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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्राचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की प्राचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजीकृत भाषा टीका
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका
( प्रथम खण्ड )
गोम्मटसार जीवकाण्ड एवं उसकी भाषा टीका
सम्पादक : ब्र० यशपाल जैन, एम. ए.
प्रकाशक
साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग
श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट
ए-४, बापूनगर, जयपुर - ३०२०१५
प्रथम संस्करण : २२०० [ ७ मई, १६८९ अक्षय तृतीया ]
मूल्य : चालीस रुपये मात्र मुद्रक : श्री वालचन्द्र यन्त्रालय 'मानवाश्रम', जयपुर
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प्रकाशकीय
आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की प्राचार्यकल्प पण्डित प्रवर टोडरमलजी कृत भापा टीका, जो सम्यग्जान चन्द्रिका के नाम से विख्यात है, के प्रथम खण्ड का प्रकाशन करते हुए हमे हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
दिगम्बराचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती करणानुयोग के महान प्राचार्य थे । गोम्मटमार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लन्विसार, भपणासार, त्रिलोकसार तथा द्रव्यसग्रह ये महत्त्वपूर्ण कृतियाँ आपकी प्रमुख देन है । पण्डित प्रवर टोडरमलजी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड तथा लब्धिसार और क्षपणासार की भापा टीकाऐ पृथक्-पृथक् बनाई थी। चूंकि ये चारो टीकाएँ परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित तथा सहायक थी, अत सुविधा की दृष्टि मे उन्होने उक्त चारो टीकामो को मिलाकर एक ही ग्रन्थ के रूप मे प्रस्तुत कर दिया तथा इम ग्रन्थ का नामकरण उन्होने 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका किया । इस सम्बन्ध मे टोडरमलजी स्वय लिखते है
या विधि गोम्मटसार, लब्धिसार ग्रन्थनिकी,
भिन्न-भिन्न भापाटीका कीनी अर्थ गायक । इनिक परस्पर सहायकपनी देख्यो,
तातै एक कर दई हम तिनको मिलायक ।। सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका धर्यो है याकी नाम,
___ सोई होत है सफल नानानन्द उपजायकै । कलिकाल रजनीमे अर्थ को प्रकाश करे,
यातै निज काज कीजै इप्ट भाव भायक ।। इन ग्रन्थ की पीठिका के सम्बन्ध मे मोक्षमार्ग प्रकाशक को प्रस्तावना लिखते हुए दां० हरमचन्दजी भारिल्ल लिखते है
"मम्यग्जानचन्द्रिका विवेचनात्मक गद्य शैली मे लिखी गई है। प्रारंभ मे इकहत्तर पृट की पीठिका है। आज नवीन शैली से सम्पादित ग्रन्थो मे भूमिका का बड़ा महत्त्व माना जाता है। जैली के क्षेत्र मे लगभग दो सा वीस वर्ष पूर्व लिखी गई सम्यग्नानचन्द्रिका की पोठिया याधुनिक भूमिका का प्रारमिक रूप है। किन्तु भूमिका का आद्य रूप होने पर भी उममे प्रांटना पाई जानी है, उसमे हलकापन वही भी देखने को नहीं मिलता। इसके पढने से न्य या पूग हाद ग्बुल जाता है एव इस गूढ ग्रन्य के पढ़ने मे आने वाली पाठक की समस्त ठिनाल्यां दूर हो जाती है। हिन्दी आत्मकथा साहित्य मे जो महत्त्व महाकवि पण्डित बनानगीदान के 'अर्द्धकथानक' को प्राप्त है, वही महत्त्व हिन्दी भूमिका साहित्य में सम्यग्ज्ञान नन्दिरा पीठिका का है।"
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इस ग्रन्थ का प्रकाशन बड़ा ही श्रम साध्य कार्य था, चूंकि प्रकाशन के लिए समाज का दबाव भी बहुत था, अत. इसे सम्पादित करने हेतु ब्र० यशपाल जी को तैयार किया गया। उन्होने अथक परिश्रम कर इस गुरुतर भार को वहन किया, इसके लिए यह ट्रस्ट सदैव उनका ऋणी रहेगा।
पुस्तक का प्रकाशन इस विभाग के प्रभारी श्री अखिल बसल ने बखूबी सम्हाला है। अत उनका आभार मानते हुए जिन महानुभावो ने इस ग्रन्थ की कीमत कम करने मे आर्थिक सहयोग दिया है उन्हे धन्यवाद देता हूँ।
इस ट्रस्ट के विषय में तो अधिक क्या कहूँ इसकी गतिविधियो से सारा समाज परिचित है ही, तीर्थ क्षेत्रो का जीर्णोद्धार एव उनका सर्वेक्षण तो इस ट्रस्ट के माध्यम से हुआ ही है। इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है श्री टोडरमल दि० जैन सिद्धान्त महाविद्यालय जिसके माध्यम से सैकडो विद्वान जैन समाज को मिले है और निरन्तर मिल रहे है।
साहित्य प्रकाशन एव प्रचार विभाग के माध्यम से भी अनुकरणीय कार्य इस ट्रस्ट द्वारा हो रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द के पचपरमागम समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहड़ तथा पचास्तिकाय जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थो का प्रकाशन तो इस विभाग द्वारा हुमा ही है साथ ही-मोक्षशास्त्र, मोक्षमार्ग प्रकाशक, श्रावकधर्म प्रकाशक, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ज्ञान स्वभाव-ज्ञेयस्वभाव, छहढाला, समयसार-नाटक, चिद्विलास आदि का भी प्रकाशन इस विभाग ने किया है। प्रचार कार्य को भी गति देने के लिए पाच विद्वान नियुक्त किये गए है जो गॉव-गॉव जाकर विभिन्न माध्यमो से तत्त्वप्रचार मे रत है।
इस अनुपम ग्रन्थ के माध्यम से आप अपना आत्म कल्याण कर भव का अभाव करे ऐसी मगल कामना के साथ
- नेमीचन्द पाटनी
2
श्री कुन्दकुन्द कहान दि० जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित FARREDITERESTERDISTRIDE महत्त्वपूर्ण साहित्य Maraune समयसार
२००० रु. १०. श्रावकधर्म प्रकाश ५५० रु. २. प्रवचनसार
१६०० रु. ११ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ६.०० रु. । ३. नियमसार १५०० रु. १२ चिविलास
२५० । ४. अष्टपाहुड
१६०० रु १३. भक्तामर प्रवचन ४.५० ५ पचास्तिकाय सग्रह १००० रु. १४. वीतराग-विज्ञान भाग-४ । ५०० ६. मोक्षशास्त्र
२००० रु (छहढाला प्रवचन) ७ मोक्षमार्ग प्रकाशक १००० रु १५ ज्ञानस्वभाव-ज्ञेयस्वभाव १२०० रु ८. समयसार नाटक
१५०० रु. १६. युगपुरुष कानजी स्वामी ६. छहढाला Gधनत्रय प्रसधाखबत्रखत्रबधबधबखनबबलचल
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(५) मूल गाथा तो बड़े टाइप मे दी ही है, साथ ही टीका में भी जहाँ पर संस्कृत या प्राकृत के कोई सूत्र अथवा गाथा, श्लोक आदि आये है, उनको भी ब्लैक टाइप में दिया है।
(६) गाथा का विपय जहाँ भी ववलादि ग्रंयों से मिलता है, उसका उल्लेख श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास से प्रकाशित गोम्मटसार जीवकाण्ड के आधार से फुटनोट में किया है।
अनेक जगह अलौकिक गणितादि के विपय अति मूक्ष्मता के कारण से हमारे भी समझ मे नही आये है - ऐसे स्थानों पर मूल विपय यथावत ही दिया है, अपनी तरफ से अनुच्छेद भी नहीं वदले हैं।
सर्वप्रथम मैं पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के महामन्त्री श्री नेमीचन्दजी पाटनी का हार्दिक आभारी हूँ, जिन्होंने इस ग्रंय के संपादन का कार्यभार मुझे देकर ऐसे महान ग्रंथ के मूक्ष्मता से अध्ययन का मुअवसर प्रदान किया।
डॉ. हुकमचंद भारिल्ल का भी इस कार्य में पूरा सहयोग एव महत्त्वपूर्ण सुझाव तथा मार्गदर्शन मिला है, इसलिए मैं उनका भी हार्दिक आभारी हूँ।
हस्तलिखित प्रतियो से मिलान करने का कार्य अतिशय कप्टसाध्य होता है। मैं तो हस्तलिखित प्रति पढ़ने मे पूर्ण समर्थ भी नहीं था। ऐसे कार्य में शातस्वभावी स्वाध्यायप्रेमी सावर्मी भाई श्री सांभागमलजी वोहरा दूवाले, वापूनगर जयपुर का पूर्ण सहयोग रहा है । ग्रंथ के कुछ विगेप प्रकरण अनेक वार पुनः-पुन. देखने पड़ते थे, फिर भी आप आलस्य छोड़कर निरन्तर उत्साहित रहते थे। मुद्रण कार्य के समय भी आपने प्रत्येक पृष्ठ का शुद्धता की दृष्टि से अवलोकन किया है। एतदर्थ अापका जितना वन्यवाद दिया जाय, वह कम ही है। आशा है भविष्य में भी आपका सहयोग इसीप्रकार निरन्तर मिलता रहेगा। साथ ही ७० कमलावेन जयपुर, श्रीमती शीलाबाई विदिशा एव श्रीमती श्रीवती जैन दिल्ली का भी इस कार्य में सहयोग मिला है, अतः वे भी वन्यवाद की पात्र है।
गोम्मटमार जीवकाण्ड, गोम्मटयार कर्मकाण्ड तथा लघिमार-क्षपणासार के "सदृष्टि अधिकार" का प्रकाशन पृथक् ही होगा। गणित सम्बन्धी इस क्लिप्ट कार्य का भार ७० विमलाबेन ने अपने ऊपर लिया तथा शारीरिक अस्वस्थता के वावजूद भी अत्यन्त परिश्रम से पूर्ण करके मेरे इस कार्य में अभूतपूर्व योगदान दिया है, इसलिए मैं उनका भी हार्दिक ग्राभारी हूँ।
हस्तलिखित प्रतियाँ जिन मदिरी से प्राप्त हुई हैं, उनके ट्रस्टियो का भी मैं आभारी हूँ, जिन्होंने ये प्रतिग उपलव्य कराई। इस कार्य में श्री विनयकुमार पापड़ीवाल तथा सागरमलजी वज (लल्लूजी) का भी सहयोग प्राप्त हुआ है, इसलिए वे भी धन्यवाद के पात्र है।
अन्न ने उस ग्य का स्त्राच्याय करके सभी जन सर्वनता की महिमा से परिचित होकर बारे मवनस्वभाव का प्राथय लेने एवं पूर्ण कल्याण करें- यही मेरी पवित्र भावना है। प्रक्षय तृतीय
-० यशपाल जैन
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मुगावली
प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम कराने वाले दातारों की सूची १. श्रीमती विभा जैन, ध.प. श्री अरुणकुमारजी जैन मुजफ्फरनगर २००१.०० २. श्रीमती भवरीदेवी सुपुत्री स्व. श्री ताराचन्दजी गगवाल जयपुर २०००.०० ३. श्रीमती शकुतलादेवी ध प. श्री विजयप्रतापजी जैन कानपुर
१००१.०० ४. श्री के. सी. सोगानी
ब्यावर
१००१.०० ५. श्री छोटाभाई भीखाभाई मेहता
बम्बई
१००१.०० ६. श्रीमती प्यारीबाई ध प श्री माणकचन्दजी जैन
१०००.०० ७. श्रीमती किरणकुमारी जैन
चण्डीगढ
६००.०० ८. श्री दिगम्बर जैन मन्दिर
लवारण
६४१.०० ६. श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मण्डल
कानपुर
५५१.०० १०. श्री महिला मुमुक्षुमण्डल श्रीबुधु ब्याँ सिघईजी का मन्दिर सागर
५०५०० ११ श्रीमती भवरीदेवी ध प. श्री घीसालालजी छाबड़ा सीकर
५०१.०० १२. श्रीमती बसंतीदेवी ध.प. श्री हरकचन्दजी छाबड़ा । वम्बई
५०१.०० १३. श्रीमती नारायणीदेवी ध प. श्रीगुलाबचन्दजी रारा दिल्ली
५०१०० १४. श्री हुलासमलजी कासलीवाल
कलकत्ता
५०१०० १५. श्री भैयालालजी वैद
उजनेर
५०१.०० १६. श्री प्रमोदकुमार विनोदकुमारजी जैन
हस्तिनापुर ५०१.०० १७. श्री मारणकचन्द माधोसिंहजी साखला
जयपुर
५०१.०० १८. श्री चतरसेन अमीतकुमारजी जैन
रुड़की
५०१.०० १६. श्री सोहनलालजी जैन, जयपुर प्रिण्टर्स
जयपुर
५०१.०० २०. श्री इन्दरचन्दजी विजयकुमारजी कौशल
छिन्दवाडा ५०१०० २१. श्रीमती सुमित्रा जैन ध.प श्री नरेशचन्दजी जैन मुजफ्फरनगर ५०१.०० २२. श्रीमती किरण जैन ध प. श्री सुरेशचन्दजी जैन मुजफ्फरनगर ५०१०० २३. श्रीमती त्रिशला जैन ध प श्री रमेशचन्दजी जैन मुजफ्फरनगर ५०१०० २४. श्रीमती उषा जैन ध प. श्री अनिलकुमारजी जैन मुजफ्फरनगर ५०१०० २५ श्री राजेश जैन (टोनी)
मुजफ्फरनगर ५०१.०० २६ श्री राजकुमारजी कासलीवाल
तिनसुखिया ५०१.०० २७. श्रीमती धापूदेवी धप. स्व श्री केसरीमलजी सेठी नई दिल्ली ५०१०० २८. श्री अजितप्रसादजी जैन
दिल्ली
५०१.०० २६. श्री सुमेरमलजी जैन ।
तिनमुखिया ५०१.०० ३०. श्री पूनमचन्द नेमचन्द जैन
वडीत
५०१.०० ३१. श्रीमती मोतीदेवी वण्डी ध.प. स्व. श्री उग्रसेनजी वण्डी उदयपुर
الله الله الله الله
२११२२.००
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८)
५०१००
०
१०००० ५०००० ५.००.०० १००.००
०
नवाग ३२. श्री कपूरचन्द राजमल जैन एवं परिवार ३३ थी छोटेलाल सतीशचन्दजी जैन
इटावा
सायला ३४. श्रीमती रगवाई घ.प.श्री उम्मेदमलजी भण्डारी
फिरोजाबाद ३५ श्रीमती केसरदेवी धप श्री जयनारायणजी जैन ३६. श्री सुहास वसत मोहिरे ।
बेलगाव ३७ श्री वीरेन्द्रकुमार वालचन्द जैन
पारोला ३८ श्रीमती केसरदेवी वण्डी
उदयपुर ३६. श्री माणकचन्द प्रभुलालजी
कुगवट ४० श्रीमती रत्नप्रभा सुपुत्री स्व. श्री ताराचन्दजी गगवाल जयपुर ४१ श्री माणकचन्द प्रभुलालजी भगनोत
फुगवट ४२. श्री नेमीचन्दजी जैन मगरोनी वाले
शिवपुरी ४३. स्व श्रीमती कुसुमलता एव सुनद वसल स्मृति निधि हस्ते डॉ. राजेन्द्र बसल
अमलाई ४४. श्री जयन्ति भाई धनजी भाई दोशी
दादर बम्बई ४५. श्रीमती धुडीवाई खेमराज गिडिया
खैरागढ़ ४६. चौ० फूलचन्दजी जैन
वम्बई ४७. फुटकर
५००.०० ५०००० १००.०० ५.००.००
१११.००
१०१.०० १०१.०० ५७७२.००
योग ३२८२०.००
हे भव्य हो । शास्त्राभ्यास के अनेक अग है। शब्द या अर्थ का वाचन या सीखना, सिखाना, उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, वारम्वार चर्चा करना इत्यादि अनेक अग है-वहाँ जैसे वने तैसे अभ्यास करना । यदि सर्व शास्त्र का अभ्यास न बने तो इस शास्त्र मे सुगम या दुर्गम अनेक अर्थों का निरूपण है, वहाँ जिसका वने उसका अभ्यास करना । परन्तु अभ्यास मे ग्रालसी न होना ।
- प० भागचन्द जी
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विषय-सूची
* or o
१३
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका १-६८ मगलाचरण, सामान्य प्रकरण प्रथमानुयोग पक्षपाती का निराकरण चरणानुयोग पक्षपाती का निराकरण द्रव्यानुयोग पक्षपाती का निराकरण शब्दशास्त्र पक्षपाती का निराकरण अर्थ पक्षपाती का निराकरण
१२ काम भोगादि पक्षपाती का निराकरण शास्त्राभ्यास की महिमा जीवकाण्ड सवधी प्रकरण
१७-३० कर्मकाण्ड सवधी प्रकरण
३१-४० अर्थसंदृष्टी प्रकरण
४६-४७ लब्धिसार, क्षपणासार सवधी प्रकरण ४८-५५ परिकर्माष्टक सबन्धी प्रकरण ५५-६८ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा भाषा टीकाकार का मगलाचरण ६९-७५ ग्रन्थकर्ता का मगलाचरण व प्रतिज्ञा वीस प्ररूपणानो के नाम व सामान्य कथन
८१-८६ पहला अधिकार. गुणस्थान-प्ररूपणा
८६-१७६ गुणस्थान और तद् विषयक प्रौदायिक मावो का कथन
५६-६१ मिथ्यात्व का स्वरूप
६१-६५ सासादन का स्वरूप
६५-६६ सम्यग्मिथ्यात्व का स्वरूप
६६-६८ असयत का स्वरूप
६८-१०३ देशसयत का स्वरूप
१०३-१०४ प्रमत्त का स्वरूप
१०४-१३२ अप्रमत्त का स्वरूप
१३२-१५३ अपूर्वकरण का स्वरूप
१५३-१५६ अनिवृत्तिकरण का स्वरूप
१५६-१६० सूक्ष्मसांपराय का स्वरूप
१६०-१६७
उपशातकषाय का स्वरूप
१६७-१६८ क्षीणकषाय का स्वरूप
१६८ सयोगकेवली का स्वरूप
१६८-१६६ प्रयोगकेवली का स्वरूप
१६६-१७६ सिद्ध का स्वरूप
१७६-१७६ दूसरा अधिकार जीवसमास-प्ररूपणा १८०-२३४ जीवसमास का लक्षण
१८०-१९२ जीवसमास के भेद
१८३-१६१ योनि अधिकार
१६१-१९८ अवगाहना अधिकार
१९८-२३४ तीसरा अधिकार : पर्याप्ति-प्ररूपणा
२३५-२७६ अलौकिक गणित
२३५-२६८ दृष्टात द्वारा पर्याप्ति अपर्याप्ति का स्वरूप व भेद
२६८-२७० पर्याप्ति, निवृत्ति अपर्याप्ति का स्वरूप २७०-२७२ लब्धि अपर्याप्तक का स्वरूप २७२-२७६ चौथा अधिकार : प्राण-प्ररूपणा
२७७-२८० प्राण का लक्षण, भेद, उत्पत्ति की सामग्री, स्वामी तथा एकेन्द्रियादि जीवो के प्राणो का नियम
२७७-२८० पांचवा अधिकार : संज्ञा-प्ररूपरणा
२८१-२८३ सज्ञा का स्वरूप, भेद, आहारादि सज्ञा का स्वरूप तथा सज्ञामो के स्वामी २८१-२८३ छठवां अधिकार : गतिमार्गरणा-प्ररूपणा २८४-३०८ मगलाचरण और मार्गणाधिकार के वर्णन की प्रतिज्ञा
२८४ मार्गरणा शब्द की निरुक्ति का लक्षण
२५४
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२८५
दहमा के नाम मातरमार्गणा, उसका स्वरूप व संख्या २८५ - २९७
नारकादि गतिमार्गरण का स्वरूप
२६७-१००
सिद्धगति का स्वरूप
३०१
नारकी जीवो की सख्या का कथन
३०२०-३०८
सातवां अधिकार
इन्द्रिय मार्गणा प्ररूपणा
मंगलाचरण, इन्द्रिय मन्द की निरक्ति इन्द्रिय के भेद
एकेन्द्रियादि जीवो की इन्द्रिया
उनका विषय तथा क्षेत्र इन्द्रिय रहित जीवो का स्वरूप एकेन्द्रियादि जीवो की मस्या
आठवां अधिकार
काय मार्गणा - प्ररूपणा
मंगलाचरण, काय मार्गणा का स्वरूप व भेद
स्वावराय की उत्पत्ति का कारण
शरीर के भेद, लक्षण और सख्या प्रतिष्ठित, प्रतिष्ठित जीवो का
स्वरूप
साधारण वनस्पति का स्वरूप
अनकाय का प्ररूपण
पनि ग्रन्थ जीवों के प्रतिष्ठित
राय तथा मकाय जीवो के
शरीरा
३०६-३२१
नव अधिकार. योगमार्गना-प्रदपणा
[२]
सामान्य रक्षा,
विशेष
ग इसके जन्य उदाहरण
वचन
नदीमा वार
३०१-३१२
३१३-३१७
३१८ ३१६-३२१
३२२-३५२
३३६-३४० ** पृथ्वीरादि जीवो की ३४१-३५१
रु
३२२
३२३
३२४-३२०
३२८-३३० १३०-३३७
३३७-३३८
३३६
३५२-४०५
३५२-३५५
axs-axe
250
योग केवी से मनोग
सभावना
काययोग का स्वरूप व नेद
योग रहित श्रात्मा का रूप शरीर में कर्म नोकर्म का भेद प्रदारिकादि परीर के ममचद्ध
की सत्या
विमोचय का स्वरूप
श्रदारिक पाच शरीरो की
उत्कृष्ट स्थिति
ओदारिक समयश्य का स्वरप
औदारिकादि शरीर विषयक
ग्यारहवां अधिकार.
कपायमार्गरणा प्ररूपणा
२६१-३६२
३६३-३७०
३७०-३७१
३७१
विशेष कथन
३६-४००
योग मार्गगाग्रो मे जीवी की संख्या ४०१-४०%
मंगलाचरण तथा रुपाय के निरुक्तिसिद्ध लक्षण, शक्ति की अपेक्षा क्रोवादि के ४
भेद तथा दृष्टा गतियों के प्रथम समय मे शौचादि का नियम
कपाय रहित जीव बायोका स्थान
पानी का यन्त्र, कपाय की
अपेक्षा जीवनख्या
दसवां अधिकार : वेदमारणा-प्ररूपणा
४०६-४१३
तीन वेद और उनके कारण व भेद ४०६-४०८ वेद रहित जीव
वेद की प्रपेक्षा जीवो की मस्या
४०१-४१० ४१०-४१३
बारहवां अधिकार ज्ञानमासा-प्ररूपणा
BUR-BUY
२७५-३७६
३७६-१८८
३८८-३८६
४१४-४३५
ज्ञान का नियक्तिमिद्ध नामान्य लक्षण, पाच ज्ञानो का शायोमिक शाकि
रूप से विभाष, मिथ्याज्ञान का
कारण और स्वामी विज्ञान का कारण और मनपर्वम जान का स्वामी, स्प्टांत द्वारा तीन
४१४-४११ ४१६-४२०
४२१-४३०
४३०-४३५
४३६-५७१
४३६-४१८
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मिथ्याज्ञान का स्वरूप, मतिज्ञान का स्वरूप, उत्पत्ति प्रादि
४३८-४५० श्रुतज्ञान का सामान्य लक्षण, भेद । ४५०-४५३ पर्यायज्ञान, पर्यायसमास, अक्षरात्मक श्रुतज्ञान
४५३-४८१ श्रुतनिबद्ध विषय का प्रमाण, अक्षरसमास, पदज्ञान, पद के अक्षरो का प्रमाण, प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान ४८१-४८४ अनेक प्रकार के श्रुतज्ञान का विस्तृत स्वरूप, अगबाह्य श्रुत के भेद, अक्षरो का प्रमाण, अगो व पूर्वो के पदो की सख्या, श्रुतज्ञान का माहात्म्य, अवधिज्ञान के भेद,
४८४-५२१ उसके स्वामी और स्वरूप, ५२१-५३६ अवधि का द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा वर्णन, अवधि का सबसे जघन्य द्रव्य ५३७-५५४ नरकादि मे अवधि का क्षेत्र ५५४-५६० मनःपर्ययज्ञान का स्वरूप, भेद, स्वामी और उसका द्रव्य
५६०-५६८ केवलज्ञान का स्वरूप, ज्ञानमार्गरणा मे जीवसख्या
५६८-५७१ तेरहवां अधिकार: संयममार्गरणा-प्ररूपरणा ५७२-५८० सयम का स्वरूप और उसके पांच भेद, सयम, की उत्पत्ति का कारण ५७२-५७४ देश संयम और असयम का कारण, सामायिकादि ५ सयम का स्वरूप ५७४-५७७ देशविरत, इन्द्रियो के अट्ठाईस विषय, सयम की अपेक्षा जीवसख्या ५७७-५८० चौदहवां अधिकार: दर्शनमार्गणा-प्ररूपरणा ५८१-५८४ दर्शन का लक्षण, चक्षुदर्शन प्रादि ४ भेदो को क्रम से स्वरूप, दर्शन की अपेक्षा जीव सख्या
५८१-५८४ पंद्रहवां अधिकार: लेश्यामार्गणा-प्ररूपणा ५८५-६४४ लेश्या का लक्षण, लेश्यानो के निर्देश
प्रादि १६ अधिकार
५८५-५८६ निर्देश, वर्ण, परिणाम, सक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, अपेक्षा लेश्या का कथन
५८६-६१० सख्या, क्षेत्र, स्पर्श, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व अपेक्षा लेश्या का कथन
६१०-६४३ लेश्या रहित जीव
६४३-६४४ सोलहवां अधिकार : भव्यमार्गणा-प्ररूपणा ६४५-६५७ भव्य, अभव्य का स्वरूप, भव्यत्व अभव्यत्व से रहित जीव, भव्य मार्गणा मे जीवसख्या
६४५-६४६ पांच परिवर्तन
६४६-६५७ सतरहवां अधिकार : सम्यक्त्वमार्गरणा-प्ररूपरणा ६५८-७२३ सम्यक्त्व का स्वरूप, सात अधिकारो के द्वारा छह द्रव्यो के निरूपण का निर्देश
६५८-६५६ नाम, उपलक्षण, स्थिति, क्षेत्र, सख्या, स्थानस्वरूप, फलाधिकार द्वारा छह द्रव्यो का निरूपण
६५६-७०१ पचास्तिकाय, नवपदार्थ, गुणस्थान क्रम से जीवसख्या, त्रैराशिक यन्त्र ७०२-७०७ क्षपकादि की युगपत् सम्भव विशेप सख्या, सर्व सयमियो की सख्या, क्षायिक सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्व
७०-७१६ पांच लब्धि, सम्यक्त्व ग्रहण के योग्य जीव, सम्यक्त्वमार्गणा के दूसरे भेद, सम्यक्त्वमार्गणा मे जीवमरया ७१६-७२३ अठारहवां अधिकार : संज्ञीमार्गरणा-प्ररूपणा
७२४-७२५ संज्ञी, असज्ञी का स्वरूप, सज्ञी असज्ञी की परीक्षा के चिन्ह सज्ञी मार्गणा में जीवसत्या
७२५
७२४
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[ ४ ]
उन्नीसवां अधिकार: प्राहारमार्गणा-प्ररूपरणा ७२६-७२६ पाहार का स्वरूप, आहारक अनाहारक भेद, समुद्घात के भेद, समुद्घात का स्वरूप ७२६-७२७ पाहारक और अनाहारक का काल प्रमाण, आहारमार्गणा मे जीवसख्या ७२८-७२६ वीसवां अधिकार : उपयोग-प्ररूपणा
७३०-७३२ उपयोग का स्वरूप, भेद तथा उत्तर भेद, साकार अनाकार उपयोग की विशेषता उपयोगाधिकार मे जीवसंख्या ७३०-७३२ इक्कीसवां अधिकार : अन्तर्भावाधिकार
७३३-७५० गुणस्थान और मार्गणा में शेष
प्ररूपणानो का अन्तर्भाव, मार्गणाओ मे जीवसमासादि
७३३-७४२ गुणस्थानो मै जीवसमासादि मार्गणाओ मे जीवसमास
७४१-७५० वाईसवां अधिकार: पालापाधिकार
७५१-८५८ नमस्कार और आलापाधिकार के कहने की प्रतिज्ञा
७५१ गुणस्थान और मागंणामो के आलापो को सख्या, गुणस्थानों में पालाप, जीवसमास की विशेपता, वीस भेदो की योजना, आवश्यक नियम
७५१-७६६ यत्र रचना
७६७-८५५ गुणस्थानातीत सिद्धो का स्वरूप, वीस भेदो के जानने का उपाय, अन्तिम आशीर्वाद,
८५५-८५८
विषयजनित जो सुख है वह दुख ही है क्योकि विषय-सुख परनिमित्त से होता है, पूर्व और पश्चात् तुरन्त ही आकुलता सहित है और जिसके नाश होने के अनेक कारण मिलते ही हैं, आगामी नरकादि दुर्गगति प्राप्त करानेवाला है ऐसा होने पर भी वह तेरी चाह अनुसार मिलता ही नही, पूर्व पुण्य से होता है, इसलिए विषम है । जैसे खाज से पीडित पुरुप अपने अंग को कठोर वस्तु से खुजाते हैं वैसे ही इन्द्रियो से पीड़ित जीव उनको पीडा सही न जाय तव किंचितमात्र जिनमें पीडा का प्रतिकार सा भासे ऐसे जो विषयसख उनमे झपापात करते हैं, वह परमार्थ रूप सुख नहीं, और शास्त्राभ्यास करने से जो सम्यज्ञान हुआ उमसे उत्पन्न आनन्द, वह सच्चा सुख है। जिससे वह सुख स्वाधीन है, आकलना रहित है, किसी द्वारा नप्ट नही होता, मोक्ष का कारण है, विपम नही है। जिस प्रकार वाज की पीडा नही होती तो सहज ही सुखी होता, उसी प्रकार वहाँ इन्द्रिय पीड़ने के लिए समर्थ नही होती तब सहज ही सुख को प्राप्त होता है। इसलिए विपयसुख को छोड़कर गास्यान्यास करना, यदि सर्वथा न छुटे तो जितना हो सके उतना छोड़कर मान्यान्याम मे तत्पर रहना।
इसी ग्रन्थ से अनुदित, पृष्ठ - १३ व १४
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प
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प्राचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजीकृत सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका
पीठिका
॥ मंगलाचरण ॥ बंदी ज्ञानानंदकर, नेमिचन्द गुणकंद । माधव वंदित विमलपद, पुण्यपयोनिधि नंद ॥१॥ दोष दहन गुन गहन घन, अरि करि हरि अरहंत । स्वानुभूति रमनी रमन, जगनायक जयवंत ॥ २ ॥ सिद्ध सुद्ध साधित सहज, स्वरससुधारसधार । समयसार शिव सर्वगत, नमत होहु सुखकार ॥३॥ जैनी वानी विविध विधि, वरनत विश्वप्रमान ।। स्यात्पद-मुद्रित अहित-हर, करहु सकल कल्यान ॥ ४ ॥ मै नमो नगन जैन जन, ज्ञान-ध्यान धन लीन । मैन मान बिन दान घन, एन हीन तन छीन ॥५॥१ इहविधि मंगल करन तै, सबविधि मंगल होत । होत उदंगल दूरि सब, तम ज्यौ भानु उदोत ॥ ६ ॥
सामान्य प्रकरण अथ मंगलाचरण करि श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ, ताकी देशभाषामयी टीका करने का उद्यम करौ हौ। सो यह ग्रंथसमुद्र तौ ऐसा है जो सातिशय बुद्धि-बल संयुक्त जीवनि करि भी जाका अवगाहन होना दुर्लभ है । अर मैं मंदबुद्धि अर्थ प्रकाशनेरूप याकी टीका करनी विचारौ हौ।
सो यह विचार ऐसा भया जैसे कोऊ अपने मुख ते जिनेद्रदेव का सर्व गुण वर्णन किया चाहै, सो कैसे बने ?
इहां कोऊ कहै - नाहीं बने है तो उद्यम काहे को करौ हौ ?
ताको कहिये है - जैसे जिनेद्रदेव के सर्व गुण कहने की सामर्थ्य नाही, तथापि भक्त पुरुष भक्ति के वश तै अपनी बुद्धि अनुसार गुण वर्णन करै, तैसे इस ग्रंथ का संपूर्ण अर्थ प्रकाशने की सामर्थ्य नाही । तथापि अनुराग के वश ते मैं अपनी बुद्धि अनुसार ( गुण )२ अर्थ प्रकाशोंगा। १. यह चित्रालंकारयुक्त है। २. गुण शब्द घ प्रति मे मिला।
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। सामान्य प्रकरण २]
___ बहुरि कोऊ कहै कि - अनुराग है तो अपनी बुद्धि अनुसार ग्रंथाभ्यास कगे, मंदवुद्धिनि को टीका करने का अधिकारी होना युक्त नाही ।
ताकौं कहिये है - जैसे किसी शिष्यशाला विषेवहुत वालक पढे है । तिनिविर्षे कोऊ वालक, विशेष ज्ञान रहित है, तथापि अन्य वालकनि से अधिक पढ्या है, सो आपतै थोरे पढने वाले बालकनि को अपने समान ज्ञान होने के अर्थि किछ लिखि देना आदि कार्य का अधिकारी हो है । तैसे मेरे विशेष ज्ञान नाही, तथापि काल दीप ते मोते भी मंदबुद्धि है, अर होंहिगे । तिनिकै मेरे समान इस ग्रंथ का ज्ञान होने के अथि टीका करने का अधिकारी भया हो।
बहुरि कोऊ कहै कि - यह कार्य करना तो विचारचा, परन्तु जैसे छोटा मनुष्य बड़ा कार्य करना विचार, तहां उस कार्य विष चूक होई ही, तहां वह हास्य को पावै है । तैसे तुम भी मंदबुद्धि होय, इस ग्रंथ की टीका करनी विचारी ही सो चूक होइगी, तहा हास्य को पावोगे।
ताकौं कहिये है - यह तो सत्य है कि मैं मंदबुद्धि होड ऐसे महान ग्रंथ की टीका करनी विचारौ हो, सो चूक तौ होइ, परन्तु सज्जन हास्य नाही करेंगे। जैसे औरनि ते अधिक पढ़या बालक कही भूलै तव बड़े ऐसा विचार है कि वालक है, भूल ही भूल, परंतु और वालकनि ते भला है, ऐसे विचारि हास्य नाही कर है।। तैसे मैं इहां कही भूलोंगा तहां सज्जन पुरुष ऐसा विचारेंगे कि मदवुद्धि था, सौ भूल ही भूल, परंतु केतेइक अतिमदवुद्धीनि तै भला है, ऐसे विचारि हास्य न करेंगे।
सज्जन तो हास्य न करेगे, परन्तु दुर्जन तौ हास्य करेंगे ?
ताकौं कहिये है कि - दुष्ट तौ ऐसे ही है, जिनके हृदय विपै औरनि के निर्दोप भले गण भी विपरीतरूप ही भासे । सो उनका भय करि जामै अपना हित होय ऐसे कार्य को कौन न करेगा?
बहुरि कौऊ कहै कि - पूर्व ग्रंथ थे ही, तिनिका अभ्यास करने-करावने ते ही हित हो है, मंदबुद्धिनि करि ग्रंथ की टीका करने की महंतता काहेको प्रगट कीजिये?
ताकौं कहिये है कि - ग्रथ अभ्यास करने ते ग्रंथ की टीका स्वना करने विर्ष उपयोग विशेष लाग है, अर्थ भी विशेष प्रतिभास है । वहुरि अन्य जीवनि को ग्रह अभ्यास करावने का संयोग होना दुर्लभ है । अर संयोग होइ तो कोई ही जीव के अभ्यास होड । अर ग्रंथ की टीका वनै तौ परंपरा अनेक जीवनि के अर्थ का ज्ञान होड । तातै अपना अर अन्य जीवनि का विशेष हित होने के अर्थि टीका करियर महंतता का तो किछू प्रयोजन नाही ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ३ बहुरि कोऊ कहै कि इस कार्य विर्षे विशेष हित हो है सो सत्य, परंतु मंदबुद्धि तै कही भूलि करि अन्यथा अर्थ लिखिए, तहां महत् पाप उपजने तै अहित भी तो होइ ?
ताको कहिए है - यथार्थ सर्व पदार्थनि का ज्ञाता तो केवली भगवान है। औरनि के ज्ञानावरण का क्षयोपशम के अनुसारी ज्ञान है, तिनिको कोई अर्थ अन्यथा भी प्रतिभास, परंतु जिनदेव का ऐसा उपदेश है – कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रनि के वचन की प्रतीति करि वा हठ करि वा क्रोध, मान, माया, लोभ करि वा हास्य, भयादिक करि जो अन्यथा श्रद्धान करै वा उपदेश देइ, सो महापापी है । पर विशेष ज्ञानवान गुरु के निमित्त बिना, वा अपने विशेष क्षयोपशम बिना कोई सूक्ष्म अर्थ अन्यथा प्रतिभासै अर यहु ऐसा जाने कि जिनदेव का उपदेश ऐसे ही है, ऐसा जानि कोई सूक्ष्म अर्थ को अन्यथा श्रद्ध है वा उपदेश दे तौ याको महत् पाप न होइ । सोइ इस ग्रथ विष भी प्राचार्य करि कहा है -
सम्माइट्ठी जीवो, उवइनें पवयणं तु सद्दहदि । सदहदि असब्भावं, अजाणमाणो गुरुरिणयोगा ॥२७॥ जीवकांड ॥
बहरि कोऊ कहै कि - तुम विशेष ज्ञानी ते ग्रंथ का यथार्थ सर्व अर्थ का निर्णय करि टीका करने का प्रारंभ क्यों न कीया ?
ताकौ कहिये है - काल दोष ते केवली, श्रुतकेवली का तौ इहां अभाव ही भया । बहुरि विशेष ज्ञानी भी विरले पाइए। जो कोई है तो दूरि क्षेत्र विष है, तिनिका संयोग दुर्लभ । अर आयु, बुद्धि, बल, पराक्रम आदि तुच्छ रहि गए । तातें जो बन्या सो अर्थ का निर्णय कीया, अवशेष जैसे है तैसे प्रमाण है।
बहुरि कोऊ कहै कि - तुम कही सो सत्य, परंतु इस ग्रथ विष जो चूक होइगी, ताके शुद्ध होने का किछ उपाय भी है ?
ताको कहिये है - एक उपाय यह कीजिए है - जो विशेष ज्ञानवान पुरुपनि का प्रत्यक्ष तौ संयोग नाही, तातै परोक्ष ही तिनिस्यों ऐसी बीनती करौ हौ कि मैं मंद बुद्धि हो, विशेपज्ञान रहित हो, अविवेकी हौ, शब्द, न्याय, गणित, धार्मिक आदि ग्रथनि का विशेष अभ्यास मेरे नाही है, तातै शक्तिहीन हो, तथापि धर्मानुराग के वश तै टीका करने का विचार कीया, सो या विपै जहा-जहां चूक होइ, अन्यथा अर्थ होइ, तहां-तहां मेरे ऊपरि क्षमा करि तिस अन्यथा अर्थ को दूरि करि यथार्थ अर्थ लिखना। ऐसे विनती करि जो चूक होइगी, ताके शुद्ध होने का उपाय कीया है ।
बहुरि कोऊ कहै कि तुम टीका करनी विचारी सो तो भला कीया, परतु ऐसे महान ग्रंथनि की टीका सस्कृत ही चाहिये । भाषा विपै याकी गंभीरता भास नाही।
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[ मामान्य प्रकरण
ताकौं कहिये है - इस ग्रंथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका ती पूर्वे है ही । परन्तु तहा सस्कृत, गणित, आम्नाय आदि का ज्ञान रहित जे मंदबुद्धि हे, तिनिका प्रवेश न हो है । बहुरि इहां काल दोष ते बुद्ध्यादिक के तुच्छ होने करि संस्कृतादि ज्ञान रहित धने जीव है । तिनिके इस ग्रंथ के अर्थ का ज्ञान होने के अथि भापा टीका करिए है । सो जे जीव सस्कृतादि विशेषज्ञान युक्त है, ते मूलग्रंथ वा संस्कृत टीका ते अर्थ धारंगे । वहुरि जे जीव संस्कृतादि विशेप ज्ञान रहित है, ते इस भाषा टीका ते अर्थ धारौ । वहुरि जे जीव संस्कृतादि ज्ञान सहित है, परंतु गणित आम्नायादिक के ज्ञान के अभाव ते मूलग्रंथ वा संस्कृत टीका विप प्रवेश न पावै है, ते इस भाषा टीका ते अर्थ को धारि, मूल ग्रंथ वा संस्कृत टीका विपं प्रवेश करहु । वहुरि जो भाषा टीका ते मूल ग्रंथ वा संस्कृत टीका विप अधिक अर्थ होइ, ताके जानने का अन्य उपाय वनै सो करहु ।।
इहां कोऊ कहै - संस्कृत ज्ञानवालों के भापा अभ्यास विप अधिकार नाही।
ताकौं कहिये है - संस्कृत ज्ञानवालों की भाषा वांचने ते कोई दोप तो नाही उपज है, अपना प्रयोजन जैसे सिद्ध होइ तैसे ही करना । पूर्व अर्धमागधी आदि भापामय महान ग्रंथ थे। वहुरि बुद्धि की मंदता जीवनि के भई, तब संस्कृतादि भापामय ग्रंथ बने । अव विशेप वृद्धि की मंदता जीवनि के भई तातै देश भापामय ग्रंथ करने का विचार भया । बहुरि संस्कृतादिक का अर्थ भी अव भाषाद्वार करि जीवनि की समझाइये है । इहां भाषाद्वार करि ही अर्थ लिख्या तो किछ दोष नाहीं है।
ऐसे विचारि श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीयनामा पंचसंग्रह ग्रंथ की 'जीवतत्त्व प्रदीपिका' नामा संस्कृत टीका, ताकै अनुसारि 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' नामा यहु देशभाषामयी टीका करने का निश्चय किया है । सो श्री अरहंत देव वा जिनवाणी वा निग्रंथ गानि के प्रसाद ते वा मूल ग्रंथकर्ता नेमिचद्र आदि आचार्यनि के प्रसाद ते यह कार्य सिद्ध होहु ।
अव इस शास्त्र के अभ्यास विष जीवनि को सन्मुख करिए है । हे भव्यजीव ही ! तुम अपने हित की वाछौ हो तो तुमको जैसे वन तैसे या शास्त्र का अभ्यास करना । जाते आत्मा का हित मोक्ष है । मोक्ष विना अन्य जो है, सो परसयोगअनिन है, विनाशीक है, दुःखमय है । अर मोक्ष है सोई निज स्वभाव है, अविनाशी है, अनंत मुखमय है । तातै मोक्ष पद पावने का उपाय तुमको करना । सो मोक्ष के उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्नान, सम्यक्चारित्र है । सो इनकी प्राप्ति जीवादिक पे स्वम्प जानने ही तै हो है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ १३
अर यहु शास्त्राभ्यासरूप ज्ञानधन है सो अविनाशी है, भय रहित है, धर्मरूप है, स्वर्ग मोक्ष का कारण है । सो महंत पुरुष तौ धनकादिक को छोड़ि शास्त्राभ्यास विषे लगे है। तू पापी शास्त्राभ्यास को छडाय धन उपजावने की बड़ाई करै है, सो तू अनंत संसारी है।
बहुरि तै कह्या - प्रभावना आदिधर्म भी धन ही तै हो है । सो प्रभावना आदि धर्म हैं सो किंचित् सावद्य क्रिया संयुक्त है। तिसतै समस्त सावध रहित शास्त्राभ्यास रूप धर्म है, सो प्रधान है । ऐसे न होइ तौ गृहस्थ अवस्था विष प्रभावना आदि धर्म साधते थे, तिनि को छोड़ि संजमी होइ शास्त्राभ्यास विष काहे को लागै है ? बहुरि शास्त्राभ्यास ते प्रभावनादिक भी विशेष हो है ।
बहुरि से कह्या - धनवान के निकट पंडित भी आनि प्राप्त होइ । सो लोभी पंडित होइ, अर अविवेकी धनवान होइ तहां ऐसे हो है । अर शास्त्राभ्यासवालौ की तौ इंद्रादिक सेवा करै हैं । इहां भी बड़े बड़े महंत पुरुष दास होते देखिए है । तातै शास्त्राभ्यासवालौं तैं धनवान कौं महंत मति जाने ।
बहुरि तै कह्या - धन ते सर्व कार्यसिद्धि हो है । सो धन ते तो इस लोक संबंधी किछ विषयादिक कार्य ऐसा सिद्ध होइ, जातै बहुत काल पर्यत नरकादि दुःख सहने होइ । अर शास्त्राभ्यास ते ऐसा कार्य सिद्ध हो है जाते इहलोक विपै अर परलोक विषे अनेक सुखनि की परंपरा पाइए । तातै धन उपजावने का विकल्प छोड़ि शास्त्राभ्यास करना । पर जो सर्वथा ऐसे न बनै तौ संतोष लिए धन उपजावने का साधनकरि शास्त्राभ्यास विषै तत्पर रहना । ऐसै अर्थ उपजावने का पक्षपाती को सन्मुख किया।
बहुरि कामभोगादिक का पक्षपाती बोले है कि - शास्त्राभ्यास करने विप मुख नाहीं, बड़ाई नाही। तातै जिन करि इहां ही सुख उपजै ऐसे जे स्त्रीसेवना, खाना, पहिरना, इत्यादि विषय, तिनका सेवन करिए । अथवा जिन करि यहा ही बड़ाई होइ ऐसे विवाहादिक कार्य करिए ।
ताको कहिए है - विषयजनित जो सुख है सो दुख ही है । जाते विपय सुख है, सो परनिमित्त ते हो है । पहिले, पीछे, तत्काल प्राकुलता लिए है, जापं नाश होने के अनेक कारण पाइए है । आगामी नरकादि दुर्गति की प्राप्त करगहारा है। ऐसा है तो भी तेरा चाह्या मिले नाही, पूर्व पुण्य ते हो है, तातै विपम है । जैसे खाजि करि पीड़ित पुरुष अपना अंग को कठोर वस्तु तै ग्बुजावै, तैसे इंद्रियनि करि
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[ सामान्य प्रकरण
पीड़ित जीव, तिनकी पीड़ा सही न जाय तब किचिन्मात्र तिस पीडा के प्रतिकार से भास - ऐसे जे विपयमुख तिन विपं झपापात लेवै है, परमार्थरूप सुख है नाही ।
वहुरि शास्त्राभ्यास करने ते भया जो सम्यग्ज्ञान, ताकरि निपज्या जो आनन्द, सो सांचा सुख है । जाते सो सुख स्वाधीन है, आकुलता रहित है, काह करि नष्ट न हो है, मोक्ष का कारण है, विषम नाहीं । जैसे खाजि न पीडे, तव सहज ही सुखी होइ, तैसे तहां इद्रिय पोड़ने को समर्थ न होइ, तब सहज ही, सुख को प्राप्त हो है । ताते विषय मुख छोड़ि शास्त्राभ्यास करना । (जो) सर्वथा न छूटे तो जेता वन
तेता छोडि, शास्त्राभ्यास विपै तत्पर रहना । / बहरि ते विवाहादिक कार्य विप वडाई होने की कहो, सो केतेक दिन वड़ाई
रहेगी? जाकै अथि महापापारंभ करि नरकादि विष बहुतकाल दुःख भोगना होइगा। अथवा तुझ ते भी तिन कार्यनि विपै धन लगावनेवाले बहुत हैं, तातै विशेप वड़ाई भी होने की नाही।
वहुरि शास्त्राभ्यास ते ऐसी वडाई हो है, जाकी सर्वजन महिमा करे, इद्रादिक भी प्रशंसा कर अर परंपरा स्वर्ग मुक्ति का कारण है । तातै विवाहादिक कार्यनि का विकल्प छोड़ि, शास्त्राभ्यास का उद्यम राखना । सर्वथा न छूटे तो बहुत विकल्प न करना । ऐसे काम भोगादिक का पक्षपाती की शास्त्राभ्यास विष सन्मुख किया । या प्रकार अन्य जीव भी जे विपरीत विचार ते इस ग्रंथ अभ्यास विष अमचि प्रगट करे, तिनको यथार्थ विचार ते इस शास्त्र के अभ्यास वि सन्मुख होना योग्य है ।
__ इहां अन्यमती कहै हैं कि - तुम अपने ही शास्त्र अभ्यास करने की दृढ किया । हमारे मत विपै नाना युक्ति आदि करि सयुक्त शास्त्र है, तिनका भी अभ्यास वयों न कराइए ?
ताको कहिए है - तुमारे मत के शास्त्रनि विपै अात्महित का उपदेश नाही। जाने कही गंगार का, कही युद्ध का, कही काम सेवनादि का, कही हिमादि का कथन है। सो ए तो बिना ही उपदेश सहज ही बनि रहे है। इनकी नहित होई, ते नहा उलटे पोपे हैं, तातै तिनते हित कैसे होइ ?
तहां वह कहै है - ईश्वरन अस लीला करी है, ताको गाव हैं, तिसतै भला हो है। __नहां कहिये है - जो ईश्वर के सहज सुख न होगा, तव संसारीवत् लीला पनि गली भया । जो (वह) महज मुखी होता ती काहेकौं विपयादि सेवन वा
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ १५
युद्धादिक करता ? जातै मदबुद्धि हू बिना प्रयोजन किचिन्मात्र भी कार्य न करै । ताते जानिए है - वह ईश्वर हम सारिखा ही है, ताका जस गाएं कहा सिद्धि है ? बहुरि वह है है हमारे शास्त्रनि विषै वैराग्य, त्याग, अहिसादिक का भी तो उपदेश है ।
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तहां कहिए हैं - सो उपदेश पूर्वापर विरोध लिए हैं । कही विषय पोषे है, कही निषेधे है। कही वैराग्य दिखाय, पीछे हिसादि का करना पोप्या है । तहां वातुलवचनवत् प्रमाण कहा ?
बहुरि वह है है कि वेदांत आदि शास्त्रनि विषै तो तत्त्व ही का निरूपण है ।
तहां कहिए है - सो निरूपण प्रमाण करि बाधित, अयथार्थ है । ताका निराकरण जैन के न्यायशास्त्रनि विषै किया है, सो जानना । तातै अन्य मत के शास्त्रनि का अभ्यास न करना ।
ऐसे जीवनि को इस शास्त्र के अभ्यास विषै सन्मुख किया, तिनको कहिए है
हे भव्य ! शास्त्राभ्यास के अनेक अंग है । शब्द का वा अर्थ का वांचना, या सीखना, सिखावना, उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बार बार चरचा करना, इत्यादि अनेक अंग है । तहां जैसे बन तैसै अभ्यास करना । जो सर्व शास्त्र का अभ्यास न बनै तौ इस शास्त्र विषै सुगम वा दुर्गम अनेक अर्थनि का निरूपण है । तहा जिसका बने तिसही का अभ्यास विषै आलसी न होना ।
अभ्यास करना । परंतु
देखो ! शास्त्राभ्यासको महिमा, जाकौ होते परंपरा प्रात्मानुभव दशा कौं प्राप्त होइ सो मोक्ष रूप फल निपजै है; सो तो दूर ही तिष्ठौ । शास्त्राभ्यास ते तत्काल ही इतने गुरण हो है । १ क्रोधादि कपायनि की ती मंदता हो है । २ पंचइंद्रियनि की विषयनि विषै प्रवृत्ति रुकै है । ३. प्रति चंचल मन भी एकाग्र हो है । ४. हिसादि पच पाप न प्रवर्त है । ५. स्तोक ज्ञान होतं भी त्रिलोक के त्रिकाल संबंधी चराचर पदार्थनि का जानना हौ है । ६. हेयोपादेय की पहिचान हो है । ७. आत्मज्ञान सन्मुख हो है ( ज्ञान आत्मसन्मुख हो है ) । ८ अधिक अधिक ज्ञान होते आनंद निपजै है । ६. लोकविषे मूहिमा, यश विशेष हो है ।१०. सातिशय पुण्य का बंध हो है - इत्यादिक गुरग शास्त्राभ्यास करते तत्काल ही प्रगट होई हैं ।
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[ मामान्य प्रकरण
नानास्वाभ्यास अवश्य करना । बहुरि हे भव्य | शास्त्राभ्यास करने का समय भावना महादुर्लभ है । काहे ते ? सो कहिए है
१६]
एकेद्रियादि संजी पर्यंत जीवनिके तौ मन ही नाही । अर नारकी वेदना रोडिन, निर्यच विवेक रहित, देव विपयासक्त, तातै मनुष्यनि के अनेक सामग्री मिले नास्त्राभ्यास होइ । सो मनुष्य पर्याय का पावना ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि महादुर्लभ है ।
तहा द्रव्य करि लोक विषै मनुष्य जीव बहुत थोरे हैं, तुच्छ संख्यात मात्र ही है । र अन्य जीवनि विपे निगोदिया अनंत है, और जीव प्रसंख्याते हैं ।
बहुरि क्षेत्र करि मनुप्यनि का क्षेत्र बहुत स्तोक है, अढाई द्वीप मात्र ही है । अन्य जीवनि विषै एकेद्रिनि का सर्व लोक है, औरनिका केते इक राजू प्रमाण है । बहुरि काल करि मनुष्य पर्याय विधै उत्कृष्ट रहने का काल स्तोक है, कर्मभूमि अपेक्षा कोटि पूर्व मात्र ही है । यर अन्य पर्यायनि विषै उत्कृष्ट रहने का काल विषे तो ग्रसंख्यात पुद्गल परिर्वतन मात्र, अर और विपै संख्यातपल्य मात्र है । बहरि भाव करि तीव्र शुभाशुभपना करि रहित ऐसे परिणाम होने प्रति दुर्लभ है । ग्रन्य पर्याय को कारण म होने सुलभ है । ऐसे शास्त्राभ्यास का कारण जो मनुष्य पर्याय नाका दुर्लभपना जानना ।
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नहा नुवान, उच्चकुल, पूर्णग्रायु, इंद्रियनि की सामर्थ्य, नीरोगपना, सुसंगति, प्रिय वृद्धि की प्रबलता इत्यादिक का पावना उत्तरोत्तर महादुर्लभ : । प्रत्यक्ष देखिए है । ग्रर इतनी सामग्री मिले विना ग्रंथाभ्यास वनै ' भाग्यकर बहू अवसर पाया है । तातै तुमको हठ करि भी तुमारे सिनेनिरे है। जैन वने तैर्म इस शास्त्र का अभ्यास करो । वहुरि अन्य नैनं मात्राभ्यास करावी । बहुरि जे जीव शास्त्राभ्यास करते मोदना | बहुरि पुस्तक लिवाचना, वा पढने, पढ़ावनेवालों की रातराणी प्रत्याधिक माया की बाह्यकारण, तिनका साधन करना । सभी दाद भी पपपही है वा महत्पुण्य उपजै है |
श्रभ्यामादिवि जीवनि की रुचिवान किया ।
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मनुष्य पर्याय कौ शुभरूप वा शुभरूप पर्याप्त कर्मभूमिया
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गोम्मटसार जीवकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण बहुरि जो यह सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामा भाषा टीका, तिहिंविष संस्कृत टीका ते कहीं अर्थ प्रकट करने के अथि, वा कही प्रसंगरूप, वा कही अन्य ग्रंथ का अनुसारि लेइ अधिक भी कथन करियेगा। अर कही अर्थ स्पष्ट न प्रतिभासंगा, तहां न्यून कथन होइगा ऐसा जानना । सो इस भाषा टीका विषे मुख्यपने जो-जो मुख्य व्याख्यान है, ताकौ अनुक्रमतें संक्षेपता करि कहिए है । जाते याके जाने अभ्यास करनेवालो के सामान्यपन इतना तो जानना होइ जो या विषै ऐसा कथन है। अर क्रम जाने जिस व्याख्यान को जानना होइ, ताकौ तहां शीघ्र अवलोकि अभ्यास करै, वा जिनने अभ्यास किया होइ, ते याकौ देखि अर्थ का स्मरण करें, सो सर्व अर्थ की सूचनिका कीए तौ विस्तार होई, कथन आगै है ही, तातै मुख्य कथन की सूचनिका क्रम ते करिए है ।
तहाँ इस भाषा टीका विष सूचनिका करि कर्माष्टक आदि गणित का स्वरूप दिखाइ संस्कृत टीका के अनुसारि मंगलाचरणादि का स्वरूप कहि मूल गाथानि की टीका कीजिएगा । तहां इस शास्त्र विष दोय महा अधिकार हैं - एक जीवकांड, एक कर्मकांड । तहा जीवकांड विर्ष बाईस अधिकार है।
तिनिविषे प्रथम गुणस्थानाधिकार है । तिस विषै गुणस्थाननि का नाम, वा सामान्य लक्षण कहि तिनिविर्ष सम्यक्त्व, चारित्र अपेक्षा औदयिकादि सभवते भावनि का निरूपण करि क्रम तें मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थाननि का वर्णन है । तहा मिथ्यादष्टि विर्षे पंच मिथ्यात्वादि का सासादन विष ताके काल वा स्वरूप का, मिश्र विष ताके स्वरूप का वा मरण न होने का, असंयत विष वेदकादि सम्यक्त्वनि का वा ताके स्वरूपादिक का, देश संयत विष ताके स्वरूप का वर्णन है । बहुरि प्रमत्त का कथन विष ताके स्वरूप का अर पंद्रह वा अस्सी वा साढ़े सैतीस हजार प्रमाद भेदनि का अर तहां प्रसंग पाइ संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, समुद्दिष्ट करि वा गूढ यत्र करि अक्षसचार विधान का कथन है। जहा भेदनि को पलटि पलटि परस्पर लगाइए तहा अक्षसंचार विधान हो है । बहुरि अप्रमत्त का कथन विषै स्वस्थान अर सातिशय दोय भेद कहि, सातिशय अप्रमत्त के अध करण हो है, ताके स्वरूप वा काल वा परिणाम वा समय-समय सबंधी परिणाम वा एक-एक समय विष अनुकृप्टि विधान, वा तहां संभवते च्यारि आवश्यक इत्यादिक का विशेष वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ श्रेणी व्यवहार रूप गणित का कथन है । तिसविर्ष सर्वधन, उत्तरधन, मुख,
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१८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण
भूमि, चय, गच्छ इत्यादि संज्ञानि का स्वरूप वा प्रमाण ल्यावने कौ करणसूत्रनि का वर्णन है । बहुरि अपूर्वकरण का कथन विषै ताके काल, स्वरूप, परिणाम, समयसमय संबंधी परिणामादिक का कथन है । बहुरि अनिवृत्तिकरण का कथन विषै ताके स्वरूपादिक का कथन है । बहुरि सूक्ष्मसांपराय का कथन विषे प्रसंग पाइ कर्म प्रकृतिनि के अनुभाग अपेक्षा अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, गुणहानि, नानागुणहानिनि का र पूर्वस्पर्द्धक, अपूर्वस्पर्धक, बादरकृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि का वर्णन है । इत्यादि विशेष कथन है सो जानना । बहुरि उपशांतकषाय, क्षीणकपाय का कथन विपै तिनके दृष्टातपूर्वक स्वरूप का, स्योगी जिन का कथन विषे नव केवललव्धि आादिक का, अयोगी विषै शैलेश्यपना आदिक का कथन है । ग्यारह गुणस्थाननि विप गुणश्रेणी निर्जरा का कथन है । तहा द्रव्य को अपकर्षण करि उपरितन स्थिति अर गुणश्रेणी आयाम र उदयावली विषे जैसे दीजिए है, ताका वा गुणश्रेणी श्रायाम के प्रमाण का निरूपण है । तहां प्रसंग पाइ अंतर्मुहूर्त के भेदनि का वर्णन है । वहरि सिद्धनि का वर्णन है ।
बहुरि दूसरा जीवसमास अधिकार विषै- जीवसमास का अर्थ वा होने का विधान कहि चौदह, उगरणीस, वा सत्तावन, जीवसमासनि का वर्णन है । वहुरि च्यारि प्रकारि जीवसमास कहि, तहां स्थानभेद विषै एक आदि उगणीस पर्यंत जीवस्थाननि का, वा इन ही के पर्याप्तादि भेद करि स्थाननि का वा अठ्याणवै वा च्यारि से छह जीवसभासनि का कथन है । बहुरि योनि भेद विषै शंखावर्तादि तीन प्रकार योनि का, अर सम्मूर्च्छनादि जन्म भेद पूर्वक नव प्रकार योनि के स्वरूप वा स्वामित्व का अर चौरासी लक्ष योनि का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ च्यारि गतिनि विषै सम्मूर्च्छनादि जन्म वा पुरुषादि वेद संभवै, तिनका निरूपण है । बहुरि अवगाहना भेद विषे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त आदि जीवनि की जघन्य, उत्कृष्ट शरीर की श्रवगाहना का विशेष वर्णन है । तहा एकेद्रियादिक को उत्कृष्ट अवगाहना कहने का प्रमग पाइ गोलक्षेत्र, संखक्षेत्र, आयत, चतुरस्रक्षेत्र का क्षेत्रफल करने का, अर श्रवगाहना विषै प्रदेशनि की वृद्धि जानने के अथि अनतभाग आदि चतु स्थानपतित वृद्धि का घर इस प्रसग ते दृष्टातपूर्वक षट्स्थानपतित आदि वृद्धि-हानि का सर्व श्रवगाहना भेद जानने के अर्थ मत्स्यरचना का वर्णन है । वहुरि कुल भेद विषै एक साहानिया लाख कोडि कुलनि का वर्णन है ।
हरि तीसरा पर्याप्त नामा अधिकार विषै - पहले मान का वर्णन है । तहा किमान के भेद कहि । बहुरि द्रव्यमान के दोय भेदनि विषै, सख्या
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ १e
मान विषै संख्यात, असंख्यात, अनंत के इकईस भेदनि का वर्णन | बहुरि सख्या के विशेष रूप चौदह धारानि का कथन है । तिनि विषै द्विरूपवर्गधारा, द्विरूपघनधारा द्विरूपघनाघनधारानि के स्थाननि विषे जे पाइए है, तिनका विशेष वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ पणट्ठी, बादाल, एकट्ठी का प्रमाण, अर वर्गशलाका, अर्धच्छेदनि का स्वरूप, वा श्रविभागप्रतिच्छेद का स्वरूप, वा उक्तम् च गाथानि करि अर्धच्छेदादिक के प्रमाण होने का नियम, वा अग्निकायिक जीवनि का प्रमाण ल्यावने का विधान इत्यादिकनि का वर्णन है । बहुरि दूसरा उपमा मान के पल्य आदि आठ भेदनि का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ व्यवहारपल्य के रोमनि की संख्या ल्यावने कौ परमाणू तै लगाय अंगुल पर्यंत अनुक्रम का, अर तीन प्रकार अंगुल का, अर जिस जिस अंगुल करि जाका प्रमाण वरिंगए ताका, अर गोलगर्त के क्षेत्रफल ल्यावने का वर्णन है । अर उद्धारपल्य करि द्वीप - समुद्रनि की संख्या ल्याइए है । अद्धापल्य करि आयु आदि वर्ण है, ताका वर्णन है । अर सागर की सार्थिक संज्ञा जानने कौ, लवण समुद्र का क्षेत्रफल कौं आदि देकर वर्णन है । अर सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगतश्रेणी, जगत्प्रतर, ( जगत्घन) लोकनि का प्रमाण ल्यावने को विरलन आदि विधान का वर्णन है । बहुरि पत्यादिक की वर्गशलाका अरु अर्धच्छेदनि का प्रमाण वर्णन है । तिनिके प्रमाण जानने को उक्तम् च गाथा रूप करणसूत्रनि का कथन है । बहुरि पीछे पर्याप्ति प्ररूपणा है । तहां पर्याप्त, अपर्याप्त के लक्षण का, अर छह पर्याप्तिनिके नाम का, स्वरूप का, प्रारंभ संपूर्ण होने के काल का, स्वामित्व का वर्णन है । बहुरि लब्धिअपर्याप्त का लक्षण, वा ताके निरंतर क्षुद्रभवनि के प्रमाणादिक का वर्णन है । तहां ही प्रसंग पाइ प्रमाण, फल, इच्छारूप त्रैराशिक गणित का कथन है । बहुरि सयोगी जिन के अपर्याप्तपना संभवने का, अर लब्धि अपर्याप्त, निर्वृति अपर्याप्त, पर्याप्त के संभवते गुणस्थाननि का वर्णन है ।
बहुरि चौथा प्राणाधिकार विषै - प्रारणनि का लक्षण, अर भेद, अर कारण अर स्वामित्व का कथन है ।
बहुरि पाँचमां संज्ञा अधिकार विषै - च्यारि संज्ञानि का स्वरूप, अर भेद, अर कारण, अर स्वामित्व का वर्णन है ।
बहुरि छट्टा मार्गणा महा अधिकार विषै - मार्गरगा की निरुक्ति का, अर चोदह भेदनि का, अर सांतर मार्गरणा के अंतराल का, अर प्रसंग पाइ तत्त्वार्थसूत्र टीका के अनुसारि नाना जीव, एक जीव अपेक्षा गुणस्थाननि विपै, अर गुणस्थान
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२० ]
गोम्मटगार जीयकाण्ड सम्बो प्रकरण अपेक्षा लिऐ मार्गणानि विष काल का, अर अंतर का कथन करि छदा गति मागंगा अधिकार है। तहां गति के लक्षण का, अर भेदनि का अर च्यारि भनि के निक्तिः लिए लक्षणनि का, अर पाँच प्रकार तियंच, च्यारि प्रकार मनुष्यनि का पर मिद्धनि का वर्णन है । बहुरि सामान्य नारकी, जुदे-जुदे सात पृथ्वीनि के नारकी, पर पांच प्रकार तिर्यच, च्यारि प्रकार मनुष्य, अर व्यंतर, ज्योतिपी, भवनवामी, नौधर्मादिक देव, सामान्य देवराशि इन जीवनि की संख्या का वर्णन है। तहां पर्याप्त मनुष्यनि की संख्या कहने का प्रसग पाइ "कटपयपुरस्थवण" इत्यादि मूत्र करि ककागटि अक्षररूप अंक वा बिंदी की संख्या का वर्णन है ।
बहुरि सातमा इंद्रियमार्गणा अधिकार विष - इंद्रियनि का निरनि, लिए लक्षण का, अर-लब्धि उपयोगरूप भावेद्रिय का, अर वाह्य अभ्यन्तर भेट लिए निवृत्ति-उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय का, अर इन्द्रियनि के स्वामी का, अर तिनके विषयभूत क्षेत्र का, अर तहां प्रसंग पाइ सूर्य के चार क्षेत्रादिक का अर इद्रियनि के ग्राकार का वा अवगाहना का, अर अतीद्रिय जीवनि का वर्णन है । बहुरि एकेन्द्रियादिकनि का उदाहरण रूप नाम कहि, तिनकी सामान्य संख्या का वर्णन करि, विणेपपने सामान्य एकेन्द्री, अर सूक्ष्म बादर एकेद्री, बहुरि सामान्य अस, पर वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइंद्रिय, पचेन्द्रिय इन जीवनि का प्रमाण, अर इन विष पर्याप्त-अपर्याप्त जीवनि का प्रमाण वर्णन है।
बहुरि आठमां कायमार्गणा अधिकार विष- काय के लक्षण का वा भेदनि का वर्णन है । वहुरि पंच स्थावरनि के नाम, अर काय, कायिक जीवरूप भेद, अर वादर, सूक्ष्मपने का लक्षणादि, अर शरीर की अवगाहना का वर्णन है।
वहुरि वनस्पती के साधारण प्रत्येक भेदनि का, प्रत्येक के सप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित भेदनि का, अर तिनकी अवगावहना का अर एक स्कध विषै तिनके शरीरनि के प्रमाण का, अर योनीभूत वीज विषै जीव उपजने का,वा तहासप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित होने के काल का, अर प्रत्येक वनस्पती विषै सप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जानने की तिनके लक्षण का, वहुरि साधारण वनस्पती निगोदरूप तहां जीवनि के उपजने, पर्याप्ति धरने, मरने के विधान का, अर निगोद शरीर की उत्कृष्ट स्थिति का, अर स्कध, अंडर, पुलवी, आवास, देह, जीव इनके लक्षण प्रमाणादिक का अर नित्यनिगोदादि के स्वरूप का वर्णन है । वहुरि त्रस जीवनि का अर तिनके क्षेत्र का वर्णन है। वहरि वनस्पतीवत् औरनि के शरीर विषै सप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठितपने का, अर स्थावर, त्रस
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[२१ जीवनि के आकार का, अर काय सहित, काय रहित जीवनि का वर्णन है। बहुरि अग्नि, पृथ्वी, अप्, वात, प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक-साधारण वनस्पती जीवनि की, अर तिनविषै सूक्ष्म-बादर जीवनि की, अर तिनविर्ष भी पर्याप्त-अपर्याप्त जीवनि की संख्या का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ पृथ्वी आदि जीवनि की उत्कृष्ट आयु का वर्णन है । बहुरि त्रस जीवनि की, अर तिनविषै पर्याप्त-अपर्याप्त जीवनि की संख्या का वर्णन है । बहुरि बादर अग्निकायिक आदि की संख्या का विशेष निर्णय करने के अर्थि तिनके अर्धच्छेदादिक का, अर प्रसंग पाइ "दिण्णछेदेणवहिद" इत्यादिक करणसूत्र का वर्णन है ।
बहुरि नवमां योगमार्गणा अधिकार विष - योग के सामान्य लक्षण का पर सत्य आदि च्यारि-च्यारि प्रकार मन, वचन योग का वर्णन है। तहां सत्य वचन का विशेष जानने को दश प्रकार सत्य का, अर अनुभय वचन का विशेष जानने को आमंत्रणी आदि भाषानि का, अर सत्यादिक भेद होने के कारण का, अर केवली के मन, वचन योग संभवने का अर द्रव्य मन के आकार का इत्यादि विशेष वर्णन है। बहुरि काय योग के सात भेदनि का वर्णन है। तहां औदारिकादिकनि के निरुक्ति पूर्वक लक्षण का, अर मिश्रयोग होने के विधान का, अर आहारक शरीर होने के विशेष का, अर कारिणयोग के काल का विशेष वर्णन है । बहुरि युगपत् योगनि की प्रवृत्ति होने का विधान वर्णन है । पर योग रहित आत्मा का वर्णन है । बहुरि पंच शरीरनि विर्षे कर्म-नोकर्म भेद का, अर पंच शरीरनि की वर्गणा वा समय प्रबद्ध विर्ष परमाणूनि का प्रमाण वा क्रम ते सूक्ष्मपना वा तिनकी अवगाहना का वर्णन है। बहुरि विस्रसोपचय का स्वरूप वा तिनकी परमाणु नि के प्रमाण का वर्णन है। बहुरि कर्म-नोकर्म का उत्कृष्ट संचय होने का काल वा सामग्री का वर्णन है । बहुरि औदारिक आदि पंच शरीरनि का द्रव्य तौ समय प्रबद्धमात्र कहि । तिनकी उत्कृष्ट स्थिति, अर तहाँ सभवती गुणहानि, नाना गुणहानि, अन्योन्याभ्यस्तराशि, दो गुणहानि का स्वरूप प्रमाण कहि, करणसूत्रादिक ते तहा चयादिक का प्रमाण ल्याय समय-समय संबंधी निषेकनि का प्रमाण कहि, एक समय विष केते परमाण) उद्यरूप होइ निर्जरै, केते सत्ता विष अवशेष रहै, ताके जानने को अकसंदृष्टि की अपेक्षा लिये त्रिकोण यत्र का कथन है । बहुरि वक्रियिकादिकनि का उत्कृष्ट सचय कौनकै कैसै होइ सो वर्णन है । बहरि योगमार्गणा विष जीवनि की संख्या का वर्णन विष वैक्रियिक शक्ति करि संयुक्त बादर पर्याप्त अग्निकायिक, वातकायिक पर पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्यनि के प्रमाण का, अर भोगभूमियां आदि
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२२]
1 गोम्मटसार जीवफाण्ट सम्बन्धी प्रकरण जीवनि के पृथक् विक्रिया, अर औरनि के अपृथक् विक्रिया हो है, ताका कथन है । वहरि त्रियोगी, द्वियोगी, एकयोगी जीवनि का प्रमाण कहि त्रियोगीनि विप पाठ प्रकार मन-वचनयोगी अर काययोगी जीवनि का, अर द्वियोगीनि विप वचन-काययोगीनि का प्रमाण वर्णन है । तहा प्रसंग पाइ सत्यमनोयोगादि वा सामान्य मन-वचन-काय योगनि के काल का वर्णन है । वहुरि काययोगीनि विप सात प्रकार काययोगीनि का जुदा-जुदा प्रमाण वर्णन है । तहा प्रसंग पाइ औदारिक, औदारिकमिथ, कार्माण के काल का, वा व्यंतरनि विप सोपक्रम, अनुपक्रम काल का वर्णन है । बहुरि यह कथन है (जो)जीवनि की संख्या उत्कृष्टपनै युगपत् होने की अपेक्षा कही है।
बहुरि दशवां वेदमार्गणा अधिकार विष - भाव-द्रव्यवेद होने के विधान का, अर तिनके लक्षण का, अर भाव-द्रव्यवेद समान वा असमान हो है ताका, अर वेदनि का कारण दिखाई ब्रह्मचर्य अगीकार करने का अर तीनों वेदनि का निरुक्ति लिये लक्षण का, अर अवेदी जीवनि का वर्णन है । बहुरि तहां संख्या का वर्णन विपं देव राशि कही। तहा स्त्री-पुरुषवेदीनि का, अर तिर्यचनि विपै द्रव्य-स्त्री आदि का प्रमाण कहि समस्त पुरुप, स्त्री, नपुसकवेदीनि का प्रमाण वर्णन है। बहुरि सैनी पचेन्द्री गर्भज, नपुसकवेदी इत्यादिक ग्यारह स्थाननि विपै जीवनि का प्रमाण वर्णन है।
बहुरि ग्यारहवां कषायमार्गणा अधिकार विष - कपाय का निरुक्ति लिये लक्षण का, वा सम्यक्त्वादिक घातने रूप दूसरे अर्थ विपै अनन्तानुवधी आदि का निरुक्ति लिए लक्षण का वर्णन है । वहुरि कपायनि के एक, च्यारि, सोलह, असख्यात लोकमात्र भेद कहि क्रोधादिक की उत्कृष्टादि च्यारि प्रकार शक्तिनि का दृष्टांत वा फल की मुख्यता करि वर्णन है । वहुरि पर्याय धरने के पहले समय कपाय होने का नियम है वा नाही है सो वर्णन है। वहुरि अकषाय जीवनि का वर्णन है । वहरि क्रोधादिक के शक्ति अपेक्षा च्यार, लेण्या अपेक्षा चौदह, आयुबंध पर अवंध अपेक्षा वीस भेद है, तिनका अर सर्व कपायस्थाननि का प्रमाण कहि तिन भेदनि विर्षे जेतेजेते स्थान संभवै तिनका वर्णन है । वहुरि इहा जीवनि की संख्या का वर्णन विप नारकी, देव, मनुष्य, तिर्यच गति विपै जुदा-जुदा क्रोधी आदि जीवनि का प्रमाण वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ तिन गतिनि विप क्रोधादिक का काल वर्णन है।
वहुरि वारहवां ज्ञानमार्गणा अधिकार विष - ज्ञान का निरुक्ति पूर्वक लक्षण कहि, ताके पंच भेदनि का अर क्षयोपशम के स्वरूप का वर्णन है। बहुरि तीन मिथ्या जाननि का, अर मिश्र ज्ञाननि का अर तीन कुजाननि के परिणमन के उदाहरण का
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ २३
वर्णन है । बहुरि मतिज्ञान का वर्णन विषै याके नामांतर का, पर इंद्रिय मन ते उपजने का अर तहा अवग्रहादि होने का, अर व्यंजन- अर्थ के स्वरूप का, अर व्यंजन विष नेत्र, मन वा ईहादिक न पाइए ताका, अर पहले दर्शन होइ पीछे अवग्रहादि होने के क्रम का अर अवग्रहादिकनि के स्वरूप का, अर अर्थ- व्यंजन के विषयभूत बहु, बहुविध आदि बारह भेदनिका, तहां अनिसृति विषै च्यारि प्रकार परोक्ष प्रमाण गर्भितपना आदि का, अर मतिज्ञान के एक च्यारि, चौबीस, अट्ठाईस अर इनते बारह गुणे भेदन का वर्णन है । बहुरि श्रुतज्ञान का वर्णन विषै श्रुतज्ञान का लक्षण निरुक्ति आदि का अर अक्षर अनक्षर रूप श्रुतज्ञान के उदाहरण वा भेद वा प्रमारण का वर्णन है । बहुरि भाव श्रुतज्ञान अपेक्षा बीस भेदनि का वर्णन है । तहां पहिला जघन्यरूप पर्याय ज्ञान का वर्णन विषै ताके स्वरूप का, अर तिसका आवरण जैसे उदय हो है ताका, अर यहु जाकै हो है ताका, अर याका दूसरा नाम लब्धि अक्षर है, ताका वर्णन है । अर पर्यायसमास ज्ञान का वर्णन विषे षट्स्थानपतित वृद्धि का वर्णन है । तहा जघन्य ज्ञान के विभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण कहि । अर अनंतादिक का प्रमाण अर अनंत भागादिक की सहनानी कहि, जैसे अनंतभागादिक षट्स्थानपतित वृद्धि हो है, ताके क्रम का यंत्र द्वार ते वर्णन करि अनंत भागादि वृद्धिरूप स्थाननि विषै अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण ल्यावने को प्रक्षेपक आदि का विधान, अर तहा प्रसंग पाइ एक बार, दोय बार, आदि संकलन धन ल्यावने का विधान, अर साधिक जघन्य जहां दूरगा हो है, ताका विधान, अर पर्याय समास विषै अनतभाग आदि वृद्धि होने का प्रमाण इत्यादि विशेष वर्णन है । बहुरि अक्षर आदि अठारह भेदनि का क्रम तैं वर्णन है । तहां अर्थाक्षर के स्वरूप का, अर तीन प्रकार अक्षरनि का अर शास्त्र के विषयभूत भावनि के प्रमाण का, अर तीन प्रकार पदनि का अर चौदह पूर्वनि विष वस्तु वा प्राभृत नामा अधिकारनि के प्रमाण का इत्यादि वर्णन है । बहुरि बीस भेदनि विषे अक्षर, अनक्षर श्रुतज्ञान के अठारह, दोय भेदनि का अर पर्यायज्ञानादि की निरुक्ति लिए स्वरूप का वर्णन है ।
बहुरि द्रव्यश्रुत का वर्णन विषे द्वादशाग के पदनि की अर प्रकीर्णक के अक्षरनि की संख्यानि का, बहुरि चौसठ मूल अक्षरनि की प्रक्रिया का अर अपुनरुक्त सर्व अक्षरनि का प्रमाण वा अक्षरनि विषै प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंगनि करि तिस प्रमारण ल्यावने का विधान अर सर्व श्रुत के अक्षरनि का प्रमाण वा अक्षरनि विषै अंगनि के पद अर प्रकीर्णकनि के अक्षरनि के प्रमाण ल्यावने का विधान इत्यादि वर्णन है । बहुरि आचारांग आदि ग्यारह अंग, अर दृष्टिवाद अंग के पांच भेद, तिनमै परिकर्म के पाच
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| गोम्मटमार जायका मायापी प्रकरण भेद, तहां मृत्र अर प्रथमानुयोग का एक-एक भेट, अर पूर्वगत के चीदह भट, लिका के पांच भेद, इन सबनि के जुदा-जुदा पदनि का प्रमाण पर इन विप जी-जो व्यान्यान पाइए, नाकी सूचनिका का कथन है । तहां प्रसंग पाड तीर्थकर की दिव्यध्वनि होने का विधान, अर बर्द्धमान स्वामी के समय दश-दश जीव अंत.कृत केवली पर अनुत्तरगामी भए तिनकानाम पर तीन सी तिरेसठि कुवाटनि के धारकनि विर्ष केई कुवादीनि के नाम अर सप्त भंग का विधान, अर अक्षरनि के स्थान-प्रयत्नादिक, अर बारह भाषा पर प्रात्मा के जीवादि विशेषगा इत्यादि वने कथन हैं। वहरि सामायिका यादि चौदह प्रकीर्णकनि का स्वरूप वर्णन है । बहुरि श्रुतनान की महिमा का वर्णन है। " बहुरि अवविज्ञान का वर्णन विपं निरुक्ति पूर्वक स्वरूप कहि, ताके भवप्रत्ययगुणप्रत्यय भवनि का, अर ते भेद कौनक होय, कान आत्मप्रदेशनि ते उपजे ताका, अर तहां गुग्णप्रत्यय, के छह भेदनि का, तिनविप अनुगामी, अननुगामी के तीन-तीन भदनि का वर्णन है । बहुरि सामान्यपन अवधि के देशावधि, परमावधि, सर्वावधि भेदनि का, अर तिन विपे भवप्रत्यय-गुणप्रत्यय के संभवपने का, अर ए कौनक होडताका, अर नहा प्रतिपाती, अप्रतिपाती, विशेप का, अर इनके भेदनि के प्रमाण का, वर्णन है । वहुनि जघन्य देशाववि का विषयभूत व्य, क्षेत्र, काल, भाव का वर्णन करि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा द्वितीयादि उत्कृष्ट पर्यत क्रम ते भेद होने का विधान, अर तहां डव्यादिक के प्रमाण का अर सर्व भंदनि के प्रमाण का वर्णन है । तहा प्रसंग पाइ प्र.वहार, वर्ग, वर्गणा, गुणकार इत्यादिक का अनेक वर्णन है । अर तहां ही यंत्र-काल अपेक्षा तिस देशावरि के उगणीम कांडकनि का वर्णन है ।
वहरि परमाववि के विपयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा जघन्य ते उत्कृष्ट पर्यन्त क्रम ते भेद होने का विधान, वा तहां द्रव्याटिक का प्रमाण वा सर्व भेदनि के प्रमाण का वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ संकलित वन ल्यावने का अर "इच्छिदरासिच्छेद" इत्यादि दोय करणमूत्रनि का आदि अनेक वर्णन है।
बहरि सर्वाववि अभेद है । ताके विपयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का वर्णन है । ब्रहरि जघन्य देणाबवितै सर्वार्वाय पर्यत द्रव्य पर भाव अपेक्षा भेदनि की समानता का वर्णन है । बहुरि नरक विप अवधि का वा ताके विपयभूत क्षेत्र का, अर मनुप्य, तिर्यत्र विर्ष जघन्य-उत्कृष्ट अवधि होने का, अर देव विपं भवनवासी, व्यंतर, ज्योनिपानि के अवधिगोचर क्षेत्रकाल का, सीधर्मादि टिंकनि विप क्षेत्राटिक का, वा द्रव्य का भी वर्णन है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ २५ बहुरि मनःपर्ययज्ञान का वर्णन विषै ताके स्वरूप का, अर दोय भेदनि का अर तहां ऋजुमति तीन प्रकार, विपुलमति छह प्रकार ताका, अर मनःपर्यय जहातै उपजै है अर जिनकै हो है ताका, अर दोय भेदनि विर्ष विशेष है ताका, अर जीव करि चितया हुवा द्रव्यादिक को जानै ताका, अर ऋजुमति का विषयभूत द्रव्य का अर मनःपर्यय संबंधी ध्र वहार का, अर विपुलमति के जघन्य तै उत्कृष्ट पर्यन्त द्रव्य अपेक्षा भेद होने का विधान, वा भेदनि का प्रमाण, वा द्रव्य का प्रमाण कहि, जघन्य उत्कृष्ट क्षेत्र, काल, भाव का वर्णन है ।
बहुरि केवलज्ञान सर्वज्ञ है, ताका वर्णन है । बहुरि इहा जीवनि की संख्या का वर्णन विषै मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानी का अर च्यारो गति संबंधी विभंगज्ञानीनि का, अर कुमति-कुश्रुत-ज्ञानीनि का प्रमाण वर्णन है ।
बहुरि तेरहवां संयममार्गरणा अधिकार विष - ताके स्वरूप का, अर संयम के भेद के निमित्त का वर्णन है । बहुरि संयम के भेदनि का स्वरूप वर्णन है। तहा परिहारविशुद्धि का विशेष, अर ग्यारह प्रतिमा, अट्ठाईस विषय इत्यादिक का वर्णन है । बहुरि इहां जीवनि को संख्या का वर्णन विषै सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यात संयमधारी, अर संयतासंयत, अर असयत जीवनि का प्रमाण वर्णन है।
बहरि चौदहवां दर्शनमार्गणा अधिकार विषै- ताके स्वरूप का, अर दर्शन भेदनि के स्वरूप का वर्णन है । बहुरि इहा जीवनि की सख्या का वर्णन विषै शक्ति चक्षुर्दर्शनी, व्यक्त चक्षुर्दर्शनीनि का अर अवधि, केवल, अचक्षुर्दर्शनीनि का प्रमाण वर्णन है ।
बहुरि पंद्रहवां लेश्यामार्गणा अधिकार विष - द्रव्य, भाव करि दोय प्रकार लेश्या कहि, भावलेश्या का निरुक्ति लिए लक्षण अर ताकरि बध होने का वर्णन है । बहुरि सोलह अधिकारनि के नाम है। बहुरि निर्देशाधिकार विर्षे छह लेश्यानि के नाम है । अर वर्णाधिकार विर्षे द्रव्य लेश्यानि के कारण का, अर लक्षण का, अर छहो द्रव्य लेश्यानि के वर्ण का दृष्टात का, अर जिनकै जो-जो द्रव्य लेश्या पाइए, ताका व्याख्यान है। बहुरि प्रमाणाधिकार विर्ष कषायनि के उदयस्थाननि विर्षे संक्लेशविशुद्धि स्थाननि के प्रमाण का, अर तिनविष भी कृष्णादि लेश्यानि के स्थाननि के प्रमाण का, अर सक्लेशविशुद्धि की हानि, वृद्धि ते अशुभ, शुभलेश्या होने के
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| गोम्मटसार जीवकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण २६] अनुक्रम का वर्णन है। बहुरि सक्रमणाधिकार विषै स्वस्थान-परस्थान सक्रमण कहि सक्लेशविशुद्धि का वृद्धि-हानि ते जैसे सक्रमण हो है ताका, अर सक्लेशविशुद्धि विर्षे जैसै लेश्या के स्थान होइ, अर तहा जैसै षट्स्थानपतित वृद्धि-हानि संभवै, ताका वर्णन है । वहुरि कर्माधिकार विष छहो लेश्यावाले कार्य विष जैसे प्रवर्त, ताके उदाहरण का वर्णन है । वहुरि लक्षणाधिकार विर्ष छहो लेश्यावालेनि का लक्षण वर्णन है ।
बहुरि गति अधिकार विष लेश्यानि के छब्बीस अश, तिनविर्ष आठ मध्यम अंश पायुबंध को कारण, ते आठ अपकर्षकालनि विष हौइ, तिन अपकर्षनि का उदाहरणपूर्वक स्वरूप का अर तिनविर्ष आयु न बंधै तौ जहा बधै ताका, अर सोपक्रमायुक, निरुपक्रमायुष्क, जीवनि के अपकर्षणरूप काल का, वा तहां आयु वधने का विधान वा गति आदि विशेष का, अर अपकर्षनि विर्ष आयु वधनेवाले जीवनि के प्रमाण का वर्णन करि पीछे लेश्यानि के अठारह अशनि विषै जिस-जिस अश विष मरण भए, जिस-जिस स्थान विषे उपजै ताका वर्णन है ।
वहरि स्वामी अधिकार विर्षे भाव लेश्या की अपेक्षा सात नरकनि के नारकीनि विप, अर मनुप्य-तिर्यच विष, तहा भी एकेद्रिय-विकलत्रय विषै, असैनी पचेद्रिय विपै लब्धि अपर्याप्तक तियंच-मनुष्य विष, अपर्याप्तक तिर्यच-मनुष्य-भवनत्रिकदेव सासादन वालों विप, पर्याप्त-अपर्याप्त भोगभूमियां विष, मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानिनि विषै, पर्याप्त भवनत्रिक-सौधर्मादिक आदि देवनि विष जो-जो लेश्या पाइए ताका वर्णन है। तहा असनी के लेश्यानिमित्त ते गति विष उपजने का आदि विशेष कथन है।
वहुरि साधन अधिकार विष द्रव्य लेण्या अर भाव लेश्यानि के कारण का वर्णन है।
वहरि सख्याधिकार विप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, मान करि कृष्णादि लेश्यायाले जीवनि का प्रमाण वर्णन है।
बहुरि क्षेत्राधिकार विपै सामान्यपने स्वस्थान, समुद्घात, उपपाद अपेक्षा, दिपपने दोय प्रकार स्वस्थान, सात प्रकार समुद्घात, एक उपपाद इन दश स्थाननि विमभवत ग्याननि की अपेक्षा कृष्णादि लेण्यानि का (स्थान वर्णन कहिए) क्षेत्र वर्ण: । नहा प्रसंग पा विवक्षित लेण्या विपै संभवतै स्थान, तिन विप जीवनि मे प्रमाण मा, तिन न्याननि विप क्षेत्र के प्रमाण का, समुद्घातादिक के विधान का, नादिर का, मरने वाले आदि देवनि के प्रमाण का, केवल समुद्घात विष
दिर का, तहा लोक के क्षेत्रफल का इत्यादिक का वर्णन है ।
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[२७
सम्यग्ज्ञामचन्द्रिका पीठिका ]
बहुरि स्पर्शाधिकार विर्ष पूर्वोक्त सामान्य-विशेषपने करि लेश्यानि का तीन काल संबंधी क्षेत्र का वर्णन है । तहाँ प्रसंग पाइ मेरु ते सहस्रार पर्यंत सर्वत्र पवन के सद्भाव का, अर जंबूद्वीप समान लवणसमुद्र के खंड, लवणसमुद्र के समान अन्य समुद्र के खंड करने के विधान का, अर जलचर रहित समुद्रनि का मिलाया हुआ क्षेत्रफल के प्रमाण का, अर देवादिक के उपजने, गमन करने का इत्यादि वर्णन है ।
बहुरि काल अधिकार विषै कृष्णादि लेश्या जितने काल रहै ताका वर्णन है।
बहुरि अंतराधिकार विष कृष्णादि लेश्या का जघन्य, उत्कृष्ट जितने कालअभाव रहै, ताका वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ एकेद्री, विकलेद्री विष उत्कृष्ट रहने के काल का वर्णन है ।
___ बहुरि भावाधिकार विषै छहौ लेश्यानि विषै औदयिक भाव के सद्भाव का वर्णन है।
बहुरि अल्पबहुत्व अधिकार विषै संख्या के अनुसारि लेश्यानि विषै परस्पर अल्पबहुत्व का व्याख्यान है, ऐसे सोलह अधिकार कहि लेश्या रहित जीवनि का व्याख्यान है।
बहुरि सोलहवां भव्यमार्गणा अधिकार विषै - दोय प्रकार भव्य अर अभव्य पर भव्य-अभव्यपना करि रहित जीवनि का स्वरूप वर्णन है । बहरि इहां संख्या का कथन विष भव्य-अभव्य जीवनि का प्रमाण वर्णन है । बहुरि इहां प्रसग पाइ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पचपरिवर्तन नि के स्वरूप का, वा जैसे क्रम ते । परिवर्तन हो है ताका, अर परिवर्तननि के काल का, अनादि ते जेते परिवर्तन भए, तिनके प्रमाण का वर्णन है । तहां गृहीतादि पुद्गलनि के स्वरूप सदृष्टि का, वा योग स्थान आदिकनि का वर्णन पाइए है।।
बहरि सतरहवां सम्यक्त्वमार्गणा अधिकार विषै - सम्यक्त्व के स्वरूप का, अर सराग-वीतराग के भेदनि का अर षट् द्रव्य, नव पदार्थनि के श्रद्धानरूप लक्षण का वर्णन है । बहुरि षट् द्रव्य का वर्णन विषै सात अधिकारनि का कथन है ।
तहा नाम अधिकार विषै द्रव्य के एक वा दोय भेद का, अर जीव-अजीव के दोय-दोय भेदनि का, अर तहा पुद्गल का निरुक्ति लिए लक्षण का, पुद्गल परमाणु के आकार का वर्णनपूर्वक रूपी-अरूपी अजीव द्रव्य का कथन है ।
बहुरि उपलक्षणानुवादाधिकार विष छहो द्रव्यनि के लक्षणनि का वर्णन है। तहां गति आदि क्रिया जीव-पुद्गल के है, ताका कारण धर्मादिक है, ताका दृष्टात
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण २८] पूर्वक वर्णन है । अर वर्तनाहेतुत्व काल के लक्षण का दृष्टांतपूर्वक वर्णन है । अर मुल्य काल के निश्चय होने का, काल के धर्मादिक को कारणपने का, समय, पावली आदि व्यवहारकाल के भेदनि का, तहा प्रसंग पाइ प्रदेश के प्रमाण का, वा अंतर्मुहूर्त के भेदनि का, वा व्यवहारकाल जानने को निमित्त का, व्यवहारकाल के अतोत, अनागत, वर्तमान भेदनि के प्रमाण का, वा व्यवहार निश्चय काल के स्वरूप का वर्णन है।
बहुरि स्थिति अधिकार विप सर्व अपने पर्यायनि का समुदायल्प अवस्थान का वर्णन है।
बहुरि क्षेत्राधिकार विप जीवादिक जितना क्षेत्र रोके, ताका वर्णन है। तहा प्रसंग पाठ तीन प्रकार आधार वा जीव के समुद्घातादि क्षेत्र का वा संकोच विस्तार शक्ति का वा पुद्गलादिकनि की अवगाहन शक्ति का वा लोकालोक के स्वरूप का वर्णन है ।
बहुरि संख्याधिकार विष जीव द्रव्यादिक का वा तिन के प्रदेशनि का, वा व्यवहार काल के प्रमाण का, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मान करि वर्णन है ।
बहुरि स्थान स्वरूपाधिकार विपै (द्रव्यनि का वा ) द्रव्य के प्रदेशनि का चल, अचलपने का वर्णन है । बहुरि अणुवर्गणा आदि तेईस पुद्गल वर्गणानि का वर्णन है । तहां तिन वर्गणानि विप जेती-जेती परमाणू पाइए, ताका आहारादिक वर्गणा ते जो-जो कार्य निपजै है ताका जघन्य, उत्कृष्ट, प्रत्येकादि वर्गणा जहां पाईए ताका, महास्कव वर्गणा के स्वरूप का, अणुवर्गणा आदि का वर्गणा लोक विप जितनी जितनी पाइए ताका इत्यादि का वर्णन है । वहुरि पुद्गल के स्थूल-स्थूल आदि छह भेदनि का, वा स्कंध, प्रदेश, देश इन तीन भेदनि का वर्णन है ।
बहुरि फल अधिकार विप धर्मादिक का गति आदि साधनरूप उपकार, जीवनि के परस्पर उपकार, पुद्गलनि का कर्मादिक वा सुखादिक उपकार, तिनका प्रस्नानरादिक लिए वर्णन है। तहा प्रसंग पाइ कर्मादिक पुद्गल ही है ताका, अर सर्मादिक जिस-जिन पुद्गल वर्गणा ते निपजे है ताका, अर स्निग्ध-रूक्ष के गुणनि के अननि करि जैन पुद्गल का संबंध हो है, ताका वर्णन है । जैसे पट द्रव्य का वर्णन पनि नहा काल विना पंचास्तिकाय हैं, ताका वर्णन है । वहुरि नव पदार्थनि का जन विग जीव-यजीव का ती पद् द्रव्यनि विपै वर्णन भया । वहुरि पाप जीव
नीवनि का वर्णन है । तहा प्रसग पाइ चौदह गुण-स्थाननि विषै जीवनि का
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३६ ]
[ गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण
स्वरूप कहि गुणस्थाननि विषे सामान्य सत्त्व प्रकृतिनि का वर्णन करि विशेष वर्णन विषे मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थाननि विषे जेते स्थान वा भंग पाइए तिनको कहि जुदा-जुदा कथन विषै तिनका विधान वा प्रकृति घटने, वधने, बदलने के विशेष का वद्धायु-अवद्धायु अपेक्षा वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ मिथ्यादृष्टि विपे तीर्थंकर सत्तावाले के नरकायु ही का सत्त्व होइ ताका, वा एकेद्रियादिक के उद्वेलना का अर सासादन विषै आहार सत्ता के विशेष का, मिश्र विषे अनंतानुबंधीरहित सत्त्वस्थान जैसे संभव ताका, असयत विपै मनुष्यायु-तीर्थंकर सहित एक सौ अडतीस प्रकृति की सत्तावाले के दोय वा तीन ही कल्याणक होइ ताका, अपूर्वकरणादि विपैं उपशमक - क्षपक श्रेणी अपेक्षा का इत्यादि अनेक वर्णन है । बहुरि आचार्यनि के मतकरि जो विशेष है ताकों कहि तिस पेक्षा कथन है ।
वहरि चौथा त्रिचूलिका नामा अधिकार है । तहां प्रथम नव प्रश्नकरि चूलिका का व्याख्यान है । तिसविषै पहिले तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विपें जिन प्रकृतिनि की उदयव्युच्छित्ति ते पहिले बंधव्युच्छित्ति भई तिनका, अर जिनकी उदयव्युच्छित्ति ते पीछे वंधव्युच्छित्ति भई तिनका, अर जिनकी उदयव्युच्छित्ति - बंधव्युच्छित्ति युगपत् भई तिनका वर्णन है । वहुरि दूसरा - तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विषे जिनका अपना उदय होते ही बंध होइ तिनका, अर जिनका अन्य प्रकृतिनि का उदय होते ही बंध होइ तिनका घर जिनका अपना वा अन्य प्रकृतिनि का उदय होते वंध होय तिन प्रकृतिनि का वर्णन है । बहुरि तीसरा - तीन प्रश्नकरि तिनका उत्तर विषै जिनका निरन्तर वंध होइ तिनका, अर जिनका सांतर बंघ होइ तिनका, अर जिनका सांतर वा निरंतर बंध होइ तिनका कथन है । इहां तीर्थंकरादि प्रकृति निरंतर वंधी जैसें है ताका, र सप्रतिपक्ष नि प्रतिपक्ष अवस्था विषे सांतर - निरंतर वंध जैसे संभव है ताका वर्णन है ।
बहरि दूसरी पंचभागहारचूलिका का व्याख्यान विषै मंगलाचरणकरि उद्वेलन, विध्यात, अवःप्रवृत्त, गुणसक्रम, सर्वसंक्रम - इन पंच भागहारनि के नाम का अर स्वम्प का, घर ते भागहार जिनि-जिनि प्रकृतिनि विपं वा गुरगस्थाननि विपै संभवे ताका वर्णन है । श्रर सर्वसंक्रमभागहार, गुणसंक्रमभागहार, उत्कर्षण वा अपकर्पणभागहार, श्रय प्रवृत्तभागहार, योगनि विपे गुणकार, स्थिति विषै नानागुणहानि, प्रत्य पत्य का वर्गमूल स्थिति विषे गुणहानि प्रायाम, स्थिति विपं श्रन्योन्याभ्यस्त रानिपत्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति वित्र्यातसंक्रमभागहार, उद्वेलनभागहार,
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ३७
अनुभाग विषे नानागुणहानि, गुणहानि, द्वयर्द्धगुणहानि, दो गुरणहानि, अन्योन्याभ्यस्त इनका प्रमाणपूर्वक अल्पबहुत्व का कथन है ।
बहुरि तीसरी दशकरणचूलिका का व्याख्यान विषै बंध, उत्कर्षण, सक्रम, अपकर्षण, उदीर्णा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति, निःकाचना इन दशकरणनि के नाम का, स्वरूप का, जिनि-जिनि प्रकृतिनि विषै वा गुणस्थाननि विषे जैसे संभव तिनका वर्णन है ।
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बहुरि पांचवां बंध - उदय - सत्त्वसहित स्थानसमुत्कीर्तन नामा अधिकार विषै मंगलाचरण कर एक जीव कैं युगपत् सभवतां बंधादिक प्रकृतिनि का प्रमाणरूप स्थान वा तहा प्रकृति बदलने करि भये भंगनि का वर्णन है । तहां मूल प्रकृतिनि के बंधस्थाननि का, अर तहां संभवते भुजाकारादि बध विशेष का, अर भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित, अवक्तव्यरूप बंध विशेषनि के स्वरूप का, अर मूल प्रकृतिनि कै उदयस्थान, उदीर्णास्थान, सत्त्वस्थाननि का वर्णन है । बहुरि उत्तर प्रकृतिनि का कथन विषै दर्शनावरण, मोहनीय, नाम की प्रकृतिनि विषै विशेष है ।
तहां दर्शनावरण के बधस्थाननि का, अर तहां गुणस्थान अपेक्षा भुजाकारादि विशेष संभवने का, अर दर्शनावरण के गुणस्थाननि विषै सभवते बंधस्थान, उदयस्थान, सत्त्वस्थाननि का वर्णन है ।
बहुरि मोहनीय के बधस्थाननि का, अर ते गुणस्थाननि विषै जैसे सभवै ताका, हां प्रकृतिनि के नाम जानने कौं ध्रुवबंधी प्रकृति, वा कूटरचना आदिक का अर तहां प्रकृति बदलने तै भए भगनि का, अर तिन बधस्थाननि विषै सभवते भुजाकारादि विशेषनि का, वा भुजाकारादिक के लक्षण का, वा सामान्य प्रवक्तव्य भंगनि की सख्या का, अर भुजाकारादि संभवने के विधान का, अर इहा प्रसंग पाइ गुणस्थाननि विषे चढना, उतरना इत्यादि विशेषनि का वर्णन है । बहुरि मोह के उदयस्थाननिका, अर गुणस्थाननि विषे संभवता दर्शनमोह का उदय कहि तहां संभवते मोह के उदयस्थाननि का, अर तहां प्रकृत्यादि के जानने कू कूटरचना आदि का, अर तहां प्रकृति बदलने ते भए भगनि का, अर अनिवृत्तिकरण विषे वेदादिक के उदयकालादिक का, अर सर्वमोह के उदयस्थान, र तिनकी प्रकृतिनि का विधान, वा संख्या वा मिलाई हुई संख्या का, श्रर गुणस्थाननि विषै संभवते उपयोग, योग, संयम, लेश्या, सम्यक्त्व तिनकी अपेक्षा मोह के उदयस्थाननि का, वा तिनकी प्रकृतिनि
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३८]
[ गोम्मटसार फर्मकाण्ट सम्बन्धी प्रकरण का विधान, सख्या आदिक का, तहा अनंतानुबंधी रहित उदयस्थान मिश्यादृष्टि की अपर्याप्त-अवस्था मे न पाइए इत्यादि विशेष का वर्णन है।
___ बहुरि मोह के सत्त्वस्थाननि का वा तहा प्रकृति घटने का, अर ते स्थान गुणस्थाननि विर्षे जैसे संभवै ताका, अर अनिवृत्तिकरण विपै विणेप है ताका वर्णन है ।
___ वहुरि नामकर्म का कथन विर्षे आधारभूत इकतालीस जीवपद, चौतीस कर्मपदनि का व्याख्यान करि नाम के वंधस्थाननि का अर ते गुणस्थाननि विप जैसे संभव ताका, अर ते जिस-जिस कर्मपदसहित बंधे है ताका, अर तिनविप क्रम ते नवध्र ववंधी आदि प्रकृतिनि के नाम का, अर तेइस के नै आदि दै करि नाम के बधस्थाननि विर्ष जे-जे प्रकृति जैसे पाइए ताका, अर तहां प्रकृति बदलने ते भए भंगनि का वर्णन है। अर इहां प्रसंग पाइ जीव मरि जहां उपजे ताका वर्णन विप प्रथमादि पृथ्वी नारकी मरि जहां उपजै वा न उपज ताका, तहा प्रसग पाड स्वयंभूरमण-समुद्रपर कूणानि विपै कर्मभूमिया तिथंच है इत्यादि विशेष का, अर वादरसूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त अग्निकायिक आदि जीव जहां उपजे ताका, तहा सूक्ष्मनिगोद ते आए मनुष्य सकल सयम न ग्रहै इत्यादि विशेष का, अर अपर्याप्त मनुष्य जहा उपजे ताका, अर भोगभूमि-कुभोगभूमि के तिर्यच-मनुष्य, अर कर्मभूमि के मनुप्य जहा उपजै ताका, अर सर्वार्थसिद्धि ते लगाय भवनत्रिक पर्यत देव जहा उपजे ताका वर्णन है। वहुरि जैसे च्यवन-उत्पाद कहि चौदह मार्गणानि विपै गुणस्थाननि की अपेक्षा लीए जैसे जे-जे नामकर्म के बंधस्थान संभवै तिनका वर्णन है।
तहा गति, इद्रिय, काय, योग, वेद मार्गणानि विपै तो लेण्या अपेक्षा वस्थाननि का कथन है । कषाय मार्गणा विपै अनतानुवधी आदि जैसे उदय हो है ताका, वा इनके देशघाती-सर्वधाती स्पर्द्धकनि का, वा सम्यक्त्व-संयम धातने का, वा लेश्या अपेक्षा बंधस्थाननि का कथन है। अर ज्ञान मार्गणा विषै गति आदिक की अपेक्षा करि वंधस्थाननि का कथन है। अर सयम मार्गणा विप सामायिकादिक के स्वरूप का, अर सयतासंयत विषै दोय गति अपेक्षा, अर असयम विष च्यारि गति अपेक्षा बंधस्थाननि का कथन है । तहां निर्वृत्यपर्याप्त देव के वधस्थान कहने की देवगति विष जे-जे जीव जहां पर्यत उपजे ताका, अर सासादन विप वंधस्थान कहने को जे-जे जीव जमे उपजम-सम्यक्त्व को छोडि सासादन होइ ताका इत्यादि कथन है । अर दर्शन मागंणा विप गति अपेक्षा वधस्थाननि का कथन है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ રૂe
अर लेश्या मार्गणा विषै प्रथमादि नरक पृथ्वीनि विषै लेश्या सभवने का, जिस-जिस संहनन के धारी जे-जे जीव जहां-जहा पर्यंत नरकविषै उपजै ताका, नरकनिविषै पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था अपेक्षा बंधस्थाननि अर का, तिर्यच विषे एकेद्रियादिक कै वा भोगभूमियां तिर्यच कँ जो-जो लेश्या पाइए ताका, अर जे-जे जीव जिस-जिस लेश्याकरि तिर्यच विषै उपजै ताका, अर तिनकै निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था विषै बंधस्थाननि का, अर जहां तै आए सासादन वा असंयत होइ अर तिनके जे बंधस्थान होइ ताका, अर शुभाशुभलेश्यानि विषे परिणामनि का, तहा प्रसंग पाइ कषायनि के स्थान वा तहा सक्लेश - विशुद्धस्थान वा कषायनि के च्यारि शक्तिस्थान, चौदह लेश्या स्थान, बीस आयु बन्धाबन्धस्थान तिनका, अर लेश्यानि के छब्बीस अंश, तहा आठ मध्यम श आयुबन्ध को कारण, ते आठ अपकर्षकालनि विषै होइ, अन्य अठारह अश च्यारि गतिनि विषै गमन को कारण तिनके विशेष का, अर लेश्यानि के पलटने के क्रम का वर्णन करि तिर्यच के मिथ्यादृष्टि आदि विषै जैसे मिथ्यात्व - कषायनि का उदय पाइए है ताकौ कहि, तहां जे बंधस्थान पाइए ताका, अर भोगभूमिया तिर्यच के वा प्रसंग पाई औरनि के जैसे निर्वृत्यपर्याप्त वा पर्याप्त मिथ्यादृष्टि आदि विषै जैसे लेश्याकरि बंधस्थान पाइए, वा भोगभूमि विषे जैसे उपजना होइ ताका वर्णन है ।
बहुरि मनुष्यगति विषे लब्धि अपर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त, पर्याप्त दशा विषै जो-जो लेश्या पाइए वा तहां संभवते गुणस्थाननि विषै बधस्थान पाइए ताका वर्णन है ।
बहुरि देवगति विषै भवनत्रिकादिक के निर्वृत्यपर्याप्त वा पर्याप्त दशा विषै जो-जो लेश्या पाइए, वा देवनि के जहा जन्मस्थान है वा जे जीव जिस-जिस लेश्याकरि जहा जहां देवगति विषै उपजै, वा निर्वृत्यपर्याप्त वा पर्याप्त-दशा विषै मिथ्यादृष्टि आदि जीवनी के जे-जे बंधस्थान पाइए तिनका, अर तहा प्रासंगिक गाथानिकरि जे-जे जीव जहां-जहा पर्यंत देवगति विषै उपजै, वा अनुदिशादिक विमाननि ते चयकरि जे पद न पावे, वा जे जीव देवगति ते चयकरि मनुष्य होइ निर्वाण ही जाय, वा जहा के आये तिरेसठ शलाका पुरुष न होइ, वा देवपर्याय पाइ जैसे जिनपूजादिक कार्य करें तिनका वर्णन है ।
बहुरि भव्यमार्गणा विषे बंधस्थाननि का वर्णन है ।
बहुरि सम्यक्त्व मार्गणा विषै सम्यक्त्व के लक्षरण का, भेदनि का, जहां मरण न होय ताका, अर प्रथमोपशम सम्यक्त्व जाके होइ ताका, वा वाके जिन प्रकृतिनि
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४० ]
| गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण
का उपशम होइ ताका, तहा लब्धि आदि होने का, अर प्रथमोपशम सम्यक्त्व भए मिथ्यात्व के तीन खंड हो हैं ताका, तहां नारकादिक कैं जे बंधस्थान पाइए तिनका, तहां नूरक विषे तीर्थंकर के वंध होने के विधान का, वा साकार - उपयोग होने का, वा निसर्गज-अधिगमज के स्वरूप का र द्वितीयोपशम सम्यक्त्व जाकै होइ ताका, तहां पूर्वकरणादि विषै जो-जो क्रिया करता चढे वा उतरं ताका, तहां जे वंधस्थान संभवे ताका, वा तहां मरि देव होय ताकेँ वंघस्थान संभव ताका वर्णन है । वहुरि क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारंभ - निष्ठापन जाके होइ ताका, वा तहां तीन करण हो है तिनका, तां गुणश्रेणी आदि होने का अर अनंतानुवंधी का विसंयोजनकरि पीछे केई क्रिया करि करणादि विधान ते दर्शनमोह क्षपावने का, अर तहां प्रारंभ-निष्ठापन के काल का, वा तिनके स्वामीनि का, वा तहां तीर्थंकर सत्तावाले के तद्भव अन्यभव विषै मुक्ति होने का वर्णनकरि क्षायिक सम्यक्त्व विषै संभवते वंधस्थाननि का वर्णन है । बहुरि वेदक-सम्यक्त्व. जिनके होइ अर प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ते वा मिथ्यात्व ते जैसे वेदक सम्यक्त्व होइ, अर तिनके जे बंधस्थान पाइए तिनका वर्णन है ।
वहुरि सासादन, मिश्र, मिथ्यात्व जहां-जहां जिस-जिस दशा विषे संभवै श्रर तहां जे वंघस्थान पाइए तिनका वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ विवक्षित गुरणस्थान ते जिस-जिस गुणस्थान को प्राप्त होइ ताका वर्णन है ।
बहुरि संज्ञी र आहार मार्गणा विषै वंघस्थाननि का वर्णन है । वहुरि नाम के बंबस्थाननि विषै भुजाकारादि कहने को पुनरुक्त, अपुनरुक्त भंगनि का, अर स्वस्थानादि तीन भेदनि का, प्रसंग पाइ गुणस्थाननि ते चढने-उतरने का, जहां मरण न होइ ताका, कृतकृत्य - वेदक सम्यग्दृष्टि मरि जहां उपजै ताका, भुजाकारादिक के लक्षरण का, अर इकतालीस जीव पदनि विपं भंगसहित वंधस्थाननि का वर्णन करि मिथ्यादृष्ट्यादि गुग्गुणस्थाननि विषे संभवते भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित, भगनि का वर्णन है ।
अवक्तव्य
बहुरि नाम के उदयस्थाननि का वर्णन विषे कार्माण १, मिश्रशरीर, शरीरपर्याप्ति, उच्छ्वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति इन पंचकालनि का स्वरूप प्रमाणादिक कहि, वा केवली के समुद्घात अपेक्षा इनका संभवपना कहि नाम के उदयस्थान हानि १. 'होने का रिमा व पुस्तक में पाठ है
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ४१
का विधान विषै ध्रुवोदयी आदि प्रकृतिनि का वर्णन करि तिन पंचकालनि की अपेक्षा लीए जिस-जिस प्रकार वीस प्रकृति रूप स्थान ते लगाय संभवते नाम के उदयस्थाननि का, श्रर तहां प्रकृति बदलने करि संभवते भंगनि का वर्णन है । बहुरि नाम के सत्त्वस्थाननि का वर्णन विषै तिराणवे प्रकृतिरूप स्थान श्रादि जैसे जै सत्त्वस्थान है तिनका, अर तहां जिन प्रकृतिनि की उद्वेलना हो है तिनके स्वामी वा क्रम वा कालादिक विशेष का, अर सम्यक्त्व, देशसंयम, अनंतानुबंधी का विसंयोजन, उपशमश्रेणी चढना, सकलसंयम धरना, ए उत्कृष्टपने केती वार होइ तिनका, अर च्यारि गति की अपेक्षा लीए गुणस्थाननि विषै जे सत्त्वस्थान संभव तिनका, अर इकतालीस जीवपदनि विषै सत्त्वस्थान संभवै तिनका वर्णन है ।
बहुरि त्रिसंयोग विषै स्थान वा भंगनि का वर्णन है । तहा मूल प्रकृतिनि विषै जिस-जिस बंधस्थान होते जो-जो उदय वा सत्त्वस्थान होइ ताका, अर ते गुणस्थाननि विषे जैसे संभवे ताका वर्णन है । बहुरि उत्तर प्रकृतिनि विषै ज्ञानावरण, अतराय का तो पांच-पांच ही का बंध, उदय, सत्त्व होइ; तातै तहां विशेष वर्णन नाही । अर दर्शनावरण विषै जिस-जिस बधस्थान होते जो-जो उदय वा सत्त्वस्थान गुणस्थान अपेक्षा संभव ताका वर्णन है, अर वेदनीय विषे एक-एक प्रकृति का उदयबंध होते भी प्रकृति बदलने की अपेक्षा, वा सत्त्व दोय का वा एक का भी हो है, ताकी अपेक्षा गुणस्थान विषै सभवते भंगनि का वर्णन है । बहुरि गोत्र विषै नीचउच्च गोत्र के बंध, उदय, सत्त्व के बदलने की अपेक्षा गुणस्थाननि विषै सभवते भगनि का वर्णन है । बहुरि आयु विषै भोगभूमियां आदि जिस काल विषै आयुबध करें ताका, एकेद्रियादि जिस आयु कौ बाधै ताका, नारकादिकनि के प्रायु का उदय, सत्त्व संभव ताका, अर आठ अपकर्ष विषे बंधे ताका, तहा दूसरी, तीसरी बार आयुबध होने विषे घटने - बधने का, अर बध्यमान- भुज्यमान आयु के घटनेरूप अपवर्तनघात, कदलीघात का वर्णन करि बंध, प्रबंध, उपरितबंध की अपेक्षा गुणस्थाननि विषै संभवते भंगनि का वर्णन है । बहुरि वेदनीय, गोत्र, आयु इनके भंग मिथ्यादृष्ट्यादि विषे जेते - जेते संभवे, वा सर्व भग जेते जेते है तिनका वर्णन है ।
बहुरि मोह के स्थाननि की सत्त्वस्थान जैसे पाइए ताका वर्णन आधेय, तीन प्रकार, तहां जिस-जिस
अपेक्षा भंग कहि गुणस्थाननि विषै बंध, उदय, करि मोह के त्रिसंयोग विषै एक आधार, दोय बंधस्थान विषै जो-जो उदयस्थान, वा
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४२
[ गोम्मटसार फर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण सत्त्वस्थान संभव, अर जिस-जिस उदयस्थान विपं जो-जो वधस्थान वा सत्त्वस्थान संभवै, अर जिस-जिस सत्त्वस्थान विपै जो-जो वधस्थान वा उदयस्थान संभवै तिनका वर्णन है। वहुरि मोह के वंध, उदय, सत्त्वनि विप दोय आधार, एक प्राधेय तीन प्रकार, तहा जिस-जिस वधस्थानसहित उदयस्थान विपै जो-जो सत्त्वस्थान जिसप्रकार संभवै, अर जिस-जिस वंधस्थानसहित सत्त्वस्थान विपै जो-जो उदयस्थान संभवै पर जिस-जिस उदयस्थान सहित सत्त्वस्थान विप जो-जो वंधस्थान पाइए ताका वर्णन है। बहुरि नामकर्म के स्थानोक्त भंग कहि गुणस्थाननि विपै, पर चौदह जीवसमासनि विपै अर गति आदि मार्गणानि के भेदनि विप संभवते वंध, उदय, सत्त्वस्थाननि का वर्णनकरि एक आधार, दोय प्राधेय का वर्णन विपं जिस-जिस वंधस्थाननि विपै जो-जो उदयस्थान वा सत्त्वस्थान जिसप्रकार सभवै, अर जिस-जिस उदयस्थान विप जो-जो वंधस्थान वा सत्त्वस्थान जिसप्रकार सभव, अर जिस-जिस सत्त्वस्थान विपै जो-जो वंधस्थान वा उदयस्थान जिस-जिसप्रकार संभव तिनका वर्णन है । वहुरि दोय आधार, एक प्राधेय विष जिस-जिस वंधस्थानसहित उदय स्थान विपं जो-जो सत्त्वस्थान संभवै, अर जिस-जिस वंधस्थानसहित सत्त्वस्थान विप जो-जो उदयस्थान संभवै अर जिस-जिस उदयस्थानसहित सत्त्वस्थान विपै जो-जो ववस्थान पाइए तिनका वर्णन है ।
वहरि छठा प्रत्यय अधिकार है, तहां नमस्कारपूर्वक प्रतिमा करि च्यारि मूल पायव अर सत्तावन उत्तरास्रवनि का, अर ते जेसै गुणस्थाननि विप सभवै ताका, तहा व्युच्छित्ति वा प्रास्रवनि के प्रमाण, नामादिक का वर्णन करि, तहां विशेष जानने की पच प्रकारनि का वर्णन है । तहा प्रथम प्रकार विष एक जीव के एक काल मंभव ऐमें जघन्य, मध्यम, उत्कृप्टरूप प्रास्रवस्थान जेते-जेते गुणस्थाननि विपै पाइए तिनका वर्णन है।
बहुरि दूसरा प्रकार विपै एक-एक स्थान विष प्रास्रवभेद वदलने ते जेते-जेते प्रकार होड तिनका वर्णन है ।
बहरि तीसरा प्रकार विपै तिन स्थाननि के प्रकारनि विप संभवते आस्रवनि की अपेक्षा कूटरचना के विधान का वर्णन है ।
वहरि चाया प्रकार विपै तिनहूं कूटनि के अनुसारि अक्षसंचारि विधान ते अंग यावधाननि की कहने का विधानरूप कूटोच्चारण विधान का वर्णन है। वहां
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ज्ञानका पीठिका |
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अविरत विषै युगपत् सभवतै हिंसा के प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भेदनि का, अर ते भेद जेते होइ ताका वर्णन है ।
बहुरि पांचवां प्रकार विषै तिन स्थाननि विषै भंग ल्यावने के विधान का वा गुणस्थाननि विषै संभवते भंगनि का, तहाँ अविरत विषे हिंसा के प्रत्येक द्विसंयोगी आदि भंग ल्यावने कौं गणितशास्त्र के अनुसार प्रत्येक द्विसंयोगी, त्रिसंयोगी आदि भंगनि के ल्यावने के विधान का वर्णन है । बहुरि श्रास्रवनि के विशेषभूत जिनि- जिनि भाव तै स्थिति - अनुभाग की विशेषता लीयें ज्ञानावरणादि जुदि- जुदि प्रकृति का बंध होइ तिनका क्रम तै वर्णन है ।
बहुरि सातवां भावचूलिका नामा अधिकार है । तहा नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञा करि भावनि तै गुणस्थानसज्ञा हो है ऐसे कहि पंच मूल भावनि का, अर इनके स्वरूप का, १ अर तिरेपन उत्तर भावनि का, नर मूल-उत्तर भावनि विषे अक्षसचार विधान ते प्रत्येक परसयोगी, स्वसयोगी, द्विसंयोगी आदि भग जैसे होइ ताका, अर नाना जीव, नाना काल अपेक्षा गुणस्थान विषै संभवते भावनि का वर्णन है ।
बहुरि एक जीव के युगपत् सभवते भावनि का वर्णन है । तहा गुणस्थाननि विषै मूल भावनि के प्रत्येक, परसयोगी, द्विसयोगी आदि संभवते भगनि का वर्णन है । तहां प्रसग पाइ प्रत्येक, द्विसयोगी, त्रिसयोगी आदि भग ल्यावने के गणितशास्त्र अनुसार विधान वर्णन है । बहुरि गुणस्थाननि विषै मूल भावनि की वा तिनके भगनि की संख्या का वर्णन है ।
बहुरि उत्तर भावनि के भंग स्थानगत, पदगत भेद ते दोय प्रकार कहे है । तहा एक जीव के एक काल संभवते भावनि का समूह सो स्थान । तिस अपेक्षा जे स्थानगत भंग, तिन विषै स्वसंयोगी भंग के अभाव का अर गुणस्थाननि विषे संभवते श्रपशमिका दिक भावनि का अर प्रदयिक के स्थाननि के भगनि का वर्णन करि तहां संभवते स्थाननि के परस्पर संयोग की अपेक्षा गुण्य, गुणकार, क्षेपादि विधान ते जैसे जेते प्रत्येक भग अर परसंयोगी विषै द्विसंयोगी आदि भंग होइ तिनका, अर तहां गुण्य, गुरणकार, क्षेप का प्रमाण कहि सर्वभंगनि के प्रमाण का वर्णन है ।
बहुरि जातिपद, सर्वपद भेदकर पदगत भग दोय प्रकार, तिनका स्वरूप कहि गुणस्थाननि विषे जेते जेते जातिपद संभवै तिनका, अर तिनको परस्पर
१. ख पुस्तक मे यह पाठ नही है ।
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४४)
[ गोम्मटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रकरण लगावने की अपेक्षा गुण्य, गुणकार, क्षेप आदि विधान ते जेते-जेते प्रत्येक स्वसंयोगी परसयोगी, द्विसंयोगी आदि भग संभवै तिनका, अर तहां गुण्य, गुणकार, क्षेप का प्रमाण कहि सर्व भंगनि के प्रमाण का वर्णन है ।
वहुरि पिंडपद, प्रत्येकपद भेदकरि सर्वपद भग दोय प्रकार है । तिनके स्वरूप का, अर गुणस्थान विष ए जेते जैसे सभवें ताका, अर तहां परस्पर लगावने ते प्रत्येक द्विसयोगी आदि भग कीए जे भंग होहि तिनका, तहां मिथ्यादृष्टि का पन्द्रहवां प्रत्येक पद विप भंग ल्यावने का, प्रसंग पाइ गणितशास्त्र के अनुसार एकवार, दोयवार आदि सकलन धन के विधान का, अर गुणस्थाननि विष प्रत्येकपद, पिंडपदनि की रचना के विधान का, अर प्रत्येकपदनि के प्रमाण का, अर तहां जेते सर्वपद भंग भए तिनका वर्णन है। वहरि यहा तीनस तिरेसठि कूवाद के भेदनि का अर तिन विष जैसे प्ररूपण है ताका, अर एकान्तरूप मिथ्यावचन, स्याद्वादरूप सम्यग्वचन का वर्णन है।
बहुरि आठवां त्रिकरण चूलिका नामा अधिकार है । तहां मंगलाचरण करि करणनि का प्रयोजन कहि अधःकरण का वर्णन विषै ताके काल का अर तहां सभवते सर्व परिणाम, प्रथम समय संबंधी परिणाम, अर समय-समय प्रति वृद्धिरूप परिणाम, वा द्वितीयादि समय संवन्धी परिणाम, वा समय-समय सम्वन्धी परिणामनि विप खंड रचनाकरि अनुकृष्टि विधान, तहां खंडनि विष प्रथम खंड विष वा खंड-खंड प्रति वृद्धिरूप वा द्वितीयादि खडनि विप परिणाम तिनका अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा वर्णन है। तहां श्रेणीव्यवहार नामा गणित के सूत्रनि के अनुसार ऊर्ध्वरूप गच्छ, चय, उत्तर वन, आदि बन, सर्व धनादिक का, अर अनुकृष्टि विष तिर्यग्रूप गच्छादिक के प्रमाण ल्यावने का विधान वर्णन है । अर तिन खंडनि विपै विशुद्धता का अल्पबहत्व का वर्णन है । वहुरि अपूर्वकरण का वर्णन विषे अनुकृष्टि विधान नाही, अव्वंन्प गच्छादिक का प्रमाण ल्यावने का विधान पूर्वक ताके काल का वा सर्व परिगाम, प्रथम समयसंवन्धी परिणाम, समय-समय प्रति वृद्धिरूप परिणाम, द्वितीयादि नमय मवन्धी परिणाम, तिनका अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा वर्णन है । वहुरि अनिवत्ति करण विपं भेद नाही, तातै तहां कालादिक का वर्णन है।
बहरि नवमा कर्मस्थिति अधिकार है । तहां नमस्कारपूर्वक प्रतिनाकरि पावाग के लक्षण का वा स्थिति अनुसार ताके काल का, वा उदी मो.
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ४५ आबाधाकाल का वर्णन है । बहुरि कर्मस्थिति विष निषेकनि का वर्णन है । बहुरि प्रथमादि गुणहानिनि के प्रथमादि निषेकनि का वर्णन है । बहुरि स्थितिरचना विष द्रव्य, स्थिति, गुणहानि, नानागुणहानि, दोगुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त इनके स्वरूप, का, अर अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा तिनके प्रमाण का वर्णन है । तहां नानागुणहानि अन्योन्याभ्यस्त राशि सर्व कर्मनि का समान नाहीं, तातै इनका विशेष वर्णन है । तहां मिथ्यात्वकर्म की नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त जानने का विधान वर्णन है । इहा प्रसंग पाइ 'अंतधणं गुणगुरिणयं' इत्यादि करणसूत्रकरि गुणकाररूप पंक्ति के जोडने का विधान आदि वर्णन है । बहुरि गुणहानि, दो गुणहानि के प्रमाण का वर्णन है । तहां ही विशेष जो चय ताका प्रमाण वर्णन है । ऐसे प्रमाण कहि प्रथमादि गुरणहानिनि का वा तिनविर्षे प्रथमादि निषेकनि का द्रव्य जानने का विधान वा ताका प्रमाण अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा वर्णन है। बहुरि मिथ्यात्ववत् अन्यकर्मनि की रचना है। तहा गुणहानि, दो गुणहानि तो समान है, पर नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त राशि समान नाहीं । तिनके जानने को सात पंक्ति करि विधान कहि तिनके प्रमाण का, अर जिस-जिसकाजेता-जेता नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त का प्रमाण आया, ताका वर्णन है । बहुरि ऐसे कहि अंकसंदृष्टि अपेक्षा त्रिकोणयंत्र, अर त्रिकोणयंत्र का प्रयोजन, अर तहां एक-एक निषेक मिलि एक समयप्रबद्ध का उदय त्रिकोणयंत्र हो है । पर सर्व त्रिकोणयंत्र के निषेक जोड़े किंचिदून द्वयर्द्धगुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व हो है तिनका वर्णन है । बहुरि निरंतर-सांतररूप स्थिति के भेद, स्वरूप स्वामीनि का वर्णन है। बहुरि स्थितिबंध को कारण जे स्थितिबंधाध्यवसायस्थान तिनका वर्णन विष आयु आदि कर्म के स्थितिबंधाध्यवसायस्थाननि के प्रमाण का पर स्थितिबंधाध्यवसाय के स्वरूप जानने को सिद्धांत वचनिका वर्णनकरि स्थिति के भेदनि को कहि तिन विष जेते-जेते स्थितिबंधाध्यवसायस्थान सभवै तिनके जानने को द्रव्य, स्थिति, गुणहानि, नानागुणहानि, दो-गुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त का वा चय का, वा प्रथमादि गुणहानिनि का, वा तिनके निषेकनि का, वा आदि धनादिक का द्रव्यप्रमाण पर ताके जानने का विधान, ताका वर्णन है । बहुरि इहा एक-एक स्थितिभेद संबंधी स्थितिबन्धाध्यवसायस्थननि विर्ष नानाजीव अपेक्षा खंड हो है । तहां ऊपरली-नीचली स्थिति संबंधी खंड समान भी हो है; तातै तहां अनुकृष्टि-रचना का वर्णन है । तहा आयुकर्म का जुदा ही विधान है, तातै पहिले आयु की कहि, पीछे मोहाद्धिक की अनुकृष्टि-रचना का अंकसंदृष्टि वा अर्थ अपेक्षा वर्णन है । तहां
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[प्रथमद्दष्टि प्रकरण
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खंडनि की समानता असमानता इत्यादि अनेक कथन है । वहुरि प्रनुभागबंध को कारण जे अनुभागाध्यवसायस्थान तिनका वर्णन विपे तिन सर्वनि का प्रमाण कहि, स्थिति, तहां एक-एक स्थितिभेद संबंधी स्थितिवंधाध्यवसाय स्थाननि विषे द्रव्य, गुणहानि आदि का प्रमारणादिक कहि एक-एक स्थितिबंधाध्यवसायस्थान जे निपेक तिन विषै जेते - जेते अनुभागाध्यवसायस्थान पाइए तिनका वर्णन है । वहुरि मूलग्रंथकर्त्ताकरि कीया हुवा ग्रंथ की संपूर्णता होने विपं ग्रथ के हेतु का, चामुंडराय राजा को आशीर्वाद का, ताकरि बनाया चैत्यालय वा जिनविव का, वीरमार्तड राजा कौं आशीर्वाद का वर्णन है । बहुरि संस्कृत टीकाकार अपने गुरुनि का वा ग्रंथ होने के समाचार कहे है तिनका वर्णन है ।
श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह मूलशास्त्र, ताकी जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा संस्कृतटीका के अनुसार इस भाषाटीका विषे अर्थ का वर्णन होसी arat सूचनका कही ।
अर्थसंदृष्टि सम्बन्धी प्रकररण
बहुरि तहां जे संदृष्टि है, तिनका अर्थ, वा कहे श्रर्थ तिनकी संदृष्टि जानने की इस भापाटीका विषै जुदा ही संदृष्टि अधिकार विषै वर्णन होसी ।
इहां कोऊ कहै - अर्थ का स्वरूप जान्या चाहिए, संदृष्टिनि के जाने कहा सिद्धि हो है ?
ताका समाधान - संदृष्टि जाने पूर्वाचार्यनि की परंपरा ते चव्या आया जो संकेतरूप अभिप्राय, ताको जानिए है । अर थोरे मे वहुत अर्थ को नीकै पहिचानिए है । घर मूलशास्त्र वा संस्कृतटीका विषै वा अन्य विपै, जहां संदृष्टिरूप व्याख्यान है, तहां प्रवेश पाइये है । अर अलौकिक गणित के लिखने का विधान आदि चमत्कार भासे है । घर संदृष्टिनि को देखते ही ग्रथ की गंभीरता प्रगट हो है - इत्यादि प्रयोजन जानि संदृष्टि अविकार करने का विचार कीया है ।
ग्रंथनि
तहां केई संदृष्टि ग्राकाररूप है, केई अंकरूप है, केई अक्षररूप है, केई निगने हो का विशेषल्प है, सो तिस अविकार विषै पहिले तो सामान्यपने संदृष्टिनि वगन है, वहा पदार्थनि के नाम ते, संख्या ते अर अक्षरनि ते अंकनि की अर प्रभूति श्रादि की संदृष्टिनि का वर्णन है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ४७ बहुरि सामान्य संख्यात, असंख्यात,अनंत की, पर इनके इकईस भेदनि की, अर पल्य आदिआठ उपमा प्रमाण की, पर इनके अर्धच्छेद वा वर्गशलाकानि की सदृष्टिनि का वर्णन है । बहुरि परिकर्माष्टक विर्ष संकलनादि होते जैसे सहनानि हो है पर बहुत प्रकार संकलनादि होते वा संकलनादि आठ विर्षे एकत्र दोय, तीन आदि होतें जो सहनानी हो है, वा संकलनादि विष अनेक सहनानी का एक अर्थ हो है इत्यादिकिनि का वर्णन है । पर स्थिति-अनुभागादिक विष आकाररूप सहनानी है, वा केई इच्छित सहनानी है, इत्यादिकनि का वर्णन है । जैसे सामान्य वर्णन करि पीछे श्रीमद् गोम्मटसार नामा मूलशास्त्र वा ताकी जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा टीका, ताविर्षे जिस-जिस अधिकार विष कथन का अनुक्रम लीए संख्यादिक अर्थ की जैसे-जैसे संदृष्टि है, तिनका अनुक्रम ते वर्णन है। तहां केई करण वा त्रिकोणयंत्र का जोड़ इत्यादिकनि का संदृष्टिनि का संस्कृत टीका विष वर्णन था और भाषा करते अर्थ न लिख्या था, तिनका इस संदष्टि अधिकार विष अर्थ लिखिएगा । अर मूलशास्त्र के यंत्ररचना विर्षे वा संस्कृत टीका विष केई संदृष्टिरूप रचना ही लिखी थी। तिनको अर्थपूर्वक इस संदृष्टि अधिकार विष लिखिएगा, सो इहां तिनकी सूचनिका लिखै विस्तार होई, तातै तहां ही वर्णन होगा सो जानना ।
इहां कोऊ कहै - मूलशास्त्र वा टीका विष जहां संदष्टि वा अर्थ लिख्या था, तहां ही तुम भी तिनके अर्थनि का निरूपण करि क्यों न लिखान किया ? तहां छोडि तिनको एकत्र करि संदृष्टि अधिकार विर्षे कथन किया सो कौन कारण ?
तहां समाधान ~ जो यहु टीका मंदबुद्धीनि के ज्ञान होने के अर्थि करिए है, सो या विषै बीचि-बीचि संदृष्टि लिखने ते कठिनता तिनको भास, तव अभ्यास ते विमुख होइ, तातै जिनको अर्थमात्र ही प्रयोजन होहि, सो अर्थ ही का अभ्यास करी अर जिनको संदृष्टि को भी जाननी होइ, ते संदृष्टि अधिकार विष तिनका भी अभ्यास करौ।
बहुरि इहां कोई कहै - तुम असा विचार कीया, परंतु कोई इस टीका का अवलंबन ते संस्कृत टीका का अभ्यास कीया चाहै, तो कैसे अभ्यास करै ?
ताकों कहिए है - अर्थ का तौ अनुक्रम जैसे संस्कृत टीका विप है, तैसे या विष है ही। पर जहां जो सदृष्टि आदि का कथन वीचि मै प्राव, ताकी मदृष्टि अधिकार विष तिस स्थल विष बाकी कथन है; ताकी जानि तहा अभ्यास करी । ऐसै विचारि संदृष्टि अधिकार करने का विचार कीया है ।
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४८ ]
[ लब्धिसार-क्षपणासार सम्बन्धी प्रकरण
लब्धिसार-क्षपणासार सम्बन्धी प्रकररण
बहुरि ऐसा विचार भया जो लब्धिसार र क्षपणासार नामा शास्त्र है, तिन विपै सम्यक्त्व का अर चारित्र का विशेषता लीए बहुत नीकै वर्णन है । ग्रर तिस वर्णन को जानै मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थाननि का भी स्वरूप नीकै जानिए है, सो इनका जानना बहुत कार्यकारी जानि, तिन ग्रंथनि के अनुसारि किछू कथन करना । ता लब्धिसार शास्त्र के गाथा सूत्रनि की भाषा करि इस ही टीका विषै मिलाइएगा । तिस ही के क्षपक श्रेणी का कथन रूप गाथा सूत्रनि का अर्थ विषै क्षपणासार का अर्थ गर्भित होयगा ऐसा जानना ।
इहां कोऊ कहै - तिन ग्रंथनि की जुदी ही टीका क्यों न करिए ? याही विपे कथन करने का कहा प्रयोजन
ताका समाधान - गोम्मटसार विषै कह्या हुवा केतेइक अर्थनि को जाने विना तिन ग्रंथनि विषै कह्या हुवा केतेइक अर्थनि का ज्ञान न होय, वा तिन ग्रंथनि विषै कह्या हुवा अर्थ को जाने इस शास्त्र विषै कहे हुए गुणस्थानादिक केतेइक अर्थनि का स्पष्ट जान होइ, सो ऐसा संबंध जान्या अर तिन ग्रंथनि विषे कहे अर्थ कठिन हूँ, सो जुदा रहे प्रवृत्ति विशेष न होइ ताते इस ही विषे तिन ग्रंथनि का अर्थ लिखने का? विचार कीया है । सो तिस विषे प्रथमोपशम सम्यक्त्वादि होने का विधान धाराप्रवाह रूप वर्णन है । तातें ताकी सूचनिका लिखे विस्तार होइ, कथन आगे होयहोगा । ताते इहां अधिकार मात्र ताकी सूचनिका लिखिए है ।
प्रथम मंगलाचरण करि प्रकार कारण का वा प्रकृतिबंधापसरण, स्थितिबंघापसररण, स्थितिकांडक, अनुभागकांडक, गुरणश्रेणी फालि इत्यादि, केतीइक संज्ञानि का स्वरूप वर्णन करि प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने का विधान वर्णन है ।
तहा प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने योग्य जीव का, अर पंचलब्धिनि के नामादिक कहि, तिनके स्वरूप का वर्णन है । तहां प्रायोग्यता लब्धि का कथन विषै जैन स्थिति घटै है अर तहा च्यारि गति अपेक्षा प्रकृतिवन्धापसरण हो है ताका, श्रर स्थिति, अनुभाग, प्रदेशवंव का वर्णन है । वहुरि च्यारि गति अपेक्षा एक जीव के युगपत् संभवता भंगसहित प्रकृतिनि के उदय का, अर स्थिति, अनुभाग, प्रदेश के
६. प्रति मे 'वर्थ लिखने का' स्थान पर 'अनुसारि किछु कथन' ऐसा पाठ मिलता है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ४६ उदय का वर्णन है । बहुरि एक जीव के युगपत् संभवती प्रकृतिनि के सत्त्व का रस स्थिति, अनुभाग, प्रदेश के सत्त्व का वर्णन है । बहुरि करणलब्धि का कथन विषै तीन करणनि का नाम-कालादिक कहि तिनके स्वरूपादिक का वर्णन है ।
तहां अधःकरण विष स्थितिबंधापसरणादिक आवश्यक हो है, तिनका वर्णन है।
अर अपूर्वकरण विर्षे च्यारि आवश्यक, तिनविषै गुणश्रेणी निर्जरा का कथन है। तहां अपकर्षण किया हया द्रव्य को जैसे उपरितन स्थिति गुणत्रैणी आयाम उदयावली विष दीजिए है, सो वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ उत्कर्षण वा अपकर्षण किया हुआ द्रव्य का निक्षेप अर प्रतिस्थापन का विशेष वर्णन है । बहुरि गुणसक्रमण इहा न संभव है, सो जहां संभव है ताका वर्णन है । बहुरि स्थितिकाडक, अनुभागकांडक के स्वरूप, प्रमाणादिक का अर स्थिति, अनुभागकांडकोत्करण काल का वर्णनपूर्वक स्थिति, अनुभाग, सत्त्व घटावने का वर्णन है ।
बहुरि अनिवृत्तिकरण विर्ष स्थितिकांडकादि विधान कहि ताके काल का संख्यातवां भाग रहे अंतरकरण हो है, ताके स्वरूप का, अर आयाम प्रमाण का, अर ताके निषेकनि का अभाव करि जहां निक्षेपण कीजिए है ताका इत्यादि वर्णन. है । बहुरि अंतरकरण करने का अर प्रथम स्थिति का, अर अंतरायाम का काल वर्णन है । बहुरि अंतरकरण का काल पूर्ण भए पीछे प्रथम स्थिति का काल विष दर्शनमोह के उपशमावने का विधान, काल, अनुक्रमादिक का, तहां आगाल, प्रत्यागाल जहां पाइए है वा न पाइए है ताका, दर्शनमोह की गुणश्रेणी जहा न होइ है, ताका इत्यादि अनेक वर्णन है।
बहुरि पीछे अंतरायाम का काल प्राप्त भए उपशम सम्यक्त्व होने का, तहा एक मिथ्यात्व प्रकृति को तीन रूप परिणमावने के विधान का वर्णन है । बहुरि उपशम सम्यक्त्व का विधान विर्ष जैसे काल का अल्पबहुत्व पाइए है, तैसै वर्णन है ।
___ बहुरि प्रथमोपशम सम्यक्त्व विर्षे मरण के अभाव का, अर तहा ते सासादन होने के कारण का, अर उपशम सम्यक्त्व का प्रारंभ वा निष्ठापन विष जो-जो उपयोग, योग, लेश्या पाइए ताका, अर उपशम सम्यक्त्व के काल, स्वरूपादिक का, अर तिस काल को पूर्ण भए पीछे एक कोई दर्शनमोह की प्रकृति उदय प्रावने का, तहा जैसे
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[ लघिसार-क्षपणासार सम्बन्धी प्रकरण द्रव्य की अपकर्षण करि अंतरायामादि विष दीजिए है ताका, अर दर्शनमोह का उदय भए वेदक सम्यक्त्व वा मिश्र गुणस्थान वा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हो है, तिनके स्वरूप का वर्णन है।
बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व का विधान वर्णन है । तहां क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारंभ जहां होइ ताका, अर प्रारंभ-निष्ठापन अवस्था का वर्णन है । वहुरि अनंतानुवंधी के विसंयोजन का वर्णन है। तहां तीन करणनि का अर अनिवृत्तिकरण विर्षे स्थिति घटने का अर अन्य कषायरूप परिणमने के विधान प्रमाणादिक का कथन है। वहुरि विश्राम लेइ दर्शनमोह की क्षपणा हो है, ताका विधान वर्णन है । तहां संभवता स्थितिकाडादिक का वर्णन है । अर मिथ्यात्व, मिश्रमोहनी, सम्यक्त्वमोहनी विप स्थिति घटावने का, वा संक्रमण होने का विधान वर्णन करि सम्यक्त्वमोहनी की आठ वर्ष प्रमाण स्थिति रहे अनेक क्रिया विशेष हो हैं, वा तहां गुणश्रेणी, स्थितिकांडकादिक विप विशेष हो है, तिनका वर्णन है । वहुरि कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होने का वा तहां मरण होते लेश्या वा उपजने का, वा कृतकृत्य वेदक भए पीछे जे क्रिया विशेष हो हैं अर तहां अंतकांडक वा अंतफालि विष विशेष हो है, तिनका वर्णन है । वहुरि क्षायिक सम्यक्त्व होने का वर्णन है। वहुरि क्षायिक सम्यक्त्व के विधान विष संभवते काल का तेतीस जायगां अल्पबहुत्व वर्णन है। बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का वा मुक्त होने का इत्यादि वर्णन है।
वहुरि चारित्र दोय प्रकार - देशचारित्र, सकलचारित्र । सो ए जाकै होइ वा सन्मुख होते जो क्रिया होइ सो कहि देशचारित्र का वर्णन है। तहां वेदक सम्यक्त्व सहित देशचारित्र जो ग्रहै, ताके दोइ ही कारण होइ, गुणश्रेणी न होइ, देशसंयत को प्राप्त भए गुणश्रेणी होइ इत्यादि वर्णन है । वहुरि एकांतवृद्धि देशसंयत के स्वरूपादिक का वर्णन है । बहुरि अधःप्रवृत्त देशसंयत का वर्णन है। तहां ताके स्वरूप-कालादिक का, अर तहां स्थिति-अनुभागखंडन न होइ, अर तहां देशसंयत ते भ्रप्ट होइ देणसंयत कौं प्राप्त होड ताकै करण होने न होने का, अर देशसंयत विष संभवते गुणश्रेण्यादि विगेप का वर्णन है । बहुरि देशसंयम के विधान विप संभवते काल का अल्पवहुत्वता का वर्णन है । बहुरि जघन्य, उत्कृष्ट देशसंयम जाके होड ताका, अर देशसंयम विर्षे पदक का अविभागप्रतिच्छेद पाइए ताका वर्णन है । बहुरि देशसंयम के स्थाननि गा, पर निनके प्रतिपात, प्रतिपद्यमान, अनुभयरूप तीन प्रकारनि का, अर ते क्रम
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका 1
[ ५१
तें जैसे जिनके जेते पाइए, अर बीचि में स्वामीरहित स्थान पाइए तिनका, अर ता विशुद्धता का वर्णन है ।
बहुरि सकलचारित्र तीन प्रकार - क्षायोपशमिक, श्रपशमिक, क्षायिक; तहां क्षायोपशमिक चारित्र का वर्णन । तिसविषे यहु जाकै होइ ताका, वा सन्मुख हो जो क्रिया होइ, ताका वर्णन करि वेदक सम्यक्त्व सहित चारित्र ग्रहण करनेवाले कैं दोय ही करण होइ इत्यादि अल्पबहुत्व पर्यंत सर्व कथन देशसंयतवत् है, ताका वर्णन है । बहुरि सकलसंयम स्पर्द्धक वा प्रविभागप्रतिच्छेदनि का कथन करि प्रतिपात, प्रतिपद्यमान, अनुभयरूप स्थान कहि ते जैसे जेते जिस जीव के पाइए, तिनका क्रम ते वर्णन है । तहां विशुद्धता का वा म्लेच्छ के सकलसंयम संभवने का वा सामयिकादि संबंधी स्थाननि का इत्यादि विशेष वर्णन है । बहुरि औपशमिक चारित्र का वर्णन है । तहां वेदक सम्यक्त्वी जिस-जिस विधानपूर्वक क्षायिक सम्यक्त्वी वा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी होइ उपशम श्रेणी चढे है, ताका वर्णन है । तहां द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होने का विधान विषै तीन करण, गुणश्रेणी, स्थितिकाडकादिक वा अंतरकरणादिक का विशेष वर्णन है ।
बहुरि उपशम श्रेणी विषै आठ अधिकार हैं, तिनका वर्णन है । तहां प्रथम अधःकरण का वर्णन है । बहुरि दूसरा अपूर्वकरण का वर्णन है । इहां संभवते श्रावश्यकनिका वर्णन है। इहांते लगाय उपशम श्रेणी का चढ़ना वा उतरणा विषै स्थितिबधापसरण अर स्थितिकांडक वा अनुभागकांडक के आयामादिक के प्रमाण का, अर इनको होते जैसा - जैसा स्थितिबंध अर स्थितिसत्त्व वा अनुभागसत्त्व अवशेष रहे, ताका यथा ठिकाणे बीचि-बीचि वर्णन है, सो कथन आगे होइगा तहां जानना । बहुरि पूर्वकरण का वर्णन विषै प्रसंग पाइ, अनुभाग के स्वरूप का वा वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, गुणहानि, नानागुणहानि का वर्णन है । अर इहां गुणश्रेणी, गुणसंक्रम हो है, भर प्रकृतिबंध का व्युच्छेद हो हैं, ताका वर्णन है । बहुरि अनिवृत्तिकरण का कथन विषै दश करणनि विषै तीन करणनि का अभाव हो है । ताका अनुक्रम लीएं कर्मनि का स्थितिबंध करने रूप क्रमकरण हो है ताका, तहां असंख्यात समयप्रवद्धनि की उदीरणादिक का, र कर्मप्रकृतिनि के स्पर्द्धक देशघाती करनेरूप देशघातीकरण का,
कर्मप्रकृतिनि के केतेइक निषेकनि का प्रभाव करि अन्य निषेकनि विषै निपेक्षण करनेरूप अंतरकरण का, अर अंतरकरण की समाप्तता भए युगपत् सात करननि का प्रारंभ हो है ताका, तहां ही आनुपूर्वी संक्रमण का - इत्यादि वर्णन करि नपुसकवेद
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५२ ]
[ लब्धिसार-क्षपणासार सम्बन्धी प्रकरण
घर नौवेद पर छह हास्यादिक, पुरुषवेद, तीन क्रोध पर तीन माया अर दोय लोभ; इनके उपशमावने के विधान का अनुक्रम तैं वर्णन है । तहा गुणश्रेणी का वा स्थिति अनुभागकांडकघात होने न होने का घर नपुंसकवेदादिक विषै नवकवंध के स्वरूप परिणमनादि विशेष का, वा प्रथम स्थिति के स्वरूप का आदि विशेष का, वा तहां ग्रागाल. प्रत्यागाल गुणश्रेणी न हो है इत्यादि विशेषनि का, श्रर संक्रमणादि विशेष पाइए हैं, तिनका इत्यादि अनेक वर्णन पाइए है । बहुरि संज्वलन लोभ का उपशम विधान विपे लोभ-वेदककाल के तीन भागनि का, अर तहा प्रथम स्थिति त्राटिक का वर्णन करि सूक्ष्मकृष्टि करने का विधान वर्णन है । तहां प्रसग पाइ वर्ग, वर्गरणा, स्पर्द्धकनि का कथन करिअर कूष्टि करने का वर्णन है । इहां बादरकृष्टि ती ही नाही, सूक्ष्मकृप्ट है, तिनविषे जैसे कर्मपरमाणु परिणमै है वा तहां ही जैसे ग्रनुभागादिक पाइए हैं, वा तहां अनुसमयापवर्त्तनरूप अनुभाग का घात हो है इत्यादिकनिका, घर उपशमावने आदि क्रियानि का वर्णन है । बहुरि सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान की प्राप्त होड सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त जो लोभ, ताके उदय कौ भोगवने का, तहा संभवती गुणश्रेणी, प्रथम स्थिति आदि का इहां उदय अनुदयरूप जैसे कृष्टि पाइए निका, वा संक्रमण - उपशमनादि क्रियानि का वर्णन है । वहुरि सर्व कषाय उपशमाय उपशांत कपाय हो है ताका, अर तहां संभवती गुणश्रेणी यादि क्रियानि का, घर उहा जे प्रकृति उदय हैं, तिनविषे परिणामप्रत्यय श्रर भवप्रत्ययरूप विशेष का वर्णन है । ग्रैम सभवती इकईस चारित्रमोह की प्रकृति उपणमावने का विधान कहि उपगांत कपाय ते पडनेरूप दोय प्रकार प्रतिपात का, तहां भवक्षय निमित्त प्रतिपान ने देव नववी असयत गुणस्थान को प्राप्त हो है । तहा गुरणश्रेणी वा अनुपम वा अतर का पूरा करना इत्यादि जे क्रिया हो है, तिनका वर्णन है । घराय निमित्त ते क्रम ते पडि स्वस्थान ग्रप्रमत्त पर्यंत प्राव तहा गुणश्रेणी प्रादिकका वा चटते जे क्रिया भई थी, तिनका ग्रनुक्रम ते नष्ट होने का वर्णन है ।
रतनं पड़ने का तहां सभवति क्रियानि का पर ग्रप्रमत्त ते चढै तो बहुरि श्रेणी गाउँ नाका वर्णन है । मैने पुरुषवेद, सज्वलन क्रोध का उदय सहित जो श्रेणी ... मी नाही अपेक्षा वर्णन है । बहुरि पुरुषवेद, सज्वलन मान सहित यादि ग्यारह प्रकार उपराम श्रेणी चटनेशन के जो-जो विशेष पाइए है, तिनका वर्णन है । बहुरि पारित विधान विषे संभवने काल का अल्पवहुत्व वर्णन है । क्षणागार के अनुनारि लोग आर्थिकचारित्र के विधान का वर्णन है । तहां मी प्रमिका का घर अपक श्रेणी की सन्मुख जीव का वर्णन है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ५३
बहुरि अधकरण का वर्णन है । तहा विशुद्धता की वृद्धि आदि च्यारि आवश्यकनि का, अर तहां सभवते परिणाम, योग, कषाय, उपयोग, लेश्या, वेद, अर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप कर्मनि का सत्त्व, बध उदय, तिनका वर्णन है ।
बहुरि पूर्वकरण का वर्णन है । तहा सभवते स्थितिकाडकघात, अनुभागकाडकघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रम इनका विशेष वर्णन है । अर इहा प्रकृतिबंध की व्युच्छित्ति हो है, तिनका वर्णन है । इहातै लगाय क्षपक श्रेणी विषै जहा जहां जैसा - जैसा स्थितिबधापसरण, अर स्थितिकाडकघात, अनुभागकाडकघात पाइए अर इनको होते जैसा जैसा स्थितिबंध, अर स्थितिसत्त्व र अनुभागसत्त्व रहै, तिनका बीच-बीच वर्णन है, सो कथन होगा तहा जानना ।
बहुरि अनिवृत्तिकरण का कथन है । तहा स्वरूप, गुणश्रेणी, स्थितिकाडकादि का वर्णन करि कर्मनि का क्रम लीए स्थितिबंध, स्थितिसत्त्व करने रूप क्रमकरण का वर्णन है । बहुरि गुणश्रेणी विषै असख्यात समयप्रबद्धनि की उदीरणा होने लगी, ताका वर्णन है ।
बहुरि प्रत्याख्यान - अप्रत्याख्यानरूप आठ कषायनि के खिपावने का विधान वर्णन है । बहुरि निद्रा - निद्रा आदि सोलह प्रकृति खिपावने का विधान वर्णन है । बहुरि प्रकृतिनि की देशघाती स्पर्द्धकनि का बध करनेरूप देशघातीकरण का वर्णन है । बहुरि च्यारि संज्वलन, नत्र नोकषायनि के केतेइक निषेकनि का अभाव करि अन्यत्र निक्षेपण करनेरूप अंतरकरण का वर्णन है । बहुरि नपुसकवेद खिपावने का विधान वर्णन है । तहा सक्रम का वा युगपत् सात क्रियानि का प्रारंभ हो है, तिनका इत्यादि वर्णन है । बहुरि स्त्रीवेद क्षपणा का वर्णन है । बहुरि छह नोकपाय अर पुरुषवेद इनकी क्षपणा का विधान वर्णन है । बहुरि अश्वकर्णकरणसहित पूर्वस्पर्द्धक करने का वर्णन है । तहा पूर्वस्पर्द्धक जानने कौ वर्ग, वर्गरणा, स्पर्द्धकनि का घर तिनविषै देशघाती, सर्वधातिनि के विभाग का, वा वर्गरगा की समानता, असमानता आदि का कथन करि अश्वकरण के स्वरूप, विधान क्रोधादिकनि के अनुभाग का प्रमाणादिक का अर अपूर्वस्पर्द्धकनि के स्वरूप प्रमाण का तिनविधै द्रव्य - अनुभागादिक का, तहा समय-समय सबधी क्रिया का वा उदयादिक का बहुत वर्णन है ।
बहुरि कृष्टिकरण का वर्णन है । तहा क्रोधवेदककाल के विभाग का, र बादरकृष्टि के विधान विषै कृष्टिनि के स्वरूप का, तहां वारह सग्रहकृप्टि, एक - एक संग्रहकृष्टि
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लिब्धिसार-क्षपणासार सम्बन्धी प्रकरण
विर्ष अनती अतरकृष्टि तिनका, अर तिनविर्ष प्रदेश अनुभागादिक के प्रमाण का, तहां समय-समय सवधी क्रियानि का वा उदयादिक का अनेक वर्णन है । वहुरि कृष्टि वेदना का विधान वर्णन है । तहां कृष्टिनि के उदयादिक का, वा संक्रम का, वा घात करने का, वा समय-समय संबंधी क्रिया का विशेष वर्णन करि क्रम तें दश संग्रहकृप्टिनि के भोगवने का विधान-प्रमाणादिक का बहुत कथन करि तिनकी क्षपणा का विधान वर्णन है । बहुरि अन्य प्रकृति संक्रमण करि इनरूप परिणमी, तिनके द्रव्यसहित लोभ की द्वितीय, तृतीय सग्रहकृष्टि के द्रव्य को सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमावै है, ताके विधान-स्वरूप-प्रमाणादिक का वर्णन है । असे अनिवृत्तिकरण का बहुत वर्णन है। याविप गुणश्रेणी-अनुभागघात के विशेष आदि बीचि-बीचि अनेक कथन पाइए है, सो आगे कथन होइगा तहां जानना।
वहरि सूक्ष्मसापराय का वर्णन है। तहां स्थिति, अनुभाग का घात वा गुणश्रेणी आदि का कथन करि बादरकृष्टि संबंधी अर्थ का निरूपण पूर्वक सूक्ष्मसापराय सवंधी कृष्टिनि के अर्थ का निरूपण, अर तहां सूक्ष्मकृष्टिनि का उदय, अनुदय, प्रमाण अर संक्रमण, क्षयादिक का विधान इत्यादि अनेक वर्णन है । बहुरि यहु तो पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध का उदय सहित श्रेणी चढ्या, ताकी अपेक्षा कथन है । बहुरि पुरुषवेद, संज्वलन मान आदि का उदय सहित ग्यारह प्रकार श्रेणी चढने वालो के जो-जो विशेप पाइए, ताका वर्णन है । औसै कृष्टिवेदना पूर्ण भए ।
बहुरि क्षीणकषाय का वर्णन । तहां ईर्यापथबंध का, अर स्थिति-अनुभागघात वा गुगथेणी आदि का, वा तहां संभवते ध्यानादिक का अर ज्ञानावरणादिक के क्षय होने के विधान का, अर इहाँ शरीर सम्बन्धी निगोद जीवनि के अभाव होने के क्रम का इत्यादि वर्णन है।
बहरि सयोगकेवली का वर्णन है । तहां ताके महिमा का अर गुणश्रेणी या पर विहार-पाहारादिक होने न होने का वर्णन करि अतर्मुहुर्त मात्र आयु रहै प्रायजिनकरण हो है ताका, तहां गुणश्रेणी आदि का, अर केवलसमुद्घात का, तहा दं-कपाटादिक के विधान वा क्षेत्रप्रमाणादिक का, वा तहा संभवती स्थिति-अनुभाग घटने ग्रादि क्रियानि का वा योगनि का इत्यादि वर्णन है । वहुरि वादर मन-वचन गय योग को निरोधि मूदम करने का, तहां जैसै योग हो है, ताका अर सूक्ष्म मनोयोग, दचनगोग, उच्छ्वास-निश्वास, काययोग के निरोध करने का, तहां काययोग के
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ५५ पूर्वस्पर्द्धकनि के अपूर्वस्पर्द्धक अर तिनकी सूक्ष्मकृष्टि करिए है, तिनका स्वरूप, विधान, प्रमाण, समय-समय सम्बन्धी क्रियाविशेष इत्यादिक का अर करी सूक्ष्मकृष्टि, ताकौं भोगवता सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान युक्त हो है, ताका वा तहा सभवते स्थितिअनुभागघात वा गुणश्रेणी आदि विशेष का वर्णन है ।
बहुरि अयोगकेवली का वर्णन है । तहां ताकी स्थिति का, शैलेश्यपना का, ध्यान का, तहा अवशेष सर्व प्रकृति खिपवाने का वर्णन है ।
बहुरि सिद्ध भगवान का वर्णन है । तहां सुखादिक का, महिमा का, स्थान का, अन्य मतोक्त स्वरूप के निराकरण का इत्यादि वर्णन है । जैसे लब्धिसार क्षपणासार कथन की सूचनिका जाननी ।
___ बहुरि अन्त विर्षे अपने किछु समाचार प्रगट करि इस सम्यग्ज्ञानचद्रिका की समाप्तता होते कृतकृत्य होइ आनद दशा को प्राप्त होना होइगा । जैसै सूचनिका करि ग्रंथसमुद्र के अर्थ संक्षेपपनै प्रकट किए है ।
इति सूचनिका।
परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण बहुरि इस करणानुयोगरूप शास्त्र के अभ्यास करने के अर्थि गणित का ज्ञान अवश्य चाहिये, जात अलंकारादिक जानै प्रथमानुयोग का, गणितादिक जाने करणानुयोग का, सुभाषितादिक जानै चरणानुयोग का, न्यायादि जानै द्रव्यानुयोग का विशिष्ट ज्ञान हो है, तातै गणित ग्रंथनि का अभ्यास करना। अर न बने तो परिकर्माष्टक तौ अवश्य जान्या चाहिये । जाते याकौ जाणे अन्य गणित कर्मनि का भी विधान जानि तिनको जाने पर इस शास्त्र विष प्रवेश पावै । ताते इस शास्त्र का अभ्यास करने को प्रयोजनमात्र परिकर्माष्टक का वर्णन इहा करिए है
तहां परिकर्माष्टक विषै संकलन, व्यवकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, घन, वर्गमूल, घनमूल ए आठ नाम जानने । ए लौकिक गणित विष भी सभव है, अर अलौकिक गणित विष भी संभव है । सो लौकिक गणित तो प्रवृत्ति विष प्रसिद्ध ही है । अर अलौकिक गणित जघन्य संख्यातादिक वा पल्यादिक का व्याख्यान आगे जीवसमासाधिकार पूर्ण भए पीछे होइगा, तहां जानना । अव संकलनादिक का स्वरूप
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ] चौदह भए । तहां जोड विष दश स्थानीय चौका लिख्या अर रह्या एका, ताको अर शत स्थानीय दूवा को जोडै, तीन भया, सो जोड विषे शत स्थानीय लिख्या । जैसे जोडै तीन से चालीस भये । जैसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि व्यवकलन विर्षे मूलराशि के एक स्थानीय आदि अंकनि विष ऋण राशि के एक स्थानीय आदि अंकनि कौं यथाक्रम घटाइए । जो मूलराशि के एक स्थानीय आदि अंक ते ऋणराशि के एक स्थानीय आदि अक अधिक प्रमाण लीए होइ तौ धनराशि के दश स्थानीय आदि अंक विषै एक घटाइ धनराशि के एक स्थानीय आदि अंक विषै दश जोडि, तामै ऋणराशि का अंक घटावना । सो प्रवृत्ति विषै जैसे बाकी काढने का विधान है, तैसे ही यह जानना । असे करते जो होइ, सो अवशेष प्रमाण जानना ।
इहां उदाहरण - जैसे छह सै पिचहत्तरि मूलराशि विष बाणवै (६७५-९२) ऋण घटावना होइ, तहां एक स्थानीय पांच में दूवा घटाए तीन रहे अर दश स्थानीय सात विष नव घटै नाही तातै शतस्थानीय छक्का मैं एक घटाइ ताके दश सात विषै जोडै सतरह भए, तामैं नौ घटाइ आठ रहे शत स्थानीय छक्का में एक घटाये पांच रहे, तामै ऋण का अंक कोऊ घटावने को है नाही ताते, पाच ही रहे । असे अवशेष पाच सै तियासी प्रमाण आया। जैसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि गुणकार विष गुण्य के अंत अंक ते लगाय आदि अक पर्यत एक-एक अंक को क्रम ते गुणकार के अंकनि करि गुणि यथास्थान लिखिए वा जोडिए, तब गुणित राशि का प्रमाण आवै ।
इहां उदाहरण - जैसे गुण्य दोय सै छप्पन अर गुणकार सोलह (२५६४१६) । तहां गुण्य का अंत अंक दूवा को सोलह करि गुणना । तहा छक्का तौ दूवा ऊपरि अर एका ताके पीछे २५६ असे स्थापन करि एक करि दूवा की गुणे, दोय पाये, सो तो एक के नीचे लिखना । अर छह करि दूवा की गुणे बारह पाए, तिसविरे दूवा तौ गुण्य की जायगां लिखना एका पहिलै दोय लिख्या था तामै जोडना तब असा भया [३२ ५६] । बहुरि जैसे ही गुण्य का उपात अक पांचा, ताकी सोलह करि गुणना तहा असे ३२, ५६ स्थापना करि एका करि पाचा की गुणे, पांच भये, सो तो एका के नीचे दूवा, तामै जोडिए अर छक्का करि पांचा को गुरणे तीस भए, तहां बिदी पांचा की जायगां मांडि तीन पीछले अंकनि विष जोडिए असे कीए
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६.]
[ परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण ऐसा ४००६ भया । वहुरि गुण्य का आदि अंक छक्का की सोलह करि गुणना तहां ऐसे ४००६ स्थापि एक करि छह को गुणे छह भये सो तौ एका के नीचे विदी तामै जोडिए अर छ को छ करि गुणे छत्तीस भया, तहा छक्का तौ गुण्य का छक्का की जायगां स्थापना, तीया पीछला अंक छक्का तामै जोडना, ऐसे कीए ऐसा ४०६६ भया । या प्रकार गुरिणत राशि च्यारि हजार छिनवै आया। ऐसे ही अन्यत्र विधान जानना ।
बहुरि भागहार विष भाज्य के जेते अंकनि विष भागहार का भाग देना संभव, तितने अंकनि को ताका भाग देइ पाया अंक को जुदा लिखि तिस पाया अंक करि भागहार को गुरणे जो प्रमाण होइ, तितना जाका भाग दीया था, तामै घटाय अवणेप तहा लिखना । वहरि तैसे ही भाग दीए जो अंक पावै, ताको पूर्व लिख्या था अंक, ताके आगे लिखि ताकरि भागहार को गुणि तैसे ही घटावना। जैसै यावत् भाज्यराशि नि शेष होइ तावत् कीए जुदे लिखे अंक प्रमाण एक भाग आवै है ।
इहा उदाहरण-जैसे भाज्य च्यारि हजार छिनवै, भागहार सोलह । तहां भाज्य का अन्त अंक च्यारि को तौ सोलह का भाग संभव नाही तातै दोय अंके चालीस तिनको भाग देना, तहा ऐसे १६ लिखि। इहां तीन आदि अंकनि करि सोलह की गुण, ती चालीस ते अधिक होइ जाय तातै दोइ पाये सो दूवा जुदा लिखि, नाकरि सोलह की गुणि चालीस मै घटाए अंसा ८६६ भया ।
४०४६
८६६
ब्रहरि इहा निवासी की सोलह का भाग दीए १६ पांच पाए, सो दूवा के प्रान लिन्वि, नाकरि सोलह की गुनि निवासी में घटाए ऐसा ६६ रह्या । याको सोलह का भाग दी यह पाय, सो पाचा के आगे लिखि, ताकरि सोलह को गुणि छिन भा, ना घटाए भाज्यराशि नि.शेप भया। ऐसे जुदे लिखे अंक तिनकरि एक भाग पा प्रमाग दोय नै छप्पन आवै है । बहुरि "भागो नास्ति लब्धं शून्य' इस वचन ते
भाग दि जाय तहां विदी पावै । जैसे भाज्य तीन हजार छत्तीस (३०३६) HT (६) नहा तीस को छह का भाग दीए, पांच पाए, तिनकरि छह को गांत, नील निगप होय गया, मो इहां भाग टूट्या, तातै पांच के आगे विदी Fire अनि प्रयोग छनीम की छह का भाग दीए छह पाए, सो विंदी के आगे - नायरको गगि वटा सर्व भाज्य निःशेप भया । ऐसे लब्ध प्रमाण
ही अन्यत्र जानना ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पोठिका ]
बहुरि वर्ग विषै गुणकारवत् विधान जानना । जाते दोय जायगां समान राशि लिखि एक कौं गुण्य, एक कौं गुणकार स्थापि परस्पर गुणे वर्ग हो है। जैसे सोलह कौ सोलह करि गुणे, सोलह का वर्ग दोय सै छप्पन हो है।
बहुरि घन विष भी गुणकारवत् ही विधान है । जाते तीन जायगां समान राशि मांडि परस्पर गुणन करना । तहां पहिला राशिरूप गुण्य को दूसरा राशिरूप गुणकार करि गुणै जो (प्रमाण) होइ ताकौ गुण्य स्थापि, ताकी तीसरा राशिरूप गुणकार करि गुण जो प्रमाण आवै, सोइ तिस राशि का घन जानना ।
जैसे सोलह को सोलह करि गुणे, दोय सै छप्पन, बहुरि ताकों सोलह करि गुणै च्यार हजार छिनवे होइ, सोई सोलह का घन है । ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि वर्गमूल विष वर्गरूप राशि के प्रथम अंक उपरि विषम की दूसरे अंक उपरि सम की तीसरे (अंक) उपरि विषम की चौथे (अंक) उपरि सम की ऐसे क्रम ते अन्त अंक पर्यंत उभी आडी लीक करि सहनानी करनी। जो अन्त का अंक सम होय तो तहां उपांत का अर अन्त का दोऊ अंकनि को विषम संज्ञा जाननी । तहां अन्त का एक वा दोय जो विषम अंक, ताका प्रमाण विष जिस अंक का वर्ग संभवै, ताका वर्ग करि अन्त का विषम प्रमाण मै घटावना । अवशेष रहै सो तहां लिखना । बहुरि जाका वर्ग कीया था, तिस मूल अंक को जुदा लिखना । बहुरि अवशेष रहे अंकनि करि सहित जो तिस विषम के प्रागै सम अंक, ताके प्रमाण कौं जुदा स्थाप्या जो अंक, तातै दूणा प्रमाण रूप भागहार का भाग दीए जो अंक पावै, ताकौ तिस जुदा स्थाप्या, अंक के आगे लिखना । पर तिस अंक करि गुण्या हुवा भागहार का प्रमाण को तिस भाज्य में घटाइ अवशेष तहा लिखि देना । बहुरि इस अवशेष सहित जो तिस सम के प्रागै विषम अंक, तामै जो अंक पाया था, ताका वर्ग कीए जो प्रमाण होइ, सो घटावना अवशेष तहा लिखना । बहुरि इस अवशेष सहित जो तिस विषम के आगे सम अंक, ताको तिन जुदे लिखे हुए सर्व अंकरूप प्रमाण तै दूणा. प्रमाण रूप भागहारा का भाग देइ पाया अक को तिन जुदे लिखे हुए अकनि के आगे लिखना । पर इस पाया अंक करि भागहार को गुणि भाज्य में घटाइ, अवशेष तहां लिखना । बहुरि इस अवशेष सहित जो सम अंक के प्रागै विषम अंक ताविषे पाया अंक का वर्ग घटावना। ऐसे ही क्रमते यावत् वर्गित राशि निःशेष होय, तावत् कीए वर्गमूल का प्रमाण आवै है।
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परिकर्माfter area प्रकरण
६५५३६
इहा उदाहरण - जैसे वर्गित राशि पैसठ हजार पाच सौ छत्तीस (६५५३६) इहां विषम सम की सहनानी असी करि अन्त का विपम छक्का तार्म तीन का वर्ग तो बहुत होइ जाइ, ताते संभवता दोय का वर्ग च्यारि घटाइ अवशेष दोइ तहां लिखना । अर मूल अंक दूवा जुदा पंक्ति विषें लिखना । बहुरि तिस श्रवशेप सहित आगिला सब अंक ऐसा २५| ताक जुदा लिख्या जो दूवा ताते दूरगा च्यारि का भाग दीए, छह पावे; परंतु श्रागे वर्ग घटावने का निर्वाह नाही; ताते पांच पाया, सो जुदा लिख्या हुआ दूवा के आगे लिखना । श्रर पाया अंक पांच करि भागहार च्यारि को गुणि, भाज्य में घटाएं, पचीस की जायगा पांच रह्या, तिस सहित गिला विषम ऐसा (५५) तामै पाया अंक पाच का वर्ग पचीस घटाए, श्रवशेष ऐसा ३०, तिस सहित आगिला सम ऐसा ३०३, ताकौ जुदे लिखे अंकनि ते दूणा प्रमाण पचास का भाग दीए छह पाया, सो जुदे लिखे अंकनि के आगे लिखना । अर छह करि भागहार पचास की गुरिण, भाज्य में घटाए अवशेष ऐसा ३ रह्या, तिस सहित गिला विषम ऐसा ३६, यामै पाया अंक छह का वर्ग घटाए राशि निःशेष भया । ऐसें जुदे लिखे हुवे अंकनि करि पैसठ हजार पांच से छत्तीस का वर्गमूल दोए से छप्पन आया । ऐसे ही अन्यत्र विधान जानना ।
६२ ]
हुरि घुमूल विषे घन रूप राशि के अंकनि उपरि पहिला घन, दूजा - तीजा वन चौथा घन, पाचवा छठा अघन ऐसे क्रमते ऊभी आडी लीक रूप सहनानी करनी । जोत का घन अंक न होइ तो अन्त उपांत दोय अंकनि की घन संज्ञा जाननी । ग्रर ते दोऊ घन न होइ तो अन्त ते तीन अंकनि की घन संज्ञा जाननी । तहा एक वा दोय वा तीन अंक रूप जो अन्त का घन, तामै जाका घन संभवै ताका धन करि ताक अंत का घन अकरूप प्रमाण में घटाइ अवशेष तहां लिखना । अर जाका घन कीया था, तिस मूल अंक को जुदा पंक्ति विषे स्थापना । बहुरि तिस अवशेष सहित अगिला अंक कौं तिस मूल अंक के वर्ग ते तिगुणा भागहार का भाग देना जो अंक पावै, ताकौं जुदा लिख्या हुवा अंक के श्रागे लिखना । अर पाया अक करि भागहार की गुणी, भाज्य मे घटाइ अवशेष तहां लिखि देना । वहुरि इस अवशेष महित नागिला अंक, ताविषे पाया अंक के वर्ग को पूर्व पंक्ति विषे तिष्ठते अवनि करि गुणं, जो प्रमाण होइ, ताकी तिगुणा करि घटाइ देना । अवशेष तहां गिना | बहरि इस अवशेष सहित आगिला अंक विषै तिस ही पाया अक का घन | बहुरि श्रवशेष सहित यागिला अंक को जुदा लिखि अंकनि के प्रमा
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पोठिका का वर्ग कौं तिगुणा करि निर्वाह होइ, तैसें भाग देना । पाया अंक पंक्ति विष आगै लिखना । ऐसे ही अनुक्रम ते यावत् धनराशि निःशेष होइ तावत् कीए घनमूल का प्रमाण आवै है।
___इहां उदाहरण - जैसे धनराशि पंद्रह हजार छह से पच्चीस (१५६२५) इहां घनअघन की सहनानी कीए ऐसा (१५६२५) इहां अन्त अंक धन नाहीं तात दोय अंक रूप अन्तघन १५ । इहां तीन का धन कीए बहुत होइ जाइ, तातै दोय का घन आठ घटाइ, तहां अवशेष सात लिखना । पर घनमूल दूवा जुदी पंक्ति विष लिखना बहुरि तिस अवशेष सहित आगिला अंक असा (७६) ताको मूल अंक का वर्ग च्यारि, ताका तिगुणा बारह, ताका भाग दिए छह पावै, परंतु आगै निर्वाह नाहीं तातै पांच पाया सो दूवा के आगे पंक्ति विष लिखना अर इस पांच करि भागहार बारह को गुणि, भाज्य में घटाए, अवशेष सोलह (१६) तिस सहित आगिला अंक ऐसा (१६२) तामै पाया अंक पांच, ताका वर्ग पचीस, ताको पूर्व पंक्ति विष तिष्ठ था दुवा, ताकरी गुरणे पचास, तिनके तिगुणे ड्योढ से घटाए अवशेष बारह, तिस सहित आगिला अंक ऐसा (१२५), यामैं पांच का घन घटाएं राशि निःशेष भया ऐसे पंद्रह हजार छःसै पच्चीस का घनमल पच्चीस प्रमाण आया । ऐसे ही अन्यत्र जानना।
ऐसे वर्णन करि अब भिन्न परिकर्माष्टक कहिए है। तहांहार अर अशनि का संकलनादिक जानना । हार पर अंश कहा कहिए। जैसे जहा छह पंचास कहे, तहां एक के पंचास अंश कीए तिह समान छह अंश जानने । वा छह का पांचवां भाग जानना । तहां छह को तो हार वा हर वा छेद कहिए । अर पाच को अंश वा लव इत्यादिक कहिए । तहा हार को ऊपरि लिखिए, अंश को नीचे लिखिए। जैसे छह पंचास कौ असा लिखिए । ऐसे ही अन्यत्र जानना। तहाँ भिन्न संकलन-व्यवकलन के अर्थि भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबंध, भागापवाह ए च्यारि जाति है । तिनवि इहां विशेष प्रयोजनभूत समच्छेद विधान लीए भागजाति कहिए है । जुदे-जुदे हार अर तिनके अंश लिखि एक-एक हार को अन्य हारनि के अंशनि करि गुरिणए अर सर्व अंशनि को परस्पर गुरिणए। ऐसे करि जो सकलन करना होइ तौ परस्पर हारनि को जोड दीजिए अर व्यवकलन करना होइ तो मूलराशि के हारनि विष ऋणराशि के हार घटाइ दीजिए। अर अंश सबनि के समान भए । तातै अश परस्पर गुणे जेते भए तेते ही राखिए । ऐसें समान अश होने ते याका नाम समच्छेद विधान है।
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[ परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण
इहां उदाहरण - तहां संकलन विषै पांच छट्ठा अंग दोय तिहाइ तीन पात्र
}५/२/३/ (चौथाई) इनको जोडना होइ तहां ६३४ ऐसा लिखि तहां पांच हार की अन्य के तीन च्यारि - अंशनि करिअर दोय हार को अन्य के छह च्यारि अंशनि करि यर तीन हार कौं अन्य के छह-तीन अंशनि करि गुणे साठि ग्रडतालीस चीवन हार भए । ग्रर अंशनि
६४ ]
०/४८/५४/
कौ परस्पर गुणे सर्वत्र बहत्तर श्र'ण | ऐसे भए । इहां हारनि की जोडे एक सो वासठ हार र बहत्तर अश भए तहां हार को अंश का भाग दीए दोय पाये श्रर अवशेप अठारह का वहत्तरिवां भाग रह्या । ताका अठारह करि ग्रपवर्तन कीए एक का चौथा भाग भया । ऐसे तिनका जोड सवा दोय श्राया । कोई संभवता प्रमाण का भाग देइ भाज्य वा भाजक राशि का महत् प्रमारण कौं थोरा कीजिए ( वा नि. शेष कीजिए) तहा अपवर्तन संज्ञा जाननी सो इहा अठारह का भाग दीए भाज्य अठारह था, तहां एक भया अर भागहार बहत्तर था, तहां च्यारि भया, तातै अठारह करि अपवर्त्तन भया कह्या । ऐसे ही अन्यत्र अपवर्तन का स्वरूप जानना ।
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वहुरि व्यवकलन विषै जैसे तीन विषै पांच चौथा अंग घटावना । तहां 'कल्प्यो हरो रूपमहारराशेः' इस वचन ते जाके अंश न होड, तहा एक अंश कल्पना, सो इहां तीनका अंश नाही, तातै एक अंश कल्पि |२| ऐसे लिखना इहां तीन हानि को श्रन्य के च्यारि अंश करि, अर पांच हारनि को अन्य के एक अंश करि गुणे
|१२|५|
अर अंशनि की परस्पर गुणे | ऐसा भया । इहां वारह हारनि विषे पांच घटाएं सात हार भए । र अंश च्यारि भए । तहां हार को अंश का भाग दीए एक अर तीन का चौथा भाग पौरण इतना फल आया ।
वरी भिन्न गुणकार विषै गुण्य अर गुणकार के हार को हार करि अंश को अंश करि गुणन करना । जैसे दश की चोथाइ को च्यारि की तिहाइ करि गुणना होइ, तहां ऐसा | | | लिखि गुण्य-गुणकार के हार अर अंशनि को गुणे चालीस हार अर
बारह श्रंश || भए तहां हार को अंश का भाग दीए तीन पाया । अवशेष का बारहवां भाग ताकी च्यारि करि अपवर्तन कीए एक का तीसरा भाग भया । मैं ही अन्यत्र जानना ।
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सभ्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
बहुरि भिन्न भागहार विषै भाजक के हारनि को अंश कीजिए अर अशनि को हार कीजिए । असे पलटि भाज्य-भाजक का गुण्य-गुणकारवत् विधान करना । जैसे सैतीस के आधा कौं तेरह की चौथाई का भाग देना होइ तहां असे २ लिखिए बहुरि भाजक के हार अर अंश पलट असे २ |१३| लिखिना । बहुरि गुणनविधि कीए एक सौ अडतालीस हार अर छन्वीस अंश २६ भए । तहां अंश का हार को भाग दीए पांच पाए । अर अवशेष अठारह छव्वीसवां भाग, ताका दोय करि अपवर्तन कीए नव तेरहवां भागमात्र भया । जैसे ही अन्यत्र जानना।
___ बहुरि भिन्न वर्ग अर घन का विधान गुणकारवत् ही जानना । जातै समान राशि दोय कौ परस्पर गुणे वर्ग हो है । तीन को परस्पर गुणे घन हो है । जैसे तेरह का चौथा भाग को दोय जायगा मांडि परस्पर गुणे ताका वर्ग एक सौ गुणहतर का सोलहवां भागमात्र १३६ हो है । अर तीन जायगा मांडि | परस्पर गुणें इकईस सै सत्याणवै का चौसठवां भाग मात्र ६४ घन हो है। बहुरि भिन्न वर्गमूल, घनमूल विष हारनि का अर अंशनि का पूर्वोक्त विधान करि जुदा-जुदा मूल ग्रहण करिए । जैसे वर्गित राशि एक सौ गुणहत्तरि का सोलहवा भाग १६ । तहां पूर्वोक्त विधान तै एक सौ गुणहत्तरि का वर्गमूल तेरह, अर सोलह का च्यारि असे तेरह का चौथा भागमात्र ४ वर्गमूल आया । बहुरि घनराशि इकईस से सत्याणवै का चौसठवां भाग ४ । तहां पूर्वोक्त विधान करि इकईस से सत्याणवे का घनमूल तेरह, चौसठि का च्यारि ऐसे तेरह का चौथा भागमात्र १ घनमूल पाया। अमें ही अन्यत्र जानना।
वहुरि अब शून्यपरिकर्माप्ट लिखिए है । शून्य नाम विदी का है, ताके सकलनादिक कहिए है। तहां विदी विप अंक जोडे अंक ही होय । जैसे पचान विष पाच जोडिए । तहा एकस्थानीय विदी विष पांच जोडे पाच भए । दशस्थानीय पांच ही, असे पचावन भए । बहुरि अंक विप विदी घटाए अंक ही रह । जैसे पचायन में दश
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परिफाष्टका सम्बन्धी प्रकरण ६६ ] घटाए एक स्थानीय पांच में विदी घटाए पांच ही रहे, दशस्थानीय पाच में एक घटाए च्यारि रहे जैसे पैतालीस भए । बहुरि गुणकार विपं अंक को विदीकरि गुणे विदी होय । जैसे वीस की पाच करि गुरिणए, तहां गुण्य के दुवा को पांच करि गुगणे दश भए । वहुरि विदी को पांच करि गुणे, विंदी ही भई अस सी भए ।
बहुरि अंक का विदी का भाग दीए खहर कहिए । जाते जैसे-जैसे भागहार घटता होइ, तैसे-तैसे लब्धराशि वधती होइ । जैसे दश की एक का छठा भाग का भाग दिए साठि होड, एक का वीसवां भाग का भाग दीए दोय सै होय, सो विदी शून्यरूप, ताका भाग दीए फल का प्रमाण अवक्तव्य है । याका हार विदी है, इतना ही कह्या जाए । वहुरी विदी का वर्गधन, वर्गमल, घनमूल विपं गणकारादिवत् विदी ही हो है। असे लौकिक गणित अपेक्षा परिकर्माप्टक का विधान कह्या ।
वहुरि अलौकिक गणित अपेक्षा विधान है, सो सातिशय ज्ञानगम्य है । जाते तहां अंकादिक का अनुक्रम व्यक्तरूप १ नाही है। तहा कही तो संकलनादि होते जो प्रमाण भया ताका नाम कहिए है । जैसे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात विप एक जोडै जघन्य परीतानंत होड, (जघन्य परीतानत मे एक घटाएं उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होड) २ अर जघन्य परीतासंख्यात विप एक घटाएं उत्कृप्ट संख्यात होइ । पल्य को दशकोडाकोडि करि गुणे सागर होइ जगत् श्रेणी कू सात का भाग दीए राजू होइ । जघन्य युक्तासंल्यात का वर्ग कीए जघन्य असंख्यातासंख्यात होइ । सूच्यंगल का घन कीये धनांगुल होइ । प्रतरांगुल का वर्गमूल ग्रहे मूच्यंगुल होइ । लोक का घनमूल ग्रहे जगत् श्रेणी होड, इत्यादि जानना।
वहुरि कही संकलनादि होते जो प्रमाण भया, ताका नाम न कहिए है, संकलनादिरूप ही कथन कहिए है । जाते सर्व संख्यात, असंख्यात, अनंतनि के भेदनि का नाम वक्तव्यरूप नाही है । जैसे जीवराशि करि अधिक पुद्गलराशि कहिए वा सिद्ध राशि करि दीन जीवराशि कहिए, वा असंख्यात गुणा लोक कहिए वा संख्यात प्रतरांगुन्न करि भाजित जगत्प्रतर कहिए, वा पल्य का वर्ग कहिए, वा पल्य का घन कहिए, वा केवलज्ञान का वर्गमूल कहिए, वा आकाश प्रदेशराशि का घनमूल कहिए, इत्यादि
१.६ प्रनि 'बनभ्यरूप' ऐना पाठ है। २.यह दाय मि छपी प्रति में है,तलिम्बित सहनियों में नहीं है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
जानना । बहुरि अलोकिक मान की सहनानी स्थापि, तिनके लिखने का वा तहां संकलनादि होते लिखने का जो विधान है, सो आगै सदृष्टि अधिकार विष वर्णन करेगे, तहां ते जानना । बहुरि तहा ही लोकिक मान का भी लिखने का वा तहां संकलनादि होते लिखने का जो विधान है, सो वर्णन करेगे । इहां लिखे ग्रन्थ विष प्रवेश करते ही शिष्यनि कौ कठिनता भासती, तहां अरुचि होती, तातै इहां न लिखिए है । उदाहरण मात्र इतना ही इहा भी जानना, जो संकलन विर्षे तौ अधिक राशि को ऊपरि लिखना जैसे पच अधिक सहस्र १००० असे लिखने । व्यवकलन विष हीन राशि को ऊपरि लिखि तहा पूछडीकासा आकार करि बिदी दीजिए जैसे पच हीन सहस्र १००० असे लिखिए । गुणकार विष गुण्य के प्रागै गुणक को लिखिए । जैसे पंचगुणा सहस्र १०००४५ असे लिखिए । भागहार विर्ष भाज्य के नीचे भाजक को लिखिए । जैसे पांच करि भाजित सहस्र ५ असे लिखिए। वर्ग विष राशि को दोय बार बराबर मांडिए । जैसे पांच का वर्ग को ५.४५ असे लिखिए । घन विष राशि को तीन बार बराबरि मांडिए । जैसे पांच का घन को ५४५४५ असे लिखिए । वर्गमूल-घनमूल विषे वर्गरूप-घनरूप राशि के प्रागै मूल की सहनानी करनी । जैसै पचीस का वर्गमूल को "२५ व० ०" असे लिखिए। एक सौ पचीस का घनमूल को “१२५ घ० मू०" असे लिखिए । असे अनेक प्रकार लिखने का विधान है । असे परिकर्माष्टक का व्याख्यान कीया सो जानना ।
बहुरि राशिक का जहां-तहां प्रयोजन जानि स्वरूप मात्र कहिए है । तहां तीन राशि हो है - प्रमाण फल, इच्छा। तहा जिस विवक्षित प्रमाण करि जो फल प्राप्त होइ, सो प्रमाणराशि अर फलराशि जाननी । बहुरि अपना इच्छित प्रमाण होइ, सो इच्छा राशि जाननी । तहा फल की इच्छा करि गुणि, प्रमाण का भाग दीए अपना इच्छित प्रमाण करि प्राप्त जो फल, ताका प्रमाण प्राव है, इसका नाम लब्ध है । इहा प्रमाण अर इच्छा १ की एकजाति जाननी । बहुरि फल अर लब्ध की एक जाति जाननी । इहां उदाहरण जैसे पाच रुपैया का सात मरण अन्न आवै तौ सात. रुपैया का केता अन्न आवै जैसे त्रैराशिक कीया । इहा प्रमाण राशि पाच, फल राशि सात, इच्छा राशि सात, तहा फलकरि इच्छा को गुणि प्रमाण का भाग दीए गुणचास
१ छपी प्रति 'इच्छा' शब्द और अन्य हस्तलिखित प्रतियो मे 'फल' शब्द है ।
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६८]
[ परिफर्माप्टक सम्बन्धी प्रकरण का पांचवां भाग मात्र लब्ध प्रमाण आया। ताका नव मण अर च्यारि मरण का पाचवां भाग मात्र लब्धराशि भया ।
असे ही छह से आठ (६०८) सिद्ध छह महीना आठ समय विषै होइ, ती सर्व सिद्ध केते काल में होइ, असे त्रैराशिक करिए, तहां प्रमाण राशि छह से आठ, अर फलराशि छह मास आठ समयनि की संख्यात आवली, इच्छा राशि सिद्धराशि । तहां फल करि इच्छा को गुणि, प्रमाण का भाग दीए लब्धराशि संख्यात प्रावली करि गुणित सिद्ध राशि मात्र अतीत काल का प्रमाण आवै है । जैसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि केतेइक गणितनि का कथन आगे इस शास्त्र विष जहां प्रयोजन आवेगा तहा कहिएगा । जैसे श्रेणी व्यवहार का कथन गुणस्थानाधिकार विष करणनि का कथन करते कहिएगा । बहुरि एक बार, दोय बार आदि संकलन का कथन ज्ञानाधिकार विष पर्यायसमासज्ञान का कथन करते कहिएगा। वहुरि गोल आदि क्षेत्र व्यवहार का कथन जीवसमासादिक अधिकारनि विष कहिएगा । जैसे ही और भी गणितनि का जहां प्रयोजन होइगा तहां ही कथन करिएगा सो जानना । वहुरि अज्ञात राशि ल्यावने का विधान वा सुवर्णगणित आदि गणितनि का इहां प्रयोजन नाही, तातै तिनका इहां कथन न करिए है। जैसे गणित का कथन किया। ताकी यादि राखि जहां प्रयोजन होइ, तहा यथार्थरूप जानना । बहुरि जैसे ही इस शास्त्र विष करणसूत्रनि का, वा केई संज्ञानि का वा केई अर्थनि का स्वरूप एक वार जहां कह्या होइ, तहात यादि राखि, तिनका जहां प्रयोजन आवै, तहा तैसा ही स्वरूप जानना । या प्रकार श्रीगोम्मटसार शास्त्र की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा
भाषाटीका विष पीठिका समाप्त भई ।
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गोम्मटसार जीवकाण्ड
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका सहित
अब इस शास्त्र के मूल सूत्रनि की संस्कृत टीका के अनुसारि भाषा टीका करिए है । तहां प्रथम ही संस्कृत टीकाकार करि कथित ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा, वा मूल शास्त्र होने के समाचार वा मंगल करने की पुष्टता इत्यादि कथन कहिए है ।
बंदों नेमिचंद्र जिनराय, सिद्ध ज्ञानभूषण सुखदाय । करि हौ गोम्मटसार सुटीक, करि करर्णाट टीक ते ठीक ॥१॥
संस्कृत टीकाकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करी है । बहुरि कहै है - श्रीमान्
अर काहू करि हण्या न जाय है प्रभाव जाका, ऐसा जो स्याद्वाद मत, सोही भई गुफा ताके अभ्यंतर वास करता जो कुवादीरूप हस्तीनि को सिंहसमान सिहनन्दि नामा मुनीद्र, तिहरि भई है ज्ञानादिक की वृद्धि जाकै, ऐसा जो गंगनामा वश विषै तिलक समान पर राजकार्य का सर्व जानने को आदि दे करि अनेक गुणसयुक्त श्रीमान् राजमल्ल नामा महाराजा देव, पृथिवी को प्यारा, ताका महान् जो मंत्रीपद, तिहविषे शोभायमान अर रण की रंगभूमि विषे शूरवीर अर पर का सहाय न चाहै, ऐसा पराक्रम का धारी, अर गुणरूपी रत्ननि का आभूषण जाके पाइए अर सम्यक्त्व रत्न का स्थानकपना को आदि देकरि नानाप्रकार के गुरणन करि अंगीकार करी जो कीर्ति, ताका भर्त्तार औसा जो श्रीमान् चामुंडराय राजा, ताका प्रश्न करि जाका अवतार भया, ऐसा इकतालीस पदनि विषे नामकर्म के सत्त्व का निरूपण, तिह द्वार करि समस्त शिष्य जननि के समूह को संबोधन के अथ श्रीमान् नेमीचन्द्र नामा सिद्धांतचक्रवर्ती, समस्त सिद्धांत पाठी, जननि विषै विख्यात है निर्मल यश जाका, अर विस्तीर्ण बुद्धि का धारक, यहु भगवान् शास्त्र का कर्त्ता ।
सो महाकर्मप्रकृति प्राभृत नामा मुख्य प्रथम सिद्धांत, तिहका १. जीवस्थान, २. क्षुद्रबंध, ३. बंधस्वामी, ४. वेदनाखण्ड, ५. वर्गगाखंड, ६. महाबंध - ए छह खंड है ।
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गोम्मटसार जोयकाण्ड ७० तिनविषे जीवादिक जो प्रमाण करनेयोग्य समस्त वस्तु, ताकी उद्धार करि गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह नामा ग्रंथ के विस्तार की रचता संता तिस ग्रंथ की आदि ही विष निर्विघ्न शास्त्र की सपूर्णता होने के अथि, वा नास्तिक वादी का परिहार के अथि, वा शिष्टाचार का पालने के अथि, वा उपकार को स्मरणे के अथि विशिष्ट जो अपना इष्ट देव का विशेष, ताहि नमस्कार करे है।
भावार्थ - इहां जैसा जानना - सिहनन्दि नामा मुनि का शिप्य, जो गंगवंशी राजमल्ल नामा महाराजा, ताका मंत्री जो चामुंडराय राजा, तिहने नेमीचद्र सिद्धांत चक्रवर्ती प्रति असा प्रश्न कीया -
जो सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकायादिक इकतालीस जीवपदनि विप नामकर्म के सत्त्वनि का निरूपण कैसे है ? सो कहौ ।
तहा इस प्रश्न के निमित्त की पाय अनेक जीवनि के संवोधने के अर्थि जीवस्थानादिक छह अधिकार जामै पाइए, जैसा महाकर्म प्रकृति प्राभृत है नाम जाका, जैसा अग्रायणीय पूर्व का पाचवा वस्तु, अथवा यति भूतबलि आचार्यकृत १ धवल शास्त्र, ताका अनुसार लेइ गोम्मटसार अर याहीका द्वितीय नाम पचसग्रह ग्रथ, ताके करने का प्रारभ किया। तहां प्रथम अपने इप्टदेव को नमस्कार करै है। ताके निर्विघ्नपने शास्त्र की समाप्तता होने कू आदि देकरि च्यारि प्रयोजन कहे। अब इनको दृढ करै हैं।
इहा तर्क - जो इप्टदेव, ताको नमस्कार करने करि निर्विघ्नपने शास्त्र की समाप्तता कहा हो है ? तहा कहिए है - जो ऐसी आशंका न करनी, जातै शास्त्र का असा वचन है
"विघ्नौधा प्रलयं यांति शाकिनीभूतपन्नगाः ।
विषं निविषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥" याका अर्थ- जो जिनेश्वरदेव को स्तवतां थकां विघ्न के जु समूह, ते नाश की प्राप्त हो है। बहुरि शाकिनी, भूत, सादिक, ते नाश की प्राप्त हो है। वहरि विध है, सो विपरहितपना की प्राप्त हो है । सो असा वचन थकी शंका न करना । वहरि जन प्रायश्चित्त का आचरण करि व्रतादिक का दोप नष्ट हो है, वहरि जैसे
१.पनि बागानायं ने गुणधराचार्य विरचित पायपाहट के सूत्रो पर चूणिमूत्र लिखे है । भूतवली आचार्य " मग्री की रचना है और प्राचार्य वीरसेन ने पटवण्टागम मूत्रो की 'धवला' टीका लिखी है
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ७१ औषधि सेवन करि रोग नष्ट हो है; तैसे मंगल करने करि विघ्नकर्ता अन्तरायकर्म के नाश का अविरोध है, तातै शंका न करनी। जैसे प्रथम प्रयोजन दृढ़ कीया । बहुरि तर्क - जो ऐसा न्याय है
"सर्वथा स्वहितमाचरणीयं किं करिष्यति जनो बहुजल्पः ।
विद्यते नहि स कश्चिदुपाय सर्वलोकपरितोषकरो यः ॥"
याका अर्थ - जो सर्वप्रकार करि अपना हित का आचरण करना । अपना हित करते बहुत बकै है जो मनुष्यलोक, सो कहा करेगा ? अर कोऊ कहै जो सर्व प्रसन्न होइ, सो कार्य करना; तो लोक विषै सो कोई उपाय ही नाही, जो सर्व लोक को संतोष करै । जैसे न्याय करि जाका प्रारभ करो हौ, ताका प्रारभ करौ ।
नास्तिकवादी का परिहार करि कहा साध्य है ?
तहा कहिए है - जैसा भी न कहना । जातै प्रशम, सवेग अनुकपा, आस्तिक्य गुण का प्रगट होनेरूप लक्षण का धारी सम्यग्दर्शन है । यातै नास्तिकवादी का परिहार करि प्राप्त जो सर्वज्ञ, तिहने आदि देकरि पदार्थनि विषै जो आस्तिक्य भाव हो है, ताकै सम्यग्दर्शन का प्राप्ति करने का कारणपना पाइए है । बहुरि असा प्रसिद्ध वचन है
"यद्यपि विमलो योगी, छिद्रान् पश्यति मेदनि ।
तथापि लौकिकाचार, मनसापि न लंघयेत् ॥" याका अर्थ- यद्यपि योगीश्वर निर्मल है, तथापि पृथ्वी वाके भी छिद्रनि को देखै है । तातै लौकिक आचार कू मन करि भी उल्लंघन न करै; असं प्रसिद्ध है। तातै नास्तिक का परिहार कीया चाहिये । औसै दूसरा प्रयोजन दृढ कीया।
बहुरि तर्क - जो शिष्टचार का पालन किस अर्थ करिए ?
तहां कहिए है - असा विचार योग्य नाही, जाते असा वचन मुख्य है "प्रायेण गुरुजनशीलमनुचरंति शिष्याः।" याका अर्थ - जे शिष्य है ते, अतिशय करि गुरुजन का जु स्वभाव, ताको अनुसार करि आचरण कर है । बहुरि असा न्याय है - "मगलं निमित्तं हेतु परिमाणं नाम कर्तारमिति षडपि व्याकृत्याचार्याः पश्चाच्छास्त्रं व्याकुर्वन्तु" याका अर्थ-जो मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम, कर्ता इन छहों की पहिले करि
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७२ ]
[ गोम्मटसार जीवका
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आचार्य है सो पीछे शास्त्र को करो । औसा न्याय आचार्यनि की परंपरा तै चल्या श्राया है । ताका उल्लघन कीए उन्मार्ग विषे प्रवर्तने का प्रसंग होय । तातै शिष्टाचार का पालना किसे अर्थ करिए है ? असा विचार योग्य नाही ।
व इहा मंगलादिक छहों कहा ? सो कहिए है - तहां प्रथम ही पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ, सौख्य - इत्यादि मंगल के पर्याय है । मंगल ही के पुण्यादिक भी नाम है । तहां मल दोय प्रकार है - द्रव्यमल, भावमल तहां द्रव्यमल दोयप्रकार - बहिरंग, अन्तरंग । तहां पसेव, मल, धूलि, कादों इत्यादि बहिरंग द्रव्यमल है । वहुरि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशनि करि आत्मा के प्रदेशनि विषै निविड वंध्या जो ज्ञानावरणादि आठ प्रकार कर्म, सो अन्तरंग द्रव्यमल है ।
वहुरि भावमल अज्ञान, अदर्शनादि परिणामरूप है । अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव भेदरूप मल है । अथवा उपचार मल जीव के पाप कर्म है । तिस सव ही मन की गालयति कहिए विनाशै, वा घातै, वा दहै, वा हने, वा शोघै, वा विध्वंसै, सो मंगल कहिए । अथवा संग कहिए सौख्य वा पुण्य, ताकौ लाति कहिए आदान करें, ग्रहण करें, सो मंगल है |
बहुरि सो मंगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भेद ते आनंद का उपजावनहारा छह प्रकार है । तहा अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, इनका जो नाम, नीती नाम मंगल है । बहुरि कृत्रिम, कृत्रिम जिनादिक के प्रतिविव, सो स्थापना मंगल है | बहुरि जिन, श्राचार्य, उपाध्याय, साधु इनका जो शरीर, सो द्रव्य मंगल है ।
बहुरि कैलाश, गिरिनार, सम्मेदाचलादिक पर्वतादिक, अर्हन्त ग्रादिक के नप-केवलज्ञानादि गुििग्न के उपजने का स्थान, वा साढा तीन हाथ ते लगाय पाच
पीस बनूप पर्यन्त केवली का शरीर करि रोक्या हूवा ग्राकाश अथवा केवली का मनुयात् गरि क्या हुवा ग्राकाश, सो क्षेत्र मंगल है |
हरिजिन काल विषै तप श्रादिक कल्याण भए होहि, वा जिस काल विपै यदि जिनादिक के महान उत्सव वर्ते, सो काल मंगल है |
मग पर्याय करि संयुक्त जीवद्रव्यमात्र भाव मंगल है |
यह
मंगल जिनादिक का स्तवनादिरूप है, सो शास्त्र की आदि नियति की बोरे कालादिक करि शास्त्रनि का पारगामी करें हैं ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ) मध्य विषै कीया हूवा मंगल विद्या का व्युच्छेद न होइ, ताकौ करै है। अन्त विष कीया हूवा विद्या का निर्विघ्नपन को करै है ।
कोई तर्क करै कि -- इष्ट अर्थ की प्राप्ति परमेष्ठीनि के नमस्कार ते कैस होइ ? तहां काव्य कहिए है -
"नेष्टं विहंतुं शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरंतराय ।
तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकृदर्हदादेः ॥" याका अर्थ - अर्हन्तादिक को नमस्काररूप शुभ भावनि करी नष्ट भया है अनुभाग का आधिक्य जाका, असा जु अन्तराय नामा कर्म, सो इष्ट के घातने को प्रभु कहिए समर्थ न होइ, तातै तिस अभिलाष युक्त जीव करि गुणानुराग तै अर्हत आदिक को कहा हूवा नमस्कारादिक, सो इष्ट अर्थ का करनहारा है - औसा परमागम विष प्रसिद्ध है, तातै सो मंगल अवश्य करना ही योग्य है ।
बहुरि निमित्त इस शास्त्र का यह है -- जे भव्य जीव है, ते बहुत नय प्रमाणनि करि नानाप्रकार भेद को लीये पदार्थ को जानहु, इस कार्य को कारणभूत करिए है ।
बहुरि हेतु इस शास्त्र के अध्ययन विष दोय प्रकार है - प्रत्यक्ष, परोक्ष । तहां प्रत्यक्ष दोय प्रकार - साक्षात्प्रत्यक्ष, परपराप्रत्यक्ष । तहा अज्ञान का विनाश होना, बहुरि सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होनी, बहुरि देव-मनुष्यादिकनि करि निरतर पूजा करना, बहुरि समय-समय प्रति असख्यात गुणश्रेणीरूप कर्म निर्जर होना, ये तो साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु है। शास्त्राध्ययन करते ही ए फल निपजै है । बहुरि शिप्य वा शिप्यनि के प्रति शिष्य, तिनकरि निरंतर पूजा का करना, सो परंपरा प्रत्यक्ष हेतु है । शास्त्राध्ययन कीए तै भैसी फल की परंपरा हो है।
__बहुरि परोक्ष हेतु दोय प्रकार - अभ्युदयरूप, निःश्रेयसरूप । तहा सातावेदनीयादिक प्रशस्त प्रकृतिनि का तीन अनुभाग का उदय करि निपज्या तीर्थकर, इंद्र, राजादिक का सुख, सो तौ अभ्युदयरूप है । बहुरि अतिशय संयुक्त, आत्मजनित, अनौपम्य, सर्वोत्कृष्ट तीर्थकर का सुख वा पंचेद्रियनि ते अतीत सिद्ध सुख, सो निःश्रेयसरूप है । ग्रंथ अध्ययन ते पीछे परोक्ष असा फल पाइए हैं । ताते यह ग्रंथ ऐसे फलनि का हेतु जानना।
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७४)
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड वहुरि प्रमाण इस शास्त्र का नानाप्रकार अर्थनि करि अनत है । बहुरि अक्षर गणना करि सख्यात है; जाते जीवकांड का सात से पचीस गाथा सूत्र है।
बहुरि नाम-जीवादि वस्तु का प्रकाशने की दीपिका समान है । तातै संस्कृत टीका की अपेक्षा जीवतत्त्वप्रदीपिका है।
वहुरि कर्ता इस शास्त्र का तीन प्रकार - अर्थकर्ता, ग्रथकर्ता, उत्तर ग्रंथकर्ता ।
तहाँ समस्तपने दग्ध कीया धाति कर्म चतुष्टय, तिहकरि उपज्या जो अनन्त ज्ञानादिक चतुष्टयपना, ताकरि जान्या है त्रिकाल संवन्धी समस्त द्रव्य-गुण-पर्याय का यथार्थ स्वरूप जिहै, वहुरि नष्ट भए हैं क्षुधादिक अठारह दोष जाके, वहुरि चौतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य करि संयुक्त, बहुरि समस्त सुरेद्र-नरेद्रादिकनि करि पूजित है चरण कमल जाका, वहुरि तीन लोक का एक नाथ, बहुरि अठारह महाभाषा अर सात सं क्षुद्र भापा, वा संनी सवधी अक्षर-अनक्षर भाषा तिहस्वरूप, अर तालवा, दात, होठ, कठ का हलावना आदि व्यापाररहित, अर भव्य जीवनि की आनन्द का कर्ता, अर युगपत् सर्व जीवनि को उत्तर का प्रतिपादन करनहारा ऐसी जु दिव्यध्वनि, तिहकरि सयुक्त, वहुरि बारह सभा करि सेवनीक, ऐसा जो भगवान श्री वर्द्धमान नीर्थकर परमदेव, सो अर्थकर्ता जानना ।
___ बहुरि तिस अर्थ का ज्ञान वा कवित्वादि विज्ञान पर सात ऋद्धि, तिनकरि नपूर्ण विराजमान ऐसा गौतम गणधर देव, सो ग्रथकर्ता जानना । बहुरि तिसही के अनुक्रम का धारक, बहुरि नाही नष्ट भया है सूत्र का अर्थ जाकै, वहुरि रागादि दोपनि करि रहित ऐसा जो मुनिश्वरनि का समूह, सो उत्तर ग्रंथकर्ता जानना ।
या प्रकार मगलाटि छहोनि का व्याख्यान इहा कीया । ऐसें तीसरा प्रयोजन दृट कीया है।
बहुरि तर्फ - जो शास्त्र की प्रादि विष उपकार स्मरण किसे अर्थ करिए है? तहां कहिए है - जो ऐसा न कहना, जातै ऐसा कथन है
"श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः दन्याहृम्न गुणस्तोत्रं शास्त्रादी मुनिपुगवाः ॥"
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sarafar भाषीका ]
[ ७५
याका अर्थ
श्रेय जो कल्याण, ताके मार्ग की सम्यक् प्रकार सिद्धि, सो परमेष्ठि के प्रसाद ते हो है । इस हेतु तै मुनि प्रधान है, ते शास्त्र की आदि विषै तिस परमेष्ठी का स्तोत्र करना कहै है । बहुरि ऐसा वचन है
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अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः, प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धैर्न हि कृतमुपकारं पण्डिताः (साधवो) विस्मरति ॥
याका अर्थ - वांछित, अभीष्ट फल की सिद्धि होने का उपाय सम्यग्ज्ञान है । बहुरि सो सम्यग्ज्ञान शास्त्र ते हो है । बहुरि तिस शास्त्र की उत्पत्ति प्राप्त जो सर्वज्ञ तै है । इस हेतु तै सो प्राप्त सर्वज्ञदेव है, सो तिसका प्रसाद ते ज्ञानवंत भए जे जीव, तिनकरि पूज्य हो है, सो न्याय ही है व पंडित है, ते कीए उपकार को नाही भूल है, तातै शास्त्र को आदि विषै उपकार स्मरण किसे अर्थ करिए ऐसा न कहना । ऐसे चौथा प्रयोजन दृढ किया ।
याहीर्ते विघ्न विनाशने को, बहुरि शिष्टाचार पालने कौ, बहुरि नास्तिक के परिहार कौ, बहुरि अभ्युदय का कारण जो परम पुण्य, ताहि उपजावने कौ, बहुरि कीया उपकार के यादि करने को शास्त्र की आदि विषै जिनेद्रादिक को नमस्कारादि रूप जो मुख्य मंगल, ताकौ आचरण करत संता, बहुरि जो अर्थ कहेगा, तिस अभिधेय की प्रतिज्ञा को प्रकाशता सता आचार्य है, सौ सिद्धं इत्यादि गाथा सूत्र को कहै है
सिद्धं सुद्धं परमिय, जिरिंगदवरणेमि चंद्मकलंकं । गुरणरयरणभूसणुदयं, जीवस्स परूवणं वोच्छं ॥१॥
जिनेद्रवरनेमिचन्द्रम कलंकम् ।
सिद्धं शुद्धं प्रणम्य, गुणरत्नभूषणोदयं, जीवस्य प्ररूपणं वक्ष्ये ॥ १॥
टीका - अहं वक्ष्यामि । अहं कहिए मै जु हों ग्रंथकर्ता । सो वक्ष्यामि कहिये होगा करौगा । कि ? किसहि करोगा ? प्ररूपणं कहिये व्याख्यान अथवा अर्थ को प्ररूपै वा अर्थ याकरि प्ररूपिये ऐसा जु ग्रंथ, ताहि करोगा । कस्य प्ररूपणं ? किसका प्ररूपण कहोगा ? जीवस्य कहिये च्यारि प्राणनि करि जीव है, जीवेगा, जीया ऐसा जीव जो आत्मा, तिस जीव के भेद का प्रतिपादन करण हारा शास्त्र
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १ मैं कहाँगा; असी प्रतिज्ञा करि । इस प्रतिज्ञा करि इस शास्त्र के संवन्धाभिधेय, शक्यानुष्ठान, इष्टप्रयोजनपना है; तातै बुद्धिवंतनि करि आदर करना योग्य कह्या है ।
तहा जैसा संबन्ध होइ, तैसा ही जहा अर्थ होइ; सो संवधाभिषेय कहिये । वहरि जाके अर्थ के आचरण करने की सामर्थ्य होइ, सो शक्यानुष्ठान कहिये । वहुरि जो हितकारी प्रयोजन लिए होइ, सो इष्टप्रयोजक कहिये ।
____कथंभूतं प्ररूपणं ? जाकौ कहाँगा, सो कैसा है प्ररूपण ? गुणरत्नभूषणोदयंगुण जे सम्यग्दर्शनादिक, तेई भये रत्न, सोई है आभूषण जाक, असा जो गुणरत्नभूपण चामुंडराय, तिसत है उदय कहिये उत्पत्ति जाकी असा शास्त्र है । जाते चामुडराय के प्रश्न के वश ते याकी उत्पत्ति प्रसिद्ध है । अथवा गुणरूप जो रत्न सो भूपयति कहिये शोभै जिहि विपै ऐसा गुणरत्नभूपण मोक्ष, ताकी है उदय कहिये उत्पत्ति जाते ऐसा शास्त्र है।
भावार्थ - यहु शास्त्र मोक्ष का कारण है । वहुरि विकथादिरूप वंध का कारण नाही है । इस विशेषण करि १. वधक २ वध्यमान ३. वंधस्वामी ४. वंधहेतु ५. बंधभेद - ये पंच सिद्धात के अर्थ हैं।
तहा कर्मवव का कर्ता संसारी जीव, सो वंधक । वहुरि मूल-उत्तर प्रकृतिवध मो वंध्यमान । वहुरि यथासभव वव का सद्भाव लीये गुणस्थानादिक, सो बंधस्वामी। वहुरि मिथ्यात्वादि प्रास्रव, सो ववहेतु । वहुरि प्रकृति, स्थिति आदि वंधभेद - इनका निरूपण है, तातं गोम्मटसार का द्वितीयनाम पंचसंग्रह है। तिहिविर्ष वंधक जो जीव, ताका प्रतिपादन करणहारा यहु शास्त्र जीवस्थान वा जीवकांड इनि दोय नामनिकरि विव्यात, नाहि मैं कहाँगा । जैसा शास्त्र के कर्ता का अभिप्राय यह विणेपण दिवाव है।
बहुरि कथंभूतं प्ररूपणं ? कैसा है प्ररूपण ? सिद्ध कहिये पूर्वाचार्यनि की परसग करि प्रसिद्ध है, अपनी रुचि करि नाही रचनारूप किया है । इस विणेपण फरि प्राचार्य अपना कापना की छोडि पूर्व प्राचार्यादिकनि का अनुसार को कहै है। पुनः कि विशिष्ट प्ररूपणं? बहरि कैसा है प्ररूपण ? शुद्धं कहिये पूर्वापर विरोध को प्रादि देकरि दोपनि करि रहित है, तातै निर्मल है । इस विशेपण करि सम्यग्ज्ञानी गति में उपादेयपना इन गास्त्र का प्रकाशित कीया है ।।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३ ते जीवसमास है । वहुरि परि कहिये समंतता ते प्राप्ति कहिये प्राप्ति, सो पर्याप्ति है । शक्ति की निष्पन्नता का होना सो पर्याप्त जानना । बहुरि प्राणंति कहिये जीव है जीवितव्यरूप व्यवहार को योग्य हो है जीव जिनिकरि, ते प्राण हैं । वहुरि आगम विप प्रसिद्ध वांछा, संज्ञा, अभिलाषा ए एकार्थ है। वहुरि जिन करि वा जिन विप जीव है, ते मृग्यते कहिये अवलोकिये ते मार्गणा है । तहां अवलोकनहारा मृगयिता तो भव्यनि विष उत्कृप्ट, प्रधान तत्त्वार्थ श्रद्धावान जीव जानना । अवलोकने योग्य, मग्य चोदह मार्गणानि के विशेष लिये आत्मा जानना । बहुरि अवलोकना मृग्यता का सावन को वा अधिकरण को जे प्राप्त, ते गति आदि मार्गणाः है । वहुरि मार्गणा जो अवलोकन, ताका जो उपाय, सो जान-दर्शन का सामान्य भावरूप उपयोग है । ऐसे इन प्ररूपणानि का साधारण अर्थ का प्रतिपादन कह्या।
प्रागै सग्रहनय की अपेक्षा करि प्ररूपणा का दोय प्रकार को मन विर्षे धारि गुणस्थान-मार्गणास्थानरूप दोय प्ररूपणानि के नामांतर कहै है -
संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा । वित्थारादेसोत्ति य, मग्गणसण्णा सकम्मभवा ॥३॥ संक्षेप मोघ इति च गुणसंज्ञा, सा च मोहयोगभवा ।
विस्तार आदेश इति च, मार्गणसंज्ञा स्वकर्मभवा ॥३॥
टीका - संक्षेप ऐसी अोघ गुणस्थान की संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्ग विप हद है, प्रसिद्ध है। गुणस्थान का ही संक्षेप वा ओघ असा भी नाम है। वहरि मी संज्ञा 'मोहयोगभवा' कहिए दर्शन-चारित्रमोह वा मन, वचन, काय योग, तिनकरि उपजी है । इहा संत्रा के धारक गुणस्थान के मोह-योग ते उत्पन्नपना है । ताने तिनकी मना के भी मोह-योग करि उपजना उपचार करि कहा है। बहरि मन विप नकार कह्या है, तातै सामान्य प्रेमी भी गुणस्थान की संज्ञा है; असा मानना।
वहरि तने ही विस्तार, आदेश असी मार्गणास्थान की संज्ञा है। मार्गणा गाविनार, यादंग अमा नाम है । सो यह संना अपना-अपना मार्गणा का नाम की मनोनि के व्यवहार को कारण जो कर्म, ताके उदय ते हो है । इहां भी पूर्ववत संज्ञा
ने उपजने का उपचार जानना । निश्चय करि संना ती शब्दजनित ही है।
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[ ८३
सम्यग्ज्ञातचन्द्रिका भाषाटीका 1
बहुरि चकार तै विशेष ऐसी भी मार्गणास्थान की सज्ञा गाथा विषै विना कही भी
जाननी ।
आगै प्ररूपणा का दोय प्रकार पना विषै प्रवशेष प्ररूपणानि का अंतर्भूतपना दिखावै हैं -
आदेसे संलीणा, जीवा पज्जत्तिपाणसण्णाओ ।
उवओगोवि य भेदे, वीसं तु परूवणा भणिदा ॥४॥
प्रदेशे संलीना, जीवाः पर्याप्तिप्राणसंज्ञाश्च । उपयोगोऽपि च भेदे, विंशतिस्तु प्ररूपणा भणिताः ॥ ४ ॥
टीका - मार्गणास्थानप्ररूपणा विषै जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग - ए पांच प्ररूपणा संलीना कहिए गर्भित है, किसी प्रकार करि तिनि मार्गणाभेदनि विषं अंतर्भूत है । तैसे होते गुणस्थानप्ररूपण अर मार्गणास्थानप्ररूपण असे संग्रह अपेक्षा करि प्ररूपणा दोय ही निरूपित हो है ।
आगे किस मार्गरणा विषे कौन प्ररूपणा गर्भित है ? सो तीन गाथानि करि कहै हैं -
इंदियकाये लीणा, जीवा पज्जत्तिआणभासमणो । जोगे काओ णाणे, अक्खा गदिमग्गणे आऊ ॥ ५ ॥
इंद्रिratraniना, जीवाः पर्याप्त्यानभाषामनांसि ।
योगे कायः ज्ञाने, प्रक्षोणि गतिमार्गणायामायुः ||५||
टीका - इंद्रियमार्गणा विषै, बहुरि कायमार्गणा विषै जीवसमास र पर्याप्ति अर सासोश्वास, भाषा, मनबल प्राण ए अंतर्भूत है । कैसे है ? सो कहे है - जीवसमास अर पर्याप्ति इनिकै इद्रिय र कायसहित तादात्म्यकरि कोया हूवा एकत्व संभव है । जीवसमास र पर्याप्ति ए इंद्रिय -कायरूप ही है । बहुरि सामान्य - विशेष करि कीया हूवा एकत्व भव है । जोवसमास, पर्याप्ति पर इंद्रिय, काय विषै कही सामान्य का ग्रहण है, कहीं विशेष का ग्रहरण है । बहुरि पर्याप्तिनि के धर्म-धर्मीकरि कीया हुवा एकत्व संभव है । पर्याप्ति धर्म है, इंद्रिय-काय धर्मी है । तातै जीवसमास र पर्याप्ति
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ९-१० ६६] मिथ्यात्वादिक परिणाम, तिनकरि गुण्यंते कहिए लखिए वा देखिए वा लांछित करिए जीव, ते जीव के परिणाम गुणस्थान संजा के धारक है, असा सर्वदर्शी जे सर्वजदेव, तिनकरि निर्दिष्टाः कहिए कहे है । इस गुण शब्द की निरुक्ति की प्रधानता लीए सूत्र करि मिथ्यात्वादिक अयोगकेवलीपना पर्यन्त ये जीव के परिणाम विशेष, तेई गुणस्थान है, असा प्रतिपादन कीया है ।
तहा अपनी स्थिति के नाश के वश ते उदयरूप निपेक विपै गले जे कार्माण स्कंध, तिनका फल देनेरूप जो परिणमन, सो उदय है । ताकी होते जो भाव होइ, सो औदयिक भाव है।
वहुरि गुण का प्रतिपक्षी जे कर्म, तिनका उदय का अभाव , सो उपशम है। ताकी होते संते जो होय, सो औपशमिक भाव है।
बहुरि प्रतिपक्षी कर्मनि का वहुरि न उपजै असा नाश होना, सो क्षय; ताकी होते जो होड, सो क्षायिक भाव है।
वहुरि प्रतिपक्षी कर्मनि का उदय विद्यमान होते भी जो जीव के गुण का अश देखिए, सो क्षयोपशम ; ताकी होते जो होइ, सो क्षायोपशमिक भाव है।
बहुरि उदयादिक अपेक्षा ते रहित, सो परिणाम है; ताकी होते जो होइ, सो पारिणामिक भाव है । जैसे औदयिक आदि पंचभावनि का सामान्य अर्थ प्रतिपादन करि विस्तार ते प्रागै तिनि भावनि का महा अधिकार विर्ष प्रतिपादन करिसी।
आग ते गुणस्थान गाथा दोय करि नाममात्र कहै हैमिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य। . विरदा पमत्त इदरो, अपुत्व अणियट्टि सुहमो य ॥६॥ उवसंत खीणमोहो, सजोगकेवलिजिणो अजोगी य । चउदस जीवसमासा, कमेण सिद्धा य रणादव्वा ॥१०॥ मिथ्यात्वं सासनः मिश्रः, अविरतसम्यक्त्वं च देशविरतश्च । विरताः प्रमत्तः इतरः, अपूर्वः अनिवृत्तिः सूक्ष्मश्च ॥९॥ उपशांतः क्षीणमोहः, सयोगकेवलिजिनः अयोगी च ।
चतुर्दश जीवसमासाः, क्रमेण सिद्धाश्च ज्ञातव्या ॥१०॥ 'द टागम यवना पुग्नक १, पृष्ठ १६२ मे २०१ तक, मूत्र ६ से २३ तक ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
टीका - मिथ्या कहिए अतत्त्वगोचर है दृष्टि कहिए श्रद्धा जाकी, साणं मिथ्यादृष्टि है । 'नाम्न्युत्तरपदश्च' असा व्याकरण सूत्र करि दृष्टिपद का लोप करते 'मिच्छो' असा कह्या है । यहु भेद आगे भी जानना ।
बहरि आसादन जो विराधना, तिहि सहित वर्ते सो सासादना, सासादना है सम्यग्दृष्टि जाकै, सो सासादन सम्यग्दृष्टि है । अथवा आसादन कहिए सम्यक्त्व का विराधन, तीहि सहित जो वर्तमान, सो सासादन । बहुरि सासादन अर सो सम्यग्दृष्टि सो सासादन सम्यग्दृष्टि है । यहु पूर्वं भया था सम्यक्त्व, तिस न्याय करि इहा सम्यग्दृष्टिपना जानना।
बहुरि सम्यक्त्व अर मिथ्यात्व का जो मिश्रभाव, सो मिश्र है ।
बहुरि सम्यक् कहिए समीचीन है दृष्टि कहिए तत्त्वार्थश्रद्धान जाकै, सो सम्यग्दृष्टि अर सोई अविरत कहिए असंयमी, सो अविरतसम्यग्दृष्टि है ।
बहुरि देशत कहिए एकदेश तै विरत कहिए सयमी, सो देशविरत है, सयतासयत है, असा अर्थ जानना ।
इहा जो विरत पद है, सो ऊपरि के सर्व गुणस्थानवर्तीनि के सयमीपना को जनावै है । बहुरि प्रमाद्यति कहिये प्रमाद करै, सो प्रमत्त है । बहुरि इतर कहिए प्रमाद न करै, सो अप्रमत्त है ।
बहुरि अपूर्व है करण कहिए परिणाम जाकै, सो अपूर्वकरण है ।
बहुरि निवृत्ति कहिए परिणामनि विष विशेष न पाइए है निवृत्तिरूप करण कहिए परिणाम जाकै, सो अनिवृत्तिकरण है ।
बहुरि सूक्ष्म है सापराय कहिये कषाय जाकै, सो सूक्ष्मसापराय है । बहुरि उपशांत भया है मोह जाका, सो उपशातमोह है । बहुरि क्षीण भया है मोह जाका, सो क्षीणमोह है ।
बहुरि घातिकर्मनि को जीतता भया, सो जिन, बहुरि केवलज्ञान याकै है यातै केवली, केवली सोई जिन, सो केवलिजिन, बहुरि योग करि सहित सो सयोग, सोई केवलिजिन, ऐसे सयोगकेवलीजिन है।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ११ ग याकै है सो योगी, योगी नाही सो अयोगी, केवलिजिन ऐसी
गी, सोई केवलिजिन असे अयोगकेवलिजिन है। .... | मिथ्यादृष्टि आदि अयोगिकेवलिजिन पर्यन्त चौदह जीवसमास कहिए गुणस्थान ते जानने ।
कैसे यह जीवसमास ऐसी संज्ञा गुणस्थान की भई ?
तहां कहिए है - जीव है, ते समस्यंते कहिए संक्षेपरूप करिए इनिविप, ते जीवसमास अथवा जीव है । ते सम्यक् पासते एषु कहिए भले प्रकार तिष्ठे है, इनिविष, ते जीवसमास, असे इहां प्रकरण जो प्रस्ताव, ताकी सामर्थ्य करि गुणस्थान ही जीवसमास शब्द करि कहिए है । जातै ऐसा वचन है - 'यादृशं प्रकरणं तादृशोर्थः' जैसा प्रकरण तैसा अर्थ, सो इहां गुणस्थान का प्रकरण है, तातै गुणस्थान अर्थ का ग्रहण किया है।
बहुरि ये कर्म सहित जीव जैसे लोक विष है, तैसै नष्ट भए सर्वकर्म जिनके, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी भी है, ऐसा जानना । क्रमेण कहिए क्रम करि सिद्ध है, सो यहां क्रम शब्द करि पहिले घातिकर्मनि को क्षपाइ सयोगकेवली, अयोगकेवली गुणस्थाननि विपै यथायोग्य काल तिष्ठि, अयोगकेवली का अंत समय विर्षे अवशेप अघातिकर्म समस्त खिपाइ सिद्ध हो है - ऐसा अनुक्रम जनाइए है । सो इस अनुक्रम की जनावनहारा क्रम शब्द करि युगपत् सर्वकर्म का नाणपना, बहुरि सर्वदा कर्म के अभाव तै सदा ही मुक्तपना परमात्मा के निराकरण कीया है।
आग गुणस्थाननि विषै औदयिक आदि भावनि का संभव दिखावै है - मिच्छे खलु ओदइयो, बिदिये पुरण पारणामिओ भावो। मिस्से खओवसमिओ, अविरदसम्ममि तिण्णेव ॥११॥ मिथ्यात्वे खलु औदयिको द्वितीये पुनः पारिणामिको भावः । मिश्रे क्षायोपशमिकः अविरतसम्यक्त्वे त्रय एव ॥१॥
टोका - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान विर्ष दर्शनमोह का उदय करि निपज्या ऐना प्रोदयिक भाव, अतत्त्वश्रद्धान है लक्षण जाका, सो पाइए है। खलु कहिए
१ पट्र टागम - धवला पुस्तक-५ पृष्ठ १७४ १७७ भावानुगम सूत्र २, से ५
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] प्रकटपनै । बहुरि दूसरा सासादनगुणस्थान विष पारिणामिक भाव है। जाते इहां दर्शनमोह का उदय आदि की अपेक्षा का जु अभाव, ताका सद्भाव है।
बहुरि मिश्रगुणस्थान विषै क्षायोपशमिक भाव है । काहै तै ?
मिथ्यात्वप्रकृति का सर्वघातिया स्पर्धकनि का उदय का प्रभाव, सोई है लक्षण जाका, ऐसा तो क्षय होते संते, बहुरि सम्यग्मिथ्यात्व नाम प्रकृति का उदय विद्यमान होते संते, बहुरि उदय को न प्राप्त भए ऐसे निषेकनि का उपशम होते संते, मिश्रगुणस्थान हो है । तातै ऐसा कारण ते मिश्र विष क्षायोपशमिकभाव है ।
बहुरि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान विर्ष औपशमिक सम्यक्त्व, बहुरि क्षायोपशमिकरूप वेदकसम्यक्त्व, बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व ऐसे नाम धारक तीन भाव हैं, जातै इहां दर्शनमोह का उपशम वा क्षयोपशम वा क्षय संभव है ।
आगे कहे है जु ए भाव, तिनके संभवने के नियम का कारण कहै है - एदे भावा रिणयमा, दंसरणमोहं पडुच्च भरिणदा हु। चारित्तं रणत्थि जदो, अविरदयतेसु ठाणेसु ॥१२॥ एते भावा नियमाद्, दर्शनमोहं प्रतीत्य भाणिताः खलु ।
चारित्रं नास्ति यतो, ऽविरतांतेषु स्थानेषु ॥१२॥ टीका - असे पूर्वोक्त औदयिक आदि भाव कहे, ते नियम ते दर्शनमोह को । प्रतीत्य कहिए आश्रयकरि, भरिणता कहिए कहे है प्रगटपन; जातै अविरतपर्यंत च्यारि गुणस्थान विर्षे चारित्र नाही है। इस कारण ते ते भाव चारित्र मोह का आश्रय करि नाही कहे है।
तीहि करि सासादनगुणस्थान विर्ष अनंतानुबंधी की कोई क्रोधादिक एक कषाय का उदय विद्यमान होते भी ताकी विवक्षा न करने करि पारिणामिकभाव सिद्धांत विर्ष प्रतिपादन कीया है, ऐसा तू जानि ।
बहुरि अनंतानुबंधी की किसी कषाय का उदय की विवक्षा करि प्रौदयिक भाव भी है। ____ आगै देशसंयतादि गुणस्थाननि विष भावनि का नियम गाथा दोय करि दिखावै हैं -
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[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा १३
देसविरदे पत्ते, इदरे य खओवसमियभावो दु । सो खलु चरित्तमोहं, पडुच्च भरिणयं तहा उर्वार ॥१३॥
देशविरते प्रमत्ते, इतरे च क्षायोपशमिकभावस्तु ।
स खलु चरित्रमोहं, प्रतीत्य भणितस्तथा उपरि ॥१३॥
टीका - देशविरत विषे, वहुरि प्रमत्तसंयत विषे, वहुरि इतर अप्रमत्तसंयत विपे क्षायोपशमिक भाव है । तहां देशसंयत अपेक्षा करि प्रत्याख्यान कपायनि के उदय अवस्था को प्राप्त भए जे देशघाती स्पर्धकनि का अनंतवा भाग मात्र, तिनका जो उदय, तीहि सहित जे उदय को न प्राप्त भए ही निर्जरा रूप क्षय होते जे विवक्षित उदयरूप निषेक, तिनि स्वरूप जे सर्वघातिया स्पर्धक अनंत भागनि विषै एक भागविना वहुभाग, प्रमाण मात्र लीए तिनका उदय का अभाव, सो ही है लक्षरण जाका जैसा क्षय होते संते, वहुरि वर्तमान समय सवधी निषेक तै ऊपरि के निपेक जे उदय अवस्थाकों न प्राप्त भए, तिनकी सत्तारूप जो अवस्था, सोई है लक्षण जाका, जैसा उपशम होते संते देशसंयम प्रकट है । तातै चारित्र मोह को आश्रय करि देशसंयम क्षायोपशमिक भाव है, जैसा कह्या है ।
बहुरि तैसे ही प्रमुत्त-प्रप्रमत्त विप भी संज्वलन कषायनि का उदय आए जे देशघातिया स्पर्धक अंनतवा भागरूप, तिनिका उदय करि सहित उदय की न प्राप्त होते ही क्षयरूप होते जे विवक्षित उदय निपेक, तिनिरूप सर्वघातिया स्पर्धक अनंत भागनि विषै एक भागविना वहुभागरूप, तिनिका उदय का प्रभाव, सो ही है लक्षरण जाका जैसा क्षय होते, बहुरि ऊपरि के निपेक जे उदय को प्राप्त न भए, तिनिका सत्ता अवस्थारूप है लक्षरग जाका, असा उपशम, ताकी होते संतै प्रमत्त
प्रमत्त हो है । तातै चारित्र मोह अपेक्षा इहां सकलसंयम है । तथापि क्षायोपशमिक भाव है ऐसा कह्या है, जैसा श्रीमान् श्रभयचंद्रनामा प्राचार्य सिद्धांतचक्रवर्ती, ताका अभिप्राय है ।
भावार्थ - सर्वत्र क्षयोपशम का स्वरूप जैसा ही जानना । जहां प्रतिपक्षी कर्म के देशघातिया पर्वकनि का उदय पाइए, तीह सहित सर्वघातिया स्पर्धक उदय - निषेक संबंधी, तिनका उदय न पाइए (विना ही उदय दीए ) निर्जर, सोई क्षय, अर जे उदय नभए ग्रागामी निपेक, तिनका सत्तास्वरूप उपशम, तिनि दोऊनि कों होते
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[१
क्षयोपशम हो है । सो स्पर्धकनि का वा निषेकनि का वा सर्वघाति-देशघातिस्पर्धकनि के विभाग का आगै वर्णन होगा, तातै इहां विशेष नाही लिख्या है । सो इहां भी पूर्वोक्तप्रकार चारित्रमोह को क्षयोपशम ही है । तातै क्षायोपशमिक भाव देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त विष जानना । तैसे ही ऊपरि भी अपूर्वकरणादि गुणस्थाननि विषै चारित्रमोह को आश्रय करि भाव जानने।
तत्तो उरि उवसमभावो उवसामगेसु खवगेसु । खइओ भावो रिणयमा, अजोगिचरिमोत्ति सिद्धे य ॥१४॥ तत उपरि उपशमभावः उपशामकेषु क्षपकेषु ।
क्षायिको भावो नियमात् अयोगिचरम इति सिद्धे च ॥१४॥ टीका - तातै ऊपरि अपूर्वकरणादि च्यारि गुणस्थान उपशम श्रेणी संबधी, तिनिविर्ष औपशमिक भाव है। जातै तिस सयम का चारित्रमोह के उपशम ही ते संभव है। बहुरि तैसे ही अपूर्वकरणादि च्यारि गुणस्थान क्षपक श्रेणी संबंधी पर सयोगअयोगीकेवली, तिनिविणे क्षायिक भाव है नियमकरि, जातै तिस चारित्र का चारित्रमोह के क्षय ही ते उपजना है ।
बहुरि तैसे ही सिद्ध परमेष्ठीनि विष भी क्षायिक भाव हो है, जातै तिस सिद्धपद का सकलकर्म के क्षय ही ते प्रकटपना हो है ।
प्रागै पूर्वं नाममात्र कहे जे चौदह गुणस्थान, तिनिविर्ष पहिले कह्या जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, ताका स्वरूप को प्ररूपै है -
मिच्छोदयण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्चअत्थाणं । एयंतं विवरीयं, विरण्यं संसयिदमण्णाणं ॥१५॥ मिथ्यात्वोदयेन मिथ्यात्वमश्रद्धानं तु तत्त्वार्थानाम् ।
एकांतं विपरीतं, विनयं संशयितमज्ञानम् ॥१५॥ टीका - दर्शनमोहनी का भेदरूप मिथ्यात्व प्रकृति का उदय करि जीव के अतत्त्व श्रद्धान है लक्षण जाका असा मिथ्यात्व हो है । बहुरि सो मिथ्यात्व १. एकांत २. विपरीत ३. विनय ४. संशयित ५. अज्ञान - असे पांच प्रकार है ।
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१]
[ गोम्मटसार जीवकाण गाया १६ तहां जीवादि वस्तु सर्वथा सत्वरूप ही है, मर्वथा असत्त्वरूप ही है, सर्वथा एक ही है, सर्वथा अनेक ही है - इत्यादि प्रतिपक्षी दूसरा भाव की अपेक्षारहित एकांतरूप अभिप्राय, सो एकांत मिथ्यात्व है ।
वहुरि अहिंसादिक समीचीन धर्म का फल जो स्वर्गादिक मुख, ताकी हिंसादिरूप यनादिक का फल कल्पना करि मान; वा जीव के प्रमाण करि सिद्ध है जो मोक्ष, ताका निराकरण करि मोक्ष का अभाव मान; वा प्रमाण करि खंडित जो स्त्री के मोक्षप्राप्ति, ताका अस्तित्व वचन करि स्त्री कौं मोन है जैसा मान इत्यादि एकांत अवलंवन करि विपरीतल्प जो अभिनिवेश - अभिप्राय, सो विपरीत मिथ्यात्व है ।
वहुरि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की सापेक्षा रहितपनैं करि गुरुचरणपूजनादिरूप विनय ही करि मुक्ति है - यहु श्रद्धान वैनयिक मिथ्यात्व है।
बहुरि प्रत्यक्षादि प्रमाण करि ब्रह्मा जो अर्थ, ताका देशातर विष पर कालांतर विपै व्यभिचार जो अन्यथाभाव, सो संभव है । तातें अनेक मत अपेक्षा परस्पर विरोधी जो आप्तवचन, ताका भी प्रमाणता की प्राप्ति नाहीं । तातें जैसे ही तत्त्व है, जैसा निर्णय करने की शक्ति के अभाव तें सर्वत्र संशय ही है, जैसा जो अभिप्राय, सो संजय मिथ्यात्व है ।
बहुरि नानावरण दर्शनावरण का तीब उदय करि संयुक्त जे एकेद्रियादिक जीव, तिनके अनेकांत स्वन्य वस्तु है, जैसा वस्तु का सामान्य भाव विर्ष अर उपयोग लक्षण जीव है जैसा वस्तु का विशेष भाव विपै जो अज्ञान, ताकरि निपज्या जो श्रद्धान, सो अनान मिथ्यात्व है ।
___ अने स्थूल भेदनि का आश्रय करि मिथ्यात्व का पंचप्रकारपना कह्या, जातें मृत्म भेदनि का आश्रय करि असंख्यात लोकमात्र भेद संभव हैं। तातें तहां व्याच्यानादिक व्यवहार की अप्राप्ति है ।
प्राग इन पंचनि का उदाहरण की कहै हैं -
एयंत बुद्धदरसी, विवरीओ वह्म तावसो विरणओ। इंदो विय संसइयो, मक्कडिओ चेव अण्णाणी ॥१६॥
एकांतो वुद्धदर्णी, विपरीतो ब्रह्म तापसो विनयः। इंद्रोऽपि च संशयितो, मस्करी चैवानानी ।।१६।।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३
टीका ए उपलक्षणपना करि कहे है । एक का नाम लेने ते अन्य भी ग्रहण करने, तातै ऐसे कहने - बुद्धदर्शी जो बौद्धमती, ताकौ आदि देकरि एकांत मिथ्यादृष्टि है । बहुरि यज्ञकर्ता ब्राह्मण आदि विपरीत मिथ्यादृष्टि है । बहुरि तापसी आदि विनय मिथ्यादृष्टि है | बहुरि इन्द्रनामा जो श्वेतांबरनि का गुरु, ताको आदि देकरि संशय मिथ्यादृष्टि हैं । बहुरि मस्करी (मुसलमान) संन्यासी को आदि देकर अज्ञान मिथ्यादृष्टि है । वर्तमान काल अपेक्षा करिए भरतक्षेत्र विषै संभवते बौद्धमती आदि उदाहरण कहे है ।
आगै अतत्त्वश्रद्धान है लक्षण जाका, असे मिथ्यात्व कौ प्ररूप है
मिच्छतं वेदंतो, जीवो विवरीयदंसणो होदि । णय धम्मं रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥१७॥१
मिथ्यात्वं विदन् जीवो, विपरीतदर्शनो भवति ।
न च धर्मं रोचते हि, मधुरं खलु रसं यथा ज्वरितः ॥ १७॥
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-
टोका उदय आया मिथ्यात्व को वेदयन् कहिए अनुभवता जो जीव, सो विपरीतदर्शन कहिए अतत्त्वश्रद्धानसंयुक्त है, प्रयथार्थ प्रतीत करै है । बहुरि केवल तत्त्व ही की नाही श्रद्धे है, अनेकांतस्वरूप जो धर्म कहिए वस्तु का स्वभाव अथवा रत्नत्रयस्वरूप मोक्ष का कारणभूत धर्म, ताहि न रोचते कहिए नाही रूचिरूप प्राप्त हो है ।
इहां दृष्टांत कहै है - जैसे ज्वरित कहिए पित्तज्वर सहित पुरुष, सो मधुर मीठा दुग्धादिक रस, ताहि न रोच है; तैसे मिथ्यादृष्टि धर्म को न रोच है, ऐसा अर्थ
जानना ।
इस ही वस्तु स्वभाव के श्रद्धान को स्पष्ट कर है -
मिच्छाइट्टी जीवो, उवठ्ठे पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असम्भावं, उवइट्ठ वा अणुवइट्ठ ॥ १८ ॥ मिथ्यादृष्टिर्जीवः उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति । श्रद्दधाति असद्भावं, उपदिष्टं वा अनुपदिष्टम् ||१८||
१. पटखण्डागम धवला पुस्तक -१, पृष्ठ १६३, गाथा १०६.
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६४]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ट गाथा १० टीका - मिथ्यादृष्टि जीव है, सो उपदिप्ट कहिए अर्हन्त आदिकनि करि उपदेस्या हुआ प्रवचन कहिए प्राप्त, पागम, पदार्थ इनि तीनो की नाही श्रद्ध है, जात प्र कहिए उत्कृष्ट है वचन जाका, असा प्रवचन कहिए प्राप्त । बहुरि प्रकृप्ट जो परमात्मा, ताका वचन सो प्रवचन कहिए परमागम । वहुरि प्रकृष्ट उच्यते कहिए प्रमाण करि निरूपिए जैसा प्रवचन कहिए पदार्थ, या प्रकार निरुक्ति करि प्रवचन शब्द करि प्राप्त, आगम, पदार्थ तीनों का अर्थ हो है । बहुरि सो मिथ्यादृष्टि असद्भाव कहिए मिथ्यारूप; प्रवचन कहिए आप्त आगम, पदार्थ; उपदिष्टं कहिए प्राप्त कीसी आभासा लिए कुदेव जे है, तिनकरि उपदेस्या हुअा अथवा अनुपदिष्ट कहिए बिना उपदेस्या हुआ, ताकौं श्रद्धान करै है । वहुरि वादी का अभिप्राय लेड उक्तं च गाथा कहै है -
"घडपडथंभादिपयत्येसु मिच्छाइट्टी जहावगमं । सहहतो वि अण्णारणी उच्चदे जिणवयणे सद्दहणाभावादो ॥"
याका अर्थ- घट, पट, स्तंभ आदि पदार्थनि विपै मिथ्यादृष्टि जीव यथार्थ जान लीए श्रद्धान करता भी अनानी कहिए, जाते जिनवचन विष श्रद्धान का अभाव है । अंसा सिद्धांत का वाक्य करि कह्या मिथ्यादृष्टि का लक्षण जानि सो मिथ्यात्व भाव त्यजना योग्य है । ताका भेद भी इस ही वाक्य करि जानना । सो कहिए हैं - कोऊ मिथ्यादर्शनरूप परिणाम प्रात्मा विपै प्रकट हा थका वर्ण-रसादि की उपलब्धि जो ज्ञान करि जानने की प्राप्ति, ताहि होते संते कारणविपर्यास, बहुरि भेदाभेदविपर्यास, बहुरि स्वरूपविपर्यास की उपजावै है।
____तहां कारणविपर्यास प्रथम कहिए है। रूप-रसादिकनि का एक कारण है, नो अमूर्तीक है, नित्य है असे कल्पना कर है । अन्य कोई पृथ्वी आदि जातिभेद लोग भिन्न-भिन्न परमाणु हैं, ते पृथ्वी के च्यारि गुणयुक्त, अपके गव विना तीन गुणयुक्त, अग्नि के रन विना दोय गुगयुक्त, पवन के एक स्पर्श गुणयुक्त परमाणु हैं, ते अपनी नमान हानि के कार्यनि की निपजाबनहारे हैं, जैसा वर्णन कर है। या प्रकार कारण शिविपरीतभाव जानना ।
बहुरि भदाभेदविपर्यान कहै हैं- कार्य ते कारण भिन्न ही है अथवा अभिन्न ही मी मना दाभेद विप अन्यथापना जानना ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ १५ बहुरि स्वरूपविपर्यास कहै है - रूपादिक गुण निर्विकल्प है, कोऊ कहै - है ही नाहीं । कोऊ कहै - रूपादिकनि के जानने करि तिनके आकार परिणया ज्ञान ही है नाही, तिनका अवलंबन बाह्य वस्तुरूप है । असा विचार स्वरूप विष मिथ्यारूप जानना । या प्रकार कुमतिज्ञान का बल का आधार करि कुश्रुतज्ञान के विकल्प हो है । इनका सर्व मूल कारण मिथ्यात्व कर्म का उदय ही है, असा निश्चय करना ।
आगे सासादनगुणस्थान का स्वरूप दोय सूत्रनि करि कहै है -
आदिमसम्मत्तद्धा, समयादो छावलित्ति वा सेसे। अरणअण्णदरुदयादो, रणासियसम्मोत्ति सासरणक्खो सो॥१६॥ आदिमसम्यक्त्वाद्वा, आसमयतः षडावलिरिति वा शेषे ।
अनान्यतरोदयात् नाशितसम्यक्त्व इति सासानाख्यः सः ॥१९॥ . टीका-प्रथमोपशम सम्यक्त्व का काल विर्ष जघन्य एकसमय, उत्कृष्ट छह आवली अवशेष रहै, अनंतानुबंधी च्यारि कषायनि विषै अन्यतम कोई एक का उदय होते संतै, नष्ट कीया है सम्यक्त्व जानै असा होई, सो सासादन जैसा कहिए । बहरि वा शब्दकरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का काल विर्ष भी सासादन गुरणस्थान की प्राप्ति हो है । औसा (गुणधराचार्यकृत) कषायप्राभृतनामा यतिवृषभाचार्यकृत (चूर्णिसूत्र) जयधवल ग्रन्थ का अभिप्राय है ।
जो मिथ्यात्व तै चतुर्थादि गुणस्थाननि विष उपशम सम्यक्त्व होइ, सो प्रथमोपशम सम्यक्त्व है।
बहुरि उपशमश्रेणी चढते क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ते जो उपशम सम्यक्त्व होय, सो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व जानना।
सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो । गासियसम्मत्तो सो, सासरणणामो मुणयन्वो ॥२०॥ सम्यक्त्वरत्नपर्वतशिखरात् मिथ्यात्वभूमिसमभिमुखः । नाशितसम्यक्त्वः सः, सासननामा मंतव्य ॥२०॥
१ पट्खण्डागम - धवला पुस्तक - १, पृष्ठ १६७, गाथा १०८.
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६६]
[गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २१-२२ टोका - जो जीव सम्यक्त्वपरिणामरूपी रत्नमय पर्वत के शिखर ते मिथ्यात्वपरिणामरूपी भूमिका के सन्मुख होता संता, पडि करि जितना अतराल का काल एक समय आदि छह आवली पर्यन्त है, तिहि विष वर्ते, सो जीव नष्ट कीया है सम्यक्त्व जान, असा सासादन नाम धारक जानना ।
आगै सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वरूप गाथा च्यारि करि कहै है -
सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तरसम्वधादिकज्जेरण । रण य सम्म मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो॥२१॥ सम्यग्मिथ्यात्वोदयेन च, जात्यंतरसर्वघातिकार्येण ।
न च सम्यक्त्वं मिथ्यात्वमपि च, सम्मिश्रो भवति परिणामः ॥२१॥
टीका - जात्यंतर कहिए जुदी ही एक जाति भेद लीए जो सर्वघातिया कार्यरूप सम्यग्मिथ्यात्व नामा दर्शनमोह की प्रकृति, ताका उदय करि मिथ्यात्व प्रकृति का उदयवत् केवल मिथ्यात्व परिणाम भी न होइ है । अर सम्यक्त्व प्रकृति का उदयवत् केवल सम्यक्त्व परिणाम भी न होइ है । तिहि कारण ते तिस सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का कार्यभूत जुदी ही जातिरूप सम्यग्मिथ्यात्वपरिणाम मिलाया हूआ मिश्रभाव हो है, असा जानना ।।
दहिगुडमिव वामिस्सं, पुहभावं रणेव कारिदुं सक्कं । एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छोत्ति यादवो ॥२२॥१ दघिगुडमिव व्यामिश्र, पृथग्भावं नैव कर्तुं शक्यम् ।
एवं मिश्रकभावः, सम्यग्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम् ॥२२॥ टोका - इव कहिए जैसे, व्यामिश्रं कहिए मिल्या हुआ, दही अर गुड सो पृथग्भावं कर्तुं कहिए जुदा-जुदा भाव करने को, नैव शक्यं कहिए नाही समर्थपना है. एवं कहिए तैन, सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिल्या हूा परिणाम, सो केवल सम्यक्त्वभाव गरि अथवा केवल मिथ्यात्वभाव करि जुदा-जुदा भाव करि स्थापने की नाही नमयंपना है। इस कारण तें सम्यग्मिथ्यादृष्टि असा जानना योग्य है । समीचीन प्ररमोई मिथ्या, मो सम्यन्मिय्या असा है दृष्टि कहिए श्रद्धान जाकै, सो सम्यग्मिथ्या
-वटा सामान्यदना पुलर १, पृ. १७१-गा. १०६
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ९७ मिथ्यादृष्टि है। इस निरुक्ति से भी पूर्वं ग्रह्या जो अतत्त्वश्रद्धान, ताका सर्वथा त्याग बिना, तीहिं सहित ही तत्त्व श्रद्धान हो है । जाते तैसै ही सभवता प्रकृति का उदयरूप कारण का सद्भाव है।
सो संजमं ण गिण्हदि, देसजमं वा रण बंधदे आउं । सम्मं वा मिच्छं वा, पडिवज्जिय मरदि रिणयमेण ॥२३॥ स संयम न गृह्णाति, देशयम वा न बध्नाति आयुः । सम्यक्त्वं वा मिथ्यात्वं, वा प्रतिपद्य म्रियते नियमेन ॥२३॥
टीका - सो सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है, सो सकलसंयम वा देशसयम को ग्रहण कर नाही, जातै तिनके ग्रहण योग्य जे करणरूप परिणाम, तिनिका तहां मिश्रगुणस्थान विर्ष असंभव है । बहुरि तैसे ही सो सम्यग्मिथ्यादष्टि जीव च्यारि गति । संबंधी आयु की नाही बाधै है । बहुरि मरणकाल विष नियमकरि सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणाम को छोडि, असंयत सम्यग्दृष्टीपना को वा मिथ्यादृष्टीपना को नियमकरि प्राप्त होइ, पीछे मरै है। - भावार्थ - मिश्रगुणस्थान ते पंचमादि गुणस्थान विष चढना नाही है। बहुरि तहां आयुबध वा मरण नाही है ।
सम्मत्तमिच्छपरिणामसु जहिं आउगं पुरा बद्धं । तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य रण मिस्सम्मि ॥२४॥२ सम्यक्त्वमिथ्यात्वपरिणामेपु यत्रायुष्क पुरा बद्धम् । तत्र मरणं मरणांतसमुद्घातोऽपि च न सि ॥२४॥
टीका - सम्यक्त्वपरिणाम अर मिथ्यात्वपरिणाम इनि दोऊनि विष जिह परिणाम विषै पुरा कहिए सम्यग्मिथ्यादृष्टीपनाको प्राप्ति भए पहिले, परभव का आयु बंध्या होइ, तीहि सम्यक्त्वरूप वा मिथ्यात्वरूप परिणाम विष प्राप्त भया ही जीव का मरण हो है, असा नियम कहिए है। बहुरि अन्य केई आचार्यनि के
१. षट्खडागम - धवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३४१, गाथा ३३ २. षट्खडागम - घवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३४६ गाथा ३३ एव पुस्तक ५, पृष्ठ ३१ टीका.
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१८]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया२५ अभिप्राय करि नियम नाही है । सोई कहिए है - सम्यक्त्वपरिणाम विष वर्तमान कोई जीव यथायोग्य परभव के आयु को बांधि बहुरि सम्यग्मिथ्यादृष्टि होइ पीछे सम्यक्त्व को वा मिथ्यात्व को प्राप्त होइ मरै है। बहुरि कोई जीव मिथ्यात्वपरिणाम विषै वर्तमान, सो यथायोग्य परभव का आयु बांधि, बहुरि सम्यग्मिथ्यादृष्टि होइ पीछे सम्यक्त्व कौ वा मिथ्यात्व को प्राप्त होइ मरै है । बहुरि तैसे ही माराणातिक समुद्घात भी मिधगुणस्थान विष नाही है । आगै असंयत गुणस्थान के स्वरूप को निरूप है।
सम्मत्तदेसघादिस्सुदयादो वेदगं हवे सम्म । चलमलिनमगाढं तं पिच्चं कम्मक्खवरणहेदु ॥२५॥ सम्यक्त्वदेशघातेरुदयाद्वेदकं भवेत्सम्यक्त्वम् ।
चलं मलिनमगाढं तन्नित्यं कर्मक्षपणहेतु ॥२५॥ टोका - अनंतानुवंधी कषायनि का प्रशस्त उपशम नाही है, इस हेतु ते तिन अनतानुबंधी कषायनि का अप्रशस्त उपशम को होते अथवा विसंयोजन होते, बहुरि दर्शनमोह का भेदरूप मिथ्यात्वकर्म अर सम्यग्मिथ्यात्वकर्म, इनि दोऊनि को प्रशस्त उपशमरूप होते वा अप्रशस्त उपशम होते वा क्षय होने के सन्मुख होते बहुरि सम्यक्त्व प्रकृतिरूप देशघातिया स्पर्धकों का उदय होते ही जो तत्त्वार्थश्रद्धान है लक्षण जाका, असा सम्यक्त्व होइ, सो वेदक असा नाम धारक है ।
जहा विवक्षित प्रकृति उदय पावने योग्य न होइ अर स्थिति, अनुभाग घटने वा वधन वा संक्रमण होने योग्य होइ, तहा अप्रशस्तोपशम जानना ।
बहुरि जहां उदय प्रावने योग्य न होइ पर स्थिति, अनुभाग घटने-बधने वा संक्रमण होने योग्य भी न होइ, तहां प्रशस्तोपशम जानना ।
बहुरि तीहिं सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होते देशघातिया स्पर्धकनि के तत्त्वार्थ यद्धान नष्ट करने को सामर्थ्य का अभाव है; तातै सो सम्यक्त्व चल, मलिन प्रगाढ हो है । जाते सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का तत्त्वार्थश्रद्धान को मल अजावने मात्र ही विपं व्यापार है । तीहि कारण ते तिस सम्यक्त्व प्रकृति के देगपातिरना है । असे सम्यक्त्व प्रकृति के उदय की अनुभवता जीव के उत्पन्न भया
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका |
[ee
जो तत्त्वार्थश्रद्धान, सो वेदक सम्यवत्व है, औसा कहिए है । यह ही वेदक सम्यक्त्व है, सो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व असा नामधारक है, जातै दर्शनमोह के सर्वघाती स्पर्धकनि का उदय का प्रभावरूप है लक्षरण जाका, ऐसा क्षय होते, बहुरि देशघातिस्पर्धकरूप सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होते, बहुरि तिसही का वर्तमान समयसबंधी तै ऊपरि के निषेक उदय को न प्राप्त भए, तिनिसंबंधी स्पर्धकनि का सत्ता अवस्थारूप है लक्षण जाका, ऐसा उपशम होते वेदक सम्यक्त्व हो है । ताते याही का दूसरा नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है, भिन्न नाही है ।
1
सो वेदक सम्यक्त्व कैसा है ? नित्यं कहिए नित्य है । इस विशेषण करि याकी जघन्यस्थिति अंतर्मुहूर्त है, तथापि उत्कृष्टपना करि छ्यासठि सागरप्रमाण काल रहै है । तातै उत्कृष्ट स्थिति अपेक्षा दीर्घकाल ताई रहै है, ताते नित्य कह्या है । बहुरि सर्वकाल अविनश्वर अपेक्षा नित्य इहा न जानना । बहुरि कैसा है ? कर्मक्षपरणहेतु ( कहिए ) कर्मक्षपावने का कारण है । इस विशेषण करि मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र परिणाम है, तिनि विषै सम्यक्त्व ही मुख्य कारण है, ऐसा सूचै है । बहुरि वेदक सम्यक्त्व विषै शंकादिक मल है, ते भी यथासंभव सम्यक्त्व का मूल तै नाश करने को कारण नाही, असे सम्यक्त्व प्रकृति के उदय तै उपजे है ।
बहुरि औपशमिक र क्षायिक सम्यक्त्व विषै मल उपजावने कौ कारण तिस सम्यक्त्व प्रकृति का उदय का प्रभाव ते निर्मलपना सिद्ध है, ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।
बहुरि चलादिकनि का लक्षण कहै है, तहा चलपना कहिए है
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नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतं । लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमवस्थितं ॥ स्वकारितेऽर्हच्चत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते । श्रन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छाद्धोऽपि चेष्टते ॥
-
याका अर्थ - नाना प्रकार अपने ही विशेष कहिए ग्राप्त, ग्रागम, पदार्थरूप श्रद्धान के भेद, तिनि विषै जो चल - चंचल होइ, सो चल का है । सोई कहिए है - अपना कराया अर्हन्त प्रतिविबादिक विषै यहु मेरा देव है, ऐसे ममत्व करि, बहुरि
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५
१०० 1
अन्यकरि कराया अर्हन्तप्रतिविवादिक विषै यहु अन्य का है, ऐसे पर का मानिकरि भेदरूप भजन करै है; ताते चल का है ।
इहा दृष्टांत कहै है - जैसे नाना प्रकार कल्लोल तरंगनि की पंक्ति विषै जल एक ही अवस्थित है, तथापि नाना रूप होइ चल है; तैसे मोह जो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय, ताते श्रद्धान है, सो भ्रमण रूप चेष्टा करें है ।
भावार्थ - जैसे जल तरंगनि विषै चंचल होइ, परतु श्रन्यभाव को न भजे, तैसे वेदक सम्यग्दृष्टि अपना वा अन्य का कराया जिनविवादि विषै यहु मेरा, यहु अन्य का इत्यादि विकल्प करें है, परंतु अन्य देवादिक को नाही भजै है | व मलिनपना कहिए है
तदप्यलब्ध माहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः । मलिनं मलसंगेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् ॥
याका अर्थ - सो भी वेदक सम्यक्त्व है, सो सम्यक्त्व प्रकृति के उदय ते न पाया है माहात्म्य जिहि, ऐसा हो है । बहुरि सो शकादिक मल का संगकरि मलिन हो है । जैसे शुद्ध सोना वाह्य मल का संयोग तै मलिन हो है, तैसे वेदक सम्यक्त्व शकादिक मल का संयोग ते मलिन हो है ।
गाढ कहिए है।
स्थान एव स्थितं कंप्रमगाढमिति कीर्त्यते । वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता ॥ समेप्यनंतशक्तित्वे सर्वेषामर्हतामयं ।
देवोऽस्मै प्रभुरेषोस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥
याका अर्थ - स्थान कहिए प्राप्त, आगम, पदार्थनि का श्रद्धान रूप अवस्था, तिहि विषे तिष्ठता हुआ ही कांपै, गाढा न रहे, सो अगाढ ऐसा कहिए है ।
-
ताका उदाहरण कहैं हैं - असे तीव्र रुचि रहित होय सर्व ग्रर्हन्त परमेष्ठीनि के अनतशक्तिपना समान होते संते, भी इस शातिकर्म, जो शाति क्रिया ताकै अथि शातिनाथ देव है, सो प्रभु कहिए समर्थ है । बहुरि इस विघ्ननाशन आदि क्रिया के थि पार्श्वनाथ देव समर्थ है । इत्यादि प्रकार करि रुचि, जो प्रतीति, ताकी शिथिलता संभव है । ताते वूढे का हाथ विषे लाठी शिथिल संबंधपना करि अगाढ है, तैमै सम्यक्त्व प्रगाढ है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
भावार्थ - जैसे बूढे के होथ ते लाठी छूटे नाही, परंतु शिथिल रहै । तैसे वेदक सम्यक्त्व का श्रद्धान छूट नाहीं । शांति आदि के अथि अन्य देवादिकनि को न सेवै, तथापि शिथिल रहै । जैन देवादिक विष कल्पना उपजावै ।
असा इहा चल, मलिन, अगाढ का वर्णन उपदेशरूप उदाहरण मात्र कह्या है । सर्व तारतम्य भाव ज्ञानगम्य है ।
आगे औपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्वनि का उपजने का कारण अर स्वरूप प्रतिपादन कर है -
सत्तण्हं उवसमदो, उवसमसम्मो खयादु खइयो य । बिदियकसायुदयादो, असंजदो होदि सम्मो य ॥२६॥ सप्तानामुपशमतः, उपशमसम्यक्त्वं क्षयात्तु क्षायिकं च ।
द्वितीय कषायोदयादसंयतं भवति सम्यक्त्वं च ॥२६॥
टीका - नाही पाइए है अंत जाका, असा अनंत कहिए मिथ्यात्व, ताहि अनुबध्नति कहिए आश्रय करि प्रवर्ते असे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; बहुरि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति नाम धारक दर्शनमोह प्रकृति तीन; असे सात प्रकृतिनि का सर्व उपशम होने करि औपशमिक सम्यक्त्व हो है । बहुरि तैसै तिन सात प्रकृतिनि का क्षयतै क्षायिक सम्यक्त्व हो है। बहुरि दोऊ सम्यक्त्व ही निर्मल है, जातै शंकादिक मलनि का अंश की भी उत्पत्ति नाही संभव है। बहुरि तैसै दोऊ सम्यक्त्व निश्चल है, जातै प्राप्त, आगम, पदार्थ गोचर श्रद्धान भेदनि विर्षे कही भी स्खलित न हो है । बहुरि तैसे ही दोऊ सम्यक्त्व गाढ है, जाते प्राप्तादिक विष तीव्र रुचि संभव है । यहु मल का न सभवना, स्खलित न होना तीव्ररुचि का संभवना - ए तीनों सम्यक्त्व प्रकृति का उदय का इहां अत्यंत प्रभाव है, तातै पाइए है असा जानना।
बहुरि या प्रकार कहे तीन प्रकार सम्यक्त्वनि करि परिणया जो सम्यग्दृष्टि जीव, सो द्वितीय कषाय जे अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; इन विषै एक किसी का उदय करि असंयत कहिए असंयमी हो है, याही ते याका नाम असंयतसम्यग्दृष्टी है।
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܃ ܕܽܘܨ
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गार्थ २७ २८
आग तत्त्वार्थश्रद्धोन का सम्यक प्रकार ग्रहण पर त्याग का अवसर नाही, ताहि गाथा दोय करि प्ररूपे है -
सम्माइट्ठी जीवो, उवइठें पवयणं तु सद्दहदि । सदहदि असम्भावं, अजारणमारणो गुरुरिणयोगा ॥२७॥ सम्यग्दृष्टिर्जीव', उपदिष्टं प्रवचनं तु श्रद्दधाति ।
श्रद्दधाति असद्भावं, अज्ञायमानो गुरुनियोगात् ॥२७॥ टोका - जो जीव अर्हन्तादिकनि करि उपदेस्या हूवा असा जु प्रवचन कहिए आप्त, आगम, पदार्थ ए तीन, ताहि श्रद्दधाति कहिए श्रद्ध है, रोचै है । वहरि तिनि आप्तादिकनि विष असद्भावं कहिए अतत्त्व, अन्यथा रूप ताको भी अपने विशेष जान का अभाव करि केवल गुरु ही का नियोग ते जो इस गुरु ने कहा, सोही अर्हन्त की आना है, असा प्रतीति ते श्रद्धान करै है, सो भी सम्यग्दृष्टि ही है, जाते तिस की आज्ञा का उल्लंघन नाही करै है।
भावार्थ - जो अपने विशेष जान न होइ, वहरि जेनगुरु मदमति ते प्राप्तादिक का स्वरूप अन्यथा कहै, अर यहु अर्हन्त की असी ही आना है, असे मानि जो असत्य श्रद्धान करै तौ भी सम्यग्दृष्टि का अभाव न होइ, जाते इसने तो ग्रहन्त की आज्ञा जानि प्रतीति करी है ।
सुत्तादो तं सम्म, दरसिज्जंतं जदा रण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥२८॥ सूत्रात्तं सम्यग्दर्शयंतं, यदा न श्रधाति । ।
स चैव भवति मिथ्यादृष्टिर्जीवः तदा प्रभृति ॥२८॥
टोका - तैसे असत्य अर्थ श्रद्धान करता आज्ञा सम्यग्दृष्टी जीव, सो जिस काल प्रवीण अन्य प्राचार्यनि करि पूर्वे ग्रह्या हुवा असत्यार्थरूप श्रद्धान ते विपरीत भाव सत्यार्थ, सो गणवरादिकनि के सूत्र दिखाइ सम्यक् प्रकार निरूपण कह्या हुवा होड, ताकी खोटा हट करि न श्रद्धान करै तौ, तीहि काल सौ लगाय, सो जीव
१. पद्वंटागम -घवला पुस्तक १, पृष्ठ १७४, गाथा ११०
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ १०३ मिथ्यादृष्टी हो है। जाते सूत्र का अश्रद्धान करि जिन आज्ञा का उल्लंघन का सुप्रसिद्धपना है, तीहि कारण ते मिथ्यादृष्टी हो है ।
प्रागै असंयतपना अर सम्यग्दृष्टीपना के सामानाधिकरण्य को दिखावै है -
यो इंदियेसु विरदो, रणो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्तं, सम्माइठ्ठी अविरदोसो ॥२॥१
नो इंद्रियेषु विरतो, नो जीवे स्थावरे त्रसे वापि ।
यः श्रद्दधाति जिनोक्त, सम्यग्दृष्टिरविरतः सः ॥२९॥ टीका - जो जीव इद्रियविषयनि विषे नोविरत - विरति रहित है, बहुरि तैसै ही स्थावर, त्रस जीव की हिसा विर्ष भी नाही विरत है – त्याग रहित है । बहुरि जिन करि उपदेश्या प्रवचन को श्रद्धान करै है, सो जीव अविरत सम्यग्दृष्टी हो है । या करि असंयत, सोई सम्यग्दृष्टी, सो असयतसम्यग्दृष्टी है ऐसे समानाधिकरणपना दृढ कीया । बहुत विशेषणनि का एक वस्तु आधार होइ, तहां कर्मधारेय समास विष समानाधिरणपना जानना । बहुरि अपि शब्द करि ताकै सवेगादिक सम्यक्त्व के गुण भी याकै पाइए है, ऐसा सूचै है । बहुरि इहां जो अविरत विशेषण है, सो अंत्यदीपक समान जानना । जैसे छैहडै धरचा हुवा दीपक, पिछले सर्वपदार्थनि कौ प्रकाशै, तैसे इहा अविरत विशेषण नीचे के मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थाननि विर्षे अविरतपना को प्रकाशै है, ऐसा संबंध जानना। बहुरि अपि शब्द करि अनुकंपा भी है।
भावार्थ-कोऊ जानेगा कि विषयनि विर्षे अविरती है, तातै विषयानुरागी बहुत होगा, सो नाही है, संवेगादि गुणसंयुक्त है । बहुरि हिसादि विषै अविरति है, तातै निर्दयी होगा, सो नाही है; दया भाव सयुक्त है, ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि है ।
आगै देशसंयत गुणस्थान को गाथा दोय करि निर्देश कर है - पच्चक्खाणुदयादो, संजमभावो रण होदि गरि तु । थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमनो ॥३०॥
१. षट्खंडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७४, गाथा १११. २ षट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १७६, गाथा ११२.
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सार जीवकाम गाथा ३१-३२ १०४]
प्रत्याख्यानोदयात् संयमभावो न भवति नरिं तु ।
स्तोकव्रतं भवति ततो, देशवतो भवति पंचमः ॥३०॥ टीका - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायनि का उपशम तै प्रत्याख्यानावरण कषायनि का देशघाती स्पर्धकनि का उदय होते संतें सर्वघाती स्पर्धकनि का उदयाभाव रूप लक्षण जाका, ऐसा क्षय करि जाकै सकल संयमरूप भाव न हो है । विशेष यह देशसंयम कहिए, किंचित् विरति हो है, ताकी धर-धरै, देशसंयत नामा पंचमगुणस्थानवर्ती जीव जानना ।
जो तसवहाउ विरदो, अविरदो तह य थावरवहादो। एक्कसमयम्हि जीवो, विरदाविरदो जिरोक्कमई ॥३१॥
यस्त्रसवधाद्विरत , अविरतस्तथा च स्थावरवधात् ।
एकसमये जीवो, विरताविरतो जिनकमतिः ॥३१॥ ___टीका - सोई देशसंयत विरताविरत ऐसा भी कहिए है । एक काल ही विपै जो जीव त्रसहिंसा ते विरत है अर स्थावरहिसा ते अविरत है, सो जीव विरत अर सोई अविरत ऐसे विरत-अविरत विपै विरोध है; तथापि अपने-अपने गोचर भाव स-स्थावर के भेद अपेक्षा करि विरोध नाही। तीहि करि विरत-अविरत ऐसा उपदेश योग्य है । वहरि तैसे चकार शब्द करि प्रयोजन विना स्थावर हिंसा को भी नाही करै है, ऐसा व्याख्यान करना योग्य है । सो कैसा है ? जिनकमतिः कहिए जिन जे प्राप्तादिक, तिनही विपै है एक केवल मति कहिए इच्छा - रुचि जाके ऐसा है । इस करि देशसयत के सम्यग्दृप्टीपना है, ऐसा विशेपण निरूपण कीया है। यह विशंपण आदि दीपक समान है, सो आदि विपै धरचा हवा दीपक जैसे अगिले सर्व पदार्थनि की प्रकाशै, तैसे इहांते आगे भी सर्व गुणस्थानकनि विषै इस विशेषण करि संबंध करना योग्य है - सर्व सम्यग्दृष्टी जानने ।
आगे प्रमत्तगुणस्थान की गाथा दोय करि कहैं है - संजलण पोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा । मलजरगणपमादो वि, य तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥३२॥
संज्वलननोकषायारणामुदयात्संयमो भवेद्यस्मात् । मलजननप्रमादोऽपि च तस्मात्खलु प्रमत्तविरतः सः ॥३२॥
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* ૨૦%
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
टीका जा कारण ते संज्वलनकषाय के सर्वघाती स्पर्धकनि का उदयाभाव लक्षण धरें क्षय होतें, बहुरि बारह कषाय उदय कौ न प्राप्त तिनका, अर संज्वलन कषाय र नोकषाय, इनके निषेकनि का सत्ता अवस्था रूप लक्षण धरै उपशम होते; बहुरि संज्वलन कषाय, नोकषायनि का देशघाती स्पर्धकनि का तीव्र उदय तै सकलसयम अर मल का उपजावनहारा प्रमाद दोऊ हो है । तीहि कारण ते प्रमत्त सोई विरत, सो षष्ठम गुणस्थानवर्ती जीव प्रमत्तसंयत असा कहिए है ।
"विवक्खिदस्स संजमस्स खश्रोवसमियत्तपडुप्पायरणमेत्तफलत्तादो कथं संजल रणरणोकसायाणं चरितविरोहोणं चारित्तकारयत्तं ? देशघादित्त रेग सपविक्ख गुणं विरिणम्मूलरणसत्तिविरहियारणमुदयो विज्जमागो वि ण स कज्जकार श्रोत्ति संजमहेदुत्तरेण विविक्खियत्तादो, वत्थुदो दु कज्जं पडुप्पायेदि मलजरगरणपमादोविय 'अविय इत्यवधारणे' मलजरगरणपमादो चेव जम्हा एवं तम्हा हु पमत्ताविरदो सो तमुवलक्खदि । "
याका अर्थ - विवक्षित जो संयम, ताकै क्षायोपशमिकपना का उत्पादनमात्र फलपना है । संज्वलन अर नोकषाय जे चारित्र के विरोधी, तिनकै चारित्र का उपजावना कैसे संभव है ?
करना
तहां कहै है – एक देशघाती है, तीहि भावकरि अपना प्रतिपक्षी संयमगुण, ताहि निर्मूल नाश करने की शक्ति रहित है । सो इनका उदय विद्यमान भी है, तथापि अपना कार्यकारी नाही, सयम नाश न करि सके है । जैसे संयम का कारणपना करि विवक्षा ते संज्वलन अर नोकषायनि के चारित्र उपजावना उपचार करि जानना । वस्तु तै यथार्थ निश्चय विचार करिए, तब ए सज्वलन अर नोकपाय अपने कार्य ही कौ उपजावे है । इनि ते मल का उपजावनहारा प्रमाद हो है । श्रपि च असा शब्द है सो प्रमाद भी है, जैसा अवधारण अर्थ विषै जानना । मल का उपजावनहारा प्रमाद है, जाते असे ताते प्रकट प्रमत्तविरत, सो षष्ठम गुणस्थानवर्ती जीव है |
ताहि लक्षण करि कहै है
वत्तावत्तपमादे, जो वसइ पमत्तसंजदो होदि । सयलगुरणशीलकलिओ, महत्वई चित्तलायरणो ॥ ३३॥
- धवला, पुस्तक १, पृष्ठ १७६, गाया ११३
१. पट्खडागम
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १०७ हो है । इहा सूत्र विर्ष पहिले चकार कह्या, सो सर्व ही ए प्रमाद है, असा साधारण भाव जानने के अथि कह्या है । बहुरि दूसरा तथा शब्द कह्या, सो परस्पर समुदाय करने के अथि कह्या है। .
आगै इनि प्रमादनि के अन्य प्रकार करि पांच प्रकार है, तिनको नव गाथानि करि कहै है -
संखा तह पत्थारो, परियट्टण गट्ठ तह समुदिळें । एदे पंच पयारा, पमदसमुक्कित्तणे गया ॥३॥ संख्या तथा प्रस्तारः, परिवर्तन नष्टं तथा समुद्दिष्टम् ।
एते पंच प्रकाराः, प्रमादसमुत्कीर्तने ज्ञेयाः ॥३५॥ टीका - सख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, समुद्दिष्ट ए पांच प्रकार प्रमादनि का व्याख्यान विर्ष जानना । तहा प्रमादनि का आलाप को कारणभूत जो अक्षसंचार के निमित्त का विशेष, सो संख्या है । बहुरि इनका स्थापन करना, सो प्रस्तार है । बहुरि अक्षसंचार परिवर्तन है । संख्या धरि अक्ष का ल्यावना नष्ट है । अक्ष धरि संख्या का ल्यावना समुद्दिष्ट है । इहा भंग को कहने का विधान, सो आलाप जानना । बहुरि भेद वा भंग का नाम अक्ष जानना । बहुरि एक भेद अनेक भंगनि विष क्रम तै पलटै, ताका नाम अक्षसचार जानना । बहुरि जेथवा भग होइ, तीहि प्रमाण का नाम संख्या जानना।
आगै विशेष संख्या की उत्पत्ति का अनुक्रम कहै है -
सव्वे पि पुब्वभंगा, उवरिमभंगेसु एक्कमेक्कसु । मेलति त्ति य कमसो, गुरिणदे उप्पज्जदे संखा ॥३६॥ सर्वेऽपि पूर्वभंगा, उपरिमभंगेषु एकैकेषु ।
मिलंति इति च क्रमशो,गुणिते उत्पद्यते संख्या ॥३६॥ टीका - सर्व ही पहिले भंग ऊपरि-ऊपरि के भंगनि विषै एक-एक विषै मिले है, संभव है । यातै क्रम करि परस्पर गुणै, विशेष संख्या उपज है । सोई कहिए है - पूर्व भंग विकथाप्रमाद च्यारि, ते ऊपरि के कषायप्रमादनि विर्षे एक-एक विष सभवै
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१०८
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३७
हैं । जैसे च्यारि विकथानि करि गुणे, च्यारि कषायनि के सोलह प्रमाद हो है बहुरि ए नीचले भंग सोलह भए, ते ऊपरि के इंद्रियप्रमादनि विषे एक-एक विषे संभवै हैं । से सोलह करि गुण, पंच इंद्रियनि के प्रसी प्रमाद हो है । तैसे ही निद्रा विषै, बहुरि स्नेह विषै एक-एक ही भेद है । तातै एक- एक करि गुण भी प्रसी-ग्रसी ही प्रमाद हो हैं । असे विशेष संख्या की उत्पत्ति कही ।
नागै प्रस्तार का अनुक्रम दिखावै है
पढमं पमदपमारणं, कमेरण रिगक्खिविय उवरिमाणं च । पिंडं पडि एक्केकं, रिगक्खिते होदि पत्थारो ॥ ३७ ॥
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प्रथमं प्रमादप्रमाणं क्रमेण निक्षिप्य उपरिमाणं च । पिडं प्रति एकैकं निक्षिप्ते भवति प्रस्तारः ॥३७॥
टीका प्रथम विकथास्वरूप प्रमादनि का प्रमाण का विरलन करि एक-एक जुदा विखेरी, पीछे क्रम करि नीचे विरल कीया था । ताकै एक-एक भेद प्रति एकएक ऊपरि का प्रमादपिड कौ स्थापन करना, तिनको मिले प्रस्तार हो है । सो कहिए है - विकथा प्रमाद का प्रमाण च्यारि, ताको विरलन करि क्रम ते स्थापि ( १ १ १ १ ) वहुरि ताकै ऊपरि का दूसरा कपाय नामा प्रमाद, ताका पिंड जो समुदाय, ताका प्रमारण च्यारि (४) ताहि विरलनरूप स्थापे जे नीचले प्रमाद, तिनिका एक-एक भेद प्रति देना ।
भावार्थ - एक-एक विकथा भेद ऊपरि च्यारि च्यारि कषाय स्थापने
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क ४४४४
वि १ १ १ १ सो इनको मिलाए जोडे, सोलह प्रमाद हो है । बहुरि ऊपरि की अपेक्षा लीए याक पहिला प्रमादपिंड कहिए, सो याको विरलन करि क्रम ते स्थापि, याते ऊपरी का तिस पहिला की अपेक्षा याको दूसरा इंद्रियप्रमाद, ताका पिड प्रमाण पाच, ताहि पूर्ववत् विरलन करि स्थापे, जे नीचले प्रमाद, तिनके एक-एक भेद प्रति एक-एक पिंडरूप स्थापिए
५. ५ ५. ५.
५ ५ ५ ५
१
१ १
१ १ १ १
कोमा मा लो, क्रो मा मा लो, स्त्री स्त्री स्त्री स्त्री, भ भ भ भ
५ ५ ५
५ ५ ५ ५
५ क्रो मा मा लो, १ १ १ १ १ १ १
१
रा रा रा रा
,
क्रो मा मा लो, .
अ अ अ
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,
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १०९
भावार्थ - सोलह भेदनि विषै एक-एक भेद ऊपरि पांच-पांच इंद्रिय स्थापने, सो इनकौं जोड़े, असी भंग हो हैं । यहु प्रस्तार आगे कहिए जो अक्षसंचार, ताका कारण है । असें प्रस्ताररूप स्थापे जे असी भंग, तिनिका आलाप जो भंग कहने का विधान, ताहि कहिए है - स्नेहवान् निद्रालु - स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत क्रोधी- स्त्री-कथालापी जैसे यह असी भंगनि विषे पहिला भंग है । बहुरि स्नेहवान्- निद्रालु रसना इंद्रिय के वशीभूत - क्रोधी - स्त्रीकथालापी अँसे यहु दूसरा भंग है । बहुरि स्नेहवान्निद्रालु - प्रारण इंद्रिय के वशीभूत - क्रोधी - स्त्रीकथालापी जैसे यहु तीसरा भंग भया । बहुरि स्नेहवान्- निद्रालु-चक्षु इंद्रिय के वशीभूत - क्रोधी - स्त्रीकथालापी जैसे यहु चौथा भंग है । बहुरि स्नेहवान् निद्रालु-श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत क्रोधी - स्त्रीकथालापी जैसे यहु पांचवा भंग है । जैसे पांच भंग भए । याही प्रकार क्रोधी की जायगा मानी स्थापि पंच भंग करने
बहुरि मायावी स्थापि पंच भंग करने ।
1
बहुरि लोभी स्थापि पंच भंग करने । अँसै एक-एक कषाय के पांच-पांच होइ, च्यारि कषायनि के एक स्त्रीकथा प्रमाद विषे वीस आलाप हो हैं । बहुरि जैसे स्त्रीकथा आलापी की अपेक्षा वीस भेद कहे, तैसै ही स्त्रीकथालापी की जायगा भक्तकथालापी, बहुरि राष्ट्रकथालापी, बहुरि अवनिपालकथालापी क्रम ते स्थापि एक-एक विकथा के वीस-वीस भंग होइ । च्यारौ विकथानि के मिलि करि सर्वप्रमादनि के असी आलाप हो है, जैसा जानना ।
नागै अन्य प्रकार प्रस्तार दिखावे हैं -
रिक्खित्तु बिदियमेत्तं, पढमं तस्सुवरि बिदयमेक्केक्कं ।
पिंडं पडि रिक्खेश्रो, एवं सव्वत्थ कायव्वो ॥ ३८ ॥
निक्षिप्त्वा द्वितीयमात्रं तस्योपरि द्वितीयमेकैकम् । पिंडं प्रति निक्षेप, एवं सर्वत्र कर्तव्यः ॥ ३८ ॥
टीका - कषायनामा दूसरा प्रमाद का जेता प्रमाण, तीहिमात्र स्थानकनि विषे विकथास्वरूप पहिला प्रमाद का समुदायरूप पिड जुदा-जुदा स्थापि ( ४४४४ ), बहुरि एक-एक पिप्रति द्वितीय प्रमादनि का प्रमाण का एक-एक रूप ऊपरि स्थापना ।
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११० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३८
भावार्थ - च्यारि-च्यारि प्रमाण लीए, एक-एक विकथा प्रमाद का पिड, ताको दूसरा प्रमाद कषाय का प्रमाण च्यारि, सो च्यारि जायगा स्थापि, एक-एक पिंड के ऊपरि क्रम तै एक-एक कषाय स्थापिए/१११ १) जैसे स्थापन कीए, तिन
४४४४
का जोड सोलह पिड प्रमाण होइ । वहुरि 'असे ही सर्वत्र करना' इस वचन ते यहु सोलह प्रमाण पिंड जो समुदाय, सो तीसरा इद्रिय प्रमाद का जेता प्रमाण, तितनी जायगा स्थापिए । सो पांच जायगा स्थापि ( १६ १६ १६ १६ १६ ), इनके ऊपरी तीसरा इद्रिय प्रमाद का प्रमाण एक-एक रूपकरि स्थापन करना ।
भावार्थ - पूर्वोक्त सोलह भेद जुदे-जुदे इंद्रिय प्रमाद का प्रमाण पांचा, सो पांच जायगा स्थापि, एक-एक पिड के ऊपरि एक-एक इंद्रिय भेद स्थापन करना ( १६ १६ १६ १६ ) असे स्थापन कीए, अधस्तन कहिए नीचे की अपेक्षा अक्षसंचार को कारण दूसरा प्रस्तार हो है ।
सो इस प्रस्तार अपेक्षा आलाप जो भंग कहने का विधान, सो कैसे हो है ?
सोई कहिए है - स्त्रीकथालापी-क्रोधी-स्पर्शन-इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालुस्नेहवान असा असी भंगनि विष प्रथम भंग है। बहुरि भक्तकथालापी-क्रोधी-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान असा दूसरा भंग है । वहुरि राष्ट्रकथालापीक्रोधी-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान् असा तीसरा भंग है। बहुरि अवनिपालकथालापी-क्रोधी-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान् जैसा चौथा भंग है। जैसे ही क्रोध की जायगा मानी वा मायावी वा लोभी क्रम तै कहि च्यारिच्यारि भंग होइ, च्यारौ कपायनि के एक स्पर्शन इद्रिय विष सोलह आलाप हो है।
___ बहुरि जैसे ही स्पर्शन इद्रिय के वशीभूत की जायगा रसना वा घ्राण वा चक्षु वा श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत क्रम ते कहि एक-एक के सोलह-सोलह भेद होइ पाचों इंद्रियनि के असी प्रमाद पालाप हो है । तिनि सवनि को जानि व्रती पुरुपनि करि प्रमाद छोडने ।
भावार्थ - एक जीव के एक काल कोई एक-एक, कोई भेदरूप विकथादिक हो हैं । तातै तिनके पलटने की अपेक्षा पद्रह प्रमादनि के असी भग हो हैं । जैसा ही यह अनुक्रम चौरासी लाख उत्तरगुण, अठारह हजार शील के भेद, तिनका भी प्रन्नार विर्ष करना।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ १११
आगे पीछे कह्या जो दूसरा प्रस्तार, ताकी अपेक्षा प्रक्षपरिवर्तन कहिए अक्षसंचार, ताका अनुक्रम कहैं हैं
-
पढमक्खो अंतगदो, आदिगदे संकमेदि बिदियक्खो । दोण्णिवि गंतणंतं, आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ॥३६॥
प्रथमाक्ष अंतगतः श्रादिगते संक्रामति द्वितीयाक्षः । द्वापि गत्वांतमादिगते, संक्रामति तृतीयाक्षः ॥ ३९॥
-
टीका पहिला प्रमाद का अक्ष कहिए भेद विकथा, सो आलाप का अनुक्रम कर अपने पर्यन्त जाइ, वहुरि वाहुडि करि अपने प्रथम स्थान को युगपत् प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कपाय, सो अपने दूसरे स्थान को प्राप्त होइ ।
भावार्थ - श्रालापनि विषे पहिले तो विकथा के भेदनि को पलटिए, क्रम तैं स्त्री, भक्त, राष्ट्र, अवनिपालकथा च्यारि आलापनि विषै कहिए । अर अन्य प्रमादनि का पहिला पहिला ही भेद इन चारो आलापनि विषै ग्रहण करिए । तहां पीछे पहिला विकथा प्रमाद अपना अंत अवनिपालकथा तहां पर्यंत जाइ, बाहुडि करि अपना स्त्रीकथारूप प्रथम भेद को जब प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद कषाय, सो अपना पहला स्थान क्रोध को छोडि, द्वितीय स्थान मान को प्राप्त होइ । बहुरि प्रथम प्रमाद का अक्ष पूर्वोक्त अनुक्रम करि संचार करता अपना पर्यंन्त कौ जाइ, बाहुडि करि सो युगपत् अपना प्रथम स्थान को जब प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, अपना तीसरा स्थान को प्राप्त होइ ।
भावार्थ - दूसरा कषाय प्रमाद दूसरा भेद मान को प्राप्त हुवा, तहां भी पूर्वोक्त प्रकार पहला भेद क्रम तै च्यारि आलापनि विषै क्रम ते पलटी, अपना पर्यंन्त भेद ताई जाइ, बाहुडि अपना प्रथम भेद स्त्रीकथा को प्राप्त होइ, तब कषाय प्रमाद अपना तीसरा भेद माया को प्राप्त हो है । बहुरि जैसे ही संचार करता, पलटता दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो जब अपने अत पर्यन्त भेद कौ प्राप्त होइ, तब प्रथम अक्ष विकथा, सो भी अपना पर्यन्त भेद कौ प्राप्त होइ तिष्ठ ।
भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार च्यारि आलाप माया विषे, च्यारि आलाप लोभ विषै भए कषाय अक्ष अपना पर्यन्त भेद लोभ, ताकौ प्राप्त भया । श्रर इनिविषे
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११२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४० पहिला अन विकथा, सो भी अपना पर्यन्त भेद अवनिपालकथा, ताकी प्राप्त भया; असे होते सोलह आलाप भए ।
बहुरि ए दोऊ अक्ष विकथा अर कपाय वाहुडि करि अपने प्रथम स्थान की प्राप्त भए, तव तीसरा प्रमाद का अक्ष अपना प्रथम स्थान छोडि, दूसरा स्थान की प्राप्त हो है । पर इस ही अनुक्रम करि प्रथम अर द्वितीय अक्ष का क्रम ते अपने पर्यन्त भेद ताई जानना । वहुरि बाहुडना तिनकरि तीसरा प्रमाद का अक्ष इंद्रिय, सो अपना तीसरा आदि स्थान को प्राप्त होइ, जैसा जानना ।
भावार्थ - विकथा अर कपाय अक्ष वाडि अपना प्रथम स्थान स्त्रीकथा अर क्रोध कौं प्राप्त होइ, तब इंद्रिय अक्ष विपै पूर्व सोलह आलापनि विपै पहिला भेद स्पर्णन इंद्रिय था, सो तहां रसना इंद्रिय होइ, तहां पूर्वोक्त प्रकार अपना-अपना पर्यत भेद ताई जाय, तव रसना इंद्रिय विप सोलह पालाप होइ । वहुरि तैसे ही ते दोऊ अन वाहुडि अपने प्रथम स्थान को प्राप्त होइ, तव इंद्रिय अक्ष अपना तीसरा भेद ब्राण इंद्रिय कौं प्राप्त होइ, या विष पूर्वोक्त प्रकार सोलह आलाप होइ ।
वहुरि इस ही क्रमकरि सोलह-सोलह आलाप चक्षु, श्रोत्र इंद्रिय विष भए, सर्व प्रमाद के अन अपने पर्यन्त भेद को प्राप्त होइ तिष्ठं हैं। यह अनसंचार का अनुक्रम नीत्र के अन तें लगाय, परि के अक्ष पर्यन्त विचार करि प्रवर्तावना । बहुरि अन की सहनानी हंसपद है, ताका आकार (x) असा जानना ।
आगे प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा अक्षपरिवर्तन कहै हैं -
तदियक्खो अंतगदो, आदिगद्दे संकमेदि बिदियक्खो। दोण्णिवि गंतूणतं, आदिगदे संकमेदि पढमक्खो ॥४०॥
तृतीयाक्षः अंतगतः, आदिगते संक्रामति द्वितीयाक्षः । . द्वावपि गत्वांतमादिगते संक्रामति प्रथमाक्षः ॥४०॥
टीका - तीसरा प्रमाद का अम इंद्रिय, सो पालाप का अनुक्रम करि अपने पर्यन्त जाइ स्पर्शनादि क्रम तै पांच आलापनि विपं श्रोत्र पर्यन्त जाइ, बहुरि वाहुडि युगपत् अरने प्रथम स्थान स्पर्शन की प्राप्त होड, तब दूसरा प्रमाद का अन कपाय, नो पहले बोन्प प्रथम स्थान की प्राप्त था, ताकी छोडि अपना दूसरा स्थान मान
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ११३
को प्राप्त हो है । तहां बहुरि तीसरा प्रमाद का अक्ष इद्रिय, सो पूर्वोक्त अनुक्रम करि अपने अंत भेद पर्यंन्त जाइ, बाहुडि युगपत् प्रथम स्थान कौ प्राप्त होइ, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, सो दूसरा स्थान मान को छोडि, अपना तृतीय स्थान माया कौं प्राप्त होइ । तहा भी पूर्वोक्त प्रकार विधान होइ, असे क्रम ते दूसरा प्रमाद का अक्ष जब एक बार अपना पर्यन्त भेद लोभ क़ौ प्राप्त होइ, तब तीसरा प्रमाद का अक्ष इंद्रिय, सो भी क्रम करि संचार करता अपने अत भेद को प्राप्त होइ, तब बीस आलाप होइ ।
भावार्थ - एक - एक कषाय विषै पांच-पाच आलाप इंद्रियनि के संचार करि होइ । बहुरि ते इंद्रिय अर कषाय दोऊ ही अक्ष बाहुडि अपने-अपने प्रथम स्थान कौ युगपत् प्राप्त होइ, तब पहिला प्रमाद का अक्ष विकथा, सो पहिले बीसों आलापनि विषै अपना प्रथम स्थान स्त्रीकथा रूप, ताकौ प्राप्त था । सो अब प्रथम स्थान की छोड, अपना द्वितीय स्थान भक्तकथा कौ प्राप्त होइ । बहुरि इस ही अनुक्रम करि पूर्वोक्त प्रकार तृतीय, द्वितीय प्रमाद का अक्ष इंद्रिय अर कषाय, तिनिका अपने अंत पर्यन्त जानना । बहुरि बाहुडना इनि करि प्रथम प्रमाद का प्रक्ष विकथा, सो अपना तृतीयादि स्थानकनि को प्राप्त होइ, औसा सचार जानना ।
भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार एक-एक विकथा भेद विषे इद्रिय - कषायनि के पलटने तै बीस आलाप होइ, ताके चारों विकथानि विषै असी श्रालाप हो है । यहु अक्षसंचार का अनुक्रम ऊपरि अंत का भेद इंद्रिय का पलटन तै लगाय क्रम ते अधस्तन पूर्व-पूर्व क्ष का परिवर्तन को विचारि पलटना, असे अक्षसचार कह्या । अक्ष जो भेद, ताका क्रम ते पलटने का विधान असे जानना ।
आगे नष्ट ल्यावने का विधान दिखावे है -
सगमाणेहिं विभत्ते, सेसं लक्खित्तु जारण अक्खपदं । लद्धे रूवं पक्खिव, सुद्धे अंते रंग रूवपक्खेओ ॥ ४१ ॥
स्वमानैविभक्ते, शेषं लक्षयित्वा जानीहि प्रक्षपदम् । लब्धे रूपं प्रक्षिप्य शुद्धे अंते न रूपप्रक्षेपः ॥४१॥
टीका - कोऊ जेथवां प्रमाद भंग पूछे, तीहि प्रमाद भंग का श्रालाप की खबर नाही, जो यहु आलाप कौन है, तहा ताकौ नष्ट कहिए । ताके ल्यावने
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ट गाया ४१
११४ ]
का, जानने का उपाय कहिए है । कोऊ जेथवां प्रमाद पूछ्या होड, ताको अपना प्रमाद पिड का भाग दीजिए, जो अवशेष रहै, सो अक्षस्थान जानना । वहरि जेते पाए होइ, तिनिविषै एक जोडि, जो प्रमाण होइ, ताकी द्वितीय प्रमाद पिड का भाग देना, तहां भी तैसे ही जानना । जैसे ही क्रम ते सर्वत्र करना। इतना विणेप जानना, जो जहा भाग दीएं राशि शुद्ध होइ जाय, कछु भी अवशेप न रहै; तहा तिस प्रमाद का अत भेद ग्रहण करना । बहुरि तहां जो लब्धराशि होड, तिहि विपै एक न जोडना । बहुरि असे करते अंत जहा होइ, तहां एक न जोड़ना, सो कहिए है ।
जेथवा प्रमाद पूछया, तिस विवक्षित प्रमाद की संख्या की प्रथम प्रमाद विकथा, ताका प्रमाण पिड च्यारि, ताका भाग देड, अवशेप जितना रहै, सो अक्षस्थान है। जितने अवशेष रहै, तेथवा विकथा का भेद, तिस पालाप विप जानना । बहुरि इहा भाग दीए, जो पाया, तीह लव्धराशि विपै एक और जोड़ना । जोडे जो प्रमाण होइ, ताका ऊपरि का दूसरा प्रमाद कषाय, ताका प्रमारण पिड च्यारि, ताका भाग देइ, जो अवशेष रहै, सो तहां अक्षस्थान जानना । जितने अवशेप रहै, तेथवां कषाय का भेद तिस आलाप विष जानना बहुरि जो इहा लव्धराशि होड, तीहि विपै एक जोडि, तीसरा प्रमाद इंद्रिय, ताका प्रमाण पिड पाच, ताका भाग दीजिए। बहुरि जहा अवशेष शून्य रहै, तहां प्रमादनि का अंतस्थान विपै ही अक्ष तिप्ठे है । तहा अंत का भेद ग्रहण करना, बहुरि लव्धिराशि विषे एक न जोडना । .
इहां उदाहरण कहिए है - काहूने पूछया कि असी भगनि विपं पंद्रहवा प्रमाद भंग कौन है ?
तहा ताके जानने को विवक्षित नष्ट प्रमाद की संख्या पंद्रह, ताको प्रथम प्रमाद का प्रमाण पिंड च्यारि का भाग देइ तीन पाए, अर अवशेष भी तीन रहै, सो तीन अवशेष रहै, तातै विकथा का तीसरा भेद राष्ट्रकथा, तीहि विषै अक्ष है, तहां अक्ष देइकरि देखे ।
भावार्थ - तहां पंद्रहवां आलाप विष राष्ट्रकथालापी जानना । बहुरि तहां तीन पाए थे । तिस लब्धराशि तीन विष एक जोडे, च्यारि होइ, ताको ताके ऊपरि कपाय प्रमाद, ताका प्रमाण पिंड च्यारि, ताका भाग दीएं अवशेष शून्य है, किछु न रह्या, तहां तिस कषाय प्रमाद का अंत भेद जो लोभ, ताका आलाप विष अक्ष सूचै है । जाते जहां राशि शुद्ध होइ जाइ, तहां ताका अंत भेद ग्रहण करना।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ११५ भावार्थ - पंद्रहवा आलाप विषै लोभी जानना । बहुरि तहा लव्धराशि एक, तोहि विषै एक न जोडना । जातै जहा राशि शुद्ध होइ जाय, तहा पाया राशि विषै एक और न मिलावना सो एक का एक ही रह्या, ताकी ऊपरि का इद्रिय प्रमाण पिंड पांच का भाग दीए, लब्धराशि शून्य है । जातै भाज्य ते भागहार का प्रमाण अधिक है, तातै इहा लब्धराशि का अभाव है । अवशेष एक रह्या, तातै इद्रिय का स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत असा प्रथम भेद रूप अक्ष पंद्रहवा आलाप विष सूच है । असे पंद्रहवां राष्ट्रकथालापी-लोभी-स्पर्शन इद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा मालाप जानना।
याही प्रकार जेथवां आलाप जान्यां चाहिए, तेथवां नष्ट आलाप को साधै ।
बहरि इहां द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा विकथादिक का क्रम करि जैसे नष्ट ल्यावने का विधान कह्या, तैसे ही प्रथम प्रस्तार अपेक्षा ऊपरि ते इंद्रिय, कषाय, विकथा का अनुक्रम करि पूर्वोक्त भागादिक विधान ते नष्ट ल्यावने का विधान करना ।
तहां उदाहरण - किसी ने पूछा प्रथम प्रस्तार अपेक्षा पंद्रहवा पालाप कौन ?
तहां इस संख्या को पांच का भाग दीए, अवशेष शून्य, तातै इहां अंत का भेद श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत ग्रहण करना ।
___ बहुरि इहां पाए तीन, ताको कषाय पिड प्रमाण च्यारि, ताका भाग दीए, लब्धराशि शून्य, अवशेष तीन, तातै तहां तीसरा कषाय भेद मायावी जानना । बहुरि लब्धराशि शून्य विषै एक मिलाएं एक भया, ताकौ विकथा का प्रमाद पिड च्यारि का भाग दीएं लब्धराशि शून्य, अवशेष एक, सो स्त्रीकथालापी जानना । ऐस प्रथम प्रस्तार अपेक्षा पद्रहवां स्नेहवान-निद्रालु-श्रोत्र इद्रिय के वशीभूत-मायावीस्त्रीकथालापी असा आलाप जानना । जैसे ही अन्य नष्ट आलाप साधने ।
आगे आलाप धरि संख्या साधने की अगिला मूत्र कहै है -
संठाविदूरण रूवं, उवरीदो संगुणित्तु सगमाणे । अवणिज्ज अणंकिदयं, कुज्जा एमेव सम्वत्थ ॥४२॥
संस्थाप्य रूपमुपरितः संगुरिणत्वा स्वकमानम् । अपनीयानंकितं, कुर्यात् एवमेव सर्वत्र ॥४२।।
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११६]
[ गोम्मटसार जीवफाण्ट गाया ४२ टीका - प्रथम एक रूप स्थापन करि ऊपरि ते अपना प्रमाण करि गणे, जो प्रमाण होई, तामै अनकित स्थान का प्रमाण घटावना, असे सर्वत्र करना । इहां जो भेद ग्रहण होड, ताके परै स्थानकनि की जो संख्या, ताकी अनंकित कहिए। जैसे विकथा प्रमाद वि प्रथम भेद स्त्रीकथा का ग्रहण होड, तो तहा ताक पर तीन स्थान रहैं, तातै अनंकित का प्रमाण तीन है । वहुरि जो भक्तकथा का ग्रहण होड, तो ताक पर दोय स्थान रहै, तातै अनंकित स्थान दोय है । वहुरि जो राष्ट्रकथा का ग्रहण होड, तौ ताकै परै एक स्थान है, तातै अनंकित स्थान एक है । वहुरि जो अवनिपालकथा का ग्रहण होड, तो ताक पर कोऊ भी नहीं, तातै तहां अनकित स्थान का अभाव है । जैसे ही कपाय, इंद्रिय प्रमाद विप भी अनंकित स्थान जानना ।
सो कोऊ कहे कि अमुक पालाप केथवां है ? तहां आलाप कह्या, ताकी संख्या न जानिए, तो ताकी संख्या जानने की उद्दिष्ट कहिए है । प्रथम एक रूप स्थापिए, वहुरि परि का इंद्रिय प्रमाद संख्या पांच, ताकरि तिस एक की गणिए, तहां अनंकित स्थानकनि की संख्या घटाइ, अवशेप को ताके अनंतर नीचला कपाय प्रमाद का पिड की संख्या च्यारि, ताकरि गुणिए, तहां भी अनंकित स्थान घटाड, अवशेष की ताके अनंतरि नीचला विकथा प्रमाद का पिंड च्यारि, ताकरि गुणिए, तहां भी अनंकित स्थान घटाइ, अवशेप रहै तितनां विवक्षित पालाप की संख्या हो है । असे ही सर्वत्र उत्तरगुण वा शीलभेदनि वि उहिप्ट ल्यावने का अनुक्रम जानना ।
इहां भी उदाहरण दिखाइए है - काहूने पूछ्या कि राष्ट्रकथालापी-लोभीस्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान असा आलाप केथवा है ?
तहां प्रथम एक रूप स्थापि, ताकी उपरि का इंद्रिय प्रमाद, ताकी संख्या पांच, तीहिकरि गुणें पांच भए । तीहि राशि विप पंद्रहवां उद्दिष्ट की विवक्षा करि, तामैं पहला भेद स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत ऐसा आलाप विप कहा था, तातै ताके परै रसना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र ए च्यारि अनंकित स्थान हैं । ताते इनकी घटाएं, अवशेप एक रहै, ताकी नीचला कपाय प्रमाद की संख्या च्यारि करि गुणे, च्यारि भए, सो इस लवराशि च्यारि विपैं इहां पालाप विप लोभी कहा था, सो लोभ के परै कोऊ भेद नाही । तातें अनंकित स्थान कोऊ नाहीं । इस हेतु तं इहां शून्य घटाए, राशि जैसा का तैसा ही रह्या, सो च्यारि ही रहै । वहुरि इस राशि को याके नीचे विकथा प्रमाद की संख्या च्यारि ताकरि गुणे सोलह भए । इहां पालाप विपै
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
११७
राष्ट्रकथालापी कह्या, सो याके परै एक भेद अवनिपाल कथा है, या अनकित स्थान एक घटाएं, पंद्रह रहै, सोई पूछया था, ताका उत्तर औसा - जो राष्ट्रकथालापीलोभी- स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत - निद्रालु - स्नेहवान, असा आलाप पंद्रहवां है । सो यहु विधान दूसरा प्रस्तार की अपेक्षा जानना ।
बहुरि प्रथम प्रस्तार अपेक्षा नीचे ते अनुक्रम जानना ।
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तहां उदाहरण कहिए है - स्नेहवान - निद्रालु श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत - मायावी - स्रीकथालापी, भैसा आलाप केथवां है ?
तहां एक रूप स्थापि, प्रथम प्रस्तार अपेक्षा ऊपरि का प्रमाद विकथा, ताका प्रमाण च्यारि करि गुणै, च्यारि भए, सो इहा स्त्रीकथालापी ग्रह्या, सो याकै परै तीन भेद है । तातै अनंकित स्थान तीन घटाएं, अवशेष एक रह्या, ताकौ कषाय प्रमाद च्यारि करि गुणै, च्यारि भए, सो इहा मायावी ग्रह्या, ताकै परे एक लोभ अनकित स्थान है, ताकौ घटाएं तीन रहे, याकौ इद्रिय प्रमाद पाच करि गुणै, पद्रह भए, सो इहां श्रोत्र इद्रिय का ग्रहण है । ताके परे कोऊ भेद नाही, तातै अनंकित स्थान का अभाव है । इस हेतु ते शून्य घटाए भी पंद्रह ही रहै । जैसे स्नेहवान - निद्रालु श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत-मायावी - स्त्री कथालापी, ऐसा आलाप पद्रहवा है । याही प्रकार विवक्षित प्रमाद का आलाप की सख्या हो है, ऐसे प्रक्ष धरि सख्या का ल्यावना, सो उद्दिष्ट सर्वत्र साधै ।
आगै प्रथम प्रस्तार का प्रक्षसंचार को आश्रय करि नष्ट, उद्दिष्ट का गूढ यत्र कहै है -
इगिबितिचरणखपणदसपण्गरसं खवीसतालसठ्ठी य । संठविय पमदठाणे, गट्ठद्दट्ठे च जारण तिट्ठाणे ॥ ४३ ॥
एकद्वित्रिचतुः पंचपंचदशपंचदशख विंशच्चत्वारिंशत्षष्टीश्च । संस्थाप्य प्रमाद स्थाने, नष्टोद्दिष्टे च जानीहि त्रिस्थाने ||४३||
टीका - प्रमादस्थानकनि विषे इद्रियनि के पंच कोठानि विषे क्रम ते एक, दोय, तीन, च्यारि, पांच इन अंकनि कौ स्थापि; कषायनि के च्यारि कोठानि विषे क्रम तै बिदी, पांच, दश, पंद्रह इन अंकनि को स्थापि; तैसे विकथानि के च्यारि कोठानि विषै क्रम तै बिदी, बीस, चालीस, साठि इनि अंकनि कौ स्थापि; निद्रा,
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११८ ]
[ गोम्मटमार जीवकाण गाया ४३ स्नेह के दोय, तीन आदि भेदनि का अभाव है। तीहि करि ताके निमित्त ते हई जो आलापनि की बहुत संख्या, सो न संभव है । यात तिन तीनों स्थानकनि वि स्थापे अंक, तिन विर्षे नप्ट उद्दिष्ट तू जानि ।
भावार्थ - निद्रा, स्नेह का तो एक-एक भेद ही है । सो इनकी तो सर्वभगनि विर्षे पलटनि नाही । तातै इनिकों तो कहि लैने । अर अवशेप तीन प्रमादनि का तीन पंक्ति रूप यंत्र करना । तहां ऊपरि की पंक्ति विपै पंच कोठे करने । तिन विर्षे क्रन ते स्पर्णन आदि इंद्रिय लिखने । अर एक, दोय, तीन, ज्यारि, पाच ए अंक लिखने । वहुरि ताके नीचली पंक्ति विप च्यारि कोठे करने, तिन वि क्रम तें क्रोधादि कपाय लिखने । अर विदी, पांच, दश, पंद्रह ए अंक लिखने । वहुरि ताके नीचली पंक्ति विष च्यारि कोठे लिखने, तहां स्त्री आदि विकथा क्रम तें लिखनी । अर विढी, वीस, चालीस, साठ ए अंक लिखने ।
श्रोत्र ५ |
स्पर्शन १- रसन २ वाण ३ । चक्षु ४
कोच ० नान ५ ! माया १० । लोभ १५ । । स्त्री ० | भक्त २० राष्ट्र ४० अवं ६० ।
इहां कोऊ नष्ट वून तो जेथवा प्रमाद भंग पूछ्या सो प्रनाण तीनों पंक्ति विप जिन-जिन कोठेनि के अंक जोडे होइ, तिन-तिन कोठेनि विप जो-जो इंद्रियादि लिखा होड, नो सो तिस पूछग का आलाप विपें जानने । बहुरि जो उहिष्ट वूझ ती, जो आलाप पूच्या, तिस पालाप विर्षे जो इंद्रियादिक ग्रहे होंड, तिनके तीनों पक्तिनि के कोनि विपं जे-जे अंक लिखे होइ, तिनकी जोडे जो प्रमाण होइ, तेथवां सो पालाप जानना।
तहां नष्ट का उनहरण कहिए हैं - जैसे पैतीसवा पालाप कैसा है ?
ऐसा पूछे इंद्रिय, कपाय, विकयानि के तीनों पंक्ति संबंधी जिन-जिन कोठानि के अंक वा शून्य मिलाएं, सो पैंतीस की संख्या होइ, तिन-तिन कोठानि विपें लिखे हवे इंद्रियादि प्रमाद अर स्नेह-निद्रा विप प्रागै उच्चारण कीए स्नेहवान-निद्रालु-श्रोत्र इंग्यि के वशीभूत-मायावी-भक्तकथालापी जैसा पूझ्या हूआ पैंतीसवां आलाप जानना।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ११
भावार्थ - यंत्र विषै इंद्रियपक्ति का पांचवां कोठा, कषायपंक्ति का तीसरा कोठा, विकथापक्ति का दूसरा कोठा, इन कोठेनि का अक जोडै पैतीस होंइ, तातै इन कोठेनि विषै जे-जे इद्रियादि लिखे, ते ते पैतीसवा आलाप विषै जानने । स्नेह, निद्रा को पहिले कहि लीजिये ।
बहुरि दूसरा उदाहरण नष्ट का ही कहिए है । इकसठवा आलाप कैसा है ? असे पूछे, इहा भी इद्रिय कषाय विकथानि के जिन-जिन कोठानि के अक वा शून्य जोडे, सो इकसठि सख्या होइ, तिन तिन कोठानि विषे प्राप्त प्रमाद पूर्ववत् कहे । स्नेहवान्-निद्रालु-स्पर्शन इद्रिय के वशीभूत-क्रोधी अवनिपालकथालापी असा पूछया हूवा इकसठिवां आलाप हो है ।
भावार्थ - इद्रियपक्ति का प्रथम कोठा का एका अर कषायपक्ति का प्रथम कोठा की बिदी, विकथा का चौथा कोठा का साठि जोडे, इकसठि होइ । सो इनि कोठानि विषै जे-जे इंद्रियादि लिखे है, ते इकसठवा आलाप विषे जानने । जैसे ही अन्य आलाप का प्रश्न भए भी विधान करना ।
बहुरि उद्दिष्ट का उदाहरण कहिए है - स्नेहवान्- निद्रालु-स्पर्शन इद्रिय के वशीभूत-मानी - राष्ट्रकथालापी सा आलाप केथवा है ?
असा प्रश्न होते स्नेह, निद्रा बिना जे-जे इद्रियादिक इस आलाप विषै कहे, ते तीनो पक्तिनि विषै जिस-जिस कोठे विषै ये लिखे होइ, सो ये इद्रियपक्ति का प्रथम कोठा, कषायपक्ति का दूसरा कोठा, विकथापक्ति का तीसरा कोठानि विषै ये आलाप लिखे है । सो इन कोठानि के एक, पांच, चालीस ये अंक मिलाइ, छियालीस होइ है, सो पूछा हुआ आलाप छ्यालीसवा है ।
बहुरि दूसरा उदाहरण कहिए है - स्नेहवान निद्रालु चक्षु इदिय के वशीभूत लोभी-भक्तकथालापी ऐसा आलाप केथवां है ?
तहा इस आलाप विषै कहे इंद्रियादिकनि के कोठे, तिनि विषै लिखे हुवे च्यारि, पंद्रह, बीस ये अक जोडे गुणतालीस होइ, सो पूछया आलाप गुरणतालीसवा है । ऐसे ही अन्य आलाप पूछे भी विधान करना ।
आगे द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा नष्ट, उद्दिष्ट का गूढ यंत्र कहै है -
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१२० ]
[ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा ४४
इगिवितिचखचडवारं, खसोलरागठ्ठदालचउसट्ठि संठविय पमपठाणे, खट्ठद्द्द्दिट्ठे च जारण तिट्ठाणे ॥ ४४ ॥ एक द्वित्रिचतुः खचतुरष्टद्वादश खपोडशरागाष्टचत्वारिंशच्चतुःषष्टिम् । संस्थाप्य प्रमादस्थाने, नष्टोद्दिष्टे च जानीहि त्रिस्थाने ||४४ ||
टीका - प्रमादस्थानकनि विषै विकथा प्रमाद के च्यारि कोठानि विपे क्रम ते एक, दो, तीन, च्यारि अंकनि कौं स्थापि; तैसे ही कपाय प्रमाद के च्यारि कोठानि विष क्रम ते विदी, ग्राठ, वारह अंकनि को स्थापि; तैसे ही इद्रिय प्रमादनि के पंच कोठानि विषै क्रम ते विदी, सोलह, वत्तीस, अड़तालीस, चौंसठ अंकनि क स्थापि, पूर्वोक्त प्रकार हेतु तै तिन तीनों स्थानकनि विषे स्थापे जे अंक, तिनि विपे नप्ट अर समुद्दिष्ट कौं तू जानहु ।
भावार्थ - यहां भी पूर्वोक्त प्रकार तीन पंक्ति का यन्त्र करना । तहां ऊपर की पंक्ति विषै च्यारि कोठे करने, तहां क्रम ते स्त्री आदि विकथा लिखनी अर एक, दो, तीन, च्यारि, ए अंक लिखने । बहुरि ताके नीचे पक्ति विपं च्यारि कोठे करने, तहां क्रम ते क्रोधादि कपाय लिखने अरविंदी, च्यारि, ग्राऊ, वारा ए अंक लिखने । बहुरि नीचे पंक्ति विपै पाच कोठे करने, तहां क्रम ते स्पर्शनादि इंद्रिय लिखने, अरविदी, सोलह, बत्तीस, अड़तालीस, चौसठि ए अक लिखने ।
करना ।
स्त्री १
क्रोव ०
स्पर्शन O
भक्त २
मान ४
रसना १६
राष्ट्र ३
माया ८
त्राण ३२
अवनि ४
लोभ १२
चक्षु ४८
श्रोत्र ६४
स यंत्र करि पूर्वे जैसे विधान कह्या, तैसे इहां भी नप्ट, समुद्दिष्ट का ज्ञान
तहां नष्ट का उदाहरण - जैसे पंद्रहवां श्रालाप कैसा है ?
सा प्रश्न होते विकथा, कपाय, इंद्रियनि के जिस-जिस कांठा के अंक वा शून्य मिलाएं, सो पंद्रह संख्या होइ, तिस तिस कोठा को प्राप्त विकथादिक जोड़ें, राष्ट्रकथालापी-लोभी-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत- निद्रालु स्नेहवान औसा तिस पंद्रहवां आलाप कीं कहँ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ १२१ तथा दूसरा उदाहरण - तीसवां पालाप कैसा है ?
असा प्रश्न होते विकथा, कषाय, इंद्रिय के जिस-जिस कोठा के अंक जोड़े सो तीस संख्या होइ, तिस-तिस कोठा को प्राप्त विकथादि प्रमाद जोड़े, भक्तकथालापी-लोभी-रसना इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान असा तिस तीसवां पालाप को कहै।
अब उद्दिष्ट का उदाहरण कहिए हैं - स्त्रीकथालापी-मानी-घ्राण इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान असा आलाप केथवां है ?
असा प्रश्न होते इस आलाप विर्षे जो-जो विकथादि प्रमाद कहा है, तीहतीह प्रमाद का कोठा विष जो-जो अंक एक, च्यारि, बत्तीस, लिखे है; तिनको जोडे, सैंतीस होइ, तातें सो आलाप सैतीसवां कहिए ।
बहुरि दूसरा उदाहरण अवनिपालकथालापी-लोभी-चक्षु इन्द्रिय के वशीभूतनिद्रालु-स्नेहवान असा पालाप कैथवां है ?
तहां इस आलाप विष जे प्रमाद कहे, तिनके कोठानि विष प्राप्त च्यारि, बारह, अड़तालीस अंक मिलाएं, जो संख्या चौसठि होइ, सोई तिस आलाप को चौसठिवां कहै, असे ही अन्य आलाप पूछ भी विधान करना ।
__जैसै मूल प्रमाद पाच, उत्तर प्रमाद पंद्रह, उत्तरोत्तर प्रमाद असी, इनका यथासंभव संख्यादिक पाच प्रकारनि को निरूपण करि ।
अब और प्रमाद की संख्या का विशेष कौ जनावै है, सो कहै है । स्त्री की सो स्त्रीकथा, धनादिरूप अर्थकथा, खाने की सो भोजन कथा, राजानि की सो राजकथा चोर की सो चोरकथा, वैर करणहारी सो वरकथा, पराया पाखडादिरूप सो परपाखडकथा, देशादिक की सो देशकथा, कहानी इत्यादि भाषाकथा, गुण रोकनेरूप गुणबंधकथा, देवी की सो देवीकथा, कठोररूप निष्ठुरकथा, दुष्टतारूप परपैशून्यकथा, कामादिरूप कंदर्पकथा, देशकाल विष विपरीत सो देशकालानुचितकथा, निर्लज्जतादिरूप भडकथा, मूर्खतारूप मूर्खकथा, अपनी बढाईरूप आत्मप्रशसाकथा, पराई निदा रूप परपरिवादकथा, पराई घृणारूप परजुगुप्साकथा, पर की पीड़ा देनेरूप परपीड़ा कथा, लड़नेरूप कलहकथा, परिग्रह कार्यरूप परिग्रहकथा, खेती आदि का प्रारभरूप कृष्याद्यारंभकथा, संगीत वादित्रादिरूप संगीतवादित्रादि कथा - असे विकथा पचीस भेदसंयुक्त है।
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१२२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८
बहुरि सोलह कषाय र नव नो कपाय भेद करि कपाय पचीस | वहुरि स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन नाम धारक इंद्रिय छह है । वहुरि स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला भेद करि निद्रा पांच है । बहुरि स्नेह, मोह भेद करि प्रणय दोय है । इनको परस्पर गुणै, पांचसे अधिक संतीस हजार प्रमाण हो है ( ३७५०० ) । ए भी मिथ्यादृष्टि आदि प्रमत्तसयत गुणस्थान पर्यंत प्रवर्ते है । जे बीस प्ररूपणा, तिनि विषै यथासंभव वध का हेतुपणाकरि पूर्वोक्त सख्या यादि पांच प्रकार लीए जैनागम ते अविरुद्धपने जोडने ।
अव प्रमादनि के साड़ा सैतीस हजार भेदनि विपे संख्या, दोय प्रकार प्रस्तार, तिन प्रस्तारनि की अपेक्षा प्रक्षसंचार, नष्ट, समुद्दिष्ट पूर्वोक्त विधान ते यथासभव
करना ।
बहुरि गूढ यत्र करने का विधान न कह्या, सो गूढ यंत्र कैसे होइ ?
ताते इहां भाषा विषे गूढ यंत्र करने का विधान कहिए है । जार्कों जाने, जाका चाहिए, ताका गूढ यत्र कर लीजिये । तहां पहिले प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा कहिए है । जाका गूढ यंत्र करना होइ, तिस विवक्षित के जे मूलभेद जितने होंड, तितनी पंक्ति का यंत्र करना । तहा तिन मूल भेदनि विषै अंत का मूलभेद होइ, ताकी पक्ति सवनि के ऊपर करनी । तहा तिस मूल भेद के जे उत्तर भेद होहि, तितने कोठे करने । तिन कोठानि विप तिस मूल भेद के जे उत्तर भेद होहि, ते क्रम
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लिखने । बहुरि तिनही प्रथमादि कोठानि विपै एक, दोय इत्यादि क्रम ते एक
भेद तै पहला उपांत मूल
एक बघता का अक लिखना । बहुरि ताके नीचे जो अंत भेट होइ, ताकी पक्ति करनी । तहां उपांत मूल भेद के जेते उत्तर भेद होइ तिनके कोठे करने । तहां उपान्त मूल भेद के उत्तर भेदनि को क्रम तै लिखने । बहुरि तिनही कोठानि विषै प्रथम कोठा विषं विदी लिखनी। दूसरे कोठा विषे ऊपर की पंक्ति का अंत का कोठा विपै जेते का अक होइ, सो लिखना । वहुरि तृतीयादि कोठानि विषै दूसरा कोठा विषे जेते का अंक लिख्या, तितना-तितना ही वधाई वधाई क्रम तै लिखने । बहुरि ताके नीचे-नीचे जे उपांत तं पूर्व मूल भेद होंइ, ताकी आदि देकरि आदि के मूल भेट पर्यत जे मूल भेद होड, तिनकी पक्ति करनी । तहा तिनके जेते-जेते उत्तर भेद होड, तितने तितने कोठे करने । बहुरि तिन कोठानि विषै अपनामूल भेद के जे उत्तर भेद होइ, ते क्रम तं लिखने ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रको भाषाटीका ]
[ १२३
बहुरि तिन सर्व पंक्तिनि के प्रथम कोठानि विषै तौं बिदी लिखनी, बहुरि द्वितीय कोठा विषे अपनी पंक्ति तै ऊपरि की सर्व पक्ति के अंत का कोठानि विषै - जितने - जितने का अंक लिख्या होइ, तिनकों जोड़े जो प्रमाण होइ, तितने का अंक लिखना । बहुरि तृतीयादि कोठानि विषै जेते का अंक दूसरा कोठा विषे लिख्या होइ तितना - तितना ही क्रम तै बधाइ बधाइ लिखना । जैसे विधान करना ।
अब द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा कहिए है । जो विधान प्रथम प्रस्तार अपेक्षा ' लिख्या, सोई विधान द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा जानना । विशेष इतना - इहां विवक्षित का जो प्रथम मूल भेद होइ, ताकी पंक्ति ऊपर करनी । ताकै नीचे दूसरे मूल भेद की पंक्ति करनी । असें ही नीचे-नीचे अंत के मूल भेद पर्यत पंक्ति करनी । बहुरि तहां जैसे अंत मूल भेद संबंधी ऊपरि पंक्ति तै लगाइ क्रम वर्णन कीया था, तैसे यहां प्रथम मूल भेद संबंधी पंक्ति तें लगाइ क्रम ते विधान जानना । अन्य या प्रकार साडा सैतीस हजार प्रमाद भंगनि का प्रथम प्रस्तार अपेक्षा गूड यंत्र कह्या ।
तहां कोऊ नष्ट पूछें कि एथवां आलाप भंग कौन ?
तहा जिस प्रमाण का आलाप पूछया, सो प्रमाण सर्व पंक्तिनि के जिस-जिस कोठानि के अंक वा बिंदी मिलाएं होइ, तिस तिस कोठा विषे जे-जे उत्तर भेद लिखे, तिनरूप सो पूछया हूवा आलाप जानना ।
बहुरि कोई उद्दिष्ट पूछे कि अमुक आलाप केथवा है ?
तौ तहां पूछे हुए आलाप विषै जे-जे उत्तर भेद ग्रहे है, तिन तिन उत्तर भेदनि के कोठानि विषै जे-जे अंक वा बिदी लिखी है, तिनको जोड़ें जो प्रमाण होइ, तेथवांसो पूछया हूवा आलाप जानना । अब इस विधान ते साडा सैतीस हजार प्रमाद भंगनि का प्रथम प्रस्तार अपेक्षा गूढ यंत्र लिखिए है ।
हा प्रमाद के मूल भेद पांच है, ताते पांच पंक्ति करनी । तहां ऊपरि प्रणय पक्ति विषै दोय कोठे करि, तहां स्नेह मोह लिखे पर एक दोय का अक लिखे, ताके नीच निद्रा पंक्ति के पांच कोठे करि तहां स्त्यानगृद्धि आदि लिखे अर प्रथम कोठा विषै बिदी लिखी । द्वितीय कोठा विषे ऊपरि की पंक्ति के अंत के कोठे में अंक दो था, सो लिख्या । श्रर तृतीयादि कोठे विषै तितने-तितने ही बधाइ च्यारि, छह, आठ लिखे । बहुरि ताके नीचे इंद्रिय पंक्ति के छह कोठे करि, तहां स्पर्शनादि लिखे ।
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१२४]
[गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा४४ अर प्रथम कोठा विष विदी, द्वितीय कोठा विपै ऊपरि की दोय पंक्ति के अंत का कोठा के जोडें दश होंइ सो, अर तृतीयादि कोठानि विपै सोई दश-दश वधाइ लिखे हैं । अर ताके नीचे कषाय पंक्ति विष पचीस कोठे करि, तहां अनंतानुवंधी क्रोधादि लिखे। अर प्रथम कोठा विर्षे विदी, दूसरा कोठा विष उपरि की तीन पंक्ति का अंत के कोठानि का जोड साठि लिखि, तृतीयादि कोठानि विपै तितने-तितने वधाइ लिखे । बहुरि ताके नीचे विकथा पंक्ति विष पचीस कोठा करि तहां स्त्रीकथादि लिखे । अर प्रथम कोठा विष बिंदी, द्वितीय कोठा विर्ष ऊपरि की च्यारि पंक्तिनि के अंत कोठानि का जोड पंद्रह सै, तृतीयादि कोठानि विर्षे तितने-तितने ही वधाइ लिखे है। जैसे प्रथम प्रस्तार अपेक्षा यंत्र भया । ( देखिए पृष्ठ १२५)
वहुरि साडा सैतीस हजार प्रमाद भंगनि का द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा गूढ यंत्र लिखिए हैं।
तहां ऊपरि विकथा पंक्ति करी, तहां पचीस कोठे करि, तहां स्त्रीकथादि लिखे । अर एक, दोय आदि एक-एक वधता अंक लिखे, ताके नीचे-नीचें कपाय पंक्ति अर इंद्रिय पंक्ति अर निद्रा पंक्ति पर प्रणय पंक्ति विप क्रम ते पचीस, पचीस, छह, पांच, दोय कोठे करि तहां अपने-अपने उत्तर भेद लिखे । वहरि इन सब पंक्तिनि के प्रथम कोठा विप विदी लिखी । अर दूसरा कोठा विपं अपनी-अपनी पंक्ति तै परि क्रम ते एक, दोय, तीन, च्यारि पंक्ति, तिनके अंत कोठा संवंवी अंकनि को जोड़ें, पचीस, छह सै पचीस, साडा सैतीस सै, अठारह हजार सात से पचास लिखे । बहुरि तृतीयादि कोठानि विष जेते दूसरे कोठा विपैं लिखे, तितने-तितने वधाइ, क्रम ते अंत कोठा पर्यत लिखे है । अस द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा यंत्र जानना । (सोही यंत्र का कोठा को विवि वा अक्षर अंकादिक कही विवि मजिव क्रम ते यंत्र रचना विधि लिखि है । ) १ इसप्रकार साढा सैतीस हजार प्रमाद का गूढ यंत्र कीए। (देखिए पृष्ठ १२६)
. तहां प्रथम प्रस्तार अपेक्षा कोऊ पूछे कि इन भंगनि विपै पैतीस हजारवां भंग कौन है ?
तहां प्रणय पंक्ति का दूसरा कोठा, निद्रा पंक्ति का पांचवां कोठा, इंद्रिय पंक्ति का दूसरा कोठा, कपाय पंक्ति का नवमा कोठा, विकथा पंक्ति का चौवीसवां कोठा,
१ यह वाक्य यह हस्तलिखित प्रतियों में नहीं मिला।
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स्पर्शन
अनतानुवधी क्रोध
स्त्री
सस्त्याननद्धि |
१ स्नेह
अर्थ
अनतानुवधी मान
१५००
रसन
निद्रानिद्रा
२ मोह
प्रचलाप्रचला
१० ध्राण २०
३०००
भोजन
अनतानुवची माया । प्राण । प्रचलाप्रचना
४५००
चक्षु
निद्रा
राजा
३० श्रोत्र
अनतानुबधी माया
१२० अनतानुबधी लोभ
१८० अप्रत्याख्यान क्रोध
२४० अप्रत्याख्यान मान
३०० अप्रत्याख्यान माया
प्रचला
६०००
चोर
४०
७५००
वर
मन 1050
१०००
परपाखड
प
१०५००
देश
१२०००
'भाषा
सर्व विधान पूर्वोक्त जानना, असे गूढ यंत्र करना। तहां प्रमाद के साडे सैतीस हजार भेद, तिनिका यंत्र लिखिए।
१३५००
गुणवध
१५०००
देवी
१६५००
निष्ठुर
१८०००
परपशून्य
१९५००
कदपं
२१०००
देशकालानुचित
अप्रत्याख्यान लोभ
४२० प्रत्याख्यान क्रोध
४८० प्रत्याख्यान मान
५४० प्रत्याख्यान माया
६०० प्रत्याख्यान लोभ
६६० सज्वलन क्रोध
७२० सज्वलन मान
७८० सज्वलन माया
८४० सज्वलन लोभ
६०० हास्य ६६०
रति १०० परति १०८० शोक ११४०
भय १२०० जुगुप्सा १२६० पुरुष १३२० स्त्री १३८० नपुमक १४४०
२२५००
भंड
२४०००
मूर्ख
२५५००
आत्मप्रशसा
२७०००
परपरिवाद
२८५००
परजुगुप्सा
३००००
परपीडा
.३१५००
कलह
३३००० परिग्रह ३४५०० कृष्याचारभ ३६००० सगीतवाद्य
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१
२
m
४
५
६
७
u
£
१०
११
१२
१३
*
१५
१६
१७
१८
T
२०
२१
२२
२३
२४
२५
स्त्री
अर्थ
भोजन
राजा
चोर
वैर
परपाखड
देश
भाषा
गुणवध
देवी
निष्ठुर
परपैशुन्य
कदर्प
देशकाला
नुचित
भड
मूर्ख
श्रात्मप्रशमा
परपरिवाद
परजुगुप्सा
परपीडा
कलह
परिग्रह
कृष्याधारभ
संगीतवाच
M
मनदानुवधी क्रोध
अनतानुवधी मान २५
धनतानुवधी माया
५०
धनतानुवधी लोभ
७५
प्रत्याख्यान क्रोध १००
अप्रत्यास्थान मान १२५
श्रप्रत्याख्यान माया
१५०
पप्रत्याख्यान लोभ
१७५ प्रत्यास्थान क्रोध
२००
प्रत्यास्थान मान
२२५
प्रत्याख्यान माया
२५०
प्रत्याख्यान लोभ
२७५
सज्वलन क्रोध
३००
सज्वलन मान
३२५ सज्वलन माया
३५० सज्वलन लोभ
३७५
हास्य
४००
रवि
४०५
अरति
४५०
शोक
४७५
भय
५००
जुगुप्सा
५२५
पुरुष ५५०
स्त्री ५७५ नपुंसक ६००.
स्पर्शन
०
रसन
९२५
घ्राण
१२५०
चक्षु
१८७५
थोत्र
२५००
मन ३१२५
सत्याग्रदि । o
О
निद्रानिद्रा
3070
चगा
७५००
faxr
११२५०
प्रचना
१५०००
नेद
१८०५० मोह
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सम्पज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[१२७ इनि कोठानि के अंक जोडे पैतीस हजार होइ । तातै इनि कोठानि विष तिष्ठते उत्तर भेदरूप मोही-प्रचलायुक्त-रसना इद्रिय के वशीभूत-प्रत्याख्यान क्रोधीकृष्याद्यारंभकथालापी असा आलाप पैतीस हजारवा जानना । याको दृढ करणे को 'सगमाणेहिं विभत्ते' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र करि भी याको साधिए है । पूछनहारेने पैतीस हजारवां आलाप पूछया, तहा प्रथम प्रस्तार अपेक्षा पहलै प्रणय का प्रमाण दोय, ताको भाग दीए, साढे सतरा हजार पाए, अवशेष किछ रह्या नाही । ताते इहां अंत भेद स्नेह ग्रहण करना । बहुरि लब्धराशि विषै किछु अवशेष न रह्या, तातै एक न जोडना । बहुरि तिस लब्धराशि को याके नीचे निद्राभेद पांच, ताका भाग दीए, पैतीस सै पाए, इहा भी किछु अवशेष न रह्या, तातै अंत भेद प्रचला का ग्रहण करना । इहां भी लब्धराशि विष एक न जोडि, तिस लब्धराशि को छह इंद्रिय का भाग दीएं पाच सै तियासी पाए, अवशेष दोय रहै, सो इहा दूसरा अक्ष रसना इंद्रिय का ग्रहण करना । बहुरि लब्धराशि विष इहा एक जोडिए, तब पांच सै चौरासी होइ, तिनको कषाय पचीस का भाग दीए, तेवीस पाए, अवशेष नव रहै सो इहा नवमां कषाय प्रत्याख्यान क्रोध का ग्रहण करना । बहुरि लब्धराशि तेवीस विष एक जोडिए, तब चौवीस होइ, ताकी कषाय भेद पचीस का भाग दीए, शून्य पावै, अवशेष चौवीस रहै, सो इहा चौवीसवा विकथा भेद कृष्याद्यारंभ का ग्रहण करना । असे पूछया हुवा पतीस हजारवा पालाप मोही-प्रचलायुक्त-रसना इद्रिय के वशीभूत-प्रत्याख्यान क्रोधी-कृष्याद्यारंभकथालापी असा भगरूप हो है। जैसे ही अन्य नष्ट का साधन करना । जैसै नष्ट का उदाहरण कह्या ।
अब उद्दिष्ट का कहिए है - कोऊ पूछ कि स्नेही-निद्रायुक्त-मन के वशीभूत अनंतानुबन्धी क्रोधयुक्त-मर्खकथालापी असा आलाप केथवा है ?
नहा उत्तर भेद जिस-जिस कोठानि विर्षे लिखे है, तिस-तिस कोठानि के अक एक, छह, पचास, बिदी, चौवीस हजार मिलाए, चौवीस हजार सत्तावनवा भेद है, जैसा कहिए । बहुरि याही कू 'संठाविदूरणरूवं' इत्यादि सूत्रोक्त उद्दिष्ट ल्यावने का विधान साधिए है। प्रथम एकरूप स्थापि, ताको प्रथम प्रस्तार अपेक्षा पहिलै पचीस विकथानि करि गुणिए । अर इहा आलाप विष मूर्खकथा का ग्रहण है, ताते याके परै पाठ अनकित स्थान है। तिनको घटाएं, तब सतरह होइ । बहुरि इनिको पचीस कषायनि करि गुरिणए अर यहा प्रथम कषाय का ग्रहण है, तात याके परै
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१२८ ]
[ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाया ४४ चीवीस अनंकित स्थान घटाइए, तव च्यारि से एक होंड । बहुरि इनिकी यह इंद्रिय करि गणिए अर इहां अतभेद का ग्रहण है, तातै अनकित न घटाइए, तव चौवीस से छह होइ । बहुरि इनको पांच निद्रा करि गुणिए अर इहां चौथी निद्रा का ग्रहण है, तात याके परै एक अनंकित स्थान है, ताकी घटाइए, तव वारह हजार गुणतीस होइ । याकी दोय प्रणय करि गुणिए अर इहां प्रथम भेद का ग्रहण है; तात याके पर एक अनंकित स्थान घटाइए, तव चौवीस हजार सत्तावन होंड, असे स्नेहवाननिद्रालु-मन के वशीभूत-अनंतानुवंधीक्रोधयुक्त-मूर्खकथालापी असा पूच्या हुवा
आलाप चौवीस हजार सत्तावनवां जानना । याही प्रकार अन्य उडिप्ट साधने । वहरि जैसे प्रथम प्रस्तार अपेक्षा विधान कह्या; तसे ही द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा यथासंभव नष्ट, उद्दिष्ट ल्यावने का विधान जानना । असे साडा सैतीस हजार प्रमाद . भंगनि के प्रकार जानने ।
वहुरि याही प्रकार अठारह हजार शील भेद, चौरासी लाख उत्तर गुण, मतिनान के भेद वा पाखंडनि के भेद वा जीवाधिकरण के भेद इत्यादिकनि विर्षे जहां अक्षसंचार करि भेदनि की पलटनी होड, तहां संख्यादिक पांच प्रकार जानने । विशेप इतना पूर्व प्रमादनि की अपेक्षा वर्णन कीया है । इहां जाका विवक्षित वर्णन होइ, ताको अपेक्षा सर्वविधान करना । तहां जैसे प्रमादनि के विकथादि मूलभेद कहे हैं, तैसे विवक्षित के जेते मूलभेद होइ, ते कहने । वहुरि जैसै प्रमाद के मूल भेदनि के स्त्रीकथादिक उत्तरभेद कहै हैं, तैसै विवक्षित के मूलभेदनि के जे उत्तर भेद हो हैं, ते कहने । वहुरि जैसे प्रमादनि के आदि-अंतादिरूप मूलभेद ग्रहि विधान कह्या है, तैसें विवक्षित के जे आदि-अंतादि मूलभेद होंइ, तिनकौ ग्रहि विधान करना । वहुरि जैसे प्रमाद के मूलभेद-उत्तरभेद का जेता प्रमाण था, तितना ग्रहण कीया । तैसें विवक्षित के मूल भेद वा उत्तर भेदनि का जेता-जेता प्रमाण होड, तितना ग्रहण करना । इत्यादि संभवते विणेप जानि, संख्या पर दोय प्रकार प्रस्तार अर तिन प्रस्तारनि की अपेक्षा अक्षसंचार अर नप्ट पर समुद्दिष्ट ए पांच प्रकार हैं, ते यथासंभव सावन करने ।
तहां उदाहरण - तत्त्वार्थसूत्र का पप्ठम अध्याय विर्षे जीवाधिकरण के वर्णन स्वल्प असा सूत्र है -
"प्राद्यं संरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्रकशः" ।
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१३० ।
यह जीवाधिकरण का प्रथम प्रस्तार है । यहा संरभादिक की प्रथम अक्षर की सहनानी है। ऊपरि च्यारि
कपायनि की सहनानी है।
।
४।
४।
४।
४
४
४४
४
४४
काअ कृ का प्रकका अकृ का अवका| अ
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म | म | म | व | व | व | का| का काम | म | म | व |
व | का| का काम | म | म | व | व | व ] का | का) का
स | साप्रामा' प्रा। ग्राआआ। प्राग्रा प्रा।
सस सस
बहुरि यह द्वितीय प्रस्तार है । इहा क्रोधादि कषायनि विष क्रम तै सत्ताईस-सत्ताईस भंग कहने । क्रोध मान माया
लोभ
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४६
२७
२७
२७
२७
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १३१
तहां प्रथम एक स्थापि प्रथम प्रस्तार अपेक्षा उपरि ते संरंभादि तीन करि गुणी, इहा प्रतस्थान का ग्रहरण है, तातै अनक्ति कौ न घटाए, तीन ही भए । बहुरि इनको तीन योग करि गुरिण, इहां वचन, काय ए दोय अनकित घटाए सात भए । बहुरि इनकी कृतादि तीन करि गुणि, अनुमोदन अनकित स्थान घटाए, वीस हो है । बहुरि इनको च्यारि कषाय करि गुणिए, एक लोभ अनकित स्थान घटाए गुन्यासी हो है । औसा पूछया हुवा आलाप गुण्यासीवा है; जैसे ही अन्य उद्दिष्ट साधने । बहुरि इस ही प्रकार ते द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा भी नष्ट - उद्दिष्ट समुद्दिष्ट साधने । बहुरि पूर्वे जो विधान का है, ताते या गूढयंत्र असे करने ।
प्रथम प्रस्तार अपेक्षा जीवाधिकरण का गूढयंत्र ।
लोभ
४
क्रोध
१
कृत
O
मन
o
वचन
१२
समारभ
३६
द्वितीय प्रस्तार पेक्षा जीवाधिकरण का गूढयत्र ।
सरभ
समारंभ
१
२
सरभ
o
मन
०
मान
२
कारित
४
कृत
o
क्रोध
O
वचन
३
कारित
&
मान
माया
३
अनुमोदित
८
२७
काय
२४
आरभ
७२
श्रारभ
३
काय
६
मोद
१८
माया
५४
लोभ
८ १
तहा नष्ट पूछे तो जैसे च्यारो पक्तिनि के जिस-जिस कोठा के अक मिलाए पूछया हुवा प्रमाण मिलै, तिस तिस कोठा विषै स्थित भेदरूप आलाप कहना । जैसे साठिवां आलाप पूछै तौ च्यारि, आठ, बारह, छत्तीस अक जोडे साठि अक होइ ।
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१३२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४५
तातै इन अंक संयुक्त कोठानि के भेद ग्रहै, लोभ अनुमोदित वचन समारंभ असा आलाप कहिए।
__वहुरि उद्दिष्ट पूछे तौ, तिस आलाप विष कहे भेद संयुक्त कोठेनि के अंक मिलाए, जो प्रमाण होड, तेथवां आलाप कहना । जैसे पूछया कि मान कृत काय
आरंभ केथवा आलाप है ? तहां इस पालाप विष कहे भेद संयुक्त कोठेनि के दोय, विदी, चौवीस, वहत्तरि ए अंक जोडि, अठ्याणवैवां पालाप है; जैसा कहना । याही प्रकार प्रथम प्रस्तार अपेक्षा अन्य नप्ट-समुद्दिष्ट वा दूसरा प्रस्तार अपेक्षा ते नष्टममुद्दिष्ट साधन करने । असे ही शील भेदादि विषै यथासभव साधन करना । या प्रकार प्रमत्तगुणस्थान विष प्रमाद भग कहने का प्रसग पाइ सख्यादि पांच प्रकारनि का वर्णन करि प्रमत्तगुणस्थान का वर्णन समाप्त किया ।
आग अप्रमत्त गुणस्थान के स्वरूप को प्ररूप है -
संजलणगोकसायाणुदयो मंदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि ॥४५॥
संज्वलननोकषायारणामुदयो मंदो यदा तदा भवति ।
अप्रमत्तगुणस्तेन च, अप्रमत्तः संयतो भवति ॥४५॥ टीका - यदा कहिए जिस काल विपै संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ च्यारि कपाय अर हास्यादि नव नोकपाय इनका यथासंभव उदय कहिए फल देनेरूप परिणमन, सो मंद होड, प्रमाद उपजावने की शक्ति करि रहित होइ, तदा कहिए तीहि काल विप अतर्मुहुर्त पर्यत जीव के अप्रमत्तगुण कहिए अप्रमत्तगुणस्थान हो है, तीहि कारणकरि तिम अप्रमत्त गुणस्थान संयुक्त संयत कहिए सकलसंयमी, सो अप्रमननंयत है । चकार करि प्रागै कहिए हैं जे गुण, तिनकरि सयुक्त है।
प्राग अप्रमत्त संयत के दोय भेद है; स्वस्थान अप्रमत्त, सातिशय अप्रमत्त । नहा जो थेणी चढने की सन्मुख नाही भया, सो स्वस्थान अप्रमत्त कहिए । वहुरि जो अंगी बढ़ने का नन्मुख भया, सो सातिशय अप्रमत्त कहिए ।
तहां स्वस्यन अप्रमत्त मयत के स्वरूप की निरूप हैं -
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका |
णट्ठासेसपमादो, वयगुणसीलोलिमंडिओ गाणी | अणुवसओ अखवओ, कारणणिलीणो हु प्रपमत्तो ॥ ४६ ॥
नष्टाशेषप्रमादो, व्रतगुणशीलावलिमंडितो ज्ञानी ।
अनुपशमकः क्षपको, ध्याननिलीनो हि अप्रमतः ॥ ४६ ॥
टोका जो जीव नष्ट भए है समस्त प्रमाद जाके जैसा होइ, बहुरि व्रत, गुण, शील इनकी श्रावली पंक्ति, तिनकरि मडित होइ - प्रभूषित होइ, बहुरि सम्यज्ञान उपयोग करि संयुक्त होइ, बहुरि धर्मध्यान विषे लीन है मन जाका औसा होइ, औसा अप्रमत्त संयमी यावत् उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी के सन्मुख चढने कौन प्रवर्तै, तावत् सो जीव प्रकट स्वस्थान अप्रमत्त है; औसा कहिए । इहा ज्ञानी ऐसा विशेषण कह्या है, सो जैसे सम्यग्दर्शन- सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारण है, तैसे सम्यक् - ज्ञान के भी मोक्ष का कारणपना को सूचै है
!
भावार्थ - कोऊ जानेगा कि चतुर्थ गुणस्थान विषै सम्यक्त्व का वर्णन कीया, पीछे चारित्र का कीया, सो ए दोय ही मोक्षमार्ग है; ताते ज्ञानी औसा विशेषण कहि सम्यग्ज्ञान भी इनि की साथि ही मोक्ष का कारण है जैसा अभिप्राय दिखाया है ।
आगे सातिशय अप्रमत्तसयत के स्वरूप को कहै है
-
इगवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकररगाणि तहिं । पढमं अधापवत्तं करणं तु करेदि अपसत्तो ॥ ४७ ॥
एकविंशतिमोहक्षपरगोपशमननिमित्तानि त्रिकरणानि तेषु । प्रथममधः प्रवृत्त करणं तु करोति श्रप्रमत्तः ॥ ४७ ॥
1
[ १३३
?
टीका - इहां विशेष कथन है; सो कैसे है समय प्रति अनंतगुणी विशुद्धता करि वर्धमान होइ,
सो कहिए है - जो जीव समयमंदकपाय होने का नाम विशु
द्धता है, सो प्रथन समय की विशुद्धता ते दूसरे समय की विशुद्धता श्रनतगुणी, ताते तीसरे समय की अनन्त गुणी, असे समय-समय विशुद्धता जाऊँ वधती होय, असा जी
१ पट्डागम
-
चवला पुस्तक १, पृष्ठ १५०, गाथा ११५
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१३४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८ वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव, सो प्रथम ही अनंतानुबंधी के चतुष्क कौं अधकरणादि तीन करणरूप पहिले करि विसंयोजन करै है ।
विसयोजन कहा कर है ?
अन्य प्रकृतिरूप परिणमावनेरूप जो सक्रमण, ताका विधान करि इस अनतानुवन्धी के चतुष्क के जे कर्म परमाणु , तिनको बारह कषाय अर नव नोकषायरूप परिणमावै है।
वहुरि ताके अनंतरि अंतर्मुहूर्त्तकाल ताई विश्राम करि जैसा का तैसा रहि, बहुरि तीन करण पहिले करि, दर्शन मोह की तीन प्रकृति, तिन को उपशमाय, द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि हो है।
अथवा तीनकरण पहिले करि, तीन दर्शनमोह की प्रकृतिनि को खिपाइ, मायिक सम्यग्दृष्टि हो है।
बहुरि ताके अनंतर अतर्मुहूर्त काल ताई अप्रमत्त ते प्रमत्त विष प्रमत्त ते अप्रमत्त विप हजारांबार गमनागमन करि पलटनि करै है। बहुरि ताके अनंतर समय-समय प्रति अनतगुणो विशुद्धता की वृद्धि करि वर्धमान होत सता इकईस चारित्र मोह को प्रकृतिनि के उपशमावने को उद्यमवत हो है । अथवा इकईस चारित्र मोह की प्रकृति क्षपावने की क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही उद्यमवत हो है ।
भावार्थ - उपशम श्रेणी की क्षायिक सम्यग्दृष्टि वा द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि दोऊ चढे अर क्षपक श्रेणी कौ क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चढने को समर्थ है। उपशम गम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी की नाही चढे है । सो यहु असा सातिशय अप्रमत्तसयत, सो अनतानुबंधी चतुष्क विना इकईस प्रकृतिरूप, तिस चारित्रमोह को उपशमावने, वा क्षय करने को कारणभूत असे जे तीन करण के परिणाम, तिन विषै प्रथम अध..) प्रवृत्तकरण की करै है; असा अर्थ जानना।
प्राग अथ प्रवृत्तकरण का निरुक्ति करि सिद्ध भया जैसा लक्षण को कहै है -
जह्मा उवरिमभावा, हेट्ठिमभावेहिं सरिसगा होति । तह्मा पढमं करणं, अधापवत्तो त्ति णिद्दिढें ॥४८॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
यस्मादुपरितनभावा, अधस्तनभावैः सदृशका भवंति । तस्मात्प्रथमं करणं, प्रधः प्रवृत्तिमिति निर्दिष्टम् ||४८ ||
टोका - जा कारण है जिस जीव का ऊपरि-ऊपरि के समय सबधी परिणामनि करि सहित अन्य जीव के नीचे-नीचे के समय सबधी परिणाम सदृश - समान हो है, ता कारण ते सो प्रथम करण अध. करण है - जैसा रिद्दिट्ठ कहिए परमागम विषै प्रतिपादन कीया है ।
भावार्थ - तीनों कररणनि के नाम नाना जीवनि के परिणामनि की अपेक्षा है । तहां जैसी विशुद्धता वा सख्या लीए किसी जीव के परिणाम ऊपर के समय सबधी होइ, तैसी विशुद्धता वा सख्या लीए किसी अन्य जीव के परिणाम अधस्तन समय सबधी भी जिस करण विषै होइ, सो अध प्रवृत्त करण है । अधःप्रवृत्त कहिए नीचले समय संबंधी परिणामनि की समानता को प्रवर्ते से हैं करण कहिए परिणाम जा विषै, सो प्रधः प्रवृत्तकरण है । इहां करण प्रारभ भए पीछे घने घने समय व्यतीत भए जे परिणाम होहि, ते ऊपरि ऊपरि समय संबंधी जानने । बहुरि थोरे - थोरे समय व्यतीत भए जे परिणाम होहि, ते अघस्तन - अधस्तन समय सबधी जानने । सो नाना जीवनि के इनकी समानता भी हो ।
कहै है -
[ १३५
ताका उदाहरण - जैसे दोय जीव के एक कालि अध प्रवृत्तकरण का प्रारंभ करे, तहा एक जीव के द्वितीयादि घने समय व्यतीत भये, जैसे सख् विशुद्धता लीये परिणाम भये, तैसे सख्या वा विशुद्धता लीये द्वितीय जीव के प्रथम समय विष भी होइ । याही प्रकार अन्य भी ऊपर नीचे के समय सबधी परिणामनि की समानता इस करण विषै जानि याका नाम अध प्रवृत्तकरण निरूपण कीया है ।
आगै अधः प्रवृत्तकरण के काल का प्रमाण कौ चय का निर्देश के अर्थ
अंतोमहत्तमेत्तो, तक्कालो होदि तत्थ परिणामा ।
लोगाणमसंखमिदा, उवरुवरिं सरिसवड्ढिगया ॥ ४६ ॥
अंतर्मुहूर्तमात्रस्तत्कालो भवति तत्र परिणामाः ।
लोकानामसंख्यमिता, उपर्युपरि सदृशवृद्धिगताः ॥ ४९ ॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४६
(as ]
ウ
टीका - तीनों करर्णानि विषै स्तोक अंतर्मुहूर्त प्रमाण अनिवृत्तिकरण का काल है । यात संख्यातगुणा अपूर्वकरण का काल है । यातें संख्यातगुणा इस अध:प्रवृत्तकरण का काल है, सो भी अंतर्मुहूर्त मात्र ही है । जातै अतर्मुहूर्त के भेद बहुत हैं । बहुरि तीह अध प्रवृत्तकरण के काल विषै अतीत, अनागत, वर्तमान त्रिकालवर्ती नाना जीव संबंधी विशुद्धतारूप इस करण के सर्व परिणाम असख्यात लोक प्रमाण है । लोक के प्रदेशनि का प्रमाण ते असंख्यात गुणे है । वहुरि तिनि परिणामनि विपे तिस ग्रवः प्रवृत्तकरण का काल प्रथम समय संबंधी जेते परिणाम है, तिन ने लगाय द्वितीयादि समयनि विषै ऊपरि-ऊपरि अंत समय पर्यन्त समान वृद्धि करि वर्धमान है । प्रथम समय संवधी परिणाम ते द्वितीय समय संबंधी परिणाम जिनने बघती है. तितने ही द्वितीय समय संबंधी परिणामनि ते तृतीय समय संबंधी परिणाम बघती हैं । इस क्रम तै ऊपरि-ऊपरि अंत समय पर्यंत सदृश वृद्धि को प्राप्त जानने । मो जहां समान वृद्धिहानि का अनुक्रम स्थानकनि विषै हो, ह श्रेणी व्यवहाररूप गणित सभवै है; तातै इहां श्रेणी व्यवहार करि वर्णन
है |
हां प्रथम नना कहिए है, विवक्षित सर्व स्थानक संबंधी सर्व द्रव्य जोडे जो
हो सो सर्वधन कहिए वा पदवन कहिए । वहुरि स्थानकनि का जो प्रमाण,
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पद पहिए वा गच्छु कहिए । वहुरि स्थान-स्थान प्रति जितना - जितना वधै, नाय कहिए वा उत्तर कहिए वा विशेप कहिए । वहुरि आदि स्थान विषै जो मनावी मुख कहिए वा यदि कहिए वा प्रथम कहिए । बहुरि अतस्थान विप प्रमाण हो, ताकी अतवन कहिए वा भूमि कहिए । बहुरि सर्व स्थानकनि स्थान, नाका द्रव्य के प्रमाण को मध्यवन कहिए । जहां स्थानकनि का मही नहीं वीचि के दीय स्थानकनि का द्रव्य जोडि प्राधा कीए जो हा मध्यवन कहिए। बहुरि जेना मुन्त्र का प्रमाण होड, तितना-तितना गगननिता ग्रहण करि जोडे जी प्रमाण होइ सो ग्रादिवन कहिए । वहुरि तिन सर्व चयनि को जोड़े जो प्रमाण होड, ताक कहिए | बहरि जैसे आदिवन उत्तरवन मिलं सर्वधन प्रभाग जानने के साथ कर सूत्र कहिए है ।
राति विशे हि सुरु गरिए या न
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
"मुहभूमिनोगदले पदगुरिणदे पदधनं होदि" इस सूत्र करि मुख आदिस्थान पर भूमि अंतस्थान, इनको जोडि, ताका आधा करि, ताकौ गच्छकरि गुणे, पदधन कहिए सर्वधन हो है।
बहुरि 'आदि अंते सुद्धे वहिदे रूवसंजुदे ठाणे ।' इस सूत्र करि आदि को अंतधन विष घटाए, जेते अवशेष रहै, तिनको वृद्धि जी चय, ताका भाग दीयें, जो होइ, तामै एक मिलाए स्थानकनि का प्रमाणरूप पद वा गच्छ का प्रमाण आवै है । बहुरि ‘पदकदिसंखेण भाजियं पचयं' पद जो गच्छ, ताकी जो कृति कहिए वर्ग, ताका भाग सर्वधन को दीएं जो प्रमाण आवै, ताकू संख्यात का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, सो चय जानना । सो इहां अध करण विर्ष पहिले मुखादिक का ज्ञान न होइ तात असे कथन कीया है । बहुरि सर्वत्र सर्वधन को गच्छ का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तामै मुख का प्रमाण घटाइ, अवशेष रहै, तिनको एक गच्छ का आधा प्रमाण का भाग दीए चय का प्रमाण हो है।
अथवा 'आदिधनोणं गणितं पदोनपदकृतिदलेन संभजित प्रचयः' इस वचन ते सर्वस्थानक संबंधी आदिधन को सर्वधन विर्ष घटाइ, अवशेष को गच्छ के प्रमाण का वर्ग विषै गच्छ का प्रमाण घटाइ अवशेष रहै, ताका आधा जेता होय, ताका भाग दीये चय का प्रमाण आवे है । बहुरि उत्तरधन को सर्वधन विपै घटाएं, अवशेष रहै, ताको गच्छ का भाग दीएं मुख का प्रमाण आवै है।
बहुरि "व्येकं पदं चयाभ्यस्तं तदादिसहितं धनं" इस सूत्र करि एक घाटि गच्छ को चय करि गुणै, जो प्रमाण होइ, ताको मुख का प्रमाण सहित जोडे, अंतधन हो है । बहुरि मुख अर अंतधन को मिलाइ ताका आधा कीए मध्यधन हो है ।
___ बहुरि 'पदहतमुखमादिधन' इस सूत्र करि पद करि गुण्या हुवा मुख का प्रमाण, सो आदिधन हो है।
बहुरि "व्येकपदार्घघ्नचयगुरगो गच्छ उत्तरधन" इस सूत्र करि एक घाटि जो गच्छ, ताका आधा प्रमाण को चय करि गुणै, जो प्रमाण होइ, ताकी गच्छ करि गुण, उत्तरधन हो है । सो आदिधन, उत्तरधन मिलाए भी सर्वधन का प्रमाण हो
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१३८ ]
[ गोम्मटसार नीवकाण्ड गाथा ४६ है । अथवा मध्यवन की गच्छ करि गुण भी सर्वधन का प्रमाण आवै है । जैसे श्रेणी व्यवहाररूप गणित का किचित् स्वरूप प्रसंग पाइ कह्या ।
अव अधिकारभूत अधःकरण विष सर्वधन आदि का वर्णन करिए है । तहां प्रथम अंकसंदृष्टि करि कल्पनारूप प्रमाण लीएं दृष्टांतमात्र कथन करिए है । सर्व अधःकरण का परिणामनि की संख्यारूप सर्वधन तीन हजार वहत्तरि (३०७२) । वहुरि अव.करण के काल का समयनि का प्रमाणरूप गच्छ सोलह (१६) । वहुरि समयसमय परिणामनि की वृद्धि का प्रमाणरूप चय च्यारि (४) । वहुरि इहां संख्यात का प्रमाण तीन (३) । अव उर्व रचना विष धन ल्याइए है । सो युगपत् अनेक समय की प्रवृत्ति न होड, तातै समय संबंधी रचना ऊपरि-ऊपरि ऊर्ध्वरूप करिए है । तहां आदि धनादिक का प्रमाण ल्याइये है।
'पदकदिसंखेण भाजियं पचयं' इस सूत्र करि सर्वधन तीन हजार वहत्तरी, ताको पद सोलह की कृति दोय से छप्पन, ताका भाग दीएं बारह होइ । अर ताकौं संख्यात का प्रमाण तीन, ताका भाग दीए च्यारि होइ । अथवा टोय सौ छप्पन की तिगुणा करि, ताका भाग सर्व वन की दीये भी च्यारि होइ सो समय-समय प्रति परिणामनि का चय का प्रमाण है । अथवा याकौं अन्य विधान करि कहिए है । सर्वधन तीन हजार वहत्तरि, ताकौं गच्छ का भाग दीएं एक सौ वाणवै, तामैं पागै कहिए है मुख का प्रमाण एक सौ वासठि, सो घटाइ तीस रहे । इनको एक घाटि गच्छ का आधा सादा सात, ताका भाग दीये च्यारि पाए, सो चय जानना ।
अथवा 'पादिधनोनं गणितं पदोनपदकृतिदलेन संभजितं' इस सूत्र करि आगे कहिए है - आदिवन पचीस से वागवे, तीहकरि रहित सर्ववन च्यारि सै असी, ताकी पट की कृति दोय सै छप्पन विपै पद सोलह घटाउ, अवशेप का आधा कीये, एक नी वीन होड, ताका भाग दीये च्यारि पाये, सो चय का प्रमाण जानना ।
बहुरि 'व्येकपदार्पघ्नचयगुणो गच्छ उत्तरधन' इस सूत्र करि एक घाटि गच्छ पंद्रह, ताका आधा माढा सात (३) ताकी चय च्यारि, ताकरि गुणं तीस, नागं गच्छ मोलह करि गुणे, च्यारि सौ असी चयवन का प्रमाण हो है । वहुरि इस चयन परि नयन तीन हजार बहतरि मो हीन कीये, अवशेष दोय हजार पांच
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पोठिका ]
[ १३६ सै बाणवै रहे । इनको पद सोलह, ताका भाग दीये एक सौ बासठि पाये, सोई प्रथम समय सबंधी परिणामनि की सख्या हो है । बहुरि यामै एक-एक चय बधाये संते द्वितीय, तृतीयादि समय संबंधी परिणामनि की संख्या हो है । तहां द्वितीय समय संबधी एक सौ छयासठ, तृतीय समय सबधी एक सौ सत्तरि इत्यादि क्रम ते एक-एक चय बधती परिणामनि की संख्या हो है । १६२, १६६, १७०, १७४, १७८, १८२, १८६, १६०, १९४, १९८, २०२, २०६, २१०, २१४, २१८, २२२ ।
इहा अत समय संबंधी परिणामनि की संख्यारूप अतधन ल्याइये है । ___ 'व्येकं पदं चयाभ्यस्तं तदादिसहितं धनं' इस सूत्र तै एक घाटि गच्छ पंद्रह, ताको चय च्यारि करि गुण साठि, बहुरि याकौ आदि एक सौ बासठि करि युक्त कीएं दोय सै बाईस होइ; सोई अंत समय सबधी परिणामनि का प्रमाण जानना । बहुरि यामै एक चय च्यारि घटाए दोय से अठारह द्विचरम समय सबधी परिणामनि का प्रमाण जानना । जैसै कहै जो धन कहिए समय-समय संबधी परिणामनि का प्रमाण, तिनको अधःप्रवृतकरण का प्रथम समय ते लगाइ अंत समय पर्यन्त ऊपरिऊपरि स्थापन करने ।
श्रागै अनुकृष्टिरचना कहिए है - तहा नीचे के समय संबंधी परिणामनि के जे खड, तिनके ऊपरि के समय सबंधी परिणामनि के जे खंडनि करि जो सादृश्य कहिए समानता, सो अनुकृष्टि असा नाम धरै है।
भावार्थ - ऊपरि के अर नीचे के समय सबंधी परिणामनि के जे खंड, ते परस्पर समान जैसे होइ, तैसे एक समय के परिणामनि विर्ष खंड करना, तिसका नाम अनुकृष्टि जानना । तहा ऊर्ध्वगच्छ के संख्यातवां भाग अनुकृष्टि का गच्छ है, सो अंकसदृष्टि अपेक्षा ऊर्ध्वगच्छ का प्रमाण सोलह, ताको संख्यात का प्रमाण च्यारि का भाग दीए जो च्यारि पाए; सोई अनुकृष्टि विषै गच्छ का प्रमाण है । अनुकृष्टि विष खंडनि का प्रमाण इतना जानना । बहुरि ऊर्ध्व रचना का चय को अनुकृष्टि मच्छ का भाग दीए, अनुकृष्टि विष चय होइ, सो ऊर्ध्व चय च्यारि को अनुकृष्टि गच्छ च्यारि का भाग दीएं एक पाया; सोई अनुकृष्टि चय जानना । खड-खंड प्रति बधती का प्रमाण इतना है । बहुरि प्रथम समय सबंधी समस्त परिणामनि का प्रमाण एक सौ बासठि, सो इहां प्रथम समय सबंधी अनुकृष्टि रचना विष सर्वधन जानना। बहुरि 'व्येकपदार्धघ्नचयगुरणो गच्छ उत्तरधन' इस सूत्र करि एक घाटि गच्छ तीन,
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१४.]
| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४६ ताका आधा को चय एक करि गुणी अर गच्छ च्यारि करि गुणै छह होइ, सो इहां उत्तरधन का प्रमाण जानना । बहुरि इस उत्तरधन छह को (६) सर्वधन एक सौ वासठि (१६२) विष घटाएं, अवशेष एक सौ छप्पन रहे, तिनको अनुकृप्टि गच्छ च्यारि का भाग दीएं गुणतालीस पाए, सोई प्रथम समय संबंधी परिणामनि का जो प्रथम खण्ड, ताका प्रमाण है, सो यह ही सर्व जघन्य खण्ड है; जातें इस खण्ड ते अन्य सर्व खडनि के परिणामनि की संख्या पर विशुद्धता करि अधिकपनों संभव है। बहुरि तिस प्रथम खंड विर्ष एक अनुकृप्टि का चय जोडे, तिसही के दूसरा खंड का प्रमाण चालीस हो है। जैसे ही तृतीयादिक अंत खंड पर्यत तिर्यक् एक-एक चय अधिक स्थापने । तहां तृतीय खंड विष इकतालीस अंत खड विष वियालीस परिणामनि का प्रमाण हो है । ते ऊर्ध्वरचना विष जहा प्रथम समय संबंधी परिणाम स्थापे, ताकै आगे-आगै वरोबरि ए खंड स्थापन करने । ए (खड) एक समय विष युगपत् अनेक जीवनि के पाइए, तातै इनिको बरोबरि स्थापन कीए है । वहुरि तातै परे ऊपरि द्वितीय समय का प्रथम खंड प्रथम समय का प्रथम खड ३६ ते एक अनुकृष्टि चय करि (१) एक अधिक हो है; तातै ताका प्रमाण चालीस है। जाते द्वितीय समय सवंधी परिणाम एक सो छयासठि, सो ही सर्वधन, तामें अनुकृप्टि का उत्तर धन छह घटाड, अवशेष को अनुकृप्टि का गच्छ च्यारि का भाग दीये, तिस द्वितीय समय का प्रथम खड की उत्पत्ति सभव है । बहुरि ताकै आगे द्वितीय समय के द्वितीयादि खड, ते एक-एक चय अधिक सभवै है ४१, ४२, ४३ । इहां द्वितीय समय का प्रथम खंड सो प्रथम समय का द्वितीय खंड करि समान है।
__ असे ही द्वितीय समय का द्वितीयादि खंड, ते प्रथम समय का तृतीयादि खडनि करि समान है । इतना विशेष - जो द्वितीय समय का अंत का खड प्रथम समय का सर्व खडनि विष किसी खड करि भी समान वाही । वहुरि तृतीयादि समयनि के प्रथमादि खंड द्वितीयादि समयनि के प्रथमादि खंडनि तें एक विशेष अधिक है।
तहा तृतीय समय के ४१, ४२, ४३, ४४ । चतुर्थ के ४२, ४३, ४४, ४५ । पंचम समय के ४३, ४४, ४५, ४६ । षष्ठम समय के ४४, ४५, ४६, ४७ । सप्तम समय के ४५, ४६, ४७, ४८ । अष्टम समय के ४६, ४७, ४८, ४६ । नवमा समय के ४७, ४८, ४९, ५० । दशवा समय के ४८, ४९, ५०, ५१ । ग्यारहवां समय के ४६, ५०, ५१, ५२ । वारहवा समय के ५०, ५१, ५२, ५३ । तेरहवां समय
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १४१, के ५१, ५२, ५३, ५४ । चौदहवां समय के ५२, ५३, ५४, ५५ । पंद्रहवां समय के ५३, ५४, ५५, ५६ । सोलहवां समय के ५४, ५५, ५६, ५७ खंड जानने। . __जाते ऊपरि-ऊपरि सर्वधन एक-एक ऊर्ध्व चय कृरि अधिक है । इहा सर्व जघन्य खंड जो प्रथम समय का प्रथम खंड, ताके परिणामनि के अर सर्वोत्कृष्ट खंड अंत समय का अंत का खंड, ताके परिणामनि के किस ही खंड के परिणामनि करि सहित समानता नाही है; जाते अवशेष समस्त ऊपरि के वा नीचले समय सबंधी खडनि का परिणाम पुंजनि के यथासंभव समानता संभव है । बहुरि इहां ऊर्ध्व रचना विर्षे 'मुहभूमि जोगदले पदगुरिणदे पदधणं होदि' इस सूत्र करि मुख एक सौ बासठि, अर भूमि दोय सौ बाइस, इनिकौं जोड़ि ३८४ । आधा करि १९२ गच्छ, सोलह करि गुणे सर्वधन तीन हजार बहत्तरी हो है । अथवा मुख १६२, भूमि २२२ को जोडै ३८४, आधा कीये मध्यधन का प्रमाण एक सौ बाणवै होइ, ताकौ गच्छ सोलह करि गुण सर्वधन का प्रमाण हो है । अथवा 'पहदतमुखमादिधनं' इस सूत्र करि गच्छ सोलह करि मुख एक सौ बासठि कौ गुणै, पचीस सै बाणवै सर्वसमय संबंधी आदि धन हो है । बहुरि उत्तरधन पूर्व च्यारि सै असी कह्या है, इनि दोऊनि को मिलाएं सर्वधन का प्रमाण हो है । बहुरि गच्छ का प्रमाण जानने को 'आदी अंते सुध्दे वट्टिहदे रूवसंजुदे ठाणे' इस सूत्र करि आदि एक सौ बासठि, सो अत दोय सै बाईस में घटाएं अवशेष साठि, ताकौ वृद्धिरूप चय च्यारि का भाग दीएं पद्रह, तामै एक जोडे गच्छ का प्रमाण सोलह आवै है। असे दृष्टांतमात्र सर्वधनादिक का प्रमाण कल्पना करि वर्णन कीया है, सो याका प्रयोजन यहु - जो इस दृष्टात करि अर्थ का प्रयोजन नीकै समझने मे आवै।
अब यथार्थ वर्णन करिए है - सो ताका स्थापन असंख्यात लोकादिक की अर्थसंदृष्टि करि वा सदृष्टि के अथि समच्छेदादि विधान करि संस्कृत टीका विष दिखाया है, सो इहा भाषा टीका विष प्रागै सदृष्टि अधिकार जुदा कहैगे, तहां इनिकी भी अर्थसदृष्टि का अर्थ-विधान लिखेंगे तहा जानना । इहां प्रयोजन मात्र कथन करिए है। आगे भी जहां अर्थसंदृष्टि होय, ताका अर्थ वा विधान आगै सदृष्टि अधिकार विष ही देख लेना । जायगा-जायगा संदृष्टि का अर्थ लिखने ते ग्रथ प्रचुर होइ, अर कठिन होइ; तातै न लिखिए है । सो इहां त्रिकालवर्ती नाना जीव सबंधी समस्त अधःप्रवृत्तकरण के परिणाम असंख्यात लोकमात्र है; सो सर्वधन जानना । वहुरि अधः
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१४२
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४६
प्रवृत्तकरण का काल अंतर्मुहूर्तमात्र, ताके जेते समय होंइ, सो इहां गच्छ जानना । वहुरि सर्वधन को गच्छ का वर्ग करि, ताका भाग दीजिए । वहुरि यथासभव संख्यात का भाग दीजिए, जो प्रमाण आवै; सो ऊर्ध्वचय जानना । वहुरि एक घाटि गच्छ का प्राधा प्रमाण करि चय कौ गुणि, बहुरि गच्छ का प्रमाण करि गुणै जो प्रमाण आवै, सो उत्तरधन जानना । बहुरि इस उत्तरधन को सर्वधन विषै घटाइ, अवशेप को ऊर्ध्वगच्छ का भाग दीए, त्रिकालवर्ती समस्त जीवनि का अधःप्रवृत्तकरण काल के प्रथम समय विष संभवते परिणामनि का पुज का प्रमाण हो है । बहुरि याके विर्षे एक उर्ध्व चय जोडे, द्वितीय समय सबधी नाना जीवनि के समस्त परिणामनि के पुंज का प्रमाण हो है। जैसे ही ऊपरि भी समय-समय प्रति एक-एक अर्वचय जोडें, परिणाम पुज का प्रमाण जानना ।
तहां प्रथम समय संबंधी परिणाम पुंज विर्षे एक घाटि गच्छ प्रमाण चय जोडे अंत समय संबंधी नाना जीवनि के समस्त परिणामनि के पुज का प्रमाण हो है; सो ही कहिए है - 'व्येकं पदं चयाभ्यस्तं तत्साधंतधनं भवेत्' इस करण सूत्र करि एक घाटि गच्छ का प्रमाण करि चय को गुण जो प्रमाण होइ, ताको प्रथम समय संबंधी परिणाम पुंज प्रमाण विषै जोडे, अंत समय संबंधी परिणाम पुज का प्रमाण हो है । वहुरि या विषै एक चय घटाए, द्विचरम समयवर्ती नाना जीव संबंधी समस्त विशुद्ध परिणाम पुंज का प्रमाण हो है । असे ऊर्ध्वरचना जो ऊपरि-ऊपरि रचना, तीहि विप समय-समय सबंधी अध.प्रवृत्तकरण के परिणाम पुज का प्रमाण कह्या ।
भावार्थ - आगे कषायाधिकार विष विशुद्ध परिणामनि की संख्या कहैगे, तिस विपै अवःकरण विष संभवते शुभलेश्यामय संज्वलन कषाय का देशघातो स्पर्वकनि का उदय संयुक्त विशुद्ध परिणामनि की संख्या त्रिकालवर्ती नाना जीवनि के असंख्यात लोकमात्र है। तिनि विपै जिनि जीवनि को अध प्रवृत्तकरण मांडै पहला समय है, असे त्रिकाल संवधी अनेक जीवनि के जे परिणाम संभवै, तिनिके समह कौं प्रथम समय परिणाम पुज कहिए । बहुरि जिनि जीवनि को अधःकरण माड़े, दूसरा समय भया, असे त्रिकाल सवधी अनेक जीवनि के जे परिणाम संभवै, तिनिके समूह कौं द्वितीय समय परिणाम पुंज कहिए । अस ही क्रम ते अन्त समय पर्यंत जानना।
तहा प्रथमादि समय संवंवी परिणाम पुंज का प्रमाण श्रेणी व्यवहार गणित का विधान करि जुदा-जुदा कह्या, सो सर्वसमय सवंधी परिणाम पुजनि को जोड़ें
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १४३ असंख्यात लोकमात्र प्रमाण होइ है। बहुरि इन अध प्रवृत्त करण काल का प्रथमादि समय सबंधी परिणामनि विर्ष त्रिकालवर्ती नाना जीव सबन्धी प्रथम समय के जघन्य मध्यम, उत्कृष्ट भेद लीए जो परिणाम पुज कह्या, ताके अध.प्रवृत्तकरण काल के जेते समय, तिनको संख्यात का भाग दीए जेता प्रमाण आवै, तितना खंड करिए। ते खंड निर्वर्गणा कांडक के जेते समय, तितने हो है । वर्गणा कहिए समयनि की समानता, तीहिकरि रहित जे ऊपरि-ऊपरि समयवर्ती परिणाम खड, तिनका जो कांडक कहिए पर्व प्रमाण; सो निर्वर्गणा कांडक है । तिनिके समयनि का जो प्रमाण सो अधःप्रवृत्तकरण कालरूप जो ऊर्ध्वगच्छ, ताके सख्यातवे भागमात्र है, सो यह प्रमाण अनुकृष्टि के गच्छ का जानना । इस अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण एक-एक समय सबधी परिणामनि विषै खड हो है । बहुरि ते खड एक-एक अनुकृष्टि चय करि अधिक हैं। तहां ऊर्ध्व रचना विषै जो चय का प्रमाण कह्या, ताको अनुकृष्टि गच्छ का भाग दीए जो पाइए; सो अनुकृष्टि के चय का प्रमाण है।
बहुरि 'व्येकपदार्धघ्नचयगुणो गच्छ उत्तरधनं' इस सूत्र करि एक घाटि अनुकृष्टि के गच्छ का आधा प्रमाण को अनुकृष्टि चय करि गुणी, बहुरि अनुकृष्टि गच्छ करि गुण जो प्रमाण होइ; सो अनुकृष्टि का चयधन हो है । याको ऊर्ध्व रचना विषै जो प्रथम समय सबधी समस्त परिणाम पुज का प्रमाणरूप सर्वधन, तीहि विर्ष घटाइ, अवशेष जो रहै, ताको अनुकृष्टि गच्छ का भाग दीए जो प्रमाण होइ; सोई प्रथम समय सबधी प्रथम खंड का प्रमाण है। बहुरि या विष एक अनुकृष्टि चय को जोडे, प्रथम समय सम्बन्धी समस्त परिणामनि के द्वितीय खड का प्रमाण हो है । जैसे ही तृतीयादिक खड एक-एक अनुकृप्टि चय करि अधिक अपने अत खंड पर्यन्त क्रम ते स्थापन करने ।
तहा अनुकृष्टि का प्रथम खंड विष एक घाटि अनुकृष्टि गच्छ का प्रमाण अनुकृष्टि चय जोडै जो प्रमाण होइ, सोई अंत खंड का प्रमाण जानना । यामै एक अनुकृष्टि चय घटाएं, प्रथम समय संबंधी द्विचरम खड का प्रमाण हो है। अस प्रथम समय संबंधी परिणाम पुजरूप खंड सख्यात प्रावली प्रमाण है, ते क्रम ते जानने। इहां तीन वार संख्यात करि गुरिणत प्रावली प्रमाण जो अध करण का काल, ताके संख्यातवे भाग खंडनि का प्रमाण, सो दोड बार सख्यात करि गुरिणत पावली प्रमाण है, औसा जानना ।
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१४४ ]
[ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा ४६ ____बहुरि द्वितीय समय संबधी परिणाम पुज का प्रथम खड है, सो प्रथम समय संबंधी प्रथम खंड ते अनुकृष्टि चय करि अधिक है। काहै ते ? जातै द्वितीय समय संबंधी समस्त परिणाम पुजरूप जो सर्वधन, तामै पूर्वोक्त प्रमाण अनुकृष्टि का चयधन घटाएं अवशेष रहै, ताको अनुकृष्टि का भाग दीएं, सो प्रथम खंड सिद्ध हो है। वहरि इस द्वितीय समय का प्रथम खंड विष एक अनुकृष्टि चय की जोडे, द्वितीय समय संबंधी परिणामानि का द्वितीय खंड का प्रमाण हो है। ऐसे तृतीयादिक खंड एक-एक अनुकृष्टि चय करि अधिक स्थापन करने । तहा एक घाटि अनुकृप्टि गच्छ, प्रमाण चय द्वितीय समय परिणाम का प्रथम खंड विष जोडै, द्वितीय समय संबंधी अंत खंड का प्रमाण हो है। यामै एक अनुकृष्टि चय घटाएं द्वितीय समय संबंधी द्विचरम खंड का प्रमाण हो है । बहुरि इहा द्वितीय समय का प्रथम खड पर प्रथम समय का द्वितीय खंड, ए दोऊ समान है । तैसे ही द्वितीय समय का द्वितीयादि खंड अर प्रथम समय का तृतीयादि खण्ड दोऊ समान हो है । इतना विशेप द्वितीय समय का अंत खंड, सो प्रथम समय का खंडनि विर्षे किसीही करि समान नाही । वहुरि याके आगे ऊपरि तृतीयादि समयनि विष अनुकृष्टि का प्रथमादिक खंड, ते नीचला समय सम्बन्धी प्रथमादि अनुकृष्टि खंडनि ते एक-एक अनुकप्टि चय करि अधिक है। असे अधःप्रवृत्तकरण काल का अंत समय पर्यन्त जानने । तहां अन्त समय का समस्त परिणामरूप सर्वधन विषे अनुकृष्टि का चयधन को घटाई, अवशेप को अनुकृप्टि गच्छ का भाग दीएं, अत समय सम्बन्धी परिणाम का प्रथम अनुकृष्टि खड हो है । यामै एक अनुकृष्टि चय जोडै, अंत समय का द्वितीय अनुकृप्टि खड हो है । असे तृतीयादि खण्ड एक-एक अनुकृप्टि चय करि अधिक जानने। तहां एक घाटि अनुकृप्टि गच्छ प्रमाण अनुकृप्टि चय अन्त समय सम्बन्धी परिणाम का प्रथम खण्ड विष जोडै, अंत समय सम्बन्धी अंत अनुकृष्टि खण्ड के परिणाम पुज का प्रमाण हो है । वहुरि यामैं एक अनुकृप्टि चय घटाए, अन्त समय सम्वन्धी द्विचरम खण्ड के परिणाम पुज का प्रमाण हो है । असे अत समय संबंधी अनुकृष्टि खड, ते अनुकृष्टि के गच्छ प्रमाण है ; ते वरोवरि आगे-आगे क्रम तै स्थापने । वहुरि अत समय सवधी अनुकृप्टि का प्रथम बड विप एक अनुकृष्टि चय घटाएं, अवशेप द्विचरम समय संबंधी प्रथम खड का परिणाम पुंज का प्रमाण हो है । बहुरि यामै एक अनुकृप्टि चय जोडे, द्विचरम समय संबधी द्वितीय खंड का परिणाम पुज हो है । बहुरि असे ही तृतीयादि खड एक-एक चय अविक जानने । तहां एक घाटि अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण अनुकृष्टि चय द्विचरम
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १४५
समय संबधी परिणाम का प्रथम खण्ड विषै जोडे, द्विचरम समय संबंधी अनुकृष्टि का अंत खंड का परिणाम पुज का प्रमाण हो है । बहुरि यामै एक अनुकृष्टि चय घटाएं, तिस ही द्विचरम समय का द्विचरम खंड का प्रमाण हो है । अस अध.प्रवृत्तकरण के काल का द्विचरम समय संबंधी अनुकृष्टि खंड, ते अनुकृष्टि का गच्छप्रमाण है, ते क्रम तें एक-एक चय अधिक स्थापन करने । असै तिर्यकरचना जो बरोबर रचना, तीहि विषे एक-एक समय संबंधी खंडनि विष परिणामनि का प्रमाण कह्या ।
. भावार्थ - पूर्व अधःकरण का एक-एक समय विष संभवते नाना जीवनि के परिणामनि का प्रमाण कह्या था। अब तिस विष जुदे जुदे संभवते असे एक-एक समय संबंधी खंडनि विर्षे परिणामनि का प्रमाण इहा कह्या है । सो ऊपरि के अर नीचे के समय संबंधी खंडनि विर्ष परस्पर समानता पाइए है । तातै अनुकृष्टि असा नाम इहां संभव है । जितनी सख्या लीये ऊपरि के समय विर्षे परिणाम खंड हो है, तितनी संख्या लीये नीचले समय विर्षे भी परिणाम खण्ड होइ है। जैसे नीचले समय सबंधी परिणाम खड से ऊपरि के समय संबधी परिणाम खण्ड विष समानता जानि इसका नाम अधःप्रवृत्तकरण कह्या है।
बहुरि इहां विशेष है, सो कहिए है । प्रथम समय संबंधी अनुकृष्टि का प्रथम खण्ड, सो सर्व तै जघन्य खण्ड है; जातै सर्वखण्डनि ते याकी संख्या घाटि है । बहुरि अंतसमय संबधी अत का अनुकृष्टि खण्ड, सो सर्वोत्कृष्ट है; जाते याकी संख्या सर्व खण्डनि ते अधिक है। सो इन दोऊनि के कही अन्य खण्ड करि समानता नाही है । बहुरि अवशेष ऊपरि समय सबधी खण्ड नि के नीचले समय सबंधी खण्डनि सहित अथवा नीचले समय संबधी खण्डनि के ऊपरि समय सवधी खण्डनि सहित यथासंभव समानता है । तहां द्वितीय समय ते लगाय द्विचरम समय पर्यत जे समय, तिनका पहला-पहला खण्ड अर अंत समय का प्रथम खण्ड तै लगाइ द्विचरम खण्ड पर्यत खण्ड, ते अपने-अपने ऊपरि के समय सबंधी खडनि करि समान नाही है । तातै असदृश है. सो द्वितीयादि द्विचरम पर्यन्त समय सवधी प्रथम खण्डनि की अर्ध्वरचना कीए । अर ऊपरि अत समय के प्रथमादि द्विचरम पर्यन्त खण्डनि की तिर्यक रचना कीए अकुश के आकार रचना हो है। ताते याको अंकुश रचना कहिए।
...
यह अक मष्टि ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४४४६४.४६४५ ४४८३८० अपेक्षा अकुशरचना
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१४६ ]
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाया ४६
वहुरि द्वितीय समय तै लगाइ द्विचरम समय पर्यत समय सवधी अंत- अंत के खण्ड अर प्रथम समय संवधी प्रथम खंड विना अन्य सर्व खण्ड, ते अपने-अपने नीचले समय संबंधी किसी ही खण्डनि करि समान नाही, ताते प्रसदृण हैं । सो इहां द्वितीयादि द्विचरम पर्यंत समय सबंधी अंत- अंत खण्डनि की ऊर्ध्वरचना कीएं अर नीचे प्रथम समय के द्वितीयादि ग्रंत पर्यंत खण्डनि की तिर्यक्रचना कीए हल के आकार रचना हो है । ताते याकी लागल रचना कहिए ।
यह ग्रक सहष्टि
अपेक्षा लागल
रचना
४०
૪૨
५६ ५५ ५४ ५३ ५२ ५१ ५० ४६ ४६ ४७ ४६ ४५ ४४८३४२
बहुरि जघन्य उत्कृप्ट खंड अर ऊपरि नीचे समय संबंधी खण्डनि की अपेक्षा कहे सदृश खण्ड, तिनि खडनि विना श्रवशेप सर्व खण्ड अपने ऊपर के अर नीचले समय सवधी खण्डनि करि यथासंभव समान जानने ।
व विशुद्धता के अविभागप्रतिच्छेदनि की अपेक्षा वर्णन करिए हैं । जाका दूसरा भाग न होड़ - जैसा शक्ति का अंश, ताका नाम अविभागप्रतिच्छेद जानना । तिनकी अपेक्षा गणना करि पूर्वोक्त श्रधःकरण के खडनि विषे ग्रल्पबहुत्वरूप वर्णन करें हैं । तहां व प्रवृत्तकरण के परिणामनि विषै प्रथम समय संबंधी जे परिणाम, तिनके खंडनि विषे जे प्रथम खंड के परिणाम, ते सामान्यपने असंख्यात लोकमात्र है । तथापि पूर्वोक्त विधान के अनुसारि स्थापि, भाज्य भागहार का यथासंभव अपवर्तन किये, संख्यात प्रतरावली का जाको भाग दीजिये, ऐसा असंख्यात लोक मात्र है । ते ए परिणाम श्रविभागप्रतिच्छेदनि की अपेक्षा जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद लिये | तहां एक विक सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग का घन करि तिसही का वर्ग को गुण जो प्रमाण होइ, तितने परिणामनि विषै जो एक वार पट्स्थान होइ, तो सख्यात प्रतरावली भक्त असंख्यात लोक प्रमाण प्रथम समय सबंधी प्रथम खंड के परिणामनि विषै केती बार षट्स्थान होइ ? ऐसे त्रैराशिक करि पाए हुए असंख्यात लोक वार पट्स्थाननि कौं प्राप्त जो विशुद्धता की वृद्धि, तीहि करि वर्धमान हैं ।
भावार्थ - श्रागै ज्ञानमार्गणा विषै पर्याय समास श्रुतज्ञान का वर्णन करतें जैसे अनंतभाग वृद्धि ग्रादि पदस्थानपतित वृद्धि का अनुक्रम कहेंगे, तैसे इहां अध. प्रवृत्तकरण सम्बन्धी विशुद्धतारूप कपाय परिणामनि विषै भी अनुक्रम ते अनन्तभाग,
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १४७
असंख्यात भाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण, असंख्यातगुण, अनंतगुण वृद्धिरूप षट्स्थानपतित वृद्धि सभव है । तहां तिस अनुक्रम के अनुसारि एक अधिक जो सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग, ताका घन करि ताही का वर्ग को गुणिए ।
भावार्थ ऐसा - पांच जायगा मांडि परस्पर गुणिये जो प्रमाण आवै, तितने विशुद्धि परिणाम विषै एक बार पट्स्थानपतित वृद्धि हो है । ऐसे क्रम तै प्रथम परिणाम ते लगाइ, इतने इतने परिणाम भये पीछे एक-एक बार षट्स्थान वृद्धि पूर्ण होते असंख्यात लोकमात्र वार षट्स्थानपतित वृद्धि भए, तिस प्रथम खंड के सव परिणामनि की सख्या पूर्ण होइ है । याते असख्यात लोकमात्र षट्स्थानपतित वृद्धि करि वर्धमान प्रथम खड के परिणाम है । वहुरि तैसे ही द्वितीय समय के प्रथम खंड का परिणाम एक अनुकृप्टि चय करि अधिक है, ते जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टभेद लिये है । सो ए भी पूर्वोक्त प्रकार असख्यात लोकमात्र षट्स्थानपतित वृद्धि करि वर्धमान है ।
भावार्थ एक अधिक सूच्यंगुल के असंख्यातवा भाग का घन करि गुणित तिस ही का वर्गमात्र परिणामनि विषै जो एक बार षट्स्थान होइ, तो अनुकृष्टि चय प्रमाण परिणामनि विषे केती बार षट्स्थान होइ ? ऐसे त्रैराशिक किये जितने पाव, तितनी बार अधिक पदस्थानपतित वृद्धि प्रथम समय के प्रथम खण्ड
द्वितीय समय के प्रथम खण्ड विषै संभव है । ऐसे ही तृतीयादिक प्रत पर्यन्त समयनि के प्रथम - प्रथम खड के परिणाम एक-एक अनुकृष्टि चय करि अधिक है । बहुरि तैसे ही प्रथमादि समयनि के अपने-अपने प्रथम खण्ड ने द्वितीयादि खण्डनि के परिणाम भी क्रम ते एक-एक चय अधिक है । तहा यथासम्भव षट्स्थानपतित वृद्धि जेती वार होइ, तिनका प्रमाण जानना ।
अथ तिन खण्डनि के विशुद्धता का अविभागप्रतिच्छेदनि की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहिये है | प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड का जघन्य परिणाम की विशुद्धता अन्य सर्व तै स्तोक है । तथापि जीव राशि का जो प्रमाण, तातै अनतगुणा अविभागप्रतिच्छेदनि के समूह को धरे है । बहुरि यातै तिस ही प्रथम समय का प्रथम खण्ड का उत्कृष्ट परिणाम की विशुद्धता अनतगुणी है । बहुरि ताते द्वितीय खण्ड का जघन्य परिणाम की विशुद्धता अनतगुणी है । तातै तिस हि का उत्कृष्ट परिणाम की विशुद्धता अनंतगुणी है । ऐसे ही क्रम तै तृतीयादि खण्डनि विषे भी जघन्य,
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१४८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४६ उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनंतगुणी-अनंतगुणी अंत के खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त प्रवर्ते है ।
बहुरि प्रथम समय संबंधी प्रथम खण्ड का उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता ते द्वितीय समय के प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । तातै तिस ही की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है ।
बहुरि तातै द्वितीय खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है। ताते तिस ही की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । ऐसे तृतीयादि खण्ड नि विर्ष भी जघन्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणा अनुक्रम करि द्वितीय समय का अंत का खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त प्राप्त हो है । बहुरि इस ही मार्ग करि तृतीयादि समयनि विर्ष भी पूर्वोक्त लक्षणयुक्त जो निर्वर्गणाकांडक, ताका द्विचरम समय पर्यन्त जघन्य उत्कृप्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणा अनुक्रम करि ल्यावनी।
बहुरि निर्वर्गणाकाण्डक का अंत समय संबंधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता ते प्रथम समय का अंत खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । तातै दूसरा निर्वर्गणाकांडक का प्रथम समय सबंधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनतगुणी है । तातै तिस प्रथम निर्वर्गणाकाडक का द्वितीय समय सबंधी अंत के खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनतगुणी है । तातै द्वितीय निर्वर्गणाकांडक का द्वितीय समय संवधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम
जघन्य
(उत्कृष्ट
जघन्य
४०
उत्कृष्ट
जघन्य
उत्कृष्ट
4-
-
-
-
-
-4.
-
-
१-भापाटीका मे सपं का आकार बनाकर बीच मे जघन्य उत्कृष्ट तीन-तीन वार लिखकर सप्टि
लिम्वी है, परतु मंदप्रवोधिका मे इस प्रकार है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
। १४६ विशुद्धता अनंतगुणी है । तातै प्रथम निवर्गणाकांडक का तृतीय समय सबधी उत्कृष्ट खण्ड की उत्कृष्ट विशुद्धता अनतगुणी है। या प्रकार जैसै सर्प की चाल इधर ते ऊधर, ऊधर तै इधर पलटनिरूप हो है; तैसे जघन्य तै उत्कृष्ट, उत्कृष्ट तै जघन्य असे पलटनि विर्ष अनतगुणी अनुक्रम करि विशुद्धता प्राप्त करिए, पीछे अत का निर्वर्गणाकांडक का अंत समय संबधी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशद्धता अनंतानंतगुणी है । काहै तै ? जातै पूर्व-पूर्व विशुद्धता तें अनंतानंतगुणापनौ सिद्ध है। बहुरि तातै अंत का निर्वर्गणाकांडक का प्रथम समय संबंधी उत्कृष्ट खण्ड की परिणाम विशुद्धता अनतगुणी है । तातै ताके ऊपरि अंत का निर्वर्गणाकांडक का अंत समय सबंधी अत खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त उत्कृष्ट खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतानतगुणा अनुक्रम करि प्राप्त हो है । तिनि विर्ष जे जघन्य तै उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनतानतगुणी है, ते इहा विवक्षारूप नाही है; जैसा जानना ।
या प्रकार विशुद्धता विशेष धरै जे अधःप्रवृत्तकरण के परिणाम, तिनि विषै गुणश्रेणि निर्जरा, गुणसक्रमण', स्थितिकांडकोत्करण, अनुभागकांडकोत्करण भए च्यारि आवश्यक न सभव है । जाते तिस अधःकरण के परिणामनि के तैसा गुणश्रेरिण निर्जरा आदि कार्य करने की समर्थता का अभाव है। इनका स्वरूप आगे अपूर्वकरण के कथन विष लिखेंगे ।
तो इस करण विर्षे कहा हो है ? .
केवल प्रथम समय तै लुगाइ समय-समय प्रति अनतगुणी-अनतगुणी विशुद्धता की वृद्धि हो है । बहुरि स्थितिबधापसरण हो है । पूर्व जेता प्रमाण लीए. कर्मनि का स्थितिबध होता था, तातै घटाइ-घटाइ स्थितिबध कर है । बहुरि साता3)
वेदनीय को आदि देकरि प्रशस्त कर्मप्रकृतिनि का समय-समय प्रति अनतगुणा-अनंत. गुणा बधता गुड, खड, शर्करा, अमृत समान चतुस्थान लीए अनुभाग बंध हो है।
बहुरि असाता वेदनीय आदि अप्रशस्त कर्म प्रकृतिनि का समय-समय प्रति अनंतगुणाअनतगुणा घटता निब, काजीर समान द्विस्थान लीए अनुभाग बध हो है, विषहलाहल रूप न हो है । जैसे च्यारि आवश्यक इहां संभव है । अवश्य हो हैं, ताते इनिको आवश्यक कहिए है।
बहुरि से यह कह्या जो अर्थ, ताकी रचना अंकसंदृष्टि अपेक्षा लिखिए है ।
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१५० ]
अंकiष्टि अपेक्षा श्रधःकरण
रचना
सोलह सम | प्रनुकृष्टिरूप एक-एक समय यनि की सवधी च्यारि च्यारि खडनि ऊर्ध्व रचना |
की तिर्यक रचना
द्वितीय
खड
२२२.
२१८
: २१४
२१०
२०६
- २०२
१६८
१६४
१६०
, १८६
१८२
१७८
१७४
१७०
१६६
१६२
प्रथम
खड
૪
५३
५२
५१
५०
૪૨
४८
४७
४६
४५
४४
४३
४२
૪
४०
५५
૫૪
५३
५२
५१
५०
VA
४८
४७
४६
४५
४४
४३
४२
४१
Ze ४०
तृतीय
खड
५६
५५
५४
५३
५२
५१
५०
૪૨
४५
४७
૪૬
૪૧
४४
४३
४२
४१
चतुर्थ
खड
५७
५६
५५
५४
५३
५२
५१
५०
૪૨
४८
४७
४६
४५
४४
४३
४२
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४६
संप्टि अपेक्षा रचना है, सो या दृष्टि अधिकार विषे लिखेगे । तथा याका यहु अभिप्राय है - एक जीव एकै काल असा कहिए, तहां विवक्षित अधः प्रवृतकरण का परिणामरूप परिणया जो एक जीव, ताका परमार्थवृत्ति करि वर्तमान अपेक्षा काल एक समय मात्र ही है; ताते एक जीव का एक काल समय प्रमाण जानना । बहुरि एक जीव नानाकाल जैसा कहिए, तहा अधःप्रवृत्तकरण का नानाकालरूप अंतर्मुहूर्त के समय एक अनुक्रम तै जीव करि चढिए है, यातै एक जीव का नानाकाल अतर्मुहूर्त का समय मात्र है । वहुरि नानाजीवनि का एक काल अंसा कहिए, तहां विवक्षित एक समय अपेक्षा अध प्रवृत्तकाल के असंख्यात समय हैं, तथापि तिनिविपै यथासभव एक सौ आठ समयरूप जे स्थान, तिनिविषै संग्रहरूप जीवनि की विवक्षा करि एक काल है; जाते वर्तमान एक कोई समय विषे अनेक जीव है, ते पहिला, दूसरा तीसरा आदि अध. करण के असंख्यात समयनि विषै यथासंभव एक सौ आट समय विषै ही प्रवर्तते पाइए है। ता अनेक जीवनि का एक काल एक स आठ समय प्रमाण है । बहुरि नाना
जीव, नानाकाल असा कहिए; तहा अव प्रवृत्तकरण के परिणाम असंख्यात लोकमात्र हैं, ते त्रिकालवर्ती अनेक जीव संबंधी है । बहुरि जिस परिणाम को कह्या, तिसको
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १५१
फेर न कहना; जैसे अपुनरुक्तरूप है । तिनको अनेक जीव अनेक काल विषै आश्रय करें है । सो एक-एक परिणाम का एक-एक समय की विवक्षा करि नाना जीवनि का नानाकाल असंख्यात लोक प्रमाण समय मात्र है; असा जानना ।
बहुरि अब अधःप्रवृत्तकरण का काल विषै प्रथमादि समय संबधी स्थापे जे विशुद्धतारूप कषाय परिणाम, तिनिविषे प्रमाण के अवधारने को कारणभूत जे करणसूत्र, तिनिका गोपालिक विधान करि बीजगणित का स्थापन कहिए है; जातै पूर्वोक्त करणसूत्रनि का अर्थ विषै संशय का प्रभाव है । तहा 'व्येकपदार्धघ्नचयगुणो गच्छ उत्तरधनं' इस करणसूत्र की वासना अकसंदृष्टि अपेक्षा दिखाइए है । 'व्येक पदार्धनचयगुणो गच्छ' असा शब्द करि एक घाटि गच्छ का आधा प्रमाण चय सर्वस्थानकनि विषै ग्रहरण कीया, ताका प्रयोजन यहु जो ऊपरि वा नीचे के स्थान - कनि विषै हीनाधिक चय पाइए, तिनको समान करि स्थापै, एक घाटि गच्छ का आधा प्रमाण चय सर्व स्थानकनि विषै समान हो है । सो इहां एक घाटि गच्छ का आधा प्रमाण साड़ा सात है, सो इतने इतने चय सोलह समयनि विषै समान हो है । कैसे ? सो कहिए है - प्रथम समय विषे तो आदि प्रमाण ही है, ताके चय की वृद्धि
हानि नही है । बहुरि अंत समय विषै एक घाटि गच्छ का प्रमाण चय है, यात व्येकपद शब्द करि एक घाटि गच्छं प्रमाण चयनि की संख्या कही । बहुरि अर्ध शब्द करि अत समय के पंद्रह चयनि विषै साड़ा सात चय काढि प्रथम समय का स्थान विषै रचे दोऊ जायगा साड़ा सात, साड़ा सात चय समान भए । जैसे ही ताके नीचे पद्रहवां समय के चौदह चयनि विषे साड़ा छह चय काढि, द्वितीय समय का एक चय के आगे रचनारूप कीएं, दोऊ जाएगा साडा सात, साडा सात चय हो है । बहुरि ताके नीचे चौदहवां समय के तेरह चयनि विषे साड़ा पाच चय काढि, तीसरा समय का स्थान विषै दोय चय के आगे रचे दोऊ जायगा साड़ा सात, साड़ा सात चय हो है । औसे ही ऊपरि ते चौथा स्थान तेरहवा समय, ताकी आदि देकरि समयनि के साड़ा च्यारि आदि चय काढि नीचे तै चौथा समय आदि स्थानकनि के तीन आदि चयनि के आगे स्थापै सर्वत्र साडा सात, साडा सात चय हो है । जैसे सोलह स्थानकनि विषै जैसे समपाटीका आकार हो है, तेसे साड़ा सात, साड़ा सात चय स्थापि है । इहां का यंत्र है
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यह अंक संदृष्टि अपेक्षा 'व्येकपदार्धघ्नचयगुणो गच्छ उत्तरधनं' इस सूत्र की वासना कहने को रचना है ।
सर्व स्थानकनि विर्षे आदि का प्रमाण
सर्वस्थानकनि विप समानरूप कीए चयनि की रचना इहा च्यारि-च्यारि तौ एक-एक चय का प्रमाण, प्रागै दोय प्राधा चय का प्रमाण जानना
ऊपरि समयवर्ती चयकादि नीचले समय स्थान विष स्थापे, तिनकी रचना
I2IRIRIRIRI
I2IRIRIRIRIRI
है। IRIRIRIRIRI
है। 81818IRIRIR
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१६२
121812IRIRIRI
१६२
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१६२
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१६२
12121212121212
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१६२
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121212121212
१६२
४।४।४।४।४।४।४। २
૨૨
II2IRIRIzI212
2121212121212
१६२
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2121212121212
1312 313 312 x1اغ
II2121212 1212
-
२५८२
नगई उत्तग्घन
YSO
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
बहुरि एक स्थान विषै साडा सात चय का प्रमाण होइ, तो सोलह स्थानकनि विष केते चय हो है ? ऐसे राशिक करि प्रमाण राशि एक स्थान, फलराशि साडा सात चय, तिनिका प्रमाण तीस, इच्छाराशि सोलह स्थान, तहा फल की इच्छा करि गुरिण, प्रमाण का भाग दिये लव्धराशि च्यारि सै असी पूर्वोक्त उत्तरधन का प्रमाण आवै है । ऐसे ही अनुकृष्टि विर्ष भी अंकसंदृष्टि करि प्ररूपण करना ।
बहुरि याही प्रकार अर्थसंदृष्टि करि भी सत्यार्थरूप साधन करना । ऐसे 'व्येकपदाघ्निचयगुणो गच्छ उत्तरधन' इस सूत्र की वासना बीजगणित करि दिखाई। बहुरि अन्य करण सूत्रनि की भी यथासंभव वीजगणित करि वासना जानना ।
ऐसे अप्रमत्त गुणस्थान की व्याख्यान करि याके अनन्तर अपूर्वकरण गुरणस्थान को कहै है -
अंतोमुत्तकालं, गमिऊण अधापवत्तकरणं तं । पडिसमयं सुज्झतो, अपुवकरणं समल्लियइ ॥५०॥ अंतर्मुहूर्तकालं, गमयित्वा अधःप्रवृत्तकरणं तत् ।
प्रतिसमयं शुध्दयन् अपूर्वकरणं समाश्रयति ॥५०॥ टीका - ऐसे अंतमुहर्तकाल प्रमाण पूर्वोक्त लक्षण धरै प्रध.प्रवृत्तकरण को गमाइ, विशुद्ध सयमी होड, समय-समय प्रति अनन्तगुणी विशुद्धता की वृति करि वधता सता अपूर्वकरण गुणस्थान को आश्रय करै हे।
एदह्मि गुणट्ठाणे, विसरिस समयोिह जीहि । पुत्वमपत्ता जह्मा, होति अपुवा हु परिणामा ॥५१॥
एतस्मिन् गुणस्थाने, विसदृशसमयस्थितीवः ।
पूर्वमप्राप्ता यस्माद्, भवंति अपूर्वा हि परिणामाः ।।५१॥ टीका-जा कारण ते इस अपूर्वकरण गगरधान वि विभाग समानरूप नाही, ऐने जे ऊपरि-परि के समयनि विर्ग नितीन विशुद्ध परिणाम पाए है: ते पूर्व-पूर्व ममपनि वि गिरी
१ पटासमग पुग.:
IT !!
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१५४
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५१-५२ ऐसे हैं; ता कारण तै अपूर्व है करण कहिए परिणाम जा विपै, सो अपूर्वकरण गुणस्थान है - ऐसा निरुक्ति करि लक्षण कह्या है ।
भिण्गसमयदिव्यहि बु, जीवहिं व होति सददा सरिसो। करणेहं एवकसमयदिव्येहि लरिसो विसरिसो वा ॥५२॥ १ भिन्नसमयस्थितैस्तु, जीवैर्न भवति सर्वदा सादृश्यम् ।
करणैरेकसदयस्थितैः सादृश्यं वैसादृश्यं वा ॥५२॥
टीका - जैसे अध.प्रवृत्तकरण विर्ष भिन्न-भिन्न ऊपरि नीचे के समयनि विष तिप्ठते जीवनि के परिणामनि की संख्या पर विशुद्धता समान संभव है; तैसे इहां अपूर्वकरण गुणस्थान विर्ष सर्वकाल विर्ष भी कोई ही जीव के सो समानता न संभव है । वहुरि एक समय विष स्थित करण के परिणाम, तिनके मध्य विवक्षित एक परिणाम की अपेक्षा समानता पर नाना परिणाम की अपेक्षा असमानता जीवनि के अध करणवत् इहां भी संभव है, नियम नाही; असा जानना ।
भावार्थ - इस अपूर्वकरण विप ऊपरि के समयवर्ती जीवनि कै अर नीचले समयवर्ती जीवनि के समान परिणाम कदाचित् न होइ । वहुरि एक समयवर्ती जीवनि के तिस समय सवधी परिणामनि विष परस्पर समान भी होइ पर समान नाही भी होइ।
__ताका उदाहरण - जैसे जिनि जीवनि कौं अपूर्वकरण मांडै पांचवा समय भया, तहां तिन जीवनि के जैसे परिणाम होहि, तैसे परिणाम जिन जीवनि को अपूर्वकरण माडे प्रथमादि चतुर्थ समय पर्यन्त वा पप्ठमादि अंत समय पर्यन्त भए होहि, तिनकै कदाचित् न होड, यह नियम है। वहरि जिनि जीवनि को अपूर्वकरण माडे पाचवां समय भया. असे अनेक जीवनि के परिणाम परस्पर समान भी होइ, जैसा एक जीव का परिणाम होइ, तसा अन्य का भी होइ अथवा असमान भी होइ । एक जीव का औरसा परिणाम होइ, एक जीव का औरसा परिणाम होइ । जैसे ही अन्य-अन्य समयवर्ती जीवनि के तो जैसे अध करण विष परस्पर समानता भी थी, तैसे इहां नाही है । बहुरि एक समयवर्ती जीवनि के जैसे अब करण विष
१-पटटागन - वदना पुग्न
, पृष्ठ १८४, गाथा न ११६.
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ १५५ समानता वा असमानता थी, तैसे इहा भी है । या प्रकार त्रिकालवर्ती नाना जीवनि के परिणाम इस अपूर्वकरण विष प्रवर्तते जानने ।
अंतोमुत्तमेत्ते, पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । कमउड्ढा पुन्वगुणे, अणुकट्ठी रणत्थि रिणयमेण ॥५३॥ अंतर्मुहूर्तमात्रे, प्रतिसमयमसंख्यलोकपरिणामाः ।
क्रमवृद्धा अपूर्वगुणे, अनुकृष्टिर्नास्ति नियमेन ॥५३॥ टीका - अंतर्मुहूर्तमात्र जो अपूर्वकरण का काल, तीहि विष समय-समय प्रति क्रम ते एक-एक चय बधता असख्यात लोकमात्र परिणाम है । तुहा नियम करि पूर्वापर समय सबंधी परिणामनि के समानता का अभाव ते अनुकृष्टि विधान नाही है।
इहा भी अंक सदृष्टि करि दृष्टांतमात्र प्रमाण कल्पना करि रचना का अनुक्रम दिखाइये है । अपूर्वकरण के परिणाम च्यारि हजार छिनवै, सो सर्वधन है। बहुरि अपूर्वकरण का काल पाठ समय मात्र, सो गच्छ है । बहुरि सख्यात का प्रमाण च्यारि (४) है । सो ‘पदकदिसंखेण भाजिदे पचयो होदि' इस सूत्र करि गच्छ ८ का वर्ग ६४ अर संख्यात च्यारि का भाग सर्वधन ४०६६ को दीए चय होइ, ताका प्रमाण सोलह भया । बहुरि 'व्येकंपदार्धघ्नचयगुणो गच्छ उत्तरधनं' इस सूत्र करि एक धाटि गच्छ ७, ताका आधा ७ को चय १६ करि गुणै जो प्रमाण ५६ होय, ताका गच्छ (८) आठ करि गुणे चय धन च्यारि सै अडतालीस (४४८) होइ । याको सर्वधन ४०६६ में घटाइ, अवशेष ३६४८ को गच्छ आठ (८) का भाग दीए, प्रथम समय सबंधी परिणाम च्यारि सै छप्पन (४५६) हो है । यामैं एक चय १६ मिलाए द्वितीय समय सबंधी हो है। असे तृतीयादि समयनि विर्ष एक-एक चय बधता परिणाम पुज है, तहां एक घाटि गच्छ मात्र चय का प्रमाण एक सौ बारह, सो प्रथम समय संबधी धन विष जोडे, अत समय सबंधी परिणाम पुज पाच सै अडसठि हो है । यामै एक चय घटाए द्विचरम समय सबधी परिणाम पुज पांच से बावन हो है । जैसे ही एक चय घटाए आठौ गच्छ को प्रमाण जानना ।
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१५६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५३
५६८
५५२
५३६
५२०
५०४
४८८
कदृष्टि अपेक्षा अव यथार्थं कथन करिये है । तहां अर्थसंदृष्टि करि समय-समयसंबंधी अपूर्व- रचना है, सो आगे संदृष्टि अधिकार विषै लिखेगे । सो कररण परिणाम रचना त्रिकालवर्ती नाना जीव संबंधी अपूर्वकरण के विशुद्धतारूप परिणाम, ते सर्व ही अध प्रवृत्तकरण के जेते परिणाम हैं, "तिनते असंख्यात लोक गुणे है । काहे ते ? जातै अधःप्रवृत्तकरण काल का अंत समय संबंधी जे विशुद्ध परिणाम है, तिनका पूर्वकरण काल का प्रथम समय विषै प्रत्येक एक-एक परिणाम के असंख्यात लोक प्रमाण भेदनि की. उत्पत्ति का सद्भाव है । तातैं प्रपूर्वकरण का सर्व परिणामरूप सर्वधन, सो असंख्यात लोक को असंख्यात लोक करि गुणे जो प्रमाण होइ, तितना है; सो सर्वधन जानना । बहुरि ताका काल अंतर्मुहूर्तमात्र है; ताके जेते समय, सो गच्छ जानना । वहुरि 'पदकदिसंखेण भांजिदं पचयं' इस सूत्र करि गच्छ का वर्ग का अर संख्यात का भाग सर्वधन को दीए जो प्रमाण होइ; सो चय जानना । बहुरि 'व्येकपदार्धघ्नचयगुरणो गच्छ उत्तरधनं' इस सूत्र करि एक घाटि गच्छ का आधा प्रमाण करि चय को गुणि गच्छ को गुणै जो प्रमाण होड, सो चय वन जानना । याको सर्वधन विषै घटाइ अवशेप को गच्छ का भाग दीएं जो प्रमाण आव, सोई प्रथम समयवर्ती त्रिकाल गोचर नाना जीव संबंधी अपूर्वकरण परिणाम का प्रमाण हो है । वहुरि यामै एक चय जोडे, द्वितीय समयवर्ती नाना जीव संबंधी अपूर्वकरण परिणामनि का पुंज प्रमाण हो है । ऐसे ही तृतीयादि समयनि विषै एक-एक चय की वृद्धि का अनुक्रम करि परिणाम पुंज का प्रमाण ल्याएं संतै अंत समय विपे परिणाम धन है । सो एक घाटि गच्छ का प्रमाण चयनि को प्रथम समय संबंधी वन विषे जोडे जितना प्रमाण होइ, तितना हो है । वहुरि यामैं एक चय घटाएं, विचरम समयवर्ती नाना जीव संबंधी विशुद्ध परिणामनि का पुंज प्रमाण हो है । ऐसे समय-समय सबंधी परिणाम क्रम ते बघते जानने ।
४६.६६
४७२
४५६
सर्व परिणाम जोड
बहुरि इस अपूर्वकरण गुणस्थान विपे पूर्वोत्तर समय संबंधी परिणामनि के मदा ही समानता का अभाव है; ताते इहां खंडरूप अनुकृष्टि रचना नाही है ।
भावार्थ - ग्रागं कषायाधिकार विषै शुक्ल लेश्या संबंधी विशुद्ध परिणामनि का प्रमाण कहँगे । तिसविषै इहां प्रपूर्वकरण विषे संभवते जे परिणाम, तिनिविष
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सम्यग्जानधन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १५७ अपूर्वकरण काल का प्रथमादि समयनि विर्ष जेते-जेते परिणाम संभवै, तिनका प्रमाण कह्या है । बहुरि इहां पूर्वापर विर्ष समानता का अभाव है; तातै खंड करि अनुकृष्टि विधान न कह्या है । बहुरि इस अपूर्वकरण काल विष प्रथमादिक अंत समय पर्यत स्थित जे परिणाम स्थान, ते पूर्वोक्त विधान करि असंख्यात लोक बार षट्स्थान पतित वृद्धि को लीएं जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद संयुक्त है । तिनका समय-समय प्रति अर परिणाम-परिणाम प्रति विशुद्धता का अविभागप्रतिच्छेदनि का प्रमाण अवधारणे के अर्थि अल्प बहुत्व कहिए है।।
तहां प्रथम समयवर्ती सर्वजघन्य परिणाम विशुद्धता, सो अधःप्रवृत्तकरण का अंत समय संबंधी अंत खंड की उत्कृष्ट विशुद्धता ते भी अनंतगुणा अविभागप्रतिच्छेदमयी है, तथापि अन्य अपूर्वकरण के परिणामनि की विशुद्धता तै स्तोक है । बहुरि तातै प्रथम समयवर्ती उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है । बहुरि ताते द्वितीय समयवर्ती जघन्य परिणाम विशुद्धता अनंतगुणी है। जातै प्रथम समय उत्कृष्ट विशुद्धता ते असंख्यात लोक मात्र बार षट्स्थानपतित वृद्धिरूप अंतराल करि सो द्वितीय समयवर्ती जघन्य विशुद्धता उपज है। बहुरि तात तिस द्वितीय समयवर्ती उत्कृष्ट विशुद्धता अनंतगुणी है। जैसे उत्कृष्ट तै जघन्य अर जघन्य ते उत्कृष्ट विशुद्ध स्थान अनंतगुणा-अनंतगुणा है । या प्रकार सर्प की चालवत् जघन्य ते उत्कृष्ट, उत्कृष्ट तै जघन्यरूप अनुक्रम लीए अपूर्वकरण का अत समयवर्ती उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यत जघन्य, उत्कृष्ट विशुद्धता का अल्पबहुत्व जानना ।
या प्रकार इस अपूर्वकरण परिणाम का जो कार्य है, ताके विशेष को गाथा दोय करि कहै है -
तारिसपरिणामटियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरहिं । मोहस्सपुवकररणा, खवणुवसमणुज्जया भरिणया ॥५४॥ ताशपरिणामस्थितजीवा हि जिनैर्गलिततिमिरैः ।
मोहस्यापूर्वकरणा, क्षपरणोपशमनोद्यता भणिताः ॥८४॥ टीका - तादृश कहिए तैसा पूर्व-उत्तर समयनि विष असमान जे अपूर्वकरण के परिणाम, तिनिविषै स्थिताः कहिए परिणए असे जीव, ते अपूर्वकरण है। १. षट्खडगम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १८४, गाथा ११८
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१५८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५४-२५
जैसे गल्या है ज्ञानावरणादि कर्मरूप अंधकार जिनिका जैसे जिनदेवनि करि कला है ।
बहुरि ते अपूर्वकरण जीव सर्व ही प्रथम समय तै लगाइ चारित्र मोहनीय नामा कर्म के अपावने कौं वा उपशम करने कौं उद्यमवंत हो हैं । याका अर्थ यहु - जो गुणश्रेणिनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखंडन, अनुभगखंडन जैसे लक्षण धरें जे च्यारि आवश्यक, तिनकों करें हैं ।
तहां पूर्व गंध्या था जैसा सत्तारूप जो कर्म परमाणुरूप द्रव्य, तामें सौं काढि जो द्रव्य गुणश्रेणी विषै दीया, ताका गुग्गश्रेणी का काल विपैं समय सयय प्रति असंख्यात-असंन्त्र्यातगुणा अनुक्रम लीए पंक्तिवंत्र जो निर्जरा का होना, सो गुग्गश्रेरिंगनिर्जरा है |
बहुरि समय-समय प्रति गुणकार का अनुक्रम ते विवक्षित प्रकृति के परमाणु पलटि करि अन्य प्रकृतिरूप होइ परिणमें, सो गुरण संक्रमण है ।
बहुरि पूर्वे वांबी श्री अंसी सत्तारूप कर्म प्रकृतिनि की स्थिति, ताका घटावना; सो स्थिति खंडन कहिए ।
बहुरि पूर्वे वांच्या या वैसा सत्तारूप ग्रप्रशस्त कर्म प्रकृतिनि का अनुभाग, ताका घटावना सो अनुभाग खंडन कहिए । असें च्यारि कार्य अपूर्वकरण दिपैं श्रवश्य हो हैं । इनिका विशेष वर्णन यागे लव्विसार, नपगामार अनुसार ग्रंथ लिखेंगे, तहां जानना |
णिद्दापयले पट्टे, सदि आऊ उवसमंति उवसमया । खवयं ढुक्के खबया, रिणयमेरेण खवंति मोहं तु ॥५५॥
निद्राप्रचले नष्टे सति श्रायुषि उपशमयंति उपशमकाः । अपर्क ढोकमानाः, क्षपका नियमेन अपयंति मोहं तु ॥५५॥
टीका इस अपूर्वकरण गुणस्थान विपैं विद्यमान मनुष्य ग्रायु जार्के पाटए, ऐसा पूर्वकरण जीत्र के प्रथम भाग विषै निद्रा घर प्रचला - ए दो प्रकृति बंध होनेनं व्युच्छित्ति हो है ।
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7
[ १५e
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
अर्थ यहु - जो उपशम श्रेणी चढनेवाले अपूर्वं कररण जीव का प्रथम भाग विष मरण न होइ, बहुरि निद्रा प्रचला का बंध व्युच्छेद होइ, तिसको होते ते प्रपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव जो उपशम श्रेणी प्रति चढै तो चारित्रमोह को नियमकरि उपशमा है । बहुरि क्षपक श्रेणी प्रति चढनेवाले क्षपक, ते नियम करि तिस चारित्र मोह को क्षपा है । बहुरि क्षपक श्रेणी विषै सर्वत्र नियमकरि मरण नाही है ।
अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का स्वरूप को गाथा दोय करि प्ररूप है -
एक
कालसमये, संठारणादीहिं जह गिवति ।
रण विट्टति तहावि य, परिणामहिं मिहो जहि ॥ ५६ ॥ होंति श्ररिणयरिणो ते, पडिसमयं जेल्सिसेक्कपरिणामा । बिमलयरभाणहुयवहसिहाहिं टिकवणा ॥५७॥१ (जुग्मम् )
एकस्मिन् कालसमये, संस्थानादिभिर्यथा निवर्तते । न निवर्तते तथापि च, परिणामियो यैः ॥५६॥
भवंति अनिवर्तनस्ते, प्रतिसमयं येषामेकपरिणामाः । विमलतरध्यानहुत वह शिखाभिर्निर्दग्धकर्मदना ॥५७॥ ( युग्मम् )
टीका - अनिवृत्तिकरण काल विषै एक समय विषै वर्तमान जे त्रिकालवर्ती अनेक जीव, ते जैसे शरीर का सस्थान, वर्ण, वय, अवगाहना र क्षयोपशमरूप ज्ञान उपयोगादिक, तिनकरि परस्पर भेद को प्राप्त है; तैसे विशुद्ध परिगामनि करि भेद कौ प्राप्त न हो है प्रगटपने, ते जीव अनिवृत्तिकरण है, जैसे सम्यक् जानना । जातै नाही विद्यमान है निवृत्ति कहिए विशुद्ध परिणामनि विषै भेद जिनकै, ते अनिवृत्तिकरण है, ऐसी निरुक्ति हो हैं ।
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भावार्थ - जिन जीवनि को अनिवृत्तिकरण माडै पहला, दूसरा आदि समान समय भए होहि, तिनि त्रिकालवर्ती अनेक जीवनि के परिणाम समान ही होंइ । जैसे अधकरण, अपूर्वकरण विष समान वा असमान होते थे, तैसे इहा नाही । बहुरि अनिवृत्तिकरण काल का प्रथम समय कौ आदि देकरि समय- समय प्रति वर्त
१ षट्खडागम
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1%
धवला पुस्तक १, पृष्ठ १८७ गाथा १६, २०
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१६० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५७
मान जे सर्व जीव, ते हीन - अधिकपना ते रहित समान विशुद्ध परिणाम धरै हैं । तहां समय-समय प्रति ते विशुद्ध परिणाम अनंतगुणे - अनंतगुणे उपजै है । तहां प्रथम समय विषै विशुद्ध परिणाम है; तिनते द्वितीय समय विषै विशुद्ध परिणाम अनंतगुणे हो है । मैं पूर्व - पूर्व समयवर्ती विशुद्ध परिणामनि ते जीवनि के उत्तरोत्तर समयवर्ती विशुद्ध परिणाम अविभागप्रतिच्छेदनि की अपेक्षा अनंतगुणा - अनंतगुरणा अनुक्रम करि वधता हुआ प्रवर्तें हैं । ऐसा यहु विशेष जैन सिद्धांत विषै प्रतिपादन किया है, सो प्रतीति में ल्यावना ।
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भावार्थ - अनिवृत्तिकरण विषै एक समयवर्ती जीवनि के परिणामनि विषे समानता है । बहुरि ऊपर-ऊपरि समयवर्तीनि के अनंतगुणी अनंतगुणी विशुद्धता aaती है ।
ताका उदाहरण - जैसे जिनकी अनिवृतिकरण मांडे पांचवां समय भया, ऐसे त्रिकालवर्ती अनेक जीव, तिनकै विशुद्ध परिणाम परस्पर समान ही होंइ, कदाचित् हीन - अधिक न हों । वहुरि ते विशुद्ध परिणाम जिनको अनिवृत्तिकरण मांडे चौथा समय भया, तिनकै विशुद्ध परिणामनि ते अनंतगुणे हैं । वहुरि इनते जिनको अनिवृत्तिकरण मांडे छठा समय भया, तिनके अनंतगुणे विशुद्ध परिणाम हो है; ऐसें सर्वत्र जानना । वहुरि तिस अनिवृत्तिकरण परिणाम संयुक्त जीव, ते अति निर्मल व्यानरूपी हुतभुक् कहिए अग्नि, ताकी शिखानि करि दग्ध कीए हैं कर्मरूपी वन जिनने ऐसे हैं । इस विशेषण करि चारित्र मोह का उपशमावना वा क्षय करना प्रनिवृत्तिकरण परिणामनि का कार्य है; ऐसा सूच्या है । ग्रागै मूक्ष्म सांपराय गुणस्थान के स्वरूप को कहै है '
धुदको भयवत्थं, होदि जहा सुहमरायसंजुत्तं । एवं सुहमकसाम्रो, सुहमसरागो त्ति गादव्वो ॥५८॥
धौतकौसु भवस्त्रं भवति यथा सूक्ष्मरागसंयुक्तं । एवं सूक्ष्मकषायः, सूक्ष्मसांपराय इति ज्ञातव्यः ॥ ५८ ॥
टीका - जैसे वोया हुआ कसूंमल वस्त्र, है । तैसे अगिला सूत्र विषै कह्या विधान करि कपाय, नाहिकरि जो संयुक्त, सो सूक्ष्मसांपराय है;
सो मूक्ष्म लाल रंग करि संयुक्त हो मूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त जो लोभ ऐसा जानना ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १६१
प्रागै सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्तपने का स्वभाव को गाथा दोय करि प्ररूपै है - पुव्दापुव्वप्फड्ढय, बादरसुहमगय किट्टिश्रणुभागा । हीरक माणंतगुणेणवराहु वरं च हेटस्स ॥५६॥ पूर्वा पूर्वस्पर्धक बादर सूक्ष्मगतकृष्ट्यनुभागाः ।
नक्रमा अनंतगुणेन, प्रवरात्तु वरं चाधस्तनस्य ॥५९॥
टीका - पूर्वे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान विषै वा संसार अवस्था विषे जे सभवे ऐसे कर्म की शक्ति समूहरूप पूर्वस्पर्धक, बहुरि अनिवृत्तिकरण परिणामनि करि कीए तिनके अनंतवे भाग प्रमाण अपूर्वस्पर्धक, बहुरि तिर्नाहि करि करी जे बादरकृष्टि, बहुरि तिनही करि करी जे कर्म शक्ति का सूक्ष्म खंडरूप सूक्ष्मकृष्टि, इनिका क्रम तै अनुभाग अपने उत्कृष्ट ते अपना जघन्य, अर ऊपरि के जघन्य ते नीचला उत्कृष्ट ऐसा अनंतगुणा घाटि क्रम लीए है । वे - Givelit
भावार्थ पूर्व स्पर्धकनि का उत्कृष्ट अनुभाग, सो श्रविभागप्रतिच्छेद अपेक्षा जो प्रमाण धरै है, ताके अनतवें भाग पूर्व स्पर्धकनि का जघन्य अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवे भाग अपूर्वस्पर्धकनि का उत्कृष्ट अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवे भाग अपूर्वस्पर्धकनि का जघन्य अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवे भाग बादरकृष्टि का उत्कृष्ट अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवे भाग बादरकृप्टि का जघन्य अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवे भाग सूक्ष्मकृष्टि का उत्कृष्ट अनुभाग है । बहुरि ताके अनंतवे भाग सूक्ष्मकृष्टि का जघन्य अनुभाग है; ऐसा अनुक्रम जानना ।
बहुरि इन पूर्वस्पर्धकादिकनि का स्वरूप आगे लब्धिसार-क्षपणासार का कथन लिखेगे, तहा नीकै जानना । तथापि इनिका स्वरूप जानने के अथि इहां भी किचित् वर्णन करिये है ।
कर्म प्रकृतिरूप परिणए जे परमाणु, तिनिविषै अपने फल देने की जो शक्ति, ताकी अनुभाग कहिये । तिस अनुभाग का ऐसा कोई केवलज्ञानगम्य अश, जाका दूसरा भाग न होइ, सो इहां अविभागप्रतिच्छेद जानना ।
बहुरि एक परमाणु विषं जेते प्रविभागप्रतिच्छेद पाइए, तिनके समूह का नाम वर्ग है।
१ पट्डागम
- घवना पुस्तक १, पृष्ठ १६, गाया १२१
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५६
बहुरि जिन परमाणुनि विपे परस्पर समान गणना लीए श्रविभागप्रतिच्छेद, पाइए, तिनिके समूह का नाम वर्गणा है।
१६२ ]
तहां अन्य परमाणुनि तै जाविषै थोरे प्रविभागप्रतिच्छेद पाइए, ताका नाम जघन्य वर्ग है ।
बहुरि तिस परमाणु के समान जिन परमाणुनि विषे अविभागप्रतिच्छेद पाइए, तिनके समूह का नाम जघन्य वर्गरणा है । बहुरि जघन्य वर्ग ते एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक जिनिविषे पाइए सी परमाणुनि का समूह; सो द्वितीय वर्गरणा है । जैसे जहां ताई एक-एक श्रविभागप्रतिच्छेद वधने का क्रम लीए जेती वर्गरणा हौं, तितनी वर्गणा के समूह का नाम जघन्य स्पर्धक है । वहुरि यातै ऊपरि जघन्य वर्गणा के वर्गनि विषे जेते विभागप्रतिच्छेद थे, तिनते दूणे जिस वर्गरणा के वर्गनि विषे अविभागप्रतिच्छेद होहि, तहांते द्वितीय स्पर्धक का प्रारंभ भया । तहां भी पूर्वोक्त प्रकार एक-एक अविभागप्रतिच्छेद वधने का क्रमयुक्त वर्गनि के समूहरूप जेती वर्गणा हो, तिनके समूह का नाम द्वितीय स्पर्धक है । बहुरि प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के वर्गनि विजेते विभागप्रतिच्छेद थे, तिनतै तिगुणे जिस वर्गरणा के वर्गनि विषै विभागप्रतिच्छेद पाइए, तहांते तीसरे स्पर्धक का प्रारंभ भया, तहां भी पूर्वोक्त क्रम
जानना ।
-
अर्थ इहां यह • जो यावत् वर्गणा के वर्गनि विषै क्रम ते एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद वधै, तावत् सोई स्पर्धक कहिए । बहुरि जहां युगपत् श्रनेक प्रविभागप्रति - च्छेद वर्षे, तहांत नवीन अन्य स्पर्धक का प्रारंभ कहिए । सो चतुर्थादि स्पर्धेकनि की आदि वर्गणा का वर्ग विषै ग्रविभागप्रतिच्छेद प्रथम स्पर्धक की आदि वर्गणा के वर्गनि विषे जेते थे, तिनते चौगुणा, पंचगुणा यादि क्रम लीए जानने । बहुरि अपनीअपनी द्वितीयादि वर्गणा के वर्ग विषे अपनी-अपनी प्रथम वर्गणा के वर्ग तें एक-एक
विभागप्रतिच्छेद बघता अनुक्रम ते जानना । असे स्पर्धकनि के समूह का नाम प्रथम गुणहानि है । इस प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणा विषै जेता परमाणुरूप वर्ग पाइए है, तिनितै एक-एक चय प्रमाण घटते द्वितीयादि वर्गणानि विषै वर्ग जानने । असे क्रम से जहां प्रथम गुणहानि की वर्गणा के वर्गनि ते ग्रावा जिस वर्गणा वि वर्ग होड, नहां दूसरी गुणहानि का प्रारंभ भया । तहां द्रव्य, चय आदि का जमाप वा-यावा जानना । इस क्रम तैं जेतो गुणहानि सर्व कर्म परमाणुनि विप्रें पाइए, निनिके समूह का नाम नानागुणहानि है ।
1
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
इहां वर्गणादि विषै परमाणुनि का प्रमाण- ल्यावने कौ द्रव्य, हानि, दोगुणहानि, नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्त राशि ए छह जानने ।
[ १६३
3
गुण
स्थिति,
बन्ध
ए
तहां सर्व कर्म परमाणुनि का प्रमाण त्रिकोण यंत्र के अनुसारि स्थिति संबंधी किंचित्ऊन द्वयर्धगुणहानिगुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण, सो सर्वद्रव्य जानना ।
बहुरि नानागुणहानि करि गुणहानि - आयाम को गुणै जो सर्वद्रव्य विषै वगर्णानि का प्रमाण होई, सो स्थिति जाननी ।
बहुरि एक गुणहानि विषे अनंतगुणा अनंत प्रमाण वर्गरणा पाइए है, सो गुणहानि प्रायाम जानना ।
arat दूर किए जो प्रमाण होई, सो दोगुणहानि है ।
बहुरि सर्वद्रव्य विषै जे गुणहानि प्रमाण अनंत पाइए, तिनिका नाम नानागुणहानि है; जातै दोय का गुणकार रूप घटता घटता जाविषे द्रव्यादिक पाइए, सो गुणहानि; अनेक जो गुणहानि, सो नानागुणहानि जानना ।
बहुरि नानागुणहानि प्रमाण दुये मांडि परस्पर गुणै, जो प्रमाण होई, सो अन्योन्याभ्यस्त राशि जानना ।
तहा एक घाटि अन्योन्याभ्यस्तराशि का भाग सर्वद्रव्य कौ दीए जो प्रमाण होई, सो अंत की गुरणहानि के द्रव्य का प्रमाण है । याते दूरगा - दूणा प्रथम गुणहानि पर्यन्त द्रव्य का प्रमाण है । बहुरि 'दिवड्ढगुरगहारिणभाजिदे पढमा' इस सूत्र करि साधिक ड्योढ गुणहानि आयाम का भाग सर्वद्रव्य को दीए जो प्रमाण होइ, सोई प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणा विषै परमाणुनि का प्रमाण है । वहुरियाको दो गुणहानि का भाग दीए चय का प्रमाण आव है, सो द्वितीयादि वर्गणानि विषै एकएक चय घटता परमाणुनि का प्रमाण जानना । जैसे क्रम तै जहा प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणा तै जिस वर्गणा विषै ग्राधा परमाणुनि का प्रमाण है. सो द्वितीय गुणहानि की प्रथम वर्गणा है । याके पहले जेती वर्गणा भई, ते सर्व प्रथम गुणहानि संबंधी जाननी ।
बहुरि इहां द्वितीय गुणहानि विषै भी द्वितीयादि वर्गणानि विषे एक-एक चय घटता परमाणुनि का प्रमाण जानना । इहा द्रव्य, चय आदि का प्रभाग प्रथम गण
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१६४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ह
हानि ते सर्वत्र आधा-आधा जानना, जैसे क्रम ते सर्वद्रव्य विषै नानागुणहानि अनंत हैं । बहुरि इहां प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणा ते लगाइ अंत वर्गरणा पर्यन्त जे वर्गणा, तिनिके वर्गनि विषे अविभागप्रतिच्छेदनि का प्रमाण प्रवाहरूप पूर्वोक्त प्रकार अनुक्रमरूप बघता-बघता जानना ।
अब इस कथन को अंकसंदृष्टि करि दिखाइए है ।
सर्वद्रव्य इकतीस सै ३१००, स्थिति चालीस ४०, गुणहानि आयाम आठ ८, दोगुण हानि सोलह १६, नानागुणहानि पांच ५, अन्योन्याभ्यस्त राशि बत्तीस ३२, तहां एक घाटि अन्योन्याभ्यस्तराशि ३१ का भाग सर्वद्रव्य ३१०० कौ दीएं सौ पाये, सो अंत गुणहानि का द्रव्य है । याते दूणा दूणा प्रथम गुणहानि पर्यंत द्रव्य जानना । १६००, ८००, ४००, २००, १०० । बहुरि साधिक ड्योढ गुणहानि का भाग सर्वद्रव्य को दीए, दोय से छप्पन (२५६) पाए, सो प्रथम गुणहानि विषै प्रथम गुणहानि की प्रथम वर्गणा विषै इतना इतना घटता वर्ग जानना ऐसे वर्गनि का प्रमाण है । याको दो
गुणहानि सोलह (१६) का भाग दीए सोलह पाए, सो चय का प्रमाण है । सो द्वितीयादि वर्गणा विषै इतना- इतना घटता वर्ग जानना । अँसै श्राठ वर्गणा प्रथम गुणहानि विषै जाननी । बहुरि द्वितीय गुग्गहानि विषै आठ वर्गरणा हैं । तिनि विषे पूर्व ते द्रव्य वा चय का प्रमाण श्राधा श्राघा जानना | असे आधा-आधा क्रम करि पाच नानागुणहानि सर्व द्रव्य विप हो हैं ।
इनकी रचना
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संदृष्टी अपेक्षा गुरणहानि की वर्गरणानि विषै वर्गनि के प्रमाण का यंत्र है ।
प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ पंचम गुणहानि गुणहानि गुणहानि गुणहानि गुणहानि
७२
Το
१४४
१६०
१७६
१६२
२०८
τη
४४
६ ४८
५२
५६
६०
६४
१०४
२२४११२
२४० १२०
२५६ १२८
३६
४०
जोड़ जोड़
१६०० ८००
जोड़
४००
१८
२०
१०
२२ ११
२४ १२
२६ १३
२८ १४
w
३० १५
३२ १६
जोड़ जोड़
२०० १००
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बहुरि च्यारि-च्यारि वर्गणा का समूह एक-एक स्पर्धक है, तातै एक-एक गुणहानि विर्षे दोय-दीय स्पर्धक हैं । तहां प्रथम गुणहानि का प्रथम स्पर्धक की प्रथमवर्गणा का वर्गनि विर्ष आठ-आठ अविभागप्रतिच्छेद पाइय है। दूसरी वर्गणा का वर्गनि विर्ष नव-नव, तीसरी का विर्ष दश-दश, चौथी का विषै ग्यारह-ग्यारह जानने । बहुरि प्रथम गुणहानि का द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा का वर्गनि विषै सोलह-सोलह, दूसरीकानि विष सतरह-सतरह, तीसरीकानि विष अठारह-अठारह, चौथीकानि विष उगणीस-उगणीस अविभागप्रतिच्छेद है । बहुरि द्वितीय गुणहानि का प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के वर्गनि विष चौईस-चौईस, ऊपरि एक-एक बधती ऐसे ही अनंतगुणहानि का अंत स्पर्धक की अन्त वर्गणा पर्यन्त अनुक्रम जानना। इनकी रचना -
अंकसदृष्टि अपेक्षा अविभागप्रतिच्छेदनि की रचना का यंत्र
प्रथम गुणहानि _ द्वितीय गुणहानि । तृतीय गुणहानि चतुर्थ गुणहानि
पञ्चम गुणहानि प्रथम स्पर्धक | द्विीतय स्पर्धक | प्रथम स्पर्धक | द्वितीय स्पर्धक | प्रथम स्पर्धक | द्वितीय स्पर्धक | प्रथम स्पर्धक | द्वितीय स्पर्धक | प्रथम स्पर्धक | द्वितीय स्पर्धक
१६ २७ ३५ । ४३ । ५१ ५६ ६७ ७५ ८३ . १० । १० | १८ । १८ । २६ । २६ । ३४ । ३४ । ४२ । ४२ । ५० । ५० । ५८ । ५८ / ६६ । ६६ । ७४ । ७४ | ८२ । ८२ CIEI ६ | १७ । १७ । १७ २५ । २५ । २५ ३३ । ३३ । ३३४१ । ४१ । ४१४६ । ४६ । ४६/५७ । ५७ । ५७६५ । ६५ । ६५/७३ । ७३ । ७३ ८१ । ८१ । ८१ ८ । ८।८।८,१६।१६।१६।१६।२४।२४।२४।२४/३२॥३२॥३२॥३२/४०।४०।४०।४०/४८।४८।४८।४८५६।५६।५६।५६/६४१६४१६४।६४/७२।७२।७२।७२/८०।८०1८०।८०|
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१६६ 1
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५६ __ इहा च्यारि, तीन आदि स्थानकनि विपं पाठ, नव आदि अविभागप्रतिच्छेद स्थापे है । तिनकी सहनानी करि अपनी-अपनी वर्गणा विष जेते-जेते वर्ग है; तितनेतितने स्थानकनि विर्षे तिन अविभागप्रतिच्छेदनि का स्थापन जानना।
ऐसे अंकसंदृष्टि करि जैसे दृष्टांत कह्या, तैसे ही पूर्वोक्त यथार्थ कथन का अवधारण करना । या प्रकार कहे जे अनुभागरूप स्पर्धक, ते पूर्व संसार अवस्था विप जीवनि के संभव है; तातै इनिको पूर्वस्पर्धक कहिये । इनि विपै जघन्य स्पर्धक ते लगाइ लताभागादिकरूप स्पर्धक प्रवर्ते है । तिनि विर्ष लताभागादिरूप केई स्पर्धक देशघाती है। ऊपरि के केई स्पर्धक सर्वघाती है, तिनिका विभाग आगे लिखेंगे । बहुरि अनिवृत्तिकरण परिणामनि करि कबहू पूर्वं न भए ऐसे अपूर्वस्पर्धक हो है । तिनि विर्ष जघन्य पर्वस्पर्धक ते भी अनंतवे भाग उत्कृष्ट अपूर्व स्पर्धक विष भी अनुभाग शक्ति पाइए है । विशुद्धता का माहात्म्य ते अनुभाग शक्ति घटाए कर्म परमाणुनि को ऐसे परिणमावै है । इहां विशेष इतना ही भया - जो पूर्वस्पर्धक की जघन्य वर्गणा के वर्ग तै इस अपूर्वस्पर्धक की अंत वर्गणा के वर्ग विषे अनंतवे भाग अनुभाग है । वहुरि तातै अन्य वर्गणानि विर्ष अनुभाग घटता है, ताका विधान पूर्वस्पर्धकवत् ही जानना । वहुरि वर्गणानि विष परमाणुनि का प्रमाण पूर्वस्पर्धक की जघन्य वर्गणा ते एक-एक चय वधता पूर्व स्पर्धकवत् क्रम ते जानना । इहां चय का प्रमाण पूर्वस्पर्धक की आदि गुणहानि का चय ते दूरणा है । वहुरि पीछ अनिवृत्तिकरण के परिणामनि ही करि कृष्टि करिये है । अनुभाग का कृष करना, घटावना, सो कृष्टि कहिये । तहां संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का अनुभाग घटाइ स्थूल खण्ड करना, सो वादरकृष्टि है। तहां उत्कृष्ट बादरकृष्टि विष भी जघन्य अपूर्वस्पर्धक ते भी अनंतगुणा अनुभाग घटता हो है। तहां च्यारों कषायनि की वारह संग्रहकृष्टि हो है । अर एक-एक संग्रहकृष्टि के विष अनन्त-अनन्त अतर कृष्टि हो है । तिनि विषै लोभ की प्रथम सग्रह की प्रथमकृप्टि तै लगाइ क्रोध की तृतीय सग्रह की अतकृष्टि पर्यन्त क्रम ते अनन्तगुणा-अनन्तगुणा अनुभाग है । तिस क्रोध की तृतीय कृप्टि की अतकृप्टि ते अपूर्वस्पर्धकनि की प्रथम वर्गणा विष अनन्तगुणा अनुभाग है । सो स्पर्धकनि विष तौ पूर्वोक्त प्रकार अनुभाग का अनुक्रम था । इहां अनन्तगुणा घटता अनुभाग का क्रम भया, सोई स्पर्धक अर कृष्टि विर्षे विशेप जानना । वहुरि तहां परमाणुनि का प्रमाण लोभ की प्रथम संग्रह की जघन्य कृप्टि विष यथासभव बहुत है, तातै क्रोध की तृतीय सग्रह की अंतकृष्टि पर्यन्त चय घटता क्रम लीए है । सो याका विशेष आगै लिहंगे, सो जानना । सो यहु अपूर्व -
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सम्यग्ज्ञानचन्त्रिका भाषाटोका ]
[ १६७ स्पर्धक अर बादरकष्टि क्षपक श्रेणी विष ही हो है, उपशम श्रेणी विष न हो है। बहुरि अनिवृत्तिकरण के परिणामनि करि ही कषायनि के सर्व परमाणु प्रानुपूर्वी संक्रमादि विधान करि एक लोभरूप परिणमाइ बादरकृष्टिगत लोभरूप करि पीछे तिनिको सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमाव है, सो सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त भया लोभ, ताका जघन्य बादरकृष्टि से भी अनतवे भाग उत्कृष्ट सूक्ष्मकृष्टि विर्षे अनुभाग हो है। तहां अनंती कृष्टिनि विष क्रम ते अनंतगुणा अनुभाग घटता है । बहुरि परमाणुनि का प्रमाण जघन्य कृष्टि तै लगाइ उत्कृष्ट कृष्टि पर्यन्त चय घटता क्रम लीए है, सो विशेष आगे लिखैगे सो जानना । सो यहु विधान क्षपक श्रेणी विष हो है। '
उपशम श्रेणी विष पूर्वस्पर्धकरूप जे लोभ के केई परमाणु, तिन ही को सूक्ष्म कृष्टिरूप परिणमावै हैं, ताका विशेष प्रागै लिखेंगे ।
बहुरि असे अनिवृत्तिकरण विर्ष करी जो सत्ता विष सूक्ष्म कृष्टि, सो जहां उदयरूप होइ प्रवर्ते, तहां सूक्ष्मसापराय गुणस्थान हो है जैसा जानना ।
अणुलोहं वेदंतो, जीवो उवसामगो व खवगो वा। सो सुहमसांपराओ, जहखादेणूणओ किंचि ॥६०॥
अणुलोभं विदन, जीवः उपशामको वक्षपको वा।
स सूक्ष्मसांपरायो, यथाख्यातेनोनः किंचित् ॥६०॥ टीका - अनिवृत्तिकरण काल का अत समय के अनतरि सूक्ष्मसापराय गुणस्थान को पाइ, सूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त जो लोभ, ताके उदय को भोगवता संता उपशमावनेवाला वा क्षय करने वाला जीव, सो सूक्ष्मसांपराय है; जैसा कहिए है।
सोई सामायिक, छेदोपस्थापना संयम की विशुद्धता तै अति अधिक विशुद्धतामय जो सूक्ष्मसांपराय संयम, तीहिकरि संयुक्त जो जीव, सो यथाख्यातचारित्र संयुक्त जीव ते किचित् मात्र ही हीन है । जाते सूक्ष्म कहिए सूक्ष्म कृष्टि को प्राप्त असा जो सांपराय कहिए लोभ कषाय, सो जाकै पाइए, सो सूक्ष्मसापराय है जैसा सार्थक नाम है।
आग उपशांत कषाय गुणस्थान के स्वरूप का निर्देश करै है। कदकफलजुदजलं १ वा, सरए सरवारिणयं व रिणम्मलयं ।
सयलोवसंतमोहो, उवसंतकसायओ होदि ॥६१॥ २ १. 'कदकफलजुदजल' के स्थान पर 'सकयगहल जल' ऐसा पाठान्तर है। २. पट्खण्डागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १६०, गाथा १२२
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१६८ ]
कतकफलयुतजलं वा शरदि सरःपानीयं व निर्मलं । सकलोपशांतमोह, उपशांत कषायको भवति ॥ ६१ ॥
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६२-६३
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टीका कतकफल का चूर्णं करि संयुक्त जो जल, सो जैसे प्रसन्न हो है अथवा मेघपटल रहित जो शरत्काल, तीहि विषे जैसें सरोवर का पानी प्रसन्न हो है, ऊपरि तें निर्मल हो है; तैसे समस्तपने करि उपशांत भया है मोहनीय कर्म जाका, सो उपशांत कषाय है । उपशांत: कहिए समस्तपनेकरि उदय होने को अयोग्य कीए है कषाय- नोकषाय जानें, सो उपशांत कषाय है । जैसी निरुक्त करि अत्यंत प्रसन्नचित्तपना सूचन किया है ।
आग क्षीण कषाय गुणस्थान का स्वरूप की प्ररूप है
S
रिस्सेसखीर मोहो, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो । खीणकसा भणदि, ग्गिंथो वीयरायहं ॥ ६२॥१ निश्शेषक्षीरणमोहः, स्फटिकामलभाजनोदकसमचित्तः । क्षीणकषायो भण्यते, निर्ग्रन्थो वीतरागैः ||६२|| टीका - अवशेष रहित क्षीण कहिए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश करि रहित भई है मोहनीय कर्म की प्रकृति जाकै; सो निःशेप क्षीणकषाय है । जैसें निःशेष मोह प्रकृतिनि का सत्त्व करि रहित जीव, सो क्षीण कपाय है । ता कारण ते स्फटिक का भाजन विषै तिष्ठता जल सदृश प्रसन्न - सर्वथा निर्मल है चित्त जाका ग्रैसा क्षीणकषाय जीव है, से वीतराग सर्वजदेवनि करि कहिए है । सोई परमार्थ करि निर्ग्रन्थ है । उपशांत कषाय भी यथाख्यात चारित्र की समानता करि निर्ग्रन्थ है, जैसे जिनवचन विषं प्रतिपादन करिए है ।
-
भावार्थ उपशांत कपाय के तौ मोह के उदय का अभाव है, सत्त्व विद्यमान है । बहुरि क्षीणकपाय के उदय, सत्त्व सर्वथा नप्ट भए हैं; परन्तु दोऊनि के परिणामनि विषे कपायनि का अभाव है । ताते दोऊनि के यथाख्यात चारित्र
समान है । तीहिकरि दोऊ वाह्य, अभ्यंतर परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ कहे है । आगे सयोग केवलिगुणस्थान की गाथा दोय करि कहै है केवलरणारगदिवायरकिररणकलावप्परणासियण्णागो । रणवकेबललधुग्गमसुजरिगयपरमप्पववएसो ॥ ६३॥२
१. पट्टनम - घवला पुन्तर १, पृष्ठ १६१, गाथा १२३ २. पा - घटना दुक १, पृष्ठ १९२, गाया १२४
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ १६९ केवलज्ञानदिवाकरकिरणकलापप्रणाशिताज्ञानः ।
नवकेवललब्ध्युद्गमसुजनितपरमात्मव्यपदेशः ॥६३।। टीका - केवलज्ञानदिवाकरकिरणकलापप्ररणाशिताज्ञानः कहिए केवलज्ञानरूपी दिवाकर जो सूर्य, ताके किरणनि का कलाप कहिए समूह, पदार्थनि के प्रकाशने विष प्रवीण दिव्यध्वनि के विशेष, तिनकरि प्रनष्ट कीया है शिष्य जननि का अज्ञानांधकार जानै असा सयोगकेवली है। इस विशेषण करि सयोगी भट्टारक के भव्यलोक कौं उपकारीपना है लक्षण जाका, असी परार्थरूप संपदा कही। बहुरि नवकेवललब्ध्युद्गमसुजनितपरमात्मव्यपदेशः' कहिए क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यरूप लक्षण धरै जे नव केवललब्धि, तिनिका उदय कहिए प्रकट होना, ताकरि सुजनित कहिए वस्तुवृत्ति करि निपज्या है परमात्मा,
असा व्यपदेश कहिए नाम जाका, असा सयोगकेवली है । इस विशेषण करि भगवान 3 अर्हत्परमेष्ठी के अनंत ज्ञानादि लक्षण धरै स्वार्थरूप संपदा दिखाइए है ।
असहायरणारणदंसरणसहिओ इदि केवली हु जोगेण । जुत्तो त्ति सजोगिजिरणो, अरगाइरिणहरणारिसे उत्तो॥६४॥२
असहायज्ञानदर्शनसहितः इति केवली हि योगेन ।
युक्त इति सयोगिजिनः अनादिनिधनाचे उक्तः ॥६४॥ टीका - योग करि सहित सो सयोग, अर परसहाय रहित जो ज्ञान-दर्शन, तिनिकरि सहित सो केवली, सयोग सो ही केवली, सो सयोगकेवली। बहुरि घातिकर्मनि का निर्मल नाशकर्ता, सो जिन सयोगकेवली सोई जिन, सो सयोगकेवलिजिन कहिए । जैसै अनादि-निधन ऋषिप्रणीत आगम विषै कह्या है।
आगै प्रयोग केवलि गुणस्थान को निरूप है - सीसि संपत्तो, णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो ।
कम्मरयविप्पमुक्को, गयजोगो केवली होदि ॥६५॥ ३ १. 'सजोगिजिणो' इसके स्थान पर 'सजोगो इदि ऐसा पाठान्तर है । २. पट्खण्डागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १९३, गाथा १२५
३. पट्खण्डागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ २००, गाथा १२६
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९९०
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ६६-६७ शोलेश्यं संप्राप्तो निरुद्धनिश्शेषास्रवो जीवः ।
कर्मरजोविप्रमुक्तो गतयोगः केवली भवति ॥६५॥ टीका - अठारह हजार शील का स्वामित्वपना को प्राप्त भया । बहुरि निरोघे है समस्त आस्रव जान; तातै नवीन वध्यमान कर्मरूपी रज करि सर्वथा रहित भया । बहुरि मन, वचन, काय योग करि रहितपना ते प्रयोग भया । सो नाही विद्यमान है योग जाकै, असा प्रयोग अर प्रयोग सोई केवली, सो अयोग केवली भगवान परमेष्टी जीव जैसा है।
या प्रकार कहे चौदह गुणस्थान, तिनिविर्ष अपने आयु बिना सात कर्मनि की गुणश्रेणी निर्जरा संभव है। ताका अर तिस गुणश्रेणी निर्जरा का काल विशेष कौं गाथा दोय करि कहै है -
सम्मतुप्पत्तीये, सावयविरदे अरणंतकरसंसे । दंसरणमोहनखबगे, कसायउक्सामगे य उवसंते ॥६६॥ खवगे य खोणमोहे, जिरणेसु दव्या असंखगुरिणदकमा । तविदरीया काला, संखेजगुणक्कमा होलि ॥६७॥ सम्यक्त्वोत्पत्ती, श्रावकविरते अनंतकर्माशे । दर्शनमोहक्षपके, कषायोपशामके चोपशांते ॥६६॥ क्षपके च क्षीरणमोहे, जिनेषु द्रव्याण्यसंख्यगुरिणतनमाणि ।
तद्विपरीताः कालाः सख्यातगुरणनमा भवंति ॥१७॥
टीका - प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति जो प्रथमोपशम सम्यक्त्व कौ कारण तीन करणनि के परिणामनि का अत समय, तीहिविष प्रवर्तमान असा जो विशुद्धता का विशेप धरै मिथ्यादृष्टि जीव, ताकै आयु बिना अवशेष ज्ञानावरणादि कर्मनि का जो गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य है; तातै देशसंयत के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यातगुणा है । बहुरि तातं सकलसंयमी के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असख्यात गुणा है । तातै अनंतानुवंधी कषाय का विसयोजन करनहारा जीव के गुणश्रेणी निजरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । तात दर्शन मोह का क्षय करने वाले के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंन्यात गुणा है । वहुरि तात कषाय उपशम करने वाले अपूर्वकरणादि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १७१ तीन गुणस्थानवर्ती जीवनि के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असख्यात गुणा है । बहुरि तातै उपशात कषाय गुणस्थानवर्ती जीव के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि तातै क्षपक श्रेणीवाले अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवी जीव के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असख्यात गुणा है । बहुरि तातै क्षीण कषाय गुणस्थानवी जीव कै गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि तातै समुद्घात रहित जो स्वस्थान केवली जिन, ताकै गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असख्यात गुणा है । बहुरि तातै समुद्घात सहित जो स्वस्थान समुद्घात केवली जिन, ताकै गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है। जैसे ग्यारह स्थानकनि विर्ष गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य के स्थानस्थान प्रति असंख्यातगुणापना कह्या।
____ अब तिस गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य का प्रमाण कहिए है। कर्मप्रकृतिरूप परिणए पुद्गल परमाणु, तिनका नाम इहां द्रव्य जानना । अनादि संसार के हेतु ते बंध का संबध करि बंधरूप भया जो जगच्छे णी का धनमात्र लोक, तीहि प्रमाण एक जीव के प्रदेशनि विर्ष तिष्ठता ज्ञानावरणादिक मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति संबंधी सत्तारूप सर्वद्रव्य, सो प्रागै कहिएगा जो त्रिकोण रचना, ताका अभिप्राय करि किचित् ऊन ड्योढ गुणहानि आयाम का प्रमाण करि समयप्रबद्ध का प्रमाण को गुण जो प्रमाण होइ, तितना है ।
बहुरि इस विषै आयु कर्म का स्तोक द्रव्य है, तातै या विष किचित् ऊन किए अवशेष द्रव्य सात कर्मनि का है। तातै याकौ सात का भाग दीए एक भाग प्रमाण ज्ञानावरण कर्म का द्रव्य हो है । बहुरि याको देशघाती, सर्वघाती द्रव्य का विभाग के अर्थि जिनदेव करि देखा यथासभव अनंत, ताका भाग दीए एक भाग प्रमाण तौ सर्वघाती केवलज्ञानावरण का द्रव्य है । अवशेष बहुभाग प्रमाण मतिज्ञानादि देशघाति प्रकृतिनि का द्रव्य है । बहुरि इस देशघाती द्रव्य को मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय, ज्ञानावरणरूप च्यारि देशघाती प्रकृतिनि का विभाग के अर्थि च्यारि का भाग दीए एक भाग प्रमाण मतिज्ञानावरण का द्रव्य हो है ।
भावार्थ - इहा मतिज्ञानावरण के द्रव्य की गुणश्रेणी का उदाहरण करि कथन कीया है । तातै मतिज्ञानावरण द्रव्य का ही ग्रहण कीया है । जैसे ही अन्य प्रकृतिनि का भी यथासंभव जानि लेना । बहुरि इस मतिज्ञानावरण द्रव्य को अपकर्षण भागहार का भाग देइ, तहां बहुभाग तो तैसे ही तिष्ठ है; असा जानि एक भाग का ग्रहण कीया ।।
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{૭૬ ]
[ गोम्मटमार चीत्रकाण्ट गाथा ६८
वहरि गुरणश्रेणी आयाम का काल तातै विपरीत उल्टा अनुक्रम थरे हैं, सोई कहिए है - 'समुद्घात जिनकी श्रादि देकरि विशुद्ध मिथ्यादृष्टि पर्यंत गुणश्रेणी आयाम का काल क्रम करि संख्यातगुणा संख्यातगुणा है' । समुद्धात जिनका गुणश्रेणी आयामकाल अन्तर्मुहुर्तमात्र है । तातै स्वस्थान जिनका गुरणश्रेणी श्रायामकाल संख्यात गुणा है । तातै क्षीरगमोह का संख्यातगुरणा है । जैसे ही क्रम ते पीछे ते क्षपकश्रेणी वाले आदि विषे संख्यात संख्यात गुरणा जानना ।
तहां अंत विषे बहुत बार संख्यातगुरणा भया, तो भी करण परिणाम संयुक्त विशुद्ध मिध्यादृष्टि के गुणश्रेणी आयाम का काल अतर्मुहूर्तमात्र ही है, अधिक नाही । काहे ते ?
जाते अंतर्मुहूर्त के भेद वहुत हैं । तहां जघन्य अंतर्मुहूर्त एक ग्रावली प्रमाण है, सो सर्व तैं स्तोक है । वहुरि याते एक समय अधिक ग्रावली तै लगाइ एक-एक समय वधता मध्यम अंतर्मुहूर्त होइ । अंत का उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त एक समय घाटि दोय घटिकारूप मुहूर्त प्रमाण है । तहां ताके उच्छ्वास तीन हजार सात से तेहत्तरि अर एक उच्छ्वास की आवली संख्यात, यात दोय वार संख्यातगुणी श्रावली प्रमाण उत्कृष्ट मुहूर्त है । वहुरि - 'आदि अंते सुद्धे वट्टिहदे स्वसंजुदे ठाणे' इस सूत्र करि ग्रावलीमात्र जघन्य अंतर्मुहूर्त कौं दोय वार संख्यातगुणित आवली प्रमाण उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त विपं घटाइ, वृद्धि का प्रमाण एक समय का भाग दीए जो प्रमाण होइ, तामैं एक और जोर्ड जो प्रमाण होइ, तितने अंतर्मुहूर्त के भेद संख्यात प्रावली प्रमाण हो हैं ।
आगे जैसे कर्म सहित जीवनि का गुणस्थानकनि का आश्रय लीए स्वरूप अर तिस तिस का कर्म की निर्जरा का द्रव्य वा काल आयाम का प्रमाण, ताक निरूपण करि व निर्जरे हैं सर्व कर्म जिनकरि जैसे जे सिद्ध परमेष्ठी, तिनका स्वरूप क अन्यमत के विवाद का निराकरण लीए गाथा दोय करि कहैं हैं
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अट्ठवियकम्सवियला, सीदीभूदा रिपरंणा खिच्चा । अट्ठगुरणा दिकिच्चा, लोयग्गरिवासियो सिद्धा ॥ ६८ ॥ | १ अष्टविधकर्म विकलाः, शीतीभूता निरंजना नित्याः । अप्टगुरणाः कृतकृत्याः, लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः || ६८ ||
१. पटुखंडागन - बबन्ना पुस्तक १, पृष्ठ २०१, सूत्र २३, गाया १२७
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १७७
टीका - केवल कहे जे गुणस्थानवर्ती जीव, तेई नाही है सिद्ध कहिये अपने आत्मस्वरूप की प्राप्तिरूप लक्षण धरै जो सिद्धि, ताकरि सयुक्त मुक्त जीव भी लोक विष है । ते कैसे है ? श्रष्टविधकर्मविकला : कहिये अनेक प्रकार उत्तर प्रकृतिरूप भेद जिन विषै गर्भित ऐसे जो ज्ञानावरणादिक आठ प्रकार कर्म आठ गुणनि के प्रतिपक्षी, तिनका सर्वथा क्षय करि प्रतिपक्ष रहित भए है । कैसे आठ कर्म आठ गुणनि के प्रतिपक्षी है ? सो कहै है
उक्त ं च
Bu
मोहो खाइय सम्मं, केवलणाणं च केवलालोयं । हादि उ आवरणदुगं, अणंतविरयं हणेदि विग्धं तु ॥ सुहमं च खामकम्मं, हणेदि, आऊ हणेदि अवगहरणं । अगुरुलहूगं गोदं श्रव्वाबाहं हणेइ वेयणियं ॥
इनका अर्थ - मोहकर्म क्षायिक सम्यक्त्व की घाते है । केवलज्ञान अर केवलदर्शन को आवरणद्विक जो ज्ञानावरण- दर्शनावरण, सो घातै है । अनंतवीर्य को विघन जो अंतराय कर्म, सो घाते है । सूक्ष्मगुण को नाम कर्म घातै है । आयुकर्म अवगाहन गुण को घात है । अगुरुलघु को गोत्र कर्म घाते है । अव्याबाध को वेदनीयकर्म घात है । ऐसे आठ गुणनि के प्रतिपक्षी प्राठ कर्म जानने ।
इस विशेषण करि जीव के मुक्ति नाहीं है, ऐसा मीमांसक मत, बहुरि सर्वदा कर्ममलनि करि स्पर्शा नाही, ताते सदाकाल मुक्त ही है, सदा ही ईश्वर है ऐसा सदाशिव मत, सो निराकरण किया है ।
बहुरि कैसे है सिद्ध ? शीतीभूता कहिये जन्म-मरणादिरूप सहज दुख अर रोगादिक ते निपज्या शरीर दुख र सर्पादिक ते उपज्या श्रागंतुक दु ख ग्रर याकुलतादिरूप मानसदुख इत्यादि नानाप्रकार संसार सवधी दुख, तिनकी जो वेदना, सोई भया आतप, ताका सर्वथा नाश करि शीतल भए है, सुखी भए है । इस विशेषण करि मुक्ति विषे आत्मा के सुख का प्रभाव है, ऐसे कहता जो सास्यमत, मो निराकरण कीया है ।
बहुरि कैसे है सिद्ध ? निरंजना: कहिये नवीन ग्रास्रवरूप जो कर्ममन, मो ही भया अजन, ताकरि रहित है । इस विशेषण करि मुक्ति भए पीछे, बहुरि कर्म ग्रंजन का सयोग करि संसार हो है, ऐसे कहता जो सन्यासी मत, सो निराकरण कीया है ।
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१७८ ]
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ६८
बहुरि कैसे है सिद्ध ? नित्या: कहिये यद्यपि समय- समयवर्ती अर्थ पर्याय नि करि परिणमए सिद्ध अपने विषै उत्पाद, व्यय को करें है; तथापि विशुद्ध चैतन्य स्वभाव का सामान्यभावरूप जो द्रव्य का आकार, सो अन्वयरूप है, भिन्न न हो है, ताके माहात्म्य ते सर्वकाल विषे अविनाशीपणा कौ आश्रित है, तातै ते सिद्ध नित्यपना की नाही छोड़े है । इस विशेषरण करि क्षरण-क्षरण प्रति विनाशीक चैतन्य के पर्याय ते, एक संतानवर्ती है, परमार्थ ते कोई नित्य द्रव्य नाही है, ऐसे कहता जो वौद्धमती की प्रतिज्ञा, सो निराकरण करी है ।
वहुरि कैसे है सिद्ध' ? प्रष्टगुणा: कहिए क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघुत्व, अव्याबाध नाम धारक जे आठ गुण, तिनकरि संयुक्त है । सो यहु विशेषरण उपलक्षणरूप है, ताकरि तिनि गुणनि के अनुसार अनंतानंत गुनि का तिन ही विषै अंतर्भूतपना जानना । इस विशेषरण करि ज्ञानादि गुणनि का अत्यन्त अभाव होना, सोई आत्मा के मुक्ति है ऐसे कहता जो नैयायिक अर वैशेषिक मत का अभिप्राय, सो निराकरण कीया है ।
बहुरि कैसे है सिद्ध ? कृतकृत्याः कहिए संपूर्ण कीया है कृत्य कहिए सकल कर्म का नाश अर ताका कारण चारित्रादिक जिनकरि असे है । इस विशेषरण करि ईश्वर सदा मुक्त है, तथापि जगत का निर्माण विषै नादर कीया है, तीहि करि कृतकृत्य नाही, वाकै भी किछू करना है, से कहता जो ईश्वर सृष्टिवाद का अभिप्राय, सो निराकरण कीया है ।
बहुरि कैसे है सिद्ध ? लोकाग्रनिवासिनः कहिए विलोकिए है जीवादि पदार्थ जाविषै, जैसा जो तीन लोक, ताका अग्रभाग, जो तनुवात का भी अंत, तीहिविषै निवानी है; तिप्ठे है । यद्यपि कर्म क्षय जहां कीया, तिस क्षेत्र ते ऊपरि ही कर्मक्षय के अनंतरि ऊर्ध्वगमन स्वभाव ते ते गमन करें है; तथापि लोक का अग्रभाग पर्यंत ऊर्ध्वगमन हो हैं । गमन का सहकारी धर्मास्तिकाय के प्रभाव ते तहां तै ऊपरि गमन न हो है, जैसे लोक का अग्रभाग विषै ही निवासीपणा तिन सिद्धनि के युक्त है । अन्यथा कहिए ती लोक-ग्रलोक के विभाग का अभाव होइ । इस विशेपण करि श्रात्मा के ऊर्ध्वगमन स्वभाव ते मुक्त अवस्था विपे कही भी विश्राम के प्रभाव ते उपरि-परि गमन हुवा ही करें है; से कहता जो मांडलिक मत, सो निराकरण की है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। १७६
आगे श्री माधवचन्द्र विद्यदेव ते 'अष्टविधकर्मविकलाः' इत्यादि सात विणेषणनि का प्रयोजन दिखावै है -
सदसिवसंखो मक्कडि, बुद्धो गयाइयो य वेसेसी। ईसरमंडलिदसण,-विदूसणठें कयं एवं ॥ ६६ ॥ सदाशिवः सांख्यः मस्करी, बुद्धो नैयायिकश्च वैशेषिकः ।
ईश्वरमंडलिदर्शनविदूषणार्थ कृतमेतत् ॥ ३९ ॥ टीका - सदाशिवमत, सांख्यमत, मस्करी सन्यासी मत, बौद्धमत, नैयायिक मत, वैशेषिकमत, ईश्वरमत, मंडलिमत ए जु दर्शन कहिए मत, तिनके दूषने के अर्थि ए पूर्वोक्त विशेषण कीए है । उक्त च -
सदाशिवः सदाकर्म, सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितम् । मस्करी किल मुक्तानां, मन्यते पुनरागतिम् ॥ क्षणिकं निर्गुणं चैव, बुद्धो यौगश्च मन्यते ।
कृतकृत्यं तमीशानो, मंडली चोर्ध्वगामिनम् ॥ इनिके अर्थ - सदाशिव मतवाला सदा कर्म रहित मान है। सांख्य मतवाला मुक्त जीव को सुख रहित मान है। मस्करी सन्यासी, सो मुक्त जीव कै संसार विष बहुरि भावना मान है। बहुरि बौद्ध पर योग मतवाले क्षणिक अर निर्गुण आत्मा को मान है । बहुरि ईशान जो सृप्टिवादी, सो ईश्वर को अकृतकृत्य मान है । बहुरि माडलिक आत्मा को ऊर्ध्वगमन रूप ही मान है । असे माननेवाले मतनि का पूर्वोक्त विशेषण ते निराकरण करि यथार्थ सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप निरूपण कीया। ते सिद्ध भगवान आनन्दकर्ता होहु । इति श्रीग्राचार्य नेमिवद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पसग्रह ग्रन्थ की जीव तत्त्वप्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नाम भाषा टीका के विष जीव काडविषै कही जे वीस प्ररूणा तिन विष गुणस्थान प्ररूपणा है नाम जाका
असा प्रथम अधिकार सपूर्ण भया ॥१॥
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दूसरा अधिकार : जीवसमास प्ररूपण
कर्सघातिया जीति जिन, पाय चतुष्टय सार ।
विश्वस्वरूप प्रकाशियो, नमों अजित सुखकार२ ॥ टोका-सै गुणस्थान संवन्धी संख्यादिक प्ररूपणा के अनन्तरि जीवसमास प्ररूपणा कौं रचता संता निरुक्ति पूर्वक सामान्यपनं तिस जीवसमास का लक्षण कहै है -
जेहि अरण्या जीवा, गज्जते बहुदिहा दि तज्जादी। ते पुरण संगहिवत्या, जीवसमासा ति विष्णेया ॥ ७० ॥
यरनेके जीवान, ज्ञायते बहुविधा अपि तज्जातयः ।
ते पुनः संगृहितार्था, जीवसमाता इति विनेयाः ॥ ७० ॥ टीका - यैः कहिए जिनि समान पर्यायरूप धर्मनि करि जीवा कहिए जीव है, ते अनेके अपि कहिए यद्यपि बहुत है, बहुविधाः कहिए वहुत प्रकार है, तथापि तज्जातयः कहिए विवक्षित सामान्यभाव करि एकठा करने से एक जाति विष प्राप्त कीए हए ज्ञायते कहिए जानिए ते कहिये जीव समान पर्यायरूप धर्मसंगहीतार्थाः कहिए अतर्भूत करी है अनेक व्यक्ति जिनिकरि असे जीवसमासाः कहिए जीवसमास है, अने जानना।
भावार्थ - जैसे एक गऊ जाति विर्ष अनेक खांडी, मुडी, सावरी गऊरूप व्यक्ति सास्नादिमन्व समान धर्म करि अंतर्गभित हो है । तैसे एकेद्रियत्वादि जाति विप अनेक पृथ्वीकायादिक व्यक्ति जिनि एकेद्रियत्वादि युक्त लक्षणनि करि अतर्गभित करिण, तिनिका नाम जीवसमास है । काहे ते ? जाते 'जीवाः समस्यते यर्येषु वा ते जीवनमासाः' जीव हैं ते संग्रहरूप करिए जिनि समानधर्मनि करि वा जिनि समान लागानि विप ते वे ममानरूप लक्षण जीवसमास हैं, असी निरुक्ति हो है । इस विपण करि समस्त संसारी जीवनि का संग्रहणरूप ग्रहण करना है प्रयोजन जाका,
मा जीवनमान का प्रत्पण है, नो प्रारंभ कीया है, जैसा जानना । अथवा अन्य प्रयंग है 'जीवा अनेया अपि' कहिए यद्यपि जीव अज्ञात है। काहे ते ? बहुविधन्यात बाहिर जाने जीव बहुन प्रकार हैं। नानाप्रकार प्रात्मा की पर्यायरूप व्यक्ति ते
'. 'गरपान पर 'अनन्त'मा पाठान्तर है। २.
म्यान पर गिमन' मा पाठान्तर है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
समस्तपना करि केवलज्ञान विना न जानिये है, यातै सर्वपर्यायरूप जीव जानने को असमर्थपना है, तथापि तज्जातयः कहिए सोई एकेन्द्रियत्वादिरूप है जाति जिनकी। बहरि संगहीतार्थाः कहिए समस्तपना करि गभित कीए है, एकठे कीये है व्यक्ति जिनिकरि, ऐसे जीव है, तेई जीवसमास है, ऐसा जानना । अथवा अन्य अर्थ कहै है - संग्रहीतार्थाः कहिए समस्तपना करि गर्भित करी है, एकठी करी है व्यक्ति जिन करि ऐसी तज्जातयः कहिए ते जाति है । जातै विशेष विना सामान्य न होइ । काहे ते? जात असा वचन है - 'निविशेष हि सामान्यं भवेच्छशविषारणवत्' याका अर्थ - विशेष रहित जो सामान्य, सो ससा के सीग समान अभावरूप है, ताते संगृहीतार्थ जे वे जाति, तिनका कारणभूत जातिनि करि जीव प्राणी है, ते 'अनेकपि' कहिए यद्यपि अनेक है, बहुविधा अपि कहिए बहुत प्रकार है ; तथापि ज्ञायते कहिए जानिए है, ते वे जाति जीवसमास है, असा जानना ।
भावार्थ - जीवसमास शब्द के तीन अर्थ कहे । तहां एक अर्थ विष एकेद्रिय-. युक्तत्वादि समान धर्मनि को जीवसमास कहे । एक अर्थ विर्ष एकेद्रियादि जीवनि को जीवसमास कहे । एक अर्थ विष एकेद्रियत्वादि जातिनि को जीवसमास कहे, असे विवक्षा भेद करि तीन अर्थ जानने ।
आगै जीवसमास की उत्पत्ति का कारण बहुरि जीवसमास का लक्षण कहै है -
तसचदुजुगाणमझे, अविरुद्धेहिं जुदजादिकम्मुदये । जीवसमासा होति हु, तब्भवसारिच्छसामण्णा ॥ ७१ ॥ त्रसचतुर्युगलानां मध्ये, अविरुद्धैर्युतजातिकर्मोदये । जोवसमासा भवंति हि, तद्भवसादृश्यसामान्याः ॥ ७१ ॥
टीका - त्रस-स्थावर, बहुरि बादर-सूक्ष्म, बहुरि पर्याप्त-अपर्याप्त, बहुरि प्रत्येकसाधारण ऐसे नाम कर्म की प्रकृतिनि के च्यारि युगल है । तिनिके विप यथासभव परस्पर विरोध रहित जे प्रकृति, तिनिकरि सहित मिल्या ऐसा जो एकेद्रियादि जातिरूप नाम कर्म का उदय, ताकी होते सतै प्रकट भए ऐसे तद्भवसादृश्य सामान्यरूप जीव के धर्म, ते जीवसमास है ।
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१८२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७१
तहां तद्भव सामान्य का अर्थ कहै है - विवक्षित एकद्रव्य विषे प्राप्त जो त्रिकाल सवंधी पर्याय, ते भवंति कहिए विद्यमान जाविषै होइ, सो तद्भव मामान्य है । ऊर्ध्वता सामान्य का नाम तद्भव सामान्य है | जहां अनेक काल संबंधी पर्याय का ग्रहण होइ, तहां ऊर्ध्वता सामान्य कहिए । जातै काल के समय है, ते ऊपरऊपर क्रम प्रवर्ते है, युगपत् चौड़ाईरूप नाही प्रवर्ते है; तातै इहां नाना काल विषे एक विवक्षित व्यक्ति विषै प्राप्त जे पर्याय, तिनिका अन्वयरूप ऊर्ध्वता सामान्य है; सो एक द्रव्य के आश्रय जो पर्याय, सो अन्वयरूप है । जैसे स्थास, कोश, कुशूल, घट, कपालक आदि विषे माटी अन्वयरूप आकार धरे द्रव्य है ।
भावार्थ माटी क्रम तै इतने पर्यायरूप परिणया । प्रथम स्थास कहिए पिडरूप भया । बहुरि कोश कहिए चाक के ऊपरि ऊभा कीया, पिडरूप भया । वहुरि कुशूल कहिए हाथ अगूंठनि करि कीया आकाररूप भया । वहुरि घट कहिए घडारूप भया । बहुरि कपाल कहिए फूटया घडारूप भया । असे एक माटीरूप व्यक्ति विषे अनेक -कालवर्ती पर्याय हो हैं । तिनि सर्वानि विषै माटीपना पाइए है । ताकरि सर्वत्र माटी द्रव्य अवलोकिए है । जैसे इहां भी अनेक कालवर्ती अनेक अवस्थानि वि एकेद्रिय आदि जीव द्रव्यरूप व्यक्ति, सो अन्वयरूप द्रव्य जानना । सो याका नाम तद्भव सामान्य वा ऊर्ध्वता सामान्य है । तीहि तद्भव सामान्य करि उपलक्षणरूप संयुक्त असे जो सादृश्य सामान्य कहिए, तिर्यक् सामान्य ते जीवसमास हैं । सो एक काल विषै नाना व्यक्तिनि कौं प्राप्त भया औसा एक जातिरूप ग्रन्वय, सो तिर्यक् सामान्य है । याका अर्थ यहु – जो समान धर्म का नाम सादृश्य सामान्य है । जैसे खांडी, मूंडी, सावरी इत्यादि नाना प्रकार की व्यक्तिनि विषै गऊपरणा समान धर्म है ।
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भावार्थ
एक कालवर्ती खांडा, मूडा, सांवला इत्यादि अनेक वैल, तिनि विषे वैलपना समान धर्म है; सो यहु सादृश्य सामान्य है । तैसे एक कालवर्ती पृथ्वीकायिक आदि नाना प्रकार जीवनि विषे एकेद्रिय युक्तपना आदि धर्म हैं, समान परिणामरूप है; तातै इनिकों सादृश्य सामान्य कहिए | औसे जे सादृश्य सामान्य, तेई जीवसमास हैं; सा तात्पर्य जानना । वहुरि तिनि च्यारि युगलनि की आठ प्रकृतिनि विषे एकेंद्रिय जाति नाम कर्म सहित त्रस नाम कर्म का उदय विरोधी है । वहुरि द्वीद्रियादिक जातिरूप नाम कर्म की च्यारि प्रकृतिनि का उदय सहित स्थावर सूक्ष्म - सावारण नाम प्रकृतिनि का उदय विरोधी है, अन्य कर्म का
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ १८३ उदय अविरोधी है । बहुरि तैसे ही त्रस नाम कर्म सहित स्थावर-सूक्ष्म-साधारण नाम कर्म का उदय विरोधी है, अन्य कर्म का उदय अविरोधी है। बहुरि स्थावर नाम कर्म सहित त्रस नाम कर्म का उदय एक ही विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि बादर नाम कर्म सहित सूक्ष्म नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष प्रकृतिनि का उदय अविरोधी है । बहुरि सूक्ष्म नाम कर्म सहित त्रस बादर नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि पर्याप्त नाम कर्म सहित अपर्याप्त नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष सर्व कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि अपर्याप्त नाम कर्म का उदय सहित पर्याप्त नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष सर्व कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि प्रत्येक शरीर नाम कर्म का उदय सहित साधारण शरीर नाम कर्म का उदय विरोधी है, अवशेष कर्म का उदय अविरोधी है । बहुरि साधारण शरीर नाम कर्म का उदय सहित प्रत्येक शरीर नाम कर्म का उदय पर त्रस नाम कर्म का उदय विरोधी है; अवशेष कर्म का उदय अविरोधी है। जैसे अविरोधी प्रकृतिनि का उदय करि निपजे जे सदृश परिणामरूप धर्म, ते जीवसमास है; जैसा जानना । प्रागै संक्षेप करि जीवसमास के स्थानकनि को प्ररूप है -
बादरसुहमइंदिय, बितिचउरिदिय असण्णिसण्णी य । पज्जत्तापज्जत्ता, एवं ते चोदसा होति ॥७२॥
बादरसूक्ष्मैकेद्रियद्वित्रिचतुरिद्रियासंज्ञिसंज्ञिनश्च ।।
पर्याप्तापर्याप्ता, एवं ते चतुर्दश भवंति ॥७२॥ टीका - एकेद्रिय के बादर, सूक्ष्म ए दोय भेद । बहुरि विकलत्रय के द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिद्रिय ए तीन भेद । बहुरि पंचेद्रिय के सज्ञी, असज्ञी ए दोय भेद, असे सात जीवभेद भए । ये एक-एक भेद पर्याप्त, अपर्याप्त रूप है । जैसे सक्षेप करि चौदह जीवसमास हो है ।
आगै विस्तार ते जीवसमास को प्ररूप है -
भूआउतैउवाऊ, णिच्चचदुग्गदिणिगोदथूलिदरा । पत्तेयपदिदिरा, तसपण पुण्णा अपुण्णदुगा ॥७३॥ भ्वप्तेजोवायुनित्यचतुर्गतिनिगोदस्थूलेतराः। प्रत्येकप्रतिष्ठेतराः, सपंच पूर्णा अपूर्णद्विकाः ॥७३॥
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१८४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७४-७५
टीका - पृथ्वी कायिक, अप्कायिक, तेज कायिक, वायुकायिक, ग्रर वनस्पतिकायिकनि विषै दोय भेद नित्यनिगोद साधारण, चतुर्गतिनिगोद साधारण ए छह भेद भए । ते एक-एक भेद बादर, सूक्ष्म करि दोय - दोय भेदरूप है; से वारह भए । बहुरि प्रत्येक शरीररूप वनस्पतीकायिक के सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित ए दोय भेद है । बहुरि विकलेद्रिय के बेइद्री, तेइद्री, चौइद्री, ए तीन भेद । बहुरि पचेद्रिय के संजी पचेद्रिय, असज्ञी पचेद्रिय ए दोय भेद । ए सर्व मिलि सामान्य अपेक्षा उगणीस जीवसमास हो है । बहुरि ए सर्व ही प्रत्येक पर्याप्तक, निर्वत्ति अपर्याप्प्रक, लव्धि अपर्याप्तक जैसे तीन-तीन भेद लीए हैं । तातै विस्तार ते जीवसमास सत्तावन भेद सयुक्त हो है ।
आगे इनि सत्तावन जीव-भेदनि के गर्भित विशेष दिखावने के अथि स्थानादिक च्यारि अधिकार कहै है
B
ठाणे वि जोगीहि वि, देहोग्गाहणकुलाण भेदेहं । जीवसमासा सव्वे, परुविदव्वा जहाकमसो ॥७४॥
स्थानैरपि योनिभिरपि देहावगाहनकुलानां भेदैः । जीवसमासाः सर्वे, प्ररूपितव्या यथाक्रमशः ||७४ ||
टीका - स्थानकनि करि, बहुरि योनि भेदनि करि, बहुरि देह की श्रवगाहना के भेदनि करि, बहुरि कुलभेदनि, करि सर्व ही ते जीवसमास यथाक्रम सिद्धांत परिपाटी का उल्लंघन जैसे न होइ, तैसे प्ररूपण करने योग्य है ।
आगे जैसे उद्देश कहिए नाम का क्रम होइ, तैसे ही निर्देश कहिए स्वरूप निर्णय क्रम करि करना । इस न्याय करि प्रथम कहा जो जीवसमास विषे स्थानाधिकार, ताकी गाथा च्यारि करि कहै है
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सामण्णजीव तसथावरे, इगिविगलसयलच रिमबुगे । इंदियकाये चरिमस्स य, दुतिचदुपणगभेदजुदे ॥७५॥
सामान्यजीवः त्रसस्थावरयोः, एकविकलसकलचरमद्विके । इंद्रिय काययोः चरमस्य च द्वित्रिचतुः पंचभेदयुते ॥७५॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ १८५
टीका - तहां उपयोग लक्षण धरै सामान्यमात्र जीवद्रव्य, सो द्रव्यार्थिक नय करि ग्रहण कीए जीवसमास का स्थान एक है । बहुरि संग्रहनय करि ग्रह्या जो अर्थ, ताका भेद कररणहारा जो व्यवहारनय, ताकी विवक्षा विषै संसारी जीव के मुख्य भेद त्रस-स्थावर, ते अधिकाररूप है; असे जीवसमास के स्थान दोय है । बहुरि अन्य प्रकार करि व्यवहारनय की विवक्षा होते एकेद्रिय, विकलेद्रिय, सकलेद्रिय, जीवनि को अधिकाररूप करि जीवसमास के स्थान तीन है । बहुरि जैसे ही आगे भी सर्वत्र अन्य अन्य प्रकारनि करि व्यवहारनय की विवक्षा जाननी । सो कहै हैं - एकेद्रिय, विकलेन्द्रिय दोय तौ ए, अर सकलेद्रिय जो पंचेद्रिय, ताके असंज्ञी, संज्ञी ए दोय भेद, असै मिलि जीवसमास के स्थान च्यारि हो हैं । बहुरि तैसे ही एकेद्रिय, बेइंद्री तेइंद्री, चौइंद्री, पंचेद्री भेद ते जीवसमास के स्थान पांच है । बहुरि तैसे ही पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, त्रसकायिक भेद ते जीवसमास के स्थान छह है। बहुरि तैसे ही पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति ए पांच स्थावर अर अन्य त्रसकाय के विकलेंद्रिय, सकलेद्रिय ए दोय भेद, औसै मिलि जीवसमास के स्थानक सप्त हो है । बहुरि तैसे ही पृथ्वी आदि स्थावरकाय पांच, विकलेंद्रिय, असंज्ञी पंचेद्रिय, संज्ञी पचेद्रिय ए तीन मिलि करि जीवसमास के स्थान आठ हो है । बहुरि स्थावर काय पांच अर बेद्री, तेइंद्री, चौद्री, पचेद्री ए च्यारि मिलि करि जीवसमास के स्थान नव हो है । बहुरि तैसे ही स्थावर काय पाच, अर बेद्री, तेद्री, चौद्री, असंज्ञी पचेद्री, सज्ञी पचेद्री ए पांच मिलि करि जीवसमास के स्थान दश हो है ।
पणजुगले तससहिये, तसस्स दुतिचदुरपणगभेदजुदे । छदुगपत्तेय य, तसस्स तियचदुरपणगभेदजुदे ॥७६॥
पंचयुगले त्रससहिते, त्रसस्य द्वित्रिचतुःपंचकभेदयुते । षद्विक प्रत्येके च त्रस्य त्रिचतुः पंचभेदयुते ॥७६॥
टीका - तैसे ही स्थावर काय पाच, ते प्रत्येक बादर-सूक्ष्म भेद सयुक्त, ताके दश अर सकाय ए मिलि जीवसमास के स्थान ग्यारह हो है । बहुरि तैसे ही स्थावरकाय दश अर विकलेद्रिय सकलेद्रिय, मिलि करि जीवसमास के स्थान बारह हो है । बहुरि तैसे ही स्थावरकाय दश अर त्रसकाय के विकलेद्रिय, सजी, असज्ञी पंचेद्रिय ए तीन मिलि करि जीवसमास के स्थान तेरह हो है । बहुरि स्थावर काय दश अर सकाय के बेंद्री, तेद्री, चौद्री, पचेद्री ए च्यारि भेद मिलि जीवसमास के
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१८६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ७७-८८
स्थान चौदह हो है । वहुरि तैसे ही स्थावरकाय के दश, बहुरि त्रसकाय के वेद्री, तेद्री, चौंद्री, असंज्ञी पचेद्री, संजी पंचेद्री ए पांच मिलि करि जीवसमास के स्थान पंद्रह हो हैं । बहुरि तैसे ही पृथिवी, अप्, तेज, वायु ए च्यारि र साधारण वनस्पति के नित्यनिगोद, इतरनिगोद ए दोय भेद मिलि छह भए । ते ए जुदे-जुदे वादर सूक्ष्म भेद लीए है । ताके वारह अर एक प्रत्येक वनस्पती, औसे स्थावर काय तेरह अर सकाय विकलेद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय, संजी पंचेद्रिय ए तीनि मिलि जीवसमास के स्थान सोलह हो हैं । वहुरि तैसे ही स्थावरकाय के तेरह यर सकाय के वेद्री, तेंद्री, चौद्री, पचेंद्री ए च्यारि भेद मिलि करि जीवसमास के स्थान सतरह हो है । वहुरि स्थावरकाय के तेरह ग्रर त्रसकाय के केंद्री, तेद्री, चौद्री, असंजी पंचेद्री, संज्ञी पंचेद्री ए पांच मिलि जीवसमास के स्थान अठारह हो है ।
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सगजुगलह्मितसस्स य, पणभंगजुदेसु होंति उणवीसा । एयाणवीसो त्तिय, इगिवितिगुणिदे हवे ठारणा ॥७७॥ सप्तयुगले त्रस्य च, पंचभंगयुतेषु भवंति एकोनविंशतिः । एकादेकोनविंशतिरिति च एकद्वित्रिगुरिणते भवेयुः स्थानानि ॥७७॥
टीका - तैसें ही पृथ्वी, आप, तेज, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद ए छहों वादर-सूक्ष्मरूप, ताके वारह अर प्रत्येक वनस्पति के सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित ए दोय अर त्रस के वेद्री, तेद्री, चांद्री प्रसंगी पंचेद्रिय, संत्री पंचेद्रिय ए पांच मिलि जीवसमास के स्थान उगणीस हो हैं । असें कहे जे ए सामान्य जीवरूप एक स्थान की आदि देकरि उगरणीस भेदरूप स्थान पर्यन्त स्थान, तिनिक एक, दोय तीन करि गुणै, अनुक्रम ते अंत विपैं उगरणीस भेवस्थान, अड़तीस भेदस्थान, सत्तावन भेदस्थान हो है |
सामण्णेरण तिपंती, पढमा बिदिया अपूण्णगे इदरे । पज्जत्ते लद्धिअपज्जत्तेऽपढमा हवे पंती ॥७८॥
सामान्येन त्रिपंक्तयः, प्रथमा द्वितीया अपूर्णके इतरस्मिन् । पर्याप्त लब्ध्यपर्याप्तेऽप्रथमा भवेत् पंक्तिः ॥ ७८ ॥
टीका - पूर्व कहे जे एक को आदि देकर एक-एक वधते उगरणीस भेदरूप म्यान, निनिकी तीन पंक्ति नीचे-नीचे करनी । तिनि विषें प्रथम पंक्ति तो पर्याप्तादिक
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका 1
की विवक्षा कौन करि सामान्य आलाप करि गुणनी । बहुरि दूसरी पंक्ति दोय जे पर्याप्त, अपर्याप्त भेद, तिनि करि गुणनी । बहुरि प्रथमा कहिए तीसरी पक्ति, सो तीन जे पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद तिनि सामान्य करि गुरणनी । इहां दूसरी, तीसरी दोय पक्ति अप्रथमा है । तथापि दूसरी पंक्ति hi ही कही, तीहिकरि प्रथमा से शब्द करि अवशेष रही पक्ति तीसरी सो ग्रहण करी है ।
अपेक्षा
स्थान
[ १८७
अब कहे भेदनि की यंत्र में रचना अनि करि लिखिये है ।
भावार्थ - एक को आदि देकरि उगणीस पर्यन्त जीवसमास के स्थान कहे । तिनिका सामान्यरूप ग्रहण कीएं एक आदि एक-एक बधते उगरणीस पर्यन्त, स्थान हो है । इहां सामान्य विषै पर्याप्तादि भेद गर्भित जानने । बहुरि तिन ही एक-एक के पर्याप्त, अपर्याप्त भेद कीए दोय कौ आदि देकर दोय - दोय बघते अडतीस पर्यन्त स्थान हो है । इहा अपर्याप्त विषे निर्वृत्ति पर्याप्त, लब्धि पर्याप्त दोऊ गर्भित जानने । बहुरि तिन ही एक-एक के पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद कीये तिनिकौ आदि देकर तीन-तीन बधते सत्तावन पर्यन्त स्थान हो है । इहा जुदे-जु भेद जानने ।
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जीवसमास के स्थानकनि का यंत्र
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१८८]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७९-८०
अब इन पक्तिनि का जोड देने के अर्थ करणसूत्र कहिए है 'मुहभूमीजोगदले पदगुरिपदे पदधणं होदि' मुख आदि अर भूमी अंत, इनिको जोडे, ग्राधा करि पद जो स्थान प्रमाण, तीहि करि गुणै, सर्वपदधन हो है ।
सो प्रथम पक्ति विषै मुख एक अर भूमी उगरणीस जोडे वीस, ताका आधा दश, पद उगणीस करि गुणै एक सौ नब्बे सर्व जोड हो है ।
बहुरि द्वितीय पंक्ति विषै मुख दोय, भूमी अड़तीस जोडै चालीस, आधा कीए वीस पद, उगणीस करि गुणै, तीन से असी सर्व जोड हो है ।
बहुरि तीसरी पक्ति विषे मुख तीन, भूमी सत्तावन जोडै साठि, प्राधा कीएं तीस, पद उगणीस करि गुणै पांच से सत्तरि सर्व जोड हो है ।
आगै एकैद्रिय, विकलत्रय जीवसमासनि करि मिले हुए असे पचेद्रिय संबंधी जीवसमास स्थान के विशेषनि कौ गाथा दोय करि कहै है -
इगवणं इगिदिगले, असब्सिगिगयजलथलखगाणं । गब्भभवे समुच्छे, दुतिगं भोगथलखेचरे दो दो ॥ ७६ ॥ अज्जवमलेच्छमणुए, तिदु भोगकुभोगभूमिजे दो दो । सुरणिरये दो दो इदि, जीवसमासा हु अडरगउदी ॥ ८० ॥
एकपंचाशत् एकविकले, प्रसंज्ञिसंज्ञिगतजलस्थलखगानाम् । गर्भभवे सम्मूर्छे, द्वित्रिकं भोगस्थलखेचरे द्वौ द्वौ ॥७९॥ श्रार्यम्लेच्छमनुष्ययोस्त्रयो द्वौ भोगकुभोगभूमिजयोद्वौ द्वौ । सुरनियो द्वौ इति, जीवसमासा हि श्रष्टानवतिः ॥ ८० ॥
टीका - पृथ्वी, ग्रप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद - इतरनिगोद के सूक्ष्म, बादर भेद करि छह युगल र प्रत्येक वनस्पती का सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित भेद करि एक युगल, ऐसे एकेन्द्रिय के सात युगल । वहुरि बेद्री, तेद्री, चौद्री ए तीन ऐसे ए सतरह भेद पर्याप्त, निर्वृत्ति पर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद करि तीन-तीन प्रकार है । ऐसे एकेद्रिय, विकलेद्रियनि विपै इक्यावन भेद भये । बहुरि पंचेद्रियरूप तियंच गति विषै कर्मभूमि के तिर्यंच तीन प्रकार है । तहा जे जल विषे गमनादि करें, ते जलचर; अर जे भूमि
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तम्यमानचन्द्रिका भाषाटोफा ]
१८६ विषै गमनादि करे, ते स्थलचर, अर जे आकाश विषै उडना आदि गमनादि कर, ते नभचर; ते तीनों प्रत्येक संज्ञी, असंज्ञो भेदरूप है, तिनिके छह भए । बहुरि ते छहौ गर्भज पर सम्मुर्छन हो हैं। तहां गर्भज विषै पर्याप्त अर निर्वृत्ति अपर्याप्त ए दोयदोय भेद संभवै है, तिनिके बारह भए । बहुरि सम्मूर्छन विषै पर्याप्त, निर्वृति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त ऐ तीन-तीन भेद संभव है, तिनिके अठारह भए । जैसे कर्मभूमिया पंचेद्रिय तिर्यच के तीस भेद भये ।
बहुरि भोगभूमि विर्षे सजी ही है, असंज्ञी नाही । बहुरि स्थलचर अर नभचर ही है, जलचर नाही । बहुरि पर्याप्त, निर्वृति अपर्याप्त ही है, लब्धि अपर्याप्त नाहीं । तातै संज्ञी स्थलचर, नभचर के पर्याप्त, अपर्याप्त भेद करि च्यारि ए भए; असे तिर्यच पंचेद्रिय के चौतीस भेद भये ।
बहुरि मनुष्यनि के कर्मभूमि विषै, आर्यखड विषै तौ गर्भज के पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त करि दोय भेद अर सम्मूर्छन का लब्धि अपर्याप्तरूप एक भेद असे तीन भए। बहुरि म्लेच्छखंड विर्षे गर्भज ही है । ताके पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त करि दोय भेद । बहुरि भोगभूमि पर कुभोगभूमि इन दोऊनि विषै गर्भज ही है । तिनके पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त करि दोय-दोय भेद भए । च्यारि भेद मिलि करि मनुष्यगति विर्षे नव भेद भए।
बहुरि देव, नारकी औपपादिक है, तिनिके पर्याप्त, निर्वत्ति अपर्याप्त भेद करि दोय-दोय भेद होई च्यारि भेद । औसै च्यारि गतिनि विष पचेद्रिय के जीवसमास के स्थान सैतालीस है।
बहुरि ए सैतालीस अर एकेद्री, विकले द्रिय के इक्यावन मिलि करि अठयाणवे जीवसमास स्थान हो है, जैसा सूत्रनि का तात्पर्य जानना।
__ इहां विवक्षा करि स्थावरनि के बियालीस, विकलेद्रियनि के नव, तिर्यच पंचेद्रियनि के चौतीस, देवनि के दोय, नारकीनि के दोय, मनुप्यनि के नव, सर्व मिलि अठ्याणवे भए । असै ए कहे जीवसमास के स्थान, ते ससारी जीवनि के ही जानने, मुक्त जीवनि के नाही है । जाते विशुद्ध चैतन्यभाव ज्ञान-दर्शन उपयोग का संयुक्तपनां करि तिन मुक्त जीवनि के त्रस-स्थावर भेदनि का अभाव है । अथवा 'संसारिणस्त्रसस्थावराः' असा तत्त्वार्थसूत्र विष वचन है, तातै ए भेद ससारी जीवनि के ही जानने।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ १६६
ताका समाधान - जीव पर भव को गमन करै, ताकी विदिशा करि वर्जित च्यारि दिशा वा अधः, ऊर्ध्व विषै गमन क्रिया होइ है, सो च्यारि प्रकार है - ऋजु गति, पाणिमुक्ता गति, लांगल गति, गोमूत्रिका गति । तहां सूधा गमन होइ, सो ऋजु गति है । जामै बीचि एक बार मुडे, सो पाणिमुक्ता गति है । जामै बीच दोय बार मूडे, सो लांगल गति है। जामै बीच तीन बार मुडे, सो गोमत्रिका गति है। सो मुडने रूप जो विग्रह गति, ताविर्षे जीव योगनि की वृद्धि करि युक्त हो है । ताकरि शरीर की अवगाहना भी वृद्धिरूप हो है । तातें ऋजुगति करि उपज्या जीव के जघन्य अवगाहना कही, सो सर्वजघन्य अवगाहन का प्रमाणक है है । घनागुल रूप जो प्रमाण, ताका पल्य का असंख्यातवां भाग उगणीस बार, बहुरि आवली का असंख्यातवा भाग नव बार, बहुरि एक अधिक प्रावली का असंख्यातवां भाग बाईस बार, बहुरि संख्यात का भाग नव बार इतने तो भागहार जानने । बहुरि तिस घनागुल को प्रावली का असंख्यातवां भाग का बाईस बार गुणकार जानने । तहां पूर्वोक्त भागहारनि की मांडि परस्पर गुणन कीए, जेता प्रमाण आवै, तितना भागहार का प्रमाण जानना । बहुरि बाईस जायगा प्रावली का असंख्यातवा भाग को माडि परस्पर गुण जो प्रमाण आवै, तितना गुणकार का प्रमाण जानना । तहां घनागुल के प्रमाण को भागहार के प्रमाण का भाग दीए, अर गुणकार का प्रमाण करि गुरणे जो प्रमाण आवै, तितना जघन्य अवगाहना के प्रदेशनि का प्रमाण जानना । जैसे ही आगे भी गुणकार, भागहार का अनुक्रम जानना।
प्रागै इद्रिय आश्रय करि उत्कृष्ट अवगाहनानि का प्रमाण, तिनिके स्वामीनि को निर्देश करै है -
साहियसहस्समेकं, बारं कोसूरणमेकमेक्कं च । जोयणसहस्सदीहं, पम्मे वियले महामच्छे ॥६॥ साधिकसहस्रमेकं, द्वादश क्रोशोनमेकमेकं च । ।
योजनसहस्रदीर्घ, पद्म विकले महामत्स्ये ॥१५॥ टोका - एकेद्रियनि विर्ष स्वयंभूरमण द्वीप के मध्यवर्ती जो स्वयंप्रभ नामा पर्वत, ताका परला भाग संबंधी कर्मभूमिरूप क्षेत्र विष उपज्या असा जो कमल, तीहि विर्षे किछु अधिक एक हजार योजन लवा, एक योजन चौडा असा उत्कृष्ट
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२००]
[ गोम्मटसार जीवकास गाथा ६५ अवगाह है । याका क्षेत्रफल कहिए है - समान प्रमाण लीए खंड कल्पै जितने खंड होड, तिस प्रमाण का नाम क्षेत्रफल है । तहां ऊचा, लम्बा, चीडा क्षेत्र का ग्रहण जहां होइ, तहा घन क्षेत्रफल वा खात क्षेत्रफल जानना । बहुरि जहां ऊचापना की विवक्षा न होइ अर लम्बा-चौडा ही का ग्रहण होइ, तहां प्रतर क्षेत्रफल वा वर्ग क्षेत्रफल जानना । वहुरि जहा ऊचा-चौडापना की विवक्षा न होइ, एक लम्बाई का ही ग्रहण होइ, तहां श्रेणी क्षेत्रफल जानना ।
सो इहा खात क्षेत्रफल कहिए है । तहा कमल गोल है, तातै गोल क्षेत्र का क्षेत्रफल साधनरूप करण सूत्र करि साधिए है -
वासोत्तिगुणो परिही, वासचउत्थाहदो दु खेत्तफलं ।
खेतफलं देहगुणं, खादफलं होइ सव्वत्थ ।। याका अर्थ - व्यास, जो चौडाई का प्रमाण, तातै तिगुणा गिरदभ्रमणरूप जो परिधि, ताका प्रमाण हो है । वहुरि परिधि को व्यास का चौथा भाग करि गुण, प्रतररूप क्षेत्रफल हो हैं । वहुरि याको वेध, जो ऊचाई का प्रमाण, ताकरि गुण सर्वत्र वातफल हो है । सो इहा कमल विष व्यास एक योजन, ताकी तिगुणा कीए परिधि तीन योजन हो है । याको व्यास का चौथा भाग पाव योजन करि गणे, प्रतर क्षेत्रफल पोग योजन हो है । याको वेध हजार योजन करि गुण, च्यारि करि अपवर्तन कीए, योजा स्वरूप कमल का क्षेत्रफल साड़ा सात सौ योजन प्रमाण हो है।
भाव- एक-एक योजन लम्बा, चौडा, ऊचा खड कल्पं इतने खड हो है ।
बलि दीद्रियनि विपै तीहि स्वयभूरमण समुद्रवर्ती शख विष वारह योजन लम्बा, योजन का पाच चौथा भाग प्रनाग चौडा, च्यारि योजन मुख व्यास करि युक्त, असा उत्कृप्ट अवगाह है । याका क्षेत्रफल करणसूत्र करि साधिए है -
व्यासस्तावद् गुरिणतो, बदनदलोनो मुखार्धवर्गयुतः।
हिरणश्चतुभिर्भक्तः, पंचगुणः शंखखातफलं ॥ यामा नर्थ - प्रथम व्यास को व्यास करि गुणिए, तामे मुख का आधा प्रमाण घवाड, तामे मुन्न का प्राधा प्रमाण का वर्ग जोडिए, ताका दूणा करिए, ताको च्यारि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ २०१ का भाग दीजिए, ताकौ पाचगुणा करिए,जैसे करते शंख क्षेत्र का खातफल हो है। सो इहां व्यास बारह योजन को याही करि गुण एक सौ चवालीस होइ । या मुख का आधा प्रमाण दोय घटाए, एक सौ ब्यालीस होइ । यामें मुख का आधा प्रमाण का वर्ग च्यारि जोडे, एक सौ छियालीस होइ । याको दूणा कीए दोय सै बाणवे होइ । याको च्यारि का भाग दीए तेहत्तरि होइ । याकौ पांच करि गुण, तीन सौ पैसठि योजन प्रमाण शंख का क्षेत्रफल हो है ।
बहुरि त्रीद्रियनि विष स्वयंभरमण द्वीप का परला भाग विष जो कर्मभूमि संबंधी क्षेत्र है, तहा रक्त बीछू जीव है । तीहि विषै योजन का तीन चौथा भाग प्रमाण (5) लम्बा, लम्बाई के आठवें भाग (३२) चौडा, चौडाई ते आधा (६४) ऊचा असा उत्कृष्ट अवगाह है । यह क्षेत्र आयत चतुरस्र है । लम्बाई लीए चौकोर है, सो याका प्रतर क्षेत्रफल भुज कोटि बधते हो है । सन्मुख दोय दिशानि विष कोई एक दिशा विष जितना प्रमाण, ताका नाम भुज है । बहुरि अन्य दोय दिशा विष कोई एक दिशा विषै जितना प्रमाण, ताका नाम कोटि है । अर्थ यहु जो लम्बाई-चौडाई विष एक का नाम भुज, एक का नाम कोटि जानना । इनिका वेध कहिए परस्पर गुणना, तीहि थकी प्रतर क्षेत्रफल हो है। सो इहा लम्बाई तीन चौथा भाग, चौडाई तीन बत्तीसवां भाग, इनिको परस्पर गुणै नव का एक सौ अठाईसवां भाग ( १२८) भया । बहुरि याको वेध ऊचाई का प्रमाण तिनिका चौसठिवा भाग, ताकरि गुणे, सत्ताईस योजन को इक्यासी सै बाणवै का भाग 'दीए एक भाग (८१९२)प्रमाण रक्त बीछ का घन क्षेत्रफल हो है ।
बहुरि चतुरिद्रियनि विष स्वयंभूरमण द्वीप का परला भागवर्ती कर्मभूमि संबधी क्षेत्र विषै भ्रमर हो है । सो तिहि विष एक योजन लांबा, पौन योजन (ई) चौडा, प्राधा योजन (२ ) ऊंचा उत्कृष्ट अवगाह है। ताकी भुज कोटि बेध - एक योजन अर तीन योजन का चौथा भाग, अर एक योजन का दूसरा भाग, इनिको परस्पर गुणे, तीन योजन का आठवां भाग (E) प्रमाण घन क्षेत्रफल हो है ।
बहुरि पंचेद्रियनि विर्षे स्वयंभूरमण समुद्र के मध्यवर्ती महामच्छ, तीहि विष हजार (१०००) योजन लांबा, पांच से (५००) योजन चौडा, पचास अधिक दोय सै (२५०) योजन ऊंचा उत्कृष्ट अवगाह है। तहां भुज, कोटि, वेध हजार
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[ गोम्मटार जीवगण्ड गाया १६-६७
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(२०००) र पांच से ( ५०० ) ग्रर ग्रहाई नै ( २५० ) योजन प्रमाण, इनिकों परस्पर गुणै नाडे बारा कोडि (१२५०००००० ) योजन प्रमाण वनफल हो है । जैसे रहे जो योजन रूप घनफल, तिनके प्रदेशनि का प्रनाग कीए एकेद्रिय के व्यारि बार संख्यातगुणा वनांगुल प्राग, द्वीत्रिय के तीन बार संख्यातगुणा वनांगुल प्रमाण, त्रोत्रिय के एक बार संख्यानगुरणा घनांगुल प्रमाण, चनुरिप्रिय के दीय बार संख्यातगुणा वनांगुल प्रनाण, पंचेद्रिय के पांच बार संख्यातगुणा वनांगुल प्रमाण प्रदेश उत्कृष्ट अवगाहना विपे हो है ।
या पर्याप्त हीद्रियादिक जीवनि का जवन्य अवगाहना का प्रमाण घर ताका स्वामी का निर्देश को कहे हैं -
बिपिपुण्हण्ण, अणूं धरीक कारणमच्छीसु । सिच्छ्यमच्छे विदंगुल संखं संखगुरिवकमा ॥३६॥ द्वित्रिचपपूर्णजघन्यमनुंधरीकुंकारणमनिका
। सिक्यकनत्स्ये वृदांगुलसंख्यं संख्यगुणितक्रमाः ॥९६॥
टीका - पर्यन्त होद्रिय विषै अनुंबरी, त्रीडियति विषं कुंयु, चनुरिद्रियनि विष कारणनलिका, पंचेद्रियनि विषै तंडुलमच्छ इनि जीवति वियं जघन्य अवगाहना विशेष करे जो शरीर र रोया हुवा क्षेत्र ( प्रदेशनि) का प्रमाण घनांगुल का संख्यातवां नग से लगाई न्यानगुणा अनुक्रम करि जानना । तहां हीत्रिय विषै व्यादि वीडिय व तीन बार चतुरिद्रिय विषै दो बार, पंचेंद्रिय विषै एक बारु, संख्यान का भाग या दीजिए, जैसा तांगुन मात्र पर्याप्तनि की जघन्य श्रवगाहता के प्रदेशनिका माग जानना । इनिका व चौडाई, लम्बाई, ऊंचाई का देश इहां नाहीं है । बल कीए को प्रदेशनि का प्रभाग नया, मो इहां कहा है।
मार्गे सर्व नैं जबस्य अवगाहना की यदि देकर उत्कृष्ट श्रवगाहना पर्वत शरीर की अवगाहना के भेद, तिनका स्वानी वा वान गुणकार, तिनिक गाय मंत्र करि इहां दिखावे हैं -
सुहमरिगवातेप्रानू बातेद्यापुरिणपदिट्ठिदं इबरं । वितिचपयादिल्लाणं, एयाराणं तिसेढीय ॥६७॥ सूक्ष्मनिवातेत्रानू, वातेत्रपृनिप्रतिष्ठितमितरत् । द्वित्रिचमाचानामेकादशानां त्रिवेणयः ||९|
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ २०३ टीका - इहां नाम का एक देश, सो संपूर्ण नाम विषै वर्ते है । इस लघुकरण न्याय को प्राश्रय करि गाथा वि कह्या हुवा णिवा इत्यादि आदि अक्षरनि करि निगोद वायुकायिक आदि जीवनि का ग्रहण करना । सो इहां अवगाहना के भेद जानने के अथि एक यंत्र करना ।
तहां सूक्ष्म निगोदिया, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म तेजःकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक नाम धारक पांच सूक्ष्म तिस यंत्र के प्रथम कोठे विषै लिखे हो हैं।
बहुरि ताकी बरोबरि प्रागै बादर - वायु, तेज, जल, पृथ्वी, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येक नाम धारक ये छह बादर पूर्ववत् अनुक्रम करि दूसरा कोठा विष लिखे हो है। पहिले जिनिके नाम लीए थे, तिन ही के फेरी लीए, इस प्रयोजन की समर्थता ते प्रथम कोठा विर्षे सूक्ष्म कहे थे; इहां दूसरा कोठा विष बादर ही है, असा जानना।
बहुरि ताके आगे अप्रतिष्ठित प्रत्येक, द्वीद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेद्रिय नाम धारक ए पांच बादर तीसरा कोठा विष लिखे हो है । इनि सोलहौ विष आदि के सूक्ष्म निगोदादिक ग्यारह, तिनिकै प्रागै तीन पंक्ति करनी। तहां एक-एक पक्ति विषै दोय-दोय कोठे जानने । कैसे ? सो कहिए है - पूर्व तीसरा कोठा कह्या था, ताके प्रागै दोय कोठे करने । तिनि विर्षे जैसे पहला, दूसरा कोठा विर्ष पांच सूक्ष्म, छह बादर लिखे थे, तैसे इहां भी लिखे हो है। बहुरि तिनि दोऊ कोठानि के नीचे पंक्ति विष दोय कोठे भौर करने । तहां भी तैसे ही पांच सूक्ष्म, छह बादर लिखे हो है। बहरि तिनिके नीचे पंक्ति विष दोय कोठे और करने, तहा भी तैसे ही पांच सूक्ष्म, छह बादर लिखे हो है । असे सूक्ष्म निगोदादि ग्यारह स्थानकनि का दोय-दोय कोठानि करि संयुक्त तीन पंक्ति भई । या प्रकार ऊपरि की पंक्ति विष पांच कोठे, तातै नीचली पंक्ति विष दोय कोठे, तातै नीचली पंक्ति विष दोय कोठे मिलि नव कोठे भए ।
अपदिठ्ठिदपत्तेयं, बितिचपतिचबि-अपदिट्ठिदं सयलं । तिचवि-अपदिदिं च य, सयलं बादालगुरिणदकमा ॥६॥
अप्रतिष्ठितप्रत्येक द्वित्रिचपत्रिचद्वयप्रतिष्ठितं सकलम् । त्रिचयप्रतिष्ठितं च च सकलं द्वाचत्वारिंशद्गुणितक्रमाः ॥९८॥
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२०४ ]
[ गोम्मटसार जोधकाण्ड गाया है
टीका - बहुरि तिनि तीनि पंक्तिनि के आगे ऊपर पंक्ति विषै दशवां कोठा करना तीहि विषै अप्रतिष्ठित प्रत्येक, हींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेद्रिय नाम बारक पांच वाटर लिखे हो हैं । वहुरि ताके आगे ग्यारहवां कोठा विषै त्रीद्रिय, चौइंद्रिय, वेद्रिय, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती, पचेद्रिय नाम धारक पांच दादर लिखे हो हैं । बहुरि ताके मार्गे वारहवां कोठा विषै त्रीद्रिय, चतुरिद्रिय, द्वीद्रिय, अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती, पंचेद्रिय नाम धारक पांच वादर लिखे हो है । असे ए चौसठ जीवसमासनि की अवगाहना के भेद हैं । तिनि विषे ऊपरि की पंक्तिनि के आठ कोठानि विपं प्राप्त से जे वियालीस जीवसमास, तिनकी अवगाहना के स्थान, ते गुणितक्रम हैं । अनुक्रम ते पूर्व स्थान को यथासंभव गुणकार करि गुणै उत्तरस्थान हो हैं । बहुरि ताते इनि नीचे की दोय पंक्तिनि विषै प्राप्त भए वाईस स्थान, ते 'सेढिया अहिया तस्थेकपडिभागो' इस वचन तैं अधिक रूप है । तहां एक प्रतिभाग का अधिकपना जानना । पूर्वस्थान को सभवता भागहार का भाग देइ एक भाग को पूर्वस्थान विषे अधिक कीए उत्तरस्थान हो है; असा सूचन कीया है ।
अवरमपुष्णं पढमं सोलं पुरा पढमविदियतदियोली । पुण्णिदरपुष्णियासं, जहण्णमुक्कस्समुक्कस्सं ॥६६॥
वरमपूर्ण प्रथमे, पोडश पुनः प्रथमद्वितीयतृतीयावलिः । पूर्णतरपूर्णानां जघन्यमुत्कृष्टसुत्कृटं ॥९९॥
टीका - पहले तीन कोठेनि विषै प्राप्त जे सोलह जीवसमास, तिनिकी अपर्याप्त विषे जघन्य श्रवगाहना जाननी । बहुरि आगे ऊपरि ते पहली, दूसरी, तीसरी पंक्तिनि विषे एक-एक पक्ति विषै दोय-दोय कोठे कीए, ते क्रम ते पर्याप्त, अपर्याप्त, पर्याय तीन प्रकार जीव की जघन्य, उत्कृष्ट अर उत्कृष्ट अवगाहना है । याका
यह जो ऊरितं प्रथम पक्ति के दोय कोठानि विषै पांच सूक्ष्म, छह बादर इनि ग्यारह पर्याप्त जीवसमासनि की जवन्य ग्रवगाहना के स्थान है । तैसे ही नीचे दूसरी पति व प्रात तिनि ग्यारह अपर्याप्त जीवसमासनि की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान है | तैसे ही तीसरी पंक्ति विपं प्राप्त तिनि ग्यारह पर्याप्त जीव समासनि की उत्पाद अवगाहना के स्थान है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २०५
पुण्णजहण्णं तत्तो, वरं मयुण्णस्स पुण्णउस्कस्स। बीपुण्णजहण्णो त्ति, असंखं संखं गुणं तत्तो ॥१०॥
पूर्णजघन्यं ततो, वरमपूर्णस्य पूर्णोत्कृष्टं ।
द्विपूर्णजघन्यमिति असंख्यं संख्यं गुणं ततः ॥१०॥ टीका - ताके श्रागै दशवां कोठा विष प्राप्त पर्याप्त पांच जीवसमासनि की जघन्य अवगाहना के स्थान है । बहुरि तहां ते आगै ग्यारहवां कोठा विष अपर्याप्त पांच जीवसमासनि की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान है। बहुरि ताके आगै बारहवां कोठा विर्षे पर्याप्त पंच जीवसमासनि की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान है । जैसे ए कहे स्थान, तिनि विर्षे प्रथम कोठा विष प्राप्त सूक्ष्म अपर्याप्त निगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना तै लगाइ दशवा कोठा विर्षे प्राप्त बादर पर्याप्त द्वीद्रिय की जघन्य अवगाहना पर्यत ऊपरि की पंक्ति संबंधी गुणतीस अवगाहना के स्थान, ते असंख्यातअसंख्यात गुणा क्रम लीए है। बहुरि तिसते आगै बादर पर्याप्त पंचेद्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यत तेरह अवगाहना के स्थान, ते संख्यातगुणां, सख्यातगुणां अनुक्रम लीए है; असा जानना ।
सुहमेदरगुरणगारो, आवलिपल्ला असंखभागो दु । सहाणे सेढिगया, अहिया तत्थेकपडिभागो॥१०१॥
सूक्ष्मेतरगुणकार, आवलिपल्यासंख्येयभागस्तु ।
स्वस्थाने श्रेरिणगता, अधिकास्तत्रैकप्रतिभागः ॥१०१॥ टीका - इहां गुणतीस स्थान असख्यातगुणे कहे, तिनिविर्ष जे सूक्ष्म जीवनि के अवगाहना के स्थान है, ते प्रावली का असंख्यातवा भाग करि गुणित जानने । पूर्वस्थान को घनावली१ का असंख्यातवां भाग करि तहां एक भाग करि गुण उत्तर स्थान हो है । बहुरि जे बादर जीवनि के अवगाहन के स्थान है, ते पल्य का असख्यातवां भाग करि गुरिणत है । पल्य का असख्यात भाग करि तहां एक भाग करि पूर्वस्थान को गुणे, उत्तर स्थान हो है। जैसे स्वस्थान विष गुणकार है, या प्रकार असंख्यात का गुणकार विष भेद है, सो देखना । बहुरि नीचली दूसरी, तीसरी पंक्ति
१. अप्रति मे 'प्रावली' है, वाकी चार प्रतियो मे 'धनावली' है।
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1. R m पप्रतिष्ठित गूक्ष्मनिगोद १७| चादर पात २२ अप्रतिष्ठित तेंद्री ५५ चौद्री तेद्री ६० गौरनी 1।। ।। पा : पृ.पो | परोक १२ मी गात १८ तेग १६ | तेज २३ अग् २४ | प्रत्येक ५० पेत्री | ५६ केंद्री ५७ |
६१ येत्री ६२ Yो ५i fiगोर १०/ १३ रोमी १४ | अप २० पृथ्वी | पृथ्वी २५ निगोद | ५१ तेंद्री ५२ अप्रतिष्ठित ५८ अप्रतिष्ठित पत्येक
- पतिष्ठिा प्रत्येक | गौमी १५ पनद्री | २१ पनि पच | २६ प्रतिष्ठित | चौद्री ५३ पचेद्री | पनेंद्री ५६ इनि ६३ पचेद्री ६४ .
| पर्याप्तनि की पा ११ शानदा१६ अनि पाच पर्याप्ती
प्रत्येक २७ इनि ५४ इनि पान
पाच अप्रर्याप्तनि | इनि पाच पर्यापागाहना।
अपर्याप्तनि की अपर्याप्त नि की जपन्य अवगा- छहो प्रर्याप्तनि । पर्याप्तनि की की उत्कृष्ट अव- प्तनि की उत्कृष्ट जापग प्रवगा- जपन्य अवगाहना।
की जघन्य अव- जघन्य अवगा- | गाहना। अवगाहना। हना।
गाहना।
हना।
सूक्ष्मनिगोद २८ | वादर वात ३३ वात २६ तेज ३० | तेज ३४ अप् ३५ अप् ३१ पृथ्वी | पृथ्वी ३६ निमोद ३२ इनि पाच | ३७ प्रतिष्ठित अपर्याप्तनि की | प्रत्येक ३८ इनि उत्कृष्ट अवगा- | छहो अपर्याप्तनि हना।
की उत्कृष्ट अवगाहना।
सूक्ष्मनिगोद ३६ वादर वात ४४ घात ४० तेज ४१ | तेज ४५ अप् ४६ अप् ४२ पृथ्वी | पृथ्वी ४७ निगोद ४३ इनि पचपर्या- | ४८ प्रतिष्ठित प्तनि की उत्कृष्ट | प्रत्येक ४६ इनि
| छही पर्याप्तनि अवगाहना।
की उत्कृष्ट अवगाहना।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २०७
विषे प्राप्त जे अवगाहना के स्थान ते अधिक अनुक्रम धरे है । तहां सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना के स्थान कौं आदि देकरि उत्तर-उत्तर स्थान पूर्वपूर्व अवगाहना स्थान तै ताही को आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीए, तहां एक भागमात्र अधिक है । पूर्वस्थान को आवली का असंख्यातवा ( भाग का) भाग दीए जो प्रमाण होइ, तितना पूर्वस्थान विपे अधिक कीए उत्तरस्थान विषं प्रमाण हो है । इहां अधिक का प्रमाण ल्यावने के प्रथि भागहार वा भागहार का भागहार, सो आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । औसे परमगुरु का उपदेश तै चल्या आया प्रमाण जानना । बहुरि यहां यह जानना सूक्ष्मनिगोदिया का तीनो पंक्ति विषे श्रनुक्रम करि पीछे सूक्ष्म वातकायिक का तीनो पक्तिनि विषै अनुक्रम करना । औसे ही क्रम ग्यारह जीवसमासनि का अनुक्रम जानना ।
-
यहु यंत्र जीवसमासनि की अवगाहना का है । इहां ऊपरि की पंक्ति विषै प्राप्त बियालीस स्थान गुणकाररूप है । तहा पहला, चौथा कोठा विषै सूक्ष्म जीव कहे, ते क्रम तैं पूर्वस्थान तै उत्तरस्थान आवली का असंख्यातवां भाग करि गुणित है । बहुरि दूसरा, तीसरा, सातवां कोठा विषै बादर कहे अर दशवा कोठा विषै अप्रतिष्ठित प्रत्येक वा वेद्री कहे, ते क्रम तै पल्य के असंख्यातवां भाग करि गुरिणत है । बहुरि दशवां कोठा विषै तेद्री सौ लगाइ बारहवा कोठा विषे प्राप्त पंचेद्री पर्यंत संख्यात करि गुणित है । बहुरि नीचली दोय पक्तिनि के च्यारि कोठानि विषे जे स्थान कहे, ते आवली का असख्यातवां भाग करि भाजित पूर्वस्थान प्रमाण अधिक है ।
( देखिए पृष्ठ २०६ ) अब इहा कहे जे अवगाहना के स्थान, तिनके गुरणकार का विधान कहिए है | सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना का स्थान, सो आगे कहै गुरणकार, तिनकी अपेक्षा औसा है । उगणीस बार पल्य का भाग, नव बार श्रावली का असंख्यातवां भाग, बाईस बार एक अधिक श्रावली का प्रसंख्यातवां भाग, नव बार संख्यात, इनिका तौ जाको भाग दीजिए । बहुरि बाईस बार आवली का असख्यातवां भाग करि जाकौ गुणिए जैसा जो घनागुल, तीहि प्रमाण है, सो या आदिभूत स्थान स्थापि, यातै सूक्ष्म अपर्याप्तक वायुकायिक जीव का जघन्य अवगाहना स्थान आवली का प्रसंख्यातवा भाग करि गुरिणत है, सो याका गुणकार आवली का असंख्यातवां भाग र पूर्वे प्रावली का असख्यातवा भाग का भागहार
१ छपी हुई प्रति मे 'ग्यारहवा', अन्य छह हस्तलिखित प्रतियो मे 'वाहवा' है ।
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२० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया १०१ नव वार कह्या था, तामैं एक वार आवली का असख्यातवा भाग मदृश देखि दोऊनि का अपवर्तन कोए, पूर्वे जहां नव वार कह्या था, तहां इहां आठ बार आवली का असंख्यातवां भाग का भागहार जानना । जैसे ही आगे भी गुणकार भागहार की समान देखि, तिनि दोऊनि का अपवर्तन करना । वहुरि यातें सूक्ष्म अपर्याप्त तेजस्कायिक की जघन्य अवगाहना स्थान आवली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार अपवर्तन कीए आठ वार की जायगा सात बार पावली का असंख्यात भाग का भागहार हो है । वहुरि यात सूक्ष्म अपर्याप्त अप्कायिक का जघन्य अवगाहना स्थान आवली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां पूर्ववत् अपवर्तन करना । बहुरि यात सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकायिक का जघन्य अवगाहना स्थान प्रावली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां भी पूर्ववत् अपवर्तन करना । जैसे इहां प्रावली का असख्यातवां भाग का भागहार तो पांच वार रह्या, अन्य सर्व गुणकार भागहार पूर्ववत् जानने । वहुरि इहां पर्यंत सूक्ष्म ते सूक्ष्म का गुणकार भया, तातै स्वस्थान गुणकार कहिए है । अव सूक्ष्म ते वादर का गुणकार कहिए है, सो यहु परस्थान गुणकार जानना । प्रागै भी सूक्ष्म ते वादर, वादर ते सूक्ष्म का जहां गुणकार होइ, सो परस्थान गुणकार है; जैसा विशेप जानना । बहुरि इस सूक्ष्म अपर्याप्त पृथिवीकायिक का जघन्य अवगाहन स्थान ते स्वस्थान गुणकार की उलंधि परस्थानल्प वार अपर्याप्त वातकायिक का जघन्य अवगाहना स्थान पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां इस गुणकार करि उगणीस बार पल्य का असंख्यातवां भाग का भागहार था, तामें एक वार का अपवर्तन करना । बहुरि यातें वादर तेजःकायिक अपर्याप्तक का जघन्य अवगाहना स्थान पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां भी पूर्ववत् अपवर्तन करना । जैसे ही पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा अनुक्रम करि अपर्याप्त वादर, अप, पृथ्वी, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येकनि के जवन्य अवगाहना स्थान, अर अपर्याप्त अप्रतिष्ठित प्रत्येक, वेद्री, तेद्री, चौइंद्री पञ्त्री, के जघन्य अवगाहना स्थान, इन नव स्थानकनि की प्राप्त करि पूर्ववत् अपवर्तन करने अपर्याप्त पंचेंद्रिय का जघन्य अवगाहना स्थान विपै आठ वार पल्य का असंन्यातवां भाग का भागहार रहै हैं । अन्य भागहार गुणकार पूर्ववत् जानना । बहरि याने मूदम निगोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान, सो परस्थानरूप प्रावनी का असंन्यातवां भाग गुणा है । सो पूर्व प्रावली का असंख्यातवां भाग का भागहार पांच बार रहा था, तामें एक वार करि इस गणकार का अपवर्तन करना ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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बहुरि यातै सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहना स्थान विशेष करि अधिक है । विशेष का प्रमाण कह्या सूक्ष्म निगोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान को श्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीए, तहा एक भाग मात्र विशेष का प्रमाण है । या तिस ही सूक्ष्म निगोद पर्याप्त का जघन्य स्थान विषै समच्छेद विधान करि मिलाइ राशि को अपवर्तन कीए, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहना हो है ।
अपवर्तन कैसे करिए ?
जहा जिस राशि का भागहार देइ एक भाग कोई विवक्षित राशि विषे जोडना होइ, तहा तिस राशि ते एक अधिक का तौ गुणकार अर तिस पूर्णराशि का भागहार विवक्षित राशि को दीजिए। जैसे चौसठि का चौथा भाग चौसठि विषं मिलावना होइ तौ चौसठि को पांच गुरणा करि च्यारि का भाग दीजिए । तैसे इहा भी प्रावली का असंख्यातवा भाग का भाग देइ एक भाग मिलावना है, तातै एक अधिक आवली का असख्यातवा भाग का गुणकार अर ग्रावली का असख्यातवा भाग का भागहार करना । बहुरि पूर्वे राशि विषै बाईस बार एक अधिक आवली का असख्यातवां भाग का भागहार है । अर वाईस बार ही आवली का असख्यात भाग का गुरणकार, है । सो इनि विपै एक बार का भागहार गुणकार करि अबै कहे जे गुणकार भागहार, तिनिका अपवर्तन कीए बाईस बार की जायगा गुरणकार भागहार इकईस बार ही रहै है । असे ही प्राग भी जहा विशेष अधिक होइ, तहां अपवर्तन करि आवली का असंख्यातवां भाग का गुरणकार अर एक अधिक आवली का असंख्यातवा भाग का भागहार एक-एक बार घटावना । बहुरि सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त का उत्कृष्ट श्रवगाहन तै सूक्ष्म निगोद पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहना विशेष करि अधिक है । इहा विशेष का प्रमाण सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहनां को श्रावली का असंख्यातवा भाग का भाग दीए एक भागमात्र है । चाकौ पूर्व अवगाहन विषै जोडि, पूर्ववत् अपवर्तन करना । वहुरि याते सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त का जघन्य अवगाह प्रावली का असख्यातवा भाग गुणा है । सोई यहा अपवर्तन कीए च्यारि बार यावली का असख्यातवा भाग का भाग था, सो तीन बार ही रहै है । वहुरि याते सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है । इहा विशेष का प्रमाण पूर्वराशि को प्रावली का असख्यातवा भाग का भाग दीए एक भागमात्र है, ताकी जोडि अपवर्तन करना । बहुरि यातै याके नीचे सूक्ष्म वायुकायिक
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२१०]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १०१ पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन, सो विशेष करि अधिक है। पूर्वराशि की पावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीये, तहां एक भाग करि अधिक जानना । इहा भी अपवर्तन करना । वहुरि यात सूक्ष्म तेजकायिक पर्याप्तक का जघन्य अवगाहन आवली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां अपवर्तन करिए, तहा प्रावली का असंख्यातवा भाग का भागहार तीन वार की जायगा दोय वार ही रहै है; ऐसे ही यात मूक्ष्म तेज कायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट प्रावगाहन विशेप करि अधिक है । यात सूक्ष्म तेज.कायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेप करि अधिक है । यात सूक्ष्म अपकायिक पर्याप्तक का जघन्य अवगाहन आवली का असंख्यातवां भाग गुणा है । यात मूक्ष्म अपकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है। याते सूक्ष्म अपकायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है। यातै सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन आवली का असंख्यातवां भागगुणा है, यात सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेप करि अधिक है । यात सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है, ऐसे दोय-दोय तो प्रावली का असंख्यातवां भाग करि भाजित पूर्वराणि प्रमाण विशेप करि अधिक पर एक-एक अपना-अपना पूर्वराशि ते प्रावली का असख्यातवां भाग गुणा जानना । असे आठ अवगाहना स्थाननि कों उलंघि तहां आठवां सूक्ष्म पृश्वीकायिक पर्याप्त का उत्कृप्ट अवगाहन, सो पूर्वोक्त प्रकार अपवर्तन करते वारह वार पावली का असंख्यातवां भाग का गुणकार अर आठ वार पल्य का असख्यात भाग, बारह वार एक अधिक आवली का असंख्यातवां भाग, नव वार सख्यात का भाग जाकै पाइए, जैसा घनांगुल प्रमाण हो है । बहुरि यात वादर वायुकायिक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन परस्थानरूप है, तातै पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । यहां पल्य का असंख्यातवां भाग का भागहार आठ वार था, तामैं एकवार करि अपवर्तन कीए सात वार रहै है । वहुरि यातै आगें दोय-दोय स्थान तौ विशेप करि अधिक अर एक-एक स्थान पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा जानना । तहा विशेप का प्रमाण अपना-अपना पूर्वराशि को आवली का असंख्यातवां भागसप प्रतिभाग का भाग दीप एक भाग प्रमाण जानना । सो जहां अधिक होइ, तहां अपवर्तन कीए वारह बार पावली का असंख्यातवां भाग का गुणकार अर एक अधिक पावली का
मपातबा नाग का भागहार थे, तिनिविपै एक-एक वार घटता हो है । वहुरि जहां " का असन्धानवा भाग का गुणकार होइ, तहां अपवर्तन कीए सात वार पल्य का
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सम्पमानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[२११ असंख्यातवां भाग का भागहार थे, तिनि विर्ष एक-एक बार घटता हो है, असा क्रम जानना । सो बादर वायुकायिक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन तै बादर वायुकायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है। यातै बादर वायुकायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है । यातै बादर तेजकाय पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है, यातै बादर तेजकाय अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है । यातै बादर तेजकायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है। यातै बादर अप्कायिक अपर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । यातै बादर अप्कायिक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष करि अधिक है । यातै बादर अप्कायिक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। यातै बादर पृथ्वी पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । यात बादर पृथ्वी अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। यात बादर पृथ्वी पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है । यात बादर निगोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है। यातै बादर निगोद अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है। यातै बादर निगोद पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है । यातै प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य के असंख्यातवां भाग गुणा है । यातै प्रतिष्ठित प्रत्येक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है । यातै प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन विशेष अधिक है । असै सतरह अवगाहन स्थाननि को उलंघि पूर्वोक्त प्रकार अपवर्तन कीए सतरहवा बादर पर्याप्त प्रतिष्ठित प्रत्येक का उत्कृष्ट अवगाहन दोय बार पल्य का असख्यातवा भाग पर नव बार सख्यात का भाग जाको दीजिए, असा घनागुल प्रमाण हो है। बहुरि याते अप्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असख्यातवा भाग गुणा है, इहा भी अपवर्तन करना ।
बहुरि यात बेद्री पर्याप्त का जघन्य अवगाहन पल्य का असंख्यातवा भाग गुणा है । इहा भी अपवर्तन कीए पल्य का असंख्यातवा भाग का भागहार था, सो दूरि होइ घनागुल का नव बार सख्यात का भागहार रह्या । बहुरि यातै तेद्री, चौद्री, पचेद्री पर्याप्तनि के जघन्य अवगाहन ते क्रम तै पूर्व-पूर्व ते सख्यात-सख्यात गुरणे है । यातै तेद्री अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन सख्यात गुणा है । यातै चौद्री अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन सख्यात गुणा है । यातै बेद्री अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुणा है । यातै अप्रतिष्ठित प्रत्येक अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन सख्यात
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२१२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया १०२ -
गुणा है । याते पंचेंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट श्रवगाहन सख्यात गुणा है । जैसे एकएक बार संख्यात का गुणकार करि नव वार संख्यात का भागहार विषे एक-एक वार का अपवर्तन करते पंचेद्री अपर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन एक वार संख्यात करि भाजित घनांगुल प्रमारण हो हैं । बहुरि याते त्रीद्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट ग्रवगाहन संख्यात गुणा है, सो अपवर्तन करिए; तथापि इहां गुगुणकार के सख्यात का प्रमाग भागहार के संख्या का प्रमाण ते बहुत है । ताते त्रीद्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुग्गा घनांगुल प्रमाण है । यतै चौडंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुणा है । याते वेडी पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुणा हूँ | याने प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुग्गा है । याते पंचेंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन संख्यात गुरणा है । जैसे क्रम तं अवगाहन के स्थान जानने ।
का सूक्ष्न निगोद लब्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहन ते सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त के जघन्य अवगाहन का गुणकार स्वरूप श्रावली का असंख्यात भाग कया । ताकी उत्पत्ति का अनुक्रन को अर तिन ढोऊनि के मध्य अवगाहन के भेद है, तिनके प्रकारनि की गाथा नव करि कहे है -
raft इगिपदेसे, जुढे असंखेज्जभागवड्ढीए । आबी गिरंतरमबो, एगेगपबेसपरिवढी ॥१०२॥
अवरोपरि एकप्रदेगे, युते असंख्यात भागवृद्धेः । आदिः निरंतरमतः, एकैकप्रदेशपरिवृद्धिः ||१०२॥
टीका - सूक्ष्म निगोद लव्वि अपर्याप्तक जीव का जघन्य अवगाहन पूर्वोक्त प्रमाण, ताकी लघु संदृष्टि करि यह सर्व तैं जघन्य भेद है, ताते याका श्रादि
रज ऐसा स्थापन करि वहरि यातें दूसरा अवगाहना का भेद के इस घन्य अवगाहन विषै एक प्रदेश जोडे, सूक्ष्म निगोद लव्ध पर्याप्तक का दूसरा प्रवगाहन का भेद ही है । चहरि ऐसे ही एक-एक प्रदेश बघता ग्रनुक्रन करि तावत् होना यावत् सूक्ष्म वायुकाविक अपर्याप्त का जघन्य श्रवगाहना, सो सूक्ष्म fatta saनक का जवन्य ग्रवगाहना ते आवली का असंख्यातवां भाग ही नहीं प्रख्यात भाग वृद्धि, नख्यात भाग वृद्धि, सत्य र वृद्धि ऐसे स्थान पनि वृद्धि और वीचि वीचि
सख्यात गुण वृद्धि वक्तव्य भाग वृद्धि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका |
[ २१३ वा अवक्तव्य गुण वृद्धि, तिनिकरि बधते जे अवगाहन के स्थान, तिनिके उपजने का विधान कहिए है।
भावार्थ - जघन्य अवगाहना का जेता प्रदेशनि का प्रमाण, ताकी जघन्य अवगाहना प्रमाण असख्यात ते लगाइ जघन्य परीतासंख्यात पर्यत जिस-जिसका भाग देना संभवे, तिस-तिस असंख्यात का भाग देते (जघन्य अवगाहन) जिस-जिस अवगाहन भेद विषै प्रदेश बधती का प्रमाण होइ, तहा-तहा असंख्यात भाग वृद्धि कहिए। बहुरि तिस जघन्य अवगाहना का प्रदेश प्रमाण को उत्कृष्ट संख्यात ते लगाइ यथा सभव दोय पर्यंत सख्यात के भेदनि का भाग देतै जघन्य अवगाहना ते जिस-जिस अवगाहना विष बधती का प्रमाण होइ, तहा-तहा संख्यात भाग वृद्धि कहिये । बहुरि दोय तै लगाइ उत्कृष्ट संख्यात पर्यत (संख्यात के भेदनि करि) १जघन्य अवगाहना को गुणं जिस-जिस अवगाहना विषप्रदेशनि का प्रमाण होइ, तहा-तहा सख्यात.गुण वृद्धि कहिए। बहुरि जघन्य परीतासख्यात तै लगाइ आवली का असंख्यातवां भाग पर्यत असख्यात के भेदनि करि जघन्य अवगाहना को गुणै, जिस-जिस अवगाहना के भेद विपै प्रदेणनि का प्रमाण होइ तहा-तहा असंख्यात गुण वृद्धि कहिए । बहुरि जहा-जहा इनि सख्यात वा असख्यात के भेदनि का भागहार गुरणकार न सभवै ऐसे प्रदेश जघन्य अवगाहना ते जहा-जहा बधती होइ, सो अवक्तव्य भाग वृद्धि वा अवक्तव्य गुण वृद्धि कहिए । सो यहु (प्रवक्तव्य) वृद्धि पूर्वोक्त चतु स्थान पतित वृद्धि के वीचि-वीचि होइ है । बहुरि यहाँ जघन्य अवगाहना प्रमारण ते वधता असख्यात का अर अनत का भाग की वृद्धि न संभव है, जाते इनिका भाग जघन्य अवगाहना को न वन है। बहुरि इहा आवली का असख्यातवा भाग ते वधता असख्यात का अर अनन्त का गुणकाररूप वृद्धि न संभव है, जातै इनि करि जघन्य अवगाहना की गुणे प्रमाण बधता होइ । इहा सूक्ष्म अपर्याप्त वायुकायिक का जघन्य अवगाहना पर्यत ही विवक्षा है।
___ असे इहा प्रदेश वृद्धि का स्वरूप जानना, सोई विशेप करि कहिए है। सर्व ते जघन्य अवगाहना को इस जघन्य अवगाहना प्रमाण असख्यात का भाग दीए एक पाया, सो जघन्य अवगाहना के ऊपरि एक प्रदेश जोड, दूसरा अवगाहना कामद हो है, सो यहु असख्यात भाग वृद्धि का आदि स्थान है। बहरि जघन्य अवगाहना ते आधा प्रमागरूप असख्यात का भाग तिस जघन्य अवगाहना की दीए दोन पाए,
१. व प्रति के अनुसार पाठभेद है।
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२१४
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १०३-१०४
सो जघन्य अवगाहना विषै जोडें, तीसरा अवगाहना का भेद होड, सो यह संख्यात भाग वृद्धि का दूसरा स्थान है । असें ही क्रम करि जघन्य श्रवगाहना की यथायोग्य असंख्यात का भाग दीए तीन, च्यारि, पाच इत्यादि सख्यात असख्यात पाए, ते जघन्य अवगाहना विषै जोडे निरतर एक-एक प्रदेश की वृद्धि करि संयुक्त श्रवगाहना के स्थान असंख्यात हो है । तिनिको उलघि कहा होड सो क है है
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श्रवरोग्गाहरणमाणे, जहण्णपरिमिदअसंखरासिहिदे । अवरस्सुर्वार उड्ढे, जेट्ठमसंखे ज्जभागस्स ॥१०३॥
अवरावगाहनाप्रमाणे, जघन्यपरिमितासंख्यातराशिते । अवरस्योपरि वृद्धे, ज्येष्ठम संख्यात भागस्य ॥१०३॥
टीका - एक जायगा जघन्य अवगाहना को जघन्य परिमित असंख्यात राशि का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितने जघन्य अवगाहना विषे जोडे जितने होड, तितने प्रदेश जहां अवगाहना भेद विषै होइ, तहा असंख्यात भाग वृद्धिरूप अवगाहना स्थाननि का अंतस्थान हो है । एते ए असंख्यात भाग वृद्धि के स्थान कितने भए ? सो कहिए है - 'दी ते सुद्धे वट्टिहिदे रूवसंजुदे ठाणे' इस करण सूत्र करि असंख्यात भाग वृद्धिरूप अवगाहना का आदिस्थान का प्रदेश प्रमारण को अंतस्थान का प्रदेश प्रमाण मे स्यौ घटाए अवशेष रहै, ताकी स्थान-स्थान प्रति एक-एक प्रदेश वधता है, तात एक का भाग दीए भी तितने ही रहे, तिनमे एक और जोड़े जितने होइ, तितने असख्यात भाग वृद्धि के स्थान जानने ।
तस्सुवरि इगिपदेसे, जुदे अवत्तव्वभागपारंभो । वरसंखमवहिदवरे, रूऊणे अवरउवरिजुदे ॥ १०४ ॥
तस्योपरि एकप्रदेशे, युते अवक्तव्यभागप्रारंभ. । वरसंख्यातावहितावरे, रूपोने अवरोपरियुते ॥ १०४॥
टीका - पूर्वोक्त असख्यात भाग वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान, तीहि विषै एक प्रदेश जुड़े प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का प्रारंभरूप प्रथम अवगाहना स्थान हो है । बहुरि ताके आगे एक-एक प्रदेश वधता अनुक्रम करि अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थानकनि - उलघि एक बार उत्कृप्ट संख्यात का भाग जघन्य अवगाहना को दीए जो
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका j
[ २१५ प्रमाण आवै, तामै एक घटाए जितने होंइ, तितने प्रदेश जघन्य अवगाहना के ऊपरि जुडै कहा होइ, सो कहै है -
तवड्ढीए चरिमो, तस्सुरि रूवसंजुदे पढमा । संखेज्जभागउड्ढी, उवरिमदो रूवपरिवड्ढी ॥१०॥
तवृद्धेश्वरमः, तस्योपरि रूपसंयुते प्रथमा ।
संख्यातभागवृद्धिः उपर्यतो रूपपरिवृद्धिः ॥१०५॥ टीका - तीहि अवक्तव्य भाग वृद्धि का अंत अवगाहन स्थान हो है । बहुरि ए प्रवक्तव्य भाग वृद्धि स्थानकनि के भेद कितने है ? सो कहिए है - 'मादी अंते सुद्धे वट्टिहिदे रूवसंजुदे ठाणे' इस करण सूत्र करि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का आदिस्थान का प्रदेश प्रमाण अतस्थान का प्रदेश प्रमाण विष घटाइ, अवशेष की वृद्धि प्रमाण एक-एक का भाग देइ जे पाए तिनि में एक जोडे जितने होइ, तितने अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान है।
बहुरि अब अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थानकनि की उत्पत्ति को अंक सदष्टि करि व्यक्त करै है। जैसे जघन्य अवगाहना का प्रमाण अडतालीस से (४८००), जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण सोलह, उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण १५, तहा भागहारभूत जघन्य परीतासंख्यात सोलह (१६) का भाग जघन्य अवगाहना अड़तालीस सै (४८००) को दीए तीन से पाए, सो इतने जघन्य अवगाहना ते वध असख्यात भाग वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान हो है । वहुरि तिस जघन्य अवगाहना अडतालीस सै को उत्कृष्ट संख्यात पंद्रह, ताका भाग दीए तीन से बीस (३२०) पाए, सो इतने बधै सख्यात भाग वृद्धि का प्रथम अवगाहना स्थान हो हे । बहुरि इनि दोऊनि के बीच अंतराल विर्ष तीन से एक को आदि देकरि तीन से उगणीस ३०१, ३०२, ३०३, ३०४, ३०५, ३०६, ३०७, ३०८, ३०६, ३१०, ३११, ३१२, ३१३, ३१४, ३१५, ३१६, ३१७, ३१८, ३१६ पर्यन्त वध जे ए उगरणीस स्थान भेद हो है, ते असंख्यात भाग वृद्धिरूप वा संख्यात भाग वृद्धिरूप न कहे जाड, जाते जघन्य असख्यात का भी वा उत्कृष्ट संख्यात का भी भाग दीए ते तीन से एक आदि न पाइए है । काहे त ? जाते जघन्य असंख्यात का भाग दीए तीन से पाग, उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीए तीन से वीस पाए, इनि ते तिनकी सख्या हीन अधिक है। ताते इनिकी प्रवक्तव्य भाग वृद्धिरूप स्थान कहिए तो इहां प्रवक्तव्य भाग वृद्धि विधे भागहार का प्रमाण कैसा सभव है ? सो कहिए है - जघन्य का प्रमाग अग्तानीस
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| गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा १०६ २१६ सै, ताकी इस तीन से एक प्रमाण भागहार का भाग दीए जो पाइए, तितने का भागहार संभव है । तहां हारस्य हारो गुरणकौशराशेः' इस करग सूत्र करि भागहार का भागहार है, सो भाज्य राशि का गुणकार होइ, असे भिन्न गगित का आश्रय करि अडतालीस सै को तीन सै एक करि ताकी अडतालीस सै का भाग दीए इतने प्रमाण तिस प्रवक्तव्य भागवृद्धि का प्रथम अवगाहन भेट के वृद्धि का प्रमाण हो है । सो अपवर्तन कीए तीन से एक ही आवे है । सो यह संख्यात-असख्यातरूप भागहाररूप न कह्या जाय; तातै प्रवक्तव्य भाग वृद्धिरूप कह्या है ।
भावार्थ - इहां असा जो भिन्न गणित का प्राथय करि इहा भागहार का प्रमाण असा प्राव है । वहुरि जैसे यह अंकसष्टि करि कयन कीया, असे ही अर्यसंदृष्टि करि कथन जोडना । इस ही अनुक्रम करि प्रवक्तव्य भाग वृद्धि के अंतस्थान पर्यन्त स्थान ल्यावने । बहुरि तिस प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का अत अवगाहना स्थान विषै एक प्रदेश जुडै सख्यात भाग वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो है । ताके आगे एक-एक प्रदेश की वृद्धि का अनुक्रम करि अवगाहन स्थान असख्यात प्राप्त हो है।
अवर अवरुवार, उड्ढे तड्डिपरिसमत्तीहु। रूवे तदुवरि उढ्डे, होदि अवत्तमपटमपदं ॥१०॥
प्रवरार्धे अवरोपरिवृद्धे तवृद्धिपरिसमाप्तिहि ।
रूपे तदुपरिवृद्ध, भवति अवक्तव्यप्रथमपदम् ॥१०६॥ टीका - जघन्य अवगाहना का आधा प्रमाणरूप प्रदेश जघन्य अवगाहना के ऊपरि ववते सते संख्यात भाग वृद्धि का अंतस्थान हो है । जातं जघन्य संख्यात का प्रमाण दोय है, ताका भाग दीए राशि का आवा प्रमाण हो है । बहुरि ए सख्यात भाग वृद्धि के स्थान देते है ? सो कहिए है - 'आदी अंले सुद्धे वट्टिहिदे स्वसजुदे ठाणे' इस नूत्र करि सख्यात भाग वृद्धि का आदिस्थान का प्रदेश प्रमाण को अंतस्थान का प्रदेश प्रमाण विष घटाइ अवशेष की वृद्धि का प्रमाण एक का भाग दीए भी तितने ही रहे । तहा एक जोडे जो प्रमाण होइ, तितने संख्यात भाग वृद्धि के स्थान है । बहुरि संख्यात भाग वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान विप एक प्रदेश जुडै, प्रवक्तव्य मागवृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान उपजे है । वहुरि ताके आगे एक-एक प्रदंग बग्ता अनुक्रम करि अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान असंख्यात उलंघि एक जायगा कह्या, मो कह है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भापाटीका j
रूऊणवरे श्रवरुस्सुर्वारं संवड्ढिदे तबुक्कस्सं । तहि पदेसे उड्ढे, पढ़मा संखेज्जगुणवड्ढि ॥ १०७ ॥
रूपोनावरे अवरस्योपरि संर्वाधिते तदुत्कृष्टं ।
तस्मिन् प्रदेशे वृद्धे प्रथमा सख्यात गुणवृद्धिः ॥ १०७॥
टीका एक घाटि जघन्य अवगाहना का प्रदेश प्रमाण जघन्य अवगाहना के ऊपरि बधतै सतै प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का अंत उत्कृष्ट अवगाहना स्थान हो है । जातै जघन्य संख्यात का प्रमाण दोय है, सो दूरगा भए संख्यात गुण वृद्धि का आदि स्थान होइ । तातै एक घाटि भए, याका अतस्थान हो है । इहा अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान केते है ? सो कहिए है - ' आदी अंते सुद्धे' इत्यादि सूत्र करि याके आदि कौ अत विषै घटाइ, अवशेष कौ वृद्धि एक का भाग देइ एक जोडै जो प्रमाण होइ, तितने अवक्तव्य भाग वृद्धि के स्थान हो है । बहुरि तिस प्रवक्तव्य भाग वृद्धि का अंत स्थान विषै एक प्रदेश जुडे, संख्यात गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो है । ताकै आगे एक - एक प्रदेश की वृद्धि करि संख्यात गुरण वृद्धि के प्रसख्यांत अवगाहना स्थान की प्राप्त होइ, एक स्थान विषै कह्या, सो कहै है .
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अवरे वरसंखगुणे, तच्चरिमो विसंजुते । उग्गाहणपिढमा, होदि अवत्तव्वगुणवड्ढी ॥ १०८ ॥
अवरे वरसंख्यगुणे, तच्चरमः तस्मिन् रूपसयुक्त । श्रवगाहने प्रथमा, भवति वक्तव्यगुणवृद्धिः || १०८।।
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टीका जघन्य अवगाहना को उत्कृप्ट संख्यात करि गुणै जितने होड, तितने प्रदेश जहां पाइए, सो संख्यात गुण वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान है । वहुरि ए संख्यात गुण वृद्धि के स्थान केते है ? सो कहिए है - पूर्ववत् 'आदी अंते सुद्धे वहिदे रूवसंजुदे ठाणे' इत्यादि सूत्र करि याका आदि की प्रत विषै घटाइ, वृद्धि एक का भाग देई, एक जोड़े, जितने पावै तितने है । वहुरि ग्रागै संख्यात गुण वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान विषे एक प्रदेश जोडे, अवगाहन स्थान हो है । यातें आगे एक-एक प्रदेश की वृद्धि करि वृद्धि के स्थान असंख्यात प्राप्त करि एक स्थान विषै कह्या, सो कहूं है -
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अवक्तव्य गुग् वृद्धि का प्रथम
वक्तव्य गुण
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२८
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[ गोम्मटसार जौवकाण्डं गाया १०९
अवरपरितासंखेणवरं संगुणिय रूवपरिहीणे । तच्चरिमो रूजुदे, त िश्रसंखेज्जगुणपढमं ॥ १०६ ॥
अवरपरीतासंख्येनावरं संगुण्य रूपपरिहीने ।
तच्चरमो रूपयुते, तस्मिन् श्रसंख्यातगुणप्रथमम् ॥१०९॥
टोका जघन्य परीता असंख्यात करि जघन्य अवगाहना कौं गुणि, तामै एक घटाए जो प्रमाण होइ, तितने प्रदेशरूप तिस प्रवक्तव्य गुरण वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान हो है । ए अवक्तव्य गुण वृद्धि के स्थान केते है ? सो कहिए है पूर्ववत् 'आदी अंते सुद्धे' इत्यादि सूत्र करि याका आदि को अंत विषै घटाए, अवशेष की वृद्धि एक का भाग देइ एक जोड़ें, जितने होंइ तितने हैं । बहुरि इहां प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का स्वरूप अंकसंदृष्टि करि अवलोकिए हैं । जैसे जघन्य ग्रवगाहना का प्रमाण सोलह (१६), एक घाटि जघन्य परीता असंख्यात प्रमाण जो उत्कृप्ट संख्यात, ताका प्रमाण तीन, ताकरि जघन्य को गुणै अडतालीस होंइ । बहुरि जघन्य परिमित संख्यात का प्रमाण च्यारि, ताकरि जघन्य कों गुणे चौसठि होंइ, इनिके वीचि जे भेद, ते प्रवक्तव्य गुरण वृद्धि के स्थान है । जातें इनि को संख्यात वा
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सन्यात गुण वृद्धि रूप कहे न जाइ, तहां जघन्य अवगाहन सोलह को एक घाटि परोता संख्यात तीन करि गुरौ अडतालीस होंइ, तामें एक जोडें अवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम स्थान हो है । याकौ जघन्य अवगाहन सोलह का भाग दीए पाया गुरणचास का सोलहवा भाग प्रमाण अवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम स्थान ल्यावने को गुरणकार हो हुँ । याकरि जघन्य अवगाहन को गुणि अपवर्तन कीए अवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान गुरणचास प्रदेश प्रमाण हो है । अथवा अवक्तव्य गुरण वृद्धि का प्रथम स्थान एक अविक तिगुणां सोलह, ताकौ जघन्य अवगाहना सोलह, ताका भाग ढेड पाया एक सोलहवा भाग अधिक तीन, ताकरि जघन्य अवगाहन सोलह की गुर्गे गुणचान पाए, तितने ही प्रदेश प्रमाण अवक्तव्य गुरण वृद्धि का प्रथम वाहन स्थान ही है । जैसे अन्य उत्तरोत्तर भेदनि विषे भी गुरणकार का अनुक्रम ज्ञानना । ता अवक्तव्य गुण वृद्धि का अंत का अवगाहना स्थान, सो जघन्य प्रवगा - इन सोलह की जघन्य परिमिता संख्यात च्यारि करि गुणें जो पाया, तामें एक तम होड, सो इतने प्रदेश प्रमाण है । वहुरि याकौ जघन्य अवगाहन गोर भाग दे पाया तरेसठ का सोलहवां भाग, सोई अवक्तव्य गुण वृद्धि का
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका अंत अवगाहना स्थान ल्यावने विषै गुणकार हो है । याकरि जघन्य अवगाहन सोलह को गुणे, अवक्तव्य गुण वृद्धि का अत अवगाहन स्थान की उत्पत्ति हो है; सो अवलोकनी । अथवा प्रवक्तव्य गुण वृद्धि के अत अवगाहन स्थान तरेसठि को जघन्य अवगाहन सोलह का भाग देइ पाया तीन अर पंद्रह सोलहवा भाग, इस करि जघन्य अवगाहन सोलह को गुणे, अवक्तव्य गुण वृद्धि का अत अवगाहना स्थान का प्रदेश प्रमाण हो है । सो सर्व अवक्तव्य गुण वृद्धि का स्थापन गुणचास आदि एकएक बधता तरेसठि पर्यन्त जानना । ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३ । बहुरि इस ही अनुक्रम करि अर्थसदृष्टि विष भी एक घाटि जघन्य अवगाहन प्रमाण इस प्रवक्तव्य गुण वृद्धि के स्थान जानने । बहरि अब पूर्वोक्त अवक्तव्य गुण वृद्धि का अंत अवगाहन स्थान विर्ष एक प्रदेश जुडे, असंख्यात गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान हो है।
रूवुत्तरेण तत्तो, प्रावलियासंखभागगुणगारे । तप्पाउग्गे जादे, वाउस्सोग्गाहणं कमसो ॥११०॥ रूपोत्तरेण तत, पावलिकासंख्यभागगुणकारे ।
तत्प्रायोग्ये जाते, वायोरवगाहन क्रमशः ॥११०॥ टीका - ततः कहिए तीहि असख्यात गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान तै आगै एक-एक प्रदेश वृद्धि करि असख्यात गुण वृद्धि के अवगाहन स्थान असख्यात हो है । तिनिको उलघि एक स्थान विष यथायोग्य आवलि का असख्यातवा भाग प्रमाण असंख्यात का गुणकार, सो सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्त निगोद का जघन्य अवगाहन गुण्य का होते सते सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान की उत्पत्ति हो है। इहा ए केते स्थान भए?तहा 'आदी अंते सुर्धे' इत्यादि सूत्र करि आदि स्थान को अत स्थान विर्ष घटाइ, अवशेष की वृद्धि एक का भाग देइ लब्ध राशि विर्ष एक जोडे, स्थानकनि का प्रमाण हो है। आगे सर्व अवगाहन के स्थानकनि का गुणकार की उत्पत्ति का अनुक्रम कहै है
एवं उवरि वि रोओ, पदेसवड्ढिक्कमो जहाजोग्गं । सव्वत्थेक्ककह्मि य, जीवसमासाण विच्चाले ॥१११॥ एवमुपर्यपि ज्ञेयः, प्रदेशवृद्धिकमो यथायोग्यम् । सर्वत्रककस्मिश्च जीवसमासानामंतराले ॥१११॥
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२२० ।
| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १११ टीका - एवं कहिए इस ही प्रकार जैसे सूक्ष्म निगोद लव्धि अपर्याप्तक का जघन्य अवगाहना स्थान की प्रादि देकरि मूक्ष्म लव्धि अपर्याप्त वायुकायिक जीव का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यन्त पूर्वोक्त प्रकार चतुःस्थान पतित प्रदेश वृद्धि का अनुक्रम विधान कह्या, तैसें ऊपरि भी सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक तेजकाय का जघन्य अवगाहन तै लगाइ दीद्रिय पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यन्त जीवसमास का अवगाहना स्थानकनि का अंतरालनि विष प्रत्येक जुदा-जुदा चतु.स्थान पतित वृद्धि का अनुकम करि प्राप्त होइ यथायोग्य गुणकार की उत्पत्ति का विवान जानना ।
__भावार्थ ~ जैसे सूक्ष्मनिगोद लव्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान पर मूक्ष्म वायुकायिक लन्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान के वीचि अंतराल पि चनु.स्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम विधान कह्या । तैसे ही सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त अर भूक्ष्म तेज.कायिक लव्धि अपर्याप्तकनि का अंतराल विप वा अंस ही हीद्रिय पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यंत अगिले अतरालनि विपै चतु:स्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम विधान जानना । विशेप इतना -तहां आदि अवगाहन स्थान का वा भाग वृद्धि, गुण वृद्धि विर्षे असंख्यात का प्रमाण वा अनुक्रम वा स्थानकनि का प्रमाण इत्यादि यथासंभव जानने ।
वहरि तने ही ताके आग तेइंद्री पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान आदि देरि मनी पंवेद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन पर्यंत अवगाहन स्थानकनि का एकएक अंतराल विपं असंख्यात गुण वृद्धि विना त्रिस्थान पतित प्रदेशनि की वृद्धि का अनुक्रम करि प्राप्त होइ यथायोग्य गुणकार की उत्पत्ति का विधान जानना।
भावार्थ - इहां पूर्वस्थान ते अगिला स्थान संख्यात गुणा ही है । तातै तहां अनन्नात गुण वृद्धि न सभव है, त्रिस्थान पतित वृद्धि ही संभव है । इहां भी विशेष इतना - जो आदि अवगाहना स्थान का वा भाग वृद्धि विर्षे असंख्यात का वा गुण वृद्धि विध मंन्यात का प्रमाण वा अनुक्रम वा स्थानकनि का प्रमाण इत्यादिक यथासंभव जानने । ऐने इहा प्रसंग पाइ चतुःस्थान पतित वृद्धि का वर्णन कीया है ।
वहरि रही पस्यान पतित, कही पंचस्थान पतित, कही चतु.स्थान पतित, नाही मिथान पतिल, कहीं हिस्थान पतित, कही एकस्थान पतित वृद्धि संभव है। पाया वहीं रोने ही हानि नभव है, तहां भी ऐसे ही विधान जानना । तहां जाका
मा जो विवक्षित, नाक आदि स्थान के प्रमाण ते अगले स्थान विर्षे
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[गोम्मटमार जीवका गाया १११ २२२] अर उत्कृष्ट असंख्यात पंद्रह तै भी याका प्रमाण अधिक भया, तातै याकी अमंच्यात भागल्प न कह्या जाय । जातै उत्कृष्ट ते अधिक पर जघन्य ते हीन कहना असंभव है, तातै इहां अवक्तव्य भाग का ग्रहण कीया । जैसे ही आगे भी यथासंभव अवक्तव्य भाग वृद्धि वा गुण वृद्धि वा अवक्तव्य भाग हानि वा गुण हानि का स्वरूप जानना । बहुरि वृद्धिरूप होइ जो स्यान पचीस से साठि प्रमाण रूप भया, तहां अनंन्यात भाग वृद्धि प्रादि संभव है । जातै उत्कृष्ट असल्यात पंद्रह का भाग आदि म्यान की दीए एक सौ साठि पाए, सोई डहा आदि स्थान है अधिक का प्रमाण है। वहरि ऐसे ही जिस-जिस स्थान विपं आदि स्थान ते अधिक का प्रमाग संभवनं असंख्यात के भेद का भाग आदि स्थान की दीए आवै, तहां-तहां असंख्यात भाग वृद्धि संभव है । तहां जो स्थान प्राइस से प्रमाणल्प भया, तहां असंख्यात भाग वृद्धि का अंत जानना। जाते जवन्य असंख्यात छह, ताका भाग आदि स्थान की दीए च्यारिमै पाए, सोई यहां इतने आदि स्थान ते अधिक है । वहुरि जे स्थान अट्ठाइस से एक आदि अट्ठाईस सै गुण्याती पर्यत प्रनागल्प हैं, तहां अवक्तव्य भाग वृद्धि नभव है । जाते जघन्य असत्यात का भो वा उत्कृष्ट संन्यात का भो भाग की वृद्धिरूप प्रमाग ते इनिका प्रमाण अधिक हीन है । वहरि वृद्धिरूप होइ जो स्थान अचाईस सै असी प्रमाणल्प भया. तहां संख्यात भाग बृद्धि का आदि सनवै है । जाते उत्कृष्ट संख्यात पात्र, ताका भाग आदि स्थान की बीए च्यारि सै अत्ती पाए, तोई इतने इहां आदि स्थान ते अधिक हैं । वहुरि से ही जिस-जिस स्थान विपं ग्रादि स्थान ते अधिक का प्रमाण संभवने संख्यात के भेद का भाग आदि स्थान कौं दीए प्रावै, तहां-तहां सन्यात भाग वृद्धि संभव है। यहां जो स्थान छत्तीस से प्रमागरूप मया, तहां संन्यात भाग वृद्धि का अंत जानना । जातें जघन्य सख्यात दोय, ताका भाग आदि स्थान को दीए गरह नै पाए. सो इतने हां आदि स्थान ते अधिक हैं । बहुरि जे स्थान छनीस सै एक आदि संतालीस मै निन्यानवे पर्यन्त प्रमागरूप हैं, तहां अवक्तव्य भाग वृद्धि नंमत्र है । जाने जघन्य मन्यात भाग वृद्धि वा जघन्य संन्यात गुग वृद्धिल्प प्रमाण नं भी इनिका प्रमाण अधिक होन है । वहुरि वृद्धिल्प होइ जो स्थान अडतालीस से प्रमाणन भया, तहां नंदयात गुण वृद्धि का आदि संभव है; जाते जघन्य संख्यात दोय. नाकरि आदि स्थान की गुणें इतना प्रमाण हो है। अंसं ही जिस-जिस स्थान गप्रनाग मननं नंदात के भेद करि आदि स्थान की गुण आवै, तहां-तहां संन्च्यात मृग वृद्धि मन ई 1 तहां जो स्थान वारह हजार प्रमाणरूप भया, तहां संख्यात
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सम्यग्नानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २२३ गुण वृद्धि का अंत जानना । जातें उत्कृष्ट संख्यात पांच, ताकरि आदि स्थान कौं गुरणे इतना प्रमाण हो है । बहुरि जे स्थान बारह हजार एक ते लगाई चौदह हजार तीन सौ निन्याणवै पर्यत प्रमाणरूप हैं, तहां अवक्तव्य गुण वृद्धि संभव है। जातें उत्कृष्ट संख्यात गुण वृद्धि वा जघन्य असंख्यात गुण वृद्धिरूप प्रमाण तै भी इनिका प्रमाण अधिक हीन है । बहुरि वृद्धिरूप होई जो स्थान चौदह च्यारि सै प्रमाणरूप भया, तहा असंख्यात भागवृद्धि' का आदि संभव है। जाते जघन्य असंख्यात छह, ताकरि आदि स्थान कौं गुण, इतना प्रमाण हो है । बहुरि जैसे ही जिस-जिस स्थान का प्रमाण सभवते असंख्यात के भेद करि आदि स्थान को गुण आवै, तहां-तहा असख्यात गुरण वृद्धि २ संभव है। तहां जो स्थान छत्तीस हजार प्रमाणरूप भया, तहां असख्यात गुण वृद्धि ३ का अंत जानना । जातै उत्कृष्ट असंख्यात पंद्रह, ताकरि आदि स्थान को गुणै इतना प्रमाण हो है। बहुरि जे स्थान छत्तीस हजार एक आदि अडतीस हजार तीन सै निन्यारणवै पर्यत प्रमाणरूप है, तहां अवक्तव्य गुण वृद्धि संभव है । जातै उत्कृष्ट असंख्यात गुण वृद्धि वा जघन्य अनंत गुण वृद्धिरूप प्रमाण ते भी इनिका प्रमाण अधिक हीन है। बहुरि वृद्धिरूप होइ जो स्थान अड़तीस हजार च्यारि सै प्रमाणरूप भया, तहां अनंत गुणवृद्धि का आदि संभव है, जाते जघन्य अनत सोलह, ताकरि आदि स्थान की गुणे इतना प्रमाण हो है ।।
बहुरि जैसे ही जिस-जिस स्थान का प्रमाण सम्भव ते अनन्त का भेद करि आदि स्थान को गुणें आवै, तहां अनन्त गुण वृद्धि सम्भव है । तहां जो स्थान दोय लाख चालीस हजार प्रमाण रूप भया, तहा अनन्त गुण वृद्धि का अंत जानना । जातै यद्यपि अनन्त का प्रमाण बहुत है, तथापि इहां जिस अनन्त के भेद करि गुरिणत अंतस्थान होइ, सोई अनन्त का भेद इहा अंत विषै ग्रहण करना । सो अंकसंदृष्टि विषै एक सौ प्रमाण अनन्त के भेद का अंत विष ग्रहण कीया । तीहिकरि आदि स्थान को गुण दोय लाख चालीस हजार होइ, सोई विवक्षित के अतस्थान का प्रमाण जानना । जैसे इहां षट्स्थान पतित वृद्धि का विधान दिखाया ।।
अब पट्स्थान पतित हानि का विधान दिखाइए है । इहा विवक्षित का आदि स्थान दोय लाख चालीस हजार प्रमाणरूप स्थापन कीया । यातै घटि करि दूसरा स्थान जो दोय लाख गुणतालीस हजार नौ सै निन्यारणवै प्रमाणरूप भया, सो
१. ख प्रति मे गुणवृद्धि है । २ व प्रति मे यहा भागवृद्धि है । ३ ब प्रति मे यहा भागवृद्धि है ।
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२२६ ]
[ गोम्मटमार जोवकाण्ड गाया १११
स्थान कौं कीए जो प्रमाण होइ, तिनि ते इनिका प्रमाण हीन ग्रधिक है । बहुरि हानिरूप होड जो स्थान पंद्रह हजार प्रमाणरूप भया, तहां अनंत गुरणहानि का आदि जानना । जाते जघन्य अनंत सोलह, सो यादि स्थान की सोलह गुणा वाटि कीए इतना प्रमाण आवे है । वहुरि से ही जिस-जिस स्थान का प्रमाण संभवते अनंत का भेद करि गुणै ग्रादि स्थान मात्र होड, सो-सो स्थान अनंत गुणहानिरूप जानना । तहां जो स्थान चौवीस से प्रमारण रूप भया, सो स्थान अनंत गुणहानि का अंतरूप है । जाते यद्यपि अनंत का प्रमाण बहुत है; तथापि इहा आदि स्थान ते अंत स्थान जितने गुग्गा घाटि होड, तितने प्रमाण ही अनंत का अत विपे ग्रहण करना, सो श्रंकसंदृष्टि विषै जो प्रमाण अनत का भेद ग्रहण कीया, सो आदि स्थान की सौ गुणा घाटि कीए इतना ही प्रमारण श्रावै है । या प्रकार जैसे अंकसंदृष्टि करि कथन कीया, तैसे ही यथार्थ कथन अवधारण करना । इतना विशेष तहां जघन्य संख्यात का प्रमाण दोय । उत्कृष्ट संख्यात का एक वाटि जघन्य परीतासंख्यात मात्र है । जघन्य असंख्यात का जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण है । उत्कृष्ट असंख्यात का उत्कृष्ट असंख्याता संख्यान मात्र है । जधन्य अनंत का जघन्यपरीतानत प्रमाण है । उत्कृष्ट अनंत का केवलज्ञानमात्र है, तथापि इहां भाग वृद्धि वा हानि विषै तौ यदि स्थान प्रमाण र गुग्ण वृद्धि वा हानि विषे यादि स्थान ते अंत स्थान जितने गुणा बघता वा घटता होड, तीहि प्रमाण अनंत का ही अंत विषै ग्रहण करना | बहुरि जाका निरूपण कीजिए, तार्कों विवक्षित कहिए, ताका ग्रादि भेद विप जितना प्रमाण होइ, सो आदि स्थान का प्रमाण जानना । ताके यागे श्रगिले स्थान वृद्धिरूप वा हानिरूप होइ, तिनिका प्रमाग यथासम्भव जानना । इत्यादिक विशेष होइ, सो विशेष जानना ग्रर अन्य विवान अकसंदृष्टि करि जानना । बहुरि जहां यदि स्थान का प्रमाण असंख्यातरूप ही होड़, तहां अनंत भाग की वृद्धि वा हानि न संभव, जहा आदि स्थान का प्रमाण सख्यातरूप ही होड, तहा अनंत भाग अर संख्यान भाग की वृद्धि वा हानि न संभव है । बहुरि जहाँ यादि स्थान ते अंत स्थान का प्रमाण असंख्यात गुणा ही अधिक वा हीन होड, तहां अनंत गुण वृद्धि वा हानि न संभव है | जहां ग्रादि स्थान ते अंत स्थान का प्रमाग संख्यात गुणा ही अविक वा होन होड, तहां अनंत वा श्रसंख्यात गुणी वृद्धि वा गुणहानि न संभव है; नाने वही पत्र स्थान पतित, कही चतुस्थान पतित, कहीं श्रीस्थान पतित, कहीं द्विन्यान पनित, कहीं एकस्थान पतित वृद्धि वा हानि यथासंभव जाननी । जैसे
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[ २२७
सम्यग्ज्ञानचत्रिका भाषाटोका ] ही आदि स्थान की अपेक्षा लीए वृद्धि-हानि का स्वरूप कह्या । बहुरि कही एक स्थान का प्रमाण की अपेक्षा दूसरा स्थान विष वृद्धि वा हानि कही, दूसरा स्थान का प्रमाण की अपेक्षा तीसरा स्थान विष वृद्धि वा हानि कही; असे स्थान-स्थान प्रति वृद्धि वा हानि का अनुक्रम हो है। तहां अनंत भागादिरूप वृद्धि वा हानि होइ, सो यथासंभव जाननी । बहुरि पर्यायसमास नामा श्रुतज्ञान के भेद वा कषाय स्थान इत्यादिकनि विष संभवती षट्स्थान पतित वृद्धि वा हानि के अनुक्रम का विधान प्रागै ज्ञानमार्गणा अधिकार विष लिखेंगे, सो जानना । असै वृद्धि -हानि का विधान अनुक्रम अनेक प्रकार है, सो यथासंभव है। जैसे प्रसंग पाइ षट्गुणी आदि हानिवृद्धि का वर्णन कीया।
प्रागै जिस-जिस जीवसमास के अवगाहन कहे, तिस-तिसके सर्व अवगाहन के भेदनि के प्रमाण को ल्यावै है -
हेट्ठा जेसि जहण्णं, उरि उक्कस्सयं हवे जत्थ । तत्थंतरगा सव्वे, तेसिं उग्गाहणविअप्पा ॥११२॥ अधस्तनं येषां, जघन्यमुपर्युत्कृष्टकं भवेद्यत्र ।
तत्रांतरगाः सर्वे, तेषामवगाहनविकल्पाः ॥११२॥ टीका - इहा मत्स्यरचना को मन विष विचारि यहु कहिये है - जो जिन ' अवगाहना स्थाननि का प्रदेश प्रमाण थोरा होइ, ते अधस्तन स्थान है । बहुरि जिन अवगाहना स्थाननि का प्रदेश प्रमाण बहुत होइ, ते उपरितन स्थान है, ऐसा कहिये है । सो जिन जीवनि का जघन्य अवगाहना स्थान तो नीचे तिष्ठ पर जहां उत्कृष्ट अवगाहना स्थान ऊपरि तिष्ठ, तिनि दोऊनि का अतराल विषै वर्तमान सर्व ही अवगाहना के स्थान तिन जीवनि के मध्य अवगाहना स्थान के भेदरूप है - ऐसा सिद्धात विष प्रतिपादन कीया है ।
भावार्थ - पूर्वं अवगाहन के स्थान कहे, तिनि विर्ष जिसका जघन्य स्थान जहा कह्या होड, तहातै लगाइ एक-एक प्रदेश की वृद्धि का अनुक्रम लीए जहा तिस ही का उत्कृष्ट स्थान कह्या होइ, तहा पर्यत जेते भेद होंइ, ते सर्व ही भेद तिस जीव की अवगाहना के जानने । तहां सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्त का पूर्वोक्त प्रमाणरूप जो जघन्य स्थान, सो तो आदि जानना । बहुरि इस ही का पूर्वोक्त प्रमाणरूप जो
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[गोम्मटसार जीवकार गापा ११२ २२८ ] उत्कृष्ट स्थान, सो अंत जानना । तहा 'यादी अंते सुद्धे वट्टिहिदे स्वसंजुदे ठाणे' इस करण मूत्र करि आदि का प्रमाण की प्रत का प्रमाण समच्छेद विप अपवर्तनादि विधान करि घटाए जो अवशेप प्रमाण रहै, ताकी स्थान-स्थान प्रति वृद्धिरूप जो एक प्रदेश, ताका भाग दीए भी तेता ही रहै, तामैं एक जोडे जो प्रमाण होड, तितने मूक्ष्म निगोद लव्धि अपर्याप्तक जीवनि के सव अवगाहना के भेद है । इनिर्म आदि स्थान पर अंत स्थान, इनि दोऊनि को घटाये अवणेप तिस ही जीव के मध्यम अवगाहना के स्थान हो हैं । वहरि इस ही प्रकार सूक्ष्म लव्धि अपर्याप्तक वायुकायिक जीव आदि देकरि संजी पंचद्री पर्याप्त पर्यंत जीवनि के अपने-अपने जघन्य अवगाहना स्थान तै लगाइ, अपने-अपने उत्कृप्ट अवगाहना स्थान पर्यंत सर्व अवगाहना के स्थान, अर तिनि विष जघन्य-उत्कृप्ट दोय स्थान घटाये तिन ही के मध्य अवगाहना स्थान, ते मूत्र के अनुसारि ल्याईये ।
अव मत्स्यरचना के मध्य प्राप्त भए ऐसे सर्व अवगाहना स्थान, तिनिके स्थापना का अनुक्रम कहिये है। पूर्व अवगाहना के स्थान चीसठि कहे श्रे, तिनि विप ऊपरि की पंक्ति विप प्राप्त जे वियालीस गुणकाररूप स्थान, तिनिकी गुणित क्रमस्थान कहिये । वहरि नीचे की टोय पंक्तिनि विप प्राप्त जे वावीस अधिकरूप स्यान, तिनिको अधिक स्थान कहिये । तहां चौसठि स्थाननि विपं गुणित क्रमरूप वा अविकरूप स्थान अपने-अपने जघन्य ते लगाइ अपने-अपने उत्कृप्ट पर्यत जेतेजेने होंड, तिनि एक-एक स्थान की दोय-दोय विदी वरोवरि लिखनी; जाते एक-एक स्थान के वीचि अवगाहना के भेद बहुत हैं। तिनिकी संदृष्टि के अथि दोय विदी स्थापी, बहुरि तिनि जीवसमासनि विप सभवते स्थाननि की नीच-नीचे पंक्ति करनी। ऐने स्था माछलेकासा आकार हो है, सो कहिए है । ( देखिए पृष्ठ २२९-२३० )
प्रथम मूक्ष्म निगोद लधि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान तै लगाइ ताही का उत्कृप्ट पर्यंत सतरह स्थान हैं। तहां सोलह गुगिगत स्थान हैं। एक अधिकम्यान है । सो प्रथमाटि एक-एक स्थान की दोय-दोय बिंदी की संदृष्टि करने करि बातील विदी बरोवरि परि पंक्ति विपं लिखनी । इहां मूक्ष्म निगोद लब्धि प्रान्त का जघन्य स्थान पहला है, उत्कृष्ट अठारहवां है, तथापि गुणाकारपना बा अधिक्रपनान्य अंतराल सतरह ही है; तातै सतरह ही स्थान ग्रहे है। ऐसे आगे भी जानना । वहुरि से ही तिस पंक्ति के नीचें दूसरी पंक्ति विप सूक्ष्म लब्धि Force -युकायिक जीव का जघन्य अवगाहना स्थान ते लगाइ ताके उत्कृष्ट
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ऐसी वायुकायिककी इत्यादिआदि अक्षररूप सहक्षम अपर्याप्त ऐसा लिखि आगें लकीर काढि लीकी असंग्यातवां भाग गुणकारकी क्षररूप सहनानीजाननी ।
1000000043८२ 10000000003089
आज0000000000000000...++040४२६५
aपतिव०१६00000000000000१६
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २३१
अवगाहना स्थान पर्यत उगरणीस स्थान है, तिनकी अडतीस बिंदी लिखना । सो दूसरा स्थान तै लगाइ स्थान है, तातै ऊपरि की पक्ति विषे दोय बिदी प्रथम स्थान की लिखी थी, तिनकी नीचा कौ छोडि द्वितीय स्थान की दोय बिदी तै लगाइ आगे बरोबर अडतीस बिदी लिखनी । बहुरि तैसे ही तिस पक्ति के नीचे तीसरी पक्ति विषै सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक तेजस्कायिक का जघन्य अवगाहन ते उत्कृष्ट अवगाहन पर्यंत इकईस स्थान है, तिनकी बियालीस बिदी लिखनी । सो इहा तीजा स्थान तै लगाइ स्थान है, तातै ऊपरि की पक्ति विषै दूसरा स्थान की दोइ बिदी लिखी थी, तिनके नीचा कौ भी छोडि तीसरी स्थानक की दोइ बिदी तै लगाइ बियालीस बिदी लिखनी । बहुरि तैसे ही तिस पक्ति के नीचे चौथी पक्ति विषे सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक अप्कायिक का जघन्य ग्रवगाहन स्थान तै लगाइ, ताका उत्कृष्ट अवगाहन स्थान पर्यत तेवीस स्थाननि की छियालीस बिदी लिखनी । सो इहा चौथा स्थान तै लगाइ स्थान है, ताते तीसरा स्थानक की दोय बिदी का नीचा कौ छोडि चौथा स्थानक की दोय बिदी तै लगाइ छियालीस बिंदी लिखनी । बहुरि तैसे ही तिस पक्ति के नीच पाचमी पक्ति विषै सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक पृथ्वी कायिक का जघन्य अवगाहन तै लगाइ ताका उत्कृष्ट अवगाहन पर्यंत पचीस स्थान है; तिनकी पचास बिदी लिखनी । सो इह पांचवां स्थान ते लगाइ स्थान है, तातै चौथा स्थान की दोय बिदी का भी नीचा कौ छोडि पाचवा स्थानक की दोय बिदी ते लगाइ पचास बिदी लिखनी । बहुरि तैसे हो तिस पक्ति के नीचे-नीचे छठी, सातमी, आठवी, नवमी, दशमी, ग्यारहमी बारहवी, तेरहवी, चौदहवी, पद्रहवी, सोलहवी पक्ति विषै बादर लब्धि अपर्याप्तक वायु, तेज, अप्, पृथ्वी, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येक, अप्रतिष्ठित प्रत्येक, द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेंद्रिय इनि ग्यारहनि का अपना- प्रपना जघन्य स्थान तै लगाइ उत्कृष्ट स्थान पर्यंत अनुक्रम ते सत्ताईस, गुणतीस, इकतीस, तेतीस, पैतीस, सैतीस, छियालिस, चवालीस, इकतालीस, इकतालीस, तियालीस स्थान है । तिनिकी चौवन, श्रठावन, बासठि, छयासठ, सत्तरि, चौहत्तरि, बारणवै, अठासी, बियासी, छियासी विदी लिखनी । सो इहा छठा, सातवा आदि स्थान तै लगाइ स्थान है, तातै ऊपरि पक्ति का आदि स्थान की दोय - दोय बिदी का नीचा कौ छोडि छठा, सातवा आदि स्थान की दोय बिदी तै लगाइ ए बिदी तिनि पंक्तिनि विषै क्रम तै लिखनी ।
बहुरि तिस पचेद्रिय लब्धि अपर्याप्तक की पक्ति के नीचे सतरहवी पंक्ति विपं सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान तै लगाइ, उत्कृष्ट अवगाहना स्थान
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२३२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११२ पर्यन्त दोय स्थान है, तिनिकी च्यारि विदी लिखनी । बहुरि इस ही प्रकार आगे इस एक ही पंक्ति विषे सूक्ष्म पर्याप्त वायु, तेज, अप्, पृथ्वी, बहुरि बादर पर्याप्त वायु, तेज, पृथ्वी, अप्, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येक इनिका अपना-अपना जघन्य अवगाहना स्थान कौं आदि देकर अपना-अपना उत्कृप्ट अवगाहना स्थान पर्यन्त दोय - दोय स्थाननि की च्यारि-च्यारि विदी लिखनी । वहुरि अँसें ही प्रतिष्ठित प्रत्येक का उत्कृष्ट श्रवगाहन स्थान ते आगे तिस ही पक्ति विपं प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान तै लग इ उत्कृष्ट अवगाहना स्थान पर्यन्त तेरह स्थान हैं । तिनिकी छब्बीस विदी लिखनी । जैसे इस एक ही पंक्ति विपं विदी लिखनी कही । तहां पर्याप्त सूक्ष्म निगोद का आदि स्थान सतरहवा है, ताते इनिके दोय स्थाननि की सोलहवां स्थान की दोय विदीनि का नोचा कौ छोडि सतरहवां अठारहवां स्थान की च्यारि विदी लिखनी । वहुरि सूक्ष्म पर्याप्त का आदि स्थान वीसवां है । ताते तिस ही पक्ति विषे उगणीसवां स्थान की दोय विदी का नीचा कौ छोडि वीसवां, इकईसवां दीय स्थाननि की च्यारि विदी लिखनी । जैसे ही वीचि वीचि एक स्थान की दोयदोय विदी का नीचा कौ छोडि छोडि सूक्ष्म पर्याप्त तेज श्रादिक के दोय-दोय स्थाननि की च्यारि च्यारि विदी लिखनी । वहुरि तिस ही पंक्ति विपे अप्रतिष्ठित प्रत्येक के पचासवा तै लगाइ स्थान है, तातै पचासवा स्थानक की विदीनि त लगाइ रह स्थाननि की छबीस विदी लिखनी, असे एक-एक पक्ति विषै कहे । वहुरि तिस पक्ति के नीचे-नीचे अठारमी, उगणीसमी, बीसमी, इकवीसमी पक्ति विषै पर्याप्त हीद्रिय, त्रोद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय जीवनि का अपना ग्रपना जघन्य ग्रवगाहन स्थान तँ लगाइ उत्कृष्ट स्थान पर्यन्त ग्यारह, आठ, आठ, दश स्थान हैं । तिनिकी क्रम तें वार्डन, सोलह, सोलह, वीस विदी लिखनि । तहा पर्याप्त वंद्रिय के इक्यावन ते लगाइ स्थान हैं, ताते सतरहवी पक्ति विपं प्रतिष्ठित प्रत्येक की छब्बीस विदी लिखी थी, तिनिके नीचे आदि की पचासवा स्थान की दोय बिंदी का नीचा को छोटि या वाईस विदी लिखनी । बहुरि जैसे ही नीचे-नीचे यादि की दोय- दोय बिडी का नीचा कौ छोडि वावनवां, तरेपनवां, चीवनवा स्थानक की विदी तें लगाइ मनोलह, नोलह, वीस विढी लिखनी । या प्रकार मत्स्यरचना विषे सूक्ष्म निगदचि अपर्याप्त का जघन्य श्रवगाहना स्थान की यादि देकरि सजी पंचेंद्री पति उत्कृष्ट श्रवगाहून स्थान पर्यन्त सर्व प्रवगाहन स्थाननि की प्रत्येक दोयपशु की विवक्षा करि तिन स्थानकनि की गणती के श्राश्रय सा हीनाधिक तं
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ २३३ रहित बिदीनि के स्थापन का अनुक्रम, सो अनादिनिधन ऋषि प्रणीत आगम विर्षे कह्या है । ऐसें जीवसमासनि की अवगाहना कहि ।
अब तिनके कुल की संख्या का जो विशेष, ताको गाथा च्यारि करि कहै है - बावीस सत्त तिण्णि य, सत्त य कुलकोडिसयसहस्साई। गया पुढविहगागरिण, वाउक्कायाण परिसंखा ॥११३॥
द्वाविंशतिः सप्त त्रीणि, च सप्त च कुलकोटिशतसहस्राणि । .
ज्ञेया पृथिवीदकाग्निवायुकायिकानां परिसंख्या ॥११३॥ टीका - पृथ्वी कायिकनि के कुल बाईस लाख कोडि है । अप् कायिकनि के कुल सात लाख कोडि है। तेज कायिकनि के कुल तीन लाख कोडि है। वायु कायिकनि के कुल सात लाख कोडि है; असे जानना ।
कोडिसयसहस्साइं, सत्तट्ठणव य अट्ठवीसाइं। बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियहरिदकायारणं.॥११४॥
कोटिशतसहस्राणि, सप्ताष्ट नव च अष्टाविंशतिः ।
द्वोद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियहरितकायानाम् ॥११४॥ टीका - बेद्रिय के कुल सात लाख कोडि है। त्रीद्रियनि के कुल आठ लाख कोडि है । चतुरिद्रियनि के कुल नव लाख कोडि है। वनस्पति कायिकनि के कूल अठाईस लाख कोडि है।
अद्धत्तेरस बारस, दसयं कुलकोडिसदसहस्साई। जलचर-पक्खि-चउप्पय-उरपरिसप्पेसु णव होति ॥११॥ श्रर्धत्रयोदश द्वादश, दशकं कुलकोटिशतसहस्राणि ।
जलचरपक्षिचतुष्पदोरुपरिसर्येषु नव भवंति ॥११५॥ टीका - पंचेद्रिय विर्ष जलचरनि के कुल साडा बारा लाख कोडि है। पक्षीनि के कुल बारा लाख कोडि है । चौपदनि के कुल दश लाख कोडि है । उरसर्प जे सरीसृप आदि, तिनिके कुल नव लाख कोडि है ।
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२३४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११६-११७
छप्पंचाधियवीसं, बारसकुलकोडिसदसहस्साइं । सुर- रइय-गराणं, जहाकमं होंति याणि ॥ ११६॥
षट्पंचाधिकविंशतिः, द्वादश कुलकोटिशतसहस्राणि । सुरनैरयिकनराणां यथाक्रम भवति ज्ञेयानि ॥ ११६ ॥
टीका - देवनि के कुल छब्बीस लाख कोडि है । नारकीनि के कुल पचीस लाख कोडि है | मनुष्यनि के कुल बारह लाख कोडि । ए सर्व कुल यथाक्रम करि कहे, ते भव्य जीवनि करि जानने योग्य है ।
आगे सर्व जीवसमासनि के कुलनि के जोड़ को निर्देश करें है
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एया य कोडिकोडी, सत्तारगउदी य सदसहस्साइं । पण्णं कोडिसहस्सा, सव्वंगीरगं कुलारणं य ॥११७॥
एकाच कोटिकोटी, सप्तनवतिश्च शतसहस्राणि । पचाशत्कोटिसहस्राणि सर्वागिनां कुलानां च ॥११७॥
टीका - जैसे कहे जे पृथ्वीकायिकादि मनुप्य पर्यन्त सर्व प्रारणी, तिनके कुलनि का जोड एक कोडा कोडि अर सत्याग्ात्रै लाख पचास हजार कोडि प्रमाण (१२७५००००००००००००) है |
हा कोऊ कहै कि कुल र जाति विप भेद कहा ?
ताका समाधन • जाति है सो तो योनि है, तहा उपजने के स्थानरूप पुद्गल स्कंध के भेदनि का ग्रहण करना । बहुरि कुल है सो जिनि पुद्गलनि करि शरीर निपजै, तिनके भेदरूप हैं । जैसे शरीररूप पुद्गल ग्राकारादि भेद करि पचेद्रिय निर्यच विषै हाथी, घोडा इत्यादि भेद है, जैसे यथासंभव जानने ।
इनि श्राचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह ग्रन्थ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चंद्रिका नामा इस भापाटीका विषे जीवकाड विपै प्ररूपित जे वीस
प्रत्परणा, तिनि विषै जीवसमास प्ररूपणा है नाम जाका, सा दूसरा अधिकार सपूर्ण भया ||२॥
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तीसरा अधिकार : पर्याप्ति प्ररूपणा
संभव स्वामि नमौ सदा, घातिकर्म विनसाय ।
पाय चतुष्टय जो भयो, तीजो श्रीजिनराय ॥ अब इहां जहां-तहां अलौकिक गणित का प्रयोजन पाइए, तातै अलौकिक गणित कहिए है संदृष्टि इनिकी प्रागै संदृष्टि अधिकार विषै जानना ।
मान दोय प्रकार है, एक लौकिक एक अलौकिक । तहां लौकिक मान छह प्रकार - मान, उन्मान, अवमान, गणितमान, प्रतिमान, तत्प्रतिमान एवं छह प्रकार जानना । तहां पाइ माणी इत्यादिक मान जानना । ताखडी का तौल उन्मान जानना । चल इत्यादिक का प्रमाण (परिमाण) अवमान जानना । एक-दोय कौ आदि देकरि गणितमान जानना । चरिम तोला, मासा, इत्यादिक प्रतिमान जानना। घोडा का मोल इत्यादि तत्प्रतिमान जानना ।
बहुरि अलौकिक मान के च्यारि भेद है - द्रव्य मान, क्षेत्र मान, काल मान, भाव मान । तहा द्रव्य मान विष जघन्य एक परमाणु अर उत्कृष्ट सब पदार्थनि का परिमाण । क्षेत्र मान विषै जघन्य एक प्रदेश अर उत्कृष्ट सब अाकाश । काल मान विष जघन्य एक समय पर उत्कृष्ट तीन काल का समय समूह । भाव मान विपै जघन्य सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक का लब्धि अक्षर ज्ञान अर उत्कृप्ट केवलज्ञान ।
___ बहुरि द्रव्य मान के दोय भेद - एक सख्या मान एक उपमा मान । तहा सख्या मान के तीन भेद - सख्यात, असख्यात, अनत । तहा संख्यात जघन्य, मध्यम, उत्कृप्ट ते तीन प्रकार है । बहुरि असख्यात है, सो परीतासख्यात, युक्तासख्यात, असख्यातासख्यात इनि तीनों के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करि नव प्रकार है । बहुरि अनत है, सो परीतानत, युक्तानंत, अनंतानंत इनि तीनो के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करि नव प्रकार है - ऐस सख्यामान के इकईस भेद भए । तिनि विप जघन्य मन्यात दोय सख्यामात्र है । इहां एक का गुणकार भागहार कीए किछ वृद्धि-हानि होड नाही, तातै दोय के ही भेद का ग्राहकपना है, एक के नाही है । बहुरि तीनि आदिकनि के मध्यम संख्यात का भेदपना है, तातै दोय ही को जघन्य मंन्यात
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२३६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७ कहिये । वहरि तीनि कौ आदि देकरि एक घाटि उत्कृष्ट सख्यात पर्यन्त मध्यम संख्यात जानना ।
सो जघन्य (परीतासंख्यात) कितना है ?
ताके जानने निमित्त उपाय कहै है । अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका, महाशलाका ए नाम धारक च्यारि कुड करने । तिनिका प्रत्येक प्रमाण जबूद्वीप समान
अनास्था ग्गासपोजन
१०0000 भई योजन
१०००
शलाका व्यास योजन Pa000 अंदाई योजन ११००
प्रतिशलाका न्यासयोजन
१००००० ऊडाई योजन
१०००
महाशाखाका ध्याम योजन
१००००० ऊहाई योजन
१०००
लाख योजन चौडा पर एक हजार योजन ऊंढा जानना । तिनि विर्षे अनवस्था कुंड को सिघाउ गोल सरसौ करि भरना । केते सरसौनि करि भरै, सो कहिए है - एक, नव, सात, नव, एक, दोय, विदी, नव, दोय, नव, नव, नव, छह, आठ इतने तो अंक अनुक्रम ते लिखने, तिनके आगे इकतीस बिदी और लिखनी, इतने प्रमाण सरिसौ ती उस कूड के माही मावै । (१९७६१२०९२६६६६८०००००००००००००००० ००००००००००००००० ) वहुरि उस कुड के ऊपरि आकाश विष राशि करिए, सो सिघाउ भरना कहिए, सो ऊपरि कितने सरसी का ढेर होइ, सो कहिए है। एक सात, नव, नव, दोय विदी, बिदी, पाठ, च्यारि, पाच, च्यारि, पांच, एक, छह इतने ती अनुक्रम ते लिखने अर इनिके आगै सोलह वार छत्तीस-छत्तीस लिखने । (१७ ६६२००८४५४५१६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ) इतनी सरसी, वहुरि च्यारि सरसो का ग्यारहवा भाग ( ११ ) इतनी मरसी का परि ढेर होड । इनिका फलावना गोल घनरूप क्षेत्रफल के करण नृत्रनि करि वा अन्य राशि के करण सूत्रनि करि होइ है, सो त्रिलोकसारादिक सौ जानना । इनि दोऊ राशि को जोड दीजिए, तव एक हजार नव सै सत्ताणवै कोडाकोटि कोटाकोटि कोडाकोडि ग्यारा लाख गुणतीस हजार तीन से चौरासी कोडाकोडि गोटाकोटिकोडि इक्यावन लाख इकतीस हजार छ सै छत्तीस कोडाकोडि कोडाकोडि दाग लाग्य छनीम हजार तीन से प्रेसठि कोडाकोडि कोडि तरेसठि लाख तरेसठि कार छनोम कोडाकोडि छत्तीस लाख छत्तीस हजार तीन से तरेसठि कोडि
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म्यानचन्द्रिका भाषाटीका ]
२३७ तरेसठि लाख तरेसठि हजार छ सै छत्तीस सरसौ अर च्यारि सरंसौ का ग्यारहवां भाग (१९१७, ११२६३८४, ५१३१६३६, ३६३६३६३, ६३६३६३६, ३६ ३६ ३६३ ६३ ६३ ६३६ । ४ ) इतनी सरसौ करि अनवस्था कुड सिघाऊ भरया । सो भरि करि अन्य एक सरसौ को शलाका कुड में नाखि, तिस अनवस्था कुड की सर्व सरसौनि को मनुष्य है, सो बुद्धि करि अथवा देव है, सो हस्तादि करि ग्रहण करि जबूंद्वीपादिक द्वीप-समुद्रनि विर्षे अनुक्रम ते एक द्वीप विष एक समुद्र विर्षे गेरता गया, वे सरिस्यो जहा द्वीप विर्षे वा समुद्र विर्षे पूर्ण होइ, तहां तिस द्वीप वा समुद्र की सूची प्रमाण चौडा अर औडा पूर्वोक्त हजार ही योजन जैसा दूसरा अनवस्था कुड तहां ही करना।
सूची कहा कहिए ?
विवक्षित के सन्मुख अंत के दोऊ तटनि के बीचि जेता चौडाई का परिणाम होइ, सोई सूची जाननी । जैसे लवरण समुद्र की सूची पांच लाख जोजन है । जिस द्वीप की वा समुद्र की सूची कहिए, तिस ते पहिले द्वीप वा समुद्र ते वाकी सूची के मध्य प्राय गये । असा वहां कीया हुवा अनवस्था कुड को सरसोनि करि सिघाऊ भरना । भरि करि अन्य एक सरिसौ उस ही शलाका कुंड विर्षे गेरणी । पर इस दूसरे अनवस्था कु ड की सरिसोनि को लेइ, तहा ते आगे एक द्वीप विर्ष, एक समुद्र विष गेरते जाइए, तेऊ जहा द्वीप वा समुद्र विषे पूर्ण होइ तिस सहित पूर्व के द्वीप समुद्र तिनि का व्यासरूप जो सूची, तीहि प्रमाण चौडा पर पीडा पूर्वोक्त हजार जोजन असा तीसरा अनवस्था कूड सिघाऊ सरिसोनि करि भरना । भरि करि अन्य एक सरिसौ उस ही शलाका कुड मे गेरि, इस तीसरे अनवस्था कुड की सरिसौ लेड, तहा ते आगे एक द्वीप विष एक समुद्र विषै गेरणी । वह जहा पूर्ण होइ, तहा तिस को सूची प्रमाण चौथा अनवस्था कुड करना, ताकी सरिसो करि सिघाऊ भरना । भरि करि अन्य एक सरिसौ शलाका कुड विर्ष गेरिए, इनि सरसो को तहां तं आगे एक द्वीप विष एक समुद्र विष गेरणी, असे ही व्यास करि वधता-बधता अनवस्था कुड करि एक-एक सरिसौ शलाका कुड विर्ष गेरते जहा शलाका कुड भरि जाड, तव एक रारिसौ प्रतिशलाका कुड विष गेरिए । असे एक नव आदि अक प्रमाण जितनी सरिसो पहिला अनवस्था कुड विर्ष माई थी, तितने प्रमाण अनवस्था कुंड भए शलाका कुड एक बार मिघाऊ भरया गया । बहुरि इस गलाका कुंड की रीता
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२३८ ]
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ११७
कीया अर पिछला अनवस्था कुड की सरिसा तहां ते ग्रागे एक द्वीप विषै एक समुद्र विषै गेरता जहां पूर्ण भई, तहां फेरि उसकी सूची प्रमाण चौडा ग्रनवस्था कुंड करि एक सरिसो जो रीता कीया था शलाका कुंड, तिस विषं गेरी । असे ही पूर्ववत् व्यास करि वधता - वधता तितना ही अनवस्था कुंड कीजिए, तव दूसरी बार शलाका कुंड पूर्ण होइ । तव प्रतिशलाका कुंड विषै एक सरिसी और गेरणी । पीछे फेरी शलाका कुड रीता करि तैसे ही भररणा । जव भरे, तब एक सरिस प्रतिशलाका कुंड विषे और गेरणी । जैसे ही जव एक, नव आदिक प्रमाण को एक नवादिक अंकनि ते गुणै जो परिणाम होइ, तितने अनवस्था कुंड जव होंइ, तव प्रतिशलाका कुड संपूर्ण भरै; तब ही एक सरिसौ महाशलाका कुंड विषै गेरणी । वहुरि वे शलाका कुड वा प्रतिशलाका कुड दोऊ रीते करणे । बहुरि पूर्वोक्त रीति करि एकएक अनवस्था कुड करि एक-एक सरिसौं शलाका कुड विषै गेरणी । जब शलाका कुड भरे, तव एक सरिस प्रतिशलाका कुंड विषे गेरणी । से करते-करते प्रतिशलाका कुड फेरी संपूर्ण भरै, तब दूसरी सरिसौ महाशलाका कुंड विषै फेरी गेरणी । वहुरि वैसे ही शलाका प्रतिशलाका कुंड रीता करि उस ही रीति सौ प्रतिशलाका कुंड भरे, तब सपूर्ण तीसरी सरिसी महाशलाका कुंड विषे गेरणी । असे करते-करते एक नव न आदि देकरि जे अंकनि का घन कीये जो परिणाम होइ, तितने अनवस्था कुड जव होइ, तब महालाका कुड भी सपूर्ण भरे, तव प्रतिशलाका का शलाका, अनवस्था कुड भी भरें । इहा जे एक नव न आदि देकरि अकनि का घन प्रमाण अनवस्था कुंड कहें, ते सर्व ऊडे तो हजार योजन ही जानने । बहुरि इनिका व्यास, अपना द्वीप वा समुद्र की सूची प्रमाण बघता बघता जानना । सो लक्ष योजन का जेथवा द्वीप वा समुद्र होड, तिननी वार दूणा कीये तिस द्वीप वा समुद्र का व्यास याव है । बहुरि ध्यान की चौगुग्गा करि तामै तीन लाख योजन घटायें सूची का प्रमाण श्रावै है | ता तहां प्रथम अनवस्था कुड का व्यास का प्रमाण लाख योजन है । बहुरि पहला कुट मे जिननी सरिसों माई थी, तितनी ही वार लक्ष योजन का दूणा दूणा कीयें जहा टीप वा समुद्र विषै वे सरिस पूर्ण भई थी, तिस द्वीप वा समुद्र के व्यास का परिमाण या है | बहरि व्यास का परिमाण को चौगुणा करि तीहि में तीन लाख योजना तत्र तिस ही द्वीप वा समुद्र का सूची परिमाण आवै । जो सूची परमान, नो ही दूसरा कुड का व्यास परिमाण जानना । बहुरि पहिला वा दूसरा रूप जितनी नरिन माई, तितनी बार लक्ष योजन की दूगा दूरगा करि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २३६ जो परिमाण आवै, ताको चौगुणा करि तीन लाख योजन घटाइए, तब तीसरा अनवस्था कुड का व्यास परिमाण आवै है । बहुरि पहिला वा दूसरा वा तीसरा अनवस्था कुंड विर्ष जेती सरिसों माई होइ, तेती बार लक्ष योजन को दूणा-दूणा करि जो परिमाण आवै, ताकौ चौगुणा करि तीन लाख योजन घटाएं, चौथे अनवस्था कुड का व्यास परिमाण आवै, ऐसे बधता-बधता व्यास परिमाण अंत का अनवस्था कुड पर्यन्त जानना । तहां जो अंत का अनवस्था कुड भया, तीहि विर्षे जेती सरिसों का परिमारण होइ, तितना जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण जानना। इहां शलाका कुड विर्षे एक सरिसों गेरै जो एक अनवस्था कुंड होइ, तो शलाका कुंड विष एक, नव आदि अक प्रमाण सरिसों गेरै केते अनवस्था कुंड होइ ? ऐसे त्रैराशिक करिये, तब प्रमाण राशि एक, फल राशि एक, इच्छा राशि एक नवादि अंक प्रमाण । तहां फल राशि करि इच्छा को गुरिण प्रमाण का भाग दीए लब्ध राशि एक नवादि अंक प्रमाण हो है । बहुरि प्रतिशलाका कुड विष एक सरिसौ गेरै एक नवादि अंक प्रमाण अनवस्था कुड होइ, तो प्रतिशलाका कुड विष एक नवादि अंक प्रमाण सरिसों गेरै केते होइ ? ऐसे त्रैराशिक कीए प्रमाण १ फल १९=इच्छा १६== लब्धराशि एक नवादि अंकनि का वर्ग प्रमाण हो है । बहुरि महाशलाका कुंड विर्षे एक सरिसो गेरै, अनवस्था कुड एक नवादि (अंकनि) का वर्ग प्रमाण होइ, तो महाशलाका कुड विषै एक नवादि अंक प्रमाण सरिसौ गेरै केते अनवस्था कुंड होइ ? ऐसें त्रैराशिक कीए, प्रमाण १, फल १६= वर्ग इच्छा १६= लब्धराशि एक नवादि अकनि का घन प्रमाण हो है। सो इतना अनवस्था कुड होइ है, ऐसा अनवस्था कुंडनि का प्रमाण जानना । बहुरि जघन्य परीतासंख्यात के ऊपरि एक-एक बधता क्रम करि एक घाटि उत्कृष्ट परीतासख्यात पर्यन्त मध्य परीतासंख्यात के भेद जानने । बहुरि एक घाटि जघन्य युक्तासंख्यात परिमाण उत्कृष्ट परीतासंख्यात जानना।
अब जघन्य युक्तासख्यात का परिमाण कहिए है - जघन्य परीतासंख्यात का विरलन कीजिए । विरलन कहा? जेता वाका परिमाण होइ, तितना ही एक-एक करि जुदा-जुदा स्थापन कीजिये । बहुरि एक-एक की जायगा एक-एक परीतासंख्यात माडिए, पीछे सबनि को परस्पर गुणिए, पहिला जघन्य परीतासंख्यात को दूसरा जघन्य परीतासंख्यात करि गुणिए, जो परिमाण आवै, ताहि तीसरा जघन्य परीतासंख्यात करि गुणिये । बहुरि जो परिमाण आवै, तीन चौथा करि गुरिणए, असे अंत
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२४० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७
ताई परस्पर गुणै जो परिमाण आवै, सो परिमाण जघन्य युक्तासख्यात का जानना । याही को अक सदृष्टि करि दिखाइए है
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जघन्य परीतासंख्यात का परिमाण च्यारि ( ४ ) याका विरलन कीया १, १
४४४४
१, १ । बहुरि एक-एक के स्थानक, सोहि दीया ११११ परस्पर गुरगन कीया, तव दोय सै छप्पन भया । जैसे ही जानना । सो इस ही जघन्य युक्तासंख्यात का नाम आवली है, जातै एक श्रावली के समय जघन्य युक्तासंख्यात परिमाण है । बहुरि याके ऊपरि एक-एक बघता एक घाटि उत्कृष्ट युक्तासंख्यात पर्यन्त मध्यम युक्तासंख्यात के भेद जानने । बहुरि एक घाटि जघन्य असंख्यातासंख्यात परिमाण उत्कृष्ट युक्तासंख्यात जानना |
अव जघन्य असंख्यातासंख्यात कहिए है - जघन्य युक्तासख्यात की जघन्य युक्तासंख्यात करि एक बार परस्पर गुणै, जो परिमाण आवै, सो जघन्य प्रसंख्यातासंख्यात जानना । याके ऊपरि एक-एक बधता एक घाटि उत्कृष्ट प्रसंख्यातासख्यात पर्यन्त मध्यम श्रसंख्यातासंख्यात जानने । एक घाटि जघन्य परीतानंत प्रमाण उत्कृष्ट संख्याता संख्यात जानना ।
अव जघन्य परीतानंत कहिए है - जघन्य असंख्याता संख्यात परिमाण तीन राशि करना एक शलाका राशि, एक विरलन राशि, एक देय राशि । तहां विरलन राशि का तो विरलन करना, बखेरि करि जुदा-जुदा एक-एक रूप करना, र एक-एक के ऊपर एक-एक देय राशि धरना ।
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भावार्थ – यहु जघन्य प्रसंख्यातासंख्यात प्रमाण स्थानकनि विषै जघन्य श्रसंख्यातासख्यात जुदे-जुदे मांडने । बहुरि तिनिको परस्पर गुणिए, जैसें करि उस शलाका राशि में स्यों एक घटाइ देना । बहुरि से कीए जो परिमाण आाया, तितने परिमाण दो राशि करना, एक विरलन राशि, एक देय राशि । तहा विरलन राशि का विरलन करि एक-एक ऊपरि एक-एक देय राशि की स्थापन करि, परस्पर गए। करि उस शलाका राशि मैं स्यो एक और घटाइ देना । वहुरि ऐसे कीए जो परिमाण थाया, तितने प्रमाण विरलन- देय स्थापि, विरलन राणि का विरलन करि एक-एक प्रति देय राशि को देइ परस्पर गुणिये, तव शलाका राशिसुं एक और राहि लेना, अने करते-करते जब यह पहिली वार किया शलाका राशि सर्व संपूर्ण रोम, तत्र तहा जो किछू परिमाण हुवा, सो यहु महाराणि श्रसंख्यातासंख्यात का मध्य
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[ २४१
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
भेद है, सो तितने-तितने परिमाण तीन राशि बहुरि करना एक शलाका राशि, एक विरलन राशि, एक देय राशि । तहां विरलन राशि का विरलन करि एक-एक के स्थान के देय राशि का स्थापन करि परस्पर गुणीये, तब शलाका राशि में सू एक काढि लेना बहुरि जो परिमाण आया, ताका विरलन करि एक-एक प्रति तिस ही परिमाण को स्थापन करि परस्पर गुणिये, तब एक और शलाका राशि में सू काढि लेना । स करते-करते जब दूसरी बार भी किया हुआ शलाका राशि संपूर्ण होइ, तब से करता जो परिमाण मध्यम असंख्याता संख्यात का भेदरूप आया, तिस परिमाण तीन राशि स्थापन करनी - शलाका, विरलन, देय । तहां विरलन राशि को बखेरि एक - एक स्थानक विषै देय राशि को स्थापन करि परस्पर गुणिये, तब तीसरी शलाका राशि में सौ एक काढि लेना । बहुरि औसे करते जो परिमाण आया था, तिस परिमाण राशि का विरलन करि एक-एक स्थानक विषे तिस परिमाण ही का स्थापन करि परस्पर गुरिणये, तब शलाका राशि में स्यो एक और काढि लेना । जैसे करते-करते जब तीसरी बार भी शलाका राशि संपूर्ण भया, तब शलाका त्रय निष्ठापन हुवा कहिये । आगे भी जहां शलाका त्रय निष्ठापन कहियेगा, तहां जैसा ही विधान जानना । विशेष इतना जो शलाका, विरलन, देय का परिमाण वहां जैसा होइ, तैसा जानना । अब जैसे करते जो मध्यम असंख्याता संख्यात का भेदरूप राशि उपज्या, तीहि विषै ये छह राशि मिलावना । लोक प्रमाण धर्म द्रव्य के प्रदेश, लोक प्रमाण अधर्म द्रव्य के प्रदेश, लोक प्रमाण एक जीव के प्रदेश, लोक प्रमाण लोकाकाश के प्रदेश, ताते प्रसंख्यातगुणा अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक . जीवनि का परिमाण, तातै असंख्यात लोकगुरगा तो भी सामान्यपर्ने असंख्यात लोक प्रमाण प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कायिक जीवनि का परिमाण - ये छहों राशि पूर्वोक्त प्रमाण विषै जोडने । जोडे जो परिमाण होइ, तीहि परिमारण शलाका, विरलन देय राशि करनी । पीछे अनुक्रम ते पूर्वोक्त प्रकार करि शलाका त्रय निष्ठापन करना असे करते जो कोई महाराशि मध्य असख्यातासंख्यात का भेदरूप भया, तीहि विषै च्यारि राशि और मिलावने । बीस कोडाकोडी सागर प्रमाण उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी दोय कालरूप कल्पकाल के संख्यात पल्यमात्र समय; बहुरि असख्यात लोकमात्र अनुभाग बंध कौ कारणभूत जे परिणाम, तिनिके स्थान; बहुरि इनि ते असंख्यात लोकगुणै तो भी असंख्यात लोकमात्र अनुभाग बध कौं कारणभूत जे परिणाम, तिनिके स्थान; बहुरि इनिते असंख्यात लोकगुणै तो भी प्रसंख्यात लोकमात्र मन,
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२४२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १९७
वचन, काय योगनि के अविभाग प्रतिच्छेद; असे ये च्यारि राणि पूर्वोक्त परिमाण विप मिलावने । मिलायें जो परिमाण होड, तीहि महाराशि प्रमाण शलाका, विरलन, देय राशि करि अनुक्रम ते पूर्वोक्त प्रकार शलाका त्रय निष्ठापन करना । जैसे करते जो परिमाण होइ, सो जघन्य परीतानंत है । वहुरि याके ऊपरि एक-एक वधता एक घाटि उत्कृप्ट परीतानंत पर्यन्त मध्यम परीतानत जानना । बहुरि एक घाटि जघन्य युक्तानंत परिमारण उत्कृप्ट परीतानंत जानना।
अव जघन्य युक्तानंत कहिये है - जघन्य परीतानंत का विरलन करि-करि वखेरि एक-एक स्थान विष एक-एक जघन्य परीतानंत का स्थापन करि परस्पर गुणे जो परिमाण आवै, सो जघन्य युक्तानंत जानना । सो यह अभव्य राशि समान है । अभव्य जीव राशि जघन्य युक्तानंत परिमाण है । वहुरि याके ऊपरि एक-एक वधता एक घाटि उत्कृष्ट युक्तानंत पर्यन्त मध्यम युक्तानंत के भेद जानना । वहुरि एक घाटि जघन्य अनंतानन्त परिमारण उत्कृप्ट युक्तानन्त जानना ।
अव जघन्य अनंतानंत कहिये है - जघन्य युक्तानंत कों जघन्य युक्तानंत करि एक ही वार गुणे जघन्य अनंतानंत होइ है। वहुरि याके ऊपरि एक-एक वधता एक घाटि केवलनान के अविभाग प्रतिच्छेद प्रमाण उत्कृप्ट अनंतानंत पर्यन्त मध्यम अनंतानत जानने । सो याके भेदनि कौं जानता संता असे विधान करे - जघन्य अनंतानंत परिमारण शलाका, विरलन, देयल्प तीन राशि करि अनुक्रम ते शलाका त्रय निष्ठापन पूर्वोक्त प्रकार करि करना । जैसें करते जो मध्यम अनंतानंत भेदरूप परिमाण होड, तोहिं विप ए छह राशि और मिलावना । जीव राशि के अनंतवे भाग सिद्ध राशि, बहुरि तातै अनंतगुणा बैसा पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, अस रागि रहित संसारी जीव राशि मात्र निगोद राशि, बहुरि प्रत्येक वनस्पति सहित निगोद राशि प्रमाण वनस्पति राशि, बहुरि जीव राशि तें अनंतगुणा पुद्गल राशि,
हरि याने अनन्तानन्त गुणा व्यवहार काल के समयनि की राशि, बहुरि याते अनंतानन्न गुग्गा अन्दोकाकाश के प्रदेशनि की राशि - असें छहो राशि के परिमाण पूर्व पग्निाग विग मिलावने । वहुरि मिलाए जो परिमाण होइ, तीहि प्रमाण शलाका, विल्लन, देय करि क्रम तै पूर्ववत् शलाका त्रय निष्ठापन कीये जो कोई मध्यम अनंतानंत का भेदम्प परिमाण पावै, तीहिं वि वर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य के अगुरुलघु गुण का विभाग प्रनिच्छेदनि का परिमाण अनंतानंत है, सो जोडिए । यौं करतें जो मह ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २४७
पाच में छत्तीस (६५५३६) प्रमाण का नाम पणट्ठी कहिये है। बहुरि याका वर्ग पाचवा स्थान नादाल, सो बियालीस चौराणवै, छिनवै, बहत्तरि, छिनवै ये अंक लिखे जो प्रमाण होइ, ताकी बादाल कहिये (४२ ६४ ६६ ७२ ६६) ।
बहुरि याका वर्ग छठा स्थान एकट्टी, सो एक, आठ, च्यारि च्यारि, छह, सात, च्यारि-च्यारि, बिदी, सात, तीन, सात, बिदी, नव, पांच, पांच, एक, छह, एक, छह इनि अकनि करि जो प्रमाण होइ ता. एकट्टी कहिये है (१८४४ ६ ७ ४ ४ ० ७ ३ ७ ० ६ ५ ५ १६ १६) । बहुरि याका वर्ग सातवां स्थान असे ही पहलापहला स्थाननि का वर्ग कीए एक-एक स्थान होइ । तहां सख्यात स्थान भए जघन्य परीतासख्यात की वर्गशलाका होइ ।
सो वर्गशलाका कहा कहिए ?
दोय के वर्ग ते लगाइ जितनी बार वर्ग कीए विवक्षित राशि होइ, तितनी ही विवक्षित राशि की वर्गशलाका जाननी । तातै द्विरूप वर्गधारा आदि तीन धारानि विष जितने स्थान भए जो राशि होइ, तीहि राशि की तितनी वर्गशलाका है । जैसे पणठो की वर्ग शलाका च्यारि, बादाल की पाच, इत्यादि जाननी । बहुरि जघन्य परीतामख्यात को वर्गशलाका स्थान तै लगाइ सख्यात स्थान भए, तब जघन्य परीतासख्यात के अर्धच्छेदनि का परिमारण होइ ।
सो अर्धच्छेद कहा कहिए?
विवक्षित राशि का जेती बार आधा-आधा होइ, तितने तिस राशि के अर्धच्छेद जानने । जैसे सोलह को एक बार आधा कीये आठ होइ, दूसरा आधा कीये च्यारि होइ, तीसरा प्राधा कीये दोय होइ, चौथा आधा कीये एक होइ, असे च्यारि बार आधा भया, तातै सोलह का अर्धच्छेद च्यारि जानने । अस ही चौसठि के अर्धच्छेद छह होइ । असे सर्व के अर्धच्छेद जानने । बहुरि तिस जघन्य परीतासस्यात के अर्धच्छेदरूप स्थान ते संख्यात वर्ग स्थान गये जघन्य परीतासख्यात का वर्गमूल होइ, यात एक स्थान गये इस वर्गमूल का वर्ग कीये जघन्य परीतासख्यात होइ । बहुरि यातै सख्यात स्थान गये जघन्य युक्तासख्यात होइ, सोई प्रावली का परिमाण है । इहा वर्गशलाकादिक न कहे, ताका कारण आगे कहियेगा। बहुरि याने एक स्थान जाइये, याका एक बार वर्ग कीजिये, तब प्रतरावली होइ; जातै प्रावली के वर्ग ही को प्रतरावली कहिये है।
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२४८ ]
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ११७
बहुरि इहा असंख्यात स्थान जाइ अद्धापल्य का वर्ग शलाका राशि होड है । बहुरि याते असख्यात स्थान जाइ, श्रद्धापल्य का अर्धच्छेद राशि होइ । बहुरि याते असख्यात स्थान जाइ श्रद्धापल्य का वर्गमूल होइ । बहुरि याते प्रसंख्यात स्थान गये सूच्यंगुल होइ । बहुरि यातै एक स्थान गये प्रतरागुल होइ । वहुरि याते प्रसंख्यात स्थान गये जगत् श्रेणी का घनमूल होइ । बहुरि याते असख्यात संख्यात स्थान गये क्रम ते जघन्य परीतानत का वर्गशलाका राशि पर अर्द्धच्छेद राणि श्रर वर्गमूल होइ । यातै एक स्थान गये जघन्य परीतानत होइ । बहुरि याते श्रसंख्यात स्थान गये जघन्य युक्तानंत होइ । बहुरि यातै एक स्थान गये जघन्य ग्रनतानंत होड |
हुरिया अनंतात अनतानत स्थान गये क्रम ते जीव राशि का वर्गशलाका राशि अर अर्द्धच्छेद राशि अर वर्गमूल होइ । यातै एक स्थान गये जीव राशि होइ । वहुरि अव इहां ते ग्रागे जे राशि कहिए है, तिनिका वर्गशलाका राशि, अर्धच्छेद राशि, वर्गमूल सवका से कहि लेना । सो जीवराणि ते अनतानत वर्गस्थान गए पुद्गल परमाणुनि का परिमाण होइ । याते अनतानत वर्गस्थान गए तीनि काल के समयनि का परिमाण होइ । याते अनतानंत स्थान गये श्रेणीरूप आकाश के प्रदेशनि का परिमाण होड, सो यहु लोक-लोकरूप सब अकाश के लवाईरूप प्रदेशनि का परिमाण है । यामै चौडाई-ऊचाई न लीनी । बहुरि यातं एक स्थान गये प्रतराकाश के प्रदेशनिका परिमाण है, सो यहु लोक प्रलोकरूप सर्व प्रकाश के प्रदेशनि का लंबाईरूप वा चाप प्रदेशनि का परिमाण है, यामै ऊचाई न लीनी । ऊचाई सहित घनरूप सर्व प्रकाश के प्रदेशनि का प्रमाण द्विरूप घनधारा विप है, इस धारा विषै नाही है । बहुरि यातं नतानत स्थान जाइ धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य के अगुरुलघु गुणनि का विभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण होइ । जिसका भाग न होइ जैसा कोई शक्ति का सूक्ष्म अश, ताका नाम अविभाग प्रतिच्छेद है । बहुरि यात अनंतात वर्गस्थान गये एक जीव के अगुरुलघु गुण के षट्स्थान पतित वृद्धि हानि रूप अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण होइ है । वहुरि यातै अनंतानंत वर्गस्थान गये सूक्ष्म निगोदिया के जो लब्ध्यक्षर नामा जघन्य ज्ञान होइ है, ताके अविभाग प्रतिच्छेदनि का परिमाण होइ । बहुरिया नतानंत वर्गस्थान गए ग्रसयत सम्यग्दृष्टी तिर्यच के जो जघन्य सम्यक्त्वरूप क्षयिक लब्धि हो है, ताके अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमारण होइ । बहुरि यात अनंतानन स्थान गए केवलज्ञान का वर्गशलाका राणि होइ । वहुरि यातै अनंतानंत वर्तमान गए केवलज्ञान का प्रवच्छेद राशि होड । वहुरि यातै अनंतानत वर्गस्थान
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सम्येग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ २४६
गये केवलज्ञान का अष्टम वर्गमूल होइ । बहुरि यातै एक-एक स्थान गए क्रम तै केवलज्ञान का सप्तम, षष्ठम, पचम, चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय, प्रथम वर्गमूल होइ ।
जो विवक्षित राशि का वर्गमूल होइ, ताकी प्रथम वर्गमूल कहिए । बहुरि उस प्रथम वर्गमूल का वर्गमूल कू द्वितीय वर्गमूल कहिए । बहुरि तिस द्वितीय वर्गमूल का भी वर्गमूल होइ, ताकौ तृतीय वर्गमूल कहिए । जैसे ही चतुर्थादिक वर्गमूल जानने । बहुरि उस प्रथम वर्गमूल ते एक स्थान जाइए, वाका वर्ग कीजिए, तब गुण- पर्याय सयुक्त जे त्रिलोक के मध्यवर्ती त्रिलोक सबधी जीवादिक पदार्थनि का समूह, ताका प्रकाशक जो केवलज्ञान सूर्य, ताकी प्रभा के प्रतिपक्षी कर्मनि के सर्वथा नाश ते प्रकट भए समस्त अविभाग प्रतिच्छेदनि का समूहरूप सर्वोत्कृष्ट भाग प्रमारण उपजै है; सोई उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि है । इहां ही इस धारा का अत स्थान है । यह ही सर्वोत्कृष्ट परिमाण है । या कोऊ अधिक परिमाण नाही । से यहु द्विरूप वर्गधारा कही । या वर्गरूप सर्वस्थान केवलज्ञान की वर्गशलाको परिमाण जानने ।
अब इहा केतेइक नियम दिखाइए है - जो राशि विरलन देय क्रम करि निपजै, सो राशि जिस धारा विषै कही होइ, तिस धारा विषे ही तीहि राशि की वर्गशलाका वा अर्धच्छेद न होइ । जैसे विरलन राशि सोलह (१६), ताका विरलन करि एक-एक प्रति सोलहो जायगा देय राशि जो सोलह सो स्थापि, परस्पर गुरणन कीए एकट्ठी प्रमाण होइ, सो एकट्ठी प्रमाण राशि द्विरूप वर्गधारा विषै पाइये है । याके अर्धच्छेद चौसठि (६४), वर्गशलाका छह, सो इस धारा मे न पाइये, असे ही सूच्यगुल वा जगत्श्रेणी इत्यादिक का जानना । असा नियम इस द्विरूप वर्गधारा विषै अर द्विरूप घनधारा र द्विरूप घनाघनधारा विषै जानना । तहाते सूच्यगुलादिक द्विरूप वर्गधारा विषे अपनी-अपनी देय राशि के स्थान ते ऊपरि विरलन राशि के जेते अर्धच्छेद होइ, तितने वर्गस्थान गये उपजे है । तहा सूच्यगुल का विरलन राशिपल्य का प्रच्छेद प्रमाण है, देय राशि पल्य प्रमाण है । बहुरि जगच्छे गी की विरलन राशि पल्य का अर्धच्छेदनि का असख्यातवा भागमात्र जानना, देय राशि घनागुलमात्र जानना । तहा अपना-अपना विरलन राशि का विरलन करि एक-एक बखेरि तहा एक-एक प्रति देय राशि को देइ परस्पर गुणै जो-जो राशि उपजै है, सो आगे कथन करेंगे । बहुरि द्विरूप वर्गधारादिक तीनि धारानि विषै पहला पहला वर्गस्थान ते ऊपरला - ऊपरला वर्गस्थान विषै अर्धच्छेदअर्धच्छेद तो दूणे-दूणे जानने अर वर्गशलाका एक-एक अधिक जाननी । जैसे दूसरा
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f गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७ २५० 1 वर्गस्थान सोलह, ताका अर्धच्छेद च्यारि अर तीसरा वर्गस्थान दोय सै छप्पन, ताका अर्घच्छेद पाठ, जैसे ही दूणे-दूणे जानने । वहुरि वर्गणलाका सोलह की दोय, दोय सै छप्पन की तीन असे एक अधिक जाननी । बहुरि तीहि ऊपरला स्थानक के निकटवर्ती जेथवां ऊपरला स्थानक होइ, तेथवा अन्य धारा विष स्थान होइ, तौ तहां तिस पहिले स्थान ते अर्धच्छेद तिगुणे होंड, जैसे द्विरूप वर्गधारा का द्वितीय स्थान सोलह, ताके अर्घच्छेद च्यारि, अर ताते ऊपरिला द्विरूप धनधारा का तीसरा स्थान च्यारि हजार छिन, ताके अर्धच्छेद वारह, असे सर्वत्र जानना । बहुरि वर्गशलाका दोऊ की समान जाननी, जैसे दोय सै छप्पन की भी तीन वर्गशलाका, च्यारि हजार छिन की भी तीन वर्गणलाका हो है । बहुरि राशि के जेते अर्धच्छेद होइ, तिनि अर्धच्छेदनि के जेते अर्धच्छेद होइ, तितनी राशि की वर्गणलाका जाननी । जैसे राशि का प्रमाण सोलह, ताके अर्धच्छेद च्यारि, याहू के अर्धच्छेद दोय, राशि सोलह, ताकी वर्गणलाका दोय है, असे सर्वत्र जानना । बहुरि जेती वर्गणलाका होइ, तितनी जायगा दोय-दोय माडि परस्पर गुणिए, तव अर्धच्छेदनि का परिमाण आवै । जैसे सोलह की वर्गशलाका दोय, सो दोय जायगा दोय-दोय मांडि परस्पर गुरिगए, तब च्यारि होड, सो सोलह के च्यारि अर्धच्छेद है, सो यह नियम द्विरूप वर्गधारा विष ही है । वहुरि जेते अर्घच्छेद होड, तितना दुवा माडि परस्पर गुरिगए, तव राशि का परिमाण होइ । जमै च्यारि अर्धच्छेद के च्यारि जायगा दुवा माडि परस्पर गुरिणए, तब जो राशि सोलह, तीहिका परिमाण आवे ।
वर्गणलाका कहा ?
जती वार वर्ग कीये राशि होइ, सो वर्गशलाका है । अथवा द्विरूप धारा विप अर्वच्छेदनि का अर्धच्छेद प्रमाण वर्गशलाका हो है ।
वहरि अर्धच्छेद कहा ?
रागि का जेता वार आधा-आधा होइ, सो अर्धच्छेद राशि है । इत्यादि यथा मभव जानना।
बहुरि हिरूप का धन की प्रादि देकरि पहला-पहला वर्ग करते संख्या विणेप जिन धन विप होड, सो द्विरूप घनधारा है । सो दोय का घन आठ हो है, सो नो बाला पहिला स्थान । बहुरि याका वर्ग चौसठि, सो दूसरा स्थान । वहुरि याका यंग मारि हजार छिनर्व, सो तीसरा स्थान, सो यहु सोलह का घन है । वहुरि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[२५१
याका वर्ग दोय से छप्पन का घन सो चौथा स्थान । बहुरि परगट्ठी का घन पांचवां स्थान । बादाल का घन छठा स्थान । जैसे पहला पहला स्थानक का वर्ग कीए एकएक स्थान होइ, सो असे सख्यात स्थान गए जघन्य परीतासंख्यात का घन होइ । या सख्यात स्थान गए आवली का घन होइ । याते एक स्थान गए प्रतरावली का घन होइ । यातै असख्यात असंख्यात स्थान गए क्रम तै पल्य की वर्गशलाका का घन अर अर्धच्छेद का घन अर वर्गमूल का घन होइ । यातै एक स्थान गए पल्य का घन होइ । बहुरि यातै असंख्यात स्थान गए घनांगुल होइ । याते असख्यात स्थान गए जगच्छे, णी होइ । याते एक स्थान गए जगत्प्रतर होइ । यातै अनंतानंत अनंतानंत स्थान गए क्रम ते जीवराशि की वर्गशलाका का घन अर अर्धच्छेद का घन र वर्गमूल का घन हो । यातै एक स्थान गये जीवराशि का घन होइ । यातै अनतानत स्थान गए श्रेणीरूप सर्व आकाश की वर्गशलाका का घन होइ । तातै अनंतात वर्ग स्थान जाइ, ताही का अर्धच्छेद का घन होइ । तातै अनतानंत वर्गस्थान जाइ, ताही का प्रथम मूल का घन होइ । तातै एक स्थान जाइ श्रेणी आकाश का घन होइ, सोई सर्व प्रकाश के प्रदेशनि का परिमाण है ।
बहुरि याते अनंतानत स्थान गए केवलज्ञान का द्वितीय वर्गमूल का घन होइ, सो याही कौ अत स्थान जानना । प्रथम वर्गमूल और द्वितीय वर्गमूल कौ परस्पर गुणै जो परिमाण होइ, सोई द्वितीय वर्गमूल का घन जानना । जैसे सोलह का प्रथम वर्गमूल च्यारि, द्वितीय वर्गमूल दोय, याका परस्पर गुणन कीए आठ होइ, सोई द्वितीय वर्गमूल जो दोय, ताका घन भी आठ ही होइ, बहुरि द्वितीय वर्गमूल के अनंतरि वर्ग केवलज्ञान का प्रथम मूल, ताका घन कीए केवलज्ञान ते उलघन होइ, सो केवलज्ञान ते अधिक संख्या का अभाव है, तातै सोई अत स्थान कह्या । जैसे या धारा के सर्वस्थान दोय घाटि केवलज्ञान की वर्गशलाका मात्र जानने । द्विरूपवर्गधारा विषै जिस राशि का जहा वर्ग ग्रहण कीया, तहा तिसका घन इस धारा विष जानना | बहुरि दोय रूप का घन का जो घन, ताकौ आदि देकर पहला पहला स्थान का वर्ग करते जो सख्या विशेष होइ, ते जिस धारा विषै पाइये, सो द्विरूप घनाघनधारा है । सो दोय का घन आठ, ताका घन पांच से बारा, सो याका श्रादि स्थान जानना । बहुरि याका वर्ग दोय लाख बासठि हजार एक सौ चवालीस ( २६२१४४ ), सो याका दूसरा स्थान जानना | औसे ही पहला पहला स्थान का वर्ग करते याके स्थान होंहि । जैसे असंख्यात वर्ग स्थान गये लोकाकाश के प्रदेशनि का परिमाण
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૨૨
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७
होइ । बहुरि यातै असंख्यात वर्गस्थान गये अग्निकायिक जीवनि की गुरणकार शलाका होहि । जेती बार गुणन कीये अग्निकायिक जीवन का परिमाण होड, तितनी गुणकार शलाका जाननी । सो याके परिमाण दिखावने के निमित्त कहिये - लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण जुदा-जुदा तीन राशि करना शलाका, विरलन, देय । तहां विरलन राशि को एक-एक स्थान विषै देय राशि की स्थापन करि परस्पर गुणन करना । जैसे कीये संतै शलाका राशि मे स्यों एक काढि लेना । इहा जो राणि भया, ताकी गुणकार शलाका एक भई ग्रर वर्ग शलाका पल्य के असंख्यातवे भागमात्र हुई, जाते विरलन राशि के अर्धच्छेद देय राशि के अर्धच्छेद के अर्थच्छेदनि विषै जोडे विवक्षित राशि की वर्गशलाका का प्रमारण होइ है । वहुरि अर्धच्छेद राशि प्रसंख्यात लोक प्रमाण भया, जातै देय राशि के अर्धच्छेदनि करि विरलन राशि कौ गुणं विवक्षित राशि का अर्थच्छेदनि का प्रमाण हो है । बहुरि उत्पन्न भया राशि सो असंख्यात लोक प्रमाण हो है । बहुरि यों करते जो राणि भया, तीहि प्रमाण विरलन देय रात्रि करि विरलन राशि का विरलन करना, एक-एक प्रति देय राशि को देना, पीछे परस्पर गुग्गन करना, तव शलाका राशि में स्यों एक और काढि लेना । इहा गुग्णकार शलाका दोय भई, अर वर्गशलाका राणि अर अर्वच्छेद राशि अर यो करतां जो गणि उत्पन्न भया, सो ये तीनों ही असंख्यात लोक प्रमाण भये । वहुरि जहां ताई वह लोकमात्र शलाका राशि एक-एक काढने ते पूर्ण होड, तहा ताई से ही करना । ग्रॅम करते जो राशि उपज्या, ताकी गुणकार शलाका तौ लोकमात्र भई, ग्रीन सर्व तीनो राणि असंख्यात लोकमात्र असख्यात लोकमात्र भये । वहुरि जो यहु गणि का प्रमाण भया, तीहि प्रमाण जुदा-जुदा शलाका, विरलन, देय, असे तीन राशि स्थापि, तहां विरलन राशि को एक-एक वखेरि, एक-एक प्रति देय राशि की देह, परस्पर गुणनि करि दूसरी बार स्थाप्या हुआ शलाका राणि ते एक और काहि लेना । इहां जो राशि उपज्या, ताकी गुणकार शलाका एक श्रमिक लोकप्रमाण है, ग्रवशेप तीनों राशि असंख्यात लोकमात्र असंख्यात लोकमात्र हैं । बहुरि जो राशि नया तीहि प्रमाण विरलन देय राशि स्थापि, विरलन राशि की वखेरि, एक-एक प्रति देव राशि की डेड, परस्पर गुणन कर दूसरा शलाका राशि ते एक और काढि लेना. तब गुग्गुकार शलाका दोय अविक लोक प्रमाण भई । ग्रवशेप तीनों राशि असतात लोकमात्र असंख्यात लोकमात्र भई । बहुरि याही प्रकार दोय घाटि उष्ट संन्यान लोकमात्र गुग्ग्कार शलाका प्राप्त करि इन विषै पूर्वोक्त दोय अधिक गुकारसलाका जोडिये । तत्र गुणकार शलाका भी असंख्यात लोकप्रमाण
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ २५३ भई, तब इहा तै लगाइ गुणाकार शलाका, वर्गशलाका, अर्धच्छेद राशि, उत्पन्न भई राशि चारि (४) । ये च्यारौ विशेष करि हीनाधिक है । तथापि सामान्यपने असख्यात लोक असंख्यात लोकप्रमाण जाननी । अस क्रम तै जाइ दूसरी बार स्थापी हुई शलाका राशि को भी एक-एक काढने ते पूर्ण करै । बहुरि तहां उत्पन्न भया जो राशि, तीहि प्रमाण शलाका विरलन, देय जुदा-जुदा तीन राशि स्थापना । पूर्वोक्त प्रकार से इस तीसरी बार स्थाप्या हुवा शलाका राशि को भी पूर्ण कर बहुरि तहा जो राशि उत्पन्न भया, तीहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय, तीन राशि स्थापना। तहां जो पूर्व कही तीन गुणकार शलाका राशि, तिनिका प्रमाण इस चौथी बार स्थाप्या हुवा शलाका राशि मे स्यो घटाये जो अवशेष प्रमाण रहै, सो पूर्वोक्त प्रकार करि एक-एक काढने ते जब पूर्ण होइ, तब तहा जो उत्पन्न राशि होइ, तीहि प्रमाण अग्निकायिक जीवराशि है । जैसै देखि
'पाउड्ढराशिवारं लोगे अण्णोण्णसंगुणे तेओ' असा आचार्यनि करि कह्या है। याका अर्थ यह – जो साढा तीन बार शलाका राशि करि लोक को परस्पर गुणे अग्निकायिक जीवराशि हो है। या प्रकार अग्निकायिक जीवराशि की गणकार शलाका ते ऊपरि असंख्यात-असंख्यात वर्गस्थान जाइ ताका वर्गशलाका, अर्धच्छेद राशि पर प्रथम मूल होइ, ताको एक बार वर्गरूप कीये तेजस्कायिक जीवनि का प्रमाण होइ है। बहुरि यात असख्यात असख्यात वर्गस्थान जाइ तेजस्कायिक की स्थिति की वर्गशलाका अर अर्धच्छेद पर प्रथम मूल होइ है । यात एक स्थान जाइ तेजस्कायिक को स्थिति हो है, सो स्थिति कहा कहिये ? अन्य काय ते आय करि तेजस्काय विष जीव उपज्या, तहा उत्कृष्टपने जेते काल और काय न धरै, तेजस्काय ही के पर्यायनि को धाऱ्या करै, तिस काल के समयनि का प्रमाण जानना ।
बहुरि यात असंख्यात-असंख्यात वर्गस्थान जाइ अवधि सबधी उत्कृष्ट क्षेत्र को वर्गशलाका, अर्वच्छेद पर प्रयम मूल हो है। ताको एक बार वर्गरूप कीये, अवधि सबधी उत्कृष्ट क्षेत्र हो है, सो कहा ?
सर्वावधि ज्ञान के जेता क्षेत्र पर्यत जानने की शक्ति, ताके प्रदेशनि का प्रमाण हो है, सो यह क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण है ।
इहां कोऊ कहै अवधिज्ञान तो रूपी पदार्थनि को जाने, सो रूपी पदार्थ एक लोक प्रमाण क्षेत्र विष ही है । इहा इतना क्षेत्र कैसे कह्या ?
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[ गोम्मटसार जौवकाण्ड गाया ११७
ताका समाधान - जैसे ग्रहमिद्रनि के सप्तम नरक पृथ्वी पर्यंत गमन शक्ति है, तथापि इच्छा बिना कदाचित् गमन न हो है । तैसे सर्वावधि विषे असी शक्ति है - इतने क्षेत्र विपं जो रूपी पदार्थ होइ तौ तितने को जाने, परतु तहां रूपी पदार्थ नाही, तातं तो शक्ति व्यक्त न हो है ।
*}
बहुरि ता
संख्यात प्रसंख्यात स्थान जाइ स्थिति वंधाध्यवसाय स्थाननि की वर्गगानाका अर अर्थच्छेद पर प्रथम मूल हो है । याको एक वार वर्गरूप कीये स्थितित्रवाध्यवसाय स्थान हो है, ते कहा ?
सो कहिये हैं ज्ञानावरणादिक कर्मनि का ज्ञान की आवरना इत्यादिक स्वभाव करि संयुक्त रहने का जो काल, ताको स्थिति कहिये । तिसके वंध कों कारणभून जे परिणामनि के स्थान, तिनिका नाम स्थितिबंधाध्यवसाय स्थान है ।
बहुरि नाते असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान जाइ अनुभागवंधाध्यवसाय स्थाननि की वर्गगालाका ग्रर अर्धच्छेद र प्रथम मूल हो है । ताकौ एक वार वर्गकी अनुभागववाध्यवसाय स्थान हो है । ते कहा ?
नो कहिये है - ज्ञानावरणादि कर्मनि का वर्ग, वर्गग्गा, स्पर्धक, गुणहानि उता जो ग्रविभाग प्रतिच्छेदति का समूहरूप अनुभाग, ताके वध कौ जे परिणाम, तिनके स्थाननि का नाम अनुभागववाध्यवसाय स्थान है । विसाय स्थान र अनुभागववाध्यवसाय स्थाननि का विशेष व्याख्यान
के अंत अधिकार विषै लिखेंगे । वहुरि ताते असख्यात असंख्यात नगद गरीरनि की उत्कृष्ट संख्या का वर्गशलाका ग्रर अर्धच्छेद ग्रर
ही है।
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सम्यग्जानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। २५५ छोडे, तिस काल के समयनि का प्रमाण जानना । इहां निगोद जीव निगोद पर्याय को छोडि अन्य पर्याय उत्कृप्टपनै यावत् काल न धरै, तिस काल का ग्रहण न करना; जातै सो काल अढाई पुद्गल परिवर्तन परिमारण है, सो अनंत है; तातै ताका इहां ग्रहण नाहीं । बहुरि तातें असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान जाइ, उत्कृष्ट योग स्थाननि के अविभाग प्रतिच्छेदनि का वर्गशलाका अर अर्धच्छेद पर प्रथम मूल हो है । याका एक बार वर्ग कीए एक-एक समान प्रमाणरूप चय करि अधिक असे जो जगतश्रेणी के असंख्यातवै भाग प्रमाण योग स्थान है, तिनिविर्षे जो उत्कृष्ट योग स्थान हैं, ताके अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण हो है। ते लोक प्रमाण जे एक जीव के प्रदेश, तिनिविर्षे कर्म-नोकर्म पर्यायरूप परिणमने को योग्य जे तेइस वर्गणानि विर्षे कार्माण वर्गणा अर आहार वर्गणा, तिनिकौ तिस कर्म-नोकर्म पर्यायरूप परिणमने विषै प्रकृतिबंध पर प्रदेशबंध का कारणभूत जानने । बहुरि तातै अनंतानंत वर्गस्थान जाइ केवलज्ञान का चौथा मूल का धन का घन हो है, सो केवलज्ञान का प्रथम मूल अर चतुर्थ मूल को परस्पर गुण जो प्रमाण होइ, तीहि मात्र है । जैसें अंकसंदृष्टि करि केवलज्ञान का प्रथम पणट्ठी (६५५३६), ताका प्रथम मूल दोय सै छप्पन, चतुर्थ मूल दोय, इनिको परस्पर गुण पांच से बारह होई, चतुर्थ मूल दोय का घन आठ, ताका घन पांच से बारह हो है, सो यह द्विरूप घनाघनधारा का अंतस्थान है, याते अधिक का घनाघन कीए केवलज्ञान तै उल्लघन हो है, सो है नही । बहुत कहने करि कहा ? द्विरूप वर्गधारा विष जिस-जिस स्थान विषै जिस-जिस राशि का वर्ग ग्रहण कीया, तिस-तिस राशि कौ तिस-तिस स्थान विष नव जायगा माडि, परस्पर गुणै इस द्विरूप घनाघन धारा विपै प्रमाण हो है। इस धारा के सर्वस्थान च्यारि घाटि केवलज्ञान का वर्गशलाका मात्र है । औसै इहा सर्वधारा अर द्विरूपवर्गादिक तीन धारानि का प्रयोजन जानि विशेष कथन कह्या ।
अब शेष सम, विषम, कृति, अकृति, कृतिमूल, अकृतिमूल, घन, अघन, घनमूल अघनमूल इन धारानि का विशेष प्रयोजन न जानि सामान्य कथन कीया, जो इनिका विशेप जान्या चाहै ते त्रिलोकसार विषै वृहद्धारा परिकर्मा नाम ग्रंथ विष जानहु ।
अब उपमा मान आठ प्रकार का वर्णन करिए है। अथ एक,दोय गणना करि कहने को असमर्थ रूप असा जो राशि, ताका कोई उपमा करि प्रतिपादन, सो उपमा मान है । तिसरूप प्रमाण (तिस उपमा मान के) आठ प्रकार है । १. पल्य, २ सागर,
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२५६ ]
[ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा ११७
सूच्यगुल, ४ प्रतरागुल, ५ घनांगुल, ६ जगत श्रेणी, ७ जगत्प्रतर ८ जगद्धन । तहां पन्य तीन प्रकार है - व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य, श्रद्धा पल्य । तहा पहिला पल्य करि वालनि की संख्या कहिए है । दूसरा करि द्वीप - समुद्रनि की संख्या गए है । तीसरा करि कर्मनि की वा देवादिकनि की स्थिति वर्णित है । अव परिभाषा का कथनपूर्वक तिनि पल्यनि का स्वरूप कहिए है ।
जो तीक्ष्ण शस्त्रनि करि भी छेदने भेदने मोडने को समर्थ न हूजे औसा है, वहुरि जल-ग्रग्नि ग्रादिनि करि नाश को न प्राप्त हो है, बहुरि एक-एक तो रस, वर्ण, गंध ग्रर दोय स्पर्श असे पाच गुरण संयुक्त है; वहुरि शब्दरूप स्कंध का कारण है, ग्राप शब्द रहित है, बहुरि स्कंध रहित भया है, वहुरि आदि-मध्य-अंत जाका का न जाड जैसा है; बहुरि बहु प्रदेशनि के प्रभाव ते अप्रदेशी है, बहुरि इंद्रियनि करि जानने योग्य नही है, वहुरि जाका विभाग न होइ जैसा है - जैसा जो द्रव्य, सो परमाणु कहिए । सो परमाणु अंतरंग वहिरंग कारणानि ते अपने वर्ण, रस, गंध, स्पर्शनि करि सदा काल पूरे कहिए जुडै र गलै कहिए विखरं तव स्कंधवान आपको करें है; ताते पुद्गल जैसा नाम है ।
वहुरि तिनि अनंतानंत परमाणुनि करि जो स्कंध होइ, सो अवसन्नासन्न नाम धारक है । बहुरि तातै सन्नासन्न, तृटरेणु, त्रसरेणु, उत्तम भोगभूमिवाली का बाल वा अग्रभाग, रथरेणु, मध्यम भोगभूमिवालों का वाल का अग्रभाग, जघन्य भोगभूमिवाली का बाल का अग्रभाग, कर्मभूमिवालों का बाल का अग्रभाग, लीख, सरिसौ, यद अंगुल ए बारह पहिला पहिला ते क्रम करि आठ-आठ गुणे है ।
नहां अंगुल तीन प्रकार है उत्सेधागुल, प्रमारणागुल, प्रात्मांगुल । तहां पूर्वोक्त क्रम राच्या मोउत्गुल है । याकरि नारकी, तिर्यच, मनुष्य, देवनि के शरीर वा भवानी श्रादि च्यारि प्रकार देवनि के नगर पर मंदिर इत्यादिकनि का प्रमाण कोन करिए है । बहुरि तिन उत्सेबागुल ते पाच मो गुणा जो भरत क्षेत्र का प्रवसती रात तिर्थ पहला चक्रवर्ती का अंगुल है; मोई प्रमाणागुल है । याकरि द्वीप, स्वयं बेदी, नदी, कुंड, जगती, वर्ष इत्यादिकनि का प्रमाण वरिगए है ।
भरावन क्षेत्र के मनुष्यनि का अपने-अपने वर्तमान काल विपे जो अगुल मगर है । याकरि नारी, कलश, धारमा, धनुष, ढोल, जूडा, शय्या, गाडा, सिंहासन, वाण, चमर, दुदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यनि के मंदिर
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ २५७ वा नगर वा उद्यान इत्यादिकनि का प्रमाण वर्णिए है । जैसे जहाँ जैसा सभवै, तहा तैसा ही अगुल करी निपज्या प्रमाण जानना । ____ बहुरि छह अंगुलनि करि पद होइ है । बहुरि तातै दोय पाद की एक विलस्ति, दोय विलस्ति का एक हाथ, दोय हाथ का बीख, दोय वीख का एक धनुष, बहुरि दोय हजार धनुषनि करि एक कोश, तिन च्यारि कोशनि करि एक योजन हो है । सो प्रमाणांगुलनि करि निपज्या असा एक योजन प्रमाण औडा वा चौड़ा असा एक गर्त - खाड़ा करना। चौडा १ योजन प्रौडा १ योजन
सो गर्त उत्तम भोगभूमि विर्षे निपज्या जो जन्म ते लगाइ एक आदि सात दिन पर्यत ग्रहे जे मीढा का युगल, तिनिके बालनि का अग्रभाग, तिनिकी लंबाई चौडाईनि करि अत्यंत गाढा भूमि समान भरना, सिघाऊ न भरना । केते बाल माये सो प्रमाण ल्याइये है -
विक्खंभवग्गदहगुण, करणी वट्टस्स परिरयो होदि ।
विक्खंभचउत्थाभे, परिरयगुणिदे हवे गुरिणयं ॥ इस करण सूत्र कर गोल क्षेत्र का फल प्रथम ही ल्याइए है। या सूत्र का अर्थ – व्यास का वर्ग को दश गुणा कीए वृत्त क्षेत्र का करणिरूप परिधि हो है । जिस राशि का वर्गमूल ग्रहण करना होइ, तिस राशि को करण कहिए । बहुरि व्यास का चौथा भाग करि परिधि को गुणै क्षेत्रफल हो है । सो इहां व्यास एक योजन, ताका वर्ग भी एक योजन, ताकौ दश गुणा कीए दश योजन प्रमाण करणिरूप परिधि होइ सो याका वर्गमूल ग्रहण करना । सो नव का मूल तीन अर अवशेष एक रह्या, ताकी दूणा मूल का भाग देना, सो एक का छठा भाग भया । इनिको समच्छेद करि मिलाए उगणीस का छठा भाग प्रमाण परिधि भया (१६) याकौ व्यास का चौथा भाग पाव योजन (१), ताकरि गुण उगणीस का चौवीसवा भाग प्रमाण (१९) क्षेत्रफल भया । बहुरि याको वेध एक योजन करि गुणै, उगणीस का चौबीसवा भाग प्रमाण ही घन क्षेत्रफल भया । अब इहाँ एक योजन के आठ हजार (८०००) धनुष, एक धनुष का छिनवै (६६) अंगुल, एक प्रमाण अंगुल के पांच सै (५००) उत्सेधागुल,
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२५८ ]
! गोम्मटमार जीयकाण्ड गाया १७ आगे एक-एक के आठ-पा० यव, जू, लीख, कर्मभूमिवालो का वाल का अग्रभाग, जघन्य भोगभूमिवालो का वालाग्र, मध्यम भोगभूमिवालो का वालाग, उत्तम भोग भूमिवालों का वालाग्र होइ है । सो इहाँ घन राशि का गुणकार-भागहार घनरूप ही हो है । ताते इन सवनि का घनरूप गुणकार करने का उगणीस का चावीसवां भाग माडि आगै आठ हजार आदि तीन-तीन जायगा मांडि परम्पर गुगान करना । १६
૨૪
८००० । ८००० । ८००० । ६६ । ६६ 18६ । ५०० । ५०० । ५०० । ८ । ८ । ८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८।८ । ८।८ । सो राशि का गुणकार वा भागहार का अपवर्तनादि विधान करि गणे व्यवहार पल्य के सर्व वालनि के खडनि का प्रमाण अंक अनुक्रम करि बांही तरफ ते लगाइ पहले अठारह विदी अर पीछे दोय, नव, एक, दोय, एक, पाच, नव, च्यारि, सात, सात, सात, एक, तीन, विदी, दोय, पाठ, विदी, तीन, विदी, तीन, छह, दोय, पांच, च्यारि, तीन, एक, च्यारि ए अंक लिखने ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४६५१२१६२०००००००००००००००००० । इनि अंकनि करि च्यारि सै तेरा कोडाकोडि कोडाकोडि कोडाकोडि पैतालिस लाख छब्बीस हजार तीन से तीन कोडाकोड़ि कोडाकोडि कोडि आठ लाख वीस हजार तीन से मत्रह कोडाकोडि कोडाकोडि सतहत्तरि लाख गुणचास हजार पाच सै वारा कोडाकोडि कोडि उगणीस लाख वीस हजार कोडाकोडि प्रमाण हो है, इतने रोम खड सो व्यवहार पल्य के जानने । बहुरि तिस एक-एक रोम खंड कौं सौ-सौ वर्ष गए काढिए, जितने काल विप वे सर्व रोम पूर्ण होइ, सो सर्व व्यवहार पल्य का काल जानना ।
सो इहां एक वर्ष के दो अयन, एक अयन का तीन ऋतु, एक ऋतु का दोय माम, एक मास का तीस अहोरात्र, एक अहोरात्र के तीस मुहूर्त, एक मुहूर्त की मन्यात पावनी, एक पावली के जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण समय, सो क्रम ते गुणन कीये तिम काल के समयनि का प्रमाण हो है।
- वहरि तिस एक-एक रोम के अग्रभाग का असंख्यात कोडि वर्प के जेते समय होऊ तितने-तितने बंड कीए दूसरा उद्धार पल्य के रोम खंड होइ है । इहा याके समय भी जने ही जानने । मो ए कितने है ? सो ल्याइये है - विरलन राशि कौं देय राशि का अर्थच्छेदनि करि गुणें उत्पन्न राशि के अर्वच्छेदनि का प्रमाण हो है । तातै प्रद्धा१२ का अच्छंद राशि की अद्धापल्य का अर्घच्छेद राशि ही करि गुणे मूच्यगुल का
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सम्यग्ज्ञानचन्त्रिका गापाटीका 1
[ २५६ अर्धच्छेद राशि हो है । बहुरि याकौ तिगुणी कीए घनागुल का अर्धच्छेद राशि हो है। बहुरि याकरि श्रद्धापल्य का अर्धच्छेद राशि का असख्यातवां भाग कौं गुरणे जगत् श्रेणी का अर्धच्छेद राशि हो है । यामैं तीन घटाए एक राजू के अर्धच्छेदनि के प्रमाण हो है । इहा एक अर्धच्छेद तो बीचि मेरु के मस्तक विषै प्राप्त भया । तीहि सहित लाख योजननि के संख्यात अर्धच्छेद भये एक योजन रहै । अर एक योजन के सात लाख अडसठि हजार अंगुल होइ, सो इनके संख्याते अर्धच्छेद भये एक अंगुल होय, सो ये सर्व मिलि संख्याते अर्धच्छेद भए, तिनिकरि अधिक एक सूच्यगुल रही थी, ताके अर्धच्छेदनि का जो प्रमाण होइ, सो घटाइए, तब समस्त द्वीप-समुद्रनि की सख्या हो है। सो घटावना कैसे होइ ? इहां तिगुणा सूच्यंगुल का अर्धच्छेद प्रमाण गुणकार है, सो इतने घटावने होइ, तहां श्रद्धापल्य के अर्धच्छेदनि का असंख्यातवां भाग प्रमाण मे सौ एक घटाइए तौ इहा संख्यात अधिक सूच्यंगुल का अर्धच्छेद घटावना होइ, तो कितना घटाइए ? पैसै त्रैराशिक करि किछु अधिक त्रिभाग घटाइए, असे साधिक एक का तीसरा भाग कर हीन पल्य के अर्धच्छेद का असंख्यातवां भाग को पल्य के अर्धच्छेद के वर्ग ते तिगुणा प्रमाणकरि गुण समस्त द्वीप-समुद्रनि की संख्या हो है । सो इतने ए द्वीप-समुद्र अढाई उद्धार सागर प्रमाण है,तिनके पचीस कोडाकोडि पल्य भए, सो इतने पल्य की पूर्वोक्त संख्या होइ, तो एक उद्धार पल्य की केती होइ ? असे त्रैराशिक कीए पूर्वोक्त द्वीप-समुद्रनि की संख्या को पचीस कोडाकोडि का भाग दीजिए, तहां जो प्रमाण आवै तितनी उद्धार पल्य के रोम खंडनि की संख्या जानना । बहुरि इनि एक-एक रोम खंडनि के असंख्यात वर्ष के जेते समय होहि, तितने खंड कीए जेते होंइ, तितने अद्धापल्य के रोम खंड है, ताके समय भी इतने ही है । जाते एक-एक समय विषै एक-एक रोम खड काढे सर्व जेते कालकरि पूर्ण होइ, सो अद्धा पल्य का काल है।
ते असंख्यात वर्ष के समय कितने है ?
सो कहिए है - उद्धार पल्य के सर्व रोम खडनि का प्रत्येक असख्यात वर्ष समय प्रमाण खंड कीए एक अद्धा पल्य प्रमाण होइ, तो एक रोम खडनि के खडनि का केता प्रमाण होइ ? असे त्रैराशिक करि जितना लब्ध राशि का प्रमागा होइ, तितने एक उद्धार पल्य का रोम खंड के खडनि का प्रमाण जानना । बहुरि श्रद्धा पल्य है, सो द्विरूप वर्गधारा मे अपने अर्धच्छेद राशि ते ऊपरि असख्यात वर्गस्थान जाइ उपजै है । याकों तिगुणा पल्य का अर्धच्छेद राशि का वर्ग को किंचिदून पल्य का अर्धच्छेदनि का असंख्यातवां भाग करि गुण जो प्रमाण आवै, ताको पचीस कोडाकोडि
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२६० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ११७ का भाग दीए जो प्रमाण होइ, ताका भाग दीए जितने पावै, तितने असख्यात वर्पनि के समय जानने । इस प्रमाण करि तिस उद्धार पल्य के रोम खडनि की गुण अद्धा पल्य के रोमनि की संख्या आवै है। जैसे तीन प्रकार पल्य कहे । जैसे खास विर्षे अन्न भरिए, तैसे इहां गर्त विष रोम भरि प्रमाण कह्या, ताते याका नाम पल्योपम कह्या है ।
बहरि इनिको प्रत्येक दश कोडाकोडि करि गुणे अपने-अपने नाम का सागर होइ । दश कोडाकोडि व्यवहार पल्य करि व्यवहार सागर, उद्धार पल्य करि उद्धार सागर, अद्धा पल्य करि अद्धा सागर जानना ।
इहां लवण समुद्र की उपमा है, तात याका नाम सागरोपम है, सो याकी उत्पत्ति कहिए है - लवण समुद्र की छेहड की सूची पाच लाख योजन ५००००० (५ ल) आदिकी सूची एक लाख योजन (१०००००) इनिकी मिलाय ६ ल आधा व्यास का प्रमाण लाख योजन करि गुरिणये, तव ६ ल ल । वहुरि याके वर्ग को दशगुणा करिये, तव करणिरूप सूक्ष्म क्षेत्र होइ ६ ल ल ६ ल ल १० । याका वर्गमूल प्रमाण लवण समुद्र का सूक्ष्म क्षेत्रफलं है। वहुरि तिस करणिरूप लवरण समुद्र के क्षेत्रफल को पल्य का गर्त एक योजन मात्र, ताका करणिरूप सूक्ष्म क्षेत्रफल एक योजन का वर्ग दशगुणा को योजन का चौथा भाग के वर्ग का भाग दीए जो होड, तीहि प्रमाण है । ताका भाग देना ६ ल ल ६ ल ल १० । सो इहां दश करणि
करि दश करणि का अपवर्तन करना । बहुरि भागहार का भागहार राशि का गुणकार होड, इस न्याय करि भागहार दोय जायगा च्यारि करि राशि का दोय जायगा छक्का का गुणकार करना २४ ल ल २४ ल ल, तब पल्य गर्तनि के प्रमाण का वर्ग होड । याका वर्गमूल ग्रहै सर्व गर्तनि का प्रमाण लाख गुणा चोवीस लाख प्रमाण हो है । याको हजार योजन का औडापन करि गुण सर्व लवण समुद्र विपै पल्यगर्त मारिखे गर्तनि का प्रमाण हो है - २४ लल १००० । याको अपने-अपने विवक्षित पल्य के गेम खंडनि करि गुणे गर्तनि के रोमनि का प्रमाण हो है । बहुरि छह रोम जितना क्षेत्र रोके, तितने क्षेत्र का जल निकासने विष पचीस समय व्यतीत होय, तो सर्व रोमनि के क्षेत्र का जल निकासने मे केते समय होय ? असे त्रैराशिक करना । तहा प्रमाण गणि रोम छह. (६), फल राशि समय पचीस (२५), इच्छा राशि सर्व
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"सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २६१ गर्तनि के रोमनि का प्रमाण । तहा फल करि इच्छा को गुणि प्रमाण का भाग दीए समयनि का प्रमाण आवै । बहुरि पूर्वोक्त अपना-अपना समयनि का प्रमाणकरि एक पल्य-होय, तौ इतने इहां समय भए, तिनके केते पल्य होय? असे त्रैराशिक कीए, दश कोडाकोडि पल्यनि का प्रमाण हो है । तातै दश कोडाकोडि पल्यनि के समह का नाम सागर कह्या है । बहुरि अद्धा पल्य का अर्धच्छेद राशि का विरलन करि एक-एक करि बखेरि एक-एक रूप प्रति अद्धा पल्य को देइ परस्पर गुणन कीए सूच्यंगुल उपजै है । एक प्रमाणांगुल का प्रमाण लंबा, एक प्रदेश प्रमाण चौड़ा-ऊचा क्षेत्र का इतने प्रदेश जानने । जैसे पल्य का प्रमाण सोलह, ताके अर्धच्छेद च्यारि, तिनिका विरलन करि।१।१।१।१। एक-एक प्रति-प्रति पल्य सोलह कों देइ, १६ । १६ । १६ । १६ ।
परस्पर गुणे पणट्ठी प्रमाण (६५५३६) होइ, तैसे इहां जानना । बहुरि सूच्यंगुल का जो वर्ग सो प्रतरागुल है । एक अंगुल चौडा, एक अंगुल लम्बा, एक प्रदेश ऊंचा क्षेत्र का इतना प्रदेशनि का प्रमाण है। जैसे पणट्टी को पगट्ठी करि गुरणे बादाल होइ, तैसे इहा सूच्यंगुल को सूच्यंगुल करि गुणे प्रतरांगुल हो है । बहुरि सूच्यंगुल का घन, सो घनांगुल है। एक अंगुल चौडा, एक अंगुल लम्बा, एक अंगुल ऊंचा क्षेत्र का इतना प्रदेशनि का प्रमाण है । जैसे बादाल को पणट्ठी करि गुणै पगट्ठी का घन होई, तैसे प्रतरांगुल को सूच्यंगुल करि गुणै घनांगुल हो है । बहुरि अद्धापल्य के जेते अर्धच्छेद, तिनिका असंख्यातवा भाग का जो प्रमाण, ताकौ विरलनि करि एकएक प्रति घनांगुल देय परस्पर गुण जगत्श्रेणी उपज है। क्षेत्रखंडन विधान करि हीनाधिक को समान कीये, लोक का लम्बा श्रेणीबद्ध प्रदेशनि का प्रमाण इतना है । जातै जगत्त्रेणी का सातवां भाग राजू है । सात राजू का घनप्रमाण लोक है । जैसे पल्य का अर्धच्छेद च्यारि, ताका असंख्यातवां भाग दोय, सो दोय जायगा पगट्टी गुणा वादाल को माडि परस्पर गुण विवक्षित प्रमाण होइ, तैसे इहां भी जगत्श्रेणी का प्रमाण जानना । बहुरि जगत्श्रेणी का वर्ग, सो जगत्प्रतर है । क्षेत्रखडन विधान करि हीनाधिक समान कीए लम्बा-चौड़ा लोक के प्रदेशनि का इतना प्रमाण है।
भावार्थ यह – यह जगत्श्रेणी को जगत्श्रेणी करि गुण प्रतर हो है । बहुरि जगत्श्रेणी का घन सो लोक है। लम्बा, चौड़ा, ऊंचा, सर्व लोक के प्रदेशनि का प्रमाण इतना है।
भावार्थ यहु - जगत्प्रतर को जगत्श्रेणी करि गुण लोक का प्रमारण हो है।
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०६२ ]
| गोम्मटसार जीयकाण्ड गापा ११७ अव इनके अर्धच्छेद अर वर्गणलाकनि का प्रमाण कहिए है - तहां प्रथम श्रद्धा पल्य के अर्वच्छेद द्विरूप वर्गधारा विर्षे श्रद्धा पल्य के स्थान ते पहिले असख्यात वर्ग म्थान नीचे उतरि जो राशि भया, तीहि प्रमाण हैं । वहुरि श्रद्धा पल्य की वर्गशलाका तिमही द्विरूप वर्गधारा विप तिस पल्य ही के अर्धच्छेद स्थान ते पहले असंख्यात वर्गस्थान नीचे उतरि उपजी है । बहुरि सागरोपम के अर्धच्छेद सर्वधारा विपै पाइए है, ते पल्य के अर्धच्छेदनि विषै गुणकार जो दश कोडाकोडि, ताके संख्यात अर्धच्छेद जोडे जो प्रमाण होइ, तितने है । वहुरि ताकी वर्गशलाका इहां पल्य राशि ते गुणकार सख्यात ही का है, तातै न बने है । बहुरि सूच्यगुल है सो द्विरूप वर्गधारा विष प्राप्त है, सो यहु राशि विरलन देय का अनुक्रम करि उपज्या है, तात याके अर्धच्छेद अर वर्गणलाका सर्वधारा आदि यथासंभव धारानि विष प्राप्त है, द्विरूप वर्गधारा आदि तीन धारानि विष प्राप्त नाही है। तहां विरलन राशि पल्य के अर्धच्छेद, इनिकी देय राशि पल्य, ताके अर्धच्छेदनि करि गुणै, जो प्रमाण होइ, तितने तो सूच्यंगुल के अर्धच्छेद है। बहुरि द्विरूप वर्गधारा विष पल्यरूप स्थान ते ऊपरि मूच्यगुल का विरलन राशि जो पल्य के अर्धच्छेद, ताके जेते अर्धच्छेद है तितने वर्गस्थान जाड सूच्यंगुल स्थान उपजै है । तातै पल्य की वर्गशलाका का प्रमाण ते सूच्यंगुल की वर्गशलाका का प्रमाण दूणा है । तातै पल्य पर्यन्त एक बार पल्य की वर्गगलाका प्रमाण स्थान भए पीछे पल्य के अर्धच्छेदनि के अर्धच्छेदनि का जो प्रमाण होय, सोई पल्य की वर्गणलाका का प्रमाण, सो पल्य ते उपरि दूसरी बार पल्य की वर्गगलाका प्रमाण स्थान भए सूच्यंगुल हो है । तातै दूणी पल्य की वर्गशलाका प्रमाण गयगल की दर्गणलाका कही । अथवा विरलन राशि पल्य का अर्धच्छेद, तिनिके
ने प्रच्छेद, तिनिविप देय राशि पल्य, ताका अर्वच्छेदनि के अर्धच्छेदनि को जोडे, मुन्यगल की वर्गणलाका हो है । सो पल्य के अर्घच्छेदनि का अर्धच्छेद प्रसारण पल्य की वर्गगलाका है । सो इहां भी दूणी भई, सो या प्रकार भी पल्य की वर्गशलाका नंगी नूच्यगुल की वर्गशलाका है । वहुरि प्रतरागल है, सो द्विरूप वर्गधारा विप
न है । नाकी वर्गशलाका अर्बच्छेद यथा योग्य धारानि विषै प्राप्त जानने । तहां 'म दुरिमवगे दुगुणा-दुगुणा हवति अछिदा' इस सूत्र करि वर्ग ते ऊपरला वर्ग
नविणे दणा-दूगा अर्धच्छेद कहे, तातै इहां सूच्यंगुल के अर्धच्छेदनि ते दूणे प्रतरांगुल प्रन्टेद जानने । अथवा गुण्य पर गुणकार का अर्धच्छेद जोडें राशि का अर्ध
सो, नान हां मृत्र्यंगल गुण्य की मूच्यगुल का गुणकार है, तातै दोय सूच्यंगुल
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। २६३ के अर्धच्छेद मिलाए भी सूच्यगुल के अर्धच्छेदनि ते दूणे प्रतरांगुल के अर्धच्छेद हो है। बहुरि 'वसना रूवहिया' इस सूत्र करि वर्गशलाका ऊपरला स्थान विषै एक अधिक होइ, तातै इहा सूच्यगुल के अनतर प्रतरागुल का वर्गस्थान है, तात सूच्यगुल की वर्गशलाका तै एक अधिक प्रतरागुल की वर्गशलाका है । बहुरि घनांगुल है, सो द्विरूप घनधारा विर्षे प्राप्त है, सो यह अन्य धारा विर्षे उत्पन्न है, सो 'तिगुणा तिगुणा परट्ठाणे' इस सूत्र करि अन्य धारा का ऊपरला स्थान विष तिगुणा-तिगुणा अर्धच्छेद होहि, तातै सूच्यगुल के अर्धच्छेदनि ते तिगुणे घनांगुल के अर्धच्छेद है । अथवा तीन जायगा सूच्यगुल माडि परस्पर गुणे, धनागुल हो है । तातै गुण्य-गुणकार रूप तीन सूच्यंगुल, तिनका अर्धच्छेद जोडे भी घनागुल के अर्धच्छेद तितने ही हो है । बहुरि 'परसम्' इस सूत्र करि अन्य धारा विष वर्गशलाका समान हो है । सो इहा द्विरूप वर्गधारा विर्ष जेथवा स्थान विषै सूच्यगुल है, तेथवां ही स्थान विर्ष द्विरूप घनवारा विर्षे घनागुल है। तातै जेती सूच्यंगुल की वर्गशलाका, तितनी ही घनागुल की वर्गशलाका जानना । बहुरि जगत्श्रेणी है, सो द्विरूप घनधारा विष प्राप्त है; सो याके अर्धच्छेद वर्गशलाका अन्य धारा विष उपजै है। तहां 'विरलज्जमारणरासि दिग्णस्सद्धछिदोहि संगुरिगदे लद्धछेदा होंति' इस सूत्र करि विरलनरूप राशि को देय राशि का अर्धच्छेदनि करि गुण लब्ध राशि के अर्धच्छेद होहि । तातै इहा विरलन राशि पल्य का अर्धच्छेदनि का असख्यातवा भाग, ताको देय राशि घनागुल, ताके अर्धच्छेदनि करि गुण जो प्रमारण होइ, तितने जगत् श्रेणी के अर्धच्छेद है । बहुरि दूणा जघन्य परीतासंख्यात का भाग श्रद्धा पल्य की वर्गशलाका को दीए जो प्रमाण होइ, तितना विरलन राशि का अर्धच्छेद है । ताकी देय राशि घनागुल की वर्गशलाका विपै जोडे जो प्रमाण होइ, तितनी जगत्धेगी की वर्गशलाका है। अथवा जगत्श्रेणी विष देय राशि घनागल, तीहिरूप द्विरूप घनधारा का स्थान तै ऊपरि विरलन राशि पल्य का अर्धच्छेदनि का असंख्यातवां भाग, ताके जेते अर्धच्छेद होइ, तितने वर्गस्थान जाइ जगत्त्रेणीरूप स्थान उपजै है । तातै भी जगत्श्रेणी की वर्गशलाका पूर्वोक्त प्रमाण जाननी ।
सो जगत्श्रेणी विषै विरलन राशि का प्रमाण कितना है ?
सो कहिए है, अद्धा पल्य का जो अर्धच्छेद राशि ताका प्रथम वर्गमूल, द्वितीय वर्गमूल इत्यादि क्रम ते दूणा जघन्य परीतासख्यात के जेते अर्धच्छेद होहि, तितने
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७
वर्गमूल करने, सो द्विरूप वर्गधारा के स्थाननि विषै पल्य का अर्थच्छेदरूप स्थान तं नीचे तितने स्थान आइ अंत विषे जो वर्गमूलरूप स्थान होइ, ताके अर्धच्छेद दूरगा जघन्य परीतासंख्यात का भाग पल्य की वर्गशलाका कों दीये जो प्रमाण होइ, तितने होड | बहुरि 'तमित्तदुगे गुणेरासी' इस सूत्र करि अर्धच्छेदनि का जेता प्रमाण, तितने दुबे मांड परस्पर गुणै राशि होइ, सो इहां पल्य की वर्गशलाका का प्रमाण भाज्य है, सो तितने दुवे मांड परस्पर गुणै तो पल्य का अर्धच्छेद राशि होय; अर दूरगा जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण भागहार है, सो तितने दुवे मांडि परस्पर गुरौं यथासंभव असंख्यात हो । सेतिस अंत के मूल का प्रमाण पल्य के अर्थच्छेदनि के प्रसंख्यातवे भाग प्रमाण जानना, सोई इहां जगत्श्रेणी विषै विरलन राशि है । वहुरि जगत्प्रतर है, सो द्विरूप घनवारा विपे प्राप्त है, सो याके अर्थच्छेद वर्गशलाका अन्य धारानि विषै प्राप्त जानने । तहा जगत् श्रेणी के अर्थच्छेदनि तं दूणे जगत्प्रतर के अच्छेद है । 'वग्गसला रूवहिया' इस सूत्र करि जगत्श्रेणी की वर्गशलाका ते एक अधिक जगत् प्रतर की वर्गशलाका है । वहुरि घनरूप लोक, सो द्विरूप घनाघन वारा विपैं उपजै है । तहां 'तिगुणा तिगुणा परट्टाणे' इस सूत्र करि द्विरूप घनधारा विपं प्राप्त जो जगत्श्रेणी, ताके अर्थच्छेदनि ते लोक के अर्थच्छेद तिगुणे जानने । अथवा तीन जायगा जगत्श्रेणी माडि परस्पर गुण लोक होइ, सो गुण्य-गुणकार तीन जगत् श्रेणी के अर्थच्छे जोड भी तितने ही लोक के अवच्छेद हो है । वहुरि 'परसम' इस सूत्र करि जगत् श्रृंगी की वर्गशलाका नात्र ही लोक की वर्गशलाका है । इहां प्रयोजनरूप गाथा सूत्र कहिये है । उक्त च
-
ર૪
गुरायारद्धच्छेदा, गुणिज्जमारणस्स श्रद्धच्छेदजुदा । लद्धस्तद्वच्छेदा, अहियस्सच्छेदरगा णत्थि ॥
याका अर्थ - गुरगकार के अच्छे गुण्यरात्रि के प्रवच्छेद सहित जोड़े लब्धरानि के श्रवच्छेद होहि । जैसे गुणकार ग्राठ, ताके अर्धच्छेद तीन अर गुण्य सोलह, नाचे अर्थच्छेद च्यारि, इनिकी जोडे लब्बराणि एक सौ अट्ठाईस के अर्धच्छेद सात हो है । जैसे ही गुणकार दज कोडाकोडि के संख्यात अर्धच्छेद गुण्यराणि पल्य, ताके अर्ध
न मे जोड. लव्धराणि सागर के अर्थच्छेद हो है । बहुरि अधिक के छेद नाही हैं, रानी पहिये है, अर्थच्छेदनि के प्रवच्छेद प्रमाण वर्गशलाका होइ, सो इहां पल्य के अच्छे सागर के अधिक कहे । सो इनि अधिक अर्धच्छेदनि के
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ २६५ अर्धच्छेद होंइ, परन्तु वर्गशलाकारूप प्रयोजन की सिद्धि नाही, तातै अधिक के अर्धच्छेद नाही करने जैसा कह्या, याही ते सागर की वर्गशलाका का अभाव है। उक्त च -
भज्जस्सद्धछेदा, हारद्धछेदणाहि परिहीणा । अद्धच्छेदसलागा, लद्धस्स हवति सव्वत्थ ।।
अर्थ - भाज्यराशि के अर्धच्छेद भागहार के अर्धच्छेदनि करि हीन करिए, तब लब्धराशि की अर्धच्छेद शलाका सर्वत्र हो है । जैसे एक सौ अट्ठाईस के भाज्य के अर्धच्छेद सात, इनमे भागहार आठ के तीन अर्धच्छेद घटाए लब्धराशि सोलह के च्यारि अर्धच्छेद हो है, जैसे ही अन्यत्र जानना ।
विरलज्जमारणरासि, दिण्णस्सद्धच्छिदीहिं संगुणिदे ।
अद्धच्छेदा होति हु, सव्वत्थुपण्णरासिस्स ॥ अर्थ - विरलन राशि को देय राशि के अर्धच्छेदनि करि गुणे उत्पन्न राशि के अर्धच्छेद सर्वत्र हो है। जैसे विरलन राशि च्यारि, ताकौ देय राशि सोलह के अर्धच्छेद च्यारि करि (गुणे) उत्पन्न राशि पणट्टी के सोलह अर्धच्छेद हो है । असे इहां भी पल्य अर्धच्छेद प्रमाण विरलन राशि को देय राशि पल्य, ताके अर्धच्छेदनि करि गुण उत्पन्न राशि सूच्यगुल के अर्धच्छेद हो है । जैसे ही अन्यत्र जानना ।
विरलिदराशिच्छेदा, दिण्ण द्धच्छेदच्छेदसंमिलिदा ।
वग्गसलागपमाणं, होंति समुप्पण्णरासिस्स ।। अर्थ - विरलन राशि के अर्धच्छेद देयराशि के अर्धच्छेदनि के अर्धच्छेदनि करि सहित जोडै उत्पन्न राशि की वर्गशलाका का प्रमाण हो है । जैसै विरलन राशि च्यारि के अर्धच्छेद दोय अर देय राशि सोलह के अर्धच्छेद च्यारि, तिनिके अर्धच्छेद दोय, इनको मिलाए उत्पन्न राशि पणट्ठी की वर्गशलाका च्यारि हो है । जैसे ही विरलन राशि पल्य के अधच्छेद, तिनिके अर्धच्छेद तिनिविर्ष देय राशि पल्य, ताके अर्धच्छेदनि के अर्धच्छेद जोडे उत्पन्न राशि सूच्यगुल के वर्गशलाका का प्रमाण हो है। असे हो अन्यत्र जानना।
दुगुणपरित्तासखेगवहरिदद्धारपल्लवग्गसला । विदंगुलवग्गसला, सहिया सेढिस्स वग्गसला ॥
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२६६ ।
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७
अर्थ – नॄणा जघन्य परीतासंख्यात का भाग श्रद्धापल्य की वर्गशलाका कौं दीए तितनी जो प्रमाण होइ, तीहि करि संयुक्त घनांगुल की वर्गशलाका का जो प्रमाण, जगत्श्रेणी की वर्गशलाका हो है ।
विरलिदरासीदो पुरण, जेत्तियमेत्तारिण ग्रहियरूवारिण । सिणोणहदी, गुणयारो लहरासिस्स ॥
ग्रंथ - विरलन राशि ते जेते अधिक रूप होंइ, तिनिका परस्पर गुरणन कीए लव्ध राशि का गुणकार होइ । जैसे च्यारि अर्धच्छेदरूप विरलन राशि र तीन अर्धच्छेद्र अधिक राशि, तहा विरलन राशि के ग्रर्वच्छेद प्रमाण दुवा मांड परस्पर गुणं २ ४२.८२, २ सोलह १६ लब्ध राशि होइ । अर अविक राशि तीन अच्छे प्रमाण दुवा माडि २४२८२ परस्पर गुण आठ गुणकार होय, सो लव्धि राशि को गुणकार करि गुणं सात अर्धच्छेद जाका पाइए, जैसा एक सौ अट्ठाईस होइ । से ही पल्य के चच्छेद विरलन राशि, सो इतने दुवा मांडि परस्पर गुणं लव्ध राशि पल्य होइ अर अधिक राणि संख्यात अर्वच्छेद, सो इतने दुवे मांडि परस्पर गुणं दण कोडाकोडि गुणकार होइ । सो पल्य की दश कांडाकोडि करि गुण सागर का प्रमाण हो है । जैसे ही ग्रन्यत्र जानना ।
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विरलिदरासीदो पुण, जेत्तियमेत्ता रिण हीरणत्वाणि । तेसि ग्रण्णोष्णहदी, हारो उप्पण्तरासिस्स ॥
अर्थ - विरलन राशि ते जेते हीनरूप होड, तिनिका परस्पर गुगन कीए उत्पन्न गरि का भागहार होइ । जैसे विरलन राणि प्रवच्छेद सात ग्रर हीनरूप अर्थछेद तीन, तहा विरलन राशिमात्र दुवा माडि २/२/२/२/२८२x२ परस्पर गुण एक मां अट्ठाईस उत्पन्न राशि होइ । वहुरि हीनरूप प्रमाण दुवा माडि
=
२ २ परस्पर गुरु ग्राठ भागहार राशि होड, सो उत्पन्न राशि क भागहाररूप गति का भाग दीए च्यारि अच्छे जाका पाइए ग्रेसा सोलह हो है, अंस ही जानना । स मान वर्णन कीया ।
मानवकरि द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव का परिमाण कीजिए है; परिमाग होड, तहा तितने पदार्थ जुदे जुढे जानने ।
जहा क्षेत्र का परिमाण होय, तहां तितने प्रदेश जानने ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १२०
२७० ]
का आवरण अर वीर्यान्तराय के क्षायोपशम विशेष करि गुण-दोप का विचार, प्रतीत का याद करना, अनागत विपं याद रखना, इत्यादिकरूप भावमन के परिणामावने की शक्ति होइ, ताकौ मन पर्याप्ति कहिए है । से छह पर्याप्ति जानना ।
पज्जत्तीपट्ठवरणं, जुगवं तु कमेरण होदि गिट्ठवरणं । अन्तो मुहुत्तकाले हियकसा तत्तियालावा ॥ १२०॥ पर्याप्तिप्रस्थापनं, युगपत्तु क्रमेण भवति निष्ठापनम् । अंतर्मुहूर्त कालेन, अधिकमास्तावदालापात् ॥ १२० ॥
टीका - जेते - जेते अपने पर्याप्ति होइ, तिनि सवनि का प्रतिष्ठापन कहिए प्रारंभ, सो तो युगपत् शरीर नामा नामकर्म का उदय के पहिले ही समय हो है । बहुरि निष्ठापन कहिए तिनिकी संपूर्णता, सो अनुक्रम करि हो है । सो निष्ठापन का काल प्रतर्मुहूर्त - अंतर्मुहूर्त करि अधिक है, तथापि तिनि सवनि का काल सामान्य श्रालाप करि अंतर्मुहूर्त ही कहिए. जातै अंतमुंहूर्त के भेद बहुत है ।
1
कैसे निष्ठापन का काल है ?
सो कहै है - ग्राहार पर्याप्ति का निष्ठापन का काल सर्वानि ते स्तोक है, तथापि अतर्मुहूर्त मात्र है । वहुरियाको सख्यात का भाग दीए जो काल का परिमाण प्रावै, सो भी अनर्मुहूर्त है । सो यहु अतर्मुहूर्त उस आहार पर्याप्ति का अंतमुहूर्त में मिलायें जा परिमारण होइ, सो शरीर पर्याप्ति का निष्ठापन काल जानना । सो यह भी अतर्मुहूर्त ही जानना | बहुरि याहु का सख्यातवां भाग प्रमाण अतर्मुहूर्त याही मे मिलाये इंद्रिय पर्याप्ति का काल होइ, तो भी प्रतर्मुहूर्त ही है । वहुरि याका संख्यातवां भाग प्रमाण अंतर्मुहूर्त याही में मिलाए श्वासोश्वास पर्याप्ति काल होइ, सो भी अंतर्मुहूर्त ही है । जैसे एकें - त्रिय पर्याप्ति के ती ए च्यारि ही पर्याप्ति इस अनुक्रम करि संपूर्ण होइ है । वहुरि वामन पर्याप्ति काल का सख्यातवाँ भाग का प्रमाण अतर्मुहूर्त याही में मिलाए भाषा पर्याप्त का काल हाड, सो भी अतर्मुहूर्त ही है । स विकलेद्रिय पर्याप्ति जीवन के ए पांच पर्याप्ति इस अनुक्रम करि सपूर्ण होइ हैं । वहुरि भाषा पर्याप्ति बाद या संग्ातवा भाग प्रभाग अंतर्मुहूर्त याही मे मिलाए मन पर्याप्ति का काल रोग भी अंतर्मुहुर्त ही है । अझै संजी पचेद्रिय पर्याप्ति के छह पर्याप्ति इस अनुहै । जैसे इनका निष्ठापन काल कह्या ।
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सभ्यज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। २७५
आगै पर्याप्ति, निवृत्ति अपर्याप्ति काल का विभाग कहै हैं - पज्जत्तस्स य उदये, णियणियपज्जत्तिणिठ्ठिदो होदि । जाव शरीरमपुण्णं, रिणवत्तिअपुण्णगो ताव ॥ १२१॥
पर्याप्तस्य च उदये, निजनिजपर्याप्तिनिष्ठितो भवति ।
यावत् शरीरमपूर्ण, निवृत्यपूर्णकस्तावत् ॥ १२१ ॥ टोका - पर्याप्ति नामा नामकर्म के उदय होते अपने-अपने एकेंद्रिय के च्यारि, विकलै द्रिय के पांच, सैनी पंचेद्रिय के छह पर्याप्तिनि करि 'निष्ठिताः' कहिए संपूर्ण शक्ति युक्त होंइ, तेई यावत् काल शरीर पर्याप्ति दूसरा, ताकरि पूर्ण न होइ, तावत् काल एक समय घाटि शरीर पर्याप्ति संबंधी अंतर्मुहर्त पर्यन्त निवृत्ति अपर्याप्ति कहिए । जातै निवृत्ति कहिए शरीर पर्याप्ति की निष्पत्ति, तीहि करि जे अपर्याप्त कहिए संपूर्ण न भए, ते निवृत्ति अपर्याप्त कहिए है ।
आगै लब्धि अपर्याप्त का स्वरूप कहै है -
उदये दु अपुण्णस्स य, सगसगपज्जत्तियं रण णिद्ववदि । अन्तोमुत्तमरणं, लद्धिअपज्जत्तगो सो दु ॥ १२२ ॥ उदये तु अपूर्णस्य च, स्वकस्वकपर्याप्तिन निष्ठापयति ।
अन्तर्मुहूर्तमरणं, लब्ध्यपर्याप्तकः स तु ॥ १२२ ॥ टीका - अपर्याप्ति नामा नामकर्म के उदय होते सतै, अपने-अपने एकेद्रिय विकलेद्रिय, सैनी जीव च्यारि, पाच, छह पर्याप्ति, तिनिकौ न 'निष्ठापयति' कहिए सम्पूर्ण न करै, उसास का अठारहवा भाग प्रमाण अतर्मुहूर्त ही विष मरण पावै, ते जीव लब्धि अपर्याप्त कहिए । जातै लब्धि कहिए अपने-अपने पर्याप्तिनि की सपूर्णता की योग्यता, तीहि करि अपर्याप्त' कहिए निष्पन्न न भए, ते लव्धि अपर्याप्त कहिए।
आगे एकेद्रियादिक संजी पर्यन्त लब्धि अपर्याप्तक जीवनि का निरंतर जन्म वा मरण का कालप्रमाण को कहै है -
तिण्णिसया छत्तीसा, छावटिसहस्सगाणि मरणाणि । अन्तोमुत्तकाले, तावदिया चेव खुद्दभवा ॥ १२३ ॥
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[ गोम्मटमार जीव कागड गाथा १२४.१२॥ २७२ ]
त्रीणि शतानि षट्त्रिंशत्, षट्षष्टिसहस्कानि मरणानि ।
अंतर्मुहूर्तकाले, तावंतश्चेव क्षुद्रभवाः ॥ १२३ ॥ टीका - क्षुद्रभव कहिए लब्धि अपर्याप्तक जीव, तिनिकी जो वीचि विर्षे पर्याप्तिपनी विना पाया निरतरपने उत्कृष्ट होड, तौ अंतर्मुहूर्त काल विप छ्यासठि हजार तीन सौ छत्तीस (६६३३६) मरण होंड; बहुरि इतने ही भव कहिए जन्म होइ।
आगे ते जन्म-मरण एकेद्रियादि जीवनि के केते-केते सभवै अर तिनिके काल का प्रमाण कहा ? सो विशेष कहिए है -
सीदी सट्ठी तालं, वियले चउवीस होंति पच्चक्खे । छाव िच सहस्सा, सयं च बत्तीसमयक्खे ॥१२४॥
अशीतिः षष्टि चत्वारिंशत्, विकले चतुर्विशतिर्भवंति पंचाक्षे ।
षष्टिश्च सहसारिण, शतं च द्वात्रिंशमेकाक्षे ॥ १२४ ॥ टीका - पूर्व कहे थे लब्धि अपर्याप्तकनि के निरंतर क्षुद्रभव, तिनिविर्षे एकेद्रियनि के छयासठि हजार एक सौ वत्तीस निरतर क्षुद्रभव हो है; सो कहिए है - कोऊ एकेद्रिय लव्धि अपर्याप्तक जीव, सो तिस क्षुद्रभव का प्रथम समय ते लगाइ सांस के अठारहवे भाग अपनी आयु प्रमाण जीय करि मरै, बहुरि एकैद्रिय भया तहां तितनी ही आयु कौ भोगि, मरि करि वहुरि एकेद्रिय होइ । असे निरंतर लब्धि अपयप्ति करि क्षुद्रभव एकेंद्रिय के उत्कृष्ट होंइ तौ छ्यासठि हजार एक सौ वत्तीस होइ, अधिक न होड । असं ही लब्धि अपर्याप्तक बेइद्रिय के असी (८०) होइ। तेइद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के साठि (६०) होइ । चौइद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के चालीस (४०) होइ । पंचेद्रिय लव्धि अपर्याप्त के चौवीस होई, तीहिविपै भी मनुप्य के पाठ (८) असैनी तिर्यच के आठ, (८) सैनी तिर्यच के पाठ(८) असे पचेद्रिय के चौवीस (२४) होड । असे लब्धि अपर्याप्तकनि का निरतर क्षुद्रभवनि का परिमाण कह्या ।
अब एकेद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के निरन्तर क्षुद्रभव कहे, तिनकी संख्या स्वामीनि की अपेक्षा कहै है -
पुढविदगागणिमारुद, साहारणथूलसुहमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेसु य, एक्कक्के बार खं छक्कं ॥ १२५॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २७३
पृथ्वीदकाग्निमारुतसाधारणस्थूलसूक्ष्मप्रत्येकाः ।
एतेषु अपूर्णेषु च एककस्मिन् द्वादश खं षट्कम् ॥ १२५ ॥
टीका - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, साधारण वनस्पति इनि - पांचों के सूक्ष्मबादर करि दश भेद भये पर एक प्रत्येक वनस्पती - इनि ग्यारह लब्धि अपर्याप्तकनि विषै एक-एक भेद विषै बारह, बिंदी, छह इनि अंकनिकरि छह हजार बारह (६०१२) निरंतर क्षुद्रभव जानने । पूर्व निरंतर क्षुद्रभव एकेद्रिय के छ्यासठि हजार एक सौ बत्तीस कहे । तिनिको ग्यारह का भाग दीए एक-एक के छह हजार बारह क्षुद्र भवनि का प्रमाण आवै है। जैसे लब्धि अपर्याप्त के निरंतर क्षुद्रभव कहे, तहां तिनकी संख्या वा काल का निर्णय करने की च्यारि प्रकार अपवर्तन त्रैराशिक करि दिखावै हैं । सो त्रैराशिक का स्वरूप ग्रंथ का पीठबंध विष कह्या था, सो जानना । सो यहां दिखाइये है - जो एक क्षुद्रभव का काल सांस का अठारहवां भाग होइ, तो छयासठि हजार तीन सौ छत्तीस निरंतर क्षुद्रभवनि का कितना काल होइ ? तहां प्रमाण राशि १, फलराशि एक का अठारहवां भाग १ अर इच्छा राशि छयासठि हजार तीन सै छत्तीस (६६३३६), तहां फल की इच्छा करि गुण प्रमाण का भाग दिए लब्ध राशि विषै छत्तीस सै पिच्यासी अर एक का त्रिभाग ३६८५१ इतना उस्वास भए; असे सब क्षुद्रभवनि का काल का परिमाण भया। यहां इतने प्रमाण अंतर्मुहूर्त जानना । जातै जैसा वचन है, उक्तम् च
आढयानलसानुपहतमनुजोच्छवासैस्त्रिसप्तसप्तत्रिप्रमितैः।
आहुमुहूर्तमंतर्मुहूर्तमष्टाष्टजितस्त्रिभागयुतैः ॥ याका अर्थ - सुखी, धनवान, आलस रहित, निरोगी मनुष्य का सैतीस सै तेहत्तरि (३७७३) उस्वासनि का एक मुहूर्त; तहां अठ्यासी उस्वास पर एक उस्वास का तीसरा भाग (हीन) घटाए सर्व क्षुद्रभवनि का काल अंतर्मुहूर्त होड । वहुरि उक्तम् च
प्रायुरंतर्मुहूर्तः स्यादेषोस्याप्टादशांशकः ।
उच्छवासस्य जघन्य च नृतिरश्चां लध्यपूर्णके । याका अर्थ - लब्धि अपर्याप्तक मनुप्य तिर्यचनि का प्रायु एक उस्वास का अठारहवां भाग प्रमाण अंतर्मुहूर्त मात्र है । सो असे कहा मान का अठारहवा भाग
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१७४ ]
[ गोमरी गाया १२६ काल का एक क्षुद्रभव होड, तौ छत्तीस सी पिच्यामी अर एक का विभाग प्रमाण उसासनि का कितना क्षुद्रभव होइ ? इहां प्रमाण राशि १ . फलराणि १, इच्छाराणि
૩૬
१८
यथोक्त करते लव्य राणि छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस ( ६६३३६) क्षुद्रभवनि का परिमाण आया । वहुरि जो छ्यासठि हजार तीन सौ छत्तीस क्षुद्रभवनि का काल छत्तीस सौ पिच्यासी अर एक का त्रिभाग इतना उस्वास होड, ती एक क्षुद्रभवनि का कितना कालहोइ? इहां प्रमाण राशि ६६३३६, फल राणि ३६८५ १, इच्छा राशि
e
१, यथोक्त करतां लव्ध राशि एक सांग का अठारहवां भाग ? एक क्षुद्रभव का काल
१८
भया । बहुरि छत्तीस सौ पिच्यासी अर एक का त्रिभाग ३६८५ इतना सांस का
३
छ्यासठि हजार तीन सौ छत्तीस क्षुद्रभव होंड, तो सांस का अठारहवां भाग का कितना क्षुद्रभव होइ ? इहां प्रमाण राशि ६३८५१, फल राशि६६३३६, इच्छा राणि एक का
2
अठारहवां भाग १_,यथोक्त करतां लव्ध राशि १ क्षुद्रभव हुआ । इहां सर्व फल राशि
३
१८
की इच्छा राशि करि गुग्गना, प्रमाण राशि का भाग देना, तव लव्ध राशि प्रमाण हो है | जैसे एक क्षुब्र्भव का काल समस्त क्षुद्रभव, समस्त क्षुद्रभव का काल इनिक क्रम तै प्रमाण राशि करते तें च्यारि प्रकार त्रैराशिक किया है । और भी जायगा जहां त्रैराशिक का वर्णन होड, तहां में ही यथासंभव जानना ।
या समुद्घातकेवली के अपर्याप्तपन का संभव है हैं -
-
पज्जत्तसरीरस्स य, पज्जत्तुदयस्स कायजोगस्स । जोगिस्स अपुण्णत्तं, अपुण्णजोगोत्ति रिपट्ठि ॥ १२६॥
पर्याप्तशरीरस्य च, पर्याप्त्युदयस्य काययोगस्य । योगिनोऽपूर्णत्वमपूर्णयोगः इति निर्दिष्टम् ।।१२६॥
टीका - संपूर्ण परन श्रद्वारिक शरीर जाऊँ पाइए, बहुरि पर्याप्ति नामा नानकर्म का उदय करि संयुक्त, बहुरि काययोग का वारी - जैसा जो सयोगकेवली नट्टारक, नाके समुद्घात करते कपाट का करिया विषै अर संहार विर्षे पूर्ण काययोग कृत्या हुँ । जाने तहां संज्ञी पर्याप्तवत् पर्यानिनि का आरंभ करि क्रम तं निष्ठा
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २७५
पन करै है । तातै प्रौदारिक मिश्र काययोग का धारी केवली भगवान, सो कपाट युगल का काल विर्षे अपर्याप्तपना कौ भज है, ऐसा सिद्धात विर्षे कह्या है ।
प्रागै लब्धि अपर्याप्तकादि जीवनि के गुणस्थाननि का सभवने-असंभवने का विशेष कहै है -
लद्धिअपुण्णं मिच्छे, तत्थवि विदिये चउत्थ-छठे य । पिव्वत्तिअपज्जत्ती, तत्थ वि सेसेसु पज्जत्ती ॥ १२७ ॥
लब्ध्यपूर्ण मिथ्यात्वे, तत्रापि द्वितीये चतुर्थषष्ठे च ।
निर्वृत्यपर्याप्तिस्तत्रापि शेषेषु पर्याप्तिः ॥ १२७ ॥ टीका - लब्धि अपर्याप्तक जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान विर्षे ही पाइए है, और गुणस्थान वाकै संभवै नाही; जातै सासादनपना आदि विशेष गुणनि का ताकै प्रभाव है । बहुरि तीहि पहिला मिथ्यादृष्टि विषै, दूसरा सासादन विषै, चौथा असंयत विषे, छठा प्रमत्त विष - इनि चारों गुणस्थाननि विष निर्वृत्ति अपर्याप्तक पाइए है । तहां पहला वा चौथा सू तो मरि करि जीव चारों गतिनि विष उपजै है । अर सासादन सौ मरिकरि नरक विना तीनि गतिनि विष उपजै है । सो इनि तीनो गुणस्थान विषे जन्म का प्रथम समय तै लगाइ यावत् औदारिक, वैक्रियिक शरीर पर्याप्त पूर्ण न होइ, तावत् एक समय घाटि शरीर पर्याप्ति का काल पर्यत निवृत्ति अपर्याप्तक है । बहुरि प्रमत्त गुणस्थान विषै यावत् आहारक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होइ, तावत् एक समय घाटि आहारक शरीर पर्याप्ति काल पर्यत निर्वत्ति अपर्याप्तक है । बहुरि इन कहे चारो गुणस्थाननि विर्ष अर अवशेष रहे मिश्रादिक सयोगी पर्यन्त नव गुणस्थान विष पर्याप्तक जीव पाइए है, जाते ताका कारणभूत पर्याप्ति नामा नामकर्म का उदय सर्वत्र संभव है।
भावार्थ - लब्धि अपर्याप्तकनि के गुणस्थान एक पहिला, निर्वृत्ति अपर्याप्तकनि के गुणस्थान च्यारि - पहिला, दूसरा, चौथा, छळा; पर्याप्तनि के गुणस्थान सर्वसयोगी पर्यन्त जानना ।
आगै अपर्याप्त काल विष सासादन अर असंयत गुणस्थान जहां नियम करि न संभवै, सो कहै है -
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२७६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया १२८ हेट्टिमछप्पुढवीणं, जोइसिवणभवरणसम्बइत्थोरणं । पुष्णिदरे गहि सम्मो, ण सासरगो रणारयापुण्रणे ॥ १२८ ।। अधस्तनषट्पृथ्वीनां, ज्योतिष्कवानभवनसर्वस्त्रीणाम् ।
पूर्णेतरस्मिन् नहि सम्यक्त्वं न सासनो नारकापूर्णे ॥ १२८ ॥ टोका - नरक गति विष रत्नप्रभा विना छह पृथ्वी संबंधी नारकोनि के पर ज्योतिपी, व्यंतर, भवनवासी देवनि के अर सर्व ही स्त्री - देवांगना, मनुप्यणी, तिर्यचनी, तिनिकै निर्वत्ति अपर्याप्त दशा विष सम्यक्त्व न पाइए । जाते तीहि दशा विपै सम्यक्त्व ग्रहणे की योग्य काल नाही। अर सम्यक्त्व सहित मरै तिर्यच मनुप्य, सो तहां उपजै नाही। वहुरि सम्यक्त्व ते भ्रप्ट होइ जो जीव मिथ्यादप्टि वा सासादन होड, तो तिनिका यथासंभव तहां नरकादि विपं उपजने का विरोध है नाही । वहुरि सर्व ही सातो पृथ्वी के नारकी, तिनिकै निर्वृत्ति अपर्याप्त दशा विष सासादन गुणस्थान न पाइए, असा नियम जानना । जाते नरक विपै उपज्या जीव के तिस काल विर्ष सासादनपने का अभाव है । इति श्री आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवर्तिविरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसंग्रह ग्रथ जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा सस्कृत टीका के अनुसार इस सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा भापाटीका विष जीवकाण्ड विपै प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनिविपै पर्याप्त
प्ररूपण नामा तीसरा अधिकार पूर्ण भया ।। ३ ।।
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चौथा अधिकार : प्राण प्ररूपणा
अभिनंदन वंदौ सदा, सठि प्रकृति खिपाय ।
जगतनमतपद पाय, जिनधर्म कह्यो सुखदाय ॥ अथ प्राण प्ररूपणा को निरूपै हैं -
बाहिरपारणेहिं जहा, तहेव अब्भंतरहिं पारणेहिं । पारणंति जेहि जीवा, पाणा ते होंति रिणद्दिट्ठा ॥ १२६ ॥
बाह्यप्राणैर्यथा, तथैवाभ्यंतरैः प्राणैः ।
प्राणंति यैर्नीवाः, प्राणास्ते भवन्ति निदिष्टाः ॥ १२९ ॥ टीका -जिनि अभ्यंतर भाव प्राणनि करि जीव हैं, ते प्राणंति कहिए जीव है; जीवन के व्यवहार योग्य हो है, कौनवत् ? जैसै बाह्य द्रव्य प्राणनि करि जीव जीव है, जातै यथा शब्द दृष्टातवाचक है; तातै जे आत्मा के भाव है, तेई प्राण हैं जैसा कह्या है। जैसे कहने ही करि प्राण शब्द का अर्थ का जानने का समर्थपणा हो है, तातै तिस प्राण का लक्षण जुदा न कह्या है । तहा पुद्गल द्रव्य करि निपजे जे द्रव्य इद्रियादिक, तिनके प्रवर्तनरूप तो द्रव्य प्राण है। बहुरि तिनिका कारणभूत ज्ञानावरण अर वीर्यान्तराय के क्षयोपशमादिक ते प्रकट भए चैतन्य उपयोग के प्रवर्तनरूप भाव प्राण हैं।
इहां प्रश्न - जो पर्याप्ति अर प्राण विषै भेद कहा ?
ताका समाधान - पंच इद्रियनि का आवरण का क्षयोपशम ते निपजे असे पाच इंद्रिय प्राण है । बहुरि तिस क्षयोपशम ते भया जो पदार्थनि के ग्रहण का समर्थपना, ताकरि जन्म का प्रथम समय ते लगाइ अतर्मुहूर्त ऊपरि निपजै असी इद्रिय पर्याप्ति है । इहां कारण-कार्य का विशेष है ।
बहुरि मन सम्बन्धी ज्ञानावरण का क्षयोपशम का निकट ते प्रगट भई सी मनोवर्गरणा करि निपज्या द्रव्य मन करि निपजी जो जीव की शक्ति, सो अनुभया पदार्थ को ग्रहण करि उपजी, सो अंतर्मुहूर्त मनःपर्याप्ति काल के अन्ति सपूर्ण भई,
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२७८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १३०
सी मन पर्याप्ति है । बहुरि अनुभया पदार्थ का ग्रहण करना ग्रर अनुभया पदार्थ का ग्रहण करने का योग्यपना का होना, सो मन प्राण है ।
बहुरि नोकर्मरूप शरीर का संचयरूप शक्ति की जो संपूर्णता, सो जीव के योग्य काल विषे प्राप्त भई जो भाषा वर्गणा, तिनिको विशेष परिणमन की कररणहारी, सो भाषा पर्याप्ति है ।
वहुरि स्वर नामा नामकर्म का उदय है सहकारी जाका, जैसी भाषा पर्याप्ति पूर्ण भए पीछे वचन का विशेषरूप उपयोगादिक का परिणामावना, तीहि स्वरूप वचन प्राण है ।
बहुरि कायवरणा का अवलबन करि निपजी जो ग्रात्मा के प्रदेशनि का समुच्चयरूप होने की शक्ति, सो कायबल प्रारण है ।
बहुरि खल भाग, रस भागरूप परिणए नोकर्मरूप पुद्गलनि को हाड आदि स्थिररूप पर रुधिर आदि अस्थिररूप अवयव करि परिणमावने की शक्ति का संपूर्ण होना, सो जीव के शरीर पर्याप्ति है ।
बहुरि उस्वास - निस्वास के निकसने की शक्ति का निपजना, सो अनपान पर्याप्ति है । बहुरि सासोस्वास का परिणमन, सो सासोस्वास प्रारण है । जैसे कारणकार्यादि का विशेष करि पर्याप्ति पर प्राणनि विपे भेद जानना ।
प्रारण के भेदनि को कहै है -
पंचवि इंदियपारणा, मरणवचकायेसु तिण्णि बलपाणा । आणापाणप्पाणा, आउगपारगण होंति दह पाणा ॥ १३० ॥
पंचापि इंद्रियप्रारणाः, मनोवचः कायेषु त्रयो बलप्राणाः । आनपानप्राणा, श्रायुष्कप्राणेन भवंति दश प्रारणाः ॥ १३० ॥
टोका - पांच इंद्रिय प्रारण है - १. स्पर्शन, २. रसन, ३. प्राण, ४. चक्षु, ५. श्रोत्र | बहुरि तीन वलप्रारण है १. मनोवल, २. वचनवल एकः श्रानपान कहिए सासोस्वास प्रारण है । वहुरि एक श्रायु प्रारण है । ऐसे प्रारण दश काल | बहुि है, कि नाही है |
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
आगे तिनि द्रव्य भाव प्रारणनि का उपजने की सामग्री को कहै है
वीरियजुदमदिखउवसमुत्था गोइंदियेंदियेसु बला । देहुये कायारणा, वचीबला आउ आउदये ॥ १३१ ॥
'वीर्ययुतमतिक्षयोपशमोत्था नोइन्द्रियंद्रियेषु बलाः । देहोद कायानौ, वचोबल प्रायुः प्रयुरुदये ॥१३१॥
टीका - स्पर्शन, रसन, धारण, चक्षु, श्रोत्र करि निपजे पांच इद्रिय प्राण अर नो इंद्रिय करि निपज्या एक मनोबल प्रारण, ए छहो तो मतिज्ञानावरण पर वीर्यान्तराय, तिनके क्षयोपशम तै हो है । बहुरि शरीर नामा नामकर्म के उदय होते काय - बल अर सासोस्वास प्राण हो है । बहुरि शरीर नामा नामकर्म का उदय होते अर स्वर नामा कर्म का उदय होते वचनबल प्राण हो है । बहुरि आयुकर्म का उदय होते प्रारण हो है । जैसे प्राणनि के उपजने की सामग्री कही ।
ए प्रारण कौन-कौन के पाइए सो भेद है है
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इंदियकाया ऊरिण य, पुण्णापुण्णेसु पुण्णगे आणा । बीइंदियादिपुण्णे, वचीमरणो सण्णिपुण्णेव ॥१३२॥
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इन्द्रियकायाषि च, पूर्णापूर्णषु पूर्ण के प्रानः । द्वीन्द्रियादिपूर्णे, वचो मनः संज्ञिपूर्णे एव ।। १३२ ।।
-
टीका - इंद्रिय प्रारण, कायबल प्राण, आयु प्राण ए तो तीन प्राण पर्याप्ति वा अपर्याप्त दोऊ दशा विषै समान पाइए है । बहुरि सासोस्वास प्रारण पर्याप्ति दशा विषे ही पाइए, जातै ताका कारण उच्छवास निश्वास नामा नाम कर्म का उदय पर्याप्त काल विषै सभवै है । बहुरि वचनबल प्राण बेइद्रियादिक पचेन्द्रिय पर्यत जीवनि कै पर्याप्त दशा ही विषै पाइए है, जाते ताका कारणभूत स्वर नामा नामकर्म का उदय अन्यत्र न सभवै है । बहुरि मनबल प्रारण सैनी पचेद्रिय के पर्याप्त दशा विषै ही पाइए है, जातै ताका कारण वीर्यान्तराय अर मन आवरण का क्षयोपशम, सो अन्यत्र न सभव है |
आगे एकेद्रियादिक जीवनि के केते - केते प्राण पाइए, सो कहै है -
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२९० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण गापा १३३ दस सण्णीरणं पारणा, सेसेगूणंतिमस्स बेऊरणा । पज्जत्तेसिदरेसु य, सत्त दुगे सेसगेगूणा ॥ १३३ ॥
दश संजिनां प्राणाः शेषकोनमंतिमस्य न्यूनाः ।
पर्याप्तिवितरेषु च, सप्त द्विके शेषकैकोनाः ॥१३३।। टीका - पहिले कह्या जो प्राणनि के स्वामीनि का नियम, ताही करि जैसे भेद पाइए है, सो कहिए है । सैनी पचेद्री पर्याप्त के तौ दश प्राण सर्व हो पाइए । पीछे अवशेष असंजी आदि द्वीद्रिय पर्यन्त पर्याप्त जीवनि के एक-एक घाटि प्राण पाइए । तहा असैनी पचेद्रिय के मन विना नव प्राण पाइए । चौइद्रिय के मन अर कर्ण इद्रिय विना आठ प्राण पाइए , तेइद्रिय के मन, कर्ण, नेत्र इद्रिय विना सात प्रारण पाइए। द्वीन्द्रिय के मन, कर्ण, नेत्र, नासिका विना छह प्राण पाइए । वहुरि अंतिम एकद्रिय विप द्वीन्द्रिय के प्राणनि ते दोय घटावना, सो मन, कर्ण, नेत्र, नासिका अर रसना इद्रिय अर वचनवल, इनि विना एकेद्रिय के च्यारि ही प्राण पाइए है । असे ए प्राण पर्याप्त दशा की अपेक्षा कहे ।
अव इतर जो अपर्याप्त दशा, ताकी अपेक्षा कहिए है - सैनी वा असैनी पचेद्रिय के तौ सात-सात प्राण है। जाते पर्याप्तकाल विप संभवै असे सासोस्वास, वचन वल, मनोवल ए तीन प्राण तहा न होइ । वहुरि चौइद्रिय कै श्रोत्र विना छह पाइए, तंद्री के नेत्र विना पाच पाइए, वेद्री के नासिका विना च्यारि पाइए, एकेद्री के रसना विना तीन पाइए, असे प्राण पाइए है । इति श्री आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवतिविरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसग्रह अथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा सस्कृत टीका के अनुसार सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा इस भापाटीका विपै प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनि विपै प्रारण प्ररूपणा
नामा चौथा अधिकार सपूर्ण भया ॥ ४ ॥
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पाँचवां अधिकार : संज्ञा प्ररूपणा
मंगलाचरण गुण अनंत पाए सकल, रज रहस्य अरि जीति ।
दोषरहित जगस्वामि सो, सुमति नमो जुत प्रीति ।। अथ संज्ञा प्ररूपणा कहै है -
इह जाहि बाहयावि य, जीवा पावंति दारुणं दुक्खं । सेवंतावि य उभये, ताओ चत्तारि सणाओ ॥ १३४ ॥ इह याभिर्बाधिता अपि च, जीवाः प्राप्नुवति दारुणं दुक्खं ।
सेवमाना अपि च, उभयस्मिन ताश्चतसः संज्ञाः ॥ १३४ ॥ टीका - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इनिके निमित्त ते जो वांछा होइ, ते च्यारि संज्ञा कहिए । सो जिनि संज्ञानि करि बाधित, पीडित हुए जीव ससार विष विषयनि को सेवते भी इहलोक अर परलोक विष तिनि विषयनि की प्राप्ति वा अप्राप्ति होते दारुण भयानक महा दुःख को पावै है, ते च्यारि सज्ञा जाननी। वाछा का नाम सज्ञा है । वांछा है, सो सर्व दुःख का कारण है ।
आगे आहार संज्ञा उपजने के बाह्य, अभ्यंतर कारण कहै है -
आहारदंसरणेण य, तस्सुवजोगेण ओमकोठाए । सादिदरुदीरणाए, हवदि हु आहारसण्णा हु ॥ १३५॥
आहारदर्शनेन च, तस्योपयोगेन अवमकोष्ठतया ।
सातेतरोदीरण्या, भवति हि आहारसंज्ञा हि ॥ १३५ ।। टीका - विशिष्ट अन्नादिक च्यारि प्रकार आहार का देखना, बहुरि पाहार का यादि करना, कथा सुनना इत्यादिक उपयोग का होना, वहरि कोठा जो उदर, ताका खाली होनो क्षधा होनी ए तो वाह्य कारण है। वहरि असाता वेदनीय कम का तीव्र उदय होना वा उदीरणा होनी अतरंग कारण है । इनि कारणनि ते आहार
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૨૬૨ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १३६-१३७
संज्ञा हो है | ग्रहार कहिए अन्नादिक, तीहिविपें संज्ञा कहिए वांछा, सो आहार संजा जाननी ।
आगे भय संज्ञा उपजने के कारण कहै है -
अइभीमदंसरणेण य, तस्सुवजोगेण ओमसत्तीए । भयकम्मुदीरणाए, भयसण्णा जायदे चदुहिं ॥ १३६ ॥
अतिभीमदर्शनेन, च, तस्योपयोगेन श्रवमसत्वेन । भयकर्मोदीररणया, भयसंज्ञा जायते चतुभिः ॥१३६॥
टीका - प्रतिभयकारी व्याघ्र आदि वा क्रूर मृगादिक वा भूतादिक का देखना वा उनकी कथाटिक का सुनना, उनकौं यादि करना इत्यादिक उपयोग का होना, बहुरि अपनी हीन शक्ति का होना ए तो वाह्य कारण हैं । बहुरि भय नामा नोकपायरूप मोह कर्म, ताका तीव्र उदय होना, यहु अंतरंग कारण है । इनि कारणनि करि भय संज्ञा हो है । भय करि भई जो भागि जाना, छिपि जाना इत्यादिक रूप वांछा, सो भव संज्ञा कहिए ।
धागे मैथुन सज्ञा उपजने के कारण कहैं हैं -
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पणिदरसभोयणेण य, तस्सुवजोगे कुसीलसेवाए । वेदस्सुदीरणाए, मेहुसण्णा हवदि एवं ॥ १३७ ॥
प्रणीतरसभोजनेन च, तस्योपयोगे कुशील सेवया । वेदस्योदीररगया, मैथुनसंज्ञा भवति एवं ॥ १३७ ॥
टीका - नृप्य जो कामोत्पादक गरिष्ठ भोजन, ताका खाना ग्रर काम कथा का सुनना ग्रर भोगे हुवे काम विपयादिक का यादि करना इत्यादिकरूप उपयोग होना, दहरि कुशीलवान कामी पुरुपनि करि सहित संगति करनी, गोष्ठी करनी ए ती वाह्य है | बहरि स्त्री, पुन्प, नपुंसक वेदनि विर्पे किसी ही वेदरूप नोकपाय की उदीगण सी अंतरंग करण हे । इनि कारणनि तं मैथुन संज्ञा हो है । मैथुन जो कामसेवनयुगसम्बन्धी कर्म, तीहिविषे वांछा, मैथुनसंज्ञा जाननी ।
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ग्राही परिग्रह मजा उनजने के कारण कहे हैं -
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मम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
उवयररणदंसणेण य, तस्सुवजोगेण मुच्छिदाए य । लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायदे सण्णा ॥ १३८ ॥
उपकररणदर्शनेन च, तस्योपयोगेन मूछिताये च । लोभस्योदीररया परिग्रहे जायते संज्ञा ॥ १३८ ॥
टीका - धन-धान्यादिक बाह्य परिग्रहरूप उपकरण सामग्री का देखना अर तीहि धनादिक की कथा का सुनना, यादि करना इत्यादिक उपयोग होना, मूर्छित जो लोभी, ताकै परिग्रह उपजावने विषै आसक्तता, ताका इस जीव सहित सम्बन्धी होना इत्यादिक बाह्य कारण है । बहुरि लोभ कषाय की उदीरणा, सो अंतरंग कारण है । इनि कारणनि करि परिग्रह संज्ञा हो है । परिग्रह जो धन-धान्यादिक, तिनिके उपजावने प्रादिरूप वांछा, सो परिग्रह संज्ञा जाननी ।
प्रागे ए संज्ञा कौन के पाइए, सो भेद कहै है
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रगट्ठपमाए पढमा, सण्णा रहि तत्थ कारणाभावा । सेसा कम्मत्थित्तेणुवयारेणत्थि गहि कज्जे ॥ १३६ ॥
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[ २८३
नष्टप्रमादे प्रथमा, संज्ञा नहि तत्र कारणाभावात् । शेषाः कर्मास्तित्वेन उपचारेण संति नहि कार्ये ॥१३९॥
नष्ट भये है प्रमाद जिनिके, ऐसे जे श्रप्रमत्तादि गुणस्थानवर्ती जीव,
टीका तिनिकै प्रथम आहार सज्ञा नाही है । जाते आहार संज्ञा का काररणभूत जो असाता वेदनीय की उदीरणा, ताकी व्युच्छित्ति प्रमत्त गुणस्थान ही विषै भई है; तातै कारण के अभाव तै कार्य का भी प्रभाव है । ऐसे प्रमाद रहित जीवनि के पहिली सज्ञा नाही है । बहुरि इनि कै जो अवशेष तीन संज्ञा है, सो भी उपचार मात्र है; जाते उन सज्ञानि का कारणभूत जे कर्म, तिनि का उदय पाइए है; तीहि अपेक्षा है । बहुरि ते भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञा अप्रमादी जीवनि के कार्यरूप नाही है ।
इति श्री आचार्य नेमिचद्रविरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह ग्रथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नामा सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा भाषा टीका विषै जीवकाण्ड विषै प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा, तिनिविपै संज्ञा प्ररूपणा नाम पंचम अधिकार सम्पूर्ण भया ॥ ५ ॥
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छठवां अधिकार : गति प्ररूपणा पद्मप्रभ जिनकौं भजौं, जीति धाति सव कर्म ।
गुण समूह फुनि पाय जिनि, प्रगट कियो हितधर्म ॥
आगे अरहंतदेव कौं नमस्काररूप मंगलपूर्वक मार्गणा महा अधिकार प्ररूपण की प्रतिज्ञा करै हैं -
धम्मगुणमग्गरणाहयमोहारिबलं जिणं रणमंसित्ता । मग्गरणमहाहियारं, विविहहियारं भरिणस्सामो ॥१४०॥ धर्मगुणमार्गणाहतमोहारिवलं जिनं नमस्कृत्वा । मार्गरणामहाधिकारं, विविधाधिकारं भरिणण्यामः ॥१४०॥
टीका - हम जो ग्रंथकर्ता, ते नानाप्रकार का गति, इंद्रियादिक अधिकार संयुक्त जो मार्गणा का महा अधिकार ताहि कहेंगे, जैसी आचार्य प्रतिना करी । कहा करिक ? जिन जो अर्हन्त भट्टारक, तिसहि नमस्कार करिके। कैसा है जिन भगवान ? रत्नत्रय स्वरूप धर्म, सोही भया धनुप, वहरि ताका उपकारी जे ज्ञानादिक धर्म, ते ही भए गुण कहिये चिल्ला, वहुरि ताके आश्रयभूत जे चौदह मार्गरणा, तही भए मार्गण कहिए वाण, तिनिकरि हत्या है मोहनीय कर्मरूप अरि कहिये वैरी का वल जान, ऐसा जिन-देव है।
प्रागै मार्गणा शब्द की निरुक्ति ने लिया लक्षण कहै हैं - जाहि व जासु व जीवा, मग्गिज्जते जहा तहा विट्ठा । ताप्रो चोदस जारणे, सुयणारणे मन्गणा होति ।।१४१॥१ याभिर्वा यासु वा, जीवा मृग्यते यथा तथा इप्टाः । ताश्चतुर्दग जानीहि, श्रुतज्ञाने मार्गरणा भवति ॥१४॥
-पदा पुनक १, पृष्ठ १३३, गाया ५५.
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २८५
टीका - जैसे श्रुतज्ञान विषे उपदेश्या तैसे ही जीव नामा पदार्थ, जिनकरि वा जिनिविषै जानिए, ते चौदह मार्गणा है । पूर्वे तो सामान्यता करि गुणस्थान जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, सज्ञा इनिकरि त्रिलोक के मध्यवर्ती समस्त जीव लक्षण करि वा भेद करि विचारे ।
बहुरि अब विशेषरूप गति - इद्रियादि मार्गणानि करि तिन ही को विचार है, असे हे शिष्य, तू जानि । गति आदि जे मार्गणा जब एक जीव कें नारकादि पर्यायनि की विवक्षा लीजिए, तब तो जिनि मार्गणानि करि जीव जानिए जैसे तृतीया विभक्ति करि कहिए । बहुरि जब एक द्रव्य प्रति पर्यायनि के अधिकरण की विवक्षा 'इनि विषे जीव पाइए है' औसी लीजिए, तब जिनि मार्गणानि विषै जीव जानिए जैसे सप्तमी विभक्ति करि कहिए । जाते विवक्षा के वश ते कर्ता, कर्म इत्यादि कारकनि की प्रवृत्ति है ऐसा न्याय का सद्भाव है ।
आगे तिनि चौदह मार्गणानि के नाम कहै है
गइइंदियेसु काये, जोगे वेदे कसायरणारय । संजमदंसणलेस्सा-भविया - सम्मत्तसण्णि- श्राहारे ॥ १४२ ॥
गतींद्रियेषु काये, योगे वेदे कषायज्ञाने च ।
संयमदर्शनलेश्या भव्यतासम्यक्त्वसंश्याहारे ॥ १४२ ॥
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टीका १. गति, २. इद्रिय, ३. काय, ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७ ज्ञान, ८. संयम, ६. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्य, १२. सम्यक्त्व, १३. सज्ञी, १४ आहार से ए गति आदि पद है । ते तृतीया विभक्ति वा सप्तमी विभक्ति का अंत ली है । तातै गति करि वा गति विषै इत्यादिक असे व्याख्यान करने । सो इनिकरि वा इनिविषै जीव मार्ग्यन्ते कहिए जानिये, ते चौदह मार्गणा जैसे अनुक्रम करि नाम है, तैसे कहगे |
आगे तिनिविषे आठ सांतर मार्गरणा है, तिनिका स्वरूप, संख्या, विधान निरूपण के अर्थि गाथा तीन कहै है '
उवसमसुहमाहारे, वेगुव्वियमिस्स गरअपज्जत्ते । सासणसम्मे मिस्से, सांतरगा मग्गरणा अट्ठ ॥ १४३ ॥
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२८६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४४-१४५
सत्तदिणाछम्मासा, वासपुधत्तं च बारसमुहुत्ता । पल्लासंखं तिरहं वरमवरं एगसमयो दु || १४४ ॥
उपशमसूक्ष्माहारे, वैविक मिश्रनरापर्याप्ते | सास सम्यक्त्वे मिश्र, सांतरका मार्गणा भ्रष्ट || १४३ ||
सप्तदिनानि षण्मासा, वर्षपृथक्त्वं च द्वादश मुहूर्ताः । पल्यासंख्यं त्रयाणां वरमवरमेकसमयस्तु ।। १४४ ॥
टोका नाना जीवनि की अपेक्षा विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान ने छोडि, अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गगास्थान में प्राप्त होइ, बहुरि उस ही विवक्षित गुणस्थान वा मार्गरणास्थान को यावत् काल प्राप्त न होइ, तिसकाल का नाम अंतर है |
सो उपशम सम्यग्दृष्टी जीवनि का लोक विषै नाना जीव अपेक्षा अंतर सात दिन है । तीन लोक विपे कोऊ जीव उपशम सम्यक्त्वी न होइ तो उत्कृष्टपनें सात ताई न होइ, पीछे कोऊ होय ही होय । ऐसे ही सब का अंतर जानना ।
बहुरि सूक्ष्म सांपराय संयमी, तिनिका उत्कृष्ट अंतर छह महीना है । पीछे को होय ही होय ।
बहुरि प्रहारक पर ग्राहारकमिश्र काययोगवाले, तिनिका उत्कृष्ट अंतर वर्ष पृथक्त्व का है । तीन ते ऊपर अर नव ते नीचे पृथक्त्व संज्ञा है, तातै यहां तीन वर्ष के ऊपर अर नव वर्ष के नीचे अतर जानना । पीछे कोई होय ही होय ।
वहुरि वैक्रियिकमिश्र काययोगवाले का उत्कृप्ट अंतर बारह मुहूर्त का है, पीछे कोऊ होय ही होय ।
बहूरि लब्धि पर्याप्तक मनुष्य पर सासादन गुणस्थानवर्ती जीव अर मिश्र गुगास्थानवर्ती जीव. इनि तीनों का अंतर एक-एक का पल्य के श्रसंख्यातवे भाग मात्र जानना, पीछे कोई होय ही होय । स ए सांतर मार्गणा श्राठ है । इनि सवनि का अन्य अंतर एक समय जानना ।
पढमुवसमसहिदाए, विरदाविरदीए चोद्दसा दिवसा । विरदीए पण्णरसा, विरहिदकालो दु बोधव्वो ॥ १४५ ॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका]
। २८७
प्रथमोपशमसहितायाः, विरताविरतेश्चतुर्दश दिवसाः ।
विरतेः पंचदश, विरहितकालस्तु बोद्धव्यः ॥ १४५ ।। टीका-विरह काल कहिए उत्कृष्ट अंतर, सो प्रथमोपशम सम्यक्त्व करि संयुक्त जे विरताविरत पंचम गुणस्थानवी जीव, तिनिका चौदह दिन का जानना । बहुरि तिस प्रथमोपशम सम्यक्त्व सयुक्त षष्टमादि गुणस्थानवर्ती, तिनिका पंद्रह दिन जानना । वा दूसरा सिद्धान्त की अपेक्षा करि चौवीस दिन जानना । अस नाना जीव अपेक्षा अंतर कह्या । वहरि इनि मार्गणानि का एक जीव अपेक्षा अन्तर अन्य ग्रन्थ के अनुसारि जानना।
यहा प्रसंग पाइ कार्यकारी जानि, तत्त्वार्थसूत्र की टीका के अनुसारि काल अन्तर का कथन करिए है।
तहां प्रथम काल का वर्णन दोय प्रकार - नाना जीव अपेक्षा पर एक जीव अपेक्षा ।
तहां विवक्षित गुणस्थाननि का वा मार्गणास्थाननि विष संभवते गुणस्थाननि का सर्व जीवनि विष कोई जीव के जेता काल सद्भाव पाइए, सो नाना जीव अपेक्षा काल जानाना । अर तिनही का विवक्षित एक जीव के जेते काल सद्भाव पाइए, सो एक जीव अपेक्षा काल जानना ।
तिनिविष प्रथम नाना जीव अपेक्षा काल कहिए है, सो सामान्य-विशेप करि दोय प्रकार । तहां गुणस्थाननि विपै कहिए सो सामान्य अर मार्गगा विप कहिए गो विशेप जानना।
तहां सामान्य करि मिश्यादृष्टि, असयत, प्रमत्त, अप्रमत्त, नयोग केवलनि या सर्व काल है । इनिका कवहू अभाव होता नाही। वहरि सानादन का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पल्य का असंन्यातवा भाग । बहरि मिश्र का जघन्य अन्तर्मनं, उत्कृप्ट पल्य का असंम्यातवां भाग । वहरि च्यारो उपगम अंगी बानो का जघन्य एक समय उत्कृष्ट अन्तमुहर्त । उहां जघन्य एक ममय मग्गा अपेक्षा गाया है. । बरि च्यारों क्षपकगीवाले पर प्रयोग केवलीनि का जघन्य या उतकट अन्तम: माग काल है।
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२८८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४५
अव विशेष करि कहिए है । तहा गति मार्गणा विषै सातो पृथ्वीनि के नारकोनि विषै मिथ्यादृष्ट्यादि च्यारि गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है । तिर्यञ्च गति विषे मिथ्यादृष्ट्यादि पंच गुणस्थाननि विषे सामान्यवत् काल है । मनुप्यगति विषै सासादन का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अतर्मुहूर्त अर मिश्र का जघन्य वा उत्कृप्ट अन्तर्मुहूर्त श्रर अन्य सर्व गुणस्थाननि विषे सामान्यवत् काल है । देवगति वि मिथ्यादृष्ट्यादि च्यारि गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है ।
वहुरि इंद्रिय मार्गणा श्रर काय मार्गरेरणा विषै इंद्रिय-काय अपेक्षा सर्वकाल है । गुणस्थान अपेक्षा एकेद्री, विकलेद्री, अर पंच स्थावरनि विषै मिध्यादृष्टि का सर्वकाल है । अर पंचेद्रिय वा त्रस विषे सर्व गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है ।
वहरि योग मार्गणा विषे तीनों योगनि मिथ्यादृष्ट्यादि सयोगी पर्यन्तनि का अर अयोगी का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना मिश्र का जघन्य काल एक समय ही है । र क्षपकनि का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त मात्र काल है ।
बहुरि वेद मार्गणा विषे तीन वेदनि विषे अर वेदरहित विपं मिथ्यादृष्ट्यादि ग्रनिवृत्तिकरण पर्यन्तनि का वा ( ऊपरि) सामान्यवत् काल है ।
बहुरि कपाय मार्गगा विपै च्यारि कषायनि विषे मिथ्यादृष्ट्यादि श्रप्रमत्त पर्यंतनिका मनोयोगीवत् अर दोय उपशमक वा क्षपक पर केवल लोभयुत सूक्ष्मसांपगय श्रर कपाय, इनिका सामान्यवत् काल है ।
बहुरि ज्ञान मार्गणा विषै तीन कुज्ञान, पांच मुज्ञाननि विषे अपने-अपने गुरणस्थाननि का मामान्यवत् काल है ।
बहुरि संयम मार्गणा विपै सात भेदनि विपे अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है |
बहरि दर्शन मार्गणा विषे च्यारि भेदनि विपे अपने-अपने स्थाननि का सामान्यवत् काल है ।
बहुरि लेश्या रहिननि विषे अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है। बहुरि भव्य मार्गगा विषे दोऊ भेदनि विपे अपने-अपने गुणस्थाननि का
सामान्य कान है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २८९ ___ बहुरि सम्यक्त्व मार्गणा विर्षे छह भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना- औपशमिक सम्यक्त्व विषे असंयत, देशसंयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पल्य का असंख्यातवां भाग अर प्रमत्त, अप्रमत्त का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त काल है ।
बहुरि संज्ञी मार्गणा विषै दोऊ भेदनि विर्ष अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है।
बहुरि आहार मार्गणा विर्ष आहारक 'विर्षे मिथ्यादृष्टयादि सयोगी पर्यन्तनि का सामान्यवत् काल है। अनाहारक विषै मिथ्यादृष्टि का सर्वकाल, सासादन असंयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग, सयोगी का जघन्य तीन समय, उत्कृष्ट संख्यात समय, अयोगी का सामान्यवत् काल है ।
अब एक जीव अपेक्षा काल कहिए है, तहां प्रथम सामान्य करि मिथ्यादष्टि का काल विर्षे तीन भंग - अनादि अनंत, अनादि सांत, सादि सांत । तहां सादि सांत काल जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र है किंचित हीन का नाम देशोन जानना । बहुरि सासादन का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह प्रावली; मिश्र का जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त; बहुरि असंयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर, संयतासंयत का जघन्य अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्ट देशोन कोडि पूर्व प्रमत्त-अप्रमत्त का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अतर्मुहूर्त; च्यारौ उपशम श्रेणीवालों का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त; च्यारौ क्षपक श्रेणीवाले वा अयोगिनि का जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त, सयोगी का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन कोडि पूर्व काल है।
अब विशेष करि कहिए है - गति मार्गणा विष सातौ पृथ्वीनि के नारकीनि विषै मिथ्यादृष्टि का काल जघन्य अंतर्महर्त, उत्कृष्ट क्रम तै एक, तीन, सात, दश, सतरह, बाईस, तेतीस सागर । सासादन मिश्र का सामान्यवत्, असयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन; मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट कालप्रमाण काल है।
तिर्यचगति विषै – मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र अनंत काल है । सासादन, मिश्र, संयतासंयत का सामान्यवत्, तहां असंयत का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्य काल है ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४५
मनुष्यगति विषै - मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पृथक्त्व कोटि पूर्व अधिक तीन पल्य । सासादन का, मिश्र का सामान्यवत् । असंयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृप्ट साधिक तीन पल्य, अवशेपनि का सामान्यवत् काल है ।
२६० ]
देवगति विषै - मिथ्यादृष्टि का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट एकतीस सागर; सासादन, मिश्र का सामान्यवत्; असंयत का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तेतीस सागर काल हैं ।
बहुरि इंद्रिय मार्गणा विषै एकेद्रिय का जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृप्ट प्रसंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है । वहुरि विकलत्रय का जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष । पचेद्रिय विषै मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक हजार सागर । अवशेषनि का सामान्यवत् काल है ।
बहुरि काय मार्गणा विपै पृथ्वी, आप, तेज, वायु का जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृष्ट असंख्यात लोक प्रमाण काल है । वनस्पतिकाय का एकेद्रियवत् काल है ।
त्रसकाय विपैं मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक दोय हजार सागर; अवशेषनि का सामान्यवत् काल है । इहां छह के ऊपर नव के नीचे, ताका नाम पृथक्त्व जानना । यर उस्वास का अठारहवां भाग मात्र क्षुद्रभव जानना ।
बहुरि योग मार्गणा विषै वचन, मन योग विपै मिथ्यादृष्टि, असंयत, संयतामयत, प्रमत्त, श्रप्रमत्त च्यारों उपशमक, अपक, सयोगिनि का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त, सासादन - मिश्र का सामान्यवत् काल है । काय योग विषे मिथ्यादृष्टि का जघन्य एक समय, उत्कृप्ट असंख्यात पुद्गल परिवर्तन, श्रवशेपनि का मनोयोगवत् काल है । प्रयोगि विपै सामान्यवत् काल है ।
वेद मार्गणा विषै तीनो वेदनि विषै मिथ्यादृष्टि प्रादि श्रनिवृत्तिकरण पर्यत र प्रवेदीनि विषे सामान्यवत् काल है । विशेप इतना - जो स्त्री वेद विषै मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल पृथक्त्व सौ पल्य प्रमाण र असंयत का उत्कृष्ट काल देशोन पचावन पत्य है । बहुरि पुरुष वेद विषै मिय्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल पृथक्त्व सौ नगर प्रमाण है । अर नपुंसक वेद विपैं मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्
परिवर्तन मात्र घर असंयत का उत्कृप्ट कान्न देशोन तेतीस सागर काल है |
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ २६१
बहुरि कषाय मार्गणा विषै च्यारो कषायनि विषै मिथ्यादृष्ट्यादि प्रप्रमत्त पर्यंत का मनोयोगवत् अर दोऊ उपशमक वा क्षपक वा सूक्ष्म लोभ अर अकषाय इनिका सामान्यवत् काल है |
बहुरि ज्ञान मार्गणा त्रिषै तीन कुज्ञाननि विषै वा पाच सुज्ञाननि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना - विभग विषे मिथ्यादृष्टि का काल देशोन तेतीस सागर है ।
बहुरि संयम मार्गणा विषै सात भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है |
बहुरि दर्शन मार्गणा विषै च्यारि भेदनि विषे अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना - चक्षुदर्शन विषै मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल दोय हजार सागर है ।
बहुरिया मार्गणा विषे छह भेदनि विषे वा अलेश्यानि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् काल है । विशेष इतना - कृष्ण, नील, कापोत विषै मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल क्रम ते साधिक तेतीस, सतरह, सात सागर अर असंयत का उत्कृष्ट काल क्रम तै देशोन तेतीस, सतरह, सात सागर है । अर पीत- पद्म विषै मिथ्यादृष्टि वा असंयत का उत्कृष्ट काल क्रम तै दोय, अठारह सागर है । संयतासंयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त काल है । बहुरि शुक्ल लेश्या विषे मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर, संयतासंयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अतर्मुहूर्त काल है ।
बहुरि भव्य मार्गणा विषै भव्य विषे मिथ्यादृष्टि का अनादि सांत वा सादि सात काल है । तहा सादि सांत जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र है । अवशेषनि का सामान्यवत् काल है । अभव्य विषं अनादि अनत काल है ।
छहो भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि उपशम सम्यक्त्व विषै प्रसयत, सयतासयत
बहुरि सम्यक्त्व मार्गगा विषै का सामान्यन्वत् काल है । विशेष इतना का जघन्य वा उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त मात्र है ।
-
बहुरि संज्ञी मार्गणा विषै संज्ञी विषे मिथ्यादृष्टि आदि अनिवृत्तिकरण पर्य तनि का पुरुष वेदवत्, अवशेषनि का सामान्यवत् काल है । असंज्ञी विषै मिथ्यादृष्टि
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२९२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४५
जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृप्ट असख्यात पुद्गल परिवर्तन काल है । दोऊ व्यपदेशरहितनि विषै सामान्यवत् काल है |
बहुरि प्रहार मार्गणा विषै आहारक विषै मिथ्यादृष्टि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात कल्पकाल प्रमाण जो अगुल का असंख्यातवां भाग, तीहि प्रमाण काल है । अवशेषनि का सामान्यवत् काल है । अनाहारक विषे मिथ्यादृष्टि जघन्य एक समय, उत्कृष्ट तीन समय । सासादन, असयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट दीय समय; सयोगी का जघन्य वा उत्कृष्ट तीन समय, प्रयोगी का सामान्यवत् काल
है
हा मार्गणास्थाननि विषै काल कह्या, तहां असा जानना विवक्षित मागंगा के भेद का काल विषं विवक्षित, गुरणस्थान का सद्भाव जेते काल पाइए, ताका वर्णन है | मार्गणा के भेद का वा तिस विपै गुणस्थान का पलटना भए, तिस काल का प्रभाव हो है ।
अंतर निरूपण करिए है - सो दोय प्रकार, नाना जीव अपेक्षा र एक जीव अपेक्षा । तहा विवक्षित गुणस्थाननि विषै वा गुणस्थान अपेक्षा लीए मार्गणास्थान विपं कोई ही जीव जेते काल न पाइए, सो नाना जीव अपेक्षा अंतर जानना । बहुरि विवक्षित स्थान विपैजो जीव वतँ था, सोई जीव अन्य स्थान को प्राप्त होई करिवहुरि तिन ही स्थान को प्राप्त होई, तहां बीचि विपे जेता काल का प्रमाण, सो एक जीव अपेक्षा अतर जानना |
तहान नाना जीव अपेक्षा कहिए है, सो सामान्य विशेष करि दोय प्रकार । नन्- नामान्य करि मिथ्यादृष्टि, ग्रसयत, देशसयत, प्रमत्त, श्रप्रमत्त, सयोगीनि का नाही है । मानादन का वा मिश्र का जघन्य एक समय, उत्कृप्ट पल्य का असख्यान भाग मात्र अंतर है । च्यारि उपशमकनि का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पृथक्त्व न्यारि क्षपकनि का वा प्रयोगी का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह
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विशेष करि गति मागंणा विपे नारकी, तिर्यच, मनुष्य, देवनि विषे दृष्टवादि च्यारि पाँच, चांदह, च्यारि गुणस्थाननि विषे सामान्यवत्
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका;
[ २६३ बहुरि इद्रिय मार्गणा विष एकेद्रिय विकलेन्द्रिय का अतर नाही है । पनेद्रिय विर्षे सर्व गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है।
बहुरि काय मार्गणा विर्षे पंच स्थावरनि का अंतर नाही है । त्रस विर्षे सर्व गुणस्थाननि का सामान्यवत् अतर है।
बहुरि योग मार्गणा विषै तीनो योगनि विष आदि के तेरह गुणस्थाननि का वा अयोगी का सामान्यवत् अतर है ।
बहुरि वेद मार्गणा विष तीनो वेदनि विष आदि के नव गुणस्थाननि वा अवेदीनि का सामान्यवत् अंतर है। विशेष इतना दोऊ क्षपकनि का उत्कृष्ट अंतर स्त्री-नपुसक वेद विष पृयक्त्व वर्ष मात्र अर पुरुष वेद विषै साधिक वर्ष प्रमाण है। । बहुरि कषाय मार्गणा विष च्यारि कपायनि विर्ष वा अकषायनि विषै अपनेअपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है । विशेष इतना - दोय क्षपकनि का उत्कृष्ट अंतर साधिक वर्षमात्र है।
बहुरि ज्ञान मार्गणा विष तीन कुजान, पांच सुजाननि विर्षे अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है । विशेष इतना -- अवधि, मन.पर्ययज्ञान विषै क्षपकनि का उत्कृष्ट अतर साधिक वर्षमात्र है।
बहुरि संयम मार्गणा विर्षे सात भेदनि विर्ष अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अतर है।
बहुरि दर्शन मार्गणी विषै च्यारि भेदनि विष अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अतर है । विरोप इतना - अवधि दर्शन विषै क्षपकनि का अंतर साधिक वर्षमात्र है।
वहुरि लेश्या मार्गणा विर्ष छहो भेदनि विपै वा अलेश्या विष अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अतर है ।
बहुरि भव्य मार्गणा विष दोय भेदनि विप अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है।
बहुरि सम्यक्त्व मार्गणा विषै छह भेदनि विष अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत अतर है। विशेप इतना - उपशम सम्यक्त्व विपै असयतादिक का जघन्य
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२६४ ]
[ गोम्मटमार जोयकाण्ड गाथा १८५.
अंतर एक समय है । अर उत्कृष्ट अंतर असंयत का सात दिन राति देश संयत का चौदह दिन-राति, प्रमत्त ग्रप्रमत्त का पद्रह दिन राति अंतर है ।
बहुरि संजी मार्गणा विषे दोय भेदनि विषै वा दोऊ व्यपदेशरहितनि वि अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि ग्राहार मार्गणा विपे दोऊ भेदनि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का सामान्यवत् अंतर है । विशेष इतना - अनाहारक विषे असंयत का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पृथक्त्व मास ।
सयोगी का जघन्य एक समय, उत्कृष्ट पृथक्त्व वर्षमात्र अंतर है ।
अव एक जीव अपेक्षा अतर कहिए है,
सो सामान्य विशेष करि दोय प्रकार । तहाँ सामान्य करि मिथ्यादृष्टि का अतर जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन दूरगां छयासठ सागर । बहुरि सामान का जघन्य पल्य का असंख्यातवे भाग, उत्कृष्ट देशोन अर्धं पुद्गल परिवर्तन । बहुरि मिश्र, असंयत, देशसंयत, प्रमत्त, श्रप्रमत्त, च्यारि उपशमक, इनिका जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन अर्व पुद्गल परिवर्तन । बहुरि च्यारि क्षपक, सयोगी, प्रयोगी इनिका अंतर नाही है ।
बहुरि विशेष करि गति मार्गणा विषै नारक विषै मिथ्यादृष्टि आदि असंयत पर्वतनि का जघन्य अंतर सामान्यवत् । उत्कृष्ट अंतर सात पृथ्वीनि विषै क्रम तें एक, तीन, नात, श, सतरह, वाईस, तेतीस देशोन सागर जानना ।
बहुरि तिर्यञ्चनि विपं मिथ्यादृष्ट्यादि देशसंयत पर्यंत नि का सामान्यवत् अंतर है । विशेष इतना - मिध्यादृष्टि का उत्कृष्ट अंतर देशोन तीन पल्य है ।
बहुरि मनुष्य गति विषै मिथ्यादृष्ट्यादि च्यारि उपशमक पर्यत जघन्य अंतर नामान्यत्रत् । उत्कृष्ट अंतर मिथ्यादृष्टि का तियंचवत् । सासादन, मिश्र, ग्रसंयत का कोड पूर्व कि तीन पल्य, देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त । च्यारि उपशमक का पृथक्त्व कोडि पूर्व प्रमाण है । ग्रर क्षपक, सयोगी, प्रयोगीनि का सामान्यवत् है ।
वरि देव विषै मिय्यादृष्ट्यादि असंयत पर्यंतनि का जघन्य अंतर सामान्य - वत् । उत्कृष्ट अंतर देशोन इकतीस सागर है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ २६५
बहुरि इंद्रिय मार्गणा विषै एकेद्रिय का जघन्य अंतर क्षुद्रभव, उत्कृष्ट अंतर पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक दोय हजार सागर । विकलेन्द्रिय का जघन्य अतर क्षुद्रभव, उत्कृष्ट अंतर असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है । यहु अंतर एकेद्रियादिक पर्यायनि का कह्या है, गुणस्थान मिथ्यादृष्टि ही है, ताका तहा अंतर है नाही । पचेद्रिय विषे मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत्, सासादनादि च्यारि उपशमक पर्यंतनि का जघन्य अंतर सामान्यवत्, उत्कृष्ट अंतर पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक हजार सागर है । अवशेषनि का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि काय मार्गणा विषै पृथ्वी, आप, तेज, वायुकाय का जघन्य क्षुद्रभव उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गल परिवर्तन अर वनस्पति का जघन्य क्षुद्रभव, उत्कृष्ट असख्यात लोक मात्र अंतर है । यहु अंतर पृथ्वीकायिकादि का कया है, गुणस्थान मिथ्यादृष्टि है | ताका तहा अंतर है नाही ।
त्रसकायिक विषै मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत्, सासादनादि च्यारि उपशमक पर्यंतनि का जघन्य सामान्यवत्, उत्कृष्ट पृथक्त्व कोडि पूर्व अधिक दोय हजार सागर अंतर है । अवशेषनि का सामान्यवत् अंतर है ।
बहुरि योग मार्गणा विषै मन, वचन, काय योगनि विषै संभवते गुणस्थाननि का वा अयोगी का अतर नाही, जातै एक ही योग विषै गुणस्थानातर को प्राप्त होइ करि विवक्षित गुणस्थान विषै प्राप्त होता नाही ।
बहुरि वेद मार्गणा विषे स्त्री, पुरुष, नपुसक वेदनि विषै मिध्यादृष्टि आदि दोऊ उपशमक पर्यत जघन्य अंतर सामान्यवत् है । उत्कृष्ट अंतर स्त्रीवेद विषं मिथ्यादृष्टि का देशोन पंचावन पत्य, औरनि का पृथक्त्व सौ पल्य पुरुषवेद विषै मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत्, औरनि का पृथक्त्व सौ सागर । नपुंसकवेद विषै मिथ्यादृष्टि का सागर देशोन, औरनि का सामान्यवत् अंतर है । दोय क्षपकनि का सामान्यवत् अतर है । बहुरि वेदरहितनि विषे उपशम अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म सापराय का जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर अतर्मुहूर्त है, औरनि का अंतर नाही है ।
बहुरि कषाय मार्गणा विषै क्रोध, मान, माया, लोभ विषै मिथ्यादृष्ट्यादि उपशम अनिवृत्तिकरण पर्यंत का मनोयोगवत्, दोय क्षपकनि का अर केवल लोभ विषै सूक्ष्मसापराय के उपशम वा क्षपक का अर अकषाय विषै उपशातकषायादि का अंतर नाही है ।
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[ गोम्मटसार जीयकाण्ड गाथा १४५ २६६ ]
वहुरि जान मार्गणा विषै कुमति, कुश्रुत, विभग विपै मिथ्यादृष्टि सासादन का अतर नाही । मति, श्रुत, अवधि विषै असयत का अतर जघन्य अतर्मुहूर्त, उत्कृप्ट देशोन कोडि पूर्व । देश संयत का जघन्य अतर्मुहूर्त, उत्कृप्ट साधिक छयासठि सागर। प्रमत्त-अप्रमत्त का जघन्य अंतर्मुहुर्त, उत्कृष्ट साधिक तेतीस सागर । च्यारि उपशमकनि का जघन्य अंतर्मुहुर्त, उत्कृष्ट साविक छयासठि सागर । च्यारि अपकनि का सामान्यवत् अंतर है । वहुरि मन पर्यय विषै प्रमत्तादि क्षीण कषाय पर्यतनि का सामान्यवत् अतर है । विशेष इतना - प्रमत्त-अप्रमत्त का अतर्मुहूर्त, च्यारि उपशमकनि का देशोन कोडि पूर्व प्रमाण उत्कृष्ट अंतर है । वहुरि केवलज्ञान विष सयोगी, अयोगी का सामान्यवत् अतर है।
__ वहुरि संयम मार्गणा विष सामायिक, छेदोपस्थापन विप प्रमत्त-अप्रमत्त का जघन्य वा उत्कृप्ट अंतर अतर्मुहूर्त है। दोऊ उपशमक का जघन्य अंतर्मुहर्त, उत्कृष्ट देशोन कोडि पूर्व अर दोऊ भपकनि का सामान्यवत् अंतर है। परिहारविशुद्धि विष प्रमत्त-अप्रमत्त विषै जघन्य वा उत्कृप्ट अतर अतर्मुहूर्त है । सूक्ष्मसापराय विपै उपशमक वा क्षपक का अर यथाख्यात विष उपशांत कषायादिक का अर सयतासंयत विष देश सयत का अंतर नाही है । असयम विपै मिथ्यादृप्टि का जघन्य अतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोन तेतीस सागर । सासादन, मिश्र, असयत का सामान्यवत् अतर है ।
वहुरि दर्शन मार्गणा विर्ष चक्षु, अचक्षुदर्शन विप मिथ्यादृप्ट्यादि क्षीणकपाय पर्यन्तनि का सामान्यवत् अतर है । विशेप इतना - चक्षुदर्शन विपं सासादनादि च्यारि उपगमक पर्यतनि का उत्कृप्ट अतर देशोन दोय हजार सागर है। अवधिदर्शन विर्षे अवविज्ञानवत् अतर है । केवलदर्शन विप सयोगी, अयोगी का अतर नाही है ।
बहुरि लेश्या मार्गणा विपै कृष्ण, नील, कापोत विपं मिथ्यादृप्टयादि असयत पर्यतनि का जघन्य अतर सामान्यवत् है । उत्कृष्ट अतर क्रम ते देशोन तेतीस, सतरह, अर सात सागर प्रमाण है । पीत, पद्म विष मिथ्यादृष्टयादि असयत पर्यतनि का जघन्य अतर सामान्यवत्, उत्कृप्ट अतर क्रम ते साविक दोय अर अठारह सागर है । देगसयत, प्रमत्त, अप्रमत्त का अतर नाही है । शुक्ल लेण्या विष मिथ्यादृष्टयादि अनवत पर्वतनि का जघन्य अतर सामान्यवत् हैं, उत्कृप्ट अतर देशोन इकतीस गागर ह । देगनयत, प्रमत्त का अतर नाही है । अप्रमत्त, तीन उपशमक का जघन्य गाट अंतर अंतर्मुहर्त है । उपशात कपाय, च्यारि क्षपक, सयोगीनि का अंतर नाटा । अलग्या विप अयोगीनि का अतर नाही है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
| ૨૨૭
बहुरि भव्य मार्गणा विषै भव्य विषै सर्व गुणस्थाननि का सामान्यवत् अतर है । अभव्य विषै मिथ्यादृष्टि का अंतर नाही है ।
बहुरि सम्यक्त्व मार्गणा विषै क्षायिक सम्यक्त्व विषै असंयतादि च्यारि उपशमक पर्यंतनि का जघन्य अतर अतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असयत का देशोन कोडि पूर्व, औरनि का साधिक तेतीस सागर अतर है । च्यारि क्षपक, सयोगी, अयोगी का अतर नाही है । क्षायोपशमिक विषै असंयतादि श्रप्रमत पर्यतनि का जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंयत का देशोन कोडि पूर्व, देशसयत का देशोन छ्यासठ सागर, प्रमत्त - अप्रमत्त का सांधिक तेतीस सागर अंतर है । औपशमिक विषै असंयतादि तीन उपशमक पर्यंतनि का जघन्य वा उत्कृष्ट अंतर अंतर्मुहूर्तमात्र है । उपशांत कषाय का अंतर नाही है । मिश्र, सासादन, मिथ्यादृष्टि विषै अपने-अपने गुणस्थाननि का अंतर नाही है ।
बहुरि संज्ञी मार्गणा विषै संज्ञी विषै मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत्, सासादनादि च्यारि उपशमक पर्यन्तनि का जघन्य सामान्यवत्, उत्कृष्ट पृथक्त्व सौ सागर, च्यारि क्षपकनि का सामान्यवत् अंतर है । असंज्ञी विषै मिथ्यादृष्टि का अंतर नाही है । उभयरहित विषै सयोगी, अयोगी का अंतर नाही है ।
बहुरि आहारक मार्गणा विषै आहारक मिथ्यादृष्टि का सामान्यवत्, सासादनादि च्यारि उपशमक पर्यतनि का जघन्य सामान्यवत्, उत्कृष्ट असख्याता संख्यात कल्पकाल मात्र सूच्यंगुल का असख्यातवां भाग अंतर है । च्यारि क्षपक सयोगीनि का अंतर नाही है । अनाहारक विषे मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत, सयोगी, अयोगी का अंतर नाही है ।
इहा मार्गरणास्थान विषै अंतर का है, तहां जैसा जानना - विवक्षित मार्गणा के भेद का काल विषै विवक्षित गुणस्थान का अंतराल जेते काल पाइए, ताका वर्णन है । मार्गरणा के भेद का पलटना भए अथवा मार्गणा के भेद का सद्भाव होते विवक्षित गुणस्थान का अंतराल भया था, ताकी बहुरि प्राप्ति भए, तिस अंतराल का अभाव हो है । ऐसे प्रसग पाइ काल का अर अंतर का कथन को कीया है, सो जानना ।
आगे इनि चौदह मार्गणानि विषै गति मार्गरणा का स्वरूप को कहै है गइउदयजपज्जाया, चउगइगमणस्स हेउ वा हु गई । खारयतिरिक्खमाणुस, देवगइ ति य हवे चदुधा || १४६ ||
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२६८ ]
गत्युदयजपर्यायः, चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्वा हि गतिः । नारकतिर्यग्मानुषदेवगतिरिति च भवेत् चतुर्धा ॥ १४६॥
गम्यते कहिये गमन करिए, सो गति है ।
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४६
इहां तर्क - जो ऐसे कहें गमन क्रियारूप परिणया जीव को पावने योग्य द्रव्यादिक को भी गति कहना संभवे ।
तहां समाधान - जो ऐसे नाही है, जो गतिनामा नामकर्म के उदय तं जो जीव के पर्याय उत्पन्न होड़, तिसही कौं गति कहिए । सो गति च्यारि प्रकार १. नाक गति २. तिर्यंच गति ३. मनुष्यगति ४. देव गति ए च्यारि गति हैं ।
या नारक गति को निर्देश कर हैं
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ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल - भावे य । अण्णोहिय जह्मा, तह्मा ते खारया भरिया । । १ १४७ ॥
नरमंते यतो नित्यं द्रव्य क्षेत्रे च कालभावे च ।
अन्योन्यैश्व यस्मात्तस्मात्ते नारता (का) भरिणताः ॥ १४७ ॥
टीका - जा कारण ते जे जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विपे अथवा परस्पर में रमे नाही - जहां क्रीडा न करें, तहा नरक संवत्री ग्रन्न-पानादिक वस्तु, सो द्रव्य कहिए । बहुरि तहांकी पृथ्वी सो क्षेत्र कहिए । बहुरि तिस गति संबंधी प्रथम समय तें लगाइ अपनी आयु पर्यंत जो काल, सो काल कहिए । तिनि जीवनी के चैतन्यरूप परिणाम, सी भाव कहिए । इनि च्यारोंनि विषै जे कहूं रति न मानें । वहुरि अन्य भव संबंधी बंर करि इस भव में उपजे कोवादिक, तिनिरि नवीन - पुराणे नारकी परस्पर रमे नाहि है 'रति कहिए प्रीतिरूप कब ही तातें 'न रताः' कहिए नरत, तेई 'नारत' जानने । जातें स्वार्थ विषै ऋण प्रत्यय का विवान है, तिनकी जो गति, सो नारतगति जानना ।
वा नरकविपै उपजे ते नारक, तिनिकी जो गति, सो नारक गति जाननी । अथवा हिमादित्र ग्राचरण विपं निरता कहिए प्रवत, असे जो निरत, तिनकी जो गति, सो निम्नगति जाननी ी, तिनिर्को कायति कहिए पीडे दुःख देइ, ५॥ नरह
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
| २६६
असे जे नरक कहिए पापकर्म, ताका अपत्य कहिए तीहि का उदय ते निपजे जे नारक तिनकी जो गति, सो नारक गति जाननी । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि विषै वा परस्पर त कहिए प्रीतिरूप नाही ते नरत, तिनकी जो गति सो नरतगति जाननी । निर्गत कहिए गया है अय कहिए पुण्यकर्म, जिनिते असे जे निरय, तिनिकी जो गति सो निरय गति जाननी । असे निरुक्ति करि नारकगति का लक्षण कह्या ।
आगे तिर्यचगति का स्वरूप कहै है
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तिरियंति कुडिलभावं, सुविउलसंण्ण रिगगिट्ठिमण्णाणा । अच्चंत पावबहुला, तह्मा तेरिच्छ्या भरिया' ॥ १४८ ॥
तिरोचंति कुटिलभावं, सुविवृतसंज्ञा निकृष्टमज्ञाना. । अत्यंतपापबहुलास्तस्मात्तैरश्चिका भरिणताः ॥ १४८॥
टीका - जातै जो जीव सुविवृतसंज्ञा : कहिए प्रकट है आहार ने आदि देकरि सज्ञा जिनके से है । बहुरि प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या की विशुद्धता इत्यादिक करि हीन है, तातै निकृष्ट है । बहुरि हेयोपादेय का ज्ञान रहित है, ताते अज्ञान है । बहुरि नित्यनिगोद की अपेक्षा अत्यत पाप की है बहुलता जिनिके जैसे है, तातै तिरोभाव जो कुटिलभाव, मायारूप परिणाम ताहि श्रंचंति कहिए प्राप्त होइ, ते तिर्यच कहे है । बहुरि तिर्यच ही तैरश्च कहिए । इहा स्वार्थ विषै अण् प्रत्यय का विधान हो है । असे जो तिर्यक् पर्याय, सोही तिर्यग्गति है, असा कया है ।
आगे मनुष्य गति का स्वरूप कहै है -
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मण्णंति जदो रिगच्चं मरणेरण रिगउरणा मणुक्कडा जह्मा । मण्णुव्वा य सव्वे, भणिदा ॥ १४६ ॥ माणुसा
तह्मा
मन्यते यतो नित्यं मनसा निपुरणा मनसोत्कटा यस्मात् । मनूद्भवाश्च सर्वे, तस्मात्ते मानुषा भरिणताः ॥१४९॥
टीका - जाते जे जीव नित्य ही मन्यते कहिए हेयोपादेय के विशेष को जाने है । अथवा मनसा निपुणाः कहिए अनेक शिल्पी आदि कलानि विषै प्रवीण है । अथवा
१. पटखडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ २०३, गाथा १२६ २. पटखडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०४, गाथा १३०
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२६८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गामा १४६
गत्युदयजपर्यायः, चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्वा हि गतिः । नारकतिर्यग्मानुषदेवगतिरिति च भवेत् चतुर्धा ॥ १४६ ॥
गम्यते कहिये गमन करिए, सो गति है ।
इहां तर्क - जो ऐसे कहै गमन क्रियारूप परिणया जीव कौ पावने योग्य द्रव्यादिक को भी गति कहना संभवै ।
तहां समाधान - जो ऐसे नाही है, जो गतिनामा नामकर्म के उदय तैं जो जीव १. नारक के पर्याय उत्पन्न होड़, तिसही की गति कहिए । सो गति च्यारि प्रकार गति २ तिर्यच गति ३. मनुष्यगति ४. देव गति ए च्यारि गति है ।
या नारक गति को निर्देश करे है
ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल - भावे य । अण्णोहिं य जह्मा, तह्मा ते खारया भरिया ।। १ १४७॥
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नरमंते यतो नित्यं द्रव्य क्षेत्रे च कालभावे च ।
ग्रन्योन्यैश्च यस्मात्तस्मात्ते नारता (का) भरिणताः ॥ १४७ ॥
टीका - जा कारण ते जे जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विपे अथवा परस्पर मे नाही - जहा क्रीडा न करें, तहा नरक सबबी अन्न-पानादिक वस्तु, सो द्रव्य कहिए । हरनहांकी पृथ्वी सो क्षेत्र कहिए । बहुरि तिस गति सबंधी प्रथम समय तै लगाइ ग्रानी ग्रायुपर्यंत जो काल, सो काल कहिए । तिनि जीवनी के चैतन्यरूप परिणाम,
भाव कहिए | उनि च्यारोनि विषे जे वहूं रति ने माने । वहुरि अन्य भव सबंधी छेर गरिन भव में उपजे क्रोधादिक, तिनिकरि नवीन - पुराणे नारकी परस्पर रमे नाहि है 'पनि रहिए प्रीतिरूप कत्र ही ताते' 'न रताः' कहिए नरत, तेई 'नारत' जानने । जाते
विषे ऋण प्रत्यय का विधान है, तिनकी जो गति, सो नारतगति जानना । मानव उर ने नारक निनिकी जो गति, सो नारक गति जाननी । अथवा विषे निरता कहिए प्रवतं, अने जो निरत, तिनकी जो गति, सो अभयपत्रि धारानी । अथवा नर कहिए प्राग्गी, तिनिक कायति कहिए पीडे दु.ख देइ,
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
दीव्यंति यतो नित्यं गुणैरष्टाभिर्दव्ययवः । rrentafaorator:, तस्मात्ते वरिता देवाः ॥ १५१ ॥
टीका - जाते जे जीव नित्य ही दीव्यंति कहिए कुलाचल समुद्रादिकनि विषै क्रीड़ा करे है, हर्ष करे है, मदनरूप हो है - कामरूप हो है । बहुरि अणिमा को आदि देकरि मनुष्य अगोचर दिव्यप्रभाव लीए गुण, तिनिकरि प्रकाशमान है । बहुरि - धातु - मल रोगादिक दोष, तिनकरि रहित है । देदीप्यमान, मनोहर शरीर जिनिका से है । तातै ते जीव देव है, जैसे ग्रागम विषै कह्या है । स निरुक्तिपूर्वक लक्षण करि च्यारि गति कही ।
यहा जे जीव सातौ नरकनि विषै महा दुख पीडित है, ते नारक जानने । बहुरि केंद्री, बेद्री, तेद्री, चौइंद्री, श्रसंज्ञी पंचेद्री पर्यंत सर्व ही अर जलचरादि पंचेद्री ते सर्व तिर्यच जानने । बहुरि आर्य, म्लेच्छ, भोगभूमि, कुभोगभूमि विषै उत्पन्न मनुष्य जानने । भवनवासी, व्यंतर ज्योतिषी, वैमानिक भेद लीए देव जानने ।
-
आगे संसार दशा का लक्षण रहित जो सिद्धगति ताहि कहै है । जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाओ । रोगादिगा व जिस्से, ण संति सा होदि सिद्धगई १ ॥ १५२ ॥
| ३०१
जातिजरामरणभयाः, संयोगवियोगदुःखसनाः । रोगादिकाश्व यस्या, न संति सा भवति सिद्धगतिः ।।१५२।।
टीका जन्म, जरा, मरण, भय, अनिष्ट सयोग, इष्टवियोग, दुख, सज्ञा, रोगादिक नानाप्रकार वेदना जिहिविषै न होइ सो समस्तकर्म का सर्वथा नाश ते प्रकट भया सिद्ध पर्यायरूप लक्षण को धरे, सो सिद्धगति जाननी । इस गति विषै संसारीक भाव नाही, तातै संसारीक गति की अपेक्षा गति मार्गणा च्यारि प्रकार ही कही ।
-
मुक्तिगति की अपेक्षा तीहि मुक्तिगति का नाम कर्मोदयरूप लक्षरण नाही है । ताते याकी गतिमार्गरणा विषै विवक्षा नाही है ।
आगे गतिमार्गणा विषै जीवनि की संख्या कहै है । तहा प्रथम ही नरक गति विषै गाथा दोयकरि कहै है
१. षट्खडागम
- ववला पुस्तक १, पृष्ठ २०४, गाथा १३२
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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १५०
३०० ]
'मनसोत्कटाः' कहिए अववारना आदि दृढ उपयोग के घारी हैं । अथवा 'मनोरुद्भवाः' कहिए कुलकरादिक ते निपजे है, तातें ते जीव सर्व ही मनुष्य हैं, असें ग्रागम विषै कहैं हैं ।
तिर्यंच, मनुष्य गति के जीवनि का भेद दिखाव हैं
सामण्णा पंचिदी, पज्जत्ता जोणिणी अपज्जत्ता । तिरिया णरा तहावि य, पंचिदियभंगदो हीणा ॥ १५०॥
सामान्याः पंचेंद्रियाः, पर्याप्ता योनिमत्यः अपर्याप्ताः । तिर्यंचो नरास्तथापि च, पंचेंद्रियभंगतो हीनाः ॥ १५० ॥
टीका - तिर्यंच पांच प्रकार १. सामान्य तिर्यच २. पंचेंद्री तिर्यच २. पर्याप्त तिर्यच ४. योनिमती तिर्यच ५. अपर्याप्त तिर्यंच । तहां सर्व ही तिर्यच भेदनि का समुदायरूप, सो तौ सामान्य तिर्यंच है । बहुरि जो एकेद्रियादिक विना केवल पंचेद्री तिर्यच, सो पंचद्री तिर्यंच है । वहुरि जो अपर्याप्त विना केवल पर्याप्त तिर्यंच, सो पर्याप्त तिर्यच है । वहुरि जो स्त्रीवेदरूप तियंचणी, सो योनिमती तिर्यच है | बहुरि जो लब्धि अपर्याप्त तियंच है, सो अपर्याप्त तिर्यंच है । जैसें तिर्यच पंच प्रकार हैं ।
-
बहुरि तैसे ही मनुष्य हैं । इतना विशेष जो पंचेद्रिय भेद करि हीन है, ताते नामान्यादिरूप करि च्यारि प्रकार है । जाते मनुष्य सर्व ही पंचेद्री है, ताते जुटा भेट तिर्यचवत् न होइ । तातै १. सामान्य मनुष्य २. पर्याप्त मनुष्य ३. योनिमती मनुष्य ४. अपर्याप्त मनुष्य ए च्यारि भेद मनुष्य के जानने ।
-
तहां सर्व मनुष्य भेदनि का समुदायरूप, सो सामान्य मनुष्य है । केवल पर्याप्त मनुष्य, तो पर्याप्त मनुष्य है | स्त्रीवेदरूप मनुप्यणी, सो योनिमती मनुष्य है | लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य सो अपर्याप्त मनुष्य है ।
ग्रा देवगति को कहे हैं -
दिव्वंति जदो णिच्चं गुणेहि अट्ठेह दिव्वभावेहि । 'नासंतदिव्वकाया, तह्मा ते वणिया देवा ॥ १५१ ॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
दीव्यंति यतो नित्यं, गुणैरष्टाििदव्यभावः ।
भासमानदिव्यकायाः, तस्मात्ते वरिणता देवाः ॥१५१॥ टीका - जाते जे जीव नित्य ही दीव्यंति कहिए कुलाचल समुद्रादिकनि विष क्रीडा करै है, हर्ष करे है, मदनरूप हो है-कामरूप हो है। बहुरि अणिमा को आदि देकरि मनुष्य अगोचर दिव्यप्रभाव लीए गुण, तिनिकरि प्रकाशमान है । बहुरि-धातु-मल रोगादिक दोष, तिनिकरि रहित है । देदीप्यमान, मनोहर शरीर जिनिका असे है। तात्तै ते जीव देव है, औसै पागम विष कह्या है । असै निरुक्तिपूर्वक लक्षण करि च्यारि गति कही।
यहा जे जीव सातौ नरकनि विष महा दु ख पीडित है, ते नारक जानने । बहुरि एकेद्री, बेद्री, तेद्री, चौइंद्री, प्रसज्ञी पचेद्रो पर्यत सर्व ही अर जलचरादि पंचेद्री ते सर्व तिर्यच जानने । बहुरि आर्य, म्लेच्छ, भोगभूमि, कुभोगभूमि विषै उत्पन्न मनुष्य जानने । भवनवासी, व्यंतर ज्योतिषी, वैमानिक भेद लीएं देव जानने ।
प्रागै संसार दशा का लक्षण रहित जो सिद्धगति ताहि कहै है - जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाओ। रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्धगई ॥१५२॥ जातिजरामरणभयाः, संयोगवियोगदुःखसजाः ।
रोगादिकाश्च यस्या, न संति सा भवति सिद्धगतिः ॥१५२।। टीका - जन्म, जरा, मरण, भय, अनिष्ट सयोग, इष्टवियोग, दुख, सज्ञा, रोगादिक नानाप्रकार वेदना जिहिविष न होइ सो समस्तकर्म का सर्वथा नाश ते प्रकट भया सिद्ध पर्यायरूप लक्षण को धरै, सो सिद्धगति जाननी । इस गति विर्ष संसारीक भाव नाही, तातै ससारीक गति की अपेक्षा गति मार्गणा च्यारि प्रकार ही कही।
मुक्तिगति की अपेक्षा तीहि मुक्तिगति का नाम कर्मोदयरूप लक्षण नाही है । ताते याकी गतिमार्गणा विप विवक्षा नाही है ।
आगै गतिमार्गणा विषै जीवनि की संख्या कहै है । तहा प्रथम ही नरक गति विषै गाथा दोयकरि कहै है
१. षट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २०४, गाया १३२
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३०२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १५३-१५४
सामण्णा णेरड्या, घरणअंगुल बिदियमूलगुणसेढी । बिदियादि वारदसअड, छत्तिदुणिजपदहिदा सेढी ॥ १५३ ॥
सामान्या नैरयिका, घनांगुलद्वितीयसूलगुरण श्रेरणी । द्वितीयादिः द्वादश दशाष्टषट्त्रिद्विनिजपदहिता श्रेणी ॥ १५३ ॥
सामान्य सर्व सातौ ही पृथ्वी के मिले हुवे नारकी जगत श्रेणी की तिहि प्रमित है । इहां
टीका घनांगुल का द्वितीय वर्गमूल करि गुणै, जो परिमाण होइ, घनांगुल का वर्गमूल करि उस प्रथम वर्गमूल का दूसरी बार वर्गमूल कीजिए, सो घनागुल का द्वितीय वर्गमूल जानना । जैसे अंकसंदृष्टि करि घनांगुल का प्रमाण सोलह, ताका वर्गमूल च्यारि, ताका द्वितीय वर्गमूल दोय होय, ताकरि जगत श्रेणी का प्रमाण दोय से छप्पन कौं गुणे, पांचसे बारह होय; तैसै इहां यथार्थ परिमाण जानना । बहुरि दूसरी पृथ्वी के नारकी जगत श्रेणी का वारह्वां वर्गमूल, ताका भाग जगत श्रेणी को दीएं जो प्रमाण होइ, तीहि प्रमित हैं । इहां जगत श्रेणी का वर्गमूल करिए सो प्रथम मूल, बहुरि उसका वर्गमूल कीजिए, सो द्वितीय वर्गमूल, वहुरि उस द्वितीय वर्गमूल का वर्गमूल कीजिए सो तृतीय वर्गमूल, इत्यादिक से ही इहां अन्य वर्गमूल जानना । वहुरि तीसरी पृथ्वी के नारकी जगत श्रेणी का दशवां वर्गमूल का भाग जगत श्रेणी की दीएं जो प्रमाण आवै तितने जानने । बहुरि चौथी पृथ्वी के नारकी जगत श्रेणी का आठवां वर्गमूल का भाग जगत श्रेणी को दीएं जो परिमाण यावे, तितने जानने । बहुरि जैसे ही पांचवी पृथ्वी, छठी पृथ्वी, सातवीं पृथ्वी के नारकी अनुक्रम ते जगत श्रेणी का छठा, तीसरा, दूसरा वर्गमूल का भाग जगत श्रेणी की दीए, जो जो परिमाण आवे, तितने तितने जानने । जैसें दोय सँ छप्पन का प्रथम वर्गमूल सोलह, द्वितीय वर्गमूल च्यारि, तृतीय वर्गमूल दोय, इनिका भाग क्रम ते दोय से छप्पन को दीएं सोलह, चौसठि, एक सौ अट्ठाईस होई । तैसे हा भी यथासंभव परिमाण जानना ।
-
हेट्ठिमछप्पढवीणं, रासिविहीणो दु सव्वरासी दु । पढमावणि िरासी, रइयाणं तु णिद्दिट्ठो ॥ १५४ ॥
अधस्तनपट्पृथ्वीनां, राणिविहीनस्तु सर्वराशिस्तु । प्रथमावनों राशिः नैरयिकाणां तु निर्दिष्टः ॥ १५४ ॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३०३
टीका - नीचली जे दूसरी वंशा पृथ्वी सौं लगाई सातवी पृथ्वी पर्यंत छह पृथ्वी के नारकीनि का जोड दीएं साधिक जगत श्रेणी का बारह्वा मूल करि भाजित जगत श्रेणी प्रमाण होइ सो पूर्वे सामान्य सर्वनारकीनि का परिमाण कह्या, तामैं घटाएं, जितने रहें, तितने पहिली धम्मा पृथ्वी के नारकी जानने । इहां घटावनेरूप त्रैराशिक असें करना । सामान्य नारकीनि का प्रमाण विषे जगच्छ्रेणी गुण्य है । बहुरि घनांगुल का द्वितीय वर्गमूल गुणकार है, सो इस प्रमाण विषे जगच्छ्र ेणीमात्र घटावना होइ, तौ गुणकार का परिमाण में स्यों एक घटाइए तो जो जगच्छ्रेणी का बारह्वा वर्गमूल करि भाजित साधिक जगच्छ्रे णीमात्र घटावना होइ, तौ गुणकार में स्यों कितना घटै, इहां प्रमाणराशि जगत श्रेणी, फलराशि एक, इच्छाराशि जगत श्रेणी का बारह्वां वर्गमूल करि भाजित जगत श्रेणी, सो इहा फल करि इच्छा को
प्रमाण का भाग दीएं साधिक एक का बारह्नां भाग जगत श्रेणी के वर्गमूल का भाग आया । सो इतना घनागुल का द्वितीय वर्गमूल में स्यों घटाइ अवशेष करि जगत श्रेणी को गुणै, धर्मा पृथ्वी के नारकीनि का प्रमाण हो है ।
आगे तिर्यच जीवां की संख्या दोय गाथा करि कहै है--- संसारी पंचक्खा, तप्पुण्णा तिगदिहीणया कमसो । सामण्णा पंचिदी, पंचिदियपुण्णतेरिक्खा ॥ १५५ ॥
संसारिणः पंचाक्षाः, तत्पूर्णाः त्रिगतिहीनकाः क्रमशः । सामान्याः पंचेंद्रियाः, पंचेद्रिय पूर्णतैरश्चाः ।। १५५।।
टीका - ससारी जीवनि का जो परिमाण तीहिविषै नारकी, मनुष्य, देव इनि तीनो गतिनि के जीवनि का परिमाण घटाएं, जो परिमाण रहे, तितने प्रमाण सर्व सामान्य तिर्यच राशि जानने । बहुरि श्रागे इद्रिय मार्गणाविषै जो सामान्य पचेद्रिय जीवन का परिमाण कहिएगा, तामैसौ नारकी, मनुष्य, देवनि का परिमाण घटाए, पवेद्रिय तिर्यचनि का प्रमाण हो है ।
बहुरि आगे पर्याप्त पंचेद्रियनि का प्रमाण कहिएगा, तामेस्यो पर्याप्त नारकी, मनुष्य, देवनि का परिमाण घटाएं, पंचेद्रिय पर्याप्त तिर्यचनि का परिमाण हो है ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १५६-१५७-१५६ ३०४ ]
छस्तयजोयरणकम्हिजगपदरं जोणिमीण परिमाणं । पुण्णूणा पंचक्खा, तिरिमअपज्जत्तपरिसंखा ॥१५॥
षट्शतयोजनकृतिहतजगत्प्रतरं योनिमतीनां परिमाणं ।
पूर्णोनाः पंचाक्षाः, तिर्यगपर्याप्तपरिसंख्या ।। १५६ ।।
टीका - छस्से योजन के वर्ग का भाग जगत प्रतर की दीएं, जो परिमाण होड, सो योनिमती द्रव्य तियंचगीनि का परिमाण जानना । छस्सै योजन लंबा, छस्स योजन चौड़ा, एक प्रदेश ऊंचा असा क्षेत्र विप जितने आकाश प्रदेश होई, ताको भाग जगत प्रतर को देना, सो इनि योजननिकी प्रतरांगुल कीजिए, तव चौगुणा पगट्ठी को इक्यासी हजार कोडि करि गुरिणए, इतने प्रतरागुल होइ तिनिका भाग जगत प्रतर कौं दीजिए, तव एक भाग प्रमाण द्रव्य तिर्यंचणी जाननीं । वहुरि पंचेंद्रिय तिर्यत्रनि का परिनाण विप पंचेंद्रिय पर्याप्त तिर्यचनि का प्रमाण घटाएं, अवशेप अपर्याप्त पंचेद्रियनि का परिमारण हो है।
आगे मनुष्य गति के जीवनि की संख्या तीन गाथानि करि कहै हैंसेढी सूईअंगुलआदिमतदियपदभाजिहेगूणा । सामण्णमणुसरासी, पंचमकदिघणसमा पुण्णा ॥१५७॥
श्रेणी मूच्यंगुलादिमतृतीयपदभाजितकोना।
सामान्यमनुष्यराशिः, पंचमकृतिघनसनाः पूर्णाः ॥१५७।। टोका -- जगतक्षेणी की उच्यंगुल के प्रथम वर्गनल का भाग बीजिए, जो परिनाण पावै, ताका गुल का तृतीय वर्गमूल का भाग दीजिए, जो परिमाण आवै, नाम एक बटाएं, जितने अवशेष हैं तितने यामान्य सर्व मनुष्य जानने । वहुरि दिन्न वर्गवारा नंबंगे पंचम वर्गस्यन वादाल है, ताका घन कीजिए: जितने होइ निनने पर्यात मनुष्य जानने । ते कितने है ?
तल्लीन्नधुगविमलं, धूमसिलागादिचोरभयमेरू । तटहरितुझसा होति हु, माणुसपज्जत्तसंखंका ॥१५॥
तन्नोनमधुगविमलं, मसिलागाविचोरभयमेरू । तग्विनमा भवंति हि, मानुपपर्याप्तसंख्यांकाः 119
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
- [ ३०५
टीका - इहां अक्षर संज्ञा करि वामभाग तें अनुक्रम करि अक कहै है । सो अक्षर सज्ञा करि अक कहने का सूत्र उक्त च कहिए है - आर्या
कटपयपुरस्थवर्णर्नवनवपंचाष्टकल्पितैः क्रमशः । खरजनशून्यं संख्या मात्रौपरिमाक्षरं त्याज्यं ॥
याका अर्थ
ककार को आदि देकर नव अक्षर, तिनिकरि अनुक्रम ते एक, दोय, तीन इत्यादिक अंक जानने । जैसे ककार लिख्या होइ, तहां एका जानना, खकार होइ तहां दूवा जानना । गकार लिख्या होइ तहां तीया जानना । जैसे ही झकार पर्यंत नव ताई अंक जानने । क ख ग घ ङ च छ ज झ । बहुरि से ही टकार
१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ &
-
आदि देकर । नव अक्षरनि ते एक, दोय, तीन आदि नव पर्यंत अंक जानने ट ठ ड ढ ण त थ द ध । बहुरि ऐसे ही पकारने आदि देकरि पच अक्षरनि ते एक, दोय
१२३४५६७८ ६
प्रादि पच अंक जानने । प फ ब भ म । बहुरि ऐसे ही यकार ने आदि देकर भ्रष्ट
१ २ ३ ४ ५
अक्षरनि ते एक आदि अष्ट पर्यत अंक जानने । य र ल व श ष स ह । बहुरि जहां
१२३४५६७८
प्रकार आदि स्वर लिखे हो वा नकार वा नकार लिख्या होइ, तहां बिदी जानना ।
हुरि अक्षर के जो मात्रा होइ तथा कोई ऊपरि अक्षर लिख्या होइ, तो उनका कछू प्रयोजन नाही लेना । सो इस सूत्र अपेक्षा इहां अक्षर संज्ञा करि अंक कहे है । भी श्रुतज्ञानादि का वर्णन विषै ऐसे ही जानना । सो इहां त कहिए छह, ल कहिए तीन, ली कहिए तीन, न कहिए बिदी, म कहिए पांच, धु कहिए नव, ग कहिए तीन, इत्यादि अनुक्रम तै च्यारि, पांच, तीन, नव, पांच, सात, तीन, तीन, च्यारि, छह, दोय, च्यारि, एक, पांच, दोय, छह, एक, आठ, दोय, दोय, नव, सात ए अंक जानने । 'अंकानां वामतो गतिः' ताते ए अंक बाई तरफ तै लिखने । '७, ९२२८१६२, ५१४२६४३, ३७५६३५४, ३६५०३३६' सो ए सात कोडाकोडि कोडाकोडि बारणवै लाख अठाईस हजार एक सौ बासठि कोडा कोडि कोडि इकावन लाख बियालीस हजार छ सौ तियालीस कोडाकोडि सैतीस लाख गुणसठि हजार तीन सौ चौवन कोडि गुरणतालीस लाख पचास हजार तीन सौ छत्तीस पर्याप्त मनुष्य जानने । इनके अक दाहिणी तरफ सी अक्षर संज्ञा करि अन्यत्र भी कहे है
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३०६ ]
साधूरराजकीतरेणांको भारतीविलोलसमधीः ।
गुणवर्गधर्मनिलितसंख्यावन्मानवेषु वर्णक्रमाः ।। सो इहां सा कहिए सात, घू कहिए नव, र कहिए दोय, रा कहिए दोय, ज कहिए आठ, की कहिए एक, तें कहिए छह, इत्यादि दक्षिण भाग ते अंक जानने ।
पज्जत्तमणुस्सारणं, तिचउत्थो माणुसीण परिमारणं । सामण्णा पूण्णूणा, मणुवअपज्जत्तगा होति ॥१५॥ पर्याप्तमनुष्याणां, त्रिचतुर्थो मानुषीणां परिमारणं । सामान्याः पूर्णोना, मानवा अपर्याप्तका भवति ॥१५९।।
टीका - पर्याप्त मनुप्यनि का प्रमाण कह्या, ताका च्यारि भाग कीजिए, तामै तीन भाग प्रमाण मनुपिणी द्रव्य स्त्री जाननी । वहुरि सामान्य मनुष्य राशि में स्यो पर्याप्त मनुप्यनि का परिमाण घटाएं, अवशेष अपर्याप्त मनुष्यनि का परिमाण हो है । इहां 'प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः' इस सूत्र करि पैतालीस लाख योजन व्यास धरै मनुष्य लोक है । ताका 'विक्खभवग्गदहगुण' इत्यादि सूत्र करि एक कोडि बियालीस लाख तीस हजार दोय सै गुणचास योजन, एक कोण, सतरह से छ्यासठि वनुप, पाच अंगुल प्रमाण परिधि हो है । बहुरि याको व्यास की चौथाई ग्यारह लाग्न पत्रीस हजार योजन करि गुणे, सोलह लाख नव से तीन कोडि छह लाख चीवन हजार छ से एक योजन अर एक लाख योजन का दोय सै छप्पन भाग विर्ष उगगीन भाग इतना क्षेत्रफल हो है । वहुरि याके अंगुल करने सो एक योजन के नात लाग्ब अइसठि हजार अगल है। सो वर्गराशि का गुणकार वर्गरूप होइ, इस न्याय करि मात लाग्न अडमठि हजार का वर्ग करि तिस क्षेत्रफल को गुण नव हजार यारि नै वियालीम कोडाकोडि कोडि इक्यावन लाख च्यारि हजार नव सै अडसठि कोदारोटि उगवीस लान्त्र नियालीस हजार च्यारि से कोडि प्रतरांगुल हैं । वहुरि ए प्रमाणागल है. सो उहां उत्सेधागुल न करने, जातै चौथा काल की प्रादि विष वा जन्मपिगी काल का तीसरा काल का अन्तविष वा विदेहादि क्षेत्र विष आत्मांगुल का नो प्रमाण प्रमाग्गांगुल के समान ही है । सो इनि प्रतरांगुलनि के प्रमाण तें भी पान मनुय मंत्र्यात गुणे हैं। तथापि आकाश की अवगाहन की विचित्रता जानि मदेव न पन्ना ।
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सम्यग्ज्ञानचन्त्रिका भाषाटीका ]
[ ३०७
आगै देवगति के जीवनि की संख्या च्यारि गाथानि करि कहै है -
तिण्णिसयजोयणाणं, बेसदछप्पण्णअंगुलाणं च । कदिहदपदरं वेंतर, जोइसियाणं च परिमाणं ॥१६०॥ त्रिशतयोजनानां, द्विशतषट्पंचाशदंगुलानां च । कृतिहतप्रतरं व्यंतरज्योतिष्काणां च परिमाणम् ॥१६०॥
टीका - तीन सै योजन के वर्ग का भाग जगत्प्रतर को दीएं, जो परिमाण होइ, तितना व्यंतरनि का प्रमाण जानना। तीन सै योजन लंबा, तीन सै योजन चौडा, एक प्रदेश ऊंचा ऐसा क्षेत्र का जितने आकाश का प्रदेश होइ, ताका भाग दीजिए, सो याका प्रतरागुल कीए, पैसठि हजार पांच से छत्तीस को इक्यासी हजार कोडि गुणा करिए इतने प्रतरागुल होइ, तिनिका भाग जगत्प्रतर को दीए व्यतरनि का प्रमाण होइ है।
बहुरि दोय सै छप्पन अंगुल के वर्ग का भाग जगत्प्रतर को भाग दीएं, जो परिमाण आवै, तितना ज्योतिषीनि का परिमाण जानना । दोय सै छप्पन अंगुल चौडा इतना ही लम्बा एक प्रदेश ऊंचा, असा क्षेत्र का जितना आकाश का प्रदेश होइ ताका भाग दीजिए, सो याका प्रतरांगुल पैसठि हजार पांच से छत्तीस है । ताका भाग जगत्प्रतर को दीए ज्योतिषी देवनि का परिमाण हो है।
घणगुतपढमपदं, तदियपदं सेढिसंगुणं कमसो। भवरणे सोहम्मदुगे, देवारणं होदि परिमारणं ॥१६१॥ घनांगुलप्रथमपदं, तृतीयपदं श्रेरिणसंगुणं क्रमशः ।
भवने सौधर्मद्विके, देवानां भवति परिमारणम् ॥१६१।। टीका - घनागुल का जो प्रथम वर्गमूल, तिहिने जगत्श्रेणी करि गुण, जो परिमाण होइ, तितने भवनवासीनि का परिमाण जानना ।
बहुरि घनागुल का जो तृतीय वर्गमूल तिहिने जगत्श्रेणी करि गुण जो परिमाण होइ, तितने सौधर्म अरु ईशान स्वर्ग का वासी देवनि का परिमाण जानना ।
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गोमटगार जीवन गाथा १.२.१६३ ३०८]
तत्तो एगारणवसगपणचउरिणयमूलभाजिदा सेढी। पल्लालंखेज्जबिमा, पत्तेयं प्राणदादिसुरा ॥१६२॥ तत एकादशनवसप्तपंचचतुनिजमूलभाजिता श्रेगी।
पल्यासंख्यातकाः, प्रत्येकमानतादिसुराः ॥ १६२ ॥ टीका - वहुरि तहां ते ऊपरि सनत्कुमार-माहेद्र, बहुरि ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, बहुरि लांतव - कापिष्ठ, शुक्र - महाशुक्र, बहुरि शतार - सहस्रार इनि पांत्र युगलनि विर्ष अनुक्रमते जगत्श्रेणी का ग्यारहवां, नवमां, सातवां, पाचवा, चौथा जो वर्गमूल, तिनिका भाग जगत्श्रेणी की दीएं, जितना-जितना परिमाण यावे, तितना-तितना तहां के वासी देवनि का प्रमाण जानना।
__वहुरि ता ऊपरि आनत-प्राणत युगल, बहुरि पारण-अच्युत युगल, बहुरि तीन अधोवेयक, तीन मध्य ग्रंवेयक, तीन उपरिम अवेयक. बहुरि नव अनुदिश विमान, बहुरि सर्वार्थसिद्धि विमान विना च्यारि अनुत्तर विमान इन एक-एक विप देव पल्य के असख्यातवै भाग प्रमाण जानने ।
तिगुणा सत्तगुणा वा, सवठ्ठा माणुसीपमाणादो। सामग्णदेवरासी, जोइसियादो विसेसहिया ॥१६३।। त्रिगुणा सप्तगुणा बा, सर्वार्था मानुपीप्रमाणतः ।
सानान्यदेवराणिः, ज्योतिप्कतो विशेषाधिकः ॥१६३॥ टोका - वहुरि सर्वार्थसिद्धि के वासी अहमिद्र देव, मनुपिणीनि का जो परिगण, पर्याप्त मनुप्यनि का च्यारि भाग मे तीन भाग प्रमाण कह्या था, तातै तिगुणा जानना। बहुरि कोई आचार्य का अभिप्रायले सात गुणा है । बहुरि ज्योतिनी देवनि का परिमाण विष भवनवासी, कल्पवासी, देवनि का प्रमाण करि नाधिक अंसा ज्योतिषी टेवनि के संख्यातवं भाग, जो व्यतर राशि, सो जोड़े, गर्व सामान्य देवनि का परिमाण हो है ।
नि श्री प्राचार्य नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसग्रह ग्रथ की जीवतन्त्रप्रनीतिका नाम सस्कृतटीका के अनुसारि इस सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा भाषाटीका विर्षे
नरपिन जे वीस प्ररूपणा, तिनिवि गतिप्ररूपणा नामा छठा अधिकार सपूर्ण भया ॥६॥
१. "गटागम - पवना पुस्तक ३, पृष्ठ १७, गाथा १३ ।
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सातवां अधिकार : इन्द्रिय-मार्गणा-प्ररूपणा ॥ मंगलाचरण ||
लोकालोकप्रकाशकर, जगत पूज्य श्रीमान ।
सप्तम तीर्थंकर नम, श्रीसुपार्श्व भगवान ॥
1
अथ द्रियमार्गणा का आरंभ करें है। तहां प्रथम इंद्रिय शब्द का निरुक्ति पूर्वक अर्थ है है
अहमंदा जह देवा, अविसेसं अहमहंति मण्णंता । ईसंति एक्कमेक्कं, इंदा इव इंदिये जाण १ ॥१६४॥
१ पट्खडागम
अहमिंद्रा यथा देवा, प्रविशेषमहमहमिति मन्यमानाः । ईशते एकैकमिद्रा, इव इंद्रियाणि जानीहि ॥ १६४ ॥
टीका - जैसे ग्रैवेयकादिक विषै उपजे से प्रहमिद्र देव ; ते चाकर ठाकुर के ( सेवक स्वामी के ) भेद रहित 'मे ही में हौ' ऐसे मानते संते, जुदे - जुदे एक-एक होइ, प्रज्ञादिक करि पराधीनताते रहित होते सते, ईश्वरता को धरे है । प्रभाव को धरे हैं । स्वामीपना को धरै है । तैसे स्पर्शनादिक इंद्रिय भी अपने-अपने स्पर्शादिविषय विषे ज्ञान उपजावने विषे कोई किसी के आधीन नाही, जुदे-जुदे एक-एक इंद्रिय पर की अपेक्षा रहित ईश्वरता को धरे है । प्रभाव को धरै है । ताते ग्रभिद्रवत् इन्द्रिय है । असे समानतारूप निरुक्ति करि सिद्ध भया, असा इन्द्रिय शब्द का अर्थ कौं हे शिष्य ! तू जानि ।
आगै इन्द्रियनि के भेद स्वरूप कहै है
3
1
मदिश्रावरणखमोवसमुत्थविसुद्धी हु तज्जबोहो वा । भाविदियं तु दव्वं, देहुदयज देहचिन्हं तु ॥ १६५॥
मत्यावररणक्षयोपशमोत्थविशुद्धिह तज्जबोधो वा । भावेंद्रियं तु द्रव्यं देहोदयजदेहचिह्न तु ॥ १६५॥
- घवला पुस्तक १, पृष्ठ १३८. गाथा ८५ ।
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३१०]
[ गोम्मटसार जीवकाम गाथा १६५. टोका - इंद्रिय दोय प्रकार है - एक भावेद्रिय, एक द्रव्येद्रिय ।
तहां लब्धि-उपयोगरूप तौ भावेद्रिय है। तहां मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम तै भई जो विशुद्धता इंद्रियनि के जे विषय, तिनके जानने की शक्ति जीव के भई, सो ही है लक्षण जाका, सो लब्धि कहिए ।
बहुरि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम ते निपज्या ज्ञान, विषय जानने का प्रवर्तनरूप सो, उपयोग कहिए । जैसे किसी जीव के सुनने की शक्ति है । परंतु उपयोग कहीं और जायगां लगि रह्या है, सो विना उपयोग किछु सुनै नाही। बहुरि कोऊ जान्या चाहै है अर क्षयोपशम शक्ति नाही, तो कैसे जाने ? तातै लब्धि पर उपयोग दोऊ मिले विपय का ज्ञान होइ । तातै इनिकौं भावेद्रिय कहिए ।
भाव कहिए चेतना परिणाम, तीहिस्वरूप जो इंद्रिय, सो भावेद्रिय कहिए ।
__ जाते इंद्र जो आत्मा, ताका जो लिंग कहिए चिह्न, सो इंद्रिय है। जैसी निरुक्ति करि भी लन्धि-उपयोगरूप भावेद्रिय का ही दृढपनां हो है।
वहुरि निर्वृत्ति अर उपकरण रूप द्रव्येद्रिय है। तहां जिनि प्रदेशनि करि विपयनि को जानें, सो निर्वत्ति कहिए। वहरि वाके सहकारी निकटवर्ती जे होइ, तिनिको उपकरण कहिए । सो जातिनामा नामकर्म के उदय सहित शरीरनामा नामकर्म के उदयते निपज्या जो निर्वृत्ति-उपकरणरूप देह का चिह्न, एकेद्रियादिक का शरीर का यथायोग्य अपने-अपने ठिकाने आकार का प्रकट करनहारा पुद्गल द्रव्यस्वल्प इंद्रिय, सो द्रव्येद्रिय है। जैसे इंद्रिय द्रव्य-भाव भेद करि दोय प्रकार है । तहां लब्धि-उपयोग भावेद्रिय है।
तहां विपय के ग्रहण करने की शक्ति, सो लब्धि है । अर विषय के ग्रहणम्प व्यापार, सो उपयोग है।
अब इंद्रिय शब्द +
लक्षण
न मो प्रत्यल कहिए कहिए व्यापार
का प्रति जो प्रवतें,
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irenarrafन्द्रिका भाषाटोका 1
[ ३११
इहां तर्क - जो इस लक्षण विषै विशेष के प्रभाव ते तिन इंद्रियनि के संकर व्यतिकररूप करि प्रवृत्ति प्राप्त होय; जो परस्पर इंद्रियनि का स्वभाव मिलि जाय, सो संकर कहिए । अपने स्वभावते जुदापना का होना, सो व्यतिकर कहिए ।
तहां समाधान जो इहां 'प्रत्यक्षे नियमिते रतानि इंद्रियारिण' अपने-अपने लक्षण का प्रतिपादन है । ता
-
नियमरूप प्रत्यक्ष विषै जे रत, ते इंद्रिय है, जैसा नियमरूप कहने करि अपना-अपना विशेष का ग्रहण भया । अथवा सकर व्यतिकर दोष निवारण के अर्थ 'स्वविषयनिरतानि इंद्रियारिग' स्वविषय कहिए अपना-अपना विषय, तिहि विषै 'नि' कहिए निश्चय करि - निर्णय करि रतानि कहिए प्रवर्ते, इंद्रिय है, जैसा कहना ।
इहां तर्क - जो संशय, विपर्यय विषै निर्णयरूप रत नाहीं है । ताते इस लक्षण करि सशय, विपर्ययरूप विषय ग्रहण विषे आत्मा के अतीद्रियपना होइ ।
तहां समाधान - जो रूढि के बल ते निर्णय विषै वा संशय विपर्यय विषै दोऊ जायगा तिस लक्षरण की प्रवृत्ति का विरोध नाहीं । जैसे 'गच्छतीति गौ' गमन करें, ताहि गो कहिए; सो समभिरूढ - नय करि गमन करते वा शयनादि करते भी गो कहिए । तैसे इहां भी जानना । अथवा 'स्ववृत्तिनिरतानि इंद्रियाणि' स्ववृत्ति कहिए संशय, विपर्यय रूप वा निर्णयरूप अपना प्रवर्तन, तीहि विषै निरतानि कहिये व्यापार रूप प्रवर्ते, ते इंद्रिय है; औसा लक्षण कहना ।
इहां तर्क - जो असा लक्षण कीएं अपने विषय का ग्रहण रूप व्यापार विपे जब न प्रवर्तै, तीहि अवस्था विषै प्रतीद्रियपना कहना होइ ।
तहां समाधान असे नाही, जाते पूर्वे ही उत्तर दीया है । रूढि करि विपय ग्रहण व्यापार होते वा न होतें पूर्वोक्त लक्षण संभव है । अथवा 'स्वार्थनिरतानि इंद्रियाणि' अर्यते कहिए जानिए, सो अर्थ, सो अपने विषे वा विषयरूप ग्रर्थ विषे जे निरत, ते इद्रिय है । सो इस लक्षण विषे कोऊ दोष नाही; तातै इहा किछू तर्क रूप कहना ही नाही । अथवा 'इंदनात् इंद्रियारिण' इंदनात् कहिए स्वामीपनां तै इंद्रिय है । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द इनिका जाननेरूप ज्ञान का प्रावरणभूत जे कर्म, तिनिका क्षयोपगमते अपना-अपना विषय जाननेरूप स्वामित्व को धरं द्रव्यं
द्रिय है कारण जिनिका ते इंद्रिय हैं । असा अर्थ जानना । उक्तं च
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३१० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गामा १६५
टोका - इंद्रिय दोय प्रकार है - एक भावेद्रिय, एक द्रव्येद्रिय ।
तहां लब्धि-उपयोगरूप तौ भावेंद्रिय है। तहां मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम भई जो विशुद्धता इंद्रियनि के जे विषय, तिनके जानने की शक्ति जीव के भई, सो ही है लक्षण जाका, सो लब्धि कहिए ।
वहुरि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम तै निपज्या ज्ञान, विषय जानने का प्रवर्तनरूप सो, उपयोग कहिए। जैसे किसी जीव कें सुनने की शक्ति है। परंतु उपयोग कही और जायगां लगि रह्या है, सो विना उपयोग किछू सुन नाही जान्या चाहे है अर क्षयोपशम शक्ति नाही, तौ कैसे जाने ? तातै लब्धि दोऊ मिले विषय का ज्ञान होंइ । ताते इनिकों भावेंद्रिय कहिए ।
।
भाव कहिए चेतना परिणाम, तीहिस्वरूप जो इंद्रिय, सो भावेद्रिय कहिए ।
जाते इंद्र जो आत्मा, ताका जो लिग कहिए चिह्न, सो इंद्रिय है । असी निरुक्ति करि भी लब्धि-उपयोगरूप भावेद्रिय का ही दृढपनां हो है ।
बहुरि कोऊ र उपयोग
बहुरि निर्वृत्ति र उपकरण रूप द्रव्येद्रिय है । तहां जिनि प्रदेशनि करि विपयति को जाने, सो निर्वृत्ति कहिए । बहुरि बाके सहकारी निकटवर्ती जे होंड, तिनको उपकरण कहिए । सो जातिनामा नामकर्म के उदय सहित शरीरनामा नामकर्म के उदयतै निपज्या जो निर्वृत्ति - उपकरणरूप देह का चिह्न, एकेद्रियादिक का गरीर का यथायोग्य अपने-अपने ठिकाने आकार का प्रकट करनहारा पुद्गल द्रव्यस्वरूप इद्रिय, सो द्रव्येद्रिय है । जैसे इंद्रिय द्रव्य-भाव भेद करि दोय प्रकार है । तहां लब्धि-उपयोग भावेद्रिय है ।
तहा विषय के ग्रहण करने की शक्ति, सो लब्धि है । अर विषय के ग्रहणरूप व्यापार, सो उपयोग है ।
अव इंद्रिय शब्द की निरुक्ति करि लक्षण कहै हैं
'प्रत्यक्षनिरतानि इंद्रियारिण' अक्ष कहिए इन्द्रिय, सो अक्ष अक्ष प्रति जो प्रव मो प्रत्यक्ष कहिए । असा प्रत्यक्षरूप विषय अथवा इंद्रिय ज्ञान तिहि विषे निरतानि हिए व्यापार रूप प्रवर्ते, ते इंद्रिय है ।
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३१४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १६९
टीका - एकेद्रिय जीव के स्पर्शन इन्द्रिय के विपय का क्षेत्र, वीस की कृति (वर्ग) च्यारि से धनुप प्रमाण जानना । वहुरि वेइन्द्रियादिक ग्रसनी पचंद्रिय पर्यत के दूरगा-दूणा जानना, सो द्वीद्रिय के आठ से धनुष । त्रीद्रिय के सोला से धनुप । चतुरिंद्रिय के बत्तीस से वनुष । असैनी पंचेद्रिय कें चोसठि से धनुप - स्पर्शन इन्द्रिय का विपय-क्षेत्र जानना । इतना - इतना क्षेत्र पर्यत तिष्ठता जो स्पर्शनरूप विपय ताकी जाने |
बहुरि द्वीद्रिय जीव के रसना इन्द्रिय का विपय क्षेत्र, आठ की कृति चौसठि धनुप प्रमाण जानना । आगे दूणां दूणां, सो तेइन्द्रिय के एक सौ अठाईस धनुप । चतुरिद्रिय के दोय से छप्पन धनुप । असैनी पंचेद्रिय के पाच से वारा धनुप - रसना इंद्रिय का विषयभूत क्षेत्र का परिमाण जानना ।
बहुरि ते इन्द्रिय के धारण इन्द्रिय का विपयभूत क्षेत्र दश की कृति, सौ धनुप प्रमाण जाना । आगे दूरगां दूणां सो, चौइंद्री के दोय से धनुप । सैनी पचेद्रिय के च्यारि सँ धनुप । घ्राण इन्द्रिय का विषयभूत क्षेत्र का प्रमारण जानना ।
वहुरि चौ इन्द्रिय के नेत्र इन्द्रिय का विपय क्षेत्र छियालीस घाटि तीन हजार योजन जानना । यातें दूगां पांच हजार नौ से ग्राठ योजन प्रसैनी पचेद्रिय के नेत्र इन्द्रिय का विपयभूत क्षेत्र जानना । वहुरि असैनी पंचेंद्रिय के श्रोत्र इन्द्रिय का विषय क्षेत्र का परिमाण ग्राठ हजार वनुप प्रमाण जानना ।
सण्णिस्स बार सोदे, तिन्हं णव जोयहखाणि चक्खुस्स । सत्तेतालसहस्सा बेसदतेसट्ठिमदिरेया ॥ १६८ ॥
संजिनो द्वादश श्रोत्रे, त्रयाणां नव योजनानि चक्षुषः । सप्तचारिणत्सहस्राणि द्विगतत्रिषष्ट्यतिरेकारि ॥ १६९ ॥
टीका - सैनी पंचेद्रिय के स्पर्शन, रसना, कारण इनि तीन इन्द्रियनि का नवनव योजन विषय क्षेत्र है । बहुरि नेत्र इन्द्रिय का विषय क्षेत्र सैंतालीस हजार दोय मैं नरेसठि योजन, बहुरि सात योजन का बोसवां भागकर अधिक है । वहुरि श्रोत्र इन्द्रिय का विषयक्षेत्र वारह योजन है ।
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सम्बगहानवनिका भाषाटोका ]
[ ३१५ तिण्णिसयसठिविरहिद, लक्खं दशमूलताडिदे मूलं । णवगुणिदे सठिहिदे, चक्खुप्फासस्स अद्धारणं ॥१७०॥ त्रिशतषष्टिविरहितलक्षं दशमूलताडिते मूलम् ।
नवगुणिते षष्टिहते, चक्षुःस्पर्शस्य अध्वा ॥१७०॥ टीका - सूर्य का चार ( भ्रमण ) क्षेत्र पांच सै बारा योजन चौडा है, तामै एक सै अस्सी योजन तौ जबद्वीप विष है। अर तीन सै बत्तीस योजन लवण समुद्र विष है । सो जब सूर्य श्रावण मास कर्कसंक्रांति विर्ष अभ्यंतर परिधि विषै आवै, तब जंबूद्वीप का अन्त सौ एक सौ अस्सी योजन उरै भ्रमण कर है, सो इस अभ्यंतर परिधि का प्रमाण कहै हैं - लाख योजन जंबूद्वीप का व्यास में सौ दोनों तरफ का चार क्षेत्र का परिमाण तीन से साठि योजन घटाया, तब निन्याणवै हजार छ सै च्यालीस योजन व्यास रह्या । याका परिधि के निमित्त 'विक्खंभवग्गदहारण' इत्यादि सूत्र अनुसारि याका वर्ग करि ताकौं दश गुणा कहिए, पीछे जो परिमारण होइ, ताका वर्गमूल ग्रहण कीजिए, यों करते तीन लाख पन्द्रह हजार निवासी योजन प्रमाण याका परिधि भया, सो दोय सूर्यनि की अपेक्षा साठि मुहूर्त में इतने क्षेत्र विर्षे भ्रमण होइ, तौ अभ्यंतर परिधि विर्षे दिन का प्रमाण अठारह मुहूर्त, सो मध्याह्न समय सूर्य मध्य आवै तब अयोध्या की बराबर होइ; तातै नौ मुहर्त मै कितने क्षेत्र में भ्रमण होइ, असे त्रैराशिक करना। इहां प्रमाणराशि साठि (६०), फलराशि (३ १५,०८६), इच्छाराशि ६ स्थापि, उस परिधि के प्रमाण को नौ करि गणे, साठि का भाग दीजिए, तहां लब्ध प्रमाण सैतालीस हजार दोय सै त्रैसठि योजन अर सात योजन का वीसवां भाग इतना चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र जानना ।
__ भावार्थ याका यह है- जो अयोध्या का चक्री अभ्यंतर परिधि विषै तिष्ठता सूर्य को इहातै पूर्वोक्त प्रमाण योजन पर देखै है । तातै इतना चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र कह्या है।
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३१६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १७१
एकेद्रियादि पचद्रिय जीवनि के स्पर्शनादि इन्द्रियनि के उत्कृष्ट विपय ज्ञान का यत्र
-
इद्रियनि के नाम | एकेंद्रिय | द्वीद्रिय | श्रीद्रिय
चतुरिंद्रिय
प्रसज्ञी पचेद्रिय
सजी पचेंद्रिय
धनुप
धनुप |
धनुप |
धनुष | योजन
धनुप | योजन
योजन
स्पर्शन
१६००
३२००
६४००
घ्राण
चक्षु
.७ प्रमाण
|४७२६३१२० योजन
५६०८
थोत्र
८०००
प्रागै इन्द्रियनि का आकार कहै है
चक्खू सोदं धारणं, जिन्भायारं मसूरजवणाती। अतिमुत्तखुरप्पसम, फासं तु अणेयसंठाणं ॥१७१॥ चक्षुःश्रोत्रघ्राणजिह्वाकारं मसूरयवनाल्यः ।
अतिमुक्तक्षुरप्रसम, स्पर्शनं तु अनेकसंस्थानम् ॥१७१॥ टोका - चक्षु इंद्री ती मसूर की दालि का आकार है। वहरि श्रोत्र इन्द्री जब की जो नाली, तीहिके आकार है । बहुरि घ्राण इन्द्रिय अतिमुक्तक जो कदब का फल, ताके आकार है। वहुरि जिह्वा इन्द्रिय खुरपा के आकार है। वहरि स्पर्शन इन्द्रिय अनेक आकार है जातै पृथ्वी प्रा. . नेद्री आदि जीवनि का शरीर का प्राकार अनेक प्रर त स्पर्शन
भी प्राकार अनेक प्रकार कद्या, जाते स्पर्शन
* व्य
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ३१७
श्रागै निर्वृत्तिरूप द्रव्येद्रिय स्पर्शनादिकनि का आकार कह्या, सो कितने-कितने क्षेत्र प्रदेश को रोके - औसा अवगाहना का प्रमारण कहै है '
-
गुलअसंखभागं, संखेज्जगुरणं तदो विसेस हियं । तत्तो असंखगुणिदं, अंगुल संखेज्जयं तत्तु ॥ १७२ ॥
अंगुलासंख्यभागं, संख्यातगुणं ततो विशेषाधिकं । ततोऽसंख्यगुरिणत मंगुलसंख्यातं तत्तु ।। १७२ ॥
टीका - घनांगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण आकाश प्रदेशनि कौ चक्षु इन्द्रिय रोके है । सो घनागुल कौ पल्य का असख्यातवा भाग करि तौ गुणीए अर एक अधिक पल्य का असख्यातवां भाग का अर दोय वार सख्यात का अर पल्य का असख्यातवा भाग का भाग दीजिये, जो प्रमाण आवै, तितना चक्षु इन्द्रिय की अव -गाना है । बहुरि याते सख्यातगुणा श्रोत्र इन्द्रिय की अवगाहना है । यहां इस गुणकार करि एक बार संख्यात कै भागहार का अपवर्तन करना । बहुरि याको पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीए, जो परिमाण श्रावै, तितना उस ही श्रोत्रइद्रिय की अवगाहना विषै मिलाए, घ्राण इन्द्रिय की अवगाहना होइ । सो इहा इस अधिक प्रमाण करि एक अधिक पल्य का असख्यातवा भाग का भागहार अर पल्य का असख्यातवा भाग गुणकार का अपवर्तन करना । बहुरि याकौ पल्य का असख्यातवां भाग करि गए, तब जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना होइ । इस गुरणकार करि पल्य का असख्यातवां भागहार का अपवर्तन करना । ऐसे यहु जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना घनांगुल के सख्यातवे भाग मात्र जानना ।
-
आगे स्पर्शन इन्द्रिय के प्रदेशनि को अवगाहना का प्रमाण कहै है सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयह्नि । अंगुल असंखभागं, जहण्णसुक्कस्सयं मच्छे ॥ १७३॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य तृतीयसमये । अगुलासंख्यभागं, जघन्यसुत्कृष्टकं मत्स्ये ॥ १७३॥
टीका - स्पर्शन इन्द्रिय की जघन्य अवगाहना सूक्ष्म निगोदिया लब्धि श्रपर्याप्तक के उपजने तै तीसरा समय विषे जो जवन्य शरीर का अवगाहना बनागुल के
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३१.]
। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १७१
एकेद्रियादि पचद्रिय जीवनि के स्पर्शनादि इन्द्रियनि के उत्कृष्ट विषय ज्ञान का यत्र
इद्रियनि के नाम | एकेंद्रिय | द्वीद्रिय | त्रीद्रिय
चतुरिंद्रिय
असज्ञी पचेंद्रिय
सज्ञी पचेंद्रिय
धनुप, धनुष, धनुप
धनुष । योजन
धनुप योजन
योजन
स्पर्गन
स्पर्गन
४०० ८०० १६०० ३२००
००।
•
६४०० •
६४००
रमन
| २५६
-
प्राण
| २००
चक्ष
२६५४
| ५६०८/४७२६३।२० योजन
ना.७ प्रमाण
योग
योग
• • •
८०००
. •
१२
प्रागै इन्द्रियनि का आकार कहै है
चक्ख सोदं घारणं, जिन्भायारं मसूरजवणाली। अतिमुत्तखुरम्पसम, फासं तु अरणेयसंठारणं ॥१७१॥ चक्षुःश्रोत्रवाणजिह्वाकारं मसूरयवनाल्यः ।
अतिमुक्तक्षुरप्रसमं, स्पर्णनं तु अनेकसंस्थानम् ॥१७१।। टोका - चक्षु इद्री तो मसूर की दालि का आकार है। बहुरि श्रोत्र इन्द्री सीडी नानी, नीहिके आकार है । बहुरि ब्राण इन्द्रिय अतिमुक्तक जो कदव का पत, नाक प्राकार है। वहरि जिह्वा इन्द्रिय खुरपा के आकार है। बहुरि स्पर्शन
दस प्रकाशन है. जात पृथ्वी आदि वा वेद्री आदि जीवनि का शरीर का पार प्रने प्रकार है। तानं स्वर्शन इन्द्रिय का भी आकार अनेक प्रकार कह्या, Tiन्दिर नवं गरीर विर्ष व्याप्त है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३१७ प्रागै निर्वृत्तिरूप द्रव्येद्रिय स्पर्शनादिकनि का आकार कह्या, सो कितने-कितने क्षेत्र प्रदेश को रोक-पैसा अवगाहना का प्रमाण कहै है -
अंगुलअसंखभागं, संखेज्जगुरणं तदो विसेसहियं । तत्तो असंखगुणिदं, अंगुलसंखेज्जयं तत्तु ॥१७२॥
अंगुलासंख्यभाग, संख्यातगुणं ततो विशेषाधिक ।
ततोऽसंख्यगुरिणतमंगुलसंख्यातं तत्तु ॥ १७२ ॥ टीका - घनांगुल के असख्यातवे भाग प्रमाण आकाश प्रदेशनि को चक्षु इन्द्रिय रोके है। सो धनागुल को पल्य का असख्यातवा भाग करि तौ गुणीए अर एक अधिक पल्य का असख्यातवा भाग का अर दोय वार सख्यात का अर पल्य का असख्यातवा भाग का भाग दीजिये, जो प्रमाण आवै, तितना चक्षु इन्द्रिय की अव-गाहना है । बहुरि यातै संख्यातगुरणा श्रोत्र इन्द्रिय की अवगाहना है । यहां इस गुरणकार करि एक बार संख्यात कै भागहार का अपवर्तन करना । बहुरि याको पल्य का असख्यातवा भाग का भाग दीए, जो परिमाण आवै, तितना उस ही श्रोत्रइद्रिय की अवगाहना विष मिलाए, घ्राण इन्द्रिय की अवगाहना होइ । सो इहा इस अधिक प्रमाण करि एक अधिक पल्य का असख्यातवा भाग का भागहार अर पल्य का असख्यातवा भाग गणकार का अपवर्तन करना । बहुरि याको पल्य का असख्यातवा भाग करि गणीए, तब जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना होइ । इस गुण कार करि पल्य का असंख्यातवा भागहार का अपवर्तन करना। ऐसे यहु जिह्वा इन्द्रिय की अवगाहना घनांगुल के सख्यातवे भाग मात्र जानना ।
आगे स्पर्शन इन्द्रिय के प्रदेशनि की अवगाहना का प्रमाण कहै है - सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयसि । अंगुल असंखभाग, जहण्णमुक्कस्सयं लच्छे ॥१७३॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य तृतीयसमये ।
अगुलासंख्यभागं, जघन्यत्कृष्टक मत्स्ये ॥१७३॥ टीका - स्पर्शन इन्द्रिय की जघन्य अवगाहना सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपप्तिक के उपजनै ते तीसरा समय विर्ष जो जघन्य शरीर का अवगाहना घनागुल के
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३१८ )
[ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाथा १७४-१७५५ असख्यात भाग मात्र हो है, सोइ है । वहुरि उत्कृष्ट अवगाहना स्वयंभू रमण समुद्र विर्ष महामच्छ का उत्कृष्ट शरीर सख्यात घनागुल मात्र हो है, सो है -
आगै इन्द्रियज्ञानवाले जीवनि को कहि । अब अतींद्रिय ज्ञानवाले जीवनि का निरूपण कर है -
ण वि इंदियकरणजुदा, अवग्गहादीहिं गाहया अत्थे । रणेव य इंदियसोक्खा, अणिहियारणंतरणारणसुहा ॥१७४॥
नापि इंद्रियकरणयुता, अवग्रहादिभिः ग्राहकाः अर्थे ।
नैव च इंद्रियसौख्या, अनिद्रियानंतज्ञानसुखाः ॥१७४॥ टीका - जे जीव नियम करि इन्द्रियनि के करण भोहै टिमकारना आदि व्यापार, तिनिकरि संयुक्त नाही है, ताते ही अवग्रहादिक क्षयोपशम ज्ञान करि पदार्थ का ग्रहण न करै है । बहुरि इन्द्रियजनित विषय संबंध करि निपज्या सुख, तिहिकरि संयुक्त नाही है, ते अर्हत वा सिद्ध अतीद्रिय अनंत ज्ञान वा अतीद्रिय अनंत सुखकरि विराजमान जानने; जाते तिनिका ज्ञान पर सुख सो शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि ते उत्पन्न भया है।
आगे एकेद्रियादि जीवनि की सामान्यपन संख्या कहै है - थावरसंखपिपीलिय, भमरमणुस्सादिगा सभेदा जे । जुगवारमसंखज्जा, रणंतारणंता णिगोदभवा ॥१७॥
स्थावरशंखपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादिकाः सभेदा ये ।
युगवारमसख्येया, अनंतानंता निगोदभवाः ।।१७५॥ टोका - स्थावर जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पती ए - पंच प्रकार तो एकेद्री। बहुरि संख, कौडी, लट इत्यादि बेद्री। बहुरि कीडी, मकोडा इत्यादि तेद्रो। बहुरि भ्रमर, माखी, पतंग इत्यादि चौ इन्द्री । वहुरि मनुष्य, देव, नारकी अर जलचरादि तिर्यंच, ते पंचद्रो । ए जुदे-जुदे एक-एक असंख्यातासख्यात प्रमाण हैं। वहुरि निगोदिया जो साधारण वनस्पती रूप एकेद्री ते अनंतानत है ।
१. पट्पटागम - घवना पुन्तक १, पृष्ठ २५१, गाथा १४० ।
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३१६
विशेष सख्या है है । तहां प्रथम ही एकेद्रिय जीवनि की संख्या है
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
तसहीरो संसारी, एयक्खा ताण संखगा भागा । पुण्णारणं परिमारणं, संखेज्जदिमं पुण्णारणं ॥ १७६॥ त्रसहीनाः संसारिणः, एकाक्षाः तेषां संख्यका भागाः । पूर्णानां परिमाणं, संख्येयकमपूर्णानाम् ।। १७६ ।।
टीका - सर्व जीव- राशि प्रमाण मै स्यौं सिद्धनि का प्रमाण घटाए, संसारीराशि होइ । सोइ संसारी जीवनि का परिमाण मै स्यौ त्रस जीवनि का परिमाण घटाएं, एकेद्रिय जीवनि का परिमाण हो है । बहुरि तीहि एकेद्रिय जीवनि का परिमाण को संख्यात का भाग दीजिये, तामै एक भाग प्रमाण तो अपर्याप्त एकेद्रियनि का परिमाण है । बहुरि अवशेष बहुभाग प्रमाण पर्याप्त एकेद्रियनि का परिमाण है । एकेद्रियनि के भेदनि की संख्या का विशेष कहै है
-
बादरसुहमा तेस पुण्णापुण्णे त्ति छविहारणं पि । तक्कायमग्गरणाये, भणिज्जमारगवकमो गेयो ॥ १७७॥
बादर सूक्ष्मास्तेषां पूर्णापूर्ण इति षड्विधानामपि । तत्कायमार्गणायां, भणिष्यमाणक्रमो ज्ञेयः ॥ १७७॥
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टीका सामान्य एकेद्रिय राशि के बादर र सूक्ष्म ए दोय भेद । बहुरि एक-एक भेद के पर्याप्त - अपर्याप्त ए दोय-दोय भेद - औसे च्यारि भए, तिनिका परिमाण प्रागे काय मार्गरणा विषे कहिएगा, सो अनुक्रम जानना सो कहिए है । सामान्य पर्ने एकेद्रिय का जो परिमाण, ताकी असख्यात लोक का भाग दीजिए, तामै एक भाग प्रमारण तौ बादर एकेद्रिय जानने । अर अवशेष बहुभाग प्रमाण सूक्ष्म एकेद्रिय जाने । बहुरि बादर एकेद्रियनिकै परिमाण को असंख्यात लोक का भाग दीजिए । तामै एक भाग प्रमाण तो पर्याप्त है । अर अवशेष बहुभाग प्रमाण अपर्याप्त है । बहुरि सूक्ष्म एकेद्रिय का परिमाण को सख्यात का भाग दीजिए, तामै एक भाग प्रमाण तो अपर्याप्त है । बहुरि अवशेष भाग प्रमाण पर्याप्त है । पर्याप्त थोरे है; अपर्याप्त घने है । बहुरि सूक्ष्म विषे पर्याप्त घने
बादर विषै तो अपर्याप्त थोरे
है,
है;
असा भेद जानना |
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गोम्मटमार जीवकाण्ड गाण १९८-१७४
आगे त्रस जीवनि की सख्या तीन गाथानि करि कहै हैबितिचम्पारणमसंखेगवहिदपरंगुलेग हिदपदरं । होणक पडिभागो, आवलियासंखभागो दु ॥१७॥ द्वित्रिचतुः पंचमानमसंख्येनावहितप्रतरांगुलेनहितप्रतरम् । होनक्रमं प्रतिभाग, श्रावलिकासंख्यभागस्तु ॥१७८॥
टोका - द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेद्रिय - इनि सर्व त्रसनि का मिलाया हुवा प्रमाण, प्रतरांगुल को असंख्यात का भाग दीजिए, जो प्रमाण आवै, तादा भांग जगत्प्रतर को दीएं यो करते जितना होइ, तितना जानना । इहां द्वीद्रिय राशि का प्रमाण सर्वते अधिक है। वहरि ताते त्रीद्रिय विशेप घाटि है । ताते चौइद्रिय विशेप घाटि है । तातै पंचेद्रिय विणेप घाटि है, सो घाटि कितने-कितने है - असा विशेष का प्रमाण जानने के निमित्त भागहार अर भागहार का भागहार पावली का असख्यातवां भाग मात्र जानना।
सो भागहार का अनुक्रम कैसे है ? सो कहिये है
बहुभागे समभागो, चउण्णमेदोलिभेक्कभागसि । उत्तकमो तत्थ वि बहुभागो बहुगस्स हेओ दु ॥१७॥
वहभागे समभागश्चतुरामेतेषामेकभागे ।
उत्तमस्तत्रापि बहुभागो बहुरुश्य देयत्तु ॥१७९॥ टोका - त्रस जीवनि का जो परिमाण कह्या, तीहिन भावली का असख्यातवां भाग का भाग दीजिये । तामै एक भाग तो जुदा राखिये अर जे अवणेप बहु भाग रहे, तिनिके च्यारि वट (वटवारा) कीजिये, सो एक-एक वट द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुनिद्रिय, पत्रंद्रियनि की वगेवरि दीजिये। वहुरि जो एक भाग जुदा राख्या था, नाको प्रावली का अमन्यातवां नाग की भाग दीजिये । ताने एक भाग ता जुदा राग्विार पर अवशेप बहुभाग द्वीद्रियनि को दीजिये । जातै सर्व विपं बहुत प्रमाण द्रीदिय काई । बहुरि जो एक भाग जुढा राख्या था, ताकी बहुरि पावली का असंख्यानवा भाग का भाग दीजिए । नाम एक भाग तो जुदा राखिये, वहुरि अवशेप भाग नद्रियनि को दीजिए । बहुरि जो एक भाग जुदा राख्या था, ताकी वहुरि पावली
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
| ३२१
का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिये । तामै बहु भाग तौ चौइद्रियनि को दीजिए । अर एक भाग पचेंद्रिय को दीजिए । अँसे दीएं हूवे परिमाण कहै ते नीचे स्थापिए । बहुरि पूर्वे जे बराबरि च्यारि बट किए थे, तिनिको ऊपरि स्थापिए । बहुरि अपनेअपने नीचे ऊपरि के परिमाण कौ मिलाएं, द्वीद्रियादि जीवनि का परिमाण हो है ।
तिबिपचपुण्ण पमारणं, पदरंगुल संखभागहिदपदरं । ही कम पुण्णूरा, बितिचपजीवा पज्जत्ता ॥ १८० ॥
त्रिद्विपंचचतुः पूर्णप्रमाणं, प्रतरांगुला संख्यभागहितप्रतरम् । होनक्रम पूर्णोना, द्वित्रिचतुः पंचजीवा अपर्याप्ताः ॥ १८० ॥
टीका - बहुरि पर्याप्त त्रसजीव प्रतरांगुल का संख्यातवां भाग का भाग जगत्प्रतर को दीएं, जो परिमाण आवै, तितने है, तिनि विषे घने तौ इंद्रिय है । तस्यो घाटि द्वीद्रिय है । तिहिस्यों घाटि पचेद्रिय है । तिहिसौ घाटि चौइद्रिय है, सो इहां भी पूर्वोक्त 'बहुभागे समभागो' इत्यादि सूत्रोक्त प्रकार करि सामान्य पर्याप्त त्रस - राशि को आवली का असंख्यातवां भाग का भाग देइ, एक भाग जुदा राखि अवशेष बहुभागनि के च्यारि समान भाग करि, एक-एक भाग तेद्री, बेद्री, पंचेद्री, चीन को देनां । बहुरि तिस एक भाग कौ भागहार आवली का असंख्यातवां भाग का भाग देइ, एक भाग जुदा राखि, बहुभाग तेइद्रियनि को देना । बहुरि तिस एक भाग की भागहार का भाग देइ, एक भाग जुदा राखि, बहुभाग द्वीद्रियनि को देनां । बहुरि तिस एक भाग कौ भागहार का भाग देव, एक भाग जुढा राखि, बहुभाग पचेद्रियनि दैना । अर एक भाग चौइद्रियनि को देना । जैसे अपना-अपना समभाग ऊपर स्थापि, देय भाग नीचे स्थापि, जोडे, तेद्री, आदि पर्याप्त जीवनि का प्रमाण. हो है । बहुरि पूर्वे जो सामान्यपने बेइद्रिय प्रादि जीवनि का प्रमाण कया था, तामै सौ इहा का जो अपना-अपना पर्याप्त का परिमारग सो घटाय दीए, अपनाअपना बेद्री, आदि पंचेद्री पर्यत अपर्याप्त जीवनि का परिमाण हो है । सो अपर्याप्तनि विषे घने तौ बेइद्रिय, तिहिस्यो घाटि तेइंद्रिय, तिहिसौ घाटि चौइंद्रिय, तिहिसौ घाटि पचेद्रिय है - जैसे इनिका परीमाण कह्या
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आठवां अधिकार : काय-मार्गणा प्ररूपणा
॥ मंगलाचरण ॥
चंद्रप्रभ जिन की भजौं चंद्रकोटि सम जोति ।
जाकै केवल लब्धि नव समवसरण जुत होति ।। अथ काय-मार्गणा को कहै है -
जाई अविणाभावी, तसथावरउदयजो हवे काओ। सो जिरणमदह्मि भरिणओ, पुढवीकायादिछन्भेश्रो ॥१८१॥
जात्यविनाभावित्रसस्थावरोदयजो भवेत्कायः । स जिनमते भरिणतः, पृथ्वीकायादिषड्भेदः ॥१८१॥
टीका - एकेद्रियादिक जाति नामा नामकर्म का उदय सहित जो त्र-स्थावर नामा नामकर्म का उदय करि निपज्या त्रस-स्थावर पर्याय जीव के होइ, सो काय कहिए । सो काय छह प्रकार जिनमत विष कह्या है । पृथ्वीकाय १, अपकाय २, तेजकाय ?, वायुकाय ४, वनस्पतीकाय ५, सकाय ६-ए छ भेद जानना ।
कायते कहिए ए वस है, ए स्थावरहै, अंसा कहिए, सो काय जानना । तहा जो भयादिक ते उद्वेगरूप होड भागना आदि क्रिया संयुक्त हो है, सो वस कहिए । वहुरि जो भयादिक पाए स्थिति क्रिया युक्त होड, सो स्थावर कहिए । अथवा चीयते कहिए पुद्गल स्कंधनि करि संचयरूप कीजिये, पुष्टता को प्राप्त कीजिए, सो काय औदारिकादि गरीर का नाम काय है । वहुरि काय विष तिष्ठता जो आत्मा की पर्याय, ताको भी उपचार करि काय कहिए । जाते जीव विपाकी जो त्रस-स्थावर प्रकृति, तिनिकै उदय ते जो जीव की पर्याय होड, सो काय है । ऐसा व्यवहार की सिद्धि है । वहुरि पुद्गलविपाकी शरीर नामा नाम कर्म की प्रकृति के उदय ते भया शरीर, ताका इहां काय गब्द करि ग्रहण नाही है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३२३
आगै स्थावर काय के पाच भेद कहे है
पुढवी आऊतेऊ, वाऊ कम्मोदयेरेण तत्थेव । रिणयवण्णचउक्कजुदो, तांणं देहो हवे नियमा ॥ १८२ ॥
पृथिव्यप्तेजोवायुकम्मोंदयेन
तत्रैव I निजवर्णचतुष्कयुतस्तेषां देहो भवेन्नियमात् ॥ १८२ ॥
टीका - पृथ्वी, आप, तेज, वायु विशेष धरै जो नाम कर्म की स्थावर प्रकृति के भेदरूप उत्तरोत्तर प्रकृति, ताके उदय करि जीवनि के तहां ही पृथिवी, आप, तेज, वायु रूप परिणये जे पुद्गलस्कध, तिनि विषै अपने-अपने पृथिवी प्रादि रूप वर्णादिक चतुष्क संयुक्त शरीर नियम करि हो है । से होते पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, वातकायिक जीव हो है ।
तहा पृथिवी विशेष लीए स्थावर पर्याय जिनके होइ, ते पृथिवीकायिक कहिये । अथवा पृथिवी है काय कहिये शरीर जिनका, ते पृथिवीकायिक कहिए । जैसे ही अपकायिक, तेजकायिक, वातकायिक जानने । तिर्यच गति, एकेद्री जाति श्रदारिक शरीर, स्थावर काय इत्यादिक नामकर्म की प्रकृतिनि के उदय अपेक्षा असी निरुक्ति सभव है ।
बहुरि जो जीव पूर्व पर्याय को छोडि, पृथ्वी विषै उपजने कौं सन्मुख भया होइ, सो विग्रह गति विषै अंतराल में यावत् रहै, तावत् वाक पृथ्वी जीव कहिये । जाते इहा केवल पृथिवी का जीव ही है, शरीर नाही ।
बहुरि जो पृथिवीरूप शरीर को धरै होइ, सो पृथिवीकायिक कहिए । जातै वहा पृथिवी का शरीर वा जीव दोऊ पाइए है ।
बहुरि जीव तो निकसि गया होइ, वाका शरीर ही होइ, ताकौ पृथिवीकाय कहिये । जातै वहां केवल पृथिवी का शरीर ही पाइए है । जैसे तीन भेद जानने । बहुरि अन्य ग्रंथिनि विषे च्यारि भेद कहे है । तहां ए तीनो भेद जिस विषै गर्भित होइ, सो सामान्य रूप पृथिवी जैसा एक भेद जानना । जाते पूर्वोक्त तीनों भेद पृथिवी के ही है । जैसे ही अप्जीव, अप्कायिक, अप्काय । बहुरि तेजः जीव, तेजः कायिक, तेज. काय । बहुरि वातजीव, वातकायिक, वातकायरूप तीन-तीन भेद जानने ।
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३२४ ]
[ गोम्पटमार जीवकाण्ड गाथा १८३-१८४ बादरसुहुपदयेण य, बादरसुहमा हवंति तदेहा । घादसरीरं थूलं, अघानदेह हवे सुहुमं ॥१८३॥
बादरसूक्ष्मोदयेन च, बादरसूक्ष्मा भवंति तदेहाः ।
घातशरीरं स्थूलं, अघातदेहं भवेत्सूक्ष्मम् ॥१८३॥ टीका - पूर्व कहे जे पृथिवीकायिकादिक जीव, ते वादर नामा नाम कर्म की प्रकृति के उदय ते वादर शरीर धरै, वादर हो है । वहुरि सूक्ष्म नामा नामकर्म की प्रकृति के उदय ते सूक्ष्म होइ । जाते वादर, सूक्ष्म प्रकृति जीवविपाकी हैं । तिनके उदय करि जीव को बादर-सूक्ष्म कहिए । बहुरि उनका शरीर भी वादर सूक्ष्म ही हो है । तहां इंद्रिय विपय का संयोग करि निपज्या सुख-दुख की ज्यों अन्य पदार्थ करि आपका घात होड, रुकै वा पाप करि और पदार्थ का घात होइ, रुकि जाय, असा घात शरीर ताको स्थूल वा वादर-शरीर कहिए । वहुरि जो किसी की घाते नाही वा आपका घात अन्य करि जाके न होइ, असा अघात-शरीर, सो सूक्ष्म-शरीर कहिए । वहुरि तिनि शरीरनि के धारक जे जीव, ते घात करि युक्त है शरीर जिनिका ते घातदेह तौ वादर जानने । वहुरि अघातरूप है देह जिनका, ते अघातदेह सूक्ष्म जानने । असे शरीरनि के रुकना वा न रुकना संभव है।
तद्देहभंगुलस्स, असंखभागत्स विदभाणं तु । आधारे थूला ओ, सवत्थ णिरंतरा सुहमा ॥१४॥ तहेहनालस्यासंख्यभागस्य वृदमानं तु ।
आधारे स्थूला श्रो, सर्वत्र निरंतराः सूक्ष्माः ।।१८४॥ टोका - तिनि वादर वा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेज कायिक, गतकायिक जीवनि के शरीर धनांगुल के असंख्यातवै भाग प्रमाण हैं । जातै पूर्व जीवममानाधिकार विप अवगाहन का कथन कीया है। तहां सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक की जघन्य शरीर अवगाहना ते लगाइ वादर पर्याप्त पृथिवीकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत वियालीस स्थान कहे, तिनि सवनि विपै घनांगुल कौं पल्य के अनंन्यातवा भाग का भागहार संभव है । अथवा तहां ही 'वीपुण्णजहणोत्तिय प्रमं वसंग्यं गुणं तत्तो' इस मूत्र करि वियालीसवां स्थान की असंख्यात का गुणकार
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाहीका ]
[ ३२५
कीए अगले स्थान विष सख्यात घनागुल प्रमाण अवगाहना हो है।।', तातै तिस बियालीसवा स्थान विष घनांगुल को असख्यात का भाराहार,प्रकट ही सिद्धि भया । तहां सूक्ष्म अपर्याप्त वातकाय की जघन्य अवगाहना वा पृथ्वीकाय बादर पर्याप्त की उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण, तहां ही जीवसमांसाधिकार विषै कह्या है, सो जानना । बहुरि 'आधारे थूलाओं आधारे कहिए अन्य पुद्गलनि का आश्रय, तीहि विषे वर्तमान शरीर संयुक्त जे जीव, ते सर्व स्थूलः “कहिए बादर · जानने । यद्यपि आधार करि तिनके शरीर का बादर स्वभाव रुकना न हो है; तथापि नीचे गिरना रूप जो गमन, ताका रुकना हो है, सो तहां प्रतिघात संभव है । तातै पूर्वोक्त घातरूप लक्षण ही बादर शरीरनि का दृढ भया ।।
वहुरि सर्वत्र लोक वि, जल विष वा स्थल विष वा आकाश विष निरंतर आधार की अपेक्षा रहित जिनके शरीर पाइए, ते. जीव सूक्ष्म है। जल-स्थल रूप आधार करि तिनिकै शरीर के गमन का नीचे ऊपरि इत्यादि कही भी रुकना न हो है । अत्यत सूक्ष्म परिणमन ते ते जीव सूक्ष्म कहिए है । अंतरयति कहिए अतराल कर है, असा जो अंतर कहिए आधार, तातै रहित ते निरंतर कहिए । इस विशेषण करि भी पूर्वोक्त ही लक्षण दृढ भया । 'यो असा. संबोधन पद जानना । याका अर्थ यहु- जो हे शिष्य । अस तू जानि । बहुरि यद्यपि बादर अपर्याप्त वायुकायिकादि जीवनि की अवगाहना स्तोक है । बहुरि यौते सूक्ष्म पर्याप्त वायुकायिकादिक पृथ्वीकायिक पर्यत जीवनि की जघन्य वा उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यात गुणी है । तथापि सूक्ष्म नामकर्म के उदय की समर्थता ते अन्य पर्वतादिक तें भी तिनिका रुकना न हो है; निकसि जाय है । जैसे जल का बिदु वस्रतै निकसि जाय; रुकै नाही, तैसे सूक्ष्म शरीर जानना।
बहुरि बादर नामकर्म के उदय के वश तें अन्यकरि रुकना हो है । जैसे सरिसौ वस्त्र ते निकस नाही, तैसै बादर शरीर जानना। ..
बहुरि यद्यपि ऋद्धि को प्राप्त भए मुनि, देवं इत्यादिक, तिनिका शरीर बादर है; तो भी ते वज़ पर्वतादिक ते रुकै नाही, निक़सि जांय है, सो यहु तपजनित अतिशय की महिमा है, जातै तप, विद्या, मणि, मंत्र, औषधि इनिकी शक्ति के अतिशय का महिमा अचिंत्य है, सो दीखै है । जैसा ही द्रव्यत्व का स्वभाव है । बहुरि स्वभाव विषै किछू तर्क नाही । यहु समस्त वादी मान है । सो इहां अतिशयवानों का ग्रहण
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[गोम्मटसार जीवकाम गाथा १८५-१८६ ३२६ ] नाही। तात अतिशय रहित वस्तु का विचार विर्ष पूर्वोक्त शास्त्र का उपदेश ही वादर सूक्ष्म जीवनि का सिद्ध भया।
उदये दु वणप्फदिकम्मस्स य जीवा वणप्फदी होति । । पत्तेयं सामण्णं, पदिठिदिदरे त्ति पत्तेयं ॥१८॥
उदये तु वनस्पतिकर्मणश्च जीवा वनस्पतयो भवति ।
प्रत्येकं सामान्यं, प्रतिष्ठितेतरे इति प्रत्येकं ॥१८५॥ टीका - वनस्पती रूप विशेष कौं धरै स्थावर नामा नामकर्म की उत्तरोत्तर प्रकृति के उदय होते, जीव वनस्पतीकायिक हो है। ते दोय प्रकार - एक प्रत्येक शरीर, एक सामान्य कहिए साधारण शरीर । तहां एक प्रति नियम रूप होइ, एक जीव प्रति एक शरीर होइ, सो प्रत्येक-शरीर है। प्रत्येक है शरीर जिनिका, ते प्रत्येक-शरीर जीव जानने । वहुरि समान का भाव, सो सामान्य, सामान्य है शरीर जिनिका ते सामान्य-शरीर जीव है ।
भावार्थ- बहुत जीवनि का एक ही शरीर साधारण समानरूप होइ, सो साधारण-शरीर कहिए । असा शरीर जिनिकै होइ ते साधारणशरीर जानने । तहा प्रत्येक-शरीर के दोय भेद - एक प्रतिष्ठित, एक अप्रतिष्ठित । इहां गाथा विष इति शब्द प्रकारवाची जानना। तहां प्रत्येक वनस्पती के शरीर बादर निगोद जीवनि करि आश्रित संयुक्त होइ, ते प्रतिष्ठित जानने । जे वादर निगोद के आश्रित होंइ, ते अप्रतिष्ठित जानने ।
मूलग्गपोरबीजा, कंदा तह खंदबीजबीजरुहा । समुच्छिमा य भणिया, पत्तेयाणंतकाया य ॥१८६॥
मूलाग्रपर्वबीजाः, कंदास्तथा स्कंधवीजवीजरुहाः ।
सम्मूछिमाश्च भरिणता, प्रत्येकानंतकायाश्च ।।१८६।। टोका - जिनिका मूल जो जड़, सोइ वीज होड, ते आदा, हलद आदि मूलवीज जानने । वहुरि जिनिका अग्र, जो अग्रभाग सो ही वीज होंइ ते आर्यक आदि अग्रवीज जानने । वहरि जिनिका पर्व जो पेली, सो ही वीज होंड, ते सांठा आदि पर्वबीज जानने । बहुरि कंद है, वीज जिनिका, ते पिंडालु, सूरणा आदि कंदवीज
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[ ३२७
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषा टीका ]
जानने । बहुरि स्क, जो पेड, सो ही है बीज जिनिका ते सालरि, पलास आदि स्कंध - बीज जानने। बहुरि जे बीज ही ते लगे ते गेहू, शालि आदि बीजरुह जानने । बहुरि जे मूल आदि निश्चित बीज की अपेक्षा ते रहित, आप आप उपजै ते सम्मूर्छिम कहिए, समततै भए पुद्गल स्कंध, तिनि विषै उपजे, असें दोब आदि सम्मूर्छिम जानने ।
असे एकहे ते सर्व ही प्रत्येक वनस्पती है । ते अनंत जे निगोद जीव, तिनके' काय ः ' कहिए शरीर जिनिविषै पाइए जैसे 'अनंतकायाः' कहिए प्रतिष्ठित प्रत्येक है । बहुरि चकार ते अप्रतिष्ठित - प्रत्येक है । जैसे प्रतिष्ठित कहिए साधारण शरीरनि करि आश्रित है, प्रत्येक शरीर जिनका ते प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर है । बहुरि तिनकरि आश्रित नाहीं है, प्रत्येक शरीर जिनिका, ते अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर है । से ए मूलबीज आदि संमूर्छिम पर्यंत सर्व दोय - दोय अवस्था लीएं जानने । बहुरि कोऊ जानेगा कि इनिविषै संमूछिम के तौ संमूछिम जन्म होगा, अन्यकै गर्भादिक होगा, सोनाही है । ते सर्व ही प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीरी जीव संमूछिम ही है । बहुरि प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर की सर्वोत्कृष्ट भी अवगाहना घनांगुल के असंख्यात भाग मात्र ही है । तातै पूर्वोक्त प्रदा आदि देकर एक-एक स्कंध विषै असंख्यात प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर पाइए है । कैसे ? घनांगुल कों दोय बार पल्य का श्रसंख्यातवां भाग, अर नव बार सख्यात का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, तितने क्षेत्र विषे जो एक प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर होइ, तो संख्यात घनांगुल प्रमाण आदा, मूला आदि स्कध विषै केते पाइए ? असे त्रैराशिक कीएं, लब्ध राशि दो बार पल्य का असंख्यातवा भाग, दश बार संख्यात मांडि, परस्पर गुणै, जितना प्रमाण होइ, तितने एक-एक आदा आदि स्कंध विषे प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर पाइए है । बहुरि एक स्कंध विषै अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती जीवनि के शरीर यथासंभव असंख्यात भी होंइ, वा सख्यात भी होंइ । बहुरि जेते प्रत्येक शरीर है, तितने ही तहां वनस्पती जीव जाने जाते हा एक -एक शरीर प्रति एक-एक ही जीव होने का नियम है ।
बीजे जोरणीभूदे, जीवो चंकमदि सो व अण्णो वा । जेविय मूलादीया, ते पत्तेया पढमदाए ॥ १८७॥
बीजे योनीभूते, जीवः चंक्रामति स वा अन्यो वा । येsपि च मूलादिकास्ते प्रत्येकाः प्रथमतायाम् ॥ १८७॥
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३२८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १८ - टोका - बीजे केहिए पूर्वे जे कहे, मूल को आदि देकरि, वीज पर्यत वीजजीव उपजने का आधारभूत पुद्गल स्कंध, सो योनीभूते कहिए; जिस विप जीव उपजे असी शक्ति 'संयुक्त होते सतै जल वा कालादिक का निमित्त पाइ, सोई जीव वा और जीव आनि उपज है।
भावार्थ - पूर्व जो बीज विष जीव तिष्ठ थो, सो जीव तौ निकसी गया अर उस वीजं विषं असी शक्ति रही जो इस विप जीव आनि उपज, तहां जलादिक का निमित्त होते पूर्व जो जीव उस बीज को अपना प्रत्येक शरीर करि पीछे अपना आयु के नाश ते मरण पाइ निकसिं गया था, सोंई जीवं बहुरि तिस ही अपने योग्य जो मूलादि वीज, तीहि विष आनि उपजै है । अथवा जो वह जीव और ठिकानै उपज्या होई, तो इस बीज विर्षे अन्य' कोई शरीरांतर विष तिष्ठता जीव अपना आयु के नाश ते मरण पाइ, आनि उँपज है। किंछ विरोध नाही। - जैसे गेहू विर्षे जीव था, सो निकसि गया । बहुरि याको बोया, तब उस ही विप सोई जीव वा अन्य जीव आनि उपज्या; सो यावत् काल जीव उपजने की शक्ति -होइ तावत् काल योनीभूत कहिए । बहुरि जब ऊगने की शक्ति न होइ तव अयोनी
भूत कहिए, जैसा भेद जानना.। वहुरि जे मूलने आदि देकरि वनस्पति काय प्रत्येक -रूप प्रतिष्ठित प्रसिद्ध हैं। तेऊ प्रथम . अवस्था विपै जन्म के प्रथम समय तै लगाइ अनर्मुहूर्त काल पर्यंत अप्रतिष्ठित प्रत्येक ही रहै है । पीछे निगोदजीव जव पाश्रय कर है, तब सप्रतिष्ठित प्रत्येक होय है । ..
____ आगे श्री माधवचंद्रनामा प्राचार्य विद्यदेव सो सप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित जीवनि का विशेष लक्षण तीन गाथानि करि कहै है
गूढसिरसंधिपत्वं, समभंगमहीरुहं (यं) च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं, तविवरीयं च पत्तेयं ॥१८॥
गूढशिरासंधिपर्व, समभंगमहोरुक च छिन्नरुहम् ।।
साधारणं शरीरं, तद्विपरीतं च प्रत्येकम् ॥१८८।। टोका - जिस प्रत्येक वनस्पती शरीर का सिरा, सवि, पर्व, गूढ होइ; वाह्य दीन नाही, तहा सिरा तौ लवी लकीरसी जैसे कांकडी विर्षे होइ । वहरि संधि बीचि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३२६ में छेहा जैसे दाड्यौ वा नारंगी विष हो है । बहुरि पर्व, गांठि जैसे साठा विष हो है, सो कच्ची अवस्था विर्षे जाकै ए बाह्य दीखे नाही, ऐसा वनस्पती बहुरि समभंग कहिए जाका टूक ग्रहण कीजिये, तो कोऊ तातू लगा न रहै, समान बराबरि टूटे असा । बहुरि अहीरुहं कहिए जाके विषै सूत सारिखा तातू न होइ असा । बहुरि छिन्नरुहं कहिए जो काट्या हुवा ऊगै असा वनस्पती सो साधारण है । इहा प्रतिष्ठित प्रत्येक साधारण जीवनि करि आश्रित की उपचार करि साधारण कह्या है । बहुरि तद्विपरीतं कहिये पूर्वोक्त गूढ, सिरा आदि लक्षण रहित नालियर, प्रामादि शरीर अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जानना । गाथा विष कह्या है जो चकार सो इस भेद कौं सूचै है।
मूले कंदे छल्ली, पवाल सालदलकुसुम फलबीजे । समभंगे सदि शंता, असमे सदि होंति पत्तेया ॥१८॥
मूले कदे त्वक्प्रवालशालादलकुसुमफलबीजे ।
समभंगे सति नांता, असमे सति भवंति प्रत्येकाः ॥१८९॥ टीका - मूल कहिये जड़, कद कहिये पेड़, छल्ली कहिए छालि, प्रवाल कहिए कोपल, अकुरा; शाला कहिए छोटी डाहली, शाखा कहिए बडी डाहली, दल कहिए पान, कुसुम कहिए फूल, फल कहिए फल, बीज कहिये जातै फेरि उपजै, सो बीज; सो ए समभग होइ, तो अनत कहिए; अनतकायरूप प्रतिष्ठित प्रत्येक है । बहुरि जो मूल आदि वनस्पती समभग न होइ, सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक है । जीहि वनस्पति का मूल, कंद, छाल इत्यादिक समभग होइ, सो प्रतिष्ठित प्रत्येक है । अर जाका समभग न होइ सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक है। तोड्या थका तांतू कोई लग्या न रहै, बराबरि टूटै, सो समभंग कहिए'।
कंदस्स व मूलस्स व, सालाखंदस्स वावि बहुलतरी। छल्ली साणंतजिया, पत्तेयजिया तु तणुकदरी ॥१६॥ कंदस्य वा मूलस्य वा, शालात्कंधस्य वापि बहुलतरी।
त्वक् सा अनंतजीवा, प्रत्येकजीवास्तु तनुकतरी ॥१९०॥
टीका - जिस वनस्पती का कद की वा मूल की वा क्षुद्र शाखा की वा स्कंध को छालि मोटो हाइ, सो अनतकाय है। निगोद जीव सहित प्रतिष्ठित प्रत्येक
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। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १६१-१९२ ३३० ] है । बहुरि जिस वनस्पती का कंदादिक की छालि पतली होइ, सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक है।
आगे श्री नेमिचंद्र सिद्धातचक्रवर्ती साधारण वनस्पती का स्वरूप सात गाथानि करि कहै है
साहारणोदयेण णिगोदसरीरा हवंति सामण्णा । ते पुण दुविहा जीवा, बादर सुहमा त्ति विण्णेया ॥१६१॥
साधारणोदयेन निगोदशरीरा भवंति सामान्याः ।
ते पुर्नाद्वविधा जीवा, बादर-सूक्ष्मा इति विज्ञेयाः ।।१९१।। टीका - साधारण नामा नामकर्म की प्रकृति के उदय ते निगोद शरीर के धारक साधारण जीव हो है । नि - कहिये नियतज अनंते जीव, तिनिको गो कहिये एक ही क्षेत्र को, द कहिये देइ, सो निगोद शरीर जानना। सो जिनके पाइए ते निगोदशरीरी है। बहुरि तेई सामान्य कहिये साधारण जीव है। वहुरि ते वादर अर सूक्ष्म असे भेद ते दोय प्रकार पूर्वोक्त वादर सूक्ष्मपना लक्षण के धारक जानने ।
साहारणमाहारो, साहारणमारणपारगगहरणं च । साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं भणियं ॥१६२॥
साधारणमाहारः, साधारणमानपानग्रहरणं च ।
साधारणजीवानां, साधारणलक्षणं भरिणतम् ॥१९२।। टीका - साधारण नामा नामकर्म के उदय के वशवर्ती, जे साधारण जीव, तिनिके उपजते पहला समय विष पाहार पर्याप्ति हो है, सो साधारण कहिए अनंत जीवनि के युगपत एक काल हो है । सो आहार पर्याप्ति का कार्य यहु जो आहार वर्गणारूप जे पुद्गल स्कध, तिनिको खल-रस भागरूप परिणमावै है । बहुरि तिनही पाहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंवनि कौं शरीर के आकार परिणमावनेरूप है कार्य जाका, असा शरीर पर्याप्ति, सो भी तिनि जीवनि के साधारण हो है। बहुरि तिनही की स्वर्गन इद्रिय के आकार परिणमावना है कार्य पाका, असा इन्द्रिय पर्याप्ति, सो भी साधारण हो है । वहुरि सासोस्वास ग्रहणरूप है कार्य जाका, असा प्रानपान १ पट्पटागम - घवला पुग्नक १, पृष्ठ २७२, गाथा १४५
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ३३१
पर्याप्ति, सो भी साधारण हो है । बहुरि एक निगोद शरीर है, तीहि विषै पूर्वे अनंत जीव थे । बहुरि दूसरा, तीसरा आदि समय विषै नये अनत जीव उस ही विषै अन्य आनि उपजै, तौ तहां जैसे वे नये उपजे जे जीव आहार आदि पर्याप्ति को धरै है, तैसे ही पूर्वे पूर्व समय विषे उपजे थे जे अनंतानत जीव, ते भी उन ही की साथि आहारादिक पर्याप्तिनि को धरै है सदृश युगपत् सर्व जीवनि के आहारादिक हो है । ता इनको साधारण कहिये है । सो यह साधारण का लक्षण पूर्वाचार्यनि करि का हूवा जानना ।
१ जत्थेक्क मरइ जीवो, तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं । वक्कमइ जत्थ एक्को, वक्कमणं तत्थ णंताणं ॥ १६३ ॥
यत्रको म्रियते जीवस्तत्र तु मरणं भवेदनंतानाम् । प्रक्रामति यत्र एकः, प्रक्रमणं तत्रानतानाम् ॥१९३॥
टीका - एक निगोद शरीर विषै जिस काल एक जीव अपना प्रायु के नाश मरे, तिसही काल विषे जिनकी आयु समान होइ, असे अनतानंत जीव युगपत् मरे है । बहुरि जिस काल विषै एक जीव तहा उपजै है, उस ही काल विषै उस ही जीव की साथि समान स्थिति के धारक अनतानत जीव उपजै है, जैसे उपजना मरना का समकालपना को भी साधारण जीवनि का लक्षण कहिए है । बहुरि द्वितीयादि समयनि विषे उपजे अनंतानत जीवनि का भी अपना आयु का नाश होते साथि ही मरना जाना । जैसे एक निगोद शरीर विषै समय-समय प्रति अनंतानंत जीव साथि ही मर है, साथ ही उपजै है । निगोद शरीर ज्यो का त्यो रहै है, सो निगोद शरीर की उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात कोडाकोडी सागरमात्र है । सो असख्यात लोकमात्र समय प्रमाण जानना । सो स्थिति यावत् पूर्ण न होइ तावत् अँसे ही जीवनि का उपजना, मरना हुवा करें है ।
इतना विशेष - जो कोई एक बादर निगोद शरीर विषै वा एक सूक्ष्म निगोद शरीर विषै अनतानंत जीव केवल पर्याप्त ही उपजै है । तहां अपर्याप्त नाही उपजै है । बहुरि कोई एक शरीर विषे केवल अपर्याप्त ही उपजै है, तहां पर्याप्त नाही उपजै है । एक शरीर विषै पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ नाही उपजै है । जातै तिन जीवनि के समान कर्म के उदय का नियम है ।
१ ' जत्थेवु वक्कमदि', इति षट्खडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ २७२, गाथा १४६ ।
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३३२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११४
बहुरि एक साधारण जीव के कर्म का ग्रहण शक्तिरूप लक्षण घरें, जो काय योग, ताकरि ग्रह्या हुवा, जो पुद्गल-पिड, ताका उपकार कार्य, सो तिस शरीर विषै तिष्ठते अनंतानंत अन्य जीवनि का अर तिस जीव का उपकारी हो है । वहुरि अनतानत साधारण जीवनि का जो काय योग रूप शक्ति, ताकरि ग्रहे हूये पुद्गलपिडनि का कार्यरूप उपकार, सो कोई एक जीव का वा तिन अनतानत साधारण जीवनि का उपकारी समान एकै साथिपर्ने हो है । बहुरि एक बादर निगोद शरीर विषै वा सूक्ष्म निगोद शरीर विषै क्रम तै पर्याप्त वादर निगोद जीव वा सूक्ष्म निगोद जीव उपजं है । तहा पहले समय अनंतानत उपजै है । वहुरि दूसरे समय तिनते असंख्यात गुणा घाटि उपजे है । जैसे ही आवली का असख्यातवा भाग प्रमाण काल पर्यंत समय-समय प्रति निरंतर असंख्यात गुणा वाटि क्रमकरि जीव उपजै है । ताते परे जघन्य एक समय, उत्कृष्ट यावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण काल का अंतराल हो है । तहा कोऊ जीव न उपजै है । तहां पीछे बहुरि जघन्य एक समय, उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवा भाग प्रमाण काल पर्यंत निरंतर प्रसख्यात गुणा घाटि क्रम करि तिस निगोद शरीर विषै जीव उपजै है । से अन्तर सहित वा निरंतर निगोद शरीर विपे जीव उपजै है । सो यावत् प्रथम समय विषे उपज्या साधारण जीव का जघन्य निर्वृति अपर्याप्त श्रवस्था का काल अवणेप रहें, तावत् अँसे ही उपजना होइ । बहुरि पीछे तिनि प्रथमादि समयनि विषै उपजे सर्व साधारण जीव, तिनिकै ग्राहार, शरीर, इंद्रिय, सामीस्वास, पर्याप्तिनि की पूर्णता अपने-अपने योग्य काल विर्पे होइ है ।
खंधा असंखदोगा, अंडरआवासपुलविदेहा वि । हेट्ठिल्लजोरिगानो, असंखलोगे गुणिदकमा । १६४ ॥
स्कंधा संख्यलोकाः, अंडरावासपुलविदेहा अपि । वन्तनयोनिका, असंख्यलोकेन गुणितक्रमाः ।। १९४ ।।
टीका बादर निगोद जीवनि के शरीर की सख्या जानने निमित्त उदाहरण
-
यह कथन करिए है । इस लोकाकाण विषै स्कंध यथा योग्य असंख्यात लोक प्रति प्रत्येक जीवनि के शरीर, तिनिको स्कंध कहिये है । सो यहु प्रसस्त करि लाब के प्रदेश गुणं, जो प्रमाण होइ, तितने प्रतिष्ठित प्रापित सफर इस योग दिये जानने । बहुरि एक-एक स्कध विपै प्रसंख्यात लोक
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३३३ इहां प्रश्न - जो एक स्कंध विर्ष असख्यात लोक प्रमाण अडर कैसे सभवै ?
ताका समाधान – यहु अवगाहन की समर्थता है । जैसे जगत श्रेणी का घन प्रमाण लोक के प्रदेशनि विषै अनंतानत पुद्गल परमाणू पाइए । जैसै जहां एक निगोद जीव का कारण स्कंध है, तहा ही अनंतानंत जीवनि के कार्माण शरीर पाइये है । तैसे ही एक-एक स्कंध विष असंख्यात लोक प्रमाण अडर है । जे प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर के अवयवरूप विशेष है । जैसे मनुष्य शरीर विष हस्तादिक हो है, तैसै स्कंध विषै अन्डर जानने । बहुरि एक-एक अन्डर विषै असख्यात लोक प्रमाण आवास पाइए है । ते आवास भी प्रतिष्ठित प्रत्येक के शरीर के अवयव रूप विशेष ही जानने । जैसे हस्त विर्षे अगुरी आदि हो है । बहुरि एक-एक आवास विष असख्यात लोक प्रमाण पुलवी है। ते पुणि प्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर के अवयव रूप विशेष ही जानने । जैसे एक अंगली विर्षे रेखा आदि हो है । बहरि एक-एक पूलवी विर्षे असंख्यात लोक प्रमाण बादर निगोद के शरीर जानने। जैसे ए अंडरादिक अधस्तन योनि कहे । इनि विर्ष अधस्तन जो पीछे कह्या भेद, ताकी सख्या की उत्पत्ति को कारण ऊपरि का भेद जानना । जैसें तहा एक स्कंध विषे असख्यात लोक प्रमाण अन्डर है, तो असंख्यात लोक प्रमाण स्कंधन विष केते अडर है ? असे त्रैराशिक करि लब्धराशि असख्यात लोक गुणे असख्यात लोक प्रमाण अडर जानने । बहुरि असे ही आवासादि विष त्रैराशिक कीए तिनते असख्यात लोक गुणे प्रावास जानने । बहुरि तिनते असख्यात लोक गुणे पुलवी जानने । बहुरि तिनतै असख्यात लोक गुणे बादर निगोद शरीर जानने । ते सर्व निगोद शरीर पाच जायगा असंख्यात लोक माडि, परस्पर गुणे, जेता प्रमाण होइ तितने जानने ।
जंबूदीवं भरहो, कोसलसागेदतग्घराइं वा । खधंडरावासा, पुलविसरीराणि दिळंता ॥१६॥ जंबूद्वीपो भरतः कोशल साकेततद्गृहाणि वा। स्कंधांडरावासाः, पुलविशरीराणि दृष्टांताः ॥१९॥
टीका - स्कधनि का दृष्टांत जंबूद्वीपादिक जानने । जैसे मध्य लोक विर्षे जंबूद्वीपादिक द्वीप है, तैसे लोक विषै स्कध है। बहुरि अंडरनि का दृष्टांत भरतादि क्षेत्र जानने । जैसे एक जबूद्वीप विष भरतक्षेत्र आदि क्षेत्र पाइए; तैसै स्कंध विर्षे
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३३४ )
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा १९६ अंडर जानने । बहुरि आवासनि का दृष्टांत कोशल आदि देश जानने । जैसे भरतक्षेत्र विप कोशल देश आदि अनेक देश पाइए, तैसे अंडर विपै आवास जानने । वहुरि पुलवीनि का दृष्टांत अयोध्यादि नगर जानने। जैसे एक कोणलदेश विपै अयोध्या नगर आदि अनेक नगर पाइए, तैसे आवास विप पुलवी जानने । वहुरि शरीरनि का दृष्टांत अयोध्या के गृहादिक जानने, जैसे अयोध्या विपं मदरादिक पाइए, तैसे पुलवी विष वादर निगोद शरीर जानने । वहुरि वा शब्द करि यह दृप्टात दीया । असे ही और कोऊ उचित दृष्टात जानने ।
एगणिगोदसरीरे, जीवा दववप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धेहि अणंतगुरणा, सव्वेण वितीदकालेण ॥१६॥
एकनिगोदशरीरे, जीवा द्रव्यप्रमाणतो दृष्टाः ।
सिद्धरनंतगुणाः सर्वेण व्यतीतकालेन ॥१९६॥ टीका - एक निगोद शरीर विपै वर्तमान निगोद जीव, ते द्रव्यप्रमाण, जो द्रव्य अपेक्षा सख्या, तातै अनंतानंत है; सर्व जीव राशि को अनत का भाग दीजिए, ताम एक भाग प्रमाण सिद्ध हैं । सो अनादिकाल ते जेते सिद्ध भए, तिनितै अनंता गणे है । वहुरि अवशेष वहुभाग प्रमाण मंसारी है । तिनके असख्यात भाग प्रमाण एक निगोद शरीर विप जीव विद्यमान है, ते अक्षयानत प्रमाण है । असे परमागम विर्ष कहिए है।
वहुरि तैसे ही अतीतकाल के समान ते अनंत गुण है । इस करि काल अपेक्षा एक शरीर विपे निगोदजीवनि की संख्या कही।
बहुरि असे ही क्षेत्र, भाव अपेक्षा तिनकी सख्या आगम अनुसारि जोडिए । तहा क्षेत्र प्रमाण ते सर्व आकाश के प्रदेशनि के अनंतवै भाग वा लोकाकाश के प्रदेशनि ते अनंत गुणे जानने ।
भाव प्रमाण ते केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदनि के अनतवै भाग अर नर्वावरि जान गोचर जे भाव, तिनितै अनत गुणे जानने । अस एक निगोद शरीर विप जीवनि का प्रमाण कह्या ।
१. पद्वन्टागन- अबला पुस्तक १, पृष्ठ २७३, गाया १४७ तथा पृष्ठ ३९६ गाथा २१० तथा धवला
पुग्नर ४, पृष्ठ ४७६ गाया ४३.
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३३५
इहां प्रश्न - जो छह महीना अर आठ समय के मांही छः सै आठ जीव कर्म नाश करि सिद्ध होइ, सो जैसे सिद्ध बधते जांहि संसारी घटते जांहि, तातै तुम सदा काल सिद्धनि ते अनंत गुणे एक निगोद शरीर विष जीव कैसे कहो हो ? सर्व जीव राशि ते अनंत गुणा अनागत काल का समय समूह है । सो यथायोग्य अनंतवां भाग प्रमाण काल गए, संसारी-राशि का नाश अर सिद्ध-राशि का बहुत्त्व होइ, तातै सर्वदा काल सिद्धनि ते निगोद शरीर विष निगोद जीवनि का प्रमाण अनत गुणा संभवै नांही ?
ताका समाधान - कहै है - रे तर्किक भव्य ससारी जीवनि का परिमाण अक्षयानत है । सो केवली केवल ज्ञान दृष्टि करि अर श्रुतकेवली श्रुतज्ञान दृष्टि करि जैसे ही देखा है । सो यह सूक्ष्मता तर्क गोचर नाही, जात प्रत्यक्ष प्रमाण अर आगम प्रमाण करि विरुद्ध होइ, सो तर्क अप्रमाण है जैसे किसी ने कहा अग्नि उष्ण नाही; जाते अग्नि है, सो पदार्थ है; जो जो पदार्थ है, सो सो उष्ण नाही ; जैसे जल उष्ण नाही है; जैसी तर्क करी, परि यह तर्क प्रत्यक्ष प्रमाण करि विरुद्ध है । अग्नि प्रत्यक्ष उष्ण है; तातै यहु तर्क प्रमाण नाही । बहुरि किसीने कह्या धर्म है परलोक विषै दु.खदायक है; जातै धर्म है, सो पुरुषाश्रित है । जो जो पुरुषाश्रित है, सो सो परलोक विषै दुःखदायक है, जैसे अधर्म है; जैसी तर्क करी, परि यह तर्क आगम प्रमाण करि खडित है । आगम विष धर्म परलोक विषै सुख दायक कह्या है; तातें प्रमाण नही । जैसे ही जे केवली प्रत्यक्ष अर आगमोक्त कथन तातै विरुद्ध तेरी तर्क प्रमाण नाही।
इहां बहुरि तर्क करो-जो तर्क करि विरोधी आगम कैसे प्रमाण होइ ?
ताका समाधान-जो प्रत्यक्ष प्रमाण पर अन्य तर्क प्रमाण करि संभवता जो आगम, ताकै अविरुद्वपणां करि प्रमाणपना हो है । तौ सो अन्य तर्क कहा? सो कहिए हैसर्व भव्य संसारी राशि अनंतकाल करि भी क्षय को प्राप्त न होइ, जातै यहु राशि अक्षयानत है । जो जो अक्षयानत है, सो सो अनंतकाल करि भी क्षयको प्राप्त न होइ । जैसे तीन काल के समयनि का परिमाण कह्या कि इतनां है, परि कवहू अत नाही वा सर्वद्रव्य नि का अगुरुलधु के अविभाग प्रतिच्छेद के समूह का परिमाण कह्या, परि अंत नही । तैसै संसारी जीवनी का भी अक्षयानत प्रमाण जानना । असा यह अनुमान ते आया जो तर्क, सो प्रमाण है ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया १९७ ३३६ ]
वहरि प्रश्न-जो अनतकाल करि भी क्षय न होना साध्य, सो अक्षयानत के हेतु तै दृढ कीया । तातै इहा हेतु के साध्यसमत्व भया ?
ताका समाधान-भव्यराशि का अक्षयानंतपना प्राप्त के आगम करि सिद्ध है। ताते साध्यसमत्व का अभाव है। बहुत कहने करि कहा ? सर्व तत्त्वनि का वक्ता पुरुष जो है आप्त, ताकी सिद्धि होते तिस प्राप्त के वचनरूप जो पागम, ताकी सूक्ष्म, अतरित, दूरि पदार्थनि विष प्रमाणता की सिद्धि हो है । तात तिस आगमोक्त पदार्थनि विष मेरा चित्त निस्सदेह रूप है । बहुत वादी होने करि कहा साध्य है ?
बहुरि प्राप्त की सिद्धि कैसे ?
सो कहिए है 'विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखः' असा वेद का वचन करि, बहुरि 'प्रणम्य शंभं' इत्यादि नैयायिक वचन करि, बहुरि 'बुद्धो भवेयं' इत्यादि बौद्ध वचन करि, बहुरि मोक्षमार्गस्य नेतारं, इत्यादि जैन वचन करि, बहुरि अन्य अपनाअपना मत का देवता का स्तवनरूप वचननि करि सामान्यपने सर्व मतनि विष प्राप्त मान है । वहुरि विशेषपनै सर्वज्ञ, वीतरागदेव स्याद्वादी ही प्राप्त है । ताका युक्ति करि साधन कीया है । सो विस्तार ते स्याद्वादरूप जैन न्यायशास्त्र विष प्राप्त की सिद्धि जाननी । अस हो निश्चयरूप जहाँ खंडने वाला प्रमाण न संभव है, तातै प्राप्त अर प्राप्त करि प्ररूपित आगम की सिद्धि हो है । तातै प्राप्त आगम करि प्ररूपित ज्यो नोक्षतत्त्व अर वधतत्त्व सो अवश्य प्रमाण करना जैसे आगम प्रमाण ते एक शरीर विप निगोद जीवनि के सिद्ध-राशि तै अनंत गुणापनो सभव है । बहुरि अक्षयानतपना भी नर्व मतवाले नान है । कोऊ ईश्वर विष मान है। कौऊ स्वभा व विषै मान है । तात कह्या हवा कथन प्रमाण है ।।
अस्थि अगंता जीवा, जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो। सावकलंकसुपउरा, णिगोदवासं ण मंचंति ॥१६७ ॥
सनि अनंता जीवा, यैर्न प्राप्तस्त्रसानां परिणामः । भावकलंकसुप्रचुरा, निगोदवासं न मंचंति ॥ १९७ ॥
३ पटानागम बरला पुस्ता १, पृष्ठ २७३, गाथा १४८ पटखण्डागम-धवला पुस्तक ४ पृष्ठ ४७७ me from नब नावाल-कैपउग ति पाठ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ३३७
टीका इस गाथा विषे नित्य निगोद का लक्षण कह्या है | अनादि ससार विषें निगोद पर्याय ही को भोगवते अनंते जीव नित्यनिगोद नाम धारक सदाकाल हैं । ते कैसे हैं ? जिनि करि त्रस जे बेइंद्रियादिक, तिनिका परिणाम जो पर्याय, सो कबहूं न पाया । बहुरि भाव जो निगोद पर्याय, तिहिनै कारणभूत जो कलंक कहिये कषायनि का उदय करि प्रगट भया अशुभ लेश्यारूप, तीहि करि प्रचुरा कहिये अत्यंत संबंधरूप है । जैसे ए नित्यनिगोद जीव कदाचित् निगोदवास कों न छोडै है । याही निगोद पर्याय के आदि अंत रहितपनां जानि, अनंतानंत जीवनि के नित्य निगोदपना का | नित्य विशेषरण करि अनित्य निगोदिया चतुर्गति निगोदरूप आदि अंत निगोद पर्याय संयुक्त केई जीव है, जैसा सूचै है । जातै खिच्चचदुग्गदिणिगोद इत्यादिक परमागम विषे निगोद जीव दोय प्रकार कहै है ।
-
भावार्थ - जे अनादि तै निगोद पर्याय ही कौ धरे हैं, ते नित्यनिगोद जीव है । बहुरि बीच अन्य पर्याय पाय, बहुरि निगोद पर्याय धरे, ते इतर निगोद जीव जानना | सो वे आदि अत लीये है । बहुरि जिनिके प्रचुर भाव कलंक है, ते निगोदवास कौं न छाडे, सो इहां प्रचुर शब्द है, सो एकोदेश का प्रभावरूप है, सकल अर्थ का वाचक है; ता याकरि यहु जान्या, जिनके भाव कलंक थोरा हो है, ते जीव कदाचित् नित्यनिगोद ते निकसि, चतुर्गति में आवै है । सो छह महीना अर आठ समय मै छ: से आठ जीव नित्यनिगोद में सौ निकसे है, सो ही छह महीना आठ समय में छ. सेठ जीव संसार सौ निकति करि मुक्ति पहॅ ुचे है ।। १६७ ।।
काय की प्ररूपणा दोय गाथा करि कहै है
बिहि तिहि चहिं पंचहिं, लहिया जे इंदिएहि लोयसि । ते तसकाया जीवा, या वोरोवदेसेण ॥१६८ ॥
द्वाभ्यां त्रिभिचतुभिः पंचभिः सहिता ये इंद्रियैलोंके । ते सकाया जीवा, ज्ञेया वीरोपदेोन ॥ १९८ ॥
टीका - दोय इद्री स्पर्शन - रसन, तिनि करि संयुक्त द्वीद्रिय, बहुरि तीन इंद्रिय स्पर्शन - रसन - प्राण, तिनि करि सयुक्त त्रीद्रिय, बहुरि च्यारि इंद्रिय स्पर्शन - रसन घ्राण-चक्षु, इनि करि सयुक्त चतुरिद्रिय बहुरि पाच इंद्रिय स्पर्शन-रसन - घ्राण- चक्षुश्रोत्र, इनि करि संयुक्त पचेद्रिय, ए कहे जे जीव, ते त्रसकाय जानने । से श्री वर्धमान
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३३८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १९६
तीर्थकर परमदेव के उपदेश तै परपराय क्रम करि चल्या या संप्रदाय करि शास्त्र का अर्थ धरि करि हमहूं कहे है; ते जानने ।
उववादमारणंतिय, परिणदतसमुज्झिऊण सेसतसा । तणालिवाहिर य णत्थि त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठ ॥ १६६ ॥
उपपादमारणांतिक परिरणतत्रसमुज्झित्वा शेषत्रसाः ।
त्रसालीवा च न संतीति जिनैनिदिष्टम् ॥ १९९ ॥
टीका - विवक्षित पर्याय का पहला समय विषै पर्याय की प्राप्ति, सो उपपाद कहिए । बहुरि मरण जो प्राण त्याग अर अंत जो पर्याय का अंत जाकै होइ, सो मरणांतकाल, वर्तमान पर्याय के श्रायु का अंत अतर्मुहूर्त मात्र जानना । तीहि मरणांतकाल विषै उपज्या, सो मारणांतिक समुद्धात कहिए । आगामी पर्याय के उपजने का स्थान पर्यत श्रात्मप्रदेशनि का फैलना, सो मारणांतिकसमुद्घात जानना । असा उपपादरूप परिणम्या श्रर मारणांतिक समुद्घातरूप परिणम्या पर चकार तै केवल समुद्धात रूप परिणम्या जो त्रस, तीहि बिना स्थाननि विषे अवशेष स्वस्थानस्वस्थान अर विहारवत्स्वस्थान अर अवशेष पांच समुद्धातरूप परिणमे सर्व ही त्रस - जीव, त्रसनाली वारै जो लोक क्षेत्र, तीहि विषे न पाइए है; जैसा जिन जे अर्हतादिक, तिनिकरि का है । ताते जैसे नाली होइ, तैसै त्रस रहने का स्थान, सोनाली जाननी । त्रस नाली इस लोक के मध्यभाग विषै चौदह राज ऊंची, एक राजू चौडीलंबी सार्थक नाम धारक जाननी । त्रस जीव त्रसनाली विषै ही है । वहुरि जो जीव मनाली के बाह्य वातवलय विषै तिष्ठता स्थावर था, उसने त्रस का आयु बाधा । बहुरि सो पूर्व वायुकायिक स्थावर पर्याय कौ छोडि, आगला विग्रहगति का प्रथम समय विषै त्रस नामा नामकर्म का उदय अपेक्षा करि त्रसनाली के वाह्य त्रस हवा, तातै उपपादवाले त्रस का अस्तित्व सनाली वाह्य कला । बहुरि कोई जीव त्रसनाली के माहिम है, बहुरि त्रसनाली वाहिर तनुवातवलय सवधी वायुकायिक स्थावर का बंध किया था। मो श्रायु का अतर्मुहूर्त ग्रवशेष रहे, तव श्रात्मप्रदेशनि का फैलाव जहां का वध किया था, तिम स्थानक त्रसनाली के बाह्य तनुवातवलय पर्यन्त गमन गरे । तातै मारणांतिक समुद्धातवाले त्रस का ग्रस्तित्व त्रसनाली बाह्य कह्या ।
बहरि केवली दंड - कपाटादि ग्राकार करि त्रसनाली वाह्य अपने प्रदेशनि का संजालग्ग समुद्घात करें है । तात केवलसमुद्घात वाले त्रस का अस्तित्व त्रसनाली
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका।
[ ३३६
बाह्य कह्या । इनि बिना और त्रस का अस्तित्व त्रसनाली बाह्य नाही है, असा अभिप्राय शास्त्र के कर्ता का जानना ।
प्रागै वनस्पतीवत् अन्य भी जीवनि के प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठितपना का भेद दिखावै है
पुढवीआदिचउण्हं, केवलियाहारदेवरिणरयंगा । अपदिठिदा णिगोदहि, पट्दिठिदंगा हवे सेसा ॥२०॥ पृथिव्यादिचतुर्णा, केवल्याहारदेवनिरयांगानि ।
अप्रतिष्ठितानि निगोदः, प्रतिष्ठितांगा भवंति शेषाः ॥२०॥ टोका - पृथ्वी प्रादि चारि प्रकार जीव पृथ्वी - अप - तेज - वायु इनि का शरीर, बहुरि केवली का शरीर, बहुरि आहारक शरीर, बहुरि देवनि का शरीर, बहुरि नारकीनि का शरीर ए सर्व निगोद शरीरनि करि अप्रतिष्ठित है;
आश्रित नाहीं । इनि विष निगोद शरीर न पाइए है। बहुरि अवशेष रहे जे जीव, तिनि के शरीर प्रतिष्ठित जानने । इनि विर्षे निगोद शरीर पाइए है । तातै अवशेष सर्व निगोद शरीरनि करि प्रतिष्ठित है, आश्रित है । तहा सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती, द्वींद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिद्रिय, पचेद्रिय, तिर्यच अर पूर्व कहे तिनि बिना अवशेष मनुष्य इनि सबनि के शरीर विष निगोद पाइए है।
आगै स्थावरकायिक, त्रसकायिक जीवनि के शरीर का आकार कहै हैमसुरंबुबिंदुसूई-कलावधयसण्णिहो हवे देहो। पुढवीआदिचउण्ह, तरुतसकाया अणेयविहा ॥२०१॥
मसूरांबुबिंदुसूचीकलापध्वजसन्निभो भवेद्देहः ।
पृथिव्यादिचतुर्णा, तरुत्रसकाया अनेकविधाः ॥२०१॥
टोका - पृथिवीकायिक जीवनि का शरीर मसूर अन्न समान गोल आकार धरै है । बहुरि अपकायिक जीवनि का शरीर जल की बूंद के समान गोल आकार धरै है । बहुरि अग्निकायिक जीवनि का शरीर सुईनि का समूह के समान लंबा अर ऊर्ध्व विष चौड़ा बहुमुखरूप आकार धरै है । बहुरि वातकायिक जीवनि का शरीर
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[ गोम्मटसार जीकाण्ड गाया २०२
३४० ]
I
ध्वजा समान लबा, चौकोर आकार धरे है । जैसे इनिके प्रकार कहे । तथापि इनिकी अवगाहना घनागुल के असंख्यातवें भागमात्र है; ताते जुदे-जुदे दीसं नाही । जो पृथ्वी आदि इंद्रियगोचर है, सो घने शरीरनि का समुदाय है, जैसा जानना । बहुरि तर, जे वनस्पतीकायिक अर द्वीद्रियादिक त्रसकायिक, इनि के शरीर अनेक प्रकार आकार बरे है, नियम नाहीं । ते घनांगुल का असंख्यातवां भाग ते लगाइ, संख्यात घनांगुल पर्यंत अवगाहना घर है; जैसे जानना ।
आगे काय मार्गणा के कथन के अनंतर काय सहित संसारी जीवनि का दृष्टांतपूर्वक व्यवहार कहै है
जह भारवहो पुरिसो, वहइ भरं गेहिऊण काबलियं । एमेव बहइ जीवो, कम्मभरं कायकावलियं ॥ २०२ ॥
यथा भारवहः पुरुषो वहति भारं गृहीत्वा कावटिकम् | एवमेव वहति जीवः, कर्मभारं कायकावटिकम् ॥ २०२ ॥
टीका लोक विषै जैसें बोझ का वहनहारा कोऊ पुरुप, कावडिया सो कावड में भर्या जो वोझ-भार, ताहि लेकरि विवक्षित स्थानक पहुंचा है । तैसे ही यहु ससारी जीव, औदारिक आदि नोकर्मशरीर विपै भर्या हूवा ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म का भार, ताहि लेकरि नानाप्रकार योनिस्थानकनि की प्राप्त करें है । वहुरि जैसे सोई पुरुष कावडि का भार कों गेरि, कोई एक इष्ट स्थानक विपै विश्राम करि तिस नार करि निपज्या दु.ख के वियोग करि सुखी होइ ति है । तैसे कोई भव्य, जीव, कालादि लव्धिनि करि अंगीकार कोनी जो सम्यग्दर्शनादि सामिग्री, तीहि करि युक्त होता सता, ससारी कावडि का वि भर्चा कर्म भार की छाड़ि, तिस भार करि निपज्या नाना प्रकार दुःख पीडा का दियोग करि, इस लोक का अग्रभाग विषै सुखी होई ति है । जैसा हित उपदेश यात्रा का अभिप्राय है ।
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या दृष्टांतपूर्वक कायमागंरणा रहित जे सिद्ध, तिनिका उपाय सहित स्वरूप की कहे हैं -
१. पम - घना पुस्तक १ पृष्ठ नं. १४०, गाथा५ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ३४१
जह कंचरणमग्गि-गयं, भुचइ किट्टेण कालियाए य । तह कायबंध-मुक्का, अकाइया झाण-जोगेण ॥२०३॥
यथा कांचनमग्निगतं, मुच्यते किट्टेन कालिकया च । तथा कायबंधमुक्ता, प्रकायिका ध्यानयोगेन ॥२०३।।
टीका - जैसे लोक विष मल युक्त सोना, सो अग्नि कौं प्राप्त संता, अंतरंग पारा आदि की भावना करि संवाऱ्या हुवा बाह्य मल तौ कीटिका अर अंतरंग मल श्वेतादि रूप अन्य वर्ण, ताकरि रहित हो है। देदीप्यमान सोलहबान निज स्वरूप की लब्धि को पाइ, सर्व जननि करि सराहिए है । तेसै ध्यानयोग जो धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान रूप भावना, ताकरि अर बहिरंग तपरूपी अग्नि का सस्कार करि, निकट भव्य जीव है, ते भी औदारिक, तैजस शरीर सहित कार्मारण शरीर का सबध रूप करि मुक्त होइ । अकायिकाः कहिए शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी, ते अनंत ज्ञानादि स्वरूप की उपलब्धि को पाइ; लोकाग्र विषै सर्व इन्द्रादि लोक करि स्तुति, नमस्कार, पूजनादि करि सराहिए है। काय जिनिकै पाइए ते कायिक, शरीरधारक संसारी जानने । तिनतै विपरीत काय रहित अकायिक मुक्त जीव जानने ।
प्रागै श्री माधवचद्र विद्यदेव ग्यारह गाथा सूत्रनि करि पृथिवीकायिक आदि जीवनि की सख्या कहै है
पाउड्ढरासिवारं, लोगे अण्णोण्णसंगुरणे तेऊ । भूजलवाऊ अहिया, पडिभागोऽसंखलोगो दु॥२०४॥ साधनयराशिवारं, लोके अन्योन्यसंगुणे तेजः । भूजलवायवः अधिकाः, प्रतिभागोऽसंख्यलोकस्तु ॥२०४॥
וירון
टीका - जगत्थेणी घन प्रमाण लोक के प्रदेश, तीहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय-ए तीनि राशि करि तहा विरलनराशि का विरलन करि, एक-एक जुदाजुदा बखेरि, तहा एक-एक प्रति देयराशि को स्थापि, वगितसंवर्ग करना । जाका वर्ग कीया, ताका समतपनै वर्ग करना । सो इहां परस्पर गुणने का नाम वर्गितसवर्ग
१ पट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ २६६, गाथा १४४ ।
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गोम्मटसार जीवाण्ड गाथा २०४
३४२ ]
है । ताहि करि शलाकाराणि मैं स्यो एक घटावना । वहुरि अँसे करते जो राशि उपज्या, ताहि विरलन करि एक-एक प्रति सोई राशि देड, वर्गितसवर्ग करि शलाकाराशि मै सौ एक और घटावना । जैसे लोक प्रमाण शलाका राणि यावत् पूर्ण होड तावत् करना । जैसे करते जो राशि उपज्या, तीहि प्रमारण शलाका, विरलन, देयराशि, स्थापि, विरलनराशि का विरलन करि, एक-एक प्रति देयराशि की देड, वर्गितसंवर्ग करि दूसरी बार स्थाप्या हूवा, शलाकाराणि में सी एक घटावना । वहुरि तहा उपज्या हूवा राशि का विरलन करि, एक-एक प्रति सोई राशि स्थापि वर्गितसंवर्ग करि, तिस शलाकाराशि मैं सो एक और घटावना । जैसे दूसरी वार स्थाप्या हूवा शलाकाराशि को भी समाप्त करि, तहा अंत त्रिपै जो महाराशि भया, तीहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय, स्थापि; विरलनराशि का विरलन करि, एकएक प्रति देय राशि को देइ, वर्गितसंवर्ग करि, तीसरी बार स्थाप्या गलाकाराणि तै एक घटावना । वहुरि तहा जो राशि भया, ताका विरलन करि, एक-एक प्रति सोई राशि देइ, वर्गितसंवर्ग करि, तिस शलाकाराणि ते एक और काड़ना । जैसे तीसरी बार स्थाप्या हूवा शलाकाराणि को समाप्त करि, तहां अंत विपे उपज्या महाराशि, तिहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय, स्थापि; विरलनराशि को दखेरि, एक-एक प्रति यराणि को देइ वर्गित संवर्ग करि, चौथी वार स्थाप्या हूवा शलाकाराणि ते एक काढ़ना । वहुरि तहां जो राशि भया, ताकौ विरलन करि, एक-एक प्रति तिस ही को देड़, वर्गित संवर्ग करि तिस शलाकाराणि मैं सौ एक और काढना । से ही क्रम करि पहिली वार, दूसरी वार, तीसरी बार जो स्यापे ालाकाराशि, निनिको जोड़ें, जो प्रमाण होइ, तितने चौथी बार स्थान्या हूवा शलाकाराणि मैं सो घटाएं, अवशेष जितना प्रमाण रह्या, तिनको एक-एक घटावने करि, पूर्ण होते अंत विषै जो महाराणि उपज्या, तीहि प्रमाण तेजस्कायिक जीवराशि है । इस राशि का परस्पर गुरणकार शलाकाराणि, वर्ग शलाकाराणि, ग्रर्द्धच्छेद राशि तिनिका प्रनारण वा अल्पवहुत्व पूर्व द्विरूप घनावन धारा का कथन करते कह्या है, तैसे इहां भी जानना । जैसे सामान्यपणे साढा तीन वार वा विशेषपणे किचित् घाटि, च्यारि गलाकाराशि, पूर्ण जैसें होड, तैसे लोक का परस्पर गुणन कीए, जो राशि होड, तितने ग्रग्निकायिक जीवराशि का प्रमाण है । बहुरि इनि ते पृथ्वीकायिक के जीव अविक हैं । इनि ते ग्रपकाय के जीव अधिक है । इनिते वातकाय के जीव अधिक हे । इहां अत्रिक कितने हैं ? सा जानने के निमित्त भागहार असंख्यात लोक
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका 1
[ ३४३
प्रमाण जानना । सो कहिए है- असंख्यात लोकमात्र अग्निकायिक जीवनि का परिमाण ताकी यथायोग्य छोटा असंख्यात् लोक का भाग दीएं, जेता परिमाण आवै, तितने अग्निकायिक के जीवनि का परिमाण विषै मिलाये, पृथ्वीकायिक जीवनि का परिमाण हो है । बहुरि इस पृथ्वीकायिक राशि को असख्यात् लोक का भाग दीए, जेता परिमाण आवे, तितने पृथ्वीकायिक राशि विषै मिलाये, तितना अपकायिक जीवन का परिमाण हो है । बहुरि अपकायिक राशि को असंख्यात लोक का भाग दीए, जो परिमाण आवै, तितना अपकायिक राशि विषै मिलाए, वातकायिक जीवन का परिमाण हो है; से अधिक अधिक जानने ।
अपदिदिपत्तेया, असंखलोगप्पमारण्या होंति ।
तत्तो परिट्ठिया पुण, असंखलोगेण संगुणिदा ॥२०५॥
प्रतिष्ठित प्रत्येका, असंख्य लोकप्रसारणका भवंति । ततः प्रतिष्ठिताः पुनः असंख्यलोकेन संगुणिताः ।।२०५ ।।
टीका - अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतीकायिक जीव यथायोग्य असख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि इनि को असंख्यात लोक करि गुणै, जो परिमाण होइ, तितने प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतीकायिक जीव जानने । दोऊनि को मिलाएं सामान्य प्रत्येक वनस्पतीकायिक जीवनि का प्रमाण हो है ।
तसरासिपुढविआदी, चक्कपत्तेयही संसारी |
साहाररणजीवाणं, परिमाणं होदि जिणदिट्ठ ॥ २०६ ॥
सराशिपृथिव्यादि चतुष्कप्रत्येकहीन संसारी ।
साधारण जीवानां परिमाणं भवति जिनदिष्टम् ॥ २०६ ॥
टीका- आगे कहिए है - श्रावली का असख्यातवा भाग करि भाजित प्रतरागुल का भाग जगत्प्रतर को दीए, जो होइ, तितना सराशि का प्रमाण र पृथ्वीप - तेज - वायु इनि च्यारिनि का मिल्या हूवा साधिक चौगुणा तेजकायिक राशि प्रमाण, बहुरि इस प्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती का मिल्या हूवा परिमाण, असे इनि तीन राशिनि को संसारी जीवनि का परिमाण मे घटाए, जो श्रवशेष रहै, तितना साधारण वनस्पती, जे निगोद जीव, जानना; असा जिनदेव ने कहा ।
तिनिका परिमाण अनंतानत
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३४४
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २०७-२०८ सगसगअसंखभागो, बादरकायारण होदि परिमाणं । सेसा सुहमपमाणं, पडिभागो पुचणिद्दिको ।।२०७॥ स्वकस्वकासंख्यभागो, बगदरकायानां भवति परिनारणम् ।
शेषाः सूक्ष्मप्रमाणं, प्रतिभागः पूर्वनिदिष्टः ॥ २०७ ।। टीका - पृथिवी, अप, तेज, वायु, साधारण वनस्पतीकायिकनि का जो पूर्वं परिमारण कह्या, तिस अपने-अपने परिमाण को असख्यात का भाग देना । तहां एक भाग प्रमाण तो अपना-अपना वादर कायकनि का प्रमाण है। अवशेप वहुभाग प्रमाण सूक्ष्म कायकनि का प्रमाण है । पृथ्वीकायिक के परिमारण को असंख्यात का भाग दीजिए। तहा एक भाग प्रमाण वादर पृथ्वीकायकनि का परिमारण है। अवशेष वहुभाग परिमाण सूक्ष्म पृथ्वीकायिकनि का परिमाण है । जैसे ही सव का जानना । इहां भी भागहार का परिमाण पूर्व कह्या था, असख्यात लोक प्रमाण सोई है । तातै इहा भी अग्निकायादिक विर्षे पूर्वोक्त प्रकार अधिक-अधिकपना जानना ।
सुहमेसु संखभाग, संखा भागा अपुण्णगा इदरा । जस्सि अपुग्णद्धादो, पुण्णद्धा संखगुणिदकमा ॥२०॥
सूक्ष्मेष संख्यभागः, संख्या भागा अपूर्णका इतरे । यस्मादपूर्णाद्धातः, पूर्णाद्धा सख्यगुरिणतत्रामाः ।।२०८॥
___टोका - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, साधारण वनस्पती, इनिका पूर्व जो सूक्ष्म जीवनि का परिमाण कह्या, तीहि विपं अपने-अपने मूक्ष्म जीवनि का परिमारण को संस्थान का भाग दीजिए, तहा एक भाग प्रमाण ती अपर्याप्त है। बहुरि अवशेष बहुभाग प्रमाण पर्याप्त हैं। सूक्ष्म जीवनि विष अपर्याप्त राशि ते पर्याप्त राशि का प्रमाग बहुत जानना । सो कारण कहै है; जात अपर्याप्त अवस्था का काल अंतर्मुहूर्त मात्र है। इस काल तै पर्याप्त अवस्था का काल सख्यातगुणा है, सो दिखाइए है । कोमल पृथ्वीकायिक का उत्कृष्ट आयु वारह हजार वर्ष प्रमाण है। वहुरि कठिन पृथ्वी कायिक का वाईस हजार वर्प प्रमाण है। जलकायिक का सात हजार वर्ष प्रमाण है । तेजकायिक का तीन दिन प्रमाण है । वातकायिक का तीन हजार वर्ष प्रमाण है । वनस्पती कायिक का दश हजार वर्प प्रमाण है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[, ३४५
इहा प्रसंग पाइ विकलत्रय विष बेद्री का बारा वर्ष, तेद्री का गुणचास दिन, चौद्री का छह महिना प्रमाण है। जैसे उत्कृष्ट आयु, बल का परिमाण कह्या । तीहि विष अंतर्मुहर्त काल विष तौ अपर्याप्त अवस्था है। अवशेष काल विषै पर्याप्त अवस्था है । तातै अपर्याप्त अवस्था का काल ते पर्याप्त अवस्था का काल सख्यातगुणा जानना। तहां पृथ्वी कायिक का पर्याप्त-अपर्याप्त दोऊ कालनि विष जो सर्व सूक्ष्म जीव पाइए तौ अंतर्मुहूर्त प्रमाण अपर्याप्त काल विषै केते पाइए ? असे प्रमाण राशि पर्याप्त-अपर्याप्त दोऊ कालनि के समयनि का समुदाय, फलराशि सूक्ष्म जीवनि का प्रमाण, इच्छाराशि अपर्याप्त काल का समयनि का प्रमाण, तहा फल करि इच्छा को गुरिण, प्रमाण का भाग दीएं, लब्धराशि का परिमाण आवै, तितने सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त जीव जानने । बहुरि प्रमाण राशि, फलराशि, पूर्वोक्त इच्छाराशि पर्याप्त काल कीएं लब्धराशि का जो परिमाण आवै, तितने सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त जीवनि का परिमारण जानना । ताही ते सख्यात का भाग दीए, एक भाग प्रमाण अपर्याप्त कहे । अवशेष (बहु) भाग प्रमाण पर्याप्त कहे है । जैसे ही सूक्ष्म अपकायिक, तेजकायिक, वातकायिक, साधारण वनस्पतिकायिक विषै अपनाअपना सर्व काल को प्रमाणराशि करि, अपने-अपने प्रमाण को फलराशि करि पर्याप्त वा अपर्याप्त काल को इच्छाराशि करि लब्धराशि प्रमाण पर्याप्त वा अपर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना। इहा पर्याप्त वा अपर्याप्त काल की अपेक्षा जीवनि का परिमाण सिद्ध हूवा है।
पल्लासंखेज्जवहिद, पदरंगुलभाजिदे जगप्पदरे । । जलभूणिपवादरया, पुण्णा आवलिअसंखभजिदकमा ॥२०॥
पल्यासंख्यावहितप्रतरांगुलभाजिते जगत्प्रतरे ।
जलभूनिपवादरकाः, पूर्णा पावल्यसंख्यभाजितक्रमाः ॥२०९॥ टीका-पल्य के असख्यातवां भाग का भाग प्रतरागल को दोये, जो परिमाण आवै, ताका भाग जगत्प्रतर को दीए, जो परिमाण आवै, तितना बादर अपकायिक पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि इस राशि को प्रावली का असख्यातवा भाग का भाग दीएं, जो परिमाण आवै, तितना बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि इस राशि को भी आवलो का असख्यातवां भाग का भाग दीए, जो परिमाण आवै, तितना बादर प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती पर्याप्त
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३४६
गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २१०-२११ जीवनि का प्रमाण जानना। बहुरि इस राशि को भी प्रावली का असख्यातवां भाग का भाग दीए, जो परिमाण आवै, तितना बादर अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना ।
इहां 'रिण' इस आदि अक्षर ते निगोद शब्द करि प्रतिष्ठित प्रत्येक जानने; जातै साधारण का कथन आगै प्रगट कहै है ---
विदावलिलोगाणमसंखं संखं च तेउवाऊरणं । पज्जत्ताण पमाणं, तेहि विहीणा अपज्जत्ता ॥२१०॥
वृदावलिलोकानामसंख्यं संख्यं च तेजोवायूनाम् । पर्याप्तानां प्रमाणं, तैविहीना अपर्याप्ताः ॥२१०॥
टीका - पावली के जेते समय है, तिनिका धन कीएं, जो प्रमाण होइ, ताको वृदावली कहिए । ताको असंख्यात का भाग दीएं, जो परिमाण आवै, तितना वादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि लोक को सख्यात का भाग दीए, जो परिमारण आवै, तितना वादर वातकायिक पर्याप्त जीवनि का प्रमाण जानना । सूक्ष्म जीवनि का प्रमाण पूर्व कह्या है, तातै इहा बादर ही ग्रहण करने ।
बहुरि पूर्व जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतीरूप बादर जीवनि का परिमाण कह्या था, तीहि विर्ष अपना-अपना पर्याप्त जीवनि का परिमाण घटाए, अवशेप रहै, तितने-तितने बादर अपर्याप्त जीव जानने ।
साहारणबादरेसु, असंखं भागं असंखगा भागा। पुण्णाणमपुण्णाणं, परिमाण होदि अणुकमसो ॥२११॥
साधारणवादरेषु असंख्य भागं संख्यका भागाः । पूर्णानामपूर्णानां, परिमाणं भवत्यनुक्रमशः ॥२११॥
टोका - वादर साधारण वनस्पती का जो परिमाण कह्या था, ताको अमन्यात का भाग दीजिए । तहा एक भाग प्रमाण तो वादर निगोद पर्याप्त जीवनि मग प्रमाग जानना । बहुरि अवशेप असंख्यात वहुभाग प्रमाण वादर निगोद अपर्याप्त डीयान का प्रमाण जानना । जैसै अनुक्रम तै इहां काल की अपेक्षा अल्प-बहुत
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३४७
नाही का है । बादरनि विषै पर्याप्तपना दुर्लभ है । तातै पर्याप्त थोरे; अपर्याप्त घने है, जैसा प्राचार्यनि का अनुक्रम जानि कथन कीया है । जैसा प्राचार्यनि का अभिप्राय जानना ।
आवलिअसंखसंखेण वहिदपदरंगुलेग हिदपदरं ।
कमसो तसतप्पुण्णा, पुण्णूणतसा अपुण्णा हु ॥ २१२ ॥
आवल्यसंख्य संख्येनावहितप्रसंगुलेन हितप्रतरम् ।
क्रमशस्त्र सतत्पूर्णाः पूर्णोनसा अपूर्णा हि ॥ २१२ ॥
टीका - आवली का असंख्यातवां भाग का भाग प्रतरांगुल को दीएं, जो परिमाण आवै, ताका भाग जगत्प्रतर को दीएं, जो परिमाण आवै, तितना सर्व सराशि का प्रमाण जानना | बहुरि संख्यात का भाग प्रतरागुल को दीए, जो परिमाण आवै, ताका भाग जगत्प्रतर को दीए, जो परिमाण आवै, तितना पर्याप्त त्रस जीवनि का प्रमाण जानना । बहुरि सामान्य त्रस जीवनि का परिमाण मै स्यो पर्याप्त सनिका परिमाण घटाए, जो परिमारण अवशेष रहे, तितना अपर्याप्त त्रस जीवनि का प्रमाण जानना । इहा भी पर्याप्तपना दुर्लभ है । ताते पर्याप्त त्रस थोरे है, अपर्याप्त त्रस बहुत है, जैसा जानना ।
आगे बादर अग्निकायिक आदि छह प्रकार जीवनि का परिमारण का विशेष निर्णय करने के निमित्त दोय गाथा कहै है
आवलिप्रसंखभागेणवहिदपल्लूणसायरद्धछिदा । बादरतेपणिभूजलवादारणं चरिमसायरं पुण्णं ॥ २१३॥
श्रावल्यसंख्यभागेनावहित पल्योन सागरार्धच्छेदाः ।
बादरतेपनि भूजलवातानां चरमः सागरः पूर्णः ॥२१३॥
टीका - बादर अग्निकायिक, अप्रतिष्ठित प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती, पृथ्वी,
अप, वायु इन छहौ राशि के अर्धच्छेदों का परिमाण प्रथम
कहिए है । अर्धच्छेद का
स्वरूप पूर्वे धारानि का कथन विषै कह्या ही था, सो इहा एक बार श्रावली का असख्यातवा भाग का भाग पल्य कौ दीएं, जो एक भाग का परिमाण श्रावै, तितना सागर मे सो घटाइए, तब बादर अग्निकायिक जीवनि का जो परिमाण, ताके अर्ध
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३५० ]
[ गोम्मटसार जीवफाण्ड गाया २१५
तितने-तितने प्रमाण करि, पूर्वराशि को गुणे, उत्तर राशि का प्रमाण होइ । सो इहां सामान्यपनै गुणकार का प्रमाण सर्वत्र असंख्यात लोकमात्र है । इहा पूर्वोक्त प्रमाण दूवानि को परस्पर गुणै असंख्यात लोक कैसे होइ ? सो इस कथन को प्रकट अकसदृष्टि करिअर अर्थसंदृष्टि करि दिखाइए है । जैसे सोलह दूवानि की परस्पर गुण, पणट्ठी होइ, तौ चौसठि दूवानि को परस्पर गुणै, कितने होइ, से त्रैराशिक करिएं । तहा प्रमाणराशि विषै देयराशि दोय विरलनराशि सोलह, फलराणि पणट्ठी (६५५३६ ) इच्छाराशि विषै देयराशि दोय विरलनराशि चौसठि ।
अव इहा लब्धराशि का प्रमाण ल्यावचे कौ करण सूत्र कहै है । दिण्णच्छेदेणवहिद- इट्ठच्छेदेहि पयदविरलगं भजिदे । लद्धमिदइट्ठरासीणण्णोष्णहदीए होदि पयदधरणं ॥ २१५ ॥ देयच्छेदेनावहितेष्टच्छेदैः प्रकृतविरलनं भाजिते ।
लब्धमितेष्टराश्यन्योन्यहत्या भवति प्रकृतधनम् ॥ २१५ ॥
टीका - देय राशि के अर्धच्छेद का प्रमारण करि, जे फलराशि के अर्धच्छेद प्रमाणराशि विषै विरलनराशि रूप कहे, तिनिका भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तीहि करि इच्छाराशि रूप प्रकृतराशि विषे जो विरलनराशि का प्रमाण कला, ताकी भाग दीएं, जो प्रमाण आवे, तितना जायगा फलराशिरूप जो इष्टराशि, ताको माडि परस्पर गुणै, जो प्रमाण आवं, तितना लव्धराशिरूप प्रकृतिधन का प्रमाण हो है । सो इहा देयराशि दोय, ताका अर्धच्छेद एक, तीहिका जे फलराशि पट्टी के अर्धच्छेद प्रमाणराशि विषै विरलनराशिरूप कहे सोलह, तिनिको भाग दीए, सोलह ही पाए । इनिका साध्यभूत राशि का इच्छाराशि विषै कह्या, जो विरलनराशि चौसठि, ताकौ भाग दीए, च्यारि पाए । सो च्यारि जायगा फलराशिरूप परगट्ठी माडि ६५५३६ । ६५५३६ | ६५५३६ । ६५५३६ । परस्पर गुणै, लब्धराशि एकट्ठी प्रमाण हो है । जैसे ही यथार्थ कथन जानना ।
जो पूर्व गणित कथन विपे लोक के अर्धच्छेदनि का जेता परिमाण कह्या है; तितने दूवे मांड परस्पर गुणै; लोक होइ, तौ इहां अग्निकायिक राशि के अर्धच्छेद प्रमाण दूवे माडि, परस्पर गुरौं कितने लोक होहि ? जैसे त्रैराशिक करि इहां प्रमाणराणि विषै देयराणि दोय, विरलनराणि लोक का अर्धच्छेदराशि, अर फलराशि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका ]
[ ३५१ लोक अर इच्छाराशि विर्ष देयराशि दोय, विरलनराशि अग्निकायिकराशि के अर्धच्छेद प्रमाण जानना । तहां लब्धराशि ल्यावने को देय राशि दोय, ताका अर्धच्छेद एक, ताका भाग फलराशि (जो) लोक, ताका अर्धच्छेदरूप प्रमाणराशि विष विरलनराशि है, ताकौं भाग दीएं लोक का अर्धच्छेद मात्र पाए। इनका साध्यभूत अग्निकायिक राशि का अर्धच्छेदरूप जो इच्छाराशि, ताविले विरलनराशि अग्निकायिक राशि के अर्धच्छेद, तिनको भाग दीएं, जो प्रमाण आया, सो किछू घाटि संख्यात पल्य कौं लोक का अर्धच्छेदराशि का भाग दीए, जो प्रमाण होइ तितना यह प्रमाण आया । सो इतने लोक मांडि, परस्पर गुणै, जो असंख्यात लोक मात्र परिमाण भया, सोई लब्धिराशिरूप बादर अग्निकायिकराशि का प्रमाण इहां जानना । इहां किंचिदून संख्यात पल्य प्रमाण लोकनि को परस्पर गुणें, जो महत असंख्यात लोक मात्र परिमाण आया, सो तौ भाज्यराशि जानना । अर लोक का अर्धच्छेद प्रमाण लोकनि को परस्पर गुणै, जो छोटा असंख्यात लोकमात्र परिमाण आया, सो भागहार जानना। भागहार का भाग भाज्य को दीएं, जो प्रमाण होइ, तितना बादर अग्निकायिक जीवनि का प्रमाण जानना। बहुरि इहां अग्निकायिकराशि विषै जो भागहार कह्या, सो अगले अप्रतिष्ठित प्रत्येक आदि राशिनि विर्षे जो भागहार का प्रमाण पूर्वोक्त प्रकार कीएं आवै, तिनि सबनि ते असंख्यात लोक गुणा जानना । जातै सागर में स्यौ जो-जो राशि घटाया, सो-सो क्रमते प्रावली का असंख्यातवां भाग गुणा घाटि । तातै प्रमाणराशि फलराशि पूर्वोक्तवत् स्थापि अर इच्छाराशि विर्षे विरलनराशि अपने-अपने अर्धच्छेद प्रमाण स्थापि, पूर्वोक्त प्रकार त्रैराशि करि अप्रतिष्ठित प्रत्येक आदि राशि भी सामान्यपनै असख्यात लोकमात्र है । तथापि उत्तर उत्तरराशि असंख्यात लोक गुणा जानना। भागहार जहा घटता होइ, तहा राशि बधता होइ, सो इहां भागहार असंख्यात लोक गुणा घटता क्रमतै भया; तातै राशि असंख्यात लोक गुणा भया । इहां असंख्यात लोक वा आवली का असंख्यातवां भाग की संदृष्टि स्थापि अर्थसंदृष्टि का स्थापन है । सो प्रागै सदृष्टि अधिकार विषै लिखेगे। इति प्राचार्य श्रीनेमिचद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसग्रह ग्रथ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम सस्कृतटीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा इस भाषा
टीका विषै जीवकांड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनिविपै कायप्ररूपणा नामा आठवा अधिकार सपूर्ण भया ।।८।।
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नववा अधिकार :योग-मागणा-प्ररूपणा
॥ मंगलाचरण ॥ कुंदकुसुमसम दंतजुत, पुष्पदंत जिनराय ।
वंदौ ज्योति अनंतमय, पुष्पदंतवतकाय ॥९॥ आगे शास्त्रकर्ता योगमार्गणा का निरूपण करं है। तहा प्रथम ही योग का सामान्य लक्षण कहै है -
पुग्गलदिवाइदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती, कम्मागमकारणं जोगो ॥२१६॥
पुद्गलविपाकिदेहोदयेन मनोवचनकाययुक्तस्य ।
जीवस्य या हि शक्तिः, कर्मागमकारणं योगः ॥२१६॥ टीका - संसारी जीव के कर्म, जो ज्ञानावरणादिक-कर्म अर उपलक्षण ते औदारिकादिक नोकर्म, तिनि का आगम कहिए कर्म-नोकर्म वर्गणारूप पुद्गलस्कधनि का कर्म-नोकर्मरूप परिगामना, ताको कारणभूत जो शक्ति बहुरि उस शक्ति का धारी जो प्रात्मा, ताके प्रदेशनि का चचलरूप होना, सो योग कहिए है ।
कैसा है जीव ? पुद्गलविपाकी जो यथामभव अगोपाग नाम प्रकृति वा देह जो गरीर नाम प्रकृति ताका उदय जो फल दना रूप परिणामना, ताकरि मन वा भाषा वा शरीररूप जे पर्याप्त, तिनिकी धरं है ।
मनोवर्गणा, भापावर्गग्गा, कायवर्गणा का अवलंबन करि सयुक्त है । इहा अंगोपाग वा गरीर नाना नामकर्म के उदय ते शरीर, भापा, मन:पर्याप्तिरूप पनिगम्या वाय, भापा, मन वर्गणा का अवलंबन युक्त श्रात्मा, ताको लोकमात्र सर्व प्रदेशनि विपै प्राप्त जो पुद्गलस्कंबनि कौं कर्म-नोकर्मरूप परिगामावने को कारणभूत अनि-नमयंता; मो भाव-योग है ।
___बहुरि उस शक्ति का वारी आत्मा के प्रदेशनि विपै किछु चलनरूप सकंप होना मी द्रव्य-योग है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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हां यह जानना जैसे अग्नि के संयोग करि लोहे के जलावने की शक्ति हो है । तैसै अंगोपाग शरीर नामा नामकर्म के उदय करि मनो वर्गरणा वा भाषा वर्गरणा का आए पुद्गल स्कंध पर आहार वर्गणा का आए नोकर्म पुद्गल स्कंध, तिनि का संबंधकरि जीव के प्रदेशनि के कर्म - नोकर्म ग्रहण की शक्ति-समर्थता हो है ।
आ योगनि का विशेष लक्षण कहै है
मणवयणाण पत्ती, सच्चासच्चुभयअणुभयत्थेसु । तण्णामं होदि तदा तेहि दु जोगा हु तज्जोगा ॥ २१७ ॥
मनोवचनयोः प्रवृत्तयः, सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु ।
तन्नाम भवति तदा तैस्तु योगाद्धि तद्योगाः ॥ २१७ ॥
टीका - सत्य, असत्य, उभय, अनुभय रूप जे पदार्थ, तिनि विषै जो मन, वचन की प्रवृत्ति होइ, उनके जानने को वा कहने को जीव की प्रयत्नरूप प्रवृति होइ, सो सत्यादिक पदार्थ का संबंध तै, तो सत्य, असत्य, उभय, अनुभय है, विशेषण जिनि का, असे च्यारि प्रकार मनोयोग र च्यारि प्रकार वचनयोग जानने । तहां यथार्थ जैसा का तैसा सांचा ज्ञानगोचर जो पदार्थ होइ, ताकौ सत्य कहिए । जैसे जल का जानना के गोचर जल होइ जाते स्नान - पानादिक जल संबंधी क्रिया उस सिद्ध हो है; तातै सत्य कहिए ।
बहुरि यथार्थं अन्यथारूप पदार्थ जो मिथ्याज्ञान के गोचर होइ, ताकौ असत्य कहिए। जैसे जल का जानना के गोचर भाडली ( मृगजल ) होइ, जा स्नान - पानादिक जल संबंधी क्रिया भाडली स्यो सिद्ध न हो है, तातै असत्य कहिए ।
बहुरि यथार्थ वा यथार्थ रूप पदार्थ जो उभय ज्ञान गोचर होड, ताकी उभय कहिए । जैसे कमंडलु विषै घट का ज्ञान होइ, जातै घट की ज्यों जलधारणादि क्रिया 'कमडलु स्यों सिद्ध हो है, तातं सत्य है । वहुरि घटका-सा ग्राकार नाही है, ता सत्य है; असे यहु उभय जानना ।
बहुरि जो यथार्थ अयथार्थ का निर्णय करि रहित पदार्थ, जो ग्रनुभय ज्ञान गोचर होइ, ताक अनुभव कहिए । सत्य-असत्यरूप कहने योग्य नाही, जैसे यह किछू प्रतिभास है, से सामान्यरूप पदार्थं प्रतिभास्या, तहा उस पदार्थं करि कोन
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २१८०२१६
क्रिया सिद्ध हो है, असा विशेष निर्णय न भया, तातै सत्य भी न कह्या जाय, वहरि सामान्यपने प्रतिभास्या तातै असत्य भी न कह्या जाय तात याको अनुभय कहिए।
असै च्यारि प्रकार पदार्थनि विर्षे मन की वा वचन की प्रवृत्ति होइ सो च्यारि प्रकार मनोयोग वा च्यारि प्रकार वचनयोग जानने ।
इहां घट विष घट को विकल्प, सो सत्य, अर घट विषै पट का विकल्प, सो असत्य, अर कुंडी विषै जलधारण करि घट का विकल्प, सो उभय अर संबोधन आदि विषै हे देवदत्त ! इत्यादि विकल्प सो अनुभय जानना ।
आगे सत्य पदार्थ है गोचर जाकै, जैसा मनोयोग सो सत्य मनोयोग; इत्यादिक विशेष लक्षण च्यारि गाथानि करि कहै है -
सब्भावमणो सच्चो, जो जोगी लेण सच्चसणजोगो । तविवरीओ मोसो, जाणुभयं सच्चमोसोस्तेन त्ति १ ॥२१॥
सद्भावमनः सत्यं, यो योगः स तु सत्यमनोयोगः ।
तद्विपरीतो मृषा, जानीहि उभयं सत्यमृषेति ॥२१८॥ टीका - 'सद्भावः' कहिए सत्पदार्थ हो है गोचर जाका, असा जो मन सत्य पदार्थ के जान उपजावनेकी शक्ति लीएं भाव-मन होइ, तीहि सत्यमन करि निपज्या जो चेप्टा प्रवर्तन रूप योग, सो सत्यमनोयोग कहिये ।
बहुरि जैसे ही विपरीत असत्य पदार्थरूप विपय के जान उपजावने की शक्ति रूप जो भाव-मन, ताकरि जो चेप्टा प्रवर्तन रूप योग होइ, सो असत्यमनोयोग कहिए ।
बहुरि युगपत् सत्य-असत्य रूप, पदार्थ के ज्ञान उपजावने की शक्तिरूप जो भाव-मन, नाकरि जो प्रवर्तन रूप योग होंड, सो उभयमनोयोग कहिये-जैसे हे भव्य । तृ जानि ।
ण य सच्चमोसजुत्तो, जो दुमणो सो असच्चमोसमणो। जो जोगो तेण हवे, असच्चमोसो दु मरणजोगो २ ॥२१६॥ -मागम-परला पुस्तक १, पृ स. २६३, गा म १५३ । कुछ पाठभेद-भभावो मच्चमणो,
मागती, निमम्म नि ।
२- पटनंटागम - पवना पुस्तक-१ पृष्ठ स. २०४, गा. सं.१५७ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३५५
न च सत्यमृषायुक्तं, यत्तु मनस्तदसत्यमृषामनः ।
यो योगस्तेन भवेत्, असत्यमृषा तु मनोयोगः ॥२१९।। टीका - जो मन सत्य अर मृषा कहिए असत्य, तीहि करि युक्त न होइ बहुरि सत्य असत्य का निर्णय करि रहित जो अनुभय पदार्थ, ताके ज्ञान उपजावने की शक्तिरूप जो भाव मन, तीहि करि निपज्या जो प्रवर्तनरूप योग, सो सत्य-असत्य रहित अनुभय मनोयोग कहिए । असै च्यारि प्रकार मनोयोग कह्या ॥२१६॥
दसविहसच्चे वयणे, जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो । तविवरीओ मोसो, जाणुभयं सच्चमोसो त्ति ॥२२०॥
दशविधसत्ये वचने, यो योगः स तु सत्यवचोयोगः ।
तद्विपरीतो मृषा, जानीहि उभयं सत्यभूषेति ॥२२०॥ टीका - सत्य अर्थ का कहनहारा सो सत्य वचन है । जनपद नै आदि देकरि दस प्रकार सत्यरूप जो पदार्थ, तीहि विष वचनप्रवृत्ति करने की समर्थ, स्वरनामा नामकर्म के उदय ते भया भाषा पर्याप्ति करि निपज्या, जो भाषा वर्गणा आलबन लीएं, आत्मा के प्रदेशनि विर्षे शक्तिरूप भाववचन करि उत्पन्न भया जो प्रवृत्तिरूप विशेष, सो सत्यवचन योग कहिए ।
बहुरि तीहिस्यों विपरीत असत्य पदार्थ विष वचनप्रवृत्ति को कारण जो भाव वचन, तीहि करि जो प्रवर्तनरूप योग होइ, सो असत्य वचन कहिए ।
बहुरि कमंडलु विष यह घट है इत्यादिक सत्य-असत्य पदार्थ विष वचन प्रवृत्ति को कारण जो भाव वचन, तीहि करि जो प्रवर्तनरूप योग होइ, सो उभय वचन योग कहिए, असे हे भव्य | तू जानि ।।
जो व सच्चमोसो, सो जाण असच्चमोसवचिजोगो। अमणाणं जा भासा, सण्णीणामंतरणी प्रादी २ ॥२२१॥
यो नैव सत्यमृषा, स जानीहि असत्यमषावचोयोगः । अमनसां या भाषा, संजिनामामंत्रण्यादिः ॥२२॥
१.-षट्खडागम-घवला पुस्तक १, पृ. २५८, गा स १५८. २-पट्खडागम-धवला पुस्तक १, २८८, गा. स. १५६
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३५६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २२२-२२३
टीका - जो सत्य असत्यरूप न होइ औसा पदार्थ विषै वचनप्रवृत्ति कौ कारण जो भाव वचन, तीहि करि जो प्रवर्तनरूप योग होइ, सो सत्य असत्य निर्णय रहित अनुभय वचन योग जानना । ताकां उदाहरण - उत्तर आधा सूत्र करि कहै है । जो वेइंद्रियादिक असैनी पचेद्रिय पर्यत जीवनि के केवल अनक्षररूप भाषा है, सो सर्व अनुभय वचन योग जानना । वा सैनी पंचेद्रिय जीवनि के आगे कहिए है, जो ग्रामत्रणी आदि अक्षररूप भाषा, सो सर्व अनुभय वचन योग जानना ।
आगे जनपद आदि दस प्रकार सत्य को उदाहरण पूर्वक तीनि गाथानि करि
कहै है
-
जणवदसम्मदिठवरणा, णामे रूवे पडुच्चववहारे । संभावणे य भावे, उवमाए दसविहं सच्चं ॥ २२२ ॥
जनपदसम्मतिस्थापनानाम्नि रूपे प्रतित्यव्यवहारयोः ।
संभावनायां च भावे, उपमायां दशविधं सत्यम् ॥ २२२ ॥
टीका जनपद विषै, संवृति वा सम्मति विषै, स्थापना रूप विपै, प्रतीत्र्त्य विषे, व्यवहार विषे, संभावना विषे, भांव विषे, दस स्थाननि विषै दस प्रकार सत्य जानना ।
-
भत्तं देवी चंदप्पह, पडिमा तह य होदि जिणदत्तो । सेदो दिग्घो रज्झदि, कूरो त्तिय जं हवे वयरणं ॥ २२३ ॥
टीका
विषै, नाम विषै,
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उपमा विषे जैसे
भक्तं देवी चंद्रप्रभप्रतिमा तथा च भवति जिनदत्तः ।
श्वेतो दीर्घा रध्यते, कूरमिति च यद्भवेद्वचनम् ॥ २२३ ॥
दस प्रकार सत्य कह्या, ताका उदाहरण अनुक्रम ते कहिए है ।
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देशनि विषै, व्यवहारी मनुष्यनि विषे प्रवृत्तिरूप वचन सो जनपद सत्य कहिए। जैसे श्रोदन को महाराष्ट्र देश विषे भातू वा भेटू कहिए । अध्रदेश विषै वटक वा मुकूडु कहिए । कर्णाट देश विषै कूलु कहिए । द्रविड देश विषे चोरु कहिए, इत्यादिक जानना ।
बहुरि जो संवृति कहिए कल्पना वा सम्मति कहिए बहुत जीवनि करि तैसे ही मानना नवं देशनि विषे समान रूदिरूप नाम, सो संवृति सत्य कहिए वा इस
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३६०
[ गोम्मटसार जोधकाण गापा २२७ अनूभय भाषा जाननी । असे सत्य असत्य लक्षण रहित आमंत्रणी आदि अनुभय भाषा जाननी । इनि विप सत्य असत्य का निर्णय नाही, सो कारण कहै हैं । जात असे वचननि का सुननेवाला के सामान्यपना करि तौ अर्थ का अवयव प्रगट हवा, तातै असत्य न कही जाइ । वहुरि विशेषपना करि अर्थ का अवयव प्रगट न हवा तातै सत्य भी न कह्या जाय, तातै अनुभय कहिए। जैसे कही 'तू आव' सो इहां सभी सुननेवाला नै सामान्यपनै जान्या कि बुलाया है, परंतु वह आवैगा कि न आवैगा असा विशेष निर्णय तो उस वचन मै नाही। ताते इसको अनुभय कहिए । जैसे सव का जानना। अन्य भी अनुभय वचन के भेद है। तथापि इन भेदनि विर्ष गभित जानने । अथवा असे ही उपलक्षण ते जैसी ही व्यक्त अव्यक्त वस्तु का अंश की जनावनहारी और भी अनुभय भाषा जुदी जाननी।
इहां कोऊ कहैगा कि अनक्षर भाषा का तौ सामान्यपना भी व्यक्त नाही हो है, याको अनुभय वचन कैसे कहिए ?
ताको उत्तर - कि अनक्षर भाषावाले जीवनि का संकेतरूप वचन हो है। तिस तै उनका वचन करि उनके सुख-दुख आदि का अवलबन करि हादिक रूप अभिप्राय जानिएं है। तातै अनक्षर शब्द विष भी सामान्यपना की व्यक्तता संभव है।
अागं ए मन वचन योग के भेद कहे, तिनिका कारण कहै हैंमणवयणाणं मूलणिमित्तं खलु पुण्णदेहउदओ दु । मोसुभयाणं मूलणिमित्तं खलु होदि आवरणं ॥२२७॥
मनोवचनयोर्मूलनिमित्तं खलु पूर्णदेहोदयस्तु ।
मृपोभययोर्मूलनिमित्त खलु भवत्यावरणम् ॥२२७॥ टोका - सत्यमनोयोग वा अनुभयमनोयोग बहुरि सत्यवचनयोग वा अनुभयवचनयोग, इनिका मुख्य कारण पर्याप्त नामा नामकर्म का उदय अर जर्गर नामा नामकर्म का उदय जानना । जातें सामान्य है, सो विशेष विना न हो है । नाने मन वचन का सामान्य ग्रहण हवा, तहां उस ही का विशेष जो है, सत्य पर अनुभव, नाका ब्रहण महज ही सिद्ध भया । अथवा असत्य-उभय का आगे
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] निकट ही कथन है । तातै इहां अवशेष रहे सत्य-अनुभय, तिनि का ही ग्रहण करना। बहुरि आवरण का मंद उदय होते असत्यपना की उत्पत्ति नाही हो है । तातै असत्य वा उभय मनोयोग पर वचनयोग का मुख्य कारण आवरण का तीव्र अनुभाग का उदय जानना । इसह विष इतनां विशेष है, तीव्रतर आवरण के अनुभाग का उदय असत्य मन-वचन को कारण है। पर तीव्र आवरण के अनुभाग का उदय उभय मन-वचन को कारण है।
इहां कोऊ कहै कि असत्य वा उभय मन-वचन का कारण दर्शन वा चारित्र मोह का उदय क्यौ न कहौ ?
ताका समाधान - कि असत्य अर उभय मन, वचन, योग मिथ्यादृष्टीवत् असंयत सम्यग्दृष्टी के वा सयमी के भी पाइए । तातै तू कहै सो बन नाही । तातै सर्वत्र मिथ्यादृष्टी आदि जीवनि के सत्य-असत्य योग का कारण मंद वा तीव्र आवरण के अनुभाग का उदय जानना । केवली के सत्य-अनुभय योग का सद्भाव सर्व
आवरण के अभाव ते जानना । प्रयोग केवली के शरीर नामा नामकर्म का उदय नाही । तातै सत्य अर अनुभय योग का भी सद्भाव नाही है ।
इहां प्रश्न उपजै है कि-केवली के दिव्यध्वनि है, ताकै सत्य-वचनपना वा अनुभय वचनपना कैसै सिद्धि हो है ?
ताको समाधान-केवली के दिव्यध्वनि हो है; सो होते ही ती अनक्षर हो है; सो सुनने वालों के कर्णप्रदेश को यावत् प्राप्त न होइ तावत् काल पर्यंत अनक्षर ही है । तातै अनुभय वचन कहिए । बहुरि जव सुनने वालों के कर्ण विष प्राप्त हो है; तब अक्षर रूप होइ, यथार्थ वचन का अभिप्राय रूप संशयादिक को दूर कर है। ताते सत्य वचन कहिए । केवली का अतिशय करि पुद्गल वर्गणा तैसे ही परिणमि जांय है।
आगे सयोग केवली के मनोयोग कैसे संभव है ? सो दोय गाथानि करि कहै है -
मरासहियाणं वयणं, दिळं तप्पुवमिदि सजोगम्हि । उत्तो मरणोवयारेणिदियणाणेण होणम्मि ॥२२८॥
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३२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा २२८-२६२ मनःसहितानां वचनं, दृष्टं तत्पूर्वमिति सयोगे :
उक्तो मन उपचारेणेद्रियज्ञानेन हीने ॥२२८॥ टोका - इन्द्रिय ज्ञान जो मतिज्ञान, तीहि करि रहित असा जु सयोग केवली, तीहि विपं मुख्यपनै तौ मनो योग है नाही, उपचारते है। सो उपचार विष निमित्त का प्रयोजन है; सो निमित्त इहां यह जानना - जैसे हम आदि छनस्थ जीव मन करि संयुक्त, तिनिके मनोयोग पूर्वक अक्षर, पद, वाक्य, स्वरूप वचनव्यापार देखिए है । तातें केवली के भी मनोयोग पूर्वक वचन योग कह्या ।
इहां प्रश्न - कि छवस्थ हम आदि अतिशय रहित पुरुपनि विपें जो स्वभाव देखिए, सो सातिशय भगवान केवली विष कैसे कल्पिए ?
ताका समाधान - सादृश्यपना नाहीं है; इस ही वास्ते छद्मस्थ के मनोयोग मुख्य कह्या । अर केवली के कल्पनामात्र उपचाररूप मनोयोग कहा है।
सो इस कहने का भी प्रयोजन कहै है- . अंगोवंगुदयादो, दव्वमणठें जिणंदचंदह्मि । मणवग्गरणखंधाणं, आगमणादो दु मणजोगो ॥२२॥
अंगोपांगोदयात्, द्रव्यमनोऽथ जिनेंद्रचंद्रे ।
मनोवर्गणास्कंधानामागमनात् तु मनोयोगः ॥२२९॥ टीका - जिन है इद्र कहिए स्वामी जिनिका, असे जो सम्यग्दृप्टी, तिनिकै चंद्रमा समान ससार-अाताप अर अजान अवकार का नाश करनहारा, असा जो मयोगी जिन, तीहि विप अगोपांग नामा नामकर्म के उदय ते द्रव्यमन फूल्या आठ पंखडी का कमल के आकार हृदय स्थानक के मध्य पाईए है। ताके परिणमने कौं कारणभृत मन वर्गणा का आगमन तें द्रव्य मन का परिणमन है । तातें प्राप्तिरूप प्रयोजन तं पूर्वोक्त निमित्त ते मुख्यपनै भावमनोयोग का अभाव है । तथापि मनयोग उपचार मात्र कह्या है । अथवा पूर्व गाथा विष कहा था; यात्मप्रदेशनि के फर्म नोकर्म का ग्रहणम्प शक्ति, सो भावमनोयोग, वहरि याही ते उत्पन्न भया मनोवर्गगाम्प पुद्गलनि का मनरूप परिणमना, सो द्रव्यमनोयोग, सो इस गाथा मृत परि. नंभव है । तातै केवली के मनोयोग कह्या है । तु शब्द करि केवली के
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका ]
[ ३६३ पूर्वोक्त उपचार कह्या, तिसके प्रयोजनभूत सर्व जीवनि की दया, तत्त्वार्थ का उपदेश शुक्लध्यानादि सर्व जानने ।
आगे काययोग का निरूपण प्रारभ है । तहां प्रथम ही काय योग का भेद औदारिक काययोग, ताको निरुक्तिपूर्वक कहै है -
पुरुमहदुदारुरालं, एयठो संविजाण तम्हि भवं । औरालियं तमु (त्तिउ)च्चइ औरालियकायजोगो सो ॥२३०॥ पुरुमहदुदारमुरालमेकार्थः संविजानीहि तस्मिन्भवम् ।
औरालिकं तदुच्यते औरालिककाययोगः सः ॥२३०॥ टीका-पुरु वा महत् वा उदार वा उराल वा स्थूल ए एकार्थ है । सो स्वार्थ विषे ठण् प्रत्यय ते जो उदार होइ वा उराल होइ, सो औदारिक कहिए वा औरालिक भी कहिए अथवा भव अर्थ विर्ष ठण् प्रत्यय ते जो उदार विष वा उराल विष उत्पन्न होंइ, सो प्रोदारिक कहिए वा औरालिक भी कहिए । बहुरि सचयरूप पुद्गलपिड, सो प्रौदारिक काय कहिए । औदारिक शरीर नामा नामकर्म के उदय ते निपज्या औदारिक शरीर के आकार स्थूल पुद्गलनि का परिणमन, सो औदारिक काय जानना । वैक्रियिक आदि शरीर सूक्ष्म परिणम है, तिनिकी अपेक्षा यहु स्थूल है; तातै औदारिक कहिए है।
इहां प्रश्न - उपजै है कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि जीवनि के स्थूलपना नाही है, तिनिको औदारिक शरीर कैसे कहिए है ?
ताकां समाधान - इन हूतै वैक्रियिकादिक शरीर सूक्ष्म परिणमै है, ताते तिनकी अपेक्षा स्थूलपना आया । अथवा परमागम विष असी रूढि है; तातै समभिरूढि करि सूक्ष्म जीवनि के औदारिक शरीर कह्या; सो औदारिक शरीर के निमित्त आत्मप्रदेशनि के कर्म-नोकर्म ग्रहण की शक्ति, सो औदारिक काय योग कहिए है । अथवा औदारिक वर्गणारूप पुद्गल स्कधनि को औदारिक शरीररूप परिणमावने को कारण, जो आत्मप्रदेशनि का चचलपना, सो औदारिक काययोग है भव्य ! तू जानि । अथवा औदारिक काय सोई औदारिककाय योग है । इहां कारण
१ - षट्खडागम घवला पुस्तक १, पृ. २६३ गाथा स १६० पाठभेद-त विजाण तिगुत्त ।
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३६४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २३१-२३२
विर्षे कार्य का उपचार जानना । इहां उपचार है सो निमित्त र प्रयोजन धरै है । तहां औदारिक काय तै जो योग भया, सो श्रदारिक काय योग कहिए; सो यहु ती निमित्त । बहुरि तिस योग ते ग्रहे पुद्गलनि का कर्म - नोकर्मरूप परिणमन, सो प्रयोजन सभव है । तातै निमित्त र प्रयोजन की अपेक्षा उपचार का है ।
आगे श्रदारिक मिश्रकाययोग को कहै है
-
१
ओरालिय उत्तत्थं, विजारण मिस्सं तु अपरिपुण्गं तं । जो तेण संपजोगो, ओरालियमिस्सजोगो सो ॥२३१॥
टीका - पूर्वोक्त लक्षण लीएं जो प्रदारिक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्त पर्यंत पूर्ण न होइ, अपर्याप्त होइ, तावत् काल प्रौदारिक मिश्र नाम अनेक कैं मिलने का है; सो इहां पर्याप्त काल संबंधी तीन समयनि विषै संभवता जो कार्माण योग, ताकी उत्कृष्ट कार्माण वर्गणा करि संयुक्त है; ताते मिश्र नाम है । अथवा परमागम विपै जैसे ही रूढि है । जो अपर्याप्त शरीर को मिश्र कहिए, सो तीहि श्रदारिक मिश्र करि सहित संप्रयोग कहिए, ताके अर्थ प्रवर्त्या जो आत्मा के कर्म - नोकर्म ग्रहणे की शक्ति धरै प्रदेशनि का चचलपना; सो योग है । सो शरीर पर्याप्ति की पूर्णता के प्रभाव ते दारिक वर्गणा स्कंधनि कौ संपूर्ण शरीररूप परिणामावने कौ असमर्थ है । सा श्रदारिक मिश्र काययोग तू जानि ।
आगै विक्रियिक काय योग को कहै है
विविहगुणइड्ढिजुत्तं विविकरियं वा हु होदि वेगुब्वं । तिस्से भवं च गेयं, वेगुब्वियकायजोगो सो २ ॥ २३२ ॥
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श्रौरालिकमुक्तार्थ, विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्णं तत् । यस्तेन संप्रयोगः, औरालिकमिश्रयोगः सः ॥२३१॥
विविधगुणयुक्तं, विक्रिय वा हि भवति विगूर्वम् ।
तस्मिन् भवं च ज्ञेयं, वैगूविककाययोगः सः ॥२३२॥
पट्ट्पदानम
- धवला पुस्तक १ पृष्ठ २६३, गा स. १६१
पुस्तक १, पृष्ठ २६३, गाया १६२ ॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३६५
टीका - विविध नानाप्रकार शुभ अशुभरूप अणिमा, महिमा आदि गुण तिनकी ऋद्धि जो महतता, तीहि करि संयुक्त देव - नारकीनि का शरीर, सो वैगूर्व कहिए वा वैगूर्विक कहिए वा वैक्रियिक कहिए । तहा विगूर्व कहिए नानाप्रकार गुण, तिस विषे भया सो वैगर्व है । अथवा विगर्व है प्रयोजन जाका, सो वैगूर्विक है । इहां ठण् प्रत्यय आया है । अथवा विविध नानाप्रकार जो क्रिया, अनेक अणिमा आदि विकार सो विक्रिया । तहां भया होइ, वा सो विक्रिया जाका प्रयोजन होइ, सो वैक्रियिक है । जैसी निरुक्ति जानना । जो वैर्विक शरीर के अथि तिस शरीररूप परिणमने योग्य जो आहार वर्गणारूप स्कंधनि के ग्रहण करने की शक्ति धरै, आत्मप्रदेशनि का चंचलपना, सो वैगूर्विक काय योग जानना ।
अथवा वैक्रियिक काय, सोई वैक्रियिक काय योग है । इहां कारण विषै कार्य का उपचार जानना । सो यहु उपचार निमित्त अर प्रयोजन पूर्ववत् धरै है । तहां वैक्रियिक काय ते जो योग भया, सो वैक्रियिक काय योग है । यहु निमित्त अतिहि योग ते कर्म - नोकर्म का परिणमन होना, सो प्रयोजन सभवै ।
आगे देव - नारकी के तौ कह्या और भी किसी-किसी के वैक्रियिक काय योग संभव है, सो कहै है
-
बादरतेऊवाऊ, पंचिदियपुण्णगा विगुव्वंति । रालियं सरीरं, विगुव्वणप्पं हवे जेसिं ॥ २३३ ॥
बादरतेजोवायुपंचेद्रिय पूर्णका विगूर्वति । श्ररालिकं शरीरं, विगूर्वरणात्मकं भवेद्येषाम् ॥२३३॥
टीका - बादर तेजकायिक वा वातकायिक जीव, बहुरि कर्मभूमि विषे जे उत्पन्न भए चक्रवर्ति को आदि देकरि सैनी पचेंद्री पर्याप्त तिर्यच वा मनुष्य, बहुरि भोगभूमिया तिर्यच वा मनुष्य ते औदारिक शरीर को विक्रियारूप परिणमा है । जिनिका प्रदारिक शरीर ही विक्रिया लीए पाइए है । ते जीव अपृथक् विक्रिया रूप परिणम है । श्रर भोगभूमियां, चक्रवर्ति पृथक् विक्रिया भी करें है ।
जो अपने शरीर तं भिन्न अनेक शरीरादिक विकाररूप करें, सो पृथक् विक्रिया कहिए ।
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३६६
[ गोम्मटसार नौवकाण्ड गाया २३४-२३५ __ वहुरि जो अपने शरीर ही कौं अनेक विकाररूप करें, सो अपृथक् विक्रिया कहिए।
आगै वैक्रियिक मिश्रकाय योग कहैं हैंवेगुन्वियउत्तत्थं, विजारण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपयोगो, वेगुन्वियमिस्सजोगो सो १ ॥२३४॥ वैविकमुक्तार्थ, विजानीहि मिथं तु अपरिपूर्ण तत् ।
यस्तेन संप्रयोगो, वैविकमिश्रयोगः सः ॥२३४॥ टीका - पूर्वोक्त लक्षण ने लीएं जो वैविक वा वैक्रियिक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्त पर्यंत पूर्ण न होइ-शरीर पर्याप्ति की संपूर्णता का अभाव करि वैक्रियिक काययोग उपजावने कौं असमर्थ होइ, तावत् काल वैक्रियिक मिश्र कहिए । मिश्रपना इहां भी औदारिक मिश्रवत् जानना । तीहि वैक्रियिक मिश्र करि सहित संप्रयोग कहिए कर्म-नोकर्म ग्रहण की शक्ति को प्राप्त अपर्याप्त कालमात्र आत्मा के प्रदेशनि का चंचल होना: सो वैक्रियिक मिश्र काययोग कहिए । अपर्याप्त योग का नाम मिथ योग जानना ।
आगे आहारक काययोग की पांच गाथानि करि कहै हैंआहारस्सुदएण य, पमत्तविरदस्स होदि पाहारं । असंजमपरिहरणटुं, संदेहविणासणठं च ॥२३॥
आहारस्योदयेन च, प्रमत्तविरतस्य भवति आहारकम् । असंयमपरिहरणार्थ, संदेहविनाशनार्थं च ॥२३५॥
टोका - प्रमत्त विरति षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनि, ताके आहारक शरीर नामा नामकर्म के उदय ते पाहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि का आहारक शरीररूप परिणमने करि आहारक शरीर हो है । सो किस अर्थि हो है ? अढाई द्वीप विर्ष तीर्थयात्रादिक निमित्त वा असंयम दूरि करने के निमित्त वा ऋद्धियुक्त होते
२.पट्यागम-पवना पुन्नक,पृष्फ २६४, गाथा १६३।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३६७
भी श्रुतज्ञानावरण वीर्यातराय का क्षयोपशम की मंदता होते कौऊ धर्म्यध्यान का विरोधी शास्त्र का अर्थ विषे संदेह उपजै ताके दूरि करने के निमित्त आहारक शरीर उपजै है |
णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिक्कम्मर पहुदिकल्लाणे । परखेत्ते संवित्ते, जिगजिणघरवंदणट्ठं च ॥ २३६॥
निजक्षेत्रे केवलद्विकविरहे निष्क्रमरणप्रभृतिकल्याणे | परक्षेत्रे संवृत्ते, जिनजिनगृहवंदनार्थ च ॥२३६॥
टीका - निज क्षेत्र जहा अपनी गमनशक्ति होंइ, तहा केवली श्रुतकेवली न पाइए । बहुरि परक्षेत्र, जहां अपने श्रदारिक शरीर की गमन शक्ति न होंइ, तहां केवली श्रुतकेवली हों अथवा तहा तपज्ञान निर्वारण कल्याणक होइ, तौ तहा असंयम दूर करने के निमित्त वा संदेह दूर करने के निमित्त वा जिन र जिनमंदिर तिन की वंदना करने के निमित्त, गमन करने को उद्यमी भया, जो प्रमत्त संयमी, ताकै प्रहारक शरीर हो है ।
उत्तमगम्हि हवे, धादूविहीणं सुहं असंहणणं । सुहसंठाणं धवलं, हत्थपमाणं पसत्थुदयं ॥ २३७॥
उत्तमांगे भवेत्, धातुविहीनं शुभम संहननम् । शुभसंस्थानं धवलं हस्तप्रमारणं प्रशस्तोदय ॥ २३७॥
टीका - सो आहारक शरीर कैसा हो है ? रसादिक सप्त धातु करि रहित हो है । बहुरि शुभ नामकर्म के उदय ते प्रशस्त अवयव का धारी शुभ हो है । बहुरि संहनन जो हाडों का बंधान तीहि करि रहित हो हैं । बहुरि शुभ जो सम चतुरस्रसंस्थान वा अगोपाग का आकार, ताका धारक हो है । वहुरि चंद्रकातर्माणि समान श्वेत वर्ण हो है । बहुरि एक हस्त प्रमारण हो है । इहां चौवीस व्यवहागगुल प्रमाण एक हस्त जानना । बहुरि प्रशस्त जो ग्राहारक शरीर बंधनादिक पुण्यरूप प्रकृति, तिनि का है उदय जाकै, अंसा हो है । सा श्राहारक शरीर उत्तमांग जो है मुनि का मस्तक, तहां उत्पन्न हो है ।
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३६८ ]
[ गो-मटसार जीवकाण्ड गाथा २३८-२३६-२४०
अव्वाघादी अंतोमुत्तकालट्ठिदी जहण्णिदरे । पज्जत्तीसंपुण्णे, मरणं पि कदाचि संभवई ॥२३८॥
अव्याघाति अंतर्मुहूर्तकालस्थिती जघन्येतरे ।
पर्याप्तिसंपूर्णायां, मरणमपि कदाचित् संभवति ॥२३॥ टीका - सो आहारक शरीर अव्याबाध है; वैक्रियिक शरीर की ज्यों कोई वज्र पर्वतादिक करि रुकि सकै नाही। आप किसी को रोक नाही । वहुरि जाकी जघन्य वा उत्कृष्ट अतर्मुहुर्त काल प्रमाण स्थिति है; असा है । बहुरि जब आहारक शरीर पर्याप्ति पूर्ण होइ, तब कदाचित् कोई आहारक काययोग का धारी प्रमत्त मुनि का आहारक काययोग का काल विष अपने आयु के क्षय ते मरण भी संभव
आहरदि अणेण मुरणी, सहमे अत्थे सयस्स संदेहे । गत्ता केवलिपासं, तह्मा आहारगो जोगो १ ॥२३॥
आहारत्यनेन मुनिः, सूक्ष्मानर्थान् स्वस्य संदेहे ।
गत्वा केवलिपावं तस्मादाहारको योगः ॥२३९॥ टीका - आहारक ऋद्धि करि संयुक्त प्रमत्त मुनि, सो पदार्थनि विषै आप के सदेह होते, ताके दूरि करने के अथि केवली के चरण के निकट जाइ, आप तै अन्य जो केवली, तीहिकरि जो सूक्ष्म यथार्थ अर्थ को प्राहरति कहिए ग्रहण करै, सो
आहारक कहिए । आहारस्वरूप होइ, ताकी आहारक कहिए । सो ताकै तो शरीर पर्याप्ति पूर्ण होते, आहार वर्गणानि करि आहारक शरीर योग्य पुद्गल स्कंधनि के ग्रहण करने की शक्ति धरै, आत्मप्रदेशनि का चचलपना; सो आहारक काययोग जानना।
आगे आहारक मिश्र काययोग को कहै हैआहारयमुत्तत्थं, विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो, आहारयमिस्सजोगो सो २ ॥२४०॥ .
१ पटमाटागम • धवला पुस्तक १, पृष्ठ २६६ गाथा १६४ । २ पट्टागम-घवला पुग्तक १, पृष्ठ २६६, गाथा १६५ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
आहारकमुक्तार्थ विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्ण तत् । यस्तेन संप्रयोगः श्राहारक मिश्रयोगः सः
॥२४० ॥
टीका - पूर्वोक्त लक्षरण लीएं श्राहारक शरीर, सो यावत् काल अंतर्मुहूर्तपर्यत पूर्ण न होइ, प्रहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंधनि का आहारक शरीररूप परिणामावने कौ असमर्थ होइ, तावत् काल श्राहारक मिश्र कहिए । इहां पूर्वे जो श्रदारिक शरीररूप वर्गरणा है, ताके मिलाप मिश्रपना जानना । तींहि आहारक मिश्र करि सहित जो संप्रयोग कहिए अपूर्ण शक्तियुक्त आत्मा के प्रदेशनि का चचलपना, सो आहारक मिश्रकाययोग हे भव्य ! तू जानि ।
आगे कार्माण काय योग को कहै है
कम्मेव य कम्मभवं, कम्मइयं जो दु तेरा संजोगो । कम्मइयकायजोगो, इगिविगतिगसमयकालेसु ॥ २४१॥
कर्मैव च कर्मभवं, कार्मणं यस्तु तेन संयोगः । कार्मर काययोगः, एकद्विक त्रिकसमयकालेषु ॥ २४१ ॥
[ ३६६
टीका - कर्म कहिए ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल स्कंध, सोइ कार्माण शरीर जानना । अथवा कर्म जो कार्माण शरीर नामा नामकर्म, ताके उदय करि भया, सो कार्मारण शरीर कहिए । तीहि कार्मारण स्कंध सहित वर्तमान जो संप्रयोगः कहिए आत्मा के कर्मग्रहणशक्ति धरै प्रदेशनि का चंचलपना, सो कार्मारणकाय योग है । सो विग्रह गति विषै एक समय वा दोय समय वा तीन समय काल प्रमारण हो है । अर केवल समुद्धात विषै प्रतरद्विक अर लोक पूर्ण इनि तीन समयनि विषे हो है । और काल विषै कार्मारण योग न हो है । याही ते यह जान्या, जो कार्माण विना और जे योग कहे, ते रुकै नाही, तौ अतर्मुहूर्त पर्यंत एक योग का परिणमन उत्कृष्ट रहै; पीछे और योग होइ । बहुरि जो अन्य करि रुकै तौ एक समयको आदि देकर अंतर्मुहूर्त पर्यंत एक योग का परिणमन यथासंभव जानना । सो एक जीव की अपेक्षा तो से है । अर नाना जीव की अपेक्षा 'उपसम सुहम' इत्यादि गाथानि करि आठ सांतर मार्गणा विना अन्य मार्गणानि का सर्व काल सद्भाव का ही है ।
१. पटखडागम घवला पुस्तक १, पृष्ठ २६७, गाथा १६६ ।
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३७० ]
[ गोम्मटगार जीवकाण्ड गाथा २४२-२०3 आगै योगनि की प्रवृत्ति का विधान दिखावै हैवेगुन्विय-प्राहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदसि । जोगोवि एक्ककाले, एक्केव य होदि णियमेण ॥२४२॥
वैविकाहारकक्रिया न समं प्रमत्तविरते ।
योगोऽपि एककाले, एक एव च भवति नियमेन ॥२४२॥ टीका - प्रमत्त विरत षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनि के समकाल विप युगपत् वैक्रियिक काययोग की क्रिया अर आहारक योग की क्रिया नाही। असा नाही कि एक ही काल विष आहारक शरीर को धारि, गमनागमनादि कार्य की करें और विक्रिया ऋद्धि को धारि, विक्रिया संबंधी कार्य को भी करै, दोऊ मे स्यौ एक ही होइ । यातै यह जान्या कि गणधरादिकनि के और ऋद्धि युगपत् प्रवर्तं ती विरुद्ध नाही । बहुरि तैसे ही अपने योग्य अतर्मुहुर्त मात्र एक काल विष एक जीव के युगपत् एक ही योग होइ, दोय वा तीन योग युगपत् न होइ, यह नियम है । जो एक योग का काल विषै अन्य योग सबंधी गमनादि क्रिया की प्रवृत्ति देखिए है, सो पूर्वं जो योग भया था, ताके संस्कार तै हो है । जैसे कुभार पहिले चाक दंड करि फेऱ्या था, पीछे कुंभार उस चाक को छोडि अन्य कार्य को लाग्या, वह चाक सस्कार के बल तै केतक काल आप ही फिर्या करै; सस्कार मिटि जाय, तव फिरै नाही । तैसै आत्मा पहिले जिस योगरूप परिणया था, सो उसको छोडि अन्य योगरूप परिणया, वह योग संस्कार के बल ते आप ही प्रवर्ते है। सस्कार मिटै जैसै छोडया हूवा वाण गिरै, नैसै प्रवर्तना मिटै है । तातै सस्कार ते एक काल विर्ष अनेक योगनि की प्रवृत्ति जानना। बहुरि प्रमत्तविरति कै सस्कार की अपेक्षा भी एक काल वैक्रियिक वा आहारक योग की प्रवृत्ति न हो है। जैसे प्राचार्य करि वर्णन किया है। सो जानना ।
आगे योग रहित आत्मा के स्वरूप को कहै हैजेसि ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपावसंजणया। ते होंति अजोगिजिणा, अणोवमाणंतबलकलिया ॥२४३॥
येषां न संति योगाः, शुभाशुभाः पुण्यपापसंजनकाः । ते भवंति अयोगिजिनाः, अनुपमानंतबलकलिताः ॥२४३।।
२ पट्खडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ २८२, गाथा १५५ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका)
। ३७१
टीका - जिन आत्मनि के पुण्य पापरूप कर्म प्रकृति के वध की उपजावन हारे शुभरूप वा अशुभरूप मन, वचन, काय के योग न होहि ते अयोगी जिन, चौदह्वा अंत गुणस्थानवर्ती वा गुणस्यानातीत सिद्ध भगवान जानने ।
कोऊ जानेगा कि योगनि के अभाव ते उनके बल का अभाव है । जैसे हम सारिखे जीवनि के योगनि के आश्रयभूत बल देखिए है।
तहा कहिए है । कैसे है-सिद्ध ? 'अनुपमानंतबलकलिताः' कहिए जिनके बल को हम सारिखे जीवनि का बल की उपमा न बने है । बहुरि केवलज्ञानवत् अक्षयानंत अविभाग प्रतिच्छेद लीए है, जैसा बल-वीर्य, जो सर्व द्रव्य-गुण-पर्याय का युगपत् ग्रहण की समर्थता, तीहि करि व्याप्त है । तीहि स्वभाव परिणए है। योगनि का बल कर्माधीन है । तातै प्रमाण लीए है, अनत नाही । परमात्मा का बल केवलज्ञानादिवत् आत्मस्वभावरूप है । तातै प्रमाण रहित अनत है; असा जानना।
आगै शरीर का कर्म अर नोकर्म भेद दिखावै हैं -
ओरालियवेगुन्विय, आहारयतेजणामकम्मुदये। चउणोकम्मसरोरा, कम्मेव य होदि कम्मइयं ॥२४४॥
औरालिकवेविकाहारकतेजोनामकर्मोदये । चतुर्नोकर्मशरीराणि, कमैव च भवति कार्मरणम् ॥२४४॥
टीका - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजसरूप जो नामकर्म की प्रकृति तिनके उदय ते जे ए औदारिक आदि च्यारि शरीर होइ, ते नोकर्म शारीर जानने । नो शब्द का दोय अर्थ है, एक तौ निषेधरूप अर एक ईषत् स्तोकरूप । सो इहा कार्माण की ज्यो ए च्यारि शरीर आत्मा के गुण को घात नाही वा गत्यादिकरूप पराधीन न करि सके । तातै कर्म ते विपरीत लक्षण धरने करि इनिकी अकर्म शरीर कहिए । वा कर्म शरीर के ए सहकारी है । तातै ईषत् कर्म शरीर कहिए । असे इनिको नोकर्म शरीर कहै । जैसे मन को नो-इद्रिय कहिए है; तसे नोकर्म जानने । बहुरि कार्माण शरीर नामा नामकर्म के उदय ते ज्ञानावरणादिक कर्म स्कधरूप कर्म, सोई कर्म शरीर जानना ।
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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २४५-२४६
३७२ ]
प्रागै जे ए औदारिकादिक शरीर कहै, तिनिका समयप्रबद्धादिक की सख्या दोय गाथानि करि कहिए है -
परमाणू हि अणंतहि, वग्गणसण्णा हु होदि एक्का हु। ताहि अणंतहिं णियमा, समयपबद्धो हवे एक्को ॥२४५॥
परमाणुभिरनंतैः वर्गणासंज्ञा हि भवत्येका हि ।
ताभिरनंतैनियमात्, समयप्रबद्धो भवेदेकः ॥२४५॥ टीका - सिद्धराशि के अनंतवे भाग पर अभव्यराशि स्यौ अनंतगुणा जैसा जो मध्य अनंतानंत का भेद, तीहि प्रमाण पुद्गल परमाणूनि करि जो एक स्कंध होइ, सो वर्गणा, असा नाम जानना । संख्यात वा असख्यात परमाणूनि करि वर्गणा न हो है । जाते यद्यपि आगे पुद्गल वर्गणा के तेईस भेद कहैगे । तहा अणुवर्गणा, सख्याताणुवर्गणा, असख्याताणुवर्गणा आदि भेद है । तथापि इहा औदारिक आदि शरीरनि का प्रकरण विष आहारवर्गणा वा तैजसवर्गणा वा कार्माणवर्गणा का ही ग्रहण जानना । बहुरि सिद्धनि के अनंतवे भाग वा अभव्यनि ते अनंतगुणी जैसी मध्य अनतानत प्रमाण वर्गणा, तिनि करि एक समयप्रबद्ध हो है । समय विष वा समय करि यह जीव कर्म-नोकर्मरूप पूर्वोक्त प्रमाण वर्गणानि का समूहरूप स्कध, करि सबध करै है । तात याकी समयप्रबद्ध कहिए है । असा वर्गणा का वा समयप्रवद्ध का भेद स्याद्वादमत विष है, अन्यमत विष नाही । यह विशेष नियम शब्द करि जानना।
इहा कोऊ प्रश्न कर कि एक ही प्रमाण को सिद्धराशि का अनतवा भाग वा अभव्य राशि ते अनतगुणा असे दोय प्रकार कह्या, सो कौन कारण ?
ताको समाधान - कि सिद्धराशि का अनतवा भाग के अनत भेद है। तहां अभव्यराशि ते अनतगुणा जो सिद्धराशि का अनंतवा भाग होइ, सो इहा प्रमाण जानना । असे अल्प-वहुत्व करि तिस प्रमाण का विशेष जानने के अथि दोय प्रकार कह्या है । अन्य किछ प्रयोजन नाही।
ताणं समयपबद्धा, सेडिअसंखेज्जभागगुणिदकमा। गंतेण य तेजदुगा, परं परं होदि सुहमं खु ॥२४६॥ .
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गम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषाटीका ]
तेषां समयबद्धाः श्रेण्यसंख्येयभागगुणितक्रमाः । अनंतेन च तेजोद्विकाः, परं परं भवति सूक्ष्मं खलु ॥ २४६ ॥
टीका - तिन पंच शरीरनि के समयप्रबद्ध सर्व ही परस्पर समान नाही है । उत्तरोत्तर अधिक परमाणूनि का समूह लीए है; सो कहिए है । परमाणूनि का प्रमारण करि श्रदारिक शरीर का समयप्रबद्ध सर्व तै स्तोक है । याते श्रणी का असंख्यातवां भाग गुणा परमाणू प्रमाण वैक्रियिक का समयप्रबद्ध है । बहुरि यातें भी रिणका असंख्यातवां भाग गुणा परमाणू प्रमाण आहारक का समयप्रबद्ध है । अँसे ग्राहारक पर्यंत जगतश्रेणी का असंख्यातवां भाग को गुरणकार की विवक्षा जाननी । तातें परै आहारक के समयप्रबद्ध ते अनंतगुरणा परमाणू प्रमाण तैजस का समयप्रबुद्ध है । बहुरि यातै भी अनंतगुणा परमाणू प्रमारण कार्मारण का समय प्रबद्ध है । इहा 'अनंतेन तेजोद्विकं' इस करि तैजसकार्मारण विषै प्रनतानंत गुणा
प्रमाण जानना ।
बहुरि इहा कोऊ आशंका करै कि जो उत्तरोत्तर अधिके अधिके परमाणू कहे, तो उत्तरोत्तर स्थूलता भी होयगी ?
[ ३०३
तहां कहिए है - परं परं सूक्ष्मं भवति कहिए उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । श्रदारिक ते वैक्रियिक सूक्ष्म है । वैक्रियिक ते आहारक सूक्ष्म है । आहारक ते तेजस सूक्ष्म है । तैस तैं कार्माण सूक्ष्म है । यद्यपि परमाणू तौ अधिक अधिक हैं, तथापि स्कंध का बंधन में विशेष है । ताते उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । जैसे कपास के पिड ते लोह के पिड़ मे अधिकपना होते भी कपास के पिड ते लोह का पिड क्षेत्र थोरा रोक; तैसे
जानना ।
-
आगे श्रदारिकादिक शरीरनि का समयप्रबद्ध र वर्गरणा, ते कितने-कितने क्षेत्र विपे रहे ? असा अवगाहना भेदनि को कहै है -
गाहणाणि तारणं, समयपबद्वाण वग्गरगाणं च । अंगुलप्रसंखभागा, उवरुवरिमसंखगुणहीणा ॥२४७॥
श्रवगाहनानि तेषां समयप्रवद्धानां वर्गरणानां च । गुलासंख्यभागा, उपर्युपरि असंख्यगुरगहनानि ॥ २४७॥
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३७४ 1
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २४८ टीका - तिनि औदारिकादिक शरीर सबधी समयप्रबद्ध वा वर्गणा, तिनिका अवगाहनाक्षेत्र घनागुल के असख्यातवे भागमात्र है । तथापि ऊपरि-ऊपरि असख्यातगुणा घाटि क्रम तै जानना । सोई कहिए है - औदारिक शरीर के समयप्रबद्धनिका अवगाहनाक्षेत्र सूच्यगुल का असख्यातवा भाग का भाग घनांगुल को दीएं, जो परिमाण आवै, तितना जानना । बहुरि याको सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग का भाग दोजिये तब औदारिक शरीर की वर्गणा के अवगाहना क्षेत्र का प्रमाण होइ । बहुरि यातै सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण, जो असंख्यात, तिहि असंख्यातगुणा घटता क्रम ते वैक्रियिकादि शरीर के समयप्रबद्ध का वा वर्गणा की अवगाहना का परिमाण हो है । वैक्रियिक शरीर का समयप्रबद्ध की अवगाहना की सूच्यंगुल का असख्यातवा भाग करि गुरिण, औदारिक समयप्रबद्ध की अवगाहना हो है । वैक्रियिक शरीर की वर्गणा की अवगाहना की सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग करि गुणे, औदारिक की वर्गणा की अवगाहना हो है । जैसे ही वैक्रियिक ते आहारक की, आहारक ते तैजस की, तैजस ते कार्माण की समयप्रबद्ध वा वर्गणा की अवगाहना असंख्यातगुणी क्रम तै घाटि जाननी ।
इस ही अर्थ को श्री माधवचंद्र त्रैविद्य देव कहै है - तस्समयबद्धवग्गणओगाहो सूइअंगुलासंखभागहिदबिंदअंगुलमुवरुवार तेन भजिदकमा ॥२४८॥
तत्समयबद्धवर्गणावगाहः सूच्यंगुलासंख्य
भागहितवृदांगुलमुपर्यु परि तेन भजितक्रमाः ॥२४८॥ टीका - तिनि सयमप्रबद्ध वा वर्गणा की अवगाहना का परिमाण सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग का भाग घनागुल को दीए जो परिमाण होइ, तितना जानना। वहुरि ऊपरि-ऊपरि पूर्व-पूर्व ते सूच्यगुल के असख्यातवे भाग मात्र जानने । गुणहानि का अर भाग देने का एक अर्थ है । सो वैक्रियिक का समयप्रबद्ध वर्गणा की अवगाहना को मूच्यगुल का असख्यातवा भाग करि गुण, औदारिक का समयप्रबद्ध वर्गणा की अवगाहना होइ । अथवा औदारिक का समयप्रबद्ध वर्गणा की अवगाहना की सूच्यगुल का असख्यातवां भाग का भाग दीये वैक्रियिक शरीर का समयप्रबद्ध वर्गणा का परिमाण होड । दोऊ एकार्थ है; जैसे ही सब का जानना ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका
[ ३७५ आगै विस्रसोपचय का स्वरूप कहै हैं - जीवादो गंतगुणा, पडिपरमाणुम्हि विस्ससोवचया । जीवेरण य समवेदा, एक्कक्कं पडिसमाणा हु ॥२४६॥
जीवतोऽनंतगुणाः प्रतिपरमाणौ विस्रसोपचयाः ।
जीवेन च समवेता एकैकं प्रति समानाः हि ॥२४९॥ टीका - कर्म वा नोकर्म के जितने परमाणु है, तिनि एक-एक परमाणूनि प्रति जीवराशि ते अनंतानत गुणा विस्रसोपचयरूप परमाणू जीव के प्रदेशनि स्यों एक क्षेत्रावगाही है । विसृसा कहिए अपने ही स्वभाव करि आत्मा के परिणाम विना ही उपचीयते कहिए कर्म-नोकर्म रूप विना परिणए जैसे कर्म-नोकर्म रूप स्कध, तीहि विष स्निग्ध-रूक्ष गुण का विशेष करि मिलि, एक स्कधरूप होंहि; ते विस्रसोपचय कहिए; जैसा निरुक्ति करि ही याका लक्षण आया; तातें जुदा लक्षण न कह्या । विस्रसोपचयरूप परमाणू कर्म-नोकर्मरूप होने को योग्य है। उन ही कर्म नोकर्म के स्कंध विर्ष एकक्षेत्रावगाही होइ संबंधरूप परिणमि करि एक स्कधरूप हो है। वर्तमान कर्म नोकर्मरूप परिणए है नाही; असे विस्रसोपचयरूप परमाणू जानने । ते कितने है ? सो कहिए है
जो एक कर्म वा नोकर्म सबधो परमाणू के जीवराशि ते अनत गुणे विस्रसोपचयरूप परमाणू होंइ, तौ किछू घाटि ड्योढ गुणहानि का प्रमाण करि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण सर्वसत्त्वरूप कर्म वा नोकर्म के परमाणूनि के केते विस्रसोपचय परमाणू होहि; जैसै त्रैराशिक करना । इहा प्रमाण राशि एक, फलराशि अनतगुणा जीवराशि, इच्छाराशि किचिदून द्वयर्धगुणहानि गुणित समयप्रबद्ध । तहा इच्छा को फलराशि करि गुणि, प्रमाण का भाग दीए, लब्धराशिमात्र आत्मा के प्रदेश नि विर्षे तिष्ठते सर्व विस्रसोपचय परमाणूनि का प्रमाण जानना । बहुरि इस विस्रसोपचय परमाणूनि का परिमाण विष किचिदून द्वयर्धगुणहानि गुरिणत समयप्रबद्ध मात्र कर्मनोकर्मरूप परमाणूनि का परिमाण को मिलाए, विस्रसोपचय सहित कर्म नोकर्म का सत्त्व हो है।
आगै कर्म-नोकर्मनि का उत्कृष्ट सचय का स्वरूप वा स्थान वा लक्षण प्ररूप है
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५०-२५२ उक्कस्सद्विदिचरिमे, सगसगउक्कस्ससंचओ होदि । पणदेहाणं वरजोगादिससामग्गिसहियारणं ॥२५०॥
उत्कृष्टस्थितिचरमे, स्वकस्वकोत्कृष्टसंचयो भवति ।
पंचदेहानां वरयोगादिस्वसामग्रीसहितानाम् ॥२५०॥ टोका - उत्कृष्ट योग आदि अपने-अपने उत्कृष्ट बध होने की सामग्री करि सहित जे जीव, तिनिकै औदारिकादिक पच शरीरनि का उत्कृष्ट सचय जो उत्कृष्टपने परमाणूनि का संबंध, सो अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति का अंत समय विष हो है। तहा स्थिति के पहले समय ते लगाइ एक-एक समय विष एक-एक समयप्रबद्ध बधै । बहुरि प्रागै कहिए है, तिसप्रकार एक-एक समयप्रबद्ध का एक-एक निषेक की निर्जरा होइ, अवशेष संचयरूप होते सतै अत समय विषै किछू घाटि, ड्योढगुणहानि करि समयप्रबद्ध कौ गुण, जो परिमाण होइ, तितना उत्कृष्ट पनै सत्त्व हो है ।
आगे श्री माधवचद्र त्रैविद्य देव उत्कृष्ट संचय होने की सामग्री कहै हैआवासया हु भवनद्धाउस्सं जोगसंकिलेसो य । ओकटुक्कट्टणया, छच्चदै गुणिदकम्मसे ॥२५१॥
आवश्यकानि हि भवाद्धा आयुष्यं योगसंक्लेशौ च ।
अपकर्षरमोत्कर्षणके, षट् चेते गुणितकर्माशे ॥२५१॥ टीका - गुरिणतकर्माश कहिए उत्कृष्ट सचय जाके होइ, असा जो जीव, तीहि विष उत्कृप्ट सचय को कारण ए छह अवश्य होइ । तातै उत्कृष्ट सचय करने वाले जीव के ए छह आवश्यक कहिए। १ भवाद्धा, २ आयुर्बल, ३. योग, ४. सक्लेश,.५. अपकर्षण, ६ उत्कर्षण ए छह जानने । इनिका स्वरूप विस्तार लीए आगे कहिएगा।
अव पच शरीरनि का बध, उदय, सत्त्वादिक विर्ष परमाणूनि का प्रमाण का विशेष जानने की स्थिति आदि कहिए है। तहा औदारिकादिक पच शरीरनि की उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण कहै है
पल्लतियं उवहीणं, तेत्तीसंतोमुहुत्त उवहीणं । छावट्ठी कमछिदि, बंधुक्कस्सदिदी तारणं ॥२५२॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
पत्यत्रयमुदधीनां त्रयस्त्रशवंतर्मुहूर्त उदधीनाम् । षट्षष्टिः कर्मस्थिति, बंधोत्कृष्ट स्थितिस्तेषाम् ॥ २५२ ।।
टीका - तिनि श्रदारिक आदि पच शरीरनि की बंधरूप उत्कृष्ट स्थिति विषे औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य है । वैक्रियिक शरीर की तेतीस सागर है । आहारक शरीर की अतर्मुहूर्त है । तैजस शरीर की छयासठ सागर है । कार्मारण की स्थितिबंध विषै जो उत्कृष्ट कर्म की स्थिति सो जाननी । सो सामान्यपर्ने सत्तर कोडाकोडी सागर है । विशेषपने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अतराय की तीस कोडाकोडी, मोहनीय की सत्तर कोडाकोडी; नाम - गोत्र की बीस कोडाकोडी; आयु की तेतीस सागर प्रमारण जाननी । से पच शरीरनि की उत्कृष्ट स्थिति कही ।
अब इहा यथार्थ ज्ञान के निमित्त अकसंदृष्टि करि दृष्टांत कहिए है
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[ ३७७
जैसे समय बद्ध का परिमाण तरेसठि से (६३०० ) परमाणू स्थिति प्रडतालीस समय होइ, तैसे इहा पंच शरीरनि की समयप्रबद्ध के परमाणूनि का परिमाण अर स्थिति के जेते समय होहि, तिनि का परमाणू का परिमाण पूर्वोक्त
जानना ।
आगे इनि पचशरीरनि की उत्कृष्ट स्थितिनि विषे गुणहानि आयाम का परिमाण कहै है -
-
तोमुहुत्तमेतं, गुणहाणी होदि आदिमतिगाणं । पल्लासंखेज्जदिमं, गुणहारगी तेजकम्माणं ॥ २५३ ॥
अंतर्मुहूर्तमात्रा, गुणहानिर्भवति श्रादिमत्रिकानां । पल्या संख्यात भागा गुणहानिस्तेजः कर्मणोः ॥ २५३ ॥
टीका-पूर्व- पूर्व गुणहानि ते उत्तर- उत्तर गुणहानि विषै गुणहानि का वा निपेकनि का द्रव्य दूर-दूणा घटता होइ है । तातै गुणहानि नाम जानना । सो जैसे अडतालीस समय की स्थिति विषै आठ-आठ समय प्रमाण एक - एक गुणहानि का आयाम हो है । तैसे आदि के तीन शरीर श्रदारिक, वैक्रियिक, आहारक तिनकी तो उत्कृप्ट स्थिति सं गुणानि यथायोग्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण है । अपने-अपने योग्य अतर्मुहूर्त के जेते
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३७८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५३
समय होड, तितना गुणहानि का आयाम जानना । प्रायाम नाम लबाई का है । सो हा समय-समय सबधी निषेक क्रम तै होइ । तातै आयाम औसी संज्ञा कही । बहुरि तैजसकार्मारण की उत्कृष्ट स्थिति सबधी गुणहानि अपने-अपने योग्य पल्य के असख्यातवे भाग प्रमाण है । तहां पल्य की जो वर्गशलाका, ताके जेते अर्धच्छेद होइ, तितने पल्य के अर्धच्छेदनि मे घटाएं, जो अवशेष रहै, ताकौ असख्यात करि गुणै, जो परिणाम होड, तितनी तैजस की सर्व नानागुणहानि है । इस परिमाण का भाग तैजस शरीर को उत्कृष्ट स्थिति सख्यात पल्य प्रमाण है । ताकौं दीए जो परिमाण
व तीहि प्रमाण पत्य के असंख्यात वे भागमात्र तैजस शरीर की गुणहानि का
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श्रायाम है । बहुरि पल्य को वर्गशलाका के जेते अर्धच्छेद होइ, तिनिकौ पल्य के अर्थच्छेदनि मे घटाए जो अवशेष रहे, तितनी कार्माण की सर्वनानागुणहानि है । इस परिमाण का भाग कार्मारण की उत्कृष्ट स्थिति सख्यातपल्य प्रमाण है । ताकौ दीए जो परिमाण आवै, तीहि प्रमाण पल्य के असख्यातवे भागमात्र कार्माण शरीर की गुणहानि का आयाम है । जैसे गुणहानि आयाम का ।
I
वहुरि जैसे आठ समय की एक गुणहानि होइ, तौ अडतालीस समय की केती गुणहानि होड ? जैसे त्रैराशिक कीए सर्वस्थिति विषै नानागुणहानि का प्रमाण छह ग्रावै । तैसे जो औदारिक शरीर की एक अतर्मुहूर्तमात्र एकगुणहानि शलाका है । तो तीन पल्य की नानागुणहानि कितनी है ? अँसे त्रैराशिक करिए । तहा प्रमाणराणि अतर्मुहूर्त के समय, फलराशि एक, इच्छाराशि तीन पल्य के समय तहा फलराशि करि इच्छा राशि को गुरिण, प्रमाण राशि का भाग दीए, लब्ध प्रमाण तीन पल्य की अतर्मुहूर्त का भाग दीए, जो परिमाण यावे, तितना आया, सो उत्कृष्ट प्रदारिक शरीर की स्थिति विषे नानागुणहानि का प्रमाण जानना ।
से ही वैक्रियिक शरीर विषे प्रमाणराणि अतर्मुहूर्त, फलराशि एक, इच्छाराणि तेतीस सागर कीयें तेतीस सागर को अतर्मुहूर्त का भाग दीये, जो प्रमाण श्रा, तितना नानागुणहानि का प्रमारण जानना ।
बहुरि श्राहारक शरीर विषै प्रमाणराशि छोटा अतर्मुहूर्त, फलराशि एक, राशि वडा प्रतर्मुहर्त कीए, अतर्मुहूर्त को स्वयोग्य छोटा अंतर्मुहूर्त का भाग दीएं जो परिमाणाव, तितना नानागुणहानि शलाका का प्रमाण जानना ।
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[ ३७६
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
बहुरि तैजस शरीर विषै प्रमाणराशि पूर्वोक्त गुणहानि आयाम, फलराशि एक, इच्छाराशि छ्यासठ सागर कीए पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद करि हीन पल्य का अर्धच्छेदनि तै असख्यात गुणा नानागुणहानि का प्रमाण हो है ।
बहुरि कार्मारण शरीर विषै प्रमाण राशि पूर्वोक्त गुणहानि आयाम, फलराशि एक, इच्छाराशि मोह की अपेक्षा सत्तरि कोडाकोडि सागर कीए पत्य की वर्ग शलाका का अर्धच्छेद करि हीन पल्य का अर्धच्छेदमात्र नानागुणहानि का प्रमाण जानना ।
अब औदारिक आदि शरीरनि का गुणहानि आयाम साधिए है - जैसे जो छह नानागुणहानि का अडतालीस समय प्रमाणस्थिति श्रायाम होंइ, तौ एकगुणहानि का कितना आयाम होइ ? असे त्रैराशिक करिये । इहा प्रमाणराशि छह, फलराशि अडतालीस, इच्छाराशि एक भया । तहा लब्ध राशिमात्र एकगुणहानि आयाम का प्रमाण आठ आया, तैसे अपना-अपना नानागुणहानि प्रमारण का अपना-अपना स्थिति प्रमाण आयाम होइ, तौ एकगुणहानि का केता प्रायाम होइ ? जैसे त्रैराशिक करिए | तहा लब्धराशि मात्र गणहानि का आयाम हो है ।
तहां दारिक विषे प्रमाणराशि अतर्मुहूर्त करि भाजित तीन पत्य, फलराशि तीन पल्य इच्छाराशि एक कीए लब्धराशि अतर्मुहूर्त हो है ।
बहुरि वैक्रियिक विषं प्रमाणराशि अतर्मुहूर्त करि भाजित तेतीस सागर, फलराशि तेतीस सागर इच्छाराशि एक कीए लब्धराशि अतर्मुहूर्त हो है ।
बहुरि श्राहारक विषै प्रमाणराशि संख्यात, फलराशि अतर्मुहूर्त, इच्छाराशि एक कीए लब्धराशि छोटा अतर्मुहूर्त हो है ।
बहुरि तैजस विषै प्रमाणराशि पल्य की वर्ग शलाका का अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के अर्धच्छेदनि ते असख्यातगुणा, फल छयासठ सागर, इच्छा एक कीए लब्ध राशि सख्यात पल्य कौ पल्य की वर्गशालाका का अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के तितना अर्धच्छेदनि ते असख्यात गुणे प्रमाण का भाग दीए, जो प्रमाण आवै,
जानना ।
बहुरि कार्मारण विषै प्रमाणराशि पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के अर्धच्छेद मात्र, फलराशि सत्तरि कोडाकोडी सागर इच्छाराशि एक
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३८० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५३ कीए लब्धराशि संख्यात पल्य कौ पल्य की वर्गशलाका के अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के अर्धच्छेदराशि का भाग दीए, जितना आवे तितना जानना । जैसे लब्धराशि मात्र एकगुणहानि का आयाम जानना । इतने-इतने समयनि के समूह का नाम एकगुणहानि है । सर्व स्थिति विष जेती गुणहानि पाइए, तिस प्रमाण का नाम नानागुणहानि है; असा इहा भावार्थ जानना ।
बहुरि नानागुणहानि का जेता प्रमाण तितने दूवे माडि, परस्पर गुणे, जितना प्रमाण होइ, सो अन्योन्याभ्यस्तराशि जानना। जैसे नानागुणहानि का प्रमाण छह सो छह का विरलन करि एक-एक जायगा दोय के अक मांडि, परस्पर गुण चौसठि होंइ; सोई अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण जानना । तैसे ही औदारिक
आदि शरीरनि की स्थिति विष जो-जो नानागुणहानि का प्रमाण कह्या, ताका विरलन करि एक-एक बखेरि अर एक-एक जायगा दोय-दोय देइ, परस्पर गुण, अपना-अपना अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण हो है । तहां लोक के जेते अर्धच्छेद है; तितने दूवेनि कौ परस्पर गुणे, लोक होइ । तौ इहां नानागुणहानि प्रमाण दुवे माडि, परस्पर गुणे, केते लोक होइ ? जैसे त्रैराशिक करना। तहां लब्धराशि ल्यावने के अथि सूत्र कहिए है
दिण्णच्छेदेणवहिद, इटुच्छेदेहि पयदविरलणं भनिदे ।
लद्धमिदइट्ठरासी, णण्णोण्णहदीए होदि पयदधणं ॥२१४॥ असा कायमार्गणा विषे सूत्र कह्या था, ताकरि इहां देयराशि दोय, ताका अर्धच्छेद एक ताका भाग इप्टच्छेद लोक के अर्धच्छेद को दीए, इतने ही रहे, इनि लोक के अर्धच्छेदनि के प्रमाण का भाग औदारिक शरीर की स्थिति सबधी नानागुणहानि के प्रमाण की दीए, जो प्रमाण आवै, तितने इष्टराशिरूप लोक माडि, परस्पर गुणे, जो लब्धि प्रमाण होड, तितना औदारिक शरीर की स्थिति विष अन्योन्याभ्यस्त राशि का प्रमाण असख्यातलोकमात्र हो है । वहुरि तैसे ही वैक्रियिक शरीर विषै नानागुणहानि का प्रमाण को लोक का अर्धच्छेद राशि का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितने लोक माटि परस्पर गुण, वैक्रियिक शरीर की स्थिति विपै अन्योन्याभ्यस्त विष राशि हो है । सो यहु औदारिक शरीर की स्थिति सवधी अन्योन्याभ्यस्तराशि ते श्रमन्यात लोक गुरणा जानना। काहे ते ? जातै प्रतर्मुहूर्त करि भाजित तीन पल्य ते अंतर्महतं नारि भाजित नेतीन सागर को एक सौ दश कोडाकोडी का गुणकार संभव
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सम्ममानवन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ३८१ है । सो यहां एक घाटि एक सौ दश कोडाकोडी गुणा जो औदारिक शरीर की नानागुणहानि का प्रमाण, तितना औदारिक शरीर की नानागुणहानि का प्रमाण ते वैक्रियिक शरीर की नानागुणहानि का प्रमाण अधिक भया सो -
विरलपरासीदो पुरण, जेत्तियमेत्तारिण अहियरूवाणि ।
तेसि अण्णोण्णहदी, गुण्यारो लद्धरासिस्स ॥ इस सूत्र करि इस अधिक प्रमाणमात्र दूवे मांडि, परस्पर गुणे, जो असख्यातलोकमात्र परिमारण आया, सोई औदारिक का अन्योन्याभ्यस्तराशि ते वैक्रियिक का अन्योन्याभ्यस्तराशि विषै गुणकार जानना । अथवा जो अतर्मुहूर्त करि भाजित तीन पल्य प्रमाण औदारिक शरीर सबंधी नानागुणहानि का अन्योन्याभ्यस्तराशि असख्यात लोकमात्र होइ, तौ एक सौ दश कोडाकोडि गुणा अतर्मुहूर्त करि भाजित तीन पल्य प्रमाण वैक्रियिक शरीर की नानागुणहानि का अन्योन्याभ्यस्तराशि कितनी होई ? असा त्रैराशिक कीए 'दिगच्छेदेणवहिद' इत्यादि सूत्र करि एक सौ दश कोडाकोडि बार प्रौदारिक शरीर संबधी अन्योन्याभ्यस्तराशि माडि, परस्पर गुण, वैक्रियिक शरीर संबधी अन्योन्याभ्यस्तराशि हो है । तातै भी औदारिक सबधी अन्योन्याभ्यस्तराशि तै वैक्रियिक संबधी अन्योन्याभ्यस्तराशि विष असख्यातलोक का गुणकार सिद्ध भया।
बहुरि आहारक शरीर की नानागुणहानि सख्यात है, सो सख्यात का विरलन करि एक-एक प्रति दोय देइ, परस्पर गुणे, यथायोग्य सख्यात होइ, सो आहारक शरीर का अन्योन्याश्यस्तराशि जानना ।
बहरि तैजस शरीर की स्थिति सबधी नानागुणहानि शलाका कारण शरीर की स्थिति सबधी नानागुणहानि शलाका ते असंख्यात गुणी है, सो पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद पल्य अर्धच्छेदनि मे घटाए, जो प्रमाण होइ, ताते असख्यातगुणी जाननी । सो इहां सुगमता के अथि, याकौ पल्य का अर्धच्छेदराशि का भाग देना तहा पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेदराशि को असंख्यात करि गुणिए, अर पल्य का अर्धच्छेदराशि का भाग दीजिएं, इतना घटावने योग्य जो ऋणराशि, ताको जुदा राखिए, अवशेष ऋण रहित राशि पल्य का अर्धच्छेदराशि को असंख्यातगुणा दीजिए पल्य का अर्धच्छेदराशि का भाग दीजिए, इतना रह्या, सो इहां भाज्यराशि विष पर भागहारराशि विषै पल्य का अर्धच्छेदराशि को समान जानि, अपवर्तन
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३८२ j
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५३ करना । अवशेष गुणकाररूप असख्यात रहि गया, सो इस असंख्यात का जेता प्रमाण होइ तितना ही पल्य माडि, परस्पर गुणन करना, जात असख्यातगुणा पल्य का अर्धच्छेद प्रमाण दूवा माडि, परस्पर गुणे, जेता प्रमाण होइ, तितना ही पल्य का अर्धच्छेद राशि का भाग दीए, अवशेष गुणकार मात्र असख्यात रह्या, तितना पल्य माडि, परस्पर गुणे प्रमाण हो है । जैसे पल्य का प्रमाण सोलह, ताके अर्धच्छेद च्यारि, असख्यात का प्रमाण तीन, सो तीनि करि च्यारि को गुणे, बारह होइ । सो बारह जायगा दूवा मांडि, परस्पर गुणे, च्यारि हजार छिनवै होइ । सोई बारह को च्यारि का भाग दीएं, गुणकार मात्र तीन रह्या, सो तीन जायगा सोलह मांडि, परस्परगुणे, च्यारि हजार छिनवै होइ । तातै सुगमता के अथि पूर्वोक्त राशि को पल्य का अर्धच्छेद राशि का भाग देइ, लब्धिराशि असख्यात प्रमाण पल्य माडि, परस्पर गुणन कीया । सो इहां यह गुणकाररूप असंख्यात है । सो पल्य का अर्धच्छेदनि के असख्यातवे भाग मात्र जानना । पल्य का अर्धच्छेदराशि समान जानना । जो पल्य का अर्धच्छेद समान यहु असख्यात होइ, तौ इतने पल्य मांडि, परस्पर गुण, तैजस शरीर की स्थिति संबंधी अन्योन्याभ्यस्तराशि सूच्यंगुल प्रमारण होइ; सो है नाही; तातें शास्र विषै क्षेत्र प्रमाण करि सूच्यगुल के असंख्यातवे भाग मात्र काल प्रमाण करि असख्यात कल्पकाल मात्र तेजस शरीर की स्थिति सबधी अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण कह्या है। तातै पल्य का अर्धच्छेद का असख्यातवा भाग मात्र असंख्यात का विरलन करि एक-एक प्रति पल्य को देइ, परस्पर गुणे, सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग मात्र प्रमाण हो है । सो द्विरूप वर्गधारा विर्षे पल्यराशिरूप स्थान ते ऊपरि इहां विरलनराशिरूप असख्यात के जेते अर्धच्छेद होहि, तितने वर्गस्थान गए यह राशि हो है। बहुरि
विरलनरासीदो पुरण, जेत्तियमेत्तारिण होणरूवारिण ।
तेसि अण्णोण्णहदी, हारो उप्पण्णरासिस्स ॥
इस सूत्र के अभिप्राय ते जो ऋणरूप राशि जुदा स्थाप्या था, ताका अपवर्तन कीए, एक का असख्यातवा भाग भया । याको पल्य करि गुणे, पल्य का असंख्यातवां भाग भया, जाते असंख्यात गुणा पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद प्रमाण दूवा मांडि, परस्पर गुणे, भी इतना ही प्रमाण है । तातै सुगमता के अर्थि इहां पल्य का अर्घच्छेद राशि का भाग देइ, एक का असख्यातवा भाग पाया, ताकरि पल्य का
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सम्यज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
गुणन कीयां है । सो असे करते जो पल्य का असंख्यातवां भाग भया, ताका भाग पूर्वोक्त सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग को देना । सो भाग दीए भी आलाप करि सूच्यगुल का असख्यातवां भाग ही रह्या । सोई तैजस शरीर की स्थिति सम्बन्धी अन्योन्याभ्यस्तराशि जानना । बहुरि कार्माण शरीर की स्थिति सम्बन्धी नानागुणहानि शलाका पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद करि हीनपल्य का अर्धच्छेद प्रमाण है । इसका विरलन करि, एक-एक प्रति दोय देइ परस्पर गुणे, ताका अन्योन्याभ्यस्तराशि पल्य की वर्गशलाका का भाग पल्य को दीएं, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । जाते इहां पल्य का अर्धच्छेद प्रमाण दूवा मांडि, परस्पर गुणे, पल्य होइ, सो तौ भाज्य भया । पर 'विरलनरासीदो पुरणजेत्तिय मेत्ताणि होणारूवारिण' इत्यादि सूत्र करि हीनराशिरूप पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद प्रमाण दूवा माडि, परस्पर गुणे पल्य की वर्गशलाका होइ, सो भागहार जानना । बहुरि जैसे गुणहानि आयाम आठ, ताकी दूणा कीएं दोगुणहानि का प्रमाण सोलह हो है । तैसे औदारिक आदि शरीरनि का जो-जो गुणहानि आयाम का प्रमाण है, ताको दूणा कीएं, अपनी-अपनी दोगुणहानि हो है । याही का दूसरा नाम निषेकहार जानना । ___असे द्रव्यस्थिति, गुणहानि, नानागुणहानि, अन्योन्याभ्यस्तराशि, दोगुणहानि का कथन करि, अवस्थिति के समय सम्बन्धी परमाणूनि का प्रमाणरूप निषेकनि का कथन करिए है।
____ तहा प्रथम अंक संदृष्टि करि दृष्टात कहिए है । द्रव्य तरेसठि से (६३००) स्थिति अडतालीस (४८), गुणहानि आयाम आठ (८), नानागुणहानि छह (६), दोगुणहानि सोलह (१६), अन्योन्याभ्यस्तराशि चौसठि (६४) ।
तहा औदारिक आदि शरीरनि के समय प्रबद्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप च्यारि प्रकार बध धरै है।
तहा प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध योग ते हो है, स्थितिबध, अनुभागबध कषाय ते हो है। तहा विवक्षित कोई एक समय विष बध्या कार्माण का समय प्रबद्ध की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरि कोडाकोडि सागर की बधी, तिस स्थिति के पहले समय ते लगाय सात हजार वर्ष पर्यत तौ आबाधाकाल है। तहां कोई निर्जरा न होइ । तातै इहाँ कोई निषेक रचना नाही । अवशेष स्थिति का प्रथम समय तै लगाइ अंत समय पर्यत अपना-अपना काल प्रमाण स्थिति धरै, जे परमाणूनि के पुज, ते निषेक कहिए । तिनकी रचना अंकसंदृष्टि करि प्रथम दिखाइए है ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २५३
विवक्षित एक समय विषै बध्या कार्मारण का समयप्रवद्ध, ताका परमाणूनि का प्रमाण रूप द्रव्य तरेसठ से है । तहा
३८४
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रुश्रोरगणोरणम्भवहिददव्वं तु चरिम गुरणदव्वं । होदि तदो दुगुरग कमा आदिमगुरगहारिण दव्वोत्ति ॥
!
इस सूत्र अनुसारि एक घाटि अन्योन्याभ्यस्तराशि का भाग सर्वद्रव्य को दीएं अंत की गुणहानि का द्रव्य होइ । तातै दुरणा- दूरगा प्रथमगुणहानि पर्यंत द्रव्य जानना । सो इहां अन्योन्याभ्यस्त राशि चौसठि मे स्यो एक घटाइ, अवशेप ६३ का भाग सर्वद्रव्य ६३०० कौ दीए, सौ (१००) पाए, सोई नानागुणहानि छह, तिनिविषै अंत की छठी गुणहानि का द्रव्य जानना । तातै दूणा - दूणा प्रथम गुणहानि पर्यंत द्रव्य जानना । औसे होते एक घाटि नानागुणहानि शलाका प्रमाण दूवा मांडि, परस्पर गुणै, जो अन्योन्याभ्यस्त राशि का प्राधा प्रमाण होइ, ताकरि अंत की गुरण - हानि के द्रव्य को गुणै, प्रथमगुरणहानि का द्रव्य हो है । सो एक घाटि नानागुणहानि पाच, तीह प्रमाण दूवा माडि, परस्पर गुण बत्तीस होड, सोई अन्योन्याभ्यस्तराशि चौसठि का आधाप्रमाण, ताकरी अंतगुणहानि का द्रव्य सौ को गुणै प्रथमगुणहानि का द्रव्य बत्तीस से हो है । सर्व गुणहानि का द्रव्य प्रत ते लगाइ आदि पर्यंत एक सै, दोय सै, च्यारि से, आठ से, सोलह से, बत्तीस से प्रमाण जानना । वहुरि तहा प्रथम गुणहानि का द्रव्य बत्तीस से । तहा 'अद्धाणेण सव्वधणे, खंडिदे मज्झिमधरण मागच्छदि' इस सूत्र करि 'अध्वान' जो गुणहानि आयाम प्रमाण गच्छ, ताका स्वकीय गुणहानि सबधी द्रव्य को भाग दीए, मध्य समय सबधी मध्यधन है । सो इहां बत्तीस से को गच्छ ग्राठ का भाग दीए ( मध्यधन ) च्यारि से हो है । वहुरि "रूऊर श्रद्धारा श्रद्धेणूणेरिपसेयहारेण मज्झिमधरणमवहरिदेषचयं" इस सूत्र के अनुसारि एक घाटि गच्छ का प्राधा प्रमारण करि हीन जो निषेकहार कहिए दो गुणहानि, ताकरि मध्यधन को भाजित कीए, चय का प्रमाण आव । स्थानस्थान प्रति जितना जितना बधै वा घटै ताका नाम चय जानना । सो इहा एक घाटि गच्छ सात, ताका श्राधा साढा तीन, सो निपेकहार सोलह मे घटाए, साढा वारह ताका भाग मध्यधन च्यारि से कौ दीए, बत्तीस पाए । सोई प्रथम गुणहानि विषै चय का प्रमाण जानना । बहुरि इस चय को निषेकहार, जो दोगुणहानि, ताकरि गुर्ण प्रथम गुणहानि का प्रथम निषेक होइ, सो इहा बत्तीस को सोलह करि गुणे, प्रथम गुणहानि का प्रथम निषेक पाच से वारह प्रमाणरूप हो है ।
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सम्यज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३८५
भावार्थ - जो तरेसठि सै परमाणु का समय प्रबद्ध बंध्या था, ताकी स्थिति विर्षे आबाधाकाल भएं पीछे, पहले समय तिन परमाणूनि विषै पांच से बारह परमाणू निर्जरे है । जैसे अन्य समय संबंधी निषेकनि विर्ष उक्त प्रमाण परमाणूनि की निर्जरा होने का क्रम जानना । बहुरि 'तत्तोविसेसहीणकम' तातें ऊपरि-ऊपरि तिस गुणहानि के अंत निषेक पर्यंत एक-एक चय घटता अनुक्रम जानना । तहां प्रथम निषेक तै एक घाटि गच्छप्रमाण चय घटै, एक अधिक गुणहानि पायाम करि गुणित चय प्रमाण अंत निषेक हो है । सो इहां द्वितीयादि निषेकनि के विषै बत्तीस-बत्तीस घटावना । तहां एक घाटि गच्छ सात, तीहि प्रमाण चय के भये दोय सै चौबीस, सो इतने प्रथम निषेकनि तै घटै, अत निषेक विष दोय सै अठ्यासी प्रमाण हो है। सो एक अधिक गुणहानि नव, ताकरि चय बत्तीस को गुण भी दोय सै अठ्यासी हो है । जैसे प्रथम गुणहानि विष निषेक रचना जाननी । ५१२, ४८०, ४४८, ४१६, ३८४, ३५२, ३२०, २८८ ।
बहुरि जैसे ही द्वितीय गुणहानि का द्रव्य सोलह सै, ताको गुणहानि आयामरूप गच्छ का भाग दीए, मध्यधन दोय सै होइ; याकों एक घाटि गुणहानि आयाम का आधा प्रमाण करि हीन निषेकहार साढा बारह, ताका भाग दीएं, द्वितीय गुणहानि विष चय का प्रमाण सोलह होइ । बहुरि याकों दो गुणहानि सोलह करि गुणे, द्वितीय गुणहानि का प्रथम निषेक दोय सै छप्पन प्रमाण हो है। ऊपरि-उपरि द्वितीयादि निषेक, अपना एक-एक चय करि घटता जानना । तहा एक घाटि गच्छ प्रमाण चय घटै, एक अधिक गुणहानि आयाम करि गुणित, अपना चय प्रमाण अत का निषेक एक सौ चवालीस प्रमाण हो है। बहुरि तृतीय गुणहानि विष द्रव्य पाठ सै को गुणहानि का भाग दीए, मध्यमधन सौ (१००), याको एक घाटि गुणहानि का आधा करि हीन दोगुणहानि का भाग दीएं, चय का प्रमाण आठ, याको दोगुग्ण हानि करि गुणि प्रथम निषेक एक सौ अट्ठाईस, याते ऊपरि अपना एक-एक चय घटता होइ, एक घाटि गच्छ प्रमाण चय घटै, एक अधिक गुणहानि पायाम करि, गुणित स्वकीय चयमात्र अंतनिषेक बहत्तरि हो है ।
___ही इस क्रम करि चतुर्थ आदि गुणहानि विष प्राप्त होड, अंत गुण हानि विष द्रव्य सौ (१००), ताको पूर्वोक्त प्रकार गुणहानि का भाग दीए मध्यधन साढा बारह, याको एक घाटि गुणहानि का आधा प्रमाण करि हीन दोगुण हानि का भाग
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३८६ ।
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५३
दीएं, चय का प्रमाण एक, याको दोगुणहानि करि गुणे, प्रथम निषेक का प्रमाण सोलह, तातै ऊपरि अपना एक-एक चय घटता होइ । एक घाटि गच्छ प्रमाण चय घटै, एक अधिक गुणहानि करि गुरिणत स्वकीय चय मात्र स्थिति के अंतनिषेक का प्रमाण नव हो है। जैसे द्वितीयादिक अतगुणहानि पर्यत विष द्रव्यादिक है। ते गुणकाररूप हानि का अनुक्रम लीए है । तातै गुणहानि औसा नाम सार्थक जानना ।
इहां तर्क - जो प्रथम गुणहानि विष तौ पूर्व गुणहानि के अभाव ते गुणहानिपना नाही?
ताका समाधान - कि मुख्यपनै ताका गुणहानि नाम नाही है । तथापि ऊपरि की गुणहानि को गुणहानिपना को कारणभूत जो चय, ताका हीन होने का सद्भाव पाईए है । तातै उपचार करि प्रथम को भी गुणहानि कहिए । गुणकार रूप घटता, जहा परिमाण होइ, ताका नाम गुणहानि जानना । औसै एक-एक समय प्रबद्ध की सर्वगणहानिनि विष प्राप्त सर्वनिषेकनि की रचना जाननी । बहरि असे प्रथमादि गुणहानिनि के द्रव्य वा चय वा निषेक ऊपरि-ऊपरि गुणहानि विषे आधे-आधे जानने । इतना विशेष यह जानना-जो अपना-अपना गुणहानि का अंत निषेक विष अपना-अपना एक चय घटाएं, ऊपरि-ऊपरि का गुणहानि का प्रथम निषेक होइ, जैसे प्रथम गुणहानि का अत निषेक दोय सै अठ्यासी विषै अपना चय बत्तीस घटाएं, द्वितीय गुणहानि का प्रथम निषेक दोय सौ छप्पन हो है । जैसे ही अन्यत्र जानना ।
* अंक संदृष्टि करि निषेक की रचना के
प्रथम गुणहानि द्वितीय गुणहानितृतीय गुणहानि चतुथ गुणहानि पचम गुणहानि
पष्ठम गुणहा
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४००
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका 1
[ ३८७
असे उत्कृष्ट स्थिति अपेक्षा कार्माण का अक सदृष्टि करि वर्णन किया । अब यथार्थ वर्णन करिए है
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कार्मारण का समयप्रबद्ध विषे जो पूर्वोक्त परमाणूनि का प्रमाण, सो द्रव्य जानना । ताकी पूर्वोक्त प्रमाण अन्योन्याभ्यस्तराशि विषे एक घटाइ, प्रवशेष का भाग दीएं, अंत गुणहानि का द्रव्य हो है । यातें प्रथम गुणहानि पर्यंत दूना-दूना द्रव्य जानना । तहां अन्योन्याभ्यस्त राशि का आधा प्रमाण करि, अंतगुणहानि के द्रव्य
गुणै, प्रथम गुणहानि का द्रव्य हो है । याकौ पूर्वोक्त गुणहानि आयामप्रमारण का भाग दीएं, मध्यमधन होइ है । याकौ एक घाटि गुणहानि आयाम का आधा प्रमाण करि हीन दूना गुणहानि के प्रमाण का भाग दीए, प्रथम गुणहानि सबधी चय हो है । या दो गुणहानि करि गुणे, प्रथम गुणहानि का प्रथम निषेक हो है । बहुरि तातै अपना-अपना अंत निषेक पर्यंत एक-एक चय घटता होइ । एक घाटि गुणहानि आयाम मात्र चय घटे, एक अधिक गुणहानि करि गुणित अपना चय प्रमाण अंत निषेक हो है । यहीं प्रकार द्वितीयादि गुणहानि विषे अपना-अपना द्रव्य की निपेक रचना जाननी । तहां अंत गुणहानि विषे द्रव्य का गुणहानि आयाम का भाग दीए, मध्य धन होइ । याकौ एक घाटि गुणहानि का आधा करि हीन दो गुणहानि का भाग दीएं, चय होइ । याको दो गुणहानि करि गुणे, प्रथम निषेक होइ । ताते ऊपरि अपना एक-एक चय घटता होइ । एक घाटि गुणहानि आयाम मात्र चय घटे, एक अधिक गुणहानि करि अपना चय कौं गुणै, जो प्रमाण होइ, तिह प्रमित प्रत निषेक हो है । जैसे कार्माण शरीर की सर्वोत्कृष्ट स्थिति विषै प्राप्त एक समयप्रवद्ध संबंधी समस्त गुणहानि की रचना जाननी । असे प्रथमादि गुणहानि ते द्वितीयादि गुणहानि के द्रव्य वा चय वा निषेक क्रम ते आधे-आधे जानने । श्रबाधा रहित स्थिति विषै गुणहानि आयामका जेता प्रमाण तितना समय पर्यत तो प्रथम गुणहानि जाननी । तहां विवक्षित समयप्रबद्ध के प्रथम समय विषे जेते परमाणू निर्जरे, तिनिके समूह का नाम प्रथम निषेक जानना । दूसरे समय जेते परमाणू निर्जरं, तिनके समूह का नाम द्वितीय निषेक जानना । अंसे प्रथम गुणहानि का अत पर्यंत जानना । पीछे ताके अनंतर समय तै लगाइ गुरणहानि आयाम मात्र समय पर्यंत द्वितीय गुरणहानि जाननी । तहा भी प्रथमादि समयनि विषे जेते परमाणू निर्जरे, तिनिके समूह का नाम प्रथमादि निषेक जानने । असें क्रम ते स्थिति के अंत समय विषै जेते परमाणू निर्जरै, तिनिके समूह का नाम अंत गुणहानि का अंत निषेक जानना ।
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३८८ ]
[ गोम्मटार जीवकाण्ड गाथा २५४
बहुरि जैसे कार्माणशरीर का वर्णन कीया; तैसे ही श्रदारिक आदि तैजस पर्यंत नोकर्मशरीर के समय प्रबद्धनि की पूर्वोक्त अपना-अपना स्थिति, गुणहानि, नाना गुणहानि, दो गुणहानि, अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण आदि करि, इहां प्रबाधाकाल है नाही; तातै अपनी-अपनी स्थिति का प्रथम समय ही तै लगाय त्रेक रचना करनी । जाते औदारिक आदि शरीरनि का तैसे ही आगे वर्णन कीजिये है ।
आगै औदारिक आदि के समय प्रबद्धनि का बंध, उदय, सत्त्व, अवस्था विषे द्रव्य का प्रमाण निरूपे है -
L
एक्कं समयबद्ध, बंधदि एक्कं उबेदि चरिमम्मि । गुणहाणीण दिड्वढं, समयपबद्धं हवे सत्तं ॥ २५४ ॥
एकं समयप्रबद्धं बध्नाति एकमुदेति चरमे ।
गुणहानीनां द्वय, समयप्रबद्धं भवेत् सत्त्वम् ॥ २५४ ॥
टीका - श्रदारिक आदि शरीरनि विषै तैजस पर कार्मारण इनि दोऊनि का जीव के अनादि तै निरंतर संबंध है । तातै इनिका सदाकाल उदय र सत्व संभवै है । ताते जीव मिथ्यादर्शन आदि परिणाम के निमित्त तं समय - समय प्रति तैजस सबधी अर कार्मारण सबंधी एक-एक समयप्रबद्ध कौ बाधै है । पुद्गल वर्गेणानि कौ तैजस शरीर रूप अर ज्ञानावरणादिरूप आठ प्रकार कर्मरूप परिणमा है । बहुरि इन दोऊ शरीरनि का समय - समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध उदयरूप हो है । पाना फल देनेरूप परिणतिरूप परिमाण करि फल देइ, तेजस शरीरपना को वा कार्माण शरीरपना कौ छोडि गर्ल है, निर्जरै है । बहुरि विवक्षित समयप्रबद्ध की स्थिति का अत निषेक सवधी समय विषै किचिदून द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समय प्रबद्ध प्रमाण सत्त्व हो है । इतने परमाणू सत्तारूप एकठे हो है । सर्वदा संबंध ते परमार्थ करि इनि दोऊनि का सत्वद्रव्य, समय-समय प्रति सदा ही इतना संभव है |
वहरि औदारिक, वैक्रियिक शरीरनि के समय प्रबद्धनि विषे विशेष है, सो कहिए है । तिनि औदारिक वा वैक्रियिक शरीरनि के ग्रहण का प्रथम समय तैं लगाइ ग्रपने ग्रायु का अंत समय पर्यत शरीर नामा नामकर्म के उदय संयुक्त जीव, सो समय-समय प्रति एक-एक तिस शरीर के समय प्रबद्ध को बाधै है । पुद्गलवर्गणानि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
कौ तिस शरीररूप परिणमाव है । उदय कितना है ? सो कहै है - शरीर ग्रहण का प्रथम समय विषै वंध्या जो समयप्रबद्ध, ताका पहला निषेक उदय हो है। .
इहां प्रश्न - जो गाथा विर्षे समय-समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध का उदय कह्या है । इहां एक निषेक का उदय कैसे कहो हो ?
ताका समाधान - कि निषेक है सो समयप्रबद्ध का एकदेश है । ताको उपचार करि समयप्रबद्ध कहिए है । बहुरि दूसरा समय विर्ष पहिले समय बध्या था जो समयप्रबद्ध, ताका तो दूसरा निषेक अर दूसरे समय बध्या जो समयप्रबद्ध ताका पहिला निषेक, असे दोय निषेक उदय हो है। बहुरि जैसे ही तीसरा आदि समय विर्षे एक-एक बधता निषेक उदय हो है। असै क्रम करि अंत समय विष उदय अर सत्त्वरूप संचय सो युगपत् द्वयर्धगुण हानि करि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण हो है । बहुरि आहारक शरीर का तिस शरीर ग्रहण का समय प्रथम ते लगाय अपना अतर्मुहूर्त मात्र स्थिति का अत समय विष किचिदून द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समय प्रबद्धप्रमाण द्रव्य का उदय पर सत्त्वरूप संचय सो युगपत् हो है इतना विशेष जानना । इहा समय-समय प्रति बंधै सो समयप्रबद्ध कहिए। तातै समय-समय प्रति समयप्रबद्ध का बंधना तो सभवै अर समयप्रबद्ध का उदय अर किंचिदून द्वयर्धगुणहानिगुणित समयप्रबद्धमात्र सत्त्व कैसे हो है, सो वर्णन इहां ही आगै करेगे।
आगे औदारिक, वैक्रियिक शरीरनि विषे विशेष कहै है
णवरि य दुसरीराणं, गलिदवसेलाउलेत्तहिनिबंधो। गुणहारणीण दिवड्डं, संचयमुदयं च चरिमम्हि ॥२५॥ नवरि च द्विशरीरयोगलितावशेषायुर्मात्रस्थितिबधः ।
गुरणहानीनां द्वयर्थ, संचयमुदयं च चरमे ॥२५५।। टीका - औदारिक, वैक्रियिक शरीरनि का शरीर ग्रहण का प्रथम समय तें लगाइ अपनी स्थिति का अत समय पर्यत बधै है, जे समयप्रवद्ध तिनि का स्थितिबंध गलितावशेष आयुमात्र जानना। जितना अपना आयु प्रमाण होइ, तीहि विष जो व्यतीत भया, सो गलित कहिए । अवशेष रह्या सो गलितावशेप आयु कहिए है; तीहि प्रमाण जानना । सोई कहिए हैं-शरीर ग्रहण का प्रथम समय विषै जो समय
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३६० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५६ प्रवद्ध बध्या, ताका स्थितिबध संपूर्ण अपना आयुमात्र हो है । वहुरि दूसरे समय जो समयप्रबद्ध बंध्या, ताका स्थितिबंध एक समय घाटि अपना आयु प्रमाण हो है । बहरि तीसरे समय बंध्या जो समयप्रबद्ध, ताका स्थितिबंध दोय समय घाटि अपना आयु प्रमाण हो है । जैसे ही चौथा आदि उत्तरोत्तर समयनि विर्षे बंधे जे समयप्रवद्ध तिनिका स्थितिबंध एक-एक समय घटता होता अंत समय विष बंध्या हुवा समयप्रबद्ध का स्थितिबंध, एक समयमात्र हो है। जातें प्रथम समय तें लगाइ अंत समय पर्यंत बधे जे समयप्रबद्ध, तिनकी अपने आयु का अंत को उलघि स्थिति न संभव है। अमै जिस-जिस समयप्रबद्ध की जितनी-जितनी स्थिति होइ, तिस-तिस समयप्रवद्ध को तितनी-तितनी स्थितिमात्र निषेक रचना जाननी। अंत विषै एक समय की स्थिति समयप्रबद्ध की कही । तहां एक निषेक संपूर्ण समयप्रबद्धमात्र जानना । बहुरि अत समय विषै गलितावशेष समयप्रबद्ध किचिदूनद्वयर्द्धगुणहानिमात्र सत्वरूप एकठे हो है । जे समयप्रबद्ध बधे, तिनि के निषेक पूर्वं गले, निर्जरारूप भए, तिनितै अवशेष निषेकरूप जे समयप्रबद्ध रहे, तिनिको गलितावशेष कहिए । ते सर्व एकठे होइ किछु घाटि ड्योढ गुणहानिमात्र समयप्रबद्ध सत्तारूप एकठे अत समय विषै होहि है । बहुरि तीहि अत समय विष ही तिनि सबनि का उदय हो है । आयु के अंत भए पीछे ते रहै नाही। तातै तीहि समय सर्व निर्जरै है; असे देव-नारकीनि कै तौ वैक्रियिक गरीर का अर मनुष्य-तिर्यचनि के औदारिक शरीर का अत समय विर्ष किचिदून द्वयर्धगुणहानिमात्र समयप्रबद्धनि का सत्त्व और उदय युगपत् जानना।
आगै किस स्थान विर्ष सामग्रीरूप कैसी आवश्यक सयुक्त जीव विषै उत्कृष्ट सचय हो है, सो कहै है
ओरालियवरसंचं, देवुत्तरकुरुवजादजीवस्स । तिरियमणुस्सस्स हवे चरिमदुचरिमे तिपल्लठिदिगस्स ॥२५६॥
औरालिकवरसंचयं, देवोत्तरकुरूपजातजीवस्य ।
तिर्यग्मनुष्यस्य भवेत्, चरमद्विचरमे त्रिपल्यस्थितिकस्य ॥२५६।। टीका - औदारिक आदि शरीरनि की जहां जीव कै उत्कृष्टपनै बहुत परमाणू एकठे होइ; तहां उत्कृष्ट संचय कहिए । तहां जो जीव तीन पल्य आयु धरै, देवकुरु वा उत्तरकुरु भोंगभूमि का तिर्यच वा मनुष्य होइ उपज्या, तहां उपजने
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ३९१
के पहिले समय तिस जीव को तहां योग्य जो उत्कृष्ट योग, ताकरि आहार ग्रहण कीया : बहुरि ताकौ योग्य जो उत्कृष्ट योग की वृद्धि, ताकरि वर्धमान भया, बहुरि सो जीव उत्कृष्ट योग स्थाननि को बहुत बार ग्रहण करें है; अर जघन्य योगस्थाननि को बहुत बार ग्रहण न करे है, तिस जीव को योग्य उत्कृष्ट १ योगस्थान, तिनिको बहुत बार प्राप्त होइ है; अर तिस जीव को योग्य जघन्य योगस्थान, तिनिको बहुत बार प्राप्त न हो है । बहुरि अधस्तन स्थितिनि के निषेक का जघन्य पद करें है । याका अर्थ यहु-जो ऊपरि के निषेक सबधी जे परमाणू, तिन थोरे परमाणूनि को अपकर्षरण करि, स्थिति घटाइ, नीचले निषेकनि विषे निक्षेपण करें है; मिलावे है । बहुरि उपरितन स्थिति के निषेकनि का उत्कृष्टपद करें है । याका अर्थ यहु-जो नीचले निषेकनि विषै तिष्ठते परमाणू, तिनि बहुत परमाणूनि का उत्कर्षरण करि, स्थिति को बधाई, ऊपरि के निषेकनि विषै निक्षेपण कर है; मिलाव है । बहुरि अंतर विषै गमनविकुवरणा को न करें है; अतर विषे नखच्छेद न करें है । याका अर्थ मेरे जानने में नीकै न आया है । ताते स्पष्ट नाही लिख्या है; बुद्धिमान जानियो । बहुरि तिस जीव के आयु विषे वचनयोग का काल स्तोक होइ, मनोयोग का काल स्तोक होइ । बहुरि वचनयोग स्तोक बार होइ । मनोयोग स्तोक बार होइ ।
भावार्थ - काययोग का प्रवर्तन बहुत बार होइ, बहुत काल होइ । से आयु का अंतर्मुहूर्त अवशेष रहै; आगे कर्मकाण्ड विषै योगयवमध्य रचना कहँगे । ताका ऊपरला भाग विषै जो योगस्थान पाइए है । तहां अंतर्मुहूर्तकाल पर्यत तिष्ठ्या पीछे आगे जो जीव यवमध्य रचना कहैगे; तहां अंत की गुरणहानि सबधी जो योगस्थान, तहां आवली का असंख्यातवां भागमात्र काल पर्यंत तिष्ठ्या | बहुरि आयु का द्विचरम समय विषे श्रर अंत समय विषे उत्कृष्ट योगस्थान को प्राप्त भया । तहां तिस जीव के तिन अत के दोऊ समयनि विषै श्रदारिक शरीर का उत्कृष्ट संचय हो है । बहुरि वैक्रियिक शरीर का भी वैसे ही कहना । विशेष इतना जो अंतर विषै नखच्छेद न करें है, यहु विशेषण न संभव है ।
वेगुब्वियवरसंचं, बावीससमुद्द आररणदुगम्हि ।
जह्मा वरजोगस्स य, वारा अण्णत्थ ण हि बहुगा ॥ २५७॥
१- अ, ख, ग इन तीन प्रति मे यहाँ अनुत्कृष्ट शब्द मिलता है ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा २५८
३९२ ]
वैविकवरसंचयं, द्वाविंशतिसमुद्र श्रारणद्विके ।
यस्माद्वरयोगस्य च, वारा अन्यत्र नहि बहुकाः ॥२५७।। टोका - वै क्रियिक शरीर का उत्कृष्ट संचय, सो पारण-अच्युत दोय स्वर्गनि के ऊपरला पटल सबंधी बाईस सागर आयु संयुक्त देव, तिन विषै संभव है । अन्यत्र नीचले, ऊपरले पटलनि विर्ष वा सर्व नारकीनि विष न संभवें है; जाते आरणअच्युत बिना अन्यत्र वैक्रियिक शरीररूप योग का बहुत बार प्रवर्तन न हो है। चकार ते तिस योग्य अन्य सामग्री, सो भी अन्यत्र बहुत बार न सभव है।
आगे तेजस शरीर पर कार्मण शरीरनि का उत्कृष्ट सचयस्थान का विशेष कहै है -
तेजासरीरजेठं, सत्तमचरिमम्हि बिदियवारस्स । कम्मस्स वि तत्थेव य, णिरये बहुबारभमिदस्स ॥२५८॥
तेजसशरोरज्येष्ठं, सप्तमचरमे द्वितीयवारस्य ।
कार्मरणस्यापि तत्रैव च, निरये बहुवारभ्रमितस्य ॥२५॥ टीका - तैजसशरीर का भी उत्कृष्ट सचय औदारिकशरीरवत् जानना । विशेष इतना जो सातवी नरक पृथ्वी विषै दूसरी बार जो जीव उपज्या होइ । सातवी पृथ्वी विर्षे उपजि, मरि, तिर्यच होइ, फेरि सातवी पृथ्वी विष उपज्या होइ; तिस ही जीवक हो है।
वहुरि आहारक शरीर का भी उत्कृष्ट सचय औदारिकशरीरवत् जानना। विशेप इतना जो आहारक शरीर को उपजावनहारा प्रमत्तसयमी ही के हो है।
बहुरि कार्माणशरीर का उत्कृष्ट सचय सो सातवी नरक पृथ्वी विष नारकिन विष जो जीव वह बार भ्रम्या होइ, तिस ही के होइ है। किस प्रकार हो है ? सो कहै है-कोई जीव बादर पृथ्वी कायनि विषै अंतर्मुहूर्त घाटि, पृथक्त्व कोडिपूर्व करि अधिक दोय हजार सागर हीन कर्म की स्थिति को प्राप्त भया । तहा तिस बादर पृथ्वीकाय सबंधी अपर्याप्त पर्याय थोरे धरै, पर्याप्त पर्याय बहुत धरै, तिनिका एकट्टा किया हुवा पर्याप्त काल बहुत भया । अपर्याप्त काल थोरा भया । ऐसे इनिको पालता सता जव-जव श्रायु वाथै, तव-तव जघन्य योग करि वाथै, यहु यथायोग्य उत्कृष्ट योग
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
करि आहार ग्रहण करै । पर उत्कृष्ट योगनि की वृद्धि करि बधै। बहुरि यथायोग्य उत्कृप्ट योगनि को बहुत वार प्राप्त होइ, जघन्य योगस्थाननि को बहुत बार प्राप्त न होइ । बहुरि संक्लेश परिणामरूप परिणया यथायोग्य मदकषायरूप विशुद्धता करि विशुद्ध होड, पूर्वोक्त प्रकार अधस्तन स्थितिनि के निषेक का जघन्यपद करें। उपरितन स्थितिनि के निषेक का उत्कृष्ट पद करै है। जैसे भ्रमण करि, बादर त्रसपर्याय विषै उपज्या, तहा भ्रमता तिस जीव के पर्याप्त पर्याय थोरे, अपर्याप्त पर्याय बहुत भएं, तिनिका एकठा कीया पर्याप्तकाल बहुत भया । अपर्याप्तकाल थोरा भया । जैसे भ्रमण करि पीछला पर्याय का ग्रहण विर्ष सातवी नरक पृथ्वी के नारक जे विले, तिनि विष उपज्या। तहां तिस पर्याय के ग्रहण का प्रथम समय विष यथायोग्य उत्कृष्ट योग करि पाहार ग्रहण कीया । बहुरि उत्कृष्ट योगवृद्धि करि बध्या। वहरि थोरा अतर्मुहर्त काल करि सर्व पर्याप्ति पूर्ण कीए । बहरि तिस नरक विषै तेतीस सागर काल पर्यत योग आवश्यक पर संक्लेश आवश्यक को प्राप्त भया । असे भ्रमण करि आयु का स्तोक काल अवशेष रहै, योगयवमध्य रचना का ऊपरला भागरूप योगस्थान विर्षे अंतर्मुहुर्त काल पर्यंत तिष्ठि, अर पीछे जीव यवमध्य रचना की अंत गुणहानिरूप योगस्थान विर्षे आवली का असंख्यातवां भागमात्र काल पर्यत तिष्ठि आयु का अंत ते तीसरा, दूसरा समयनि विर्षे उत्कृष्ट सक्लेश को पाइ; अत समय विषै उत्कृष्ट योगस्थान कौं पाइ, तिस पर्याय का अत समय विषै जीव तिष्ठ्या ताकै कार्माण शरीर का उत्कृष्ट सचय होइ है । असे औदारिक आदि शरीरनि का का उत्कृष्ट संचय होने की सामग्री का विशेष कह्या ।।
भावार्थ - पूर्वं उत्कृष्ट संचय होने विष छह आवश्यक कहे थे; ते इहां यथासभव जानि लेना । पर्याय सबंधी काल तौ भवाद्ध है । पर आयु का प्रमाण सो आयुष्य है । यथासंभव योगस्थान होना, सो योग है । तीव्र कषाय होना सो संक्लेश है। ऊपरले निषेकनि के परमाणू नीचले निषेकनि विषै मिलावना, सो अपकर्णरण है । नीचले निषेकनि का परमाणू ऊपरि के निषेकनि विषै मिलावना; सो उत्कर्णरण है । जैसै ए छह आवश्यक यथासभव जानने ।
बहुरि एक प्रश्न उपजै है कि एक समय विष जीव करि बाध्या जो एक समयप्रबद्ध, ताके आबाधा रहित अपनी स्थिति का प्रथम समय तै लगाइ, अत समय पर्यत समय-समय प्रति एक-एक निषेक उदय आवै है। पूर्व गाथा विष समय-समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध का उदय का प्रावना कैसे कह्या है ?
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २५८
३९४ ]
ताका समाधान - जो समय-समय प्रति बंधे समय प्रवद्धनि का एक-एक निषेक एकठे होइ, विवक्षित एक समय विर्षे समय प्रवद्धमात्र हो है ।
कैसै ? सो कहिएहै - अनादिबध का निमित्तक रि बध्या विवक्षित समयप्रबद्ध, ताका जिस काल विर्षे अंत निषेक उदय हो है, तिस काल विष, ताके अनतरि वध्या समयप्रबद्ध का अत ते दूसरा निषेक उदय हो है । ताके अनतरि बंध्या समयप्रबद्ध का अत ते तीसरा निषेक उदय हो है । जैसे चौथा आदि समयनि विषै वध, समयप्रबद्धनि का अत ते चौथा आदि निषेकनि का उदय क्रम करि आवावाकाल रहित विवक्षित स्थिति के जेते समय तितने स्थान जाय, अंत विष जो समयप्रवद्ध बंध्या, ताका आदि निषेक उदय हो है । जैसै सबनि को जोडै, विवक्षित एक समय विर्षे एक समयप्रबद्ध उदय आवै है ।
अंकसदृष्टि करि जैसे जिन समयप्रबद्धनि के सर्व निषेक गलि गए, तिनिका तौ उदय है ही नाही । बहुरि जिस समयप्रबद्ध के सैतालीस निषेक पूर्वं गले, ताका अत नव का निषेक वर्तमान समय विष उदय आवै है । बहुरि जाके छियालीस निषेक पूर्वं गले, ताका दश का निषेक उदय हो है । जैसे ही क्रम ते जाका एकहू निषेक पूर्व न गल्या, ताका प्रथम पांच से बारा का निषेक उदय हो है। असै वर्तमान कोई एक समय विष सर्व उदय रूप निषेक । ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ । १८ २० २२ २४ २६ २८ ३० ३२ । ३६ ४० ४४ ४८ ५२ ५६ ६० ६४ । ७२ ८० ८८ ६६ १०४ ११२ १२० १२८ । १४४ १६० १७६ १६२ २०८ २२४ २४० २५६ । २८८ ३२० ३५२ ३८४ ४१६ ४४८ ४८० ५१२ । असे इनिको जोडै सपूर्ण समय प्रबद्धमात्र प्रमाण हो है ।
आगामी काल विषै जैसे नवीन समयप्रबद्ध के निषेकनि का उदय का सद्भाव होता जाइगा, तैसे पुराणे समयप्रबद्ध के निषेकनि के उदय का अभाव होता जायगा । जैसे आगामी समय विष नवीन समयप्रबद्ध का पाच से बारा का निषेक उदय आवैगा, तहा वर्तमान समय विषै जिस समयप्रबद्ध का पाच से बारा का निषेक उदय था, ताका पाच सै बारा का निषेक का अभाव होइ, दूसरा च्यारि सै असी का निषेक उदय होगा । बहुरि जिस समयप्रबद्ध का वर्तमान समय विष च्यारि सै असी का निषेक उदय था, ताका तिस निषेक का अभाव होइ, च्यारि सै अड़तालीस के निषेक का उदय होगा। जैसे क्रम ते जिस समयप्रबद्ध का वर्तमान समय विष नव
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३६५
का निषेक उदय था, ताका आगामी समय विषै सर्व प्रभाव होगा । जैसे ही क्रम समय प्रति जानना । तातै समय-समय प्रति एक-एक समयप्रबद्ध का एक-एक निषेक मिलि, एक-एक समय प्रबद्ध का उदय हो है । बहुरि गले पीछे अवशेष रहै, सर्व निषेक, तिनिकौ जोडे, किचित् ऊन व्यर्धगुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व हो है । कैसे ? सो कहिए है - जिस समय प्रबद्ध का एकहू निषेक गल्या नाही, ताके सर्व निषेक नीचे पंक्ति विषे लिखिए । बहुरि ताके ऊपर जिस समय प्रबद्ध का एक निषेक गल्या होइ, ताके आदि निषेक बिना अवशेष निषेक पक्ति विषे लिखिए । बहुरि ताके ऊपर जिस समय प्रबद्ध के दोय निषेक गले होंइ, ताके आदि के दोय निषेक बिना अवशेष निषेक पंक्ति विषे लिखिए। जैसे ही ऊपर-ऊपरि एक-एक निषेक घटता लिखि, सर्व के ऊपर जिस समय प्रबद्ध के अन्य निषेक गलि, एक अवशेष रह्या होइ, ताका अंत निषेक लिखना । भैसे करते त्रिकोण रचना हो है ।
षष्ठम गुरणहानि पचम गुणहानि चतुर्थं गुणहानि तृतीय गुणहानि द्वितीय गुणहानि प्रथम गुणहानि
१६
३०
४२
५५
६६
८४
१००
जोड ४०८
११८
१३८
१६०
१८४
२१०
२३८
२६८
३००
१६१६
३३६
३७६
४२०
४६८
५२०
५७६
६३६
७००
४०३२
७७२
८५२
६४०
१०३६
११४०
१२५२
१३७२
१५००
८८६४
१६४४
१८०४
१९८०
२१७२
२३८०
२६०४
२८४४
३१००
१८५२८
३३८८
३७०८
४०६०
४४४४
४८६०
५३०८
५७८८
६३००
३७८५६
अकसंदृष्टि करि जैसे नीचे ही नीचे अडतालीस निषेक लिखे, ताके ऊपर पांच से बारा का बिना सैतालीस निषेक लिखे । ताके ऊपर पांच से बारा अर च्यारि से असी का बिना छियालीस निषेक लिखे । से ही क्रम तै ऊपरि ही ऊपरि नव का निषेक लिख्या; जैसे लिखते त्रिकूटी रचना हो है । ताते इस त्रिकोण यंत्र का जोडा हूवा सर्वं द्रव्य, प्रमाण सत्त्व द्रव्य जानना । सो कितना हो है ? सो कहिए है - किचिदून व्यर्धगुणहानि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण हो है । पूर्वे जो गुणहानि
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[गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५८
आयाम का प्रमाण कह्या, तामै प्राधा गुणहानि आयाम का प्रमाण मिलाए, व्यर्धगुणहानि हो है । तामै किछ धाटि सख्यात गुणी पल्य की वर्गशलाका करि अधिक जो गुणहानि का अठारहवा भाग का प्रमाण सो घटावना, घटाएं जो प्रमाण होइ, ताका नाम इहा किचिदून व्यर्धगुणहानि जानना । ताकरि समयप्रबद्ध के विषै जो परमाणूनि का प्रमाण कह्या, ताकौ गुणे, जो प्रमाण होइ, सोइ त्रिकोण यंत्र विष प्राप्त सर्व निषेकनि के परमाणू जोडे, प्रमाण हो है। जैसे अक संदृष्टि करि कीया हूवा त्रिकोणयत्र, ताकी सर्वपंक्ति के अकनि को जोडे, इकहत्तरी हजार तीन सै च्यारि हो है । अर गुणहानि आयाम आठ, तामैं आधा गुणहानि आयाम च्यारि मिलाए, व्यर्धगुणहानि का प्रमाण बारह होइ, ताकरि समयप्रबद्ध तरेसठि सौ की गुणे, पिचहत्तरि हजार छ से होइ । इहां त्रिकोण यंत्र का जोड़ घटता भया । तातै किचि दून द्वयर्धगुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्त्व कह्या । तहा व्यर्धगुणहानि विष ऊनका प्रमाण दाष्टति विष महत्प्रमाण है । तातै पूर्वोक्त जानना ।
___ इहा अकसंदृष्टि दृष्टांत विष गुणहानि का अठारहवां भाग करि गुणित समयप्रबद्ध का प्रमाण अठाईस सै, तामै गुणहानि पाठ, नानागुणहानि छै करि गुणित समयप्रबद्ध का तरेसठिवा भाग, अडतालीस सै, तामै किचित् अधिक आधा समयप्रबद्ध का प्रमाण तेतीस सै च्यारि घटाइ, अवशेष चौदह से छिनवे जोडे, वियालीस सै छिनवे भए, सो व्यर्धगुणहानि गुणित समयप्रबद्ध विर्ष घटाए, त्रिकोण यंत्र का जोड हो है।
बहुरि इस त्रिकोण यत्र का जोड इतना कैसे भया ? सो जोड देने का विधान हीन-हीन सकलन करि वा अधिक-अधिक संकलन करि वा अनुलोम-विलोम सकलन करि तीन प्रकार कह्या है । तहां घटता-घटता प्रमाण लीए निषेकनि का क्रम ते जोडना, सो हीन-हीन सकलन कहिए । बधता-बधता प्रमाण लीए निषेकनि का क्रम ते जोडना, सो अधिक-अधिक संकलन कहिए । हीन प्रमाण लीएं वा अधिक प्रमाण लीए निषेकनि का जैसै होइ तैसे जोड़ना, सो अनुलोम-विलोम सकलन कहिए सो असे जोड़ देने का विधान आगे सदृष्टि अधिकार विष लिखेंगे; तहा जानना । इहा जोड विष संदृष्टि समझने में न आवती, तातै नाही लिख्या है। जैसे आयु विना कर्मप्रकृतिनि का समय-समय प्रति बंध, उदय, सत्त्व का लक्षण कह्या ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
[ ३९७ बहुरि आयु का अन्यथा लक्षण है, जातै आयु का अपकर्षण कालनि वि वा असंक्षेप अत काल विर्षे ही बंध हो है । बहुरि आबाधा काल पूर्व भव विर्ष व्यतीत हो है । तातै आयु की जितनी स्थिति, तितनी ही निषेकनि की रचना जाननी । आबाधाकाल घटावना नाही । बहुरि आयुकर्म का उत्कृष्ट संचय कोडि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी जलचर जीव के हो है । तहा कर्मभूमियां मनुष्य कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी यथायोग्य संक्लेश वा उत्कृष्ट योग करि पर भव संबंधी कोटिपूर्व वर्ष का आयु जलचर विष उपजने का बाध्या, सो आगै कहिएगी योग यवमध्य रचना, ताका ऊपरि स्थान विषै अतर्मुहूर्त तिष्ठ्या , बहुरि अंत जीव गुणहानि का स्थान विषै प्रावली का असख्यातवा भागमात्र काल तिष्ठ्या, क्रम ते काल गमाइ, कोडिपूर्व आयु का धारी जलचर विष उपज्या । अतमुहूर्त करि सर्व पर्याप्तनि करि पर्याप्त भया । अंतर्मुहूर्त करि बहुरि परभव सबंधी जलचर विष उपजने का कोडिपूर्व आयु को बांधे है। तहां दीर्घ आयु का बंध काल करि यथायोग्य संक्लेश करि उत्कृष्ट योग करि उत्कृष्ट योग करि बाध है । सो योग यवरचना का अंत स्थानवी जीव बहुत बार साता कौ काल करि युक्त होता अपने काल विष पर भव सबंधी आयु को घटावै, ताकै आयु-वेदना द्रव्य का प्रमाण उत्कृष्ट हो है; सो द्रव्य रचना सस्कृत टीका तै जाननी । या प्रकार औदारिक आदि शरीरनि का बध, उदय, सत्त्व विशेष जानने के अथि वर्णन कीया ।
आगै श्री माधवचद्र विद्यदेव बारह गाथानि करि योग मार्गणा विर्षे जीवनि की संख्या कहै है -
बादरपुण्णा तेऊ, सगरासीए असंखभागमिदा । विक्किरियसत्तिजुत्ता, पल्लासंखेज्जया वाऊ ॥२५६।।
बादरपूर्णाः, तैजसाः, स्वकराशेरसंख्यभागमिताः ।
विक्रियाशक्तियुक्ताः, पल्यासख्याता वायवः ॥२५९॥ टीका - बादर पर्याप्त तेजकायिक जीव, तिनि विर्षे उन ही जीवनि का जो पूर्व परिमाण आवली के घन का असंख्यातवां भागमात्र कह्या था, तिस राशि की असख्यात का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितने जीव विक्रिया शक्ति करि सयुक्त जानने ।
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३९८ )
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६०-२६१ बहुरि बादर पर्याप्त वातकायिक जीव लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण कहे थे । तिनि विषै पल्य का असंख्यातवां भाग प्रमाण जीव, विक्रिया शक्ति युक्त जानने । जातै 'बादरतेऊवाऊपंचेदिययुण्णगा विगुव्वंति' इस गाथा करि बादर पर्याप्त अग्निकायिक अर पवनकायिक जीवनि के वैक्रियिक योग का सद्भाव कह्या है ।
पल्लासंखेज्जाहयविदंगुलगुणिदसेढिमेत्ता हु। वेगुन्वियपंचक्खा, भोगभुमा पुह विगुव्वंति ॥२६०॥
पल्यासंख्याताहतवृंदांगुलगुरिणत श्रेणिमात्रा हि ।
वैविकपंचाक्षा, भोगभुमाः पृथक् विगूर्वति ॥२६०॥
टीका - पल्य का असंख्यातवा भाग करि घनांगुल को गुणै, जो परिमाण होइ, ताकरि जगच्छेणी गुण, जो परिमाण आवै, तितने वैक्रियिक योग के धारक पर्याप्त पंचेद्री तिर्यच वा मनुष्य जानने । तहां भोगभूमि विषै उपजे तिर्यच वा मनुष्य अर कर्मभूमि विष चक्रवर्ती ए पृथक् विक्रिया को भी कर है । इनि विना सर्व कर्मभूमियानि के अपृथक् विक्रिया ही है ।
जो मूलशरीर तै जुदा शरीरादि करना, सो पृथक् विक्रिया जाननी । अपने शरीर ही को अनेकरूप करना, सो अपृथक् विक्रिया जाननी । देवेहि सादिरेया, तिजोगिणो तेहिं हीण तसपुण्णा । बियजोगिणो तदूणा, संसारी एक्कजोगा हु ॥२६१॥
देवैः सातिरेकाः, त्रियोगिनस्तैीनाः त्रसपूर्णाः ।
द्वियोगिनस्तदूना, संसारिणः एकयोगा हि ॥२६१॥ टीका - देवनि का जो परिमाण साधिक ज्योतिष्कराशि मात्र कह्या था; तीहि विष घनांगुल का द्वितीय मूल करि गुणित जगच्छे,णी प्रमाण नारकी अर संख्यात पणट्ठी प्रतरांगुल करि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण संज्ञी पर्याप्त तिर्यंच पर वादाल का घन प्रमाण पर्याप्त मनुष्य इनिको मिलाएं, जो परिमाण होइ, तितने त्रियोगी जानने । इनिकै मन, वचन, काय तीनों योग पाइए है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३६६ बहुरि जो पूर्व पर्याप्त त्रस जीवनि का प्रमाण कहा था, तामै त्रियोगी जीवनि का परिमाण घटाएं, जो अवशेष परिमाण रहै; तितने द्वियोगी जीव जानने । इनिकै वचन, काय दोय ही योग पाइए है।
बहुरि संसारी जीवनि का जो परिमाण, तामै द्वियोगी पर त्रियोगी जीवनि का परिमाण घटाएं जो अवशेष परिमारण रहै, तितने जीव एक योगी जानने । इनि के एक काययोग ही पाइए है; असे प्रगट जानना ।
अंतोमहत्तमत्ता, चउमरणजोगा कमेण संखगुणा । तज्जोगो सामण्णं, चउवचिजोगा तदो दु संखगुणा ॥२६२॥
अंतर्मुहूर्तमात्राः, चतुर्मनोयोगाः क्रमेण संख्यगुणाः ।
तद्योगः सामान्यं, चतुर्वचोयोगाः ततस्तु संख्यगुणाः ॥२६२॥ टीका - च्यारि प्रकार मनोयोग प्रत्येक अंतर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति लीएं है । तथापि अनुक्रम ते संख्यात गुणे जानने । सोई कहिए है - सत्य मनोयोग का काल सबत थोरा है; सो भी अंतर्मुहर्त प्रमाण है; ताकी संदृष्टि-एक अंतर्मुहर्त । बहुरि यातें संख्यातगुणा काल असत्य मनोयोग का है, ताकी संदृष्टि-च्यारि अंतर्मुहूर्त । इहां संख्यात की सहनानी च्यारि जाननी। बहुरि यातै सख्यात गुणा उभय मनोयोग का काल है; ताकी सदृष्टि - सोलह अतर्मुहूर्त । बहुरि यातै संख्यातगुणा अनुभय मनोयोग का काल है; ताकी संदृष्टि-चौसठि अतर्मुहूर्त । असे च्यारि मनोयोग का काल का जोड दीएं जो परिमाण हवा, सो सामान्य मनोयोग का काल है, तिहि की संदृष्टि - पिच्यासी अतर्मुहूर्त । बहुरि सामान्य मनोयोग का काल ते संख्यातगुणा च्यारि वचनयोग काल है । तथापि क्रम ते संख्यातगुणा है, तो भी प्रत्येक अतर्मुहूर्त मात्र ही है। तहां सामान्य मनोयोग का कालतै संख्यातगुणा सत्य वचनयोग का काल है; ताकी संदृष्टि-चौगुणा पिच्यासी ( ४४८५) अतर्मुहूर्त । बहुरि यात संख्यात गुणा असत्य वचनयोग का काल है - ताकी सदृष्टि सोलहगुणा पिच्यासी ( १६४८५ ) अंतर्मुहूर्त । बहुरि यातै सख्यातगुणा उभय वचनयोग का काल है - ताकी संदृष्टि-चौसठिगुणा पिच्यासी ( ६४४८५ ) अतर्मुहूर्त । वहुरि यातै संख्यात गुणा अनुभय वचनयोग का काल है; ताकी दृष्टि-दोय से छप्पन गुणा पिच्यासी ( २५६४८५ ) अंतर्मुहूर्त ।
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४०० 1
[ गोम्मटसार जीवकाण्ट गाथा २६३ तज्जोगो सामण्णं, कामो संखाहदो तिजोगमिदं । सव्वसमासविभजिदं, सगसगगुणसंगुणे दुः सगरासी ॥२६३॥
तद्योगः सामान्यं, कायः संख्याहतः त्रियोगिमितम् । सर्वसमासविभक्तं, स्वकस्वकगुणसंगुणे तु स्वकराशिः॥२६३॥
टीका - बहुरि जो चार्यों वचन योगनि का काल कह्या, ताका जोड दीएं, जो परिमाण होइ, सो सामान्य वचन योग का काल है; ताकी संदृष्टि तीन से चालीस गुणा पिच्यासी ( ३४०४८५ ) अंतर्मुहूर्त । यातै संख्यात गुणा काल काययोग का जानना । ताकी संदृष्टि तेरह से साठि गुणा पिच्यासी (१३६०४८५) अंतर्मुहूर्त । असे इनि तीनों योगनि के काल का जोड दीएं, सतरह से एक गुणा पिच्यासी ( १७०१४८५ ) अंतर्मुहूर्त प्रमाण भया । ताके जेते समय होहि, तिस प्रमाण करि त्रियोग कहिए । पूर्व जो त्रियोगी जीवनि का परिमाण कह्या था, ताकी भाग दीजिए जो एक भाग का परिमाण आवै, ताकौ सत्यमनोयोग के काल के जेते समय, तिनकरि गुणै, जो परिमाण आवै, तितने सत्य मनोयोगी जीव जानने । बहुरि ताही को असत्य मनोयोग काल के जेते समय, तिन करि गुणै, जो परिमाण आवै, तितने असत्य मनोयोगी जीव जानने । जैसे ही काययोग पर्यंत सर्व का परिमाण जानना । इहां सर्वत्र त्रैराशिक करना । तहां जो सर्व योगनि का काल विर्ष पूर्वोक्त त्रियोगी सर्व जीव पाइए, तौ विवक्षित योग के काल विर्ष केते जीव पाइए ? असे तीनो योगनि का जोड दिए जो काल भया, सो प्रमाण राशि, त्रियोगी जीवनि का परिमाण फल राशि, अर जिस योग की विवक्षा होइ तिसका काल इच्छा राशि, अस करि के फलराशि की इच्छाराशि करि गुरिण प्रमाणराशि का भाग दीएं, जो-जो परिमाण आवै, तितने-तितने जीव विवक्षित योग के धारक जानने ।
वहरि द्वियोगी जीवनि विष वचनयोग का काल अंतर्मुहूर्त मात्र, ताकी संदष्टि । एक अंतर्मुहूर्त, यातै सख्यातगुणा काययोग का काल, ताकी सदृष्टि च्यारि अतमुहूर्त, इनि दोऊनि के काल को जोड, जो प्रमाण होइ, ताका भाग द्वियोगी जीव राशि को दीएं, जो एक भाग का परिमारण होइ, ताकौ अपना-अपना काल करि गुणे, अपना-अपना राशि हो है । तहा किछ घाटि त्रसराशि के प्रमाण को सदृष्टि अपेक्षा पांच करि भाग देइ, एक करि गुणे, द्वियोगीनि विर्षे वचन योगीनि का
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
[ ४०१ प्रमाण हो है । पांच का भाग देइ, च्योरि करि गुणे द्वियोगीनि विषै काययोगीनि का प्रमाण हो है।
कम्मोरालियमिस्सयोरालद्धासु संचिदअणंता । कम्मोरालियमिस्सय, ओरालियजोगिणो जीवा ॥२६॥
कार्मणौदारिकमिश्रकौरालाद्धासु संचितानंताः ।
कार्मरणौरालिकमिश्रकौरालिकयोगिनो जीवाः ॥२६४॥ टीका - कार्माण काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, औदारिक काययोग इनि के कालनि विर्षे संचित कहिए एकठे भएं, जे कार्माण काययोगी, औदारिक मिश्र काययोगी, औदारिक काययोगी जीव, ते प्रत्येक जुदे-जुदे अनंतानंत जानने, सोई कहिए है।
समयत्तयसंखावलिसंखगुणावलिसमासहिदरासी । सगगुणगुणिदे थोवो, असंखसंखाहदो कमसो ॥२६॥
समयत्रयसंख्यावलिसंख्यगुणावलिसमासहितराशिम् ।
स्वकगुणगुणिते स्तोकः, असंख्यसंख्याहतः क्रमशः ॥२६५॥ टीक - कार्मण काययोग का काल तीन समय है, जातै विग्रह गति विष अनाहारक तीनि समयनि विर्षे कारण काय योग ही संभव है । बहुरि औदारिक मिश्र काययोग का काल संख्यात प्रावली प्रमाण है, जाते अंतर्मुहूर्त प्रमाण अपर्याप्त अवस्था विष औदारिकमिश्र का काल है। बहुरि तातै सख्यातगुणा औदारिक काययोग का काल है; जाते तिनि दोऊ कालनि बिना अवशेष सर्व औदारिक योग का ही काल है; सो इनि सर्व कालनि का जोड दीएं जो समयनि का परिमाण भया, ताको द्विसंयोगी त्रिसयोगी राशि करि हीन ससारी जीव राशिमात्र एक योगी जीव राशि के परिमाण को भाग दीए जो एक भाग विष परिमाण आवै, तीहि को कार्माण काल करि गुण, जो परिमाण होइ, तितने कार्माण काययोगी है । अर तिस ही एक भाग कौं औदारिक मिश्र काल करि गुणे, जो परिमाण होड, तितने प्रौदारिक मिश्र योगी जानने । बहुरि तिस ही एक भाग को औदारिक के काल करि गणे, जो परिमाण होइ, तितने औदारिक काययोगी जानने ।
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४०२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६६
इहां कार्माण काययोगी तौ सब ते स्तोक है । इनि ते प्रसंख्यात गुणे ग्रोदारिकमिश्र काययोगी है । इन ते संख्यातगुणे श्रीदारिक काययोगी है । इहां भी जो तीनू काययोग के काल विषै सर्व एक योगी जीव पाइए, तौ कार्मारण शरीर आदि विवक्षित के काल विषे केते पाइए ? जैसे त्रैराशिक हो है । तहां तीनों काययोगनि का काल सो प्रमाणराशि, एक योगी जीवनि का परिमारण सो फलराशि, कार्मरणादिक विवक्षित का काल सो इच्छाराशि, फलराशि को इच्छाराशि करि गुरण, प्रमाण राशि का भाग दीएं, जो-जो प्रमाण पावै, तितने-तितने विवक्षित योग के धारक जीव जानने । क्रमश इस शब्द करि आचार्य ने कह्या है कि धवल नामा प्रथम सिद्धांत के अनुसार यह कथन कीया है । या करि अपना उद्धतता का परिहार प्रगट कीया है ।
सोवक्कमाणुवक्कमकालो संखेज्जवासठिदिवाणे | आवलिप्रसंखभागो, संखेज्जावलिपमा कमसो ॥ २६६ ॥
सोपक्रमानुपक्रमकालः संख्यातवर्षस्थितिवाने ।
आवल्यसंख्य भागः, संख्यातावलिप्रमः क्रमशः ॥ २६६ ॥
टीका - वैऋियिक मिश्र र वैक्रियिक काययोग के धारक जे जीव, तिनकी संख्या च्यारि गाथानि करि कहै है । संख्यात वर्ष की है स्थिति जिनकी जैसे जे मुख्यता करि दश हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थिति के धारकवान कहिए व्यंतर देव, तिनि विषै उनकी स्थिति के दोय भाग है, एक सोपक्रम काल, एक अनुपक्रम
काल ।
तहा उपक्रम कहिए उत्पत्ति, तीहि सहित जो काल, सो सोपक्रम काल कहिए । सो आवली के असख्यातवे भागमात्र है, जो व्यतर देव उपजिवो ही करें, वीच कोई समय अंतर नही पडै, तौ आवली का असख्यातवा भाग प्रमाण काल पर्यंत उपजिवो करें ।
बहुरि जो उत्पत्ति रहित काल होइ; सो अनुपक्रम काल कहिए । सो संख्यात आवली प्रमाण है । बारह मुहूर्तमात्र जानना । जो कोई ही व्यंतर देव न उपजै, तो बारह मुहूर्त पर्यंत न उपजै, पीछे कोई उपजै ही उपजै ; जैसे अनुक्रम तै काल जानने ।
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दसवां अधिकार : वेद-मार्गणा-प्ररूपणा
॥ मंगलाचरण ॥ दुरि करत भव ताप सब, शीतल जाके बैन ।
तीन भवननायक नौं, शीतल जिन सुखदैन । आगे शास्त्र का कर्ता आचार्य छह गाथानि करि वेदमार्गणा को प्ररूप हैं - पुरिसिच्छिसंढवेदोदयण पुरिसिच्छिसंढओ भावे । णामोदयण दवे, पाएण समा कहिं विसमा ।। २७१ ॥
पुरुषस्त्री षंढवेदोदयेन पुरुषस्त्रीषंढाः भावे ।
नामोदयेन द्रव्ये, प्रायेण समाः क्वचिद् विषमाः ॥२७१॥ टीका - चारित्र मोहनीय का भेद नोकषाय, तीहरूप पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद नामा प्रकृति, तिनिके उदय से भाव जो चैतन्य उपयोग, तीहि विषै पुरुष, स्त्री, नपुसकरूप जीव हो है । बहुरि निर्माण नामा नामकर्म के उदय करि संयुक्त अंगोपांग का विशेषरूप नामकर्म की प्रकृति के उदय ते, द्रव्य जो पुद्गलीक पर्याय, तीहिविर्षे पुरुष, स्त्री, नपुसक रूप शरीर हो है । सो ही कहिए है-पुरुषवेद के उदयते स्त्री का अभिलाषरूप मैथुन सज्ञा का धारी जीव, सो भाव पुरुष हो है । बहुरि स्त्री वेद के उदय ते पुरुष का अभिलाषरूप मैथुन सज्ञा का धारक जीव, सो भाव स्त्री हो है । बहुरि नपुसकवेद के उदय ते पुरुष अर स्त्री दोऊनि का युगपत् अभिलाषरूप मैथुन सज्ञा का धारक जीव, सो भाव नपुसक हो है ।
बहुरि निर्माण नामकर्म का उदय सयुक्त पुरुष वेदरूप आकार का विशेष लीएं, अगोपाग नामा नामकर्म का उदय ते मूछ, डाढी, लिगादिक चिह्न संयुक्त शरीर का धारक जीव, सो पर्याय का प्रथम समय ते लगाय अन्त समय पर्यत द्रव्य पुरुष
वहुरि निर्माण नाम का उदय संयुक्त स्त्री वेदरूप आकार का विशेष लीएं अंगोपांग नामा नामकर्म के उदयतै रोम रहित मुख, स्तन, योनि इत्यादि चिह्न संयुक्त
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[४.७ शरीर का धारक जीव, सो पर्याय का प्रथम समय तै लगाइ अंत समय पर्यत द्रव्य स्त्री होइ है।
वहरि निर्माण नामा नामकर्म का उदय ते संयुक्त नपुसक वेदरूप आकार का विशेष लीएं अंगोपांग नामा नामप्रकृति के उदय ते मूछ, डाढी इत्यादि वा स्तन, योनि इत्यादिक दोऊ चिह्न रहित शरीर का धारक जीव, सो पर्याय का प्रथम समय ते लगाइ अंत समय पर्यत द्रव्य नपुसक हो है ।
सो प्रायेण कहिए बहुलता करि तौ समान वेद हो है । जैसा द्रव्यवेद होइ तैसा ही भाव वेद होइ बहुरि कही समान वेद न हो है, द्रव्यवेद अन्य होइ, भाव वेद अन्य होइ। तहां देव अर नारकी अर भोग भूमिया तिर्यच, मनुष्य इनिकै तौ जैसा द्रव्य वेद है, तैसा ही भाव वेद है। बहुरि कर्मभूमियां तिर्यच अर मनुष्य विषै कोई जीवनि के तौ जैसा द्रव्य वेद हो है, तैसा ही भाव वेद है, बहुरि केई जीवनि के द्रव्य वेद अन्य हो है अर भाव वेद अन्य हो है । द्रव्य तें पुरुष है अर भाव ते पुरुष का अभिलाषरूप स्त्री वेदी है । वा स्त्री अर पुरुष दोऊनि का अभिलाषरूप नपुंसकवेदी है। जैसे ही द्रव्य तें स्त्रीवेदी है अर भाव से स्त्रीका अभिलाषरूप पुरुषवेदी है । वा दोऊनि का अभिलाषरूप नपुसक वेदी है । बहुरि द्रव्य ते नपुसक वेदी है। भाव ते स्त्री का अभिलाषरूप पुरुष वेदी है । वा पुरुष का अभिलाषरूप स्त्री वेदी है। जैसा विशेष जानना, जाते आगम विष नवमा गुणस्थान का सवेद भाग पर्यत भाव ते तीन वेद है । अर द्रव्य ते एक पुरुष वेद ही है, असा कथन कह्या है।
वेदस्सुदीरणाए, परिणामस्स य हवेज्ज संमोहो । संमोहेण ण जाणदि, जीवो हि गुणं व दोषं वा ॥२७२॥
वेदस्योदीरणायां, परिणामस्य च भवेत्संमोहः ।
संमोहेन न जानाति, जीवो हि गुणं वा दोषं वा ॥२७२॥ टीका - मोहनीय कर्म की नोकषायरूप वेद नामा प्रकृति, ताका उदीरणा वा उदय, तीहि करि आत्मा के परिणामनि को रागादिरूप मैथुन है नाम जाका जैसा सम्मोह कहिए चित्त विक्षेप, सो उपज है। तहा बिना ही काल आए कर्म का फल निपजै, सो उदीरणा कहिए । काल आएं फल निपजे, सो उदय कहिए । बहुरि उस सम्मोह के उपजने से जीव गुण को वा दोष को न जान, असा अविवेक रूप
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You 1
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २७३-२७४
अनर्थ वेद के उदय तै भया सम्मोह तै हो है । ताते ज्ञानी जीव कौं परमागम भावना का बल करि यथार्थ स्वरूपानुभवन आदि भाव ते ब्रह्मचर्य अंगीकार करना योग्य है; सा आचार्य का अभिप्राय है ।
पुरगुरणभोगे सेदे, करेदि लोयस्मि पुरुगुणं कम्मं । पुरु उत्तमे य जह्मा, तह्मा सो वणिश्रो पुरिसो' ॥२७३॥
पुरुगुरणभोगे शेते, करोति लोके पुरुगुणं कर्म ।
पुरूत्तमे च यस्मात् तस्मात् स वर्णितः पुरुषः || २७३॥
टीका - जाते जो जीव पुरुगुण जो उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञानादिक, तीहि विषे शेते कहिए स्वामी होइ प्रवर्ते ।
बहुरि पुरुभोग जो उत्कृष्ट इंद्रादिक का भोग, तीहि विषै शेते कहिए भोक्ता होय प्रवर्ते ।
बहुरि पुरुगुरण कर्म जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थ, तीहिने शेते कहिए करै ।
बहुरि पुरु जो उत्तम परमेष्ठी का पद तीहिं विषै शेते कहिए तिष्ठे । ताते सो द्रव्य भाव लक्षण सयुक्त द्रव्य भाव तै पुरुष का है । पुरुष शब्द की निरुक्ति करि वर्णन किया है ।
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1
धातुनि के अनेक अर्थ है । ताते शीङ स्वप्ने इस धातु का स्वामी होना, भोगवना, करना, तिष्ठना से अर्थ कहे, विरोध न उपजावै है । बहुरि इहा पृषोदर शब्द की ज्यो अक्षर विपर्यास जानने । तालवी, शकार का, मूर्धनी षकार करना । अथवा 'षोऽतकरिग' इस धातु तै निपज्या पुरुष शब्द जानना ।
छादयदि सयं दोसे, णयदो छांददि परं वि दोसेण । छादणसीला जह्मा, तह्मा सा वण्णिया इत्थी ॥ २७४ ॥
छादयति स्वकं दोषैः नयतः छादयति परमपि दोषेण । छादनशीला यस्मात् तस्मात् सा वरिता स्त्री ॥ २७४ ॥
१ पट्खडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ ३४३, गाथा १७१ ।
२. षट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३४३, गाथा १७० ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ४०
टीका - जाते जो स्वयं कहिए आपको दोष: कहिए मिथ्यात्व अज्ञान, असं - यम, क्रोधादिक, तिनि करि स्तृणाति कहिए आच्छादित कर है । बहुरि नाही केवल आप ही को आच्छादित कर है; जाते पर जु है पुरुषवेदी जीव, ताहि कोमल वचन कटाक्ष सहित विलोकन, - सानुकूल प्रवर्तन इत्यादि प्रवीणतारूप व्यापारनि ते - अपने वश करि दोष जे है हिसादिक पाप, तिनि करि स्तृणाति कहिए आच्छादे है; जैसा आच्छादन रूप ही है स्वभाव जाका तातै, सो द्रव्य भाव करि स्त्री अंसा नाम कह्या है । सी स्त्री शब्द की निरुक्ति करि वर्णन कीया ।
यद्यपि तीर्थकर की माता आदि सम्यग्दृष्टिणी स्त्रीनि विषे दोष नाही, तथापि वे स्त्री थोरी अर पूर्वोक्त दोष करि संयुक्त स्त्री घनी । तातै प्रचुर व्यवहार अपेक्षा सा लक्षण आचार्य ने स्त्री का कह्या ।
वित्थी व पुमं, णउंसो उहय-लिंग-विदिरित्तो । इटावग्गिसमारगग -वेदणगरुश्रो कलुस - चित्तो ॥ २७५॥
नैव स्त्री नैव पुमान्, नपुंसक उभयलिंगव्यतिरिक्तः । इष्टापाकाग्निसमानकवेदनागुरुकः कलुषचित्तः ॥२७५॥
टीका - जो जीव पूर्वोक्त पुरुष वा स्त्रीनि के लक्षरण के अभाव ते पुरुष नाही वा स्त्री नाहीं ; तातें दौऊ ही वेदनि के डाढी, मूछ वा स्तन, योनि इत्यादि चिह्न, तिनिकरि रहित है । बहुरि इष्ट का पाक जो ईट पचावने का पंजावा, ताकी अग्नि समान तीव्र काम पीडा करि गरवा भर्या है । बहुरि स्त्री वा पुरुष दोऊनि का अभिलाषरूप मैथुन संज्ञा करि मैला है चित्त जाका, औसा जीव नपुंसक है ऐसा श्रागम विषे का है । यहु नपुंसक शब्द की निरुक्ति करि वर्णन कीया । स्त्री पुरुष का अभिलाष - रूप तीव्र कामवेदना लक्षरण घरे, भावनपुंसक है; औसा तात्पर्य जानना ॥ २७५ ॥
तिणकारिसिट्ठपागग्ग - सरिस - परिणाम-वेयणुम्मुक्का । अवगय-वेदा जीवा, सग-संभवरगंत - वरसोक्खा ॥ २७६ ॥
१. षट्खंडागम पाठभेद - उद्य
२. पट्खडागम पाठभेद -- कारिस तरिगट्ट - वागग्गि ।
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घवला पुस्तक १, पृष्ठ ३४४ गाथा सं १७२
• उभय, इट्ठावग्गि - इट्ठावाग, वेदरण - वेयरण ।
- धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३४४, गाथा १७३ ।
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४१० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २७७
तृणकारीषेष्टपाकाग्निसदृश परिणामवेदनोन्मुक्ताः । अपगतवेदा जीवाः, स्वकसंभवानंतवरसौख्याः ॥२७६॥
टीका - पुरुष वेदी का परिणाम, तिरणाकी अग्नि समान है । स्त्री वेदी का परिणाम कारीष का अग्नि समान है । नपुंसक वेद का परिणाम पजावाकी श्रग्नि समान है । जैसे तीनों ही जाति के परिणामनि की जो पीडा, तीहि करि जे रहित भए हैं; से भाववेद अपेक्षा अनिवृत्तिकरण का अपगत वेदभाग तै लगाय, अयोगी पर्यंत अर द्रव्य भाव वेद अपेक्षा गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान जानने ।
को जानेगा जहा काम सेवन नाही; तहां सुख भी नाही ?
ताको कहें है – कैसे है ते अवेदी ? अपने ज्ञान दर्शन लक्षण विराजमान आत्मतत्त्व ते उत्पन्न भया जो अनाकुल प्रतीद्रिय अनंत सर्वोत्कृष्ट सुख, ताके भोक्ता है । यद्यपि नवमा गुणस्थान के अवेद भाग ही तै वेद उदय ते उत्पन्न कामवेदनारूप सक्लेश का अभाव है । तथापि मुख्यपने सिद्धनि ही के आत्मीक सुख का सद्भाव दिखाइ वर्णन कीया । परमार्थ ते वेदनि का अभाव भए पीछे ज्ञानोपयोग की स्वस्थतारूप आत्म जनित आनन्द यथायोग्य सबनि के पाइये है ।
आगे श्री माधवचन्द्र त्रैविद्यदेव वेद मार्गरणा विषै जीवनि की सख्या पांच गाथानि करि कहै है -
जोइसियवाणजोरिणितिरिक्खपुरुसा य सण्णिणो जीवा । तत्तेउपम्मलेस्सा, संखगुरगुरणा कमेणेदे ॥ २७७ ॥
ज्योतिष्कवानयोनितिर्यक्पुरुषाश्च संज्ञिनो जीवाः । तत्तेजः पद्मलेश्याः, संख्यगुणोनाः क्रमेणैते ॥ २७७॥
टीका - पैसंठि हजार पांच से छत्तीस प्रतरांगुल का भाग जगत्प्रतर को दीए, जो परिमाण आव, तितने ज्योतिषी है । ताते संख्यात गुणे घाटि व्यतर है । संख्यात गुणे घाट को वा संख्यातवा भाग कहो दोऊ एकार्थ है । बहुरि तातै सख्यात गुणे घाटि योनिमती तिर्यच है । तिर्यच गति विषे द्रव्य स्त्री इतनी है । बहुरि ताते संख्यात गुणे घाटि द्रव्य पुरुष वेदी तिर्यंच है । बहुरि ताते संख्यात गुणे घाटि सैनी पचेद्री तिर्यच है । बहुरि तातै सख्यात गुणा घाटि पीत लेश्या का धारक सैनी पंचेद्री तिर्यच है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] बहुरि तीह स्यों संख्यात गुणा घाटि पद्म-लेश्या का धारक सैनी पंचेद्री तिर्यच हैं। असे ए सब संख्यात गुणा घाटि कह्या ।।
इगिपुरिसे बत्तीसं, देवी तज्जोगभजिददेवोधे । सगगुरणगारेण गुणे, पुरुसा महिला य देवेसु ॥२७॥
एकपुरुषे द्वात्रिंशद्देव्यः तद्योगभक्तदेवौधे ।
स्वकगुणकारेण गुणे, पुरुषा महिलाश्च देवेषु ॥२७८॥ टीका - देवगति विष एक पुरुष के बत्तीस देवागना होइ । कोई ही देव के बत्तीस सौं घाटि देवांगना नाही । अर इंद्रादिकनि के देवागना तिनतै सख्यात गुणी बहुत है । तथापि जिनके बहुत देवागना है, जैसे देव तौ थोरे है। पर बत्तीस देवांगना जिनके है; जैसे प्रकीर्णकादिक देव धने तिनत असंख्यात गुणे है । तातै एक एक देव के बत्तीस-बत्तीस देवांगना की विवक्षा करि अधिक की न करि कही। सो बत्तीस देवांगना पर एक देव मिलाएं तैतीस भए, सो पूर्व जो देवनि का परिमाण कह्या था, ताकी तैतीस का भाग दीए जो एक भाग का परिमाण आवै, ताको एक करि गुणे तितना ही रह्या, सो इतने तौ देवगति विर्षे पुरुष जानने । अर याको बत्तीस गुणा कीएं जो परिमाण होइ, तितनी देवांगना जाननी ।
भावार्थ - देवराशि का तेतीस भाग मे एक भाग प्रमाण देव है, बत्तीस भाग प्रमाण देवागना है।
देवेहि सादिरेया, पुरिसा देवीहिं साहिया इत्थी । तेहि विहीण सवेदो, रासी संढाण परिमाणं ॥२७॥
देवैः सातिरेकाः, पुरुषाः देवीभि. साधिकाः स्त्रियः।
तैविहीनः सवेदो, राशिः षंढानां परिमारणम् ॥२७९॥ टीका - पुरुष वेदी देवनि का जो परिमाण कह्या, तीहि विष पुरुष वेदी तिर्यंच, मनुष्यनि का परिमाण मिलाएं, सर्व पुरुष वेदी जीवनि का परिमाण हो है। बहुरि देवागना का जो परिमाण कह्या तीहि विष तिर्यचणी वा मनुष्यणी का परिमाण मिलाएं सर्व स्त्रीवेदी जीवनि का परिमाण हो है । बहुरि नवमा गुणस्थान का वेद रहित भाग तै लगाइ प्रयोग केवली पर्यत जीवनि का संख्या रहित सर्व
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४१२
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८०-२८१
संसारी जीवनि का परिमाण में स्यों पुरुष वेदी पर स्त्री वेदी जीवनि का परिमाण घटाएं जो अवशेष प्रमाण रहै; तितने नपुसकवेदी जीव जानने ।
गब्भण पुइत्थिसण्णी, सम्मुच्छरणसण्णिपुण्णगा इदरा । कुरुजा असण्णिगब्भजणपुइत्थीवाणजोइसिया ॥२८०॥ थोवा तिसु संखगुणा, तत्तो आवलिअसंखभागगुणा । पल्लासंखेज्जगुणा, तत्तो सम्वत्थ संखगुणा ॥२८१॥
गर्भनपुंस्त्रीसंज्ञिनः, सम्मूर्छनसंक्षिपूर्णका इतरे । कुरुजा असंज्ञिगर्भजनपुस्त्रीवानज्योतिष्काः ॥२८०॥ स्तोकाः त्रिषु संख्यगुणाः, तत आवल्यसंख्यभागगुणाः ।
पल्यासंख्येयगुणाः, ततः सर्वत्र संख्यगुणाः ॥२८॥ टीका - सैनी पंचेद्री गर्भज नपुंसक वेदी, बहुरि सैनी पंचेंद्री गर्भज पुरुष वेदी, बहुरि सैनी पंचेद्री गर्भज स्त्री वेदी, बहुरि सम्मूर्छन सैनी पंचेद्रिय पर्याप्त नपुंसक वेदी, बहुरि सम्मूर्छन सैनी पचेद्री अपर्याप्त नपुंसक वेदी, बहुरि भोगभूमिया गर्भज सैनी पंचेंद्री पर्याप्त पुरुष वेदी वा स्त्री वेदी, बहुरि असैनी पंचेद्री गर्भज नपुंसक वेदी, बहुरि असनी पचेद्री गर्भज पुरुष वेदी, बहुरि असैनी पंचेद्री गर्भज स्त्री वेदी, बहुरि व्यतरदेव, अर ज्योतिषदेव-ए ग्यारा जीवराशि अनुक्रम तै ऊपरि-ऊपरि लिखनी।
पूर्वं जो ग्यारा राशि कहे, तिनि विषै नीचली राशि सैनी पंचेद्री गर्भज नपुंसक वेदी सो सर्व ते स्तोक है । आठ बार संख्यात अर आवली का असंख्यातवां भाग अर पल्य का असंख्यातवा भाग अर पेसठि हजार पांच सै- छत्तीस प्रतरागुल, इनिका भाग जगत्प्रतर को दीएं, जो परिमाण आवै, तितने जानने ।
बहुरि याके ऊपरि सैनी पचेंद्री गर्भज पुरुष वेदी स्यों लगाइ, तीन राशि अनुक्रम तै संख्यात गुणा जानना।
बहुरि चौथी राशि तै पंचम राशि संमूर्छन सैनी पंचेद्री अपर्याप्त नपुंसक वेदी पावली का असंख्यातवा भाग गुणा जानना।
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सम्यग्ज्ञानन्त्रिका भाषाटीका
बहुरि इस पंचम राशि ते षष्ठराशि पल्य का असख्यातवां भाग गुणा जानना।
बहुरि यात असैनी पंचेंद्री गर्भज नपुंसक वेदी स्यों लगाइ, ज्योतिषी पर्यंत सप्तम, अष्टम, नवम, दशम, एकादशम राशि अनुक्रम ते संख्यात गुणा जानना । असे वेद मार्गणा विर्ष जीवनि की संख्या कही।। इति आचार्य श्रीनेमिचद्र सिद्धातचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह ग्रथ
की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा भाषा टीका के विष जीवकांड विष प्ररूपित जे वीसप्ररूपणा तिनि विष वेदमार्गणा प्ररूपणा नामा दशमा
अधिकार समाप्त भया।
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ग्याहरवां अधिकार : कषाय-मार्गणा-प्ररूपणा
॥मंगलाचरण । पावन जाको श्रेयमग, मत जाको श्रियकार ।
आश्रय श्री श्रेयांस को, करहु श्रेय मम सार ।।
आगे शास्त्रकर्ता आचार्य चौदह गाथानि करि कषाय मार्गणा का निरूपण करें है -
सुहदुक्खसुबहुसस्सं, कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्स । संसारदूरमेरं, तेण कसाओ त्ति णं बैंति ॥२८२॥
सुखदुःखसुबहुसस्य, कर्मक्षेनं कृषति जीवस्य ।
संसारदूरमर्याद, तेन कषाय इतीमं ब्रुवंति ॥२८२॥ टोका - जा कारण करि संसारी जीव के कर्म जो है ज्ञानावरणादिक मूल, उत्तर-उत्तरोत्तर प्रकृतिरूप शुभ-अशुभ कर्म, सोई भया क्षेत्र कहिए, अन्न उपजने का आधार भूत स्थान, ताहि कृषति कहिए हलादिक ते जैसे खेत कौं सवारिए, तैसै जो सवारे है, फल निपजावने योग्य करै है, तीहि कारण करि क्रोधादि जीव के परिणाम कषाय हैं, असा श्रीवर्धमान भट्टारक के गौतम गणधरादिक कहै है । तातै महाधवल द्वितीय नाम कषायप्राभृत आदि विष गणधर सूत्र के अनुसारि जैसे कषायनि का स्वरूप, संख्या, शक्ति, अवस्था, फल आदि कहे है । तैसे ही मैं कहोंगा। अपनी रुचिपूर्वक रचना न करोगा । जैसा आचार्य का अभिप्राय जानना ।
कैसा है कर्मक्षेत्र ? इंद्रियनि का विषय संबंध ते उत्पन्न भया हर्ष परिणामरूप नानाप्रकार सुख और शारीरिक, मानसिक पीडा रूप नाना प्रकार दुख सोई बहुसस्य कहिए वहुत प्रकार अन्न, सो जीहिं विष उपज्या है जैसा है।
वहुरि कैसा है कर्मक्षेत्र ? अनादि अनंत पंच परावर्तन रूप संसार है, मर्यादा सीमा जाकी असा है।
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१ पट्स डागम - धवला पुस्तक १, पृ १४३, गा स. ६०.
यह जयधवल द्वितीय नाम कपायप्राभूत है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका)
। ४१५ भावार्थ - जैसे किसी का किंकर पालती सो खेत विष बोया हूवा बीज, जैसे बहुत फल कौं प्राप्त होइ वा बहुत सीव पर्यंत होइ, तैसै हलादिक ते धरती का फाडना इत्यादिक कृषिकर्म को करै है।
तैसें संसारी जीव का किंकर क्रोधादि कषाय नामा पालती, सो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग रूप कर्म का बंध, सो ही भया खेत, तीहि विष मिथ्यात्वादिक परिणाम रूप बीज, जैसे कालादिक की सामग्री पाइ, अनेक प्रकार सुख-दुःख रूप बहुत फल को प्राप्त होइ वा अनंत संसार पर्यत फल को प्राप्त होइ । तैसे कार्य को कर, तातै इन क्रोधादिकनि का कषाय असा नाम कह्या, 'कृषि विलेखने' इस धातु का अर्थ करि कषाय शब्द का निरुक्तिपूर्वक निरूपण आचार्य करि कीया है ।
सम्मत्तदेससयलचरित्तजहक्खाद-चरणपरिणामे । घादंति वा कषाया, चउसोलअसंखलोगमिदा ॥२३॥ सम्यक्त्वदेशसकलचरित्रयथाख्यातचरणपरिणामान् । घातयंति वा कषायाः, चतुः षोडशासंख्यलोकमिताः॥२३॥
टीका- अथवा 'कषंतीति कषायाः' जे हत, घात करे, तिनिकी कषाय कहिए। सो ए क्रोधादिक है, ते सम्यक्त्व वा देश चारित्र वा यथाख्यात चारित्र रूप आत्मा के विशुद्ध परिणामनि कौं घाते है । तातै इनिका कषाय असा नाम है । यहु कषाय शब्द का दूसरा अर्थ अपेक्षा लक्षण कह्या।
तहां अनंतानुबधी क्रोधादिक है, तो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्व को घाते है, जाते अनंत ससार का कारण मिथ्यात्व वा अनत संसार अवस्थारूप काल, ताहि अनुबंध्नति कहिए सबधरूप करै; तिनको अनतानुबंधी कहिए ।
___ बहुरि अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक कहे, ते अणुव्रतरूप देश चारित्र को घात है, जाते अप्रत्याख्यान कहिए ईषत् प्रत्याख्यान किंचित् त्यागरूप अणुव्रत, ताकी आवृण्वंति कहिए आवरे, नष्ट कर; ताको अप्रत्याख्यानावरण कहिए ।
बहुरि प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिक है, ते महाव्रतरूप सकल चारित्र की घातै है; जातै प्रत्याख्यान कहिए सकल त्यागरूप महाव्रत, ताको आवृण्वंति कहिए आवरे, नष्ट करें, ताको प्रत्याख्यानावरण कहिए ।
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४१६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८४ बहुरि सज्वलन क्रोधादिक है, ते सकल कषाय का अभावरूप यथाख्यात चारित्र को घाते है; जातै 'सं' कहिए समीचीन, निर्मल यथाख्यात चारित्र, ताको 'ज्वलंति' कहिए दहन करै, तिनको संज्वलन कहिए। इस निरुक्ति ते संज्वलन का' उदय होते सतै भी सामायिकादि अन्य चारित्र होने का अविरोध सिद्ध हो है।
___असा यह कषाय. सामान्यपन-एक प्रकार है। विशेषपनै अनतानुबंधी; अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन भेद तैःच्यारि प्रकार हैं। बहुरि इनके एकएक के क्रोध, मान, माया, लोभ करि च्यारि-च्यारि भेद कीजिए तब सोलह प्रकारहो है । अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभा; संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ असे सोलह भेद भएं।
बहुरि उदय स्थानको के विशेष की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण है, जाते कपायनि का कारणभूत जो चारित्रमोह, ताकि प्रकृति के भेद असंख्यात लोक प्रमाण
सिल-पुढवि-भेद-धूली-जल-राइ-समाणो हवे कोहो । पारय-तिरिय-परामर-गईसु उप्पायओ कमसो १ ॥२४॥ शिलापृथ्वीभेदधूलिजलराशिसमानको भवेत् क्रोधः । नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पादकः क्रमशः ॥२८४॥
टोका-शिला भेद, पृथ्वी भेद, धूलि रेखा, जल रेखा समान क्रोध कषाय सो अनुक्रम तै नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव गति विर्ष जीव को उपजावन हारा है । सोई कहिए है
जैसे शिला, जो पाषाण का भेद खंड होना, सो बहुत घने-काल गए बिना मिले नाही; तैसे वहुत घने काल गए बिना क्षमारूप मिलन को न-प्राप्त होइ, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीए क्रोध, सो जीव को नरक गति विष उपज़ा है ।
बहुरि जैसे पृथ्वी का भेद-खंड होना, सो घने काल गएं बिना मिले नाही, तैसै घने काल गए विना, जो क्षमारूप मिलने को न प्राप्त होइ असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीएं क्रोध, सो जीव को तिर्यंच गति विष उपजावै है।
१ पट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृ. ३५२, गा. स. १७४.
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
बहुरि जैसे धूलि विर्ष करी हुइ लीक, सो थोरा काल गएं बिना मिले नाहीं, तैसै थोरा काल गए बिना जो क्षमारूप मिलन को प्राप्त न होइ, असा अजघन्य शक्ति लिएं क्रोध, सो जीव कौं मनुष्य गति विर्षे उपजावै है ।
बहरि जैसे: जल विष करी हुई लीक, बहुत थोरा काल गए बिना मिल नाही, तैसे बहुत थोरा काल गएं बिना जो क्षमारूप मिलन को प्राप्त न होइ; असा जोजिघन्य शक्ति लीए क्रोध, सो जीव को देव गति विष उपजावै है। तिस-तिस उत्कृष्टादि शक्ति युक्त क्रोधरूप परिणम्या जीव, सो तिस-तिस नरक आदि गति विर्षे उपजने कौं कारण आयु-गति आनुपूर्वी आदि प्रकृतिनि को बांध है; असा’ अर्थ जानना।
- इहां राजि शब्द रेखा वाचक जानना; पंक्ति वाचक न जानना । बहुरि इहां शिला भेद आदि उपमान अर उत्कृष्ट शक्ति प्रादि क्रोधादिक उपमेय, ताका समानपना अतिघना कालादि गएं बिना मिलना न होने की अपेक्षा जानना ।
सेलटि-कटठ्-वेत्ते, रिणयभेएणणुहरंतो माणो। णारय-तिरिय-णरामर-गईसु उप्पायओ कमसो' ॥२८॥ शैलास्थिकाष्ठवेत्रान् निजभेदेनानुहरन् मानः ।
नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पादकः क्रमशः ।।२८५॥ टीका - शैल, अस्थि, काष्ठ, बैंत समान जो अपने भेदनि करि उपमीयमान च्यारि प्रकार मान कषाय, सो क्रम ते नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव गति विर्षे जीव को उपजावै है । सो कहिए है -
जैसै शैल जो पाषाण सो बहुत घने काल बिना नमावने योग्य न होइ; तसे बहुत घने काल बिना जो विनयरूप नमन को प्राप्त न होइ, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीएं मान, सो जीवनि को नरक गति विष उपजावै है ।
बहुरि जैसे अस्थि जो हाड, सो घने काल विना नमावने योग्य न होइ; तैसे घने काल बिना जो विनयरूप नमन को प्राप्त न होइ। असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लोएं मान, सो जीव कौ तिर्यच गति विष उपजा है।
१ पट्खडागम धवला पुस्तक १, पृ० ३५२, गा० स० १७५
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४१८ ]
[ गोम्मटसार जौवकाण्ड गाथा २८६
बहुरि जैसे काठ थोरा काल बिना नमावने योग्य न होड, तैसे थोरा काल बिना जो विनयरूप नमन कौ प्राप्त न होइ । असा जो जघन्य शक्ति लीएं मान, सो जीव को मनुष्य गति विषै उप जावै है |
बहुरि जैसे बैत की लकडी बहुत थोरे काल बिना नमावने योग्य न होइ, तैसे बहुत थोरा काल बिना जो विनयरूप नमन को प्राप्त न होइ । असा जो जघन्य शक्ति लीएं मान, सो जीव कौ देव गति विषे उपजावै है । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार प्रकृति बंध होना वा उपमा, उपमेय का समानपना जानना ।
वेणवमलोरम्भ-सिंगे गोमत्त य खोरप्पे ।
सरिसी माया णार - तिरिय गरामर गईसु खिवदि जियं ॥ २८६ ॥ वेणूपमूलोरभ्रकशृंगे गोमूत्रेण च क्षुरप्रेण ।
सदृशी माया नारकतिर्यग्नरामरगतिषु क्षिपति जीवम् ॥ २८६ ॥ टीका - वेणूयमूल, उरभ्रकशृंग, गोमूत्र, क्षुर समान माया ठिगनेरूप परिणति, सो क्रम ते नारक, तियंच, मनुष्य, देव गति विषे जीव को उपजावै है । सोई कहिए हैं -
-
जैसे वेणूयमूल, जो बांस की जड की गांठ सो बहुत घने काल बिना सरल न होइ, तैसे बहुत घने काल बिना जो सरल न होइ औसा जो उत्कृष्ट शक्ति कौ ली माया, सो जीव को नरक गति विषे उपजावै है ।
बहुरि जैसें उरभ्रक रंग, जो मीढे का सीग, सो घने काल बिना सरल न सा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीएं माया,
होइ, तैसे घने काल बिना जो सरल न होइ, सो जीव कौ तिर्यच गति विषै उपजावै है ।
बहुरि जैसे गोमूत्र, जो गायमूत्र की धारा, सो थोरा काल बिना सरल न होइ, तैसे थोरा काल बिना सरल न होइ औसी अजघन्य शक्ति लीएं माया, सो जीव कौ मनुष्य गति विषे उपजा है ।
बहुरि जैसे खुर, जो पृथ्वी ऊपरि वृषभादिक का खोज, सो बहुत थोरा काल बिना सरल न होइ, तैसे बहुत थोरा काला बिना जो सरल न होइ, सी जो जघन्य शक्ति लीए माया, सो जीव को देव गति विषै उपजावै है । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार प्रकृति बन्ध होना वा उपमा उपमेय का समानपना जानना ।
१ - पटुखडागम - धवला पुस्तक १, पू ३५२ गाथा स १७६ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४१६
किमिराय - चक्क तणु- मल-हरिद्द-राएण सरिसओ लोहो । णारय-तिरिक्ख माणुस - देवेसुप्पायो कमसो ॥२८७॥
टीका - क्रिमिराग, चक्रमल, तनुमल, हरिद्वाराग समान जो लोभ विषयाभिलाषरूप परिणाम, सो क्रम ते नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव गति विषे उपजावै है । सोई कहिए है -
क्रिमिरागचक्रतनुमलहरिद्वारागेण सदृशो लोभः । नारकतिर्यग्मानुषदेवेषु उत्पादकः क्रमशः ॥ २८७ ॥
जैसे क्रिमिराग कहिए किरमिची रंग, सो बहुत घने काल गये बिना नष्ट न होइ, तैसे जो बहुत घने काल बिना नष्ट न होइ, असा जो उत्कृष्ट शक्ति लीए लोभ, सो जीव कीं नरकगति विषै उपजावै है ।
बहुरि जैसे चक्रमल जो पहिये का मैल, सो घने काल बिना नष्ट न होइ, तैसे घने काल बिना नष्ट न होइ, असा जो अनुत्कृष्ट शक्ति लीएं लोभ, सो जीवको तिर्यच गति विषे उपजा है ।
बहुरि जैसें तनुमल, जो शरीर का मैल, सो थोरा काल बिना नष्ट न होइ, तैसे थोरा काल बिना नष्ट न होइ जैसा जो अजघन्य शक्ति लीएं लोभ, सो जीव को मनु य गति विषं उपजाव है ।
बहुरि जैसे हरिद्राराग कहिए हलद का रंग सो बहुत थोरा काल बिना नष्ट न होइ, तैसे बहुत थोरे काल बिना नष्ट न होइ, असा जो जघन्य शक्ति लीए लोभ, सो जीव को देव गति विषै उपजावै है । जैसे जिन-जिन कषायनि तै जो-जो गति का उपजना का, तिन तिन कषायनि ते तिस ही तिस गति सबंधी प्रयु वा श्रानुपूर्वी इत्यादिक का बंध जानना ।
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खारय-तिरिक्ख-पर-सुर- गईसु उप्पण्णपढमकालन्हि ।
कोहो माया मारणो, लोहुदग्रो अणियमो वाऽपि ॥ २८८ ॥
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नारकतिर्यग्नरसुरगतिषूत्पन्नप्रथमकाले ।
क्रोधो माया मानो, लोभोदयः श्रनियमो वाऽपि ॥२८८॥
पट्खडागम-घवला, पुस्तक १, पृ. ३५२, गा स १७७.
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४२० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २८९ ____टोका - नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव विष उत्पन्न भया, जीव के पहिला समय विप क्रम ते क्रोध, मान, माया लोभ का उदय हो है । नारकी उपजै तहा उपजते ही पहले समय क्रोध कषाय का उदय होइ । जैसे तिर्यच कै माया का, मनुष्य के मान का, देव के लोभ का उदय जानना । सो असा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धांत का कर्ता यतिवृषभ नामा आचार्य, ताके अभिप्राय करि जानना ।
बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभृत प्रथम सिद्धांत का कर्ता भूतबलि नामा आचार्य, ताके अभिप्राय करि पूर्वोक्त नियम नाही । जिस तिस कोई एक कषाय का उदय हो है । असे दोऊ आचार्यनि का अभिप्राय विर्षे हमारे सदेह है; सो इस भरत क्षेत्र विर्षे केवली श्रुतकेवली नाही; वा समीपवर्ती आचार्यनि के उन आचार्यनि ते अधिक ज्ञान का धारक नाही; तातै जो विदेह विर्षे गये तीर्थकरादिक के निकटि शास्त्रार्थ विष सशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का दूर होने करि निर्णय होइ, तब एक अर्थ का निश्चय होड तातै हमौने दोऊ कथन कीए है।
अप्पपरोभय-बाधण बंधासंजम-णिमित्त-कोहादी। जेसिं णत्थि कसाया, अमला अकसाइणो जीवा ॥२८॥
आत्मपरोभयबाधनबंधासंयमनिमित्तक्रोधादयः।
येषां न संति कषाया, अमला अकषायिरगो जीवाः ॥२८९॥ टीका - आपकौ व परको वा दोऊ को बधन के वा बाधा के वा असंयम के कारगगभूत असे जु क्रोधादिक कषाय वा पुरुष वेदादिरूप नोकषाय, ते जिनके न पाइये, ते द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म मल करि रहित सिद्ध भगवान अकषायी जानने । उपशात कपाय से लेकर च्यारि गुणस्थानवर्ती जीव भी अकषाय निर्मल है । तिनकै गुणस्थान प्ररूपणा ही करि अकषायपना की सिद्धि जाननी । तहा कोऊ जीव के तौ क्रोधादि कपाय असे हो है, जिनते आप ते आप को बाधे, आप ही आप के मस्तकादिक का घात करें। आप ही आप के हिसादि रूप असयम परिणाम करै । बहुरि कोई जीव के क्रोधादि कपाय जैसे हो है, जिनते और जीवनि को वाध, मारे, उनके अमयम परिणाम करावै । बहुरि कोई जीव के क्रोधादि कषाय असे हो है, जिनते आप का वा और जीवनि का वांधना, घात करना, असंयम होना होइ, सो असे ए कपाय अनर्थ के मूल है।
१ पट्याटागम-ववला पुस्तक १, १० ३५३, गाथा स० १७८.
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
कोहादिकसायाणं, चउचउदसवीस होंति पदसंखा । सत्तीलेस्साआउगबंधाबंधगदभेदेहि
॥ २६०॥
starदिकषायाणां चत्वारः चतुर्दश विशतिः भवंति पदसंख्याः । शक्तिलेश्यायुष्कबंधाबंधगत भेदैः
॥२९०॥
टीका - क्रोध- मान-माया - लोभ कषाय, तिनकी शक्ति स्थान के भेद करि च्यारि संख्या है । लेश्या स्थान के भेद करि चौदह संख्या है । आयुर्बल के बंधने के अबंधने के स्थान भेद करि बीस संख्या है ।
ते स्थान आगे कहिए है
-
सिल- सेल - वेणुमूल - क्किमिरायादी कमेण चत्तारि । कोहादिकसायारणं, सत्ति पडि होंति नियमेण ॥ २६१॥
[ ४२१
शिलाशैलवेणुमूलक्रिमिरागादीनि क्रमेण चत्वारि ।
क्रोधादिकषायारणां, शक्ति प्रति भवंति नियमेन ॥ २९९ ॥
टीका - क्रोधादिक जें कषाय, तिनिकें शक्ति कहिए अपना फल देने की सामर्थ्य, ताकी अपेक्षा ते निश्चय करि च्यारि स्थान है । ते अनुक्रम तें तीव्रतर, तीव्र, मंद, मंदतर, अनुभागरूप वा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य, जघन्य अनुभाग रूप जानने । तहां शिलाभेद, शैल, वेणुमूल, क्रिमिराग ए तौ उत्कृष्ट शक्ति के उदाहरण जानने । श्रादि शब्द ते पूर्वोक्त अनुत्कृष्टादि शक्ति के उदाहरण दृष्टातमात्र कहे है, ते सर्व जानने । ए दृष्टात प्रगट व्यवहार का अवधारण करि है । अर परमागम का व्यवहारी आचार्यनि करि मंदबुद्धी शिष्य समभावने के अर्थ व्यवहार रूप कीए है । जातै दृष्टात के बल करि ही मंदबुद्धी समझ है । ताते दृष्टांत की मुख्यता करि दृष्टांत के नाम, तेई शक्तिनि के नाम प्रसिद्ध कीएं है ।
किहं सिलासमारणे, किण्हादी छक्कमेण भूमिम्हि । छक्कादी सुक्को ति य, धूलिम्मि जलम्मि सुक्केदका ॥२६२॥
कृष्णा शिलासमाने, कृष्णादयः षट् क्रमेण भूमौ ।
षट्कादिः शुल्केति च धूलो जले शुक्लका ॥ २९२॥
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४२२ ?
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा २९२
टीका - शिला भेद समान जो क्रोध का उत्कृष्ट शक्ति स्थान, तीहि विषै एक कृष्ण लेश्या ही है । यद्यपि इस उत्कृष्ट शक्ति स्थान विषै षट्स्थान पतित संक्लेशहानि लीए असख्यात लोक प्रमाण कषायनि के उदय स्थान है । बहुरि तथापि ते सर्वस्थान कृष्णलेश्या ही के है, कृष्णलेश्या ही के उत्कृष्ट, मध्यम, भेदरूप जानने ।
षट्स्थान पतित सक्लेश - हानि का स्वरूप असा जानना - जेते कषायनि के अविभाग प्रतिच्छेद पहिले थे, तिनसौ घाटि होने लगे ते अनंत भागहानि, प्रसंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि, अनंत गुणहानि रूप घटे । जैसे तीव्र कषाय घटने का नाम षट्स्थान पतित संक्लेश हानि कहिए । कषायनि के अविभाग प्रतिच्छेद अनंत है । तिनकी अपेक्षा षट्स्थान पतित हानि संभवै है । अर स्थान भेद असख्यात लोक प्रमाण ही है । नियम शब्द करि, ताका अत स्थान विषै उत्कृष्ट शक्ति की व्युच्छित्ति हो है । बहुरि भूमि भेद समान क्रोध का अनुत्कृष्ट शक्ति स्थान, तीहि विषे अनुक्रम ते छहों लेश्या पाइए है । सो कहिए है - भूमि भेद समान क्रोध का अनुत्कृष्ट शक्तिस्थान का पहिला उदय स्थान तै लगाइ, पट्स्थान पतित संक्लेशहानि लीएं, असंख्यात लोक प्रमारण उदय स्थानकनि विषे तौ केवल कृष्णलेश्या ही है । कृष्ण लेश्या ही का मध्य भेद पाइए है; जातै अन्य लेश्या का लक्षण तहा नाही ।
वहुरि इहां तेागे षट्स्थान पतित सक्लेश-हानि को लीए असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषै मध्यम कृष्णलेश्या, उत्कृष्ट नील लेश्या पाइए है । जातै इहां तिनि दोऊ लेश्यानि का लक्षण संभव है । बहुरि इनि ते आगे षट्स्थान पतित संक्लेशहानि लीए असख्यात लोक प्रमाण उदय स्थानकनि विषै मध्यम कृष्णलेश्या, मध्यम नील लेश्या, उत्कृप्ट कपोत लेश्या पाइए है, जातै इहा तिनि तीनो लेश्यानि के लक्षण सभव है । वहुरि इनितै आगे षट्स्थान पतित सक्लेश- हानि लीए असख्यात लोक प्रमारण उदयस्थानकनि विषै मध्यम कृष्णलेश्या, मध्यम नील लेश्या, मध्यम कपोत [ लेश्या, मध्यम पीत लेश्या अर जघन्य पद्म लेश्या, जघन्य पीत लेश्या पाइए है; ] जाते इहां तिनि च्यार्यो [ पांचौ ] लेश्यानि के लक्षण संभव है । बहुरि इनते षट्स्थान पतित सक्लेश-हानि लीए असख्यात लोक प्रमाण उदयस्थानकनि विषे मध्यम कृष्ण, नील, कपोत, पीत लेश्या अर जघन्य पद्म लेश्या पाइए है, जाते इहां तिनि पत्र लेश्यानि का लक्षण संभव है । वहुरि इनितै षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि लीए
'म' प्रति में इतना और दिया गया है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४२३
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असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषै मध्यम कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म लेश्या अर जघन्य शुक्ल लेश्या पाइए है । जाते इहां तिनि छहौ लेश्यानि का लक्षण संभव असे क्रोध का अनुत्कृष्ट शक्तिस्थान का जे स्थान भेद, तिनि विषे क्रम ते छहौ लेश्या के स्थानक जानने । इहा प्रतस्थान विषै उत्कृष्टशक्ति की व्युच्छित्ति हुई । बहुरि धूली रेखा समान क्रोध का अजघन्य शक्तिस्थान, ताके स्थानकनि विषे छह लेश्या ते एक एक घाटि शुक्ल लेश्या पर्यंत लेश्या पाइए है । सोई कहिए है - धूली रेखा समान क्रोध का प्रथम स्थान ते लगाइ, षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि को लीए असं - ख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषे जघन्य कृष्ण लेश्या, मध्यम नील, कपोत, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या पाइए है; जातै इहां छहों लेश्यानि के लक्षण संभव है । इहा अतस्थान विषे कृष्णलेश्या का विच्छेद हुवा । बहुरि इहा ते मागे इस ही शक्ति का षट्स्थान पतित संक्लेश- हानि लीएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषै जघन्य नील लेश्या, मध्यम कपोत, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या पाइए है । जाते इहां तिनि पंच लेश्यानि का लक्षण संभव है । इहां अतस्थानकनि विषै नील लेश्या का विच्छेद हुवा ।
बहुरि इहां तेा षट्स्थान पतित संक्लेश-हानि लीएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषै जघन्य कपोत लेश्या मध्यम पीत, पद्म, शुक्ल, लेश्या पाइए है; जाते इहा तिनि च्यारि लेश्यानि के लक्षण संभव है । इहा अंतस्थान विषै कपोत लेश्या का विच्छेद हुवा | जैसे संक्लेश परिणामनि की हानि होते सते जो मदकषायरूप परिणाम भया, ताक विशुद्ध परिणाम कहिए। ताके अनते श्रविभाग प्रतिच्छेद है, सो तिनकी अनंत भागवृद्धि, असख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असख्यात गुणवृद्धि, अनंतगुण वृद्धिरूप जो वृद्धि, सो षट्स्थान पतित विशुद्धवृद्धि कहिए, सो उस च्यारि लेश्या का स्थान ते आगे षट्स्थान पतित विशुद्धवृद्धि लीए असख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषै उत्कृष्ट पीत लेश्या, मध्यम पद्म, शुक्ल लेश्या पाइए है; जाते इहां तीन तिनि लेश्यानि ही का लक्षरण संभव है । इहां अंतस्थानकनि विषे पीतलेश्या का विच्छेद हुवा |
बहुरि इहा ते षट्स्थान पतित विशुद्ध वृद्धि लीएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषै उत्कृष्ट पद्मलेश्या, मध्यम शुक्ललेश्या ही पाइए है । जाते इहा तिनि दोय ही लेश्यानि के लक्षण संभव है । इहा अंतस्थान विषै पद्मलेश्या का विच्छेद हुवा |
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४२४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २९३
बहुरि इहा ते षट्स्थान पतित विशुद्धि वृद्धि लीएं असख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषै मध्यम शुक्ललेश्या ही पाइए है; जाते इहा तिस ही लेश्या के लक्षण पाइए है । औसे धूली रेखा समान क्रोध का अजघन्य शक्तिस्थान के जे उदयरूप स्थानक, तिनि विषै लेश्या कही । इहां अंतस्थान विषै अजघन्य शक्ति की व्युच्छित्ति भई । बहुरि इहां ते श्रागे जल रेखा समान क्रोध का जघन्य शक्तिस्थान, ताके षटुस्थान पतित विशुद्धि वृद्धि लीएं असंख्यात लोक प्रमाण स्थानकनि विषै मध्यम शुक्ल
श्या पाइए हैं । बहुरि याही के अंतस्थान विषै उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या पाइए है; असे च्यारि प्रकार शक्तियुक्त क्रोध विषै लेश्या अपेक्षा चौदह स्थानक कहे । उत्कृष्ट शक्ति स्थान विषे एक, अनुत्कृष्ट शक्तिस्थानकनि विषै छह, अजघन्य शक्तिस्थानक विषै छह, जघन्य शक्तिस्थानक विषै एक असे चौदह कहे ।
हा किसी के भ्रम होगा कि ए च्यारि शक्तिस्थानक कहे, इन ही का अनंतानुबंधी आदि नाम है ?
सो नाही, जो तैसें कहिए तो षष्ठगुणस्थान विषै संज्वलन ही है; तहां एक शुक्ललेश्या ही संभवै; जातें इहां जघन्य शक्तिस्थान विषे एक शुक्ल लेश्यां ही कही है; सो षष्ठ गुणस्थान विषै तो लेश्या तीन है । ताते अनंतानुबंधी इत्यादि भेद सम्यक्त्वादि घाने की अपेक्षा है, ते अन्य जानने । बहुरि ये शक्तिस्थान के भेद तीव्र, मद अपेक्षा है, ते प्रन्य जानने । सो जैसे ए क्रोध के चौदह स्थान लेश्या अपेक्षा कहे, तैसे ही उत्कृष्टादिक शक्तिस्थानकनि विषे मान के वा माया के वा लोभ के भी जानने ।
सेलग किन्हे सुण्णं, खिरयं च य भूगएगबिट्ठाणे । णिरयं इगिबितिआऊ, तिट्ठाणे चारि सेसपदे ॥ २६३ ॥
शैलगकृष्णे शून्यं, निरयं च च भूगंकद्विस्थाने । निरयमेकद्वित्र्यायुस्त्रिस्थाने चत्वारि शेषपदे ॥२९३॥
टीका - शिला भेद समान उत्कृष्ट क्रोध का शक्तिस्थान विषे असंख्यात - लोक प्रमाण उदयस्थान कहे; तिनि विपैं केई स्थान से है जिनिविषे कोऊ आयु वं नाही | सो यंत्र विषे तहा शून्य लिखना । जातें जहां प्रति तीव्र कषाय होइ, तहा ग्रायु का वध होइ नाही । वहुरि तहां ही ऊपरि के कई स्थान थोरे कषाय
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषा टीका ]
[ ४२५
लीएं है । तिनिविषै एक नरकायु ही बधै है, सो इहां एक का अक लिखना । बहुरि ताते अनंतगुरण घटता सल्केश लीए पृथ्वी भेद समान कषाय विषं के जे कृष्णलेश्या के स्थान है वा कृष्ण वा नील दोय लेश्या के जे स्थान हैं, तिनिविषै एक नरक प्रायु ही बध है । सो तिनि दोय स्थाननि विषे एक-एक का अक लिखना । बहुरि तिस ही विष के अगले स्थान कृष्ण, नील, कपोत तीन लेश्या के है, सो तिनिविषै केई स्थाननि विषै तो एक नरकायु ही का बंध हो है । बहुरि केई अगले स्थाननि विषे नरक वा तिर्यच दोय आयु बधै है । बहुरि कई अगले स्थाननि विषै नरक, तिर्यच मनुष्य तीन प्रयु बंधे है । सो तीन लेश्या के स्थान विषै एक, दोय, तीन का अंक लिखना । बहुरि तिस ही पृथ्वी के भेद समान शक्तिस्थान विषे केई कृष्ण नील, कपोत, पीत इनि च्यारि लेश्या के स्थान है । केइक कृष्णादि पद्म लेश्या पर्यंत पच के स्थान है | इक कृष्णादिक शुक्ल लेश्या पर्यत षट्लेश्या के स्थान है । सो इन तीनू ही जायगा नरक, तियंच, मनुष्य, देव सबंधी च्यार्यो ही आयु बधै है, सो तीनों जायगा च्यारि च्यारि का अंक लिखना ।
धूलिगछक्कट्ठाणे, चउराऊतिगदुगं च उवरिल्लं । परणचदुठाणे देवं देवं सुण्णं च तिट्ठाणे ॥ २६४॥
धूलिगषट्कस्थाने, चतुराय षि त्रिकद्विकं चोपरितनम् । पंचचतुर्थस्थाने देवं देवं शून्यं च तृतीयस्थाने ॥ २९४ ॥
टीका - बहुरि पूर्वोक्त स्थान ते अनंतानंतगुणा घाटि संक्लेश लीए धूलि रेखा समान शक्तिस्थान विषे केई कृष्णादि शुक्ललेश्या पर्यंत षटलेश्या के स्थान है । तिनि विषे केई स्थाननि विषै तौ नरकादिक च्यार्यो आयु बंधे है । केई अगले स्थाननि विषे नरकायु बिना तीन आयु ही बंध है । केई अगले स्थाननि विषै मनुष्य, देव दोय ही आयु बंधे है । सो तहां च्यारि, तीन, दोय के अंक लिखने । बहुरि तिस ही धूलि रेखा समान शक्तिस्थान विषै केई कृष्ण लेश्या बिना पच लेश्या के स्थान केई कृष्ण नील बिना च्यारि लेश्या के स्थान है । इनि दोऊ जायगा एक देवायु ही बंधै है । सो दोऊ जायगा एक-एक का अंक लिखना । बहुरि तिस ही ि समान शक्तिस्थान विषै केई पीतादि तीन शुभलेश्या संबंधी स्थान है । तिनिविप के स्थाननि विषे ती एक देवायु ही वध है, तहा एक का अक लिखना | बहुरि केई
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४२६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया २६५ अगले स्थान तीन विशुद्धता को लीए है, तहा किसी ही आयु का बंध न हो है, सो तहां शून्य लिखना।
सुण्णं दुगइगिठाणे, जलम्हि सुण्णं असंखभजिदकमा । चउ-चोदस-वीसपदा, असंखलोगा हु पत्तेयं ॥२६॥
शून्यं द्विकैकस्थाने, जले शून्यमसंख्यभजितक्रमाः।
चतुश्चतुर्दविंशतिपदा असंख्यलोका हि प्रत्येकम् ।।२९५।। टीका - बहुरि तिस ही धूलि रेखा समान शक्तिस्थान विर्ष केई स्थान पद्म, शुक्ल दोय लेश्या सबधी है । केई स्थान एक शुक्ल लेश्या संबंधी है । सो इनि दोऊ ही जायगा किसी ही आयु का बंध नाही; सो दोऊ जायगा शून्य लिखना । बहुरि तातै अनंतगुणी बधती विशुद्धता लीएं जल रेखा समान शक्तिस्थान के सर्व स्थान केवल शुक्ल लेश्या संबंधी है । तिनि विर्षे किसी ही आयु का बंध नाही हो है । सो तहां शून्य लिखना । जाते अति तीव्र विशुद्धता आयु के बंध का कारण नाही हैं; असे कषायनि के शक्तिस्थान च्यारि कहे । अर लेश्या स्थान चौदह कहे । अर प्रायु के बधने के वा न बंधने के स्थान बीस कहे । ते सर्व ही स्थान असंख्यात लोक प्रमाण असंख्यात लोक प्रमाण, असख्यात लोक प्रमाण जानने । परन्तु उत्कृष्ट स्थान ते लगाइ जघन्य स्थान पर्यत असंख्यात गुणे घाटि जानने । असख्यात के भेद घने है । तातै सामान्यपने सर्व ही असख्यात लोक प्रमाण कहे । सोई कहिए है - सर्व कषायनि के उदयस्थान असंख्यातलोक प्रमाण है। तिनिकौ यथा योग्य असरूयात लोक का भाग दीजिए, तिनिविषै एक भाग बिना अवशेष बहुभाग प्रमाण शिला भेद समान उत्कृष्ट शक्ति संबंधी उदय स्थान है । ते भी असख्यात लोक प्रमाण बहुरि जो वह एक भाग अवशेष रह्या, ताकौ असंख्यात लोक का भाग दीए एक भाग बिना अवशेष बहुभाग प्रमाण पृथ्वी भेद समान अनुत्कृष्ट शक्ति संबंधी उदयस्थान है । ते भी असख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि जो एक भाग अवशेष रह्या, ताको असख्यात लोक का भाग दीए, एक का भाग बिना अवशेष भाग प्रमाण धूलि रेखा समान अजघन्य शक्तिस्थान सबधी उदयस्थान है। ते भी असख्यात लोक प्रमाण है । वहुरि अवशेष एक भाग रह्या, तीहि प्रमाण जल रेखा समान जघन्य शक्ति संबधी उदय स्थान है, ते भी असंख्यात लोक प्रमाण है।
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सम्यग्नानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[४२७
असे च्यारि शक्तिस्थान विष उदयस्थान का प्रमाण कह्या। अब चौदह लेश्या स्थाननि विर्ष उदयस्थाननि का प्रमाण कहिए है - पहिलै कृष्ण लेश्या स्थाननि विष जेते शिला भेद समान उत्कृष्ट शक्तिस्थान विष उदयस्थान है। ते-ते सर्व तिस उत्कृष्ट शक्ति को प्राप्त कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट स्थान तै लगाइ यथायोग्य कृष्ण लेश्या के मध्य स्थान पर्यत षट्स्थानपतित सक्लेश-हानि लीए, असख्यातलोकमात्रस्थान है; ते उत्कृष्ट शक्ति के स्थान समान जानने ।
बहुरि इनि ते असख्यात गुणे घाटि पृथ्वी भेद समान शक्तिस्थान विषै प्राप्त कृष्ण लेश्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है, जाते ते स्थान पृथ्वी भेद समान शक्ति स्थान विर्ष जेते उदय स्थान है, तिनिको यथा योग्य असख्यात लोक का भाग दीएं एक भाग बिना बहुभाग मात्र है ।
बहरि तिनितै असंख्यात गुणे घाटि, तहां ही कृष्ण, नील दोय लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण ते तिस अवशेष एक भाग को यथा योग्य असख्यात लोक का भाग दीएं, बहुभाग मात्र है । एक भाग बिना अवशेष भाग मात्र प्रमाण की बहुभाग संज्ञा जाननी ।
बहुरि तिनितै असख्यात गुणे घाटि, तहा ही कृष्ण, नील, कपोत तीन लेश्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है; ते तिस अवशेष एक भाग को योग्य असंख्यात लोक का भाग का दीए, बहुभाग मात्र है ।
बहरि तिनित असख्यात गुणे घाटि तहा ही कृष्णादि च्यारि लेश्या के स्थान असंख्यात लोक प्रमाण है । ते अवशेष एक भाग की योग्य असख्यात लोक का भाग दीये बहुभाग मात्र है।
बहुरि तिनितै असख्यात गुणे घाटि, तहां ही कृष्णादि पच लेग्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है । ते अवशेष एक भाग की योग्य असख्यात लोक का भाग दीए बहुभाग मात्र है। बहुरि तिनितै असंख्यात लोक गुणे घाटि तहा ही कृप्यादि छह लेश्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है। ते तिस अवगेप एक भाग मात्र है । इहा पूर्व स्थान ते वहुभागरूप असख्यात लोकमात्र गुणकार पट्या, ताने असख्यात गुणा घाटि कहा है । बहुरि तिनित असल्यात गुणे शाट थलि गा समान शक्तिस्थान विष प्राप्त कृष्णादि छह लेश्या के स्थान प्रसपान लो प्रमाण
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| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६५ ४२८ ] है । ते धूलि रेखा समान शक्तिस्थान सबंधी सर्व स्थाननि के प्रमाण की योग्य असंख्यात लोक का भाग दीएं, एकभाग बिना बहुभाग मात्र है । बहुरि तिनितं असंख्यात गुणे घाटि, तहां ही कृष्ण रहित पंच लेश्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है। ते तिस अवशेष एक भाग को योग्य असंख्यात लोक का भाग दीए बहुभाग मात्र है । बहुरि तिनितै असंख्यात गुणे घाटि तहा ही कृष्ण नील रहित च्यारि लेश्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है । ते तिस अवशेप एकभाग की योग्य असख्यातलोक का भाग दीएं बहुभाग मात्र है । बहुरि तिनितै असख्यात गुणे घाटि, तहा ही तीन शुभ लेश्या के स्थान असख्यात लोक मात्र है। ते अवशेप एक भाग की योग्य असख्यात लोक का भाग दीए बहुभाग मात्र है। बहरि तिनिते असंख्यात गुणे घाटि, पीत रहित दोय शुभ लेश्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है । ते तिस एक भाग को योग्य असख्यात लोक का भाग दीए, बहुभाग मात्र है । वहुरि तिनतै असख्यात गुणे घाटि तहा ही केवल शुक्ल लेश्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है। ते तिस अवशेष एकभाग मात्र जानने । इहा बहुभाग रूप असंख्यात लोक मात्र गुणकार घट्या; तातै असंख्यात गुणा घाटि कह्या है । वहुरि तिनित असख्यात गुणे घाटि जल रेखा समान शक्ति विष प्राप्त सर्व शुक्ल लेश्या के स्थान असख्यात लोक प्रमाण है । ते जल रेखा शक्ति विष प्राप्त स्थाननि का प्रमाणमात्र है । इहा धूलि रेखा समान शक्ति के सर्व स्थाननि विर्ष जे केवल शुक्ल लेश्या के स्थान कहे, तहा भागहार अधिक है । परन्तु गुणकारभूत असख्यात लोक का तहां बहुभाग है। इहा एक भाग है । ताते असंख्यात गुणा घाटि कहा है। अब आयु के बध-प्रबन्ध के बीस स्थान, तिनि विष उदय स्थाननि का प्रमाण कहिए है -
प्रथम शिला भेद समान उत्कृष्ट शक्ति विष प्राप्त कृष्ण लेश्या के स्थान, तिनि विष कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट स्थान तै लगाइ, असख्यात लोक प्रमाण आयु के प्रबन्ध स्थान है । ते उत्कृष्ट शक्ति विष प्राप्त सर्व स्थाननि का प्रमाण की असंख्यात लोक का भाग दीएं, बहुभाग मात्र है। बहुरि तिनितें असंख्यात गुणे घाटि, तहां ही नरकायु बन्धने को कारण असंख्यात लोक प्रमाण स्थान है । ते तिस अवशेष एक भाग मात्र है । पूर्व बहुभाग इहा एक भाग तातै असंख्यातगुणा घाटि कह्या है । बहुरि तिनितं असंख्यात गुणे घाटि पृथ्वी भेद समान अनुत्कृष्ट शक्ति विष प्राप्त कृष्ण लेश्या के पूर्वोक्त सर्व स्थान, ते नरकायु बन्ध को कारण असख्यात लोक
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका 1
[ ४२६
प्रमाण है । बहुरि तिनिते असंख्यात गुणे घाटि, तहा ही कृष्णनील लेश्या के पूर्वोक्त सर्व स्थान ते नरकायु बन्ध को कारण असंख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनितै असंख्यात गुणे घाटि तहा ही कृष्णादि तीनि लेश्या के स्थाननि विषे नरकायु बन्ध्र को कारण स्थान, ते तिन कृष्णादि तीन लेश्या स्थाननि के प्रमाण कौ योग्य असंख्यात लोक का भाग दीए बहुभाग मात्र असख्यात लोकप्रमाण है । बहुरि तिनतें असख्यात गुणे घाटि तहां ही कृष्णादि तीन लेश्या के स्थाननि विषे नरक, तिर्यंच आयु के बन्ध कौ कारण स्थान, ते तिस अवशेष एक भाग को योग्य असख्यात लोक का भाग दीए, बहुभाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनितै असख्यात गुणे घाटि, तहा कृष्णादि तीन लेश्या के स्थाननि विषे नरक, तिर्यच, मनुष्य श्रायुबन्ध के कारण स्थान, ते अवशेष एक भाग मात्र असख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनितै प्रसंख्यातगुणे घाटि, तहां ही पूर्वोक्त कृष्णादि च्यारि लेश्या के स्थान, सर्व ही च्यार्यों प्रयुबन्ध के कारण, ते असख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनि असंख्यातगुणे घाटि, तहां ही पूर्वोक्त कृष्णादि पच लेश्या के स्थान, सर्व ही च्यार्यों आयुबन्ध के कारण, ते असंख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनिते असंख्यात गुणे घाटि, तहा ही पूर्वोक्त कृष्णादि छहौ लेश्या के स्थान सर्व ही च्यार्यो प्रायुबन्ध के कारण, ते असंख्यात लोक प्रमाण है । पूर्व स्थान विषै गुणकार बहुभाग था, इहा एक भाग रह्या, ताते असख्यात गुणा घाटि का है । बहुरि तिनते असख्यात गुणे घाटि, धूलि रेखा समान शक्ति विषे प्राप्त षट्लेश्या स्थाननि विषै च्यार्यो आयुबन्ध के कारण स्थान, ते तिन अजघन्य शक्ति विषै प्राप्त षट्लेश्या स्थाननि के प्रमाण को असंख्यात लोक का भाग दीए, बहुभाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनिते असख्यात गुणे घाटि, तहा ही षट्लेश्या के स्थाननि विषै नरक बिना तीन प्रायुबन्ध के कारण स्थान, ते तिस अवशेष एकभाग कौ प्रसख्यात का भाग दीए, बहुभागमात्र असंख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनिते असंख्यात गुणे घाटि, तहा ही षट्लेश्या के स्थान विषे मनुष्य देवायु बन्ध के कारण स्थान, ते तिस अवशेष एकभाग मात्र असंख्यात लोक प्रमाण है । इहा पूर्वे बहुभाग थे, इहा एक भाग है । ताते असख्यात गुणा घाटि कह्या । बहुरि तिनि सख्यात गुणे घाटि, तहा ही पूर्वोक्त कृष्ण विना पच लेग्या के स्थान सर्व ही देवायु के बन्ध के कारण है । ते असंख्यात लोक प्रमाण जानने । बहुरि तिनितै असख्यात गुणे घाटि, तहा ही पूर्वोक्त कृष्ण, नील रहित च्यारि लेखा के
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४३० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६५
स्थान सर्व ही देवायु बन्ध कौ कारण है । ते श्रसंख्यात लोक प्रमाण जानने । बहुरि तिनिते असख्यात गुणे घाटि, तहां ही शुभ तीन लेश्या के स्थाननि विषे देवायु बन्ध को कारण स्थान, ते तिस अजघन्य शक्ति विषे प्राप्त त्रिलेश्या स्थाननि का प्रमाण की योग्य असख्यात लोक का भाग दीएं, बहुभाग मात्र असख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि तिनिते असख्यात गुणै घाटि, तहां ही शुभ तीन लेश्या के स्थाननि विषे किसी ही आयु बन्ध को कारण नाहीं; जैसे स्थान तिस अवशेष एक भागमात्र श्रसंख्यात लोक प्रमाण जानने । बहुरि तिनिते असंख्यात गुणे घाटि, तहा ही पूर्वोक्त पद्म शुक्ल दोय लेश्या के स्थान सर्व ही प्रायु बन्ध को कारण नाही । ते असंख्यात लोक प्रमाण है । याते पूर्व स्थान विषे भागहार असख्यात गुणा घटता है । तातै असख्यात गुणा घाटि का है । बहुरि तिनिते असंख्यात गुणै घाटि, तहां ही पूर्वोक्त शुक्ल लेश्या के स्थान सर्व ही आयुबन्ध को कारण नाही । ते असंख्यात लोक प्रमाण है । पूर्वे बहुभाग का गुणकार था, इहां एक भाग का गुणकार भया । ताते असंख्यात गुणा घटता का है । बहुरि तिनिते असंख्यात गुणे घाटि, पूर्वोक्त जल रेखा समान शक्ति विषे प्राप्त शुक्ल लेश्या के स्थान, सर्व ही किसी ही आयु बन्ध क कारण नाही । ते असंख्यात लोक प्रमाण है । पूर्व स्थान विषै जे भागहार कहें, तिनते तिस ही भागहार का गुरणकार प्रसंख्यात गुणा है, ताते असंख्यात गुरणा घाटि का है । जैसे च्यारि पद चौदह पद बीस पद क्रम ते असख्यात गुणा घाटि कहे, तथापि सख्यात के बहुभेद है । तातै सामान्यपने सबनि को असंख्यात लोक प्रमाण कहे । विशेषपने यथासभव असख्यात का प्रमाण जानना । जैसे ही भागहार विषै भी यथासभव असख्यात का प्रमाण जानना ।
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आगे श्री माधवचंद्र त्रैविद्यदेव, तीन गाथानि करि कषाय-मार्गणा विषै जीवन की संख्या कहै है
पुह पुह कसायकालो, गिरये अंतोमुहुत्तपरिमाणो । लोहादी संखगुरणो, देवेसु य कोहपहुदीदो ॥ २६६ ॥
पृथक् पृथक् कषायकालः, निरये अंतर्मुहूर्तपरिमाणः । लोभादिः संख्यगुणः देवेषु च क्रोधप्रभृतितः ॥२९६॥
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Ikx ]
काषायनि के शक्तिस्थान च्यारि, लेश्यास्थान चौदह, प्रायुबंधावंधस्थान बीस,तिनिका यंत्र ।
शक्तिस्थान
शिलाभेद समान
पृथ्वी भेद समान
धूलिरेसासमान
जलरंगा समान
लेश्यास्थान
कृष्ण
कृष्ण कृष्णा
कृष्णादि
| कृष्णा कृष्णा कृष्णा कृष्णादि | दिदि । दि
कृष्ण कृष्ण] पोतादि पद्म शुक्ल शुक्ल विना नील
|विना
|
मायुबंधावर्ष ० स्थान अबघ
नरकायु
नरकायु
नरकायु
| सर्व | सर्व | सर्व
अवध अवध अवध अवध
२०
।
० नरकायु नरकतिर्यंचायु ॥ नरकतिर्यचमनुष्यायु
० देवायु मनुष्यदेवायु - मनुष्यदेवायुतियंचायु
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटोका ]
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४३२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २९७ टीका - नरक गति विष नारकीनि के लोभादि कषायनि का उदय काल अंतर्मुहूर्त मात्र है । तथापि पूर्व-पूर्व कषाय ते पिछले-पिछले कपाय का काल सख्यात गुणा है । अतर्मुहूर्त के भेद घने, तातै हीनाधिक होते भी अतर्मुहर्त ही कहिए । सोई कहिए है - सर्व ते स्तोक अंतर्मुहूर्त प्रमाण लोभ कषाय का काल है । यातै संग्ख्यात गुणा माया कषाय का काल है । यातै संख्यात गुणा मान कषाय का काल है । यात सख्यात गुणा क्रोध कषाय का काल है।
बहुरि देव गति विर्षे क्रोधादि कषायनि का काल प्रत्येक अतर्मुहूर्त मात्र है । तथापि उत्तरोत्तर संख्यात गुणा है । सोई कहिए है - स्तोक अंतर्मुहर्त प्रमाण तो क्रोध कषाय का काल है। तातै संख्यात गुणा मान कषाय का काल है। तातै संच्यात गुणा माया कषाय का काल है। तातै संख्यात गुणा लोभ कषाय का काल है।
भावार्थ - नरक गति विषै क्रोध कषायरूप परिणति बहुतर हो है । और कपायनिरूप क्रम तै स्तोक रहै है।
__देव गति विषै लोभ कषायरूप परिणति बहुतर रहै हैं । और कषायनिरूप क्रम ते स्तोक-स्तोक रहै है।
सव्वसमासेणवहिदसगसगरासी पुणो वि संगुणिदे। - सगसगगुणगारोहिं य, सगसगरासीण परिमाणं ॥२६७॥
सर्वसमासेनावहितस्वकस्वकराशौ पुनरपि संगुणिते ।
स्वकस्वकगुणकारैश्च, स्वकस्वकराशीनां परिमारणम् ॥२९७।। टीका - सर्व च्यार्यो कषायनि का जो काल कह्या, ताके जेते समय होंहि, निनिका समास कहिए, जोड दीएं, जो परिमाण आवै, ताका भाग अपनी-अपनी गति मबंधी जीवनि के प्रमाण को दीएं, जो एक भाग विपै प्रमाण होइ, ताहि अपनाअपना कपाय के काल का समयनि के प्रमाणरूप गुणकार करि गुणै, जो-जो परिमाण होउ, सोई अपना-अपना क्रोधादिक कपाय सयुक्त जीवनि का परिमाण जानना । अपि शब्द ममुच्चय वाचक है; तातै नरक गति वा देव गति विपै असे ही कन्ना । नो दिग्वाइए है -च्यार्यो कपायनि का काल के समयनि का जोड दीएं,
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
{ ४३३ जो परिमाण होइ, तितने काल विषै जो नरक गति विष जीवनि का जो परिमाण कह्या, तितने सर्व जीव पाइए, तो लोभ कषाय के काल का समयनि का जो परिमाण होइ है. तितने काल विर्षे केते जीव पाइए ? असे त्रैराशिक कीएं, प्रमाणराशि सर्वकषायनि का काल, फलराशि सर्व नारकराशि, इच्छाराशि लोभकषाय का काल तहां प्रमाणराशि का भाग फलराशि को देइ, इच्छाराशि करि गुण जो लब्धराशि का परिमाण आवै, तितने जीव लोभकषाय वाले नरक गति विषै जानने । बहुरि असे ही प्रमाणराशि, फलराशि, पूर्वोक्त इच्छारांशि मायादि कषायनि का काल कीए, लब्धराशि मात्र अनुक्रमतें मायावाले, मानवाले, क्रोधवाले जीवनि का परिमाण नरक गति विर्ष जानना।
__ इहां दृष्टांत -- जैसे लोभ का काल का प्रमाण एक (१), माया का च्यारि (४), मान का सोलह (१६), क्रोध का चौसठ (६४) सब का जोड दीए पिच्यासी भए । नारकी जीवनि का परिमाण सतरा सै ( १७०० ), ताहि पिच्यासी का भाग दीएं, पाए बीस (२०), ताको एक करि गुणें बीस (२०)हुवा, सो लोभ कषायवालों का परिमाण है । च्यारि करि गुण असी (८०) भए सो मायावालों का परिमाण है। सोला करि गुणे तीन सौ बीस (३२०) हुवा सो, मानवालों का परिमाण है चौसठि करि गुण बार सै असी (१२८०) भए सो, क्रोधवालों का परिमारण है; असे दृष्टांत करि यथोक्त नरक गति विष जीव कहे। अस ही देव गति विर्ष जेता जीवनि का परिमाण है, ताहि सर्व कषायनि के काल का जोड्या हूवा समयनि का परिमाण का भाग दीए, जो परिमारण आवै, ताहि अनुक्रमते क्रोध, मान, माया, लोभ का काल का परिमारण करि गुणे, अनुक्रमतै क्रोधवाले, मानवाले, मायावाले, लोभवाले जीवनि का परिमाण देव गति विष जानना।
रणरतिरिय लोह-माया कोहो माणो बिइंदियादिव्व । प्रावलिअसंखभज्जा, सगकालं वा समासेज्ज ॥२६॥ नरतिरश्चोः लोभमायाक्रोधो मानो द्वींद्रियादिवत् ।
आवल्यसंख्यभाज्याः, स्वककालं वा समासाद्य ॥२९८।। टीका - मनुष्य-तिर्यच गति विर्षे लोभ, माया, क्रोध, मानवाले जीवनि की संख्या पूर्व इंद्रिय-मार्गणा का अधिकार विषै जैसे वैद्री, तेद्री, चौइंद्री, पंचेंद्री विर्षे
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४३४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६८
जीवनि की संख्या 'बहु भागे समभागो' इत्यादि गाथा करि कही थी । तैसे इहां भी संख्या का साधन करना । सोई कहिये है - मनुष्यगति विषै जो जीवनि का परिमाण है, ता कषाय रहित मनुष्यनि का प्रमाण घटाए, जो श्रवशेष रहे, ताकौं ग्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीएं, तहा एक भाग जुदा राखि, अवशेष बहुभाग का प्रमाण रह्या, ताके च्यारि भाग करि च्यार्यों कषायनि के स्थाननि विपैं समान देने । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताकौ प्रावली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा एक भाग को जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहे, तिनिको लोभ कपाय के स्थान समान भाग विषे जो प्रमाण था, तामे जोडै, जो परिमाण होइ, तितने लोभकषाय वाले मनुष्य जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग को आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग को जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहे, तिनको माया कषाय के स्थान समान भाग विषे जो परिमाण था, तामैं मिलाएं, जो परिमाण होइ, तितने मायाकषाय वाले मनुष्य जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग को आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग की जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहे, तिनिको क्रोधकषाय के स्थान समान भाग विषै जो परिमाण था, तिस विषै मिलाएं, क्रोधकषाय वाले मनुष्यनि का परिमाण होइ । बहुरि तिस अवशेष एक भाग का जेता परिमाण होइ, ताको मानकषाय के स्थान समान भाग विषै जो परिमाण था, तामै मिलाएं, मानकषाय वाले मनुष्यनि का परिमाण होइ, से ही तिर्यच गति विषे जानना । विशेष इतना जो वहां मनुष्य गति के जीवनि का परिमाण विषे भाग दीया था । इहां तिर्यच गति के जीवनि का जो देव, नारक, मनुष्यराशि करि होन सर्व संसारी जीवराशि मात्र परिमारण, ताकौं भाग देना; अन्य सर्व विधान तैसे ही जानना । से कषायनि विषै तिर्यच जीवनि का परिमाण जानिए | अथवा अपना-अपना कषायनि का काल की अपेक्षा जीवनि की संख्या जानिए, सो दिखाइए है । च्यार्यौ कषायनि का काल के समयनि का जो अंतर्मुहूर्त मात्र परिमाण है, ताको प्रावली का प्रसंख्यातवां भाग का भाग दीजिए । तहा एक भाग को जुदा राखि, अवशेष के च्यारि भाग करि, च्यारो जायगा समान दीजिए । बहुरि अवशेष एक भाग कौ प्रावली का असख्यातवा भाग का भाग देइ, एक भाग कौं जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहे, तिनिको समान भाग विषे जो परिमाण था, तामें मिलाए, लोभकषाय के काल का परिमाण होइ । बहुरि तिस अवशेष एक भाग को तैसे भाग देइ, एक भाग बिना अवशेष बहुभाग समान भाग का प्रमाण विषै मिलाएं, माया का काल होइ । बहुरि तिस अवशेष एक भाग की तैसे भाग
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म्यग्ज्ञानचनिया मापाटी
[४३५
देइ, एक भाग की जुदा राखि, अवशेष बहभाग समान भाग संबंधी परिमाण विवें मिलाएं क्रोध का काल होइ। बहरि जो मवशेष एक भाग रहा, ताको समान भाग संबंधी परिमाण विर्षे मिलाएं, मानकषाय का काल होइ।
अब इहां राशिक करना-जो च्यारि कषायनि के काल का परिमाण विर्ष सर्व मनुष्य पाइए, तो लोभ कषाय का काल विष केते मनुष्य पाइए?
इहां प्रमाणराशि च्यारों कषायनि का समुच्चयरूप काल का परिमाण पर फलगशि मनुष्य गति के जीवनि का परिमाण भर इच्छाराशि लोभ कषाय के काल का परिमाण । तहां फलराशि की इच्छाराशि करि गुरिण, प्रमाण राशि का भाग दीएं, जो लब्धराशि का प्रमाण मार्व, तितने लोभकषायवाले मनुष्य जानने । असे ही प्रमाण फलराशि पूर्वोक्त कीएं, माया क्रोध मान काल को इच्छाराशि कीए, लब्धराशि मात्र मायावाले वा क्रोधवाले वा मानवाले मनुष्यनि की संख्या जाननी । बहुरि याही प्रकार तिर्यच गति विर्षे भी लोभवाले, मायावाले, क्रोधवाले, मानवाले जीवनि की संख्या का साधन करना । विशेष इतना जो उहां फलराशि मनुष्यनि का परिमाण था, इहां फलराशि तिपंच जीवनि का परिमाण जानना । अन्य विधान तैसे ही करना । असै कषायमार्गणा विर्षे जीवनि की संख्या है ।
इति प्राचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रन्थ की जीवतत्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका ' नाम भाषाटीका विष जीवका विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनि विष कषायमार्गरणा प्ररूपणा नाम ग्यारमा
अधिकार सम्पूर्ण भया ॥११॥
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*: बारहवां अधिकार : ज्ञानमार्गणाधिकार
' मंगलाचरण वंदी वासव पूज्यपद, वास पूज्यं जिन सोय ।
गर्भादिक में पूज्य जो, रत्न द्रव्य ते होय ।। आगे श्री नेमिचद्र सिद्धातचक्रवर्ती ज्ञान मार्गणा का प्रारंभ कर है। तहां प्रथम ही निरुक्ति लीएं, ज्ञान का सामान्य लक्षण कहै है -
जारणइ तिकालविसए, दवगुरणे पज्जए य बहुलेदे । पच्चक्खं च परोक्खं, अरणेण णाणे त्ति रणं वेति ॥२६॥
जानाति त्रिकालविषयान्, द्रव्यगुणान् पर्यायांश्च बहुभेदान् । । प्रत्यक्षं च परोक्षमनेन ज्ञानमिति इदं ब्रुवंति ॥२९९॥
टीका - त्रिकाल संबंधी हुए, हों है, होहिगे जैसे जीवादि द्रव्य वा ज्ञानादि गुण वा स्थावरादि पर्याय नाना प्रकार है। तहां जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ए द्रव्य है । बहुरि ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, सुख, वीर्य प्रादि वा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि वा गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व आदि गुण हैं । बहरि स्थावर, त्रस आदि वा अणु, स्कंधपना आदि वा अन्य अर्थ, व्यंजन आदि भेद लीए अनेक पर्याय है । तिनको प्रत्यक्ष वा परोक्ष जीव नामा पदार्थ, इस करि जाने है, तात याको ज्ञान कहिए । 'ज्ञायते अनेनेति,ज्ञान'. असी ज्ञान शब्द की निरुक्ति जाननी । इहा जाननरूप क्रिया का आत्मा कर्ता, तहा करणस्वरूप ज्ञान, अपने विषयभूत अर्थनि का जाननहारा जीव का गुण है - असे अरहतादिक कहै है। असाधारण कारण का नाम करण है । बहुरि यहु सम्यग्ज्ञान है; सोई प्रत्यक्ष वा परोक्षरूप प्रमाण है। जो ज्ञान अपने विषयं को स्पष्ट विशद जाने, ताको प्रत्यक्ष कहिए । जो अपने विषय को अस्पष्ट - अविशद जाने, ताको परोक्ष कहिए । सो इस प्रमाण का स्वरूप वा संख्या वा विषय वा फल वा लक्षण बहुरि ताके अन्यथा वाद
१ पट्खडागम धवला पुस्तक १, गाथा स. ६१, पृष्ठ १४५ । पाठभेद-तिकाक्तविसए-तिकाक्तसहित-णाणे णाण |
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४३७
का निराकरण वा स्याद्वाद मत के प्रमाण का स्थापन विशेषपने जैन के तर्कशास्त्र है, तिनि विषै विचारना ।
इहां श्रहेतुवादरूप आगम विषै हेतुवाद का अधिकार नाही । ताते सविशेष न कह्या । हेतु करि जहां अर्थ को दृढ कीजिए ताका नाम हेतुवाद है, सो न्यायशास्त्रनि विषे हेतुवाद है । इहां तो जिनागम अनुसारि वस्तु का स्वरूप कहने का अधिकार
जानना ।
ज्ञान के भेद कहैं हैं
-
पंचेव होंति णाणा, मदि-सुद- श्रही मरणं च केवलयं । खयवसमिया चउरो, केवलणारणं हवे खइयं ॥ ३०० ॥
पंचैव भवंति ज्ञानानि, मतिश्रुतावधिमनश्च केवलम् । क्षायोपशमिकानि चत्वारि, केवलज्ञानं भवेत् क्षायिकम् ॥ ३००॥
टीका- 'मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय, केवल ए सम्यग्ज्ञान पंच ही है; हीन अधिक नाहीं । यद्यपि संग्रहनयरूप द्रव्यार्थिक नय करि सामान्यपने ज्ञान एक ही है । तथापि पर्यायार्थिक नय करि विशेष कीएं पंच भेद ही हैं । तिनि विषै मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय ए च्यारि ज्ञान क्षायोपशमिक हैं ।
जाते मतिज्ञानावरणादिक कर्म वा वीर्यान्तराय कर्म, ताके अनुभाग के जे सर्वघातिया स्पर्धक हैं; तिनिका उदय नाही, सोई क्षय जानना । बहुरि जे उदय अवस्था कौन प्राप्त भए, ते सत्तारूप तिष्ठे है, सोई उपशम जानना । उपशम वा क्षय करि उपजै, ताकी क्षयोपशम कहिए अथवा क्षयोपशम है प्रयोजन जिनिका, ते क्षायोपशमिक कहिए । यद्यपि क्षायोपशमिक विषं तिस प्रावरण के देशघातिया स्पर्धकनि का उदय पाइए है । तथापि वह तिस ज्ञान का घात करने कौ समर्थ नाही ; तातै ताकी मुख्यता न करी ।
याका उदाहरण कहिए है - अवधिज्ञानावरण कर्म सामान्यपर्ने देशघाती है । तथापि अनुभाग का विशेष कीएं, याके केई स्पर्धक सर्वघाती है; केई स्पर्धक देशघाती है । तहां जिनिकें अवधिज्ञान किछू भी नाहीं, तिनिकैं सर्वघाती स्पर्धकनि का उदय जानना । बहुरि जिनिके अवधिज्ञान पाइए है अर आवरण उदय पाइए है; तहां
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[गोगटसार जीवका गाथा ३०१-३०२ ४३८ 1 देशघाती स्पर्धकनि का उदय जानना । बहुरि केवलज्ञान क्षायिक ही है, जाते केवलज्ञानावरण, वीर्यातराय का सर्वथा नाश करि केवलज्ञान प्रकट हो है । क्षय होते उपज्या वा क्षय है प्रयोजन जाका, ताकौं क्षायिक कहिए । यद्यपि सावरण अवस्था विष आत्मा के शक्तिरूप केवलज्ञान है, तथापि व्यक्तरूप प्रावरण के नाण करि ही है, तातै व्यक्तता की अपेक्षा केवलज्ञान क्षायिक कह्या; जाते व्यक्त भएं ही कार्य सिद्धि संभव है।
आगे मिथ्याज्ञान उपजने का कारण वा स्वरूप वा स्वामित्व वा भेद कहै है
अण्णाणतियं होदि हु, सण्णाणतियं खुमिच्छ अणउदये । णवरि विभागं पारणं, पंचिदियसण्णिपुण्रणेव ॥३०१॥ अज्ञानत्रिकं भवति खलु, सज्ज्ञानत्रिकं खलु मिथ्यात्वानोदये । नवरि विभंगं ज्ञानं, पंचेंद्रियसंज्ञिपूर्ण एव ॥३०१॥
टीका - जे सम्यग्दृष्टी के मति, श्रुति, अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान है; संजी पंचद्री पर्याप्त वा निर्वत्ति अपर्याप्त जीव के विशेष ग्रहणरूप जेयाकार सहित उपयोग रूप है लक्षण जिनिका अस है; तेई तीनों मिथ्यात्व वा अनंतानुबंधी कोई कषाय के उदय होते तत्त्वार्थ का अश्रद्धान रूप परिणया जीव के तीनों मिथ्याज्ञान हो है । कुमति, कुश्रुति, विभंग ए नाम हो है । रणवरि असा प्राकृत भाषा विष विशेष अर्थ को लीए अव्यय जानना । सो विशेष यहु-जो अवधि ज्ञान का विपर्ययरूप होना सोई विभग कहिए । सो विभंग अजान सैनी पंचेद्री पर्याप्त ही कै हो है । याही ते कुमति, कुश्रुति, एकेद्रिय आदि पर्याप्त अपर्याप्त सर्व मिथ्यादृष्टी जीवनि के अर सासादन गुणस्थानवर्ती सर्व जीवनि के संभव है ।
आगे सम्यग्दृष्टि नामा तीसरा गुणस्थान विषे ज्ञान का स्वरूप कहै है - मिस्सुदये सम्मिस्सं, अण्णाणतियेरण गाणतियमेव ।
संजमविसेससहिए, मणपज्जवरणाणमुद्दिळें ॥३०२॥ __ मिश्रोदये संमिश्र, प्रज्ञानत्रयेण ज्ञानत्रयमेव ।
संयमविशेषसहिते, मनःपर्ययज्ञानमुद्दिष्टम् ॥३०२॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ४३६ टीका - मिश्र कहिए सम्यग्मिथ्यात्व नामा मोहनीय कर्म की प्रकृति, ताके उदय होते, तीनों अज्ञान करि मिल्या तीनों सम्यग्ज्ञान इहा हो है, जातै जुदा कीया जाता नाही, तातै सम्यग्मिथ्यामति, सम्यग्मिथ्याश्रुत, सम्यग्मिथ्या अवधि असे इहां नाम हो है। जैसे इहां एक काल विर्ष सम्यग्रूप वा मिथ्यारूप मिल्या हुवा श्रद्धान पाइए है । तैसे ही ज्ञानरूप वा अज्ञानरूप मिल्या हुवा ज्ञान पाइए है । इहा न तो केवल सम्यग्ज्ञान ही है, न केवल मिथ्याज्ञान है, मिथ्याज्ञान करि मिल्या सम्यग्ज्ञानरूप मिश्र जानने।
बहुरि मन पर्यय ज्ञान विशेष सयम का धारक छठा गुणस्थान तै बारहवा गुणस्थान पर्यंत सात गुणस्थानवर्ती तप विशेष करि वृद्धिरूप विशुद्धताके धारी महामुनि, तिन ही के पाइए है; जाते अन्य देशसयतादि विर्षे तैसा तप का विशेष न संभव है।
प्रागै मिथ्याज्ञान का विशेष लक्षण तीन गाथानि करि कहै है - विस-जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु विणुवएस-करणेण । जा खलु पवद्दए मइ, मइ-अण्णाणं त्ति रणं बेति ॥३०३॥
विषयंत्रकूटपंजरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन ।
या खलु प्रवर्तते मतिः, मत्यज्ञानमितीदं ब्रवंति ॥३०३।। टीका - परस्पर वस्तु का संयोग करि मारने की शक्ति जिस विष होइ असा तैल, कर्पूरादिक वस्तु, सो विष कहिए ।
बहुरि सिंह, व्याघ्रादि क्रूर जीवनि के धारन के अथि जाकै अभ्यतर छैला आदि रखिए । पर तिस विष तिस क्र र जीव को पाव धरते ही किवाड जुडि जाय, असा सूत्र की कल करि संयुक्त होइ, काष्ठादिक करि रच्या हुवा हो है, सो यन्त्र कहिए।
बहुरि माछला, काछिवा, मूसा, कोल इत्यादिक जीवनि के पकडने के निमित्त काष्ठादिकमय बने, सो कूट कहिए ।
बहुरि तीतर, लवा, हिरण इत्यादि जीवनि के पकड़ने के निमित्त फद की लीए जो डोरि का जाल बनै, सो पीजर कहिए ।
१. पट्खडागम - धवला पुस्तक १, गाथा १७९, पृष्ठ ३६० ।
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४४० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३०४
बहुरि हाथी, ऊंट आदि के पकड़ने निमित्त खाडा के ऊपरि गाठि का विशेष लीएं जेवरा की रचनारूप विशेष, सो बंध कहिए ।
आदि शब्द करि पंखीनि का पांख लगने निमित्त ऊंचे दड के ऊपर चिगटास लगावना, सो बंध वा हरिणादिक का सींग के अग्रभाग सूत्र की गांठ देना इत्यादि विशेष जानने । असें जीवनि के मारणे, बांधने के कारणरूप कार्यनि विषै अन्य के उपदेश विना ही स्वयमेव बुद्धि प्रवर्ते; सो कुमति ज्ञान कहिए ।
उपदेश ते प्रवर्तें तो कुश्रुत ज्ञान हो जाइ । ताते विना ही उपदेश सा विचाररूप विकल्प लीएं हिसा, अनृत, स्तेय, ब्रह्म, परिग्रह का कारण आर्तरौद्र ध्यान को कारण शल्य, दंड, गारव आदि अशुभोपयोगों का कारण जो मन, इंद्रिय करि विशेष ग्रहणरूप मिथ्याज्ञान प्रवर्ते; सो मति प्रज्ञान सर्वज्ञदेव कहै है ।
आभीयमासुरक्खं, भारह- रामायणादि-उवएसा ।
तुच्छा असाहणीया, सुय अण्णाणं त्ति णं बेंति ॥ ३०४ ॥ १
श्राभीतमासुरक्षं भारतरामायणाद्युपदेशाः ।
तुच्छा प्रसाधनीयाः श्रुताज्ञानमिति इदं ब्रुवंति ॥ ३०४ ||
टीका - श्राभीता: कहिए ( समतपने ) भयवान, जे चौरादिक, तिनिका शास्त्र सो आभीत है । बहुरि असु जे प्रारण, तिनिंकी चौरादिक ते रक्षा जिनि तै होइ, असे कोटपाल, राजादिक, तिनिका जो शास्त्र सो असुरक्ष हैं । बहुरि कौरव पांडवो का युद्धादिक वा एक भार्या के पंच भर्ता इत्यादिक विपरीत कथन जिस विषै पाइए, असा शास्त्र सो भारत है । बहुरि रामचंद्र के बानरो की सेना, रावण राक्षस है, तिनिका परस्पर युद्ध होना इत्यादिक' अपनी इच्छा करि रच्या हुवा शास्त्र, सो रामायण है | आदि शब्द ते जो एकातवाद करि दूषित अपनी इच्छा के अनुसारि रच्या हुवा शास्त्र, जिनिविषे हिसारूप यज्ञादिक गृहस्थ का कर्म है, जटा धारण, त्रिदड धारणादिरूप तपस्वी का कर्म है, सोलह पदार्थ है; वा छह पदार्थ है; वा भावन, विधि, नियोग, भूत ए च्यारि है; वा पचीस तत्त्व है; वा अद्वैत ब्रह्म का स्वरूप है वा सर्व शून्य है इत्यादि वर्णन पाइए है; ते शास्त्र 'तुच्छा:' कहिए परमार्थ
१. पट्टागम - घवला पुस्तक १, गाथा १५०, पृष्ठ ३६० ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४४१ से रहित है । बहुरि 'असाधनीया' कहिए प्रमाण करने योग्य नाही । याही ते संत पुरुषनि को आदरने योग्य नाही । असे शास्त्राभ्यासनि ते भया जो श्रुतज्ञान की सी आभासा लीएं कुज्ञान, सो श्रुत अज्ञान कहिए । जातै प्रमाणीक इष्ट अर्थ ते विपरीत अर्थ याका विषय हो है । इहां मति, श्रुत अज्ञान का वर्णन उपदेश लीए किया है।
___ अर सामान्यपनै तौ स्व-पर भेदविज्ञान रहित इंद्रिय, मन जनित जानना, सो सर्व कुमति, कुश्रुत है।
विवरीयमोहिणारणं, खोवसमियं च कम्मबीजं च । वेभंगो त्ति पउच्चइ, समत्तणाणीण समयम्हि ॥३०॥
विपरीतमवधिज्ञानं, क्षायोपशमिकं च कर्मबीजं च ।
विभंग इति प्रोच्यते, समाप्तज्ञानिनां समये ॥३०॥ टीका - मिथ्यादृष्टी जीवनि के अवधिज्ञानावरण, वीर्यातराय के क्षयोपशम ते उत्पन्न भया; जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लीएं रूपी पदार्थ है विषय जाका, असा प्राप्त, आगम, पदार्थनि विर्षे विपरीत का ग्राहक, सो विभंग नाम पावै है । वि कहिए विशिष्ट जो अवधिज्ञान, ताका भंग कहिए विपरीत भाव, सो विभंग कहिए; सो तिर्यच-मनुष्य गति विष तौ तीव्र कायक्लेशरूप द्रव्य सयमादिक करि उपजै है; सो गुणप्रत्यय हो है। . .
बहरि देवनरक गति विर्षे भवप्रत्यय हो है । सो सब ही विभंगजान मिथ्यात्वादि कर्मबध का बीज कहिए कारण हैं । चकार ते कदाचित् नारकादिक गति विर्ष पूर्वभव सम्बन्धी दुराचार के दुख' फल कौं जानि, कही सम्यग्दर्शनज्ञानरूप धर्म का भी बीज हो है; असा विभंगज्ञान, समाप्तज्ञानी- जो सपूर्ण ज्ञानी केवली, तिनिके मत विषै कह्या है।
। आगै स्वरूप वा उपजने का कारण वा भेद वा विषय, इनिका आश्रय करि मतिज्ञान का निरूपण नव गाथानि करि कहै है -
अहिमूह-णियमिय-बोहरणमाभिणिबोहियमणिदि-इंदियज ।
३ अवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥३०६॥२ १ पट्खडागम - धवला पुस्तक १, गाथा १८१, पृष्ठ ३६१ । २ पटखडागम-धवला पुस्तक १, गाथा १८२, पृष्ठ ३६१ । ३. पाठभेद - बहु प्रोग्गहाईणा खलुकय-छत्तीस-त्ति-सय-भेय ।
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४४२)
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा ३०७ अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिबोधिकमनिद्रियेद्रियजं ।
अवग्रहहावायधारणका भवंति प्रत्येकं ॥३०६॥ टीका - स्थूल, वर्तमान जिस क्षेत्र विष इंद्रिय-मन की प्रवृत्ति होइ, तहां तिष्ठता असा जो इद्रिय - मन के ग्रहण योग्य पदार्थ, सो अभिमुख कहिए। वहरि इस इंद्रिय का यहु ही विषय है, असा नियमरूप जो पदार्थ, सो नियमित कहिए, अस पदार्थ का जो जानना, सो अभिनिबोध कहिए । अभि कहिए अभिमुख अर 'नि' कहिए नियमित जो अर्थ, ताका निबोध कहिए जानना, असा अभिनिवोध, सोई आभिनिबोधिक है । इहा स्वार्थ विर्षे ठण् प्रत्यय आया है । सो यह आभिनिवोधिक मतिज्ञान का नाम जानना । इद्रियनि के स्थूल रूप स्पर्शादिक अपने विषय के ज्ञान उपजावने की शक्ति है । बहरि सूक्ष्म, अंतरित, दूर पदार्थ के ज्ञान उपजावने की शक्ति नाही है । तहां सूक्ष्म पदार्थ तो परमाणु आदिक, अंतरित पदार्थ प्रतीत अनागत काल संबंधी, दूर पदार्थ मेरु गिरि, स्वर्ग, नरक, पटल प्रादि दूर क्षेत्रवर्ती जानने। असे मतिज्ञान का स्वरूप कहा है।
सो मतिज्ञान कैसा है ?
अनिद्रिय जो मन, अर इंद्रिय स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, इनि करि उपज है । मतिज्ञान उपजने के कारण इंद्रिय अरु मन हैं। कारण के भेद ते कार्य विषै भी भेद कहिए, तातै मतिज्ञान छह प्रकार है। तहा एक-एक के च्यारि-च्यारि भेद है - अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा । सो मन ते वा स्पर्शन ते वा रसना ते वा घ्राण ते वा चक्षु ते वा श्रोत्र ते ए प्रवग्रहादि च्यारि-च्यारि उत्पन्न होइ, तातै चौबीस भेद भए।
अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा का लक्षण शास्त्रकर्ता प्रागै स्वयमेव कहैगे। वेंजणप्रत्थअवग्गहभेदा हु हवंति पत्तपत्तत्थे । कमसो ते वावरिदा, पढमं हि चक्खुमणसारणं ॥३०७॥
व्यंजनार्थावग्रहभेदो, हि भवतः प्राप्ताप्राप्तार्थे । क्रमशस्तौ व्यापृतौ, प्रथमो नहि चक्षुर्मनसोः ॥३०७॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४४३
टीका - मतिज्ञान का विषय दोय प्रकार एक व्यजन, एक अर्थ । तहां जो विषय इंद्रियनि करि प्राप्त होइ, स्पर्शित होइ, सो व्यंजन कहिए । जो प्राप्त न होइ, सो अर्थ कहिए । तिनिका विशेष ग्रहणरूप व्यंजनावग्रह अरु अर्थावग्रह भेद प्रवर्ते है ।
इहां प्रश्न जो तत्त्वार्थ सूत्र की टीका विषै तौ अर्थ असा कीया
जो
व्यंजन नाम अव्यक्त शब्दादिक का है, इहां प्राप्त अर्थ को व्यंजन कह्या सो कैसे है ?
-
ताका समाधान
व्यंजन शब्द के दोऊ श्रर्थ हो है । विगतं अंजनं व्यंजनं' दूरि भया है अंजन कहिए व्यक्त भाव जाकै, सो व्यंजन कहिए । सो तत्त्वार्थ सूत्र की टीका विषै तौ इस अर्थ का मुख्य ग्रहण कीया है । अर 'व्यज्यते म्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजनं' जो प्राप्त होइ ताकौ व्यजन कहिए । सो इहा यहु प्रर्थ मुख्य ग्रहण कीया है । जाते अंजु धातु गति, व्यक्ति, क्षण अर्थ विषं प्रवर्तें है
।
तातै व्यक्ति अर्थ का अर क्षण अर्थ का ग्रहण करने ते कर्णादिक इंद्रियनि करि शब्दादिक अर्थ प्राप्त हुवे भी यावत् व्यक्त न होंइ, तावत् व्यंजनावग्रह है, व्यक्त भएं अर्थावग्रह हो है । जैसे नवा माटी का शरावा, जल की बूंदनि करि सीचिए, तहां एक दोय बार श्रादि जल की बूद परें व्यक्त न होइ; शोषित होइ जाय; बहुत बार जल की बूद परे, व्यक्त होइ, तै कर्णादिक करि प्राप्त हुवा जो शब्दादिक, तिनिका यावत् व्यक्तरूप ज्ञान न होइ, जो मैंने शब्द सुन्या, औसा व्यक्त ज्ञान न होइ तावत् व्यजनावग्रह कहिए । बहुरि बहुत समय पर्यंत इंद्रिय अर विषय का सयोग रहे; व्यक्तरूप ज्ञान भए अर्थावग्रह कहिए | बहुरि नेत्र इंद्रिय अर मन, ए दूरही ते पदार्थ को जाने है; ताते इनि दोऊनि के व्यजनावग्रह नाहीं, अर्थावग्रह ही है ।
इहां प्रश्न जैसे करर्णादिक करि दूरि ते
शब्दादिक जानिए है, तैसे ही नेत्र करि वर्ण जानिए है, वाक प्राप्त कह्या, अर याकी प्राप्त कह्या सो कैसे है ?
-
ताकां समाधान - दूरि जो शब्द हो है, ताकौ यहु नाही जाने है । जो दूरि भया शब्द, ताके निमित्त ते प्रकाश विषे जे अनेक स्कंध तिष्ठे है । ते शब्दरूप परिगए है । तहा कर्ण इंद्रिय के समीपवर्ती भी स्कंध शब्दरूप परिगए है, सो तिनिका कर्ण इंद्रिय करि स्पर्श भया है; तब शब्द का ज्ञान हो है । से ही दूरि तिष्ठता सुगंध, दुर्गंध वस्तु के निमित्त ते पुद्गल स्कंध तत्काल तद्रूप परिरणव है । तहां जो नासिका इद्रिय के समीपवर्ती स्कंध परिगए है; तिनिके स्पर्श तें गध का ज्ञान हो है । जैसे ही अग्न्यादिक के निमित्त ते पुद्गल स्कंध उष्णादिरूप परिणव है; तहां जो
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४४४]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा ३०८ गंन :द्रिय के समीपवर्ती स्कंध परिणए है; तिनिके स्पर्श ते स्पर्श ज्ञान हो है । ने ही प्राम्लादि वस्तु के निमित्त ते स्कंध तद्रूप परिणवै है, तहां रसना इंद्रिय के नमीपवर्ती जो स्कंध परिणए, तिनिके संयोग से रस का ज्ञान हो है । बहुरि यहु श्रुत ज्ञान के वल करि, जाके निमित्त ते शब्द आदि भए ताको जानि, असा मान है कि में दूरवर्ती वस्तु को जान्या, असे दूरवर्ती वस्तु के जानने विषै भी प्राप्त होना सिद्ध भया। पर समीपवर्ती को तो प्राप्त होकर जान ही है । इहां शब्दादिक परमाणु पर गर्गादिक इंद्रिय परस्पर प्राप्त होइ, अर यावत् जीव के व्यक्त ज्ञान न होइ तावत् व्यजनावगह है, व्यक्तनान भए अर्थावग्रह हो है । बहुरि मन अर नेत्र दूर ही तै जाने है, असा नाही; जो शब्दादिक की ज्यो जाने है, तातै पदार्थ तौ दूरि तिष्ठै है हो, जब उन नै ग्रह, तव व्यक्त ही ग्रहै; तातै व्यंजनावग्रह इनि दोऊनि के नाही; पर्यावग्रह ही है। उक्त च
पुठ्ठ सुणेदि सइं, अपुढें पुरण पस्सदे- रूवं ।।
गंधं रसं च फासं, बद्धं पुठं वियाणादि ॥१॥ वहरि नैयायिकमतवाले असा कहै है - मन पर नेत्र भी प्राप्त होइ करि ही बन्नु की जान है। ताका निराकरण जैनन्याय के शास्त्रनि विर्ष अनेक प्रकार कीया है। वहरि व्यंजन जो अव्यक्त शब्दादिक, तिनि विर्ष स्पर्शन, रसन, प्राण, श्रोत्र निगनि करि केवल अवग्रह ही हो है; ईहादिक न हो है। जाते ईहादिक तौ एकदेग या मयंदेश व्यक्त भए ही हो है । व्यजन नाम अव्यक्त का है, तातै च्यारि यिनि करि व्यजनावग्रह के च्यारि भेद है ।
विसयारणं विसईणं, संजोगाणंतरं हवे णियमा। अवगहणाणं गहिदे, विसेसकंखा हवे ईहा ॥३०८॥ विपयाणां विपयिणां, संयोगानंतरं भवेनियमात् ।
मयाजानं गृहीते, विशेषाकांक्षा भवेदोहा ॥३०८॥ arr-निपय गो गब्दादिक पदार्थ अर विषयी जे कर्णादिक इंद्रिया, इनिका -
चोय क्षेप वि निष्ठनेम्प सवध, ताकी होतें मंते ताके अनंतर ही मानकर पानी यह है, इतना प्रकाणरूप, सो दर्णन नियम
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। ४४५ करि हो है। ताके अनन्तर पीछ ही देख्या जो पदार्थ ताके वर्ण संस्थानादि विशेष ग्रहणरूप अवग्रह नामा ज्ञान हो है।
इहां प्रश्न - जो गाथा विर्षे तौ पहिले दर्शन न कह्या, तुम कैसे कहो हो ?
ताका समाधान - जो अन्य ग्रंथनि में कहा है-'अक्षार्थयोगे सत्तालोकोर्थाकारविकल्पधीरवग्रहः' इद्रिय अर विषय के संयोग होते प्रथम सत्तावलोकन मात्र दर्शन हो है, पीछे पदार्थ का आकार विशेष जाननेरूप अवग्रह हो है - जैसा अकलंकाचार्य करि कहा है। बहुरि 'दंसरणपुव्वं गाणं छात्थाणं हवेदि रिणयमेण' छद्मस्थ जीवन के नियम ते दर्शन पूर्वक ही ज्ञान हो है जैसा नेमिचंद्राचार्यने द्रव्य - संग्रह नामा ग्रंथ में कहा है । बहुरि तत्त्वार्थ सूत्र की टीकावाले ने जैसा ही कह्या है; तातै इहा ज्ञानाधिकार विर्षे दर्शन का कथन न कीया तो भी अन्य ग्रंथनि ते जैसे ही जानना । सो अवग्रह करि तो इतना ग्रहण भया।
जो यह श्वेत वस्तु है, बहुरि श्वेत तौ बुगलनि की पंक्ति भी हो है, ध्वजा रूप भी हो है; परि बुगलेनि की पकतिरूप विषय कौं अवलबि यह बुगलेनि की पंकति ही होसी वा ध्वजारूप विषय कौं अवलंबि यहु ध्वजा होसी असा विशेष वाछारूप जो ज्ञान, ताकौ ईहा कहिए । बहुरि बुगलनि की यह पकति ही होसी कि ध्वजा होसी असा सशयरूप ज्ञान का नाम ईहा नाही है । वा बुगलनि पंकति विषै यहु ध्वजा होसी असा विपर्यय ज्ञान का नाम ईहा नाही है, जातै इहां सम्यग्ज्ञान का अधिकार है । सम्यग्ज्ञान प्रमाण है । अर सशय, विपर्यय है, सो मिथ्याज्ञान है । तातै सशय विपर्यय का नाम ईहा नाही । जो वस्तु है, ताका यथार्थरूप असा ज्ञान करना कि यह अमुक ही वस्तु होसी; असे होसीरूप जो प्रतीति, ताका नाम ईहा है । अवग्रह तै ईहा विष विशेष ग्रहण भया; ताते याके वाके विष मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम का तारतम्य करि भेद जानना ।
ईहणकरणेण जदा, सुरिणण्णो होदि सो अवानो दु । कालांतरे वि गिग्णिव-वत्थु-समरणस्स कारणं तुरियं ॥३०॥
ईहनकरणेन यदा, सुनिर्णयो भवति स अवायस्तु । कालांतरेऽपि निर्णीतवस्तुस्मरणस्य कारणं तुर्यम् ॥३०९।।
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४४६ ॥
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ३१० टोका - ईहा के करने करि ताके पीछे जिस वस्तु की ईहा भई थी, ताका भले प्रकार निर्णय रूप जो ज्ञान, ताकौं अवाय कहिए ।
जैसे पांखनि का हलावना आदि चिह्न करि यह निश्चय कीया जो वुगलनि की पंकति ही है, निश्चयकरि और किछ नाही; असा निर्णय का नाम अवाय है। तु शब्द करि पूर्वं जो ईहा विषं वांछित वस्तु था, ताही का भले प्रकार निर्णय, सो अवाय है । बहुरि जो वस्तु किछ और है; अर और ही वस्तु का निश्चय करि लीया है, तो वाका नाम अवाय नाही, वह मिथ्याज्ञान है ।
बहुरि तहां पीछे बार-बार निश्चयरूप अभ्यास ते उपज्या जो सस्कार, तीहि स्वरूप होइ, केते इक काल कों व्यतीत भए भी यादि आवने को कारणभूत जो ज्ञान सो धारणा नाम चौथा ज्ञान का भेद हो है। जैसे ही सर्व इंद्रिय वा भन संबंधी अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा भेद जानने ।
बहु बहुविहं च खिप्पाणिस्सिदणुत्तं धुवं च इदरं च । तत्थेक्कक्के जादे, छत्तीसं तिसयभेदं तु ॥३१०॥ बहु बहुविधं च क्षिप्रानिःसृदनुक्तं ध्रवं च इतरच्च ।
तत्रैककस्मिन् जाते, षट्त्रिंशत्त्रिंशतभेदं तु ॥३१०॥ टीका - अर्थरूप वा व्यंजनरूप जो मतिज्ञान का विषय, ताके बारह भेद है - बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव, ए छह । बहुरि इतर जे छही इनके प्रतिपक्षी एक, एकविध, अक्षिप्र, निसृत, उक्त, अध्र व ए छह; असे बारह भेद जानने । सो व्यजनावग्रह के च्यारि इंद्रियनि करि च्यारि भेद भए, अर अर्थ के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ते पंच इंद्रिय छठा मन करि चौबीस भेद भए। मिलाएं ते अठाईस भेद भए । सो व्यंजन रूप बहु विषय का च्यारि इंद्रियनि करि अवग्रह हो है । सो च्यारि भेद तो ए भए । अर अर्थ रूप बहु विषय का पंच इंद्रिय, छठा मन करि गणे अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा हो है। ताते चौबीस भएं । जैसे एक, बहु विषय संबंधी अठाईस भेद भए । जैसे ही बहुविध आदि भेदनि विषै अठाईस-अठाईस भेद हो हैं। सब कौं मिलाएं बारह विषयनि विर्षे मतिज्ञान के तीन से छत्तीस (३३६) भेद हो है । जो एक विषय विष अठाईस मतिज्ञान के भेद होइ तौ बारह विषयनि
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४५२ ]
[ गोग्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३१६-३१७-३१८ आगे श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक अनक्षरात्मक भेदनि को दिखावै हैलोगाणमसंखमिया, अणक्खरप्पे हवंति छाणा । वेरूवछट्ठवग्गपमाणं रूऊणसक्खरगं ॥३१६॥
लोकानामसंख्यमितानि, अनक्षरात्मके भवति षट्स्थानानि ।
द्विरूपषष्ठवर्गप्रमाणं रूपोनमक्षरगं ॥३१६॥ टीका - अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद पर्याय अर पर्यायसमास, तीहिं विर्षे जघन्य सौ लगाइ उत्कृष्ट पर्यत असख्यात लोक प्रमाण ज्ञान के भेद हो है । ते भेद असख्यात लोक बार षट्स्थानपतित वृद्धि की लीए है। बहुरि अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है, सो द्विरूप वर्गधारा विर्ष जो एकट्टी नामा छठा स्थानक कह्या, तामै एक घटाएं, जो प्रमाण रहै, तितने अपुनरुक्त अक्षर है। तिनकी अपेक्षा सख्यात भेद लीएं है । विवक्षित अर्थ को प्रकट करने निमित्त बार बार जिन अक्षरनि कौ कहिए; असे पुनरुक्त अक्षरनि का प्रमाण अधिक संभव है । सो कथन आगै होइगा ।
आगै श्रुतज्ञान का अन्य प्रकार करि भेद कहने के निमित्त दोय गाथा कहै है -
पज्जायक्खरपदसंघा? पडिवत्तियाणिजोगं च । दुगवारपाहुडं च य, पाहुडयं वत्थुपुव्वं च ॥३१७॥ तेसि च समासेहि य, वीसविहं वा हु होदि सुदणाणं । आवरणस्स वि भेदा, तत्तियमेत्ता हवंति ति ॥३१८॥२
पर्यायाक्षरपदसंघातं प्रतिपत्तिकानुयोगं च । द्विकवारप्राभृतं च, च प्रामृतकं वस्तु पूर्व च ॥३१७॥ तेषां च समासंश्च. विंशविधं वा हि भवति श्रुतज्ञानम् ।
प्रावरणस्यापि भेदाः, तावन्मात्रा भवंति इति ।।३१८॥ टीका - १. पर्याय, २. अक्षर, ३. पद, ४ सघात, ५ प्रतिपत्तिक, ६. अनुयोग, ७ प्राभृत-प्राभृत, ८ प्राभृत, ९ वस्तु, १० पूर्व दश तौ ए कहे।
१ षट्खडागम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २१ की टीका । २ पट्खडागम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २१ को टीका ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाका 1
i ते पर्याय आदिक दश भेद कहे, तिनके समासनि करि दश भेद भए, मिलिकरि श्रुतज्ञान के बोस भेद भएं । ते कहिए है - १. पर्याय, २. पर्यायसमास, ३. अक्षर, ४. अक्षरसमास, ५. पद, ६. पदसमास, ७. सघात, ८ संघातसमास, ६. प्रतिपत्तिक, १०. प्रतिपत्तिकसमास, ११. अनुयोग, १२. अनुयोगसमास, १३. प्राभृतक-प्राभृतक, १४. प्राभृतक-प्राभृतकसमास, १५ प्राभृत, १६..प्राभृतसमास, १७. वस्तु, १८. वस्तुसमास, १६. पूर्व २०. पूर्वसमास जैसै बीस भेद है।
इहां अक्षरादि गोचर जो अर्थ, ताके जाननेरूप जो भाव श्रुतज्ञान, ताकी मुख्यता जाननी । बहुरि जाते श्रुतज्ञानावरण के भी तितने ही बीस भेद है; तातें श्रुतज्ञान के भी बीस भेद ही कहे हैं।
____ आगे पर्याय नामा प्रथम श्रुतज्ञान का भेद, ताका निरुपण के अथि च्यारि गाथा कहै है
णवरि विसेसं जाणे, सुहमजहणणं तु पज्जयं पारणं । पज्जायावरणं पुण, तदणंतरणाणभेदम्हि ॥३१॥
नवरि विशेषं जानीहि, सूक्ष्मजघन्यं तु पर्यायं ज्ञानम् ।
पर्यायावरणं पुनः, तदनंतरज्ञानभेदे ॥३१९॥ टीका - यह नवीन विशेष जानहु, जो पर्याय नामा प्रथम श्रुतज्ञान का भेद, सो सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्त संबंधी सर्व ते जघन्य श्रुतज्ञान जानना । बहुरि पर्याय श्रुतज्ञान का आवरण, सो पर्याय श्रुतज्ञान की नाही आवरै है। वाके अनतरि जो पर्याय ज्ञान ते अनंत भाग वृद्धि लीएं पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद, तीहि विष पर्याय ज्ञान का आवरण है; जातै उदय आया जो पर्याय ज्ञान, आवरणके समय प्रबद्ध का उदयरूप निषेक, ताकै सर्वघाती स्पर्धकनि का उदय नाही, सो क्षय है. अर तेई सर्वघाती स्पर्धक, जे अगिले निषेक सबधी सत्ता मे तिप्ठे है, तिनिका उपशम है । अर देशघाती स्पर्धकनि का उदय है; सो असा पर्याय ज्ञानावरण का क्षयोपगम सदा पाइए तातै; पर्याय ज्ञान का आवरण करि पर्याय ज्ञान प्रावर नाही । पर्यायसमासज्ञान का प्रथमभेद ही आवर है । जो पर्याय ज्ञान भी आवर तो जान का अभाव होइ, ज्ञान गुणका अभाव भए, गुणी (अस) जीव द्रव्य का भी प्रभाव होड, सो जैसै होइ नाही; तातै पर्यायज्ञान निरावरण ही है ।
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४५४ ]
[ गोम्मटगार जीवकाण्ड गाया ३२०-३२१
अनुभाग रचना विषै भी स्थापित कीया जो सिद्धराणि का अनतवा भागमात्र श्रुतज्ञानावरण का द्रव्य, जो परमाणूनि का समूह, सो द्रव्य के अनुभाग की कम हानि-वृद्धि करि संयुक्त है । बहुरि नानागुणहानि स्पर्धक वर्गणारूप भेद लीएं है, तिस द्रव्य विषै सर्वं ते थोरा उदयरूप अनुभाग जाका क्षीण भया, असा जो सर्वघाती स्पर्धक, तिसही कौ पर्याय ज्ञान का आवरण कह्या है; तितने आवरण का सदा काल उदय न होइ, तातै भी पर्याय ज्ञान निरावरण ही है ।
सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि ।
हवदि हु सव्वजहणणं, रिगच्चुग्धाडं णिरावरणं ॥ ३२० ॥ १
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये ।
भवति हि सर्वजघन्यं, नित्योद्धाटं निरावरणम् ॥ ३२० ॥
टीका - सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक जीव का जन्म होते पहिला समय विषै सर्व तै जघन्य शक्ति को लीएं पर्याय नामा श्रुतज्ञान हो है, सो निरावरण है । इतने ज्ञान का कबहू प्राच्छादन न होइ । याही नित्योद्धाटं कहिए सदाकाल प्रकट प्रकाशमान है । सो यहु गाथा पूर्वाचार्यनि करि प्रसिद्ध है । इहा अपना का व्याख्यान की दृढता के निमित्त उदाहरणरूप लिखी है ।
सुहमणिगोदपज्जत्तगेस सगसंभवेस भमिऊण । चरिमापुण्गतिवक्काणादिमवक्कट्ठियेव हवे ॥३२१॥
१. षट्खडागम
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकेषु स्वक संभवेषु भ्रमित्वा । चरमापूर्णत्रिवऋारणां आदिमवक्रस्थिते एव भवेत् ।। ३२१॥
टीका - सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक जीव, सो अपने विषे सभवते जे छह हजार बारह बार क्षुद्रभव, तिनि विषै भ्रमरण करि अत का लब्धि अपर्याप्तकरूप क्षुद्रभव विषै तीन वक्रता लीए, जो विग्रह गति, ताकरि जन्म धर्या होइ, ताके विग्रह गति में पहिली वक्रता सबधी समय विषै तिष्ठता जीव ही के सर्व तै जघन्य पर्याय नामा श्रुतज्ञान हो है । बहुरि तिसही के स्पर्शन इद्रिय सबधी जघन्य मतिज्ञान हो है ।
- घवला पुस्तक ६, पृष्ठ २१ की टीका !
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका
:
। ४५५
बहुरि तिसही के अचक्षुदर्शनावरण के क्षयोपशम ते उपज्या जघन्य अचक्षुदर्शन भी हो है । सो इहां बहुत क्षुद्रभवरूप पर्याय के धरने ते उत्पन्न भया बहुत सक्लेश, ताके बधने करि आवरण का अति तीव्र अनुभाग का उदय हो है। तातै क्षुद्रभवनि का अंत क्षुद्रभवनि विष पर्यायज्ञान कह्या है । बहुरि द्वितीयादि समयनि विष ज्ञान बधता संभव है; तातै तीनि वक्र विर्षे प्रथम वक्र का समय ही विष पर्यायज्ञान कह्या है ।
सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि । फासिदियगदिपुव्वं, सुदणाणं लद्धिअक्खरयं ॥३२२॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये ।
स्पर्शनेंद्रियमतिपूर्व श्रुतज्ञानं लब्ध्यक्षरकं ॥३२२॥ टीका - सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक जीव के उपजने का पहिला समय विष सर्व ते जघन्य स्पर्शन इंद्रिय संबधी मतिज्ञानपूर्वक लब्धि अक्षर है, दूसरा नाम जाका, असा पर्याय ज्ञान हो है । लब्धि कहिए श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम, वा जानन शक्ति, ताकरि अक्षरं कहिए अविनाशी, सो असा पर्यायज्ञान ही है, जातै इतना क्षयोपशम सदाकाल विद्यमान रहै है।
आगै दश गाथानि करि पर्यायसमास ज्ञान को प्ररूप है । अवरुवरिस्मि अरणंतमसंखं संखं च भागवड्ढीए। संखमसंखमणंतं, गुणवड्ढी होंति हु कमेण ॥३२३॥
अवरोपरि अनंतमसंख्यं संख्यं च भागवृद्धयः ।
सख्यमसंख्यमनंतं, गुणवृद्धयो भवंति हि क्रमेण ॥३२३॥ टीका - सर्व ते जघन्य पर्याय नामा ज्ञान, ताके ऊपरि आगे अनुक्रम ते आगे कहिए है । तिस परिपाटी करि १. अनंत भागवृद्धि, २. असख्यात भागवृद्धि, ३. संख्यात भागवृद्धि, ४ संख्यात गुणवृद्धि, ५ असख्यात गुणवृद्धि, ६ अनतगुण वृद्धि, ७. ए षट्स्थान पतित वृद्धि हो है ।।
१ षट्खडागम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका । २ पट्खडागम -धवला पुस्तक, पृष्ठ २२ को टीका
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२४-३२५
sai कोऊ कहै कि सर्व जघन्य ज्ञान को अनत का भाग कैसे संभवे ? ताका समाधान - जो द्विरुपवर्गधारा विषै नतानंत वर्गस्थान भए पीछे, कम ते जीवराशि, पुद्गल राशि, काल समयराशि, श्रेणी आकाशराशि हो है । तिनिके ऊपर अनंतानंत वर्गस्थान भए सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक सवधी जघन्य ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण हो है । जाका भाग न होइ जैसे ज्ञान शक्ति के अश, तिनिका असा परिमाण है । तातै तिनिकी अपेक्षा अनंत का भागहार संभव है ।
૪૬
जीवाणं च य रासी, श्रसंखलोगा वरं खु संखेज्जं । भागगुणम्हि य कमसो, श्रवदिट्ठदा होंति छट्ठारणे ॥ ३२४ ॥
जीवानां च च राशिः असंख्यलोका वरं खलु संख्यातम् । भागगुणयोश्च क्रमश: अवस्थिता भवंति षट्स्थाने || ३२४ ||
टीका - इहां अनतभाग आदिक छह स्थानकनि विषे ए छह संदृष्टि अवस्थित कहिए, नियमरूप जाननी । अनत विषे तो जीवराशि के सर्व जीवनि का परिमाण सो जानना । असख्यात विषै श्रसंख्यात लोक जो असंख्यात गुरणा लोकाकाश के प्रदेशनि का परिणाम सो जानना । सख्यात विषे उत्कृष्ट संख्यात जो उत्कृष्ट संख्यात का परिणाम सो जानना । सोई तीनो प्रमाण भाग वृद्धि विषे जानना । ये ही गुरणवृद्धि विषै जानना | भागवृद्धि विषे इनि प्रमाणनि का भाग पूर्वस्थान को दीएं, जो परिणाम आवै, तितने पूर्वस्थान विषे मिलाए, उत्तरस्थान होइ । गुणवृद्धि विषे इनि प्रमाणनि करि पूर्वस्थान को गुणै, उत्तरस्थान हो है ।
उव्र्व्वकं चउरंकं, परणछस्सत्तंक अट्ठकं च । छन्नड्ढोणं खण्णा, कमसो संदिट्ठिकरणट्ठ ॥ ३२५॥
उर्वकश्चतुरंकः पंचषट्सप्तांकः प्रष्टांकश्च । षड्वृद्धीनां संज्ञा, क्रमशः संदृष्टिकरणार्थम् ॥ ३२५॥
टीका - बहुरि लघुसदृष्टि करने के निमित्त अनंत भाग वृद्धि आदि छह वृद्धिनि की अन्यसा सदृष्टि सो कहै है - तहा अनंत भागवृद्धि की उर्वक कहिए उकार उ, असख्यात भागवृद्धि की च्यारि का अक ( ४ ), सख्यात भागवृद्धि की पाचका अक ( ५ ), सख्यात गुणवृद्धि की छह का अक (६), असंख्यात गुणवृद्धि की
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४५७
सात का अक ( ७ ), अनंत गुणवृद्धि की आठ का अक (द), असे ए सहनानी जाननी ।
टीका पूर्ववृद्धि जो पहिली पहिली वृद्धि, सो सूच्यंगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण होइ; तब एक एक बार परवृद्धि कहिए पिछली पिछली वृद्धि होइ, से बार बार अंत की वृद्धि, जो अनतगुरण वृद्धि तीहि पर्यत हो है; असा जानना ।
उ उ ४
उ उ ४
अब याका अर्थ यत्र द्वार करि दिखाइए है । तहां यत्र विषे अनतभागादिक की उकार आदि सदृष्टि कही थी, सो लिखिए है ।
वृद्धि का यंत्र
उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
उ उ४
श्रंगुलप्रसंखभागे, पुण्वगवड्ढीगदे दु परवड्ढी ।
एक्कं वारं होदि हु, पुणो पुणो चरिम उड्ढि त्ती ॥ ३२६॥
उ उ ४
उ उ ४
-
उ उ ४
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उ उ ४
उ उ ४ |
उ उ ४
अंगुला सख्यात भागे, पूर्वगवृद्धिगतेतु परवृद्धिः ।
एकं वारं भवति हि पुनः पुनः चरमवृद्धिरिति ॥ ३२६ ॥
उ उ४
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उ उ ४
पर्याय समास ज्ञान विषे
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उ उ ४
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उ उ ६ उ उ ६
उ उ ७
उ उ ६
उ उ ६
उ उ ७
उ उ ६
उ उ ६
उ उ ८
बहुरि सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण बार की जायगा दोय बार लिखिए है । सो इहा पर्याय नाम श्रुतज्ञान का भेद, तातै अनत भाग वृद्धि लिए पर्याय समास नामा श्रुतज्ञान का प्रथम भेद हो है । बहुरि इस प्रथम भेद ते अनत भागवृद्धि लए पर्याय समास का दूसरा भेद हो है । जैसे सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रभारण अनंत भागवृद्धि होइ, तब एक बार प्रसख्यात भागवृद्धि होइ । इहा अनत भागवृद्धि पहिलै कही थी, ताते पूर्व कहिए । अर असख्यात भागवृद्धि वाके पीछे कही थो, ताते याकी पर कहिए । सो इहा यत्र विषै प्रथम पक्ति का प्रथम कोष्ठ विषै दो बार उकार लिख्या, सो तो सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमारण अनत भाग
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४५६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२६ वृद्धि की सहनानी जाननी । अर ताके आगै च्यारि का अक लिख्या, सो एक बार असंख्यात भागवृद्धि की सहनानी जाननी । बहुरि इहा ते सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि भए पीछे दूसरा एक बार असंख्यात भागवृद्धि होइ । असे ही अनुक्रम ते सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण असख्यात भागवृद्धि हो है। ताते यंत्र विषै प्रथम पक्ति का दूसरा कोठा विर्षे प्रथम कोठावत् दोय उकार, एक च्यारि का अक लिख्या। दूसरी बार लिखने ते सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग वार जानि लेना।
बहुरि इहा ते आगै सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि होइ, तव एक वार संख्यात भागवृद्धि होइ । यातै प्रथम पंक्ति का तीसरा कोठा विर्ष दोय उकार पर एक पाच का अक लिख्या । अब इहा तै जैसे पूर्व अनंत भागवृद्धि लीए, सूच्यगुल का असख्यातवां भाग प्रमाण असख्यात भागवृद्धि होइ; पीछे सूच्यंगुल का असख्यातवां भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि होइ, तब एक बार संख्यात भागवृद्धि भई, तैसे ही याही अनुक्रम ते दूसरा सख्यात भागवृद्धि भई । बहुरि याही अनुक्रम तै तीसरा भई, असे सख्यात भागवृद्धि भी सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण बार हो है । तातै इहां यत्र विष प्रथम पक्ति विर्ष जैसे तीन कोठे किये थे, तसै अगुल का असख्यातवा भाग की संहनानी के अथि दूसरा तीन कोठे उस ही पंक्ति विर्ष कीए । इहा असख्यात भागवृद्धि को पूर्व कहिए, सख्यात भागवृद्धि को पर कहिए । बहुरि इहा ते सूच्यगुल का अमख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि होइ, एक बार असख्यात भागवृद्धि होड' असे सूच्यगुल का असख्यातवा भागप्रमाण असख्यात भागवृद्धि होइ, सो याकी सहनानी के अर्थि यत्र विषै दोय उकार अर च्यारि का अक करि सयुक्त दोय कोठे कीए । वहुरि यातै आगे सूच्यगुल का असंख्यातवा भागप्रमाण अनत भागवृद्धि होड करि एक वार संख्यात गुणवृद्धि होइ; सो याकी सहनानी के अथि प्रथम पक्ति का नवमा कोठा विपै दोय उकार पर छह का अक लिख्या । बहुरि जैसे प्रथम पक्ति विपं अनुक्रम कह्या, तैसे ही आदि तै लेकरि सर्व अनुक्रम दूसरा भया । तब एक बार दूसरा संख्यात गुणवृद्धि भई । जैसे ही अनुक्रम तै सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण सख्यात गुणवृद्धि हो है; सो सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण तसे होने की सहनानी के अथि यत्र विष जैसी प्रथम पक्ति थो, तैसे ही वाके नीचे दूसरी पवित लिखी । वहुरि इहां तै जैसे प्रथम पक्ति विर्षे अनुकम कह्या था, तैसे अनुभम ने बहुरि वृद्धि भई । विशेष इतना जो उहा पीछे ही पीछे एक बार सख्यात
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सम्यग्ज्ञानन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ४५
गुणवृद्धि भई थी, इहा पीछे ही पीछे एक बार असख्यात गुणवृद्धि भई । याही ते यत्र विषै तीसरी पंक्ति प्रथम पंक्ति सारिखी लिखी । नवमा कोठा मै उहा तो दोय उकार पर छह का अक लिख्या था, इहा तीसरी पक्ति विषे नवमा कोठा विषै दोय उकार नर सप्त का अंक लिख्या । इहा और सर्व कहिए अर असंख्यात गुणवृद्धि पर कहिए | बहुरि इहाते जैसे तीनो ही पक्ति विषे आदि ते लेकरि अनुक्रम तै वृद्धि भई, तैसे ही अनुक्रम ते सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग प्रमारण होइ । तब असख्यात गुणवृद्धि भी सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण होइ निवरे, सो इहां यंत्र विषे सूच्यंगुल का असख्यातवा भाग प्रमारग तैसे ही होने की सहनानी के अथि जैसे तीन पक्ति करी थी, तैसे ही दूसरी पक्ति लिखी, जैसे छह पक्ति भई ।
अब इहां ते आगे जैसे आदि तै लेकरि अनुक्रम तै तीनों पक्ति विषै वृद्धि कही थी, तैसे ही तैसे अनुक्रम ते फेरि सर्ववृद्धि भई । विशेष इतना जो तीसरी पंक्ति का अत विषै जहा असख्यात गुणवृद्धि कही थी, सो इहा तीसरी पंक्ति का प्रत विषै एक बार अनत गुणवृद्धि हो है । याही ते यत्र विषै भी पहिली, दूसरी, तीसरी सारिखी तीन पक्ति और लिखी । उहा तीसरी पंक्ति का नवमां कोठा विषै दोय उकार सप्त का अक लिख्या था । इहा तीसरी पक्ति का नवमा कोठा विषै दोय उकार अर आठ का अक लिख्या, सो इहा अनत गुणवृद्धि को पर कहिए; अन्य सर्व पूर्व कहिए | या आगे कोई वृद्धि रही नाही, ताते याकी पूर्व सज्ञान होइ, याही
हुनत गुणवृद्धि एक बार ही हो है । सो इस अनत गुणवृद्धि कौ होत सतै जो प्रमाण भया, सोई नवीन षट्स्थानपतित वृद्धि का पहिला स्थानक जानना । जैसे पर्यायसमास ज्ञान विषे असख्यात लोक मात्र बार षट्स्थानपतित वृद्धि हो है ।
अब याका कथन प्रकट कर दिखाइए है- द्विरूप वर्गधारा विषै जीवराशि तै अनतानत गुणां जघन्य पर्याय नामा ज्ञान की अपेक्षा अपने विषय को प्रकाशनेरूप शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद कहे है, सो इस प्रमाण की जीवराशि प्रमाण अनत का भाग दीए जो परिमाण आवै, ताकी उस जघन्य ज्ञान विषे मिलाए, पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद हो है । इहा एक बार अनत भागवृद्धि भई । बहुरि इस पर्याय - समास ज्ञान का प्रथम भेद कौ जीवराशि प्रमाण अनत का भाग दिए, जो परिमाण आवै, तितना उस पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद विषै मिलाए, पर्यायसमास ज्ञान का दूसरा भेद हो है । इहा दूसरा अनत भागवृद्धि भई । वहुरि उस दूसरे भेद को
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४६० )
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२६ अनत, का भाग दीए, जो परिमाण आवै, तितना उस दूसरा भेद विष मिलाएं, पर्यायसमास ज्ञान का तीसरा भेद हो है । इहा तीसरा अनंत भागवृद्धि भई । वहुरि उस तीसरे भेद को अनत का भाग दीए जो परिमाण आया, तितना उस तीसरा भेद विर्षे मिलाए, पर्यायसमास ज्ञान का चौथा भेद हो है । इहा चौथा अनंत भागवृद्धि भई । इसही अनुक्रम ते सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि हुवा थका पर्यायसमास ज्ञान का भेद भया, ताको एक बार असख्यात लोक प्रमाण जो असख्यात, ताका भाग दिएं जो परिमाण आवै, तितना उस ही भेद विषै मिलाएं, एक बार असख्यात भागवृद्धि लीए पयायसमास ज्ञान का भेद हो है। बहुरि याकौ अनंत का भाग दीएं, जो परिमारण आवै, तितना इस ही विषै मिलाए, पर्यायसमास जान का भेद भया । इहा ते बहुरि अनत भागवृद्धि का प्रारम्भ हुवा, सो जैसे ही सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि भए जो पर्यायसमास ज्ञान का भेद भया, ताको फेरि असंख्यात का भाग दीए जो परिमाण आया, ताकौ उस ही भेद विष मिलाएं, दूसरा असंख्यात भागवृद्धि लीए पर्यायसमास ज्ञान का भेद हो है।
। जैसे अनुक्रम ते सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण असंख्यात भागवृद्धि भी पूर्ण होइ । तहा जो पर्यायसमास ज्ञान का भेद भया। ताको बहुरि अनत का भाग दीए, जो परिमाण भया, ताकौ तिस ही मे मिलाए, पर्यायसमास ज्ञान का भेद होइ । तब इहा अनत भागवृद्धि का प्रारम्भ हुवा, सो सूच्यगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण अनत भागवृद्धि पूर्ण होइ, तब जो पर्यायसमास ज्ञान का भेद भया, ताको उत्कृष्ट सख्यात का भाग दीए, जो परिमाण होइ, ताकौ उस ही विष मिलाएं, पहिले सख्यात भागवृद्धि लीए, पर्यायसमास का भेद हो है । यातै प्रागै फेरि अनत भाग-वृद्धि का प्रारम्भ हुवा सो जैसे ही पूर्वं यत्रद्वार करि जो अनुक्रम कह्या है, तिस अनुक्रम के अनुसारि वृद्धि जानि लेनी । इतना जानि लेना; जिस भेद ते आगे अनत भागवृद्धि होइ, तहां तिस ही भेद को जीवराशि प्रमाण अनत का भाग दीए, जो परिणाम आवै तितना तिस ही भेद विषै मिलाएं उस ते अनतरवर्ती भेद होइ । बहुरि जिस भेद ते आगै असंख्यात भागवृद्धि होइ, तहां तिस ही भेद को असंख्यात लोक प्रमाण असख्यात का भाग दीए, जो परिमाण आवै, ताकौ तिस ही भेद विषै मिलाए, उस भेद ते अनंतरवर्ती भेद हो है । बहुरि जिस भेद ते प्रागै असख्यात? भागवृद्धि होइ, तहा तिस ही भेद को उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण संख्यात का भाग दीएं जो परिमाण आवै, तितना तिस ही भेद विर्षे मिलाएं, उस भेद तै आगिला भेद होइ । बहुरि जिस भेद तै आगे
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४६१
संख्यात गुणवृद्धि होइ, तहां तिस भेद कौ उत्कृष्ट संख्यात करि गुणिए, तब उस भेद तै अनंतरवर्ती भेद होइ । बहुरि जिस भेद तै आगे असख्यात गुणवृद्धि होइ, तहा तिस ही भेद को असंख्यात लोक करि गुणिए, तब उस भेद ते अगिला भेद होइ । बहुरि जिस भेद ते आगे अनंत गुणवृद्धि होइ, तहा तिस ही भेद कौ जीवराशि का प्रमाण अनंत करि गुणिए, तब तिस भेद ते अगिला भेद होइ । जैसे षट्स्थानपतित वृद्धि का अनुक्रम जानना ।
इहा जो संख्या कही है, सो सर्व संख्या ज्ञान का अविभाग प्रतिच्छेदनि की जाननी । अरु जो इहां भेद कहे है, तिनका भावार्थ यहु है - जो जीव के कै तौ पर्याय ज्ञान ही होइ और उसतै बधती ज्ञान होइ तौ पर्यायसमास का प्रथम भेद ही होय; असा नाही कि पर्यायज्ञान ते एक, दोय आदि अविभाग प्रतिच्छेद बधता भी किसी जीव के ज्ञान होइ अर उस पर्यायसमास के प्रथम भेद ते बघता ज्ञान होइ तो पर्यायसमास ज्ञान का दूसरा भेद ही होइ । औसे अन्यत्र भी जानना ।
अब इहां अनंत भागवृद्धिरूप सूच्यंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमारण स्थान कहे, तिनिका जघन्य स्थान ते लगाइ, उत्कृष्ट स्थान पर्यत स्थापन का विधान कहिए है ।
ता प्रथम सज्ञा कहिए है - विवक्षित मूलस्थान को विवक्षित भागहार का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, ताकौ प्रक्षेपक कहिए । तिस प्रमाण को तिस ही भागहार का भाग दीए जो प्रमाण आवै, ताकौ प्रक्षेपकप्रक्षेपक कहिए । ताकी भी विवक्षित भागहार का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, ताकौ पिशुलि कहिए । तार्कों भी विवक्षित भागहार का भाग दीए, जो प्रमाण आवै ताको पिशुलिपिशुलि कहिए । ताकी भी विवक्षित भागहार का भाग दिये, जो प्रमाण आवै, ताकौ चूर्णि कहिए | ताकौ भी विवक्षित भागहार का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, ताकौ चूणिचूणि कहिए । से ही पूर्व प्रमाण को विवक्षित भागहार का भाग दीएं द्वितीयादि चूर्णिचूरिंग कहिए ।
अब इहां दृष्टातरूप अंक संदृष्टि करि प्रथम कथन दिखाइए है - विवक्षित जघन्य पर्यायज्ञान का प्रमारण, पैसठि हजार पांच से छत्तीस ( ६५५३६ ) । विवक्षित भागहार अनत का प्रमाण च्यारि ( ४ ), तहा पूर्वोक्त क्रम ते भागहार का भाग दीए, प्रक्षेपक का प्रमाण सोलह हजार तीन सौ चौरासी ( १६३८४ ) । प्रक्षेपक प्रक्षेपक का प्रमाण च्यारि हजार छिनवे (४०६६ ) । पिशुलिका प्रमाण एक हजार चौईस
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४६२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ३२६
(१०२४) । पिशुलिपिशुलि का प्रमाण दोय सै छप्पन (२५६) । चूणि का प्रमाण चौसठि (६४) । चूणिचूणि का प्रमाण सोलह (१६) असे द्वितीयादि चूणिचूणि का प्रमाण च्यारि आदि जानने ।
अब इहा ऊपरि जघन्य ६५५३६ स्थापि, नीचे एक बार प्रक्षेपक १६३८४ स्थापि, जोडै, पर्यायसमास के प्रथम भेद का इक्यासी हजार नवस बीस (८१९२०) प्रमाण हो है।
बहुरि ऊपरि जघन्य (६५५३६) स्थापि, नीचे दोय प्रक्षेपक (१६३८४। १६३८४) एक प्रक्षेपकप्रक्षेपक स्थापि, जोड़े पर्यायसमास के द्वितीय भेद का एक लाख दोय हजार च्यारि सै (१०२४००) प्रमाण हो है ।
बहुरि ऊपरि जघन्य ६५५३६ स्थापि, नीचे तीन प्रक्षेपक (१६३८४११६३८४ १६३८४) तीन प्रक्षेपकप्रक्षेपक एक पिशुलि स्थापि, जोडै, तीसरे भेद का एक लाख अठाईस हजार (१२८०००) प्रमाण हो है ।
____बहुरि ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे नीचे च्यारि प्रक्षेपक, छह प्रक्षेपकप्रक्षेपक, च्यारि पिशुलि, एक पिशुलिपिशुलि स्थापि, जोडे, चौथे भेद का एक लाख साठि हजार (१६००००) प्रमाण हो है।
बहुरि ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे नीचे पाच प्रक्षेपक दश प्रक्षेपकप्रक्षेपक, दश पिशुलि पाच पिशुलिपिशुलि, एक चूर्णि स्थापि, जोडे, पाचवे भेद का दोय लाख (२,०००००) प्रमाण हो है।
वहरि ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे नीचे छह प्रक्षेपक, पंचदश प्रक्षेपक प्रक्षेपक, बीस पिशुलि, पद्रह पिशुलिपिशुलि, छह चूर्णि, एक चूणिचूणि स्थापि, जोडे, छठे स्थान का दोय लाख पचास हजार (२५००००) प्रमाण हो है । जैसे ही क्रम ते सर्व स्थाननि विष ऊपरि तौ जघन्य स्थापन करना । ताके नीचे नीचे जितना गच्छ का प्रमाण तितने प्रक्षेपक स्थापन करने । इहां जेथवा स्थान होइ, तिस स्थान विर्ष तितना गच्छ जानना । जैसै छठा स्थान विष गच्छ का प्रमाण छह होइ । बहुरि तिनके नीचे एक घाटि गच्छ का एक बार सकलन धन का जेता प्रमाण, तितने प्रक्षेपकप्रक्षेपक स्थापने । बहुरि तिनके नीचे दोय घाटि गच्छ का दोय बार संकलन धन का जेता प्रमाण, तितने पिशुलि स्थापन करने । बहुरि तिनके नीचे तीन घाटि
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सम्यज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४६३
गच्छ का तीन बार संकलन धन का जेता प्रमाण, तितने पिशुलिपिशुलि स्थापन करने । बहुरि तिनके नीचे च्यारि घाटि गच्छ का च्यारि बार सकलन धन का जेता प्रमाण, तितने चूरिंग स्थापन करने । बहुरि तिनके नीचें पाच घाटि गच्छ का पांच बार सकलन धन का जेता प्रमाण, तितने चूरिंगचूरिंग स्थापन करने । औसे ही नीचे नीचे छह आदि घाटि गच्छ का छह आदि बार संकलन धन का जेता जेता प्रमाण, तितने तितने द्वितीयादि चूर्णिचूर्णि स्थापन करने । असे स्थापन करि, जोडे, पर्यायसमास ज्ञान के भेद विषै प्रमाण आव है ।
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अब इहां एक बार दोय बार आदि संकलन धन कहे, तिनिका स्वरूप इहां ही आ वर्णन करेंगे । असे अकसदृष्टि करि वर्णन कीया । अब यथार्थ वर्णन करिए है -
पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद विषै पर्यायज्ञान ते जितने बधै तितने जुदे कीएं, पर्यायज्ञान के जेते प्रविभाग प्रतिच्छेद है, तीहि प्रमाण मूल विवक्षित जानना । यहु जघन्य ज्ञान है । ताते इस प्रमाण का नाम जघन्य स्थाप्या । बहुरि इस जघन्य कौ जीवराशि मात्र अनत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, ताका नाम प्रक्षेपक जानना । इस प्रक्षेपक कौ जीवराशि मात्र अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, सो प्रक्षेपक प्रक्षेपक जानना । जैसे ही क्रम ते जीवराशि मात्र अनंत का भाग दीएं, जो जो प्रमाण आवै, सो सो क्रम तें पिशुलि अर पिशुलिपिशुलि र चूरिंग अर चूणिचूरिंग अर द्वितीय चूरिंचूरिंग आदि जानने । सो पर्यायसमास ज्ञान का प्रथम भेद विषे ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे ताकी वृद्धि का एक प्रक्षेपक स्थापना । बहुरि दूसरा भेद विषै ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे नीचे ताकी वृद्धि के दोय प्रक्षेपक, एक प्रक्षेपक प्रक्षेपक स्थापने । बहुरि तीसरा भेद विषै ऊपरि जघन्य स्थापि, नीचे नीचे ताकी वृद्धि के तीन प्रक्षेपक, तीन प्रक्षेपकप्रक्षेपक, एक पिशुलि स्थापने । बहुरि चौथा भेद विषै जघन्य उपरि स्थापि, ताके नीचे नीचे ताके वृद्धि के च्यारि प्रक्षेपक, छह प्रक्षेपकप्रक्षेपक, च्यारि पिशुलि, एक पिशुलिपिशुलि स्थापने । बहुरि पाचवा भेद विषे जघन्य ऊपरि स्थापि, ताके नीचे नीचे पाच प्रक्षेपक, दश प्रक्षेपकप्रक्षेपक, दश पिशुलि, पांच पिशुलिपिशुलि, एक चूरिंग स्थापने । बहुरि छठा भेद विषे ऊपरि जघन्य स्थापि, ताके नीचे नीचे ताकी वृद्धि के छह प्रक्षेपक, पन्द्रह प्रक्षेपक प्रक्षेपक, बीस पिशुलि, पद्रह पिशुलिपिशुलि, छह चूर्णि, एक चूरिंग चूर्णि स्थापने । से ही सूच्यंगुल का असख्यातवां भागमात्र जे अनत भागवृद्धि सयुक्त पर्यायसमास ज्ञान के स्थान, तिनि विषै अपने- अपने जघन्य के नीचे नीचे प्रक्षेपक गच्छमात्र
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४६४ !
| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२६
स्थापने । प्रक्षेपकप्रक्षेपक एक घाटि गच्छ का एक बार संकलन धनमात्र स्थापमे । पिशुलि नोय घाटि गच्छ का, दोय बार सकलन धनमात्र स्थापने । पिशुलिपिशुलि तीन घाटि गच्छ का, तीन बार सकलन धनमात्र स्थापने । चूर्णि च्यारि घाटि गच्छ का च्यारि बार सकलन धनमात्र स्थापने । चूणिचूरिंग पांच घाटि गच्छ का, पाच बार संकलन धनमात्र स्थापने । जैसे ही क्रम ते एक एक घाटि गच्छ का एक एक अधिक बार सकलन मात्र चूरिंगचूरिंग ही अंत पर्यत जानने । तहां अनंत भगं - वृद्धि युक्त स्थाननि विषे अंत का जो स्थान, तीहि विषे जघन्य तौ ऊपरि स्थापना । ताके नीचे नीचे सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण प्रक्षेपक स्थापने । एक घाटि सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग का एक बार सकलन धनमात्र प्रक्षेपक प्रक्षेपक स्थापने । दोय घाटि सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग का दोय बार सकलन धनमात्र पिशुलि स्थापने । तीन घाटि सूच्यंगुल का प्रसंख्यातवां भाग का तीन बार संकलन धनमात्र पिशुलिपिशुलि स्थापने । च्यारि घाटि सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग की, च्यारि बार सकलन धनमात्र चूरिंग स्थापने । पांच घाटि सूच्यंगुल का असंख्यातव भाग का पाच बार संकलन धनमात्र चूरिंगचूरिंग स्थापने । याही प्रकार नीचे नीचे चूणिचूरिंग छह आदि घाटि, सूच्यंगुल का असख्यातवां भाग का छह आदि बार सकलन धनमात्र स्थापने । तहां द्विचरम चूणिचूरिंग दोय का दोय घाटि सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग बार सकलन धनमात्र स्थापन करने । बहुरि अत का चूरिंगचूरिंग एक का एक घाटि सूच्यगुल का असख्यातवां भाग बार संकलन धनमात्र स्थापन करना । परमार्थ ते अत चूणिचूरिंग का सकलन धन नाही है; जाते द्वितीयादि स्थान का अभाव है । याही जायगा ( एक ही जायगा ) अत चूणिचूरिंग का स्थापन करना । जैसे वृद्धि का अनुक्रम जानना । बहुरि इहा षट्स्थान प्रकरण विषे अनत भागवृद्धि युक्त स्थाननि के कहे जे भेद, तिनि विषै सर्वत्र प्रक्षेपक तो गच्छमात्र है, जेथवा भेद होइ तितने तहा प्रक्षेपक स्थापने; ताते सुगम है ।
वहुरि प्रक्षेपक प्रक्षेपक आदिकनि का प्रमाण एक बार, दोय बार आदि संकलन धन का विधान जाने बिना जान्या न जाय, ताते सो सकलन धन का विधान कहिए है
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जितने का सकलन धन कह्या होय, तितनी जायगा जैसे अक स्थापि, जोडने । जैसे छठा स्थान विषै दोय घाटि गच्छ का संकलन धन कह्या, तहां च्यारि जायगा या प्रकार अक स्थापि, जोडने । कैसे अक स्थापि जोडिये ? सो कहिये है - जितने का
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
| ४६५ करना होय, तितनी जायगा एक आदि एक एक बधता अंक माडि, जोडै, एक बार संकलन धन हो है। बहुरि एक बार संकलन धन विधान विषै जो पहिले अंक लिख्या था, सोई इहां दोय बार संकलन विर्ष पहिले लिखिए। अर उहा एक बार सकलन का दूसरा स्थान विषै जो अक था, ताको याका पहिला स्थान विष जोडै, जो प्रमाण होइ, सो दूसरा स्थान विषै लिखिये। अर उहां तीसरा स्थान विषै जो अंक था. ताकौं याका दूसरा स्थान विषै जोडे; जो होइ, सो तीसरा स्थान विष लिखिये । असें क्रमते लिखि, जोडै, दोय बार सकलन धन हो है । बहुरि इस दोय बार सकलन धन विष जो पहिले अक लिख्या, सोई इहां लिखिये । पर इस प्रथम स्थान में दोय बार सकलन का दूसरा स्थान का अक जोडै, दूसरा स्थान होइ । यामै वाका तीसरे स्थान का अक जोडे, याका तीसरा स्थान होइ । अस क्रम ते जितने का करना होइ, तितना जायगा लिखि जोडे । तीन बार सकलन धन होइ । याही प्रकार च्यारि बार आदि संकलन धनका विधान जानना ।
इहां उदाहरण कहिये है। जैसे पर्यायसमास का छठा भेद विष पांच का एक बार संकलन (धन) करना । तहा पाच जायगा क्रम ते एक, दोय, तीन, च्यारि, पांच का अक मांडि, जोडै, पद्रह होइ। सो इतने प्रक्षेपकप्रक्षेपक जानना । बहुरि च्यारि का दोय बार सकलन (धन) करना । तहां च्यारि जायगा क्रम ते एक, तीन, छह, दश माडि जो वीस होइ, सो इतने इतने पिशुलि जानने । बहुरि तीन का तीन बार संकलन (धन) करना तहां तीन जायगा क्रम ते एक, च्यारि, दश माडि जोडे, पंद्रह होइ; सो इतने पिशुलिपिशुलि जानने । बहुरि दोय का च्यारि वार सकलन करना। तहां दोय जायगा एक, पांच, माडि जोडै, छह होइ । सो इतने चूर्णि जानने । बहुरि एक का पाच जायगा सकलन (धन) करना तहा एक जायगा एक ही है, तातै ये चूणिचूणि एक ही जानना। जैसे ही अन्यत्र भी जानना । अव जैसे ये अंक माडि जोडे, एक बार सकलनादि विपै जो प्रमाण होड, ताके ल्यावने कौ करणसूत्र कहिये है।
व्येकपदोत्तरघातः सरूपवारोघृतो मुखेन युतः ।
रूपाधिकवारांताप्तपदाचंहतो वित्तं ॥१॥ जितने का संकलन धन करना होड, तिस प्रमाण इहा गच्छ जानना । तामै एक घटाइ, अवशेष को उत्तर जो क्रम ते जितनी जितनी वार वधता संकलन कह्या
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૪૬૬ }
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२६
होइ, ताकरि गुरिए, जो प्रमाण होइ, ताकौ जितनी बार संकलन कह्या, तामै एक जोडि, जो प्रमाण होइ, ताका भाग दीजिए, जो लब्ध होइ, तामै मुख जो पहिला स्थान का प्रमाण सो जोड़िए; जो प्रमाण होइ, ताकी जितनी बार सकलन कह्या होइ, तितनी जायगा गच्छ ते लगाइ, एक एक बघता अक माडि, परस्पर गुणै, जो प्रमाण होइ, सो तौ भाज्य । अर एक तें लगाइ एक एक बघता अंक मांडि, परस्पर गुणे, जो प्रमाण होइ, सो भागहार । तहां भाज्य कौ भागहार का भाग दीएं, जो लब्धराशि होइ, ताकरि गुणिए, जैसे करते समस्त विवक्षित बार सकलन धन आवे है ।
इहां उदाहरण कहिए है - जैसे छठा पर्याय समास का भेद विषे च्यारि घाटि गच्छ का जो दोय, ताका च्यारि बार सकलन धनमात्र चूरिंग कहिए । सो इहां गच्छ दोय, तामै एक घटाएं, एक याकौ एक बारादि सकलन धन रचना अपेक्षा दोय वार आदि संकलन की रचना उपजै है । सो एक एक बार बघता संकलन भया, तातै उत्तर का प्रमारण एक, ताकरि गुणै भी एक ही भया । याको इहां च्यारि बार संकलन कह्या, सो च्यारि में एक मिलाए, पाच भया, तिनिका भाग दीए एक का पांचवां भाग भया । यामै मुख जो आदिका प्रमाण एक सो समच्छेद करि मिलाएं, छह का पांचवां भाग भया । बहुरि इहां च्यारि बार कह्या है । सो तामै एक आदि एक एक बधता, च्यारि पर्यंत अंक मांडि ( १ |२| ३|४) परस्पर गुरौं, चौबीस (२४) भये; सो भागहार, अर गच्छ दोय का प्रमाण तै लगाइ एक एक बधता कमांड, (२|३|४|५) परस्पर गुणं एक सौ बीस ( १२० ) भाज्य, सो भाज्य की भागहार का भाग दीये, लब्धिराशि पांच, ताकरि पूर्वोक्त छह का पांचवां भाग को गुण छह भये । सोई दोय का च्यारि बार सकलन धन जानना । जैसे ही तीन का तीन बार संकलन धन पीछे गच्छ तीन, एक घटाये दोय उत्तर, एक करि गुण भी दोय, इहा तीन बार सकलन है । ताते एक अधिक बार प्रमाण च्यारि, ताका भाग दीये प्राधा, यामैं मुख एक जोडे ड्योढ भया । बहुरि एक आदि बार प्रमाण पर्यंत एक एक अधिक अक (१।२।३) परस्पर गुणै, भागहार छह अर गच्छ आदि एक एक अधिक अक ( ३।४।५) परस्पर गुण, भाज्य साठि भाज्य कौ भागहार का भाग दीए, पाये दश, इनिकरि पूर्वोक्त ड्योढ को गुणै, छठा भेद विषै तीन घाटि गच्छ का तीन बार संकलन धनमात्र पिशुलिपिशुलि पद्रह हो है । असे सर्वत्र विवक्षित सकलन धन त्यावने ।
बहुरि संस्कृत टीकाकार केशववर्णी अपने अभिप्राय करि तिनि प्रक्षेपक प्रक्षेपकादिक का प्रमाण ल्यावने निमित्त दोय गाथारूप कररण सूत्र कहे है -
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषा टीका ]
तिरियपदे रुऊणे, तदिट्ठहेट्ठिल्ल संकलरणवारा । कोट्टधरणसारयणे, पभवं इट्ठू उड्ढपदसंखा ॥१॥
[ ४६७
अनंत भागवृद्धि युक्त स्थाननि विषै जेथवां स्थान विवक्षित होइ, तीहि प्रमाण तिर्यग् गच्छ कहिये । तामै एक घटाए, ताके नीचे सकलन बार का प्रमाण हो है ।
इहां उदाहरण - जैसें छठा स्थान विषं गच्छ का प्रमाण छह में एक घटाएं, ताके नीचे पांच संकलन बार हो है । प्रक्षेपक सम्बन्धी कोठा के नीचे एक बार, दोय बार, तीन, च्यारि बार, पांच बार, संकलन, प्रक्षेपकप्रक्षेपक आदि के एक एक कोठानि विषै संभव है; जैसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि विवक्षित कोठानि का सकलन घन ल्यावने के प्रथि जेथवां भेद होइ, तीहि प्रमाण जो ऊर्ध्व गच्छ, तीहि विषै जेती वार विवक्षित संकलन होइ, तितना घटायें, अवशेष मात्र प्रभव कहिये आदि
जानना ।
तत्तोरुवहियकमे, गुणगारा होंति उड्ढगच्छो त्ति । इगिरुवमादिरूवोत्तरहारा होंत्ति पभवो त्ति ॥२॥
अर्थ - तिस आदि तै लगाइ, एक-एक बधता ऊर्ध्वगच्छ का प्रमाण पर्यत, अनुक्रम करि विवक्षित के गुरणकार होंहि । बहुरि तिनिके नीचे एक ते लगाइ, एक एक बधता, उलटा क्रम करि प्रभव जो आदि, ताका भी नीचा पर्यंत तिनिके भागहार होंहि । गुणकारनि को परस्पर गुरौं, जो प्रमाण होइ, ताकौ भागहारनि को परस्पर गुणै, जो प्रमाण होइ, ताका भाग दीए, जेता प्रमाण आवै, तितने तहा प्रक्षेपक - प्रक्षेपक आदि संबंधी कोठा विषे वृद्धि का प्रमाण आव है ।
इहां उदाहरण कहिए है - अनंत भागवृद्धि युक्त स्थान विषै विवक्षित छठा स्थान विषै एक घाटि तिर्यग्गच्छ प्रमाण एक बार आदि पाच संकलन स्थान है । तिनि विषे च्यारि बार संकलन ? संबंधी कोठानि विषै प्रमाण ल्याइए है । विवक्षित संकलन बार च्यारि तिनिका इहां छठा भेद विवक्षित है । तातै ऊर्ध्वगच्छ छह, ता घटाएं, अवशेष दोय रहे; सो आदि जानना । इस आदि दोय तै लगाइ, एक एक अधिक ऊर्ध्वगच्छ छह पर्यंत तो क्रम करि गुणकार होइ । र तिनके नीचे उलटे क्रम करि श्रादि पर्यंत एक आदि एक एक अधिक भागहार होइ; सो इहा च्यारि वार
१ ध प्रति मे सकलन सकलन शब्द है ।
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४८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२६ सकलन का कोठा विर्ष चूणि है । चूणि का प्रमाण जघन्य का पांच वार अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, सो तितना है । तिस प्रमाण के दोय, तीन, च्यारि, पांच, छह तौ क्रम ते गुणकार होइ; अर पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक भागहार होइ । तहा गुणकारनि करि चूर्णि को गुणे भागहारनि का भाग दीए, यथायोग्य अपवर्तन कीए, छह गुणां, चूर्णिमात्र तिस कोठा विषै प्रमाण आवै है।।
__भावार्थ - असा जो दोय, तीन, च्यारि, पांच का गुणकार अर भागहार का तौ अपवर्तन भया । छह को एक का भागहार रह्या, तातै छह गुणां चूर्णिमात्र तहा प्रमाण है । बहुरि जैसे ही अनंत भागवृद्धि युक्त अत भेद विर्षे यह स्थान सूच्यगुल का असख्यातवां भाग का जो प्रमाण तेथवां है । तातै तिर्यग्गच्छ सूच्यगुल का असंख्यातवा भागमात्र है । तामै एक घटाए, अवशेष एक वार आदि संकलन के वार है । तिनिविष विवक्षित च्यारि बार सकलन का कोठा विष प्रमाण ल्याइए है । विवक्षित संकलन बार च्यारि, ऊर्ध्वगच्छ सूच्यगुल का असख्यातवां भाग मात्र मै स्यो घटाए, अवशेष मात्र आदि है । यातै एक एक बधता क्रम करि ऊर्ध्वगच्छ सूच्यंगुल का असख्यातवा भाग पर्यत तौ गुणकार होइ । अर उलटे क्रम करि एक आदि एक एक बधता पाच पर्यंत भागहार होइ, सो च्यारि बार संकलन का कोठा विर्षे चूरिण है । तातै चूणि को तिनि गुणकारनि करि गुणे भागहारनि का भाग दीए, लब्धमात्र तिस कोठा विष वृद्धि का प्रमाण है । इहां गुणकार भागहार समान नाही; तातै अपवर्तन होइ सकता नाही । इहा लब्धराशि का प्रमाण अवधिज्ञान गोचर जानना । बहुरि तिसही अनत भागवृद्धि युक्त अंत का भेद विषै विवक्षित द्विचरम चूणिचूर्णि का दोय घाटि, सूच्यंगुल का असख्यातवा भाग मात्र बार सकलन घन का प्रमाण ल्याइए है । इहा भी तिर्यग्गच्छ सूच्यगुल का असख्यातवा भाग मात्र है । तामै एक घटाएं, एक बार आदि सकलन के बार हो है। तहां विवक्षित सकलन बार दोय घाटि, सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागमात्र, सो ऊर्ध्वगच्छ सूच्यगुल का असख्यातवा भागमात्र मै घटाए, अवशेष दोय रहे, सो आदि जानना । इसतै लगाइ एक एक वधता ऊर्ध्वगच्छ पर्यंत गुणकार अनुक्रम करि हो है । पर एक आदि एक एक वधता अपने इष्ट बार का प्रमाण ते एक अधिक पर्यत उलटे क्रम करि भागहार हो है । इहां दोय आदि एक घाटि सूच्यगुल का असख्यातवा भाग पर्यत अक गुणकार वा भागहार विष समान है । तातै तिनिका अपवर्तन कीया । अवशेष सूच्यगुल का असख्यातवां भाग का गुणकार रह्या । एक का भागहार रह्या । इहां इस कोठा
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका 1
[ ४६ विष द्विचरम चूणिचूरिण है; ताका प्रमाण जघन्य को सूच्यगुल का असंख्यातवा भागमात्र बार भाग दीएं; जो प्रमाण आवै, तितना जानना। याको पूर्वोक्त गुणकार करि गुरणे एक का भाग दीएं, तिस कोठा संबधी प्रमाण प्राव है। बहुरि जैसे ही अंत का चूणिचूणि विर्ष सकलन है ही नाही; जाते अंत का चूणिचूणि एक ही है । सो जघन्य कौं सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागमात्र बार अनत का भाग दीएं अंत चूणिचूणि का प्रमाण हो है । ताको एक करि गुण भी तितना ही तिस कोठा विष वृद्धि का प्रमाण जानना । असै सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागमात्र अनतभाग वृद्धि युक्त स्थान होइ; तब एक असंख्यात भागवृद्धि युक्त स्थान हो है । इहां ऊर्वक जो अनंत भागवृद्धि युक्त अत स्थान, ताकौं चतुरंक जो असख्यात का भाग दीये, जो एक भाग का प्रमाण आवै, तितना तिस ही पूर्वस्थान विर्षे जोड्या, सो इहा जघन्य ज्ञान साधिक कहिये; किछु अधिक भया । अकसंदृष्टि का दृष्टात विष स्तोक प्रमाण है । तातें जघन्य तौ गुणकार भया । यथार्थ विषै महत् प्रमाण है, ताते असे वृद्धि होते भी साधिकपना ही भया है । अब जैसे जघन्य ज्ञान को मूल स्थापि, जैसे अनतभागवृद्धिस्थान प्रक्षेपकादि विशेष लीये कहे थे; तैसे इहातै आगे इस साधिक जघन्य को मूल स्थापि, अनंत भाग वृद्धि युक्त स्थान सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग मात्र जानने । जैसे ही पूर्वोक्त यन्त्र द्वार करि जैसे अनुक्रम दिखाया, तैसे अनंत गुणवृद्धि पर्यत क्रम जानना । तहां भाग वृद्धि विष प्रक्षेपकादिक वृद्धि का विशेष जानना; सो जिस स्थान ते आगे भागवृद्धि होइ; ताको मूल स्थापन करना । ताकौ एक वार जिस प्रमाण की भागवृद्धि होइ, ताका एक वार भाग दीए, प्रक्षेपक हो है । दोय वार भाग दिये प्रक्षेपकप्रक्षेपक हो है । तीन वार आदि भाग दीये, पिशुलि आदिक हो है, असा विधान जानना । असे सर्वत्र षट्स्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम जानना ।
आदिमछठाणह्मि य, पंच य बड्ढी हवंति सेसेसु । छन्वढ्डीओ होंति हु, सरिसा सव्वत्थ पदसंखा ॥३२७॥
प्रादिमषट्स्थाने च, पंच च वृद्धयो भवंति शेषेषु ।
षड्वृद्धयो भवंति हि, सहशा सर्वत्र पदसंख्या ॥३२७॥ टीका - इस पर्यायसमास ज्ञान विषै असंख्यात लोक मात्र वार पट्स्थान संभव है । तिनिविर्ष पहिली वार तो पांच स्थान पतितवृद्धि हो है । जाते जो पीछे हो पीछे अनंतगुण वृद्धिरूप भेद भया, ताकी दूसरी वार पट्स्थानपतित वृद्धि का
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[ गोग्गटसार जीवकाण्ड गाया ३२८ ४७० ] आदि स्थान कहा है । बहुरि जैसे पहिले षट्स्थानपतित वृद्धि का क्रम कह्या, ताको पूर्ण करि दूसरा तैसे ही फेरि षट्स्थानपतित वृद्धि होइ जैसे ही तीसरा होइ । इत्यादि असख्यात लोक वार षट्स्थान हो है । तिनिविर्षे छही वृद्धि पाइये है । अनंत गुणवृद्धि रूप तौ पहिला ही स्थान होइ । पीछे क्रमते पाच वृद्धि, अंत की अनंत भागवृद्धि पर्यत होइ । बहुरि जो अनंत भागादिक सर्व वृद्धि कही, तिन सवनि का स्थान प्रमाण सदृश सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग मात्र जानना । तातें जो वृद्धि हो है; सो अगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण वार हो है ।
छट्ठाणाणं आदी, अट्ठक होहि चरिममुव्वंकं । जम्हा जहण्णरणाणं, अट्ठकं होदि जिणदिळें ॥३२८॥
षट्स्थानानामादिरष्टांकं भवति चरभमुर्वकम् ।
यस्माज्जघन्यज्ञानमष्टांकं भवति जिनह (दि)ष्टं ॥३२८॥ टोका - षट्स्थानपतित वृद्धिरूप स्थाननि विर्ष अष्टांक कहिये; अनंतगुणवृद्धि सो आदि है । बहुरि उर्वकं कहिये अनंत भागवृद्धि; सो अतस्थान है ।
भावार्थ - पूर्वं जो यंत्रद्वार करि वृद्धि का विधान कहा, सो सर्व विधान होइ निवरै, तब एक बार षट्स्थानपतित वृद्धि भई कहिए । विशेष इतना जो नवमी पकतिका का नवमा कोठा विषै दोय उकार पर एक आठ का अंक लिख्या है। सो ताका अर्थ यहु जो सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण अनत भाग वृद्धि होइ करि एक वार अनतगुण वृद्धि हो है । सो यहु अनतगुण वृद्धि रूप जो भेद सो नवीन पट्स्थानपतित वृद्धि का आरम्भ कीया । ताका ग्रादि का स्थान जानना। इसतै लगाइ प्रथम कोठादिक सबधी जो रचना कही थी, तीहि अनुक्रमतै षट्स्थानपतित वृद्धि हो है । तहां उस ही नवमी पकति का नवमां कोठा विषै आठ का अंक के पहिली जो उकार लिखा था, ताका अर्थ यहु जो सूच्यगुल का असख्यातवां भाग मात्र वार अनंत भागवृद्धि भई, तिनिविषे अंत की अनत भागवृद्धि लीए, जो स्थान सोई, इस षट्स्थानपतित वृद्धि का अंत स्थान जानना । याहीतै षट्स्थान पतित वृद्धि का आदि स्थान अष्टांक कह्या अर अतस्थानक उर्वक कह्या है । बहुरि पहिली वार अनतगुण वृद्धि बिना पच वृद्धि कही, पर पीछे छहौ वृद्धि कही है।
यहां प्रश्न - जो पहिली बार आदि स्थान जघन्य ज्ञान है । ताकी अष्टांक रूप अनंत गुणवृद्धि संभव भी है कि नाही?
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४७५ अर भागहार का अपवर्तन कीया । गुणकार तीन तीन परस्पर गुणे, नव का गुणकार भया । च्यारि, दोय, च्यारि, एक भागहारनि कौं परस्पर गुणे, बत्तीस का भागहार भया । जातै दोय, तीन, आदि राशि गुणकार भागहार विषे होय । तहा परस्पर गुणे, जेता प्रमाण होइ, तितना गुणकार वा भागहार तहा जानना । जैसे ही अन्यत्र भी समझना । बहुरि यामै एक गुणकार साधिक जघन्य का बत्तीसवा भागमात्र है। ताको जुदा स्थापि, अवशेष साधिक जघन्य को आठ का गुणकार, बत्तीस का भागहार रह्या, ताका अपवर्तन कीए, साधिक जघन्य का चौथा भाग भया । बहुरि प्रक्षेपक गच्छ प्रमाण है; सो साधिक जघन्य को एक बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीएं प्रक्षेपक होइ । ताकौं उत्कृष्ट संख्यात का तीन चौथा भाग करि गुणना, तहा उत्कृष्ट संख्यात गुणकार भागहार का अपवर्तन कीए, साधिक जघन्य का तीन चौथा भागमात्र प्रमाण भया। यामै पूर्वोक्त एक चौथा भाग जोडे, साधिक जघन्य मात्र वृद्धि का प्रमाण भया । यामै मूल साधिक जघन्य जोडै, लब्ध्यक्षर दूरणा हो है । इहा प्रक्षेपक - प्रक्षेपक संबंधी ऋणराशि धनराशि ते संख्यात गुणा घाटि है । तातै साधिक जघन्य का बत्तीसवा भागमात्र धनराशिविष ऋणराशि घटावने को किचित् ऊन करि अवशेष पूर्वोक्त विष जोडे, साधिक दूणा हो है । बहुरि 'एक्कदालछप्पण्ण' कहिये, पूर्वोक्त संख्यात भागवृद्धि सयुक्त उत्कृष्ट सख्यात मात्र स्थाननि को छप्पन का भाग देइ, तिनि विष इकतालीस भागमात्र स्थान भये । तहां प्रक्षेपक अर प्रक्षेपक - प्रक्षेपक संबधी वृद्धि जोडे, लब्ध्यक्षर दूणा हो है । कैसे ?
सो कहिये है - साधिक जघन्य को उत्कृष्ट सख्यात का भाग दीएं, प्रक्षेपक होइ, सो प्रक्षेपक गच्छमात्र है । तात याको उत्कृष्ट सख्यात इकतालीस छप्पनवां भाग करि गुणे, उत्कृष्ट सख्यात का अपवर्तन कीए, साधिक जघन्य की इकतालीस का गुणकार छप्पन भागहार हो है। बहुरि प्रक्षेपक - प्रक्षेपक एक घाटि गच्छ का एक बार सकलन घनमात्र है। सो पूर्वोक्त सूत्र के अनुसारि साधिक जघन्य को दोय बार उत्कृष्ट सख्यात का भाग दीएं प्रक्षेपक प्रक्षेपक होड । ताकी एक घाटि इकतालीस गुणां उत्कृष्ट संख्यात अर इकतालीस गुणा उत्कृप्ट सस्यात का गुणकार अर छप्पन, दोय छप्पन, एक का भागहार भया । इहां एक घाटि संबन्धी ऋण साधिक जघन्य को इकतालीस का गुणकार अर उत्कृष्ट संख्यात एक मो वारा छप्पन का भागहार मात्र जुदा स्थापि, अवशेष विप दोय वार उत्कृष्ट मंच्यात का अपवर्तन कीएं, साधिक जघन्य की सोला सै ऽक्याती का गुणाकार पर
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४७६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३३१ एक सौ बारा गुणा छप्पन का भागहार हो है । इहां गुणकार विष इकतालीस इकतालीस परस्पर गुणे, सोलह सै इक्यासी भये है । बहुरि भागहार विपै छप्पन को दोय करि गुणे, एक सौ बारह भये । अगले छप्पन को एक करि गुणे, छप्पन भये जानने । बहुरि इहां गुणाकार मे एक जुदा स्थापिये, ताका साधिक जघन्य को एक सौ बारह गुणा छप्पन का भागहार मात्र घन जानना । अवशेष साधिक जघन्य को सोलह सै अस्सी का गुणकार एक सौ बारा गुणा छप्पन का भागहार रह्या । तहां एक सौ बारह करि अपवर्तन कीये साधिक जघन्य को पंद्रह का गुणकार छप्पन का भागहार भया । यामै प्रक्षेपक संबंधी प्रमाण जघन्य को इकतालीस का गुणकार अर छप्पन का भागहार मात्र मिलाएं अपवर्तन कीए, साधिक जघन्य मात्र वृद्धि का प्रमाण भया । यामै मूल साधिक जघन्य जोडै, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणा हो है । इहां प्रक्षेपक - प्रक्षेपक सबंधी पूर्वोक्त घन ते ऋण संख्यात गुणा घाटि है । तातै किचित् ऊन कीया, जो घन राशि, ताको अधिक कीए साधिक दूणा हो है । बहुरि 'सत्त दशमं च भाग' वा कहिए अथवा सख्यात (भाग) वृद्धि संयुक्त उत्कृष्ट सख्यात मात्र स्थानकनि की दश का भाग दीजिये । तहां सात भाग मात्र स्थान भए। तहां प्रक्षेपक पर प्रक्षेपक - प्रक्षेपक अर पिशुलि नामा तीन वृद्धि जोडे, साधिक जघन्य ज्ञान दूणा हो है । कसै?
सो कहिए है - साधिक जघन्य को एक बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीये प्रक्षेपक हो है । सो गच्छ मात्र है । ताते याको उत्कृष्ट संख्यात का सात दशवां भाग करि गुणै, उत्कृष्ट सख्यात का भाग दीएं, साधिक जघन्य को सात का गुणकार अर दश का भागहार हो है । बहुरि प्रक्षेपक - प्रक्षेपक एक घाटि गच्छ का एक बार सकलन घनमात्र हो है । सो साधिक जघन्य को दोय बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीएं, प्रक्षेपक - प्रक्षेपक होइ, ताको पूर्व सूत्र के अनुसारि एक घाटि सात गुणा उत्कृष्ट सख्यात का अर सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात का तौ गुणकार अर दश दोय अर दश एक का भागहार भया । बहुरि पिशुलि दोय घाटि गच्छ का अर दोय बार संकलन घनमात्र हो है । सो साधिक जघन्य को तीन बार उत्कृष्ट संख्यात का भाग दीए पिशुलि हो है । ताको पूर्व सूत्र के अनुसारि दोय घाटि सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात पर एक घाटि सात गुणा उत्कृष्ट संख्यात सातगुणा उत्कृष्ट सख्यात का तो गुणकार अर दश तीन, दश दोय, दश एक का भागहार भया । इनि विष पिशुलि का गुणकार विपै दोय घटाया था, तीहि सबधी प्रथम ऋण का प्रमाण साधिक
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका )
[ ४७७ जघन्य को दोय का अर एक घाटि सात गुणा उत्कृष्ट सख्यात का अर सात गुणा उत्कृष्ट सख्यात का गुणकार बहुरि दोय बार१ उत्कृष्ट सख्यात का अर छह का अर तीन बार दश का भागहार कीएं हो है । ताकी जुदा स्थापि, अवशेष का अपवर्तन कीएं, साधिक जघन्य को एक घाटि सात गुणा उत्कृष्ट सख्यात का अर गुणचास का तौ गुणकार भया । बहुरि उत्कृष्ट संख्यात छह हजार का भागहार हो है। इहां गुणकार विष एक घाटि है; तीहि संबधी द्वितीय ऋण का प्रमाण साधिक जघन्य को गुणचास का गुणकार बहुरि उत्कृष्ट सख्यात पर छह हजार का भागहार कीएं हो है । ताको जुदा स्थापि, अवशेष का अपवर्तन कीए, साधिक जघन्य को तीन सैं तियालीस का गुणकार अर छह हजार का भागहार हो है । इहा गुणकार मैं तेरह घटाइ, जुदा स्थापिए। तहां साधिक जघन्य को तेरह का गुणकार पर छह हजार का भागहार जानना । अवशेष साधिक जघन्य को तीन सै तीस का गुणकार अर छह हजार का भागहार रह्या । तहां तीस करि अपवर्तन कीएं साधिक जघन्य को ग्यारह का गुणकार, दश गुणा बीस का भागहार भया; सो एक जायगा स्थापिए । बहुरि इहां तेरह गुणकार मैं स्यो काढि जुदे स्थापि थे, तीहिं संबधी प्रमाण ते प्रथम, द्वितीय ऋण संबधी प्रमाण संख्यातगुणा घाटि है । तात किंचित् ऊन करि साधिक जघन्य किंचिदून तेरह गुणा को छह हजार का भाग दीए, इतना घन अवशेष रह्या, सो जुदा स्थापिए । बहुरि प्रक्षेपक - प्रक्षेपक संबधी गुणकार विष एक घटाया था, तिहि सबधी ऋण का प्रमाण साधिक जघन्य कौं सात का गुणकार, बहुरि उत्कृष्ट सख्यात अर दोय से का भागहार कीए हो है । ताकी जुदा स्थापि, अवशेष पूर्वोक्त प्रमाण साधिक जघन्य को उत्कृष्ट संख्यात का गुणकार अर दोय बार सात का गुणकार, अर उत्कृष्ट सख्यात दश दोय दश एक का भागहार, ताका अपवर्तन वा परस्पर गुणन कीए, साधिक जघन्य को गुणचास का गुणकार दोय सै का भागहार भया । यामै पूर्वोक्त पिशुलि संबंधी ग्यारह गुणकार मिलाए, साधिक जघन्य को साठि का गुणकार दोय सै का भागहार भया । इहां बीस करि अपवर्तन कीए, साधिक जघन्य को तीन का गुणकार, दश का भागहार भया। यामै प्रक्षेपक सबंधी प्रमाण साधिक जघन्य को सात का गुणकार, दश का भागहार जोडे, दश करि अपवर्तन कीए, वृद्धि का प्रमाण साधिक जघन्य हो है । यामै मूल साधिक जघन्य जोडे, लब्ध्यक्षर दूणा हो है । बहुरि पूर्व पिशुलि संबंधी ऋण रहित घन विष किंचिदून तेरह
१.ब, ग प्रति मे 'तीनवार' मिलता है।
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४७८ ]
| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३३२
का गुणकार था, तिस विषै प्रक्षेपक प्रक्षेपक संबंधी ऋण संख्यात गुणा घाटि है । ताकौ घटावने के अर्थ बहुरि किचित् ऊन कीएं, जो साधिक जघन्य कौं दोय बार किचिदून तेरह का गुणकार अर छह हजार का भागहार भया । सो इतना प्रमाण पूर्वोक्त दूणां लब्ध्यक्षर विषै जोडें, साधिक दूरगा हो है । औसे प्रथम तो संख्यात भा
''
वृद्धि युक्त जे स्थान, तिनि विषै उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थाननि का सात दशवां भाग प्रमाण स्थान पशुलि वृद्धि पर्यंत भए लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा हो है । बहुरि तिसही का इकतालीस छप्पनवां भाग प्रमाण स्थान प्रक्षेपक - प्रक्षेपक वृद्धि पर्यंत भएं, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा हो है । बहुरि आगे भी संख्यात ( भाग) वृद्धि का पहिला स्थान तें लगाइ उत्कृष्ट सख्यात मात्र स्थाननि का तीन चौथा भाग मात्र स्थान प्रक्षेपक - प्रक्षेपक वृद्धि पर्यत भएं, लब्ध्याक्षर ज्ञान दूर्गा हो है । बहुरि तैसें ही संख्यात वृद्धि का पहिला स्थान तै लगाइ, उत्कृष्ट संख्यातमात्र स्थान प्रक्षेपक वृद्धिपर्यंत भएं, लब्ध्यक्षरज्ञान दूरगा हो है ।
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प्रश्न
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जो साधिक जघन्य ज्ञान दूरगा भया सो साधिक जघन्य ज्ञान ती पर्यायसमास ज्ञान का मध्य भेद है, इहां लब्ध्यक्षर ज्ञान दूरगा कैसे कह्या है ?
ताकां समाधान - जो उपचार करि पर्यायसमास ज्ञान के भेद को भी लब्ध्यक्षर कहिए । जाते मुख्यपने लब्ध्यक्षर है नाम जाका, जैसा जो पर्याय ज्ञान, ताका समीपवर्ती है ।
भावार्थ - इहां ग्रैसा जो लब्ध्यक्षर नाम ते इहां पर्यायसमास का यथासभव मध्यभेद का ग्रहण करना । बहुरि चकार करि गत्वा कहिए असे स्थान प्रति प्राप्त होड, लब्ध्यक्षर ज्ञान दूणा हो है, सा अर्थ जानना ।
एवं असंखलोगा, अरणक्खरप्पे हवंति छट्ठारणा ।
ते पज्जायस मासा, श्रक्खरगं उवरि बोच्छामि ॥ ३३२ ॥ १
एवमसंख्यलोकाः, अनक्षरात्मके भवंति षट्स्थानानि । ते पर्यायसमासा अक्षरगमुपरि वक्ष्यामि ॥३३२॥
१६, पृ २२ की टीका ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ४७६ टीका - याप्रकार अनक्षरात्मक जो पर्यायसमास ज्ञान के भेद, तिनि विष षट्स्थान (पतित)वृद्धि असंख्यातलोकमात्र बिरियां हो है । सो ही कहिए है - जो एक अधिक सूच्यंगुल का असंख्यातवाँ भाग का वर्ग करि तिस ही के धन को गुणें, जो प्रमाण होइ, तितने भेदनि विर्ष एक बार षट्स्थान होइ, तौ असख्यात लोक प्रमाण पर्यायसमास ज्ञान के भेदनि विष केती बार षट्स्थान होइ; जैसै त्रैराशिक करना । तहां प्रमाणराशि एक अधिक सूच्यंगुल के असंख्यातवां भाग का वर्ग करि गुणित, ताहीका घनप्रमाण अर फलराशि एक, इच्छाराशि असख्यात लोक पर्यायसमास के स्थानमात्र, तहां फल करि इच्छा को गुणि, प्रमाण का भाग दीएं, जेता लब्धराशि का प्रमाण आवै, तितनी बार सर्व भेदनि विष षट्स्थान पतित वृद्धि हो है । सो भी असंख्यात लोक मात्र हो है । जाते असंख्यात के भेद घने है । ताते हीनाधिक होते भी असंख्यात लोक ही कहिए । याप्रकार असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान वृद्धि करि वर्धमान जघन्य ज्ञान ते अनंत भागवृद्धि लीएं प्रथम स्थान तै लगाइ, अंत का षट्स्थान विष अंत का अनंत भागवृद्धि लीएं, स्थान पर्यत जेते ज्ञान के भेद, ते ते सर्व पर्यायसमास ज्ञान के भेद जानने ।
अब इहांते प्रागै अक्षरात्मक श्रुतज्ञान को कहै है - चरिमुव्वंकणवहिदअत्थक्खरगुरिणदचरिममुन्वंकं । अत्थक्खरं तु गाणं, होदि त्ति जिणेहि णिद्दिळं ॥३३३॥
चरमोर्वकेरणावहितार्थाक्षरगुरिणतचरमोर्वकम् ।
अर्थाक्षरं तु ज्ञानं भवतीति जिननिर्दिष्टम् ॥३३३॥ टीका - पर्याय समास ज्ञान विर्षे असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान कहे । तिनिविषे वृद्धि को कारण सख्यात, असख्यात, अनत ते अवस्थित है, नियमरूप प्रमाण धरै है। संख्यात का प्रमाण उत्कृष्ट सख्यात मात्र, असंख्यात का असंख्यात लोक मात्र, अनंत का प्रमाण जीवराशि मात्र जानना । बहुरि अंत का षट्स्थान विष अंत का उर्वक जो अनंतभागवृद्धि, ताकौ लीएं पर्याय समास ज्ञान का सर्वोत्कृप्ट भेद, तातै आगै अष्टांक कहिए, अनत गुणवृद्धि संयुक्त जो ज्ञान का स्थान, सो अक्षर श्रुतज्ञान है । पूर्व अष्टांक का प्रमाण नियमरूप जीवराशि मात्र गुणा था, इहां अष्टांक का
१. षट्खडागम - घवला पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की दीका ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३३३
४८० ]
प्रमाण, सो न जानना, अन्य जानना । सोई कहिए है - असख्यात लोक मात्र षट्स्थान नि विषै जो अंत का षट्स्थान, ताका अंत का ऊर्वक वृद्धि लीएं जो सर्वोत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान ताकौ एक बार अष्टांक करि गुणै, अर्थाक्षर ज्ञान हो है । ताते याक अष्टांक वृद्धि युक्त स्थान कहिए ।
सो अष्टांक कितने प्रमाण लीएं हो है; सो कहिए है- श्रुत केवलज्ञान एक घाटि, एकट्टी प्रमाण अपुनरुक्त अक्षरनि का समूह रूप है । ताको एक घाटि, एकट्ठी का भाग दीएं, एक अक्षर का प्रमाण प्रावै है । तहां जेता ज्ञान के अविभाग प्रतिछेदन का प्रमाण है, ताकी सर्वोत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान का भेदरूप ऊर्वक के अविभाग प्रतिच्छेदनि के प्रमाण का भाग दीएं जेता प्रमाण आवै, सोई इहां अष्टांक का प्रमाण जानना । तातै अब तिस अर्थाक्षर ज्ञान की उत्पत्ति को कारण, जो अंत का ऊर्वक, ताकरि भाजित जो अर्थाक्षर, तीहि प्रमाण अष्टांक करि गुण्य, जो अंत का ऊर्वक, ताकौ गुणै; अर्थाक्षरं ज्ञान हो है । यह कथन युक्त है । जैसा जिनदेव कह्या है | बहुरि यह कथन अंत विषै धर्या हुवा दीपक समान जानना । ताते असे ही पूर्वे भी चतुरंक आदि अष्टांक पर्यंत षट् स्थाननि के भागवृद्धि युक्त वा गुणवृद्धि युक्त जे स्थान है, ते सर्व अपना अपना पूर्व ऊर्वक युक्त स्थान का भाग दीएं, जेता प्रमाण आवै, तितने प्रमाण करि तिस पूर्वस्थान ते गुणित जानने । असे श्रुत केवलज्ञान का सख्यातवां भाग मात्र अर्थाक्षर श्रुतज्ञान जानना । अर्थ का ग्राहक अक्षर ते उत्पन्न भया जो ज्ञान, सो अक्षर ज्ञान कहिए । अथवा प्रर्यते कहिए जानिए, सो अर्थ, अर द्रव्य करि न विनशै सो अक्षर । जो अर्थ सोई अक्षर, ताका जो ज्ञान, सो प्रर्थाक्षरज्ञान कहिये । अथवा श्रर्यंते कहिये श्रुतकेवलज्ञान का संख्यातवा भाग करि जाका निश्चय कीजिये; असा एक अक्षर, ताका ज्ञान, सो अर्थाक्षरज्ञान कहिये ।
अथवा अक्षर तीन प्रकार है लब्धि अक्षर, निर्वृत्ति अक्षर, स्थापना ग्रक्षर । तहा पर्यायज्ञानावरण आदि श्रुतकेवलज्ञानावरण पर्यत के क्षयोपशम ते उत्पन्न भई जो पदार्थ जानने की शक्ति, सो लब्धिरूप भाव इद्रिय, तीहि स्वरूप जो अक्षर कहिये अविनाश, सो लब्धि - अक्षर कहिये । जाते अक्षर ज्ञान उपजने को कारण है । वहरि कंठ, होठ, तालवा आदि अक्षर बुलावने के स्थान अर होठनि का परूपर मिलना, सो स्पृ' टता ताकी आदि देकरि प्रयत्न, तीहि करि उत्पन्न भया शब्द
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका 1
| ૪૬
रूप अकारादि स्वर र ककारादिक व्यंजन पर संयोगी अक्षर, सो निर्वृत्ति अक्षर कहिये । बहुरि पुस्तकादि विषै निज देश की प्रवृत्ति के अनुसारि अकारादिकनि का श्राकार करि लिखिए सो स्थापना अक्षर कहिये । इस प्रकार जो एक अक्षर, ता सुनने तें भया जो अर्थ का ज्ञान, हो अक्षर श्रुतज्ञान है; औसा जिनदेवने का है । उन ही के अनुसारि मैं भी कुछ कह्या है ।
१.
-
आगे श्री माधवचंद्र त्रैविद्यदेव शास्त्र के विषय का प्रसारण कहैं हैं पण्णवरिगज्जा भावा, अनंतभागो दु अणभिलप्पारणं । पण्णवणिज्जारणं पुण, अनंतभागो सुदरिणबद्धो ॥ ३३४ ॥
टीका - अनभिलाप्यानां कहिए वचन गोचर नाही, केवलज्ञान ही के गोचर जे भाव कहिए जीवादिक पदार्थ, तिनके अनंतवें भागमात्र जीवादिक अर्थ, ते प्रज्ञापनीया: कहिए तीर्थकर की सातिशय दिव्यध्वनि करि कहने में आवे असे है । बहुरि तीर्थंकर की दिव्यध्वनि करि पदार्थ कहने में आवै है तिनके अनंतवे भागमात्र द्वादशांग श्रुतविषै व्याख्यान कीजिए है । जो श्रुतकेवली की भी गोचर नाही; अंसा पदार्थ कहने की शक्ति दिव्यध्वनि विषै पाइए है । बहुरि जो दिव्यध्वनि करि न कह्या जाय, तिस अर्थ कौ जानने की शक्ति केवलज्ञान विषै पाइए है । औसा जानना । आगे दोय गाथानि करि अक्षर समास को प्ररूप है
प्रज्ञापनीया भावा, अनंतभागस्तु अनभिलाप्यानाम् । प्रज्ञापनीयानां पुनः, अनंतभागः श्रुतनिबद्धः ॥ ३३४॥
1
-
एयक्ष्खराद उवरं, एगेगेणक्खरेण वड्ढतो ।
संखेज्जे खलु उड्ढे, पदरणामं होदि सुदरगाणं ॥ ३३५॥ १
टीका - एक अक्षर ते उपज्या जो ज्ञान, ताके ऊपरि पूर्वोक्त षट्स्थानपतित वृद्धि का अनुक्रम विना एक एक अक्षर बधता सो दोय अक्षर, तीन अक्षर, च्यारि अक्षर इत्यादिक एक घाटि पद का अक्षर पर्यंत अक्षर समुदाय का सुनने करि उपजें अक्षर समास के भेद संख्यात जानने । ते दोय घाटि पद के अक्षर जेते होंइ
षट्खडागम-धवला, पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका ।
एकाक्षरात्तुपरि एकैकेनाक्षरेण वर्धमानाः ।
संख्येये खलु वृद्धे, पदनाम भवति श्रुतज्ञानम् ॥ ३३५॥
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४८२ ]
[ गोम्मटमार जीवकाण्ड गाया ३३६ तितने है । बहुरि इसके अनंतरि उत्कृष्ट अक्षर समास के विपै एक अक्षर बधत पदनामा श्रुतज्ञान हो है।
सोलस-सय-चउतीसा, कोडी तियसीदिलक्खयं चेव । सत्तसहस्साट्ठसया, अट्ठासीदी य पदवण्णा ॥३३६॥
षोडशशतचतुर्विंशत्कोटयः त्र्यशीतिलक्षकं चैव ।
सप्तसहस्राण्यष्टशतानि अष्टाशीतिश्च पदवर्णाः ॥३३६॥ टीका - पद तीन प्रकार है - अर्थपद, प्रमाणपद, मध्यमपद ।
तहां निहिं अक्षर समूह करि विवक्षित अर्थ जानिये, सो तौ अर्थपद कहिये । जैसे कहा कि 'गामभ्याज शुक्लां दंडेन' इहां इस शब्द के च्यारि पद हैं - १. गां, २. अभ्याज, ३. शुक्लां, ४. दंडेन । ये च्यारि पद भए । अर्थ याका यहु - जो गाय को घेरि, सुफेद को दंड करि । असे कहा कि 'अग्निमानय' इहां दोय पद भए । अग्निं, आनय । अर्थ यहु जो - अग्नि को ल्याव । औसै विवक्षित अर्थ के अर्थी एक, दोय आदि अक्षरनि का समूह, ताको अर्थपद कहिये ।
___ बहुरि प्रमाण जो संख्या, तिहिने लीएं, जो पद कहिये अक्षर समूह, ताको प्रमाण पद कहिये । जैसै अनुष्टुप छद के च्यारि पद, तहां एक पद के आठ अक्षर होइ । 'नमः श्रीवर्धमानाय' यह एक पद भया । याका अर्थ यह जो श्रीवर्धमान स्वामी के अथि नमस्कार होह; असे प्रमाणपद जानना ।
__ बहुरि सोलासै चौतीस कोडि तियासी लाख सात हजार आठसै अठ्यासी (१६३४८३०७८८८) गाथा विषे कहे अपुनरुक्त अक्षर, तिनिका समूह सो मध्यमपद कहिये । इनिविषै अर्थ पद अर प्रमाण पद तौ हीन - अधिक अक्षरनि का प्रमाण कौं लीएं, लोकव्यवहार करि ग्रहण कीएं है । तातै लोकोत्तर परमागम विर्ष गाथा विष कही जो सख्या, तीहिं विषै वर्तमान जो मध्यमपद, ताहीका ग्रहण जानना।
आगे सघात नामा श्रुतज्ञान को प्ररूप है -
२. पटपडागम - धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २३ की टीका ।
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सम्परज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका]
एयपदादो उरिं, एगेगेणक्खरेण वड्ढतो। संखेज्जसहस्सपदे, उड्ढे संघादणाम सुदं ॥३३७॥
एकपदादुपरि, एकैकेनाक्षरेण वर्धमानाः ।
संख्यातसहस्रपदे, वृद्धे सधातनाम श्रुतम् ॥३३७।। टीका - एक पद के ऊपरि एक एक अक्षर बधते - बधत एक पद का अक्षर प्रमाण पदसमास के भेद भएं, पदज्ञान दूणा भया । बहुरि इसतै एक - एक अक्षर बधतै बधतै पदका अक्षर प्रमाण पदसमास के भेद भएं, पदज्ञान तिगुणा भया । असे ही एक एक अक्षर की बधवारी लीएं पद का अक्षर प्रमाण पदसमास ज्ञान के भेद होत सतै चौगुणा पंचगुणा आदि संख्यात हजार करि गुण्या हूवा पद का प्रमाण में एक अक्षर घटाइये, तहा पर्यत पदसमास के भेद जानने । पदसमास ज्ञान का उत्कृष्ट
भेद विष सोई एक अक्षर मिलाये, सघात नामा श्रुतज्ञान हो है । सो च्यारि गति विष एक गति के स्वरूप का निरूपणहारे जो मध्यमपद, तिनिका समूहरूप सघात नामा श्रुतज्ञान के सुनने ते जो अर्थज्ञान भया, ताकौं सघात श्रुतज्ञान कहिये ।
प्रागै प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान के स्वरूप को कहै है - एक्कदर-गदि-णिरूवय-संघादसुदादु उवरि पुत्वं वा । वणे संखेज्जे, संघादे उड्ढिम्हि पडिवत्ती ॥३३८॥
एकतरगतिनिरूपकसंघातश्रुतादुपरि पूर्व वा ।
वर्णे संख्येये, सघाते वृद्ध प्रतिपत्तिः ॥३३८॥ टीका - एक गति का निरूपण करणहारा जो सघात नामा श्रुतज्ञान, ताके ऊपरि पूर्वोक्त प्रकार करि एक एक अक्षर की बधवारी लीये, एक एक पद की वृद्धि करि संख्यात हजार पद का समूहरूप सघात श्रुत होइ । बहुरि इस ही अनुक्रम तै संख्यात हजार सघात श्रुत होइ । तिहि मै स्यो एक अक्षर घटाइये तहा पर्यत सघात समास के भेद जानना । बहरि अत का सघात समास श्रुतज्ञान का उत्कृष्ट भेद विर्ष वहरे अक्षर मिलाइये, तब प्रतिपत्तिक नामा श्रुतज्ञान हो है । सो नरकादि च्यारि गति
१ षट्खडागम-धवला पुस्तक ६, पृष्ट २३ की टीका । २ ब, घ, प्रति मे 'छह शब्द मिलता है।
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४८४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३३६-३४०
का स्वरूप विस्तार पर्ने निरुपण करनहारा जो प्रतिपत्तिपक ग्रंथ, ताके सुनने ते जो अर्थज्ञान भया, ताकौ प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान कहिए ।
अनुयोग श्रुतज्ञान की प्ररूप हैं।
-
चउगइ- सरूवपरूवय- पडिवत्तीदो दु उवरि पुव्वं वा । वणे संखेज्जे, पडिवत्तीउड्ढम्हि प्रणियोगं ॥ ३३६ ॥ १
चतुर्गतिस्वरूपप्ररूपकप्रतिपत्तितस्तु उपरि पूर्व वा । वर्णे संख्याते, प्रतिपत्तिवृद्धे अनुयोगं ॥ ३३९॥
टीका - च्यारि गति के स्वरूप का निरूपण करणहारा प्रतिपत्तिक श्रुतज्ञान के ऊपरि प्रत्येक एक एक अक्षर की वृद्धि लीये संख्यात हजार पदनि का समुदायरूप सख्यात हजार संघात अर संख्यात हजार संघातनि का समूह प्रतिपत्तिक, सो जैसे प्रतिपत्तिक सख्यात हजार होइ; तिनिविषे एक अक्षर घटाइये तहां पर्यंत प्रतिपत्तिक समास श्रुतज्ञान के भेद भए । बहुरि तिसका अंत भेद विषै वह एक अक्षर मिलाये, अनुयोग नामा श्रुतज्ञान भया, सो चौदै मार्गणा के स्वरूप का प्रतिपादक अनुयोग नामा श्रुत, ताके सुनने ते जो अर्थज्ञान भया, ताको अनुयोग नामा श्रुतज्ञान कहिए ।
-
आगे प्राभृतप्राभृतक श्रुतज्ञान को दोय गाथानि करि कहै है - चोद्दस-मग्गण-संजुद-अणियोगादुवरि वड्ढिदे वण्णे । चउरादी - श्रणियोगे दुगवारं पाहुडं होदि ॥ ३४० ॥२
चतुर्दश मार्गणासंयुतानुयोगादुपरि वर्धिते वरों । चतुराद्यनुयोगे द्विकवारं प्राभृतं भवति ॥ ३४० ॥
टीका - चौदह मार्गणा करि सयुक्त जो अनुयोग, ताके ऊपरि प्रत्येक एक एक अक्षर की वृद्धि करि संयुक्त पद संघात प्रतिपत्तिक, इनिको पूर्वोक्त अनुक्रम तैः वृद्धि होते च्यारि यदि अनुयोगनि की वृद्धि विषै एक अक्षर घटाइये । तहा पर्यंत अनुयोग समास के भेद भए । बहुरि तिसका अत भेद विषै वह एक अक्षर मिलाये, प्राभृत प्राभृतक नामा श्रुतज्ञान हो है ।
१ पट्यडागम - घवला पुस्तक ६, पृष्ठ २४ की टीका ।
२ पट्टागम - घवला पुस्तक ६, पृष्ठ २४ की टीका ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
श्रहियारो पाहुड्यं, एमट्ठी पाहुडस्स अहियारो । पाहुडपाहुडरपासं, होदित्ति जिगह जिद्दिट्ठ ॥ ३४१ ॥ अधिकारः प्राभूतमेकार्थः प्राभूतस्याधिकारः । प्राभृतप्राभृतनामा भवति इति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ३४९ ॥
टीका आगे कहियेगा, जो वस्तु नामा श्रुतज्ञान, ताका जो एक अधिकार, नाम प्राभृत कहिये । बहुरि जो उस प्राभृतक का एक अधिकार, ताका नाम प्राभृतक प्राभृतक कहिये; असे जिनदेवने कह्या है |
आगे प्राभृतक का स्वरूप कहै है -
दुगवारपाहुडादो, उर्वारं वण्णे कमेण चउदीसे । दुगवारपाहुडे उड्ढे खलु होदि पाहुडयं ॥ ३४२ ॥ १
द्विrवारप्राभृतादुपरि वर्णे क्रमेण चतुविशतौ ।
द्विकारप्राभृते सवृद्धे खलु भवति प्राभृतकम् ॥ ३४२॥
टीका - द्विकवार प्राभृतक जो प्राभृतक प्राभृतक, ताके ऊपर पूर्वोक्त अनुक्रम ते एक एक अक्षर की वृद्धि लीयें चौवीस प्राभृतक - प्राभृतकनि की वृद्धि विषै एक अक्षर घटाइये, तहां पर्यंत प्राभृतक प्राभृतक समास के भेद जानने । बहुरि ताका अंत भेद विषै एक अक्षर मिलाये; प्राभृतक नामा श्रुतज्ञान हो है ।
-
[ ४-५
भावार्थ - एक एक प्राभृतक नामा अधिकार विषे चौवीस-चौबीस प्राभृतकप्राभृत्तक नामा अधिकार हो है ।
आ वस्तु नामा श्रुतज्ञान की प्ररूप है
ari di पाहुड-अहियारे एक्कवत्थुपहियारो | एक्केक्वण्उड्ढी, कमेण सव्वत्य जायव्वा ॥३४३॥१
fat fast प्राभृताधिकारे एको वस्त्वधिकारः । एकैकवर्णवृद्धिः क्रमेण सर्वत्र ज्ञातव्या ३४३ ||
१. पट्खडागम
- घवला पुस्तक ६, पृष्ठ २४ की टीका ।
२. षट्खडागम - घवला पुस्तक ६, पृष्ठ २५ की टीका ।
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४८६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३४४
__टीका - तिहि प्राभृतक के ऊपर पूर्वोक्त अनुक्रम ते एक एक अक्षर की वृद्धि ने लीए, पदादिक की वृद्धि करि संयुक्त बीस प्राभृतक की वृद्धि होते सतै, वाम एक अक्षर घटाइये, तहा पर्यंत प्राभूतक समास के भेद जानने । वहरि ताका अंत भेद विष वह एक अक्षर मिलायें, वस्तु नामा अधिकार हो है।
___ भावार्थ - पूर्व संबंधी एक एक वस्तु नामा अधिकार विष बीस बीस प्राभृतक पाइये है। बहुरि सर्वत्र अक्षर समास का प्रथम भेद तै लगाइ पूर्वसमास का उत्कृष्ट भेद पर्यत अनुक्रम ते एक एक अक्षर बढावना । बहुरि पद का बढावना, बहुरि समास का बढावना इत्यादिक परिपाटी करि यथासभव वृद्धि सबनि विर्ष जानना, सो सूत्र के अनुसारि व्याख्यान टीका विषे करते ही आये है।
प्रागै तीन गाथानि करि पूर्व नामा श्रुतज्ञान को कहै है - दसचोदसठ्ठ अटवारसयं बारं च बार सोलं च । वीसं तीसं पण्णारसं च, दस चदुसु वत्थूरणं ॥३४४॥
दश चतुर्दशाष्ट अष्टादशकं द्वादश च द्वादश षोडश च । विशतिः त्रिंशत् पंचदश च, दश चतुर्पु वस्तूनाम् ॥३४४॥
टीका - तिहि वस्तु श्रुत के ऊपरि एक एक अक्षर की वृद्धि लीए, अनुक्रम तै पदादिक की वृद्धि करि सयुक्त क्रम तै दश आदि वस्तुनि की वृद्धि होत सतै, उनमैं सौ एक एक अक्षर घटावन पर्यत वस्तु समास के भेद जानने । बहुरि तिनके अत भेदनि विर्षे अनुक्रम ते एक एक अक्षर मिलाएं, चौदह पूर्व नामा श्रुतज्ञान होइ । तहा आगे कहिए है।
उत्पाद नामा पूर्व आदि चौदह पूर्व, तिनिविषै अनुक्रम तै दश (१०), चौदह (१४), पाठ (८), अठारह (१८), बारह (१२), बारह (१२), सोलह (१६), वीस (२०), तीस (३०), पद्रह (१५), दश (१०), दश (१०), दश (१०), दश (१०) वस्तु नामा अधिकार पाइए है।
१ - पटवडागम-धवला पुस्तक ६, पृष्ठ २५ की टोका ।
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Rareeन्द्रिका भाषाटोका ]
उपाय -पुव्वगाणिय-विरियपवादत्थिणत्थियपवादे । णाणासच्चपवादे, श्रादाकम्मपवादे य ॥ ३४५॥ पञ्चाक्खाणे विज्जाणुवादकल्लाणपाणवादे य । किरिया विसालपुच्चे, कमसोथ तिलोर्याबंदुसारे य ॥ ३४६ ॥
उत्पादपूर्वाग्रायणीयवीर्यप्रवादास्तिनास्तिकप्रवादानि । ज्ञानसत्यप्रवादे, आत्मकर्मप्रवादे च ॥ ३४५॥
प्रत्याख्यानं वीर्यानुवादकल्याणप्रारणवादानि च । क्रियाविशालपूर्व, क्रमशः श्रथ त्रिलोकबिंदुसारं च ॥ ३४६॥
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टीका - चौदह पूर्वनि के नाम अनुक्रम ते असे जानने । १. उत्पाद, २. आग्रायणीय, ३. वीर्यप्रवाद, ४. अस्ति नास्ति प्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद, ७. आत्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद, ६. प्रत्याख्यानप्रवाद, १०. विद्यानुवाद, ११. कल्याणवाद, १२. प्राणवाद, १३. क्रियाविशाल, १४. त्रिलोकविदुसार ये चौदह पूर्वनि के नाम जानने ।
इनिकै लक्षण आगे कहेंगे - इहां से जानना पूर्वोक्त वस्तुश्रुतज्ञान के ऊपरि क्रम ते एक एक अक्षर की वृद्धि लीएं, पदादिक की वृद्धि होते, दश वस्तु प्रमाण मे स्यों एक अक्षर घटाइए, तहा पर्यंत वस्तु समास ज्ञान के भेद है । ताके अत भेद विष वह एक अक्षर मिलाएं, उत्पाद पूर्व नामा श्रुतज्ञान हो है ।
बहुरि उत्पाद पूर्व श्रुतज्ञान के ऊपरि एक एक अक्षर-अक्षर की वृद्धि लीयें, पदादि की वृद्धि संयुक्त चौदह वस्तु होहि ।
तामैं एक अक्षर घटाइये, तहां पर्यंत उत्पादपूर्व समास के भेद जानने । ताके अंत भेद विषै वह एक अक्षर बधै, अग्रायणीय पूर्व नामा श्रुतज्ञान हो है । जैसे ही क्रम तै आगे आगे आठ आदि वस्तु की वृद्धि होते, तहा एक अक्षर घटावने पर्यंत तिस तिस पूर्व समास के भेद जानने । तिस तिस का अंत भेद विषै सो सो एक अक्षर मिलाएं, वीर्य प्रवाद आदि पूर्व नामा श्रुतज्ञान हो है । अंत का त्रिलोकविदुसार नामा पूर्व आगे ताका समास के भेद नाही है । जाते याके आगे श्रुतज्ञान के भेद का अभाव है ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३४७-३४८-३४६ आगै चौदह पूर्वनि विष वस्तुनामा अधिकारनि की वा प्राभृतनामा अधिकारनि की संख्या कहै है -
पणणउदिसया वत्थू, पाहुड्या तियसहस्सणवयसया । एदेसु चोहसेसु बि, पुव्वेतु हवंति मिलिदाणि ॥३४७॥
पंचनवतिशतानि वस्तूनि, प्राभृतकानि त्रिसहस्रनवशतानि ।
एतेषु चतुर्दशस्वपि, पूर्वेषु भवंति मिलितानि ॥३४७।। टीका - जो उत्पाद आदि त्रिलोकबिदुसार पर्यत चौदह पूर्व, तिनिविर्षे मिलाए हुवे, दश आदि वस्तु नामा अधिकार सर्व एक सौ पिच्याणवै (१६५) हो है । बहुरि एक एक वस्तु विष बीस बीस प्राभृतक कहे, ते सर्व प्राभृतक नामा अधिकार तीन हजार नव सै (३६००) जानने ।
आगे पूर्व कहे जे श्रुतज्ञान के बीस भेद, तिनिका उपसंहार दोय गाथानि करि कहै है ---
अत्थक्खरं च पदसंघातं, पडिवत्तियाणिजोगं च । दुगवारपाहुडं च य, पाहुड्यं वत्थु पुव्वं च ॥३४८॥ कमवण्णुत्तरवढिय, ताण समासा य अक्खरगदाणि । णाणवियप्पे वीसं, गंथे बारस य चोइसयं ॥३४६॥
अर्थाक्षरं च पदसंघातं, प्रतिपत्तिकानुयोगं च । द्विकवारप्राभृतं च च, प्राभृतकं वस्तु पूर्व च ॥३४८॥ कमवर्णोत्तरवधिते, तेषां समासाश्च अक्षरगताः ।
ज्ञानविकल्पे विशतिः, ग्रंथे द्वादश च चतुर्दशकम् ॥३४९॥ टोका - अक्षर, पद, सघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृतकप्राभृतक, प्राभृतक, वस्तु, पूर्व ए नव भेद बहुरि एक एक अक्षर की वृद्धि आदि यथा सभव वृद्धि लीए इन ही अक्षरादिकनि के समास तिनि करि नव भेद, असे सर्व मिलि करि अठारह भेद, अक्षरात्मक द्रव्यश्रुत के है। अर ज्ञान की अपेक्षा इन ही द्रव्यश्रुतनि के सुनने ते जो ज्ञान भया, सो उस ज्ञान के भी अठारह भेद
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सम्यग्ज्ञानचन्तिका भाषाटोका 1
[ ४६
टीका - एक घाटि एकट्ठी प्रमारण समस्त श्रुत के अक्षर कहे तिनिको परमागम विष प्रसिद्ध जो मध्यम पद, ताके अक्षरनि का प्रमाण सोला सै चौतीस कोडि तियासी लाख सात हजार आठ सै अठ्यासी, ताका भाग दीए, जो पदनि का प्रमाण
आवै तितने तो अंगपूर्व संबंधी मध्यम पद जानने । बहुरि अवशेष जे अक्षर रहे, ते प्रकीर्णकों के जानने । सो एक सौ बारह कोडि तियासी लाख अठावन हजार पाच इतने तो अंग प्रविष्ट श्रुत का पदनि का प्रमाण आया । अवशेष आठ कोडि एक लाख आठ हजार एक सै पिचहत्तरि अक्षर रहे, ते अंगबाह्य प्रकीर्णक के जानने । असें अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य दोय प्रकार श्रुत के पदनि का वा अक्षरनि का प्रमाण हे भव्य ! तू जानि।
आगे श्री माधवचन्द्र विद्यदेव तेरह गाथानि करि अंगपूर्वनि के पदनि की संख्या प्ररूप हैं -
आयारे सुद्दयडे, ठाणे समवायणानगे अंगे। तत्तो विक्खापण्णत्तीए पाहस्स धम्मकहा ॥३५६।।
प्राचारे सूत्रकृते, स्थाने समवायनामके अंगे।
ततो व्याख्याप्रज्ञप्तौ नाथस्य धर्मकथायाम् ॥३५६॥ टीका - द्रव्य श्रुत की अपेक्षा सार्थक निरुक्ति लीएं, अंगपूर्व के पदनि की संख्या कहिए है । जातै भावश्रुत विष निरुक्त्यादिक संभवै नाही । तहां द्वादश अगनि विष प्रथम ही आचारांग है । जातै परमागम जो है, सो मोक्ष के निमित्त है । याही तैं मोक्षाभिलाषी याकौं आदरे है। तहा मोक्ष का कारण संवर, निर्जरा, तिनिका कारण पंचाचारादि सकल चारित्र है । तातै तिस चारित्र का प्रतिपादक शास्त्र पहिले कहना सिद्ध भया । तीहि कारण ते च्यारि ज्ञान सप्त ऋद्धि के धारक गणधर देवनि करि तीर्थंकर के मुखकमल ते उत्पन्न जो सर्व भाषामय दिव्यध्वनि, ताके मुनने ने जो अर्थ अवधारण किया, तिनिकरि शिष्य प्रति शिप्यनि के अनुग्रह निमित्त दादगागरूप श्रुत रचना करी।
तीहिं विर्ष पहिले आचाराग कह्या । सो आचरन्ति कहिए समस्तपनं मोन मार्ग को आराध हैं, याकरि सो आचार, तिहिं प्राचाराग विपं अंसा कथन है - जो कैसे चलिए? कैसे खडे रहिये ? कैसे वैठिये ? कैसे सोइए ? कैसे वोनिा? में
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५०० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३५६
खाइए ? कैसे पाप कर्म न बंधै ? इत्यादि गणधर प्रश्न के अनुसार यतन ते चलिये, यत ते खडे रहिये, यतन तैं बैठिए, यतन ते सोइए, यतन ते बोलिए, यतन ते खाइये जैसे पापकर्म न बधै इत्यादि उत्तर वचन लीये मुनीश्वरनि का समस्त ग्राचरण इस आचारांग विषे वर्णन कीजिये है ।
बहुरि सूत्रयति कहिए संक्षेप ते अर्थ को सूचै, कहै, जैसा जो परमागम, सो सूत्र ताके अर्थकृतं कहिये कारणभूत ज्ञान का विनय आदि निर्विघ्न अध्ययन आदि क्रिया विशेष, सो जिसविषै वर्णन कीजिए है । अथवा सूत्र करि कीया धर्मक्रियारूप वा स्वमत - परमत का स्वरूप क्रिया रूप विशेष, सो जिस विषै वर्णन कीजिये, सो सूत्रकृत नामा दूसरा अग है ।
बहुरि तिष्ठन्ति कहिए एक आदि एक एक बधता स्थान जिस विषै पाइये, सो स्थान नामा तीसरा अंग है । तहां सा वर्णन है । संग्रह नय करि आत्मा एक है; व्यवहार नय करि संसारी अर मुक्त दोय भेद संयुक्त है । बहुरि उत्पाद, व्यय, श्रीव्य इनि तीन लक्षणनि करि संयुक्त है । बहुरि कर्म के वश तै च्यारि गति विष भ्रम है । तातें चतु संक्रमण युक्त है । बहुरि औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, श्रदयिक, पारिणामिक भेद करि पंचस्वभाव करि प्रधान है । बहुरि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व, अधः भेद करि छह गमन करि संयुक्त है । ससारी जीव विग्रह गति विषै विदिशा में गमन न करें, श्रेणीबद्ध छहौ दिशा विषै गमन करें है । बहुरि स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति नास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति वक्तव्य, स्यादस्तिनास्ति वक्तव्य इत्यादि सप्त भगी विषै उपयुक्त है । बहुरि आठ प्रकार कर्म का आश्रय करि सयुक्त है । बहुरि जीव, अजीव, आस्रव, बध, सवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप ये नव पदार्थ है विषय जाके ऐसा नवार्थ है । बहुरि पृथ्वी, ग्रप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय भेद तँ दश स्थान है । इत्यादि जीव को प्ररुप है । बहुरि पुद्गल सामान्य अपेक्षा एक है; विशेष करि अणु स्कन्ध के भेद तै दोय प्रकार है, इत्यादि पुद्गल कौ रुपै है । जैसे एकने आदि देकर एक एक बधता स्थान इस अग विषै वरिगये है ।
बहुरि 'सं' कहिए समानता करि श्रवेयंते कहिये जीवादि पदार्थ जिसविषै जानिये, सो समवायांग चौथा जानना । इस विषै द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा समानता प्ररुपै है |
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५०१
तहां द्रव्य करि धर्मास्तिकाय पर अधर्मास्तिकाय समान है । संसारी जीवनि करि संसारी जीव समान है। मुक्त जीव, करि मुक्त जीव समान है; इत्यादिक द्रव्य समवाय है ।
बहुरि क्षेत्र करि प्रथम नरक का प्रथम पाथडे का सीमंत नामा इंद्रकविला अर अढाई द्वीपरूप मनुष्यक्षेत्र, प्रथम स्वर्ग का प्रथम पटल का ऋजु नामा इंद्रक विमान अर सिद्धशिला, सिद्धक्षेत्र ये समान हैं । बहुरि सातवां नरक का अवधि स्थान नामा इंद्र विला अर जंबूद्वीप पर सर्वार्थसिद्धि विमान ये समान है इत्यादि क्षेत्र समवाय है ।
बहुरि काल करि एक समय, एक समय समान है । आवली आवली समान है । प्रथम पृथ्वी के नारकी, भवनवासी, व्यंतर इनिकी जघन्य आयु समान है । बहुरि सातवी पृथ्वी के नारकी, सर्वार्थसिद्धि के देव इनिकी उत्कृष्ट आयु समान है, इत्यादिक कालसमवाय है ।
बहुरि भाव करि केवलज्ञान, केवलदर्शन समान है । इत्यादि भावसमवाय है जैसे, इत्यादि समानता इस अंग विषे वरिणये है ।
बहुरि 'वि' कहिये विशेष करि बहुत प्रकार, श्राख्या कहिये गणधर के कीये प्रश्न, प्रज्ञाप्यंते कहिये जानिये, जिसविषै जैसा व्याख्याप्रज्ञप्ति नामा पाचवा अंग जानना । इस विषै औसा कथन है कि - जीव अस्ति है कि जीव नास्ति है, कि जीव एक है कि जीव अनेक है; कि जीव नित्य है कि जीव अनित्य है; कि जीव वक्तव्य है कि अवक्तव्य है इत्यादि साठि हजार प्रश्न गणधर देव तीर्थंकर के निकट कीये । ताका वर्णन इस अंगविषै है ।
बहुरि नाथ कहिये तीन लोक का स्वामी, तीर्थंकर, परम भट्टारक, तिनके धर्म की कथा जिस विषै होइ असा नाथधर्मकथा नाम छठा अग है । इसविषे जीवादि पदार्थनि का स्वभाव वर्णन करिए है । वहुरि घातिया कर्म के नाश ते उत्पन्न नश केवलज्ञान, उस ही के साथि तीर्थकर नामा पुण्य प्रकृति के उदय तै जाऊँ महिमा प्र भयी, असा तीर्थकर के पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न, अर्धरात्रि इनि च्यारि कालनिि छह छह घडी पर्यन्त बारह सभा के मध्य सहज ही दिव्यध्वनि होय है | बहुरि गणधर, इंद्र, चक्रवर्ति इनके प्रश्न करने ते और काल विपै भी दिव्यध्वनि हो है । ग्रेना दिव्यध्वनि निकटवर्ती श्रोतृजननि की उत्तम क्षमा यादि दश प्रकार वा रत्न
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५०२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ३५७ धर्म कहै है । इत्यादि इस अंग विर्षे कथन है । अथवा इस ही छठा अंग का दूसरा नाम ज्ञातृधर्मकथा है । सो याका अर्थ यह है - ज्ञाता जो गणधर देव, जानने की है इच्छा जाकै, ताका प्रश्न के अनुसारि उत्तर रूप जो धर्मकथा, ताकौं ज्ञातृधर्मकथा कहिए । जे अस्ति, नास्ति इत्यादिकरूप प्रश्न गणधरदेव कीये, तिनिका उत्तर इस अंग विष वर्णन करिये है । अथवा ज्ञाता जे तीर्थकर, गणधर, इंद्र, चक्रवादिक, तिनिकी धर्म संबंधी कथा इसविर्षे पाइये है । तातै भी ज्ञातृधर्मकथा असा नाम का धारी छठा अंग जानना।
तो वासयअन्झयणे, अंतयडे णुत्तरोववाददसे । पण्हाणं वायरणे, विवायसुत्ते य पदसंखा ॥३५७।।
तत उपासकाध्ययने, अंतकृते अनुत्तरौपपाददशे ।
प्रश्नानां व्याकरणे, विपाकसूत्रे च पदसंख्या ॥३५७॥ टीका - बहुरि तहां पीछे उपासते कहिये आहारादि दान करि वा पूजनादि करि संघ कौं सेवै; असे जे श्रावक, तिनिकौं उपासक कहिये । ते 'अधीयते' कहिये पढे, सो उपासकाध्ययन नामा सातवां अंग है । इस विष दर्शनिक, व्रतिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तविरति, रात्रिभक्तविरति, ब्रह्मचर्य, प्रारंभनिवृत्त, परिग्रहनिवृत्त, अनुमतिविरत, उद्दिष्टविरत ये गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमा वा व्रत, शील, आचार क्रिया, मंत्रादिक इनिका विस्तार करि प्ररूपण है।
बहुरि एक एक तीर्थंकर का तीर्थकाल विर्ष दश दश मुनीश्वर तीव्र चारि प्रकार का उपसर्ग सहि, इंद्रादिक करी करि हुई पूजा आदि प्रातिहार्यरूप प्रभावना पाइ, पापकर्म का नाश करि संसार का जो अंत, ताहि करते भये, तिनिको अतकृत कहिये तिनिका कथन जिस अंग में होइ ताकौ अंतकृद्दशांग आठवां अंग कहिये । तहां श्री वर्धमान स्वामी के बारे नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलिक, विकृविल, किष्कविल, पालंवष्ट, पुत्र ये दश भये । असे ही वृषभादिक एक एक तीर्थंकर के बारै दश दश अंतकृत् केवली हौं हैं । तिनिका कथन इस अग विष है।
बहुरि उपपाद है प्रयोजन जिनिका जैसे औपपादिक कहिये ।
बहुरि अनुत्तर कहिये विजय, वैजयंत, जयत, अपराजित, सर्वार्थ सिद्धि इनि विमाननि विर्षे जे औपपादिक होहिं उपजें, तिनिकौं अनुत्तरौपपादिक कहिये । सो
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सम्यग्ज्ञानचन्त्रिका भाषाटीका ] एक एक तीर्थंकर के बारै दश दश महामुनि दारुण उपसर्ग सहि करि, बड़ी पूजा पाइ, समाधि करि प्राण छोडि, विजयादिक अनुत्तर विमाननि विष उपजै । तिनिकी कथा जिस अंग विषै होइ, सो अनुत्तरौपपादिक दशांग नामा नवमा अंग जानना। तहा श्रीवर्धमान स्वामी के बारै - ऋजुदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, नंद, नंदन, सालिभद्र, अभय, वारिषेण, चिलातीपुत्र ये दश भये । जैसे ही दश दश अन्य तीर्थंकर के समय भी भये है । तिनि सबनि का कथन इस अंग विर्षे है।
बहुरि प्रश्न कहिये बूझनहारा पुरुष, जो बूझ सो व्याक्रियते कहिये, जिसविष वर्णन करिये, सो प्रश्न व्याकरण नामा दशवां अंग जानना । इसविर्षे जो कोई बूझनेवाला गई वस्तु को, वा मूठी की वस्तु कौं, वा चिंता वा धनधान्य लाभ, अलाभ सुख, दुःख, जीवना, मरणा, जीति, हारि इत्यादिक प्रश्न बूझै; अतीत, अनागत, वर्तमानकाल संबंधी, ताको यथार्थ कहने का उपायरूप व्याख्यान इस अंग विष है। अथवा शिष्य को प्रश्न के अनुसार आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेजिनी, निर्वेजिनी ये च्यारि कथा भी प्रश्नव्याकरण अंग विर्षे प्रकट कीजिये है ।
तहां तीर्थंकरादिक का चरित्ररूप प्रथमानुयोग, लोक का वर्णन रूप करणानुयोग, श्रावक मुनिधर्म का कथनरूप चरणानुयोग, पंचास्तिकायादिक का कथनरूप द्रव्यानुयोग, इनिका कथन अर परमत की शंका दूरि करिए, सो आक्षेपिणी कथा ।
बहरि प्रमाण - नय रूप युक्ति, तीहिं करि न्याय के बल तै सर्वथा एकांतवादी आदि परमतनि करि कह्या अर्थ, ताका खडन करना, सो विक्षेपिणी कथा ।
बहरि रत्नत्रयरूपधर्म अर तीर्थकरादि पद की ईश्वरता वा ज्ञान, सुख, वीर्यादिकरूप धर्म का फल, ताके अनुराग को कारण सो संवेजिनी कथा।
___बहुरि संसार, देह, भोग के राग ते जीव नारकादि विषै दरिद्र, अपमान, पीडा, दुःख भोगवै है । इत्यादिक विराग होने की कारणरूप जो कथा, सो निर्वेजिनी कथा कहिये । सो असी भी कथा प्रश्नव्याकरण अंग विष पाइए है।
बहुरि विपाक जो कर्म का उदय, ताको सूत्रयति कहिये कहै, सो विपाक सूत्रनामा ग्यारमा अंग जानना । इसविष कर्मनि का फल देने रूप जो परिणमन, सोई उदय कहिये । ताका तीव्र, मंद, मध्यम, अनुभाग करि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा वर्णन पाइए है।
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५०४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ३५८ ३५९-३६० असे आचार नै आदि देकरि विपाक सूत्र पर्यत ग्यारह अंग, तिनिके पदनि की संख्या कहिए है ।
अट्ठारस छत्तीसं, बादालं अडकडी अड बि छप्पण्णं । सत्तरि अट्ठावीसं, चोद्दालं सोलससहस्सा ॥३५८॥ इगि-दुग-पंचेयारं, तिकीसतिणउदिलक्ख तुरियादी। चुलसीदिरणक्खमेया, कोडी य विवागसूत्तम्हि ॥३५॥
अष्टादश षट्त्रिंशत्, द्वाचत्वारिंशत् अष्टकृतिः अष्टद्विषट्पंचाशत् । सप्ततिः अष्टाविंशतिः, चतुश्चत्वारिंशत् षोडश सहस्राणि ॥३८॥ एकद्विपंचैकादशत्रयोविंशतिद्विविनवतिलक्षं चतुर्थादिषु ।
चतुरशीतिलक्षमेका, कोटिश्च विपाकसूत्रे ॥३५९॥ टीका- प्रथम गाथा विर्ष अठारह आदि हजार कहे । बहुरि दूसरी गाथा विष चौथा अग आदि अंगनिविषे एकादिक लाख सहित हजार कहे। अर विपाकसूत्र का जुदा वर्णन कीया । अब इनि गाथानि के अनुसारि एकादश अंगनि की पदनि की सख्या कहिये है । आचाराग विष पद अठारह हजार(१८०००), सूत्रकृताग विष पद छत्तीस हजार (३६०००), स्थानाग विष बियालीस, हजार (४२०००), समवायांग विप एक लाख अर आठ की कृति चौसठि हजार (१६४०००), व्याख्याप्रज्ञप्ति विपै दोय लाख अट्ठाईस हजार (२२८०००), ज्ञातृकथा अग विषे पांच लाख छप्पन हजार, (५५६०००), उपासकाध्ययन अग विषे ग्यारह लाख सत्तरि हजार (११७००००), अतकृतदशाग विषे तेईस लाख अट्ठाईस हजार (२३२८०००), अनुत्तरौपपादक दशांग विष बाणवै लाख चवालीस हजार (६२४४०००), प्रश्न व्याकरण अंग विर्ष तिराणवै लाख सोलह हजार (६३१६०००), विपाकसूत्र अग विषै एक कोडि चौरासी लाख (१८४४००००) असे एकादश अगनि विर्षे पदनि की सख्या जाननी ।
वापणनरनोनानं, एयारंजुगे दी हु वादम्हि । -.-.. कनजतजमताननम, जनकनजयसीम वाहिरे वण्णा ॥३६०॥
वापणनरनोनानं, एकदशांगे युतिर्हि वादे । कनजतजमताननमं जनकनजयसीम बाह्ये वर्णाः ॥३६०॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५०५
टीका
इहां वा श्रागे अक्षर संज्ञा करि अंकनि को कहै है । सो याका सूत्र पूर्व गतिमार्गणा का वर्णन विषै पर्याप्त मनुष्यनि की संख्या कही है। तहा कहा है 'कटपयपुरस्थवर्णं' इत्यादि सूत्र का है । तिस ही ते अक्षर संज्ञा करि अंक जानना । ककारादिक नव अक्षरनि करि एक, दोय आदि क्रम ते नव अंक जानने । ट कारादि नव अक्षरनि करि नव अक जानने । प कारादि पच अक्षरनि करि पंच अंक जानने । य कारादि आठ अक्षरनि करि आठ अक जानने । ज कार कार न कार इनिकरि बिंदी जानिये, असा कहि आए है । सो इहां वापरणनरनोनानं इनि अक्षरनि करि चारि, एक, पाच, बिदी, दोय, बिदी, बिंदी, बिंदी ए अक जानना । ताके चारि कोडि पह लाख दोय हजार (४१५०२०००) पद सर्व एकादश अंगनि का जोड दीयें भये ।
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बहुरि दृष्टिवाद नाम बारहवां अंग, ता विषै 'कनजतजमताननमं' कहिये एक, बिंदी, आठ, छह, आठ, पाच, छह, बिदी, बिदी, पाच इनि अकनि करि एक से आठ कोडि अडसठ लाख छप्पन हजार पाच ( १०८६८५६००५) पद है सो कहिये । मिथ्यादर्शन, तिनिका है अनुवाद कहिये निराकरण जिस विषं भैसा दृष्टिवाद नामा अंग बारहवां जानना ।
तहा मिथ्यादर्शन सबधी कुवादी तीन से तरेसठि है । तिनि विषै कौत्कल, कठेद्धि, कौशिक हरि, श्मश्रु माधपिक रोमश, हारीत, मुड़, आश्वलायन इत्यादि क्रियावादी है, सो इनिके एकसौ अस्सी (१८०) कुवाद है ।
बहुरि मारीचि, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाड्वलि, माठर, मौद्गलायन इत्यादि अक्रियावादी है, तिनिके चौरासी (८४) कुवाद है |
बहुरि साकल्य, वाल्कलि, कुसुत्ति, सात्यमुग्रीनारायण, कठ, माध्यदिन, मौद, पैप्पलाद, वादरायण, स्विष्ठिक्य, दैत्यकायन, वसु, जैमिन्य, इत्यादि ए अज्ञानवादी है । इनके ससठि (६७) कुवाद है ।
बहुरि वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मिकि, रोमहर्षिरिण, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, उपमन्यु, ऐद्रदत्त, अगस्ति इत्यादिक ए विनयवादी है । इनिके कुवाद बत्तीस (३२) है ।
सब मिलाए तीन से तरेसठ कुवाद भये, इनिका वर्णन भावाधिकार विपं कहै । इहा प्रवृत्ति विषै इनि कुवादनि के जे जे अधिकारी, तिनिके नाम कहे ह ।
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५०६ ]
[ गोम्मटसार जौबकाण्ड गाया ३६१-३६२ बहुरि अंग बाह्य जो सामायिकादिक, तिनि विपै 'जनकनजयसीम' कहिए आठ, बिदी, एक, बिदी, आठ, एक, सात, पाच अक तिनिके आठ कोडि एक लाख आठ हजार एक सै पिचत्तरि (८०१०८१७५) अक्षर जानने ।
चंद-रवि-जंबुदीवय-दीवसमुद्दय-वियाहपण्णत्ती । परियम्मं पंचविहं, सुत्तं पढमाणि जोगमदो ॥३६१॥ पुव्वं जल-थल-माया-पागासय-रूवगयमिमा पंच । भेदा हु चूलियाए, तेसु पमाणं इणं कमसो ॥३६२॥
चंद्ररविजंबूद्वीपकद्वीपसमुद्रकव्याख्याप्रज्ञप्तयः । परिकर्म पंचविधं, सूत्रं प्रथमानुयोगमतः ॥३६१॥ पूर्व जलस्थलमायाकाशकरूपगता इमे पंच ।
भेदा हि चूलिकायाः, तेषु प्रमाणमिदं क्रमशः ॥३६२॥ टीका - दृष्टिवाद नामा बारहवां अग के पंच अधिकार है - परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका ए पच अधिकार है, तिनि विर्ष परितः कहिए मर्वाग ते कर्माणि कहिये जिन ते गुणकार भागहारादि रूप गणित होइ, असे करणसूत्र, वे जिस विषै पाइए, सो परिकर्म कहिये, सो परिकर्म पाच प्रकार है - चद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जबूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति ।
तहा चंद्रप्रज्ञप्ति - चद्रमा का विमान, आयु, परिवार, ऋद्धि, गमनविशेष, वृद्धि, हानि, सारा, आधा, चौथाई ग्रहण इत्यादि प्ररूप है । बहुरि सूर्यप्रज्ञप्ति - सूर्य का आयु मडल, परिवार, ऋद्धि, गमन का प्रमाण ग्रहण इत्यादि प्ररूप है । बहुरि जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - जंबद्वीपस बधी मेरुगिरि, कुलाचल, द्रह, क्षेत्र, वेदी, वनखंड, व्यंतरनि के मदिर, नदी इत्यादि प्ररूपै है । बहुरि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति - असंख्यात द्वीप समुद्र सबंधी स्वरूप वा तहां तिष्ठते ज्योतिषी, व्यतर, भवनवासीनि के आवास तहा अकृत्रिम जिन मदिर, तिनको प्ररूप है । बहुरि व्याख्याप्रज्ञप्ति – रूपी, अरूपी, जीव, अजीव आदि पदार्थनि का वा भव्य अभव्य आदि प्रमाण करि निरूपण करै है। जैसै परिकर्म के पंच भेद है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[५०७ बहुरि सूत्रयति कहिये मिथ्यादर्शन के भेदनि को सूच, बतावै, ताकौं सूत्र कहिये । तिस विष जीव प्रबंधक ही है; अकर्ता है, निर्गुण है, अभोक्ता है। स्वप्रकाशक ही है, परप्रकाशक ही है; अस्तिरूप ही है; नास्तिरूप ही है इत्यादि क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, विनयवाद, तिनके तीन सै तरेसठि भेद, तिनिका पूर्व पक्षपने करि वर्णन करिये है।
बहुरि प्रथम कहिए मिथ्यादृष्टी अवती, विशेष ज्ञानरहित, ताकौ उपदेश देने निमित्त जो प्रवृत्त भया अधिकार - अनुयोग; कहिए सो प्रथमानुयोग कहिए । तिहि विष चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ति, नव बलभद्र, नव नारायण, नव प्रतिनारायण इनि तरेसठि शलाका पुरुषनि का पुराण वर्णन कीया है ।
बहुरि पूर्वगत चौदह प्रकार, सो आगे विस्तार ने लीएं कहेगे ।
बहुरि चूलिका के पंच भेद जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता, आकाशगता ए पंच भेद है।
तिनि विर्षे जलगता चूलिका तौ जल का स्तंभन करना, जल विष गमन करना, अग्नि का स्तभन करना, अग्नि का भक्षण करना, अग्नि विप प्रवेश करना इत्यादि क्रिया के कारण भूत मत्र, तत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है । बहुरि स्थलगता चूलिका मेरुपर्वत, भूमि इत्यादि विष प्रवेश करना शीव्र गमन करना इत्यादिक क्रिया के कारणभूत मत्र तत्र तपश्चरणादिक प्ररूप है। बहुरि मायागता चूलिका मायामई इन्द्रजाल विक्रिया के कारण भूत मत्र, तंत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है । बहुरि रूपगता चूलिका सिह, हाथी, घोड़ा, वृषभ, हरिण इत्यादि नाना प्रकार रूप पलटि करि धरना; ताके कारण मत्र, तत्र, तपश्चरणादि प्ररूप है। वा चित्राम, काठ, लेपादिक का लक्षण प्ररूप है । वा धातु रसायन को प्ररूप है । बहुरि आकाशगता चूलिका - आकाश विषै गमन आदि कौं कारण भूत मत्र, तंत्रादि प्ररूप है । असे चूलिका के पाच भेद जानने ।
ए चंद्रप्रज्ञप्ति आदि देकर भेद कहे । तिनिके पदनि का प्रमाण आगे कहिए है, सो हे भव्य तू जानि ।
गतनम मनगं गोरम, मरगत जवगात नोननं जजलक्खा। मननन धममननोनननामं रनधजधरानन जलादी ॥३६३॥
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५०८ ]
[ गोम्मटसार जोबकाण्ड गाथा ३६४
याजकनामेनाननमेदाणि पदाणि होंति परिकम्मे । कानवधिवाचनाननमेसो पुरण चूलियाजोगो ॥ ३६४॥
गतनम मनगं गोरम, मरगत जवगातनोननं जजलक्षाणि । मननन धममननोन नामं रनधजधरानन जलादिषु ॥ ३६३ ॥
याजकनामेनाननमेतानि पदानि भवंति परिकर्मणि । कानवधिवाचनाननमेषः पुनः चूलिकायोगः ॥ ३६४ ॥
टीका • इहां 'कटपयपुरस्थवर्णैः' इत्यादि सूत्रोक्त विधान ते अक्षर संज्ञा करि अंक कहैं है; सो अंकनि करि जो प्रमाण भया, सोई इहां कहिए हैं । एक एक अक्षर तै एक एक अक जानि लेना; सो 'गतनमनोननं' कहिये छत्तीस लाख पांच हजार (३६०५०००) पद चंद्रप्रज्ञप्ति विषै है |
बहुरि 'मनगनोननं' कहिए पांच लाख तीन हजार ( ५०३००० ) पद सूर्यप्रज्ञप्ति विषै है ।
बहुरि 'गोरमनोननं' कहिये तीन लाख पचीस हजार (३२५०००) पद जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति विषै है |
बहुरि 'मरगत नोननं' कहिये बावन लाख छत्तीस हजार (५२३६०००) पद द्वीपसागर प्रज्ञप्ति विषै है ।
बहुरि 'जवगातनोननं' कहिये चौरासी लाख छत्तीस हजार (८४३६००० ) पद व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग के है ।
बहुरि 'जजलरका' कहिए अठ्यासी लाख ( ८८०००००) पद सूत्र नामा भेद विपै है ।
बहुरि मननन कहिए पांच हजार (५०००) पद प्रथमानुयोग विषै है ।
वहुरि धममननोननामं कहिए पिच्यारणवै कोड पचास लाख पांच (२५५०००००५) पद पूर्वगत विषै है । चौदह पूर्वनि के इतने पद है ।
वहुरि रनधजधरानन कहिए दोय कोडि नव लाख निवासी हजार दोय सै (२०६८ε२००) पद जलगता प्रादि चूलिका तिन विषै एक एक के इतने इतने पद
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ५०० जानने । जलगता पद (२०६८६२००), स्थलगता २०६८९२००, मायागता २०६८६२००, आकाशगता २०६८६२००, रूपगता २०६८६२०० असे पद जानने ।
बहुरि 'याजकनामेनाननं' कहिए एक कोडि इक्यासी लाख पाच हजार (१८१०५०००) पद चद्रप्रज्ञप्ति आदि पांच प्रकार परिकर्म का जोड दीये हो ह ।
बहुरि 'कानवधिवाचनाननं' कहिए दश कोडि गुणचास लाख छियालीस हजार (१०४६४६०००) पद पांच प्रकार चूलिका का जोड़ दीये हो हे ।
इहां ग कार ते तीन का अंक, त कार तै छह का अंक, म कार ते पाच का अंक, र कार ते दोय का अंक, न कार ते बिंदी, इत्यादि अक्षर सज्ञा करि अक संज्ञा कहे है । क कार ते लेय ग कार तीसरा अक्षर है; तातें तीन का अंक कह्या । बहुरि ट कार तै त कार छठा अक्षर है; तातै छह का अंक कह्या । प कार ने म कार पांचवां अक्षर है; तातें पांच का अंक कह्या । य कार ते र कार दूसरा अक्षर है; तातें दोय का अंक कह्या है । न कार ते विदी कही है । इत्यादि यहा अक्षर संज्ञा ते अंक जानने।
पण्णठ्ठदाल पणतीस, तीस पण्णास पण्ण तेरसदं । णउदी दुदाल पुवे, पणवण्णा तेरससयाई ॥३६५॥
छस्सय पण्णासाइं, चउसयपण्णास छसयपणवीसा। बिहि लक्खेहि दु गुणिया, पंचम रूऊण छज्जुदा छठे ॥३६६।।
पंचाशदष्टचत्वारिंशत् पंत्रिशत् त्रिंशत् पंचाशत् पंचाशत्त्रयोदशशतं । नवतिः द्वाचत्वारिंशत् पूर्वे पंचपंचाशत् त्रयोदशशतानि ॥३६॥ षट्छतपंचाशानि, चतुः शतपंचाशत् पढ़तपंचविंशतिः ।
द्वाभ्यां लक्षाभ्यां तु गुरिणतानि पंचमं रूपोनं पट्युतानि पहें ।। । टोका - उत्पाद ग्रादि चौदह पूर्वनि विप पदनि की नामा वस्तु का उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, आदि अनेक धन, निसा पर, मी नामा प्रथम पूर्व है । इस विप जीवादि वस्तुनि नाना पार न
! युगपत् अनेक धर्म करि भये, जे उत्पाद, व्यय, प्राध, ने नीता र र ........
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५१० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६५-३६६
धर्मं भये । सो उन धर्मरूप परिणया वस्तु, सो भी नव प्रकार हो है । उपज्या, उपजै है, उपजैगा । नष्ट भया, नष्ट हो है, नष्ट होयगा । स्थिर भया, स्थिर है, स्थिर होगया । स नव प्रकार द्रव्य भया । इन एक एक का नव नव उत्पन्नपना आदि धर्म जानने । जैसे इक्यासी भेद लीये द्रव्य का वर्णन है । याके दोय लाख तें पचासको गुरिये, असा एक कोड (१०००००००) पद जानने ।
बहुरि कहिये, द्वादशांग विषै प्रधानभूत जो वस्तु, ताका अयन कहिये ज्ञान, सो ही है प्रयोजन जाका, औसा श्रग्रायणीय नामा दूसरा पूर्व है । इस विषै सात सै सुनय अर दुर्नय, तिनिका अर सप्त तत्त्व, नव पदार्थ, षद्रव्य इत्यादि का वर्णन है । याके दोय लाख ते अड़तालीस कौं गुणिये, असें छिनवै लाख ( ९६००००० ) पद है ।
बहुरि वीर्य कहिये जीवादिक वस्तु की शक्ति - समर्थता, ताका है अनुप्रवाद कहिये वर्णन, जिस विषै औसा वीर्यानुवाद नामा तीसरा पूर्व है । इस विषै आत्मा का वीर्य, पर का वीर्य, दोऊ का वीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भाववीर्य, तपोवीर्य इत्यादिक द्रव्य गुण पर्यायनि का शक्तिरूप वीर्य तिसका व्याख्यान है । याकौं दोय लाख तैं पैंतीस कौं गुणिये असे सत्तर लाख ( ७००००००) पद है ।
बहुरि अस्ति, नास्ति आदि जे धर्म तिनिका है प्रवाद कहिये प्ररूपण इस विषै असा अस्ति नास्ति प्रवाद नामा चौथा पूर्व है । इस विषे जीवादि वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि सयुक्त हैं । ताते स्यात् अस्ति है । बहुरि पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विषै यह नाही है; तातै स्यान्नास्ति है । बहुरि अनुक्रम तें स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्रपेक्षा स्यात् अस्ति नास्ति है । बहुरि युगपत् स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा द्रव्य कहने में न आवे, तातें स्यात् अवक्तव्य है । बहुरि स्व द्रव्य, क्षेत्र काल भाव करि द्रव्य अस्ति रूप है । बहुरि युगपत् स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि कहने मे आवै ताते स्यात् अस्ति अवक्तव्य है । बहुरि पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि द्रव्य नास्तिरूप है । बहुरि युगपत् स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव करि द्रव्य कहने में न श्रावै; तातें स्यात्नास्ति वक्तव्य है । बहुरि अनुक्रम त स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा द्रव्य अस्ति नास्ति रूप है । अर युगपत् स्व पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा अवक्तव्य है; तातें स्यात् अस्ति - नास्ति अवक्तव्य है । असें जिस प्रकार अस्ति नास्ति अपेक्षा सप्त भेद कह है । तैसें एक-अनेक
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५११ धर्म अपेक्षा सप्त भग हो है । अभेद अपेक्षा स्यात् एक है। भेद अपेक्षा स्यात् अनेक है। क्रम तें अभेद भेद अपेक्षा स्यात् एक - अनेक है । युगपत् अभेद भेद अपेक्षा स्यात् अवक्तव्य है। अभेद अपेक्षा वा युगपत् अभेद-भेद अपेक्षा स्यात एक अवक्तव्य है। भेद अपेक्षा वा युगपत अभेद भेद अपेक्षा स्यात् अनेक अवक्तव्य है। क्रम ते अभेद - भेद अपेक्षा वा युगपत् अभेद - भेद अपेक्षा स्यात् एक - अनेक अवक्तव्य है। असे ही नित्य अनित्य नै आदि दे अनंत धर्मनि के सप्त भंग है। तहा प्रत्येक भंग तीन अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य, अर द्विसंयोगी भंग तीन अस्ति नास्ति, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अर त्रिसंयोगी एक प्रस्ति - नास्ति - अवक्तव्य । इनि सप्त भंगनि का समुदाय सो सप्तभंगी सो प्रश्न के वश ते एक ही वस्तु विर्षे अविरोधपने सभवती नाना प्रकार नयनि की मुख्यता, गौरणता करि प्ररूपण कीजिए है । इहां सर्वथा नियमरूप एकांत का अभाव लीए कथंचित् असा है अर्थ जाका सो स्यात् शब्द जानना । इस अंग के दोय लाख ते तीस कौं गुरिणए सो साठि लाख (६००००००)
बहुरि ज्ञाननि का है प्रवाद कहिए प्ररूपण, जिस विष असा ज्ञानप्रवाद नामा पांचमां पूर्व है । इस विषे मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्यय, केवल ए पांच सम्यम्ज्ञान अर कुमति, कुश्रुति, विभंग ए तीन कुज्ञान इनिका स्वरूप, संख्या वा विषय वा फल इत्यादि अपेक्षा प्रमाण अप्रमाणता रूप भेद वर्णन कीजिए है । याके दोय लाख तै पचास कौं गुण, एक कोटि होइ तिन में स्यों एक घटाइए असै एक घाटि कोडि (६६६६६६६) पद है। गाथा विष पंचम रूऊरण असा कहा है । तातै पाचमां अग में एक घटाया अन्य संख्या गाथा अनुसारि कहिए ही है ।
बहुरि सत्य का है प्रवाद कहिए प्ररूपण इस विष असा सत्यप्रवाद नामा छठा पूर्व है । इस विर्षे वचन गुप्ति - बहुरि वचन संस्कार के कारण, बहुरि वचन के प्रयोग, बहुरि बारह प्रकार भाषा, बहुरि बोलनेवाले जीवो के भेद, बहुरि बहुत प्रकार मृषा वचन, बहुरि दशप्रकर सत्य वचन इत्यादि वर्णन है । तहा असत्य न बोलना वा मौन धरना सो सत्य वचन गुप्ति कहिए ।
बहुरि वचन संस्कार के कारण दोय एक तौ स्थान, एक प्रयत्न । तहां जिनि स्थानकनि ते अक्षर बोले, जांहि ते स्थान आठ है - हृदय, कंठ, मस्तक, जिह्वा का मूल, दंत, नासिका, होठ, तालवा । जैसे अकार, क वर्ग, ह कार, विसर्ग इनिका कठ स्थान है असे अक्षरनि के स्थान जानने ।
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५१२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६५-३६६
बहुरि जिस प्रकार अक्षर कहे जांहि, ते प्रयत्न पाच है - स्पृष्टता, ईपत् स्पृष्टता, विवृतता, ईषद्विवृतता, संवृतता । तहा अंग का अंग तै स्पर्श भए, ग्रक्षर बोलिए सो स्पृष्टता । किछू थोरा स्पर्श भए बोलिए, सो ईपत्स्पृष्टता अंग कौं उघाडि बोलिए, सो विवृतता किछू थोरा उघाडि बोलिए, सो ईपद्विवृतता अग अग की ढांकि बोलिए; सो संवृतता । जैसे प कारादिक होठ से होठ का स्पर्श भएं ही उच्चारण होंइ; असे प्रयत्न जाने ।
बहुरि वचन प्रयोग दोय प्रकार शिष्टरूप भला वचन, दुष्टरूप बुरा वचन ।
बहुरि भाषा बारह प्रकार, तहां इसने जैसा कीया है; सा श्रनिष्ट वचन कहना ; सो अभ्याख्यान कहिए । बहुरि जाते परस्पर विरोध होइ; सो कलह वचन । बहुरि पर का दोष प्रकट करना; सो पैशून्य वचन | बहुरि धर्म अर्थ काम मोक्ष का संबंध रहित वचन, सो असंबंद्ध प्रलाप वचन | बहुरि इन्द्रिय विपयनि विषे रति का उपजावन हारा वचन; सो रति वचन । बहुरि विपयनि विषै रति का उपजावन हारा.वचन, सो अरति वचन । बहुरि परिग्रह का उपजावने, राखने की आसक्तता का कारण वचन; सो उपधि वचन । बहुरि व्यवहार विषै ठिगनेरूप वचन, सो निकृति वचन । बहुरि तप ज्ञानादिक विष अविनय का कारण वचन; सो प्रणति वचन । बहुरि चोरी का कारणरूप वचन, सो मोष वचन । बहुरि भले मार्ग का उपदेशरूप वचन, सो सम्यग्दर्शन वचन । बहुरि मिथ्या मार्ग का उपदेशरूप वचन, सो मिथ्यादर्शन वचन । जैसे बारह भाषा है ।
बहुरि बेइंद्रिय आदि सैनी पंचेन्द्रिय पर्यंत वचन बोलने वाले वक्तानि के भेद है । बहुरि द्रव्य क्षेत्र काल भावादिक करि मृषा जो असत्य वचन, सो बहुत प्रकार है । बहुरि जनपदादि दश प्रकार सत्य वचन पूर्वे योग मार्गणा विषै कहि आए है; असा असा कथन इस पूर्व विषै है । याके दोय लाख तै पचास कौ गुणिए अर छज्जुदा छट्टो इस वचन करि छह मिलाइए से एक कोटि छह (१००००००६) पद है ।
बहुरि आत्मा का प्रवाद कहिए प्ररूपण है, इस विषे असा श्रात्मप्रवाद नामा सातमां पूर्व है । इस विषै गाथा
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जीवो कत्ता य वेत्ता य पारणी भोत्ता य पुग्गलो । वेदी विण्हू सयंभू य सरीरी तह मारणवो ॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
सत्ता जंतू य मारपी य मायी जोगी य संकुडो।
असंकुडो य खेत्तण्हू, अंतरप्पा तहेव य ।। इत्यादि आत्मस्वरूप का कथन है; इनका अर्थ लिखिए है ।
जीवति कहिये जीव है, व्यवहार करि दश प्राणनि को, निश्चय करि ज्ञान दर्शन सम्यक्त्वरूप चैतन्य प्राणनि कौं धार है । पर पूर्वं जीया, आगे जीवेगा; ताते आत्मा को जीव कहिए।
बहुरि व्यवहार करि शुभाशुभ कर्म को अर निश्चय करि चैतन्य प्राणनि को कर है, तात कर्ता कहिए।
बहुरि व्यवहार करि सत्य असत्य वचन बोलै है; तातै वक्ता है । निश्चय करि वक्ता नाही है।
बहुरि दोऊ नयनि करि जे प्राण कहे, ते याकै पाइए है.। तातै प्राणी कहिए।
बहुरि व्यवहार करि शुभ अशुभ कर्म के फल कौ अर निश्चय करि निज स्वरूप को भोगवै है; तातें भोक्ता कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलनि कौं पूरै है अर गाले है; तातै पुद्गल कहिए । निश्चय करि आत्मा पुद्गल है नाही।
बहुरि दोऊ नयनि करि लोकालोक सबंधी त्रिकालवर्ती सर्व ज्ञेयनि को 'वेत्ति' कहिए जाने है, तातै वेदक कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि अपने देह कौं वा केवल समुद्धात करि सर्व लोक को अर निश्चय करि ज्ञान ते सर्व लोकालोक को वेवेष्टि कहिए व्याप है, तातै विष्णु कहिए।
बहुरि यद्यपि व्यवहार करि कर्म के वशते ससार विपै परिणवै है; तथापि निश्चय करि स्वयं आप ही आप विष ज्ञान - दर्शन स्वरूप ही करि भवति कहिए परिणव है, तातै स्वयंभू कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि औदारिक आदिक शरीर, याकै है। तातै शरीरी कहिये, निश्चय करि शरीरी नाही है।
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५१४ ]
] गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६५-३६६
बहुरि व्यवहार करि मनुष्यादि पर्यायरूप परिणवै है, तातै मानव कहिए । उपलक्षण ते नारकी वा तिर्यच वा देव कहिए । निश्चय करि मनु कहिए ज्ञान, तीहि विष भवः कहिए सत्तारूप है; तातै मानव कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि कुटुंब, मित्रादि परिग्रह विर्ष सजति कहिये आसक्त होइ प्रवर्ते है; तातै सक्ता कहिए । निश्चयकरि सक्ता नाही है।
बहुरि व्यवहार करि संसार विष नाना योनि विष जायते कहिए उपजै है, जातै जंतु कहिये । निश्चय करि जंतु नाही है ।
बहुरि व्यवहार करि मान कहिए अहंकार, सो याके है; तात मानी कहिए । निश्चयकरि मानी नाही है ।
बहुरि व्यवहार करि माया जो कपटाई; सो याकै है; तातै मायावी कहिए। निश्चय करि मायावी नाहीं है ।
बहुरि व्यवहारकरि मन, वचन, काय क्रियारूप योग याकै है; तातै योगी कहिए। निश्चय करि योगी नाही है ।
बहुरि व्यवहार करि सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना करि प्रदेशनि को संकोचै है; तातै संकुट है । बहुरि केवलिसमुद्धात करि सर्व लोक विष व्याप है, तातै असंकुट है । निश्चय करि प्रदेशनि का सकोच विस्तार रहित किंचित् ऊन चरम शरीर प्रमाण है, तातै संकुट, असंकुट नाही है।
वहुरि दोऊ नय करि क्षेत्र, जो लोकालोक, ताहि जानाति (ज्ञ) कहिए जाने है; तातै क्षेत्रज्ञ कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि अष्ट कर्मनि के अभ्यतर प्रवत है । अर निश्चय करि चैतन्य स्वभाव के अभ्यंतर प्रवर्ते है; तातै अंतरात्मा कहिए ।
चकार ते व्यवहार करि कर्म - नोकर्म रूप मूर्तीक द्रव्य के सबध ते मूर्तीक है; निश्चय करि अमूर्तीक है। इत्यादिक आत्मा के स्वभाव जानने । इनिका व्याख्यान इस पूर्व विष है । याके दोय लाख ते तेरह से कौ गुणिए जैसे - छब्बीस कोडि (२६०००००००) पद है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ५१५
बहुरि कर्म का है प्रवाद कहिए प्ररूपण, इसविषै औसा कर्मप्रवाद नामा ाठमां पूर्व है । इसविषै मूल प्रकृति, उत्तर प्रकृति, उत्तरोत्तर प्रकृतिरूप भेद लीए बध, उदय, उदीरणा, सत्ता रूप अवस्था को धरै ज्ञानावरणादिक कर्म, तिनिके स्वरूप को वा समवधान, ईर्यापथ, तपस्या, अद्य:कर्म इत्यादिक क्रियारूप कर्मनि कौ प्ररूपए है । याके दोय लाख ते निवै की गुरिए, जैसे एक कोडि अस्सी लाख (१८००००००) पद हैं ।
बहुरि प्रत्याख्यायते कहिए निषेधिए है पाप जाकरि, ऐसा प्रत्याख्यान नामा नवमां पूर्व है । इसविषै नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपेक्षा जीवनि का संहनन वा बल इत्यादिक के अनुसार करि काल मर्यादा लीए वा यावज्जीव प्रत्याख्यान कहिए सकल पाप सहित वस्तु का त्याग ; उपवास की विधि, ताकी भावना, पाच समिति, तीन गुप्ति इत्यादि वर्णन कीजिए है । याके दोय लाख ते बियालीस कौ गुणिए, जैसे चौरासी लाख ( ८४००००० ) पद है ।
बहुरि विद्यानि का है अनुवाद कहिए अनुक्रमते वर्णन इस विषे असा विद्यानुवाद नामा दशमां पूर्व है । इसविषे सात से अगुष्ठ, प्रेत्ससेन आदि अल्पविद्या अर पाच से रोहिणी आदि महाविद्या, तिनका स्वरूप, समर्थता, साधनभूत मत्र, यंत्र, पूजा, विधान, सिद्ध भये पीछे उन विद्यानि का फल बहुरि अतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षरण, व्यजन, छिन्न ए आठ महानिमित्त इत्यादि प्ररुपिए । सो याके दोय लाख ते पचावन को गुणिए जैसे एक कोड दश लाख ( ११०००००० ) पद है ।
बहुरि कल्याणनि का है वाद कहिए प्ररूपण जाविषै औसा कल्याणवाद नामा ग्यारह्नां पूर्व है । इस विषै तीर्थकर, चक्रवति, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण इनके गर्भ आदिक कल्याण कहिए महा उच्छव बहुरि तिनके कारणभूत पोटश भावना, तपश्चरण आदिक क्रिया । बहुरि चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र इनिका गमनविशेष, ग्रहण, शकुन, फल इत्यादि विशेष वर्णन कीजिए है । याके दोय लाख तं नेह से कौ गुणिए से छब्बीस कोड ( २६०००००००) पद है ।
C
बहुरि प्राणनि का है आवाद कहिए प्ररूपण इसविषै जैसा प्रारणावाद नामा बारां पूर्व है । इसविषै चिकित्सा आदि आठ प्रकार वैद्यक, अर भूतादि व्याधि दूर करने को कारण मत्रादिक वा विष दूरि कररणहारा जो जागुलिक, नाका कर्म वा
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५१६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६५-३६८ इला, पिंगला, सुष्मणा, इत्यादि स्वरोदय रूप बहुत प्रकार कारणरूप सासोस्वास का भेद; बहुरि दश प्राणनि कौं उपकारी वा अनुपकारी वस्तु गत्यादिक के अनुसारि वर्णन कीजिए है; सो जाके दोय लाख ते छह सै पचास कौं गुणिए, ऐसे तेरह कोडि (१३०००००००) पद हैं।
बहुरि क्रिया करि विशाल कहिए विस्तीर्ण, शोभायमान असा क्रियाविशाल नामा तेरह्वां पूर्व है । इसविणे संगीत, शास्त्र, छंद, अलंकारादि शास्त्र, बहत्तरि कला, चौसठि स्त्री का गुण शिल्प आदि चातुर्यता, गर्भाधान आदि चौरासी क्रिया, सम्यग्दर्शनादि एक से आठ क्रिया, देववंदना आदि पचीस क्रिया और नित्य नैमित्तिक क्रिया इत्यादिक प्ररूपिए है । याके दोय लाख ते च्यारि से पचास कौं गुणिए असे नव कोडि (६०००००००)पद है ।
बहुरि त्रिलोकनि का बिंदु कहिए अवयव अर सार सो प्ररूपिए है, याविष असा त्रिलोकबिदुसार नामा चौदह्वां पूर्व है । इसविर्ष तीन लोक का स्वरूप पर छब्बीस परिकर्म, आठ व्यवहार, च्यारि बीज इत्यादि गणित पर मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष का कारणभूत क्रिया, मोक्ष का सुख इत्यादि वर्णन कीजिए है । याके दोय लाख तै छह सै पचीस कौं गुणिए, असे बारह कोडि पचास लाख (१२५००००००)पद हैं।
असे चौदह पूर्वनि के पदनि की संख्या हो है । इहां दोय लाख का गुणकार का विधान करि गाथा विर्षे संख्या कही थी; तातै टीका विषै भी तैसे ही कही है।
सामाइय चउवीसत्थयं, तदो वंदरणा पडिक्कमणं । वेणइयं किदियम्मं, दसवेयालं च उत्तरज्झयणं ॥३६७॥ कप्पववहार-कप्पाकप्पिय-महकप्पियं च पुंडरियं । महपुंडरीयणिसिहियमिदि चोद्दसमंगबाहिरयं ॥३६८॥
सामायिकं चतुर्विशस्तवं, ततो वंदना प्रतिक्रमणं । वनयिक कृतिकर्म, दशवकालिकं च उत्तराध्ययनं ॥३६७॥ कल्प्यव्यवहार - कल्प्याकल्प्य - महाकल्प्यं च पुडरीकं । महापुंडरीकं निषिद्धिका इति चतुर्दशांगबाह्य ॥३६८॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
{ ५१७ टीका - बहुरि प्रकीर्णक नामा अंगबाह्य द्रव्यश्रुत, सो चोदह प्रकार है। सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प्यव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुडरीक, महापुडरीक, निषिद्धिका।
तहां सं कहिए एकत्वपनै करि आयः कहिए आगमन पर द्रव्यनि ते निवृति होइ, उपयोग की आत्मा विर्षे प्रवृत्ति 'यहु मै ज्ञाता द्रष्टा हौ' अस आत्मा विष उपयोग सो सामायिक कहिए । जातै एक ही आत्मा सो जानने योग्य है; तातै ज्ञेय है । अर जानने हारा है, तातें ज्ञायक है । ताते आप को ज्ञाता द्रष्टा अनुभव है ।
अथवा सम कहिए राग-द्वेष रहित मध्यस्थ आत्मा, तिस विष आयः कहिए उपयोग की प्रवृत्ति; सो सामायिक कहिए, समाय है प्रयोजन जाका सो सामायिक कहिए । नित्य नैमित्तिक रूप क्रिया विशेष, तिस सामायिक का प्रतिपादक शास्त्र सो भी सामायिक कहिए ।
सो नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भेद करि सामायिक छह प्रकार है।
तहां इष्ट - अनिष्ट नाम विर्ष राग द्वष न करना । अथवा किसी वस्तु का सामायिक जैसा नाम धरना, सो नाम सामायिक है।
बहुरि मनोहर वा अमनोहर जो स्त्री - पुरुषादिक का आकार लीए काठ, लेप, चित्रामादि रूप स्थापना तिन विर्ष राग - द्वेष न करना । अथवा किसी वस्तु विष यह सामायिक है, असा स्थापना करि स्थाप्यो हवा वस्तु, सो स्थापनासामायिक है । बहुरि इष्ट - अनिष्ट, चेतन - अचेतन द्रव्य विर्ष राग - द्वेप न करना । अथवा जो सामायिक शास्त्र की जान है अर वाका उपयोग सामायिक विपं नाही है, मो जीव वा उस सामायिक शास्त्र के जाननेवाले का शरीरादिक, सो द्रव्य सामायिक है।
बहुरि ग्राम, नगर, वनादिक इप्ट अनिष्ट क्षेत्र, तिन विप राग द्वेष न करना, सो क्षेत्र सामायिक है ।
बहुरि बसंत आदि ऋतु अर शुक्लपक्ष, कृष्णपक्ष, दिन, वार, नक्षम त्यादि इष्ट - अनिष्ट काल के विशेष, तिनिवि राग - द्वेप न करना, सो काल नागायिक
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६७-३६८
बहुरि भाव, जो जीवादिक तत्त्व विषै उपयोगरूप पर्याय, ताके मिथ्यात्वकषायरूप संक्लेशपना की निवृत्ति अथवा सामायिक शास्त्र कौ जाने है पर उस ही विषै उपयोग जाका है, सो जीव अथवा सामायिक पर्यायरूप परिणमन, सो भावसामायिक है ।
जैसे सामायिक नामा प्रकीर्णक कया है ।
५१८ ]
बहुरि जिस काल विषै जिनका प्रवर्तन होइ, तिस काल विषै तिन ही चौबीस तीर्थंकरनि का नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव का आश्रय करि पंच कल्याणक, चौतीस अतिशय आठ प्रातिहार्य, परम श्रदारिक दिव्य शरीर, समवसरणसभा, धर्मोपदेश देना इत्यादि तीर्थकरपने की महिमा का स्तवन सो चतुर्विंशतिस्तव कहिए | ताका प्रतिपादक शास्त्र, सो चतुर्विंशतिस्तव नामा प्रकीर्णक है ।
बहुरि एक तीर्थकर का अवलंबन करि प्रतिमा, चैत्यालय इत्यादिक की स्तुति, सो वंदना कहिए | याका प्रतिपादक शास्त्र, सो वंदना प्रकीरक कहिए ।
बहुरि प्रतिक्रम्यते कहिए प्रमाद करि कीया है दैवसिक आदि दोष, तिनिका निराकरण जाकरि कीजिए, सो प्रतिक्रमरण प्रकीर्णक कहिए । सो प्रतिक्रमण प्रकीर्णक सात प्रकार है - दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक उत्तमार्थ ।
तहां संध्यासमय दिन विषै कीया दोष, जाकरि निवारिए, सो दैवसिक है । बहुरि प्रभातसमय रात्रि विषै कीया दोष जाकरि निवारिए, सो रात्रिक है । बहुरि पंद्र दिन, पक्ष विर्ष कीया दोष जाकरि निवारिए, सो पाक्षिक कहिए । बहुरि चौथे महीने च्यारिमास विषै कीए दोष जाकर निवारिए, सो चातुर्मासिक कहिए । बहुरि वर्ष दिन एकवर्ष विषै कीए दोष जाकरि निवारिए, सो सांवत्सरिक कहिए । बहुरि गमन कर तै निपज्या दोष जाकरि निवारिए; सो ऐर्यापथिक कहिए । बहुरि सर्व पर्याय सबंधी दोष जाकरि निवारिए; सो उत्तमार्थ है । औसे सात प्रकार प्रतिक्रमण
जानना ।
सो भरतादि क्षेत्र र दुःषमादिकाल, छह संहनन करि संयुक्त स्थिर वा अस्थिर पुरुषनि के भेद, तिनकी अपेक्षा प्रतिक्रमण का प्रतिपादक शास्त्र, सो प्रतिमरण नामा प्रकीर्णक कहिए ।
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५२२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३७१
अवधीयत इत्यवधिः सीमाज्ञानमिति वरिणतं समये । भवगुणप्रत्ययविधिकं, यदवधिज्ञानमिति ब्रुवंति ॥३७०॥
टीका - अवधीयते कहिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करि परिमाण जाका कीजिए, सो अवधिज्ञान जानना । जैसे मति, श्रुत, केवलज्ञान का विषय द्रव्य, क्षेत्रादि करि अपरिमित है; तैसै अवधिज्ञान का विषय अपरिमित नाही। श्रुतज्ञान करि भी शास्त्र के बल तै अलोक वा अनन्तकाल आदि जाने । अवधिज्ञान करि जेता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रमाण आगे कहेगे; तितना ही प्रत्यक्ष जाने । तातै सीमा जो द्रव्य क्षेत्रादि की मर्यादा, ताको लीए है विषय जाका, असा जो ज्ञान, सो अवधिज्ञान है; असे सर्वज्ञदेव सिद्धांत विष कहे है।
सो अवधिज्ञान दोय प्रकार कह्या है। एक भवप्रत्यय, एक गुणप्रत्यय । तहा भव जो नारकादिक पर्याय, ताके निमित्त तै होइ; सो भवप्रत्यय कहिए, जो नारकादि पर्याय धारै ताके अवधिज्ञान होइ ही होइ, तातै इस अवधिज्ञान को भवप्रत्यय कहिए । बहुरि गुणप्रत्यय कहिए सम्यग्दर्शनादि रूप, सो है निमित्त जाका; सो गुणप्रत्यय कहिए । मनुष्य, तिथंच सर्व ही कै अवधिज्ञान नाही; जाकै सम्यग्दर्शनादिक की विशुद्धता होइ, ताकै अवधिज्ञान होइ, तातै इस अवधिज्ञान को गुणप्रत्यय कहिए।
भवपच्चइगो सुरणिरयारणं तित्थे वि सव्वगुत्थो। गुणपच्चइगो परतिरियाणं संखादिचिह णभवो ॥३७१॥
भवप्रत्ययकं सुरनारकाणां तीर्थेऽपि सर्वागोत्यम् ।
गुरणप्रत्ययक नरतिरश्चां शंखादिचिह्न भवम् ॥३७१॥ टीका - तहा भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवनि के, नारकीनि के अर चरम शरीरी तीर्थंकर देवनि के पाइए है । सो यहु भवप्रत्यय अवधिज्ञान 'सर्वागोत्थं' कहिए सर्व आत्मा के प्रदेशनि विष तिष्ठता अवधिज्ञानावरण अर वीर्यांतराय कर्म, ताके क्षयोपशम तै उत्पन्न हो है।
वहुरि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है, सो पर्याप्त मनुष्य अर सैनी पंचेद्री पर्याप्त तिर्यच, इनिके सभवै है । सो यहु गुणप्रत्यय अवधिज्ञान 'शंखादिचिन्हभवम्' कहिए
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सम्यग्ज्ञानचन्त्रिका भाषाटोका ]
[ ५२३ नाभि के ऊपरि शंख, कमल, वज्र, साथिया, माछला, कलस इत्यादिक का आकार रूप जहा शरीर विषै भले लक्षण होइ, तहां संबंधी जे आत्मा के प्रदेश, तिनि विर्षे तिष्ठता जो अवधिज्ञानावरण कर्म अर वीर्यांतराय कर्म, तिनिके क्षयोपशम ते उत्पन्न
भवप्रत्यय अवधिज्ञान विष भी सम्यग्दर्शनादि गुण का सद्भाव है, तथापि उन गुणों की अपेक्षा नाही करने ते भवप्रत्यय कह्या अर गुणप्रत्यय विष मनुष्य तियंच भव का सद्भाव है; तथापि उन पर्यायनि की अपेक्षा नाही करने ते गुणप्रत्यय कह्या है।
गुणपच्चइगो छद्धा, अणुगावट्ठिदपवड्ढमाणिदरा। देसोही परमोही, सम्वोहि ति यतिधा अोही ॥३७२॥
गुरणप्रत्ययकः षोढा, अनुगावस्थितप्रवर्धमानेतरे ।
देशावधिः परमावधिः, सर्वावधिरिति च त्रिधा अवधिः ॥३७२॥ टीका - जो गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है, सो छह प्रकार है - अनुगामी, अवस्थित, वर्धमान, अर इतर कहिए अननुगामी, अनवस्थित, हीयमान असे छह प्रकार है।
__ तहां जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव के साथि ही गमन करें, ताकी अनुगामी कहिए । ताके तीन भेद - क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी, उभयानुगामी । तहा जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र विष उपज्या था, तिस क्षेत्र को छोड़ि, जीव और क्षेत्र विप बिहार कीया, तहा भी वह अवधिज्ञान साथि ही रह्या, विनष्ट न हुवा और पर्याय धरि विनष्ट होइ, सो क्षेत्रानुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान जिस पर्याय विष उपज्या था, तिस पर्याय को छोडि, जीव और पर्याय को धर्या तहा भी वह अवधिज्ञान साथि ही रह्या, सो भवानुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र वा पर्याय विष उपज्या था, तातै जीव अन्य भरतादि क्षेत्र विप गमन कीया वा अन्य देवादि पर्याय धऱ्या, तहा साथि ही रहै, सो उभयानुगामी कहिए ।
बहुरि जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव की साथि गमन न करे, सो अननुगामी कहिए । याके तीन भेद क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी, उभयाननुगामी । तहा जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र विपै उपज्या होइ, तिस क्षेत्र विपं तो जीव पार पर्याय धरी वा
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५२४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३७३
मति धरौ वह अवधिज्ञान साथि ही रहै है । अर उस क्षेत्र तै जीव और कोई भरत, ऐरावत, विदेहादि क्षेत्रनि विषै गमन करै, तो वह ज्ञान अपने उपजने का क्षेत्र ही विपै विनष्ट होइ, सो क्षेत्राननुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान जिस पर्याय विषै उपज्या होइ, तिस पर्याय विषै तो जीव और क्षेत्र विषै तौ गमन करौ वा मति करौ वह अवधिज्ञान साथि रहे अर उस पर्याय ते अन्य कोई देव मनुष्य आदि पर्याय धरै तौ अपने उपजने का पर्याय विषे विनष्ट होइ, सो भवाननुगामी कहिये । बहुरि जो अवधिज्ञान और क्षेत्र विषै वा और पर्याय विषै जीव कौं प्राप्त होते साथि न रहै; अपने उपजने का क्षेत्र वा पर्याय विषे ही विनष्ट होइ; सो उभयाननुगामी कहिए ।
बहुरि जो अवधिज्ञान सूर्यमंडल की ज्यों घटै बधै नाही, एक प्रकार ही रहे; सो अवस्थित कहिए ।
बहुरि जो अवधिज्ञान कदाचित् बधै, कदाचित् घटै, कदाचित् श्रवस्थित रहै; सो अनवस्थित कहिये ।
बहुरि जो अवधिज्ञान शुक्ल पक्ष के चंद्रमंडल की ज्यौं बघता बघता अपने उत्कृष्ट पर्यंत वधै; सो वर्धमान कहिए ।
वहुरि जो अवधिज्ञान कृष्ण पक्ष के चंद्रमंडल की ज्यों घटता घटता अपने नाश पर्यंत घट; सो हीयमान कहिए । जैसे गुरणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद कहे ।
बहुरि तैसे ही सामान्यपर्ने अवधिज्ञान तीन प्रकार है - देशावधि, परमावधि, सर्वावधि ए तीन भेद है । तहां गुणप्रत्यय देशावधि ही छह प्रकार जानना ।
भवपच्चइगो ओही, देसोही होदि परमसव्वोही । गुगपच्चइगो रियमा, देसोही वि य गुणे होदि ॥ ३७३ ॥
भवप्रत्ययकोवधिः, देशावधिः भवति परमसर्वावधिः । गुणप्रत्ययको नियमात्, देशावधिरपि च गुणे भवति ॥ ३७३ ॥
टीका तीर्थंकर इनके परमावधि सर्वावधि होइ नाही ।
भवप्रत्यय अवधि तौ देशावधि ही है, जातै देव, नारकी,
गृहस्थ,
बहुरि परमावधि र सर्वावधि निश्चय सौं गुणप्रत्यय ही है; जातै संयमरूप विशेष गुण विना न होइ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५२५
बहुरि देशावधि भी सम्यग्दर्शनादि गुरण होत सतै हो है, तातै गुणप्रत्यय अवधि तो तीन प्रकार ही है । अर भवप्रत्यय अवधि एक देशावधि ही है ।
देसावहिस्स य अवरं, गरतिरिये होदि संजदमि वरं । परमोही सव्वोही, चरमसरीरस्स विरदस्स || ३७४॥
टीका देशावधि का जघन्य भेद सयमी वा असयमी मनुष्य, तियंच विषै ही हो है; देव, नारकी विषे न हो है । बहुरि देशावधि का उत्कृष्ट भेद सयमी, महाव्रती, मनुष्य विषै ही हो है; जाते और तीन गति विषे महाव्रत संभव नाहीं ।
देशावधेश्च वरं, नरतिरश्चोः भवति संयते वरम् । परमावधिः सर्वावधिः, चरमशरीरस्य विरतस्य || ३७४ ||
नाही ।
बहुरि परमावधि र सर्वावधि जघन्य वा उत्कृष्ट (वा) चरम शरीरी महाव्रतो मनुष्य विषै संभव है ।
――――
चरम कहिए संसार का अत विषै भया, तिस ही भवतं मोक्ष होने का कारण, असा वज्रवृषभनाराच शरीर जिसका होइ, सो चरमशरीरी कहिए ।
टीका
पडिवादी सोही, पडिवादी हवंति सेसा ओ । मिच्छत्तं अविरमरणं, ण य पडिवज्जंति चरिमदुगे || ३७५ ||
प्रतिपाती देशावधिः, अप्रतिपातिनौ भवतः शेषौ अहो । मिथ्यात्वमविरमण, न च प्रतिपद्यन्ते चरमद्विके ॥ ३७५ ॥
देशावधि ही प्रतिपाती है; शेष परमावधि, सर्वावधि प्रतिपाती
-
प्रतिपात कहिए सम्यक् चारित्र सौ भ्रष्ट होइ, मिथ्यात्व असयम की प्राप्त होना, तीहि सयुक्त जो होइ; सो प्रतिपाती कहिए ।
जो प्रतिपाती न होइ, सो प्रतिपाती कहिए । देशावधिवाला तो कदाचित् सम्यक्त्व चारित्र सौ भ्रष्ट होइ, मिथ्यात्व असयम को प्राप्त हो है । र चरमद्विक कहिए अंत का परमावधि - सर्वावधि दोय ज्ञान विषै वर्तमान जीव, तो निश्चय त
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५२६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३७६-३७७ मिथ्यात्व अर अविरति को प्राप्त न हो है। जाते देशावधि तौ प्रतिपाती भी है; अप्रतिपाती भी है । परमावधि, सर्वावधि अप्रतिपाती ही हैं।
दव्वं खेत्तं कालं, भावं पडि रूवि जाणदे प्रोही। अवरादुक्कस्सो त्ति य, वियप्परहिदो दु सव्वोही ॥३७६॥
द्रव्यं क्षेत्रं कालं, भावं प्रति रूपि जानीते अवधिः।
अवरादुत्कृष्ट इति च, विकल्परहितस्तु सर्वावधिः ॥३७६॥ टीका - अवधिज्ञान जघन्य भेद तै लगाइ उत्कृष्ट भेद पर्यंत असख्यात लोक प्रमाण भेद धरै है; सो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रति मर्यादा लीए रूपी जो पुद्गल अर पुद्गल सबंध को धरै संसारी जीव, तिनिको प्रत्यक्ष जान है । बहुरि सर्वावधिज्ञान है, सो जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद रहित, हानि - वृद्धि रहित, अवस्थित सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त है, जाते अवधिज्ञानावरण का उत्कृष्ट क्षयोपशम तहां ही संभव है । तातै देशावधि, परमावधि के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद संभव हैं ।
णोकम्मुरालसंचं, मज्झिमजोगोज्जियं सविस्सचयं । लोयविभत्तं जाणदि, अवरोही दव्वदो रिणयमा ॥३७७॥
नोकौं दारिकसंचयं, मध्यमयोगाजितं सविनसोपचयम् ।
लोकविभक्तं जानाति, अवरावधिः द्रव्यतो नियमात् ॥३७७॥ टीका - मध्यम योग का परिणमन ते निपज्या असा नोकर्मरूप औदारिक शरीर का सचय कहिए द्वयर्ध गुणहानि करि औदारिक का समयप्रबद्ध को गुणिए, तिहि प्रमाण औदारिक का सत्तारूप द्रव्य, बहुरि सो अपने योग्य विस्रसोपचय के परमाणूनि करि सयुक्त, ताकी लोकप्रमाण असंख्यात का भाग दीएं, जो एक भाग मात्र द्रव्य होइ, तावन्मात्र ही द्रव्य को जघन्य अवधिज्ञान जान है। यात अल्प स्कंध को न जान है; जघन्य योगनि ते जो निपजै है सचय, सो यात सूक्ष्म हो है; तातै तिस को जानने की शक्ति नाही । बहुरि उत्कृष्ट योगनि ते जो विपजै है संचय, सो यातै स्थूल है, ताकौ जान ही है जातै जो सूक्ष्म को जाने, ताकै उसतै स्थूल को जानने में किछू विरुद्ध (विरोध)नाही । तातै यहां मध्यम योगनि करि निपज्या असा औदारिक शरीर का संचय कह्या । बहुरि विस्रसोपचय रहित सूक्ष्म हो है, तातै वाकै जानने की शक्ति
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका )
[ ५२७ नाही; तातै विस्रसोपचय सहित कह्या । जैसै स्कंध को लोक के जितने प्रदेश है, उतने खंड करिये। तहां एक खड प्रमाण पुद्गल परमाणूनि का स्कध नेत्रादिक इद्रियनि के गोचर नाहीं । ताकौं जघन्य देशावधिज्ञान प्रत्यक्ष जाने है। जैसा जघन्य देशावधि ज्ञान का विषयभूत द्रव्य का नियम कह्या।
सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स, जादस्स तदियसमयम्हि । अवरोगाहणमाणं, जहण्णयं प्रोहिखेत्तं तु ॥३७८॥
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य, जातस्य तृतीयसमये ।
अवरावगाहनमानं, जघन्यकमवधिक्षेत्रं तु ॥३७८॥ टीका - बहुरि सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक के जन्म ते तीसरा समय के विर्षे जघन्य अवगाहना का प्रमाण पूर्वं जीव समासाधिकार विष कह्या था, तीहिं प्रमाण जघन्य अवगाहना का क्षेत्र जानना। इतने क्षेत्र विषै पूर्वोक्त प्रमाण लीए वा तिसत स्थूल जेते पुद्गल स्कध होंइ, तिनिको जघन्य देशावधिज्ञान जाने है। इस क्षेत्र के बारै तिष्ठते जे होइ, तिनको न जाने है, जैसे क्षेत्र की मर्यादा कही।
अवरोहिखेत्तदोहं, वित्थारुस्सेहयं ण जाणामो । अण्णं पुण समकरणे, अवरोगाहणपमाणं तु ॥३७६॥
अवरावधिक्षेत्रदीर्घ, विस्तारोत्सेधकं न जानीमः ।
अन्यत् पुनः समीकरणे, अवरावगाहनप्रमाणं तु ॥३७९॥ टीका - बहुरि जघन्य देशावधिज्ञान का विषय भूत क्षेत्र की लवाई, चौडाई, ऊंचाई का प्रमाण हम न जाने है कितना कितना है, जाते इहा असा उपदेश नाही, परंतु परम गुरुनि का उपदेश की परम्परा ते इतना जाने है, जो भुज, कोटि, वेधनि का समीकरण ते जो क्षेत्रफल होइ, सो जघन्य अवगाहना के समान धनांगुल के असंख्यातवे भागमात्र हो है ।
आम्ही साम्ही दोय दिसानि विषै जो कोई एक दिशा सबंधी प्रमाण, सो भुज कहिये।
अवशेष दोय दिसानि वि कोई एक दिशा संवधी प्रमाण, सो कोटि कहिए।
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५२८ ]
। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३८०
ऊंचाई का प्रमाण कौं, वेध कहिए।
प्रवृत्ति विष लबाई, ऊंचाई, चौडाई तीन नाम है। सो इनिका क्षेत्र, खंड विधान से समान प्रमाण करि क्षेत्रफल कीए, जो प्रमाण आवै, तितना क्षेत्रफल जानना । जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का अर जघन्य अवगाहना रूप क्षेत्र का क्षेत्रफल समान है, इतना तो हम जाने है । अर भुज, कोटि, वेध का प्रमाण कैसे है ? सो हम जानते नाही, अधिक ज्ञानी जाने ही हैं।
अवरोगाहणमारणं, उस्सेहंगुलप्रसंखभागस्स । सूइस्स य घणपदरं, होवि हु तक्खेत्तसमकरणे ॥३८०॥
अवरावगाहनमानमुत्सेधांगुलासंख्यभागस्य ।
सूचेश्च घनप्रतरं, भवति हि तत्क्षेत्रसमीकरणे ॥३८०॥ टीका - इहां कोऊ प्रश्न करै कि जघन्य अवगाहनारूप क्षेत्र का प्रमाण कहा, सो कैसाक है ?
ताका समाधान - जघन्य अवगाहना रूप क्षेत्र का आकार कोऊ एक नियम रूप नाहीं तथापि क्षेत्र, खंड विधान करि सदृश कीजिए, तब भुज का वा कोटि का वा वेध का प्रमाण उत्सेधांगुल को योग्य असंख्यात का भाग दीएं, जो एक भाग का प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि भुज को वा कोटि कौ वा वेध कौ परस्पर गुण, घनागुल के असख्यातवे भागमात्र प्रकट क्षेत्रफल भया, सो जघन्य अवगाहना का प्रमाण है । याही के समान जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र है। इहा क्षेत्र, खड विधान करि समीकरण का उदाहरण और भी दिखाइए है।
जैसे लोकाकाश ऊचाई, चौडाई, लबाई विष हीनाधिक प्रमाण लीए है । ताका क्षेत्रफल फैलाइए, तब तीन सै तेतालीस राज प्रमाण घनफल होइ, अर जो हीनाधिक को बधाइ, घटाइ, समान प्रमाण करि सात - सात राजू की ऊचाई, लंबाई, चौड़ाई कल्पि परस्पर गुणन करि क्षेत्रफल कीजिए। तब भी तीन सै तेतालीस ही राजू होइ । जैसे ही इहा जघन्य क्षेत्र की लबाई, चौड़ाई, ऊ चाई हीनाधिक प्रमाण लीएं है । परि क्षेत्र खंड विधान करि समीकरण कीजिए, तब ऊंचाई का वा चौड़ाई का वा लबाई का प्रमाण उत्सेधागुल के असंख्यातवे भागमात्र होइ ।
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[ ५२६
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
इनिको परस्पर गुणन कीए, घनांगुल का असख्यातवा भाग प्रमाणघन क्षेत्रफल हो है, सो इतना ही प्रमाण जघन्य अवगाहना का है । अर इतना ही प्रमाण जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का है, तातै समान कहै है ।
श्रवरं तु ओहिखेत्तं, उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा | सुमोगाहणमाणं, उवरि पमाणं तु अंगुलयं ॥ ३८१॥ श्रवरं तु श्रवधिक्षेत्रं, उत्सेधमंगुलं भवेद्यस्मात् । सूक्ष्मावगाहनमानमुपरि प्रमाणं तु अंगुलकम् ॥ ३८१॥
टीका बहुरि जो यहु जघन्य अवगाहना समान जघन्य देशावधि का क्षेत्र, घनांगुल के असंख्यातवे भाग मात्र कह्या, सो उत्सेधागुल का घन प्रमारण जो घनांगुल, ताके असंख्यातवें भागमात्र जानना । जाते इहां सूक्ष्म निगोद, लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना के समान जघन्य देशावधि का क्षेत्र कह्या, सो शरीरनि का प्रमाण है, सो उत्सेधांगुल ही ते है, जाते परमागम विषै भैसा कया है कि देह, गेह, ग्राम, नगर इत्यादिक का प्रमाण उत्सेधांगुल तें है । तातै इहां जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रमाण भी उत्सेधांगुल की ही अपेक्षा जानना । इस उत्सेधांगुल का ही नाम व्यवहारांगुल है ।
――
बहुरि आगे जो 'अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज' इत्यादि सूत्र उक्त काडकनि विषै अंगुल का है । सो वह अंगुल प्रमाणांगुल जानना । जाते वाके आगे हस्त, क्रोश, योजन, भरत, क्षेत्रादि उत्तरोत्तर कहैं हैं । बहुरि श्रागम विषै द्वीप, क्षेत्रादि का प्रमाण प्रमारणागुल ते कह्या है । तातै तहा प्रमाणांगुल ही का ग्रहण करना ।
अवरोहिखेत्तम, अवरोही अवरदव्वमवगमदि । तद्दव्वस्वगाहो, उस्सेहासंखघणपदरो ॥ ३८२॥
अवरावधिक्षेत्रमध्ये अवरावधिः श्रवरद्रव्यमवगच्छति । तद्द्द्रव्यस्यावगाहः उत्सेधासंख्यघनप्रतरः ||३८२॥
टीका - तीहि जघन्य अवधिज्ञान सबधी क्षेत्र विषे जे पूर्वोक्त जघन्य अवधि ज्ञान के विषय भूत द्रव्य तिष्ठे हैं; तिनकौ जघन्य देशावधिज्ञानी जीव जाने है। तीहि क्षेत्र विषै तैसे प्रदारिक शरीर के संचय कौ लोक का भाग दीए एक भाग मात्र खंड
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गोम्मटसार जीवकाण्डमाया ३८३-३०४
५३० असंख्यात पाइए है; तिनि सबनि कौं जान है । वहुरि इस प्रमाण ते एक, दोय आदि जिस स्कंधनि के बधते प्रदेश होंहि तिनिको तो जाने ही जान, जातै मुदम को जाने स्थूल का जानना सुगम है । बहुरि जो पूर्व जघन्य अवधिज्ञान संवधी द्रव्य कह्या था, तिसकी अवगाहना का प्रमाण, तिस जघन्य अवधि का क्षेत्र का प्रमाण के असंख्यातवे भागमात्र है, तथापि धनांगुल के असंख्यातवे भागमात्र ही है । अर वाकै भुज, कोटि, वेध का भी प्रमाण सूच्यंगुल के असंख्यातवे भागमात्र है । असंख्यात के भेद घने हैं, तातै यथासभव जानि लेना।
आवलिअसंखभागं, तीदभविस्सं च कालदो अवरं । ओही जाणदि भावे, कालअसंखेज्जमागं तु ॥३८३॥
पावल्यसंख्यभागमतीतभविष्यच्च कालतः अवरम् ।
अवधिः जानाति भावे, कालसंख्यातभागं तु ॥३८३॥ टीका - जघन्य अवधिज्ञान है, सो काल तै आवली के असख्यातवे भागमात्र अतीत, अनागत काल को जान है । बहुरि भाव ते आवली का असंख्यातवां भागमात्र काल प्रमाण का असंख्यातवां भाग प्रमाण भाव, तिनको जाने है ।
भावार्थ - जघन्य अवधिज्ञान पूर्वोक्त क्षेत्र विष, पूर्वोक्त एक द्रव्य के प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण अतीत काल विष वा तितना ही अनागत काल विर्ष जे आकाररूप व्यजन पर्याय भए, अर होहिगे तिनको जानै है, जातै व्यवहार काल के अर द्रव्य के पर्याय ही की पलटन हो है। बहुरि पूर्वोक्त क्षेत्र विर्ष पूर्वोक्त द्रव्य के वर्तमान परिणमन रूप अर्थ पर्याय है । तिनि विर्षे प्रावली का असंख्यातवा भाग का असख्यातवा भाग प्रमाण, जे पर्याय, तिनि को जान है । जैसे जघन्य देशावधि ज्ञान के विषय भूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि की सीमा - मर्यादा का भेद कहि ।
आगे तिस अवधिज्ञान के जे द्वितीयादि भेद, तिनिकौ च्यारि प्रकार विषय भेद कहै है -
अवरद्दव्वादुपरिमदव्ववियप्पाय होदि ध्रुवहारो। सिद्धाणंतिमभागो, अभव्वसिद्धादणंतगुणो ॥३८४॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
अवरद्रव्यादुपरिमद्रव्यविकल्पाय भवति ध्रुवहारः ।
सिद्धानंतिमभागः, अभव्यसिद्धादनंतगुणः ॥३८४॥ टीका - जघन्य देशावधि ज्ञान का विषयभूत द्रव्य ते ऊपरि द्वितीयादि अवधि ज्ञान के भेद का विषयभूत द्रव्य का प्रमाण ल्यावने के अर्थि ध्रुवहार जानना । सर्व भेदनि विष जिस भागहार का भाग दीएं प्रमाण आवै, सो ध्रुव भागहार कहिए । जैसे इस जघन्य देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य को ध्र वभागहार के प्रमाण का भाग दीएं, जो एक भाग का प्रमाण आवै, सो देशावधि का द्रव्य सबधी दूसरा भेद का विषयभूत द्रव्य का प्रमाण जानना । याको ध्र वहार का भाग दीए, जो एक भाग का प्रमाण आवै; सो देशावधि के तीसरे भेद का विषयभूत द्रव्य जानना । जैसे सर्वावधि पर्यंत जानना । पहले पहले घने परमारणनि का स्कंधरूप द्रव्य को ध्रुवभागहार का भाग दीएं, पीछे पीछे एक भागमात्र थोरे परमाणनि का स्कंध आवै, सो पूर्वस्कंध ते सूक्ष्म स्कंध होइ, सो ज्यों ज्यों सूक्ष्म को जाने, त्यो त्यो ज्ञान की अधिकता कहिए है ; जातै सूक्ष्म को जाने स्थूल का तो जानना सहज ही हो है । बहुरि जो वह ध्र वभागहार कहा था, ताका प्रमाण सिद्धराशि को अनंत का भाग दीजिए, ताके एक भाग प्रमारण है। अथवा अभव्य सिद्धराशि को अनंत ते गुणिए, तीहि प्रमाण है।
धुवहारकम्मवग्गरणगुणगारं कम्मवग्गणं गणिदे। समयपबद्धपमाणं, जाणिज्जो ओहिविसयहि ॥३८५॥
ध्रुवहारकार्मणवर्गणागुरणकारं कार्मरणवर्गणां गुरिणते ।
समयप्रबद्धप्रमारणं, ज्ञातव्यमवधिविषये ॥३८५॥ टीका - देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद होइ, तितने में सौ घटाइए, जो प्रमाण होइ, तितना ध्र वहार माडि, परस्पर गुरिण, जो प्रमाण होइ, सो कार्माण वर्गणा का गुणकार जानना। तीहि कारिण वर्गणा का गुणकार करि कार्माण वर्गणा को गुणे, जो प्रमाण होइ, सो अवधिज्ञान का विपय विष समयप्रबद्ध का प्रमाण जानना । जो जघन्य देशावधिज्ञान का विपयभूत द्रव्य कह्या था, तिसहीका नाम इहा समयप्रबद्ध जानना । इसका विशेष आगे कहैगे।
ध्रुवहार का प्रमाण सामान्यपनै सिद्धराशि के अनतवे भागमात्र कह्या, अव विशेषपने ध्रुवहार का प्रमाण कहै है -
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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३५६-३८७-३८८
५३२ ]
मरणदव्ववग्गणाण, वियप्पारणंतिमसमं खु धुवहारो। अवरुक्कस्सविसेसा, रूवहिया तस्वियप्पा हु ॥३८६॥
मनोद्रव्यवर्गणानां, विकल्पानंतिमसम खलु ध्रुवहारः।
अवरोत्कृष्टविशेषाः, रूपाधिकास्तद्विकल्पा हि ॥३८६॥ टीका - मनोवर्गणा के जितने भेद है, तिनिको अनंत का भाग दीजिए, एक भाग का जितना प्रमाण होइ, सो ध्रुवहार का प्रमाण जानना । ते मनोवर्गरणा के भेद केते हैं, सो कहिए है - मनोवर्गणा का जघन्य प्रमाण को मनोवर्गणा का उत्कृष्ट प्रमाण में सौ घटाएं, जो प्रमाण अवशेष रहै, तीहिविर्ष एक अधिक कीएं, मनोवर्गणा के भेदनि का प्रमाण हो है । प्रागै सम्यक्त्व मार्गणा का कथन विष तेईस जाति की पुद्गल वर्गणा कहेगे । तहां तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, कार्माणवर्गरणा इत्यादिक का वर्णन करैगे; सो जानना ।
इस मनोवर्गणा का जघन्य, भेद अर उत्कृष्ट भेद का प्रमाण दिखाइए है - अवरं होदि अरणंतं, अरणंतभागेरण अहियमुक्कस्सं । इदि भणभेदाणंतिमभागो दन्वम्मि धुवहारो ॥३८७॥
अवरं भवति अनंतमनंतभागेनाधिकसुत्कृष्टं ।
इति मनोभेदानंतिमभागो द्रव्ये ध्रुवहारः ॥३७॥ टीका - मनोवर्गणा का जघन्य भेद अनंत प्रमाण है । अनत परमाणूनि का स्कधरूप जघन्य मनोवर्गणा है । इस प्रमाण को अनत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितना उस जघन्य भेद का प्रमाण विषै जोडे, जो प्रमाण होइ, सोई मनोवर्गणा का उत्कृष्ट भेद का प्रमाण जानना । इतने परमाणनि का स्कधरूप उत्कृष्ट मनोर्वगणा हो है; सो जघन्य ते लगाइ उत्कृष्ट पर्यंत पूर्वोक्त प्रकार जेते मनोवर्गणा के भेद भए, तिनके अनंतवे भागमात्र इहां ध्र वहार का प्रमाण है ।
अथवा अन्यप्रकार कहै है - धुवहारस्स पमारणं, सिद्धाणंतिमपमाणमत्तं पि । समयपबद्धणिमित्तं, कम्मणवग्गाणगुणा दो दु ॥३८॥
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म्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका]
होदि अणंतिमभागो, तग्गुणगारो वि देसओहिस्स। दोऊरण दवभेदपमारणधुवहारसंवग्गो ॥३८६॥
ध्रुवहारस्य प्रमाणं, सिद्धानंतिमप्रमाणमात्रमपि । समयप्रबद्धनिमित्तं, कार्मणवर्गणागुणतस्तु ॥३८८॥ भवत्यनंतिमभागस्तद्गुणकारोऽपि देशावधेः ।
द्वच नद्रव्यभेदप्रमाणध्रुवहारसंवर्गः ॥३८९॥ टीका - ध्रुवहार का प्रमाण सिद्धराशि के अनंतवे भागमात्र है । तथापि अवधि का विषयभूत समयप्रबद्ध का प्रमाण ल्यावने के निमित्त जो कार्माण वर्गणा का गुणकार कह्या, ताके अनंतवे भागमात्र जानना ।
सो तिस कार्माण वर्गणा के गुणकार का प्रमाण कितना है ?
सो कहिए है - देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद है, तिनमें दोय घटाएं, जो प्रमाण रहै, तितना ध्रुवहार मांडि, परस्पर गुणन कीएं, जो प्रमाण आवै, तितना कार्माण वर्गणा का गुणकार जानना । जैसा प्रमाण कैसे कह्या? सो कहिए है - देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य की रचना विष उत्कृष्ट अंत का जो भेद, ताका विषय कार्माण वर्गणा को एक बार ध्रुवहार का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि ताके नीचे द्विचरम भेद, ताका विषय, कार्माण वर्गणा प्रमाण जानना । बहुरि ताके नीचे त्रिचरम भेद, ताका विषय कार्माण वर्गणा को एक बार ध्र वभागहार तै गुरणे, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि ताके नीचे दोय बार ध्र वभागहार करि कार्माण वर्गणा को गुरिणए, तब चतुर्थ चरम भेद होइ । जैसे ही एक एक बार अधिक ध्रुवहार करि कार्माण वर्गणा को गुण ते, दोय घाटि देशावधि के द्रव्यभेद प्रमाण ध्रुवहारनि के परस्पर गुणन ते जो गुणकार का प्रमाण भया, ताकरि कार्माणवर्गणा को गुण, जो प्रमाण भया, सोई जघन्य देशावधिज्ञान का विषयभूत लोक करि भाजित नोकर्म औदारिक का सचयमात्र द्रव्य का परिमाण जानना । इहा उत्कृष्ट भेद ते लगाइ जघन्य भेद पर्यंत रचना कही, तातं औसै गुणकार का प्रमाण कह्या है । बहुरि जो जघन्य ते लगाइ, उत्कृप्ट पर्यंत रचना कीजिए, तो क्रम ते ध्र वहार के भाग देते जाइए, अंत का भेद विप कार्माण वर्गणा को एक बार ध्रुवहार का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितना द्रव्य प्रमाण होइ इस
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५३४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३९० कथन उस कथन विषे कुछ अन्यथापना नाही है । ऊपर ते कथन कीया तव ध्रुवहार का गुणकार कहते आए, नीचे ते कथन कीया तब ध्रुवहार का भागहार कहते पाए, प्रमाण दोऊ कथन विषै एकसा है।
देशावधि के द्रव्य की अपेक्षा केते भेद हैं ? ते कहिए है - अंगुलअसंखगुणिदा, खेत्तवियप्पा य दवभेदा हु। खैत्तवियप्पा अवरुक्कस्सविसेसं हवे एत्थ ॥३६०॥
अंगुलासंख्यगुणिताः, क्षेत्रविकल्पाश्च द्रव्यभेदा हि ।
क्षेत्रविकल्पा अवरोत्कृष्टविशेषो भवेदत्र ॥३९०॥ टीका - देशावधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र की अपेक्षा जितने भेद है, तिनकौं अंगुल का असंख्यातवा भाग करि गुणें, जो प्रमाण होइ, तितना देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा भेद हो है ।
ते क्षेत्र की अपेक्षा केते भेद हैं ?
ते कहिए है - देशावधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र का जो प्रदेशनि का प्रमाण है, तितना भेद देशावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र के प्रदेशनि का प्रमाण विष घटाए, जो अवशेष प्रमाण रहै, तितना भेद देशावधि की क्षेत्र की अपेक्षा है । इनिको सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग करि गुरिणए, तामै एक मिलाएं, जो प्रमाण होइ, तितना देशावधि का द्रव्य की अपेक्षा भेद है । काहेत ? सो कहिए है - देशावधि का जघन्य भेद विर्षे पूर्वं जो द्रव्य का परिमाण कहा था, ताको ध्र वहार का भाग दीए, जो प्रमाण होइ सो देशावधिका द्रव्य की अपेक्षा दूसरा भेद है । बहुरि इस दूसरा भेद विषै क्षेत्र का परिमाण तितना ही है।
___ भावार्थ - देशावधि का जघन्य ते बधता देशावधिज्ञान होइ, तौ देशावधि का दूसरा भेद होइ; सो जघन्य करि जो द्रव्य जानिए था, ताको ध्र व भागहार का भाग दीएं, जो सूक्ष्म स्कंधरूप द्रव्य होइ, ताकौं जाने पर क्षेत्र की अपेक्षा जितना क्षेत्र को जघन्यवाला जाने था, तितना ही क्षेत्र कौं दूसरा भेदवाला जाने है । तातै द्रव्य की अपेक्षा दूसरा भेद भया । क्षेत्र की अपेक्षा प्रथम भेद ही है । बहुरि जो द्रव्य की अपेक्षा दूसरा भेदवाला जानै था, ताकौ ध्र वहार का भाग दीए, जो सूक्ष्म
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५३५
स्कंध भया, ताकौ द्रव्य की अपेक्षा तीसरा भेदवाला जानै । पर यह क्षेत्र की अपेक्षा तितना ही क्षेत्र को जाने; तातै द्रव्य की अपेक्षा तीसरा भेद भया । क्षेत्र की अपेक्षा प्रथम भेद ही है । असे द्रव्य की अपेक्षा सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण भेद होइ, तहां पर्यत जघन्य क्षेत्र मात्र क्षेत्र को जाने । तातै द्रव्य की अपेक्षा तौ सूच्यगुल का असख्यातवां भाग प्रमाण भेद भए, अर क्षेत्र की अपेक्षा एक ही भेद भया । बहुरि इहांसे आगे असे ही ध्रुवहार का भाग देते देते सूच्यंगुल का असख्यातवा भाग प्रमाण द्रव्य की अपेक्षा भेद होइ, तहां पर्यंत जघन्य क्षेत्र ते एक प्रदेश बधता क्षेत्र को जाने, तहां क्षेत्र की अपेक्षा दूसरा ही भेद रहै ।
बहुरि तहा पीछे सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग मात्र, द्रव्य अपेक्षा भेदनि विर्ष एक प्रदेश और बधता क्षेत्र को जाने; तहां क्षेत्र की अपेक्षा तीसरा भेद होइ । जैसे ही सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग प्रमाण द्रव्य की अपेक्षा भेद होते होते क्षेत्र की अपेक्षा एक एक बधता भेद होइ, सो असे लोकप्रमाण उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र पर्यत जानना । तातै क्षेत्र की अपेक्षा भेदनि ते द्रव्य की अपेक्षा भेद सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागप्रमाण गुण कह्या । बहुरि अवशेष पहला द्रव्य का भेद था; सो पीछे 'मिलाया, ताते एक का मिलावना कह्या है ।
तिन देशावधि के जघन्य क्षेत्र अर उत्कृष्ट क्षेत्रनि का प्रमाण कहै है - अंगुलअसंखभागं, अवरं उक्कस्सयं हवे लोगो। इदि वग्गरणगुणगारो, असंखधुवहारसंवग्गो ॥३६१॥
अंगुलासंख्यभागमवरमुत्कृष्टक भवेल्लोकः ।
इति वर्गणागुणकारोऽ, संख्यध्रुवहारसंवर्गः ॥३९१॥ टीका - जघन्य देशावधि का विषयभूत क्षेत्र सूक्ष्मनिगोद लब्धि अपर्याप्तिक की जघन्य अवगाहना के समान घनांगुल के असंख्यातवे भागमात्र जानना । बहुरि देशावधि का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र लोकप्रमाण जानना । उत्कृष्ट देशावधिवाला सर्वलोक विष तिष्ठता अपना विषय कौं जाने, असे दोय घाटि, देशावधि का द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद होइ, तितना ध्र वहार मांडि, परस्पर गुणन करना, सोई सवर्ग भया । यों करते जो प्रमाण भया होइ, सोई कार्माण वर्गणा का गुणकार जानना। सो कह्या ही था।
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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३९२-३६३
५३६ ]
आगै वर्गणा का परिमाण कहै है - वग्गणरासिपमाणं, सिद्धाणंतिमपमारणमत्तं पि । दुगसहियपरमभेदपमाणवहाराण संवग्गो ॥३६२॥
वर्गणाराशिप्रमाणं, सिद्धानंतिमप्रमाणमात्रमपि ।
द्विकसहितपरमभेदप्रमाणावहाराणां संवर्गः ॥३९२॥ टीका - कार्माणावर्गणा राशि का प्रमाण सिद्धराशि के अनंतवे भागमात्र है । तथापि परमावधिज्ञान के जेते भेद है, तिनमे दोय मिलाए, जो प्रमाण होइ, तितना ध्र वहार माडि, परस्पर गुणन कीयें, जो प्रमाण होइ, तितना परमाणूनि का स्कवरूप कार्माणवर्गणा जाननी । जाते कार्माणवर्गणा कौं एक बार ध्रुवहार का भाग दीएं, उत्कृष्ट देशावधि का विषय भूत द्रव्य होइ, पीछे परमावधि के जितने भेद है, तेती बार क्रम ते ध्रुवहार का भाग दीएं, उत्कृष्ट परमावधि का विषयभूत द्रव्य होइ, ताको एक बार ध्रुवहार का भाग दीए, एक परमाणू मात्र सर्वावधि का विपय हो है।
ते परमावधि के भेद कितने है ? सो कहिए है - परमावहिस्स भेदा, सग-ओगाहण-वियप्प-हद-तेऊ । इदि धुवहारं वग्गरणगुणगारं वग्गणं जाणे ॥३६।।
परमावधेर्भेदाः, स्वकावगाहनविकल्पहततेजसः ।
इति ध्रुवहारं वर्गणागुणकार वर्गणां जानीहि ॥३९३॥ टोका - अग्निकाय के अवगाहना के जेते भेद है; तिनि करि अग्निकाय के जीवनि का परिमारण को गुरणं, जो परिमाण होइ, तितना परमावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा भेद है । सो अग्निकाय की जघन्य अवगाहना का प्रदेशनि का परिमाण की अग्निकाय की उत्कृप्ट अवगाहना का परिमाण विष घटाए, जो प्रमाण होइ, तिनमे एक मिलाए, अग्निकाय की अवगाहना के भेदनि का प्रमाण हो है । सो जीवसमास का अधिकार विपै मत्स्यरचना करी है, तहा कहै ही है। बहुरि अग्निकाय का जीवनि का परिमारण कायमार्गणा का अधिकार विर्षे कहा है; सो जानना । इनि दोऊनि को परस्पर गुण, जो प्रमाण होइ, तितना परमावधिज्ञान का विषयभूत
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
५३७
द्रव्य की अपेक्षा भेद है । जैसे ध्रुवहार का प्रमाण, वर्गणा गुणकार का प्रमाण, वर्गणा का प्रमाण हे शिष्य । तू जानि ।
देसोहिश्रवरदव्वं, धुवहारेणवहिदे हवे बिदियं । तदयादिबियप वि, संखबारो त्ति एस कमो ॥ ३६४ ॥
देशावध्यवरद्रव्यं, ध्रुवहारेणावहिते भवेद्वितीयं । तृतीयादिविकल्पेष्वपि, असंख्यवार इत्येष क्रमः ॥ ३९४ ॥ ।
टीका
देशावधिज्ञान का विषयभूत जघन्य द्रव्य पूर्वे का था, ताक
वहार का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, सो दूसरा देशावधि के भेद का विषयभूत द्रव्य होइ । जैसे ही बहार का भाग देते देते तीसरा, चौथा इत्यादि भेदनि का विषयभूत द्रव्य होहि | असे असंख्यात बार अनुक्रम करना ।
――
असे अनुक्रम होते कहा होइ ? सो कहिए है
-
देसोहिमज्भभेवे, सविस्ससोवचयतेजक मंगं । तेजोभासमरणाणं, वग्गणयं केवलं जत्थ ॥ ३६५॥
पस्सदि ओही तत्थ, असंखेज्जाओ हवंति दीउवही । वासाणि असंखेज्जा, होंति असंखेज्जगुणिदकमा ॥ ३६६॥ जुम्मं ॥
देशावधिमध्यभेदे, सवित्र सोपचयतेजः कर्मागम् । तेजोभाषामनसा, वर्गरणां केवलां यत्र ॥ ३९५ ॥
पश्यत्यवधिस्तत्र, असंख्येया भवंति द्वीपोदधयः ।
वर्षाणि संख्यातानि भवंति असंख्यातगुणितक्रमाणि ॥ ३९६ ॥
टीका देशावधि के मध्य भेदनि विषै देशावधिज्ञान जिस भेद विपं विस्रसोपचय सहित तैजस शरीररूप स्कंध को जाने है । वहुरि तिस हो क्रम तं जिस भेद विषै विस्रसोपचय सहित कार्माण शरीर स्कंध को जाने है । बहुरि रहा तं श्रागे जिस भेद विषै विस्रसोपचय रहित केवल तैजस वर्गणा को जाने ह । बहुरि इहा ते आगे जिस भेद विप विस्रसोपचय रहित केवल भापावर्गरणा को जाने हैं। रहाते
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५३८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३९७-३१८-३९C
आगे जिस भेद विषै विस्रसोपचय रहित केवल मनोवर्गरणा को जाने है । तहां इनि पाच स्थानानि विषै क्षेत्र का प्रमाण असंख्यात द्वीप - समुद्र जानना । अर काल असख्यात वर्षमात्र जानना । पूर्वोक्त पंच भेद लीएं अवधिज्ञान असंख्यात द्वीप - समुद्र विपै पूर्वोक्त स्कध असंख्यात वर्ष पर्यंत अतीत, अनागत, यथायोग्य पर्याय के धारी, तिनिकौ जाने है । परि इतना विशेष है - जो इनि पंच भेदनि विषै पहिला भेद सबंधी क्षेत्रकाल का परिमाण है । तातै दूसरा भेद संबंधी क्षेत्रकाल का परिणाम ग्रसंख्यातगुणा है । दूसरे ते तीसरे का असंख्यात गुणा है । औसे ही पांचवां भेद पर्यंत जानना | सामान्यपने सब का क्षेत्र असंख्यात द्वीप - समुद्र र काल असंख्यात वर्ष कहे है, जातें असंख्यात के भेद घने है ।
तत्तो कम्मइयस्सिगिसमयपबद्धं विविस्ससोवचयं । धुवहारस्स विभज्ज, सव्वोही जाव ताव हवे ॥ ३६७॥
ततः कार्मणस्य, एकसमयप्रबद्धं विविस्रसोपचयम् । ध्रुवहारस्य विभाज्यं सर्वावधिः यावत्तावद्भवेत् ॥ ३९७॥
-
टीका • तहा पीछे तिस मनोवर्गरणा को ध्रुवाहार का भाग दीजिए, मैसे ही भाग देते देते विस्रसोपचय रहित कार्माण का समय प्रबद्धरूप द्रव्य होइ । याकौं भी
बहार का भाग दीजिए । अँसे ही ध्रुबहार का भाग यावत् सर्वावधिज्ञान होइ, तहा पर्यंत जानना । विस्रसोपचय का स्वरूप योगमार्गणा विषै कया है, सो जानना ।
एदहि विभज्जंते, दुरिमदेसा वहिम्सि वग्गरणयं ।
चरिमे कम्मइयस्सिगिवग्गणमिगिवारभजिदं तु ॥ ३६८ ॥
एतस्मिन् विभज्यमाने, द्विचरमदेशावधौ वर्गणा ।
चरमे कार्मणस्यैकवर्गणा एकबारभक्ता तु ॥ ३९८ ॥
टीका इस कार्माण समय प्रबद्ध की ध्रुवहार का भाग दीएं सतै देशावधि का द्वि चरम भेद विषै कार्मारणवर्गणा रूप विपयभूत द्रव्य हो है; जातै ध्रुवहार मात्र वर्गणानि का समूह रूप समयप्रवद्ध है । वहुरि याकौ एक बार ध्रुवहार का भाग दीएं, चरम जो देशावधि का अत का भेद, तिस विपै विषयभूत द्रव्य हो है ।
-
अगुलप्रसंखभागे, दव्ववियप्पे गये दु खेत्तम्हि | एगागासपदेसो, वढदि संपुष्णलोगो त्ति ॥ ३६६ ॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषा टीकाएँ]
अंगुला संख्यभागे, द्रव्यविकल्पे गते तु क्षेत्रे । एकाकाशप्रदेशी, वर्धते संपूर्णलोक इति ॥ ३९९॥
टीका - सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागप्रमाण द्रव्य की अपेक्षा भेद होते सतै, क्षेत्र विषै एक आकाश का प्रदेश बधै सा अनुक्रम जघन्य देशावधि के क्षेत्र ते, उत्कृष्ट देशावधिज्ञान का विषयभूत सर्व सपूर्ण लोक, तीहि पर्यंत जानना । सो यहु कथन टीका विषै पूर्वे विशदरूप कह्या ही था ।
आवलिअसंखभागो, जहण्णकालो कमेण समयेण । वड्ढदि देसोहिवरं, पल्लं समऊणयं जाव ॥ ४००॥
कहै है
आवल्यसंख्य भागो, जघन्यकालः क्रमेण समयेन । वर्धते देशावधिवरं, पल्यं समयोनकं यावत् ॥४०० ॥
टीका देशावधि का विषयभूत जघन्य काल आवली का असख्यातवा भाग प्रमाण है । सो यहु अनुक्रम ते ध्रुववृद्धि करि अथवा अध्रुववृद्धि करि एक एक करि समय करि तहां पर्यंत बधे, जहा एक समय घाटि पल्य प्रमाण उत्कृष्ट देशावधि का विषयभूत काल होइ, उत्कृष्ट देशावधिज्ञान एक समय घाटि पल्पप्रमाण अतीत, अनागत काल विषै भए वा होहिगे जे स्वयोग्य विपय तिने जाने है ।
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[ ५३६
आगे क्षेत्र काल का परिमारण उगरणीस कांडकनि विषै कह्या चाहे है | कांडक नाम पर्व का है । जैसे साठे की पैली हो है, सो गाठि त अगिली गाठि पर्यंत जो होइ, ताकौ एक पर्व कहिए । तैसे किसी विवक्षित भेद तै लगाइ, किसी विवक्षित भेद पर्यंत जेते भेद होहि, तिनिका समूह, सो एक काडक कहिए । अँसे देशावविज्ञान विषै उगणीस काडक है ।
तहां प्रथम कांडक विषै क्षेत्र काल का परिणाम अढाई गाथानि करि
अंगुलप्रसंखभागं, धुवख्वेण य श्रसंखवारं तु । असंखसंखं भागं, असंखवारं तु अधुवगे ॥४० १॥
अंगुल संख्यवारं, ध्रुव रूपेण च असंख्यवारं तु । असंख्य संख्यं भागं, असंख्यवारं तु अध्रुवगे ॥ ४०२ ॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४०२ ५४. ]
टीका - घनांगुल कौं आवली का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, असा अंगुल का असंख्यातवां भागमात्र ध्र वरूप करि वृद्धि का प्रमाण हो है । सो ध्र ववृद्धि प्रथम कांडक विष अत का भेद पर्यंत असंख्यात बार हो है। बहुरि तिस ही प्रथम कांडक विष अंत का भेद पर्यत अध्र ववृद्धि भी असंख्यात बार हो है । सो अध्र ववृद्धि का परिमाण घनागुल का असख्यातवां भाग प्रमाण वा घनांगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण है।
धुवअद्धवरूवेरण य, अवरे खेत्तम्मि बड्ढिदे खेते। अवरे कालम्हि पुरणो, एक्कक्कं वड्ढदे समयं ॥४०२॥
ध्रुवाध्रुवरूपेण च, अवरे क्षेत्रे द्धिते क्षेत्रे ।
अवरे काले पुनः, एकैको वर्धते समयः ॥४०२॥ टीका - तीहि पूर्वोक्त ध्रुववृद्धि प्रमाण करि वा अध्र ववृद्धि प्रमाण करि जघन्य देशावधि का विषयभूत क्षेत्र को बधतै संतै जघन्य काल के ऊपरि एक एक समय बधै है।
भावार्थ - पूर्वं यहु क्रम कह्या था, जो द्रव्य की अपेक्षा सूच्यंगुल का असंख्यातवा भागप्रमाण भेद व्यतीत होइ, तब क्षेत्र विष एक प्रदेश बधै । अब इहा कहिए है-जघन्य ज्ञान का विषयभूत जेता क्षेत्र प्रमाण कह्या, ताके ऊपरि पूर्वोक्त प्रकार करि एक एक प्रदेश बधतै बधतै आवली का भाग घनागुल को दीएं, जो प्रमाण आवै, तितना प्रदेश बधै, तब जघन्य देशावधि का विषयभूत काल का प्रमाण कहा था, ताते एक समय और बधता, काल का प्रमाण होइ । बहुरि तितना ही प्रदेश क्षेत्र विष पूर्वोक्त प्रकार करि बधै तब तिस काल ते एक समय और बधता काल का प्रमाण होइ । जैसे तितने तितने प्रदेश बधै, जो काल प्रमाण विष एक एक समय बधै, सो तौ ध्र ववृद्धि कहिये । बहुरि पूर्वोक्त प्रकार करि ही विवक्षित क्षेत्र तै कहीं घनांगुल का असख्यातवां भाग प्रमाण प्रदेशनि की वृद्धि भए पूर्व काल तै एक समय बधता काल होइ, कही घनांगुल का असख्यातवा (संख्यातवां)१ भाग प्रमाण प्रदेशनि की वृद्धि भएं, पहले काल तै एक समय बधता काल होइ, तहां अध्र ववृद्धि कहिये । असैं प्रथम काडक विषै अत भेद पयंत ध्रुववृद्धि होइ, तौ असंख्यात बार हो है । बहुरि अध्रववृद्धि होइ तौ असख्यात बार हो है ।
१ सभी छहो हस्तलिखित प्रतियो मे असख्यात मिला। छपि हई प्रति मे सख्यात है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
संखातीदा समया, पढसे पव्वभूमि उभयदो वड्ढी । खेत्तं कालं श्रस्सिय पढमादी कंडये वोच्छं ॥ ४०३ ॥
संख्यातीताः समयाः, प्रथमे पर्वे उभयतो वृद्धिः । क्षेत्र कालमाश्रित्य प्रथमादीनि कांडकानि वक्ष्ये ||४०३ ||
टीका
कहिये ध्रु वरूप - अध्रु वरूप दोऊ वृद्धि को लीएं असंख्याते समय हो है ।
-
असे होते प्रथम पूर्व कहिए पहला कांडक, तीहि विषे उभयतः
➖➖
भावार्थ प्रथम काss विषै जघन्य काल का परिमाण ते पूर्वोक्त प्रकार ध्रुववृद्धि करि वा अध्रुववृद्धि करि एक एक समयप्रबद्ध ते असख्यात समय बधै हैं । कितने है ? प्रथम काडक का उत्कृष्ट काल के समयनि का प्रमाण मे स्यों जघन्य काल के समयनि का प्रमाण घटाए, जो प्रमाण अवशेष रहे, तितने असंख्याते समय प्रथम काsक विषै बधै है । जैसे ही प्रथम कांडक का उत्कृष्ट क्षेत्र के प्रदेशनि का प्रमाण मे स्यो जघन्य क्षेत्र के प्रदेशनि का प्रमाण घटाएं, जो प्रमाण अवशेष रहै, तितने प्रदेश प्रथम काडकनि विषै पूर्वोक्त प्रकार करि बधै है । अब जो वृद्धिरूप समयनि का प्रमाण कह्या, सो जघन्य काल आवली का असख्यातवा भागमात्र तीहि विषै जोडिए, तब प्रथम कांडक का अत भेद विषै आवली का असख्यातवां भाग प्रमाण काल हो है । बहुरि वृद्धिरूप प्रदेशनि का परिमाण कौ जघन्य क्षेत्र घनागुल का असख्यातवां भागमात्र तीहि विषे मिलाएं, प्रथम काडक का अत भेद विषै घना - गुल का असख्यातवा १ भाग प्रमाण क्षेत्र हो है ।
विषयभूत क्षेत्र काल अपेक्षा देशावधि के उगरणीस काडक कहूगा, औसा प्राचार्य प्रतिज्ञा करी है
[ ५४१
-
अंगुलमावलियाए, भागमसंखेज्जदो वि संखेज्जो । गुलमावलियंतो, आवलियं चांगुलपुधत्तं ॥४०४॥
गुलावल्यो:, भागोऽसंख्येयोऽपि संख्येयः । अंगुलमावल्यंत, प्रावलिकाश्चांगुलपृथक्त्वम् ||४०४॥
१. ग प्रति मे सख्यात है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५४५
वृद्धि कैसे संभव ? बहुरि अत के कांडक विषे घनांगुल का संख्यातवां भाग आदि सख्यात प्रतर पर्यंत सर्व प्रकार करि अध्रुववृद्धि संभव है । औसे ही अन्य काडकनि विषे यथासंभव करि ध्रुववृद्धि जाननी ।
कम्महयवग्गणं धुवहारेणिगिवार भाजिदे दव्वं । उक्करसं खेत्तं पुण, लोगो संपुण्णओ होदि ॥ ४१० ॥
कार्मणां ध्रुवहारेणैक वार भाजिते द्रव्यं । उत्कृष्ट क्षेत्रम् पुनः, लोकः संपूर्णो भवति ॥४१०॥
टीका कार्मारण वर्गणा को एक बार ध्रुवहार का भाग दीएं, जो प्रमाण "होइ, तितने परमाणूनि का स्कंध को उत्कृष्ट देशावधि जाने है । बहुरि क्षेत्र करि संपूर्ण लोकाकाश को जाने है । लोकाकाश विषै जितने पूर्वोक्त स्कंघ होइ, वा तिनते स्थूल होंइ, तिन सबनि को जान है ।
-
पल्ल समऊण काले, भावेण असंखलोगमेत्ता है । दव्वस य पज्जाया, वरदेसोहिस्स विसया हु ||४११॥
पत्यं समयोनं काले, भावेन असंख्य लोकमात्रा हि । द्रव्यस्य च पर्याया, वरदेशावर्धोविषया हि ॥ ४११ ॥
टीका देशावधि का विषय भूत उत्कृप्ट काल एक समय घाटि एक पल्य प्रमाण है । बहुरि भाव असंख्यात लोक प्रमाण है । सो इहां काल अर भाव शब्द करि द्रव्य के पर्याय उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान का विषयभूत जानना ।
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भावार्थ एक समय घाटि एक पल्य प्रमाण अतीत काल विपे जे अपने जानने योग्य द्रव्य के पर्याय भए, अर तितने ही प्रमाण अनागत काल विप अपने जानने योग्य द्रव्य के पर्याय होहिगे, तिनको उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान जाने । बहुरि भाव करि तिनि पर्यायनि विषै प्रसंख्यात लोक प्रमाण जे पर्याय, तिनिको जाने । जैसे काल अर भाव शब्द करि द्रव्य के पर्याय ग्रहे । अँसे ही अन्य भेदनि विप भी
१. हस्तलिखित, ग, घ प्रति मे असख्यातवा शब्द है ।
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५४६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४१२-४१३ ४१४ जहा काल का वा भाग का परिमारण कह्या है, तहां द्रव्य के पर्यायनि का ग्रहण करना।
बहुरि इहां देशावधि का मध्य भेदनि विषै भाव का प्रमाण पार्टी सूत्र कहेंगें, तिस अनुक्रम तै जानना।
काले चउण्ह उड्ढी, कालो भजिदव्व खत्तउड्ढी य । उड्ढीए दव्वपज्जय, भजिदव्वा खेत्त-काला हु ॥४१२॥
काले चतुर्णा वृद्धिः, कालो भजितव्यः क्षेत्रवृद्धिश्च ।
वृद्धया द्रव्यपर्याययोः, भजितव्यो क्षेत्रकालौ हि ॥४१२॥ टीका - इस अवधिज्ञान का विशेष विषै जब काल की वृद्धि होइ तब तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव च्यार्यो ही की वृद्धि होइ । बहुरि जब क्षेत्र की वृद्धि होइ तब काल का वृद्धि भजनीय है, होइ भी अर नहिं भी होइ । बहुरि जब द्रव्य की अर भाव की वृद्धि होंइ तब क्षेत्र की अर काल की वृद्धि भजनीय है, होइ भी अर न भी होइ । बहुरि द्रव्य की अर भाव की वृद्धि युगपत् हो है । यह सर्व कथन विचार ते युक्त ही है । या प्रकार देशावधि ज्ञान का विषय भूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का प्रमाण कह्या ।
आर्ग परमावधि ज्ञान की प्ररूपणा कहै हैं - देसावहिवरदव्वं, धुवहारेणवहिदे हवे णियमा। परमावहिस्स अवरं, दवपमाणं तु जिणदिळें ॥४१३॥
देशावधिवरद्रव्यं, ध्रुवहारेणावहिते भवेनियमात् ।
परमावधेरवरं, द्रव्य प्रमाणं तु जिनदिष्टं ॥४१३॥ टीका - उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान का विषयभूत जो द्रव्य कह्या, ताको एक वार ध्रुवहार का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ तितना परमाणूनि का स्कध रूप जघन्य परमावधि ज्ञान का विषयभूत द्रव्य नियम करि जिनदेवने कह्या है ।
अव परमावधि का उत्कृष्ट द्रव्य प्रमाण कहै हैपरमावहिस्स भेदा, सग-उग्गाहरणवियप्प-हद-तेऊ । चरिमे हारपमारणं, जेठस्स य होदि दवतु ॥४१४॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
परमावधेर्भेदाः, स्वकावगाहनविकल्पाहततेजसः ।
चरमे हारप्रमारण, ज्येष्ठस्य च भवति द्रव्यं तु ॥ ४१४ ॥
टीका - अग्निकाय की अवगाहना का जघन्य तें उत्कृष्ट पर्यंत जो भेदनि का प्रमाण, ताकरि अग्निकाय के जीवनि का परिमारण कौ गुणै, जो प्रमाण होइ, तितने परमावधि ज्ञान के भेद है । तहां प्रथम भेद के द्रव्य को ध्रुवहार का भाग दीए, दूसरा भेद का द्रव्य होइ । दूसरा भेद का द्रव्य कौं ध्रुवहार का भाग दीए, तीसरा भेद का द्रव्य होइ । असे अंत का भेद पर्यंत जानने । अंत भेद विषै ध्रुवहार प्रमाण द्रव्य है । ध्रुवहार का जो परिमाण तितने परमाणूनि का सूक्ष्म स्कध कौ उत्कृष्ट परमावधिज्ञान जाने है ।
सव्वावहिस्स एक्को, परमाणू होदि णिव्वियप्पो सो । गंगामहाणइस्स, पवाहव्व धुवो हवे हारो ॥ ४१५॥
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सर्वावधेरेकः, परमाणुर्भवति निर्विकल्पः सः । गंगामहानद्याः, प्रवाह इव ध्रुवो भवेत् हारः ॥ ४१५॥
टीका - उत्कृष्ट परमावधि ज्ञान का विषय ध्रुवहार प्रमारण ताकौ ध्रुवहार ही का भाग दीजिए, तब एक परमाणू मात्र सर्वावधि ज्ञान का विषय है । सर्वावधि ज्ञान पुद्गल परमाणू को जाने हैं । सो यह ज्ञान निर्विकल्प है । यामे जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद नाही । बहुरि जो वह ध्रुवहार कह्या था, सो गंगा महानदी का प्रवाह समान ही है । जैसे गंगा नदी का प्रवाह हिमाचल स्यों निकसि विच्छेद रहित वहिकरि पूर्व समुद्र को प्राप्त होइ तिष्ठ्या, तैसे ध्रुवहार जघन्य देशावधि का विपयभूत द्रव्य ते परमावधि का उत्कृष्ट भेद पर्यंत अवधिज्ञान के सर्व भेदनि विषे प्राप्त होइ सर्वावधि का विषयभूत परमाणू तहा तिष्ठ्या, जातें सर्वावधि ज्ञान भी निर्विकल्प है अर याका विषय परमाणू है, सो भी निर्विकल्प है ।
परमोहिदव्वभेदा, जेत्तियमेत्ता ह तेत्तिया होंति ।
तस्सेव खेत्त-काल, वियप्पा विसया असंखगुणिदकमा ॥४१६ ||
परमावधिद्रव्यभेदा, यावन्मात्रा हि तावन्मात्रा भवंति ।
तस्यैव क्षेत्र काल, विकल्पा विषया असंख्यगुरिणतक्रमा || ४१६ ||
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[गोम्मटसार जीवकाए गाया ४१७ ५४८ ]
____टीका - परमावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा जितने भेद कहे, अग्निकाय की अवगाहना के भेदनि का प्रमाण ते अग्निकाय के जीवनि का परिमाण को गुरिणए, तावन्मात्र द्रव्य की अपेक्षा भेद कहे, सो एतावन्मात्र ही परमावधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र की अपेक्षा वा काल की अपेक्षा भेद है। जहां द्रव्य की अपेक्षा प्रथम भेद है, तहां ही क्षेत्र - काल की अपेक्षा भी प्रथम भेद है। जहा दूसरा भेद द्रव्य की अपेक्षा है, तहां क्षेत्र - काल अपेक्षा भी दूसरा ही भेद है। असे अंत का भेद पर्यंत जानना । बहुरि जघन्य तै लगाइ उत्कृष्ट पर्यंत एक एक भेद विष असंख्यात गुणा असख्यात गुणा क्षेत्र व काल जानना ।
कैसा असंख्यात गुणा जानना ? सो कहैं हैंशावलिअसंखभागा, इच्छिदगच्छदच्छधणमाणमेत्ताओ। देसावहिस्स खेत्ते, काले वि य होंति संवग्गे ॥४१७॥
आवल्यसंख्यभागा, इच्छितगच्छधनमानमात्राः।
देशावधेः क्षेत्रे, कालेऽपि च भवंति संवर्गे ॥४१७॥ टीका - परमावधिज्ञान का विवक्षित क्षेत्र का भेद विषै वा विवक्षित काल का भेद विष जो तिस भेद का संकलित धन होइ, तितना पावली का असंख्यातवां भाग मांडि, परस्पर गुणन कीया, जो प्रमाण होइ, सो विवक्षित भेद विषै गुणकार जानना । इस गुणकार करि देशावधि ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र को गुणै, परमावधि विषै विवक्षित भेद वि क्षेत्र का परिमाण होइ, पर देशावधिज्ञान का उत्कृष्ट काल को गुण, विवक्षित भेद विष काल का परिमारण होइ ।
संकलित धन कहा कहिए -
जेथवां भेद विवक्षित होइ, तहां पर्यंत एक ते लगाइ एक एक अधिक अंक मांडि, तिन सब अंकनि कौं जोडें, जो प्रमाण होइ, सो संकलित धन जानना । जैसे प्रथम भेद विष एक ही अंक है । याके पहिले कोई अंक नाही । तातै प्रथम भेद विर्षे संकलित धन एक जानना । बहुरि दूसरा भेद विर्ष एक अर दूवा जोडिए, तब सकलित धन तीन भया । बहुरि तीसरा भेद विर्ष एक, दोय, तीन अंक जोडे, सकलित धन छह भया । बहुरि चौथा भेद विर्षे च्यारि और जोडे, सकलित धन दश भया ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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बहुरि पाचवा भेद विषै पाच को अंक और जोडे, सकलित धन पंद्रह होइ । से सव भेदनि विषै संकलित धन जानना । सो इस एक बार सकलित धन ल्यावने को करण सूत्र पर्याय समास श्रुतज्ञान का कथन करते का है; तिसते सकलित धन प्रमाण ल्यावना । इस संकलित धन का नाम गच्छ, धन वा पद धन भी कहिए | अब विवक्षित परमावधिज्ञान का पांचवां भेद ताका सकलित धन पद्रह, सो पद्रह जायगा आवली का असख्यातवां भाग मांडि, परस्पर गुणन कीए, जो परिमाण होइ, सोई पांचवां भेद विषै गुणकार जानना । इस गुणकार करि उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र, लोकाकाश प्रमाण, ताको गुणिए, जो प्रमाण होइ, तितना परमावधि का पाचवा भेद का विषयभूत क्षेत्र का परिमारण जानना । अर इस ही गुणकार करि देशावधि का विषयभूत उत्कृष्ट काल, एक समय घाटि, एक पल्य प्रमाण, ताकौ गुणे, इस पांचवां भेद विषै काल का परिमाण होइ । जैसे सब भेदनि विषै क्षेत्र का वा काल का परिमाण जानना ।
आगे संकलित धन का जो प्रमाण कया था, ताकौ और प्रकार करि कहै है
गच्छसमा तक्कालियतीदे रूऊरागच्छधरणमेत्ता ।
उभये वि य गच्छस्स य, धरणमेत्ता होंति गुणगारा ॥४१८ ॥ गच्छसमाः तात्कालिकातीते रूपोनगच्छधनमात्राः ।
उभयेऽपि च गच्छस्य च धनमात्रा भवंति गुणकाराः ||४१८ ||
टोका - जेथवां भेद विवक्षित होई, तीहि प्रमाण कौ गच्छ कहिए | जैसे चौथा भेद विवक्षित होइ, तौ गच्छ का प्रमाण च्यारि कहिए । सो गच्छ के समान धन अर गच्छ तै तत्काल अतीत भया, असा विवक्षित भेद ते पहिला भेद, तहा विच क्षित गच्छ ते एक घाटि का गच्छ धन जो सकलित धन, इनि दोऊनि को मिलाइए, तब गच्छ का संकलित धन प्रमाण गुणकार होइ ।
इहा उदाहरण कहिए जैसे विवक्षित भेद चौथा, सो गच्छ का प्रमाण भी च्यारि, सो च्यारि तौ ए अर तत्काल अतीत भया तीसरा भेद, ताका गच्छ धन छह, इन दोऊनि को मिलाए, दश हूवा । सोई दश विवक्षित गच्छ च्यारि, ताका नकलिन धन हो है । सोई चौथा भेद विषे गुणकार पूर्वोक्त प्रकार जानना, अंस ही सर्व नंदनि विषै जानना
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[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाया ४११-४२०
परमावहि-वरखेत्तेणवहिद - उक्कस्स - ओहिखेत्तं तु । सव्वावहि- गुणगारो, काले वि असंखलोगो दु ॥ ४१६ ॥
परमावधिवरक्षेत्रेणावहितोत्कृष्टावधिक्षेत्रं तु । सर्वावधिगुणकारः, कालेऽपि असंख्य लोकस्तु ॥४१९॥
टीका - उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र का परिमाण कहिए । द्विरूप घनाघनधारा विषै लोक अर गुणकार शलाका अर वर्गशलाका ग्रर अर्थच्छेद शलाका अर काय की स्थिति का परिमाण अर अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र का परिमाण ए स्थानक क्रम ते असंख्यात असंख्यात वर्गस्थान गएं उपजै है । ताते पांच बार असंख्यात लोक प्रमाण परिमाण करि लोक कौ गुणै, जो प्रमाण होई, तितना सर्वावविज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र का परिमारण है । याकौ उत्कृष्ट परमावधिज्ञान का विपयभूत क्षेत्र का भाग दीएं, जो परिमाण होइ, सोई सर्वावधिज्ञान का विपयभूत क्षेत्र का परिमाण ल्यावने के निमित्त गुणकार हो है । इस गुणकार करि परमावधि का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र की गुणिए, तब सर्वावधिज्ञान का विपयभूत क्षेत्र का परिमारण हो है । बहुरि काल परिमारण ल्यावने के निमित्त असंख्यात लोक प्रमाण गुणकार है । इस असंख्यात लोक प्रमाण गुणकार करि उत्कृष्ट परमावधिज्ञान का विषयभूत काल कौ गुणिये, तब सर्वावधि ज्ञान का विषयभूत काल का परिमाण हो है ।
इहां कोऊ कहै कि रूपी पदार्थ तो लोकाकाश विषै ही पाइए है । इहां परमावधि-सर्वावधि विषै क्षेत्र का परिमाण लोक तै प्रसंख्यातगुणा कैसे कहिए है ?
सो इसका समाधान श्रागे द्विरूप घनाघनधारा का कथन विषै करि आए है; सो जानना । शक्ति अपेक्षा कथन जानना ।
अब परमावधि ज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र का वा उत्कृष्ट काल का परिमाण ल्यावने के निमित्त करणसूत्र दोय कहिए है
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इच्छिदरासिच्छेद, दिण्णच्छेदेहिं भाजिदे तत्थ लद्धमिददिण्णरासीणब्भासे इच्छिदो रासी ॥४२०॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
इच्छितराशिच्छेदं, देयच्छेदैर्भाजिते तत्र ।
लब्धमितदेय राशीनामभ्यासे इच्छितो राशिः ॥ ४२० ॥
टीका - यह करणसूत्र है, सो सर्वत्र संभव है । याका अर्थ दिखाइए है - इच्छित राशि कहिए विवक्षित राशि का प्रमाण, ताके जेते अर्धच्छेद होइ, तिनिक देय राशि के जेते अर्धच्छेद होंइ, तिनिका भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तिसका विरलन कीजिए, एक एक जुद जुदा स्थापिए । बहुरि तिस एक एक के स्थान के जिस देय राशि के अर्धच्छेदनि का भाग दीया था, तिसही देयराशि को माड़ि, परस्पर गुणन कीजिए, तो विवक्षित राशि का प्रमाण होइ ।
[ ५५१
सो प्रथम याका उदाहरण लौकिक गणित करि दिखाइए है - इच्छित राशि दो से छप्पन ( २५६), याके अर्धच्छेद आठ, बहुरि देयराशि चौसाठि (६४) का चौथा भाग सोलह, याके अर्धच्छेद च्यारि, कैसे ? भाज्यराशि चौसठ, ताके अर्धच्छेद छह, तिनिमे स्यो भागहार च्यारि, ताके अर्धच्छेद दोय घटाइए; तब अवशेष च्यारि अर्धच्छेद रहे । अब इनि च्यारि अर्धच्छेदनि का भाग उन आठ अर्धच्छेदनि कौ दीजिए ; तब दोय पाया (२), सो दोय का विरलन करि ( ११ ), एक एक के स्थान की एक चौसठ का चौथा भाग, सोला सोला दीया, याही याकौ देय राशि कहिए, सो इनिका परस्पर गुणन कीया, तब विवक्षित राशि का परिमाण दोय से छप्पन हुवा |
जैसे ही अलौकिक गणित विषै विवक्षित राशि पल्य प्रमाण अथवा सूच्यंगुल प्रमाण वा जगच्छ्रेणी प्रमाण वा लोक प्रमाण जो होइ, ताके जेते अर्धच्छेद हों, तिनिको देयराशि जो आवली का असंख्यातवां भाग, ताके जेते अर्धच्छेद होइ, तिनका भाग दीए, जो प्रमाण आवै तिनिका विरलन करि - एक एक करि बखेरि, बहुरि एक एक के स्थान की एक एक आवली का असंख्यातवा भाग मांडि, परस्पर गुणन कीजिए, तो विवक्षित राशि पल्य वा सूच्यंगुल वा जगच्छ्रेणी वा लोकप्रमाण हो है ।
दिण्णच्छेदेणवहिद- लोगच्छेदेण पदधरणे भजिदे ।
लद्धमिदलोगगुणरणं, परमावहि- चरिम - गुणगारो ॥४२१॥
देयच्छेदेनावहित लोकच्छेदेन पदधने भजिते ।
लब्धमितलोकगुरणनं, परमावधिचरमगुणकारः ॥४२१॥
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५५२ )
{ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४२१ टीका - देयराशि के अर्धच्छेदनि का भाग लोक के अर्धच्छेदनि को दीए, जो प्रमाण होइ, ताका विवक्षित पद का संकलित धन को भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितना लोकमात्र परिमाण मांडि, परस्पर गुणन कीए, जो प्रमाण आवै, सो विवक्षित पद विष क्षेत्र वा काल का गुणकार जानना । जैसे ही परमावधि का अंत भेद विर्षे गुणकार जानना । सो यहु कथन प्रथम अंकसंदृष्टि करि दिखाइए है । देयराशि चौसठि का चौथा भाग, ताके अर्धच्छेद च्यारि, तिनका भाग दोय सै छप्पन का अर्धच्छेद आठ, तिनिको दीजिए; तब दोय पाया । तिनिका भाग विवक्षित स्थान तीसरा ताका पूर्वोक्त संकलित धन ल्यावने का सूत्र करि तीन, च्यारि को दोय, एक का भाग दीए, सकलित धन छह तिनिकौ दीजिए, तब तीन पाया; सो तीन जायगा दोय सै छप्पन माडि, परस्पर गुणन कीए, जो प्रमाण होइ, सोई तीसरा स्थान विष गुणकार जानना । अब इहां कथन है सो कहिए है -
देयराशि आवली का असंख्यातवां भाग, ताके अर्धच्छेद राशि, जो आवली के अर्धच्छेदनि में स्यौ भागहारभूत असंख्यात के अर्धच्छेद घटाएं, जो प्रमाण रहै, तितना जानना । सो जैसे इस देय राशि के अर्धच्छेद सख्यात घाटि परीतासंख्यात का मध्य भेद प्रमाण हो है। तिनिका भाग लोकप्रमाण के जेते अर्धच्छेद होइ, तिनको दीजिए, जो प्रमाण आवै, ताका भाग विवक्षित जो कोई परमावधि ज्ञान का भेद, ताका जो संकलित धन होइ, ताको दीजिए, जो प्रमाण प्रावै, तितना लोक माडि, परस्पर गुणन कीए, जो प्रमाण आवै, सो तिस भेद विष गुणकार जानना । इस गुणकार करि देशावधि का उत्कृष्ट लोकप्रमाण क्षेत्र को गुणै, जो प्रमाण होइ, यो तिस भेद विष क्षेत्र का परिमाण जानना ।
बहुरि इस गुणकार करि देशावधि का उत्कृष्ट एक समय घाटि पल्य प्रमाण काल को गुणै, जो प्रमाण होइ, सो तिस भेद विष काल का परिमाण जानना । असै ही परमावधि का अत का भेद विषै आवली का असख्यातवा भाग का अर्धच्छेदनि का भाग लोक का अर्धच्छेद को दीए, जो प्रमाण होइ, ताकौ अत का भेद विषै जो सक- .. लित धन होइ, ताको भाग दीए जो प्रमाण आवै, तितना लोक माडि परस्पर गुणन कीए जो प्रमाण होइ, सोई अंत का भेद विषै गुणकार जानना । इहां प्रत का भेद विष पूर्वोक्त सकलित धन ल्यावने कौ करणसूत्र के अनुसारि संकलित धन ल्याइए, तब अग्निकायिक के अवगाह भेदनि करि गुरिणत अग्निकायिक जीवनि का प्रमाण मात्र गच्छ, सो एक अधिक गच्छ पर सपूर्ण गच्छ को दोय एक का भाग दीए, जो प्रमाण
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Hम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोपा]
५५३ होड, तितना परमावधि का अन्त भेद विप संकलन धनं जाननी । बहुरि जैसे दोय जायगा सोलह सोलह माडि, परस्पर गुणन कीए, दोय सै छप्पन होइ, तौ छह जायगा सोलह सोलह मांडि, परस्पर गुणन कीए, केते दोय सै छप्पन होइ ? असे त्रैराशिक कीए, पैराठि हजार पाच से छत्तीस प्रमाण दोय सै छप्पन होइ । अस ही 'इच्छिदरासिच्छेदं' इत्यादि करणसूत्र के अनुसारि आवली का असंख्यातवे भाग का अर्धच्छेदनि का लोक के अर्धच्छेदनि को भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितने आवली का असंख्यातवा भाग माडि, परस्पर गुणन कीए, एक लोक होइ तौ इहा अत भेद विर्षे संकलित धन प्रमाण पावली का असख्यातवा भाग माडि, परस्पर गुणन कीजिए, तो कितने लोक होंड, असे त्रैराशिक करना । तहां प्रमाण राशि विष देय राशि पावली का प्रसंख्यातवा भाग, विरलन राशि आवली का असंख्यातवा भाग का अर्धच्छेदनि करि भाजित लोक का अर्धच्छेदमात्र, बहुरि फलराशि लोक, बहुरि इच्छाराशि विप देय राशि पावली का असख्यातवा भाग, विरलन राशि अन्तभेद का सकलन धनमात्र, इहां लब्ध राशि का जेता प्रमाण आवै, तितना लोकप्रमाण प्रमाण होइ; सोई अन्त भेद विर्षे गुणकार जानना। इसकरि लोक कौ वा एक समय घाटि पल्य को गुरिगए, तब परमावधि का सर्वोत्कृष्ट क्षेत्र का वा काल का परिमाण हो है।
पूर्व 'आवलि असंखभागा' इत्यादि सूत्रकरि गुणकार का विधान कह्या। वहुरि इस सूत्र विपै गुणकार का विधान कह्या, सो इनि दोऊनि का अभिप्राय एक ही है । जैसे अक सदृष्टि करि पूर्व गाथानि के अनुसारि तीसरा भेद विर्ष सकलित धन प्रमाण छह जायगा सोला सोला माडि परस्पर गुणन करिए, तो भी वो ही प्रमाण होइ । अर इस गाथा के अनुसारि तीन जायगा दोय सै छप्पन, दोय सै छप्पन माडि, परस्पर गुणन कीजिए, तो भी सोई प्रमाण होइ, असे सर्वत्र जानना ।
आवलिअसंखभागा, जहण्णदव्वस्स होंति पज्जाया। कालस्स जहण्णादो, असंखगुणहीणमेत्ता हु ॥४२२॥
आवल्यसंख्यभागा, जघन्यद्रव्यस्य भवंति पर्यायाः।
कालस्य जघन्यतः, असंख्यगुरगहीनमात्रा हि ॥४२२॥ टीका- जघन्य देशावधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य का पर्याय, ते आवली का असंख्यातवा भाग प्रमाण है । परन्तु जो जघन्य देशावधि ज्ञान का विषयभूत काल
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[ गोम्मटसार जोयकाण्ड गापा ४२३-४२४ ५५४ का प्रमाण कह्या है, तातै जघन्य देशावधि ज्ञान का विपयभूत भाव का प्रमाण असंख्यात गुणा घाटि जानना।
सव्वोहि त्ति य कमसो, आवलिअसंखभागगुणिदकमा। दवारणं भावाणं, पदसंखा सरिसगा होति ॥४२३॥
सर्वावधिरिति च क्रमशः, आवल्यसंख्यभागगुरिणतक्रमाः ।
द्रव्यानां भावानां, पदसंख्याः सदृशका भवंति ॥४२३।। टीका - देशावधि का विषयभूत द्रव्य की अपेक्षा जहा जघन्य भेद है, तहां ही द्रव्य का पर्याय रूप भाव की अपेक्षा आवली का असंख्यातवा भाग प्रमाण भाव का जानने रूप जघन्य भेद हो है । बहुरि तहां द्रव्य की अपेक्षा दूसरा भेद हो है। तहा ही भाव की अपेक्षा तिस प्रथम भेद का प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण करि गुण, जो प्रमाण होइ, तीहि प्रमाण भाव को जानने रूप दूसरा भेद हो है । बहुरि जहा द्रव्य की अपेक्षा तीसरा भेद हो है; तहा ही भाव की अपेक्षा तिस दूसरा भेद ते पावली का असख्यातवां भाग गुणा तीसरा भेद हो है । जैसे ही क्रम ते सर्वावधि पर्यत जानना । अवधिज्ञान के जेते भेद द्रव्य की अपेक्षा है, तेते ही भेद भाव की अपेक्षा है । जैसे द्रव्य की अपेक्षा पूर्व भेद संबंधी द्रव्य को ध्र वहार का भाग दीए, उत्तर भेद सबधी द्रव्य भया, तैसै भाव की अपेक्षा पूर्व भेद सबधी भाव को आवली का असख्यातवा भाग करि गुण, उत्तर भेद सबधी भाव भया। तातै द्रव्य की अपेक्षा अर भाव की अपेक्षा स्थानकनि की सख्या समान है ।
आगे नारक गति विषै अवधिज्ञान का विषभूत क्षेत्र का परिमाण कहै है ~~. सत्तमखिदिम्मि कोसं, कोसस्सद्धं पवढदे ताव । जाव य पढमे णिरये, जोयणमेक्कं हवे पुण्णं ॥४२४॥
सप्तमक्षितौ कोशं, कोशस्याधि प्रवर्धते तावत् ।
यावच्च प्रथमे निरये, योजनमेकं भवेत् पूर्णम् ॥४२४॥ टीका - सातवी नरक पृथ्वी विर्ष अवधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र एक कोश है । बहुरि आधा आधा कोश तहां ताई बधै, जहां पहले नरक संपूर्ण एक योजन
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका |
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होइ । असें सातवें नरक अवधि क्षेत्र एक कोश, छठे ड्योढ़ कोश, पांचवे दोय कोश, चौथे अढ़ाई कोश, तीसरे तीन कोश, दूसरे साढे तीन कोश, पहले च्यारि कोश प्रमाण एक योजना जानना ।
गैं तिर्यंचगति मनुष्यगति विषै क है हैं
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तिरिये अवरं श्रोघो, तेजोयंते य होदि उक्कस्सं । मरण मग ए श्रघं देवे, जहाकमं सुणह वोच्छामि ॥ ४२५॥
तिरश्चि वरमोघ', तेजisते च भवति उत्कृष्टं । मनुजे श्रोधं देवे, यथाक्रमं श्रृणुत वक्ष्यामि ||४२५॥
टीका - तियंच जीव विषे जघन्य देशावधिज्ञान हो है । बहुरि यातै लगाइ उत्कृष्टपनें तैजसशरीर जिस देशावधि के भेद का विषय है, तिस भेद पर्यंत सर्व सामान्य अवधिज्ञान के वर्णन विषै जे भेद कहे, ते सर्व हो है । बहुरि मनुष्य गति विषै जघन्य देशावधि तै सर्वावधि पर्यत सामान्य अवधिज्ञान विषे जेते भेद कहे, तिनि सर्व भेदन को लीए अवधिज्ञान हो है ।
बहुरि देवगति विषे जैसा अनुक्रम है, सो मैं कहो हो, तुम सुनहु पणुवीसजोयणाई, दिवसंतं च य कुमारभोम्माणं । संखेज्जगुरणं खेत्तं, बहुगं कालं तु जोइसिगे ॥ ४२६॥
पंचविशतियोजनानि, दिवसांतं च च कुमारभौमयो । संख्यातगुण क्षेत्रं, बहुकः कालस्तु ज्योतिष्के ॥४२६॥
टीका - भवनवासी अर व्यन्तर, इनिकै अवधिज्ञान का विषयभूत जघन्यपनै क्षेत्र तौ पचीस योजन है । अर काल किछू एक घाटि एक दिन प्रमाण है । बहुरि ज्योतिषी देवनि के क्षेत्र तौ इस क्षेत्र ते असंख्यात गुरणा है, अर काल इस काल बहुत है ।
असुराणमसंखेज्जा, कोडीओ सेसजोइसंताणं ।
संखातीदसहस्सा, उक्कस्सोही विसओ दु ॥ ४२७॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४२८-४२६-४३०
असुराणामसंख्येयाः, कोटयः शेषज्योतिष्कांतानाम् ।
संख्यातीतसहस्रा, उत्कृष्टावधीनां विषयस्तु ॥४२७।। टोका - असुरकुमार जाति के भवनवासी देवनि कै उत्कृष्ट अवविज्ञान का विषयभूत क्षेत्र असंख्यात कोडि योजन प्रमाण है । बहुरि अवशेप रहे नव प्रकार भवनवासी अर व्यतर देव अर ज्योतिषी देव, तिनिकै उत्कृष्ट विपय क्षेत्र असंख्यात सहस्र योजन प्रमाण है।
असुराणमसंखेज्जा, वस्सा पुरण सेसजोइसंतारणं । तस्संखेज्जदिमागं, कालेण य होदि णियमेण ॥४२८॥
असुराणामसंख्येयानि, वर्षाणि पुनः शेषज्योतिष्कांतानाम् । तत्संख्यातभागं, कालेन च भवति नियमेन ॥४२८॥
टोका - असुरकुमार जाति के भवनवासीनि के अवधि का उत्कृष्ट विषय काल की अपेक्षा असंख्यात वर्ष प्रमाण है । बहुरि इस काल के संख्यातवें भागमात्र अवशेष नव प्रकार भवनवासी वा व्यतर ज्योतिषी, तिनके अवधि का विषयभूत काल का उत्कृष्ट प्रमाण नियमकरि है ।
भवणतियाणमधोधो, थोवं तिरियेण होदि बहुगं तु । उड्ढेण भवरणवासी, सुरगिरिसिहरो ति पस्संति ॥४२॥
भवनत्रिकाणामधोऽधः, स्तोकं तिरश्चां भवति बहुकं तु ।
ऊर्चेन भवनवासिनः, सुरगिरिशिखरांतं पश्यति ॥४२९॥ टोका - भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी ए जो भवनत्रिक देव, तिनिकै अधोऽधो कहिए नीचली दिशा प्रति अवधि का विषयभूत क्षेत्र स्तोक है । बहुरि तिर्यंच कहिए मापका स्थान की बरोबरि दिशानि प्रति क्षेत्र बहुत है। बहुरि भवनवासी अपने स्थानक तें ऊपरि मेरुगिरि का शिखरि पर्यंत अवधिदर्शन करि देखे है ।
सक्कीसाणा पढम, बिदियं तु सणक्कुमार-माहिंदा । तदियं तु बह-लांतव, सुक्क-सहस्सारया तुरियं ॥४३०॥
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सम्यग्जानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५५७ शशानाः प्रथम, द्वितीयं तु सनत्कुमार-माहेंद्राः ।
तृतीयं तु ब्रह्म-लांतवाः शुक्र-सहस्रारकाः तुरियम् ॥४३०॥ टीका - सौधर्म - ईशानवाले देव अवधि करि प्रथम नरक पृथ्वी पर्यंत देखें हैं । बहुरि सनत्कुमार माहेद्रवाले देव दूसरी पृथ्वी पर्यंत देखें है। बहुरि ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर लातव कापिष्ठवाले देव तीसरी पृथ्वी पर्यत देख है । बहुरि शुक्र-महाशुक्र, शतारसहस्रारवाले देव चौथी पृथ्वी पर्यंत देखें है -
प्राणद-पाणदवासी, पारण तह अच्चुदा य पस्संति । पंचमखिदिपेरंतं, छछि वेज्जगा देवा ॥४३१।।
मानतप्राणतवासिनः, पारणास्तथा अच्युताश्च पश्यति । पंचमक्षितिपर्यंत, षष्ठी गैवेयका देवाः ॥४३॥
टीका - आनत प्राणत के वासी तथा आरण अच्युत के वासी देव पांचवी पर्यंत देखै है । बहुरि नवग्रैवेयकवाले देव छठी पृथ्वी पर्यंत देखें है ।
सव्वं च लोयणालि, पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा । सक्खेत्ते य सकश्मे, रूवगदमणंतभागं च ॥४३२॥
सर्वा च लोकनाली, पश्यंति अनुत्तरेषु ये देवाः।
स्वक्षेत्रे च स्वकर्मणि, रूपगतमनंतभागं च ॥४३२॥ टीका - नव अनुदिश विमान अर पाच अनुत्तर विमान के वासी सर्व लोकनाली, जो त्रसनाली ताकौ देखे है।
- यह भावार्थ जानना-सौधर्मादिवासी देव ऊपरि अपने २ स्वर्ग का विमान का ध्वजादड का शिखर पर्यंत देखे है । बहुरि नव अनुदिश, पच अनुत्तर विमान के वासी देव;ऊपरि अपने विमान का शिखर पर्यंत अर नीचे को बाह्य तनुवात पर्यंत सर्व प्रसनाली कौं देखै है; सो अनुदिश विमानवाले तौ किछ एक अधिक तेरह राजू प्रमाण लंबा अर अनुत्तर विमानवाले के च्यारि से पचीस धनुप घाटि, इकवीस योजन करि हीन, चौदह राजू प्रमाण लबा अर एक राजू चौडा अवधि का विषयभूत क्षेत्र को देखें है । असा इहां क्षेत्र का परिमाण कीया है, सो स्थानक का नियमप जानना । क्षेत्रका परिमाण लीए, नियमरूप न जानना । जाते अच्युत स्वर्ग पर्यंत के वासी विहार फरि
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४५८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गापा ४३३-४३४ अन्य क्षेत्र को जाइ, अर तहां अवधि होइ तौ पूर्वोक्त स्थानक पर्यंत ही होइ, असा नाही, जो प्रथम स्वर्गवाला पहिले नरक जाइ, अर तहां सेती डेढ राजू नीचे और जानें। सौधर्मद्विक के प्रथम नरक पर्यंत अवधि क्षेत्र है; सो तहां भी तिष्ठता तहां पर्यंत क्षेत्र ही कौं जाने; असे सर्वत्र जानना । बहुरि अपना क्षेत्र विर्षे एक प्रदेश घटावना, अर अपने अवधिज्ञानावरण द्रव्य कौं एक बार ध्र वहार का भाग देना, जहां सर्व प्रदेश पूर्ण होंइ, सो तिस अवधि का विषयभूत द्रव्य जानना।
इस ही अर्थ को नीचे दिखाइए है - कप्पसुराणं सग-सग-ओहीखेत्तं विविस्ससोवचयं । ओहीदव्वपमाएं, संठाविय धुवहरेण हरे ॥४३३॥ सग-सग-खोत्तपदेस-सलाय-पमारणं समप्पदे जाव । तत्थतणचरिमखंडं, तत्थतणोहिस्स दव्वं तु ॥४३४॥
कल्पसुराणां स्वकस्वकावधिक्षेत्रं विविनसोपचयम् । अवधिद्रव्यप्रमाणं, संस्थाप्य ध्रुवहरेण हरेत् ॥४३३॥ स्वकस्वकक्षेत्रप्रदेशशलाकाप्रमाणं समाप्यते यावत् ।
तत्रतनचरमखंडं, तत्रतनावधेर्द्रव्यं तु ॥४३४॥ टीका - कल्पवासी देवनि के अपना अपना अवधि क्षेत्र पर विस्रसोपचय रहित अवधिज्ञानावरण का द्रव्य स्थापि करि अवधिज्ञानावरण द्रव्य कौं एक बार ध्रुवहारका भाग देइ, क्षेत्र विष एक प्रदेश घटावना, असे सर्व क्षेत्र के प्रदेश पूर्ण होंइ, तहां जो अत विष सूक्ष्म पुद्गलस्कधरूप खड होइ, सोई तिस अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य जानना ।
इहा उदाहरण कहिए है-सौधर्म ऐशानवालों का क्षेत्र प्रथम नरक पर्यंत कह्या है; सो प्रथम नरक ते पहला दूसरा स्वर्ग का उपरिम स्थान ड्योढ राजू ऊंचा है। तातै अवधि का क्षेत्र एक राजू लंबा - चौड़ा, ड्योढ राजू ऊचा भया । सो इस धन रूप ड्योढ राजू क्षेत्र के जितने प्रदेश होइ, ते एकत्र स्थापने । बहुरि किंचिदून द्वय
गुणहानि करि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण सत्वरूप सर्व कर्मनि की परमाणूनि का परिमाण है । तिस विप अवधिज्ञानावरण नामा कर्म के जेते परमाणु होई, तिन विर्षे
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सम्यग्नाननिका भाषाटोका ] विसंसोपचय के परमाणू न मिलाइए, असे ते अवधिज्ञानावरण के परमाणू एकत्र स्थापने । बहुरि इस अवधिज्ञानावरण के परमाणूनि का प्रमाण को एक बार ध्रुवहार का भाग दीजिये। तब उस क्षेत्र के प्रदेशनि का परिमाण मे स्यो एक घटाइए, बहुरि एक बार ध्रुवहार का भाग देते, एक भाग विष जो प्रमाण आया, ताको दूसरा ध्रुवहार का भाग दीजिए; तब तिस प्रदेशनि का परिमारण में स्यों एक और घटाइए। बहुरि दूसरा ध्रुवहार का भाग देते एक भाग विर्ष जो प्रमाण रहया ताकौ तीसरा ध्रुवहार का भाग दीजिए, तब तिस प्रदेशनि का परिमाण में स्यों एक और घटाइए। ऐसें जहां ताईं सर्व क्षेत्र के प्रदेश पूर्ण होइ; तहां ताई ध्रुवहार का भाग देते जाईये देते-देतै अंत के विष जो परिमाण रहै, तितने परमाणू का सूक्ष्म पुद्गल स्कघ जो होइ, ताको सौधर्म -ऐशान स्वर्गवाले देव अवधिज्ञान करि जाने है। इसते स्थूल स्कंघ को तो जान ही जानें । जैसे ही सानत्कुमार - माहेंद्रवालों के घनरूप चारि राजू प्रमाण क्षेत्र के प्रदेशनि का जो प्रमाण तितनी बार अवधिज्ञानावरण द्रव्य कौं ध्रुवहार का भाग देते देतें जो प्रमाण रहै, तितने परमाणूनि का स्कंध को अवधिज्ञान करि जान है । अस सबनि के अवधि का विषयभूत क्षेत्र के प्रदेशनि का जो प्रमाण होइ, तितनी बार अवधिज्ञानावरण द्रव्य को ध्रुवहार का देते देतै जो प्रमाण रहै, तितने परमाणनि का स्कंध कौं ते देव अवधिज्ञान करि जान है । तहां ब्रह्म - ब्रह्मोत्तरवालो के साढा पांच राजू, लांतव - कापिष्ठवालो के छह राजू, शुक्र - महाशुक्रवालो के साढा सात राजू, शतार - सहस्रारवालो के आठ राजू, पानत - प्राणतवालों के साढा नव राजू, आरण - अच्युतवालों के दश राजू, ग्रैवेयकवालों के ग्यारह राजू, अनुदिश विमानवालो के किछु अधिक तेरह राजू, अनुत्तर विमानवालो के किछु घाटि चौदह राजू क्षेत्र का परिमाण जानि, पूर्वोक्त विधान कीएं, तिनि देवनि के अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य का परिमाण आवै है ।
सोहम्मीसाणाणमसंखेज्जाओ हु वस्सकोडीओ। उवरिमकप्पचउक्के, पल्लासंखेज्जभागो दु ॥४३॥ तत्तो लांतवकप्पप्पहदी सम्वत्थसिद्धिपेरंतं । किंचूरणपल्लमत्तं, कालपमारणं जहाजोग्गं ॥४३६।। जुम्मं ।
सौधर्मशानानामसंख्येया हि वर्षकोटयः । उपरिमकल्पचतुष्के, पल्यासंख्यातभागस्तु ॥४३५।।
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[गोमपटसार जीवकानु गाया ४३७ ४३८
५६० ]
ततो लांतवकल्पप्रभृतिसर्वार्थसिद्धि पर्यंतम् ।
किंचिदूनपल्यमानं, कालप्रमाणं यथायोग्यम् ॥४३६।। टोका - सौधर्म ईशानवालों के अवधि का विषयभूत काल असंख्यात कोडि वर्ष प्रमाण है । बहुरि तातै ऊपरि सनत्कुमारादि चारि स्वर्गवालो के यथायोग्य पल्य का असंख्यातवां भाग प्रमाण है । बहुरि तातै ऊपरि लावत आदि सर्वार्थसिद्धि पयंतवालों के यथायोग्य किछू घाटि पल्य प्रमाण है।
जोइसियंताणोहीखत्ता उत्ता ण होंति घणपबरा। कप्पसुराणं च पुणो, विसरित्थं आयवं होदि ॥४३७॥
ज्योतिष्कांतानामवधिक्षेत्राणि उक्तानि न भवंति धनप्रतराणि ।
कल्पसुराणां च पुनः , विसदृशमायतं भवति ॥४३७॥ टोका - ज्योतिषी पर्यंत जे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी असे तीन प्रकार देव, तिनकै जो अवधि का विषयभूत क्षेत्र कह्या है; सो समचतुरस्त्र कहिए बरोबरि चौकोर घनरूप नाही है । जाते सूत्र विष लंबाई, चौड़ाई, उचाई समान नाही कही है, याही ते अवशेष रहे मनुष्य, नारकी, तिर्यच तिनि के जो अवधि का विषयभूत क्षेत्र है; सो बरोबरि चौकोर घनरूप है। अवधिज्ञानी मनुष्यादिक जहां तिष्ठता होइ, तहातै अपने विषयभूत क्षेत्र का प्रमाणपर्यंत चौकोररूप धन क्षेत्र को जानें है। बहुरि कल्पवासी देवनि के जो अवधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र है, सो विसदृश आयत कहिए लंबा बहुत, चौडा थोडा जैसा आयतचतुरस्र जानना ।।
चितियचितियं वा, श्रद्धं चितियमणेयभेयगयं । मणपज्जवं ति उच्चइ, जं जाणइ तं खु परलोए ॥४३८॥
चितितचितितं वा, अधं चितितमनेक भेदगतम् ।
मनः पर्यय इत्युच्यते, यज्जानाति तत्खलु नरलोके ॥४३॥ टीका - चितितं कहिए अतीत काल मे जिसका चितवन कीया पर अचितितं कहिए जाको अनागत काल विष चितवेगा अर अर्धाचतितं कहिए जो संम्पूर्ण चितया नाही । असा जो अनेक भेद लीए, अन्य जीव का मन विष प्राप्त हुवा अर्थ ताकौं जो जाने, सो मनः पर्यय कहिए । मनः कहिए अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ५६१
प्राप्त भया अर्थ, ताकौ पर्येति कहिए जाने, सो मन पर्यय है, औसा कहिए है । सो इस ज्ञान की उत्पत्ति मनुष्य क्षेत्र ही विषै है, वाह्य नाही है ।
पराया मन विषे तिष्ठता जो अर्थ, सो मन कहिए । ताकौ पर्येति, कहिए जाने, सो मन:पर्यय जानना ।
मणपज्जवं च दुविहं, उजुविउलमदि त्ति उजुमदी तिविहा । उजुमणवयणे काए, गदत्यविसया त्ति नियमेण ॥४३६ ॥
मनःपर्ययश्च द्विविधः, ऋजुविपुलमतीति ऋजुमतिस्त्रिविधा । ऋजुमनोवचने काये, गतार्थविषया इति नियमेन ॥ ४३९ ॥
टीका - सो यहु मन पर्यय ज्ञान सामान्यपनै एक प्रकार है, तथापि भेद तै दो प्रकार है - ऋजुमति मन:पर्यय, विपुलमति मन पर्यय ।
तहां सरलपने मन, वचन, काय करि कीया जो अर्थ अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप प्राप्त भया ताके जानने तैं निष्पन्न भई, भैसी ऋज्वी कहिए सरल है मति जाकी, सो ऋजुमति कहिए ।
बहुरि सरल वा वक्र मन, वचन, काय करि कीया जो अर्थ अन्य जीव का मन विषै चितवनरूप प्राप्त भया, ताके जानने ते निष्पन्न भई वा नाही नाई निष्पन्न भई असी विपुला कहिए कुटिल है मति जाकी, सो विपुलमति कहिए । औसे ऋजुमति अर विपुलमति के भैद तैं मन पर्ययज्ञान दोय प्रकार है ।
तहां ऋजुमति मन पर्यय ज्ञान नियम करि तीन प्रकार है । ऋजु मन विषै प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा बहुरि ऋजु वचन विषै प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, बहुरि ऋजुकाय विषे प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा से ए तीन भेद है ।
विउमदी विय छद्धा, उजुगाणुजुवयणकायचित्तगयौं । अत्थं जाणदि जम्हा, सद्दत्थगया हु ताणत्था ॥४४०॥
विपुलमतिरपि च षोढा, ऋजुगानृजुवचनकायचित्तगतम् । अथं जानाति यस्मात्, शब्दार्थगता हि तेषामर्थाः ॥ ४४० ॥
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५६२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ८४१
टीका - विपुलमति ज्ञान भी छह प्रकार है - १. ऋजुमन की प्राप्त भया ग्रर्थ का जानन हारा, २ ऋजु वचन कौं प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, ३. ऋजु काय की प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, ४. बहुरि वक्र मन कौं प्राप्त भया श्रर्थं का जानन हारा, ५. बहुरि वक्र वचन को प्राप्त भया अर्थ का जानन हारा, ६. बहुरि वक्र काय प्राप्त भया अर्थं का जानन हारा । ए छह भेद है, जाते सरल वा वक्र मन, वचन, काय को प्राप्त भया पदार्थ कौं जाने है ।
बहुरि तिन ऋजुमति विपुलमति ज्ञान के अर्था: कहिए विषय ते शब्द कौं अर्थ प्राप्त भए प्रगट हो हैं । कैसे ? सो कहिए है - कोई भी सरल मन करि निष्पन्न होत संता त्रिकाल संबंधी पदार्थनि कौ चितवन भया, वा सरल वचन करि निष्पन्न होत संता, तिनकों कहत भया वा सरल काय करि निष्पन्न होत संता तिनक करत भया, पीछे भूलि करि कालांतर विषे यादि करने कौं समर्थ न हूवा र ग्राय करि ऋजुमति मन पर्यय ज्ञानी को पूछत भया वा यादि करने का अभिप्राय कौं धारि मौन ही ते खड़ा रह्या, तौ तहां ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान स्वयमेव सर्व कौं जाने है |
तैसें ही सरल वा वक्र मन, वचन, काय करि निष्पन्न होत संता त्रिकाल संबंधी पदार्थनि को चितवन भया वा कहत भया वा करत भया । बहुरि भूलि करि केतेक काल पीछे यादि करने को समर्थ न हूवा, आय करि विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी के निकट पूछत भया वा मौन ते खडा रह्या, तहा विपुलमति मन:पर्ययज्ञान सर्व कौं जाने, जैसे इनिका स्वरूप जानना ।
aियकालविरूव, चितितं वट्टमाणजीवेरण |
उजुमविणारणं जाणदि, भूदभविस्सं च विउलमदी ||४४१ ॥
त्रिकालविषयरूप, चितितं वर्तमानजीवेन ।
ऋजुमतिज्ञानं जानाति, भूतभविष्यच्च विपुलमतिः ॥ ४४१ ॥
टीका - त्रिकाल सबंधी पुद्गल द्रव्य को वर्तमान काल विषै कोई जीव चितवन करें है, तिस पुद्गल द्रव्य को ऋजुमति मन पर्ययज्ञान जाने है । बहुरि त्रिकाल सबंधी पुद्गल द्रव्य की कोई जीव अतीत काल विषे चिंतया था वा वर्तमान काल विपचित है वा अनागत काल विषै चितवेगा, जैसे पुद्गल द्रव्य क विपुलमति मन पर्ययज्ञान जानें है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
सव्वंग-अंग संभव- चिण्हादुष्पज्जदे जहा ओही । मणपज्जवं च दव्वमणादो उप्पज्जदे रिणयमा ॥ ४४२ ॥
सर्वागांग संभवचिह्नादुत्पद्यते यथावधिः ।
मन:पर्ययं च द्रव्यमनस्त उत्पद्यते नियमात् ॥४४२॥
टीका - जैसे पूर्व का था, भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्व अग ते उपजै है । गुणप्रत्यय शंखादिक चिह्ननि ते उपजे है । तैसें मन. पर्ययज्ञान द्रव्य मन ते उपजै है । नियम तै और अगनि के प्रदेशनि विषे नाही उपजै है ।
हिदि होदि हु दव्वमणं, वियसियट्ठच्छदारविंदं वा । 'गोवंगुदयादो, मणवग्गणख धदो गियमा ॥ ४४३ ॥
refe भवति हि द्रव्यमनः, विकसिताष्टच्छदारविंदवत् । अंगोपांगोदयात्, मनोवर्गणास्कंधतो नियमात् ॥४४३॥
टीका - सो द्रव्य मन हृदय स्थान विषे प्रफुल्लित आठ पांखुडी का कमल के आकार अंगोपांग नाम कर्म के उदय ते तेईस जाति की पुद्गल वर्गरणानि विषै मनोवर्गणा है । तिनि स्कंधनि करि निपजै है, औसा नियम है।
गोइंदिय त्ति सण्णा, तस्स हवे सेसइंदियाणं वा । वत्तत्ताभावादो, मण मणपज्जं च तत्थ हवे ॥४४४ ॥
[ ५६३
नोइंद्रियमिति संज्ञा, तस्य भवेत् शेषेंद्रियाणां वा ।
व्यक्तत्वाभावात्, मनो मनःपर्ययश्च तत्र भवेत् ॥४४४ ॥
टीका - तिस मन का नोइद्रिय औसा नाम है । नो कहिए ईपत्, किंचिन्मात्र इंद्रिय है । जैसे स्पर्शनादिक इद्रिय प्रकट है, तैसे मन के प्रकटपना नाही । तातं मन का नोइद्रिय असा नाम है, सो तिस द्रव्य मन विषै मतिज्ञानरूप भाव मन भी उपजै है, अर मन पर्ययज्ञान भी उपजै है ।
मणपज्जवं च णाणं, सत्तसु विरदेसु सत्तइड्ढीणं । एगादिजुदेस हवे, वंतविसिट्ठचरणे ॥ ४४५॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४४६-४४७-४४८ ५६४ ]
मनःपर्ययश्च ज्ञानं, सप्तसु विरतेषु सप्तर्षीनाम् ।
एकादियुतेषु भवेद्वर्धमानविशिष्टाचरणेषु ॥४४५॥ टीका - प्रमत्त आदि सात गुणस्थान विर्ष १. बुद्धि, २. तप, ३. वैक्रियिक, ४. औषध, ५. रस, ६. बल, ७. अक्षीण इनि सात रिद्धिनि विष एक, दोय आदि रिद्धिनि करि संयुक्त, बहुरि वर्धमान विशेष रूप चारित्र के धारी जे महामुनि, तिनिके मनःपर्यय ज्ञान हो है; अन्यत्र नाहीं ।
इंदियणोइंदियजोगादि, पेक्खित्तु उजुमदी होदि । जिरवेक्खिय विउलमदी, प्रोहिं वा होदि णियमेण ॥४४६॥
इंद्रियनोइंद्रिययोगादिमपेक्ष्य ऋजुमतिर्भवति ।
निरपेक्ष्य विपुलमतिः, अवधिर्वा भवति नियमेन ॥४४६।। टीका - ऋजुमति मन पर्ययज्ञान है ; सो अपने वा अन्य जीव के स्पर्शनादिक इंद्री अर नोइंद्रिय मन अर मन, वचन, काय योग तिनिकी सापेक्ष तें उपजै है । बहुरि विपुलमति मन पर्यय है; सो अवधिज्ञान की सी नाई, तिनकी अपेक्षा बिना ही नियम करि उपजै है।
पडिवादी पुण पढमा, अप्पडिवादी हु होदि बिदिया है। सुद्धो पढमो बोहो, सुद्धतरो विदियबोहो दु ॥४४७॥
प्रतिपाती पुनः प्रथमः, अप्रतिपाती हि भवति द्वितीयो हि ।
शुद्धः प्रथमो बोधः, शुद्धतरो द्वितीयबोधस्तु ॥४४७॥ टीका - पहिला ऋजुमति मनःपर्यय है, सो प्रतिपाती है। बहुरि दूसरा विपुलमति मन पर्यय है, सो अप्रतिपाती है । जाकै विशुद्ध परिणामनि की घटवारी होइ, सो प्रतिपाती कहिये । जाकै विशुद्ध परिणामनि की घटवारी न होइ, सो अप्रतिपाती कहिये । वहुरि ऋजुमति मन पर्यय तौ विशुद्ध है; जातै प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम ते निर्मल भया है । बहुरि विपुलमति मन पर्यय विशुद्धतर है, जाते अतिशय करि निर्मल भया है।
परमणसि टिव्यमठें, ईहामदिरणा उजुट्ठिय लहिय । पच्छा पच्चक्खण य, उजुमदिरणा जाणद्रे रिणयमा ॥४४८॥
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सम्यग्ज्ञातचन्तिका भाषा टीका ]
परमनसि स्थितमर्थमीहामत्या ऋजुस्थितं लब्ध्वा । पश्चात् प्रत्यक्षेण च, ऋजुमतिना जानीते नियमात् ॥४४८॥
टीका पर जीव के मन विषै सरलपने चितवन रूप तिष्ठता जो पदार्थ, ताकौ पहलै तौ ईहा नामा मतिज्ञान करि प्राप्त होइ, असा विचार कि याका मन विषे का है । पीछे ऋजुमति मन पर्यय ज्ञान करि तिस अर्थ को प्रत्यक्षपने करि ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानी जाने है, यह नियम है ।
चितियमचितियं वा अद्ध' चितियमणेयभेयगयं ।
श्रहिं वा विउलमदी, लहिऊण विजाणए पच्छा ॥ ४४६ ॥
चितितमचतितं वा अर्ध चितितमनेकभेदगतम् ।
अवधिर्वा विपुलमतिः, लब्ध्वा विजानाति पश्चात् ||४४९ ॥
टीका - अतीत काल विषै चितया वा अनागत काल विषै जाका चितवन होगा, जैसा बिना चितया वा वर्तमान काल विषे किछू एक आधासा चितया जैसा अन्य जीव का मन विषै तिष्ठता अनेक भेद लीए अर्थ, वाकौ पहिले प्राप्त होइ; वाका मन विषै यहु है, जैसा जानि । पीछे अवधिज्ञान की नाई विपुलमति मन पर्ययज्ञान तिस अर्थ को प्रत्यक्ष जाने है ।
दव्वं खेत्तं कालं, भावं पडि जीवलक्खियं रुवि ।
उजविउमदी जारगदि, अवरवरं मज्झिमं च तहा ॥४५० ॥
द्रव्यं क्षेत्रं कालं, भावं प्रति जीवलक्षितं रूपि ।
ऋजुविपुलमती जानीतः अवरवरं मध्यमं च तथा ॥४५०||
[ ५६५
-
टीका
द्रव्य प्रति वा क्षेत्र प्रति वा काल प्रति वा भाव प्रति जीव करि लक्षित कहिये चितवन कीया हूवा जो रूपी पुद्गल द्रव्य वा पुद्गल के संबंध की धरै ससारी जीव द्रव्य, ताकौ जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद करि ऋजुमति वा विपुलमति मन पर्यय ज्ञान जाने है ।
अवरं दव्वसुरालियसरीरणिज्जिण्णसमयबद्ध तु । चक्खिदियरिगज्जरणं, उक्कस्सं उजुमदिस्स हवे ॥ ४५१ ॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४५७-४५८-४५६ ५६८ ]
टोका - नरलोक यहा जैसा वचन कह्या है, सो यहां मनुप्य लोक का विप्कंभ का जेता परिमाण है, सो लेना । पर मनुष्य लोक तौ गोल है । पर यह विपुलमति का विषयभूत क्षेत्र समचतुरस्र घन प्रतर कहिए, समान चौकोर धन रूप प्रतर क्षेत्र कहा है; सो पैतालीस लाख योजन लंबा, तितना ही चौड़ा जैसा परिमाण जानना । इहा ऊचाई थोडी है, तातै घन प्रतर कह्या है । जातै मानुपोत्तर पर्वत के वाह्य च्यारों कोणानि विष तिष्ठते देव, तिर्यच चितए हुवे तिनिको भी उत्कृष्ट विपुलमति मनःपर्ययज्ञान जाने है, असे क्षेत्र प्रति जघन्य - उत्कृष्ट भेद कहे ।
दुग-तिग-भवा हुँ अवर, संत्तट्ठभवा हवंति उक्कस्सं । अड-गवनवा हू अवरमसंखेज्जं विउलउपकस्सं ॥४५७॥
द्विक-त्रिक-भवा हि अवरं, सप्ताष्टभवा भवंति उत्कृष्टम् ।
अष्ट-नव-भवा हि अवरमसंख्येयं विपुलोत्कृष्टम् ॥४५७॥ टीका - काल करि ऋजुमति का विषय, जघन्यपनै अतीत - अनागत रूपं दोय, तीन भव है; उत्कृष्टतै सात, आठ भव है। बहुरि विपुलमति का विषय जघन्य आठ नव भव है; उत्कृष्ट पल्य का असख्यातवां भाग मात्र है । जैसे अतीत, अनागत अपेक्षा काल प्रति जघन्य उत्कृष्ट भेद कहे ।
आवलिमसंखभागं, अवरं च वरं च वरमसंखगुणं। तत्तो असंखगुणिदं, असंखलोगं तु विउलमदी ॥४५८॥
आवल्यसंख्यभागमवरं च वरं च वरमसंख्यगुणम् ।
ततोऽसंख्यातगुरिगतमसंख्यलोकं च विपुलमतिः ॥४५८॥ टीका - ऋजुमति का विषयभूत भाव जघन्यपने प्रावली के असंख्यातवे भाग प्रमाण है । उत्कृष्टपन भी आवली के असंख्यातवां भाग प्रमाण ही कहिए; तथापि जघन्य ते असख्यात गुणा है । बहुरि विपुलमति का विषयभूत भाव जघन्ये पनै ऋजुमति का उत्कृष्ट ते असंख्यात गुणा है । बहुरि उत्कृष्ट पनै असंख्यात लोक प्रमाण है । जैसे भाव प्रति जघन्य - उत्कृष्ट भेद कहे ।
मझिम दवं खेत्तं, कालं भावं च मज्झिमं गाणं । जाणदि इदि मणपज्जवणाणं कहिदं समासेण ॥४५६॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
मध्यमद्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं च मध्यमं ज्ञानम् । जानातीति मन:पर्ययज्ञानं कथितं समासेन ॥ ४५९॥
―
टीका ऋजुमति अर विपुलमति का जघन्य भेद अर उत्कृष्ट भेद तो जघन्य वा उत्कृष्ट द्रव्य के क्षेत्र, काल, भावनि को जाने है । अर जे जघन्य अर उत्कृष्ट के मध्यवर्ती जे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, तिनको ऋजुमति अर विपुलमति के जे मध्य भेद है, तै जाने है । से मन:पर्ययज्ञान संक्षेप करि कह्या है |
संपुरणं तु समग्गं, केवलमसवत्तसव्वभावगयं । लोयालोयवितिमिरं, केवल गाणं मुणेदव्वं ॥ ४६०॥
संपूर्ण तु समग्र, केवलमसंपन्नं सर्वभावगतम् । लोकालोकवितिमिरं, केवलज्ञानं मंतव्यम् ॥ ४६०॥
* %E
टीका - जीव द्रव्य के शक्तिरूप जे सर्व ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद थे, ते सर्व व्यक्त रूप भए, ताते संपूर्ण है । बहुरि ज्ञानावरणीय अर वीर्यातराय नामा कर्म के सर्वथा नाशतें जिसकी शक्ति रुकै नाही है वा निश्चल है, ताते समग्र है । बहुरि इद्रियनि का सहाय करि रहित है, तातै केवल है । बहुरि प्रतिपक्षी च्यारि घाति कर्म के नाश त अनुक्रम रहित सकलं पदार्थनि विषै प्राप्त भया है, ताते असपन्न है । बहुरि लोकालोक विषै अज्ञान अधकार रहित प्रकाशमान है । अंसा प्रभेदरूप केवलज्ञान जानना ।
आगे ज्ञानमार्गणा विषै जीवनि की संख्या कहै है-
चदुगदिमंदिसुदबोहा, पल्लासंखेज्जया हु मणपज्जा । संज्जा केवलिणो, सिद्धादो होंति अदिरिता ॥ ४६१ ॥
चतुर्गतिमतिश्रुतबोधाः, पल्यासंख्येया हि मनः पर्यायाः । संख्येयाः केवलिनः, सिद्धात् भवंति अतिरिक्ताः ॥ ४६१ ॥
टीका - च्यार्यो गति विषै मतिज्ञानी पल्य के असख्यातवे भाग प्रमाण है । बहुरि श्रुतज्ञानी भी पल्य के असंख्यातवे भाग प्रमाण है । वहुरि मन पर्यय ज्ञानी मनुष्य संख्याते है । वहुरि केवल ज्ञानी सिद्धराशि विषै तेरह्वां चौदह्वा गुणस्थानवर्ती जीवनिका का परिमाण मिलाएं, जो होइ तीहि प्रमाण है ।
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५७० )
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४६२-४६३-४६८ ओहिरहिवा तिरिक्खा, मदिरणाणिअसंखभागगा मणुगा। संखेज्जा हु तदूणा, मदिणाणी ओहिपरिमाणं ॥४६२॥
अवधिरहिताः तियंचः, मतिज्ञान्यसंख्यभागका मनुजाः ।
संख्येया हि तनाः, मतिज्ञानिनः अवधिपरमाणम् ॥४६२।। टीका - अवधिज्ञान रहित तिर्यच, मतिज्ञानी जीवनि की सख्या कही । तीहि के असंख्यातवे भाग प्रमाण है । बहुरि अवधिज्ञान रहित मनुष्य संख्यात है, ए दोऊ राशि मतिज्ञानी जीवनि की जो सख्या कही थी; तिसमै स्यों घटाइ दीएं जो अवशेष प्रमाण रहै, तितने च्यार्यो गति संबंधी अवधिज्ञानी जीव जानने ।
पल्लासंखघणंगुल-हद-सेढि-तिरिक्ख-गदि-विभंगजुदा । णर-सहिदा किंचूणा, चदुगदि-वेभंगपरिमाणं ॥४६३॥
पल्यासंख्यधनांगुलहतश्रेरिणतिर्यग्गतिविभंगयुताः।
नरसहिताः किंचिदूनाः, चतुर्गतिवैभंगपरिमारणम् ॥४६३॥ टीका - पल्य का असंख्यातवा भाग गुरिणत घनांगुल करि जगच्छेणी को गुरिगए, जो प्रमाण होइ, तितने तो तिथंच । बहुरि संख्याते मनुष्य । बहुरि घनांगुल का द्वितीय मूल करि जगच्छणी कौ गुणिए, तितना नारकीनि का प्रमाण है। तामै सम्यग्दृष्टी नारकी जीवनि का परिमाण घटाए, जो अवशेष रहै, तितना नारकी। बहुरि ज्योतिषी देवनि का परिमाण विष भवनवासी, व्यंतर, वैमानिक देवनि का परिमाण मिलाए, सामान्य देवराशि होइ । तामै सम्यग्दृष्टी देवनि का परिमारण घटाएं, जो अवशेष रहै, तितने देव, इनि सबनि का जोड दीए, जो प्रमाण होइ, तितने च्यार्यो गति सबधी विभगज्ञानी जानने ।
सण्णाण-रासि-पंचय-परिहीणो सव्वजीवरासी हु । मदिसुद-अण्णाणीणं, पत्तेयं होदि परिमाणं ॥४६४॥
सज्ज्ञानराशिपंचकपरिहीनः सर्वजीवराशिहि । मतिश्रुताज्ञानिनां, प्रत्येकं भवति परिमारणम् ॥४६४॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५७१ टीका - सम्यग्ज्ञान पांच, तिनिकरि संयुक्त जीवनि का परिमाण किछ अधिक केवलज्ञानी जीवनि का परिमाण मात्र, सो सर्व जीवराशि का परिमाण विर्ष घटाएं, जो अवशेष परिमाण रहै, तितने कुमतिज्ञानी जीव जानने । बहुरि तितने ही कुश्रुतज्ञानी जीव जानने ।
इति प्राचार्य श्रीनेमिचद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह ग्रथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम सस्कृतटीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका नामा इस भाषा टीका विषै जीवकाड विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा, तिनिविषै ज्ञानमार्गणा प्ररूपणा नामा
बारह्वा अधिकार संपूर्ण भया ।।१२।।
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तेरहवां अधिकार : संयममार्गणा
विमल करत निज गुरणनि ते, सब कौं विमल जिनेश । विमल हौन कौ मै नमौ, अतिशय जुत तीर्थेश ॥
अथ ज्ञानमार्गणा का प्ररूपण करि, अब सयममार्गणा कहै है
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वद-समिदि- कसायाणं, दंडाणं तहिंदियारण पंचन्हं । धारण- पालण- गिग्गह चाग-जयो संजमो भणियो || ४६५ ||
व्रतसमितिकषायारणां, दंडानां तथैद्रियाणां पंचानाम् । धारणपालननिग्रहत्यागजयः संयमो भरिणतः ॥ ४६५॥
टीका - अहिंसा आदि व्रतनि का धारना, ईर्ष्या ग्रादि समितिनि का पालना, क्रोध आदि कषायनि का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दंड का त्याग करना, स्पर्शन आदि पांच इंद्रियनि का जीतना असे व्रतादिक पंचनि का जो धारणादिक, सोई पंच प्रकार संयम जाना । सं - कहिए सम्यक् प्रकार, जो यम कहिए नियम, सो संयम है ।
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बादरसंजलणुदये, सुहुमुदये समखये य मोहस्स । संजमभावो नियमा, होदि त्ति जिर्णोहि णिद्दिटंठ् ॥४६६॥
बादरसंज्वलनोदये, सूक्ष्मोदये शमक्षययोश्च मोहस्य ।
संयमभावो नियमात् भवतीति जिनैनिर्दिष्टम् ॥४६६॥
टीका बादर संज्वलन का उदय होत सतै, बहुरि सूक्ष्म लोभ का उदय होत सतै, बहुरि मोहनीय का उपशम होत संतै वा मोहनीय का क्षय होत संतें निश्चय करि संयम भाव हो है । जैसे जिनदेवने का है ।
तहां प्रमत्त - अप्रमत्त गुणस्थाननि विषे संज्वलन कषायनि के जे सर्वघाती स्पर्धक है; तिनिका उदय नाही; सो तो क्षय है । बहुरि उदय निषेकनि तै ऊपरवर्ती - घवला पुस्तक १, पृष्ठ १४६, गाथा सं. १२ ।
१. पट्सडागम
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५७३
जे निषेक, तिनिका उदय नाही, सोई उपशम । बहुरिं बादर संज्वलन के जे देश घातिया स्पर्धक संयम के अविरोधी तिनिका उदय, जैसे क्षयोपशम होते सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि ए तीन सयम हो है ।
बहुरि सूक्ष्मकृष्टि करने रूपं जो अनिवृत्तिकरण, तीहि पर्यंत बादर सज्वलन के उदय करि पूर्वकरण अर अनिवृत्तिकरण गुणस्थाननि विषै सामायिक अर छेदोपस्थापना दोय ही संयम हो है । बहुरि सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त हवा, असा जो सज्वलन लोभ, ताके उदयं करि दशवे गुणस्थान सूक्ष्मसापराय सयम हो है ।
बहुरि सर्व चारित्र मोहनीय कर्म के उपशमतै वा क्षय ते यथाख्यात संयम हो है । तहा ग्यारहवे गुणस्थान उपशम यथाख्यात हो है । बारहवै, तेरहवे, चौदहवे क्षायिक यथाख्यात हो है ।
इस ही अर्थ कौं दोय गाथानि करि कहैं है
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बादरसंजलदये, बादरसंजमतियं खु परिहारो । पद्मदिरे समुदये, सुमो संजमगुणी होदि ॥ ४६७॥
बादरज्वलनोदये, बादरसयमत्रिकं खलु परिहारः । प्रमत्तेतरस्मिन् सूक्ष्मोदये सूक्ष्मः संयमगुणो भवति ॥४६७॥
टीका - बादर संज्वलन का देशघाती स्पर्धक ते संयम के विरोधी नाही, तिनके उदय करि सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि ए तीन सयम हो है । तहा परिहारविशुद्धि तौ प्रमत्त अप्रमत्त दोय गुणस्थाननि विषै ही हो है । और सामायिक छेदोपस्थापना प्रमत्तादि अनिवृत्तिकरण पर्यत च्यारि गुणस्थाननि विषै हो है । बहुरि सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त हूवा सज्वलन लोभ, ताके उदय करि सूक्ष्मसापराय नामा सयम गुण हो है ।
जहखादसंजमो पुरण, उवसमदो होदि मोहणीयस्स ।
arat far सोयिमा, होदि ति जिरोहि णिदिट्ठ ॥४६८ ॥
य
यथाख्यातसंयमः पुनः, उपशमतो भवति मोहनीयस्य ।
क्षयतोऽपि च स नियमात् भवतीति जिनैनिर्दिष्टम् ॥४६८ ॥
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५७४
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४६९-४७०-४७१ टीका- बहुरि यथाख्यात संयम है; सो निश्चय करि मोहनीयकर्म के सर्वथा उपशम ते वा क्षय ते हो है; असे जिनदेवनि करि कह्या है ।
तदियकसायुदयेण य विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं । बिदियकसायुदयेण य, असंजमो होदि णियमेण ॥४६॥
तृतीयकषायोदयेन च, विरताविरतो गुणो भवेयुगपत् ।
द्वितीयकषायोदयेन च, असंयमो भवति नियमेन ॥४६९।। टीका - तीसरा प्रत्याख्यान कषाय का उदय करि युगपत् विरत - अविरतरूप संयमासंयम हो है । जैसे तीसरे गुणस्थान सम्यक्त्व - मिथ्यात्व मिले ही हो है। तैसे पंचमगुणस्थान विर्षे संयम - असंयम दोऊ मिश्ररूप हो हैं । तातै यह मिश्र संयमी है । बहुरि दूसरा अप्रत्याख्यान कषाय के उदय करि असंयम हो है। असे संयम मार्गणा के सात भेद कहे।
संगहिय सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्म। जीवो समुन्वहतो, सामाइयसंजमो होदि ॥४७०॥
संगृह्य सकलसंयममेकयममनुत्तरं दुरवगम्यम् ।
जीवः समुद्वहन, सामायिकसंयमो भवति ।।४७०॥ टीका - समस्त ही व्रतधारणादिक पंच प्रकार संयम कौं संग्रह करि एकयमं कहिए मै सर्व सावध का त्यागी हो; असा एकयमं कहिए सकल सावद्य का त्यागरूप अभेद संयम; सोई सामायिक जानना ।
कैसा है सामायिक ? अनुत्तरं कहिए जाके समान और नाही, संपूर्ण है। बहुरि दुरवगम्यं कहिए दुर्लभपने पाइए है, सो असे सामायिक को पालता जीव सामयिक संयमी हो है।
छेत्तण य परियायं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्मे सो, छेदोवट्ठावगो जीवो ॥४७१॥२
१ पट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा स. १८७। २. पटपडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा स. १८८।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
छित्वा च पर्यायं पुराणं यः स्थापयति श्रात्मानम् । पंचयमे धर्मे स, छेदोपस्थापको जीवः ॥ ४७१॥
टीका - सामायिक चारित्र को धारि, बहुरि प्रमाद तै स्खलित होइ, सावद्य क्रिया को प्राप्त हूवा असा जो जीव, पहिले भया जो सावद्यरूप पर्याय ताका प्रायश्चित्त विधि तै छेदन करि अपने आत्मा कौं व्रतधारणादि पंच प्रकार संयमरूप धर्म विप स्थापन करें; सोई छेदोपस्थापन संयमी जानना ।
छेद कहिए प्रायश्चित्त तीहिकरि उपस्थापन कहिए धर्म विषै आत्मा कौ स्थापना; सो जाकै होइ, अथवा छेद कहिए अपने दोष दूर करने के निमित्त पूर्वे कीया था तप, तिसका उस दोष के अनुसारि विच्छेद करना, तिसकरि उपस्थापन कहिए निर्दो सयम विषै आत्मा कौ स्थापना; सो जाके होइ, सो छेदोपस्थापन सयमी है । अपना तप का छेद हो है, उपस्थापन जाकै, सो छेदोपस्थापन है, जैसी निरुक्ति जानना ।
पंच-समिदो ति-गुत्तो परिहरइ सदा वि जो हु सावज्जं । पंचेक्कजमो पुरिसो, परिहारयसंजदो सो हु१ ॥४७२॥१
पंचसमितः त्रिगुप्तः, परिहरति सदापि यो हि सावद्यम् । पंचैकयमः पुरुषः, परिहारकसंयतः स हि ||४७२ ।।
टीका - पंच समिति, तीन गुप्ति करि संयुक्त जो जीव, सदा काल हिसारूप साव का परिहार करें, सो पुरुष सामायिकादि पंच सयमनि विषै परिहारविशुद्धि नामा संयम का धारी प्रकट जानना ।
तीसं वासो जम्मे, वासपुधत्तं खु तित्थयरमूले । पंचक्खाणं पढिदो, संझणदुगाउयविहारो ॥४७३ ॥
त्रिशद्वर्षो जन्मनि वर्षपृथक्त्वं खलु तीर्थकरमूले । प्रत्याख्यानं पठितः, संध्योनद्विगव्यूतिविहारः ॥ ४७३॥
[ ५७५
१. षट्खडागम २ पाठभेद
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- घवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा स. १८९
पच - जमेय - जमो वा ।
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५७६ ]
[ गोम्मटगार जीवकार गाया ४७४ टीका - जो जन्म ते तीस वर्प का भया होड । बहुरि सर्वदा खानपानादि से सुखी होइ; असा पुरुष दीक्षा कौं अगीकार करि पृथक्त्व वर्ग पर्यंत तीर्थकर के पाद मूल प्रत्याख्यान नामा नवमा पूर्व का पाठी होइ, सो परिहारविशुद्धि सयम को अगीकार करि, तीन सध्या काल विना सर्व काल विप दोय कोस विहार करें । पर रात्रि विर्षे विहार न करै । वर्षा काल विष किछ नियम नाही, गमन करै वा न करें; असा परिहारविशुद्धि संयमी हो है ।
परिहार कहिए प्राणीनि की हिसा का त्याग, ताकरि विशेपरूप जो शुद्धिः कहिए शुद्धता, जाविषै होइ, सो परिहारविशुद्धि सयम जानना ।
इस संयम का जघन्य काल तौ अतर्मुहर्त है, जाते कोई जीव अंतर्महर्तमात्र तिस संयम को धारि, अन्य गुणस्थान को प्राप्त होइ, तहां सो संयम रहै नाही; ताते जघन्य काल अंतर्मुहूर्त कह्या।।
बहुरि उत्कृष्ट काल अडतीस वर्ष घाटि कोडि पूर्व है । जाते कोई जीव कोडि पूर्व का धारी तीस वर्ष का दीक्षा ग्रहि, आठ वर्ष पर्यत तीर्थकर के निकटि पढे, तहां पीछ परिहारविशुद्धि संयम को अंगीकार करै; तातै उत्कृष्टकाल अडतीस वर्प घाटि कोडि पूर्व कह्या । उक्तं च
परिहारधिसमेतो जीवः षट्कायसंकुले विहरन् । पयसेव पद्मपत्रं, न लिप्यते पापनिवहेन ॥
याका अर्थ - परिहार विशुद्धि ऋद्धि करि सयुक्त जीव, छह कायरूप जीवनि का समूह विष विहार करता जल करि कमल पत्र की नाई पाप करि लिप्त न होइ ।
अणुलोहं वेदंतो, जीवो उवसामगो व खवगो बा। सो सुहमसंपराओ, जइखादेणूणो किचि ॥४७४॥
अणुलोभं विदन् जीवः उपशामको वा क्षपको वा । स सूक्ष्मसांपरायः यथाख्यातेनोनः किचित् ॥४७४॥
१ पट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५ गाथा स. १९०।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५७७ ___टीका - सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त भया लोभ कषाय का अनुभाग, ताके उदय कौं भोगवता उपशमी वा क्षायिकी जीव, सो सूक्ष्म है सापराय कहिए कषाय जाकै, असा सूक्ष्मसांपराय सयमी जानना । सो यहु यथाख्यात संयमी जे महामुनि, तिनित किछु एक घाटि जानना, स्तोकसा ही अंतर है ।
उवसंते खोणे वा, असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि । छ्दुमट्ठो वा जिरणो वा, जहखादो संजदो सो दुः ॥४७॥
उपशांते क्षीणे वा अशुभे कर्मणि मोहनीये ।
छद्मस्थो वा जिनो वा, यथाख्यातः संयतः स तु ॥४७५॥ टीका - अशुभरूप मोहनीय नामा कर्म, सो उपशम होते वा क्षयरूप होते उपशांत कषाय गुणस्थानवर्ती वा क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ होइ अथवा सयोगी अयोगी जिन होइ; सोई यथाख्यात संयमी जानना । मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम ते वा नाशते जो यथावस्थित आत्मस्वभाव की अवस्था; सोई है लक्षण जाका, असा यथाख्यात चारित्र कहिए है।
पंच-तिहि-चउ-विहिं य, अणु-गुण-सिक्खा-वहिं संजुत्ता । उच्चंति देस-विरया सम्माइट्ठी झलिय-कम्मा२ ॥४७६॥
पंचत्रिचतुर्विधैश्च, अणुगुणशिक्षानतः संयुक्ताः।
उच्यते देशविरताः सम्यग्दृष्टयः झरितकर्माणः ॥४७६॥ टीका - पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, च्यारि शिक्षानत असे बारह व्रतनि करि संयुक्त जे सम्यग्दृष्टी, कर्म निर्जरा के धारक, ते देश विरती सयमासयम के धारक परमागम विष कहिए है।
दसण-वय-सामाइय, पोसह-सच्चित्त-रायभत्ते य । बह्मारंभ-परिग्गह, अणुमणमुद्दिट्ठ-देसविरदेदे ॥४७७॥
दर्शनव्रतसामायिकाः प्रोषधसचित्तरात्रिभक्ताश्च । ब्रह्मारंभपरिग्रहानुमतोहिष्टदेशविरता एते ॥४७७॥
१. षट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा स. १६१ । २ षट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा स १९२। ३. पट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा स. १६३)
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५७८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४७८.४७६ टीका - नाम के एक देश ते सर्व नाम का ग्रहण करना, इस न्याय करि इस गाथा का अर्थ कीजिए है । १ दर्शनिक, २ वतिक, ३ सामायिक, ४ प्रोपधोपवास, ५ सचित्तविरत, ६ रात्रिभोजनविरत, ७ ब्रह्मचारी, ८ प्रारंभविरत, ६ परिग्रह विरत, १० अनुमति विरत, ११ उद्दिष्ट विरत जैसे ग्यारह प्रतिमा की अपेक्षा देशविरत के ग्यारह भेद जानने । तहां पांच उदुबरादिक अर सप्त व्यसननि को त्यागे अर शुद्ध सम्यक्त्वी होइ; सो दर्शनिक कहिए। पंच अणुव्रतादिक को धारै, सो व्रतिक कहिए । नित्य सामायिक क्रिया जाकै होइ; सो सामायिक कहिए। अवश्य पनि विप उपवास जाकै होइ; सो प्रोषधोपवास कहिए । जीव सहित वस्तु सेवन का त्यागी होइ; सो सचित्त विरत कहिए । रात्रि वि भोजन न करै सो रात्रिभक्त विरत कहिए। सदा काल शील पालै; सो ब्रह्मचारी कहिए। पाप पारभ कौं त्यागे; सो आरंभ विरत कहिए । परिग्रह के कार्य को त्यागै; सो परिग्रह विरत कहिए । पाप की अनुमोदना कौं त्यागे; सो अनुमति विरत कहिए। अपने निमित्त भया आहारादिक को त्यागै; सो उद्दिष्ट विरत कहिए । इनिका विशेष वर्णन ग्रंथांतर से जानना।
जीवा चोद्दस-भेया, इंदिय-विसया तहट्ठवीसं तु । जे तेसु रणेव विरया, असंजदा ते मुणेदव्वा ॥४७८॥
जीवाश्चतुर्दशभेदा, इंद्रियविषयास्तथाष्टविंशतिस्तु ।
ये तेषु नैव विरता, असंयताः ते मंतव्याः ॥४७८।। टोका - चौदह जीवसमास रूप भेद, बहुरि तैसे ही अट्ठाईस इद्रियनि के विषय, तिनिविषे जे विरत न होई, जीवनि की दया न करे, विषयनि विषै रागी होइ, ते असंयमी जानने।
पंच-रस-पंच-वण्णा, दो गंधा अट्ठ-फास-सत्त-सरा । मणसहिदहावीसा, इंदीयविसया मुरणेदव्वा ॥४७॥
पंचरसपंचवर्णाः, द्वौ गंधौ अष्टस्पर्शसप्तस्वराः। मनःसहिताः अष्टविंशतिः इंद्रियविषयाः मंतव्याः ॥४७६॥
१ पट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५, गाथा स. १६४।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५७६ ___टीका - तीखा, कडवा, कसायला, खाटा, मीठा ए पांच रस । बहुरि सुफेद, पीला, हरया, लाल, काला ए पांच वर्ण । बहुरि सुगंध, दुर्गध, ए दोय गव । बहुरि कोमल, कठोर, भारचा, हलका, सीला (ठंडा), ताता, रूखा, चिकना ए आठ स्पर्श । बहुरि षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद ए सात स्वर असे इंद्रियनि के सत्ताईस विषय पर अनेक विकल्परूप एक मन का विषय, असे विषय के भेद अट्ठाईस जानने।
आग संयम मार्गणा विष जीवनि की संख्या कहै हैपमदादि-चउण्हं जुदी, सामयिय-दुर्ग कमेण सेस-तियं । सत्त-सहस्सा णव-सय, णव-लक्खा तोहि परिहीणा ॥४८०॥
प्रमत्तादिचतुर्णां युतिः, सामायिकद्विकं क्रमेण शेषत्रिकम् ।
सप्तसहस्राणि नवशतानि, नवलक्षारिण त्रिभिः परिहीनानि ।।४८०॥ टीका -प्रमत्तादि च्यारि गुणस्थानवी जीवनि का जोड दीए, जो प्रमाण होइ; तितना जीव सामायिक अर छेदोपस्थापना संयम के धारक जानने । तहां प्रमत्तवाले पांच कोडि, तिराणवै लाख अठ्यारणवै हजार दोय से छह (५६३९८२०६), अप्रमत्तवाले दोय कोडि छिन लाख निन्याणवै हजार एक सै तीन (२६६६६१०३) अपूर्व करण वाले उपशमी दोय सै निन्याणवै (२६९), पांच सौ अठ्याण क्षायिकी, अनिवृत्ति करणवाले उपशमी २६६, क्षायिकी पांच सो अठयारणव (५९८) इनि सबनिका जोड दीएं, आठ कोडि निव्वे लाख निन्यारणवै हजार एक से तीन भया (८९०६६१०३) सो इतने जीव सामायिक सयमी जानने । पर इतने ही जीव छेदीपस्थापना सयमी जानने । बहुरि अवशेष तीन सयमी रहे, तहा परिहार विगुद्धि सबमी तीन घाटि सात हजार (६६६७) जानने। सूक्ष्म सापराय सयमी तीन घाटि नगने (८६७) जानने । यथाख्यात सयमी तीन घाटि नव लाख (६६६६७) जानने ।
पल्लासंखेज्जदिम, विरदाविरदाण दवपरिमाणं । पुत्वुत्तरासिहीणा, संसारी अविरदाण पमा ॥४८१॥
पल्यासंख्येयं, विरताविरतानां द्रव्यपरिमाणम् । पूर्वोक्तराशिहीनाः, संसारिणः अविरतानां प्रमा ॥४१॥
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५८० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८१
टीका -- पल्य के असंख्यात भाग करिए, तामै एक भाग प्रमाण संयमासंयम का धारक जीव द्रव्यनि का प्रमाण है । बहुरि ए कहे जे छहौ संयम के धारक जीव, तिनका संसारी जीवनि का प्रमाण में स्यो घटाए, जो अवशेष प्रमाण रहै; सोई असंयमी जीवनि का प्रमाण जानना । ·
इति श्री आचार्य नेमिचद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीयनाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीवतत्वप्रदी - पिका नाम सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चद्रिका नामा भाषाटीका विषै जीवकाण्ड विपै प्ररूपित बीस प्ररूपणा तिनिविषे सयममार्गरणा प्ररूपणा है नाम जाका सा तेरह्वां अधिकार सपूर्ण भया ॥ १३ ॥
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चौदहवां अधिकार : दर्शनमार्गणा
इस अनन्त भव उदधि, पार करनको सेतु । श्री अनंत जिनपति नमौं, सुख अनन्त के हेतु ॥
l दर्शनमार्गणा को कहै है -
जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कट्टुमायारं । श्रविसेसर अट्ठे, दंसणमिदि भण्णदे समये ॥४८२ ॥
यत्सामान्यं ग्रहणं, भावानां नैव कृत्वाकारम् । अविशेष्यार्थान्, दर्शनमिति भण्यते समये ||४८२ ॥
टीका - भाव जे' सामान्य विशेषात्मक पदार्थ, तिनिका ग्राकार कहिए भेद ग्रहण, ताहि नैव कृत्वा कहिए न करिकै यत् सामान्यं ग्रहणं कहिए जो सत्ता मात्र - रूप का प्रतिभासना तत् दर्शनं कहिए सोई दर्शन २ परमागम विषै कह्या है । कैसे ग्रहण करें है ? अर्थात् अविशेष्य अर्थ जे बाह्य पदार्थ, तिनिको श्रविशेष्य कहिए जाति, क्रिया, गुण, प्रकार इत्यादि विशेष न करिके अपना वा अन्य का केवल सामान्य रूप सत्तामात्र ग्रहण करें है ।
इस ही अर्थ को स्पष्ट करें है
भावाणं सामण्णविसेसयागं सख्वमेत्तं जं । arrहोणग्गणं, जीवेण य दंसणं होदि ॥ ४८३ ॥
भावानां सामान्य विशेषकानां स्वरूपमात्रं यत् । वर्णनही राहणं, जीवेन च दर्शनं भवति ॥ ४६३॥
टीका - सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ, तिनिमा
जैसे है तैसे जीव करि सहित स्वपर सत्ता का प्रकाशना, सो दर्शन । जाकरि देखिए वा देखने मात्र, सो दर्शन जानना ।
१. पट्सागन - धवला पुस्तक १, पृष्ठ १५० गावा २. विशेष प्रकल्पा
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५८२]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४८४-४८५-४८६ आगे चक्षु - अचक्षु दर्शन के लक्षण कहै हैचक्खूण जं पयासइ, दिस्सइ तं चक्खु-दंसणं बैंति । सेसिदिय-प्पयासो, णायवो सो अचक्खू त्ति ॥४८४॥
चक्षुषोः यत्प्रकाशते, पश्यति तत् चक्षुर्दर्शनं अवंति ।
शेषेद्रियप्रकाशो, ज्ञातव्यः स अचक्षुरिति ॥४८४॥ टोका - नेत्रनि का संबंधी जो सामान्य ग्रहण, सो जो प्रकाशिए, देखिए याकरि वा तिस नेत्र के विषय का प्रकाशन, सो चक्षुदर्शन गणधरादिक कहै हैं । बहुरि नेत्र विना च्यारि इद्रिय अर मन का जो विषय का प्रकाशन, सो अचक्षुदर्शन है, असा
जानना।
परमाणु-आदियाई, अंतिम-खधं त्ति मुत्ति-दव्वाइं। तं ओहि-दंसणं पुण, जं पस्सइ ताइ पच्चक्खं ॥४८॥
परमाणवादीनि, अंतिमस्कंधमिति मूर्तद्रव्याणि ।
तदवधिदर्शनं पुनः, यत् पश्यति तानि प्रत्यक्षम् ॥४८५।। टोका ~ परमाणु आदि महास्कंध पर्यंत जे मूर्तीक द्रव्य, तिनिको जो प्रत्यक्ष देखें, सो अवधिदर्शन है।
बहुविह बहुप्पयारा, उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि । लोगालोग वितिमिरो, जो केवलदसणुज्जोओ ॥४८६॥
वहुविधबहुप्रकारो, उद्योताः परिमिते क्षेत्रे ।
लोकालोकवितिमिरो, यः केवलदर्शनोद्योतः ॥४८६॥ टोका - बहुत भेद कौं लीए बहुत प्रकार के चंद्रमा, सूर्य, रत्नादिक संबंधी उद्योत जगत विप हैं । ते परिमित जो मर्यादा लीए क्षेत्र, तिस विष ही अपने प्रकाश
' २. प
मागम-घाना पुस्तक १, पृ ३६४, गा. स १६५, १९६ तथा देखो पू. ३०० से ३८२ तक।
गम-पाना पुस्तक १, गाया स १६६, पृष्ठ ३०४ । सागर-पवना पुस्तक १, मा. म. १९७, ३८४५
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ 53
करने कौं समर्थ है । तातै तिनि प्रकाशनि की उपमा देने योग्य नाही, असा समस् लोक र अलोक विषै अधकार रहित केवल प्रकाशरूप केवलदर्शन नामा उद्यो जानना ।
आगे दर्शनमार्गणा विषै जीवनि की संख्या दोय गाथानि करि कहैं है
जोगे चउरक्खाणं, पंचक्खाणं च खीणचरिमाणं । चक्खूणमोहिकेवलपरिमाणं ताण णाणं च ॥ ४८७ ॥
योगे चतुरक्षाणां, पंचाक्षाणां च क्षीणचरमाणाम् । चक्षुषामवधिकेवलपरिमाणं तेषां ज्ञानं च ॥४८७ ॥
टीका - मिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत चक्षुदर्शन ही है तिनके दो भेद है - एक शक्तिरूप चक्षु दर्शनी, एक व्यक्तिरूप चक्षुदर्शनी । तहा लब्धि अपर्याप्तक चौंइद्री र पंचेद्री तौ, शक्तिरूप चक्षुदर्शनी है, जाते नेत्र इद्रिय पर्याप्ति की पूर्णता पर्याप्त अवस्था विषे नाही है । तातें तहां प्रगटरूप चक्षुदर्शन न प्रवर्ते है बहुरि पर्याप्त चौइंद्री र पंचेद्री व्यक्तरूप चक्षुदर्शनी है; जाते तहा प्रकटरूप चक्षु दर्शन है। तहा बेद्री, तेद्री, चौइंद्री, पचेद्री आवली का असख्यातवा भाग प्रतरागुल की दीएं, जो प्रमाण आवै, ताका भाग जगत्प्रतर को दीए, जो प्रमाण होइ, तितने है, तो चौइंद्री, पचेद्री कितने है ? असे प्रमाण राशि च्यारि, फलराशि वसनि का प्रमारण, इच्छाराशि दोय, तहा इच्छा कौ फलराशि करि गुणि, प्रमारण का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितना चौइंद्री, पचेद्री राशि है । तहां बेदी आदि क्रम ते घटते हैं । ता किंचिदून करि बहुरि तिस विषै पर्याप्त जीवनि का प्रमाण घटावना | तात तिस प्रमाण में स्यों भी किछु घटाये जो प्रमाण होइ, तितना शक्तिगत चक्षुदर्शनी जानने । बहुरि से ही स पर्याप्त जीवनि का प्रमाण को च्यारि का भाग देइ, दो गुणा करि, तामै किचिदून की जो प्रमाण होइ, तितना व्यक्तिरूप चक्षुदर्शनी है । इद्रिय मार्गरा विषे जो चौइंद्री, पचेद्रिय जीवनि का प्रमाण कया है, तिनको मिलाए चक्षुदर्शनी जीवनि का प्रमाण हो है ।
बहुरि अवधिदर्शनी जीवनि का प्रमाण अवधिज्ञानी जीवनि का परिमाण के
समान जानना ।
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५८४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४८८
बहुरि केवलदर्शनी जीवनि का परिमाण केवलज्ञानी जीवनि का परिमाण के समान जानना । सो इनिका प्रमाण ज्ञानमार्गणा विषै कया है ।
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एइंदियपहुदीर्ण, खीणकसायंतणंतरासीणं । जोगो चक्खुदंसणजीवाणं होदि परिमाणं ॥ ४८८ ॥
एकेद्रिप्रभृतीनां क्षीणकषायांतानंत राशीनाम् । योगः प्रचक्षुर्दर्शनजीवानां भवति परिमारणम् ॥४८८ ॥
टीका - एकेद्रिय आदि क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती पर्यंत अनंत जीवनि का जोड दीए, जो परिमाण होइ तितना चक्षुदर्शनी जीवनि का प्रमारण जानना ।
इति श्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह ग्रथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका नामा भाषाटीका विषै जीवकाड विषै प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनि विषे दर्शनमार्गमा प्ररूपणा है नाम जाका सा चौदहवा अधिकार सपूर्ण भया । | १४ ||
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पंद्रहवां अधिकार : लेश्या - मार्गणा
सुधाधार सम धर्म तै, पोषे भव्य सुधान्य । प्राप्त कीए निज इष्ट कौं, भजौ धर्म धन मान्य ॥
आगे लेश्या मागंणा कह्या चाहै है । तहां प्रथम ही निरुक्ति लीएं लेश्या का लक्षण कहै है
fies अप्पीकीरs, एदीए णिय पुण्णपुण्णं च ॥ जीवो त्ति होदि लेस्सा, लेस्सागुणजाणयक्खादा ॥४८६ ॥
feपत्यात्मीकरोति, एतया निजापुण्यपुण्यं च ।
जीव इति भवति लेश्या, लेश्यागुणज्ञायंकाख्याता ॥ ४८९ ॥
टीका - लेश्या दोय प्रकार एक द्रव्य लेश्या, एक भाव लेश्या । तहां इस सूत्र विषै भाव लेश्या का लक्षण का है । लिपति एतया इति लेश्या, पाप र पुण्य को जीव नामा पदार्थ, इस करि लिप्त करें है, अपने करें है, निज संबंधी करै है; सो सो लेश्या, लेश्या लक्षण के जाननहारे गणधरादिकनि करि कहा है । इस करि आत्मा कर्म करि आत्मा को लिप्त करें है, सो लेश्या अथवा कषायनि का उदय करि अनुरंजित जो योगनि की प्रवृति, सो लेश्या कहिए ।
इस ही अर्थ को स्पष्ट करे है
जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयानुरंजिया होई । तत्तो दोष्णं कज्जं, बंधचउक्कं समुद्दिट्ठे ॥४६॥
योगप्रवृत्तिर्लेश्या कषायोदयानुरंजिता भवति ।
ततो द्वयोः कार्य, बंधचतुष्कं समुद्दिष्टम् ॥४९० ॥
टीका मन, वचन, कायरूप योगनि की प्रवृत्ति सो लेश्या है । सो योगनि की प्रवृत्ति कषायनि का उदय करि अनुरंजित हो है । तिसतै योग अर कषाय इनि
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१ षट्खडागम-घवला पुस्तक १, पृष्ठ १९१, गांथा सं. ६४ । २ पाठभेद 'नियय पुण्णव च' ।
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५८६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४९१-४९२-४९३
दोऊनि का कार्य च्यारि प्रकार बन्ध कह्या है । योगनि ते प्रकृत्ति वन्ध र प्रदेश बन्ध कह्या है । कषायनि ते स्थिति बन्ध अर अनुभाग बंध कह्या है | तिसही कारण कषायनि का उदय करि अनुरंजित योगनि की प्रवृत्ति, सोई है लक्षण जाका सें लेश्या करि च्यारि प्रकार बंध युक्त ही है ।
दोय गाथानि करि लेश्या का प्ररूपण विषै सोलह अधिकार कहै हैणिदेसवण्णपरिणामसंकमो कम्मलक्खणगदी य । सामी साहणसंखा, खेत्तं फासं तदो कालो ॥४६१॥
अंतरभावप्पबहु, अहियारा सोलसा हवंति त्ति । लेस्साण साहणट्ठ, जहाकमं तेहि वोच्छामि ॥४६२॥ जुम्मम् । निर्देश वर्णपरिणामसंक्रमाः कर्म लक्षरणगतयश्च । स्वामी साधनसंख्ये, क्षेत्रं स्पर्शस्ततः कालः ।।४९१ ।।
अंतरभावात्पबहुत्वमधिकाराः षोडश भवतीति ।
श्यानां साधनार्थ, यथाक्रमं तैर्वक्ष्यामि ॥४९२॥ युग्मम् ॥
टीका १ निर्देश, २ वर्ण, ३ परिणाम, ४ संक्रम, ५ कर्म, ६ लक्षण, ७ गति, ८ स्वामी, साधन, १० संख्या, ११ क्षेत्र, १२ स्पर्शन, १३ काल, १४ अंतर, १५ भाव, १६ अल्प बहुत्व ए सोलह अधिकार लेश्या के भेदसाधन के निमित्त है । तिन करि अनुक्रम ते लेश्यामार्गणा को कहै है ।
किण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य । लेस्साणं णिद्देसा छच्चेव हवंति नियमेण ॥४६३॥
कृष्णा नीला कापोता तेजः पद्मा च शुक्ललेश्या च । लेश्यानां निर्देशाः, षट् चैव भवंति नियमेन ॥४९३॥
टीका - नाम मात्र कथन का नाम निर्देश है । सो लेश्या के ए छह नाम है - कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म शुक्ल जैसे छह ही है । इहां एव शब्द करि तो नियम आया ही, वहुरि नियमेन अंसा कह्या, सो नैगमनय करि छह प्रकार लेश्या है । पर्यायार्थिक नय करि असंख्यात लोकमात्र भेद है, जैसा अभिप्राय नियम शब्द करि जानना । इति निर्देशाधिकारः ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका ]
वष्णोदयेण जणिदो, सरीरवण्णो दू दव्वदो लेस्सा | सा सोढा किण्हादी, अणेयभेया सभेयेरण || ४६४ ॥
वर्णोदयेन जनितः, शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या । सा षोढा कृष्णादिः, अनेकदा स्वभेदेन ॥४६४॥
टीका - बहुरि वर्ण नामा नामकर्म के उदय ते भया जो शरीर का वर्ण, सो द्रव्य लेश्या कहिए । सो कृष्णादिक छह प्रकार है । तहा एक - एक भेद अपने - अपने भेदनि करि अनेकरूप जानने ।
सोई कहिए है
छप्पय - णील- कवोद- सुहेमंबुज - संखसण्णिहा वण्णे । संखेज्जासंखेज्जाणंतवियप्पा य पत्तेयं ॥ ४६५ ॥
षट्पदनीलकपोतसुहेमाम्बुजशखसन्निभा वर्णे । संख्येया संख्येयानन्त विकल्पाश्च प्रत्येकम् ||४९५ ॥
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टीका कृष्ण लेश्या षट्पद जो भ्रमर, ताके समान है । जिसके शरीर का भ्रमर समान काला वर्ण होइ, ताके द्रव्य लेश्या कृष्ण जानना । जैसे ही नील लेश्या, नीलमरिण समान है । कपोत लेश्या, कपोत समान है । तेजो लेश्या, सुवर्ण समान है । पद्म लेश्या, कमल समान है । शुक्ल लेश्या शख समान है । बहुरि इन ही एक - एक लेश्यानि के नेत्र इद्रिय के गोचर अपेक्षा सख्याते भेद है । जैसे कृष्णवर्ण हीन - अधिक रूप संख्याते भेद को लीए नेत्र इंद्रिय करि देखिये | बहुरि स्कध भेद करि एक- एक के असंख्यात असख्याते भेद है । जैसे द्रव्य कृष्ण लेश्यावाले शरीर सबधी स्कंध असख्याते है । बहुरि परमाणू भेद करि एक एक के अनन्त भेद है । जैसे द्रव्य कृष्ण लेश्यावाले शरीर सम्बन्धी स्वधनि विषै अनते परमाणू पाईए है । असे सर्व लेश्यानि के भेद जानना ।
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[ ५८७
णिरया किण्हा कप्पा, भावाणुगया हू ति सुर-पर- तिरिये । उत्तरदेहे छक्क, भोगे रवि-चंद - हरिदंगा ||४६६ ॥
निरयाः कृष्णा कल्पा, भावानुगता हि त्रिसुरनरतिरश्चि । उत्तरदेहे षट्कं, भोगे रविचन्द्रहरितांगाः ॥४६६॥
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५८८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४६७ ४६८-४९९
टीका - नारकी सर्व कृष्ण वर्ण ही है । बहुरि कल्पवासी देव जैसी उनके भावलेश्या है, तैसा ही वर्ण के धारक है । बहुरि भवनवासी, व्यतर, ज्योतिपी देव अर मनुष्य अर तिर्यंच अर देवनि का विक्रिया तै भया शरीर, ते छहौ वर्ण के धारक है । बहुरि उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमि सबंधी मनुष्य, तियंच, अनुक्रम ते सूर्य सारिखे अर चद्रमा सारिखे अर हरित वर्ण के धारक है ।
बादराऊतेऊ, सुक्का - तेऊ य वाऊकायाणं । गोमुत्तमुग्गवण्णा, कमसो श्रव्वत्तवण्णो य ॥४६७॥
बादराप्तैजसौ, शुक्लतेजसौ च वायुकायानाम् । गोमूत्रमुद्गवर्णाः क्रमशः श्रव्यक्तवश्च ॥ ४६७॥
टीका बादर अकायिक' शुक्ल वर्ण है । बादर तेज कायिक पीतवर्ण है । बादर वात कायिकनि विषै घनोदधि वात तो गऊ का मूत्र के समान वर्ण को धरै है | घनवात मूंगा सारिखा वर्ण धरै है । तनुवात का वर्ण प्रकट नाही, अव्यक्त वर्ण है ।
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सेसि सहमाणं, कावोदा सव्व विग्गहे सुक्का । सव्वो मिस्सो देहो, कवोदवण्णो हवे णियमा ॥४६८॥
सर्वेषां सूक्ष्मानां, कापोताः सर्वे विग्रहे शुक्ला: । सर्वो मिश्रो देहः, कपोतवरर्णो भवेन्नियमात् ॥ ४९८ ॥
टीका - सर्व ही सूक्ष्म जीवनि का शरीर कपोत वर्ग है । बहुरि सर्व जीव विग्रहगति विप शुक्ल वर्ण ही है । बहुरि सर्व जीव अपने पर्याप्ति के प्रारम्भ का प्रथम समय तै लगाय शरीर पर्याप्ति की पूर्णता पर्यत जो अपर्याप्त अवस्था है, तहां कपोत वर्ण ही है, जैसा नियम है । जैसे शरीरनि का वर्ण कह्या, सो जिसका जो शरीर का वर्ण होइ, तिसके सोई द्रव्य लेश्या जाननी । इति वर्णाधिकार : ।
आगे परिणामाधिकार पंच गाथानि करि क है है
लोगाणमसंखेज्जा, ऊदयट्ठाणा कसायगा होंति । तत्थ किलिट्टा सुहा, सुहाविसुद्धा तदालावा ॥४६६ ॥
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'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
[ ५८६
लोकानामसंख्येयान्युदयस्थानानि कषायगांरिण भवति ।
तत्र क्लिष्टानि अशुभानि, शुभानि विशुद्धानि तदालापात् ॥४६६।। टोका - कषाय संबंधी अनुभागरूप उदयस्थान असख्यात लोक प्रमाण है । तिनिकौं यथायोग्य असंख्यात लोक का भाग दीजिए। तहा एक भाग बिना अवशेष बहुभाग मात्र तौ सक्लेश स्थान है। ते पणि असख्यात लोक प्रमाण है । बहुरि एक भाग मात्र विशुद्धि स्थान है । ते परिण असंख्यात लोक प्रमाण है, जाते असख्यात के भेद बहुत है । तहां संक्लेश स्थान तो अशुभलेश्या संबंधी जानने, पर विशुद्धिस्थान शुभलेश्या सबंधी जानने।
तिव्वतमा तिब्बतस, तिव्वा असुहा सुहा लदा मंदा। मंदतरा मंदतमा, छहारणगया हु पत्तेयं ॥५००॥
तीवतमास्तीवतरास्तीवा अशुभाः शुभास्तथा मंदाः।
मंदतरा मंदतमाः, षट्स्थालगता हि प्रत्येकम् ।।५००॥ टीका - पूर्वे जे असंख्यात लोक के बहुभागमात्र अशुभ लेश्या सबधी संक्लेश स्थान कहे, ते कृष्ण, नील, कपोत भेद करि तीन प्रकार है। तहा पूर्व सक्लेशस्थाननि का जो प्रमाण कहा, ताकौ यथायोग्य असख्यात लोक का भाग दीए, तहा एक भाग बिना अवशेष बहुभाग मात्र कृष्णलेश्या सबधी तीव्रतम कषायरूप सक्लेशस्थान जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग को असख्यात लोक का भाग दीजिए, तहां एक भाग बिना अवशेष बहुभाग मात्र नील लेश्या सबंधी तीव्रतर कपायरूप सल्केश स्थान जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग मात्र कपोत लेश्या सवधी तीव्र कपायरूप सक्लेशस्थान जानने । बहुरि असंख्यात लोक का एक भाग मात्र शुभ लेश्या सबंधी विशुद्धि स्थान कहे; ते तेज, पद्म, शुक्ल भेद करि तीन प्रकार है। तहां पूर्व जो विशुद्धिस्थाननि का प्रमाण कह्या, ताको यथायोग्य असख्यात लोक का भाग दीजिए, तहां एक भाग बिना अवशेष बहुभाग मात्र तेजो लेश्या सम्बन्धी मदकपाय रूप विशुद्धि स्थान जानने । बहुरि तिस अवशेप एक भाग को असख्यात लोक का भाग दीजिए, तहां एक भाग बिना अवशेष भाग मात्र पद्मलेश्या सवधी मदतर कपायरूप विशुद्धिस्थान जानने । बहुरि तिस अवशेष एक भाग मात्र शुक्ललेश्या सवधी मंदतम कपायरूप विशुद्धि स्थान जानने । तहा इनि कृष्णलेश्या प्रादि छह स्थाननि विप एक -
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५६० ]
[गोम्मटसार जीवका गाया ५०१-५०२-५०३ एक में अनन्तभागादिक षट्स्थान संभव हैं। तहां अशुभ रूप तीन भेदनि विप ती उत्कृष्ट तै लगाइ जघन्य पर्यत असंख्यात लोक मात्र वार पट् स्थानपतित संक्लेश हानि संभव है। बहुरि शुभरूप तीन भेदनि विपै जघन्य ते लगाइ, उत्कृप्ट पर्यंत असंख्यात लोकमात्र बार षट्स्थान पतित विशुद्ध परिणामनि की वृद्धि संभव है। परिणामनि की अपेक्षा संक्लेश विशुद्धि के अनंतानन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं; तिनकी अपेक्षा षट्स्थानपतित वृद्धि - हानि जानना ।
असुहारणं वर-मज्झिम-अवरंसे किण्ह-णील-काउतिए । परिणमदि कमेणप्पा, परिहाणोदो किलेसस्स ॥५०१॥
अशुभानां वरमध्यमावरांशे कृष्णनीलकापोतत्रिकानाम् ।
परिणमति क्रमेणात्मा परिहानितः क्लेशस्य ॥५०१॥ टीका - जो संक्लेश परिणामनि की हानिरूप परिणमै, तो अनुक्रम ते कृष्ण के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश; नील के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश; कपोत के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश रूप परिणवै है।
काऊ पीलं किण्हं, परिणमदि किलेसवड़ढिदो अप्पा । एवं किलेसहाणी-वड्ढीदो होदि असुहतियं ॥५०२॥
कापोतं नीलं कृष्णं, परिणमति क्लेशवृद्धित आत्मा ।
एव क्लेशहानि-वृद्धितो भवति अशुभत्रिकम् ॥५०२॥ टीका - बहुरि जो संक्लेश परिणामनि की वृद्धिरूप परिणमै तौ अनुक्रम तै कपोतरूप, नीलरूप, कृष्णरूप परिणवै है । जैसै संक्लेश की हानि - वृद्धि करि तीन अशुभ स्थान हो है।
तेऊ पडमे सुक्के, सुहाणमवरादिअंसगे अप्पा। सुद्धिस्स य वड्ढीदो, हारणीदो अण्णहा होदि ॥५०३॥
तेजसि पद्म शुक्ले, शुभानामवराधेशगे आत्मा । शुद्धेश्च वृद्धितो, हानितः अन्यथा भवति ॥५०३॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ५६१ टीका - बहुरि जो विशुद्धपरिणामनि की वृद्धि होइ, तौ अनुक्रम ते पीत, पद्म, शुल्क के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंशरूप परिणव है । बहुरि जो विशुद्ध परिणामनि की हानि होइ, तो, अन्यथा कहिए शुक्ल, पद्म, पीत के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य अंश रूप अनुक्रम तै परिणवै है । इति परिणामाधिकारः ।
आगे संक्रमणाधिकार तीन गाथानि करि कहै है -
संकमरणं सट्ठाण-परट्ठाणं होदि किण्ह-सुक्काणं । वड्डीसु हि सट्ठाणं, उभयं हाणिम्मि सेसउभये वि ॥५०४॥
संक्रमणं स्वस्थान-परस्थानं भवतीति कृष्णशुक्लयोः ।
वृद्धिषु हि स्वस्थानमुभयं हानौ शेषस्योभयेऽपि ॥५०४॥ टीका - संक्रमण नाम परिणामनि की पलटनि का है; सो संक्रमण दोय प्रकार है - स्वस्थानसंक्रमण, परस्थानसंक्रमण ।
तहां जो परिणाम जिस लेश्यारूप था, सो परिणाम पलटि करि तिसही लेश्यारूप रहै, सो तो स्वस्थान संक्रमण है।
बहुरि जो परिणाम पलटि करि अन्य लेश्या को प्राप्त होइ, सो परस्थान संक्रमण है।
तहां कृष्ण लेश्या अर शुक्ललेश्या की वृद्धि विष तौ स्वस्थानसंक्रमण ही है; जातै सक्लेश की वृद्धि कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट अश पर्यंत ही है । अर विशुद्धता की वृद्धि शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश पर्यंत ही है। बहुरि कृष्णलेश्या अर शुक्ल लेश्या के हानि विर्षे स्वस्थानसंक्रमण परस्थानसंक्रमण दोऊ पाइए है । जो उत्कृष्ट कृष्णलेश्या तै सक्लेश की हानि होइ, तौ कृष्ण लेश्या के मध्यम, जघन्य अशरूप प्रवते, तहा स्वस्थान सक्रमण भया, अर जो नीलादिक अन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, तहा परस्थान सक्रमण भया। जैसे कृष्ण लेश्या के हानि विष दोऊ संक्रमण है । बहुरि उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या ते जो विशुद्धता की हानि होइ, तो शक्ल लेश्या के मध्यम, जघन्य अंशरूप प्रवर्ते । तहा स्वस्थान संक्रमण भया। बहुरि पद्मादिक अन्य लेश्यारूप प्रवर्ते, तहां परस्थान संक्रमण भया । जैसे शुल्क लेश्या के हानि विपै दोऊ संक्रमण हैं।
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५६२ ].
[ गोम्मटसार जौनकाण्ड गाथा ५०५-५०६
बहुरि अवशेष नील, कपोत, तेज, पद्म, लेश्यानि विषै दोऊ जाति के सक्रमण हानि विषै भी अर वृद्धि विषे भी पाइए । वृद्धि हानि होते जो जिस निश्यारूप था, उस ही लेश्यारूप रहै, तहा स्वस्थान सक्रमण होइ । बहुरि वृद्धि हानि होते, जिस लेश्यारूप था, तिसतै अन्य लेश्यारूप प्रवर्त, तहां परस्थान संक्रमण होइ । जैसे च्यारथों लेश्यानि के हानि विषै वा वृद्धि विषे उभय सक्रमण है ।
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P
लेस्साणुक्कस्सादोवरहाणी अवरगाववरड्ढो । सठाणे श्रवरादो, हाणी नियमा परट्ठा ॥५०५ ॥
लेश्यानामुत्कृष्टादवरहानिः अवरकादवर वृद्धिः । स्वस्थाने यवरात् हानिनियमात् परस्थाने ।। ५०५ ॥
टीका - कृष्णादि सर्व लेश्यानि का उत्कृष्ट स्थान विपें जेते परिणाम हैं, तिनतै उत्कृष्ट स्थानक का समीपवर्ती जो तिस ही लेश्या का स्थान, तिस विप अवर हानि कहिए उत्कृष्ट स्थान ते अनंतभाग हानि लीएं परिणाम हैं । जातें उत्कृष्ट के अनंतर जो परिणाम, ताक ऊर्वक कह्या है, सो अनंतभाग की सदृष्टि ऊर्वक है । बहुरि स्वस्थान विषे कृष्णादि सर्व लेश्यानि का जघन्य स्थान के समीपवर्ती जो स्थान है, तिस विषै जघन्य स्थान के परिणामनि तै प्रवर वृद्धि कहिए । अनंत भागवृद्धि लीएं परिणाम पाइए है; जाते जो जघन्यभाव अष्टांकरूप कह्या है; सो अनंतगुरण वृद्धि की सहनानी आठ का अंक है; ताके अनन्तर ऊर्वक ही है । बहुरि सर्व लेश्यानि के जघन्यस्थान तै जो परस्थान संक्रमण होइ तौ उस जघन्य स्थानक के परिणमनि तै अनन्त गुणहानि को लीए, अनन्तर स्थान विषै परिणाम हो है, सो शुक्ल लेश्या का जघन्य स्थानक के अनन्तर तो पद्म लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है । अर कृष्ण लेश्या के जघन्य स्थान के अनन्तर नील लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है । तहां अनत गुणहानि पाइए है । जैसे ही सर्व लेश्यानि विषै जानना । कृष्ण, नील, कपोत विषे तो हानि - वृद्धि संक्लेश परिणामनि की जाननी । पीत, पद्म, शुक्ल विषै हानि वृद्धि विशुद्ध परि णामनि की जाननी ।
इस गाथा विष का अर्थ का कारण आगे प्रकट करि कहिए हैसंकमर छट्ठाणा, हाणिसु-वड्ढीसु होंति: तण्णामा । परिमारगं च यः पुव्वं, उत्तकमं होदि सुदणाणेः ॥ ५०६ ॥ -
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५६३ संक्रगणे षट्स्थानानि, हानिषु वृद्धिषु भवन्ति तन्नामानि ।
परिमाणं च च पूर्वमुक्तक्रमं भवति श्रुतज्ञाने ॥५०६॥ टीका - इस संक्रमण विषै हानि विषै अनन्त भागादिक छह स्थान है। बहुरि वृद्धि विषै अनन्त गुणादिक भागादिक छह स्थान है । तिनके नाम वा प्रमाण जो पूर्व श्रुतज्ञान मार्गणा विर्षे पर्याय समास श्रुतज्ञान का वर्णन करते अनुक्रम कह्या है; सोई इहां जानना । सो अनन्तः भाग, असंख्यात भाग, सख्यात भाग, सख्यात गुणा, असंख्यात गुणा, अनन्त गुणा ए तौ षट् स्थाननि के नाम है । इनि अनन्त भागादिक की सहनानी क्रम तै ऊर्वक च्यारि, पाच, छह, सात, आठ का अंक है । बहुरि अनंत का प्रमाण जीवाराशि मात्र, असंख्यात का प्रमाण असख्यात लोक मात्र, संख्यात का प्रमाण उत्कृष्ट संख्यात मात्र असा प्रमाण गुणकार वा भागहार विष जानना । बहुरि यंत्र द्वार करि जो तहां अनुक्रम कह्या है, सोई यहां अनुक्रम जानना । वृद्धि विपै तो तहां कह्या है, सोई अनुक्रम जानना।
बहुरि हानि विर्ष उलटा अनुक्रम जानना। कैसे ? सो कहिये है - कपोत लेश्या का जघन्य ते लगाइ, कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट पर्यंत विवक्षा होइ, तौ क्रम ते संक्लेश की वृद्धि संभव है । बहुरि कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट तै लगाइ, कपोत लेश्या का जघन्य पर्यत विवक्षा होइ, तो कम ते सक्लेश की हानि सभव है। बहुरि पीत का जघन्य ते लगाइ शुक्ल का उत्कृष्टपर्यत विवक्षा होइ तौ क्रम तै विशुद्धि की वृद्धि संभव है । बहुरि शुक्ल का उत्कृष्ट तै लगाइ पीत का जघन्यपर्यत विवक्षा होइ तौ क्रम तै विशुद्धि की हानि संभव है । तहा वृद्धि विषै यथासभव षट्स्थानपतित वृद्धि जाननी हानि विष हानि जाननी । तहा पूर्वे कह्या जो वृद्धि विर्षे अनुक्रम, तहा पीछे ही पीछे सूच्यगुल' का असख्यातवां भाग मात्र बार अनन्त भाग वृद्धि होड, एक वार अनन्त गुणवृद्धि हो है । तहा अनन्त गुण वृद्विरूप जो स्थान, सो नवीन पट्स्थान पतितवृद्धि का प्रारभ रूप प्रथम स्थान है । अर याके पहिलै जो अनत भागवृद्धिरूप स्थान भया सो विवक्षित षट्स्थान पतित वृद्धि का अंत स्थान है । बहुरि नवीन पट्स्थान पतितवृद्धि का अनन्त गुणवृद्धिरूप प्रथम स्थान के प्रागै सूच्यगुल का असख्यातवा भागमात्र अनंतभाग वृद्धिरूपस्थान हो है । आगै पूर्वोक्त अनुक्रम जानना । अब हा कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट स्थान है; सो षट्स्थान पतित का अन्तस्थानरूप है, नातं पूर्वस्थान तै अनन्तभाग वृद्धिरूप है । बहुरि कृष्ण लेश्या का जघन्य स्थान हे, मी पट्स्थानपतित का प्रारंभरूप प्रथम स्थान है । तात याके पूर्व नीललेश्या का उत्कृष्ट
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५१२-५१३-५१४
टीका - निद्रा जाके बहुत होइ, और को ठिगना जाके बहुत होइ, धन-धान्यादिक विष तीन वांछा जाके होइ, असा संक्षेप ते नील लेश्यावाले का लक्षण है ।
रूसदि रिंगददि अण्णे, दूसदि बहुसो य सोय-भय-बहुलो । असुयदि परिभवदि परं, पसंसदि य अप्पयं बहुलो ॥५१२॥
रुष्यति निन्दति अन्यं, दुष्यति बहुशश्च शोकभयबहुलः ।
असूयति परिभवति परं, प्रशंसति आत्मानं बहुशः ॥५१२॥ टीका - पर के ऊपरि क्रोध करै, बहुत प्रकार और कौ निंदै, वहुत प्रकार और कौं दुखावै, शोक जाके बहुत होइ, भय जाकै बहुत होइ, और कौं नीकै देखि सकै नाही; और का अपमान कर, आपकी बहुत प्रकार बढाई करै ।
णय पत्तियदि परं, सो अप्पारणं यिव परं पि मण्णंतो । तुसदि अभित्थुवंतो, ण य जाणदि हाणिवदि वा ॥१३॥
न च प्रत्येति परं, स प्रात्मानमिव परमपि मन्यमानः ।
तुष्यति अभिष्टुवतो, न च जानाति हानिवृद्धी वा ॥५१३॥ टीका - आप सारिखा पापी - कपटी और को मानता संता और का विश्वास न करै, जो आपकी स्तुति करे, ताके ऊपरि बहुत संतुष्ट होइ, अपनी, अर पर की हानि वृद्धि को न जाने ।
मरणं पत्थेदि रणे, देहि सुबहुगं हि थुव्वमाणो दु। ण गणइ कज्जाकज्ज लक्खरगमेयं तु काउस्स ॥५१४॥३
मरणं प्रार्थयते रणे, ददाति सुबहुकमपि स्तूयमानस्तु ।
न गणयति कायाकार्य, लक्षणमेतत्तु कपोतस्य ॥५१४॥ टीका - युद्ध विष मरण की चाहै, जो आपकी बढाई करै, ताको बहुत धन देइ, कार्य-अकार्य को गिण नाही, असे लक्षण कपोत लेश्यावाले के हैं ।
१. पट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६१, गाथा स. २०३ । २. पट्खडागम-धवला पुस्तक'१, पृष्ठ ३६१, गाथा स. २०४ । ३. पट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६१, गाथा स. २०५।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५९७ जाणदि कज्जाकज्जं, सेयमसेयं च सव-सम-पासी। दय-दाण-रदो य मिदू, लक्खणमेयं तु तेउस्स ॥५१५॥
जानाति कार्याकार्य, सेव्यमसेव्यं च सर्वसमदर्शी ।
दयादानरतश्च मृदुः, लक्षणमेतत्तु तेजसः ॥५१॥ टीका - कार्य - अकार्य को जाने, सेवनेयोग्य न सेवनेयोग्य कौं जाने, सर्व विष समदर्शी होइ, दया - दान विष प्रीतिवंत होइ; मन, वचन, काय विर्ष कोमल होइ, असे लक्षण पीतलेश्यावाले के है।
चागी भद्दो चोक्खो, उज्जव-कम्मो य खमदि बहुगं पि। साहु-गुरु-पूजण-रदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स ॥५१६॥
त्यागी भद्रः सुकरः, उद्युक्तकर्मा च क्षमते बहुकमपि । साधुगुरुपूजनरतो, लक्षणमेतत्तु पद्मस्य ॥५१६॥
टीका - त्यागी होइ, भद्र परिणामी होइ, सुकार्यरूप जाका स्वभाव होइ, शुभभाव विषै उद्यमी रूप जाके कर्म होइ, कष्ट वा अनिष्ट उपद्रव तिनको सहै, मुनि जन अर गुरुजन तिनकी पूजा विर्ष प्रीतिवंत होइ, असे लक्षण पद्मलेश्यावाले के है ।
ण य कुणदि पक्खवायं, ण वि य रिणदाणं समो य ससि । णत्थि य राय-दोसा रणेहो वि य सुक्क-लेस्सस्स ॥५१७॥
न च करोति पक्षपातं, नापि च निदानं समश्च सर्वेषाम् ।
नास्ति च रागद्वेषः स्नेहोऽपि च शुक्ललेश्यस्य ॥५१७॥ टीका - पक्षपात न करै, निदा न कर, सर्व जीवनि विपै समान होट, पाट अनिष्ट विर्षे राग - द्वेष रहित होइ, पुत्र कलत्रादिक विप स्नेह रहित होर में लक्षण शुक्ल लेश्यावाले के है । इति लक्षणाधिकार ।
१. षट्खडागम - धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६१, गाथा सं. २०६ । २ षट्खडागम-घवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६२, गाया स. २०७ । ३ पट्खडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६२, गाथा स २०६।
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५६ ]
[ गोम्मटसार जीत्रकाण्ड गाथा ५.१८
गति अधिकार ग्यारह सूत्रनि करि क है है ।
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लेस्सारणं खलु असा, छव्वीसा होंति तत्थ मज्झिमया । आउगबंध रणजोग्गा, श्रट्ठट्ठवगरिसकालभवा ॥५१८ ||
श्यानां खलु अंशाः, षड्विंशतिः भवन्ति तत्र मध्यमकाः । श्रायुष्कबन्धनयोग्या, अष्ट अष्टापकर्षकालभवाः ॥५१८ ||
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टीका - लेश्यानि के छब्बीस अंश हैं । तहां छहौं लेश्यानि के जघन्य, उत्कृष्ट भेद करि अठारह अंश हैं । बहुरि कपोतलेश्या के उत्कृष्ट अश तै आगे अर तेजोलेश्या के उत्कृष्ट अंश ते पहिले कषायनि का उदय स्थानकनि विपै आठ मध्यम अंश है, जैसे छब्बीस अंश भए । तहां प्रयुकर्म के बध कौ योग्य आठ मध्यम जानने । तिनका स्वरूप आगे स्थानसमुत्कीर्तन अधिकार विषै भी कहेगे । ते ग्राठ मध्यम अंश, अपकर्ष काल आठ, तिनि विषै संभव है । वर्तमान जो भुज्यमान आयु, ताकौ अपकर्ष, अपकर्ष कहिए । घटाइ घटाइ आगामी पर भव की आयु को बांध; सो श्रपकर्ष कहिए ।
अपकर्षन का स्वरूप दिखाइए है - तहां उदाहरण कहिए है - किसी कर्म भूमिया मनुष्य वा तिर्यंच की भुज्यमान आयु पैसठ से इकसठ (६५६१) वर्ष की है । तहां तिस आयु का दोय भाग गएं, इकईस से सित्तासी वर्ष रहे । तहां तीसरा भाग कौ लागते ही प्रथम समय स्यों लगाइ अंतर्मुहूर्त पर्यंत कालमात्र प्रथम अपकर्ष है । तहा परभव सबधी आयु का बंध होइ । बहुरि जो तहा न बधै तौ, तिस तीसरा भाग का दोय भाग गएं, सात से गुणतीस वर्ष आयु के अवशेष रहै, तहा अतर्मुहूर्त काल पर्यंत दूसरा अपकर्ष, तहां परभव की आयु बांधे । बहुरि तहा भी न बंधे ती तिसका भी दोय भाग गएं दोय सँ तियालीस वर्ष आयु के अवशेष रहै, अंतर्मुहूर्त काल मात्र तीसरा अपकर्षं विषै परभव का आयु बाधै । बहुरि तहां भी न बधै तौ, तिसका भी दोय भाग गएं इक्यासी वर्ष र, अंतर्मुहूर्त पर्यंत चौथा अपकर्ष विषै पर भव का आयु बाधै । जैसे ही दोय दोय भाग गए, सत्ताईस वर्ष रहे वा नव वर्ष रहै वा तीन वर्ष रहै वा एक वर्ष रहै अतर्मुहूर्तमात्र काल पर्यंत पांचवां वा छठा वा सातवां वा
१ पट्खडागम - घवला पुस्तक १, पृष्ठ ३६२, गाथा स २०६ ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ५६६ आठवा अपकर्प विप पर भव की आयु को बधने कौं योग्यपना जानना । जैसे ही जो भुज्यमान प्रायु का प्रमाण होय, ताके त्रिभाग विभाग विष आठ अपकर्ष जानने।
बहुरि जो आठौ अपकर्षनि विर्ष आयु न बंधै अर नवमा आदि अपकर्ष है नाही, तौ आयु का बंध कैसे होइ ?
__ सो कहै है - असंक्षेपाद्वा जो आवली का असंख्यातवा भाग प्रमाण काल भुज्यमान अायु का अवशेप रहै ताके पहिले अतर्मुहूर्त काल मात्र समय प्रबद्धनि करि परभव की आयु को वाघि पूर्ण कर है, असा नियम है । इहा विशेष निर्णय कीजिए है - विपादिक का निमित्तरूप कदलीघात करि जिनका मरण होइ, ते सोपक्रमायुप्क कहिए । तातै देव, नारकी, भोगभूमिया अनुपक्रमायुष्क है। सो सोपक्रमायुष्क है, ते पूर्वोक्त रीति करि पर भव का आयु कौं बाध है । तहां पूर्वोक्त आठ अपकर्षनि विर्षे
आयु के वंध होने की योग्य जो परिणाम तिनकरि केई जीव आठ वार, केई जीव सात वार, केई छह वार, केई पाच वार, केई च्यारि वार, केई तीन वार, केई दो वार, केई एक वार परिणमै है।
आयु के वध योग्य परिणाम अपकर्षणनि विष ही होइ, सो असा कोई स्त्रभाव सहज ही है। अन्य कोई कारण नाही।
तहां तीसरा भाग का प्रथम समय विर्ष जिन जीवनि करि परभव के आयु का बंध प्रारंभ किया, ते अतर्मुहूर्त ही विष निष्ठापन करै । अथवा दूसरी बार आयु का नवमां भाग अवशेष रहै, तहा तिस बध होने की योग्य होइ । अथवा तीसरी वार आयु का सत्ताईसवां भाग अवशेष रहै, तहां तिस बध होने की योग्य होइ, असे आठवा अपकर्ष पर्यंत जानना । जैसा किछु नियम है नाही - जो इनि अपकर्पनि विप आयु का बंध होइ ही होइ । इनि विष आयु के बंध होने की योग्य होइ । जो बध होइ तौ होइ न होइ तौ न होइ । असे आयु के बंध का विधान कह्या।
जैसे अन्यकाल विर्ष समय समय प्रति समयप्रबद्ध बधै है, सो आयुकर्म विना सात कर्मरूप होइ परिणमै है । तैसे आयुकर्म का बंध जेता काल मे होइ, तितने काल विर्षे जे समय समय प्रति समयप्रबद्ध बधै ते आठो ही कर्मरूप होइ परिणम है असे जानना।
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६०० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५१८
बहुरि जिस समय विषै पहिले ही, जिसका बध होइ, तहा तिसका प्रारंभ कहिए । बहुरि समय समय प्रति तिस प्रकृति का बंध हूवा करें, तहां वंध होइ निवरै, तहां निष्ठापक कहिए ।
बहुरि देव नारकीनि के छह महीना आयु का अवशेष रहै, तव आयु के बंध करने की योग्य होइ, पहिलै न होइ । तहा छह महीना ही विषै त्रिभाग विभाग करि आठ अपकर्ष हो है, तिन विषे आयु के बंध करने योग्य हो है ।
बहुरि एक समय अधिक कोटि पूर्व वर्ष तै लगाइ तीन पल्य पर्यंत असख्यात वर्षमात्र आयु के धारी भोगभूमियां तिर्यच वा मनुष्य, ते भी निरुपक्रमायुष्क है । इन
आयु का नव मास अवशेष रहें आठ अपकर्षनि करि पर भव के आयु का वंध होने का योग्यपना हो है । बहुरि इतना जानना - जिस गति संबंधी आयु का बंध प्रथम अपकर्ष विषै होइ पीछें जो दुतियादि अपकर्षनि विषै आयु का बंध होइ, तो तिस ही गति संबंधी आयु का बंध होइ । बहुरि जो प्रथम अपकर्ष विषै श्रायु का बंध न होइ, तौ अर दूसरे अपकर्ष विषे जिस किसी आयु का बंध होइ तो तृतीयादि अपकर्षनि विष आयु का जो बंध होइ, तौ तिस ही गति सम्बन्धी आयु का बन्ध होइ, असेही मैं जानना । से कई एक जीवनि के तौ आयु का बंध एक अपकर्ष ही विषै होइ, केई जीवन के दोय श्रपकर्षनि करि होइ, केई जीवनि के तीन वा च्यारि वा पांच वा छह वा सातवा आठ अपकर्षनि करि हो है ।
तहां आठ अपकर्षनि करि परभव की आयु के बन्ध करनहारे जीव स्तोक है । तिनतं सख्यात गुणे सात अपकर्षनि करि बन्ध करने वाले है । तिनत संख्यात गुणे छह अपकर्षनि करि बन्ध करने वाले है । असे सख्यात गुणे संख्यात गुणे पांच, च्यारि, तीन, दोय, एक अपकर्षनि करि बंध करने वाले जीव जानने ।
बहुरि आठ अपकर्षनि करि आयु कौ बाधता जीव, तिसके आठवां अपकर्ष विष आयु बधने का जघन्य काल स्तोक है । तिसते विशेष अधिक ताका उत्कृष्ट का है । बहुरि आठ अपकर्षनि करि श्रायु को बांधता जीव के सातवां अपकर्ष विषै जघन्य काल तिसत संख्यात गुणा है, उत्कृष्ट तिसतै विशेष अधिक है । बहुरि सात अपकर्षनि करि प्रायु को बांधता जीव के सातवां अपकर्ष विषै आयु बंधने का जघन्य काल तिसत सख्यात गुणा है, उत्कृष्ट तिसतै विशेष अधिक | बहुरि आठ अपकर्षनि करि ग्रायु बांधता जीव के छठा अपकर्ष विषे आयु बंधने का जघन्य काल तिसतें
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माठ अपकर्षनि करि आयु वघने की रचना
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एक अपकर्षनि करि श्रायु वघने की रचना
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६.२]
| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५१६ संख्यात गुणा है, उत्कृष्ट विशेष अधिक है । बहुरि सात अपकर्षनि करि प्रायु को बांधता जीव के छठा अपकर्ष विर्ष आयु का बंधने का जघन्य काल तिसतै सख्यातगुणा है, उत्कृष्ट विशेष अधिक है। बहुरि छह अपकर्षनि करि प्रायु को बांधता जीव के छठा अपकर्ष विष आयु बधने का जघन्य काल तिसतै सख्यातगुणा है; उत्कृष्ट किछु अधिक है । जैसे एक अपकर्ष करि आयु को बांधता जीव के तीहिं अपकर्ष के उत्कृष्ट काल पर्यंत बहत्तरि (७२) भेद हो हैं। तहां जघन्य तै उत्कृष्ट तो अधिक जानना । सो तिस विवक्षित जघन्य को संख्यात का भाग दीएं, जो पावै, सो विशेष का प्रमाण जानना । ताको जघन्य में जोडै उत्कृष्ट का प्रमाण हो है। बहुरि उत्कृष्ट तै पागला जघन्य, सख्यात गुणां जानना । जैसे यद्यपि सामान्यपने सबनि विर्षे काल अंतर्मुहुर्त मात्र है। तथापि हीनाधिकपना जानने को अनुक्रम कह्या है, जो अपकर्षनि विर्ष आयु का बंध होइ, तौ इतने इतने काल मात्र समयप्रबद्धनि करि बंध हो है ।
यह बहत्तरी भेदनि की रचना है । तहां आठ अपकर्षनि करि आयु बंधने की रचना विष पहिली पंक्ति के कोठानि विषै जो आठ - आठ का अंक है, ताका तो यह अर्थ जानना - जो आठ अपकर्षनि करि आयु बांधने वाले का इहां ग्रहण है । बहुरि दूसरी, तीसरी पंक्तिनि विर्ष आठ, सात आदि अंक है, तिनिका यह अर्थ - जो तिनि आठ अपकर्षनि करि बंध करने वाले जीव के पाठवा, सातवां आदि अपकर्षनि का ग्रहण है । तहा दूसरी पक्ति विष जघन्य काल अपेक्षा ग्रहण जानना । तीसरी पंक्ति विपै उत्कृष्ट काल अपेक्षा ग्रहण जानना । असै ही सात, छह, पाच, च्यारि, तीन, दोय, एक अपकर्षनि करि आयु बधने की रचना विष अर्थ जानना । आठौ रचनानि की दूसरी, तीसरी पक्तिनि के सर्व कोठे बहत्तरि हो है । इनि बहत्तरि स्थाननि विष आयु बंधने के काल का अल्प - बहुत्व जानना । मध्य भेदनि के ग्रहण निमित्त जघन्य उत्कृष्ट के वीचि बिंदी की सहनानी जाननी ।
असे आयु को बधने के योग्य, लेश्यानि का मध्यम आठ अश, तिनकी आठ अपकर्पनि करि उत्पत्ति का अनुक्रम कह्या ।
सेसट्ठारससा, चउगइ-गमणस्स कारणा होति । सुक्कुक्कस्संसमुदा, सव्वळें जांति खलु जीवा ॥५१॥
शेषाष्टादशांशाश्चतुर्गतिगमनस्य कारणानि भवन्ति । शुक्लोत्कृष्टांशमृताः, सर्वार्थं यान्ति खलु जीवाः ॥५१६॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६०३
टीका - तिन मध्यम अशनि ते अवशेष रहे, जे लेश्यानि के अठारह अंश, ते च्यारि गति विषै गमन को कारण है । मरण इनि अठारह अंशनि करि सहित होइ, सो मरण करि यथायोग्य गति को जीव प्राप्त हो है । तहां शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि सहित मरे, ते जीव सर्वार्थसिद्धि नामा इंद्र के विमान को प्राप्त हो है ।
अवरंसमुदा होंति, सदारदुगे मज्झिमंसगेण मुदा । आरणदकष्पादुवर, सव्वट्ठाइल्लगे होंति ॥ ५२० ॥
अवरांशमृता भवन्ति, शतारद्विके मध्यमांशकेन मृताः । प्रातकल्पादुपरि, सर्वार्थादिमे भवन्ति ॥५२०॥
टीका - शुक्ल लेश्या का जघन्य अश करि मरे, ते जीव शतार - सहस्रार स्वर्ग विषे उपजै है । बहुरि शुक्ल लेश्या का मध्यम अंश करि मरें, ते जीव आनत स्वर्ग के ऊपर सर्वार्थसिद्धि इद्रक का विजयादिक विमान पर्यंत यथासंभव उपजे है ।
पम्मुक्कस्संसमुदा, जीवा उवजांति खलु सहस्सारं । अवरंसमुदा जीवा, सणक्कुमारं च माहिंदं ॥ ५२१॥
पद्मोत्कृष्ट शमृता, जीवा उपयान्ति खलु सहस्रारम् । अवरांशमृता जीवाः, सनत्कुमारं च माहेन्द्रम् ||५२१ ॥
टीका पद्म लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि मरे, जे जीव सहस्रार स्वर्ग की प्राप्त हो हैं । बहुरि पद्म लेश्या का जघन्य अंश करि मरे, ते जीव सनत्कुमार - माहेद्र स्वर्ग कौ प्राप्त हो है ।
मज्झिम सेरेर मुदा, तम्मज्भं जांति तेउजेट्ठमुदा । साणक्कुमारमाहिंदंतिमचक्कदसेढिम्मि ॥५२२||
मध्यमांशेन मृताः, तन्मध्यं यांति तेजोज्येष्ठमृताः । सानत्कुमार माहेंन्द्रान्तिमत्र केन्द्रश्रेण्याम् ||५२२||
टीका पद्म लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, ते जीव सहस्रार स्वर्ग के नीचे और सनत्कुमार - माहेन्द्र के ऊपरि यथासंभव उपजे है । बहुरि तेजोलेश्या का
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| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५२३-५२५ ६०४ ] उत्कृष्ट अश करि मरै, ते सनत्कुमार - माहेन्द्र स्वर्ग का अंत का पटल विष चक्र नामा इद्रक संबंधी श्रेणीबद्ध विमान, तिनि विष उपज हैं।
अवरंसमुदा सोहम्मीसाणादिमउडम्मि सेढिम्मि । मझिमनसेण मुदा, विमलविमाणादिबलभद्दे ॥५२३॥
अवरांशमृताः सौधर्मशानादिमतौ श्रेण्याम् ।
मध्यमांशेन मृता, विमलविमानादिबलभद्रे ॥५२३॥ टीका - तेजो लेश्या का जघन्य अंश करि मरे, ते जीव सौधर्म ईशान का पहिला रितु (जु) नामा इद्रक वा श्रेणीबद्ध विमान, तिनिविष उपजै है । बहुरि तेजो लेश्या का मध्यम. अंश करि मरे, ते जीव सौधर्म - ईशान का दूसरा पटल का विमल नामा मंद्रक तै लगाइ सनत्कुमार - माहेन्द्र का द्विचरम पटल का बलभद्र नामा इंद्रक पर्यंत विमान विष उपजें हैं.।
किण्हवरंसेण मुदा, अवधिट्ठाणम्मि अवरअंसमुदा। पंचमचरिमतिमिस्से, मज्झे मज्झेण जायन्ते ॥५२४॥
कृष्णवरांशेन मृता, अवधिस्थाने प्रवरांशमृताः ।
पञ्चमचरमतिमिने, मध्ये मध्येन जायन्ते ॥५२४॥ टीका - कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट अश करि मरे, ते जीव सातवी नरक पृथ्वी का एक ही पटल है, ताका अवधि स्थानक नामा इद्रक बिल विष उपजे है । बहुरि कृष्ण लेश्या का जघन्य अंश करि मरै, ते जीव पंचम पृथ्वी का अत पटल का तिमिस्र नामा इ द्रक विष उपज है । बहुरि कृष्ण लेश्या का मध्यम अंश करि मरै, ते जीव अवधिस्थान इ द्रक का च्यारि श्रेणीबद्ध बिल तिनि विष वा छठा पृथ्वी का तीनौ पटलनि विष वा पांचवी. पृथ्वी का. चरम. पटल विषै यथायोग्य उपजै है ।
नीलुक्कस्संसमुदा, पंचमधिदयसि प्रवरमुदा। वालुकसंपज्जलिदे, मझे मज्झेरण जायते ॥२५॥
नोलोकृष्टांशमृताः, पञ्चमांधेन्द्रके अवरमृताः । वालुकासंप्रज्वलिते, मध्ये मध्येन जायन्ते ॥५२५॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६०५ ____टीका - नील लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि मरे, ते जीव पंचम पृथ्वी का द्विचरम पटल का अध्र नामा' इंद्रक विष उपज है ।, केई पाचवा पटल विष भी उपज है। अरिष्ट पृथ्वी का अंत का पटल विष कृष्ण लेश्या का जघन्य अंश करि मरे हुए भी केई जीव उपजे है। इतना विशेष जानना । बहुरि नील लेश्या का जघन्य अशा करि मरै, ते जीव वालुका पृथ्वी का अंत का पटल विषै सप्रज्वलित नामा इंद्रक विषै. उपज है । बहुरि नील लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, ते जीव बालुका प्रभा पृथ्वी के संप्रज्वलित इद्रक ते नीचे अर चौथी पृथ्वी का सातौ पटल पर पचमी पृथ्वी का अंध्र इ द्रक के ऊपरि यथायोग्य उपजै है।
वर-कामोदंसमुदा, संजलिदं जांति तदिय-णिरयस्स । सीमंतं अवरमुदा, मज्झे मज्झेरण जायंते ॥२६॥
वरकापोतांशमृताः, संज्वलितं यान्ति तृतीयनिरयस्य ।
सोमन्तमवरमृता, मध्ये मध्येन जायन्ते ॥२६॥ टीका - कापोत लेश्या का उत्कृष्ट अंश करि मरे, ते. जीव तीसरी पृथ्वी का आठवां द्विचरम पटल ताके सज्वलित नामा इंद्रक विष उपज है । केई अत का पटल सबधी सप्रज्वलित नामा इद्रक विष भी उपज है। इतना विशेप जानना । बहुरि कापोत लेश्या का जघन्य अश करि मरे, ते जीव पहिली धर्मा पृथ्वी का पहिला सीमतक नामा इ द्रक, तिस विष उपज है । बहुरि कापोत लेश्या का मध्यम अश करि मरे, ते जीव पहिला पृथ्वी का सीमत इंद्रक ते नीचे बारह पटलनि विषै, बहुरि मेघा तीसरी पृथ्वी का द्विचरम सज्वलित इद्रक ते ऊपरि सात पटलनि विपे, बहुरि दूसरी पृथ्वी का ग्यारह पटल, तिन विष यथायोग्य उपजे है।
किण्ह-चउक्काणं पुण, मज्झस-मुदा हु भवणगादि-तिये । पुढवी-बाउ-वणप्फदि-जीवेसु हवंति खलु जीवा ॥५२७॥
कृष्णचतुष्काणां पुन., मध्यांशमृता हि भवनकादित्रये ।
पृथिव्यन्वनस्पतिजीवेषु भवन्ति खलु जीवाः ॥५२७॥ टीका - पुनः कहिये यह विशेष है - कृष्ण - नील - कपोत नील लेण्या, तिनके मध्यम अंश करि मरे जैसे कर्म भूमिया मिथ्यादृष्टी तिर्यच ना भनुप्प पर
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६०६ ]
[गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५२५-५२६ तेजो लेश्या का मध्यम अंश करि मरे, असे भोगभूमिया मिथ्यादृष्टी तिर्यंच वा मनुष्य ते भवनवासी, व्यतर, ज्योतिषी देवनि विष उपज हैं । बहुरि कृष्ण - नील - कपोत - पीत इन च्यारि लेश्यानि के मध्यम अंशनि करि मरे, असे तिथंच वा मनुष्य भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी वा सौधर्म - ईशान स्वर्ग के वासी देव, मिथ्यादृष्टी, ते वादर पर्याप्तक पृथ्वीकायिक, अप्कायिक वनस्पती कायिक विष उपज है। भवनत्रयादिक की अपेक्षा इहां पीत लेश्या जाननी । तियंच मनुष्य अपेक्षा कृष्णादि तीन लेश्या जाननी।
किण्ह-तियारणं मज्झिम-अंस-मुदा तेउ-वाउ-वियलेसु । सुर-रिणरया सग-लेस्सहिं, णर-तिरियं जांति सग-जोगं ॥५२८।।
कृष्णत्रयाणां मध्यमांशमृताः तेजोवायुविकलेषु।
सुरनिरयाः स्वकलेश्याभिः नरतिर्यञ्चं यान्ति स्वकयोग्यम् ॥५२८॥ टीका - कृष्ण, नील, कपोत के मध्यम अंश करि मरे, असे तिर्यच वा मनुष्य ते तेजःकायिक वा वातकायिक विकलत्रय असैनी पंचेद्री साधारण वनस्पती, इनिविर्षे उपज है । बहुरि भवनत्रय आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यंत देव अर धम्मादि सात पृथ्वी संबंधी नारकी ते अपनी-अपनी लेश्या के अनुसारि यथायोग्य मनुष्यगति वा तियंचगति को प्राप्त हो है। इहां इतना जानना - जिस गति संबधी पूर्व प्रायु बंध्या होइ, तिस ही गति विर्ष जो मरण होते जो लेश्या होइ, ताके अनुसारि उपजे है। जैसे मनुष्य के पूर्व देवायु का बध भया, बहुरि मरण होते कृष्णादि अशुभ लेश्या होइ तौ भवनत्रिक विष ही उपज है, जैसे ही अन्यत्र जानना । इति गत्यधिकार ।
आगे स्वामी अधिकार सात गाथानि करि कहै हैकाऊ काऊ काऊ, पीला णीला य णील-किण्हा य । किण्हा य परमकिण्हा, लेस्सा पढमादि पुढवीणं ॥५२६॥
कपोता कपोता कपोता, नीला नीला च नीलकृष्णे च ।
कृष्णा च परमकृष्णा, लेश्या प्रथमादिपृथिवीनाम् ॥२६॥ टीका - इहां भावलेश्या की अपेक्षा कथन है । तहां नारकी जीवनि के कहिए है - तहां धम्मा नामा पहिली पृथ्वी विषै कपोत लेश्या का जघन्य अंश है। वंशा दूसरी पृथ्वी विष कपोत का मध्यम अंश है। मेघा तीसरी पृथ्वी विष कपोत
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६००
का उत्कृष्ट अंश अर नील का जघन्य अंश है । अंजना चौथी पृथ्वी विषे नील का मध्यम अंश है । अरिष्टा पांचवी पृथ्वी विषे नील का उत्कृष्ट अश है, अर कृष्ण का जघन्य अंश है । मघवी पृथ्वी विषं कृष्ण का मध्यम अंश है । माघवी सातवी पृथ्वी विषै कृष्ण का उत्कृष्ट अंश है ।
र - तिरियाणं श्रोघो, इगि विगले तिण्णि चउ असण्णिस्स । सण्णि-पुण्णग-मिच्छे, सासणसम्मे वि असुह-तियं ॥ ५३० ॥
नरतिरश्वामोघः एकविकले तिस्रः चतस्र प्रसंज्ञिनः । संत्यपूर्णक मिथ्यात्वे सासादनसम्यक्त्वेऽपि अशुभत्रिकम् ॥५३०॥
टीका • मनुष्य अर तियंचनि के 'प्रोघ' कहिए सामान्यपने कही ते सर्व छह लेश्या पाइए है । तहां एकेंद्री अर विकलत्रय इनकै कृष्णादिक तीन अशुभ लेग्या हि पाइए है । बहुरि असैनी पचेद्री पर्याप्तक कैं कृष्णादि च्यारि लेश्या पाइए हैं, जाते असैनी पचेद्री कपोत लेश्या सहित मरे, तौ पहिले नरक उपजै । तेजो लेश्या सहित मरे, तौ भवनवासी अर व्यतर देवनि विषै उपजै । कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या सहित मरे, तौ यथायोग्य मनुष्य तिर्यंच विषै उपजे, तातै ताके च्यारि लेश्या है । बहुरि सैनी लब्धि अपर्याप्तक तियंच वा मनुष्य मिथ्यादृष्टी बहुरि अपि शब्द तं सैनी लब्धि पर्याप्त तियंच - मनुष्य मिथ्यादृष्टी, वहुरि सासादन गुणस्थानवर्ती निर्वृति अपर्याप्त तिर्यच वा मनुष्य वा भवनत्रिक देव इनिविपं कृष्णादिक तीन अशुभ लेश्या ही है । तियंच पर मनुष्य जो उपशम सम्यग्दृष्टी होइ, तार्क प्रति सक्लेश परिणाम होइ, तौ भी देशसयमीवत् कृष्णादिक तीन लेश्या न होइ । तथापि जो उपशम सम्यक्त्व की विराधना करि सासादन होइ, ताकै अपर्याप्त श्रवम्या पिं तीन अशुभ लेश्या ही पाइए है ।
भोगापुण्णगसम्म, काउस्स जहण्णि यं हवे णियमा । सम्मे वा मिच्छे वा, पज्जत्ते तिण्णि सुहलेस्सा ॥ ५३१ ॥
भोगाऽपूर्णकसम्यक्त्वे, कापोतस्य जघन्यकं भवेन्नियमात् । सम्यक्त्वे मिथ्यात्वे वा, पर्याप्ते तिस्रः शुभलेश्याः ॥ ५३१ ॥ भोग भूमि विषै निर्वृति अपर्याप्त मम्यष्ट
टीका लेश्या का जघन्य अश पाइए है । जातं कर्मभूमिया मनुष्य वा नियं पहिले म
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905]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५३२-५३५ वा तिच प्रायु का बंध कीया, पीछे क्षायिक वा वेदक सम्यक्त्व कौ अंगीकार करि मरें, तिस सहित ही तहां भोगभूमि विषे उपजै । 'तहां तिस योग्य संक्लेश परिणाम कपोत का जघन्य अंश, तिसरूप परिणमे है । बहुरि भोगभूमि विषै पर्याप्त अवस्था विपै सम्यग्दृष्टी वा मिथ्यादृष्टी जीव के पीतादिक तीन शुभलेश्या ही पाइए है ।
यो त छस्सा, सुह-तिय-लेस्सा हु देसविरद-तिये । तत्तो सुक्का लेस्सा, जोगिठाणं अल ेस्सं तु ॥ ५३२॥
असंयत इति षड् लेश्याः, शुभत्रयलेश्या हि देशविरतत्रये । ततः शुक्ला लेश्या, अयोगिस्थानमलेश्यं तु ।। ५३२ ।।
टीका - असयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विषे छहो लेश्या है । देशविरत प्रादि तीन गुणस्थाननि विषै पीतादिक तीन शुभलेश्या ही हैं । ताते ऊपरि पूर्वकरण तँ लगाइ सयोगी पर्यंत छह गुणस्थाननि विषै एक शुक्ल लेश्या ही है । प्रयोगी गुणस्थान लेश्या रहित है जाते, तहा योग कषाय का अभाव है ।
णट्ठ- कसाये लेस्सा, उच्चदि सा भूद-पुव्व-गदि - णाया । ग्रहवा जोग-पउत्ती, मुक्खो त्ति तहि हवे - लस्सा ॥ ५३३॥
नष्टकषाये लेश्या, उच्यते सा भूतपूर्वगतिन्यायात् । अथवा योगप्रवृत्तिः, मुख्येति तत्र भवेल्लेश्या ||५३३॥
टीका उपशात कषायादिक जहां कषाय नष्ट होइ गए, असे तीन गुणस्थाननि विषै कपाय का अभाव होते भी लेश्या कहिए है, सो भूतपूर्वगति न्याय ते कहिए है । पूर्वे योगनि की प्रवृत्ति कषाय सहित होती थी, तहा लेश्या का सद्भाव था, इहा योग पाइए है; तातै उपचार करि इहां भी लेश्या का सद्भाव कह्या । अथवा योनि की प्रवृत्ति, सोई लेश्या, असा भी कथन है, सो योग इहा है ही, ताकी प्रधानता करि तहां लेश्या है |
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तिन्हं दोण्हं दोन्हं, छण्हं दोन्हं च तेरसहं च । एत्तो य चोद्दसहं, लोस्सा भवणादि देवाणं ॥ ५३४॥
ऊ तेऊ तेऊ, पम्मा पम्मा य पम्म सुक्का य । सुक्का य परमसुक्का, भवणतिया पुण्णगे सुहा ॥ ५३५ ॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। ६०६ त्रयाणां द्वयोयो , षण्णां द्वयोश्च त्रयोदशानां च ।। एतस्माच्च चतुर्दशानां, लेश्या भवनादिदेवानाम् ॥५३४॥ तेजस्तेजस्तेजः पद्मा पद्मा' च पद्मशुक्ले च ।
शुक्ला च परमशुक्ला, भवनत्रिकाः अपूर्णके अशुभाः ॥५३५॥ टीका - देवनि के लेश्या कहिए हैं - तहां पर्याप्त भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी इनि भवनत्रिक के तेजो लेश्या का जघन्य अंश है । सौधर्म - ईशान, दोय स्वर्गवालों के तेजो लेश्या का मध्यम अंश है । सनत्कुमार - माहेद्र स्वर्गवालों के तेजो लेश्या का उत्कृष्ट अंश अर पद्म लेश्या का जघन्य अंश है । ब्रह्म आदि छह स्वर्गवालों के पद्म लेश्या का मध्यम अंश है । शतार - सहस्रार दोय स्वर्गवालो के पद्म लेश्या का उत्कृष्ट अंश अर शुक्ल लेश्या का जघन्य अंश है । आनत आदि च्यारि स्वर्ग अर नव गैवेयक इनि तेरह वालों के शुक्ल लेश्या का मध्यम अंश है । ताके ऊपरि नव अनुदिश अर पंच अनुत्तर इनि चौदह विमान वालों के शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट अश है । बहुरि भवनत्रिक देवनि के अपर्याप्त अवस्था विषै कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या ही पाइए है । याही ते यह जानिए है, जो वैमानिक देवनि के पर्याप्त वा अपर्याप्त अवस्था विषै लेश्या समान ही है । औसै जिस जीव के जो लेश्या पाइए, सो जीव तिस लेश्या का स्वामी जानना । इति स्वाम्यधिकार. ।
आगे साधन अधिकार कहै हैवण्णोदय-संपादिद-सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । मोहुदय-खओवसमोवसम खयज-जीवफंदणं भावो ॥५३६॥
वर्णोदयसंपादित-शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या।
मोहोदयक्षयोपशमोपशमक्षयजजीवस्पन्दो भावः ॥५३६॥ टीका - वर्ण नामा नामकर्म के उदय ते उत्पन्न भया जो शरीर का वर्ण, सो द्रव्य लेश्या है । तातें द्रव्य लेश्या का साधन नामा नामकर्म का उदय है । बहुरि असयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विष मोहनीय कर्म का उदय ते, देश विरतादिक तीन गुणस्थाननि विष मोहनीय कर्म का क्षयोपशम ते उपशम श्रेणी विपै मोहनीय कर्म का उपशम ते क्षपक श्रेणी- विष मोहनीय कर्म का क्षय ते उत्पन्न भया जो जीव का स्पंद, सो भाव लेश्या है । स्पंद कहिए जीव के परिणामनि का चचल होना वा
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५३७
जीव के प्रदेशनि का चंचल होना, सो भाव लेश्या है। तहा परिणाम का चचल होना कषाय है। प्रदेशनि का चंचल होना योग है । तीहि कारण करि योग कषायनि करि भाव लेश्या कहिए है । तातै भाव लेश्या का साधन मोहनीय कर्म का उदय वा क्षयोपशम वा उपशम वा क्षय जानना । इति साधनाधिकारः।
आगै संख्याधिकार छह गाथानि करि कहै हैंकिण्हादि-रासिमावलि-असंखभागेण भजिय पविभत्ते। हीणकमा कालं वा, अस्सिय दव्वा दु भजिदव्वा ॥५३७॥
कृष्णादिराशिमावल्यसंख्यभागेन भक्त्वा प्रविभक्ते।
होनकमाः कालं वा, आश्रित्य द्रव्याणि तु भक्तव्यानि ॥५३७।। टोका - कृष्णादिक अशुभ तीन लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण है, सो तीन शुभ लेश्यावालों का प्रमाण कौं संसारी जीवनि का प्रमाण मै स्यों घटाए, जितना रहे तितना जानना; सो किचिदून संसारी राशिमात्र भया । ताको आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग बिना अवशेष बहुभाग रहे, तिनके तीन भाग करिए, सो एक-एक भाग एक-एक लेश्यावालों का समान रूप जानना । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताको आवली का असख्यातवां भाग का भाग देइ, तहां एक भाग जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहै, सो पूर्व समान भागनि विषै जो कृष्ण लेश्यावालों का वट (हिस्सा) था, तिसविर्ष जोडि दीए, जो प्रमाण होइ, तितने कृष्ण लेश्यावाले जीव जानने । बहुरि जो वह एक भाग रहा था, ताकी आवली का असख्यातवां भाग का भाग देइ, तहां एक भाग को जुदा राखि, अवशेष बहुभाग रहै, ते पूर्व समान भाग विप नील लेश्यावालो का वट था, तिसविर्ष जोडि दीए, जो प्रमाण होइ, तितने नील लेश्यावाले जीव जानने । बहुरि जो वह एक भाग रह्या था, सो पूर्वे समान भाग विष कपोत लेश्यावालो का वट था, तिसविर्षे जोडे, जो प्रमाण होइ, तितने कपोत लेश्यावाले जीव जानने । असे कृष्णलेश्यादिक तीन लेश्यावालों का द्रव्य करि प्रमाण कह्या, सो क्रमते किछू किछू घटता जानना ।
__ अथवा काल अपेक्षा द्रव्य करि परिमाण कीजिए है । कृष्ण, नील, कपोत तीनों लेश्यानि का काल मिलाए, जो कोई अंतर्मुहूर्त मात्र होइ, ताकौ आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग कौं जुदा राखि, अवशेष बहुभाग
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मम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६११
रहै, तिनिका तीन भाग कीजिए, तहा एक एक समान भाग एक एक लेश्या की दोजिए । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताकौ आवली का असख्यातवा भाग का भाग दीजिये, तहा एक भाग को जुदा राखि अवशेष बहुभाग रहे, सो पूर्वोक्त कृष्ण लेश्या का समान भाग विषै मिलाइए, बहुरि अवशेष जो एक भाग रह्या, ताकौ प्रावली का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग को जुदा राखि, अवशेष बहुभाग पूर्वोक्त नीललेश्या का समान भाग विषै मिलाइए। बहुरि जो पूर्वोक्त कपोत लेश्या का समान भाग विषै मिलाइए, औसे मिलाए, जो जो प्रमाण भया, सो सो कृष्णादि लेश्यानि का काल जानना ।
एक भाग रह्या, सो
tra sti राशिक करना । तहां तीनू लेश्यानि का काल जोडे, जो प्रमाण भया, सो तौ प्रमाणराशि, बहुरि अशुभ लेश्यावाले जीवनि का जो किचित् ऊन संसारी जीव मात्र प्रमाण सो फलराशि । बहुरि कृष्णलेश्या का काल का जो प्रमाण सोई इच्छाराशि, तहां फल करि इच्छा को गुणै, प्रमाण का भाग दीए, लब्धराशि किचित् ऊन तीन का भाग अशुभ लेश्यावाले जीवनि का प्रमारण कौ दीए, जो प्रमाण भया, तितने कृष्णलेश्यावाले जीव जानने । असें ही प्रमाणराशि, फलराशि, पूर्वोक्त इच्छाराशि अपना अपना काल करि नील वा कपोत लेश्या विषे भी जीवनि का प्रमाण जानना । स काल अपेक्षा द्रव्य करि अशुभलेश्यावाले जीवनि का प्रमाण कया है ।
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खेत्ता असुहतिया, अणंतलोगा कमेण परिहीणा । कालादोतीदादो, प्रणतगुणिदा कमा हीणा ॥१३८॥
क्षेत्रतः अशुभत्रिका, अनंतलोकाः क्रमेण परिहीनाः । कालातीतादनंतगुणिताः क्रमाद्धीनाः || ५३८||
टोका क्षेत्र प्रमाण करि अशुभ तीन लेश्यावाले जीव अनत लोक मात्र जानने । लोकाकाश के प्रदेशनि ते अनंत गुण है, तहा क्रमते हीनक्रम जानने । कृष्णलेश्यावालों तें किछू घाटि नील लेश्यावालो का प्रमाण है । नील लेश्यावाली किछू घाटि कपोत लेश्यावालो का प्रमाण है । बहुरि इहा प्रमाणराशि लोक, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि अपने - अपने जीवनि का प्रमाण कीए, लव्धिराशिमात्र अनंत शलाका भई । बहुरि प्रमाण एक शलाका, फल एक लोक, इच्छा अनंत शलाका 'कीएं, लब्धराशि अनत लोक मात्र कृष्णादि लेश्यावाले जीवनि का
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६१२]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५३६-५४० प्रमाण हो है । बहुरि काल प्रमाण करि अशुभ तीन लेश्यावाले जीव, अतीत काल के समयनिका प्रमाण तैं अनंत गुणे है । इहां भी पूर्वोक्त हीन क्रम जानना । वहुरि इहां प्रमाणराशि अतीत काल, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि अपने - अपने जीवनि का प्रमाण कीए, लब्धराशिमात्र अनंत शलाका भई । बहुरि प्रमाण एक शलाका, फल एक अतीत काल, इच्छा अनंत शलाका करि, लब्ध राशि अनंत अतीत कालमात्र कृष्णादि लेश्यावालो जीवनि का प्रमाण हो है ।
केवलणाणाणंतिमभागा भावादु किण्ह-तिय-जीवा । तेउतिया-संखेज्जा, संखासंखेज्जभागकमा ॥५३॥
केवलज्ञानानंतिमभागा भावात्तु कृष्णत्रिकजीवाः ।
तेजस्त्रिका असंख्येयाः संख्यासंख्येयभागक्रमाः ॥५३९॥ टीका- बहुरि भाव मान करि अशुभ तीन लेश्यावाले जीव, केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमाण के अनंत भाग प्रमाण है। इहां भी पूर्ववत् हीन क्रम जानना । बहुरि इहां प्रमाण राशि अपने - अपने लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण, फल एक शलाका, इच्छा केवलज्ञान कीए, लब्ध राशिमात्र अनन्त प्रमाण भया, इसकौं प्रमाणराशि करि फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि केवलज्ञान कीए केवलज्ञान के अनन्तवे भाग मात्र कृष्णादि लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण हो है । बहुरि तेजोलेश्या आदि तीन शुभलेश्यावालों का प्रमाण असंख्यात है, तथापि तेजोलेश्यावालों के सख्यातवे भाग पद्मलेश्या वाले है, पद्मलेश्या वालों के असंख्यातवें भाग शुक्ल लेश्यावाले है । जैसे द्रव्य करि शुक्ललेश्यावालों का प्रमाण कह्या।
जोइसियादो अहिया, तिरक्खसण्णिस्स संखभागोदु । सूइस्स अंगुलस्स य, असंखभागं तु तेउतियं ॥५४०॥
ज्योतिष्कतोऽधिकाः, तिर्यक्सज्ञिनः संख्यभागस्तु ।
सूचेरंगुलस्य च, असंख्यभागं तु तेजस्त्रिकम् ॥५४०॥ टोका - तेजो लेश्यावाले जीव ज्योतिष्क राशि तें किछु अधिक है । कैसे ? तो कहिए है - पैसठि हजार पांचसै छत्तीस प्रतरांगुल का भाग, जगत्प्रतर कौं दीए, जो प्रमाण होइ, तितने तौ ज्योतिषी देव । बहुरि घनांगुल का प्रथम वर्गमूल करि
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[११३ जगच्छणी. कौं गुण, जो-प्रमाण होइ, तितने भवनवासो। बहुरि तीन से योजन के वर्ग का भाग जगत्प्रतरू को दीए, जो-प्रमाण होइ, तितने व्यतर । बहुरि घनागुल- का तृतीयः वर्गमूल करि जगच्छेणी, कौ गुणै, जो प्रमारण होइ, तितने सौधर्म - ईशान स्वर्ग के वासी देवः । बहुरि पांच बार संख्यात करि गुणित पणट्ठी प्रमाण प्रतरागुल का भाग जगत्प्रतर कौं दीए; जो प्रमाण होइ, तितने तेजो लेश्यावाले तियंच । बहुरि संख्यात तेजोलेश्यावालो मनुष्य, इनि सबनि का जोड़. दीए, जो प्रमाण होइ, तितने जीव तेजोलेश्यावाले जाननें ।।बहुरिः पद्मलेश्यावाले जीव, तेजोलेश्यावाले जीवनि ते संख्यात गुणे घाटि हैं । तथापि तेजोलेश्यावाले संज्ञी, तियंचनि ते भी संख्यात गुणे घाटि है; जातं पद्मलेश्यावाले पंचेंद्री सैनी तिर्यचनि का प्रमाण विष पद्मलेश्यावाले कल्पवासी देव अर मनुष्य, तिनिका प्रमाण मिलाए, जो जगत्प्रतर का असंख्यातवे भागमात्र प्रमाण भया तितने पद्मलेश्यावाले जीव है । बहुरि शुक्ललेश्यावाले जीव सूच्यंगुल के असंख्यातवे भाग:प्रमाण है। जैसे क्षेत्र प्रमाण करि तीन शुभ लेश्यावाले जीवनि का प्रमाण कह्या।
बेसदछप्पण्णंगुल-कवि-हिद-पदरं तु जोइसियमारणं । तस्स य संखेज्जदिमं तिरिक्खसण्णीण परिमाणं ॥५४१॥
द्विशतषट्पंचाशदंगुलकृतिहितप्रतरं तु ज्योतिष्कमानम् ।
तस्य च संख्येयतमं तिर्यक्संजिनां परिमाणं ॥५४१॥ टीका - पूर्व जो तेजोलेश्यावालों का प्रमाण ज्योतिषी देवराशि ते साधिक कह्या, अर पद्मलेश्या का प्रमाण संज्ञी तियंचनि के सख्यातवे भागमात्र कह्या, सो दोय से छप्पन का वर्ग पणट्ठी, तीहि प्रमाण प्रतरागुल का भाग जगत्प्रतर को दीए, जो प्रमाण होइ, तितने ज्योतिषी जानने । बहुरि इनिके सख्यातवे, भाग प्रमाण सैनी तिर्यचनि का प्रमाण जानना।
तेउदु असंखकप्पा, पल्लासंखेज्जभागया सुक्का । ओहि असंखेज्जदिमा, तेउतिया भावदो होति ॥५४२॥
तेजोया असंख्यकल्पाः पल्यासंख्येयभागकाः शुक्लाः। अवध्यसंख्येयाः तेजस्त्रिका भावतो भवंति ॥५४२१५
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६१६]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५४३ ___कृष्ण लेश्यावाले पर्याप्त त्रस जीवनि का जो प्रमाण, पर्याप्त बस राशि के किचिन त्रिभाग मात्र है । ताक़ौ सख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण स्वस्थानस्वस्थान विष है। अवशेष एक भाग-रह्या, ताकौं संख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण, विहारवत्स्वस्थान विषै जीव जातने । अवशेष एक भाग रह्या, सो अवशेष यथायोग्य स्थान विष जानना । अब इहा त्रस पर्याप्त जीवनि की जघन्य, मध्यम अवगाहना अनेक प्रकार है; सो हीनाधिक बरोबरि करि संख्यात धनांगुल प्रमाण मध्यम अवगाहना मात्र एक जीव की.अवगाहना का ग्रहण कीया, सो इस अवगाहना का प्रमाण को फलराशि करिए, पूर्व जो विहारवत्स्वस्थान जीवनि का प्रमाण कह्या, ताक़ौ इच्छाराशि करिए, एक जीव.कौं प्रमाणराशि करिए, तहां फलकरि इच्छा को गुणि, प्रमाण का भाग दीए, जो संख्यात सूच्यंगुलकरि गुण्या हूवा, जगत्प्रतर प्रमाण भया, सो विहारवत् स्वस्थान विष क्षेत्र जानना । बहुरि वैक्रियिक समुद्घात विष क्षेत्र धनांगुल का वर्ग करि असख्यात जगच्छ रणी को गुणै, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । कसै ? सो कहिए है - .
कृष्ण लेश्यावाले वैक्रियिक शक्ति करि युक्त जीवनि का जो प्रमाण वैक्नियिक योगी जीवनि का किचिन त्रिभाग मात्र है । ताको संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण स्वस्थानस्वस्थान. विष जीव है। अवशेष एक भाग रह्या, ताकी सख्यात का भाग दीजिये, तहां बहुभाग प्रमाण विहारवत् स्वस्थान विष जीव हैं। अवशेष एक भाग रहया, ताको सख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण वेदना समुद्घात विष जीव है । अवशेष एक भाग-रह्या, ताकौ सख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण कषाय समुद्घात विष जीव, है । अवशेष एक भाग प्रमाणे वैक्रियिक समुद्घात विष जीव प्रवर्ते है.। जैसे जो वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण कहा, ताकौ हीनाधिक बरोबरि करि एक जीव सबंधी वैक्रियिक समुद्घात का क्षेत्र संख्यात धनागुल प्रमाण है; तिसकरि गुणै, जो घनांगुल का वर्ग करि गुण्या हवा असंख्यात श्रेणीमात्र प्रमाण भया, सो वैक्रियिक समुद्घात का क्षेत्र जानना । वहुरि इन ही का सामान्यलोक, अधोलोक, ऊर्ध्वलोक, तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक इनि पंच लोकनि की अपेक्षा व्याख्यान कीजिए है -
___ समस्त जो लोक, सो सामान्यलोक है । मध्यलोक ते नीचें, सो अधोलोक है.। मध्यलोक के ऊपरि ऊर्वलोक है। मध्यलोक विषै एक राजू चौडा, लाख योजन ऊंचा तिर्यक्लोक है । पैतालीस लाख योजनः चौडा, लाख योजन ऊंचा मनुष्यलोक है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका |
| ६१७
प्रश्न-तहां कृष्ण लेश्यावाले स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात, उपपाद इनि विषे प्रवर्तते जीव कितने क्षेत्रविषे तिष्ठे है ?
तहां उत्तर - जो सामान्याद्रिक पांच प्रकार सर्वलोक विषै तिष्ठे है । बहुरि विहारवत् स्वस्थान विषै प्रवर्तते जीव, सामान्यलोक - अधोलोक - ऊर्ध्वलोक का तौ संख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र विषै तिष्ठे हैं । अर तिर्यक्लोक ऊंचा लाख योजन प्रमाण है । अर एक जीव की उंचाई, वाके संख्यातवे भाग प्रमाण है । तातं तिर्यक् लोक के सख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र विषं तिष्ठे हैं । अर मानुषोत्तर पर्वत के मध्यवर्ती जो मनुष्य लोक तातै असंख्यात गुणा क्षेत्र विषे तिष्ठे हैं । बहुरि वैक्रियिक समुद्घात विष प्रवर्तते जीव, सामान्यादिक च्यारि लोक, तिनके असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र विषै तिष्ठे है । अर मनुष्य लोक ते असंख्यात गुणा क्षेत्र विषे तिष्ठं है; जातं वैक्रियिक समुद्घातवालों का क्षेत्र असंख्यात गुणा घनांगुल का वर्ग करि गुणित जगच्छ्रेगीमात्र हैं । जैसे सात स्थाननि विषै व्याख्यान कीया ।
बहुरि तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात, केवली समुद्घात इन लेश्यावाल जीवति कैं होता नाहीं, तातें, इनिका कथन न कीया ।
इसप्रकार जैसे कृष्णलेश्या का व्याख्यान कीया; तैसे ही नीललेश्या, कपोतलेश्या का व्याख्यान जानना । विशेष इतनां जहां कृष्णलेश्या का नाम कह्या है; तहां नीललेश्या वा कपोतलेश्या का नाम लेना । अब तेजो लेश्या का क्षेत्र कहिए है
तहां प्रथम ही जीवन का प्रमाण कहिए है - तेजोलेश्यावाले जीवनि का संख्या अधिकार विषै जो प्रमाण कुह्या, ताकों संख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग स्वस्थानस्वस्थान विषै जानना । एक भाग रह्या, ताकौ सख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग विहारवत् स्वस्थान विषै जानना । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताको संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग वेदना समुद्घात विषै जानना । बहुरि जो एक भाग रह्या, ताक संख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग वेदना समुद्धात विष जानना | बहुरि जो एक भाग रह्या, ताकों संख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग कषाय समुद्घात विषै जानना । बहुरि एक भाग वैक्रियिक समुद्घात विषै जानना । असे जीवनि का परिमाण कह्या । अब तेजो लेश्या मुख्यपनं भवनत्रिक यादि देवन के पाइए है; तिनिविषे एक देव का शरीर का अवगाहना का प्रमाण मुल्यता
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५४३
६१८ ]
करि सात धनुष ऊचा पर सात धनुष के दशवे भाग मुख की चौड़ाई है, प्रमाण जाका जैसा है, सोयाका क्षेत्रफल कीजिए है ।
वासोत्ति गुणो परिही, वास चउत्थाहदो दु खेत्तफलं । खेत्तफलं वेहिगुणं, खादफलं होदि सव्वत्थ ||
इस करणसूत्र करि क्षेत्रफल करना । गोल क्षेत्र विषे चौडाई के प्रमाण त तिगुणा तो परिधि होइ । इस परिधि को चौडाई का चौथा भाग ते गुरौं, क्षेत्रफल होइ । इस क्षेत्रफल कौ ऊँचाई रूप जो बेध, ताके प्रमाण करि गुणे, घनरूप क्षेत्रफल हो है । सो इहा सात धनुष का दशवा भागमात्र चौडाई, ताकौं तिगुणी कोए, परिधि हो । याको चौडाई का चौथा भाग करि गुणै, क्षेत्रफल हो है । याकौ वेध सात धनुष करि गुणै, घनरूप क्षेत्रफल हो है । बहुरि जो घनराशि होइ, ताके गुणकार भागहार घनरूप ही होइ । तातै इहा अंगुल करने के निमित्त एक धनुप का fara अगुल होइ, सो जो धनुषरूप क्षेत्रफल भया, ताकौ छिनवे का घन करि गुरिए । बहुरि इहां तो कथन प्रमाणांगुल ते है । अर देवनि के शरीर का प्रमाण उत्सेधागुल है । तात पाच से का घन का भाग दीजिए, असे करते प्रमाणरूप - घनागुल के संख्यातवे भाग प्रमाण एक देव का शरीर की अवगाहना भई । इसकरि पूर्वे जो स्वस्थानस्वस्थान विषे जीवनि का प्रमाण कह्या था, ताकौ गुणै, जो प्रमाण होइ, तितना क्षेत्र स्वस्थानस्वस्थान विषै जानना ।
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बहुरि वेदनासमुद्घात विषै वा कषायसमुद्घात विषै प्रदेश मूल शरीर ते बाह्य
निक्स, सो एक प्रदेश क्षेत्रको रोकै वा दोय प्रदेश मात्र क्षेत्र को रोके, औरौं एक-एक प्रदेश बघता जो उत्कृष्ट क्षेत्र रोकें, तो मूल शरीर ते चौडाई विषे तिगुणा क्षेत्र रोके अर उचाई मूल शरीर प्रमाण ही है । सो याका घनरूप क्षेत्रफल कीएं, मूल शरीर के क्षेत्रफल तै नव गुणा क्षेत्र भया, सो जघन्य एक प्रदेश अर उत्कृष्ट मूल शरीर तै नव गुणा क्षेत्र भया; सो हीनाधिक को बरोबरि कीए एक जीव के मूल शरीर तै साढा च्यारि गुणा क्षेत्र भया; सो शरीर का प्रमाण पूर्वे घनागुल के सख्यातवे भाग प्रमाण का था, ताकौ साढा चारि गुणा कीजिए, तब एक जीव संबंधी क्षेत्र भया । इसकरि वेदना समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण को गुणिए, तब वेदना समुद्घात विपै क्षेत्र होइ । बहुरि कषायसमुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुणिए तब कषाय समुद्घात विषै क्षेत्र होइ । बहुरि विहार करते देवनि के मूल शरीर तै
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[६१६ बाह्य आत्मा के प्रदेश फैलें, ते प्रदेश एक जीव की अपेक्षा संख्यात योजन प्रमाण तौ लंबा, अर सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण चौडा वा ऊंचा क्षेत्र को रोके, सो इसका क्षेत्रफल सख्यात धनांगुल प्रमाण भया । इसकरि जो पूर्व विहारवत्स्वस्थान विष जीवनि का प्रमाण कहा था, ताकौं गुरिगए, तब सर्व जीव सबंधी विहारवत् स्वस्थान विर्षे क्षेत्र का परिमारण होइ । इहां असा अर्थ जानना-जो देवनि के मूल शरीर तौ अन्य क्षेत्र वि तिष्ठ है अर विहार करि विक्रियारूप शरीर अन्य क्षेत्र विर्षे तिष्ठे है । तहा दोऊनिके बीचि आत्मा के प्रदेश सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग मात्र प्रदेश ऊंचे, चौडे, फैले है । पर इहां मुख्यता की अपेक्षा संख्यात योजन लंबे कहे है । बहुरि देव अपनी - अपनी इच्छा ते हस्ती, घोटक इत्यादिक रूप विक्रिया करे, ताकी अवगाहना एक जीव की अपेक्षा संख्यात धनांगुल प्रमाण है। इसकरि पूर्व जो वैक्रियिक समुद्घात विष जीवनि का प्रमाण कह्या, ताकौं गुणिए, तब सर्व जीव संबंधी वैक्रियिक समुद्घात विष क्षेत्र का परिमाण होइ ।
बहुरि पीतलेश्यावालेनि विर्षे व्यंतरदेव घने मरै है, तातै इहा व्यतरनि की मुख्यता करि मारणातिक समुद्घात कहिए है । जितना व्यंतर देवनि का प्रमाण है, ताको व्यतरनि की मुख्यपनै दश हजार वर्ष आदि संख्यात वर्ष प्रमाण स्थिति के जेते समय होइ, तिनिका भाग दीएं, जेता प्रमाण आवै, तितना जीव एक समय विप मरण को प्राप्त हो है। बहुरि इनि मरनेवाले जीवनि के पल्य का असख्यातवां भाग का भाग दीजिये, तहा एक भाग प्रमाण जीवनि के ऋजु गति कहिये, समरूप सूधी गति हो है । बहुरि बहुभाग प्रमाण जीवनि के विग्रह गति कहिये, वक्रता लीए परलोक को गति हो है । बहुरि विग्रहगति जीवनि के प्रमाण को पल्य के असख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहा एक भाग प्रमाण जीवनि के मारणातिक समुद्घात न हो है।
बहुरि बहुभाग प्रमाण जीवनि के मारणांतिक समुद्घात हो है । बहुरि इस मारणातिक समुद्घातवाले जीवनि के प्रमाण कौं पल्य का असख्यातवा भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण समीप थोरेसे क्षेत्रवर्ती मारणातिक समुद्घातवाले जीव है । एक भाग प्रमाण दूर बहुत क्षेत्रवर्ती मारणातिक समुद्घातवाले जीव है । सो एक समय विष दूर मारणांतिक समुद्घात करनेवाले जीवनि का यह प्रमाण कह्या, पर मारणातिक समुद्घात का काल अंतर्मुहूर्तमात्र है । तात अंतर्मुहूर्त के जेते समय होहि, तिनकरि तिस प्रमाण को गुणे, जो प्रमाण होइ, तितने एकठे भए, दूर मारणातिक समुद्घातवाले जीव जानने । तहां एक जीव के दूरि मारणांतिक समुद्घात विप
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६२० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५४४ शरीर से बाह्य प्रदेश फैले ते मुख्यपर्ने एक राजू के संख्यातवे भाग प्रमाण लंवे अर सूच्यंगुल के संख्यातवै भाग प्रमाण चौडे वा ऊंचे क्षेत्र को रोके । याका घनरूप क्षेत्रफल कीजिए, तब प्रतरांगुल का संख्यातवां भाग करि जगच्छे रणी का संख्यातवा भाग कौ गुण, जो प्रमाण होइ, तितना क्षेत्र भया । इसकरि दूरि मारणांतिक जीवनि का प्रमाण को गुणिये, तब सर्व जीव संबंधी दूर मारणांतिक समुद्घात का क्षेत्र हो है । अन्य मारणातिक समुद्घात का क्षेत्र स्तोक है, तातै मुख्य ग्रहण तिस ही का कीया। बहुरि तैजस समुद्घात विष शरीर से बाह्यप्रदेश निकस, ते बारा योजन लंवा, नव योजन चौडा, सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण ऊंचा क्षेत्र को रोकै, सो याका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात घनांगुल प्रमाण भया । इसकरि तैजस समुद्घात करनेवालों का प्रमाण संख्यात है । तिसको गुण जो प्रमाण होइ, तितना तैजस समुद्घात विष क्षेत्र जानना । बहुरि पाहारक समुद्घात विषे एक जाव के शरीर से बाह्य निकसे प्रदेश, ते संख्यात योजन प्रमाण लंबा, अर सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण चौडा ऊचा क्षेत्र को रोकै, याका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात धनांगुल प्रमाण भया । इसकरि आहारक समुद्घातवाले जीवनि का संख्यात प्रमाण है; ताको गुण जो प्रमाण होइ, तितना आहारक समुद्घात विष क्षेत्र जानना । मूल शरीर से निकसि आहारक शरीर जहां जाइ, तहा पर्यंत लंबी आत्मा के प्रदेशनि की श्रेणी सच्यगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण चौडी अर ऊची आकाश विषै हो है; असा भावार्थ जानना । जैसे ही मारणांतिक समुद्घातादिक विर्ष भी भावार्थ जानि लेना ।
मरदि असंखेज्जविमं, तस्सासंखा य विगहे होंति । तस्सासंखं दूरे, उववादे तस्स खु असंखं ॥५४४॥
म्रियते असंख्येयं, तस्यासंख्याश्च विग्रहे भवंति ।
तस्यासंख्यं दूरे, उपपादे तस्य खलु असंख्यम् ॥५४४॥ टीका - इस सूत्र का अभिप्राय उपपाद क्षेत्र ल्यावने का है, सो पीत लेश्यावाले सौधर्म - ईशानवी जीव मध्यलोक ते दूर क्षेत्रवर्ती है; सो तिनके कथन में क्षेत्र का परिमाण बहुत आवै । बहुत प्रमाण में स्तोक प्रमाण गर्भित करिए है। तातै तिनकी मुख्यता करि उपपाद क्षेत्र का कथन कीजिए है ।
सौधर्म - ईशान स्वर्ग के वासी देव धनांगुल का तृतीय वर्गमूल करि जगच्छणी को गुरिणए, तितने प्रमाण है । इस प्रमाण को पल्य का असंख्यातवा भाग
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषा टीका
[ ६२१ का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण एक एक समय विष मरणेवाले जीवनि का प्रमाण हो है । इस प्रमाण कौं पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण विग्रहराति करनेवालों का प्रमाण हो है । यातौं पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण मारणांतिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण हो है । याकौ पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण दूर मारणातिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण हो है । याको द्वितीय दीर्घ दंड विष स्थित मारणांतिक समुद्घात, ताके पूर्व भया असा उपपादता करि युक्त जीवनि के प्रमाण ल्यावने को पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा एक भाग प्रमाण उपपाद जीवनि का प्रमाण है। तहां तियंच उपजने की मुख्यता करि एक जीव संबंधी प्रदेश फैलने की अपेक्षा डेढ राजू लंबा, संख्यात सूच्यंगुल प्रमाण चौडा वा ऊंचा क्षेत्र है । याका धन क्षेत्रफल संख्यात प्रतरांगुल करि डेढ राजू को गुरणे, जो प्रमाण भया, तितना जानना । इसकरि उपपाद जीवनि के प्रमाण कौं गुरण, जो प्रमाण होइ, तितना उपपाद विष क्षेत्र जानना । बहुरि केवलि समुद्घात इस लेश्या विष है नाहीं; तातै कथनान कीया। जैसे पीत लेश्या विष क्षेत्र है। आगे पद्मलेश्या विष क्षेत्र कहिए है -
__संख्याधिकार विष पद्मलेश्या वाले जीवनि का जो प्रमाण कह्या, ताकौ सख्यात का भाग दोजिये, तहा बहुभाग स्वस्थान स्वस्थान विष जानना । अवशेप एक भाग रह्या, ताको संख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग विहारवत् स्वस्थान विर्ष जानना । अवशेष एक भाग रह्या, ताकौं सख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग वेदना समुद्घात विष जानना । अवशेष एक भाग रह्या, सो कषाय समुद्धात विष जानना । असे जीवनि का प्रमाण कह्या । अब यहां पद्मलेश्यावाले तिर्यच जीवनि का अवगाहना प्रमाण बहुत है; तातै तिनकी मुख्यता करि कथन कीजिए है ।
तहा स्वस्थानस्वस्थान विष भर विहारवत्स्वस्थान विष एक तियंच जीव की अवगाहता मुख्यपनै कोस लंबी पर ताके नव में भाग मुख का विस्तार, सो याका क्षेत्रफल वासो त्ति गुरगो परिही' इत्यादि सूत्र करि करिए, तब सख्यात धनांगुल प्रमाण होइ। इसकरि स्वस्थान स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुणे, स्वस्थान स्वस्थान विप क्षेत्र होइ । भर विहारवत्स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुण, विहारवत्स्वस्थान विर्षे क्षेत्र हो है । बहुरि पूर्वोक्त तिथंच शरीर की अवगाहना ते पूर्वोक्त प्रकार सादा । च्यारि गुणा वेदना अर कषाय समुद्धात विर्षे एक जीव की अपेक्षा क्षेत्र है । इसकरि
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६२२ !
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५४४
पूर्वोक्त वेदना समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण की गुरिगए, तब वेदना समुद्घात विषै क्षेत्र होइ, कषाय समुद्घांतवाले जीवनि के प्रमाण कौ गुणें, कषाय समुद्घात विषै क्षेत्र का परिमाण होइ । बहुरि वैक्रियिक समुद्घात विषै पद्मलेश्यावाले जीव सनकुमार - माहेंद्र विषै बहुत हैं । ताते तिनकी अपेक्षा कथन करें है -
सनत्कुमार - माहेंद्रविषै देव जगच्छेणी का ग्यारहवां वर्गमूल भाग जगच्छ्रे गी कौ दीएं, जो प्रमाण होइ, तितने हैं । इस राशि कौं संख्यात का भाग दीजिए, तब बहुभाग स्वस्थानस्वस्थान विषै जीव जानने । अवशेष एक भाग रह्या, ताकौं संख्यात का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण विहारवत् स्वस्थान विषै जीव जानने । अवशेष एक भाग रह्या, ताकौ संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण वेदना समुद्घात विपै जीव जानने । अवशेष एक भाग़ रह्या, ताको संख्यात का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण कषाय समुद्घात विषै जीव जानने । अवशेष एक भाग रह्या, तीहि प्रमाण वैक्रियिक समुद्घात विषै जीव जानने । इस वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण कौं एक जीव संबंधी विक्रियारूप हस्तिघोटकादिकनि की संख्यात घनांगुल प्रमाण अवगाहना, तिसकरि गुणै, जो प्रमाण होइ, सोई वैक्रियिक समुद्घात विषै क्षेत्र जानना । बहुरि मारणांतिक समुद्घात वा उपपाद विषे भी क्षेत्र सनत्कुमार माहेद्र ग्रपेक्षा बहुत है । तातै सनत्कुमार - माहेद्र की अपेक्षा कथन कीजिए है
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मरदि श्रसंखेज्जदिमं, तस्सासंखा य विग्गहे होंति । तस्सासंखं दूरे, उववादे तस्स खु प्रसंखं ॥
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जो सनत्कुमार माहेद्रवासी जीवनि का प्रमाण कह्या, ताको असंख्य कहिए पल्य का असंख्यातवां भाग, ताका भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण समय समय जीव मरण को प्राप्त हो है । बहुरि इस राशि कौ पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमारण विग्रह गतिवालो का प्रमाण है । बहुरि इस राशि कौ पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण मारणांतिक समुद्घातवाले जीव है । बहुरि इसको पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा एक भाग प्रमाण दूर मारणांतिक समुद्घात वाले जीव है । बहुरि इसकौ पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहां एक भाग प्रमाण उपपाद का दंड विषै स्थित जीव हैं । तहां एक जीव अपेक्षा मारणांतिक समुद्धात विषै क्षेत्र तीन राजू लंबा सूच्यंगुल का संख्यातवां भागमात्र चौडा वा ऊंचा क्षेत्र है । इन सनत्कुमार माहें
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ६२३
द्रवासी देवनि करि कीया मारणांतिक दंड का घनरूप क्षेत्रफल प्रतरांगुल का सख्याaai भाग करि तीन राजू को गुणे जो प्रमाण होइ, तितना है। इसकरि दूर माररणांतिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण कया था, ताकौ गुणिए, तब मारणातिक समुद्घात विषै क्षत्र का प्रमाण होइ, बहुरि उपपाद विषै तिर्यंच जीवनि करि कीया सनत्कुमार महेंद्र प्रति उपपाद रूप दंड, सो तीन राजू लंबा, संख्यात सूच्यगुल प्रमाण चौडा वा ऊंचा है । ताका क्षेत्र फल संख्यात प्रतरांगुल करि गुण्या हूवा तीन राजू प्रमाण एक जीव अपेक्षा क्षेत्र हो है । इसकरि उपपाद वालो के प्रमाण कौ गुणे, उपपाद विषे क्षेत्र का प्रमाण हो है । बहुरि तैजस अरु आहारक समुद्घात विष क्षेत्र जैसे तेजोलेश्या के कथन विषै कया है, तैसे इहां भी सख्यात घनागुल करि सख्यात जीवनि को गुणै, जो प्रमाण होइ, तितना जानना । बहुरि केवल समुद्घात इस लेश्या विष होता ही नाहीं; असे पद्मलेश्या का क्षेत्र कह्या । आगे शुक्ललेश्या विषे क्षेत्र कहिए है ।
संख्या अधिकार विषै जो शुक्ललेश्यावालों का प्रमाण कह्या, ताकौ पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहां बहुभाग प्रमाण स्वस्थान स्वस्थान विष जीव है । अवशेष एक भाग रह्या, ताक पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए हां बहुभाग प्रमाण विहारवत्स्वस्थान विषे जीव हैं । श्रवशेष एक भाग रह्या, ताकौ पल्य का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण वेदनासमुद्घात विषे जीव है । अवशेष एक भाग रह्या, ताकौ पल्य का असंख्यातवां भाग का भाग दीजिए, तहा बहुभाग प्रमाण कषाय समुद्धात विषै जीव है । अवशेष एक भाग रह्या, तिस प्रमाण वैक्रियिक समुद्धात विषै जीव है । तहा शुक्ललेश्यावाले देवनि की मुख्यता कर एक जीव का शरीर की अवगाहना तीन हाथ ऊची इसके दशवे भाग मुख की चौडाई याका वासोत्ति गुणो परिही इत्यादि सूत्र करि क्षेत्रफल कीजिए, तब संख्यात घनागुल प्रमाण होइ, इसकरि स्वस्थान स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण की गुरिए, तब स्वस्थान स्वस्थान विषे क्षेत्र का परिमाण होइ । बहुरि मूल शरीर की अवगाहना ते साढा च्यारि गुणा एक जीव के वेदना अर कषाय समुद्घात विषं क्षेत्र है । इस साढा च्यारि गुणा घनागुल का सख्यातवा भाग करि वेदना समुद्घातवाले traft का प्रमाण को गुणिये, तब वेदना समुद्घात विषै क्षेत्र हो है । पर कपाय समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण को गुणै कपायसमुद्घा विषे क्षेत्र हो है । बहुरि एक देव के विहार करते अपने मूल शरीर ते वाह्य निकसि उत्तर विक्रिया करि
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६२४ 1
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५४४ निपजाया शरीर पर्यंत आत्मा के प्रदेश संख्यात योजन लंबा अर सूच्यगुल के संख्यातवे भाग चौडा वा ऊंचा क्षेत्र को रोके, याका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात धनागुल प्रमाण भया । इसकरि पूर्वोक्त विहारवत्स्वस्थानवाले जीवनि का प्रमाण कौं गुणे, विहारवत्स्वस्थान विष क्षेत्र हो है । बहुरि अपने अपने योग्य विक्रियारूप बनाया गजादिक शरीरनि की अवगाहना संख्या घनांगुल प्रमाण, तिसकरि वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण को गुणे, वैक्रियिक समुद्धात विर्षे क्षेत्र हो है । बहुरि शुक्ललेश्या आनतादिक देवलोकनि विष पाइए, सो तहां से मुख्यपने पारण - अच्युत अपेक्षा मध्यलोक छह राजू है । तातै मारणांतिक समुद्घात विषै एक जीव के प्रदेश छह राजू लंबे अर सूच्यंगुल के संख्यातवे भाग चौडे, ऊंचे होइ, सो याका जो क्षेत्रफल एक जीव संबंधी भया, ताको संख्यात करि गुरिणए, जातें पानतादिक तै मरिकरि मनुष्य ही होइ । तातै मारणातिक समुद्घातवाले संख्यातवें ही जीव हैं, तातै संख्यात करि गुणिए, असे गुण, जो होइ, सो मारणांतिक समुद्घात विषै क्षेत्र जानना।
बहुरि तैजस आहारक समुद्घात विर्षे जैसे पद्मलेश्या विष क्षेत्र कहा था, तैसे इहां भी जानना । अब केवलसमुद्घात विर्षे क्षेत्र कहिए है।
केवल समुद्घात च्यारि प्रकार दंड, कपाट, प्रतर, लोक पूरण । तहां दंड दोय प्रकार - एक स्थिति दंड, एक उपविष्ट दंड । बहुरि कपाट च्यारि प्रकार पूर्वाभिमुख स्थित कपाट, उत्तराभिमुखस्थित कपाट, पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट, उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट । बहुरि प्रतर पर लोक पूरण एक एक ही प्रकार है। तहां स्थिति - दंड समुद्घात विष एक जीव के प्रदेश वातवलय बिना लोक की ऊंचाई, किचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण है। सो इस प्रमाण से लबे, बहुरि बारह अगुल प्रमाण चौडे, गोल आकार प्रदेश हो है । सो - 'वासो त्ति गुणो परिही' इत्यादि सूत्र करि याका क्षेत्रफल दोय सै सोला प्रतरांगुलनि करि जगच्छे णी कौ गुणे, जो प्रमाण होइ, तितना हो है; जाते बारह अंगुल गोल क्षेत्र का क्षेत्रफल एक सौ आठ प्रतरांगुल होइ, ताको उचाई दोय श्रेणी करि गुणन करै इतना ही हो है। बहुरि एक समय विष इस समुद्घातवाले जीव चालीस होइ, तातै तिसकौ चालीस करि गुरिगए, तब आठ हजार छ सै चालीस प्रतरांगुलनि करि जगच्छणी को गुणे, जो प्रमाण होइ, तितना स्थिति दंड विष क्षेत्र हो है । बहुरि इस स्थिति दंड के क्षेत्र को नव गुणा कीजिए, तब उपविष्ट दंड विष क्षेत्र हो है, जातै स्थितिदंड विषै बारह अंगुल प्रमाण चौड़ाई कही, इहां तिसतै ति गुणी छत्तीस अंगुल चौडाई है। सो क्षेत्रफल विष नव
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तम्याज्ञानचन्द्रिका भावाटीका ]
[ ६२५ गुणा क्षेत्र भया, तातै नव गुणा कीया। जैसे करते सतहत्तर हजार सात सै साठि प्रतरागुलनि करि जगच्छे णी कौं गुणे, जो प्रमाण भया, तितना उपविष्ट दड विष क्षेत्र जानना।
बहुरि पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्घात विर्ष एक जीव के प्रदेश वातवलय विना लोक प्रमाण तो लंबे हो है; सो किचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण तौ लबे हो है बहुरि उत्तर दक्षिण दिशा विर्षे लोक की चौडाई प्रमाण चौडे हो है । सो उत्तरदक्षिण दिशा विष लोक सर्वत्र सात राजू चौडा है । तातै सात राजू प्रमाण चौडे हो हैं । बहुरि बारह अंगुल प्रमाण पूर्व पश्चिम विष ऊचे हो है; सो याका क्षेत्रफल भुज कोटि वेध का परस्पर गुणन करि चौईस अंगुल गुणा जगत्प्रतर प्रमाण भया; ताकौं एक समय विष इस समुद्घातवाले जीवनि का प्रमाण चालीस है । तातै चालीस करि गुणिए, तब नव मैं साठि सूच्यंगुलनि करि जगत्प्रतर को गुण, जो प्रमाण होइ, तितना पूर्वाभिमुख स्थित कपाट विर्षे क्षेत्र हो है । बहुरि स्थित कपाट विष बारह अगुल की ऊंचाई कही, उपविष्ट कपाट विर्षे ति गुणा छत्तीस अगुल की ऊंचाई हो है । तातै पूर्वाभिमुख स्थित कपाट के क्षेत्र ते ति गुणा अठाइस से असी सूच्यगुलनि करि जगत्प्रतर को गुण, जो प्रमाण होइ, तितना पूर्वाभिमुख उपविष्ट कपाट विष क्षेत्र जानना।
बहुरि उत्तराभिमुख स्थित कपाट विष एक जीव के प्रदेश वातवलय विना लोक प्रमाण लंबे हो हैं; सो किंचित् ऊन चौदह राजू प्रमाण तो लंबे हो है । वहुरि पूर्व पश्चिम दिशा विषे लोक की चौडाई के प्रमाण चौडे हो है । सो लोक अधोलोक के तो नीचे सात राजू चौडा है। पर अनुक्रम ते घटता घटता मध्य लोक विर्ष एक राजू चौडा है । याका क्षेत्रफल निमित्त सूत्र कहिए है - मुहभूमी जोग दले पद गुणिदे पदधणं होदि । मुख कहिए अत, अर भूमि कहिए आदि, इनिका जोग कहिए जोड, तिसका दल कहिये आधा, तिसका पद कहिए गच्छ का प्रमाण तिसको गुणे पदधन कहिये, सर्व गच्छ का जोड्या हुआ प्रमाण; सो हो है। सो इहा मुख तौ एक राजू अर भूमि सात राज जोडिए, तब आठ भये, इतिका आधा च्यारि भया, इसका अधो लोक की ऊंचाई सात राजू, सो गच्छ का प्रमाण सात राजूनि करि गुण, जो अठाईस राजू प्रमाण भया, तितना अधो लोक संवधी प्रतररूप क्षेत्रफल जानना।
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६२६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५४४
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बहुरि मध्य विषै लोक एक राजू चौडा, सो बघता बघता ब्रह्मस्वर्ग के निकट पाच राजू भया । सो इहां मुख एक राजू, भूमि पांच राजू मिलाए छह हुवा, ताका आधा तीन, बहुरि ब्रह्मस्वर्गं साढा तीन राजू ऊंचा, सो गच्छ का प्रमाण साढा तीन करि गुणिये, तब आधा ऊर्ध्व लोक का क्षेत्रफल साढा दश राजू हुआ । बहुरि ब्रह्मस्वर्ग के निकट पांच राजू सो घटता घटता ऊपरि एक राजू का रह्या, सो इहां भी मुख एक राजू, भूमि पाच राजू, मिलाए छह हुआ, आधा तीन, सो ब्रह्मस्वर्ग के ऊपरि लोक साढा तीन राजू है, सो गच्छ भया, ताकरि गुणै, आधा उर्ध्वं लोक का क्षेत्रफल साढा दश राज हो है । जैसे उर्ध्वलोक अर अधोलोक का सर्व क्षेत्रफल जोडै, जगत्प्रतर भया, सो असें लंबाई चौडाई करि तो जगत्प्रतर प्रमाण प्रदेश हो है । बहुरि बारह अंगुल प्रमाण उत्तर दक्षिण दिशा विषे ऊंचे हो है, सो जगत्प्रतर कौ बारह सूच्यंगुलनि करि गुणै, एक जीव संबंधी क्षेत्र बारह अंगुल गुणा जगत्प्रतर प्रमाण हो हैं । बहुरि इस समुद्घातवाले जीव चालीस हो है । तातै चालीस करि तिस क्षेत्र को गुण, च्यारि से अस्सी सूच्यंगुलनि करि गुण्या हुआ जगत्प्रतर प्रमाण उत्तराभिमुख स्थित कपाट विषं क्षेत्र हो है । बहुरि स्थिति विषै बारह अंगुल की ऊंचाई कही । उपविष्ट विषे तातें तिगुणी छत्तीस अंगुल की ऊंचाई है । तातें पूर्वोक्त प्रमाण ते तिगुणा चौदा से चालीस सूच्यंगुलनि करि गुण्या हूवा जगत्प्रतर प्रमाण उत्तराभिमुख उपविष्ट कपाट विषे क्षेत्र जानना । बहुरि प्रतर समुद्घातविषे तीन वातवलय बिना सर्व लोक विषै प्रदेश व्याप्त हो है । तातें तीन वातवलय का क्षेत्रफल लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । सो यह प्रमाण लोक का प्रमाण विषै घटाए, अवशेष रहे, तितना एक जीव संबंधी प्रतर समुद्घात विषै क्षेत्र जानना ।
बहुरि लोक पूरण विषे सर्व लोकाकाश विषै प्रदेश व्याप्त हो है । ताते लोक प्रमाण एक जीव सबंधी लोक पूरण विषै क्षेत्र जानना । सो प्रतर पर लोक पूरण के बीस जीव तो करनेवाले अर बोस जीव समेटनेवाले से एक समय विषे चालीस पाइए । परन्तु पूर्वोक्त क्षेत्र ही विषै एक क्षेत्रावगाहरूप सर्व पाइए; ताते क्षेत्र तितना ही जानना | बहुरि दंड अर कपाट विषे भी बीस जीव करनेवाले बीस समेटनेवालेनि की अपेक्षा चालीस जीव है; सो ए जीव जुदे जुदे क्षेत्र को भी रोकै; तातै दण्ड अर कपाट विषै चालीस का गुणकार का । यह जीवनि का प्रमाण उत्कृष्टता की अपेक्षा है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
! ६२७
सुक्कस समुग्धादे, असंखभागा य सव्वलोगो य ।
शुक्लायाः समुद्घाते, असंख्यभागाश्च सर्वलोकश्च
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टीका इस आधा सूत्र करि शुक्ल लेश्या का क्षेत्र लोक के असंख्यात भागनि विषै एक भाग विना अवशेष बहुभाग प्रमाण वा सर्वलोक प्रमाण कया है, सो केवल समुद्घात अपेक्षा जानना । बहुरि उपपाद विषै मुख्यपने अच्युत स्वर्ग अपेक्षा एक जीव के प्रदेश छह राज लबे अर संख्यात सूच्यगुल प्रमाण चौडे वा ऊ चे प्रदेश हो हैं । सो इस क्षेत्रफल को अच्युत स्वर्ग विषै एक समय विषै सख्यात ही मरें, ताते तहां संख्यात ही उपजे, तातै संख्यात करि गुणै, जो प्रमाण भया, तितना उपपाद विषे क्षेत्र जानना । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार पांच प्रकार लोक की अपेक्षा जैसा भागहार गुणकार सभव तैसे जान लेना; औसे शुक्ललेश्या विषं क्षेत्र कह्या । इहा छह लेश्यानि का क्षेत्र का वर्णन दश स्थान विषै कीया; तहा असा जानना । जो जिस अपेक्षा क्षेत्र का प्रमाण बहुत आवे, तिस अपेक्षा मुख्यपने क्षेत्र वर्णन कीया है । तहा संभवता अन्य स्तोक क्षेत्र अधिक जानि लेना, असे ही आगे स्पर्शन विषै भी अर्थ समभना । इति क्षेत्राधिकार |
स्पर्शनाधिकार साढा छह गाथानि करि कहै है
फासं सव्वं लोयं, तिट्ठार असुहले स्साणं ॥ ५४५॥
स्पर्शः सर्वो लोकस्त्रिस्थाने प्रशुभलेश्यानाम् ||५४५॥
टीका • क्षेत्र विषै तौ वर्तमानकाल विषै जेता क्षेत्र रोक, तिस ही का ग्रहण कीया । बहुरि इहा वर्तमान काल विषै जेता क्षेत्र रोकै, तीहि सहित जो प्रतीत काल विषै स्वस्थानादिक विशेषण को घरे जीव जेता क्षेत्र रोकि प्राया होइ, तिम ही का नाम स्पर्श जानना । सो कृष्णादिक तीन ग्रशुभ लेश्या का स्पर्श स्वस्थान वा समुद्घात विषै वा उपपाद विषै सामान्यपनै सर्व लोक जानना । विशेष पदा स्थानि विषै कहिए है । तहा कृष्णलेश्या वाले जीवनि के स्वस्थान स्वस्थान वेदना अर कषाय अर मरणातिक समुद्धात विषै वा उपपाद नि नर्व लोक प्रभाग स्पर्श जानना । बहुरि विहारवत्स्वस्थान विपे एक राजू लवा वा चांटा रात सूच्यगुल प्रमाण ऊंचा तिर्यग् लोक क्षेत्र हे । याका क्षेत्रफल सान सू
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६२८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५४६-५४७ गुण्या हुवा जगत्प्रतर प्रमाण भया, सोई विहारवत्स्वस्थान विषै स्पर्श जानना । जातें कृष्णलेश्यावाले गमन क्रिया युक्त त्रस जीव तिर्यग् लोक ही विषै पाइए है ।
बहुरि वैक्रियिक समुद्घात विषै मेरुगिरि के मूल तें लगाइ, सहस्रार नामा स्वर्गं पर्यंत ऊंचा त्रसनाली प्रमाणं लंबा, चौडा क्षेत्र विषै पवन कायरूप पुद्गल सर्वत्र प्राच्छादित रूप भरि रहे हैं । बहुरि पवन कायिक जीवकि कै विक्रिया पाइए है, सो अतीत काल अपेक्षा तहां सर्वत्र विक्रिया का सद्भाव है । असा कोऊ क्षेत्र तिस विषै रह्या नाहीं, जहां विक्रिया रूप न प्रवर्ते; तातै एक राजू लंबा वा चौडा र पाच राजू ऊंचा क्षेत्र भया ताका क्षेत्रफल लोक के संख्यातवे भाग प्रमाण भया, सोई वैक्रियक समुद्घात विषै स्पर्श जानना ।
बहुरि तैजस अर आहारक पर केवल समुद्घात इस लेश्या विषै होता ही नाही । इहां भी पच प्रकार लोक का स्थापन करि, यथासंभव गुणकार भागहार जानना । बहुरि जैसे कृष्णलेश्यानि विषै कथन कीया, तैसे ही नीललेश्या कपोतलेश्या विषे भी कथब जानना ।
आगे तेजोलेश्या विषै कहै हैं
तेजस्स य सट्ठाणे, लोगस्स प्रसंखभागमेत्तं तु । अडचो सभागा वा, देसूणा होंति नियमेण ॥ ५४६॥
तैजसश्च स्वस्थाने, लोकस्य असंख्यभागमात्रं तु ।
अष्ट चतुर्दशभागा वा, देशोना भवंति नियमेन ॥ ५४६ ||
टीका - तेजोलेश्या का स्वस्थान विषै स्पर्श स्वस्थान स्वस्थान अपेक्षा तौ लोक का असंख्यातवां भागमात्र जानना । बहुरि विहारवत्स्वस्थान अपेक्षा त्रसनाली के चौदह भागनि विषे आठ भाग किछु घाटि प्रमाण स्पर्श जानना ।
एवं तु समुग्धादे, रणव चोहसभागयं च किंचूण | उववादे पढमपदं, दिवड्ढचोहस य किंचूर्ण ॥५४७॥
एवं तु समुद्घाते, नवचतुर्दशभागश्च किचिदूनः । उपपादे प्रथमपदं व्यर्धचतुर्दश च किचिदूनम् ॥५४७॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६२६ टोका - बहुरि समुद्घात विष असे स्वस्थानवत् किछ घाटि त्रसनाली के चौदह भागनि विर्ष आठ भाग प्रमाण स्पर्श जानना वा मारणांतिक समुद्घात अपेक्षा किछ घाटि त्रसनाली के चौदह भागनि विष नव भाग प्रमाण स्पर्श जानना । बहुरि उपपाद विष त्रसनाली के चौदह भागनि विष किछ घाटि ड्योढ भाग प्रमाण स्पर्श जानना । असे सामान्यपन तेजोलेश्या का तीनों स्थानकनि विर्षे स्पर्श कह्या ।
बहुरि विशेष करि दश स्थानकनि विष स्पर्श कहिए है । तिर्यग्लोक एक राजू का लम्बा, चौडा है; तिसविर्ष लवणोद, कालोदक, स्वयंभूरमण इनि तीनि समुद्रनि विर्षे जलचर जीव पाइए है । अन्य समुद्रनि विर्ष जलचर जीव नाही, सो जिनि विष जलचर जीव नाही, तिनि सर्व समुद्रनि का जेता क्षेत्रफल होइ, सो तिस तिर्यग्लोकरूप क्षेत्र विष घटाए, अवशेष जेता क्षेत्र रहे, तितना पीत, पद्म, शुक्ललेश्यानि का स्वस्थान स्वस्थान विर्षे स्पर्श जानना । जाते एकेंद्रियादिक के शुभलेश्यानि का अभाव है । सो कहिए हैं
जंबूद्वीप ते लगाइ स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत सर्व द्वीप - समुद्र दूणा दूणा विस्तार को धरै है । तहां जंबूद्वीप लाख योजन विस्तार को धरै है; याका सूक्ष्म तारतम्य रूप क्षेत्रफल कहिए है
सत्त एव सुण्ण पंच य, छण्णव चउरेक पंच सुण्णं च । याका अर्थ - सात, नव, बिदी, पंच, छह, नव, च्यारि, एक, पाच, विदी इतने अकनि करि जो प्रमाण भया, तितना जंवूद्वीप का सूक्ष्म क्षेत्रफल है (७९०५६६४१५०) सो एतावन्मात्र एक खण्ड कल्पना कीया । वहुरि असे असे लवण समुद्र विष खण्ड कल्पिए, तब चौईस (२४) होइ । धातकीखड विप एक सौ चवालीस (१४४) होइ । कालोद समुद्र विषै छ से बहत्तरि (६७२) होइ । पुकर द्वीप विष अठाइस सै असी (२८८०) होइ । पुष्कर समुद्र विप ग्यारह हजार नव गं च्यारि (११९०४) होइ । वारुणी द्वीप विप अड़तालीस हजार तीन से चौरासी (४८३८४) होइ । वारुणी समुद्र विष एक लाख पिचागणवे हमार बहत्तर (१६५०७२) होइ। क्षीरवर द्वीप विष सात लाख तियासी हजार तीन से साठि (७५३३६०) होइ । क्षीरवर समुद्र विष इकतीस लाख गुणतालीस हजार पाच नं चउरासी (३१३६५८४) होइ । अस स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत विपै सदनाथन करना इनि खंडनि के प्रमाण का ज्ञान होने के निमित्त सूत्र कहिए हैं
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६३० ]
[ गोम्मटसार जीवका गाया १४७ बाहिर सूईवग्गं, अभंतर सूइवग्ग परिहीणं ।
जंबूबासविहत्ते, तेत्तियमेत्तारिण खंडाणि ।। बाह्य सूची का वर्ग विर्ष अभ्यंतर सूची का प्रमाण घटाए, जो प्रमाण रहै, ताको जंबूद्वीप का व्यास के वर्ग का भाग दीए, जो प्रमाण ग्रावे, तितने जंबूद्वीप समान खड जानने । अंत तें लगाइ, वाके सन्मुख अंत पर्यंत जेता सूधा क्षेत्र होइ, ताको बाह्य सूची कहिए । बहुरि आदि तें लगाइ, वाके सन्मुख मादि पर्यत जेता सूधा क्षेत्र होइ, ताकौं अभ्यंतर सूची कहिये । सो यहां लवण समुद्र विपै उदाहरण करि कहिये है
लवण समुद्र की बाह्य सूची पांच लाख योजन, ताका वर्ग कीजिये तब लाख गुणा पचीस लाख भया । बहुरि तिस ही की अभ्यंतर सूची एक लाख योजन, ताका वर्ग लाख गुणा लाख योजन, सो घटाये अवशेष लाख गुणा चौईस लाख, ताका जवूद्वीप का व्यास लाख योजन, ताका वर्ग लाख गुणा लाख योजन, ताका भाग दीजिए तव चौईस रहे, सो जंबूद्वीप समान चौबीस खंड लवण समुद्र विप जानने । जैसे ही सर्व द्वीप समुद्रनि विष साधने । इस साधन के अर्थि और भी प्रकार कहै है
रूऊण सला बारस, सलागगुरिणदे द वलयखंडाणि ।
बाहिरसूइ सलागा, कदी तदंताखिला खंडा ।। इहां व्यास विर्षे जितना लाख कह्या होइ, तितने प्रमाण शलाका जानना। सो एक घाटि शलाका को बारह शलाका करि गुणै, जबूद्वीप प्रमाण वलयखंड हो हैं। जैसे लवण समुद्रनि विष व्यास दोय लाख योजन है, तातै शलाका का प्रमाण दोय, तामै एक घटाए एक, ताका बारह शलाका का प्रमाण चौईस करि गुणे, चौईस खंड हो है । वहुरि बाह्य सूची संबंधी शलाका का वर्ग प्रमाण तीहि पर्यंत खंड हो है । जैसे लवण समुद्र विष बाह्य सूची पांच लाख योजन है । तातै, शलाका का प्रमाण पांच ताका वर्ग पचीस, सोई लवण समुद्र पर्यंत सर्व खंडनि का प्रमाण हो है । जबूद्वीप विप एक खंड अर लवण समुद्र विष चौवीस खंड, मिलि करि पचीस खड हो है । बहुरि और भी विधान कहै है
बाहिरसूईवलयवासूणा चउगुरिणट्ठावासहवा । इकलक्खवग्गभजिदा, जंबूसमवलयखंडाणि ॥१॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६३१
बाह्य सूची विषं वलय का व्यास घटाएं, जो रहे, ताका चौगुणा व्यास ते गुणये, एक लाख के वर्ग का भाग दीजिए, तब जबूद्वीप के समान गोलाकार खडनि का प्रमाण हो है ।
उदाहरण - जैसे लवणसमुद्र की बाह्य सूची पांच लाख योजन, तिसमे व्यास दो लाख योजन घटाइए, तब तीन लाख योजन भये, याकौं चौगुणा व्यास माठ लाख योजन करि गुरिणये, तब लाख गुणा चौईस लाख भये । याकौ एक लाख का वर्गका भाग दीजिए, तब चौईस पाये, तितने ही जंबूद्वीप समान लवण समुद्र विषै खड है, असे सूत्रनि ते साधन करि खंड ज्ञान करना । बहुरि इहा द्वीप सबधी खंडन की छोडि, सर्व समुद्र सबंधी खडनि का ही ग्रहण कीजिये, तब जंबूद्वीप समान चौईस खंडन का भाग समुद्रखंडनि को दीए, जो प्रमाण आवै; तितना सर्व समुद्रनि विपे लवण समुद्र समान खड जानने । सो लवण समुद्र खडनि को चौईस भाग दीए, एक पाया, सो लवण समुद्र समान एक खड भया । कालोद समुद्र के छ से बहत्तर खडनि कौ चौवीस का भाग दीये, अट्ठाईस पाये, सो कालोद समुद्र विषै लवण समुद्र समान अठाईस खड हो है । जैसे ही पुष्कर समुद्र के खडनि को भाग दीये च्यारि से छिन खड हो है । वारुणी समुद्र के खडनि को भाग दीये, आठ हजार एक से अठाइस ख़ड हो है । क्षीरसमुद्र के खडनि को भाग दीये, एक लाख तीस हजार आठ से सोलह खड हो है | अँसे ही स्वयंभूरमण समुद्र पर्यत जानना । सो जानने का उपाय कहै है
के
यहु लवणसमुद्रसमान खडनि का प्रमाण ल्यावने की रचना है ।
धनराशि
ऋणराशि
२ १६ १६
२
२
२
१६ १६
१६ १६ १६
१६ १६
१६
१
१
१
१
४ ४ ४ ४
४
४
४
४ ४
४
समुद्र
क्षीरवर
वाणीवर
पुष्कर
कालोन
लवनोद
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६३२ ]
| गोम्मटसार जीवकान्ड गाथा ४.८७
दोय आदि सोलह सोलह गुणा तो वन जानना । यर एक यादि चोगुग्गा चौगुणा ऋण जानना | सो धन विषै ऋण घटाएं, जो प्रमाण रहे, तितने लवर समुद्र समान खंड जानने ।
उदाहरण कहिये है - प्रथमस्थान विपं वन दोय, घर ऋण एक, सो दोय में एक घटाए एक रह्या, सो लवण समुद्र विषै एक खड भया । बहुरि दूसरे स्थान के air at सोलह गुणा कीजिए, तब बत्तीस तो धन होइ, ग्रर एक की च्यारि गुणा कीजिए, तब च्यारि ऋरण भया, सो बत्तीस में च्यारि घटाएं, अठाइस रह्या, सो दूसरा कालोदक समुद्र विषै लवण समुद्र समान प्रठाईस खंड है । बहुरि तीसरे स्थानक बत्तीस को सोला गुणा कीएं, पाच से वारा तो धन होइ, र च्यारि की चौगुणा कीएं सोला ऋण होइ, सो पाच से बारा मै स्यों सोला घटाए, च्यारि से चिनवे रह्या; सो इतना ही तीसरा पुष्कर समुद्र विषै लवण समुद्र समान खंड जानने । असें स्वयभूरमण समुद्र पर्यंत जानना । सो अब इहां जलचर रहित समुद्रनि का क्षेत्रफल कहिए है
तहा जो द्वीप समुद्रनि का प्रमाण है, ताकी इहा समुद्रनि ही का ग्रहण है, तातें TET कीजिये, तामै जलचर सहित तीन समुद्र घटाए, जलचर रहित समुद्रनि का प्रमाण हो है, सो इहां गच्छ जानना । सो दोय आदि सोला - सोला गुरणा धन कह्या था, सो धन का जलचर रहित समुद्रनि का धन विप कितना क्षेत्रफल भया ? सो कहिये हैं -
पदमेत्ते गुरणारे, अण्णोष्णं गुरिणयरूवपरिहीणे । रूऊरगुणरहिये, सुहेणगुरिणयम्मि गुरणगरिणय |
इस सूत्र करि गुणकार रूपराशि का जोड हो है । याका अर्थ - गच्छप्रमाण जो गुणकार, ताकौ परस्पर गुणि करि एक घटाइये, बहुरि एक घाटि गुणकार के प्रमाण का भाग दीजिए, बहुरि मुख जो श्रादिस्थान, ताकरि गुणिये, तब गुणकाररूप राशि विषे सर्व जोड होइ ।
सो प्रथम अन्य उदाहरण दिखाइए है - जैसे आदिस्थान विषै दश अर पीछे चौगुणा - चोगुणा बधता असे पंच स्थानकनि विषे जो जो प्रमाण भया, तिस सर्व का जोड दीए कितना भया ?
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सम्यग्नानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६३३ सो कहिये है - इहा गच्छ का प्रमाण पांच, अर गुणकार का प्रमाण च्यारि सो पांच जायगा च्यारि च्यारि माडि, परस्पर गुणिए, तब एक हजार चौईस हवा, यामै एक घटाए, एक हजार तेईस हूवा । बहुरि याकौ एक घाटि गुणकार का प्रमाण तीन का भाग दीजिये, तब तीन से इकतालीस हवा । बहुरि आदिस्थान का प्रमाण दश, तिसकरि याको गुणे, चौतीस सै दश (३४१०) भया, सोई सर्व का जोड जानना कैसै? पंचस्थानकनि विर्षे असा प्रमाण है-१०॥४०॥१६०।६४०।२५६० । सो इनिका जोड चौतीस सै दश ही हो है । जैसे अन्यत्र भी जानना । सो इस ही सूत्र करि इहा गच्छ का प्रमाण तीन घाटि द्वीपसागर के प्रमाण ते आधा प्रमाण लीये है । सो सर्व द्वीप - समुद्रनि का प्रमाण कितना है ? सो कहिए है - एक राजू के जेते अर्धच्छेद है, तिनि में लाख योजन के अर्धच्छेद पर एक योजन के सात लाख अडसठि हजार अगुल तिनिके अर्धच्छेद पर सूच्यंगुल के अर्धच्छेद अर मेरु के मस्तक प्राप्त भया एक अर्धच्छेद, इतने अर्धच्छेद घटाएं, जेता अवशेष प्रमाण रह्या, तितने सर्व द्वीप - समुद्र है। अब इहां गुणोत्तर का प्रमाण सोलह सो गच्छप्रमाण गुणोत्तरनि को परस्पर गुणना । तहां प्रथम एक राजू का अर्धच्छेद राशि तै आधा प्रमाण मात्र जायगा सोलह -सोलह मांडि, परस्पर गुणन कीए, राजू का वर्ग हो है । सो कैसै ? सो कहिये है
विवक्षित गच्छ का आधा प्रमाण मात्र विवक्षित गुणकार(का वर्गमूल) १ माडि परस्पर गुणन कीए, जो प्रमाण होइ, सोई सपूर्ण विवक्षित गच्छ प्रमाण मात्र विवक्षित गुणकार का वर्गमूल मांडि, परस्पर गुणन कीए, प्रमाण हो है। जैसे विवक्षित गच्छ आठ, ताका आधा प्रमाण च्यारि, सो च्यारि जायगा विवक्षित गुणकार नव, नव मांडि परस्पर गुण, पैसठि से इकसठि होइ, सोई विवक्षित गच्छ मात्र आठ जायगा विवक्षित गुणकार नव का वर्गमूल तीन - तीन मांडि परस्पर गुणन कीएं, पैसठि से इकसठि हो है। जैसे ही इहा विवक्षित गच्छ एक राजू के अर्धच्छेद, ताका अर्धच्छेद प्रमाण मात्र जायगा सोलह - सोलह माडि परस्पर गुणै, जो प्रमाण होइ, सोई राजू के अर्घच्छेद मात्र सोलह का वर्गमूल च्यारि च्यारि माडि परस्पर गुणे, प्रमाण होइ, सो राजू के अर्धच्छेद मात्र जायगा दूवा मांडि, गुणे, तौ राजू होड । पर तितनी ही जायगा दोय - दोय वार दूवा मांडि, परस्पर गुण, राजू का वर्ग हो है । सो जगत्प्रतर को दोय वार सात का भाग दीजिए इतना हो हे । बहुरि यामे एक
१. 'का वर्गमूल' यह छपी प्रति में मिलता है । छहो हस्तलिखित प्रतियों में नहीं मिलता।
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६३४ ]
| गोम्मटसार जौनकाण्ड गाया ५४७
घटाइये, जो प्रमाण होइ, ताकी एक घाटि गुणकार कौ प्रमारण पंद्रह, ताका भाग दीजिए । बहुरि इहां आदि विषै पुष्कर समुद्र है । तिस विषै लवण समुद्र समान खंडनि का प्रमाण दोय कौ दोय बार सोलह करि गुणिए, इतना प्रमारण है, सोई मुख भया, ताकरि गुणिए, जैसे करतें एक घाटि जगत्प्रतर कौं दोय सोलह सोलह का गुणकार अर सात - सात पंद्रह का भागहार भया । बहुरि इस राशि का एक लवण समुद्र विषै जंबूद्वीप समान चौईस खंड हो है । तातै चौईसका गुणकार करना । बहुरि जम्बूद्वीप विषै सूक्ष्म क्षेत्रफल सात नव आदि अंकमात्र है । तातै ताका गुणकार करना बहुरि एक योजन के सात लाख अडसठ हजार अंगुल हो है । सो इहां वर्गराशि का ग्रहरण है, अर वर्गराशि का गुणकार भागहार वर्गरूप ही हो है । ताते दोय बार सात लाख अडसठ हजार का गुणकार जानना । बहुरि एक सूच्यंगुल का वर्ग प्रतरागुल हो है । ताते इतने प्रतरांगुलनि का गुणकार जानना । बहुरि -
विरलिदरासोदो पुरण, जेत्तियमेत्तारिण होणरूवाणि । सोहवी, हारो उप्पण्णरासिस्स ||
इस कररणसूत्र के अभिप्राय करि द्वीप समुद्रनि के प्रमाण विषै राजू के अर्धच्छेदनि ते जेते अर्धच्छेद घटाए है, तिनिका आधा प्रमाण मात्र गुणकार सोलह कौ परस्पर गुण, जो प्रमाण होइ, तितने का पूर्वोक्त राशि विषे भागहार जानना । सो इहा जाका आधा ग्रहण कीया, तिस सपूर्ण राशि मात्र सोलह का वर्गमूल च्यारि, तिनको परस्पर गुणै, सोई राशि हो है । सो अपने अर्धच्छेद मात्र वानि को परस्पर गुणै तौ विवक्षित राशि होइ, अर इहा च्यारि कहै है, ताते तितने ही मात्र दोय बार, दूवानि को परस्पर गुणे, विवक्षित राशि का वर्ग हो है । ताते इहा लाख योजन का अर्धच्छेद प्रमाण दोय दूवानि का परस्पर गुणै, तौ लाख का वर्ग भया । एक योजन का अगुलनि के प्रमाण का अर्धच्छेदमात्र दोय दूवानि कौ परस्पर गुणे, एक योजन के अगुल सात लाख अडसठ हजार ( तीन का ) वर्ग भया । बहुरि मेरुमध्य सबंधी एक अर्धच्छेदमात्र दोय दूवानि को परस्पर गुणै, च्यारि भया, बहुरि सूच्यंगुल का अर्धच्छेदमात्र दोय दूवानि को परस्पर गुणे, च्यारि भया । बहुरि सूच्यगुल का अर्धच्छेद मात्र दोय दुवानि को परस्पर गुणै प्रतरागुल भया । जैसे ए भागहार जानने । बहुरि जलचर सहित तीन समुद्र गच्छ विषै घटाए है । तातै तीन बार गुणोत्तर जो सोलह, ताका भी भागहार जानना । जैसे जगत्प्रतर कौ प्रतरागुल अर दोय अर सोलह अर सोलह अर चौवीस अर सात से निवे कोडि छप्पन लाख चौराणवै हजार
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सम्यग्ज्ञानन्त्रिका भाषाटीका ]
एक सौ पचास अर सात लाख अडसठि हजार, अर सात लाख अडसठि हजार का तो गुणकार भया । बहुरि प्रतरागुल पर सात अर सात अर पद्रह पर एक लास पर एफ लाख अर सात लाख अडसठि हजार अर सात लाख अडसठि हजार अर च्यारि पर सोलह अर सोलह अर सोलह का भागहार भया । इहा प्रतरागुल पर दोय वार सोलह अर दोय वार सात लाख अडसठि हजार गुणकार भागहार विपं समान देखि अपवर्तन कीएं अर गुणकार विर्ष दोय चौईस को परस्पर गुणे, अडतालीस पर भागहार विष पंद्रह सोलह, इनिकों परस्पर गुणे, दोय से चालीस, तहा अडतालीस करि अपवर्तन कीएं, भागहार विर्षे पाच रहे, असें अपवर्तन कीए, जो अवशेप प्रमाण रह्या ७६०५६६४१५० तहा सर्व भागहारनि को परस्पर गुणि, ताको गुणकारनि के
७। ७ । १ ल । १ ल । ४ । ५। अंकनि का भाग दीएं किछ अधिक बारह सै गुणतालीस भए। अस धनराशि विणे सर्व क्षेत्रफल साधिक 'धगरय' जो बारह सं गुणतालीस, ताकरि भाजित जगत्पतर प्रमाण क्षेत्रफल भया । इहां कटपयपुरस्थवर्णैः इत्यादि सूत्र के अनुसारि अक्षर तना करि धगरय शब्द ते नव तीन, दोय, एक जनित प्रमाण ग्रहण करना । अव हा एक प्रादि चौगुणा - चौगुणा ऋण कहा था, सो जलचर रहित समुद्रनि विपं ऋणरूप अंग्रफर ल्याइए है । 'पदमते गुण्यारे' इत्यादि करणसूत्र करि प्रथम गच्छमात्र गुमगार च्यारि का परस्पर गुणन करना । तहा राज के अर्धच्छेद प्रमाण का अर्धप्रमाण मात्र च्यारि को परस्पर गुणे, एक राजू हो है । कैसे ? सो कहिये है
___ सर्व द्वीप समुद्र का प्रमाण मात्र गच्छ कल्पे, इहा प्राधा प्रमाण है. तानं गुनकार च्यारि का वर्गमूल दोय ग्रहण करना । सो संपूर्ण गच्छ विष एक राज - च्छेद कहै है, तातै एक राजू के अर्धच्छेद प्रमाण दूवानि को परसर गुगे, पारा, प्रमाण भया, सो जगच्छणी का सातवां भाग प्रमाण है । यामे एक घटाएकोमा होइ, ताको एक घाटि गुणकार तीन का भाग दीजिए। वहरि पुष्कर ममु: मl
आदि स्थान विर्षे प्रमाण सोलह, ताकरि गुरिणये, असे एक पाटि को सोलह का गुण कार बहुरि सात पर तीन का भागहार भया । नाम : चौवीस खंड अर जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल रूप योजननि का प्रमा] पर पर अंगुलनि का वर्गमात्र बहुरि सूच्यंगुल का इहां वर्ग है; तातं तनों
: गुणन करना । बहुरि
विरलिदरासीदो पुण, जेत्तियमेताणि हीपमालि। तेति प्रगोग्णहदी, हारो उप्पण्यरानिस्म ॥१॥
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६३६ ]
। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५४७ . इस सूत्र अनुसारि जितने गच्छ विर्षे राजू का अर्धच्छेद प्रमाण घटाइए है, ताका जो आधा प्रमाण है, तितने च्यारि के अकनि कौ परस्पर गुणे, जो प्रमाण होइ, तितने का भागहार जानना । सो जिस राशि का आधा प्रमाण लिया, तिस राशिमात्र च्यारि का वर्गमूल दोय कौ परस्पर गुरिणये, तहा लक्ष योजन के अर्धच्छेद प्रमाण दूवानि को परस्पर गुणे, एक लाख भए । एक योजन के अगुलनि का अर्धच्छेद प्रमाण दूवानि को परस्पर गुणे, सात लाख अडसठि हजार अंगुल भये । बहुरि मेरुमध्य के अर्धच्छेद मात्र दूवा का दोय भए। बहुरि सूच्यंगुल का अर्धच्छेदमात्र वानि कौं परस्पर गुणे, सच्यगुल भया, असै भागहार भए । बहुरि तीन समुद्र घटाएं, तातें तीन वार गुणोत्तर जो च्यारि, ताका भी भागहार जानना । जैसे एक घाटि जगत्छे णी कौं सोलह अर च्यारि अर चौईस अर सात से निवै कोडि छप्पन लाख चौराणवै हजार एक सै पचास अर सात लाख अडसठि हजार अर सात लाख अडसठि हजार का तौ गुणकार भया । बहुरि सात अर तीन अर सूच्यंगुल अर एक लाख अर सात लाख अडसठि हजार अर दोय अर च्यारि अर च्यारि अर च्यारि का भागहार भया । तहां यथायोग्य अपवर्तन कीएं, सख्यात सूच्यंगुल करि गुण्या हुवा जगच्छे णी मात्र क्षेत्रफल भया । सो इतने पूर्वोक्त धन राशिरूप क्षेत्रफल विष घटावना, सो तिस महत् राशिविष किंचित् मात्र घटया सो घटाएं, किचित् ऊन साधिक बारह सै गुणतालीस करि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण सर्व जलचर रहित समुद्रनि का क्षेत्रफल ऋणरूप सिद्ध भया । याको एक राजू लंबा, चौडा असा जो जगत्प्रतर का गुणचासवां भाग मात्र रज्जू प्रतर क्षेत्र, तामे समच्छेद करि घटाइए, तब जगत्प्रतर को ग्यारह से निवे का गुणकार अर गुणचास गुणा बारह से गुणतालीस का भागहार भया । तहा अपवर्तन करने के अणि भाज्य के गुणकार का भागहार को भाग दीए किछ अधिक इक्यावन पाए । असें साधिक काम जो अक्षर सज्ञा करि इक्यावन, ताकरि भाजित जगत्प्रतर प्रमाण विवक्षित क्षेत्र का प्रतररूप तन का स्पर्श भया । याको ऊचाई का स्पर्श ग्रहण के अर्थि जीवनि की ऊचाई का प्रमाण संख्यात सूच्यंगुल, तिन करि गुणे, साधिक इक्यावन करि भाजित सख्यात सूच्यगुल गुणा जगत्प्रतर मात्र शुभलेश्यानि का स्वस्थान स्वस्थान विष स्पर्श हो हैं । याकौ देखि तेजो लेश्या का स्वस्थान स्वस्थान की अपेक्षा स्पर्श लोक का असख्यातवा भाग मात्र कह्या, जाते यह क्षेत्र लोक के असंख्यातवे भाग मात्र है । बहुरि तेजोलेश्या का विहारवत्स्वस्थान अर वेदना समुद्घात अर कपाय समुद्घात अर वैक्रियिक समुद्घात विषै स्पर्श किछ घाटि चौदह भाग में पाठ भाग प्रमाण है । काहे ते ? सो कहिये है
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका |
[६३७ लोक चौदह राजू ऊचा है। बसनाली अपेक्षा एक राजू लवा - चौडा है । सो तहा चौदह राजू विर्ष सनत्कुमार-माहेद्र के वासी उत्कृष्ट तेजोलेश्यावाले देव, ऊपरि अच्युत सोलहवा स्वर्ग पर्यत गमन कर है । अर नीचे तीसरी नरक पृथ्वी पर्यंत गमन करे है । सो मच्युत स्वर्ग ते तीसरा नरक आठ राजू है । तातै चौदह भाग मे आठ भाग कहे अर तिसमें तिस तीसरा नरक की पृथ्वी की मोटाई विपं जहा पटल न पाइए असा हजार योजन घटावने, तातै किचित् ऊन कहे है । इहा जो चौदह धनरूप राजूनि की एक शलाका होइ, तौ आठ घनरूप राजूनि की केती शलाका होइ ? औसै त्रैराशिक कीएं आठ चौदहवा भाग आवै है । अथवा भवनत्रिक देव ऊपरि वा नीचे स्वयमेव तौ सौधर्म - ईशान स्वर्ग पर्यत वा तीसरा नरक पर्यत गमन कर है। अर अन्य देव के ले गये सोलहवा स्वर्ग पर्यंत विहार करै है । तातै भी पूर्वोक्त प्रमाण स्पर्श सभवै है । बहुरि तेजोलेश्या का मारणातिक समुद्घात विष स्पर्श चौदह भाग में नव भाग किछ घाटि सभव है । काहे तैं ? भवनत्रिक देव वा सौधर्मादिक च्यारि स्वर्गनि के वासी देव तीसरे नरक गएं, अर तहां ही मरण समुद्घात कीया, बहुरि ते जीव आठवी मुक्ति पृथ्वी विष बादर पृथ्वी काय के जीव उपजते है । तातै तहां पर्यंत मरण समुद्घातरूप प्रदेशनि का विस्तार करि दंड कीया । तिन आठवी पृथ्वी ते तीसरा नरक नव राजू है । अर तहां पटल रहित पृथ्वी की मोटाई घटावनी, ताते किचित् ऊन नव चौदहवा भाग सभव है।
बहुरि तैजस समुद्घात अर आहारक समुद्घात विष सख्यात घनागुल प्रमाण स्पर्श जानना, जातै ए मनुष्य लोक विष ही हो है । बहुरि केवल समुद्धात इस लेश्या वालो के होता ही नाही । बहुरि उपपाद विषै स्पर्श चौदह भागनि विपै किछ घाटि डेढ राजू भाग मात्र जानना । सो मध्यलोक ते तेजोलेश्या ते मरिकरि सौधर्म ईशान का अत पटल विष उपजे, तीहि अपेक्षा संभव है।
इहां कोऊ कहै कि तेजोलेश्या के उपपाद विर्ष सनत्कुमार माहेद्र पर्यंत क्षेत्र देव का स्पर्श पाइए है, सो तीन राजू ऊंचा है, तातै चौदह भागनि विर्ष किचित् ऊन तीन भाग क्यो न कहिये ?
ताका समाधान - सौधर्म - ईशान ते ऊपरि सख्यात योजन जाड, सनत्कुमार माहेद्र का प्रारभ हो है । तहां प्रथम पटल है, अर डेढ राजू जाइ; अतिम पटल है, नो अंत पटल विष तेजोलेश्या नाही है, असा केई आचार्यनि का उपदेश है । नातं सपना
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६३८ ]
| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५४८-५४६ चित्रा भूमि विपै तिष्ठता तिर्यच मनुष्यनि का उपपाद ईशान पर्यंत ही सभव है, तात किचित् ऊन डेढ भागमात्र ही स्पर्श कह्या है । बहुरि गाथा विर्ष चकार कह्या है, ताते तेजोलेश्या का उत्कृष्ट अश करि मरै, तिनकै सनत्कुमार - माहेद्र स्वर्ग का अंत का चक्र नामा इंद्रक सबंधी श्रेणीबद्ध विमाननि विष उत्पत्ति केई प्राचार्य कहै है । तिनि का अभिप्राय करि यथा संभवै तीन भागमात्र भी स्पर्श सभव है। किछ नियम नाही। इस ही वास्ते सूत्र विर्षे चकार कह्या । जैस पीतलेश्या विष स्पर्श कह्या।
पम्मस्सय सारणसमुग्धाददुगेसु होदि पढमपदं । अडचोदसभागा वा, देसूरणा होति णियमेण ॥५४८॥
पद्मायाश्च स्वस्थानसमुद्घातद्विकयोर्भवति प्रथमपदम् ।
अष्ट चतुर्दशभागा वा, देशोना भवंति नियमेन ॥५४८॥ टीका - पद्मलेश्या के स्वस्थान स्वस्थान विषै पूर्वोक्तप्रकार लोक के असंख्यातवे भाग मात्र स्पर्श जानना। वहुरि विहारवत्स्वस्थान अर वेदना - कषाय -वैकियिकसमुद्घात इनिविषै किचित् ऊन चौदह भाग विष आठमात्र स्पर्श जानना । वहुरि मारणांतिक समुद्घात विषै भी तैसे ही किचित् ऊन आठ चौदहवां भागमात्र स्पर्श जानना, जातै पद्म लेश्यावाले भी देव पृथ्वी, अप्, वनस्पति विष उपज है । बहुरि तैजस आहारक समुद्घात विषै संख्यात धनागुल प्रमाणस्पर्श जानना । बहूरि केवल समुद्घात इस लेश्या विष है नाही।
उववादे पढमपदं, पणचोद्दसभागयं च देसूरणं ।
उपपादे प्रथमपदं, पंचचतुर्दशभागकश्च देशोनः । टीका - यहु आधा सूत्र है । उपपाद विषै स्पर्श चौदह भाग विष पंच भाग किछु घाटि जानना, जातै पद्मलेश्या शतार - सहस्रार पर्यत संभव है । सो शतारसहस्रार मध्यलोक ते पांच राजू उंचा है। असैं पद्मलेश्या विषै स्पर्श कह्या।
सुक्कस्स य तिट्ठाणे, पढमो छच्चोदसा होणा ॥५४॥
शुक्लायाश्च त्रिस्थाने, प्रथमः षट्चतुर्दशहीनाः ॥५४६।। टीका - शुक्ललेश्यावाले जीवनि के स्वस्थानस्वस्थान विर्ष तेजोलेश्यावत् लोक का असंख्यातवां भाग प्रमाण स्पर्श है । बहुरि विहारवत्स्वस्थान विषै अर वेदना,
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाढीका ]
[ ६३६ कषाय, वैक्रियिक, मरणातिक समुद्घातनि विष स्पर्श चौदह भागनि विप छह भाग किछु एक घाटि स्पर्श जानना । जातें अच्युतस्वर्ग के ऊपरि देवनि के स्वस्थान छोडि अन्यत्र गमन नाही है । तातै अच्युत पर्यत ही ग्रहण कीया । बहुरि तैजस, आहारक समुद्धात विर्षे संख्यात धनांगुल प्रमाण स्पर्श जानना।
णवरि समुग्धादम्मि य, संखातीदा हवंति भागा वा। सन्बो वा खलु लोगो, फासो होदि त्ति णिहिट्ठो ॥५५०॥
नवरि समुद्घाते च, संख्यातीता भवंति भागा वा।
सर्वो वा खलु लोकः, स्पर्शो भवतीति निर्दिष्टः ।।५५०।। टीका - केवल समुद्धात विर्षे विशेष है, सो कहा ?
दण्ड विष तौ स्पर्श क्षेत्र की नाई संख्यात प्रतरागुलनि करि गुण्या हूवा जगच्छे णी प्रमाण, सो करणे अर समेटने की अपेक्षा दूणा जानना । वहुरि पूर्वाभिमुख स्थित वा उपविष्ट कपाट विष संख्यात सूच्यंगुलमात्र जगत्प्रतर प्रमाण है, सो करणे, समेटने की अपेक्षा दूणा स्पर्श जानना। बहुरि तैसे ही उत्तराभिमुख स्थित वा उपविष्ट कपाट विष स्पर्श जानना । बहुरि प्रतर समुद्धात विष लोक को असंख्यात का भाग दीजिए, तामै एक भाग विना अवशेप बहुभाग मात्र स्पर्श है । जाते वात वलय का क्षेत्र लोक के असख्यातवे भाग प्रमाण है, तहां व्याप्त न हो है । बहुरि लोकपूरण विष स्पर्श सर्व लोक जानना, असा नियम है।
बहुरि उपपाद विष चौदह भाग विष छह भाग किंचित् ऊन स्पर्श जानना । जातै इहा आरण - अच्युत पर्यत ही की विवक्षा है । इति स्पर्शाधिकार ।
आगै काल अधिकार दोय गाथानि करि कहै हैकालो छल्लेस्साणं, णाणाजीवं पडुच सव्वद्धा। अंतो हुत्तमवरं, एगं जीवं पडुच्च हवे ॥५५॥
कालः षडलेश्यानां, नानाजीवं प्रतीत्य तद्धिा । अंतर्मुहूर्तोऽवरं एक, जीवं प्रतीत्य भवेत् ॥५५॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५५२-५५३
६४० ]
टीका - कृष्ण आदि छहौ लेश्यानि का काल नाना जीवनि की अपेक्षा सर्वाद्धा कहिये सर्व काल है । बहुरि एक जीव अपेक्षा छहौ लेश्यानि का जघन्यकाल तौ अतमुहूर्त प्रमाण जानना।
उवहीणं तेत्तीसं, सत्तरसत्तेव होंति दो चेव । अट्ठारस तेत्तीसा, उक्कस्सा होंति अदिरेया ५५२॥
उदधीनां त्रयस्त्रिंशत्, सप्तदश सप्तैव भवंति द्वौ चैव । अष्टादश त्रयस्त्रिशत्, उत्कृष्टा भवंति अतिरेकाः ॥५५२।।
टीका - बहरि उत्कृष्ट काल कृष्णलेश्या का तेतीस सागर, 'नीललेश्या का सतरह सागर, कपोतलेश्या का सात सागर, तेजोलेश्या का दोय सागर, पद्मलेश्या का अठारह सागर, शुक्ललेश्या का तेतीस सागर किछ किछ अधिक जानना । सो अधिक का प्रमाण कितना ? सो कहैं है - यहु उत्कृष्ट काल नारक वा देवनि की अपेक्षा कहा है । सो नारकी पर देव जिस पर्याय ते आनि उपजै, तिस पर्याय का अंत का अंतर्मुहूर्त काल बहुरि देव नारक पर्याय छोडि जहां उपजै, तहां आदि विषै अंतर्मुहूर्त काल मात्र सोई लेश्या हो है । तातै पूर्वोक्त काल से छहौं लेश्यानि का काल वि. दोय दोय अंतर्मुहूर्त अधिक जानना । बहुरि तेजोलेश्या अर पद्मलेश्या का काल विर्षे किंचित् ऊन आधा सागर भी अधिक जानना, जाते जाकै आयु का अपवर्तन घात भया असा जो घातायुष्क सम्यग्दृष्टी, ताकै अतर्मुहुर्त घाटि आधा सागर आयु बधता हो है जैसे सौधर्म-ईशान विष दोय सागर का आयु कह्या है; ताहां घातायुष्क सम्यग्दृष्टी के अंतर्मुहूर्त घाटि अढाई सागर भी आयु हो है; जैसे ऊपर भी जानना । बहुरि जैसे ही मिथ्यादृप्टि घातायुष्क के पल्य का असंख्यातवां भाग प्रमाण आयु बधता हो है; सो यह अधिकपना सौधर्म ते लगाइ सहस्रार स्वर्ग पर्यंत जानना । ऊपर घातायुष्क का उपजना नाही, तातै तहा जो आयु का प्रमाण कह्या है, तितना ही हो है; जैसे अधिक काल का प्रमाण जानना । इति कालाधिकार. ।
आगे अंतर अधिकार दोय गाथानि करि कहै हैअंतरमवरुक्कस्सं, किण्हतियाणं मुहत्तअंतं तु । उवहीणं तेत्तीसं, अहियं होदि ति णिदिळें ॥५५३॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
तेउतियाणं एवं, णवरि य उक्कस्स विरहकालो दु । पोग्गलपरिट्टा हु, असंखेज्जा होंति णियमेण ॥ ५५४॥
अंतरमवरोत्कृष्टं, कृष्णत्रयाणां मुहूर्तातस्तु । उदधीनां त्रयस्त्रिंशदधिकं भवतीति निर्दिष्टम् ॥५५३॥
तेजस्त्राणामेवं, नवरि च उत्कृष्ट विरहकालस्तु । पुद्गल परिवर्ता हि असंख्येया भवंति नियमेन || ५५४ |
[ ६४५
टीका - अंतर नाम विरह काल का है । जैसे कोई जीव कृष्णलेश्या विषै प्रवर्तें था, पोछें कृष्ण को छोडि अन्य लेश्यानि को प्राप्त भया । सो जितने काल पर्यंत फिर तिस कृष्णलेश्या कौं प्राप्त न होइ तीहि काल का नाम कृष्णलेश्या का अंतर कहिये । से ही सर्वत्र जानना । सो कृष्णादिक तीन लेश्यानि विषै जघन्य अंतर अतर्मुहुर्त प्रमाण है । बहुरि उत्कृष्ट किछु अधिक तेतीस सागर प्रमाण है ।
तहां कृष्णलेश्या विषै अंतर कहै है
कोई जीव कोडि पूर्व वर्षमात्र आयु का वारी मनुष्य गर्भ ते लगाय प्राठ वर्ष होने विषै छह अंतर्मुहूर्त अवशेष रहें, तहा कृष्णलेश्या को प्राप्त भया, तहा अंतर्मु तिष्ठि करि नील लेश्या कौ प्राप्त भया । तब कृष्णलेश्या के अंतर का प्रारंभ कीया । तहां एक - एक अंतर्मुहूर्त मात्र अनुक्रम तें नील, कपोत, पीत, पत्र, शुक्लेश्या की प्राप्त होइ, आठ वर्ष का अंत के समय दीक्षा वरी, तहा शुक्ललेग्या सहित किछ पाटिपोट पूर्व पर्यंत संयम कौं पालि, सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त भया । तहां तीन नागर कर मनुष्य होइ, अंतर्मुहूर्त पर्यंत शुक्ललेश्या रूप रह्या । पीछे अनुक्रम तं एक जन हूर्त मात्र पद्म, पीत, कपोत, नील लेश्या को प्राप्त होइ, कृष्ण लेखापाल ना असे जीव के कृष्ण लेश्या का दश अंतर्मुहूर्त पर आठ वर्ष घाट अधिक तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट अंतर जानना । न ही तीन पर लेश्या विषै उत्कृष्ट अंतर जानना । विशेष इतना जो तहा दस ग्राम नील विषै ठ कपोत विपं छह अंतर्मुहूर्त ही विक जानने ।
अब तेजो लेश्या का उत्कृष्ट अंतर कह हैं
कोई जीव मनुष्य वा तिर्यच तेजोलेश्या विपं तिष्ठे
को प्राप्त भया, तव तेजोलेश्या के अंतर का प्रारंभ कीया। ए
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६४२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५५४ पर्यंत कपोत, नील, कृष्ण लेश्या को प्राप्त होइ, एकेंद्री भया । तहा उत्कृष्टपनै आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण जे पुद्गल द्रव्य परिवर्तन, तिनिका जितना काल होइ, तितने काल भ्रमण कीया; पीछे विकलेंद्री भया । तहां उत्कृष्टपने संख्यात हजार वर्ष प्रमाण काल भ्रमण कीया; पीछे पंचेंद्री भया । तहां प्रथम समय तै लगाइ एक - एक अंतर्मुहूर्त काल विषे अनुक्रम तैं कृष्ण, नील, कपोत कौं प्राप्त होइ, तेजो
श्या कौं प्राप्त भया । जैसे जीव के तेजोलेश्या का छह अंतर्मुहूर्त सहित अर संख्यात सहस्र वर्ष करि अधिक आवली का प्रसंख्यातवां भाग प्रमाण पुद्गल परावर्तन मात्र उत्कृष्ट अंतर जानना ।
अब पद्म लेश्या का अंतर कहैं हैं
कोई जीव पद्मलेश्या विषं तिष्ठता था, ताकौं छोडि तेजोलेश्या कौ प्राप्त भया, तब पद्म के अंतर का प्रारंभ कीया । तहां तेजोलेश्या विषै अंतर्मुहूर्त तिष्ठि करि सौधर्म - ईशान विषे उपज्या, तहां पल्य का असंख्यातवां भाग करि अधिक दोय सागर पर्यंत रह्या । तहा स्यों चय करि एकेंद्री भया । तहां आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पुद्गल परावर्तन काल मात्र भ्रमण करि पीछे विकलेद्री भया । तहां संख्यात सहस्र वर्प कालमात्र भ्रमण करि पंचेंद्री भया । तहां प्रथमसमय तै लगाइ, एक - एक अंतर्मुहूर्त कृष्ण, नील, कपोत, तेजोलेश्या कौं प्राप्त होइ, पद्मलेश्या को प्राप्त भया । असे जीव कैं पद्मलेश्या का पंच अतर्मुहूर्त श्रर पल्य का असंख्यातवां भाग करि अधिक दोय सागर र संख्यात हजार वर्षनि करि अधिक आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पुद्गल परावर्तन मात्र उत्कृष्ट अंतर जानना ।
आगे शुक्ल लेश्या का अतर कहै है
कोई जीव शुक्ललेश्या विषै तिष्ठे था, तहांस्यों पद्मलेश्या कौ प्राप्त भया । तव शुक्ललेश्या का अंतर का प्रारंभ भया । तहां क्रम ते एक-एक अंतर्मुहूर्त काल मात्र पद्म - तेजोलेश्या को प्राप्त होइ सौधर्म - ईशान विषै उपजि, तहा पूर्वोक्त प्रमाण काल रहि, तहां पीछे एकेद्री होइ, तहा भी पूर्वोक्त प्रमाण काल मात्र भ्रमण करि, पीछे विकलेद्री होइ, तहा भी पूर्वोक्त प्रमारण कालमात्र भ्रमण करि, पचेंद्री होइ, प्रथम समय तैं एक-एक अंतर्मुहूर्त काल मात्र क्रम ते कृष्ण, नील, कपोत, तेज, पद्मलेश्या कौं प्राप्त होइ, शुक्ललेश्या कौ प्राप्त भया । औसे जीव के सात अतर्मुहूर्त अ संख्यात सहस्र वर्ष र पल्य का असंख्यातवां भाग करि अधिक दोय सागर करि अधिक
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ।
J६४३
आवली का असख्यातवा भाग प्रमाण पुद गल परावर्तन मात्र 'शुक्ललेश्या का उत्कृष्ट अंतर जानना । इति अंतराधिकारः।
प्रागै भाव अर अल्पबहुत्व अधिकारनि को कहैं हैंभावादो छल्ले स्सा, प्रोदयिया होंति अप्पबहुगं तु । दन्वपमाणे सिद्ध, इदि लेस्सा वण्णिदा होति ॥५५॥
भावतः षड् लेश्या,. औदयिका भवंति अल्पबहुकं तु ।
द्रव्यप्रमाणे सिद्धमिति, लेश्या वरिणता भवंति ॥५५५।। टोका - भाव करि छहौ लेश्या औदयिक भावरूप जाननी; जाते कषाय संयुक्त योगनि की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है । सो ते दोऊ कर्मनि के उदय ते हो है। इति भावाधिकारः।
बहुरि तिनि लेश्यानि का अल्प बहुत्व पूर्व संख्या अधिकार विष द्रव्य प्रमाण करि ही सिद्ध है । जिनका प्रमाण थोडा सो अल्प, जिनिका प्रमाण घणा सो बहुत । तहां सबतें थोरे शुक्लेश्यावाले जीव है; ते परिण असंख्यात है । तिनि ते असख्यातगुणे पद्मलेश्यावाले जीव है। तिनि त संख्यातगुणे तेजोलेश्यावाले जीव है । तिनि ते अनंतानंत गुणे कपोतलेश्यावाले जीव है । तिनि ते किछ अधिक नीललेश्यावाले जीव है । तिनि ते किछु कृष्णलेश्यावाले जीव है । इति अल्पबहुत्वाधिकार. । : असे छहौ लेश्या सोलह अधिकारनि करि वर्णन करी हुई जाननी ।
प्रागै लेश्या रहित जीवनि को कहैं है'किण्हादिलेस्सरहिया, संसारविणग्गया अणंतसुहा ।
सिद्धिपुरं संपत्ता, अलेस्सिया ते मुणेयन्वा ॥५५६॥ । कृष्णादिलेश्यारहिताः, संसारविनिर्गता अनन्तसुखाः ।
सिद्धिपुरं संप्राप्ता, अलेश्यास्ते ज्ञातव्याः ।।५५६।।
टीका - जे जीव कषायनि के उदय स्थान लिए योगनि की प्रवृत्ति के प्रभाव तै कृष्णादि लेश्यानि करि रहित है, तिस ही ते पच प्रकार संसार समुद्र ते निफसि
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६४४ ]
[ गोम्मटसार जीवका गाया ५५६
पार भए हैं । बहुरि अतींद्रिय - अनंत सुख करि तृप्त हैं। बहुरि प्रात्मा की उपलब्धि है लक्षण जाका, असी सिद्धिपुरी कौं सम्यक् पर्ने प्राप्त भए है, ते अयोगकेवली वा सिद्ध भगवान लेश्या रहित अलेश्य जानने ।
इति श्री आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार वितीयनाम पंचसंग्रह ग्रंथ की
जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चद्रिका नामा भापाटीका विष जीवकाण्ड विष प्ररूपित बीस प्ररूपणा तिनिविषै लेश्यामार्गणा प्ररूपणा है नाम
जाका असा पद्रह्वां अधिकार सपूर्ण भया ।।१५।।
जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर इस करणानुयोग का अभ्यास करते हैं, उन्हे यह उसके विशेषणरूप भासित होता है। जो जीवादिक तत्वों को आप जानता है, उन्ही के विशेष करणानुयोग में किये हैं, वहाँ कितने ही विशेषण तो यथावत निश्चयरूप हैं, कितने ही उपचार सहित व्यवहाररूप है, कितने ही द्रव्य-क्षेत्र-काल भावादिक के स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं, कितने ही निमित्त आश्रयादि अपेक्षा सहित है, इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषण निरूपित किये हैं, उन्हे त्यों का त्यो मानता हुआ उस करणानुयोग का अभ्यास करता
इस अभ्यास से तत्त्वज्ञान निर्मल होता है । जैसे-कोई यह तो जानता था कि यह रत्न है, परंतु उस रत्न के बहुत से विशेषण जानने पर निर्मल रत्न का पारखी होता है, उसी प्रकार तत्त्वो को जानता था कि यह जीवादिक है, परन्तु उन तत्त्वों के बहुत विशेष जाने तो निर्मल तत्त्वज्ञान होता है । तत्त्वज्ञान निर्मल होने पर आप ही विशेष धर्मात्मा होता है ।
. पण्डित टोडरमलः मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ०-२७०
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सोलहवां अधिकार : भत्य-मार्गणा इष्ट फलत सब होत फुनि, नष्ट अनिष्ट समाज ।
जास नामतें सो भजौ, शांति नाथ जिनराज ॥ आगे भव्य मार्गणा का अधिकार च्यारि गाथानि करि कहै हैभविया सिद्धी जेसि, जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा। तविवरीयाऽभव्वा, संसारादो ण सिझति ॥५५७॥
भव्या सिद्धिर्येषां, जीवानां ते भवन्ति भवसिद्धाः ।
तद्विपरीता अभव्याः, संसारान्न सिद्धयन्ति ॥५५७।। टीका - भव्याः कहिए होनेयोग्य वा होनहार है सिद्धि कहिये अनंत चतुष्टय रूप स्वरूप की प्राप्ति जिनकै, ते भव्य सिद्ध जानने । याकरि सिद्धि की प्राप्ति पर योग्यता करि भव्यनि कै द्विविधपना कह्या है। .
। भावार्थ - भव्य दोय प्रकार हैं । केई तो भव्य असे है जे मुक्ति होने की केवल योग्य ही हैं; परि कबहूं सामग्री को पाइ मुक्त न होइ । बहुरि केई भव्य अंसे हैं, जे काल पाइ मुक्त होहिगे । बहुरि तद्विपरीताः कहिए पूर्वोक्त दोऊ लक्षण रहित जे जीव मुक्त होने योग्य भी नही अर मुक्त भी होते नाही, ते अभव्य जानने । तात ते वे अभव्य जीव संसार तें निकसि कदाचित मुक्ति को प्राप्त न हो हैं; असा ही कई द्रव्यत्व भाव है।
इहा कोऊ भ्रम करेगा जो अभव्य मुक्त न होइ तौ दोऊ प्रकार के व्यानि में तो मुक्त होनाठहर्चा तौ जे मुक्त होने की योग्य कहे थे, तिन भव्यनि के भी कय: । मुक्ति प्राप्ति होसी सो असे भ्रम को दूर करे हैं
भव्वत्तणस्त जोग्गा, जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा । ण हु मलविगमे णियमा, ताणं कणोवलाणमिव ॥५५८।।
भव्यत्वस्य योग्या, ये जीवास्ते भवन्ति भवसिद्धाः । न हि मलविगमे नियमात, तेषां कनकोपलानामिव ॥५५॥
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६४६ ]
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ५५६-५६०
टीका जे भव्य जीव भव्यत्व जो सम्यग्दर्शनादि सामग्री को पाइ, अनंत चतुष्टय रूप होना, ताकी केवल योग्य ही है, तद्रूप होने के नाही, ते भव्य सिद्ध है । सदा काल संसार को प्राप्त रहें है । काहे तें ? सो कहिये हैं - जैसे केई सुवर्ण सहित पाषाण अस है, तिनके कदाचित् मैल के नाश करने की सामग्री न मिले, तैसें केई भव्य जैसे है जिनकै कर्म मल नाश करने की कदाचित् सामग्री नियम करि न संभव है ।
भावार्थ
जैसे अहमिंद्र देवनि कैं नरकादि विषै गमन करने की शक्ति है, परतु कदाचित् गमन न करें, तैसें केई भव्य असें है, जे मुक्त होने कौं योग्य है, परन्तु कदाचित् मुक्त न होंइ ।
-
णय जे भव्वाभव्वा, मुत्तिसुहातीदणंतसंसारा ।
ते जीवा णायव्वा, रोव य भव्वा श्रभव्वा य ॥५५६ ॥
·
न च ये भव्या अभव्या, मुक्तिसुखा श्रतीतानंतसंसाराः ।
ते जीवा ज्ञातव्या, नैव च भव्या अभव्याश्च ।। ५५९ ॥
टीका जे जीव केई नवीन ज्ञानादिक अवस्था कौं प्राप्त होने के नाहीं ; 'तात भव्य भी नाही । अर अनंत चतुष्टय रूप भए, तातें अभव्य भी नाहीं, असे मुक्ति सुव के भोक्ता अनंत संसार रहित भए, ते जीव भव्य भी नाही अर अभव्य भी नाहीं; जीवत्व पारिणामिक को धरै हैं; से जानने ।
इहां जीवनि की संख्या कहै हैं
अवरो जुत्तारतो, अभव्वरासिस्स होदि परिमारणं । ते विहीणी सव्वो, संसारी भव्वरासिस्स ॥ ५६० ॥
-
अवरो युक्तानन्तः, अभव्यराशे र्भवति परिमाणम् । तेन विहीनः सर्वः, संसारी भव्यराशेः ॥५६० ।।
जघन्य युक्तानंत प्रमाण अभव्य राशि का प्रमाण है । बहुरि संसारी
अवशेष रहे, तितना भव्य
टीका जीवनि के परिमाण में भव्य राशि का परिमाण घटाएं, राशि का प्रमाण है । इहां संसारी जीवनि के परिवर्तन परिभ्रमण, ससार ए एकार्य हैं । सो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव, भेद तें परिवर्तन
कहिए है - परिवर्तन अर
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
{ ૬૪૭
पंच प्रकार है । तहां द्रव्य परिवर्तन दोय प्रकार है - एक कर्म द्रव्य परिवर्तन, एक नोकर्म द्रव्य परिवर्तन |
तहां नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहिए है
-
किसी जीव ने औदारिकादिक तीन शरीरनि विषे किसी ही शरीर सबधी छह पर्याप्ति रूप परिणमने की योग्य पुद्गल किसी एक समय में ग्रहे, ते स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण, गंधादिक करि तीव्र, मद, मध्य भाव लीए, यथा संभव ग्रहे, बहुरि ते द्वितीयादि समयनि विषै निर्जरा रूप कीए । बहुरि अनत बार अगृहीतनि को ग्रहि करि छोडे, अनंत बार मिश्रनि कौ ग्रहि करि छोड़, बीचि ग्रहीतानि को अनंत बार ग्रहि करि छोड़, असे भए पीछे जे पहिले समय पुद् गल ग्रहे, तेई पुद् गल तैसे ही स्निग्ध, रुक्ष, वर्ण गंधादिक करि तिस ही जीव के नोकर्म भाव को प्राप्त होंइ, तितना समुदायरूप काल मात्र नोकर्म द्रव्य परिवर्तन है । जीव करि पूर्वे ग्रहे जैसे परमाणू जिन समयप्रवद्ध रूप स्कंधनि विषै होंइ, ते गृहीत कहिए । बहुरि जीव करि पूर्वे न ग्रहे असे परमाणू जिनिविषे होइ, ते अगृहीत कहिये । गृहीत श्रर अगृहीत दोऊ जाति के परमाणू जिनि विष होंइ, ते मिश्र कहिए ।
sai कोऊ कहै अगृहीत परमाणू कैसे है ?
ताकां सामाधान - सर्व जीवराशि के प्रमाण को समय प्रबद्ध के परमाणूनिका परिमाण करि गरिए । बहुरि जो प्रमाण आवै, ताक अतीत काल के समयनि का परिमाण करि गुणिए, जो प्रमाण होइ, तिसत भी पुद्गल द्रव्य का प्रमाण प्रनत गुणा है, जाते जीव राशि ते अनंत वर्गस्थान गए पुद्गलराशि हो है । ताते अनादिकाल नाना जीवन की अपेक्षा भी अगृहीत परमाणू लोक विषै बहुत पाइए हैं । बहुरि एक जीव का परिवर्तन काल की अपेक्षा नवीन परिवर्तन प्रारंभ भया, तब सर्व ही ग्रगुहीत भए । पीछे ग्रहे तेई ग्रहीत हो है । सो इहा जिस अपेक्षा गृहीत, अगृहीत, मिश्र कहे हैं; सो यथासंभव जानना । अब विशेष दिखाइए है
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पुद्गल परिवर्तन का काल तीन प्रकार है । तहा अगृहीतके का काल, सो अगृहीत ग्रहण काल है । गृहीत के ग्रहण का काल, सो गृहीत बहुल है । मिश्र के ग्रहण का काल, सो मिश्र ग्रहण काल है । सो इनिका परिवर्तनो पलटना सो कैसे हो है ? सो अनुक्रम यत्र करि दिखाइए हैं
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६४८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५६० ___ यंत्र विष अगृहीत की सहनानी तो विदी ।।०॥ जाननी अरु मिश्र की सहनानी हंसपद ॥+|| जाननी । अर गृहीत की सहनानी एक का अंक ॥१॥ जाननी । अर दोय बार लिखने ते अनंत बार जानि लेना ।
द्रव्य परिवर्तन का यंत्र
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० ० + + + + +१ ११ +
• + + + + +१ १ १ +
.++
० ० १ ० ० + ० ० + ++ १ ++ ++ ++ ++ १] ++ १/ १ १ ० १ १ + | ११ +
० ० १ ++ १ ++ . १ १ .
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.
-
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तहां विवक्षित नोकर्म पुद्गल परिवर्तन का पहिले समय तै लगाइ, प्रथम बार समयप्रबद्ध विर्षे अगृहीत का ग्रहण करै, दूसरी बार अगृहीत ही का ग्रहण करे, तीसरी बार अगृहीत ही का ग्रहण करै जैसे निरंतर अनंत बार अगृहीत का ग्रहण होइ निवरै तब एक बार मिश्र का ग्रहण करै । याहीतें यंत्र विर्ष पहिले कोठा विर्षे दोय बार बिदी एक बार हंसपद लिख्या ।
बहुरि तहां पीछे तैसे ही निरंतर अनंत बार अगृहीत का ग्रहण करि एक बार मिश्र का ग्रहण करै, असे ही अनुक्रमते अनंत अनंत बार अगृहीत का ग्रहण करि करि एक - एक बार मिश्र का ग्रहण करै; असे ही मिश्र का भी ग्रहण अनंत बार हो है । याहीतै अनत बार की सहनानी के निमित्त यत्र विर्षे जैसा पहिला कोठा था, तैसाही दूसरा कोठा लिख्या ।
___ बहुरि तहा पीछे तैसे ही निरतर अनंत बार अगृहीत का ग्रहण करि एक वार गृहीत का ग्रहण कर, याहीतै तीसरा कोठा विषै दोय बिदी पर एक का अक लिख्या । बहुरि अगृहीत ग्रहण आदि अनुक्रम तै जसै यह एक बार गृहीत ग्रहण भया, तैसे ही अनुक्रम ते एक - एक बार गृहीत ग्रहण करि अनंत बार गृहीत ग्रहण हो है । याहीत जसै तीन कोठे पहिले लिखे थे, तैसे ही अनंत की सहनानी के निमित्त दसरा तीन कोठे लिखे, सो असे होते प्रथम परिवर्तन भया । तातें इतना प्रथमपंक्ति विप लिखा।
अव दूसरी पंक्ति का अर्थ दिखाइए है - पूर्वोक्त अनुक्रम भए पीछे निरंतर अनंत बार मिश्र ग्रहण करै, तब एक बार अगृहीत ग्रहण करै । यात प्रथम कोठा विर्षे
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ૬૪e
दो हंसपद पर एक बिंदी लिखी । बहुरि निरंतर अनंत बार मिश्र ग्रहण करि, एक बार गृहीत ग्रहण करें, सो इस ही क्रम 'अनंत बार अगृहीत ग्रहण करें; याते पहला कोठा सारिखा दूसरा कोठा लिख्या ।
बहुरि तहां पीछे निरंतर अनंत बार मिश्र ग्रहण करि एक बार गृहीत ग्रहण करें । यातें तीसरा कोठा विषै दोय हंसपद भर एक एक का अंक लिख्या । सो मिश्र ग्रहण आदि पूर्वोक्त सर्व अनुक्रम लीए, एक एक बार गृहीत ग्रहण होइ, सो असे गृहीत ग्रहरण भी अनंत बार हो है । याते जैसे पहिले तीन कोठे लिखे थे, तैसे ही दूसरा तीन कोठे लिखे ; असे होत संतें दूसरा परिवर्तन भया ।
अब तीसरी पंक्ति का अर्थ दिखाइए है - पूर्वोक्त क्रम भए पीछे निरतर अनंत बार मिश्र का ग्रहण करि एक बार गृहीत का ग्रहण करें; यातं प्रथम कोठा विष दो हंसपद अर एक-एक का अंक लिख्या, सो अनंत अनंत बार मिश्र ग्रहण करि करि एक एक बार गृहीत ग्रहण करि अनंत बार गृहीत ग्रहरण हो है । याते पहिला कोठा सारिखा दूसरा कोठा लिख्या । बहुरि अनंत बार मिश्रका ग्रहण करि एक बार भगहीत का ग्रहण करें । याते तीसरा कोठा विषै दोय हंसपद पर एक बिदी लिखी; सो जंसें मिश्र ग्रहरणादि अनुक्रम तें एक बार अगृहीत का ग्रहण भया, तैसे ही एक एक बार करि अनत बार अगृहीत का ग्रहण हो है । ताते पहिले तीन कोठे थे, तसे ही दूसरा तीन कोठे लिखे ; असे होत सतै तीसरा परिवर्तन भया ।
आगे चौथी पंक्ति का अर्थ दिखाइए है- पूर्वोक्त क्रम भए पीछे निरतर ग्रनत बार गृहीत का ग्रहण करि एक बार मिश्र का ग्रहण करें, यातै प्रथम कोठा विषै दोय एका अर एक हंसपद लिख्या है । सो अनंत अनंत बार गृहीत का ग्रहण करि करि एक एक बार मिश्र ग्रहण करि अनंत बार मिश्र का ग्रहण हो है । यात प्रथम कोठा सारिखा दूसरा कोठा कीया । बहुरि तहा पीछें अनंत बार गृहीत का ग्रहण करि एक बार अगृहीत का ग्रहण करें; यातै तीसरा कोठा विषै दोय एका अर एक बिंदी लिखी । बहुरि चतुर्थ परिवर्तन की आदि ते जैसा अनुक्रम करि यहु एक बार मगहीत ग्रहण भया । तैसें ही अनुक्रम ते अनंत बार अगृहीत ग्रहण होइ, यात पहिले तीन कोठे कीए थे, तैसे ही मागे अनंत बार की सहनानी के अथि दूसरा तीन कोठे की । असे होते संते चतुर्थ परिवर्तन भया । बहुरि तीहि चतुर्थ परिवर्तन का धनतर समय विषै विवक्षित नोकर्म द्रव्य परिवर्तन के पहिले समय विपे जे द्गन गि
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५६. ६५० ] स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण, गधादि भाव को लीए ग्रहण कीए थे; तेई पुद्गल. तिस ही स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण गंधादि भाव को लीए शुद्ध गृहीतरूप ग्रहण कीजिए है; सो यह सब मिल्या हुवा संपूर्ण नोकर्म द्रव्य परिवर्तन जानना ।
आगे कर्म पुद्गल परिवर्तन कहिए है-किसी जीवने एक समय विर्षे आठ प्रकार कर्मरूप जे पुद्गल ग्रहे, ते एक समय अधिक ओवली प्रमाण आबाधा काल को गए पीछे द्वितीयादि समयनि विष निर्जरारूप कीए, पीछे जैसा अनुक्रम आदि तै लगाइ, अंत पर्यंत नोकर्म द्रव्य परिवर्तन विष कह्या, तैसा ही अनुक्रम सर्व चारयो परिवर्तन संबंधी इस कर्म द्रव्य परिवर्तन विष जानना ।
। विशेष इतना-तहां नोकर्म सबंधी पुद्गल थे,इहां कर्म संबंधी पुद्गल जानने । अनुक्रम विषै किछू विशेष नाही । पीछे पहिले समय जैसे पुद्गल ग्रहे थे, तेई पुद्गल तिस ही भाव को लीए, चतुर्थ परिवर्तन के अनतर समय विर्षे ग्रहण होइ; सो यहु सर्व मिल्या हवा संपूर्ण कर्म परिवर्तन जानना । इस द्रव्य परिवर्तन को पुद्गल परिवर्तन भी कहिए है । सो नोकर्म पुद्गल परिवर्तन का अर कर्मपुद्गल परिवर्तन का काल समान है । बहुरि इहां इतनां जानना - पूर्व जो कम कह्या, तहा जैसे पहिले अनत वार अगृहीत का ग्रहण कह्या, तहा वीचि वीचि मे गृहीत' ग्रहण वा मिश्र ग्रहण भी होइ, सो अनुक्रम विष तो पहिली बार अर दूसरी बार आदि जो अगृहीत ग्रहण होइ, सोई गिणने मे आ है । अर काल परिमाण विषे गृहीत, मिश्र ग्रहण का समय सहित सर्व काल गिणने मे आवै है । जिनि समयनि विर्षे गृहीत का ग्रहण है, ते समय गृहीत ग्रहण के काल विष गिणने मे आवै है। जिनि समयनि विष मिश्र का ग्रहण हो है, ते समय मिश्र ग्रहण के काल विर्ष गिणने में आवै है। जिन समयनि विपै अगृहीत ग्रहण हो है, ते समय अगृहीत ग्रहण काल विष गिणने मे आवै है; सो यह उदाहरण कह्या है; असे ही सर्वत्र जानना । क्रम विष तौ जैसा अनुक्रम कह्या होइ, तैसै होइ, तब ही गिणने में आवै । अर तिस अनुक्रम के बीचि कोई अन्यरूप प्रवत, सो अनुक्रम विर्षे गिणने मे नाही । अर जिनि समयनि विषै अन्यरूप भी प्रवतें है, तिनि समयनिरूप जो काल, सो परिवर्तन का काल विष गिणने मे आवै ही है । जैसे ही क्षेत्रादि परिवर्तन विर्ष भी जानना ।
जैसे क्षेत्र परिवर्तन विष किसी जीवने जघन्य अवगाहना पाई, परिवर्तन प्रारंभ कीया, पीछे केते एक काल अनुक्रम रहित अवगाहना पाई, पीछे अनुक्रमरूप अवगा
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६५१ हना कौं प्राप्त भया, तहां क्षेत्र परिवर्तन का अनुक्रम विषै तौ पहिले जघन्य अवगाहना पाई थी, अर पीछे दूसरी बार अनुक्रमरूप अवगाहना पाई, सो गिणने मे आव है । अर क्षेत्र परिवर्तन का काल विर्ष बीचि में अनुक्रम रहित अवगाहना पावने का काल सहित सर्व काल गिणने में आवै है । जैसे ही सर्व विष जानि लेना।
अब इहा द्रव्य परिवर्तन विष काल का परिमाण कहै है । तहा अगृहीत ग्रहण का काल अनंत है; तथापि यह सर्व ते स्तोक है । जातै जिनि पुद्गलनि स्यौ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि का संस्कार नष्ट है, ते पुद्गल बहुत बार ग्रहण में आवते नाही, याही ते विवक्षित पुद्गल परिवर्तन के मध्य गृहीत पुद्गलनि का ही बहुत बार ग्रहण संभव है । सोई कह्या है -
सुहुमढिदिसंजुत्तं, आसण्णं कम्मणिज्जरामुक्कं ।
पाएण एदि गहणं, दव्वमरिणहिट्ठसंठाणं ॥
जे पुद्गल कर्मरूप परिणए थे, अर जिनकी स्थिति थोरी थी, अर निर्जरा होते कर्म अवस्था करि रहित भए है अर जीव के प्रदशनि स्यो एक क्षेत्रावगाही तिष्ठे है, अर संस्थान आकार जिनिका कह्या न जाय अर विवक्षित पुद्गल परिवर्तन का पहिला समय विष जिस स्वरूप ग्रहण में आए, तिसकरि रहित होंइ, असे पुद्गल, जीव करि बाहुल्य पनै समयप्रबद्धनि विर्ष ग्रहण कीजिए है । असा नियम नाहीं, जो जैसे ही पुद्गलनि का ग्रहण करै, परतु बहुत वार असे ही पुद्गलनि का ग्रहण हो है, जातें ए पुद्गल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का सस्कार करि सयुक्त है।
बहुरि अगृहीत ग्रहण के काल ते मिश्र ग्रहण का काल अनत गुणा है । वहुरि तिस मिश्र ग्रहण के काल ते गृहीत ग्रहण का जघन्यकाल अनत गुणा है । बहुरि तिस ते सर्व पुद्गल परिवर्तन का जघन्य काल किछ अधिक है । जघन्य गृहीत ग्रहण काल को अनत का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितना जघन्य गृहीत ग्रहण काल विर्ष मिलाइए, तब जघन्य पुद्गल परिवर्तन का काल हो है । बहुरि तिसतं गृहीत ग्रहण फा उत्कृष्ट काल अनत गुणा है, बहुरि तात संपूर्ण पुद्गल परिवर्तन का उत्कृष्ट गान किछ अधिक है । उत्कृष्ट गृहीत ग्रहण काल को अनत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितना उत्कृष्ट गृहीत ग्रहण काल विष मिलाइए, तव उत्कृष्ट पुद्गत परिवर्तन का काल हो है । इहां अगृहीत ग्रहण काल अर मिश्र ग्रहण काल विप नपन्य 33
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६५२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाड गाथा ५६० ष्टपना नाही है । जाते परंपरा सिद्धांत विष तिनके जघन्य उत्कृष्टपने का उपदेश का अभाव है। ... इहां प्रासंगिक (उक्त च) गाथा कहैं हैं
अगहिदमिस्सं गहिद, मिस्समगहिदं तहेव गहिदं च ।
मिस्सं गहिदमगहिवं, गहिद मिस्सं अगहिदं च ।। पहिला - अगृहीत, मिश्र, गृहीतरूप; दूसरा - मिश्र, अगृहीत, गृहीतरूप; तीसरा - मिश्र, गृहीत, अगृहीतरूप; चौथा - गृहीत, मिश्र, अगृहीतरूप परिवर्तन भए द्रव्य परिवर्तन हो है । सो विशदरूप पूर्वे करा ही है। उक्तंच (आर्या छंद)
सर्वेऽपि पुद्गलाः, खल्वेकेनात्तोज्झिताश्च जीवेन ।
ह्यसकृत्त्वनंतकृत्वः, पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ एक जीव पुद्गल परिवर्तनरूप संसार विष यथा योग्य सर्व पुद्गल वारंवार अनंत वार ग्रहि छांडै है।
आगे क्षेत्र परिवर्तन कहिए हैं - सो क्षेत्रपरिवर्तन दोय प्रकार - एक स्वक्षेत्र परिवर्तन, एक परक्षेत्र परिवर्तन ।
तहां स्वक्षेत्र परिवर्तन कहिए हैं - कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया की जघन्य अवगाहना को धारि उपज्या, अपना सांस का अठारहवां भाग प्रमाण आयु कौं भोगि मूवा, बहुरि तिस ते एक प्रदेश बधती अवगाहना कौं धरै, पीछे दोय प्रदेश बधती अवगाहना की धरै, असे एक - एक प्रदेश अनुक्रम ते बधती - बधती महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यंत सख्यात धनांगुल प्रमाण अवगाहना के भेदनि कौं सोई जीव प्राप्त होइ । जे अवगाहना के भेद है, ते सर्व एक जीव अनुक्रम ते यावत्काल विर्षे धारै, सो यहु सर्व समुदायरूप स्वक्षेत्र परिवर्तन जानना।
अब परक्षेत्र परिवर्तन कहिये हैं
सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक जघन्य अवगाहनारूप शरीर का धारक सो लोकाकाश के मध्य जे आठ आकाश के प्रदेश है, तिनको अपने शरीर की भवगा हना के मध्यवर्ती आठ प्रदेश करि अवशेष, उनके निकटवर्ती अन्य प्रदेश, तिवकों रोक करि उपज्या, सांस का अठारहवां भाग मात्र क्षुद्र भव काल जीय करि मूवा । बहुरि सोई जीव तैसे ही अवगाहना को धारि, तिस ही क्षेत्र विषै दूसरा उपज्या, सो असे
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६६२ }
[ गोम्मटसार जीवकाण्ठ गाया ५६५-५६६
परमाणू गोल कह्या है; सो यहु षट्कोण को लीए आकार गोल क्षेत्र ही का भेद है, तातै गोल कला है । जैसे अणू वा स्कंधरूप पुद्गल द्रव्य तो रूपी ग्रजीव द्रव्य जानना । बहुरि धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य ए चार्या ग्ररूपी अजीव द्रव्य जानने इति । नामाधिकार ।
उवजोगो वण्णचऊ, लक्खरणमिह जीवपोग्गलाखं तु । गदिठाणोग्गहवत्तणकिरियुवयारो दु धम्मचऊ ॥ ५६५॥
उपयोगो वर्णचतुष्कं लक्षणमिह जीवपुद्गलानां तु । गतिस्थानावगाहवर्तन क्रियोपकारस्तु धर्मचतुर्णाम् ॥५६५ ॥
टीका - द्रव्यनि के लक्षण कहै है । तहां जीव श्रर पुद्गलनि के लक्षण (क्रमशः ) उपयोग र वर्ण चतुष्क जानना । तहां दर्शन ज्ञान उपयोग जीवनि का लक्षरण है । वर्ण, गंध, रस, स्पर्श पुद्गलनि का लक्षण है । बहुरि गति, स्थान, अवगाह, वर्तनारूप क्रिया का उपकार ते धर्मादिक च्यारि द्रव्यनि के लक्षण हैं । तहां गतिहेतुत्त्व धर्म द्रव्य का लक्षण हैं । स्थितिहेतुत्व अधर्मं द्रव्य का लक्षण है । अवगाह हेतुत्व आकाश द्रव्य का लक्षण है । वर्तनाहेतुत्व काल द्रव्य का लक्षण है ।
गावठाणोग्गहकिरिया, जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे ।
धम्मतियेण हि किरिया, मुक्खा पुण साधना होंति ॥५६६ ॥
गतिस्थानावगाहक्रिया, जीवानां पुद्गलानामेव भवेत् ।
धर्मत्रिके न हि क्रिया, मुख्याः पुनः साधका भवंति ॥५६६ ॥
टीका गति, स्थिति, अवगाह ए तीन क्रिया जीव अर पुद्गल ही के पाइए है । तहाँ प्रदेश ते प्रदेशातर विषै प्राप्त होना, सो गति क्रिया है । गमन करि कही तिष्ठना, सो स्थिति क्रिया है । गति-स्थिति लीए वास करना, सो अवगाह क्रिया जानना | बहुरि धर्म, अधर्म, आकाश विषे ए क्रिया नाही है; जाते इनके स्थान चलन प्रदेशचलन का अभाव है । तहां अपने स्थान को छोडि अन्य स्थान होना, सो स्थानचलन कहिए । प्रदेशनि का चंचलरूप होना सो प्रदेशचलन कहिए । बहुरि धर्मादिक द्रव्य गति, स्थिति, अवगाह क्रिया के मुख्य साधक हैं ।
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[ ६६३
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका |
जीव पुद्गलनि के जो गति, स्थिति, अवगाह क्रिया हो है; ताकौ निमित्त मात्र ही है, सो कहिए है -
जत्तस्स पहं ठत्तस्स, आसणं णिवसगस्सं वसदी वा । गदिठाणोग्गहकरणे, धम्मतियं साधगं होदि ॥ ५६७॥
यातस्य पंथाः तिष्ठतः, श्रासनं निवसकस्य वसतिर्वा । गतिस्थानावगाहकरणे, धर्मत्रयं साधकं भवति ।। ५६७।।
टीक - जैसे गमन करनेवालों को पंथा जो मार्ग, सो कारण है । तिष्ठनेवालो कौ आसन जो स्थान, सो कारण है । निवास करनेवालों को वसतिका जो वसने का क्षेत्र, सो कारण है । तैसे गति, स्थिति, अवगाह के कारण धर्मादिक द्रव्य है । जैसे ते पंथादिक आप गमनादि नाही कर है; जीवनि को प्रेरक होइ गमनादि नाई करावे है । स्वयमेव जे गमनादि करें, तिनको कारणभूत हो है । सो कारण इतना ही, जो जहां पंथादिक होंइ, तहां ही वे गमनादिरूप प्रवर्ते । तेसे धर्मादिक द्रव्य आप गमनादि नाही करें है; पुद्गलनि को प्रेरक होइ गमनादिक क्रिया नाही करावे हैं; स्वयमेव ही गमनादिक क्रियारूप प्रवर्तते जे जीव पुद्गल, तिनको सहकारी कारण हो है । सो कारण इतना ही जो धर्मादिक द्रव्य जहां होइ, तहां हो गमनादि क्रियारूप जीव पुद्गल प्रवतै है |
वत्तणहेतू कालो, वत्तणगुरगमविय दव्वणिचयेसु । कालाधारेणेव य, वट्टति हु सव्वदव्वाणि ॥५६८ ||
वर्तनाहेतु. कालः, वर्तनागुणमवेहि द्रव्यनिचयेषु । कालाधारेणैव च वर्तते हि सर्वद्रव्याणि ॥५६८ ।।
टीका - रिच् प्रत्य सयुक्त जो वृतञ् धातु, ताका कर्म विषै वा भाव विष वर्तना शब्द निपजै है, सो याका अर्थ यह जो वर्तें वा वर्तन मात्र होइ, ताकी वर्तना कहिए । सो धर्मादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायनि की निष्पत्ति वियं स्वयमेव वर्तमान है । तिनकै बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति संभवे नाही, तातं तिनके, तिस प्रवृत्ति करावने को कारण काल द्रव्य है; जैसे वर्तना काल का उपकार जानना । इहा रिच प्रत्यय का अर्थ यहु - जो द्रव्यनि का पर्याय वर्त है, ताका वर्ताविनेवाला
काल 1
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६६४ ]
[गोम्मटसार जीवकार गापा १६८ तहां प्रश्न - जो जैसे शिष्य पढे है; पर उपाध्याय पढावै है । तहां दोऊनिकै पठनक्रिया देखिए है । तैसै धर्मादिक द्रव्य प्रवर्ते है पर काल प्रवर्ताव है; तौ धर्मादिक द्रव्य की ज्यौ काल के भी तिनि पर्यायनि का प्रवर्तनरूप क्रिया का सद्भाव आया।
तहां उत्तर ~ जो असे नाही है । इहां निमित्तमात्र वस्तु को हेतु का कर्ता कहिए है । जैसे शीतकाल विर्षे शीत करि शिष्य पढने को समर्थन भए; तहां कारीषा के अग्नि का निमित्त भया । तब वे पढने लग गए । तहा निमित्त मात्र देखि असा कहिए जो कारीषा की अग्नि शिष्यनि को पढावै है; सो कारीपा की अग्नि आप पढनेरूप क्रियावान न हो है । तिनिके पढने को निमित्तमात्र है । तैसे काल आप क्रियावान न हो है । काल के निमित्त ते वे स्वयमेव परिणवै हैं । तात असा कहिए है। जो तिनिकौ काल प्रवर्ताव है।
बहुरि तिस काल का निश्चय कैसे होइ ?
सो कहिए है - समय, घडी इत्यादिक क्रियाविशेष, तिनिको लोक विष समया'दिक कहिए है । बहुरि समय, घडी इत्यादि करि जे पचनादि क्रिया होंइ, तिनिको लोक विषै पाकादिक कहिए है। तहा तिनि विष काल असा जो शब्द आरोपण कीजिए है । समय काल, घडी काल, पाक काल इत्यादि कहिए है, सो यह व्यवहार काल मुख्य काल का अस्तित्व को कहै है । जातै गौण है, सो मुख्य की सापेक्षा की धरै है। जैसे किसी पुरुष को सिह कह्या, तौ तहां जानिए है, जो कोई सिंह नामा पदार्थ जगत विषै पाइए है । जैसे काल का निश्चय कीजिए है । प्रत्यक्ष केवली जान है ।
___ बहुरि षट् द्रव्य की वर्तना कौं कारण मुख्य काल है । वर्तना गुण द्रव्यसमूह विष ही पाइए है; जैसे होते काल का आधार करि सर्व द्रव्य प्रवर्ते है । अपने अपने पर्यायरूप परिणमैं है; यातै परिणमनरूप जो क्रिया, ताकों परत्व पर अपरत्व जो आगे पीछेपना, सो काल का उपकार है।
इहां प्रश्न जो क्रिया का परत्व - अपरत्व तौ जीव पुद्गल विर्षे है, धर्मादिक अमूर्तीक द्रव्यनि विर्ष कैसे संभवै ? सो कहै हैं।
१. तत्वार्थसत्र मे-वर्तनापरिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' भ.५ सूत्र २२,।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका
धम्माधम्मावीणं, अगुरुगलहुगं तु हिं वि वड्ढोहि । हाणीहिं वि वड्ढंतो, हायंतो बट्टदे जम्हा ॥५६॥
धर्म धर्मादीनामगुरुकलघुकं तु षड्भिरपि वृद्धिभिः ।
हानिभिरपि वर्धमानं हीयमानं वर्तते यस्मात् ॥५६९।। टोका-जातै धर्म अधर्मादिक द्रव्यनि के अपने द्रव्यत्व को कारणभूत शक्ति के विशेप रूप जे अगुरुलघु नामा गुण के अविभाग प्रतिच्छेद, ते अनत भागवृद्धि प्रादि पदस्थान प्रतित वृद्धि करि तौ बधै है । पर अनंतभागहानि आदि पदस्थान पतित हानि करि घटै है, तातै तहा असै परिणमन विष भी मुख्य काल ही की कारण जानना ।
ण य परिणमदि सयं सो, ग य परिणामेइ अण्णमहि । विविहपरिणामियाणं, हवदि हु कालो सयं हेदू ॥५७०॥
न च परिणमति स्वयं स, न च परिणमयति अन्यदन्यः ।
विविधपरिणामिकानां, भवति हि कालः स्वयं हेतुः ।।५७०।। टीका - सो कालसंक्रम जो पलटना, ताका विधान करि अपने गुणनि करि परद्रव्यरूप होइ नाही परिणवै है । वहुरि परद्रव्य के गुणनि को अपने विसं नाही परिणमाव है । बहुरि हेतुकर्ता प्रेरक होइकरि भी अन्य द्रव्य को अन्य गुणनि करि सहित नाही परिणमावै है। तो नानाप्रकार परिणमनि को धरै जे द्रव्य स्वयमेव परिणमें है, तिनको उदासीन सहज निमित्त मात्र हो है। जैसे मनुष्य के प्रभात नरंभी क्रिया को प्रभातकाल कारण है। क्रियारूप तौ स्वमेव मनुष्य ही प्रवत है. परन्तु तिनिको निमित्त मात्र प्रभात का काल हो है, तैसे जानना।
कालं अस्सिय दव्वं, सगसगपज्जायपरिणदं होदि। पज्जायावट्ठाणं, सुद्धरणये होदि खणमेतं ॥५७१॥
कालमाश्रित्य द्रव्यं, स्वकस्वकपर्यायपरिणत भवति ।
पर्यायावस्थानं, शुद्धनयेन भवति क्षरणमात्रम् ॥५॥ टीका - काल का निमित्तरूप पायव पाड, जीवारिः .. ... .
.मी कीय पर्यायरूप परिणए है। तिस पर्याय का जो मवमान:. ऋजुसूत्रनय करि अर्थ पर्याय अपेक्षा एक समर नामनामना ।
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५७२-५७३ ववहारो या वियप्पो, भेदो तह पज्जनो ति एयट्ठो। ववहार-बहारम-दिदी हु ववहारकालो दु ॥५७२॥
व्यवहारश्च विकल्पो, भेदस्तथा पर्याय इत्येकार्थः ।
व्यवहारावस्थानस्थितिहि व्यवहारकालस्तु ॥५७२॥ टीका - व्यवहार पर विकल्प अर भेद पर पर्याय ए सर्व एकार्थ है। इनि शब्दनि का एक अर्थ है । तहा व्यजन पर्याय का अवस्थान जो वर्तमानपना, ताकरि स्थिति जो काल का परिमाण, सोई व्यवहार काल है ।
अवरा पज्जायठिदी, खणमेत्तं होदि तं च समो त्ति । होण्हमणूणमदिक्कमकालपमाणं हवे सो दु॥५७३॥
अवरा पर्यायस्थितिः, क्षणमात्रं भवति सा च समय इति । द्वयोरण्वोरलिकमकालप्रमाणं भवेत् स तु ॥५७३॥
टीका - द्रव्यनि के जघन्य पर्याय की स्थिति क्षण मात्र है । सो क्षण नाम समय का है । समीप तिष्ठती दोय परमाणू मद गमनरूप परिणई, जेता काल विर्षे परस्पर उल्लघन करै, तिस काल प्रमाण का नाम समय है।
इहा प्रसग पाइ दोय गाथा कहै है
गभ एय पयेसत्थो, परमाणू मंदगइपवट्टतो।
वीयमणंतरखेत्तं, जावदियं जाति तं समयकालो॥१॥
आकाश का एक प्रदेश विर्षे तिष्ठता परमाणू मंदगतिरूप परिणई, सो तिस प्रदेश के अनतरि दूसरा प्रदेश, ताको जेता काल करि प्राप्त होइ, सो समय नामा काल है।
सो प्रदेश कितना है ? सो कहै है
जेत्ती वि खेत्तमेतं, अणुरणा रुद्धं खु गयरणदव्वं च । तंज पदेसं भरिणयं, अवरावरकारणं जस्स ॥२॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६६७
जिस परमाणू के आगे पीछे को कारण अँसा आकाश द्रव्य आकाश विषं अंसा कहिए है, जो यहु आकाश इस परमाणू के आगे है, यहु पोछे है, सो आकाश द्रव्य, तिस परमाणू करि जितना रुके, व्याप्त होइ, तिस क्षेत्र का नाम प्रदेश कह्या 1
आगे व्यवहार काल को कहै है --
श्रावलि संखसमया संखेज्जावलिसमूहमुस्सासो । सत्तुस्सासा थोवो, सत्तत्थोवा लवो भणियो ।। ५७४ ॥
श्रावलिरसंख्यसमया, संख्येयावलिसमूह उच्छ्वासः । सप्तोच्छ्वासाः स्तोकः, सप्तस्तोका लवो भरितः ॥ ५७४ ||
टीका - जघन्ययुक्तासंख्यात प्रमाण समय, तिनिका समूह, सो श्रावली है । बहुरि सख्यात प्रावली का समूह सो उश्वास है । सो उश्वास कैसा है ?
उक्त ं च---
अड्ढस्स अरगलसस्स य णिरुवहदस्स य हवेज्ज जीवस्स । उसासारिणस्सासो, एगो पाणो त्ति आहीदो ॥ १ ॥
जो कोई मनुष्य आढ्य-सुखी होइ, ग्रालस्य रोगादि करि रहित होइ, स्वा
धीन होइ, ताका सासोस्वास नामा एक प्राण कया है, बहुरि सात उस्वास का समूह, सो स्तोक नामा काल है । का समूह, सो लव नामा काल है ।
अट्ठत्तीसद्धलवा, नाली बेनालियो मुहुत्तं तु । एगसमयेण हीणं, भिण्णमुहुत्तं तदो सेसं ॥५७५॥
दिर्धलवा, नाली द्विनालिको मुहूर्तस्तु । एकसमयेन हीनो, भिन्नमुहूर्तस्ततः शेषः ||५७५ ॥
टीका का है । बहुरि दो
ताका काल जानना । बहुरि सात स्तोक का
---
साढा अडतीस लवनि का समूह, सोनाली है । नाली नाम घटिका घटिका समूह, सो मुहूर्त है । इस मुहूर्त में एक समय घटाइये तब
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६६८ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५७६-५७७ भिन्न मुहूर्त हो है वा याको उत्कृष्ट अतर्मुहूर्त कहिए। यातें आगे दोय समय घाटि मुहूर्त आदि अंतर्मुहूर्त के विशेष जानने । इहां प्रासांगिक गाथा कहै है--
ससमयमावलिअवरं, समऊरणमुहत्तयं तु उक्कस्सं ।
मज्झासंखवियप्पं, वियारण अंतोमुत्तमिणं ॥
एक समय अधिक आवली मात्र जघन्य अंतर्मुहूर्त है । बहुरि एक समय घाटि मुहूर्त मात्र उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है। मध्य समय विर्ष दोय समय सहित आवली तै लगाइ, दोय समय घाटि मुहूर्त पर्यत असंख्यात भेद लीए, मध्य अंतर्मुहूर्त है । जैसे जानहु ।
दिवसो पक्खो मासो, उडु अयणं वस्समेवमादी हु। संखेज्जासंखज्जारणंताओ होदि ववहारो ॥५७६॥
दिवसः पक्षो मासः, ऋतुरयनं वर्षमेवमादिहि ।
संख्येयासंख्येयानंता भवंति व्यवहाराः ॥५७६॥ टीका - तीस मुहूर्त मात्र अहोरात्र है। मुख्यपनै पंचदश अहोरात्र मात्र पक्ष है । दोय पक्ष मात्र एक मास है । दोय मास मात्र एक ऋतु हो है । तीन ऋतु मात्र एक अयन हो है । दोय अयन मात्र एक वर्ष हो है । इत्यादि आवली ते लगाइ संख्यात, असंख्यात, अनंत पर्यंत अनुक्रम ते श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, केवलज्ञान का विषय भूत व्यवहार काल जानना ।
ववहारो पुण कालो, माणुसखेत्तम्हि जाणिदव्वो दु । जोइसियारणं चारे, ववहारो खलु ससाणो त्ति ॥५७७॥
व्यवहारः पुनः कालः, मानुषक्षेत्रे ज्ञातव्यस्तु ।
ज्योतिष्कारणां चारे, व्यवहारः खलु समान इति ॥५७७॥ टीका - बहुरि व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र विषै प्रगटरूप जानने योग्य हैं; जाते मनुष्यक्षेत्र विर्षे ज्योतिषी देवनि का चलने का काल अर व्यवहार काल समान है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
ववहारो पुण तिविहो, तीदो वट्टतगो भविस्सो दु । तोदो संखेज्जावलिहदसिद्धाणं पमाणो दु ॥ ५७८ ॥
व्यवहारः पुनस्त्रिविधोऽतीतो वर्तमानो भविष्यंस्तु । अतीतः संख्येयावलिहतसिद्धानां प्रमाणं तु ।।५७८ ।।
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टीका • बहुरि व्यवहार काल तीन प्रकार है अतीत, अनागत, वर्तमान । तहां अतीत काल सिद्ध राशि को संख्यात आवली करि गुण, जो प्रमारण होइ, तितना जानना | कैसे ? सो कहिए है - छह महीना र आठ समय माही छ से आठ जीव सिद्ध हो है; तो जीव राशि के अनंतवे भाग प्रमारण सर्व सिद्ध केते काल में भये ? असे त्रैराशिक करना । तहां प्रमाण राशि छ से आठ, फलराशि छह महीना आठ समय, इच्छा राशि सिद्धनि का प्रमाण, सो फल राशि को इच्छाराशि करि गुणे, प्रमाणराशि का भाग दीए, लब्धराशि संख्यात आवली करि सिद्धनि को गुण जो प्रमाण होइ, तितना आया । सोई अनादि तै लगाइ अतीत काल का परिमाण जानना ।
समयो हु वट्टमारणो, जीवादी सव्वषुग्गलादो वि । भावी तरिणदो, इदि ववहारो हने कालो ॥५७६ ॥
समयो हि वर्तमानो, जीवात् सर्वपुद्गलादपि ।
भावी अनन्तगुणित, इति व्यवहारो भवेत्कालः ।। ५७६ ॥
टीका - वर्तमान काल एक समय मात्र जानना । बहुरि भावी जो अनागत काल, सो सर्व जोवराशि ते वा सर्व पुद्गलराशि तै भी अनंतगुणा जानना । असें व्यवहार काल तीन प्रकार कह्या ।
कालो वि य ववएसो, सब्भारूवओ हवदि णिच्चो । उप्पण्णप्पद्धंसी, अवरो दीहंतरट्ठाई ॥ ५८० ॥
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काल इति च व्यपदेशः, सद्भावप्ररूपको भवति नित्यः । उत्पन्नप्रध्वंसी अपरो दीर्घान्तरस्थायी ॥ ५८० ॥
टीका काल असा जो लोक विषै कहना है, सो मुख्य काल का अस्तित्व का कहनहारा है । मुख्य बिना गौण भी न होइ । जो सिंह पदार्थ ही न होइ तो यहु पुरुष सिंह औसा कैसे कहने में आवै सो मुख्य काल द्रव्य करि नित्य है, तथापि पर्याय
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६७० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५८१-५८२ करि ऊत्पाद व्यय को धरै है । तात उत्पन्न-प्रध्वंसी कहिए है । बहुरि व्यवहार काल है, सो वर्तमान काल अपेक्षा उत्पाद - व्यय रूप है । तातै उत्पन्न-प्रध्वंसी है । बहुरि अतीत, अनागत, अपेक्षा बहुत काल स्थिति कौं धरै है । तातै दीतिर स्थायी है। इहां प्रासागिक श्लोक कहिये है
निमित्तमांतरं तत्र, योग्यता वस्तुनि स्थिता ।
बहिनिश्चयकालस्तु, निश्चितं तत्वशिभिः ॥ तीहिं वस्तु विष तिष्ठती परिणमनरूप जो योग्यता, सो अंतरंग निमित्त है । बहुरि तिस परिणमन का निश्चय काल बाह्य निमित्त है । असै तत्त्वदर्शीनि करि निश्चय कीया है । इत्युपलक्षणानुवादाधिकारः ।
छहव्वावट्ठाणं, सरिसं तियकालअत्थपज्जाये। वेंजणपज्जाये वा, मिलिदे ताणं ठिदित्तादो ॥५८१॥
षड्द्रव्यावस्थानं, सदृशं त्रिकालार्थपर्याये ।
व्यंजनपर्याये वा, मिलिते तेषां स्थितित्वात् ॥५८१॥ टीका - अवस्थान नाम स्थिति का है; सो षट् द्रव्यनि का अवस्थान समान है । काहे ते ? सो कहिए है - सूक्ष्म वचन अगोचर क्षणस्थायी असे तौ अर्थपर्याय अर स्थूल, वचन गोचर चिरस्थायी जैसे व्यंजन पर्याय, सो त्रिकाल संबंधी अर्थ पर्याय वा व्यंजन पर्याय मिले, तिनि सर्व ही द्रव्यनि की स्थिति हो है । तातै सर्व द्रव्यनि का अवस्थान समान कह्या । सर्व द्रव्य अनादिनिधन है।
आगे इस ही अर्थ को दृढ करै हैएय-दवियम्मि जे, अत्थ-पज्जया वियण-पज्जया चा वि । तीदाणागद-भूदा, तावदियं तं हवदि दवं ॥५८२॥
एकद्रव्ये ये, अर्थपर्याया व्यंजनपर्यायाश्चापि । अतीतानागतभूताः तावत्तद् भवति द्रव्यम् ॥५८२॥
पट्सडागम-ववला पुस्तक १, पृष्ठ ३८८ गाथा सं० १६६
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
टीका - एक द्रव्य विर्ष जे गुणनि के परिणमनरूप पस्थानपतित वृद्धिहानि लीए अर्थ पर्याय, बहुरि द्रव्य के आकारादि परिणमनरूप व्यंजन पर्याय, ते अतीत-अनागत अपि शब्द ते वर्तमान संबधी यावन्मात्र है; तावन्मात्र द्रव्य जानना । जातें द्रव्य तिनतै जुदा है नाही, सर्व पर्यायनि का समूह सोई द्रव्य है । इति स्थित्यधिकारः।
आगासं वज्जित्ता, सव्वे लोगम्मि चेव णत्थि बहिं । वावी धम्माधम्मा, णवद्विदा अचलिदा णिच्चा ॥५८३॥
आकाशं वर्जयित्वा, सर्वाणि लोके चैव न संति बहिः। व्यापिनी धर्माधप्तौं, अवस्थितावचलितौ नित्यौ ॥५८३॥
टीका - अब क्षेत्र कहै है; सो आकाश बिना अवशेष सर्वद्रव्य लोक विप ही हैं, बाह्य अलोक विष नाही है। तिन विष धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य तिल विप तेल की ज्यों सर्व लोक विष व्याप्त है। तातै व्यापी कहिए । बहुरि निजस्थान ते स्थानांतर विषै चले नाही है; तातें अवस्थित है। बहुरि एक स्थान विप भी प्रदेशनि का चंचलपना, तिनके नाही है; तातै प्रचलित है । बहुरि त्रिकाल विषै विनाश नाही हे; तातै नित्य है । असे धर्म, अधर्म द्रव्य जानने । इहां प्रासगिक श्लोक--
औपश्लेषिकवैषयिकावभिव्यापक इत्यपि ।
आधारस्त्रिविधः प्रोक्तः, कटाकाशतिलेषु च ॥
आधार तीन प्रकार है - औपश्लेषिक, वैपयिक, अभिव्यापक । तहां चटाई विष कुमार सोवै है, असा कहिए, तहा औपश्लेषिक आधार जानना । बहुरि आकारा विष घटादिक द्रव्य तिष्ठं हैं, जैसा कहिए, तहां वैपयिक आधार जानना । वहुरि तिल विषै तेल है, असा कहिए; तहां अभिव्यापक प्राधार जानना । सो इहा तिलनि विर्षे तेल की ज्यों लोकाकाश के सर्व प्रदेशनि विप धर्म, अधर्म द्रव्य अपने प्रदेशनि करि व्याप्त है। तातै इहां अभिव्यापक प्राधार है। याही ते प्राचार्यनै धर्म अधर्म द्रव्य को व्यापी कह्या है।
लोगस्स असंखेज्जदिभागप्पहुदि तु सव्वलोगो त्ति। अप्पपदेसविप्पणसंहारे वावडो जीवो ॥५८४॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५८५
६७२ ]
लोकस्यासंख्येयभागप्रभृतिस्तु सर्वलोक इति ।
आत्मप्रदेशविसर्परणसंहारे व्यापृतो जीवः ॥५८४॥ टीका - जीव का क्षेत्र कहै हैं, सो शरीरमात्र अपेक्षा तो सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना ते लगाइ, एक एक प्रदेश वधता उत्कृष्ट महामत्स्य की अवगाहना पर्यत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके ऊपरि समुद्घात अपेक्षा वेदना समुद्घातवाले का एक एक प्रदेश क्षेत्र विष बधता बधता महामत्स्य की अवगाहना ते तिगुणा लंबा, चौड़ा क्षेत्र पर्यंत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके ऊपर एक एक प्रदेश वधता बधता मारणांतिक समुद्घातवाले का स्वयंभू रमण समुद्र का वाह्य स्थंडिल क्षेत्र विर्षे तिष्ठता जो महामत्स्य, सो सप्तमनरक विषे महारौरव नामा श्रेणीबद्ध विला प्रति कीया जो मारणांतिक समुद्घात तीहि विष पाच सै योजन चौडा, अढाई सै योजन ऊंचा, प्रथम वक्रगति विष एक राजू, द्वितीय वक्र विष आधा राजू, तृतीय वक्र विर्षे छह राजू, लंबाई लीएं जो उत्कृष्ट क्षेत्र हो है; तहां पर्यंत क्षेत्र जानना । वहुरि ताके ऊपरि केवलिसमुद्घात विष लोकपूरण पर्यंत क्षेत्र जानना । सो असे सर्व भेदरूप क्षेत्र विष अपने प्रदेशनि का विस्तार - संकोच होते जीवद्रव्य व्यापृतं कहिए व्यापक हो है। संकोच होते स्तोक क्षेत्र विष आत्मा के प्रदेश अवगाहरूप तिष्ठ है । विस्तार होते ते फैलिकरि घने क्षेत्र विषै तिष्ठे है। जातै जीव के अवगाहना का भेद वा उपपाद वा समुद्धात भेद सर्व ही संभव है । तातै पूर्वोक्त जीव का क्षेत्र जानना।
पोग्गलदवारणं पुण, एयपदेशादि होंति भजणिज्जा। एक्केक्को दु पदेसो, कालाणूणं धुदो होदि ॥५८५॥
पुद्गलद्रव्याणां पुनरेकप्रदेशादयो भवन्ति भजनीयाः ।
एकैकस्तु प्रदेशः, कालाणूनां ध्रुवो भवति ॥५८५॥ टोका - पुद्गलद्रव्यनि का एक प्रदेशादिक यथासंभव भजनीय कहिए भेद करने योग्य क्षेत्र जानना, सो कहिए है - दोय अणू का स्कव एक प्रदेश विपै तिष्ठ वा दोय प्रदेशनि विपै तिष्ठ, बहुरि तीन परमाणूनि का स्कंध एक प्रदेश वा दोय प्रदेश वा तीन प्रदेश विषै तिप्ठे, असे जानना । बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाश का प्रदेश विपै एक एक पाइए है, सो ध्र वरूप है, भिन्न भिन्न सत्त्व धरै है; तातै तिनिका क्षेत्र एक एक प्रदेशी है
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
संखेज्जासंखेज्जाणता वा होंति पोग्गलपदेसा । लोगागासेव ठिदी, एगपदेसो अणुस्स हवे || ५८६ ॥
संख्येया संख्येयानंता वा भवंति पुद्गलप्रदेशाः । लोकाकाशे एव, 'स्थितिरेक प्रदेशोऽणोर्भवेत् ॥ ५८६ ॥
टीका - दोय अणू का स्कंध तै लगाइ, पुद्गल स्कंध संख्यात, असख्यात, अनंत परमाणूरूप है । तथापि ते वे सर्व लोकाकाश ही विषै तिष्ठे हैं । जैसे संपूर्ण जल करि भर्चा हूवा पात्र विषै क्रम तै गेरे हुवे लवण, भस्मी, सूई आदि एक क्षेत्रावगाहरूप तिष्ठे हैं; तैसें जानना । बहुरि अविभागी परमाणू का क्षेत्र एक ही प्रदेशमात्र हो है -
लोगागासपदेसा, छद्दवहिं फुडा सदा होंति । सव्वमलोगागासं, अण्णेहिं विवज्जियं होदि ॥ ५८७॥
लोकाकाशप्रदेशाः, षड्द्रव्यैः स्फुटाः सदा भवंति । सर्व लोकाकाशमन्यैविवर्जितं भवति ॥ ५८७ ॥
टीका - लोकाकाश के प्रदेश सर्व ही षट्द्रव्यनि करि सदाकाल प्रगट व्याप्त हैं । बहुरि अलोकाकाश सर्व ही अन्य द्रव्यनि करि रहित है । इति क्षेत्राधिकारः ।
जीवा प्रणतसंखाणंतगुणा पुग्गला हु तत्तो दु । धम्मतियं एक्क्कं लोगपदेसप्पमा कालो ॥ ५८८ ॥
जीवा अनंत संख्या, अनंतगुणाः पुद्गला हि ततस्तु । धर्मत्रिमेकैकं, लोकप्रदेशप्रमः कालः ॥५८८ ॥
टीका - संख्या कहैं हैं - तहां द्रव्य परिमाण करि जीव द्रव्य बहुरि तिनि ते अनंत गुणे पुद्गल के परमाणू हैं । बहुरि धर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य एक-एक ही है, जाते ए तीनो प्रखंड द्रव्य है । बहुरि जेते के प्रदेश है, तितने कालागू है
૧ ૬૭૩
लोगागासपदेसे, एक्क्के जे ठिया हु एक्केक्का । रयणाणं रासी इव, ते कालाणू मुणेयव्वा' ॥५८६ ॥
१ - द्रव्यसंग्रह गाथा सं २२
अनंत है ।
अधर्म द्रव्य, लोकाकाश
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૨૦૪
! गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५६०-५६?
terraप्रदेशे, एकैके ये स्थिता हि एकैकाः । रत्नानां राशिरिव, ते कालारणवो मंतव्याः || ५८९ ॥
टीका - लोकाकाश का एक-एक प्रदेश विषै जे एक-एक तिष्ठ है । जैसे रत्ननि की राशि भिन्न-भिन्न तिष्ठे तैसे जे भिन्न-भिन्न तिष्ठे है, ते कालाणू जानने । ववहारो पुण कालो, पोग्गलदव्वादणंतगुणमेत्तो । तत्तो अतगुणिदा, आगासपदेसपरिसंखा ॥५६०॥
व्यवहारः पुनः कालः, पुद्गलद्रव्यादनंतगुरणमात्रः । तत अनंतगुणिता, प्राकाशप्रदेशपरिसंख्या ॥५९०॥
टीका - बहुरि व्यवहार काल पुद्गल द्रव्य तै अनंत गुणा समयरूप जानना । बहुरि तिनि तें अनतगुणी सर्व आकाश के प्रदेशनि की संख्या जाननी ।
लोगागासपदेसा, धम्माधम्मेगजीवगपदेसा ।
सरिसा हु पदेसो पुण, परमाणु-श्रवट्ठिदं खेत्तं ॥ ५६१॥
लोकाकाशप्रदेशा, धर्माधर्मैकजीवगप्रदेशाः ।
सदृशा हि प्रदेशः, पुनः परमाण्ववस्थितं क्षेत्रम् ॥ ५११॥
टीका - लोकाकाश के प्रदेश अर धर्मद्रव्य के प्रदेश र अधर्मद्रव्य के प्रदेश
अर एक जीवद्रव्य के प्रदेश सर्व सख्याकरि समान है, जाते सर्व जगच्छ्रेरेरेणी का घनप्रमाण है । बहुरि पुद्गल परमाणू जेता क्षेत्र को रोकै, सो प्रदेश का प्रमाण है; ताते जघन्य क्षेत्र पर जघन्य द्रव्य अविभागी है ।
आगे क्षेत्र प्रमाण करि छह द्रव्यनि का प्रमाण कीजिए है । तहां जीव द्रव्य अनंतलोक प्रमाण है । लोकाकाश के प्रदेशनि ते अनंत गुणा है । कैसे ? सो त्रैराशिक करि कहिए है - प्रमाण राशि लोक, अर फलराशि एक शलाका, अर इच्छाराशि जीवद्रव्य का प्रमाण । सो फल करि इच्छा को गुणै, प्रमारण का भाग दीए, लब्धराशि जीवराशि कौ लोक का भाग दीजिए, इतना आया, सो यहु शलाका का परिमाण भया । वहुरि प्रमाण राशि एक शलाका, फलराशि लोक, अर इच्छाराशि पूर्वोक्त शलाका का प्रमाण, सो पूर्वोक्त शलाका का प्रमाण जीवराशि कौ लोक का भाग दीए, अनंत पाए, सो जानना । इस अनंत को फलराशि लोक करि गुणिए
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ FA
अर प्रमाण राशि एक का भाग दीजिए, तब लब्धराशि अनंतलोक प्रमारण भया; ताते जीव द्रव्य अनतलोक प्रमाण कहे । जैसे ही अन्यत्र काल प्रमाणादिक विषै त्रैराशिक करि साधन करि लेना । बहुरि जीवनि वै पुद्गल अनंत गुणे है । बहुरि धर्म, अधर्म, लोकाकाश और काल द्रव्य ए लोकमात्र प्रदेशनि को धरे है । बहुरि व्यवहार काल पुद्गल द्रव्य तें अनंत गुणा है । बहुरि अलोकाकाश का प्रदेश काल अनंत गुणा है ।
बहुरि काल प्रमाण करि जीवद्रव्य का प्रमारण कहिए है - प्रमाणराशि अतीतकाल, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि जीवनि का परिमाण, इहां लब्धराशिप्रमाण शलाका अनत भई । बहुरि प्रमाणराशि एक शलाका, फलराशि अतीतकाल, इच्छाराशि पूर्वोक्त शलाका प्रमाण, सो पूर्वोक्त प्रकार फल करि इच्छा कौ गु, प्रमाण का भाग दीएं, लब्धराशि प्रमाण अतीत काल ते अनंत गुरणा जीवनि का प्रमाण जानना । इंनि ते पुद्गल द्रव्य अर व्यवहार काल के समय अर अलोकाकाश के प्रदेश अनंत गुणे अनंत गुणे क्रम ते अनंत अतीत काल मात्र जानने ।
बहुरि धर्मादिक का प्रमारण कहिए है - प्रमारण कल्पकाल, फल एक शलाका, इच्छा लोक प्रमाण, तहां लब्धप्रमारण शलाका असंख्यात भई । बहुरि प्रमाण एक शलाका, फल कल्पकाल, इच्छा पूर्वोक्त शलाका प्रमाण, सो यथोक्त करता लब्धराशि असंख्यात कल्पप्रमाण, धर्म, अधर्मं, लोकाकाश, काल ए च्या जानने । बीस कोडाकोडी सागर के संख्याते पल्य भए, तीहि प्रमारण कल्पकाल है । इसते असख्यात गुणे धर्म, धर्म, लोकाकाश, काल के प्रदेश हैं ।
बहुरि भाव प्रमाण करि जीवद्रव्य का प्रमाण विषं प्रमाणराशि जीवद्रव्य का प्रमाण, फल एक शलाका, इच्छा केवलज्ञान लब्धप्रमाण शलाका अनत, बहुरि प्रमाण राशि शलाका का प्रमाण फलराशि केवलज्ञान, इच्छाराशि एक शलाका, सो यथोक्त करता लब्धराशि प्रमाण केवलज्ञान के अनतवे भागमात्र जीवद्रव्य जानने । ते पुद्गल, काल, लोकाकाश की अपेक्षा च्यारि बार अनंत का भाग केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदनि का प्रमारण कौ दीएं, जो प्रमाण आवै, तितने जीवद्रव्य है । तिनि ते अनंत गुणे पुद्गल है । तिनि ते अनंत गुणे काल के अनंत गुणे लोकाकाश के प्रदेश है । तेऊ केवलज्ञान के अनतवें भाग ही है । बहुरि धर्मादिक का प्रमाण विषे प्रमाण लोक, फल एक शलाका, इच्छा अवधिज्ञान के भेद,
समय है । तिनि
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६७६ ]
[गोम्मटसारनीवकागाना2-1९.
लब्धप्रमाण शलाका प्रसंख्यात भई । वहुरि प्रमागराशि शलाका मा प्रमाण, तल राशि अवधिज्ञान के भेद, इच्छाराशि एक शलाका, सो यथोक्त करता प्रवधिज्ञान जेते भेद हैं, तिनि के असंख्यातवें भाग प्रमाण धर्म, अधर्म, लोकालाश, काल उनि च्यार्यों के एक-एक प्रदेशनि का प्रमाण भया । इति संख्याधिकारः ।
सब्बमरूवी दव्वं, अवठ्ठिदं अचलिया पदेसा वि। रूवी जीवा चलिया, ति-वियप्पा होति हु पदेसा ॥५६२॥
सर्वमरूपि द्रव्यमवस्थितमचलिताः प्रदेशा अपि ।
रूपिणो जीवाश्चलितास्त्रिविकल्पा भवंति हि प्रदेशाः ॥५६२॥ टीका - सर्व अरूपी द्रव्य जो मुक्त जीव अर धर्म पर प्रथम पर प्रामाश अर काल सो अवस्थित है, अपने स्थान ते चलते नाही। बहुरि उनिके प्रदेश भी प्रचलित ही है; एक स्थान विर्ष भी चलित नाही हैं। वहरि ल्पी जीव, जे संगारी जीव ते चलित है; स्थान ते स्थानांतर विपै गमनादि कर हैं। बहुरि संसारी जीवनि । के प्रदेश तीन प्रकार है। विग्रह गति विपै सो सर्व चलित ही है। बहुरि प्रयोगकेवली गुणस्थान विष प्रचलित ही है । बहुरि अविशेष जीव रहे, तिनिके पाठ प्रदेश तौ प्रचलित है । अरशेष प्रदेश चलित हैं। (योगरूप परिणमन ते) १ इस आत्मा के अन्य प्रदेश तौ चलित हो है अर पाठ प्रदेश अकंप ही रहैं है।
पोग्गल-दव्वम्हि अण, संखेज्जादी हवंति चलिदा हु। चरिम-महक्खंधम्मि य, चलाचला होति पदेसा ॥५६३॥
पुद्गलद्रव्ये अरणवः, संख्यातादयो भवन्ति चलिता हि । चरममहास्कन्धे च, चलाचला भवंति हि प्रदेशाः ।।५९३॥
टीका - पुद्गल द्रव्य विष परमाणू अर द्वयणुक आदि संख्यात, असंत्यात, अनंत परमाणू के स्कध, ते चलित है। बहुरि अंत का महास्कंध विप केई परमाणू प्रचलित है, अपने स्थान ते त्रिकाल विर्ष स्थानांतर को प्राप्त न होंइ । बहुरि केई परमाणू चलित है; ते यथायोग्य चंचल हो है।
१. व, घ प्रति मे 'योगरूप परिणमन तै' इतना ज्यादा है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
अणुसंखासंखेज्जागंताय श्रगेज्जगेहि अंतरिया । आहार-तेज-भासा मरण-कम्मइया धुवक्खंधा ॥ ५६४ ॥
सांतरणिरंतरेण य, सुण्णा पत्तेयदेहधुवसुण्णा । बादरणिगोदसुण्णा, सुहुमणिगोदा णभो महक्खंधा ॥ ५६५॥ जुम्मं ।
अणुसंख्याता संख्यातानन्ताश्च श्रग्राह्यकाभिरन्तरिताः । श्राहारतेजोभाषामनः कार्माण ध्रुवस्कन्धाः ॥ ५९४॥
[ ६७७
सान्तरनिरन्तरया च शुन्या प्रत्येकदेह - ध्रुवशून्याः । बादर निगोदशून्याः, सूक्ष्मनिगोदा नभो महास्कन्धाः || ५६५॥ युग्मम्
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टीका - पुद्गल द्रव्य के भेदरूप जे वर्गणा, ते तेईस भेद लीएं है - १ अणुवर्गरणा, २ संख्याताणुवर्गणा, ३ असंख्याताणुवर्गणा, ४ अनंताणुवर्गणा, ५ आहारवर्गरणा, ६ अग्राह्यवर्गरणा, ७ तैजस शरीरवर्गणा, ८ अग्राह्यवर्गणा, ६ भाषावर्गरणा, १० अग्राह्य वर्गरणा, ११ मनोवर्गरणा, १२ अग्राह्य वर्गरणा, १३ कार्माण वर्गरणा, १४ ध्रुव वर्गणा, १५ सांतरनिरंतर वर्गरणा, १६ शून्य वर्गरणा, १७ प्रत्येक शरीरवर्गणा, १८ ध्रुवशून्य वर्गणा, १६ बादरनिगोद वर्गरणा, २० शून्यवर्गरणा, २१ सूक्ष्मनिगोद वर्गणा, २२ नभो वर्गणा, २३ महास्कंधवर्गणा ए तेईस भेद जानने ।
इहां प्रासंगिक श्लोक कहिये हैं
मूर्तिमत्सु पदार्थेषु, संसारिण्यपि पुद्गलः । अकर्मकर्मनो कर्मजातिभेदेषु वर्गणा ॥१॥
मूर्तीक पदार्थनि विषे अर संसारी जीव विषै पुद्गल शब्द प्रवर्ते है । वहुरि अकर्म जाति के कर्मजाति के नोकर्म जाति के जे पुद्गल, तिनि विषै वर्गरगा शब्द प्रवर्ते
I
है । सो अब इहां तेईस जाति की वर्गणानि विषै केते केते परमाणू पाइये ? सो प्रमाण कहिये है
तहां अणुवर्गणा तौ एक एक परमाणू रूप है । इस विषै जघन्य, उत्कृप्ट, मध्य भेद भी नाही है ।
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६७८ 1
[ गोम्मटसार जीव हाण्ड गाया ५६५
बहुरि अन्य बाईस वर्गणानि विषं भेद है। तहां जघन्य अर उत्कृष्ट भेद, सो कहिये है - जघन्य के ऊपरि एक एक परमाणू उत्कृप्ट का नीचा पर्यंत वधावने ते जेते भेद होहिं, तितने मध्य के भेद जानने ।
बहुरि संख्याताणुवर्गणा विर्षे जघन्य दोय अणूनि का स्कंध है । पर उत्कृष्ट उत्कृष्ट संख्यातें अणूनि का स्कंध है।
बहुरि असंख्याताणुवर्गणा विर्षे जघन्य परीतासंख्यात परमाणूनि का स्कंध है, उत्कृष्ट उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात परमाणूनि का स्कंध है । इहां विवक्षित वर्गणा ल्यावने के निमित्त गुणकार का ज्ञान करना होइ तौ विवक्षित वर्गणा को ताके नीचे की वर्गणा का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, सोई गुणकार का प्रमाण जानना । तिस गुणकार करि नीचे की वर्गणा कौं गुण, विवक्षित वर्गणा हो है । जैसे विवक्षित तीन अणू का स्कंध पर नीचे दोय परमाणु का स्कंध, तहां तीन को दोय का भाग दीए ड्योढ पाया; सोई गुणकार है । दोय को ड्योढ करि गुरिणए, तब तीन होइ; जैसे सर्वत्र जानना । बहुरि इहां संख्याताणु, असंख्याताणु वर्गणा विष जघन्य का भाग उत्कृष्ट कौं दीएं, जो प्रमाण आवै, सोई जघन्य का गुणकार जानना । इस गुणकार करि जघन्य कौ गुणे, उत्कृष्ट भेद हो है ।
बहुरि ताके ऊपरि अनंताणुवर्गणा विर्षे उत्कृष्ट असंख्याताणु वर्गणा ते एक परमाणू अधिक भये जघन्य भेद हो है । अर जघन्य को सिद्ध राशि का अनंतवां भाग मात्र जो अनत, ताकरि गुण, उत्कृष्ट भेद हो है ।
बहुरि ताके ऊपरि आहार वर्गणा विर्ष उत्कृष्ट अनंताणुवर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है। बहुरि इस जघन्य कौं सिद्धराशि का अनंतवां भाग मात्र जो अनत, ताका भाग दीये, जो प्रमाण आवै, तितने जघन्य से अधिक भये उत्कृष्ट भेद हो है।
बहुरि ताके ऊपरि अग्राह्यवर्गणा है । तीहिं विषै उत्कृष्ट आहारवर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए, जघन्य भेद हो है। बहुरि जघन्य भेद कौं सिद्धराशि का अनंतवां भागमात्र जो अनंत करि गुणै उत्कृष्ट भेद हो है।
१घ प्रति मे यहा 'जघन्य शब्द अधिक मिलता है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[६७६ बहुरि ताके ऊपरि तैजसशरीरवर्गणा है । ताहिं विषै उत्कृष्ट अग्राह्य वर्गणा तै एक परमाणू अधिक भए, जघन्य भेद हो है । इस जघन्य भेद को सिद्धराशि का अनंतवां भाग मात्र अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितने जघन्य ते अधिक भए उत्कृष्ट भेद हो है।
बहुरि ताके ऊपरि अग्राह्य वर्गणा है; तीहिं विष उत्कृष्ट तैजस वर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को सिद्धराशि का अनतवा भागमात्र अनंत करि गुणै उत्कृष्ट भेद हो है। .
बहुरि ताके ऊपरि भाषा वर्गणा है; तीहि विष उत्कृष्ट अग्राह्यवर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को सिद्धराशि का अनंतवा भागमात्र अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितने जघन्य ते अधिक भए उत्कृप्ट भेद हो है।
बहुरि ताके ऊपरि अग्राह्य वर्गणा है । तीहि विष उत्कृष्ट भाषावर्गणा ते एक परमाणू अधिक भये जघन्यभेद हो है । इस जघन्य को सिद्धराशि का अनतवा भागमात्र अनंत करि गुणै उत्कृष्ट भेद हो है ।
बहुरि ताके ऊपरि मनोवर्गणा है, तीहिं विष उत्कृष्ट अग्राह्य वर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को सिद्धराशि का अनंतवा भागमात्र अनंत का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितने जघन्य ते अधिक भएं उत्कृष्ट भेद हो है।
बहुरि ताके ऊपरि अग्राह्य वर्गणा है। तीहिं विष उत्कृष्ट मनोवर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को सिद्धराशि का अनतवा भाग प्रमाण अनंत करि गुण, उत्कृष्ट भेद हो है ।
बहुरि ताके ऊपरि कार्माणवर्गणा है; तीहिं विष उत्कृप्ट अग्राह्य वर्गणा ते एक परमाणु अधिक भएं जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को सिद्धराशि का अनतवां भागमात्र अनंत का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितने जघन्य ते अधिक भएं उत्कृष्ट भेद हो है। ,
बहुरि ताके ऊपरि ध्रुववर्गणा है, तहां उत्कृष्ट कार्माण वगर्णा ते एक परमाणू अधिक भएं जघन्य भेद हो है। इस जघन्य को अनतगुणा जीव राशिमान अनत करि गुण, उत्कृष्ट भेद हो है।
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| गौम्मटसार जीवका गाया '.६५
बहुरि ताके ऊपरि सांतर निरंतर वर्गणा है; तहां उत्कृप्ट ध्रुववर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को अनंतगुणा जीवराणि का प्रमाण करि गुण, उत्कृष्ट भेद हो है ।
बैसै जो ए अणुवर्गणा ते लगाइ पंद्रह वर्गणा कही, ते सदृश परिमाण की लोएं, एक एक वर्गणा लोक विर्षे अनंत पुद्गल राशि का वर्गमूल प्रमाण पाइए है। परि किछ घाटि घाटि क्रम तै पाइए है । तहां प्रतिभागहार सिद्ध अनंतवां भागमात्र है । सो इस कथन कौं विशेष करि आगे कहिएगा।
बहुरि ताके ऊपरि शून्यवर्गणा है, तहां उत्कृष्ट सांतर निरन्तर वर्गणा ते एक एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को अनंतगुणा जीवराशि का प्रमाण करि गुणे, उत्कृष्ट भेद हो है । असें सोलह वर्गणा सिद्ध भई।
बहुरि ताके ऊपरि प्रत्येक शरीर वर्गणा है; सो एक शरीर एक जीव का होइ, ताको प्रत्येक शरीर कहिए। तहां जो विस्रसोपचय सहित कर्म वा नोकर्म, तिनिका एक स्कंध ताको प्रत्येक शरीर वर्गणा कहिये । तहां शून्यवर्गणा का उत्कृष्ट ते एक परमाणू करि अधिक जघन्य भेद हो है; सो यह जघन्य भेद कहां पाइये है ? सो कहिए है
__ जाका कर्म के अश क्षयरूप भए है, असा कोई क्षपितकर्माश जीव, सो कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी मनुष्य होइ, अतमुहूर्त अधिक आठ वर्ष के ऊपरि सम्यक्त्व पर सयम दोऊ एक काल अंगीकार करि सयोग केवली भया, सो किछु घाटि कोटि पूर्व पर्यत औदारिक शरीर पर तैजस शरीर की तो जो प्रकार कह्या है, तैसे निर्जरा करत सता अर कार्माण शरीर की गुण श्रेणी निर्जरा करत संता, अयोगकेवली का अत समय को प्राप्त भया, ताकै आयु कर्म, औदारिक, तैजस शरीर अधिक नाम, गोत्र, वेदनीय कर्म के परिमाणूनि का समूह रूप जो औदारिक,, तेजस, कार्मारण, इनि तीनि शरीरनि का स्कंध, सो जघन्य प्रत्येक शरीर वर्गणा है । बहुरि इस जघन्य कौं पल्य का असख्यातवां भागकरि गुणे, उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा हो है । सो कहां पाइए ? सो कहिए है
नदीश्वर नामा द्वीप विर्षे अकृत्रिम चैत्यालय है। तहां धूप के घड़े हैं । तिनि विष वा स्वयभूरमण द्वीप विष उपजे दावानल, तिनि विर्ष जे बादर पर्याप्त अग्नि
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सम्यग्ज्ञानन्तिका भावाटीका ]
[६८१ काय के जीव है, तहा असंख्यात पावली का वर्ग प्रमाण जीवनि के शरीरनि का एक स्कंध है। तहा गुणितकांश कहिए, जिनके कर्म का संचय बहुत है, असे जीव बहुत भी होइ तौ आवली का असंख्यातवां भागमात्र होइ, तिनिका विस्रसोपचय सहित औदारिक, तैजस, कार्माण इनि तीनि शरीरनि का जो एक स्कंध, सो उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा है । बहुरि ताके ऊपरि ध्रुव शून्य वर्गणा है। तहां उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा ते एक परमाणू अधिक भएं जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को सब मिथ्यादृष्टी जीवनि का जो प्रमाण, ताकी असंख्यात. लोक का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तीहि करि गुरणे, उत्कृष्ट भेद हो है। बहुरि ताके अपरि बादर निगोद वर्गणा है, सो बादर निगोदिया जीवनि का विस्रसोपचय सहित कर्म नोकर्म परिमाणूनि का जो एक स्कंध, ताकौं बादर निगोद वर्गणा कहिए है । सो ध्रुवशून्य वर्गणा ते एक परमाणू अधिक जघन्य बादरनिगोदवर्गणा है । सो कहां पाइए है ? सो कहै है
क्षय कोएं हैं कर्म अंश जाने, जैसा कोई क्षपितकर्मांश जीव, सो कोडि पूर्व वर्ष प्रमाण आयु का धारी मनुष्य होइ, गर्भ ते अंतर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष के ऊपरि सम्यक्त्व अर संयम को युगपत अंगीकार करि, किछू घाटि कोडि पूर्ववर्ष पर्यंत कर्मनि की गुणश्रेणी निर्जराको करत संता जब अंतर्मुहर्त सिद्धपद पावने का रह्या, तब क्षपक श्रेणी चढि उत्कृष्ट कर्मनिर्जरा को करत संता क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती भया, तिसके शरीर विष जघन्य वा उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पुलवी एक बंधनरूप बधे पाइए है, जातै सर्व स्कंधनि विर्षे पुलवी असंख्यात लोक प्रमाण कहे है । बहुरि एक एक पुलवी विष असंख्यात लोक प्रमाण शरीर पाइए है । बहुरि एक एक शरीर विष सिद्धनि ते अनंतगुणे ससारी राशि के असंख्यातवे भागमात्र जीव पाइए है । सो आवली का असंख्यातवां भाग को असंख्यात लोक करि गुण, तहा शरीरनि का प्रमाण भया । ताको एक शरीर विष निगोद जीवनि का जो प्रमाण, ताकरि गुणे, जो प्रमाण भया, तितना तहा एक स्कंध विर्ष बादर निगोद जीवनि का प्रमाण जानना । तिनि जीवनि के क्षीणकषाय गुणस्थान का पहिला समय विप अनन्त जीव स्वयमेव अपना आयु का नाश तै मरे है। बहुरि दूसरे समय जेते पहिले समय मरे, तिनिको प्रावली का असंख्यातवा भाग का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितने पहिले समय मरे जीवनि ते अधिक मरै है । इस ही अनुक्रम ते क्षीणकपाय का प्रथम समय तै लगाइ, पृथक्त्व आवली का प्रमाण काल पर्यंत मरै है। पीछे पूर्व पूर्व समय संवधी मरे जीवनि के प्रमाण को आवली का संख्यातवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण होइ
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६६२ 1
गोम्मटसार जीवका गाया ५६५ तितने तितने पहिले पहिले समय से अधिक समय समय ते मरे है । सो क्षीणकपाय गणस्थान का काल आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण अवशेप रहे तहा ताई इस ही अनुक्रम तै मरै है। ताके अनन्तर समय विपै पल्य का असंख्यातवा भाग करि पहिले पहिले समय संबंधी जीवनि को गुण, जितने होंहि तितने तितने मरे है। तहा पीछे संख्यात पल्य करि पूर्व पूर्व समय सम्बन्धी मरे जीवनि कौं गुण, जो जो प्रमाण होइ, तितने तितने मरै है। सो असें क्षीणकपाय गुणस्थान का अत समय पर्यंत जानना। तहा अंत के समय विष जे जुदे जुदे असंख्यात लोक प्रमाण शरीरनि करि संयुक्त असे आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पुलवी, तिनिविप जे गुरिणतकमांश जीव मरे, तिनकरि हीन अवशेष जे अनंतानन्त जीव गुणित कर्माश रहे । तिनिका विनसोपचयसहित औदारिक, तैजस, कार्माण तीन शरीरनि के परमाणूनि का जो एक स्कंध,सोई जघन्य बादर निगोद वर्गणा है । बहुरि इस जघन्य कौं जगच्छेणी का असंख्यातवां भाग करि गुणे, उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणा हो है । सो कैसे पाइए ? सो कहिए हे
स्वयभूरमरण नामा द्वीप विष जे मूलाने आदि देकरि सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पती है, तिनके शरीरनि विष एक बंधन विष बधे जगच्छणी का असख्यातवां भागमात्र पुलवी है। तिनि विर्षे तिष्ठते जे गुरिणतकर्माश जीव अनंतानंत पाइये हैं। तिनिका विस्रसोपचयसहित औदारिक, तेजस, कार्माण तीन शरीरनि के परमाणूनि का एक स्कध, सोई उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणा है। बहुरि ताके ऊपरि तृतीय शुन्यवर्गणा है । तहा उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा ते एक प्रदेश अधिक भए, जघन्य भेद हो है । इस जघन्य को सूच्यगुल का असंख्यातवा भाग करि गुणें, उत्कृष्ट भेद हो है। बहुरि ताके अपरि सूक्ष्मनिगोद वर्गणा है, मो सूक्ष्मनिगोदिया जीवनि का विस्रसोपचय सहित कर्म नोकर्म परमाणूनि का एक स्कधरूप जानना । तहां उत्कृष्ट शून्यवर्गणातै एक परमाणू अधिक भए जघन्य भेद हो है। सो जघन्य भेद कैसे पाइए है ? सो कहिए है -
जल विष वा स्थल विर्ष वा आकाश विष जहा तहा एक बधन विष बधे, असे जे पावली का असख्यातवां भाग प्रमाण पुलवी, तिनिविष क्षपितकर्माश अनंतानन्त सूक्ष्म निगोदिया जीव है । तिनिका विस्रसोपचय सहित औदारिक, तैजस, कार्माण तीन शरीरनि का परमाणूनि का जो एक स्कंध, सोई जघन्य सूक्ष्मनिगोद वर्गणा है ।
इहां प्रश्न - जो बादरनिगोद उत्कृष्ट वर्गणा विष पुलवी श्रेणी के असंख्यातवे भाग प्रमाण कहे अर जघन्य सूक्ष्मनिगोद वर्गणा विर्षे पुलवी पावली का असं
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ६८३
ख्यातवां भाग प्रमाण कहे, ताते बादरनिगोद वर्गणा के पहिले याकौ कहना युक्त था । जाते पुलवीनि का बहुत प्रमाण ते परमाणूनि का भी बहुत प्रमाण संभव है ?
ताकां समाधान - जो यद्यपि पुलवी इहां घाटि कहे है; तथापि बादरनिगोद वर्गणा सम्बन्धी निगोद शरीरनि ते सूक्ष्मनिगोद वर्गणा संबन्धी शरीरनि का प्रमाण सूच्यंगुल का प्रसंख्यातवां भाग गुणा है । तातै तहां जीव भी बहुत है । तिनि जीवनि के तीन शरीर संबधी परमाणू भी बहुत है । तातै बादरनिगोद वर्गणा के पीछे सूक्ष्म निगोद वर्गणा कही | बहुरि जघन्य सूक्ष्मनिगोद वर्गणा को पल्य का असख्यातवा भाग करि गुणै, उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोद वर्गरणा हो है, सो कैसे पाइये है ? सो कहिए है
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यहां महामत्स्य का शरीर विषै एक स्कधरूप आवली का असख्यातवां भाग प्रमाण पुलवी पाइये है । तहां गुणितकमीश अनंतानंत जीवनि का विस्रसोपचय सहित औदारिक, तैजस, कार्मारण तीन शरीरनि के परमाणूनि का एक स्कंध, सोई उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोद वर्गणा हो है ।
बहुरि ताके ऊपर नभोवर्गणा है । तहां उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा ते एक अधिक भए जघन्य भेद हो है । इस जघन्य भेद कों जगत्प्रतर का असख्यातवा भाग करि गुणे, उत्कृष्ट भेद हो है । बहुरि ताके ऊपरि महास्कध है । तहां उत्कृष्ट नभोवर्गणा ते एक परमाणू अधिक भए, जघन्यभेद हो है । बहुरि इस जघन्य को पल्य का असख्यातवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, ताकौ जघन्य विषै मिलाये, उत्कृष्ट महास्कंध के परमाणूनि का प्रमाण हो है । जैसे एक पक्ति करि तेईस वर्गणा कही ।
आगे जो अर्थ कह्या, तिस ही कौ सकोचन करि तिन वर्गणानि ही का उत्कृप्ट, जघन्य, मध्य भेदनि कौ वा अल्प - बहुत्व को छह गाथानि करि कहैं है
परमाणुवग्गणम्मि ण, अवरुक्कस्तं च सेस श्रत्थि । गेज्भमहक्खंधारणं, वरमहियं सेसगं गुणियं ॥ ५६६ ॥
- परमाणुवर्गणायां न, अवरोत्कृष्टं च शेषके प्रस्ति । ग्राह्यमहा स्कंधानां वरमधिकं शेषकं गुणितम् ॥५६६ ॥
टीका - परमाणु वर्गरणा विषे जघन्य उत्कृप्ट भेद नाही है; जातं ग्रण अभेद है । बहुरि अवशेष बाईस वर्गणानि विषै जघन्य उत्कृष्ट भेद पाइए है। तहा ग्राह्य
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सम्यग्नानचन्द्रिका भाषाटोका 1
[ ६८५ जीवादोणंतगुणो, धुवादितिण्हं असंखभागो दु। पल्लस्स तदो तत्तो, असंखलोगवहिदो मिच्छो ॥५६॥ जीवादनंतगुणो, ध्रुवादितिसृणामसंख्यभागस्तु ।
पल्यस्य ततस्ततः, असंख्यलोकावहिता मिथ्या ॥५९९॥
टीका - बहुरि ध्रुवादिक तीन वर्गणानि विष जीवराशि ते अनंतगुणा गुणकार है । याकरि जघन्य को गुणे, उत्कृष्ट हो है। बहुरि प्रत्येक शरीर वर्गणा विषै पल्य का असंख्यातवा भागमात्र गुणकार है । याकरि जघन्य को गुण, उत्कृष्ट हो है। काहे ते ? सो कहिए है। प्रत्येक शरीर वर्गणा विषै जो कार्माण शरीर है । ताते समयप्रबद्ध गुणितकर्माश जीव संबंधी है। तातै जघन्य समय प्रबद्ध के परमाणू का प्रमाण ते याका प्रमाण पल्य का अर्धच्छेदनि का असंख्यातवां भाग गुणा है । ताकी सहनानी बत्तीस का अक है । तातै इहां पल्य का असख्यातवां भाग का गुणकार कह्या है । बहुरि ध्रुव, शून्य वर्गणा विर्षे असंख्यात लोक का भाग मिथ्यादृष्टी जीवनि को दीए, जो प्रमाण होइ, तितना गुणकार है । याकरि जघन्य को गुण उत्कृष्ट हो है।
सेढी-सूई-पल्ला-जगपदरासंखभागगुणगारा। अप्पप्पणप्रवरादो, उक्कस्से होति णियमेण ॥६००॥
श्रेणी-सूची-पल्य, जगत्प्रतरासंख्यभागगुणकाराः ।
आत्मात्मनोवरादुत्कृष्टें भवंति नियमेन ॥६००॥ टीका - जगच्छे रणी का असंख्यातवां भाग, बहुरि सूच्यगुल का असख्यातवां भाग, बहुरि- पल्य का असख्यातवा भाग, बहुरि जगत्प्रतर का असख्यातवा भाग ए अनुक्रम तै बादरनिगोदवर्गणा अर शून्यवर्गणा अर सूक्ष्म निगोद वर्गणा अर नभोवर्गणा इनि विषै गुणकार है। इनिकरि अपने-अपने जघन्य को गुणे, उत्कृष्ट भेद हो है। इहां शून्यवर्गरणा विष सूच्यंगुल का असंख्यातवां भाग गुणकार कह्या है, सो सूक्ष्मनिगोद वर्गणा का जघन्य एक घाटि भये उत्कृष्ट शून्यवर्गणा हो है; तातै कह्या है । बहुरि सूक्ष्म निगोद वर्गणा विर्ष पल्य का असख्यातवा भाग गुणकार कह्या है। सो ताके उत्कृष्ट का कार्माण संबंधी समयप्रबद्ध गुणितकर्माश जीव सवधी है । तातै कह्या है । असै ए तेईस वर्गणा एक पंक्ति अपेक्षा कही । अव नानापक्ति अपेक्षा कहिए
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६०० ६८६ 1 है । नाना पंक्ति कहा ? जो ए वर्गणा कही, ते वर्गणा लोक विष वर्तमान कोई एक काल में केती-केती पाइए है ? जैसी अपेक्षा करि कहै हैं -
परमाणु वर्गणा तै लगाइ, सांतरनिरंतरवर्गणा पर्यंत पन्द्रह वर्गणा समान परमाणूनि का स्कंधरूप लोक विष पुद्गलद्रव्य का जो प्रमाण, ताका जो वर्गमूल, ताका अनंत गुणा कीए, जो प्रमाण होइ, तितनी-तितनी पाइए है। तहां इतना विशेष है जो ऊपरि किछू घाटि-घाटि पाइए है। तहां प्रतिभागहार सिद्धराशि का अनंतवां भाग (मात्र) है । सो कहिए है -
अणुवर्गण. लोक विषे जेती पाइए है, तिस प्रमाण को सिद्धराशि का अनंतवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितना अणुवर्गणा का परिमारण में घटाए, जो प्रमाण रहै, तितनी दोय परमाणू का स्कंधरूप संख्याताणुवर्गणा जगत विर्षे पाइए है। इसको सिद्धराशि का अनंतवां भाग का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितना तिस ही मै घटाइए, जो प्रमाण रहै, तितनी तीन परमाणू का स्कंध रूप संख्याताणु वर्गणा लोक विष पाइए है । इस ही अनुक्रम ते एक-एक अधिक परमाणू का स्कंध का प्रमाण करते जहां उत्कृष्ट संख्याताणुवर्गणा भई, तहां जो प्रमाण भया, ताकौं सिद्ध राशि का अनंतवा भाग का भाग दीए, जो प्रमाण होइ, तितना तिस ही मैं घटाए, जो अवशेष रहै, तितना जघन्य असंख्याताणु वर्गणा लोक विर्षे पाइए है। याको तेसै ही भाग देइ घटाए, जो प्रमाण रहै, तितनी मध्य असंख्याताणु वर्गणा का प्रथम भेद रूप वर्गणा लोक विष पाइए है । सो असे ही एक-एक अधिक परमाणूनि का स्कध का प्रमाण अनुक्रम तै सातरनिरंतर .वर्गणा का उत्कृष्ट पर्यंत जानना। सामान्यपन सर्व जुदी-जुदी वर्गणानि का प्रमाण अनंत पुद्गल राशि का वर्गमूल मात्र जानना । बहुरि प्रत्येक शरीर वर्गणा का जघन्य तौ पूर्वोक्त प्रयोग केवली का अन्त समय विष पाइए; सो उत्कृष्ट पनै च्यारि पाइए है । बहुरि उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा स्वयंभूरमण द्वीप का दावानलादिक विषै पाइए; सो उत्कृष्ट पनै प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पाइए है। बहुरि बादर निगोद वर्गणा का जघन्य तौ पूर्वोक्त क्षीण कपाय गुणस्थान का अंत समय विषै पाइए; सो उत्कृष्ट पनै च्यारि पाइए है । अर बादर निगोद वर्गणा का उत्कृष्ट महामत्स्यादिक विष पाइए; सो उत्कृष्ट पनै प्रावली का असख्यातवा भाग प्रमाण पाइए है। बहुरि सूक्ष्म निगोद वर्गणा जघन्य तौ वर्तमान काल विष जल में वा स्थल मे वा आकाश में आवली का अमत्यातवा भाग प्रमाण पाइए है, अर सूक्ष्मनिगोद वर्गणा उत्कृष्ट भी आवली का
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[६८७ असंख्यातवां भाग प्रमाण पाइए है । इहां प्रत्येक शरीर, बादरनिगोद, सूक्ष्मनिगोद, इनि तीन सचित्तवर्गणानि का मध्य भेद वर्तमान काल विर्षे असंख्यात लोक प्रमाण पाइए है। बहरि महास्कध वर्गणा वर्तमान काल में जगत विष एक ही है। सो भवनवासीनि के भवन देवनि के विमान, आठ पृथ्वी, मेरु गिरि, कुलाचल इत्यादिकनि का एक स्कध रूप है। . इहां प्रश्न - जो जिनि के असंख्यात, असंख्यात योजननि का, अन्तर पाइए, तिनिका एक स्कंध कैसे संभव है ?
___ ताका उत्तर - जो मध्य विष सूक्ष्म परमाणू हैं, सो वे विमानादिक अर सूक्ष्म परमाणू, तिनि सबनि का एक बंधान है । तातै अंतर नाही, एक स्कध है । सो असा जो एक स्कध है, ताही का नाम महास्कध है।
हेट्ठिमउक्कस्सं पुण, रूवहियं उवरिमं जहणं खु । इदि तेवीसवियप्पा, पुग्गलदवा हु जिणदिट्ठा ॥६०१॥
अधस्तनोत्कृष्टं पुनः, रूपाधिकमुपरिमं जघन्यं खलु ।
इति त्रयोविंशतिविकल्पानि, पुद्गलद्रव्याणि हि जिनदिष्टानि ॥६०१॥ टीका - तेईस वर्गणानि विषै अणुवर्गणा बिना अवशेष वर्गणानि के जो नोचे का उत्कृष्ट भेद होइ, तामैं एक अधिक भए, ताके ऊपरि जो वर्गणा, ताका जघन्य भेद हो है । असे तेईस वर्गणा भेद को लीए पुद्गल द्रव्य, जिनदेवने कहे है । इनि विष प्रत्येक वर्गणा अर बादरनिगोद वर्गणा अर सूक्ष्मनिगोद वर्गणा ए तीन सचित्त है; जीव सहित है, सो इनिका विशेष कहिए है -
__अयोग केवली का अंतसमय विष पाइये असी जघन्य प्रत्येक वर्गणा, सो लोक विषै होइ भी वा न भी होइ, जो होइ तौ एक ही होइ वा दोय होइ वा तीन होइ उत्कृष्ट होइ तौ च्यारि होइ । बहुरि जघन्य ते एक परमाणू अधिक असी मध्य प्रत्येक वर्गणा, सो लोक विष होइ वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन वा उत्कृष्ट पनै च्यारि होइ, असे ही एक एक परमाणू का वधाव ते इस ही अनुक्रम ते जव अनत वर्गणा होइ, तब ताके अनंतर जो एक परमाण अधिक वर्गणा, सो लोक विषै होइ वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन वा च्यारि वा उत्कृष्टपने पाच होइ । असे एक एक परमाणू बधतै अनतवर्गणा पर्यंत पंच ही उत्कृप्ट है । ताके अनन्तरि जो
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[ गोम्मटसार जीव का गाया ६०१ ६८८ ] वर्गणा सो होइ वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन वा उत्कृष्ट छह होड । असें अनंतवर्गणा पर्यंत उत्कृष्ट छह ही होइ । बहुरि इस ही अनुक्रम ते अनंत अनत वर्गणा पर्यंत उत्कृष्ट सात, आठ, सात, छह, पाच, च्यारि, तीन, दोय वर्गणा जगत विपं समान परमाणूनि का प्रमाण लीएं हो है । यह यवमध्य प्ररूपणा है, जैसे यव नामा अन्न का मध्य मोटा हो है, तंस इहां मध्य विषे वर्गणा आठ कहीं । पहिले वा पीछे थोड़ी थोड़ी कही । तात याकौं यवमध्य प्ररूपणा कहिए है । सो यहु प्ररूपणा मुक्तिगामी भव्य जीवनि की अपेक्षा है । असे प्रत्येक वर्गणा समान संसारी जीवनि के न पाइए है।
इहां तै प्रागै संसारी जीवनि के पाइए असी प्रत्येक वर्गणा कहिये है
सो पूर्व कथन कीया, ताके अनंतरि पूर्व प्रत्येक वर्गणा ते एक परमाणू अधिकता लीएं, जो प्रत्येक वर्गणा सो जगत विष होइ, वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन इत्यादि उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । जैसे ही अनन्तवर्गणा भए, अनंतरि जो प्रत्येक वर्गणा, सो लोक विषै होइ वा न होई,जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवां भाग प्रमाण पूर्व प्रमाण ते एक अधिक होइ । असे अनंत अनंत वर्गणा भए, एक एक अधिक प्रमाण उत्कृष्ट विष होता जाय, जहां यवमध्य होइ, तहां ताईं जैसे जानना । यवमध्य विपै जेता परमाणू का स्कधरूप प्रत्येक वर्गणा भई, तितने तितने परमाणूनि का स्कंधरूप प्रत्येक वर्गणा जगत विष होइ वा न होइ, जो होइ, तो एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असख्यातवां भाग प्रमाण होइ । यहु प्रमाण इस ते जो पूर्वप्रमाण तातै एक अधिक जानना । जैसे अनंत वर्गणा भएं, अनंतरि जो वर्गणा भई, सो जगत विष होइ वा न होइ, जो होइ तौ एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भागप्रमाण होइ । सो यहु प्रमाण यवमध्य संबंधी पूर्वप्रमाण तै एक घाटि जानना । असै एक एक परमाणू के बंधने ते एक एक वर्गणा होइ । सो अनत अनंत वर्गणा भए उत्कृष्ट विष एक एक घटाइये जहां ताई उत्कृष्ट प्रत्येक वर्गणा होइ, तहां ताई असे करना । उत्कृष्ट प्रत्येकवर्गणा लोक विषै होइ वा न होइ, जो होइ तो एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । अस प्रत्येक वर्गणा भव्य सिद्ध, अभव्य सिद्धनि की अपेक्षा कही । बहुरि बादरनिगोद वर्गणा का भी कथन प्रत्येक वर्गणावत जानना, किछु विशेप नाही । जैसे प्रत्येक वर्गणा विर्षे अयोगी का अतसमय विष सभवती जघन्य वर्गणा, ताकौं आदि देकरि भव्य सिद्ध अपेक्षा कथन कीया है । तैसे इहां क्षीणकषायी का अंत समय विपै संभवती तिसका शरीर के आश्रित जघन्य बादरनिगोदवर्गणा ताको
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सभ्यशानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ६८९ आदि देकरि भव्य सिद्ध अपेक्षा कथन जानना । बहुरि सामान्य ससारी अपेक्षा दोऊ जायगे समानता संभव है । बहुरि सूक्ष्मनिगोद वर्गणा का कथन कहिए है
सो इहां भव्य सिद्ध अपेक्षा तो कथन है नाही। तातै जघन्य सूक्ष्मनिगोदवर्गणा लोक विर्षे होइ वा न होइ, जो होइ तो एक वा दोय वा तीन उत्कृष्ट प्रावली का असंख्यातवां भाग प्रमाण होइ । आगे जैसे संसारीनि की अपेक्षा प्रत्येक वर्गणा का कथन कीया, तैसे ही यवमध्य ताई अनतानन्त वर्गणा भए, उत्कृष्ट विष एक एक बधावना । पीछे उत्कृष्ट सूक्ष्मवर्गणा पर्यंत एक एक घटावना। सामान्यपन सर्वत्र उत्कृष्ट का प्रमाण पावली का असंख्यातवां भाग कहिये । इहां सर्वत्र संसारी सिद्ध कौं योग्य असी जो प्रत्येक बादर निगोद, सूक्ष्मनिगोद वर्गणा तिनिका यव आकार प्ररूपणा विषे गुणहानि का गच्छ जीवराशि तें अनन्त गुणा जानना । नाना गुण हानिशलाका का प्रमाण यवमध्य ते ऊपरि वा नीचे प्रावली का असख्यातवां भाग प्रमाण जानना।
भावार्थ-संसारी अपेक्षा प्रत्येकवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा विषै जो यवमध्य प्ररूपणा कही, तहां लोक विर्षे पावने की अपेक्षा जेते एक एक परमाणू बधने रूप जे वर्गणा भेद तिनि भेदनि का जो प्रमाण सो तो द्रव्य है । पर जिनि वर्गणानि विष उत्कृष्ट पावने की अपेक्षा समानता पाइये, तिनिका समूह सो निषेक, तिनिका जो प्रमाण, सो स्थिति है । बहुरि एक गुणहानि विष निषेकनि का जो प्रमाण सो गुणहानि का गच्छ है । ताका प्रमाण जीवराशि ते अनन्त गुणा है । बहुरि यवमध्य के ऊपरि वा नीचे गुणहानि का प्रमाण, सो नानागुणहानि है । सो प्रत्येक आवली का असंख्यातवां भागमात्र है। जैसे द्रव्यादिक का प्रमाण जानि, जैसे निषेकनि विषे द्रव्य प्रमाण ल्यावने का विधान है । तैसे उत्कृष्ट पावने की अपेक्षा समान रूप जे वर्गणा, तिनिका प्रमाण यवमध्य ते ऊपरि वा नीचे चय घटता क्रम लीए जानना।
इहां प्रश्न - जो इहां तो प्रत्येकादिक तीन सचित्त वर्गणानि के अनते भेद कहे, एक एक भेदरूप वर्गणा लोक विषै आवली का असख्यातवा भाग प्रमाण सामान्य पर्ने कही । बहुरि पूर्व मध्यभेदरूप सचित्तवर्गणा सर्व असख्यात लोक प्रमाण ही कही सो उत्कृष्ट जघन्य बिना सर्व भेद मध्यभेद विष प्राय गए, तहा असा प्रमाण कैसे संभवै ?
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६८० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ६०२-६०३
arai समाधान - इहां सर्वभेदनि विपं जैसा कह्या है, जो होइ भी न भी होइ, होइ तौ एक वा दोय इत्यादि उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवा भाग प्रमाण होइ । सो नानाकाल अपेक्षा यहु कथन है । वहुरि तहा एक कोई विवक्षित वर्तमान काल अपेक्षा वर्तमान काल विषे सर्वं मध्यभेदरूप प्रत्येकादि वर्गरणा असंख्यात लोक प्रमाणही पाइये है | अधिक न पाइए है । तिनि विषै किसी भेदरूप वर्गणानि की नास्ति ही है । किसी भेदरूप वर्गरणा एक आदि प्रमाण लीएं पाइए हैं। किसी भेदरूप वर्गणा उत्कृष्टपने प्रमाण लीएं पाइये है । असा समझना । इस प्रकार तेईस वर्गणा का वर्णन कीया ।
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पुढवी जलं च छाया, चरदियविसय कम्म- परमाणू छ- विह-भेयं भरिणयं, पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं ॥ ६०२॥
पृथ्वी जलं च छाया, चतुरिद्रियविषय कर्मपरमाणवः । षड्विधभेदं भणितं, पुद्गलद्रव्यं जिनवरैः ||६०२॥
टीका - पृथ्वी अर जल अर छाया अर नेत्र बिना च्यारि इन्द्रियनि का विषय अर कार्मारण स्कंध पर परमाणू असें पुद्गल द्रव्य छह प्रकार जिनेश्वर देवनि करि का है ।
बादरबादर बादर, बादरसुहुमं च सुहुमथूलं च । सुमं च सुमहुमं, धरादियं होदि छन्भेयं ||६०३॥
बादरबादरं बादरं, बादरसूक्ष्मं च सूक्ष्मस्थूलं च ।
सूक्ष्म च सूक्ष्मसूक्ष्मं, घरादिकं भवति षड्भेदम् ||६०३ ॥
टीका - पृथ्वीरूप पुद्गल द्रव्य बादरबादर है । जो पुद्गल स्कंध छेदने को भेदने को और जायगे ले जाने कों समर्थ हुजैं, तिस स्कंध को बादरबादर कहिए । बहुरि जल है, सो बादर है, जो छेदने को भेदने कौ समर्थ न हुजै अर और जायगे ले जाने कौ समर्थ हूजै, सो स्कंध, बादर जानने । बहुरि छाया बादर सूक्ष्म है, जे छेदने - भेदने और जायगे ले जाने की समर्थ न हुजै, सो बादरसूक्ष्म है । बहुरि नेत्र बिना च्यारि इन्द्रियनि का विषय सूक्ष्म स्थूल है । बहुरि कार्मारण के स्कध सूक्ष्म है । जो द्रव्य देशावधि परमावधि के गोचर होइ, सो सूक्ष्म है । बहुरि परमाणू सूक्ष्मसूक्ष्म है । जो सर्वावधि के गोचर होइ, सो सूक्ष्म सूक्ष्म है ।
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सम्पाजानचन्द्रिका भाताटीका |
९६१ इहा एक एक वस्तु का उदाहरण कह्या है । सो पृथ्वी, काष्ठ, पाषाण इत्यादि बादरवादर है । जल, तैल, दुग्ध इत्यादि बादर है । छाया, आतप, चादनी इत्यादि वादरसूक्ष्म है । शब्द गन्धादिक सूक्ष्मवादर है । इन्द्रियगम्य नाही; देशावधि परमावधिगम्य होंहि ते स्कंध सूक्ष्म हैं । परमाणू सूक्ष्मसूक्ष्म है, जैसे जानने । । ।
खधं सयलसमत्थं, तस्स य अद्ध भरणंति देसो त्ति । अद्धद्धं च पदेसो, अविभागी चेव परमाणू ॥६०४॥
स्कंधं सकलसमर्थ, तस्य चाध भणंति देशमिति । अर्धाद्धं च प्रदेशमविभागिनं चैव परमाणुम् ॥६०४॥
टीका - जो सर्व अंश करि संपूर्ण होइ, ताको स्कंध कहिए । ताका आधा कौं देश कहिये । तिस प्राधा के आधा को प्रदेश कहिए । जाका भाग न होइ, ताकौं परमाणू कहिये।
भावार्थ- विवक्षित स्कंध विर्ष संपूर्ण ते एक परमाण अधिक अर्घ पर्यंत तौ स्कंध संज्ञा है । अर्घ ते लगाय एक परमाणू अधिक चौथाई पर्यंत देश संज्ञा है । चौथाई ते लगाय दोय परमाणू का स्कंध पर्यंत प्रदेश संज्ञा है । अविभागी कौ परमाणू संज्ञा है। इति स्थानस्वरूपाधिकार ।
गदिठाणोग्गहकिरियासाधणभूदं खु होदि धम्म-तियं । वत्तणकिरिया-साहरणभूदो णियमेण कालो दु॥६०५॥
गतिस्थानावगाहक्रियासाधनभूतं खलु भवति धर्मत्रयम् ।
वर्तनाक्रियासाधनभूतो नियमेन कालस्तु ॥६०५॥ टीका - क्षेत्र ते क्षेत्रातर प्राप्त होने को कारण, सो गति कहिये । गति का अभाव रूप स्थान कहिये । अवकाश विषै रहने को अवगाह कहिए । तहां तैसै मत्स्यनि. के गमन करने का साधनभूत जल द्रव्य है। तैसे गति क्रियावान जे जीव पुद्गल, तिनकै गतिक्रिया का साधनभूत सो धर्मद्रव्यं है। बहुरि जैसे पथी जननि के स्थान करने का साधन भूत छाया है । तैसे स्थान - क्रियावान जे जीव पुद्गल, तिनके स्थान , क्रिया का साधन भूतं अधर्म द्रव्य है । बहुरि जैसे बास करनेवालों के सांधनभूत
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गोम्मटसार जीवफाण्ड गाथा ६०५ ६९२ ]
सतिका है। तैसें अवगाह क्रियावान जे जीव - पुद्गलादिक द्रव्य तिनिकें अवगाह क्रिया का साधनभूत आकाश द्रव्य है।
इहां प्रश्न - जो अवगाह कियावान तौ जीव - पुद्गल है। तिनिको अवकाश देना युक्त कह्या है । बहुरि धर्मादिक द्रव्य तौ निष्क्रिय है, नित्य सम्बन्ध कौं धरै हैं, नवीन नाहीं आए, जिनिकों अवकाश देना संभव असैं इहां कैसे कहिये ? सो कहो
_____ताका समाधान - जो उपचार करि कहिए है; जैसै गमन का अभाव होते संतै भी सर्वत्र सद्भाव की अपेक्षा आकाश को सर्वगत कहिए हैं । तैसे धर्मादिक द्रव्यनि के अवगाह क्रिया का अभाव होते संत भी लोक विष सर्वत्र सद्भाव की अपेक्षा अवगाह का उपचार कीजिए है।
इहां प्रश्न - जो अवकाश देना आकाश का स्वभाव है, तो वज्रादिक करि पाषाणदिक का पर भीति इत्यादिक करि गऊ इत्यादिकनि का रोकना कैसे हो है। सो रोकना तौ देखि रहे है । तातै आकाश तौ तहा भी था, पाषाणादिक को अवकाश न दीया, तब आकाश का अवगाह देना स्वभाव न रह्या ?
- तहां उत्तर - जो आकाश तो अवगाह देइ, परन्तु पूर्वं तहां अवगाह करि तिष्ठं है, वज्रादिक स्थूल हैं, तातै परस्पर रोक है। यामै आकाश का अवगाह देने का स्वभाव गया नाही; जातै तहां ही अनंत सूक्ष्म पुद्गल है, ते परस्पर अवगाह देव हैं ।
बहुरि प्रश्न - जो जैसे हैं तो सूक्ष्म पुद्गलादिकनि के भी अवगाहहेतुत्व स्वभाव आया। आकाश ही का असाधारण लक्षण कैसे कहिए है ?
तहां उत्तर - जो सर्व पदार्थनि कौं साधारण अवगाहहेतुत्व इस आकाश ही का असाधारण लक्षण है । और द्रव्य सर्व द्रव्यनि को अवगाह देने को समर्थ नाहीं । . इहां प्रश्न - जो अलोकाकाश तौ सर्व द्रव्यनि को अवगाह देता नाही, तहां असा लक्षण कैसे संभवै ?
ताका समाधान - जो स्वभाव का परित्याग होइ नाही । तहां कोई द्रव्य होता तो भवगाह देता, कोई द्रव्य तहां गमनादि न करै, तो अवगाह कौन कौं देव तिसका तो अवगाह देने का स्वभाव पाइए है । बहुरि सर्व द्रव्यनि को वर्तना किया का साधन भूत नियम करि काल द्रव्यं है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्जिका भाषाटोका ]
[ ६६३ अण्णोण्णुवयारेण य, जीवा वटंति पुग्गलाणि पुणो। देहादी-रिणवत्तण-कारणभूदा हु णियमेण ॥६०६॥
अन्योन्योपकारेण च, जीवा वर्तन्ते पुद्गलाः पुनः ।
देहादिनिर्वर्तनकारणभूता हि नियमेनं ॥६०६॥ टीका - बहुरि जीव द्रव्य है, ते परस्पर उपकार करि प्रवर्ते है । जैसे स्वामी तो चाकर को धनादिक देव है, अर चाकर स्वामी का जैसे हित होइ अर अहित का निषेध होइ तैसे कर है; सो असे परस्पर उपकार है। बहुरि आचार्य तो शिष्य कों इहलोक परलोक विष फल को देनेहारा उपदेश, क्रिया का आचरण करावना असें उपकार करै है। शिष्य उन आचार्यनि की अनुकूलवृत्ति करि सेवा करै है। जैसे परस्पर उपकार है; जैसे ही अन्यत्र भी जानना । बहुरि चकार तै जीव परस्पर अनुपकार, जो बुरा करना, तिसरूप भी प्रवत है वा उपकार - अनुपकार दोऊ रूप नाही प्रवर्ते है। बहुरि पुद्गल है, सो देहादिक जे कर्म, नोकर्म, वचन, मन, स्वासोस्वास इनिके निपजावने का नियम करि कारणभूत है । सो ए पुद्गल के उपकार हैं।
इहां प्रश्न - जो जिनिका आकार देखिये जैसे औदारिकादि शरीर, तिनिकौं पुद्गल कहौ, कर्म तो निराकार है, पुद्गलीक नाही।
तहां उत्तर - जैसे गोधूमादिक, अन्न - जलादिक मूर्तीक द्रव्य के संबंध ते पच है, ते गोधूमादिक पुद्गलीक है । तैसे कर्म भी लगुड़, कटकादिक मूर्तीक द्रव्य के संबंध तै उदय अवस्थारूप होइ पचे है, तातै पुद्गलीक ही है।
वचन दोय प्रकार है - एक द्रव्यवचन १, एक भाववचन २ । तहा भाववचन तौ वीर्यातराय, मति, श्रुत आवरण का क्षयोपशम अर अंगोपाग नामा नामकर्म का उदय के निमित्त तैं हो है । तातै पुद्गलीक है। पुद्गल के निमित्त विना भाववचन होता नाही । बहुरि भाववचन की सामर्थ्य को धरै, जैसा क्रियावान जो आत्मा, ताकरि प्रेरित हुवा पुद्गल बचनरूप परिणवै है, सो द्रव्यवचन कहिए है । सो भी पुद्गलीक ही है, जातै सो द्रव्यवचन कर्ण इद्रिय का विषय है, जो इन्द्रियनि का विषय है, सो पुद्गल ही है।
इहां प्रश्न - जो कर्ण विना अन्य इंद्रियनि का विषय क्यों न होइ ?
तहां उत्तर - जो जैसे गंध नासिका ही का विषय है, सो रसनादिक करि गंडा नं जाय । तैसे शब्द' कर्ण ही का विषय है, अन्य इद्रियनि करि योग्य नाहीं।
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[ गोम्मटमार जीवक13 गाया ६०० ६६४ ]
इहां तर्क - जो वचन अमूर्तीक है, तहां कहिए है, अशा कहना भी प्रयुक्त है, जाते वचन मूर्तीक करि ग्रह्या जाय है। वा मूर्तीक द्रव्य करि रुक है वा नष्ट हो है; तातै मूर्तीक ही है । बहुरि द्रव्य भाव के भेद ते मन भी दोय प्रकार है । तहा भावमन तौ लब्धि उपयोग रूप है, सो क्षयोपशमादिक पुद्गलीक निमित्त ते हो है । ताते पुद्गलीक ही है । बहुरि ज्ञानावरण, वीर्यांतराय का क्षयोपशम पर अगोपाग नामा नामकर्म का उदय, इनिके निमित्त ते गुण - दोष का विचार, स्मरण, इत्यादिकल्प सन्मुख भया, जो आत्मा, ताको उपकारी जे पुद्गल, सो मनरूप होइ परिणव हैं। ताते द्रव्यमन भी पुद्गलीक है ।
इहां कोऊ कहै कि मन तौ एक जुदा ही द्रव्य है, रूपादिकरूप न परिणव हैं। अणूमात्र है । तहा आचार्य कहै है - तीहि मन स्यौं अात्मा का संबंध है कि नाही है? जो संबंध नाही है तो आत्मा को उपकारी न होइ, इन्द्रियनि विर्षे प्रधानता को न धरै और जो संबध है तो, वह तो अणूमात्र है, सो एकदेश विप उपकार करेगा अन्य प्रदेशनि विषै कैसे उपकार कर है ? । . तहां तार्किक कहै है - अमूर्तीक, निष्क्रिय आत्मा का एक अदृप्टनामा गुरण है। सो अदृष्ट जो कर्म ताका वश करि तिस मन का कुभार का चक्रवत परिभ्रमण करै है, सो असा कहना भी प्रयुक्त है । अणूमात्र जो होइ ताके भ्रमण की समर्थता नाही । बहुरि अमूर्तीक निष्क्रिय का अदृष्ट गुण कह्या, सो औरनि के क्रिया का आरंभ करावने को समर्थ न होइ। जैसै पवन आप क्रियावान है, सो स्पर्श करि बनस्पती को चंचल कर है, सो यह तौ अणूमात्र निष्क्रिय का गुण सो आप क्रियावान नाही, अन्य को कैसे क्रियावान प्रवर्तावै है ? तातै मन पुद्गलीक ही है। , बहुरि वीर्यातराय अर ज्ञानावरण का क्षयोपशम अर अंगोपांगनामा नामकर्म के उदय, तीहि करि संयुक्त जो आत्मा, ताके निकसतौ जो कंठ सवधी उस्वासरूप पवन, सो प्राण कहिए। बहुरि तोहिं पवन करि बाह्य पवन कौ अभ्यंतर करता निस्वासरूप पवन, सो अपान कहिए । ते प्राण-अपान जीवितव्य को कारण है । तातै उपकारी है, सो मन अर प्राणापान ए मूर्तीक है । जातै भय के कारण बज्रपातादिक मूर्तीक, तिनितै मन का रुकना देखिए है। बहुरि भय के कारण दुर्गंधादिक, तीहि करि वा हस्तादिक तें मुख के माच्छादन करि वा श्लेष्मादिक करि प्राण-अपान का रुकना देखिये है, तातै दोऊ मूर्तीक ही है। अमूर्तीक होइ तौ मूर्तीक करि रुकना व
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] संभव है । बहुरि ताही ते आत्मा का अस्तित्व की सिद्धि हो है । जैसे कोई काष्ठादिक करि निपज्या प्रतिबिम्ब, सो चेष्टा करै तौ तहां जानिए यामैं तौ स्वयं शक्ति नाही, चेष्टा करानेवाला कोई पुरुष है । तैसै अचेतन जड शरीर विषै जो प्राणापानादिक चेष्टा हो है, तिस चेष्टा का प्रेरक कोई आत्मद्रव्य अवश्य हैं । जैसे आत्मा का अस्तित्व की सिद्धि हो है । बहुरि सुख, दुःख, जीवितं, मरण ए भी पुद्गल द्रव्य ही के उपकार हैं - तहां साता - असाता वेदनीय का उदय तो अंतरंग कारण अर बाह्य इष्ट अनिष्ट
वस्तु का संयोग इनिके निमित्त तें जो प्रीतिरूप वा आतापरूप होना, सो सुख दुख है। बहुरि आयुकर्म के उदय ते पर्याय की स्थिति को धारता जीव के प्राणापान क्रिया विशेष का नाश न होना, सो जीवित कहिए। प्राणापान क्रियाविशेष का उच्छेद होना, सो मरण कहिए । सो ए सुख, दुख, जीवित, मरण मूर्तीक द्रव्य का निमित्त निकट होत सतै ही हो है; तातै पुद्गलीक ही है । बहुरि पुद्गल है, सो केवल जीव ही कौं उपकारी नाहीं, पुद्गल को भी पुद्गल उपकारी है। जैसे कासी इत्यादिक कौ भस्मी इत्यादिक अर जलादि कौं कतक फलादिक पर लोहादिक कौं जलादिक उपकारी देखिए है। जैसे और भी जानिए हे। बहुरि औदारिक, वैनियिक, आहारक नामा नामकर्म के उदय ते तैजस आहार वर्गणा करि निपजे तीन शरीर है, अर सासोस्वास है । बहुरि तैजस नामा नामकर्म के उदय ते तैजस वर्गणा ते निपज्या तैजस शरीर है। बहुरि कार्माण नामा नामकर्म के उदय ते कार्माण वर्गणा करि निपज्या . कार्माण शरीर है । बहुरि स्वर नामा नामकर्म के उदय ते भाषावर्गणा ते निपज्या
वचन है । बहुरि नोइद्रियावरण का क्षयोपशम करि सयुक्त सैनी जीव के अगोपाग - नामा नामकर्म के उदय तें मन वर्गणा ते निपज्या द्रव्य मन है, असे ए पुद्गल के
उपकार है। . इस ही अर्थ को दोय सूत्रनि करि कहै है - ... आहारवग्गणादो, तिण्णि सरीराणि होति उस्सासो । ... णिस्सासो वि य तेजोवग्गणखंधादु तेजंगं ॥६०७॥
आहारवर्गणात् त्रीणि शरीराणि भवन्ति उच्छवासः ।
निश्वासोऽपि च तेजोवर्गणास्कन्धात्तुतेजोऽङ्गम् ॥६०७॥ टीका - तेईस जाति की वर्गणानि विषै आहारक वर्गणा ते औदारिक, वैक्रियिक, आहारक तीन शरीर हो है। अर उस्वास निश्वास हो है । बहुरि तैजस वर्गणा का स्कवनि करि तैजस शरीर हो है।
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Fe૬ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६०८-६१०
भास-मण- वग्गणादो, कमेण भाषा मणं च कम्मादो | अट्ठ-विह-कम्मदव्वं, होदि त्ति जिणेहि रिद्दिट्ठ ॥ ६०८ ॥
भाषामनो वर्गरणातः क्रमेण भाषा मनश्च कार्मणतः । श्रष्टविधद्रव्यं भवतीति जिनैर्निदिष्टम् ||६०८ ||
टीका - भाषावर्गणा का स्कंधनि करि च्यारि प्रकार भाषा हो है । सुतोवर्गणा का स्कंधनि करि द्रव्यमन हो है । कार्मारण वर्गरणा का स्कंधनि करि आठ प्रकार कर्म हो है, जैसे जिनदेवने का है ।
रिपद्धतं लुक्खत्तं, बंधस्स य कारणं तु एयादी । संखेज्जासंखेज्जाणंतविहा णिद्धलुक्खगुणा ॥ ६०६ ॥
स्निग्धत्वं रूक्षत्वं, बन्धस्य च कारणंतु एकादयः । संख्येयासंख्येयानन्तविधाः स्निग्धरूक्षगुणाः || ६०९॥
टीका बाह्य अभ्यंतर कारण के वश ते जो स्निग्ध पर्याय का प्रगटपना करि चिकणास्वरूप होइ, सो स्निग्ध है । ताका भाव, सो स्निग्धत्व कहिये ।' बहुरि रुखारूप होई, सो रूक्ष है; ताका भाव, सो रूक्षत्व कहिए । सो जल वा छेली का दूध वा गाय का दूध वा भैसि का दूध वा ऊटरणी का दूध वा घृत इनि विषै स्निग्धगुण की अधिकता वा हीनता देखिए है । अर धूलि, वालू, रेत वा तुच्छ पाषाणादिक इनिविषै
गुण की अधिकता वा हीनता देखिए है । तैसे ही परमाणू विषै भी स्निग्ध रूक्षगुण की विकता हीनता पाइए है । ते स्निग्ध - रूक्षगुण द्वयणुकादि स्कंधपर्याय का परि गमन का कारण हो है । बहुरि चकार तै स्कंध ते बिछुरने के भी कारण हो है । स्निग्धरूप दोय परिमाणूनि का वा रूक्षरूप दोय परमाणू का एक रूक्ष वा एक स्निग्ध परमाणू का परस्पर जुडनेरूप बंध होते द्वयणुक स्कंध हो है । जैसे सख्यात, असंख्यात, ते परिमाणूनि का स्कध भी जानना । तहां स्निग्ध ग ुण वा रूक्षगण अंशनि की अपेक्षा सख्यात, असख्यात, प्रनत भेद कौ लीए है ।
एयगुरगं तु जहां, द्धित्तं विगुण-तिगुण-संखेज्जाsसंखेज्जाणंतगुणं, होदि तहा रुक्खभावं च ॥ ६१०॥
१. ‘स्निग्पस्वत्वादुवचः' तत्त्वायंसूत्र श्रध्याय ४, सूत्र -३३ ।
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[ ६९७
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका j
एकगुणं तु जघन्यं, स्निग्धत्वं द्विगुणत्रिगुणसंख्येया।
संख्येयानन्तगुणं, भवति तथा रूक्षभावं च ॥६१०॥ टीका - स्निग्ध गुण जो एक गुण है; सो जघन्य है, जाके एक अंश होइ, ताकौं एक गुण कहिए। ताकी आदि देकरि द्विगुण, त्रिगुण, संख्यातगुण, असंख्यातगुण अनंतगुणरूप स्निग्ध गुण जानना । तेसै ही रूक्षगुण भी जानना। केवलज्ञानगम्य सब तै थोरा जो स्निग्धत्व रूक्षत्व, ताकौं एक अंश कल्पि, तिस अपेक्षा स्निग्ध-रूक्ष गुण के अंशनि का इहां प्रमाण जानना ।
एवं गुणसंजुत्ता, परमाणू आदिवग्गणम्मि ठिया । जोग्गदुगारणं बंधे, दोण्हं बंधो हवे णियमा ॥६११॥
एवं गुरणसंयुक्ताः, परमारणव आदिवर्गणायां स्थिताः । योग्यद्विकयोः बन्धे, द्वयोर्बन्धो भवेनियमात् ॥११॥
टीका- असें स्निग्ध - रूक्ष गुण करि संयुक्त परमाणू, ते प्रथम अणु वर्गणा विष तिष्ठं है । सो यथायोग्य दोय का बंध स्थान विष, तिनही दोय परमाणूनि का बंध हो है।
नियमकरि स्निग्ध-रूक्ष गुण के निमित्त ते सर्वत्र बंध हो है। किछ विशेष नाही। जैसे कोऊ जानेगा, तातै जहां बंध होने योग्य नाही असा निषेध पूर्वक जहां बंध होने योग्य है, तिस विधि को कहै है
णिद्धणिद्धा ण बज्झति, रुक्खरुक्खा य पोग्गला। गिद्धलुक्खा य बझंति रूवारूवी य पोग्गला ॥६१२॥
स्निग्धस्निग्धा न बध्यन्ते, रूक्षरूक्षाश्च पुद्गलाः। स्निग्धरक्षाश्च बध्यन्ते, रूप्यरूपिणश्च पुद्गलाः ॥६१२॥
टीका - स्निग्ध गुण युक्त पुद्गलनि करि स्निग्ध गुण युक्त पुद्गल बंध नाही । बहुरि रूक्षगुणयुक्त पुद्गलनि करि रूक्ष गुण युक्त पुद्गल वंध नाही, सो यहु कथन सामान्य है । बंध भो हो है । सो विशेष आगे कहेगे। बहुरि स्निग्ध गुण युक्त
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६१३-६१५ ६६८ पुद्गलनि करि रूक्ष गुण युक्त पुद्गल बंधे है । बहुरि तिनि पुद्गलनि की दोय संज्ञा है - एक रूपी, एक अरूपी ।
तिनि संज्ञानि को कहै हैसिद्धिदरोलीमज्झ, विसरिसजादिस्स समगुणं एक्कं । रूवि त्ति होदि सण्णा, सेसाणं ता अरूवि त्ति ॥६१३॥
स्निग्धेतरावलीमध्ये, विसदृशजातेः समगुरण एकः ।
रूपीति भवति संज्ञा, शेषाणां ते अरूपिण इति ॥६१३॥ टीका - स्निग्ध-रूक्ष गुणनि की पंकति, तिनके विष विसदृश जाति कहिए । स्निग्ध के अर रूक्ष के परस्पर विसदृश जाति है, ताकै जो कोई एक समान गुण होइ ताको रूपी जैसी संज्ञा करि कहिए है । पर समान गुण बिना अवशेष रहे, तिनिकों अरूपी जैसी संज्ञा करि कहिए है।
ताही को उदाहरण करि कहैं हैदोगुणणिद्धाणुस्स य, दोगुणलुक्खाणुगं हवे रुवी। इगि-तिगुरणादि अल्वी, रुक्खस्स वि तं व इदि जाणे ॥६१४॥
द्विगुणस्निग्धाणोश्च द्विगुणरूक्षाणुको भवेत् रूपी ।
एकत्रिगुणादि. अरूपी, रूक्षस्यापि तद् व इति जानीहि ॥६१४॥ टीका - दूसरा है गुण जाकै वा दोय है गुण जाकै असा जो द्विगुण स्निग्ध परमाणू, ताकै द्वि गुण रूक्ष परमाणू रूपी कहिए, अवशेष एक, तीन, च्यारि इत्यादि गुण धारक परमाणू अरूपी कहिए। जैसे ही द्वि गुण रूक्षाणु के द्वि गुण स्निग्धाणू रूपी कहिए; अवशेष एक, तीन इत्यादिक गुणधारक परमाणू अरूपी कहिए।
णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण' । गिद्धस्स लुक्खेण हवेज्ज बंधो, जहण्णवज्जे विसमे समे वा।६१५॥
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१ 'गुणसाम्ये सदशाणाम्' तत्त्वार्थसूत्र : अध्याय-४, सूत्र-३५ । २ 'द्वयधिकादिगुणानातु' तत्त्वार्थसूत्र : अध्याय-४, सूत्र-३६ २ न जघन्यगुणानाम् ॥३४॥
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा'६३०-६३२
1905)
होति खवा इगिसमये, बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य । उक्कस्सेणठुत्तरसयप्पमा सग्गदो य चुदा ॥६३०॥ पत्तेयबुद्ध-तित्थयर-त्थि-णउंसय-मणोहिणाबजुदा । दस-छक्क-वीस-दस-वीसठ्ठावीसं जहाकमसो ॥६३१॥ जेट्ठावरबहुमझिम-योगाहणगा दु चारि अद्वैव । जुगवं हवंति खवगा, उवसमगा अद्धमेदेसि ॥६३२॥ विसेसयं ।
भवन्ति क्षपका एकसमये, बोधितबुद्धाश्च पुरुषवेदाश्च । उत्कृष्टेनाष्टोत्तरशतप्रमाः, स्वर्गतश्च च्युताः ॥६३०॥ प्रत्येकबुद्धतीर्थंकरस्त्रीनपुसकमनोऽवधिज्ञानयुताः । दशषटकविंशतिदविंशत्यष्टाविंशो यथाक्रमशः॥६३१॥ ज्येष्ठावरबहुमध्यामावगाहा द्वौं चत्वारः अष्टव । युगपद् भवन्ति क्षपका, उपशमका अर्द्धमेतेषाम् ॥६३२॥ विशेषकम् ।
टीका - युगपत् एक समय विषै क्षपक श्रेणीवाले जीव असै उत्कृष्टता करि पाइये है । वोधित-बुद्ध तौं एक सौ आठ, पुरुषवेदी एक सौ आठ, स्वर्ग ते चय करि मनुप्य होइ क्षपक भए असे एक सौ आठ, प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि के धारक दश, तीर्थकर छह, स्त्री वेदी वीस, नपुंसक वेदी दश, मनःपर्ययज्ञानी बीस, अवधिज्ञानी अठाईस मुक्त होने योग्य शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना के धारक दोय, जघन्य अवगाहना के धारक च्यारि, सर्व अवगाहना के मध्यवर्ती भैसी अवगाहना के धारक आठ अस ए सर्व मिले हुवे च्यारि सै बत्तीस भए । बहुरि उपशमक इनि ते आधे सर्व पाइए । तातै सर्व मिले हृवे दोय से सोलह भए पूर्व गुणस्थाननि विर्षे एकठे भए जीवनि की सख्या कही थी, इहा असा कह्या है - जो श्रेणी विष युगपत् उत्कृष्ट होंइ तौ पूर्वोक्त जीव पूर्वोक्त प्रमाण होंइ, अधिक न होंइ।
१ गाथा सं. ६३०, ६३१ के लिए पट्खण्डागम - धवला पुस्तक ५ के पृष्ठ क्रम से ३०४, ३११,३२१
और ३०७, ३२०, २३ देखें।
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सम्याज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[७०४
प्रागै सर्वसयमी जीवनि की संख्या कहै हैंसत्तादी अळंता छण्णवमझा य संजदा सव्वे । अंजलि-मौलिय-हत्थो तियरणसुद्धे णमंसामि ॥६३३॥
सप्तादय-अष्टान्ताः षण्णवमध्यांश्च संयताः सर्वे ।
अंजलिमौलिकहस्तस्त्रिकरणशुद्धया नमस्यामि ॥६३३॥ टीका - सात का अंक आदि पर पाठ का. अंक अंत. अर मध्य विष छह नव के अंक ८६६६६६६७ असे लिखै भई तीन घाटि नव कोडि सख्या तीहि प्रमाण जे संयमी छठे गुणस्थान तै लगाइ चौदहवां गुणस्थान पर्यंत है। तिनिकौ अजुली करि मस्तक हस्त लगावतौ संतौ मन, वचन, कायरूप त्रिकरण शुद्धता करि नमस्कार मैं करौ हौ । तहा प्रमत्तवाले ५६३९८२०६, अप्रमत्तवाले २६६६६१०३, च्यार्यो गुणस्थानवर्ती उपशम श्रेणीवाले ११६६, च्यारयों गुणस्थानवर्ती क्षपक श्रेणीवाले २३९२, सयोगी जिन ८९८५०२, मिले हुवे जे (८६६६६३९६) भए ते नव कोडि तीन घाटि विर्षे घटाएं अवशेष पाच से अठ्यारणवै रहे, ते अयोगी जिन जानने ।
. आगै च्यारि गतिनि का मिथ्यादृष्टी, सासादन, मिश्र, अविरत गुणस्थानवर्ती तिनकी संख्या का साधक पल्यः के भागहार का विशेष कहै हैं - जाका भाग दीजिए ताकौं। भागहार कहिए सो आगे जो जो भागहार का प्रमाण कहै है; तिस तिसका पल्याको भाग दीजिए, जो जो प्रमाण आवै, तितना तितना तहां जीवनि का प्रमाण जानना । जहा भागहार का प्रमाण थोरा होइ, तहां जीवनि का प्रमाण बहुत जानना । जहा भागहार का प्रमाण बहुत होइ, तहां जीवनि का प्रमाण थोरा जानना । असे एक हजार को पांच का भाग दीए दोय से पावै, दोय सै का भाग दीए पाच ही पावै सै जानना।
सो अब भागहार कहैं है
ओघा-संजद-मिस्सय-सासण-सम्माण भागहारा जे । ___रूऊणावलियासंखेज्जेणिह भजिय तत्थ णिक्खिते ॥६३४॥
१ पटखण्डागम-धवला पुस्तक ३, पृष्ठ ९८, निर्जर्भाजदा समगुरिणदापमत्तरासी प्रमता । २. षटखण्डागम - धवला पुस्तक ३, पृष्ठ १६०-१८४॥
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१०]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ६३
देवणं अवहारा, होंति श्रसंखेण ताणि श्रवहरिय | तत्थेव य पक्खित्ते, सोहम्मीसारण अवहारा' || ६३५ || जुम्मं ।
प्रोघा असंयतमिश्रकसासनसमीचां भागहारा ये । रूपोनावलिका संख्यातेनेह भक्त्वा तत्र निक्षिप्ते ||६३४ ||
देवानामवहारा, भवंति श्रसंख्येन तानवहृत्य । तत्रैव च प्रक्षिप्ते, सौधर्मेशानावहाराः ॥६३५ ॥
टीका - गुणस्थान संख्या विषै पूर्वे जो असंयत, मिश्र, सासादन की संख्या विषै जो पल्य कौ भागहार कह्या है, तिनको एक घाटि प्रावली का असख्यातवां भाग का भाग दीए, जो प्रमाण आवै, तितना तितना तिन भागहारनि में मिलाए देवगति विषै भागहार हो है । तहां पूर्वे असंयत गुरगस्थान विषै भागहार का प्रमारग एक वार असंख्यात का था, ताको एक घाटि आवली का असंख्यातवा भाग का भाग दीजिये, जो प्रमाण आवै, तितने तिस भागहार में मिलाइए, जो प्रमाण होइ, तितना देवगति सम्बन्धी असंयत गुणस्थान विषै भागहार जानना । इस भागहार का भाग पल्य क दीए, जो प्रमाण होइ, तितने देवगति विषं असंयत गुणस्थानवर्ती जीव है । जैसे ही आगे भी पल्य के भागहार जानने । बहुरि मिश्र विषै दोय वार असंख्यात रूप अर सासादन विषे दोय बार असंख्यात अर एक वार सख्यात रूप पूर्वे जो भागहार का प्रमाण का था, तिसका एक घाटि आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीएं, जो जो प्रमाण आवै, तितना तितना तहां मिलाए, देवगति संबंधी मिश्र विषै वा सासादन विभागहार का प्रमाण हो है । बहुरि देवगति संबंधी असंयत वा मिश्र वा सासा - दन विपै जो जो भागहार का प्रमाण कह्या, तिस तिसको एक घाटि आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीएं, जो जो प्रमाण आवै, तितना तितना तिस तिस भागहार मे मिलाये, जो जो प्रमारण होइ, सो सो सौधर्म - ईशान संबंधी अविरत वा मिश्र वा सासादन विषै भागहार जानना । जो देवगति संबंधी अविरत विषै भागहार कह्या था, ताकौ एक घाटि आवली का असंख्यातवां भाग का भाग दीएं, जो प्रमाण होइ, तितना तिस भागहार विषै मिलाए, सौधर्म - ईशान स्वर्ग संबंधी असंयत विषे भागहार हो है । इस ही प्रकार मिश्र विषे वा सासादन विषे भागहार जानना ।
१ पट्खण्डागम - घवला पुस्तक- ३, पृष्ठ १६०-१८४ |
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका 1
[ ७११ सोहम्मेसारणहारमसंखेरण य संखरूवसंगुणिदे । उवरि असंजद-मिस्सय-सासणसम्माण अवहारा' ॥६३६॥
सौधर्मेशानहारमसंख्येन च संख्यरूपसंगुरिणते ।
उपरि असंयतमिश्रकसासनसमीचामवहाराः ॥६३६॥ टोका - बहुरि ताके ऊपरि सनत्कुमार - माहेंद्र स्वर्ग है । तहां असयत विपै सौधर्म - ईशान संबंधी सासादन का भागहार ते असंख्यात गुणा भागहार जानना । इस असंयत का भागहार तै चकार करि असख्यात गुणा मिश्र विष भागहार जानना। यातै संख्यात गुणा सासादन विषै भागहार जानना। ___ आगै इस गुणने का अनुक्रम की व्याप्ति दिखावै है
सोहम्मादासारं, जोइसि-वण-भवण-तिरिय-पुढवीसु । अविरद-मिस्सेऽसंखं, संखासंखगुण सासणे देसे ॥६३७॥
सौधर्मादासहस्रारं, ज्योतिषिवनभवनतिर्यक्पृथ्वीषु ।
अविरतमिश्रेऽसंख्यं संख्यासंख्यगुणं सासने देशे ॥६३७॥ टीका- सौधर्म - ईशान के ऊपरि सानत्कुमार - माहेन्द्र ते लगाइ शतारसहस्रार पर्यत पच युगल अर ज्योतिषो अर व्यंतर अर भवनवासी अर तिर्यच पर सात नरक की पृथ्वी इनि सोलह स्थान संबधी अविरत विष अर मिथ विप प्रसख्यात गुणा अनुक्रम जानना । अर सासादन विष संख्यात गुणा अनुक्रम जानना । पर तिर्यंच सबधी देशसयत विष असख्यात गुणा अनुक्रम जानना, सो इस कथन का दिखाइए है
___ सानत्कुमार - माहेद्र विष जो सासादन का भागहार कह्या, तीहिंस्यो ब्रह्मब्रह्मोत्तर विषै असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै मिश्र का भागहार अगख्यात गुणा है । यात सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। सख्यात की सहनानी च्यारि ।४। का अक है । बहुरि यात लांतव कापिष्ठ विष असंयत का भागहार अनख्यात गुणा है । यातै मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै सामादन ना नाग
१ पट्खण्डागम - धवला पुस्तक ३, पृष्ठ सल्या २८२ से २८५ तक । २. पट्खण्डागम - धवला पुस्तक ३, पृष्ठ सस्या २८२ से २८५ तक।
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७१२ 1
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ६३७ हार संख्यात गुणा है । बहुरि यातै शुक्र - महाशुक्र विष असयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातें सासादन का भागहार सख्यात गुणा है । बहुरि यातै शतार-सहस्रार विष असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यात मिश्र का भागहार असंख्यात गुरणा है । यातै सासादन का भाग हार संख्यात गुणा है । बहुरि यातै ज्योतिषीनि विर्षे असंयत का भागहार असख्यात गुणा है । यातै मिश्र का असंख्यात गुणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। बहुरि यातें व्यंतरनि विर्षे असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है। यात मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। बहुरि यातै भवनवासीनि विर्षे असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यातें मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है। यात सासादन का भागहार संख्यात गुणा है।
बहुरि यात तियंचनि विर्षे असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है। यात मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। यात तिथंच विर्ष ही देशसंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । सो जो देशसंयत विषै जो भागहार का प्रमाण है, सोई प्रथम नरक पृथ्वी विष असंयत का भागहार है । यातै मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है। यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है । बहुरि यातै दूसरी नरक पृथ्वी विषे असंयत का भागहार असख्यात गुणा है। यात मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है । बहुरि यात तीसरी नरक पृथ्वी विष असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है। यात मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है । यात चौथी नरक पृथ्वी विष असंयत का भागहार असख्यात गुणा है । यातै मिश्र का भागहार असख्यात गुणा है । यात सासादन का भागहार संख्यात गुणा है। बहुरि याते पंचम नरक पृथ्वी विर्ष असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है। यातै सासादन-का भागहार संख्यात गुणा है। बहुरि यातै षष्ठम पृथ्वी विषे असंयत का भाराहार असंख्यात गुणा है । यातै मिश्र का भागहार असख्यात गुणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है । बहुरि यातै सप्तम नरक पृथ्वी विष असंयत का भागहार असंख्यात गुणा है। यातै मिश्र का भागहार असंख्यात गुणा है । यातै सासादन का भागहार संख्यात गुणा है।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
आगे यानादि विषै तीनि गाथानि करि कहै है --
चरम-धरासण-हारा आणदसम्माण आरणप्पहूदि । अंतिम - वेज्जंतं, सम्माणमसंखसंखगुणहारा ॥ ६३८ ॥
चरमधरासनहारादानतसमीचामारणप्रभृति । अंतिमग्रैवेयकांतं, समीचामसंख्य संख्यगुणहाराः ||६३८॥
1
टीका - तीहि सप्तम पृथ्वी संबंधी सासादन के भागहार तै प्रानत-प्राणत संबंधी अविरत का भागहार असख्यात गुणा है । बहुरि यातै आरण - अच्युत तै लगाइ नवमां ग्रैवेयक पर्यंत दश स्थानकनि विषे असंयत का भागहार अनुक्रम ते सख्यात गुणसंख्यात गुणा जानना । इहा सख्यात की सहनानी पाच का अंक है ।।
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तत्तो ताणुत्तारणं, वामागमणुद्दिसारण विजयादी । सम्माणं संखगुणो, प्राणदमिस्से असंखगुणो ॥ ६३६ ॥
ततस्तेषामुक्तानां वासानामनुदिशानां विजयादि ।
समोचां संख्यगुण, आनतमिश्रे असंख्यगुणः ॥६३९॥
टीका - तीहि अतिम ग्रैवेयक संबंधी असंयत का भागहार ते प्रानत प्राणत युगल तै लगाइ, नवमा ग्रैवेयक पर्यंत ग्यारह स्थानकनि विषै वामे जे मिथ्यादृष्टी जीव, 'तिनिका सख्यात गुरणा, सख्यात गुणा भागहार अनुक्रम ते जानना । इहा सख्यात की • सहनानी छह का अक है । बहुरि तीहि अंतिम ग्रैवेयक सम्बन्धी मिथ्यादृष्टी का भागहार ते नवानुदिश विमान वा विजयादिक च्यारि विमान, इनि दोऊ स्थानकनि विषे असंयत का भागहार संख्यात गुरणा, संख्यात गुणा क्रमते जानना । इहा संख्यात की सहनानी सात का अक है । बहुरि विजयादिक सम्बन्धी असयत का भागहार · आनतप्राणत सम्बन्धी मिश्र का भागहार असख्यात गुणा है ।
[ ७१३
तत्तो संखेज्जगुरणो, सासा सम्मारण होदि संखगुणो । उत्ताट्ठाणे कमसो, पणछस्सत्तट्ठचदुरसंदिट्ठी ॥६४० ॥
१. षट्खडागम घवला पुस्तक- ३, पृष्ठ स २८५ ।
२. षट्खण्डागम, धवला : पुस्तक- ३, पृष्ठ स. २८५ ।
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७१४ ]
ततः संख्येयगुणः, सासनसमीचां भवति संख्यगुणः । उक्तस्थाने क्रमशः पंचषट्सप्ताष्टचतुः संदृष्टिः ||६४०||
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६४१
तै टीका - तीहि आनत प्रारणत सम्बन्धी मिश्र का भागहार ते आरण-अच्युत लगाइ नवमा ग्रैवेयक पर्यंत दश स्थानकनि विषै मिश्र गुणस्थान संबंधी भागहार अनुक्रम तै संख्यात गुणा, संख्यात गुणा जानना । इहां संख्यात की सहनानी श्राठ का अंक है । बहुरि अंतिम ग्रैवेयक के मिश्र का भागहार तैं आनत प्रारणत तै लगाइ नवमां ग्रैवेयक पर्यंत ग्यारह स्थानकनि विषै सासादन का भागहार अनुक्रम तै संख्यात गुणा संख्यात गुणा जानना । इहां संख्यात को सहनानी च्यारि |४| का अक है । ए कहे पच स्थानक, तिनिविषै संख्यात की सहनानी क्रमते पांच, छह, सात, आठ, च्यारि का अंक जानना; सो कहते ही आए है ।
-
सग-सग - अवहाह, पल्ले भजिदे हवंति सगरासी । सग-सग - गुरपडिव सग-सग-रासीसु प्रवणिदे वामा ॥ ६४ ॥
स्वकस्वकावहारैः, पल्ये भक्ते भवंति स्वर्कराशयः । स्वकस्वकगुणप्रतिपन्नेषु, स्वकस्वकराशिषु प्रपनीतेषु वामाः ||६४१॥
―
टीका पूर्व कह्या जो अपना-अपना भागहार, तिनिका भाग पल्य कौ दोए, जो जो प्रमाण आवै, तितने-तितने जीव तहां जानने । बहुरि अपना-अपना सासादन, मिश्र, असयत अर देशसंयत गुरणस्थाननि विषै जो-जो प्रमाण भया, तिनिका जोड दीए, जो-जो प्रमाण होइ, तितना - तितना प्रमाण अपना-अपना राशि का प्रमाण मे घटाए, जो-जो अवशेष प्रमाण रहे, तितने-तितने जीव, तहां मिथ्यादृष्टी जानने । तहा सामान्यपनै मिथ्यादृष्टी किंचित् ऊन ससारी - राशि प्रमाण है । सामान्यपने देवगति विषै ऊन किचित् देवराशि प्रमाण मिथ्यादृष्टी जानने । सौधर्मादिक विषे जो-जो जीवनि का प्रमाण कह्या है, तहां द्वितीयादि गुणस्थान सबधी प्रमाण घटावने के निमित्त किचित् ऊनता कीएं, जो-जो प्रमाण रहै, तितने-तितने मिथ्यादृष्टी है । सो सौधर्मादिक विपें जीवनि का प्रमाण कितना - कितना है ? सो गति मार्गणा विषे का ही है । इहां भी किछु कहिए है
सौधर्म - ईशानवाले घनांगुल का तृतीय वर्गमूल करि जगच्छू णी कौं गुणै, जो प्रमाण होइ, तितने है । सनत्कुमार युगल आदिक पंच युगलनि विषै क्रम तै जग
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका ]
[ ७१५
च्छ्रेणी का ग्यारह्नां, नवमां, सातवा, पांचवां, चौथा वर्गमूल का भाग जगच्छे णी कौ दीएं, जो-जो प्रमाण श्रावै, तितने तितने है । ज्योतिषी पण्णट्ठि प्रमाण प्रतरांगुल का भाग जगत्प्रतर कौ दीए, जो प्रमाण आवै, तितने है । व्यंतर संख्यात प्रतरागुल का भाग जगत्प्रतर कौं दीए, जो प्रमाण आवै, तितने है । भवनवासी घनांगुल के प्रथम वर्गमूल करि जगच्छ्रेणी की गुणै, जो प्रमाण आवै, तितने है । तिर्यंच किंचित् ऊन संसारीराशि प्रमाण है । प्रथम पृथ्वी विषे नारकी घनांगुल का द्वितीय वर्गमूल करि साधिक बारह्नां भाग करि हीन जो जगच्छ्र ेणी, ताकौ गुणै, जो प्रमाण होइ, तित है । द्वितीयादि पृथ्वी विषै क्रमते जगच्छ्रेणी का बारह्वा, दशवा, आठवां, छठा, तीसरा, दूसरा वर्गमूल का भाग जगच्छ्र ेणी को दीए, जो जो प्रमाण होइ, तितने-तितने जानने । इनि सबनि विषै अन्य गुणस्थानवालो का प्रमाण घटावने के अर्थी किंचित् ऊन कीएं, मिथ्यादृष्टी जीवनि का प्रमारण हो है । बहुरि आनतादिक विषे मिथ्यादृष्टी जीवनि का प्रमाण इहां ही पूर्वे का है । बहुरि सर्वार्थसिद्धि विषे हम सर्व असयत ही है । ते द्रव्य स्त्री मनुष्यणी तिनितै तिगुणे वा कोई आचार्य के मत कर सात गुणे कहे है ।
आगे मनुष्य गति विषै सख्या कहे है
तेरसकोडी देसे, बावण्णं सासणे मुरणेदव्वा ।
मिस्सा वि य तदुगुणा, श्रसंजदा सत्त-कोडि - सयं ॥६४२ ॥
त्रयोदशकोट्यो देशे, द्वापंचाशत् सासने मंतव्याः ।
मिश्रा अपि च तद्विगुणा असंयताः सप्तकोटिशतम् ॥ ६४२ ॥
टीका - मनुष्य जीव देशसयत विषै तेरह कोडि है । बावन कोडि सासादन विषै जानने । मिश्र विषै तिनते दुगुणे एक सौ च्यारि कोडि जानने । प्रसयत विषै सातसै कोडि जानने और प्रमत्तादिक की सख्या पूर्वे कही है; सोई जाननी । अस गुणस्थाननि विषै जीवनि का प्रमाण कह्या है ।
जीविदरे कम्मचये, पुण्णं पावो त्ति होदि पुण्णं तु । सुपडी दव्वं, पावं असुहाण दव्वं तु ॥ ६४३॥
१ षट्खण्डागम घवला पुस्तक- ३, पृष्ठ- २५२, गाथा स. ६८ तथा पृष्ठ-२५४, गाया स
७० तक
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७१६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६४४-६४५
जीवेतरस्मिन् कर्मचये, पुण्यं पापमिति भवंति पुण्यं तु । शुभप्रकृतीतां द्रव्यं पापं अशुभप्रकृतीनां द्रव्यं तु ॥ ६४३ ॥
टीका जीव पदार्थ संबंधी प्रतिपादन विषे सामान्यपर्ने गुणस्थाननि विषै मिथ्यादृष्टी अर सासादन ए तो पापजीव हैं । बहुरि मिश्र है ते पुण्य-पापरूप मिश्र जीव है; जाते युगपत् सम्यक्त्व पर मिथ्यात्वरूप परिणए है । बहुरि असंयत तौ सम्यक्त्व करि संयुक्त है । अर देशसंयत सम्यक्त्व पर देशव्रत करि संयुक्त हैं । ग्रर प्रमत्तादिक सम्यक्त्व अर सकलव्रत करि संयुक्त है । ताते ए पुण्यजीव है । यसै कहि, याके अनंतरि जीव पदार्थ संबंधी प्ररूपणा करें हैं ।
तहां कर्मचय कहिए कार्मारणस्कंध, तिसविषै पुण्यपापरूप दोय भेद है । तातें अजीव दो प्रकार है । तहां साता वेदनी नरक बिना तीन आयु, शुभ नाम, उच्चगोत्र ए शुभ प्रकृति है । तिनिकौं द्रव्यपुण्य कहिए । बहुरि घातिया कर्मनि की सर्व प्रकृति, असातावेदनी, नरक आयु, अशुभ नाम, नीच गोत्र ए अशुभ प्रकृति हैं । तिनिक द्रव्यपाप कहिए ।
आसव-संवरदव्वं, समयपबद्धं तु णिज्जरादव्वं ।
तत्तो असंखगुणिदं, उक्कस्सं होदि नियमेण ॥ ६४४॥
प्रात्रवसवरद्रव्यम्, समयप्रबद्धं तु निर्जराद्रव्यम् । ततोऽसंख्यगुणितमुत्कृष्टं भवति नियमेन || ६४४॥
टीका - बहुरि प्रस्रव द्रव्य र सवर द्रव्य समयप्रबद्ध प्रमाण है; जातें एक समय विषै आस्रव समयप्रबद्ध प्रमाण पुद्गल परमाणूनि ही का हो है । बहुरि सवर होइ तौ तितने ही कर्मनि का प्रस्रव न होइ ताते द्रव्य संवर भी तितना ही कह्या । बहुरि उत्कृष्ट निर्जरा द्रव्य समयप्रबद्ध ते असंख्यात गुणा नियम करि जानना; जातै गुणश्रेणी निर्जरा विषै उत्कृष्टपने एक समय विषै असंख्यात समयप्रबद्धनि की निर्जरा कर है ।
बंधो समयपबद्धो, किंचूरणदिवड्ढमेत्तगुणहाणी |
मोक्खो य होदि एवं सद्दहिदव्वा तु तच्चट्ठा ॥ ६४५ ॥
बंधः समयप्रबद्धः, किंचिद्नद्वयर्धमात्रगुरणहानिः ।
मोक्षश्च भवत्येवं श्रद्धातव्यास्तु तत्त्वार्थाः ||६४५॥
·
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सम्मशानचन्त्रिका भावाटोका ]
। ७१७ टीका - बहुरि बंध द्रव्य भी समयप्रबद्ध प्रमाण है; जाते एक समय विष समयप्रबद्ध प्रमाण कर्म परमाणूनि ही का बंध हो है। बहुरि मोक्ष द्रव्य किचिदून द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है; जाते अयोगी के चरम समय विष द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्व प्रमाण सत्ता पाइए । 'तिस ही का मोक्ष हो है। इस प्रकार तत्वार्थ है, ते श्रद्धान करणे, इस तत्त्वार्थ श्रद्धान ही का नाम सम्यक्त्व
आगे सम्यक्त्व के भेद कहै हैखीणे दंसणमोहे, जं सद्दहणं सुणिम्मलं होई । तं खाइय-सम्मत्तं, णिच्चं कम्म-क्खवण-हेदू ॥६४६॥
क्षीणे दर्शनमोहे, यच्छद्धानं सुनिर्मलं भवति ।
तत्क्षायिकसम्यक्त्वं नित्यं कर्मक्षपणहेतुः ॥६४६॥ टीक - मिथ्यात्व मोहनी, सम्यग्मिथ्यात्व मोहनी, सम्यक् मोहनी अर अनंतानुबधी की चौकड़ी इनि-सात प्रकृतिनि का करणलब्धिरूप परिणामनि का बल ते नाश होत संतै जो अति निर्मल श्रद्धान होइ, सो क्षायिक सम्यक्त्व है। सो प्रतिपक्षी कर्म का नाश करि आत्मा का गुण प्रगट भया है; तातै नित्य है । बहुरि समय समय प्रति गुणश्रेणी निर्जरा को कारण है। तातै कर्मक्षय का हेतु है । उक्त च
दंसरणमोहे खविदे, सिज्झदि एक्केव तदियतुरियभवे ।
रणादिक्कदि तुरियभवं रण विरणस्सदि सेस सम्मं च ।। दर्शन मोह का क्षय होते, तीहिं भव विषै वा देवायु का बध भए तीसरा भव विर्ष वा पहिलै मिथ्यात्वदशा विर्षे मनुष्य, तिर्यचआयु का बध भया होइ तौ चौथा भव विष सिद्ध पद को प्राप्त होइ, - चौथा भव को उलंघे नाही। बहुरि अन्य सम्यक्त्ववत् यह क्षायिक सम्यक्त्व विनशै भी नाही, तीहिस्यों नित्य कहा है। सादि अक्षयानत है । आदि सहित अविनाशी अंत रहित है; यह अर्थ जानना।
१. पटखण्डागम धवला. पुस्तक-१, पृष्ठ ३६७, गाथा स.२१३ ।
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७१८]
इस ही अर्थ को कहै हैं
वयहिं विहिं वि, इंदियभयआणएहि रूवेहि । बीभच्छजुगंछाहिं य, तेलोक्केण वि ण चालेज्जो' ॥६४७॥
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६४७-६४९
वचनैरपि हेतुभिरपि इंद्रियभयानीतैः रूपैः ।
बीभत्स्य जुगुप्साभिश्च त्रैलोक्येनापि न चाल्यः ॥ ६४७॥
-
टीका श्रद्धान नष्ट होने की कारण से कुत्सित वचननि करि वा कुत्सित हेतु दृष्टांतनि करि वा इंद्रियनि को भयकारी से विकाररूप अनेक भेप प्राकारनि करि वा ग्लानि कौं कारण औसी वस्तु तै निपज्या जुगुप्सा, तिन करि क्षायिक सम्यक्त्व चले नाही । बहुत कहा कहिए तीन लोक मिलि करि क्षायिक सम्यक्त्व कौं चलाया चाहे तो क्षायिक सम्यक्त्व चलावने की समर्थ न होइ ।
सो क्षायिक सम्यक्त्व कौन के हो है ? सो कहै है
दंसणमोहक्खदणापट ठवगो कम्मभूमिजादो हु । मणुसो केवलिमूले, णिट्ठवगो होदि सव्वत्थ ॥ ६४८॥
दर्शन मोहक्षपणाप्रस्थापकः कर्मभूमिजातो हि ।
मनुष्यः केवलिले, निष्ठापको भवति सर्वत्र || ६४८ ॥
टीका - दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारंभ तौ कर्मभूमि का उपज्या मनुष्य ही
का केवली के पामूल विषै ही हो है । अर निष्ठापक सर्वत्र च्यारयों गति विषै हो है ।
V
भावार्थ जो दर्शन मोह का क्षय होने का विधान है, तिसका प्रारंभ तौ केवली वा श्रुतकेवली के निकट कर्मभूमिया मनुष्य ही करें है । बहुरि सो विधान होतें मरण हो जाय तौ जहां संपूर्ण दर्शन मोह के नाश का कार्य होइ निवरै, तहां ताक निष्ठापक कहिए, सो च्यार्यों गति विषै हो है ।
आगै वेदक सम्यक्त्व का स्वरूप कहै हैं
दंसणमोहुदयादो, उप्पज्जई जं पयत्थसद्दहणं । चलमलिणमगाढं तं वेदयसम्मत्तमिदि जाणे ॥ ६४६ ॥
१. पट्खण्डागम धवला पुस्तक-१ पृष्ठ ३१७, गाथा स. २१४ ।
२. पट्खण्डागम घवला पुस्तक-१ पृष्ठ ३१८, गाथा स. २१५ ।
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तम्यशानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ७१६ दर्शनमोहोदयादुत्पद्यते यत्पदार्थश्रद्धानम् ।
चलमलिनमगाढं तद् वेदकसम्यक्त्वमिति जानीहि ॥६४९॥ टीका - दर्शनमोह का भेद सम्यक्त्वमोहनी, ताका उदय करि जो तत्त्वार्थ श्रद्धान चल वा मल वा अगाढ होइ, सो वेदक सम्यक्त्व है; असा तू जानि । चल, मलिन, अगाढ का लक्षण पूर्व गुणस्थानप्ररूपणा विषे कह्या है।
आगे उपशम सम्यक्त्व का स्वरूप अर तिस ही की सामग्री का विशेष तीन गाथानि करि कहै हैं
दसणमोहवसमदो, उप्पज्जइ जं पयत्थसहहणं। - उवसमसम्मत्तमिणं, पसण्णमलपंकतोयसमं ॥६५०॥
दर्शनमोहोपशमानुत्पद्यते यत्पदार्थश्रद्धानम् ।
उपशमसम्यक्त्वमिदं प्रसन्नमलपंकतोयसमम् ॥६५०॥ - टीका - अनंतानुबंधी की चौकड़ी अर दर्शनमोह का त्रिक, इनि सात प्रकृतिनि के उदय का अभाव है लक्षण जाका असा प्रशस्त उपशम होनेते जैसे कतक फलादिक ते मल कर्दम के नीचे बैठने करि जल प्रसन्न हो है; तैसे जो तत्वार्थ श्रद्धान उपजै, सो यहु उपशम नामा सम्यक्त्व है।
खयउवसमिय-विसोही, देसण-पाउग्ग-करणलद्धीय । चत्तारि वि सामण्णा, करणं पुरण होदि सम्मत्ते ॥६५१॥
क्षायोपशमिकविशुद्धी, देशना प्रायोग्यकरणलब्धी च ।
चतस्रोऽपि सामान्याः करणं पुनर्भवति सम्यक्त्वे ॥६५१।। टीका - सम्यक्त्व के पूर्व जैसा कर्म का क्षयोपशम चाहिए तैसा होना, सो क्षयोपशमिकलब्धि । बहुरि जैसी विशुद्धता चाहिए तैसी होनी, सो विशुद्धिलब्धि । बहुरि जैसा उपदेश चाहिए तैसा पावना, सो देशनालब्धि । बहुरि पचेंद्रियादिक रूप योग्यता जैसी चाहिए तैसी होनी, सो प्रायोग्यलब्धि । बहुरि अध , अपूर्व, अनिवृत्तिकरणरूप परिणामनि का होना, सो करणलब्धि जाननी ।
तहां च्यारि लब्धि तो सामान्य है; भव्य-अभव्य सर्व के हो हैं । वहुरि करणलब्धि है, सो भव्य के ही हो है । सो भी सम्यक्त्व अर चारित्र का ग्रहण विप ही हो है।
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७२० ]
( गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६५२-६५४
भावार्थ च्यारि लब्धि तौ संसार विषै अनेक बार हो है । बहुरि करण
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लब्धि की प्राप्ति भएं सम्यक्त्व वा चारित्र अवश्य हो हे ।
आगे उपशमसम्यक्त्व के ग्रहणे को योग्य जो जीव ताका स्वरूप कहै हैं
चदुर्गादिभव्वो सण्णी, पज्जत्तो सुज्भगो य सागारो । जागारो सल्लेस्सो सलद्विगो सम्ममुवगमई ॥ ६५२॥
चतुर्गतिभव्यः संज्ञी पर्याप्तश्च शुद्धकश्च साकारः । जागरूक : सल्लेश्यः, सलब्धिकः सम्यक्त्वमुपगच्छति ॥ ६५२ ||
टीका - जो जीव च्यारि गति में कोई एक गति विषै प्राप्त असा भव्य होइ, सैनी होइ, पर्याप्त होइ, मदकषायरूप परिणामता विशुद्ध होइ, स्त्यानगृद्धयादिक तीन निद्रा ते रहित होने ते जागता होइ, भावित शुभ तीन लेश्यानि विपैं कोई एक लेश्या का धारक होइ, करणलब्धिरूप परिणया होइ; असा जीव यथासंभव सम्यको प्राप्त हो है ।
चत्तारि विखेत्ताई, श्राउगबंधेग होइ सम्मत्तं । अणुवदमहत्वदाई, ण लहइ देवाउ गं मोल्तं ॥ ६५३ ॥
चत्वार्यपि क्षेत्राणि, आयुष्कबंधेन भवति सम्यक्त्वम् । अणुव्रत महाव्रतानि न लभते देवायुष्कं मुक्त्वा ।। ६५३।।
टीका च्यारि आयु विषै किसी ही परभव का आयु बंध कीया होइ, तिस बद्धायु जीव के सम्यक्त्व उपजै, इहां किछू दोष नाही । बहुरि अणुव्रत र महाव्रत जिसके देवायु का बंध भया होइ, तिसहीकै होइ । जो पहिले नारक, तिर्यंच, मनुष्यायु का बंध मिथ्यात्व में भया होइ, तौ पीछे अणुव्रत, महाव्रत होइ नाही । यह नियम है ।
-
रण यमिच्छत्तं पत्तो, सम्मत्तादो य जो य परिवडिदो । सो सासणो त्ति पेयो, पंचमभावेण संजुत्तो ॥ ६५४ ॥
न च मिथ्यात्वं प्राप्तः सम्यक्त्वतश्च यश्च परिपतितः । स सासन इति ज्ञेयः, पंचमभावेन संयुक्तः ||६५४॥
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[ ७२१
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
टीका - जो जीव सम्यक्त्व ते पड्या अर मिथ्यात्व को यावत् प्राप्त न भया, तावत् काल सासादन है; असा जानना । सो दर्शन मोह ही की अपेक्षा पांचवां पारणामिक भाव करि संयुक्त है, जातै चारित्र मोह की अपेक्षा अनतानुबंधी के उदय तें सासादन हो है, तातै इहां औदयिक भाव है । यहु सासादन जुदी ही जाति का श्रद्धान रूप सम्यक्त्व मार्गणा का भेद जानना।
सद्दहणासदहणं, जस्स य जीवस्स होइ तच्चेसु । विरयाविरयेण समो, सम्मामिच्छो रित पायवो ॥६५॥
श्रद्धानाश्रद्धानं, यस्य च जीवस्य भवति तत्त्वेषु ।
विरताविरतेन समः, सम्यग्मिथ्या इति ज्ञातव्यः ॥६५५॥ टीका - जिस जीव के जीवादि पदार्थनि विषे श्रद्धान वा अश्रद्धान एक काल विषै होइ, जैसे देशसंयत के संयम वा असंयम एक काल हो है। तैसै होइ, सो जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टी है, जैसा जानना। यह सम्यक्त्व मार्गणा का मिश्र नामा भेद कह्या है।
मिच्छाइट्ठी जीवो, उवइठें पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असब्भावं, उवइळं वा अणुवइठें ॥६५६॥
मिथ्यादृष्टिर्जीवः उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति ।
श्रद्दधाति असद्भावं, उपदिष्टं वा अनुपदिष्टम् ॥६५६॥ टीका - मिथ्यादृष्टी जीव जिन करि उपदेशित असे प्राप्त, आगम, पदार्थ, तिनिका श्रद्धान करै नाहीं । बहुरि कुदेवादिक करि उपदेश्या वा अनुपदेश्या झूठा
आप्त, आगम, पदार्थ, तिनिका श्रद्धान कर है। यह सम्यक्त्व मार्गणा का मिथ्यात्व नामा भेद कह्या । असे सम्यक्त्व मार्गणा के छह भेद कहे । उपशम, क्षायिक, सम्यक्त्व का विशेष विधान लब्धिसार नामा ग्रंथ विष कह्या है । ताके अनुसारि इहा भाषा टीका विष आगै किछ लिखेगे, तहां जानना।
आगे सम्यक्त्व मार्गणा विर्ष जीवनि की संख्या तीन गाथानि करि कहै हैंवासपुधत्ते खइया, संखेज्जा जइ हवंति सोहम्मे । तो संखपल्लठिदिये, केवडिया एवमणुपादे ॥६५७॥
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७२२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६५८-६५
वर्षपृथक्त्वे क्षायिकाः, संख्येया यदि भवंति सौधर्मे । तह संख्यपत्यस्थितिके, कति एवमनुपाते ॥ ६५७॥
टीका - क्षायिक सम्यक्त्वी बहुत कल्पवासी देव हो है । बहुरि कल्पवासी देव बहुत सौधर्म - ईशान विषै है, ताते कहैं । जो पृथक्त्व वर्ष विषै क्षायिक सम्यक्त्वी सौधर्म - ईशान विषे संख्यात प्रमारण उपजै तौ संख्यात पल्य की स्थिति विषै कितने उपजै ? जैसा त्रैराशिक करना । इहां प्रमाण राशि पृथक्त्व वर्ष प्रमाण काल, फलराशि संख्यात जीव, इच्छा राशि संख्या पल्य प्रमाण, कालसो फलते इच्छा कौं गुरौं, प्रमाण का भाग दीएं जो लब्धि राशि भया, सो कहैं हैं
संखावलिहिदपल्ला, खइया तत्तो य वेदमुवसमया । आवलिअसंखगुणिदा, असंखगुणहीणया कमसो ॥ ६५८॥
संख्यावलिहितपत्याः, क्षायिकास्ततश्च वेदमुपशमकाः । आवल्यसंख्यगुणिता, असंख्यगुणहीनकाः क्रमशः ||६५८ ।।
टीका - सो लव्ध राशि का प्रमाण संख्यात प्रावली का भाग पल्य कौं
―――
दीएं, जो प्रमाण होइ, तितना आया, सो तितने ही क्षायिक सम्यग्दृष्टी जानने । बहुरि इनको आवली का प्रसंख्यातवां भाग करि गुणै, जो प्रमाण होइ, तितने वेदक सम्यदृष्टी जानने । वहुरि क्षायिक जीवा का परिमाण ही ते प्रसंख्यात गुणा घाटि उपशम सम्यग्दृप्टी जीव जानने ।
पल्लासंखेज्जदिमा, सासाणमिच्छा य संखगुणिदा हु । मिस्सा तहि विहीणो, संसारी वामपरिमाणं ॥ ६५६ ॥
पल्या संख्याताः, सासनमिथ्याश्च संख्यगुरिगता हि । मिश्रास्तविहीनः, संसारी वामपरिमाणम् ||६५६ ॥
टीका - पल्य के असंख्यातवे भाग प्रमाण सासादन, तेई मिथ्याती सामान्य है, तिनिका परिमाण है, तिनतै संख्यात गुणे सम्यग्मिथ्यादृष्टी जीव है । बहुरि इन पंच सम्यक्त्व संयुक्त जीवनि का मिलाया हूवा परिमाण को संसारी राशि में घटाएं, जो प्रमाण अवशेष रहे, तितने वाम कहिए मिथ्यादृष्टी, तिनिका परिमाण है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ७२३ अब इहां नव पदार्थनि का परिमाण कहिए है
जीव द्रव्य तौ द्विरूपवर्गधारा विर्षे कहे अपने प्रमाण लोए है । वहुरि अजीवविष पुद्गल द्रव्य जीवराशि तें अनंत गुणे है । धर्मद्रव्य एक है । अधर्मद्रव्य एक है। आकाश द्रव्य एक है। कालद्रव्य जगच्छे णी का घन, जो लोक, तीहि प्रमाण है । सो पुद्गल का परिमाण विषै धर्म, अधर्म, आकाश, काल का परिमाण मिलाएं, अजीव पदार्थ का परिमाण हो है।
___ बहुरि असंयत अर देशसंयत का परिमाण मिलाए, तिन विप प्रमत्तादिकनि का प्रमाण संख्यात मिलाएं, जो प्रमाण होइ, तितने पुण्य जीव है । बहुरि किंचिदून द्वयर्द्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण कर्म परमाणूनि की सत्ता है ताके संख्यातवे भागमात्र शुभ प्रकृतिरूप अजीव पुण्य है । बहुरि मिश्र अपेक्षा किछु अधिक जो पुण्य जीवनि का प्रमाण, ताको संसारी राशि में घटाएं, जो प्रमाण रहे, तितने पाप जीव है । बहुरि द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रवद्ध को संख्यात का भाग दीजिए, तहां एक भाग बिना अवशेष भाग प्रमाण अशुभ प्रकृतिरूप अजीव पाप हैं । बहुरि आस्रव पदार्थ समयप्रबद्ध प्रमाण है। संवर पदार्थ समयप्रवद्ध प्रमाण है। निर्जराद्रव्य गुणश्रेणी निर्जरा विर्षे उत्कृष्टपनै जितनी निर्जरा होइ तीहिं प्रमाण है। बंध पदार्थ समयप्रबद्ध प्रमाण है । मोक्षद्रव्य द्वयर्घ गुणित समयप्रवद्ध प्रमाण है।
इति आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह न थ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम सस्कृत की टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका नामा भापारीका विष जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनविप सम्यक्त्वमार्गणा
प्ररूपणा नाम सतरहवा अधिकार सपूर्ण भया ॥१७॥
जो उपदेश सुनकर पुरुपार्थ करते है, वे मोक्ष का उपाय कर सकते हैं और जो पुरुषार्थ नही करते वे मोक्ष का उपाय नही कर सकते । उपदेश नो शिक्षामात्र है, फल जैसा पुरुषार्थ करे, वैसा लगता है।
- मोक्षमार्ग प्रकाशक - अध्याय -पृष्ठ-३१०
mammu
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अठारहवां अधिकार : संज्ञीमार्गणा अरि रजविघ्न विनाशकर, अमित चतुष्टय थान ।
शत इंद्रनि करि पूज्य पद, द्यो श्री पर भगवान ॥१८॥ आगै सज्ञी मार्गणा कहैं हैणोइंदियनावरणखोवसमं तज्जबोहणं सण्णा। सा जस्स सो दुसण्णी, इदरो सेसि दिअवबोहो ॥६६०॥
नोइंद्रियावरणक्षयोपशमस्तज्जबोधनं संज्ञा।
सा यस्य स तु संज्ञी, इतरः शेषेद्रियावबोधः ॥६६०॥ टीका - नो इन्द्रिय जो मन, ताके आवरण का जो क्षयोपशम तीहिंकरि उत्पन्न भया जो बोधन, ज्ञान, ताकौं संज्ञा कहिए । सो संज्ञा जाके पाइए ताको संज्ञी कहिए है । मन-ज्ञान करि रहित अवशेष यथासंभव इन्द्रियनि का ज्ञान करि संयुक्त जो जीव, सो असंज्ञी है।
सिक्खाकिरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेरण। जो जीवो सो सण्णी, तन्विवरीमो असण्णी दु॥६६१॥ शिक्षाक्रियोपदेशालापनाही मनोवलंबेन ।
यो जीवः स संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी तु ॥६६१॥ टीका - हित-अहित का करने - त्यजनेरूप शिक्षा, हाथ-पग का इच्छा करि चलावने आदिरूप क्रिया, चामठी (बेत) इत्यादि करि उपदेश्या वधविधानादिक सो उपदेश, श्लोकादिक का पाठ सो आलाप, इनिका ग्रहण करणहारा जो मन ताका अवलंबन करि क्रम ते मनुष्य वा बलध वा हाथी वा सूवा इत्यादि जीव, सो संज्ञी नाम है । बहुरि इस लक्षण ते उलटा लक्षण का जो जीव, सो असंज्ञी नाम जानना ।
मीमंसदि जो पुव्वं, कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च । सिक्खदि णामेणेदि य, समणो अमणो य विवरीदो ॥६६२॥
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सम्यग्ज्ञानचन्तिका गापाटीका 1
[ ७२५ मीमांसति यः पूर्व, कार्यमकार्यं च तत्त्वमितरच्च ।
शिक्षते नाम्ना एति च, समनाः अमनाश्च विपरीतः ।।६६२॥ टीका - जो पहिलै कार्य - अकार्य को विचार, तत्त्व - अतत्त्व को सीखे, नाम करि बुलाया हुवा आवै, सो जीव मन सहित समनस्क, सज्ञी जानना । इस लक्षण ते उलटा लक्षण को जो धरै होइ, सो जीव मन रहित अमनस्क असंज्ञी जानना।
इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं - देवेहि सादिरेगो, रासी सण्णीण होदि परिमाणं । तेणणो संसारी, सव्वेसिमसण्णिजीवाणं ॥६६३॥
देवैः सातिरेको, राशिः संजिनां भवति परिमारणम् । ' , तेनोनः संसारी सर्वेषामसंज्ञिजीवानाम् ॥६६३॥
टीका - च्यारि प्रकार के देवनि का जो प्रमाण, तिनित किछु अधिक सज्ञी जीवनि का प्रमाण है । संज्ञी जीवनि विष देव बहुत है । तिनिविष नारक, मनुष्य, पंचेंद्री सैनी तिर्यंच मिलाए सज्ञी जीवनि का प्रमाण हो है । इस प्रमाण को संसारी जीवनि का प्रमाण में घटाएं, अवशेष सर्व असंजी जीवनि का प्रमाण हो है। इति आचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसग्रह ग्रंथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नाम भाषा टीका विष जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनिविष सज्ञी-मार्गणा
प्ररूपणा नामा अठारहवा अधिकार सपूर्ण भया ॥१८॥
तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग न लगावे वह तो इसी का दोष है । तथा पुरुपार्थ से तत्त्वनिर्णय में उपयोग लगावे तब स्वयमेव ही मोह का अभाव होने पर सम्यत्वादि रूप मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ बनता है।
, - मोक्षमार्ग प्रफाशक अध्याय ६, पृष्ठ-३११
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उन्नीसवां अधिकार : आहार-मार्गणा
मल्लिकुसुम समगंधजुत मोह शत्रुहर मल्ल | बहिरंतर श्रीसहित जिन, मल्लि हरहु मम शल्ल ॥ १९ ॥
o प्रहार- मार्गणा कहें हैं
उदयावणसरीरोदयेण तद्देहवयणचित्ताणं । णोकस्वग्गणाणं, गहणं श्राहारयं णाम || ६६४॥
उदयापन्नशरीरोदयेन तद्देहवचनचित्तानाम् ।
नोकवर्गणानां, ग्रहरणमाहारकं नाम ||६६४ ॥
टीका - श्रदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीन शरीर नामा नामकर्म विषै किसी हो का उदय करि जो तिस शरीररूप वा वचनरूप वा द्रव्य मनरूप होने योग्य जो नोकर्म वर्गणा, तिनिका जो ग्रहरण करना, सो आहार अंसा नाम है ।
हरदि सरीराणं, तिन्हं एयदरवग्गणाओ य । भासामणाण नियद, तम्हा श्राहारयो भणियो ||६६५॥
श्राहारति शरीराणां त्रयाणामेकतरवर्गरणाश्च । भासामनसोनित्यं तस्मादाहारको भरिणतः ||६६५॥
टीका - श्रदारिकादिक शरीरनि विषै जो उदय प्राया कोई शरीर, तीहि रूप ग्रहारवर्गरणा, बहुरि भाषावर्गरणा, बहुरि मनोवर्गरणा इन वर्गरणानि को यथायोग्य जीवसमास विषे यथायोग्य काल विषै यथायोग्यपर्ने नियमरूप आहरति कहिए ग्रहण करें, सो प्रहार का है ।
विग्गहगदिमावण्णा, केवलिणो समुग्धदो अयोगी य । सिद्धा य अरणाहारा, सेसा श्राहारया जीवा ॥ ६६६॥
विग्रहगतिमापन्नाः, केवलिनः समुद्घाता प्रयोगिनश्च । सिद्धाश्च अनाहाराः, शेषा आहारका जीवाः ||६६६॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ७२७
टीका - विग्रहगति कौ जे प्राप्त भए, जैसे च्यारचों गतिवाले जीव, बहुरि प्रतर अर लोकपूरणरूप केवल समुद्घात को प्राप्त भए असे सयोगी - जिन, बहुरि सर्व अयोगी- जिन, बहुरि सर्व सिद्ध भगवान ए सर्व अनाहारक है । अवशेष सर्व जीव आहारक ही है ।
सो समुद्घात के प्रकार है ? सो कहै है
drusसायवेवियो य मरणंतियो समुग्धादो । तेजाहारो छट्ठो, सत्तमश्र केवलीरगं तु ॥ ६६७॥
वेदनाकषायवैर्विकारच, मारणांतिकः समुद्घातः । तेजआहारः षष्ठः, सप्तमः केवलिनां तु ॥ ६६७ ||
टीका - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणांतिक तैजस, छठा आहारक, सातवां केवल ए सात समुद्घात जानने । इनिका स्वरूप लेश्या मार्गणा विषै क्षेत्राधिकार में कहा था, सो जानना ।
समुद्घात का स्वरूप कहा, सो क है है -
मूलसरीरमछंडिय, उत्तरदेहस्त जीवपिंडस्स । णिग्गमणं देहादो, होदि समुग्धादणामं तु ॥ ६६८ ॥
मूलशरीरमत्यक्त्वा उत्तरदेहस्य जीवपिंडस्य ।
निर्गमनं देहाद्भवति समुद्घातनाम तु ।।६६८।।
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टीका - मूल शरीर को तो छोड़े नाही, बहुरि कार्मारण, तैजसरूप उत्तर शरीर सहित जीव के प्रदेश समूह का मूल शरीर ते बाह्य निकसना, सो समुद्घात जैसा नाम जानना ।
श्राहारमारतिय दुगं पि णियमेण एगदिसिगं तु ।
दस - दिसि गदा हु सेसा, पंच समुग्धादया होंति ॥ ६६६ ॥
आहारमारणांतिक द्विकमपि नियमेन एकदिशिकं तु ।
दशदिशि गताहि शेषाः पंच समुद्घातका भवति ॥ ६६९ ॥
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७२८ ]
[ गोम्मटसार मौवकाण्ड गाथा ६७०-६७१ टोका - आहारक अर मारणांतिक ए दोऊ समुद्घात तौ नियम करि एक दिशा को ही प्राप्त हो है; जाते इन विष सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण ही उंचाई, चौड़ाई होइ । अर लंबाई बहुत होइ । तातें एक दिशा को प्राप्त कहिए। बहुरि अवशेष पंच समुद्घात रहे, ते दशों दिशा कौं प्राप्त हैं, जातै इनि विषे यथायोग्य लंबाई, चौड़ाई, उंचाई सर्व ही पाइए है ।
आगे आहार अनाहार का काल कहैं हैंअंगुलअसंखभागो, कालो आहारयस्स उक्कस्सो। कम्मम्मि प्रणाहारो, उक्कस्सं तिण्णि समया हु॥६७०॥
अंगुलासंख्यभागः, कालः आहारकस्योत्कृष्टः।
कार्मणे अनाहारः, उत्कृष्टः त्रयः समया हि ॥६७०॥ टीका - आहार का उत्कृष्ट काल सच्यंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है। सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग के जेते प्रदेश होंहि, तितने समय प्रमाण आहारक का काल है।
___इहां प्रश्न - जो मरण तो आयु पूरी भएं पीछे होइ ही होइ, तहां अनाहार होइ इहां आहार का काल इतना कैसे कह्या ?
ताका समाधान - जो मरण भए भी जिस जीव के वक्ररूप विग्रह गति न होइ, सूधी एक समय रूप गति होइ, ताकै अनाहारकपणा न हो है । आहारकपणा ही रहै है, तातै प्राहारक का पूर्वोक्तकाल उत्कृष्टपने करि कह्या है । बहुरि आहारक का जघन्य काल तीन समय घाटि सांस का अठारहवां भाग जानना; जाते क्षुद्रभव विपं विग्रहगति के समय घटाए इतना काल हो है। बहुरि अनाहारक का काल कार्माण शरीर विपै उत्कृष्ट तीन समय जघन्य एक समय जानना; जाते विग्रह गति विप इतने काल पर्यंत ही नोकर्म वर्गणानि का ग्रहण न हो है।
आगे इहां जीवनि की संख्या कहै हैकम्मइयकायजोगी, होदि अणाहारयाण परिमाणं । तविरहिदसंसारी, सन्चो आहारपरिमाणं ॥६७१॥'
कार्मणकाययोगी, भवति अनाहारकाणां परिमारणम् । तद्विरहितसंसारी, सर्व प्राहारपरिमाणम् ॥६७१॥
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सम्यग्जानन्तिका भाषाटोका ]
[ ७२६ टोका- कार्माण काययोगवाले जीवनि का जो प्रमाण योगमार्गणा विष कह्या, सोई अनाहारक जीवनि का प्रमाण जानना । इसकौ ससारी जीवनि का प्रमाण में घटाएं, अवशेष रहै, तितना आहारक जीवनि का प्रमाण जानना । सोई कहै हैं - प्रथम योगनि का काल कहिए है - कार्माण का तौ तीन समय, औदारिक मिश्र का अंतर्मुहूर्त प्रमाण, औदारिक का तीहिस्यो संख्यात गुणा काल, तहा सर्वकाल मिलाएं तीन समय अधिक संख्यात अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल भया । याका किचित् ऊन संसारी राशि का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, ताको तीन करि गुण, जो प्रमाण आवै तितने अनाहारक जीव है; अवशेष सर्व संसारी आहारक जीव है । वैक्रियिक, आहारकवाले थोरे है, तिन की मुख्यता नाही है ।
इहां प्रक्षेपयोगोद्धतमिश्रपिंडःप्रक्षेपकारणां गुरगको भवेदिति, असा यह करणसूत्र जानना। याका अर्थ - प्रक्षेप को मिलाय करि मिश्र पिंड का भाग देइ, जो प्रमाण होइ ताको प्रक्षेपक करि गुणे, अपना अपना प्रमाण होइ । जैसे कोई एक हजार प्रमाण वस्तु है, तातै किसी का पंच बट है, किसी का सात बट है, किसी का आठ बट है। सब को मिलाएं प्रक्षेपक का प्रमाण बीस भए। तिस बीस का भाग हजार को दीएं पचास पाए, तिनको पंच करि गुण, अढाई सै भए, सो पच बटवाले के आए । सात करि गुण, साढा तीन सौ भए, सो सात बटवाले के आए । आठ करि गुणे, च्यारि से भए, सो आठ बटवाले के आए । असे मिश्रक व्यवहार विषै अन्यत्र भी जानना । इति आचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह न थ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका नामा भाषाटीका विष जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा तिनिविष आहार-मार्गणा प्ररूपणा
नाम उगनीसवा अधिकार सपूर्ण भया ॥१९॥
___ सच्चे उपदेश से निर्णय करने पर भ्रम दूर होता है, परतु ऐसा पुरुपार्थ नही करता, इसी से भ्रम रहता है। निर्णय करने का पुरुषार्थ करे-तो भ्रम का कारण जो मोह-कर्म, उसके भी उपशमादि हो, तब भ्रम दूर हो जाये, क्योकि निर्णय करते हुए परिणामो की विशुद्धता होती है, उससे मोह के स्थिति अनुभाग घटते है।
- मोक्षमार्ग प्रकाशक : अधिकार ६, पृष्ठ-३१०
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बीसवां अधिकार : उपयोगाधिकार सुवत पावन कौं भजे, जाहि भक्त व्रतवंत ।
निज सुव्रत श्री देहु मम, सो सुव्रत अरहंत ॥२०॥ आगे उपयोगाधिकार कहैं हैंवत्थुणिमित्तं भावो, जादो जीवस्स जो दु उवजोगो । सो दुविहो णायव्वो, सायारो चेव णायारो ॥६७२।।
वस्तुनिमित्तं भावो, जातो जीवस्य यस्तूपयोगः ।
स द्विविधो ज्ञातव्यः साकारश्चेवानाकारः ।।६७२॥ टीका - बस है, एकीभाव रूप निवस है; गुण, पर्याय जा विर्षे, सो वस्तु, ज्ञेय पदार्थ जानना । ताके ग्रहण के अर्थि जो जीव का परिणाम विशेष रूप भाव प्रवर्ते, सो उपयोग है। बहुरि सो उपयोग साकार - अनाकार भेद ते दोय प्रकार जानना।
आगे साकार उपयोग आठ प्रकार है, अनाकार उपयोग च्यारि प्रकार हैं, असा कहै है
णारणं पंचविहं पि य, अण्णाण-तियं च सागरवजोगो । चदु-दंसरणमणगारो, सव्वे तल्लक्खरणा जीवा ॥६७३॥
ज्ञानं पंचविधमपि च, अज्ञानत्रिकं च साकारोपयोगः ।
चतुर्दशनमनाकारः, सर्वे तल्लक्षणा जीवाः ॥६७३॥ टीका - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल ए पंच प्रकार ज्ञान, बहुरि कुमति, कुश्रुत, विभंग ए तीन अज्ञान, ए आठौ साकार उपयोग है । बहुरि चक्षु, अचक्षु अवधि, केवल ए च्यारयो दर्शन अनाकार उपयोग है। सो सर्व ही जीव ज्ञान - दर्शन रूप उपयोग लक्षण को धरै है।
इस लक्षण विपै अतिव्याप्ति, अव्याप्ति, असंभवी दोष न संभवै हैं । जहां लक्ष्य विप वा अलक्ष्य विष लक्षण पाइए. तहां अतिव्याप्ति दोष है। जैसे जीव का
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ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ७३१
लक्षण अमूर्ति कहिए तो अमूर्तिकपना जीव विषै भी है अर धर्मादिक विष भी है । बहुरि जहा लक्षरण का एकदेश विषे लक्षण पाइए, तहां अव्याप्ति दोष है । जैसे जीव का लक्षण रागादिक कहिए तो रागादिक संसारी विषै तो संभवै, परि सिद्ध जीवन विषै संभव नाही । बहुरि जो लक्ष्य ते विरोधी लक्षण होइ, सो असंभवी कहिए । जैसै जीव का लक्षण जड़त्व कहिए. सो संभव ही नाही । जैसे त्रिदोष रहित उपयोग ही जीव का लक्षण जानना ।
मदि- सुद-ओहि मणेह य सग-सग-विसये विसेस विष्णारणं । अंतीमहत्तकालो, उवजोगो सो दु सायारो ॥६७४॥
मतिश्रुतावधिमनोभिश्च स्वकस्वकविषये विशेषविज्ञानं । अंतर्मुहूर्तकाल, उपयोगः स तु साकारः || ६७४॥
टीका मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ज्ञाननि करि अपने - अपने विषय विपैं जो विशेष ज्ञान होइ, अंतर्मुहूर्तं काल प्रमाण पदार्थ का ग्रहण रूप लक्षण धरै, जो उप योग होइ, सो साकार उपयोग है । इहां वस्तु का ग्रहरण रूप जो चैतन्य का परिणमन, ताका नाम उपयोग है । मुख्यपने उपयोग है, सो छद्मस्थ के एक वस्तु का ग्रहण रूप चैतन्य का परिणमन अंतर्मुहूर्त मात्र ही रहै है । ताते अंतर्मुहूर्त ही कहा है ।
इंदियमणोहिणा वा प्रत्थे अविसेसिदूरण जं गहणं । अंतोमुहुत्तकालो, उवजोगो सो अणायारो ॥ ६७५ ॥
इंद्रियमनोsवधिना, वा श्रर्थे श्रविशेष्य यद्ग्रहणम् । अंतर्मुहूर्तकालः उपयोगः स अनाकारः ॥ ६७५ ॥
टीका - नेत्र इन्द्रियरूप चक्षुदर्शन वा अवशेष इन्द्रिय र मनरूप प्रचक्षु दर्शन वा अवधि दर्शन, इनकरि जो जीवादि पदार्थनि का विशेष न करिकै निर्विकल्पपनै ग्रहण होइ, सो अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण सामान्य अर्थ का ग्रहण रूप निराकार उपयोग है ।
भावार्थ - वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । तहा सामान्य का ग्रहण की निराकार उपयोग कहिए, विशेष का ग्रहण को साकार उपयोग कहिए । जातं सामान्य विषे वस्तु का आकार प्रतिभास नाही; विशेप विप आकार प्रतिभास है ।
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७३२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ६७६ आगें इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं - णाणुवजोगजुदाणं, परिमाणं णाणमग्गणं व हवे । दसणुवजोगियाणं, सणमग्गण व उत्तकमो ॥६७६॥
ज्ञानोपयोगयुतानां परिमाणं ज्ञानमार्गणावद्भवेत् ।
दर्शनोपयोगिनां दर्शनमार्गणावदुक्तक्रमः ॥६७६॥ टीका - ज्ञानोपयोगी जीवनि का परिमाण ज्ञानमार्गणावत् है । बहुरि दर्शनोपयोगी जीवनि का परिमाण दर्शनमार्गणावत् है। सो कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, बहुरि तियंच-विभंगज्ञानी, मनुष्य-विभंगज्ञानी, नारक-विभंगज्ञानी, इनिका प्रमाण जैसे ज्ञानमार्गणा विर्षे कहा है । तैसे ही ज्ञानोपयोग विषै प्रमाण जानना । किछ विशेष नाहीं । बहुरि शक्तिगत चक्षुर्दर्शनी, व्यक्तगत चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी केवल दर्शनी, इनिका प्रमाण जैसै दर्शन-मार्गणा विर्षे कहा है; तैसे इहां निराकार उपयोग विषे प्रमाण जानना । किछू विशेष नाही। इति श्री आचार्य नेमिचद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीयनाम पचसंग्रह ग्रथ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका नामा भाषाटीका विष जीवकाण्ड विपै प्ररूपित बीस प्ररूपणा तिनिविषै उपयोग-मार्गणाप्ररूपणा
नामा बीसवा अधिकार सपूर्ण भया ॥२०॥
तत्त्वनिर्णय न करने मे किसी कर्म का दोष नहीं है, तेरा ही दोप है, परतु तू स्वय तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सभव नही है। तूझे विषय कषाय रूप ही रहना है इसलिए झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी युक्ति किसलिए बनाए ? सांसारिक कार्यो मे अपने पुरुषार्थ से सिद्धि न होती जाने तथापि पुरुषार्थ उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा है, इसलिए जानते हैं कि मोक्ष को देखा-देखी उत्कृष्ट कहता है, उसका स्वरूप पहिचान कर उसे हितरूप नही जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असभव है।
- मोक्षमार्ग प्रकाशक । अधिकार ६, पृष्ठ-३११
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इक्कीसवां अधिकार : अंतरभावाधिकार
विभव अमित ज्ञानादि जुत, सुरपति नुत नमिनाथ । जय मम ध्रुवपद देहु जिहि, हत्यो घातिया साथ ॥ २१ ॥ आगे बीस प्ररूपणा का अर्थ कहि; अब उत्तर अर्थ को कहै है— गुणजीवा पज्जत्ती, पाणा सण्णा य मग्गणुवजोगो । जोग्गा परूविदव्वा, श्रोघादेसेस पत्तेयं ॥ ६७७॥
गुणजीवाः पर्याप्तयः, प्राणाः संज्ञाश्च मार्गरणोपयोगौ । प्ररूपितव्या, घादेशयोः प्रत्येकम् || ६७७
टीका - कही जे बीस प्ररूपणा, तिनिविषै गुणस्थान अर मार्गणास्थान, इवि विषे गुणस्थान र जीवसमास अर पर्याप्ति पर प्रारण अर संज्ञा अर चौदह मार्गणा अ उपयोग ए बीस प्ररूपणा जैसे संभव, तैसे निरूपण करनी । सोई कहै है
चउ परण चोट्स चउरो, णिरयादिसु चोद्दसं तु पंचक्खे | तसकाये सेसिंदियकाये मिच्छं गुणट्ठाणं ॥ ६७८ ॥
चत्वारि पंच चतुर्दश, चत्वारि निरयादिषु चतुर्दश तु पंचाक्षे । त्रकाये शेषेद्रियकाये मिथ्यात्व गुरणस्थानम् ||६७८ ।।
टीका - गति-मार्गरणा विषे क्रम ते गुणस्थान मिथ्यादृष्ट्यादि नरक विप
च्यारि जानने । बहुरि इन्द्रिय
च्यारि तिर्यच विषै पांच, मनुष्य विषे चौदह, देव विषै मार्गणा विषै अर काय मार्गणा विषै पचेद्रिय मे अर सकाय मे तो चौदह गुणस्थान है । अवशेष इंद्रिय अर काय मे एक मिथ्यादृष्टी गुणस्थान है । बहुरि जीवसमास नरकगति र देवगति विषै सैनी पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त ए दोय है; अर तियंच विषे सर्व चौदह ही है । मनुष्य विषे सैनी पर्याप्त, अपर्याप्त ए दोय हैं । इहा नरक देवगति विषै लब्धि - अपर्याप्तक नाही; तातै निर्वृत्ति अपर्याप्त कह्या । मनुष्य विपं निर्वृत्ति-अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त दोऊ पाइए, ताते सामान्यपर्ने अपर्याप्त ही कह्या है । बहुरि इंद्रिय -मार्गरणा विषे एकेद्रिय मे बादर, सूक्ष्म, एकेंद्री तो पर्याप्त र अपर्याप्त जैसे च्यारि जीवसमास है । बेद्री, तेइन्द्री मे अपना अपना पर्याप्त प्रपर्याप्त रूप दोय जीवसमास है । पचेद्रिय में सैनी, असैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए च्यारि
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[ गोम्मटसार नीवकाम गाथा ६७६-६८१ ७३४] जीवसमास है। बहुरि कायमार्गणा विष पृथ्वी आदि पंच स्थावरनि में एकेंद्रियवत् च्यारि च्यारि जीवसमास है । त्रस विषै अवशेष दश जीवसमास हैं।
मझिम-चउ-मण-वयरणे, सण्णिप्पदि दु जाव खीणो त्ति । सेसारणं जोगि ति य, अणुभयवयणं तु वियलादो ॥६७६॥
मध्यमचतुर्मनवचनयोः, संशिप्रभृतिस्तु यावत् क्षीण इति ।
शेषारणां योगीति च, अनुभयवचनं तु विकलतः ॥६७९।। टोका - मध्यम जो असत्य अर उभय मन वा वचन इनि च्यारि योगनि विष सैनी मिथ्यादृष्टी ते लगाइ क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान हैं। बहुरि सत्य पर अनुभव मनोयोग विर्ष अर सत्य वचन योग विष सैनी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी ते लगाइ सयोगी पर्यंत तेरह गुणस्थान हैं। बहुरि इनि सबनि विर्षे जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । बहुरि अनुभय वचनयोग विष विकलत्रय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ तेरह गुणस्थान हैं । बहुरि बेइंद्री, तेइंद्री, चौइद्री, सैनी पंचेद्री, असैनी पंचेंद्री इनका पर्याप्तरूप पांच जीवसमास है।
ओरालं पज्जत्ते, थावरकायादि जाव जोगो त्ति । तम्मिस्समपज्जत्ते, चदुगुणठारणेसु णियमेण ॥६८०॥
औरालं पर्याप्ते, स्थावरकायादि यावत् योगीति ।
तन्मिश्रमपर्याप्ते, चतुर्गुणस्थानेषु नियमेन ॥६८०॥ टोका - औदारिक काययोग एकेद्री स्थावर पर्याप्त मिथ्यादृष्टी तै लगाइ, सयोगी पर्यंत तेरह गुणस्थाननि विष है। बहुरि औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्त च्यारि गुणस्थाननि विषै ही है नियमकरि । किनविषै ? सो कहै है
मिच्छे सासरणसम्मे, पुवेदयदे कवाडजोगिम्मि । णर-तिरिये वि य दोण्णि वि, होति त्ति जिणेहि णिहिट्ठ॥६८१॥
मिथ्यात्वे सासनसम्यक्त्वे, पुवेदायते कपाटयोगिनि ।
नरतिरश्नोरपि च द्वावपि भवंतीति जिननिर्दिष्टम् ॥६८१॥ टोका - मिथ्यादृष्टी, सासादन पुरुषवेद का उदय करि संयुक्त असंयत, कपाट समुद्घात सहित सयोगी इनि अपर्याप्तरूप च्यारि गुणस्थाननि वि, सो औदा
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भापाटोका ]
[ ७३५
रिक मिश्रयोग पाइए है । बहुरि औदारिक वा औदारिक- मिश्र ए दोऊ योग मनुष्य
र तिर्यचनि ही के है, औसा जिनदेवने का है । वहुरि औदारिक विषै ती पर्याप्त सात जीवसमास है, अर श्रदारिक मिश्र विषे अपर्याप्त सात जीवसमास अर सयोगी के एक पर्याप्त जीवसमास से आठ जीवसमास है ।
वेगुव्वं पज्जत्ते, इदरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु ।
सुर- णिरय - चउट्ठाणे, मिस्से ण हि मिस्सजोगो हु ॥ ६८२ ॥
वैगूवं पर्याप्ते, इतरे खलु भवति तस्य मिश्रं तु । सुरनिरयचतुःस्थाने, मिश्रे नहि मिश्रयोगो हि ॥ ६८२ ॥
"
टीका - वैक्रियिक योग पर्याप्त देव, नारकीनि के मिथ्यादृष्टी ते लगाइ च्यारि गुणस्थाननि विषै हैं । बहुरि वैक्रियिक-मिश्र योग मिश्रगुणस्थान विपं नाही; तातं देवनारकी संबंधी मिथ्यादृष्टी, सासादन, प्रसंयत इनही विपे है । बहुरि जीवसमास वैक्रियिक विषै एक सैनी पर्याप्त है । अर वैक्रियिक मिश्र विपं एक सैनी निर्वृत्तिअपर्याप्त है ।
आहारो पज्जत्ते, इदरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु । अंतोमुहुत्तकाले, छट्ठगुणे होदि श्राहारो ॥ ६८३ ॥
आहारः पर्याप्ते, इतरे खलु भवति तस्य मिश्रस्तु | अंतर्मुहूर्त काले, षष्ठगुणे भवति श्राहारः ।।६८३ ||
टीका - आहारक योग सैनी पर्याप्तक छट्ठा गुणस्थान विपं जघन्यपने वा उत्कृष्टपर्ने अतर्मुहूर्त काल निषै ही है । वहुरि आहारक-मिश्र योग हैं, तो उतर जो सज्ञी अपर्याप्तरूप छट्टा गुणस्थान विषै जघन्यपर्ने वा उत्कृष्टपने अतर्मुहूर्त काल वि ही हो है । तातै तिन दोऊनि के गुणस्थान एक प्रमत्त यर जीवरामाम सोई एक एक
जानना ।
श्रोलियमिस्सं वा, चउगुणठाणेसु होदि कम्मइयं । चदुर्गादिविग्गहकाले, जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे ॥ ६८४ ॥
श्रौरालिकमिश्रो वा, चतुर्गुणस्थानेषु भवति कार्मणम् । चतुर्गतिविग्रहकाले, योगिनश्च प्रतरलोकपूरणके ।।६८४ ।।
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७३६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६६५-६६७
टीका - कार्मारयोग औदारिक मिश्रवत् च्यारि गुणस्थाननि दिये है । सो कार्मारणयोग च्यार्यो गति संबंधी विग्रहगति विषे वा सयोगी के प्रतर लोक पूरण काल विषै पाइए है । तातें गुणस्थान च्यारि नर जीवसमास आठ श्रदारिक मिश्र - वत् इहां जानने ।
थावरकायप्पहूदी, संढो सेसा असणिश्रादी य । अणियट्टिस्स य पढमो, भागो त्ति जिर्णोह णिद्दिट्ठ ||६८५ ||
स्थावरकायप्रभृतिः, षंढः शेषा श्रसंस्यादयश्व ।
अनिवृतेश्च प्रथमो, भागः इति जिनैर्निदिष्टम् ||६८५।।
टीका - वेदमार्गणा विषै नपुंसकवेद है, सो स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी तें लगाइ निवृत्तिकरण का पहिला सवेद भागपर्यंत हो है; तातै गुणस्थान नव, जीवसमास सर्व चौदह है । बहुरि शेष स्त्रीवेद र पुरुषवेद सैनी, असैनी पंचेंद्रिय मिथ्यादृष्टी तें लगाइ, अनिवृत्तिकरण का अपना-अपना सवेद भागपर्यंत है । तातै गुणस्थान नव, जीवसमास सैनी, असैनी, पर्याप्त वा अपर्याप्तरूप च्यारि जिनदेवनि करि कहे हैं ।
थावरकायप्पहूदी, श्रणियट्टीबितिचउत्थभागो त्ति । कोहतियं लोहो पुण, सुहुमसरागो ति विष्णेयो ॥ ६८६ ॥
स्थावर कायप्रभृति, अनिवृत्तिद्वित्रिचतुर्थभाग इति ।
क्रोधत्रिकं लोभः पुनः, सूक्ष्मसराग इति विज्ञेयः ॥ ६८६ ॥
टीका - कषायमार्गणा विषे स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ क्रोध, मान, माया त क्रमते श्रनिवृत्तिकरण का दूसरा, तीसरा, चौथा भागपर्यत है । अर लोभ सूक्ष्मसांपराय पर्यंत है; तातै क्रोध, मान, माया विषै गुणस्थान नव, लोभविषै दश; र जीनसमास सर्वत्र चौदह जानने ।
थावरकायप्पहूदी, मदिसुदश्रण्णाणयं विभंगो दु । सणीपुण्णप्पहूदी, सासरणसम्मो त्ति णायव्वो ॥ ६८७ ॥
:
स्थावर काय प्रभृति, मतिश्रुताज्ञानकं विभंगस्तु । संज्ञिपूर्णप्रभृति, सासनसम्यगिति ज्ञातव्यः ||६८७ ।।
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सम्पमानवन्द्रिका भाषाटोका ]
[ ७३७ टीका - ज्ञानमार्गणा विष कुमति, कुश्रुत अज्ञान दोऊ स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ सासादनपर्यंत है । तातै तहा गुणस्थान दोय, अर जीवसमास चौदह हैं.। बहुरि विभगज्ञान संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी आदि सासादन पर्यत जानना; ताते गुणस्थान दोय अर जीवसमास एक सैनी पर्याप्त ही है। - सण्णाणतिगं अविरदसम्मादी छट्ठगादि मरणपज्जो। खीणकसायं जाव दु, केवलणाणं जिणे सिद्धे ॥६८८॥
सद्ज्ञानत्रिकमविरतसम्यगादि षष्ठकादिमनःपर्ययः ।
क्षीरणकषायं यावत्तु, केवलज्ञानं जिने सिद्ध ॥६८८॥ टीका - मति, श्रुत, अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान असंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत हैं; तातै गुणस्थान नव अर जीवसमास सैनी पर्याप्त अपर्याप्त ए दोय जानने । बहुरि मनःपर्ययज्ञान छट्ठा ते क्षीणकषाय पर्यंत है; तात गुणस्थान सात अर जीवसमास एक सैनी पर्याप्त ही है । मन पर्ययज्ञानी के आहारक ऋद्धि न होइ; तातै प्राहारक मिश्र अपेक्षा भी अपर्याप्तपना न संभव है। बहुरि केवलज्ञान सयोगी, अयोगी अर सिद्ध विर्ष है; तातै गुणस्थान दोय, जीवसमास सैनी पर्याप्त अर सयोगी की अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय जानने ।।
अयदो त्ति हु अविरमणं, देसे देसो पमत्त इदरे य । परिहारो सामाइयछेदो छठ्ठादि थूलो त्ति ॥६८६॥ सहमो सुहमकसाये, संते खीरणे जिणे जहक्खादं । संजममग्गणभेदा, सिद्धे रणत्थिति णिद्दिढें ॥६६०॥ जुम्म ।
अयत इति अविरमणं, देशे देशः प्रमत्तेतरस्मिन् च । परिहारः सामायिकश्छेदः षष्ठादिः स्थूल इति ॥६८९॥ सूक्ष्मः सूक्ष्मकषाये, शांते क्षीणे जिने यथाख्यातम् ।
संयममार्गणा भेदाः, सिद्धे न संतीति निर्दिष्टम् ॥६९०॥ टीका - संयममार्गणा विषे असंयम है, सो मिथ्यादृष्टयादिक असंयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विष है । तहां जीवसमास चौदह है । बहुरि देशसंयम एकदेश
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७३८ 1
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६९१-५१२
संयत गुणस्थान विषे ही है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । बहुरि सामायिक छेदोपस्थापना संयम प्रमत्तादिक अनिवृत्तिकरण पर्यंत च्यारि गुणस्थानन विषै है । तहां जीवसमास संज्ञी पर्याप्त अर आहारक मिश्र अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय हैं । बहुरि परिहारविशुद्धि संयम प्रमत्त अप्रमत्त दोय गुणस्थाननि विषै ही है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त हैं; जातें इस सहित आहारक होइ नाही । बहुरि सूक्ष्मसांपराय संयम सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान विषै ही है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । वहुरि यथाख्यात संयम उपशांतकषायादिक च्यारि गुणस्थाननि विषै है । तहां जीवसमास एक सैनी पर्याप्त अर समुद्घात केवली की अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय हैं । बहुरि सिद्ध विषै संयम नाहीं है, जाते चारित्र है, सो मोक्ष का मार्ग है, मोक्षरूप नाहीं है, जैसे परमागम विषै कह्या है ।
चउरक्खथावराविरवसम्मादिट्ठी दु खीणमोहो त्ति । चक्खु चक्खू - ओहो, जिणसिद्धे केवलं होदि ॥ ६६१॥
चतुरक्षस्थावराविरतसम्यग्दृष्टिस्तु क्षीरणमोह इति । चक्षुरचक्षुरवधिः, जिनसिद्धे केवलं भवति ॥ ६९१ ॥
टीका - दर्शनमार्गणा विषे चक्षुदर्शन है । सो चौइंद्री मिथ्यादृष्टी आदि क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान विषै है । तहां जीवसमास चौइद्री, सैनी पंचेद्री श्रसौनी पंचेंद्री पर्याप्त वा अपर्याप्त ए छह है । बहुरि प्रचक्षु दर्शन स्थावरकाय मिथ्या दृष्टी यादि क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान विषै हैं । तहां जीवसमास चौदह है । बहुरि अवधि दर्शन असंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत नव गुणस्थान विपै है । तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त दोय है । बहुरि केवलदर्शन सयोग - प्रयोग दोय गुणस्थान विपै है । तहां जीवसमास केवलज्ञानवत् दोय है अर सिद्ध विषे भी केवल दर्शन है |
थावर काय पहुदी, अविरदसम्मो त्ति असुह-तिय-लेस्सा | सणीदो अपमत्तो, जाव दु सुहतिण्णिलेस्साओ ॥ ६६२ ।।
स्थावर कायप्रभृति, अविरतसम्यगिति अशुभत्रिकलेश्याः । संज्ञितोऽप्रमत्तो यावत्तु शुभास्तिस्रो लेश्याः ।। ६९२॥
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सम्यग्नानचन्द्रिका भाषाटोका ]
[७३६ टीका - लेश्यामार्गणा विष कृष्णादिक अशुभ तीन लेश्याए हे। ते स्थावर मिथ्यादृष्टी आदि असंयत पर्यंत है । तहा जीवसमास चौदह है। बहुरि तेजोलेश्या अर पद्मलेश्या सैनी मिथ्यादृष्टी आदि अप्रमत्त · पर्यत है। तहा जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय है । • गवरि य सुक्का लेस्सा, सजोगिचरिमो त्ति होदि णियमरण । गयजोगिम्मि वि सिद्धे, लेस्सा 'पत्थि ति णिद्दिठं ॥६६॥
नवरि च शुक्ला लेश्या, सयोगिचरम इति भवति नियमेन ।
गतयोगेऽपि च सिद्धे, लेश्या नास्तीति निर्दिष्टम् ॥६९३॥ टीका - शुक्ललेश्या विष विशेष है, सो कहा ? शुक्ललेश्या सैनी मिथ्यादृष्टी आदि सयोगी पर्यंत है । तहां जीवसमास सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय है नियम करि; जातें केवलसमुद्घात का अपर्याप्तपना इहां अपर्याप्त जीवसमास विप गभित है । बहुरि अयोगी जिन विष वा सिद्ध विष लेश्या नाही, असा परमागम विप कह्या है।
थावरकायप्पहुदी, अजोगिचरिमो त्ति होंति भवसिद्धा। मिच्छाइट्ठिट्ठाणे, अभव्वसिद्धा हवंति ति ॥६६४॥
स्थावरकायप्रभृति, अयोगिचरम इति भवंति भवसिद्धाः।
मिथ्याष्टिस्थाने, अभव्यसिद्धा भवंतीति ॥६६४॥ टीका - भव्यमार्गणा विष भव्य सिद्ध है, ते स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी आदि अयोगी पर्यत है। अर अभव्यसिद्ध एक मिथ्यादृप्टी गुणस्थान विप ही है । इनि दोऊनि विषै जीवसमास चौदह-चौदह है।
मिच्छो सासणमिस्सो, सग-सग-ठाणम्मि होदि अयदादो। पढमुवसमवेदगसम्मत्तदुगं अप्पमत्तो ति ॥६६॥
मिथ्यात्वं सासनमिश्री, स्वकस्वकस्थाने भवति अयतात् ।
प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वद्विकमप्रमत्त इति ॥६६॥ टीका - सम्यक्त्वमार्गणा विपै मिथ्यादृष्टी, सासादन, मित्र ए तीन तो अपने-अपने एक-एक गुणस्थान विप हैं। बहुरि जीवसमास मिश्यादृष्टी विणे नो
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७४० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६९६-६९७
चौदह हैं । सासादन विषें बादर एकेंद्री, बेद्री, तेंद्री, चौइन्द्री, सैनी, असैनी पर्याप्त सैनी पर्याप्त ए सात पाइए । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ते पड़ि जो सासादन को प्राप्त भया होइ, ताकी अपेक्षा तहां सैनी पर्याप्त अर देव अपर्याप्त ए दोष ही जीवसमास है । मिश्र विषै सैनी पर्याप्त एक ही जीवसमास है । बहुरि प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर वेदक सम्यक्त्व ए दोऊ असंयतादि श्रप्रमत्त पर्यंत है । तहां जीवसमास प्रथमोपशम सम्यक्त्व विषै तौ मरण नाही है, तातै एक संज्ञी पर्याप्त ही है । अर वेदक सम्यक्त्व विषै सैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय हैं; जातें धम्मानरक, भवनत्रिक बिना देव, भोगभूमिया मनुष्य वा तिर्यंच, इनिकै अपर्याप्त विषै भी वेदक सम्यक्त्व संभव है।
द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को कहैं हैं --
बिदियुवसमसम्मत्तं, श्रविरदसम्मादि संतमोहो त्ति । खड्गं सम्मं च तहा, सिद्धो त्ति जिर्णोह णिद्दिट्ठ ॥ ६६६ ॥
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमविरतसम्यगादिशांतमोह इति ।
क्षायिकं सम्यक्त्वं च तथा, सिद्ध इति जिनैनिदिष्टम् ॥ ६९६ ॥
टीका - द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतादि उपशांत कषाय पर्यत है; जातें इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्व को श्रप्रमत्त विषे उपजाय ऊपरि उपशांतकषाय पर्यंत जाइ, नीचे पड़े, तहां असंयत पर्यंत द्वितीयोपशम सम्वत्व सहित आवै, तातै असंयत आदि विषै भी कह्या । तहां जीवसमास संज्ञी पर्याप्त र देव असंयत अपर्याप्त ए दोय पाइए है, जातै द्वितीयोपशम सम्यक्त्व विषै मरण है, सो मरि देव ही हो है । बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व असयतादि अयोगी पर्यंत ही है । तहां जीवसमास सज्ञी पर्याप्त है । अरजाकै आयु वंध हुवा होइ, ताके धम्मा नरक, भोगभूमिया मनुष्य, तिर्यंच, वैमानिक देव, इनिका अपर्याप्त भी है, ताते दोय जीवसमास है । वहुरि सिद्ध विषे भी क्षायिक सम्यक्त्व है; औसा जिनदेवने कह्या है ।
सण्णी सण्णिप्पहूदी, खीणकसाओ त्ति होदि गियमेण । थावरकायप्पहूदी, असण्णि त्ति हवे असण्णी ह ॥६६७॥
संज्ञी संज्ञिप्रभृतिः क्षीरणकषाय इति भवति नियमेन । स्थावर काय प्रभृतिः, असंज्ञीति भवेदसंज्ञी हि ॥६६७ ॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ७४१ टोका - संज्ञी मार्गणा विर्ष संज्ञी जीव मिथ्यादृप्टी आदि क्षीणकपाय पर्यंत है। तहा जीवसमास संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त ए दोय है । बहुरि असंज्ञी जीव स्थावर कायादिक असैनी पचेद्री पर्यत मिथ्यादृष्टी गुणस्थान विष ही है नियमकरि । तहा जीवसमास सैनी संबंधी दोय बिना बारह जानने।
थावरकायप्पहुदी, सजोगिचरिमो ति होदि आहारी। कम्मइय अणाहारी, अजोगिसिद्धे वि णायन्वो ॥६६॥
स्थावरकायप्रभृतिः, सयोगिचरम इति भवति माहारी ।
कार्मरण अनाहारी, अयोगिसिद्धऽपि ज्ञातव्यः ॥६९८॥ टीका - आहारमार्गणा विष स्थावर काय मिथ्यादृष्टी आदि सयोगी पर्यत आहारी है । तहां जीवसमास चौदह है। बहुरि मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत, सयोगी इनिकै कार्माण अवस्था विष पर अयोगी जिन अर सिद्ध भगवान इनि विर्षे अनाहार है । तहां जीवसमास अपर्याप्त सात, अयोगी की अपेक्षा एक पर्याप्त ए आठ हैं ।
आगै गुणस्थाननि विष जीवसमासनि को कहै हैमिच्छे चोद्दसजीवा, सासण अयदे पमत्तविरदे य। सण्णिदुगं सेसगुणे, सण्णीपुण्णो दु खीणो ति ॥६६॥
मिथ्यात्वे चतुर्दश जीवाः, सासानायते प्रमत्तविरते च ।
संजिद्विकं शेषगुणे, संज्ञिपूर्णस्तु क्षीण इति ॥६९९॥ टीका - मिथ्यादृष्टी विषै जीवसमास चौदह है। सासादन विषे, अविरत विष, प्रमत विर्ष चकार ते सयोगी विष सज्ञी पर्याप्त, अपर्याप्त ए दोय जीवसमास है । इहा प्रमत्त विष प्राहारक मिश्र अपेक्षा अर सयोगी विष केवल समुद्घात अपेक्षा अपर्याप्तपना जानना । बहुरि अवशेष पाठ गुणस्थाननि विपै अपि शब्द ते अयोगी विर्ष भी एक सज्ञीपर्याप्त जीवसमास है।
आगे मार्गणास्थाननि विष जीवसमासनि को दिखावै है - तिरिय-गदीए चोइस, हवंति सेसेसु जाण दो दो दु । मग्गणठाणस्सेवं, यारिण समासठाणाणि ॥७००॥
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७४२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७०१-७०२
तिर्यग्गतौ चतुर्दश, भवंति शेषेषु जानीहि द्वौ द्वौ तु । मार्गणास्थानस्यैवं, ज्ञेयानि समासस्थानानि ॥ ७०० ॥
टीका - तियंचगति विषै जीवसमास चौदह हैं । अवशेष गतिनि विषै संज्ञी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय दोय जीवसमास जानने । असे मार्गणास्थानकनि विषै यथायोग्य पूर्वोक्त अनुक्रम करि जीवसमास जानने ।
आगे गुणस्थाननि विषै पर्याप्ति वा प्राण कहै हैं
पज्जत्ती पाणा विय, सुगमा भाविदियं ण जोगिन्हि । तहि वाचस्सासाउगकायत्तिगदुगमजोगिणो आऊ ॥७०१ ॥
पर्याप्तयः प्रारणा अपि च, सुगमा भावेद्रियं न योगिनि । तस्मिन् वागुच्छ्वासायुष्ककायत्रिकद्विकमयोगिन प्रायुः ॥७०१ ॥
टीका - चौदह गुणस्थाननि विषे पर्याप्ति पर प्रारण जुदे न कहिए है; जातें सुगम है । तहा क्षीणकषाय पर्यंत तो छहौ पर्याप्ति है, दशौ प्राण हैं । बहुरि सयोगी जिन विषै भावेद्रिय तौ है नाहीं, द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्त है । बहुरि सयोगी के प्राण च्यारि है - १ वचनबल, २ सासोस्वास, ३ आयु, ४ कायबल ए च्यारि है । अवशेप पंचेंद्रिय अर मन ए छह प्रारण नाहीं है । तहा वचनबल का प्रभाव होते तीन ही प्राण रहै है । उस्वास निश्वास का प्रभाव होते दोय ही रहै है । बहुरि प्रयोगी विषे एक श्रायु प्राण ही रहे है । तहां पूर्वे सचित भया था, जो कर्मनोकर्म का स्कंध, सो समय समय प्रति एक एक निषेक गलते अवशेष द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्व रह्या, सो द्रव्यार्थिक नय करि तौ प्रयोगी का अतसमय विषै नष्ट हो है । पर्यायार्थिक नय करि ताके अतर समय विषे नष्ट हो है - यह तात्पर्य है ।
गुणस्थाननि विषै संज्ञा कहै है
छट्ठोत्ति पढमसण्णा, सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा । पुवो पढमणिट्टो, सुमो त्ति कमेण सेसा ॥७०२ ॥
षष्ठ इति प्रथमसंज्ञा, सकार्या शेषाश्च काररणापेक्षाः । अपूर्व: प्रथमानिवृत्तिः, सूक्ष्म इति क्रमेण शेषाः ॥७०२ ॥
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सम्पाज्ञानचन्द्रिका भाषाटोको ]
। ७४३ टोका - मिथ्यादृष्टी आदि प्रमत्तपर्यंत अपना कार्यसहित च्यार्यो संज्ञा है । तहां छठे गुणस्थानि आहार सज्ञा का विच्छेद हवा, अवशेष तीन संज्ञा अप्रमत्तादि विष है; सो तिनिका निमित्तभूत कर्म पाइए है । तहां ताकी अपेक्षा है, कार्य रहित है, सो अपूर्वकरण पर्यंत तीन संज्ञा है । तहां भय संज्ञा का विच्छेद भया । अनिवृत्तिकरण का प्रथम सवेदभाग पर्यंत मैथुन, 'परिग्रह दोय संज्ञा है । तहां मैथुन संज्ञा का विच्छेद भया । सूक्ष्मसांपराय विर्ष एक परिग्रह संज्ञा रही। ताका तहा ही विच्छेद भया। ऊपरि उपशात कषायादिक विषे कारण का अभाव ते कार्य का भी अभाव है । तातै कार्य रहित भी सर्व संज्ञा नाही है।
मग्गण उवजोगा वि य, सुगमा पुत्वं परूविदत्तादो। गदिनादिसु मिच्छादी, परूविदे रूविदा होति ॥७०३॥
मागर्णा उपयोगा अपि च, सुगमाः पूर्व प्ररूपितत्वात् ।
गत्यादिषु मिथ्यात्वाद्वौ, प्ररूपिते रूपिता भवंति ॥७०३॥ टीका - गुणस्थानकनि विर्ष चौदह मार्गणा अर उपयोग लगाना सुगम है, जातै पूर्व प्ररूपण करि आए है। मार्गणानि विर्ष गुणस्थान वा जीवसमास कहे । तहां ही कथन आय गया, तथापि मदबुद्धिनि के समझने के निमित्त बहुरि कहिए है। नरकादि गतिनामा नामकर्म के उदय तें उत्पन्न भई पर्याय, ते गति कहिए, सो मिथ्यादृष्टी विर्ष च्यार्यो नारकादि गति, पर्याप्त वा अपर्याप्त है। सासादन विष नारक अपर्याप्त नाही, अवशेष सर्व है। मिश्र विर्ष च्यार्यो गति पर्याप्त ही है । असयत विष धम्मानारक तौ पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ है । अवशेष नारक पर्याप्त ही है । बहुरि भोगभूमियां तिर्यच वा मनुष्य अर कर्मभूमिया मनुष्य अर वैमानिक देव तौ पर्याप्त वा अपर्याप्त दोऊ है । अर कर्मभूमियां तिर्यंच पर भवनत्रिक देव ए पर्याप्त ही चतुर्थ गुणस्थान विषै पाइए हैं। बहुरि देशसंयत विष कर्मभूमिया तियंच वा मनुष्य पर्याप्त ही है । बहुरि प्रमत्त विष मनुष्य पर्याप्त ही है, आहारक सहित पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ हैं । बहुरि प्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत मनुष्य पर्याप्त ही है, सयोगी विपै पर्याप्त वा समुद्घात अपेक्षा अपर्याप्त है । अयोगी पर्याप्त ही है।
बहुरि एकेद्रियादिक जातिनामा नामकर्म के उदय ते निपज्या जीव के पर्याय सो इन्द्रिय है । तिनकी मार्गणा एकेद्रियादिक पंच है । ते मिथ्यादृष्टी विपै तो पाचौं
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७४४ 1
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७०३ पर्याप्त वा अपर्याप्त है । सासादन विष अपर्याप्त तौ पाचौ पाइए अर पर्याप्त एक पंचेद्रिय पाइए है । मिश्र विषै पर्याप्त पंचेद्रिय ही है। असंयत विर्षे पर्याप्त वा अप
प्ति पंचेद्री है। देशसंयत विषै पर्याप्त पंचेद्री ही है। प्रमत्त विषै आहारक अपेक्षा दोऊ है । अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत एक पचेंद्रिय पर्याप्त ही है । सयोगी विपै पर्याप्त है, समुद्घात अपेक्षा दोऊ है । अयोगी विष पर्याप्त ही पंचेद्रिय है।
पृथ्वीकायादिक विशेष को लीए एकेंद्रिय जाति अर स्थावर नामा नामकर्म का उदय अर त्रस नामा नामकर्म का उदय ते निपजे जीव के पर्याय ते काय कहिए, ते छह प्रकार है । तहां मिथ्यादृष्टी विर्षे तौ छहौं पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं । सासादन विप बादर पृथ्वी, अप, वनस्पती ए स्थावर अर त्रस विष बेंद्री, तेद्री, चौद्री, असैनी पंचेंद्री ए तौ अपर्याप्त ही है । पर सैनी त्रस काय पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ है । आगें संज्ञी पंचेद्रिय त्रस काय ही है, तहां मिश्र वि पर्याप्त ही है। अविरत विर्ष दोऊ है। देशसंयत विर्षे पर्याप्त ही है । प्रमत्त विर्षे पर्याप्त है। आहारक सहित दोऊ है । अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत पर्याप्त ही है, सयोगी विषै पर्याप्त ही है । समुद्धात सहित दोऊ है । अयोगी विषै पर्याप्त ही है ।
पुद्गल विपाको शरीर अर अंगोपांग नामा नामकर्म के उदय ते मन, वचन, काय करि सयुक्त जो जीव, ताके कर्म नोकर्म आवने कौ कारण जो शक्ति वा ताकरि उत्पन्न भया जो जीव के प्रदेशनि का चचलपना, सो योग है। सो मन-वचन-काय भेद ते तीन प्रकार है। तहा वीर्यातराय अर नोइन्द्रियावरण कर्म, तिनके क्षयोपशम करि अगोपाग नामकर्म के उदय करि मनःपर्याप्ति सयुक्त जीव के मनोवर्गणारूप जे पुद्गल आए, तिनिका आठ पाखड़ी का कमल के आकार हृदय स्थानक विष जो निर्माण नामा नामकर्म तै निपज्या, सो द्रव्य मन है। तहा जो कमल की पांखड़ीनि का अग्रभागनि विर्ष नोइन्द्रियावरण का क्षयोपशमयुक्त जीव का प्रदेश समूह है, तिनिविप लब्धि उपयोग लक्षण को धरै, भाव मन है। ताका जो परिणमन, सो मनोयोग है । सो सत्य, असत्य, उभय, अनुभय रूप विषय के भेद ते च्यारि प्रकार है। वहुरि भाषापर्याप्ति करि संयुक्त जो जीव, ताकै शरीर नामा नामकर्म के उदय करि अर स्वरनामा नामकर्म का उदय का सहकारी कारण करि भाषावर्गणारूप आए जे पुद्गल स्कंध तिनिका च्यारि-प्रकार भाषारूप होइ परिणमन, सो वचन योग है। सो वचन योग भी सत्यादिक पदार्थनि का कहनहारा है, ताते च्यारि प्रकार है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ७४५ बहुरि औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर नामा नामकर्म के उदय करि आहार वर्गणारूप आए जे पुद्गल स्कंध, तिनिका निर्माण नामा नामकर्म के उदय करि निपज्या जो शरीर, ताके परिणमन के निमित्त ते जीव का प्रदेशनि का जो चचल होना, सो औदारिक आदि काय योग है। बहुरि शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् एक समय घाटि अंतर्मुहूर्त पर्यत, तिनके मिश्र योग है। इहा मिश्रपना कह्या है, सो औदारिकादिक नोकर्म की वर्गणानि का आहरण आप ही ते न हो है, कार्माण वर्गणा का सापेक्ष लीए है; तातै कह्या है । बहुरि विग्रह गति विष औदारिकादिक नोकर्म की वर्गणानि का तौ ग्रहण है नाही, कार्माण शरीर नामा नामकर्म का उदय करि. कार्माण वर्गणारूप आए जे पुद्गल स्कंध, तिनिका ज्ञानावरणादिक कर्म पर्याय करि जीव के प्रदेशनि विष बध होते भया जो जीव के प्रदेशनि का चचलपना, सो कार्माण, काययोग है । अस ए पंद्रह योग है।
तिसु तेरं दस मिस्से, सत्तसु णव छठ्ठयम्मि एगारा। जोगिम्मि सत्त जोगा, अजोगिठाणं हवे सुण्णं ॥७०४॥
त्रिषु त्रयोदश दश मिश्रे, सप्तसु नव षष्ठे एकादश ।
योगिनि सप्त योगा, अयोगिस्थानं भवेत् शून्यम् ॥७०४॥ टीका - कहे पद्रह योग, तिनि विष मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत इन तीनों वि तेरह तेरह योग है, जाते आहारक, आहारकमिश्र, प्रमत्त बिना अन्यत्र नाही है। बहुरि मिश्र विष औदारिक मिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्माण ए तीनो भी नाही, ताते दश ही है। बहुरि ऊपरि सात गुणस्थानकनि विषै वैक्रियिक योग भी नाही है; ताते प्रमत्त विष तौ आहारकद्विक के मिलने ते ग्यारह योग है, औरनि विष नव नव योग है । बहुरि सयोगी विष सत्य-अनुभय · मनोयोग, सत्य-अनुभय वचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्माण ए सात योग है । अयोगी गुणस्थान विष योग नाही तातै शून्य है । बहुरि स्त्री, पुरुष, नपुसक वेदनि करि उदय करि वेद हो है, ते तीनौ अनिवृत्तिकरण के सवेदभाग पर्यत है; ऊपरि नाही ।
बहुरि क्रोधादिक च्यारि कषायनि का यथायोग्य अनतानुबधी इत्यादि रूप उदय होत संतै क्रोध, मान, माया, लोभ हो है। तहां मिथ्यादृष्टी सासादन विपै तो अनंतानुबंधी आदि च्यारि च्यारि प्रकार है । मिश्र असयत विष अनतानुवधी विना
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७४६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ७०४ तीनतीन प्रकार हैं। देशसंयत विर्षे अप्रत्याख्यान बिना दोय दोय प्रकार है । प्रमत्तादि अनिवृत्तिकरण का दूसरा भागपर्यंत संज्वलन क्रोध है। तीसरा भाग पर्यंत मान है। चौथा भाग पर्यत माया है। पंचम भाग पर्यंत बादर लोभ है । सूक्ष्मसांपराय विर्षे सूक्ष्म लोभ है । ऊपर सर्व कषाय रहित है। - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम ते मति आदि ज्ञान हो है । केवल ज्ञानावरण के समस्त क्षय ते केवलज्ञान हो है। मिथ्यात्व का उदय करि सहवर्ती असे मति, श्रुत, अवधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम तैं कुमति, कुश्रुत, विभंग ज्ञान हो है; सो सर्व मिलि आठ ज्ञान भए । तहां मिथ्यादृष्टी सासादन विष तौ तीन कुज्ञान हैं । मिश्र विष तीन कुज्ञान वा सुज्ञान मिश्ररूप है । अविरत पर देशसंयत विष मति, श्रुत, अवधि ए आदि के तीन सुज्ञान हैं। प्रमत्तादि क्षीणकषायपर्यंत विष मनःपर्यय सहित आदिक के च्यारि सुज्ञान है। सयोगी, अयोगी वि एक केवलज्ञान है।
बहुरि संज्वलन की चौकड़ी अर नव नोकषाय इनके मंद उदय करि व्रत का धारना, समिति का पालना, कषाय का निग्रह, दंड का त्याग, इद्रियनि का जय जैसे भावरूप संयम हो है । सो संयम सामान्यपने एक सामायिक स्वरूप है; जातै सर्वसावद्ययोगविरतोऽस्मि' मै सर्व पाप सहित योग का त्यागी हू; असे भाव विषै सर्व गभित भए । विशेपपनै असयम, देशसंयम, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यात भेद ते सात प्रकार है। तहा असयत पर्यत च्यारि गुणस्थाननि विर्ष असयम ही है । देशसयत विष देशसयम है । प्रमत्तादिक अनिवृत्तिकरण पर्यंत सामायिक, छेदोपस्थापना है। प्रमत्त-अप्रमत्त विष परिहार विशुद्धि भी है । सूक्ष्मसापराय विपे सूक्ष्मसांपराय है । उपशात कषायादिक विषै यथाख्यात सयम है ।
वहरि चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शनावरण के क्षयोपशम ते अर केवलदर्शनावरण के समस्त क्षय तै चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शन हो है । तहा मिश्रगुणस्थान पर्यत तौ चक्षु, अचक्षु, दोय दर्शन है। असंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत विषै चक्षु, अचक्षु, अवधि तीन दर्शन है । सयोग, अयोग पर सिद्ध विषै केवल दर्शन है।
कपाय के उदय करि अनुरंजित जैसी मन, वचन, कायरूप योगनि की प्रवृत्ति सो लेश्या है । सो शुभ-अशुभ के भेद ते दोय प्रकार है। तहां अशुभलेश्या कृष्ण, नील, कपोत भेद ते तीन प्रकार है । शुभ लेश्या तेज, पद्म, शुक्लभेद ते तीन प्रकार
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सम्पन्जानचन्द्रिका भाषाटीका ] .
[ ७४७ है । तहां असंयत पर्यत तौ छहौ लेश्या है। देशसंयतादि अप्रमत्त पर्यत विष तीन शुभलेश्या ही है। अपूर्वकरणादि सयोगी पर्यंत विष शुक्ललेश्या ही है। अयोगी, योग के अभाव तै लेश्या रहित है। . .
सामग्रीविशेष करि रत्नत्रय वा अनंत चतुष्टयरूप परिणमने कौ योग्य, सो भव्यं कहिए। परिणमने को योग्य नाहीं, सो अभव्य कहिए । इहा अभव्य राशि जघन्य युक्तानन्त प्रमाण है । संसारी राशि में इतना घटाए, अवशेष रहै, तितने भव्य सिद्ध है । सो भव्य तीन प्रकार - १ आसन्नभव्य, २ दूरभव्य, ३ अभव्यसमभव्य । जे थोरे काल में मुक्त होने योग्य होइ, ते आसन्नभव्य है । जे बहुत काल मे मुक्त होने होइ, ते दूर भव्य है। जे त्रिकाल विर्षे मुक्त होने के नाही, केवल मुक्त होने की योग्यता ही कौ धरै है, ते अभव्यसम भव्य है। सो इहा मिथ्यादृष्टी विषै भव्य-अभव्य दोऊ है । सासादनादि क्षीणकषायपर्यंत विष एक भव्य ही है । सयोग-अयोग विष भव्य अभव्य का उपदेश नाहीं है। ..
') बहुरि अनादि मिथ्यादृष्टी जीव क्षयोपशमादिक पचलब्धि का परिणामरूप परिणया। तहां मिथ्यादृष्टी ही विषे करण कीए, तहा अनिवृत्तिकरण का अंत समय विषै अनतानुबधी पर मिथ्यात्व इनि पचनि का उपशम करि ताके अनतर समय विष मिथ्यात्व का ऊपरि के वा नीचे के निषेक छोडि, बीचि के निषेकनि का अभाव करना; सो अतर कहिए, सो अंतर्मुहूर्त के जेते समय तितने निषेकनि का अभाव अनिवृत्तिकरण विषे ही कीया था, सो तिनि निषेकनिरूप जो अतरायाम सबधी अतर्मुहर्त काल, ताका प्रथम समय विष प्रथमोपशम सम्यक्त्व को पाइ असयत हो है। वा प्रथमोपशम सम्यक्त्व पर देशव्रत, इनि दोऊनि को युगपत् पाइ करि देशसयत हो है । अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर महाव्रत, इनि दोऊनि को युगपत् पाइ करि अप्रमत्तसंयत हो है। तहां तिस पावने के प्रथम समय तै लगाइ, अंतर्मुहूर्त ताई गुण संक्रमण विधान करि मिथ्यात्वरूप द्रव्यकर्म को गुणसक्रमरण भागहार करि घटाइ घटाइ तीन प्रकार कर है । गुणसक्रमण विधान अर गुणसक्रमण भागहार का कथन आगे करैगे, तहां जानना । सो मिथ्यात्व प्रकृति रूप अर सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृतिरूप । वा सम्यक्त्व प्रकृतिरूप असे एक मिथ्यात्व तीन प्रकार तहा कीजिए है; सो इनि तीनो का द्रव्य जो परमाणूनि का प्रमाण, सो असंख्यात गुणा, असख्यात गुणा घाटि अनुक्रम तै जानना।
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૭૪૬ ]
[ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाया ७०४
इहां प्रश्न - जो मिथ्यात्व कौं मिथ्यात्व प्रकृतिरूप कहा कीया ?
ताकां समाधान - पूर्वे जो उस मिथ्यात्व की स्थिति थी, तामै प्रतिस्थापना - वली मात्र घटाव है, सो प्रतिस्थापनावली का भी स्वरूप मागे कहगे | जो अप्रमत्त गुणस्थान की प्राप्त हो है, सो अप्रमत्तस्यों-प्रमत्त में अर प्रमतस्यों- अप्रमत्त में संख्यात हजार बार आवै जाय है । ताते प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रमत्त विषे भी कहिए ते ए च्यार्यो गुणस्थानवर्ती प्रथमोपशमसम्यक्त्व का अंतर्मुहूर्त काल विषै जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवली अवशेष रहें, अर तहां अनंतांनुबधी की किसी प्रकृति का उदय होइ तौ सासादन होइ । बहुरि जो भव्यंता गुण का विशेष करि सम्यक्त्व गुण का नाश न होइ तो उस उपशम सम्यक्त्व का काल को पूर्ण होतें सम्यक्त्व प्रकृति के उदय ते वेदक सम्यग्दृष्टी हो है । बहुरि जो मिश्र प्रकृति का उदय होइ, तौ सम्यग्मियादृष्टी हो है । बहुरि जो मिथ्यात्व ही का उदय आवै तो मिथ्यादृष्टी ही होइ जाइ ।
.
बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व विषै विशेष है, सो कहा ?
उपशम श्रेणी चढने के निमित्त कोई सातिशय अप्रमत्त वेदक सम्यग्दृष्टी तहां अप्रमत्तविषे तीन कररण की सामर्थ्य करि अनंतानुबंधी का प्रशस्तोपशम बिना अप्रतोपशम करि ऊपर के जे निषेक, जिनिका काल न आया है, ते तो है ही; जे नीचे के निपेक तानुवधी के है, तिनिको उत्कर्षण करि ऊपरि के निषेकनि विषै प्राप्त कर है वा विसयोजन करि अन्य प्रकृतिरूप परिणामावै है, असे क्षपाइ दर्शनमोह की तीन प्रकृति, तिनिका बीचि के निषेकनि का अभाव करने रूप अंतरकरण करि अतर कीया । वहुरि उपशमविधान करि दर्शनमोह की प्रकृतिनि को उपशमाइ, अंतर कीएं निषेक सवधी अतर्मुहूर्त काल का प्रथम समय विषै द्वितीयोपशम सम्यदृष्टी होइ, उपशम श्रेणी को चढि, क्रम तैं उपशात कषाय पर्यत जाइ, तहां अतर्मुहूर्त काल तिष्ठि करि, अनुक्रम ते एक एक गुणस्थान उतरि करि, अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होइ, तहां अप्रमत्त स्यों प्रमत्त में वा प्रमत्त स्यों प्रप्रमत्त में हज़ारों बार श्राव जाइ, तहांस्यों नीचे देशसयत होइ, तहां तिष्ठ वा असंयत होइ तहां तिष्ठे । अथवा जो ग्यारह्नां श्रादि गुणस्थाननि विषे मरण होइ, तौ तहा स्यों अनुक्रम बिना देव पर्यायरूप असंयत हो है । वा मिश्र प्रकृति के उदय ते मिश्र गुणस्थानवर्ती हो है वा अनंतानुबंधी के उदय होते द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कौ विराध है; औसी किसी आचार्य की पक्ष की अपेक्षा सासादन हो है । वा मिथ्यात्व का उदय करि मिथ्या
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ७४
दृष्टी हो है । बहुरि असंयतादिक च्यारि गुणस्थानवर्ती जे मनुष्य, बहुरि असंयत, देशसंयत गुणस्थानवर्ती उपचार महाव्रत जिनके पाइए है, औसी आर्या स्त्री, ते कर्मभूमि के उपजे असे वेदक सम्यक्त्वी होंइ, तिनहीके केवली श्रुतकेवली दोन्यो विषे किसी का चरणां के निकट सात प्रकृति का सर्वथा क्षय होते क्षायिक सम्यक्त्व हो है, सो असें सम्यक्त्व का विधान कह्या ।
सो सम्यक्त्व सामान्यपने एक प्रकार है । विशेषपने १ मिथ्यात्व, २ सासादन ३ मिश्र, ४ उपशम, ५ वेदक, ६ क्षायिक भेद ते छह प्रकार है । तहा मिथ्यादृष्टी विषै तो मिथ्यात्व ही है । सासादन विषे सासादन है । मिश्र विषै मिश्र है । असयतादिक अप्रमत्त पर्यंत विषै उपशम ( औपशमिक), वेदक, क्षायिक तीन सम्यक्त्व है । अपूर्वकररणादि उपशात कषाय पर्यंत उपशमश्रेणी विषै उपशम, क्षायिक दोय सम्यक्त्व है। क्षपक श्रेणीरूप अपूर्वकरणादिक सिद्ध पर्यंत एक क्षायिक सम्यक्त्व ही है ।
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बहुरि नो इंद्रिय, जो मन, ताके आवरण के क्षयोपशम तै भया जो ज्ञान, ताकी संज्ञा कहिए । सो जिसके पाइए, सो संज्ञी है । जाकै न पाइए पर यथासंभव अन्य इन्द्रियनि का ज्ञान पाइए, सो असंज्ञी है ।, तहा सज्ञी मिथ्यादृष्टि आदि क्षीण कषाय पर्यंत है । असंज्ञी मिथ्यादृष्टी विषे ही है । सयोग प्रयोग विषै मन- इन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञान नाही है; तातै सज्ञी असज्ञी न कहिए है ।
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बहुरि शरीर पर अगोपाग नामा नामकर्म के उदय ते उत्पन्न भया जो शरीर वचन, मन रूप नोकर्म वर्गरणा का ग्रहरण करना, सो आहार है । विग्रहगति विषै वा प्रतर लोक पूर्ण महित सयोगी विषे वा प्रयोगा विषै वा सिद्ध विषै अनाहार है, तातै मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत, सयोगी इनि विषै तो दोऊ है । अवशेष नव गुरणस्थान विष आहार ही है । प्रयोगी विषै वा सिद्ध विषै अनाहार ही है ।
गुणस्थाननि विषै उपयोग कहै है ।
दोहं पंच य छच्चेव, दोसु मिस्सम्मि होंति वामिस्सा | सत्तुवजोगा सत्तसु, दो चेव जिरणे य सिद्धे य ॥७०५ ॥
द्वयोः पंच च षट्चैव, द्वयोमिश्रे भवंति व्यामिश्राः । सप्तोपयोगाः सप्तसु द्वौ चैव जिने च सिद्धे च ॥७०५ ॥
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७५० ]
। गोम्मटसार जीवकाश गाया ७०४ टीका - गुण पर्यायवान् वस्तु है, ताके ग्रहणरूप जो व्यापार प्रवर्तन, सो उप योग है । ज्ञान है, सो जानने योग्य जो वस्तु, तातै नाहीं उपज हैं । सो कह्या है -'
स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः, परिच्छेद्यः स्वतो यथा ।
तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं, परिच्छेदात्मकं स्वतः ॥१॥ याका अर्थ - जैसे वस्तु अपने ही उपादान कारण तें निपज्या, आपही तें जानने योग्य है । तैसे ज्ञान अपने ही उपादान कारण ते निपज्या, आपही ते जाननेहारा है । बहुरि ज्ञेय पदार्थ पर प्रकाशादिक ए ज्ञानका कारण नाही, जात ए तो ज्ञेय है । जैसे अंधकार ज्ञेय है, तैसे ए भी ज्ञेय है - जानने योग्य है । जानने कौं कारण नाही, असा जानना । बहुरि सो उपयोग ज्ञान दर्शन के भेद ते दोय प्रकार है। तहां कुमति, कुश्रुत, विभंग, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल भेद ते ज्ञानोपयोग आठ प्रकार है । चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल भेद तें दर्शनोपयोग च्यारि प्रकार है। तहां मिथ्यादृष्टी सासादन विष तो कुमति, कुश्रुत, विभंग ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, दर्शन ए पांच उपयोग है । बहुरि मिश्रविष मिश्ररूप मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन, ए छह उपयोग है । असंयत देशसंयत विष मति, श्रुत, अवधिज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन ए छह उपयोग है । प्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत विर्षे तेई मन:पर्यय सहित सात उपयोग है । सयोगी, अयोगी, सिद्ध विर्ष केवलज्ञान केवलदर्शन ए दोय उपयोग है। इति प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसंग्रह ग्रंथ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसार सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा भाषाटीका विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा, तिनि विषै गुणस्थाननिविषै बीस प्ररूपणा निरूपण
नामा इकवीसवां अधिकार सम्पूर्ण भया ॥२१॥
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बाईसवां अधिकार : आलापाधिकार
सुरनर गणपति पूज्यपद, बहिरंतर श्री धार ।
नेमि धर्मरथनेमिसम, भजौं होहु श्रीसार ॥२२॥ आगे आलाप अधिकार को अपने इष्टदेव को नमस्कार पूर्वक कहनेकौं प्रतिज्ञा
गोयमथेरं पणमिय, अोघादेसेस वीसभेदाणं । जोजणिकाणालावं, वोच्छामि जहाकम सुणह ॥७०६॥
गौतमस्थविरं प्रणम्य, प्रोधादेशयोविंशभेदानाम् ।
योजनिकानामालापं, वक्ष्यामि यथाक्रमं शृणुत ॥७०६॥ टोका - विशिष्ट जो गो कहिए भूमि, आठवी पृथ्वी, सो है स्थविर कहिए सास्वती, जाके असा सिद्धसमूह, अथवा गौतम है स्थविर कहिए गणधर जाके असा वर्धमान स्वामी अथवा विशिष्ट है गो कहिए वाणी जाकी असा स्थविर कहिए मुनिसमूह, सो असे जु गौतम स्थविर ताहि प्रणम्य नमस्कार. करिके ओघ जो गुणस्थान अर आदेश जो मार्गणास्थान, इनिविष जोडनेरूप जो गुणस्थानादिक बीस प्ररूपणा, तिनिका आलाप, ताहि यथाक्रम कहौंगा, सो सुनहु । जहा बीस प्ररूपणा प्ररूपिए, असे विवक्षित स्थाननि का कहना ताका नाम आलाप जानना । सो कहै है -
ओघे चोदसठाणे, सिद्धे वीसदिविहाणमालावा । वेदकसायविभिण्णे, अणियट्टीपंचभागे य ॥७०७॥
अोघे चतुर्दशस्थाने, सिद्धे विशतिविधानामालापाः ।
वेदकषायविभिन्ने, अनिवृत्तिपंचभागे च ॥७०७॥ टीका - ओघ जो गुणस्थान पर चौदह मार्गणास्थान ए परमागम विष प्रसिद्ध है। सो इनिविषै गुणजीवा पज्जत्ती इत्यादिक बीस प्ररूपणानि का सामान्य पर्याप्त, अपर्याप्त ए तीन आलाप हो है। बहुरि वेद अर कषाय करि है भेद जिनि विर्ष असे अनिवृत्तिकरण के पंच भाग तिनिविर्ष आलाप जुदे-जुदे जानने ।
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७५४ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७१४ धारै सो पर्याप्त तिर्यच । बहुरि जो स्त्रीवेदरूप है, सो योनिमत तिर्यच । जो लब्धि अपर्याप्त अवस्था को धारै सो लब्धि अपर्याप्त तिर्यच ।
__ तहां सामान्यादिक चारि प्रकार तिर्यंचनि के पंच गुणस्थान पाइए । तहां मिथ्यादृष्टी, सासादन, अविरत विष तीन तीन आलाप हैं। तहां इतना विशेप हैयोनिमत तियंच के अविरत विर्ष एक पर्याप्त आलाप ही है; जाते जो पहिले तिर्यंच आयु बांध्या होइ तो भी सम्यग्दृष्टी स्त्रीवेद नपुंसकवेद विर्षे न उपजे। बहुरि मिश्र वा देशविरत विषै पर्याप्त पालाप ही है।
तेरिच्छियलद्धियपज्जत्ते, एकको अपुरण आलावो। मूलोघं मणुसतिए, मणुसिरिणप्रयदम्हि पज्जत्तो ॥७१४॥
तिर्यग्लब्ध्यपर्याप्ते, एक अपूर्ण पालापः ।
मूलोघं मनुष्यत्रिके, मानुष्ययते पर्याप्तः ॥७१४॥ टीका - लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच विर्षे एक अपर्याप्त आलाप ही है ।
बहुरि मनुष्य च्यारि प्रकार - तहां सर्वभेद जामें गर्भित होंइ असा सामान्य मनुष्य । बहुरि जो पर्याप्त अवस्था को धारै, सो पर्याप्त मनुष्य, बहुरि जो स्त्री वेदरूप सो योनिमत मनुष्य, बहुरि जो लब्धि अपर्याप्तपनां को धारै, सो लब्धि अपर्याप्त मनुष्य है।
तहा सामान्यादिक तीन प्रकार मनुष्यनि के प्रत्येक चौदह गुणस्थान पाइए । इहा भाव वेद अपेक्षा योनिमत मनुष्य के चौदह गुणस्थान कहे है। गुणस्थानवत् आलाप जानने । विशेष इतना - जो योनिमत मनुष्य के असंयत विषै एक पर्याप्त पालाप ही है । कारण पूर्व कह्या ही है।
बहुरि इतना विशेष है - जो असंयत तिर्यचिणी के प्रथमोपशम, वेदक ए दोय सम्यक्त्व है । पर मनुष्यणी के प्रथमोपशम, वेदक, क्षायिक ए तीन सम्यक्त्व संभवै है । तथापि जहां सम्यक्त्व हो है, तहां पर्याप्त आलाप ही है । सम्यक्त्व सहित मरै, सो स्त्रीवेदनि विष न उपजे है। बहुरि द्रव्य अपेक्षा योनिमती. पंचम गुणस्थान तें ऊपरि गमन कर नाही, तातै तिनकै द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नाही है। ,
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सम्यग्ज्ञानचन्त्रिका भाषाटोका ]
मणुसिरिग पमत्तविरदे, आहारदुगं तु पत्थि खियमेरा । अवगदवेदे मणुसिरिग, सण्णा भूदगदिमांसेज्ज ॥ ७१५॥
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मानुष्यां प्रमत्तविरते, आहाराद्विकं तु नास्ति नियमेन । अपगतवेदायां मानुष्यां, संज्ञा भूतगतिमासाद्य ॥७१५॥
टीका - द्रव्य पुरुष र भाव स्त्री असा मनुष्य प्रमत्तविरत गुणस्थान विषै होइ, ताकै आहारक अर आहारक अंगोपांग नामकर्म का उदय नियम करि नाही है ।
[ ७५५
तु शब्द ते स्त्रीवेद, नपुसकवेद का उदय विषै मन पर्ययज्ञान पर परिहार विशुद्धि संयम ए भी न हो है ।
बहुरि भाव मनुष्यणी विषै चौदह गुणस्थान है । द्रव्य मनुष्यणी विषे पाच ही गुणस्थान है ।
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बहुरि वेद रहित अनिवृत्तिकरण विषै मनुष्यणी कै मैथुन संज्ञा कही है । सो कार्य रहित भूतपूर्वगति न्याय करि जाननी । जैसे कोऊ राजा वाकौ राजभ्रष्ट भए पीछे भी राजा ही कहिए है; तैसे जाननी । सो भाव स्त्री भी नववा ताई ही है। इहां चौदह गुणस्थान कहे, सो भूतपूर्वंगति न्यायकरि ही कहे है । बहुरि श्राहारक ऋद्धि को जो प्राप्त भया, ताकै भी वा परिहार विशुद्धि संयम विषै द्वितीयोपशम सम्यक्त्व र मन पर्यय ज्ञान न हो है; जाते तैतीस वर्ष बिना सो परिहार विशुद्धि सयम होइ नाही | प्रथमोपशम सम्यक्त्व की इतनी स्थिति नाही । अर परिहार विशुद्धि सयम सहित श्रेणी न चढे, ताते द्वितीयोपशम सम्यक्त्व भी बने नाही, तातै तिन दोऊनि का संयोग नाही संभव है ।
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गरलद्विपज्जत्ते, एक्को द ग्रपुष्णगो तु आलावो । लेस्साभेदविभिण्णा, सत्तवियप्पा सुरट्ठाणा ॥७१६॥
नरलब्ध्यपर्याप्ते, एवस्तु अपूर्णकस्तु श्रलापः ॥
श्याविभिन्नानि सप्त विकल्पानि सुरस्थानानि ॥ ७१६ ॥
टीका - बहुरि लब्धि अपर्याप्त मनुष्य विषै एक अपर्याप्त आलाप ही है । बहुरि लेश्या भेद करि भिन्न असे देवनि के स्थानक सात है; ते कहै है |
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७१७-७१८-७१६
७५६ ]
भवनत्रिक देव, बहुरि सौधर्म युगल, बहुरि सनत्कुमार युगल, बहुरि ब्रह्मादिक छह, बहुरि शतारयुगल, बहुरि पानतादिक नवम ग्रैवेयक पर्यंत तेरह, बहुरि अनुदिश, अनुत्तर विमान चौदह, इनि सात स्थानकनि विष क्रम तै तेज का जघन्यांश, बहुरि तेज का मध्यमांश, बहुरि तेज का उत्कृष्टांश, पद्म का जघन्यांश, बहुरि पद्म का मध्यमाश, बहुरि पद्म का उत्कृष्टांश, शुक्ल का जघन्यांश, बहुरि शुक्ल का मध्यमांश, बहुरि शुक्ल का उत्कृष्टांश ए लेश्या पाइए हैं ।
सव्वसुराणं ओघे, मिच्छदुगे अविरदे य तिण्णेव । गरि य भवणतिकप्पित्थीणं च य अविरदे पुण्णो ॥७१७॥
सर्वसुराणामोघे, मिथ्यात्वद्विके अविरते च त्रय एव ।
नवरि च भवनत्रिकल्पस्त्रीणां च च अविरते पूर्णः ॥७१७॥ टोका - सर्व सामान्य देव विर्षे मिथ्यादृष्टी सासादन, असंयत इनिविर्षे तीन तीन आलाप है । बहुरि इतना विशेष - जो भवनत्रिक देव अर कल्पवासिनी स्त्री, इनके असयत विष एक पर्याप्त पालाप ही है । जाते असंयत तियंच मनुष्य मरि करि तहा उपजै नाही।
मिस्से पुण्णालाओ, अणुद्दिसाणुत्तरा हु ते सम्मा। अविरद तिण्णालावा, अणुद्दिस्साणुत्तरे होति ॥७१८॥
मिश्रे पूर्णालापः, अनुदिशानुत्तरा हि ते सम्यक् ।
अविरते त्रय आलापाः, अनुदिशानुत्तरे भवति ॥७१८॥ टोका - नव ग्रैवेयक पर्यंत सामान्य देव, तिनिकै मिश्र गुणस्थान विषै एक पर्याप्त पालाप ही है । बहुरि अनुदिश अर अनुत्तर विमानवासी अहमिद्र सर्व सम्यग्दृप्टी ही है । तातै तिनके असंयत विष तीन आलाप है।
आगै इद्रिय मार्गणा विर्षे कहै हैंबादरसुहमइंदिय-बि-ति-चउ-रंदियअसण्णिजीवारणं। ओघे पुण्णे तिण्ण य, अपुण्णगे पुण्ण अपुण्णो दु ॥७१६॥ बादरसूक्ष्मैकेंद्रियद्वित्रिचतुरिद्रियासंज्ञिजीवानाम् । अोघे पूर्णे त्रयश्च, अपूर्णके पुनः अपूर्णस्तु ॥७१६॥
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका )
[ ७५७
टीका बादर सूक्ष्म एकेद्रिय, बहुरि बेद्री, तेद्री, चौद्री, असैनी पचेंद्री इनकी सामान्य रचना पर्याप्त नामकर्म का उदय संयुक्त, तीहि विषे तीन आलाप है । निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था विषै भी पर्याप्त नामकर्म ही का उदय जानना ।
सणी श्रघे मिच्छे, गुणपडिवण्णेय मूलप्रालावा । लद्धियपुणे एक्कोsपज्जत्तो होदि आला ॥७२० ॥
संयोघे मिथ्यात्वे, गुणप्रतिपन्ने च सुलालापाः । लब्ध्यपूर्णे एकः, अपर्याप्तो भवति आलापः ॥७२०॥
टीका - सैनी पंचेद्री तियंच की सामान्य रचना विषै पच गु णस्थान है । तिनि विषे मिथ्यादृष्टी में तो मूल में कहे थे, तेई तीन आलाप है । बहुरि जो विशेष गुण को प्राप्त भया, ताके सासादन अर संयत विषे मूल मे कहे ते तीन, तीनो आलाप हैं । मिश्र र देशसंयत विषै एक पर्याप्त आलीप है । बहुरि सैनी लब्धि अपर्याप्त विषै एक लब्धि अपर्याप्त आलाप ही है ।
आगे काय मार्गणा विषै दोय गाथानि करि कहै है -
भू-आउ-तेउ - वाऊ - रिणच्चचदुग्गदि - रिगगोदगे तिण्णि । तारणं थूलिदरेसु वि, पत्तेगे तद्दुभेदे वि ॥७२१॥
तसजीवाणं श्रघे, मिच्छादिगुणे वि श्रोध आलायो । पुणे एक्कोsपज्जत्तो होदि आलाओ ॥७२२|| जुम्मं ।
भ्वप्तेजोवायु नित्यचतुर्गति निगोदके त्रयः । तेषां स्थूलतरयोरपि, प्रत्येके तद्विभेदेऽपि ॥ ७२१॥
सजीवानामोघे, मिथ्यात्वादिगुणेऽपि श्रघ आलापः । लब्ध्यपूर्ण एकः, अपर्याप्तो भवत्यालापः ॥७२२॥ युग्मम् ।
टीका - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्य निगोद, चतुर्गतिनिगोद इनके बादरसूक्ष्म भेद, बहुरि प्रत्येक वनस्पती याके सप्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित भेद, इनि सवनि दिये तीन-तीन आलाप है । त्रस जीवनि के सामान्य करि चौदह गुणस्थाननि दिपं
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गायो ७२३-७२४
गुगस्याननि विपं कहे तैसे ही आलाप है; किछू विशेष नाही । पृथ्वी आदि त्रस पर्यंत जो लब्धि अपर्याप्त है, ताकै एक लब्धि अपर्याप्त ही आलाप है।
आगै योगमार्गणा विर्षे कहै हैंएक्कारसजोगारणं, पुण्णगदारणं सपुग्णालाओ। मिस्सचउक्कस्स पुणो, सगएक्कअपुण्ण पालामो ॥७२३॥
एकादशयोगानां, पूर्णगतानां स्वपूर्णालापः ।
मिश्रचतुष्कस्य पुनः, स्वकैकापूर्णालापः ॥७२३॥ टीका - पर्याप्त अवस्था विष होहिं असै च्यारि मन, च्यारि वचन, औदारिक, वैकियक, ग्राहारक इन ग्यारह योगनि के अपना-अपना एक पर्याप्त आलाफ ही है। जैसे सत्य मनोयोग के सत्य मन.पर्याप्त आलाप है । औसै सबनि के जानना। बहरि अवशेष रहे च्यारि, मिश्र योग, तिनिकै अपना अपना एक अपर्याप्त आलाप ही । जैसे प्रादारिक मिश्र के एक औदारिक मिश्र अपर्याप्त आलाप है । जैसे गावनि के जानना ।
मार्ग अवशेष मार्गणा विप कहै है - वेदादाहारो ति य, सगुणट्ठाणाणमोघ आलाओ। णवरि य संढिच्छीणं, पत्थि हु आहारगाण दुगं ॥७२४॥
वेदादाहार इति च, स्वगुणस्थानानामोघ पालापः।
नवरि च पंढस्त्रीणां, नास्ति हि आहारकानां द्विकम् ॥७२४॥ टोका - बदमार्गणा ते लगाइ आहारमार्गणा पर्यंत दश मार्गणानि विष
प्राना गुणन्याननि का पालापनि का अनुक्रम गुणस्थाननि विपै कहे, तैसे ही जानना । तना विशंग है जो भावनपुंसक वा स्त्री वेद होइ अर द्रव्य पुरुप होइ असे पारा, साहारकमिश्र पालाप नाही है, जाते आहारक शरीर विप प्रश
का उदय है। तहा वेदनि के अनिवृत्तिकरण का सवेद भाग पर्यंत यी : . मान. नाया, वादर तोभ इनिकै अनिवृत्तिकरण के वेद रहित र . : नहा न मान ने गास्नान है। सूक्ष्म लोभ के सूक्ष्म सापराय ही है। . :, निांग पनि के दोय गुणस्थान है। मति, श्रुत, अवधि के नव है ।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका j .
[ ७५९ मनःपर्यय के सात है। केवलज्ञान के दोय है । असंयम के च्यारि है। देशसयम के एक है। सामायिक, छेदोपस्थापना के च्यारि है । परिहार विशुद्धि के दोय है। सूक्ष्मसांपराय के एक है। यथाख्यात चारित्र कै च्यारि है । चक्षु, प्रचक्षु दर्शन के बारह है । अवधि दर्शन के नव है। केवल दर्शन के दोय है। कृष्ण, नील, कपोत लेश्या के च्यारि है । पीत पद्म के सात है । शुक्ल के तेरह है । भव्य के चौदह हैं। अभव्य कै एक है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र के एक एक है । द्वितीयोशम सम्यक्त्व के आठ है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर वेदक के च्यारि है । क्षायिक के ग्यारह है। संज्ञी के बारह है । असंज्ञी कै एक है । आहारक के तेरह है। अनाहारक के पांच है। असे ए गुणस्थान कहे, तिन गुणस्थाननि विर्षे आलाप मूल में जैसे सामान्य गुणस्थाननि विर्षे अनुक्रम करि आलाप कहे थे, तैसे ही जानने ।
गुणजीवा पज्जत्ती, पारणा सण्णा गइंदिया काया। जोगा वेदकसाया, णारगजमा दंसरणा लेस्सा ॥७२॥
भव्वा सम्मत्ता वि य, सण्णी आहारगा य उवजोगा । • जोग्गा परूविदव्वा, ओघावेसेसु समुदायं ॥७२६॥ जुम्मं ।
गुणजीवाः पर्याप्तयः, प्राणाः संज्ञाः गतींद्रियाणि कायाः। योगा वेदकषायाः, ज्ञानयमाः दर्शनानि लेश्याः ॥७२५॥ भव्याः सम्यक्त्वान्यपि च, संजिनः आहारकाचोपयोगाः ।
योग्याः प्ररूपितव्या, ओघादेशयोः समुदायम् ॥७२६।। युग्मम् । टीका - गुणस्थान चौदह, मूल जीवसमास चौदह, तहां पर्याप्त सात, अपयप्ति सात, पर्याप्ति छह, तहां सज्ञी पचेंद्रिय के पर्याप्ति अवस्था विप पर्याप्ति अयस्था संबधी छह अर अपर्याप्ति अवस्था विष अपर्याप्त संबंधी छह, असशी वा विकलत्रय के पर्याप्ति-अपर्याप्ति सबधी पांच-पांच, एकेद्री के च्यारि-च्यारि जानने ।
प्राण - सज्ञी पचेद्रिय के दश, तीहि अपर्याप्त के सात, अनजी पचंद्री के नव तीहि अपर्याप्त के सात, चौइन्द्री के पाठ, तीहिं अपर्याप्त के छह, तन्न्त्री के नात, तीहिं अपर्याप्त के पांच, वेइन्द्री के छह, तीहिं अपर्याप्त के च्यारि, एनंदिन के न्यारि, तीहि अपर्याप्त के तीन है। सयोग केवलो को वचन, काय, उस्वास, या परि
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७६० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गामा ७२७-७२८
प्राण है । तिसही के वचन बिना तीन हो हैं । कायबल बिना दोय होय है । प्रयोगी एक आयु प्राण है ।
बहुरि संज्ञा च्यारि, गति च्यारि, इन्द्रिय पांच, काय छह, योग पंद्रह तिनमें पर्याप्त अवस्था संबंधी ग्यारह, अपर्याप्त अवस्था संबंधी तीन मिश्र अर एक कार्माण ए च्यारि हैं । वेद तीन, कषाय च्यारि, ज्ञान आठ, संयम सात, दर्शन च्यारि, लेश्या छह, भव्य दोय, सम्यक्त्व छह, संज्ञी दोय, आहार दोय, उपयोग बारह, ए सर्व समुउच्च गुणस्थान वा मार्गणा स्थाननि विषै यथायोग्य प्ररूपण करने ।
जीवसमास विषे विशेष कहै है।
ओघे आदेसे वा, सरगीपज्जतगा हवे जत्थ ।
तत्थ य उणवीसंता, इगि- बि-ति-गुणिदा हवे ठाणा ॥७२७॥
श्रधे देशे वा, संज्ञिपर्यन्तका भवेयुर्यत्र ।
तत्र चैकोनविंशांता, एकद्वित्रिगुणिता भवेयुः स्थानानि ॥ ७२७॥
टीका - गुणस्थान वा मार्गणास्थान विषे जहां संज्ञी पंचेंद्री पर्यंत मूल चौदह जीवसमास निरूपण करिए, तहां उत्तर जीवसमास एक नै आदि देकर उगणीस पर्यंत सामान्य करि, दोय पर्याप्त अपर्याप्त करि, तीन पर्याप्त, अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त करि गुरणे, एकने यादि देकर उगणीस पर्यंत वा दोय ने आदि देकर अठतीस पर्यंत वा तीन ने प्रादि देकरि सत्तावन पर्यंत जीवसमास के भेद है । ते सर्व भेद तहा जानने । सामान्य जीवसमास एक, त्रस - स्थावर भेदते दोय, इत्यादि सर्वभेद जीवसमास अधिकार विषै कहे है; सो जानने । इनिकों एक, दो, तीन करि गुणं क्रमतें एक, दो, तीन यादि उगणीस, अठतीस सत्तावन पर्यंत भेद हो है ।
इहा ते ग्राग गुणस्थानमार्गणा विषे गुणस्थान, जीवसमास इत्यादि बीस भेद जोडिए है; सो कहिए है -
वीर - सुह-कमल-रिगग्गय-सयल - सुय-ग्गाहरण-पय उरण - समत्थं । मिऊण गोयममहं सिद्धंतालावमणुवोच्छं ॥७२८ ॥
वीरमुखकमलनिर्गत सकल श्रुतग्रहणप्रकटनसमर्थम् । नत्वा गौतममहं सिद्धांतालापमनुवक्ष्ये ||७२८ ॥
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सम्यग्ज्ञानन्तिका भाषाटीका ]
टीका - वर्धमान स्वामी के मुख कमल ते निकस्या जैसा सकल शास्र महागंभीर, ताके प्रकट करने को समर्थ असा सिद्धपर्यंत पालाप, सो श्रीगौतम स्वामी को नमस्कार करि मैं कहौ हौ ।
तहां सामान्य गुणस्थान रचना विषै जैसे चौदह गुणस्थानवी जीव है । गुणस्थान रहित सिद्ध है। चौदह जीवसमास युक्त जीव है । तिनकरि रहित जीव है। छह-छह, पांच-पांच, च्यारि-च्यारि, पर्याप्ति, अपर्याप्ति युक्त जीव है । तिनकरि रहित जीव है । दश, सात, नव, सात, आठ, छह, सात, पांच, छह, च्यारि, च्यारि, तीन, च्यारि, दोय, एक प्राण के धारी जीव है । तिनकरि रहित जीव है। पंद्रह योग युक्त जीव है। अयोगी जीव है। तीन वेद युक्त जीव है। तिनकरि रहित जीव है। च्यारि कषाय युक्त जीव है । तिनकरि रहित जीव है । आठ ज्ञान युक्त जीव हैं । ज्ञान रहित जीव नाही। सप्त संयम युक्त जीव हैं। तिनकरि रहित जीव है । च्यारि दर्शन युक्त जीव हैं। दर्शन रहित जीव नाही । द्रव्य, भाव छह लेश्या युक्त जीव है । लेश्या रहित जीव है। भव्य वा अभव्य जीव है। दोऊ रहित जीव है । छह सम्यक्त्व युक्त जीव है । सम्यक्त्व रहित नाहीं। संज्ञी वा असंज्ञी जीव है। दोऊ रहित जीव है। आहारी जीव हैं। अनाहारी जीव है । दोऊ रहित नाही । साकारोपयोग वा अनाकारोपयोग वा युगपत् दोऊ उपयोग युक्त जीव है। उपयोग रहित जीव नाही है । जैसे अन्यत्र यथासंभव जानना ।
अथ गुणस्थान वा मार्गणास्थाननि विर्षे यथायोग्य बीस प्ररूपणा निरूपणा कीजिए है।
सो यन्त्रनि करि विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणास्थान का आलाप विषै जो जो प्ररूपणा पाइए, सो सो लिखिए हैं । तहां यन्त्रनि विष असी सहनानी जाननी । पहिले तो एक बडा कोठा, तिस विष तौ जिस आलाप विषै बीस प्ररूपणा लगाई, तिसका नाम लिखिए है । बहुरि तिस कोठे के आगे आगे बरोबरि वीस कोठे, तिनविष प्रथमादि कोठे ते लगाइ, अनुक्रम तै गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञी, गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी, आहार, उपयोग ए बीस प्ररूपणा जो जो पाइए, सो सो लिखिए है । तिनविष गुणस्थानादिक का नाम नाही लिखिए है। तथापि पहिला कोठा विपै गुणस्थान, दूसरा विष जीवसमास, तीसरा विष पर्याप्ति इत्यादि बीसवां कोठा विष उपयोग पर्यंत जानने । तहा तिनि कोठेनि विर्षे जहां जिस प्ररूपणा का जितना प्रमाण होइ, तितने
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७६२ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७२८
ही का अक लिख्या होइ, तहां तौ सो प्ररूपणा सर्व जाननी । जैसे पहिले कोठे में चौदह का अंक जहां लिख्या होइ, तहा सर्व गुणस्थान जानने । दूसरा कोठे विषै जहा चौदह का अंक लिख्या होइ, तहां सर्व जीवसमास जानने । असें ही तृतीयादि कोठेनि विषै जहां छह, दश, च्यारि, च्यारि, छह, पंद्रह, तीन, च्यारि, आठ, सात, च्यारि, छह, दोय, छह, दोय-दोय बारह के अंक लिखे होंइ, तहां अपने अपने कोठेनि विपैं सो सो प्ररूपणा सर्व जाननी । बहुरि जहां प्ररूपणा का प्रभाव होइ, तहां बिंदी लिखिए है । जैसे पहिले कोठे विषै जहां बिदी लिखी होइ, तहां गुणस्थान का प्रभाव जानना । दूसरा कोठा विषे जहां बिंदी लिखी होइ, तहां जीवसमास का प्रभाव जानना । असें अन्यत्र जानना । बहुरि जहां प्ररूपणा विषै केतेक भेद पाइए, तहां अपने अपने कोठानि विषै जितने भेद पाइए, तितनेका अंक लिखिए है । बहुरि तिन भेदनि के नाम जानने के प्रथि नाम का पहिला अक्षर वा पहिले दोय आदि ग्रक्षर वा दोय विशेषरण जानने के अथि दोऊ विशेषरणनि के आदि के दोय अक्षर वा तिन अक्षरनि के आगे अपनी संख्या के अंक लिखिए है, सोई कहिए है
जितने गुणस्थान पाइए, तितने का अंक पहिले कोठे में लिखिए है । तिस अंक के नीचे तिन गुणस्थाननि का नाम जानने के अथि तिनके नामनि के आदिअक्षर लिखिए है । सो आदि अक्षर की सहनानी ते सर्व नाम जानि लेना ।
तहां मिथ्यादृष्टि आदि गुरणस्थाननि के नाम की जैसी सहनानी । मि । सा । मिश्र | अवि । देश । प्र । अ । अपू । अनि । सू । उ । क्षी । स । अ ।
बहुरि जहा प्रादि के जैसा लिख्या होइ, तहा मिथ्यादृष्टि आदि जितने लिखे होंइ, तितने गुणस्थान जानने । बहुरि जैसे ही दूसरा कोठा विषे जीवसमास, सो जीवसमास दोय प्रकार पर्याप्त वा अपर्याप्त, तहां सहनानी अँसी प । अ । बहुरि तहां सूक्ष्म, बादर, वेद्री, तेद्री, चौद्री, यसंज्ञी, संजी की सहनानी जैसी सू । ना | बें । तें । चौ । अ । सं । तहा सूक्ष्म के पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ होंइ, तौ सहनानी जैसी सू २ पर्याप्त ही होइ तो सहनानी औसी सू प १ । अपर्याप्त ही होइ तो असी सून १ संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त की औसी सं २ पर्याप्त की जैसी सं प १ सज्ञी अपर्याप्त की असी सं अ १ सहनानी है । से ही चौरनि की जाननी । बहुरि जहां अपर्याप्त ही जीवसमास होइ, तहां 'अपर्याप्त' असा लिखिए है। जहां पर्याप्त ही होइ, तहां, 'पर्याप्त' असा लिखिए है । बहुरि प्रमत्त विषे ग्राहारक अपेक्षा, सयोगी विषे केवल
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सम्पज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। ७६३ समुद्घात अपेक्षा, पर्याप्त-अपर्याप्त जीवसमास जानने । बहुरि कायमार्गणा की रचना विर्षे जहां सत्तावन, अठ्यारणवै, च्यारि से छह जीवसमास कहे है, ते यथासभव पर्याप्त, अपर्याप्त सामान्य आलाप विष जानि लेने । बहुरि वनस्पती रचना विर्षे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित प्रत्येक बादर सूक्ष्म, चित्य-इतर निगोद के पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षा यथासंभव जीवसमास बारह नै आदि देकरि जानने ।
बहुरि तीसरा कोठा विर्ष पर्याप्ति, सो पर्याप्ति जितनी पाइए, तिनके अंक ही लिखिए है, नाम नाही लिखिए है । तहा असा जानना छह तौ संज्ञी पंचेद्री के पंच भसंज्ञी वा विकलत्रय के, च्यारि एकेद्री के जानने । ते पर्याप्त पालाप विष तौ पर्याप्त जानने । अपर्याप्त पालाप विष अपर्याप्त जानने । सामान्य आलाप विष ते दोय दोय बार जहां लिखे होइ, तहां पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ जानने ।
बहुरि चौथा कोठा विष प्राण, ते प्राण जितने पाइए है तिनके अंक ही लिखिए है, नाम नाही लिखिए है। तहां जैसा जानना ।
पर्याप्त आलाप विष तौ दश सज्ञी के अर नव असंज्ञी के आठ चौंद्री के, सात तेद्री के, छह बेद्री के, च्यारि एकेद्री के, बहुरि च्यारि सयोगी के, एक अयोगी का यथासंभव जानने । बहुरि अपर्याप्त पालाप विषै सात सज्ञी के, सात असज्ञी के, छह चौद्री के, पांच तेद्री के, च्यारि बेद्री के, तीन एकेद्री के, बहुरि दोय सयोगी के, यथासंभव जानने । बहुरि जहां सामान्य आलाप विष ते पूर्वोक्त दोऊ लिखिए, तहां पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ जानने ।
बहुरि पांचवां कोठा विर्षे संज्ञा, तहां आहारादिक की असी सहनानी है आ। भ । मै। प।
. बहुरि छठा कोठा विर्ष गति, तहां नरकादिक की असी सहनानी है न । ति। म । दे।
___ बहुरि सातवां कोठा विष इन्द्रिय, तहां एकेद्रियादिक की असी सहनानी है ए।बें । तें। चौ। पं।
बहुरि आठवां कोठा विर्षे काय, सो पृथ्वी आदि की असी पृ । अते । वा। व। बहुरि पांचो ही स्थावरनि की असी-स्था ५ । बहुरि त्रस की असी त्र । सहनानी है।
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________________
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ७२८ ७६४ ]
बहरि नवमां कोठा विर्षे योग, तहां मन के च्यारि, तिनकी असी म ४॥ वचन के च्यारि, तिनकी असी व ४ काय के विष औदारिकादिकनि की असी औ। औं मि। वै। वै मि । प्रा । आ मि । का । अथवा औदारिक, औदारिकमिश्र इनि दोऊनि की असी औ२ । वैक्रियिक द्विक की जैसी वै २। आहारक द्विक की जैसी आ २। बहुरि सयोगी के सत्य, अनुभय, मन-वचन पाइए । तिनकी जैसी म २ । व २ । बहुरि बेद्रियादिक के अनुभय वचन पाइए, ताकी जैसी अनु व १। सहनानी है। - .बहुरि दशवां कोठा विर्षे वेद, तहां नपुंसकादिक की असी न । पु । स्त्री सहनानी है।
वहरि ग्यारहवां कोठा विष कषाय, तहां क्रोधादिक की असी को। मा। माया । लो । सहनानी है । बहुरि बारह्वां कोठा विर्षे ज्ञान, तहां कुमति, कुश्रुत, विभंग की जैसी कुम । कुश्रु । वि। अथवा इन तीनों की असी कुज्ञान ३ । बहुरि मतिज्ञानादिक की म । श्रु । अ। म । के। अथवा मति, श्रुत, अवधि तीनों की असी मत्यादि ३ । मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय की जैसी मत्यादि ४ । सहनानी है ।
बहुरि तेरहवां कोठा विर्षे संयम, तहां संयमादिक की असी अ । दे । सा । छ । प । सू। य । सहनानी है।
बहुरि चौदहवां कोठा विर्ष दर्शन, तहां चक्षु आदि की जैसी च । अच । अव। के । अथवा चक्षु अचक्षु अवधि तीनों की असी चक्षु आदि ३ सहनानी है।
बहुरि पद्रह्वां कोठा विष लेश्या, तहां द्रव्य लेश्या की सहनानी असी द्र। याके प्रागै जितनी द्रव्य लेश्या पाइए, तितने का अंक जानना । बहुरि भाव लेश्या की सहनानी असी भा। याके आगें जितनी भावलेश्या पाइए तितने का अंक जानना । दोऊ ही जागै कृष्णादिक नामनि की असी कृ । नी । क । इनि तीनों की जैसी अशुभ ३। तेज प्रादिक की जैसी ते। प। शु। इन तीनों की असी शुभ ३ । सहनानी जाननी ।
वहुरि सोलहवां कोठाविप भव्य, सो भव्य अभव्य की असी भ।अ। सहनानी है।
सतरहवां कोठा विर्ष सम्यक्त्व, तहां मिथ्यादिक की असी मि । सा। मिश्र । उ । वे।क्षा । सहनानी है ।
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________________
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ७६५
बहुरि अठारहवां कोठा विषे संज्ञी, तहां संज्ञी प्रसंज्ञी की असी सं । त्र । सहनानी है ।
बहुरि उगणीसवा कोठा विषे आहार, तहां आहार - अनाहार की असी आ । अन । सहनानी है |
बहुरि बीसवा कोठा विषै उपयोग, तहां ज्ञानोपयोग - दर्शनोपयोग की जैसी ज्ञा । द । सहनानी हैं । जैसे इन सहनांनीनि करि यंत्रनि विषं कहिए है अर्थ सोनीकेँ जानना ।
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बहुरि जहां गुणस्थानवत् वा मूलौघवत् भैसा कह्या होइ, गुणस्थान वा सिद्ध रचना विषै जैसे प्ररूपणा होइ, तेसै यथसंभव जानना । बहुरि और भी जहां जिसवत् ह्या होइ, तहा ताके समान प्ररूपणा जानि लेना । तहां जो किछू जिस कोठा विष विशेष का होइ, सो विशेष जानि लेना । बहुरि जहां स्वकीय जैसा कह्या होइ, तहां जिसका प्रलाप होइ, तहां तिस विषै संभवती प्ररूपणा वा जिसका आलाप कीजिए, सोही प्ररूपणा जान लेना । बहुरि इतना कथन जानि लेना
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सव्वेंस सुहमाणं, काऊदा सव्वविग्गहे सुक्का ।
सव्वी मिस्सो देहो, कओदवण्णो हवे णियमा ॥१॥
इस सूत्र करि सर्व पृथ्वीकायादिक सूक्ष्म जीवनि के द्रव्यलेश्या कपोत है । विग्रहगति संबंधी कार्माण विषै शुक्ल है । मिश्र शरीर विषै कपोत है । जैसे अपर्याप्त श्रालापनि विषे द्रव्यलेश्या कपोत अर शुक्ल ही जानि लेना ।
बहुरि द्वितीयादि पृथ्वी का रचना विषै लेश्या अपनी अपनी पृथ्वी विषे संभवती स्वकीय जाननी ।
बहुरि मनुष्य रचना विषै प्रमत्तादिक विषै तीन भेद भाव अपेक्षा हैं । द्रव्य अपेक्षा एक पुरुषवेद ही है । बहुरि सप्तमादि गुणस्थाननि विषै आहार सज्ञा का प्रभाव, साताअसातावेदनीय की उदीरणा का अभाव ते जानना । बहुरि स्त्री, नपुंसक वेद का उदय होते आहारकयोग, मन पर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम न होइ, अंसा जानना । वहुरि श्रेणी ते उतरि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी चतुर्थादि गुणस्थानकनि ते मरि देव होइ, तोहि अपेक्षा वैमानिक देवनि के अपर्याप्तकाल विषै उपशम सम्यक्त्व का है ।
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७६६ ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७२८
बहुरि एकेंद्री जीवनि के पर्याप्त नामकर्म के उदय तें पर्याप्त, निर्वृत्तिपर्याप्त अवस्था है । बहुरि अपर्याप्त नामकर्म के उदय तैं लब्धि अपर्याप्तक हो है; सा जानना । बहुरि काय मार्गणा रचना विषै पर्याप्त, बादर, पृथ्वी, वनस्पती, त्रस के द्रव्यलेश्या छहो हैं । अप के शुक्ल, तेज कैं पीत, वायु के हरित वा गोमूत्र वा अव्यक्त वर्णरूप द्रव्य लेश्या स्वकीय जानना ।
बहुरि साधारण शरीर जानने के अर्थ गाथा---
पुढवी आदि चउन्हं, केवलि आहारदेवणिरयंगा । पदिट्ठिदाहु सव्वे, परिट्ठिदंगा हवे सेसा ॥१॥
पृथ्वी आदि च्यारि, अर कैवली, आहारक, देव, नारक के शरीर निगोद रहित अप्रतिष्ठित है । अवशेष सर्व निगोद सहित सप्रतिष्ठित है; औसा साधारण रचना विषं स्वरूप जानना ।
बहुरि सासादन सम्यग्दृष्टी मरि नरक न जाय, ताते नारकी अपर्याप्त सासा - दन न होइ । बहुरि पंचमी आदि पृथ्वी के आये अपर्याप्त मनुष्यनि के कृष्ण नील लेश्या होतें वेदक सम्यक्त्व हो है, तातें कृष्ण - नील लेश्या की रचना विषै अपर्याप्त आलाप विषै मनुष्यगति कहिए है । बहुरि पर्याप्त विषै कृष्णलेश्या नाही । अपर्याप्त में मिश्रगुणस्थान नाही, तातै कृष्णलेश्या का मिश्रगुणस्थान विषै देव बिना तीन गति हैं । इत्यादिक यथासमय अर्थ' जानि यंत्रनि करि कहिए है अर्थ, सो जानना । अथ Rokah यन्त्र रचना
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रचना उपशमसम्य माग्दृष्टिमसंपत
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अनाहारफ साराादन रचना
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आहारफार श्रकग्रिमत्त ||श्रीदारिका पिझामनाहार है ताकोरव
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________________ 256 ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 732-34 गुणजीव ठाणरहिया, सण्णापज्जत्तिपाणपरिहीणा / सेसणवमग्गणूणा, सिद्धा सुद्धा सदा होंति // 732 // गुणजीवस्थानरहिताः, संज्ञापर्याप्तिप्रारणपरिहीनाः / शेषनवमार्गरणोनाः, सिद्धाः शुद्धाः सदा भवंति / / 732 / / टीका - चौदह गुणस्थान वा चौदह जीवसमासनि करि रहित हैं। वहरि च्यारि संज्ञा, छह पर्याप्ति, दश प्राणनि करि रहित है। बहुरि सिद्ध गति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, अनाहार इनि बिना अवशेष नव मार्गणानि करि रहित है / असे सिद्ध परमेष्ठी द्रव्यकर्म भावकर्म के प्रभाव ते सदा काल शुद्ध है / णिक्खेवे एयत्थे, णयप्पमारणे णिरुत्तिअणियोगे। मग्गइ वीसं भेयं, सो जाणइ अप्पसब्भावं // 733 / / निक्षेपे एकार्थे, नयप्रमाणे निरुक्तयनुयोगयोः / मार्गयति विशं भेदं, स जानाति आत्मसद्भावम् // 733 // टीका - नाम, स्थापना, द्रव्य, भावरूप च्यारि निक्षेप बहुरि प्राणी, भूत, जीव, सत्व इनि च्यारयोनि का एक अर्थ है, सो एकार्थ / बहुरि द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नय; बहुरि मतिज्ञानादिरूप प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण, बहुरि जीव है, जीवैगा, जीया असा जीव शब्द का निरुक्ति / बहुरि "किं कस्स केण कवि केवचिरं कतिविहा य भावा" कहा ? किसके ? किसकरि ? कहां ? किस काल'? के प्रकार भाव है। असे छह प्रश्न होते निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान इन छहों तें साधना, सो यह नियोग असें निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति, नियोगनि विर्षे जो भव्य जीव गुणस्थानादिक बीस प्ररूपणा रूप भेदनि कौं जान है, सो भव्य जीव आत्मा के सत-समीचीन भाव को जाने है / अज्जज्जसेण-गुरणगणसमूह-संधारि अजियसेणगुरू / भुवणगुरू जस्स गुरू, सो रायो गोम्मटो जयदु // 734 // .