाय विधीयते॥ निशायां तद्विधानेच कामुकानांसुरताद्यसमंजसप्रवृत्याऽप्रतिहतप्रसरस्तत्प्राउ व इति कथं तत्क्षय विधायिता तस्य स्यात् ॥
अर्थः-ए वात कही ठेजे जिन परमात्मानुं स्नात्र ते पो. ताने तथा परने तथा देखनारने राग वेपना दयने अर्थे करीए वीए ने रात्रिए ते करे सते तो कामी पुरुपनी संजोगादिक जुंमी प्रवृत्ति रोकाश् शकाय एवी नथी माटे ते जिन स्नात्र रागद्वेषनुं नाश करनार केम थाय ? नुलटुं रागद्वेयनी वृद्धि करनार .
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( ३४२ )
-4 जय श्री संघपट्टकः
टीका:- अथास्तु नट विद्यादीनां तत्प्रादुर्भावः किंन विन्नं ॥ नहतावतापि श्राद्धानां श्रद्धया स्नात्रं विदधानानां तान्यपुएयदा निरितिचेन्न ॥ तेषां तत्प्रादुर्भावस्य सुरता दिवशप्राडुष्य गवदाशातनायाश्चानंतसंसारका रिएया रात्रिस्नात्रका रिश्रावक निबंधनत्वात् ॥ मानव्याजमंतरेण निशीथिन्यां तेषां रतार्थमपि प्रायेण जिनजवनागमनासंभवात् ॥ एवंच नटादिरागादि वृद्धिनिमित्तनावमासेषां श्रावकाणां कथं न मनजन्यपुएयनाशः ॥
अर्थः- हवे तुं एम कहतो होय जे एंतो नट विटा बिक कामी पुरुषोनी एवी प्रवृत्ति थाय बे तेमां अमारुं शुं गर्छु ? दमारुं शुं बेदायुं ? एणे करीने जे श्रद्धावमे स्नात्र करनार श्रावक लोकोने ए स्नात्र थकी थयुं जे पुण्य तेनी हानी यती नथी. एम तारे न कदेवु केम जे तेनो उत्तर कहीए बीए जे ते कामी पुरुषोनी की प्रवृत्तिनी उत्पत्ति थवी तेनुं कारण ते रात्रि स्नात्र करनार श्रावक
हेतु माटे ने ते कामी पुरुषो संजोगादिकने विषे परवश थाय देते थकी उत्पन्न थर जे जगवंतनी प्रशातना तेने अनंत संसारं कारण बे. माटे रात्रि स्नात्र करनार ए सर्वेनो कार पिक थयो ए हेतु माटे केम जे रात्रि स्नात्रना मिष विना तेमनुं संजोगने श्रर्षे पण बहुधा जिनमंदिरमां श्राववानो संजव नथी ए हेतु माटे नटादिक पुरुषोनी रागादिकनी वृद्धितुं निमित्त कारणने पमानार 'श्रावक लोकने 'ए स्नात्र थकी केम पुण्यनो नाश न थाय एतो घायज.
टीका:- किंच नटायसमंजसंप्रवृ निदर्शनेन श्राद्धानामप्य
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अथ श्री संघपटक
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विवेकिनां केषांचिदिदानी जिनगृहे तथा प्रवृत्र्युपलंजात् ।।तपुताएक्केण कयमकांकरेश्तप्पच्चया पुणो अन्नसाया बहुलपरंपरखुन्छेन संयमतवाणं ॥
अर्थः-वळी नटादिकनी मी प्रवृत्ति देखवे करीने अविवेकी केटलाक श्रावकने पण आ काळमां जिनमंदिरमां ते प्रकारनी जूंमी प्रवृत्ति करवानुं देखीए बीए हे हेतु माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे.
टीकाः-तथाच तेषां कथं महानादिजन्यपुएयगंधोपीति चिंत्यतां सूदमधिया ॥ जगवनिः श्रीजिनदत्तसूरिनिरप्येनं दोषसमूहं. रात्रिस्नात्रस्योपलच्य प्रतिपादितं ॥जा रत्ती जारती मिह रई जण जिणवरगिहेवि॥सा रयणी रयणियरस्स होनकह नीरयाण मया ॥
अर्थ-वळी तमे सूक्ष्म बुद्धि करीने विचारो जे ते पुरुपोने स्नात्र आदिक थकी थयुं जे पुण्य तेनो गंध पण क्याथी होय नज होय, समर्थ एवा श्री जिनदत्त सूरि तेमणे पण ए रात्रि स्नाबनो दोप लश्ने निषेध प्रतिपादन कर्यु ले जे.
वीका:-अलि जिनमज्जन विधानेच नोक्तदोपले शस्यापि संनवः ॥ जनसमदं दिवा तथाप्रवृत्तेर्वज्जनीयत्वेन राजनिग्रहजयेनच प्रायेणासंजवात् ।। तस्मादिनएव जिनस्नात्रं धर्मार्थिनां विधिप्रवणानां श्रेयो न निशायामिति ।।
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( ३४४ )
49. अथ श्री संघपट्टक
अर्थः- दिवसने विषे जिन स्नात्र विधि करे सते तो पूर्वे कहेला दोषनो लेश पण संजवतो नथी. केमजे दिवसने विषे लोकनी समक्ष ते प्रकारनी प्रवृत्तिवाळाने लज्जा पामवापणुं बे ए हेतु माटे तथा राज दंग नो जय बे ए हेतु माटे बहुधा ए वातनो संभव नथी. धर्मना अर्थी एवा ने विधि विषे तत्पर एवा प्राणीने दिवसमां ज जिनस्नात्र कर एज श्रेय जणी बे पण रात्रिने विषे जे स्नात्र कर ते श्रेय जली नथी एतो दोष जणीज बे.
टीका: अत्र यद्यपीष्टावाप्तीत्यादिविशेषणकदंबकं जिनगृहस्यैव संभवति न मज्जनस्य तथापि मज्जने सति तस्यैवं विधत्वमितिमज्जनस्य प्राधान्येन विवक्षणा दुपचारेण मज्जनमप्येवं विशेषणानां चान्यत्र निवेशने विशेषणविशिष्ट मुक्तमिति अन्य रात्रि मज्जनस्यात्यंतदोषतया सर्वथा निवार्यत्वंव्यज्यते ॥
अर्थः- जगाए जो पण इष्टावाप्ती एटले वलन वस्तुनी प्राप्ती इत्यादि विशेषणनो समूह ते तो जिनमंदिरनुज सं नवे पण स्नानो संभवतो नथी तोपण जिन स्नात्र सतेज ते जिनमंदिर ए प्रकारे थाय के माटे स्नात्रनुं श्रहिं प्राधान्यपणे कहेवानी वा वे तेथी उपचार मात्रे करीने स्नात्र पण ए प्रकारना वि. शेष सहित बे एम कयुं. केमजे अन्य विशेषणनुं अन्य जंगाए स्थापन करे सते रात्रि स्नातने अत्यंत दोषपणे करीने सर्वथा निवा"रण करवाएं डे एम सूचना करी.
टीका:--- एतेन यदपि कैश्चिदनिधीयतेरा त्रिस्नात्रेपि जग
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अथ श्री संघपटक
वतोन कश्चिद्दोषः जिनजन्ममजनस्य शक्रेण तथाविधानातु ॥ तथाहि सर्वेपि जितेंडा निशीथिनीयामध्यसमयएव जायंतेतदै- . वच सुरेषश्चामीकरगिरिशिखरं नीत्वा तान् स्नपयतीतिश्रूयते ॥ तस्यच तथासदोषत्वे शकस्तथा.न तत् कुर्वीत ॥ महतांद्यन्यथाकरणेतबोचनत्वात्तत्पथानुवर्तिनीनां प्रजानां दुर्गतिपाते नतेषां - महाहान्यापतेः॥ . .
अर्थ:-जो पण केटलाक एम कहे जे. रात्रि स्नात जगवतनुं करे सते पण दोष नथी केमजे इंज महाराजे जिन जगवंतनुं जन्मस्नान रात्रिए कर्यु ले. ए हेतु माटे तेज देखा जे सर्वे पण जिनेज रात्रिना वे पहोर समयमां एटले मध्य रात्रिये जन्मे डे त्यारेज इंज महाराज मेरु पर्वतना शिखर उपर लइ जश्ने ते जिन परमात्माने स्नान करावे डे एम सिद्धांतमां सांजळीए बीए माटे रात्रि स्नात्र करतां तेज प्रकारनो दोष होत तो तेम रंज महाराज न करत. शाथी जे मोटा पुरुष अन्यथा आचरण करे एटले विपरीत श्रांचरण करे तो तेमना मार्गने अनुसरती जे प्रजा तेमने तो ते मोटा पुरुष एज नेत्र जे. एटले मोटा पुरुषनी आचरण प्र. माणे आचरण करईं एमज देखे डे एटले जाणे २ ए हेतु माटे ते प्रजाने उगतिमा पम, थाय तेणे करीने ते मोटा पुरुषने मोटी हाण प्राप्त थाय ए हेतु माटे ए रात्रि स्नान करवामां दोष नथी,
• टीका:-लानादिविधाविंशाचरितस्य सर्वैरपि जिनपथ • वतिनिःप्रामाण्योपगमात् ॥ ॥ यक्कं ।।
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Mammamimamtaana
(३४६)
अर्थ श्री संघपक . . तित्थयरे बहुमाणो, अन्नासो तय जीयकप्पस्स ॥ देविंदाइअणुगि, गंजीरपलायणा लोए ॥
अर्थः-स्नानादिक विधिने विषे इंजना आचरणनुं जिनमागमा वरतनार पुरुषोए प्रमाणंपणे अंगिकार कर्यु ए हेतु माटे ते कछु ले जे.
टीका:-तस्मादिंघाचरितस्यप्रामाण्यानिशायामपि स्नपनं विधातव्यमिति तदपास्तं ॥ शक्रोजिनजन्ममजान मेरो- . करोतीति मन्यामहे ॥ नतु यामिनीयामहितयति ॥ मेरु शिखरे सूर्योदयास्तमयानावेनरात्रिंदिवव्यवहाराभावात् ॥
अर्थ:-ते हेतु माटे इंजनुं जे आचरण तेनुं प्रमाणपणुं वे माटे रात्रिए पण स्नान विधि कराववो, एम जे कहे ते मत पण खंमन को शाथी के इंजिननगवंतनुं जन्म स्नान मेरु पर्वतने विषे करे बे एम मानीए बीए पण रात्रिना वे पहोर थये सते एम नथी मानता केम जे मेरुपर्वतने विषे सूर्यनो उदय ने सूर्यनो श्रस्त तेनो अन्नाव ले ए हेतु माटे त्यां रात्रि दिवस एवो व्यवहार नथी.
• टीका:-तथाहि ॥प्रत्यस्तमितै तत्क्षेत्रवतिदिनकरकिरण । निकारःकालविशेषो हि रात्रिरित्युच्यते तट्रिपरीतश्च दिनमिति। मेवपेक्षया वेरत्यंतनीयैर्वाहितत्वेन किरणानां चोपरिष्टा तथाप्रसरानावेनाधस्तननागस्यैवतत्प्रकाश विषयत्वात्तथाच कथं तत्र रात्रिंदिवविनागः स्यात्.॥
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- भय श्री संघपट्टकः
( ३४७ )
अर्थ:--- तेज देखा बे जे क्षेत्रमा रह्यो जे सूर्य तेना कि
रणनो समूह श्राथमे सते जे काळ विशेष ते क्षेत्रने विषे रात्रि कही -. ये, ने ते थकी जे विपरीत काळ विशेष ते दिवस कहीए ने मेरु पर्वतनी अपेक्षा अत्यंत नीचो गमन करतो एवो सूर्य बे ए हेतु माटे किरणनो उपर तथाविध पसार थतो नयी. एतो देवला जागज ते किरण प्रकाश करवानो विषय बे ए हेतु माटे रात्रिदिवस नो विभाग त्यां कये प्रकारे बे ? कोइ प्रकारे नथी.
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टीकाः कथं तर्हि प्रकाशाचावेत प्राणां जिनमऊना दि विधिरितिचेन्नं ॥ रत्नसानोरधित्यकायाश्रतापकेन निरस्तपूषमयूखयोतेन सततमुच्चरता बदल विमलमाणिक्य शिलाम्ररी चि निचयेन देवमहिम्ना च शश्वद्भास्वरत्वात् । एवंचेंडाच रितावष्टं न कथं रात्रिस्नानं समर्थ्य माणं चारिमाणमंचेत् ॥
अर्थः--त्यारे त्यां सूर्यनो प्रकाश नथी त्यारे इंद्र जिन स्नाननो विधिक प्रकारे करे बे एम जो तुं श्राशंका करतो होय तो ते न करवी केम जे रत्ननां वे शिखर ते जेनां एवा मेरु पर्वतनी उपली भूमिने विषे ताप रहित ने जेमां सूर्यना किरणनो प्रकाश नयी ने निरंतर अतिशय देदीप्यमान एवी जे घणी निर्मळ मापीक्य रत्ननी शिलाट तेमना किरानो जे समूह तेथे करीने ते वळी देवताना महिमाए करीने निरंतर अतिशय देदीप्यमानपां वे ए हेतु माटे ए प्रकारे इंद्रना श्राचरणनुं श्रालंवन करीन जे रात्रि स्नानुं समर्थन कर एटले स्थापवुं ते केम अतिशय शोना प्रत्ये पामशे नहिज पाने.
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(- ३४८ )
जय श्री संघपट्टकः
टीकाः - इतोपि न रात्रिस्नात्रं पुण्यपात्रं ॥ जगवत्प्रतिकृ. तिपातुकस बिलपूर प्लाव्य मानस्य पिपीली का दिजंतु संतानस्य रायतनाया रात्रौ दुःशकत्वात्, तत्प्रधानत्वाच्च जिनशासनस्य।'
॥ यक्तं ॥
जयणाय धम्म जणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चैव ॥ तबुढिकरी जयणा, एगंतसुहावहाः जयां ॥
अर्थः-- वळी हेतु माटे पण रात्रि स्नात्र जे ते पुण्यने रहेधातुं पात्र नथी, एटले रात्रिस्नात्र थकी पुण्य थतुं नथी. जे नगवानी प्रतिमा उपर पकतो जे जळनो समूह तेथे करीने खेचातो जे कीमी आदिक जंतुनी समूह तेनी रक्षा. जतना तेनुं रात्रिये कर ते महा दुष्कर ने एटले थर शंकंतुं नथी ने जिनशासनतो जतनाप्रधान बे ए' हेतु माटे ते शास्त्रमां कथं बे जे जतना दे ते धर्मी नृत्पत्ति करना बे ने जतना बे ते धर्मनी पालन करावनारी. बें माटे एकांत सुख करनारी जतना बे इत्यादि.
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टीका:- किंच मानूवृहछब्देन सत्वसंहारकारिणां गृह गोधिका दिनां क्रूरजंतूना मुत्थानमिति प्राज्ञातिक प्रतिक्रमण मपि साधूनां मृडुखरेणा निहितमागमे ॥ यामिन्यां च मज्जन्नादिविधौ निरंतरगंजी रोडुरवाद्यमानातोद्य निनादश्रवणेन विजातमिति मन्यमानस्य तप्तायो गोल कल्पस्यासंयतजन स्पं जागरणात् ॥
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. . अब श्री संघपट्टक
(३४९) अर्थः-वळी मोटा शब्दे करीने प्राणीनो संहार करनार जे घरोली प्रमुख क्रुर जंतुनु नवु म थाव एटले न थाव. केम जे साधुने प्रजात काळर्नु पमिकमणुं पण कोमळ स्वरे करीने करवातुं शास्त्रमा कडं तो रात्रिए स्नात्र विधि करे सते निरंतर . गंनीर ने मोटा शब्दे वागतां जे वादित्र तेना शब्द सांनळवे करीने श्रा तो प्रातःकाळ थयो के शुं एम मानता जे तपावेला लोह जेवा क्रुर असंजति लोको तेमनुं जागवू थाय ए हेतु माटे.
टीकाः--तथाच तत्तणतदारन्यमाणानेकपापकर्म निमितनावेन कथं रात्रिस्नात्रकर्तृणां पापबंधो न नवेत् ॥ एतेन यदपि क्वचित्कथादिषु केषांचित् स्त्रीपुंसानां गिरिकाननादिस्थितदेवगृहेषु निशायां जिनप्रतिमास्नानादिश्रवणेन तदन्युपगमः सोप्यलीकालंबनमात्ररुचितां नवतोव्यनक्ति मोक्षार्थस्नानादे रिहाधिकृतत्वात् ॥ तस्यच सिद्धांते रात्री निवारणात् ॥ . अर्थः-वळी ते अवसरे आरंन काँ जे अनेक पाप कर्म तेनुं निमित्त कारण वे ए हेतु माटे रात्रिस्नात्र करनारने केम पाप . वंधन थाय ए तो थायज एणे करीने जे कोश्क कथानने विषे कोश्क स्त्री पुरूषोए करावेतुं पर्वतमा वनमा रह्यां देवमंदिर तेने विषे रात्रीए जिन प्रतिमानुं स्नान आदिक तेने सांनळीने ते वातनोजे. अंगिकार करवो ते पण जुठी वात आलंवन करनारी तमारी रांची ठे एम प्रगट कही देखामे वे अहीं तो मोदने अर्थे स्नात्र श्रादि करवानो अधिकार करेलो ते तेथी रात्रिस्नात्र सिद्धांतमा निवारण कंयु ते जे ए हेतु माटे न कर. ।
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(१५.) . जय भी संघपटक . - टीका तथाहि ॥ सिकाते संझाउँ तिनि तावठहण मिति . वचनात् संध्यानयलक्षणो जिनपूजायाः कालो नियमितोरात्रा . वपि तहिंधानेच कालंमि कीरमाणं किसिकम्मं बहुफलं जहा॥ होश्य सबच्चियकिरिया,नियनियकालंमिविनेयेत्यादिना कृषि.. दृष्टांतेन काल विधीयमानजिनपूजादिक्रियाणांसा फल्यानिधानं व्यर्थ मापद्येत ॥
अर्थः-तेज देखा ले जे सिद्धांतमांत्रण संध्याउं उधे कही डे माटे त्रण संध्या के लक्षण जेतुं एवो जिनपूजानो काळ नीम्यो बे. ने रात्रिने विषे ते करे सते, जे क्रिया काळने विषे." करीए ते क्रिया फळदायी होय जेम कृषिकर्म एटले खेती जे. काळने विषे बहु फलदायी होय जे एम सर्वे किया पोतपोताना काळने विषे करवी एम जाणवू इत्यादि खेतीना दृष्टांते करीने का. ळमां करेली जे जिनपूजादिक क्रियां तेनुं सफळपणुं में कडं ठे ते काळे करवाथी व्यर्थपणाने पामे.
टीका:-नच वितिकिरियाविरुद्धो,अहवाजो जस्सजावइ । तिवचनावात्रावपितत्प्रतिपादनमिति वाच्य।श्रावकाणांत्रिसंध्यं जिनपूजायादिनकृत्यत्वेनसिद्धांतेनिधानात् ॥ ततश्चवितिकिरियाविरुधो इत्यादेरयमों यः प्राजातादिसंध्यायां वृत्ति, . निमित्तवाणिज्यादिव्यग्रत्वात्कथंच्चिदेवपूजायां न व्याप्रियते स . दिनमध्यएव मूह दिनांसंध्या तिक्रमप्यपंवादतः पुजांकरोतु। नपुनरस्यायमीयतापवादेन रात्रौ करोति दिनकृत्यताहानि प्रसंगादिति ॥
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अथ श्री संघपटक
(३५१)
अर्थः-वळी वित्ति किरिया' इत्यादि वचनथी रात्रिए पण पूजा श्रादिकनुं प्रतिपादन थशे. 'एम न बोलवू केमजे श्रावकने पण संध्याकाळने विषे जे जिन पूजा करवी ते दिन कृत्य ने एटले दिवसनी करणी ते हेतु माटे वित्ति किरिया विरुको' इत्यादि. कनो श्रर्थ में प्रनातादि काळनी संध्याने विषे पोतानी श्राजीविका निमित्त जे व्यापार तेने विषे व्यग्रपणा थकी एटले श्राकुळव्याकुळपणा थकी कोशक प्रकारे देवपूजामां न प्रवर्ताय तो ते पुरुष मध्यानने विषे पण करे एटले पूजा करवानों जे काळ ते बे धमी श्रादिक अतिकमीने पण अपवादथी पूजा करे एम श्रर्थ पण एम नथी जे अपवाद मार्गे रात्रिए पण पूजा करे ने जो एम होय तो दिनकृत्यपणानि हानि थवानो प्रसंग आवे एटले ए पूजननी दिनकृत्य एवी संज्ञाज न थाय ए हेतु माटे.
टीका:-एवंच यद्यपि विद्यादिसियार्थिनांकेषांचिन्नवाजिनंदित्वेनगिरिकाननादौजिनस्नानादिषु रात्रावपिनवनिः श्रयतेतथापि न तच्चरितमवलंव्य श्रुतोक्तमजनादिसमयं परिहत्य • रात्रौत विधानेन विवेकिनात्मनुहा नवितव्यमिति ॥
अर्थः-जो पण विद्यादिकनी सिद्धिने नारा केटला न. वान्निनंदी पुरुषोनी पर्वतना वन आदिकने विषे रात्रिए पण जिन स्नात्र श्रादिने विपे प्रवृत्ति संजळाय . तो पण तेनुं चरित्र अवलं. वन करीने सिद्धांतमां कहेलो स्नात्र आदिकनो समय तेनो परिहार करीने रात्रिने विषे स्नात्र करावq ते विवेकी पुरुषोने श्रात्मलोड ठे एटले धात्माने उगवानणी माटे ते करवू नथी घटतुं इत्यादि,
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8 अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः-एतेन रात्रौ जिनसंदने बलिदाननंदिप्रतिष्ठादि विधानमपि प्रत्युक्तं.॥ प्रायोमजानेन समानयोगःमत्वात् ॥ निशिस्नपनोक्तदोषाणां बलिदानादावपि संलवात् ॥ किंचिदाधिक्याच्च तत्र प्रथमं तावदलिदानमधिकृत्य तदुच्यते ॥ .
. अर्थः-एणे करीने रात्रिने विषे जिनमंदिरमा बलीदान । तथा नंदित प्रतिष्टा इत्यादिकनुं करते पणं खंगन कयु, केम जे बहुधा स्नातनी संघाथे एर्नु समानपणुं सरखापणुं ने ए हेतु माटे एटले योग हम सरखो ने केम जे पाप सर लागे ने माटे रात्रि स्नानमां कहेला जे दोष ते वलियादिकने विषेपण संचवे ने ए हेतु । माटे वळी ते करतां अधिक दोषपणुं , तेमां प्रथम बलिदाननो अधिकार करीने दोष कहे . .
-:. कार-गवत् प्रवचने विनाव- चतुर्विधाहारस्यापि . संसक्तिमत्वप्रतिपादनात् ॥ तथाच निशिं जिनपुरतस्ताहगा. हारदानेन कथं तत्प्रनवासंख्यजीववधजन्यः कर्मबंधों दातृण .. न स्यात्॥
अर्थ:-लगवंतना सिद्धांतने विपे रात्रीए चार प्रकारना याहारने पण संसक्तिमत्व दोषनुं प्रतिपादन कयु ले माटे वळी रात्रिए जिन लगवंतनी आगळ ते प्रकारना आहारतुं देवं तेणे क. रीने ते थकी थयो जे असंख्य जीवनो नाश ते थकी थयो जे कमनोविंधते बलि देतारने केम न थाय? ए तो थायं-ज..
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अय श्री संघपटक
टीका:-तमुक्तं ॥ रातौ वलिं वृषनिमित्तमतीवजीवसंसक्तिमंतमपितीर्थपतेःपुरस्तात्॥ये ढौकयंतिवलिनाकलिना जितास्ते, नूनं शुन्नेन तलिना मलिना अघन ॥ ..
अर्थ-ते शास्त्रमा कां वे जे रात्रिये तीर्थकरना म्होमाआ. गळ अतिशय जीवनी संसक्ति दोषवाटुं वलीदान धर्मनिमित्तजे यु. . रुष ढोके ने अर्पण करे . ते पुरुष निश्चे वळवान एवा कलिकाले जीत्या पुण्य रहित एवा थाय डे ने पापवमे मलिन थाय जे.एटले रात्रिए बलिदान आपतां पुण्य तो यतुं नथी पण नलटुं पाप बंधाय बे.
. टीकाः तथा लोकविरुद्धोपि अहो श्रमी श्रावकाःस्वयं
रात्रिनोजननिषेधे पिस्वदेवस्य पुरतो निशिवलिमुपढौकयंत्यतः कीदगमीषां रात्रिनोजनविरतिरितिलोत्प्रासलोकवाक्यश्रव. पात्॥ श्रागमे पिनगवत्पुरतोव्यारव्यानावसाने समवसरणजुवि राजादितिः सिद्धस्य सिक्थरूपस्य कलमतंकुलवलदिवसएवोप.ढोकनप्रतिपादनात् ।।
अर्थः-चळी ए लोकविरुद्ध पण ठे, केमजे लोक एम वोले जे ग्रहो श्रा श्रावक लोक पोताने रात्रि नोजननो निषेध ने तोपण पोताना देवनी श्रागळ रानिये वलिदान आपे ठे. माटे एमनुं रात्रि : जोजनथी विराम पामवारूप व्रत केवु एम कही उपहास करे ते ते उबंधन वचन- सांगळवू थाय . वळी आगममां पण नगवंतनी प्रागळ व्याख्याननी समाप्ती थ्ये सते सम्मोसरणनी पृथ्वीने विष
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-8. अथ श्री संघपट्टकः
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सिद्ध करेला नंची मांगरना तंमुल तेनुं बलिदान राजादिक मूकेडे ते पण दिवसने, विषेज एम प्रतिपादन कर्यु डे ए हेतु माटे.
टीका:-यदाहारायावरायमचो,तस्सासश्पनरजणवळवाकि ॥ पुब्बहिलखंमिअबलिबमियतंकुलापाढयंकलमं ॥जाश्यपुणाणियाणं अखंमफुमियाण फलगसरियाण ।। कीरबली'सुराविय, तत्थेव बुहंति गंधा॥
टीकाः देवार्चनत्वात् बलिदानं रात्रावप्पुचितं. तथाच किमायातं लोकविरोधस्येतिचेत् न ॥ देवार्चनस्यापि रात्री सिकांते निषेधात् महिमं च सूरुग्गमणे करितीत्यावश्यकचूर्णिव- . चनप्रामाण्यात् ॥
अर्थः-वळी देवपूजन ने ए हेतु माटे बलिदान रात्रिए पण कर उचित डे ने लोकने विरुद्ध ने तेमां आपणुं शुं गयुं ने शुं आव्यु. एम जो तारे कहे होय तो ते न कहे केमजे देवपू. जन पण रात्रिए करवानो सिकांतमा निषेध . सूर्य उगे पूजना. दिक महिमा करवौ एम श्री आवश्यकचूर्णिना वचनन. प्रमाणपणुं
ए हेतु माटे. .
टीका:-लौकिकमार्गेपि रात्री स्नात्रदेवार्चनादे निवारणात् ॥ तदुक्तं ॥ नैवाहुति नंचस्नात्रं, न श्राऊं देवतार्चनं ॥ दानं वाविहितं रात्रौ, नोजनं तुविशेषतः ॥
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अथ श्री संघपट्टका है
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(३९५)
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अर्थः-लौकिक मार्गमां पण रात्रिए स्नात्र तथा देवपूजनादिकनुं निवारण करवापणु ने ए हेतु माटे ते कडं जे रात्रिए आहुती तथा स्नान तथा श्राफ तथा देवपूजन तथायोग्य एबुंदान तेटलां वानां करवां ने नोजन तो विशेषे करीने न करवू.
टीका:-श्रथ नावशुकिहेतुत्वानिशायामपि बलिस्नात्रादिविधानं संगतं ।। तथाहि ॥ रात्रावपि जिनगृहे दुग्ध दधिसुरजिनी विपूरेणातिनीरजीकृतनगवज्ञानं स्नानं विदधते विकच विच किलवकुलमालतीनवमालिकादिनिश्च वाँ सपर्या विरचयतो रुचिरचनानिर्मितजनमनोहारं स्निग्धमधुर पक्वानफलोपहारंच ढौक्रयतः श्रमाबंधुरबुद्धेहिणो दूरीकृत कुगतिवासो जावोल्हासो जायते । तस्यैवच सुगतिहेतुत्वेन नगवतो बहुमतत्वात् ॥
अर्थः-प्रतिवादी वोले , जे नावशुछिनु कारणपणुं एमां रघु ले माटे रात्रिए वलिलात्र श्रादिकनुं करतुं संगत के एटले घटित ने तेज कही देखामे जे रात्रिने विष पण घरमां दूध दहीं सुगंधीमान जळ तेना समूहबजे अतिशय रजरहित कर्यु एटले अतिशय स्वह निर्मळ कर्यु बे नगवंतनुं शरीर ते जेथी एवं जे नात्र तेने करतो ने प्रफुद्ध विकस्वरजे वकुल तथा मालती तथा नवोमोगरो इत्यादिकनां सुंदर पुष्पवमे करी जे नवी माळाओ एटले हार प्रमुख तेणे करीने श्रेष्ठ पूजा करतो ने सुंदर रचनावमे कयुं हे लोकना मननुं दरण ते जेणे एवं सुंदर मिष्ट पकवान तथा फळ तेमनो नपहार एटसे नेटणुं बलिदान ते प्रत्ये विस्तारतो ने श्रद्धावसे सुंदर थइ
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(३५६.)
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अथ श्री संघपटक
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ने बुद्धि जेनी एवा गृहस्थोने दूर कर्यो ले कुगतिनिवास ते जेणे एवो एवो नावनो नहास थाय बे. ने तेज प्रकारना नाव नरासने 'सुगतिनुं कारणपणुं ने तेथो ते नाव नहासने जगवते बहु मान्यो ने ए हेतु माटे.
. टीकाः यदाह ॥ जोचेव नावलेसो, सोचेवय नगवर्ड
बहुमति॥
अर्थः-जे कारण माटे शास्त्रमा कडं ले जे जेथी नाक्शु. द्वि लेश मात्र पण थाय तेज जगवते बहु करीने मान्यु डे एटसे श्रेष्ठ कयुं बे.
टीकाः-इति चेत् तन्न ॥ मार्गानुसारिएयाः कदाग्रहरहितायाः प्रज्ञापनायोग्यायाएव जावशु रिहाधिकारात् ॥
. ॥ यमुक्तं ॥
जावशुभिरपि ज्ञेया, यैषा मागीनुसारिणी ॥ प्रज्ञापनाप्रियात्यर्थ नपुनः स्वाग्रहात्मिका ॥ औचित्येन प्रवृत्तस्य कुग्रहत्यागतो भृशं ॥ सर्वत्रागमनिष्टस्य नावशुकिर्यथोदिता ॥
अर्थः-सुविहित उत्तर आपे एम जो तुं कहेतो होय तो ते न कहे केम जे मार्गानुसारिणी ने कदाग्रह रहित ने प्रज्ञापना
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अब श्री संघपट्टक
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करवा योग्य एटले प्ररुपणा करवा योग्य एवीज जावशुछिनो यहीं अधिकार .ए हेतु माटे शास्त्रमा कयुं दे जे एज नावशुद्धि पण जाणवी के जे मार्गानुसारिणी छे तथा जेनी प्रज्ञापना अतिशय प्रीतिकारक वे एज लावशुद्धि सारी पण पोताना कदाग्रहरूप नावशुद्धि सारी नथी केम जे जे पुरूष कदाग्रहनो अतिशय त्याग करीने नचितपणे प्रवत्यों ने सर्व जगाए श्रागममा जेनी निष्ठाडे एवाने यथार्थ लावशुझिनो उदय . .
टीकाः-भवविदितायाश्च जावशुद्धैः सिद्धांतविरोधी. त्वेन मुक्तिमार्गानुसारित्वानावात् अस्मत्पूर्वजैरेतावतमने इसरानावेवंदं स्नानं कारितमतोऽस्मानिरपीथमैवर्तव्य मिति कदाग्रहग्रस्ततयाप्रज्ञापनानुचितत्वाच कथं मुक्त्यंगतास्यादिति।
अर्थः-तमे कहेवाने श्छली जे नावशुचिते सिद्धांतथकी विरूठे माटे मुक्तिमार्गने अनुसारीपणानो अजाव के ए हेतु माटे ने कदाग्रह जे अमारा पूर्वज वृद्धोए आटला काळ सुधी रात्रिएज श्रास्नात्र कराव्यु माटे अमारेपण एजप्रकारे करवू इत्यादि कदापहवमे सहितपणुंडे ए हेतु माटे प्रज्ञापना करवाने अनुचितपणुंडे माटे केम मुक्तिना अंगपणुं होय.
टीका:-नंदिविधानमपि रात्रो महादोषं । तथाहि दीशाद्यर्थ हिनं दिकरणं ॥ दीक्षाच स्थूलसूदमप्राणातिपातविरतिलक्षणा ॥ रात्रौच प्रकाश निमित्तोज्वालितभूरिदीपकरूपते. . जस्कायिकजीवानां शरीरस्पर्शेनव्यापादनात् प्रतिदीपेषुच निरंत
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. (३९८)
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जय श्री संघषक
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'रं निपततां बदाशःपतंगादिजंतूनां व्यापत्तिनिमित्तजावान्कीदृशी· दीक्षादातगृहीत्रीः सर्वविरतिः॥ .
अर्थः-ते रात्रिए नांद्य मांगवी ते पण महा दोषने करनारी बे. तेज वात कही देखामे जे दीक्षादिकने श्रर्थे निश्चनां: यतुं करवापणुं ने जे दीक्षा ले ते तो स्थूल सूक्ष्म प्राणातिपात. ते थकी विराम पामवारुपी के लक्षण जे ते रात्रिये प्रकाश निमित्त उजवल कर्या जे गणाक दीवारुप जे तेजस्कायिक जीव तेनुं पो. ताची मेळे शरीरने फरश थवाथी नाश थवापणुं जे ए हेतु माटे दीवादीवाने विष निरंतर पमतां जे लखो पतंगियादिक जीब तेना नाशन निमित्त कारण वे ए हेतु माटे दीक्षा लेनारने ने दीक्षा था. पनारने सर्व विरतिरुप दीक्षा केवीथ एटले एते सर्व विरितरुप. दीका थरके सर्व हिंसामयी-दीका थश्तेतुं तारा-मनमा विचारी जो.
टीकाः-तथाच करेमिजतेसामाश्यमित्यादि सर्वविरति-. सामायिकसूत्रस्यापि तत्क्षणं शिष्येणोच्चार्यमाणस्य वैयर्थ्यप्रसं: 'गः॥ शिष्यस्य दीक्षाप्रथमदाणादारज्यप्राणातिपातप्रवृत्ते ॥ तमुक्तं ॥सवंतिनाणिनणं, विरईखबुजस्स सबिया नत्थि ॥ सोसबविरश्वाई. चुक्कर देसंचसखंच ।।
अर्थः-वळी दीक्षा लेती वखत ' करेमिजते ' इत्यादिक • सर्व विरति सामायिक सूत्रनुं जे उच्चारण शीखे कयं तेनुं तेज व.
खत व्यर्थ थवानो प्रसंग आवशे केमजे शिष्यने दिशामा प्रथम
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- अथ श्री संघपट्टका - क्षणथी पारंजीनेज प्राणातिपातने विषे प्रवृत्ति थइ ए हेतु माटे ते कमु जे.
टीकाः-दीकादातुश्च दोषसंख्यापि वक्तुं न शक्यते॥तछिदया तावर्जतुजातव्याघातप्रवृत्तः। तदहोमूढा एतावतं पापकलापमात्मन्यारोपयंतोनाविनवज्रमणान्मनागवि न विन्यतीति ॥
अर्थः-दीक्षा देनारने पण जे दोष थाय ने ते दोषनी सं. • ख्या पण कहेवा समर्थ नथी केमजे ते दीदा आपनारनी दिक्षाए करीने तेटला जंतुना समूहनो नाश थवामां प्रवृत्ति थए हेतु माटे अहो आतो आश्चर्य हे जे ए मूढ पुरुप आटलोवधो पापनो समूह पोताने विषे श्रारोपण करे जे पण आगळ थये एवं संसारमा चमण थशे तेथी लगार मात्र पण जय पामता नथी.
टीका:-तमुक्तं ॥ ज्योतिज्यों तितकृत्स्नदेवसदनप्रायःप्रदीपोच्चरदीपाचिनिकुरवचुंबनन्नवत्तंगत्पतंगैषाणां ॥ निस्त्रिंशानिशि सूत्रयंतिकुधियो मुग्धामुधामी दहा नंदिसंदितिसम्मिता स्वपरयोः संसार कारागृहे ॥
अर्थ:-ज्योतिः एटले ग्रह, नक्षत्र जेवू देदीप्यमान जे समस्त देवमंदिर तेमां घणा दीवाथी नत्पन्न थइ दिव्यकांति तेनो, जे समूह तेना स्पर्शथी जंपापात करता जे पतंगीया तथा तेनकायि प्राणि तेना नाश करवामां तरवार समान पृष्ट बुद्धिवाला था मुग्ध
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48. अथ श्री संघपट्टक
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लोक पोताने ने परने संसार रूप बंधी खानाना घरने.विषे नाखनारी बंधन समान जे रात्रिये नांद मांगवी ते प्रत्ये विस्तार करे एंटसे विस्तार सहित नांद मांगेले. हा! आतो मोटी खेद नरेली वात के केमजे अनेक जीवनी हिंसा प्रत्यक्ष करे .॥
टीका:-अहिदीक्षा दिलग्नबलानावरात्रौंच तनावे विहारक्रमवदपवादेन कदाचिनात्रावपि.नदिविधता कोदोय इतिचेन्न।। विहारक्रमस्यापवादेन रात्रावपि प्रतिपादनात्तत्र कदाचित्तकरणंयुक्तं ॥ नंदिविधानस्यचापवादेनाप्यागमे रात्रावनन्निधानात्कथंः । तद्विधानं तत्र संगबेत॥
अर्थ: बळी दिवसने विष दीक्षादीकन लग्न बळ न होय ने रात्रिए ते होय त्यारे जेम अपवादे करीने रात्रिए विहार करे ने तेम क्यारेक रात्रिने विषे पण नांद करनारने शो दोष ? एम जो तुं का हेतो होय तो ते न कहेवं. केमजे विहारक्रमनुं तो अपवाद मार्गे रात्रिए पण करवान. शास्त्रने विषेष प्रतिपादन कर्यु माटे ते तो. कदाचित करवू युक्त पण नांद करवानुं तो अपवादमार्गे पण शा. स्वने विषे कह्यु नथी माटे रात्रिए नांद करवी केम घटती श्रावे.
. टीका-किंचापवादिक कृत्यानांरात्रिविहारक्रमादीनां । . सर्वेषां प्रायश्चित्तमनिहितमागमे ॥, नच निशि नंदिविधानस्य ।
नवनीत्यापवादिकस्यापि क्वचित्तदनिधानं श्रूयते ॥ ततोवगम्यतेचास्त्यपवादनापिरजन्यांनंदिविधानं ॥ तथा नगवदझाता
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अथ श्री संघपट्टक
( ३६१ )
दपि रात्रौ तद्विधानमसमीचीनं ॥ भगवताहि विमल केवला लोकेनापि तावतां विनेयलक्षाणां मध्यात्कस्यचिदपि क्षणदायामदी पात्
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अर्थः- वळी शुं तो रात्रि विहार आदिक अपवादिक कृत्य एटले अपवाद मार्गे करवा योग्य जे सर्वे कृत्य तेमनुं शास्त्रमां प्रायश्चित करवानुं कर्तुं बे. पण रात्रिए नांद मांवानुं तमारा न्याये अपवाद मार्गे पण को जगाए प्रायश्चित करवानुं कथुं नथी ते माटे एम जाणीए बीए जे अप वाद मार्गे पण रात्रिए नांद मांरुवानुं नथी. वळी जगवंतनी वंद नाना दृष्टाते पण रात्रिए नींद मांत्री ते पण अघटित बे. केमं जे जगवंत केवलज्ञानी इता तो पण तेमणे लाखो शिष्यनी मध्ये कोइने पण रात्रि दीक्षा दीधी नथी ए हेतु माटे.
टीका:- दिवसाइयं तित्थं दिशं पसत्थं चेत्याद्यागमवचनप्रा. माएयात् ॥ तत्पथवर्त्तित्वाच्च तद्विनेयानामेदंयुगीनानां कथं निशि तत्कर्तुयुज्यतइति ॥ एवं निशि जिनप्रतिमाप्रतिष्टायामपि. सकलमेतदूषणजातं विविच्य वाच्यं ॥
अर्थ:-दिवसादिकनुं जे कृत्य ते दिवसने विषे करवुं तजे प्रशस्त वे एटले दिवसमांज कर पण रात्रिये न कखुं, इत्यादिक श्रागम वचनना प्रमाणपाथी ते मार्गमां रहेवापणुं के, ए हेतु माटे या काळना जे तेमना शिष्य तेमने ते नांद यादिकनुं क ते
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( १६२ )
10 अथ श्री संघपट्टक
रात्रिए केम घटे ! एम रात्रिये जिन प्रतिमानी प्रतिष्टाने विषे पण समग्रदोषनो समुह जुद्दों जुदो करी विवेकयी कदेवो.
टीकाः -- तटुक्त।। प्राडुः षद्दोषपोषायां, दोषायां साधयं तिये॥ जिनबिंब प्रतिष्टां ते, प्रतिष्टां स्वस्य दुर्गतौ ॥ तदेवं दोषकलापदर्शना रात्रौमज्ञानादिविधायिनां पापपंके निमज्जनं नवतीति व्यवस्थितं । इदं वक्ष्यमाणं च वृत्तद्वयं द्विपदी बंद इतिवृतार्थः॥१८॥
अर्थ:- ते वात शास्त्रमां कही डे जे घला दोषने पुष्ट कर नारी जे रात्रि तेमां जे पुरुष जिन बिंबनी प्रतिष्ठा साधे बे पटले जे रात्रिये जिनबिंबनी प्रतिष्टा करे बे ते पुरुष पोताना आत्माने 'दुर्गतिमां स्थापे बे. ए प्रकारे दोषना समूह देखीने रात्रिस्नात्र क रनारने पापरूपी कादवमां परुवुं थाय बे एम सिद्धांत थयो- हवे आ काव्यनुं वृत तथा श्रागळ कहीभुं ए काव्यनुं वृत ए वे द्विपदी बंद नामे . ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो.
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टीका:- सांप्रतं प्रसंगेन मज्जना दन्यस्यापिधर्मकृत्यस्य वि धिरहितस्य संसारनिमित्तत्वं प्रकटयन्नाह ॥
अर्थः- हवे या प्रसंगने विषे स्नात्र विना पण जे विधिर
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दित धर्मकृत्य तेने संसारनुं निमित्तपणुं बेएम प्रगट करता सता कहे :
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जय श्री संघपटक
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(३६३)
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मूल काव्यम्॥ जिनमतविमुखविहितमदिताय न मज्जन मेव केवलं। : किंतु तपश्चरित्रदानाद्यपि जनयति न खलु शिवफलं॥
अविधिविधिकमा ज्जिनाज्ञापियशुनशुलाय जायते। किंपुनरितिविम्बनैवादितहेतु नं प्रतायते ॥१॥
टीका:-जिनमतविमुखविहितं वगवदागमवैपरीत्य निर्मितं मज्जनमेव स्नपनमेव केवलमेकं श्रहिताय संसाराय न नवति स्नानमेवैकमविधिविहितं संसारकारणमितिनास्ति किंतु किंतर्हि तप्यंते धातवोऽशुन काणिवानेनेतितपोऽनशनादि।
' अर्थ:-नगवानना श्रागमथी विपरीत कयु जे स्नात्र तेज केवल कहेतां एक संसारनणी थाय डे एम नथी, शुं त्यारे तो वीजु पण ए प्रकारे जे जे तप जेणे करीने शरीरना धातु तथा श्रशुन कर्म तपावीए ते तप कहीए. अशनादिक ते पण पागम विरुष्क करे तो संसारने अर्थ थाय ..
टीका-यमुक्तं ॥ मज्जास्थिरुधिरपलरसमेदःशुक्राएयने न तप्यते ॥ कर्माणि चा शुलानी त्यतस्तपो नाम नैरुक्त तथा चारित्रं सर्वविरतिः दानं पात्रे पुन्यायार्जितशुजन्नतादिवितरणं ॥ श्रादिशब्दाधिनयवयांवृत्यादिग्रहः ॥ ततस्तपश्चेत्यादि कंगों बहुव्रीहि ॥ ततश्चैवमाद्यप्यनुष्टानं जिनमतवैपरीस्य
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(३६४)
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अथ श्री संघपट्टका.
विहितं न केवलं मज्जन मित्यपि शब्दार्थः । न खलु नैव जन यति संपादयति शिवफलं मुक्तिरुपं फलं ॥
अर्थः-हवे ते तप' शब्दनो अर्थ शास्त्रमा कह्यो ले जे जेणे करीने शरीरना सात धातु जे मीजो,दामका, रुधिर,मांस, रस, मेद, वीर्य ए सर्व तपे बेने वळी अशुल कर्मनेतपावे तेथी तप एवं नाम निरुक्त कयुंडे एटले ए प्रकारनो तपशब्दनो अर्थ रुपिना वचनथी जाणवो.वळी चारित्र एटले सर्व विरतिरुपने दान एटले पात्रने विषे न्यायवझे नपार्जन कर्यु जे जक्तपान तेनुं श्राप, आदि-शब्दथी विनय तथा वीयावन इत्यादिकनुं ग्रहण करतुं ते हेतु माटे तपश्च इत्यादि छ समास गर्मित बहुव्रीहि समास करवो, माटे एप्रकारतुं जे.जे अनुष्टान आदिक पण. जिन मतथी विपरीत करेलुं होय ते पण ग्रहण कर केवळ स्नात्रज-नहि एम अपि शब्दनो अर्थ डे माटे ते ते अनुष्टान मुक्तिं रुपि फळने नथीज उत्पन्न कर.
- टीकाः-श्रथ कस्मादेवमित्यत आह ॥ हीयस्मात् अविविविधिक्रमात् सिद्धांतानुक्ततमुक्तप्रकारेण जिनाझापि जगवबासनोक्तानुष्टानमपि अशुनशुलाय अश्रेयः श्रेयसे ॥ इंकव. झावादत्रैकवचनं । जायते संपद्यते ॥ यथासंख्येनात्रयोजना ॥ तेनायमर्थः॥ किलजिन पूजातपप्रति प्रवचनप्रसिद्ध जि. नाझा ॥नगवता निश्रेयस साधनत्वेन झापितत्वात्। तथाच तदप्यविधिक्रमेण कालेसुश्लूएणमित्याद्युक्तविधिपर्ययेण क्रियमाणमशुजाय नवति ॥ विधिकमेणतु संध्यात्रयाराधनशुचिजूत
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अब श्री संघका
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त्वादिनांतदेव शुजाय ॥ विध्य विधिन्यांनगवदाज्ञाराधनानाराधनयोरेव मोक्षसंसारफलत्वात् ॥
अर्थः-हवे श्या माटे एम कहो बो एवी श्राशंका धारीने नुत्तररुप कहे जे जे हेतु माटे अविधिक्रम ने विधिक्रम थकी एटसे सिद्धांतमां न कहेला प्रकारवमे ने सिद्धांतमां कहेला प्रकारवके जिन जगवंतना शासनमां कहेवू अनुष्टान पण अशुनने अर्थे तथा शुलने अर्थे एटले अश्रेय जणी तथा श्रेय नणी थाय बे. अनुक्रमे श्रा जगाए शब्दोनी योजना करवी. तेणे करीने या प्रकारे अर्थ थाय ने जे जिनपूजा तथा तप श्रादि श्रागम प्रसिद्ध जे जे ते जिन नगवंते मोक्ष साधनपणे कडं जे. माटे वळी ते पण अविधि क्रमे करीने एटले यथाकाळे पवित्र थश्ने इत्यादि विधि कह्यो ले तेथी विपरीत जे कर्यु ते सर्व अंशुन नणी थाय ने ने विधिकमे करीए तो एटले त्रण संध्याकाळे पवित्र थश्ने इत्यादि जे विधिक्रम तेणे .. करीने जे कर्यु ते शुज नणी थाय जे. एटले विधि ने श्रविधि जे नगवंतनी आज्ञा प्रमाणे आराधना करवी ने लगवंतनी आज्ञा विनानी श्राराधना करवी ते वेनेज मोक्षफल तथा संसारफळ ए बेनुं श्रापवापणुं वे ए हेतु माटे. नावार्थः-जे जगवंतनी श्राझारुप जे जे विधि तेणे करीने जे आराधना करे ले तेने मोक्ष फळ थाय ने जे लगवंतनी आज्ञा रहीतरुप जे अविधि तेणे करीने जे श्राराधना करेले तेने संसार चमणरुप फळ थाय ठे
टीकाः-यदाद ॥ जहचेवनमोरकफलावाणा आराहियाजिणिंदाणं ।। संसारपुरकफलया,तहचव विरादिया होइ ।।
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(१६) । अब श्री संघपका .
अर्थः-श्रा वात शास्त्रमा कही ये जे जिने जगवंतनी आजा आराधन करवाथी निश्चे मोक्ष थाय ने तेज श्राझा विराधवाथी मुख जेनुं फळ डे एवो संसार थाय डे ..
. .. टीका:-अथवा जिनाज्ञापवादिकी आधाकर्मन्नोजना. दिका क्रिया ॥ साप्यविधिक्रमेण संस्तरणादौ तद्ग्रहणादिना,
अशुन्नाय विधिक्रमेण वाऽसंस्तरणादौ तद्ग्रहणादिनाशुनायेति॥ - किंपुनरित्या दिवाक्यं काकायोज्यं ॥ अंत्रच किमित्यापे पुनरपि. .. वाक्यजेदे इतिप्रकरणे ॥ तेनैषाप्रकृता रात्रिजिनमझनादिका , क्रियाविनंबनैव प्रवचनाप्र जाजनैव लोकोपहासास्पदं । नत्वेषा: जिनाापीत्येवकारार्थः॥
अर्थ:-जे जिन भगवंतनी अपवाद मार्गे जे श्राधाकर्म नोजनादिकनुं करवू ते रुप आज्ञा ते पाण श्रविधि क्रमे करीने नि.. वाहादिबता पाळी होय तो अशुज जणी थाय डे, ने जो विधि कमे करीने निर्वाहादि नहि थतां ग्रहण करेली होय तो शुल जणी थाय ने तो रात्रिस्नानादिकनुं शुं कहे ए तो अशुननणी थायजा एम ए वाक्य काकु अर्थवमे जोमवू. श्रा जगाए कि एटला पदनो आक्षेप अर्थ करवो. ने 'पुनरपि ए पदलो वाक्य नेदरूप अर्थ करवो ने 'इति श्रव्ययनो श्रा प्रकरणने विषे एटलो अर्थ करवो. तेणे करीने आ कहेवाने श्रारंज करेली जे रात्रिए जिन स्नात्र आदिक करवानी क्रिया ते विर्मबना मात्रज ने एटले प्रवचननी इलकांश करनारीज तिरस्कार करावनारी देने लोकने उपहास करवातुं
जोग शा वाक्य नेदरूप वा. तेणे
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अब श्री संघपट्टक
स्थानक बे ने ए जिन भगवंतनी श्रज्ञा पण नथी एम एवकारनो अर्थ वे एटले ए वात निचे एमज बे.
- ( ३६७ )
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टीका: -- श्रहितहेतुः संसार निबंधनं न प्रतायते न विस्तायेते ॥ किंत्व हितहेतुत्वेन प्रत्याख्याप्यत एव ॥ तटुक्तं ॥ रात्रिस्नात्र विधापनादिजिरहो संसारपल्ल्यां दवात्पार्श्वस्थादि मलि लुलितया प्रानीयमानं जनं ॥ दृष्ट्वा संप्रति शुद्धदेशनमिषाद्ये पूत्कृतिं कुर्वते, धन्यैस्तैः शितधाम धामविशदं जैनं मतं भूषितं ॥
अर्थ:-संसार बांधवानुं कारण बे एनो विस्तार नथी करता 'त्यारे शुं करीए बीए तो ए अहितनुं कारण वे एम जालीने प्रत्याख्यान करीए बीए एटले ए रात्रिस्नानादिक कोइ दिवस न करवां एम पचखाणज करीए बीए ते शास्त्रमां कह्युं बे जे पासथ्यादिक चोर लोको बळवान े ए हेतु माटे संसाररुपी लूटवानी जग्या प्रत्ये श्री लोकने हठात्कारें लइ जतां देखीने आ काळमां शुद्ध देशनारुपी मिषव ते ते पासथ्यांदिक पासेथी जे बोमावे बेते चंद्रकांति जेवा शीतल पुरूषोने वन्य बे ने तेथे करीनेज श्रा जैनमत शोजित बे,
टीका: - इदमुक्तं जवति ॥ जिनाज्ञापि तपः प्रभृतिका श्रपवादिकाधाकर्म्माजनादिका वा यदा विधिना विधीयमाना जवफला तदा किंपुनरस्यापि विश्वनायाः सर्वथा जिनवचन बाह्याया रात्रिमङ्गनादि कायावक्तव्यं ॥ सुतरामेपा जवहेतुरेव ॥ अतोऽहितहेतुत्वेन प्रत्याख्यापते ये न सा तथा प्रत्याख्याप्यमाना
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(३६८)
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अथ श्री संघपट्टका -
कस्यापि पुण्यात्मनः स्वतो निवर्तनाय प्रजवतीतिवृत्तार्थ॥१७॥
अर्थः-एमां प्रकारनो प्रगट अभिप्राय कह्यो बेजे जिन जगवंतनी आज्ञा पण तप आदिक अपवाद मार्ग संबंधी अथवा आधाकर्म नोजनादिकनी आज्ञा पण अपवाद मार्गे जे ने ज्यारे अविधिवमे त्यारे ते पण संसार फळने आपनारी ले त्यारे तो सर्वथा जिनवचन बाह्य एवी आरात्रिस्नान आदिक विमंबना संसारफळने आपे एमां शुं कहेवू अतिशयज संसार कारण ले ए हेतु माटे अहितनुं कारण जे एम जाणीने पचखाण करीए बीए एटले निषेध करीए बीए जे हेतु माटे ते निषेध देखी कोइ पण पुण्यात्मा पो. तानी मेळे निवृत्ति पामशे एप्रकारे आ काव्यनो अर्थ थयो ॥१९॥
टीकाः इदानीं निर्वाणकारणमपि निसर्गेण जिनगृहादिनिर्मापणं गृहिणकुमतादिलेशस्याप्यनुवेंधाझवहेतवे नवती. त्येतत्प्रदर्शनायाह ॥
. . अर्थः-हवे स्वन्नावथी मोदनुं कारण एवं जे जिनगृह श्रा. दिकनुं निपजावq ते पण गृहस्थने कुमत आदिकना लेशनों पण अनुवेध थवाथी एटले कुमतनो मिश्रन्नाव थवाथी संसारना कारण नणी थाय ने ए देखामवाने कहे बे.
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अय श्री संघपट्टका
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( ३६९)
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॥ मूल काव्यम्॥
जिनगृहजिनविंबजिनपूजनजिनयात्रादिविधिकृतं । . दानतपोव्रतादिगुरुनक्तिश्रुतपठनादिचाहतं॥ स्यादिह कुमतकुगुरुकुग्राहकुबोधकुदेशनांशतः स्फुटमननिमतकारिवरलोजनमिव विषलवनिवेशतः॥२॥
टीका-जिनगृहं परमेश्वरलवनं जैनर्विवं नागवतीप्रतिमा जिनपूजनं जगवत्प्रतिमायाः कुसुमादिनिरभ्यर्चनं जिनयात्रा जिनानप्रतीत्याष्टाह्निकाकल्याणकरथनिष्क्रमणादिमहामहकरणं ..
अर्थः-जिनेश्वर जगवंत मंदिर तथा जिनप्रतिमा तथा नगवाननुं पुष्पादिकामे पूजन तया जिन नगवंतने नदेशोने अष्टाहिका नत्सव करवो तथा क ाण रययात्रा इत्यादि महामहो.. त्सव करवाः
टीका:-यमुक्तं ।। जत्तामसवोखनु, नहिस्सजिणे स कीरई जोन ॥सो जिणजत्ताजन्नइ तीएविहाणं न दाणाइ ॥ ततोजि-'' नगई चेत्यादिवंगोंबहुव्रीहिरेवमुत्तरपद्ययोरपि ॥ आदि ग्रहणाजिनवंदनप्रतिष्टादिग्रहः इहचासकृजिनपदोपादानं जगवतोऽत्यंतत्नक्तिगोचरतया तदुद्देशेन विधिना गृहादिनिर्मा पणस्य परममुक्त्यंगत्वख्यापनार्थ ॥ एवमादि धर्मकर्मजातमितिशेषः ।।
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(३७०)
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अथ श्री सघपट्टका
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अर्थः-पढी जिनगृह, जिनबिंब, जिनपूजन, जिनयात्राए सर्व पदनो इंछ समास गर्मित बहुव्रीहि समास करवो एम प्रा. गलां जे वे पद तेने विषे पण तेमज समास करवो ने श्रादी शब्दने ग्रहण कयों के ए हेतु माटे जिनवंदन तथा प्रतिष्ठा इत्यादिकनुं ग. दण कर. आ जगाए वारंवार जिनपदनुं जे ग्रहण करवू ते तो न. गवंतनी अत्यंत नक्तिनुं प्रगट कर तेणे करीने जे जगवंतने उद्देशीने विधि सहित जिन मंदिर निपजावq तेने परम मुक्तिनुं अं. गपणुं जे एम जणाववाने अर्थे बे. सर्व धर्मकर्मनो समूह एजप्रकारे डे एम उपरथी शेष लेबु.
टीका-विधिना श्रुतोक्तेन प्रकारेण कृतं निर्मापितं ॥ तथाहि ॥ जिनगृहनिर्मापणविधिः शुद्धभूमिपरिग्रहादिकः ॥ यमुक्तं । जिवनवणकारण विही सुद्धा जूमीदवंचक डा . नियगाणसंधाणं सासयबुढीय जयणाय ॥ ..
अर्थ:-जे शास्त्रमा कहेलो जे विधि ते प्रकारे कयु होय तेज कही देखा ने जे जिनमंदिरने निपजाववानो विधि श्रा.प्र. कारनो बेजे शुद्ध जूमिनो परिग्रह आदिक, ते शास्त्रमांकह्यो ? जे.
टीका:--तविधापना नंतरं चैतस्मिन्नपिशिला पित्तसादि घटितप्ततिरूपसंप्रतिजगवहिरहेतशुणानध्याराप्यतपूजयामीति प्रणिधानेन श्रामस्य नगवविनिर्मापणं ॥ तन्निर्मापणे विधिरयं
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अब श्री संघपट्टका
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सूत्रधारस्यदानादिसन्मान पूर्वविनवौचित्येन घटितबिंब मूल्यसमर्पणं॥ । अर्थः-ए शास्त्र प्रमाणे जिनमंदिर कराव्या पलीए मंदिरने विषे शिलानी तथा पितलनी इत्यादिकनी घमेली जे प्रतिमा तेने विषे भगवंतना गुणनो अध्यारोप करीने केम जे हाल काळमां ज-. गवंतनो विरह बे ए हेतु माटे तेने पूनुं हुं ए प्रकारना प्रणिधाने करीने श्रावकने जगवहिवनुं निपजाव. ते निपजाववानो विधि तो श्रा.प्रकारनो जे जे सूत्रधारने एटले प्रतिमाना घमनारने दानादि सन्मानपूर्वक पोताना वैजवने घटित एटले पोतानी शक्ति प्रमाणे विव धमवानुं मूल श्राप
टीका:-यदाद ॥ इन सुझबुद्धिजोगा काले संपूरऊण कत्तारं ॥ विनवोचियमप्पिजा मूलं अणहस्स सुहनावो॥
अर्थः। टीका ॥ तदेवं जिनविवे विधिना निर्मा पिते प्रतिष्टापितेचायं पूजन विधिः ॥ संध्यात्रये विधिना शुचि र्तृत्वा जगविंश्रद्धावान् पुष्पादिजिरयति ॥ तमुक्तं ॥काले सुश् भूएणं विसिहपुष्फाइएहिं विहिणान ॥ सारथुश्थुत्तगरुई जिणपूश्रा हो कायवा ।।।
अर्थः ते जिनविंव ए प्रकारे विधिये करीने निपजावेसते प्रतिष्ठा करे सते श्रा प्रकारनो पूजन विधि वे, जे त्रण संध्याकाळने वि विधिए करीने पवित्र थश्ने श्रद्धावाळो पुरुष जे ते पवित्र थश्ने जगवतावने पूजे ठे ते वान शास्त्रमा कही ते जे.
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(३७२)
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अथ श्री संघपट्टका
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• टीका:-तथाच तत्रच कल्याणकादि दिनेषुयात्राप्रस्तूयते।। तत्रचार्य विधिः ॥ यथाशक्तिदानतषश्चरणशरीरविजूषाजिन गुणगानवादित्रादिकरणं ॥ यदाह ॥ दाणं तवोवहाणं सरीर
सकार मो जहासतिं ॥ उचियंच गीयबाश्यथुश्थुत्तापि . जणाश्य ॥
अर्थः-वळी कल्याण आदिक दिनने विषे जे यात्रा कही । तेमां पण आ प्रकारनो विधि जे जे पोतानी शक्ति प्रमाणे दान तथा तपश्चर्या शरीरनी शोन्ना जिनगुणनुं गान तथा वादिन सहित नत्सवादिकन करवू ते वात शास्त्रमा कही ने जे.
टीका-तथा दर्शनतपसीपूर्व व्याख्याते व्रतानि स्थूल प्राणातिपातविरमणादीनि ॥श्रादिशब्दा हिचित्रानिग्रहग्रह। ततोदानं चेत्यादिः ॥ तथा गुरोर्धर्माचार्यस्य नक्तिः शुश्रूषा
आगबदनिमुखगमनोस्थितान्युत्थानगडदनुगमनिश्रामणा विशुनक्तपानादिदानचित्तानुरंजनादिका ॥
अर्थः-दर्शन ने तप ते बेनुं प्रथम व्याख्यान कर्यु ले ने बत ते स्थूल प्राणातिपात विरमणादिक · जाणवां ने श्रादिशब्दयी नाना प्रकारना अनिग्रह ग्रहण करवा, त्यार पडी दान आदिक शब्दनो बंध समास करवो. वळी गुरु जे धर्माचार्य तेनी नक्ति तेमनी सेवा करवी. एटले ते ज्यारे श्रावे त्यारे सन्मुख जq ने ते नवे त्यारे नजुं थq ने ते जाय त्यारे पबवामे जq तथा विसामो कराववो तथा विशुद्ध नक्त पान आदिक देवा ने तेमना चित्तने प्रसन्न करवू इत्यादिक ते जाणवी .
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अथ श्री संघपट्टक
(३७३)
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टीकाः-ययुक्त। श्रहवा विगुरु समत्तदायगा ताण हारे सुस्सूसा ॥ इंताणनिमुहगमणं नत्थाणं न थिएसुंच ॥ विस्सामणासम्मं वियाणणुव्वयण मेव जंताणं ॥ संपामणमेयाएंसमिबियाणं विसुझागाजावाणुवत्तणं तह सवपयत्तेण ताण कायव्वंसम्मत्तदायगाणं सुप्पमियारंजलणियाश्रुतपठनं सिद्धांताध्ययनं ॥ आदिग्रहणातदर्थश्रवणमननादिग्रहः ॥ एतच्च विवेकिनाविशेषेण विधेयमेतत्पुरस्सरत्वात् सकलपायुक्तजिनगृहादि. करणविधिप्रतिपत्तेः ॥ यदाद ॥ अन्नेसि पवित्तीए निवधणं हो विहिसमारंजो सासुत्तान नजश्ता तं पढमंपढेयव।सुत्ता अत्थे ज. , नो अहिगयरो नवरि हो कायवो ॥तो उन्नय विसुभति सूयगं केवलं सुत्तंति ॥
अर्थः-सिद्धांतनुंजणवू श्रादि शब्दथकी तेना अर्थ जा. पवा तथा सांजळq तथा मनन करवू इत्यादिकनुं ग्रहण कर एटलां वानां विवेकी पुरुषोए विशेषे करीने करवां केमजे ए प्रथम करे तोज समस्त पूर्वे कडं जे जिनगृह आदिकनुं कर तेनोज विधि तेनी सिद्धि थाय ए हेतु माटे ए वात शास्त्रमा कही ने जे.
टीका:- एतदंतरेणसमस्तस्यापि क्रियाकलापस्यांधमूकसाम्यापत्तेः॥ ततो गुरु नक्तिश्चेत्यादि इंछः ॥वा समुच्चये ॥
आदृतंस बहुमानं नत्वव हेलया । एतत्सकलंजिनगृहादिदाना दिगुरुनक्त्याद्यनुष्टानं किमित्याह ।। स्यानवेत् श्ह प्रवचने अननिमतकारीतिसंबंधः ॥ कस्मादताह ।। कु मतेत्यादि । तत्रकुमतपरतीर्थिकसमयानिहितं क्रियाकदवकंवाउचंबसूर्योपरागसंक्रांतिमाघमालाप्रपादानादि ॥
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(३४)
* अथ श्री संघटक
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। अर्थः-ए विनाना सर्व पण क्रिया कलापने अंध तथा मू. कनो सरखापणानी प्राप्ति थाय जे ए हेतु माटे त्यार पड़ी गुरु अक्ति 'इत्यादि पदनो इंच समास करवो. वा अव्ययनो समुच्चयने विषे अर्थ करवो ए सर्व जिनगृह आदिक तथा दान आदिक तथा गुरु नक्ति श्रादिक अनुष्टान जे वहुमान सहित श्रादर कर्यु ते श्रा प्रवचनने विषे अनिमत नथी. एटले मानवा योग्य नथी. एम संबं. ध करवो शाथी के ते सर्व कुमत जे अन्य दर्शनी तेमना शास्त्रमा कह्यो जे क्रियानो समूह श्राफ तथा चंज सूर्यतुं ग्रहण तथा संक्राति तथा माघ माला इत्यादिकनुंजे प्रतिपादन तेने कुमत कहीए.
टीकाः-कुगुरु रुत्सूत्रदेशनाकरण प्रवणः सन्मार्गदूषणपरायणो धार्मिक जनकुमो पञ्चतत्परःसुखलोल तयायतिक्रिया
विकलोजन विप्रलिप्सयाःकरक्रिया निष्टोपिवा सानपूजा - ख्यातिकामः कुत्सिताचार्यः । कुग्राहः सिद्धांतबाह्य स्वमति
कल्पितस्वान्युपेतासत्पदार्थसमर्थनानुष्टानगोचरो मानसोनि निवेशः॥
- अर्थः-ने कुगुरु जे नत्सूत्र देशना करवामां तत्पर ने सारा मार्गने दोष पमानवाने तत्पर ने धर्मवंत लोकने कुछ उपजव करवामां तत्पर ने विषय सुखनी लालचे यतिक्रियाथी भ्रष्ट थयेसो ने लोकने उगवानी श्चाए पुस्कर किया करे ये तो पण साज तया प्रजा तथा पोतानी ख्याती तेमनी श्वावाळो ते'कुगुरु कहीए, कुत्सित श्राचार्य कहीए, ने कुग्राहं ते सिद्धांतनी वाह्य एटले सिकांतथी नखटो पोतानी बुद्धिए कल्पना कों ने अंगीकार कयों
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अथ श्री संघपट्टक
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जे असत् पदार्थ तेनुं समर्थने करनार एटले प्रतिपादन करनार एबुं जे अनुष्टान एटले क्रिया तेणे करीने प्रत्यक्ष जणातो जे मन संबंधी श्रनिनिवेश एटले हवाद तेने कुग्राह कहीए.
टीका:-कुवोधोऽन्यथाव्यवस्थितस्य जगवदागमार्थस्या ज्ञानाविशिष्टसंप्रदायाजावाहाऽन्यथापरिदः ॥ यद्योजया नावादन्यथापरिछेदः ॥ कुदेशना श्रुतोक्तार्थानां संशयादज्ञानामिथ्यानिनिवेशाछा वैपरी येन प्ररूपणं ॥ ॥ यमुक्तं ॥ सिद्धांतानिहितार्थानां व्यत्यासेन प्ररूपणा ॥ याग्रहालिनिवेशादे पिता सा कुदेशना ॥
अर्थः-कुबोध ते अन्यथा प्रकारे एटले बीजे प्रकारे व्यवस्थित एटले रहेलो जे नगवानना आगमनो अर्थ तेनुं श्रज्ञानथी अथवा कोक विशिष्ट संप्रदायना अनावथी एटले शुरु गुरु परं. पराना अन्नावथी वीजी रीते परिछेद करवो एटले निर्धार करवो. तेने कुवोध कहीए अयवा वेना अनावथो एटले पोताना अज्ञानथी तथा तेवो को ज्ञानी गुरू मल्यो नहि ते कारणथी विपरीतपणे जे शास्त्रने जारा, तेने कुबोव कहोए, ने कुदेशना ते सिद्धांतमां कहेला अर्थना संशय थकी अथवा अज्ञान थकी श्रथवा मिथ्यानिनिवेशथो जे विपरीत प्ररूपसा तेने कुदेशना कहीए. ते वात शास्त्रमा कही ठे जे तिझांतमां कहेला अर्थतुं श्राग्रहथी उसटो रोतेज प्ररूपस कर तेने कुद्देशना कहोए.
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(१७६)
Mg अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः अत्र च कुगुरुग्रहणेन कुदेशनालाजेपि पृथगुप', दानं तस्याः सकलेतरदोषेच्यो महत्वज्ञापनार्थं ॥ ततः कुमतं
चेत्यादिः ॥ तासामंशोलेशस्तस्मात् आस्तांकुमतादित्यः समग्रेन्यः कित्वेषामंशमात्रादपि स्फुटव्यक्तं निश्चितमितियावत् अनलिमतकारि अनिष्टविधायिधुरंतसंसारकांतारनिरंतर पर्यटन कारणमित्यर्थः॥
अर्थः-या जगाए कुगुरुना ग्रहणवमे कुदेशनानो बान थये सते पण जे कुदेशना पदनुं जुडं ग्रहण कर्यु ते तो ते. कुदेशनानो समस्त बीजा दोषथी मोटो दोष ने एम जणाववाने अर्थे ग्रहण कर्यु जे. त्यार पड़ी कुतत इत्यादि पदनो झंक समास करवो. ते कु. मतादिकना अंश मात्रथी पूर्वे कयो जे समस्त क्रियाकलाप ते व्यर्थ थाय ने तो समस्त कुमतादिकनी तो वातज शी कहेवी ए तो वातज बेटे रहो. पण ए कुमतादिकना अंश मात्रथी पण निश्चे अनिष्टकारी थाय बे एटले महा पुःखबमे जेनो अंत ने एवी संसाररुपी अटवी तेने विषे ए सर्व क्रियाकलाप परित्रमण करावनालं एटलो श्रर्थ. .
टीका:-एतउक्तं भवति ॥ जिन प्रवचनंहि सम्यग् । ज्ञानदर्शनचारित्रसमुदायरूपं.कुमतादीनितु मिथ्यात्व रूपाणि तथाच श्राबादीनि कुतीर्थिककर्माणि यः श्राद्धोजिनार्चना दिवकर्तव्यान्यतानीतिधिया समस्तान्यपि करोति तस्य प्राक्तन मनानं सकलमपि विफलमिति किमत्रवक्तव्यं ॥ यावदेतन्म-, यादेकादिकमपि तदंशादिकं वायो विधत्ते तस्याप्येतदेवमेव ॥
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अथ श्री संघपट्टक:
( ३७७)
अर्थः--- ए वधुं कथं तेमां सार अर्थ वाटलो को बेजे जिन परमात्मानुं प्रवचन वे ते निश्चे सम्यक्त तथा ज्ञान दर्शन चारिना समुदायरूपी ने कुमतादि समस्ततो मिथ्यात्वरुप बे ने वळी श्राद्ध आदिक जे कुतीर्थि लोकोनां कर्म तेने जे श्रावक थश्ने नगवाननी प्रतिमाना पूजनादिकनी पेठ यातो आपणे करवा योग्य बे एवी बुद्धिए करीने ते समस्त कुतीर्थिकनां कर्मने पण करे बे ते पुरुपने पूर्वे हे सर्व अनुष्ठान निष्फळ थाय बे एमां ते शुं कहेतुं ए सर्वमांथी एके पण होय तो पण निष्फळ थाय बे अथवा तेनो अंश लेश मात्र पण जो दोय तो तेनुं पण सर्व अनुष्टान ए प्रकारे निश्चे निष्फळ थाय बे.
टीका:- पशुक्तं ॥ श्राद्धप्रपार विश शिग्रहमाघमाला सं: क्रांतिपूर्वपरतीर्थिकपर्वमालाः ॥ पापावदा विगलडुज्वलयुक्ति जाला जैनाः स्ववेश्मसु कथंरचयंति वालाः ॥
अर्थः- जे माटे ते वात शास्त्रमां कही वे जे श्राद्ध तथा पर्व मंगाववी ते, तथा सूर्य चंद्रनुं ग्रहण तथा माघमाला तथा संक्रांति श्रादिक जे अन्य तीर्थिकना पर्वनो समूह ते पापनेजं वहन करनार वे ने सर्व पर्व जे से सारी निर्मळ युक्तिना समूहथी रहित े तेने जैन लोक पोताना घरने विषे रचे एटले शुं करे ? नज करे एटले ज्ञानी होय ते तो ए पर्व करे पण जैनी तो नज करे.
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टीका: -- तथा कुगुरुर पियोजूंयांस्युत्सूत्रपदा निमज्ञापयति तदाज्ञयावर्त्तमानस्य सर्वमेतद्भवहेतु रिति किमद्भुतंयावतायः
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ल३७८)
8. अय श्री संघपट्टका
पदमात्र मप्युत्सूत्रं प्ररूपयति तदगिरापि प्रयतमानस्य तस्य मिथ्याष्टित्वेन तदाझाप्रवृत्ते नवनिबंधनत्वात् ॥
। अर्थः-चळी जे कुगुरु पण घणांक उत्सूत्र पदने कहे बे ने तेनी आझाये करीने वर्ततो एवो जे पुरुष तेने ए सर्व क्रिया संतातुं कारण थाय ने एमांशु आश्चर्य ले केमजे जे पुरुषपद मात्र पण उत्सूत्र प्ररुपे डे ने तेना कह्या प्रमाणे जे प्रयत्न करे नेते पुरुषने पण मिथ्याष्टिपणे करीने तेनी आज्ञामा प्रवत्यों जे माटे संसारखें बांधवापणुं थाय ने ए हेतु माटे.
टीकाः-ययुक्तं ॥ उस्सूत्रोच्चयमुचूषः सुखजुषः सिद्धांतपद्यामुषः प्रोशर्यनवतापकापथपुषः सम्यग्दृशांविहिषः॥ येतुप्रा. प्रतिजानते गुरुतया जूरोन्कुसूरीनहो,ते चुंबतिसहस्रशः श्रमन्नरोदश्राश्चतस्रो गतीः॥
। अर्थ:-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे उस्सूत्रना समू'हने बोधता ने विषय सुखने नोगवता ने सिद्धांत मार्गना लोपनारने जेथी संसार ताप घणो वृद्धि पामे एवा कुमार्गनी पुष्टी करनारने समकित दृष्टिवंतना वेषी एवा घणाक कुगुरुने गुरुपणे जाणे बेमाने बे ए मोटुं आश्चर्य बे. ते कुछ प्राणी एटले नीच माणस हजारो हजारवार महां फुःखवाळी चारे गतीयो प्रत्ये ब्रमण करे .
टीका:-तस्मादेवं विधंस्यगुरोः परिहार एवश्रेयान् ॥यकं ॥ अहितनयतः संत्रस्तानां तृणांशरणार्थिनां । सुगतिस
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अब श्री संघपट्टकर
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राणनव्यानां यः कुदेशनयानया ॥ कुनृपसुतवहीर्षश्रेणिं नि. नत्यसिलेखया, जवतिकुगुरुः स त्यक्तव्यः शिवस्पृहयादुनिः ।।
अर्थः ते माटे ए प्रकारना गुरुनो त्याग करवो एज श्रेष्ट जे माटे शास्त्रमा कह्यु जे कुगुरु दुःखदायि एवा संसार थकी त्रास पामेला एवा ने शरणपणाने खोळता एवा नव्य पुरुषोने सुगतिरुपी मारगने कुदेशना एटले उत्सूत्र देशना तेणे करीने नाश करे ने जेम नगरो राजा तेनो पुत्र पण तेना जेवो नगरोते तरवारवमे जे सर्वेना मस्तकने दे दे तेम ए कुगुरु पण माथु कापनारज डे माटे मोक्षनी स्पृहावाळा पुरुषोए तेकुगुरुनो त्याग करवो.
टीका:-तथाकुयाहस्याप्यानिनिवेशिकमिथ्यात्व रूपत्वा-. तबाहुल्येनतत्तीत्रपरिणामतयावा सर्व मेत विधीयमानमसमंजसमिति किंचित्रयावत्तदन्यतमत्वेन तन्मंदपरिणामतयावा. तदेकदेशेनापि ॥
अर्थः-वळी कुग्राह एटले मागे कदाग्रह तेने पण श्रानिनिवेशिक मिथ्यात्वरुपपणु के ए हेतु माटे श्राजिनिवेशिक मिथ्याखन जेने होय ते मानने नदये करीने जाणीने जूगे कालेलो कदाग्रह गेमे नहि ते रुपपणुं ले. माटे अथवा ते कदाग्रहनु वढुपएं
ए हेतु माटे अथवा ते कदाग्रह तीन एटले आकरं परिणाम पामवापणुंठे ए हेतु माटे अथवा ते कदाग्रहना एक देशे करीने पण मिथ्यात्वपणु के ए हेतु माटे तथा ते सर्वनुं मंद परिणाम पा. मवापj ठे ए हेतु माटे एमांनुं हरकोई एक होय तो सर्व करेलु
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अय श्री संघपट्टका
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तप आदि अनुष्टान अघटतुं थाय तो ए सर्व होय तेमां अयोग्यपणुं थवामां शुं आश्चर्य ले काइपण नथी.
टीका-तमुक्तं ।। कुग्रहाः समयनीतिवहिष्टस्वाश्रयस्वमतिकल्पननिष्टाः मानसाअनिनिवेश विशेषा ग्रहाश्व जवातिकृतस्ते ॥
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही जे कुग्रह जेते सिधांतनी नीतिथी वाहिर ने जेमां श्राश्रव रह्या लेने पोतानी मैतिकस्पनाये स्थापेला डे ने मन संबंधी कोश्क प्रकारना अनिनिवेश विशेष के एटले हवादरुप डे ते जेम माग ग्रह संसारमा पुःख देनार हे तेम कदाग्रह पण संसार कु:खने आफ्नार के.
टीका:-अतएव जगवत् प्रवचनप्रतिपत्तावपिकुगुरुकुग्राहग्रस्तानां दारुणोविपाकप्रतिपादित ॥ यदाह ॥ तुहपवयणं पिपाविय संन्नाविय साहुसावगपि ॥ कुग्रहकुगुरुहर्ड नण अपंतखुत्तो दुइंपत्तो ।
अर्थः-एज कारण माटे जगवंतना प्रवचननी प्राप्ति थये सते पण कुंगुरु तथा कुग्राह एटले मागे कदाग्रह तेणे करीने गळाएला प्राणीने महा आकरो विपाक एटले ए पाप महा श्राकलं फळ प्रतिपादन कयु डे जे माटे ते वात शास्त्रमा कही ये जे तमाळं प्रवचन पामीने तथा साधुपणुं अथवा श्रावकपणुं सुंदर पामीने जे पुरुष माठो कदाग्रह तथा कुगुरु तेणे करीने हणाया . एटले जुंगा
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अथ श्री संघपट्टक
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कुगुरुना वचन प्रमाणे चालनारा ते अनंतवार संसार कादवने विषे खुत्या एटले चोंट्या ठे ते महादुःखने पामशे.
टीका:-तथा कुवोधस्यापि विपर्यय ज्ञानत्वेन मिथ्यात्वरुप त्वाद् बहुजगवदुपदिष्टपदार्थविषयविपर्ययज्ञानरुपतत्साकल्येनैव क्रियमाण मेतनकेवलं संसाराय किंवऽल्पतरजिनोक्तार्थ विषयविपर्ययज्ञानरुपतदंशेनापि ॥ । अर्थः-वळी कुबोधने पण विपरीत ज्ञानपणुं बे ए हेतु माटे घणी रीते जगवते नपदेश कर्या जे पदार्थ ते संबंधी जे विपरीत ज्ञान ते रुप जे कुवोध तेनुं समस्तपणुं तेणे करीनेज जे कर्यु तेज केवळ संसारजणी एम न जाणवू. त्यारेशुं तो अतिशे अल्प जगवते कहेला जे अर्थ ते संबंधी विपरीत ज्ञान ते रुप जे कुवोंध तेनो अंशमात्र पण संसार जणी बेनावार्थः-वीतरागे नपदेशेलो एटले कहेलोजेअकरतेनोअर्थपोतानीमतिकल्पनाए अवळो करे तो उत्कृष्ट नांगे अनंतो संसार वृद्धि पामे तो समस्त वीतरागे कहेला पदना अर्थ- मति कल्पनाए अवको अर्थ करे तेतुं तो शुं कहेवू.
टीका-यदाह ॥ सिद्धांतमन्यार्थतयावगम्य, प्रवर्त्तमाना नफलं वनंते ॥ विपर्ययात्काचतयेव जात्यं माणिक्य मज्ञाः परिवर्नयंतः॥
अर्थ:-जे माटे ते शास्त्रमा कडं ठेजे सिद्धांतना अर्थने वीजी रीते जाणीने प्रवर्तता जे पुरुष ते फळने नथी पामता. जेम
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अय श्री सघपट्टका
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अज्ञानी पुरुष जातिवंत माणिक्य मणिने काच जेवो जाणीने आप ते माणिक्य मणीना फळने नथी पामतो तेम.
• टीका:-तथा कुदेशनाबाहुट्येनानुविहं सकल मेव उ. गैतिहेतवेइति किमाश्चर्य यावत्तदंशेनापि ॥ अतएवश्रीमन्महावीरस्य मरीचिन्नवे पदमात्रोत्सूत्रदेशनानिबंधनं जूरिनवनमणं श्रूयते ॥
अर्थः-वळी कुदेशनानुं जे बहुपणुं तेणे सहित जे सकल एटले समस्त शुजकार्य तेमांज उर्गतिनुं कारण होय तेमांशुं आश्चर्य केम जे ते कुदेशनाना अंश मात्रे करीने पण पुर्गति थायले. एज कारण माटे श्री महावीरस्वामीने मरीचि नवने विषे पदा चंनी जे नत्सूत्र देशना तेणे करीने बांध्यु जे कर्म ते घणा नवमण करवानुं कारण थयुं एम सांजळीए बीए.
टीका-यमुक्तं ॥ नत्सूत्रपदमात्रस्य, देशनेनापिजंतवः ॥ बंत्रम्यते जवांनोधौ, नूरिकालंमरीचिवत् ॥
अर्थः-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे जे उत्सूत्र एक पदमात्र थीपण देशनाये करीने प्राणी जे ते संसार ससुजने विषे घणा काळ सुधी मरीचीनी पेठे अतिशय ब्रमण करे .
टीका:-आगमेप्युक्तं ॥ फुभवागममकहतो जहहियं बोहिलाजमुवहणजहनगढ विसालोजरमरण महोत्रही श्रासि॥
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अब श्री संघपट्टक
(१४३)
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अर्थः-ते वात श्रागमने विषे कही जे जे.
टीका:--अथ कथं पुनर्विधिकृते जिनग्रहादौकुमतायंशानुवेधः ॥ नच्यते॥ पूर्वोक्तानेककुतीर्थिक मत मध्यादेकमपिजिन गृहादिषुविदधतो नवति कुमतांशानुवेधः ॥ तथैकपदायल्पोसूत्रनाषिणः कुगुरोराज्ञा या किंचिंदेकरात्रिस्नानादिकं जिनजवनादौकुर्वतोयहान्युपेतसुगुरूक्तसमस्तधर्मकर्मविधायिनोपि कथंचि कुगुरूक्तमपिर्किचित्तत्र विधानस्य नवति कुगुरु लेशस्पर्शः॥
अर्थ:-हवे प्रतिवादी बोले ले के विधिए करीने करेला जे जिनमंदिर श्रादिक तेने विषे कुमतादिकनो अंशनोप्रवेश केम थाय. शी रीते थाय ने तो तेनो नत्तर कहे जे पूर्वे कह्या एवा जे अनेक कुतीर्थिक मत तेना मध्यथी एक पण जिनमंदिरादिकने विषे करनार पुरुषने कुमतना अंशनो प्रवेश थाय . वळी एक पदादि अटप पण उत्सूत्रने कहेनार एवा कुगुरुनी आज्ञाए करीने जिन मंदिरादिकने विषे रात्रि स्नात्र आदिक कांइ एक पण करनारने कुमतना अंशनो प्रवेश थाय ने अथवा प्राप्त थयेला जे सुगुरु तेणे कह्यु एवं जे समस्त धर्म कर्म तेने करतो एवो जे पुरुष तेने पण को प्रकारे ते जिनमंदिरादिकने विषे धर्म कर्म करनार कुगुरुना लेशनो स्पर्श थाय .
टीका:-तथा दक्षिणादिदिगव्यवस्थितानां जगवत्प्रतिमा नांस्लान विधानेऽस्माकमाम्नायस्तस्मात्तत्रस्थितैरस्मानिरवस्नात्रं
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(३८४ )
40 अय श्री संघपट्टक
विधातव्यमित्याद्यनेककुग्राहान्यतमेन कुप्राहेनतन्मंदररिणाम रूपतयावा तत्रस्नात्रादिकरचयतः कुग्रहांशश्लेषः ॥
● अर्थः- वळी भगवंतनी प्रतिमाना स्नान विधिने विषे द कि यदि देशमा रहेदुं एवो अमारो घाम्नाय बे माटे तेज दिशमां रहीने श्रमारे स्नात्र कर इत्यादिक अनेक प्रकारना कुग्राद एटले माठा कदाग्रह तेमांथी हरेक कोइ कुग्राह तेथे करीने अथवा तेना मंद परिणाम रूप कदाग्रदना अंशथी जिन मंदिरने विषे स्नात्र श्रादिक क्रियाने रचतो एवो जे पुरुष तेने कु. ग्रहना एटले. कदाग्रहना अंशनो प्रवेश थाय बे.
टीका:--- तथा जाजस्त हिश् इत्याद्यागमार्थमन्यथा बुझा तदनुसारेण श्राद्धानां स्वस्य दिग्बंधाद्यन्यतमं प्रतीचतां कुवोध लवानुषंगः॥ तथाऽनेकोत्सूत्रवा दिन श्राचार्यादे र्जूयस्याः कुदेशना - याः एकतरं किंचित्सूत्रपदंश त्रिनंद्या दिकं तत्रकारयतःश्राद्धस्य कुदेशनालेशप्रवेश इत्येवं सर्वत्रोक्तधर्मकर्मसु कुमताद्यनुवेधः स्वधियाऽज्यूहनीय इति ॥
अर्थः--वळी जे जेनी स्थिति इत्यादि यागमना अर्थने विपरीतपणे जाणीने तेने अनुसारे श्रावकने दिग्बंध एटले दिशनुं बांध इत्यादिक हरेक कोइ श्रवळी समजण तेने ग्रहण करनारने कुबोधना लवमात्रनो प्रवेश थाय बे ए प्रकारे सर्व जगाए कहां एव जे धर्मकर्म तेने विषे कुमतादिकनो प्रवेश जे ते पोतानी बुद्धिए करीने कल्पना करी लेवो.
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ong. अय श्री संघपटक
(३८५)
ANAM
टीका-ननुकथमेतानि गरीयांसि धर्मकृत्यानिकुमतादि सेशमात्रेणापि प्रतिरुध्यते॥ नहिमृणालतंतुना दंतिनः प्रतिवर्ल्ड पार्यंत इत्याशंक्यविवक्षितार्थप्रसाधनानुगुणमुपमानमा ।। वरनोजनमिव स्निग्धमधुरसुस्वादजेमनमिव । श्वेत्युपमानद्योतकमव्ययं ॥ विषलवनिवेशतोगरलकणप्रक्षेपात् ॥
अर्थ:-तर्ककरि समाधान थापे जे जे आ अतिशे मोटा धर्म कृत्य जे जिनमंदिरादिक ते जे ते कुमतादिकना लेश मात्रे करीने पण केम प्रतिरोधने पामे एटले केम अहितकारी थाय केम जे कमलना तांतणावमे हाथी जे ते बांधवा न समर्थ थए तेम सगार कुमतादिके करीने ए प्रकारनां मोटा धर्मकृत्य दोषरुप केम थाय एवी आशंका करीने कद्देवानी का कर्यों एवो जे अर्थ तेर्नु जे सिद्ध कर तेने अनुसरतो के गुण जेनो एq नपमान कदे के एटले तेनी उपमा दे. जे श्रेष्ट भोजन एटले सुंदर मधुर सारूं स्वादिष्ट नोजन जेम फेरना लवनोप्रवेश थवाथी अहितकारी थाय ठे तेम ए सर्व धर्मकृत्य ते कुमतादिना लवथकी अहितकारी थाय ठे आ जगाए नपमा अलंकारने कहेनार श्व अव्यय बे.
टीका:-श्रयमर्थः ॥ दृशीहि विषकणस्यापि परिणामिकाशक्तिर्ययाहृद्यमपि वह पिनोजनंदपादेवसकलमसौस्वात्मन्नावेनपरिणमयति तथा परिणमितंचतभुज्यमानमपायायजायते यथा तथा कुमतादिलेशस्यापि मिथ्यात्वरूपत्वादेवंविधमहिमायेन महीयोपिजिनगृह विधानादि धर्मकर्म स्वस्वरूपतया नावयति। तथानावितं च तबिधीयमानमपि संसाराय संपद्यन इति ॥
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(१८६)
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अथ श्री सघपट्टका
अर्थः-एनोस्पष्टार्थ आप्रकारे ठे के नेमकेरनाकरानी एज प्रकारनी परिणामिक शक्ति जेणे करीने सुंदर एवं पण घणुं लोजन जे ते क्षण मात्रमांजए फेर जे ते समस्त अन्नने पोता जेवूज करेएटले पोताजेज परिणाम पमाळेने ते प्रकारे परिणाम पमाभ्यु जे अन्न ते लोजन करनारने निश्च नाश पमा तम कुमत प्रादिकना लेशने पण मिथ्यात्वरूपपणुं वे ए हेतु माटे एनो ए.प्रकारनो महिमा ले जे जेणे करीने अतिशे मोटुं ए, पण जिनमंदिर कराववा आदिक धर्म कर्म तेने पोताना रूपपणे एटले. मिथ्यात्वरूपपणे परिणमावे ते. एटले मिथ्यात्वमय करे ने ने तें मिथ्यात्वरूप थयु जे धर्म कर्म ते 'संसार जणी थाय ने एटलें घj सारूं धर्म कर्म के पणं तेमां मिथ्यात्वरूपी फेर नळवाथी संसारर्ने कारण थाय . :
' ' टीका:-दमत्र तात्पर्य । यद्यपि विषयसादगुण्येन जिनं 'गृहादिकरणं निसर्गमधुरं तथापि तनगवदाझापुरस्कारेणैव सुग तिफलाय कल्पते नगवदाज्ञामतरेण जिनराहादिकरणेपितदाराध'नाऽनावेन तदनुपपत्तेः॥
अर्थः-या जगाए कहेवानुं श्रा.तात्पर्य ने जो पण विषय आधीन थश्ने विषय नोगववाने कारणे जिनगृहादिकनुं जे कर, ते स्वानाविक देखातुं तो सुंदर जणाय ले तो पण.जगवंतनी श्राज्ञापूर्वक जे कर तेने जे सुगतिरुपी फळ आपवापणुं ने माटे जगवं. तनी आझारहित जिनग्रहादिक करे सते पण ते नगवंतनी धारा'धना तेमां थती नयी तेमां तो विषयनी आराधना थाय एं हेतु मोटे ते जिनमंदिरादिकने करवानुं फळ थतुं नथी.
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-- अथ श्री संघपटक
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(१८७)
Sanatan. mammidar
टीकाः-कुंतसदेव्यादीनां तत्करणेपि धुर्गतिगमनश्रवणात् ॥ श्राझासंप्रदानस्यैव तदाराधनोपायत्वात् ॥ यदाद ॥ तुममहीहिनदीससि नारा हिजसिपलूयतयाहिं ।। किंतुगुरुजत्तिरागे•ण वयंपपरिपालणेणंच ॥ : अर्थः-कुंतल देव्यादीके पण ते धर्मकृत्य कर्या ले तो पण तेमनी पुर्गति थडे एम शास्त्रथी सांनळीए बीए. जे माटे ते. कथु ले जे. . .
टीका:-तथा ॥ यस्यचाराधनोपायः सदाझाज्यास एव हि ॥ यथाशक्ति विधानेन नियमाल फलप्रदः ॥ लोकेपि स्वामिशासनं विना तदनुकुलं किंचन विदधानोपि नृत्योनस्वामिन स्तोषाय जायते प्रत्युत रोषाय ॥ तस्याशाजंगजनितवैधुर्यप्राप्तेना
अर्थः-वळी जेने श्राराधननो उपाय सत्पुरुषनी आज्ञानो अन्यास एहीज डे पोतानी शक्ति प्रमाणे नियमथी जिनमंदिर श्रादिकनुं करावई तेणे करीने फळ आपनार थाय ने लोकमां. पण . को पुरुष पोताना स्वामीनी आज्ञा विना ते स्वामिने अनुकुळ कांक करे ठे तो पण ते सेवक स्वामिने प्रसन्न करवा नणी नथी थतो. नुलटो ते स्वामिना रोषजणी थाय ठे केम जे ते स्वामीतुं आज्ञानुं नागवू ते थकी थयु जे कष्ट तेनी प्राप्ति थाय ए हेतु माटे.
टीका:-यमुक्तं ॥ जिञ्चावि सामिणो शहजत्नेण कुषंति जेन सनिगं ॥ हुँतिफलजायणं ते श्यरेसि किलेसमित्तंतु ॥ एवमिहापिकुमतादीनिजगवदाझा विरोधीन्यतस्तर्दशानुवेधेनापि
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(c).
अथ श्री संघपट्टक
सर्वाण्यपि जिनगृह निर्मार्पणादी नितन्निमित्तान्यपि जंगवदाज्ञा गहेतुत्वावफलान्येव ॥
अर्थ:----ए प्रकारे या लोकने विषे पण जगवाननी श्राज्ञानां विरोधी एवां जे कुमतादिक तेना अंश मात्रनो पण प्रवेश थ वार्थ सर्व पण जिनमंदिरादिकनुं निपजावकुं इत्यादिक सर्वे धर्म कार्य जे ते जंगवाननी आज्ञाजंगनुं कारणपएं एमां रचुं वे ए हेतु माटे संसाररूपी फळनेज अपनाएं .
टीका:-समझप वित्ती सवा श्राणावज्जति नवफलाचेव || तित्थ गरुद्देसेण वि न तत्त सातदुद्देसा ॥ श्रतएवसम्यक्तशुद्धिहे. लवे कर्त्तव्यतयाऽनि हितान्यप्येतान्यसमंजसवृत्या क्रियमाणानि तदभावापादकत्वेन श्रूयते ॥ यदाह श्री हरिनसूरयः ॥ पा एस देउल जिप निमा का रियान जीवेहिं । असमंजस वित्ती एनय सिद्धो दंसणलवोवि ॥ तदेवं विषलवसंवलितन्नोजनो पमानेन जिनगृहादिविधानस्य कुमता दिलेशसंस्पर्शिनोप्यन निमतकारित्वं व्यवस्थित मिति वृत्तार्थः ॥ २० ॥
प्रर्थ---एज कारण माटे समं कितनी शुद्धिना कारण माटे जे शास्त्रमां करवा योग्यपणे कां एवां जिनमंदिरादिक तेने ठ ती वृत्तिए करीने करे तो ते धर्म कर्म न कर्या कहेवाय. एम शामां प्रतिपादन युंढे ते संजलाय डे. जे माटे श्री हरिनसूरिए
जे ते हि कारण माटे विष लव मिश्रित जे भोजन तेनी उपमा देवी तेणे करी ने जिनमंदिर श्रादिकनुं जे करतुं तेने कुमतं श्रादिकना
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अथ श्री संघपटक :
(३८९)
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। लेश मात्रनो पण स्पर्श थाय तो वांछितकारी ते न थाय एटले ते जिनमंदिर श्रादिकने कराववानुं फळ न थाय एम सिद्धांत थयो. ए प्रकारे श्रा काव्यनो अर्थ समाप्त थयो ॥ २० ॥
टीका:-अधुना मुग्धजनाकर्षणनिमित्तजिनबिंबप्रदर्शनादिधारेण लिंगिनां लोकप्रतारणं दर्शयन्नाह ॥
. अर्थः हवे नोळा खोकने आर्कषण करवाने काजे जिनबिंब देखामवू इत्यादि छारे करीने लिंगधारी लोकने उगे ले तेने देखामता सता कहे बे.
मूल काव्यम्.
आकृष्टुं मुग्धमीनान् वझिशपिशितवबिमादर्य जैनं। . तनाम्ना रम्यरूपानपवरकमगन् स्वेष्टसिध्ययै विधाप्य॥ . यात्रास्नात्रायुपायै नमसिंतकनिशाजागरायै श्वलेश्च । श्रद्धासुर्नामजैनैश्वलित श्व शर्वच्यते दाजनोऽयम् ॥२॥
. टीकाः-श्राकृटुंमुग्धमीनान जैनर्विवमादय नामजैनेजनोयं वच्यत इति संबंधः तत्राकृष्टुमिति स्ववशमानेतुंनतु पुण्यमर्जयितुं मुग्धा हेयोपादेप विचारशून्यतयाधर्मश्रद्वालवस्तएव
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Anamnaam
(२९०) - अथ श्री संघपट्टका -
mmmmmmmmins 'जमप्रकृति तयास्वहिताहितपरिज्ञानवैकल्पंसाधम्यान्मीनामत्स्यास्तान् विवं प्रतिमां जैनं नागवतं श्रादर्यदर्शयित्वा यथा नोनव्या ऐहिकामुष्मिकसुखसाकटपनिधानकरूपमिदमहहिवंपूजयत नक्त्येति सामान्यतोऽथवा नवत्पूर्वजैरेतबिमाहतं नि: मापित। तथेदमेव प्रत्यहं नियमेनापुपूजन् ।ततो नवनिरपोदमेव विशेषेण पूजनीयं ॥ .
. अर्थः-विचार रहितपणे धर्मनाश्रमायुएवाजे पुरुष तेहिज . जम प्रकृतिपणे पोताना हितनुं तथा अहित] यथार्थ ज्ञान नथी: माटे ए पुरुषने मत्सर्नु समानपणुंडे माटे मत्स जेवा तेमने जिन नगवंत संबंधी बिंब एटले प्रतिमा तेने देखामीने एटले लिंगधारी ए श्रावक लोकोने एम कहे जे नोनव्याः एटले हे नाविक प्राणी, आं लोकना तथा परलोकना समस्त सुखना निधि समान आ अर्हतनुं प्रतिबिंव तेने नक्तिनावे पूजो अथवा तमारा पूर्वज एटले वृको तेमणे आ जिन प्रतिमा निपजावी ने एज प्रतिमा नित्य पूजन तमारा वृद्धो करता हता माटे तमारे पण आज प्रतिमानुं विशेषे करी पूजन कर.
श्रा अर्हतनुं प्रसार तथा परलोकना समस्या एटले हे नाविक
टीका:-तथाहिब निर्मापणमेव संप्रति जवजलधिनिप' तजंतुतारणायाल भितिजवलिः स्वश्रेयसे नवीनं जगवहिवं स्व
नानाविधापनीयमिति विशेषतोमुग्धजनपुरतः प्रज्ञाप्येत्यर्थः । किल यतिना देशनाबारेण जिनर्विवार्चनादेहिपुरः फसमुप-. वर्णनीयं ॥ तत्फल लिप्सया तदनुसारेण गृहिणः स्वयमेव तत्रप्रवृत्युपपत्तेः॥
कित यासापनीयमिति विशेष स्वश्रेयसे नवीन जलधिनिष
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अय श्री संघपट्टक
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अर्थः-वळी अईत्नी प्रतिमान निपजावq एज आ काळने विषे संसार समुसमा पमेला प्राणीने तारवा समर्थ डे ए हेतु माटे तमारे पोताना कल्याणने अर्थे नवु नगवंतनुं विंव एटले प्रतिमा ते पोताना नामनी नवी प्रतिमा कराववी जोइए ए प्रकारे विशेषे करीने लोळा माणसनी आगळ प्ररुपणा करीने एटलो अर्थ ठे. वळी साधुए देशना द्वारे करीने गृहस्थनी वागळ जिन प्रतिमाना पूजनादिकनुं फळ वर्णन करतुं जोए ने ते फळने पामवानी ठाए गृहस्थ पोतेज ते प्रकारनी क्रियादिक करवामां प्रवर्तशे.
टीका:-नतु साक्षात् तन्निर्माण निर्मापणयोरुपदेशो दातव्यस्तउपदेशस्य सावद्यतया यतेर्लिषेधात्॥ लिंगिनस्तु कथमा. जन्मामीगृहिणोऽस्माकं वश्या नविष्यतीतिधिया हिकमेव स्वार्थ केवलं चिंतयंतोधूनतया पूर्वपुरुपसंबंधितादिक्रमेण मुग्धे. ज्यो जिनर्विवमादर्शयति ॥
अर्थः-पण ते प्रतिमानुं करावq तेनो उपदेश करवानो यतिने निषेध ठे ए हेतु माटे ने लिंगधारी तो एम जाणे जे श्रा गृहस्थ लोक जन्मारा सुधी आपणे वश केम करीए तो थाय एवी बुद्धिए था लोकनोज केवळ स्वार्थ तेनो धूर्तपणे विचार करता सता प्रथमतो था जगाए तमारा वृक्षो पूजनादिक करता हता ए.प्रकारनो पुरुष संबंध देखामवो एवा अनुक्रमे करीने सोळा सोकोने जिनवित्र देखामे .
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अथ श्री संघपका--
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टीका:-ते तु मुग्धत्वात्तदाशयमनवबुध्यमानाशजुश्रद्धायुतयापूर्ववंश्यस्नेहस्वकारितममतादिना तत्र जिनबिंबादौ नित्यं अव्यं व्ययंते सिंगिन श्चेत उपयुंजते स्वेडयेति ॥ नवति तदाकर्षणार्थ सिंगिनां जिनबिंबदर्शनमिति ॥ किमिवेत्याह ॥
अर्थः–ने ते जोळा लोकोतो श्रणसमजुळे माटे लिंगधारीउनो उगवारुप पुष्ट अभिप्राय तेने नथी जाणी शकता ने सरस अकालपणे वृषपरंपराथी चाली श्रावती ने पूर्वजना स्नेहथकी थये. ली जे ममता इत्यादि कारणे करीने ते लिंगधारीए उपदेश करेली जे जिन प्रतिमा तेने विषे नित्य अव्य खरचे जे. ते अव्य लिंगधारी नने उपयोगी थाय ने तेने पोतानी श्वा प्रमाणे वापरे ने माटे ते लोळा लोकोने आकर्षण करवा एटले पोताना जणी खेची लाववाने सिंगधारी जिनबिंब देखाचे ते कोना जेवू ले तो ते हवे कहे जे जे.
टीकाः-बमिशं मत्सवेधनं तदने मत्स्य विलोचनाय स्थापितं विशितंमांसं तत् ॥ वतिरुपमाने ॥तदिव॥ यथाधी. वरा मत्स्याकर्षणाय बमिशाग्रेपिशितं स्थापयति तेच तदोनतया स्वापायमागामिनमविजावयंतो गनीरादपिनीराशयानिर्गत्यमु. ग्धत्वात्तत्र लीयमानाबध्यते एवं लिंगिनोपिमुग्धजनानां स्वक्शताविधानायोक्तविधिना भगवबिमादर्शयति नतु संसारनिस्तारणाय ॥
अर्थः-मत्सने विधवानों जे खोढानो कांटो तेने वझिश
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अथ श्री संघपटक
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कहीए ने तेनी आगळ मत्स्यने लोलाववाने श्रर्थे स्थापन कर्यु जे मांस तेनी पेठे आ जगाए वत् प्रत्ययनो नपमारुपी अर्थ करवो तेणे करीने बमिश मांसनी पेठे एम अर्थ थयो एटले माग लोक.माबखां खेंची लेवाने लोढाना कांटानी आगळ मांसनो कमको स्थापन करे ठे तेने लेवाना लोन्नथी माउलो पोताना ए लीधाथी प्राण जशे एम न विचारतां महा गंजीर एवा मोटा धोमांथी नीकळीने ते कांटानी आगळ रहेला मांसने नकण करवा जतांज बंधन यामी मरण पामे डे शाथी के ए माबलांमां लोळापणुं रह्यु डे ए हेतु माटे. तेम लिंगधारी पण:नोळा लोकने चोळवीने पोताने वश करवाने पूर्वे कडं ए प्रकारना विधिए नगवंतना बिवने देखा डे पण संसार तारवाने अर्थे जिनर्विव देखामता नथी.
- टीका:-तेचश्राझाः स्नेहादिना प्रत्यहमे वतत्पूजनादिकं • विदधाना विवेकशून्यत्वादनगवणबहुमानेन पूजादिक्रियमा
णं मोक्षाय नतु ममतादिनेत्यजानाना नाविनमात्मनो मुर्गतिपातमचिंतयंतो लिंगिनिर्वशीकृत्यसततमुपजीव्यंत इति नवति वमिशपिशितसमानं जिनर्विव मिति ॥
अर्थ:-ते श्रावक लोक जे ते स्नेहादिके करीने निरंतरज तेनुं पूजन प्रमुख प्रत्ये करे ठे विवेक शुन्यपणुंडे ए हेतु माटे ने जगवंतना गुणर्नु वहुमान करवू तेणे करीने पूजनादिक जे कर ते मोक्ष नणी . पण ममतादिके करीने जे करवू ते कांश मोद जगी नथी ए प्रकारना अभिप्रायने न जाणता एवा जे ते पुरुष पोताना । आत्मानुज पुर्गतिमा पम्वापणुं तेने न विचारता एवा ते लोकोने
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(३९६)
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अय श्री सघपट्टका
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टीकाःतन्त्र ॥ लोकाकर्षणेन स्वनिर्वाहहेतोखिंगिपरिग्रही• तस्य जिनबिंबस्योत्तमस्याप्यसउपाधिवशात् फुःपरिवारपरि
वृतराजादेरिव वांछितफलासाधकत्वा जीनताध्यारोपेणोप · मानेन साम्यापादनादुपमानोपमेयनावोपपत्तेः ।
'', ''अर्थः-हवे उत्तरकार कहे जे जे तुंकडं बुंवे तेम नयी केम जे लोकन आकर्षण करवा माटे तथा पोताना निर्वाहने काजे जे लिंगधारीए ग्रहण कयु, जे जिनबिंब ते उत्तम ने तो पण असत् उपाधिना वशश्री जेम राजादिक ने ते माछो परिवार तेणे करीने वींटी सीधो होय ते वांवित फळ एटखे हित फळ तेनु साधन करी शकतो नथी तेम हीनपणानो आरोप करनार एवो मारे पण ए बमिशमांस साथे ए जिन बिंबनुं समपणुं प्रतिपादन करवाथी उपमान उपमेय नावनी सिद्धि थशे ए हेतु माटे. .
टीका:-ननु तथापि नैतपमानं जिनबिंबस्य संगछते।। सिद्धांत कचिदपि जिनबिंबोद्देशेनैवंविधोपमानानुपलनात् ॥
अर्थः--वळी ते प्रतिवादी आशंका करे जे एम ने तो पण जिन बिंबने एवी उपमा घटेज कम केम जे सिद्धांतमां को जंगाए पस जिनबिंबने नद्देशीने एवी उपमा दीधी देखाती नथी.
'' टीकाः-इति चेन्न तत्राप्युपलब्धः।तथाहिशीसह मंख'फलए इत्याद्यागमे स्व निर्वाहादिहेतुचैत्यादीनामुपमेयानामत्यतस्वसमताप्रदर्शनायोपमानमखफलकै रसिंहीनः स्वांत निगीर्ण
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9. अथ श्री संघपट्टक
( ३९७)
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तयाऽभ्यवसिताना मुपमापेक्षयातिशयोक्त्याऽतिहीनतायाः प्रतिपादनात् ।।
अर्थः-सिद्धांतो कहे जे जे जो तुं एम कहेतो होय तो ते न कहे, केम जे.ते सिकांतमां पण एम नपमा देवा ने ए हेतु माटे तेज कही देखा जे जे 'शीलेहमखफलए' इत्यादिक आगम तेने विष पोताना निर्वाह आदि कारणे कराव्यां एवां जे चैत्य आ. दिक उपमेय वस्तु तेनी साथे अत्यंत पोतानुं समपणुं ते देखामवाने नपमान एवां तेश्रतिहीन मंखफलक तेने मनमांराखीने उपमानी अपेक्षाए श्रध्यवसाय कर्यो वे एटले निश्चय कयों के एटले चैत्यने मंखफलकनी नपमा दीधी ले तेनुं अतिशयोक्ति अलंकारे करीने अतिहीनपणानुं प्रतिपादन कर्यु ले ए हेतु माटे.
. टीका:-नुपमायांानयोरपि स्वतंत्रतया पार्थक्येन प्रतीते स्तुल्यतामात्रमवगम्यते ॥ अतिशयोक्तीतु कमलमनंनसिकमखेचकुवलये इत्यादिवदेव नामसाम्यमुपमेयस्योपमानेन .॥ येनमंखफलकैः सर्वथात्मनैकात्म्यमापादितानि जिनबिंवानि
मंखफलकान्येव चैतानि लिंगिनिर्वाहहेतुचैत्यानि नतु जगव- . . दिवानीति ॥
अर्थः-नुपमा अलंकारने विधे उपमान जे चंझादिकने उपमेय जे मुखादि ए वेनुं पण स्वतंत्रपणे जुडं जुइंजे नासन तेणे करीने तुल्य मात्रपणुंज देखाय ने ने अतिशयोक्ति अलंकारने विषे तो स्थलकमल तथा जळकमळ ए वेने विपे जेम कमळ शब्द वप
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अय श्री संघपट्टका
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राय डे इत्यादिकनी पेवेज उपमाननी साथे उपमेयर्नु तुल्यपणुंडे जे हेतु माटे मंखफलकनी संघाथे एक रुपपणाने प्रतिपादन कयों जे जिनबिंब तेज मंखफलकज जे केम जे लिंगधारीए निर्वाह कारणे कर्या जे चैत्य ते मंखफलकनी पेठे श्राजिवीका हेतु . माटे ते. नगवबिंबज नथी ए तो पूर्वे कयूं एवं बरिशमांसज . '
टोकाः तथाचातिशयोक्तिलक्षणं । निगीऱ्यांध्यवसानंच . प्रकृतस्यपरेणयदित्येवंच कथं नागमे एवं विधापमानोपसंजसंजवस्तथाच सिद्धांतानुसारेणोपमानोपमेयजावं निवनतः कवेः कथं पापलेशोपि ॥ कथं चोक्तन्यायेन समानगुणयोरुजयो स्तनावं अनतः कवितुः काव्यानैपुणदोषप्रसंगोपीतियुक्त मुक्तं प्रकरणकारण बमिशपिशितवदित्युपमानं प्रकृतजिन-. बिंबस्येति॥
अर्थः-वळी अतिशयोक्ति अलंकारनु लक्षण थे वे जे वयं वस्तुने गोलवीने अवर्य वस्तु एटले परवस्तु तेणे करीने जे प्रकृतवस्तुनो श्रारोप करवो ते. शे प्रकारनो श्रागमने विषे उ. पमान वस्तुने देखवानो केम संभव नथी श्रेतो संजव डे माटे सिद्धांतने अनुसारे नपमान उपमेय नावने बांधतो एवो जे कवि तेने पापनो सेश पण क्याथीज होय ने वळी पूर्वे कहो एवो जे न्याय तेणे करीने समान २ गुण ते जेना एवो जे उपमान जावने नपमेय नाव तेने वांधतो एवो जे कवि तेना काव्यमां महापरापणाने विषे दोषनो प्रसंग क्यांधीज होय माटे प्रकरणना कर्ता पुरुष जे करे ते युक्तज कझुंडे ते शुं तो जे लिंगधारीए ग्रहण करेला
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- अथ श्री संघपट्टकः
जिनविंव तेने व मांसनी उपमा दीधी ते ठीक कयुं छे.
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टीकाः - श्रत्रचापवित्रेण वशिपिशितेनोपमानं लिंगिपरिगृहीतस्य जिनविंवस्याऽत्यंत देयताज्ञापनार्थं ॥ श्रागमेऽतिहेयस्याधाकर्मादेगोमांसादिनैवोपमानोपमेयदर्शनादिति ॥ श्र नेन चोपमानेन सिद्धांता निदितमंखफलकोपमानसंवादिनालिंगि परिगृहीत जिनविंबस्योपाधिकमनायतनत्व मपिसूचितं ॥
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अर्थः- श्रा जगाए अपवित्र एवं जे व किशमांस तेनी उपमा लिंगधारीए ग्रहण कर्यु जे जिनविंव तेने दीधी तेथी ए जिनबिंबनुं अतिशय त्याग करवापणुं वे एम जणाववाने अर्थे कस्युं बे. आग - पने विषे अतिशय त्याग करवा योग्य एवं जे आधाकर्मादिक तेने गोमांस आदिकनी संघाथेज उपमेय पणुं देखाय डे ए हेतु माटे ने सिद्धांतने विषे खफखकनी नेम उपमा दीधी ढे तेम लिंगधारीए प्रहण कर्यु जे जिनविंव तेने उपाधिथकी थयुं एवं जे अनायतनपपुं तेनी पण सुचना करी एम जाणवुं.
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टीका:- तथाहि ॥ बहुशस्तावदागमेयतीनां श्राद्धानां चायतनसेवा ऽनायतनप रिहारोपदेशः श्रूयते ॥ तत्र किमिदमायतनं किंवानायतन मिति ॥ तत्रप्रथमं प्रतिपक्ष निर्नयेनायतनस्वरूपं सुगमंभवतीत्यनायतनस्वरूप मुच्यते ॥
अर्थ:-घणीवार श्रागमने विषे साधुने तथा श्रावकने था. तमनुं सेवन करवुं ने अनायतनतो त्याग करवो एवो उपदेश सां
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( ४०० )
अथ श्री संघटक -
जळीए बीए तेमां या ते शुं श्रायनन के के श्रनायतन के एवो विचार कही एबीए तेमां प्रथम प्रतिपक्षनो निर्णय करवो तेणे करोने श्रायतननुं स्वरुप तो सुगम वे माटे नायतननुं स्वरूप कहीए बीए.
टीका:- तथाह्यनायतन मस्थानं ज्ञानादिगुणाना मिति सा मयं ॥ श्रथवा ॥ ज्ञानाद्याऽऽयदा निजननादनायतनं ॥
॥ यदुक्तं ॥
सावमाययणं ॥ सोहिगणं कुशीलसंसग्गी || एगद्वाहुतिपया एएविवरीय ग्रायय ॥
अर्थः- तेज कही देखाने ते जे अनायतन एटले अस्थान ते स्थान कोनुं तो के ज्ञानादिक गुणनुं. एटले ज्ञानादिक 'गुणं जेमां स्थान करी रह्या नथी तेने अनायतन कहीए. ए प्रका नो सामर्थ्य की प्राप्त थयो. अथवा ज्ञानादि गुणनो थाप एटले लाज तेनी हानि करनार ए वे माटे श्रनायतन कहीए. ते वात शास्त्रमां कही वे जे सावय जेमां ठे ते श्रनायतन जागावं तवा ते शुद्धपणानुं स्थान वे ने तेमां कुशीलनो संबंध रखो वे माटे ए सर्व पद एक वाळांठे केम जे एने सावय कड़ो अथवा श्रनायतन कहो अथवा शुद्धस्थान कहो अथवा कुशीस संबंधी कड़ी ने एथी जे विपरीत तेने श्रायतन कढ़ीए.
टीका:- तत्रद्वेधा ॥ लोकिकलीफोन रिकभेदात् ॥ श्र किमपि यज्ञानेदाद्विधा ॥ तत्र अन्यतो लोकिकमनाय
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9 भय श्री संघपटक :
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तनंहरसदनादि लावतोवेश्यादयः जिनप्रवचनवाह्यस्य यथासंख्यं अव्यरूपस्याशुननावरूपस्य च सतोम्यस्यापि यथासंनवं संसर्ग वंदनसेवनादिना सम्यग्दृशां ज्ञानादिविधातनिमित्तत्वात् ॥
अर्थः-ते अनायतन वे प्रकारना एक तो लौकिकने वीजो लोकोत्तर ए वे प्रकारना दे . तेमा लौकिक पण अव्य तथानाव ए वे प्रकारे तेमां अव्यथी जे लौकिक अनायतन ते तो शिव मंदिर आदि जाणवु ने नावथी जे अनायतन ते तो वेश्या दिकनुं घर जाणवू. जे जिनना प्रवचनथी वाह्य थयु डे एटले सिद्धांतथी विरुद्ध ते अव्यरुपे तथा नावरुपे होय तो पण ए बेतुं संसर्ग, वंदन तथा सेवनादि जे ते समकित दृष्टिवंत प्राणीजना ज्ञानादिकने विघातनुं निमित्त कारण हे ए हेतु माटे ते अनायतन त्याग करवा योग्य बे.
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टीकाः-दवे रुदाइ घरा अगाययण नाव विहमेव।। लोश्यसोनत्तरियं तहियं पुण लोश्यं णमो) खरिया तिरिक्खजोणी तालायरसमणमाहणसुसाणे वग्गुरियवाहगुम्मियहरिएसपुलिंदमच्छंधा ॥ लोकोत्तरिकमपि नावतोऽनायतनं सुविहिताचारपरिचष्टा लिंगमात्रधारिणः शक्तिमंतोपि संयम क्रियामणीयसीमप्यकुर्वाणाः यत्यानासाः ॥ यदाह ॥श्रहलोगुत्तरिय पुण अणाययण जावई मुणेयर ॥ जे संजमजोगाणं करिति हाणि समत्यादि।
अर्थः-लोकोत्तरिक जे ते पण नायथी अनायतन ए लेने
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(४०२)
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अय श्री संघपका
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सुविहितना श्राचारथकी ज्रष्ट थयेला एवा ने केवल लिंगमात्रने धारण करता ने शक्तिवंत ने तोपण अतिशय थोमी पण संजमनी क्रियाने करता नथी एवा जे यतिना थानासरुप पुरुष ते लोकोत्तरिकलावधी अनायतन जे जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे.
टीका:-तेषांजैन लिंगस्थितानामशुजन्नाव रूपाणांसतामा. लापवंदनादेखनायायहानिहेतुत्वात् ॥ तमुक्तं ॥ बालावो सं. वासो वीसंजो संथवो पसंगो वा हीणायारेहि सम्म सबजिर्षि देहिंपमिकु॥
अर्थः ते अशुन्न नावरुप एवा ने जिन संबंधी जे लिंग एटले चिह्न तेने विषे रहेखा एटले लिंगधारी तेमनी साथे जे बोलq तथा वंदन करवू इत्यादिकने पण ज्ञानादिना लालनी हानीनुं कारणपणुं . ए हेतु माटे ते वात शास्त्रमांकही ते जे पासथ्यादिकनी साथे वोलवं, तेमनी साथे निवास करवो, तेमनो विश्वास करवो तथा तेमनो परिचय करवो. एटले वस्त्रादिक आपq खे इत्यादिक व्यवहार ते सर्वनो जिनेश्वरे निषेध करेलो ते.
टीका:-श्रतएव जिनशासन स्थितानामपि तेषां वंदनादिकं निवारित मागमे ॥ यदाह ॥ वंदणपूयणसकारणा सर्व न कप्पएकाउं ॥ लोयुत्तमलिंगीण विकसिंबंजउन्नणियं ॥ पासत्थोसन्नकुसीलनीयसंसत्तजपमहाव्दं । नाजपतंसुविदिया. सवप्पयत्तेण वर्जति ॥
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अप श्री संघपट्टक
(४०३)
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अर्थः--एज हेतु माटे जिनशासनने विषे रह्या . एवा ते लिंगधारी पुरुषोनुं वंदनादिक जे ते पण शास्त्रमा निवारण कर्यु ले माटे ते शास्त्रमा ा प्रकारनुं वचन जे.
टीका:-अथ कथं निर्गुणत्वेपि पार्श्व स्थादीनां वंदनादि प्रतिषेधः ॥ लिंगमात्रस्यैव हि वंद्यत्वेनान्युपगमात् ॥ तस्यच तेषामपि सनावात्।। लिंग ग्रहणेन कथंचिदकार्य चिकीबोरपि. यतेर्जनापवादशंकया तत्र प्रागेवाप्रवृत्तेः ।।
अर्थ:-हवे ते लिंगधारी प्रतिवादी बोले जे पासथ्थादिक गुण रहित ले तोपण तेमने वंदनादि करवानो केम निषेध करोडो केमजे वंदन करवू तेमां तो केवळ लिंगमाननुज अंगिकार करवापणुंडे एटले मोटा पुरुषनो वेषमात्र देखीने नमस्कार करवो. पण कांश गुण जोवा नहि. ने ते लिंगमात्रनुं धारण करवापणुं तो पासथ्थादिकमांडे ने जो तेमणे लिंगधारण कयु हो तो कोई न करवानुं कार्य करवा चशे तोपरा ते यतिने लोकापवादनी शंकाये करीने तेमा प्रवृतिज प्रथमथी थशे नहि माटे ए प्रकारनो गुण ए वेपमा रह्यो ठे माटे ते वेषधारीने नमस्कार करवानो पण केम निषेध करोडो ए नाव ठे.
टीकाः-वेषग्रहणस्य 'धम्मररकर वेसों इत्यादिनोपदेशमालायामपिचारित्ररक्षकत्वेन प्रतिपादनात् ॥ श्रेणिकादीनामपि जिनप्रवचने प्रवादपारंपर्येण रजोहरणादिमात्रस्य वंदन अवपात्॥
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8. अथ श्री संघपट्टका अर्थः-वेष ग्रहण करवो ते पण चारित्रनी रक्षा करनार केमजे ते वात उपदेशमाळामा प्रतिपादन करी ले जे वेष जे ते चारित्र धर्मनी रक्षा करे इत्यादि वचन डे ए हेतु माटे वळी श्रे. पिकादीक राजाए पण रजोहरण मात्र देखीने वंदन कर्यु एम जिन शासनने विषे वृद्ध परंपराए सांनळीए बीए ए हेतु माटे.
टोकाः-किंच नवतु सगुणस्यैक्यतेवंदनं तथापि संप्रतिजिनगणधरा दिशातिशयपुरुषविरहे प्राणीना मंतरंगशुजाशुकाध्यवसायपरिज्ञानाजावानास्मदादिनिः सगुणनिर्गुणमुनिविनागः सम्यगवसापार्यते ॥ तस्मान्नेदानींतनजनानांयतिगुणागुणचिंतया तमंदनादिकर्नु मुचितं किंतर्हि रजोहरणादिनिंगमात्रदर्शनेनेति ॥
अर्थः-वळी तमे एम कहेता हो जे गुण सहित जे यति के तेनुंज वंदन हो तो पण या काळमां जिन तथा गणधर इत्यादिक अतिशयवंत जे पुरुष तेनो विरह थये सते प्राणीना अंतरंगना जे शुद्ध अथवा अशुद्ध एवा जे अध्यवसाय तेनुं थापराने ज्ञान नथी माटेश्रामुनि गुण सहित ने श्रा मुनि गुण रहित एवा विजागकरी यथार्थ जापवाने आपणा जेवा को पुरुष समर्थ थता नथी. माटे आ काळना लोकने मुनिना गुण तथा अवगुण ते बेनो विचार बोनी दइने ते मुनिने वंदनादिक कर घटे ले तो रजोहरण मात्र लिंगने देखीने वंदन कर तेमां तो शुं कहेवू ए तो वंदन करबुज.
टीकाः-यमुक्कं ॥
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अथ श्री संघपट्टक
केवलमणो हिचनद सदसनवपुव्वीहिं विरहिए इहिं || सुमसुद्धं चरणं ॥ को जाएइ कस्स जावंवा ॥ (तथा) सुविहियडु विहियंवा नादं जाणामहंखुग्नमत्थो ॥ सिंगंतुप्रययामी तिगरण सुद्धे जावेति ॥
(809)
टीकाः - श्रत्रोच्यते ॥ यत्तावयुक्तं लिंगमात्रस्यैव वंधत्वादिति तदयुक्तं ॥ संयमब्रह्मचर्यादिगुणानामेव यत्यनुषंगियां वंध• नागमेऽभिधानान्नतुलिंगस्य ॥
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यमुक्तं ॥
वंदामि तवं तह संजमंचखंतीयवंजचेरंच || जं जीवाष नहिंसा जंच नियत्ता गिड़ावासा ||
अर्थः- या जगाए सुविहित समाधान करे बे जे तमोए कयुं जे लिंग मात्र देखीनेज वंदन करवुं ते युक्त बे. केमजे यतिने विषे रह्या एवा संजम तथा ब्रह्मचर्य इत्यादिक गुणनुंज शास्त्रमां वंदन कर कयुंठे पण लिंग मात्रनुं वंदन कर कह्युं नथी जे माटे ते वात शास्त्रमां कही वे जे तमारा गुण जे तप, संयम, शांति, ब्रह्मचर्य, जीवनी अहिंसा, तथा अनियत गृहवास एटले एक ठेकाणे नियमाये न रहेतुं इत्यादि ते गुणने हुं नमस्कार करूं तुं.
टीका: -- लिंगमात्रस्यतु वंद्यत्वे निहृवानामपिवंदनीयत्वापत्तेः ॥ लिंगमात्रदर्शनस्य तत्राप्यविशेषात् ॥
यमुक्तं ॥
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(४०६)
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अय श्री सवपट्टका
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जश्ते लिंगपमाणं वंदाही निहए तुम सव्वे ॥ एए अवंदमाणस्त लिंगवि अप्पमाणं ते ॥
अर्थ:---जो लिंगमात्र वंदनीक होय तो निहवने पण वंदनीकपणानी प्राप्ति थाय केमजे लिंग मात्र देख ते तो निव पुरू पने विषे पण जे ए हेतु माटे ते शास्त्रमा कयु जे जो वंदनपणाने विष लिंग मात्र प्रमाणनूत होय तो सर्व निहवने पण वंदन करवानी प्राप्ति थाय पण निवतो श्रवंदनीक के माटे लिंग पण श्रप्रमाणिक .
टीका:-श्रथ निहवानां संघवाध्यतया प्रकाशितत्वेनागमे तवंदनप्रतिषेधान्नतविधीयते ॥ पार्श्वस्थानांतु तत्वेनाप्रकाशितत्वात्तद्विधास्यततिचेन ॥
. अर्थः-हवे लिंगधारी आशंका करे जे जे निहवतो संघ थकी बाहिर करेला प्रसिक माटे तेमनुं वंदन शास्त्रमा निषेध कर्यु ले माटे तेमने वंदन नथी करता ने पासध्या तो निहवपणे प्र. तिक प्रकाश्या नथी माटे तेमने वंदन कर जोइए. त्यारे सिद्धांति कहे. जो तमे एम कहेता होतो ते न कहे.
टीकाः-तत्तयानुघाटितानामपि सर्वाकृत्यविधायिनां निःशंकतया गृहस्थवत्सकलपापारंलप्रवृत्या प्रवचनोड्डाहकारियां यत्यानासानां रंगांगणवर्तिदर्शनविनंबनार्थयरिकदिपत यतिनेपथ्यधारिशैलूषा दिववंदननिवारणात् ॥
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अथ श्री संबंपष्टका
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(४७)
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अर्थः-केम जे ते सिद्धांतमां निहवपणे उघामा कही देखान्या नथी तो पण सर्व न करवानां कार्यने करता एवा ने निःशंकपणे गृहस्थनी पेठे समस्त पापना आरंजने विषे प्रवृत्ति करे ठे माटे प्रवचनना उडाह करनाराने जेम रंगमंझपना श्रांगणामां एटले नाटक करवाना स्थानकमां रहेलो ने जैन दर्शननी विवना करवाने अर्थे यतिनो वेत्र कटपीने रह्यो एवो जे वेषधारी नट तेनी पेठे केवळ यतिना आनास मात्र जगाता जे ते पासथ्या लिंगधारी पुरुषो तेमना वंदननो निवेध .
टीका:-यदाह ॥ जह वेलंवगलिंग जाणंतस्स नमोहक दोलो ॥ निबंधसति नाऊरावंदमाणेधुवंदोसो। यदप्युपदेशमाखावचनावष्टंजेन वेषग्रहणस्यधर्मरक्षकत्वेन समर्थनं तदप्य संवद्यानिधानं ॥ यदिहिकस्यापिमहात्मनः कदाचित्कमायादकृत्वं विधित्सोरपि वेषग्रहणादिलझाया तदविधानं तदा किमायातमिदानीतनरुढ्या निस्त्रिंशत्वेनाऽसमंजसवृत्या व्याप्रियमाणाना . मक्षिपश्मनिमेषमात्रेणापिलोकापवादमगणयतां लिंगिनां वेपग्रहणस्य ॥
अर्थः-वळी जे उपदेश माळाना वचननुं श्रालंबन करीने वेप ग्रहण करवो ते धर्मनी रक्षा करनार ते एम जे प्रतिपादन कयु ते पण संबंध विनानुं का ते एटले ते ग्रंथनो संबंध जाएया विना ए तारं प्रतिपादन खोटुंदे. केम जे ए ग्रंथनो संबंध तो आ प्रकारनो जे कोइ मोटा पुरुपने क्यारेक कर्मना नदयथी न करवान काम करवानी चा नुत्पन्न यइ होय तोपण वेप ग्रहण करेसो ठे
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( ४०८ )
-18 अथ श्री संघपट्टक
माटे श्रम केम याय इत्यादिक लगाए करीने ते कार्य करी शके नहि. माटे या प्रकरणमा तेमांनुं शुं श्राव्युं, कांइ पण न श्रायुं.
तो निर्लजपणे जेम तेम मऩमां प्रावे तेवां मां श्राचरण करता एक श्रखना निमेष मात्र पण लोकापवादने न गणता एवा लिंगधारी वेष विवकतेने तो शुं कहेतुं
टीका:- नहि ते वेषादिशंकया पिकथं चिदकार्या दंशमात्रेणापि निवर्त्तमाना उपलभ्यते तस्मात्सत्पुरुषविशेष विषयं तत्सूत्रं न सामान्य विषयमिति न तद्बलेन वेषग्रहणप्रामाण्यादधुनात नानां वेषमात्रभृतां वंदनं संगच्छत इति ॥
अर्थः- म जे ते लिंगधारी वेषादिकनी शंकाये करीने लगार मात्र पण न करवाना कार्य थकी कोइ प्रकारे पण निवृत्ति पामता देखाता नथी एतो न करवानां कार्य कर्या करे के ते हेतु माटे ए. उपदेश माळानुं जे वचन बे तेनो विषय तो कोइक सत्पुरुष डे पण ए लिंगधारीने ए वचननो संबंध लागतो नथी. केम जे ए सूत्रनो सामान्य विषय नथी जे तेनुं वळ लइने वेष ग्रहण करवाना प्रमाणपणा थकी या काळना केवळ वेष मात्र धारण करनार यतिने वंदन करवानुं सिद्ध थाम माटे या काळना वेष विवक यतिने वंदन न कर एम सिद्धांत थयो. इतिनाव ॥
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टीका: - यदपि प्रवादपारंपार्येण श्रेणिकादेरजोहरणदना निधानं तदप्यागम निर्मूलस्य प्रवादपारपर्यस्या प्रामाण्यापगमेन निरस्तं ॥ नदि श्रेणिकनृपतिकथास्वागमेऽनेकधा वि
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28 अथ श्री संवपट्टकः
( ४०९ )
सृतास्वपि क्वचिच्तुनः पुचसंयमितरजोहरण वंदनं श्रूयते प्रत्युत दोन निमित्तागतसुनिवेषगीर्वाणादिदर्शने तदवंदनमेवोपलभ्यत इति ॥
अर्थः-वळी जे लोक प्रवाद परंपराए करीने श्रेणीका दिक राजाए रजोहरण देखी वंदन कर्यु ठे एम जे तुं कहुं हुं ते पा शास्त्र विरुद्ध निर्मूळ ए लोक वातोनी परंपरा ते कां प्रमाण नथी माटे ए तारुं कहेतुं जूटुंबे शास्त्रमां अनेक प्रकारे श्रेणिक राजानी कथा विस्तारवंत ने तो पण कोइ जगाए कूतराना पूढनी पेठे जाल्युं जे रजोहरण तेनुं वंदन संभळातुं नथी उलटुं एमज देखाय बे जे देवतादिकमुनि वेष धरीने दोन पमागवा निमित्ते आव्या तेमनुं वंदन न कर्यु ए प्रकारे श्रागमने विषे प्रसिद्ध देखाय बे.
टीकाः - यदप्यन्युपगमवादेन किंच जवत्वित्यादिना सांप्रतं सगुण निर्गुण विभागानवगमेन लिंगमात्रप्रणामप्रतिपादनं तदप्य विदित जिनागमस्य तेवचः ॥ यतोशेषविशेषविषय तथा जिनादिव झस्यै रिदानी मा नाम निश्चापि देहिनां मान साध्यवसाय स्तथाप्याकारें गितवाह्य क्रियादिनिरंतरंगः प्राणि परिणामः सामान्यतया तैरपि निश्चेतुं शक्यत एव। तथैव दर्शनात्॥
अर्थः-चळी जो पण लौकिकवादनो अंगिकार करीने एम कदाचित् वंदन होय, परंतु वर्त्तमानकाळमां सगुण निर्गुल विभाग जाएगा बिना केवळ लिंगमात्र देखीने प्रणाम करवो एवं जे प्रतिपादन कर्यु ते तो जिन परमात्माना श्रागमने न जाणतो एवो जे
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अय श्री संघपट्टक
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तुं ते तारं वचन डे केम जे जे हेतुमाटे जिन परमात्मा जेम समस्त नाव जाणे तेम बद्मस्थ पुरुष पण या काळमां देहधारीना म. नना अध्यवसायने पण आकार तथा चेष्टा इत्यादि वाह्य क्रियादि कारणे करीने जाणी शके ले. अंतरंगना प्राणधारीना प्रणाम सामान्यपणे पण ते बद्मस्थ निश्चय करवाने समर्थ थाय ले केम जे अमे कयु ए प्रकारे आज पण देखाय ने ए हेतु माटे.
टीकाः-यमुक्तं । सुकमसुई चरणं जहान जाणंति नहि नाणा, श्रागारेहि मणंपिहुतह बनमत्थावि जाणंति। अतएव जगवता नजवाहुस्वामिना सौविदित्यं लक्षयितुं वसतिविहारा दिका बाह्य क्रिया लक्षणत्वेनोपन्यस्ताः॥
अर्थः-ते वात शास्त्रमा कही ने जे जेम अवधि,मनपर्यवज्ञानी, केवळज्ञानी शुद्धचारित्र तथा अशुद्ध चारित्र तेने जाणे डे तेम बद्मस्थ पण आकारे करीने मनना अध्यवसायने पण निश्चे जाणे . एज कारण माटे नगवान नाबाहु स्वामिए सुविहित. पणुं उळखाववा सारुं निवास तथा विहार इत्यादिक वाह्य क्रियारुप लक्षण स्थापन कयु ने एटले सुविहितपणुं बाह्य क्रियाथीळखाय ले केम जे निवास करवामां इत्यादि क्रिया लक्षण देखीने वुकिमान पुरुष एना अंतरना नावनी परीक्षा करीने ते पुरुपने विपे सुविहितपणुं सत्य जाणी लेने.
टीका-यमुक्तं ॥
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अय श्री संघपटक
(४११)
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थालएणं विहारेणं ठाणाचकमणेणय ॥ सका सुविहियानाऊंनासावेणइएणय ।
टीकाः-लोकेप्याकारेंगितादिभिरेव पार्थिवादीनामांतर प्रसादादिनावपरिच्छेदन विज्ञानुजी विप्रवृतीनां विज्ञप्त्यादि प्रवृत्तिदर्शनात् ॥ एवमनन्युपगमेच जगद्व्यवहारोज्छेदप्रसंगात् ॥ किंच माजूदतिगूढाशयतया वकवृत्तीनां केषांचिनस्थैमान साभ्यवसायावसायः॥
अर्थः-लोकने विषे पण वाद्य आकार चेष्टादिके करीनेज राजा श्रादिकना अंतरनी प्रसन्नता श्रादिक जे नाव तेने जापीने चतुर एवा जे सेवक श्रादिक पुरुषो तेमनी राजाने विज्ञप्ति करवी एटले अरज करवी इत्यादिकनी प्रवृत्ति देखाय ने एटले चतुर सेवक वाह्य श्राकारथो राजानी अंतरनी खुशी वतिने कोई कामकाज कहेवं होय ते कहे . इत्यादि व्यवहार प्रत्यक्ष देखाय ने जो एम नदि मानो तो जगतना व्यवहारने नुच्छेद थवानो प्रसंग श्रावशे. ए हेतु माटे वळी केटलाक गूढ अतिप्रायवाला जे ए हेतु माटे वगलानी पेठे नुपरथी सारी प्रवृत्ति देखामता तेमना मननो श्रध्यवसायनो निश्चय उद्मस्थ पुरुषोवते कलनामां कदापि नहि आवे तो पण वीजाना तो कलनामां आवशे माटे ते दांनिक पुरुपोना अतिप्राय जाणवानो नपाय देखा ठे.
टीका:-तथा च तदनवसायात् क्रियतां तेपामगारमईका दिवहांनिकानामपिवंदनं ॥ येपांत्वाधुनिकन्यायेन प्रकटप्रति
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18. अथ श्री संघपहकः
सेविना मतिवैशसकृत्या नवनिरप्यं तरंगन्नावो पलंनस्तेषां तावदन्युपगम्यतामवंदन मिति ॥
अर्थः-जे ते प्रकारना दांनिक पुरुषोनो अंतरंग अध्यवसायनो निश्चय श्राकार चेष्टाथी न थ शके तो तेमनी परीक्षा करीने अंगारमईक आचार्यनी पेवे तेमनुं वंदन पण करो केमजे परीक्षा करवायी तेमनुं अवंदनीकपणुं जणाय माटे एटले वंदन न करवू एम रिशे प्रगटपणे न करवानां हिंसक कार्यने करता एवा पुरुषोनो उष्ट अंतरंग नाव जाणीने तमो तेनुं चंदन निवारण करो.
टीका:-ननु तथापिकृष्याद्यकरणेन गृहित्य उत्तमत्वात्तेषांवंद्यत्वं संगस्यत इतिचेन्न ॥ संप्रतिकेषांचित्तापलंन्नेपि सजनीयतया तदविवनयापि सिकांते गृहियतिधर्मबाह्यवेन गृहिन्योपि तेषां हीनत्वप्रतिपादनात् ॥
अर्थ:-हवे आशंका करीने कहे जे गृहस्थ खेतीवानी आदिक करे ने लिंगधारी करतो नथी तेमाटे ते गृहस्थ थकी उत्तमा माटे तेमने वंदन करवु घदित बे एम जो तुं कहेतो होय तो ते न कहेQ केम जे श्रा काळमां केटलाकनुं तो गृहस्थ जेज पाचरण देखीए बीए तो पण ए वात लजा पाम्या जेवी के माटे ते कद्देवानी वा नथी पण सिद्धांतमाते पुरुषने उनयत्रष्ट कह्यो डे एटले गृहस्थ धर्मथी तथा यति धर्मथी चष्ट कह्यो ने माटे ए पुरुष गृहस्थथी पण हीन के एटले नीच जे ए पुरुषनी अपेक्षाए गृहस्थ सारो एम प्रतिपादन कयु:ने.
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अय श्री संघपट्टा
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(४१३)
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टीका-यमुक्तं ॥
केसि पिसंजयाणं केहिपि गुणेहि सावगा अहिगा ॥ जम्हा ते देसजई, श्यरे पुण उन्नयो नहा ॥
अर्थ-जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे केटलाक सं. जति करतां केटलाक गुणे करीने श्रावक अधिक ले. जे माटे ते श्रावक देशथी यति बे ने ए लिंगधारी तो उन्नयथी एटले श्रावक तथा साधु ए वे प्रकारना धर्मथी भ्रष्ट थयो माटे.
टीका:-नन्वेवंयदि सर्वथा पार्श्वस्थादीनां वंदननिषेधस्ताद कथं "कालम्मिसंकिलि"इत्यादिनापार्श्वस्थादि पंचकान्यतरेण संवासः ॥ तथा वायाएनमुक्कारो इत्यादिना सुविहितानामपि तमाग्नमस्कारायुपदेशश्च सिद्धांतेश्रूयते इति चेत्तन्न ।
अर्थः-हवे लिंगधारी श्राशंका करी पूजे जे जे जो एम स. र्वथा पासथ्याने वांदवानो निषेध होय तो 'कालम्मि' इत्यादि शास्त्र वचने करीने पासथ्थादिक पांच मध्ये सुजते एक पुरुष साथे मुनिने निवास करवो कह्यो ठे वळी 'वायाए नमुकारो' इत्यादि शास्त्र वचने करीने सुविहितने पण ते पुरुषोने वाणीथी नमस्कारादिक करवानो उपदेश सिद्धांतमां सांनळीए ठीए ते केम घटे हवे सुविहित मुनि एनो उत्तर आपे ठे जे एम तमारे न वोलवं.
टोकाः-सदोपादपि पार्श्वस्यादिसंवासान्महादोषमेका
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(४१४)
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अथ श्री सवपट्टकः
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कित्वंयतीनामित्येकाकित्वात्यंतनिषेधपर्यवसायित्वेनकाल म्मिसंकिलिके इत्याद्यागमस्यापवादिकसंवासानिधायकस्यापि सर्वदा तछंदनाप्रसाधकत्वात् ॥
अर्थः-केम जे दोष सहित एवो पण पासथ्थादिकनो सहवास ते करतां पण जे एका कि यतिने रहे, ए महा दोष के माटे एकाकी रवाना निषेधने प्रतिपादन करनार जे कालम्मि इत्यादि आगम ते अपवाद मार्गे तेनो सहवास करवातुं कहे डे तो पण निरंतर तेमनी वंदना प्रमुख करवानुं प्रतिपादन नथी करतुं.
टीकाः-तथा वायाए नमोकारो इत्यादिरपिम्लेबाधुपप्सवात्पार्श्वस्थाधनाकीर्णक्षेत्रेषुस्थित्यनावे तदाकीपि देने सुविहितैः समागत्य तवंदनाद्यनुवृत्त्यापि स्वसंयम क्रियाविधातव्या ॥ अन्यथा तावन्मात्रतदनुवृत्त्य करणे तेज्यस्तेषांबहुलाघवापत्ते रित्यादिहेतुनिः क्षेत्रकालायपेक्ष्या तत्रैव अग्गीयादाइन्ने खित्तेअन्नत्यहिश्यनामि इत्यादिना विशेषविषयत्व समर्थनात् ॥
अर्थ:-वळी वाणीए नमस्कार करवो इत्यादि वचन डे पण म्लेबादिकना उपजवथी पासथ्यानी जग्याविना वीजे रहे. वानो जोग न होय तो ते पासथ्था सहित स्थानने विषे पण सुविहित पुरुषोए जवू ले तेनी वंदनादिकनी अनुवृत्तिए करीने पण पोतानी संयम क्रिया करवी ने जो एटवू पणं न करे तो ते पास
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AAPAMMAMAN
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-8. अथ श्री संघपट्टक
(४१५) : थानी घणी लघुता थाय इत्यादि कारणे करीने क्षेत्रकाळ श्रादिकनी अपेक्षाए वंदन करवानुं केम जे तेज शास्त्रने विषे.
टीकाः-ननु तथापि यथाऽहदिवानामईदगुणवंध्यत्वेऽपि तद्गुणाध्यारोपेण वंदनं वांछितफलावहं तत्पावस्थादीनांयति गुणशून्यत्वेऽपिलिंगसाम्येन तदारोपात् तथा घटिष्यतइतिचेन्न ॥ .
अर्थ:--प्रतिवादी लिंगधारी आशंका करे जे जे तमोएम कहोगे तो पण जेम अरिहंतनी प्रतिमामां अरिहंतना गुण नथी तो पण ते गुणनो आरोप करीने जे वंदन कर ते वांचित फळने थापनार थाय रे तेम पासथ्थामां मुनिना गुण नथी तो मुनिना जे लिंगधारण करे ठे माटे मुनिना गुणनो आरोप करीने तेनुं वंदन करवु घटशे. हवे सुविहित कहे जे एम जो तुं कहेतो होय तो तेनो उत्तर आपीए बीए.
टीकाः-अर्हदिवेषुह्यनुपयोगरूपत्वाद्यथा गुणानामजावस्तथा दोषाणामपि ।। तथाचोनयस्याप्यनावाद्युक्तं तेषुसतो विद्यमानाई शुणानध्यात्ममध्यारोप्य फलार्थिनां वंदनं ॥ पार्श्वस्थादीनां तु प्रत्यदलयमाणनिखिलदोषकलापानां सर्वथा मुनिगुणोजितत्वेन लिंगसाधात्तद्गुणारोपेण तहिधीयमानं कथंकारं घटामाटीकेत ॥
अर्थ:-जे अरिहंतना विंबने विपे तो उपयोग रुपपणुं नथी
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अथ श्री संघपट्टमा
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Nowwwmarwamma
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ए हेतु माटे जेम गुणनो अनाव ने तेम दोषनो पण अनाव के. ए प्रकारे गुणदोष बे ए नथी. माटे ते प्रतिमानुं वंदन करवं ते तो युक्त जे. केम जे ते अरिहंतने विषे विद्यमान एवा जे गुण तेनुं श्रा. त्माने विषारोपण करीने फळना अर्थी पुरुषोने वंदन कर, घटीत
पण पासथ्थादिक तो प्रत्यक्ष जणाता सकल दोषना समूहरुप डे, ने सर्वथा मुनिगुणवमे रहित ,माटे केवल लिंगना समानपणाथी तेमना विषे मुनिना गुणतुं श्रारोपण करवं ते केम घटे! नज घटे.
टीका:-कोयनुन्मत्तः पीतिमचाकचक्यादिसाधाकां. चनगुणानारोप्यारकूटं कनकमूल्येन क्रीणीयात् ॥ तमुक्तं ॥ नाज्ञाहते मुनिगुणानाधिरोप्य लिंगसारुप्यतः परिचरत्यवकी., पंतोन्यः ॥ क्रीणातिरुक्ममितितद्गुणरोपणाको रीति सुवर्ण। तुलयेतर उन्मदिष्योः
अर्थः-पीतळनो पीळो चकचकाट देखीने केवळ पीळा गुणथीज सुवर्णना गुणतुं आरोपण करीने सोनानुं मूल आपीने पीतळने कोण माह्यो पुरुष वेचातुं ले? को न ले. ते वात शास्त्रमा कहीने ते वचन जे, सरखा वेषथी लिंगधारीमां मुनिना गुणनो आरोप करीने अज्ञानी विना बीजो कोण पुरुष तेनी सेवा करे एतो अज्ञानीज करे जेम पीतळने विषे सोनाना गुणनो आरोप करीने सोनाना मूलवमे पीतळने महा मूर्ख विना बीजा कोण ले तेम लिंगधारीमां मुनिना गुणनो आरोप करी वंदन कोण करे, जे मूर्ख
होय ते करे.
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अय श्री संघपट्टक
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टीकाः--तस्माद्यत्किंचिदेतदपीति ॥ तस्मानलिंगमात्रं सुविहितानां वंदनगोचरः किंतु गुणः नचलिंगमात्रस्यावंद्यत्वेछि जादिवदपवादेनापितेषांवंदनानिधानं सिद्धांते न संगत इति वाच्यं, तेपा मनुद्घाटितत्वेन लिंगमात्रसाधादपवादेन ता
पपत्ते रिति ॥
अर्थः-ते हेतु माटे सुविहित कांक लिंग मात्र पण वंदनीक बे. एम नथी त्यारे शुं वंदनीक ? तो सुविहितना गुण तेज वंदनीक .
टीका:-ननुमानूवन्पार्श्वस्थादयः क्रियाहीनत्वाइंदनीयाः ॥ येतुगछेवहुयतिसंकुलत्वात्स्वमत्या पिंमाशुद्धयादिदोष संचावनया ततो निर्गत्य स्वातंत्र्येण पुष्करक्रियां कुर्वतिते संयम क्रियातत्परत्वाद्यान्नविष्यतीतिवेत् न ॥ तेषामपि सुगुरुतंप्रदायानावात् सम्यगागमार्थापरिज्ञानेनविपर्यस्तमतितयोत्सूत्रनापित्वात् ॥ कुग्रहाद्छुष्करक्रियाकरणेप्युत्तापवाददेवकालादि विषयविन्नागानववोधेन प्रवचनमालिन्य कारिवाचतित्व
निषेधात् ॥
अर्थः-प्रतिवादी बोले ते जे पासथ्यादिक क्रियाहीन ले माटे वंदनीक न यार्ड पण जेना गचने विषे घणा यतिथी संकुखपणुं घडे ठे. ए हेतु माटे पिमनो अशुद्धि आदिक दोषनी संनावना करीने ते जगामांथीनीकळीने स्वतंत्रपणे पुष्कर क्रियाने करे . ते संयम क्रियाने विष तत्पर ते ए हेतु मापे वंदनीय थशे
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(86)
19. अय श्री संघपटक
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हवे सुविहित बोले जे जे एम तमारे न बोलवू केमजे सारा गुरुना संप्रदायनो अन्नाव ने ए हेतु माटे सम्यक् शास्त्रना अर्थ- परिज्ञान नथी माटे एनी अवळी बुद्धि थइ ले माटे उत्सूत्रनाषीपणुं एने रद्यु डे ए हेतु माटे, ने वळी कदाग्रहथी सुकर क्रिया करे ने तो पण उत्सर्ग, तथा अपवाद क्षेत्रकाळ इत्यादिक संबंधि विजागनो एने बोध नथी माटे प्रवचनने मलिन करनार ने एटले जिनशासनना कलंकरूप बे, ने जे ए प्रकारनो पुरुष बे, तेने विषे यतिपणानो निषेध जे. ए हेतु माटे ते वंदनीक नथी.
टीका:-तथा चावंदनीयत्वाचबहुमान विधायिनां चोत्पथानुमोदनेन उर्गतिपातप्रतिपादनात् ॥ यदाह ॥ जेन तह विवजथ्थासम्मं गुरुलाघवं अयाणंता । सग्गाहा किरियरया पवयणखिंसावहा खुद्दा ॥ पायं अनिन्नगंही तमान तह उक्करपिकुवंता ॥ बावन ते साडू खंघाहरणेण विनेया ॥ तेसिंबहुमाणेणं उम्मग्गणुमायणा अशिफला ॥ तह्मा तित्थयराणा विएसु जुत्तुथ्थ बहुमायो
अर्थः-वळी ए लिंगधारो अवंदनीक ए हेतु माटे तेमनु बहुमान करनार पुरुषोने पण उन्मार्गनी अनुमोदना करवी तेणे करीने तेमनु मुर्गतिमां पमवापणानुं शास्त्रमा प्रतिपादन कर्यु . ते शास्त्रनुं वचन ए जे
. टीकाः-तस्माद् गुणवतामेव वंदनं श्रेयो नलिंगक्रियामात्रधारिणामिति ॥ तथा पूर्ववादज्ञातगुणदोषोपियतिः पर्यु
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49 अथ श्री संघपटक
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पासनीयः प्रथमंयावत्परिशीलनेन तस्याद्यापिदोषोपलंनो न नवति ॥ तउपलनेतु सोपिदूरतो वर्जनीयः॥
अर्थः-माटे गुणवाननुं वंदन कर, एज ठीक . पण केवक्ष लिंगक्रिया मात्रने धारण करनारनुं वंदन कर, ए वीक नथी. तेमज प्रथमथी जेना गुणदोष जाण्या नथी एवा पण यतिनी नपासना करवी. पठी तेनो परिचय करते करते आज सुधी पण दोष दीगमां न आवे तो तेनी उपासना कर्या करवी ने जो दोष दीगमा आवे तो तेनो पण दूर थकीज त्याग करवो.
टीका:-॥ यदाह ॥श्रमुणियगुणदोसं पासि साहुवेसं, पढममसढनावालेहसुस्संजयं च ॥ पुणवकुसकुसीदुत्तिनमुस्सुतजासिं ? विसविसहरसंसग्गिंव उज्केह तुओति ॥ अथ पावस्थादिवंदने कोदोषोयेनैवं सिद्धांतप्रतिषेध इतिचेत् अयशः कर्मबंधादि रितिब्रूमः
॥ तमुक्तं ॥ पासत्थाई वंदमाणस्त नेय कित्तीन निजरा होइ ॥ कायकिलेसं एमेव कुणश्तहकम्मवंधं च ॥
अर्थ:--हवे पासथ्यादिकने वंदन करवामां शो दोष ले. जेणे करीने ए प्रकारे सिद्धांतमा निषेध . एम जो तुं कहेतो होय तो तेनो उत्तर कहीए ठीए जे तेथी अयश मळे तथा कर्मबंध थाय इत्यादि दोप पासत्याने वंदवामा रह्या ते शास्त्रमा कयुंठे जे
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अथ श्री संघपट्टका
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टीका:-ननुन्नवत्वसदाचारगुरूणां वंदनादयशः कर्मबंधस्तुकुतस्त्यस्तत्कारणसंक्वेशायनावादितिचेत् न ॥ तदने तदसस्क्रियानुमोदनेनाऽन्येषामपि बहूनां तद्विषयबहुमानोत्पादनाकर्मबंधोपपत्तेः॥
अर्थः-विंगधारी आशंका करे ठे जे असत् आचरण करनारमा मोटा एवा जे पुरुष तेमनुं वंदन करवाथी, अथवा असत् श्राचरण करनार एवा जे गुरु तेमनुं वंदन करवायी अपयश थाय परंतु कर्म बंध तो क्याथी थाय कर्म जे ते कर्म बंधनां का. रणं एवौं जे संक्लेश आदिकं तेनो अनाव के ए हेतु माटे. हवे सुविहित एनो उत्तर आपे जे जे, एम तमारे न बोलq केम जे एंवा असत् पुरुषर्नु वंदन करे तो तेनी असक्रियानी अनुमोदना थाय तेणे करीने बीजा घणाकं पुरुषो ते असत् पुरुषतुं बहु मान करे तेथी एने कर्म बंधनी उत्पत्ति थाय बे. ए माटे तेनुं वंदन न कर.
तर थाना अनावसकर्म बंधन
टीका:-यदाह किश्कंमंचपसंसा, सुहसीलजकमिकम्म बंधाया।जेजे पमायगणा तेते नववूहियाहोंति॥ किंच तैः सार्क संवासमात्रस्यापियथाक्रममसेव्यतागर्हितत्वापत्त्यादृष्टांताच्या सिद्धांतेसुविहितानां निषेधप्रतिपादनात् ॥ यमुक्तं ॥ असुरठाणे पमिया चंपगमालानकीसीसे ॥ पासत्थाश्चगणेसुबह माणांतहअपुजा॥ पकणकुले वसंतो सनणीपारोवि गरदिन हो। ॥ श्यंगरहियासुविहिया, मन्जि वसंता कुसीलाणं ॥
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अय श्री संघपट्टका
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(५२१ )
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अर्थ-वळी ते लिंगधारी संगाथे निवास मात्रनो पण सिद्धांतने विषे वे दृष्टांते करीने निषेध कर्यों जे. ए वात शास्त्रने विषे कही ये जे अनुक्रमे असेववापणुं तथा निंदितपणुं प्राप्त थाय माटे॥
टीकाः- ॥ प्रदेषस्तुतेष्वपिनकर्त्तव्यस्तस्यतिनिबंधन त्वेनान्निधानात्।। किंत्वहोकथममीमूढानवकोटिचरापमप्येतति नमतमाणिक्यमासाद्य मुधाहारयंतीति तत्स्वरूपंसानुकंपविना. वयनिर्विवेकिनिरुपेदैव तेषुविधेया.
अर्थः–ने द्वेषतो तेमने विषे पण न करवो केमजे ते के पतो उर्गतिनुं कारण जे एम शास्त्रमा कां डे ए हेतु माटे. त्यारे शुं करतुं ? तो, अहो आ मूढ पुरुषो कोटाकोटि जन्मथी पण दुःखे प्राप्त थएढुं जे जिनमत रूप माणिक्य रत्न तेने फोगट हारे . ए प्रकारे ते लिंगधारीनन स्वरुप अनुकंपा सहित नावना करता एवा विवेकी पुरुपोए तेमनी नपेक्षा करवी.
टीकाः--ायदुक्त।। श्यरेसुवियपउँसो,नोकायव्वोनवहिए सो॥ नवरं विवाणिजो, विहिणा सश्धम्मनिरएणमिति ॥ तदेवं पार्श्वस्थादि वंदनस्य सुविहितानांानादिहानिनिमित्तला द्यवसितमेतद्धीनाचारायतयोऽनायतनमिति ॥
अर्थः-सुविहितने पासथ्यादिकनुं वंदन करवायी ज्ञानादि
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(५२१)
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अथ श्री संघपट्टका
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गुणनी हानि थाय ने माटे हीन आचारवाळा यतियो अनायतन डे एम निश्चय कों जे.
टीकाः-अधुनायतनं विचार्यते ॥ तत्रायतनं स्थानं गु. णानामितीहापिगम्यं अथवा श्रायस्यतननानिरुक्तविधिना यतनं ॥ वंदनादिना झाना दिलानविस्तारकारणमित्यर्थः ॥ तदपिद्विधा ॥ अव्यत्तावनेदात्तत्रभव्यतो जिननवन मनिश्राकृतं विधिचैत्यमायतनं ॥
अर्थः-हवे आयतननो विचार करीए बीए. त्यां श्रायतन एटले गुगनुं स्थान एम अही जाणवु अथवा "श्राय" जे खान तेनुं "तन" कहेतां विस्तार करनार माटे आयतन ए प्रकारनो शब्द निरुक्त विधि थकी सिद्ध थयो. एटले मोटा पुरुषना वचनथी सिद्ध थयो. वंदनादिके करीने ज्ञानादि लाजना विस्तारतुं कारण बे, एटलो अर्थ जाणवो. ते आयतन पण बे प्रकारना अव्य तथा नाव ए बेनेदथी तेमां अव्यथो जिन जवन अनिश्राकृत एवं जिनजवन तथा विधि चैत्य ते आयतन जाणवू.
टीका:-अव्यरूपस्य सतस्तस्य सिद्धांतोक्तविधिप्रवर्त्तनेन जव्यानां ज्ञानादिवृद्धिहेतुत्वात् ॥ अथ कोसौविधिर्यत्प्रवृ. त्यातत् विधि चैत्य मित्युच्यते॥ तत्र निर्मापणे विधिः प्रथममेव किंचिदनिहितः ।। संप्रति निर्मापिते तस्मिन् प्रतिष्ठापितेच स एव दिग्मात्रमभिधीयते ॥ यमुक्तं श्रीप्रकरणकारैरेव स्थानांतरे विधिचैत्यविधि प्रदर्शयभिः
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अथ श्री संबपट्टक
(४२३)
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अर्थः-केम जे अव्य स्वरूप जे जिनन्नवन ते सिद्धांतमां कहेला विधिये करोने थएदुं होय तो तेणे करीने ज्ञानादिकनी वृ. दिनुं हेतुपणुं थाय . माटे हवे आ शंका करी समाधान करे जे ए कीयो विधि ? जेनी प्रवर्तिये करीने ते चैत्य विधिचैत्य कहेवाय ठे? तो त्यां कहीए बीए जे ते चैत्य नीपजाववाने विषे विधि जे ते प्रथमधीज कांक कह्यो . हवे ते चैत्य नीपजे ग्ते तथा तेमां प्रतिष्टा करे ते तेज दिश मात्र या प्रकरणना करनार पुरुषे वीजा कोई ग्रंथातररूपी स्थानमा विधिचैत्यनो विधि देखामतां आ का. व्य कयु जे.
टीका:-अत्रोत्सूत्रजनक्रमोनचनच स्नानं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयोनचनचस्त्रीणां प्रवेशो निशि ॥ जातिझाति कदाग्रहोनच नच श्राद्धेषु तांबूल मित्याज्ञानेयमनिश्रिते विधिकृते श्री जैनचैत्यालये ॥ इह नखद् निषेधः कस्यचिवंदनादौ, श्रुतविधिवहमानी स्वत्रसर्वोऽधिकारी ॥ त्रिचतुरजनदृष्टयाचात्र चैत्यार्थवृद्धि व्ययविनिमयरदाचैत्यकृत्यादि कार्य । व्याख्या ॥ अनेति विधिवेत्ये उत्सूत्रजनानामुत्सूत्रजाषिणां यत्यादीनां क्रमो व्याख्यानं नंद्यादिकरणाधिकारो नास्ति किं. तदुत्सूत्रमितिचेत् उच्यते.
अर्थः-श्रा विधि चैत्यने विष उत्सूत्र नापक एवाजे लिंगधारी यति आदिक तेमनो "व्याख्यानतथानंदि इत्यादिक करवानो अधिकार नथो. माटे ते नुत्सूत्र केम ययुं एम जो तुं कदेतो होय तो ते उत्तर कहीए वीए.
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(४२४ )
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अय श्री सघपट्टक:
MV
Ammar
टीकाः-स्वमतिकल्पित मागमोतीतिविवादि चानुष्टानं ॥ यदाह ॥ उस्स्त्त मणुव सच्छंद विगप्पियं अपणुवाइत्तिकथं पुनरेतदुत्सूत्रं जिनसदने जायत इति चेत् उच्यते॥
अर्थ:-पोतानी बुद्धिये कल्पेईं अने आगमथी रहित एवं जे ते विसंवादि अनुष्टान ते आगम विरुष क्रिया जे. ते शास्त्रमा कडं जे ए प्रकार- उत्सूत्र जिन मंदिरने विषे केम थाय ? एम जो तूं कहेतो होय तो तेनो उत्तर कहीए बीए,
टीकाः-गृहिणा स्ववित्तेन देववित्तेन वा नाटकादि हेतु. कदेवजव्यवृद्धये यद्देवनिमित्तं स्थावरादिनिष्पादनं ॥ तथा महानहलिविक्रयेण बहुदेवजविणोत्पादनाय गृहिणा यहेवधनेन समर्घधान्यसंग्रहणं ॥
अर्थ:-जे गृहस्थोए पोताना धनवमे अथवा देव अव्ये करीने नासु आदिक ने कारण जेनुं एवं देव अव्यनी वृद्धिने अर्थे जे देव निमित्त स्थावरादिकतुं नीपजावq एटले देव अव्यने वधारवाने देवाव्ये करीने जगाओ बंधावी नामां लेवा. तेम वळी मोंघासने विषे वेचीने बहु अव्यनी उत्पत्ति करवा अर्थे गृहस्थ लोकोए जे देव धनवने सांघासमा धान्यनो संग्रह करवो ते.
टीका तथा यदेवहेतवे कूपवाटिकाक्षेत्रादिविधानं ॥ तथा शुल्कशालादिषुतांमदिश्य राज्यमाह्यनागाधिककरोत्पा
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अथ श्री संघपटक
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AAAAAAA MAMM
SAAMAMAnawrimaamanane
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दनादुत्पन्नेन प्रविणेनयद्गृहिणादेवपूजनविधानमित्यमेवमादीयुन्सूत्रपदानि यतिदेशनयादेवगृहेऽपि संजवंति ॥
अर्थः-वळी जे देवने कारणे कुवा वाव इत्यादिक तथा खेतर इत्यादिनुं करवू तथा कोइ वस्तुनी दाण लेवानी शाळाने विषेराजा कर सेले तेमां कोई प्रकारनो नाग राखीने अधिक कर वधारवाथी नत्पन्न करेलु जे अव्य तेणे करीने में गृहस्थने देव पूजा करवी ते सर्वे ए प्रकारनां उत्सूत्र पद ने ते यतिन। देशनाए करीने देवमंदिरमां पण संजवे डे एटले थाय बे.
यगकर उप्पायणास्थावरादिनिर्मापणा सिद्धांत निवा
यमुक्तं ॥ नस्सुत्तंपुगइत्थं थावरपाओगकूदकरणाई ॥ नभू. यगकर उप्पायणा धम्माहिगारंमि ॥ अत्र चादिशब्दान्निशिवलिनधादिग्रहातत्र स्थावरादिनिर्मापणादीनां षट्काया दिरंजासंयत वासादिना महासावयत्वेन देवनिमित्तं सिद्धांते निवारितत्वाउत्सूत्रं ॥
जे माटे ए वात शास्त्रमा कही जे आ जगाए आदि शव्दथी रात्रिये नांद मांमत्रो तथा बलिदान देवू इत्यादिकनो पण संग्रह करवो. तेमा जे जगाढ बंधाववी तेमां काय आदिकनो श्रारंज रहो रे तथा असंजतिनो निवास थाय इत्यादि कारणवमे महा सावधपणे देव निमित्त कराववानुं सिद्धांतमा निवारण कयु ने ए हेतु माटे नसूत्र .
टीका-एतान्यंतरेणापि च नक्तिमशिवजयव्ययन ज.
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अथ श्री संघपट्टका
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गवरलपर्यापर्यापणात् ।। उनतककरोत्पादनस्य च व्यवहारिणा मत्यंताप्रीतिजननापुत्सूत्रत्वं ॥ पराप्रीतिमात्रस्यापि जैनमते जगवड्रीमहावीरोदाहरणेन बहुधा निषेधात् ॥
अर्थः-एटलां वानां कर्या विना पण नक्तिवंत पुरुषो पोताना व्यनो खर्च करीने जगवत् पूजा करवा समर्थ थाय ने. ए हेतु माटे नवो कर उत्पन्न करवो तेणे करीने वेपारी लोकोने अत्यंत थेप्रीति नत्पन्न करवापर्यु एमां रडं ने माटे ए उत्सूत्र में, केम जै जैन मतमां परने अनीति मात्रनुं पण जे उपजावद् तेनो महावीर स्वा. मिना दृष्टांते बहुधा निषेध डे ए हेतु माटे.
करवापर्ण एमकरान वेपारी लोग
मत
टीका:यमुक्तं ॥ धम्मस्थमुडीएणं सबस्तापत्तियं न कायई ॥ इय संजमोवि सेउत्थय जयवं नदाहरणं ॥ सोतावसासमान तेर्सिअप्पत्तियं मुणेऊणं ॥ परमं अबोहिवीयं तर्ड गठे इंतकालेवि ॥
टोकाः निशि वशिनद्यादिकस्यचोत्सूत्रत्वं प्रागेवनावित। तयाचैवमायुसूत्रनारिणां तत्र व्याख्यानायधिकारेणयावदु. सूत्रनाषिसंतानं यावजिनगृहंचतहेशनया तत्र प्रवर्त्तमानानां संतानक्रमेण प्रजायमानानांचनाद्धानांलवकूप प्रपातप्रसंगति
अर्थः-रात्रिए बलिदान आपq तथा नांय मांगवी इत्यादिकनु जे उत्सूत्रपणुं तेतो प्रथम देखामधु दे. वळी इत्यादिक उत्सूत्र
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अप श्री संघपटक
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AHMAMMARNAMAARMHARAMMAMAmAommmm
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MARAanand
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जाषण करनारनुं ते स्थानमा व्याख्यान आदिक करवानो अधिकार थाय तेणे करीने जेटलो उत्सूत्रनापिनो संतान नेते तथा जेटलां जिन मंदिर ते सर्व जगामां तेनी देशनाए करीने प्रवर्तेला लोको तेमने तथा तेना अनुक्रमे तेमना शिष्यो प्रवर्ने तेमने तथा श्रावकने ए सर्वेने संसाररूप कूवामां पमवानो प्रसंग थशे.
टीका:-अतएव कथंचिदगत्यानपाश्रयेगतानां सुविहितानांमानूतद्देशनाकर्णनात्संशयादिना सत्पथविप्रतिपतिरिति तदनाकर्णनाय तत्प्रतिघातश्रवणस्थगनादयः प्रकाराः सि. कांते प्रदर्शिताः॥
अर्थः-ए हेतु माटे को प्रकारना अवश्य काम वास्ते ते. मना नपाश्रयमां गया जे सुविहित साधु तेमने तेमनी देशना सांजळवाथी संशयादिकवमे सन्मार्गर्नु विरुळपणुं थाय ए हेतु माटे ते देशना न संजळाय तेने अर्थे तेनो विघात करवो, कान ढ़ांकी देवा, कोई शब्द काने न परवा देवा इत्यादि प्रकार सिद्धांतमां दे खामया ते.
टीकाः यदाह । एमेव अहावदे पमिहणणाजाण अजयपकना । गम्मिनिसामे सुवणाहरणाय गहिएणे ॥ तस्माप्रविधिचैत्ये तेपांक्रम ति॥ तथा नच स्नानं रजन्यां सदा॥ प्रा. ग्दर्शित दोपसंदोहात् सदेति सर्वकाल मित्यर्थः ॥ तेन कदाचित्कस्य श्रीमहावीरमोदकट्याणकस्नात्रस्यायाधु
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अय श्रीसंघपट्टका
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निकरुढ्या रात्रौ कैश्चिनिधियमानस्य निषेधो ज्ञापितः॥ एतेन प्रतिष्टाया श्राप रात्रौ निषेधः सूचितःतस्याः स्नात्रपुरःसरत्वात्॥
अर्थ:-ते हेतु माटे चैत्यमा ते लोकोनो पगज नथी एटसे प्रवेश नथीए प्रकार विधिकृत श्रीजिननु चैत्य जे एम संबंध २. वळी रात्रिए स्नान करवू तेना दोषनो समूह तो पूर्वे देखाइयो में तेमां “ सदा" शब्दनो “ सर्वे काळमां" एम अर्थ करवो तेथे करीने कोश्क वखत श्री महावीर स्वामीनु मोक्ष कल्याणक संबंधि स्नान श्रा काळनी रूढीए केटलाक रात्रिये करे तेनो पण निषेध जणाव्यो एटले देखायो. एणे करीने रात्रिये प्रतिष्टा करवी तेनो पण निषेध सूचव्यो एटले देखायो केमजे ते प्रतिष्ठा पण प्रथम स्नात्र कर्या पनी थाय बे ए हेतु माटे.
टीका तथा साधूनां ममतामदीय मेजिनगृहप्रति मादिक मित्यादिकानास्ति ॥ गृहस्थस्यैव तनिर्मापणचिंतादावधिकारातथाच कथं जिनगृहादेर्यति ममकार विषयता ॥ प्राश्रयश्च तेषां नास्ति ॥ प्रागन्निहितदोषकलापात् ॥
अर्थः-वळी ज्यां साधूने ममता नथी एटले था जिन मंदिर तथा प्रतिमा इत्यादि हमारो ने इत्यादिरूप ते ज्या नथी के मजे ए चैत्यादिकनुं निपजावq तथा तेनी चिंता करवी इत्यादि. कने विषे गृहस्थनोज अधिकार जे ए हेतु माटे वळी जिनमंदिरनी ममतानो अवकाशज साधुने क्याथी होय ने ते जिनमंदिरमा रहे;
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(५९)
8. अय श्री संघपट्टका
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वानो आश्रय पण क्याथी होय केमजे पूर्वे चैत्यवास करवामां दोपनो समूह कही आव्या बीए माटे.
टीका:-तथा स्त्रीणांप्रवेशोनिशिनास्ति ।। अकाल चरिप्रदोपप्रसंगात् ॥ तमुक्तं ॥ अजाणसावियाण य अकालचारित दोसजावा ॥ सरमि न गमणं दिवसतिजामे निसि• कहंता॥
अर्थः-तथा वळी ज्या रात्रीए स्त्रीनो प्रवेश नथी ते वात शास्त्रमा कही जे.
टीका:-लोकेपि कुलवधूनां यामिन्यां स्वगृहाइहिनिगचंतीनां महापवादानिधानात् ॥ तमुक्तं ॥ खगेहदेहली त्यस्कानिशि स्त्री यातिया बहिः॥ ज्ञेयाकुलस्थिते लोपाकुलटाकुसजापि सा ॥ दंगनीतावपि कुलवालिकानां निशि खसंवहिनिगमे दंम्प्रतिपादनाच ॥
अर्थः-लोकमां पण कुळवान स्त्रीने रात्रिए पोताना घ. रथी वारणे नीकळवामां मोटो अपवाद थाय एम कयु डे माटे ते शाखनु वचन जे पोताना घरनो नमरो मूकीने जे स्त्री रात्रीए बारये निकळे ठे ते स्त्री कुळवान होय तो पण कुलमर्यादानो लोप करवायी कुसटा जाणवी. एटले व्यभिचारिणी जाणवी वळी दंम नी. तिमां पण कुळवान स्त्री रात्रीए वारणे नीकले तो तेनो दंग करवो एम प्रतिपादन कर्यु ते ए हेतु माटे.
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अथ श्री संघपहका
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. टीकाः-श्रतएव यतिवसत्यादौ योषितामेकाकिनीनां हि वसेप्यनेकावर्णशंकाकलंकानुषंगास्कंदितत्वेन प्रवेशस्य प्रति. षेधः ॥ एवंच यदा लोके पिरात्रौ स्त्रीणां गृहनिर्गमो विरुष्वस्तदाकावा जिन शासने । तस्मात्सर्वथा जिनवेश्मनि निशायां योपित्प्रवेशोऽनुचितत्वान्नास्तीति ॥
अर्थ-एज कारण माटे साधु आदिकना निवासमा एकली स्त्री दिवसमा प्रवेश करे तो पण अनेक अवर्णवाद थाय, तथा कोश्ने शंका पमे. तथा कलंक आवे इत्यादि कारणथी ए परालवर्नु स्थान डे माटे तेना प्रवेशनो निषेध कर्यों ज्यारे एम लोकमां पण रात्रिए स्त्रीनने घरथी वारणे नीकळवानो निषेध तो जिन शास. नमा निषेध होय तेनी तो वातजशी कहेवी. ते माटे सर्वथा जिनमंदिरमा रात्रिए स्त्रीनो प्रवेश अघटित ए हेतु माटे से विधि चैत्यमांए नथी.
टीका:-जातिझातिकदाग्रहश्चनास्ति ॥ तत्र जातिकबीग्रहएतजातीयाएव श्रावका पत्र जगवद् विवस्य दक्षिणादिशिस्नानाधिकारिणोनान्यजातीया इत्यादिकः॥ज्ञातिकदाग्रह म. स्मानिरस्मत्पूर्वजैर्वाकारितमिदं जिनमंदिरं ततोऽस्मत् सगोत्री एवात्रसर्वस्यामपि देववित्तसमुद्गका दिचिंतायामधिकारिलो. नेतर इत्यादिक।
अर्थः-वळीने विधिचैत्यने विषे जाति संबंधी तथा प्राति संबंधी को जातनो कदाग्रह नश्री तेमां जाति कदाग्रह तोपरमे
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अथ श्री संघपट्टक
(११)
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आशातिनाज श्रावक आ जगाए जगवद् विव संबंधी दक्षिणादिक स्नान करवामां अधिकारी ने पण वीजी जातना अधिकारी नथी. इत्यादि ज्ञाति कदाग्रह ए जे अमोए तथा अमारा वृद्धोए श्रा जिनमंदिर कराव्यु ले ते माटे अमारा गोत्रनाज आ सर्व देवप्रव्य मालमादिकनी चिंता करवामां अधिकारी डे पण बीजा अधिकारी नथी इत्यादि.
टीकाः-सच विधिवेत्ये न संगतः सर्वेषामेव धार्मिकश्राझानां गुणवतां तत्र सर्वाधिकारित्वाजिधानादन्यथा जात्यादिनि श्रयाप्यनिश्राकृतत्वानुपपत्ते रिति॥
अर्थ:--ए प्रकारनो जाति ज्ञाति संबंधि कदाग्रह विधि वैत्यमां नथी, केम जे सर्व धर्मवंत, गुणवंत एवा श्रावकनोज या अधिकार वे एम कडं ठे ने जो एम न होय तो ए विधित्यने पण जात्यादिकनी निश्राए करीने शनिश्राकृतपणानी सिद्धि नयाय एटले ए विधिचैत्य अनिश्राकृत न कहेवाय.
टीका:-नच श्राद्धसोकस्य तांबलजदणमस्ति ॥ नगबदाशातनापत्तेः ॥ तांबूल मिति च तंबोलपाणेत्यादि गाथोकानां पाननाजनादीना मुपलक्षणं ॥ तथा ॥ गन्दिकावासन मप्याशातना विशेषत्वाउपलक्ष्यते ॥ इत्येवं प्रकारा श्रााविपिः॥ अत्रेषा निश्रितेकस्यापि यत्यादनिश्रया अधीनतया विनाहत विधिकृते धुतोक्तविधि निष्पादिते श्रीजिनचैत्यालये जिकलवन इति ॥
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( ४३२)
-49 अथ श्री संघपट्टकः
अर्थः- वळी त्यां श्रावक लोकने तांबूल जक्षण नथी केम 'जे तेथी जगवंतनी श्राशातना थाय ए हेतु माटे तांबूल शब्दे 'करीने तंबोल पान इत्यादि गाथामां कहेलां जे पान तथा जोजन इत्यादिक पण उपलक्षणयी ग्रहण करवां. वळी गादी ध्यादिक प्रासन पण कोइ प्रकारनी श्राशातनानुं कारण बे माटे तेनो निषेध पण उपलक्षणथी जाणवो. ए प्रकारनी जे श्राज्ञा ते विधि डे. या जगाए ए प्रज्ञा कोइ यतिनी निश्रा विना करेलुं जे विधिचैत्य एटले सिद्धांतां कला विधि प्रमाणे निपजान्युं जे विधिचैत्य तेंने विषे पूर्वे कथं ते न होय एम संबंध बे.
टीका:- तथा इद नखल्लु नैव निषेधो निवारणं कस्यापि वंदनपूजनादावुत्सूत्राषिणां तकानां चापिवंदनादिकं विद "धतां नं निषेधः क्रियते ॥ श्रद्धानंगमास्तर्यादिदोषा प्रसंगात् ॥ श्रुतविधिबहुमानी सिद्धांतक्रमादरवान् तुः पुनरर्थे श्रत्र सर्वोप तिः श्राद्धो वा यथाक्रमं व्याख्यानादौ चैत्यचिंतायां चाधिकारी योग्यः सिद्धांत विधिविधुरस्य साध्वादेर्व्याख्यानादौ नतत्राधि कार इत्यर्थः ॥ त्रिचतुरजनदृष्ट्याविधि परश्राद्धत्रयचतुष्टय • दृशात्र चैत्यद्रव्य वृध्यादिकं चैत्यचितनं कार्यं विधेयं नत्वेकाकिना निस्पृणापि || लोकापवादादिदोषापत्ते रिति प्रासंगिक वृत्तइयार्थः ॥
अर्थः-वळी या जगाए उत्सूत्र जाप कनुं वंदन पूजन श्रा free for aisa पण अमो निषेध नथी करता, ने वंदनादिकने करनार एवा जे ते उत्सूत्र जापकना जक्त लोको तेमने. पण निषेध
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मय श्री संघपट्टका
(३ )
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नथी करता केम जे श्रद्धानो जंग तथा मत्सरनी नत्पत्ति इत्यादिक 'दोषनो प्रसंग थाय ए हेतु माटे. वळी सिद्धांतना आदरवाळा जे सर्व यतिजन तथा श्रावक ते अनुक्रमे व्याख्यानादिकने विषे तथा चैत्य चिंताने विये अधिकारी ने एटले योग्य . एटले सिद्धांतमां कहेला विधिनुं वहुमान करनार एवो जे यति ते व्याख्यान करवामां अधिकारी तथा एवो जेश्रावक ते चैत्यनी चिंता करवामां अधिकारी ने ने सिद्धांत विधिवमे रहित एवो जे साधु. आदिक ते व्याख्यान आदि करवामां अधिकारी नथी एटलो अर्थ ले ने त्रण चार लोकनी दृष्टिए एटले विधिने विषे तत्पर,एवात्रण चार श्रावकनी दृष्टिए श्रा जगाए चैत्य अव्यनी वृद्धिश्रादिक चैत्यचिंता ते वारवा चोग्य ठे पण एकाकी निस्पृह पुरुषने पण ए काम करवा . योग्य नथी शाथी के लोकापवाद आदिक दोषनी प्राप्ति थाय'ए हेतु माटे ए प्रकारे प्रसंगे श्रावेलां वे काव्य तेनो अर्थ या प्रकारे करते देखायो.
टीका एवं चैवं विधः सिद्धांतान्निहितो विधिर्यत्र वर्तते तद् विधिचैत्य मनिशाकृतं अव्यतआयतनं शेव्यते इति नावतायतनंतु ज्ञानादित्रय ब्राजिष्णवः पंचविधाचारचारवः सुविहितलाधवः ॥ शुननावरूपाणां सतां वंदनादिनालव्या. नां ज्ञानादिलान हेतुत्वात् ॥
अर्थ:--- प्रकारनो सिद्धांतमां कहेलो जे विधि तेजेजगाए वरते ते ते विधिचैत्य अनिवाकृत अव्यथो आयतन कहीए . वीए. ने जाव थकी थायतननो ज्ञान दर्शन चारित्र एत्रणवमे शो
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( ४३४ )
जय श्री संघपट्टकः
जता ने पांच प्रकारना ने ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार तेवके शोजता एवा जे सुविहित साधु ते डे केमजे शुभ भावरूप एवा ने वंदनादिक वके जव्य जाता एवा जे सत्पुरुष तेमने ज्ञानादि लाभ थवानुं कारणपहुं मां रधुं वे ए हेतु माटे.
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टीका: यक्तं ॥ श्राययपि य डुविदन्वे नावेय होइ नायां ॥ दबं मिजिएड्राई जावं मि य दोइ तिविदंतु ॥
टीका:- ननु जवत्वेवं द्रव्यन्नावजेदेना नायतनस्वरूपं तथापिजिनजवनं न क्वचिदनायतन मनिहितं ॥ सत्यमनोपाधिकमनायतनायतनयोः स्वरूपमिदमुदितं ॥ श्रोपाधिकं त्वनायतन स्वरूप मेवं प्रतिपादित मागमे ॥ यत्र गतानां ज्ञानादित्रयव्या. घातो जवति तद्वर्जयेन्मतिमान् ॥ श्रथ कगतानां सख्याधात इतिचेमुच्यते ॥ .
अर्थ:- लिंगधारी आशंका करे बे जे द्रव्यभाव भेदे करीने ए प्रकारे अनायतननुं स्वरूप हो, तो पण कोइ जगाए जिनजवन खना. यतन क्युं नथी त्यारे सिद्धांती बोले बे जे ए वात सत्यबे पण उपा धि थकी थयुं जे अनायतन ने श्रायतन एबेनुं स्वरूप था प्रकार के शासने विषे तेमां उपाधि अनायतनना स्वरूपतुं या प्रकारे प्रतिपादन वे जे, जे जगाए गयेला ने ज्ञानादि त्रणनो विधात थाय तो ते स्थानकनो बुद्धिमान् पुरुषोए त्याग करवो ने दवे तुं जो एम कहेतो होय जे क्यों गएला ने 'ज्ञानादिकनो विघात थाय एम जो
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मय श्री संघपट्टक
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(४५)
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तुं पूढतो होय तो तेनो उत्तर कहीए बीए. .
टीका-यत्र लिंगमात्रधारिणः साधवो वसंति यदाहु रोपनिर्युक्तौ श्रीनजवाहुस्वामिपादाः ॥ नाणस्स दसणस्सय चरणस्त य जत्थ होश्वाघान वजिजवजनीरूश्रणाययण वजन खिप्यं ॥ सुगमा ॥ नवरं यत्रेत्यायतने स्थाने देवदादौ ॥
.
• अर्थः जे जगाए लिंगमात्र धारण करनार साधु वसे लेते - घनियुक्तिमां कडं श्री जवाहु स्वामोए जे ज्ञान दर्शन चारित्र जे जगाए व्याघात एटले नाश थाय तो ते स्थानने अनायतन जाणी तत्काळ त्याग करतो ए प्रकारे ए गाथानो अर्थ सुगम ने तेमा.श्राटडं विशेष ले जे यत्र शब्दवझे पाटलो अर्थ ले जे जे देवरह था. दिक श्रायतन स्थानने विषे गये सते ज्ञानादिकनो विघात थाप एम पद संबंध करवो.
टीका:-नचा यतनशब्देना लयमात्रमेवोज्यते ॥ तदेवगृह मिति वाज्यं ॥ आयतनं देवानां ।। तथा आययणं मि श्रलोगोइत्यनिधान कोशागमवचनान्यां लोके लोकोत्तरे च सामान्य विशेषान्यां देवगृहस्या निधानात् ॥
अर्थ-आयतन शदे करीने स्थानमात्र कहीए टीए एम जों कहेता होतो ते न कहे केमजे आयतन शब्दे करीने देवमंदिर कहेवू केमजे देवतुं जे स्थान तेने पायतन कहीए ते वात - निधान कोशमां कही ले जे देवस्थानक तेने आयतन कहीए तथा शाखमां पण कई जे जेनो लोग न थाय ते स्थान मायतन क.
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(४३६)
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अथ श्री संघपट्टकः
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हीए. एम थन्निधान कोश तथा आगम ए वेनुं वचन जे ए हेतु . माटे लोकमां तथा लोकोत्तरमा सामान्यथी तथा विशेषथी आयतन शब्द देवमंदिरना अर्थने कहेनार .
टीकाः अथ किं तदायतनं यत् ज्ञानादित्रयोपघातिनिमि- . चत्वा दनायतनं जवतीत्याह जत्थ साइम्लिया वहवे तिन्नचित्ता श्रणारिया मूलगुणप्पमिसेवी अणाययणं तं वियाणाहि ॥ साधर्मिका लिंगतः समान धर्माणो बहवो जिन्नवृत्ता ब्रष्टाचारा अनायों मूलगुणतिसेविनो निर्दयतया प्राणातिपातादि प्रस: क्ता यत्र, ते निवसति तदनायतनं ॥
अर्थः-हवे ते अनायतन ते शुं तो तेनो विचार लखे जे ज्ञानादित्रणर्नु उपघातक ते अनायतन कहीए एम शास्त्रमा कथु ले ते वचन जे जे जगाए साधर्मिक एटले लिंगथी समान धर्मवाळा घणाक जुदां जुदां आचरण करता भ्रष्टाचारी अनार्य लोक मूलगुणप्रतिसेवी एटले निर्दय पणे प्राणातिपात आदिकने विषे श्रासक्त लोको जे.जगाए वसे बे ते अनायतन कहीए.
टीका:-तथा जत्थ साहम्मिया वहवे निन्नचित्ता अणारिया ॥ उत्तरगुणपमिसेवी अणाययणं तं वियाणाहि सुगमा ॥ नवरं उत्तर गुणप्रतिसे विनोऽशुक्रपिमादिग्राहिणः॥ तथा ॥जत्थ साहम्मिया बहवे जिन्नचित्ता अगारिया॥ लिंगवेस पमिः बन्ना अगाययणं तं वियाणादि ॥ सुगमा ॥ नवरं लिंगवेषमात्रेण प्रतिबन्ना आच्छादिताः प्राकृत लोकैः सुविहितेन्योऽलक्ष्य. माण विशेषा इतियावत् ॥ इति बादतः ॥ भाज्यतरतः पुनर्मू
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अथ श्री संघपटक
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लगुण प्रतिसेविनः उत्तर गुणप्रतिसे विनश्च यत्र तदनायतन मिति , गाथा त्रयार्थः ॥ .
अर्थ:-जे. जगाए लिंग धरवाथी सरखा धर्मवाळा घण रहेता होय ने तेम जुदा जुदा चित्तवाळा होय ने अनार्यने लिंग तथा वेष ते वेबमे ढांकेला ज्यां ले ते अनायतन क्षेत्र जाणवु ए गाथा सुगम ने माटे एनी टीका टीकाकारे नथी करी तेमांआटवं विशेष ले जे लिंग तथा वेष तेणे करोनेज ढांकेला बे एटले प्राकृत लोकोएं सुविहित मुनिथकी जुदा जाएया नथी एटलो अर्थ. ए प्रकारे वाहेरथी तथा अंतरथी मूलगुण प्रतिसेवि . तथा उत्तरगुण प्रतिसेवि ते जे जगाए रहेता होय ते अनायतन कहीए एम ए त्रण गाथानो अर्थ हैं.
टीका: श्री हरिजनसूरिनि विवरणे प्रतिपादित इति ॥ श्रस्य चायमाशयः ॥ नहि रुजादिगृहत्र त्स्वरूपेण जिनन्नवनमनायतनं ॥ किंतू पाधिवशात् ॥ उपाधिश्च तत्र लिगिनिवासः॥ श्रतएवोक्तं ॥ यत्र निवसंति तदनायतनमिति । तथा च यदि ते जिनजवने निवसति तदा तन्निवासौपाधिकत्वाद् नवति जिननवनस्या.नायतनत्वं ॥
अर्थः-जे हरिनजरिए विवरण कर्यु ले तेमां प्रतिपादन कयु ले तेनो अभिप्राय ए ले जे शिवमंदिरनी पेठे स्वरूपे करीने जिनन्नवन अनायतन नथी त्यारे शुं तो नपाधिना वशथी अनायसन ने तेमां नपाधि शोठे तो खिंगधारीनो निवास ए रूप उपा
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(३८).
.. अथ श्री संघपट्टका
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घिले एज हेतु माटे कथु बे जे जगाए लिंगधारी रहे ते अ. नायतन कहीए. वळी ते लिंगधारी जो जिनन्नवनमां रहे तो जिननवन पण तेमना निवासरूपी उपाधिथी श्रनायतन याय बे
टीका:-उपाध्यपराधेन स्वरूपत आयतनस्यापि तस्याना श्रयणीयत्वात्॥ दृश्यतेचो पाधिवैगुण्या उपाधिमतः सगुणस्याप्यनोग्यत्वं ॥ यथा जुजंगसंगा चंदनतरोरिति नवत्यौपाधिक मस्यानायतनत्वमिति ॥ अतएव गवता नसबाहुस्वामिना नायतनस्वरूपविचारात्परतः आयतनविचार प्रक्रमे जावाय तन स्वरूपं प्रतिपिपादयिषता प्रथमं नामि नहोति विहंत इत्यनेन ज्ञानदर्शनचा रित्रपवित्रमुनिलकणमनौपाधिक ना. वायतन स्वरूपमनिधाय तन्निवासोपाधिकत्वा तदानयस्याप्यायतनत्वं ॥
अर्थ:-नुपाधि जे लिंगधारी तेमना अपराधथी स्वरूपयी श्रआयतन एवं पण जिनन्नवन तेना आश्रयनुं न करवापणुं बे ए हेतु माटे ए जिनजवन अनायतन कहीए लोकमां एवं देखाय जे उपाधिना दोषथी नपाधिवाळो गुणसहित होय तोपण तेनुं अनोग्य पहुंजेम सर्पना संबंधथी चंदनवृदनुं ने तेम माटे जिनमंदिरखें नपाधिथी अनायतनपणुं थयु जे. एज कारण माटे जवाहु स्वामीए अनायतनना स्वरूपनो विचार कर्या पनी आयतननो विचार श्रारंज कर सते नावआयतनना स्वरूपने प्रतिपादन करवानी चाए प्रथम जामि इत्यादिगाथाए करीने ज्ञान,दर्शन, चारित्र ए त्रणवमे पवित्र पयेला जे मुनि ते लदए, जेनुं ने लिंगधारीरूपी उपाधि जेमानपी
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अथ भी संधपट्टकः
(४३९ )
एवं जाव श्रायतनुं स्वरूप कहोने ते मुनि निवासरूपी नपाधि जेमां रह्यो बे ते स्थानकने पणायतन कही ए एम कयुं वे ते वचन कड़े बे जे.
टीका:- जत्थ साम्मिया बहवे सीलवंता बहुस्सुया || चरितायार संपन्ना श्राययणं तं वियाणा हि ॥ इत्यनेन प्रतिपादितं ॥ लिंगप्रवचनाभ्यां साधर्मिकाः शिलादिमंतः साधवो यत्र निवसंति तदायतन मिति तत्र व्याख्यानात्तत्कस्य हेतोः तडुपाधिसन्निधाना दुपाधिमतस्तद्रूपता जवतीति ज्ञापनार्थं ॥
अर्थः- जे जगाए साधर्मिक घणा रह्या होय ते केवा छे तो शीलवंत बे तथा बहुश्रुत बे तथा चारित्राचारवने सहित बे एवं जे स्थानक ते आयतन ए प्रकारनं जाणो. ए गाथावमे आयतननुं स्वरूप प्रतिपादन कर्यु, पढी तेनुं व्याख्यान ए प्रकारनुं कर्यु; जे जे जगाए लिंग तथा प्रवचन ए वे वने सरखा जाता ने शीलादि गुणवाळा साधु जे जगाए रहेता होय ते प्रायतन कहीए माटे ए प्रकारमा व्याख्यान करवानुं शुं कारण वे तो ते लिंगधारी तथा ते प्रकारना सुविहित मुनि ते वे रूप जे उपाधि तेना संबंधयी स्थान पण ए वे प्रकारनुं थाय वे एम जगाववा वास्ते ए प्रकारनुं जे व्याख्यान कर्यु जे नादार्थः जे लिंगमात्र धारीना निवासथी जिनमंदिरादिक श्रायतन एटले श्राश्रय करवा योग्य एवां स्थानक पा अनायतन याय के एटले त्याग करवा योग्य थाय वे ने सुविहितना निवासयी स्थानक मात्र आयतन थाय वे एटले जन्प्राणिने माrय करवा योग्य थाय बे.
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9. अथ श्री संघपट्टक टीका:-श्रतएव हरिजप्रसूरिणा' जिनजवन विधापनजूनागं निरुपयतातपंचाशके कुत्सितलोकाकीर्णपाटकांतर्निर्मिते जिनगृहे साधूना मुपपातेन चारित्रनंगप्रसंगा नत्र तद्विधापनानावः प्रदर्शितः॥ . यमुक्तं ॥ . . . . . .
अएएसंमि न बुढी कारवणे जिणहरस्स नय पूया ॥ . साहूण मणणुवार्ड किरिया नासोउ उववाए ॥ .
अर्थः--एज कारण माटे हरिलजसूरिए जिनन्नवनने स्था. पन करवा योग्य एवो पृथ्वीनो नाग तेतुं निरूपण करती वखत पं. चाशक नामा ग्रंथने विषे कर्बु जे निंदित एवा जे लोक तेणे
सहित एवो जे पामो तेमां निपजावेदूं जे जिनमंदिर तेने विषे सा। धुनु आगमन थाय तेणे करीने साधुना चारित्रनो जंग थवानो प्र
संग आवे ते हेतु माटे ते पामाने विषे जिनमंदिर करवानो निषेध देखाग्यो . .
टीका:-नचै तावता तस्य ना नायतनत्वं ज्ञानादिनविघातहेतुत्वस्य तलक्षणस्य तत्रा प्युपपद्यमानत्वात् ॥ तस्मात्सिक मुपाधिदोषा जिनन्नवनस्या प्यनायतनवं ज्ञानादित्रयविधात हेतुत्वस्य तहदयस्य तत्राप्युपपद्यमानत्वात् ॥ तस्मासिझमुपाविदोषा जिननवनस्याप्यनायतनत्वमिति ॥
अर्थः-वळी ए वात कही तेणे करीने ते जिनजवननुं श्र.. नायपतनपणुं न श्राव्यु एन नथी त्यारे शुं तो अनायतनपणुंज श्रालले कमजे अनायतन ए लक्षण दे जे ज्ञानादि ऋणना विधातर्नु
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48 अथ श्री संघपट्टक
जे कारण होय ते नायतन कहीए ते लक्षण तो ए जिन मंदिस्मां पण श्राव्यं ए हेतु माटे उपाधिना दोषथी जिन जवननुं परा अनायतनप सिद्ध थाय बे. इति.
टीका:-अनिश्रानिश्राकृतयो रन्येत रदेत दधिकृतं जिनभवनं भविष्यतीति चेन्न तलक्षणानुपपत्तेः तलकण मंतरेण च लक्ष्यस्य तत्तया व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् ॥
प्रर्थः -- प्रतिवादिने कहे वे के तु एम कहे वे जे अनिश्राकृत तथा निश्राकृत ए बेमांतु एक या जिनजवन पण हशे पण एम तारे न कहेतुं केम जे ए बेनुं पण लक्षण श्रा जिनजवनमां मळतुं नथी श्रावतुं ने ते लक्षण मळ्या विना लक्ष्य वस्तुनी स्था पना करवा समर्थ न थवाय ऐटले जे वस्तुमां वस्तुनुं लक्षण न होय तेने ते प्रकारनी न कदेवाय लिंगधारीए निवास करेलुं जिनमंदिर मां निश्राकृतनुं लक्षण पण मळतुं नथी आवतुं ने अनिश्राकृतनुं पण लक्षण मळतुं नयी श्रावतुं
टीकाः तथा हि ॥ नैतद निश्राकृतं ॥ अत्रोत्सूत्रेत्यादिना प्रागनिदितस्य तल्लक्षणस्य विधिरोधसोऽत्र विवक्षितचैत्येऽनवरतं प्रवता सर्वथा तद्विपरीतेनाऽविधिश्रोतसा समूलकायं क पितत्वात् ॥
अर्थ -- तेज कह | देखाने ठे जे ए जिनजवन निश्राकृतनयी केम जे अत्रोत्सूत्र इत्यादि पूर्वे कनुं जे विधि सहित करवा
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अथ श्री संघपट्टक
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रुप अनिश्राकृत लक्षण तेनुं आ चैत्यने विषे निरंतर वहन थतो ने सर्वथा लक्षणरहित जेथविधिनो प्रवाह तेणे करीने मूळमाथीज विधि बक्षणनुं जवापणुंडे हे हेतु माटे.
टीका:-नाप्येतन्निश्राकृतं ॥ निश्राकृतं हि तमुच्यते ॥ यत्र देशकालविप्रकर्षादिना सुविहितगुरुशिक्षादिविरहा बैथिख्यातिशयेन देशतः पार्श्वस्थावसन्नादिलाव मापनानां शुष्प्ररूपकाणामपि सातलोलतया तथाविधंविधि मनुपदिशता मप्रवर्त्तयतां चचैत्याहहिर्निवासेपि तचिंतापराणां यतीनां निश्रा वर्तते॥
अर्थः-वळी ए चैत्य निश्राकृत पण नथी केमजे निश्राकृत तो तेने कहीए के जे देश काळना विपरीतपणादिक कारणे करीने तथा सुविहित गुरूनी शिक्षा इत्यादिकनो जे विरह ते थकी जे श्रतिशय शिथिलपणुं तेणे करीने तथा देशथकी पासथ्या, नसन्न इत्यादिक नावने पामेला ने शुद्ध प्ररूपक ने तो पण साता सुखने विषे लोलपी बे; ए हेतु माटे ते प्रकारनो विधि मार्गने उपदेश : करता तथा न प्रवर्त्तावता ने चैत्यथी बारणे निवास करे ले तो पर ते चैत्यनी चिंता करवामां तत्पर एवा जे यति तेनी निश्रा जे गाए वर्ने ते ते निश्राकृत कहीए.
टीका:-यत्रच श्राजानां श्रावृझये सुविहितसूरयोपि कदाचिघ्याख्यानं विदधति॥नसनावि य तत्थेवे त्यादि तथाप्तरि· ति समोसरण मित्यादि प्राकप्रतिपादित वचनात् ॥ नचोक्त. सध्या त्मकृतचैत्ये किंचि उपलन्यते.
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मय श्री संघपट्टका
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अर्थः-जे जगाए श्रावकनी श्रद्धा वधवाने अर्थे सुविहित सूरि पण कदाचित् व्याख्यान करे , 'उसनावि' इत्यादि वचन:वमे ते वात प्रथम प्रतिपादन करी ने ए हेतु माटे ए वात सांजळीने लिंगधारी शंका करे जे आ कछु जे लक्षण तेमांथी कांड पण आ लिंगधारीए निवास करेला चैत्यमां आवे ? त्यारे सुविहित कहे ले जे कांश पण नथी श्रावतुं.
टीकाः-तथाहितत्र ॥सर्वदां तर्निवसङ्गिरेव पावस्थादितिः सकलचिंताविधाना छालानां चात्यंतकुदेशनावासितानां विधिपथमात्सर्येण तत्साहायैव प्रत्यवस्थानाद दूरोत्सारित सुविहि.तानां तत्र व्याख्यान विधानं ।। तथा च कथमेतन्निश्राकृतं स्यात् ॥
. अर्थः-तेज कही देखामे जे निरंतर चैत्यमांज निवास करता एवा जे पालथ्थादिक ते चैत्य संबंधि कार्यने करे तेमनी भत्यंत कुदेशनावमे वासित थयेला एटले कुदेशना रूप थयेला जे श्रावक तेनी मध्ये विधि मार्ग साथे मत्सर थकीज जाणेशुं एम वृद्धि पामतो जे अविधि मार्ग तेने प्रवर्ताववाने अर्थे रहा होय ने शुंएवाजे ते लिंगधारी तेथी सुविहितनुं व्याख्यान दूर गयुं तेमाटे ए केम निश्राकृत चैत्य कहेवाय.
टीकाः-तस्मादनिश्रानिश्राकृतव्यतिरिक्त लिंगिनिरध्यासितं तृतीयमेत दनायतनानिधानं चैत्य मन्न्युपगंतव्य मिति ॥न. .. नुनित्यनक्तिकृतसाधर्मिकमंगलचैत्यजेदा उचतुर्विध चैत्यं सि. . दाते परिसंख्यायते ॥जक्तिकृतस्य निश्रानिश्राकृतनेदेन है
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((EY)
जय श्री संघपट्टकः -
विध्यात्पंचविधं वा ॥
अर्थ:-- हेतु माटे निश्राकृततथा निश्राकृत ए बेथी रहित लिंगधारी निवास करेलुं त्री जुं श्रा अनायत नाम चैत्य डे एम जा. त्या आशंका करे बे जे सिद्धांतमां नित्य चैत्य प्रतिकृत चैत्य, तथा साधर्मिक चैत्य तथा मंगल चैत्य एवा नेदयी चार प्रकारना चैत्य गणाव्यां वे अथवा तेमां जक्तिकृत चैत्य निश्राकृत, श्रनिश्राकृत एवा दे करीने बे प्रकारनुं बे तेथी पांच प्रकारनां चैत्य बे.
टीका:-नत्वनायतनाख्यस्य पंचमस्य षष्टस्य वाक्व चित्परि संख्यानमस्ति ॥ यदि नायतन मप्यनिप्रेतं स्यात्तदा तदपि नित्यचैत्यादिवत् परिसंख्यायेत ॥ न चैवं ॥ तस्माच्चत्वारि पंच 'वा चैत्यानि नानायतन मिति ॥ यथोक्तं ॥ नीयाइंसुरलोए नत्तिक्याई च जरहमाईणं ॥ निस्तानिस्लकया साहम्मि य मंगलाई चेति चेन्न ॥
अर्थः तेमां लिंगधारी एम आशंका करी कहे जे जे - -नायतन नामे पांचमुं श्रथवा बहुं कोई जगाए चैत्य गएयुं बे ने जो 'सिद्धांतकारने ए अनायतन चैत्य कद्देवानुं होय तो पण नित्यचेत्यादिकनी पेठे को जगाए गएयुंज होत पण एम तो कोई जगाए गएयुं नयी माटे सिद्धांतकारने मते चार प्रकारनां अथवा पांच प्रकारनोज चै बे. पण अनायतन नामनुं चैत्य नथी ते शास्त्रनुं वचन जे नित्य चैत्य देवलोकने विषे तथा जक्तिकृते चैत्य नरत्यादिक क्षे
विषे निश्राकृत तथा अनिश्राकृत तथा साधर्मिक चैत्य तथा मंगल चैत्य ए प्रकारे वे मां अनायतननुं नामज नथी. दवे सुवि
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49 अब भी संघपट्टक
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हित एनो नत्तर आपे ले जे एम तारे न कहेवू.
टीकाः-अन्यतीर्थिकपरिग्रहीताईत्प्रतिमानां वंदनादि निषेधेन तस्याप्यागमे जिमत्वात् ॥ कथ मन्यथा सम्यकप्रति पतिसमये श्राकानां नोमे कप्पर अन्नतिथियपरिग्गिहियाणि अरिहंतचेईयाणि वंदित्तए वा नमंसित एवाश्त्यादिना जगवान् । जवाहुस्वामी नगवत्प्रतिकृतीनां बोटिकादि परिगृहीतानां चंदनादिप्रतिषेध मजिदधीता। न ह्यनायतनत्वं विना तत्प्रतिषधानिधान शोनां विति।तस्मा दस्त्यनायतनं सिद्धांतानिहित मिति।
अर्थः-केम जे अन्यदर्शनीए ग्रहण करेली जेअरिहंत्तनी प्रतिमा तेनुं वंदनादिक निषेध कहेवे करीने ते अनायतन चैत्यन पण श्रागमने विषे कहेवापणुं ने ए हेतु माटे ने जो एम न होय तो समकित अंगिकार करवाने समे श्रावकने 'नोकप्प' इत्यादि एटसे अन्यदर्शनीए ग्रहण करेलां एवां जे अरिहंतनों चैत्य ते वं. दन करवां तथा नमस्कार करवांनथी कल्पता इत्यादि वचने करी. ने नगवान् श्रीनप्रवाहु स्वामि वोटिकादिक अन्यदर्शनी तेमणे ग्रहण करेलां जे चैत्य तेमनुं वंदनादिक ते प्रत्ये निषेध केम कहेत नज कहेत. माटे जो अनायतन चैत्य नज होय तो ते चैत्यना वंदनादिकनो निषेध कर्यो ते न शोन्नत माटे श्रनायतन एटले श्रवंदनीक एबुं चैत्य सिद्धांतमांज कहे .
टीका-नुक्ते ष्वेवांतनावा नैतत्पृथगस्ती तिचेन्न तदनावात् तथाहि न ताव नित्यचेत्येऽस्यांत वःकृतकत्वेन तदनावानुपपत्तेः । विमानजवनसनातनशिलोचयादिष्वेव च
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अथ श्री संघपट्टकर
नित्यचैत्यानांनावात् ॥ नापि निश्रानिश्राकृतयोः ॥ प्रायुक्तल.' क्षणस्ये हानुपपत्त्येव तदत वस्यापाकरणात् ॥
. अर्थः-गणावेलां जे ए चैत्य तेमां था अनायतन चैत्यनो पण अंतर्जाव थशे एथी जुई नहि पके एम जो तुं कहेतो होय तो ते न कहेवू केम जे तेज कही देखामे जे नित्य चैत्यने विषे ए अनायतन चैत्यनो अंतन व नथी थतो केम जे. ते तो नित्य शाश्वतां चैत्य ने था तो करेलु ने माटे ने नित्य चैत्य तो विमान, जवन तथा सनातन पर्वत इत्यादिकने विषे रह्यां डे ए हेतु माटे ने निश्राकृत, अनिश्राकृत ए बे प्रकारना चैत्यनुं लक्षण प्रथम कडं ते आ अनायतन चैत्यमां नथी माटे तेमां न गणीनेज जु, कही देखाम्युं हे माटे.
टीका-नापि साधर्मिक चैत्ये॥ यति मूर्त्तनुषंगित्वेनैव त. · स्यानिधानात् ॥
॥यकं॥
वारत्तगस्त पुत्तो पमिमंगविंसुचे य हरंमि ॥ तत्थयत्थलीअहेसी साहम्मिय चेश्यं तंतु ॥ नापिमंगले चैत्ये तस्य प्रतिनियतविषय तयैव प्रतिपादनात॥
॥ यमुक्तं ॥
अरहंत पश्छाए महुरानयरी मंगलारंतु ॥ गेहेसु चच्चारेसु य बन्नन गाम गयेसु ॥
.
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- जय श्री संघपट्टकः
( ४४७ )
तस्मा देतेतर्भावात् परतीर्थिकपरिगृहीताऽई चैत्याना - मनायतन चैत्यत्वं सिद्धमिति ॥
अर्थः- साधर्मिक चैत्यने विषे पण ए अनायतन चैत्यनो अंतरजाव नथी केम जे तेमां तो सांधुनी मूर्ति स्थापन करवी तेथे करीने कवाएं बे जे माटे ते वात शास्त्रमां कही ब्रे जे तथा मंगल चैत्यमा पण एनो अंतर्भाव नथी. केम जे तेतो स्थान स्थान प्रत्ये नियमा करीने तेनुं प्रतिपादन कर्यु जे जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे ते हेतु माटे ए सर्व चैत्यमां अनायतन चैत्यनो अंतर्भाव नथी एटले ते थकी या अनायतन चैत्य जुदुं पके बे. ए प्रकारे परतीर्थ लोकोए गृहण करेला जे अरिहंतनां चैत्य तेनुं अनायतनप सिद्ध युं.
टीका:- नन्वेवं षष्टचैत्यान्युपगमे सूत्रोक्ता नित्यादिचैत्य पंचकसंख्या विरुद्धते ॥ तथाच सूत्रकृतां विरुद्धवा दित्वेनान्यत्रापि तद्वचसि विनेयानां समास्वासो नस्या देवं च बहु विशीयेते तिचेन्न ॥ श्रविरोधात् ॥
अर्थः- लिंगधारी आशंका करे ढे जे जो एम ठहुं ना यतन चैत्यमां न शोने तो सूत्रमां कहेली जे नित्यादि चैत्यनी पांच संख्या तेनो विरोध लागशे वळी सूत्र करनारने विरुद्धवादि जालीने बीजी जगाए पल तेमना वचनने विपे शिष्योने विश्वास उमी जशे एम विचारतां घणी हानी प्राप्त थशे. हवे सुविदित कहे वे जे एम तमारे न वोलवु केम जे कोई प्रकारनो विरोध तेज नहि शी रीते तो.
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( . ४४८ )
40 अथ श्री संघपट्टकः
टीका:-नीयाइ सुरलोएइत्यादौ देवकुलिक परिग्रहाधुपा• धिवशेना निश्राकृतादेरपि क्वचित्कदाचि दनायतनव्यपदेशादौपाधिकत्वेन तस्य पृथगपरिसंख्यानात् ॥ यद्वा ॥ तत्पूजार्हापामेव चैत्यानां संख्या निधानं ॥ श्रनायतनचत्यस्यत्वपूज्यत्वेन पृथगपाठा चदंतः पाढे तस्याप्येवं प्रतिपधेरन्मंदमेधसः ॥
अर्थ :- नित्यादिचैत्य देवलोकमां बे इत्यादि वचनने विषे देवपूजारातुं ग्रहण कर ए रूप जे उपाधि ते तो वशथी श्रमिश्रा कृतादि चैत्यनो परा क्यारेक को जगाए अनायतन पणाना कहेवाथी उपाधिक संबंधी करीने तेने जुडुं गएयुं नथी ए हेतु माटे श्रथवा तेमां पूजा करवा योग्य एवां जे चैत्य तेनीज संख्या कही बे ने अनायतन चैत्य तो पूज्य बे ए देतु माटे एनो पाठ जुदो न.
लो बे केमजे जो ते पूजनिक चैत्य जेलुं पूजनिक जे अनाय तन चैत्य तेनो पाठ नयो होत तो केटलाक मंद बुद्धिवाळाने ए सर्वचैत् पूजनिक मनात हेतु माटे जावार्थः पांच प्रकारनां चैत्य पूजनिक बे ने बहुं लिंगधारीए ग्रहण करेलुं श्रनायतन चैत्य ते पूजनिक बे.
टीका:- एक सूत्र निर्दिष्टानां सहवा प्रवृत्तिः सहवानिवृतिरिति वैयाकरण न्यायात् ॥ तस्मात् ज्ञायते विशेष प्रतिपत्त - येतेयस्तस्यपार्थक्या निधान मितिनागमोक्त चैत्य संख्या वि रोधइति ॥
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8. अथ श्री संघपट्टक
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अर्थ-नेजे एक सूत्रमा देखामेलांतेप्मनी प्रवृत्ति ते वे संघाथेज थाय एमब्याकरण नणेला विद्वान लोकोनो न्याय ए हेतु माटे एटले पूज्य तथा अपूज्य ए वे प्रकारनां चैत्य एक सूत्रमा संघाथे गणाव्यां होय त्यारे सर्वे पूज्य थाय अथवा सर्वे अपूज्य याय माटे पूजवा लायक पांच प्रकारनां चैत्य एक सूत्रमा गणाव्यां ने हुश्रपूज्य जे लिंगधारीए ग्रहण करेलुं अनायतन चैत्य ते जुउँ गणाव्युं माटे ते पूज्य चैत्यथी अपूज्य चैत्य जुट गणावतां शास्त्रमा कहेली जे पांचनी संख्या तेनो विरोध नहि आवे.
टीका:-नन्वेतावता कुतीर्थपरिगृहीतार्हचैत्यानां सिध्य- . त्वनायतनत्वं नतु स्वयूथ्यवावस्था दियरिगृहोताना मिति चेत्रतेषामपि सिद्धांतोक्तेना नावग्रामत्वेन तथात्वसि॥
अर्थः-लिंगधारी आशंका करे जे श्रा जे.तमोए कद्यु तेणे करीने कुतीर्थिक पुरुषोए ग्रहण करेलांजे अरिहंतनां चैत्य तेनुं अनायतनपणुं लिक थाय पण पोताना युयना एटले पोताना वर्गना जे पासथ्यादिक तेमणे ग्रहण करेलां जे चैत्य तेमनुं अनायतनपणुं तो नथी त्यारे सुविहित मुनि उत्तर आपे ले जे जो एम तमारे कहेवानु होय तो ते न कहे केम जे सिद्धांतमां जावग्राम कह्यो तेणे करीने ते लिंगधारीए ग्रहण करेला जे चैत्य तेनुं पण अनायतनपणुं सिक थाय ते.
टीकाः ननु कौयं नावग्रामोनाम यदलावात्प्रतिमानामनायतन प्रसाध्यते नवतेतिचेत् ॥ उज्यते ॥ ज्ञानदर्शनचा
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(४५०) ..... 8. अथ श्री संघपट्टका स्त्रिाणि नावग्रामो येच्योवा ज्ञानादीनामुत्पत्ति रिति॥अथ के. ते येज्यो ज्ञानाद्युत्पादः ॥ अवहिती नूय श्रूयतां ॥
अर्थः-लिंगधारी पूढे ठे. जे ए जावग्राम कीयो के जेना विना-प्रतिमा. अनायतनपणुं तमो. सिद्ध करो बो हवे सुविहितः वोल्या जे. जो एम तमे कहेता होतो तेनो उत्तर कहीए बीए जे. ज्ञान दर्शन, तथा चारित्र ए नावग्राम,बे, जेथी अथवा जेथी,ज्ञानादिकनी जत्पत्ति थाय ते.नावग्राम कहीए हवे. लिंगधारी पू.जे. जेथी ज्ञानादिकनी उत्पत्ति थाय एवा ते कोण ले त्यारे सुविहित बोल्या जे तुं सावधान था सांजळ उत्तर आपीए-बीए. "
टीका:-तीर्थकर मनः पर्यायावधिज्ञानिन चतुर्दशदशनवपूर्वधराः संविनास्तत्पाक्षिकाश्च सारूपिणो गृहीताणुव्रताः 'प्रतिपन्नसम्यक्त्वाश्च श्रावकाः अर्हत् प्रतिमाश्च ॥ तीर्थकरादयो.हि देशनादि छारेण नव्यसत्वानां ज्ञानाद्युत्पादहेतुत्वेन. जवंति नावग्रामः ॥
अर्थः-जे तीर्थकर तथा मनः पर्याय झानि तथा अवधि ज्ञानि तथा चनद पूर्वधारी तथा दश पूर्वधारी तथा नव पूर्वधारी तथा संविग्न तथा तेमना पक्षपाति तथा सारूपो. तथा ग्रहण कयु
अणवत ते जेमणे तथा ग्रहण कयु समकित जेमणे एवा जे श्रावक तथा अरिहंतनी प्रतिमा तथा तीर्थंकरादिक पण देशना. दिक. हारे नव्य जीवाने ज्ञानादिकनी, नत्पत्तिनुं. कारण ए हेतु माटे लावग्राम: ए सर्वेन. कहीए वीए,
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अथ श्री संघपहका
(१५१)
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टीकाः-नन्वेवं तर्हि फलितमस्माकं मनोरथपादपे नातीयंकरादिवत्प्रतिमानामपि नावग्रामत्वेनाऽनायतनवासिझेरितिचेन सम्यगुदृष्टिपरिगृहीताना मेव तासां नावग्रामत्वप्रतिपादनात् ॥
. अर्थः - लिंगधारी बोध्या जे ए प्रकारे नावग्राम कहेंता होतो. श्रमारा मनोरथ रूपी वृक्ष फळबाळ थयु. एटले अमा धायु तेज तमारा कह्यामां आव्यु. जे तीर्थंकरादिकनी पेठेज प्रतिमाने पण नावग्रामपणुं प्राप्त थयुं माटे अनायतन चैत्यनी वात असिक थई एटले खोटी थई, हवे सुविहित बोले जे ‘एम तमारे न बोलवू केम जे समकित दृष्टिवाळा पुरुषोए ग्रहण करेली जिनप्रतिमानेज नावग्रामपणानुं प्रतिपादन २ ए हेतु माटे सिंगधारीए निवास करेला चैत्यनुं अनायतनपणुं सिह थाय बे.
टीका:-अथ कथंचित् मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतानां तासां तन्नन्नवति ज्ञानाद्यनावादिति चेन तदलावेपि तासां वीतरांगत्वलिंगदर्शनेन कस्यचि त्सम्यक्त्वायुत्पादातू ॥
यमुक्तं ॥
दलिततमस मुच्चै स्वितो यस्य विवं . गतमल मपि दृष्टेर्नालिकानां विवोधं ॥ प्रजनयति रजोनि धूसराणां नराणां त्रिजगति स नमस्यः कस्य न स्याग्जिनेडः॥
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अथ श्री संघपट्टक
अर्थः--हवे लिंगधारी बोले ले जे मिथ्यादृष्टिए ग्रहण करेंसी जे प्रतिमा तेने कोई प्रकारे जावग्रामपपुं नथी. केम जे ज्ञानादिकनो अन्नाव जे ए हेतु माटे एम जे तमो कहोगे ते न कहे. केमजे ते प्रतिमाउने जाव ग्राम पणुं नथी तोपरा वीतराग पणानुं चिह्न देखवे करीने कोश्ने समकित आदिक गुणनी उत्पत्ति दे-खाय . ए हेतु माटे,मान्य जे जे कारण माटे ए वातशास्त्रमा कही ने जे अज्ञान अंधकारनी नाश करनार अने देदिप्यमान अने मल रहित एवीजे जगवतनी प्रतिमा ते जेम सूर्य दृष्टिनो प्रकाश करे ने तेम रजोगुण वझे मलीन थएला पुरुषोने अज्ञान अंधारूं टाळीने श्रव. बोध उत्पन्न करे ने ए जिनराज त्रय जगतमां कया पुरुषने नमस्कार करवा, योग्य नथी? सर्वने नमस्कार करवा योग्य .
टीका:-ततश्चायुघृतमितिवत् कारणे प्रतिमा लक्षणे ज्ञाना; - दिलक्षणकार्योपचारेण तासामपि नावग्रामत्व मुपपत्स्यत इति
चेन्न ॥ एवं सति निवादीनामपि नावग्रामत्वापत्ते स्तेषामपि प्रशांतरूपक्रियादिदर्शनेन कस्यचित् सम्यत्वाद्युत्पत्तेः॥ __ अर्थः-ते हेतु माटे घृत ने तेज आयुष्य ने एटले घृत रूपी कारण थकी आनखारूपी कार्य नत्पन्न थाय डे एवा जेम न्याय लौकिक शास्त्रमा तेमज प्रतिमा रूपी कारण देखवाथी झामादि लक्षण जे कार्य तेनी उत्पति थाय. ए प्रकारे उपचार मात्रे करीने ते प्रतिमाने पण नाव ग्रामपणुं उत्पन्न थशे. एम जो तमे कहेता हो तो ते न कहे, एम सुविहित बोले जे. जे एम कहीए तो निह. वादिकने पण लावग्रामपणुं प्राप्त थाय केम जे . तेमतुं प्रण-प्रशांत
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जय श्री संघपट्टक
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रूप क्रियादिक देखवाथी कोइकने समकितादिकनी नत्पत्ति थशे ए हेतु माटे. · टीका:-नवेदमिष्टं नवतोपि सर्वेरेव जिनमतवर्तिनिहि वाना माझावाह्यत्वेना जावग्रामतया वर्जनीयत्वान्युपगमात् ।। एवं निह्नवोदाहरणेन प्रतिमानामपि मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतानामनावमामत्वेन वर्जनीयत्व मन्युपेयम् ॥
अर्थः-सुविहित कहे के ए प्रकारनुं जे तमाहं कहे ते तमारे पण वहन नथी ने सर्वे जिनमतवाळा पुरुषो एम जाणे
ने निह्नव पुरुषो परमात्मानी श्राज्ञाथी बाहिर जे ए हेतु माटे अन्नावग्रामपणुं एमां रघु ने तेणे करीने त्याग करवा योग्य ले एम सर्वे जाणे . ए प्रकारे निह्नव पुरुषोना दृष्टांते करीने मिथ्या दृष्टिए ग्रहण करेली जिन प्रतिमाने पण अन्नावग्रामपणुंडे ए हेतु मादे वर्जवा योग्य ते एम जाणवू.
टीकाः-यमुक्तं ॥ चित्रं निसर्गसुन्नगापि परिग्रहेण, मिध्यादृशां जगवतः प्रतिमा तथापि ॥ सम्यग्दृशां प्रणमनादि विधा वनावग्रामत्वतो नवति निववरिया ॥
अर्थः-ते वात शास्त्रमा कही ठे जे स्वनाव थकी सुंदर एवी जिन जगवंतनी प्रतिमा जे ते मिथ्या दृष्टिना परिग्रह मात्रे करीने पण ते प्रतिमाज तेसम्यग्दृष्टि पुरुषोने नमस्कार करवा यादि विधिने विषे अन्नावग्रामने नत्पन्न करनारी ते माटे तेनो निहवनी पेज त्याग करवो
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mananmisanna
8. अथ श्री संघपटक टीका:अमु मेवार्थ नावग्रामविचारप्रकमे शंकोत्तराज्यामूचतु स्तत्र जगवंतौ कल्पनाष्यचूर्णिकारौ ॥नाणातिगं ना: वो जर्जय एएसं नुप्पत्ती नावनामो नाणदसण चरित्ताणि ॥ ज वा एपर्सि गप्पत्ती हव॥ केय ते जनप्पत्ती हवश
॥ उच्यते ॥ तित्थगरा जिणचुइसदसजिन्ने संविग्ग तह असं. - 'विग्गे ॥ सारूविय वयसपनिमान लावगामा ॥ जा
संमिजावियाउँ पमिमा श्यरी न नावगामो य ॥ ना.
वो जश् नत्थि तहिं नणु कारणकजनवयारो॥ आह कहंमिड #. विहिपरिग्गहियान जावंगामोन हव ॥ नच्यते ॥ तंत्रज्ञाना., दिनावों नास्ति । आह ॥ ननु ॥कारणे कार्योपचार इति कृत्वा।।
"तानवि दहणं कस्सवि संमुप्पामहोजा तो कहं ता नावगामो न . जेवं ॥ आयरि जणं ॥ एवं खुनावगामे निहगमाईविज. : है. मयं तुम्नं ॥ एय मॅवचं कोणुहु वयविवरी वजाहि ॥
अर्थः-आज वात नगवान् कल्पनाष्यकार तथा-चूर्णिजावयामना विचारना प्रस्तावे शंका अने उत्तरवसे जगावेसी * श्री रीते के ज्ञानादि ऋण नावग्राम कहेवाय . अथवा जेनाथी एमनी उत्पत्ति थाय ते पण नावग्राम कहेवाय. चार त्यारे कयी कयी बाबतोथी एमनी नत्पत्ति थाय बे तो कहे के तीर्थकर, सामान्यकेंवळि, चन दपूर्वी, पूर्वधर, संविग्नसाधु, असं विग्नसारुपिक,
तहारीश्रावक, समकिती श्रावक तथा प्रतिमा ए वधाथी तेमनी . अत्यति थाय जे. त्यां प्रतिमा जे सम्यग्दृष्टिनी परिग्रहीत होय तो
जावग्राम में, पण मिथ्याष्टि परिगृहीत होय ते जावग्राम नहि थाय.
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WwAALARAM
- अथ श्री संघपट्टकः - (५५५) anmom...mmm. mms एम केम हो तो कहे दे के त्यां ज्ञानादिकनो नाव होतो नश्री, माटे एम , कोइ वोलशे के त्यारे कारणमां कार्यनो नपचार केम नहि थ शके केमके तेमने जोश्ने पण कोइने ज्ञानादिक उपजे ले माटे ते पण नावग्राम थशे त्यां आचार्य जवाव आपे ले के एम जो नावग्रामपणुं यतुं होय तो तारा हिसावे निधो पण नावग्राम गणाशे, माटे आवी ए विपरीत वात कोण कहे ? .
. टोकाः-ननु तथापि मिथ्यादृक् परिगृहीतचैत्याना म.. लावग्रामत्वमेवोक्तं नत्वनायतनत्वं ॥ अनावग्रामाऽनायतन शब्दयोः पर्यायवाजावादिति चेन्नानावग्रामशब्दस्य ज्ञानाद्युत्पत्तिकारणाद्यर्थत्वे नायतन पर्यायवसिौ तद्विपक्षस्यार्थादेवा. नायतनपर्यायवसिझे॥
: . अर्थः-लिंगधारी शंका करे जे ए प्रकारे शास्त्र वचन तो पण मिथ्या दृष्टिए ग्रहण करेला जे चैत्य तेमने अजावग्राम पुंज कयु पण अनायतपणुं तो नथीज कडं ने अन्नावग्राम तथा अनायतन शब्द एवेने पर्यायपणानो अन्नाव ले ए हेतु माटे हवे सु. विहित कहे जे एम जो तमे कहेता होतो ते न कहे. केमजे नांवग्राम शहने ज्ञानादिकनी उत्पत्ति थवारूप कारणादिकना श्रर्थ पणे करीने पायतन शब्दनापर्यायपणुंजेमसिद्ध थाय ठे तेमज नाव. ग्राम शब्दथी उलटो जे अनावग्राम शब्द तेने पण आयतन शब्दयी उलटो जे अनायतन शब्द तेने पण पर्यायपणुं सिक थशेज.
टीका:-एवंच जगवन्कल्पनाप्यार्थमीमांसनेन कथं मि
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१५५६)
जय श्री संघपका
AANAAAAAAAAI
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श्यादृष्टिपरिगृहीताईप्रतिमानां नायतनत्वं सिध्यतीति ॥ 'एतेन परतिस्थिपरिगहिए मुत्तुंअरहंतचेश्ए सेसे अवंदमाणोपा. चियारिहोहो" त्ति विशेषकरूपचूर्णौ सूत्रमिद मधीयतइति यत्कश्चिमुच्यते ॥ तद्नाम्यजनविप्रलंजनमिति मंतव्यं ॥
अर्थ:-ए प्रकारे जगवान् श्री कल्पनाष्य तेनो अर्थ वि. चार करवो तेणे करीने मिथ्या दृष्टिए ग्रहण करेली जे अरिहंतनी प्रतिमा तेनुं अनायतपणुं केम सिक नथी एतो अनायतनज ए जे सर्व कडं तेणे करीने जे केटलाक जे विशेषकल्पचूर्णीने विषे .परतिस्थि ए प्रकारतुं सूत्र जणे ते अगसमजु मूर्ख लोकने बेतरवा सारु नणे ठे एम जाणवू एटले लिंगधारीन पोतानां चैत्य वंदाव. चाने तथा अजाण लोकने उगवा सारु पोताना कपोल कल्पित एवां जहा पाउ तेमां नेळवीने लणे २ ते पाउनो ए अर्थ डे जे परतीथिके ग्रहण करेला जे चैत्य तेने मूकीने शेष रह्यां जे चैत्य तेने वंदन करतो सतो संसारपारने पामे ले ए प्रकारना पोताने गमता बीजा सत्रथी विरुद्ध पाउ जपीने जोळा लोकने समावे .
टीका:-एवं विध सूत्रस्य तत्र क्वाप्यनुएलजाताजा सम्मिः . जाविया इत्यादि कल्पनाष्यविरोधाच्च मिथ्यानिनिवेशनाच स्व. . कपोलशिल्पिकल्पिते रेवं विधपावैर्मुग्धजनव्यामोहने महापापप्रसंगात् ॥
' अर्थ--ए प्रकारच् सूत्र ते ग्रंथमां कोई जगाएं छीनामा
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मय श्री संघपट्टका
(४५७)
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श्रावतुं नथी ए हेतु माटे ने वळी जा सम्मि इत्यादिक जे कल्पना व्यतुं वचन तेनी साथे विरोध आवे जे ए हेतु माटे ने वळी मिभ्यानिनिवेशे करीने पोताना कपोल कल्पित ए प्रकारना जूग पाठ कल्पीने अगसमजु जोळा लोकने मोद उपजाववे करीने ते लिंगधारीनने महा पापनो प्रसंग प्राप्त थाय .
टीका नन्वेतावता पिप्रबंधेन तदवस्थमेव पार्श्वस्थाविपरिग्रहीतचैत्यानामायतनत्वं ॥परतोथिकानामेव मिथ्याष्टिखापार्श्वस्थादीनांच स्वयूथ्यत्वेनतदन्तावा दिति चेन्न॥ तेषामपिसिदांत मिथ्यात्वप्रतिपादनात् ॥
अर्थ-लिंगधारी वोले बे के तमे श्राटलो बधो वातनो प्र. पंध रच्यो, तेणे करीने जे अमारी वात इती तेनी तेज सिक रही. केमजे पासत्यादिके ग्रहण करेलां जे चैत्य तेनुं आयतनपणुंडे ने जे अन्य दर्शनी के तेज मिथ्यादृष्टि डे ए हेतु माटे ते पासस्थादिक तो स्वदर्शनी में तेणे करीने तेमने मिथ्याष्टि न कदेवाय ए हेतु माटे सुविहित वोले ठे जे एम तमे कहेता हो तो ते न कहेQ केम जे सिद्धांतमां तो ते पासत्थाने पण मिथ्यात्व रूपे प्रतिपादन कर्या डे माटे.
टीका तथा धुपदेशमालायां सावज्जजोगपरिवज्जणाइसव्वुत्तमोजईधम्मोवीश्रोसावग्गधम्मो तश्योसंविग्ग परकपहो.
अर्थ:-तेहीज वात उपदेश माखामां कही ये जे सावय
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(४५८)
अथ श्री संघपहका
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योग्यनो त्याग करवो इत्यादि सर्वोत्तम यति धर्म ने तथा बीजो श्रा. वक धर्म तथा त्रीजो संविग्न पाक्षिक बे.
• टीकाः-इत्यनेनोत्तममध्यमजघन्यन्नेदेन मुक्तिपयत्रयं प्रदर्य संसारपथत्रयं दिदर्शयिषता ग्रंथकारेण प्रतिपादितं सेसामिनदिहीगिहि लिंगकुलिंग दवलिंगेहिं जहतिनीमुरकपहा. संसारपहा तहा तिनि ॥
अर्थः--ए वचने करिने उत्तम मध्यम ने जघन्य ए त्रण जेदे करीने त्रण प्रकारनो मोद भार्ग देखानीने संसार मार्ग पण त्रण प्रकारनो के एम देखामवानी वाये ग्रंथकारे या प्रकारे प्रतिपादन कर्यु बे जे वाकी रह्या ते गृहस्थ लिंगे करीने तथा कुलिंगे करीने तथा अन्यलिंगे करीने मिथ्याष्टि जाणवा. जेमत्रण प्रकारे मोक्ष मार्ग तेम एत्रण प्रकारनो संसार मार्ग छे.
टीका:-अत्रसु साध्वादिव्यतिरिक्ता मिथ्यादृष्टयोरहि । लिंगिअपलिंगिनो दर्शिताः ॥ तत्र हिलिंगिनां हलधरगोपालादीनां सामाचार उत्तमः संसारपथः ।। तन्मिथ्यात्वस्यानान्नि ग्रहिकत्वेन संक्लेशानावेनचोत्तमत्वात् ॥ कुतीथिनां तनतानांच मध्यमः ॥ तन्मिथ्यात्वस्यानिग्रहिकत्वेन प्रथमापेक्ष्या निविनत्वात् ॥ अव्यालिगिनां पार्श्वस्थादीनांतु जघन्यस्तन्मिथ्यात्वस्यानिनिवेशिकत्वेन गोष्टामाहिलादिवदितिवझमूल. त्वात ॥ एवंच ग्रंथार्थपूर्वापरपालोचनेन कथं न तेषां:महामि
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अय श्री संघपट्टक
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श्यारूपत्वं ॥
अर्थ-श्रा जगाए सारा साध्वादिकथी रहित गृहस्थ लिंगधारी तथा अव्यलिंगधारी ए वे प्रकारना मिथ्याष्टि देखाड्या. तेमां गृहस्थ लिंगधारी जे हलधर गोपालादिक तेमनो समाचार जे ते उत्तम संसारनो मार्ग केमजे तेमना मिथ्यात्वनुं अनानियहिकपणुं ने ए हेतु माटे तथा संक्लेशनो अनाव ठे ए हेतु माटे एमां उत्तमपणुं ने कुतीर्थिक एवा जे तेमना जक्त तेमनो मध्यम मिश्यात्वालिनिवेश केमजे तेमना मिथ्यात्वने अजिग्रहिकपणुं ने ए हेतु माटे प्रथमनी अपेक्षाए तेनुं निविरूपणुं के एटले आकरापणुं ने ए हेतु माटे ने अव्य लिंगिजे पासथ्यादिक तेमनुं तो जघन्य ले केमजे तेने विष मिथ्यात्वनुं आनिनिवेशिकपणुं ए हेतु माटे गोष्टामाहिलादिकनी पेठे वकमूळपणुं माटे एप्रकारे ग्रंथना अर्थर्नु पूर्वापर विचार करवू तेणे करीने ते पासथ्था लिंगधारीन महा मिथ्यादृष्टि केम नथी ए तो महा मिथ्यादृष्टिज .
टीकाः-तथा च सिझं तत्परिगृहीताऽर्हचैत्याना मनायततनत्वं तत्प्रदर्शितस्य सर्वस्याप्यधुनातनरूढ्या प्रत्यक्षस्य पथः संसारपथत्वेनाऽनायतनत्वात् ॥ तदेवमहामोहध्यांतमहिमायदेव मुदितपि सकललावालासनेनगवटचने तमोपहे मूढानां विवेक सोचन गोचरं विधुरयति ॥
अर्थः-माटे ते प्रकारना महा मिथ्यादृष्टि एवा लिंगधारीए ग्रहण करेलां जे अरिहंतनां चेत्स तेमनुं अनायतपणुं सिक
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( ४६० )
-18 अथ श्री संघपट्टकः
युं ने तेमले देखायो जे सर्वे या काळनी रुढीए प्रत्यक्ष मार्ग तेने संसार मार्गपणुंबे तेथे करीने अनायतनपणुं ययुं तेज कारण माटे ए प्रकारनो महा मोह अंधकारनो महिमा डे जे कारण माटे सकल नावने प्रगट करी देखामनारने अज्ञान अंधकारने नाश कर नार एवं भगवचन ए प्रकारे उदय पामे सते पण जे मूढ पुरुषो• नां विवेकरुपी लोचन उघतां नथी. अज्ञान अंधारुं जतुं नथी एज महा मोह महिमा देखाय बे.
टीका:- अथवा तामसाना मियमेवगतिः ॥ किंच पंचकस्पेपि प्रश्नपूर्वमनायतनदेशपरिहारेणायतनदेश विहारक्रमंत्रतिपादयताभाष्यकारेण ॥ जढ़ियंतुचणाय यणानहुं तिकेपुणापाययणानथिया ॥ साहम्मिनिन्नचिवा सूलूत्तरदोसप मिसेवी ॥ एएहिं जो देसो श्रन्नो तहय अन्नतित्थिहिं ॥ मबंधवाद्गामा पुलिंददेसाप्रणाययणा ॥ इत्यादिना सुविहितानां देशस्यापि पा र्श्वस्था विकुदेशना निविक निग मितस्याऽनायतनत्वमुपदर्शितं ॥ किंपुनः सतत तनिवासदूषितस्य जिनभवनस्य वक्तव्यं ॥ दुरंतत्वात्तत्संसर्गस्येति ॥
प्रर्थः श्रा टीकानो जावार्थ ऊपर श्रावी गयो के माटे ते जूदो नयी लख्यो.
टीका:- ननु भवत्येवं जिनगृहानायतनत्व सिद्धिर्य दिजत्थसाद मिया इत्यादौयत्रेति जिनगृहादा वित्ययमर्थः स्यान 'चैवं किंतुयत्रे तिमादौ ॥ तथाचतदेवतद्वासां कितत्वादनायतनं
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मय श्री संघपटक
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न जिनजवन मिति चेन ॥ नाणस्तदंसहस्सय इत्यादौ यत्रेति जिनगृहादावि त्यायतन इति वृत्तिकृव्याख्यानेनैकप्रकमात् ॥ जत्थसाहिम्मिया इत्यत्रापि तदर्थानुवृत्तेयंत्रे त्यायतन इति व्याख्यानस्य न्याय प्राप्तत्वान्न यत्रेति मगदा वित्यर्थः ॥
अर्थ:-लिंगधारी आशंका करे ने जे ए प्रकारे जिन गृ. हनी श्रनायतनपणानी सिद्धि थाय डे पण जो 'जत्थ साहिम्मिया' इत्यादिक गाथाने विषे यत्र ए शब्दनो जिन गृहादिक ए प्रकारनो ए अर्थ होय. अपितु न होय त्यारे शो अर्थ होय तो यत्र शब्दनो मठादिक ए प्रकारनो अर्थ थशे त्यारे ए जिनजवन तेमना निवासे सहित थशे तोपण अनायतन नहि थाय त्यारे सुविहित वोल्या जे एम तमे कहेता होतो ते न कहेQ केम जे 'नाणस्सदसणस्तय' इत्यादि स्थळने विषे यत्र कहेतां जे आयतनने विषे एम वृत्ति करनारे यत्र शब्दनी व्याख्या करी डे तेनी संघाथे ए यत्र शब्दनो पण एक प्रक्रम ए हेतु माटे 'जत्थसाहम्मिया' ए जगाए पण तेज अर्थनी अनुवृत्ति श्रावशे ए हेतु माटे यत्र कहेतां जे श्रायतनने विषे ए प्रकारनी व्याख्या करवी एज न्याय प्राप्त अर्थ थयो ने माटे यत्र शब्दनो मठादिरुप अर्थ नहि थाय.
टीका:-जवतुवायत्रेतिमगदौ तथापि किंमठादावेववसंति थहोमठादावपीति विकल्पयुगलं जवन्मनोरथपथमथनपटिष्टमुत्तिष्टते ॥ तत्र यद्यायः पद स्तदानवतोवाङमनस विसंवादेन चेत्यवासाज्युपगमनंगप्रसंगः इतरथा मगदावेवेत्यवधारणा. नुपपत्तेः ॥
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(४२)
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अथ श्री संघपट्टक
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अर्थः--अथवा एम करतां यत्र शब्दनो अर्थ मादि ए प्र. कारनो करो तोपण शें केवल मगदिकने विषेज ए लिंगधारी वसे
के मगदिकने विषे पण वसे ने ए प्रकारना बे विकल्प तमारा मनारथ मार्गने नाश करवाने समर्थ एवा नत्पन्न थाय ने तेमां जो प्रथमनो पद ग्रहण करशो जे केवळ मठादिकने विषेज रहे ने ए प्रकारनुं वोलशो तो तमारी वाणीने मन ए बेनुं विसंवादपणुं थशे एटले मननो अभिप्राय चैत्यमां रदेवानो ने मुखथी मगदिकमां रहेवार्नु कहेवाय. माटे परस्पर विसंवादपणुं थयु. तेणे करीने चैत्यवास जे तमोए अंगिकार कयों ने तेनो जंग थशे केम जे जो एम न होय तो 'मादावेव ए जगाए केवळ निर्धारवाचक जे एव शब्द तेनी असिद्धि थशे एटले एवकार शब्द व्यर्थ पमशे.
टीका:-अद्वितीयः॥ तदानेनैवामृतंजक्षय ॥ मग्देवरइयोरुनयनापितनिवाससिझेः सिहं नः समीहितं ॥ अथ मगदावेववसंतिचैत्यवासान्युपगमस्वऽज्युपगममात्रमउवाससिध्यर्थं तंविना यतीनां चैत्यवासप्रयोजकत्वचिंता विधानायनु.. पपवेरितिचेन्न । विकल्पासहत्वात् ॥
अर्थः-बीजो पद तमे कहेशो के अंगिकार करीशुं तो ते पक्षवमेज अमृत जहण करो एटले बीजो पक्ष जे मगदिकने विषे पण त्यारे तो ते पक्ष अमृत लक्षण जेवो हितकारी मठने देव गृह ए बे जगाए तेमना निवासनी सिद्धि थइ तेथी अमाझं वांच्छित सिक थयु हवे मगदिकने विषेज निवास करे ने ने चैत्यवासनो जे आलंबन तेतो अंगिकार मात्र ने मठमां जे निवास करवो
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अथ श्री संघपट्टक
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तेनी सिकिने अर्थे में केम जे ते विना यतिने चैत्यवास संबंधी स्वतंत्र कापणुं न थाय तथा ते चैत्यनो जे चिंता एटले साल संजाल राखवी तेनुं करवापणुं इत्यादिक सिझन थइ शके माटे एम जो तमे कहेता होतो ते न कहेवू केम जे विकल्प सहन नही थाय एवा ए प्रकार सुविहितनुं वचन .
टीका:-तथाहितदन्युपगममात्रंप्रमाणमूल मप्रमाणमूलं वास्यात् ॥ प्रमाणमूलं चन्मगदावेवेत्यवधारणव्याघातः ॥ तदन्युपगममात्रस्य प्रमाणमूलत्वे चैत्यवासस्यापितन्मूलत्वेन प्रमाणसिकः ॥
अर्थः-तेज कही देखामे जे ते मठवासनुं जे पावन ते प्रमाण मूल के अप्रमाण मूल बे ने जो प्रमाण मूल ले तो भगदी एव' ए जगाए एवकारशब्दनो निरधारणवाचक जे अर्थ जे तेनो व्याघात थशे एटले नहि घटे ने ते मउवासना अंगिकार करवातुं प्र. माणमूलपणुं जो होय तो चैत्यवास, पण तेना मूलपणे करीने प्रमाण सिद्ध थाय पण तेतो नथी.
टीका:--अप्रमाणमूलं चेत्यज्यतां तहि चैत्यवासान्निनिवेशः ।। समूलमुन्मूल्यतांतत्समर्थनाय विरचितानि वादस्थला. नि ॥ समुत्सृज्यतामप्रमाणिक चैत्यवासाच्युरगममूलवेना प्रा. माएयान्महासावद्यशय्यारूपमठवासाच्युपगमः ॥ अन्युपेयतां चाधाकर्मादिसकल दोपरहितपरग्रहवासन सौविहित्यमिति ॥
अर्थः- जो चैत्यवास अममाणमूल वे तो चैत्यवासनो
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अथ श्री संघपटक
श्राग्रह त्याग करो, ने ते चैत्यवासने सिद्ध करवाने रच्यां एवां विवादना जे स्थल तेने मूळमाथी उखेमी नाखो ने अप्रमाणिक एवं जे चैत्यवासनुं अंगिकार करवापर्यु ते रुप जे मूल तेणे करीने अप्रमाणिकपणुंडे ए हेतु माटे महासावय निवासरुप जे मठवास तेनो अंगिकार त्याग करो ने श्राधाकर्मादिक जे सकल दोष तेणे रहित एवो जे परग्रहवास तेणे करीने सुविहितपणुं अंगिकार करो.
टीकाः-तस्माउक्तनीत्यायोति मगदावित्यर्थानुपपत्तेयथावृत्तिकृघ्याख्यान मेवसाधीय इति ॥ एवंचवभिशपिशितोपमानेन जिनबिंव स्यानायतनत्वसिकेर्युक्तमुदितं बमिश पिशितवाविमादय जैन मिति ॥ सांप्रतंप्रकृतमुपक्रम्यते ॥
अर्थः ते कारण माटे कही एवी जे नीति तेणे करीने यत्र ए शब्दनो जे अर्थ ते मगदिरुप नहि थाय माटे जेम वृत्तिकारे एर्नु पूर्वे व्याख्यान कर्यु तेमज अतिशय श्रेष्ठ ले माटे बनीश मांसनी जे जिनविंबने उपमा दीधी तेणे करीने जिनबिंबन अनायतनपणुं जे सिद्ध कर्यु ते युक्त कद्यु. हवे बनिश मांसनी पेठे जिननुं बिंब देखामीने लोकने लिंगधारी ग्गे ए प्रकारर्नु चालतुं प्रकरण कहीए बीए.
टीका तथा तन्नाम्नाजिननामधेयेन जगवांमागारादि निमित्तमेत निम्माप्यते नास्मनिमित्तमितिव्यपदेशेन रम्यरूपान्
रुचिररचनयादृढबंधतयाच मनोहराकारान् अपवरकाअंतर्पहाः । मगनिमय विशेषास्ततो अंकस्तान ॥
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-g. अथ श्री संघपट्टक
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(४६५)
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अर्थः-वळी जिनना नामवसे एटले आ तो नगवत संवं. धी मार घर से इत्यादि निमित्त आ निपजावीए गए पण श्रमारा निमित्ते नथी निपजावता. ए प्रकारना मिषवमे सुंदर रुपवाका ने सुंदर रचनाए सहित ने दृढ बंधपणे मनोहर एवारमा एटले अंतर्घर मठ स्थानविशेष त्यार पढी ए पदोनो बंछ समास करवो.
टीका:-स्वेष्टसिध्यै वयमेष्वाजन्म सुखेन वत्स्याम इत्यास्मानिमतनिष्पत्तये विधाप्य कारयित्वातेहि शगः स्वनिमित्तमपवरकादीनिष्पादयंति। मुग्धाश्चजानते जिननिमित्तमित्यहो ए तेषां जिननक्तिरितितेषु रज्यंते तैश्चोपजीव्यंत इतिवंचनप्रकारः॥
अर्थः ते ओरमाने पोतानी इष्ट सिद्धिने अर्थे एटले वांचित साधवाने अर्थे एटले था स्थानने विपे आपणे जन्मारा सुधी सुखे निवास करीशुं ए प्रकारे पोताना मतनी सिद्धिने अर्थे करा. वीने ते शठ पुरुष एटले लिंगधारी पोताना निमित्ते ए प्रकारना सु. दर रहेवाना ओरमा निपजावे ठे ने लोळा लोको एक जाणे जे जिन निमित्त आ निपजावे ठे माटे अहो आतो मोटुं आश्चर्य जे श्रा मुनियोने आ प्रकारनी परमात्मानी नक्ति ते एम धारीने ते. मने विषे रीऊ पामे ठे ने तेवा लोळा लोकोबसे ते लिंगधारीननी श्राजीविका चाले ठे ए प्रकारे तेमने उगवानो प्रकार के.
टीकाः तथा यात्राः पिनायुदेशेन नवनिरत्राष्टाह्निकाः कर्तव्याः ॥ अमुन्मिन्या मासादावमुनाश्राद्धन श्रीमतात्र देवरहे यात्राः कृतास्तस्मानवनिरपि तयैव विधेयाः ॥ तथा स्नानं
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अथ श्री संघपट्टका
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कदेवाय ? जे ते प्रकारे करी एवी पण जगवत्नी पूजाने कुशल बांधवापणुं ने ए हेतु माटे हवे सुविहित वोल्या जे जो तमे एम कहेता होतो ते न कहेवू. केम जे ए प्रकारे लोकना नदाहरणना प्रमाणपणे करीने जगवत् पूजा करेसते जगवंतना अप्रमाणपणानुं प्रतिपादन थयुं तेणे करीने मिथ्यात्व आदिकनो प्रसंग प्राप्त थाय ए हेतु माटे.
टीका-जिलुमि विजमाणे उचिए अणुजिष्यणमजुत्तं लोगाहरणं च तहा पय नगवंतवयणंमि॥ लोगो गुरुतरगो खलु एवं सश्नगवनवि इछोति ॥ मिछत्तमोय एवं एसा आसायया परमा ॥
टीका:---तथा नमसितकमुपयाचितकंन्नवतामिदानीमीहगुपजवःसमुपस्थितःसमुपस्थास्य मानवावर्तते तस्मान्नवशिस्तन्निवृत्तयेजिनगोत्रदेवताऽस्विकादिशासनसुराणामियअव्य मेषणीय मितिरहिणः प्रति जिनााद्देशेन वित्तव्ययविधापनमितियावत्॥
अर्थः-वळी नमसितक एटले वळीदानादि निमित्त मागी सीधेदुं अव्यादि एटले तमारे आ कालमां आ प्रकारनो उपजव प्राप्त थयोठे अथवा उपजव प्राप्त थशे अथवा नपनव वर्ते ने ते हेतु माटे तमारे तेनी निवृतिने अर्थे जिन गोत्रनी देवता जे शं. विका ते आदिक शासन देवताने आठदुं अन्य एपणीय ठे एटखे श्रापवा योग्य जोश्शे. इत्यादिक गृहस्थो प्रत्ये जिनादिकना उद्देशे करीने व्यनो खर्च कराववो एटलो अर्थ ठे.
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अथ श्री संघपट्टकः
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टीकार-निशाजागर उपसर्ग वर्गोपशमनाय प्रवचन वतादीनां पुरतोबल्यादिस्थापनगीतवाद्यलास्यपुरस्सरं सकल रात्रिजागरणं. ततोउंछः ॥ आदिग्रहणादन्येषामपिशांतिकपीष्टकानां संग्रहः॥ तदादीनि बलानि बद्मानि लोकोपजीवनार्थ मागमाननिहितत्वेन विलोलननिमित्तानीति यावत् ॥
अर्थ:--रात्रि जागरण एटले नपसर्गना समूहने समाववाने श्रर्थे प्रवचन देवतादिकनी आगलं बलीदान आदिकनुं स्थापन कर तथा गीत वाद्य नृत्यपूर्वक सकल रात्रिनु जागरण करवू. त्यारपळी ए पदोनो इंच समास करवो. आदि शब्दना ग्रहण करवाथी बीजा पण शांतिक पौष्टिक स्तोत्र पाउमंत्र ते पण ग्रहण करखा इत्यादिक बल लोक थकी पोतानी आजीविका करवाने श्रर्थे करे ने एटले ए सर्व नपाय शास्त्रमा नथी कह्या ते करेले माटे लोकने लोनाववानां निमित्त कारण ले एटलो अर्थ.
" टीका:-तैः करणनूतै श्वशब्दउक्तंवचनप्रकारसमुच्चये अधातुविवेकविकलधर्मेडावान् ॥ विवे किनोहि प्रायेण नैवं विधैः प्रतारयितुं पार्यते नामतः संझामात्रेण जैनैर्जिनदेवतै नतु . क्रियया ब्रष्टाचारत्वात्तेषां तेन लिंगिनिरित्यर्थः ॥
। अर्थः-च शब्दनुं ग्रहण कर्यु ले माटे पूर्वे कह्या एवो सर्व उगवाना प्रकारे करीने केवळ नाम मात्रवमे जैनी कहेवाता पर्ण कियावसे नहि. केम जे ते भ्रष्टाचारी जे माटे एंवा जे ए लिंगधारी पुरुषो ते विवेक रहितं ने धर्मनी इबावाला ने श्रद्धालु एका लोकोने
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अय श्री संघपट्टक
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(१६)
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उगे ले ने जे विवेकी लोको २ ते तो वहुधा ए प्रकारना उपाय उगाता नथी एटलो अर्थ डे.
टीकाः-शः प्रपंचप्रपंचनचतुरैः बलितइवेत्युपमानं ॥ यथा बलितःशाकिन्यादिनिर्वशीकृतस्तथाविधचैतन्यराहित्यात् सुखेन वंचयितुं शक्यते तथायमेष जनः श्राइलोको हाइति विषादे वंच्यते विप्रलन्यते ॥ महानयमस्मच्चेतसि विषादोयकर्माथिलोकोधूतः खार्थं वंचयित्वा दुर्गतौ पात्यत इति वृत्तार्थः॥१॥
अर्थः-प्रपंचनो विस्तार करवा चतुर एवा लिंगधारी शठ पुरुषो तेमणे ए लोक बल्या होय ने शुं एम उपमान कर्यु एटले जेम ग्लेलो एटले जेम शाकणी आदिके वश करेलो होय ते पोतार्नु जे चेतनपणुं हतुं तेणे रहित थयो तेथी ते सुखे बेतरवा योग्य थाय. तेम आ श्रावक लोकने पण बेतरे . हा आ तो महा खेद नरेसी वात जे आ तो अमारा चित्तमा मोटो विषाद आवे ने जे धर्मना श्रर्थी प्राणीउँने धूर्त लोको पोताना स्वार्थने अर्थे बेतरीने उर्गतिमां नाखेडे एटले बेतरीने नरकमां ढोळी पामे ए प्रकारे आ एकवीसमा काव्यनो अर्थ थयो.
टीकाः-इदानीमत्यु→खलानांनामजैनानां दशमाश्चर्यानु. नावादल्युदयं स्वविपादपुरस्तरं दर्शयन्नाह ।।
अर्थ:--हवे अतिशे उच्चूंखल थयेला एवा पण केवळ नोकमात्रपके जैनी कदेवाता जे पुरुप तेमनो वशमानयना महिमापी
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( ४७० )
- अथ श्री संघपट्टक
येलो जे उदय तेने पोताना विषाद सहित एटले खेद पूर्वक दे. खाता सता कहे बे.
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॥ मूल काव्यम् ॥
'सर्वत्रास्थ गिताश्रवाः स्वविषयव्यासक्तसर्वेप्रिया । वल्गौरवचंमदं तुरगाः पुष्यत्कषायोरगाः ॥ सर्वाकृत्यकृतोपि कष्टमधुन त्याश्चर्यराजाश्रिताः । स्थित्वा सन्मुनिमूईसूचत धियस्तुष्यंति पुष्यंति च॥२२॥
टीका :- सर्वत्रलोक समदमसमक्षं च श्राश्रवति संचिनो ति जीवः कर्म निरित्याश्रवाः पंचप्राणातिपातादयस्ततश्चास्थ गिता अनिरुद्धाश्राश्रवायैस्ते तथा । किल यतीनां सप्तदशविधसं यममध्यात्पंचाश्रव द्वार निरोधः परमसंयमस्तेनैव तेषां पंचमहा-"' व्रतधारित्व सिद्धेस्तत्वति निरंकुशत्वान्न तानि निरुंधति ॥
..
7,
प्रर्थः -- सर्व जगाए एटले लोकना देखतां प्राणातिपांत श्रादिक पांच व ते जेमणे रोक्या नथी एटले पांच प्रकारना श्राश्रवने, बाना तथा उघामा सेवन करनार जीव जे ते जेणे करीने कर्मनो संचय करे बे तेने श्रव कहीए. ए प्रकारे श्राश्रव शब्दनी व्युत्पत्ति बे. वळी यतिने सत्तर प्रकारना संयममांथी पांच प्रकारना
भवनो निरोध करतो ते परम संयम कहीए तेथे करीनेज तेमने पांच महाव्रतनुं धारवापणुं सिद्ध थाय बे पण ते लिंगधारी तो
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अथ श्री संघपट्टका
(४७)
NAMAPAN
तिशेज निरंकुश थया ने ए हेतु माटे ते महावतने पण राखी शकता नथो.
टीका:-अनिरुधाना अपिकेचन लोकापवादनिया नप्राकटयेन तत्प्रतिसे विनो जवति ॥ इमेतुनिस्त्रपतया सर्वत्र तान्य प्रतिहतप्रसरत्वेन सेवंत इति ॥ तथास्व विषयेष्वात्मग्राह्येषुरूपरसगंधस्पर्शशब्देषु व्यासक्तान्युपत्नोगप्रवणानि सर्वेजियाणि सकलकरणानि चक्षुरसनघाणत्वग्धोत्राणि येषां ते तथा ॥ य. तिना हि निगृहीतेंजियेण नवितव्यं ॥
अर्थः-महानतने न पाळनार एवा परा केटलाक लिंगधारी पुरुषो लोकापवादना जय थकी प्रगटपणे ते पांच महावतने नाश करता नथी पण निर्दयपणुं सर्व जगाए ए हेतु माटे निरंतर म. हात्तने नथी सेवता ॥ एटले बगना निरंतर पंच महान तना घातक कपटी ए लिंगधारी पुरुषो के. वली सर्व इंजिन एटले नेत्र, जिव्हा, नासिका, त्वचा, कान ए पांच इंजियो तेमना जे पोतपोताना विषय एटले ते इंजियोवमे अनुक्रमे ग्रहण करवा योग्य एवा जे रूप, रस, गंध, स्पर्श ने शव्द ए जे पंच विषय तेने विषे अतिशय आसक्त ए. टले ते विषय लोगववामा प्रवीण एवी हे सर्व इंजिन ते जेमनी, एवा लिंगधारी ने निश्चे साधुने तो सर्व इंजिन वश करवी घटे वे.
टीका अन्यथा प्रत्रयाया जीवनमात्रतापत्तेः ॥यदाह ॥ प्रसंजितानिदोक्षित्वा,स्वाति येन सुखाशया॥विषयेषुषीकाणि,
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(५२)
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अय श्री संघपट्टकः
प्रवज्या तस्य जीवन। लिंगिनस्त्वैहिकमेव,सुखं पुरस्कृत्य विषयो। विजियाणि व्यासंजंतो, यथेच्छ विचरंति ॥ तथा गौरवाएयात्म न्युत्कर्षप्रत्ययहेतवोऽध्यवसाय विशेषास्तानिच ऋद्धिरससातातिरेकहेतुत्वेन कारणेकार्योपचाराधिरससातसंज्ञान्येव त्रीणि तैश्चमास्तत्साहाय्येनोध्धुराः॥
अर्थः ने जो इंजियो वा न करे तो दीक्षा जे ते केवळ श्राजीविकारुपपणाने पामे.जे हेतु माटे कबूले जे जे पुरुष दीक्षा लश्ने सुखनी आशाए विषयने विषे पोतानी इंजियो प्रवावे ठे तेने दीक्षा जे ते आजीविकारुप थाय ने ने लिंगधारी तो आ सो. कज सुख आगळे करी एटले मुख्य करीने इंडियोने विषयमां अतिशय आसक्त करीने पोतानी वामां आवे तेम यथेष्ट एटो मनमां आवे तेम विचरे ने बळी गौरव एटले पोताने विधे उत्कर्ष जगाववानुं कारण एवा जे आत्माना अध्यवसाय विशेष ते गौरव कहीए तै ऋद्धि तथा रस तथा शाता तेनुं जे अतिशयपणुं तेना कारगजुत उ ए हेतु माटे कारणने विष कार्यनो उपचार करवायी रुक गौरव तथा रस गौरव तथा शाता गौरव तेमणे करीने श्राकरी एवा ने देन एटले ते गौरवनी साहाय्ये करीने करा देम थाय .
श्रीका:-देनी दमयतेऽगतिपातेन दुःखसंस्थाप्यते आत्माऽमीजिरितिदमा अकुशलमनोवाकायास्तएव देहिनामुत्ययप्रव.
कस्वाञ्चपलत्वाच्चतुरंगाअवास्ततश्च वलातोऽनियमिततया यइंडया प्रसरंतोगौरवचंमादस्तुरगायेषां ते तथा ॥ .
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अय श्री संघपट्टक
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(४७३)
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अर्थः-केम जे दंम शब्दनो एम अर्थ थाय ले जे श्रात्माने पुर्गतिमां नाखवावमे दुःखित करे ले तेने दंम कहीए ते अकुशल एटले सारां नहि एवां जे मन वाणी ने शरीर तेज देहधारोने उन्मार्गमा प्रवर्तववाथी ने चपळपणाथी घोमा समान कह्या ते हेतु माटे जबळता एटले नियम रहित मनमां आवे तेम गमन करता माटे गौरववमे आकरा एवा ने मन वचन ने कायारूपी घोमा ते जेमना एवा एटले जेमनां मन वचन ने काया ते सर्वे नमत डे एवा लिंगधारी.
- टीका-यथाहि तुरगा निर्वलाअपिजातिस्वाताव्याद्वगंति यदातु गौरवेण बलोपचयेन दर्पिष्टास्तदा किं वक्तव्यं ॥ एवंदंमाअपि स्वरुपणैव तावद्धरा ध्यादिगौरवत्रयसंकलित्तानां तेषां का कथा ॥
अर्थ:-जेम घोमा निर्वळ होय तो पण एनी जाति स्वन्नावधीज चंचळ होय तो पारे गौरव वळवमे मदोन्मत थाय त्यारे तो शुं कहे. एम मन वचन ने काया ते रूपो जे दंम ते पण स्व. रुपवमे एटले पोतानी मेळेज उडत ठे ते ज्यारे कति गौरव रस गौरव ने साता गौरव ए त्ररावने सहित थयां सारे तेना उचतपपानी शी वात कहेवी.
टीका:-न च यतीनां दंमत्रयोद्धासनमुपपन्नं ॥ दुर्गति. हेतुत्वेन तस्यानुचितत्वात् ॥
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४७४ )
: ॥ यमुक्तं ॥
- अथ श्री संघपट्टकः
प्रयोमनोजा पितकायदा विनिर्मितासजतिपातदंगाः ॥ नजातु कार्या यतिना प्रचंमाः समीकृताकां कृतांतमाः॥ लिंगिनस्तु गौरवोद्धुरकंध रतया सततं तान्वगयंति ॥
अर्थ:-यतिने मन वचन ने काया तेमनुं जे उल्लास करहुँ एटले गमे तेम छूटां मूकवां ते घटतुं नथी केम जे ए दुर्गतिसां पवानां कारण वे ए हेतु माटे साधुने इंद्रियो ने अंतःकरणने प्रनमां आवे तेमजे चलाव ते पण अघटित डे. जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे जे मन वचन तथा काया तेमनुं जे दमन कर ते सदूगतिमां जवानुं आलंबनरुप थाय बे ने यति पुरुषे ते मन वचन का याने प्रचंम न करवां एटले उन्मत्त गमे तेम चालनार न करवा केम जे जो एम करे तो तेज यमराजाना न जाणवा. एटलें तेज मन वचन काया नाश करनार दुर्गति पमागनार दुःख देनार जा एवां ने ए लिंगधारी तो पोताने विषे गुरुपणुं मानीने उंच खांध राखीने निरंतर ते त्रण प्रकारना गौरवने वळगी रह्या वे एटले ते गौरवनुं घणुं सेवन करवायीज पोताने विषे मोठ्या माने बे ए जावचें,
टीका:- तथा कषायाएव देयोपादेय वस्तुतत्वचैतन्यदारि 'वाडुरगानुजंगास्ततश्च धार्मिकजनसत्क्रियादर्शनासहनेन ष्यंतः प्रबलीजवंतः कषायोरागायेषां ते तथा यतीनां हि सौश्रामण्यवैफल्योत्पादनात्कषायाः कर्तुं न युज्यंते ॥ यदाहुः ॥ मुक्त्यं गनायाः क्रयणेनरण्यं श्रामण्य मुच्चैर्गुणिनां शरण्यं ॥ कृतव्यपाया यतिनाकषायाः सस्यं निरस्यंति यथा कुंवाताः ॥
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- अथ श्री संघपट्टक
( ४७५ )
अर्थ :- बळी कषाय जे ते त्याग तथा ग्रहण करवा योग्य 'एवी जे वस्तु तेनुं यथार्थ ज्ञानरुपी जे चैतन्य तेना नाश करनार वे ए हेतु सर्प मा समान वे ने धर्मिष्ट लोकनी सारी क्रिया देखी न खमाय तेथे करी वळ थता ने कषायरुपी सर्प ते जेमना एवा ए लिंगधारी बे वळी निश्चे पोतानुं जे सारं साधुपणुं तेने निष्फळ करे एवा कषाय
माटे करवा घटता नथी. जे माटे ते वात शास्त्रमां कही बे जे मुक्तिरूपी स्त्रीने वेचाथी लीधामां साधुपणुं राखवं ते मूल्य के एटले जेनी पासे साधुपणारुपी मूल्य बे तेने मुक्तिरुपी स्त्री मळे के नेवळी 'साधुवणुं जे ते गुणि पुरुषोने शरण करवा योग्य बे ने जे कषाय बे ते .यतिपणाने नाश करनार बे जेम विपरीत वायु बे ते धान्यने वगाने बे नाश करे वे तम ॥
टीका: - यत्यान्नासास्तुगुणिषु निर्निमित्तकषायकलुषितांतः 'करणा एवो पलभ्यंत इति ॥ एवंतावत् पंचाश्रवविरमणपंचें प्रियनिग्रहमंत्रय विर तिकपायचतुष्टयजयलक्षण सप्तदश विध संयमाजावेन तेपां लोकोत्तरवाद्यत्वं प्रददानीं लोकलोको - तरवाद्यत्वमपि दर्शयतीत्याह ॥
अर्थः-- लिंगधारी तो गुणवाळा पुरुषोने विषे कारण विनाज कथाrah मलिन थयां वे अंतर ते जेमनां एवाज देखाय ते ए रीते पांच श्राश्रवथी विराम पामकुं तथा पांच इंद्रियोनो निग्रह करवो तथा ऋण कथी विरति करवी तथा चार कपाय जीतवा ए . लहरा जेनुं एवो जे सत्तर प्रकारनो संयम ते ए लिंगधारीजने
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(४७६)
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अथ श्री संघपट्टकम
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विषे नथी माटे तेमने लोकोत्तर क्रिया थकी रहितपएं ते देखागयुं ने इवे लौकिकने लोकोत्तर ए बे थकीरहितपणुं लिंगधारीउनुं देखा जे.
टीका:-सर्वाकृत्यकृतोपि : लोकलोकोत्तरविरुचाब्रह्म सेवनपुष्पफलाद्युपत्नोगाद्यसदाचारकारिणोपि ॥ यदाह ॥ दगपाणं पुप्फफलं असणिजं गिहकिच्चाईअजयापमी से. वंती जश्वेसविनंबगानवरं ॥
अर्थः-जे ए लिंगधारीन सेवन करवानें काम करे ने तो पण एटले लोकने लोकोत्तरमां विरुक एवां जे मैथुन सेवां तथा पुष्पफळ आदिकनो उपन्नोग करवो इत्यादि असत् आचरण करता एवा तोपण जे माटे ते वात शास्त्रमा कही दे जे.
. टीका:-नाम जैना इति प्रकृतं ॥ कष्टं महःखमेतत् ॥
अधुना संप्रति स्थित्वा आरुह्य सन्सुनिमूर्धसु सुविहितसाधुम'स्तकेषु प्रतिपदमसूयया सुविहितानामसदोषारोपणेन लाधवो त्पादनमेव हितेषां तन्मू स्ववस्थानानतधियोनास्त्यस्मत्समो जगति संप्रति कश्चिदिति दप्पाध्मातबुद्धयः तुष्यंति सुविहितं मन्या अप्येतेऽस्मानिलघूकृता इत्याशयेन मोदंते ॥ तुष्यति च साध्वादिपरिवारेण श्राकादिपूजयाच वर्द्धते चः समुच्चये।
अर्थः-ए लिंगधारी नाम जैनी कहेवाय ने एटले नाम मात्रवके जैनी एम प्रसंगथी प्राप्त थयुं मादे अहो आतो मोटुं
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- वय श्री संघपट्टकः
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कष्ट, मोटुं दुःख बे जे हवे सुविहित साधुना मस्तक उपरथी चारोहल करीने एटले माथा उपर चमीने राजी थाय बे एटले पद पद प्रत्ये इर्ष्याव असत् दोषनुं जे यारोपण करवुं तेणे करीने लघुपणानुं जे उत्पादन करवुं तेज तेमना माथा उपर पग मुक्यो जावो ते चत बुद्धिवाला एम जाये बे जे या काळमां जगतने विषे श्रमारा जेवो कोइ नथी ए प्रकारे अहंकारवमे धमधमती बे बुद्धि ते जेमनी एवा ए लिंगधारीचं हर्ष पामे बे एटले सुविहितपणाने मानता एवा ए सुविहित साधु जे ते अमोए लघु कर्या डे एटले एमनी हलकाश करी अर्थात् एमने मोए जीत्या वे एम मानीने राजी थाय बे ने पोतानी पासे पोताना जेवा जे लिंगधारी पुरुषो तेना परिवारवमे पोतानी मोटप मानी राजी थाय बे ने श्रावकादिकनी पूजावरे अ कारप धारण करे ने चकारनो ससुच्चय अर्थ एटले ए सर्व दोष एक एक लिंगधारी मां रह्या वे.
टीका:
कथमेवं विधा श्रपि सन्मुनिमूर्द्धावस्थानेन ते तुष्यंति पुष्यंति चेत्यत आह || अंत्याश्चर्यराजाश्रिताः पाश्चात्याश्चर्य पार्थिवानुगताय तइति हेतुगर्भविशेषणं ॥ एतडुक्कं जवति ॥ नह्येवं विधाकृत्य विधायिनो महामुनीनां मस्तकेन्त्रवस्यानं कर्तुं पारयति ॥
अर्थः- दवे ए प्रकारना लिंगधारीन ठे तोपा सारा मुनिना मस्तकने विषे निवास करवो तेणे करीने केम प्रसन्न थाय ठे पुष्ट थाये एटले राजी रहे वे एम जो कहता होय तो तेनो उत्तर कड़े ते जे दशमा आश्चर्य रुपी राजानो श्राश्रय करीने ए लिंगधारीन
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अथ श्री संघपट्टक
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पंजाय ले हरंखाय जे.जे हेतु माटे दशमा श्राश्चर्य रुपी राजाने अनुसरता ए जे विशेषण ले ते हेतु गर्षित एटले ए विशेषण कडं समां हेतु रह्यो बे ए वात शास्त्रमा कही जे ए प्रकारे कार्यना ‘करनारा लिंगधारी ते महामुनिना मस्तक उपर निवास करवा क्यारे पण पार पामेज नाह एटले समथे थायज नाह. '
... टीकाः कथंचित्कुर्वाणाअपिवा न तोषं पोषंचते प्राप्नुवं
ति ॥ महामुनितिरस्कारमात्रेणापि तत्कारिणा मिहैव हाः '. निश्रवणात् ॥ यंदाद ॥ श्हेवहीलिया हाणं हसियारोवियवएं: ' अकोसिया.वहदितिमरणं दिति तामिया ॥परंचैवमनर्थकारियो
पिलिंगिनः सुविहितां स्तिरस्कृत्यापिनदति तन्नूनं दशमाश्चर्य, • "महिमायं ।।
. ... . ....'
... अर्थः-कोइ प्रकारे पण महामुनिना मस्तक उपर पग स्थापनारा पुरुषो जे संतोष प्रत्ये तथा पुष्टि प्रत्ये न पामे. केमजे महामुनिना तिरस्कार मात्रवमे पण ते तिरस्कारने करनार पुरुपनी ए जगोएज हानि थाय जे एम संनळाय जे ए हेतु माटे ते वात शास्त्रमा कही ने परंतु ए प्रकारे अनर्थना करनार एवा पण लिंगधारी जे ते सुविहितनो तिरस्कार करीने पण आनंद पामे ठे ते निचे दशमाश्चर्यनो महिमा बे. .. .
दीकाः-यमुच्यते ॥ नेकेन क्वणता सरोषपरुपयत् कृष्ण सनिने,द्रातुंतेन चेपेटमुझतधिया हस्तः समुन्सासितः॥ य.
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अथ श्री संयपट्टका
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(४७९)
बाधोमुखमक्षिणी विदधता तेनापि तन्मर्षितं ॥ तन्मन्ये विषम त्रिणो वलवतः कस्यापि लीलायितं ॥
अर्थः-ते उपर दृष्टांत कडं जे मदोन्मत्त श्रयेलो ने शब्द करतो एवो देमको काळा सर्पना मुखने विषे लापट मारवाने जे रोप रहित कठोरपणे हाथ नगामे ने ते सर्प आंखो मीची नीचे मुख करी ते देमकानो अपराध सहन करे ले ते वळवान एवों कोइक पण विष मंत्रवाळो पुरुष तेनुं लीलाचेष्टित ठे एम हुं मार्नु डं एटले कालो सर्प देनकानो मार खाय ते विषमंत्रवाळा पुरुषनो प्रजाव तेम सुविहित साधु जे ते लिंगधारीोर्नु अपमान सहन करे ते दशमाश्चर्यनो महिमा डे पण ए लिंगधारीओनो महिमा नथी.
. टीका:-ततश्च यथानीचापिकेचन किंराजादे स्वामिनोऽवटनेन महतामपिमू:स्वारुह्यपुष्पंति ॥ एवमेतेपि दशमाश्चर्यमहिना महामुनीन् परिनूयापि पुष्यंतीत्यपि शब्दार्थः॥ .
अर्थः-वळी जेम केटलाक नीच नगरा पुरुषो ते राजा. दिक लोकमां मोटा कहेवाता होय तेतुं श्रालंबन करीने मोटा पु. रुपना माथा उपर पण आरोहण करीने खुशी थाय एम था लिंग. धारी पण दशमा आश्चर्यना महिमावसे ते मोटा मुनिने पण पराजय करीने हर्ष पामे एम अपिशब्दनो अर्थ वे.
. टीका:-तथाच प्रकरणकारे रेवाऽन्यत्रा निहितं ॥ अर
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(१०)
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अय श्री संघपट्टका
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समपुरंतरयपासरासी, इसमसमयई जोतुमसप्पजावें ॥ जमिहकवकूमासाहुलिंगीगुणडेपरिनविय पहुत्तं जतिनंदंतिदुरं एतच्च महत्कष्टं, नहिमहामुनीनामेवं पराभवः कर्तुमुचित इति वृत्तार्यः ॥॥
. अर्थः-वळी प्रकरणना करनार पुरुषेज बीजो जगाए कद्यु जे मोटा मुनिनो ए प्रकारे परात्तव करवो घटतो नथी ने ते करे ते ते मोटुं कष्ट . ए प्रकारे श्रा बावीसमा काव्यनो अर्थ थयोश्य
टीका-सांप्रतं ते प्रत्यहं सर्व विरतिरूपप्रत्याख्यान - नंगकरणेन तपश्चरणायनाचं प्रतिपादयन्नाह ॥
अर्थः-हवे ते लिंगधारीउतुं निरंतर सर्व विरतीरुप पचखाणर्नु जे नागतेणे करीने तप तथा चारित्र तेनो अनाव एटले नाश तेने प्रतिपादन करता सता कहे हे.
॥ मूल काव्यम् ॥
सर्वारनपरिग्रहस्य गृहिणोप्येकाशनाद्येकदा । प्रत्याख्यायनरदतो हदिन्नवेत्तीबानुतापस्सदा ॥ . षट्कृत्व स्त्रिविधंत्रिधेत्यनुदिनं प्रोच्यापिनंजति ये। तेषां तु कृतपः क्वसत्यवचनं क्वझानिता व व्रत॥३॥
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अय श्री संघपटक
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(४४१)
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टीका सवारंजपरिग्रहस्य सकलसावधव्यापारधनधान्यादिसंग्रहतत्परस्य गृहिणोपिश्रामस्याप्यास्तां महामुनेरित्यपिशब्दार्थः ॥ एकाशनं अंतर्दिवसमेकवारनियमितनोजनः प्रत्याख्याननेदस्तदादिर्यस्य निर्विकृतिकादेस्तदादिप्रत्याख्यान।।
अर्थः समस्त जे सावध वेपार धन्य धान्य आदिक तेनो जे संग्रह तेने विषे तत्पर एवो जे गृहस्थ श्रावक तेना पण अंतरमा एकासणुं प्रमुख पञ्चरकाण नागीने पश्चाताप थाय तो मोटा मुनिना अंतरमा पश्चाताप थाय तेमांशुं कहेवू एम अपि शब्दनो अर्थ ठे एकासणुं ते शुं तो दिवसमा एकवार नियम प्रमाणे जोजन कर, एवो जे पञ्चरकाणनो नेद ते आदि ते जेने एवं जे निर्विकृतिकादिक ॥ एटले विग न वावरवी इत्यादिक, जे पञ्चरकाण तेने॥
टीका:-एकदा कदाचिदष्टम्यादितिथिषुप्रमादवाक्ष्येन नित्यप्रत्याख्यानाजावात् प्रत्याख्याय नियम्य तदपि कदाचित् कृतमेकासनादि न रकतोऽनाजोगसहसाकारादिना न पालयतो जंजतश्त्यर्थः हृदिचेतसि लवेजायेत तीब्रो निष्टुरोऽनुतापः ॥
अर्थ:-क्यारेक करतो एवो श्रावक एटले अष्टमी श्रादिक तिथिने विषे पञ्चरकाण करतो केमजे घणा प्रमादथी नित्य पञ्चरकाण करतो नथी एवो जे श्रावक ते पण क्यारेक करेलु एवं एकाशनादि तेने न पाळतो एटले अजाणे सहसात्कारादिकवमे नागतो एवो ए प्रमादी श्रावक तेना चित्तमां पण अतिशय याकरो पश्चात्ताप चाय जे में श्राशुं कयु.
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(४८२)
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अथ श्री संघपट्टका
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. टीका:-बहुना कालेन तावदद्यप्रत्याख्यानं कृतं ॥ तदपि मयामंदनाग्येन जग्नमतो धिग्मां कथंमे शुधिविष्यतीत्येवं रूपः पश्चात्तापःसदासर्वदा यावदू नंगप्रायश्चितं गुरुन्योनासादयति ॥ षट् कृत्वस्त्रीन् वारान् सायंतनप्रतिक्रमणे त्रीश्चप्रगेतन प्रतिक्रमणे इति षट्वारान् संख्याया वारेकृत्वस्तद्धितः॥ त्रिविधं विधेति ॥ अनेन सामायिक सूत्रमुपलक्ष्यति ॥ किलसाधवः सायं प्रातश्च प्रतिक्रमणे सामायिक सूत्रमुच्चारयंतः त्रिविधं त्रिविधेनेति पति ॥
अर्थः-अहो में घणे काले आज पञ्चरकाण कयु ते पण मंद जाग्यवाळो हुँ जे तेणे नाग्यु माटे मने धिक्कार ने मारी पाप शुद्धि केम थशे इत्यादि रुप पश्चात्ताप निरंतर करे ने ज्यां सुधी ए पञ्चरकाणतुं प्रायश्चित गुरु थकी नश्री पाम्यो त्यां सुधी पश्चाताप करेले ने जे लिंगधारी ते तो उवार एटले सायंकाळना पमिकमणा वखत त्रणवार ने प्रातःकालना पमिकमणा वखत त्रणवार एम बवार त्रिविध त्रिविध इत्यादि सामायिक सूत्रने निश्चे उन्धारण करता सता त्रण प्रकारे त्रिकरण शुछिए सावधनुं पञ्चरकाण करें .
टोका:-यथा लवं सावजंयोग पञ्चरकामि जावजीवाएतिविहंतिविहेणं सणेणं वायाए कारणमिलादितित्र त्रिविधमिति तिस्रो विधायस्येति त्रिविधं कृतजारितानुमतलक्षणं विधति त्रिविधेन करणेन मनोवाकायरुपेण सावा पोगं प्रत्याख्यामि ॥
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मय श्री संघपट्टका
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इत्येवंरूपतया अनुदिनं प्रतिवासरं प्रोच्याप्यनिधाय प्रतिज्ञा यापीत्यर्थः ॥
अर्थः--जेम मन वचन काया ए त्रणे करीने त्रणे प्रकारे जावजीव सर्व सावययोगने हुँ पन्चरकाण करुं दुं इत्यादि तेमा त्रण प्रकार ते जेना तेने त्रिविध कहीए एटलेत्रण प्रकारे करवू, करावq ने अनुमोदना करवी एडे लक्षण जेनुं एबुं मन, वचन कायाए करीने सावद्ययोगनुं हुं पञ्चरकाण करुनु ए प्रकारे नित्य पञ्चरकाण करीने पण एटले नित्य वोलीने प्रतिज्ञा करीने पण जागे ठे एटसो अर्थ .
टीका:-अप्रतिज्ञातानुष्ठानस्यहि नंगेनापि न तथा दोष इत्यपिशाब्दार्थः जतिखमयंति ये लिंगमात्रवृत्तयस्तेषां तुहिपोन्नेदप्रदर्शनार्थः ॥ क्वशब्दाः सर्वेप्यक्षमाव्यंजकाक्षेपार्थाः ॥ तपोऽनशनादि ॥ नित्यप्रत्याख्यानस्य सर्वसावद्ययोगविरति रूपस्य सकललोकसमदमन्युपेतस्यन्नंगदर्शनेन नैमित्तिक प्र. त्याख्यानस्यापिकथंचितोकपंक्त्याविहितस्योपवासादेलंगानु मानान्नास्त्येव तेषां क्वचित्तपः
अर्थः-ने जे अनुष्टाननुं पञ्चरकाण कयु नथी तेनुं जे ना. गई तेणे करीने तेवो दोष लागतो नथी. जेवो पच्चरकाण करीने तेने जागतां दोप लागे ठे. ए प्रकारे अपि शब्दनो अर्थ ठे जे विं. गमात्र धारण करीने केवळ पोतानी आजीविका मात्र करे तेते. मने तपतो क्यांचीज होय. तु शब्द जे ते गृहस्थथकी ते लिंगधारी
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अथ श्री संघपट्टका
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जुदा जे एम जणावे ने ने 'सर्वेक' शब्द ले ते अक्षमाने जणावे के एटले तिरस्कार ले अर्थ ते जेनो एवा ले. अर्थात् ए सिंगधारीनने तिरस्कार के जेने तप नथी, तप एटले अनशनादिक जाणवू ने सर्व लोकनी समक्ष अंगिकार करेलुं सर्व सावद्ययोग विरतिरुप जे नित्य पश्चरकाण तेनु नागवं प्रत्यक्ष देखाय . तेणे करीने लोकपंक्तिए एटले लोकलज्जाए कर्यु एवं जे नैमित्तिक पञ्चकाण एटले कोई तिथीने विषे उपवासादिक तेनुं पण अनुमाने जाग जणाय ने माटे ते लिंगधारीजने कांइ पण तपज नथी.
टीका-यहा वस्तुगत्यापितपःकुर्वतांतेषांतपोनास्त्येव ॥ तामलिवत् ॥ षट्कायोपमानां तपसो विफलत्वेनानिधानाता क सत्यवचनं ॥ तथ्यवाक् ॥ सर्वं सावायोगं न करोमिश्त्यायनिधाय पुनस्तत्रणमेवतनिषेवणात् प्रत्यक्षमृषावादिता प्रसंगेनांशेनापिसत्यवचनानावात् ॥
अर्थः -अथवा कदाचित् तपकरता एवा पण ते सिंगधा. रीने वस्तुगतिए तप नथीज, तामली तापसनी पेठे. केमजे उ. कायर्नु उपमईन करनार प्राणीउनु तप निष्फळ थाय ने एम शास्त्रमा कहेवापऍ डे ए हेतु माटेवळी ते पुरुषोने सत्य वचन पण क्याथीज होय. केमजे सर्व सावध योग नहि करूं इत्यादि कहीने पण तत्का ज ते सावय योगर्नु सेवन करे ने माटे प्रत्यक्ष मृषावादपणुं जणा
ने मृषावादना प्रसंगनो अंश मात्रथी पण सत्य वचन होय । असत्य थाय ने ए हेतु माटे साक्षात् असत्य वचननी तो शीवार कहेवी. शति नाव ॥
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9 भय भी संघपट्टका
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टीका:- यमुक्तं ॥
न करेमित्तिनसित्ता तं चेवनिसेवई पुणो पावं ॥ पश्चरकमुसावाई माया नियमीपसंगोय ॥
एवं च यदा प्रव्रज्यावसरोक्तस्यसविरतिविषयस्यतधनस्यासीकत्वं तदा वस्त्वंतरविषयस्य तस्य का सत्यत्वसंजावनेति सर्वथानृतन्नाषिणएवत इति ॥
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही जे जे पाप नहि करूं एम कहीने तेज पापने वळी सेवे ते प्रत्यक्ष मृषावादी ने बाह्य मा. याने अन्यंतर माया तेनो तेमने प्रसंग थाय ने माटे ज्यारे दीक्षा बखते सर्व सावद्य योगनी विरतिरूप पोतानुं बोलेढुं वचन असत्य पयुं त्यारे बीजी वस्तु संबंधी जे तेमनुं वोलवू ते सत्य संन्नवेज क्यांची माटे ए लिंगधारी सर्वथा असत्य नाषिज बे.
टीका:-क्व ज्ञानिता सिद्धांतरहस्यपरिछेतृत्वं ॥ ज्ञानस्यहिफसं विरतिस्तस्याश्चसातशीलतया तैःसमूलमुन्मूलनात्तथा च कथंचित्सतोपिज्ञानस्याऽकिंचित्करत्वेन तदानासत्वातहान गंभोपि तेषां नास्तीति ॥
अर्थः-वळी ते सिंगधारीने सिद्धांतनारहस्यनुजाणपणं पणक्यांधीजहोय केम जे ज्ञानचें फळ तो विरति ने ते विरति तो शाताशीक्षपणे ते लिंगधारीए मूळमांधीज उखामी नांखी ते एहेतु
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अथ श्री संघपट्टक
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माटे वळी कोइप्रकारतुं कांइकज्ञान हो तो पण ते ज्ञान का कर समर्थ नथी केम जे ए ज्ञान नथी ए तो ज्ञाननो थानास जणा माटे ते लिंगधारीनने ज्ञाननो गंध पण नथी ए वात सिमथर
टीकाः- यमुक्तं ॥
सुबहुँपि सुयमहीयं किं काही चरण विप्पहीणस्स ॥' . अंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोमीवि। .
अर्थः -तें वात शास्त्रमा कही जे जे अतिशय घणे एवं ए जे शास्त्रनुं नणंदुं ते चारित्ररहित एवा पुरुषने शुकरी शकशे कई पण नहि करी शके जेम आंधळानी आगेळ सो हजार करो एवा पण दीवा प्रदीत कर्या पण ते अंधने उपकार जर्षी नथीं तेंवें चारित्रहींण पुरुष नण, जे.
टीका:-क्व व्रतंदीक्षादीकोपादानेपिप्रत्याख्यानजंगादशीकशाषणेन दीक्षायाअपार्थक्यापादानातं तेषांनास्तीति शायदाही लोएवि जो संसूगो अलियं सहसा न जासई किवित
अहदिरिकवि श्रलियं नासा तो किंच दिकाए ।
अर्थ-वळी ते लिंगधारीजने दीक्षा पण नथी केम जे दीक्षा ले तो पण पञ्चरकाण- जाग तेथी तथा असत्यं त्रापथ करवं तेथी दीक्षानुं निरर्थकपणे थायं ले ए हेतु माटे तेमने दीका
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9 भय श्री संघपटक
(१८७)
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नथी ते वात शास्त्रमा कही जे जे लोकने विषे सारो पुरुष होय ते पण सहसात्कारे कां जूटुं न बोले ने अहो आलिंगधारीए तो दीक्षा सीधी तो पण जुठं वोले ते माटे ए दीकावमे शुं? कंपण नहि. प दीक्षा लीधी ते न लीधा जेवीज थइ इति नाव ॥
टीका:-अनचासकृत्क्वशब्दोपादानेन लोके लोकोत्तरे च तत्तपःप्रवृतेस्तपस्त्वादिकं न संजवतीतिज्ञाप्यते ॥ तेनायमाशयः ॥ यदाकिलगृहिणोपिसंततं गृहारंजसंरंनरतत्वात् प्रमादनरनिराअप्यन वगतलिझांततत्वाअपि कदाचित् प्रत्याख्यान नंगेनैवमनुतप्यते तदा सुतरां यतीनां सर्वसावद्ययोगविरतानां विदितागमसाराणां कथंचिहिरतिनंगे पश्चात्तापः प्रायश्चित्तग्रह. श्च युक्त येतुनिःशूकतया तांनजतो मनागलजामपिनादधति तेषांनास्त्येव तपःप्रनृतीतिवृत्तार्थः २३॥
अर्थ:-आ जगाए वारंवार व शब्दनु जे ग्रहण कर तेणे करीने लोकने विषे तथा लोकोत्तरने विषे ते लिंगधारी जन जे तप आदिक तेथकी तप आदिकपणुं संन्नवतुं नथी एम जणावे . एटले ए लिंगधारीउनु जे तप ते :निष्फळ डे अर्थात् एम जे तप नथी, बत नथी इत्यादि अर्थने क्व शब्द जणावे ठे ते हेतु माटे आ अजिप्राय प्रगट जणाय जे जे ज्यारे गृहस्थ ते पण निरंतर घरना थारंलने विपे मग्न ठे ते हेतु माटे प्रमादना समूहने विपे जरपुर बुमेला ठे ने नथी जाएयु सिद्धांतनुं तत्व ते जेमणे एवा तो पण क्यारेक पच्चरकाणनुं नागवु थाय तो तेणे करीने अतिशय परितप्त थाय ते त्यारे सर्व सावध योगथी विराम पामेला ने जाएयो ते
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(१८)
अथ श्री संघपट्टक
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आगमनो सार ते.जेमणे एवा यतिने तो कोइ प्रकारे विरतिनो नंग थये सते पश्चात्ताप थवो जोइए तथा प्रायश्चितनुं ग्रहण कर ते युक्त ने जे निःशूकपणे ते तपादिकने जागता सतालगार मात्र सजा पामता नथी माटे ते लिंगधारीने तप आदिक काश्पण नथी ए प्रकारे श्रा नेवीसमा काव्यनो अर्थ थयो. ॥३॥
- टीका:-दानी तेषां लोकोपहासादिपुरः सरं जिनपथपरिपंथिवं वृत्तव्येन प्रकटयन्नाह ॥
अर्थः-हवे ते लिंगधारीउनु लोकमां उपहासादिक थाय लेते पूर्वक जिनमार्गथी जे उलटापणुं ने तेने बे काव्ये करीने प्रगट करी कहे .
॥ मूल काव्यम् ॥ देवार्थव्ययतो यथारुचिकृते सर्व रम्ये मठे नित्यस्थाः शुचिपहतूलिशयनाः सजब्दिकाद्यासनाः ॥ सारंजाः सपरिग्रहाः सविषयाः सेाः सकांदाः सदा साधुव्याजविटा अदो सितपटाः कष्टं चरति व्रतम् ॥३॥
इत्याद्युइत सोपहासवचसः स्युः प्रेक्ष्यलोकाः स्थिति, श्रुत्वान्येनिमुखाअपि श्रुतपथाझैमुख्यमातन्वते॥ मिथ्योक्त्यासु सुदृशोपिविभ्रति मनः संदेहदोलाचलं, येषां ते ननु सर्वथा जिनपथ प्रत्यर्थिनोमीततः॥ ३५ ॥
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. अय श्री संघपट्टक
(४९)
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टीका:-येषां स्थिति प्रेक्ष्य लोकाः सोपहासवचसास्युरि. ति संबंधः ॥ कथमित्याह ॥ अहोइति विस्मये सितपटाः श्वेतांबराः कष्टं पुष्करं चरत्यनुतिष्टंति व्रतं प्रवज्यां महदाश्चर्यमेतत् यसितपटाः कलावप्येवं विधंवतकष्टमनुन्नति ॥ नहि संप्रतितनैमानवैरट्पसत्वरेवंविधं कष्टं कर्तुं शक्यते ॥
अर्थः-जे लिंगधारीनी स्थिति देखीने लोक जे ते उपहासे सहित थाय ने एटले ए लिंगधारीननी हांसी करे ने ए प्रकारनो संबंध जे ते कये प्रकारे करे ले तो त्यां कहे जे श्रहो थातो मोटुं आश्चर्य जे आ श्वेतांवर यती लोक पुष्कर व्रत पाळे बेजे हेतु माटे कळिकाळमां पण आ प्रकारचें दीक्षा कष्ट श्रनुजव करे ने एतो मोटुं श्राश्चर्य आ काळना अल्प वळना प्राणी ए प्र. कारनुं कष्ट करवाने नथी समर्थ थता.
टीका:-अथच सर्वैरप्येवंरूपं व्रतं कर्तुं पार्यतएव सुखहेतु. वादित्युपहासः ।। अथ कथमेवमुपहासस्तेषांतैः क्रियतश्त्यतआह ॥ साधुव्याजेन यतिबद्मना विटाः खिजाः नामीसाधवस्तवक्षणायोगात् ।। किंतुतघ्याजेनविटाःसकलतबकणोपपतेः।
अर्थः--ते कहेवामां आ प्रकारको लोकनो अभिप्राय ने जे सर्व लोक पण या प्रकार व्रत करवाने समर्थज ठे केम जे ए व्रत तो सुखनुं कारण ए हेतु माटे. इत्यादि लिंगधारीने देखीने सोक इसे ठे वली कीये प्रकारे लोक लिंगधारीतुं नपहास करे वे ते को ले जे थातो साधुनो मश लश्ने एटले उपरथी सा.
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8. अथ श्री संघपट्टक
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AAMKARAN
धुनो वेष बनावीने जणाता विट पुरुष ने एटले वेश्यापति डे नावार्थ जे खुच्चा, उच्चका, ठेल, व्यभिचारी एवाए पुरुष डे पण साधु नथी. केमने साधुना लक्षणमांथी एके लक्षण आलिंगधारीउँमा देखातुं नथी त्यारे शुं देखाय ले तो केवल साधुनुं कपट करीने वर्तता व्यनिचारी पुरुषो देखाय ने केम जे समस्त व्यनिचारी पुरुषोनां ख. कण एमने विषे प्रत्यक्ष देखाय डे ए देतु माटे.
टीका:-तदेवाहादेवार्थव्ययतो देवगृहाधिपत्येन तविपस्यतदधीनत्वात् जिनवित्त विनियोगेन यथारुचि रुचेः स्वेच्छाया अनतिक्रमणेत्यव्ययीनावः स्वमनोनिलाषानुरूप मित्यर्थः कृते निष्पादिते सर्व रम्ये संकलवसंतादिरूपताविनक्तकामविशेष मनोहरे म प्रतीत॥
अर्थः तेज कही देखा जे जे लिंगधारीने देवमंदिनु प्रधिपतिपणुं तेणे करीने देवजव्य ए लिंगधारीनने स्वाधीन डे ते हेतु माटे जे प्रकारनी पोतानी इच्छा एटले रुचि ले ते प्रकारे करावेलो ने सर्व वसंतादि ऋतुने विषे मनोहर एटखे जे जे का. समां जे जे वस्तुथी सुख थाय ते प्रकारे करावेतो जे सुंदर प्रसिद्ध मठ तेने विषे.
टीका- तथाह्यत्रजालिकाशुपिरविशच्छिशिरचारुमारुत विहितजीष्मग्रीष्मपृथुदवथुमथितशरीराप्यायनानि तुंगता संपा. दितसंचरिष्णुजनतोऽधूतरथ्यारजःसंपातनायनानि वातायनानि॥
अर्थः-ते सुंदरपणुं कही देखामे ले जे ए मठने विवे ए.
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मच श्री संघपटक
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टसे पोताने रदेवाना स्थानने विषे श्रा प्रकारनां सुंदर जासीयां मूकावे . ते केवां ने तो जे जालीयांना लिजमांथी प्रवेश करतो ने शीतल एवो जे सुंदर वायु तेणे करीने कों ने आकरा मीष्म ऋतुना घणा घामथी आकुल यतुं जे शरीर तेनी पुष्टि ते जेमणे एवां ने वळी ते जाली केवां वे तो मारगमां चालनार लोकोए उमामी जे रस्तानी रज ते जेम न पमे ए प्रकारे जेतुं चंचापर्यु संपादन कयु डे एवां एटले देव अव्यवझे पोताने रदेवाना स्थानमा नुष्णकालमा सुख थवाने वास्ते ऊंची बारीयो तथा जातीयोनो तालमेल वनावे ने शतिनावः ॥
टीका:-निरुकप्रावृषेएयवरेएयजलदपटल विगसद विरख सखिलधारासारा विचित्रचित्रशालिकासारा विटंकोदंकित दंतकलना वसन्नयः॥
अर्थः-वळी वर्षाऋतुमा पोताना सुखने अर्थे ते जगार सुंदर मेघथकी पतुंजे घणुं जल तेनी धाराऊना कणिया रोकावाने वास्ते उपर थाहादनवाळां उजां करावे ठे.
टीकाः-अनवन्तालेयकणसंवलितहैमनपवन स्पर्शलेशानिशीथिन्यामपि सुखप्रवेशा अपवरकदेशाः ॥ एवं च कथं न सर्व रम्यता मठस्य ॥
अर्थ:---वळी शियाकामा हिमना कणीयावमे मिश्रित मा
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- अय श्री संघपटकः ।
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येतो. जे अति शीतल वा तेना स्पर्शनो देश जेमा न थाय ने रा. त्रिए पण जेमां सुखनोप्रवेश एवाजेमांसुंदर उरमा जे.एप्रकारनो 'पोतानो मठ सर्व काळमां सुखकारी केम न होय.
टीका:-तथा च तत्र नित्यस्थाः सततवासिनः ॥ सुवि' हिताहि देवव्योपलोग नयाद्यतिनिमित्तनिर्मितत्वेन महा: सावद्यत्वाच्च मठे नवसंति किंतुयाचिते याशिताशि परग्रहादा..वेव तत्रापिनानवरतं.वसंति ॥
अर्थः-वळी ते स्थानकने विषे निरंतर निवास करता एवा, लिंगधारी ने सुविहित साधु जे ते तो देवव्यनो उपनोग थाय ए. जयथकी यतिने निमित्ते निपजाव्यो ने ए हेतु माटे ने महा सावद्यपणुंडे ए हेतु माटे त्यां नथी वसता त्यारे क्या वसे जे? तो मागी लीधे, जे तेवू पारकुं घर तेने विषेज निवास करे तेमां.पण निरंतर निवास नथी करता.
टीका:-नित्यवासित्वप्रसंगानित्यवासस्य च यतीनां श्रा... द्धादिप्रतिबंधलाघवादिहेतुत्वेन प्रतिषेधात् ॥
. ॥.यमुकं ॥
पनिबंधो बहुयत्नं न जणुवयारो न देसविनाणं ॥ नाणाराहण मेए दोसा अविहारपरकंमि ॥ . ... .
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.
..
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- जय श्री संघपट्टक
(४९३)
अर्थ :- केम जे नित्य निवासपणानो प्रसंग थाय ए हेतु माटे ने साधुने श्रावकादिकनो प्रतिबंध थाय तेथी लघुता श्रादिकनी प्राप्ति थाय ते वात शास्त्रमां कही वे जे जो साधु विहार न करे तो ते पक्षमां आटला दोष रह्या वे जे प्रतिबंध थाय तथा लघुता थाय तथा लोकोनो उपकार न थाय. तथा नाना प्रकारना देशनुं विज्ञान न थाय तथा आज्ञानुं आराधन न थाय.
टीका:- उद्यत विहारस्यैव ममकाराद्युच्छेद निमित्तत्वेनानि-धानात् ॥ यदा ॥ श्रनिययवासो समुयाणच रिया श्रन्नाय उ पयरिकयाय ॥ श्रप्पोवही कल विवाणा य विहारच रिया इसिसत्या ॥
अर्थः-- जे विहारना उद्यमी बे तेनेज ममत्वनो नाश घाय ते शास्त्रमां कथं जे जे मुनिने विहार चर्या करवी ते प्रशस्त बे एटले वखापवा योग्य बे केम जे एक जगाए नियमाए निवास थइ न जाय तथा घणा घरनी गोचरी थाय तथा अज्ञात गोचरी थाय एटखे श्रापनार तथा लेनार परस्पर नळखे नहि तथा शुद्ध श्रहार मळे तथा प्रतिरिक्तपणुं थाय. एटले स्त्री पशु नपुंसके रहित एवं स्थान मले तथा अप उपधि याय तथा कलनो त्याग थाय ए सर्व गुण मुनिने विहार करतां प्राप्त थाय वे.
टीका:- एते सातपटतया मठे नित्यकृत स्थितयो वासंतीति कथं न जयंति विटाः॥ तथा शुचयो निर्मलाः महतू
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मब भी संघपटक
. लाः पट्टांशुकसंवीता हंसरुतादिमयाः शय्याविशेषाः ॥ यहा . पट्टाः श्रीपा दिदारुनिर्मिता स्ता शयनंशयनीयं येषां ते तथा॥
साधवोहि कंबलादिसंस्तारक एव शेरते न पहतूल्यादिषु तासां प्रमाजनायशु विजूषासातशीलत्वव्यंजकत्वालोकोपहासहेतुत्वाच॥
अर्थः-श्रा लिंगधारी तो सातासुखमां लंपट बे ए हेतु माटे मन्ने विषे नित्य निवास करी रह्या डे ने विलास करे ले माटे ए विट पुरुष एटले व्यभिचारी पुरुष केम न होय वळी निर्मळ सुंदर तला नारे सारां वस्त्रना उबामे सहित तरेहवारनी शय्यान सुवानी सामग्रीमां जेमने देखाय डे एवा अथवा शीशम श्रादिक काष्टना पलंग सुवाना जेमने बे एवा. निश्चे साधु तो कांबली
आदिकना संथारामां सुवे ते पण कां नारे नारे गोदमां तलाइ पसंग पाथरणां वगेरेमा सुता नथी केम जे तेवी वस्तुनुं पूजवू अभिलेह थ शकतुं नथी माटे श्रशुद्धपणुं रहे जे ए हेतु माडे तथा शोलाने जणावनार तथा साता सुखशीलपणाने जणावनार के ए हेतु माटे तथा लोकोमा उपहास थवा, कारण ले ए हेतु मादे,
टोकाः-एतेतु तत्र शयाना विटत्वं प्रकटयंति ॥ तथा साब्दिकाद्यासनाः ॥ शोन्ननगब्दिकामसूरकादिविष्टरजाजः ॥ गब्दिकायुपवेशने चदोषा मुनीनां प्रागेवोक्तामासारंजा मनवाटिकाकृष्यादिमहासावद्यव्यापारकरणकारणप्रवणाः सपरिमहाः गृहिवाणिज्यादिप्रयोजनने धन्यधान्यस्नेहादिनांकसंग्रह परापणा .
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- अथ श्री संघपट्टकः -
( ४९५ )
अर्थः- लिंगधारी तो पूर्वे कढ़ी एवी तलाइनमां सुबे ठे माटे पोतानुं व्यभिचारीपणुं प्रगट कही पे ठे वळी सारी गा. दी जे मशरु, मुखमल, कीनखाप, साठी, गजीयाणी, सेलां श्रादिकनी गादी श्रासन तकीया वगेरे वस्तुनो उपभोग करे बे ने मुनियोने तो गादी श्रादिक श्रासन उपर बेसवार्थी घणा दोष लागे
ते पूर्वे का देवळी ते लिंगधारीयो आरंभ सहित बे एटले aa तथा वामी तथा खेती इत्यादिक जे महासावद्य वेपार तेनुं कर तथा कराव ते विषे तत्पर बे वळी ते लिंगधारी यो परिग्रह सहित बे एटले गृहस्थनी पेठे वेपार यादिक प्रयोजनने कारणे धन तथा धान्य तथा स्नेह एटले घी, तेल, दिवेल इत्यादिक वस्तु तथा पात्र ते सर्वनो जे संग्रह करवो तेने विषे तत्पर बे ॥
टीका :- स विपयाश्चक्षुरादीं प्रियानुकुल नर्त्तकी दर्शन तांबूलास्वादनचंदनाद्यंग रागगंधर्वगीतश्रवणादिविषय सततानुषक्त चेतसः ॥ सेर्ष्या विषयासक्तत्वात्कामुकवत् ॥ स्वानिमतां यो पितमन्येन साई मालापादि विदधानामवेक्ष्य तं प्रत्य
ऽक्षमानाजः ॥
अर्थः वळी ते लिंगधारीयो विषय सहित बे एटले नेत्र श्रादिक इंडियाने अनुकुळ एटले इंडियाने श्रानंदकारी जे नाटिक करनारी बीश्रो तेनुं जे देखतुं तथा तांबूलनुं नक्षण कर तथा चंदनादिकनो अंगराग करवो तथा गंधर्वनुं गीतगान सांजळ इ. त्यादिक जे विषय तेने विषे निरंतर श्रासक्त वे चित्त ते जेमनुं एवा बळी ते लिंगधारी ओ इप्पीए सहित ने एटले कामी पुरुबनी पेठे विषयासक्त ए हेतु मादे पोतानी मातेली स्त्री तेने वीजा पुरुषनी
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(४९)
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अथ श्री संघपट्टका
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संघाथे थालाप संसापादि करतां देखीने ते प्रत्ये क्षमावाला न थता एटखे इर्ष्या करता एवा.
टीका:--सकांक्षाः संजोगविलासाच्यासात् प्रतिक्षणं नवनवोपजायमानरिंरसोत्कलिकाः ॥ आरंनादयश्चयतीनां बहुदोषत्वादनेकधानिषिझाएव सदा सर्वदा ॥ विषयाणांमना दिनवान्यासात्कदा चित्सन्मुनेरपि कस्यापिचेतो विकारमात्रं प्रा. पुष्यात् ॥
अर्थः-वली ते लिंगधारीओ आकांक्षाए सहित डे एटः संजोग करवानो तथा विलास करवानो अभ्यास ने ए हेतु माटे क्षणे क्षणे नवी नवी रमवानी इच्छाओ जेमने उठे डे एवा साधुने प्रारंज आदिकनो अनेक प्रकारे निषेध डे केमके एमां बहु दोष. पपुंज डे ए देतु माटे निरंतर विषयनो अनादि कालनो श्रन्यास हे ए हेतु माटे क्यारेक कोइ पण सारा मुनिना चित्त प्रत्ये पण विकार मात्रने प्रगट थवापणुं ने माटे पुर्वे कयां जे कारण ते मुनिने सेववा योग्य नथी.
टीकार-यमुक्तं ॥ नवि अस्थि नविय होही पाएणं तिहुयणमि सो जीवो ॥
जो जुषणमणुपत्तो वियाररहि सया हो॥ .... अर्थः ते वात शास्त्रमा कही जे जे एवो कोइ जीव प्रण जयमा बहुधा नथी तथा थशे पा. नहि जे यौवन अवस्था पामीने
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8. अय श्री संघपष्टका
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(४२७)
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विकार रहित सदाकाल एटले निरंतर होय ॥
टीकाः--नतु सर्वदा ॥ तदैव तेषां ज्ञानांकुशेन स्वचित्तमाकृष्य मिथ्याउःकृतादिप्रायश्चित्तातिपत्तेः॥ एतेतु एगागिय. स्स दोसा, इत्थी साणे तदेव परिणीतिरकविसोहिमहत्वयातम्हास विइजाए गमणमित्याचागमनिनिकाकिविचरणादिनाऽ सुबृंखलतयाच सदैव मन्त्रविकारजाज इतिसाधूक्तं साधु व्याजविटा इति ॥२४॥
अर्थ:----माटे ज्ञानरुपी अंकुशव पोताना चित्तनुं श्राकर्षण करी मिथ्या :कृत आदिक प्रायश्चित्तनुं अंगीकार करवं तेने सदाकाल भणकरतो एडवो. आलिंगधारी निरंतर काम विकारनेज मजे ले केम जे शास्त्रमा निषेध कर्यु एवं जे एकाकि विहार करवापणुं इत्यादिकने अतिशय उत्शृंखलपणे एटले मदोन्मत्तपणे करे ले ते एकाकि विहार उपर शास्त्रतुं वचन जे एका कि विहार करनारने स्त्री संबंधी तथा श्वान एटले कुतरां लम्बन्धी तथा शत्रु सम्बन्धी दोप नत्पन्न थाय ने तथा लिक्षानी शुद्धि थती नथी तथा महानतनो नंग थाय ठे माटे एकाकि विहार करवानो त्याग करवो माटे जे सिंगधारीने.साधुना मिपथी जणाता व्यनिचारी पुरुष का ते वात युक्त के. ॥२४॥
टीकाः-इति उक्तप्रकाराणि श्रादिशब्दा दन्यान्यप्येवं प्रायाथि विभवनाव्यंजकानि बचांसि गृह्यते ॥ ततश्च इत्यादी
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( १९८)
- अथ श्री संघपट्टक
न्युद्धतानि बहुजनवदनस्य मुद्रयितुमशक्यत्वान्निःशंकतयो झटानि सर्वत्राऽस्खलितानी तियावत् ॥
अर्थ:- एम पूर्वे कह्यां एवां आदि शब्दथी बीजां पण बदुधा एज प्रकारनां विबणाने जलावनारां वचन ग्रहण करीए बीए ते हेतु माटे घणा उद्धत लोकनां वचन थाय डे केमजे बहु लोकना मुखने रोकवा नथी समर्थ थता माटे निःशंकपणे अतिशय प्रसिद्ध कोई जगाए रखलना न पामतां एवां लोकनां वचन ए लिंगधारीJने देखीने उत्पन्न थाय बे.
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टीका:- सोपहासान्युत्प्रासनांजि वचांसि वचनानि येषां ते तथास्युर्न युकाः प्राकृतजनाः कुतीर्थिकनाविताश्च जैन
पथमत्सरिणः प्रेक्ष्य साक्षात्कृत्य येषामिति पदं तूर्यपाद स्थितं सकलं वाक्यंदीपयति ॥ तेन येषां स्थिति मित्यादि संबंध्यते ॥
अर्थ:- एटले जे लिंगधारीनने साक्षात देखी कुतीर्थनी जेमने जावना वळगी बे एवा प्राकृत मत्सरी लोक उपहास सहित वचन ते जेमनां एवा थाय बे येषां ए पद या काव्यना चोथा चरणमा रसुंबे पण सकल वाक्यने दीपावे वे ते हेतु माटे जे लिंगधारीनी घटित स्थिति देखीने लोक उपहास करे ठे एम संबंध थाय बे.
टीका:-स्थितिं यत्यनुचितमसमंजसमाचारं ॥ स्वरूपेणैव तावन्मत्सरिणः सर्वस्याप्युपहासं कुर्वति किंपुनः संप्रति निरतिश
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अय श्री संघपटक
MPMKAM
यस्य जिनशासनस्य तत्रापि लिंगिनां तथारूपं वैशसव्यवहारं वीक्ष्य कथंकारं न कुर्युरित्यर्थः॥
अर्थः-मत्सरि पुरुष पोताना स्वजावेज पोतानी मर्यादाने न घटतो एवो श्राचार देखीने सर्वन उपहास करे ने तो सर्वोपरि जे जिनशासन तेनुं वर्तमानकाळे उपहास करे तेमां तो शुं कहेर्नु तेमां पण लिंगधारीजनो ते प्रकारनो हिंसक व्यवहार देखीने केम उपहास न करे एटलो अर्थ के.
टीका:-तथा श्रुत्वाकर्य येषां स्थिति अन्ये अपरेड निमुखाः शेषदर्शनेन्यः सकलोपपत्तिकलितमिदं जैनदर्शनं यतयोप्यत्रदर्शने शांतात्मानः क्रियानिष्ठा चोपलन्यते ॥ ततोऽ स्माकमपीदमंगीकर्तु मुचित मिति चेतसान्युपगमविषयीकृत जिनशासना स्तेपि श्रासतां तदपरश्त्यपेरर्थः ।।
अर्थः-वळी जे लिंगधारीनी स्थिति देखीने वीजा पण एटले जैन दर्शनने सन्मुख थयेला लोक पण विमुख थाय ठे एम वागळ संबंध ते एम जाणता इता जे सर्व दर्शनथी सकळ कळानी सिद्धिये सहित श्रा जैन दर्शन केमजे या दर्शनमा यति पप शांत चित्तवाळा ठे तथा क्रियानिष्ट देखाय ए हेतु माटे श्रमारे पण या दर्शन अंगिकार कर घटित ठे एम पोताना चितवमे जिन शासननो अंगिकार करीने रह्या एवा पण जे लोकते विमुख चाय ठे तो वीजा थाय एमां ते शुं कहे, एम अपि श. मनोर्थ .
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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• टीका:-श्रुतपथाज्जैनसिद्धांतमार्गात् वैमुख्यं एतावंतमनेहसं वयमज्ञाः स्याल यदेतदेव तात्विकं धर्मदर्शनं निरपवादं ॥ परंयत्राप्येवं विधासदाचारकारिणो विलोक्यते ॥ तदालमनेन ताम्रहिरन्मयालकारदेशीयेनांतनिः सारेण वहिर्मात्रिमनोहरेण ॥ सर्वथा प्राक्स्वीकृत मेवास्माकं दर्शनं श्रेयः॥
अहो जैना ‘अन्यथावादिनोऽन्यथाकारिणइत्यादिवचनसंदर्जेण• पराङमुखत्वं सर्वथा बहिर्नाव मिति यावत् आतन्वते दर्शयति॥
अर्थ:-जिनना सिद्धांत थकी विमुखपणुं शी रीते पामे तोते कहे जे जे श्रमो आटला काळ सुधी अज्ञानीज इता. जे हेतु माटे अमो जाणता हता जे निर्वाध 'यथार्थ धर्म दर्शन तो बाज डे पण जे दर्शनने विषे आ प्रकारना असत् आचरण करनारादिंगधारी देखाय ले माटे ए दर्शनवमे सयुं श्रातो उपरथी सोनाए रसेतुं तांबाना आजूषण जे मांहेथी निःसार ने केवळ बारणेथी मनोहर जगातुं आ जैन दर्शन माटे सर्वथा पूर्वे अंगिकार करेलुं आपणुं दर्शनज सारं अहो आतो माटुं आश्चर्य जे था लोकतो बोले ने जुएं ने करे ले जु, इत्यादि वचनना समुहने कहेता सता सर्वथा जैन दर्शनथी वहिर्नाव एटले जैन दर्शननो त्याग करी देखा .
टीका तथा येषां मिथ्योच्या मृषावचनेन ॥ तेहि स्खलिताचारत्वेन सर्वशंकितत्वात् असमंजसचेष्टितं प्रति केन चित् पृष्टा स्संतो मलिम्बुचवदलीकं नापते॥ यथा कएवमाह। नवयमेवं विधकारिण इति ॥ ततश्च प्रत्यक्षोपलक्षितदोषापड
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अब श्री संघपट्टक
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वातादृशामेव वाहुल्येन दर्शनाञ्च किमित्याह ॥
अर्थः--वळी जे लिंगधारीनना मिथ्या वचने करीने संदेह उत्पन्न थाय ठे एम श्रागळ संबंध डे ते लिंगधारी मिथ्या वोले देते कहे केमले निश्चे ते पुरुषो पोताना आचारथी ब्रष्ट ले ए हेतु माटे एमने देखीने सर्वने शंका उपजवापणुं रघु ने ए देतु माटे कोइ न करवानुं काम करेगुं देखीने कोश पुरुषे पुढे सतेचो. रनी पेठे जुलु बोले जे कोण एम कहे श्रमो ए प्रकार करीए एवा नशी. त्यार पडी प्रत्यक्ष दीगो ने 5ळख्यो एवो जे दोष तेने उळव्यो ए हेतु माटे तथा ते लिंगधारी मध्ये बहुधा ते प्र. कारनुं ओळददापणुं देखाय जे ए हेतु माटे शुं थाय ले ते कहे डे.
टीका:-सुशोपि सम्यग्दृष्टयो जिनमतांतःस्थापि प्रायशः किंपुनरन्यश्त्यपेरथः ॥ वित्रति धारयति कुर्वतीतियावत् मनश्चेतः संदेहदंकिमेवमन्यथावत्युत्नयकोटयुल्लेख्यन वधारणज्ञानं सएवैकत्रानवस्थितरूपत्वसाधादोला पंखा तपा चल मेकत्राऽस्थास्तु ॥ यथादोलारूढं वस्तु तस्याश्चलत्वाचसमेवं सुदृशाम पिमनः ॥
अर्थ:-जे समकित दृष्टि जिन मतमा रह्या नेते पण संशयतुं धारण करे तो वीजाने संशय थाय तेमां ते शुं कहे र श्रपि शब्दनो श्रर्थ दे. एटले ते लिंगधारी नहुँ मिथ्या वचन सांजलीने समकिती पुरुषोनुं मन पण संश्य करे ठेले शुंश्राम.हशे के बीजे प्रकारे इशे एम वे प्रकारना तर्कवमे निश्रय रहित जे ज्ञान
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१५.१)
अय श्री संघपट्टका
तेने संदेह कहीए. तेहिज एक जगाए रहेतो नथी माटे हिंदोला स. मान चंचळ बे. एक चंचळ वस्तुने विषे रही जे वस्तु ते चंचळज कहीए. जेम हिंदोलो चंचळ ले तो तेने विषे रही जे वस्तु ते चंचळज होय तेम संदेड्नु स्वरुप चंचळ ले तो तेने पामेदं समकित दृष्टिजेनुं मन ते पण चंचळज होय. :
. टीका:-पूर्वह्यस्मानिर्जनमतं वाक्क्रिययो रविसंवादि
स्वरूपं धर्मकथादिष्वाकर्णित मिदानीत्वंशेनापिन तथोपसच्यते॥ • तत्किमिदं वास्तवमवास्तवं वेति संदेहाधिरूढत्वान्न जैनमते
अढीमानं निवनाति ॥अथवा संदेहने. करणजूतेन दोलावच्चला , तात्पर्य तु पूर्ववत् ॥ येषां नामजनानां तेऽमी संप्रति सर्वत्रप्रसृ-.. तत्वात्पुरोवर्तिनः नन्वित्यक्षमायां पार्श्ववर्तिसुहृदामंत्रणेवा ॥ सर्वथा सर्वैः प्रकारै र्जिनपथप्रत्यर्थिनो जगवन्मतप्रत्यनीकानतु,केनापि प्रकारेण तदनुकूलाअपि ॥
अर्थः-ते शी रीते तो ते एम कहे जे जे पूर्वे तो श्रमोए जैन मत जे ते वापि तथा क्रिया तेने विषे विसंवाद रहित ले स्व. रुप जेनुं एवं धर्म कथादिकने विषे सांनळ्यु हतुं एटले जेतुं वाणीए कहे जे तेज क्रियावने दीगमां आवे एवं जैन मत एम सां. मन्यु हतुं पण हालमांतोवंश मात्र पण तेम देखातुनथी. एटले मुखे वोले जुडं ने चाले जे जुडं माटे विसंवादि जैन दर्शन जणाय नेते माटे या ते शुं वस्तुताए एमज डे के नथी. ए प्रकारना संदेह उपर मन चमेलुं ने मारे जैन मतने विषे समकित दृष्टियोवाळानुं पण मन दृढपणे बंधातुं नथी अथवा संदेहे. करीने समकित दृष्टि
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4मय श्री संघपट्टका -
(५०३)
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उनु पण मन हिंदोलानी पेठे चंचळ थाय वे ने एमां तात्पर्य तो पूर्वनी पेठे जाणवू जे नाम मात्र जैनी ते सर्व जगाए पसरेला डे ए हेतु माटे श्रा समीप रहेला एम प्रत्यक्ष निर्देश कर्यो ? ननु श्रव्ययनो पक्षमारुप अर्थ ने एटले अमो ए विपरितपणाने सहन करता नथी अथवा पासे रदेला मित्रोतुं संवोधन कहेनारो ननु शब्द जाणवो ए लिंगधारीन तो सर्व प्रकारे जिनमार्गना वैरी एटले जगवंतना मार्गना शत्रु ले पण को प्रकारे जिन मार्गने अनुकूल नथी.
टीका:- जैनदर्शनोपदासतदजिमुखवैमुख्यापादनादिना जिनसाशनानुपचयहेतुत्वेन वस्तुतस्तेषां तच्छेदकत्वात् ॥ येपांचापराधेन शशधरकर विशदे नगवलासने लोकोपहासवि. पर्यासादयो दोषाः प्रामुःष्यति तेऽनंतसंसारिणः सिकाते प्रति. पादिता महापापीयस्त्वात् ॥
यमुक्तं ॥
दोसेणजस्त श्रयसो आयासो पवयणेय अग्गहणं ॥ विप्परिणामो अप्पच्चोयकुचाय नुप्पज्जे ।। पवयण मणुपेहंतस्स निबंधस्सतस्स लुचस्स ॥
बहु मोइस्स जगवया संसारोपंतश्रोन्नपिओ ॥ तत इत्येतत्पदमये वृत्तादौ संत्स्यत इति वृत्तध्यार्थः ॥२५॥
अर्थः-नलटा जैन दर्शननु उपहास करावनारा ते ने जे
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अप भी संघपट्टका
जिन दर्शनने सत्मुख थयेला तेमनुं विमुख पणुं करवू इत्यादि दोषे करीने जिन शासननी हानि करवाना कारणिक ले माटे वस्तुताए ए लिंगधारी जिन मतना उछेदक ने कमजे जे लिंगधारीजना थपराधे करीने चंडमाना किरण सरखं नजलु जिन शासन तेने विषे लोक उपहास करे तथा जिन मार्गथी विपरीतपणुं पामे श्यादिक दोष प्रगट थाय ने तेथी सिझांतने विषे एवा पुरुषो अनंत सं.. सारिक कह्या ले केमजे अतिशे महा पापी ने ए हेतु माटे.
टीका:-सांप्रतं कुपथवर्तिनां: विधिपथं प्रत्येकांतिकीमात्यंतिकी निरुपमा च मनसोकृष्टता. मुपलव्य तमुत्पादं चेतरजनमनः कारण सामच्या असंजावयं स्तशिलक्षणांतजुत्पादकारणसामग्री संन्नावनाधारणाह।
अर्थः-हवे कुमार्गमा वर्तनार एवा लिंगधारीजना मननी विधि मार्ग प्रत्ये एकांतपणे अतिशय उपमाये रहित जे उष्टता एटले अष्टपणुं.तेने देखीने एप्रकारनुं उष्टपणुं बीजा लोकना मनरूपी समस्त कारण ते थकी संभवतुं नथी एम धारीने ए प्रकारतुं पुष्ट मन थर्बु तेनी. कारण सामग्री को प्रकारनी विलक्षण संजवे ने एवी संजावना करता सता ग्रंथकार संतावना' धारवके ए लिंगधारीउना मननी पुष्टताने कहे जे एटले. एकांतपणे अतिसेज विहि मार्गना ३षी एवा ए लिंगधारीजना मननी उपमा रहित जे पुष्टर ते शीशी वस्तु नेळी थश्ने निपजी बे एम तर्क करता ग्रंथका कहे जे शतिनावः ॥
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जय श्री संघपट्टका
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॥ मूल काव्यम्॥ सर्वैरुत्कटकालकूटपटलैः सर्वैरपुण्योच्चयैः सर्वव्यालकुलैः समस्तविधुराधिव्याधिदुष्टग्रहैः॥ नूनं क्रूरमकारि मानसममुं उमार्गमासेऽषां दौरात्म्येन निजघ्नुषां जिनपथं वाचैषसेत्यूचुषां॥२६॥
टीका:-ततः शब्दस्य प्राक्तनवृत्तस्थस्येह संबंधात्तेन य. तोऽमी सर्वथासत्पथं प्रति उष्टचेतसस्ततस्तस्माखेतोः किमि त्यादः॥ नूनमिति संन्नावनायां । अहमेवंसंन्नावयामि॥ यावंत्यतिपुष्टवस्तूनि जगति संति तावन्निईमार्गमासेषां रं मान समकारीति संबंधः॥
अर्थः-पूर्वना काव्यमां ततः ए शब्द रहेलो तेनो या जगाए संबंध ले तेणे करीने जे हेतु माटे ए.लिंगधारी सर्व प्रकारे सन्मार्ग प्रत्ये पुष्ट चितवाळा . ततः कहेतां ते हेतु माटे शुं ययं ते कहे जे हुँ एम संतावना करुं हुं के जे जेटली पुष्ट वस्तु जगत्मां ठे तेटली वस्तुवमे इष्ट मार्गने पामेला एटले नन्मार्गे चालनारा एवा लिंगधारीननु क्रूर एटले महा आकरूं मुष्ट मन कयु . एटले निपजाव्युं एम संबंध ठे.
टीकाः कथमन्यथा तन्मनसोऽतीव क्रूरता ॥ इतर जन मनः साधारणकारण सामग्रीतस्तदनुपपत्तेः कारणानुरूपत्वात् कार्यस्य ॥ नहि न्यग्रोधवीजान्पिचुमंद प्ररोहः ।। केस्तेरित्यार।
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६०६)
- जय श्री संघपट्टकः
सर्वैः सकलैरुत्कटकालकूलपटले नूतनत्वादत्युग्रसद्योघाति विषदसमूहैः ॥ एक द्वित्र्यादिभिरनुत्कटैश्चकालकूटशकलै स्तत्पटले व तादृकू क्रूरमनसोजनयितुम शक्यत्वादेवमुक्तं ॥ एवमुत्तरपदेष्वपि योज्यं ॥
अर्थः- जो प्रतिशे क्रूर वस्तुवने ते लिंगधारीजनुं मन न निपजान्युं होत तो तेमना मननी अतिशेज क्रूरता क्यांथी होत, केमजे बीजा लोकना मनने साधारण सामग्री होत तो एटले जे वस्तुथी वीजा लोकतुं मन निपज्युं बे तेज वस्तु सामग्रीथी ए लिंगधारीर्जनुं मन नीपज्युं होत तो श्रा प्रकारनी जे अतिशय क्रू रता ते न होत माटे जेवुं कारण होय तेवुंज कार्य थाय बे. कारण - ना गुण कार्यमा आवे बे जेमके वरुना बीजथी लीं मानो अंकुर नीपजतो नथी. हवे की या कीया ते कारण जेथी ए लिंगधारीननुं मन नीपज्युं बेतेने कहे बे जे समस्त श्राकरां जे कालकूट फेरनां दांते करीने नवुं ने अतिशे करूं ने तत्काल नाश करे एवा जे विष तेना जे भेदना समूह तेणे करीने अतिशय आकरां जे न होय एवां जे केर तथा एक, बे ने त्रण आदिक जे कालकूट केरना कमका अथवा दलीयां तेणे करीने ते ते प्रकारनं क्रूरपणुं नीपजाaj शक्य वे एटले अतिशे क्रूरपणुं यइ शकतुं नथी माटे सम स्त कालकूट केर लइने ए लिंगधारी जनुं मन उत्पन्न थयुं ने जेबी तेने विषेतिशेज क्रूरपणुं जणाय डे माटे सर्व पदनुं ग्रहण कर्यु बे, एम आगळनां पदने विषे पण योजना करवी एटले जोक.
टीका :- सकल काटकूल पटलैरेव केवलैः प्रकृतमनसः कर्त्तुमशक्यत्वादपुण्योश्चयैरित्यादि वाक्यावतारः ॥ ततः सर्वे
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अथ श्री संघपट्टक
(५०७)
रखिले रपुण्योच्चयैः पापराशिनि सर्वव्यालकुलैरशेषाशीविष संदोहैःसमस्तविधुराधिव्याधिष्टाहैः कृत्स्न व्यसनचेतः पीमागदमंगलादिपापग्रहरे निरखिलैऽष्टेरेकसामग्रीमावेन संन्नूय क्रूरं सन्मार्गधातुकं मानसं चेतः अकारि निर्ममे ॥
___ अर्थः-समस्त कालकूट केरना समूहवमेज केवळ ए सिं. गधारीउना मननी क्रूरता करवाने असमर्थपणुं बे ए हेतु माटे पापना समूहबसे निपजाव्यु ले. वळी एटलाजवके अतिशय क्रूर न थयुत्यारे समस्त सर्पना समूहवसे निपजाव्यु ए प्रकारे धागके श्रागळ वाक्य जे जे कहीए बीए तेनो अवकाश जाणवो. ते माटे समस्त पापना समूहवमे निपजाव्युंठे तथा समस्त महा फेरी सर्पना समूहबके निपजाव्युं ले तथा समस्त कष्ट तथा समस्त मननी पीमा तथा समस्त रोग तथा पापग्रह ए सर्व अति उष्ट सामयो एकवी करीने ए लिंगधारीउनु सारा मार्गने हणनारं मन निपजाव्युं .
टीका:-क्रूररूपस्य मनसो निर्माणं विधेयमत्र एतेनास्य मनस इतरमनोनिः साजात्यमपिनिरस्तमित्येतदपि संज्ञावयामि । स्तरमनोविलक्षणसामग्रीजन्यत्वेन वैजात्योपपत्तेः ॥ नदि मृपिकदमादितंतुवेसादि विसदृशसामग्रीजन्ययोर्घट पटयोः साजात्यं नाम । तथाच तन्मनसः कदाचिदपि न शुन्न जावतापतिः ॥ नहि जूनिवस्य शर्करानावः शिल्पिशतेनाप्यापा. दयितुं शक्यते ॥ तत्कस्यहेतोः खस्वसामय्या विजातीय तयेव तयोरुत्पत्ते रिति ॥
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अब श्री संघपट्टक
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अर्थःथा जगाएं, ए लिंगधारीउँनुं मन' क्रूररुप निपंजा. वेलु एम स्थापन कयुं तेणे करीने ए मनन वीजा लोकना मननी साथै सजातिपणुं हर्तुं एंटले सरखापणुं हतुं ते पण निवारण कयु माटे एम' पण संजीवनी करु ढुंजे बीजा लोकना मनथी कोई विवक्षण सामग्रीवके ए मन नत्पन्न थयु ले माटे विजाति , केम जे मृतिकानी पिम तथा दंम इत्यादि कारणथी घट नपन्न थाय ने. तथा तांतणा तथा तेमनी मेळवणी करनार काष्ट इत्यादि सामग्री बने पट उत्पन्न थाय ने ते वेनी कारण सामग्री जुदी जुदी में तो तथी उत्पन्न थयु में कार्य ते पण जुई जुउँ विजाति . पण स. जोति नथी एंटले सरखों नयो एटले मृतिकादिकथी पटं उत्पन्न थती नथी ने तातणाव घट उत्पन्न थता नथीने घटने पट न के हवाय, ने पटने घट न कहेवाय निश्चे तेम ते लिंगधारीनना मनने क्यारे पण शुनं नावनी प्राप्ति थती नथी कमजे सेंकों प्रकारनी चतुराई करें तो पणे करीतानी साकर करवाने समर्थ न थवार्य: माटे पोतपोतानी सामग्रीयो विजातिपणे लिंगधारीनु मन तथा लोकनुं मन ते कया हेतुथी सरखापणे जाणीए 'अपितु' को कारपथा जणाय एम' नथी एंटलें कालकूटादि सामग्री थकी उत्पन्न थयेख में लिंगधारी जनुं मन ते लोकना' मन जैबु केमे कवाय
ति जावः
को अथवा मनःसिमेव ॥ तस्य तु क्रूरत्वं विधयो त कालकूटीदितिः सायं ॥ श्रथास्मिन्पर्श क्रूरत्वस्योंपोधिकत्वात् अपंगमप्रसंगों वस्त्रादिषु महारंजनरागस्य तथा बनादितिचेत न नपाधिकस्यापिधर्मस्य कयाचित्सामग्या जन्य
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* अथ श्री संघपटक
(५९)
मानस्यामपगमदर्शनात् ॥ यथा पट्टांशुकादिषु नीलीरागस्यौपा. धिकस्यापिन कदाचिदपगम इति ॥ तमुपपन्न मेतन्नूनं ऋरमकारि मानसमिति ॥
अर्थः-श्रथवा लिंगधारीजना मनने विषे पोतानी मेळे करपण् सिंद्धज के केम जे ते मनने क्रूरपणुं जे ते तो विशेषण संपठे एटले लिंगधारीनुमन केवु दे तो क्रूर ले ए प्रकारना विशे पणे सहित डे ते कालकूटादि जे हेतु तेणे करीने साध्य ने एटसे अनुमान प्रयोगे करीने साधवा योग्य , हवे ए पढ़ने विषे क्रूरपपाने उपाधिपणुं ने ए हेतु माटे क्रूरपणाने नाश पामवानो प्रसंग थशे जेम वस्त्रादिकने विपे नारे रंगनो नाश थाय ते प्रकारे क्रूरपरगानो नाश प्राप्त थशे त्यारे ए अनुमान प्रयोग खोटो थशे. केम जे जे हेतु उपाधि सहित होय ते खोटो थाय माटे एम जो तमे श्राशंका करता हो तो ते न करवी केम जे उपाधि संबंधी जे धर्म तेने पण कोई प्रकारनी सामग्रीवमे नत्पन्न थवापणुं तेनो नाश नयी थतो. एम प्रत्यक्ष देखवामां आवे ने ए हेतु माटें जेम को वनादिकने विषे गलीनो रंग जो पण उपाधि दे तो पण क्यारेय नाश नथी थतो ए न्याये करीने लिंगधारीउनुं मन कालकूटादिवो क्रूर ययु ले ते को दिवस नाश पामे एवं नश्री माटे ए वात सिक थर जे लिंगधारीननु मन कालकूटादिकवने निपजेतुं ठे मारे - तिशय क्रूर है.
टीका:-अमुं प्रत्यदं उर्मार्ग कुपयं आतेऽपामन्युपेयुः सिंगिनां तनक्तानां चेतिशेषः ॥ ननु जवतुतेषां रमन
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(५१०१
-4 जब श्री संघपट्टक
स्तथापि किं न चिन्नमित्यतश्राह ॥ दौरात्म्येन दुष्टाशयत्वेन निजधनुषामुच्चि विदुषां जिनपथं भगवत्प्रणीतं सत्पथं ॥ सन्मार्गव - र्त्तिनामुपसर्ग करणेन वस्तुतो जिनमार्ग जंशय जिस्तैर्बह्नस्माकं विन्नमित्यर्थः ॥
अर्थः- प्रत्यक्ष जणातो कुमार्ग तेने पामेला एवा लिंगधारी तथा तेमना नक्त ते वेनां मन महा क्रूर बे त्यां श्राशंका करी कहे बे जे तेमनां मन क्रूर बे तो पण तेमां आपणुं शुं बेदायुं एटले पशुं शुं गयुं. ए जगाए उत्तर कहे वे जे दुष्ट बुद्धिए करी ने जगवंते कडेला मार्गनो उच्छेद करवाने इवता वस्तुताए उपसर्ग करीने जिनमार्ग तोमी पाकता जिनमार्गथी ऋष्ट करता एवा लिंगधारी आपणुं घणुं बेधुं वे एटले आपणुं घणुं वगामयुं बे. एटलो अर्थ:
टीकाः - श्रथ जिनपथं निघ्नतां तेषां द्विजादीनामिव किंदर्शनांतर परिग्रहणमतांतरप्ररूपणा ॥ नेत्याह ॥ वाचा वचनेन स्वमतिकल्पितमपौद्दे शिक भोजनादिमार्ग एष सः प्रयमेवस जिनप्रणीतः पंथा नान्यः इति एवं प्रकारेण उचुषां श्रभिदधुषां न तेषां न दर्शनांतरस्थाः स्वमतंत्र रुपयं ति। तत्स्थैर्जिन पथवर्त्तिनो जनस्य प्रतारयितुमशक्यत्वात् ॥
प्रर्थः वळी शंका करी समाधान करे बे जे जिन मार्गने हणनार एवा ते लिंगधारीनी पोताना मतनी जे प्ररूपणा ते शुं ब्राह्मणादिकनी पेठे - बीजा दर्शननो अंगिकार करवो तेथे करीने
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मय श्री संघपट्टका
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मतांतरनी प्ररुपणा दे तो त्यां कहे जे न कहेतां ते ब्राह्मणादिकनी पेठे नथी, आ तो पोतानी कपोल कल्पनाथी पोतानी मतिए कटपेलु जे वचन तेणे करीने श्राधाकर्मादि आहारादिक ग्रहण क. रद् ए प्रकारना मार्गने पण एम कहे जे जे आज जिनराजनो कहेलो मार्ग ने पण वीजो नथी. ए प्रकारे कहे ते पण वीजा दर्श. नमा रहेला जे ब्राह्मणादिक ते पोताना मतने एम कहेता नथी.जे
आज जिनराजनो मार्ग ,माटे वीजा दर्शनमा रहेला लोको जिन मार्गमा रहेला लोकने बेतरवा समर्थ थता नथी ए हेतु माटे लिंगधारीननी प्ररुपणा ते ब्राह्मणादिक अन्य दर्शनी जेवी केम कद्देवाय ?
टीका:-कित्वस्मिन्नेव दर्शने वेषमात्रेण स्थिताः स्वप्ररुपितं कुमार्ग जैनमार्गतया वदंतो मुग्धलोकं व्यामोहयंतीत्यर्थः ॥ ए .. तावता संरंक्षण सत्पथं प्रत्यतीवप्रत्यनीकत्वं तेषां प्रकटितं॥ च सेत्यत्र सशब्दाद्विसर्जनीयलोपे संधिप्रतिषेधेपि तदःपादपूरणे संधिरिति विशेषलक्षणेन संधि विधानमिति वृत्तार्थः ॥२६॥
अर्थः-वळी शुं श्राज दर्शनने विये वेप मात्र धारण करी. ने रहेला एवा लिंगधारी पोताना प्ररुपण करेला एवा कुमार्गने जैनमार्गपणे कहेता एटले या अमो कहीए ठीए एज जैनमार्ग वे एम कहीने लोळा लोकने नमावे ठे, मोह पमामे ते एटलो अर्थ: ए लिंगधारीनुं श्राद्धं वधुं कहे तेणे करीने सन्मार्ग प्रत्ये एमर्नु अतिशेज शत्रुपणुं ठे तेने प्रगट करी आप्युं श्रा काव्यमां सेति ए जगाए स शब्दयी विसर्जनीयनो लोप करे सते संधिनो निपेध तो पण तत् शब्दनो जे संधि कर्यो ते पादपूरणे संधि ए सत्रमा
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अथ श्री संघपट्टका
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rammarwaKAARAKWANAam
विशेष लक्षण कधू ने तेणे करीने संधि कयों ए प्रकारे आ-काव्यतो अर्थ थयो. ॥२६॥
टीका:-श्रतक्त्यंतरापदं व्योरप्यनयोवृत्तयोःसंबंधयोजनार्थ तच्चाग्रिमवृत्तस्यादौ योदयते ॥ इदानीं तेषां वचतमात्रममि विवेकिनः श्रोतुं न युज्यत इत्याह ॥
अर्थ:-श्रतः ए प्रकारचें पदबे काव्यनी वच्चे मूक्युं लेते वे काव्यनो संबंध परस्पर जोमवाने अर्थे जे तेने आगबु काव्य कहेता पहेलां जोमीशुं. हवे ते लिंगधारीनंनुं वचन मात्र पण विवेकीने सांनळ योग्य नथी एम कहे जे. एज कारण माटे ए लिंगधारीलो साचा मार्गधी अतिशेज विपरीत चाले जे ए हेतु माटे.
॥ मूल काव्यम् ॥ दुर्नेदस्फुरदुप्रकुग्रहतमः स्तोमास्तधीचक्षुषां । सिहांतषितां निरंतरमदामोहादहमानिनां ॥ नष्टानों स्वयमन्यनाशनकृते बरोद्यमानां सदा मिथ्याचारवतां वचांसि कुरुते कर्णे सकर्णः कथं ॥३॥
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टीकायत एवनामैते जिनपथं प्रतिदुष्टा अतोऽस्मादेतोः किमित्याह ॥ तेषां वचांसि कुपथप्रतिपादकानि बचतानि करते विधत्ते को स्वश्रवणे सकर्णःसश्रोतः अथच सहृदयः कथं केत प्रकारेण न कथंचिदित्यर्थः॥
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-8. अथ श्री संघपट्टका
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अर्थ:-जे हेतु माटे एलिंगधारीन निश्चे जिनमार्ग प्रत्ये पुष्ट ठे ए हेतु माटे शुं करतुं ते कहे . जे ते लिंगधारीजनां जन्मार्गने प्रतिपादन करनारां वचन पोताने काने सांजळे ते पुरुष कानवाको केम कदेवाय? वळी हृदय सहित पण कीये प्रकारे कहेवाय? केम जे जे हैयानो शून्य होय तेने हृदय सहित केम कहीए? कोइ प्रकारे न कहीए एटलो अर्थः ॥
टीकाः-नहि सकर्णस्य कर्णकटूनिस्पृष्टपरमर्माणि वच. नानि खलानां श्रोतुं युक्तानि॥किंतु कर्णयोरेतदेव फलं यत् पीयूषवर्षका अपहसितमुक्ताः सतां सूक्तयः श्रूयते ॥अथ च सकपर्णस्य प्रेदावतःकुपथवर्तिनां नाषितानि कर्णे कर्तुं न युज्यते॥ तवणस्य साधूनामपि मिथ्यात्वनिबंधनत्वेनानिधानात् ॥
अर्थः-कर्ण सहित जे पुरुष एटले सारा पुरुष तेमना कानने कमवा लागे ने पारका मर्मस्थानने स्पर्श करनारां जे खळ पुरुषोनां वचन ते सांजळवां घटित नथी. त्यारे शुं सांगळवू घटित ठे तो काननू एज फळ ते जे अमृतने वरसतां ने मोतिने नपहास करतां एवा सत् पुरुपतां सारां वचन तेज सांचळवा युक्त दे. इवे कान सहित जे बुझिवान पुरुप तेने. कुमार्गमा रहेनार पुरुषोनां वचन काने सांजळवां घटित नथी. केम जे ते वचन साधु सांजळे तो तेने पण मिथ्यात्वन कारण थाय एम शास्त्रमा कदेवं ते ए हेतुमाटे.
टीकाः॥ यशक्तं ॥ एनुचिय तेसि मुवस्तयंमि तुमिवसससागउँ साह ।। तेसिं धम्मकहाए कुणा विधायं सइवलंमि ॥
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अब श्री संघपट्टका
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शहरा उएर कन्ने तस्सवणा मिचमेश साहवि ॥ अवलोकि मुजो सट्ठो जीवाजीवाश्यणजियो॥
टीका:-कीदृशामित्याह ॥ दुर्नेदो निवमत्वाद् दुरुन्जेदः स्फूरन्मनसि संततावस्थिततया जागरुक उग्रो दृढः कुग्रहश्चैत्यवासादिप्रतिष्ठापन विषयो मिथ्यानिनिवेश स एवतमस्तोमः सत्पथदर्शनांतर्कायकत्वादधतमसपटलं तेन अस्तं उन्नंधीः प्रेक्षा सैवसत्पथ प्रकाशकत्वाचदुर्लोचनं येषां ते तथा तेषां।यथा तमस्तोमेन तिरोहितं चतुःपंथानं न पश्यति तथा तेषामपि धीः कुंप्रदेण तिरस्कृतत्वानसन्मार्ग मृगयते ॥
अर्थः--ते लिंगधारी केवा ने तो जेमना मनने विषे अतिशय गाढ रह्यो डे माटे महा दुःखथी दाय एवो ने निरंतर रह्यो डे माटे जागतो एवो जे महा आकरो कदाग्रह एटले चैत्यवास आदिकनुं जे स्थापन कर, तेने विषे जे मिथ्यानिनिवेश एटले मिथ्यात्व तेहिज अंधकारनो समूह केमजे साचा मार्गने जाएवानुं अंतान करे . ए हेतु माटे गाढ बांधलं करनार अतिशय अंधकार तेना समूह जेवं जे ए मिथ्यात्व तेणे करीने ढांक्यु ने बुझिरुपी नेत्र तेजेमतुं एवालिंगधारीन ने साचा मार्गने प्रकाश करनारी बुद्धि माटे बुद्धिरुपी नेत्र कडं जेम: अंधकारवमे ढंकायेल नेत्र ते मार्गने न देखे तेम ते लिंगधारीननी बुद्धि कदाग्रहवमे तिरस्कार पामी डे ए हेतु माटे साचा मार्गने खोळती नथी.
टीका:-सिद्धांतहिषतां तविपर्यस्तार्थप्ररुपणया तदुच्छेद
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मय श्री संघपट्टका
(५१५)
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प्रवृत्तत्वादागमवैरिणां निरंतरमहामोहात् व्यसनातिरेकाऽविवेकात् श्रमिति निपातोऽस्मदर्थे । ततश्च वयमेव श्रेष्टा नास्म समः कश्चिदित्यात्मानं मन्यताये ते अहंमानिनस्तेषां विवेकिनां हि गन्नीरत्वेन महति गुणगणे सत्यप्यनुत्लेकात् ॥
अर्थः-वळी ते लिंगधारी केवा ले तो सिद्धांतना द्वेषी एटले सिमांतनो जे अर्थ तेथी विपरीत जे अर्थ तेनीप्ररूपणा करे ठे ए हेतु माटे सिकांतनो उछेद करवामां प्रवतेला ए हेतु माटे सिद्धांतना वैरीरुप ने. ते लिंगधारी निरंतर महा मोदथी एम जाणे जे अमोज श्रेष्ट बीए श्रमारा जेवो बीजो कोई नथी ए प्रकारे अविवेकथी पोताना श्रात्माने माने में केम जे विवेकीने तो गंजीरपणुं ने माटे मोटा गुणनो समूह उते पण गर्व नथी थतो ए हेतु माटे.
टीका:-मूढानां तु तुबतया स्तोकेपितस्मिन् जगतो पितृणतयामननात्
॥ तमुक्तं ॥ जह लंपुरस्स एक्कण विहिणादोवि वावमाह त्था ॥ तह असुषिय परमला थेवेण विनत्तुणाहुँति ।।
अर्थः-ने मूढपुरुषने तो थोमो गुण होय तोपण जगतने तृण समान माने ठे ते वात शास्त्रमा कही ते जे.
टोकाःतया स्वयमात्मना नष्टाः सुखसोसतयाऽनवरत
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(५१६)
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अय श्री संघपटकः
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मन्याय्ये पथि प्रवर्त्तमानाजनपुरतःस्वं संस्थापयितुमशक्नुवंतः क्व धर्मः क्व संप्रति प्रतिन इत्यादि नास्तिक्यं प्रतिपन्नास्तेषां अन्येषामात्मव्यतिरिक्तानां नाशनकृते नास्तितापादननिमित्तं वझोयमानां ॥ यदि घेतानप्यात्मना कथंचित्समी कुर्मस्तदा सुंदरं नवत्यऽन्यथैते धार्मिकंमन्याः परुषवागनिरस्मान् संत क्षिष्यंती त्याशयेन तनाशनाय विहितप्रयत्नानां ॥
अर्थः-वळी ए लिंगधारी पोतेज पोतानी मेळे नष्ट हे एटले सुखनी लालचे निरंतर अन्यायना मारगमा प्रवा लेते लोकनी आगळ पोतानुं सारं स्थापन करवा असमर्थ डे एटले पोताना मुनिपणानुं वर्त्तन देखामी शकता नथी मांटे एम बोले ले जे श्री काळमां जैनमुनि क्याथी होय में जैन धर्म पण क्यांथी होय इत्यादि नास्तिपणाने पामेला ते पोते नाश पाम्या ने ने बीजाने नाश करवाने अर्थे एटले नास्तिपणानुं प्रतिपादन करवाने कारणे बांध्यो जे उद्यम ते जेमणे एवा ने एटले आ उत्कृष्टा कहे. वाय ने माटे जो एमने आपणा बराबर को प्रकारे करीए तोसारु ने जो एम नहि करीए तो धर्मिष्टपणाने माननारा ए उत्कृष्टा साधु ते आपणने कठोर वाणीए करीने तिरस्कार करशे एवा श्राशये करीने तेमनो नाश करवामां उद्यमवंत के एटले जे ते प्रकारे सुविहितने धर्म नष्ट कहेनारा ए लिंगधारी ए नावः
टीका:-सदा सर्वदा मिथ्याचारा मुक्तिपथविपरीताचारा मिथ्यात्वा विरतिप्रमादकषायमुष्टयोगलक्षणाः अथवा लोक
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भय श्री संघपट्टका
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(५१७)
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प्रस्नहेतुक वाह्ये जियसंयमपुरस्सर विषयप्रणिहितमन स्कत्वं ॥
अर्थः-वळी ते निरंतर मिथ्याचारवाला ने एटले मुक्ति मार्गथी विपरीत ठे आचार ते जेमनो एवा ने मिथ्यात्व १, अवि. रति , प्रमाद ३, कपाय ४. ए रुपी जे उष्टयोग ते बे लक्षण ते जे. मर्नु एवा ए लिंगधारी अथवा लोकने उगवा कारणे बाहेरथी पोतानी जियोनो नियम कराववा पूर्वक विषयमां मनने जोनी राखनारा ..
टीका:-यदाह ।। बाहों जियाणि संयम्य,यास्ते मनसास्मरन् । इंजियार्थान् विमूढात्मा, मिथ्याचारः स उच्चताततश्च तहतां तद्युक्तानां दांनिकानां ह्यापातमधुरोपि वचनसंदनः प्रलंननगर्नत्वेन परिणामे लूयोऽनर्थसंचारकारणत्वाछिपायते ॥
अर्थः ते वात कढ़ी हे जे जे पुरुष नपरथी जियोने नियममा राखीने मनवमे विषयने संचारतो रहे ते ते मूढ पुरुप मिथ्याचारवाळो कहीए, ते हेतु माटे मिथ्याचारवाळा दंनि एवा ए लोकनो जे तत्काळ मधुर जगातो एवो पण वचननो समूह ते परिणामे घणाअनर्थकारण थाय के. केमजे तेमां तार्नु उगवापणुं रघु ठे ए हेतु माटे तेमतुं वचन विष जेवू ठे एटले त्याग करवा योग्य ते.
टीका:- तक्तं ॥
पीयुपधारामिव दांतिकाः प्राग प्रलंतनीयां गिरमुजरंति ॥
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(५२८)
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अय श्री संघपट्टकः
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पुनर्विपाकेऽखिलदोषधात्री सेवातिशेते वत कालकूटं ॥ श्रतस्तन्नाषितानि सुविहितैः सुश्रावकैश्च न श्रोतव्यानोति तात्पर्य मिति वृतार्थः ॥ २ ॥
अर्थ:-ते वात शास्त्रमा कही ले जे दंनी पुरुष जे ते प्र. यम तो अमृतनी धारा जेवी सर्वने लोलावनारी एवी वाणी बोले ले पनी परिणामे तेज वाणी समस्त दोषनी करनारी थाय डे माटे कालकूट फेर करतां पण दंनी पुरुषनी वाणी अति अधिक वे माटे ते दंनी पुरुषनां वचन सुविहितने तथा सारा श्रावकने न सांना ळवां एज तात्पर्य के ए प्रकारे श्रा काव्यनो अर्थ थयो ॥ ७ ॥
टीका:-अधुना वितथादिरुपधर्मदेशिनामपि तेषां कुपथस्य तथाविधमुग्धजनोपादेयतां सविषादं प्रतिपादयन्नाह ।।
अर्थ-हवे ते मिथ्यादिरुप धर्मने नुपदेश करता एवा पण ते सिंगधारीतनो कुमार्ग ते प्रकारना नोळा लोकने ग्रहण करवामां श्राव्यो तेने विखवाद सहित प्रतिपादन करता सता एटखे ए वात घणी खेद नरेली जे एम प्रतिपादन करता सता ग्रंथकार कहे .
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9 अप श्री संघपट्टका
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॥ मूल काव्यम् ॥ यत् किंचिदितथं यदप्यनुचितं यल्लोकलोकोत्तरो। त्तीर्ण यद्लव देतुरेव नविनां यच्छास्त्रबाधाकरं ॥ तत्तधर्म इति ब्रुति कुधियो मूढास्तदईन्मत। ज्रांत्या तांति च दाउरंतदशमाश्चर्यस्य विस्फूर्जितम्॥श्ना
टीका:-तत्तदितिवीप्सायां सर्वसंग्रहमाद ॥ धर्म साधनमनुष्टानमिह धर्मस्ततश्चधर्म इति सुकृतमिदमित्येवंरुप. तया त्रुति वदंति कुधीयो उर्मेधसो नाम जैनाः ।। यत्किंइत्याद।। यत्किंचिदिति सामान्यतो निर्दिष्टं विशेष तोऽनिर्दिष्टनाम कं वितथमलीकं श्रेणिकराजरजोहरणवंदनादि न ह्येतदागमेक्वचितिखितमस्ति येन सत्यं स्यात् परं लिंगिनः स्ववंद्यता ।। पादनायै तदपि धर्म इति नापते ।।
अर्थः-कहीशु ए सर्वे वातोनो संग्रह थाय ते कडे जे पुष्ट बुद्धिर्जवाळा केवळ नाम मात्रथी जैनी कहेवाता एवा ए लिंगधारीन जे ते श्रागळ कहीशुं ए सर्वेने श्रातो धर्म वे एप्रकारे वो के. तत् शब्दनुं वेवार उच्चारण कर तेथी आगळ कहे जे श्रा जगाए धर्म साधन करवानुं जे अनुष्टान तेने धर्म कहोए एटसे धर्मरुपपणे स्थापन करे . ते शुंस्थापन करे ठे? तो जे कांश स्थापन करेठे ते कहीए जीए. जे कांश सामान्यथी देखाम्युं होय ने विशेषयकी नाम न देखामयुं होय एवी जगाए जुटुं घोले ,
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(५२०)
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अय श्री संघपट्टका
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जे श्रेणिकराजाए रजोहरण देखीने वंदनादिक कर्यु. पण एम दि. चारता नथी जे ए वात श्रागमने विष को जगाए सखी नथी, जे तेणे करीने ए वात साची थाय. परंतु ए लिंगधारी पोतानुं वंदनपणुं प्रतिपादन करवाने तेने परा धर्म बे ए प्रकारे बोले .
टीका:-यदाह ।। श्री श्रेणिक क्षितिपतिः किल सारमेय. लांगूल मूलनिहितं यतिवद्ववंदे ॥ जकत्या रजोहरणमित्यनृत वदंति ही लिंगिनो वृषतया कुधीयः प्रलब्धं ॥
अर्थः-ते कह्यु डे जे पुष्ट बुद्धिवाळा लिंगधारी जोळा लोकने उतरवा सारु या प्रकारे जुलु बोले जे श्री श्रेणिकराजा जे ते जेम को पुरुषे कूतरानुं पूंगहुं वगलमां धायु होय तेम रजोहरण मात्र ग्रहण करनारने शक्तिए करीने साधुनी पेठेज वंदन कर्यु माटे ए प्रकारे हे श्रावक लोको तमारो धर्म एटले तमारे पण एज प्र: कारे वंदन कर ए प्रकारनो धर्म कही देखा .
आवक लोको कराने साधुनीतम रजोहरण
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टीका:--तथा यदपि अपि समुच्चये यच्चानुचितमयोग्य। पित्राद्युद्देशेन यात्राकरणादि धर्मनिमित्तं हि कृत्यजातं जिनमदिरे कर्तुमुचितं नान्यत् ॥ पित्रायुदेशेन तु यात्रादि तत्र विधीय. मानं गुणवहुमान विकलकेवलस्नेहनिबंधनत्वान्नधर्मः ॥ परं तदपि लिंगिनो धर्मोयमित्यनिधाय स्वोपयोगाय विधापयति ॥
अर्थः-यदपि ए जगाए अपि शब्द समुच्चय अर्थने विषे
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अप श्री संघपक
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उ. वळी ए लिंगधारी जे अयोग्य वस्तु ले तेने पण धर्म रुपे स्थारन करे ठे ते कहे . पिता आदिकने नद्देशीने यात्रा करवी एटले श्रा चैत्यमां तमारा वाप दादाए यात्रा पूजा इत्यादिक कयाँ माटे तमारे पण ए सर्वे करवां जोइए, इत्यादि उद्देश करीने जे यात्रादिक कराव तेने धर्मरुपे कही देखामे ने जिन मंदिरने विषे जे जे कामकाज बे ते धर्म निमिचे करवू घटित बे पण बीजी रीते नथी तो पिता आदिकनो उद्देश करी पड़ी त्यां यात्रादिकनुंजे करवं तेने गुपनुं जे वहुमान तेथी रहितपणुं ने केवळ पिता आदिकना स्ने. इतुं कारण , माटे तेमां धर्म नथी परंतु ते लिंगधारी श्रा धर्म ठे ए प्रकारे पोतानी मतलब सिकरवा सारु स्थापन करी देखामे.
टीकाः-यदाह ।।
यात्राः प्रतीत्य पितरौ नवताऽवचैत्ये यहात्र मासि विहिता बनिनामुना तत् ॥ कार्यास्त्वयापि च तथेति कथं गृहस्थै धर्मोऽयमित्यनुचितंरचयति धूर्ताः ।।
अर्थः--ते वात कही ने जे लिंगधारी गृहस्थोने धर्मोपदेश समजावे ले जे या चैत्यमां तमारा मा बापने उद्देशीने यात्रा करवी एटले तमारे था चैत्यमां असलथी तमारा वृक्षो करता था. व्या ठे माटे तमारे यात्रा आदि करवू ए तमारो धर्मज ठे. अथव श्रा मासने विये या गृहस्थे या जगाए जेम यात्रादिक कर्युठे ते गृहस्थोए कर ए धर्म वे इत्यादि अघटती वातनी ए धूतारा दि गधारी रचना करे ठे.
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(323)
-40 अथ श्री संघपट्टकः 8
टीका:- तथा यलोको जैनमार्ग व हिर्भूतः शिष्टज़नः खोकोत्तरं जिन प्रवचनं ताभ्यामुत्तीर्ण बाह्यं सूतक गृह जिक्षा ग्रहणादि एतद्धि लोकलोकोत्तरयो विरुद्धत्वान्न धर्मस्ते तु गा. दिहेतुनैतदपि धर्म इत्य निदधति ॥
अर्थ:-वळी जे लोक कहेतां जैन मार्गथी रहित एवा सारा लोक तथा लोकोत्तर कहेतां जिनराजनुं प्रवचन ते बेथी जे रहित एटले जे लोकने - लोकोत्तरथी विरुद्ध ते शुं तो सूतकीना घरनी चिकादिकनुं ग्रहण कर इत्यादि ए वात निचे लोकने लोकोत्तर एवेने विषे विरुद्ध वे ए हेतु माटे धर्म नथी. तो पण लिंगधारीचं लोनादि कारणे, करीने एने पण धर्मरुपे स्थापन करी देखा मे बे
टीका:-यदाह ॥
vिer सूतकमंदिरे जगवतां पूजा मलिन्या स्त्रिया | होनानां परमेष्टि संस्तव विवेच्छिक बंदीयं ॥ जैनेंद्र प्रतिमा विधापनम हो तल्लोक लोकोचर ॥ व्यावृत्ते रथ हेतु मध्यत्रिणः श्रेयस्तथा चक्षते ॥
अर्थः- ते बात कही ढे जे सुतकीने घेर निक्षा करवी तथा मलीन स्त्री जगवंतनी पूजा करे, तथा दीप जातिवाळाने परमेष्टि जगवंतना स्तोत्रमंत्र । विधि शिखववो, तथा तेमने दोका यावी, तथा तेमनी पासे जिनेंद्रनी प्रतिमानुं विधिविधान स्थापतादिकनुं कराव. ए प्रकारे ए बुद्धिहोय लिंगवारीत लोक लोकोतर की एस विरुद्ध बे तेने पय धर्मनुं कारण वे ए प्रकारे
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अय श्री संघपट्टकः
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कहे ठे एटले था अमारी कहेली सर्वे वात कल्याण करी, धर्मरुप ठे एम बोले ले ए मोटुं आश्चर्य के.
टीका:- तथा यशवहेतुरेव संसारकारणमेव नविना देहिनां जिनमंदिरे जलक्रीमादि ॥ एतमिदनाद्दीपनत्वात् क्रीमामात्रत्वेनातात्विकत्वाच्च संसारवर्द्धनमेव परमेतदपि लि. गिनो धर्मबद्मना स्वावलोकनकुतुहलेन कारयति ॥
अर्थः-वळी ए लिंगधारीओ जे देहधारीओने संसार कारणज ने तेने पण धर्मरुपे स्थापे नेते कहे जे. जे जगवतना मंदिरने विषे जे जलक्रीमादिक करावq ते निश्चे कामर्नु जद्दीपन का रनार ले ए हेतु माटे, ने क्रीमा मात्रपणु ले ए हेतु माटे तात्विक नथी एटलें करवा योग्य नथी, माटे संसार वधारवार्नु कारण हैं - रंतु लिंगधारीओ तेने पण धर्मनु सिप लश्ने पोताने जौवार्नु जे कौतुक ते सारु करावे .
टीका-यदाद ॥ श्रृंगैः प्रसूनसमये जलकेलि लीला ॥ मांदोलनं लगवदोकसि देवतानां ॥ धर्म तलालगुमरासमनट्यहासं निर्मापयंत्यदह संस्कृतिहेतुमझाः॥
अर्थः-ते वात कही ते के ए श्रज्ञान लिंगधारीलो धर्मना मिपथी वसंत ऋतुमा पीचकारीयोवमे जलक्रीमा करावे ठे. वळी प्रगवंतना मंदिरने विपे देवताना हिंदोला बंधावे ठे वळी जेसापको
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( १९४)
* अथ श्री संघपट्टको
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हास्यविनोद रह्यो एवं जे मांमीयावके रमव॒तेने करावे डे ए सर्वे संसारनां कारण ने तेने धर्मरुपे स्थापे बेए मोटी खेद नरेली वात .
टीकाः--तथा यत् शास्त्रवाधाकर सिद्धांतविरोधाधायकमौदेशिक भोजनादि॥यथाचौहेशिकादीनां शास्त्रबाधितत्वं तथा प्रागेवोपपादितं ॥ अथवा आषाढचतुर्मासकात्पंचाशत्तमदिन प्रतिपादितस्य पर्युषणापर्वणः श्रावणाद्याधिक्यवतिवर्षेऽसीति तमेऽह्नि विधान॥
अर्थः-वळी शास्त्रबाधक एटले शास्त्र विरुक जे श्रोधाकर्मादिक जोजनादि तेने पण धर्मरुपे स्थापन करे ने जे रीते श्राधा कर्मादिकने शास्त्र विरुद्धपणुं ने ते रीते प्रथम प्रतिपादन कर्यु ले. श्रथवा आषाढ चोमासाथी आरंनीने पचास दिवसतुं पर्युषणा पर्वशास्त्रने विषे प्रतिपादन कयु ते पर्व ज्यारे श्रावणादि अधिक मास जे वरसमा श्रावे ने तारे अशी दिवसनु ए पर्व करे ठे.
टीका:-यमुक्तं ॥ वृक्षौ लोकदिशा नन्नस्यनन्नसोः सत्यां श्रुतोक्कंदिनं पंचाशं परिहत्व ही शुचिन्नवात्पश्चाचतुर्मासकात् ॥ तत्राशीतितमे कथं विदधते मूढा महं वार्षिकं कुग्राहादिगणय्य जैनवचसों बाधां मुनिव्यंसका ॥
अर्थते वात कही जे ज्यारे लोक रीतीए श्रावण जादरवो अधिक मास आवे छे त्यारे शास्त्रमा कहे जे श्रापार्ट चोमा
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* अथ श्री संघपट्टकः
(५२५)
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साथी श्रारंनीने पचास दिवसर्नु पर्युषणा पर्व एटले वार्षिक पर्व वे तेने ए मृढ पुरुपो (लिंगधारी) एंशी दिवस कम करे ? पोताना कदाग्रहथी जैन वचनने वाध आवे ने तेने न गणीने करे ने माटे ए प्रकारे ए पुरुषो मुनि मध्ये धूतारा दे.
____टोकाः-- ननु ब्रुवंतु ते स्वमतिकल्पितं मार्ग तथापि वितथादिस्वभावत्वात्तं न कोपि अहिष्यति तथा चोक्तोप्यनुक्तकल्पो लोकोपादाना नावेन प्रसरानावादित्यत आह ॥मूढा अज्ञानिनः तत्र धर्मव्याजेन लिंगिप्ररुपितं मतं अहन्मतत्रांत्या जैनमार्गोऽयमिति मिथ्याज्ञानेन लांति उपाददते ॥ अयमर्थः ॥ ययोजयगतचाकचक्यादि सदृश धर्मोपलं नात् परस्परव्यावर्तक देशजात्यादिलेदधमानुपलंनाचरजतेऽपि शुक्तिकायांरजतमेतदिति धिया ब्रांताःप्रवर्तते ।।
अर्थः-आशंका करीने कहे जे ते लिंगधारीलो पोतानी बुद्धि कल्पित मारगने ए प्रकारे वोलो तो पण ए वाणी स्वजावथी ज असत्यादि दोष सहित ने माटे तेने कोइ पण नहि ग्रहण करे. त्यारे ए वाणी कही ते न कह्या जेवी केमजे लोके ते वाणीनुं ग्रहण न कयु तेणे करीने तेनो पसार नहि थाय ए हेतु माटे ए प्रकारनी थाशंकानो नत्तर जे मुढ अज्ञानी लोको जे ते धर्मनो मिप ग्रहण करीने लिंगधारीओए प्ररुपण कयों जे मत तेने अरिहंतना मतनी प्रांतिवमे एटले आज जैन मार्ग के ए प्रकारे मिथ्या ज्ञान कराने ए लिंगधारीयोना मतने ग्रहण करे ते तेमां श्रा प्रगट अर्थ जे • जेम रूपाने विष तथा ठीपने विरे चकचकाट आदिक सरखो, धर्म
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५२६)
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अथ श्री संघपट्टकः
रह्यो ३ एटले ए वे धोलासथी तथा उज्वलपणाशी सरखा जाय के ए हेतु माटे तथा परस्परनी निवृत्ति करे ए प्रकारनो कोइ जाति श्रादिकनो नेद धर्म पण जणातो नथो एटले विजाति धर्मवो वस्तु जुदी जणाय ने ते तो रुपाने विष तथा बीपने विर्षे धोलाश श्रादिक सदृश देखाय ने तेथी ब्रांति पामेला पुरुषने डीप देखीने श्री तो रुपुंडे ए प्रकारनी बुद्धिवमे ब्रांतिए करीने प्रवृत्ति ले तेम में लिंगधारीओ) पोतानी मतिए कटपेला मारगने विषे मूढ पुरुपोन श्री तो जैन मारगे ये एवी ब्रांति थाय डे.
. . टीका:--तहाफि सन्मार्गा सन्मार्गगतजिनदेवताच्युप गमबाह्यावेषादिसमानधर्माऽवगमादन्योन्यव्यववेदकविध्यविधि प्रवत्यादिविशेषधर्मानवगमाञ्च वितथत्वादिना वस्तुतोऽनई. न्मतेपि प्रकृतमार्गेऽहन्मतमेतदितिबुद्ध्या मूढाः प्रवर्तत इति। न केवलमेतकुमार्ग वदंतिमूढास्तु तं गृहंत्यपीति च शब्दार्थः।। हो ति विषादे
अर्थ-वळी सन्मार्गने विर्षे तथा असन्मार्गने विषे जिन देवंतानों अंगिकार रह्यो ते बेने विषे वाह्यथी वेषादि समान धर्म रह्यों के तेनुं ते ब्रांति पामेला पुरुषाने ज्ञान नथी, माटे एमकहे
में आज जैन मार्ग बे ने वेळी विधि मार्गने विषेतथा अविधि.मा. गने विषे प्रवृत्ति श्रादिक जे परस्पर जेदजणावनारो विशेष धर्म तेनुं तेश्रोति पामेला पुरुषोने ज्ञान नथी माटे एम कहे. जे.आन जैन मार्ग के वस्तुताए तो एमां असत्यपणुं आदिक दोष रह्या ले मात्रै ए अरिहंतनो मार्गज नथी पणे हाल लोकनी प्रवृत्ति मार्गने विषे
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अय श्री संघपट्टका
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आज अरिहंतनो मारग ठे ए प्रकारनी बुद्धिए मूढ पुरुषोनी प्रवृत्ति थाय ठे, पण विधिमारगना जाण पुरुषोनी प्रवृति थती.नथी केमजे ते जाण पुरुषो तो सन्मार्गने विषे अंगिकार करेला जे जिन देवता तेनुंज ग्रहण करे ने विधि मारगने विषे प्रवृत्तिरुप जे विशेष धर्म तेवमे जैन मतने ओळखीने तेने विपे प्रवते . वळी आ जगाए च शब्द तेनो श्रा प्रकारे अर्थ ले जे वळो लोक प्रवाहे आजैनमत ने एम जाणीने पमेला मुढ पुरुषो आ कुमार्ग .एम केवळ कही शकताज नथी, एटलुंज नहि किंतु एटले त्यारे शुं करे तो ग्रहण पण करे . एटले पोते मानेतुं मुकता पण नथी अहो श्रा तो मोटी खेद नरेली वात ठे एम हो शव्दनो अर्थ डे.
टीका:-पुरंतदशमाश्चर्यस्य दुःखावसानांत्याश्चर्यस्य विस्फूर्जितं विजेंनितमेतदिति ॥ कथमन्यथा कुपथस्याप्येतस्य बहुमुग्धजनोपादेयतास्यादतः कष्टमेतद्यदद्याप्ययं कुमार्गोऽस्खलितप्रसरोनुक्त इति वृत्तार्थः ॥ २ ॥
अर्थ:---दुःख एज अंतेकळ जेनुं एवं आपूर्वे सर्व का ते दशमा आश्चर्यतुं प्रगटपगुंठे एटले दशमा आश्चर्यनो महिमा
ने जो एम न होत तो ए कुमार्गर्नु घणा लोक का ग्रहण करत. ए हेतु माटे ए मोटी कष्टकारी वात थइठे जे हजुसुधी पण ए कुमार्ग एवो चाले ठे जे जेनो पसार खलना पामतोज नथी. एक वीजा पठवामे चाल्यो श्रावे ठे ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो.श्त
टोका:-सांप्रतं मुम्बजनान् प्रति खमतं मोक्षायतयादि.
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१६२८)
* अथ श्री संघपट्टका
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NAGARMA
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शतःसत्पथगामिनश्च धार्मिकान् स्ववचनानुरोधित्वेनाइतया श्रवजाना नस्यकस्यचियथा बंदाचार्यग्रामएयोऽप्रस्तुत प्रशंसया स्वरुपमाह ॥
अर्थ:-- हवे आ काळमां नोळा लोक प्रत्ये पोतानो मत मोद मारगपणे उपदेश करतो ने पोतानी श्वाए जेम फावे तेम चालतो ने लोकमां मोटो थर फरतो कोइक आचार्य ते पोते अज्ञानी माटे पोताना वचनने अनुसारे न चालतां ने सारा मारगे चालता एवा धर्मिष्ट लोकोनी अवज्ञा करे ने एटदे तमे सारा कह्या प्रमाणे चालो अज्ञानीनी पेठे शुं चालो गे एम अपमान करे तेनुं स्वरुप अप्रस्तुत प्रशंसा नामे अलंकारे करीने कहे . ते अलंकारनुं स्वरुप पण ए प्रकारतुंडे जे जे वात चालती होय ते न कहे ने ते वातने अनुसरतुं दृष्टांत कहीने तेनो उपनय चालती वात संघाथे मेळवे. जेम सर्वे ब्राह्मणोतुं टोळु बेलु ते मध्ये एक संतो. षी ब्राह्मण एक यजमाननी याचना कर ले ते जेटलुं प्रापे ते लइने संतोष पामीनेको मोटा राजा साहुकार आदिकनी कंइपण याचनाकरतोनथी. तथा ते को पराणे आपे तो पण तो नथी तेने देखीने कोश्क कवि बोल्यो जे सर्वे पक्षी मध्ये एक चातक पक्षीने धन्य डे जे एक इंच विना एटले मेघ विना वीजानी याचना करतो नयो. तेमज आ काव्यमा अजाणपणे दैव स्वाए साचे मारगे चालता श्रांधळाने जन्माराथी आंधळो परदेशो कोइ पुरुष इसे ले जे रे मूर्यो! मारा कह्या परमाणे चालो इत्यादि आगळ टोकाकार कदेशे एवा जाव गर्मितनुं ग्रंथकार काव्य कहे .
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-19 अप श्री संघपट्टका
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(५२९)
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॥ मूल काव्यम् ॥ कष्टं नष्टदिशां नृणां यददृशां जात्यंधवैदेशिकः कांतारे प्रदिशत्यनीप्सितपुरध्वानं किलोत्कंधरः॥ एतत्कष्टतरं तु सोपि सुदृशः सन्मार्गगांस्तब्दि स्तमाक्याननुवतिनो हसति यत्सावझमज्ञानिवारणा
टीका-कष्टं पुःखमेतन श्चेतसि वर्तते यत्किमित्याहायदितिवास्योपदेपे ॥ यत्नृणामहशांजात्यं धवैदेशिकः कांतारेऽ. नीप्सितपुरावानं प्रदिशतोति संबंधः ॥ तत्र नृणां पुंसां नष्ट दिशां अलोचनत्वात्कांतारपातेन दिग्मूढत्वाच्च प्रचष्टप्राची प्रतीच्या दिककुदिग्नागपरिछेदानां ॥ अदृशां काचकामला दिना विकलानां न तु जन्मांधानां ।। जात्यंधो जन्माजिव्या. प्त्या लोचनरहितः॥
अर्थ:-जे आ तो हमारा चित्तने विषे मोटुं दुःख वरते हैं, ते शुं तो ते कहे जे यत् ए शब्दनो अर्थ वाक्यने आक्षेप करनारो , माटे जे दृष्टि रहित एटले आंधळा पुरुषोने जन्मारायोज अंध यएलो परदेशी पुरुष अटवीने विये हित नगरनो मारग देखामे एम संबंध ठे. तेमां आंधळा पुरुष केवा तो नेत्र नया माटे महा श्रटवीमां पम्वं तेणे करीने दिग्मूढ श्रयेला .एटले पुर्व दिशा तथा पश्चिम दिशा इत्यादि दिशाना विनागर्नु जे जाणवू तेथी ऋष्ट थयेला, काच कामलादिक कारणथी दृष्टिगोचर थयेला पण जन्माराना बांधळा नहि.
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(६३०)
16 अथ श्री संघपट्टका
टीका:-ननु सोपितदेशजात इतरेन्यःश्रवणादिना विज्ञाय कथंचिदिष्टपुरपथंदेक्ष्यतोति तत्रोक्तं वैदेशिक इति ॥ विदेशे योजनशतव्यवहिते देशांतरे जातो वार्डतश्चेति वैदेशिकः ॥ स हि तदेश स्वरुप मात्र स्याप्यननिज्ञ त्वात्कथं प्रकृतमार्ग जानीयादपि ॥ ततः कर्मधारयः॥
अर्थः-आशंका करे ले जे जन्मारानो आंधळो पण तेज देशनो होय तो बीजा लोकथी सांगळवं इत्यादिके करीने जाणीने को प्रकारे इच्छित नगरनो मारग देखामशे तो त्या विशेषण कडं ले जे ए परदेशी ने एटले सो योजन वचमां मूकीने देशांतरमां उत्पन्न थयो ने ने वृद्धि पाम्यो माटे ते आ देशना स्वरूप मानो पण जाण नथी तो शचित नगरना मार्गने शीरीते जाणी शके ?
टीका:---कांतारे जनसंचारशून्येदुर्गवमनि लोकसंचार मार्गे हि कदाचित् मार्गब्रांतानां पांथोपि संचरिष्णुः सुपंथानं दर्शयत् ॥ प्रकरण अयमेवास्य पुरस्य पंथानान्य इत्यवधारण पूर्व नतु संजावनामात्रेण दिशति प्रतिपादयति अजीप्सितपुराभवानं जिगमिषतनगरमार्गकिलेति वाचायां उत्कंधरःउद्ग्रीकः कंधरामुन्नमय्य जुजदंगमुदिप्य कथयति नतु वचनमात्रेण॥ . किलमार्गोपदेष्टा तदनिको मागानुयोक्तातु तदवनिझोनवतीति : लोकस्थितिः अत्र नपदेष्टाजात्यंधत्वादिना सर्वथा प्रस्तुतपथं .न जानाति श्रनुयोक्तास्त्वदृशोपि तद्देश्यत्वपूर्वानुजूतानुसंधान वत्वादिना तदनिमुखा व लद्यते अतस्तदुपदिष्टपंयाः कथमिः..
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46 नव श्री संघपटका
ट्रपुरगामुकः स्यादथ च सतमुपदिशतीति कष्टमेतत् ॥ तु पुनर्थे : दंवक्ष्यमाणं पुनःकष्टतरं पूर्वस्मादपि कष्टान्महत्कष्टं यत्कि- . मित्याद ॥
अर्थः-सूना मार्गमां केमके चाबु मार्गमां तो कोइ वटेमाणु पण वखते रस्तो वतावी दीए त्यां पण संजावना मात्र करे नहि पण निर्धारण पूर्वक हित नगरनो मार्ग तेबतावे .शी रीते ते कदे ले के वांझो बंची करीने, इहां लोक रीति एवी डे के मार्गनो उपदेशक जाण होय अने मार्गमा चालनार घणे नागे अजाण होय , पण इहां तो नुपदेशक तदन जन्मांध डे अने चालनारा जनो जो के श्रांधळा तो पण ते देशना जन्मेला अने पूर्वे जरा जोमिया होवाथी मार्गने अन्तिमुख पमता देखाय माटे एवा जन्मांधनो वतावेलो मार्ग शी रीते श्ट नगर प्रत्ये पहोंचे. बता ते मार्ग वतावे ए एक कष्ट , पण आवळी तेना करतां पण वधतुं कष्ट ठे ते कहे डे.
टीका:-सोपि प्रायुक्तो मार्गदेष्टा सुदृशो निर्मलनयनान त एव समार्गगान् इष्टनगर सुगमपथ प्रस्थितान् तधिदः सम्यक् सन्मार्गज्ञान् यत् इसति स्मयते सावझमिति क्रियाविशेपणं सावलं ॥श्रज्ञानिव मार्गाननिझानिव यथा मार्गाननिशा मार्ग मुपदिशतः नपहस्यंते लोकेन ॥ तथै तेपि यथा किमेते वा. लिशावायसाश्वा जन्मानुझितस्वदेशा मार्गा मार्गस्वरुपं विदंति।।
अर्थःते कहे ते ते बात कही देखामे ठे जे ते पूर्वे
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२५३२)
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अथ श्री संघपट्टकः
कह्यो एवो पण मारगनो देखामनार जे ते एटले जन्मारानो अंध पुरुष जे ते इच्छित नगर प्रत्ये सुगम मारगवमे चालनारजे निर्मळ नेत्रवाळा पुरुषो तेने इसे बे. अवगणना पूर्वक इसे वे ए क्रिया विशेषण जाग, एटले लोक जे तेमारगनो अजाण ने वळी मारगः नो नपदेश करनार तेमने जेम हसे ने तेम ए पण साचे मारगे चालनारने पण इसे ने जेम अहो आतो मूर्ख होय ने शुं जन्माराथी आरंन्नीने पोतानो देश पण जेमणे गेमयो नथी ते पुरुषो मारग अमारगना स्वरुपने शुं जाणे!
टीकाः-अहमेव शैशवाद वेक्षितनिखिलजनपदो विदित सकलग्रामनगरसमाचारः सवं वेदिमति कुत एवं सतानुपहसतीत्यताह ॥ तद्वाक्यान नुवर्तिनो जात्यंधवचनाननुरोधिन इति हेतुगर्न विशेषणं ॥ ते हीष्टपुरस्य सम्यग्पंथानं जानं तस्ताक्यं य महं कथयामि स तन्नगर मार्ग इत्येवं रुपं नानुमन्यते ॥ तथा च सरुष्टःसंस्तानुपहसतीति ॥ एवं च स्वयं सर्वथा चोट पुरपथमजाननपि यत्त झान् हसति। तन्महाकष्ट मित्य. प्रस्तुतप्रशंसानेदः ।
टीकाः-ए तो हुंज जाणुं केमजे नानपणथीज जेणे देशदेशांतर समस्त दीगडे ने समस्त ग्राम नगरना समाचार जेणे जाएया ने माटे सर्व डं जाणुं डं; ए प्रकारे ए लिंगधारी सुविहितने कहे . ए जगाए आशंका करी विशेषण आपे ले जे शाकारणेते तेमनुं उपहास करे तो ते कहे जे जे ते जन्मांध पुरुषना वचनने अनुसरता नथी, माटे ए हेतु गर्न विशेषण ले केमजे नि
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जय श्रीसंघपट्टका
(९३३)
श्वेते पुरुपो वांचित नगरना मारगने सारी रीते जाणे ने माटे पूर्वे कह्यु ए रुपर्नु तेमनुं वचन मानता नथी माटे ते जन्मांध पुरुष ते. मर्नु नपहास करे बे. माटे जन्मांध पोते सर्व प्रकारे वांचित नगरना मारगने जाणता नथी तोपण मार्गना जाण पुरुषोनु उपहास करे ने ते मोटुं कष्ट ठे ए प्रकारे अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकारनो जेद थयो .
ते मौता नथीचा पोते
टीकाः–तथा झुपमानेन तुल्ये प्रस्तुते उपमेयेसति यद प्रस्तुतस्योपमानस्य प्रस्तुततुल्यस्य प्रशंसनमनिधानमित्येतदस्य लक्षणं तुल्ये तुल्यस्य वच इति वचनात् ।।
अर्थः--ते कहे जे जे उपमाननी संघाथे उपमेयनी तुल्यतानो प्रसंग आवे सते जे उपमाननुं प्रस्तुत उपमेय संघाथे तुल्यतानुं कहे ए अलंकार, लक्षण . जे तुल्यपणुं सते तेने तुल्य वचन कहे, ए प्रकारे अलंकार शास्त्रनुं वचन .
टीकाः--एवं चाप्रस्तुतमुपमान योजयित्वा प्रस्तुत मुपमेयमिदानी योज्यते ॥ कष्टमेतत् ॥ यन्नृणां सत्पथेच्तुपुरुषाणां नष्टदिशां अतिमुन्धतया सत्पथकुपथ वित्नागाननिशानां थदृशां सम्यग्ज्ञानदर्शन विकलानां जात्यंधः सिद्धांतरहस्य खशाननियः सर्वथाऽगीतार्थः । सोपि गीतार्थवासाः कथं चिन्मोकपथकथनप्रवीणः स्यात्तत्राद ॥
अर्थः-ए प्रकारे प्रसंग विना कयु जे उपमान तेनी यो
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(५३४)
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जय श्री संघपट्टका
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जना करीने ते वात चालता प्रसंग साथे हवे योजना करे जे. जे आतो मोटुं कष्ट ले जे साचा मारगने श्च्छनाराने सन्मार्गन कुमार्गना विनागने जाणता नथी माटेअति लोळा एटले आंधळा लो. कने जन्मांध पुरुष एटले सिझांतना रहस्यनो लेशमात्रने पण न जाणतो सर्वथा अगीतार्थ पुरुष जे ते कदापि ए अगीतार्थ पुरुष पण गीतार्थनी सोबतवमे कोइ प्रकारे मोक्ष मारगने कहेवा चतुर दशे एवी आशंका धारीने ते जगाए विशेषण कहे .
टीकाः चैदेशिको गर्हिताचारत्वादाजन्मागमनिकष विपुरगीतार्थ मुनिपुंगवसंगमात्रवर्जितः ॥ एषचाधुनिकपुःसंघ प्रवरो निःशंक निःश्रेयसपथप्रत्यर्थिमार्ग प्रथनदीक्षितो यथाछंद शिखामणिः कश्चिदाचार्यों मंतव्यः॥ कांतारे महाटव्यां प्रदिशतिअयमेव मछुपदिष्टो मोक्षमार्ग इति प्रज्ञापयति धन्नीप्सितपुराध्वानं मुक्तिमार्ग उत्कंधरो दर्शिताहंकारविकारः ॥
अर्थः-ए जन्मांध पुरुष केवो ने तोपरदेशी एटले कोश्क निंदित श्राचारवाळो बे, माटे श्रागमनी कसोटीना जाण गीतार्थ मुनिराजना संग मात्रथी रहित एवो आ हाल कालनो पुराचारी संघ मध्ये श्रेष्ट ने निःशंकपणे मोक्ष मार्गनो शत्रुरुप जे मार्ग तेनो विस्तार करवाने दीक्षावालो थयेलो एवो ने पोतानी श्वामां आवे तेम चालनार जे पुरुष ते मध्ये शिरोमणि एवो कोश्क श्राचार्य जाणवो. ते मोटी अटवीने विषे कहे जे या हुँ कहुं हुं, उपदेश करुं एज मोक्षमार्ग . एम अहंकारनो विकार देखामोने मोक मार्ग देखाके के
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ANNA
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- मय श्री संघपट्टका -
१५६५) टीका:-तथा च सोऽगीतार्थ उत्सूत्रजापक अनिनिवेशिक मिथ्याष्टिकथंचिदपि सत्यं मुक्तिपथं नवेचिनाप्यन्येन गीतार्थे न प्रतिपादितोपि प्रत्येति ॥ नरास्तु मुक्तिपथपर्यनुचोक्तार प्राजिग्रहिकादिमिथ्याहशस्तत्रापि किंचित्सन्मार्गानिलाषुका नपदेष्टरपेक्षया सारतरविनागेन किंचिदशास्तथा च तत् प्रज्ञ. सोध्वां कथं तेषांमुक्तिपुर प्रापकःस्यात्तथापि सतेन्यस्तं प्रदर्शयतीति भवति कष्टं ॥
अर्थः-वळी ते अगीतार्थ एटले उत्सूत्रनो नापक श्रलिनिवेशिक मिथ्या अष्टिवाळो ए कोई प्रकारे पण मुक्ति मार्गने नथी जाणी शंकतो ने कोइ वीजो अगीतार्थ पुरुष तेणे कह्यो होय तो पण ए नथी जाणी शकतो ने जे मुक्ति मारगने अनु. सरेला पुरुप ते तो आनिग्रहीकादि मिथ्याष्टिवाळा माटे तेमां पण कांक सन्मारगर्नु अनिलाप पणुं रघु ले माटे अतिशे सारना विनागे करोने उपदेश करनार पुरुषनी अपेक्षाये काश्क जाणपणुं थाय ठे माटे ते जन्माराना अंध पुरुषे कहेलो जे मारग ते तेमने मुक्ति नगर प्रत्ये पमामनार केम थाय ! नज थाय. तोपण ते जन्मांध पुरुष तेमने मारग देखामे ठे ए मोटुं कष्ट ठे.
टीका:एतत्कप्टतरं वितिपूर्ववत् ।। सोपि प्रागनिहितो यथाछंदाचार्यः सुदृशः सम्यग्झानदर्शनयुजः सन्मार्गगान् ज्ञानदर्शनचारित्रलदाणमुक्तिपथप्रवृत्तान् तहिदो मुक्ति मार्गानिडान् धार्मिकान् मुनिहितसाधून् यत् इसति सावझमझानिव ॥ यथा किममी अगौतार्या मुर्वसिरोमणयः सिहांत
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(९३६)
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अथ श्री सघपट्टका -
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रहस्यमवस्यति ॥ अहमेव सकलश्रुतपारावारपारदश्वा ॥ ततोयमहं ब्रवीमि समुक्तिमार्ग इति ॥
अर्थः-वळी श्रातो अतिशेज मोटुं कष्ट डे इत्यादि पूर्वनी पेठे जाणq ते पूर्वे कह्यो एवो पोतानी श्छा प्रमाणे चालनारो कोक आचार्य जे ते सारा ज्ञानदर्शने युक्त ने ज्ञानदर्शन चारित्र डे लक्षण जेनुं एवो जे मुक्तिमार्ग तेने विषे प्रवर्तेला ने मुक्ति मार्गना जाण एवा जे सुविहित साधु तेने हसे ले जेम अज्ञानिने अपमान सहित हसे ले तेम ते वात कहे जे अहो आ अगोतार्थने मूर्ख शिरोमणि एवा डे ने सिद्धांत रहस्यने नाश करनारा द ने हुंज समस्त सिद्धांत समुघनो पारगामीडं माटे हुँ जे बोई एज मुक्ति मार्ग इत्यादि.
टीका:-किमित्येवमुपहसती यत आह ॥ तद्वाक्यानमुवर्तिनोयतस्ते गीतार्थ । नत्सूत्रं मुक्तिपथप्रतिपादकं तद्वाक्यं नानुरुध्यंत इति ॥ अतएव दुःखमासमयजिनशासन नविष्य दशुननाव सूचक दुस्वप्नाष्टकांतः स्थवानरफलं विवृएवताहर जअसू रिणानिहितं ॥
अर्थ:-हवे ए केम एम उपहास कर ले तो त्यां कहे जे जे जे हेतु माटे ते गीतार्थ जे ते उत्सुत्र एवु मुक्ति मार्गने प्रतिपादन करनार तेमनुं जे वचन तेने अनुसरता नथी ते हेतु माटे एज का. रण माटे मुखमा समयने विवे जिन शासनमां यशे एवा जे अशुभ जाव तेनी सूचना करनार जे आउ मागं स्वप्न तेनी माये वानर फळ स्वप्ननो विस्तार करता हरिनसरिए कडं वे के.
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9. अय श्रीसंघपट्टकः
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टीका:बहु वानरमज्झगया-तव्वसहा असुश्णा विलिपंति॥ अप्पाणं अन्नेविय तहाविहं लोगहसणं च ॥ विरलाए मलिंपणया, तदन्नखिंसा न एयमसुत्ति ॥ मुनियो यं एयस्तन, चिवागमो नवरभायरिया ॥
टीका:-किल कस्यचित् पार्थिवस्य स्वष्टस्वप्नकलं पर्यनुयुजानस्य नगवान् श्रीमहावीरः समादिदेश। मयि मुक्तिमुपेयुष्याचार्या एवं विधानविष्यंतिपयथा चापलादिना वानरयूथाधिपकल्पा आचार्या वहवः पुरीपतुट्योत्सूत्रप्ररूपणेनात्मानं पा
वर्तिनश्च धेक्ष्यंति ॥ विरलतराश्च तन्मध्यानात्मानं नाप्यन्यानु सूत्रेण लेप्स्यति ॥
अर्थः--निश्चे कोइक राजा पोते दीठेलु जे स्वप्न तेना फळने जाणवानो विचार करीने श्री महावीर स्वामिने पूवा लाग्या त्यारे नगवान् तेने कहे ने जे, हुँ मुक्ति पामे ते श्रा प्रकारना आचार्यों थशे ते कहे जे चपळपणुं इत्यादि गुणवमे घणा आचार्यों वानरना टोकानो जे अधिपति मोटो वानर तेना जेवा थशे. ते विष्टा जे जे जत्सूत्र तेता प्ररुपणे करोने पोताना श्रात्माने तथा वीजा पोतानो पासे रहेनार लोकोने लेप करो तेमां श्रतिशे थोमा लोको पोताना यात्माने तथा वीजाने उत्सूत्रवमे नहि लीपे.
टोका-तथा चात्मानमुत्सूत्रेणा दिवानांस्तानवलोक्य तेह
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९.९३८)
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अय श्री संघपट्टका
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सिष्यति ॥ अहो एते बालिशाः शुद्धसिद्धांतदेशनामलयजरसेनसुरजिणाऽने ननात्मानं चर्चयंततितिदेतेषां यथोक्तागमार्थनाषकगीतार्थोपदसनंकुलधर्मः ॥ एवं च यत् स्वयमगीतार्थनिलयोपि गीतार्थानवमन्यते संप्रतितनरुढ्या तन्महाकष्टमित्युपमानोपमेययोस्तुल्यतया योजना ॥
__ अर्थः----वळी पोताना आत्माने उत्सूत्रवमे लेप नहि करनार एवा ते अगीतार्थोन जोइने ते गोतार्थ पुरुषो एम कहे जे जे अहो पातो अतिशेज मूर्ख जे जे सिद्धांतनी देशनारुप जे मलयचंदननो सुगंधीमान रस तेरो करीने पोताना आत्माने चर्चता नथी माटे ए श्रगीतार्थ पुरुषो जे जे तेमने आगमना अर्थने जाषण करनार एवा गीतार्थ पुरुषोनुं जे उपहास्य कर ते एमनो कुलधर्म के ए प्रकारे जे पोतेज गोतार्थनुं घर हे तो पण आ कालनी रूढिए करीने जे गीतार्थ पुरुषोतो अवगणना करे ने ते मोटुं कष्ट बे एम नपमान ने उपमेय वस्तुनो तुल्यपणानी योजना करवी.
टीका:-अत्र च सुग्धजनपुरतो निरंकुशं स्वकलितं चैत्यावासादिक मुत्सूत्रपथं प्रथयन् विधिविषयपारतंत्र्यप्ररूपणानि-: पुणान् सुगुरुसंप्रदायवर्तिनः सुविहितानसूययोपहसन् संप्रति , । वर्तमानः कुसंघाचार्योऽनया नंग्या कविना प्रतिपादित इति . वृत्तार्थः ॥ २९ ॥
अर्थ:-..यहां तो जो कोना साने निरंकुशंप से स्थापित
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-4 अथ श्री संघपट्टकः --
( ५३९ )
चैत्यं वासादि उत्सूत्र वतावनार ने विधिमार्गनी प्ररूपणा करवामा निपुण ने सुगुरुना संप्रदायमां वर्तनार सुविहित जनोनी हांसो करनार एवा आज कालना श्राचार्यो कविए या जंगोथी बतावी श्राप्यावे.
1
टीका:- सांप्रतं श्रुतपथावज्ञाद्वार मुपसंजिहीर्षुः शुद्ध जिन मार्गस्य दुष्टोपचितसमुदितकारणकलापेन संप्रति डुर्लनत्वं प्रतिपादयन्नाद ||
अर्थ:- हवे सिद्धांत मार्गनी अवगणनानुं जे द्वार तेनी समासि करवाने इता ग्रंथकार जे ते दुष्ट पुरुषोए वृद्धि पमाड्या जे घणांक कारण तेना समूहे करीने श्रा दुखम काळमां शुद्ध जिनराजनो जे मार्ग तेनुं दुर्लभपणुं वे एम प्रतिपादन करता बता ग्रंथकार कदे दे.
मूल काव्यम् ॥ सैषा हुंमावसर्पिण्यनुसमयहूसङ्गव्यजावानुभावा । त्रिंशश्रोग्रयोऽयंखखनखमितिवर्ष स्थितर्भस्मराशिः ॥ अंत्यं चाश्रर्यनेत किनमतहत येतत्सना माचे | त्येवं पुष्टेषु दुष्टेष्वनुकलमधुना दुर्लनो जैनमार्गः ॥३०॥
टीका:या श्रागमथेष्वागामितया लिखिनाकार्यते सा - एषा संप्रति काकस्या प्रत्यक्षत्वेपि तद्भवकार्याणा
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(१४०)
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अथ श्री संघपट्टक
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प्रत्यकोपलंनेनोपचारादेपेत्युक्तं ॥ अवसति प्रतिक्षणमायुःशरी रप्रमाणादयो जावा हानि गति प्राणिनामस्यामित्यवसर्पिणी सिद्धांतप्रसिद्धः कालविशेषः ॥ ९में सकलांगोपांगानां यथोक्तमानवैकल्पहेतुः षष्टं संस्थानं तेनोपलक्षित अवसर्पिणी हुमावसप्पियो व्युत्पत्तिमात्रं चेदं॥
अर्थः-जे श्रागम ग्रंथोने विपे हुँमावसर्पिणी आवशे, एम लखेलु संन्नलाय ने तेज था वर्तमान काळे प्रत्यक्ष जणाय . केमजे यद्यपि कालखें अप्रत्यक्षपणुं जणाय ने तो पण ते काळमां उत्पन्न थवानां जे कार्य तेनुं या काळमां प्रत्यक्षपणुंडे ए हेतु माटे आ हूं. मावसर्पिणी प्रत्यक वे एम कर्दा. जेन विषे प्राणीनां आयुष्य तथा शरीरतुं प्रमाण इत्यादिक नाव हानिने पामे डे एवो अवसर्पिणी सिद्धांतमा प्रसिद्ध काळ विशेष वे ने हुंम एटले समस्त अंग उपांगनुं जेम शास्त्रमा कलु दे ते प्रकारर्नु परिमाण हाल जणातुं नथी तेनुं कारणरुप जे बहुं संस्थान तेणे करीने या लेवाखमां था. वती एवी श्रा हुँमावसर्पिणी ने ए प्रकारे श्रा हुँमावसर्पिणी शब्दनी व्युत्पत्ति मात्र बे.
टीका:-तत्वतस्त्वनंततमकाललाव्यसंयतपूजानिबंधनं चैत्यवास्युत्पादहेतुः शुजनावहानिकारणं कालनेदो टुमा वसर्पिणी ॥ सा च लगवति मोहं गते जातेति । समयः परमसू. क्ष्मः कालस्ततश्चानुसमयं प्रति जव्यानां मुक्तिगामिनां अथवा नव्याःशुन्ना नावा:परिणामा अनुन्नावाश्च प्रजावा मतिनिश्चयावा ततश्च हसंतोहीयमाना नव्यन्नावानुन्नावा यस्यां सा तया॥
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अब श्री संघपटकः
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हुँमावसर्पिण्यां हि कालस्वानाव्याहार्थिनामपि प्रायेण नावा यादृशा वर्तमानक्षणेन तादृशाःक्षणांतर इत्यादिक्रमेण प्रतिक्षणं संक्वेशतारतच्याघ्राततयोपजायमाना नपलच्यते ॥ _ अर्थः----वस्तुताए तो अतिशे अनंतो काल जतां थनारी जे असंजतिनी पूजा तेनुं कारण ने चैत्यवासीनी उत्पत्तिनुं कारण ने शुज नावनी हानिनुं कारण एशे जे कालजेद तेने हुँमावसर्पिणी कहीए, ते जगवंत मोह गये बते थइ. परम सूक्ष्म एवो जे काल तेने समय कहीए.ते समय समय प्रत्ये मुक्ति जनार प्राणीना पण नाव अथवा तेमनापण शुन्नन्नाव एटले परिणामतथा अनुनाव कहेतां प्रत्नाव अथवा बुद्धिना निश्चय ते जेने विषे हानि पामे तेने हुँमावसर्पिणी काल कहीए. ते कालना स्वन्नावथीज धर्मार्थी प्राणीनना पण नाव वहुधा एवा देखाय जे जेवा वर्त्तमान क्षणमां देखाय ठे तेवाज वीजा क्षणमां नथी देखाता - त्यादि क्रमवमे कण कण प्रत्ये संक्वेशन तारतम्ययोगे सहित थयेला जणाय बे.
टीका:-तथा च प्रकरणकारेणैव प्रकरणांतरे प्रदर्शितं । कालस्स अकिलित तणेण अश्सेसिपुरिसविरहेण ॥ पायम जुग्गचेण्य, गुरुकम्मत्तेणय जियाण ॥ किर मुणियजिषमया विदु, अंगोकयस रिसधम्ममग्गावि ॥ पायमइकिलिहा, धम्म ही वित्य दीसंति ॥
अर्थ:--वळी प्रकरणना कर्ता पुरुरेज वीजा प्रकरणमां पा ए वात देखामी जे.
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अय श्री संघपट्टकः
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टीका-अन च दूसदित्यनेन संयोगपरत्वेपि पूर्ववर्णस्य न गुरुत्वं ॥ बंदः शास्ने व्यवस्थितयानुवृत्त्या कचित्तनिषेधात् ॥
अर्थ:-श्रा त्रीशमा काव्यमां सत् ए प्रकारना पदवमे संयोग परपणुं सते पण पूर्व अकरने गुरु संज्ञा थवाथी वृत्तनंग: थयो एम न जाणवू. केस जे लंद शास्त्रमा विकल्पनी अनुवृत्ति ला: वीन कोइ जगाए गुरु संज्ञानो निषेध कर्यो बे ए हेतु माटे.
___टीकाःतथा त्रिंशः जिनसिद्धांतोक्ताष्टाशीतिग्रहमध्या त्रिंशतः पूरणः॥ चः समुच्चये ॥ उग्रग्रहो जिनप्रवचनस्योदयो. पसर्गवर्गका रित्वादारुणो ग्रहः । अयमेष प्रत्यकोपलन्यमानकार्यों स्मराशिनामाखमाकाशं तस्य च शून्यत्वात्खमिति गणित ।' व्यवहारे शून्यविदोः संज्ञागा नखाइति च विंशतः संज्ञा॥ नखानां 'विंशतिसंख्यत्वात्ततश्च खं च खं च नखाश्चेति वंदना तैःपश्चानुपू. . याअंकरचनयां स्थापितैमितानी परिसंख्यातानि वर्षाणि संव- . सराः स्थितिरेकस्मिन् राशाक्वस्थानं यस्य स तथा ॥ एकराशौं वर्ष सहस्त्रयस्थितिकश्त्यर्थः ।।
-अर्थ:----त्रिशमो ग्रह एटले जिन सिद्धांतमां कहेला श्रग्याशी - ग्रह ते मध्ये आ जस्मग्रह त्रिशमो . चकार समुच्चय अर्थने जणवे . ए नस्मग्रह उग्रग्रह डे एटले अति आकरो ग्रह ने.केमजे जिन प्रवचनले मोटा आकरा उपसर्गने करनार . माटे मही दारुण कह्यो ते आ प्रत्यक्ष जेनुं कार्य जणाय ने एवो जस्मराशिनामी ग्रह वे हजार वर्षनी स्थितिवाळो ठे. ते वरसनी -
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अथ श्री संवपट्टका
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ख्या श्रा प्रकारे करी ठे जे ख केतां आकाश तेतुं शून्यपणुंचे मोटे ख शब्दवमे विमु ग्रहण करवो एवो शास्त्र व्यवहार ने.विंदु कहेवो होय त्यारे तेनो संज्ञा ख शब्दवमे थाय दे. नख ए प्रकारे वीशनी संज्ञा दे. केम जे वीश नख मनुष्यने ले माटे. खंखं नख ए त्रण पदनो इंछ समास करवो. पनी पश्चानुपूर्वी ते अंक करीए एटखे विपरीत करीए त्यारे वे हजार वर्ष सुधी एकराशि उपर जस्मप्रहनी स्थिति दे एम अर्थ थयो.
टीकाः-ल हिग्रहोजगवनिर्वाणकालानंतरं वर्षसहस्रम्यं यावत् क्रूरत्वाद्नगवजन्मराशौ संक्रांतत्वाद् नगवंतं च मुक्त लेन उःखीकर्तुमशक्तत्वात्तत्परतयैव प्रवचनस्य वाधां करिष्यति।।
अर्थः-ते ग्रह जगवत् निर्वाण श्रया पठी वे हजार वर्ष सुधी ने. क्रूरपणे नगवत्नी जन्मराशीसां संक्रम्यो ले ते जगवंत मुक्ति गया माटे तेनने दुबो करवा समर्थ नथी श्रतो. ते हेतु माटे तेमना पक्षरूप जे प्रवचन तेने बाधा करेठे.
टीका:-दृश्यते च लोषिकश्चित् कस्यचित् स्वप्रतिपक्ष स्य किंचिदमक नपारयोनहाकारेणापि तस्यापकृतं नविष्य तोति मूहतया मनात निधाय तसा तसा वार फुर्माणः ॥
अर्थः-लोकमां पाण एवी वात देवाय ठे जे कोक पुरुष श्क पोताना निसकि शत्रुने कार वा यसकार काला न समर्थ
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अथ श्री संघपट्टकः
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थाय तो ते पुरुष ते शत्रुना संबंधीनो अपकार करीने पण ते शत्रु. नो अपकार कर्यों एम मूढपणे मनमां धारीने ते शत्रुना पक्षपाति नो तथा तेना जेवानो अपकार करे बे.
टीका:-॥ यदुक्तं ॥
त्वं विनिर्जितमनोनवरुपः, सा तु सुंदर जवत्यनुरक्ता ॥ पंचनियुगपदेव शरैस्तां, तामयत्यनुश या दिव कामः॥
अर्थः ते वात ग्रंथांतरमां कही जे जे राजिमतीनो त्याग करनार नेमिनाथ प्रत्ये राजिमतीनी सखीनुं वचन “जे हे सुंदर जेणे कामदेवतुं रुप जीत्यु डे एवा तमो गे ने ते मारी सखी तो तमारे विषे अति आसक्त थडे माटे ते कामदेव तमने परानव करवा न समर्थ थयो माटे पश्चात्तापथी एटले तमारं वेर वाळवा ते राजिमतीने पांच बाणवमे संघाथे तामन करे .
टीका:----तथा ॥ यस्य किंचिदपकर्नुमक्षमः, कायनिग्रह गृहीतविग्रहः ॥ कांतवत्रसदृशाकृति कृती, राहु रिंकुमधुनापि बाधते ॥
अर्थ--जुवोने लोकमां पण ए वात प्रतिकडे जे जे हरिनो कंड पस अपकार करवा न समर्थ थयेलो ने पोतानां शरीरने हरिए नाश कयु ने तेथी विरोध ग्रहण करतो एवो राहु जे ते इरिना
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अथ श्री संघपट्टका
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(६४५)
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मुख सरखी जेनी प्राकृति ले एवा चंडने हजी सुधी पण पोमे . लौकिक शास्त्रमा एवी वात वे जे देव दैत्योए मळी मंडाचल पर्वतनो रवैयो करी वासुकी नागनां नेत्रां करी अमृत कहामयुं त्यारे देवतानो पंक्तिमा हरिए घमावसे अमृत पीरसवा मांन्युं त्यारे राहुए कपटथी सूर्य चंद्र ए वे देवता बच्चे पेसी नचुं मुख करी अमृत पीधुं ने गळे नथो नतायुं एवामांज हरिए सुदर्शन चक्रवके एर्नु माथु दैत्य जाणीने काप्युं त्यारे राहु हरिने काइ पण अपकार करवा न समर्थ थयो त्यारे हरिना मुख जेबो चंधने जो तेने हजु सुधी पण ग्रहणरुपे थश्ने पीमा करे बे.
टीकाः-तथा अंत्य दशमं चः पूर्ववत् आश्चर्य अनंत तमकालनाविवाद तमसंयतपूजाख्यं एतत् झानी प्रत्यक्ष जिनमतहतये आहतप्रवचना पत्राजनापादनाय ॥ तत्समानः प्रागुक्त स्त्रिनिः समा तुल्यवला दुष्यमा इष्टाः लोकःखका. रिएयः समा वर्षाणि यस्यां सा तथा ॥
अर्थः-वळी वेदयु दशमुं आश्चर्य, चकारनो अर्थ पूर्वनी पेठे जाणवो. ते असंयति पूजा वे नाम जेतुं ए, अन्न आश्चर्य तेनुं श्रतिशे अनंतो काळ गयेयी थवापणुं ए हेतु माटे एने अझुत कयु ठे ते हालमा प्रत्यद जिनमतने नाश करवा दिलना पमामवा थयेनुं जणाय ते. पूर्वे करेलांत्रश जे एक तो दुमावसपिणी तथा जमग्रह नया दशमुं याश्चर्य तेमणे समान एटले ए त्रण सरखो वसवंत दुप्यमा काल वन . लोकने मुम्वकारी वर्ष ते जेने विषे ते इष्मा कही.
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अथ श्री संघपट्टकः
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टीका:-कालचक्रस्य अमरकस्य पंचमोऽरकः यथा प्राक्तना स्त्रयः समुदिता जिनमतं निति तथा चतुर्थी पुष्यमापि ॥
॥ यदुक्तं ॥
उत्कर्षवत्पुरुषसिंह वियोगतोऽमी, नस्मग्रहप्रभृतयोऽहितवारणा ही ॥ जैन मतं तुवि महावनमस्तशंका, नंक्तुं कथं सपदि संप्रति संप्रवृताः॥
अर्थ:- जेना आरा ने एवं काल चक्र तेनो आ पांचमो थारो जे. जेम पूर्वना त्रण एटले ढुंगावसर्पिणी तथा जस्मग्रह तथा दशमुं आश्चर्य ए सर्वे मळी जिनमतने हणे ने तेम चोथो श्रादुर ज्मा काल पण जिनमतने हणे . ते प्रकरणकारे कयु ने जे, नरक वाळा ने पुरुपोमां सिंहसमान एवा मोटा पुरुषोना वियोगी आ जस्मग्रह आदि मदोन्मत्त हस्तिउँ पृथ्वीमा जैनमतरुपी महावनने निश्चे जागवा शंका रहित हाल केम शीघ्र प्रवर्त्या ?
टीका:-चः पूर्ववत् ॥ इति प्रकरणे ॥ एषु प्रकृतेषु झुमावसर्पिण्यादिषु एवं प्रदर्शितप्रकारेण प्रतिपदं सुविहितलाधवाऽ संयतगौरवापादनलक्षणदुष्टकार्यदर्शनाद् दुष्टेष्विव उष्टेषु क्रूरेषु पुष्टेषु प्रकर्षकोर्टि प्राप्तेषु हुँमावसर्पियादिषु चतुर्षु श्रनुकूलं प्रतिसमयं अधुना सांप्रतं फुर्लनो पुरापो जैनमार्ग प्रतिपत्तिविनकारियां हुंगावसर्पिण्यादीनां इष्टत्वात् ।।
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-g. अथ श्री संघपट्टक:
(५४७)
अर्थः-चकारनो अर्थ पूर्वनो पेठे वे. ए प्रकारे हुँमावसपिणी आदिक आरंजेला प्रकरणने विपे पूर्वे देखामघु ए प्रकारे पदोपदि सुविहितनुं लघुपणुं ने असंजतिनुं गौरवपणुं तेने करवा रुपी ठे लक्षण जेतुं एवं जे दुष्ट कार्य तेना देखवाथी दुष्ट जेवा महा थाकरा हूंमावसर्पिण। आदिक चार दुष्ट मोटा उत्कर्षने पामे बते सांप्रत काले समेलमे जैन मार्ग पामवो घणो दुर्शन केम जे जैनमार्ग पामवामां विघ्नकारी ईमावसर्षिण आदिकनुं पुष्टपणुंठे ए हेतु माटे.
टीकाः-तन्महिम्ना नूयोलोकस्य नवाजिनंदित्वात्कतिपयसाविकजनोपादेय इति यावत् ॥ जैनमार्गः प्रतिश्रोतोरुप नगवत्पथः॥ एतन्मध्यादेकोपि पुष्टःपुष्टः स्वकार्यकरणसमर्थः किंपुनः संप्रति सर्वेऽपि मिलिताः॥ ततो यथा कुष्टेषु चरटादिपु प्रत्नविष्णुपु पुरादिमार्गों जिगमिपतां पुर्गमो नवति तथा नग. वन्मार्गोप्यधुनैतेषु सत्स्विति ।।
अर्थ:--ते दुमावसर्पिणी श्रादिकना महिमा मे घणा सोकोने जवानिनंदिपणुं थयु ते ए हेतु माटे, योमाक साविक सोकोए जेन मार्ग ग्रहण कर्यो . केम जे जगवंतनो मार्ग ते ते प्रवाह मारगयी विपरीत ठे. लुमावसर्पिण आदित्रण दृष्ट कारण मध्ये एक कारण पण जो पुष्ट थाय तो पोतानुं काम करवा समर्थ थाय ते. तो सांप्रत का सर्वे दुष्ट कारण एका मळ्यां तेमां शुं कहे ? ते हेतु माटे. जेम पुष्ट चौरादिक अति ममर्थ यये ठते नगरादिकनो मारग जवाने इच्छनार लोकोने पुर्गम बाय द एटले
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(५४८)
8. अय श्री सघपट्टकः
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दुष्ट चौरादिना नयथी ते मार्गे जश् शकातुं नथी तेम जगवाननो मार्ग पण हालमां ए त्रणेनुं घणुं बळ थये बते सहज पमाय एवो नथी. महा दुःखथी मार्गानुसारीपणुं पमाय ए नावः
टीका:-आगमेप्युक्तम् ॥ दूसमहुँमावसर्पिणी जसमग्गहपीमियं इमं तित्य। तेण कसाया जाया, कूरा इहसंजयाणंपि॥
अर्थ:-आगममां पण ए वात कही जे सुषमा काख हुँमावसर्पिणी रुप तथा लस्मग्रह तेणे आतीर्थ पीमयुं ते माटे संजतीने पण आकरा कषाय नुत्पन्न थाय बे.
टीकाः-अनुश्रोतोरुपस्तु जैनमार्ग इदानीमपि सुखन्नः येषामेव हूंमावसर्पिण्यादीनां सन्मार्गप्रवृत्ति प्रति प्रातिकुक्ष्यं तेषामेवासन्मार्गप्रवृत्ति प्रत्यानुकूदयादिति ॥
अर्थः-लोक प्रवाह रुप जैन मार्ग तो सांप्रत काळमां पण सुगम ने जे हुँमावसर्पिणी श्रादिकने सन्मार्गमा प्रवृति करवा प्रत्ये प्रतिकूलपणुंज ले तेमनेज असन्मार्गमा प्रवृत्ति करावा प्रत्ये अनुकूलपणुं बे एटले सुखे करावे ले.
टीका-इत्थं यद्यपि लिंगितिः प्रकटिता जूपृष्ट ऋत्स्नावनीरुद्यत्रप्रमितावतः श्रुतपथावज्ञानसंज्ञान्वितैः ॥ कल्पनापिकलावता कलयितुं साकल्पतो दुःशका, संबोधाय तथापि मूढ मनसामेषा दिगादर्शितेति वृत्तार्थः ॥ ३० ॥
इति श्रुतावा नामे नवमो बार संपूर्ण श्रयो
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अय श्री संघपट्टका
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टीकाः-एवं तावदष्टादशनिवृत्तः प्रबंधेन लिंगिनां श्रुतपथावज्ञा प्रतिपादिता ॥ संप्रति तैरेव धर्मतया प्रतिपादितं गुणिद्वेषधी रिति झार निराकुर्वस्तेषां गुणिदर्शयन्नाह ॥
अर्थः-ए प्रकारे अढार वृत्तवंधि काव्यना विस्तारवके लिंगधारियोनी करेली सिद्धांत मार्गनी अवज्ञा एटले अवहेलना ते कही देखामो. हवे सांप्रत काले ते लिंगधारीए जे धर्मपणे प्रतिपादन करेलु गुणि देवधी एटले गुणि पुरुषोना उपर देष बुद्धि राखे ते हारतुं खंमन करता उता ते लिंगधारीनने गुणिजन उपर देष ले तेने देखामता उता कहे .
मूल काव्यम्.
सम्यग्मार्गपुषः प्रशांतवपुषः प्रीतोल्लसच्चक्षुषः श्रामण्यचिमुपेयुषः स्मयजुषः कंदर्पकक्षप्लुषः॥ सिद्धांताध्वनि तस्थुषः शमजुषः सत्पूज्यतां जग्मुषः सत्साधून विरुषः खताः कृतदुषःदाम्यति नोद्यङ्गुषः ३१
टीकाः-खलाः सत्साधून् न दाम्यंतीति संबंधा।तत्र खला गुणीमत्सरिणः प्रकरणालिंमिनः कृतदुप इति ॥ दुपधातुः क्वि. वंतोऽत्रदोपपर्यायस्ततश्च कृता विहिता दुयो दोपाःस्वयमनेकानयी येस्ते तथा ॥ तत्त्वजावत्वानेपां ।। अथवा कृताथारोपिता इपो दोषा वेस्त तथा ।।
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१५५०)
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अय श्री संघपट्टका
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- अर्थः-खल पुरुष साधु उपर क्षमा नथी राखता. खल ते कीया पुरुष जाणवा तो गुसी पुरुषो उपर मत्सर राखनारा ते याप्रकरण वाथी लिंगधारी जाणवा. ते केवा जे? तो कर्या ने पो. तानी मेळे अनेक प्रकारना अनर्थ ते जेमणे एवा ले. केम जे ए लिंगधारीउने अनर्थ करवानोज स्वन्नाव होय ए हेतु माटे. अथवा गुणी पुरुषोने विषे आरोपण कर्या जे दोष ते जेमणे एवा . विकार वाचक दुष घातुनुं दोष रुपी पर्याय शब्द वाचक दुष ए प्रकारर्नु क्विबंत रुप बे.
टीका:--निर्मलेष्वपि सन्मुनिगुणेषु लोकमध्ये लाघवापादनाय स्वधिया विहितदोषारोपा इत्यर्थः ॥ गुणवत्स्वसदोषारोपणस्य तेषां कुलवतत्वात् ॥
॥ तदुक्तं ॥ लानार्थ मलिनांशुके कितवतां कष्टक्रियाधायिन, प्रादुर्दानिकतामनिग्रहरुचौ पंक्त्यर्थतां दंतरि ॥ गुप्तांगे बकवृत्तिां च तपसा शस्ये नमस्येच्छता मित्थं हंत न दुषति यतिनां हो लिंगिनः कान् गुणान् ॥
अर्थ:--निर्मळ एवाय पण सारा मुनिना गुण विद्यमान वते लोकमां ते मुनियोनी लघुता प्रतिपादन करवा सारु पोतानी बुद्धि वो कयु ने दोषतुं आरोपण ते जेमणे एवा लिंगधारी के. केम जे गुणीजनने विषे फूग दोषतुं आरोपण करवू.ए प्रकारर्नु ए लिंग
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(५९१)
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अथ श्री संघपट्टका
धारीउँना कुलनुं व्रत ते एटले लींगधातीउँनी कुछ परंपरा ए प्रकारनीज ने. ते शास्त्रमा कछु ले जे लिंगधारी गुणो पुरुषना गुणने विपे या प्रकारे दोषतुं प्रारोपण करे . जे गुणो पुरुषो जो मलोन वस्त्र राखे तो तेमां आवो दोष दे दे जे एतो लोचने अर्थ एवां वस्त्र राखे ते एटले कोऽ प्रकारनी वस्तु मळे ते सारु राखे ते पण एमना एवा नाव नथी ने गुण। पुरुषो अनेक प्रकारनी कष्ट क्रिया करे तो तेमां कपटरुपी दोष परवे . ने अनेक प्रकारना अनिग्रहनो रुचि राखे तो तेमा दलरुपि दोष परवे . ने दना गुण राखे ने तेमां कीर्तिनी श्वारुपो दोप दे . एटले दमा गुण देखोने एम दोप देठे जे एतो पोतानी लोकमां कीर्ति वधारवा सारु सहन करे . ने जो पोतानां अंगोशंग गोपनीने चाले तो तेमां एम दोष परवे
जे एतो बगलानी पेठे बारणेथी एवं वर्तन देखा ले पण अंत.. रथी एवा नथी. ने जो तपवने प्रधानपणुं देखा तो एम दोष दे ले जे लोक नमस्कार करे, पूजे एटला सारु तप करे ठे पण बीजी श्छा नथी. ए प्रकारे गुणि पुरुषोना सर्वे गुरामां लिंगधारोन दोष कल्पे ठे. निश्चे एवा गुणी पुरुषोना एवा कया गुण ठे जे जेमां लिंगधारीए दोष नथी दीघो? सर्वे गुणमां दोपर्नु अारोपण करे ते.
टीका:-ते हि तद्गुणानसहमानास्तानिंदति ॥
॥ तदुक्तम् ।। वाणानिव गुणान् कर्ण-मागतानसहिष्णवः ॥ पीमापादनतोऽ त्रीमा निदति गुणीनां खलाः ॥
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अथ श्री संघपट्टका
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अर्थ:---ते लिंगधारीन निश्चे ते मुनिना गुणने सहन करी शकता नथी, माटे तेमनी निंदा करे जे. ते वात कही ये जे गुणी पुरुषोना गुण लिंगधारीउना काने आवी पमेने त्यारे तेमने बाण सरखा जणाय डे; तेनुं सहन करी शकता नथी. केम जे ते गुण एमने पीमाकारी थाय , माटे निर्लज थया बता खल पुरुषो गुणी पुरुषोनी निंदा करे .
टीका:-उद्यद्भुषः निनिमित्तं सुविहितदर्शनमात्रेणैव प्रकटितललाटतटनकुट्यादिक्रोधविकाराः न काम्यति न सहते द्विषतीत्यर्थः ।। अत्र देशेऽमीषां प्रचारेण वयं लोकस्यागौरवा नविष्याम इत्यादि बुझयामात्सर्यात्तत्रावस्थातुमेव तेषां न ददती त्यर्थः॥ सत्साधून सुविहितयतीन् सत्साधुत्वमेवानुगुणवि. शेषणैस्तेषां नावयति ॥
अर्थ:-कारण विनाज सुविहितने देखवा मात्रथीज प्रगट कर्या बे ललाट उपर कुटी चमावी देवी इत्यादिक क्रोध विकार ते जेमणे एवा बता नथी सहन करता. एटले देष करे ले. कारण के ते एम जाणे जे जे जो आ देशमां सुविहित मुनिनो प्रचार थशे तो थापणा उपरथी लोकनुं गौरवपणुं उतरी जशे. एटले लोक तेमनुं बहु मान करशे, इत्यादि बुझियो तेमना उपर मत्सरपणुं राखीने ते देशमां सुविहित साधुने रहेवाज देता नथी एटलो अर्थ हवे सत्साधुपणानेज घटतां विशेषण श्रापी प्रगट करे .
टीकाः-सम्यग्मार्गपुषः जगवत्प्रणीतज्ञानादित्रयरुप
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अप श्री संघपटकः--
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मोक्षपथस्य जव्यानां शुद्धोपदेशप्रतिवोधहारेण विस्तारकान् ।। एतेन तेषामुत्सूत्रनाषणप्रतिषेधमाह ॥
_ अर्थ:-नगवंते कहेलो ज्ञान दर्शन चारित्ररुप जे सोक्ष मार्ग तेनो नव्य प्राणीउने शुद्ध उपदेशनो प्रतिवोध थाय ए धारे विस्तार करनारा. एणे करीने ते मुनियोने उत्सूत्र नापण करवानो निषेध ने एटले मुनि उत्सूत्र जापण नथी करता एम ए विशेषणवमे जणाव्युं ते कहे .
मुनियों
मे जगात मुनि
टीका:-प्रशांतवपुएः पहिरल दितरागादि विकारशारिरत्नाजः एतेनांतरमपिप्रवलरागाद्यन्नावं प्रकाशयति ॥ अंतस्तदनावे वहिः सर्वदा प्रशांतत्वानुपपत्तेः॥
अर्थः जे वायणेथी नयी जणाता रागादि विकार ते जेमां एवा शरीरने अंगीकार करता एटले जेतुं अंग जोतां रागादि विकार को प्रकारे जगाता नथी. ए विशेषणे करोने अंतर संबंधी पण प्रवल रागादिफनो अनाव के एम प्रकाश थाय ते. जो अंतरमा रागादिक होय तो निरंतर बारणेथी प्रशांतपणुं न रहे ए हेतु माटे.
टीका:---प्रीतोहसबापः हिपानपि पनीत्य प्रसन्नांन्फु. ललोचनान् । एतेन वहिः कोष विक्षारपरिवारमाविःकरोति ॥ श्रामण्यहि प्राणानियानविरमणादिपंचमानविनिमुपयुम यासेऽपः । एनेन दीवामृतं सर्वविनिलाई कशेयति ।।
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(५५४)
8. अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः----षीने देखीने पण प्रसन्न अने प्रफुल्लित ने नेत्र ते जेमनां एवा सुविहित मुनि ने ए विशेषण बारणेथी कोप विका. रनो परिहार प्रगट करे . अंतरमां कोप विकार होय तो बहारथी निरंतर प्रशांतपणुं न रहे ए नाव . प्राणातिपात विरमणादि पंच महावत रुप उकुराश्ने पामेला सुविहित मुनि ने ए विशेषण दीक्षा जेनुं मूल बे एवी सर्व विरतिरुप संपदाने देखा .
- टीका:-स्मयमुषः अहंकारतिरस्कारिणः॥ एतेन वारिमत्वविद्वत्वादावलिमानहेतौ सत्यपि तदलावं प्रकटयति ॥ (सत्सू. त्रक्रियान्तिः) कंदर्पकक्षप्लुषः मन्मथशुष्कतृणदाहिनः ॥ एतेन सर्वव्रतमध्ये निरपवादब्रह्मवतदाढ्यं दृढयति ॥
अर्थः-अहंकार ने तिरस्कार करनारा ए विशेषण अजिमाननां कारण रुप जे सुंदरवाणीपणुं तथा विधानपणुं ते सते पण अहंकार नथी एम प्रगट करे . सत्सूत्रनी क्रियानबके कामरुपी, सूका तृणने बाळनारा ए विशेषण सर्व व्रत मध्ये अपवाद रहित एवं ब्रह्मवत ने तेनुं दृढपणुं सुचवे बे.
टीका:-सिकांताध्वनि शुद्धागममार्गे तस्थुषः स्थितवत स्तत्परा नित्यर्थः ॥ एतेन स्वयमुत्सूत्र क्रियानिषेधं प्रतिपा.
दयति ॥ समयुषः समाजाजः ॥ एतेनांतरेपि क्रोध निरा. सं झापयति ।।
' अर्थ:---सिद्धांत मार्गने विषे रहेला एटले. तत्पर एटखो
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9 अप श्री संघपट्टक:
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(५५५
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अर्थ ए विशेपण पोते नुत्सूत्र क्रियानो निषेध को लेते प्रतिपादन करे ठे ने क्षमावाला ए विशेपण अंतरमां पण क्रोध नथी, एम जणावे ठे.
टीका:-सत्पूज्यतां विवेकिजनसेव्यतां जग्मुपः प्राप्नुषः एतेन सकलश्रमणगुणसंपत्तिमाविनीवयति ॥ निर्गुणानां विवेकीलोकपूजनाऽसंजवात् ॥ विपुषः विचक्षणान् ॥ एतेन स्वसमयपरसमयसारविडरतां विस्फारयति ।।
अर्थ:-वळी विवेकी लोकोने सेववा योग्य पणाने पामेला ए विशेषण समस्त साधुगुणनी संपनिने प्रगट करे ने केम जे जे साधु गुण रहित तेनुं विवेकी लोको पूजन करे एम संचवतुं नथी ए हेतु माटे. वळी विचक्षण एवा ए विशेषण पोताना सिद्धांतनो तथा अन्यदर्शनीना सिकांतनो जे सार तेनुं सारी पेठे जाण पष्टुं फोरवे , विस्तारे वे.
टीका-- न चैवं गुणशालिषु यतिषु वेपः कर्तुं युक्तः॥श्र. पीयसोपि तदुपस्य सकलगुणिगतगुणपरूपत्वेनानंतनव ब्रमण निबंधनत्वात् ॥
॥ यक्तं ॥
सम्यक्त्वज्ञानशील स्पृश इह गुणिनः साधवोऽगाधमेधा । स्तेषु पो गुणानां गुणिनि रजिदया वस्तुनः स्याद्गुणेषु ।।
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.(५५६)
8. अथ श्री संघपट्टकः
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M AMAAmine
सर्वस्थानां गुणाना मवगमनमतोऽहाय मिथ्यात्वमस्मा ।' तस्माद् भूयो जवाब्धिन्त्रमणमिति गुणिषधीर्वजनीया ।।
अर्थ:---ए प्रकारे गुणवमे शोजता मुनिने विषे द्वेष करवो युक्त नथी केमजे अतिशय उंगे एवो पण ते मुनिनो द्वेष ने तेने सकल गुणीजनने विषे रहेलो जे शेष ते रुपपणुं ने ए हेतु माटे अनंत जव ब्रमणतुं निबंधनपणुं ले ए हतु माटे, एटले एथी अनंतो जव ब्रमण थाय एवो कर्मबंध थाय बे. ते वात शास्त्रमा कही जे जे श्रपार बुद्धिवाळा महागुणी साधु पुरुषो केवा ले तो समकितवाळा तथा ज्ञानवाळा तथा शीलवाळा तेवा मुनिनने विष रहेला जे गुण तेने विषे जे वेष करवो ते वस्तुताए गुण गुणीनुं अनेदपणुं ले ए हेतु माटे सर्वे गुणोजनना गुणनी अवगणना थमाटे एथी शीघ्र मिथ्यापणुं प्राप्त थाय ने तेथी वारंवार जव समुअमां नवज्रमणपणुं थाय ए हेतु माटे गुणी पुरुषो नपरथी वेष बुद्धि त्याग करवी.
टीका:--सिकांतेऽप्यन्निहितं ॥ जरहेरवयविदेहे, पंनरस विकम्मलुमिया साहू ॥ एकमि हीलियंमि, सवे ते हिलिया हुँ ती॥ संतगुणायणा खदु परपरिवाउंय होइ अलियंच॥धम्मे वि अबहुमायो, साहुपन से य संसारो॥ ततः प्रेक्षावता गुणिषु बहुमान एव कर्तव्यो न केष इति वृतार्थः॥३१॥
अर्थ:- ते वात सिद्धांतमां पण कही ने जेनरत औरवत तथा विदेह तेमां पनरकर्मभूमियो . तेमां एक साधुनी जो हीलना करे तो सर्व साधुनी हीलना करी एम थाय ने बता गुणतुं आना
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A. अथ श्री संघपट्टकः
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दन करवू तथा पारको परिवाद करवो तथा जूटुं बोल तथा धर्म नुं बहुमान न करतुं तथा साधुने विषे प्रवेप करवो ए संसार .ए हेतु माटे बुद्धिमान् पुरुषे गुणीने बहुमानज करवो पण वेष न करवो. एम श्रा काव्यनो अर्थ ॥३१॥
टीका:-अथ कथमेवंविधानपि सत्साधून् खला न दा. म्यति ॥ मिथ्यात्वप्रावल्यादिति ब्रुमः ।। अत एव तहतो मूढ जनस्य नाम जैनपथवर्तिनः स्वरुपं निरुपयन्नाह ।।
अर्थ:-हवे आ प्रकारना सत्साधूने पण खल पुरुष केम सहन नथी करता? तो मिथ्यात्वना प्रवलपणाथी सहन करता नथी एम कहीए ठीए, ए हेतु माटे प्रवल मिथ्यात्ववाळाने मूढजनने नाम मात्र वझे जनागमा रहेनारा तेमनुं स्वरुप निरुपण करता उता कहे .
॥ मूल काव्यम् ॥ देवीयत्युरुदोषिणः दतमहादोषा न देवीयति । सर्वशीयति मूर्खमुख्यनिवहं तत्वज्ञमझीयति ॥ उन्मार्गीयति जैनमार्गमपथं सम्यक्पथीयत्यहो। मिथ्यात्वग्रहिलो जनः स्वमगुणाग्रण्यं कृतार्थीयति॥३शा
टीका-मिथ्यात्वहिलो जन नरुदोषिणो देवीयतीत्या
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(५५८)
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अय श्री संघपट्टका
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दिसंबंधः॥ अहो इति विस्मये ग्रहः चैतसोऽसनिबंधः सोऽस्यास्तीत्यस्त्यर्थे श्ल प्रत्ययस्ततिः॥इह मिथ्यात्वं प्रकरणादानिनि वेशिकं गृह्यते ॥ प्रायेण जैन मिथ्यादृष्टीनां गोहामाहिल. माइणेत्यादिनानिनिवेशिकस्यैव तस्य प्रतिपादनात्॥ ततश्च तेन - अहिलः प्रबलमिथ्यानिनिवेशग्रहग्रहीत इत्यर्थः ।।
अर्थ----मिथ्यात्ववके घेलो थयेलो जन घशा दोषवाळाने देवता जेवो गणे . इत्यादि आकाव्यमा संबंध के. अहो ए प्रका. रना अव्ययनो आश्चर्य अर्थ जे. एटले आ वात अचरिज . चि. तनो कदाग्रह जेने एवा अर्थने विषे तद्धितनो श्लू प्रत्यय आवीने ग्रहिल शब्द थयो . आ जगाए प्रकरण वशथी आलिनिवेशिक मिथ्यात्व ग्रहण कर. बहुधा जैन मिथ्यादृष्टि लोकोनुं गोहामाहिल इत्यादि शास्त्र वचनवमे आनिनिवेशिक मिथ्यात्वनुंज पतिपादन कयु ते हेतु माटे आन्तिनिवेशिक मिथ्यात्ववके घेलो थयेलो एटले प्रबळ एवो जे मिथ्या अनिनिवेश ते रुपी जे ग्रह तेणे करीने घेरायलो एटलो अर्थ दे.
टीका:-जनोधर्मध्वजितदनक्तश्राझलोकः उरवो महांतो यतिजनस्यात्यर्थमनुचितत्वेन दोषा अपराधा रागद्वेषप्राणातिपातादय उरुदोषास्तहतः आचार्यादीनिति गम्यं ॥
अर्थः-ए प्रकारनो लिंगधारीजनो नक्त श्रावकलोक जे ते मनिजतने अतिशय अनुचित एटले अघटता माटे जेने दोप कहे
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अय श्री संघपट्टका
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(५५९)
एवा रागय प्राणातिपात यादिमोटा दोष तेणे सहित एवा आचार्य प्रमुखने देव जेवा जाणे .
टीका....देवीयति देवानिव जिनानिवाचरति यादशा देवा नीरागा अतिशयादिमंतश्च ताशाअमीतस्नादाराध्याति देवस्तानु पमिमोते ॥न च तादृशां तदुपासनं समीचीनातेपां महादोपवत्वेन देवोपमान विधानस्य महापातकहेतुत्वात् परं मिथ्यात्वस्य विपर्यसरूपत्वाविपरीतबुद्धिस्तादृशानपि तथोपमिनोति ।। एवमुत्तरपदेष्वपि नावनीयम् ॥
अर्थः--.एटले जिनदेव जेवा जाणे वे. जेवा जिनदेव वीत. रागी ठे तथा अतिशयादिमंत ले तेवा आ पण , माटे आराधना करवा योग्य ते ए हेतु माटे देवता संघाथे तेमन उपमान करे ठे एवा दोपवंत पुरुषोनी उपासना करवी ते ठीक नथी. केमजे ते महादोपवाळा ठे ए हेतु माटे तेमने देवनी उपमा करवी तेने म. हापापर्नु कारणपणुं ते. परंतु मिथ्यात्वनुं विपर्यास रुपपणुं ते. एटले विपरीत बुद्धि, नत्पन्न करवापणुं ते तेथी तेवा दोपर्वतेने पण देवनी उपमा देठे एम आगळ पदमां पण नावना करवी.
टीका:-तमहादापान प्रनष्टप्रागुक्तदपराधान युगप्रधानादीनिति शेषः अदेवीति थदेवानिवाचरति ॥ नामी. देवनदृशाः नदोपत्वा निरतिशयत्वाच तन्मादनाराध्या इति श्शन बक्षीणप्रायमन्त्रादापाणां दवन्यमानं सिद्धांत युदिनं ।।
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(५६० )
. अय श्री संघपट्टकः
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अर्थः-नाश पाम्या के पूर्व कहेला मोटा अपराध ते जे. मना एवा एटले युग प्रधानादिक एटर्बु उपरथी लेवू. एवा मोटा पुरुषोने पण अदेव जेवा गणे . शुं कहे बे? तो ए युग प्रधानादिक जे ते देव सरखा नथी. केमजे दोष सहित जे ने अतिशय रहित ठे माटे एमनी आराधना करवी. या जगाए प्राये जेमना दोष नाश पाम्या ने तेमने देवनी उपमा सिद्धांतमां पण कही .
टीका:-पमिरुबोतेयस्ती इत्यादावाचार्यगुणवक्तव्यतायां प्रतिरुपः सिद्धांततात्पर्यपरिददेशनातिशयवत्वादिना सहित षयबुद्धिजनकत्वात्तीर्थंकरप्रतिबिंवरुप इति व्याख्यानात् ॥ सच विपर्यस्तमतित्वात्तथा न करोति ॥
अर्थ:---पभिरुव इत्यादि गाथा वने आचार्यना त्रीस गणों कहेवाने अवसरे सिद्धांतना तात्पर्यतुं परिमाण करी केवा रुप अतिशयवाळा आचार्य ने इत्यादि सिद्धांत संबंधी बुझिनु न. त्पन्न थवा पणुं तेमने विषे रघुबे, माटे ते आचार्य तीर्थकर समान के एम गाथातुं व्याख्यान ले. ते आचार्यने विपरीत बुद्धिवाळा पुरुषो देवनी नपमा नथी करता.
टीकाः-एवमदेवप्राये देववुछिर्देवप्रायेचादेवबुद्धिरिति मिथ्यात्वरुपं प्रतिप्राद्यागुरौ गुरुवुझ्यादिरुपं तदाह ॥ सर्व झीयति सर्वज्ञमिव सर्वविदमिवाचरति मूर्खमुख्यनिवह अझचूमामणिसमुहं स्वान्युपेतगस्थितं यतिजनं यथा सर्वज्ञसहशोऽयं मदीययति जनः किं किं शास्त्रजातं न वेत्ताति ॥
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अथ श्री संघपट्टक:
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अर्थः- प्रकारे अदेव जेवाने विषे देवबुद्धिने देव जेवाने विषे अदेवबुद्धि ए प्रकारे मिथ्यात्वनुं रूप प्रतिपादन करीने अगुरुने विषे गुरु वृद्धि करवी इत्यादि मिथ्यात्व स्वरूप के तेने कहे .जे मोटा मूर्खना समूह ने तेने सर्वानी पेठे आचरण करे एटले सर्वज्ञ जेवा जाणे ने. पोते अंगिकार करेला गठमां रहेलो यतिनो समूह तेने ज्ञानि विद्वान पंमित जाणे जे अमारा गछना यति लोको शुं शुं शास्त्र नथी जाणता? सर्व शास्त्र जाणे इत्यादि।
टीकाः तत्वज्ञ षदर्शनकिकर्कशधियं स्वपरसमय निर्णयनुमि सूरिविशेष अझीयति अज्ञमिव बाविशमिवा. चरति ॥ यथा न किंचिदप्येप जानाति ॥ श्रयमर्थः ॥ नहि मूर्खशिरोमणेः सर्वज्ञेनोपमानं युक्तं ॥ नापि तत्वज्ञस्याझेन ।। अत्यंतमनुरुपत्वात् ॥ परं स मिथ्याज्ञानादेवमपि करोति ॥
अर्थ:-वळी तत्वनो जाण एटले उदर्शन संबंधी तर्क वि. चार करवामां तीखी जेनी बुद्धि , जावार्थ ए जे पोताना द. र्शननां जे शास तथा वीजा दर्शननां जे शास्त्र तेनो निर्णय · करवामां सीमारुप, ए जेवा वीजा कोइ नहि एवा सूरि विशेषने एटसे एवा कोइ श्राचार्यने अज्ञानीनी पेठे जाणे ठे एटले एआचार्य कांश पण जाणता नथी श्राश्रर्थ सिद्धथयो. जेमुर्ख शिरोमलिनी सर्वज्ञ साये जे नपमा करवी ते युक्त नथो. ने तत्वज्ञ पुरुपनी श्रझानी साधे उपमा करवी ते पण युक्त नथी. केम जे अत्यंत श्रयोग्यपणुं वे ए देतु माटे, परंतु ते मिथ्याज्ञानयी एम पण करे .
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(१२)
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अथ श्री संघपट्टका
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टीका:-अधुना अमार्गे मार्गबुद्धयादिरूपं मिथ्यात्वं द. शेयतिउन्मार्गयति ॥नन्मार्गमिव उत्पथमिवाचरति जैनमार्ग शुद्धं जगवत्पथं ॥ यथा नायं नगवत्प्रणीतो मार्गः किंतू सूत्र इति ॥ अपथं कुमार्ग प्राक् प्रतिपादितमौदेशिकलोजनादिकं स्वकल्पितं सम्यक् पथीयतिसम्यक् पथमिव सन्मार्गमिवाचरति॥
अर्थः-हवे अमार्गने विषे मार्ग बुजि थवारुप मिथ्यात्वने देखामे जे जे शुद्धनगवत्ना मार्गने नन्मार्गनी पेठे आचरे के एटले उन्मार्ग जेवो जाणे जे जे आतो नगवाननो कहेलो मार्ग नथी एतो नत्सूत्र मार्ग के इत्यादि. वळी पूर्वे प्रतिपादन करेलु जे पोतार्नु कपोल कल्पित उद्देशिक जोजनादि तेने सारो मार्ग जाये ने. सारा मार्गनी पेठे आचरण करे .
टीका अत्रापि यजिनमार्गस्य चंवत्प्रकाशकस्योन्मा. गैण तामसेन साहरापादनमुन्मार्गस्य च सत्पथतुल्यतापादनंत मिथ्यात्वोदयादिति ॥ तथा स्वमात्मानं अगुणाग्रएयं निर्गुण धुरंधुरंकृतार्थीयति कृतार्थमिव विहितसकलप्रयोजनमिवा चरति ॥ अत्रापि स्वस्य निर्गुणमुख्यस्य कृतार्थेन गुणिमुख्ये. नोपमानमा विद्यावत्वादिति ॥
अर्थः-अहीं पण जे जिनमार्ग चंड सरखो प्रकाशवंत ठे तेन नन्मार्गरूपी जे अंधकारनो मार्ग तेनी साथे सदृशपणुं प्रतिपादन करे ते मिथ्यात्वना उदयथो करे . वळी पोतानो श्रात्मा
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अथ श्री संघपट्टका
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जे गुण रहित पुरुषोमा धुरंधर एटले अग्रेसर ते तेने कृतार्थ जेवो जाणे ते एटले जाणे सकळ प्रयोजन करी रह्यो होय ने शुं एम संपूर्ण गुणवाळो माने . अहीं पण गुण रहितमा मुख्य एवो पोतानो आत्मा ले तेने गुणीजनमा मुख्य एवा महांत पुरुषोनी साथे उपमा करवी तेनुं कारण पोताने विपे रहेढं अविद्यापणु एज ले.
टीका:-एवं तावदोकोत्तरिकजन विषयं मिथ्यात्वस्वरूपं प्रदर्य वाह्यलोकविषयमपि प्रसंगात् किंचित्तदर्यते ॥ मिथ्या. स्वपहिलो जनः श्रनिग्रहिकादिमिथ्यात्ववान् जिनमतबहिर्जु.. तो लोकः देवीयति देवानिवाचरति मुक्त्यर्थमाराध्यतया देवत्वेनान्युपैतीति यावत् ॥ उरुदोषिणो रागादिमतो लोकमतीतान् देवान् ॥ तमहादोषानू वीतरागान् लोकोत्तरविश्वतान् अदेवीयति अनाराध्यत्वेनाऽनुमन्यते ॥
अर्थः--ए प्रकारे प्रथम लोकोत्तर संबंधी जे पुरुष तेमने आश्रीने जे मिथ्यात्व तेनुं स्वरुप देखामीने वाहिर लोक एटले अन्यदर्शनी तेने आश्रीने जे मिथ्यात्व तेने प्रसंगवशथी कांक देखामे ते जे थान्निग्रहिकादि मिथ्यात्ववाळो जिनमतथी वाहिर चयेलो एवो लोक जे ते रागादि घणा दोप जेमा रहेता एवा खोकमां प्रसिद्ध जे देव तेमने मोदने अर्थे आराधवा योग्य देवपणे धंगिकार करे . माटे अदेवने विपे देवपणानी आचरणा करे ठे ने जेमना दोष नीश पाम्या ठे एवा वीतरागने अदेव जेवा गणे एटझे भाराभवापणे नथी मानता.
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अब भी संघपहका
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टीका: अंथ कथमेतन्मिथ्यात्वमितिचेत् ॥ उच्यते ॥ दोषवंतां देवत्वानावात् ॥ तथाहि ॥ सादात् कृतधर्मा निरीह
खेने परोपचिकीर्षाप्रयुक्तो यो मुक्तिमार्गमुपदिशतिः स देवश्त्या । तति चोच्यते॥न च रागादिमत एतसदणं संगच्छते। तर • चनस्य... प्रबल विप्रलंजकवाक्यवधिसंवादित्वाहिसंवादकवक नाच प्रेक्षावतां प्रवृत्यनुपपत्तेः॥
. अर्थः हवे लिंगधारी पूजे जे ए मिथ्यात्व केम कहो हो? तोतिनो उत्तर कहे जे दोषवाळाने देवपणानो अजाव ले ए हेतु माटे तेज देखाने में जे-जेणे धर्मनो साक्षात्कार को देने को प्रकारनी वांडा विनाज परना नपकार करवानी जेनी. श्वा वर्ने ? ने मुक्ति मार्गनो उपदेश करे ते देव कहीए तेने हितकारी. पण कहीए. ने रागादिवाळानु ए लक्षणं संभवतुं नथी, केमजे रागादिवाळानुं वचन तो अतिशय उग पुरुषनां वचननी पेठे विसंवादि एहेतु माटेने चळी एनां वचन परस्पर विरोधी ने ए हेतु मादे वाशिवाननी प्रवृत्ति तेमां-थती नथी.
- टीकारागादिमतो हि विप्रलिप्सया नद्यास्तीरें गुमशन
कटेपर्यस्तमास्ते धावंत मिनका श्यादिवत्कंदाचिदन्याँ व्यव: , स्थितमर्थमन्यथापि ब्रुवाणा उपलच्यते ॥ तथा च तचनात , प्रवर्तमानों मिलकचनसमीहितमश्नुवीरन् ॥ माजूही विप्रति : सा तथापि तस्य रांगादिमत्वेनांसाहात् कृतधर्मतया सम्प
मुकिमार्गोपदेशाननुपपत्तेः॥
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* जय श्री संघपट्टकः
(५६५)
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अर्थः-रागादि दोषयुक्त पुरुष जे ते निश्चे उतरवानी इछाए जे प्रकारनी वस्तु होय तेथी विपरीत कहेनारा देखीए बीए. जेम गेकरांठेतरवा कोइए कडं जे हे ठोकरां! दोमो दोमो!! नदीने कांठे गोगनुं गाएं जुटी पम्युं जे. एम गोळ खाधानी आशा उपजावी ठोकरां दोगाव्यां, तेम क्यारेक तो जे प्रकारे रहेली वस्तु तेथी बीजी प्रकारे पण कहेनारा ठग पुरुषो जणाय डे माटे तेवा पुरुषना वचनमा प्रवर्तेमा पुरुषो गोळ खावा दोमेला नोकरांनी पेठे पोतार्नु पांठीत पामता नयो. कदाचित ए प्रकारनी गवानी श्छा न होय. परंतु ते पुरुषो रागादि दोषवाळा हे माटे तेमने धर्मनो साक्षात्कार नयी थयो तेथी सारी रीते मुक्ति मार्गनो नपदेश थतोज नथी.
टीका:-तथा वेव अस्मदादीनामपि रागादिमतां सा. कास्कृतधर्मत्वेन सार्वझ्यापत्तेः तथाच सिकं समीहितं किं मुक्त्ययं तदन्वेषणेनाया चेन्मधु विदेत्तकिमर्थं पर्वतं ब्रजेत्॥ इष्टस्पार्थस्य संसिझौ, को विछान् यत्नमाचरेदिति लौकिक न्यायात् ॥ किं च परोपकारोपि परेषां संसारतारणलक्षणस्तस्व नसंनवति ॥ रागादिमत्वेनास्मदादिनिस्तुल्ययोगक्षेमतया तस्य स्वयमतरितुः परतारकत्वानुपपत्तेः लोऽपि पोतादेःस्वयं तरि तुरेव परतारकत्वोपलंन्नात् ॥
अर्थः-ने जो रागादिक दोपवाळा पुरुषथी सारी रीर. मुक्ति मार्गनो उपदेश थतो होत तो रागादि दोषवाळा थापणे पार गए-माटे मापपने पश धर्मनो साक्षात्कार यो जोशए, ने तेच
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अथ श्री संघपट्टकः -
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सर्वज्ञपणुं पण प्राप्त थर्बु जोइए ने ज्यारे सर्वज्ञपणुं प्राप्त थयुं त्यारे तो श्रापणुं वांछित सर्वे सिक थयु त्यारे तो मुक्तिने अर्थे वीतरा. गनां वचन खोळवानी जरुर न रही. केमजे जो आकमानां फुसमांथी मध्नो स्वाद मळ्यो तो मध खोळवा पर्वतमां कोण जाय ! तेम पोतानो वांछित अर्थ सिद्ध थयो तो पड़ी कोण विधान पुरुष तेने वास्ते प्रयत्न करे? ए प्रकारे लौकिक न्याय ए हेतु माटे. वळी शुं? तो तेमणे करेलो परोपकार जेते पण संसारने तारण करनार संजवतो नथी. केमजे रागादि दोष युक्तपणावके आपसी पेज ते पण योग केम करे ने एटले आपणी पेठे ते पण रागादि दोषे नरेखा ले ते पोतेज तरता नथी तो तेमने विषे बीजार्नु तारणपणुं तो क्याथीन सिक थाय ! लोकमां पण जे नौका प्रमुख पोते त. रती होय तेज बीजाने तारती देखाय डे ए हेतु माटे.
. टीका:-ननु स्यादेतयदिरागादिमत्वं नवेत्तदेकवाक्यतया
सकलपार्थिवादिविचारचतुरप्रधानपुरुषपूज्यतान्यथानुपपत्या ते. • षामसिझमिति चेत् ल ॥ तत्प्रकृतिष्वंगनादि घटनावलोकनेन तत्सिः ॥ तेषां रागादीमंतरेण तत्प्रतिबिंवेषु तक्षक्षणाध्यारोपा संजवात् ॥ इतरथा तत्प्रतिबिंबत्वानुपपत्तेः॥ जपलादिना सक लतत्तुल्याकारनिर्मापणं हि तत्प्रतिबिंब नाम तन्नूनं ते रागादि मंत इति ॥
अर्थः-श्रा जगाए अन्यदर्शनी आशंका करे ये जे जो ...अमारा रागादि देव दोष सहित होय तो जे समस्त पृथ्वी श्रादि संबंधी
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49 व श्री संघपहा
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पदार्थनो विचार करवामां चतुर पुरुषो ने तेमां पोतार्नु प्रधान पुरु'पपणुं वे, जेथी पूजनीकपणुं .ते पोतानां कहेला वचननी एक वाक्यताए द ए हेतु माटे, एटले पोतानां वचनमां परस्पर वाधा नथी माटे. तथा अन्यथानुपपत्ति ठे ए हेतु माटे, एटले एमणे कह्यांतेवांज पृथ्वी ग्रादि पदार्थ डे माटे तेमनु पूर्वे कयु एवं असिझपणुं नथी एटले सिद्धपणुं . जावार्थः-जे अमारा देव रागादि दोष युक्त नथी माटे तेमनु कहे सत्य . हवे सिद्धांती तेमने जवाब दे ले जे तमारे एम न बोलवं. केमजे तमारा देवनीप्रतिमाने विषे अथवा प्रतिमानी जोमे स्त्री प्रमुखनी संघाथे घटना करेली के तेने जोतां एमने विपे रागादि दोषनी प्रत्यक्ष सिद्धि थाय ने तेमने जो रागादि दोष न होय तो तेमनी प्रतीमाउने विषे रागादि दोषने जणावनार एवां बक्षणनो आरोप कों ने ते संनवे नहि. रागादि दोष सका विनानी तेमनी प्रतिमान घमातीज नथी. पापाणादि प्रतिमाश्रोने विष पापाणादिकना आकार प्रगट रागादिकने जणावनारा ठे जेवा एमां दोप नरेला ने तेवा आकारनी तेमनी प्रतिमायो ठे माटे निश्चे ते देव रागादि दोष सहितज ठे.
टीका:--॥ यमुक्तं ॥
सक्ष्यते ललनांगसंगम विधे रागोल . देवश्लेपनुजो जुजोर्जित श्रेयाकल्पलत्तास्त्रशालागो रागादिसकते ये देवा ननु संतुसंवतः स्याहीतरागस्ततः ॥
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अब श्री संघपटकः
AnumanAmARAMA
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अर्थ:-ते वान शास्त्रमा कही ले ले अन्यदर्शनीना देव नीनो अंगसंग राखे ते तेथी रागरुपी ग्रहवके गळायेला जणाय ने बळी.नडत मदने जणावनार इस्तमुना तेथी तथा हाधमां शह अहण करे ने तेथी द्वेषवाळा ए देव ते एम जणाय . वळी कल्यास रुपी कल्पलताने नाश करे एवी शास्त्रनी रचना करवाथी मोहवाळा ठे-एम जपाता ए देवो क्रोधी होय तेथी ते वीतराग केम कहेवाय.
टीका: यदपि पार्थिवादिपुरुषपूज्यतान्यथानुपपत्त्या तेपो वीतरागत्वप्रसाधनं तदप्य विद्याविलसितं ॥ यतो यत एव तेषा मध्यक्षेण रागादिलक्षणं लक्षयंतोऽपि ते तान् वीतरागतयाध्य वसाय पूजयंत्यत एवैतन्मिथ्यात्वमुच्यते ।।
अर्थः-ए देवाने विष वीतरागपएं स्थापन करे ते पम बोले ले जे जो ए देवमां वीतरागपणुं वे तो राजा प्रमुख पुरुषो पूजे हे नहि तो केम पूजे? ते माटे ए प्रकारना अनुमान प्रयोगव वी. तरागपणुं साधे ने तोपण ते सर्व विद्यानो विलास ठे एम जाण: जे माटे तेमनां रागादि लक्षण प्रत्यद जणाय ने तोपण तेमने विष वीतरागपणानो निश्चय करी पूजे एज हेतु माटे एने मिध्याव कहीए बीए.
प्रत्ययस्येव तम्सक्षणत्वात् ।।
अर्थः-श्रा जगाए अन्यत्यपि विरादिषु रागादिक्ष. अमारा रागादि देव दोष सहित होय तो जेनएव देव इति ॥
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49 अथ श्री संघपट्टका -
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॥ यमुक्तं ॥
यस्य संक्लेशजननो, रागो नास्त्येव सर्वथा ॥ न च पोऽपि सत्वेषु शौधनदवानलः॥
अर्थः-जेमां जे वस्तु नथी तेमां ते वस्तुनो निश्चय करवो तेने मिथ्याल कहीए. ए प्रकारे मिथ्यात्वनुं लक्षण ए हेतु माटे रागादि दोषवाळा होय ते देव न कहीए. त्यारे कोने देव कहीए ? तो तेनो उत्तर पोतेज करे ले जे हालमां पण प्रतिमादिकने विषे रागादि लक्षणनो विरह देखवे करीने वीतरागपणे जे अनुमान करेला तेज देव कहीए. ते वात शास्त्रमा कही डे जे, क्लेशने उत्पन्न करनार एवो रागादिक दोपं जेमां सर्वथा नथी. शांतीरूपी काटने वाळवा दावानल अग्नि समान एवो केष पण जेने को प्राणीमात्र प्रत्ये नथी.
टीका:-नच मोहोपिसंज्ञाना चादनो ऽशूझवृत्तकृत् ॥ त्रैलोकख्यातमहिमा, महादेवः स नच्यते । एवं विधश्चमहादेवो हिंन्नेव ॥
यकम् ॥
अहनेव च सक्षपक्षणगणो रागादिसदकते देवः केवसमृद्धकेवलवसः स्याहीतरागस्ततः ॥
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(५७०)
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अय श्री संघपट्टका
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गीर्वाणाः कथमन्यथा समुदिता नक्त्यान्वहंपूर्विका ... मस्यैव प्रथयंति संसदि महाष्टप्रातिहार्हिणाम् ॥
. अर्थः-जेने ज्ञाननो ढांकनार ने अशुद्ध आचरणनो. करनार एवो मोह पण नथी, जेनो महिमा त्रण लोकमां विख्यात ले ते महादेव कहीए. ए प्रकारना महादेव तो एक अरिहंतज ले ते वात शास्त्रमा कही जे जे रागादि लाखो दोष नाश पामवाथो श्ररिहंत एज निर्मळ लक्षणना समूहरुप ने एटले सर्वे निर्मळ लक्षण अरिहंतमांज रह्यांबे. जेने केवळज्ञाननुं बळ वृद्धि पामे, जे एवा देव तो एक वीतराग अरिहंतज जे. जो एम न होय तो देवताना समूहः लक्तिवमे समवसरणमां महा आदर सहित श्राप महा प्रा. तिहार्यरूपी पूजा एज देवनी केम विस्तारे? माटे एज वितराग देव जे.
टीका:-तदेवं विधे पि वीतरागे अदेवबुद्धिरित्यहो महा.... मिथ्यात्वं तादयताऽदेवे देवताबुझिदेवेवादेवबुझिरिति मिथ्यात्वस्वरूपं निरुपितं ॥ तथा सर्वज्ञोयति सर्व विदयमित्यतिम न्यते मूर्खमुख्यनिवहं अन्यपरतीर्थिकसमूहं प्राणातिपाताय निवृत्तं स्वगुरुतयानिमतं ॥
अर्थः-माटे ए प्रकारना पण वीतरागने विषे अदेव बुद्धि एज मिथ्यात्व जाणव-ए वात आश्चर्यकारी बे. ते शास्त्रमा कडं जे अदेवने विषे देवबुद्धि ने देवने विषे अदेवबुद्धि ए प्रकारे मिथ्या. त्वतुं स्वरुप निरुपण कर्यु. वळी मोटा मूर्खना समूहने आ सर्वज्ञ ठे
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म माने एटले प्राणातिपातादिकथी निवृत्ति न पामेलो अन्यदनीनो समूह तेने पोतानो गुरु करी माने .
टीका:---अथ मुर्खेषु सर्वज्ञत्वान्निमानो नवतु मिथ्यात्वं ये तु कुतीथिका अपि सकलानवद्यचातुर्विद्यविशारदाः प्रत्यक्ष सारदाकाराः अनल्पविकल्पजालजटिलजल्पविधौ गीर्वाण गीर्वाण विदा रितप्रतिवादिकोविदलदाः संप्रत्यपि भूरिश नपलच्यते तेषु सर्वज्ञत्वाध्यवसायस्य कथं मिथ्यात्वमिति चेत्।। सत्यं ॥ तत्ज्ञानस्यैकांताज्युपगमविषयत्वेन वस्तुतोऽज्ञानत्वात्।
अर्थः- हवे प्रतिवादि पूरे जे मूर्खने विपे सर्वज्ञपणानो अनिमान करवो ते मिथ्यात्व हो, परंतु जे कुतीर्थिक ते पण जमस्त निर्दोष एवी चारे विद्या तेमां चतुर होय ने साक्षात् सरस्वती जेवो जेमनो आकार ने घणा घणा विकल्पनो समूह तेणे करीने व्याप्त एवो जे वोलवानो प्रसंग तेने विपे संस्कृत नाषा रुपी बाणवमे ठेद्यां ठे पंमितनपी लद ते जेमणे एवा या काळमां पण घणा पंमितो देखाय तेमने विपे सर्वज्ञपणानो निश्चय करवामां केम मिथ्यात्व कहोगे ? एम जो कहेता होय तो ठीक. एम कही उत्तर करे ठे जे ते झानने एकांतपणुंठे माटे वस्तुताए श्रज्ञानपएंज ले तेथी तेने मिथ्यात्व कहीए वीए.
टीका:-न चैकांत एव साधीयानिति वाच्यं ।। तदादि ससुप एव नावः स्यात् असद्रूप एव वेति नवनिमतद्योतकं वि. कल्पयुगलमवतरति तत्र न तावदाद्यः एकांतेन सत्वे हि घटस्य
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( १७२)
4 जय श्री संघपट्टकः
स्वरूपवत्पर रूपेणापि सत्वात्तद्रूपापल्या स्वरुपापगम प्रसंग: अनेक रूपत्वाभ्युपगमे वा जगद्वैचित्र्य जंगप्रसंगात् ॥
अर्थ- हवे सिद्धांती अन्यदर्शनीना एकांतमतने खंगन करे छे जे एकांत मत एज अति श्रेष्ठ वे एम तमारे न बोलवु केमजे जो एम कहता होय तो तारा वांचितने जपावनार बे विकरूप प्राप्त थाय बे, ते क्रया. तो पदार्थ मात्र सड़प के अथवा असप ए तने प्रश्न पूढीए बीए. तेमां जो सद्रूपज पदार्थ मात्र बे एम प्रथम विकल्प अंगिकार करे तो या प्रकारे दूषण प्राप्त थाय जे एकांतपणे सद्रूप पदार्थ ते घटना स्वरुपनी पेठे पटना स्वरुपनुं पण सद्रूपपणं बे तेथी स्वरूपापगमनामा दोषनी प्राप्ति यशे पटले घटपटना स्वरूप एकपणुं थशे. जो अनेक रूपपलानो अंगिकार करशे तो जगतनुं जे विचित्रपणुं बे तेना नाशनो प्रसंग थशें ए हेतु माटे.
टीका:- एकस्मादेव घटादेः सकलपदार्थकार्यकारणो पपत्तेस्तथा च घंटो जलहरणवत्प्रावरणाद्यपि पटादिकार्यं कु'यन चैवं ॥ तस्मान्न सद्रूप एव जावाः ॥ नापि द्वितीयः ॥ एकांतासत्व स्वीकारे घटस्य पररूप वत्स्वरूपेणाप्यसत्वेन खरविबाणवदत्यं तान्नावप्रसंगात् ॥ तथा च नोदकार्थी घटार्थ प्रयते ततस्यात्यतासच्वेन समस्तार्थ क्रिया विरहात् ॥
अर्थः- एक घटादिक पदार्थथी सकळ पदार्थनो कार्य
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नव श्री संघपट्टका
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रणनाव सिद्ध थशे. वळी घट जेम जळ लाववारुपी कार्यने करे
तेम उढवा पहेरवा प्रमुख पटादिकनुं पण कार्य करे. पण ते कार्य तो घटथी यतुं नथी, माटे सद्रूप एवाज पदार्थ डे एम एकांत पक्ष सिझन थयो. हवे बीजो विकल्प जे पदार्थ मात्र एकांतपणे अअद्रूप ले ते पण सिद्ध थतो नथी. केमजे जो एकांत असदूपनो अंगिकार करीए तो घटने पररूपर्नु असत्पऍ डे तेमज पोताना रुपर्नु पण असत्पणुं प्राप्त थशे. त्यारे गर्दनना शिंगमानी पेठे श्रत्यंत श्रन्नावनो प्रसंग थशे. त्यारे जळ जरवानें जेने प्रयोजन के ते पटने अर्थे नहि प्रयत्न करे. केमजे ते घटना स्वरूपनोथत्यंत नाव , माटे समस्त अर्थ क्रियानो विरह प्राप्त थयो ए हेतु माटे.
टीका:-तस्मादेकांतेन सदसत्वान्युपगमे लावस्यार्थक्रिया नुपपत्तेरुजयरूपं वस्त्वन्युपगंतव्यम् न च सदसत्वयारन्योन्य विरोधेनकन समावेशाजावान्नोनयरुपता नावस्य संगत इति वाच्यं । जावस्य स्वरुपेण सदसत्वान्युपगमे हि स्याविरोधःखरूपपररूपान्यां तु तदन्युपगमे कानुपपत्तिः॥
अर्थ:-~-एकांतपणे पदार्थनुं सद्रूपपणुं अंगिकार करे तो अथवा एकांतपणे पदार्थनुं सद्रूप अंगिकार करे तो पदार्थ मा. अनी अर्थ क्रिया न थाय. माटे वस्तु मात्रनु सट्टप तथा अंसऐप अंगिकार कर. त्यारे प्रतिवादी वोल्यो जे जो एक वस्तुनुं सम्पपएं तथा असटूपपणुं ए वे अंगिकार करो तो एक वीजा साये विरोध थवाथी एक वस्तुने विषे वेना समावेश नहि थाय माटे य रुपनो अत्यंता नाव प्राप्त थशे. त्यारे सिमांतो बोस्यो जे
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(२७४)
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अथ श्री संघपट्टका
एम तमारे न बोलवं. केमजे पदार्थनुं खरुपे करीने सद्रूपपणुं तथा असद्रूपपणुं अंगिकार करीए तो तारो कहेलो विरोध प्राप्त थाय पण स्वरूप तथा पररूप ए बेवमे सद्रूपपणुं तथा असद्रूपंपणुं ए बै अंगिकार करीए तो शी असिमि थाय ? एटले शो दोष आबे ? कोइन आवे.
.. टीका----तथाहि ॥ घटः स्वरूपेण अव्यतः पार्थिवत्वेन .' सन्नाप्यादिना ।। त्रत हत्यत्वेन न माथुरत्वादिना ॥ कालतो '. वर्तमानकालत्वेन नातीतादिकालत्वेन ॥ लावतः श्यामत्वनेन रक्तत्वादिनेति ॥ इतरथाप्यत्वादिनापि तरूसत्वेऽनेकरूपत्वं स्वरुप विलोपो वाप्रसज्येत ॥ तस्मात् सदसद्रूपं वस्त्विति ॥
. . अर्थः--तेज देखामे ले जे घट स्वरुपे करीने अव्यथी पृथ्वी संबंधी सत् डे पण अन्यपणे नथी. तथा देवथी आक्षेत्रनो डे पण मथुरादि क्षेत्र संबंधी नथी. तथा काळथी वर्तमानकाळपणे ने पण अतीतादि काळपणे नथी. तथा नावथो श्यामपणे ले पण रक्तादिपणे नथी. एम न कहीए ने बीजी रीते कहीए तोए घटनु अनेक रूपपणुं अथवा पोताना रूपनो नाश ए बे दोषनो प्रसंग आबे ते हेतु माटे सर्वे वस्तुनुं सद्रूपपणुं तथा असपद्रूपणुं ए रीते सिद्ध थयु.
टीका---किंचैकांतवादे सदसतोरविशेषप्रसंगः ॥ तथाहि . नित्यैकांतवादिनां सांख्यानां मते यथा असता मृत्पिमेन घोन
जन्यतेः॥ तथा सतापि न.जन्येत ॥ सदेवकारणे कार्य मिति तः
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अथ श्री संघपट्टका ।
(५५)
सिद्धांतात् ॥ सतश्चोत्पादानुपपत्तेः ॥क्षणिकैकांतिवादिनामपि सौगतानां मते असते वसतापि कारणेन कार्य न जन्येत असदेवकारणे कार्यमित्यज्युपगमात् ॥ तथा च कारणे सर्वथा कार्यानन्वयान्मृत्मिादपि घटोनोत्पद्यत ॥ नत्पादेवातंत्वादिच्योप्युत्पद्येत ॥ अकारणत्वा विशेषादिति ॥
अर्थः-वळी एकांतपणे वस्तुनुं सद्रूपपणुं तथा असद्रूपपणुं अंगिकार करनारने मते कोइ प्रकारे विशेषनो प्रसंग नथी. एटले ए वे मतमा वरावर स्वदोपनो प्रसंग आवे , तेज देखामे .. जे नित्य एकांतवादि एवा सांख्यमतने विषे जेम असत् एवा मृति.. काना पिंमबमे घट नथी उत्पन्न थतो तेमज विद्यमान एवा पण मृत पिवमे घट नहि उत्पन्न थाय. केमजे सत् एवेंज कार्य कारण ठे एवो ते सांख्यमतवाळानो सिद्धांत ने. ने जे सत् ले तेनी उत्पनिनी असिधि ए हेतु माटे क्षणिक एकांतवादि एवा पण बौ. द्वमतने विषे असत् थकाज जेम कार्य नत्पन्न नथी यतुं एम सकारणथी पण कार्य नहि उत्पन्न वाय. केमजे कारणने विषे असत् एवेंज कार्य ठे एम तेमनुं अंगिकार करवापणुं . वळी कारणने विये सर्वया कार्यनो अन्वय नयो एवो तेमनो मत ठे माटे म. तिकाना मिथी पण घटनी नत्पत्ति नहि थाय अथवा तो तंतु प्रमुखथी पण घटनी उत्पत्ति थवी जोए. केमजे अकारणमा विशेषपर्णी तेमना मतमां नश्री माटे.
टीकाः-यत्र च बदु वक्तव्यं ।। तचाप्रकृतत्वात्रोच्यते ॥ एवं चाप्रमाणिककातविषयतयोपपद्यते तत् ज्ञानस्याऽज्ञानन्य।
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* अप श्री संघपट्टका
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तथा जवहेतुत्वयालिकोपलंजत्वनिष्फलत्वेन्योपि ॥ यदाह ।। सदसदविलेषणाजानवजह बिनवलंजाना नाणफलानावा। मिडदिहिस्स अन्नाणं ॥
अर्थ-श्रा जगाए घणी वात ए संबंधी कहेवाय ले पण श्रा प्रकरण बीजी वातनुं चाले ने माटे ते वातनो विस्तार नथी कहेता. हवे जे अप्रमाणिक एवा एकांत मतने अंगिकार करनारनु जे ज्ञान ते अज्ञान कहीए. केमजे ए ज्ञानने संसारनुं कारणपर्छ ले तथा पोतानी वामां आवे तेम अंगिकार करवापणुं एमां रघु बे ए हेतु माटे. तथा ए ज्ञान- निष्फळपणुं ने ए हेतु माटे ए त्रणे कारणे पण मिथ्या दृष्टिनुं ज्ञानतेश्रज्ञानज ले. ते वात शास्त्रमा कही ले जे मिथ्या दृष्टिना ज्ञानमां वस्तुनुं एकांत सद्रूप मानवामां तथा कांश सद्रूप मानवामां विशेष नथी. तथा ते ज्ञान संसारनुं कारण
तथा ते ज्ञान पोतानी श्वा प्रमाणे कल्प तथा ते ज्ञानतुं. फळ नथी माटे ए ज्ञान ते अज्ञानज बे.
टीका:-एवं च सिहं तेषां वस्तुतो नूर्खत्वं ॥ तथा च तेषु सर्वज्ञत्वाध्यारोपो मिथ्यात्वमिति ॥ तत्वज्ञं समस्तशास्त्ररहस्य वेदिनं परमाईत पंचमहाव्रतधारिणं सर्वप्रायं सितांवरसूरि अशीयति मू«यति॥ एवं च तत्वज्ञे गुरावज्ञत्वारोपो मिथ्यात्वविजूंनितं॥
अर्थः-ए प्रकारे वस्तुताए तेमनु सूखपणुं सिद्ध थयु. वळी
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(५७७)
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मय श्री संघपट्टका
मने विषे सर्वज्ञपणानो आरोप करवो तेने मिथ्यात्व कहीए. ने तत्वज्ञ एटले शास्त्र रहस्यनो जाण ने उत्कृष्टो आहत एटक्षे अरिहंतनां वचन प्रमाणे रहेनारो ने पंच महाव्रतधारी ने सर्वज्ञ जेवो जे श्वेतांवरसरि तेने मूर्ख जेवो जाणे ने माटे तत्वना जाण एवा गुरुने विषे अज्ञानीपणानो आरोप करवो ते सर्व मिथ्यात्वतुं प्रकाशपणुं बे.
टीका:-एतावता चागु गुरुलावना गुरौ चागुरुधीरिती मिथ्यात्वं लक्षितं ॥ उन्मार्गीयति उत्पथत्वेन मन्यते जैनमार्ग। अपथं कुतीपिकमतं सम्यक् पथीयति सन्मार्गीयति॥अत्र च॥ जैनमार्गस्योन्मार्गत्वं त्रयोबाह्यत्वादिना कुतीर्थ्यपथस्य च सत्पथत्वं तदंत वादिनान्युपगच्छति मिथ्यादृशः ।।'
अर्थः
बुद्धि एने
या लोकना मान्मार्गपर्दा
अर्थः-एणे करीने अगुरुने विषे गुरुपणानी नावनाने गुरुने विषे अगुरुपणानी बुद्धि एने मिथ्यात्व कहीए एम देखामयुः जैनमार्गने नन्मार्गमां माने ने कुतोयी लोकोना मतने साचो मार्ग जाणे . आ जगाए मिथ्याटिन जैनमागेने नन्मार्गपणं स्थापन करे ले ते वेदथो वाह्यपणुं ए मतनुं डे इत्यादि कारणवमे ने कुतीथिनो जे उन्मार्ग ते तेने सन्मार्गपणुं स्थापन करे । कुतीर्थीनो मारग वेदने मळतो श्रावे ए हेतु माटे.
टीका:-एतच्चासुंदरं ॥ त्रय्याः प्रामाएयेन हि तवाह्यतया जनपथस्योत्पथन्वं स्यान चैवमस्ति तस्यालोकलोकोत्तरविरुद्धार्थप्रतिपादकन्वेनाप्रामाण्यात् ॥ तथाहि धर्ममार्गस्य म दया सर्वदर्शनेषु गीयते ॥ यदाद ॥ पंचतानि पवित्रागि.
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(६७४)
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अथ श्री संघपट्टकः
सर्वेषां धर्मचारिणां । अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जन॥ त्रय्याश्च यागादिषु बागादिहिंसामुपदिशंत्याः कथं धर्ममार्गत्वं॥
अर्थः-ए वात असुंदर डे एटले अघटती जे केमजे जो वेदतुं प्रमाणपणुं होयतो तेणे करीने निश्चे वेद बाह्य जैन धर्मन नुन्मार्गपणुं होय पण एम तो नथी.केमजे लोक विरुष तथा लोकोतर विरुक एवा अर्थ- प्रतिपादन करवापर्यु ले माटे वेदतुं श्रप्र. माणपणुंडे ए हेतु माटे तेज देखामे . जे, धर्म मार्गर्नु मूल सर्व दर्शनमा एक दयानेज कत्यु जे. ते वात शास्त्रमा कही जे जे धर्मना
आचरण करनार सर्वे पुरुषोने आ पांच वानां पवित्र ने एटले करवा योग्य बे, ते कयां? तो एक अहिंसा, बीजु चोरी न करवी, त्रीनुं सत्य जाषण करवू, चोथं दान आप, पांचमुं ब्राह्मवर्य राखवू. माटे यज्ञादिकने विषे बकरा प्रमुखनी हिंसा करवानें उपदेश करनार वेदमार्गने धर्ममार्गपणुं केमज होय ?
टीका:--अथ त्रयी विहितत्वात्तहिंसाया धर्महोतृत्वेन स्वर्गफलत्वादव्याहतं तस्याधर्ममार्गत्वमिति चेत् न ॥ तस्या एवा प्रामाएयातातथाहि त्रय्याः प्रामाण्यं यदन्युपेयते नाता तकि. मपौरुषेयत्वात् अहोईश्वरकर्तृकत्वात् उताव्याहतार्थयतिपादकत्वात् आहोस्विदव्यभिचारिप्रमाजनकत्वात् ॥ ।
अर्थः---हवे अन्यदर्शनी आशंका करे बे जे वेदमां कहेली हिंसा ते धर्मद् कारण माटे निबंध एवं स्वर्ग फळ ते हिंसाथी प्राप्त थशे माटे वेदमां कहेली हिंसा ते धर्म मार्ग ने एम जो तारु
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जय श्री संयपहकः
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कहेवू होय तो ते न कहेवं, कमजे तेनुं अप्रमाणिकपणुंज ए हेतु माटे. तेज कही देखामे ठे जे वेदनुं प्रमाणिकपणुं तमो अंगिकार करो वो ते शुं वेदवचन पुरुपे नथी कह्यां एम अपौरुषेय वचनपणुं एमां ठे ए हेतु माटे. अथवा वेद ईश्वरे कर्या ने ए हेतु माटे. अथवा वेदमां परस्पर विरुष अर्थ प्रतिपादन कयों नथी ए हेतु माटे अथवा श्रव्य निचारी प्रमाणनुं उत्पन्न करवापर्यु एमां रह्युठे ए हेतु माटे.
टीकाः-न तावदाद्यः ॥ किल पुरुषाणां रागादिमत्वेन तवचनस्य प्रतारकवाक्यवहोपवत्ताशंकया हानोपादानाविषयत्वेन त्रय्यास्तदज्युपगमो नवतः ॥ एतच्चासंगतं ॥ वचन स्यापौरुषेयत्वासिः ॥उच्यते इति वचनमित्यन्वर्थस्य विवक्षाप्र. यत्नोदी रितकोष्टवायनिहन्यमानतावादिकारणकलाप मंतरेणानुपपत्तेः तावादीनां च पुरुपमंतरेणासंजवात् ।।
अर्थः-इवे ए:प्रकारे चार विकल्प उत्पन्न करी तेनुं खं. मन करे ? जे प्रथमनो विकल्प पुरुषे वेद कर्या नथी तेनुं खमन. जे पुरुषोने रागादि सहितपणुंठे तेणे करीने तेनां वचनने ग पुरुषनां वाक्यनी पेठे दोप सहितपणानी आशंकाव तमारे ते वेदन अंगिकार करवापणुं नथी ए आश्चर्य ते. केमजे तमारे तो हितकार रीना वचननी पेठे अंगिकार करवापणुं वे माटे ए वात असंगत . वेदवचन श्रपुरुषनां कहेला ठे ए वात सिद्ध थती नथी. पुरुषनांज कहेलां ठे. केमजे वचन शब्दनो एअर्थ ठे जे वोलीए तेने वचन कहीए. ए प्रकारे ए शब्दनोज घटतो अर्थ तेनी कद्देवानी बावके प्रयत्नची नचारण धतो ने हृदयादि श्राव स्थानमा अफलातोज
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अथ भी संघपडका
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शब्द तेनुं तादु आदिक जे नच्चारण स्थान ते प्रमुख जे कारपनो समूह ते विना तेनो सिकि नथी. माटे पुरुप विना तालु आदि स्थाननो संभव नथी ए हेतु माटे अपुरुषनो कहेलो वेद हे ए वात व्यर्थ पनी.
टीका-नापि द्वितीयः ॥ तस्य रागादिमत्वेन तम्चन स्थाप्रामाण्याशंकाकलंकितत्वात् ॥ रागादिमत्त्वं तस्यासिद्ध मितिचेन्न अंगनादिसंबंधातदुपपत्तेः ॥ अगिवस्थायां तदुपपत्तावपि परावस्थायांतदत्तावात वचनस्य प्रामाएयमितिचेन ॥
- अर्थ हवे बीजो विकल्प जे वेद ईश्वरे करेलो डे तेनुं खंगन ॥जे ते तमारा ईश्वरने रागादि सहितपणुं ने माटे तेनुं वचन अप्रमाण एवी आशंकावमे कलंकित दे. त्यारे तमे कदेशो जे अ. मारा ईश्वरने रागादि नथी, तो एम नबोलवु. केमजे स्त्रीश्रादिकना संबंधयी रागादिक ने एम पोतानी मेळेज सिक थाय ने. त्यारे तमे कद्देशो जे ए तो पूर्व अवस्थामां रागादिकनी उत्पत्ति बते पण पर अवस्थामां ते रागादिक असिकपणुं २ माटे ईश्वर वचनरुपी वेर्नु प्रमाणपणुं बे. तो एम न कहेवू.
टीका:-नवदच्युपगमेन तस्यानादिसिद्धत्वादपिरावस्थानिधानविरोधात् ॥ जवतु वा कचित्तस्यावस्थाध्यं तथापिपरावस्थायामपि शरीरपरिग्रहमंतरेण ताल्बादिकारणानावेन तस्य त्रयीप्रतिपादनासंजबारूयं तस्यास्ततकर्तृकत्वं सिम्खेत॥
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ओ संघपहा
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अर्थः-केमजे तमारा मतने श्रानि ते ईश्वरनी पूर्व श्रव. स्था तथा पर अवस्था तेनुं जे कहे, तेमां विरोध . केमजे तमो ईश्वरने अनादि सिद्ध मानो नो ए हेतु माटे. अथवा कोइ प्रकारे ते ईश्वरनी चे अवस्था होय तो पण परावस्थामां पण शरीर परिग्रह कर्या विना अक्षर उच्चारण करवामां कारणरूप तालुआदि स्थान विना वेदतुं प्रतिपादन करवानो संभव नथी. माटे वेदनुं ईश्वर कापणुं केस अंगिकार करीए?
टीकाः-नापि तृतीयः॥न हिंस्यात्सर्वजूतानीत्यनेनाविशेपेण हिंसानिषेधमनिधायाग्नीष्टोमीयं पशुमालनेत स्वर्गकाम इत्यादिना तनिधिमुपदिशंत्यास्तस्याः परस्पर विरुद्धार्थप्रतिपादनात् ॥ अथ स्वर्गादिफलविशेषोद्देशेन हिंसाविरुपदेशान तेन सामान्यविधिविहितहिंसानिषेधव्याघातः ॥ अपवाद विषयं परिहत्योत्सर्ग प्रवृत्तेरितिचेन्न विकटपा सहत्वात्।।
अर्थः---हवे बीजो विकल्प जे परस्पर विरोध जणावनार तेनुं खेमन करे ठे. जे वेदमा एन कडं ले जे 'कोइ जीव प्राणी मा. बनी हिंसा न करवी. ए प्रकारे हिंसानो निषेध कहीने वळी कयु जे 'जेने स्वर्गनी इछा होय ते अग्नि तथा सोस वे देव जेमनो एटले या संबंधी पशुतुं श्रालंबन को. इल्गादि वचनवमे हिंसानो विधि देखामनार वेदने परस्पर विरोधी अर्थने प्रतिपादन करवापणुं ठे ए हेतु माटे. त्यारे अन्य दर्शनी बोल्यो जे स्वर्गादि फळ विशेष उहे. शोने हिंसा विधिनो उपदेश ठे यो सामान्य विधिव; करेलो जे हिंसानो निषेध ते प्रत्ये विराध नयो, माटे अपवादनो परिदार करी
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अथ श्री संघपट्टको
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नत्सर्गनी प्रवृत्ति थशे. त्यारे सिद्धांती बोट्या जे एम तमारे न वो. ल, केमजे विकल्प बने सहन थाय एम नथी. एटले विरोध कल्प नत्पन्न करी एर्नु खेमन थाय बे.
टीकाः-न हिंस्यादित्यादिका हिश्रुतिः किं फलवती न वा न चेत् किमनयाऽजगलस्तनकटपया फलोदेशाजावे प्रेक्षावस्प्रत्यनुपपत्तेः॥प्रयोजनमनुदिश्य न मंदोऽपि प्रवृर्तत इति न्यायात् ॥ फलवती चेत् केन फलेन किं स्वर्गादिना आहो अहिकेन। नतोनयेन ॥
अर्थः 'जे न हिंसा करवी इत्यादिक जे श्रुति ते शुं फळ वाळी अथवा नथी? जो नथी तो बोकनीना गले स्तन थाय ठे ने ते निरर्थक ने तेना जेवी निरर्थक एवी ए श्रुतिनुं शं प्रयोजन ? केमजे ज्यारे फलनो उद्देश नथी एटले ए श्रुति करवानुं फळ नथी त्यारे बुझिवाननी प्रवृतिनो पण अन्नाव थशे, केमजे प्रयोजनको उद्देश कर्या विना मंदबुद्धिवाळो पण नथी प्रवर्ततो. एप्रकारनो न्यायो ए हेतु माटे. ने जो ए श्रुति फळवाळी २ एम कदेशो तो कीया फळवाळी जे? शुं स्वर्गादि फळवाळी ? अथवा था लोकना फळने कहेनारी ? अथवा आलोक परलोक संबंधी फळने कहेनारी ?
टीका:-न प्रथमतृतीयौ ॥ विविक्षितश्रुतेरैहिकामु.. मिकफलत्वे तयैव साध्यसिद्धेः कृतं निरपराधपशुवधानिधा.
॥ नापि द्वितीयः॥ तदादि । प्रतिनियतफळ
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46 अथ श्री संघपकः -
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विषयतयोजयोरपि श्रुत्योः सामान्यविधित्वं विशेष विधित्वं वा प्रसज्येत ॥ विनिगमनायां प्रमाणानावात् ॥
अर्थ:--प्रथमनो तथा त्रीजो ए वे विकल्प न ग्रहण कर. केम जे पागल कहेली जे श्रुति तेथीज आ लोक परलोकनुं फळ सिक थशे. माटे अपराध विनाना पशुना वधने कहेनारी बीजी श्रुति ते वझे सयु. एटले वीजी श्रुति कहेवानुं शुं प्रयोजन वळी बीजो विकल्प पण नथी घटतो. केम जे वे श्रुतियोनुं फळ बरोबर 'नियमाये दे तो वे श्रुतियोनो पण सामान्य विधि अंगिकार करो अथवा विशेष विधि अंगिकार करो. केम जे एक श्रुति अंगिकार करवी एवा निश्चयनो अनाव के.
टीकाःन चैतद् नवतोप्यन्निमतातस्मान्न हिंस्या दित्यादि. श्रुत्यैव सकलसत्वानयदानप्रतिपादनझलितया ऽनायाससाध्यार्थयास्वर्गादिफल सिद्धेः किमनया यागकारिणां पिशितलोलता मात्रानिव्यंजिकयाऽमुत्र नरकपातका रिएया बहुवित्तव्ययायास साध्यार्थया पशुवधश्रुत्येति ॥
अर्थः- एक श्रुति एटले न हिंसा करवी कोनी, श्रथवा इमां हिंसा करवी, ए श्रुति ए वेमांथी एक मानवी एक न मानवी वो तो तारो पण मत नयी. ते माटे समस्त प्राणी मात्रने अजयनि अापवानुं जे प्रतिपादन करवु तेमां दरिज एटले सर्वथा अनय. न कहेवा न समर्थ थनी एवी ने प्रयास विना साध्य ते अर्थ जेनो ६वी ने हिंसा करवी झ्यादि. श्रुति तेणे करीनेज स्वर्गादि फलनी
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अय. श्री संघपहका
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सिम्-िथशे.माटे यज्ञ करनारने मांस नक्षपनी लालच मात्रने जपावनारी ने परलोकमां नरकपात करावनारी ने घणा धननो खरचने महा प्रयास तेणे करीने साध्य पदार्थने जणावनारी पशु मारवा श्रुतिनुं शुं प्रयोजन ?
टीकाः-नापिचतुर्थः ॥ यागादिविहितायां हिंसायामप्यहिंसाबुध्ध्युत्पादनेन रागादिमत्तयाऽनाप्तेष्वप्पातबुझ्युत्पादनेन च विपर्ययज्ञानजननात् ॥ तथा चोक्तं विप्रोत्तमेन परीक्षा पुरस्सरमज्युपेतजिनशासनेन श्रुतीनां परस्पर व्याहतार्थवा. दिक मीमांसमानेन प्रमाणिकचक्रचूमामणिना पमितधन, पालेन ॥
अर्थः-चोथो विकल्प पण घटतो नथी केमजे यज्ञादिकने करेली जे. हिंसा तेमां पण अहिंसा बुद्धिने नत्पन्न करनारी ए श्रति माटे.तथा पोतामा रहेला जे रागवेगादि दोष तेणे करीने अहितकारी एटले यज्ञने विवे हिंसाने कहेनार- पुरुषो तेमने विषे हितकारो पणानी बुद्धि उत्पन्न करवा ते रूपो विपरीत ज्ञानने उत्पन्न करवापणुं वेदमां रझुंबे, ए हेतु माटे ब्राह्मणमा श्रेष्ट परीक्षापूर्वक जिनशासननो अंगीकार ने श्रुतियोर्नु परस्पर विरुधार्थपणुं इत्यादि विचार करनार ने प्रमाणिक पुरुषना समूहनो मुकुटमणि समान पंमित धनपाल तेणे या प्रकारे कडं बे.
. टीका--स्पर्शोऽमेध्यनुजां गवामघहो वंद्या विसंज्ञा जुमाः
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- अव श्री संघपट्टका (५८५) स्वर्ग'गगधाहिनोति च पितॄन् विप्रोप्रजुक्ताशनम् ॥ थाप्ता उद्मपराः सुराः शिखिहुतं प्रीणाति देवान् इवि श्वेत्थं वयु च फट्यु च श्रुतिगिरांकोवेत्ति लीलायितं ॥
अर्थः-अपवित्र वस्तुने लक्षण करनारी गायोनो स्पर्श पापने नाश करे , तथा संज्ञा रहित पीपळा प्रमुख वृक्ष वंदनीकडे, तयाँ बकरां मारवाथो स्वर्ग मळे डे, तथा ब्राह्मण लोकोए जोजन करेसं जे अन्न ते पित्रिलोकोने तृप्ति करे बे, तथा कपटी देव ले ते हितकारी , तथा अग्निमां होम्युं जे हुतभव्य ते देवताने प्रसन्न करे.ए प्रकारे सुंदर अने वळो निष्फळ एवं वेदवाणीनुं लीलाचरण कोण जाणे !
टीका:-एवं च त्रय्या अप्रामाएये कथं तस्या धर्ममार्गखं ॥ तथा च सति तन्मूलस्य कुतोर्थिकपथस्यापि सन्मार्गत्व मपास्तं ।। जिनमतस्यैव वनेकांतरूपतया प्रवृत्तिनिवृत्यादिरुप सकललोकव्यवहारप्रवर्तकत्वेन प्रामाण्यं तत्प्रामाएयान्युपगममंतरेण वस्तुतस्तस्याप्यनुपपत्तेः॥
अर्थ:--ए प्रकारे वेदतुं अप्रमाणपणुं उते धर्म मार्गपj तेनु केम होय? नज होय. ज्यारे वेदतुं अप्रमाणपणुं थयुं त्यारे वेद
मूळ जेनुं एवो कुतीर्थिक एटले अन्यदर्शनी तेना मारगर्नु पण खुमन थयु. ने जिनमतने तो अनेकांतरूपपणुंठे माटे प्रवृत्ति तथा निवृत्ति इत्यादिरूप जे सकल लोक व्यवहार तेनुं प्रवर्तकपणुं वे
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अथ श्री संघपट्टको
तेणे करीने प्रमाणिकपणुंडे.लोक व्यवहारतुं प्रमाणिकपणुं कर्यां विना वस्तुताए प्रमाणनुं पण अप्रमाणिकपणुं थाय.
टीका-यमुक्तं ॥ जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सबहा न निवम । तस्स जुवणेक्क गुरुणो, नमो अणेगंतवायस्स ॥
अर्थः-जे अनेकांत विना योगनो व्यवहार सर्वथा नथी नीपजतो,ते जगद्गुरु परमात्मानुअनेकांत वाक्य तेने नमस्कार करुं .
टीकाः-तथा च पूर्वापराऽव्याहतार्थप्रज्ञापकत्वादादि मध्यावसानेषु दोषवर्जितत्वान्निःश्रेयसपथत्वाञ्चेतरप्रतिदेपेण तस्यैवसन्मार्गत्वं ॥
॥ यमुक्तं ॥ स्याच्छब्दयुग्नयसमुच्चयजीढसर्व । लावावनासनमधारप वर्गमार्गम् ॥ पूर्वापरत्यतिहतिच्युतमत्रिकोटि । दोष मतं तु कुपयोयति कोऽत्र जैनम् ॥
अर्थ:---वळी जैनमतमांपूर्वे कहेलो तथा पती कहेलोजे अर्थ तेनुं निर्वाधपणे प्ररुपकपणुं ले ए हेतु माटे, तथा आदि मध्य ने अंत ने विषेदोष रहितपणुंडे ए हेतु माटे,तथा बीजामारगर्नु खेमन करवं तेणे करीन पोताज सत्यमार्गपणुं प्रतिपादन कयु डे मादे मोक्ष मारग
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अय श्री संघपट्टका
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पणुं जिनमतनुंज वे. ते शास्त्रमा कडं जे शब्द सहित जे नयनो समूह तेणे करीने व्याप्त एवा जे सर्वनाव तेतुं प्रगट करनार मो. कमारगरूप तथा पूर्व तथा अपर जे व्यवधान तेणे रहित तथा जेमां कोइ प्रकारनो दोष नथी एवा जिनमतने आ जगतमां कोष कुमार्ग कही शके ?
टीका-एवं च वास्तवे जैनमार्ग अवास्तवत्वारोपः ।। अवास्तवे च कुतीर्थ्यपथे वास्तवत्वसमारोपो मिथ्यात्वमहिम्ने ताएतावता च तत्वे ऽतत्वबुझिरतत्वे च तत्वबुद्धिरिति मिथ्यात्व लक्षणमावि वितं ॥ स्वमगुणायएयमित्यादि तु पूर्ववत्॥ तदा. श्चर्यमेतन्मिथ्यात्वोपहता यदेवं विपर्ययेण सर्व मवसाय गुणिनो विषतीति वृत्तार्थः॥
अर्थः--ए प्रकारे सर्वथा सत्य एवो जैन मार्ग ते तेने विषे असत्यपणानो जे आरोप करवो तथा अयथार्थी एटले असत्य एवो श्रन्यदर्शनीनो जे मार्ग तेने विषे सत्यपणानो जे आरोप ते मि. ध्यात्वना महिमाव दे. एणे करीने तत्वने विषे अतत्वनी बुद्धि करवी तथा अतत्वने विषे तत्वचुद्धि करवी एज मिथ्यात्लन लक्षण प्रगट कयु. तथा पोते गुण रहितना शिरोमणि वे तो पण पूर्वेकडं ते प्रमाणे माने ए मोटुं आश्चर्य वे. पोते मिथ्यात्व वझे हणायेला ठे तेथी एम विपरीतपणे सर्व जाणी गुणी पुरुषोनो कैप करे ठे. ए प्रकारे श्रा कान्यनो अर्थ ययो. ॥ ३ ॥
टीका:-ननु किमिदानी गुणिनिःप्रयोजनं संघ एव ज.
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१५८८)
अब श्री संघपटक
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गवानिशेषदोषमोषक्षमः समाश्रीयतां ॥ नगवतापि च तस्य महत्वेन नमस्कृतत्वात्तथाच तदाझ्या वर्तमानानां मोक्षः प्राणीनां संपश्यत इत्याशंक्याधुनातनसंघवशवर्तिनो जव्यजन स्याक्षेपपूर्व मोक्षानावमुपदर्शयिषुराह ॥
अर्थ:-वितर्क करे ने जे आ काळमां गुणी पुरुषोनुं शुं प्रयोजन जे? कमजे संघ ने तेज महा ऐश्वर्यवाळो बे ने समग्रदोषने मूकाववा समर्थ डे माटे ते संघनो आश्रय करो. नगवान तीर्थकरे पण तेनी मोटाई जाणी नमस्कार कों ने ए हेतु माटे. वळी ते संघनी श्राज्ञा प्रमाणे वर्तनार प्राणीनो मोक्ष थशे एवी श्राशंका कर सांप्रत कालना संघने वश वर्तनार नव्यजनने तिरस्कार पू. र्वक मोक्षनो अन्नाव देखावा श्चता बता कहे .
॥मूल काव्यम्॥
संघनाकृतचैत्यकूटपतितस्यातस्तरां ताम्यत स्तन्मुशाहढपाशबंधनवतः शक्तस्य न स्यंदितुं॥ मुक्त्यै कल्पितदानशीलतपसोऽप्पेतक्रमस्थायिनः संघव्याघ्रवशस्य जंतुहरिणवातस्य मोदः कुतः॥३३॥
टीका:-जंतवो धमाथिनो जव्यसत्वाःत एवाऽचक्षत्वान्मुग्यत्वात्सत्वरहितत्वाच्च हरिणा मृगास्तवातस्य तत्समुदायस्य॥ वत्ययमन उत्सूत्रप्रज्ञापकः श्रुताझानिरपेदः स्वच्छंदचारी
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अब भी संघपट्टक
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सातलोलुपः साधुसाध्वीश्रावकनाविकासमवायो भूयानिह संघ उच्यते स एव वालष्टत्वात् क्रूरत्वात् व्याघ्रा शार्दूलस्तशस्य तदधीनस्य दासवद्यत्रतत्र नियोज्यस्येति यावत् ॥
अर्थ:---धर्मना अर्थी एवा नव्य प्राणीरूपी जे मृगनो स. मूह, जव्य प्राणीने मृग जेवा शाथी कह्या? तो तेमनी नोळाशथी तथा वल रहितपणाथी,ते मृगने संघरूपी मोटा वाघे काल्यो .ते संघ कीयो? तो जैनमार्ग मुकी जन्मार्गे चालतो, तथा उत्सूत्रनी प्ररुपणा करतो, तथा शास्त्रनी आज्ञानी अपेक्षा न राखतो, पोतानी नजरमां श्रावे तेम चालतो, तथा शातासुखनो लालची एवो साधु साध्वी श्रावक श्राविकानो घणो जे समूह तेने संघ कहीए. तेज वळवानपणाथी तथा क्रूरपणाथी वाघ समान तेने आधीन थयेलो एटले दासनी पेठे ज्यां त्यां मोकलवा योग्य एवो जे पुरुष तेनो मोक्ष क्याथी होय ए प्रकारे संबंध .
टीका:-द्वितीयपके ग्रासविषयीनूतस्य ॥ मोक्ष इति श्लिष्टं पदं ॥ तेन जंतुपदे मोदो निर्वाणं ॥ हरिणपक्षे च तुटनं व्याघ्रात्पलायनमिति यावत् ॥ कुतःकस्मानकथं चिदित्यर्थः ॥ ननु मुक्त्यनुगुणानुष्टानानावात्तस्य मोक्षानावः किमायातं सं. घस्येत्यत श्राह॥
अर्थ:-हवे वीजो:पक्ष एटले जेम कोइ पुरुपने वाघेमजतमास्यो होय तेक्यांची मुकायीतम नव्य प्राणीरुपी दरिण संघरुपी
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(१९०)
अय श्री संघपट्टका
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आकरा वाघे पकमन्यु ते कयांथी मूकाय? एटले तेनो मोद क्याथी थाय? हरिणपक्षे क्याथी बूटे? क्यांश्री नाशे? एवो अर्थ करतो. नाशवानो को नपाय नथी ए अर्थ बेते जगाए कोआशंका करे जे मुक्तिने अनुसरती क्रियानो अन्नाव ले माटे तेनो मोद नथी थतो तेमां संघनो शो वांकले तो ते जगाए विशेषण कहे .
टीका:----मुक्त्यै निश्रेयसार्थ कल्पितदानशीलतपसोपि स्वबुझ्या विहितजिनादिवितरणदेशचारित्रानशनादेरप्यास्तांतदितरस्येत्यपि शब्दार्थाकथं तर्हि मोदानाव इत्यत आह॥ संघाय लिंगिसमुदायाय देयानि कृतानि देये त्राचेतित्रा तकित्तः॥ ततश्च संघत्राकृतानि श्रावकलोकेन जक्त्या स्वनविणेन निर्माप्य लिंगिन्यस्तद्देशनयैव वा साद्यर्थसमपणेन तदायतीकृतानि चैत्यानि॥
अर्थः-जे मुक्तिने अर्थे पोतानी बुद्धिए कह्यां ने एटले का जे दान शील तथा तप ते जेणे. नावार्थ ए जे जे पोतानी बु. द्धिए कल्पना करी का जिनादिदान तथा देशचारित्र तथा अनशनादिक ते जेणे. एवानो पण मोक्ष नथी तो बीजानो क्याथी होय? एम अपि शब्दनो अर्थ जे. केम मोक्षनो अनाव कहोगे? तो ते जगाए कहे जे जे लिंगिना समूहने आपेला जे चैत्य एटले श्रावक लोकोए नक्तिनावे पोताना अव्यवमे निपजावी लिंगधारीनी देशनाथी लिंगधारीने रहेवा सारु लिंगधारीउने आप्यां एवां जे चैत्य एटले लिंगधारीउने आधीन करेलां जे चैत्यमंदिर.
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* बप श्री संचपटक
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टीका:- चैत्यानि जिनायतनानि तान्येव कूटा हरिणबंधन यंत्र विशेपाः ॥ अथ कथमिह चैत्यानां कटौनरूपणं ॥ यावता दर्शनवंदनादिना नव्यानां रागढेपकषायाद्यरूषितशुन्नचिः तोत्पादनेन नवगुप्तमोचनहेतुर्जिनर्विवं जिनजवनं वा चैत्य मुच्यते ॥
अर्थः-ते जिनमंदिर रूपी जे कूट कहेता हरिणने बांध. वाना कोइ प्रकारना यंत्र विशेष. हवे तेमां को आशंका करे जे जिनमंदिरने नव्य जनरुपी हरिणने बांधवाना यंत्र विशेष केम कहोगे? एतो दर्शन वंदनादिके करीने नव्य प्राणीने रागद्वेष कषायादिके रहित शुन चित्तने नत्पन्न करेले तेणे करीने संसाररुपी बंधीखानाना घरथी मुकाववानुं कारण जिनबिंव तथा जनमंदिर तेने चैत्य कहोए.
टीकाः॥ यमुक्तं ॥ चित्तं सुषसत्थ मणो तत्तावो कम्म वाविजंतस्त ॥ तं चेश्यंति जनश, उवयारो हो जिणपमिमा।।
टीका:-कूटश्वबंधनहेतुरलिधीयते ॥ मोचनहेतुबंधन हेत्वोश्चमद्वयम्यं ।। तथा चानयोरुपमानोपमेयनावालावेन त दानेदस्य रुपकलकणस्येहाऽनुपपत्तेः। कथं चैत्यानां कूटैरजेदार प्यम्पागनाव इति चेलत्यम् ॥
अब ने बंधन हेतु होय तने कृट कहीए, मोचन हेतुने बंधन हेतु ते वेमा मोटुं विषमपणुंठे एटले वणे आंतरो मादे
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( ६९२ )
जय श्री संघपट्टकः
ए बेने नृपमान जाव तथा उपमेय जावनो अभाव बे ए हेतु माटे ते नो भेद करी रूपकालंकार करो बो पण ते रूपकालंकार लक्षणनी या जगाए सिद्धि बे. तेथी चैत्यनुं तथा कूटनुं श्रद पणाथी रुप्यन्नाव तथा रुपणनाव केम होय, एम जो तुं कहेतो होय तो तेनो उत्तर सिद्धांती कहे बे.
टीका:--यानि चैत्यानि मुक्तिकृते सिद्धांत विधिना लिंगिनां निश्रा निवासविरहेण श्राद्धैर्विधायते तानि संसार गुप्तिमोचन निबंधनानि नवंति ॥ एतानि तु प्रकृतचैत्यानि मुग्धान् प्रोत्साह्य स्वनिवासाद्यर्थं कथमाजन्मामी श्राद्धा श्र स्माकं जोग्या जविष्यति इत्याशयेन तेषां तत्र ममकारोत्पादनेन नियमनार्थं लिंगिभिः कारितानि तत्कथमेतेषां मोचनहेतुत्वं ॥
अर्थः- जे चैत्य मुक्तिने अर्थे सिद्धांत विधिव लिंगधारीजनी निश्रा निवास विना श्रावके कराव्यां होय तेतो संसाररूपी बंधीखानाथी मूकावानुं कारण होय. या चैत्य तो लिंगधारीए पोताने रहेवा सारु इत्यादि कारणे नोळा लोकने उत्साह पमामी करावेलां तेमां लिंगधारीजनो या अभिप्राय जे या श्रावक लोकने जन्मारा सुधी श्रापणे जोगववा योग्य कये प्रकारे थाय एम धारी ते चैत्यमंदिरने विषे श्रावकोने ममत्व उत्पन्न करी तेमने बांधी रा खवा सारु लिंगधारीउंए करावेलां चैत्य तेमने संसारथी मूकावनार केम कहेवाय ?
टीका:- प्रत्युत बंधन निबंधनत्वमेव पूर्वोक्तयुक्त्या विमू
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अव श्री संघपट्टका
(५९१)
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शमानं संगच्यते ॥ एवं चैत्यानां कुटैरत्यंतं बंधनहेतुत्वसाम्येना जेदविवक्षणायुक्तौ रुप्येण रुपण नावति ॥ एतेन विविदत चैत्यानां वनिशपिशितवदित्युपमानेनाऽनायतनत्वं प्राक्प्रतिपादितमपि पुनर्विनेयजनमनःप्रतीतिदाढार्थमिहापि तदेवव्यं जितमिति अष्टव्यं ॥
अर्थः-- नलढां बंधननुं कारगज , पूर्व कहेली युक्तिव विचार करतां ए वात सिक. ए प्रकारे चैत्यने अत्यंत बंधनतुं कारणपणुं ले तेणे करीने कूट जे मृगवंधन पास तेनी साथे समानपणुं कडं. ते साथे अजेदपणानी युक्ति कहे सते रुपकालंकार कर वा योग्य वस्तुवमे रुपकालंकार थयो. एणे करीने कवा मामला वमीशपिशित एटले मत्स जालवानो लोढानो आंकमो तेमां घालेला मांसने नक्षण करवा श्रावतां जे मत्स ते वंधन पामे ठे तेम श्रावक सोको चैत्यमंदिरनी ममता करी बंधन पामे ठे एम पूर्वे नपमा दीधी
तेणे करीने अनायतनपणुं स्थाप्युं . तोपण फरीयो जे या कह्यु तेतो शिष्यनां मनने दृढ प्रतिति थाय ते सारु अहीं पण ते वात जणावी ते एम देखq.
टीका-आयतनत्वे गदिततमः पापोपकरणैः कूटेस्तेषां रूपणानुपपत्तेः ॥ श्यांस्तु विशेषस्तत्र विवस्यैव तत्सवितमिइ विवानां तदायतनाना च॥ तथा तत्रोपमानेन निनेनेवोपमे. यस्याऽनायतनत्वमाविकृतं ॥ उपमानोपमेययोदनवोपमायाः प्रवृत्तेः ॥ इह त्वेवं नाम कृटैश्चैत्यानां साम्यं येनोनयथाप्यनेट विवक्षया कुटत्वेन रूपितानि चैत्यानि ॥
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अब श्री संघपट्टका
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अर्थः-अति निंदित एवां पापनां नपरणरूप जे मृग बंधन पास तेणे करीने चैत्यनुं श्रायतनपणुं कहे. तेमां रूपकार्यकारनी नत्पत्ति नथी थती, पूर्व करतां आटदुं था जगाये विशेष कडं डे. पूर्वे बिंबनी सूचना करी हती अने आ जगाये तो विबोनी तथा तेनां स्थाननी अनायतनपणानी सूचना करी. वळी पूर्वे उपमान वस्तु जूदी राखी उपमेय पदनुं अनायतनपणुं प्रगट कयु हतुं केम जे उपमानने नपमेय ए बेना जेदवमे उपमा अलंकारनी प्रवृत्ति थाय ने ए हेतु माटे आ जगाये तो कूट एवा नाम वमेज चैत्यनुं सरखापर्दा कयु, जेणे करीने बे प्रकारे एटले नाम वमे तथा अलंकार वमे मृग बंधन पासनी साथे चैत्यनो अजेद कदेवानी वा डे माटे कूट शब्दे करी चैत्य निरुपण कयु.
टीका:-तथा च रुपकालंकारेणोपमानादन्नेदेनोपमेय स्यातिशयने ताप्यमनायतनत्वं प्रत्याख्याप्यते॥ तथा च तबक्षणं ॥ तद्पकमजेदो य नपमानोपमेययोरिति ॥ ताकमुक्तं चैत्यान्येवकूटा इति ॥
अर्थः--वळी रूपकालंकारे करीने उपमानथी उपमेय अनेदपणं कहे तेणे करीने अतिशे ते सरखं अनायतनपणुं प्र. त्याख्यान कयु एटले जे मृगनी पेठे बंधन करनार चैत्य ने तेनुं पञ्चखाण करीए बीए. वळी ते रूपकालंकारनुं लक्षण आ प्रकार बे.जे उपमान पद तथा उपमेय पद ए बेनो जे अजेद करवो तेने रूपकालंकार कहीए. माटे चैत्य एज संघरूपी मृगने बंधन पास ले rr तां ते यक्त...
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अब श्री संघपट्टकः
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टीका:---अत एव लिंगिपरिगृहीतचैत्यानां युगप्रवरश्री जिन वनसूरिदेशनानिशमनादनायतनत्वं निर्नीय श्री चित्रकूटे प्रजुन्नक्तश्रावकैः श्रीमहावीरजिननिकेतनं विधिचैत्यं विधिपथविकाशयिपया निर्मापयांवनवे ॥ तथा चैतदर्थ सत्यापिका तत्रत्या प्रशस्तिः॥
अर्थः----एज कारण माटे वेप धारियोये गृहण करेलां जे चैत्य तेनुं युगप्रधान एवा श्री जिनवद्धनसरि तेमनी देशना सांजळवाथी अनायतनपणानुं निश्चय करी श्री चित्रकूटने विषे प्रजुना जक्त एवा श्रावक लोकोये श्री महावीर स्वामी स्थान जे विधिचैत्य तेने विधि मार्गनो प्रकाश करतो एवी लाए नोपजाव्यु, ते अर्थनुं सत्यपणुं स्थापन करनारो आ प्रकारनो त्यांनो प्रशस्ति , ते प्रशस्तिनां काव्यो आ प्रमाणे ले.
"कुसाचीर्णकुवोधकुग्रहहते स्वं धार्मिकं तन्वति । हिष्टानिष्टनिकृष्टधृष्टमनसि क्लिष्ट जने नुयसि ॥ तागलोकपरिग्रहेण निविमपोगरागग्रह । अस्तैस्तद्गुरुसात्कृतेषु च जिनावालेषु नूम्नाऽधुना ॥ तत्वहेपविशेष एप यद सन्मार्गे प्रवृतिः सदा । सेयं धर्मविरोधबोधविधुतिर्यत्सत्पथे साम्यधीः ॥ तत्स्मात्सपथमुहिन्नावयिपुनिः कृत्यं कृतं स्यादिति । श्रीवीरास्पदमाप्तसम्मतमिदं ते कारयांचक्रिरे ॥
टीका-व्याख्याः-बीरास्पदं श्रीमहावीरजिनगृहं या:
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अथ श्रीसंघपटक
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तसंमतं सद्गुरुणामनुमतं इदं प्रत्यदं ते प्रागुक्ताः श्रावकाः कारयांचक्रिरे विरचयांवनूवुः ॥ श्रथ तत्रान्यदेवगृहसद्जावेपितद बहुमानादपर विधापनेन तेषां जगवदाशातना प्रसंगा. किमिति तत्कारयामासुरित्यत आह ॥
अर्थ:-हवे ए प्रशस्तिनां वे काव्य ले तेनी व्याख्या करे जे.जे श्री महावीरस्वामीन घर तेने सद्गुरुना अनुमतथी पूर्वे कहेला जे श्रावक तेमणे आ प्रत्यक्ष कराव्यु. ते जगाये आशंका करी उत्तर आपे जे जे त्यां बीजां देवमंदिर घणां वे तोपण, बीजें देवमंदिर कराव तेणे करीने पूर्वे देवमंदिर करावेलु होय. तेनुं बहुमानपणुं रेहेतुं नथी, तेथीलगवंतनी आशातनानो प्रसंग थशे माटे शा वास्ले तेमणे नवु जिन मंदिर कराव्युं तेनो उत्तर कहे .
टीकाः-लुआणां लिंगिनामाचीर्णानि सिद्धांतोक्तमपि श्रीमहावीरस्य षष्टंग पहारकल्याणकं लजनीयत्वान कर्त्तव्य मित्यादिका आचरणास्ततश्चाचीर्णानि च कुबोधश्च कुग्रहश्च तैईते दूषिते स्वं धार्मिकं तन्वति वयमेव धार्मिका इति सर्वत्र प्रत्या. ख्यापयति विष्ट मात्सर्यवत् अनिष्टमपायकरणप्रवणं निकृष्टमधमं धृष्टं पापं कुर्वतोऽनुपजायमानशंकं मनश्चित्तं यस्य स तथा
अर्थः-जे लिंगधारीए करेली जे सिद्धांतमां कहेवं एवं पण श्री महावीरस्वामीनुं बहुं कल्याणक जे. ग्रापहाररूप ते घणं लझा पामवा योग्य ने ए हेतु माटे न कर, इत्यादि था. घरपा तथा कुबोध तथा कदाग्रह तेणे-करीने खोकने, दोष पमा
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मय श्री संयपट्टका
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बते तथा अमेज धर्मनिष्ट बीए ए प्रकारनी बात सर्वत्र प्रसिद्ध करे उते तथा मत्सर सहित अने अनिष् करवामां तत्पर तथा अधम तथा पाप करतां पण जेने शंका थतो नथो ए प्रकार ने मन जेनु एवो लोक थये बते।
टीका:-तस्मिन् क्रिष्टे धार्मिकान् प्रति कुराध्यवसाये एवं विधे संप्रति जूयसि प्रजूते जनेलोके सति अथ यद्येवं विधोनयानलोकः संप्रति ततः किमायात मपरचैत्यविधापनस्येत्यतश्राइ ॥ ताक्लोकपरिग्रहेण प्रागुक्तविशेषण विशिष्टजनाधीनत्वेन निविनयोगरागग्रहेण तीवगुणवन्मात्सर्योदग्रस्वमतानुरागाजिनिवेशेन प्रस्ता वशीकृता ये एतद्गुरवः प्रागनिहत जनाचार्यास्तत्सात्कृतेषु ॥
अर्थः--तथा धर्म निष्ट पुरुषो उपर क्रूर अध्यवसाय जेने के ए प्रकारना श्रा कालमा घणा लोक थये ते नवं विधि चैत्य कराव्यु एम श्रागळ संबंध जावो. आशंका करी उत्तर कहे . जे हवे ए प्रकारना घणा लोक श्रा काळमां थया तेथी वीजु चैत्य कराव्यामां शुं कारण प्राप्त थयुं ? तो तेनो उत्तर कहे ते. जे पूर्वे विशेषण कह्यां तेणे सहित एवा लोक साथे पराधीनपणुं थयं तेथे करीने तथा जे आकरो गुणवान साथे मत्सर तेणे करीने मोटो पोताना मतनो अनुराग थयो तेणे करीने वश थयेखा एवा पूर्वे कहेला सोकोना श्राचार्य तेमने सर्व चैस्य अर्पण करे ठते नई चैत्य कराव्यु एम संबंध ठ.
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अथ श्री संघपटका
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टीका:-देये साति तहितः ॥ ततश्चगुरुदक्षिणीकरणेन. तदायतीकृतेषु जिनावासेषु चैत्यसदनेषु जूम्ना बाहुल्येन अधुना संजातेषु सत्सु ॥ ननु यदि संप्रति जिनालया दुष्टलोकपरिगृही. तालिंगिगुरुणामायत्ताश्च तत्किमेतावता वेषकारित्वादागमविरुकाधायित्वाच तेषामेव पातकं नविष्यतिनवतां तु तत्र पूजावंदनादिकं कुर्वाणानां धर्मएवेत्यत आह
अर्थ:----टापवारुपी अर्थने विषे तकितनो सातिप्रत्यय थाव्यो, तेथी एवो अर्थ थयो जे गुरु दक्षणा कर करीने गुरुने स्वाधिन चैत्य मंदिर करे बते बहुधा आकालमा ए प्रकारे थये ते नहुँ चैत्य कराव्यु एम संबंध बे. ए जगाये आशंका करी समाधान करे
जे, जो था कालमां जिनमंदिर पुष्ट लोकोए ग्रहण कर्याने, लिंग धारी गुरुए पोताने स्वाधीन कर्यां ने एणे करीने तेमांशुं कारण कडं के जेथी नवं चैत्य कर पम्यु. केमजे देष करवापणुं तथा
बागमविरुक करवापणुं तेथी ते लोकोनेज पाप थशे. तमारे तो त्यां 'पूजा वंदनादिक करतां धर्मज थशे एवी आशंकानो उत्तर कहे .
टीकाः--तत्वद्वेषविशेषः' सन्मार्गमात्सर्यप्रकर्ष एषः यदऽसन्मार्गे कुमार्गे प्रवृत्तिर्गमनपूजनव्यवहारः लिंगिपरिगृ. हीतो हि जिनालयादिः सर्वोप्यसन्मार्गस्ततश्च सत्पथमंवबुध्य
माना अपि यन्नित्यमसन्मार्गे प्रवर्तते तन्नूनं तेषां सत्पथे देषो • मनसि विपरिवर्तते॥
अर्थः जे साचा मार्गने विषे जे अतिशे मत्सर ते लोकने
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अब श्री संघपट्टका
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वर्ते ने माटे, एटले जे असत् मार्गने विषे प्रवर्तवू तथा जेतुं पूजन करवू इत्यादि व्यवहार तथा लिंगधारीयोये ग्रहण करेलु जे जिनमंदिरादि ते सर्व पण असत् मार्गज ने, ते हेतु माटे सत्य मार्गने जाणे तो पण जे नित्य असत्य मार्गे प्रवर्ते ने तेमना मनमां सत्य मार्गने विषे दोष विशेप वर्ते ठे.
टीका:---कथमन्यथा तत्रैव प्रवृत्तिरतस्तत्र प्रवर्त्तमानानां धार्मिकाणामप्यविध्यनुमोदनमुग्धजनस्थिरीकरणादिना पापमेव ॥ सदा ग्रहणात् कदाचिदपवादेन तत्रापि प्रवृत्तिरनझाता सेयं सैषा धर्मविरोधेन सम्म विरेण वधिविधुतिःसवोधनाशो यत्सत्पथे सन्मार्गे कुपयेन साम्यधीस्तुल्यतावुद्धिः॥
अर्थ-अने जो वेष न वर्त्ततो होय तो त्यांज केम जवानी प्रवर्ति थाय? धार्मिक लोकने पण अविधि चैत्यमा जतां अविधिनी अनुमोदनाथी तथा मुग्ध लोकने त्यां जवा याववा विपे स्थिरपणं कर इत्यादि कारणवझे पापज थाय बे ने ए धर्मा पुरुपने सत्य ज. पर आग्रह रह्यो . तेथी कदापि अपवाद मार्गे अविधि चैत्यमां जवानो शास्त्रमा आज्ञा ठे ते आज्ञायो प्रवृचि साचा धर्म साथे देष थवे करीने साचा बोधने नाश करनार। ठे. केमने सन्मार्ग अने कु. मार्ग एवेने विषे तुल्य बुद्धि एटले सरखो बुद्धि वायो.
टीकाः--सत्पथकुपथयोालोकतमसोरिव मदतरं सत्पथ परिझानेऽपि निन्यं कुपथप्रवृत्ती तु तेगांजपथकुपथयोः साधारण्य चेतसि निविशमानं लक्ष्यते तथा च नूनं ते धर्मविशेषिणः सद
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(६४)
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मय श्री संघपट्टका
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बोधविधुराइति। यस्मादेवं तस्मात् सत्पथं विधिमार्गमुहिनाव विषनिर्विधिचैत्य विधापनेन प्रकाशयनिरस्मानिः कृत्यं कृतव्यं कृतं विहितं स्यात्
अर्थः-सन्मार्ग अने कुमार्ग ए बेनुं अजवालं अने अंधार एबेनी पेठे मोटुं आंतरं एटले क्या प्रकाश अने क्या अंधकार ए बेतुं समानपणुं न होय, तेम क्या सन्मार्ग अने क्या कुमार्ग एबे सरखां न होय. सन्मार्गनुं जाणपणुं थये बते पण जे निरंतर कुमागेमा प्रवृत्ति करे तो तेना चिनने विषे सन्मार्गने कुमार्गने विषे साधारणपणुं रहे, जणाय डे, वळी ते पुरुषो साचा बोध विनाना के. केमजेजे हेतु माटे अविधि मार्गमा प्रवृत्ति बेते हेतु मोटे विधि चैत्यनुं स्थापन करतुं तेणे करीने विधि मार्गने प्रकाश करनार श्र. मोए ए करवा योग्य काम कयु बे.
टीका-विधिमार्गमासेषां ह्येतदेव कर्तव्यं यत् कुपंथ पायोधिपातुकजविकोहिधीर्षया विधिमार्गस्य प्रकाशनं न चासो संप्रति पृथग्विधिचैत्यनिर्मापणं विना प्रकाशयितुं शक्यते॥ शेष चैत्यानां प्रायेण सर्वेषामपिलिगिपरिग्रहेणाविधिना घातत्वात् । इति देतो अस्माद्धेशोस्तवा रास्पदमित्यादि पूर्वव्याख्यात मि. त्यानुषंगिकवृत्तयार्थः
अर्थः-विधि मार्गने पामेला पुरुषोये निश्चे ए प्रकारनां कामज काँ जोइए, जेथो कुमार्गरूपी सनुअमां पढ़ता नव्य प्रा. पीने उभार करवानी श्वाए विधि मार्गनो प्रकाश थाय आकासमां
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6. अथ श्री संघपट्टका
(१.१
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जुई विधि चैत्य कराव्या विना ए विधि मार्गनो प्रकाश करवा नथी समर्थ थता. वाकी रहेलां सर्वे चैत्यमंदिर लिंगधारीए बहुधा प्रहण कयाँ , तेणे करीने अविधि सहितपणुं देखाय ए हेतु माटे. इति शब्दनो हेतुरूपी- अर्थ जे. नवु विधिचैत्य कराव्यु इत्यादि व्या. रम्यान पूर्वे कयु के. ए प्रकारे चालता प्रकरणवशथी आवेलां वे काव्य तेनो अर्थ थयो.
टीका:-सांप्रतं प्रकृतमुच्यते ॥ संघनाकृतचैत्यकूटेषु पतितस्य प्रतिवद्धस्य कथंचित् सत्पथं प्रतिपत्सोरपि तत्र गोष्टिकत्वादिना स्वकारितप्रतिमाममत्वादिना वा नियमितत्वात्ततो निगंतुमशक्तस्येति यावत्
अर्थः-हवे जे प्रकरण पूर्वे चालतुं आवे ते कहे , जे चैत्यरूपो मृगबंधननो पास तेने विये पमेलो एटले बंधायेलो ते स. न्मार्गने पामवा श्छे ले तो पण ते पुरुपने ते जग्याना लोको साथे गोठमी श्रवी इत्यादि कारणव अथवा पोतानी करावेली प्रतिमानो ममत बंधावो इत्यादि कारणथी बंधायो वे ए हेतु माट. त्यांथो नीकळवा समर्थ नथो थतो.
टीका:-वितियपक्षेपतितस्य वचस्यतयांतस्तरां ताम्यतः सन्मार्गबहुमानित्वात्ततो निर्जिगमियोरपि निर्गमाऽलानात् ॥ जविता कदाचित्तहिनं यत्रतस्मादसत्पथादई निर्गमियामीत्येव मतिशयेनांतःकरणमध्ये चेतोममणी ति यावत् खिद्यमानस्य ।।
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१६) - अय भी संपपकर
अर्थः-मृगपहे पतित शब्दनो बांधवारूपी अर्थ ले. वळी अंतःकरणने विषे खेद पामतो एटले सन्मार्गने बहुमान करे के तेथी असत्मार्गमांथी नीकळवा छे , तो पण नीकळी शकतो नयो ने एम विचार करेले जे, अहो! ते दिवस मारे क्यारे श्रावशे जे दिवस असत् मार्गथी हुँ नीकर्ल ए प्रकारे अंतरमा खेद करतो.
टीका नन्वेवं चेन्निर्गतुंतस्य तापः तर्हि किं चैत्येषु गोष्टिकस्वादिप्रतिबंधेनेत्यत आह न शक्तस्य नक्षमस्य स्पंदितुंचलितुं ततो निर्गमनाय बहिः श्चेष्टयोद्योगमात्रमपि कर्तुमिति यावत्।।कुत श्त्यताहातबब्देन संघः परामृश्यते तस्य संघस्य मुखाश्चतुई
श्यादिकाः पर्वतिथय एतदाचार्यसंवादेन तपोनियमादिकृते प्र। माणीकर्तव्या नान्यथेत्येवमादिका व्यवस्था ॥
अर्थः-ए जगाए आशंका करि कहे जे जे, जो ए प्रकारे तेमने चैत्य बंधन पालथी निकलवा परिताप थतो होय तो चैत्यने विषे गोष्टि करवादि प्रतिबंधवसे शुं? कां नहीं तेनो उत्तर कहे
जे, त्यांथो निकळवा समय नथ। थतो एटले बारणे निकळी इष्ट पुरुषनो याग मात्र करवा पण समर्थ नयो थतो. त्यां कहे जे तत् शब्द व संघ कदेवो. ते संघनो मुजाओ एटले चउदशी प्रमुख पर्व तिथिो ते तिथिो आचार्य पुरुषोना संवादे करीने जे नियमने अर्ये प्रमाण करवा योग्य जे तेज प्रमाणे ग्रहण करवी बीजो रोते न करतो. इत्यादिक जे लिंगधारिश्रोनो मर्यादा.
टीका-यदाह ॥ .', चैत्येऽस्मिनथवामुकत्र वसतौ तिथ्यः क्रियते यथा,
१
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अय श्री संघपहका
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सर्वत्रैव चतुर्दशीप्रभृतयः कार्यास्तथा नान्यथा ॥ निक्षा न वृतिनां न चात्र वसतिया तथामी यतो, निर्वास्या न च मंदिरं जगवतः सोढव्यमेतन्मते.
अर्थः हवे ते लिंगधारिलोनी वांधेली मर्यादाओ कहे , जोळा लोकने बंधनपासमां नांखवा लिंगधारित कहे बेजे,श्रा चैत्यमां अथवा आ स्थानमांज निरंतर चौदश प्रमुख तिथी करवी. हवे ए प्रकारचें माननार पुरुषो ए व्रतवाळाने एटले सुविहित नाम धरावी फरनार मुनिनने जिदा तथा निवास ते न श्रापवो. त्यारे शुं करवू ? तो तेमने कहामी मुकवा. एटले देखो त्यांथी सुविहित मुनिनने मारी कहानवा ए जावार्थ ने. जगवान नQ मंदिर एटले नवं विधिचैत्य कराव्यु ने ते सहन करवा योग्य नथी,ते क्षमा करवा योग्य नथी. केम जे ए तो एमना मतनुं बे. ए प्रकारे सिंगधारी मर्यादा वांधे जे.
टीका:-एषां न केनचिहो सविधे विधेया,
धर्मश्रुतित गृहीतिरनीतिनानां ।। देयं न चैत्यगृहवेशनमन्यथा वो, ऽकामेन मू:नि पतिप्यति राजदमः ।।
अर्थः-वळी अनीतिने जनार एवा ए विधिवादी सो. को पासे कोइए क्यारे पण धर्म सांजळवा न जवो. तथा व्रत पण न महरा करवं. ने चैत्य घरमा पेसवा पण न देवा, ने जो एम न. ही करो तो तमारे माथे प्रोचिंतो राज दरु पदो
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अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः-एचमाद्याः स्वतोऽमुझै हुरैर्मुडाः प्रवर्तिताः ॥
वराकान् मुग्धसारंगान्, हा वधु वायुरा श्व ॥ अर्थः-पोते शास्त्र मर्यादा रहित निरंकुशपणे वर्चता ने ज़ोळा लोकोने जेगा करी पोतानी कपोल कल्पित मर्यादाउँने प्रवविनारा लिंगधारी ए मुग्ध लोकरूपि हरिणनां रंक टोळांने वाधवा ए प्रकारनी मर्यादारूपि पास प्रवावे .
.टीका:-ततश्च तन्मुझैव दृढं निवि पाशोमृगादिवंधनार्थ दवरकादिनिर्मितथिविशेषस्तेन बंधनं संयमनं तइतस्त दुन्वितस्य स हि संघमुद्धामुदितस्ततो निर्गमनबार्तामपि कस्यापि पुरतो वक्तुं न शक्नोति किं पुनर्निर्गतुमित्यर्थः
अर्थः ते माटे संघरूपि एक बाप धरावी एहीज दृढपास जेम मृग बांधवाने सुतस्नी दोरिनने गांव्यो वाली पासखा रचे तेम संघ नाम धारण करवादि प्रासमां नांखेला लोको त्योथी नी. कळवानी वातने पण कोर पासे कहेवा समर्थ नश्री थता तो विचारा ए लिंगधारिर्जना पासमांथी नीकळवा क्याथीज समर्थ थाय? एटलो अर्थ बे.
टीका तथा एतस्य संघस्य क्रमस्तनिर्दिष्टा-रात्रिस्नानादिका परिपाटी तत्स्थायिनस्तर्तिनः छित्तीयपके तु हरिणं प्रहारार्थेमुक्षिप्य 'सजिनः पादमस्त्रद्गोचरगतस्येति ॥ ततोऽयमर्थः॥ यथा व्याघ्रप्रासंविषयस्य तत्कममोचर..
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अय श्री संघपटक
(६०५)
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स्य तत्रापि कूटपतितस्य अन्यथा हि पलाय्यापि कथंचित्ततो मोक्षः संन्नाव्यते तत्रापि निर्जिगमिषया चेतसि ताम्यतोऽपि पाशसंयमि तत्वेनांगस्यदनमात्रमपि कर्तुमशक्तस्य हरिणवातस्य न कथं चित्ततो मोकः संन्नवति ।
अर्थः-वळी ए लोक केवा ? तो लिंगधारीए देखामी जे रात्रिस्नान करवादिक परिपाटी तेमा रहेला ले. हवे वीजे पदे एम श्रर्थ थाय जे हरिणने मारवा सारु तैयार थएलो जे वाघ तेनी नजरे पमेलो. स्पष्ट अर्थ आ प्रकारे ले. जेम वाघे हरिणने मारवा सारु पग उंचो कों होय ते पग तळे जे हरिण याव्यु ले ते मुकाशे, एटले त्यांथी तुटी नाशीने पोतार्नु जीवित वचावशे एवी वात केम संनवे ? न ज संन्नवे. केमजे चारे पासथी वाघनां टोळांये पग नंचा करी विकट स्थानमां घेरी लीधेलो पाशमां पमेलो इरिण माटे. जो एम न होय तो कदाचित् नाशीने तुटे एवो सं. जव करीए पण ते तो नथी, माटे ते स्थानमां ते हरिण नीकळी जवानी इच्छाए घणो परिताप पामे वे तो पण पाशमां पोते वं. पायो , तेणे करीने अंग हलाववा पण समर्थ नथी यतो, तो त्यांथी नाशी पोतानुं जीवित बचाववा क्याथी समर्थ थाय ! एटले स्थायी ते हरिपने को प्रकारे मुकाववानी वातज केम संजवे ?
टीका:--एवमस्यापि चैत्यप्रतिवद्धस्य सन्मार्गस्पृह्या निर्गतुं मनसि विद्यमानस्यापि संघमुख्या कीलितत्वेन सत्पथाच्यु. पममं प्रत्युद्यतुमप्पशक्नुवतस्ततत्क्रममनतिकामतः संप्रतितन संभाकावश्यस्य जंतुसंदोहस्य निर्वाणं न संजायत इति ।
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अय भी संघपका
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अर्थ-ए प्रकारे श्रा चैत्यमां बंधाएला लोकोने पण साचा मारगनी मनमां वांडाबे तेणे करीने तेमांथी नीकळवार्नु मन ले माटे खेद पामतो एवो ने तो पण संघ एवी एने माथे गप दीधी तेणे करीने बंधन पाम्यो,माटे साचा मारग प्रत्ये जवानो उद्योग करवा असमर्थ थएलो अने तेनी बांधेली मर्यादानने पण उबंधन करवा समर्थ न थतो एवो भने संघनी श्राझाने वश थएलो श्रा काळना नव्य लोकनो समूह तेनो मोज्ञ नथी थतो.
टीका:-अथ कथमिह संघस्य क्रूरतया व्याघ्रण रूपणं॥ तत्वे हि तस्य नगवनमस्कारो न घटा मियूयात्॥श्रूयते चतीर्थप्रवर्तनाऽनेहसिनमो तित्थस्लेत्यायागमवचन प्रामाएयेन जगव. तस्तन्नमस्कारविधानं तत्कथमेतत्रुपपद्यत इति चेत् न ॥
अर्थः-हवे प्रतिवादी आशंका करे ने जे, वहीं संघने कूरपणावके वाघ जेवं वर्णन कर्यु ते केम घटे ? तत्वपणे विचारतां जो वाघ जेवो क्रूर संघ होय तो तेने नगवान् नमस्कार करे ते न घटे. सांजळीए बीए जे, तीर्थ प्रवविवाने अवसरे " नमों तिथ्यस्स" इत्यादि बागम वचनमा प्रमाणपणाए करीने जगवान् ते संघने नमस्कार करे , ते वात केम युक्त होय? हवे तेनो उत्तर कहे
जे, जो तमे ए प्रकारे कहेता होय तो ते न कहे.
टीका:-सदृग्नामभवणा संघेपि प्रकृते नवतः संघनांते॥ अन्यो हि संघो जगवन्नमस्कारविषयोऽल्यश्चाधुनिको जवन
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जय श्री संघपट्टका
(६०७)
निमतः ॥ तथाहि ॥ गुणगुणीनोः कथंचित्तादात्म्येन ज्ञानादि गुणसमुदायरूपः शुक्रपथप्रथनबद्धादरोऽनुवंधितनगवासनः साध्वादिः सिद्धांते संघ इत्यभिधीयते ॥
अर्थः कमजे सरखं नाम सांजळवाथी जे संघ नथी अने संघ नाम धरावे ने ते प्रकरणमां तने साचा संघनी ब्रांति थइ ठे तेथी एम आशंका करुं बु, ते संघ निश्चे जूदो बे के जेने लगवान् नमस्कार करे , श्रने आ तो हमणांनो जे संघ ले ते तो तमोए मानी लीयो ने तेज कहे जे जे, कोर प्रकारे गुण तथा गुणी ए वेर्नु एकपणुं कहेवं तेणे करीने ज्ञानादि गुणनो समुदायरूप श्रने शुद्ध मारगनो विस्तार करवामां जेणे आदर वांध्यो अने नगवानूनी थाहा जेरो उबंधन करो नथो एवो जे साधु प्रमुख तेने सिकांतमां संघ को ले.
टीका-यदाद ॥
सहोविनापदसण चरसगुण विजुलियाण समणाणं ॥ समुदाउँ होइ संबो, गुणसंघाउ तिकानुणं ॥
अर्थः-ने कही देखामे ले जे ज्ञान दर्शन चारित्र गुणवमे शोलतो साधुनो सर्वे समुदाय तेने संब कहोए. ते कीये प्रकारे ? तो गुणसंघ ए प्रकारे करोने. एटले जे संघना गुण शास्त्रमा कला दे, ते गुण सहित तेने संघ कहीए, पण एकला नाम मात्रे नथी कोता.
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((६.८),
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अथः श्री संघपटक
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टीकाः-एवं विधश्च संघो जगवन्नमस्कारविषयः॥-साहि जगवान्नमस्यदर्खमाखंगलमौलिमालाललितक्रमकमलोपि ती. र्थस्य साक्षात्स्स्रष्टापि प्राक्तनजन्मनिवर्तितनावसंघवात्सल्या दाईत्वं मयावासमिति कृतज्ञता प्रदिदर्शयिषया सबहुमानदर्शनाचलोकोप्येनं बहु मन्येत इति जिज्ञापयिषया च तं नमस्कुरुते॥
अर्थः-ए प्रकारना जे संघ होय तेने जगवान नमस्कार करे , ते सर्व इंजना मुकुटनी श्रेणीवमें शोजता ले चरण कमळ जैमना एवा ले तो पण तथा तीर्थना सादात करनारा डे तो पण एम विचारे जे जे पूर्व जन्मने विषेनीपजाव्यु जे नाव संघर्मुसामिवात्सल्यपणुं तेथी अमोए अंरिहंतपणुं पाम्युंडे ए प्रकारे कृतज्ञपणानी जे देखामवानी इछा तेणे करीने तथा सत्पुरुषना बहुः मानने देखामवा माटे तथा लोक पण ए संघर्नु बहुमान करे इत्यादि जणाववानी श्बा ए हेतु माटे ते संघने नमस्कार करे.
टीका---गुणसमुदाउँ संघो पवयण तित्थं ति हुँति एगहों।
तित्थयरोवि हु एय, नमए गुरुनाव चेव ॥ तप्पुधिया अरदया, पूश्यपूया य विणयकम्मं च ॥ कयकिचोवि जह कहं कहेश नमए तहा तित्थं ॥
अर्थः-ए वात शास्त्रमा कही , जे ज्ञानादि गुणनो सः मुदाय तथा संघ तथा प्रवचन तथा तीर्थ ए सर्वे एक 'अर्थवाला , माटे तीर्थकर पण निश्चे मोटा नावथो ए संघने नमस्कार करे :
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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टीकाः-इतरथा कृतकृत्यत्वेन जगवतो यथाकथं चित्तत्रैव जवे मुक्तिसंचवाकिमनेनेति सांप्रतिकस्तु नवदनित उन्मार्गप्रज्ञापकत्वेन सन्मार्गप्रणाशकत्वेन जिनाझासर्वस्वखुंटाकत्वेत यतिधर्ममाणिक्यकुट्टाकत्वेन च गुणसमुदायरूपत्वस्य संघलक्षणस्यानावान संघः
अर्थः-एम जो न होय तो जगवान कृतार्थ थएला .. एटले जे करवान ते करी रह्या , अने जे ते प्रकारे तेज नवमां मोद जवाना डे माटे तेमने संघ नमस्कार करवो तेणे करीने शुं? काइ पण विशेष नथी. आ काळनो तमारो मानेलो जे संघ ते शास्त्रमा कहेला जे संघनां लक्षण तेणे रहित ठे माटे संघ नथी, केम जे गुणनो समुदायरूप संघ होय, एवां लक्षण तमारा मानेला संघने विषे नथो, आ तो उन्मार्गनी प्ररुपणा करे , ए हेतु माटे, तथा सन्मार्गनो नाश करे ने ए हेतु माटे, तथा जिनराजनी आझाना सर्वथा चोर ले एटले जिनराजनी आज्ञाना घणुं छेदन करनारा
ए हेतु माटे, तथा यति धर्मरूप माणिक्य मणिना कुटनार ए हेतु माटे तमारो मानेलो जे संघ ते संघ नथी.
टीका:यक्तं ॥
के नम्मन्गठियं उस्सुत्तपस्वयं वहुँ लोयं ॥ दई नणंति संघ संघसरूवं अयाणता ।। सुइसीलायो सनं दचारिणो वेरिणो सिवपहस्स ॥ श्राणानहाल वहु, जणाई मा नणद संघोति ॥
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8. अथ श्री संघपट्टका
'अर्थः--ते वात शास्त्रमा कही जे जे, उन्मार्गमा रहेला तथा नरसूत्रना प्ररूपक एवा घणा लोकने देखी केटलाक पुरुषो संघना स्वरूपने नथी जाणता माटे तेमने संघ कहे जे. सुख शिलीया तथा स्वबंदचारी एटले पोतानी नजरमां आवे तेम चालता एवा तथा मोक्ष मार्गना शत्रुरूप तथा वीतरागनी आज्ञाथी व्रष्ट थएला घणा लोकना समूह .तेने संघ ए प्रकारे न कहे.
' ' 'टीका:-परं बहुकीका संघातरूपत्वात्सोपि संघ इत्य निधया लोकेऽनिधीयत इति मुग्धनाम्ना विप्रलब्धोसि ॥
_ अर्थः-वळी घणां हामकांना समूहरूपपणुं ले ए हेतु माटे एटले तारो मानेलो संघ ते हालकांना संघ जेवो के माटे लोकमां संघ ए प्रकारे कहे , ए हेतु माटे हे मुग्ध ! संघ एवा नामथी तुं गायो
टीका-यदुक्तं ॥ एको साहू एका वि साहुणी सावर्ड य सट्ठीय
आणाजुत्तो संघो सेसो पुण अभिसंघाउँ ॥ श्रतः संघलक्षणालावान्नायं बहुमानमर्हति तद्बहुमानादिकारिणो जगवत्प्रत्यनीकादिनावेनानिधानात् ॥
अर्थः---ते वात शास्त्रमा कही ले जे, तीर्थकरनी श्राझाए
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अथ श्री संघपट्टका
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युक्त एवो एक साधु अथवा एक साध्वी अथवा एक श्रावक अथवा एक श्राविका होय तेने संघ कहीए अने ते विना शेष जे साधु साध्वी, श्रावक, श्राविकानो समुदाय तेने हामकाना समूह जेवो संघ कहीए ए हेतु माटे, तमारो सानेलो जे संघ तेमा संघनां लक्षण नथी माटे ए पदुमान करवा योग्य नथी. अने तेने जे वहुमानादिक करे , ते नगवंतना सामावाळीश्रो शत्रु डे इत्यादि अभिप्रायवझे शास्त्रकार श्रा प्रकारे कहेवू थयुं .
टीकाः-यदुक्तं ॥ आणाए अवतं जो नववूहिज मोहदोसणं ॥ तित्थयरस्स सुयस्स य, संघस्स य पञ्चणीओ सो ॥तथा।। जो साहिजे वह आणानंगे पयहमाणाणं ॥ मणवायाकाएहिं समाणदोसं तयं विति ॥
अर्थ:-- ते वात शास्त्रमा कही ठे जे तीर्थकरनी आझामां जे न वर्त्ततो तथा मोहरूपी दोपवमे वृद्धि पामेलो ते पुरुष तीर्थकरनो तथा सिद्धांतनो तथा संघनो प्रत्यनीक ठे, एटखे सामावाळीयो शत्रुरूप . बळी जे स्वाधीनपणे वर्ततो एटले स्वछंदपणे चालतो, तीर्थकरनी आज्ञाना नाशमा प्रवर्त्ततो एटले तीर्थकरनी आज्ञा विरुफ प्रवत्तेलो एवो जे पुरुप तेने मन वचन कायाना दोप सरखो ठे एम कडं वे.
टीका:-अतएव सुखसीलतानुरागादेरसंघमपि संघ इत्य जिदभतां प्रायश्चित्तं प्रतिपादित सिद्धांते
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8. अथ श्री संघपट्टकः
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॥ यदाह ।।
अस्संघ संघ ने, नणंति रागेण अहव दोसेण ॥ लेनो वा मूलं वा, पचित्तं जायए तेसि ।। तस्माद् युक्तं क्रूरतया प्रकृतसंघस्य व्याघ्रतया रूपणं ॥
अर्थः-ए हेतु माटे सुखशीलयापणाना अनुरागथी जे संघ नथी तेने संघ कहे , तेमने प्रायश्चित्त करवानुं शास्त्रमा प्रतिपादन करेलुं सिझ थाय , ते शास्त्र वचन आ प्रकारे बे, जे आ संघने एटले जेमां शास्त्रे कहेला संघनां लक्षण नथी तेने जे संघ कहे डे, (रागे करीने अथवा षे करीने) ते पुरुषने बेद प्रायः श्चित्त अथवा मूल प्रायश्चित्त नत्पन्न थाय , माटे जेनुं या प्रकरण चाले बे तेवा संघने क्रूरपणाथी वाघ जेवो निरूपण करवो ते युक्त जे.
टीका:-तथाच सिद्धस्तशस्य प्राणिगणस्य मोदानावइति ॥ नन्वेवं तर्हि सिद्धांतोक्त लक्षणस्य संघस्य संप्रत्यजावाद्जवन्मते तीर्थोच्छेदः प्रसज्यत इति चेत् ॥
अर्थः-वली ते संघरूपि वाघने वश थयेला जे प्रापीनो समूह तेनो मोक्ष न थाय ए वात पण अर्थात् सिक थर. हवे ए जगोए प्रतिवादी आशंका करे ने जे, जो तमे कहोगे तेमज होय तो सिद्धांतमां कहेला जे लैंदण तेणे :सहित होय तेनेज संघ कहीए तोश्रा कालमां तेवो संघ नथी,माटे तमारे मते तीर्थनों बच्चेद
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अथ श्री संघपटक
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थशे एवो प्रसंग प्राप्तःथयो. हवे सिद्धांती बिंगधारीउने पूडे ठे जे, जो तमो एम कता हो के, तीर्थनो नछेद थशे तो ते जगोए तमने पुबीए बीए.
टीकाः-अथ केन प्रमाणेन जवता तदन्नावो निरणायि। कि प्रत्यक्षण नतानुमानेन अहोस्विदागमेनेति त्रयः कपास्त्रिकूटाचलकूटा इव मंदैर्दुरारोहाप्ररोहंति ॥ तत्र न तावत्प्रत्यदेण अर्वाग्दृशां प्रत्यदेण सर्वत्र तन्नावस्य निर्नेतुमशक्यत्वात्तथात्वे च सर्वसर्वज्ञत्वापत्तेः॥
अर्थः--जे हवे कया प्रमाणे करीने तमोए तीर्थनो उच्छेद थशे एवो निर्णय कयों? शुं प्रत्यक्ष प्रमाणवमे को? अथवा अनुमान प्रमाणवमे कर्यो? के आगस प्रमाणवके कयों? ए प्रकारे त्रण विकल्प उत्पन्न थाय ते त्रिकूटाचल पर्वतनां त्रण शिखर होय नही? एम मंद बुद्धिवालाथी आरोहण न थाय एवा उर्घटले. एटले त्रय विकल्प, समाधान थाय एम नथी, तेमांप्रथम प्रत्यक्ष प्रमाणवमेतमारीवात सिनथीथती, केसजे जेनी दृष्टि अवराएली , एटले जेने अल्प ज्ञान लेते पुरुषोने प्रत्यक्षपणे सर्व जगाए तीर्थनो नछेद थशे एवो निर्णय करवातुं सामथ्र्य नथी ए देतु माटे, ने जो सर्व पदा. र्थनो निर्णय करवानु सामर्थ्य होय तो सर्व लोकने सर्वज्ञपणानी माप्ति थाय ए हेतु माटे एटले प्रत्यक्ष प्रमाणवके आपण जेवाथी तीर्थनो नछेद निर्णय करी शकाय तेम नथी.
टीका-ततश्च कनिदेशकालादो तथानृतस्यापि संघस्य सं.
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अथ श्री संघपट्टका
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नावनास्पदत्वान्न प्रत्यक्षेण तदन्नावोऽवसेयः ॥ अथानुमानेनेति द्वितीयः कल्पः ॥ तथापि किं तदनुमानं ॥
अर्थः--ते कारण माटे कोइ देशकालादिकने विषे ते प्रकारनो एटले शास्त्रमा कहेला गुणवाळो पण संघ ने एम संजाक्नान स्थान ए हेतु माटे, प्रत्यक्षपणे तीर्थनो अन्नाव जे एम न जाणवं. हवे अनुमानवझे तीर्थनो लछेद कहेवो ए प्रकारनो बीजो विकल्प तमारे मते ने तो पण बोलोजे ते कयुं अनुमान, एटले ते कये प्रकारे अनुमान प्रयोग करो बो? ते कही देखामो.
- - टीका:----नवविदितः संघः संप्रति नास्ति क्वचिदनुपलज्यमानत्वात् अध्वस्तघटवदित्यनुमानमस्तीतिचेत् नाऽसर्व विदा मनुपलंनोपलंजयोनियतविषयत्वादेकत्र तदनुपलंन्नेन सर्वत्र तदनावासिक
अर्थः-सिद्धांति लिंगधारीनो अभिप्राय कही खंमन करे जे, तमो कता हो के तमारो कहेलो संघ आ कालमां नथी, के मके कोइ जगाए देखातो नथी. ए हेतु माटे नाश पामेला घमानी पेठे ए प्रकारनो अनुमान प्रयोग के एम तमारे न धार, केमजे सवज्ञ नथी तेमने वस्तुनी प्राप्ति थायज अथवा न ज थाय एवो नियम नथी. एक जगाए जे वस्तु न दोगी ते वस्तुनो सर्व जगाए अनाव हशे एम वात सिक नयी थती.
टीका:-तथा सिकांतमामाएयेन परीक्षापुरःसरंमृगयमा
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18 अथ श्री संघपट्टकः
( ६१५ )
पैर्मध्यस्थैः कैश्विच्चारुविचार चातुरी तल्यैरल्पै रिदानीमपि नावसंघस्योपलं नादनुपलभ्यमानत्वादित्यसिद्धो हेतुः ॥ कुट्या दिव्य वहितानां नूनिखातादीनां च विद्यमानाना मप्यस्मदा दि निरनु पलंनादनैकां तिकश्च ॥ तस्मान्नानुमानेनापि तदभावावगमः
अर्थः-- वळी सिद्धांतना प्रमाणपणाव परीक्षा पूर्वक खोळता जे मध्यस्थ दृष्टिवाला सुंदर विचारनी चतुराइने रहेवाना घररूप एवा केटलाक पुरुषोए आ कालमां पण नाव संघ एटले तीर्थंकरनी श्राज्ञामां रहतो साचो संघ दीठो बे ए हेतु माटे तमारो मानेलो जे न देखवारूप हेतु ते प्रसिद्ध थयो एटले खोटो थयो जीतादिकना अंतराय मां रहेली जे वस्तु तथा पृथ्वीमां खोदी घालेली जे वस्तु ते विद्यमान दे तो पण आपण जेवानी ह ष्टिमां नयी यावती माटे तमारा हेतुने अनेकांति नामे धनुमानमां दोष लाग्यो, माटे अनुमान प्रमाणवमे संघनो श्राव जयातो नथी.
टीका:- नाप्यागमेनेति तृतीयः कल्पः ॥ ते नहि सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रमवस्य जगवदाज्ञाप्रज्ञापन निष्णातस्य जावसंघस्य वहुसुंमादिवचनतोऽल्पी यस्तयादुपमा कालेपि प्र तिपादनात्.
अर्थ:-- आगम प्रमाणसे पण संघ नथी ए प्रकारनो श्री जो विकल्प तेनुं खंकन जे समकित ज्ञानदर्शन तथा चारित्रमय एवाने जगवानी आज्ञातुं जे कदेनुं तेमां चतुर एवो जं
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(६१६)
9अथ श्री संघपट्टका
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नावसंघ तेनु दुखम कालने विषे पण प्रतिपादन जे. माथा मुंमा लींगधारी जगतमां बहु प्रवा ने. इत्यादि शास्त्र वचननी श्रपेक्षाये अतिशे शोमा सुविहित ने एम कहेवापणुं शास्त्रनुं प्रयुं माटे दुःखम कालमां पण नावसंघ एवं प्रतिपादन आव्यु ए हेतु माटे.
टीका:- यमुक्तं ॥
ऐगतेणं चिय लो-गनायसारेण एत्थहोयवं ॥ बहुमुंमाश्वयणान, श्राणाश्त्तो वह पमाणं ॥ निम्मलनाणपहाणो, दसणसुको चरित्तगुणजुत्तो॥ तित्थयराणाथिज्जो, वुच्चइ एया रिसो संघो॥ आगमन्नपियं जोप-नवेश सददर कुणइ जहसत्तिं ॥ तेलुकवंदणिज्जो, उसमकालेवि सो संघो॥
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही जे, आलोकमां एकांतपणे लोक न्यायने अनुसारेज न वर्तवं एटले जेम घणा लोक वर्ते बे, एमज केवळ न वर्तवं. केम जे, मायामानां वचन जगतमां घणांबे, माटे जे तीर्थकरनी आज्ञाए युक्त जे ते प्रमाण बे, श्रा जगाए तथा निर्मल ज्ञान जेने प्रधान , जेनी दर्शन शुद्धिथडे, ने चारित्र गुणवके संयुक्त जे एवो जे संघ ते तीर्थकरने पण पूज्य डे. वळी जे आगममां कडंडे तेम प्ररूपणा करे ठे ने सद्दहे डे, पोतानी शक्ति प्रमाणे करे , ते संघ दुखम कालमां पण लोकते
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अथ श्री संघपट्टका
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वंदन करवा योग्य .
टीकाः-अन्यथा दुप्पसहंतं चरणमित्यादरादुःषमातं , चारित्रानुवृत्तिप्रतिपादकस्य जगहचनस्य व्याघातापत्तेः॥जाव संघमंतरेण तावंतमनेदसं चारित्रानुवृत्तेरसंजवात्
अर्थः----एम जो न होय तो शास्त्रमा कयु ले जे, उपसह सूरिपर्यंत चारित्र ,इत्यादि जे चारित्रनुं परंपरागतपणुं प्रतिपादन कर्यु ले ते जगवत्वचननी हानी प्राप्त थाय ए हेतु माटे,नाव संघ विना तेटला काळ सुधी चारित्रनुंजे यावqतेनो संनव थाय नदीमाटे.
टीका:-ननु नवतु सिद्धांतप्रामाण्यादिदानीमपि नावसं. घोऽल्पीयांस्तथापि मया तावन्न दृश्यत इति चेन्नाश्रर्वाग्दर्शित्वेन मात्सर्येण वा नवतस्तददर्शनस्यान्यथासिकत्वात् ।। दृश्यतेच. कपायकलुषितचक्षुषां संत्रिकर्षेपि निषेदुषो मनुष्यादेरनुपलंजः
अर्थ:---वळी लिंगधारीनी आशंका प्रगट करी समाधान । करेले जे, तमे कद्देशोजे सिझतना प्रमाणथी था कालमां पस :: नाव संघ अति अल्प हो तो पण हुं तो कोइ जगाए देखतो नथी है तो एम तमारे न वोलवू. केमजे तमारे विपे उद्मस्थपणुं वे तथा म. । सरपणुं । तेणे करीने तमारा दीवामां नाव संघ न थाव्यो ते । वात प्रमाण नथी. केमजे जे कपायवाको यो तेने समीपे वेषां
मनुप्यादिक पण तेनी नजरे नथी श्रावतां एम देखीए वीए.
टीका:-ततो यदि वं शुद्धपस्पृहयात्रुस्तदा मात्सर्यमु.
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(६८)
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अथ श्री संघपट्टका -
सार्य माध्यस्थमास्थाय सूक्ष्मप्रेक्ष्या परीक्षस्व न्नावसंघं येनक चित्प्रेकसे॥मैवमेव नास्तिकतामवलंव्य नवांजोधौ मंदीरिति॥ तस्माद् नगवछचनान्यथानुपपत्या संप्रत्यप्यस्ति नावसंघः स एव प्रेदावता दुःसंघपरिहारेणान्युपेतव्य.।
. अर्थः ते माहे जो तुं शुद्ध मार्गनी स्पृहावाळो थयो होय तो मत्सरपणानो त्याग करी मध्यस्थपणुं अंगिकार करी सूक्ष्म
जेणे करोने को जगाए तुं नाव संघने देखीश. पणं आ प्रकारनुं नास्तिकपणुं श्रवलंबन करी संसार समुअमां मुबीश नहीं. माटे जगवंतनुं वचन अन्यथा थाय एटले व्यर्थ पके, ए हेतु भाटे आ काळमां पण जाव संघ डे, श्रने बुद्धिवंत प्राणीए माग संघनो परिहार करी तेज साचो संघ अंगीकार करवो.
टीकाः एतेन गुणिषधीप्रसाधनाय यदुक्तं मूलपूर्वपके इदानीं इनगवधिरहादित्यादिति ष एवैतेषु श्रेयानित्यंतं तद पिप्रतिक्षिप्त मवसेयं ॥ नगवहिरदेपि सन्मार्गपरिज्ञानोपायानां बहुशस्तदागमेऽनिधानेन तदार्थिनां तत्परिज्ञानसिद्धेः॥ बहु . जनप्रवृत्तेश्च मोक्षपथतयान्युपगमे लौकिकधर्मस्यैवान्युपगमापत्तेः ॥ तत्प्रवृत्तेस्तत्रैवातिनूयस्त्वात् ॥ महाजनो येनेत्यादिना लोकिकन्यायेन तत्प्रवृत्तेः प्रामाएयसमर्थनं त्वात्मकदर्थ न मेव नवतः॥
अर्थः-ए वात कही तेणे करीने गुणीजन उपर शेष बुद्धि के एम (सक करवाने जे पूर्वे मूळ पक्षमा मा प्रकारे कर्बु हतुं. जे
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अथ श्री संघपट्टक
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आकासमां नगवतना विरहथी' इत्यादि ग्रंथने आरंजी एमने विषे वेष करवो एज श्रेय ले. त्यां सुधी ग्रंथ कह्यो हतो तेनुंपण खमन थयु एम जाणवू. नगवतनो विरह थयो तो पण साचा मार्गने जाणवाना नपाय घणाज ते मोटा पुरुषना कहेला कह्या जे. तेणे करीने साचा मार्गना खप करनार पुरुषोने साचा मार्गनुं ज्ञान सिक थाय ने श्रने जे मार्गमा घणा जननी प्रवृत्ति था , तेज साचो मार्ग ठे. ए प्रकारे मोक्ष मार्गनो अंगीकार करोए तो लौकिक धर्मनी आपत्ति एटले प्राप्ति थाय. केम जे लौकिक मार्गने विषे लोकनी प्रवृत्ति अति घणी ले ए हेतु माटे, 'महाजन जे मार्गे चाले ते मार्ग' इत्यादिजे लौकिकन्याय तेणे करीने जे प्रवृत्ति तेनुंजे तमारेप्रमाणपणुं प्रतिपादन करवू ते तो नि केवल आत्म क्वेज बे, पण एर्नु प्रमापपणुं प्रतिपादन थाय एम नथी.
टीका:-तथादि महाजन इत्यत्र वृद्धप्रामाणिकपुरुषवचन श्चेन्महच्छन्दस्तदा न विप्रतिपद्यामहे ॥ वृद्धप्रामाणिक गणधरादिपुरुवंशाउँलपदकुएणस्यैव पथोऽस्मानिरपि मोक्षमार्ग
वेनान्युपगमात् ।। वह्वर्थश्चेत्तर्हि वहुजणपमिवत्तीत्यादिना लो' कोत्तरवचसैवास्य न्यायस्य वाधितत्वेनाऽनवकाशात् ॥
देनार जो महत् शगणधरादि उत्तम हतु माटे, ए
अर्थः-'महाजन' ए वाक्यमा वृक्ष प्रामाणिक पुरुपने हेनार जो महत् शब्द होय तो तेनो अंगीकार करीए वीए. के वृक्ष प्रामाणिक जे गणधरादि उत्तम पुरुष तेनोज मार्ग श्रमो क्षमार्गपणे अंगीकार करीए ठीए ए हेतु माटे, एटलेः" महा येन ए वाक्यमा महाजन ए शब्दे करीने गणधर ए प्रकारे
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(६२) - अथ श्री संघपट्टकःकहेता हो तो ते वाक्य अमारे मान्य अने महाजन शब्दे करीने
घषा लोक' एम श्रर्थ करो तो “बहु जण पमी वत्ती" इत्यादिशास्त्र वचने करीनेज ए न्यायने बाध लाग्यो, माटे ए वाक्यनो अंगीकार नथी करता.
टीका:-तथा यदि परगृहवासिनो महात्मानः सुविहिताः , सत्पथकुपथविजागापनायारक्तष्टितया नव्येन्यः सु. ,विहितदुर्विहितगुणदोषाविर्जावकं यथावस्थितमागमार्थ व्या
चक्षते ॥ नैतावता त उपालंजमर्हति ॥ आत्मोत्कर्षपराप. “कर्ष विख्यापयिषयैव तहाख्यानस्य सुछ विनाममाण मित्यादिनात्मस्तुतिपरनिंदानावेन यतिनां दोषतयानिधानात् ॥
अर्थ:-वळी परघरवासी महात्मा सुविहित पुरुष सत्मार्ग अने कुमार्ग ए बेनो विजाग जणाववाने रागद्वेष रहित नव्य प्राणी प्रत्ये सुविहितना गुण तथा पुर्विहितना दोष जेम डे तेम प्रगट करनार एवो आगमनो अर्थ कहे . तेणे करीने ते सुविहित पुरुषो उलंन्नो देवा योग्य नथी. जो पोतानो उत्कर्ष जगाववानी इच्छा. येज " सुविनज्जममाण" इत्यादि पोतानी स्तुति अने परनिंदानो जाव राखीने कहेता होय तो दोषपणुं कहेवाय पण ते तो तेमने नथी.
। टीका अन्यथा तीर्थकर गणधरादीनामप्यसंयतदोष
प्रतिपादकमागमग्रंथं प्रथ्नतां परनिंदकत्वेन दृषणापत्तेः ॥ ऐदं '.. युगीनसंघप्रवृति परिहारेण च संघ बाह्यत्वप्रतिपादनममीषां
भूषणं न तु दुषणं ॥ तत्प्रवृत्तेरुत्सूत्रत्वेन तत्कारिणां दारुषा
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अथ श्री संघपट्टका
Maransimar
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गतिविपाकश्रुत्या तत्परिहारेण प्रकृतसंघवाद्यत्वस्यैव तेषां चेतसि रुचितत्वानदंतीवे तु तेषामपि तत्प्रवृत्तिवर्तिष्णुतयाऽ नंतनवाटवीपर्यटनप्रसंगात् ।।
अर्थः-एम जो न होय तो तीर्थकर गणधर इत्यादिकने पण असंयतना दोष प्रतिपादन करनार एवा आगम ग्रंथने वांधतां परनिंदा थ तेणे करीने दोषनी प्राप्ति थशे. या काळना संघनी प्रवृत्तिनो परिहार करवो तेणे करीने सुविहितोने ए संघथी बाह्यपणुं प्राप्त थर्बु ते जूषण जे पण दूपण नथी. केमजे ते इर्विहित संघनो प्रवृनिने उत्सूत्रपणुं प्राप्त थाय ने तेणे करीने उत्सूत्र प्रवृत्ति करनारने अति आकरी दुर्गतिरुप फळ थाय ने, एम शास्त्रथी सां. जळीए बीए, ए हेतु माटे ते नत्सूत्रनी प्रवृत्तिनो त्याग करीने था काळना दुर्विहित संघथी वाहिरपणे रहे एमज तेसुविहितना चितमा रुच्यु , अने जो दुर्विहित संघमां जळी जाय तो ते सु. विहितोने पण तेमना जेची प्रवृत्तिमा वनवापणुं थाय तेणे करीने अनंत नव ब्रमण करवानो प्रसंग थाय.
टीका:--अतयाधुनिकसंघवाह्यत्वेनैव तेपांगुणित्वं तथा च तेपूछेदबुद्धिमहापापीयसामेव भवति ॥ तस्मात्तेषु मुक्त्यर्थिनां प्रमोद एव विधातव्यो न तनीयस्यपि उपधीरिति व्यवस्थितीयदपि पूर्वपके गौतमादिपु यतिशब्दप्रवृत्तित्वात्कथं निर्गुणेविदानीतनसाधुषु प्रवर्त्ततइत्याशंक्य यथा कल्पवृक्षगुणवेकल्ये निवादिषु ताब्दप्रवृत्तिरित्यादिना दृष्टांतहयेनेदानतिनमुनिषु यतिशब्द. प्रवृर्तिसमर्थनं तदप्यासमीचीनं ।।
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(६२२)
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अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः-ए हेतु माटे आकाळना संघथी जु पनवू तेणे करीनेज सुविहितने गुणीपणुं , वळी ते गुणी पुरुषोने विषे महा पापी पुरुषोनेज तेमनो नाश करवो एवी बुद्धि थाय बे, माटे मुक्तिनी श्छा करनार पुरुषोए ते सुविहितने विषे प्रमोद राखवो ए. टले तेमने जोश हरख पामबुं, पण अल्प मात्र देष बुद्धि न राखवी ए वात सिक थइ. जो पण पूर्व पदने विषे गौतमादि कने विषे यति शब्दनुं प्रवृत्तिपणुं बे, तो पण निर्गुण एवा श्रा काळना साधुने विषे केम ते शब्द प्रवर्ने डे, ए प्रकारनी आशंका करीने जेम लीवमा आदि वृक्षने विषे कल्पवृक्षना गुण नथी, तो पण कल्पवृक्ष ए प्रकारना शब्दनी प्रवृत्ति ने तेम. इत्यादि वे दृष्टांतवमे श्रा काळनामुनिउने विषे यति शब्दनुं जे समर्थन कर्यु ते पण श्रघटित कयु.
टीकाः-प्रवर्त्तता हि नाम कल्पवृक्षगुणाऽयोगेपि निंबादिषु तरुशब्दस्तत्प्रवृत्तिनिमितस्य शाखादिमत्त्वस्योन्नयत्राप्यनुगमात् ॥ इह तु यतिशब्दप्रवृतिनिमित्तस्य लिंगिष्वनुपपत्तेः कथं तछब्दस्तत्र प्रवर्तते ॥
अर्थः-अथवा लींवमा श्रादिकने विषे निश्चे कल्पवृक्षना गुणनो योग नथी तो पण तेमने विषे तरु शब्दनी प्रवृत्तिनुं निमित्त जे शाखादि सहितपणुं ते वे जगाए पण विद्यमान डे ए हेतु माटे, अहीं तो यति शब्दनी प्रवृनिन कारण ते लिंगधारीयोने विषे देखातुं नथी. माटे तेमने विषे यति शब्द केम प्रवर्ने ?॥
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अथ श्री संघपटक
(२३)
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टीका:-तथाहि यमुपरम इति पागद्यनत्युपरमति पापेज्य इति पापोपरमो यहा यती प्रयत्न इति धातुपागत् यतते क्रियास्वितियतिरिति क्षेत्रकालाद्यपेदोऽनुष्ठानप्रयत्नो यतिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं ॥ ततश्च यः पापोपरतो यश्च बलकालादिसामग्रीसमग्रः सततमशगेऽनुष्टाने समुतिष्टते योपि देशकालसंहननामयवैपम्यात्संपूर्णमनुष्टानमनुष्टातुमपारयन्नपि निजशरीरशक्त्यादिकमगोपयन् शाग्यपरिहारेण क्रियासु यतते तत्रसर्वत्रापि यतिशब्दो गौतमादिवत् प्रवर्तते प्रवृत्ति निमितस्यनावात्
अर्थ-ते वात देखामे ले जे 'यमुपरमे' ए प्रकारनो धातु ने तेनो अर्थ विराम पामवारूप , जे पापथकी विराम पामे तेने यति कहीए, श्रथवा 'यति प्रयत्ने' ए धातुनो प्रयत्नरुपी अर्थ दे, तेथी जे क्रियाने विषे प्रयत्न करे तेने यति कहीए, ए प्रकारे केत्र कालादिकनी अपेक्षाये अनुष्टाननो प्रयत्न करवो, ते यति शब्दनी प्रवृ. तिनुं कारण ने, माटे जे पापथो विराम पाम्यो, अने पोतानुं वळ तथा काळादि सामग्री तेणे सहित थयो अने निरंतर अशठपणे अनुटान करवामां तत्पर वे अने जे देश, काळ, वळ शरीर तेमन वि. पमपणुं नथी, माटे संपूर्ण अनुष्टान करवाने पार पामतो था तो पण पोतानी शरीर शक्ति श्रादिक गोपवतो नयी अने शठपणानो त्याग करी क्रिशने विषे प्रवर्ते ठे ते सर्व जगाये पण यति शब्द गोतमादिकनी पेठे प्रवत ठे, केमजे ला यति शब्दनी प्रवृत्तिनुं का. रब रयुं वे ए हेतु मादे.
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(३२४)
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अथ श्री संघपट्टका
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टीका:-यमुक्कं ॥
मत्वा जवनैमुएयं, यवत्युपरमति येन पापच्यः ।। कृतिकारणानुमितिनि-स्तेन यतिमुदाति जिनाः
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही ठे जे, संसारर्नु असारपणुं मानीने जे कर करावq अने अनुमोदq ए त्रण प्रकारे पापथी वि. राम पाम्यो दे, तेने श्वेतांवर यति जिनराजे को बे.
टीकाः-तथा॥ नाणेण दसणेणं, चारितेणं तवेण विरिएण ॥ जे सायंति मुरकं, ते साहनावजश्णोचि ॥ जो हुजड असमथ्यो, रोगेण व पिद्विर्ड जुरियदेहो॥ सबमवि जहान्नणियं, कयाइ नतरिज काउंजो॥ सोविय निययपरकम, ववसाय धिवलं अगूरंतो ॥ मोनूण कृरुचरियं, जई जयतो अवस्सज॥
टोका:-ये तु पापव्यावृत्ताः शक्तिमंत पि च सांप्रतिकरूढ्या सर्वथातुष्टान विकलास्तेषु प्रकटकपटकूटेषु प्रत्यक्षपापकूटेषुलिंगिईरूढेषु निमित्तानावाद्यति शब्दः प्रवर्त्तमानः कथं कहां बध्नीयात् ॥
अर्थ:-वळी जे पोते शक्तिवाना ले तोपण या काळे जे
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8. अथ श्री संघपट्टका
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थएलो रुढी, तेणीए पापमा प्रवत्तेला अने सर्व प्रकारे क्रिया अनुष्टानथी रहित एवा अने प्रगटपणे कपटने रहेवानुं स्थळरूप अने प्रत्यक्ष पापरूप एवा ते लिंगधारीनने विषे जेम लींवमाने विषे कल्पवृक्ष शब्दनी प्रवृत्ति के तेवी रीते पण यति शब्दनी प्रवृत्ति को प्रकारतुं पण प्रवर्त्तवातुं कारण न बते केम प्रवृत्ति शके एटले लिंगधारी ने मुनि एवो शब्द पण केमज कही शकाय.?
टीका-॥ यदुक्तं ॥ इयसीलंगजुया खलु, दुरकंतकरा जिणेहिं पन्नता ॥ नावपहाणा जइयो, न उ अन्ने दव लिंगधरा ।।
अर्थः-ते वात शास्त्रमा कही ठेजे,अढार हजार शीलांग. रथ तेणे संयुक्त एवा अने निश्चे दुःखनो अंत करनार एवा जाप प्रधान एटले नाव जेने प्रधान डे एवा यति जिनराजे कह्या हे पण बीजा अव्यथो लिंग धरनार एवाने यति नथी कह्या.
टीका:-तस्मान निवादिषु तरुशब्दप्रवृत्तिअष्टांतावष्टंनेन लिंगिषु यतिशब्दप्रवृत्तिरुपपद्यते ॥ यश्च यथा जात्यमणिगुणवेगुएये पिकाचे मणिशब्दप्रयोग इति हितोय टांतोपन्यासस्तत्र सं. प्रतिपत्तिरुत्तरम् ॥
अर्थ:-- ए हेतु मांट लिंकमादिकने विषे वृक्ष शम्दनी प्र. तिनुं जे दृष्टांत तेर्नु अवलंबन करवू नणे करीने लिंगवारोनने विये
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(३५६).
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अथ श्री संघपट्टका
यति शब्दनी प्रवृत्ति थाय बे, वळी जेम जातिवंत मणिना गुण जेमां नथी एवो पण काचनो ककमो तेने विषे मणि शब्दनो प्रयोग थाय जे. ए प्रकारनुं वोर्जु दृष्टांत स्थापन कयु, ते जगाये युक्ति सहित उत्तर या प्रकारनो .
टीकाः-काचो हिन वस्तुतो मणिशब्दवाच्यः॥परीक्षाशास्त्रप्रसिद्धस्य तदसाधारणलक्षणस्य तत्प्रवृत्तिनिमित्तस्यतत्रानावात् ॥ नीलत्वादिकिरणनिरंबकरं वितत्वादिबाह्यसाधारणधम्मदर्शनावऽज्ञा स्तत्रापि मणिशब्द प्रयुंजते ।
अर्थ:-जे काच ले ते निश्चे वस्तुताये मणि शब्दवमे कहेवा योग्य नथी. केमजे मणिनी परीक्षा करवानां जे शास्त्र तेमां प्रसिद्धपणे कहेला जे मापना असाधारण लक्षण तेनी प्रवृत्तिनुं कारण ते काचना ककमामां देखातां नयी ए हेतु माटे, नीलपणुं इत्यादि किरणनो जे समूह तेरी सहित पणुं ले इत्यादि बाह्ययो साधारण धर्म देखवायो अज्ञानी पुरुषोतो ते का. चना ककमाने विधे परा मणि शब्दको प्रयोग करे .
टीका-एव थत्यानाशेष्वयुक्तन्यायेन यति शब्द प्रवृ. त्ति निमित्तानावेपि बाह्यरजोहरणादिलिंगिनेपथ्यादिसाधारण धर्मोपलंजात् ब्रांता यतिशब्दं प्रवयंति ॥ तस्मात्सुविहितेष्वेवकालाधनुरुपं यतमानेषु वास्तवो यति शब्दप्रयोग इति वृतार्थ॥३३॥
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9. अथ श्री संघपट्टका
(१२७)
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अर्थः-ए प्रकारे लिंगधारीउने विषेपण कह्या एवा न्याये करीने यति शब्दनी प्रवृत्तिनं कारण नथी. तो पण वाह्यथी रजोहरणादि साधारण धर्मना अवलंबनथी ब्रांति पामेला पुरुपो लिंगधारिने विषे यति शब्द वीवे डे, ते देतु माटे काळने अनुसरी प्रयत्न करनार सुविहित पुरुषोने विषे जे वस्तुताये यति शब्दनो प्रयोग घटे .. ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो ॥३३॥ . . .
टीकाः-तदेव मौदेशिकनोजनादिधारदशकेन लिंगिनिः प्रज्ञापितस्य धर्मस्योत्पथत्वप्रकाशनेन जमानां चेतसि कोपाविनावं संजावयंस्तत्दमणपुरस्सरं तत्प्रदर्शनप्रयोजनमाविश्चिकीघुराद ॥
अर्थः-ते हेतु माटे नदेशिक नोजनादि दश घारे करीने लिंगधारीए निरुपण कों जे धर्म ते उन्मार्गपणाने प्रकाश करनार बे एम कडं, ए हेतु माटे. ते सांनळी जम पुरुपने चित्तमां क्रोधनो आवेश थयो हशे एम संन्नावना करनार ग्रंथकार ते अवसरे ते कही देखामवाना प्रयोजनने प्रगट करता ठता या प्रकारे कहे ते.
मूलकाव्यम्:-- इत्थं मिथ्यापथकथनया तथ्ययापीह कश्चिन् । मेदं झासीदनुचितमयो मा कुपत्कोपि यस्मात् ।। जैनत्रांत्या कुपथपतितान् प्रेक्ष्य →स्तत्प्रमोहा । पोहायेदं किमपि कृपया कल्पितं जल्पितं च ॥३an
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(६२८)
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अथ श्री संघपट्टका
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टीका:---इत्थं प्राक्प्रतिपादितप्रकारेण मिथ्यापथकथनया चैत्यवासोप्ररूपितोत्सूत्रमार्गप्रकटनया करणनूतया तथ्यया पि यथार्थयापि असत्यया हि तया कोपोत्पादायपिकस्यापि संचाव्यत इत्यपि शब्दार्थः
अर्थः-पूर्वे प्रतिपादन कए प्रकारे मिथ्या मार्ग, जे कहे एटले चैत्यवासीए प्ररूपणा करेलो जे मार्ग तेनं उत्सत्रपणे जे प्रगट करी देखाम ते वात यथार्थ बे एटले सत्य दे, तो पण, एटले ते वात सत्य होय तो कोश्ने पण क्रोध आदि नत्पन्न थाय एम संजावना करीए बीए एटलो अपि शब्दनो अर्थ बे.
टीकाः-इह लोके प्रवचने वाकश्चिजिनशासनस्थो माझा· · सीत् मामस्त यत् इदं मिथ्यापथकुपथत्वप्रकटनं अनुचितमसंगतं ॥ यदि हीदं रागद्वेषाच्यामतथ्यं विधीयेत तदा नौचित्यं स्यानचैवमस्ति ॥अथो इत्यानंतर्येऽव्ययं ॥ तेनाऽनुचितज्ञानानं तरं मा कुपत् मा क्रुधत् कोपि कश्चित् ॥
अर्थः-अहीं लोकने विषे अथवा प्रवचनने विषे कोई जिन शासनमा रहेलो जीव ते एम न मानशो जे'ा मिथ्या मागर्नु कुमार्गपणुं प्रगट कर्यु ते अनुचित एटले अघटतुं.. केमजे जो राग केषवमे खोटी प्ररुपणा करीए तो अनुचितपणुं आवे, पण आ तो एम, नथी. अनंतर अर्थने विषे " अथ” एटलो अव्यय जाणवो, ते देतु माटे अनुचित्त जाएया पढ़ी कोइ पण प्राणी कोप न पामे.
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- अथ श्री संघपट्टका - (६२९ टीका:-यदि ह्येतदनुचितं स्यात्तदा तदज्ञानानंतरं कोपो. पि कर्तुं कथंचित् युज्येत ॥ न चैवं तस्मान्न कोपनीयं ॥ अथ यद्येवं मिथ्यापथकथनेन परेषां कोपावि वशंका तदासौ न कथनीय एव ॥ परं संक्लेशदेतोः सत्यस्यापि वचनस्यावक्तव्य त्वेनानिधानात् ॥
___ अर्थः-जो आ कहे निश्चे अनुचित होय तो ते जाणवा पजी को प्रकारे कोप पण करवो घटे, पण आ तो एम नथी माटे कोप न करवो. हवे जो एमज होय के मिथ्या मार्गनुं जे कहेवं तेणे करीने परने कोप नत्पन्न थशे एवी शंका रही , तो ए वात कहेवीज नहीं. केम जे परप्रत्ये क्वेश उत्पन्न थवा कारणरूप एवं सत्य वचन पण न बोलवू एम शास्त्र वचन बे.
टीका:-यक्तं
सञ्चावि सा न वत्तवा, जन पावस्ल आगमो॥ इत्यतया ।। यस्माद्यतो देतो नत्रांत्या साधुसाध्वीश्रावकश्राविका
चैत्याद्याकारदर्शनादाईतमेतत्प्रवचन मिति मिथ्याज्ञानेन नहि लिंग्यादयस्तत्वत आहता उक्तन्यायेन तेषां तथा त्वस्यापा. करणात् ॥
अर्थः-ते कही देखाम ठे जे, जेधी पाप लागे एवी सत्व
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(६३०)
ॐ अथ श्री संघपट्टका
वाणी होय तो ते पण न बोलवी. एवी आशंका करी तेनो नत्तर कहे . जे हेतु माटे आ जैन वे एवी ब्रांतिये करीने साधु, साध्वो, श्रावक, श्राविका तथा चैत्य इत्यादि वाह्यथी आकार मात्रने देखी. ने आ अरिहंतनुं प्रवचन वे ए प्रकारे मिथ्या झाने करीने लिंगधारी आदिक पुरूषो तत्वथी जैनी नथी. केम जे पूर्वे कयु ए प्रकारे ते लिंगधारीउने जैनीपणानुःखंगन कर्यु ने ए हेतु माटे.
टीकाः-ततो यथा हृत्पूरपूरितोदराः सकलमुपलादिजालं कांचनतयाऽध्यवास्यंति तथा तेपि जमा कुवासनावासितांतःकरणा वस्तुतोऽनाहतमप्येतत् लिंगिवाहतमिति विपर्यस्यंतीति नवति जैनन्त्रांतिः ॥
अर्थ:--जेम कोक ते पाषाणना समूहने श्रा सोनानो ढगलो ने ए प्रकारनो निश्चय करे तेम नगरी वासनावमे जेमनां अंतःकरण वासनावालां थयां बे एवा जम पुरुषो वस्तुताए श्रा लिंगधारी मार्ग अरिहंत संबंधी नथी. तो पण ते मार्गने थ. रिहंतनो जाणे ठे एज जैनपणानी ब्रांति ले.
टीका:-तया कुपथपतितान् कुमार्गप्रस्थितान् नन् मा. नवान् प्रेक्ष्य अवलोक्य तत्प्रमोहापोहाय कुपथपतितनरप्रागुक्त प्रवल मिथ्याज्ञानापनोदाय इदं एतटिलगिनां मिथ्यापथस्वरूपं. किमपि दिगमात्रं सकलस्य तस्याग्दिर्शिनिर्जिव्हाशतेनापि वक्तुमशक्यत्वात् ॥
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अथ श्री संघपका
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अर्थः---तेणे करीने कुमार्गमा पमेला पुरुषोने जोश तेमनो विशेष मोह नाश करवाने एटले पूर्वे कयु ए प्रकारे प्रबल मिथ्या ज्ञानने नाश करवा पा लिंगधारीउनु मिथ्या मार्गनुं स्वरुप कांइक दिशमात्र देखामयुं जे. केमजे उनस्थ दृष्टीवाळा पुरुषोए तो सो जीजोवमे पण लिंगधारीनो कुमार्ग कही देखामवा समर्थ थवातुं नथी ए हेतु माटे.
टीका:-कृपया कथममी मूढास्तीर्थानावकर्थिताः कुपथ स्वरूपं विज्ञाय तत्परिहारेण सत्यथमन्युपेत्य नवोदधि तरिष्यंती. त्यनु कंपया कब्धितं जव्यप्रतिपिपाद यिपया सकलं संकलय्य प्रथमंचेतसि मज्जितंततो जल्पितं अक्षररचनयाहग्धातदंतरेण परस्य पुरतः सम्यक् प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् ॥
अर्थ:-कृपाये करीने या प्रकारे कर्वा . कृपा ते शं? तो तीर्थना अन्नावयो कदर्थनाने पामेला आ सूढ पुरुषो कुमार्गना स्व. रूपने जाणी तेनो परिहार करयो तेणे करीने सन्मार्ग पामी संसार समुनने तरशे ए प्रकारनी अनुकंपासे प्रथम चित्तमा संकलना करी जव्यपणुं प्रतिपादन करवानी श्वावमे कल्पना करी काठे, एटले अक्षरनी रचनावमे कयु, केमजे ते विना बोजाना मोटा थागळ सारी रीते प्रतिपादन करी शकातुं नयी ए हेतु माहे.
टीकाः-च समुच्चये ॥ एतेन सच्चाबी त्याद्यागमवलेनपर संक्लेशनिबंधनं सलमपि वोन वचनीयमिति यदाकिने । तयाक अहवाग नस्यान्यविषयत्वात् ॥ तयाहि ॥ धर्मा
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अथ श्री संघपट्टका
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योग्यं प्रति हितैषिणापि सत्यमपि हितोपदेशवचनं न नाषणीय। तस्य कर्मबंधहेतुत्वात् ॥ तथा क्वचिदटव्यादौ तस्थुषा मुनिना देहशुषा पिमृगं मृगयमाणस्य व्याधस्यानुयुजानस्यापि तस्य पुरतो मृगदर्शनं सत्यमपि नानिधातव्यम् ॥
अर्थ:-चकारनो समुच्चयवाचक अर्थ ले. आ पूर्वे कयुं तेणे करीने " सच्चीवी" इत्यादि आगम वचनना बळे करीने परने क्ले. शनं कारण एवं सत्य वचन पण न बोलवू. ए प्रकारनी जे आशंका करी ती ते पण उर करी, केमजे ए आगम वचननो विषय जदो
ए हेतु माटे.ते जूदा विषयपणुं देखामे ले जे, जे पुरुष धर्मने अयोग्य ते प्रत्ये हितने श्वनार पुरुषे पण हितकारी उपदेश वचन सत्य ले तोपण न बोलवू. केमजे तेने कर्मबंधनुं कारणपणुं थाय ने ए हेतु माटे. ते कहे जे जे, कोइक अरण्य प्रमुख स्थळने विषेरहेला मुनिये पारधीना जयथो नाशीने मृग संतायो , तेने पोते जाणे डे, तोपण मृगया करनार पारधीये मृग खोळतां मुनिने पूज्युं तोपण ते आगळ सत्य वचनः पण न बोल्या, माटे एव। जगाए सत्य न बोल, एम शास्त्रनो अभिप्राय डे.
टीका-तद्विधातानिमिशत्वात् ।। किंतु तत्र तहिपरीतं वक्तव्यं तहितत्वात् ॥ तदेव वचनं तत्र सत्यं ॥ नुतहितमितिवचनात॥इत्येवमादिरस्यागमस्य विषयः॥तु पार्श्वस्यादि. मलिन्दशीकृत्योत्पथेन संसारपटली नीयमानं नोराजकमि. व जननिवहमवेदय केनापि महासत्वेन विवोयमानस्य पूत्कार
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अथ श्री संघपटका
वित्रमं विव्रतस्तदुत्पथवजपलस्य तेषां संक्वेशदेतुस्खेपि प्रवचनप्रजावनानिमित्ततयाऽचिंत्यपुण्यसंचारकारणत्वेनानिधा. नात्तज्जपनमवश्यं कर्तव्यमेव ॥
- अर्थः-केम जे ते सत्य वचन विघातनुं कारण ए हेतु माटे.त्यारे तेजगाए शुं करवू? तो तेथी उलटुं वचन बोलवू. केम जे ते जगाए ते उलटुं वचन बोलवू एज हितकारी . ते वचनज ते जगाए सत्य , केम जे शास्त्रमा कडं ने जे, सत्य वचन ते कयुं ? तो तेनो उत्तर एम कयों ने जे, जे वचन प्राणी मात्रने हितकारी होय ते सत्य वचन जाणवू. पूर्वे कडं इत्यादि स्थळ एज ए भागमनो विषय . एटले एवी जगाए सत्य पण न बोल, एम अनिप्राय है. अहीं तो पासथ्यादि चोर पुरुषोए वश करीने उन्मार्गवमे संसाररूपी पोताने रदेवानुं गाम ते प्रत्ये लइ जवा मांमेलो जेम जेने माथे राजा न होय तेवा जगत्ने पोतानी नजरमां आवे त्यां खेंची जाय तेनी पेठे लोकना समूहने जोइ कोई महा सखवंत प्राणीए ते लुटाता लोकोनो पोकार साजळी ते चोर लोकने क्वेशनुं कारण एवं पण ते चोरनु उन्मार्गे वर्तवापणुं प्रकाश करी देखायु, तेम प्रवचननी प्रजावना थाय एवा हेतुवले चितवनमां न आवे एवा पुण्यना समूहद् कारण जाण ते लिंगधारीउना स्वरूपर्नु निरूपण कयु ते शास्त्रमा करवानुं कडं ठे, माटे अवश्य करवा योग्यज ठे.
टीका:--यमुक्ता सुहसीलतेण गहिए, जब तेण जगनिय मणाहे ॥ जो कुण्इ कुवियत्तं, सा वन्नं कुरा संघस्स ॥
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(६३४.)
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अथ श्री संघपटक
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श्रतः कुपथपंकनिमज्जनरनिकरोखरणाय मया किंचिज्जहिपतमिदमितिसुष्टुक्तं जगवता प्रकरणकारेणेतिवृत्तार्थः ॥
अर्थः-ए हेतु माटे कुमार्गरूपी कादवने विषे बूमता लोकंना समूदने देखी तेनो उद्धार करवाने अमोए आ कांक का, माटे समर्थ एवा या प्रकरणना करनारे लिंगधारीनुं स्वरूप निरुपण कर्यु ते वीकज कयुबे, ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो. ॥३४॥
टीका:--अथ किमिति दिग्मात्रमेवान्निहितं यावता नि: शेषदोषप्रकाशनेन हि मिथ्यापथः सुज्ञानः सुत्यजश्च जवती त्याशंक्य तन्निरालद्योतकेन यत इति पदेनांतरापूर्य तदोषाणा'मानत्येनानिधानाशक्यत्वं निदर्शनया विवियत्राह ॥ यतः॥
अर्थः-शा कारण माटे लिंगधारीना स्वरूपर्नु निरुपण दिशमात्रज देखामयुं? जेवू डे तेवु समस्त देखामयुं होय तो निश्चे मिथ्यामार्ग सुखेथी जाणवामां आवे तथा सुखेथो त्याग थाय एवी आशंका मनमां धरी तेनुं खेमन जपावनार 'यत' एप्रकारनु पद कचे मुको तेनो उत्तर या प्रकारे , एम कहेतां ग्रंयकार जणावे में जे ते लिंगधारीउना समस्त दोष अनंता , ते सर्वे दोष कहेवार्नु मारु सामर्थ्य नथी एप्रकारे निदर्शनाअलंकारवमे प्रगट करता बता श्रा प्रकारतुं काव्य कहे जे.
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अथ श्री संघपट्टका
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॥ मूल काव्यम् ॥
प्रोद्भूतेऽनंतकालात् कलिमलानिलये नामनेपथ्यतोऽर्हन, मार्गत्रांतिं दधानेऽथ च तदनिमरे तत्वतोऽस्मिन् पुरध्वो। कारुण्याद्यः कुबोधंनृषु निरसिसिपुर्दोषसंख्यां विवके, दनोंजोधेःप्रमित्सेत्ससकलगगनोल्लंघनं वा विधित्सेत्॥३५॥
टीका:-यत इति यस्मा तोरस्मिन् पुरध्वेऽनंतकालात प्रोद्नुते यो दोषसंख्यां विविदित्यादि संबंधः॥ तत्र प्रोझते संजाते अनंतकालात् अनंतानेहसा अनंतोत्सर्पिण्यवसपिणीपरीवर्तनेनास्यकुमार्गस्याश्चर्यदशकांतःपातित्वेन सिकाते पादुन्नोवप्रतिपादनात् ॥
अर्थः-जे हेतु माटे अनंतो काळ गया पनी उत्पन्न थएलो आ दुष्ट मार्ग तेने विषे जे दोष रह्या दे, तेनी संख्या करवा जे पुरुष श्च्चे; इत्यादि संबंध जाणवो. तेमां अनंतो काळ गया पठी ए. टखे अनंती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काळ गये या लिंगधारी नो करेलो कुमार्ग ते दश आश्चर्यमांनु ए नेट्वं असंजति पूजनरूप श्रा श्राश्चर्य , एम एनी नत्पत्ति सिझांतमा प्रतिपादन करी .
टीका:-कलिमल निलये इण्यमापातकनिवासे पुष्यमाकालोह्यपरकालापेक्षया महापापः । ततश्चात्रातीवासमंजसप्र. वृनिदर्शनासंन्नाव्यते सकलं पुष्यमामलं दुरध्वेऽस्मिन्निवसति।।
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(१)
अथ श्री संघपट्टका -
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अथवा कलिरेवकलह एव मलं कितस्य निलये।तथानाम थनिधानं यथा लिंगदर्शनेपि लोका वक्तारोनवंति।अमी जैनाश्रमी सितांबर निक्षव इत्यादि ।
अर्थ:-कळीकाळ संबंधी पापतुं घररूप एटले दुःषमा काळनां पापने रहेवानुं स्थानरूप एवा दुःषमा काळवमे वीजा का. कनी अपेदावमे महा पाप डे, ते हेतु माठे आ कालमां अतिशेज अघटती प्रवृत्ति देखवाथी एम संजावना थाय जे जे, समस्त दुःषमा काळर्नु पाप आ दुष्ट मार्गने विणे निवास करी रघु बे. अथवा कली कहेतां कलह एज जे मल तेनुं घररूप एवो आ लिंगधारी. उनो मार्ग तेने विषे नाम एटले अनिधान जेम वाह्यथी लिंग देखे ते पण लोक एभ कहे जे, आ जैनी ने था श्वेतांबर जितु डे इत्यादि ।
टीकाः-नेपथ्यं रजोहरणादिवेषस्ततो इंडः ततश्च नामने पथ्यतः सुविहितसाधरणानामश्रवणान्नेपथ्यदर्शनाचाहन्मार्ग जाति तात्विकजिनपथाहश्यं दधाने बिज्राणे । नन्वयं पंथास्तहि जिनमार्ग एक जविष्यतीत्यत आह ।
अर्थ:- नेपथ्य कहेता रजोहरणादि वेष, पली पूर्वे कयां ते पदनो इंछ समास करवो, वेश मानना नामथी सुविहित मु. निना जेवू एक नाम मात्र सांनळवाथी तथा देखवाथी अरिहंतना मार्गनीत्रांतिने धारण करतो शास्त्रमा कहेलो जे जिनमत तेनी ब्रांति उपजावतो. ए जगाए आशंका करी कहे , जे 'निश्चे ए
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अथ श्री संघपट्टका
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लिंगधारीनो मार्ग एज जिन मार्ग हो एवी आशंका थाय ने तेनो उत्तर कहे जे,
टीकाः-अथ चेति प्रतिकूलपदांतरद्योतकमव्ययं ॥ नन्वतः परमार्थतः तदानमरेऽहन्लार्गधातुके । अयमर्थः ॥ यथाऽ जिमराः प्रचन्नधातुकाः स्ववेषेण राजादिधातक मशक्नुवंतो वेषपरावर्तनेन राजादिकं व्यापादयंति। तथैतेपि गृहस्थवेषेणाहेन्मार्गच्छेदन तथा विधातुमपारयंतो यतिवेषेण विरुद्धप्ररुपणाचेष्टितादिनाऽहन्मार्गमुच्छिदंतीति नवंत्यनिसराः ।।
अर्थः-श्रथ च' एटलो विपरीत पक्षांतरने कहेनारो अ. व्यय .ए हेतु माटेनिश्चे परमार्थथी विचारी जोतां ए लिंगधारी अरिहंतना मार्गने घात करनारा . तेमां प्रगटपणे आवो जावार्थ रह्यो जे, जेम राजादिकने बाना मारनारा घातकी पुरुपो ते पोतानो जेवो ने तेवो वेश राखी राजा प्रमुखने मारवा समर्थ नथी थता त्यारे पोतानो वेष पलटी वीजो वेष करी राजादिकने मारेठे तेम आ लिंगधारी पण गृहस्थना वेषवमे अरिहंतलो मार्ग वेदन करवा न समर्थ थया त्यारे यतिनो वेप धारण करी विरून प्ररूपपा करवी; इत्यादि नपायवमे अरिहंतना मार्गनो नच्चेद करे वे माटे ए घातकी .
टीका:-ततश्च पुरध्वपुरध्ववर्तिनोरनेदोपचारादित्यमुपन्यासः ॥ अस्मिन् प्राग्वर्णितस्वरूपे घरध्ये कुमार्गे कासएयात् मास्मामी वुमन जमा यस्मिन् कुपथपंक तिदयाध्यवसा.
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अय श्री संघपट्टका
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यात् यःकश्चिन्महासत्वो नृषुलिंगिन्नावनानावितेषु मर्येषु. कुबोधं कुदेशनोत्पादितमसत्पथे पि सत्पथनमं निरसिसिषुर्बि नित्सुः ॥ यदि हि कथंचिदमीषां मूढानां दुरध्वदोषसामस्त्यप्रदर्शनेनायं कुबोधो विध्वंसते तदामी उपकृता नवंतीत्याशयेन दोषसंख्यां दूषणेयत्तां विवदेत् अनिधित्सेत् ॥
अर्थः-ते हेतुमाटे दुष्ट एवो जे मार्ग अने जे पुष्ट मार्गमा रहेनार पुरुषो ए बेनो उपचारथी अन्नेद ने तेथी ए प्रकारे कडं.
आ पूर्व कह्यो एवो जे पुष्ट मार्ग तेने विषे जगपुरुषो बुमे , तेने देखी ए प्रकारनी करुणा श्रावी जे, आ पुरुषो कुमार्गरूपी कादवमा बुझे ले एवा अध्यवसायथी तेमने नहरवा आ कडं , एम संबंध जाणवो. लिंगधारीनी नावनावमे सहित थएला तथा कुदेशनाथी नत्पन्न थएलो जे कुबोध एटले असत् मार्गने विषे पण था सत् मार्ग एवी ब्रांति तेने नाश करवा श्चता अने जय पामता एवा पुरुषो तेनी मध्ये कोश्क महासत्ववाळो पुरुष एम विचारे जे, को प्रकारे आ मूढ पुरुषोने पुष्ट मार्ग संबंधी समस्त दोष देखामीए तो तेणे करीने एमनो कुबोध नाश पामे तो एमनो उपकार कयों कहेवाय एवा अभिप्रायवमे दोष संख्याने कहेवा इछे ।
टीकाः-एतावत् संख्या अत्र कुमार्गे दोषाः संतीति योवक्तुमिदित्यर्थः ॥ स पुमान् अंगोजलं अंनोधेरणवस्य प्रमिसेत् ॥ श्यदत्रांन इति चुलुकादितिः संचिख्यासेत् ॥ जलधिजलामित्सानिदर्शनेन दुरध्वदोषापामसंख्येयतासिया
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अथ श्री संघपट्टका :
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अपरितुष्यन् विवक्षिततदानंत्य चिख्यापयिषया निदर्शनांतरमाह ॥
अर्थः-एटले आ कुमार्गने विषे दोपनी आटली संख्या बे, एम जे कहेवा श्छे ले (एटलो अर्थ ठे) ते पुरुष समुआना जळर्नु प्रमाण करे जे आ समुअमां आटदुं जळ , एटले अंजलि आदिकवके कहेवा श्छे, जे समुनुं जळ आटली अंजलियो प्रमाणे . समुनना जळनी प्रमाण करवानी ञ्छानुं दृष्टांत देखामयु तेणे करीने दुष्ट मार्गना दोपर्नु असंख्यातपणुं लिक थयुं तेणे करीने संतोष न पामतां ग्रंथकार वळी ते दोपर्नु अनंतपणुंडे एम कहेवानी श्चाए बीजुं दृष्टांत कहे .
टीकाः-सकलगगनोल्लंघनं पदस्यां समयांतरिक्षांतप्रापणं वेति पक्षांतरे विधित्सेत् चिकीत् ॥ अयं च निदर्शना नामालंकारः ॥ यत्र प्राकरणिकाप्राकरणिकयोः परस्परं संबंधा नाबादुषमायां पर्यवलानं सा निदर्शनेति तल्लक्षणात् ॥
अर्थः समस्त आकाशनुं बलंघन पगवने करवा छे एवोके, एम वीजा पाने विये अर्थ यो ए निदर्शनानामे अखंकार थयो. जे जगाए वर्णन करवा योग्य जे वस्तु तथा तेथी वीजी वस्तु ए वेनो परस्पर संबंध नथी ए हेतु माटे उपमाने विपे पर्यवसान थर्बु ते निदर्शनालंकारनुं लक्षण .
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- अर्थ श्री संघपटक
टीका-॥ यमुक्तं॥
अलवस्तुसंबंध उपमा परिकल्पक इति तदन प्राकरणिकाप्राकरणिकयोदुरध्वदोषदोषसंख्याविवक्षणजलधिजलप्रमित्सयोर्दुरव्वदोषसंख्याविवक्षणसकलगगनोवंधन विधित्सा यो पृथक्पृथग्विषयत्वादन्योन्यासंबद्धयोरुपमायां पर्यवसान। सागरांनःमित्सेव च सकलगगनोवंधन विधित्सेव वा प्रकृतपुरुषेण पुरध्वदोषसंख्या विवक्षा ॥ . अर्थः-ते कडं जे जे, उपमानी परिकल्पना करनार वस्तुनो संबंध जेमां होय ते निदर्शनालंकार कहीए, माटे आ जगाए वर्णन करवा योग्य ने अवर्णन करवा योग्य एवा जे पुष्ट मार्गना दोष कहेवा ते तथा समुजना जलनुं मान करवू ते बेर्नु अथवा पुष्ट मार्गना दोषनी संख्या- कहे तथा सकल आकाशनुं नवधन करवानी श्वा ए बेना विषय जूदा जूदा , ते हेतु साटे ए बेने परस्पर संबंध नथी तेयो उपमा अलंकारने विषे एर्नु पर्यवसान , केम जे समुख जलनो प्रमाण करवानी इच्छा जेवी ने अथवा सकल
आकाशने उलंघन करवानो इच्छा जेवी तेवी पुरुषने आचालतो लिंगधारीनो करेलो दुष्ट प्रवाहरूप मार्गना दोषनी संख्या करवानी इच्छा . एटले परमार्थ ए जे जे ए मार्गना दोषनी संख्या करी शकाय एवी नथी.
टीका:-ततोऽयमर्थः ॥ ॥ यथा सागरांनोऽतिज्यस्त्वात् ' प्रमातुमशक्यं सकलगगनोवंधनं वानंत्यादिधातुमशक्यं तथा दुरस्त्रस्य महामिथ्यात्वरूपस्य लोकोत्तरविरुष्मासमंजसंचेष्टित
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शतसहस्रसंतृतत्वानदोषसंख्याप्यति बाहुल्याक्तुमशक्येति॥ श्रतो दिग्मात्रमेवोदाहृतं ॥ तावन्मात्रेणापि केषांचित् पुण्यास्मानां मोहापोहेन सत्पथाच्युपगमो नविष्यतीति धियेति वृत्तार्थः ॥ ३५ ॥
अर्थः-ते हेतु माटे आ अर्थ सस्फुट जे जे,जेम सागरतुं जल अतिशे माटे तेनुं प्रमाण करवा समर्थ, नथीथवातुं. श्रथवा समस्त आकाशनुं बवंधन करवा समर्थ नथी थवातुं. केमजे ते अनंतु ए हेतु माटे; तेम दुष्ट मार्गनुं महामिथ्यात्वरूपपणुं ते लोकोत्तर विरुक जे अघटीत अर्थ तेनां सेंकमो तथा हजारो तेणे सहित ले माटे ते दोषनी संख्या पण अति घणी माटे कही शकाती नथी, ए कारण माटे आदिश मात्र देखामी ने तेणे करीने पण केटलाक पुण्यात्मा प्राणीने मोहनो नाश थशे तेणे करीने सन्मार्गनी प्राप्ति थशे, एवी बुड़िये करीने आ कयु. ए प्रकारे श्रा काव्यनो अर्थ थयो. ॥ ३५ ॥
टीकाः-जनूक्तन्यायेन लिंगिनश्चेद्यतयो न नवंति ॥ त. हिन संसेवक्वचित्संमतिश्रतोतलदापनाजो यतयोऽदर्शनात। तथा च ज्ञानदर्शनाच्यामेव जगवतीर्थमनुवर्तत इति मन्यमानं मूदंप्रति लिंगिन्यः पक्षांतरसंसूचकेन तथा शब्देनांतरापर्य संप्रति वर्तमानतया कालोचितयतिलक्षणलहितान् सुविहि. तयतीन् प्रतिपादयन्नाह ॥
अर्थः-तर्क करी कहे वे जे, पूर्वे कह्यो ए न्याये करीने
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* अथ श्री संघपका
लिंगधारि जो यति न होय तो आ काला कोई जगाये सिद्धां. तमी जेवां बक्षण कह्यां में, तेवा लक्षण वाळा यति नथीज केमके तेका लक्षण वाळा यति को जगोए देखाता नथो, ए हेतु माटे. वळी ज्ञान दर्शने करीने जे जगवतूनुं तीर्थ वर्ते में, एम जाणंता शिष्य प्रत्ये लिंगधारी विना शास्त्र लक्षणथी मळता आवता एवा सुविहित यतियो , एप्रकारनो पक्षांतरने जपवनार तथा शब्द मध्ये मूकी वर्तमान काळमां उचित एवा यति लक्षणवमे सहित सुविहित यति ले एम प्रतिपादन करता सता कहे .
तथाच ॥ मलकाव्यम्:
न सावद्यानाया न, बकुश कुशीलोचित यति । "क्रिया मुक्ता युक्ता, न मदममताजीवन नयैः॥
न संक्वेशावेशा, न कदन्निनिवेशान कपट । प्रिया ये तेद्यापि स्युरिद, यतयः सूत्ररतयः ॥ ३६॥
टीका-तथेति यथा संप्रति नूयांसो लिंगिनःसंति तथा तेन प्रकारेण विरलाःसुविहिता अंपीत्येतदेवाह ।। तेद्यापि स्युरिह यतय इति संबंधः ॥आम्नायो गुरुशिष्यप्रतिशिष्यादिक्रमण संप्रदायः सावद्यः प्राग्वर्णितौदेशिकनोजनाद्युपत्नोंगादेः सपाप आम्नायो येषां ते तथा नातेषां निषेधः । अधुनातनरुत्यौहे शिलोजनचैत्यवासादिना सावद्यसंप्रदायवंतो येन नवंति तथा ॥
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अय श्री संघपटक
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अर्थः ते प्रकारे नथी एटले जेम वर्तमान काळे पणा सिंगधारीने, ते प्रकारे सुविहित नथी. सुविहित विरल डे, पण सुविहितनी नास्ति नथी. जे हेतु माटे अद्यापि एटले या काळमां पण सुविहित , ए प्रकारनो संबंध या काव्यमां जाणवो. थाम्नाय जे शिष्य तेना शिष्य इत्यादि क्रमनो संप्रदाय ते पूर्वे कडं जे नरे शिक जोजनादिकनुं जोगवq तेणे करीने सावध थएलो एप्रकारनो नथीथाम्नाय जेमनो एवा, एटले श्राकाळनी रुढीये नद्देशिकन्नोजन तथा चैत्यवास इत्यादिके करीने सावध संप्रदाय वाळा जे नथी ते.
टीका: बकुशंशवलमतिचारपकेन समलं प्रक्रमाचारित्रं ।। ततश्च वकुशचारित्रयोगात्साधवोपि बकुशाः ॥ ते च द्विधा ।। नपकरणदेहलेदात् ।। तत्रोपकरणवकुशा येवर्षाप्रत्यासत्तिमंतरेपापि कदाचित्रादिकं धावंति श्लदणायंशुकादि च जिघृदंति कदाचित् परिदधते च॥
अर्थः--॥ तथा वकुश केतां शवख एटले अतिचाररूपी कादववमे मेढुं थएवं चारित्र, तेना योगथी साधु पण वकुश कहीए, ते साधु वे प्रकारना , तेमां एकतो उपकरण नेदथी श्रने वीजा देह जेदथी, तेमां नपकरण वकुश तेने कहीए जे वर्षाकाल समीप यया विना पण क्यारेक वस्त्रादिकने धुए तथा जीणां सारां इत्यादि गुण युक्त वस्त्रादिकने गृहण करवा छे. तथा क्यारे तेनू भारण पण करे.
टीका:-पात्रदंगकायपि घुष्टं तेलादिम्रक्षणोपारिततेज.
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अय भी संघपट्टका
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स्कं च धारयति ।। उपकरणमप्यतिरिक्तं प्रार्थयते इति ॥ देहवकु. ' शास्तु येक चरणनखादीन् कदाचिनिनिमित्तंजूषयंतीति । इमे. ." चहिविधा अपि शिष्यादिपरिवारादिकां विजूति तपःपांमित्या
दिनजवंच यशःप्रार्थयते तदासादनेन च प्रमोदते बेदाहश्चाति. चारैर्बदन्तिः शबलिता अपि कर्मक्षयार्थमुद्यता इत्यादि लक्षण “युक्ता बकुशाः ॥
___ अर्थः-तथा पात्रां तथा दांगो इत्यादिक पण घशेला तेलादिके चोपमेला झळझळाट एवां करी धारण करे भने अधिक उपकरण पण प्रार्थना करी राखे. हवे देह बकुश तो तेने कहीए, जे हाथपगना नखादिकने क्यारेक कारण विना पण शोजावे. ए बे प्रकारना बकुश पण शिष्यादि परिवाररूपी विनतिने तथा तपथी नुत्पन्न थएनु तथा पंमितपणाथी उत्पन्न थएवं जे यश तेनी प्रार्थना करे भने ते मळवाथी राजी थाय अने उदने योग्य एवा घणा अ. तिचारवमे शबळ थया ने एटले युक्त थया तोपण कर्मक्षयने अर्थे उद्यमवंत बे, इत्यादि लक्षण युक्त होय तेने बकुश कहीए.
टीका-॥ यक्कं॥
· · उपकरणदेवचोरकाट्ठीरसगारवासिया निच्चं ॥
बकुसबल यजुत्ता निग्गंथा बाउसा नणिया॥
अर्थ:-ते वात शास्त्रमा कही ले जे, उपकरणने तथा दे. हने चोखा राखे तथा क्यारेक ऋजिगारव तथा रसगारवे सहित
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अथ श्री संघपट्टका
होय तथा नित्ये घणुं शवळ एटले घणुं मलिन बेद प्रायश्चित्त श्रावे त्यां सुधी मलिन चारित्र सहित एवा जे निर्णय ते वकुश कहीए.
टीकाः-तथा कुत्सितं शीलं चरणं येषांते तथा॥ तेपिविधा ॥ आसेवनाकषायत्तदात् ॥ तत्रासेवनाकुशीला ये ज्ञान दर्शनचारित्रतपांसि किंचिकुपजीवंतिकषायकुशीलास्तु ये कोधादिनिः कषायैानादिगुणान् युंजंति अथवा कपायै झानादीन ये विराधयति ।। जवोछेदायोपस्थिता अपीत्यादि खतणनाजश्व कुशीलाइति ततो वकुशाश्च कुशीलाश्चेति इंजः
अर्थ:---वळी कुत्सित एटले निंदित ले चारित्र तेजेमनुं ते कुशोल कढ़ीए. ते कुशील वे प्रकारना ले. तेमां एक तो आसेवना कुशील तथा कषाय कुशील एवा नेदथी. तेमां आसेवना कुशील तेने कहीए जे, ज्ञान दर्शन चारित्रने तथा तपने का श्राजीविका रूपे धारण करे, अने कषाय कुशीलतो क्रोधादि कपाये करीने ज्ञानादिक गुणने जोमे (नेकवे) अथवा कपाये करीने झानादिक गुणनी जे विराधना करे अने संसारनो नछेद करवा तत्पर पण थएला इत्यादि लक्षावाला ने ते कुशील कहीए. त्यार पठी वकुश ने कुशील ए वे पदनो उंछ समास करवो.
टीका:-तेपामुचिता योग्या यतिक्रिया प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनप्रभृतिका साधुसमाचारी तथा मुक्ता रहिता ये ननवंतिप्रित्यहं यतिकृत्य पमिलेहणा पमन्जणा, निरिकरिया लोय झुंजणा चव।।
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(१५६)
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अथ श्री संघपटक
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पत्तगधुयण.. विद्यारा मिल मावस्सयाइयेत्यादि ॥ दश विध चक्रवालादि सामाचा चारीरिण इत्यर्थः॥
अर्थः-तेमने योग्य एवी जे मुनिनी क्रिया पमिलेहण प्रमार्ज आदि साधु समाचारी तेणे रहित एवा जे नथी एटले नित्ये साधु समाचारीये युक्त . साधुने नित्य करवा योग्य एवी क्रिया जे.प. मिलेहण इत्यादि.
टीका-श्रत्रच पुलाकनियस्नातकपरिहारेण यदुकुश कुशीलोचितक्रियायुक्तयतिगवेषणं तरेव सर्वतीर्थकराणां तीर्थप्रवृत्तेः सबजिणाणं जमा, बकुशकुशीलेहिं वट्टए तित्थ, मितिवचनात् ॥ तथा न युक्ता न स्पृष्टा मदो जात्यादिजिरात्मो. कर्षप्रत्ययः ममता गृहस्थादिषु प्रतिबंधो ममैते योगक्षेमं वहति ततो यद्यमीषां क्वाप्यनिष्टं न संपद्यते इत्यादि स्नेहेन ततसुख दुःखान्यां यतेरपि तमत्तेति यावत् ॥
अर्थ:-श्रा जगाये पुलाक निग्रंथ तथा स्नातक ए सर्वेनो त्यांग करी जे बकुश कुशीलने योग्य एवी जे क्रिया तेणे युक्त एवा यति खोळी काढया तेनुं कारण एजे, बकुश कुशीलवमेज सर्व तीर्थकरना तीर्थनी प्रवृत्ति थाय , ए हेतु माटे. ते कडं जै, सर्व जिनना तीर्थने बकुश कुशील वृद्धि पमा डे एवा वचनथी, वळी ते बकुश कुशील केवा डे ? तो पोताना उत्कर्षने जणावतार जात्यादिक जे मद ते जेमने स्पर्श करी शकता नथी, तथा गृहस्थादिकने विषे प्रतिबंध एटले या श्रावक तो मान ले मारो योग केम
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अथ श्री संघपट्टक:
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(६४७)
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करे . ए प्रकारे गृहस्थादिकने विषे जे ममता, तेथी एम थाय ले जे श्रा श्रावकादिकनुं क्यारे परा अनिष्ट एटले माटुं न थान, इत्यादिक स्नेहे करीने यति पण ते श्रावकना सुखवसे सुखी थाय , श्रने मुखवमे दुःखी थाय . एटलो नावार्थ , माटे ते गृहस्थ साथे परिचय राखता नथी.
टीका:-आजीवनं आजीविका निर्वाहस्तस्माद् नयंतद्नावसंजावनया जीतिरहिनिर्विदितशै स्थिव्याः सिद्धांताध्ययनादिविरहिता वा गृहस्थचंदोऽनुवृत्ति विना निःस्पृहतया शुद्ध प्ररूपयंतो वा एतत्कृतनिर्वाहाजावेन कथं वयं जीविष्याम इत्या. अध्यवसाय इत्यर्थः । ततश्च मदश्चेत्यादि छः॥
अर्थः आजीविका एटले निर्वाह तेथी जे जय तेनी संजावनाये करीने जे जय, एटले गृहस्थ लोकोये जाएयु शिथिसपणुं तेजेमनु, अथवा सिद्धांतनुं जे अध्ययनादि तेणे रहित अथवा गृहस्थनी अनुवृति विना निःस्पृहपणे शुद्ध प्ररुपणा करतां ए श्रावक निर्वाह नहीं करे तो आपणे केम जीवीए इत्यादि अध्यवसाय, एटलो अर्थ जारावो, त्यार पठो मद पद साथे छ समास थाय.
टीका:-तैमहासत्वानां हि स्वजनधनपुत्र कलत्रादिसंगत्यागेन प्रव्रज्याग्राहिणां कुतस्त्यो गृहस्थादिपु ममताद्यवकाशः क्लीवानामेव तद्नावात् ॥ एवं च सति ममतादिनिवर्जिताः ॥ तथा संझेशःश्वविविन्नमवाहतया प्रतीयमानो रोजाश्यवसाय.
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(६४४)
अथ श्री संपपट्टका
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MAM
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स्तस्य आवेशःआवेगःनत्कर्षों येषामितिव्यधिकरणो बहुव्रीहिः तथा येन वंति।संज्वलनकषायोदयत्वेन तेषां तन्निबंधनप्रथमादिकषायोदयानावात् ॥
अर्थः-ते महा सत्ववंत पुरुषो स्वजन. तथा धन तथा पुत्र तथा स्त्री इत्यादिक संगनो त्याग करीने प्रव्रज्या गृहण करे ने तेमने गृहस्थादिकने विषे ममतादिक थवानो अवकाशज थतो नथी एटले तेवा महांत पुरुषो गृहस्थादिकने विषे ममता करेज नहीं, एतो नपुंसकनेज गृहस्था दिकने विष ममता थाय ए हेतु माटे. ए पुरुषो एवा ने तेथी ममतादिक वर्जित कह्या. वळी संक्लेश कहेतां अविजिन्न प्रवाह पणे जगातो जे रौज अध्यवसाय, तेना जे आवेश कहेता वेग ते २ जेमने ए प्रकारनो व्यधिकरण बहुव्रीहि समास करवो, ते प्रकारना जे नथी. केम जे ते बकुश कुशीलने संज्वलन कषायनो उदय डे पण ते मदादिना कारण जूत जे प्रथमादि कषाय एटले अनंतानुबंधि आदि कषाय तेनो उदयन नथी ए हेतु माटे.
टीका-न कदान्निनिवेशाः अनाजोगादिना अन्यथाकारं स्वयंप्रज्ञते श्रज्युपगते वावस्तुनि कुत्सितमानसाग्रहवंतो ये न , जवंति तनिमित्तजनरंजनापरिणामालावात् ॥ ममताजीवन नयादयश्च साधुत्ववाधकत्वायतीनां सर्वथा हेया एवेत्यतस्तेषामिह निषेधो विशेषण प्रदर्शितः ॥
___ अर्थः कुत्सित आग्रहवाला नथी एटले अजाणपणे थः
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अथ श्री संघपट्टक
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MARA
न्यथा प्रकारे वस्तु कह्यामां आवे अथवा अंगिकार करवामां आवे तो जेमने कदाग्रह नथी. केमजे ते कदाग्रह कारणरूप जे मिथ्यानिमान ते तेमने विष नथी ए हेतु माटे. वळी ते वकुश कुशील केवा जे? तो जेमने कपट वाहालुं नथी एवा एटले माया प्र. धान जे अनुष्टानी क्रिया तेने विषे तत्पर एवा नथी. केमजे ते माया कपट डे कारण जेतुं एवं जे लोकरंजन परिणाम तेनो अनाव , ममता तथा आजीविका तथा जय इत्यादिक साधुपणाना वाधक बे, ए हेतु माटे यतिने सर्वथा प्रकारे ए त्याग करवा योग्यज डे ए हेतु माटे तेमनो निषेध आ जगाए विशेषे करी देखायो ।
टीका:-॥ यमुक्तं ॥
एवं च संकिलिहा, माइहामि निच तबिचा।। आजोवियनयघत्था, मूढा नो साहूणो नेया ।।
अर्थः-ते वात शास्त्रमा कही वे जे ए प्रकारे माग श्रध्यवसायवाळा तथा.
टोका:-य एवं गुणगणोपेतास्ते यतयः साधवः अद्यापि सुसाधुविरहितयाशंकिते उपमाकालेपि श्रास्तां उपमसुषमादावित्यपि शब्दार्थः स्युनवेयुः इह प्रवचने सूत्ररतयः सिद्धांताध्ययनाध्यापनव्याख्यानश्रवणपरायणाः अध्ययनादिकर्तव्यताविषयतयैव तेषां शास्त्रीयशिदाश्रवणात् ॥
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8 अयं श्री संघपटक
अर्थ:-जे ए प्रकारे गुणगणे सहित ले ते साधु . आ काळमां पण एटले सुसाधुनो विरह जेमांडे एवी आशंकाए स. हित एवो आ दुषमा काळ तेने विषे पण सुसाधु होय तो उषम सुखमादिक बीजा काळमां होय तेमांशुं कहे ! ए प्रकारनो अपि शब्दनो अर्थ .श्रा जिनशासनने विषे सूत्रने विषे प्रीतिवाळा एटले सिकांतनुं जण नणाव, केहेवू, सांजळ तेने विषे तत्पर एवा, केमजे सिद्धांतनुं जणवू इत्यादि तेमनी शिक्षा शास्त्रमा सांजळीए बीए ए हेतु माटे.
टीका-॥ यमुक्तं ॥शास्त्राध्ययने चाध्या पने च संचिंतने तथात्मनि च ॥धर्मकथने च सततं यत्नः सर्वात्मनाकार्यः॥ न तु बिगिन व प्रवादिनमारज्य व्यवहारमंत्रादिप्रयोगतत्पराः॥ एतेन तेषामुन्मादाद्यनावः प्रतिपादितः ॥ महात्मनां सूत्राद्यध्ययनादेरेवं फलत्वात् ॥ एतेन संत्येव संप्रति यथोक्तलक्षणनाजो यतयोऽदर्शनादित्यादि यदाशंकितं तदपास्तम् ॥
अर्थः-ते वात शास्त्रमा कही ने जे, साधुए शानुढे जण तथा नणावq तथा चिंतन कर तेने विवे तथा आत्मानो विचार करवो तथा धर्म संनळाववो तेने विषे सर्व प्रकारे निरंतर यत्न करवो. पण लिंगधारीनी पेठे जे दिवसथी प्रवज्या लोधो ते दि. वसने आरंजी व्यवहार करवो तथा मंत्रादिको प्रयोग करवो तेने विव तत्पर नया थता. ए वचन कर्यु तेणे करीने ते सुविहित सा. धुने उन्माद आदि दोष नयो एम प्रतिपाइन कयु, मोटा पुरुषोने
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49 अथ श्री संघपट्टका
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सुत्रादिकनुं जगवू इत्यादिकथो ए प्रकारतुं फलपणुं थाय ने ए हेतु माटे, ए कछु तेणे करीने आ काळमां पण शास्त्रमा कलां जे लक्षण तेणे सहित एवा यति ज. पूर्वे प्रतिवादिए निषेध कयों इतो जे आ काळमां शास्त्रोक्त लक्षणवाळा साधु नथी, केमजे ते देखाता नथी. इत्यादि जे आशंका करी इती तेतुं खंगन कयु.
टीका:-कालादिदोषात् प्रायशस्तथाविधयतीनामदर्शने पि क्वापि तेन संतीत्यनाश्वासस्थकर्तुमयोग्यत्वात्।
॥ यमुक्तं ॥
कालाश्दोस कहवि, जवि दीसंति तारिसा न ज॥ सवत्थ तहवि नछिति नेव कुज्जा अणासासं॥
अर्थः-कालादि दोषथी वहुधा ते प्रकारना यतितुं नाम देखाम को जगाए थतुं नथी तेणे करीने ते प्रकारना सुविहित साधु नथी ए प्रकारनो विश्वास राखवो ते अयुक्त ने ए हेतु माटे ते वात शास्त्रमा कही है, जो कालादि दोपथी कदापि ते प्रकारना सत्पुरुषो देखवामां आवता नथी तोपण सर्व जगाए तेवा सत्पुरुपोनो विछेद थयो ते ए प्रकारनो अविश्वास न राखवो.
टीका:-श्रातीर्थमागमे वकुशकुशीलानामनुवृतिश्रवणात् ॥ यदाह ॥न विणा तित्यं नियंहिं नातित्या यनियंग्या॥ उकायतंजमायाव ताव अणुसज्जणादुएमिति ॥ बकुशकुगी.
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(१२)
+ अथ श्री संघ पट्टका
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:- लयोरनुवृतिरिति तत्र व्याख्यानात् ॥तथाच झानदर्शनाच्यामेव
संप्रति तीर्थमिति ब्रुवाणस्य जवतः प्रायश्चित्तापत्तेः॥यदाह ॥ . केसिंचिय अएसो, दसपनाणे हि वट्टए तित्थं। वुलेनं च चरितं,
वयमाणे नारिया चउरो ॥ असग्रहात्तदनितश्चसंघबाह्यत्व प्रसंगात् ॥
. . ॥ यमुक्तं ॥
जो जण नस्थि धम्मो, नय सामश्यं न चेवय वयाई॥ सो समयसंघबज्जो, कायवो समणसंघेण ॥
अर्थः-ए वात शास्त्रमा कही ले जे असत् श्राग्रहथी ते वातने न बता जे पुरुषो तेने संघ बहार करवानो प्रसंग जे. ते वात शास्त्रमा कही जे, जो कोइ एम कहे जे धर्म नथी, सामायिक नथी, व्रतादि नथी तो ते पुरुषने श्रमणसंघे श्रमण संघथी बाहार काढवो. . . “टीकाः तस्मात्संत्यद्यापि विरलाः प्राग्वर्णितगुणा मुनयः .
यदाह। ताजासरासिगह विहु-रिएवि तह दरिकणेविश्ह रिरने। अनि चिय जा तित्थं, विरलतरा केइ मुणपवरा ॥ इतिवृ. तार्थः ॥ ३६ ॥
अर्थः--ते मारे श्रा काळमां पण पूर्वे जेना गुण वर्णन कर्या एवा मुनि विरल बे. ते वात शास्त्रमा कही ले जे
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9. अथ श्री संघपट्टका
(६५३)
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टीका--तदेवं पुःषमायामपि सुविहितयतिसत्तां व्यवस्थाप्य सांप्रतं सामान्य विशेषगुणवत्तया तेषामेव वंदनीयतां प्रदर्शयन्नाह ।।
अर्थ:-ते हेतु माटे दुःषमा कालमां पण सुविहित यति , एम स्थापन करी हवे सामान्य विशेष गुणयुक्तपणे तेमनुज वंदनीयपणुं ने एटले वंदन करवा योग्य ते सुविहित यतिजले एम देखामता उता कहे . ॥ ३६ ॥
।। मूलकाव्यम्॥ संविनाः सोपदेशाः श्रुतनिकषविदः क्षेत्रकालाद्यपेक्षा। नुष्टानाः शूझमार्गप्रकटनपटवः प्रास्तमिथ्याप्रवादाः॥ वंद्याःसत्साधवोऽस्मिन्नियमशमदमौचित्यगांनीर्यधैर्य स्थैर्योदाचार्यचर्याविनयनयदयादाक्ष्यदाक्षिण्य पुण्याः॥३७॥
टीकार-वंद्याः सत्ताधवोऽस्मिनिति संबंधः ॥ संविना. मोक्षानिलाषुकाः नवनीरवो वा ॥ नतु परलोकवैमुख्येनेहलोक प्रतिवद्धाः॥ एवं विधा अपिस्वनिस्तारका एव नविष्यति ॥ तथा च किं तैरित्यत आह.
अर्थः-या जगतमा जे सुसाधु वे ते वंदनीक ने, ए प्रकारनो संबंध जाणवा. ते सुनाधु कवा वे? तो मोदना अनिलापी श्र
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अथ श्री संघपट्टका
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थवा संसारथो नय पामता एवा पण परलोकना कार्यथी विमुख था लोकमां बंधाएला नथी ए प्रकारना . तो पण पोताना तारक हशे ते माटे ते वमे शुं? एवी आशंका करी उत्तर कहे जे.
टीकाः--सोपदेशाः धर्मदेशनातत्पराः नत्वालस्यसातशीलत्वादिना तद्विमुखाःतं विना नव्योपकारानावात्तस्य चावश्यं यतिना विधेयत्वात्॥ अन्यथात्मंजरित्वमात्रप्रसंगात् यथा कथंचित् तद्न्लवमुक्तिगामुकेनापि कृतकृत्येन जगवता नवि. कोपचिकीर्षया तदादरणात्
अर्थः-जे सुसाधु केवा ? तो धर्म देशना करवामां तत्पर . पण आळस तथा सातासुख शीलपणुं इत्यादिके करी धर्म देशनाथी विमुख नथी, केमजे ते धर्म देशना विना जव्य पुरुषनो नपकार थतो नथी ए हेतु माटे, ने ते जव्य पुरुषनो उपकार यतिए अवश्य करवा योग्य ने, जो एम न होय तो ते यतिने नदरंजरीपणानोज प्रसंग आवे एटले ते यति पेटन्नराज कहेवाय पण परोपकारी न कहेवाय, केमजे तेज नवमां मुक्ति जनार अने करवा योग्य जे कार्य ते जेणे संपूर्ण कयु बे एवा जगवते, नव्य प्राणीनो उपकार थशे एम धारी धर्म देशनानो आदर कयों ने ए हेतु माटे.
टीका:-ग्लानादिनाप्याचार्येण धर्मव्याख्यानमवश्यंकर्तव्यमित्यागमेऽ निधानाञ्च ॥
॥ यदाह ॥ , . दोचेव मत्तगाइ, खेले काश्यसदो सगस्सुचिए ॥ : . एवं विदो विनिचंवरकाणिज्ञाचि नावत्यो । ..
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अयं श्री संघपट्टका
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अर्थः-आचार्यादिक ग्लान होय तो पण तेणे धर्म व्याख्यान अवश्य करवं, ए प्रकारे आगममां पण कडं . ते आगम वचन आ प्रकारे जे जे
टीकाः-श्रुतनिकषविदः आगमरहस्यनिपुणाः ॥ एतेन गीतार्थतया धर्मकथाधिकारित्वमाह ॥ अगीतार्थस्य तदयोगात्
॥ यदाह ।। कुसुमयसुईणमहणो वि विबोहर्ज नवियपुमरीयाणं ॥ धम्मोजिणपन्नतो, पकप्पजश्ण कहेयवो ॥
अर्थः----आगमनुं रहस्य जाणवामां अति माह्या, ए कडं तेणे करीने एमने विषे गीतार्थपणुं ए हेतु माटे धर्म कथान अधिकारपणं जे एम कहे, अने जे गीतार्थ नथी ते धर्म कथाना अधीकारी नथी.
टीकाः-एवं विधा अपि स्वयं क्रियाशिथिला नविष्यतीत्यत शाह ॥देत्रकालाद्यपेतं अस्मिन् केत्रे अमुस्मिन् काले आदि शब्दाचरीरबलादिग्रहःएवं विधे च बले सति विधीयमानमेतदनुष्टानमस्माकमात्मसंयमशरीरयोरवाधकं नवोष्यतीति देश समयबलानुसार्यनुष्टानं विहारक्रमादिक्रियाकांमं येषांते तथा
अर्थः-ए प्रकारना डे तो पण पोते सुविहित साधु क्रिया शिथिल हशे, एवी शंकानो नाश करतासता.कहे जे, या क्षेत्रने विपे श्रा काळने विष आदि शब्दवमे शरीर बळादिकर्नु पण ग्रहण कर एटले आ प्रकार वळवते करवा मांगे, आपणुं अनुष्टान
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8. अथ श्री संघपटक
आत्म संयम शरीरने बाधक नही करे, ए प्रकारे देश समय बळने अनुसरतुं जे अनुष्टान एटले विहार क्रमादिक्रियाकांम ते जेमने
बे एवा.
टीका--तथा अनेन पदयेन ज्ञान क्रियानयानुगामित्वं तेषां निवेदितं ।। तत्प्रधानत्वादीक्षायाः केवलयोरनिष्टफलत्वा. निधानेन समुदितयोरेव तयोः पंग्बंधयोरिवेष्टफलसाधकतया तै
रिष्टत्वात् ।।
॥ यदाद ॥ हयं नाणं कियाहीणं या अन्नाण क्रिया ।। पासंतो पंगुलो दह्रो धावमाणो य अंधन ॥
अर्थ----वळी ते सुविहित साधुने आ बे पदवमे ज्ञान क्रि. याने अनुसरवापणुं एम देखामयं केमजे दिवाने ज्ञान क्रियान प्रधानपणुं ने ए हेतु माटे, एकतुं ज्ञान अने एकली क्रीया अनिष्ट फल कडं ने भाटे ए बे एकगं होय त्यारेज पांगलो ने अंध ए बेनी पेठे इष्ट फलनुं साधकपणुं तेमणे मान्यु जे. ते वात शास्त्रमा कही बे, जे क्रिया विनानुं ज्ञान ते होन . अने ज्ञान विनानी क्रिया लेते हीरा ने जेम पांगळो वनमा दावानलने देखतो हतो तो पण दग्ध थयो अने आंधळो दोमतो हतो तो पण दग्ध थयो तेम एकढुं ज्ञान अथवा एकली क्रिया ते ए प्रकारनुं .
टीका:-संजोगसिद्धीए फलं वयंति,नहु एगचकेण रहो पयाशाअंधो य पंगू य वणे समिचा ते संपउत्ता नगरं पविठा।
अर्थ:--माटे बेना संयोगमां सिकि फल रथु बे, एम
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अथ श्री संघपट्टक
मोटा पुरुष कहे जे. एक चक्रवके रथ चाली शकतो नथी. आंधळो ने पांगळो वनमा एकता मळ्या तो नगरमां पेग तेम ज्ञान क्रिया ए बे एकने विषे होय तो सिच थाय, ते उपर ए अंधपंगू न्याय जाणवो. आंधळा उपर पांगळो बेगे त्यारे बांधळाना पग ने पांगळानी आंखो ए बे एक मन्यां तो दावानळथी उगरी नगरमां सुखे पेग.
टीका:-एवंरूपा अपि कुतोपि कदाग्रहगरलोद्गारादुत्सूत्रं प्रज्ञापयोष्यंतीत्यत आह ॥ शुद्धमार्गप्रकटनपटवः ॥ यथार्थश्रुतपथप्रकाशनचतुराः ॥ अणीयसोप्युत्सूत्रपदस्य दारुणं विपाकं विदंतः कथमपि ते तन्न वदंतीत्यर्थः
अर्थः-ए प्रकारना ते सुविहित साधु ले तोपण क्यारेक कदारहरूपी फेरना उनकारथी उत्सूत्र प्ररूपता दशे एवो आशंका करी तेनो उत्तर विशेषणद्वारा कहे . जे, ते सुविहित साधु केवा जे? तो यथार्थ सिद्धांतना मार्गनो प्रकाश करवामां चतुर ,अतिशे थोडं पण उत्सूत्र पदनुं जाषण थाय तो तेनो दारुण विपाक ने एम जाणे ने माटे को प्रकारे पण ते उत्सूत्रने नथो बोलता ए. टखो अर्थ बे.
टीका:-अतएव कथंचित् कर्मदोषाचरण करवालसेनापि शुद्ध एव मार्गः प्ररूपणीयः ।।
॥ यमुक्तं ॥ हुज्ज हु वसपप्पत्तो, रशीरदुवलया असम्मत्थो । चरणकरणे असुझोसुझं समां पर विज्जा ॥
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(१५८)
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अय श्री संघपट्टका
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अर्थः-एज हेतु माटे कोइ प्रकारना कर्म दोषयी चरण करणमा बालसु हाय तेणे पण शुरू मार्गनीज प्ररूपणा करवी, ते वात शास्त्रों कहीजे.
टीका:-तथाविधस्यापि शुद्धपथप्ररूपणात् प्रेत्य बोधिप्राप्त्या कचित्संसारपारावार निस्तारात् ॥ अशुपथप्ररूपकस्य पुष्करक्रियाकारिणोप्यमुत्र बोधिहत्यानंतनवनिर्वनैनात् ॥श्रतएव ताहशस्य दर्शनमात्रमपि श्रुते निवारितं ।।
अर्थः तेवो ये तोपण, एटले क्रियात्रष्ट डे तोपण शुद्ध मार्गनो प्ररूपक डे, ए हेतु माटे मरण पाम्या पठी समकीत पामीने को प्रकारे संसार समुजनो निस्तार करशे, अने अशुद्ध मार्गनो प्ररूपक डे, ने ते जो पुष्कर एटले अति आकरी क्रियानो करनार के तो पण परलोकमां, समकीत नाशथवाथी अनंता नव ज्रमण करशे ए हेतु माटे, तेवानुं दर्शन मात्र पण सिद्धांतमा निवारण कयु जे.
'टीका:-॥ यदाद ॥
उमग्गदेसणाए, चरणं नासिति जिगवरिंदाणं॥ वावन्नदसणा खलु, नहुलप्ता तारिसा दटुं॥
श्रतः शुक्रपथमेव ते प्रथयंतिाएत एव प्रास्तमिथ्याप्रवादाः स्वपके निराकृतोत्सूत्रोच्चावचवक्तव्यताः परपकेतु निरस्तप्रावा कुकमताः॥ बंद्या यथाई प्रादशावर्त्तवंदनादिनाप्रणमनीयाः ॥
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- अथ श्री संघपष्टक
(१५९) सत्साधवः सुविहितयतयः ॥ अस्मिन् जिनशासने दुष्यमाकाले वा॥
अर्थः-ए हेतु माटे शुद्ध मार्गने ते सुविहित साधु जे ते विस्तार पमानशे, माटे ते केवा ले ? तो नाश कर्या ने मिथ्यात्वना खोटा वाद ते जेमणे एवा एटले पोताना पक्षमा उत्सूत्र संबंधी कांश पण नाषण ते जेमणे निवारण कयुं बे एवा, अने परपक्षमा एटले अन्य दर्शनीमां ते ते दर्शन संबंधी प्रवाद एटले विपरीत वाद, तेजेमणे खमन कर्या बे एवा समर्थ, वंदन करवायोग्य, एटले जेम घटे तेम बादशावर्त वंदनादिकवमे नमस्कार करवा योग्य एवा श्रा जिनशासनने विषे अथवा कुषमा काळने विषे सुविहित यति व जे.
टीकाः-॥ यजुक्तं ॥ ते य बलकालदेसाणु सारिपालियविहारपरिहारा । इसिसदोसत्ते विहु, नत्तीबहुमाण मरिहंति ॥ नियमो अव्याद्यनिग्रहः शमः कषायनिग्रहः दम इंघियवशीकारः औचित्यं सर्वत्र योग्यतानुसारेण विनयादिप्रयोकत्वं, गांनीर्यमलदयपदैन्यादिविकारत्वं ॥
अर्थः-वळी नियम कहेतां अव्यादि अनिग्रह तथा क. पायनिग्रह तथा इंजियोनुं वश करवु तथा सर्व जगाए योग्यपणाने अनुसारे विनयादिकतुं करवापणुं तथा हर्ष तथा दीनतादिकना विकारतुं न जणावापपुं.
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अय भी सब पटका
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- टीकाः- यमुक्तं ॥
यस्य प्रजावादाकाराः, क्रोधहर्षजयादिषु ॥ नावेषु नोपलक्ष्यते, तद्गांनीर्यमुदाहृतम् ।।
अर्थः-तेज गंजीरपणुं तेनुं लक्षण शास्त्रमा कडं ले जे क्रोध तथा हर्ष तथा लय इत्यादि जाव प्रगट थये उते जे गंजीरपणाना प्रस्तावथी आकार 1ळख्यामां न आवे तेनुं नाम गंजीरपणुं कहुं .
टीकाः-धैर्य विपत्स्वपिचेतसोऽवैलव्या स्थैर्य विमृश्यकार्य कारित्वं । औदार्य विनेयादीनामध्यापनादिषु विपुलाशयता।श्रार्यचर्या सत्पुरुषक्रमवृत्तिता । विनयो गुर्वादिष्वत्युत्थानादिप्रतिपत्तिः। नयो लोकलोकोत्तराविरुद्धवर्तित्वं । दया दुस्थितादिदर्शनातिःकरणत्वं । दादयं धर्मक्रियास्वनालस्यं । दाक्षिण्यं सरल चित्तता।ततो इंछः एनिर्गुणैः पुण्या पवित्रा मनोझा वासाधवो वंदनास्तीति वृत्तार्थः ॥ ३ ॥
अर्थः-तथा विपत्तिने विषे पण चित्तर्नु अविकलपj तथा विचारीने कार्यनुं करवापर्यु तथा शिष्यादिकने जणाववादि. कने विषे विशाळ आशयपणुं तथा सत्पुरुषनी रीते वर्तवापj तथा गुर्वादिकने विषे सन्मुख नगरी नहुँ थq इत्यादि विनय कर वापणं तथा लोक लोकोत्तरने अविरुफ वर्तवापणुं तथा कोश्नी दु. दशादिक देखोने कोमळ अंतःकरणरणुं तथा धर्मक्रियाने विषे माळस रहितपणुं तथा सरळ चित्तपणुं, एटला गुणवके पवित्र श.
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. अथ श्री संघपट्टका
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थवा सुंदर एवा साधु जे ते वंदनादिक करवा योग्य , ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ थयो. ॥ ३ ॥
टीका:- ॥ सांप्रतं प्रकरणकारः प्रकरणं समाप्नुवन्निष्ट देवतास्तवबद्मनाऽवसानमंगलं सूचयंश्चक्रबंधेन स्वनामधेयमाविर्विनावयिषुराद ॥
अर्थ:-हवे प्रकरणना कर्ता पुरुष प्रकरणने समाप्त करता बता इष्टदेवनी स्तुतिना मिषथी नेहा मंगलाचरणनो सूचना करता उता चक्रबंध काव्ये करीने पोतानुं नाम प्रगट करता बता कहे बे.
॥ मूल काव्यम् ॥ विज्राजिष्णुमगर्वमस्मरमनाशादं श्रुतोल्लंघने । सद्ज्ञानामणिं जिनं वरवपुः श्रीचंश्किानेश्वरम्॥ वंदे वर्ण्यमनेकधा सुरनरैः शक्रेण चैनश्चिदं। दंनारिं विषां सदा सुवचसानेकांतरंगप्रदम् ॥ ३८॥
टीका:- जिनं वंदे इति संबंधः॥ विघ्राजिष्णुं विजुवना तिशायिचतुस्त्रिंशदतिशयवत्वेनात्यंतं शोनमानं ॥अगर्व नलिताहंकारं ॥ अस्मरं मथितमन्मथं ।। श्रुतोवंधने सिंघांताझा तिकमे अनाशादं आशां मनारथं ददाति पूरयति आशादः न श्राशादोऽनाशादस्तं श्रुताज्ञातिक्रमकारिणः पुंसो नानुमंतारमित्यर्थः॥
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(६६२)
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अथ श्री संघपट्टका
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अर्थः--जनराजने वंदन करु लु ए प्रकारनो संबंध जे ते जिनराज केवा बे ? तो त्रण जगतने अतिक्रमण करे एवा चोत्रीश अतिशय तेणे करीने असंत शोलायमान एवा अने नाश कर्यो ने अहंकार जेमणे एवा, नथी काम ते जेमने एवा, अने सिमांतनी आज्ञा अतिक्रमण करनारनो आशाने न पूरनार एटले सिद्धांतनी आज्ञाने न माननार पुरुषनी न अनुमोदना करनार एटलो अर्थ.
टीकाः-सद्ज्ञानामणि सद्ज्ञानेन केवलझानेन लोका लोकावनासकत्वाद् नास्वंतं जिनं तीर्थंकरं ॥ तथा ॥ सब सुरा जश्रूवं, अंगुठपमाणयं विनविज्जा जिणा पायंगुरूपदेन सोहए तंजदिंगालो॥
अर्थः-वळी जिनराज केवाने तो केवलज्ञाने करीने देदीप्यमान, केमजे लोक तथा अलोकने प्रगट कही देखामनार बे, ए हेतु माटे वळी॥
टीका:-इत्यादिवचनेन वरा सर्वांगसुलगा वपुःश्रीः शरीरकांतिः सैव चंजिका जगतोजनप्रमोददायित्वात्कौमुदी तयानेश्वरं नक्षत्रनाथ चंडिकया चंडवघ्युः श्रिया स्त्रीजगदाह्लादकमित्यर्थः वंदे स्तुवे ॥
अर्थः-इत्यादिक वचने करीने सर्वांग सुंदर एवी शरी. रनी शोजा एज चंडिका एटले चंद्रकांति जगत् जनने हर्ष उत्पन्न करनार ले ए हेतु माटे, ते शरीरनी कांति चंडसमान एटले चंषमा पोतानी कांतिवमे जेम लोकोने आनंद करे , तेम जिनराज. पो.
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अर्थ श्री संघपटक
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तानी शरीरनी शोनावमेत्रण जगतने आनंद करनार डे एटलो अर्थ . ते जिनराजने ग्रंथ को कहे जे हुं वंदन करुडं.
टीकाः--वयं स्तुत्यं अनेकधा बहुधा असुरनरैः दानवमानवैः शक्रेण मघो नाचः समुच्चये ॥ एनछिदं कल्मषसर्व कषं ॥ दनारिं शाव्यनिष्टापकं विदुषां विपश्चित्तां सदा सर्वदा सुवचसा मधुरगिरा ॥ अनेकांतरंगप्रदं किल जैनदर्शने त्रैलो. ' क्यवर्ति सकलं वस्तुजातं सदसन्नित्यानित्यादिरूपतयाऽनेकांतात्मकमन्युपगम्यते.
अर्थः-वळी जिनराज केवा ? तो अनेक प्रकारे असर तथा मनुष्य तथा ईस, तेमणे स्तुति करवा योग्य एवा चकारनो समुच्चय रूपी अर्थ बे, वळी ते जिनराज केवा जे? तो सर्व पापना नाश करनारा ने अने बळी शठपणाने नाश करनारा , वळी विद्यानने निरंतर मधुर वाणीए करीने अनेकांत मत रूपी रंगने आपनारा , जिनदर्शनने विषेत्रण लोकमां रहेली सर्व वस्तुना समूहने नित्यपणुं तथा अनित्यपणुं इत्यादि अनेकांतरूपपणे वस्तु खरूपने अंगीकार करनारा ले.
टीका:-तथैव प्रमाणोपपन्नत्वात् नतु परतीथिकवत्सदेवासदेव वा ॥ नित्यमेवाऽनित्यमेव वेत्यादिरुपतयैकांतात्मकं ॥ तस्य विचारासहत्वाताततोऽनेकांतेऽनेकांतात्मकवस्तुवादे रंगमनुरागंप्रदत्ते नत्पादयति यःस तथा तं॥अनेकांतवाद्नोत्युत्पादक
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(३
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• अय श्री संघपट्टका
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तर्क शर्करा रसस्यंदिन्या वाचा तया जगवान ने तबादं व्यु. त्पादयति यथा विधांसः शेषदर्शनत्यागेन तत्रैव रज्यत इत्यर्थः
अर्थः केम जे तेमज प्रमाण पणे सहित ने ए हेतु माटे पण अन्यदर्शनीनी पेठे सत् अथवा असत् अथवा नित्य अथवा अनित्य इत्यादि एकज स्वरूप वस्तुहुँ एम एकांतरूपपणुं जैन दर्शनमां नथी केमजे विचार करता तेनुं प्रमाणपणुं नयी थतुं. ते माटे अनेक रूप वस्तुना वादने विषे अनुरागने उत्पन्न करनार एटले अनेकांत वादने विषे प्रीति उत्पन्न करनार तकरूपी साकरना रसने करनारी वाणीवके लगवान् अनेकांत वादने व्युत्पन्न करे ले जे प्रकारे विधान पुरुषो समस्त दर्शननो त्याग करीने ते अनेकांत वादने विषेज राजो थाय ने एटलो अर्थ ॥
टोका:-चक्रमिदंचक्रबंधःमाघसमं याश्या वर्णन्यासपरिपाट्या माधकाव्यस्थचक्र तथा माघकाव्यमिदंशिशुपालवध इत्येवं रूपो नाम निबंधः प्रादुर्भवति ।।हापि तादृश्ये वेति माघसमतीर्थः॥
अर्थः-आ चक्र बंध काव्य बे. ते माघ काव्यना जेतुं , जे प्रकारे अक्षर स्थापन करवानी परिपाटी माघकाव्यना चक्रवंधि श्लोकमां ते प्रकारे अही पण . शिशुपाल वध नामनो जे ग्रंथ
तेने माघकाव्य कहे , तेना जेवो चक्रबंध माटे माघ समान एवो अर्थ थयो।
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अथ श्री संघपटक
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टीकाः-॥ तथाहि ॥ प्रथमावलयाकाराणि शांतराणि त्रीणिरेखायुगलानि व्यवस्थाप्यते ॥तेषांच त्रीएयंतरालानिजवं. ति॥ ततः सर्वांतरनानिर्वृत्ताकारासंस्थाप्यते॥ तस्याश्चषट्सुदि। कुद्धाच्या बुद्धाच्यां रेखान्यांषरकाअंत्यवलयांत्यारेखांयावत् ।। एवमेतत् षमकंचक्रनवति ॥
अर्थः-तेज देखा जे प्रथम वलयने आकारे एटले गोलाकार अंतर सहित त्रण रेखा जुगल स्थापन करवां एमनां त्रण अंत्रराल थाय. त्यार पड़ी ते सर्वनी वच्चे नानी गोळ आकारनी स्थापन करवी, तेनी व दिशाने विषेबे बे रेखावमे उ.श्रारान करवी, बेदा वलय अने बेबी रेखा सुधी, ए प्रकारे करे बते बा. रानुं चक्र थाय .
टीका:-ततएकस्य कस्यचिदरकस्यांतर्गतांत्यवलयांतरालेवृतस्य प्रथमाकरं लिख्यते ततोऽधस्ताहितीयमकरं ॥ तस्या धस्तान मध्य वलयांतरे तृतीयं ।।ततो धस्ताच्चतुर्थ पंचमे ततो धस्तादायवलयांतरालेषष्टं।
अर्थः-त्यार पनी कोश्क एक श्रारानी अंतर्गत वलयनी बच्चे प्रथम अक्षर लखवो त्यार पड़ी तेनी नीचे बीजो अक्षर खखवो तेनी नीचे मध्यम वलयानी वच्चे त्रीजो अक्षर लखवो त्यार पड़ी नीचे चोथो पांचमो अदर लखवो. त्यार पडी नीचला वलयनी बच्चे को अक्षर लखवो.
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(६६६)
8. अथ श्री संघपटक
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टीका:-ततोधस्तात् सप्तमाष्टमनवमानि ॥ ततोनानींदशमं ॥तत प्रथमारक सन्मुखारकादावेकादशवादश त्रयोदशा'नि ॥ ततस्तदुपरिष्टादाद्यवलयांतरालेचतुर्दशं ॥ ततस्तदुपरि पंचदशोऽशे ॥ ततस्तापरिमध्यवलयांतरासप्तदशं ॥ तदुप. रिष्टादष्टादशं ॥ ततजपरिष्वादत्यवलयांतरालेएकोनवीशं । एवं वृत्तस्य प्रथमपादोरकछये समाप्यते ॥ एवमनेनक्रमेण द्वितीयवृतीयपादावण्यवशिष्टारकचतुष्टय इति ॥ नारदरं त्रिरावत्यते ॥ततस्तृतीयपादस्यात्यादरं चतुर्थपादाद्याक्षरतयापुनरावारकशून्यांत्यवलयांतरे चतुर्थपादस्यद्वितीयतृतीयेदरे व्यवस्थाप्यते । तदनंतरंप्रथमारकांतः स्ववृत्तप्रथमाकरंचतुर्थपादा. स्यतुर्याकरतयावय॑तत्पुरतारकशून्यांतवलयांतरे पंचमषष्टे अकरे लिख्यते ॥ अनेनक्रमेण तावन्नेयं यावतृतीयपादस्यांत्यावरं तञ्चतृतीयवारमावृत्तंचतुर्थपादस्यांत्याक्षरतयाज्ञातव्यं ॥ इहचनामबंधमत पुनरावृत्तवर्णानुस्वारा यथो संजवं तधगपंचमतयाग्रिमवणेषुयोज्याः॥ अत्र जिनवानेनगणिने दंचक्रेशतिनामबंधः ॥ स्थापनाचेयं ॥ एतच्चैवं चक्राकर न्यासस्वरुपं व्यक्त मपिमुग्ध बोधनाय किंचिद्दर्शित मितिवृतार्थः ॥ ३०॥
अर्थ:--इत्यादि चक्रबंधी चित्रमा अक्षर लखवानी रीत जाणवी. या काव्यमां जिनवडनगणीए आ ग्रंथ रच्यो बे एप्र. कारे नाम बंध , तेनो स्थापना लख्या प्रमाणे . आ चक्राकरतुं स्वरुप प्रगट ले तोपण बाळजीवना बोध सारु कांक देखामयु ले ए प्रकारे आ काव्यनो अर्थ भयो ।। ३०॥
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अथ श्री संघपट्टका
(६६७)
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टीकाः-एवंचानेन प्रकरेणन सप्रपंचं मिथ्यापथस्वरुपे प्रकटिते प्रन्नु श्री जिनवबन्नसूरयः किमित्येवं प्रकष्टकृत्यालिगिनो जवन्निइंषिता इति केनाप्युपालशास्तस्यच प्रति वचनं तस्मैवदामाणवृत्त दयेनोपन्यस्तं अतस्तदपि पातित्वा प्रकृतानु दत्रैव प्रकरणांतरे निवडं ॥ तदिदानी व्याख्यायत इत्याह ।
अर्थः-ए प्रकारे आ प्रकरणे करीने प्रपंच सहित मिथ्यामार्गनुं स्वरुप प्रगट करे बते एटले समर्थ श्री जिन वद्वजसूरी जे ते शा वास्ते पृकष्ट वृत्तिये करीने लिंगधारीने दोषवाळा करे, एम कोश्के उलंनो आप्यो त्यारे तेनो उत्तर श्रागळ कहीशुं एवां बे काव्यो वसे कह्यो माटे ते पण आ चालता प्रकरणने उपयोगी
माटे वीजा प्रकरणमां कहेलां वे काव्य तेने या प्रकरणमा हवे कहे .
॥ मूल काव्यम्॥ जिनपतिमत उर्गे कालतः साधु वेषै। विषयि निरनि भूते जस्मक म्लेच्छ सैन्यैः ।। स्व वशजम जनानां शेखलेवस्वगच्छे । स्थितिरिय मधुनातैर प्रथि स्वार्थ सिध्यै ॥३॥
टीका:--जिनपतिमतमेव नगवचाशनमेव मिथ्यात्वादि वैरिवार रक्षा क्षमत्वाहक मूलत्वेनप्रति परदास्यत्वा उन्नति ..
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(१६)
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मत्वेन पुरारोहत्त्वाच्चऽर्गप्राकारस्तस्मिन् अनिलूते उपझुते विमंबित इत्यर्थः ॥ साधु वेषै लिगिन्तिः
अर्थ:-नगवतनुं शासन ने तेज मिथ्यात्वादि वैरीनासमूहथी रक्षा करवा समर्थ डे ए हेतु माटे, तथा व मूल माटे शत्रु मात्र कय करवा समर्थ नथी थता ए हेतु माटे उन्नतिवाळो ने माटे दुःखे थारोहण करवा योग्य , एवो जे जिनमत रूपी पुर्ग एटले किटलो ते लिंगधारीए परालव करे बते एटले विनं. बना पमामे बते एटलो अर्थ ने.
टीका:---जस्मकोजस्मराशिग्रहः स एवाईवासन रतानां नानाविध बाधा विधायित्वात् म्लेचस्तु रुष्कवाधिपस्तस्य सैन्यास्त दनुवर्ति चेष्टितत्वात सैनिकास्तै विषियिन्तिः कामुकैः द्वितीयपके वशीकृत बाह्यदेशेः अथ कथमेवं विधस्यापि जिनमत पुर्गस्य विषयिनीरपि लिंगिनिराजिन्नव इत्यतआह ॥
अर्थः-स्मराशीनामाग्रह एज अरिहंतना शासनमां आशक्त पुरुषोने नाना प्रकारनी पीमाना करनार बे, माटे म्लेड जेवो , तेनी सेनामा रहेनारा एटले नस्मगृहरूप म्लेड राजाने अनुसरी रहेनारा, एवा अने विषय बुब्ध एवा लिंगधारीए जि. नमत रुपी पुगेनो परानव कौँ हवे म्लेच राज पक्ष एम अर्थडे जे, वश कर्या ने बाह्यदेश जेमणे एवा जेनी सेनाना लोक बे एवं म्खेड राज ने हवे आ प्रकारनो जिनेश्वर लगवंतना मतरूपी मोटो
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अथ श्री संघपट्टका
(६९)
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किलो, ते विषयि एवा पण लिंगधारीए केम परानव कयों तेनो उत्तर कहे .
टीका:-कालतो सुषमा समय दोषात् अनिनुयं तेहि कालवशान्महातेजस्विनोपि ॥
॥ यमुक्तं ॥ समाईतं यस्य करै विसपि निस्त मोदिगंतेष्विपिना वतिष्टते॥ सएष सूर्यस्तमसानिनूयते स्पृशंति किं कालवशेननापदः ।
अर्थः-जे फुःखमा काळ दोषयी परानव श्राय डे महा तेजस्वी पण काळवशथी पराजव पामे ते कडं जे, जेना विस्ता.
वंत किरणवमे अंधकार दिशाउँमां पण रहेवा समर्थ नथी थतुं ते आ सूर्य काळे करीने अंधकारवके परानव पामे , केमजे तेजस्वीने पण काळवशे करीने आपत्ति शुं नथी स्पर्श करती? एटले शुं आपत्काळ नथी आवतो. आवेज डे.
टीकाः-॥ ततश्च स्ववशजमजनानांसम्यक्त्वाधारो पण व्याजेनात्मायनीकृत मुग्ध लोकानां स्वगह स्थितिः एते वयं संप्रदायागता युष्माकं गुरवस्तस्मात्कदाचिदपिन् मोक्तव्या इ. त्यादिका प्राक् प्रतिपादितानिजगढ मुखाश्यएषाअधुनाइदानीं तनैः साधुवेषेः ॥ अप्रथिसर्वत्रैक मत्येन अतानि ॥
अर्थः ते माटे पोताने वश एवा जमलोकने समकितादि
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(१७०)
9. अथ श्री संघपट्टकः
आरोपण करवाना मिषथी पोताने आधीन कर्या एवा जे गोळा लोक तेमने पोताना गबनी स्थिति एटले आ अमो परंपरागतनुं तमारा गुरु बीए माटे क्यारे पण न मूकवा इत्यादि पूर्वे प्रतिपादन करी एवो जे पोताना गबनी मुसा ते हालना साधु वेषधारोए विस्तारी एटले सर्व जगाए एकमत करी विस्तार पमामी डे.
टीका:-॥ खार्थ सिद्धयैकथमस्माकमेवैते नोग्यानविष्यं तीतिनिजकार्य निष्पत्तये ॥ अत्रार्थेऽनुरुपनुपमानमाह ॥ श्रृंख लेव निगमश्व ॥ एतमुक्तं जवति ॥ यथाम्लेडसैन्याः कस्मिश्चिदपिउर्गे स्वजुजबलेन गृहीतेऽविणाद्यर्थं तदंतर्त्तिनागरिकलोक संयमनाश्रृंखलां प्रसारयति ॥ तथैतेपिलिंगनः स्वोपनोगार्थ मुग्धजन नियमनातगह स्थिति प्रथयमासुरितिवृतार्थ ॥ ३ए॥
अर्थ:--॥ पोताना स्वार्थनी सिद्धिने अर्थे एटले श्राजोळा लोक आपणेज जोगववा योग्य केम करीए तो थाय ? ए वीचारी गब स्थिति विस्तारी ए जगाए घटनु नपमान कहे , जे बेमी. उना जेवी गुल मुजा , ते कडुंडे जे जेम म्लेखनी सेनाना योद्धा कोइ पुगजूमि एटले विकट स्थान पोताना नूजबळवमे ग्रहण करे बते अव्यादिकने अर्थे तेमां रहेला नगरना लोकने बांधवा सारु शंखला विस्तारे ने तेम आलिंगधारीयो पोताना उपनोगने लोळा लोकने बांधवा सारु गब स्थितिनने विस्तारे था प्रकारे श्रा काव्यनो अर्थ पूरो थयो ॥ ३ए ॥
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19. अथ श्री संघपट्टका
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(६७१)
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टीकाः ॥ ननुयदितेगब स्थिति सर्वत्र विस्तार यामासुरेतावतापिकिमित्यताह॥
अर्थः-आशंका करे ले जे जो ते लिंगधारी सर्व जगाए पोताना गबनी स्थितिउने विस्तारे जे तेणे करीने शुं थयुंए जगाए तेनो उत्तर कहे .
॥ मूल काव्यम्॥ संप्रत्य प्रति मे कुसंघव पुषि प्रोज्जूंनिते नस्मक म्लेबा तुच्छबले दूरंत दशमाश्चर्ये च विस्फूर्जति॥ प्रौढी जग्मुषि मोहराज कटके लोकैस्तदाझापरै रेकीनुय सदागमस्य कथया पीच्छं कदामहे ॥४॥
टीकाः-मोहराजकटकेप्रौढिजग्मु पिलोकैर्वयंकदर्थ्यामहइति संबंध ॥ संप्रत्यधुता प्रोज्जूजिते अज्युदिते नस्मकम्लेबातुबबले ।। जस्मराशितुरुष्कवाधिप सारसैन्येअप्रतिमे तेज स्वितयाऽनन्य साधारणे ॥
अर्थः-मोहराजनुं लश्कर मोटी उन्नति पामे ते लोकवमे अमो कदर्थना करीए बीए एम संबंध बे, आ काळमां नस्मक ग्रहरूपि म्लेच राजा तेनुं मोटुं सैन्य डे, जेना तेजस्वीपणानी वी. जाने जपमा नथी माटे असाधारण के.
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अथ श्री संघपट्टका
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टीकाः-कुसंघ एवप्राक्वर्णितनिर्गुण साध्वादि समुदाय एववपुः शरोर स्वरुपं यस्यतत्तथा ॥ तस्मिन् नस्मक म्लेजस्य हिः संघएवं स्वसैन्यं ॥ ततो यथा म्लेहोऽश्वादिसाधने नपरजनपदमनि नवति एवं जस्मकोपि प्रबल दुःसंघ बलेन जग. वहासन मालिन्योत्पादनेन तिरस्कुरुते॥
अर्थः-कुसंघ एटले पूर्व वर्णन कर्यो एवो गुण रहित साधु आदिकनो समूह एज डे स्वरुप ते जेनुं एवोनस्मक ग्रहरुपी म्लेजनुं सैन्य दुःसंघ एज डे माटे जेम म्लेच अश्व आदि साधने करोने शत्रुना देशनो परानव करे ए प्रकारे नस्मकग्रह पण बलिष्ट एवो कुसंघनो समूह तेणे करीने जगवंतना शासनने मलिनपणुं उत्पन्न करवे करीने तिरस्कार करे .
टीकाः-तथा दुरंत दशमाश्चर्ये पुष्टा संयत पूजाख्यां त्याश्चर्येचः समुच्चये विसूर्जति प्रत्नविष्णौ ॥ एवंच सति प्रौढी स्फाति जग्मुषि मोह एव मिथ्याज्ञान मेव लिंगिमात संसार मार्गस्यादि कारणत्वादति पुर्जयत्वा प्रागादि प्रजवत्वाच राजा प्रार्थिवस्तस्य कटके अनीके ।
अर्थः-वळी दुष्ट एवा असंजतिनी पूजा नामनुं दशमुं आश्चर्य प्रवलपणे प्रगट थये बते मोह राजानुं सैन्य मोटी उन्नति पाम्युं, मोह ते मिथ्याज्ञानज , ते लिंगधारीए कहेला जे संसार मार्ग तेतुं आदि कारण बे तथा अति दुःखवमे जिताय एवो ठे, तथा रागादिनुं कारण ठे, ए हेतु माटे मोह एज राजा ने तेनुं सै. न्य लिंगधारीनरूपी विस्तार पामे बते.
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-. अथ श्री संघपट्टका
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टीका:--प्रागुक्तस्य जस्मकादेः सर्वस्यापि मोहराजपरिवेदनूतत्वेन तत्कटक कल्पत्वात् ।। अयमर्थः ॥ मोहो हि दुष्टमौलराजकल्पस्तस्य च दुःसंघलक्षणचतुरंगबलकलितो लस्मको म्लेच्छाख्यमहासामंतकल्पः ॥ दशमाश्चर्य तु स्वत एवातिप्रबलत्वात्साहायांतरनिरपेक्षमेव द्वितीयमहासामंतप्रख्यं ॥
अर्थः-पूर्वे कडं जे नस्मक ग्रहादि सर्वे ते पण मोह राजार्नु उपकरणरूप ले माटे तेनो सेनाने तुल्यपणुंडे ए हेतु माटे आ अर्थ स्फुट . निश्चे मोहराजा ते दुष्ट मूल जुतराग लेते पुष्ट संघ डे लक्षण जेनुं एवं चतुरंग सैन्य सहित , जस्मग्रह डे ते म्लेच नामे महा चक्रवर्ति राजा सरखो बे, अने दशभु आश्चर्य तो पोतानी मेळेज अति प्रबल ने माटे बोजानी सहायतानी अपे. का कर्या विनाज बीजा मोटा चक्रवर्ति राजा सरीखो .
टीका:-ततो यथा कश्चिन्महाराजाधिराजो म्लेबादि म. हासमंतैमंगलं साधयति तथा अयमपि मोदराजो जस्मकादिनिर्जिनशासनमनिन्नवतीति ॥ ततो लोकैः कुसंघ जनैः तदाशापरैर्मोहराजशासनमनतिकामग्निः मूढत्वादविमश्यकारिजिरित्यर्थः एकोनूय उष्टत्वेनैकमत्यं विधाय ॥
अर्थः–ते हेतु माटे जेम कोश् महाराजाधिराज नेते म्लेबादि मोहराजावमे पृथ्वीममलने साधे २ तेम आ मोहराजा पण
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).
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अथ श्री संघ पट्टा
जस्मकादि ग्रहवमे जीनशासननो परान्नव करे ; माटे मोहराजा. नी आज्ञामा तत्पर एवा कुसंघ लोको एकता थइने एटले कुसंघ जे ते मूढ डे माटे मोहराजानी आझार्नु जवंधन करतो नथो अने अणविचायु करे ले ते सर्व पुरुषोए पोतानो एकमत करीने.
टीका:---इत्थं सकलजनप्रती तैराकोशतर्जनहीला. दिनिःप्रकारः राजवचसेन वयं कदर्थ्यामहे पीमयामहे उपह. न्यामह इत्यर्थः । केन हेतुनेत्याह ।। सदागमस्यलिंगिप्रथिन मिथ्यापथोत्पथत्वप्रतिपादकस्य शुद्धसिद्धांतस्य कथयापि धर्मदेशनाद्वारा विचारमात्रेणापि ॥ यदि हि पक्षप्रतिपक्ष परिग्रहेण" साधनदूषणोपन्यासैः प्रकृतविषये परैः सहवाद मुपक्रमामहे ॥
अर्थः-सकल लोकने प्रसिद्ध एवा निंदा तथा तिरस्कार तथा दीलनादि प्रकारे करीने तथा राज तेजवमे पीमीए बीए, शा हेतु माटे पीमीए बीए ? तेनो नत्तर कहे , जे लिंगधारीए विस्तार्यों जे मिथ्यामार्ग तेने उन्मागपणुं ने; ए प्रकारे प्रतिपादन करनार जे शुद्ध सिफांत तेनो कथाए करीने एटले धर्म देशनाछारे विचार करवा मात्रे करीने पद अने प्रतिपक्षनुं ग्रहण करी अनुमानादि प्रमाणनुं कहेवू तेणे करीने आवातमां पर साथे वाद विवाद करवानो नपक्रम करीए बीए.
टीका:--॥ तदा नविद्मस्ते किमपि कुवीरनित्यपि श.
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* अथ श्री संघपट्टका
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ब्दार्थः ॥ तथा च वयं शुद्धसिद्धांत विचारजव्यज्योऽनुजिघृक्षयोपदिशंतो नाल्पीयांसमप्युनालंजामहामः ।।
अर्थः-ते वखत ते कांश करशे एम पण नथी जाणता एम अपि शब्दनो अर्थ रह्यो बे, एटले आ अमे जे जे लिंगधारी संबंधि खमन कर्यु ते सांजळो ते विवाद करवा श्रावशे तो तेमने सिद्धांतनी साखे जवाब आपीशुं पण तेथी जय-पामता नथी.वळी शुक्रसिद्धांततना विचारने नव्य प्राणी प्रत्ये अनुग्रहनीश्चाए उपदेश करतां लगार मात्र पण लंगो पामवा योग्य श्रमो नथी.
टीकाः-॥ यमुक्तं ॥ नेत्रनिरीक्ष्य विषकंटक सर्प कीटान् ॥ सम्यग्यथा व्रजत तान् परिहृत्य सर्वान् ॥ कुज्ञान कुश्रुत कृष्टि कुमार्ग दोषान् सम्यग् ॥ विचार यत कोत्र परापवादः ॥ इति वृत्तार्थः॥
अर्थः ते वात शास्त्रमा कही ले जे, चालवू ते नेत्रे जोश विष, कांटा, सर्प, कीमा, इत्यादिनो परिहार कर सारे मार्गे चालो. कुज्ञान, कुसिकांत, कुदृष्टि, कुमार्ग ते संबंधि-सर्व दोषने सारी पेठे विचारो एम अमारूं कहेवू बे, तेमां लोकोपवाद शो ? को प्रकारनो जणातो नथी. ए प्रकारे आ हा काव्यनो अर्थ संपूर्ण थयो ॥४॥
टीका-सूरिःश्रीजिनववलोऽजनि वुधश्चांझे कुले,तेज
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(३७६)
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अथ श्री संघपट्टका
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सा संपूर्णोन्नयदेवसूरिचरणांनोजालिलीलायितः॥ चित्रं राजसजासुयस्य कृतिनां कर्णे सुधाऽर्दिनं तन्वाना विबुधैर्युरोरपि, कवेः कैर्न स्तुताः सूक्तयः ॥ १॥
अर्थ:--चंपकुलमां श्री जिनववनसूरि थया.ते केवा ? तो पंडित एवा तथा तेज प्रतापवमे संपूर्ण तथा अन्जयदेवसुरीना चरणरुपी कमळने विषे उमर लीलानुं आचरण करता एटले तेमना अंतेवासी शिष्य एवा गुरु एवा, अने कवि एवा जे जिनवबनसूरि तेमनी जे सुंदर वाणीयो ते राजसनानने विषे, पंमितोना कानने विषे अमृतवृष्टिने विस्तार करती देखाय . माटे तेनी स्तुतिकोणे नथी करी ? एटले सर्व पंमितोए तेमनी वाणी वखाणी.
टीका-॥हित्वा वाङमयपारदृश्वतिलकं यंदी प्रलोकंपृण प्रज्ञानामपिरंजयंति गुणिनां चित्राणि चेतांस्यहो॥ बुंटाक्य श्युततंअचंप्रमहसामद्याप्य विद्यामुषः कस्यान्यस्य मनोरमा सकल दिक् कूलं कषाःकीर्तयः॥२॥
. अर्थः-वळी शास्त्रना पारंगामी, पुरुषोमां तिलक समान, एवा जे जिनवबन्नसूरि तेनो त्याग करी बीजा कया कविनी संपूर्ण चंजकांतिने दूंटनारी एटले संपूर्ण चंद्रकांति समान एवी अने हजु सुधी 'पण अविद्यानो नाशं करती अने सकळ दिशामां व्याप्ती एवी सुंदर कीर्ति जे? अर्थात् एवी को गुरुनी कीर्तियो नथी, कमजे-सोकने दीपावनार अने लोकने प्रसन्न करे एवढे बुफिर्ड जे
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अथ श्री संघपट्टका
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मनी एवा गुणी पुरुषोनां पण नाना प्रकारना चित्तने रंजन करे ले ए मोटें आश्चर्य ॥२॥
टीकाः-॥ माधुर्यशार्करिताकरयारयाद्यं, पीयुषवर्षमिव तर्कगिरा किरतं ॥ विद्यानुरक्तवनिताजनितास्यलास्यं, हित्वाऽपरत्र न मेना विरुषामरस्त ॥३॥
अर्थः-मधुरतावमे साकरनी मीठाशना गर्वने काका करती एटले अति मीठी एवी तर्कवाणी व अमृतरसने ढोळताज होयने शुं ? अने सरस्वती रूप अनुरागिणी स्त्रीये नत्पन्न करीले मुखचातुर्यता ते जेनी एवा जे जिनववनसूरी तेनो त्याग करी विछान लोंकनी मन बीजे ठेकाणे न रमतां हवां ।। ३॥
टीका:-॥ जज्ञे श्रीजिनदत्तयत्यधिपतिः शिष्यस्ततस्त स्यय, सिद्धांताहि विधिपारतंत्र्यविषया जिख्यामनिख्यान्वितः।। श्रासाद्य त्रिपदीं विधुर्बलिमिव व्यध्वं वृषध्वंसनं ॥ चिछेद प्रतिपंथिनं सुमनसां व्यक्तक्रमप्रक्रमः॥४॥
अर्थः-त्यार पनी ते जिन वनसूरिना शिष्य शोजाये सहित जिनदत्तसूरी थया जे जिनदत्तसूरि विधिना पारंगामीपणारूपी जेतुं नाम ले एवी त्रिपदीने सिद्धांतथी पामीने सत्पुरुषनो शत्रुरूप, अने धर्मनाशक एवो जे उन्मार्ग तेनो प्रगटपणे पादविहार करता बता (वेदता हवा) ते नपर दृष्टांत अन्य दर्शन- कहे जे, जेम विष्णुये जन्मार्गे चालनार बलि राजानो नछेद कर्यों तेम ए
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अथ श्री संघपट्टका -
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वात अन्यदर्शनोना शास्त्रमा जे जे एक समे दैत्यनो अधिपति बलिराजा महा बळवान थयो तेणे इंजने जीती इंसासन उपरथी काढी मूक्यो, पडी ते गादी उपर बलिराजा इंऽ थयो, तेणे पोताना ईशासननी दृढताने अर्थे पोताने अर्थे पृथ्वी उपर आवी नर्मदा नदी नपर यज्ञ करवा मांमया त्यारे जगत्पालक विष्णुये ते अन्याय जोश श्रवतार लीधो पनी वामणु रूप करी ब्रह्मचारीनो वेष जे दंग कमंमलु, कौपीन, मृगचर्म, इत्यादि धारण करी कपटथी बलिराजाना यज्ञमां गया अने त्रण मगला पृथ्वी मागी, पनी पोतानुं वीराट रूप प्रगट करी के नगलांमां सर्व जगत् लरी लीधुं अने त्री भगवं बळी राजाथी न अपायुं त्यारे तेना जपर पग मूकी पाताळमां चांपी घाख्यो, अने एनी सर्वे राज्यसमृझिजने आपीने पालो शासने बेसामयो इत्यादि सविस्तर कथा वामनपुराणथी जाणवी.
टीका:-लावण्यावसथो यथा पतिरपांनो पर्वतदोन्नितः . शृंगीव द्युसदांसुवर्ण सुनगो नोचैः सुरागाश्रयः।। यः कल्प रिव अतार्पित फलो नोवत्सदापद्धवः, साम्यं यस्य तथापिशस्य यश सस्तैः कुर्वते बालिशाः॥५॥
। अर्थः-वळी ते केवा ? तो लावण्य मात्रने रदेवानुं घर रुप, जेम जलने रहेवानुं घर समुसळे तेम, तेमां पातुं विशेष जे जे समुन मंथन कर्यु त्यारे पर्वतवके समुज्ने कोन थयो । श्रने श्रा आचार्य को जगाए दोन पाम्या नथी. वळी उंचा मेरुपर्वतना जेवो सुंदर वर्ण जेमनो एवा बे, देवताने प्रसन्न करे एवो मेरुपर्वत सारा रंगनो एटले रागनो आश्रय ले अने श्रा श्राचार्य ।।
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अथ श्री संघपटक
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रागने रहेवानो आश्रय नथी एटलुं विशेष. वळी सारा पल्लव वाळो जे कल्पवृक्ष तेना जेवा, पण तेमां आटलं विशेष बे जे आ
आचार्यने कोई दिवस आपत्तिनो लव पण नत्पन्न थयो नथी, तो ! पण बाळ पुरुषो के ते, वखाणवा योग्य डे यश ते जेमनो एवा आ
आचार्य तेमनी पूर्वेकही एवी नपमान तेमने करे ॥ ५ ॥
टीकाः-तस्य श्रीजिनचंडसूरिरनवनिष्पावतं, सस्ततो धाम्नायेन वितन्वता कुवलयामोदं बुधानं दिना ॥ सर्वस्याः सुजग नविष्णुमवनेः शुक्ल द्वितीयेऽवत्केनो मंदिदृक्षवस्तनु कलमौन्मुख्यमापादिताः ॥ ६ ॥
अर्थ:-त्यार पड़ी जिनदत्तसूरिना मोटा शिष्य श्री जिनचंबसूरि थया. पंमितने आनंद पमामनार एवा, जेणे पोताना प्रनापे करीने समस्त पृथ्वीना लोकने आनंद विस्तार्यो. तथा तेनुं सारु जाग्य विस्तार्यु, तेमनी सुंदर अजवाळी या पदनी बोजना वंजमानी पेठे शिघ्रपणे जोवाने कोण पुरुषो नुत्साहवंत थया नहि ? अर्थात् सर्वे पण श्रया ॥ ६॥
टीका:--विश्वत्रयेप्यजय्य श्री मदनेकांतहृद्ययासूक्यो । वरवर्णिन्या प्रीयत-यस्य जनो नवविलासिन्या ॥ ७॥ :
अर्थः-वळी त्रय जगतमांजेने जीतवा समर्थनथी एवी अनेकांत मननी सुंदर संसारमा विलास न करतो एवी' निर्दोष गाणीवके जेणे लोक प्रसन्न कर्या बे एवा ॥ ७॥
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अथ श्री संघपटका
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टीका:---अंतःसंसदर कर्कशलसतर्कदोतव्याह्नतिसूक्प्रावामुकगर्वचर्वणचणप्रखन्मनीषाजुषः । शिष्यस्तस्य यतीश्वरो जितपतिर्जग्रंथसग्रंथधोयत्याग्यपि संघपद्ध विवृत्तिं स्पष्टानिधेयामिमान् ॥ ७ ॥
अर्थः-सजाने विषे सूर्य जेवा आकरा अने शेिजता एवा जे तर्क तेणे करीने अभ्यास करी एवी जे नक्ति तेने उत्पन्न करनार एवा जे वादि लोको तेमनो जे गर्व तेने नाश करवा समर्थ एवी देदीप्यमान जे बुद्धि तेणे सहित एवा जे जिनचंबसूरि तेमना शिष्य जिनपति नामे यतिना अधिपति थया ते निग्रंथ ले तोपण ग्रंथ एटले शास्त्र अथवा आग्रंथ तेने रचता हवा, एटले विचा करवा योग्य एवी अने प्रगटपणे जेनो अर्थ डे एवी संघपटकनी आ प्रकारनी टीकाने करता हवा ॥ ७॥
ए प्रकारे जिनवल्लनसूरिना शिष्य श्री जिनदत्तसरि तेमन शिष्य श्री जिनचंप्रसूरि तेमना शिष्य श्रीजिनपतिसूरि तेमन करेली टीका समाप्त थ.
me RUAD श्लोक बंधन ३५०० इति प्रमाणं ॥
इति संघपट्टक वृत्तिः समाप्ता॥
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