Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FECCESSESSES श्री समुद्रदत्त चरित्र रचयिता. श्री १०८ माचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज प्रकाशक:समस्त दिगम्बर बैसवाल जैन समाज अजमेर (राज.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सस्करण १००० पुस्तक मिलने का पता: दिगम्बर जैसवाल जैन समाज अजमेर ( राज० मूल्य : मनन अषाढ़ शुक्ला १४ बी. नि. सं० २४६५ मुद्रक: नेमीचन्द बाकलीवाल कमल प्रिन्टर्स मदनगंज किशनगढ़ (राज० ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द इस प्रम्य की पृथक् भूमिका की आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि पूज्य आचार्य श्री ने प्रथम सर्ग की रचना ही भूमिका के रूप में निर्मार्पित की है। समुद्रदत्त ( भद्रदप्त ) गृहस्थके आवश्यक न्यायानुसार धनार्जन के निमित्त विदेश में जाता है और पुरोहितजी के द्वारा रत्नों के हरण किये जाने पर केसी विपत्ति में फँसता है, किन्तु सत्य धर्म के पालन द्वारा वह भद्र इस भव और परभव में भी भलीकिक सुखों की प्राप्ति करता है, यही भद्रोदय प्रन्य का मूल आशय है । विज्ञान के चमत्कारों ने संसार की दृष्टि को चकाचौंध कर दिया है, सबकी शिकायत है कि सिनेमा में जाकर बच्चे एवं बच्चियों का जीवन बिगड़ जाता है और वे न अपने माता पिताओं का कहना ही मानते हैं और न पास पड़ोसियों के साथ ही अच्छा व्यवहार करते हैं । यह कहना सच तो है किन्तु अरण्यरोदन है-उपाय विहीनदैन्य एवं विवशतापूर्ण कथन है । पांचों इन्द्रियां अपने २ काम में स्वतः प्रवृत्त होती हैं और मन के सहयोग से उसमें रस प्राप्ति कर सन्तुष्टि का अनुभव करती हैं। अब यह प्रवृत्ति चाहे भली हो या बुरी किन्तु ३० प्रतिशत व्यक्तियों को ऐसा करना ही पड़ता है, केवल हमारा पुरुषार्थ वही समीचीन समझा जा सकता है जिसके द्वारा पांचों इन्द्रियों की तथा मन की अशुभ प्रवृत्ति को रोककर शुभ की ओर उनकी गतिको हम बदल दें। पूर्व आचार्यों का ध्यान भी इस भार था, उन्होंने बड़े २ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराण, चरित्रादि का निर्माण कर अपने युग की आवश्यकता के अनुसार प्रथमानुयोग द्वारा भावुक जनता का कल्याण किया; किन्तु वे महापुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, सरीसी विस्तृत रचनायें है आज के विद्यार्थी का न तो उतना क्षयोपशम ही है; न तद्गत विषयों का याद रखने की स्मरण शक्ति ही; साथ ही उसके पास इतना समय भी नहीं है जिससे वह उन विशाल कृतियों से पूर्ण लाभ उठा सके । बालकोपयोगी संस्कृत साहित्य की बड़ी कमी है। ज्ञानमूर्ति चारित्रभूषण आचार्य श्री १०८ श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने इस कर्मी का अनुभव करके, न कठिन तथा न बहुत सरल ही किन्तु मध्यमणी के इस खण्ड काव्य की रचना तुल्लक अवस्था में की है । आजन्म ब्रह्मचारी, दुरदर्शी आचार्य श्री के द्वारा भ्रष्टाचार को दूर करने के लिये तथा मत्य की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण रूप से स्थापित करने के लिये ही भद्रदत्त ( समुद्रदप्त ) का कथानक अपने आगामी भवों महित सुन्दर रूप में उपस्थित किया गया है । भारतवर्ष की आदरगीय जनतन्त्र को महत्व देने वाली सरकार का उद्देश्य तो है 'सत्यमेव जयते नानृतम्' अर्थात् सत्य की ही विजय हाती है झूठ की नहीं, किन्तु इस सिद्धान्त को जनता के हृदय में सर्वदा के लिये स्थापित करने के लिये सरकार का कोई मौलिक प्रयास नहीं है। बालकोपयोगी एव सम्प्रदायबाद से रहित मानवोचित अनुपम सरस रचनायुक्त यह भद्रोदय काव्य उस कार्य की पूर्ति के लिये भी एक बड़ा ही सुन्दर एवं प्रशसनीय प्रयत्न है । आचार्य श्री ने न केवल जैन धर्मावलंबियों के ही हितार्थ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपितु मानव मात्र के कल्याण करने के लिये भहिंसागुव्रत की पुष्टिरूप 'दयोदय' - मृगसेन धीवर का कल्याण करने के भाषात्मक काव्य को; सत्य और अचौर्य की पुष्टि के लिये प्रस्तुत भद्रोदय काव्य को, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये 'वीरोदय' तथा परिग्रह परिमाण की रक्षा के लिये 'जयोदय' महाकाव्य को बनाया है। आचार्य श्री की गति संस्कृत एवं हिन्दी के अनेक काव्यों के रचने में कितनी सार्थक हुई है यह तो आपके द्वारा विरचित पृथक् २ प्रन्थों के गम्भीर एवं निष्पक्ष अवलोकन से ही ज्ञात हो सकेगा । प्रस्तुत प्रन्थ में आचार्य श्री ने अपना लाघव प्रदर्शित करते हुये यह सब गुरु कृपा का ही फल बतलाया है साथ ही सत्य की महिमा को अस्तित्व और नास्तित्व के विधि एवं निषेध द्वारा बहुत ही सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्ति दी है। इस प्रन्थ में समुद्रदत्त (भद्रदत्त) के व्यापार करने की अनुमति लेते समय, पिता माता आदि का वार्ताछाप, रत्नों के हरण होने के समय उन्मन्त समुद्रदत्त की दीन पुकार, तथा रानी की सद्बुद्धि एवं कुशलता सूचक प्रयासादि सभी दृश्य रोमांचकारी रूपमें प्रदर्शित किये गये हैं । I सरागी एवं वीतरागी व्यक्ति की रचना में जमीन और आसमान का अन्तर होता है । वीतरागी की रचना हमें इस लोक सम्बन्धी नीतियों का सदुपदेश देने के साथ ही साब परलोक में भी अभ्युदय प्राप्त करने के मार्ग को बिजली के समान तेज और वजन दार शब्दों के द्वारा हृदय-तल पर सदा के लिये स्थापित कर देती है । प्रायः सभी जैनाचार्यों की कथनी में पूर्वभव का सत्य वर्णन होता Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो है गौर यह मास्तिस्य भावना का घोतक भी है-ऐसे वर्णन भी इस अन्य में अत्यन्त सर एवं रोचक रूप से पर्सित किये गये हैं। गहुत प्रसन्नता है कि कुछ ही वर्षों से हमें आचार्य श्री की अमीतक अप्रकाशित एवं अनुपम रचनामों को हिन्दी में भी पड़ने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। श्री जसवाल दिगम्बर जैन समाज मजमेर को भी हम धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते, जिस समाज के महानुभावों ने श्री १०५ बी ऐलक सन्मति सागरजी महाराज की संस्कृत काम्य सत्प्रेरणा से प्रन्य को हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित कर एक बावश्यक सत्कार्य की पति की है। अधिक कहां तक कहा जाय यह प्रन्थ खांड की रोटी के समान मधुर एवं रमपूर्ण है । संस्कृत के महदय महानुभावों के लिये तो यह भलंकारपूर्ण रमास्वाददापी देन है ही किन्तु हिन्दी के जानने बाले भी सजन जिस दृष्टि कोण से इस प्रस्य का आस्वादन करेंगे उन्हें इसी धारा में अनुपम भानन्द की प्राप्ति होगी। पण्डित महेन्द्रकुमार जी पाटनी काव्यती किशनगद एवं श्री नेमीचन्दजी बाकलीपाल को भी हम धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते विनोंने बहुत कम समय में ही इस प्रन्य की भाषाद को सुन्दर बनाने में पूर्ण सहपोग दिया है। देवाधिदेव बी जिनंन्द्रदेव से प्रार्थना है कि भाचार्य जी का स्वाध्य उत्तम रहे। ये चिरायु हरों, इन आचार्य श्री की उपस्थिति में ही हम भाप "बोदय" महाकाव्य को भी हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित देख सकें। इतना ही नहीं बल्किी १०८ श्री विद्यासागर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी महाराज, होनहार नवयुवक भी दीपचन्द्रजी भादि इन प्रन्यों में माई हुई सदुक्तियों के द्वारा महाराज श्री की कृतियों को जीवित रूप देकर जनताका कल्याण करते रहें। अन्य सहदय विद्गण भी पूज्य भाचार्य श्री के परिश्रम को सफल बनावें, यही हमारी मंगल कामना है। विनीतदिनांक १ जुलाई १९६६ (विद्याभूषण) पं० विद्याकुमार सेठी, न्यायकाव्यतीर्थ रिटायर्ड गवर्नमेंट पेंशनर, अजमेर Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुन प्रन्य के रचयिता परमपूज्य, वायुद्ध नपानिधि, ज्ञानमनि श्री १०८ आचार्य श्री ज्ञानमागरजी महागज Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रदत्त चरित्र नमाम्यहं नं पुरुषं पुगण मभृद्य गादी परमेव शाणः धियोऽमिया दुनिच्छिदर्थ मुरोजनायातितर्ग ममर्थः मर्ष:- मै सबसे पहले उन पुराण पुरुष बीरमदेव भगवान को नमस्कार करता हूँ नोकि इस पुगके शुरु हो तुम्कर्म को नाश करने के लिये छुरी का काम देने वाली भलो बुद्धि को उत्तेजना देने के लिये स्वयं शारणम्प बन कर उस कार्य में बहुत ही समर्थ हुये। श्रीवर्द्धमानं भुवनत्रयेतु विपत्पयोधनाणाय सेतु नमामि तं निर्जितमीनकेत नमामिनोहन्तु यतोऽघहेतुः।।२।। प्रर्ष:-न ऊपं मध्य प्रौर पाताल इस प्रकार तीनों लोकों में जो सबसे अधिक सम्मान के पात्र हैं, जिन्हों ने कामदेव को भी जीत लिया है पोर को विपत्तियों के समुद्र से पार पहुंचने पोर पहबाने के लिये पुल के समान पाने गये हैं उन यो बर्षमान भगपान को भी नमस्कार करता है ताकि मुझे पाप का कारण पावर के मसता पाये। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणामि शेपानपि नीर्थ नाथान ममम्ति येपां गुणपूर्णगाथा । मान्यगर्ने पनने जनायाऽनुकीनिता लम्बनसम्प्रदा या ।३। वर्ष:-शेष तोपंडूरों को भी में नमस्कार करता हूँ मिनके कि गुणों का गान करना, इस संसाररूप अन्धकूप में पड़ते हये प्राग्गोको बचाने के लिये हस्तावलम्बनस्वरूप होता है। श्रीमजिनेन्द्रम्यपदाम्बुजान द्वयंप्रणम्यानिशयान्मयाऽन: ममति यदव्यमिलिन्दसमद ममुच्यने सम्प्रति मत्यमम्पत् ।४। प्रपं:-जिसको कि भव्य पुरुषरूप भ्रमरों को सभा प्राप्त होतो गती है मे श्री जिन भगवान के चरण कमलों के युगल को नम का करके उसके बाद प्रब उन्हीं भगवान के चरणों को कृपा से सत्य सम्पत पति सच बोलने को महिमा बता रहा हूँ। अङ्गाङ्गिनार क्यनुदंऽथ घाणी जीयादिदानी जिनदेववाणी । ममम्तु दुर्दवमिदेकपाणी ममन्वयानन्दममहमाणी ।। ५ ।। प्र:-इस समय श्री जिनभगवान को वारणी जयवन्त रहे जो कि शरीर पोर प्रारमा को जुदा २ करने के लिये तो कोल्हू के समान है, पाप कर्म को काट डालने के लिये छुगे सरोसी है पौर सब लोगों को होने वाले सुख समूह को खानि है। ममम्नि काव्योदाणायमेतु गुगमहानुग्रह एव तिः। पयोनिधामनरणायसेतु व मायबागम्बहति विजेतु ।।६।। प्रबं:-- मेरे इस काध्य बनाने के लिये प्रगर कोई कारण है तो एक श्री गुरु महाराज को कृपा हो है उसोसे मैं इसमें कृत Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य हो सहूंगा जमे कि सेतुके द्वारा हो समुा से पार हा जाता है अथवा कवच को पहन कर हो हपियारों को चोट से बाबा सकता है। गंगेव वाणी गुणभद्रमना महापुगणी जगतेऽस्तिपूना । ततः प्रमूनेयमपीह कुल्या शम्योक्तिसम्पत्प्रकरकमूल्या १७ ___ अर्थः -- जिसके द्वारा महा पुगरण का जन्म हुवा है वह भी गुणभावायं को वारगी गंगा गयो के समान है जो कि संसारो बोष के लिये पवित्र मानो गई है, अगाध जल का होना मावि गुण युक्त है पोर जो कि बहुत ही पहले से चलो पाई हुई है। अब यह मेरी सत्य सम्पनरूप रचना भो उमो मागरण की रचना में से एक अपने डङ्ग से लोहई है प्रत: गंगासे निकला महर के समान है, जिसका कि सत्य को बराई करना हो एक काम है, नहर भी धान्य को फसल को बचाने के लिये ही होती है। मन्यन लोके भाति प्रतिष्ठा मन्यन लक्ष्मीभवनाद्विशिष्टा । मत्येन वाचः मफलबमम्त मन्यं ममन्नान्महदम्निवस्तु ।।८।। अर्थः-मत्य के द्वारा संसार में इम्मत होती है, सत्य से लक्ष्मी को बढ़वागे होती है मरय से ही मनु के वचन को सफलता है, सत्य बोलना हर तरह से बहुत अच्छा है। अमन्यवन नरके निपानवागन्यवन : बयमेवघानः । व्यलीकिनाऽप्रन्ययमम्बिधाऽनःप्रोत्पादयेम्ननकदापिमातः ।९ प्रपं:-झूठ बोलने वाले का खुब का हो पात होता है पोर वह नरक में जाता है, तया च प्रसत्य बोलने वाले का कोई भी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वास नहीं करना इमलिये हे माता तुम कभी भी प्रसत्य बोलने बाले को जन्म मत देना। ममन्यवक्त : परिहार पूर्व मामीस्थि निम्मूनृत भाषितुर्वः । मो पाटका वच्मि यथावशक्ति यत्राम्मदीयाप्रथिनाम्निभक्तिः ।। प:--पूर्व ममय में प्रमय बोलने वाले का निराकरण करके सत्य बोलने वाले को किस प्रकार से इज्जत हुई और उसने किस प्रकार प्रपनी उन्नति की, बस मै इसी बात को मेरी शक्तिभर पाठको ! प्रापके सामने रखूगा क्योंकि सत्य पर मेरो पढा है। ममन्तभद्रादि महानुभावा युक्ताः कविन्वाचितमम्पदा वा । वाग्देवता यमनाप्रति न्यामीन्प्रहतु भवमम्भवानि ।।११।। :-कविता करने योग्य महिमा से तो पूर्व में समन्तभाचायं मरो महानुभाव युक्त होगये हैं जिन को कि जीभ के प्रप्रभाग में वाणो का निवास या पोर जिनकी कि वाणी इस संसार के दुःखों में दूर करने वालो यो। नाहं कविमन्यभवी तु अम्मि माम्बनीमंग्रहणाय नम्मिन । ममाप्यतः काव्यपधेऽधिकार: ममस्तु पित्रीननुवालचार: ।१२। ___प्रध:- में कवि नहीं हूँ, केवल एक मनुष्यभवका धारण करने वाला मामय है बम इस मनुःपता के नाते काय करनेरूप सम्मागं में मेरा भी साधारण मा प्रधिकार है क्योंकि पिता वगैरह सरोबो लोगोंके पीछे पीछे ही बालक भी चला करता है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लतेव सत्ता मृदुपलगना पदे पदे कौतुकमम्बिधाना । समस्तु भूमो कविता सुचित्ता-लि यःमदा मौरभवादिविना ।१३। - इस धरातल पर कविता एक लता सीखो होनी चाहिये, लता कोमल पत्तोंवाली होती है, उसी प्रकार कविता में प्रच्छे पद होने चाहिये । लता में जगह जगह फूल हवा करते हैं उसी प्रकार कविता पद पद मे एक विनोद को छटा होनी चाहिये। मता भोरों के लिये सुगन्ध को देने वाली होती है उसी प्रकार कविता भी सम्जनों के लिये स्वर्गीय जन्म वर्गरह पम्युग्य मम्मति को करने वालो होनी चाहिये । वाङमें मदीपाऽपित मन्यगंमा कनिमदम्योमनिहावामा । शिवध दीपम्य ननम्न एनां पश्यन्तु मम्नहद नाममनाः ।।१४।। प्रयं-पह मेगे वागी यपि अनेक प्रकार के दागों वाली है फिर भी मत्य की प्रशंमा करने वाली है इमलिये महम हो मम्जन लोगों को रुचिकर होनी चाहिये, जसे कि गत्रि में पाने वाली वोपक को लो उजाला करतो है प्रतः उममें लोग नेम और बनी बनाये रखते हैं उसोप्रकार इस मेगे कृति को भी भने पुगा नगभग दृष्टि से देखेंगे ऐसो प्राशा है। कुर्यात कविः कान्दविकः कवित्वं धगतले मादकमात्मवित्वं । विनंदधानाः बलु पुण्यवन्तः ग्मन्तु तम्याशु ग्मंतु मन्नः ।।१५।। प्रयं-कवि एक हलाई की तरह है, उमका काम है कि वह पृथ्वी के सभी लोगों के लिये मोहक प्रर्यात प्रसन्नता देने वाला Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविम्बहर नवाकर रवे परन्तु उसके स्वाद को तो वे पानी मान लोग ही चव मकते हैं जिनके कि पास पात्मजानाप धन हो। पगम्य वन माणकमपं विगोप्नमावद कटिः मकोपः । न गनी दशा चौर-तट माक्रियतां किलोगः ।।१६।। प्रशं- मरों के गुरगम प धन को नष्ट करने के लिये ही जो मम तयार रहता है प्रोर दमों की बढ़वारी को देखकर कोपगन. होता है करता रना दम चोर के बच्चे दुर्जन को प्रगर काय करने वाला वग लगना, तो भी काव्यकर्ता को उससे डरना न। चार कि अपने मनको दृ बनाकर अपना कार्य करते मना चाहिये। ग य महापग्णां कामवज्जन्मममम्नि केषां वनी, वाय: परवन्धनाय दगगयानांगणवत्मदा यः ।।१७।। प्रथ-क्योंकि दुनिया में दो तरह के लोग सदा से हो है. Pा तो वे जिनक! कि जन्म कपाम की तरह का प्रौरों के गुहादेश ( प्रवगा प्रथया गृल प्रत । को ढके रखने का होता है। दूसरे व दृष्ट लोग होते है जो माग की तरह से अपनी चमड़ी तक को उचल कर भी उमम दूमों को बन्धा हुमा देखना चारते हैं। मरद गते यदी म गरी म बम्य गुगणेऽप्यतोषः । यनाथ नदि कम्य दोपः जीयाजगन्येष गुणेकपोषः ।।१८।। प्रय-जिका ऐमा महज भाव होता है कि दूसरे के एक छोटे से गुरण को देखकर भी बड़ा खुश होता है उसका पादर करता Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है परन्तु अपने पापके बड़े भारी गुरण को भी -ह गुग्ण नहीं गिना करता, अपने गुण पर जिसे सन्तोष ही नहीं होता। सायं तो पह कि किसी दूसरे का दोष तो जिमको दृष्टि मे कभी प्राता हो नहीं, गुरणों को हो देखकर उन्हें प्राण किया करता है. वह मज्जन इस दुनिया में बना रहे। अम्मकमांगीनिव हा नाय भनेन पयः पातुमिना पायः । कम्पाप्यही बात्मवादा तम्या: पगजलीका इलाग्नमा म्यान १९ प्रयं-हमाग काम गाय के ममान अमन पिणो वाणी को बटोरने का है हम पर फिर कोई तो कदर को भाति महा दूध पाने की चेष्टा करे मोर दूमग जाक के समान उमक पन का हो पामा बना हे यह तो अपना काम है। के म्मो वयं निपटन हाणां कतव्यताया विषये व वाणा: । यः मम्मवित्रीबह यान्य हानि यथा मलीक ग्वना विदानी १२० प्रयं-चों के ममान निष्कपटो ( मन लोग या बेग. कोमनो कपडा , के बोडो लोगों के कार्य के बारे में तो हम करतो क्या मते है जिनमे कि इस दुनिया में बढ़ धान्य हानि । दूमर २ लोगों का बिगाड़ या पनाज का नाT ) हो होना गम्भव है। योगोऽस्तु शिष्टं न महामदाद नीम्य यदन्पयमा प्रमाद । गरेण नम्या दिव मादकम्य दृष्ट न माद तु कदापि कम्य । २१ प्रयं-जिस प्रकार पानी का ममागम दूध के माय में होना है वह पानी की उन्नति के लिये हवा करता है उसी प्रकार हम Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोगों का भी मंमगं मान के साथ में होना चाहिये किन्तु जहर के माय मा के संयोग मरोखे होनेवाले दुष्ट के साप में तो किसी का भी मेल प्रमटा नहीं होता। एकम्य नौम्याय महा मधाला पाम्य वागेवमिहा सिधाला । पदयानिपगयणोऽनि दाबाय लोकेषु चमकरोति ।२२ प्रयं-सज्जन प्रारमी को बाणो हमेशह मृत सरोखी सब को मुग्व देने के लिये होती है किन्तु दुर्जन पुरुष की बोली इस भूतल पा तन्नवार को धार के समान होती है जिसका जन्म दूसरों के ममनंदद करने के लिये दवा करता है जो कि लोगों में अपना नमस्कार दव के लिये ही दिखाती है। दादेव मृद्री प्रथिनाऽऽदिमम्य बाह्य ऽन्तरप्युनम भावनम्य । परम्प घोण्याफलवकटांग-न्तम्वेन पनि हिम्म्वधोग ।२३ प्रपं-पहिले हो बताये गये हुये सज्जन को चेष्टा तो प्रन्तजमे पोर बाहिर में भी दाव मरोवो कोमल और मोठी होतो क्योंकि पर उसको भावना सबका भला करनेरूप से उत्तम एका करती है। किन्तु दूसरे नम्बर पर कहे हये दुर्जन को प्रवृत्ति तो पन्तरङ्ग में कठोरता को लिये हुये बदरी फल के समान सिर्फ बाहिर मे हो मुहावनी दोन्वा करती है। मन्योगुण ग्राहकां प्रयानि दोषग्रहो दर्जन एष भानि । निमर्गनम्नम्य नथैव जातिः गेषाय कः कोऽत्र च तोषतातिः ।२४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयं-मजन जो जोता है वह गुणों का हो प्राहक होता है तो दुर्गन दोष हो ग्रहण किया करता है. उसको उसके स्वभावानुसार यही जाति है हममे फिर किम ऊपर तो कसा जाये और किससे राजो रहा जाये ? गजो और नाराजोको तो इसमें कोई भी बात नहीं, दोनों ही प्रपने : म्यभाव के प्रधान है। दुधाजनो भूवलये 'वभानि प्रयोग एकः बन्नु दाखजातिः । पीडाकगेऽन्यो विग परन्तु मन्तोऽत्र मा यम्यमिता भवन्तु २५ प्रयं-हम भूतल पर जो दो प्रकार के प्रावमी है उनमें से एक मंयोग में दाव देने वाला होता है तो दूमा वियोग में पोड़ा करनेवाला. इमनियमान मामा लोग तो उन दोनों में हो मध्यस्थ भाव रखते है न परल वाले पर द्वष करते है और न वूमरे से मोह हो दिखाते है। ममम्नि शम्याङ्कर पापिता या ममन्ना मालगम्प्रदाया । वारकामधेनुः ग्बल गारनना मृतप्रदात्री मुनगमननाः ।२६ प्रयं-यर वाग्गीप कामधेन जो कि हर हालत में मङ्गल कारक है वह घाम के प्रकों के ममान मज्जनों की कृपा से पोषण पाती है तो बलके मम्पक में प्रोर भी अधिक दुधार बन जाया करती है, निर्दोष होकर पहले से भी ज्यादा लाभदायक सहज में हो हो जाती है। अम्मन्प्रयास प्नदुपाजनाय भवेन्पयः पातु मिहान्युपायः । कस्याप्यहोवन्मवदेव तम्या: पग जलौका इवरक्तपा म्यात् ।२७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रपं-उस वाक कामधेनु को अर्जन करने की कोशिश करना हमारा काम है फिर कोई नोहे के समान होकर उसका उप पोने को वेष्ट। कगे और कोई जोक की तरह से उसके खून काही प्यामा रहो यह उसको इच्छा पर ही निर्भर है। म पनिजातबनोऽभिवादन यात्र मियावदनी विपादः । नयाम्हिादश इव प्रसङ्गाः प्रवीयता भी ललितान्तरङ्गाः ।२८। प्रयं-हे मुन्दर अन्तरङ्ग वाले पाठक लोगों हमारी इस कृति में माय बोलने वाले का बोलबाला पोर भूठ बोलने वाले का मुंह कालाजिम प्रकार हवा. उन दोनों बातों का पोकरण प. पर दपंग की तरह साफ. २ दृष्टिगत होगा। श्रीपाब? नगी मदन नामा विधामीश उदानवृत्तः । नाम्ना मुमित्रा गृहिणी न्यथामाधम्याचमकन्यपुनीनगशिः ।२९ प्र:-प्रय हम कथा प्रसंग पर प्राते हैं तो कहना होता है कि. हमी भरतक्षेत्र में एक बोपनखा नाम का नगर है, वहां पर किमी एक समय उदार • ले प्राचरण वाला एक मुदत्त नामका वंयवर होगया है, जिसके मुमित्रा नाम को प्रोरत यो जो कि भले निदोष कतव्य करनेवाली यो। निमगरूपंण हुदा पवित्रम्नयोगिहामादपिभद्रामित्रः मान्य करावानिव शुक्लपक्ष द्विनाययोःमन्मु मुनःम दक्षः ।३० अपं-- उन दोनों के ए भमित्र नामका लड़का हवा जो किसहजरूपसे हो सरल पोर शुचित का धारक पा मोर सम्बन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगों में चतुर समझा जाना था प्रतः वह ऐसा पा जसे कि शुक्स पक्ष कोर द्वितीया तिथि में उत्पन्न वा चन्द्रमा जो कि ममत्रों का मुखिया होता है। वयम्यवर्गेण ममं कदा पकोडापगंद मुदन्त मापि पितुःप्रयोगभूति न पा कागोजानळरमायचेष्टा ।३१ प्रथ-एक समय अपने साथियों के माय बे खेलते हुये उमने उनसे ऐमो बात मनो िजो वंध्य कहे जाते है उन्हें पिता के कमाये हये पदार्थों से प्रपना निर्वाध करना भला नरों, किन्तु उन्हें खुद को कुछ न कुछ व्यवसाय करना न ये। व्यापारकाथ मनिन्दधान नीनिनीय मनो बजामः निज प्रपन्नन नदक नाम भाग्यानातं दविणं श्रयामः ।३२। प्रय हुमतिये रमलोग भी व्यापार करने के लिये रत्नटोप बलें जहां पर या तनमन दारोते है और जिमको कि बहुत ही बड़ाई मनो जाता रे, उम अपूर्व नाम वाले द्वोर में चल करके अपने प्रयत्न से अपने अपने भाग्य के प्रनमार धन प्राप्त करें। न्यगादि केनामुकवारका विनोदभावादधिषणाधा मम्मयतामाशु भव मग नकदा श्रीगुरुणापि मूतं ।३३। प्रयं-माप लोग भी याद कगे जो कि एक बार गुरुजी ने मोबड़ी हो पन्छी बात की थी, इमप्रकार उन बालकों में से किसी एक लड़के ने विनोद वश होकर कहा। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहीजनश्चेव माय हीनः माधः मगेपः म इवाथ दीनः भृत्वेनग्वामपि सम्बिधानी म्वयं पुना गैरवमेव याति ।३४। ___प्रयं-देखो गुफजीने कहा था कि जो गृहस्थ होकर व्यवसायटोन होता है, कुछ भी कारवार नहीं करता वह कोषो मुनीइबर की तरह दोन टोकर प्रांगण को भी नुकसान करनेवाला होता है और पाप तो गैरव नरक जाता ही है। परेण पृष्टः कमिन्ध सम्स्तुत्व या यदत बनु वृनवस्तु । य आह मोदाहरणमिति म सम्भवेन्मम्बदनकविद्धि ।३५॥ प्रथं ऐमो बात गुनकर उनमें से किमो दूसरे ने कहा कि मापने जो बात कही वर किम प्रकार से मानी जा मकतो है ? प्राप अपनी हम बात को किमो भी गनी कयाके द्वारा स्पष्ट करके उदाहरण पूर्वक कहो क्योंकि दृष्टान्त पूर्वक प्रपनी मात को श्रोतामोंको ममना देनेवालाही सत्चा बना होता है। प्रतिममथ यता निजलसण मितिनिगम्य म बुद्धिविचक्षणः प्रवननन पुगभवनक मनबदनिज गाद कलानकः ३६। प्रयं-इम प्रकार मुनकर उम बुद्धिमान बालकने अपनी कही हुई बात को ममपंन करने वाली पूर्वज लोगों के मूक्तको लेकर उसमे एक पुगनी कपा को दोहगते हुये प्रागे लिखे अनुसार निर्दोषरूप से करने लगा। इति पं० भूगमनापानाम ललक श्री १०५ श्री ज्ञानमूषणजी महाराज द्वार। राचत इस भद्रोदय अन्य में यह प्रथम सर्ग पूर्ण होगा। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ अथ द्वितीय सर्गः भृणुत प्रतिपचिपूर्वकं प्रवदामीदमथो किलाहकं । भरतेऽत्र गिरिर्मानुरुर्विजाद्धों घरणीभृतां गुरुः || १ || अर्थ- इसके बाद वह लड़का बोला कि प्राप लोग ध्यान पूर्वक सुने, मैं उसीका स्पष्टीकरण करता हूँ । देवो इसी भारतवर्ष में विजया नामका एक बहुत ही बड़ा पर्वत है, बल्कि समझना चाहिये कि वह और सब पहाड़ों का गुरु ही है । य उदक् ममुपस्थितोऽमृतः स्थलनः सवलतः प्रवर्तिनः । स्वयमर्द्ध जयाय मध्यमां भग्नम्यास्ति च चक्रवर्तिनः || २ || प्रर्थ-जो पर्वत यहां से उत्तर की तरफ जाकर इस भारत वर्ष के ठीक बीच में है और अपनी मेना सहित दिग्विजय के लिये निकले हये चक्रवर्ती की प्राधी विजय को बनानेवाला है, वहां तक पहुंचने पर यह खण्डों में से तीन खण्ड उसके प्रधीन हो जाते हैं। स्वरुचा घनमारमार जिन प्रजख्या अवनेः म भूधरः । ननुशेष मशेषमा प्रवेशप्रतिमोऽतिसुन्दरः ||३|| अर्थ- जो कि अपनी कान्ति में कपूर के ढेर को जोतने वाला है और लम्बा पड़ा हुवा है इसलिये शेष नाग को भी परास्त करता हुआ वह इस बहुत हो बुढो पृथ्वी को लम्बी चोटो सरीखा बहुत ही सुन्दर दिखता है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव भिगम्य योऽम्बरं बद्भिः सकलं भुवम्नलं । त्रिनगम पुनार मानल, मयमाकामति मलतोऽचलः ।।४।। प्रयं-जो पर्वत प्रपने शिखरों द्वारा तो प्राकाश को और इधर उधर बिखर वाले पत्थरों द्वारा इस भूमण्डल को घेर कर तीन जगत में में बाकी बचे पाताल लोक को अपनी जड़ के द्वारा घर । नटिनीदरातो महीभृति परिणामेन महीयमी मनी । नगर्गपति गज। टनिट विद्याधरलोकमंग्रहः ।।५।। प्रयं-हम पर्वत पर (पच्चीस योजन को ऊंचाई पर जाकर) इधर उधर दाना तक में टिनी प्रति जगह छटो हुई है जो कि परिणाम में म्यूब ची। प्रोर ठेठ तक लम्बी खूब विशाल है ( जिसे कम मे दक्षिण अंगी ग्रोर उत्तर श्रेणी कहते हैं ) जिस पर नगरि. पा बनोट र जि में विद्याधर लोगों का समाज रहता है। प्रविनि गामक महजं येन नरेश्वगेऽनकं । इन उनर सम्भवम्बर -विजयायति अपेनि चोद्वलः ।६ प्रथं- इस विनमा पर्वत के पार पार दो सुरङ्ग है जो कि महज ही बनी है जिनमें से होकर बड़ो भारी सेना को साथ में लिये ये चा: : वां में उत्तर की तरफ के तीन सणों को जोतने के लिये प्रामनी से चला जाता है और विजय करके वापिस पा जाता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इह पर्यटनार्थमागतां खगकन्याम मी ममारतां । अनिमेष दृशैव पश्यति न परं भेदम मानगेऽम्यति ।७ पर्य-इस पर्वत पर हवाखोरो के लिये प्राई हुई पोर माकद यहांको विद्याषरों को कन्यामों में मिल गई हुई प्रपनो देवो को ढूंढने वाला देव बहुत देर तक इकटक नजर मे देखता हो रहता है, बहुत देर बाद जब और कोई भेद नहीं पाता तो बिना निमेषके लोचनों द्वारा उसे पहिचान पाता है क्योंकि प्रोरतों के पलक लगते हैं किन्तु देवियों के नों। विपिनोऽपि कौतुकानिमलिनागीनवनीम नाम का । अतिमार्दवतो नभश्वरी स्ववमानीव गुणेन किन्नग ।।८।। प्रथं-इस पर्वत के वन मे इधर उधर में कहीं से कौतुक क वा प्राकर गान करने वाली विद्याधारियों में प्राकर शानिलाई किन्नरी उनके रूपको कोमलता प्रथवा उनके मधुर भाषण के आगे गुण में हीन होकर वस्तुतः किन्नरी पर्यात नीच प्रौरत प्रतीत होतो 'ना रुचिमल्लकुनाञ्चितानटी-ह पवित्रोदविकाशमंकटी युवनेः मदृशी महीभृति मृदुग्म्भोमनया मना मनी ।९ प्रयं-उस विजया पर्वत पर वह जो काटनी है वह एक नवयौवन वाली स्त्री सरोवो प्रतीत होती है क्योंकि स्त्री को जंघाय केलेके थम्भ समान होती है और वहां बहन में केले के खम्भ हो बड़े हैं । स्त्री उत्तमशोभायुक्त स्तनों वाली होती है किन्तु वहां Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर प्रस्ट्रो शोभा वाले लीची के पेड़ बोहै। स्त्री की कटि इन्द्र के पत्रको शोभा को जीतने वालो कान्ति के विकास को लिये हुये होती है, तो नटी पवित्र जन्म वाले काश से व्याप्त हो रही है। अलका नगरी गरीयसी-ह गिगवुचरतो नहीशी । धनदम्प पूरी परीक्ष्यने प्रतिभूषेत्र ममस्तु मालितेः ।१० प्रयं-रग पर्वत पर उतर की तरफ को नगरियों में एक प्रलका नाम को नगर्ग है जिम के मागे कुवेर को पुगे भी कोई चीज नहीं प्रतीत होता मी प्रस्ट्री बनी हुई है. वस्तुत: उसको इस पृथ्वी का प्रसार हो ममभना चाहिये। 3 शामनात प्रभाव भ म महाकच्छनृपः कदाप्यभून यामा विद्यमान्मज मा कमपाकतु मुनाधितो रमान ।११ प्रयं-कोई एक ममय उम नगरी का शासन करने वाला महाका नामका गजा था जो कि बरा प्रभावशाली था, जिसने अपने या मे तो चन्द्रमा को प्रोर अपने तेज प्रताप से सूर्य को भी जोन लिया या इस प्रकार वा बहुत प्रसो ढंग से रह रहा था। अमकम्य वमत्र दामिनीन्यमिधा भूमिपतः मुभामिनी सचिम्मनो नगामिनी-व जगमकरम्य कामिनी । १२ ___प्रयं-वह राजा मेघ के समान सब लोगों की भलाई करने वाला था, उसके दामिनी नाम को रानो यो जो कि उत्तम काम नेहा को धारक होती हुई भी मेघ के पीछे र होने वाली बिजली के समान राजा को इच्छानुसार चलने वालोगी। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनयोजन या प्रियङ्ग गनुगा श्री शिरमीव सुन या जगतां हदयोपपिणा जलधाग्व पवित्ररूपिणी ।।१३।। प्रषं इन दोनों राजा राणियों के एक प्रिया गुषो नाम को नसी थी जो कि हम गंमार को ममम्त सुमर पोरतों में शिरोमरिण थी इसनिय जनधाग के ममान पवित्र स्पबालो हो कर सब लोगों के मन को भाने वालो यो। नवयौवनभूपना यदा कुम मश्रीहि वमन्तमम्पदा । भ्रमा: ममाय नमः क इहाम्या इति चेतनाऽभवत् ।१४ प्रयं-- जमेको र बमन को शोभा को धाररम करतो मी प्रकार जर उमएको ने मवयोवन को अपनाया तो उसके पिताको ऐमा विनार हाकिमको मोभाग्य देने वाला इसका भ्रमर प्रर्यान पनि कौन होगा ? पितरिय दवम्बिता दिन मेपा शृण भी मदीर्घदोः म्नवको नग्गन्ध पचिता म्यातनया मनीह ने ।।१५।। प्रयं - दम पर किमो भले ज्योतिगो ने बतलाया कि हे सम्बो भुजावों के धारक मागजा मुनो यह प्रापको लाको मो कि बड़ी मुशील है वह इस जाम में नवगुना नगर के राजा को प्यारो बनेगी। द्विरदेखिव मेदिनीपनियभिमन्यः गनिनितमन्नतिः । बहुदानविधान कारकम्पटमंगवणनामधारकः ।।१६।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रयं- - उस राजा का नाम एंव है जो कि हाथियों में इन्द्र के हाथों ऐरावाकी समान सब राजावों में मुखिया है जो कि निर्मल खिल का धारक है और ऐरावण हाथो जिस प्रकार बहुत मा मदमाता है बसे हो वह राजा भी बड़ा दान देनेवाला है । मरमा मित्राधिका ललनानामयुतानि षट् पुनः । दधतोऽपि शीवत्रिणीतिक तनुजा ममस्तु नः । १७ प्रयं-- यह हम लोगों की बाई उन यह हजार घोरतों के रखने वाले सूपति को भी बंसी प्यारी होगी जैसी कि बहुत सी मरायों से युक्त देवराज को शची होती है। तुग्गेण समायिना पुनस्तमिहानेतुमगाव प्रयत्नतः । किमभीष्टसमागमाय नो स्थितिस्तामवनां वपुष्मतः । १८ प्रयं-इसके बाद महाकरुद्र राजा ने एक मायामय बनावटी घोड़ा लेकर उसके द्वारा उनकी परीक्षा करके प्रयत्न पूर्वक उसके यहां जाने के लिये गमन किया सो ठीक हो है क्योंकि इस भूमण्डल पर शक्तिशाली होता है वह अपने प्रभीष्ट प्राप्ति में देर नहीं करता । जलवेस्तटस्थितं पुरं स तदीयं समुदीक्ष्य सुन्दरं । सुरपचतोऽपि संस्तुवन्महमाश्चर्य ममन्वितोऽभवत् । १९ अर्थ-उसने समुद्र के किनारे पर जाकर वहां पर बने हुये उस ऐरावण राजा के पुरको देखा तो उसे स्वर्ग से अधिक सुन्दर पाया अत: वह एकाएक अचम्भे में भर गया । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधामनोरणीननं नगरद्वाग्मदीक्ष्य दुर्गमं । मटविणागलामे व नयहरत-परितः सणादितः ।२. प्रयं-उमने जब उम नगर केदार को पोर देखा तो उसके एक हजार तो नोरण बने थे पोर बोम लाम्व योडारों से बह पुक्त पा इसलिये उममे मा वंमा प्रारमो गुण नहीं सकता था, ऐमा देखकर वह कुष्ट देर के लिए उम नगा को चारो तरफ घूमने लगा। अथ पर्यटनार्थ मागनंद मंगवणभपने: गतः । अवलोक्य कृतः कि.मागतः कि.मदन्ती निभवानियधनः ।२१ प्रय-नने मेसो घूमने के लिये प्राये रपे ऐगाण गमा के लरका उमे देवा ना जान उमर पाम जाकर उममे उनोंने पहा कि प्रापकोन है. करीम प्रोर किम लिये यह पर प्राये। अनकापासम्मको हान्य या मन्दिरक्षा भवता मदमागतम्नये नदि मम्बिहरंथ मपर्थ ।२२। प्रय .. नव रमने उना में कहा रि. प्रकार का रहने वाला हं घोड़ों क' ग्यना की मेग काम सिफ में प्रापके नगर को देय ने की इच्छा मे ही पूचना फिरना हया या प्राया है। विनिगम्य निवेदितं तकरयापद त प्यते न के कुस्तान मदनुग्रहं हि तु म्घय मारोहणतः परीक्षितु ।२३ प्रपं-यह बात सुनकर वे लोग बोले कि वस्तुत: प्रापका घोड़ा एक प्रपूर्व घोड़ा है इस बातको तो कौन नहीं मानेगा किन्तु Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर भी अगर पाप कहें तो हम ग्युर इस पर चढ़कर देखले कि कंमा पया है। क्रमशः मलंग्यात्मनप्तकमास्ट नया निपातनं । मनुभूतमतः समुन्धितं परि कोलाहल मा निवेदितं ।२४ प्रयं-ऐसा कहकर वे लोग क्रमश: एकेक करके चढ़े किन्तु जो भी उस पर चढ़ना या वर धड़ाम से नीचे गिर जाता या जिस में कि नगर में कोलाहल मच गया जो कि राजा के पास तक पहुंच गया। ममवेय ममेन्य नीमजा पुनरंगवणनामभुजा । भगवन मनानिपरक प्रधना वाजि अमृदिहानकः ।२५ प्र-जिमको मुनकर वह नोरोग शरीर का धारक ऐरावरण रामा भो वहां प्रा पहुंचा और भगवान को नमस्कार करके उसने भी उस घोड़े पर सवारो को तो उसके चढ़ते हो वह घोड़ा एक साय सोपा हो गया। इति वीक्ष्य मदोदयान्वितं ममुवाचागत आत्मनोहितं । नग्नायक ! मम्बदाम्पहं भवनंऽम्मतनयापरिग्रहम् ।२६ प्रयं-इस प्रकार पाये हुये उस महा कच्छ ने ऐरावरण राजा को बहुत पुण्यवान देखा तो उसने उससे अपने मन की बात कही कि है नर नाप मे चाहता हूँ कि माप मेरो लड़की का चलकर पाणिग्रहण करें। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरिदेति पयोनिधि न म मरितं मोऽयमुदति मंगमः । प्रचलम इतो महाशय ! कमियाक्कूलोद्भवा वयं ।२७ प्रर्थ-इस पर ऐरावण ने जवाब दिया कि हे महाशय ! पाप का कहना तो ठीक है किन्तु ममुद्र के पास नदी स्वयं जा पहचतो है न कि समुद्र उसके पास जाया करता ) घर एक मानी हुई बात है। तिस पर भी हम लोग इवाफ कल में पंदा ये है फिर हम लोग उपर्युक्त नियम का उल्लंघन कमे कर मकते हैं, प्रयात माप चाहें तो उसे यहां लाकर मेरे माप विवाह सकते है। इन्याकण्यं निजात पुगदिह महाकार: प्रियङ्ग श्रिय, मानतु प्रकार नत्र पथि तत्कन्पानुग्नाहियं । त्यावकः बन्नु व बसेनयननः मयान मग्नः कलं.. मम्पातः समभृनयोः नवकारापकण्ट, म्यलं ।। २८।। प्रयं-ऐमो बात सुनकर वह माकन्छ गजा प्राना लएको प्रियङगुश्री को अपने गांव में से यहां लाने के लिये तयार दया । वह उसे ला हो रहा था कि रास्ते में उसके बाद एक वचमेन नाम का व्यक्ति लज्जा त्याग कर हो लिया निमको कि नर उमलएको पर पहले ही में लगी हुई यो एवं उन दोनों को ठोक म्नकगुच्छ मगर के समीप में प्राकर मुटने र हो गई। अन्वतदंगवणवागिहागदागन्य जिन्वाऽरिमपन्य वागे । मानन्दमेप प्रकार काल-क्षेपं नया माम्बलु भूमिपालः १२९ प्रयं-जब हम बात को ऐगवण ने मुनी तो वह वहां पर झट से प्राया और बरी वनसेन को जोतकर उमने उमलाको के Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ माय विवाह कर लिया एवं वह राजा उसके साथ प्रानन्द पूर्वक काल बिताने लगा । इत्यनेन विरज्याऽऽराज्जिनदीक्षामुपावजन । मेनस्तपस्तेपेऽतिघोरं वहिगन्मतः ||३०|| कि वयं इस बात का वज्रमेन के दिल पर यह प्रभाव हुवा वह विरक्त होकर जिन दीक्षा ले गया और अन्तरङ्ग से नहीं किन्तु ऊपर से उसने घोर २ तप करना शुरू कर दिया । एकदा स्तवक नगराइ हेरास्थितः । निरीक्ष्य कुपितलक लगुडा दभिगहतः | ३१ | - प्रयं-यों तप करते २ एक बार वह स्तवकगुच्छ नगर के बाहर था कर बैठा था कि उसे देख कर क्रोष में भरे हरे लोगों ने उसे लाटो वगरह मे मारना शुरू किया । विद्वाय नगरं समस्कन्धोन्धतेजसा । स्वयं च नरकं प्राप दग्ध्वान्मानपत्यमौ ॥३२॥ प्रयं हममे क्रोध में प्राकर उस मुनिने प्रपने बायें कन्धे मे निकले हवे तेजस तने से पहले उस मारे नगर को जलाया और बाद मे खुद भी उसी में भम्म होकर नरक गया | तथैव निरृतिगृहक: मदान्तरात्मन्यनुवद्धशोकः । विराधकः सन्नखिलप्रजाया अवादि वृद्धनरकं मयायात् । ३३ । प्रयं-बम इसी प्रकार गृहस्थ ग्रामो भी जो कि प्राजीविका से होन होता है तो वह भी सदा अपने मनमे फिकर के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारे जलता हो रहता है जिससे कि वर प्रजा के सभी लोगों को सताने वाला होकर नरक में पड़ता है एमा वृद्ध लोग कह गये हैं। यः स्यात् परमुखापेक्षा वेव लोक विगाहनः । म्बदोामर्ज येचि सत्यवान मिहनामरः ॥३४।। अपं-प्रतः जो प्रादमी सिंह के समान साहमवान है उसे चाहिये कि वह अपने हाथों से अपनी प्राजीविका करे, दूसरे के भरोस पर न रहे, क्योंकि जो प्रपना पेट पालने के लिये भी दूसरा का हा मुंह ताका करता है वह इस दुनिया में फुत की भांति निन्ध माना गया है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ नृतीय सर्गः निगम्य गम्भाषणमंत देष श्रीभद्र मित्रो मृदुचिचलेशः ममजित विनमयात्मनीन दोयामिदानी ममभृत्प्रनीणः । प्रतिम प्रकार के नान्न को सुनकर वह कोमल चित्त का पारकरका भद्रमित्र प्रब प्रपने मन में सोचने लगा कि अपने हायों में होनमाना ठोक है । अनी नमम्मच पितः परम्नानि दयामाम विदामनम्नां । आदेश नास्ति यती गुरूणां फलप्रदोऽम्मभ्यमह पुरूणां ।२ प्र-िपोर इसलिये उमने प्रपने पिता के प्रागे जाकर उन मे पर बात में भी अपने माथियों के साथ परदेश धन कमाने के लिये जाना चाहता है. मा प्राज्ञा काजिये, क्योंकि अपने से बड़े गुमलोगों का प्रादि । इन लोगों को सफल बनानेवाला होता आदिम उमा मम ममम्ति ततो हि मन्नापकरप्रशतिः । विध:कलामपायद कमन पितुः प्रमयं जगतोऽप्यलंमः ।३ नेपापित जो देग्यो कि सूर्य पृष्यों के संगृहीत रमको ग्रहण करने वाला है इमोलिये वह सबको सन्ताप देने वाला बना वा चामा प्रपनी कलावों द्वारा पित के घन को घटाता है हम ये वर मागे दुनिया को प्यारा लगता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननोऽहमप्यमि ममर्जनाय वित्तम्य पापप्रतिवर्जनाय । भवाननुज्ञा प्रकीविदानीमहन म के मालपूनिजानिः ।।४।। प्रपं-बम यही मान मोच कर मेग विचार होगया है कि मै बगई मे बचने और धन कमाने के लिये परदेश जाऊं. प्रतः पय पाप माना करें प्रोर मय भला करने वाला भगवान महंन है। नम्म पिता प्रत्यवदन मति महानं में मतगमदेति । कायोऽस्निकुन्यामग्वे यथाऽकिजगम पाथीनिधये तथा कि । ५ प्रयं--- हम पर पिताने उना दिया कि पुत्र भोला है, जरा मोच तो महो कि महम्पन के लिये जिम प्रकार नार बनाई जातो है उसी प्रकार ममुर के लिये भी उसके यनाने की पावश्यकता होती है, क्या ' नियोंकि वहां तो खुद हो नदिया प्राकर सबाला उमे भर रही है। इसी प्रकार मेरे तो माम हो इतनी प्राय है कि जिसे कोई खाने वाला नहीं, फिर कमाना कंमा ? एकाकि पवाङ्गन ! में कुलाय : म्वयंत्रमानन्दराऽनपायः । दुम्बायने मद्यमिदं वचन किमाम यानं गुणमंत्रशम्ते ।।६।। प्रपं-हे पुत्र पभि को घोंमले के ममान मेरे कुल का प्राधार तो तू एक हो है जिम को कि में देख करके हो रामो हो जाना हूं जिम पर भी तू अभी एक दम मोधा है, तेरा परदेश जाना कंसा? वह तो प्रभी बहुत दूर है, हे गुणों के भणार प्रभो तो यह तेरे परदेश जाने को बात ही मुझे काट देती है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशम्य पूत्रः पृनरिन्यवाच मत्यान्विना भो भवतां तु वाचः । नथापि कतव्यपथाधिगह-वशंवदः माम्प्रतमागतोऽहम् ।।७।। प्रथं यह गुनकर भमित्र बोला कि पाप का यह सब कहना तो टीक हो है, में भी मानता हूं कि मेरे दूर होने में प्रापको कहोगा परन्तु है पिना जी में मेरे कर्तव्य पालन के वश हूं, इस लिये प्रापके पाम प्राजा चाहता हूं। है नात शान तिरषजान - मात्रस्थितियांििनधः प्रयातः । मुग्यन व ननिविधाति- भयप्रदः मन्विहरन्विभाति ।।८।। प्रयं हे पिताजी मेरे बालकपन के बारे में पाप विचार करते है, सो देग्विये ममृद्र का पुत्र चन्द्र तो जन्मते ही उससे दूर होगया था जो कि लोगा के विनोद को छटा को बढ़ाता हुप्रा प्रमन्नता से प्राकारा मे विहार कर रहा है। देहेन याप्यामि मनोऽरिरस्तु तथापि ने पादपयोजवस्तु । माफल पदानाम्नु च ने भाभिवादा यतो मामिह मिनामि ।९। प्रषं प्रोर र शिलानी मे जाऊंगा भी तो सिर्फ शरीर से जाऊंगा किन्तु मग चिनरूपा भोग तो प्राप के चरण कमलों में ही बसा रहेगा तथा प्रापक भागीर्वाद से मुझे सफलता भी शीघ्र ही मिल जायेगो, जिम प्रापक. प्राशीवाद से हम लोग यहां पर भी फलते फूलते हैं। एवं निशम्यादिनमत्र चित्रा भवन्ति वाचः मुन ! ते पवित्राः । बापो यथा गांगझरम्य यन् पुनीनमातुः ममितोऽमि मन्वं ।१० Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ प्रयं - इस प्रकार फिर यहां पिताने कहा कि हे बेटा तेरे वचन मोठे धौर सुहावने है जैसे कि गंगा मे पाये हुये निर्भरने का क्योंकि ? तो भलो माँ से पंदा टूवा है । अल, कठोर भावान्निव मान्यहन्नुयादिवने जननीह किन्तु | वेविनाऽऽकाशन नियथास्या. नमोधरा स्वहिता व्युदाम्या | ११ | प्रयं बेटा मैं तो उद्यान के समान कठोर दिल वाला हूं प्रतः सम्भव है कि तेरे बिना रह भी जाऊंगा किन्तु सूर्य के बिना जिम प्रकार प्राकाश को गला प्रत्यकार पूर्ण हो जाती है उसी प्रकार तेरी मां तो तेरे बिना मुंह बाकर पर पुरा देगी | इतीरितोऽस्येत्य स जन्मदात्री त्याजगादीनमपुण्यपात्र । मातयः यह यामि देशान्तरं शुभता ते मा | १२ | " - प्रयं इस प्रकार कहने पर फिर वह वहा से चला और उत्तम पुण्य की भोगने वाली एवं अपनी जन्म देनेवाली मां के पास प्राकर नमस्कार करके बोला कि हे मानाजी में अपने साथियों के साथ देशान्तर को जा रहा हूं मो श्राप शुभाशीर्वाद वं । कृत्वाऽत्र मामम्बुजमविहीनां मरोवरी मङ्गन ! किन्नु दीनां । किलोचितं यातुमिति त्वमेव विचारयेदं धिषणाभिदेव ! | १३| प्रयं इस पर माना बोली कि बेटा तूने क्या कहा, भला जरा तू ही तो विचार कर कि मुझे यहां पर कमल रहित तलंय्या के समान दोन बना कर हे वृद्धि के भण्डार ! क्या तेरा जाना उचित है ? । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ इत्येतदक्तेः प्रतिवादमाह वालोऽत्र नाहं भवतीं त्यजामि । नेप्यामि याष्यामि महात्मनात्म-चित्तेनिधायेत्युत सम्वदामि । १४ प्रधं - इस माता के कहने के जवाब में वह भद्रमित्र लड़का बोला कि नहीं, में प्रापको यहां पर नहीं छोड़ रहा हूँ, अपितु में जहां भी जाऊंगा वहां अपने चिसमें विराजमान करके प्रापको अपने साथ में ही लिये रहूंगा इस में जरा भी गलती नहीं है, यह प्राप ठीक समझे । उत्साहसम्पन्नतया विशेषाद्द विचायस्य विचारमेषा । चिक्षेप लाजाथ शिरःप्रदेशे यः पुनमंज्जुपथप्रवेशे ।। १५ ।। - माताने जब देखा कि इसका विचार घटल है प्रौर उत्साह भी माहनीय है जिसका कि भंग करना भी ठीक नहीं है तो उसने विशेष कुछ न कह कर उसके शिर पर मंगल सूचक बान को वोले क्षेपण कर दीं और अपनी दृष्टि उसके पवित्र मार्ग को प्रोर फैलाई। मातुः पदाम्भोजरजः शिरस्त्रं नमोऽस्तुमिद्धभ्य इतीदमस्त्रं । म मम्बलं श्रीशकुनप्रकारं लब्ध्वा प्रतस्थे गुणवान कुमारः । १६ । प्रयं उस गुणवान कुमारने माताके चरण कमलों की रज का अपने मस्तक पर टोप बनाया, सिद्धेभ्यो नमोस्तु इस प्रकार के उच्चारण को हथियार बनाना और रवाना होते समय जो प्रच्छे २ शकुन हुये वही उसे रास्ना खर्च मिला, इस प्रकार मंगल पूर्वक वह वहां से रवाना हुवा । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा सुशास्त्राद्विधिनान्तरीपात जग्राह विद्वान दरितप्रतीपात । नत्वोक्त रत्नानि मुबुद्धिनावा समेत्य मदिः मह तैस्तदा वा ।१७ प्रयं-जैसे कि एक विद्वान मनुष्य अपने सहपाठी लोगों के साथ उत्तम शास्त्र को पढकर उसमे से जीवादि सात तत्वों को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार उस भामित्र नर ने भी नावमें बैठकर अपने साथियों के साथ रत्नद्वीप जाकर वहां से पथा रोति उसने सात रत्न लिये। अर्थकमम्मिन भग्ने विभाति मनाहा (महपुर मुनानि । राजाप्यभृत्स्य पुनः पदन प्रमिद्धिमानः मनु सिंहसेनः । १८ प्रयं-किञ्च इसा भरत मंत्र में एक मिहपुर नामका नगर है जो कि देखने में बड़ा ही मुन्दर है, जिसकी महक या मकाना को पंक्ति बहुत ही अच्छी है उस नगर का राजा उस समय मिहसेन था। सेना यतः सिंहपराक्रमाणा मामीद मुध्यातिशयान्नगणा । मृणिप्रकागऽस्मिताभ्यः माऽन्वथनामा ममद्ययेभ्यः ।१० प्रथं-उमराजाका मिहमेन नाम माधक हो या कोंकि उम राजा के पास मो सेना थी वह सिंह मी पगामी मंनिकों मे युक्त पी ताकि वह बरीप हाथियों के लिये प्रकुश का काम देती थी। गीह नाम्ना भुवि गमहत्ता निसर्गतः शीलगुण कमला । रतिः स्मरम्येव मुरपशिः ममथिता लोकाहिनाय दामी ।२० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रपं-उस राजा के जो रानी यो उसका नाम रामदत्ता था जो कि हम घगनल पर होने वाले शोलादि गुरणों को सहज स्वभाव मे हो धारण करने वाली यो प्रोर रूप मौन्दयं का भी भणार थो जो कि कामदेव की स्त्री पनि दवा करतो है हनने पर भी वह मोक दिन के कार्यो में दामी के ममान हर समय जुटो रहती थी। श्रीमतिनामा मचिया रम्य पूती-ङ्गिनः मदा दह दयप्रमूनिः । मूनिम्न्यही विप्रकलानथापि य वेग कांगम्य यथा कदापि ॥२१॥ प्रयं-3म गजा के श्रीभूति नाम का मन्त्री था, परिवह माहा कल में पदा हवा या फिर भी प्राचयं है कि जोवों में कावा मगोवा या जिपके मन में पदा बृरी वासना बनी रहा करती थी नाकि उममे जब कभी वोटी चेटा ही बन पडतो यो। अमन्यता नवधानतोऽपि म्यां चंदवेयं बनयाऽमलोपी। ममंतिक विधनाऽमिपुत्री येनामको वञ्चकनातिमत्री १२२ प्रयं-उमने जनता में यह प्रगट कर रकवा था कि मै कभी भूट नही बोल माता पोर इमो लिये उसने यह कहकर कि "प्रगर हो प्रमारथान पनेसे भी मेरे से झट बुल गया तो मैं इससे मेरे प्राण गमा दूंगा" प्रमः अपने गले में एक छुरो बान्ध लो यो। ग्यानिंगतो भद्रपरम्गयां नालीकवागिन्यमको धगया। गन्ना म्यवापापि तु मन्योप-नामान्तरंगे मुनगं मदोषः १२३ मयं-जिमसे कि उमको हम पृथ्वीतल के भोले लोगों में यह कभी झूठ नहीं बोल सकता है इस प्रकार की प्रसिद्धि हो गई Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पो और इसीलिये यद्यपि वह अपने मन में सहज कपट रखे हुये था फिर भी उसने राजा से भी सत्यघोष नाम पा लिया था। यथैव मामादननः मुद्दष्ट मिथ्यावयोगी वलयेऽत्र मृष्ट : । तत्पत्तनं प्राप च भद्रमित्रः श्रीभृतिना योगमवाप नत्र ।२४ प्रथ-जिस प्रकार इस धगतल पर सम्पष्टि जोधका सासादन गुणस्थान में पहुंचकर फिर मिथ्यात्व मे मम्बन्ध हो जाया करता है उसी प्रकार उम भद्रमित्र लरक का उस मिहपुर मे पहुंचकर उसी श्रीभूति नाम ब्राह्मण के माथ मं घोग बना। दन्या पुरस्कारमथेष्ट मम्म जगाद भद्रो भवनामहन्त । म्थातु ममिच्छामि मबन्धवगः पुत्र नन्यम्भावनी भवन्तु ।२५ प्रयं- भवमित्र ने प्रादर पूर्वक श्रीभूति को बहन मा पुरम्कार देकर फिर उससे कहा कि ? माशय में भी मेरे माता पिनादि सहित प्रापके नगर में वमना चाहता जिसके लिये प्राप पाना करें तो बहुत अच्छा हो । नेनोदिनं बाढमही बसेन युप्माकमातृकरना न चतः । नथा प्रचकाम इती वयन्तु तेम ममन्नाननपा नपन्तु ।२६ प्रयं-उमने कहा कि हां हां तुम लोग जहर प्राकर नही, हम तुम्हारे लिये ऐसा हिमाब लगा रहे है कि तुम लोगों को कोई भी प्रकार की पड़वन न हो पावे, इसके ऊपर तो फिर मबका भला करने वाले जिन भगवान है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ विश्वस्य भद्रः कपटोकिमेतां श्री मृदुमञ्जु चेताः । रत्नान्युपन्यस्य जगाम लातु स्वकीय नातापितरौ तदा तु । २७ प्रयं उस कोमल प्रोर सरल चिम वाले भद्रमित्र को उसके बनावटी कहने पर विश्वास हो गया, प्रतः वह प्रपने पास के रहन उस श्रीभूति के पास धरोहर के रूप में रखकर अपने माता पिता को लाने के लिये बना गया । प्रत्यायुताय प्रतिदातुमुक्ति कृतेऽयमुष्मायकरोत् प्रयुक्ति । निराशा नमः रोषः भयादतीतो दुतिप्रभोः मः | २८ प्रयं जब भद्रमित्र अपने घर जाकर वहां से वापिस माया और अपने दिये हुये रत्न जब उसने वापिस मांगे तो भयङ्कर से भयङ्कर पाप से भी नहीं डरने वाले उस श्रीति ने गुस्से मे प्राकर उसमें नीचे लिखे प्रनुसार निराशना के वचन कहे । मेरे किज्जल्पमि कोऽसि नाहं जानाम्यपि त्वां कुन आगतोऽमि । दुरं वोन्मत ! मृषोक्तिकोऽमि संज्ञायते भूतपिशाचदोषी | २९ प्रयं परे ! अरे ! क्या कह रहा है तू कौन है, मैं तो तुझे जानता भी नहीं कि तू कहां का रहने वाला है और कहां से घा रहा है, हे पागल ! दूर ट कंमा कूठ बोलने वाला है? जान पड़ता है कि तुझे कोई भून या पिशाच लग गया है इसीलिये तू ऐसा बक रहा है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नानि दृष्टान्यपि कि कदाचित्कथविधानीन्यथं ते हताचित् । अन्वेति भद्रोऽपि ममाहनामा-दिकं बमनां निबद्यधामा ।३. प्र-भला तेरो बुद्धि मारी गई है ? रत्नों का तेरे पास में होना तो हर किनार हो प्रपित गानों को तुमने प्रांखों मे कभी देखे हैं क्या कि कंमे होते है ? ऐमो बात सुनकर भामित्र फिर खूप मोश में होते हुये बोला कि हां मैने देव हो नगे है किन्तु उस उस रग के प्रमुक गहन मेरे पास थे। जगजे चाहं शृण वित्र ग्न दीपादपादाय पुनीनयन्नः । दवा ममाननुमगांकुलादीकतो भवानव मलीकवादी ।३१। प्रपं- उमने गजकर निर्भीकता के माष कहा कि हे विप्र महाशय ! उन उपर्यन म्नों को मे मेरे माथियों के माय नोप जाकर वहां में लाया या पोर लाकर उन्हें वे प्रापके पाम प्रको तरह से रहेंगे मा मोचकर मापके पाम रायकर मै मेरे मा बाप को लाने के लिये चला गया था, अब भला प्राप हनने यो प्रारमो होकर इस प्रकार क्यों झट बोलते हो? नथापि कः प्रत्यायिनाम्यवानः ग्यानिय नाविप्रवराय मा च । निष्कागिताऽन:प्रविनाटय लोक विक्षिप्त एवेत्युपलब्धगकः।३२ -- फिर भी उम विचारे के कहने का कोन विश्वास करने वाला या ? क्यों कि उम ब्राह्मण को "मो मिति थी कि वह कभी झूठ नहीं बोलता। प्रतः उस एकाकी भमित्र को पागल ठहराकर पहरेदार लोगोंने उसे मार पोट कर बाहर निकाल दिया। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ तद्वापिनिष्फलस्वमेवान्व केवलमात्मन्वः । पुनः प्रतिप्रातरिदेव वाणः वभूव भद्रः करुणेकशाणः | ३३ प्रथं भद्रमित्र ने राज दरबार में भी पुकार की परन्तु वहां भी उस बिचारे की माझी भरने वाला कौन था ? इसलिये कुछ फल नहीं हुबा धन्न में यह प्रतिदिन सबेरे के समय नीचे लिखे अनुसार प्रावाज लगाने लगा ताकि लोगों को उस पर दया प्रा जाये । श्रीमहनावपिमादा सत्यवीपात्र यशोऽभिवादाः | भवन्ति ते किन्तु उपादि विनाशनायास्ति कुतः कुबादी ३४ अर्थ- वह हर रोज यों कहकर पुकारने लगा कि हे सत्यघोष ! बीमसेन महाराज की तेरे ऊपर बड़ी भारी कृपा है जिससे कि तेरी इस मूतल पर इस प्रकार कांति फैली हुई है और लोग तेरी प्रतिष्ठा कर रहे है परन्तु फिर भी तु इस प्रकार बिलकुल सफेद झूठ क्यों बोलता है, इस मे ना तेरा यश और धर्म दोनों ही एक दिन नष्ट हो जायेंगे । हे विप्रराट् ते कृपया नृपस्य समम्नवस्तृवत्र एवं पश्य । तथापि कृष्णा वन नोपशान्तावृत्तिमेवानुकरोति कान्तां । ३५ अर्थ- हे विप्रो के राजा कहलाने वाले ! श्री सिहसेन महाराज को दया से तेरे सब बानों का ठाठ है किसी चीज की कमी नहीं है फिर भी खेत है कि तेरी तृष्णा नहीं मिटी प्रत्युत बढ़ती जा रही है ताकि ऐसी चोरी करने सरीखी बुरी चेष्टा को अपना रहा है । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ मिमानदीनम्य बमप्रणाशान कि शाम्यतां तेऽपधियो दगशा । नागाय किन्तु प्रभवेदिनीदं विनिश्चिनु न्यं भगवद्विलाशात् ।३६ प्रपं-इस प्रकार मुझ गरीब के एन हड़प लेने से तुझ खोटो बुद्धि वाले को दुराशा या कभी शान्त हो सकती है ! नहीं, कभी नहीं। प्रत्युत याद रख मगर भगवान ने पाया तो यह तेरा यह दुष्क तंव्य तेरे गे नाश करने वाला बनेगा। अर्थकदा भूमिम्हापरिस्थितम्य दीनम्बर मम्मिगिष्टा । गनी किलाधीनयनान्यनि.माम्नामितः क.टन एवमुक्तिः ।३७ प्रयं-इमो प्रकार वर रोज ठोक गमय पर पा पर पड़ कर प्रति वोन एवं करूणा जनक म्बर में काम करता था मो इस प्रकार को उसको प्रावाम को गनी राममना ने गना, मानों पाज उसके कष्ट के दिन याम ही हाने पर पाये। गनी गुनकर विचाग्ने लगी। प्रानष समागन्य नियमेवानिगेदिति । एकनमिति म्यामिन्नविप्न ?नी गर्ने । ३८ प्रयं-पौर गजा मे बोली कि हे, म्यामिन ! यस. प्रवासी रोज सबेरे हो इमो पर पर प्राकर ठोक उमी एक बात को लेकर रोता है, इमलिये है, नाय यह पागल नह है किन्तु... . विनिधिनामि यकिन हम्यमिह विद्यते । भवनाद्य सभामध्ये स्थानव्यं धीरचेतमा ।३९ प्रयं-इममें कुछ न कुछ रहस्य भगवा है जिसका कि पता लगाना प्रावश्यक है, प्रतः हमको प्राज में खुद जांच कर गो। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ हे बोर वोर ! प्राप तो ऐसा करना कि राज दरबार लगाकर कुछ बेर बहीं बंटना । इत्युक्त्वा तुष्णीमस्थादाजी तावदिहागतं । श्रीभूतिं वीक्ष्य सम्प्राह शृणु मन्त्रिन्ममेप्सितं । ४० अर्थ- राजा से इस प्रकार कह कर रानी चुप हो हो पाई यी कि इतने में श्री मूर्ति भी वहां प्रा पहुंचा, उसे देखकर के रानी बोली कि है मन्त्रीजी सुनो प्राज तो मेरी एक इच्छा है । श्रुतमस्ति भवान दक्षः शतरजाख्य खेलने । भवता कलयिष्यामि तदद्य गुणशालिना । ४१ अर्थ-सुना है कि प्राप शतरंज खेलने में बड़े चतुर हैं, इस लिये प्राज में श्राप सरल चतुर पुरुष के साथ मे शतरंज खेलूंगी। सम्मानपूर्वकमितिप्रतिपत्तिदा वा संक्रीट के तमनु चाटुवचः प्रभावात् । यो विजित्य परिमुग्धमितोऽमिमम्य यज्ञोपवीतमपिमुद्रिकया समस्य प्रयं - इस प्रकार सम्मान पूर्वक उसको उस रानी ने खेलने के लिये बिठा लिया, जिस खेल में कि रानी को मीठो मोठी बातों में फँसकर वह अपने प्रापको भूल गया ग्रतः रानी ने | बहुत हो शीघ्र उसके गले में की छुरी, जनेऊ और उसकी मुद्रिका इन तीनों को जीत लिया । दाम्यं समाह खलु तत्त्रयमेव दत्वा गङ्गीति मन्त्रिमदनं भृगु दामि गत्वा भद्रस्य रत्नगुलिकां द्र ुतमानय त्वं किं सम्बदानि परमत्र तु वेन्सि तत्वं । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयं-फिर रानी, दासो को बुला कर यज्ञोपवीत वगैरह तीनों चीजें उसे देकर बोलो कि हे रासो ! सुन, तू मन्त्रीजी के घर मा पोर इनको घरवालो से भमित्र के रहनो को पुटरिया शीघ्र हो मांग करके ले प्रा, बस इतना कर । इसके सिवा जो बात है सो तू सब जानती हो ।। गया तद्गृहमेषका च महमा मन्त्री मभायां स्थितः भो भो भट्टिनि भद्रमित्र वसुकं मागं तु मे देहि तत् । इत्युक्त्वा समपन्य गन्नपिटकं राज्यं तदेषा ददो, मंमिद्धन्यभिवारि मनमि चेन म्या दहनां श्रीपदौ ।४।। प्रपंचासो ने शीघ्र हो जाकर ग्राह्मणो मे करा. हे भट्टिन नो! मन्त्री जो तो राज सभा में विराजे है मोर उन्होंने अपनी जनेऊ वगैरह तीनों चीजे निशान रूप में भेजी है कि न जाकर भद्र मित्र के रत्नों की पिटारी मेरे घर में ले प्रा, प्रतः प्राप उमे दे दीजिये, ऐमा कह कर उन रत्नों को लाकर दामी ने गनी को दे दिये ठोक हो है भगवान के चरणों को याद करने वालो के मब काम मिस हो जाते हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३८ अथ चतर्थ मर्ग: नृपोऽथ नान्याय पर: ममं पुनः म भट्टमित्रं निजगन्नवम्तनः । विवेचनायाह न नीतिमानिनि ददानि वक्त प्रतिवादिन स्थिति ।। प्रपं-गजा ने उन रत्नों को लेकर उन में महत से और एन मिलाकर भमित्र को बुलाया और उममे अपने रत्न पहिचान लेने को कहा कि जो नातिमान पुरुष होते हैं वे दूमरोंको बोल ने लिये कोई भी जगह अपने कार्य में नहीं रहने देते । चमनि जग्राह म भग्निः म्घकानि नान्यानि विवेकवानिनः । पृशन्चनीचरमियान्यदायमिन्यहोवन माम्प्रतमात्मसंयमी ।। प्रषं वर भनि प्रपने रत्नों को खूब पहिचानता या पोर मन्तीगा था इमलिये उमने उनमें में अपने २ रस्न उठा लिये। टोक हो । जो अपने प्रापको वश में रखने वाले होते हैं वे दूसरे के धन को जूठन के समान मानकर टूते तक नहीं है । यही बड़ी बात इतर तीपयतं वणिक्त ज. मवेत्य मन्तुष्टतया महीभुजः । हाद मामीचममान पुननियोगवान श्रष्टिपदे ममस्तु नः ।३ प्रयं-इस प्रकार उम वंदय बालक का सन्तोषयुक्त देख पर राजा के मन में विचार प्राया कि यह कोई एक महा पुरुष है और हम तर मे मनोकर फिर वह बोला कि इस भमित्र को हमारा राज धाममाना जावे ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महीमा पापिधुरं च दण्डितं विधाय धम्मिल्लपमान्य मान्मनः । चकार शिष्टस्तवने न निग्रहो दीहिनम्यति नया जीवनं ।। प्रथ-पौरपापियों में प्रधान उस सत्यघोष बामगको कठोर दण्ड देकर उसके बदले में धम्मिल्ल नाम के प्रावमो को राजा ने अपना मन्त्री बनाया, सो ठोक हो है, शिष्ट पम्पों का प्रावर करने के साथ २ दुष्ट का निग्रह करना हो राजामों के जोवनका मू । है । अनोऽपमानादतिदुःखिनोमही मुरः परित्यज्य तनु वभावहि: । महीशकोपम्थल आत्त भावनः मनुप्यना निष्फलतां गता वन ।।५।। प्रर्थ ---राजा के द्वारा इस प्रकार अपमानित होने के कारण सत्यघोष ब्राह्मण को बहन होदया हवामानावर चिन्नातर होकर मरा और इसी राजा के भगदार में पाना। प्रायं तो यह कि उमने अपने मनुष्य जन्म को बेकार या दिया । अथामनाम्पानानत म्यतं निपय भद्रावधमकं यति । तदीयवाचामनमाभवन शनिः म दानधम तयान नामनि ।६। प्रयं-प्रब इघर भद्रमित्र ने एक दिन प्रामनाभिधान वनमें प्राकर ठहरे हुये वरधर्म नामक मुनि गज के दान किये प्रोर उमान जो सदुपवेश दिया उममे उसके मन में पाले में प्रोर मा प्रधिक सन्तोष प्रागया, प्रतः प्रम पर अपनी मापन का बिन वोन कर दान करने लगा। निरीक्ष्य मानाऽम्य च दानमनितां निपचयामाम दगहिनाश्चिना । नथापि यम्याभिमचियतो मवेनिवारने कि ग्यन्नु मा जवंजवे ।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-उमको हम प्रकार दान देने में तल्लीनताको देख कर उसको माता मे न हा गया क्योंकि वह लोभिन थी, इसलिये उसने उमे ऐसा करने से रोका किन्तु संसार में जिसको जिधर को रुचि होजातीवर किमोकने में नहीं रुका करती। अनेन निन्नातग्मानमा त मा विपद्य व व्याघ्रि अभदहो रुषा । मनिविभिन्ना प्रतिदहि जायने नथागनिम्नम्य किल्लाहनांमने ।।८।। प्र:- व. दान देने में नहीं सका इससे उसकी मां के मनमें बहन चिन्ता पंदा दुई प्रोर एमाम वर गेष पूर्वक मरकर व्याघ्री हुई। देवा, भगवान महान के मनमे बतलाया है कि प्राणि प्राणिको विचारधाग भिन्न होती है और वह उसी के अनुसार प्रागे को गति प्राप्त करता है। विमक्षितोडमी च नया कदाचनाऽपिगमदनोदरतो महामनाः । नगम नुन्नमवाप नावनाऽवसिंह चन्द्राभिधया मनः मना ।।९।। प्रयं किमो एक दिन उम भद्रमित्रको उसकी माताके जीव उग व्याघ्रीने ग्वा डाला इसलिये मरकर रामवत्ता के उबर से उसी मिासेन राजा के सज्जनोका प्यारा मिहचन्द्र नामक पुत्र हुवा। वभय पनादपि पृणचन्दवामहोदरम्नेन ममन्वितः म वा परम्परप्रममधापरीक्षण: समावभी दाशरथिः मलक्ष्मणः ।।१०।। ____ --इसके बाद उसके एक पूर्णचन्द्र नामका भाई और हवा, पर ये दोनों परम्पर प्रेमामृत का पान करते हुये श्रीराम पौर लक्ष्मण के समान रहने लगे। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदापि गजा निजकोषम मनः परीक्ष्य नादि विनिजमतः निबद्धवरेण च तेन भोगिनां वरेण दष्टः महमव कोपिना ।११। - प्रम एक रोज राजा मिामेन प्रपने बजानेमें रस्म वगरहको सम्भाम बारोहोरा पाने में जिमका इसके माय पूर्व जम्मका र पा उम कुपित हये मघोष गोव नागने एकाएक पाकर इसे काट लिया। मिपग्नग अभ्य विदिन वे ममानाः कोऽत्र जनः समो भवेत हनीन्द्रया किन्तु न कोपि भभुत्रः श्रितोऽपहागय ममथनां रुजः। १२ वर्ग इमको निवि नोरोग करने के लिो घट्न मे विष बंग बुलवाये गये कि देख इनमें से कौनमा पाटमो इमे स्वस्थ कर मकता है किन्तु उम राजा के शरीर में होने वाले विषके असर को दूर करने के लिये उनमें से कोई भी गम नहोगा। ममन्य मन्त्रोधिनपावके किल प्रवेष्टमन्यः पगिनिनोऽम्बिलः पृहावर्गः समनीय भागिनं दामुकंदष्टतमोपयोगिनं ।१३। मर्ग-हमपर फिर एक मन्त्रवादीने मन्त्र के द्वारा अग्नि पार की उमग्निमें में भी उसे बोटे यिचारवाने एक मपं को छोड़कर पोर मा म गियर जीवित निकल गये। निवेदिता गामहिनाऽपि नोविमिहीरधागहिरमोवशादिपः । विषय वही नमरणदेहिनामबाप कतेऽत्र पुनवनाहिनान ।१४। अपंगारिने जब उमको उमका विष वापिस बचने के लिये कहा तो गेष को वजह से विषको तो उमने वापिस नहीं लिया Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रत्युत बाध्य होकर वह सर्प उस अग्नि में गिरकर भस्म होगया या मरकर वह उसो नगर के समीप के बन में पापके कारण चमर मृग हवा। महीमहेन्द्रोऽगनिधोषमद्विपः बभूव यच्छोकरशादिहाविपत् । उम: म्बकीयं मुहगतगतदाऽपि गमदत्तान्मदशा वशंवदा ।१५। मर्थ-राजा भी मरकर प्रशनिघोष नाम का हाथो हुवा, इधर रामदाना उम के शोकमें अपनी उम शोचनीय दशापर विचार करते हुये अपनो छातो कूट कूटकर रोने लगो और बहुत दुःखो अथकदा दान्न हिरण्यसम्मति-नमायिकाभ्यां प्रनिवाधिना मनी । गताऽऽयिकान्वं गुणिमम्प्रयांगतः गुणाभवेदेव जनोऽवनाविनः।१६ पर्थ- अब कुछ दिन बाद इमको दान्तमति और हिरण्यवतो नाम को दो प्राविकाओं का समागम होगया उन्होंने इमे ममझाया तो यह भी उनके पास प्रायिका बन गई सो ठोक है कि इम भूतल पर गुणवानका संयोग पाकर प्रबगुग्गो प्रादमी भी गुणवान बन जाता है। म सिंहनन्द्रोनृपनामृपावृतश्चपूर्णचन्द्री युवाजनां गतः ।। मुखन कालं कतिचिद् व्यतीत गानाध्यगान पूर्णविधमुनिमहान १७ मी-राजाके मरजाने पर सिंहचन्द्र को राजा और पूर्णचन्द्र को युवराज बनाया गया एवं दोनों का समय मुम्ब से बोलने लगा तब फिर एक रोगविधु नामके मुनिका इधर पाना होगया । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ समीपमनस्य मुनिवमाश्रितश्मन यनः । स्फुरन्मनः पयेय नारणद्भितः समन्वितान्यमाचितः | १८ | प्रर्थ उन मुनिराज के पास भी मुनि बन गया और उसने बहुत ऊंचे दर्जेका नप दिया जिससे कि सच्चे दृट संयम का धारक होने में वरमन पवज्ञान और नारादिका धारक होगया । मनोहरेनाने निन्दियः समागतं महवि नमामि । स्मरनिमकिनारामाऽधिपति पुनः मत १९ प्रयं-एक दिन कामदेव को जीतने के लिये तीक्ष्ण बारण प्रतीत होने याने उन्मुनिको मनोहर नाम के वन मे प्राये हुये जानकर वह रामदना नाम की प्रायिका उन ग पुरुषों के शिरोमुनिराज करने के लिये गयी। सुनीश ! नाचको चन्द्रमा तार्यमन । भवाम्पोनम ! मी निवेदनं मे नतिक नमोः | २० अर्थ- वह उन्हें नमस्कार करके कहने लगी कि है मुनोश ! हे सज्जनरूप उत्तम चोरों के लियेन्द्रा समान ! हे मन के मे पार अन्धकार को मेटने के लिये एक प्रनने गये है मारममुद्र करने के लिये उत्तम जहाज सब लोगो के प्रभो ! मेरी एक प्रार्थना है । जनुष्य मुष्मिन्भवतोऽनुजोऽस्ति यः ममात्मजी भोगविलासमक्रियः । करोतु धर्मग्रहणं न वा प्रभो ! समादिशेदं नृपवास्तु भोः । २१ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रपं-हे मंरूप मकान के लिये परकोटेका रूप धारण करनेवाले पाप मुझे यह बतलाइये कि जो इस जन्म में प्राप का तो छोटा भाई प्रोर मेरा पगाज होता है जो कि प्राज राजा होकर भोग विलास में लगा हुवा है, हे प्रभो कभी वह भी धर्म धारण करेगा या नहीं। इनीग्निः प्राह मुनिमहागयः चपूर्व जन्मश्रवणाद् वृषाश्रयः । म मम्भविष्यन्ययिमानरूतर-प्रणीनये पुण्यनिधीखरोवाः ।२२ प्रथं-रामवत्ता के प्रश्न को सुनकर उदार और गंभीर हत्य के धारक मुनि महाराज बोले कि हे माता उत्तम पुण्य का भण्डार वह जा अपने पूर्व जन्म को बात मुनेगा तो फिर अपने उत्तर जन्म को सुधारने के लिये धर्म का महारा पकड़ेगा। ददामि नेऽमुप्य कियवालि-वनोऽस्ति यः सज्जनपालको वली यदस्तुतच्चिचमगंजमकलि-विकाशनायाकमहः किलालि ।२३ प्रपं-सलिये में उम मजजनों के पालक बलवान राजा के कुछ पूर्व भवों का वर्णन तुझे मुनाता हूं सो जाकर बताना उसमे उसके मनरूपकमल को कलिका जरूर खिन जावेगो जमे हि मूर्यके घामसे। मृगायणः कोशलंदशमन्धिन-प्रवृद्धनाम्नाह जनाश्रये द्विजः । यदङ्गनाऽऽपामगाऽनो: मुनाऽथ वामणीनाममुरूपमंन्तुना ।२४ प्रयं-इसो भरत क्षेत्र में कोशल देश के मध्य में पूर नाम का एक गांव है, उसमें मृगापण नामका एक ब्राह्मण रहता था जिस के मधुरा नाम को औरत यो उन दोनों के संयोग से एक वाहणी माम को अच्छे स्पको धारक लड़को पैदा हुई। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ अथाप्ययोध्याधिपतेः सुवल्लभा मनोहराङ्गी सुमिताभिधा व्यभात् । द्विजः समृत्वा समजायताङ्गजा हिरण्वतीव स्मरभूभुजोभुजा | २५ अर्थ- इधर प्रयोध्या नगरी के राजा को प्यारी रानी सुमिता नाम की थी जो कि मनोहर अंग की धारक थी । वह मृतावरण ब्राह्मण मर कर उन दोनों राजा रानी के हिरण्वती नाम को लड़की हुई जो कि कामदेव की भुजा के समान हुई । क्रमाच्च मा वाल्यमतीत्य यवनमत्राप शापादिव पुष्यमात्मनः बनी चित्रशिविज्वरं यथा वसन्तं सुमनोहरं परं । २६ अर्थ- वह गायक समान अपने बालकपनको उल्लंघन कर के पुष्प के समान खूब हा सुहावने योजन को प्राप्त हुई जैसे किवनी पत्तों से रहित होनेवाले शिशिर काल को पार करके फूलों में लबे हुये वमनको स्वीकार करती है । पदनाधीश्वर पूर्णचन्द्रतः महाभवन् पाणिपरिग्रहन्वतः यथा सुराणामधिपन सौख्यदः पुलोमजाया मृदुरूपसम्पदः । २७ अर्थ- इसके बाद उस सुन्दररूपकी धारक हिरण्वती का हुवा जो दि मुख बेन विवाह पोदनपुर के राजा चन्द्र के साथ घे वाला हुवा, जैसा कि इन्द्राणों का इन्द्रकेसाथमे । माधुरी सुता तयोरिदानी गुणरूप संस्तुता पिता पतिः श्रीतुमुनानतो जनी जनन्यहि प्रभवेद् मवाध्वनि । २८ प्रयं - हे माता जो उम मृगायरण ब्राह्मण की प्रोग्त मधुरा यी वही तूं प्राकर पूर्णचन्द्र राजाके रालो हिग्ण्वती की कुल से Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ भले गुण प्रोर प्रच्ये रूपकी धारक लड़की हुई है। संसार की ऐसी हो व्यवस्था है कि इसमें पिता तो पति बन जाता है, बी से लड़की, लड़को से श्री प्रोर माता भी यह जीव बन जाता है । अभिद्रोनरमित्रसंज्ञित मकामितो यस्य कृतं त्वया हितं उरीकरोतीत पूर्णचन्द्रनवाथ याऽऽसीत्खलु वारुणीता | २० | प्रयं भवमित्र जिसका नाम था, रत्न वापिस दिलाकर जिसका तूने भला किया या वह में अब तेरा सिहचन्द्र नाम लड़का होकर तप कर रहा हूं और वह तेरी वारुणी नामकी लड़की थी मो प्राकर तेरे पुर्णचन्द्र नामका लड़का हुप्रा जो कि प्रत्र राज्य कर रहा है। नरोऽल्पकामेन भवताम्रपति कामातिशयात्म एव तां एवोरभातामहो दीयं तनुधारिणां मता ॥ ३० ॥ प्रयं - यह जीव जब कि स्वल्प काम वासनावाला होता है तो उसकी वजह से पुरुष शरीर धारी बन जाता है किन्तु जब इसे कामको उत्कट वामना सताती है तो वही वो बन जाया करता है और घोर विपरीतादि कामवासना के वशमे तो नपुंसकपन को ही प्राप्त हो लेता है। इस प्रकार इस संसार में इन शरीर धारियो का नर से नारी और नारी से नपुंसक या पुरुष, इसी प्रकार प्रवस्था बदला करती है। म भद्रवाहोनिकटे निभवन पिताऽऽपि ते पूर्णविधुश्च मामवन् उवाह सर्वाधिवशेषमुज्ज्वलं निर्गीयते यच्छिववम्बलं । ३१ । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ प्रर्थ - तुम्हारे पिता पूर्णचन्द्र तो भद्रबाहु नामके श्रीगुरुके निकट में मुनि होते हुये सर्वावधि ज्ञानके धारक बन गये, जो कि सर्वावधिज्ञान मोक्षमार्ग में कलेवे का काम करता है, उमो भव से मुक्ति दिलाने वाला है। उन्हीं पूर्णचन्द्र मुनिराजके पास में भी मुनि हवा हूँ । सहायिका दान्तमतिः प्रतीयते गतायिकान्यं च ततोऽम्बिका न ने करोति नारी जनुरत्रमार्थकं विनावतजीवनमत्यपार्थक ३२ । प्रयं-प्रायिकायोंकी नायिका वान्तमनि के पास तेरो माता भी प्रायिका बनकर ने इस नारो जन्म को सफल बना रहो है, क्योंकि बिना व्रतोके धारण किये यह नर जन्म व्यय हो कहा जाता है। नवनाथोऽशनियोपहस्तिनां गतोय मां मारयित च मे पिता समागती बोधमवाप्य बोधितः तं दधाति मनानं हितं । ३३ । अर्थ- हे माता तुम्हारे स्वामी और मेरे पिता राजा सिमेन मरकर प्रशनिधषि हस्ती हुये हैं। वह प्रशनिघोष हाथी एक रोज मुझे देवकर मेरे माग्ने को प्राया तो मेने उसे समझाया जिससे कि समन कर उसने मेरे मे ले लिये जिसमें कि उसका प्राध्मा का उद्धार हो । स एकदा मासिकवृनपारणा परायणोऽम्मःस्थल मेन्य पङ्गमान निमज्य निर्गन्तुमशक इत्यतः समाधिमेत्र प्रबन्ध संमान ३४ | प्रथं-वह एकबार एक महीने का उपनाम करके पारणा के लिये नदी में पानी पीने की गानो कीचड़ में फंस गया, उपवासों के Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ करमे से कमजोर हो चुका पारसलिये ही वह वहां से वापिस निकल नमका । एवं उचित ममझ कर धर्मभावना से उसने समाधिधारण करलो। मन्यघोषनरः मपों योऽवजच्चमणतां अहिनां पुनरागावा दष्टवान मम्नकेऽमुकं ।३५। प्रयं- मायघोष का जीव सर्प होकर जो चमर मृग हुवा था वह मरकर फिर मपं हवा और उमोने प्राकर इमको माथे में काट वाया। शान्तिनम्नन मुत्सृज्य महामाग्म्य म द्विपः गविप्रभव्योम याने श्रीधरत्रिदशोऽभवत् ।।३।। प्रय-किन्तु उस हाथीने अपने परिणामों को नहीं बिगाड़ा, शान्तिक माय सागर का परित्याग किया जिससे कि सहस्रार स्वर्ग के विप्रभ विमान में श्रीधर नाम देव हुवा। मारितः किल धम्मिल-चरेण कपिनाप्यहिः नीयं नरकं प्राप गध्यानवशंगनः ।।३७।। प्रथं--इधर धम्मिलमन्त्री का जीव मरकर जो बन्दर एवा पा उमने प्राकर के उम मपं को भी मार डाला जो कि रोट परिणाममे मरा इमलिये तीसरे नरक में गया। व्याधेन तम्य धनमित्र उपन्य मुक्तादंनी न नाउपजहा नृपाय युक्ताः म्बट वापदानि दनः कुबलेस्तु हा पूर्णेन्दुगत्मनिगले स्वयमुद्दधार ।३८ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्ग-व्याधने उस हापोके तो और मस्तकों के मोती निकालकर लेजाकर धनमित्र सेठ को बेच रिये जिन्हें लेकर सेठने राजा पूर्णचन्दको भेट कर दिये जिनमें से पो दांतों से तो राजाने अपनी स्वाट के चारों पाये बनवा लिये हैं और उन गजमुक्तामों का हार बना कर उसने अपने गले में धारण कर रखा है। अप्रमादिनया पूर्ण नन्दम्याहादकारिणः नमोमथनमित्येतत्कथनं मातरिष्यते ।।३।। है. माना ! प्रसन्नता को देनेवाले पूर्णचना का अन्धकारको दूर करने वाला पर कयन है जो कि मेने तुझे मावधानो के साय सुनाया है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पंचमो मर्गः थी मनः महरदगमपेनाऽधायिका भवाविग्नमवेताः । पूर्ण चन्द्रमभिबोधित मागदागना पहिले कविचाग ।।२।। प्रथं - उपयं न प्रकार में श्री मुनि महाराज के उपवेश को मनका गंमार में प्रत्यन्त विरक्त है चित जिमका एवं अन्य सब लोगों के भी भले करने का विचार जिमका ऐमो वह रामदता प्राविका घ्र ही वहां में पूर्णचन्द्र को ममझाने के लिये प्राई। चाय मातानिदोन्धितएवा गध्य तक्रमगं बमुदे वा । पृपानिनि म नाय आदिश बदनुकूलकगय ।२। प्रयं-माता मयिका को प्राई हुई देवकर जिसका होनहार न्या है ऐमा वह पूर्णचन्द्र ग्राम न मे उठ खड़ा हुवा मोर अपने भले के लिये उसने उमक चरणों को नमस्कार किया फिर उसके बाद उसने माता पूछा कि हे माताजी इम प्रापके पादेश क अनु. सा चलने वाले पुत्र क लिये क्या प्राजा है मो कहिये। मा ज गाद् मुन : मन्यभवेन सब जन्मम हहि भवेन । मंयुतोऽपि हि समञ्चमि भोगानान्मनाऽनुभवितु किल गंगान् ।३ प्रयं -म पर प्रायिका बाली कि हे पुत्र इस संसार के सम्पूर्ण जन्मों में सांकृत महिमा वाले इस मनुष्य जन्न को पाकर Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी प्रपने प्राप से हो रोगों को प्रति नरकादि के दुःखों को अपनाने के लिये प्राज भो इन भोगों को हो भोगने में एकाम्त रूपसे लमा हवा है मोक्या तेरे लिये ऐमा करना उचिपा ? नहीं, पोंकि रोग एवं नाके पशुमोनावस्ति मोऽगणितकष्ट महो ना भागभागपि भान परितोऽयमन्ततोऽग इव भान्यपतोयः ।। प्रथ-देव बेटे ! यह मंमागे प्राणो भोगों में फंसकर उसको पजा मे नरक में पता है वहां को हमके लिये रोगों के मिया कप है ही नहीं, रात दिन मग प्याम मारणतारन और प्राधि पाधिको छोड़कर एक समय भी शान्ति के लिये नही होता । वहां से निकल पशु पर्याय में प्राता हे नाव पर भी भूव पास सर्यो गर्मो वगंग के प्रगित कम महन करने परने हैं। प्रोर फिर पा मे वाकिम नक प्रारम करता है, प्रगर को भाग्य से स्वगं भी चला गया तो वहां भी परलेको ।ई कमाई को भोग कर प्रात में बिना पानी के सूख गये हर पेपको तर मे घाम से नीचे गिरता योग एक इह मानवतायामेव मुदतमस्तु अपायान भोगतां गमयतः पुनता किं भवेदनमवेद ददनेताः ।। पर्य-प्रगर एक रोमा योग जो कि हम प्रारमा को गायों से बचाकर इसका भला कर दे कर हम मनुष्य गति में ही प्राप्त हो सकता है किन्तु मो प्रादपो हमको भो पाकर ऐमा योग नहीं मिलाता प्रत्युत इमे भी भोग भोगते हुये हो खो देता है फिर उसका Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ क्या हाल हो इस पर भी जर। दृढ़ चित्त वाले को विचारना हो चाहिये। गगनो हि विषयेय निबन्धः सम्भवेद्यत इयानयमन्धः बम्य हानिमपिनानुविधन येन किं प्रणिगदानि महत्तं ।६। प्रयं-परन्तु यह मनुष्य मनुष्य होकर भी विषयोंमें लुभा रहा है ताकि इस प्रकार अन्धा हो कर उनमें फंसा रहता है उनके द्वारा होती हुई प्रपनी स्पष्ट हानि को भी नहीं देखा करता बस इससे प्रषिक मै तुझमे क्या कहूं? हम्निनं झपमलिं च पनङ्ग नागमेकविषयाद् धृतभङ्ग यामि चेन मकन्नेन्द्रियभोग-भोगिनोनुरिह कोऽस्तु नियोगः।७। प्रयं-हे वाम हम देखते है कि हाथी, मछली, भौरा, पतंग, मोर मपं ये सब स्पटनारिक एक एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर हो जब अपना इस प्रकार नाश कर लेते हैं तो फिर पाँचों ही इन्द्रियों के विषयों को भोगने में लगे रहनेवाले इस मारमो को क्या दशा होगी? त्यागतम्वनुभवेदनपायं कंम पंजरगकीर वायं । मुच्यमान इह मञ्चणकानां कुम्भवद्ध कपिवच्चनिदानात् ।८। प्रपं-यह जीव उस पिंजड़े में बन्द हये तोतेके समान या भूगों के घर पर जाकर भूगड़ों को हो ग्रहण करने से पकड़े जाने. वाले बन्दर के समान अन्तमे त्याग करने से ही प्रापत्ति से मुक्त होता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूरिशः समुपदिश्य तदन्ते पुत्र ! वच्मि शृणु पूर्वभवं ते यन्मया मुनिमुखाच्छु तमासीत्त्वं विभामि मुफनेक मुगशिः ।। प्रयं-इसप्रकार संग्रहण करने से तो यह जीव दुःखो कितु स्याग करने से मुक्त होकर बे रोक टोक सुख यह जीव प्रवश्य प्राप्त करता है इस तरह प्रौर भी बहुतसा उपदेश देकर अन्त में नायिका माताने कहा कि हे बेटे तू पुण्य का भण्डार है प्रतः प्रब में तेरे पूर्व भवों का वर्णन जैसा कुछ श्री मुनिमहाराज के महमे मुना है उसी प्रकार कहती हूं सो हे पुत्र तू मुन । सेन्युदीर्य निजगाद तदनं मंहिताय नर पम्य नसत। येन नम्य हृदयाजविकागम्नेजमेव समद्रविभागः ।।१।। प्रयं---इस प्रकार कहकर उम प्रायिकाने जो कुछ मुनि मुख से मुना था वह मब उम राना के भने करने के लिये माम बानमे नोतिके सूक्ता से उमे सजाकर प्रदातर मकर सुनाया जिम कि सुनने से उस राजा का हर प्रपन्न हो गया जो मूर्यको प्रमाकन में कमल खिल जाया करता है। मन्यपूर्णमकगेन वमनं म बीनिजान्वयमावादमः । अह नामुन मनां कृतमः पनि यवम दमियनंग ।।११।। प्रयं-प्रब अपने वशम्प मगेवर के रमको ममान प्राचरग वाले उस राजाने अपने विचार को मन्मागर प्रनाल कर लिया और भगवान प्रान्त जो कि प्राणीमात्र का भला करने वाले है मनः जो सभी के पूज्य है उनका या मन्तगुरु जनों का सम्मान Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ करते हुये वह मन्त्र लोगों का शिरोमरिण होकर के घर में रहने लगा अर्थात् गृहम्य धर्म का प्रच्छोतरह पालन करने लगा। मकमम भवन परमात्मा-नुम्मंगऽप्युपगृहीनमहान्मा । वध्यदग्निमाम म निन्दन तत्परम्य विधिनाभ्यनुविन्दन ।१२ प्रयं प्रब वह जो भी कार्य किया करता था उसमें सब से पटले परमा?माकाम्मरण कर लेता था और साधु महात्मा लोगों का भी अपने घरपर वह बड़ी भक्ति के माय स्वागत करने लगा, अपने प्रापमे कोई गलती होजाती थी तो उम पर वह बहुत पश्चाताप करता था तथा दूसरे के द्वाग किये हुये अपराध को प्रन्छो नरम जांच करके उसका उचित प्रतीकार करता था। मा म कमिचट पगविहीनः म प्रमाद वशनो भुवि दीनः । दण्डित: ग्यन मयान्वपर्धा लिटनाम च यथाम्य ममाधिः ।१३। -- प्रब यह इस बात का पूरा पूरा विचार रखने लग गया कि शायद की मेरे प्रभाव वश होने से मेरे द्वारा अपराध रहित किसी दोन प्रादमो को दण्ड न मिल जावे और कहीं ऐसी भी गलती न हो कि मेरी प्रजामे से कोई भी प्रपराषो होकर रहने लगे। मापि गमपदपूर्वकद नाऽन्ने ममाधिवशतोऽन्वभवत्ता शोटपाध्यपमिगयुमपेत-भास्कराज्य मुरता म्वग्नितः ।१४। प्रपं- इधर गमता प्रापिका ने मायुके प्रतमें समाधि पूर्वक प्रपने शरीर का त्याग किया जिससे कि वह स्वगं बाकर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श सागर की प्रायुवाला भास्कर नामका धारक देव होकर वहाँ के सुख भोगने लगी। महा शुक्र स्वगंके एक विमान का नाम भास्कर है। पूर्णचन्द्रनगपोऽपि तथैवान्ते ऽहनाम्तवनती मृदवान । देवनामनुवभव मदा वै-ट ये नाम्नि म्पदे शभभावः ।१५। प्रर्थ --पूर्णचन्द्र राजा भी अपनी प्राके अन्त में प्रोन्न भगवान को याद करते हये महाभ भावों में मग मो वा भी उम। महाशुक्र नामक दशवम्व जाकर वंद्रयं नाम विमान का प्रधिपति देव हुवा, जिसको कि मोलह मागर का प्रार। सिंहचन्द्रमुनिगट् चम्ममग्रीव के पनि नाम मुरंशः । प्रावृडादिममयेधपियम्पादनाव काटना मुतपम्पा ।।१६।। प्रयं- विचन्द्र मुनिराजने वायोग वगंरर को शरण करने हए कठिन प्रोर मच्चो तपस्या को, ताकि वर प्रतिम प्रबंधक में जाकर इकतीस सागर को प्राय का धारक प्रहमिन्द बना। याम्यभागनियतम्य वभवाधा निजीयपरिम्पाजितवादः । पतनम्य धरणातिलकाम-दिन्यवानपी विनयाद । १७॥ प्रयं-प्रब इयर हमारे हम भरत के विजया पर्वत पर दक्षिण की तरफ में ही एक धरणीतिलक नाम का नाम है जो कि प्रपनी खाई के द्वार। ममुर की जीत है, उमा नगर का सामान करने वाला प्रावित्यवेग नामका गजा हो चुका है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ્ सम्बभूव च सुलक्षणिकाऽस्या-धीश्वरस्य शुचिरश्मिभृदास्या भामिनी गुणवृतेव सुगाटी याऽपि शीलकुसुमोतमवाटी | १८| - प्रयं उस राजा के मुलक्षरगा नाम की रानी थी, जिसका मुंह चन्द्रमाके समान निर्मल चमकीला था और साड़ी जिस तरह धागों से गुथी हुई होती है वैसे ही वह भी भले गुणों की भरी थी तथा शोलप फूल को भलो वाटिका मी थी । स्वगत दशमतो महिमेव प्रच्युतः स खलु भास्करदेवः । पुत्रिका समभवल्ललिताम्या श्रीयमत्र नावभिधाऽस्याः ।। १९ ।। प्रयं दशवं स्वर्ग मे रामवना का जीव भास्करदेव चय कर उस दशम स्वर्ग की महिमा मरोवाइस भूतल पर प्राकर उस रानी कू. ख मे ग्व हो सुन्दर मुहवाली लड़की हुआ जिसका नाम भी श्रीधर रखा गया था । சு दर्शकोऽधिपतिरत्र गतायाः मन्मनुष्यवमतेरलकायाः तेनमार्द्धमभवन विवाह: प्रेमतत्वमनयोः समुदाह | २० | , अर्थ- इमी विजयार्द्ध पर्वत पर एक मलका नामको दूसरी नगरी का राजा दर्शक नाम वाला था जिसके कि साथ उस श्रीधरा का विवाह हुवा जिसमे कि उन दोनों दम्पतियों में परस्पर में बहुत हो प्रेमका बर्ताव रहा । एतो हिभावमपापः पूर्णचन्द्रचरदेव इहाप । नामवगुणविवराम सम्भवश्वशमः सुखवासः । २१ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रपं-पोर पूर्णचन्द्र राजा का जीव जो वडूयं विमान में देव हुवा था वह पुण्यात्मा वहां से प्राकर इन दोनों दर्शक पौर श्रीधराके संयोग से पुत्रो हुवा जो कि नाम में भी प्रौर गुरण से भी दोनों ही तरह से यशोधरा होते हुये मुम्ब का निवासस्थान हो दुवा। माऽऽप भास्करपुरम्य च मूर्या-वन भूमिपतिना विर्या । पाणिपीडनमनन्य गुणेन सुप्रसिद्ध यशमा मह तेन ।२२। प्रयं भास्करपुरका गजा मय था जो कि बड़ा हो पास्यो या प्रतः उमोर गमान पग का पारक पा उग राजा के माय में बहुत प्रसनी का।। बाली उम पापा का विवाह होगया। सिंहसेन नदेखगेन: श्रीगेऽपि भावारिधिपतिः । पनगम्हि भवनमतमार: मवेग नि नाम दधाम ।२३। प्र.मिरामेन रजा का जीय प्रशानियोग ठायो मरकर जो मरवार स्वर्ग के विमान में श्रीधर गया था र तह मे वय कर प्रब ममार मपुट मे पार होने के नियमान समान होताया इन वनों मूवनं पोर पशोषण के मयोग में हमवेग नामका पुत्र हुवा। रश्मिवेगजनकोऽपथ माता मम्बिाध्य जगतः मुम्ब जातान । मखगाम महमा मनिषाय मापिकावमिति मंयममन्वं ।।२४।। प्रपं-- रहिमवेग का पिता गजा मूवनं पोर उमको माता पशोधरा दोनों ही सामारिक मुन्ध में विग्न होकर एकाएक मुनिपने को प्रोर प्रायिकापनेको प्राप्त होकर मंपम का पालन करने लगे। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तो foot पुनग्नदन्तं श्रीधराऽपि भगवजिनमन्तं । निधाय हृदये गुणवत्या आर्थिकात्वमभजन वि सन्याः | २५ | प्रर्थ - यशोधरा की माता श्रीधराने जब यह वृत्तान्त सुना वह भी जिन भगवान को अपने मन में स्मरण करके गुणवती नाम की उत्तम प्रायिका के पास जाकर प्रायिका बन गई । रश्मिवेग देत्य नृपत्वं भुक्तवान स्वजनकोत्तरत्वं । स्वप्रतापजित भास्कर देवः व्याप्तवश्चियशमा स्वयमेव । २६ । प्रथं - इसलिये राजा बनकर रश्मिवेगने प्रपने पिता के उत्तराधिकार को भोगना शुरू किया जो कि अपने प्रतापके द्वारा तो जीतनेवाला हुवा श्रौर प्रपने चन्द्रमा सरीखे निर्मल यशके द्वारा सारे भूमण्डल पर प्रसिद्ध होगया । सिद्धकुजिनमन्दिरसेवां कर्तुमेत्य म निजात्ममुदे वा । चन्द्रमाप च हरीत्युपशब्दं भव्य चातककृते मुनिमन्दं । २७ | प्रथं वह एक रोज सिद्धकूट जिनमन्दिर की पूजा करने के लिये गया था तो वहां उसने हरिश्चन्द्र नाम मुनि के वर्शन किये जो कि मुनिराज भव्य पुरुष रूप पपीहों के लिये मेघके समान थे प्रतः उनके दर्शनोंसे उसे बड़ी प्रसन्नता हुई । पादवन्दकतयात्वघलोपी चारणर्द्धिसहितादमुतोऽपि । सावधान मनमा खलु शर्म - कारणंजलमिवोत्तमधर्मं |२८| अर्थ- जो कि मुनिराज चाराद्धि के धारक थे उनको पहले तो उसने नमस्कार किया जिससे कि उसके पाप कर्म नष्ट होगये Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके बाद वह सावधान मन होकर उनमे जलके समान सबको शान्ति देने वाले उत्तम धर्मके व्याख्यान को सुनने लगा। मन्त्रिपीय वहपीनमनाम्मम्नावतव कृप आप्य व नाशं । योगितामनुचकार महात्माऽनः पुनः म्फटभवन्मुगात्मा ।२९ पर्ण-मुनिराज को वारणी को सुनकर उसके मनको बहुत खुशी हुई वह तृप्त होगया। जिसमे कि उसको तृष्णा का नाश होगया जैसा पानी पीने से हो जाया करता है बल्कि पानी से तो जठराग्निजन्य तृषा दूर होती है किन्तु उममे तो उसको मानसिक तृष्णा का सदा के लिये प्रभाव हो या इमलिये उस महापुरुष ने सम्यग्दर्शन प्राप्त करके सन्मार्ग को अपना कर फिर योगिपने को स्वीकार किया। पापगेधिनपमोऽनिगयेन चारणदिमधिगम्य च नेन । योगिराजपदनाऽऽपि पुनीता यम्य विम्तनमा गुणगीना ।३.। प्रयं-उसने दुष्कर्मों को न करने वाला तप किया जिससे कि चारद्धि को प्राप्त होकर वह योगि से पुनीत योगिराज बन गया जिसके कि गुणों का वर्णन बहुत ही बड़े शब्दों में हो सकता है। किश्च काश्चनगिरेः मुगुहाया मास्थितम्य सुमुनरुचिताया। वन्दनार्थममुकम्य कदापि श्रीधगऽऽय यशमश्वधपि ।३१॥ प्रथं-प्रब किसी एक दिन यह योगिराज मुनियों के रहने योग्य कंचना गिरि को गुफामें प्राकर विराजमान हुवा पोर उस को Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० वन्दना के लिये श्रीधरा तथा यशोधरा नाम को दोनों प्रायिकायें भी प्रागई । निर्गतो नरकतोऽपि स पाप विप्रराट् च शयुजन्म ममाप | सोऽतन्त्रयमनेककुजन्मानन्तरं समगिन्द्रपउन्मा ।। ३२ ।। प्रथं- इधर वह पापी ब्राह्मण सत्यघोषका जीव जो कि तीसरे नरक गया था वहां से भी निकल कर फिर अनेक कुयोनियों में जन्म मरण करते २ उसने अजगर का जन्म पाया वही यहां पर शेष में प्राकर इन तीनों मुनि प्रायिकानों को खागया । अष्टमेऽजनि मुपर्वपुरे तैश्च त्रिभिर्ह ममाधिममेतैः । प्राप्य चारूणि चतुर्दशमरि-मम्मितायुरुत दिव्यशरीरं ||३३|| प्रथं- - उन तीनों ने दृढ़ता से समाधि पूर्वक प्रारण छोडे इस लिये वे तीनों ही भले सुख के वेनेवाले प्राठवे काविष्ट नामक स्वर्ग में जाकर वहां पर चौदह सागर की प्रायुको प्राप्त कर दिव्य शरीर के धारक देव हुये । अनुवभूव खलु दुःमहकष्टं यत्र रौद्रमानमोपदिष्टं । शरपि पापपरम्परयाऽतः पङ्कप्रभानरकमुपयातः । ३४ । प्रथं - इधर वह अजगर भी रौद्रध्यान पूर्वक मरा सो वह पङ्गप्रभा नामके चौथे नरक में जाकर अपने पापके उदय से वहां दुःसह कष्ट भोगने लगा । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पष्टः सर्गः समस्त्यमुष्मिन भग्नेऽथ चक्र-पुरं पुनः शक्रपुगतिशायि । यतोऽधरं तन्मधरं किलद्विगजने पूर्णतयाऽनपायि ।। प्रर्थ-प्रब इसी भरत क्षेत्र मे एक चकपुर नामका नगर है जो कि इन्द्र के नगर स्वर्ग को भी नीचा दिखाने वाला है क्यों कि स्वर्ग पृथ्वीतल पर न होकर प्रधर प्रासमान में है प्रत: वह हलका हो है और यह नगर तो एक पृथ्वी के मुन्दर भाग को घेर कर बसा हुवा है इसलिये सदा निदाष रूप से सुशोभित होता है। लेखानिगं ना मुमनम्न्धमेति मगनि युद्ध बाधिताऽङ्गनति । रद्धश्रवस्वादनिवर्त्य गजा करोति मम्बीक्षणमङ्गभाजां ।। अर्थ-जिस नगर का रहने वाला हरेक प्रायमी, जिसका कि वर्णन लेग्विनी से नहीं लिखा जा सकता या जिसका मिलना देव लोगों में भी कठिन है ऐमो उदारता का रखने वाला है। जहाँ को रहने वाली प्रत्येक प्रौरत प्रच्छो रोति और भलो बुद्धि को धारक होती है प्रतः देवियों को भी परे बिठाने वाली है और जिस मगर का राजा लम्बे कानों वाला या यों कहो कि देरी से सुनने वाला न होकर अपनी प्रजा को भली प्रकार देख रेख करता है इस लिये इन्द्र से भी बढ़कर है। नगे न यो यत्र न भाति भोगी भोगो नमोऽम्मिन्न धूपोपयोगी । वृषोपयोगोऽपि न मोऽथ न म्यायथोचरं मंगुणमम्प्रयोगी ।३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रथं - उस नगर मे ऐसा कोई प्रादमी नहीं रहता जो कि अपनी सम्पति का उपभोग न कर रहा हो प्रौर वह उपभोग भी ऐसा नहीं होता जिसमें धर्म की भावना न हो प्रपितु लापरवाही से किया जा रहा हो। एवं धर्म का उपयोग भी ऐसा नहीं होता जो कि प्रागे से प्रागे बढ़वारी को न पाकर बीच में ही नष्ट हो जाने वाला हो या गुणों के समागम मे रहित होते हुवे निष्फल हो । शीलान्विता सम्प्रति यत्र नारी शीलं मुमन्तानकुलानुमारि । पित्रोग्नुज्ञामनुवर्तमाना समीक्ष्यते मन्ततिरङ्गजानां | ४ | प्रथं-जहां की प्रत्येक औरत शीलयुक्त हो होती है कोई भी व्यभिचाररत नहीं होती । शोल भी अपने २ कुलक्रम के धनुसार चलते हुये सिर्फ सन्तान को पैदा करनेवाला होता है और सन्तान वहां की ऐसी होती है जो कि अपने माता पिता की प्राज्ञा का पालन किया करती है । अनेरहान्यो मधुपो न चामन्वृक्षोऽपि नाम्नैव पुनः पलाशः । स्वप्नप्रशस्याय समस्ति यत्र लुण्टाकताथो न मनाक परत्र ॥५ • अर्थ- जहां पर भौरे के सिवा और कोई मधुप यानी शहब खाने वाला प्रथवा नशेबाज नहीं और जहां पलाश प्रर्थात् मांस खोर होकर अपने जन्म को निष्फल करने वाला भी प्रौर कोई नहीं पाया जाता अगर है तो वह सिर्फ एक वृक्ष है वह भी नाम मात्र के लिये, एवं लुटेरापन तो प्रपने बोये हुये घनाज को बटोरने के सिवा और किसी भी तरह का कहीं पर भी देखने को भी नहीं मिलता । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वराजते मार्गणता शरेषु करम्य वाधापि पयोधरेषु । वियोगितोद्यानमहीरुहेषु वैफामन्यत्र च किंशुकेषु ।६। म-जहां पर मार्गरण कहलाने वाला प्रगर कोई है तो एक वारण है परन्तु भिखमङ्गा कोई नहीं, करको बाधा भो युवतियों के कुचों में ही होती है अर्थात उन्हें हो हाथ से पकड़ २ कर उनको सन्तान चूसा करती है परन्तु कर यानि सरकारी चुङ्गो को बाधा कुछ भी नहीं है। वियोगोपना भी बगीचे के वृक्षों में हो पाया जाता है क्योंकि उन पर पक्षी लोग निवास करते हैं परन्तु और किसी को किसी भी प्रकार का वियोग का दुःग्य नहीं होता और निष्फलपरणा तो एक टेसू के फूलों में ही है किन्तु अन्य सभी के प्रयत्न सफल हो होते दीख पड़ते हैं । मगल एवान्वयने मगेगः परं मुग्न्या विधाप्रयोगः । यत्र प्रवाहः विदपामधोगः सम्प्राप्यने नोइगणो नभोगः ।।७।। प्रथं-जहां पर मरोग प्रर्थात् तलाब पर रहनेवाला हंस हो पाया जाता है किन्तु कोई भी रोगी देखने को नहीं मिलता। मुरली में हो विवर अर्थात छेव होते हैं किन्तु किसी का भी अनमेल विवाह नहीं होता और न कोई खोको विधवापन का हो दुःख होता है। एक जल का प्रवाह हो नीचे की ओर जाने वाला है और कोई भो मादमी निन्ध माचरण करने वाला नहीं है। नभोग कहलाने वाला भी जहां तारापोका समूह ही है क्योंकि वह प्राकाश में घूमता रहता है बाको और कोई मनुष्य भोगजित नहीं है सब के पास सब तरह के ठाट पाये जाते हैं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ नवीय योऽपिजनोवृत्तिर्व्यथकिदाचिन्न ममतिवृतिः । विभ्राजतेऽर्थोऽपि सदानभोग एवंविधो यत्र किलोपयोगः |८| प्रथ- जहां पर कोई भी ऐसा प्रावमो नहीं जो कि वृत्तिरहित हो सभी लोग धन्धेशिर लगे हुये हैं धन्धा भी ऐसा नहीं जो कभी भी व्यर्थ पड़ता हो किन्तु कुछ न कुछ धन कमाने के लिये ही होता है और धन को सदा अपने काम में लाते हुये श्रौरों की भलाई के लिये भी खर्च किया जाता है ऐसा हिसाब प्रनायास ही बना हुवा है। कदाचिदासीदपराजिताख्यः पराजिताशेषन रेशवर्गः :1 राजा पुरेऽस्मिन्नुदितप्रतापी यथा ग्रहाणां दिवसेगमर्गः | ९ | प्रयं किमी समय उस नगर का राजा अपराजित नामका था जिसने कि प्रोर सभी राजा लोगों को नोचा दिखा दिया था प्रतः वह ऐसा मालूम पड़ना था जैसा कि ग्रहोंमें सूर्य हुआ करता है जिसका कि प्रताप सब तरफ फैला हवा था । राजापि निर्दोषतया प्रतीत शराधिकारी जडताभ्यतीतः । महाबलीन्थं कुबलाश्चिनोरश्चोराप्रियः सज्जनचित्तचौरः । १० प्रथं- जो राजा श्रर्थात् चन्द्रमा होता है वह निर्दोष यानी रात्रि बिना नहीं होसकता परन्तु वह राजा भूपाल होकर भी निर्दोष था उसमें मद मात्सर्व प्रादि दोष नहीं थे । जो शराधिकारी होता है- पानी पर अधिकार रखता है वह जडता प्रर्थात् ठण्डक से दूर नहीं रह सकता किन्तु वह शर पर अधिकार करनेवाला-वारण वाहकों Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में प्रधान होकर भी मूर्व नहीं था। जो बलवान हो वह कुवलाश्चित अर्थात बल होन नहीं हुवा करता अपितु वर महा बली होकर भी कुवलाश्नितोरस्थल पा-उसके गले में हर समय मोतियों का कण्ठा रहता था। इसी प्रकार वह चोरों का विरोधी होकर भी स्वयं सज्जनोंके चित्तका चुराने वाला था। मा मुन्दरी नाम बभूव गमा वामामु मर्वाधिकाभिगमा । गनाधिगजम्य ग्नीधरम्प नियथाप्रीतिकरीह तम्य ।।११।। प्रा--राजावों के राजा उम अपराजित के मुन्दरी नामको रागी थी जो कि मंसार की मभी प्रोग्तों में अधिक मुन्दरी थ। इस लिये राजा को कामदेव को गति के समान प्यारा थो। वेश्येव पंचेपरमप्रवीणा दासीय मकर्मविधी धुरीणा । मंत्र मभाया भुवि वाचि वीणा माचिव्य इन्द्रम्य शनीव लीना ।१२। अर्थ-- इन्द्र को देवी शची के समान वह गणो अपने स्वामी के लिये काम मेवन के समय तो वेश्या के समान सरस चेष्ट करने वाली यो किन्तु उत्तम कार्यों के करने मे दासो के समान हर समय संलग्न रहती थी तथा मभा में गजा को मन्त्रीपन का काम देतो थी जो कि बोलने में वोगाके ममान बड़ी हो सुहावनो यो। गजः मदा मोहक व युनियामाक्तिकोपनिकरीव शुक्तिः। अनंगमन्तानमयीवमुक्ति-म्पनीह लावण्यवतीवभुक्तिः ॥१३।। प्रथ-युक्ति जिस प्रकार शृङ्खलावद्ध तकरणा को लिये हुये होती है वह रागो भी गजा को मवा मोह पंदा करने वाली थी, सोप जैसे मोती को पंदा करती है वमे वह भी मुक्तिगामी पुरुष को Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जन्म देनेवाली थी। मुक्ति भूमि जैसे प्रशरोरी लोगों को परम्परा वाली होती है वैसे ही वह भी कामवासना का स्थान थी क्योंकि रसोई जैसे सलोनी होती है वैसे ही वह भी लावण्य सौन्दर्य को भरी थी। मुताऽभान्मम्प्रति सिंहचन्द्र-चरः मुगेऽम्याः मुनरामतन्द्रः । चक्रायुधाग्यो निजधर्म कमण्य पर यद्यः म्बजनाय शर्म ।१४। अर्थ-मिरचन्द्र का जीव जा नवग्रं वेयक गया हुवा था वह वहां मे प्राकर इम गणों के उदर से चलायुध नाम का लड़का हवा जो कि अपने कर्तव्य कार्य में स्वभाव से सावधान रहने वाला था इमलिये अपने पक्ष के लोगों को प्रानन्द देनेवाला भी था । एनप्यजन्मन्यमूकम्य पित्रा महात्मवादारततिः पवित्रा । आविष्कताऽन्यपि पावगैम्नथानिमगान्थिनहर्प मगः ।।१५।। प्रथ जबकि इसका जन्म हवा तो इसके पिताने बहुत ही ठाट के माथ जन्मोत्सव मनाया साथ में उसके सहज हर्ष की उमङ्ग से प्रजाके लोगों ने भी उसमे भाग लिया। समज्जगामन्दग्विारा वृद्धि मुल्लामयन्मोदनिधि जनानां । धाच्याऽनुगगाददिनश्रिया वा धृनः कलावान्प्रभवनम्वमानात ।१६। प्रथं-सन्ध्यारे ममान अनुराग को धारण करने वाली अपनी धायके द्वारा लालन पालन को प्राप्त होता हवा वह बालक चन्द्रमा के समान, अपने कुटुम्बके लोगोंके प्रानन्द समुद्र को बढ़ाने वाला होकर अपने प्राप महज स्वभाव से कलापों को धारण करता हुवा बढ़ने लगा। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतीत्य कोमारमभृन्मदङ्गः कुलायमिद्धः मुवयः प्रमंगः । श्रीपादपो वा मुमनस्त्वयुक्तः कुचो युवल्या अथवा ममुक्तः।१७। प्रयं-उपर्युक्त प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हो उसने अपने कुमारपनका उल्लंघन कर दिया जिससे कि प्रब वह कामदेव से भी बढ़कर सुन्दर शरीर का धारक हो गया और जिसप्रकार पक्षोको प्राश्रय देनेवाला घोंसला हुवा करता है उसी प्रकार नवयौवन को पाकर कुलवृद्धि करने के लिये विवाह योग्य होगया। एवं फलों से लदे हुये वृक्ष को तरह मानसिक विकाशयुक्त हो लिया प्रथश युवति का स्तनमण्डल जिपप्रकार मोतियों में मुशोभित होता है उसीप्रकार वह भी मायक और मुसंघटित वचनों को बोलने लगा। धगधिपानामिति चित्रमाला-दयोऽभवन पंचमहम्बालाः । मकीतकोत्पनियोऽमकम्य गाग्वा यथा कल्पमहीमहम्य ।१८। प्रयं तब इसके कौतुक को उत्पन्न करने और बढ़ाने के लिये भले भले गजानों को नित्रमाला प्रादि नामवालो पांच हजार लड़कियां सहयोगिनी हुई जमे कि फूलोंसे भरी हुई कल्पवृक्ष को शाखायें। एकम्य वृक्षम्य भवन्ति शाग्वा विधाग्नका अथवा विशाग्याः । यथा पयोधेपि भान्ति नद्यम्नथा युक्त्योऽवनिपम्य मद्यः ।१९। अर्थ-जिसप्रकार एक ही वृक्षके एक माय अनेक शाग्वायें होतो है अथवा एक चन्द्रमा के पीछे अनेक तारिकायें रहा करती हैं और समुद्र में अनेक नदियां समा जाया करती है उसी प्रकार एक राजा के भी बहुत सी रागी होती हैं । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाऽगृहीद्वारिनिधः ममम्ना वभूयुरेनाः मुरमाः समस्ताः । माचित्रमाला खलु नाम गंगावदत्तमा म्फीतिधरी सदंगात् ।२०। प्रथं-दरियावके समान उस नौजवान ने जिन पौरतोंको स्वीकार को थी वे मभी यद्यपि एक से एक उत्तम रसको धारण करने वाली नदो सरोखो थी परन्तु उनमें चित्रमाला राणी तो गंगा के ममान सबसे भली थी जो कि अपने उत्तम अंगपरसे प्रपूर्व स्फूति दिखलाया करती थी। नावनंगाधिपतेः पनाका म्पे पग तन्मदशी मना का । नान्वाप यां मंलपन पिकाऽपि नाभिस्तु यम्याः मरसव वापी ।२१ प्रयं - यह पति से प्रेम करने में बहुत चतुर थी कामदेवकी पताका के समान यी रूप सौन्दयं मे तो उसके बराबर दूसरो कोई यो हो नहीं बोलने में कोयल को भी परे बिठाती थी और उसकी नाभि तो एक रसको भरी बावड़ी के नमान दीख पड़ती थी। नवालना यत्रबभूव माऽधुना यतः ममन्तान्मृदु मालकानना । महीपनेम्नं महिमानमध्यगान्नितान्तमुच्चम्तन सम्भवन्नगा ।२२। प्रथं-प्रब उस चित्रमाला के शरीर में बालक पन बिल. कुल भी नहीं रहा और मुखमण्डल पर मस्तक में प्रत्यन्त कोमल काले बाल होगये और स्तनरूप पवंत खूब ऊँचे उभर पाये थे इस लिये वह उस महीपति के साथ पृथ्वो के ही समान प्रादर का पात्र बन गई थी क्योंकि पृथ्वी पर भी साल वगरह पेड़ोंका बन होता है नई २ बेले भी हुवा करती हैं तथा ऊँचे २ पर्वत भी रहते हैं । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापीह सौभाग्यगुणानुयोगादनेन मार्दू मुकुनोपयोगा । तस्या यतो यौवनपादपस्तु बभूव मद्यः फलदानवस्तु ।।२३।। प्रर्थ-वह राणी सौभाग्य के उदय मे उस राजा के साथ में प्रेमपूर्वक पुण्यका उपभोग करने लगी जिससे कि उसका यौवनरूप वृक्ष शीघ्र हो फलदेने के सम्मुख हो निया अर्थात् उसके गर्भ रहा। कापिष्ठतोऽभ्येत्य वभव पुत्रः किलाकंदवः म मुदकसूत्रः । काले तदीयोदग्तोऽम्य भाग्य-वरम्य व चाराध नामभाग्यः ।२४। प्रयं-रश्मिवेग जो कापिष्ट स्वर्ग में जाकर प्रप्रभ देव हुवा था वही इस चक्रायुधके उम वित्रमाला को कूग्व से मय पाकर वज्रायुध नामका प्रसन्नता को बढ़ाने वाला पुत्र हुवा। रामात्र पृथ्वीनिलकाधिषम्य नाम्नाऽतिवेगम्य वगेश्वगम्य । मोदयशाम्बाप्रियकारिणीतिनाम्ना मुकामादिगुणप्रणानिः ।२५। प्रथं—इसी तरह विद्याधरों के मुग्विया प्रौर पृथ्वोतिलक नगर के राजा प्रतिवेग के प्रिय कारिणी नाम को राणी पो जो कि सुन्दरताको शाखाकं समान थी और उत्तम काम पुरुषार्थादि गुणों को खानि थी। थियोधराऽथाटभदेवधाम-गता ननोऽम्याउदरंजगाम । परम्परम्नेहवशेन वाला जन्माभवनाम च गन्नमाला ।।२६।। अयं - श्रीधराका जीव प्रथम स्वर्ग में जाकर देव हुमा था वह वहां से पाकर उस रानी के उदर से राजा पोर रानी के प्रत्यन्त स्नेह की वजह से पुत्रो हुवा जिसका नाम रत्नमाला रक्खा गया। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्यं विहायापि विवाहयोग्या लनेव चैत्र भ्रमरेण भोग्या । म्वरूपनः कौतुकभाजि माऽ नवे वयम्यत्र पदं दधार ।२७। अर्थ-वह लड़को शीघ्र हो बालक पन को उल्लंघन करके विवाह के योग्य होती हुई अपने रूप के द्वारा कौतुक के भण्डार नव यौवन अवस्या को प्राप्त हुई जैसे कि एक लता फूलों के सम्पादक चैत्र के महीने को प्राप्त होती है और भौरे के द्वारा भोग्य बन जाती है। मम म चकाध भूमिपाल -मतेन तम्या उचितज्ञतातः । व त्रायुधाग्यन महोत्सवेन नकार पाणिग्रहणं पिताऽनः ।२८। पर्य ---अतः उसके पिता ने उचित समझ कर चक्रायुध राजा के लड़के वज्रायुध राजकुमार के साथ बड़े ही ठाट से उसका विवाह करा दिया। यशोधगयाम्रिदियं य एवा-न्माऽगाद् द्वयोरेतकयो मुदे वा । म एव रन्नायुध इन्यपापं नाम वजन्नान्मजनामवाप ।२९। मर्थ-यशोधगका जोव जो स्वर्ग गया हुवा था वही प्रा कर इन वज्रायुध और रत्नमाला नाम के दोनों दम्पत्तियों के संयोग से पुत्र पैदा हुवा जो कि मबको प्रसन्न करने वाला हवा और रत्नायुध यह सुन्दर नाम हुवा। पित्रा च पुत्रेण च मादमम्य कालः कियान्व्यत्यचलन्प्रशम्यः । चक्रायुधम्योत्तमपुण्ययोगाम्बीकुर्वतोऽभ्याभवनों मुभोगान ।३० Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-इस प्रकार इस धरातल पर भी पुण्य के योग से पिता और पुत्रादि के साथ २ उत्तम भोगों को भोगते हुये उस चक्रायुध राजकुमार का प्रशंसा योग्य थोड़ा समय बीत चुका था। कदाचिद्यान मलंबभूव तपम्बिना श्रीपिहिनावेण । ऋतूतमेनेव धरानलेऽम्य वमन्ननाम्ना मुमनोहरेण ।३१। प्रर्ष-अब एक दिन उम चक्रायुध क बगीचे में पिहिताश्रय नाम के उत्तम तपस्वी प्रा बिराजे जो कि फलों को स्वीकार करने वाले ऋतुराज बसन्त के समान देवतावों को भी प्यारे लगने वाले थे। ममुद्गमभृङ्गभरापदेशादपानपापीच्चयमम्मिलोपी । यस्मकिलागमवरेण हप-वरंण पुष्पाञ्जलिपिनोऽपि ।३२ । ___प्रयं-उन ऋषिराज के लिये उम भले बगीचे ने भी जब कि वे प्राये तो पुष्पाञ्जलि प्रपंरण को तो उमो समय प्रमन्नता पूर्वक मण्डराते हुये भोरों के बहाने से उम बगीचे के पूर्वोपाजित पाप के अंश भी इधर उधर भागने लगे। लना मता लाम्यमिवापतेनुः ममारिता मञ्जममीरगन । समुच्चलत्पल्लवपाणिलेशमशेप मामोद महाग्येण ।३३। ' प्रयं-प्रसन्नता पूर्वक सभी लतावों पर एक मुगन्ध को लहर निकलने लगी और मन्द २ बहने वाली हवा के द्वारा उनके पत्ते भी हिलने लगे जिससे वे ऐमो जान पड़ती थी मानों अपने हायोंके इशारे से एक प्रकार का मुन्दर नृत्य ही करने लग गई हो। ग्वेरिवान्मकावेदार-भूनेऽनुभूने म मुद्दोऽधिकारः । उद्यान सम्पालककुक्कुटेनाऽपगजिनः कोकडवागना ।३।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयं-जब कि उस बगीचे के रक्षक माली ने जाकर खबर को कि प्रापके बगीचे में प्रात्मध्यानी मुनि महाराज मा बिराजे है तो यह सुनकर चक्रायुध का पिता अपराजित राजा बहुत प्रसन्न हुवा जमे कि कूकडे को आवाज मे मूर्य का उदय जानकर चकवा पक्षी खुश हो जाया करता है। ममेन्य पवादभिवन्द्यपादी जन्माम्बधी यागभूदनादौ परिश्रमः म्बम्प यथाक्रमं तं अन्याऽमुनो निर्विविदे स्विदन्तः ।३५ प्रयं-फिर वहां मे मुनिराज के पास पहुंच कर अपराजित महाराज ने मुनि के चरणों में नमस्कार किया और उनके मुख से जमा कि हम मंमार ममुद्र में अनादि काल से जन्म मरण होता प्राया है वह अपने आप का भी जब उसने सुना तो उसके मन में संसार से वैराग्य हो गया। नतोऽत्र भोगाच्चभवाददामी-भवन्महान्मा मुकनेकशिः । विहाय देहादम्बिलं यदन्यद् दधौ यथाजानपदं स धन्यः ।३६ प्रयं-- इसके बाद संसार के भोग और इस शरीर से भी विरक्त होते हुये उत्तम कर्तव्य के स्थान उस महा पुरुष ने इस प्रपने साथ लगे हुये शरीर के सिवा बाकी की सभी बाह्य वस्तुओं का त्याग कर यथाजात नग्न दिगम्बर वेश को स्वीकार कर लिया एवं मुनि होकर धन्यवाद का पात्र बना । चक्रायधः प्राप्य पितुः पदं म भृमण्डलाशेषनृपावनंमः । दधार दीनोद्धरणंम्वतन्वाऽहन्तं हृदा सत्यवचा भवन्वा ।३७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ प्रपं-इधर पिता के मुनि हो जाने पर चकायुध ने पिता के पद पर राजापन प्राप्त किया जो कि अपने कर्तव्य से शरीर द्वारा दोनों का उद्धार करने वाला प्रौर हाय मे हर समय धो महंन्त भगवान को मरा करने वाला एवं मापवादो होते हुये हम मू मण्डल पर के मनी राजाप्रो का मुखिया ना। दृष्टाप ने शल्यपदानमः शिणात्मने मृक्षणान्मयः । कुष्टान्मने मम्प्रति निम्बकल्पः प्रजाग गजायमभन्मजलपः ।३८ प्रयं-जिमने अपने प्रापको वा में कर सकता था इसलिये दृष्टरियों के लिये वर शल्य के समान हर समय नभने वाला था किन्तु मज्जनों के लिये मकान में भी प्राधा कोमन था एवं उसको प्रजा में जो प्रादमो कोट के गमान बिगान करने वाला होता या उमको निम्ब के प्रयोग के समान गोघ्र हा सुधारकर ठोक कर लिया करता था, हम ताद वह बहुत हो प्रामापात्र बन गया था। वत्रन्चमाया म दर्जनभ्यश्चिन्तामणिन्यं भवि निर्धनभ्यः मभ्या च ड़ामणिनां प्रयान: म्पाटव नम्मिन्नगन्नताऽनः ।३०। प्रय - दुर्गन लोगों के लिये वह वन प्रर्थान होग को कगि का बनकर या मुग्दर ममान होकर दान लोगों को चिन्तामणि ममान मनवांछित देनेवा ना या प्रारमनाक लोगों में बड़ामणि समान मुख्य गिना जाने वाला था इमप्रकार वह सम्मृतः नर रस्न था। नक्षत्रशन्योऽपि मतां वर्गणः नवामिदोऽपि पुनः प्रवीणः अजिह्मवर्गः कलिनाऽयहीनः जहागयत्वातिगती नदीनः ।४।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथं- जो नक्षत्रों से रहित हो वह सत् प्रर्यात् नक्षत्रों का मुखिया नहीं होसकता परन्तु वह क्षत्रियों से रहित नहीं था इसलिये सत्पुरुषों का अगुवा हुवा। जिसके पास कोई भी वावित्र न हो वह भली बोरगावाला कैसे हो सकता है किन्तु वह वादियों में प्रसिद्ध नहीं था, सफलवादी था क्योंकि वह प्रयोग यानो चतुर था। जो सीधे चलनेवालों से युक्त हो वह महोन यानी सपका स्वामी नहीं होता किन्तु वह सरल लोगों से युक्त होकर बहुत बड़ा समझा जा रहा था । जो नदीन यानी समुद्र होता है वह जलाशय प्रर्थात् पानी के सद्भाव से रहित नहीं होता किन्तु वह जड़ाशय श्रर्थात् मूखं नहीं था इसलिये कभी भी दीन नहीं होता था । रक्तः मन्कर्मणि वन्तु पीतः सुजनदृशा हरितोऽपि बलीत: धवल यश सेन्यनेकवर्णः क्षत्रियवर्णे किलावतीर्णः ॥ ४१ ॥ प्रयं-वह हर समय सत्कर्ममें रक्त रहता था, सज्जनों की दृष्टि से पोत था, भले प्रादमी उसकी तरफ देखा हो करते थे, हरितः यानी इन्द्र से भी अधिक बलवाला था और यशके द्वारा बिलकुल ही सफेद था । इसतरह से वह अनेक वर्गका हो कर भी क्षत्रिय वर्ण में पैदा हुवा था । अवलाभिमतो बलवान् समभृद्वहुभूमिपतिः स्वयमेव विभुः सहजेन हि निर्मलवृचिग्यं ममलंचकार धरणीवलयं ॥ ४२ ॥ प्रथं- जो निर्बल लोगोंके द्वारा भी प्रासङ्ग लिया जाय वह बलवान नहीं होता किन्तु वह राजा बहुत हो बलवान था प्रौर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे स्वीकार को हुई हजारों प्रौरतें थी जो सभी खुश रहती थीं। जो भूमिपाल होता है वह भूमि रहित कसे हो सकता है परन्तु वह राजा बहुत बड़ी पृथ्वो का स्वामी होकर भी विभु पा, बड़े बड़े राजामों से मान्य था । जो खुद निमल चेष्टावाला हो वह पौरों को मैला नहीं कर सकता किन्तु वह स्वभाव से निर्मल होकर पृथ्वी को मच्छोतरह अलंकृत करता था। धरातलेऽस्मिन्महिपीभिरश्चितश्चपूर्णरीन्या वृपभावमंश्रितः वभव नार्गच्छित कन्पुमानयं नभोगतत्वातिगतश्च विस्मयः ।४३ प्रयं-वह राजा पूरी तौर से धर्म भावनाको स्वीकार किये हए था और उसके कई पट्टरानियां यों, यद्यपि जो बल हो वह भसा के द्वारा स्वीकृत नहीं हो सकता । पुरुष हो कर नारियों को सी चेष्टा नहीं कर सकता किन्तु वह पुरुष वरियों को सहन नहीं कर पाता था। जो प्रासमान में नहीं चल सकता वह पक्षो नहीं होता किन्तु वह सम्पूर्ण भोगोपभोग का अधिकारी होकर भी किसी प्रकार के घमण्ड को नहीं रखता था। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अथ सप्तम मर्गः रुचिकरे मुखमुद्धग्नथ कदापि स चक्रपुरेश्वरः कमपिमुदीक्ष्य तदामितं समवदयमदूतमिवोदितं ॥ | १ || प्रयं प्रव किसी एक दिन चक्कपुर का राजा वह चक्रायुद्ध बहुत ही चमकीले दर्पण में मुख देख रहा था कि उसे एक सफेद कपने माथे में दीख पड़ा जिसकों कि उसने यमके दूत के समान माया हुवा माना और मीचने लगा कि - ननु जग पृतनायमपतेर्मममममुपाश्चितुमीहते । बगदाहि तदग्रतः शुचिनिशानमुदेति अदो वत || २ || प्रर्थ - श्रहो यमरूप राजा की जरारूप सेना बहुत से रोगरूप मुग्दरों को लिये हुये वह मेरे पास अब प्राना ही चाहती है ताकि उसके पहले उसका यह सफेद केशरूप निशान मेरे सम्मुख उपस्थित है। तरुणिनोपवनं सुमनोहरं दहति यदमनाग्निरतः परं । भवति ममकलेव किलामको पलितनामनया ममृदामको | ३| श्रथं - एक उदासीन प्रादमी के कहने में यह सफेद केश क्या है मानों फूलों से लदे हुये बर्गाचे सखि सुन्दर यौवन को काल रूप श्रग्नि जलाया करती है जिससे पंदा हुई भइम की कला ही है । नववधू किल संकुचनान्मतिर पसरेन्मुखचारिभिषाधृतिः विवलताच्चकटी कुलदेव मा स्खलतु पिच्छलगेव नारमा |४| Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-बुड्ढे प्रादमो को बुद्धि नई व्याही हुई औरत के समान संकुचित रहती है । उसको धोरता लार टपकने के बहाने से बहकर निकल जाती है । व्यभिचारिणी बोके ममान कट वक्र बन जाया करती है, और जोभ कीचड़ में या चिकने स्थानपर चलने वाली को तरह लड़खड़ाने लगती है। न कुकवेरिव यम्य पदोदयःमुऋतद्विगलेदशनाच्चयः तनुमनोजरसेन्यमियंदगालगतिपीडयितु यमगट कमा ।। मर्थ-बुद्धे प्रादमो को जरा के द्वारा ऐपो दमा होजाती है कि-उसको एक पंड भी चलना दुश्वार हो जाता है जैसे कि कुकवि से एक भी शब्द नही बुनना । और उसक दांत पुण्य अंशोंके समान अपने प्राप निकल २ कर गिर जाया करते है तथा यमराज के कोई लगना शुरू होजाते हैं। परिवृतो हरिणा हरिणा यथा जगति देह वगेऽन्तकतम्नथा । कविरेण मृणाल निभा भवन्नपि वलीति यदद धिगिमंन । ६ अर्थ--- प्रारच तो यह है कि दुनिया में मिहक द्वारा पक रे हये हिरण की भांति यह ागरयाग काल : नया जाता है जमे कि यमन के नाल को हा मज में चा जाता है, फिर भी यह संसारी जीव अपने प्राप का बहादर कहता रहे तो इसके इस कहने को प्रकार है। अपि भुवः सकलानि तणान्यदन्ननुपयोगियर्गरम्पाददन । अनुभवन्वलिदायिनमन्तक पग्विददिह कोऽयमजं वकं ।। प्रयं-जिस प्रकार भूनल के तमाम घाम को ग्वा डालने पाला और किसी भी काम में न प्रानवाने शरीर को धारण करने Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला एवं अन्त में निर्दयता के साथ बलि होजाने वाला बकरिया अपने माप को प्रज (प्रमर ) समझता है उसी प्रकार स्वार्थ में पड़कर दुनियां को बरबाद करनेवाला एवं सहज में कालके गाल में चला जानेवाला यह संसारी जोव है इसके सिवा और कौन ऐसा मूर्ख हो सकता है ? अपमरेद्यमलुब्धकहम्नतः न नृशरीरमिदं च गनम्नतः । अनिनिगृटपदं म पुनः कुनश्चतुरशीतिकलाभवेष्वतः ।८। ___प्रथ-चौरासी लाख योनियों में जिसके रहस्य को कोई नहीं पा सकता ऐसो छुपी हुई अवस्थावाले इस नर शरीर को पाकर भी यह संसारी प्रारगोरूप बकरिया प्रगर कालरूर बहेलिये के हाथ से बचता हुवा न रह सका तो फिर कहां बचेगा ? भवति हन्त हती विषयाशयाऽत्र च वहिर्गतवन्तुनि अन्वयात् इनरथा तु नदीयकरार्पण-परिचयोऽपि भवेद्विकलक्षणः ।९ । प्रयं-परन्तु इस मनुष्य शरीर को पाकर भी यह मूर्ख संसारी प्राणी निचला नहीं रहता अपितु यह विषयों में फंसकर बहिर्गत होता है, अपने प्रापको मूल जाता है, मगर ऐसा न हो तो फिर यमराज का वार इसपर बिलकुल न हो पावे, बाल बाल बचा रहे। जयतु शूर इनः म्मरमायकं यमममुं खलु संमृनिनायकं । किमपरंगधिकाधिककातविषयतापममुन्थवृषातुरः ।।१०।। - इतर पदार्थों को चाह करना उसी का नाम काम है पोर यह काम हो जिसका प्रपूर्व वारण है उस संसतिके स्वामी यम Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज को जीतनेवाला हो वस्तुतः शूरवीर है और ये सब प्राणो तो विचारे विषयों के सन्ताप से जलते हुये होकर तृषा के सताये हुये एक से एक अधिक कायर हैं, जीत लिये गये हुये ही हैं, इनका क्या जोतना ? यमनुमारिवरेण ममर्पिता तनपुरीमनुमन्य वृथा हि नां । अधिगतम्तदलङ्का मतिमनग्मान्मगगदकमन्नति ।।११।। अर्थ-मै मेरो भूल से प्राज तक इस शरीररूप नगरी को जिसमें कि मैं यम नाम के वरी द्वारा कंव किया हया पड़ा हूँ, मेरो समझ कर इसे ही रात दिन सजाने में लगा रहा और इसके लिये अनेक तरह के प्रनर्थ करता रहा। परिजनेषु अमुष्य हि पक्षिषु मम च पुण्यफलोदयभलिए । परिधृतापि मया ग्वनु बन्धना भवनि किन्तु कुतोऽपि मनिष ना। १२ अर्थ-जिनको परिजन कहा जाता है वे भी सब इसी के पक्षी है मेरे पुण्य फल को भक्षण करने वाले हैं, हम शरीर के सायो हैं, जिनको कि मैने मेरे बन्धु हिनंषी मान रखा है, देखो कि भला मेरो बुद्धि न जाने कहां चली गई, मैं पागल होगया। पुरिपरीतमुपेत्य निजाचिनं परिका परमत्र ममंहितं । दृढ़हदा विनिपातयितु यनेग्मिपि नं मम मालमनाधृतेः ।१३ अर्थ-प्रब मैं उसी को दो हुई इस नगरी में बैठे २ मेरे योग्य परिकर को इकट्ठा कर लू और फिर दृढ़ता के साथ उसको भी ऐसो पछाड़ लगाऊं कि वह भी याद रबखे तभी मेरो होशियारी है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रमवशाइववन्मनि मन्युमाँश्वविषयानुपयम्य विपोपमान | ममगमं परितापनिमित्ननामिह निजात्मन एवं मनिहना ।१४ प्रयं-मैं एक समयं पुरुष होकर भी इस जन्म मरणरूप चक्कर में प्राकर मैने विष के ममान इन विषयों को अपना लिया इमलिये मेरी बुद्धि मारी गई और भ्रम के वश में होकर के मैं अपने प्रापके लिये परिलापका कारण बन गया। नाह कगम्यहमतदिहाग्रतः विपभिपग ध्रियतां ग महानत: यदिता गदनः प्रविनश्यतु झगिनि पूर्व कृतं ममकम्य तु ।१५ प्रधव में समझ गया, प्रगाड़ो के लिये तो मैं ऐसा नहीं क.गा पर मेरा पहले का किया भी तो नष्ट होना चाहिये कि नहीं। इसके लिय में किसी बड़े भारी विष वंद्य को चलकर प्राप्त होऊ जिनकी कि कही हुई दवा से मेरा वह विष भी तो दूर हो ताकि में स्वस्थ हो जाऊं। भवतु मेऽपिल दहिपु तुल्यता गुणिजनप पुनर्वहुमन्यता । प्रतिविधायपु मौनमितम्नना दतियोगिषु चेनम आई ता ।१६ प्रथं -जिम कि अनुशीलन से मेरी प्राणीमात्र में समान बुद्धि हो जाये, सब को में मेरे मित्र समझने लग जाऊं, हो मेरे से जो मधिक गुणवान हों उनमें मेरा प्रादर भाव जरूर रहे ताकि प्रागे बढ़ने की चेष्टा करता रहूं, जो लोग पिछड़े हुये हों पाप के योग से भूल रहे हों उनके प्रति मेरा करुणाभाव बना रहे उन्हें मै प्रोत्साहन देकर उन्नति के मार्ग पर लगने में सहायक बनू और जो लोग मेरा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा न माने उनके प्रति कुछ भी न कहकर मैं मौन धारण कर लू, मेरा काम करता है। विनतिग्स्तु मने परमहनेऽपि मम भो कामंतवई ! ते । वपुष एवमिहाकलितात्मने प्रधतकमकलकहराधन ।१७ प्रयं--- उन मजननों के शिरोमरिग भगवान महन्त देव के लिये मेर। नमाकार हो, और हे मयूरपिनिका के रखने वाले सायो! मापके लिये भी मेग नमस्कार हो जिन्होंने कि प्रात्मा को हम शरीर से भिन्न ममझ लिया है और उसे दूर हटाने के लिये सम्पूर्ण कम कलहों को नाश करने का मार्ग पकड़ लिया है। म्वमिति सम्बदनोऽङ्गमिदंगलनद नवन्धि च बन्धनया दलं । किमु वदानि जनम्य विमोहिनः म जयनादधुना भगवाजिनः ।१८ प्रषं मड़ने और गलनेवाले इस शरीर को हो जो प्रात्मा मान रहा है और उमो माय नाता जोड़ने वाले जन समूह को जो अपना बन्धु समझ रहा है, उम मोही प्रादमी के बारे में तो मुझे कहना हो क्या है, मैं ता प्रब उन जिन भगवान को हो पाव करता हूं, वे जयवन्त रहे, जिन्होंने कि अपने इन्द्रिय प्रोर मन को वश में कर लिया। यदिह पीद्गलिकं सगमाक्षिकं तदनुकतु ममुष्य किलाक्षिकं । लगनि नेन गनिः पुनर्गदृशी जगनि किन जनो भानावशी ।१० प्रयं-इम संमार में पुद्गल के मम्बन्ध मे होने वाले और भरण भर में नष्ट हो जाने वाले बनावटी मुख को प्राप्त करने के Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ लिये ही इस प्रारणी की दृष्टि दौड़ा करती है इसीलिये इसकी ऐसी दशा हो रही है कि उसको छोड़कर प्रौर को, फिर उसे भी छोड़कर किसी और को ग्रहण किया करता है, अगर यह अपनी इन इन्द्रियों को वश में करले तो फिर इसका सब सङ्कट दूर हो जावे । अमिरिवातिशयादमिकोपनः पृथगयं भगवान्वपुषोऽमतः । न नयनेन नयेन तु पश्यतः स्फुरति चिचवतः पुरतः सतः | २० अर्थ- जैसे कि म्यान से खड्ग भिन्न होता है वैसे ही इस प्रशुचि शरीर से यह भगवान प्रात्मा बिलकुल पृथक् है, जो कि इन चमं चक्षुवों से नहीं दीख पड़ता किन्तु विचार कर देखने से एक विचारशील प्रादमी के सामने में स्पष्ट झलकने लगता है । परिमग्न्तमम् परिमारयेत् परिकरं परमात्मकमानयेत् । हृदि यदि क्षणमेकमयं यदा जगति अम्य भवेत् कुत आपदा | २१ प्रथं- - अगर इस नष्ट होनेवाले पौद्गलिक बाहिरी ठाट भुलाकर अपने प्रन्तरङ्ग में एक क्षरण के लिये भी यह मनुष्य पनामा के प्रानन्द को प्रनुभव करले तो फिर इसे यह संसार को प्रापत्ति न सतावे । को परमभावममञ्चितमम्पदा परमभाववशं कलयन् हृदा । पृथुतुजेऽन्यसृजन्निजवैभवं प्रतिविधातुमुदीय सर्वैभवं । २२ प्रयं - इस प्रकार परमशुद्ध पारिणामिक भाव का विचार करते हुये प्रपने हृदय से इतर सभी इन बाहिरी वस्तुवों को विनाशोक मानकर उसने अपने लड़के को बुलाया और अपना बहुत बड़ा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ राज्य उसको सोंपकर प्रब वह प्राप संसार का प्रभाव करने के लिये उठ खड़ा हुवा । वणिगिवार्जयितु ं म नवं वनं गज इव प्रपत्रँश्च न बन्धनः । सदनतः प्रचचाल वनं प्रति भवितुमत्र तु पूर्णतया यतिः । २३ अर्थ - इसके बाद वह बिना बन्धन के हाथी की तरह स्वतन्त्र होकर फिर नवीन धन को कमाने की प्रमिलाबावाले बनिये की भांति वह अपने घर से पूर्ण तौर पर पनि बनने के लिये सोधा वनके सम्मुख चल पड़ा । इति तमोऽपगमात् म इतो वनं झगिति कोक इवाय तपोधनं । पितरमेव गुरुं च विन्दः प्रथममङ्गभृतामभिनन्दिषु |२४| प्रयं - इस प्रकार प्रज्ञान के नाश हो जाने से गुरुदेव को वन्दना करने की इच्छा वाला वह चक्रायुध वन में जाकर परम तपस्वी प्रपने ही पिता श्री प्रपराजित नाम मुनिराज को प्राप्त हुवा, जो कि मुनि महाराज दुनिया के लोगों को प्रसन्न करनेवालों में सबसे मुख्य गिने जाते थे। उस समय ऐसा जान पड़ना था कि जैसे रात्रि का अन्धकार हट जाने पर चकवा पक्षी ही तेजके धारक सूर्य को प्राप्त हुआ। निधिमिवाविन कदथितः जलमुचं खलु वहममर्थितः । विधुमवेक्ष्य चकोर इवान्वितः समभवन्म तदा पुलकाञ्चितः । २५ प्रथं उस समय वह उन्हें देखकर ऐसा राजी हुआ कि रोमाञ्चों के मारे फूल गया, जैसे कि किसी धन के बिना दुःखी होने वाले Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्रादमी को घन का खजना मिल गया हो, प्रथवा मयूर को मेघ दीख पड़ा हो, किंवा चकोर ने चन्द्रमा को पा लिया हो । ननु नमोऽविति वारिपुरस्पर मनुनिजं खलु विल्वफलं शिरः । सुललितं मनः कुसुमंदधदपि ययौ सुकृतैकतरोग्धः ||२६|| प्रथं जो मुनि महाराज प्रति उत्तम पुण्य के वृक्ष थे, प्रत: उसने उनके प्रागे जल सोंचने का सा काम करते हुये नमोऽस्तु इस प्रकार शब्द बोला, पोर घपने महा मनोहर मनरूप फूल को भी उनके चरणों में लगाया तथा वहीं पर बोलफल सरीखे अपना सिर भी घर दिया एवं मन वचन और काय से उन को बम्बना करके उनके प्रागे बैठ गया । भवसि भव्यपयोरुहवल्लभस्त्वमसि सूर्य इवान्वितसत्सभः । जगति शावरचेष्टितदूरग इतिविधावपि शात्रवपूरगः । २७। -- अर्थ- प्रौर इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगा कि हे महाराज प्राप भव्य कमलों के प्यारे हो, तारावों के समान निर्मल चेष्टा वाले सज्जनों की परम्परा प्रापके पीछे २ लगी ही रहती है इसलिये सूर्य के समान हो, सूर्य जिस प्रकार रात्रि के अन्धकार को मेट देता है वंसे ही प्राप भी जवान औरतों के द्वारा फैलाई हुई कामचेष्टा के फन्दे से बिलकुल परे हो और सूर्य जैसे चन्द्रमा का बंरी होता है, आप भी कर्मों के विरोधी हो । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C सुभगकोक विपचिकरत्वतः कुवलयस्य विकाशपरत्वतः अमृतगुश्च कलोदयवत्वत स्त्वमसि माय मनुस्थितिभृत्त्वतः ।२८ प्रयं-हे स्वामिन् ! अमृत के समान वचनों के बोलनेवाले और अनेक कला ऋद्धि योंके धारक होने से चन्द्रमा भी प्राप हो हो, चन्द्रमा सन्ध्याके समय प्रगट होता है तो पाप पुण्य को लिये हए हो, चन्द्रमा चक्वों को प्रापत्ति करनेवाला होता है मगर प्राप निर्मल प्रात्मा हो इसलिये पापके विध्वंश करनेवाले हो, चन्द्रमा रात्रि विकाशो कमलों को, किन्तु पाप तो समस्त भूमण्डल को हो प्रसन्न करनेवाले हो। मुचलनोऽपि भवानचलम्थितिचिननिष्कपटोऽपि दिगम्बरः । परिवृतः क्षमयाप्यपरिग्रहः ममम्मङ्गमितोऽप्यभयंकरः ।।२९।। अर्थ-हे भगवन् ! प्राप भले चलन के चलने वाले हैं किन्तु अपनी बात पर पर्वत की तरह प्रटल रहनेवाले हैं। प्राप यद्यपि सिर्फ विशारूप कपड़ों के धारक दिगम्बर है, फिर भी प्राप मुनिएकपट हैं, बेशकीमती कपड़ों के धारक जैसे प्रतीत होते हैं क्योंकि बिलकुल सरल चित्त हैं । प्राप परिग्रह रहित है, कुछ भी प्रापके पास नहीं है, फिर भी प्राप को लोग क्षमा (सहिष्णुना अथवा भूमि) से युक्त बताते हैं। जो समर सङ्गमित प्रर्यात युद्ध करनेवाला होता है वह भयङ्कर होता है किन्तु प्राप समरस को प्राप्त होकर भी शान्त हो। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ मत्र निस्तरणाय तवक्रम-समुदयः खलु पोत इवोचमः वचनमस्त्वमृतं मुखचन्द्रतः किमपि तृप्तिकरं भगवन्नतः । ३० । होने के लिये आपके अर्थ- हे प्रभो ! संसार समुद्रसे पार चरणों का समागम जहाज सरीखा उत्तम है, प्रत: हे नाथ प्रापके मुखरूप चन्द्रमा का वचनरूप प्रमृत भी बरसना चाहिये जिससे मुझ सरीखे को तृप्ति हो सके, सारांश यह कि धर्मोपदेश दीजिये । जन्म वा मरणं वेदं कि निवन्धनमात्मनः कुनश्च विनिवर्तेतेति शुश्रूपुरहं प्रभो ! ।। ३१ ।। प्रयं हे प्रभो ! मैं प्राप से यह सुनना चाहता हूँ कि इस ग्रात्माको जन्म प्रोर मररण तो क्यों करना पड़ता है, और उनसे यह किस तरह छूट सकता है । चराचरमिदं सर्वं स्वस्तेि ज्ञानदर्पणे । प्रतिविम्वितमस्तीति श्रधाति न कः पुमान् । ३२ । प्रथं हे स्वामिन् इस बातको तो कौन नहीं मानता कि श्राप के ज्ञानरूप दर्पण में ये चर और प्रचर सभी तरह की चीजें साफ २ झलक रही है । युष्मत्पदप्रयोगेण सम्भवेदुत्तमः पुमान् । मादेशो भवतामस्ति न परप्रत्यवायकृत् ॥ ३३॥ प्रयं - लौकिक में तो युष्मत् पद का प्रयोग मध्यम पुरुष के लिये होता है और मावेश होता है वह अपने से पहले वाले को दूर Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हटाकर हुवा करता है किन्तु प्रापके चरणों का समागम पाकर मनुष्य उत्तम होजाया करता है एवं पापका अनुशासन किसी का भी बिगाड़ नहीं करता। इत्युक्त वनिपालेन वाञ्छनाभ्यनुशामनं । क्षमाभृतो मुनेन्कान् प्रतिध्वनिग्यिानभन ।।३४।। पर्ण-इस प्रकार अनुशासन चाहनेवाले भूपालने जब कहा तो पर्वत के समान निश्चल क्षमाशील धीमुनिराज के गह से इसप्रकार प्रतिध्वनि होने लगी। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अथ अष्टम सर्गः महोदयेनोदितमहना तु वदामि तद्वच्छणु भव्य जातु । यदम्निजानेमरणम्य तन्वं यथा निवर्नेन नयोश्च मन्वं ।।१।। अर्थ-हे भव्य ! इस जीव को जिम कारण से जन्म प्रोर मररण करना पड़ रहा है और जिस उपाय से वह दूर हो सकता है' इस बात को दिव्य ज्ञान के धारक प्रहन्त भगवान् ने बहुत अच्छी तरह बतलाया है, उसो के अनुसार मैं तुझे कुछ थोड़ासा बता जीवोऽप्यजीवश्चम्तथापदार्थ: स्यात् पञ्चधाऽजीवडगानिहार्थः धोऽप्यधर्मः ममयो नमश्च स्यात् पञ्चमः पुट्ठलनामकश्च ।२। प्रय-भगवान्ने मूल में दो तरह की चीज बतलाई है, मूल में एक तो जीव और दूसरी प्रजोव, उसमें से प्रजीव के पांच मेव हो जाते हैं, धर्म १ अधर्म २ काल ३ प्राकाश ४ और पुद्गल ५। नभन्तु रङ्गम्थलमस्तिकालः श्रीमानयंक्लूप्तिकलारसाल: अधर्मनामा यवनिविभातु धर्मोऽत्रकर्मप्रकगेऽथवा तु ।।३।। प्रयं-उनमें से प्राकाश द्रव्य तो रङ्गभूमि का काम करता है, और कालद्रव्य नाना प्रकार की चेष्टा करानेवाला है, अधर्म Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्य पड़ने का काम करते हुये ठहरा देने वाला है तो धर्मण्य पुनः किया शुरु करने वाला है। जीवः पुनः पुद्गल एतदीग-द्वयेन नाटय कियने म्वकीयं । रूपं परावृत्य परम्परप्य मंयोगतो भी जगदेकशम्य ! ।।४।। मर्थ-जीव और पुद्गल ये दोनों प्रापममें मिलकर एक दूसरे के रूपको बदल कर स्वांग भर करके नाटक मेलने वाले हैं उसोका नाम जगत या संसार है, ऐमा हे सज्जन तुझे समझना चाहिये । निशा मुधा कुंकुमनां प्रयातः सृष्टिग्नधेयं निट निद्विधानः । नृ नारका मयं पापकाग मायने कतिपनवदिवाग ।।५।। ___अर्थ-जिम प्रकार हलदो पौर चना दोनों मिलकर गेली एक तोमरी चीज बन जाती है वमे हो नन जीव प्रौर प्रचेतन पुद्गल ये दोनों मिलकर मष्टि को उत्पन्न करते हैं, इन दोनों को बनावटी चेष्टा को पाकर मनुष्य नारको देव प्रौर पर इस तरह चार भेदवाली मष्टि बनी हुई है। गुणोऽस्ति जीवम्य किलोपयोगननाप्य जीवन ममं च योगः । नतो हि मंमार इयानिहाम्ति वियोग बास्त शिवाभ्यपास्तिः । ६ प्रयं---इस जीव में उपयोग नामका गुण है और वह पूरण गलन स्वभाव वाले पृद्गन नाम के प्रजोत्र के माथ में सम्बन्ध प्राप्त किये हुये है इमो मे जन्म मगरूप मंमार बना दवा है, प्रतः जो प्रादमी इमे नहीं चाहना उमे चाहिये कि वह वियोग को प्रर्थात् संबंध विच्छेद को स्वीकार करे जिसमे कि इसका भला हो । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्माग्न्ययापहलमङ्गिनानमङ्गीतिजीवंतदिगभ्युपा । मुवर्णपाषाणबदम्न्यनादिन्धिोऽनयोः सर्व विदेत्यवादि ।७ प्रयं-कर्मों से युक्त जीवका नाम प्रङ्गी और उस प्रङ्गी के द्वारा प्राप्त किये हुये पुदलों का ही नाम कम है एवं स्वर्णपाषाण में जिम प्रकार मुवरणं प्रार कोटका सम्बन्ध प्रनादि प्रकृत्रिम होता है. वंमा हो इनका भी है, ऐसा सर्वज भगवान ने बतलाया है । हन्यकमनम्य गुणं तु घाति नदङ्गमावान परमम्न्यघाति । नयाश्चतुधावादारयन्ति जिना जगत्यत्र नमां जयन्ति ।८ प्रथं-जिन भगवान ने इस संसार में होने वाले उन कर्मों को अच्छी तरह जीत लिया है, उन्हीं जिन भगवान ने उन कर्मों को मूल में दो भागों में विभक्त कर बनलाया है, एक तो घाति दूसरा प्रघाति । जो प्रात्मा के अनुजीवि गुण का घात करने वाला हो वह घातिक मं, परन्तु प्रात्मा के किसी स्पष्ट गुरग का घात न कर सिर्फ उस घातिका अङ्गभूत होते हुये प्रात्मा के प्रतिजीवि गुण को हरता हो वह प्रघातिकम कहलाता है । फिर वे दोनों ही कर्म चार चार तरह के होते हैं जैसेहन्ति क्रमाज्ज्ञानशे च शक्तिमतम्य कुच्चि मदोपरति । चतुर्थ माभाति महाप्रभावमतोऽयमन्यत्र तकभावः । प्रथं- उनमें से घातिकम के तो ज्ञानावरण १, दर्शनावरण २, अन्तरराय ३ प्रौर मोहनीय ४, ये चार भेद होते हैं । जो ज्ञान को न होने दे उसे ज्ञानावरण, जो दर्शन न होने दे उसे वशंनावरण, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो शक्ति को गेके उमे अन्तराय प्रौर जो इस प्रारमा प्रात्मत्व को बिगाड़ने वाला हो, और से और कर देनेवाला हो उसे मोहनीय कम कहते हैं । यह चौथा मोहनीय कम बड़ा प्रभावशाली है जिमसे कि यह प्रास्मा अपने प्रापको भूलकर अन्य में अपनापन मानने लग रहा है। यदच्चनीनप्रतिपनये तु मौल्यम्य दाम्यम्य परन्तु हेतुः । तृतीयमङ्गादिगमागमाय तुरीयमङ्ग रम्य निरोधनाय ।१०। अर्थ-प्रघाति कर्मों में से पाला इम प्रात्मा को ऊंचा या नोचा कहलवाता है उसे गोत्रकम करते हैं. दूसरा वेदनीय कम है जो इसके साथ इसको भनी लगने वाली और वग लगने वाली चीजों का सम्पर्क करा देता है । तोमरा नाममो जो शरीर या उसके प्रङ्गोपाङ्ग वगेरह बनाने में सहायता करता है। चौथा प्रायुकम इस प्रास्मा को प्रोदारिकादि शोर में रोक रहता है। वपुष्यहंकार उदति मोह माहात्म्यतोऽना मिहनयोहः । नद्धानिकतपोपकयोः मुधामापरिग्रहान्यो ममकारनामा ।११ अर्थ- उग्युक्त घातिकमों में जो मोह नामका कम है, जिस के प्रभाव से इस प्रात्मा को एक तो दम दागेर म प्रहकार उत्पन्न होता है जिससे कि यह जीव इम शरीर को ही प्रात्मा समझने लग रहा है। इसी को मिथ्यात्व नाम का परिग्रह या अन्तरङ्ग परिग्रह कहते हैं । दूमग ममकार नामक परिग्रह होता है, जो कि इस शरीर के बिगाड़ने वाली चीजों में बैर भाव कराते हुये इस को पोषक चीजों के साथ मित्र भावरूप परिणाम कराता रहता है, यह Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य परिग्रह चरित्रमोह नाम से कहलाता है। यह परिग्रह भाव हो इस प्रात्मा के साथ लगा हुवा बड़ा भारी जोरदार है। अतो भवेन्नतनकर्मबन्धः यम्योदये मन्मधुनोऽयमन्धः । कगति दप्कम ततः कुयुद्धिमदेति यावन्न ममेति शुद्धिं ।१२ प्रथ-- उस उपयुक्त प्रहङ्कार और ममकाररूप परिग्रह परिणाम के द्वारा ही इस पात्मा के साथ प्रागे के लिये नवीन कर्मो का बन्ध होता रहता है और जब उन कर्मों का उदय होता है उस समय यह प्रात्मा विचार होन अन्धा बन जाता है जिससे कि अनेक तरह के कुकर्म करने के लिये उतारू होता है, और उससे इस की बुद्धि और भो दागे के लिये विकृत होती है, इस तरह से सन्तान दरसन्तान चली जाया करती है जब तक कि यह प्रात्मा पूर्णरीति से शुद्धि को प्राप्त नहीं कर लेता। अचेतनं कर्म च जीयबद्धं फलप्रदानाय ममम्तु नद्धं । कथं न भुक्ताशनवद्विवेकिन्यतोऽयमंगी जगतीनलेऽकी ।।१३।। प्रथ-हे बुद्धिमान ! यहां पर एक शङ्का जरूर हो सकती है कि यह जीव जिम कर्म को बांधता है, उपार्जन करता है वह तो स्वयं प्रचेतन है, जड़ है, वह अपने पाप इस जीव को अपना फल कैसे दे सकता है, परन्तु जगना विचार करने पर ही वह हल हो जाता है। देखो कि हम लोग जसा कुछ भोजन करते हैं उसका ठीक समय पर परिपाक होना शुरू होकर नियत काल तक उसका वैसा ही असर हम लोगों के लिये होता है, जैसी ताव मन्द या मध्यम जठराग्नि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है उसी मात्रामें वह ग्रहण करके पकाती है और रस रक्तादि रूप यथोचित रीति से विभक्त होकर वह हम लोगों को वैसा हो अपना फल दिखाता है । बस इसी प्रकार जिस तीव्र मन्द या मध्यम कषायभाव से यह जोव कम वर्गणा समूह का ग्रहण करता है यह यथोचित ज्ञानावरगादि के रूपमें विभक्त होकरके वैसा ही अपना प्रभाव इस प्रात्मा पर डालता है जिसमे कि यह संसारी जीव दुःग्यो होता है। यदेकदावद्धमनककाले प्रतिक्षणं तावदेति चाले । यावनिम्थतीत्थं बदकालभावि कमकका ने पि भवेत्यमावि ।१४। प्रथ-हे मित्र ! एक बात और जान लेना चाहिये कि भोजन के समान एक बार का ग्रहण किया हुवा कम स्कन्ध भी जब तक कि उसका स्थिति काल होता है प्रतिक्षग्ग बदत काल तक उदय में प्राया करता है एवं बार २ यह जीव कम ग्रहण करता रहता है, प्रतः प्रनेक समय का ग्रहण किया हुवा कम पिण्ड भी मिलकर एक समय में इस जीव को फलप्रद होता है। मत्तागते कर्मणि बुद्धिनावाऽपकप गोकपणमंक्रमा वा । भवन्ति नस्मादिह नीवमन्द-दगाऽपि भ्यान्मुगुणककन्द ! ।१५। प्रयं-हे गुणों के भण्डार ! यह भी याद रखो कि किसीने गुस्से में प्राकर विष वाया और बाद में उसका विचार बदल गया तो झट से उसके प्रतिकार की दवा खाकर उसके प्रसर को न कुछ सरीखा बहुत ही कम कर सकता है, प्रत्युत गुस्से में भर जाय Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो दुगुना विष खाकर उसे जोरदार भी बना सकता है या मन्त्रित जलादि पी कर उसे जहर के बदले अमृतमय भी कर सकता है, इसी प्रकार कर्मों का भी हाल है, मान लो एक आदमी ने कुटिल परिणाम करके पाप बन्ध किया परन्तु अनन्तर ही परिणाम ठोक हो गये तो पश्चात्तापादि करके उसके असर को कम कर सकता है, और प्रगर उसो कुटिलता का समर्थन करता रहा तो उसे और भी जोरदार कर सकता है एवं प्रगर प्रायश्चित करके उसके ऊपर जम जाय तो उसे पुण्य के रूप में भी बदल सकता है। कम प्रसर कर देने का नाम प्रकर्षग, बढ़ा देने का नाम उत्कर्षण एवं प्रौर का मोर कर डालने का नाम संक्रमण है, जीव के बान्धे हुये सत्तागत कम में ये सब दशाय परिणामों के अनुमार होती रहती हैं जिससे कि कोका कभी तीव्र और कभी मन्द भी उदय होता है। यथोदयं विक्रियते च भावनेनाग्रतो बन्धमुपैति तावत् । एवं क्रमे मान्यमिते च कम-ण्यात्मा प्रयन्नन लमेन शर्म ।।१६।। अर्थ-इस प्रकार कर्मोके उदयका हिसाब है, उसमें जब कि कोका तीव्र उदय होता है तब तो नदी के वेग में पड़े हये को भांति विवश होकर प्रधोर होने से इस प्रात्मा से कुछ भी प्रयत्न अपने भले का नहीं हो पाता किन्तु जब मन्द उदय होता है उस समय प्रगर यह चाहे तो प्रयत्न कर सकता है और उससे पार होकर सुख का भागो बन सकता है। उदीय कर्मानुदयप्रणाशाचदग्रतोपन्धविधेः ममामात् । यथोचरं हीनतयानुभावाद जन्ममृत्योरयमीक्षिता वा ।।१७।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ तो कर्म को उदय में लाकर प्रथं कर्मों का परिपाक भी दो तरह से होता है, एक समयानुसार कर्म प्राकर अपना फल देता है उसे तो उदय कहते हैं. दूसरा - कर्म को जबरन उदयमें लाकर उसका फल भोगा जाता है उसका नाम उदीरणा है। एवं बलात् तथा कर्मोदय के अनुसार अपने उपयोग को न बिगाड़ते हुये हैं। उस कर्म के फल को भोग डालना सो उदया भाव क्षय कहलाता है, ऐसा करने से धागे के लिये बन्ध बहुत कम होता है, उसमें फल देने की शक्ति उत्तरोत्तर कम होती रहती है एवं प्रन्तमें बिलकुल कर्मोका प्रभाग होकर यह जीव जन्म मरण से रहित हो जाता है जो कि इस प्रात्मा के प्रयत्न का फल है । योगं क्रमात् सम्विलयन्नथोप-योग पुननिर्मलयन्नकोपः । भवेदुहासीनगुणोऽयमत्र स एव यत्नः फलता पर || १८ || अर्थ:-संसार की भली और बुरी चीजों को मनी बुरी मान कर उनमें राग और द्वेष न करें, अपने विचार में मध्यस्थ होकर उदासीन बना रहे एवं अपने मन वचन श्रोर काय की चेष्टा को कमसे कम करते हुये तथा अपने उपयोग को भी निर्मल से निर्मल बनाते हुये उत्तरोत्तर कपायों से रहित होता चला जाये इमीका नाम प्रयत्न करना है, सो यही इस प्रात्मा को सफल बनाने वाला होता है। सत्योदनेऽभ्येति च मुक्तये म निमित्तनैमित्तिक योग एपः । क्षुधातुरः किन्तु वती न याति तथैव देवाय नरतिज्ञातिः । १९ अर्थ - भात बनकर इधर तैयार हुवा कि खाने वाला उसे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ खाने लगता है, भात उसे कहता नहीं कि तू मुझे खा ले परन्तु ऐसा हो निमित्त नमित्तिक सम्बन्ध है, हां जो व्रती होता है, जिसने कि भोजन का त्याग कर दिया है और जो अपने संकल्पका दृढ़ है, वह भोजन होने पर भी और भूग्व होने पर भी भोजनके लिये प्रवृत्त नहीं होता, अपने उपयोग को नहीं बिगाड़ता। बस तो कर्मोंका भी संसारी प्रात्मा के प्रति ऐसा हो हिसाव है, कर्म का उदय होता है और मनचला अधोर जोव उसके अनुसार होकर स्वयं वंसी चेष्टा करने लगता है, हां, जो दृढ़ मनवाला होता है वह उसे धीरता से सहन कर जाता है, तटस्थ रह कर निराकुल होता है । यही प्रयत्न का अर्थ है। यत्नाय धात्रीवलये नृपालः ! समम्ति तेऽयं खलु योग्यकालः । निजीयकर्नव्यपर्थ मजन्तः मंसिद्धयकालमुपन्ति मन्तः ।२० अर्थ-इस धरातल पर होने वाले सज्जन लोग अपने कर्तव्य पथ पर प्रारूढ़ रहकर उस प्रयत्न को सफलता के लिये काल को भी प्रतीक्षा किया करते हैं, जिसका कि निमित्त पाकर वे लोग सहज सफल बन जाया करते हैं, परन्तु हे राजन् ! तुम्हारे लिये यह समय बहुत ठीक है। शरीरमेवाहमियान्विचारोऽशुभोपयोगो जगदेककागः । प्रतीयतेऽयं वहिगमनम्तु यथार्थतो यद्विपरीतवस्तु ।२१ अर्थ यह शरीर है सो हो मैं हूं. इससे भिन्न मैं कोई चीज नहीं हूं, इस प्रकार के विचार का नाम प्रशुभोपयोग है, इसका Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकारी वास्तविकता मे दूर रहने वाला प्रतएव संमार का बढ़ाने पाला बहिराम नाम का जोव होता है । ममम्ति देहान्मविवेकम्पः भोपयोगी गुणधर्मकृपः किलान्तगन्माऽयमनन भाति परीतममारममुद्रतातिः ।। २२ । प्रपं- शरीर से प्रात्माको भिन्न मानते हुये विवेकरूप विचार होने का नाम भोपयोग है. इम शुभोपयोग मे पात्मा गुणवान पोर धर्मात्मा बन जाता है तथा अन्तरात्मा कहलाने लगता है जिममे कि यह मंमार ममुद्र, घट कर सिर्फ उना मा हो लेता है जितना कि एक चतुका पानी। आत्मानमंगात पृथगव का दादीपयोगी रिता बहतु : महात्मनः सम्भवतीत्यनः म्याद भमण्डले पयतया समस्या । २३ प्रय-फिर वही प्रतगत्मा प्रपनी मामा को हम शरीरसे बिलाल पृथक करने के लिये वेशावान होता है ता रागद्वेषादि कषायों को दबाने वा नष्ट करने लगता है, जिपको कि प्रागम भाषा मे उपशमग्गि या पकगि कहते है.. वहां प्रामाका जो विचार भाव होता है उसे दोपयोग करने है, प्रोर महाप्रयोगका धारक महा माहम धरातल पर होने वाले मनी मभ्य पुत्रों में पूज्य होता है । मासान मकन म मनांप्रमोग-प्रकारकः म्यान परमोपयोगः यदाश्रयः श्रीपरमात्मनामा निहाप पंच म पृणधामा ।।२४। प्रपं- एक माथ माक्षात रूपमे मम्पूर्ण पदार्थों को विषय करनेवाला परमापयोग होता है, इस परमोपयोग को प्राप्त होने वाला प्रारमा परमात्मा कहलाता है । पूर्वोक्त प्रकार शुद्धोप Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ योग को प्राप्त होते हुये महात्मा बनकर क्रमसे अपने रागादि दोषों का नाशकर तदनन्तर प्रामगत प्रावरण को भी पूर्णतया हटाकर वह रात्रिके अन्धकार से रहित एवं उदय को प्राप्त होनेवाले पूर्ण प्रकाशमान सूर्य को मो महिमावाला हो लेता है तब ही परमात्मा होता है । इस प्रकार उपयोग का वर्णन करने के बाद प्रब योग का वर्णन शुरू होता है । मनोवचः काय कृतात्मचेष्टा मकं तु योगं स किलोपदेष्टा । शुभाशुभावना जगाद द्वेधा जिनी यस्य वरोऽभिवादः | २५ - मन वचन और काय के द्वारा जो प्रात्मा में परिस्पन्द होता है उसी का नाम योग है, वह योग शुभ प्रौर प्रशुभ के भेद में दो प्रकार का होना है, ऐसा प्रपूर्वमहिमा वाले परमोपदेशक सकल परमात्मा श्री जिन भगवान ने बतलाया है । श्रयं स्वकीय देहेन्द्रियष्टये तु श्रश्रादिदस्यायकुलस्य हेतुः । यच्चेष्टितं स्यात्तदिहानुभाव्यं योगं जिनानामधिराज आख्यत् । २६ अर्थ केवल अपने ही शरीर और इन्द्रियों को पुष्ट करने के लिये जो प्रक्रम किया जाता है एवं जा नरक या तियंत्रव गति को देने वाले पाप का कारण बनता है, उसको श्री जिन भगवान ने शुभयोग नाम से कहा है । यत्स्यात् परेषामपि नोपकारि विचेष्टितं तच्छुभमात्ममारिन् । जानाहि योग विशेश्वरादि-पदप्रदं तं जिन इत्यवादीत् | २७ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्थ -अपने प्रापके साय २ पोरों को भी भलाई का जिस में सम्पादन हो ऐसे प्रक्रमका नाम शुभ योग होता है. हे प्रात्महितंषो यह तुझे जान लेना चाहिये । पौर वह शभयोग ही इस जीव को इन्द्रादि पदका देने वाला होता है ऐमा श्री जिन भगवान बता गये हैं। ममम्तु दौम्पियविधिः दाचान्गम्याच निन्दाकरणादिवाना । योगोऽशुभीमारणताह नादि तन्वा जनी बन भवेत प्रमादी ।२८ प्रथं-फलाना मर जावे, उमका धन लट जावे इत्यादि हदय के बुरे विचाग का, यह चौर नगलबार पुतं है. इत्याविरूप वचन मे किमी को निन्दा करने का, या शरीर के द्वारा किमो को निदेयता के माय माग्ने पीटने का नाम प्रयोग होता है जिम के कि वा में होकर पर प्रादमी पागल सा बन जाता है। ममम्ति योगः म माभिवादी तन्वा त दानाचनमन्क्रियादि । कामायनोदाय मिपद हरा चानमन्य सम्पादांयांधश्न वाचा ।२९ प्रयं-- दागेर के द्वारा भगवान की पूजन करना, दान देना, मज्जनों का मस्कार करना, हदय में उदारता प्रौर क.ग्गा भाय गवना, किमी को भी प्राश्चामन कारक या झगडा टण्टा मिटाने वाले वचन कहना इत्यादि मय शुभयोग कर लाना है। यह प्रशुभ प्रौर शुभ योग का स्पष्टीकरण है। प्रान पुण्यं शुभयोगभावाटभोपयोगेन भवेन मदा वा । यम्पादये शक्रपदादिला भी जीवम्य भयाडिदिनं मया भी ।३. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-शुभोपयोग के साथ २ शुभयोग भी हो तो उससे हर समय प्रशस्त पुण्य का बन्ध होता है, जिसके कि उदय में इस जोव को इन्द्रादिपव को प्राप्ति हुवा करती है, ऐसा हे भाई मैं जानता हूँ। शुभाच्चयोगादशुभोपयोगी यदनिपुण्यं च ततः मभोगी । भवन्दुगगावशनोऽत्रपापमुपायं पश्चादधति मापत् ।३१। __ अर्थ --प्रशु भोपयोग वाला जीव अगर कहीं शुभयोग कर लेता है तो उसमे जो पुण्य बन्ध होता है उसके द्वारा वह भोगों को प्राप्त जरूर करता है, परन्तु अपनी दुराशा के वश में होकर उनमें लोन होता हवा वह प्रागे के लिये पाप का उपार्जन करके बुरी तरह से प्रध:पतन को प्राप्त होता है। दुष्टान्चयोगादशुभापयांग पापं महनम्याद मुकप्रयोगे । जीवोऽवदुःखादतिदःग्यमति न भृरिकालाच्च यतो निरेति ।३२ अयं परन्तु जब प्रशुभोपयोग के साथ प्रशुभयोग होता है उससे तो घोर पाप कर्म का बन्ध पड़ता है, जिसके कि उदय में इस जीव को दुःग्व के ऊपर दुःख भोगना पड़ता है एवं बहुत काल तक भी उससे छुटकारा नहीं हो पाता है । शुभोपयोगेन यदा कदाचिदशम्नयोग ममुपागता चिन । तदजिनं पातकमाशु नश्यनत्राग्रतः सम्पदमेवपश्येन ।३३ प्रयं-शुभोपयोग वाले को बुद्धि प्रथम तो प्रशुभयोग पर जातो ही नहीं, प्रोर कभी कहो चलो भो गई तो उससे जो पाप Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ बनता है वह थोड़े दिन दुःख देकर शीघ्र निकल जाता है, प्रान्त में सुख हो होता है । ऐकामात्मकृतोपयोगे ध्यानं नंदवानुवदन्ति सन्तः । तदा रौद्रद्वितयं च धर्म्य-शुक्लयं चेति विचारवन्तः ||३४|| अर्थ - प्रात्मा के उपयोग में एकाग्रता का होना, किसी भी एक बात का सहारा पाकर उसमें निश्चलपना प्राजाना ही ध्यान कहलाता है, ऐसा सज्जन लोग कहते प्रा रहे हैं । उस ध्यान के प्रार्श, रौद्र, धर्म्य प्रोर शुक्ल ऐसे चार भेद है, जिनमें मे प्रातं बोर रौद्र ये दो ध्यान तो संसार में भटकाने वाले हैं किन्तु धम्यं एवं शुक्ल ये दो संसार का प्रभाव करने वाले है ऐसा विचारशोलों का कहना है । इष्टोपयोगाय वियुक्तयेऽतोऽनिष्टस्य पीटास निदानहेतोः । आर्त्तं प्रमादस्यवशादुदेति यद्स्यतियग्गतिहेतुनेति । ३५ अर्थ- क्या करू, कंसे काम बने, इस प्रकार शोकातुरता का नाम प्रातध्यान है, वह एक तो भली चीज की प्राप्त करने के लिये होता है, दूसरा बुरी चीज को दूर हटाने के लिये होता है: तीसरा शरीर में किसी प्रकार की पीड़ा होने पर होता है, प्रोर चोया भविष्य में भी विपत्ति न ग्राकर सम्पत्ति मिले इस विचार को लिये हुये होता है, उनके इष्टवियोग १ श्रनिष्टसंयोग २ पोड़ा चिन्तन ३ श्रौर निदान ८ ये क्रम से नाम है । यह चारों ही प्रकार का प्रातध्यान प्रमाद की तीव्रता से होता है और मुख्यतया इसका कार्य तिर्यग्गति होना है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ हिंमानृतम्तेयपरिग्रहेषु प्रसन्नभावादधकारणेषु । उदेति गर्ने नदथाविग्न्या यन्कारणं म्यानरकाख्यगन्याः ।३६ अर्थ-जोधों को मारना, झूठ बोलना, चोरी करना और दुनियां की चीजों को बटोरना, इन पाप के कारणों को करते हुये इनमें तल्लीनता रखना, प्रमन्न होना मो रौद्रध्यान कहलाता है, जो कि अविरति भावको लिये हये होता है और जिसका कि फल प्रधानता से नरकति है। उदछनम्ते अशुभाद्वियोगान नयोपयोगम्य च सम्प्रयोगात । क्वचिकदाचिन्छभयोगनोऽपि भोपयोगप्रतिभावतोऽपि ।३७ प्रथं -प्रातं और गेंद्र ये दोनों ध्यान, प्रशुभोपयोग वाले मिध्यादृष्टि जीव के तो होते ही हैं जो कि अशुभ योग के द्वारा हुवा करते हैं परन्तु कभी कहीं शुभयोग के द्वारा परोपकार चेष्टा से भी होते हैं प्रोर गुभोपयोग वाल सम्पटि जोव के भी हो जाया करते हैं। महोपयोगेनामेन गम्यं -योगम्य प्रयोजनकं ममम्य । मंग्यायने ध्यानमिदं हि धयं यच्चाशुभनात्र तदप्यधय १३८ अर्थ--जहां शुभोपयोग के माय २ शुभयोग का भी मेल हो अर्थात् इस शरीर से अपनी प्रात्मा को भिन्न मानते हुये यह जीव लोगों का भला करने में तत्पर हो उसका नाम धय॑ध्यान है, परन्तु अशुभोपयोग के माय में जो इन्द्रिय दमनादिरूप चलन में मन लगाया जाता है वह धर्माध्यान सा प्रतीत होता जरूर है Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ तो भी वह धम्यध्यान नहीं होता क्योंकि जो शरीर को ही प्रात्मा मान रहा है उसका इन्द्रियों को दमन करना प्रादि सब प्रात्मघात रूप ठहरता है, जो कि प्रात्मघात घोर रौद्रध्यान होता है, इत्यादि । जिनाभ्यनुज्ञातनुभागपाय- विपाकसंस्थाननयाय धर्म्यं । ध्यात्वाजिनेोमत्कृतेन जनोऽनुपायान्ननु नाकहर्म्यं । ३० प्रथ - श्री जिन भगवान की ऐसी प्राज्ञा है, हमें उसी के अनुसार चलकर अपने आप का तथा श्रौर लोगों काना भला करते रहना चाहिये इस प्रकार विचार करने का नाम प्राज्ञाश्चिय है । यह संसारी जीव अपने ही किये हुये शुकर्मा कद्वारा किस प्रकार प्रापत्तियों में पड़ता है इत्यादि विचार का नाम प्रपायरिचय होता होता है । जब दुष्कर्मा का उदय होता है तो इस जांब को किस प्रकार से पोड़ित करता है. बड़े २ पदवी धारियों को भी अपनी चपेट में घायल कर दिया करता है, इस प्रकार के विचार की विपाकावचय कहते हैं । जीवादि तत्यों के स्वरूप चिन्तन करने का नाम संस्थानविचय है । इन चारों तरह से अपने उपयोग को सुशीमल करते हुये अपने मन वचन काय को बेटा को तदनुकूल करना धर्मध्यान है जिसके कि द्वारा उपार्जन किये हुये उत्तम पुण्य से यह जीव स्वर्गादिसुख का भागी होता है जैसे कि प्राथम में ठहर कर प्राराम पाया करना है। संयम्य योग परियार्यश्रीपयोगमात्मान्मन आन्मनेह । शुक्लं करोतीदमनन्यवृत्या विराजमानः महमा नृदेहः || ४० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ मर्थ-उपयुक्त प्रकार धम्यंध्यान का प्रयास करते करते अपने मन वचन काय को क्रिया को अच्छी तरह से अपने वश में करके अपने उपयोग को और सब तरफ से हटा कर बेलाग बनाता हुवा यह प्रात्मा अपने मनके द्वारा अपने प्रापका हो विवार करने लग जाता है एवं माहस के द्वारा उसमें ऐसा प्रडोलपना प्राप्त कर लेता है कि ध्यान, ध्यान करने वाला और ध्यान करने की चोज इन तीनों में स्पष्टरूप मे कोई भेद ही नहीं रह जाता, बस इस प्रकारको दृढ़ता के साथ उमो धर्मध्यान को शुक्लध्यान के रूप में ढाल लेता है, परन्तु ऐसो अवस्या को प्राप्त करने वाला प्रगर हो तो एक इस मनुष्य पर्याय में नर शरीर का धारक जीव हो हो सकता है और कोई नहीं हो सकता। शुद्धोपयोगेन वियोगभाजा निहत्य मोहं पुनरेप राजा । प्रसिद्धधाम्नः शिवपननम्य प्रवर्तने गं भवितुं प्रशम्य ! ।४१। प्रय हे धन्यवाद के पात्र ! सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों के भले प्रकार त्याग को लिये हुये होने वाले एवं मन वचन और शरीर के व्यापार को रोककर अन्त में उमको भी बिलकुल नष्ट कर देने वाले शुद्धोपयोग के द्वारा मोहकर्म का नाश कर फिर शेष कर्मों को भी खपाकर यह प्रात्मा प्रमिद्ध महत्व वाले मोक्षरूप नगर का राजा होने के योग्य हो जाता है । सम्पत्तयेऽमुष्य विकल्पमन्यं त्यक्त्वा परित्यज्य च वस्तुबाह्य । निद्राक्षुधाय च विजिन्य साम्यमेकानतो भाति किलावगाह्यौं ।४२ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ प-इस शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिये उस हद संहनन के धारक मनुष्य को इतनी बातों को बहरत होती है कि यह प्रौर सभी प्रकार के विकल्पों का त्याग कर दे, अपने प्रापके सिवा पोर सभी बाहर को बीजों को भी छोड़ने, नोव मूल वगैरह को जीत कर एकान्तमें दृढ़ प्रासन कर ले एवं साम्प को प्राप्त हो जावे पोर शत्रु मित्र तृण काञ्चन वगैरह में मईया बुरे भलेपन से रहित हो नावे तब कहीं यह प्राप्त हो सकता है। शृगात मो मारममुष्य शुक्ल-ध्यानाग्निनाऽनेनविनात्मनस्तु । विनश्य मा चिकणता कथं म्यादच्चेः पृथक कर्मकलवस्तु ।४३ प्रपं-हे भय्या ! सुनो, इस शालध्यानरूप अग्नि के बिना इस प्रात्मा को वह रागढ षरूप चिकनाई न होकर इसको कर्मरूप कालिमा और किस प्रकार दूर हो सकती है। कर्मागमो यद्यपियोगतस्तु परिग्रहम्तत्रनिबन्धवस्तु । त्यागं जयायास्य नरः कगेतु प्रयत्नतः मम्मति कर्महोतु।४४ अर्थ-यद्यपि कमौका पाना तो योगों से होता है परन्तु उनको प्रास्मा के साथ एकमेक करके रखना यह प्रहार पोर ममकाररूप परिग्रह का कार्य है, इसलिये उन कोका नाश करने के लिये मनुष्य को परिग्रह का त्याग करना चाहिये । वह त्याग भी सात्विक राजस पोर तामम के मेवसे तीन तरह का है। त्यागोऽपि यो देहभृतोपरिष्टान्मन्धीयने तामम एपशिष्टा । बदन्त्यमुघोमिनर्थहेतु मोनोर्यथैवावु विपतये तु ॥४५॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-उनमें से चूहों को सहजरूप से पकड़ने के लिये जैसे बिलाव मौन पकड़ कर बैठा रहता है वैसे ही मन में छल कपट रख कर जो सिर्फ ऊपर से त्याग किया जाता है वह तामस-याग होता है, यह तामस त्याग घोर दुःख देनेवाला है और अनर्थ का ही कारण है, ऐसा समझतार कहते हैं। प्रम्यानयेऽपि नियते अन्नाथ राजमातावद सावननाः न मिद्धये माम्प्रनमृद्धयऽयं परन्तु भृयादवनी प्रणयः ।।४६ प्रयं- एक त्याग वह होता है जो कि अपने प्रापको उन्नत समझते हुए बड़प्पन के लिये किया जाता है, उसे राजस-स्याग समभना चाहिये,यह त्याग बुर्गवासनाको लिये हुये नहीं होता, निष्पाप होता है प्रत: पुण्य के कारण सांसारिक विभूति का देनेवाला होता है किन्तु इसके द्वारा भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। यथैव तन्वाव बननचेत-म्कारेण चेम्वीक्रियते ततः म मात्विको भृवलयेऽनपाय-पृनिंगतः मिद्धि ममागमाय ।।४७ अर्थ-किन्तु जो त्याग शरीर वचन और मन को सरल करके किसी भी प्रकार की प्रतिभावना रहित सच्चे विचार से स्वी. कार किया जाता है वह सात्विक होता है, जो कि इस भूतल पर निर्दोषरूप से प्रपनो पराकाष्ठा पर पहुंचने पर सिद्धिका देनेवाला है। हमानहङ्कारमतीन्य भ्याइवेच्चतुर्धा ममकारभृया । एकाकृतानी निरभक्ष्यवृत्तिर्भवद्वितीया खलु मप्रवृत्तिः ।.४८।। अर्थ- वह सादिक त्यागाला जोव स्वं प्रथम महंकारका त्याग करता है, जिससे कि अपने विचार को सत्य मार्गके अनुकूल Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाकर सम्यग्दृष्टि कहलाने लग जाता है । रहा ममकार, वह चार तरह का होता है, एक तो वह जिससे कि यह जीव प्रन्याय का पक्ष लेकर न खाने योग्य चीजों के भो ग्याने में प्रवृत हो, दूमरा वह जिससे बुरी बातों को तरफ तो इस का मन कभी भी न जावे किंतु सच बोलना, मन का भला करना, किसी का भी बिगा न करना प्रावि प्रच्छे कार्यो में संलग्न रहे। पगम्वरूपानग्णानिवृत्तिम्तयो यथाम्न्यानदशापकनिः । अनीन्य चैताः कृतकृत्य आम्नां महोदयम्नतिमिनः मुभाम्नां ।४०. प्रथं-तोमरा ममकार वर. जिममे कि म.प्रवृत्तिको भी व्यग्रता को छोड़कर स्वस्य । प्रात्मानम्या । नहीं बन सकता । चोया ममकार वह प्रात्मावलम्बी होकर भी उम पर दृढ़ता के माय जमकर नरों रह सकता । जम कि एक प्रादपी मिट्टो ग्यान में लगकर पांडुरोग हो जाने में प्रात होगया किन्तु मिट्टो खाने को नहीं छोड़ रहा है, फिर कभी किमो वंद्य करने मे मिट्टो ग्वाना तो छोड़ देना है परनु प्रय उमके बदले माडूर वगं रह प्रोषधि खाने के फिकर में है। एवं प्रविधि सेवन करने से रोग दूर होगया प्रोषधि लेना भी बन्द कर दो, फिर भी प्रभो पहन मरं ग्वो शक्ति न होने से अपने कारोबार को न सम्भाल कर प्रागम पाने के फिकर में है। प्रब कुछ दिन बाद पोड़ो ताकन प्राने पर प्रपना काम भी करने लग गया परन्तु बीच २ में थकान मानकर पोर पोर बातोंमें मन लगाने पगता है। यह उपर्युक चारों पमकारों का रूपमे स्पष्टोकरण है, परन्तु जब चारों ही प्रकार के ममकारको उल्लंघन कर Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण स्वस्थ एवं कृतकृत्य हो जाता है तो दिव्यज्ञानको प्राप्त होते हये प्रखण्ड सन्तोष को प्राप्त कर लेता है, फिर जन्म मरणरूप रोग से दूर हो रहता है। इति गुरोरिव गारुडिनोऽप्यहिर्वचनमभ्युपगम्य नृपो बहिः । झगितिकञ्चुक मुख्य मपाकरोद्गरमिवान्तरमप्यधुना स हि । ५० अर्थ-इसप्रकार गुरुदेव के कहने को सुनकर वह राजा चक्रायुष प्रब अपने कपड़े वगैरह बाहिरी परिग्रह को एवं अपने मन के रागादि कषाय भावों को त्यागकर मुनि बन गया, जैसे कि गारुडी के मन्त्र को सुनकर अपनी कांबली पोर जहर को त्याग कर सर्प बिलकुल सरल हो जाता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अथ नवम् सर्गः यथाजातपदं लेभे परित्यज्याखिलं बहिः । शरीराच्च विरक्तः समन्तरात्मतया स हि ।।१।। मर्थ-उसने अपने शरीर के सिवा प्रोर सब बाहिरी चीजों का त्याग कर दिया एवं शरीर से भी अपने पापको भिन्न मानते हुये वह शरीर से भी बिलकुल विरक्त होकर रहने लग गया, तत्काल के पंदा हये लड़के की भांति विकार रहित सरल प्रवस्था धारण करली। पिच्छा संयमशुद्धयर्थं शौचार्थं च कमण्डलु । निर्विण्णान्तस्तया दधे नान्यत्किश्चिन्महाशयः ।।२।। अर्थ-वह महाशय प्रब सांसारिक बातों से एकदम विरक्त होगया, इसलिये अपने पास मोर कुछ भी न रख कर उसने सिर्फ अपने संयम को उत्तरोत्तर निर्मल बनाने के लिये एक मयूर पंखों को पिच्छो जिससे कि समय पर किसी भी जन्तु को सहज में दूर हटा दिया जाय और दूसरा शौच करने के लिये कमण्डलु, ये वो चीजें अपने पास रक्खों सो भी उदासीनता से। पटेन परिहीणोऽपि बहुनिष्कपटोऽभवत् । अभृपणत्वमप्याप्तो भुवो भृपणतां गतः ।। ३ ।। वर्ष-यद्यपि उसके शरीर पर कोई भी प्रकार का कपड़ा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब नहीं था फिर भी वह बहुत से वेशकीमती कपड़ों को धारण किये ये की तरह निःसंकोच था क्योंकि उसके मन में किसी भी तरहका एल या बनावटीपन नहीं था। इसीतरह वह कोई भी तरह का हना भी पहने हुये नहीं था फिर भी वह सबको सुहावना होकर पृथ्वी को शोभा को बढ़ा रहा था। नोच्चबान कवानव मम्नकान् म महोदयः मम्तो निष्पृहत्वेन हृदयाद्दुर्विधीनपि ।। ४ ।। अर्थ-उस महानुभावने अपने मस्तक पर के केशों को उखाड़ कर फक दिया, इतना ही नहीं किन्तु निप्पृहताके माथ २ सम्बरभावको धारण कर लेने वाले उमने अपने मन में से बुरे भावों को भी निकाल फेंका। न चादत्त मघावृत्ति म हितकरतां गतः नालीकालुवक्त्रोऽपि नालीकमवदन्कदा । ५।। प्रयं-उसने तस्करताको, चोरी करने को अपना धन्धा बना रखा था, फिर भी बिना दी हुई कोई की कुछ चीज भी नहीं लेता था। तथा मत्य बोनने वालों से ईर्षा के मारे मुह मोड़कर चलता था फिर भी कभी झूठ नहीं बोलता था, ऐमा प्रर्थ होता है जो कि परस्पर विरुद्ध है इसलिये ऐमा प्रर्य करना कि वह सहितः प्रर्थात सबके हितको चाहता था इसलिये चोरी से दूर था और उसने करता प्रर्थात् प्रात्म तल्लीनताको ध्यान को ही अपना धन्धा समझता था । मोर झूठ नहीं बोलता था, प्रतः कमल को भी परे बिठाने वाले प्रसन्न मुहका धारक था। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ athari faमुखो भृत्वा सर्वेभ्योऽप्यभयप्रदः । समचतुरस्र संस्थानः सवृत्तपरिणामवान् ॥ ६ ॥ प्रथं - वह डरपोक लोगों का विरोधी प्रर्थात् उन्हें डराने वाला होकर भी सबको निर्भय करने वाला था तथा सुडोल चौरस प्राकार वाला होकर भी गोल था, यह अर्थ भी परस्पर विरुद्ध है इसलिये ऐसा श्रथं लेना कि वह भौरतों के प्रसङ्गका त्यागी था, पूर्ण ब्रह्मचयंका धारक था और सभी को प्रभयदान देते हुए हिंसा का पूरा अनुयायी था एवं पांच महाव्रतों का धारक था प्रौर सुडोल शरीर वाला था । ग्रन्थं पुनरधीयानो निग्रं न्थानां शिरोमणिः अनेकान्तमताधीनो ऽप्येकान्तं समुपाश्रयन ॥ ७ ॥ अर्थ- वह परिग्रह रहित निम्रन्थ लोगों का मुखिया होकर भी बार बार ग्रन्थोंके प्रध्ययन करने में ही लगा रहता था जिसमे कि उपयोग की निर्मलता हो । और इसीलिये अनेकान्त स्याहाब मत का अनुयायी होकर भी वह सदा एकान्त स्थानको प्रपनाया करता था । विनाशनम सावस्थादागमोऽस्य विनाशनं । - कतु किल समन्तानां मत्वानां हितवाकः | ८ अर्थ- वह सभी जीवों के हित की इच्छा करने वाला महाशय बहुत दिन तो बिना भोजन के उपवास से हो बिताने लगा क्योंकि इस शरीर के प्रालसीपन का नाश करना था । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ कुनघ्नायेव देहाय दातु भुक्तिमपीत्यसो । नाभिलाषी भवन् किञ्चिदत्तवानेकदा दिने ।९। प्रथं-इस शरीर को कृतघ्न मानकर, क्योंकि देते देते और पोषते २ भी यह जवाब देता चला जा रहा है प्रतः अब वह इसे भोजन भी नहीं देना चाहता था, कभी देता भी था तो दिन में एक बार पोड़ा कुछ दे लिया करता था। स्वाध्यायध्यानकारिवाह हायाप्यशनं ददौ । द्वित्र क्या परोन्मृष्ट दिनरन्वेपिने यथा ।१०। अर्थ-जैसे किसी को चोरी गये हुये प्रपने माल का पता लगाना हो तो खोज निकालने वाले को उसका मेहनताना देकर उससे वह काम लिया करता है, उसी प्रकार उस गृहत्यागो को भी भुलाई हुई प्रपनो प्रात्मा का पता लगाकर उसे प्राप्त करने को लगी थी, जो कि कार्य इस देह को सहायता बिना नहीं हो सकता था, इसलिये लाचार होकर वह इस शरीर को इसकी खुराक भी देता था परन्तु कभी दो दिन से कभी तीन दिन से, इस प्रकार उदास भाव से देता था सो भी खुद उसके लिये कोई प्रयास न करके सिर्फ गृहस्थों को बस्ती में जाता था और वहां पर भक्ति पूर्वक प्राग्रह करके जो कोई इसे देता था उसी से ग्रहण करता था। कदाचित्कुममेभ्योऽपि गन्धग्राहीव षट्पदः । गृहस्थानां गृहेभ्योऽसो जातवृत्तिमुपामदन् ।११। अर्थ-जसे कि भौरा फूल को किसी भी तरह की पड़चन न Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ करके उसको गन्ध को ग्रहण कर तृप्त हो जाता है उसी प्रकार वह भी प्रसन्नता पूर्वक गृहस्य के द्वारा प्रपंरण किये अन्न को हो प्राप्त करके अपनी भूख को मिटा लेता था। पाणिरेवाभवत् पात्र म्यानमेवामनं परं । मौनमेव पुनर्भिक्षामाधनं तम्य योगिनः ।१२। प्रपं-उसके लिये उसका हाथ हो तो भोजन करने का पात्र पा, एक जगह निश्चल बड़े हो रहना हो प्रासन पोर मौन धारण किये रहना, हाथ वगैरह का इशारा भी न करना सो हो भिक्षा सेने का तरीका था, क्योंकि वह योगो था। अकायक्लेशकन्वेन कायक्लेशोषयोगवान । वैग्म्यमावरहिनो ग्मनवान्वभृन्ववनित ।१३। प्रयं-वह अपने पूर्वकृत पाप कर्म को न करने की इच्छा रखता था इसलिये कायक्लेश नामक तप में तत्पर हो रहता पा मर्यात शरीर को पाराम तलब न बना कर उमको निर्रोव कठोर साधना में लगाता रहता था। वह किसी के साथ में दरभाव नहीं रखना था प्रतः संसार के किसो रसको रमोला न कहकर सब जगह मध्यस्य होकर रहने लगा था। आरण्यमुपविष्टोऽपि श्रीमान ममरमानः । न नत्वानिगनः मत्सु ननत्वं गतवानपि ।१४। प्रपं-परणस्य भाव मारण्यं पानी प्रकलहकारिपन को यो पसन्न करता हो वह समर-सङ्गत, यानि पुट में सम्मिलित नहीं हुना करता परन्तु वह योमान पर प्य मेवार प्रति बङ्गल में Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ रहकर समभाव को प्राप्त हो रहा था। एवं वह तत्व से अर्थात् सारमूत बात से कभी भी दूर न हटकर सज्जन पुरुषों में हमेशह विनय भाव को धारण किये हुये था। प्रायश्चिनं चकारप ध्यान बाध्ययने ग्तः । परेभ्योबाधकं न म्यादेवमङ्ग म मन्दधन् ।१५। अर्थ-प्रधिकतर तो वह अपने मन को ध्यान में लगाया करता था, इतर काल में स्वाध्याय में लगा रहता था। अपने शरीर को इस प्रकार दृढ़ता के साथ जमाकर रखता था ताकि उसके हलन चलन से किसी भी जीव को कोई प्रकार की बाधा न होपावे, अगर ऐसा करने में कहीं जरा भी भूल हुई तो उसका प्रायश्चित करने को तैय्यार था। निद्रां तु जिनवानव पूर्वम्नहवशादिव । आलिङ्गयो विशश्राम रात्री किञ्चिन्कदाचन ।१६। प्रयं-इस पृथ्वी से पुराना स्नेह लगा हुवा था इस लिये मानों कभी कुछ देर के लिये इसे प्रालिङ्गन करके विधाम कर लिया करता था अन्यथा तो फिर निद्रा को तो वह जोत हो चुका था। म्वान्नं हि क्षालयामाम म्नातकत्वे समुन्सुकः । पौद्गलिकम्य देहस्य धावनप्रोनातिगः ।१७) प्रयं-उसने सोचा कि इस पोद्गलिक शरीर के धोने और पोंछकर रखने से क्या हो सकता है प्रतः उससे दूर रहकर वह सच्चा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नातकपना पाने की भावना से अपने अन्तरङ्ग को धोने में लग रहा। पुण्यो हि भुवि रम्य विकः परवस्तुभिः । म एव वनमामायाशुन्यतामा मनोऽभ्यगात् ।१८। ___प्रयं-पहिले गृहस्थपन में जो वा पुत्र धन धान्य वगैरह से अपने प्रापको राजी रखता था, एक रङ्गरेज का काम करता था वही प्रब बन ( जंगल पा पानो ) को प्राप्त होकर प्रात्मा को शून्यता से रहित हो गया, उसे स्वीकार करके याद रखने लगा एवं अपने प्रापके नाम पर के अनुस्वार मे गरिन रजक प्रर्थात् घोबो होकर प्रात्मा को शुद्धि करने लगा। शुद्धोपयोगमादानु शुभाच्छभनरं दधी। उपयोग म योगं चाप्य भादनिदग्गः ।१९। ___प्रथं वह शुद्धोपयोग को प्राप्त करना चाहता था, अपनी प्रात्मा को सघया निमल करना चाह रहा था, प्रतः प्रशुभोपयोग और प्रशुभयोग से एकदम दूर होकर उत्तरोतर भले में भले योग को धारण कर भले से भले उपयोग को उमने प्राप्त किया। माम्यं फनिल मामाद्य विवेकोनमवाग्निः । धौतुमाग्भनान्माग्य - पटप महामनाः ।२०। प्रयं-उस विशाल दिलके धारक महापुरुषने माम्पभाव (शत्रु मित्र वगैरह में एकमा विचार ) रूप साबुन लेकर विवेकरूप पवित्र जल के द्वारा अपने प्रात्मरूप कपड़े को धोना शुरू किया। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ यममानगुणोऽन्येषां समितिष्वपि तत्परः गुप्ति मेषोऽनुजग्राहागुप्तरूपधरोऽपि सन् । २१ । प्रबं - जिनका प्रौर लोगों में पाया जाना कठिन था ऐसे क्षमावि गुणोंका वह धारक था प्रौर ईर्या भाषा एवरला प्रादान निक्षेपण और प्रतिष्ठापना इन पांच समितियों में तो हर समय हो तत्पर रहता था एवं वह स्पष्ट निरावरण दिगम्बर वेशका धारक था फिर भी वह तीनों प्रकार की गुप्तियों का पालने वाला था । स्थाणुवन्मम मान्मम्यग् निरुध्य वपुरादिकं कण्यन्ते यतः मते शरीरं हिरणादयः। २२ । प्रथं - वह जब ध्यानमें एकाग्र हो रहता था तो मन वचन काय की चेष्टा रुक जाने से घोर श्वास की भी चेष्टा न कुछ सरीखी सूक्ष्म मात्र रह जाने से वह एक ठूंठ सरीखा प्रतीत होता या ताकि हिरण वर्गरह पशु लोग प्राकर उसके शरीर से खाज खुजाने लगते थे । तत्र प्रच्द्रममन्विष्य रागाद्य न्दुरसंग्रहं । निष्काशयितुमेवात्म-पटसंहारकारकं |२३| घयं बाहर में प्रगट होनेवाले रागद्वेषादि को तो पहले ही जीत लिया गया था किन्तु अब जो कि अन्तरंग में जिपे हुये थे और भीतर ही भीतर इस म्रात्मरूप कपड़े को कतर कर बरबाद कर रहे थे उन छिपे हुये रागादि चूहों को भी खोजकर निकाल बाहर करने लिये - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕ तनोर्वाचोहदोवापि बाह्यांवृषिं समाहरन् । स्वयमन्तर्गतका प्रभावदीपकवानभूत् । २४ | प्रपं --अब उसने शरीर वचन मोर मनको बाह्य प्रवृतिको तो बिलकुल ही रोक लिया, सिर्फ अपने प्राप में मन को दृढ़ता के साथ लगाकर प्रागे से प्रागे उसे धौर भी समुज्ज्वल बनाता हुवा चला गया, इस प्रकार प्रपने निर्मल भावरूपी दीपक को उसने प्राप्त किया । 6 महात्मामुरीकतु संमजन्नन्तरात्मनः योगिराजदशां लेभे परमात्मपथस्थितः | २५ | - प्रयं प्रव महात्मपन को पूरणं प्राप्त करने के लिये अपनी ही प्रात्मा में तल्लीन होते हुये सिर्फ प्रात्म-पथ का पथिक होकर उसने योगिराज अवस्था प्राप्त करली | कोपमाशु पराभृय मनमा कोपकारकः लं विहाय समभृत्समन्तात्स्वन्दलक्षणः | २६ । माननीयोऽपि विश्वस्य सर्वथा मानवर्जितः मूलतोलोभमुन्मूल्य वर्द्धमानकलो भवान |२७| प्रथं - जो कोपकारक होता है वह कोप को कैसे दबा सकता है परंतु उस महात्माने अपने मनके द्वारा अपनी प्रात्मा को सम्भाल कर क्रोध का शीघ्र ही नाश कर दिया। इसी प्रकार जो माननीय यानी मान का भूखा हो वह मान रहित कंसा ? किन्तु वह अभिमान रहित होकर विश्व भरके लिये प्रावरणीय बन चुका Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ था । तथा जो छल रहित हो वह प्रपने श्रापमें छलको जगह नहीं देता है फिर भी वह मायाचार को दूर करके अपने प्रापके गुणों को निर्मल बना चुका था । एवं जो बढ़ते हुये लोभ वाला हो वह लोभ का नाशक कंसा ? तथापि प्रागे से धागे बढ़ती हुई कलाका श्रात्म शक्तिका धारक हो उस महात्माने लोभको भी जड़से उखाड़ डाला था । अल्पादल्पतरं गृह्णन्विरेचनमिव क्रमात् । मलं निगचकारात्मगतं म बहुतो बहु |२८| प्रयं - जैसे बद्धकोष्ठवाला प्रादमी जुलाब लिया करता है तो पहले वह ऐसी पूरी मात्रा में लेता है ताकि उसका सूखा मल फूल कर निकलने लग जावे। दूसरे दिन साधारण मात्रा में उसे ग्रहरण करता है किन्तु उससे उसका वह फूला हुवा मल निकल बाहर होता है। तीसरे दिन फिर कुछ थोड़ी सी औौर ले लेता है जिससे उसका रहा सहा मल निकल कर तबियत बिलकुल ठोक हो जाती है, उमीप्रकार उस महात्माने भी उत्तरोत्तर योगों की चेष्टा कमसे कम किन्तु भली से भली करते हुये धागे के लिये कमसे कम कर्म परमानों का ग्रहरण किया, किन्तु उससे उसके पूर्व संचित कर्म कलङ्कका अधिक से भी अधिक निरसन होता रहा । नवामनुद्भवां के पुरापूतिन्तु शोधयन । वात् एवावृतेः क्षयः । २९ । : अर्थ- जैसे एक शख चिकित्सक-फोड़े फुंसी का इलाज करनेवाला प्रादमी ऐसा उपाय किया करता है ताकि फोड़े में से Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसको पहले को पोप तो निकल कर साफ होती चली जावे और मागे नई पंवा न हो पावे, एवं उसका फोड़ा भरकर सूखता चला जावे और प्रतिमें उसका खरट सूख कर प्रापोग्राप उतर जावे। से हो उस महात्माने अपने त्याग पोर बराग्य द्वारा नवीन राग तुष को तो उत्पन्न नहीं होने दिया और पुगनों को सहज से सहन कर निकाल बाहर किया। इस प्रकार राग द्वेष का पूरा प्रभाव हो जाने पर फिर जानावरण दर्शनावरण प्रौर अन्तराय इन सोन को का भी एक ही पन्नमुंहत में प्रभाव होगया। चक्रीव चक्रण मुदर्शनेन य आत्मगनिन बान शुभेन । चकायुधः केवलिगट म नेन पायाद पायाद् धरणातले नः ।३० प्रयं-चक्रवर्ती राजा, सुदर्शन नामक चक्ररत्न से अपने रियों को परास्त कर देता है उसी प्रकार चक्रायुध नामक उन केवलो भगवान ने भी भले मार्ग पर चलने के द्वारा अपने प्रात्म दोषों को भी दूर कर दिया था, वे प्रात्मबली भगवान् उसी मन्मार्ग के द्वारा इस धरातल पर हम लोगों को पाप कमि बचाने रहें । भद्रम्या पदयों यथाऽभवन्मयादिनः मतेपनम्नवः वक्तः श्रोतुः क्षेमहेनवे सम्भयान पाठनो जवंजवे ।३१। प्रथं-एक मधिसे भदमित्र नामके मादमी की जिमप्रकार उन्नति होकर वह बहुत ही शीघ्र प्रात्मा से परमात्मा बन गया, इम बात का संक्षर वर्ग मेने इस प्रान्ध में किया है जिसका कि पड़ा जाना इस संसार में वक्ता और श्रोता दोनों के भले के लिये होवे । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जयोदयं महाकाव्यं वीरोदय मतः परं । सुदर्शनोदयं येन निरमाथि दयोदयम् | १ | वृत्तिस्तत्वार्थ सूत्रस्य रत्नकरण्डकस्य च । मानवधर्म नामोक्तं व्याख्यानं देशभाषया | २ | विवेकोदयनामापि छन्दोबद्ध निबन्धनं । ज्ञानभूषण सूक्त ेन चैकशाटकधारिणा | ३ | तेन भृगमलेनेदमुदितं मद्रवृत्तकं । मद्र दिशतु लोकेऽस्मिन्यावच्चन्द्रदिवाकरौ ||४| Page #131 -------------------------------------------------------------------------- _